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गायत्री महािवज्ञान भाग १

भिू मका

गायत्री वह दै वी शिक्त है िजससे स ब ध थािपत करके मनु य अपने जीवन िवकास के मागर् म बड़ी

सहायता प्रा त कर सकता है । परमा मा की अनेक शिक्तयाँ ह, िजनके कायर् और गण


ु पथ
ृ क् पथ
ृ क् ह।
उन शिक्तय म गायत्री का थान बहुत ही मह वपूणर् है । यह मनु य को स बुिद्ध की प्रेरणा दे ती है ।

गायत्री से आ मस ब ध थािपत करने वाले मनु य म िनर तर एक ऐसी सू म एवं चैत य िव युत ्

धारा संचरण करने लगती है , जो प्रधानतः मन, बुिद्ध, िच त और अ तःकरण पर अपना प्रभाव डालती है ।

बौिद्धक क्षेत्र के अनेक कुिवचार , असत ् संक प , पतनो मख


ु दग
ु ण
ुर् का अ धकार गायत्री पी िद य

प्रकाश के उदय होने से हटने लगता है । यह प्रकाश जैसे- जैसे ती होने लगता है , वैसे- वैसे अ धकार

का अ त भी उसी क्रम से होता जाता है ।

मनोभिू म को सु यवि थत, व थ, सतोगण


ु ी एवं स तुिलत बनाने म गायत्री का चम कारी लाभ
असंिदग्ध है और यह भी प ट है िक िजसकी मनोभिू म िजतने अंश म सिु वकिसत है , वह उसी

अनुपात म सख
ु ी रहे गा, क्य िक िवचार से कायर् होते ह और काय के पिरणाम सख
ु - दःु ख के प म

सामने आते ह। िजसके िवचार उ तम ह, वह उ तम कायर् करे गा, िजसके कायर् उ तम ह गे, उसके चरण

तले सख
ु - शाि त लोटती रहे गी।

गायत्री उपासना वारा साधक को बड़े- बड़े लाभ प्रा त होते ह। हमारे परामशर् एवं पथ- प्रदशर्न म अब

तक अनेक यिक्तय ने गायत्री उपासना की है । उ ह सांसािरक और आि मक जो आ चयर्जनक लाभ

हुए ह, हमने अपनी आँख दे खे ह। इसका कारण यही है िक उ ह दै वी वरदान के प म स बुिद्ध प्रा त

होती है और उसके प्रकाश म उन सब दब


ु ल
र् ताओं, उलझन , किठनाइय का हल िनकल आता है , जो

मनु य को दीन- हीन, दःु खी, दिरद्र, िच तातुर, कुमागर्गामी बनाती ह। जैसे प्रकाश का न होना ही

अ धकार है , जैसे अ धकार वत त्र प से कोई व तु नहीं है ; इसी प्रकार स ज्ञान का न होना ही दःु ख

है , अ यथा परमा मा की इस पु य सिृ ट म दःु ख का एक कण भी नहीं है । परमा मा सत ्- िचत ् व प

है , उसकी रचना भी वैसी ही है । केवल मनु य अपनी आ तिरक दब


ु ल
र् ता के कारण, स ज्ञान के अभाव के

कारण दःु खी रहता है , अ यथा सरु दल


ु भ
र् मानव शरीर ‘‘ वगार्दिप गरीयसी’’ धरती माता पर दःु ख का

कोई कारण नहीं, यहाँ सवर्त्र, सवर्था आन द ही आन द है ।

1
स ज्ञान की उपासना का नाम ही गायत्री उपासना है । जो इस साधना के साधक ह, उ ह आि मक एवं

सांसािरक सख
ु की कमी नहीं रहती, ऐसा हमारा सिु नि चत िव वास और दीघर्कालीन अनभ
ु व है ।
— ीराम शमार् आचायर्

वेदमाता गायत्री की उ पि त
वेद कहते ह- ज्ञान को। ज्ञान के चार भेद ह- ऋक् , यजःु , साम और अथवर्। क याण, प्रभ-ु प्राि त, ई वरीय
दशर्न, िद य व, आ म- शाि त, ब्र म- िनवार्ण, धमर्- भावना, कतर् य पालन, प्रेम, तप, दया, उपकार, उदारता,
सेवा आिद ऋक् के अ तगर्त आते ह। पराक्रम, पु षाथर्, साहस, वीरता, रक्षा, आक्रमण, नेत ृ व, यश, िवजय,
पद, प्रित ठा, यह सब ‘यज:ु ’ के अ तगर्त ह। क्रीड़ा, िवनोद, मनोर जन, संगीत, कला, सािह य, पशर् इि द्रय
के थूल भोग तथा उन भोग का िच तन, िप्रय क पना, खेल, गितशीलता, िच, तिृ त आिद को ‘साम’
के अ तगर्त िलया जाता है । धन, वैभव, व तुओं का संग्रह, शा त्र, औषिध, अ न, व तु, धातु, गह
ृ , वाहन
आिद सख
ु - साधन की सामिग्रयाँ ‘अथवर्’ की पिरिध म आती ह।

िकसी भी जीिवत प्राणधारी को लीिजए, उसकी सू म और थूल, बाहरी और भीतरी िक्रयाओं और


क पनाओं का ग भीर एवं वैज्ञािनक िव लेषण कीिजए, प्रतीत होगा िक इ हीं चार क्षेत्र के अ तगर्त
उसकी सम त चेतना पिरभ्रमण कर रही है । (१) ऋक् - क याण (२) यजःु - पौ ष (३) साम- क्रीड़ा (४)
अथवर्- अथर्ः इन चार िदशाओं के अितिरक्त प्रािणय की ज्ञान- धारा और िकसी ओर प्रवािहत नहीं होती।
ऋक् को धमर्, यजःु : को मोक्ष, साम को काम, अथवर् को अथर् भी कहा जाता है । यही चार ब्र माजी के
चार मखु ह। ब्र मा को चतम
ु ख
ुर् इसिलए कहा गया है िक वे एक मख ु होते हुए चार प्रकार की ज्ञान-
धारा का िन क्रमण करते ह। वेद श द का अथर् है - ‘ज्ञान’। इस प्रकार वह एक है , पर तु एक होते हुए
भी वह प्रािणय के अ तःकरण म चार प्रकार का िदखाई दे ता है । इसिलए एक वेद को सिु वधा के िलए
चार भाग म िवभक्त कर िदया गया है । भगवान ् िव णु की चार भज
ु ाएँ भी यही ह। इन चार िवभाग
को वे छापूवक
र् िवभक्त करने के िलए चार आ म और चार वण की यव था की गयी। बालक
क्रीड़ाव था म, त ण अथार्व था म, वानप्र थ पौ षाव था म और सं यासी क याणाव था म रहता है ।
ब्रा मण ऋक् है , क्षित्रय यज:ु है , वै य अथवर् है और साम शूद्र है । इस प्रकार यह चतिु वर्ध िवभागीकरण
हुआ।

यह चार प्रकार के ज्ञान उस चैत य शिक्त के ही फुरण ह, जो सिृ ट के आर भ म ब्र माजी ने


उ प न िकया था और िजसे शा त्रकार ने गायत्री नाम से स बोिधत िकया है । इस प्रकार चार वेद की
माता गायत्री हुई। इसी से उसे ‘वेदमाता’ भी कहा जाता है । इस प्रकार जल त व को बफर्, भाप (बादल,
ओस, कुहरा आिद), वायु (हाइड्रोजन- ऑक्सीजन) तथा पतले पानी के चार प म दे खा जाता है । िजस
प्रकार अिग्र त व को वलन, गमीर्, प्रकाश तथा गित के प म दे खा जाता है , उसी प्रकार एक ‘ज्ञान-
गायत्री’ के चार वेद के चार प म दशर्न होते ह। गायत्री माता है तो चार वेद इसके पत्र
ु ह।
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यह तो हुआ सू म गायत्री का, सू म वेदमाता का व प। अब उसके थल ू प पर िवचार करगे। ब्र मा
ने चार वेद की रचना से पव
ू र् चौबीस अक्षर वाले गायत्री म त्र की रचना की। इस एक म त्र के एक-
एक अक्षर म सू म त व समािहत ह, िजनके प लिवत होने पर चार वेद की शाखा- प्रशाखाएँ उद्भत
ू हो
गयीं। एक वट बीज के गभर् म महान वट वक्ष
ृ िछपा होता है । जब वह अंकुर प म उगता है , वक्ष
ृ के
प म बड़ा होता है , तो उसम असंख्य शाखाएँ, टहिनयाँ, प ते, फूल, फल लद जाते ह। इन सबका इतना
बड़ा िव तार होता है , जो उस मल ु ा बड़ा होता है । गायत्री के
ू वट बीज की अपेक्षा करोड़ - अरब गन
चौबीस अक्षर भी ऐसे ही बीज ह, जो प्र फुिटत होकर वेद के महािव तार के प म अवि थत होते ह।

याकरण शा त्र का उ गम शंकर जी के वे चौदह सत्र


ू ह, जो उनके डम से िनकले थे। एक बार
महादे व जी ने आन द- मग्न होकर अपना िप्रय वा य डम बजाया। उस डम म से चौदह विनयाँ
िनकलीं। इन (अइउण ्, ऋलक
ृ ् , एओङ्, ऐऔच ्, हयवर , लण ् आिद) चौहद सत्र
ू को लेकर पािणिन ने
महा याकरण शा त्र रच डाला। उस रचना के प चात ् उसकी याख्याएँ होते- होते आज इतना बड़ा
याकरण शा त्र प्र तत
ु है , िजसका एक भारी संग्रहालय बन सकता है । गायत्री म त्र के चौबीस अक्षर
से इसी प्रकार वैिदक सािह य के अंग- प्र यंग का प्रादभ
ु ार्व हुआ है । गायत्री सत्र
ू है , तो वैिदक ऋचाएँ
उनकी िव तत ृ याख्या ह।

ब्र म की फुरणा से गायत्री का प्रादभ


ु ार्व
अनािद परमा मत व ब्र म से यह सब कुछ उ प न हुआ। सिृ ट उ प न करने का िवचार उठते ही
ब्र म म एक फुरणा उ प न हुई, िजसका नाम है - शिक्त। शिक्त के वारा दो प्रकार की सिृ ट उ प न
हुई- एक जड़, दस
ू री चैत य। जड़ सिृ ट का संचालन करने वाली शिक्त ‘प्रकृित’ और चैत य सिृ ट का
संचालन करने वाली शिक्त का नाम ‘सािवत्री’ है ।

पुराण म वणर्न िमलता है िक सिृ ट के आिदकाल म भगवान ् की नािभ म से कमल उ प न हुआ।


कमल के पु प म से ब्र मा हुए, ब्र मा से सािवत्री हुई, सािवत्री और ब्र मा के संयोग से चार वेद
उ प न हुए। वेद से सम त प्रकार के ज्ञान का उद्भव हुआ। तदन तरं ब्र माजी ने पंचभौितक सिृ ट की
रचना की। इस आलंकािरक गाथा का रह य यह है - िनिलर् त, िनिवर्कार, िनिवर्क प परमा मत व की
नािभ म से- के द्र भिू म म से, अ तःकरण म से कमल उ प न हुआ और वह पु प की तरह िखल गया।
ुित ने कहा िक सिृ ट के आर भ म परमा मा की इ छा हुई िक ‘एकोऽहं बहु याम ्’ म एक से बहुत
हो जाऊँ। यह उसकी इ छा, फुरणा नािभ दे श म से िनकल कर फुिटत हुई अथार्त ् कमल की लितका
उ प न हुई और उसकी कली िखल गई।

इस कमल पु प पर ब्र मा उ प न होते ह। ये ब्र मा सिृ ट िनमार्ण की ित्रदे व शिक्त का प्रथम अंश है ।
आगे चलकर यह ित्रदे वी शिक्त उ पि त, ि थित और नाश का कायर् करती हुई ब्र मा, िव ण,ु महे श के

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प म ि टगोचर होती है । आर भ म कमल के पु प पर केवल ब्र माजी ही प्रकट होते ह, क्य िक
सवर्प्रथम उ प न करने वाली शिक्त की आव यकता हुई।

अब ब्र माजी का कायर् आर भ होता है । उ ह ने दो प्रकार की सिृ ट उ प न की- एक चैत य, दस


ू री
जड़। चैत य शिक्त के अ तगर्त सभी जीव आ जाते ह, िजनम इ छा, अनुभिू त, अहं भावना पाई जाती है ।
चैत य की एक वत त्र सिृ ट है , िजसे िव व का ‘प्राणमय कोश’ कहते ह। िनिखल िव व म एक
चैत य त व भरा हुआ है , िजसे ‘प्राण’ नाम से पुकारा जाता है । िवचार, संक प, भाव, इस प्राण त व के
तीन वगर् ह और सत ्, रज, तम- तीन इसके वणर् ह। इ हीं त व को लेकर आ माओं के थल ू , सू म
और कारण शरीर बनते ह। सभी प्रकार के प्राणी इसी प्राण त व से चैत यता एवं जीवन स ता प्रा त
करते ह।

जड़ सिृ ट िनमार्ण के िलए ब्र माजी ने प चभत


ू का िनमार्ण िकया। प ृ वी, जल, वाय,ु तेज, आकाश के
वारा िव व के सभी परमाणम
ु य पदाथर् बने। ठोस, द्रव, गैस- इ हीं तीन प म प्रकृित के परमाणु
अपनी गितिविध जारी रखते ह। नदी, पवर्त, धरती आिद का सभी पसारा इन पंचभौितक परमाणओ
ु ं का
खेल है । प्रािणय के थूल शरीर भी इ हीं प्रकृितज य पंचत व के बने होते ह।

िक्रया जड़- चेतन दोन सिृ ट म है । प्राणमय चैत य सिृ ट म अहं भाव, संक प और प्रेरणा की
गितिविधयाँ िविवध प म िदखलाई पड़ती ह। भत
ू मय जड़ सिृ ट म शिक्त, हलचल और स ता इन
आधार के वारा िविवध प्रकार के रं ग- प, आकार- प्रकार बनते- िबगड़ते रहते ह। जड़ सिृ ट का आधार
परमाणु और चैत य सिृ ट का आधार संक प है । दोन ही आधार अ य त सू म और अ य त
बलशाली ह। इनका नाश नहीं होता, केवल पा तर होता रहता है ।
जड़- चेतन सिृ ट के िनमार्ण म ब्र माजी की दो शिक्तयाँ काम कर रही ह—(१) संक प शिक्त (२)
परमाणु शिक्त। इन दोन म प्रथम संक प शिक्त की आव यकता हुई, क्य िक िबना उसके चैत य का
आिवभार्व नहीं होता और िबना चैत य के परमाणु का उपयोग िकसिलए होता? अचैत य सिृ ट तो अपने
म अचैत य थी, क्य िक न तो उसको िकसी का ज्ञान होता और न उसका कोई उपयोग होता है ।
‘चैत य’ के प्रकटीकरण की सिु वधा के िलए उसकी साधन- सामग्री के प म ‘जड़’ का उपयोग होता है ।
अ तु, आर भ म ब्र माजी ने चैत य बनाया, ज्ञान के संक प का आिव कार िकया, पौरािणक भाषा म
यह किहए िक सवर्प्रथम वेद का प्राक य हुआ।

पुराण म वणर्न िमलता है िक ब्र मा के शरीर से एक सवार्ंग सु दर त णी उ प न हुई, यह उनके अगं


से उ प न होने के कारण उनकी पुत्री हुई। इसी त णी की सहायता से उ ह ने अपना सिृ ट िनमार्ण
कायर् जारी रखा। इसके प चात ् उस अकेली पवती युवती को दे खकर उनका मन िवचिलत हो गया
और उ ह ने उससे प नी के प म रमण िकया। इस मैथन
ु से मैथन
ु ी संयोजक परमाणम
ु य पंचभौितक
सिृ ट उ प न हुई। इस कथा के आलंकािरक प को, रह यमय पहे ली को न समझकर कई यिक्त

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अपने मन म प्राचीन त व को उथली और अ द्धा की ि ट से दे खते ह। वे भल
ू जाते ह िक ब्र मा
कोई मनु य नहीं है और न ही उनसे उ प न हुई शिक्त पत्र
ु ी या त्री है और न पु ष- त्री की तरह
उनके बीच म समागम होता है । इस सिृ ट िनमार्ण काल के एक त य को गढ़ ू पहे ली के प म
आलंकािरक ढं ग से प्र तुत करके रचनाकार ने अपनी कलाकािरता का पिरचय िदया है ।

ब्र मा िनिवर्कार परमा मा की शिक्त है , जो सिृ ट का िनमार्ण करती है । इस िनमार्ण कायर् को चालू
करने के िलए उसकी दो भज
ु ाएँ ह, िज ह संक प और परमाणु शिक्त कहते ह। संक प शिक्त चेतन
सत ्- संभव होने से ब्र मा की पुत्री है । परमाणु शिक्त थूल िक्रयाशील एवं तम- संभव होने से ब्र मा की
प नी है । इस प्रकार गायत्री और सािवत्री ब्र मा की पुत्री तथा प नी नाम से प्रिसद्ध हुईं।

गायत्री सू म शिक्तय का ोत है
िपछले प ृ ठ पर बतलाया जा चुका है िक एक अ यय, िनिवर्कार, अजर- अमर परमा मा की ‘एक से
अिधक हो जाने की’ इ छा हुई। ब्र म म फुरण हुआ िक ‘एकोऽहं बहु याम ् म अकेला हूँ, बहुत हो
जाऊँ। उसकी यह इ छा ही शिक्त बन गयी। इस अ छा, फुरणा या शिक्त को ही ब्र म- प नी कहते
ह। इस प्रकार ब्र म एक से दो हो गया। अब उसे ल मी- नारायण, सीता- राम, राधे- याम, उमा- महे श,
शिक्त- िशव, माया- ब्र म, प्रकृित- परमे वर आिद नाम से पुकारने लगे।

इस शिक्त के वारा अनेक पदाथ तथा प्रािणय का िनमार्ण होना था, इसिलए उसे भी तीन भाग म
अपने को िवभािजत कर दे ना पड़ा, तािक अनेक प्रकार के सि म ण तैयार हो सक और िविवध गण
ु ,
कमर्, वभाव वाले जड़, चेतन पदाथर् बन सक। ब्र मशिक्त के ये तीन टुकड़े- (१) सत ् (२) रज (३) तम- इन
ु ारे जाते ह। सत ् का अथर् है - ई वर का िद य त व। तम का अथर् है - िनजीर्व पदाथ
तीन नाम से पक
म परमाणओ
ु ं का अि त व। रज का अथर् है - जड़ पदाथ और ई वरीय िद य त व के सि म ण से
उ प न हुई आन द दायक चैत यता। ये तीन त व थूल सिृ ट के मल ू कारण ह। इनके उपरा त
थूल उपादान के प म िमट्टी, पानी, हवा, अिग्र, आकाश- ये पाँच थल
ू त व और उ प न होते ह। इन
त व के परमाणओ
ु ं तथा उनकी श द, प, रस, ग ध, पशर् त मात्राओं वारा सिृ ट का सारा कायर्
चलता है । प्रकृित के दो भाग ह—सू म प्रकृित, जो शिक्त प्रवाह के प म, प्राण संचार के प म कायर्
करती है , वह सत ्, रज, तममयी है । थूल प्रकृित, िजससे य पदाथ का िनमार्ण एवं उपयोग होता है ,
परमाणम
ु यी है । यह िमट्टी, पानी, हवा आिद थूल पंचत व के आधार पर अपनी गितिविध जारी रखती
है ।

उपयक्
ुर् त पंिक्तय के पाठक समझ गए ह गे िक पहले एक ब्र म था, उसकी फुरणा से आिदशिक्त का
आिवभार्व हुआ। इस आिदशिक्त का नाम ही गायत्री है । जैसे ब्र म ने अपने तीन भाग कर िलए- (१)
सत ्- िजसे ीं या सर वती कहते ह, (२) रज- िजसे ‘ ीं’ या ल मी कहते ह, (३) तम- िजसे ‘क्लीं’ या काली

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कहते ह। व तत
ु : ‘सत ्’ और ‘तम’ दो ही िवभाग हुए थे; इन दोन के िमलने से जो धारा उ प न हुई,
वह रज कहलाती है । जैसे गंगा, यमन
ु ा जहाँ िमलती ह, वहाँ उनकी िमि त धारा को सर वती कहते ह।
सर वती वैसे कोई पथ
ृ क् नदी नहीं है । जैसे इन दो निदय के िमलने से सर वती हुई, वैसे ही सत ् और
तम के योग से रज उ प न हुआ और यह ित्रधा प्रकृित कहलाई।

अ वैतवाद, वैतवाद, त्रैतवाद का बहुत झगड़ा सुना जाता है , व तुतः: यह समझने का अ तर मात्र है ।
ब्र म, जीव, प्रकृित यह तीन ही अि त व म ह। पहले एक ब्र म था, यह ठीक है , इसिलए अ वैतवाद भी
ठीक है । पीछे ब्र म और शिक्त (प्रकृित) दो हो गए, इसिलए वैतवाद भी ठीक है । प्रकृित और परमे वर
के सं पशर् से जो रसानुभिू त और चैत यता िमि त रज स ता उ प न हुई, वह जीव कहलाई। इस प्रकार
त्रैतवाद भी ठीक है । मिु क्त होने पर जीव स ता न ट हो जाती है । इससे भी प ट है िक जीवधारी की
जो वतर्मान स ता मन, बुिद्ध, िच त, अहं कार के ऊपर आधािरत है , वह एक िम ण मात्र है ।

त वदशर्न के ग भीर िवषय म प्रवेश करके आ मा के सू म िवषय पर प्रकाश डालने का यहाँ अवसर
नहीं है । इन पंिक्तय म तो थूल और सू म प्रकृित का भेद बताया था, क्य िक िवज्ञान के दो भाग
यहीं से होते ह, मनु य की िवधा प्रकृित यहीं से बनती है । पंचत व वारा काम करने वाली थूल
प्रकृित का अ वेषण करने वाले मनु य भौितक िवज्ञानी कहलाते ह। उ ह ने अपने बुिद्ध बल से
पंचत व के भेद- उपभेद को जानकर उनसे अनेक लाभदायक साधन प्रा त िकये। रसायन, कृिष,
िव युत ्, वा प, िश प, संगीत, भाषा, सािह य, वाहन, गह
ृ िनमार्ण, िचिक सा, शासन, खगोल िव या, अ त्र-
श त्र, दशर्न, भ-ू पिरशोध आिद अनेक प्रकार के सख
ु - साधन खोज िनकाले और रे ल, मोटर, तार, डाक,
रे िडयो, टे लीिवजन, फोटो आिद िविवध व तुएँ बनाने के बड़े- बड़े य त्र िनमार्ण िकए। धन, सख
ु - सिु वधा
और आराम के साधन सल ु भ हुए। इस मागर् से जो लाभ िमलता है , उसे शा त्रीय भाषा म ‘प्रेय’ या
‘भोग’ कहते ह। यह िवज्ञान भौितक िवज्ञान कहलाता है । यह थूल प्रकृित के उपयोग की िव या है ।

सू म प्रकृित वह है जो आ यशिक्त गायत्री से उ प न होकर सर वती, ल मी, दग


ु ार् म बँटती है । यह
सवर् यािपनी शिक्त- िनझर्िरणी पंचत व से कहीं अिधक सू म है । जैसे निदय के प्रवाह म, जल की
लहर पर वायु के आघात होने के कारण ‘कल- कल’ से िमलती- जल
ु ती विनयाँ उठा करती ह, वैसे ही
सू म प्रकृित की शिक्त- धाराओं से तीन प्रकार की श द- विनयाँ उठती ह। सत ् प्रवाह म ीं, रज प्रवाह
म ‘ ीं’ और तम प्रवाह म ‘क्लीं’ श द से िमलती- जल
ु ती विन उ प न होती है । उससे भी सू म ब्र म
का ऊँकार विन- प्रवाह है । नादयोग की साधना करने वाले यानमग्न होकर इन विनय को पकड़ते ह
और उनका सहारा पकड़ते हुए सू म प्रकृित को भी पार करते हुए ब्र मसायु य तक जा पहुँचते ह। यह
योग साधना पथ आपको आगे पढ़ने को िमलेगा।

प्राचीन काल म हमारे पज


ू नीय पव
ू ज
र् ने, ऋिषय ने अपनी ती ण ि ट से िवज्ञान के इस सू म त व
को पकड़ा था, उसी की शोध और सफलता म अपनी शिक्तय को लगाया था। फल व प वे वतर्मान

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काल के यश वी भौितक िवज्ञान की अपेक्षा अनेक गन
ु े लाभ से लाभाि वत होने म समथर् हुए थे। वे
आ यशिक्त के सू म शिक्त प्रवाह पर अपना अिधकार थािपत करते थे। यह प्रकट त य है िक
मनु य के शरीर म अनेक प्रकार की शिक्तय का आिवभार्व होता है । हमारे ऋिषगण योग- साधना के
वारा शरीर के िविभ न भाग म िछपे पड़े हुए शिक्त- के द्र को, चक्र को, ग्रि थय को, मातक
ृ ाओं को,
योितय को, भ्रमर को जगाते थे और उस जागरण से जो शिक्त प्रवाह उ प न होता था, उसे
आ यशिक्त के ित्रिवध प्रवाह म से िजसके साथ आव यकता होती थी, उससे स बि धत कर दे ते थे।
जैसे रे िडयो का टे शन के ट्रा समीटर य त्र से स ब ध थािपत कर िदया जाता है , तो दोन की
िव युत ् शिक्तयाँ सम ेणी म होने के कारण आपस म स बि धत हो जाती ह तथा उन टे शन के
बीच आपसी वातार्लाप का, स वाद के आदान- प्रदान का िसलिसला चल पड़ता है ; इसी प्रकार साधना
वारा शरीर के अ तगर्त िछपे हुए और ति द्रत पड़े हुए के द्र का जागरण करके सू म प्रकृित के
शिक्त प्रवाह से स ब ध थािपत हो जाता है , तो मनु य और आ यशिक्त आपस म स बि धत हो
जाते ह। इस स ब ध के कारण मनु य उस आ यशिक्त के गभर् म भरे हुए रह य को समझने लगता
है और अपनी इ छानुसार उनका उपयोग करके लाभाि वत हो सकता है । चँ ूिक संसार म जो भी कुछ
है , वह सब आ यशिक्त के भीतर है , इसिलए वह स बि धत यिक्त भी संसार के सब पदाथ और
साधन से अपना स ब ध थािपत कर सकता है ।

वतर्मान काल के वैज्ञािनक पंचत व की सीमा तक सीिमत, थल


ू प्रकृित के साथ स ब ध थािपत
ु ्, वा प, गैस, पेट्रोल आिद का प्रयोग करके कुछ
करने के िलए बड़ी- बड़ी कीमती मशीन को िव यत
आिव कार करते ह और थोड़ा- सा लाभ उठाते ह। यह तरीका बड़ा म- सा य, क ट- सा य, धन- सा य
और समय- सा य है । उसम खराबी, टूट- फूट और पिरवतर्न की खटपट भी आये िदन लगी रहती है ।
उन य त्र की थापना, सरु क्षा और िनमार्ण के िलए हर समय काम जारी रखना पड़ता है । उनका थान
पिरवतर्न तो और भी किठन होता है । ये सब झंझट भारतीय योग िवज्ञान के िवज्ञानवे ताओं के सामने
नहीं थे। वे िबना िकसी य त्र की सहायता के, िबना संचालक, िव युत ्, पेट्रोल आिद के केवल अपने शरीर
के शिक्त- के द्र का स ब ध सू म प्रकृित से थािपत करके ऐसे आ चयर्जनक कायर् कर लेते थे,
िजनकी स भावना तक को आज के भौितक िवज्ञानी समझने म समथर् नहीं हो पा रहे ह।

महाभारत और लंका युद्ध म जो अ त्र- श त्र यव त हुए थे, उनम से बहुत थोड़ का धध ुँ ला प अभी
सामने आया है । रडार, गैस बम, अणु बम, रोग कीटाणु बम, परमाणु बम, म ृ यु िकरण आिद का धधुँ ला
िचत्र अभी तैयार हो पाया है । प्राचीनकाल म मोहक श त्र, ब्र मपाश, नागपाश, व णा त्र, आग्रेय बाण, शत्रु
को मारकर तरकस म लौट आने वाले बाण आिद यव त होते थे; श दवेध का प्रचलन था। ऐसे अ त्र-
श त्र िक हीं कीमती मशीन से नहीं, म त्र बल से चलाए जाते थे, जो शत्रु को जहाँ भी वह िछपा हो,
ढूँढ़कर उसका संहार करते थे। लंका म बैठा हुआ रावण और अमेिरका म बैठा हुआ अिहरावण आपस
म भली प्रकार वातार्लाप करते थे; उ ह िकसी रे िडयो या ट्रा समीटर की ज रत नहीं थी। िवमान िबना

7
पेट्रोल के उड़ते थे।

अ ट- िसिद्ध और नव िनिध का योगशा त्र म जगह- जगह पर वणर्न है । अिग्र म प्रवेश करना, जल पर
चलना, वायु के समान तेज दौडऩा, अ य हो जाना, मनु य से पशु- पक्षी और पश-ु पक्षी से मनु य का
शरीर बदल लेना, शरीर को बहुत छोटा या बड़ा, ह का या भारी बना लेना, शाप से अिन ट उ प न कर
ू र के
दे ना, वरदान से उ तम लाभ की प्राि त, म ृ यु को रोक लेना, पुत्रेि ट यज्ञ, भिव य का ज्ञान, दस
अ तस ् की पहचान, क्षण भर म यथे ट धन, ऋतु, नगर, जीव- ज तुगण, दानव आिद उ प न कर लेना,
सम त ब्र मा ड की हलचल से पिरिचत होना, िकसी व तु का पा तर कर दे ना, भख
ू , यास, नींद, सदीर्-
गमीर् पर िवजय, आकाश म उड़ना आिद अनेक आ चयर् भरे कायर् केवल म त्र बल से, योगशिक्त से,
अ या म िवज्ञान से होते थे और उन वैज्ञािनक प्रयोजन के िलए िकसी प्रकार की मशीन, पेट्रोल, िबजली
आिद की ज रत न पड़ती थी। यह कायर् शारीिरक िव युत ् और प्रकृित के सू म प्रवाह का स ब ध
थािपत कर लेने पर बड़ी आसानी से हो जाते थे। यह भारतीय िवज्ञान था, िजसका आधार था- साधना।

साधना वारा केवल ‘तम’ त व से स ब ध रखने वाले उपरोक्त प्रकार के भौितक चम कार ही नहीं
होते वरन ् ‘रज’ और ‘सत ्’ क्षेत्र के लाभ एवं आन द भी प्रचुर मात्रा म प्रा त िकए जा सकते ह। हािन,
शोक, िवयोग, आपि त, रोग, आक्रमण, िवरोध, आघात आिद की िवप न पिरि थितय म पडक़र जहाँ
साधारण मनोभिू म के लोग म ृ यु तु य मानिसक क ट पाते ह, वहाँ आ मशिक्तय के उपयोग की
िव या जानने वाला यिक्त िववेक, ज्ञान, वैराग्य, साहस, आशा और ई वर िव वास के आधार पर इन
किठनाइय को हँ सते- हँसते आसानी से काट लेता है और बरु ी अथवा साधारण पिरि थितय म भी
अपने आन द को बढ़ाने का मागर् ढूँढ़ िनकालता है । वह जीवन को इतनी म ती, प्रफु लता और
मजेदारी के साथ िबताता है , जैसा िक बेचारे करोड़पितय को भी नसीब नहीं हो सकता। िजसका
शारीिरक और मानिसक वा
य आ मबल के कारण ठीक बना हुआ है , उसे बड़े अमीर से भी अिधक
आन दमय जीवन िबताने का सौभाग्य अनायास ही प्रा त हो जाता है । रज शिक्त का उपयोग जानने
का यह लाभ भौितक िवज्ञान वारा िमलने वाले लाभ की अपेक्षा कहीं अिधक मह वपूणर् है ।

‘सत ्’ त व के लाभ का वणर्न करना तो लेखनी और वाणी दोन की ही शिक्त के बाहर है । ई वरीय
िद य त व की जब आ मा म विृ द्ध होती है , तो दया, क णा, प्रेम, मैत्री, याग, स तोष, शाि त, सेवा भाव,
आ मीयता, स यिन ठा, ईमानदारी, संयम, नम्रता, पिवत्रता, मशीलता, धमर्परायणता आिद स गण
ु की
मात्रा िदन- िदन बड़ी तेजी से बढ़ती जाती है । फल व प संसार म उसके िलए प्रशंसा, कृतज्ञता,
प्र युपकार, द्धा, सहायता, स मान के भाव बढ़ते ह और उसे प्र युपकार से स तु ट करते रहते ह। इसके
अितिरक्त यह स गण
ु वयं इतने मधुर ह िक िजस दय म इनका िनवास होता है , वहीं आ म-
स तोष की शीतल िनझर्िरणी सदा बहती रहती है । ऐसे लोग चाहे जीिवत अव था म ह , चाहे मत

अव था म, उ ह जीवन- मिु क्त, वगर्, परमान द, ब्र मान द, आ म- दशर्न, प्रभ-ु प्राि त, ब्र म- िनवार्ण,
तुरीयाव था, िनिवर्क प समािध का सख
ु प्रा त होता रहता है । यही तो जीवन का ल य है । इसे पाकर
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आ मा पिरतिृ त के आन द सागर म िनमग्न हो जाती है ।

आि मक, मानिसक और सांसािरक तीन प्रकार के सख


ु - साधन आ यशिक्त गायत्री की सत ्, रज, तममयी
धाराओं तक पहुँचने वाला साधक सग
ु मतापूवक
र् प्रा त कर सकता है । सर वती, ल मी और काली की
िसिद्धयाँ पथ
ृ क् - पथ
ृ क् प्रा त की जाती ह। पा चा य दे श म भौितक िवज्ञानी ‘क्लीं’ त व की काली
शिक्त का अ वेषण आराधना करने म िनमग्न ह। बुिद्धवादी, धमर् प्रचारक, सध
ु ारवादी, गाँधीवादी,
समाजसेवी, यापारी, िमक, उ योगी, समाजवादी, क युिन ट यह ‘ ीं’ शिक्त की सु यव था म, ल मी के
आयोजन म लगे हुए ह। योगी, ब्र मवे ता, अ या मवादी, त वदशीर्, भक्त, दाशर्िनक, परमाथीर् यिक्त ीं
त व की, सर वती की आराधना कर रहे ह। यह तीन ही वगर् गायत्री की आ यशिक्त के एक- एक
चरण के उपासक ह। गायत्री को ‘ित्रपदा’ कहा गया है । उसके तीन चरण ह। यह ित्रवेणी उपयक्
ुर् त तीन
ही प्रयोजन को पूरा करने वाली है । माता बालक के सभी काम करती है । आव यकतानुसार वह उसके
िलए मेहतर का, रसोइये का, कहार का, दाई का, घोड़े का, दाता का, दजीर् का, धोबी का, चौकीदार का काम
बजा दे ती है । वैसे ही जो लोग आ मशिक्त को आ यशिक्त के साथ जोडऩे की िव या को जानते ह, वे
अपने को सस
ु तित िसद्ध करते ह। वे गायत्री पी सवर्शिक्तमयी माता से यथे ट लाभ प्रा त कर लेते
ह।

संसार म दःु ख के तीन कारण ह—(१) अज्ञान (२) अशिक्त (३) अभाव। इन तीन दःु ख को गायत्री की
सू म प्रकृित की तीन धाराओं के सदप
ु योग से िमटाया जा सकता है । ीं अज्ञान को, ीं अभाव को,
क्लीं अशिक्त को दरू करती है । भारतीय सू म िव या- िवशेषज्ञ ने सू म प्रकृित पर अिधकार करके
अभी ट आन द प्रा त करने के िजस िवज्ञान का आिव कार िकया था, वह सभी ि टय से असाधारण
और महान है । उस आिव कार का नाम है - साधना। साधना से िसिद्ध िमलती है । गायत्री साधना अनेक
िसिद्धय की जननी है ।

गायत्री साधना से शिक्तकोश का उद्भव


िपछले प ृ ठ म िलखा जा चुका है िक गायत्री कोई दे वी- दे वता, भत
ू - पलीत आिद नहीं, वरन ् ब्र म की
फुरणा से उ प न हुई आ यशिक्त है , जो संसार के प्र येक पदाथर् का मल ू कारण है और उसी के
वारा जड़- चेतन सिृ ट म गित, शिक्त, प्रगित- प्रेरणा एवं पिरणित होती है । जैसे घर म रखे हुए रे िडयो
य त्र का स ब ध िव व यापी ईथर तरं ग से थािपत करके दे श- िवदे श म होने वाले प्र येक ब्राडका ट
को सरलतापूवक
र् सन
ु सकते ह, उसी प्रकार आ मशिक्त का िव व यापी गायत्री शिक्त से स ब ध
थािपत करके सू म प्रकृित की सभी हलचल को जान सकते ह; और सू म शिक्त को इ छानुसार
मोड़ने की कला िविदत होने पर सांसािरक, मानिसक और आि मक क्षेत्र म प्रा त हो सकने वाली सभी
स पि तय को प्रा त कर सकते ह। िजस मागर् से यह सब हो सकता है , उसका नाम है - साधना।

9
गायत्री साधना क्य ? कई यिक्त सोचते ह िक हमारा उ े य ई वर प्राि त, आ म- दशर्न और जीवन
मिु क्त है । हम गायत्री के, सू म प्रकृित के चक्कर म पडऩे से क्या प्रयोजन है ? हम तो केवल ई वर
आराधना करनी चािहए। सोचने वाल को जानना चािहए िक ब्र म सवर्था िनिवर्कार, िनलप, िनर जन,
िनराकार, गुणातीत है । वह न िकसी से प्रेम करता है , न वेष। वह केवल द्र टा एवं कारण प है । उस
तक सीधी पहुँच नहीं हो सकती, क्य िक जीव और ब्र म के बीच सू म प्रकृित (एनजीर्) का सघन
आ छादन है । इस आ छादन को पार करने के िलए प्रकृित के साधन से ही कायर् करना पड़ेगा। मन,
बुिद्ध, िच त, अहं कार, क पना, यान, सू म शरीर, ष चक्र, इ टदे व की यान प्रितमा, भिक्त, भावना,
उपासना, त, अनु ठान, साधना यह सभी तो माया िनिमर्त ही ह। इन सभी को छोड़कर ब्र म प्राि त
िकस प्रकार होनी स भव है ? जैसे ऊपर आकाश म पहुँचने के िलए वायुयान की आव यकता पड़ती है ,
वैसे ही ब्र म प्राि त के िलए भी प्रितमामल
ू क आराधना का आ य लेना पड़ता है । गायत्री के आचरण
म होकर पार जाने पर ही ब्र म का साक्षा कार होता है । सच तो यह है िक साक्षा कार का अनुभव
गायत्री के गभर् म ही होता है । इससे ऊपर पहुँचने पर सू म इि द्रयाँ और उनकी अनुभव शिक्त भी
लु त हो जाती है । इसिलए मिु क्त और ई वर प्राि त चाहने वाले भी ‘गायत्री िमि त ब्र म की,
राधे याम, सीताराम, ल मीनारायण की ही उपासना करते ह। िनिवर्कार ब्र म का सायु य तो तभी होगा,
जब ब्र म ‘बहुत से एक होने’ की इ छा करे गा और सब आ माओं को समेटकर अपने म धारण कर
लेगा। उससे पवू र् सब आ माओं का सिवकार ब्र म म ही सामी य, सा य, सायु य आिद हो सकता है ।
इस प्रकार गायत्री िमि त सिवकार ब्र म ही हमारा उपा य रह जाता है । उसकी प्राि त के साधन जो
भी ह गे, वे सभी सू म प्रकृित गायत्री वारा ही ह गे। इसिलए ऐसा सोचना उिचत नहीं िक ब्र म प्राि त
के िलए गायत्री अनाव यक है । वह तो अिनवायर् है । नाम से कोई उपेक्षा या िवरोध करे , यह उसकी
इ छा, पर गायत्री त व से बचकर अ य मागर् से जाना असंभव है ।

कई यिक्त कहते ह िक हम िन काम साधना करते ह। हम िकसी फल की कामना नहीं, िफर सू म


प्रकृित का आ य क्य ल? ऐसे लोग को जानना चािहए िक िन काम साधना का अथर् भौितक लाभ न
चाहकर आि मक साधना का है । िबना पिरणाम सोचे यिद चाह तो िकसी कायर् म प्रविृ त हो ही नहीं
सकती; यिद कुछ िमल भी जाय, तो उससे समय एवं शिक्त के अप यय के अितिरक्त और कुछ
पिरणाम नहीं िनकलता। िन काम कमर् का ता पयर् दै वी, सतोगण
ु ी, आि मक कामनाओं से है । ऐसी
कामनाएँ भी गायत्री के प्रथम पाद के ीं त व म सर वती भाग म आती ह, इसिलए िन काम भाव की
उपासना भी गायत्री क्षेत्र से बाहर नहीं है ।

म त्र िव या के वैज्ञािनक जानते ह िक जीभ से जो श द िनकलते ह, उनका उ चारण क ठ, ताल,ु मध


ू ार्,
ओ ठ, द त, िज वमल
ू आिद मख
ु के िविभ न अंग वारा होता है । इस उ चारण काल म मख
ु के िजन
भाग से विन िनकलती है , उन अंग के नाड़ी त तु शरीर के िविभ न भाग तक फैलते ह। इस फैलाव
क्षेत्र म कई ग्रि थयाँ होती ह, िजन पर उन उ चारण का दबाव पड़ता है । िजन लोग की सू म

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ग्रि थयाँ रोगी या न ट हो जाती ह, उनके मख
ु से कुछ खास श द अशद्ध
ु या क- ककर िनकलते ह,
इसी को हकलाना या तत
ु लाना कहते ह। शरीर म अनेक छोटी- बड़ी, य- अ य ग्रि थयाँ होती ह।
योगी लोग जानते ह िक उन कोश म कोई िवशेष शिक्त- भ डार िछपा रहता है । सष
ु ु ना से स बद्ध
ष चक्र प्रिसद्ध ह, ऐसी अगिणत ग्रि थयाँ शरीर म ह। िविवध श द का उ चारण इन िविवध ग्रि थय
पर अपना प्रभाव डालता है और इसके प्रभाव से उन ग्रि थय का शिक्त- भ डार जाग्रत ् होता है । म त्र
का गठन इसी आधार पर हुआ है । गायत्री म त्र म २४ अक्षर ह। इनका स ब ध शरीर म ि थत ऐसी
२४ ग्रि थय से है , जो जाग्रत ् होने पर स बुिद्ध प्रकाशक शिक्तय को सतेज करती ह। गायत्री म त्र के
उ चारण से सू म शरीर का िसतार २४ थान से झंकार दे ता है और उससे एक ऐसी वर- लहरी
उ प न होती है , िजसका प्रभाव अ य जगत ् के मह वपूणर् त व पर पड़ता है । यह प्रभाव ही गायत्री
साधना के फल का प्रभाव- हे तु है ।

श द की शिक्त :— श द का विन प्रवाह तु छ चीज नहीं है । श द- िव या के आचायर् जानते ह िक


श द म िकतनी शिक्त है और उसकी अज्ञात गितिविध के वारा क्या- क्या पिरणाम उ प न हो सकते
ह। श द को ब्र म कहा गया है । ब्र म की फुरणा क पन उ प न करती है । वह क पन ब्र म से
टकराकर ऊँ विनय के प म सात बार विनत होता है । जैसे घड़ी का लटकन घ टा पे डुलम झम
ू ता
हुआ घड़ी के पजु म चाल पैदा करता रहता है , इसी प्रकार वह ऊँकार विन प्रवाह सिृ ट को चलाने
वाली गित पैदा करता है । आगे चलकर उस प्रवाह म ीं, ीं, क्लीं की तीन प्रधान सत ्, रज, तममयी
धाराएँ बहती ह। तदप
ु रा त उसकी और भी शाखा- प्रशाखाएँ हो जाती ह, जो बीज म त्र के नाम से
पक
ु ारी जाती ह। ये विनयाँ अपने- अपने क्षेत्र म सिृ ट कायर् का संचालन करती ह। इस प्रकार सिृ ट
का संचालन कायर् श द त व वारा होता है । ऐसे त व को तु छ नहीं कहा जा सकता। गायत्री की
श दावली ऐसे चुने हुए शंख
ृ लाबद्ध श द से बनाई गई है , जो क्रम और गु फन की िवशेषता के कारण
अपने ढं ग का एक अद्भतु ही शिक्त प्रवाह उ प न करती है ।

दीपक राग गाने से बुझे हुए दीपक जल उठते ह। मेघम हार गाने से वषार् होने लगती है । वेणन
ु ाद
सनु कर सपर् लहराने लगते ह, मग
ृ सध
ु - बुध भल ू दे ने लगती ह। कोयल की
ू जाते ह, गाय अिधक दध
बोली सन
ु कर काम भाव जाग्रत ् हो जाता है । सैिनक के कदम िमलाकर चलने की श द- विन से लोहे
के पुल तक िगर सकते ह, इसिलए पल
ु को पार करते समय सेना को कदम न िमलाकर चलने की
िहदायत कर दी जाती है । अमेिरका के डॉक्टर हिचंसन ने िविवध संगीत विनय से अनेक असा य
और क टसा य रोिगय को अ छा करने म सफलता और ख्याित प्रा त की है । भारतवषर् म ताि त्रक
लोग थाली को घड़े पर रखकर एक िवशेष गित से बजाते ह और उस बाजे से सपर्, िब छू आिद जहरीले
जानवर के काटे हुए, क ठमाला, िवषवेल, भत
ू ो माद आिद के रोगी बहुत करके अ छे हो जाते ह। कारण
यह है िक श द के क पन सू म प्रकृित से अपनी जाित के अ य परमाणओ ु ं को लेकर ईथर का
पिरभ्रमण करते हुए जब अपने उ गम के द्र पर कुछ ही क्षण म लौट आते ह, तो उसम अपने प्रकार

11
की एक िवशेष िव यत
ु ् शिक्त भरी होती है और पिरि थित के अनस
ु ार उपयक्
ु त क्षेत्र पर उस शिक्त का
एक िविश ट प्रभाव पड़ता है । म त्र वारा िवलक्षण कायर् होने का भी यही कारण है ।

गायत्री म त्र वारा भी इसी प्रकार शिक्त का आिवभार्व होता है । म त्रो चारण म मख
ु के जो अगं
िक्रयाशील होते ह, उन भाग म नाड़ी त तु कुछ िवशेष ग्रि थय को गद
ु गुदाते ह। उनम फुरण होने से
एक वैिदक छ द का क्रमबद्ध यौिगक सङ्गीत प्रवाह ईथर त व म फैलता है और अपनी कुछ क्षण म
होने वाली िव व पिरक्रमा से वापस आते- आते एक वजातीय त व की सेना साथ ले आता है , जो
अभी ट उ े य की पूितर् म बड़ी सहायक होती है । श द संगीत के शिक्तमान क पन का पंचभौितक
प्रवाह और आ म- शिक्त की सू म प्रकृित की भावना, साधना, आराधना के आधार पर उ प न िकया
गया स ब ध, यह दोन कारण गायत्री शिक्त को ऐसा बलवान बनाते ह, जो साधक के िलए दै वी
वरदान िसद्ध होता है ।

गायत्री म त्र को और भी अिधक सू म बनाने वाला कारण है साधक का ‘ द्धामय िव वास’। िव वास से
सभी मनोवे ता पिरिचत ह। हम अपनी पु तक और लेख म ऐसे असंख्य उदाहरण अनेक बार दे चुके
ह िजनसे िसद्ध होता है िक केवल िव वास के आधार पर लोग भय की वजह से अकारण काल के मख

म चले गये और िव वास के कारण मत
ृ प्राय लोग ने नवजीवन प्रा त िकया। रामायण म तुलसीदास
जी ने ‘भवानीशङ्करौ व दे द्धािव वास िपणौ’ गाते हुए द्धा और िव वास को भवानी- शंकर की उपमा
दी है । झाड़ी को भत
ू , र सी को सपर्, मिू तर् को दे वता बना दे ने की क्षमता िव वास म है । लोग अपने
िव वास की रक्षा के िलए धन, आराम तथा प्राण तक को हँ सते- हँसते गँवा दे ते ह। एकल य, कबीर
आिद ऐसे अनेक उदाहरण ह, िजससे प्रकट है िक गु वारा नहीं, केवल अपनी द्धा के आधार पर गु
वारा प्रा त होने वाली िशक्षा से भी अिधक िवज्ञ बना जा सकता है । िहप्रोिट म का आधार रोगी को
अपने वचन पर िव वास कराके उससे मनमाने कायर् करा लेना ही तो है । ताि त्रक लोग म त्र िसिद्ध की
कठोर साधना वारा अपने मन म िकतनी अगाध द्धा जमाते ह। आमतौर पर िजसके मन म उस
म त्र के प्रित िजतनी गहरी द्धा जमी होती है , उस ताि त्रक का म त्र भी उतना काम करता है । िजस
म त्र से द्धालु ताि त्रक चम कारी काम कर िदखाता है , उस म त्र को अ द्धालु साधक चाहे सौ बार
बके, कुछ लाभ नहीं होता। गायत्री म त्र के स ब ध म भी यह त य बहुत हद तक काम करता है । जब
साधक द्धा और िव वासपूवक र् आराधना करता है , तो श द िवज्ञान और आ म- स ब ध दोन की
मह ता से संयक्
ु त गायत्री का प्रभाव और अिधक बढ़ जाता है और वह एक अ िवतीय शिक्त िसद्ध
होती है ।

नीचे िदए हुए िचत्र म िदखाया गया है िक गायत्री के प्र येक अक्षर का शरीर के िकस- िकस थान से
स ब ध है ।

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शरीर म गायत्री मंत्र के अक्षर
उन थल पर कौन यौिगक ग्रि थचक्र ह, इसका पिरचय इस प्रकार है —
अक्षर ग्रि थ का नाम उसम भरी हुई शिक्त :-

१. तत ् तािपनी सफलता
२. स सफला पराक्रम
३. िव िव वा पालन
४. तरु ् तिु ट क याण
५. व वरदा योग
६. रे रे वती प्रेम
७. िण सू मा धन
८. यं ज्ञाना तेज
९. भर् भगार् रक्षा
१०. गो गोमती बुिद्ध
११. दे दे िवका दमन
१२. व वराही िन ठा
१३. य िसंहनी धारणा
१४. धी याना प्राण
१५. म मयार्दा संयम
१६. िह फुटा तप
१७. िध मेधा दरू दिशर्ता
१८. यो योगमाया जागिृ त
१९. यो योिगनी उ पादन
२०. न: धािरणी सरसता
२१. प्र प्रभवा आदशर्
२२. चो ऊ मा साहस
२३. द या िववेक
२४. यात ् िनर जना सेवा

ुर् त २४ शिक्तय को साधक म जाग्रत ् करती है । यह गण


गायत्री उपयक् ु इतने मह वपूणर् ह िक इनके
जागरण के साथ- साथ अनेक प्रकार की सफलताएँ, िसिद्धयाँ और स प नता प्रा त होना आर भ हो
जाता है । कई लोग समझते ह िक यह लाभ अनायास कोई दे वी- दे वता दे रहा है । कारण यह है िक
अपने अ दर हो रहे सू म त व की प्रगित और पिरणित को दे ख और समझ नहीं पाते। यिद वे

13
समझ पाएँ िक उनकी साधना से क्या- क्या सू म प्रिक्रयाएँ हो रही ह, तो यह समझने म दे र न लगेगी
िक यह सब कुछ कहीं से अनायास दान नहीं िमल रहा है , वरन ् आ म- िव या की सु यवि थत
वैज्ञािनक प्रिक्रया का ही यह पिरणाम है । गायत्री साधना कोई अ धिव वास नहीं, एक ठोस वैज्ञािनक
कृ य है और उसके वारा लाभ भी सिु नि चत ही होते ह।

गायत्री और ब्र म की एकता


गायत्री कोई वत त्र दे वी- दे वता नहीं है । यह तो परब्र म परमा मा का िक्रया भाग है । ब्र म िनिवर्कार
है , अिच य है , बुिद्ध से परे है , साक्षी प है , पर तु अपनी िक्रयाशील चेतना शिक्त प होने के कारण
उपासनीय है और उस उपासना का अभी ट पिरणाम भी प्रा त होता है । ई वर- भिक्त, ई वर- उपासना,
ब्र म- साधना, आ म- साक्षा कार, ब्र म- दशर्न, प्रभप
ु रायणता आिद पु षवाची श द का जो ता पयर् और
उ े य है , वही ‘गायत्री उपासना’ आिद त्री वाची श द का म त य है ।

गायत्री उपासना व तुत: ई वर उपासना का एक अ यु तम सरल और शीघ्र सफल होने वाला मागर् है ।
इस मागर् पर चलने वाले यिक्त एक सरु य उ यान से होते हुए जीवन के चरम ल य ‘ई वर प्राि त’
तक पहुँचते ह। ब्र म और गायत्री म केवल श द का अ तर है , वैसे दोन ही एक ह। इस एकता के
कुछ प्रमाण नीचे दे िखए—

गायत्री छ दसामहम ्। — ीम भगव गीता अ० १०.३५


छ द म म गायत्री हूँ।
भभ
ू व
ुर् : विरित चैव चतिु वर्ंशाक्षरा तथा।
गायत्री चतरु ोवेदा ओंकार: सवर्मेव त॥
ु —ब०ृ यो० याज्ञ० २/६६
भभ
ू व
ुर् : व: यह तीन महा या ितयाँ, चौबीस अक्षर वाली गायत्री तथा चार वेद िन स दे ह ओंकार (ब्र म)
व प ह।
दे व य सिवतुयर् य िधयो यो न: प्रचोदयात ्।
भग वरे यं त ब्र म धीमही यथ उ यते॥ —िव वािमत्र
उस िद य तेज वी ब्र म का हम यान करते ह, जो हमारी बुिद्ध को स मागर् म प्रेिरत करता है ।
अथो वदािम गायत्रीं त व पां त्रयीमयीम ्।
यया प्रका यते ब्र म सि चदान दलक्षणम ्॥ —गायत्री त व० लोक १
ित्रवेदमयी (वेदत्रयी) त व व िपणी गायत्री को म कहता हूँ, िजससे सि चदान द लक्षण वाला ब्र म
प्रकािशत होता है अथार्त ् ज्ञात होता है ।
गायत्री वा इदं सवर्म ्। —निृ संहपूवत
र् ापनीयोप० ४/३
यह सम त जो कुछ है , गायत्री व प है ।
गायत्री परमा मा। —गायत्रीत व०

14
गायत्री (ही) परमा मा है ।
ब्र म गायत्रीित- ब्र म वै गायत्री। —शतपथ ब्रा मण ८/५/३/७ -ऐतरे य ब्रा० अ० १७ खं० ५
ब्र म गायत्री है , गायत्री ही ब्र म है ।
सप्रभं स यमान दं दये म डलेऽिप च।
याय जपे तिद येति न कामो मु यतेऽिचरात ्॥ —िव वािमत्र
प्रकाश सिहत स यान द व प ब्र म को दय म और सय
ू र् म डल म
यान करता हुआ, कामना रिहत
हो गायत्री म त्र को यिद जपे, तो अिवल ब संसार के आवागमन से छूट जाता है ।
ओंकार त परं ब्र म सािवत्री या तदक्षरम ्। —कूमर् पुराण उ० िवभा० अ० १४/५७
ओंकार परब्र म व प है और गायत्री भी अिवनाशी ब्र म है ।
गायत्री तु परं त वं गायत्री परमागित:। —बह
ृ पाराशर गायत्री म त्र पुर चरण वणर्नम ् ४/४
गायत्री परम त व है , गायत्री परम गित है ।
सवार् मा िह सा दे वी सवर्भत
ू ेषु संि थता।
गायत्री मोक्षहे तु च मोक्ष थानमसंशयम ्॥ —ऋिष शंग

यह गायत्री दे वी सम त प्रािणय म आ मा प म िव यमान है , गायत्री मोक्ष का मल
ू कारण तथा
स दे ह रिहत मिु क्त का थान है ।
ु ार्य येव पर: िशव:।
गाय येव परो िव णग
गाय येव परो ब्र म गाय येव त्रयी तत:॥ — क द परु ाण काशीख ड ४/९/५८, वह
ृ स या भा य
गायत्री ही दस
ू रे िव णु ह और शंकर जी दस
ू रे गायत्री ही ह। ब्र माजी भी गायत्री म परायण ह, क्य िक
गायत्री तीन दे व का व प है ।

गायत्री परदे वतेित गिदता ब्र मवै िचद्रिू पणी॥ ३॥ —गायत्री पुर चरण प०
गायत्री परम े ठ दे वता और िच त पी ब्र म है , ऐसा कहा गया है ।
ू ं यिददं िकंच। —छा दोग्योपिनष
गायत्री वा इदं सवर्ं भत ३/१२/१
यह िव व जो कुछ भी है , वह सम त गायत्रीमय है ।
निभ नां प्रितप येत गायत्रीं ब्र मणा सह।
सोऽहम मी युपासीत िविधना येन केनिचत ् — यास
गायत्री और ब्र म म िभ नता नहीं है । अत: चाहे िजस िकसी भी प्रकार से ब्र म व पी गायत्री की
उपासना करे ।
गायत्री प्र यग्ब्र मौक्यबोिधका। —शकंर भा य
गायत्री प्र यक्ष अ वैत ब्र म की बोिधका है ।

परब्र म व पा च िनवार्णपददाियनी।
ब्र मतेजोमयी शिक्त तदिध ठत ृ दे वता —— दे वी भागवत क ध ९ अ.१/४२
15
गायत्री मोक्ष दे ने वाली, परमा म व प और ब्र मतेज से यक्
ु त शिक्त है और म त्र की अिध ठात्री है ।
गाय याख्यं ब्र म गाय यनग
ु तं गायत्री मख
ु ेनोक्तम ्॥ —छा दोग्य० शकंर भा य ३/१२/१५
गायत्री व प एवं गायत्री से प्रकािशत होने वाला ब्र म गायत्री नाम से विणर्त है ।
प्रणव या ित या च गाय या ित्रतयेन च।
उपा यं परमं ब्र म आ मा यत्र प्रिति ठत —— तारानाथ कृ० गाय० या० प०ृ २५
प्रणव, या ित और गायत्री इन तीन से परम ब्र म की उपासना करनी चािहए, उस ब्र म म आ मा
ि थत है ।

ते वा एते पचं ब्र मपु षा: वगर् य लोक य वारपा: स य एतानेवं पचं ब्र मपु षान ् वगर् य लोक य
वारपान ् वेदा य कुले वीरो जायते प्रितप यते वगर्लोकम ्। —— छा० ३/१३/६

दय चैत य योित गायत्री प ब्र म के प्राि त थान के प्राण, यान, अपान, समान, उदान ये पाँच
वारपाल ह। इ हीं को वश म करे , िजससे दयि थत गायत्री व प ब्र म की प्राि त हो। उपासना
करने वाला वगर्लोक को प्रा त होता है और उसके कुल म वीर पुत्र या िश य उ प न होता है ।
भिू मर तिरक्षं यौिर य टवक्षरा य टक्षरं ह वा एकं गाय यै पदमेतद ु है वा या एत स यावदे षु ित्रषु लोकेषु
तावद्ध जयित योऽ या एतदे वं पदं वेद। —बह
ृ ० ५/१४/१
भिू म, अ तिरक्ष, यौ- ये तीन गायत्री के प्रथम पाद के आठ अक्षर के बराबर ह। अत: जो गायत्री के
प्रथम पद को भी जान लेता है , वह ित्रलोक िवजयी होता है ।

स वै नैव रे मे, त मादे काकी न रमते, स िवतीयमै छत ्। सहै तावानास। यथा त्रीपम
ु ा सौ संपिर वक्तौ स।
इममेवा मानं वेधा पातय तत: पित च प नी चाभवताम ्। —बह
ृ ० १/४/३

वह ब्र म रमण न कर सका, क्य िक अकेला था। अकेला कोई भी रमण नहीं कर सकता। उसका व प
संयुक्त त्री- पु ष की भाँित था। उसने दस
ू रे की इ छा की तथा अपने संयुक्त प को िवधा िवभक्त
िकया, तब दोन प प नी और पित भाव को प्रा त हुए।
िनगण
ुर् : परमा मा तु वदा यतया ि थत:।
त य भट्टिरकािस वं भव
ु ने विर! भोगदा॥ —शिक्त दशर्न
परमा मा िनगणुर् है और तेरे ही आि त ठहरा हुआ है । तू ही उसकी साम्राज्ञी और भोगदा है ।
शिक्त च शिक्तमद्रपू ा यितरे कं न वा छित।
तादा यमनयोिनर् यं वि नदािहकयोिरव॥ — शिक्त दशर्न

शिक्त, शिक्तमान से कभी पथ


ृ क् नहीं रहती। इन दोन का िन य स ब ध है । जैसे अिग्र और दाहक
शिक्त का िन य पर पर स ब ध है , उसी प्रकार शिक्तमान ् का भी है ।

सदै क वं न भेदोऽि त सवर्दैव ममा य च।


16
योऽसौ साहमहं योऽसौ भेदोऽि त मितिवभ्रमात ्॥ —दे वी भागवत प०
ु ३/६/२
शिक्त का और उस शिक्तमान ् पु ष का सदा स ब ध है , कभी भेद नहीं है । जो वह है , सो म हूँ और
जो म हूँ, सो वह है । यिद भेद है , तो केवल बिु द्ध का भ्रम है ।

जग माता च प्रकृित: पु ष च जगि पता।


गरीयसी ित्रजगतां माता शतगण
ु :ै िपतु:॥ — ब्र० वै० पु० कृ० ज० अ० ५२/३४
संसार की ज मदात्री प्रकृित है और जगत ् का पालनकतार् या रक्षा करने वाला पु ष है । जगत ् म िपता
से माता सौ गन
ु ी अिधक े ठ है ।
इन प्रमाण से प ट हो जाता है िक ब्र म ही गायत्री है और उसकी उपासना ब्र म प्राि त का सव तम
मागर् है ।

महापु ष वारा गायत्री मिहमा का गान


िह द ू धमर् म अनेक मा यताएँ प्रचिलत ह। िविवध बात के स ब ध म पर पर िवरोधी मतभेद भी ह,
पर गायत्री म त्र की मिहमा एक ऐसा त व है िजसे सभी स प्रदाय ने, सभी ऋिषय ने एक मत से
वीकार िकया है । अथवर्वेद १९- ७१ म गायत्री की तुित की गयी है , िजसम उसे आय,ु प्राण, शिक्त,
कीितर्, धन और ब्र मतेज प्रदान करने वाली कहा गया है । िव वािमत्र का कथन है —‘गायत्री के समान
चार वेद म म त्र नहीं है । स पूणर् वेद, यज्ञ, दान, तप गायत्री म त्र की एक कला के समान भी नहीं
ह।’ भगवान ् मनु का कथन है —‘ब्र मजी ने तीन वेद का सार तीन चरण वाला गायत्री म त्र िनकाला
है । गायत्री से बढ़कर पिवत्र करने वाला और कोई म त्र नहीं है । जो मनु य िनयिमत प से तीन वषर्
तक गायत्री जप करता है , वह ई वर को प्रा त करता है । जो िवज दोन स याओं म गायत्री जपता
है , वह वेद पढऩे के फल को प्रा त करता है । अ य कोई साधन करे या न करे , केवल गायत्री जप से भी
िसिद्ध पा सकता है ।

िन य एक हजार जप करने वाला पाप से वैसे ही छूट जाता है , जैसे कचुली से साँप छूट जाता है । जो
िवज गायत्री की उपासना नहीं करता, वह िन दा का पात्र है ।’ योिगराज याज्ञव क्य कहते ह—‘गायत्री
और सम त वेद को तराजू म तौला गया। एक ओर ष अंग समेत वेद और दस
ू री ओर गायत्री, तो
गायत्री का पलड़ा भारी रहा। वेद का सार उपिनष ह, उपिनषद का सार या ितय समेत गायत्री है ।
गायत्री वेद की जननी है , पाप का नाश करने वाली है , इससे अिधक पिवत्र करने वाला अ य कोई
म त्र वगर् और प ृ वी पर नहीं है । गंगा के समान कोई तीथर् नहीं, केशव से े ठ कोई दे व नहीं। गायत्री
से े ठ म त्र न हुआ, न आगे होगा। गायत्री जान लेने वाला सम त िव याओं का वे ता, े ठी और
ोित्रय हो जाता है । जो िवज गायत्री परायण नहीं, वह वेद म पारं गत होते हुए भी शूद्र के समान है ,
अ यत्र िकया हुआ उसका म यथर् है । जो गायत्री नहीं जानता, ऐसा यिक्त ब्रा मण व से युत और
पापयुक्त हो जाता हे पाराशर जी कहते ह—‘सम त जप सक् ू त तथा वेद म त्र म गायत्री म त्र परम

17
े ठ है । वेद और गायत्री की तल
ु ना म गायत्री का पलड़ा भारी है । भिक्तपव
ू क
र् गायत्री का जप करने
वाला मक्
ु त होकर पिवत्र बन जाता है । वेद, शा त्र, परु ाण, इितहास पढ़ लेने पर भी जो गायत्री से हीन है ,
उसे ब्रा मण नहीं समझना चािहए।’ शङ्ख ऋिष का मत है —‘नरक पी समद्रु म िगरते हुए को हाथ
पकड़ कर बचाने वाली गायत्री ही है । उससे उ तम व तु वगर् और प ृ वी पर कोई नहीं है । गायत्री का
ज्ञाता िन:स दे ह वगर् को प्रा त करता है ।’ शौनक ऋिष का मत है —‘अ य उपासनाएँ कर चाहे न कर,
केवल गायत्री जप से ही िवज जीवन मक्
ु त हो जाता है । सांसािरक और पारलौिकक सम त सख
ु को
पाता है । संकट के समय दस हजार जप करने से िवपि त का िनवारण होता है ।’ अित्र मिु न कहते ह—

‘गायत्री आ मा का परम शोधन करने वाली है । उसके प्रताप से किठन दोष और दग


ु ण
ुर् का पिरमाजर्न
हो जाता है । जो मनु य गायत्री त व को भली प्रकार समझ लेता है , उसके िलए इस संसार म कोई
सख
ु शेष नहीं रह जाता।’ महिषर् यास जी कहते ह—

‘िजस प्रकार पु प का सार शहद, दध ृ है , उसी प्रकार सम त वेद का सार गायत्री है । िसद्ध
ू का सार घत
की हुई गायत्री कामधेनु के समान है । गंगा शरीर के पाप को िनमर्ल करती है , गायत्री पी ब्र म- गंगा
से आ मा पिवत्र होती है । जो गायत्री को छोडक़र अ य उपासनाएँ करता है , वह पकवान छोडक़र िभक्षा
माँगने वाले के समान मख
ू र् है । का य सफलता तथा तप की विृ द्ध के िलए गायत्री से े ठ और कुछ
नहीं है ।’ भार वाज ऋिष कहते ह—

‘ब्र म आिद दे वता भी गायत्री का जप करते ह। वह ब्र म साक्षा कार कराने वाली है । अनिु चत काम
करने वाल के दग
ु ण
ुर् गायत्री के कारण छूट जाते ह। गायत्री से रिहत यिक्त शद्र
ू से भी अपिवत्र है ।’
चरक ऋिष कहते ह—‘जो ब्र मचयर्पव
ू क
र् गायत्री की उपासना करता है और आँवले के ताजे फल का
सेवन करता है , वह दीघर्जीवी होता है ।’ नारदजी की उिक्त है —‘गायत्री भिक्त का ही व प है । जहाँ
भिक्त पी गायत्री है , वहाँ ीनारायण का िनवास होने म कोई स दे ह नहीं करना चािहए।’ विश ठ जी
का मत है —‘म दमित, कुमागर्गामी और अि थर मित भी गायत्री के प्रभाव से उ च पद को प्रा त करते
ह, िफर स गित होना िनि चत है । जो पिवत्रता और ि थरतापव
ू क
र् गायत्री की उपासना करते ह, वे
आ मलाभ प्रा त करते ह।’ उपयुक्
र् त अिभमत से िमलते- जल
ु ते अिभमत प्राय: सभी ऋिषय के ह।
इससे प ट है िक कोई ऋिष अ य िवषय म चाहे अपना मतभेद रखते ह , पर गायत्री के बारे म उन
सबम समान द्धा थी और वे सभी अपनी उपासना म उसका प्रथम थान रखते थे। शा त्र म,
धमर्ग्र थ म, मिृ तय म, पुराण म गायत्री की मिहमा तथा साधना पर प्रकाश डालने वाले सह लोक
भरे पड़े ह। इन सबका संग्रह िकया जाए, तो एक बड़ा भारी गायत्री पुराण बन सकता है । वतर्मान
शता दी के आ याि मक तथा दाशर्िनक महापु ष ने भी गायत्री के मह व को उसी प्रकार वीकार
िकया है जैसा िक प्राचीन काल के त वदशीर् ऋिषय ने िकया था।

आज का यग
ु बिु द्ध और तकर् का, प्र यक्षवाद का युग है । इस शता दी के प्रभावशाली गणमा य

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यिक्तय की िवचारधारा केवल धमर्ग्र थ या पर पराओं पर आधािरत नहीं रही है । उ ह ने बिु द्धवाद,
तकर्वाद और प्र यक्षवाद को अपने सभी काय म प्रधान थान िदया है । ऐसे महापु ष को भी गायत्री
त व सब ि टकोण से परखने पर खरा सोना प्रतीत हुआ है । नीचे उनम से कुछ के िवचार दे िखए—
महा मा गाँधी कहते ह

‘गायत्री म त्र का िनर तर जप रोिगय को अ छा करने और आ मा की उ नित के िलए उपयोगी है ।


गायत्री का ि थर िच त और शा त दय से िकया हुआ जप आपि तकाल म संकट को दरू करने का
प्रभाव रखता है ।’ लोकमा य ितलक कहते ह—‘िजस बहुमख
ु ी दासता के ब धन म भारतीय प्रजा जकड़ी
हुई है , उसके िलए आ मा के अ दर प्रकाश उ प न होना चािहए, िजससे सत ् और असत ् का िववेक हो,
कुमागर् को छोडक़र े ठ मागर् पर चलने की प्रेरणा िमले; गायत्री म त्र म यही भावना िव यमान है ।’
महामना मदनमोहन मालवीयजी ने कहा है —‘ऋिषय ने जो अमू य र न हम िदए ह, उनम से एक
अनुपम र न गायत्री है । गायत्री से बुिद्ध पिवत्र होती है , ई वर का प्रकाश आ मा म आता है । इस प्रकाश
से असंख्य आ माओं को भव- ब धन से त्राण िमला है । गायत्री म ई वरपरायणता के भाव उ प न
करने की शिक्त है । साथ ही वह भौितक अभाव को दरू करती है । गायत्री की उपासना ब्रा मण के
िलए तो अ य त आव यक है । जो ब्रा मण गायत्री जप नहीं करता, वह अपने कतर् य धमर् को छोड़ने
का अपराधी होता है ।’ कवी द्र रवी द्रनाथ टै गोर कहते ह

‘भारत वषर् को जगाने वाला जो म त्र है , वह इतना सरल है िक एक ही वास म उसका उ चारण िकया
जा सकता है । वह है - गायत्री म त्र। इस पुनीत म त्र का अ यास करने म िकसी प्रकार के तािकर्क
ऊहापोह, िकसी प्रकार के मतभेद अथवा िकसी प्रकार के बखेड़े की गज
ुं ायश नहीं है ।’ योगी अरिव द ने
कई जगह गायत्री का जप करने का िनदश िकया है । उ ह ने बताया िक गायत्री म ऐसी शिक्त
सि निहत है , जो मह वपूणर् कायर् कर सकती है । उ ह ने कइय को साधना के तौर पर गायत्री का जप
बताया है ।
वामी रामकृ ण परमहं स का उपदे श है —‘म लोग से कहता हूँ िक ल बी साधना करने की
उतनी आव यकता नहीं है । इस छोटी- सी गायत्री की साधना करके दे खो। गायत्री का जप करने से बड़ी-
बड़ी िसिद्धयाँ िमल जाती ह। यह म त्र छोटा है , पर इसकी शिक्त बड़ी भारी है ।’ वामी िववेकान द का
कथन है —‘राजा से वही व तु माँगी जानी चािहए, जो उसके गौरव के अनुकूल हो। परमा मा से माँगने
योग्य व तु स बुिद्ध है । िजस पर परमा मा प्रस न होते ह, उसे स बुिद्ध प्रदान करते ह। स बुिद्ध से सत ्
मागर् पर प्रगित होती है और स कम से सब प्रकार के सख
ु िमलते ह। जो सत ् की ओर बढ़ रहा है , उसे
िकसी प्रकार के सख
ु की कमी नहीं रहती। गायत्री स बिु द्ध का म त्र है , इसिलए उसे म त्र का मक
ु ु टमिण
कहा है ।’ जग गु शंकराचायर् का कथन है —‘गायत्री की मिहमा का वणर्न करना मनु य की साम यर् के
बाहर है । स बिु द्ध का होना इतना बड़ा कायर् है , िजसकी समता संसार के और िकसी काम से नहीं हो
सकती। आ म- प्राि त करने की िद य ि ट िजस बिु द्ध से प्रा त होती है , उसकी प्रेरणा गायत्री वारा
होती है । गायत्री आिद म त्र है । उसका अवतार दिु रत को न ट करने और ऋत के अिभवधर्न के िलए

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हुआ है ।’ वामी रामतीथर् ने कहा है —‘राम को प्रा त करना सबसे बड़ा काम है । गायत्री का अिभप्राय
बिु द्ध को काम- िच से हटाकर राम- िच म लगा दे ना है । िजसकी बिु द्ध पिवत्र होगी,

वही राम को प्रा त कर सकेगा। गायत्री पुकारती है िक बुिद्ध म इतनी पिवत्रता होनी चािहए िक वह
राम को काम से बढक़र समझे।’ महिषर् रमण का उपदे श है —‘योग िव या के अ तगर्त म त्रिव या बड़ी
प्रबल है । म त्र की शिक्त से अ ु सफलताएँ िमलती ह। गायत्री ऐसा म त्र है िजससे आ याि मक
भत
और भौितक दोन प्रकार के लाभ िमलते ह।’ वामी िशवान दजी कहते ब्र ममह ु ू तर् म गायत्री का जप
करने से िच त शुद्ध होता है , दय म िनमर्लता आती है , शरीर नीरोग रहता है , वभाव म नम्रता आती
है , बुिद्ध सू म होने से दरू दिशर्ता बढ़ती है और मरण शिक्त का िवकास होता है । किठन प्रसंग म
गायत्री वारा िद य सहायता िमलती है । उसके वारा आ मदशर्न भी हो सकता है ।’ काली कमली वाले
बाबा िवशुद्धान द जी कहते थे—‘गायत्री ने बहुत को सम
ु ागर् पर लगाया है । कुमागर्गामी मनु य की पहले
तो गायत्री की ओर िच ही नहीं होती, यिद ई वर कृपा से हो जाए, तो िफर वह कुमागर्गामी नहीं रहता।
गायत्री िजसके दय म िनवास करती है , उसका मन ई वर की ओर जाता है । िवषय- िवकार की यथर्ता
उसे भली प्रकार अनभ ु व होने लगती है । कई महा मा गायत्री जप करके परम िसद्ध हुए ह। परमा मा
की शिक्त ही गायत्री है । जो गायत्री के िनकट आता है , वह शद्ध
ु होकर रहता है ।

आ मक याण के िलए मन की शुिद्ध आव यक है । मन की शुिद्ध के िलए गायत्री म त्र अद्भत


ु है । ई वर
प्राि त के िलए गायत्री जप को प्रथम सीढ़ी समझना चािहए।’ दिक्षण भारत के प्रिसद्ध आ मज्ञानी टी०
सु बाराव कहते ह- सिवता नारायण की दै वी प्रकृित को गायत्री कहते ह। आिदशिक्त होने के कारण
इसको गायत्री कहते ह। गीता म इसका वणर्न आिद यवणर्ं कहकर िकया गया है । गायत्री की उपासना
करना योग का सबसे प्रथम अंग है । ी वामी करपात्री जी का कथन है —‘जो गायत्री के अिधकारी ह,
उ ह िन य- िनयिमत प से जप करना चािहए। िवज के िलए गायत्री का जप अ य त आव यक
धमर्कृ य है ।’ गीता धमर् के याख्याता ी वामी िव यान द कहते ह—‘गायत्री बुिद्ध को पिवत्र करती है ।
बुिद्ध की पिवत्रता से बढ़कर जीवन म दस
ू रा लाभ नहीं है , इसिलए गायत्री एक बहुत बड़े लाभ की जननी
है ।’ सर राधाकृ णन कहते ह—‘यिद हम इस सावर्भौिमक प्राथर्ना गायत्री पर िवचार कर, तो हम मालम

होगा िक यह वा तव म िकतना ठोस लाभ दे ती है । गायत्री हम म िफर से जीवन का ोत उ प न
करने वाली आकुल प्राथर्ना है ।’

प्रिसद्ध आयर्समाजी महा मा सवर्दान द का कथन है —‘गायत्री म त्र वारा प्रभु का पूजन सदा से आय
की रीित रही है ।’ आयर् समाज के ज मदाता ऋिष दयान द ने भी उसी शैली का अनुसरण करके
स या का िवधान तथा वेद के वा याय का प्रय न करना बताया है । ऐसा करने से अ तःकरण की
शुिद्ध तथा बिु द्ध िनमर्ल होकर मनु य का जीवन अपने तथा दस
ू र के िलए िहतकर हो जाता है । िजतना
भी इस शुभ कमर् म द्धा और िव वास हो, उतना ही अिव या आिद क्लेश का ास होता है । जो
िजज्ञासु गायत्री म त्र का प्रेम और िनयमपूवक
र् उ चारण करते ह, उनके िलए यह संसार सागर से तरने
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की नाव और आ मप्राि त की सडक़ है । वामी दयान द गायत्री के द्धालु उपासक थे।

ग्वािलयर के राजा साहब से वामीजी ने कहा िक भागवत स ताह की अपेक्षा गायत्री पुर चरण अिधक
े ठ है । जयपुर म सि चदान द, हीरालाल रावल, घोड़लिसंह आिद को गायत्री जप की िविध िसखलाई
थी। मल
ु तान म उपदे श के समय वामी जी ने गायत्री म त्र का उ चारण िकया और कहा िक यह
म त्र सबसे ू यही गु म त्र है । आिदकाल म सभी ऋिष- मिु न इसी का जप
े ठ है । चार वेद का मल
िकया करते थे। िथयोसोिफकल सोसाइटी के एक विर ठ सद य प्रो० आर. ीिनवास का कथन है —‘िह द ू
धािमर्क िवचारधारा म गायत्री को सबसे अिधक शिक्तशाली म त्र माना गया है । उसका अथर् भी बड़ा
ू है । इस म त्र के अनेक अथर् होते ह और िभ न- िभ न प्रकार की िच तविृ त वाले
दरू गामी और गढ़
यिक्तय पर इसका प्रभाव भी िभ न- िभ न प्रकार का होता है । इसम ट और अ ट, उ च और
नीच, मानव और दे व सबको िकसी रह यमय त तु वारा एकित्रत कर लेने की शिक्त पाई जाती है ।

जब इस म त्र का अिधकारी यिक्त गायत्री के अथर् और रह य, मन और दय को एकाग्र करके उसका


शुद्ध उ चारण करता है , तब उसका स ब ध य सय
ू र् म अ तिनर्िहत महान ् चैत य शिक्त से थािपत
हो जाता है । वह मनु य कहीं भी म त्रो चारण करता हो, पर उसके ऊपर तथा आस- पास के वातावरण
म िवरा आ याि मक प्रभाव उ प न हो जाता है । यही प्रभाव एक महान ् आ याि मक आशीवार्द है ।
इ हीं कारण से हमारे पूवज
र् ने गायत्री म त्र की अनुपम शिक्त के िलए उसकी तुितयाँ की ह।’ इस
प्रकार वतर्मान शता दी के अनेक गणमा य बुिद्धवादी महापु ष के अिभमत हमारे पास संगह
ृ ीत ह। उन
पर िवचार करने से इस िन कषर् पर पहुँचना पड़ता है िक गायत्री उपासना कोई अ धिव वास, अ ध
पर परा नहीं है , वरन ् उसके पीछे आ मो नित प्रदान करने वाले ठोस त व का बल है । इस महान ्
शिक्त को अपनाने का िजसने भी प्रय न िकया है , उसे लाभ िमला है । गायत्री साधना कभी िन फल
नहीं जाती।

ित्रिवध द:ु ख का िनवारण


सम त द:ु ख के कारण तीन ह—(१) अज्ञान (२) अशिक्त (३) अभाव। जो इन तीन कारण को िजस
सीमा तक अपने से दरू करने म समथर् होगा, वह उतना ही सख
ु ी बन सकेगा।

अज्ञान के कारण मनु य का ि टकोण दिू षत हो जाता है । वह त वज्ञान से अपिरिचत होने के कारण
उलटा- सीधा सोचता है और उलटे काम करता है , तदनु प उलझन म अिधक फँसता जाता है और
दःु खी होता है । वाथर्, भोग, लोभ, अहं कार, अनुदारता और क्रोध की भावनाएँ मनु य को कतर् य युत
करती ह और वह दरू दिशर्ता को छोड़कर क्षिणक, क्षुद्र एवं हीन बात सोचता है तथा वैसे ही काम करता
है । फल व प उसके िवचार और कायर् पापमय होने लगते ह। पाप का िनि चत पिरणाम दःु ख है ।
दस
ू री ओर अज्ञान के कारण वह अपने और दस
ू रे सांसािरक गितिविधय के मल
ू हे तओ
ु ं को नहीं समझ

21
पाता। फल व प अस भव आशाएँ, त ृ णाएँ, क पनाएँ िकया करता है । इस उलटे ि टकोण के कारण
साधारण- सी बात उसे बड़ी दःु खमय िदखाई दे ती ह, िजसके कारण वह रोता- िच लाता रहता है ।
आ मीय की म ृ य,ु सािथय की िभ न िच, पिरि थितय का उतार- चढ़ाव वाभािवक है , पर अज्ञानी
सोचता है िक म जो चाहता हूँ, वही सदा होता रहे । प्रितकूल बात सामने आये ही नहीं। इस अस भव
आशा के िवपरीत घटनाएँ जब भी घिटत होती ह, तभी वह रोता- िच लाता है । तीसरे अज्ञान के कारण
भल
ू भी अनेक प्रकार की होती ह, समीप थ सिु वधाओं से वि चत रहना पड़ता है , यह भी द:ु ख का हे तु
है । इस प्रकार अनेक द:ु ख मनु य को अज्ञान के कारण प्रा त होते ह।

अशिक्त का अथर् है - िनबर्लता। शारीिरक, मानिसक, सामािजक, बौिद्धक, आि मक िनबर्लता के कारण


मनु य अपने वाभािवक ज मिसद्ध अिधकार का भार अपने क ध पर उठाने म समथर् नहीं होता, फल
व प उसे वि चत रहना पडऩा है । वा य खराब हो, बीमारी ने घेर रखा हो, तो वािद ट भोजन,
पवती त णी, मधुर गीत- वा य, सु दर य िनरथर्क ह। धन- दौलत का कोई कहने लायक सख
ु उसे
नहीं िमल सकता। बौिद्धक िनबर्लता हो तो सािह य, का य, दशर्न, मनन, िच तन का रस प्रा त नहीं हो
सकता। आि मक िनबर्लता हो तो स संग, प्रेम, भिक्त आिद का आ मान द दल
ु भ
र् है । इतना ही नहीं,
िनबर्ल को िमटा डालने के िलए प्रकृित का ‘उ तम की रक्षा’ िसद्धा त काम करता है । कमजोर को
सताने और िमटाने के िलए अनेक त य प्रकट हो जाते ह। िनद ष, भले और सीधे- सादे त व भी
उसके प्रितकूल पड़ते ह। सदीर्, जो बलवान को बल प्रदान करती है , रिसक को रस दे ती है , वह कमजोर
को िनमोिनया, गिठया आिद का कारण बन जाती है । जो त व िनबर्ल के िलए प्राणघातक ह, वे ही
बलवान को सहायक िसद्ध होते ह। बेचारी िनबर्ल बकरी को जंगली जानवर से लेकर जगत ् माता
भवानी दग
ु ार् तक चट कर जाती है और िसंह को व य पशु ही नहीं, बड़े- बड़े सम्राट तक अपने रा य
िच न म धारण करते ह। अशक्त हमेशा दःु ख पाते ह, उनके िलए भले त व भी आशाप्रद िसद्ध नहीं
होते।

अभावज य द:ु ख है - पदाथ का अभाव। अ न, व त्र, जल, मकान, पशु, भिू म, सहायक, िमत्र, धन, औषिध,
पु तक, श त्र, िशक्षक आिद के अभाव म िविवध प्रकार की पीड़ाएँ, किठनाइयाँ भग
ु तनी पड़ती ह, उिचत
आव यकताओं को कुचलकर मन मानकर बैठना पड़ता है और जीवन के मह वपूणर् क्षण को िमट्टी के
मोल न ट करना पड़ता है । योग्य और समथर् यिक्त भी साधन के अभाव म अपने को लज
ु ं-पुजं
अनभ
ु व करते ह और द:ु ख उठाते ह।

गायत्री कामधेनु है — पुराण म उ लेख है िक सरु लोक म दे वताओं के पास कामधेनु गौ है , वह


अमत
ृ ोपम दध
ू दे ती है िजसे पीकर दे वता लोग सदा स तु ट, प्रस न तथा सस
ु प न रहते ह। इस गौ म
यह िवशेषता है िक उसके समीप कोई अपनी कुछ कामना लेकर आता है , तो उसकी इ छा तुर त पूरी
हो जाती है । क पवक्ष
ृ के समान कामधेनु गौ भी अपने िनकट पहुँचने वाल की मनोकामना पूरी करती
है ।
22
यह कामधेनु गौ गायत्री ही है । इस महाशिक्त की जो दे वता, िद य वभाव वाला मनु य उपासना
करता है , वह माता के तन के समान आ याि मक दग्ु ध धारा का पान करता है , उसे िकसी प्रकार
कोई क ट नहीं रहता। आ मा वत: आन द व प है । आन द मग्न रहना उसका प्रमख
ु गण
ु है । द:ु ख
के हटते और िमटते ही वह अपने मल
ू व प म पहुँच जाता है । दे वता वगर् म सदा आनि दत रहते
ू ोक म उसी प्रकार आनि दत रह सकता है , यिद उसके क ट का िनवारण हो जाए।
ह। मनु य भी भल
गायत्री पी कामधेनु मनु य के सभी क ट का समाधान कर दे ती है । जो उसकी पूजा, आराधना,
ृ ोपम दग्ु ध पान करने का आन द लेता है
अिभभावना व उपासना करता है , वह प्रितक्षण माता का अमत
और सम त अज्ञान , अशिक्तय और अभाव के कारण उ प न होने वाले क ट से छुटकारा पाकर
मनोवाँिछत फल प्रा त करता है ।

गायत्री स बुिद्धदायक म त्र है । वह साधक के मन को, अ तःकरण को, मि त क को, िवचार को स मागर्
की ओर प्रेिरत करता है । सत ् त व की विृ द्ध करना उसका प्रधान कायर् है । साधक जब इस महाम त्र
के अथर् पर िवचार करता है , तो वह समझ जाता है िक संसार की सव पिर समिृ द्ध और जीवन की सबसे
बड़ी सफलता ‘स बुिद्ध’ को प्रा त करना है । यह मा यता सु ढ़ होने पर उसकी इ छाशिक्त इसी त व
को प्रा त करने के िलए लालाियत होती है । यह आकांक्षा मन:लोक म एक प्रकार का चु बक व उ प न
करती है । उस चु बक की आकषर्ण शिक्त से िनिखल आकाश के ईथर त व म भ्रमण करने वाली
सतोगण
ु ी िवचारधाराएँ, भावनाएँ और प्रेरणाएँ िखंच- िखंचकर उस थान पर जमा होने लगती ह।

िवचार की चु बक व शिक्त का िवज्ञान सवर्िविदत है । एक जाित के िवचार अपने सजातीय िवचार


को आकाश से खींचते ह। फल व प संसार के मत ृ और जीिवत स पु ष के फैलाए हुए अिवनाशी
संक प जो शू य म सदै व भ्रमण करते रहते ह, गायत्री साधक के पास दै वी वरदान की तरह अनायास
ही आकर जमा होते रहते ह और संिचत पँज
ू ी की भाँित उनका एक बड़ा भ डार जमा हो जाता है ।

शरीर एवं मन म सतोगण


ु की मात्रा बढऩे का फल आ चयर्जनक होता है । थूल ि ट से दे खने पर
यह लाभ न तो समझ पड़ता है , न अनुभव होता है और न उसकी कोई मह ता मालम
ू पड़ती है ; पर जो
सू म शरीर के स ब ध म अिधक जानकारी रखते ह, वे जानते ह िक तम और रज का घटना और
उसके थान पर सत ् त व का बढऩा ऐसा ही है , जैसे शरीर म भरे हुए रोग, मल, िवष आिद िवजातीय
पदाथ का घट जाना और उनके थान पर शद्ध
ु , सजीव, पिरपु ट रक्त और वीयर् की मात्रा बड़े पिरमाण
म बढ़ जाना। ऐसा पिरवतर्न चाहे िकसी की खुली आँख से िदखाई न दे , पर उसका वा य की
उ नित पर जो चम कारी प्रभाव पड़ेगा, उसम कोई स दे ह नहीं िकया जा सकता। इस प्रकार के लाभ
को यिद ई वर प्रद त कहा जाए, तो िकसी को आपि त नहीं होनी चािहए। शरीर का कायाक प करना
एक वैज्ञािनक कायर् है , उसके कारण सिु नि चत लाभ होगा ही। यह लाभ दै वी है या मानवी, इस पर जो
मतभेद हो सकता है , उसका कोई मह व नहीं है । गायत्री वारा सतोगण
ु बढ़ता है और िन नकोिट के

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त व का िनवारण हो जाता है । फल व प साधक का एक सू म कायाक प हो जाता है । इस प्रिक्रया
वारा होने वाले लाभ को वैयिक्तक लाभ कह या दै वी वरदान, इस प्र पर झगड़ने से कुछ लाभ नहीं,
बात एक ही है । कोई कायर् िकसी भी प्रकार हो, उससे ई वरीय स ता पथ
ृ क् नहीं है , इसिलए संसार के
सभी कायर् ई वर इ छा से हुए कहे जा सकते ह। गायत्री साधना वारा होने वाले लाभ वैज्ञािनक आधार
पर हुए भी कहे जा सकते ह और ई वरीय कृपा के आधार पर हुए कहने म भी कोई दोष नहीं।

शरीर म सत ् त व की अिभविृ द्ध होने से शरीरचयार् की गितिविध म काफी हे र- फेर हो जाता है ।


इि द्रय के भोग म भटकने की गित म द हो जाती है । चटोरपन, तरह- तरह के वाद के पदाथर् खाने
के िलए मन ललचाते रहना, बार- बार खाने की इ छा होना, अिधक मात्रा म खा जाना, भ याभ य का
िवचार न रहना, साि वक पदाथ म अ िच और चटपटे , मीठे , गिर ठ पदाथ म िच जैसी बुरी आदत
धीरे - धीरे कम होने लगती ह। हलके, सप
ु ा य, सरस, साि वक भोजन से उसे तिृ त िमलती है और
राजसी, तामसी खा य से घण ु ी िवचार के
ृ ा हो जाती है । इसी प्रकार कामेि द्रय की उ तेजना सतोगण
कारण संयिमत हो जाती है । मन कुमागर् म, यिभचार म, वासना म कम दौड़ता है । ब्र मचयर् के प्रित
द्धा बढ़ती है । फल व प वीयर्- रक्षा का मागर् प्रश त हो जाता है । कामेि द्रय और वादे ि द्रय दो ही
इि द्रयाँ प्रधान ह। इनका संयम होना वा य- रक्षा और शरीर- विृ द्ध का प्रधान हे तु है । इसके साथ-
साथ पिर म, नान, िनद्रा, सोना- जागना, सफाई, सादगी और अ य िदनचयार्एँ भी सतोगण
ु ी हो जाती ह,
िजनके कारण आरोग्य और दीघर् जीवन की जड़ मजबत
ू होती ह |

मानिसक क्षेत्र म स गण
ु की विृ द्ध के कारण काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, म सर, वाथर्, आल य, यसन,
यिभचार, छल, झठ
ू , पाख ड, िच ता, भय, शोक, कदयर् सरीखे दोष कम होने लगते ह। इनकी कमी से
संयम, िनयम, याग, समता, िनरहं कािरता, सादगी, िन कपटता, स यिन ठा, िनभर्यता, िनराल यता, शौयर्,
िववेक, साहस, धैय,र् दया, प्रेम, सेवा, उदारता, कतर् यपरायणता, आि तकता सरीखे स गण
ु बढ़ने लगते ह।
इस मानिसक कायाक प का पिरणाम यह होता है िक दै िनक जीवन म प्राय: िन य ही आते रहने वाले
अनेक द:ु ख का सहज ही समाधान हो जाता है । इि द्रय संयम और संयत िदनचयार् के कारण शारीिरक
रोग का बहुत बड़ा िनराकरण हो जाता है । िववेक जाग्रत ् होते ही अज्ञानज य िच ता, शोक, भय,
आशंका, ममता, हािन आिद के दःु ख से छुटकारा िमल जाता है । ई वर- िव वास के कारण मित ि थर
रहती है और भावी जीवन के बारे म िनि च तता बनी रहती है । धमर् प्रविृ त के कारण पाप, अ याय-
अ याचार नहीं बन पड़ते ह। फल व प राज- द ड, समाज- द ड, आ म- द ड और ई वर- द ड की चोट
से पीिडत
़ नहीं होना पड़ता। सेवा, नम्रता, उदारता, दान, ईमानदारी, लोकिहत आिद गण
ु के कारण दस
ू र
को लाभ पहुँचता है , हािन की आशंका नहीं रहती। इससे प्राय: सभी उनके कृतज्ञ, प्रशंसक, सहायक, भक्त
एवं रक्षक होते ह। पार पिरक सद्भावनाओं के पिरवतर्न से आ मा को त ृ त करने वाले प्रेम और स तोष
नामक रस िदन- िदन अिधक मात्रा म उपल ध होकर जीवन को आन दमय बनाते चलते ह। इस प्रकार
शारीिरक और मानिसक क्षेत्र म सत ् त व की विृ द्ध होने से दोन ओर आन द का ोत उमड़ता है

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और गायत्री का साधक उसम िनमग्न रहकर आ मस तोष का, परमान द का रसा वादन करता रहता
है ।

आ मा ई वर का अंश होने से उन सब शिक्तय को बीज प म िछपाये रहती है जो ई वर म होती है ।


ु ु ताव था म रहती ह और मानिसक ताप के, िवषय- िवकार के, दोष- दग
वे शिक्तयाँ सष ु ण
ुर् के ढे र म
दबी हुई अज्ञान प से पड़ी रहती ह। लोग समझते ह िक हम दीन- हीन, तु छ और अशक्त ह, पर जो
साधक मनोिवकार का पदार् हटाकर िनमर्ल आ म योित के दशर्न करने म समथर् होते ह, वे जानते ह
िक सवर्शिक्तमान ् ई वरीय योित उनकी आ मा म मौजद
ू है और वे परमा मा के स चे उ तरािधकारी
ह। अिग्र के ऊपर से राख हटा दी जाए तो िफर दहकता हुआ अंगार प्रकट हो जाता है । वह अंगार छोटा
होते हुए भी भयंकर अिग्रका ड की संभावना से युक्त होता है । यह पदार् हटते ही तु छ मनु य महान ्
आ मा (महा मा) बन जाता है । चँ िू क आ मा म अनेक ज्ञान- िवज्ञान, साधारण- असाधारण, अद्भत
ु ,
आ चयर्जनक शिक्त के भ डार िछपे पड़े ह, वे खुल जाते ह और वह िसद्ध योगी के प म िदखाई
पड़ता है । िसिद्धयाँ प्रा त करने के िलए बाहर से कुछ लाना नहीं पड़ता, िकसी दे व- दानव की कृपा की
ज रत नहीं पड़ती, केवल अ तःकरण पर पड़े हुए आवरण को हटाना पड़ता है । गायत्री की सतोगण
ु ी
साधना का सयू र् तामिसक अ धकार के पद को हटा दे ता है और आ मा का सहज ई वरीय प प्रकट
हो जाता है । आ मा का यह िनमर्ल प सभी ऋिद्ध- िसिद्धय से पिरपण
ू र् होता है ।

गायत्री
वारा हुई सतोगण
ु की विृ द्ध अनेक प्रकार की आ याि मक और सांसािरक समिृ द्धय की
जननी है । शरीर और मन की शुिद्ध सांसािरक जीवन को अनेक ि टय से सख ु - शाि तमय बनाती है ।
आ मा म िववेक और आ मबल की मात्रा बढ़ जाने से अनेक ऐसी किठनाइयाँ जो दस
ू रे को पवर्त के
समान मालम
ू पड़ती ह, उस आ मवान ् यिक्त के िलए ितनके के समान हलकी बन जाती ह। उसका
कोई काम का नहीं रहता। या तो उसकी इ छा के अनुसार पिरि थित बदल जाती है या वह
पिरि थित के अनुसार अपनी इ छाओं को बदल लेता है । क्लेश का कारण इ छा और पिरि थित के
बीच प्रितकूलता का होना ही तो है । िववेकवान ् इन दोन म से िकसी को अपनाकर संघषर् को टाल दे ता
है और सख
ु पूवक
र् जीवन यतीत करता है । उसके िलए इस प ृ वी पर भी वगीर्य आन द की सरु सिर
बहने लगती है ।

वा तव म सख
ु और आन द का आधार िकसी बाहरी साधन सामग्री पर नहीं, मनु य की
मनःि थित पर रहता है । मन की साधना से जो मनु य एक समय राजसी भोजन और रे शमी ग े-
तिकय से स तु ट नहीं होता, वह िकसी स त के उपदे श से याग और सं यास का त ग्रहण कर लेने
पर जंगल की भिू म को ही सबसे उ तम श या और वन के क दमल
ू फल को सव तम आहार
समझने लगता है । यह सब अ तर मनोभाव और िवचारधारा के बदल जाने से ही पैदा हो जाता है ।
गायत्री बुिद्ध की अिध ठात्री दे वी है और उनसे हम स बुिद्ध की याचना िकया करते ह। अतएव यिद
गायत्री की उपासना के पिरणाम व प हमारे िवचार का तर ऊँचा उठ जाए और मानव जीवन की
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वा तिवकता को समझकर अपनी वतर्मान ि थित म ही आन द का अनभ
ु व करने लग, तो इसम कुछ
भी अस भव नहीं है ।

काफी ल बे समय से हम गायत्री उपासना के प्रचार का प्रय न कर रहे ह, इसिलए अनेक साधक
से हमारा पिरचय है । हजार यिक्तय ने इस िदशा म हमसे पथ- प्रदशर्न और प्रो साहन पाया है । इनम
से जो लोग ढ़तापूवक
र् साधना मागर् पर चलते रहे ह, उनम से अनेक को आ चयर्जनक लाभ हुए ह। वे
इस सू म िववेचना म जाने की इ छा नहीं करते िक िकस प्रकार कुछ वैज्ञािनक िनयम के आधार पर
साधना म का सीधा- सादा फल उ ह िमला। इस िववेचना से उ ह प्राय: अ िच होती है । उनका कहना
है िक भगवती गायत्री की कृपा के प्रित कृतज्ञता ही हमारी भिक्त- भावना को बढ़ाएगी और उसी से हम
अिधक लाभ होगा। उनका यह म त य बहुत हद तक ठीक ही है । द्धा और भिक्त बढ़ाने के िलए
इ टदे व के साधना- व प के प्रित प्रगाढ़ प्रेम, कृतज्ञता, भिक्त और त मयता होनी आव यक है । गायत्री
साधना वारा एक सू म िवज्ञान स मत प्रणाली से लाभ होते ह, यह जानकर भी इस महात व से
आ मस ब ध की ढ़ता करने के िलए कृतज्ञता और भिक्त- भावना का पट
ु अिधकािधक रखना
आव यक है ।

नोट :— युगऋिष ने यह बात सन ् ५० के दशक म िलखी थी। काला तर म यह संख्या लाख का अंक
पार कर चुकी है ।

गायत्री उपेक्षा की भ सर्ना


गायत्री को न जानने वाले अथवा जानने पर भी उसकी उपासना न करने वाले िवज की शा त्रकार ने
कड़ी भ सर्ना की है और उ ह अधोगामी बताया है । इस िन दा म इस बात की चेतावनी दी है िक जो
आल य या अ द्धा के कारण गायत्री साधना म ढील करते ह , उ ह सावधान होकर इस े ठ उपासना
म प्रव ृ त होना चािहए। गाय युपासना िन या सवर्वेदै: समीिरता। यया िवना वध: पातो ब्रा मण याि त
सवर्था॥ -दे वी भागवत कं० १२, अ० ८/८९ गायत्री की उपासना िन य करने योग्य है , ऐसा सम त वेद
म विणर्त है । गायत्री के िबना ब्रा मण की सब प्रकार से अधोगित होती है । सांगां च चतुरोवेदानधी यािप
सवाङ् मयान ्। गायत्रीं यो न जानाित वथ
ृ ा त य पिर म:॥ -योगी याज्ञव क्य स वर और अंग- उपांग
सिहत चार वेद और सम त वाङ्मय पर अिधकार होने पर भी जो गायत्री म त्र को नहीं जानता,
उसका पिर म यथर् है ।

गायत्रीं य: पिर य य चा यम त्रमप


ु ासते। न साफ यमवाप्रोित क पकोिटशतैरिप॥ -ब०ृ स या भा य जो
गायत्री म त्र को छोडक़र अ य म त्र की उपासना करते ह, वे करोड़ ज म म भी सफलता प्रा त नहीं
कर सकते ह। िवहाय तां तु गायत्रीं िव णप
ू ासनत पर:। िशवोपासनतो िवप्रो नरकं याित सवर्था॥ दे वी
भागवत १२/८/९२ गायत्री को याग कर िव णु और िशव की पज
ू ा करने पर भी ब्रा मण नरक म जाता

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है । गाय या रिहतो िवप्र: शद्र
ू ाद यशिु चभर्वेत ्। गायत्री- ब्र म: स पू य तु िवजो तम:॥ -पारा० मिृ त ८/३१
‘गायत्री से रिहत ब्रा मण शद्र
ू से भी अपिवत्र है । गायत्री पी ब्र म त व को जानने वाला सवर्त्र पू य
है ।’ एतयचार् िवसंयक्
ु त: काले च िक्रयया वया। ब्र मक्षित्रयिव योिनगर्हर्णां याित साधष
ु ॥
ु मनु मिृ त अ०
२/८० प्रणव या ितपूवक
र् गायत्री म त्र का जप स याकाल म न करने वाला िवज स जन म िन दा
का पात्र होता है । एवं य तु िवजानाित गायत्रीं ब्रा मण तु स:। अ यथा शूद्रधमार् या वेदानामिप
पारग:॥ यो० याज्ञ० ४/४१- ४२ ‘जो गायत्री को जानता है और जपता है , वह ब्रा मण है ; अ यथा वेद म
पारं गत होने पर भी शूद्र के समान है ।’ अज्ञा वैतां तु गायत्रीं ब्रा म यादे व हीयते। अपवादे न संयक्
ु तो
भवे ितिनदशर्नात ्॥ -यो० याज्ञ० ४/७१ ‘गायत्री को न जानने से ब्रा मण ब्रा मण व से हीन होकर
पापयुक्त हो जाता है , ऐसा ुित म कहा गया है ।’ िकं वेदै: पिठतै: सव: सेितहासपुराणकै:। सांगै:
सािवित्रहीनेन न िवप्र वमवा यते॥ ब०ृ पा० अ० ५/१४ ‘इितहास, पुराण के तथा सम त वेद के पढ़ लेने
पर भी यिद ब्रा मण गायत्री म त्र से हीन हो, तो वह ब्रा मण व को प्रा त नहीं होता।’ न ब्रा मणो
वेदपाठा न शा त्र पठनादिप। दे याि त्रकालम यासा ब्रा मण: या िवजोऽ यथा॥ ब०ृ स या भा य
वेद और शा त्र के पढऩे से ब्रा मण व नहीं हो सकता।

तीन काल म गायत्री की उपासना से ब्रा मण व होता है , अ यथा वह िवज नहीं रहता है । ओंकार
िपत ृ पेण गायत्रीं मातरं तथा। िपतरौ यो न जानाित स िवप्र व यरे तस:॥ ‘ओंकार को िपता और
गायत्री को माता प से जो नहीं जानता, वह पु ष अ य की संतान है , अथार्त ् यिभचार से उ प न है ।’
उपल य च सािवत्रीं नोपित ठित यो िवज:। काले ित्रकालं स ताहात ् स पतेन ् नात्र संशय:॥ ‘गायत्री
म त्र को जानकर जो िवज इसका आचरण नहीं करता, अथार्त ् इसे ित्रकाल म नहीं जपता, उसका
िनि चत पतन हो जाता है ।’ अ तु हर मनु य को आ म- क याण एवं जन- क याण के उ े य से
गायत्री साधना करनी चािहए। गायत्री साधना से सतोगण
ु ी िसिद्धयाँ प्राचीन इितहास, पुराण से पता
चलता है िक पूवर् युग म प्राय: ऋिष- महिषर् गायत्री के आधार पर योग साधना तथा तप चयार् करते थे।
विश ठ, याज्ञव क्य, अित्र, िव वािमत्र, यास, शुकदे व, दधीिच, वा मीिक, यवन, शङ्ख, लोमश, जाबािल,
उ ालक, वैश पायन, दव
ु ार्सा, परशुराम, पुल य, द तात्रेय, अग य, सनतकुमार, क व, शौनक आिद ऋिषय
के जीवन व ृ ता त से प ट है िक उनकी महान ् सफलताओं का मल
ू हे तु गायत्री ही थी। थोड़े ही
समय पूवर् ऐसे अनेक महा मा हुए ह, िज ह ने गायत्री का आ य लेकर अपने आ मबल एवं ब्र मतेज
को प्रकाशवान ् िकया था। उनके इ टदे व, आदशर्, िसद्धा त िभ न भले ही रहे ह , वेदमाता के प्रित सभी
की अन य द्धा थी। उ ह ने प्रारि भक तन पान इसी महाशिक्त का िकया था, िजससे वे इतने
प्रितभा स प न महापु ष बन सके।

शंकराचायर्, समथर् गु रामदास, नरिसंह मेहता, दादद


ू याल, स त ज्ञाने वर, वामी रामान द, गोरखनाथ,
म छी द्रनाथ, हिरदास, तल
ु सीदास, रामानज
ु ाचायर्, माधवाचायर्, रामकृ ण परमहं स, वामी िववेकान द,
रामतीथर्, योगी अरिव द, महिषर् रमण, गौराङ्ग महाप्रभ,ु वामी दयान द, महा मा एकरसान द आिद

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अनेक महा माओं का िवकास गायत्री महाशिक्त के अ चल म ही हुआ था। आयव ु द के सप्र
ु िसद्ध ग्र थ
‘माधव िनदान’ के प्रणेता ी माधवाचायर् ने आर भ म १३ वष तक व ृ दावन म रहकर गायत्री
अनु ठान िकए थे। जब उ ह कुछ भी सफलता न िमली, तो वे िनराश होकर काशी चले गये और एक
अवधूत की सलाह से भैरव की ताि त्रक उपासना करने लगे। कुछ िदन म भैरव प्रस न हुए और पीठ
पीछे से कहने लगे िक ‘वर माँग’। माधवाचायर्जी ने उनसे कहा- ‘आप सामने आइए और दशर्न दीिजए
भैरव ने उ तर िदया- ‘म गायत्री उपासक के सामने नहीं आ सकता।’ इस बात से माधवाचायर् जी को
बड़ा आ चयर् हुआ। उनने कहा- ‘यिद आप गायत्री उपासक के स मख
ु प्रकट नहीं हो सकते, तो मझ
ु े
वरदान क्या दगे? कृपया अब आप केवल यह बता दीिजए िक मेरी अब तक की गायत्री साधना क्य
िन फल हुई?’ भैरव ने उ तर िदया- ‘तु हारे पूवर् ज म के पाप नाश करने म अब तक की साधना लग
गई।

अब तु हारी आ मा िन पाप हो गई है । आगे की साधना करोगे तो सफल होगी।’ यह सन


ु कर
माधवाचायर् िफर व ृ दावन आए और पन
ु : गायत्री साधना प्रार भ कर दी। अ त म उ ह माता के दशर्न
हुए और पण
ू र् िसिद्ध प्रा त हुई। ी महा मा दे विगिर जी के गु िहमालय की एक गफ
ु ा म गायत्री का
जप करते थे। उनकी आयु ४०० वषर् से अिधक थी। वे अपने आसन से उठकर भोजन, शयन, नान या
मल- मत्र
ू यागने तक को कहीं नहीं जाते थे। इन काम की उ ह आव यकता भी नहीं पड़ती थी।
नगराई के पास रामटे करी के घने जंगल म एक हिरहर नाम के महा मा ने गायत्री तप करके िसिद्ध
पाई थी। महा मा जी की कुटी के पास जाने म सात कोस का घना जंगल पड़ता था। उसम सैकड़
िसंह- याघ्र रहते थे। कोई यिक्त महा मा जी के दशर्न को जाता, तो उसे दो चार याघ्र से भट
अव य होती। ‘हिरहर बाबा के दशर्न को जा रहे ह’ इतना कह दे ने मात्र से िहंसक पशु रा ता छोड़कर
चले जाते थे। ल मणगढ़ म िव वनाथ गो वामी नामक एक प्रिसद्ध गायत्री उपासक हुए ह। उनके
जीवन का अिधकांश भाग गायत्री उपासना म ही यतीत हुआ है ।

उनके आशीवार्द से सीकर का एक वीदावत पिरवार गरीबी से छुटकारा पाकर बड़ा ही समिृ द्धशाली एवं
स प न बना। इस पिरवार के लोग अब तक उन पि डत जी की समािध पर अपने ब च का मु डन
कराते ह। जयपुर िरयासत के जौन नामक गाँव म पं. हरराय नामक नैि ठक गायत्री उपासक रहते थे।
उनको अपनी म ृ यु का पहले से ही पता चल गया था। उनने सब पिरजन को बुलाकर धािमर्क उपदे श
िदए और बोलते, बातचीत करते तथा गायत्री म त्र उ चारण करते हुए प्राण याग िदए। जन ू ागढ़ के एक
िव वान ् पं. मिणशंकर भट्ट पहले यजमान के िलए गायत्री अनु ठान दिक्षणा लेकर करते थे। जब इससे
अनेक को भारी लाभ होते दे खा, तो उ ह ने दस
ू र के अनु ठान छोड़ िदए और अपना सारा जीवन
गायत्री उपासना म लगा िदया। उनका शेष जीवन बहुत ही शाि त से बीता। जयपरु के बढ़ ू ा दे वल ग्राम
म िव णद ु ासजी का ज म हुआ। वे आजीवन ब्र मचारी रहे । उ ह ने पु कर म एक कुटी बनाकर गायत्री
की घोर तप या की थी, फल व प उ ह अनेक िसिद्धयाँ प्रा त हो गयी थीं। बड़े- बड़े राजा उनकी कुटी

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की धल
ू म तक पर रखने लगे। जयपरु और जोधपरु के महाराजा अनेक बार उनकी कुटी पर उपि थत
हुए। महाराणा उदयपरु तो अ य त आग्रह करके उ ह अपनी राजधानी म ले आए और उनके परु चरण
की शाही तैयारी के साथ अपने यहाँ पण
ू ार्हुित कराई। ब्र मचारीजी के स ब ध म अनेक चम कारी
कथाएँ प्रिसद्ध ह। खातौली से ७ मील दरू धौकले वर म मगनान द नामक एक गायत्री िसद्ध महापु ष
रहते थे। उनके आशीवार्द से खातौली के िठकानेदार को उनकी छीनी हुई जागीर वािपस िमल गयी।
रतनगढ़ के पं. भद
ू रमल नामक एक िव वान ् ब्रा मण गायत्री के अन य उपासक हुए ह। वे स वत ्
१९६६ म काशी आ गए थे और अ त तक वहीं रहे ।

अपनी म ृ यु की पूवर् जानकारी होने से उनने िवशाल धािमर्क आयोजन िकया था और साधना करते हुए
आषाढ़ सद ु ी ५ को शरीर याग िकया। उनका आशीवार्द पाने वाले बहुत से सामा य मनु य आज भी
लखपित बने हुए ह। अलवर रा य के अ तगर्त एक ग्राम के सामा य पिरवार म पैदा हुए एक स जन
को िकसी कारणवश वैराग्य हो गया। वे मथुरा आए और एक टीले पर रहकर साधना करने लगे। एक
करोड़ गायत्री जप करने के अन तर उ ह गायत्री का साक्षा कार हुआ और वे िसद्ध हो गए। वह थान
गायत्री टीले के नाम से प्रिसद्ध है । वहाँ एक छोटा सा मि दर है , िजसम गायत्री की सु दर मिू तर् थािपत
ू ी िसद्ध था। सदा मौन रहते थे। उनके आशीवार्द से अनेक का क याण हुआ।
है । उनका नाम बट
धौलपरु अलवर के राजा उनके प्रित बड़ी द्धा रखते थे। आयर् समाज के सं थापक ी वामी
दयान दजी के गु प्रज्ञाचक्षु वामी िवरजान द सर वती ने बड़ी तप चयार्पव
ू क
र् गंगा तीर पर रहकर
तीन वषर् तक जप िकया था। इस अ धे सं यासी ने अपने तपोबल से अगाध िव या और अलौिकक
ब्र मतेज प्रा त िकया था। मा धाता ओंकारे वर मि दर के पीछे गफ
ु ा म एक महा मा गायत्री जप करते
थे। म ृ यु के समय उनके पिरवार के यिक्त उपि थत थे। पिरवार के एक बालक ने प्राथर्ना की िक
‘मेरी बुिद्ध म द है , मझ
ु े िव या नहीं आती, कुछ आशीवार्द दे जाइए िजससे मेरा दोष दरू हो जाए।’
महा मा जी ने बालक को समीप बुलाकर उसकी जीभ पर कम डल से थोड़ा- सा जल डाला और
आशीवार्द िदया िक ‘तू पूणर् िव वान ् हो जाएगा।’ आगे चलकर यह बालक असाधारण प्रितभाशाली
िव वान ् हुआ और इ दौर म ओंकार जोशी के नाम से प्रिसिद्ध पायी। इ दौर नरे श उनसे इतने प्रभािवत
थे िक सबेरे घूमने जाते समय उनके घर से उ ह साथ ले जाते थे।

च दे ल क्षेत्र िनवासी गु त योगे वर ी उद्धडज़ी जोशी एक िसद्ध पु ष हो गये। गायत्री उपासना के


फल व प उनकी कु डिलनी जाग्रत ् हुई और वे परम िसद्ध बन गए। उनकी कृपा से कई मनु य के
प्राण बचे थे, कई को धन प्रा त हुआ था, कई आपि तय से छूटे थे। उनकी भिव यवािणयाँ सदा स य
होती थीं। एक यिक्त ने उनकी परीक्षा करने तथा उपहास करने का द ु साहस िकया तो वह कोढ़ी हो
गया। बड़ौदा के पास ज बस
ु र के िनवासी ी मक
ु ु टराम जी महाराज गायत्री उपासना म परम िसिद्ध
प्रा त कर ली ह। प्राय: आठ घ टे िन य जप करते थे। उ ह अनेक िसिद्धयाँ प्रा त थीं। दरू दे श के
समाचार वे ऐसे स चे बताते थे मानो सब हाल आँख से दे ख रहे ह । पीछे परीक्षा करने पर वे

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समाचार सोलह आने सच िनकलते। उ ह ने गज
ु राती की एक दो- कक्षा तक पढऩे की कूली िशक्षा पाई
थी, तो भी वे संसार की सभी भाषाओं को भली प्रकार बोल और समझ लेते थे। िवदे शी लोग उनके पास
आकर अपनी भाषा म घ ट तक वातार्लाप करते थे। योग, योितष, वै यक, त त्र तथा धमर् शा त्र का
उ ह पूरा- पूरा ज्ञान था। बड़े- बड़े पि डत उनसे अपनी गिु थयाँ सल
ु झवाने आते थे। उ ह ने िकतनी ही
ऐसी करामात िदखाई थीं, िजनके कारण लोग की उन पर अटूट द्धा हो गई थी। बरसोड़ा म एक
ऋिषराज ने सात वषर् तक िनराहार रहकर गायत्री पुर चरण िकए थे। उनकी वाणी िसद्ध थी। जो कह
दे ते थे, वही होता था। मािसक क याण पित्रका के स त अंक म हरे राम नामक एक ब्र मचारी का िजक्र
छपा है । यह ब्र मचारी गंगाजी के भीतर उठी हुई एक टे करी पर रहते थे और गायत्री जी की आराधना
करते थे।

उनका ब्र मतेज अवणर्नीय था। सारा शरीर तेज से दमकता था। उ ह ने अपनी िसिद्धय से अनेक के
द:ु ख दरू िकए थे। दे व प्रयाग के िव णद
ु त जी वानप्र थी ने चा द्रायण त के साथ सवा लक्ष जप के
सात अनु ठान िकये थे। इससे उनका आ मबल बहुत बढ़ गया था। उ ह िकतनी ही िसिद्धयाँ िमल गयी
थीं। लोग को जब पता चला, तो अपने कायर् िसद्ध कराने के िलए उनके पास दरू - दरू से भी आने लगे।
वानप्र थी जी इस खेल म उलझ गये। रोज- रोज बहुत खचर् करने से उनका शिक्त भ डार चक ु गया।
पीछे उ ह बड़ा प चा ताप हुआ और िफर म ृ यक
ु ाल तक एका त साधना करते रहे । द्र प्रयाग के
वामी िनमर्लान द सं यासी को गायत्री साधना से भगवती के िद य दशर्न और ई वर साक्षा कार का
लाभ प्रा त हुआ था। इससे उ ह असीम तिृ त हुई। िबठूर के पास खाँडरे ाव नामक एक वयोवद्ध
ृ तप वी
एक िवशाल िखरनी के पेड़ के नीचे गायत्री साधना करते थे। एक बार उ ह ने िवरा गायत्री यज्ञ का
ब्र मभोज िकया। िदन भर हजार आदिमय की पंगत होती रहीं। रात नौ बजे भोजन समा त हो गया।
भोजन अभी कई हजार आदिमय का होना शेष था। खाँडरे ावजी को सच
ू ना दी गयी तो उ ह ने आज्ञा
दी, गङ्गा जी म से चार कन तर पानी भरकर लाओ और उसम पूिडय़ाँ िसकने दो। ऐसा ही िकया
गया। पूिडय़ाँ घी के समान वािद ट थीं। दस
ू रे िदन चार कन तर घी मँगवाकर गंगाजी म डलवा िदया।
काशी म िजस समय बाबू िशवप्रसाद जी गु त वारा ‘भारत माता मि दर’ का िशलारोपण समारोह
िकया गया था, उस समय २०० िदन तक का एक बड़ा महायज्ञ िकया गया, िजसम िव वान वारा २०
लाख गायत्री जप िकया गया। यज्ञ की पूणार्हुित के िदन पास म लगे पेड़ के सख
ू े प ते िफर से हरे हो
गये थे और एक पेड़ म तो असमय ही फल भी आ गए थे।

इस अवसर पर पं. मदनमोहन मालवीय, राजा मोतीच द्र, हाई कोटर् के जज ी क है यालाल और अ य
अनेक गणमा य यिक्त उपि थत थे, िज ह ने यह घटना अपनी आँख से दे खी और गायत्री के प्रभाव
को वयं अनभ ु व िकया। गढ़वाल के महा मा गोिव दान द अ य त िवषधर साँप के काटे हुए रोिगय
की प्राण रक्षा करने के िलए प्रिसद्ध थे। उनका कहना था िक म गायत्री जप से ही सब रोिगय को ठीक
करता हूँ। इसी प्रकार सम तीपरु के एक स प न यिक्त शोभान साहू भी गायत्री म त्र से अ य त

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जहरीले िब छुओं और पागल कु ते के काटे तक को चंगा कर दे ते थे। अनेक साि वक साधक केवल
गायत्री म त्र से अिभमि त्रत जल वारा बड़े- बड़े रोग को दरू कर दे ते ह। वगीर्य पि डत मोतीलालजी
नेह का जीवन उस समय के वातावरण के कारण य यिप एक िभ न कतर् य क्षेत्र म यतीत हुआ था,
पर जीवन के अि तम समय म उनको गायत्री का यान आया और उसे जपते हुए ही उ ह ने जीवन
लीला समा त की। इससे िविदत होता है िक गायत्री का सं कार शीघ्र ही समा त नहीं होता, वरन ्
आगामी पीिढय़ तक भी प्रभाव डालता रहता है ।

पि डतजी के पूवज
र् धािमर्क प्रविृ त के गायत्री उपासक थे। उसी के प्रभाव से उनको भी म ृ युकाल जैसे
मह व के अवसर पर उसका यान आ गया। अहमदाबाद के ी डा यभाई रामच द्र मेहता गायत्री के
द्धालु उपासक और प्रचारक ह। इनकी आयु ८० वषर् है । शरीर और मन म सतोगण
ु की अिधकता होने
से वह सभी गण
ु उनम पिरलिक्षत होते ह, जो महा माओं म पाए जाते ह। दीनवा के वामी मनोहर
दासजी ने गायत्री के कई पुर चरण िकए ह। उनका कहना है िक इस महासाधना से मझ
ु े इतना अिधक
लाभ हुआ है िक उसे प्रकट करने की उसी प्रकार इ छा नहीं होती, जैसे िक लोभी को अपना धन प्रकट
करने म संकोच होता है । हटा के ी रमेशच द्र दब
ु े को गायत्री साधना के कारण कई बार बड़े अनभ
ु व
हुए ह, िजनके कारण उनकी िन ठा म विृ द्ध हुई है । पाटन के ी जटाशंकर न दी की आयु ७७ वषर् से
अिधक है । वे गत पचास वष से गायत्री उपासना कर रहे ह। कुिवचार और कुसं कार से मिु क्त एवं
दै वी त व की अिधकता का लाभ उ ह ने प्रा त िकया है और उसे वे जीवन की प्रधान सफलता मानते
ह। व ृ दावन के कािठया बाबा, उिडय़ा बाबा, प्रज्ञाचक्षु वामी गंगे वरान द जी गायत्री उपासना से आर भ
करके अपनी साधना को आगे बढ़ाने म समथर् हुए थे। वै णव स प्रदाय के प्राय: सभी आचायर् गायत्री
की साधना पर िवशेष जोर दे ते ह। नवाबगंज के पि डत बलभद्र जी ब्र मचारी, सहारनपुर िजले के
ी वामी दे वदशर्नजी, बुल दशहर, उ० प्र० के पिर ाजक महा मा योगान दजी, ब्र मिन ठ ी वामी
ब्र मिषर्दासजी उदासीन, िबहार प्रा त के महा मा अनासक्तजी, यज्ञाचायर् पं. जग नाथ शा त्री, राजगढ़ के
महा मा हिर ऊँ तत ् सत ् आिद िकतने ही स त महा मा गायत्री उपासना म पूणर् मनोयोग के साथ
संलग्न रहे ह। अनेक गह
ृ थ भी तप वी जीवन यतीत करते हुए महान ् साधना म प्रव ृ त ह।

इस मागर् पर चलते हुए उ ह मह वपूणर् आ याि मक सफलताएँ प्रा त हो रही ह। हमने वयं अपने
जीवन के आर भ काल म ही गायत्री की उपासना की है और वह हमारा जीवन आधार ही बन गयी है ।
दोष , िवकार , कषाय- क मष , कुिवचार और कुसं कार को हटा दे ने म जो थोड़ी- सी सफलता िमली है ,
यह ेय इसी साधना को है । ब्रा मण व की ब्रा मी भावनाओं की, धमर्परायणता की, सेवा, वा याय,
संयम और तप चयार् की जो यि कि चत ् प्रविृ तयाँ ह, वे माता की कृपा के कारण ही ह। अनेक बार
िवपि तय से उसने बचाया है और अ धकार म मागर् िदखाया है । आपबीती इन घटनाओं का वणर्न
बहुत िव ततृ है , िजसके कारण हमारी द्धा िदन- िदन माता के चरण म बढ़ती चली आयी है । इन
वणर्न के िलए इन पंिक्तय म थान नहीं है । हमारे प्रय न और प्रो साहन से िजन स जन ने

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वेदमाता की उपासना की है , उनम आ मशिु द्ध, पाप से घण
ृ ा, स मागर् म द्धा, सतोगण
ु की विृ द्ध, संयम,
पिवत्रता, आि तकता, जाग कता एवं धमर्परायणता की प्रविृ तय को बढ़ते हुए पाया है । उ ह अ य
प्रारि भक लाभ चाहे हुए ह या न हुए ह , पर आि मक लाभ हर एक को िनि चत प से हुए ह।
िववेकपूवक र् िवचार िकया जाय, तो यह लाभ इतने महान ह िक इनके ऊपर धन- स पि त की छोटी-
मोटी सफलताओं को योछावर करके फका जा सकता है । इसिलए हम अपने पाठक से आग्रहपूवक
र्
अनुरोध करगे िक वे गायत्री की उपासना करके उसके वारा होने वाले लाभ का चम कार दे ख। जो
ु , िववेक, स िवचार और स कम की ओर
वेदमाता की शरण ग्रहण करते ह, अ तःकरण म सतोगण
उनकी असाधारण प्रविृ त जाग्रत ् होती है । यह आ म- जागरण लौिकक और पारलौिकक, सांसािरक और
आि मक सभी प्रकार की सफलताओं का दाता है ।

गायत्री साधना से ी समिृ द्ध और सफलता


गायत्री ित्रगण
ु ा मक है । उसकी उपासना से जहाँ सतोगण
ु बढ़ता है , वहाँ क याणकारक एवं उपयोगी
रजोगण
ु की भी अिभविृ द्ध होती है ।

ु ी आ मबल बढऩे से मनु य की गु त शिक्तयाँ जाग्रत ् होती ह, जो सांसािरक जीवन के संघषर् म


रजोगण
अनुकूल प्रितिक्रया उ प न करती ह। उ साह, साहस, फूितर्, िनराल यता, आशा, दरू दिशर्ता, ती बुिद्ध,
अवसर की पहचान, वाणी मंव माधुय,र् यिक्त व म आकषर्ण, वभाव म िमलनसारी जैसी अनेक छोटी-
बड़ी िवशेषताएँ उ नत तथा िवकिसत होती ह, िजसके कारण ‘ ीं’ त व का उपासक भीतर ही भीतर
एक नये ढाँचे म ढलता रहता है । उसम ऐसे पिरवतर्न हो जाते ह, िजनके कारण साधारण यिक्त भी
धनी, समद्ध
ृ हो सकता है ।

गायत्री उपासक म ऐसी त्रिु टयाँ, जो मनु य को द:ु खी बनाती ह, न ट होकर वे िवशेषताएँ उ प न होती
ह, िजनके कारण मनु य क्रमश: समिृ द्ध, स प नता और उ नित की ओर अग्रसर होता है । गायत्री अपने
साधक की झोली म सोने की अशिफर् याँ नहीं उड़ेलती- यह ठीक है , पर तु यह भी ठीक है िक वह साधक
म उन िवशेषताओं को उ प न करती है , िजनके कारण वह अभावग्र त और दीन- हीन नहीं रह सकता।
इस प्रकार के अनेक उदाहरण हमारी जानकारी म ह। उनम से कुछ नीचे िदये जाते ह।

िट पणी—यहाँ ग्र थ रचना के समय (सन ् ५० के दशक) तक जड़


ु े साधक म से कुछ के िववरण भर
िदए गए ह। युगऋिष के जीवनकाल म उनके साि न य म हुई साधना से प्रा त सफलताओं का यिद
संकलन िकया जाय, तो इस ग्र थ के आकार के कई भाग प्रकािशत करने पड़गे। —प्रकाशक
ग्राम हरर् ई, िजला िछ दवाड़ा के पं. भरू े लाल ब्र मचारी िलखते ह—‘रोजी म उ तरो तर विृ द्ध होने के कारण
म धन- धा य से पिरपण
ू र् हूँ। िजस कायर् म हाथ डालता हूँ, उसी म सफलता िमलती है । अनेक तरह के
संकट का िनवारण आप ही आप हो जाता है , इतना तो अनभ ु व मेरे खद
ु का गायत्री म त्र जपने का

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है ।’

झाँसी के पं. ल मीका त झा, याकरण, सािह याचायर् िलखते ह—‘बचपन से ही मझ


ु े गायत्री पर द्धा हो
गयी थी और उसी समय से एक हजार म त्र का िन य जप करता हूँ। इसी के प्रताप से मने
सािह याचायर्, याकरणाचायर्, सािह यर न तथा वेद- शात्री आिद परीक्षाएँ उ तीणर् की तथा सं कृत कॉलेज
झाँसी का िप्रि सपल बना। मने एक सेठ के १६ वषीर्य मरणास न पुत्र के प्राण गायत्री जप के प्रभाव से
बचते हुए दे खे ह, िजससे मेरी द्धा और भी स ढ़ हो गयी है ।’

व ृ दावन के पं. तुलसीदास शमार् िलखते ह—‘लगभग दस वषर् हुए ह गे, ी उिडय़ा बाबा की प्रेरणा से
हाथरस िनवासी लाला गणेशीलाल ने गंगा िकनारे कणर्वास म २४ लक्ष गायत्री का अनु ठान कराया था।
उसी समय से गणेशीलाल जी की आिथर्क दशा िदन- िदन ऊँची उठती गयी और अब उनकी प्रित ठा-
स प नता तब से चौगन
ु ी है ।’

प्रतापगढ़ के पं. हरनारायण शमार् िलखते ह—‘मेरे एक िनकट स ब धी ने काशी म एक महा मा से धन


प्राि त का उपाय पूछा। महा मा ने उपदे श िदया िक प्रात:काल चार बजे उठकर शौचािद से िनव ृ त
होकर नान- स या के बाद खड़े होकर िन य एक हजार गायत्री म त्र का जप िकया करो। उसने ऐसा
ही िकया, फल व प उसका आिथर्क क ट दरू हो गया।’

प्रयाग िजले के िछतौना ग्राम िनवासी पं. दे वनारायण जी दे वभाषा के असाधारण िव वान ् और गायत्री के
अन य उपासक ह। तीस वषर् की आयु तक अ ययन करने के उपरा त उ ह ने गह
ृ था म म प्रवेश
िकया। त्री बड़ी सश
ु ील एवं पितभक्त िमली। िववाह के बहुत काल बीत जाने पर भी जब कोई स तान
नहीं हुई, तो वह अपने आपको ब य व से कलंिकत समझकर द:ु खी रहने लगी। पि डत जी ने उसकी
इ छा जानकर सवा लक्ष जप का अनु ठान िकया। कुछ ही िदन म उनके एक प्रितभावान मेधावी पुत्र
उ प न हुआ।

प्रयाग के पास जमन


ु ीपरु ग्राम म रामिनिध शा त्री नामक एक िव वान ् ब्रा मण रहते थे। वे अ य त
िनधर्न थे, पर गायत्री साधना म उनकी बड़ी त परता थी। एक बार नौ िदन तक उपवास करके उ ह ने
नवा न परु चरण िकया। परु चरण के अि तम िदन अधर्राित्र को भगवती गायत्री ने बड़े िद य व प
म उ ह दशर्न िदया और कहा, ‘तु हारे इस घर म अमक
ु थान पर अशिफर् य से भरा घड़ा रखा है , उसे
िनकालकर अपनी दिरद्रता दरू करो।’ पि डत जी ने घड़ा िनकाला और वे िनधर्न से धनपित हो गये।

बड़ौदा के वकील रामच द्र कालीशंकर पाठक आर भ म १० पये मािसक की एक छोटी नौकरी करते
थे। उस समय उ ह ने एक गायत्री पुर चरण िकया, तब से उनकी िच िव या ययन म लगी और धीरे -
धीरे प्रिसद्ध कानूनदा हो गये। उनकी आमदनी भी कई गन
ु ी बढ़ गयी।

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गज
ु रात के मधस
ु द
ू न वामी का नाम सं यास लेने के पहले मायाशंकर दयाशंकर प या था। वे िसद्धपरु
म रहते थे। आर भ म वे प चीस पये मािसक के नौकर थे। उ ह ने हर रोज एक हजार गायत्री जप
से आर भ करके चार हजार तक बढ़ाया। फल व प उनकी पदविृ द्ध हुई। वे रा य रे लवे के अिस टै ट
ट्रै िफक सप
ु िर टे डे ट के ओहदे तक पहुँचे। उस समय उनका वेतन तीन सौ पया मािसक था।
उ तराव था म उ ह ने सं यास ले िलया था।

मा डूक्य उपिनष पर कािरका िलखने वाले िव वान ् ी गौड़पाद का ज म उनके िपता के उपवास
पूवक
र् सात िदन तक गायत्री जप करने के फल व प हुआ था।

सािह यकार पं. वािरकाप्रसाद चतुवदी पहले इलाहाबाद म िसिवल सजर्न िवभाग म है डक्लकर् थे।
उ ह ने वारे न है ि टं ग्ज का जीवन चिरत्र िलखा, जो राजद्रोहा मक समझा गया और नौकरी से हाथ धोना
पड़ा। बड़ा कुटु ब और जीिवका का साधन न रहना िच ता की बात थी। उ ह ने तपूवक
र् गायत्री का
अनु ठान िकया। इस तप या के फल व प उ ह पु तक लेखन का वत त्र कायर् िमल गया और
सािह य रचना के क्षेत्र म उ ह प्रिसिद्ध प्रा त हुई। उनकी आिथर्क ि थित सध
ु र गयी। तब से उ ह ने
पयार् त अनु ठान करने का अपना िनयम बनाया और िन य जप िकया करते थे।

वगीर्य पं. बालकृ ण भट्ट िह दी के प्रिसद्ध सािह यकार थे। वे िन य गायत्री के ५०० म त्र जपते थे और
कहा करते थे िक गायत्री जप करने वाल को कभी कोई कमी नहीं रहती। भट्टजी सदा िव या, धन, जन
से भरे परू े रहे ।

प्रयाग िव विव यालय के प्रोफेसर क्षेत्रेशच द्र चट्टोपा याय का भानजा उनके यहाँ रहकर पढ़ता था।
इ टर परीक्षा के दौरान लौिजक के पच के िदन वह बहुत द:ु खी था, क्य िक उस िवषय म वह बालक
क चा था। प्रोफेसर साहब ने उसे प्रो साहन दे कर परीक्षा दे ने भेजा और वयं छुट्टी लेकर आसन
जमाकर गायत्री जपने लगे। जब तक बालक लौटा, तब तक बराबर जप करते रहे । बालक ने बताया,
उसका वह पचार् बहुत ही अ छा हुआ और िलखते समय उसे लगता था मानो उसकी कलम पकडक़र
कोई िलखाता चलता है । वह बहुत अ छे न बर से उ तीणर् हुआ।

इलाहाबाद के पं. प्रताप नारायण चतव


ु दी की नौकरी छूट गई। बहुत तलाश करने पर भी जब कोई जगह
न िमली, तो उ ह ने अपने िपता के आदे शानुसार गायत्री का सवा लक्ष जप िकया। समा त होने पर
उसी पायेिनयर प्रेस म पहली नौकरी की अपेक्षा ढाई गन
ु े वेतन की जगह िमल गयी, जहाँ िक पहले
उ ह िकतनी ही बार मना कर िदया गया था।

कलक ता के शा. मोडक़मल केजड़ीवाल आर भ म जोधपुर रा य के एक गाँव म १२ पये मािसक के


अ यापक थे। एक छोटी- सी पु तक से आकिषर्त होकर उ ह ने गायत्री जपने का िन य िनयम बनाया।
जप करते- करते अचानक उनके मन म फुरणा हुई िक मझ
ु े कलक ता जाना चािहए, वहाँ मेरी आिथर्क
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उ नित होगी। िनदान वे कलक ता पहुँचे। वहाँ यापािरक क्षेत्र म वे नौकरी करते रहे और द्धापव
ू क
र्
गायत्री आराधना करते रहे । ई के यापार से उ ह भारी लाभ हुआ और थोड़े ही िदन म लखपित बन
गए।

बुलढाना के
ी बद्रीप्रसाद वमार् बहुत िनबर्ल आिथर्क ि थित के आदमी थे। ५० पये मािसक म उ ह
अपने आठ आदमी के पिरवार का गज ु ारा करना पड़ता था। क या िववाह योग्य हो गई। अ छे घर म
िववाह करने के िलए हजार पया दहे ज की आव यकता थी। वे द:ु खी रहते और गायत्री माता के
चरण म आँसू बहाते रहते। अचानक ऐसा संयोग हुआ िक एक िड टी कलक्टर के लडक़े की बरात
क या पक्ष वाल से झगड़ा करके िबना याहे वापस लौट रही थी। िड टी साहब वमार्जी को जानते थे।
रा ते म उनका गाँव पड़ता था। उ ह ने वमार्जी के पास प्र ताव भेजा िक अपनी क या का िववाह आज
ही हमारे लडक़े से कर द। वमार्जी राजी हो गये। एम. ए. पास लडक़ा जो नहर िवभाग म ६०० पये
मािसक का इ जीिनयर था, उससे उनकी क या की शादी कुल १५० पये म हो गयी।

दे हरादन
ू का बस त कुमार नामक छात्र एक वषर् मैिट्रक म फेल हो चुका था। दस
ू री वषर् भी पास होने
की आशा न थी। उसने गायत्री उपासना की और परीक्षा म अ छे न बर से पास हुआ।

स भलपुर के बाबू कौशलिकशोर माहे वरी असवणर् माता- िपता से उ प न होने के कारण जाित से
बिह कृत थे। िववाह न होने के कारण उनका िच त बड़ा द:ु खी रहता था। गायत्री माता से अपना द:ु ख
रोकर िच त हलका कर लेते थे। २६ वषर् की आयु म उनकी शादी एक सिु शिक्षत उ च घराने की
अ य त पवती तथा सवर्गण
ु स प न क या के साथ हुई। माहे वरी जी के अ य भाई- बिहन की
शादी भी उ च तथा स प न पिरवार म हुई। जाित बिह कार के अपमान से उनका पिरवार पण ू त
र् या
मक्
ु त हो गया।

बहालपुर के राधाब लभ ितवारी के िववाह से १६ वषर् बीत जाने पर भी स तान न हुई। उ ह ने गायत्री
उपासना का आ य िलया। फल व प उ ह एक क या और एक पुत्र की प्राि त हुई।

प्राचीनकाल म दशरथजी को गायत्री वारा पत्र


ु ेि ट यज्ञ करने पर और राजा िदलीप को गु विश ठ के
आ म म गायत्री उपासना करते हुए गो- दग्ु ध का क प करने पर सस ु तित की प्राि त हुई थी। राजा
अ वपित ने गायत्री यज्ञ करके स तान पाई थी। कु ती ने िबना पु ष संभोग के गायत्री म त्र वारा
सय
ू र् को आकिषर्त करके कणर् को उ प न िकया था।

िद ली म नई सडक़ पर ी बुद्धूराम भट्ट नामक एक दक


ु ानदार ह। इनके ४५ वषर् की आयु तक कोई
स तान न हुई थी। गायत्री उपासना से उ ह बड़ा ही सु दर तथा होनहार पुत्र प्रा त हुआ।

गु कुल व ृ दावन के एक कायर्कतार् सद


ु ामा िम के यहाँ १४ वषर् से कोई बालक ज मा नहीं था। गायत्री

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परु चरण करने से उनके यहाँ एक पत्र
ु उ प न हुआ और वंश चलने तथा घर के िकवाड़ खल
ु े रहने की
िच ता दरू हो गयी।

सरसई के जीवनलाल वमार् का तीन वषर् का होनहार बालक वगर्वासी हो गया। उनका घर भर बालक
के िबछोह से उ िवग्न था। उनने गायत्री की िवशेष उपासना की। दस
ू रे मास उनकी प नी ने व न म
दे खा िक उनका ब चा गोदी म चढ़ आया है और जैसे ही छाती से लगाना चाहा िक ब चा उनके पेट
म घुस गया है । इस व न के नौ महीने बाद जो बालक ज मा, वह हर बात म उसी मरे हुए बालक
की प्रितमिू तर् था। इस ब चे को पाकर उनका शोक पूणतर् या शा त हो गया।

बैजनाथ भाई रामजी भाई भल


ु ारे ने कई बार िव वान के वारा गायत्री अनु ठान कराए। उ ह हर
अनु ठान म आ चयर्जनक लाभ हुआ। छ: क याओं के बाद उ ह पुत्र प्रा त हुआ। १७ साल पुराना
बवासीर अ छा हो गया और यापार म इतना लाभ हुआ, िजतना िक इससे पहले कभी नहीं हुआ था।
डोरी बाजार के पं. पूजा िम का कथन है िक हमारे िपता जी पं. दे वीप्रसाद जी एक गायत्री उपासक
महा मा के िश य थे। िपता जी की आिथर्क ि थित खराब थी। उनको द:ु खी दे खकर महा मा जी ने
उ ह गायत्री उपासना बताई। फल व प खेती म भारी लाभ होने लगा। छोटी- सी खेती की िवशुद्ध
आमदनी से उनकी हालत बहुत अ छी हो गयी और बचत का २० हजार पया बक म जमा हो गया।

गज
ु रात के ईडर िरयासत के िनवासी पं. गौरीशंकर रे वाशंकर यािज्ञक ने १५ वषर् की आयु से गायत्री
उपासना आर भ कर दी थी और छोटी आयु म ही गायत्री के २४- २४ लाख के तीन परु चरण िकये थे।
इसके फल से िव या, ज्ञान तथा अ य शभु सं कार की इतनी विृ द्ध हुई िक ये जहाँ गये, वहीं इनका
आदर- स मान हुआ, सफलता प्रा त हुई। इनके पव
ू ज
र् पन
ू ा म एक पाठशाला चलाते थे, िजसम
िव यािथर्य को उ चकोिट की धािमर्क िशक्षा दी जाती थी। गौरीशंकर जी ने उस पाठशाला को अपने
घर पर ही चलाना आर भ िकया और िव यािथर्य को गायत्री उपासना का उपदे श दे ने लगे। इ ह ने यह
िनयम बना िदया िक जो असहाय िव याथीर् अपने भोजन की यव था वयं न कर सक, उनको एक
हजार गायत्री जप प्रित िदन करने पर पाठशाला की तरफ से ही भोजन िमला करे गा। इसका पिरणाम
यह हुआ िक पूना के ब्रा मण म इनका घराना गु - गह
ृ के नाम से प्रिसद्ध हो गया।

जबलपुर के राधे याम शमार् के घर म आये िदन बीमािरयाँ सताती थीं। उनकी आमदनी का एक बड़ा
भाग वै य, डॉक्टर के घर म चला जाता था। जब से उनने गायत्री उपासना आर भ की, उनके घर से
बीमारी पूणत
र् या िवदा हो गयी।

सीकर के ी िशव भगवान जी सोमानी तपेिदक से सख्त बीमार पड़े थे। उनके साले, मालेगाँव के
िशवरतन जी मा ने उ ह गायत्री का मानिसक जप करने की सलाह दी, क्य िक वे अपने पािरवािरक
कलह तथा त्री की अ व थता से छुटकारा प्रा त कर चुके थे। सोमानी जी की बीमारी इतनी घातक हो

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चक
ु ी थी िक डॉक्टर िवलमोिरया जैसे सजर्न को कहना पड़ा िक पसली की तीन ह िडयाँ िनकलवा दी
जाएँ, तो ठीक होने की स भावना है , अ यथा प द्रह िदन म हालत काबू से बाहर हो जायेगी। वैसी
भयंकर ि थित म सोमानी जी ने गायत्री माता का आँचल पकड़ा और पण
ू र् व थ हो गये।

ीगोवधर्न पीठ के शंकराचायर् जी ने अपनी पु तक ‘म त्र- शिक्त योग’ के प ृ ठ १६७ पर िलखा है िक


राव मामलतदार पहाड़पुर को हापुर वाले गायत्री म त्र से साँप के जहर को उतार दे ते ह।

रोहे ड़ा िनवासी ी नैनरू ाम को बीस वषर् की परु ानी वात यािध थी और बड़ी- बड़ी दवाएँ करा लेने पर
भी अ छी न हुई थी। गायत्री उपासना वारा उनका रोग पूणत
र् या अ छा हो गया।

इस प्रकार के अगिणत उदाहरण उपल ध हो सकते ह िजनम गायत्री उपासना वारा राजिसक वैभव से
साधक लाभाि वत हुए ह।

गायत्री साधना से आपि तय का िनवारण


िवपरीत पिरि थितय का प्रवाह बड़ा प्रबल होता है । उसके थपेड़े म जो फँस गया, वह िवपि त की ओर
बढ़ता ही जाता है । बीमारी, धन- हािन, मक
ु दमा, शत्रत
ु ा, बेकारी, गह
ृ - कलह, िववाद, कजर् आिद की शंख
ृ ला
जब चल पड़ती है , तो मनु य है रान हो जाता है । कहावत है िक िवपि त अकेली नहीं आती, वह हमेशा
अपने बाल- ब चे साथ लाती है । एक मस
ु ीबत आने पर उसकी सािथन सिहत और भी कई किठनाइयाँ
उसी समय आती ह। चार ओर से िघरा हुआ मनु य अपने को चक्र यूह म फँसा- सा अनुभव करता है ।
ऐसे िवकट समय म जो लोग िनराशा, िच ता, भय, िन साह, घबराहट, िकंकतर् यिवमढ़
ू म पड़कर हाथ-
पाँव चलाना छोड़ दे ते ह, रोने- कलपने म लगे रहते ह, वे अिधक समय तक अिधक मात्रा म क ट
भोगते ह।

िवपि त और िवपरीत पिरि थितय की धारा से त्राण पाने के िलए धैय,र् साहस, िववेक और प्रय न की
आव यकता है । इन चार कोन वाली नाव पर चढक़र ही संकट की नदी को पार करना सग
ु म होता है ।
गायत्री की साधना आपि त के समय इन चार त व को मनु य के अ तःकरण म िवशेष प से
प्रो सािहत करती है , िजससे वह ऐसा मागर् ढूँढऩे म सफल हो जाता है जो उसे िवपि त से पार लगा दे ।

आपि तय म फँसे हुए अनेक यिक्त गायत्री की कृपा से िकस प्रकार पार उतरे , उनके कुछ उदाहरण
हमारी जानकारी म इस पकार ह—
घाटकोपर ब बई के ी आर. बी. वेद गायत्री की कृपा से घोर सा प्रदाियक दं ग के िदन म मिु लम
बि तय से िनभर्य होकर िनकलते रहते थे। उनकी पुत्री को एक बार भयंकर है जा हुआ। यह भी उसी
के अनुग्रह पर शा त हुआ। एक मह वपूणर् मक
ु दमे म भी अनुकूल फैसला हुआ।

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इ दौर, काँगड़ा के चौ. अमरिसंह एक ऐसी जगह बीमार पड़े, जहाँ की जलवायु बड़ी खराब थी और जहाँ
कोई िचिक सक खोजे न िमलता था। उस भयंकर बीमारी म गायत्री प्राथर्ना को उ ह ने औषिध बनाया
और अ छे हो गये।

ब बई के पं. रामशरण शमार् जब गायत्री अनु ठान कर रहे थे, उ हीं िदन उनके माता- िपता सख्त
बीमार हुए। पर तु अनु ठान के प्रभाव से उनका बाल भी बाँका न हुआ, दोन ही नीरोग हो गये।

इटौआधरु ा के डॉक्टर रामनारायण जी भटनागर को उनकी वगीर्या प नी ने व न म दशर्न दे कर


गायत्री जप करने की िशक्षा दी थी। तब से वे बराबर इस साधना को कर रहे ह। िचिक सा क्षेत्र म
उनके हाथ म ऐसा यश आया है िक बड़े- बड़े क टसा य रोगी उनकी िचिक सा से अ छे हुए ह।

कनकुवा िज० हमीरपुर के ल मीनारायण ीवा तव बी० ए० एल० एल० बी० की धमर्प नी प्रसवकाल म
अ य त क ट पीिडत
़ हुआ करती थी। गायत्री उपासना से उनका क ट बहुत कम हो गया। एक बार
उनका लडक़ा मोतीझरा से पीिडत ़ हुआ। बेहोशी और चीखने की दशा को दे खकर सब लोग बड़े द:ु खी
थे। वकील साहब की गायत्री प्राथर्ना के वारा बालक को गहरी नींद आ गयी और वह थोड़े ही िदन म
व थ हो गया।

जफरापुर के ठा० रामकरण िसंह जी वै य की धमर्प नी को दो वषर् से संग्रहणी की बीमारी थी। अनेक
प्रकार से िचिक सा कराने पर भी जब लाभ न हुआ, तो सवालक्ष गायत्री जप का अनु ठान िकया गया।
फल व प वह पूणर् व थ हो गयीं और उनके एक पुत्र पैदा हुआ।

कसराबाद, िनमाड़ के ी शंकरलाल यास का बालक इतना बीमार था िक डाक्टर वै य ने आशा छोड़
दी। दस हजार गायत्री जप के प्रभाव से वह अ छा हुआ।

एक बार यास जी रा ता भल
ू कर रात के समय ऐसे पहाड़ी बीहड़ जंगल म फँस गये, जहाँ िहंसक
जानवर चार ओर शोर करते हुए घम
ू रहे थे। इस संकट के समय म उ ह ने गायत्री का यान िकया
और उनके प्राण बच गये।

िविहया, शाहाबाद के ी गु चरण आयर् एक अिभयोग म जेल भेज िदये गये। छुटकारे के िलये वे जेल
ु दमे म िनद ष बरी हो गये।
म जप करते रहते थे। वे अचानक जेल से छूट गये और मक

मु द्रावजा के ी प्रकाश नारायण िम कक्षा १० की पढ़ाई म पािरवािरक किठनाइय के कारण यान न


दे सके ।। परीक्षा के २५ िदन रह गये, तब उ ह ने पढऩा और गायत्री का जप करना आर भ िकया।
उ तीणर् होने की आशा न थी, िफर भी उ ह सफलता िमली। िम जी के बाबा शत्रओ
ु ं के ऐसे कुचक्र म
फँस गये िक जेल जाना पड़ा। गायत्री अनु ठान के कारण वे उस आपि त से बच गये ।।

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काशी के पं० धरनीद त शा त्री का कथन है िक उनके दादा पं० क है यालाल गायत्री के उपासक थे।
बचपन म शा त्री जी अपने दादा के साथ रात के समय कुएँ पर पानी लेने गये ।। उ ह ने दे खा िक
वहाँ पर एक भयंकर प्रेत आ मा है जो कभी भसा बनकर, कभी शक
ू र बनकर उन पर आक्रमण करना
चाहती है । वह कभी मख
ु से, कभी िसर से भयंकर अिग्र वालाएँ फकता रहा और कभी मनु य, कभी
िहंसक ज तु बनकर एक- डेढ़ घ टे तक भयो पादन करता रहा। दादा ने मझ ु े डरा हुआ दे खकर समझा
िदया िक बेटा, हम गायत्री उपासक ह, यह प्रेत आ मा हमारा कुछ नहीं िबगाड़ सकता। अ त म वे दोन
सकुशल घर को गये, प्रेत का क्रोध असफल रहा।

‘‘सना य जीवन’’ इटावा के स पादक पं० प्रभद


ु याल शमार् का कथन है िक उनकी पुत्रवधू तथा नाितय
को कोई द ु ट प्रेता मा लग गयी थी। हाथ, पैर और म तक म भारी पीड़ा होती थी और बेहोशी आ
जाती थी। रोग- मिु क्त के जब सब प्रय न असफल हुए, तो गायत्री का आ य लेने से वह बाधा दरू हुई।
इसी प्रकार शमार् जी का भतीजा भी म ृ यु के मँह
ु म अटका था। उसे गोदी म लेकर गायत्री का जप
िकया गया, बालक अ छा हो गया। शमार् जी के ताऊ जी दानापरु (पटना) गये हुए थे। वहाँ वे नान के
बाद गायत्री का जप कर रहे थे िक अचानक उनके कान म जोर से श द हुआ- ‘ज दी िनकल भाग, यह
मकान अभी िगरने वाला है ।’ वे िखडक़ी से कूद कर भागे। मिु कल से चार- छ: कदम गये ह गे िक
मकान िगर पड़ा और वे बाल- बाल बच गये।

शेखपुरा के अमोलकच द्र गु ता बचपन म ही िपता की और िकशोराव था म माता की म ृ यु हो जाने


से कुसंग म पडक़र अनेक बुरी आदत म फँस गये थे। दो त की चौकड़ी िदनभर जमी रहती और
ताश, शतरं ज, गाना- बजाना, वे या- न ृ य, िसगरे ट, शराब, जआ
ु , यिभचार, नाच- तमाशा, सैर- सपाटा, भोजन
पाटीर् आिद के दौर चलते रहते। इसी कुचक्र म पाँच वषर् के भीतर नकदी, जेवर, मकान और बीस हजार
की जायदाद वाहा हो गयी। जब कुछ न रहा, तो जए
ु के अ डे, यिभचार की दलाली, चोरी, जेबकटी,
ू , धोखाधड़ी आिद की नई- नई तरकीब िनकालकर एक छोटे िगरोह के साथ अपना गज
लट ु ारा करने लगे।
इसी ि थित म उनका िच त बड़ा अशा त रहता। एक िदन एक महा मा ने उ ह गायत्री का उपदे श
िदया। उनकी द्धा जम गयी। धीरे - धीरे उ तम िवचार की विृ द्ध हुई। प चा ताप और प्रायि च त की
भावना बढऩे से उ ह ने चा द्रायण त, तीथर्, अनु ठान और प्रायि च त िकये। अब वे एक दक ु ान करके
अपना गज
ु ारा करते ह और पुरानी बुरी आदत से मक्
ु त ह।

रानीपुरा के ठा० अङ्गजीत राठौर एक डकैती के केस म फँस गये थे। जेल म गायत्री का जप करते
रहते थे। मक
ु दमे म िनद ष हो छुटकारा पाया।
अ बाला के मोतीलाल माहे वरी का लडक़ा कुसंग म पडक़र ऐसी बुरी आदत का िशकार हो गया था,
िजससे उनके प्रिति ठत पिरवार पर कलंक के छींटे पड़ते थे। माहे वरी जी ने द:ु खी होकर गायत्री की
शरण ली। उस तप चयार् के प्रभाव से लडक़े की मित पलटी और अशा त पिरवार म शा त वातावरण
उ प न हो गया।
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ट क के ी िशवनारायण ीवा तव के िपता जी के मरने पर जमींदारी की दो हजार पये सालाना
आमदनी पर गज
ु ारा करने वाले १९ यिक्त रह गये। पिर म कोई न करता, पर खचर् सब बढ़ाते और
जमींदारी से माँगते। िनदान वह घर फूट और कलह का अखाड़ा बन गया। फौजदारी और मक
ु दमेबाजी
के आसार खड़े हो गये। ीवा तव जी को इससे बड़ा द:ु ख होता, क्य िक वे िपताजी के उ तरािधकारी
ृ पित थे। द:ु खी होकर एक महा मा के आदे शानुसार उ ह ने गायत्री जप आरं भ िकया। पिरि थित
गह
बदली। बुिद्धय म सध
ु ार हुआ। कमाने लायक लोग नौकरी तथा यापार म लग गये। झगड़े शा त हुए।
डगमगाता हुआ घर िबगडऩे से बच गया।

अमरावती के सोहनलाल मेहरोत्रा की त्री को भत


ू बाधा बनी रहती थी। बड़ा क ट था, हजार पये खचर्
हो चुके थे। त्री िदन- िदन घुलती जाती थी। एक िदन मेहरोत्रा जी से व न म उनके िपता जी ने
कहा- ‘बेटा, गायत्री का जप कर, सब िवपि त दरू हो जायेगी।’ दस
ू रे िदन से उ ह ने वैसा ही िकया।
फल व प उपद्रव शा त हो गये और त्री नीरोग हो गयी। उनकी बिहन की ननद भी इस गायत्री जप
वारा भत
ू बाधा से मक्
ु त हुई।

चाचौड़ा के डाँ० भगवान ् व प की त्री भी प्रेत बाधा म मरणास न ि थित को पहुँच गयी थी। उसकी
प्राण रक्षा भी एक गायत्री उपासक के प्रय न से हुई।
िबझौली के बाबा उमाशंकर खरे के पिरवार से गाँव के जाट पिरवार की पु तैनी द ु मनी थी। इस रं िजश
के कारण कई बार खरे के यहाँ डकैितयाँ हो चक
ु ी थीं और बड़े- बड़े नक
ु सान हुए थे। सदा ही जान-
जोिखम का अ दे शा रहता था। खरे जी ने गायत्री भिक्त का मागर् अपनाया। उनके मधरु यवहार ने
अपने पिरवार को शा त वभाव और गाँव को नरम बना िलया। परु ाना बैर समा त होकर नई सद्भावना
कायम हुई।

खडग़पुर के ी गोकुलच द सक्सेना रे लवे के लोको द तर म कमर्चारी थे। इनके द तर म ऊँचे ओहदे
के कमर्चारी उनसे वेष करते थे और ष य त्र करके उनकी नौकरी छुड़ाना चाहते थे। उनके अनेक
हमले िवफल हुए। सक्सेना जी का िव वास है िक गायत्री उनकी रक्षा करती है और उनका कोई कुछ
नहीं िबगाड़ सकता ।।

ब बई के ी मािनकच द्र पाटोिदया यापािरक घाटे के कारण काफी पये के कजर्दार हो गये थे। कजर्
चुकाने की कोई यव था हो नहीं पायी थी िक सट्टे म और भी नुकसान हो गया। िदवािलया होकर
अपनी प्रित ठा खोने और भिव य म द:ु खी जीवन िबताने के लक्षण प ट प से सामने थे। िवपि त
म सहायता के िलये उ ह ने गायत्री अनु ठान कराया। साधना के प्रभाव से िदन- िदन लाभ होने लगा।
ई और चाँदी के चा स अ छे आ गये, िजसमे सारा कजर् चुक गया। िगरा हुआ यापार िफर चमकने
लगा।

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िद ली के प्रिसद्ध पहलवान गोपाल िव नोई कोई बड़ी कु ती लडऩे जाते थे, तो पहले गायत्री परु चरण
करते थे। प्राय: सदा ही िवजयी होकर लौटते थे।
बाँसवाड़ा के ी सीताराम मालवीय को क्षय रोग हो गया था। एक्सरे होने पर डॉक्टर ने बताया िक
उनके फेफड़े खराब हो गये ह। दशा िनराशाजनक थी। सैकड़ पये की दवा खाने पर भी जब कुछ
आराम न हुआ, तो एक वयोवद्ध
ृ िव वान ् के आदे शानुसार उ ह ने चारपाई पर पड़े- पड़े गायत्री का जप
आर भ कर िदया और मन ही मन प्रितज्ञा की िक यिद म बच गया, तो अपना जीवन दे श िहत म
लगा दँ ग
ू ा ।। प्रभु की कृपा से वे बच गये। धीरे - धीरे वा य सध
ु रा और िबलकुल भले चंगे हो गये ।।
तब से अब तक वे आिदवािसय , भील तथा िपछड़ी हुई जाितय के लोग की सेवा म लगे हुए ह।

थरपारकर के ला० करनदास का लड़का बहुत ही दब ु ला और कमजोर था, आये िदन बीमार पड़ा रहता
था। आयु १९ वषर् की हो चक
ु ी थी, पर दे खने म १३ वषर् से अिधक न मालम
ू पड़ता था। लडक़े को
उनके कुलगु ने गायत्री की उपासना का आदे श िदया। उसका मन इस ओर लग गया। एक- एक करके
उसकी सब बीमािरयाँ छूट गयीं। कसरत करने लगा, खाना भी हजम होने लगा। दो- तीन वषर् म उसका
शरीर यौढ़ा हो गया और घर का सब काम- काज होिशयारी के साथ सँभालने लगा।

प्रयाग के ी मु नूलाल जी के दौिहत्र की दशा बहुत खराब हो गयी थी। गला फूल गया था। डॉक्टर
अपना प्रय न कर रहे थे, पर कोई दवा कारगर नहीं होती थी। तब उनके घरवाल ने गायत्री उपासना
का सहारा िलया। रातभर गायत्री जप तथा चालीसा पाठ चलता रहा। सबेरा होते- होते दशा बहुत कुछ
सध
ु र गयी और दो- चार िदन म वह पुन: खेलने- कूदने लगा।

आगरा िनवासी ी रामकरण जी िकसी के यहाँ िनम त्रण पाकर भोजन करने गये। वहाँ से घर लौटते
ही उनका मि त क िवकृत हो गया। वे पागल होकर इधर- उधर िफरने लगे। एक िदन उ ह ने अपनी
जाँघ म ईंट मारकर उसे खूब सज
ू ा िलया। उनका जीवन िनरथर्क जान पड़ने लग गया था। एक िदन
कुछ लोग परामशर् करके उ ह पकडक़र जबरद ती गायत्री उपासक के पास ले आये। उ ह ने उनकी
क याण भावना से चावल को गायत्री म त्र से अिभमि त्रत करके उनके शरीर पर छींटे मारे , िजससे वे
मिू छर्त के समान िगर गये। कुछ दे र बाद वे उठे और पीने को पानी माँगा। उ ह गायत्री म त्र से
अिभमि त्रत जल िपलाया गया, िजससे कुछ समय म वे िब कुल ठीक हो गये।

ी नारायण प्रसाद क यप राजनाँदगाँव वाल के बड़े भाई पर कुछ लोग ने िमलकर एक फौजदारी का
मक ु दमा चार वषर् तक चला। इसी प्रकार उनके छोटे भाई पर क ल का अिभयोग
ु दमा चलाया। वह मक
लगाया। इन लोग ने गायत्री माता का आँचल पकड़ा और दोन मक
ु दम म से इ ह छुटकारा िमला।

वामी योगान द जी सं यासी को कुछ ले छ अकारण बहुत सताते थे। उ ह गायत्री का आग्नेया त्र
िसद्ध था, उसका उ ह ने उन ले छ पर प्रयोग िकया, तो उनके शरीर ऐसे जलने लगे मानो िकसी ने

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अिग्र लगा दी हो। वे मरणतु य क ट से छटपटाने लगे। तब लोग की प्राथर्ना पर वामीजी ने उस
अ तदार्ह को शा त िकया। इसके बाद वे सदा के िलये सीधे हो गये।

न दनपुरवा के स यनारायण जी एक अ छे गायत्री उपासक ह। इ ह अकारण सताने वाले गु ड पर


ऐसा वज्रपात हुआ िक एक भाई २४ घ टे के अ दर है जे से मर गया और शेष भाइय को पुिलस डकैती
के अिभयोग म पकडक़र ले गयी। उ ह पाँच- पाँच वषर् की जेल काटनी पड़ी।

इस प्रकार के अनेक प्रमाण मौजद


ू ह, िजससे यह प्रकट होता है िक गायत्री माता का आँचल द्धापव
ू क
र्
पकडऩे से मनु य अनेक प्रकार की आपि तय से सहज म छुटकारा पा सकता है । अिनवायर् कमर्- भोग
एवं कठोर प्रार ध म भी कई बार आ चयर्जनक सध
ु ार होते दे खे गये ह।

गायत्री उपासना का मल
ू लाभ आ म- शाि त है । इस महाम त्र के प्रभाव से आ मा म सतोगण
ु बढ़ता है
और अनेक प्रकार की आि मक समिृ द्धयाँ बढ़ती ह, साथ ही अनेक प्रकार के सांसािरक लाभ भी िमलते
ह।

जीवन का कायाक प
गायत्री म त्र से आि मक कायाक प हो जाता है । इस महाम त्र की उपासना आर भ करते ही साधक
को ऐसा प्रतीत होता है िक मेरे आ तिरक क्षेत्र म एक नयी हलचल एवं र ोबदल आर भ हो गई है ।
सतोगण
ु ी त व की अिभविृ द्ध होने तथा दग
ु ण
ुर् , कुिवचार, द:ु वभाव एवं दभ
ु ार्व घटने आर भ हो जाते ह
और संयम, नम्रता, पिवत्रता, उ साह, मशीलता, मधरु ता, ईमानदारी, स यिन ठा, उदारता, प्रेम, स तोष,
शाि त, सेवा- भाव, आ मीयता आिद स गण
ु की मात्रा िदन- िदन बड़ी तेजी से बढ़ती जाती है ।
फल व प लोग उसके वभाव एवं आचरण से स तु ट होकर बदले म प्रशंसा, कृतज्ञता, द्धा एवं
स मान के भाव रखते ह। इसके अितिरक्त ये स गण
ु वयं इतने मध
ु र ह िक िजस दय म इनका
िनवास होता है , वहाँ आ मस तोष की परम शाि तदायक िनझर्िरणी सदा बहती रहती है ।

गायत्री साधना से साधक के मन:क्षेत्र म असाधारण पिरवतर्न हो जाता है । िववेक, त वज्ञान और


ऋत भरा बुिद्ध की अिभविृ द्ध हो जाने के कारण अनेक अज्ञानज य द:ु ख का िनवारण हो जाता है ।
प्रार धवश अिनवायर् कमर्फल के कारण क टसा य पिरि थितयाँ हर एक के जीवन म आती रहती ह।
हािन, शोक, िवयोग, आपि त, रोग आक्रमण, िवरोध, आघात आिद की िविभ न पिरि थितय म जहाँ
साधारण मनोभिू म के लोग म ृ युतु य क ट पाते ह, वहाँ आ मबल स प न गायत्री साधक अपने िववेक,
ज्ञान, वैराग्य, साहस, आशा, धैय,र् स तोष, संयम, ई वर- िव वास के आधार पर इन किठनाइय को हँसते-
हँ सते आसानी से काट लेता है । बुरी अथवा साधारण पिरि थितय म भी अपने आन द का मागर् ढूँढ़
िनकालता है और म ती एवं प्रस नता का जीवन िबताता है ।

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संसार का सबसे बड़ा लाभ ‘आ मबल’ गायत्री साधक को प्रा त होता है । इसके अितिरक्त अनेक प्रकार
के सांसािरक लाभ भी होते दे खे गये ह। बीमारी, कमजोरी, बेकारी, घाटा, गह
ृ - कलह, मनोमािल य, मक
ु दमा,
शत्रओ
ु ं का आक्रमण, दा प य सख
ु का अभाव, मि त क की िनबर्लता, िच त की अि थरता, स तान सख
ु ,
क या के िववाह की किठनाई, बुरे भिव य की आशंका, परीक्षा म उ तीणर् न होने का भय, बुरी आदत के
ब धन जैसी किठनाइय से ग्रिसत अगिणत यिक्तय ने आराधना करके अपने द:ु ख से छुटकारा पाया
है ।

कारण यह है िक हर एक किठनाई के पीछे , जड़ म िन चय ही कुछ न कुछ अपनी त्रिु टयाँ, अयोग्यताएँ


एवं खरािबयाँ रहती ह। स गण
ु की विृ द्ध के साथ अपने आहार- िवहार, िदनचयार्, ि टकोण, वभाव एवं
कायर्क्रम म पिरवतर्न होता है । यह पिरवतर्न ही आपि तय के िनवारण का, सख
ु - शाि त की थापना
का राजमागर् बन जाता है । कई बार हमारी इ छाएँ, त ृ णाएँ, लालसाएँ, कामनाएँ ऐसी होती ह, जो अपनी
योग्यता एवं पिरि थितय से मेल नहीं खातीं। मि त क शद्ध
ु होने पर बुिद्धमान यिक्त उन त ृ णाओं
को याग कर अकारण दःु खी रहने के भ्रम जंजाल से छूट जाता है । अव य भावी, न टलने वाले प्रार ध
का भोग जब सामने आता है , तो साधारण यिक्त बुरी तरह रोते- िच लाते ह; िक तु गायत्री साधक म
इतना आ मबल एवं साहस बढ़ जाता है िक वह उ ह हँ सते- हँसते झेल लेता है ।

िकसी िवशेष आपि त का िनवारण करने एवं िकसी आव यकता की पिू तर् के िलए भी गायत्री साधना की
जाती है । बहुधा इसका पिरणाम बड़ा ही आ चयर्जनक होता है । दे खा गया है िक जहाँ चार ओर
िनराशा, असफलता, आशंका और भय का अ धकार ही छाया हुआ था, वहाँ वेदमाता की कृपा से दै वी
प्रकाश उ प न हुआ और िनराशा आशा म पिरणत हो गयी, बड़े क टसा य कायर् ितनके की तरह सग ु म
हो गये। ऐसे अनेक अवसर अपनी आँख के सामने दे खने के कारण हमारा यह अटूट िव वास हो गया
िक कभी िकसी की गायत्री साधना िन फल नहीं जाती।

गायत्री साधना आ मबल बढ़ाने का अचूक आ याि मक यायाम है । िकसी को कु ती म पछाड़ने एवं
दं गल म जीतकर इनाम पाने के िलए िकतने ही लोग पहलवानी और यायाम का अ यास करते ह।
यिद कदािचत ् कोई अ यासी िकसी कु ती को हार जाये, तो भी ऐसा नहीं समझना चािहए िक उसका
प्रय न िन फल गया। इसी बहाने उसका शरीर तो मजबूत हो गया, वह जीवन भर अनेक प्रकार से
अनेक अवसर पर बड़े- बड़े लाभ उपि थत करता रहे गा। िनरोिगता, सौ दयर्, दीघर् जीवन, कठोर पिर म
करने की क्षमता, दा प य सख
ु , सस
ु तित, अिधक कमाना, शत्रओ
ु ं से िनभर्यता आिद िकतने लाभ ऐसे ह,
जो कु ती पछाड़ने से कम मह वपण
ू र् नहीं ह। साधना से यिद कोई िवशेष प्रयोजन प्रार ध वश पूरा न
भी हो, तो भी इतना िनि चत है िक िकसी न िकसी प्रकार साधना की अपेक्षा कई गन
ु ा लाभ अव य
िमलकर रहे गा।

43
आ मा वयं अनेक ऋिद्ध- िसिद्धय का के द्र है । जो शिक्तयाँ परमा मा म ह, वे ही उसके अमर यव
ु राज
आ मा म ह। सम त ऋिद्ध- िसिद्धय का के द्र आ मा म है । िक तु िजस प्रकार राख से ढका हुआ
अङ्गीकार म द हो जाता है , वैसे ही आ तिरक मलीनताओं के कारण आ मतेज कुि ठत हो जाता है ।
गायत्री साधना से मिलनता का पदार् हट जाता है और राख हटा दे ने से जैसे अङ्गीकार अपने प्र विलत
व प म िदखाई पडऩे लगता है , वैसे ही साधक की आ मा भी अपने ऋिद्ध- िसिद्ध समि वत ब्र मतेज
के साथ प्रकट होती है । योिगय को जो लाभ दीघर्काल तक क टसा य तप याएँ करने से प्रा त होता
है , वही लाभ गायत्री साधक को व प प्रयास म ही प्रा त हो जाता है ।

गायत्री उपासना का यह प्रभाव इस समय भी समय- समय पर िदखाई पड़ता है । इन सौ- पचास वष म
ही सैकड़ यिक्त इसके फल व प आ चयर्जनक सफलताएँ पा चुके ह और अपने जीवन को इतना
उ च और सावर्जिनक ि ट से क याणकारी तथा परोपकारी बना चुके ह िक उनसे अ य सह लोग
को प्रेरणा प्रा त हुई है । गायत्री साधना म आ मो कषर् का गुण इतना अिधक पाया जाता है िक उससे
िसवाय क याण और जीवन सध ु ार के और कोई अिन ट हो ही नहीं सकता।

प्राचीनकाल म महिषर्य ने बड़ी- बड़ी तप याएँ और योग- साधनाएँ करके अिणमा, मिहमा आिद ऋिद्ध-
िसिद्धयाँ प्रा त की थीं। उनकी चम कारी शिक्तय के वणर्न से इितहास- पुराण भरे पड़े ह। वह तप या
और योग- साधना गायत्री के आधार पर ही की थी। अब भी अनेक महा मा मौजद
ू ह, िजनके पास दै वी
शिक्तय और िसिद्धय का भ डार है । उनका कथन है िक गायत्री से बढक़र योगमागर् म सग
ु मतापूवक
र्
सफलता प्रा त करने का दस
ू रा मागर् नहीं है । िसद्ध पु ष के अितिरक्त सय
ू व
र् ंशी और च द्रवंशी सभी
चक्रवतीर् राजा गायत्री उपासक रहे ह। ब्रा मण लोग गायत्री की ब्र म- शिक्त के बल पर जग गु थे।
क्षित्रय गायत्री के भगर् पी तेज को धारण करके चक्रवतीर् शासक बने थे। यह सनातन स य आज भी
वैसा ही है । गायत्री माता का आँचल द्धापूवक
र् पकड़ने वाला मनु य कभी भी िनराश नहीं रहता।

नािरय को वेद एवं गायत्री का अिधकार


भारतवषर् म सदा से नािरय का समिु चत स मान रहा है । उ ह पु ष की अपेक्षा अिधक पिवत्र माना
जाता रहा है । नािरय को बहुधा ‘दे वी’ स बोधन से स बोिधत िकया जाता रहा है । नाम के पीछे उनकी
ज मजात उपािध ‘दे वी’ प्राय: जड़
ु ी रहती है । शाि त दे वी, गंगा दे वी, दया दे वी आिद ‘दे वी’ श द पर
क याओं के नाम रखे जाते ह। जैसे पु ष बी० ए०, शा त्री, सािह यर न आिद उपािधयाँ उ तीणर् करने पर
अपने नाम के पीछे उस पदवी को िलखते ह, वैसे ही क याएँ अपने ज म- जात ई वर प्रद त दै वी गण
ु ,
दै वी िवचार और िद य िवशेषताओं के कारण अलंकृत होती ह।

दे वताओं और महापु ष के साथ उनकी अधार्ंिगिनय के नाम भी जड़ ु े हुए ह। सीताराम, राधे याम,
गौरीशंकर, ल मीनारायण, उमामहे श, माया- ब्र म, सािवत्री- स यवान ् आिद नाम से नारी को पहला और

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नर को दस
ू रा थान प्रा त है । पित त, दया, क णा, सेवा- सहानभ
ु िू त, नेह, वा स य, उदारता, भिक्त-
भावना आिद गण
ु म नर की अपेक्षा नारी को सभी िवचारवान ने बढ़ा- चढ़ा माना है ।

इसिलये धािमर्क, आ याि मक और ई वर प्राि त स ब धी काय म नारी का सवर्त्र वागत िकया गया
है और उसे उसकी मह ता के अनुकूल प्रित ठा दी गयी है ।

वेद पर ि टपात करने से प ट हो जाता है िक वेद के म त्र टा िजस प्रकार अनेक ऋिष ह, वैसे ही
अनेक ऋिषकाएँ भी ह। ई वरीय ज्ञान वेद महान ् आ मा वाले यिक्तय पर प्रकट हुआ है और उनने
उन म त्र को प्रकट िकया। इस प्रकार िजन पर वेद प्रकट हुए, उन म त्रद्र टओं को ऋिष कहते ह।
ऋिष केवल पु ष ही नहीं हुए ह, वरन ् अनेक नािरयाँ भी हुई ह। ई वर ने नािरय के अ त:करण म भी
उसी प्रकार वेद- ज्ञान प्रकािशत िकया, जैसे िक पु ष के अत:करण म; क्य िक प्रभु के िलये दोन ही
स तान समान ह। महान दयाल,ु यायकारी और िन पक्ष प्रभु अपनी ही स तान म नर- नारी का भेद-
भाव कैसे कर सकते ह?

ऋग्वेद १०। ८५ म स पूणर् म त्र की ऋिषका ‘सय


ू ार्- सािवत्री’ है । ऋिष का अथर् िन क्त म इस प्रकार
िकया है —‘‘ऋिषदर् शन
र् ात ्। तोमान ् ददशित (२.११)। ऋषयो म त्रद्र टर: (२.११ द.ु व.ृ )।’’ अथार्त ् म त्र का
द्र टा उनके रह य को समझकर प्रचार करने वाला ऋिष होता है ।
ऋग्वेद की ऋिषकाओं की सच
ू ी बह
ृ दे वता के दस
ू रे अ याय म इस प्रकार है —
घोषा गोधा िव ववारा, अपालोपिनषि नषत ्।
ब्र मजाया जह
ु ू नार्म अग य य वसािदित:॥ ८४॥
इ द्राणी चे द्रमाता च सरमा रोमशोवर्शी।
लोपामद्र
ु ा च न य च यमी नारी च श वती॥ ८५॥
ीलार्क्षा सापर्राज्ञी वाक् द्धा मेधा च दिक्षणा।
रात्री सय
ू ार् च सािवत्री ब्र मवािद य ईिरता:॥ ८६॥
अथार्त ्- घोषा, गोधा, िव ववारा, अपाला, उपिनष , िनष , ब्र मजाया (जह
ु ू ), अग य की भिगनी, अिदित,
इ द्राणी और इ द्र की माता, सरमा, रोमशा, उवर्शी, लोपामद्र
ु ा और निदयाँ, यमी, श वती, ी, लाक्षा,
सापर्राज्ञी, वाक् , द्धा, मेधा, दिक्षणा, रात्री और सय
ू ार्- सािवत्री आिद सभी ब्र मवािदनी ह।
ऋ ग्वेद के १०- १३४, १०- ३९, ४०, १०- ९१, १०- ९५, १०- १०७, १०- १०९, १०- १५४, १०- १५९, १०- १८९, ५- २८, ८-
९१ आिद सक्
ू त को की म त्र टा ये ऋिषकाएँ ह।

ऐसे अनेक प्रमाण िमलते ह, िजनसे प ट होता है िक ि त्रयाँ भी पु ष की तरह यज्ञ करती और
कराती थीं। वे यज्ञ- िव या और ब्र म- िव या म पारं गत थीं। कई नािरयाँ तो इस स बध म अपने िपता
तथा पित का मागर् दशर्न करती थीं।
‘‘तैि तरीय ब्रा मण’’ म सोम वारा ‘सीता- सािवत्री’ ऋिषका को तीन वेद दे ने का वणर्न िव तारपव
ू क
र्

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आता है —
तं त्रयो वेदा अ वस ृ य त। अथ ह सीता सािवत्री।
सोमँ राजानं चकमे। त या उ ह त्रीन ् वेदान ् प्रददौ। -तैि तरीय ब्रा०२/३/१०/१,३
इस म त्र म बताया गया है िक िकस प्रकार सोम ने सीता- सािवत्री को तीन वेद िदये।
मनु की पुत्री ‘इड़ा’ का वणर्न करते हुए तैि तरीय ब्रा० १। १। ४। ४ म उसे ‘यज्ञानुकािशनी’ बताया है ।
यज्ञानुकािशनी का अथर् शायणाचायर् ने ‘यज्ञ त व प्रकाशन समथार्’ िकया है । इड़ा ने अपने िपता को
यज्ञ स ब धी सलाह दे ते हुए कहा—
साऽब्रवीिदडा मनुम ्। तथा वा अहं तवािग्नमाधा यािम। यथा प्र प्रजया पशुिभिमर्थन
ु ैजिर् न यसे।
प्र यि म लोके था यिस। अिभ सव
ु गर्ं लोकं जे यसीित। —तैि तरीय ब्रा० १/१/४/६

इड़ा ने मनु से कहा- तु हारी अिग्न का ऐसा आधान क ँ गी िजससे तु ह पशु, भोग, प्रित ठा और वगर्
प्रा त हो।
प्राचीन समय म ि त्रयाँ गह
ृ था म चलाने वाली थीं और ब्र म- परायण भी। वे दोन ही अपने- अपने
ृ थ का संचालन करती थीं, उ ह ‘स योवध’ू कहते थे और जो
कायर्क्षेत्र म कायर् करती थीं। जो गह
वेदा ययन, ब्र म उपासना आिद के पारमािथर्क काय म प्रव ृ त रहती थीं, उ ह ‘ब्र मवािदनी’ कहते थे।
ब्र मवािदनी और स योवधू के कायर्क्रम तो अलग- अलग थे, पर उनके मौिलक धमार्िधकार म कोई
अ तर न था। दे िखये—
िविवधा: ि त्रया:। ब्र मवािद य: स योव व च। तत्र ब्र मवािदनीनामप
ु नयनम ्, अग्री धनं वेदा ययनं
वगह
ृ े च िभक्षाचयित। स योवधन
ू ां तप
ू ि थते िववाहे कथि चदप
ु नयनमात्रं कृ वा िववाह: कायर्:। —हारीत
धमर् सत्र

ब्र मवािदनी और स योवधू ये दो ि त्रयाँ होती ह। इनम से ब्र मवािदनी- यज्ञोपवीत, अिग्नहोत्र,
वेदा ययन तथा वगह
ृ म िभक्षा करती ह। स योवधुओं का भी यज्ञोपवीत आव यक है । वह िववाहकाल
उपि थत होने पर करा दे ते ह।
शतपथ ब्रा मण म याज्ञव क्य ऋिष की धमर्प नी मैत्रेयी को ब्र मवािदनी कहा है —
तयोहर् मैत्रेयी ब्र मवािदनी बभव
ू । —शत०ब्रा० १४/७/३/१

अथार्त ् मैत्रेयी ब्र मवािदनी थी।


ब्र मवािदनी का अथर् बह
ृ दार यक उपिनष का भा य करते हुए ी शंकराचायर् ने ‘ब्र मवादनशील’ िकया
है । ब्र म का अथर् है - वेद। ब्र मवादनशील अथार्त ् वेद का प्रवचन करने वाली। यिद ‘ब्र म’ का अथर्
‘ई वर’ िकया जाए तो भी ब्र म की प्राि त वेद- ज्ञान के िबना नहीं हो सकती; यानी ब्र म को वही जान
सकता है जो वेद पढ़ता है ।

दे िखए—
ना वेदिव मनुते तं बह
ृ तम ्। एतं वेदानुवचनेन ब्रा मणा िविविदषि त यज्ञेन दानेन तपसानाशकेन। —
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तैि तरीयोप०
िजस प्रकार पु ष ब्र मचारी रहकर तप और योग वारा ब्र म को प्रा त करते थे, वैसे ही िकतनी ही
ि त्रयाँ ब्र मचािरिण रहकर आ मिनमार्ण एवं परमाथर् का स पादन करती थीं। पव
ू क
र् ाल म अनेक
सप्र
ु िसद्ध ब्र मचािरिण हुई ह िजनकी प्रितभा और िव व ता की चार ओर कीितर् फैली हुई थी। महाभारत
म ऐसी अनेक ब्र मचािरिणय का वणर्न आता है ।
भार वाज य दिु हता पेणाप्रितमा भिु व।
ुतावती नाम िवभो कुमारी ब्र मचािरणी॥ —महाभारत श य पवर् ४८। २
भार वाज की ुतावती नामक क या थी जो ब्र मचािरिण थी। कुमारी के साथ- साथ ब्र मचािरिण श द
लगाने का ता पयर् यह है िक वह अिववािहत और वेदा ययन करने वाली थी।
अत्रैव ब्रा मणी िसद्धा कौमार- ब्र मचािरिण।
योगयुक्ता िदवं याता, तप: िसद्धा तपि वनी॥ —महाभारत श य पवर् ५४। ६
योग िसिद्ध को प्रा त कुमार अव था से ही वेदा ययन करने वाली तपि वनी, िसद्धा नाम की
ब्र मचािरिण मिु क्त को प्रा त हुई।
बभव ू ीमती राजन ् शाि ड य य महा मन:।
सत
ु ा धत
ृ ता सा वी िनयता ब्र मचािरिण
सा तु त वा तपो घोरं द ु चरं त्रीजनेन ह।
गता वगर्ं महाभागा दे वब्रा मणपूिजता॥ —महाभारत श य पवर् ५४। ७। ८

महा मा शाि ड य की पत्र


ु ी ‘ ीमती’ थी, िजसने त को धारण िकया। वेदा ययन म िनर तर प्रव ृ त
थी। अ य त किठन तप करके वह दे व ब्रा मण से पूिजत हुई और वगर् िसधारी।
ते योऽिधग तुं िनगमा त िव यां वा मीिक पा वािदह स चरािम —उ तर रामचिरत अंक २
(आत्रेयी का कथन) उन (अग यािद ब्र मवे ताओं) से ब्र म िव या सीखने के िलए वा मीिक के पास से
आ रही हूँ।
महाभारत शाि त पवर् अ याय ३२० म ‘सल
ु भा’ नामक ब्र मवािदनी सं यािसनी का वणर्न है , िजसने
राजा जनक के साथ शा त्राथर् िकया था। इसी अ याय के लोक म सुलभा ने अपना पिरचय दे ते हुए
कहा—
प्रधानो नाम राजिषर् यक्तं ते ोत्रमागत:।
कुले त य समु प नां सल
ु भां नाम िविद्ध माम ्
साऽहं ति मन ् कुले जाता भतर्यस
र् ित म िवधे।
िवनीता मोक्षधमषु चरा येकामिु न तम ्॥ —महा०शाि त पवर् ३२०। १८१। १८३

म सप्र
ु िसद्ध क्षित्रय कुल म उ प न सलु भा हूँ। अपने अनु प पित न िमलने से मने गु ओं से शा त्र
की िशक्षा प्रा त करके सं यास ग्रहण िकया है ।

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पा डव की प नी द्रौपदी की िव व ता का वणर्न करते हुए ी आचायर् आन दतीथर् (माधवाचायर्) जी ने
‘महाभारत िनणर्य’ म िलखा है —
वेदा चा यु तम त्रीिभ: कृ णा यािभिरवािखला:।
अथार्त ्- उ तम ि त्रय को कृ णा (द्रौपदी) की तरह वेद पढऩे चािहए।
ते यो दधार क ये वे वयुनां धािरणीं वधा।
उभे ते ब्र मवािद यौ, ज्ञान- िवज्ञान —भागवत ४। १। ६४

वधा की दो पुित्रयाँ हुईं, िजनके नाम वयुना और धािरणी थे। ये दोन ही ज्ञान और िवज्ञान म पूणर्
पारं गत तथा ब्र मवािदनी थीं।
िव णु पुराण १। १० और १८। १९ तथा माकर् डेय पुराण अ० ५२ म इसी प्रकार (ब्र मवािदनी, वेद और
ब्र म का उपदे श करने वाली) मिहलाओं का वणर्न है ।
सततं मिू तर्म त च वेदा च वार एव च।
सि त य या च िज वग्रे सा च वेदवती मत
ृ ा॥ —ब्र म वै० प्रकृित ख ड २/१४/६४

उसे चार वेद क ठाग्र थे, इसिलए उसे वेदवती कहा जाता था। इस प्रकार की नैि ठक ब्र मचािरिण
ृ था म म प्रवेश करने वाली क याएँ दीघर्काल
ब्र मवािदनी नािरयाँ अगिणत थीं। इनके अितिरक्त गह
तक ब्र मचािरिण रहकर वेद- शात्र का ज्ञान प्रा त करने के उपरा त िववाह करती थीं। तभी उनकी
स तान संसार म उ वल नक्षत्र की तरह यश वी, पु षाथीर् और कीितर्मान होती थी। धमर्ग्र थ का
प ट आदे श है िक क या ब्र मचािरिण रहने के उपरा त िववाह करे ।
ब्र मचयण क या ३ युवानं िव दते पितम ्। —अथवर्० ११/७/१८

अथार्त ् क या ब्र मचयर् का अनु ठान करती हुई उसके वारा उपयक्
ु त पित को प्रा त होती है ।
ब्र मचयर् केवल अिववािहत रहने को ही नहीं कहते। ब्र मचारी वह है जो संयमपव
ू कर् वेद की प्राि त म
िनरत रहता है । दे िखए—
वीकरोिक्त यदा वेद चरे वेद तािन च।
ब्र मचारी भवे ताव ऊ वं नातो भवेत ् गह
ृ ी॥ —दक्ष मिृ त १। ७

अथार्त ् जब वेद को अथर् सिहत पढ़ता है और उसके िलए त को ग्रहण करता है , तब ब्र मचारी
कहलाता है । उसके प चात ् िव वान ् बनकर गह
ृ थ म प्रवेश करता है ।

अथवर्वेद म ११। ७। १७ की याख्या करते हुए सायणाचायर् ने िलखा है —


‘ब्र मचयण- ब्र म वेद: तद ययनाथर्माचयर्म ्।’
अथार्त ्- ‘ब्र म’ का अथर् है वेद। उस वेद के अ ययन के िलये जो प्रय न िकये जाते ह, वही ब्र मचयर् है ।
ू त के प्रथम म त्र की याख्या म सायणाचायर् ने िलखा है —
इसी सक्

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ब्र मिण वेदा मके अ येत ये वा चिरतंु शीलम य स तथोक्त:।
अथार्त ् ब्र मचारी वह है जो वेद के अ ययन म िवशेष प से संलग्न है ।
महिषर् गाग्र्यायणाचायर् ने प्रणववाद म कहा है —
ब्र मचािरणां च ब्र मचािरणीिभ: सह िववाह: प्रश यो भवित।
अथार्त ् ब्र मचािरय का िववाह ब्र मचािरिणय से ही होना उिचत है , क्य िक ज्ञान और िव या आिद की
ि ट से दोन के समान रहने पर ही सख
ु ी और स तु ट रह सकते ह। महाभारत म भी इस बात की
पुि ट की गयी है ।
ययोरे व समं िव तं ययोरे व समं ुतम ्।
तयोमत्री िववाह च न तु पु ट िवपु टयो:॥ —महाभारत आिदपवर् १। १३१। १०

िजनका िव त एवं ज्ञान समान है , उनसे िमत्रता और िववाह उिचत है , यन


ू ािधक म नहीं।
ऋग्वेद १। १। ५ का भा य करते हुए महिषर् दयान द ने िलखा है —
या: क या याव चतिु वर्ंशितवषर्मायु ताव ब्र मचयण िजतेि द्रया: तथा सांगोपांगवेदिव या अधीयते ता:
मनु य- जाित भवि त।
अथार्त ्- जो क याएँ २४ वषर् तक ब्र मचयर्पव
ू क
र् साङ्गपाङ्ग वेद िव याओं को पढ़ती ह, वे मनु य जाित
को शोिभत करती ह।
ऋग्वेद ५। ६२। ११ के भा य म महिषर् ने िलखा है —

ब्र मचािरिण प्रिसद्ध- कीितर्ं स पु षं सश


ु ीलं शुभ- गण
ु प्रीितम तं पितं ग्रहीतुिम छे त ् तथैव ब्र मचायर्िप
वस शीमेव ब्र मचािरणीं ि त्रयं ग ृ णीयात ्।
अथार्त ्- ब्र मचािरिण त्री कीितर्वान ्, सश
ु ील, स पु ष, गण
ु वान ्, पवान, प्रेमी वभाव के पित की इ छा
करे , वैसे ही ब्र मचारी भी अपने समान ब्र मचािरिण (वेद और ई वर की ज्ञाता) त्री को ग्रहण करे ।

जब िव या ययन करने के िलये क याओं को पु ष की भाँित सिु वधा थी, तभी इस दे श की नािरयाँ
गागीर् और मैत्रेयी की तरह िवदष
ु ी होती थीं। याज्ञव क्य जैसे ऋिष को एक नारी ने शा त्राथर् म
िवचिलत कर िदया था और उ ह ने है रान होकर उसे धमकी दे ते हुए कहा था- ‘अिधक प्र मत करो,
अ यथा तु हारा अक याण होगा।’

इसी प्रकार शंकराचायर् जी को भारती दे वी के साथ शा त्राथर् करना पड़ा था। उस भारती दे वी नामक
मिहला ने शंकराचायर् जी से ऐसा अद्भत
ु शा त्राथर् िकया था िक बड़े- बड़े िव वान ् भी अचि भत रह गये
थे। उनके प्र का उ तर दे ने के िलये शंकराचायर् को िन तर होकर एक मास की मोहलत माँगनी पड़ी
थी। शंकर िदिग्वजय म भारती दे वी के स ब ध म िलखा है —

सवार्िण शा त्रािण षडंग वेदान ्, का यािदकान ् वेि त, पर च सवर्म ्।

49
त नाि त नोवेि त यदत्र बाला, त मादभिू चत्र- पदं जनानाम ्॥ —शंकर िदिग्वजय ३। १६
भारती दे वी सवर्शा त्र तथा अंग सिहत सभी वेद और का य को जानती थी। उससे बढक़र े ठ और
कोई िवदष
ु ी त्री न थी।
आज िजस प्रकार ि त्रय के शा त्रा ययन पर रोक लगाई जाती है , यिद उस समय ऐसे ही प्रितब ध रहे
होते, तो याज्ञव क्य और शंकराचायर् से टक्कर लेने वाली ि त्रयाँ िकस प्रकार हो सकती थीं? प्राचीनकाल
म अ ययन की सभी नर- नािरय को समान सिु वधा थी।
ि त्रय के वारा यज्ञ का ब्र मा बनने तथा उपा याय एवं आचायर् होने के प्रमाण मौजद
ू ह। ऋग्वेद म
नारी को स बोधन करके कहा गया है िक तू उ तम आचरण वारा ब्र मा का पद प्रा त कर सकती है ।

अध: प य व मोपिर स तरां पादकौ हर।


मा ते कश लकौ शन ् त्री ह ब्र मा बभिू वथ॥ —ऋग्वेद ८। ३३। १९
अथार्त ् हे नारी! तुम नीचे दे खकर चलो। यथर् म इधर उधर की व तुओं को मत दे खती रहो। अपने पैर
को सावधानी तथा स यता से रखो। व त्र इस प्रकार पहनो िक ल जा के अंग ढके रह। इस प्रकार
उिचत आचरण करती हुई तम ु िन चय ही ब्र मा की पदवी पाने के योग्य बन सकती हो।
अब यह दे खना है िक ब्र मा का पद िकतना उ च है और उसे िकस योग्यता का मनु य प्रा त कर
सकता है ।

ब्र म वाऽऋि वजाि भषक्तम:। —शतपथ ब्रा० १। ७। ४। १९


अथार्त ् ब्र मा ऋि वज की त्रिु टय को दरू करने वाला होने से सब पुरोिहत से ऊँचा है ।
त मा यो ब्रि म ठ: यात ् तं ब्र माणं कुवीर्त। —गोपथ ब्रा० उ तराधर् १। ३
अथार्त ् जो सबसे अिधक ब्र मिन ठ (परमे वर और ब्र म का ज्ञाता) हो, उसे ब्र मा बनाना चािहए।
अथ केन ब्र माणं िक्रयत इित त्र या िव ययेित ब्रय
ू ात ्। —ऐतरे य ब्रा० ५। ३३
ज्ञान, कमर्, उपासना तीन िव याओं के प्रितपादक वेद के पूणर् ज्ञान से ही मनु य ब्र मा बन सकता है ।
अथ केन ब्र म वं इ यनया, त्र या िव ययेित ह ब्रय
ू ात ्। —शतपथ ब्रा० ११। ५। ८। ७

वेद के पूणर् ज्ञान (ित्रिवध िव या) से ही मनु य ब्र मा पद के योग्य बनता है ।


याकरण शा त्र के कितपय थल पर ऐसे उ लेख ह, िजनसे प्रतीत होता है िक वेद का अ ययन-
अ यापन भी ि त्रय का कायर्क्षेत्र रहा है । दे िखए—
‘इड च’ ३। ३। २१ के महाभा य म िलखा है —
‘उपे याधीयतेऽ या उपा यायी उपा याया’
अथार्त ् िजनके पास आकर क याएँ वेद के एक भाग तथा वेदांग का अ ययन कर, वह उपा यायी या
उपा याया कहलाती है ।
मनु ने भी उपा याय के लक्षण यही बताए ह—
एकदे शं तु वेद य वेदांगा यिप वा पन
ु :।
50
योऽ यापयित व ृ यथर्म ् उपा याय: स उ यते॥ —मन०
ु २। १४१
जो वेद के एक दे श या वेदांग को पढ़ाता है , वह उपा याय कहा जाता है ।
आचायार्दण वं। —अ टा यायी ४। १। ४९
इस सत्र
ू पर िसद्धा त कौमद
ु ी म कहा गया है —
आचायर् य त्री आचायार्नी पुंयोग इ येवं आचायार् वयं याख्यात्री।
अथार्त ् जो त्री वेद का प्रवचन करने वाली हो, उसे आचायार् कहते ह।
आचायार् के लक्षण मनुजी ने इस प्रकार बतलाए ह—
उपनीयं तु य: िश यं वेदम यापये िवज:।
सक पं सरह यं च तमाचायर्ं प्रचक्षते॥ —मनु २। १४०
जो िश य का यज्ञोपवीत सं कार करके क प सिहत, रह य सिहत वेद पढ़ाता है , उसे आचायर् कहते ह।
ु ी का स पादन करते हुए इस स ब ध म
वगीर्य महामहोपा याय पं० िशवद त शमार् ने िसद्धा त कौमद
मह वपूणर् िट पणी करते हुए िलखा है —
‘‘इित वचनेनािप त्रीणां वेदा ययनािधकारो विनत:।’’
अथार्त ्- इससे ि त्रय को वेद पढऩे का अिधकार सिू चत होता है ।
उपयक्ुर् त प्रमाण को दे खते हुए पाठक यह िवचार कर िक ‘ि त्रय को गायत्री का अिधकार नहीं’ कहना
कहाँ तक उिचत है ?

क्या ि त्रय को वेद का अिधकार नहीं ?

गायत्री म त्र का ि त्रय को अिधकार है या नहीं? यह कोई वत त्र प्र नहीं है । अलग से कहीं ऐसा
िविध- िनषेध नहीं िक ि त्रयाँ गायत्री जप या न जप। यह प्र न इसिलये उठता है - यह कहा जाता है िक
ि त्रय को वेद का अिधकार नही है । चुकी गायत्री भी वेद म त्र है , इसिलये अ य म त्र की भाँित उसके
उ चारण का भी अिधकार नहीं होना चािहये।

ि त्रय को वेदािधकारी न होने का िनषेध वेद म नहीं है । वेद म तो ऐसे िकतने ही म त्र ह, जो ि त्रय
वारा उ चारण होते ह। उन म त्र म त्री- िलङ्गं की िक्रयाएँ ह, िजनसे प ट हो जाता है िक ि त्रय
वारा ही प्रयोग होने के िलये ह। दे िखये—

उदसौ सय
ू अगा उदयं मामको भग:।
अहं त िव वला पितम यसािक्ष िवषासिह:।
अहं केतुरहं मध
ू ार्हमग्र
ु ा िववाचनी,
ममेदनु क्रतुं पित: सेहानाया उपाचरे त ्॥
मम पत्र
ु ा: शत्रह
ु णोऽथो मे दिु हता िवरा
उताहमि म संजया प यौ मे लोक उ तम:॥ —ऋग्वेद १०। १५९ ।। १- ३

51
अथार्त ्- सय
ू दय के साथ मेरा सौभाग्य बढ़े । म पितदे व को प्रा त क ँ । िवरोिधय को परािजत करने
वाली और सहनशील बनँ।ू म वेद से तेजि वनी प्रभावशाली वक्ता बनँ।ू पितदे व मेरी इ छा, ज्ञान व कमर्
के अनक
ु ू ल कायर् कर। मेरे पत्र
ु भीतरी व बाहरी शत्रओ
ु ं को न ट कर। मेरी पत्र
ु ी अपने स गण
ु के कारण
प्रकाशवती हो। म अपने काय से पितदे व के उ वल यश को बढ़ाऊँ।
य बकं यजामहे सग
ु ि धं पितवेदनम ्।
उवार् किमव ब धनािदतो मक्ष
ु ीय मामत
ु :॥ —यजव
ु द ३। ६०
अथार्त ्- हम कुमािरयाँ उ तम पितय को प्रा त कराने वाले परमा मा कामरण करती हुई यज्ञ करती
ह, जो हम इस िपतक
ृ ु ल से छुड़ा दे , िक तु पित कुल से कभी िवयोग न कराये।

आशासाना सौमनसं प्रजां सौभाग्यं रियम ्।


प युरनु ता भू वा स न य वामत
ृ ायकम ्॥ —अथवर्० १४। १। ४२
वधू कहती है िक म यज्ञािद शुभ अनु ठान के िलए शुभ व त्र पहनती हूँ। सौभाग्य, आन द, धन तथा
स तान की कामना करती हुई म सदा प्रस न रहूँगी।
वेदोऽिस िवि तरिस वेदसे वा वेदो मे िव द िवदे य।
घत
ृ व तं कुलाियनं राय पोषँ सहि णम ् ।।
वेदो वाजं ददातु मे वेदो वीरं ददातु मे। —काठक संिहता ५/४/२३- २४
अथार्त ्- आप वेद ह, सब े ठ गण
ु और ऐ वय को प्रा त कराने वाले ज्ञान- लाभ के िलये आपको भली
प्रकार प्रा त क ँ । वेद मझ
ु े तेज वी, कुल को उ तम बनाने वाला, ऐ वयर् को बढ़ाने वाला ज्ञान द। वेद
मझ
ु े वीर, े ठ स तान द।
िववाह के समय वर- वधू दोन सि मिलत प से म त्र उ चारण करते ह—
सम ज तु िव वे दे वा: समापो दयािन नौ।
ु े टरी दधातु नौ॥ —ऋग्वेद १०। ८५। ४७
सं मातिर वा सं धाता समद
अथार्त ् सब िव वान ् लोग यह जान ल िक हम दोन के दय जल की तरह पर पर प्रेमपूवक
र् िमले
रहगे। िव विनय ता परमा मा तथा िवदष
ु ी दे िवयाँ हम दोन के प्रेम को ि थर बनाने म सहायता कर।

त्री के मख
ु से वेदम त्र के उ चारण के िलए असंख्य प्रमाण भरे पड़े ह। शतपथ ब्रा मण १४। १। ४।
१६ म, यजव
ु द के ३७। २० म त्र ‘ व टम त वा सपेम’ इस म त्र को प नी वारा उ चारण करने का
िवधान है । शतपथ के १। ९। २। २३ म ि त्रय वारा यजव
ु द के २। २१ म त्र के उ चारण का आदे श
है । तैि तरीय संिहता के १। १। १० ‘सप्र
ु जस वा वयं’ आिद म ज्ञत्र को त्र वारा बल
ु वाने का आदे श
है । आ वलायन ग ृ य सत्र
ू १। १। ९ के ‘पािणग्रहणािद ग ृ य....’ म भी इसी प्रकार यजमान की
अनप
ु ि थित म उसकी प नी, पत्र
ु अथवा क या को यज्ञ करने का आदे श है । काठक ग ृ य सत्र
ू ३। १।
३० एवं २७। ३ म ि त्रय के िलए वेदा ययन, म त्रो चारण एवं वैिदक कमर्का ड करने का प्रितपादन है ।
लौगाक्षी ग ृ म सत्र
ू की २५वीं कि डका म भी ऐसे प्रमाण मौजद
ू ह।

52
पार कर ग ृ म सत्र
ू १। ५। १,२ के अनस
ु ार िववाह के समय क या लाजाहोम के म त्र को वयं पढ़ती
ह। सय
ू र् दशर्न के समय भी वह यजव
ु द के ३६। २४ म त्र ‘त चक्षुदविहतं’ को वयं ही उ चारण करती
है । िववाह के समय ‘सम जन’ करते समय वर- वधू दोन साथ- साथ ‘अथैनौ सम जयत: .....’ इस
ऋग्वेद १०। ८५। ४७ के म त्र को पढ़ते ह।

ता य ब्रा मण ५। ६। ८ म युद्ध म ि त्रय को वीणा लेकर सामवेद के म त्र का गान करने का आदे श
है तथा ५। ६। १५ म ि त्रय के कलश उठाकर वेद- म त्र का गान करते हुए पिरक्रमा करने का िवधान
है ।
ृ ीता का उपाख्यान है , िजसम क या के यज्ञ एवं वेदािधकार का
ऐतरे य ५। ५। २९ म कुमारी ग धवर् गह
प टीकरण हुआ है ।
का यायन ौत सत्र
ू १। १। ७, ४। १। २२ तथा २०। ६। १२ आिद म ऐसे प ट आदे श ह िक अमक

वेद- म त्र का उ चारण त्री करे । ला यायन ौत सत्र
ू म प नी वारा स वर सामवेद के म त्र के
गायन का िवधान है । शांखायन ौत सत्र
ू के १। १२। १३ म तथा आ वलायन ौत सत्र
ू १। ११। १ म
इसी प्रकार के वेद- म त्रो चारण के आदे श ह। म त्र ब्रा मण के १। २। ३ म क या वारा वेद- म त्र के
उ चारण की आज्ञा है । नीचे कुछ म त्र म वधू को वेदपरायण होने के िलये िकतना अ छा आदे श
िदया है —

ब्र मपरं यु यतां ब्र म पव


ू र्ं ब्र म ततो म यतो ब्र म सवर्त:।
अना याधां दे व पुरां प्रप य िशवा योना पितलोके िवराज॥ —अथवर्० १४। १। ६४
हे वधू ! तु हारे आगे, पीछे , म य तथा अ त म सवर्त्र वेद िवषयक ज्ञान रहे । वेद ज्ञान को प्रा त करके
तदनुसार तम
ु अपना जीवन बनाओ। मंगलमयी, सख
ु दाियनी एवं व थ होकर पित के घर म
िवराजमान और अपने स गण
ु से प्रकाशवान ् हो।
कुलाियनी घत
ृ वती पुरि ध: योने सीद सदने पिृ थ या:। अिभ वा द्रा वसवो गण
ृ ि वमा। ब्र म पीिपिह
सौभगायाि वना वयूर् सादयतािमह वा। —यजव
ु द १४। २
हे त्री! तुम कुलवती घत
ृ आिद पौि टक पदाथ का उिचत उपयोग करने वाली, तेजि वनी, बुिद्धमती,
स कमर् करने वाली होकर सख
ु पूवक
र् रहो। तुम ऐसी गण
ु वती और िवदष
ु ी बनो िक द्र और वसु भी
तु हारी प्रशंसा कर। सौभाग्य की प्राि त के िलये इन वेदम त्र के अमत
ृ का बार- बार भली प्रकार पान
करो। िव वान ् तु ह िशक्षा दे कर इस प्रकार की उ च ि थित पर प्रिति ठत कराएँ।

यह सवर्िविदत है िक यज्ञ, िबना वेदम त्र के नहीं होता और यज्ञ म पित- प नी दोन का सि मिलत
रहना आव यक है । रामच द्र जी ने सीता जी की अनुपि थित म सोने की प्रितमा रखकर यज्ञ िकया
था। ब्र माजी को भी सािवत्री की अनुपि थित म िवतीय प नी का वरण करना पड़ा था, क्य िक यज्ञ
की पूितर् के िलये प नी की उपि थित आव यक है । जब त्री यज्ञ करती है , तो उसे वेदािधकार न होने
की बात िकस प्रकार कही जा सकती है ? दे िखये—
53
अ यज्ञो वा एष योऽप नीक:। —तैि तरीय सं० २। २। २। ६
अथार्त ् िबना प नी के यज्ञ नहीं होता है ।

अथो अध वा एष आ मन: यत ् प नी।


—तैि तरीय सं० ३। ३। ३। ५
अथार्त ्- प नी पित की अधार्ंिगनी है , अत: उसके िबना यज्ञ अपूणर् है ।

या द पती समनसा सन
ु त
ु आ च धावत:।
िदवासो िन ययोऽऽिशरा। —ऋग्वेद ८। ३१। ५
हे िव वानो! जो पित- प नी एकमन होकर यज्ञ करते ह और ई वर की उपासना करते ह..।
िव वा तत े िमथुना अव यवो......
ग य ता वाजना व१यर् ता समह
ू िस। ..... —ऋग्वेद १। १३१। ३
हे परमा मन ् आपके िनिम त यजमान, प नी समेत यज्ञ करते ह। आप उन लोग को वगर् की प्राि त
कराते ह, अतएव वे िमलकर यज्ञ करते ह।
अिग्रहोत्र य शु ूषा स योपासनमेव च।
कायर्ं प या प्रितिदनं बिलकमर् च नैि यकम ्॥ — मिृ त र न
प नी प्रितिदन अिग्रहोत्र, स योपासना, बिलवै व आिद िन यकमर् करे । यिद पु ष न हो तो अकेली त्री
को भी यज्ञ का अिधकार है । दे िखए—
होमे कतार्र: वयं व यास भवे प यादय:। —— गदाधराचायर्
होम करने म पहले वयं यजमान का थान है । वह न हो तो प नी, पुत्र आिद कर।
प नी कुमार: पुत्री च िश यो वाऽिप यथाक्रमम ्।
पूवप
र् ूवर् य चाभावे िवद याद ु तरो तर:॥ —प्रयोग र न मिृ त
यजमान: प्रधान: यात ् प नी पुत्र च क यका।
ऋि वक् िश यो गु भ्र ्राता भािगनेय: सत
ु ापित:॥ — म ृ यथर्सार
उपयक्
ुर् त दोन लोक का भावाथर् यह है िक यजमान हवन के समय िकसी कारण से उपि थत न हो
सके तो उसकी प नी, पुत्र, क या, िश य, गु , भाई आिद कर ल।

आहुर यु तम त्रीणाम ् अिधकारं तु वैिदके।


यथोवर्शी यमी चैव श या या च तथाऽपरा:। —— योम संिहता
े ठ ि त्रय को वेद का अ ययन तथा वैिदक कमर्का ड करने का वैसे ही अिधकार है जैसे िक उवर्शी,
यमी, शची आिद ऋिषकाओं को प्रा त था।
अिग्रहोत्र य शु ूषा स योपासनमेव च। — मिृ तर न (कु लक
ू भट्ट)
इस लोक म यज्ञोपवीत एवं स योपासना का प्र यक्ष िवधान है ।
या त्री भत्र ्रा िवयुक्तािप वाचारै : संयुता शुभा।
54
सा च म त्रान ् प्रग ृ णातु सभत्र ्री तदनज्ञ
ु या॥
—भिव य परु ाण उ तर पवर् ४। १३। ६३
उ तम आचरण वाली िवधवा त्री वेद- म त्र को ग्रहण करे और सधवा त्री अपने पित की अनम
ु ित से
म त्र को ग्रहण करे ।
यथािधकार: ौतेषु योिषतां कमर्सु ुत:।
एवमेवानुम य व ब्र मिण ब्र मवािदनाम ्॥ यम मिृ त
िजस प्रकार ि त्रय को वेद के कम म अिधकार है , वैसे ही ब्र मिव या प्रा त करने का भी अिधकार है ।
का यायनी च मैत्रेयी गागीर् वाचक्रवी तथा।
ु ्र म त मात ् त्री ब्र मिव
एवमा या िवदब्र भवेत ् ॥
—अ य वामीय भा यम ्
जैसे का यायनी, मैत्रेयी, वाचक्रवी, गागीर् आिद ब्र म (वेद और ई वर) को जानने वाली थीं, वैसे ही सब
ि त्रय को ब्र मज्ञान प्रा त करना चािहये।
वा मीिक रामायण म कौश या, कैकेयी, सीता, तारा आिद नािरय वारा वेदम त्र का उ चारण,
अिग्नहोत्र, स योपासन का वणर्न आता है ।
स याकालमना: यामा ध्रुवमे यित जानकी।
नदीं चेमां शभ
ु जलां स याथ वरविणर्नी॥
—वा० रा० ५। १४ ।। ४९
सायंकाल के समय सीता उ तम जल वाली नदी के तट पर स या करने अव य आयेगी।
वैदेही शोकस त ता हुताशनमप
ु ागमत ्।
—वा मीिक० सु दर ५३। २६
अथार्त ्- तब शोक स त त सीताजी ने हवन िकया।
‘तदा सम
ु त्रं म त्रज्ञा कैकेयी प्र युवाच ह।’
—वा० रा० अयो० १४। ६१
वेदम त्र को जानने वाली कैकेयी ने सम
ु त्र से कहा।
सा क्षौमवसना ट िन यं तपरायणा।
अिग्नं जह
ु ोित म तदा म त्रवत ् कृतमंगला॥ —वा० रा० २। २०। १५
वह रे शमी व त्र धारण करने वाली, तपरायण, प्रस नमख
ु ी, मंगलकािरणी कौश या म त्रपव
ू क
र् अिग्नहोत्र
कर रही थी।
तत: व ययनं कृ वा म त्रिव िवजयैिषणी।
अ त:पुरं सह त्रीिभ: प्रिवि ट शोकमोिहता॥ —वा० रा० ४। १६। १२
तब म त्र को जानने वाली तारा ने अपने पित बाली की िवजय के िलये वि तवाचन के म त्र का
पाठ करके अ त:पुर म प्रवेश िकया।
गायत्री म त्र के अिधकार के स ब ध म तो ऋिषय ने और भी प ट श द म उ लेख िकया है । नीचे
55
के दो मिृ त प्रमाण दे िखये, िजनम ि त्रय को गायत्री की उपासना का िवधान िकया गया है ।

पुरा क पे तु नारीणां मौ जीब धनिम यते।


अ यापनं च वेदानां सािवत्रीवाचनं तथा॥ —यम
प्राचीन समय म ि त्रय को मौ जी ब धन, वेद का पढ़ाना तथा गायत्री का उपदे श इ ट था।
मनसा भतरुर् ितचारे ित्ररात्रं यावकं क्षीरौदनं वा भु जानाऽध: शयीत, ऊ वं ित्ररात्राद सु िनमग्नाया:
सािव य टशतेन िशरोिभजह
ुर् ु यात ् पूता भवतीित िवज्ञायते। —विस ठ मिृ त २१। ७

यिद त्री के मन म पित के प्रित दभ


ु ार्व आये, तो उस पाप का प्रायि च त करने के साथ १०८ म त्र
गायत्री जपने से वह पिवत्र होती है ।
इतने पर भी यिद कोई यह कहे िक ि त्रय को गायत्री का अिधकार नहीं, तो दरु ाग्रह या कुसं कार ही
कहना चािहये।
गायत्री उपासना का अथर् है ई वर को माता मानकर उसकी गोदी म चढऩा। संसार म िजतने स ब ध
ह, िर ते ह, उन सबम माता का िर ता अिधक प्रेमपूण,र् अिधक घिन ठ है । प्रभु को िजस ि ट से हम
दे खते ह, हमारी भावना के अनु प वे वैसा ही प्र यु तर दे ते ह। जब ई वर की गोदी म जीव, मात ृ
भावना के साथ चढ़ता है , तो िन चय ही उधर से वा स यपूणर् उ तर िमलता है ।

नेह, वा स य, क णा, दया, ममता, उदारता, कोमलता आिद त व नारी म नर की अपेक्षा वभावतः
अिधक होते ह। ब्र म का अधर् वामांग, ब्रा म त व अिधक कोमल, आकषर्क एवं शीघ्र द्रवीभत
ू होने
वाला है । इसीिलए अनािदकाल से ऋिष लोग ई वर की मात ृ भावना के साथ उपासना करते रहे ह और
उ ह ने प्र येक भारतीय धमार्वल बी को इसी सख
ु सा य, सरल एवं शीघ्र सफल होने वाली साधना
प्रणाली को अपनाने का आदे श िदया है । गायत्री उपासना प्र येक भारतीय का धािमर्क िन यकमर् है ।
स याव दन िकसी भी पद्धित से िकया जाए, उसम गायत्री का होना आव यक है । िवशेष लौिकक या
पारलौिकक प्रयोजन के िलए िवशेष प से गायत्री की उपासना की जाती है , पर उतना न हो सके, तो
िन यकमर् की साधना तो दै िनक क तर् य है , उसे न करने से धािमर्क क तर् य की उपेक्षा करने का दोष
लगता है ।

क या और पुत्र दोन ही माता की प्राणिप्रय स तान ह। ई वर को नर और नारी दोन दल


ु ारे ह। कोई
भी िन पक्ष और यायशील माता- िपता अपने बालक म इसिलए भेदभाव नहीं करते िक वे क या ह
या पुत्र ह। ई वर ने धािमर्क क तर् य एवं आ मक याण के साधन की नर और नारी दोन को ही
सिु वधा दी है । यह समता, याय और िन पक्षता की ि ट से उिचत है , तकर् और प्रमाण से िसद्ध है ।
इस सीधे- सादे त य म कोई िवघ्न डालना असंगत ही होगा।
मनु य की समझ बड़ी िविचत्र है । उसम कभी- कभी ऐसी बात भी घस
ु जाती ह, जो सवर्था अनिु चत एवं
अनाव यक होती ह। प्राचीन काल म नारी जाित का समिु चत स मान रहा, पर एक समय ऐसा भी

56
आया जब त्री जाित को सामिू हक प से हे य, पितत, या य, पातकी, अनिधकारी व घिृ णत ठहराया।
उस िवचारधारा ने नारी के मनु योिचत अिधकार पर आक्रमण िकया और पु ष की े ठता एवं सिु वधा
को पोषण दे ने के िलए उस पर अनेक प्रितब ध लगाकर शिक्तहीन, साहसहीन, िव याहीन बनाकर उसे
इतना लज
ुं - पु ज कर िदया िक बेचारी को समाज के िलए उपयोगी िसद्ध हो सकना तो दरू , आ मरक्षा
के िलए भी दस
ू र का मोहताज होना पड़ा। आज भारतीय नारी पालतू पशु- पिक्षय जैसी ि थित म
पहुँच गयी है । इसका कारण वह उलटी समझ ही है , जो म यकाल के साम तशाही अहं कार के साथ
उ प न हुई थी। प्राचीन काल म भारतीय नारी सभी क्षेत्र म पु ष के समकक्ष थी। रथ के दोन पिहये
ठीक होने से समाज की गाड़ी उ तमता से चल रही थी; पर अब एक पिहया क्षत- िवक्षत हो जाने से
दस
ू रा पिहया भी लडख़ड़ा गया। अयोग्य नारी समाज का भार नर को ढोना पड़ रहा है । इस अ यव था
ने हमारे दे श और जाित को िकतनी क्षित पहुँचाई है , उसकी क पना करना भी क टसा य है ।

म यकालीन अ धकार युग की िकतनी ही बुराइय को सध


ु ारने के िलए िववेकशील और दरू दशीर्
महापु ष प्रय नशील ह, यह प्रस नता की बात है । िवज्ञ पु ष अनभ
ु व करने लगे ह िक म यकालीन
संकीणर्ता की लौहशंख
ृ ला से नारी को न खोला गया, तो हमारा रा ट्र प्राचीन गौरव को प्रा त नहीं कर
सकता। पव
ू क
र् ाल म नारी िजस ु : पहुँचने से हमारा आधा अंग
व थ ि थित म थी, उस ि थित म पन
िवकिसत हो सकेगा और तभी हमारा सवार्ंगीण िवकास हो सकेगा। इन शभ
ु प्रय न म म यकालीन
कुसं कार की िढ़य का अ धानुकरण करने को ही धमर् समझ बैठने वाली िवचारधारा अब भी रोड़े
अटकाने से नहीं चक
ू ती।

ई वर- भिक्त, गायत्री की उपासना तक के बारे म यह कहा जाता है िक ि त्रय को अिधकार नहीं। इसके
िलए कई पु तक के लोक भी प्र तुत िकए जाते ह, िजनम यह कहा है िक ि त्रयाँ वेद- म त्र को न
पढ़, न सन
ु , क्य िक गायत्री भी वेद म त्र है , इसिलए ि त्रयाँ उसे न अपनाएँ। इन प्रमाण से हम कोई
िवरोध नहीं, क्य िक एक काल भारतवषर् म ऐसा बीता है , जब नारी को िनकृ ट कोिट के जीव की तरह
समझा गया है । यूरोप म तो उस समय यह मा यता थी िक घास- पात की तरह ि त्रय म भी आ मा
नहीं होती। यहाँ भी उनसे िमलती- जल
ु ती ही मा यता ली गई थी। कहा जाता था िक—
िनिरि द्रया यम त्रा च ि त्रयोऽनत
ृ िमित ि थित:। —मनु० ९/१८

अथार्त ्- ि त्रयाँ िनिरि द्रय (इि द्रय रिहत), म त्ररिहता, अस य व िपणी ह।


त्री को ढोल, गँवार, शूद्र और पशु की तरह िपटने योग्य ठहराने वाले िवचारक का कथन था िक—
प च या चलिच ता च नै ने य च वभावत:।
रिक्षता य नतोऽपीह भ त ृ वेता िवकुवर्ते॥ —मनु० ९/१५

अथार्त ्- ि त्रयाँ वभावतया ही यिभचािरणी, चंचल िच त और प्रेम शू य होती ह। उनकी बड़ी होिशयारी
के साथ दे खभाल रखनी चािहए।

57
िव वासपात्रं न िकमि त नारी।
वारं िकमेकं नरक य नारी।
िव वा महािवज्ञतमोऽि त को वा।
नायार् िपशा या न च वंिचतो य:॥ —शंकराचायर् प्र ो तरी से
प्र न- िव वास करने योग्य कौन नहीं है ? उ तर- नारी।
प्र - नरक का एक मात्र वार क्या है ? उ तर- नारी।
प्र - बुिद्धमान ् कौन है ? उ तर- जो नारी पी िपशािचनी से नहीं ठगा गया।

जब ि त्रय के स ब ध म ऐसी मा यता फैली हुई हो तो उन पर वेद- शा त्र से, धमर्- क तर् य से, ज्ञान-
उपाजर्न से वंिचत रहने का प्रितब ध लगाया गया हो, तो इसम कुछ आ चयर् की बात नहीं है । इस
प्रकार के प्रितब ध सच
ू क अनेक लोक उपल ध भी होते ह।
त्रीशूद्र िवजब धूनां त्रयी न ुितगोचरा। —भागवत
अथार्त ्- ि त्रय , शद्र ु ने का अिधकार नहीं।
ू और नीच ब्रा मण को वेद सन
अमि त्रका तु काययं त्रीणामावद
ृ शेषत:।
सं काराथर्ं शरीर य यथा कालं यथाक्रमम ्॥ —मन०
ु २। ६६
अथार्त ्- ि त्रय के जातकमार्िद सब सं कार िबना वेदम त्र के करने चािहए।
न वेवं सित त्रीशद्र
ू सिहता: सव वेदािधकािरण:। —सायण
त्री और शद्र
ू को वेद का अिधकार नहीं है ।
वेदेऽनिधकारात ्। —शंकराचायर्
ि त्रयाँ वेद की अिधकािरणी नहीं ह।

अ ययन रिहतया ि त्रया तदनु ठानमशक्य वात ् त मात ् पुंस एवोप थानािदकम ्।
त्री अ ययन रिहत होने के कारण यज्ञ म म त्रो चार नहीं कर सकती, इसिलये केवल पु ष म त्र पाठ
कर।
त्रीशूद्रौ नाधीयाताम ्। अथर्- त्री और शूद्र वेद न पढ़।
न वै क या न युवित:। अथर्- न क या पढ़े , न त्री पढ़े ।
इस प्रकार ि त्रय को धमर्, ज्ञान, ई वर उपासना और आ मक याण से रोकने वाले प्रितब ध को कई
भोले मनु य ‘सनातन’ मान लेते ह और उनका समथर्न करने लगते ह। ऐसे लोग को जानना चािहये
िक प्राचीन सािह य म इस प्रकार के प्रितब ध कहीं नहीं ह, वरन ् उसम तो सवर्त्र नारी की महानता का
वणर्न है और उसे भी पु ष जैसे ही धािमर्क अिधकार प्रा त ह। यह प्रितब ध तो कुछ काल तक कुछ
यिक्तय की एक सनक के प्रमाण मात्र ह। ऐसे लोग ने धमर्ग्र थ म जहाँ- तहाँ अनगर्ल लोक
ठूँसकर अपनी सनक को ऋिष प्रणीत िसद्ध करने का प्रय न िकया है ।

भगवान मनु ने नारी जाित की महानता को मक्


ु तक ठ से वीकार करते हुए िलखा है -
58
प्रजनाथर्ं महाभागा: पज
ू ाहार् गह
ृ दी तय:।
ि त्रय: ि य च गेहेषु न िवशेषोऽि त क चन॥ मन०
ु ९। २६
अप यं धमर्कायार्िण शु ष
ू ारित तमा।
दाराधीन तथा वगर्: िपतण
ृ ामा मन च ह॥ -मन०
ु ९। २८
यत्र ना य तु पू य ते रम ते तत्र दे वता:।
यत्रैता तु न पू य ते सवार् तत्राफला: िक्रया:॥ -मन०
ु ३। ५६
अथार्त ्- ि त्रयाँ पूजा के योग्य ह, महाभाग ह, घर की दीि त ह; क याणकािरणी ह। धमर् काय की
सहाियका ह। ि त्रय के अधीन ही वगर् है । जहाँ ि त्रय की पूजा होती है , वहाँ दे वता िनवास करते ह
और जहाँ उनका ितर कार होता है , वहाँ सब िक्रयाय िनकल हो जाती ह।
िजन मनु भगवान की द्धा नारी जाित के प्रित इतनी उ चकोिट की थी, उ हीं के ग्र थ म यत्र- तत्र
ि त्रय की भरपेट िन दा और उनकी धािमर्क सिु वधा का िनषेध है । मनु जैसे महापु ष ऐसी पर पर
िवरोधी बात नहीं िलख सकते। िन चय ही उनके ग्र थ म पीछे वाले लोग ने िमलावट की है । इस
िमलावट के प्रमाण भी िमलते ह। दे िखये-

मा या कािप मनु मिृ त तदिु चता याख्यािप मेधाितथे:।


सा लु तैव िवधेवश
र् ा क्विचदिप प्रा यं न त पु तकम ्॥
क्षोणी द्रो मदन: सहारणसत
ु ो दे शा तरादा तै:।
जीण द्धारमचीकरत ् तत इत त पु तकैिलर्ख्यते॥
-मेधाितिथरिचत मनभ
ु ा य सिहत मनु मत
ृ े पो घात:
अथार्त ्- प्राचीन काल म कोई प्रामािणक मनु मिृ त थी और उसकी मेधाितिथ ने उिचत याख्या की थी।
दभ
ु ार्ग्यवश वह पु तक लु त हो गयी। तब राजा मदन ने इधर- उधर की पु तक से उसका जीण द्धार
कराया।
केवल मनु मिृ त तक यह घोटाला सि मिलत नहीं है , वरन ् अ य ग्र थ म भी ऐसी ही िमलावट की
गयी ह और अपनी मनमानी को शा त्र िव द्ध होते हुए भी ‘‘शा त्र वचन’’ िसद्ध करने का प्रय न िकया
गया है ।
दै या: सव िवप्रकुलेषु भू वा, कृते युगे भारते ष सह याम ्।
िन का य कांि च नविनिमर्तानां िनवेशनं तत्र कुवर्ि त िन यम ् ॥
-ग ड़ पुराण उ० खं० ब्र म का० १। ६९
राक्षस लोग किलयुग म ब्रा मण कुल म उ प न होकर महाभारत के छ: हजार लोक म से अनेक
लोक को िनकाल दगे और उनके थान पर नये कृित्रम लोक गढक़र प्रक्षेप कर दगे।’
यही बात माधवाचायर् ने इस प्रकार कही है -
क्विच ग्र थान ् प्रिक्षपि तक्विचद तिरतानिप।
कुय:ुर् क्विच च य यासं प्रमादात ् क्विचद यथा॥

59
अनु प ना: अिप ग्र था याकुला इित सवर्श:।
वाथीर् लोग कहीं ग्र थ के वचन को प्रिक्ष त कर दे ते ह, कहीं िनकाल दे ते ह, कहीं जान- बझ
ू कर, कहीं
प्रमाद से उ ह बदल दे ते ह। इस प्रकार प्राचीन ग्र थ बड़े अ त- य त हो गये ह।

िजन िदन यह िमलावट की जा रही थी, उन िदन भी िवचारवान िव वान ने इस गड़बड़ी का डटकर
िवरोध िकया था। महिषर् हारीत ने इन त्री- वेषी ऊल- जलल
ू उिक्तय का घोर िवरोध करते हुए कहा
था-
न शूद्रसमा: ि त्रय:। निह शूद्र योनौ ब्रा मणक्षित्रयवै या जाय ते, त मा छ दसा ि त्रय: सं कायार्:॥ -हारीत
ि त्रयाँ शद्र
ू के समान नहीं हो सकतीं। शूद्र- योिन से भला ब्रा मण, क्षित्रय, वै य की उ पि त िकस
प्रकार हो सकती है ? इसिलए ि त्रय को वेद वारा सं कृत (सं कािरत) करना चािहये।
नर और नारी एक ही रथ के दो पिहये ह, एक ही शरीर की दो भज
ु ाय ह, एक ही मख
ु के दो नेत्र ह।
ू रा अपूणर् है । दोन अधर् अग के िमलन से एक पूणर् अंग बनता है । मानव प्राणी के
एक के िबना दस
अिवि छ न दो भाग म इस प्रकार की असमानता, िवधा, नीच- ऊँच की भावना पैदा करना भारतीय
पर परा के सवर्था िवपरीत है । भारतीय धमर् म सदा नर- नारी को एक और अिवि छ न अंग माना है -

यथैवा मा तथा पुत्र: पुत्रेण दिु हता समा। -मनु० ९। १३०


आ मा के समान ही स तान है । जैसा पुत्र वैसी ही क या, दोन समान ह।
एतावानेव पु षो य जाया मा प्रजेित ह।
िवप्रा: प्राहु तथा चैत यो भ ता सा मत
ृ ांगना॥ -मनु० ९। ४५
पु ष अकेला नहीं होता, िक तु वयं प नी और स तान िमलकर पु ष बनता है ।
अथो अ धो वा एष आ मन: यत ् प नी।
अथार्त ् प नी पु ष का आधा अंग है ।

ऐसी दशा म यह उिचत नहीं िक नारी को प्रभु की वाणी वेदज्ञान से वंिचत रखा जाए। अ य म त्र की
तरह गायत्री का भी उसे पूरा अिधकार है । ई वर की हम नारी के प म, गायत्री के प म उपासना कर
और िफर नारी जाित को ही घिृ णत, पितत, अ प ृ या, अनिधकािरणी ठहराएँ, यह कहाँ तक उिचत है , इस
पर हम वयं ही िवचार करना चािहये।

ि त्रय को वेदािधकार से वंिचत रखने तथा उ ह उसकी अनिधकािरणी मानने से उसके स ब ध म


वभावत: एक प्रकार की हीन भावना पैदा हो जाती है , िजसका दरू वतीर् घातक पिरणाम हमारे सामािजक
तथा रा ट्रीय िवकास पर पड़ता है । य तो वतर्मान समय म अिधकांश पु ष भी वेद से अपिरिचत ह
और उनके स ब ध म ऊटपटांग बात करते रहते ह। पर िकसी समद
ु ाय को िसद्धा त प से अनिधकारी
घोिषत कर दे ने पर पिरणाम हािनकारक ही िनकलता है । इसिलये िवत डावािदय के कथन का ख्याल
न करके हमको ि त्रय के प्रित िकये गये अ याय का अव य ही िनराकरण करना चािहये।

60
वेद- ज्ञान सबके िलये है , नर- नारी सभी के िलये है । ई वर अपनी स तान को जो स दे श दे ता है , उसे
सन
ु ने पर प्रितब ध लगाना, ई वर के प्रित द्रोह करना है । वेद भगवान वयं कहते ह-

समानो म त्र: सिमित: समानी समानं मन: सह िच तमेषाम ्।


समानं म त्रमिभम त्रये व: समानेन वो हिवषा जह
ु ोिम॥ -ऋग्वेद १०। १९१। ३
अथार्त ्- हे सम त नािरयो! तु हारे िलये ये म त्र समान प से िदये गये ह तथा तु हारा पर पर िवचार
भी समान प से हो। तु हारी सभाय सबके िलये समान प से खुली हुई ह , तु हारा मन और िच त
समान िमला हुआ हो, म तु ह समान प से मत्र का उपदे श करता हूँ और समान प से ग्रहण करने
योग्य पदाथर् दे ता हूँ।

मालवीय जी वारा िनणर्य

ि त्रय को वेद- मत्र का अिधकार है या नहीं? इस प्र न को लेकर काशी के पि डत म पयार् त िववाद
हो चुका है । िह द ू िव विव यालय काशी म कुमारी क याणी नामक छात्रा वेद कक्षा म प्रिव ट होना
चाहती थी, पर प्रचिलत मा यता के आधार पर िव विव यालय ने उसे दािखल करने से इ कार कर
िदया। अिधकािरय का कथन था िक शा त्र म ि त्रय को वेद- म त्र का अिधकार नहीं िदया गया है ।

इस िवषय को लेकर पत्र- पित्रकाओं म बहुत िदन िववाद चला। वेदािधकार के समथर्न म ‘‘सावर्देिशक’’
पत्र ने कई लेख छापे और िवरोध म काशी के ‘‘िसद्धा त’’ पत्र म कई लेख प्रकािशत हुए। आयर् समाज
की ओर से एक डेपुटेशन िह द ू िव विव यालय के अिधकािरय से िमला। दे श भर म इस प्र न को
लेकर काफी चचार् हुई।

अ त म िव विव यालय ने महामना मदनमोहन मालवीय की अ यक्षता म इस प्र न पर िवचार करने


ु त की, िजसम अनेक धािमर्क िव वान ् सि मिलत िकये गये। कमेटी ने इस
के िलये एक कमेटी िनयक्
स ब ध म शा त्र का ग भीर िववेचन करके यह िन कषर् िनकाला िक ि त्रय को भी पु ष की भाँित
वेदािधकार है । इस िनणर्य की घोषणा २२ अग त सन ् १९४६ को सनातन धमर् के प्राण समझे जाने
वाले महामना मालवीय जी ने की। तदनस
ु ार कुमारी क याणी दे वी को िह द ू िव विव यालय की वेद
कक्षा म दािखल कर िलया गया और शा त्रीय आधार पर िनणर्य िकया िक- िव यालय म ि त्रय के
वेदा ययन पर कोई प्रितब ध नहीं रहे गा। ि त्रयाँ भी पु ष की भाँित वेद पढ़ सकगी।

महामना मालवीय जी तथा उनके सहयोगी अ य िव वान पर कोई सनातन धमर् िवरोधी होने का
स दे ह नहीं कर सकता। सनातन धमर् म उनकी आ था प्रिसद्ध है । ऐसे लोग वारा इस प्र को सल
ु झा
िदये जाने पर भी जो लोग गड़े मद
ु उखाड़ते ह और कहते ह िक ि त्रय को गायत्री का अिधकार नहीं
है , उनकी बुिद्ध के िलए क्या कहा जाय, समझ म नहीं आता।

61
पं० मदनमोहन मालवीय सनातन धमर् के प्राण थे। उनकी शा त्रज्ञता, िव व ता, दरू दिशर्ता एवं धािमर्क
ढ़ता असि दग्ध थी। ऐसे महापि डत ने अ य अनेक प्रामािणक िव वान के परामशर् से वीकार िकया
है । उस िनणर्य पर भी जो लोग स दे ह करते ह, उनकी हठधिमर्ता को दरू करना वयं ब्र माजी के िलये
भी किठन है ।

खेद है िक ऐसे लोग समय की गित को भी नहीं दे खते, िह द ू समाज की िगरती हुई संख्या और शिक्त
पर भी यान नहीं दे त,े केवल दस- बीस कि पत या िमलावटी लोक को लेकर दे श तथा समाज का
अिहत करने पर उता हो जाते ह। प्राचीन काल की अनेक िवदष
ु ी ि त्रय के नाम अभी तक संसार म
प्रिसद्ध ह। वेद म बीिसय त्री- ऋिषकाओं का उ लेख म त्र रचियता के प म िलखा िमलता है । पर
ऐसे लोग उधर ि टपात न करके म यकाल के ऋिषय के नाम पर वाथीर् लोग वारा िलखी पु तक
के आधार पर समाज सुधार के पुनीत कायर् म यथर् ही टाँग अड़ाया करते ह। ऐसे यिक्तय की उपेक्षा
करके वतर्मान युग के ऋिष मालवीय जी की स मित का अनुसरण करना ही समाज- सेवक का कतर् य
है ।।

ि याँ अनिधकािरणी नहीं ह

िपछले प ृ ठ पर शा त्र के आधार पर जो प्रमाण उपि थत िकये गये ह, पाठक उनम से हर एक पर


िवचार कर। हर िवचारवान को यह सहज ही प्रतीत हो जायेगा िक वेद- शा त्र म ऐसा कोई प्रितब ध
नहीं है जो धािमर्क काय के िलये, स ज्ञान उपाजर्न के िलये वेद- शा त्र का वण- मनन करने के िलये
रोकता हो। िह दध
ू मर् वैज्ञािनक धमर् है , िव व धमर् है । इसम ऐसी िवचारधारा के िलये कोई थान नहीं
है , जो ि त्रय को धमर्, ई वर, वेद िव या आिद के उ तम मागर् से रोककर उ ह अवनत अव था म पड़ी
रहने के िलए िववश करे । प्राणीमात्र पर अन त दया एवं क णा रखने वाले ऋिष- मिु न ऐसे िन ठुर नहीं
हो सकते, जो ई वरीय ज्ञान वेद से ि त्रय को वंिचत रखकर उ ह आ मक याण के मागर् पर चलने से
रोक। िह दधू मर् अ यिधक उदार है , िवशेषत: ि त्रय के िलए तो उसम बहुत ही आदर, द्धा एवं उ च
थान है । ऐसी दशा म यह कैसे हो सकता है िक गायत्री उपासना जैसे उ तम कायर् के िलए उ ह
अयोग्य घोिषत िकया जाए?

जहाँ तक दस- पाँच ऐसे लोक िमलते ह, जो ि त्रय को वेद- शा त्र पढ़ने से रोकते ह, पि डत समाज म
उन पर िवशेष यान िदया गया है । प्रार भ म बहुत समय तक हमारी भी ऐसी ही मा यता रही िक
ि त्रयाँ वेद न पढ़। पर तु जैसे- जैसे शा त्रीय खोज म अिधक गहरा प्रवेश करने का अवसर िमला, वैसे-
वैसे पता चला िक प्रितबि धत लोक म यकालीन साम तवादी मा यता के प्रितिनिध ह। उसी समय म
इस प्रकार के लोक बनाकर ग्र थ म िमला िदये गये ह। स य सनातन वेदोक्त भारतीय धमर् की
वा तिवक िवचारधारा ि त्रय पर कोई ब धन नहीं लगाती। उसम पु ष की भाँित ही ि त्रय को भी

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ई वर- उपासना एवं वेद- शा त्र का आ य लेकर आ मलाभ करने की परू ी- परू ी सिु वधा है ।

प्रिति ठत गणमा य िव वान की भी ऐसी ही स मित है । साधना और योग की प्राचीन पर पराओं के


जानकार महा माओं का कथन भी यही है िक ि त्रयाँ सदा से ही गायत्री की अिधकािरणी रही ह।
वगीर्य मालवीय जी सनातन धमर् के प्राण थे। पहले उनके िह द ू िव विव यालय म ि त्रय को वेद
पढऩे की रोक थी, पर जब उ ह ने िवशेष प से पि डत म डली के सहयोग से इस स ब ध म वयं
खोज की तो वे भी इस िन कषर् पर पहुँचे िक शा त्र म ि त्रय के िलए कोई प्रितब ध नहीं है । उ ह ने
ढ़ीवादी लोग के िवरोध की र तीभर भी परवाह न करते हुए िह द ू िव विव यालय म ि त्रय को वेद
पढऩे की खुली यव था कर दी।

अब भी कई महानुभाव यह कहते रहते ह िक ि त्रय को गायत्री का अिधकार नहीं। ऐसे लोग की आँख
खोलने के िलए असंख्य प्रमाण म से ऐसे कुछ थोड़े से प्रमाण इस पु तक म प्र तुत िकए गए ह।
स भव है जानकारी के अभाव म िकसी को िवरोध रहा हो। दरु ाग्रह से कभी िकसी िववाद का अ त नहीं
होता। अपनी ही बात को िसद्ध करने के िलए हठ ठानना अशोभनीय है । िववेकवान यिक्तय का सदा
यह िसद्धा त रहता है िक ‘जो स य सो हमारा’। अिववेकी मनु य ‘जो हमारा सो स य’ िसद्ध करने के
िलए िवत डा खड़ा करते ह।

िवचारवान यिक्तय को अपने आप से एका त म बैठकर यह प्र करना चािहए— (१) यिद ि त्रय को
गायत्री या वेदम त्र का अिधकार नहीं, तो प्राचीनकाल म ि त्रयाँ वेद की म त्रद्र ट्री- ऋिषकाएँ क्य हुईं?
(२) यिद वेद की वे अिधकािरणी नहीं तो यज्ञ आिद धािमर्क कृ य तथा षोडश सं कार म उ ह
सि मिलत क्य िकया जाता है ? (३) िववाह आिद अवसर पर ि त्रय के मख
ु से वेदम त्र का उ चारण
क्य कराया जाता है ? (४) िबना वेदम त्र के िन य स या और हवन ि त्रयाँ कैसे कर सकती ह? (५)
यिद ि त्रयाँ अनिधकािरणी थीं तो अनसय
ू ा, अह या, अ धती, मदालसा आिद अगिणत ि त्रयाँ वेदशा त्र
म पारं गत कैसे थीं? (६) ज्ञान, धमर् और उपासना के वाभािवक अिधकार से नागिरक को वंिचत करना
क्या अ याय एवं पक्षपात नहीं है ? (७) क्या नारी को आ याि मक ि ट से अयोग्य ठहराकर उनसे
उ प न होने वाली स तान धािमर्क हो सकती है ? (८) जब त्री, पु ष की अधार्ंिगनी है तो आधा अंग
अिधकारी और आधा अनिधकारी िकस प्रकार रहा?

इन प्र पर िवचार करने से हर एक िन पक्ष यिक्त की अ तरा मा यही उ तर दे गी िक ि त्रय पर


धािमर्क अयोग्यता का प्रितब ध लगाना िकसी प्रकार यायसंगत नहीं हो सकता। उ ह भी गायत्री आिद
पु ष की भाँित ही अिधकार होना चािहए। हम वयं भी इसी िन कषर् पर पहुँचे ह। हमारा ऐसी पचास
ि त्रय से पिरचय है िजनने द्धापूवक
र् वेदमाता गायत्री की उपासना की है और पु ष के ही समान
स तोषजनक सफलता प्रा त िकए ह। कई बार तो उ ह पु ष से भी अिधक एवं शीघ्र सफलताएँ िमलीं।
क याएँ उ तम घर वर प्रा त करने म, सधवाएँ पित का सख
ु सौभाग्य एवं सस
ु तित के स ब ध म

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और िवधवाएँ संयम तथा धन उपाजर्न म आशाजनक सफल हुई ह।

आ मा न त्री है , न पु ष। वह िवशद्ध
ु ब्र म योित की िचनगारी है । आि मक प्रकाश प्रा त करने के
िलए जैसे पु ष को िकसी गु या पथ- प्रदशर्क की आव यकता होती है , वैसे ही त्री को भी होती है ।
ता पयर् यह है िक साधना क्षेत्र म पु ष- त्री का भेद नहीं। साधक ‘आ मा’ है , उ ह अपने को पु ष- त्री
न समझ कर आ मा समझना चािहए। साधना क्षेत्र म सभी आ माएँ समान ह। िलंग भेद के कारण
कोई अयोग्यता उन पर नहीं थोपी जानी चािहए।
पु ष की अपेक्षा ि त्रय म धािमर्क त व की मात्रा अिधक होती है । पु ष पर बुरे वातावरण एवं
यवहार की छाया अिधक पड़ती है िजससे बुराइयाँ अिधक हो जाती ह। आिथर्क संघषर् म रहने के
कारण चोरी, बेईमानी आिद के अवसर उनके सामने आते रहते ह। पर ि त्रय का कायर्क्षेत्र बड़ा सरल,
सीधा और साि वक है । घर म जो कायर् करना पड़ता है , उसम सेवा की मात्रा अिधक रहती है । वे
आ मिनग्रह करती ह, क ट सहती ह, पर ब च के प्रित, पितदे व के प्रित, सास- ससरु , दे वर- जेठ आिद
सभी के प्रित अपने यवहार को सौ य, स दय, सेवापण
ू ,र् उदार, िश ट एवं सिह णु रखती ह। उनकी
िदनचयार् सतोगण
ु ी होती है , िजसके कारण उनकी अ तरा मा पु ष की अपेक्षा अिधक पिवत्र रहती है ।
चोरी, ह या, ठगी, धत
ू त
र् ा, शोषण, िन ठुरता, यसन, अहं कार, असंयम, अस य आिद दग ुर् पु ष म ही
ु ण
प्रधानतया पाये जाते ह। ि त्रय म इस प्रकार के पाप बहुत कम दे खने को िमलते ह। य तो
फैशनपर ती, अिश टता, ककर्शता, म से जी चुराना आिद छोटी- छोटी बरु ाइयाँ अब ि त्रय म बढऩे लगी
ह, पर तु पु ष की तल
ु ना म ि त्रयाँ िन स दे ह अनेक गन
ु ी अिधक स गण
ु ी ह, उनकी बरु ाइयाँ
अपेक्षाकृत बहुत ही सीिमत ह।

ऐसी ि थित म पु ष की अपेक्षा मिहलाओं म धािमर्क प्रविृ त का होना वाभािवक ही है । उनकी


मनोभिू म म धमर् का बीजांकुर अिधक ज दी जमता और फलता- फूलता है । अवकाश रहने के कारण वे
घर म पूजा- आराधना की िनयिमत यव था भी कर सकती ह। अपने ब च पर धािमर्क सं कार
अिधक अ छी तरह से डाल सकती ह। इन सब बात को दे खते हुए मिहलाओं को धािमर्क साधना के
िलए उ सािहत करने की आव यकता है । इसके िवपरीत उ ह नीच, अनिधकािरणी, शूद्रा आिद कहकर
उनके मागर् म रोड़े खड़े करना, िन सािहत करना िकस प्रकार उिचत है , यह समझ म नहीं आता !
मिहलाओं के वेद- शा त्र अपनाने एवं गायत्री साधना करने के असंख्य प्रमाण धमर्ग्र थ म भरे पड़े ह।
उनकी ओर से आँख ब द करके िक हीं दो- चार प्रिक्ष त लोक को लेकर बैठना और उ हीं के आधार
पर ि त्रय को अनिधकािरणी ठहराना कोई बिु द्धमानी की बात नहीं है । धमर् की ओर एक तो वैसे ही
िकसी की प्रविृ त नहीं है , िफर िकसी को उ साह, सिु वधा हो तो उसे अनिधकारी घोिषत करके ज्ञान और
उपासना का रा ता ब द कर दे ना कोई िववेकशीलता नहीं है ।

हमने भली प्रकार खोज िवचार, मनन और अ वेषण करके यह पूरी तरह िव वास कर िलया है िक
ि त्रय को पु ष की भाँित ही गायत्री का अिधकार है । वे भी पु ष की भाँित ही माता की गोदी म
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चढऩे की, उसका आँचल पकडऩे की, उसका पय:पान करने की पण
ू र् अिधकािरणी ह। उ ह सब प्रकार का
संकोच छोडक़र प्रस नतापव
ू क
र् गायत्री की उपासना करनी चािहए। इससे उनके भव- ब धन कटगे, ज म-
मरण की फाँसी से छूटगी, जीवन- मिु क्त और वगीर्य शाि त की अिधकािरणी बनगी, साथ ही अपने
पु य प्रताप से अपने पिरजन के वा य, सौभाग्य, वैभव एवं सख
ु - शाि त की िदन- िदन विृ द्ध करने म
मह वपूणर् सहयोग दे सकगी। गायत्री को अपनाने वाली दे िवयाँ स चे अथ म दे वी बनती ह। उनके
िद य गण
ु का प्रकाश होता है , तदनस
ु ार वे सवर्त्र उसी आदर को प्रा त करती ह जो उनका ई वर प्रद त
ज मजात अिधकार है ।

दे िवय की गायत्री साधना


प्राचीनकाल म गागीर्, मैत्रेयी, मदालसा, अनसय
ू ा, अ धती, दे वयानी, अह या, कु ती, सत पा, व ृ दा,
म दोदरी, तारा, द्रौपदी, दमय ती, गौतमी, अपाला, सल
ु भा, शा वती, उिशजा, सािवत्री, लोपामद्र
ु ा, प्रितशेयी,
वैशािलनी, बदल
ु ा, सन
ु ीित, शकु तला, िपङ्गला, ज कार, रोिहणी, भद्रा, िवदल
ु ा, गा धारी, अ जनी, सीता,
दे वहूित, पावर्ती, अिदित, शची, स यवती, सक
ु या, शै या अिद महासितयाँ वेदज्ञ और गायत्री उपासक रही
ह। उ ह ने गायत्री शिक्त की उपासना वारा अपनी आ मा को समु नत बनाया था और यौिगक
िसिद्धयाँ प्रा त की थीं। उ ह ने सधवा और गह
ृ थ रहकर सािवत्री की आराधना म सफलता प्रा त की
थी। इन दे िवय का िव तत
ृ व ृ ता त, उनकी साधनाओं और िसिद्धय का िवणर्न करना यहाँ स भव नहीं
है । िज ह ने भारतीय पुराण- इितहास को पढ़ा है , वे जानते ह िक उपयक्
ुर् त दे िवयाँ िव व ता, साहस, शौयर्,
दरू दिशर्ता, नीित, धमर्, साधना, आ मो नित आिद पराक्रम म अपने ढं ग की अनोखी जा व यमान
तािरकाएँ थीं। उ ह ने समय- समय पर ऐसे चम कार उपि थत िकये ह, िज ह दे खकर आ चयर् म रह
जाना पड़ता है ।

प्राचीनकाल म सािवत्री ने एक वषर् तक गायत्री जप करके वह शिक्त प्रा त की थी िजससे वह अपने


मत
ृ पित स यवान ् के प्राण को यमराज से लौटा सकी। दमय ती का तप ही था िजसके प्रभाव ने
कुचे टा करने का प्रय न करने वाले याध को भ म कर िदया था। गा धारी आँख से पट्टी बाँधकर
ऐसा तप करती थी, िजससे उसके नेत्र म वह शिक्त उ प न हो गयी थी िक उसके ि टपात मात्र से
दय
ु धन का शरीर अभे य हो गया था। अनसय
ू ा ने तप से ब्र मा, िव ण,ु महे श को न ह बालक बना
िदया था। सती शाि डली के तपोबल ने सय
ू र् का रथ रोक िदया था। सक
ु या की तप या से जीणर्- शीणर्
यवन ऋिष त ण हो गये थे। ि त्रय की तप या का इितहास पु ष से कम शानदार नहीं है । यह
प ट है िक त्री और पु ष सभी के िलए तप का प्रमख
ु मागर् गायत्री ही है ।

वतर्मान समय म भी अनेक नािरय की गायत्री साधना का हम भलीभाँित पिरचय है और वह भी पता


है िक इसके वारा उ ह ने िकतनी बड़ी मात्रा म आि मक और सांसािरक सख
ु - शाि त की प्राि त की है ।

65
एक सप्र
ु िसद्ध इंजीिनयर की धमर्प नी ीमती प्रेम यारी दे वी को अनेक प्रकार की पािरवािरक किठनाइय
से होकर गज
ु रना पड़ा है । उनने अनेक संकट के समय गायत्री का आ य िलया और िवषम
पिरि थितय से छुटकारा पाया है ।

िद ली के एक अ य त उ च पिरवार की सिु शिक्षत दे वी ीमती च द्रका ता जेरथ बी. ए. गायत्री की


अन य सािधका ह। इ ह ने इस साधना वारा बीमािरय की पीड़ा दरू करने म िवशेष सफलता प्रा त
की है । ददर् से बेचैन रोगी इनके अिभमि त्रत ह त पशर् से आराम अनुभव करता है । इ ह गायत्री म
इतनी त मयता है िक सोते हुए भी जप अपने आप होता रहता है ।

नगीना के प्रिति ठत िशक्षाशा त्री की धमर्प नी ीमती मेधावती दे वी को बचपन म गायत्री साधना के
िलए अपने िपताजी से प्रो साहन िमला था। तब से अब तक वे इस साधना को प्रेमपूवक
र् चला रही ह।
कई िच ताजनक अवसर पर गायत्री की कृपा से उनकी मनोकामना पूणर् हुई है ।

िशल ग की एक सती सा वी मिहला ीमती गण


ु व ती दे वी के पितदे व की म ृ यु २० वषर् की आयु म हो
गयी थी। गोदी म डेढ़ वषर् का पत्र
ु था। उनको तथा उनके वसरु को इस म ृ यु का भारी आघात लगा
और दोन ही शोक से पीिडत
़ होकर अि थ- िपंजर मात्र रह गये। एक िदन एक ज्ञानी ने उनके वसरु
को गायत्री जप का उपदे श िकया। शोक िनवारणाथर् वे उस जप को करने लगे। कुछ िदन बाद गण
ु व ती
दे वी को वप्र म एक तपि वनी ने दशर्न िदए और कहा, िकसी प्रकार की िच ता न करो, म तु हारी
रक्षा क ँ गी, मेरा नाम गायत्री है । कभी आव यकता हुआ करे , तो मेरा मरण िकया करो। व न टूटने
पर दस ू रे ही िदन से उ ह ने गायत्री साधना आर भ कर दी। िपछले १३ वष से अनेक आपि तयाँ उन
पर आयीं और वे सब टल गयीं।

है दराबाद (िस ध) की ीमती िवमलादे वी की सास बड़ी ककर्श वभाव की थी और पितदे व शराब,
वे यागमन आिद बुरी लत म डूबे रहते थे। िवमला दे वी को आये िदन सास एवं पित की गाली- गलौज
तथा मार- पीट का सामना करना पड़ता था। इससे वे बड़ी दःु खी रहतीं और कभी- कभी आ मह या
करने को सोचतीं। िवमला की बुआ ने उसे िवपि त िनवािरणी गायत्री माता की उपासना करने की िशक्षा
दी। वह गायत्री माता की उपासना करने लगी। फल आशातीत हुआ। थोड़े िदन म सास और पित को
बड़ा भयंकर वप्र हुआ िक उसके कुकम के िलए कोई दे वदत
ू उसे म ृ यत
ु ु य क ट दे रहे ह। जब
व न टूटा तो उस भय का आतंक कई महीन तक उन पर रहा और उसी िदन से वभाव सीधा हो
गया। अब वह पिरवार पण
ू र् प्रस न और स तु ट है । िवमला का ढ़ िव वास है िक उसके घर को
आन दमय बनाने वाली माता गायत्री ही ह। वष से उनका िनयम है िक जप िकये िबना भोजन नहीं
करतीं।

66
वारीसाल (बंगाल) के उ च अफसर की धमर्प नी ीमती हे मलता चटजीर् को ततीस वषर् की आयु तक
कोई स तान न हुई। उसके पितदे व तथा घर के अ य यिक्त इससे बड़े द:ु खी रहते थे और कभी- कभी
उसके पितदे व का दस
ू रा िववाह होने की चचार् होती रहती थी। हे मलता को इससे अिधक मानिसक क ट
रहता था और उ ह मछ
ू ार् का रोग हो गया था। िकसी साधक ने उ ह गायत्री साधना की िविध बताई।
वे द्धापूवक
र् उपासना करने लगीं। ई वर की कृपा से एक वषर् बाद उनकी एक क या उ प न हुई
िजसका नाम ‘गायत्री’ रखा गया। इसके बाद दो- दो वषर् के अ तर से दो पुत्र और हुए। तीन बालक
व थ ह। इस पिरवार म गायत्री की बड़ी मा यता है ।

ु रानवाला की सु दरी बाई को पहले क ठमाला रोग था। वह थोड़ा अ छा हुआ तो प्रदर रोग भयंकर
गज
प से हो गया। हर घड़ी लाल पानी बहता रहता। कई साल इस प्रकार बीमार पड़े रहने के कारण
उनका शरीर अि थ मात्र रह गया था। चमड़ी और ह िडय के बीच मांस का नाम भी िदखाई नहीं
पड़ता था। आँख ग ढे म धँस गयी थीं। घर के लोग उनकी म ृ यु की प्रतीक्षा करने लगे थे। ऐसी
ि थित म उ ह एक पड़ोिसन ब्रा मणी ने बताया िक गायत्री माता तरणतािरणी ह, उनका यान करो।
सु दरी बाई के मन म बात जँ च गयी। वे चारपाई पर पड़े- पड़े जप करने लगी। ई वर की कृपा से वे
धीरे - धीरे ु उ प न हुआ, जो भला
व थ होने लगीं और िबलकुल नीरोग हो गईं। दो वषर् बाद उनके पत्र
चंगा और व थ है ।

गोदावरी िजले की बस ती दे वी को भत
ू ो माद था। भत
ू - प्रेत उनके िसर पर चढ़े रहते थे। १२ वषर् की
आयु म वे िबलकुल बुिढ़या हो गई थीं। उसके िपता इस यािध से अपनी पुत्री को छुटाकारा िदलाने के
िलए काफी खचर्, परे शानी उठा चुके थे, पर कोई लाभ नहीं होता था। अ त म उ ह ने गायत्री पुर चरण
कराया और उससे लड़की की यािध दरू हो गई।

भाथूर् के डाक्टर राजाराम शमार् की पुत्री सािवत्री दे वी गायत्री की द्धालु उपािसका ह। उसने दे हात म
रहकर आयुवद का उ च अ ययन िकया और परीक्षा के िदन म बीमार पड़ जाने पर भी आयुवदाचायर्
की परीक्षा म प्रथम ेणी म उ तीणर् हुई।

कानपुर के पं० अयो या प्रसाद दीिक्षत की धमर्प नी शाि तदे वी िमिडल पास थीं। ११ वषर् तक पढ़ाई
छोडक़र पिरवार के झंझट म लगी रहीं। एक वषर् अचानक उ ह ने मैिट्रक का फामर् भर िदया और
गायत्री उपासना के बल से थोड़ी सी तैयारी म उ तीणर् हो गयीं।

बालापुर की सािवत्री दब
ु े के पित की म ृ यु अठारह वषर् की आयु म हो गयी थी। वे अ यिधक रोगग्र त
ू कर काँटा हो गयी थीं। एक िदन उनके पित ने
रहती थीं। सख व न म उनसे कहा िक तुम गायत्री
उपासना िकया करो, इससे मेरी आ मा को शाि त िमलेगी और तु हारा वैध य परम शाि तपूवक
र्
यतीत हो जायेगा। उसने पित की आज्ञानुसार वैसा ही िकया, तो पिरवार म रहते हुए भी उ चकोिट के

67
महा मा की ि थित को प्रा त हो गईं। वह जो बात जबान से कह दे ती थी, वह स य होकर रहती थी।

कटक िजले के रामपुर ग्राम म एक लह


ु ार की क या सोनाबाई को व न म िन य और जाग्रत ् अव था
म कभी- कभी गायत्री के दशर्न होते ह। उनकी भिव यवािणयाँ प्राय: ठीक उतरती ह।

मरु ीदपरु की स तोषकुमारी बचपन म बड़ी म दबिु द्ध थी। उनके िपता ने उनको पढ़ाने के िलए बहुत
प्रय न िकए, पर सफलता न िमली। भाग्यदोष समझकर सब लोग चप ु हो गए। िववाह हुआ, िववाह के
चार वषर् बाद वह िवधवा हो गई। वैध य को काटने के िलए उसने ग गायत्री की आराधना आर भ कर
दी। एक रात को व न म गायत्री ने दशर्न िदए ओर कहा- ‘मने तेरी बुिद्ध ती ण कर दी है । िव या
पढ़, तेरा जीवन सफल होगा।’ दस
ू रे िदन उसे पढऩे म उ साह आया। बुिद्ध ती ण हो गयी थी, सो कुछ
ही वष म मैिट्रक पास कर िलया। आज वह त्री िशक्षा के प्रचार म बड़ी त परता से लगी हुई ह।

रं गपुर बंगाल की ीमती सरला चौधरी के कई ब चे मर चुके थे। एक भी ब चा जीिवत न रहने से वे


बहुत द:ु खी रहती थीं। उ ह गायत्री साधना बतायी गयी, िजसको अपनाकर उसने तीन पुत्र की माता
कहलाने का सख ु पाया।

टे हरी की एक अ यािपका गल
ु ाबदे वी को प्रसवकाल म म ृ युतु य क ट होता था। एक बार उ ह ने
गायत्री की प्रशंसा सन
ु ी और उसे अपनाकर साधना करने लगीं। बाद म उ ह चार प्रसव हुए और सभी
सख
ु पूवक र् हो गये।

मल
ू तान की सु दरीबाई वयं बहुत कमजोर थीं। उनके ब चे भ कमजोर थे और उनम से कोई न कोई
बीमार पड़ा रहता था। अपनी दबु ल
र् ता और ब च की बीमारी से रोना- खीझना उ ह क टकर होता था।
इस िवपि त से उ ह गायत्री ने छुड़ाया। बाद म वे सपिरवार व थ रहने लगीं।

उदयपुर की मारवाड़ी मिहला ज्ञानवती प- रं ग की अिधक सु दर न होने के कारण पित को िप्रय न


थीं। पित का यवहार उनसे सदा खा, ककर्श, उपेक्षापूणर् रहता था और घर रहते हुए भी परदे श के
समान दोन म बेलगाव रहता था। ज्ञानवती की मौसी ने गायत्री का पूजन और रिववार का त रखने
का उपाय बताया। वह तप चयार् िनरथर्क नहीं गयी। सािधका को आगे चलकर पित का प्रेम प्रा त हुआ
और उसका दा प य जीवन सख ु मय बीता।

भीलवाड़ा म एक सरमिण नामक त्री बड़ी ताि त्रक थी। उसे वहाँ के लोग डायन समझते थे। एक
ृ सं यासी ने उसे गायत्री की दीक्षा दी। तब से उसने सब छोडक़र भगवान ् की भिक्त म िच त
वयोवद्ध
लगाया और साधु जीवन यतीत करने लगी।

बहरामपरु के पास एक कँु आरी क या गफ


ु ा बनाकर दस वषर् की आयु से तप या कर रही थी। चालीस

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वषर् की आयु म भी उसके चेहरे का तेज ऐसा था िक आँख झपक जाती थीं। उसके दशर्न के िलए दरू -
दरू से लोग आते थे। इस दे वी की इ ट गायत्री थी। वह सदा गायत्री का जप करती रहती थी।

मीराबाई, सहजोबाई, रि तवती, लीलावती, दयाबाई, अह याबाई, सखूबाई, मक्


ु ताबाई प्रभिृ त अनेक ई वर
भक्त वैरािगनी हुई ह, िजनका जीवन िवरक्त और परमाथर् पूणर् रहा। इनम से कइय ने गायत्री की
उपासना करके अपने भिक्त भाव और वैराग्य को बढ़ाया था।

इस प्रकार अनेक दे िवयाँ इस े ठ साधना से अपनी आ याि मक उ नित करती आई ह और सांसािरक


सख
ु - समिृ द्ध की प्राि त एवं आपि तय से छुटकारा पाने की प्रस नता का अनुभव करती रही ह। िवधवा
बिहन के िलए तो गायत्री साधना एक सव पिर तप चयार् है । इससे शोक- िवयोग की जलन बुझती है ,
बुिद्ध म साि वकता आती है , िच त ई वर की ओर लगता है । नम्रता, सेवा, शील, सदाचार, िनराल यता,
सादगी, धमर् िच, वा यायिप्रयता, आि तकता एवं परमाथर्परायणता के त व बढ़ते ह। गायत्री साधना की
तप चयार् का आ य लेकर अनेक ऐसी बाल- िवधवाओं ने अपना जीवन सती- सा वी जैसा िबताया है ,
िजनकी कम आयु दे खकर अनेक आशंकाएँ की जाती थीं। जब ऐसी बिहन को गायत्री म त मयता होने
लगती है , तो वे वैध य द:ु ख को भल
ू जाती ह और अपने को तपि वनी, सा वी, ब्र मवािदनी, उ वल
चिरत्र, पिवत्र आ मा अनुभव करती ह। ब्र मचयर् तो उनका जीवन सहचर बनकर रहता है ।

त्री और पु ष, नर और नारी दोन ही वगर् वेदमाता गायत्री के क या- पत्र


ु ह। दोन आँख के तारे ह। वे
िकसी से भेद भाव नहीं करतीं। माता को पत्र
ु से क या अिधक यारी होती है । वेदमाता गायत्री की
साधना पु ष की अपेक्षा ि त्रय के िलए अिधक सरल और अिधक शीघ्र फलदाियनी है ।

नोट :— इस प्रसङ्ग म िदये गये सभी उदाहरण पुराने (५० के दशक के) ह। अब तो शोध करने पर इस
प्रकार के लाख प्रामािणक उदाहरण उपल ध हो सकते ह। अपने साधना- अनुभव के आधार पर तेज वी
दे िवय ने बड़े- बड़े धमार्चाय को िन तर करके गायत्री साधना को घर- घर पहुँचाने म उ लेखनीय
सफलता प्रा त की है ।

गायत्री का शाप िवमोचन और उ कीलन का रह य


सवर्सलु भ समथर् साधना गायत्री म त्र की मिहमा गाते हुए शा त्र और ऋिष- महिषर् थकते नहीं। इसकी
प्रशंसा तथा मह ता के स ब ध म िजतना कहा गया है , उतना शायद ही और िकसी की प्रशंसा म कहा
गया हो। प्राचीनकाल म बड़े- बड़े तपि वय ने प्रधान प से गायत्री की ही तप चयार्एँ करके अभी ट
िसिद्धयाँ प्रा त की थीं। शाप और वरदान के िलए वे िविवध िविधय से गायत्री का ही प्रयोग करते थे।

प्राचनीकाल म गायत्री गु म त्र था। आज भी गायत्री म त्र प्रिसद्ध है । अिधकांश मनु य उसे जानते ह।

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अनेक मनु य िकसी न िकसी प्रकार उसको दह
ु राते या जपते रहते ह अथवा िकसी िवशेष अवसर पर
मरण कर लेते ह। इतने पर भी दे खा जाता है िक उससे कोई िवशेष लाभ नहीं होता। गायत्री जानने
वाल म कोई िवशेष तर िदखाई नहीं दे ता। इस आधार पर यह आशंका होने लगती है िक कहीं गायत्री
की प्रशंसा और मिहमा म वणर्न करने वाल ने अ युिक्त तो नहीं की? कई मनु य आर भ म उ साह
िदखाकर थोड़े ही िदन म उसे छोड़ बैठते ह। वे दे खते ह िक इतने िदन हमने गायत्री की उपासना की,
पर लाभ कुछ न हुआ, िफर क्य इसके िलए समय बरबाद िकया जाए।

कारण यह है िक प्र येक कायर् एक िनयत िविध- यव था वारा पूरा होता है । चाहे जैसे, चाहे िजस
काम को चाहे िजस प्रकार करना आर भ कर िदया जाए, तो अभी ट पिरणाम नहीं िमल सकता।
मशीन वारा बड़े- बड़े कायर् होते ह, पर होते तभी ह जब वे उिचत रीित से चलायी जाएँ। यिद कोई
अनाड़ी चलाने वाला, मशीन को य ही अ धाधु ध चालू कर दे तो लाभ होना तो दरू , उलटे कारखाने के
िलए तथा चलाने वाले के िलए संकट उ प न हो सकता है । मोटर तेज दौडऩे वाला वाहन है । उसके
वारा एक- एक िदन म कई सौ मील की यात्रा सख
ु पव
ू क
र् की जा सकती है । पर अगर कोई अनाड़ी
आदमी ड्राइवर की जगह जा बैठे और चलाने की िविध तथा कल- पज
ु के उपयोग की जानकारी न होते
हुए भी उसे चलाना प्रार भ कर दे तो यात्रा तो दरू , उलटे ड्राइवर और मोटर यात्रा करने वाल के िलए
अिन ट खड़ा हो जाएगा या यात्रा िन फल होगी। ऐसी दशा म मोटर को कोसना, उसकी शिक्त पर
अिव वास कर बैठना उिचत नहीं कहा जा सकता। अनाड़ी साधक वारा की गयी उपासना भी यिद
िन फल हो, तो आ चयर् की बात नहीं है ।

जो व तु िजतनी अिधक मह वपूणर् होती है , उसकी प्राि त उतनी ही किठन भी होती है । सीप- घ घे
आसानी से िमल सकते ह, उ ह चाहे कोई िबन सकता है ; पर िज ह मोती प्रा त करने ह, उ ह समद्र

तल तक पहुँचना पड़ेगा और इस खतरे के काम को िकसी से सीखना पड़ेगा। कोई अजनबी आदमी
गोताखोरी को ब च का खेल समझकर या य ही समद्रु तल म उतरने के िलए डुबकी लगाये, तो उसे
अपनी नासमझी के कारण असफलता पर आ चयर् नहीं करना चािहए।

य गायत्री म अ य सम त म त्र की अपेक्षा एक खास िवशेषता यह है िक िनयत िविध से साधना न


करने पर भी साधक की कुछ हािन नहीं होती। पिर म भी िन फल नहीं जाता, कुछ न कुछ लाभ ही
रहता है , पर उतना लाभ नहीं होता, िजतना िक िविधपूवक
र् साधना के वारा होना चािहए। गायत्री की
ताि त्रक उपासना म तो अिविध साधना से हािन भी होती है , पर साधारण साधना म वैसा कोई खतरा
नहीं है , तो भी पिर म का पूरा प्रितफल न िमलना भी तो एक प्रकार की हािन ही है । इसिलए बुिद्धमान
मनु य उतावली, अहम यता, उपेक्षा के िशकार नहीं होते और साधना मागर् पर वैसी ही समझदारी से
चलते ह, जैसे हाथी नदी पार करते समय थाह ले- लेकर धीरे - धीरे आगे कदम बढ़ाता है ।

प्रितब ध क्या? क्य ? :—कुछ औषिधयाँ िनयत मात्रा म लेकर िनयत िविधपव
ू क
र् तैयार करके रसायन

70
बनायी जाएँ और िनयत मात्रा म िनयत अनप
ु ात के साथ रोगी को सेवन करायी जाएँ, तो आ चयजर्नक
लाभ होता है ; पर तु उ हीं औषिधय को चाहे िजस तरह, चाहे िजतनी मात्रा म लेकर चाहे जैसा बना
डाला जाए और चाहे िजस रोगी को, चाहे िजतनी मात्रा म, चाहे िजस अनप
ु ात म सेवन करा िदया जाए,
तो िन चय ही पिरणाम अ छा न होगा। वे औषिधयाँ जो िविधपूवक
र् प्रयुक्त होने पर अमत
ृ ोपम लाभ
िदखाती थीं, अिविधपूवक
र् प्रयुक्त होने पर िनरथर्क िसद्ध होती ह। ऐसी दशा म उन औषिधय को दोष
दे ना याय संगत नहीं कहा जा सकता। गायत्री साधना भी यिद अिविधपूवक
र् की गयी है , तो वैसा लाभ
नहीं िदखा सकती जैसा िक िविधपव
ू क
र् साधना से होना चािहए।

पात्र- कुपात्र कोई भी गायत्री शिक्त का मनमाने प्रयोग न कर सके, इसिलए किलयग
ु से पूवर् ही गायत्री
को कीिलत कर िदया गया है । कीिलत करने का अथर् है - उसके प्रभाव को रोक दे ना। जैसे िकसी
गितशील व तु को कहीं कील गाढक़र जड़ िदया जाय तो उसकी गित क जाती है , इसी तरह म त्र को
सू म शिक्त से कीिलत करने की यव था रही है । जो उसका उ कीलन जानता है , वही लाभ उठा
सकता है । ब दक
ू का लाइसे स सरकार उ हीं को दे ती है जो उसके पात्र ह। परमाणु बम का रह य
थोड़े- से लोग तक सीिमत रखा गया है , तािक हर कोई उसका द ु पयोग न कर डाले। कीमती खजाने
की ितजोिरय म बिढय़ा चोर ताले लगे होते ह तािक अनिधकारी लोग उसे खोल न सक। इसी आधार
पर गायत्री को कीिलत िकया गया है िक हर कोई उससे अनप
ु यक्
ु त प्रयोजन िसद्ध न कर सके।

पुराण म ऐसा उ लेख िमलता है िक एक बार गायत्री को विस ठ और िव वािमत्र जी ने शाप िदया िक
‘उसकी साधना िन फल होगी’। इतनी बड़ी शिक्त के िन फल होने से हाहाकार मच गया। तब दे वताओं
ने प्राथर्ना की िक इन शाप का िवमोचन होना चािहए। अ त म ऐसा मागर् िनकाला गया िक जो शाप-
िवमोचन की िविध परू ी करके गायत्री साधना करे गा, उसका प्रय न सफल होगा और शेष लोग का म
िनरथर्क जाएगा। इस पौरािणक उपाख्यान म एक भारी रह य िछपा हुआ है , िजसे न जानने वाले केवल
‘शापमक्
ु ताभव’२ म त्र को दह
ु राकर यह मान लेते ह िक हमारी साधना शापमक्
ु त हो गयी।
२(पर परागत साधना म गायत्री म त्र- साधना करने वाल को उ कीलन करने की सलाह दी गई है ।
उसम साधक िनधार्िरत म त्र पढक़र ‘शापमक्
ु ताभव’ कहता है ।)

विस ठ का अथर् है - ‘िवशेष प से े ठ गायत्री साधना म िज ह ने िवशेष प से म िकया है , िजसने


सवा करोड़ जप िकया होता है , उसे विस ठ पदवी दी जाती है । रधुवंिशय के कुल गु सदा ऐसे ही
विस ठ पदवीधारी होते थे। रघ,ु अज, िदलीप, दशरथ, राम, लव- कुश आिद इन छ: पीिढय़ के गु एक
विस ठ नहीं बि क अलग- अलग थे, पर उपासना के आधार पर इन सभी ने विस ठ पदवी को पाया
था। विस ठ का शाप मोचन करने का ता पयर् यह है िक इस प्रकार के विस ठ से गायत्री साधना की
िशक्षा लेनी चािहए, उसे अपना पथ- प्रदशर्क िनयक्
ु त करना चािहए। कारण है िक अनुभवी यिक्त ही
यह जान सकता है िक मागर् म कहाँ क्या- क्या किठनाइयाँ आती ह और उनका िनवारण कैसे िकया जा
सकता है ?
71
जब पानी म तैरने की िशक्षा िकसी नये यिक्त को दी जाती है , तो कोई कुशल तैराक उसके साथ
रहता है , तािक कदािचत ् नौिसिखया डूबने लगे तो वह हाथ पकडक़र उसे खींच ले और उसे पार लगा दे
तथा तैरते समय जो भल
ू हो रही हो, उसे समझाता- सध
ु ारता चला जाए। यिद कोई िशक्षक तैराक न हो
और तैरना सीखने के िलए बालक मचल रहे ह , तो कोई वद्ध
ृ िवनोदी पु ष उन बालक को समझाने के
िलए ऐसा कह सकता है िक- ‘ब चो! तालाब म न उतरना, इसम तैराक गु का शाप है । िबना गु के
शापमक्
ु त हुए तैरना सीखोगे, तो वह िन फल होगा।’ इन श द म अहं कार तो है , शाि दक अ युिक्त भी
इसे कह सकते ह, पर त य िब कुल स चा है । िबना िशक्षक की िनगरानी के तैरना सीखने की कोिशश
करना एक द ु साहस ही है ।

सवा करोड़ गायत्री जप की साधना करने वाले गायत्री उपासक विस ठ की संरक्षकता प्रा त कर लेना ही
विस ठ शाप- मोचन है । इससे साधक िनभर्य, िनधडक़ अपने मागर् पर तेजी से बढ़ता चलता है । रा ते
की किठनाइय को वह संरक्षक दरू करता चलता है , िजससे नये साधक के मागर् की बहुत- सी बाधाएँ
अपने आप दरू हो जाती ह और अभी ट उ े य तक ज दी ही पहुँच जाता है ।

गायत्री को केवल विस ठ का ही शाप नहीं, एक दस


ू रा शाप भी है , वह है िव वािमत्र का। इस र न- कोष
पर दह
ु रे ताले जड़े हुए ह तािक अिधकारी लोग ही खोल सक; ले भागू, ज दबाज, अ द्धाल,ु हरामखोर की
दाल न गलने पाए। िव वािमत्र का अथर् है - संसार की भलाई करने वाला, परमाथीर्, उदार, स पु ष,
क तर् यिन ठ। गायत्री का िशक्षक केवल विस ठ गण
ु वाला होना ही पयार् त नहीं है , वरन ् उसे िव वािमत्र
गण
ु वाला भी होना चािहए। कठोर साधना और तप चयार् वारा बरु े वभाव के लोग भी िसिद्ध प्रा त
कर लेते ह। रावण वेदपाठी था, उसने बड़ी- बड़ी तप चयार्एँ करके आ चयर्जनक िसिद्धयाँ प्रा त की थीं।
इस प्रकार वह विस ठ पदवीधारी तो कहा जा सकता है , पर िव वािमत्र नहीं; क्य िक संसार की भलाई
के, धमार्चायर् एवं परमाथर् के गण
ु उनम नहीं थे। वाथीर्, लालची तथा संकीणर् मनोविृ त के लोग चाहे
ु रा शाप िवमोचन है । िजसने
िकतने ही बड़े िसद्ध क्य न ह , िशक्षण िकये जाने योग्य नहीं, यही दह
विस ठ और िव वािमत्र गण
ु वाला पथर्- प्रदशर्क, गायत्री- गु प्रा त कर िलया, उसने दोन शाप से गायत्री
को छुड़ा िलया। उनकी साधना वैसा ही फल उपि थत करे गी, जैसा िक शा त्र म विणर्त है ।

यह कायर् सरल नहीं है , क्य िक एक तो ऐसे यिक्त मिु कल से िमलते ह जो विस ठ और िव वािमत्र
के गण
ु से स प न ह । यिद िमल भी तो हर िकसी का उ तरदािय व अपने ऊपर लेने को तैयार नहीं
होते, क्य िक उनकी शिक्त और साम यर् सीिमत होती है और उससे वे कुछ थोड़े ही लोग की सेवा कर
सकते ह। यिद पहले से ही उतने लोग का भार अपने ऊपर िलया हुआ है , तो अिधक की सेवा करना
उनके िलए किठन है । कूल म एक अ यापक प्राय: ३० की संख्या तक िव याथीर् पढ़ा सकता है । यिद
वह संख्या ६० हो जाय, तो न तो अ यापक पढ़ा सकेगा, न बालक पढ़ सकगे, इसिलए ऐसे सय
ु ोग्य
िशक्षक सदा ही नहीं िमल सकते। लोभी, वाथीर् और ठग गु ओं की कमी नहीं, जो दो पया गु

72
दिक्षणा लेने के लोभ से चाहे िकसी के गले म क ठी बाँध दे ते ह। ऐसे लोग को पथ- प्रदशर्क िनयक्
ु त
करना एक प्रव चना और िवड बना मात्र है ।

‘गायत्री दीक्षा’ गु मख
ु होकर ली जाती है , तभी फलदायक होती है । बा द को जमीन पर चाहे जहाँ
फैलाकर उसम िदयासलाई लगाई जाए, तो वह मामल
ू ी तरह से जल जायेगी, पर उसे ब दक
ू म भरकर
र् प्रयुक्त िकया जाए, तो उससे भयंकर श द के साथ एक प्राणघातक शिक्त पैदा होगी। छपे
िविधपूवक
हुए कागज म पढक़र अथवा कहीं िकसी से भी गायत्री सीख लेना ऐसा ही है , जैसा जमीन पर िबछाकर
बा द को जलाना और गु मख ू के मा यम से बा द का
ु होकर गायत्री दीक्षा लेना ऐसा है , जैसा ब दक
उपयोग होना।

उपयुक्त मागर्दशर्क ‘गु - गायत्री’ की िविधपूवक


र् साधना करना ही अपने पिर म को सफल बनाने का
सीधा मागर् है । इस मागर् का पहला आधार ऐसे पथ- प्रदशर्क को खोज िनकालना है , जो विस ठ एवं
िव वािमत्र गण
ु वाला हो और िजसके संरक्षण म शाप- िवमोचन गायत्री साधना हो सके। ऐसे सय
ु ोग्य
संरक्षक सबसे पहले यह दे खते ह िक साधक की मनोभिू म, शिक्त, साम यर्, िच कैसी है ? उसी के
अनुसार वे उसके िलए साधना- िविध चुनकर दे ते ह। अपने आप िव याथीर् यह िन चय नहीं कर सकता
िक मझ
ु े िकस क्रम से क्या- क्या पढऩा चािहए? इसे तो अ यापक ही जानता है िक वह िव याथीर् िकस
कक्षा की योग्यता रखता है और इसे क्या पढ़ाया जाना चािहए। जैसे अलग- अलग प्रकृित के एक रोग
के रोिगय को भी औषिध अलग- अलग अनुपान तथा मात्रा का यान रखकर दी जाती है , वैसे ही
साधक की आ तिरक ि थित के अनुसार उसके साधना- िनयम म हे र- फेर हो जाता है । इसका िनणर्य
साधक वयं नहीं कर सकता। यह कायर् तो सय
ु ोग्य, अनुभवी और सू मदशीर् पथ- प्रदशर्क ही कर सकता
है ।

आ याि मक मागर् पर आगे बढ़ाने के िलए द्धा और िव वास यह दो प्रधान अवल बन ह। इन दोन
का आरि भक अ यास गु को मा यम बनाकर िकया जाता है । जैसे ई वर उपासना का प्रारि भक
मा यम िकसी मिू तर्, िचत्र या छिव को बनाया जाता है , वैसे ही द्धा और िव वास की उ नित गु
नामक यिक्त के ऊपर उ ह ढ़तापव
ू क
र् जमाने से होती है । प्रेम तो त्री, भाई, िमत्र आिद पर भी हो
सकता है , पर द्धायुक्त प्रेम का पात्र गु ही होता है । माता- िपता भी यिद विस ठ- िव वािमत्र गण
ु वाले
ह , तो वे सबसे उ तम गु हो सकते ह। गु परम िहतिच तक, िश य की मनोभिू म से पिरिचत और
उसकी कमजोिरय को समझने वाला होता है , इसिलए उसके दोष को जानकर उ ह धीरे - धीरे दरू करने
ृ ा करता है और न िवरोध। न
का उपाय करता रहता है ; पर उन दोष के कारण वह न तो िश य से घण
ही उसको अपमािनत, ितर कृत एवं बदनाम होने दे ता है , वरन ् उन दोष को बाल- चाप य समझकर
धीरे - धीरे उसकी िच दस
ू री ओर मोडऩे का प्रय न करता रहता है , तािक वे अपने आप छूट जाएँ।
योग्य गु अपनी साधना वारा एकत्र की हुई आ मशिक्त को धीरे - धीरे िश य के अ तःकरण म वैसे
ही प्रवेश कराता है , जैसे माता अपने पचाए हुए भोजन को तन म दध ू बनाकर अपने बालक को
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िपलाती रहती है । माता का दध
ू पीकर बालक पु ट होता है । गु का आ मतेज पीकर िश य का
आ मबल बढ़ता है । इस आदान- प्रदान को आ याि मक भाषा मे ‘शिक्तपात’ कहते ह। ऐसे गु का
प्रा त होना पव
ू र् संिचत शभ
ु सं कार का फल अथवा प्रभु की महती कृपा का िच न ही समझना
चािहए।

िकतने ही यिक्त सोचते ह िक हम अमक


ु समय एक यिक्त को गु बना चुके, अब हम दस
ू रे पथ-
प्रदशर्क की िनयुिक्त का अिधकार नहीं रहा। उनका यह सोचना वैसा ही है , जैसे कोई िव याथीर् यह कहे
िक ‘अक्षर आर भ करते समय िजस अ यापक को मने अ यापक माना था, अब जीवन भर उसके
ू ा।’ एक ही अ यापक से
अितिरक्त न िकसी से िशक्षा ग्रहण क ँ गा और न िकसी को अ यापक मानँग
संसार के सभी िवषय को जान लेने की आशा नहीं की जा सकती। िफर वह अ यापक मर जाए, रोगी
हो जाए, कहीं चला जाए, तो भी उसी से िशक्षा लेने का आग्रह करना िकस प्रकार उिचत कहा जा सकता
है ? िफर ऐसा भी हो सकता है िक कोई िश य प्राथिमक गु की अपेक्षा कहीं अिधक जानकार हो जाए
और उसका िजज्ञासा क्षेत्र बहुत िव तत
ृ हो जाए, ऐसी दशा म भी उसकी िजज्ञासाओं का समाधान उस
प्राथिमक िशक्षक वारा ही करने का आग्रह िकया जाए, तो यह िकस प्रकार स भव है ?

प्रचीनकाल के इितहास पर ि टपात करने से उलझन का समाधान हो जाता है । महिषर् द तात्रेय ने


चौबीस गु िकये थे। राम और ल मण ने जहाँ विस ठ से िशक्षा पायी थी, वहाँ िव वािमत्र से भी बहुत
कुछ सीखा था। दोन ही उनके गु थे। ीकृ ण ने स दीपन ऋिष से भी िव याएँ पढ़ी थीं और महिषर्
दव
ु ार्सा भी उनके गु थे। अजन
ुर् के गु द्रोणाचायर् भी थे और कृ ण भी। इ द्र के बह
ृ पित भी थे और
नारद भी। इस प्रकार अनेक उदाहरण ऐसे िमलते ह, िजनसे प्रकट होता है िक आव यकतानुसार एक
गु अनेक िश य की सेवा कर सकता है और एक िश य अनेक गु ओं से ज्ञान प्रा त कर सकता है ।
इसम कोई ऐसा सीमा ब धन नहीं, िजसके कारण एक के उपरा त िकसी दस
ू रे से प्रकाश प्रा त करने म
प्रितब ध हो। वैसे भी एक यिक्त के कई पुरोिहत होते ह- ग्रा य पुरोिहत, तीथर् पुरोिहत, कुल पुरोिहत,
रा ट्र पुरोिहत, दीक्षा पुरोिहत आिद। िजसे गायत्री साधना का पथ- प्रदशर्क िनयुक्त िकया जाता है , वह
साधना पुरोिहत या ब्र म पुरोिहत है । ये सभी पुरोिहत अपने- अपने क्षेत्र, अवसर और कायर् म पूछने
योग्य तथा पूजने योग्य ह। वे एक- दस
ू रे के िवरोधी नहीं, वरन ् पूरक ह।

चौबीस अक्षर का गायत्री म त्र सवर् प्रिसद्ध है , उसे आजकल िशिक्षत वगर् के सभी लोग जानते ह। िफर
भी उपासना करनी है , साधनाज य लाभ को लेना है , तो गु मख
ु होकर गायत्री दीक्षा लेनी चािहए।
विस ठ और िव वािमत्र का शाप- िवमोचन करके, कीिलत गायत्री का उ कीलन करके साधना करनी
चािहए। गु मख
ु होकर गायत्री दीक्षा लेना एक सं कार है । उसम उस िदन गु - िश य दोन को उपवास
रखना पड़ता है । िश य च दन, अक्षत, धूप, दीप, पु प, नैवे य, अ न, व त्र, पात्र, दिक्षणा आिद से गु का
पूजन करता है । गु िश य को म त्र दे ता है और पथ- प्रदशर्न का भार अपने ऊपर लेता है । इस ग्रि थ-
ब धन के उपरा त अपने उपयुक्त साधना िनि चत कराके जो िश य द्धापूवक
र् आगे बढ़ते ह, वे
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भगवती की कृपा से अपने अभी ट उ े य को प्रा त कर लेते ह।

जब से गायत्री की दीक्षा ले ली जाय, तब से लेकर जब तक पूणर् िसिद्ध प्रा त न हो जाय, तब तक


साधना गु को अपनी साधना के समय समीप रखना चािहए। गु का प्र यक्ष प से सदा साथ रहना
तो संभव नहीं हो सकता, पर उनका िचत्र शीशे म मढ़वाकर पूजा के थान पर रखा जा सकता है और
गायत्री, स या, जप, अनु ठान या कोई और साधना आर भ करने से पूवर् उस िचत्र का पूजन धूप,
अक्षत, नैवे य, पु प, च दन आिद से कर लेना चािहए। जहाँ िचत्र उपल ध न हो, वहाँ एक नािरयल को
गु के प्रतीक प म थािपत कर लेना चािहए। एकल य भील की कथा प्रिसद्ध है िक उसने द्रोणाचायर्
की िमट्टी की मिू तर् थािपत करके उसी को गु माना था और उसी से पूछकर बाण- िव या सीखता था।
अ त म वह इतना सफल धनुधार्री हुआ िक पा डव तक को उसकी िवशेषता दे खकर आ चयर्चिकत
होना पड़ा था। िचत्र या नािरयल के मा यम से गु पज
ू ा करके तब जो भी गायत्री साधना आर भ की
जायेगी, वह शापमक्
ु त तथा उ कीिलत होगी।

नोट:—युगऋिष ने आर भ म गु के थान पर द्धापूवक


र् उनका प्रतीक िचत्र या नािरयल के प म
रखने की बात कही थी। बाद म उ ह ने युगशिक्त के प्रतीक लाल मशाल के िचत्र को गु का प्रतीक
मानने का अनुशासन घोिषत िकया।

गायत्री की मूितर्मान प्रितमा यज्ञोपवीत (जनेऊ)


यज्ञोपवीत को ‘ब्र मसत्र
ू ’ भी कहा जा सकता है । सत्र
ू डोरे को भी कहते ह और उस संिक्ष त श द- रचना
को भी िजसका अथर् बहुत िव तत ृ होता है । याकरण, दशर्न, धमर्, कमर्का ड आिद के अनेक ग्र थ ऐसे
ह, िजनम ग्र थकतार्ओं ने अपने म त य को बहुत ही संिक्ष त सं कृत वाक्य म सि निहत कर िदया
है । उन सत्र
ू पर ल बी विृ तयाँ, िट पिणयाँ तथा टीकाएँ हुई ह, िजनके वारा उन सत्र ू म िछपे हुए
अथ का िव तार होता है । ब्र मसत्र ू म य यिप अक्षर नहीं ह, तो भी संकेत से बहुत कुछ बताया गया
है । मिू तर्याँ, िच न, िचत्र, अवशेष आिद के आधार पर बड़ी- बड़ी मह वपण ू र् जानकािरयाँ प्रा त होती ह।
य यिप इनम अक्षर नहीं होते, तो भी बहुत कुछ प्रकट हो जाता है , भले ही उस इशारे म िकसी श द-
िलिप का प्रयोग नहीं िकया जाता है । यज्ञोपवीत के ब्र मसत्र
ू य यिप वाणी और िलिप से रिहत ह, तो
भी उनम एक िवशद याख्यान की अिभभावना भरी हुई है ।

गायत्री को गु म त्र कहा गया है । यज्ञोपवीत धारण करते समय जो वेदार भ कराया जाता है , वह
गायत्री से कराया जाता है । प्र येक िवज को गायत्री जानना उसी प्रकार अिनवायर् है , जैसे िक यज्ञोपवीत
धारण करना। यह गायत्री- यज्ञोपवीत का जोड़ा ऐसा ही है , जैसा ल मी- नारायण, सीता- राम, राधे- याम,
प्रकृित- ब्र म, गौरी- शंकर, नर- मादा का है । दोन की सि मिलत यव था का नाम ही गह
ृ थ है , वैसे ही
गायत्री- उपवीत का सि मलन ही िवज व है । उपवीत सत्र
ू है तो गायत्री उसकी याख्या है । दोन की

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आ माएँ एक- दस
ू रे से जड़
ु ी हुई ह।

यज्ञोपवीत म तीन तार ह, गायत्री म तीन चरण ह। ‘त सिवतव


ु रर् े यं’ प्रथम चरण, ‘भग दे व य धीमिह’
िवतीय चरण, ‘िधयो यो न: प्रचोदयात ्’ तत
ृ ीय चरण है । तीन तार का क्या ता पयर् है ? इसम क्या
स दे श िनिहत है ? यह बात समझनी हो तो गायत्री के इन तीन चरण को भली प्रकार जान लेना
चािहए।
उपवीत म तीन प्रकार की ग्रि थयाँ और एक ब्र मग्रि थ होती ह। गायत्री म तीन या ितयाँ (भ:ू भव
ु :
व:) और एक प्रणव है । गायत्री के प्रार भ म ओंकार और भ:ू भव
ु : व: का जो ता पयर् है , उसी ओर
यज्ञोपवीत की तीन ग्रि थयाँ संकेत करती ह। उ ह समझने वाला जान सकता है िक वह चार गाँठ
मनु य जाित के िलए क्या क्या स दे श दे ती ह?

यहाँ प्र तुत है गायत्री महाम त्र की प्रितमा- यज्ञोपवीत, िजसम ९ श द, तीन चरण, सिहत तीन
या ितयाँ समािहत ह।

इस महािवज्ञान को सरलतापूवक
र् दयंगम करने के िलए इसे चार भाग म िवभक्त कर सकते ह। १-
प्रणव तथा तीन या ितयाँ अथार्त ् यज्ञोपवीत की चार ग्रि थयाँ, २- गायत्री का प्रथम चरण अथार्त ्
यज्ञोपवीत की प्रथम लड़, ३- िवतीय चरण अथार्त ् िवतीय लड़, ४- तत
ृ ीय चरण अथार्त ् तत
ृ ीय लड़।
आइए, अब इन पर िवचार कर।

१. प्रणव का स दे श यह है - ‘‘परमा मा सवर्त्र सम त प्रािणय म समाया हुआ है , इसिलये लोक सेवा के


िलये िन काम भाव से कमर् करना चािहए और अपने मन को ि थर तथा शा त रखना चािहए।’’
२. भ:ू का त वज्ञान यह है - ‘‘शरीर अ थायी औजार मात्र है , इसिलये उस पर अ यिधक आसक्त न
होकर आ मबल बढ़ाने का, े ठ मागर् का, स कम का आ य ग्रहण करना चािहये।’’
३. भव
ु : का ता पयर् है - ‘‘पाप के िव द्ध रहने वाला मनु य दे व व को प्रा त करता है । जो पिवत्र आदश
और साधन को अपनाता है , वही बुिद्धमान ् है ।’’
४. व: की प्रित विन यह है - ‘‘िववेक वारा शु◌ुद्ध बुिद्ध से स य जानने, संयम और याग की नीित का
आचरण करने के िलये अपने को तथा दस
ू र को प्रेरणा दे नी चािहये।’’

यह चतुमख
ुर् नीित यज्ञोपवीतधारी की होती है । इन सबका सारांश यह है िक उिचत मागर् से अपनी
शिक्तय को बढ़ाओ और अ तःकरण को उदार रखते हुए अपनी शिक्तय का अिधकांश भाग जनिहत
के िलये लगाये रहो। इसी क याणकारी नीित पर चलने से मनु य यि ट प से तथा सम त संसार म
समि ट प से सख
ु - शाि त प्रा त कर सकता है । यज्ञोपवीत गायत्री की मिू तर्मान प्रितमा है , उसका जो
स दे श मनु य जाित के िलये है , उसके अितिरक्त और कोई मागर् ऐसा नहीं, िजसम वैयिक्तक तथा
सामािजक सुख- शाि त ि थर रह सके।

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सरु लोक म एक ऐसा क पवक्ष
ृ है , िजसके नीचे बैठकर िजस व तु की कामना की जाए, वही व तु तरु त
सामने उपि थत हो जाती है । जो भी इ छा की जाए तरु त पण
ू र् हो जाती है । वह क पवक्ष
ृ िजनके पास
होगा, वे िकतने सख
ु ी और स तु ट ह गे, इसकी क पना सहज ही की जा सकती है ।

गायत्री क पवक्ष

प ृ वी पर भी एक ऐसा क पवक्ष ृ है , िजसम सरु लोक के क पवक्ष


ृ की सभी स भावनाएँ िछपी हुई ह।
इसका नाम है - गायत्री। गायत्री म त्र को थूल ि ट से दे खा जाए, तो वह २४ अक्षर और पद की
श द- शंख
ृ ला मात्र है , पर तु यिद ग भीरतापूवक
र् अवलोकन िकया जाए, तो उसके प्र येक पद और अक्षर
म ऐसे त व का रह य िछपा हुआ िमलेगा, िजनके वारा क पवक्ष
ृ के समान ही सम त इ छाओं की
पूितर् हो सकती है ।

आगे ‘गायत्री क पवक्ष


ृ ’ का िचत्र िदया हुआ है । इसम बताया गया है - ऊँ ई वर, आि तकता ही भारतीय
ू है । इससे आगे बढक़र उसके तीन िवभाग होते ह- भ:ू भव
धमर् का मल ु : व:। भू: का अथर् है - आ मज्ञान।
भव
ु : का अथर् है - कमर्योग। व: का ता पयर् है - ि थरता, समािध। इन तीन शाखाओं म से प्र येक म
तीन- तीन टहिनयाँ िनकलती ह, उनम से प्र येक के भी अपने- अपने ता पयर् ह। तत ्- जीवन िवज्ञान।
सिवत:ु - शिक्त स चय। वरे यं- े ठता। भग - िनमर्लता। दे व य- िद य ि ट। धीमिह- स गण
ु । िधयो-
िववेक। यो न:- संयम। प्रचोदयात ्- सेवा। गायत्री हमारी मनोभिू म म इ हीं को बोती है ; फल व प जो
खेत उगता है , वह क पवक्ष
ृ से िकसी प्रकार कम नहीं होता।

ऐसा उ लेख िमलता है िक क पवक्ष ृ के सब प ते र नजिटत ह। वे र न जैसे सशु ोिभत और बहुमू य


होते ह। गायत्री क पवक्ष
ृ के उपयुक्
र् त नौ प ते िन स दे ह नौ र न के समान मू यवान ् और मह वपूणर्
ह। प्र येक प ता, प्र येक गण
ु एक र न से िकसी प्रकार कम नहीं है । ‘नौलखा हार’ की जेवर म बहुत
प्रशंसा है । नौ लाख पये की लागत से बना हुआ ‘नौलखा हार’ पहनने वाले अपने आप को बड़ा
भाग्यशाली समझते ह। यिद ग भीर, ताि वक और दरू ि ट से दे खा जाए, तो यज्ञोपवीत भी नवर न
जिडत
़ नौलखा हार से िकसी प्रकार कम मह व का नहीं है ।

गायत्री गीता के अनुसार यज्ञोपवीत के नौ तार िजन नौ गण


ु को धारण करने का आदे श करते ह, वे
इतने मह वपूणर् ह िक र न की तुलना म इन गण
ु की ही मिहमा अिधक है ।

१. जीवन िवज्ञान की जानकारी होने से मनु य ज म- मरण के रह य को समझ जाता है । उसे स य का


डर नहीं लगता, सदा िनभर्य रहता है । उसे शरीर तथा सांसािरक व तुओं का लोभ- मोह भी नहीं होता,
फल व प िजन असाधारण हािन- लाभ के िलये लोग बेतरह द:ु ख के समद्र
ु म डूबते और हषर् के मद
म उछलते िफरते ह, उन उ माद से बच जाता है ।

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२. शिक्त स चय की नीित अपनाने वाला िदन- िदन अिधक व थ, िव वान ्, बिु द्धमान ्, धनी, सहयोग
स प न, प्रित ठान बनता जाता है । िनबर्ल पर प्रकृित के, बलवान के तथा दभ
ु ार्ग्य के जो आक्रमण होते
रहते ह, उनसे वह बचा रहता है और शिक्त स प नता के कारण जीवन के नानािवध आन द को वयं
भोगता एवं अपनी शिक्त वारा दब
ु ल
र् की सहायता करके पु य का भागी बनता है । अनीित वहीं
पनपती है जहाँ शिक्त का स तुलन नहीं होता। शिक्त संचय का वाभािवक पिरणाम है - अनीित का
अ त, जो िक सभी के िलये क याणकरी है ।

३. े ठता का अि त व पिरि थितय म नहीं, िवचार म होता है । जो यिक्त साधन- स प नता म बढ़े -
चढ़े ह, पर तु ल य, िसद्धा त, आदशर् एवं अ त:करण की ि ट से िगरे हुए ह, उ ह िनकृ ट ही कहा
जायेगा। ऐसे िनकृ ट अपनी आ मा की ि ट म, परमा मा की ि ट म और दस ू रे ग भीर, िववेकवान ्
यिक्तय की ि ट म नीच ेणी के ठहरते ह, अपनी नीचता के द ड व प आ मताडऩा, ई वरीय द ड
और बुिद्ध- भ्रम के कारण मानिसक अशाि त म डूबते रहते ह। इसके िवपरीत कोई यिक्त भले ही
गरीब, साधनहीन हो, पर उसका आदशर्, िसद्धा त, उ े य, अ तःकरण उ च तथा उदार है तो वह े ठ ही
कहा जाएगा। यह े ठता उसके िलये इतने आन द का उद्भव करती रहती है , जो बड़ी से बड़ी सांसािरक
स पदा से भी स भव नहीं।

४. िनमर्लता का अथर् है - सौ दयर्। सौ दयर् वह व तु है , िजसे मनु य ही नहीं, पशु- पक्षी और कीट- पतङ्ग
तक पस द करते ह। यह िनि चत है िक कु पता का कारण ग दगी है । मिलनता जहाँ कहीं भी होगी,
वहाँ कु पता रहे गी और वहाँ से दरू रहने की सबकी इ छा होगी। शरीर के भीतर मल भरे ह गे तो
मनु य कमजोर और बीमार रहे गा। इसी तरह कपड़े, भोजन, वचा, बाल, प्रयोजनीय पदाथर् आिद म
ग दगी होगी तो वह घण
ृ ा पद, अ वा यकर, िनकृ ट एवं िन दनीय बन जाएँगे। मन म, बुिद्ध म,
अ त:करण म मिलनता हो, तब तो कहना ही क्या? इ सान का व प है वान और शैतान से भी बुरा हो
जाता है । इन िवकृितय से बचने का एकमात्र उपाय ‘सवर्तोमख
ु ी िनमर्लता’ है । जो भीतर- बाहर सब ओर
से िनमर्ल है , िजसकी कमाई, िवचार धारा, दे ह, वाणी, पोशाक, झोपड़ी, प्रयोजनीय सामग्री िनमर्ल है , व छ
है , शुद्ध है , वह सब प्रकार से सु दर, प्रस न, प्रफु ल, मद
ृ ल
ु एवं स तु ट िदखाई दे गा।

५. िद य ि ट से दे खने का अथर् है , संसार के िद य त व के साथ अपना स ब ध जोडऩा। हर पदाथर्


अपने सजातीय पदाथ को अपनी ओर खींचता है और उ हीं की ओर खुद िखंचता है । िजनका
ि टकोण संसार की अ छाइय को दे खने, समझने और अपनाने का है , वह चार ओर अ छे यिक्तय
को दे खते ह। लोग के उपकार, भलमनसाहत, सेवा- सहयोग और स काय पर यान दे ने से ऐसा प्रतीत
होता है िक लोग म बुराइय की अपेक्षा अ छाइयाँ अिधक ह और संसार हमारे साथ अपकार की
अपेक्षा उपकार कहीं अिधक कर रहा है । आँख पर िजस रं ग का च मा लगा िलया जाए, उसी रं ग की
सब व तुएँ िदखाई पड़ती ह। िजनकी ि ट दिू षत है , उनके िलये प्र येक पदाथर् और प्र येक प्राणी बुरा
है , पर जो िद य ि ट वाले ह, वे प्रभु की इस परम पुनीत फुलवाड़ी म सवर्त्र आन द बरसता दे खते ह।
78
६. स गण
ु - अपने म अ छी आदत, अ छी योग्यताय, अ छी िवशेषताय धारण करना स गण
ु कहलाता
है । िवनय, नम्रता, िश टाचार, मधुर भाषण, उदार यवहार, सेवा- सहयोग, ईमानदारी, पिर मशीलता, समय
की पाब दी, िनयिमतता, िमत यियता, मयार्िदत रहना, क तर् यपरायणता, जाग कता, प्रस न मख
ु - मद्र
ु ा,
धैय,र् साहस, पराक्रम, पु षाथर्, आशा, उ साह यह सब स गण
ु ह। संगीत, सािह य, कला, िश प, यापार,
वक्तत
ृ ा, यवसाय, उ योग, िशक्षण आिद योग्यताय होना स गण
ु है । इस प्रकार के स गण
ु िजसके पास
ह, वह आन दमय जीवन िबतायेगा, इसकी क पना सहज ही की जा सकती है ।

७. िववेक एक प्रकार का आि मक प्रकाश है , िजसके वारा स य- अस य की, उिचत- अनुिचत की,


आव यक- अनाव यक की, हािन- लाभ की परीक्षा होती है । संसार म असंख्य पर पर िवरोधी मा यताय,
िरवाज, िवचारधाराय प्रचिलत ह और उनम से हर एक के पीछे कुछ आधार, कुछ उदाहरण तथा कुछ
पु तक एवं महापु ष के नाम अव य स बि धत होते ह। ऐसी दशा म यह िनणर्य करना किठन होता
है िक इन पर पर िवरोधी बात म क्या ग्रा य है और क्या अग्रा य? इस स ब ध म दे श, काल,
पिरि थित, उपयोिगता, जनिहत आिद बात को यान म रखते हुए स बुिद्ध से जो िनणर्य िकया जाता
है , वही प्रामािणक एवं ग्रा य होता है ।
िववेकवान ् यिक्त इन सब उलझन से अनायास ही बच जाता है ।

८. संयम- जीवनी शिक्त का, िवचार शिक्त का, भोगे छा का, म का स तल


ु न ठीक रखना ही संयम है ।
न इसको घटने दे ना, न न ट- िनि क्रय होने दे ना और न अनिु चत मागर् म यय होने दे ना संयम का
ता पयर् है । मानव शरीर आ चयर्जनक शिक्तय का के द्र है । यिद उन शिक्तय का अप यय रोककर
उपयोगी िदशा म लगाया जाए, तो अनेक आ चयर्जनक सफलताएँ िमल सकती ह और जीवन की
प्र येक िदशा म उ नित हो सकती है ।

९. सेवा- सहायता, सहयोग, प्रेरणा, उ नित की ओर, सिु वधा की ओर िकसी को बढ़ाना, यह उसकी सबसे
बड़ी सेवा है । इस िदशा म हमारा शरीर, हमारा मि त क सबसे अिधक हमारी सेवा का पात्र है , क्य िक
वह हमारे सबसे अिधक िनकट है । आमतौर से दान दे ना, समय दे ना या िबना मू य अपनी शारीिरक,
मानिसक शिक्त िकसी को दे ना सेवा कहा जाता है और यह अपेक्षा नहीं की जाती िक हमारे इस याग
से दस
ू र म कोई िक्रयाशिक्त, आ मिनभर्रता, फूितर्, प्रेरणा, जाग्रत ् हुई या नहीं? इस प्रकार की सेवा
यिक्त को आलसी, परावल बी और भाग्यवादी बनाने वाली हािनकारक सेवा भी है । हम दस ू र की इस
प्रकार प्रेरक सेवा कर, जो उ साह, आ मिनभर्रता और िक्रयाशीलता को सतेज करने म सहायक हो। सेवा
का फल है - उ नित। सेवा वारा अपने को तथा दस
ू र को समु नत बनाना, संसार को अिधक सु दर
और आन दमय बनाना महान ् पु य कायर् है । इस प्रकार के सेवाभावी पु या मा सांसािरक और आि मक
ि ट से सदा सख
ु ी और स तु ट रहते ह।

ये नवगण
ु िन स दे ह नवर न ह। लाल, मोती, मँग
ू ा, प ना, पुखराज, हीरा, नीलम, गोमेद, वैदय
ू -र् ये नौ र न
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कहे जाते ह। कहते ह िक िजनके पास ये र न होते ह, वे सवर्सख
ु ी समझे जाते ह; पर भारतीय
धमर्शा त्र कहता है िक िजनके पास यज्ञोपवीत और गायत्री िमि त आ याि मक नवर न ह, वे इस
भत
ू ल के कुबेर ह, भले ही उनके पास धन- दौलत, जमीन- जायदाद न हो। यह नवर न मि डत क पवक्ष

िजसके पास है , वह िववेकयुक्त यज्ञोपवीतधारी सदा सरु लोक की स पदा भोगता है , उसके िलये यह भ-ू
लोक ही वगर् है । वह क पवक्ष
ृ हम चार फल दे ता है , धमर्, अथर्, काम, मोक्ष चार स पदाओं से पिरपूणर्
कर दे ता है ।

साधक के िलये उपवीत आव यक है


कई यिक्त सोचते ह िक यज्ञोपवीत हमसे सधेगा नहीं, हम उसके िनयम का पालन नहीं कर सकगे,
इसिलये हम उसे धारण नहीं करना चािहए। यह तो ऐसी ही बात हुई जैसे कोई कहे िक मेरे मन म
ई वर भिक्त नहीं है , इसिलये म पूजा- पाठ नहीं क ँ गा। पूजा- पाठ करने से ता पयर् ही भिक्त उ प न
करना है । यह भिक्त पहले ही होती, तो पूजा- पाठ करने की आव यकता ही न रह जाती। यही बात
जनेऊ के स ब ध म है । यिद धािमर्क िनयम की साधना अपने आप ही हो जाए, तो उसको धारण
करने की आव यकता ही क्या? चँ िू क आमतौर से िनयम नहीं सधते, इसिलये तो यज्ञोपवीत का प्रितब ध
लगाकर उन िनयम को साधने का प्रय न िकया जाता है । जो लोग िनयम नहीं साध पाते, उ हीं के
िलये सबसे अिधक आव यकता जनेऊ धारण करने की है । जो बीमार है , उसे ही तो दवा चािहये, यिद
बीमार न होता तो दवा की आव यकता ही उसके िलये क्या थी?

िनयम क्य साधने चािहये? इसके बारे म लोग की बड़ी िविचत्र मा यताय ह। कई आदमी समझते ह
िक भोजन स ब धी िनयम का पालन करना ही जनेऊ का िनयम है । िबना नान िकये, रा ते का चला
हुआ, रात का बासी हुआ, अपनी जाित के अलावा िकसी अ य का बनाया हुआ भोजन न करना ही
यज्ञोपवीत की साधना है - यह बड़ी अधूरी और भ्रमपूणर् धारणा है । यज्ञोपवीत का म त य मानव जीवन
की सवार्ंगपूणर् उ नित करना है । उन उ नितय म वा य की उ नित भी एक है और उसके िलये
अ य िनयम पालन करने के साथ- साथ भोजन स ब धी िनयम की सावधानी रखना उिचत है । इस
ि ट से जनेऊधारी के िलये भोजन स ब धी िनयम का पालन करना ठीक है ; पर तु िजस प्रकार
प्र येक िवज, जीवन की सवार्ंगीण उ नित के िनयम का पूणत
र् या पालन नहीं कर पाता, िफर भी क धे
पर जनेऊ धारण िकये रहता है , उसी प्रकार भोजन स ब धी िकसी िनयम म यिद त्रिु ट रह जाए, तो यह
नहीं समझना चािहये िक त्रिु ट के कारण जनेऊ धारण का अिधकार ही िछन जाता है । यिद झठ
ू बोलने
से, दरु ाचार की ि ट रखने से, बेईमानी करने से, आल य, प्रमाद या यसन म ग्र त रहने से जनेऊ
नहीं टूटता, तो केवल भोजन स ब धी िनयम म कभी- कभी थोड़ा- सा अपवाद आ जाने से िनयम टूट
जाएगा, यह सोचना िकस प्रकार उिचत कहा जा सकता है ?

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मल- मत्र
ू के यागने म कान पर जनेऊ चढ़ाने म भल
ू होने का अक्सर भय रहता है । कई आदमी इस
डर की वजह से यज्ञोपवीत नहीं पहनते या पहनना छोड़ दे ते ह। यह ठीक है िक िनयम का कठोरता से
पालन होना चािहये, पर यह भी ठीक है के आर भ म इसकी आदत न पड़ जाने तक नौिसिखय को
कुछ सिु वधा भी िमलना चािहये, िजससे िक उ ह एक िदन म तीन- तीन जनेऊ बदलने के िलये िववश
न होना पड़े। इसके िलये ऐसा िकया जा सकता है िक जनेऊ का एक फेरा गदर् न म घुमा िदया जाय,
ु य प्रयोजन यह है िक मल- मत्र
ऐसा करने से वह कमर से ऊँचा आ जाता है । कान म चढ़ाने का मख् ू
की अशुद्धता का यज्ञसत्र
ू से पशर् न हो। जब जनेऊ क ठ म लपेट िदये जाने से कमर से ऊँचा उठ
जाता है , तो उससे अशुद्धता के पशर् होने की आशंका नहीं रहती, और यिद कभी कान म न चढ़ाने की
भल
ू हो भी जाए, तो उसको बदलने की आव यकता नहीं होती। थोड़े िदन म जब भली प्रकार आदत
पड़ जाती है , तो िफर क ठ म लपेटने की आव यकता नहीं रहती।

छोटी आयु वाले बालक के िलये तथा अ य भल


ु क्कड़ यिक्तय के िलये तत
ृ ीयांश यज्ञोपवीत की
यव था की जा सकती है । परू े यज्ञोपवीत की अपेक्षा दो- ितहाई छोटा अथार्त ् एक- ितहाई ल बाई का
तीन लड़ वाला उपवीत केवल क ठ म धारण कराया जा सकता है । इस प्रकार के उपवीत को आचाय
ने ‘क ठी’ श द से स बोिधत िकया है । छोटे बालक का जब उपनयन होता था, तो उ ह दीक्षा के साथ
क ठी पहना दी जाती थी। आज भी गु नामधारी पि डत जी गले म क ठी पहनाकर और कान म
म त्र सन
ु ाकर ‘गु दीक्षा’ दे ते ह।

इस प्रकार के अिवकिसत यिक्त उपवीत की िन य की सफाई का भी पूरा यान रखने म प्राय: भल



करते ह, िजससे शरीर का पसीना उसम रमता रहता है , फल व प बदबू, ग दगी, मैल और रोग- कीटाणु
उसम पलने लगते ह। ऐसी ि थित म यह सोचना पड़ता है िक कोई उपाय िनकल आये, िजससे क ठ
म पड़ी हुई उपवीती- क ठी का शरीर से कम पशर् हो। इस िनिम त तुलसी, द्राक्ष या िकसी और पिवत्र
ू को िपरो िदया जाता है ; फल व प वे दाने ही शरीर का पशर् कर पाते
व तु के दान म क ठी के सत्र
ह, सत्र
ू अलग रह जाता है और पसीने का जमाव होने एवं शिु द्ध म प्रमाद होने के खतरे से बचत हो
जाती है , इसिलये दाने वाली कि ठयाँ पहनने का िरवाज चलाया गया।

पूणर् प से न सही, आंिशक प से सही, गायत्री के साधक को यज्ञोपवीत अव य धारण करना चािहये,
क्य िक उपनयन गायत्री का मिू तर्मान प्रतीक है , उसे धारण िकये िबना भगवती की साधना का धािमर्क
अिधकार नहीं िमलता। आजकल नये फैशन म जेवर का िरवाज कम होता जा रहा है , िफर भी गले म
क ठीमाला िकसी न िकसी प म त्री- पु ष धारण करते ह। गरीब ि त्रयाँ काँच के मनक की कि ठयाँ
धारण करती ह। इन आभष
ू ण के नाम हार, नेकलेस, जंजीर, माला आिद रखे गये ह, पर यह वा तव म
कि ठय के ही प्रकार ह। चाहे ि त्रय के पास कोई अ य आभष
ू ण हो या न हो, पर तु इतना िनि चत
है िक क ठी को गरीब ि त्रयाँ भी िकसी न िकसी प म अव य धारण करती ह। इससे प्रकट है िक
भारतीय नािरय ने अपने सहज धमर्- प्रेम को िकसी न िकसी प मंप जीिवत रखा है और उपवीत को
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िकसी न िकसी प्रकार धारण िकया है ।

जो लोग उपवीत धारण करने के अिधकारी नहीं कहे जाते, िज ह कोई दीक्षा नहीं दे ता, वे भी गले म
तीन तार का या नौ तार का डोरा चार गाँठ लगाकर धारण कर लेते ह। इस प्रकार िच न पूजा हो
जाती है । पूरे यज्ञोपवीत का एक- ितहाई ल बा यज्ञोपवीत गले म डाले रहने का भी कहीं- कहीं िरवाज
है ।

गायत्री साधना का उ े य
नये िवचार से पुराने िवचार बदल जाते ह। कोई यिक्त िकसी बात को गलत प से समझ रहा है , तो
उसे तकर्, प्रमाण और उदाहरण के आधार पर नई बात समझाई जा सकती है । यिद वह अ य त ही
ू , उ तेिजत या मदा ध नहीं है , तो प्राय: सही बात को समझने म िवशेष किठनाई नहीं होती।
दरु ाचारी, मढ़
सही बात समझ जाने पर प्राय: गलत मा यता बदल जाती है । वाथर् या मानरक्षा के कारण कोई अपनी
पूवर् मा यता की वकालत करता है , पर मा यता और िव वास क्षेत्र म उसका िवचार पिरवतर्न अव य हो
जाता है । ज्ञान वारा अज्ञान को हटा िदया जाना कुछ िवशेष किठन नहीं है ।

पर तु वभाव, िच, इ छा, भावना और प्रकृित के बारे म यह बात नहीं है ; इ ह साधारण रीित से नहीं
बदला जा सकता। ये िजस थान पर जमी होती ह, वहाँ से आसानी से नहीं हटतीं। चँ िू क मनु य
चौरासी लाख कीट- पतंग , जीव- ज तुओं की क्षुद्र योिनय म भ्रमण करता हुआ नर- दे ह म आता है ,
इसिलये वभावत: उसके िपछले ज म- ज मा तर के पाशिवक नीच सं कार बड़ी ढ़ता से अपनी जड़
मनोभिू म म जमाये होते ह। उनम पिरवतर्न होता रहता है , पर ग भीरतापव
ू क
र् आ मिच तन करने से
मनु य उसके िवशेष प्रभाव को एवं भलाई- बरु ाई के, धमर्- अधमर् के अ तर को भली प्रकार समझ जाता
है । उसे अपनी भल
ू , बुराइयाँ और कमजोिरयाँ भली प्रकार प्रतीत हो जाती ह। बौिद्धक तर पर वह
सोचता है और चाहता है िक इन बरु ाइय से उसे छुटकारा िमल जाए। कई बार तो वह अपनी काफी
भ सर्ना भी करता है । इतने पर भी वह अपनी िचर संिचत कुप्रविृ तय से, बुरी आदत से अपने को
अलग नहीं कर पाता।

नशेबाज, चोर, द ु ट- दरु ाचारी यह भली भाँित जानते ह िक हम गलत मागर् अपनाये हुए ह। वे बहुधा यह
सोचते रहते ह िक काश, इन बुराइय से हम छुटकारा िमल जाता; पर उनकी इ छा एक िनबर्ल कामना
मात्र रह जाती है , उनके मनोरथ िन फल ही होते रहते ह, बुराइयाँ छूटती नहीं। जब भी प्रलोभन का
अवसर आता है , तब मनोभिू म म जड़ जमाये हुए पड़ी हुई कुप्रविृ तयाँ आँधी- तूफान की तरह उमड़
पड़ती ह और वह यिक्त आदत से मजबरू होकर उ हीं बरु े काय को िफर से कर बैठता है । िवचार
और सं कार इन दोन की तल
ु ना म सं कार की शिक्त अ यिधक प्रबल है । िवचार एक न हा- सा िशशु
है , तो सं कार पिरपु ट- प्रौढ़। दोन के यद्ध
ु म प्राय: ऐसा ही पिरणाम दे खा जाता है िक िशशु की हार

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होती है और प्रौढ़ की जीत। य यिप कई बार मन वी यिक्त ीकृ ण वारा पत
ू ना और राम वारा
ताड़का- वध का उदाहरण उपि थत करके अपने िवचार- बल वारा कुसं कार पर िवजय प्रा त करते ह,
पर आमतौर से लोग कुसं कार के चंगल ु म, जाल म फँसे पक्षी की तरह उलझे हुए दे खे जाते ह।
अनेक धम पदे शक, ज्ञानी, िव वान ्, नेता, स भ्रा त महापु ष समझे जाने वाले यिक्तय का िनजी चिरत्र
जब कुकमर्युक्त दे खा जाता है , तो यही कहना पड़ता है िक इनकी इतनी बुिद्ध- प्रौढ़ता भी अपने
कुसं कार पर िवजय न िदला सकी। कई बार तो अ छे - अ छे ईमानदार और तप वी मनु य िकसी
िवशेष प्रलोभन के अवसर पर उसम फँस जाते ह, िजसके िलये पीछे उ ह प चा ताप करना पड़ता है ।
िचर संिचत पाशिवक विृ तय का भक
ू प जब आता है , तो सदाशयता के आधार पर िचर प्रय न से
बनाये हुए सच
ु िरत्र की दीवार िहल जाती है ।

उपयक्
ुर् त पंिक्तय का ता पयर् यह नहीं है िक िवचार- शिक्त िनरथर्क व तु है और उसके वारा
कुसं कार को जीतने म सहायता नहीं िमलती। इन पंिक्तय म यह कहा जा रहा है िक साधारण
मनोबल की सिद छाय मनोभिू म का पिरमाजर्न करने म बहुत अिधक समय म म द प्रगित से धीरे -
धीरे आगे बढ़ती ह। अनेक बार उ ह िनराशा और असफलता का मँह ु दे खना पड़ता है । इस पर भी यिद
स िवचार का क्रम जारी रहे तो अव य ही काला तर म कुसं कार पर िवजय प्रा त की जा सकती है ।
अ या म िव या के आचायर् इतने आव यक कायर् को इतने िवल ब तक पड़ा रहने दे ना नहीं चाहते।
इसिलये उ ह ने इस स ब ध म अ यिधक ग भीरता, सू म ि ट और मनोयोगपव
ू क
र् िवचार िव लेषण
िकया है और वे इस पिरणाम पर पहुँचे ह िक मन:क्षेत्र के िजस तर पर िवचार के क पन िक्रयाशील
रहते ह, उससे कहीं अिधक गहरे तर पर सं कार की जड़ होती ह।

अ त:करण का पिर कार :—जैसे कुआँ खोदने पर जमीन म िविभ न जाित की िमिट्टय के पतर्
िनकलते ह, वैसे ही मनोभिू म के भी िकतने ही पतर् ह, उनके कायर्, गण
ु और क्षेत्र िभ न- िभ न ह। ऊपर
वाले दो पतर् (१) मन (२) बुिद्ध ह। मन म इ छाय, वासनाय, कामनाय पैदा होती ह; बुिद्ध का काम िवचार
करना, मागर् ढूँढऩा और िनणर्य करना है । यह दोन पतर् मनु य के िनकट स पकर् म ह। इ ह थल

मन:क्षेत्र कहते ह। समझने से तथा पिरि थित के पिरवतर्न से इनम आसनी से हे र- फेर हो जाता है ।

इस थूल क्षेत्र से गहरे पतर् को सू म मन:क्षेत्र कहते ह। इसके प्रमख


ु भाग दो ह- (१) िच त (२)
अहं कार। िच त म सं कार, आदत, िच, वभाव और गण
ु की जड़ रहती ह। अहं कार ‘अपने स ब ध म
मा यता’ को कहते ह। अपने को जो यिक्त धनी- दिरद्र, ब्रा मण- शूद्र, पापी- पु या मा, अभागा-
सौभाग्यशाली, त्री- पु ष, मख ु त आिद जैसा भी कुछ मान
ू -र् बुिद्धमान ्, तु छ- महान ्, जीव- ब्र म, बद्ध- मक्
लेता है , वह वैसे ही अहं कार वाला माना जाता है । आ मा के अहम ् के स ब ध म मा यता का नाम ही
अहं कार है । इन मन, बुिद्ध, अहं कार के अनेक भेद- उपभेद ह और उनके गण
ु , कमर् अलग- अलग ह, उनका
वणर्न इन पंिक्तय म नहीं िकया जा सकता है । यहाँ तो संिक्ष त पिरचय दे ना इसिलये आव यक हुआ
िक कुसं कार के िनवारण के बारे म कुछ बात भली प्रकार जानने म पाठक को सिु वधा हो।
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जैसे मन और बुिद्ध का जोड़ा है , वैसे ही िच त और अहं कार का जोड़ा है । मन म नाना प्रकार की
इ छाय, कामनाय रहती ह, पर बुिद्ध उनका िनणर्य करती है िक कौन- सी इ छा प्रकट करने योग्य है ,
कौन- सी दबा दे ने योग्य है ? इसे बुिद्ध जानती है और वह स यता, लोकाचार, सामािजक िनयम, धमर्,
क तर् य, अस भव आिद का यान रखते हुए अनप ु युक्त इ छाओं को भीतर दबाती रहती है । जो
इ छाएँ कायर् प म लाये जाने योग्य जँचती ह, उ हीं के िलये बुिद्ध अपना प्रय न आर भ करती है ।
इस प्रकार यह दोन िमलकर मि त क क्षेत्र म अपना ताना- बाना बुनते रहते ह।

अ त:करण क्षेत्र म िच त और अहं कार का जोड़ा अपना कायर् करता है । जीवा मा अपने को िजस ेणी
का, िजस तर का अनुभव करता है , िच त म उस ेणी के, उसी तर के पूवर् सं कार सिक्रय और
पिरपु ट रहते ह। कोई यिक्त अपने को शराबी, पाप वाला, कसाई, अछूत, समाज के िन न वगर् का
मानता है , तो उसका यह अहं कार उसके िच त को उसी जाित के सं कार की जड़ जमाने और ि थर
रखने के िलये प्र तुत रखेगा। जो गुण, कमर्, वभाव इस ेणी के लोग के होते ह, वे सभी उसके िच त
म सं कार प से जड़ जमाकर बैठ जायगे। यिद उसका अहं कार अपराधी या शराबी की मा यता का
पिर याग करके लोकसेवी, स चिरत्र एवं उ च होने की अपनी मा यता ि थर कर ले, तो अित शीघ्र
उसकी पुरानी आदत, आकांक्षाएँ, अिभलाषाएँ बदल जायगी और वह वैसा ही बन जाएगा जैसा िक अपने
स ब ध म उसका िव वास है । शराब पीना बुरी बात है , इतना मात्र समझाने से उसकी लत छूटना
मिु कल है , क्य िक हर कोई जानता है िक क्या बुराई है , क्या भलाई है । ऐसे िवचार तो उनके मन म
पहले भी अनेक बार आ चुके होते ह। लत तभी छूट सकती है , जब वह अपने अहं कार को प्रिति ठत
नागिरक की मा यता म बदले और यह अनुभव करे िक ये आदत मेरे गौरव के, तर के, यवहार के
अनुपयुक्त ह। अ त:करण की एक ही पुकार से, एक ही हुंकार से, एक ही ची कार से जमे हुए कुसं कार
उखड़ कर एक ओर िगर पड़ते ह और उनके थान पर नये, उपयुक्त, आव यक, अनु प सं कार कुछ ही
समय म जम जाते ह। जो कायर् मन और बिु द्ध वारा अ य त क टसा य मालम
ू पड़ता था, वह
अहं कार पिरवतर्न की एक चुटकी म ठीक हो जाता है ।

अहं कार तक सीधी पहुँच साधना के अितिरक्त और िकसी मागर् से नहीं हो सकती। मन और बिु द्ध को
शा त, मिू छर्त, ति द्रत अव था म छोडक़र सीधे अहं कार तक प्रवेश पाना ही साधना का उ े य है ।
गायत्री साधना का िवधान भी इसी प्रकार का है । उसका सीधा प्रभाव अहं कार पर पड़ता है । ‘‘म ब्रा मी
शिक्त का आधार हूँ, ई वरीय फुरणा गायत्री मेरे रोम- रोम म ओत- प्रोत हो रही है , म उसे अिधकािधक
मात्रा म अपने अ दर धारण करके ब्रा मभत
ू हो रहा हूँ।’’ यह मा यताएँ मानवीय अहं कार को पाशिवक
तर से बहुत ऊँचा उठा ले जाती ह और उसे दे वभाव म अवि थत करती ह। मा यता कोई साधारण
व तु नहीं है । गीता कहती है - ‘यो य छ्रद्ध: स एव स:’ जो अपने स ब ध म जैसी द्धा- मा यता रखता
है , व तुत: वैसा ही होता है । गायत्री साधना अपने साधक को दै वी आ मिव वास, ई वरीय अहं कार प्रदान
करती है और वह कुछ ही समय म व तुत: वैसा ही हो जाता है । िजस तर पर उसकी आ ममा यता
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है , उसी तर पर िच त- प्रविृ तयाँ रहगी, वैसी ही आदत, इ छाय, िचयाँ, प्रविृ तयाँ, िक्रयाएँ उसम दीख
पड़गी। जो िद य मा यता से ओत- प्रोत है , िन चय ही उसकी इ छाएँ, आदत और िक्रयाएँ वैसी ही ह गी।
यह साधना प्रिक्रया मानव अ त:करण का कायाक प कर दे ती है । िजस आ मसध
ु ार के िलये उपदे श
सन
ु ना और पु तक पढऩा िवशेष सफल नहीं होता था, वह कायर् साधना वारा सिु वधापूवक
र् हो जाता है ।
यही साधना का रह य है ।

उ च मन:क्षेत्र (सप
ु र मे टल) ही ई वरीय िद य शिक्तय के अवतरण का उपयुक्त थान है । हवाई
जहाज वहीं उतरता है , जहाँ अ डा होता है । ई वरीय िद य शिक्तयाँ मानव प्राणी के इसी उ च मन:क्षेत्र
म उतरती ह। यिद वह साधना वारा िनमर्ल नहीं बना िलया गया है , तो अित सू म िद य शिक्तय को
अपने म नहीं उतारा जा सकता। साधना, साधक के उ च मन:क्षेत्र को उपयुक्त हवाई अ डा बनाती है
जहाँ वे दै वी शिक्तयाँ उतर सक।

आ मक याण और आ मो थान के िलये अनेक प्रकार की साधनाओं का आ य िलया जाता है । दे श,


काल और पात्र भेद के कारण ही साधना- मागर् का िनणर्य करने म बहुत कुछ िवचार और पिरवतर्न
करना पड़ता है । ‘ वा याय’ म िच त लगाने से स मागर् की ओर िच होती है । ‘स संग’ से वभाव
और सं कार शुद्ध बनते ह। ‘कीतर्न’ से एकाग्रता और त मयता की विृ द्ध होती है । ‘दान- पु य’ से याग
और अपिरग्रह की भावना पु ट होती है । ‘पूजा- उपासना’ से आि तक भावना और ई वर िव वास की
भावना उ प न होती है । इस प्रकार िभ न- िभ न उ े य और पिरि थितय को ि टगोचर रखकर
ऋिषय ने अनेक प्रकार की साधनाओं का उपदे श िदया है , पर इनम सव पिर ‘तप’ की साधना ही है ।
तप की अिग्र से आ मा के मल- िवक्षेप और पाप- ताप बहुत शीघ्र भ म हो जाते ह और आ मा म एक
अपूवर् शिक्त का आिवभार्व होता है । गायत्री- उपासना सवर् े ठ तप चयार् है । इसके फल व प साधक को
जो दै वी शिक्त प्रा त होती है , उससे स चा आि मक आन द प्रा त करके उ च से उ च भौितक और
आ याि मक ल य को वह प्रा त कर सकता है ।

यह अपरा प्रकृित का परा प्रकृित म पा तिरत करने का िवज्ञान है । मनु य की पाशिवक विृ तय के
थान पर ई वरीय सत ् शिक्त को प्रिति ठत करना ही अ या म िवज्ञान का कायर् है । तु छ को महान ्,
सीिमत को असीम, अणु को िवभ,ु बद्ध को मक्
ु त, पशु को दे व बनाना साधना का उ े य है । यह पिरवतर्न
होने के साथ- साथ वे साम यर्- शिक्तयाँ भी मनु य म आ जाती ह, जो उस सतशिक्त म सि निहत ह
और िज ह ऋिद्ध- िसिद्ध आिद नाम से पुकारते ह। साधना आ याि मक कायाक प की एक वैज्ञािनक
प्रणाली है और िन चय ही अ य साधना- िविधय म गायत्री साधना सवर् े ठ है ।

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िन काम साधना का त व ज्ञान
गायत्री की साधना चाहे िन काम भाव से की जाए, चाहे सकाम भाव से, पर उसका फल अव य िमलता
है । भोजन चाहे सकाम भाव से िकया जाए, चाहे िन काम भाव से, उससे भख
ू शा त होने और रक्त
बनने का पिरणाम अव य होगा। गीता आिद सतशा त्र म िन काम कमर् करने पर इसिलये जोर िदया
गया है िक उिचत रीित से स कमर् करने पर भी यह िनि चत नहीं िक हम जो फल चाहते ह, वह
िनि चत प से िमल ही जायेगा। कई बार ऐसा दे खा गया है िक पूरी सावधानी और त परता से करने
पर भी वह काम पूरा नहीं होता, िजसकी इ छा से यह सब िकया गया था। ऐसी असफलता के अवसर
पर साधक िख न, िनराश, अ द्धालु न हो जाए और े ठ साधना मागर् से उदासीन न हो जाए, इसिलये
शा त्रकार ने िन काम कमर् को, िन काम साधना को अिधक े ठ माना है और इसी पर अिधक जोर
िदया है ।

इसका अथर् यह नहीं है िक साधना का म िनरथर्क चला जाता है या साधना प्रणाली ही सि दग्ध है ।
उसकी प्रामािणकता और िव वसनीयता म स दे ह करने की तिनक भी गज
ुं ायश नहीं है । इस िदशा म
िकये गये प्रय न का एक क्षण भी िनरथर्क नहीं जाता। आज तक िजनने भी इस िदशा म कदम बढ़ाये
ह, उ ह अपने म का भरपूर प्रितफल अव य िमला है । केवल एक अड़चन है िक सदा अभी ट-
मनोवा छा पूणर् हो जाए, यह सिु नि चत नहीं है । कारण यह है िक प्रार ध कम का पिरपाक होकर जो
प्रार ध बन चुकी है , उन कमर्- रे खाओं का िमटना किठन होता है । यह रे खाएँ कई बार तो साधारण होती
ह और प्रय न करने से उनम हे र- फेर हो जाता है , पर कई बार वे भोग इतने प्रबल और सिु नि चत होते
ह िक उनका टालना संभव नहीं होता। ऐसे किठन प्रार ध के ब धन म बड़े- बड़ को बँधना और उनकी
यातनाओं को भग
ु तना पड़ा है ।

राम का वन गमन, सीता का पिर याग, कृ ण का याध के बाण से आहत होकर वगर् िसधारना,
हिर च द्र का त्री- पत्र
ु तक को बेचना, नल वारा दमय ती का पिर याग, पा डव का िहमालय म
गलना, श दवेधी प ृ वीराज का ले छ वारा ब दी होकर मरना जैसी असंख्य घटनाएँ इितहास म ऐसी
आती ह, िजनसे आ चयर् होता है िक ऐसे लोग पर ऐसी आपि तयाँ िकस कारण आ गयीं? इसके
िवपरीत ऐसी घटनाय ह िक तु छ, साधनहीन और िवप न पिरि थितय के लोग ने बड़े- बड़े पद पर
ऐ वयर् पाये, िज ह दे खकर आ चयर् होता है िक दै वी सहायता से वह तु छ मनु य इतना उ कषर् प्रा त
करके िबना म के समथर् हो गये। ऐसी घटनाओं का समाधान प्रार ध के भले- बुरे भोग की अिमटता
के आधार पर ही होता है । जो होनहार है सो होकर रहता है , प्रय न करने पर भी उसका टालना स भव
नहीं होता।

यहाँ यह स दे ह उ प न हो सकता है िक प्रार ध ही प्रबल है , तो प्रय न करने से क्या लाभ? ऐसा स दे ह


करने वाले को समझना चािहए िक जीवन के सभी कायर् प्रार ध पर िनभर्र नहीं होते। कुछ िवशेष

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भिवत यताएँ ही ऐसी होती ह जो टल न सक। जीवन का अिधकांश भाग ऐसा होता है िजसम
ता कािलक कम का फल प्रा त होता रहता है , िक्रया का पिरणाम अिधकतर हाथ - हाथ िमल जाता है ।
पर कभी- कभी उनम ऐसे अपवाद आते रहते ह िक भला करते बरु ा होता है और बरु ा करते भलाई हो
जाती है ; कठोर पिर मी और चतुर यिक्त घाटे म रहते ह और मख
ू र् तथा आलसी अनायास लाभ से
लाभाि वत हो जाते ह। ऐसे अपवाद सदा नहीं होते, कभी- कभी ही दे खे जाते ह। यिद ऐसी औंधी- सीधी
घटनाय रोज घिटत ह , तब तो संसार की सारी यव था ही िबगड़ जाए, क तर् य मागर् ही न ट हो जाए।
कमर् और फल का ब धन यिद न दीख पड़ेगा, तो लोग क तर् य के क टसा य मागर् को छोडक़र जब
जैसे भी बन पड़े, वैसे प्रयोजन िसद्ध करने या भाग्य के भरोसे बैठे रहने की नीित अपना लगे और
संसार म घोर अ यव था फैल जाएगी। ऐसी उलटबाँसी सदा ही नहीं हो सकती, केवल कभी- कभी ही
ऐसे अपवाद दे खने म आते ह। गायत्री की सकाम साधना जहाँ अिधकतर अभी ट प्रयोजन म सफलता
प्रदान करती है , वहाँ कभी- कभी ऐसा भी होता है िक वैसा न हो, प्रय न िन फल दीख पड़े या िवपरीत
पिरणाम ह । ऐसे अवसर पर अका य प्रार ध की प्रबलता ही समझनी चािहये।

अभी ट फल न भी िमले, तो भी गायत्री साधना का म खाली नहीं जाता। उससे दस


ू रे प्रकार के लाभ
तो अव य प्रा त हो जाते ह। जैसे कोई नवयव ु क को कु ती म पछाडऩे के िलये
ु क िकसी नवयव
यायाम और पौि टक भोजन वारा अपने शरीर को सु ढ़ बनाने की उ साहपव
ू क
र् तैयारी करता है । परू ी
तैयारी के बाद भी कदािचत ् वह कु ती पछाडऩे म असफल रहता है , तो ऐसा नहीं समझना चािहए िक
उसकी तैयारी िनरथर्क चली गयी। वह तो अपना लाभ िदखायेगा ही। शरीर की सु ढ़ता, चेहरे की
काि त, अंग की सड
ु ौलता, फेफड़ की मजबत
ू ी, बल- वीयर् की अिधकता, िनरोिगता, दीघर् जीवन, कायर्क्षमता,
बलवान ् स तान आिद अनेक लाभ उस बढ़ी हुई त द ु ती से प्रा त होकर रहगे।

कु ती की सफलता से वि चत रहना पड़ा ठीक है , पर शरीर की बल विृ द्ध वारा प्रा त होने वाले अ य
लाभ से उसे कोई वि चत नहीं कर सकता। गायत्री साधक अपने का य प्रयोजन म सफल न हो सके,
तो भी उसे अ य अनेक माग से ऐसे लाभ िमलगे, िजनकी आशा िबना साधना के नहीं की जा सकती
थी।

मनु य ऐसी कामना भी करता है , जो उसे अपने िलये लाभाि वत एवं आव यक प्रतीत होती है , पर
ई वरीय ि ट म वह कामना उसके िलये अनाव यक एवं हािनकारक होती है । ऐसी कामनाओं को प्रभु
पूरा नहीं करते। बालक अनेक चीज माँगता रहता है , पर माता जानती है िक उसे क्या िदया जाना
चािहये, क्या नहीं? बालक के रोने- िच लाने पर भी माता यान नहीं दे ती और उस व तु से उसे वंिचत
ही रखती है जो उसके िलये उपयोगी नहीं। रोिगय के आग्रह भी ऐसे ही होते ह। कुप य करने के िलए
अक्सर माँग िकया करते ह, पर चतुर पिरचारक उसकी माँग को पूरा नहीं करते, क्य िक वे दे खते ह िक
इसम रोगी के प्राण को खतरा है । बालक या रोगी अपनी माँग के उिचत होने म कोई स दे ह नहीं
करते। वे समझते ह िक उनकी माँग उिचत, आव यक एवं िनद ष है । इतना होने पर भी व तुत: उनका
87
ि टकोण गलत होता है । गायत्री साधक म बहुत से लोग बालक और रोगी बिु द्ध के हो सकते ह।

अपनी ि ट से उनकी कामना उिचत है , पर ई वर ही जानता है िक िकस प्राणी के िलये क्या व तु


उपयोगी है ? वह अपने पत्र
ु को उनकी योग्यता, ि थित, आव यकता के अनुकूल ही दे ता है । असफल
गायत्री साधक म से स भव है िक िक हीं को बाल- बुिद्ध की याचना के कारण ही असफल होना पड़ा
हो।
माता अपने ब चे को िमठाई और िखलौने दे कर दल
ु ार करती है और िकसी को अ पताल म ऑपरे शन
की कठोर पीड़ा िदलाने ले जाती एवं कड़वी दवा िपलाती है । बालक इस यवहार को माता का पक्षपात,
अ याय, िनदर्यता या जो चाहे कह सकता है , पर माता का दय को खोलकर दे खा जाए, तो उसके
अंत:करण म दोन बालक के िलए समान यार होता है । बालक िजस कायर् को अपने साथ अ याय या
शत्रत
ु ा समझता है , माता की ि ट म दल
ु ार का वही सवर् े ठ प्रमाण है । हमारी असफलताय, हािनयाँ
तथा यातनाय भी कई बार हमारे लाभ के िलए होती ह। माता हमारी भारी आपि तय को उस छोटे
क ट वारा िनकाल दे ना चाहती है । उसकी ि ट िवशाल है , उसका दय बिु द्धम तापण
ू र् है , क्य िक उसी
म हमारा िहत समाया हुआ होता है । द:ु ख, दािर य, रोग, हािन, क्लेश, अपमान, शोक, िवयोग आिद दे कर
भी वह हमारे ऊपर अपनी महती कृपा का प्रदशर्न करती है । इन कड़वी दवाओं को िपलाकर वह हमारे
अ दर िछपी हुई भयंकर यािधय का शमन करके भिव य के िलये पण ू र् नीरोग बनाने म लगी रहती
है । यिद ऐसा अवसर आये, तो गायत्री साधक को अपना धैयर् न छोडऩा चािहये और न िनराश होना
चािहये, क्य िक जो माता की गोद म अपने को डालकर िनि च त हो चक
ु ा है , वह घाटे म नहीं रहता।
िन काम भावना से साधना करने वाला भी सकाम साधना करने वाल से कम लाभ म नहीं रहता।
माता से यह िछपा नहीं है िक उसके पुत्र को व तुत: िकस व तु की आव यकता है । जो आव यकता
उसकी ि ट म उिचत है , उससे वह अपने िकसी बालक को वि चत नहीं रहने दे ती।

अ छा हो हम िन काम साधना कर और चुपचाप दे खते रह िक हमारे जीवन के प्र येक क्षण म वह


आ यशिक्त िकस प्रकार सहायता कर रही है । द्धा और िव वास के साथ िजसने माता का आ य
िलया है , वह अपने िसर पर एक दै वी छत्रछाया का अि त व प्रितक्षण अनुभव करे गा और अपनी उिचत
आव यकताओं से कभी वि चत नहीं रहे गा। यह मा य त य है िक कभी िकसी की गायत्री साधना
िन फल नहीं जाती।

गायत्री से यज्ञ का स ब ध
यज्ञ भारतीय सं कृित का आिद प्रतीक है । हमारे धमर् म िजतनी महानता यज्ञ को दी गयी है , उतनी
और िकसी को नहीं दी गयी है । हमारा कोई भी शुभ- अशुभ, धमर्कृ य यज्ञ के िबना पूणर् नहीं होता।
ज म से लेकर अ येि ट तक १६ सं कार होते ह, इनम अिग्रहोत्र आव यक है । जब बालक का ज म
होता है तो उसकी रक्षाथर् सत
ू क िनविृ त तक घर म अख ड अिग्र थािपत रखी जाती है । नामकरण,

88
यज्ञोपवीत, िववाह आिद सं कार म भी हवन अव य होता है । अ त मं जब शरीर छूटता है तो उसे
अिग्र को ही स पते ह। अब लोग म ृ यु के समय िचता जलाकर य ही लाश को भ म कर दे ते ह, पर
शा त्र म दे खा जाए, तो वह भी एक सं कार है । इसम वेदम त्र से िविधपव
ू क
र् आहुितयाँ चढ़ाई जाती ह
और शरीर यज्ञ भगवान ् को समिपर्त िकया जाता है ।

प्र येक कथा, कीतर्न, त, उपवास, पवर्, योहार, उ सव, उ यापन म हवन को आव यक माना जाता है ।
अब लोग इसका मह व और इसका िवधान भल
ू गये ह और केवल िच न- पूजा करके काम चला लेते
ह। घर म ि त्रयाँ िकसी प म यज्ञ की पूजा करती ह। वे योहार या पव पर ‘अिग्र को िजमाने’ या
‘अिगयारी’ करने का कृ य िकसी न िकसी प म करती रहती ह। थोड़ी- सी अिग्र लेकर उस पर घी
डालकर प्र विलत करना और उस पर पकवान के छोटे - छोटे ग्रास चढ़ाना और िफर जल से अिग्र की
पिरक्रमा कर दे ना- यह िवधान हम घर- घर म प्र येक पवर् एवं योहार पर होते दे ख सकते ह। िपतर
का ाद्ध िजस िदन होगा, उस िदन ब्रा मण भोजन से पूवर् इस प्रकार अिग्र को भोजन अव य कराया
जायेगा, क्य िक यह ि थर मा यता है िक अिग्र के मख
ु म दी हुई आहुित दे वताओं और िपतर तक
अव य पहुँचती है ।

िवशेष अवसर पर तो हवन करना ही पड़ता है । िन य की चू हा, चक्की, बुहारी आिद से होने वाली जीव
िहंसा एवं पातक के िनवारणाथर् िन य पंच यज्ञ करने का िवधान है । उन पाँच म बिलवै व भी है ।
बिलवै व अिग्र म आहुित दे ने से होता है । इस प्रकार तो शा त्र की आज्ञानुसार िन य हवन करना भी
हमारे िलये आव यक है । होली तो यज्ञ का योहार है । आजकल लोग लकड़ी उपले जलाकर होली
मनाते ह। शा त्र म दे खा जाये तो यह भी यज्ञ है । लोग यज्ञ की आव यकता और िविध को भल
ू गये,
पर केवल ई धन जलाकर उस प्राचीन पर परा की िकसी प्रकार पूितर् कर दे ते ह। इसी प्रकार ावणी,
दशहरा, दीपावली के योहार पर िकसी न िकसी प म हवन अव य होता है । नवरात्र म ि त्रयाँ दे वी
ु म दे वी के िनिम त घी, ल ग, जायफल आिद अव य चढ़ाती ह।
की पूजा करती ह, तो अिग्र के मख
स यनारायण त कथा, रामायण- पारायण, गीता- पाठ, भागवत- स ताह आिद कोई भी शुभ कमर् क्य न
हो, हवन इसम अव य रहे गा।

साधनाओं म भी हवन अिनवायर् है । िजतने भी पाठ, पुर चरण, जप, साधन िकये जाते ह, वे चाहे वेदोक्त
ह , चाहे ताि त्रक, हवन िकसी न िकसी प म अव य करना पड़ेगा। गायत्री उपासना म भी हवन
आव यक है । अनु ठान या पुर चरण म जप से दसवाँ भाग हवन करने का िवधान है । पिरि थितवश
दशवाँ भाग आहुित न दी जा सके, तो शतांश (सौवाँ भाग) आव यक ही है । गायत्री को माता और यज्ञ
को िपता माना गया है । इ हीं दोन के संयोग से मनु य का ज म होता है , िजसे ‘ िवज व’ कहते ह।
ब्रा मण, क्षित्रय, वै य को िवज कहते ह। िवज का अथर् है - दस
ू रा ज म। जैसे अपने शरीर को ज म
दे ने वाले माता- िपता की सेवा- पूजा करना मनु य का िन य कमर् है , उसी प्रकार गायत्री माता और यज्ञ
िपता की पूजा भी प्र येक िवज का आव यक धमर्- क तर् य है ।
89
धमर्ग्र थ म पग- पग पर यज्ञ की मिहमा का गान है । वेद म यज्ञ िवषय प्रधान है , क्य िक यज्ञ एक
ऐसा िवज्ञानमय िवधान है िजससे मनु य का भौितक और आ याि मक ि ट से क याणकारक उ कषर्
होता है । भगवान ् यज्ञ से प्रस न होते ह। कहा गया है —

यो यज्ञै: यज्ञपरमैिर यते यज्ञसंिज्ञत:।


तं यज्ञपु षं िव णंु नमािम प्रभम
ु ी वरम ्॥
‘‘जो यज्ञ वारा पज
ू े जाते ह, यज्ञमय ह, यज्ञ प ह, उन यज्ञ पु ष िव णु भगवान ् को नम कार है ।’’
यज्ञ मनु य की अनेक कामनाओं को पूणर् करने वाला तथा वगर् एवं मिु क्त प्रदान करने वाला है । यज्ञ
को छोडऩे वाल की शा त्र म बहुत िन दा की गयी है —
क वा िवमु चित स वा िवमु चित क मै वा िवमु चित त मै वा िवमु चित। पोषाय रक्षसां
भागोिस॥ यज.ु २.२३
‘‘सख
ु - शाि त चाहने वाला कोई यिक्त यज्ञ का पिर याग नहीं करता। जो यज्ञ को छोड़ता है , उसे यज्ञ
प परमा मा भी छोड़ दे ते ह। सबकी उ नित के िलये आहुितयाँ यज्ञ म छोड़ी जाती ह; जो आहुित नहीं
छोड़ता, वह राक्षस हो जाता है ।’’
यज्ञेन पापै: बहुिभिवर्मक्
ु त: प्राप्रोित लोकान ् परम य िव णो:। -हारीत
‘‘यज्ञ से अनेक पाप से छुटकारा िमलता है तथा परमा मा के लोक की भी प्राि त होती है ।’’
पुत्राथीर् लभते पुत्रान ् धनाथीर् लभते धनम ्।
भायार्थीर् शोभनां भायार्ं कुमारी च शुभं पितम ्॥
भ्र ट रा य तथा रा यं ीकाम: ि यमाप्रुयात ्।
यं यं प्राथर्यते कामं स वै भवित पु कल:॥
िन काम: कु ते य तु स परं ब्र म ग छित। —म यपुराण ९३/११७- ११८
यज्ञ से पुत्राथीर् को पुत्र लाभ, धनाथीर् को धन लाभ, िववाहाथीर् को सु दर भायार्, कुमारी को सु दर पित, ी
कामना वाले को ऐ वयर् प्रा त होता है और िन काम भाव से यज्ञानु ठन करने से परमा मा की प्राि त
होती है ।
न त य ग्रहपीडा या नच ब धु- धनक्षय:।
ग्रह यज्ञ तं गेहे िलिखतं यत्र ित ठि त
न तत्र पीडा पापानां न रोगो न च ब धनम ्।
अशेष- यज्ञ -कोिट होम पद्धित
यज्ञ करने वाले को ग्रह पीड़ा, ब धु नाश, धन क्षय, पाप, रोग, ब धन आिद की पीड़ा नहीं सहनी पड़ती।
यज्ञ का फल अन त है ।
दे वा: स तोिषता यज्ञैल कान ् स ब धय यत
ु ।
उभयोल कयोदव भिू तयर्ज्ञ: प्र यते॥

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त मा य याित दे व वं पव
ू ज
र् :ै सह मोदते।
नाि त यज्ञ समं दानं नाि त यज्ञ समो िविध:॥
सवर्धमर् समु े यो दे वयज्ञे समािहत:॥
‘‘यज्ञ से स तु ट होकर दे वता संसार का क याण करते ह। यज्ञ वारा लोक- परलोक का सख
ु प्रा त
हो सकता है । यज्ञ से वगर् की प्राि त होती है । यज्ञ के समान कोई दान नहीं, यज्ञ के समान कोई
िविध- िवधान नहीं; यज्ञ म ही सब धम का उ े य समाया हुआ है ।’’

असरु ा च सरु ा चैव पु यहे तोमर्ख- िक्रयाम ्।


प्रयत ते महा मान त मा यज्ञा:परायणा:।
यज्ञैरेव महा मानो बभव
ू ुरिधका: सरु ा:॥ महाभारत आ व० ३.६,७
‘‘असरु और सरु सभी पु य के मल
ू हे तु यज्ञ के िलये प्रय न करते ह। स पु ष को सदा यज्ञपरायण
होना चािहये। यज्ञ से ही बहुत से स पु ष दे वता बने ह।’’

यिदिक्षतायुयिर् द वा परे तो यिद म ृ योरि तकं नीत एव।


तमाहरािम िनऋर्ते प थाद पाशर्मेनं शत- शारदाय॥ -अथवर्० ३/११/२
‘‘यिद रोगी अपनी जीवनी शिक्त को खो भी चुका हो, िनराशाजनक ि थित को पहुँच गया हो, यिद
मरणकाल भी समीप आ पहुँचा हो, तो भी यज्ञ उसे म ृ यु के चंगल
ु से बचा लेता है और सौ वषर् जीिवत
रहने के िलये पुन: बलवान ् बना दे ता है ।’’
यज्ञैरा याियता दे वा व ृ टयु सगण वै प्रजा:।
आ याय ते तु धमर्ज्ञ! यज्ञा: क याण- हे तव:॥ -िव णु पुराण
‘‘यज्ञ से दे वताओं को बल िमलता है । यज्ञ वारा वषार् होती है । वषार् से अ न और प्रजापालन होता है ।
हे धमर्ज्ञ! यज्ञ ही क याण का हे तु है ।’’
प्रयुक्तया यया चे टया राजय मा पुरा िजत:।
तां वेदिविहतािमि टमारोग्याथीर् प्रयोजयेत ्॥ -चरक िच० ख ड ८/११२
‘‘तपेिदक सरीखे रोग को प्राचीनकाल म यज्ञ के प्रयोग से न ट िकया जाता था। रोगमिु क्त की इ छा
रखने वाल को चािहये िक उस वेद िविहत यज्ञ का आ य ल।’’
अहं क्रतुरहं यज्ञ: वधाहमहमौषधम ्।
म त्रोऽहमहमेवा यमहमिग्ररहं हुतम ्॥ -गीता ९/१६
‘‘म ही क्रतु हूँ, म ही यज्ञ हूँ, म ही वधा हूँ, म ही औषिध हूँ और म त्र, घत
ृ , अिग्र तथा हवन भी म ही
हूँ।’’
नायं लोकोऽ ययज्ञ य कुतोऽ य: कु स तम। -गीता ४/३१
‘‘हे अजन
ुर् ! यज्ञरिहत मनु य को इस लोक म भी सख
ु नहीं िमल सकता, िफर परलोक का सख
ु तो होगा
ही कैसे?’’

91
नाि त अयज्ञ य लोको वै नायज्ञो िव दते शभ
ु म ्।
अयज्ञो न च पत
ू ा मा न यिति छ नपणर्वत ्॥ -शंख मिृ त
‘‘यज्ञ न करने वाला मनु य लौिकक और पारलौिकक सख
ु से वंिचत हो जाता है । यज्ञ न करने वाले
की आ मा पिवत्र नहीं होती और वह पेड़ से टूटे हुए प ते की तरह न ट हो जाता है ।’’
सहयज्ञा: प्रजा: स ृ व पुरोवाच प्रजापित:।
अनेन प्रसिव य वमेष वोऽि व टकामधुक्॥
दे वान ् भावयतानेन ते दे वा भावय तु व:।
पर परं भावय त: ेय: परमवा यथ॥
इ ट भोगाि ह वो दे वा दा य ते यज्ञभािवता:। -गीता ३/१०- ११

‘‘ब्र मजी ने मनु य के साथ ही यज्ञ को भी पैदा िकया और उनसे कहा िक इस यज्ञ से तु हारी
उ नित होगी। यज्ञ तु हारी इि छत कामनाओं, आव यकताओं को पूणर् करे गा। तुम लोग यज्ञ वारा
दे वताओं की पिु ट करो, वे दे वता तु हारी उ नित करगे। इस प्रकार दोन अपने- अपने कतर् य का पालन
करते हुए क याण को प्रा त ह गे। यज्ञ वारा पु ट िकये हुए दे वता अनायास ही तु हारी सख
ु - शाि त
की व तय ु प्रदान करगे।’’

असंख्य शा त्र वचन म से कुछ प्रमाण ऊपर िदये गये ह। इनसे यज्ञ की मह ता का अनुमान सहज
र् ाल म आ याि मक एवं भौितक उ े य के िनिम त बड़े- बड़े यज्ञ हुआ करते थे।
ही हो जाता है । पूवक
दे वता भी यज्ञ करते थे, असरु भी यज्ञ करते थे, ऋिषय वारा यज्ञ िकये जाते थे, राजा लोग अ वमेध
आिद िवशाल यज्ञ का आयोजन करते थे, साधारण गह
ृ थ अपनी- अपनी साम य के अनुसार समय-
समय पर यज्ञ िकया करते थे। असरु लोग सदै व यज्ञ को िव वंस करने का प्रय न इसिलये िकया
करते थे िक उनके शत्रओ
ु ं का लाभ एवं उ कषर् न होने पाये। इसी प्रकार असरु के यज्ञ का िव वंस भी
कराया गया है । रामायण म राक्षस के ऐसे यज्ञ का वणर्न है , िजसे हनुमान ् जी ने न ट िकया था। यिद
वह सफल हो जाता, तो राक्षस अजेय हो जाते।

राजा दशरथ ने पुत्रेि ट यज्ञ करके चार पुत्र पाये थे। राजा नग
ृ यज्ञ के वारा वगर् जाकर इ द्रासन के
अिधकारी हुए थे। राजा अ वपित ने यज्ञ वारा स तान प्रा त करने का सय
ु ोग प्रा त िकया था। इ द्र
ने वयं भी यज्ञ वारा ही वगर् पाया था। भगवान ् राम अपने यहाँ अ वमेध यज्ञ कराया था। ीकृ ण
जी की प्रेरणा से पा डव ने राजसय
ू यज्ञ कराया था, िजसम ीकृ ण जी ने आग तुक के वागत-
स कार का भार अपने ऊपर िलया था। पाप के प्रायि च त व प, अिन ट और प्रार धज य दभ
ु ार्ग्य
की शाि त के िनिम त, िकसी अभाव की पूितर् के िलये, कोई सहयोग या सौभाग्य प्रा त करने के
प्रयोजन से, रोग िनवारणाथर्, दे वताओं को प्रस न करने हे त,ु धन- धा य की अिधक उपज के िलये
अमत
ृ मयी वषार् के िनिम त, वायु म डल म से अ वा यकर त व का उ मल
ू न करने के िनिम त
हवन- यज्ञ िकये जाते थे और उनका पिरणाम भी वैसा ही होता था।
92
यज्ञ एक मह वपूणर् िवज्ञान है । िजन वक्ष
ृ की सिमधाय काम म ली जाती ह, उनम िवशेष प्रकार के
गण
ु होते ह। िकस प्रयोग के िलये िकस प्रकार की ह य व तय
ु होमी जाती ह, उनका भी िवज्ञान है ।
उन व तुओं के आपस म िमलने से एक िवशेष गण
ु संयुक्त सि म ण तैयार होता है , जो जलने पर
वायुम डल म एक िविश ट प्रभाव पैदा करता है । वेदम त्र के उ चारण की शिक्त से उस प्रभाव म
और भी अिधक विृ द्ध होती है । फल व प जो यिक्त उसम सि मिलत होते ह, उन पर तथा िनकटवतीर्
वायुम डल पर उसका बड़ा प्रभाव पड़ता है । सू म प्रकृित के अ तराल म जो नाना प्रकार की िद य
शिक्तयाँ काम करती ह, उ ह दे वता कहते ह। उन दे वताओं को अनुकूल बनाना, उनको उपयोगी िदशा म
प्रयोग करना, उनसे स ब ध थािपत करना, यही दे वताओं को प्रस न करना है । यह प्रयोजन यज्ञ
वारा आसानी से पूरा हो जाता है ।

संसार म कभी भी िकसी व तु का नाश नहीं होता, केवल पा तर होता रहता है । जो व तुएँ हवन म
होमी जाती ह, वे तथा वेदम त्र की शिक्त के साथ जो सद्भावनाएँ यज्ञ वारा उ प न की जाती ह, वे
दोन िमलकर आकाश म छा जाती ह। उनका प्रवाह सम त संसार के िलए क याणकारक पिरणाम
उ प न करने वाला होता है । इस प्रकार यह संसार की सेवा का, िव व म सख
ु - शाि त उ प न करने का
एक उ तम मा यम एवं पु य परमाथर् है । यज्ञ से यािज्ञक की आ मशुिद्ध होती है , उनके पाप- ताप न ट
होते ह तथा शाि त एवं स गित उपल ध होती है । स चे दय से यज्ञ करने वाले मनु य का लोक-
परलोक सध
ु रता है । यिद उनका पु य पयार् त हुआ, तब तो उ ह वगर् या मिु क्त की प्राि त होती है ,
अ यथा यिद दसू रा ज म भी लेना पड़ा, तो सख ु ी, ीमान ्, साधन- स प न उ च पिरवार म ज म होता
है , तािक आगे के िलए वह सिु वधा के साथ स कमर् करता हुआ ल य को सफलतापूवक
र् प्रा त कर सके।

यज्ञ का अथर्- दान, एकता, उपासना से है । यज्ञ का वेदोक्त आयोजन, शिक्तशाली म त्र का िविधवत ्
उ चारण, िविधपवू क
र् बनाये हुए कु ड, शा त्रोक्त सिमधाएँ तथा सामिग्रयाँ जब ठीक िवधानपव
ू क
र् हवन
की जाती ह, तो उनका िद य प्रभाव िव तत ृ आकाश म डल म फैल जाता है । उसके प्रभाव के
फल व प प्रजा के अ त:करण म प्रेम, एकता, सहयोग, सद्भाव, उदारता, ईमानदारी, संयम, सदाचार,
आि तकता आिद सद्भाव एवं स िवचार का वयमेव आिवभार्व होने लगता है । प त से आ छािदत
िद य आ याि मक वातावरण के थान पर जो स तान पैदा होती है , वह व थ, स गण
ु ी एवं उ च
िवचारधाराओं से पिरपूणर् होती है । पूवक
र् ाल म पुत्र प्राि त के िलए ही पुत्रेि ट यज्ञ कराते ह , सो बात
नहीं; िजनको बराबर स तान प्रा त होती थीं, वे भी स गण
ु ी एवं प्रितभावान स तान प्रा त करने के िलए
पुत्रेि ट यज्ञ कराते थे। गभार्धान, सीमा त, पुंसवन, जातकमर्, नामकरण आिद सं कार बालक के ज म
लेते- लेते अबोध अव था म ही हो जाते थे। इनम से प्र येक म हवन होता था, तािक बालक के मन पर
िद य प्रभाव पड़ और वह बड़ा होने पर पु ष िसंह एवं महापु ष बने। प्राचीनकाल का इितहास साक्षी है
िक िजन िदन इस दे श म यज्ञ की प्रित ठा थी, उन िदन यहाँ महापु ष की कमी नहीं थी। आज यज्ञ
का ितर कार करके अनेक दग
ु ण
ुर् , रोग , कुसं कार और बुरी आदत से ग्रिसत बालक से ही हमारे घर
93
भरे हुए ह।

यज्ञ से अ य आकाश म जो आ याि मक िव युत ् तरं ग फैलती ह, वे लोग के मन से वेष, पाप,


अनीित, वासना, वाथर्परता, कुिटलता आिद बुराइय को हटाती ह। फल व प उससे अनेक सम याएँ
हल होती ह; अनेक उलझन, गिु थयाँ, पेचीदिगयाँ, िच ताएँ, भय, आशंकाएँ तथा बुरी स भावनाएँ समल

न ट हो जाती ह। राजा, धनी, स प न लोग, ऋिष- मिु न बड़े- बड़े यज्ञ करते थे, िजससे दरू - दरू तक का
वातावरण िनमर्ल होता था और दे श यापी, िव व यापी बुराइयाँ तथा उलझन सल
ु झती थीं।

बड़े प म यज्ञ करने की िजनकी साम यर् है , उ ह वैसे आयोजन करने चािहए। अिग्न का मख
ु ई वर
का मख
ु है । उसम जो कुछ िखलाया जाता है , वह स चे अथ म ब्र मभोज है । ब्र म अथार्त ् परमा मा,
भोज अथार्त ् भोजन; परमा मा को भोजन कराना यज्ञ के मख
ु म आहुित छोडऩा ही है । भगवान ् हम
सबको िखलाता है । हमारा भी क तर् य है िक अपने उपकारी के प्रित पूजा करने म कंजस
ू ी न कर।
िजनकी आिथर्क ि थित वैसी नहीं है , वे कई यिक्त थोड़ा- थोड़ा सहयोग करके सामिू हक यज्ञ की
यव था कर सकते ह। जहाँ साधन सय
ु ोग न ह , वहाँ यदा- कदा छोटे - छोटे हवन िकये जा सकते ह
अथवा जहाँ िनयिमत यज्ञ होते ह, वहाँ अपनी ओर से कुछ आहुितय का हवन कराया जा सकता है ।
कोई अ य यिक्त यज्ञ कर रहे ह , तो उसम समय, सहयोग एवं सहायता दे कर उसे सफल बनाने का
प्रय न भी यज्ञ म भागीदार होना ही है ।

हम यह िनि चत प से समझ लेना चािहए िक यज्ञ म जो कुछ धन, सामग्री, म लगाया जाता है , वह
कभी िनरथर्क नहीं जाता। एक प्रकार से वह दे वताओं के बक म जमा हो जाता है और उिचत अवसर
पर स तोषजनक याज समेत वापस िमल जाता है । िविधपव
ू क
र् शा त्रीय पद्धित और िविश ट उपचार
तथा िवधान के साथ िकये गये हवन तो और भी मह वपण
ू र् होते ह। वे एक प्रकार से िद य अ त्र बन
जाते ह। पव
ू क
र् ाल म यज्ञ के वारा मनोवाँिछत वषार् होती थी, योद्धा लोग यद्ध
ु म िवजय ी प्रा त करते
थे और योगी आ मसाक्षा कार करते थे। यज्ञ को वेद म ‘कामधुक्’ कहा है , िजसका आशय यही है िक
वह मनु य के सभी अभाव और बाधाओं को दरू करने वाला है ।

िन य का अिग्नहोत्र बहुत सरल है । उसम कुछ इतना भारी खचर् नहीं होता िक म यम विृ त का
मनु य उस भार को उठा न सके। जो लोग िन य हवन नहीं कर सकते, वे स ताह म एक बार रिववार
या अमाव या, पूणमर् ासी को अथवा महीने म एक बार पूणम
र् ासी को थोड़ा या बहुत हवन करने का
प्रय न कर। िविध- िवधान भी इन साधारण हवन का कोई किठन नहीं है । ‘गायत्री यज्ञ िवधान’ पु तक
म उसकी सरल िविधयाँ बताई जा चुकी ह। उनके आधार पर िबना पि डत- पुरोिहत की सहायता के
कोई भी िवज आसानी से वह करा सकता है । जहाँ कुछ भी िवधान न मालम
ू हो, वहाँ केवल शुद्ध घत

की आहुितयाँ गायत्री म त्र के अ त म ‘ वाहा’ श द लगाते हुए दी जा सकती ह। िकसी न िकसी प
म यज्ञ पर परा को जारी रखा जाए, तो वह भारतीय सं कृित की एक बड़ी भारी सेवा है ।

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साधारण होम भी बहुत उपयोगी होता है । उससे घर की वायु शुिद्ध, रोग- िनविृ त एवं अिन ट से
आ मरक्षा होती है । िफर िवशेष आयोजन के साथ िविध- िवधानपूवक र् िकये गये यज्ञ तो असाधारण फल
उ प न करते ह। यह एक िव या है । पाँच त व के होम म एक वैज्ञािनक सि म ण होता है िजससे
एक प्रच ड शिक्त को ‘‘ िव मध
ू ार्, िव नािसका, स तह त, िव मख
ु , स तिज व, उ तर मख
ु , कोिट
ू ार्, िव पंचाश कला युतम ्’’ आिद िवशेषण युक्त कहा गया है । इस रह यपूणर् संकेत म यह
वादश मध
बताया गया है िक यज्ञािग्र की मध
ू ार् भौितक और आ याि मक दोन ह। ये क्षेत्र सफल बनाये जा सकते
ह। थूल और सू म प्रकृित यज्ञ की नािसका ह, उन पर अिधकार प्रा त िकया जा सकता है । सात
प्रकार की स पदाय यज्ञािग्र के हाथ म ह, वाममागर् और दिक्षणमागर् ये दो मख
ु ह, सात लोक िज वय
ह। इन सब लोक म जो कुछ भी िवशेषताएँ ह, वे यज्ञािग्र के मख
ु म मौजूद ह। उ तर ध्रुव का
चु बक व के द्र अिग्र मुख है । ५२ कलाय यज्ञ की ऐसी ह, िजनम से कुछ को ही प्रा त करके रावण
इतना शिक्तशाली हो गया था। यिद यह सभी कलाय उपल ध हो जाएँ, तो मनु य साक्षात ् अिग्र व प
हो सकता है और िव व के सभी पदाथर् उसके करतलगत हो सकते ह। यज्ञ की मिहमा अन त है और
उसका आयोजन भी फलदायक होता है । गायत्री उपासक के िलए तो यज्ञ िपता तु य पज
ू नीय है । यज्ञ
भगवान ् की पज
ू ा होती रहे , यह प्रय न करना आव यक है ।

इन साधनाओं म अिन ट का कोई भय नहीं

म त्र की साधना की एक िवशेष िविध- यव था होती है । िन य साधना पद्धित से िनधार्िरत कमर्का ड


के अनस
ु ार म त्र का अनु ठान साधन, परु चरण करना होता है । आमतौर से अिविधपव
ू क
र् िकया गया
अनु ठान साधक के िलए हािनकारक िसद्ध होता है और लाभ के थान पर उससे अिन ट की स भावना
रहती है ।

ऐसे िकतने ही उदाहरण िमलते ह िक िकसी यिक्त ने िकसी म त्र या िकसी दे वता की साधना अथवा
कोई योगा यास या ताि त्रक अनु ठान िकया, पर साधना की नीित- रीित म कोई भल
ू हो गयी या िकसी
प्रकार अनु ठान खि डत हो गया तो उसके कारण साधक को भारी िवपि त म पडऩा पड़ा। ऐसे प्रमाण
इितहास पुराण म भी ह। वत्र
ृ और इ द्र की कथा इसी प्रकार की है । वेदम त्र का अशुद्ध उ चारण
करने पर उ ह घातक संकट सहना पड़ा था।

अ य वेदम त्र की भाँित गायत्री का भी शुद्ध स वर उ चारण होना और िविधपूवक


र् साधना करना
उिचत है । िविधपूवक
र् िकये हुए अनु ठान सदा शीघ्र िसद्ध होते ह और उ तम पिरणाम उपि थत करते
ह। इतना होते हुए भी वेदमाता गायत्री म एक िवशेषता है िक कोई भल ू होने पर हािनकारक फल नहीं
होता।

िजस प्रकार दयाल,ु उदार और बिु द्धमती माता अपने बालक की सदा िहतिच तना करती है , उसी प्रकार
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गायत्री शिक्त वारा भी साधक का िहत ही स पादन होता है । माता के प्रित बालक गलितयाँ भी करते
रहते ह, उनके स मान म बालक से त्रिु ट भी रह जाती है और कई बार तो वे उलटा आचरण कर बैठते
ह। इतने पर भी माता न तो उनके प्रित दभ
ु ार्व मन म लाती है और न उ ह िकसी प्रकार हािन
पहुँचाती है । जब साधारण माताएँ इतनी दयालत
ु ा और क्षमा प्रदिशर्त करती ह, तो जग जननी वेदमाता,
स गण
ु की िद य सरु सिर गायत्री से और भी अिधक आशा की जा सकती है । वह अपने बालक की
अपने प्रित द्धा भावना को दे खकर प्रभािवत हो जाती है । बालक की भिक्त भावना को दे खकर माता
का ृ िनझर्िरणी फूट पड़ती है , िजसके िद य प्रवाह म
दय उमड़ पड़ता है । उसके वा स य की अमत
साधना की छोटी- मोटी भल
ू , कमर्का ड म हुई अज्ञानवश त्रिु टयाँ ितनके के समान बह जाती ह।
सतोगण
ु ी साधना का िवपरीत फल न होने का िव वास भगवान ् ीकृ ण ने गीता म िदखाया है —

नेहािभक्रम नाशोऽि त प्र यवायो न िव यते।


व पम य य धमर् य त्रायते महतो भयात ्॥ — ीमद्भगव गीता २/४०

अथार्त ्- स कायर् के आर भ का नाश नहीं होता, वह िगरता- पड़ता आगे बढ़ता चलता है । उससे उलटा
फल कभी नहीं िनकलता। ऐसा कभी नहीं होता की सत ् इ छा से िकया हुआ कायर् असत ् जो जाए और
उसका शुभ पिरणाम न िनकले। थोड़ा भी धमर् कायर् बड़े भय से रक्षा करता है ।

गायत्री साधना ऐसा ही साि वक स कमर् है , िजसे एक बार आर भ कर िदया जाए तो मन की


प्रविृ तयाँ उस ओर अव य ही आकिषर्त होती ह और बीच म छूट जाए तो िफर भी समय- समय पर
बार- बार उसे पुन: आर भ करने की इ छा उठती रहती है । िकसी वािद ट पदाथर् का एक बार वाद
िमल जाता है , तो उसे बार- बार प्रा त करने की इ छा हुआ करती है । गायत्री ऐसा ही अमत
ृ ोपम
वािद ट आ याि मक आहार है , िजसे प्रा त करने के िलए आ मा बार- बार मचलती है , बार- बार चीख-
पुकार करती है । उसकी साधना म कोई भल
ू रह जाये तो भी उलटा पिरणाम नहीं िनकलता, िकसी
िवपि त, संकट या अिन ट का सामना नहीं करना पड़ता। त्रिु टय का पिरणाम यह हो सकता है िक
आशा से कम फल िमले या अिधक से अिधक यह िक वह िन फल चला जाए। इस साधना को िकसी
थोड़े से प म प्रार भ कर दे ने से उसका फल हर ि ट से उ तम होता है । उस फल के कारण उन
भय से मिु क्त िमल जाती है , जो अ य उपाय से बड़ी किठनाइय से हटाये या िमटाये जा सकते ह।

इस िवषय को और अिधक प ट करने के िलए भागवत के बारहव क द म नारद जी ने भगवान ्


नारायण से यही प्र िकया था िक आप कोई ऐसा उपाय बताय, िजसे अ प शिक्त के मनु य भी सहज
म कर सक और िजससे माता प्रस न होकर उनका क याण करे ; क्य िक सभी दे वताओं की साधना म
प्राय: आचार- िवचार, िविध- िवधान, याग- तप या के किठन िनयम बतलाये गये ह, िजनको सामा य
ेणी और थोड़ी िव या- बुिद्ध वाले यिक्त पूरा नहीं कर सकते। इस पर भगवान ् ने कहा- ‘हे नारद!

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मनु य अ य कोई अनु ठान करे या न करे , पर एकमात्र गायत्री म ही जो ढ़ िन ठा रखते ह, वे अपने
जीवन को ध य बना लेते ह। हे महामिु न! जो स या म अघ्र्य दे ते ह और प्रितिदन गायत्री का तीन
हजार जप करते ह, वे दे वताओं वारा भी पज
ू ने योग्य बन जाते ह।

जप करने से पहले इसका यास िकया जाता है , क्य िक शा त्रकार का कथन है िक ‘दे वो भू वा दे वं
यजेत ्’ अथार्त ्- ‘दे व जैसा बनकर दे व का यजन करना।’ पर तु किठनाई या प्रमाद से यास न कर सके
और सि चदान द गायत्री का िन कपट भाव से यान करके केवल उसका ही जप करता रहे , तो भी
पयार् त है । गायत्री का एक अक्षर िसद्ध हो जाने से भी उ तम ब्रा मण िव ण,ु शंकर, ब्र म, सय
ू ,र् च द्र
आिद के साथ पधार् करता है । जो साधक िनयमानुसार गायत्री की उपासना करता है , वह उसी के वारा
सब प्रकार की िसिद्धयाँ प्रा त कर लेता है , इसम कुछ भी स दे ह नहीं है ।’ इस कथानक से िविदत होता
है िक इस यग
ु म गायत्री की साि वक और िन काम साधना ही सवर् े ठ है । उससे िनि चत प से
आ मक याण होता है ।

इन सब बात पर िवचार करते हुए साधक को िनभर्य मन से सम त आशंकाओं एवं भय को छोडक़र


गायत्री की उपासना करनी चािहये। यह साधारण अ त्र नहीं है , िजसके िलये िनयत भिू मका बाँधे िबना
काम न चले। मनु य यिद िक हीं छुट्टल, वन- चर जीव को पकडऩा चाहे , तो उसके िलये चतुरतापण
ू र्
उपाय की आव यकता पड़ती है , पर तु बछड़ा अपनी माँ को पकडऩा चाहे , तो उसे मातभ
ृ ावना से ‘माँ’
पुकार दे ना काफी होता है । गौ- माता खड़ी हो जाती है , वा स य के साथ बछड़े को चाटने लगती है और
उसे अपने पयोधर से दग्ु धपान कराने लगती है । आइये, हम भी वेदमाता को स चे अ त:करण से
भिक्तभावना के साथ पुकार और उसके अ तराल से िनकला हुआ अमत
ृ रस पान कर।

हम शा त्रीय साधना पद्धित से उसकी साधना करने का शिक्त भर प्रय न करना चािहये। अकारण भल

करने से क्या प्रयोजन? अपनी माता अनिु चत यवहार को भी क्षमा कर दे ती है , पर इसका ता पयर् यह
नहीं है िक उसके प्रित द्धा- भिक्त म कुछ ढील या उपेक्षा की जाए। जहाँ तक बने पूणर् सावधानी के
साथ साधना करनी चािहये, पर साथ ही इस आशंका को मन से िनकाल दे ना चािहये िक ‘िकिचत ् मात्र
भल
ू हो गयी, तो बुरा होगा।’ इस भय के कारण गायत्री साधना से वि चत रहने की आव यकता नहीं
है । प ट है िक वेदमाता अपने भक्त की भिक्त- भावना का प्रधान प से यान रखती ह और
अज्ञानवश हुई छोटी- मोटी भल
ू को क्षमा कर दे ती ह।

साधक के िलये कुछ आव यक िनयम

गायत्री साधना करने वाल के िलए कुछ आव यक जानकािरयाँ नीचे दी जाती ह—

१- शरीर को शुद्ध करके साधना पर बैठना चािहये। साधारणत: नान के वारा ही शुिद्ध होती है , पर
ु धोकर या गीले कपड़े से शरीर
िकसी िववशता, ऋत-ु प्रितकूलता या अ व थता की दशा म हाथ- मँह
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प छकर भी काम चलाया जा सकता है ।

२- साधना के समय शरीर पर कम से कम व त्र रहने चािहये। शीत की अिधकता हो तो कसे हुए कपड़े
पहनने की अपेक्षा क बल आिद ओढक़र शीत- िनवारण कर लेना उ तम है ।

३- साधना के िलए एका त खल


ु ी हवा की एक ऐसी जगह ढूँढऩी चािहये, जहाँ का वातावरण शाि तमय
हो। खेत, बगीचा, जलाशय का िकनारा, दे व- मि दर साधना के िलए उपयक्
ु त होते ह, पर जहाँ ऐसा थान
िमलने की असिु वधा हो, वहाँ घर का कोई व छ और शा त भाग भी चुना जा सकता है ।

४- धुला हुआ व त्र पहनकर साधना करना उिचत है ।

५- पालथी मारकर सीधे- सादे ढं ग से बैठना चािहये। क टसा य आसन लगाकर बैठने से शरीर को क ट
होता है और मन बार- बार उचटता है , इसिलये इस तरह बैठना चािहये िक दे र तक बैठे रहने म
असिु वधा न हो।

६- रीढ़ की ह डी को सदा सीधा रखना चािहये। कमर झक


ु ाकर बैठने से मे द ड टे ढ़ा हो जाता है और
सष
ु ु ना नाड़ी म प्राण का आवागमन होने म बाधा पड़ती है ।

७- िबना िबछाये जमीन पर साधना के िलए न बैठना चािहये। इससे साधना काल म उ प न होने वाली
सारी िव युत ् जमीन पर उतर जाती है । घास या प त से बने हुए आसन सवर् े ठ ह। कुश का आसन,
चटाई, रि सय से बने फशर् सबसे अ छे ह। इनके बाद सतू ी आसन का न बर है । ऊन तथा चम के
आसन ताि त्रक कमार्ं म प्रयुक्त होते ह।

८- माला तल
ु सी या च दन की लेनी चािहये। द्राक्ष, लाल च दन, शंख आिद की माला गायत्री के
ताि त्रक प्रयोग म प्रयक्
ु त होती ह।

ू र् अ त होने से एक घ टे बाद तक
९- प्रात:काल २ घ टे तडक़े से जप प्रार भ िकया जा सकता है । सय
जप समा त कर लेना चािहये। एक घ टा शाम का, २ घ टे प्रात:काल के, कुल ३ घ ट को छोडक़र राित्र
के अ य भाग म गायत्री की दिक्षणमागीर् साधना नहीं करनी चािहये। ताि त्रक साधनाएँ अधर् राित्र के
आस- पास की जाती ह।

१०- साधना के िलए चार बात का िवशेष प से यान रखना चािहये— (अ) िच त एकाग्र रहे , मन इधर-
उधर न उछलता िफरे । यिद िच त बहुत दौड़े, तो उसे माता की सु दर छिव के यान म लगाना
चािहये। (ब) माता के प्रित अगाध द्धा व िव वास हो। अिव वासी और शंका- शंिकत मित वाले परू ा
लाभ नहीं पा सकते। (स) ढ़ता के साथ साधना पर अड़े रहना चािहये। अनु साह, मन उचटना, नीरसता
प्रतीत होना, ज दी लाभ न िमलना, अ व थता तथा अ य सांसािरक किठनाइय का मागर् म आना
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साधना के िवघ्र ह। इन िवघ्र से लड़ते हुए अपने मागर् पर ढ़तापव
ू क
र् बढ़ते चलना चािहये। (द)
िनर तरता साधना का आव यक िनयम है । अ य त कायर् होने या िवषम ि थित आ जाने पर भी
िकसी न िकसी प म चलते िफरते ही सही, पर माता की उपासना अव य कर लेनी चािहये। िकसी भी
िदन नागा या भल
ू नहीं करना चािहये। समय को रोज- रोज नहीं बदलना चािहये। कभी सबेरे, कभी
दोपहर, कभी तीन बजे तो कभी दस बजे, ऐसी अिनयिमतता ठीक नहीं। इन चार िनयम के साथ की
गई साधना बड़ी प्रभावशाली होती है ।

११- कम से कम एक माला अथार्त ् १०८ म त्र िन य जपने चािहये, इससे अिधक िजतने बन पड़े, उतने
उ तम ह।

१२- िकसी अनुभवी तथा सदाचारी को साधना- गु िनयत करके तब साधना करनी चािहये। अपने िलए
कौन- सी साधना उपयुक्त है , इसका िनणर्य उसी से कराना चािहये। रोगी अपने रोग को वयं समझने
और अपने आप दवा तथा परहे ज का िनणर्य करने म समथर् नहीं होता, उसे िकसी वै य की सहायता
लेनी पड़ती है । इसी प्रकार अपनी मनोभिू म के अनुकूल साधना बताने वाला, भल
ू तथा किठनाइय का
समाधान करने वाला साधना- गु होना अित आव यक है ।

१३- प्रात:काल की साधना के िलए पूवर् की ओर मँह


ु करके बैठना चािहये और शाम को पि चम की ओर
मँह
ु करके। प्रकाश की ओर, सय
ू र् की ओर मँह
ु करना उिचत है ।

१४- पूजा के िलए फूल न िमलने पर चावल या नािरयल की िगरी को क ूकस पर कसकर उसके बारीक
पत्र को काम म लाना चािहये। यिद िकसी िवधान म रं गीन पु प की आव यकता हो, तो चावल या
िगरी के प त को केसर, ह दी, गे , महदी के दे शी रं ग से रँ गा जा सकता है । िवदे शी अशुद्ध चीज से
बने रं ग काम म नहीं लेने चािहए।

१५- दे र तक एक पालथी से, एक आसन म बैठे रहना किठन होता है , इसिलए जब एक तरफ से बैठे-
बैठे पैर थक जाएँ, तब उ ह बदला जा सकता है । आसन बदलने म दोष नहीं।

१६- मल- मत्र


ू याग या िकसी अिनवायर् कायर् के िलये साधना के बीच उठना पड़े, तो शुद्ध जल से हाथ-
मँह
ु धोकर दब
ु ारा बैठना चािहये और िवक्षेप के िलए एक माला अितिरक्त जप प्रायि च त व प करना
चािहये।

१७- यिद िकसी िदन अिनवायर् कारण से साधना थिगत करनी पड़े, तो दस
ू रे िदन एक माला अितिरक्त
जप द ड व प करना चािहये।

१८- ज म या म ृ यु का सत
ू क हो जाने पर शुिद्ध होने तक माला आिद की सहायता से िकया जाने वाला

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िविधवत ् जप थिगत रखना चािहये। केवल मानिसक जप मन ही मन चालू रख सकते ह। यिद इस
प्रकार का अवसर सवालक्ष जप के अनु ठान काल म आ जाए, तो उतने िदन अनु ठान थिगत रखना
चािहए। सत
ू क िनव ृ त होने पर उसी संख्या पर से जप आर भ िकया जा सकता है , जहाँ से छोड़ा था।
उस िवक्षेप काल की शुिद्ध के िलए एक हजार जप िवशेष प से करना चािहये।

१९- ल बे सफर म होने, वयं रोगी हो जाने या ती रोगी की सेवा म संलग्न रहने की दशा म नान
आिद पिवत्रताओं की सिु वधा नहीं रहती। ऐसी दशा म मानिसक जप िब तर पर पड़े- पड़े, रा ता चलते
या िकसी भी अपिवत्र दशा म िकया जा सकता है ।

२०- साधक का आहार- िवहार साि वक होना चािहये। आहार म सतोगण


ु ी, सादा, सप
ु ा य, ताजे तथा पिवत्र
हाथ से बनाये हुए पदाथर् होने चािहये। अिधक िमचर्- मसाले, तले हुए पक्वा न, िम ठा न, बासी,
दग
ु िर् धत, मांस, नशीली, अभ य, उ ण, दाहक, अनीित उपािजर्त, ग दे मनु य वारा बनाये हुए, ितर कार
पूवक
र् िदये हुए भोजन से िजतना बचा जा सके, उतना ही अ छा है ।

२१- यवहार िजतना भी प्राकृितक, धमर्- संगत, सरल एवं साि वक रह सके, उतना ही उ तम है ।
फैशनपर ती, राित्र म अिधक जगना, िदन म सोना, िसनेमा, नाच- रं ग अिधक दे खना, पर िन दा,
िछद्रा वेषण, कलह, दरु ाचार, ई या, िन ठुरता, आल य, प्रमाद, मद, म सर से िजतना बचा जा सके, बचने
का प्रय न करना चािहये।

२२- य ब्र मचयर् तो सदा ही उ तम है , पर गायत्री अनु ठान के ४० िदन म उसकी िवशेष आव यकता
है ।

२३- अनु ठान के िदन म कुछ िवशेष िनयम का पालन करना पड़ता है , जो इस प्रकार ह- (१) ठोड़ी के
िसवाय िसर के बाल न कटाएँ, ठोड़ी के बाल अपने हाथ से ही बनाय। (२) चारपाई पर न सोय, तख्त
या जमीन पर सोना चािहये। उन िदन अिधक दरू नंगे पैर न िफर। चाम के जत
ू े के थान पर खड़ाऊ
आिद का उपयोग करना चािहये। (४) इन िदन एक समय आहार, एक समय फलाहार लेना चािहये। (५)
अपने शरीर और व त्र से दस
ू र का पशर् कम से कम होने द।

२४- एका त म जपते समय माला खुले म जपनी चािहये। जहाँ बहुत आदिमय की ि ट पड़ती हो, वहाँ
कपड़े से ढक लेना चािहये या गोमख
ु ी म हाथ डाल लेना चािहये।

२५- साधना के दौरान पज


ू ा के बचे हुए अक्षत, धप
ू , दीप, नैवे य, फूल, जल, दीपक की ब ती, हवन की
भ म आिद को य ही जहाँ- तहाँ ऐसी जगह नहीं फक दे नी चािहये, जहाँ वे पैर तले कुचलती िफरे ।
उ ह िकसी तीथर्, नदी, जलाशय, दे व- मि दर, कपास, जौ, चावल का खेत आिद पिवत्र थान पर िवसिजर्त
करना चािहये। चावल िचिडय़ के िलए डाल दे ना चािहये। नैवे य आिद बालक को बाँट दे ने चािहये।

100
जल को सय
ू र् के स मख
ु अघ्र्य दे ना चािहये।

२६- वेदोक्त रीित की यौिगक दिक्षणमागीर् िक्रयाओं म और त त्रोक्त वाममागीर् िक्रयाओं म अ तर है ।


योगमागीर् सरल िविधयाँ इस पु तक म िलखी हुई ह, उनम कोई िवशेष कमर्का ड की आव यकता नहीं
है । शाप मोचन, कवच, कीलक, अगर्ला, मद्र
ु ा, अंग यास आिद कमर्का ड ताि त्रक साधनाओं के िलये ह।
इस पु तक के आधार पर साधना करने वाल को उसकी आव यकता नहीं है ।

ु ार गायत्री का अिधकार
२७- प्रचिलत शा त्रीय मा यता के अनस िवज को है । िवज का अथर् होता है
िजनका दस
ू रा ज म हुआ है । गायत्री की दीक्षा लेने वाल को ही िवज कहते ह। हमारे यहाँ वणर्
यव था रही है िजसे गीता म गण
ु - कमर् के अनुसार िनधार्िरत करने का अनुशासन बतलाया गया है ।
ज म से वणर् िनधार्िरत करने पर उ ह जाित कहा जाने लगा। वा तव म शूद्र उ ह कहा जाता था जो
िवज व का सं कार वीकार नहीं करते थे। गण
ु - कमर् के आधार पर धीवर क या के गभर् से उ प न
बालक महिषर् यास, इतरा का बेटा ऋिष ऐतरे य बनने जैसे अनेक उदाहरण पौरािणक इितहास म िमलते
ह।

२८- वेद म त्र का स वर उ चारण करना उिचत होता है , पर सब लोग यथािविध स वर गायत्री का
उ चारण नहीं कर सकते। इसिलये जप इस प्रकार प्रकार करना चािहए िक क ठ से विन होती रहे ,
ह ठ िहलते रह, पर पास बैठा हुआ यिक्त भी प ट प से म त्र को न सन
ु सके। इस प्रकार िकया
जप वर- ब धन से मक् ु त होता है ।

२९- साधना की अनेक िविधयाँ ह। अनेक लोग अनेक प्रकार से करते ह। अपनी साधना िविध दस
ू र को
बताई जाए तो कुछ न कुछ मीन- मेख िनकाल कर स दे ह और भ्रम उ प न कर दगे, इसिलये अपनी
साधना िविध हर िकसी को नहीं बतानी चािहये। यिद दस
ू रे मतभेद प्रकट कर, तो अपने साधना गु को
ही सव पिर मानना चािहये। यिद कोई दोष की बात होगी, तो उसका पाप या उ तरदािय व उस साधना
गु पर पड़ेगा। साधक तो िनद ष और द्धायुक्त होने से स ची साधना का ही फल पायेगा। वा मीिक
जी उलटा राम नाम जप कर भी िसद्ध हो गये थे।

३०- गायत्री साधना माता की चरण- व दना के समान है , यह कभी िन फल नहीं होती, उलटा पिरणाम
भी नहीं होता। भल
ू हो जाने पर अिन ट की कोई आशंका नहीं, इसिलये िनभर्य और प्रस न िच त से
उपासना करनी चािहये। अ य म त्र अिविध पूवक
र् जपे जाने पर अिन ट करते ह, पर गायत्री म यह
बात नहीं है । वह सवर्सल ु म और सब प्रकार सस
ु भ, अ य त सग ु ा य है । हाँ, ताि त्रक िविध से की गयी
उपासना पूणर् िविध- िवधान के साथ होनी चािहये, उसम अ तर पडऩा हािनकारक है ।

३१- जैसे िमठाई को अकेले- अकेले ही चुपचाप खा लेना और समीपवतीर् लोग को उसे न चखाना बरु ा है ,
वैसे ही गायत्री साधना को वयं तो करते रहना, पर अ य िप्रयजन , िमत्र , कुटुि बय को उसके िलये
101
प्रो सािहत न करना, एक बहुत बड़ी बरु ाई तथा भल
ू है । इस बरु ाई से बचने के िलए हर साधक को
चािहये िक अिधक से अिधक लोग को इस िदशा म प्रो सािहत कर।

३२- कोई बात समझ म न आती हो या स दे ह हो तो ‘शांितकु ज हिर वार’ से उसका समाधान कराया
जा सकता है ।

३३- माला जपते समय सम


ु े (माला के आर भ का सबसे बड़ा दाना) का उ लंघन नहीं करना चािहये।
एक माला पूरी करके उसे म तक तथा नेत्र से लगाकर पीछे की तरफ उलटा ही वापस कर लेना
चािहये। इस प्रकार माला पूरी होने पर हर बार उलट कर ही नया आर भ करना चािहये। अपनी पूजा-
सामग्री ऐसी जगह रखनी चािहये, िजसे अ य लोग अिधक पशर् न कर।

साधना- एकाग्रता और ि थर िच त से होनी चािहए


साधना के िलए व थ और शा त िच त की आव यकता है । िच त को एकाग्र करके, मन को सब ओर
से हटाकर त मयता, द्धा और भिक्त- भावना से की गई साधना सफल होती है । यिद यह सब बात
साधक के पास न ह , तो उसका प्रय न फलदायक नहीं होता। उ िवग्र, अशा त, िचि तत, उ तेिजत, भय
एवं आशंका से ग्र त मन एक जगह नहीं ठहरता। वह क्षण- क्षण म इधर- उधर भागता है । कभी भय
के िचत्र सामने आते ह, कभी दद
ु र् शा को पार करने के उपाय सोचने म मि त क दौड़ता है । ऐसी ि थित
म साधना कैसे हो सकती है ? एकाग्रता न होने से न गायत्री के जप म मन लगता है , न यान म। हाथ
माला को फेरते ह, मख
ु म त्रो चार करता है , िच त कहीं का कहीं भागता िफरता है । यह ि थित साधना
के िलए उपयुक्त नहीं। जब तक मन सब ओर से हटकर, सब बात भल
ु ाकर एकाग्रता और त मयता के
साथ भिक्त- भावना पूवक
र् माता के चरण म नहीं लग जाता, तब तक अपने म वह चु बक कैसे पैदा
होगा जो गायत्री को अपनी ओर आकिषर्त करे और अभी ट उ े य की पूितर् म उसकी सहायता प्रा त
कर सके? दस
ू री किठनाई है - द्धा की कमी। िकतने ही मनु य की मनोभिू म बड़ी शु क एवं अ द्धालु
होती है । उ ह आ याि मक साधन पर स चे मन से िव वास नहीं होता। िकसी से बहुत प्रशंसा सन
ु ी,
तो परीक्षा करने का कौतूहल मन म उठता है िक दे ख, यह बात कहाँ तक सच है ?

इस स चाई को जानने के िलये िकसी क टसा य कायर् की पूितर् को कसौटी बनाते ह और उस कायर् की
तुलना म वैसा पिर म नहीं करना चाहते। वे चाहते ह िक १०- २० माला म त्र जपते ही उनका
क टसा य मनोरथ आनन- फानन म पूरा हो जाए। कोई- कोई स जन तो ऐसी मनौती मानते दे खे गये
ह िक हमारा अमक
ु कायर् पहले पूरा हो जाए तो अमक
ु साधना इतनी मात्रा म पीछे करगे। उनका
प्रयास ऐसा ही है जैसे कोई कहे िक पहले जमीन से िनकलकर पानी हमारे खेत को सींच दे , तब हम
जल दे वता को प्रस न करने के िलये कुआँ खोदवा दगे। वे सोचते ह िक शायद अ य शिक्तयाँ हमारी
उपासना के िबना भख
ू ी बैठी ह गी, हमारे िबना सारा काम का पड़ा रहे गा, इसिलए उनसे वायदा कर
102
िदया जाए िक पहले अमक
ु मजदरू ी कर दो, तब तु ह खाना िखला दगे या तु हारे के हुए काम परू ा
करने म सहायता दगे। यह विृ त उपहासा पद है , उनके अिव वास तथा ओछे पन को प्रकट करती है ।
अिव वासी, अ द्धाल,ु अि थर िच त के मनु य भी यिद गायत्री साधना को िनयमपव
ू क
र् करते चल, तो
कुछ समय म उनके यह तीन दोष दरू हो जाते ह और द्धा, िव वास एवं एकाग्रता उ प न होने से
सफलता की ओर तेजी से कदम बढऩे लगते ह। इसिलए चाहे िकसी की मनोभिू म असंयमी तथा
अि थर ही क्य न हो, पर साधना म लग ही जाना चािहए। एक न एक िदन त्रिु टयाँ दरू हो जायगी
और माता की कृपा प्रा त होकर ही रहे गी। द्धा और िव वास की शिक्त बड़ी प्रबल है । इनके वारा
मनु य अस भव कायर् को भी स भव कर डालता है ।

भगीरथ ने द्धा के बल से ही िहमालय पवर्त म मागर् बनाकर गंगा का प ृ वी पर अवतरण कराया।


द्धा और िव वास के प्रभाव से ही ध्रुव और नामदे व जैसे छोटे बालक ने भगवान ् का साक्षा कार कर
िलया। इसी आधार पर तुलसीदास और सरू दास जैसे वासनाग्र त यिक्त स त िशरोमिण बन गये।
इसिलए यिद हम इस महान ् शिक्त का आ य ल, तो हमारे िच त की च चलता और अि थरता कमश:
वयमेव दरू हो जायेगी। आव यकता इतनी ही है िक हम िनयम पालन का यान रख और जो संक प
िकया है , उस पर ढ़ बने रह। इसके फल से हमारी मानिसक दब र् ता अथवा शारीिरक अशिक्त का
ु ल
िनराकरण वयं होता जायेगा और हमारी साधना अ त म अव य सफल होगी। शा त्र कथन है -
‘सि दग्धो िह हतो म त्री यग्रिच तो हतो जप:’ स दे ह करने से म त्र हत हो जाता है और यग्रिच त
से िकया हुआ जप िन फल रहता है ।

सि दग्ध, यग्र, अ द्धालु और अि थर होने पर कोई िवशेष प्रयोजन सफल नहीं हो सकता। इस किठनाई
को यान म रखते हुए अ या म िव या के आचाय ने एक उपाय दस ू र वारा साधना कराना बताया
है । िकसी अिधकारी यिक्त को साधना कायर् म लगा दे ना और उसकी थान पूितर् वयं कर दे ना एक
सीधा- सादा िनदार्ष पिरवतर्न है । िकसान अ न तैयार करता है और जल
ु ाहा कपड़ा। आव यकता होने पर
अ न और कपड़े की अदल- बदल हो जाती है । िजस प्रकार वकील, डॉक्टर, अ यापक, क्लकर् आिद का
समय, मू य दे कर खरीदा जा सकता है और उस खरीदे हुए समय का मनचाहा उपयोग अपने प्रयोजन
के िलए िकया जा सकता है , उसी प्रकार िकसी ब्र परायण स पु ष को गायत्री- उपासना के िलए
िनयुक्त िकया जा सकता है । इसम स दे ह और अि थर िच त होने के कारण जो किठनाइयाँ मागर् म
आती ह, उनका हल आसानी से हो जाता है । कायर् य त और ीस प न धािमर्क मनोविृ त के लोग
बहुधा अपनी शाि त, सरु क्षा और उ नित के िलए गोपाल सह नाम, िव णु सह नाम, महाम ृ यु जय,
दग
ु ार्स तशती, िशव मिहमा, गंगा लहरी आिद का पाठ िनयिमत प से कराते ह। वे िकसी ब्रा मण से
मािसक दिक्षणा पर िनयत समय के िलये अनब
ु ध कर लेते ह, िजतने समय वह पाठ कर लेता है ,
उसका पिरवितर्त मू य उसे दिक्षणा के प म िदया जाता है । इस प्रकार वष यह क्रम िनयिमत चलता
रहता है । िकसी िवशेष अवसर पर िवशेष प से िवशेष प्रयोजन के िलए िवशेष अनु ठान के आयोजन

103
भी होते ह। नवदग
ु ार्ओं के अवसर पर बहुधा लोग दग
ु ार् पाठ कराते ह।

िशवराित्र को िशव मिहमा, गंगा दशहरा को गंगा लहरी, दीवाली को ीसक्


ू त का पाठ अनेक पि डत को
बैठाकर अपनी साम यार्नुसार लोग अिधकािधक कराते ह। मि दर म भगवान ् की पूजा के िलये पुजारी
िनयुक्त कर िदये जाते ह। मि दर के संचालक की ओर से वे पूजा करते ह और संचालक उनके
पिर म का मू य चुका दे ते ह। इस प्रकार का पिरवतर्न गायत्री साधना म भी हो सकता है । अपने
शरीर, मन, पिरवार और यवसाय की सरु क्षा तथा उ नित के िलए गायत्री का जप एक- दो हजार की
संख्या म िन य ही कराने की यव था ीस प न लोग आसानी से कर सकते ह। इस प्रकार कोई लाभ
होने पर उसकी प्रस नता, शुभ आशा के िलए अथवा िवपि त िनवारणाथर् सवा लक्ष जप का गायत्री
अनु ठान िकसी स पात्र ब्रा मण वारा कराया जा सकता है । ऐसे अवसर पर साधना करने वाले
ब्रा मण को अ न, व त्र, बतर्न तथा दिक्षणा प म उिचत पािर िमक उदारतापूवक
र् दे ना चािहए। स तु ट
साधक का स चा आशीवार्द उस प्रयोजन के फल को और भी बढ़ा दे ता है । ऐसी साधना करने वाल को
भी ऐसा स तोषी होना चािहए िक अित यन
ू िमलने पर भी स तु ट रह और आशीवार्दा मक भावनाएँ
मन म रख। अस तु ट होकर दभ
ु ार्वनाएँ प्रेिरत करने पर तो दोन का ही समय तथा म िन फल होता
है । अ छा तो यह है िक हर साधक अपनी साधना वयं करे । कहावत है - ‘आप काज सो महाकाज।’

पर तु यिद मजबूरी के कारण वैसा न हो सके, कायर् य तता, अ व थता, अि थर िच त, िच ताजनक


ि थित आिद के कारण यिद अपने से साधन न बन पड़े, तो आदान- प्रदान के िनद ष एवं सीधे- सादे
िनयम के आधार पर अ य अिधकारी पात्र से वह कायर् कराया जा सकता है । यह तरीका भी काफी
प्रभावपूणर् और लाभदायक िसद्ध होता है । ऐसे स पात्र एवं अिधकारी अनु ठानकतार् तलाश करने म
शाि तकु ज, हिर वार सं थान से सहायता ली जा सकती है । गायत्री वारा स याव दन कुछ कायर् ऐसे
होते ह िजनका िन य करना मनु य का अिनवायर् क तर् य है , ऐसे कम को िन यकमर् कहते ह।
िन यकम के उ े य ह- १. आव यक त व का स चय, २. अनाव यक त व का याग। शरीर को प्राय:
िन य ही कुछ न कुछ नई आव यकता होती है । प्र येक गितशील व तु अपनी गित को ि थर रखने के
िलए कहीं न कहीं से नई शिक्त प्रा त करती है , यिद वह न िमले तो उसका अ त हो जाता है । रे ल के
िलए कोयला- पानी, मोटर के िलए पेट्रोल, तार के िलए बैटरी, इंजन के िलए तेल, िसनेमा के िलए िबजली
की आव यकता होती है । पौध का जीवन खाद- पानी पर िनभर्र रहता है । पशु- पक्षी, कीट- पतग प्रकृित
के अनस
ु ार अ न, जल, वायु लेकर जीवन धारण करते ह। यिद आहार न िमले तो शरीर- यात्रा अस भव
है । कोई भी गितशील व तु चाहे वह सजीव हो या िनजीर्व, अपनी गितशीलता को ि थर रखने के िलए
आहार अव य चाहे गी।

इसी प्रकार प्र येक गितशील पदाथर् म प्रितक्षण कुछ न कुछ मल बनता रहता है , िजसे ज दी साफ
करने की आव यकता पड़ती है । रे ल म कोयले की राख, मशीन म तेल का कीचड़ जमता है । शरीर म
प्रितक्षण मल बनता है और वह गद
ु ा, िश , नाक, मख
ु , कान, आँख, वचा आिद के िछद्र वारा िनकलता
104
रहता है । यिद मल की सफाई न हो, तो दे ह म इतना िवष एकित्रत हो जाएगा िक दो- चार िदन म ही
जीवन संकट उपि थत हुए िबना न रहे गा। मकान म बह
ु ारी न लगायी जाए, कपड़ को न धोया जाए,
बतर्न को न मला जाए, शरीर को नान न कराया जाय, तो एक- दो िदन म ही मैल चढ़ जाएगा और
ग दगी, कु पता, बदबू, मिलनता तथा िवकृित उ प न हो जाएगी। आ मा सबसे अिधक गितशील और
चैत य है , उसे भी आहार की और मल- िवसजर्न की आव यकता पड़ती है । वा याय, स संग,
आ मिच तन, उपासना, साधना आिद साधन वारा आ मा को आहार प्रा त होता है और वह बलवान ्,
चैत य तथा िक्रयाशील रहती है । जो लोग इन आहार से अपने अ त:करण को वि चत रखते ह और
सांसािरक झंझट म ही हर घड़ी लगे रहते ह, उनका शरीर चाहे िकतना ही मोटा हो, धन- दौलत िकतना
ही जमा क्य न हो जाए, पर आ मा भख
ू ी ही रहती है ।

इस भख
ू के कारण वह िन तेज, िनबर्ल, िनि क्रय और अधर्मिू छर्त अव था म पड़ी रहती है । इसिलए
शा त्रकार ने आ मसाधना को िन यकमर् म शािमल करके मनु य के िलए उसे एक आव यक क तर् य
बना िदया है । आि मक साधना म आहार- प्राि त और मल- िवसजर्न दोन मह वपण
ू र् कायर् समान प
से होते ह। आि मक भावना, िवचारधारा और अवि थित को बलवान ्, चैत य एवं िक्रयाशील बनाने वाली
पद्धित को साधना कहते ह। यह साधना उन िवकार , मल एवं िवष की भी सफाई करती है , जो
सांसािरक िवषय और उलझन के कारण िच त पर बरु े प से सदा ही जमते रहते ह। शरीर को दो
बार नान कराना, दो बार शौच जाना आव यक समझा जाता है । आ मा के िलए भी यह िक्रयाएँ होनी
आव यक ह। इसी को स या कहते ह। शरीर से आ मा का मह व अिधक होने के कारण ित्रकाल
स या की साधना का शा त्र म वणर्न है । तीन बार न बन पड़े, तो प्रात:- सायं दो बार से काम चलाया
जा सकता है । िजसकी िच इधर बहुत ही कम है , वे एक बार तो कम से कम यह समझ कर कर िक
स या हमारा आव यक िन यकमर् है , धािमर्क क तर् य है । उसे न करने से पाप िवकार का जमाव होता
रहता है , भख
ू ी आ मा िनबर्ल होती रहती है ; यह दोन ही बात पाप कम म शुमार ह।

अतएव पातक भार से बचने के िलए भी स या को हमारे आव यक िन यकम म थान िमलना


उिचत है । स याव दन की अनेक िविधयाँ िह दध
ू मर् म प्रचिलत ह। उनम सबसे सरल, सग
ु म सीधी एवं
अ यिधक प्रभावशाली उपासना गायत्री म त्र वारा होने वाली ‘ब्र मस या’ है । इसम केवल एक ही
गायत्री म त्र याद करना होता है । अ य स या िविधय की भाँित अनेक म त्र याद करने और अनेक
प्रकार के िविध- िवधान याद रखने की आव यकता नहीं पड़ती। सय
ू दय या सय
ू ार् त समय को
स याकाल कहते ह। यही समय स ु ार इसम थोड़ा आगे- पीछे भी कर
याव दन का है । सिु वधानस
सकते ह। ित्रकाल स या करने वाल के िलए तीसरा समय म या नकाल का है । िन यकमर् से िनव ृ त
होकर शरीर को व छ करके स या के िलए बैठना चािहए, उस समय दे ह पर कम से कम व त्र होने
चािहए। खल
ु ी हवा का एका त थान िमल सके तो सबसे अ छा, अ यथा घर का ऐसा भाग तो चुनना
चािहए, जहाँ कम खटपट और शद्ध
ु ता रहती हो। कुश का आसन, चटाई, टाट या चौकी िबछाकर, पालथी

105
मारकर मे द ड सीधा रखते हुए स या के िलए बैठना चािहए। प्रात:काल पव
ू र् की ओर, सायंकाल
पि चम की ओर मँहु करके बैठना चािहए।

पास म जल से भरा पात्र रख लेना चािहए। स या के छ: कमर् ह, उनका वणर्न नीचे िलखा जाता है । १.
पिवत्रीकरण बाएँ हाथ म जल लेकर उसे दािहने हाथ से ढक िलया जाए। इसके बाद गायत्री म त्र
बोलकर उस जल को िशर तथा शरीर पर िछड़क ल। भावना कर िक हम पिवत्र हो रहे ह। पिवत्रीकरण
का उ े य शरीर और मन, आचरण और यवहार को शुद्ध रखना है । दे व उ े य की पूितर् िक िलए
मनु य को वयं भी दे व व धारण करना होता है । २. आचमन जल से भरे हुए पात्र म से दािहने हाथ
की हथेली पर जल लेकर उसका तीन बार आचमन करना चािहए। बाएँ हाथ से पात्र को उठाकर दािहने
हाथ की हथेली म थोड़ा- सा ग ढा करके उसम जल भर और गायत्री म त्र पढ़, म त्र पूरा होने पर उस
जल को पी ल। तीन बार इसी प्रकार कर। तीन बार आचमन करने के उपरा त दािहने हाथ को पानी
से धो डाल एवं क धे पर रखे हुए अँगोछे से हाथ- मँह
ु प छ ल िजससे हथेली, ओंठ और मँह
ु आिद पर
आचमन िकये जाने का अंश लगा न रह जाए।

आचमन ित्रगण
ु मयी माता की िविवध शिक्तय को अपने म धारण करने िलए है । प्रथम आचमन के
साथ सतोगुणी िव व यापी सू म शिक्त ‘ ीं’ का यान करते ह और भावना करते ह िक िव युत
सरीखी सू म नील िकरण मेरे म त्रो चारण के साथ- साथ सब ओर से इस जल म प्रवेश कर रही ह
और यह उस शिक्त से ओत- प्रोत हो रहा है । आचमन करने के साथ म सि मिलत सब शिक्तयाँ अपने
अ दर प्रवेश करने की भावना करनी चािहए िक मेरे अ दर स गण ु का पयार् त मात्रा म प्रवेश हुआ है ।
इसी प्रकार दस
ू रे आचमन के साथ रजोगणु ी ‘ ीं’ शिक्त की पीतवणर् िकरण को जल म आकिषर्त होने
और तीसरे आचमन म तमोगण
ु ी ‘क्लीं’ भावना की रक्त वणर् शिक्तय को अपने म धारण होने का
भाव जाग्रत ् होना चािहए। जैसे बालक माता का दध
ू पीकर उसके गण
ु और शिक्तय को अपने म
धारण करता है और पिरपु ट होता है , उसी प्रकार साधक म त्र बल से आचमन के जल को गायत्री
माता के दध
ू के समान बना लेता है और उसका पान करके अपने आ मबल को बढ़ाता है । इस
आचमन से उसे ित्रिवध ीं, ीं, क्लीं की शिक्त से युक्त आ मबल िमलता है , तदनुसार उसको आि मक
पिवत्रता एवं सांसािरक समिृ द्ध को सु ढ़ बनाने वाली शिक्त प्रा त होती है ।

३. िशखा- ब धन (व दन) आचमन के प चात ् िशखा को जल से गीला करके उसम ऐसी गाँठ लगानी
चािहए िजससे िक िसरा नीचे से खुल जाए। इसे आधी गाँठ कहते ह। गाँठ लगाते समय गायत्री म त्र
का उ चारण करते जाना चािहए। िशखा मि त क के के द्र िब द ु पर थािपत है । जैसे रे िडयो के विन
िव तारक के द्र म ऊँचे ख भे लगे होते ह और वहाँ से ब्राडक्रा ट की तरं ग चार ओर फकी जाती ह,
उसी प्रकार हमारे मि त क का िव युत ् भ डार िशखा थान पर है । उस के द्र म से हमारे िवचार,
सङ्क प और शिक्त परमाणु हर घड़ी बाहर िनकल- िनकलकर आकाश म दौड़ते रहते ह। इस प्रवाह से
शिक्त अनाव यक यय होती है और अपना कोष घटता है । इसका प्रितरोध करने के िलए िशखा म
106
गाँठ लगा दे ते ह। सदा गाँठ लगाये रहने से अपनी मानिसक शिक्तय का बहुत- सा अप यय बच जाता
है । स या करते समय िवशेष प से गाँठ लगाने का प्रयोजन यह है िक राित्र को सोते समय यह
गाँठ प्राय: िशिथल हो जाती है या खल
ु जाती है । िफर नान करते समय केश- शिु द्ध के िलए िशखा को
खोलना पड़ता है । स या करते समय अनेक सू म त व आकिषर्त होकर अपने अ दर ि थर होते ह।
वे सब मि त क के द्र से िनकलकर बाहर न उड़ जाएँ और कहीं अपने को साधना के लाभ से वि चत
न रहना पड़े, इसिलए िशखा म गाँठ लगा दी जाती है । फुटबाल के भीतर की रबड़ म हवा भरने की
एक नली होती है । इसम गाँठ लगा दे ने से भीतर भरी हुई वायु बाहर नहीं िनकल पाती। साइिकल के
पिहय म भरी हुई हवा को रोकने के िलए भी एक छोटी- सी बाल यूब नामक रबड़ की नली लगी होती
है , िजसम होकर हवा भीतर तो जा सकती है , बाहर नहीं आ सकती। गाँठ लगी हुई िशखा से भी यही
प्रयोजन पूरा होता है ।

वह बाहर के िवचार और शिक्त समह


ू को ग्रहण करती है । भीतर के त व का अनाव यक यय नहीं
होने दे ती। आचमन से पव
ू र् िशखा ब धन इसिलए नहीं होता, क्य िक उस समय ित्रिवध शिक्त का
आकषर्ण जहाँ जल वारा होता है , वह मि त क के म य के द्र वारा भी होता है । इस प्रकार िशखा
खल ु रा लाभ होता है । त प चात ् उसे बाँध िदया जाता है । ४. प्राणायाम स
ु ी रहने से दह या का चौथा
कोष है प्राणायाम अथवा प्राणाकषर्ण। गायत्री की उ पि त का वणर्न करते हुए पव ू र् प ृ ठ म यह बताया
जा चक
ु ा है िक सिृ ट दो प्रकार की है - १. जड़ अथार्त ् परमाणम
ु यी, २. चैत य अथार्त ् प्राणमयी। िनिखल
िव व म िजस प्रकार परमाणओ
ु ं के संयोग- िवयोग से िविवध प्रकार के य उपि थत होते रहते ह, उसी
प्रकार चैत य प्राण- स ता की हलचल से चैत य जगत ् की िविवध घटनाएँ घिटत होती ह। जैसे वायु
अपने क्षेत्र म सवर्त्र भरी हुई है , उसी प्रकार वायु से भी असंख्य गन
ु ा सू म चैत य प्राण त व सवर्त्र
या त है । इस त व की यूनािधकता से हमारा मानस क्षेत्र िनबर्ल तथा बलवान ् होता है । इस प्राण
त व को जो िजतनी मात्रा म आकिषर्त कर लेता है , धारण कर लेता है , उसकी आ तिरक ि थित उतनी
ही बलवान ् हो जाती है । आ मतेज, शूरता, ढ़ता, पु षाथर्, िवशालता, महानता, सहनशीलता, धैय,र् ि थरता
सरीखे गण
ु प्राणशिक्त के पिरचायक ह। िजनम प्राण कम होता है , वे शरीर से थूल भले ही ह , पर
डरपोक, द ब,ू झपने वाले, कायर, अि थरमित, संकीणर्, अनुदार, वाथीर्, अपराधी मनोविृ त के, घबराने वाले,
अधीर, तु छ, नीच िवचार म ग्र त एवं चंचल मनोविृ त के होते ह। इन दग
ु ण
ुर् के होते हुए कोई
यिक्त महान ् नहीं बन सकता, इसिलए साधक को प्राणशिक्त अिधक मात्रा म अपने अ दर धारण
करने की आव यकता होती है ।

िजस प्रिक्रया वारा िव वमयी प्राणत व म से खींचकर अिधक मात्रा म प्राणशिक्त को हम अपने
अ दर धारण करते ह, उसे प्राणायाम कहा जाता है । प्राणायाम के समय मे द ड को िवशेष प से
सावधान होकर सीधा कर लीिजए, क्य िक मे द ड म ि थत इड़ा, िपङ्गला और सष
ु ु ना नािडय़ वारा
प्राणशिक्त का आवागमन होता है । यिद रीड़ टे ढ़ी झक
ु ी रहे , तो मल
ू ाधार म ि थत कु डिलनी तक प्राण

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की धारा िनबार्ध गित से न पहुँच सकेगी, अत: प्राणायाम का वा तिवक लाभ न िमल सकेगा। प्राणायाम
के चार भाग ह- १. परू क, २. अ त:क भक, ३. रे चक, ४. बा य कु भक। वायु को भीतर खींचने का नाम
परू क, वायु को भीतर ही रोके रहने के नाम को अ त:कु भक, वायु को बाहर िनकालने का नाम रे चक
और िबना वास के रहने को बा य कु भक कहते ह। इन चार के िलए गायत्री म त्र के चार भाग की
िनयिु क्त की गयी है । पूरक के साथ ऊँ भभ
ू व
ुर् : व:, अ त: कु भक के साथ ‘त सिवतव
ु रर् े यं’, रे चक के
साथ ‘भग दे व य धीमिह’, बा य कु भक के साथ ‘िधयो यो न: प्रचोदयात ् म त्र का जप होना चािहए।
(अ) व थ िच त से बैिठये, मख
ु को ब द कर लीिजए। नेत्र को ब द या अधखुले रिखये।

अब वास को धीरे - धीरे नािसका वारा भीतर खींचना आर भ कीिजए और ‘ ऊँ भभ


ू व
ुर् : व:’ इस म त्र
भाग का मन ही मन उ चारण करते चिलए और भावना कीिजए िक ‘िव व यापी द:ु खनाशक, सख

व प ब्र म की चैत य प्राणशिक्त को म नािसका वारा आकिषर्त कर रहा हूँ।’ इस भावना और इस
म त्र के साथ धीरे - धीरे वास खींिचए और िजतनी अिधक वायु भीतर भर सक, भर लीिजए। (ब) अब
वायु को भीतर रोिकए और ‘त सिवतव
ु रर् े यं’ इस भाग का जप कीिजए; साथ ही भावना कीिजए िक
‘नािसका वारा खींचा हुआ वह प्राण े ठ है , सय
ू र् के समान तेज वी है । उसका तेज मेरे अंग- प्र यंग
म, रोम- रोम म भरा जा रहा है ।’ इस भावना के साथ परू क की अपेक्षा आधे समय तक वायु को भीतर
रोके रख। (स) अब नािसका वारा वायु धीरे - धीरे बाहर िनकालना आर भ कीिजए और ‘भग दे व य
धीमिह’ इस म त्र भाग को जिपये तथा भावना कीिजए िक ‘यह िद य प्राण मेरे पाप का नाश करता
हुआ िवदा हो रहा है ।’ वायु को िनकालने म प्राय: उतना ही समय लगाना चािहए िजतना िक वायु
खींचने म लगाया था। (द) जब भीतर की सब वायु बाहर िनकल जाए, तो िजतनी दे र वायु को भीतर
रोके रखा था, उतनी ही दे र बाहर रोके रख, अथार्त ् िबना वास िलये रह और ‘िधयो यो न: प्रचोदयात ्
इस म त्र भाग को जपते रह, साथ ही भावना कर िक ‘भगवती वेदमाता आ यशिक्त गायत्री स बुिद्ध
को जाग्रत ् कर रही ह।’ यह एक प्राणायाम हुआ। अब इसी प्रकार पुन: इन िक्रयाओं की पुन िक्त करते
हुए दस
ू रा प्राणायाम कर।

स या म यह पाँच प्राणायाम करने चािहए। इससे शरीर म ि थत प्राण, अपान, यान, समान, उदान
नामक पाँच प्राण का यायाम, फुरण और पिरमाजर्न हो जाता है । (५) यास यास कहते ह धारण
करने को। अंग- प्र यंग से गायत्री की सतोगण
ु ी शिक्त को धारण करने, थािपत करने, भरने, ओत- प्रोत
करने के िलए यास िकया जाता है । गायत्री के प्र येक श द का, मह वपण
ू र् ममर् थल से घिन ठ
स ब ध है । जैसे िसतार के अमक
ु भाग म, अमक
ु आघात के साथ उँ गली का आघात लगने से अमक

विन के वर िनकलते ह, उसी प्रकार शरीर- वीणा को स या से अंगिु लय के सहारे िद य भाव से
झंकृत िकया जाता है । ऐसा माना जाता है िक वभावत: अपिवत्र रहने वाले शरीर से दै वी साि न य
ठीक प्रकार से नहीं हो सकता, इसिलये उसके प्रमख
ु थान म दै वी पिवत्रता थािपत करके उसम इतनी
मात्रा दै वी त व को थािपत कर ली जाती है िक वह दै वी साधना का अिधकारी बन जाए। यास के

108
िलये िभ न- िभ न उपासना िविधय म अलग- अलग िवधान ह िक िकन उँ गिलय को काम म लाया
जाए। गायत्री की ब्र मस या म अँगठ
ू ा और अनािमका उँ गली का प्रयोग प्रयोजनीय ठहराया गया है ।
अँगठ
ू ा और अनािमका उँ गली को िमलाकर िविभ न अंग का पशर् इस भावना से करना चािहये िक
मेरे ये अंग गायत्री शिक्त से पिवत्र तथा बलवान ् हो रहे ह। अंग पशर् के समय िन न प्रकार मंत्रो चार
करना चािहए।

ऊँ भभ
ू व
ुर् : व: मध
ू ार्यै त सिवतु: नेत्रा याम ् वरे यं कणार् याम ् भग मख
ु ाय दे व य क ठाय धीमिह दयाय
िधयो यो न: ना यै प्रचोदयात ् ह तपादा याम ् यह सात अंग शरीर ब्र मा ड के सात लोक ह अथवा य
किहये िक आ मा पी सिवता के सात वाहन अ व ह; शरीर स ताह के सात िदन ह। य साधारणत:
दस इि द्रयाँ मानी जाती ह, पर गायत्री योग के अ तगर्त सात इि द्रयाँ मानी गयी ह—१. मध
ू ार्, (मि त क,
मन) २. नेत्र, ३. कणर्, ४. वाणी और रसना, ५. दय, अ त:करण, ६. नािभ, जननेि द्रय, ७. कमि द्रय (हाथ- पैर),
इन सात म अपिवत्रता न रहे , इनके वारा कुमागर् को न अपनाया जाए, अिववेकपूणर् आचरण न हो, इस
प्रितरोध के िलए यास िकया जाता है । इन सात अंग म भगवती की सात शिक्तयाँ िनवास करती ह।
उ ह उपयक्
ुर् त यास
वारा जाग्रत ् िकया जाता है । जाग्रत ् हुई मातक
ृ ाय अपने- अपने थान की रक्षा
करती ह, अवा छनीय त व का संहार करती ह। इस प्रकार साधक का अ त:प्रदे श ब्रा मणी शिक्त का
स ु ढ़ दग
ु र् बन जाता है । (६) प ृ वी पज
ू न दािहने हाथ म अक्षत, पु प, जल ल, बायाँ हाथ नीचे लगाएँ,
म त्र बोल और पज
ू ा की व तओ
ु ं को माँ धरती को समिपर्त कर। हम जहाँ से अ न, जल, व त्र, ज्ञान
तथा अनेक सिु वधा साधन प्रा त करते ह, वह मातभ
ृ िू म हमारी सबसे बड़ी आरा या है । हमारे मन म
माता के प्रित जैसे अगाध द्धा होती है , वैसे ही मातभ
ृ िू म के प्रित भी रहनी चािहए।

मातऋ
ृ ण से उऋण होने के िलए अवसर ढूँढ़ते रहना चािहए। भावना कर िक धरती माता के पूजन के
साथ उसके पुत्र होने के नाते माँ के िद य सं कार हम प्रा त हो रहे ह। माँ की िवशालता अपने अ दर
धारण कर रहे ह। इन कोष का िविनयोग करने के प चात ्, पिवत्रीकरण, आचमन, िशखा ब धन,
प्राणायाम, यास आिद से िनव ृ त होने के प चात ् गायत्री का जप यान करना चािहये। स या तथा
जप म म त्रो चार इस प्रकार करना चािहये िक ह ठ िहलते रह, श दो चारण होता रहे , पर िनकट बैठा
हुआ यिक्त उसे सन
ु न सके। जप करते हुए वेदमाता गायत्री का इस प्रकार यान करना चािहये िक
मानो वह हमारे दय िसंहासन पर बैठी अपनी शिक्तपूणर् िकरण को चार ओर िबखेर रही ह और
उससे हमारा अ त:प्रदे श आलोिकत हो रहा है । उस समय नेत्र अध मीिलत या ब द रह। अपने
दयाकाश म ब्रा म आकाश के समान ही एक िव तत
ृ शू य लोक की भावना करके उसम सय
ू र् के
समान ज्ञान की तेज वी योित की क पना भी करते रहना चािहये। यह योित और प्रकाश गायत्री
माता की ज्ञानशिक्त का ही होता है , िजसका अनभ
ु व साधक को कुछ समय की साधना के प चात ्
प ट रीित से होने लगता है ।

इस प्रकार की साधना के फल व प वेत रं ग की योित म िविभ न रग के दशर्न होते ह। इस प्रकार


109
धीरे - धीरे वह आ मो नित करता हुआ िनि चत प से अ या म के उ च सोपान पर पहुँच जाता है ।
गायत्री का सवर् े ठ एवं सवर्सल
ु भ यान मानव- मि त क बड़ा ही आ चयर्जनक, शिक्तशाली एवं चु बक
गण
ु वाला य त्र है । उसका एक- एक परमाणु इतना िवलक्षण है िक उसकी गितिविध, साम यर् और
िक्रयाशीलता को दे खकर बड़े- बड़े वैज्ञािनक है रत म रह जाते ह। इन अणओ
ु ं को जब िकसी िवशेष िदशा
म िनयोिजत कर िदया जाता है , तो उसी िदशा म एक लपलपाती हुई अिग्रिज व अग्रगामी होती है ।
िजस िदशा से मनु य इ छा, आकांक्षा और लालसा करता है , उसी िदशा म, उसी रं ग म, उसी लालसा म
शरीर की शिक्तयाँ िनयोिजत हो जाती ह। पहले भावनाएँ मन म आती ह। िफर जब उन भावनाओं पर
िच त एकाग्र होता है , तब यह एकाग्रता एक चु बक शिक्त, आकषर्ण त व के प म प्रकट होती है
और अपने अभी ट त व को अिखल आकाश म से खींच लाती है । यान का यही िवज्ञान है ।

इस िवज्ञान के आधार पर, प्रकृित के अ तराल म िनवास करने वाली सू म आ यशिक्त ब्र म फुरणा
गायत्री को अपनी ओर आकिषर्त िकया जा सकता है ; उसके शिक्त भ डार को प्रचुर मात्रा म अपने
अ दर धारण िकया जा सकता है । जप के समय अथवा िकसी अ य सिु वधा के समय म िन य गायत्री
का यान िकया जाना चािहये। एका त, कोलाहल रिहत, शा त वातावरण के थान म ि थर िच त
होकर यान के िलये बैठना चािहये। शरीर िशिथल रहे । यिद जप काल म यान िकया जा रहा है , तब
तो पालथी मारकर, मे द ड सीधा रखकर यान करना उिचत है । यिद अलग समय म करना हो, तो
आरामकुसीर् पर लेटकर या मसनद, दीवार, वक्ष
ृ आिद का सहारा लेकर साधना करनी चािहये। शरीर
िबलकुल िशिथल कर िदया जाय, इतना िशिथल मानो दे ह िनजीर्व हो गयी। इस ि थित म नेत्र ब द
करके दोन हाथ को गोदी म रखकर ऐसा यान करना चािहये िक ‘‘इस संसार म सवर्त्र केवल नीला
आकाश है , उसम कहीं कोई व तु नहीं है ।’’ प्रलयकाल म जैसी ि थित होती है ,

आकाश के अितिरक्त और कुछ नहीं रह जाता, वैसी ि थित का क पना िचत्र मन म भली भाँित अंिकत
करना चािहए। जब यह क पना िचत्र भावना- लोक म भली- भाँित अंिकत हो जाए, तो सद
ु रू आकाश म
एक छोटे योित- िप ड को सू म नेत्र से दे खना चािहए। सय
ू र् के समान प्रकाशवान ् एक छोटे नक्षत्र के
प म गायत्री का यान करना चािहये। यह योित- िप ड अिधक समय तक यान रखने पर समीप
आता है , बड़ा होता जाता है और तेज अिधक प्रखर हो जाता है । च द्रमा या सय
ू र् के म य भाग म
यानपूवक
र् दे खा जाए, तो उसम काले- काले ध बे िदखाई पड़ते ह, इसी प्रकार उस गायत्री तेज- िप ड म
यानपव
ू क
र् दे खने से आर भ म भगवती गायत्री की धध
ुँ ली- सी प्रितमा ि टगोचर होती है । धीरे - धीरे
यान करने वाले को यह मिू तर् अिधक प ट, अिधक व छ, अिधक चैत य, हँ सती, बोलती, चे टा करती,
संकेत करती तथा भाव प्रकट करती हुई िदखाई पड़ती है । हमारी इस गायत्री महािवज्ञान पु तक म
भगवती गायत्री का िचत्र िदया हुआ है ।

यान आर भ करने से पूवर् उस िचत्र का कई बार बड़े प्रेम से, गौर से भली- भाँित अंग- प्र यंग का
िनरीक्षण करके उस मिू तर् को मन:क्षेत्र म इसी प्रकार िबठाना चािहये िक योित- िप ड म ठीक वैसी ही
110
प्रितमा की झाँकी होने लगे। थोड़े िदन म यह तेजोम डल से आवेि टत भगवती गायत्री की छिव
अ य त सु दर, अ य त दयग्राही प म यानाव था म ि टगोचर होने लगती है । जैसे सय
ू र् की
िकरण धप ू म बैठे हुए मनु य के ऊपर पड़ती ह और वह िकरण की उ णता को प्र यक्ष अनभ
ु व करता
है , वैसे ही यह योित िप ड जब समीप आने लगता है , तो ऐसा अनुभव होता है मानो कोई िद य
प्रकाश अपने मि त क म, अ त:करण और शरीर के रोम- रोम म प्रवेश करके अपना अिधकार जमा
रहा है । जैसे अिग्र म पडऩे से लोहा भी धीरे - धीरे गरम और लाल रं ग का अिग्रवणर् हो जाता है , वैसे ही
जब गायत्री माता के तेज को यानाव था म साधक अपने अ दर धारण करता है , तो वही सि चदान द
व प, ऋिषक प होकर ब्र मतेज से िझलिमलाने लगता है । उसे अपना स पूणर् शरीर त त वणर् की
भाँित रक्तवणर् अनुभव होता है और अ त:करण म एक अलौिकक िद य प का प्रकाश सय
ू र् के समान
प्रकािशत हुआ िदखता है ।

इस तेज सं थान म आ मा के ऊपर चढ़े हुए अपने कलष ु - कषाय जल- जल कर भ म हो जाते ह और
साधक अपने को ब्र म व प, िनमर्ल, िनभर्य, िन पाप, िनरासक्त अनभु व करता है । इस ‘तेज धारण’
यान म कई बार रं ग- िबरं गे प्रकाश िदखाई पड़ते ह, कई बार प्रकाश म छोटे - मोटे रं ग- िबरं गे तारे प्रकट
ू री िदशा की ओर चलते ह तथा उलटे
होते, जगमगाते और िछपते िदखाई पड़ते ह। ये एक िदशा से दस
वापस लौट पड़ते ह। कई बार चक्राकार एवं बाण की तरह तेजी से इस िदशा म चलते हुए छोटे - मोटे
प्रकाश ख ड िदखाई पड़ते ह। यह सब प्रस नता दे ने वाले िच न ह। अ तरा मा म गायत्री शिक्त की
विृ द्ध होने से छोटी- छोटी अनेक शिक्तयाँ एवं गण
ु ाविलयाँ िवकिसत होती ह, वे ही ऐसे छोटे - छोटे रंग-
िबरं गे प्रकाश िप ड के प म पिरलिक्षत होती ह। जब साधना अिधक प्रगाढ़, पु ट और पिरपक्व हो
जाती है , तो मि त क के म य भाग या दय थान पर वही गायत्री तेज ि थर हो जाता है । यही
िसद्धाव था है । जब वह तेज बा य आकाश से िखंचकर अपने अ दर ि थर हो जाता है , तो ऐसी ि थित
हो जाती है , जैसे अपना शरीर और गायत्री का प्राण एक ही थान पर सि मिलत हो गये ह । भत
ू - प्रेत
का आवेश शरीर म बढ़ जाने पर मनु य उस प्रेता मा की इ छानुसार काम करता है , वैसे ही गायत्री
शिक्त का आधान अपने अ दर हो जाने से साधक िवचार, कायर्, आचरण, मनोभाव, िच, इ छा आकांक्षा
एवं येय म परमाथर् प्रधान रहता है । इससे मनु य व म से पशुता घटती जाती है और दे व व की मात्रा
बढ़ती जाती है ।

उपयक्
ुर् त यान गायत्री का सव तम यान है । जब गायत्री तेज- िप ड की िकरण अपने ऊपर पडऩे की
यान- भावना की जा रही हो, तब यह भी अनभ
ु व करना चािहये िक ये िकरण स बिु द्ध, साि वकता एवं
ू र् की िकरण गमीर् तथा
सशक्तता को उसी प्रकार हमारे ऊपर डाल रही ह, िजस प्रकार िक सय
गितशीलता प्रदान करती ह। इस यान से उठते ही साधक अनभ
ु व करता है िक उसके मि त क म
स बिु द्ध, अ त:करण म साि वकता तथा शरीर म सिक्रयता की मात्रा बढ़ गयी है । यह विृ द्ध यिद थोड़ी-
थोड़ी करके भी िन य होती रहे , तो धीरे - धीरे कुछ ही समय म वह बड़ी मात्रा म एकित्रत हो जाती है ,

111
िजससे साधक ब्र मतेज का एक बड़ा भ डार बन जाता है । ब्र मतेज तो दशर्नी हु डी है , िजसे ेय व
प्रेय दोन म से िकसी भी बक म भन
ु ाया जा सकता है और उसके बदले म दै वी या सांसािरक सख ु
कोई भी व तु प्रा त की जा सकती है ।

पापनाशक और शिक्तवधर्क तप चयार्एँ


अिग्र की उ णता से संसार के सभी पदाथर् जल, बदल या गल जाते ह। कोई ऐसी व तु नहीं है िजसम
अिग्र का संसगर् होने पर भी पिरवतर्न न होता हो। तप या की अिग्र भी ऐसी ही है । वह पाप के समह

को िनि चत प से गलाकर नरम कर दे ती है , बदलकर मनभावन बना दे ती है अथवा जलाकर भ म
कर दे ती है ।

पाप का गलना— जो प्रार ध- कमर् समय के पिरपाक से प्रार ध और भिवत यता बन चुके ह, िजनका
भोगा जाना अिमट रे खा की भाँित सिु नि चत हो चुका है , वे क टसा य भोग तप या की अिग्र के कारण
गलकर नरम हो जाते ह, उ ह भोगना आसान हो जाता है । जो पाप पिरणाम दो महीने तक भयंकर
उदरशूल होकर प्रकट होने वाला था, वह साधारण क ज बनकर दो महीने तक मामल
ू ी गड़बड़ी करके
आसानी से चला जाता है । िजस पाप के कारण हाथ या पैर कट जाते, भारी रक्त ाव होने की
स भावना थी, वह मामल
ू ी ठोकर लगने से या चाकू आिद चभ
ु ने से दस- बीस बँूद खून बहकर िनव ृ त
हो जाता है । ज म- ज मा तर के संिचत वे पाप जो कई ज म तक भारी क ट दे ते रहने वाले थे, वे
थोड़ी- थोड़ी िच नपूजा के प म प्रकट होकर इसी ज म म िनव ृ त हो जाते ह और म ृ यु के प चात ्
वगर्, मिु क्त का अ य त वैभवशाली ज म िमलने का मागर् साफ हो जाता है । दे खा गया है िक
तपि वय को इस ज म म प्राय: कुछ असिु वधाएँ रहती ह। इसका कारण यह है िक ज म- ज मा तर
के सम त पाप समह
ू का भग
ु तान इसी ज म म होकर आगे का मागर् साफ हो जाए, इसिलये ई वरीय
वरदान की तरह हलके- फुलके क ट तपि वय को िमलते रहते ह। यह पाप का गलना हुआ।

पाप का बदलना— यह इस प्रकार होता है िक पाप का फल जो सहना पड़ता है , उसका वाद बड़ा
वािद ट हो जाता है । धमर् के िलए, कतर् य के िलए, यश, कीितर् और परोपकार के िलए जो क ट सहने
पड़ते ह, वे ऐसे ही ह जैसे प्रसव पीड़ा। प्रसत
ू ा को प्रसवकाल म पीड़ा तो होती है , पर उसके साथ- साथ
एक उ लास भी रहता है । च द्र- से मख
ु का सु दर बालक दे खकर तो वह पीड़ा िबलकुल भल
ु ा दी जाती
है । राजा हिर च द्र, दधीिच, प्र लाद, मोर वज आिद को जो क ट सहने पड़े, उनके िलये उस काल म भी
वे उ लासमय थे। अ तत: अमर कीितर् और स गित की ि ट से तो वे क ट उनके िलये सब प्रकार
मंगलमय ही रहे । दान दे ने म जहाँ ऋण मिु क्त होती है , वहाँ यश तथा शुभ गित की भी प्राि त होती
है । तप वारा इस प्रकार ‘उधार पट जाना और मेहमान जीम जाना’ दो कायर् एक साथ हो जाते ह।

पाप का जलना- पाप का जल जाना इस प्रकार का होता है िक जो पाप अभी प्रार ध नहीं बने ह, भल
ू ,

112
अज्ञान या मजबरू ी म बने ह, वे छोटे - मोटे अशुभ कमर् तप की अिग्र म जलकर अपने आप भ म हो
जाते ह। सख
ू े हुए घात- पात के ढे र को अिग्र की छोटी- सी िचनगारी जला डालती है , वैसे ही इस ेणी
के पाप कमर् तप चयार्, प्रायि च त और भिव य म वैसा न करने के ढ़ िन चय से अपने आप न ट हो
ु िजस प्रकार अ धकार िवलीन हो जाता है , वैसे ही तप वी के अ त:करण की
जाते ह। प्रकाश के स मख
प्रखर िकरण से िपछले कुसं कार न ट हो जाते ह और साथ ही उन कुसं कार की छाया, दग
ु र् ध,
क टकारक पिरणाम की घटा का भी अ त हो जाता है ।

तप चयार् से पूवक
र् ृ त पाप का गलना, बदलना एवं जलना होता हो- सो बात ही नहीं है , वरन ् तप वी म
एक नयी परम साि वक अिग्र पैदा होती है । इस अिग्र को दै वी िव युत ् शिक्त, आ मतेज, तपोबल आिद
नाम से भी पुकारते ह। इस बल से अ त:करण म िछपी हुई सु त शिक्तयाँ जाग्रत ् होती ह, िद य
स गण
ु का िवकास होता है । फूितर्, उ साह, साहस, धैय,र् दरू दिशर्ता, संयम, स मागर् म प्रविृ त आिद
अनेक गण
ु की िवशेषता प्र यक्ष पिरलिक्षत होने लगती है । कुसं कार, कुिवचार, कुटे व, कुकमर् से छुटकारा
पाने के िलये तप चयार् एक रामबाण अ त्र है । प्राचीन काल म अनेक दे व- दानव ने तप याएँ करके
मनोरथ परू ा करने वाले वरदान पाये ह।

िघसने की रगड़ से गमीर् पैदा होती है । अपने को तप या के प थर पर िघसने से आ मशिक्त का उद्भव


होता है । समद्र
ु को मथने से चौदह र न िमले। दध
ू के मथने से घी िनकलता है । काम- म थन से
प्राणधारी बालक की उ पि त होती है । भिू म- म थन से अ न उपजता है । तप या वारा आ मम थन
से उ च आ याि मक त व की विृ द्ध का लाभ प्रा त होता है । प थर पर िघसने से चाकू तेज होता है ।
अिग्र म तपाने से सोना िनमर्ल बनता है । तप से तपा हुआ मनु य भी पापमक्
ु त, तेज वी और
िववेकवान ् बन जाता है ।

अपनी तप याओं म गायत्री तप या का थान बहुत मह वपण


ू र् है । नीचे कुछ पापनािशनी और
ब्र मतेज- व िधनी तप चयार्एँ बताई जाती ह—

(१) अ वाद तप
तप उन क ट को कहते ह, जो अ य त व तओ
ु ं के अभाव म सहने पड़ते ह। भोजन म नमक और
मीठा ये दो वाद की प्रधान व तुएँ ह। इनम से एक भी व तु न डाली जाए, तो वह भोजन वाद
रिहत होता है । प्राय: लोग को वािद ट भोजन करने का अ यास होता है । इन दोन वाद त व को
या इनम से एक को छोड़ दे ने से जो भोजन बनता है , उसे साि वक प्रकृित वाला ही कर सकता है ।
राजिसक प्रकृित वाले का मन उससे नहीं भरे गा। जैसे- जैसे वाद रिहत भोजन म स तोष पैदा होता है ,
वैसे ही वैसे साि वकता बढ़ती जाती है । सबसे प्रार भ म एक स ताह, एक मास या एक ऋतु के िलए
इसका प्रयोग करना चािहये। आर भ म बहुत ल बे समय के िलये नहीं करना चािहये। यह अ वाद- तप
हुआ।

113
(२) ितितक्षा तप
सदीर् या गमीर् के कारण शरीर को जो क ट होता है , उसे थोड़ा- थोड़ा सहन करना चािहये। जाड़े की की
ऋतु म धोती और दप
ु ट्टा या कुतार् दो व त्र म गज
ु ारा करना, रात को ई का कपड़ा ओढक़र या क बल
से काम चलाना, गरम पानी का प्रयोग न करके ताजे जल से नान करना, अिग्र न तापना, यह शीत
सहन के तप ह। पंखा, छाता और बफर् का याग यह गमीर् की तप चयार् है ।

(३) कषर्ण तप
प्रात:काल एक- दो घ टे रात रहे उठकर िन यकमर् म लग जाना, अपने हाथ से बनाया भोजन करना,
अपने िलये वयं जल भरकर लाना, अपने हाथ से व त्र धोना, अपने बतर्न वयं मलना आिद अपनी
सेवा के काम दस
ू र से कम से कम कराना, जत
ू ा न पहनकर खड़ाऊ या चट्टी से काम चलाना, पलग पर
शयन न करके तख्त या भिू म पर शयन करना, धातु के बतर्न प्रयोग न करके प तल या हाथ म
भोजन करना, पशुओं की सवारी न करना, खादी पहनना, पैदल यात्रा करना आिद कषर्ण तप ह। इसम
प्रितिदन शारीिरक सिु वधाओं का याग और असिु वधाओं को सहन करना पड़ता है ।

(४) उपवास
गीता म उपवास को िवषय िवकार से िनव ृ त करने वाला बताया गया है । एक समय अ नाहार और
एक समय फलाहार आरि भक उपवास है । धीरे - धीरे इसकी कठोरता बढ़ानी चािहये। दो समय फल, दध
ू ,
दही आिद का आहार इससे किठन है । केवल दध
ू या छाछ पर रहना हो तो उसे कई बार सेवन िकया
जा सकता है । जल हर एक उपवास म कई बार अिधक मात्रा म िबना यास के पीना चािहये। जो लोग
उपवास म जल नहीं पीते या कम पीते ह, वे भारी भल
ू करते ह। इससे पेट की अिग्र आँत म पड़े मल
को सख
ु ाकर गाँठ बना दे ती है , इसिलये उपवास म कई बार पानी पीना चािहये। उसम नींब,ू सोडा, शक्कर
िमला िलया जाए, तो वा य और आ मशिु द्ध के िलए और भी अ छा है ।

(५) ग यक प तप
शरीर और मन के अनेक िवकार को दरू करने के िलये ग यक प अभत
ू पूवर् तप है । राजा िदलीप जब
िन स तान रहे , तो उ ह ने कुलगु के आ म म गौ चराने की तप या प नी सिहत की थी। नि दनी
गौ को वे चराते थे और गोरस का सेवन करके ही रहते थे। गाय का दध
ू , गाय का दही, गाय की छाछ,
गाय का घी सेवन करना, गाय के गोबर के क ड से दध
ू गरम करना चािहये। गोमत्र
ू की शरीर पर
मािलश करके िसर म डालकर नान करना चमर्रोग तथा रक्तिवकार के िलए बड़ा ही लाभदायक है ।
गाय के शरीर से िनकलने वाला तेज बड़ा साि वक एवं बलदायक होता है , इसिलये गौ चराने का भी
बड़ा सू म लाभ है । गौ के दध
ू , दही, घी, छाछ पर मनु य तीन मास िनवार्ह करे , तो उसके शरीर का एक
प्रकार से क प हो जाता है ।

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(६) प्रदात य तप
अपने पास जो शिक्त हो, उसम से कम मात्रा म अपने िलये रखकर दस
ू र को अिधक मात्रा म दान
दे ना प्रदात य तप है । धनी आदमी धन का दान करते ह। जो धनी नहीं ह, वे अपने समय, बिु द्ध, ज्ञान,
चातुय,र् सहयोग आिद का उधार या दान दे कर दस ू र को लाभ पहुँचा सकते ह। शरीर का, मन का दान
भी धन- दान की ही भाँित मह वपण ू र् है । अनीित उपािजर्त धन का सबसे अ छा प्रायि च त यही है िक
उसको स कायर् के िलये दान कर िदया जाए। समय का कुछ न कुछ भाग लोकसेवा के िलये लगाना
आव यक है । दान दे ते समय पात्र और कायर् का यान रखना आव यक है । कुपात्र को िदया हुआ,
अनुपयुक्त कमर् के िलये िदया गया दान यथर् है । मनु येतर प्राणी भी दान के अिधकारी ह। गौ, चींटी,
िचिडय़ाँ, कु ते आिद उपकारी जीव- ज तुओं को भी अ न- जल का दान दे ने के िलये प्रय नशील रहना
चािहये।

वयं क ट सहकर, अभावग्र त रहकर भी दस


ू र की उिचत सहायता करना, उ ह उ नितशील, साि वक,
स गण
ु ी बनाने म सहायता करना, सिु वधा दे ना दान का वा तिवक उ े य है । दान की प्रशंसा म
धमर्शा त्र का प ना- प ना भरा हुआ है । उसके पु य के स ब ध म अिधक क्या कहा जाए! वेद ने कहा
है - ‘‘सौ हाथ से कमाये और हजार हाथ से दान करे ।’’

(७) िन कासन तप
अपनी बुराइय और पाप को गु त रखने से मन भारी रहता है । पेट म मल भरा रहे तो उससे नाना
प्रकार के रोग उ प न होते ह; वैसे ही अपने पाप को छुपाकर रखा जाए, तो यह गु तता के हुए मल
की तरह ग दगी और सडऩ पैदा करने वाले सम त मानिसक क्षेत्र को दिू षत कर दे ती है । इसिलये कुछ
ऐसे िमत्र चन
ु ने चािहये जो काफी ग भीर और िव व त ह । उनसे अपनी पाप- कथाएँ कह दे नी चािहये।
अपनी किठनाइयाँ, द:ु ख- गाथाएँ, इ छाएँ, अनुभिू तयाँ भी इसी प्रकार िक हीं ऐसे लोग से क हते रहना
चािहए, जो उतने उदार ह िक उ ह सन
ु कर घण
ृ ा न कर और कभी िवरोधी हो जाने पर भी उ ह दस
ू र
से प्रकट करके हािन न पहुँचाएँ। यह गु त बात का प्रकटीकरण एक प्रकार का आ याि मक जल
ु ाब है ,
िजससे मनोभिू म िनमर्ल होती है ।
प्रायि च त म ‘दोष प्रकाशन’ का मह वपूणर् थान है । गो- ह या हो जाने का प्रायि च त शा त्र ने यह
बताया है िक मरी गौ की पँछ
ू हाथ म लेकर एक सौ गाँव म वह यिक्त उ च वर से िच ला-
िच लाकर यह कहे िक मझ
ु से गौ- ह या हो गयी। इस दोष प्रकाशन से गौ- ह या का दोष छूट जाता है ।
िजसके साथ बरु ाई की हो, उससे क्षमा माँगनी चािहए, क्षितपिू तर् करनी चािहए और िजस प्रकार वह
स तु ट हो सके वह करना चािहए। यिद वह भी न हो, तो कम से कम दोष प्रकाशन वारा अपनी
अ तरा मा का एक भारी बोझ तो हलका करना ही चािहए। इस प्रकार के दोष प्रकाशन के िलये
‘शाि तकु ज, हिर वार’ को एक िव वसनीय िमत्र समझकर पत्र वारा अपने दोष को िलखकर उनके
प्रायि च त तथा सध
ु ार की सलाह प्रस नतापव
ू क
र् ली जा सकती है ।

115
(८) साधना तप
गायत्री का चौबीस हजार जप नौ िदन म परू ा करना, सवालक्ष जप चालीस िदन म परू ा करना, गायत्री
यज्ञ, गायत्री की योग साधनाएँ, परु चरण, पज
ू न, तोत्र पाठ आिद साधनाओं से पाप घटता है और पु य
बढ़ता है । कम पढ़े लोग ‘गायत्री चालीसा’ का पाठ िन य करके अपनी गायत्री भिक्त को बढ़ा सकते ह
और इस महाम त्र से बढ़ी हुई शिक्त के वारा तपोबल के अिधकारी बन सकते ह।

(९) ब्र मचयर् तप


वीयर्- रक्षा, मैथुन से बचना, काम- िवकार पर काबू रखना ब्र मचयर् त है । मानिसक काम- सेवन
शारीिरक काम- सेवन की ही भाँित हािनकारक है । मन को कामक्रीड़ा की ओर न जाने दे ने का सबसे
अ छा उपाय उसे उ च आ याि मक एवं नैितक िवचार म लगाये रहना है । िबना इसके ब्र मचयर् की
रक्षा नहीं हो सकती। मन को ब्र म म, सत ् त व म लगाये रहने से आ मो नित भी होती है , धमर्
साधना भी और वीयर् रक्षा भी। इस प्रकार एक ही उपाय से तीन लाभ करने वाला यह तप गायत्री
साधना वाल के िलये सब प्रकार उ तम है ।

(१०) चा द्रायण तप
यह त पूणम
र् ासी से आर भ िकया जाता है । पूणम
र् ासी को अपनी िजतनी पूणर् खूराक हो, उसका
चौदहवाँ भाग प्रितिदन कम करते जाना चािहये। कृ ण पक्ष का च द्रमा जैसे १- १ कला िन य घटता है ,
वैसे ही १- १ चतुदर्शांश िन य कम करते चलना चािहये। अमाव या और प्रितपदा को च द्रमा िबलकुल
िदखाई नहीं पड़ता। उन दो िदन िबलकुल भी आहार न लेना चािहये। िफर शुक्ल पक्ष की दज
ू को
च द्रमा एक कला से िनकलता है और धीरे - धीरे बढ़ता है , वैसे ही १- १ चतुदर्शांश बढ़ाते हुए पूणम
र् ासी
तक पूणर् आहार पर पहुँच जाना चािहये। एक मास म आहार- िवहार का संयम, वा याय, स संग म
प्रविृ त, साि वक जीवनचयार् तथा गायत्री साधना म उ साहपव
ू क
र् संलग्न रहना चािहये।

अधर् चा द्रायण त प द्रह िदन का होता है । उसम भोजन का सातवाँ भाग सात िदन कम करना और
सात िदन बढ़ाना होता है । बीच का एक िदन िनराहार रहने का होता है । आर भ म अधर् चा द्रायण ही
करना चािहये। जब एक बार सफलता िमल जाए, तो पूणर् चा द्रायण के िलये कदम बढ़ाना चािहये।

उपवास वा यरक्षा का बड़ा प्रभावशाली साधन है । मनु य से खान- पान म जो त्रिु टयाँ वभाव या
पिरि थितवश होती रहती ह, उनसे शरीर म दिू षत या िवजातीय त व की विृ द्ध हो जाती है । उपवास
काल म जब पेट खाली रहता है , तो जठरािग्र उन दोष को ही पचाने लगती है । इसम शरीर शुद्ध होता
है और रक्त व छ हो जाता है । िजसकी दे ह म िवजातीय त व नहीं ह गे और नािडय़ म व छ
रक्त पिरभ्रमण करता होगा, उसको एकाएक िकसी रोग या बीमारी की िशकायत हो ही नहीं सकती ।।
इसिलये वा यकामी पु ष के िलये उपवास बहुत बड़े सहायक ब धु के समान है । अ य उपवास से
चा द्रायण त म यह िवशेषता है िक इसम भोजन का घटाना और बढ़ाना एक िनयम और क्रम से

116
होता है , िजससे उसका िवपरीत प्रभाव तिनक भी नहीं पड़ता। अ य ल बे उपवास म िजनम भोजन को
लगातार दस- प द्रह िदन के िलये छोड़ िदया जाता है , उपवास को ख म करते समय बड़ी सावधानी
रखनी पड़ती है और अिधकांश यिक्त उस समय अिधक मात्रा म अनप
ु यक्
ु त आहार कर लेने से किठन
रोग के िशकार हो जाते ह। यह चा द्रायण त म िबलकुल नहीं होता।

(११) मौन तप
मौन से शिक्तय का क्षरण कता है , आ मबल एवं संयम बढ़ता है , दै वी त व की विृ द्ध होती है , िच त
की एकाग्रता बढ़ती है , शाि त का प्रादभ
ु ार्व होता है , बिहमख
ुर् ी विृ तयाँ अ तमख
ुर् ी होने से आ मो नित का
मागर् प्रश त होता है । प्रितिदन या स ताह म अथवा मास म कोई िनयत समय मौन रहने के िलये
िनि चत करना चािहये। कई िदन या लगातार भी ऐसा त रखा जा सकता है । अपनी ि थित, िच और
सिु वधा के अनुसार मौन अविध िनधार्िरत करनी चािहये। मौन काल का अिधकांश भाग एका त म
वा याय अथवा ब्र म िच तन म यतीत करना चािहये।

(१२) अजर्न तप
िव या ययन, िश प- िशक्षा, दे शाटन, म ल िव या, संगीत आिद िकसी भी प्रकार की उ पादक उपयोगी
िशक्षा प्रा त करके अपनी शिक्त, योग्यता, क्षमता, िक्रयाशीलता, उपयोिगता बढ़ाना अजर्न तप है ।
िव याथीर् को िजस प्रकार क ट उठाना पड़ता है , मन मारना पड़ता है और सिु वधाएँ छोडक़र किठनाई से
भरा कायर्क्रम अपनाना पड़ता है , वह तप का लक्षण है । केवल बचपन म ही नहीं, वद्ध
ृ ाव था और म ृ यु
पयर् त िकसी न िकसी प म सदै व अजर्न तप करते रहने का प्रय न करना चािहये। साल म थोड़ा- सा
समय तो इस तप या म लगाना ही चािहये, िजससे अपनी तप याएँ बढ़ती चल और उनके वारा
अिधक लोक- सेवा करना स भव हो सके।

सय
ू र् की बारह रािशयाँ होती ह, गायत्री के वह बारह तप ह। इनम से जो तप, जब, िजस प्रकार स भव
हो, उसे अपनी ि थित, िच और सिु वधा के अनुसार अपनाते रहना चािहये। ऐसा भी हो सकता है िक
वषर् के बारह महीन म एक- एक महीने एक- एक तप करके एक वषर् पूरा ‘तप- वषर्’ िबताया जाए।
सातव िन कासन तप म एक- दो बार िव व त िमत्र के सामने दोष प्रकटीकरण हो सकता है । िन य तो
अपनी डायरी म एक मास तक अपनी बुराइयाँ िलखते रहना चािहये और उ ह अपने पथ- प्रदशर्क को
िदखाना चािहये। यह क्रम अिधक िदन तक चालू रखा जाए तो और भी उ तम है । महा मा गाँधी
साबरमती आ म म अपने आ मवािसय की डायरी बड़े गौर से जाँचा करते थे।

अ य तप म प्र येक को प्रयोग करने के िलये अनेक रीितयाँ हो सकती ह। उ ह थोड़ी- थोड़ी अविध के
िलये िनधार्िरत करके अपना अ यास और साहस बढ़ाना चािहये। आर भ म थोड़ा और सरल तप
अपनाने से पीछे दीघर्काल तक और किठन वा याय साधन करना भी सल
ु भ हो जाता है ।

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गायत्री साधना से पापमिु क्त

गायत्री की अन त कृपा से पितत को उ चता िमलती है और पािपय के पाप नाश होते ह। इस त व


पर िवचार करते हुए हम यह भली प्रकार समझ लेना चािहए िक आ मा सवर्था व छ, िनमर्ल, पिवत्र,
शुद्ध, बुद्ध और िनिलर् त है । वेत काँच या पारदशीर् पात्र म िकसी रं ग का पानी भर िदया जाए, तो उसी
ू सवर्था
रं ग का दीखने लगेगा, साधारणत: उसे उसी रं ग का पात्र कहा जाएगा। इतने पर भी पात्र का मल
रं ग रिहत ही रहता है । एक रं ग का पानी भर िदया जाए, तो िफर इस पिरवतर्न के साथ ही पात्र दस
ू रे
रं ग का िदखाई दे ने लगेगा। मनु य की यही ि थित है । आ मा वभावत: िनिवर्कार है , पर उसम िजस
प्रकार के गुण, कमर्, वभाव भर जाते ह, वह उसी प्रकार का िदखाई दे ने लगता है ।

गीता म कहा है िक- ‘‘िव या स प न ब्रा मण, गौ, हाथी, कु ता तथा चा डाल आिद को जो सम व बुिद्ध
से दे खता है , वही पि डत है ।’’ इस सम वय का रह य यह है िक आ मा सवर्था िनिवर्कार है , उसकी मल

ि थित म पिरवतर्न नहीं होता, केवल मन, बुिद्ध, िच त, अहङ्कार अ त:करण चतु टय रं गीन िवकारग्र त
हो जाता है , िजसके कारण मनु य अ वाभािवक, िवप न, िवकृत दशा म पड़ा हुआ प्रतीत होता है । इस
ि थित म यिद पिरवतर्न हो जाए, तो आज के द ु ट का कल ही स त बन जाना कुछ भी किठन नहीं
है । इितहास बताता है िक एक चा डाल कुलो प न त कर बदलकर महिषर् वा मीिक हो गया। जीवन
भर वे याविृ त करने वाली गिणका आ तिरक पिरवतर्न के कारण परम सा वी दे िवय को प्रा त होने
वाली परमगित की अिधकािरणी हुई। कसाई का पेशा करते हुए िज दगी गज ु ार दे ने वाले अजािमल और
सदन परम भागवत भक्त कहलाए। इस प्रकार अनेक नीच काम करने वाले उ चता को प्रा त हुए ह
और हीन कुलो प न को उ च वणर् की प्रित ठा िमली है । रै दास चमार, कबीर जलु ाहे , रामानुज शूद्र,
ष कोपाचायर् खटीक, ितरव लव ु र अ यज वणर् म उ प न हुए थे, पर उनकी ि थित अनेक ब्रा मण से
ऊँची थी। िव वािमत्र भी क्षित्रय से ब्रा मण बने थे।

जहाँ पितत थान से ऊपर चढऩे के उदाहरण से इितहास भरा पड़ा है , वहाँ उ च ि थित के लोग के
पितत होने के भी उदाहरण कम नहीं ह। पुल य के उ तम ब्र मकुल म उ प न हुआ चार वेद का
महापि डत रावण, मनु यता से भी पितत होकर राक्षस कहलाया। खोटा अ न खाने से द्रोण और भी म
जैसे ज्ञानी पु ष, अ यायी कौरव के समथर्क हो गये। िव वािमत्र ने क्रोध म आकर विस ठ के िनद ष
बालक की ह या कर डाली। पाराशर ने धीवर की कुमारी क या से यिभचार करके स तान उ प न
की। िव वािमत्र ने वे या पर आसक्त होकर उसे ल बे समय तक अपने पास रखा। च द्रमा जैसा दे वता
गु माता के साथ कुमागर्गामी बना। दे वताओं के राजा इ द्र को यिभचार के कारण शाप का भाजन
होना पड़ा। ब्र म अपनी पुत्री पर ही मोिहत हो गये। ब्र मचारी नारद मोहग्र त होकर िववाह करने
वयंवर म जा पहुँचे। सड़ी- गली काया वाले वयोवद्ध
ृ यवन ऋिष को सक
ु ु मारी सक
ु या से िववाह करने
की सझ ू ी। बिल राजा के दान म भाँजी मारते हुए शुक्राचायर् ने अपनी एक आँख गँवा दी। धमर्राज
युिधि ठर तक ने अ व थामा के मरने की पुि ट करके अपने मख ु पर कािलख पोती और धीरे से ‘नरो
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वा कंु जरो वा’ गन
ु गन
ु ाकर अपने को झठ
ू से बचाने की प्रव चना की। कहाँ तक कह! िकस- िकस की
कह! इस ि ट से इितहास दे खते ह तो बड़ - बड़ को
थान यत ु हुआ पाते ह। इससे प्रकट होता है िक
आ तिरक ि थित म हे र- फेर हो जाने से भले मनु य बरु े और बरु े मनु य भले बन सकते ह।

शा त्र कहता है िक ज म से सभी मनु य शूद्र पैदा होते ह। पीछे सं कार के प्रभाव से िवज बनते ह।
असल म यह सं कार ही है , जो शूद्र को िवज और िवज को शूद्र बना दे ते ह। गायत्री के त वज्ञान
को दय म धारण करने से ऐसे सं कार की उ पि त होती है , जो मनु य को एक िवशेष प्रकार का
बना दे ते ह। उस पात्र म भरा हुआ पहला लाल रं ग िनव ृ त हो जाता है और उसके थान पर नील वणर्
पिरलिक्षत होने लगता है ।

पाप का नाश आ मतेज की प्रच डता से होता है । यह तेजी िजतनी अिधक होती है , उतना ही सं कार
का कायर् शीघ्र और अिधक पिरमाण म होता है । िबना धार की लोहे की छड़ से वह कायर् नहीं हो
सकता, जो ती ण तलवार से होता है । यह तेजी िकस प्रकार आए? इसका उपाय तपाना और रगडऩा है ।
लोहे को आग म तपाकर उसम धार बनाई जाती है और प थर पर रगडक़र उसे तेज िकया जाता है ।
तब वह तलवार द ु मन की सेना का सफाया करने योग्य होती है । हम भी अपनी आ मशिक्त तेज
करने के िलये इसी तपाने, िघसने वाली प्रणाली को अपनाना पड़ता है । इसे आ याि मक भाषा म ‘तप’
या ‘प्रायि च त’ नाम से पुकारते ह।

प्रायि च त क्य ? कैसे?— अपराध की िनविृ त के िलये हर जगह द ड का िवधान काम म लाया जाता
है । ब चे ने गड़बड़ी की िक माता की डाँट- डपट पड़ी। िश य ने प्रमाद िकया िक गु ने छड़ी सँभाली।
सामािजक िनयम को भंग िकया िक पंचायत ने द ड िदया। कानन ू का उ लंघन हुआ िक जम ु ार्ना, जेल,
कालापानी या फाँसी तैयार है । ई वर दै िवक, दै िहक, भौितक द:ु ख दे कर पाप का द ड दे ता है । द ड
िवधान प्रितशोध या प्रितिहंसा मात्र नहीं है । ‘खन
ू का बदला खन
ू ’ की जंगली प्रथा के कारण नहीं, द ड
िवधान का िनमार्ण उ च आ याि मक िवज्ञान के आधार पर िकया गया है । कारण यह है िक द ड
व प जो क ट िदये जाते ह, उनसे मनु य के भीतर एक खलबली मचती है , प्रितिक्रया होती है , तेजी
आती है , िजससे उसका गु त मानस च क पड़ता है और भल
ू को छोडक़र उिचत मागर् पर आ जाता है ।
तप म ऐसी शिक्त है । तप की गमीर् से अना म त व का संहार होता है ।

दस
ू र वारा द ड प म बलात ् तप कराके हमारी शुिद्ध की जाती है । उस प्रणाली को हम वयं ही
अपनाएँ, अपने गु त- प्रकट पाप का द ड वयं ही अपने को दे कर वे छापूवक
र् तप कर, तो वह दस
ू र
ु ा उ तम है । उसम न अपमान होता है , न प्रितिहंसा
वारा बलात ् कराये हुए तप की अपेक्षा असंख्य गन
एवं न आ मग्लािन से िच त क्षोिभत होता है , वरन ् वे छा तप से एक आ याि मक आन द आता है ,
शौयर् और साहस प्रकट होता है तथा दस
ू र की ि ट म अपनी े ठता, प्रित ठा बढ़ती है । पाप की
िनविृ त के िलये आ मतेज की अिग्र चािहए। इस अिग्र की उ पि त से दहु रा लाभ होता है , एक तो

119
हािनकारक त व का, कषाय- क मष का नाश होता है , दस
ू रे उनकी ऊ मा और प्रकाश से दै वी त व
का िवकास, पोषण एवं अिभवधर्न होता है , िजसके कारण साधक तप वी, मन वी एवं तेज वी बन जाता
है । हमारे धमर्शा त्र म पग- पग पर त, उपवास, दान, नान, आचरण- िवचार आिद के िविध- िवधान
इसी ि ट से िकये गये ह िक उ ह अपनाकर मनु य इन दह
ु रे लाभ को उठा सके।

‘अपने से कोई भल
ू , पाप या बुराइयाँ बन पड़ी ह , तो उनके अशुभ फल के िनवारण के िलये स चा
प्रायि च त तो यही है िक उ ह िफर न करने का ढ़ िन चय िकया जाए, पर यिद इस िन चय के
साथ- साथ थोड़ी तप चयार् भी की जाए, तो उसे प्रितज्ञा का बल िमलता है और उसके पालन म ढ़ता
आती है । साथ ही यह तप चयार् साि वकता की ती गित से विृ द्ध करती है , चैत यता उ प न करती है
और ऐसे उ तमो तम गुण, कमर्, वभाव को उ प न करती है , िजनसे पिवत्रतामय, साधनामय, मंगलमय
जीवन िबताना सग
ु म हो जाता है । गायत्री शिक्त के आधार पर की गयी तप चयार् बड़े- बड़े पािपय को
भी िन पाप बनाने, उनके पाप- पुंज को न ट करने तथा भिव य के िलये उ ह िन पाप रहने योग्य बना
सकती है ।’

िक्रया नहीं, भाव प्रधान—जो कायर् पाप िदखाई पड़ते ह, वे सवर्दा वैसे पाप नहीं होते जैसे िक समझते ह।
कहा गया है िक कोई भी कायर् न तो पाप है न पु य; कतार् की भावना के अनुसार पाप- पु य होते ह।
जो कायर् एक मनु य के िलये पाप है , वही दस
ू रे के िलए पापरिहत है और िकसी के िलये वह पु य भी
है । ह या करना एक कमर् है , वह तीन यिक्तय के िलये तीन िविभ न पिरि थितय के कारण िभ न
पिरणाम वाला बन जाता है । कोई यिक्त दस
ू र का धन अपहरण करने के िलये िकसी की ह या करता
है , यह ह या घोर पाप हुई। कोई यायाधीश या ज लाद समाज के शत्रु अपराधी को याय रक्षा के िलये
प्राणद ड दे ता है , वह उसके िलये कतर् य पालन है । कोई यिक्त आततायी डाकुओं के आक्रमण से
िनद ष के प्राण बचाने के िलये अपने को जोिखम म डालकर उन अ याचािरय का वध कर दे ता है , तो
वह पु य है । ह या तीन ने ही की, पर तीन की ह याय अलग- अलग पिरणाम वाली ह। तीन ह यारे
डाकू, यायाधीश एवं आततायी से लड़कर उसका वध करने वाले- समान प से पापी नहीं िगने जा
सकते ।।

चोरी एक बुरा कायर् है , पर तु पिरि थितय वश वह भी सदा बुरा नहीं रहता।


वयं स प न होते हुए
भी जो अ यायपूवक
र् दस
ू र का धन हरण करता है , वह पक्का चोर है । दस
ू रा उदाहरण लीिजये- भख
ू से
प्राण जाने की मजबूरी म िकसी भी स प न यिक्त का कुछ चुराकर आ मरक्षा करना कोई बहुत बड़ा
पाप नहीं है ।

तीसरी ि थित म िकसी द ु ट की साधन- सामग्री चुराकर उसे शिक्तहीन बना दे ना और उस चुराई हुई
सामग्री को स कमर् म लगा दे ना पु य का काम है । तीन चोर समान ेणी के पापी नहीं ठहराये जा
सकते।

120
पिरि थित, मजबूरी, धमर्रक्षा तथा बौिद्धक व प िवकास के कारणवश कई बार ऐसे कायर् होते ह, जो
थूल ि ट से दे खने म िन दनीय मालम ू पड़ते ह, पर व तुत: उनके पीछे पाप भावना िछपी हुई नहीं
होती, ऐसे कायर् पाप नहीं कहे जा सकते। बालक का फोड़ा िचरवाने के िलये माता को उसे अ पताल ले
जाना पड़ता है और बालक को क ट म डालना पड़ता है । रोगी की प्राण रक्षा के िलये डाक्टर को कसाई
के समान चीड़- फाड़ करने का कायर् करना पड़ता है । रोगी की कुप यकारक इ छाओं को टालने के िलये
उपचारक को झठ
ू े बहाने बनाकर िकसी प्रकार समझाना पड़ता है । बालक की िजद का भी प्राय: ऐसा ही
समाधान िकया जाता है । िहंसक ज तुओं, श त्रधारी द युओं पर सामने से नहीं बि क पीछे से आक्रमण
करना पड़ता है ।

प्राचीन इितहास पर ि टपात करने से प्रतीत होता है िक अनेक महापु ष को भी धमर् की थूल
मयार्दाओं का उ लंघन करना पड़ा है ; िक तु लोकिहत, धमर्विृ द्ध और अधमर् नाश की सद्भावना के कारण
उ ह वैसा पापी नहीं बनना पड़ा जैसे िक वही काम करने वाले आदमी को साधारणत: बनना पड़ता है ।
भगवान ् िव णु ने भ मासरु से शंकर जी के प्राण बचाने के िलये मोिहनी प बनाकर उसे छला और
न ट िकया। समद्र
ु म थन के समय अमत
ृ घट के बँटवारे पर जब दे वताओं और असरु म झगड़ा हो रहा
था, तब भी िव णु ने माया- मोिहनी का प बनाकर असरु को धोखे म रखा और अमत
ृ दे वताओं को
िपला िदया। सती व ृ दा का सती व िडगाने के िलये भगवान ् ने जाल धर का प बनाया था। राजा
बिल को छलने के िलये वामन का प धारण िकया था। पेड़ की आड़ म िछपकर राम ने अनुिचत प
से बाली को मारा था।

महाभारत म धमर्राज यिु धि ठर ने अ व थामा की म ृ यु का छलपव


ू क
र् समथर्न िकया। अजन
ुर् ने
िशख डी की ओट से खड़े होकर भी म को मारा, कणर् का रथ कीचड़ म धँस जाने पर भी उसका वध
िकया। घोर दिु भर्क्ष म क्षुधापीिडत
़ होने पर िव वािमत्र ऋिष ने चा डाल के घर से कु ते का मांस चरु ाकर
खाया। प्र लाद का िपता की आज्ञा का उ लंघन करना, बिल का गु शुक्राचायर् की आज्ञा न मानना,
िवभीषण का भाई को यागना, भरत का माता की भ सर्ना करना, गोिपय का पर पु ष ीकृ ण से प्रेम
करना, मीरा का अपने पित को याग दे ना, परशुराम जी का अपनी माता का िसर काट दे ना आिद कायर्
साधारणत: अधमर् प्रतीत होते ह, पर उ ह कतार्ओं ने सद ु े य से प्रेिरत होकर िकया था, इसिलये धमर् की
सू म ि ट से यह कायर् पातक नहीं िगन गये।

िशवाजी ने अफजल खाँ का वध कूटनीितक चातुयर् से िकया था। भारतीय वाधीनता के इितहास म
क्राि तकािरय ने िब्रिटश सरकार के साथ िजस नीित को
अपनाया था, उसम चोरी, डकैती, जासूसी, ह या, क ल, झूठ बोलना, छल, िव वासघात आिद ऐसे सभी काय का समावेश हुआ
था जो मोटे तौर से अधमर् कहे जाते ह; पर तु उनकी आ मा पिवत्र थी, असंख्य दीन- द:ु खी प्रजा की क णाजनक ि थित से
द्रिवत होकर अ यायी शासन को उलटने के िलये ही उ ह ने ऐसा िकया था। कानून उनको भले ही अपराधी बताए, पर
व तत
ु : वे पापी कदािप नहीं कहे जा सकते।
121
अधमर् का नाश और धमर् की रक्षा के िलये भगवान ् को युग- युग म अवतार लेकर अगिणत ह याय
करनी पड़ती ह और रक्त की धार बहानी पड़ती है । इसम पाप नहीं होता। सद ु े य के िलये िकया हुआ
अनुिचत कायर् भी उिचत के समान ही उ तम माना गया है । इस प्रकार मजबूर िकये गये, सताये गये,
बुभिु क्षत, स त्र त, द:ु खी, उ तेिजत, आपि तग्र त , अज्ञानी बालक, रोगी अथवा पागल कोई अनुिचत कायर्
कर बैठते ह तो वह क्ष य माने जाते ह; कारण यह है िक उस मनोभिू म का मनु य धमर् और कतर् य
के ि टकोण से िकसी बात पर ठीक िवचार करने म समथर् नहीं होता।

पािपय की सच
ू ी म िजतने लोग ह, उनम से अिधकांश ऐसे होते ह, िज ह उपयक्
ुर् त िक हीं कारण से
अनुिचत कायर् करने पड़े, पीछे वे उनके वभाव म आ गये। पिरि थितय ने, मजबूिरय ने, आदत ने
उ ह लाचार कर िदया और वे बुराई की ढालू सड़क पर िफसलते चले गये। यिद दस
ू रे प्रकार की
पिरि थितयाँ, सिु वधाय उ ह िमलतीं, ऊँचा उठाने वाले और स तोष दे ने वाले साधन िमल जाते, तो
िन चय ही वे अ छे बने होते।

कानून और लोकमत चाहे िकसी को िकतना ही दोषी ठहरा सकता है , थूल ि ट से कोई आदमी
अ य त बुरा हो सकता है , पर वा तिवक पािपय की संख्या इस संसार म बहुत कम है । जो
पिरि थितय के वश बुरे बन गये ह, उ ह भी सधु ारा जा सकता है , क्य िक प्र येक की आ मा ई वर का
अंश होने के कारण त वत: पिवत्र है । बरु ाई उसके ऊपर छाया मैल है । मैल को साफ करना न तो
अस भव है और न क टसा य, वरन ् यह कायर् आसानी से हो सकता है ।

कई यिक्त सोचते ह िक हमने अब तक इतने पाप िकये ह, इतनी बुराइयाँ की ह, हमारे प्रकट और
अप्रकट पाप की सच ू ी बहुत बड़ी है , अब हम सध
ु र नहीं सकते, हम न जाने कब तक नरक म सडऩा
पड़ेगा! हमारा उद्धार और क याण अब कैसे हो सकता है ? ऐसा सोचने वाल को जानना चािहये िक
स मागर् पर चलने का प्रण करते ही उनकी पुरानी मैली- कुचैली पोशाक उतर जाती है और उसम भरे
हुए जए ु ँ भी उसी म रह जाते ह। पाप- वासनाओं का पिर याग करने और उनका स चे दय से
प्रायि च त करने से िपछले पाप के बरु े फल से छुटकारा िमल सकता है । केवल वे पिरपक्व प्रार ध
कमर् जो इस ज म के िलये भाग्य बन चुके ह, उ ह तो िकसी न िकसी प से भोगना पड़ता है । इसके
अितिरक्त जो प्राचीन या आजकल के ऐसे कमर् ह, जो अभी प्रार ध नहीं बने ह, उनका संिचत समह

न ट हो जाता है । जो इस ज म के िलए द:ु खदायी भोग ह, वे भी अपेक्षाकृत बहुत हलके हो जाते ह
और िच न- पूजा मात्र थोड़ा क ट िदखाकर सहज ही शा त हो जाते ह।

कोई मनु य अपने िपछले जीवन का अिधकांश भाग कुमागर् म यतीत कर चुका है या बहुत- सा समय
िनरथर्क िबता चुका है , तो इसके िलये केवल द:ु ख मानने, पछताने या िनराश होने से कुछ प्रयोजन िसद्ध
न होगा। जीवन का जो भाग शेष रहा है , वह भी कम मह वपूणर् नहीं। राजा परीिक्षत को म ृ यु से पूवर्

122
एक स ताह आ मक याण के िलये िमला था। उसने इस थोड़े समय का सदप
ु योग िकया और अभी ट
लाभ प्रा त कर िलया। सरू दास को ज म भर की यिभचािरणी आदत से छुटकारा न िमलते दे खकर
अ त म आँखे फोड़ लेनी पड़ी थीं। तल
ु सीदास का कामातरु होकर रातो- रात ससरु ाल पहुँचना और
परनाले म लटका हुआ साँप पकडक़र त्री के पास जा पहुँचना प्रिसद्ध है । इस प्रकार के असंख्य
यिक्त अपने जीवन का अिधकांश भाग दस
ू रे काय म यतीत करने के उपरा त स पथगामी हुए और
थोड़े से ही समय म योिगय और महा माओं को प्रा त होने वाली स गित के अिधकारी हुए ह।

यह एक रह यमय त य है िक म दबुिद्ध, मख
ू ,र् डरपोक, कमजोर तिबयत के सीधे कहलाने वाल की
अपेक्षा वे लोग अिधक ज दी आ मो नित कर सकते ह, जो अब तक सिक्रय, जाग क, चैत य, पराक्रमी,
पु षाथीर् एवं बदमाश रहे ह। कारण यह है िक म द चेतना वाल म शिक्त का ोत बहुत यून होता
है । वे पूरे सदाचारी और भक्त रह, तो भी म द शिक्त के कारण उनकी प्रगित अ य त म द गित से
होती है । पर जो लोग शिक्तशाली ह, िजनके अ दर चैत यता और पराक्रम का िनझर्र तूफानी गित से
प्रवािहत होता है , वे जब भी िजस िदशा म भी लगगे, उधर ही ढे र लगा दगे। अब तक िज ह ने बदमाशी
म झ डा बल
ु द रखा है , वे िन चय ही शिक्त स प न तो ह, पर उनकी शिक्त कुमागर्गामी रही है । यिद
वह शिक्त स पथ पर लग जाए तो उस िदशा म भी आ चयर्जनक सफलता उपि थत कर सकते ह।
गधा एक वषर् म िजतना बोझ ढोता है , हाथी उतना एक िदन म ही ढो सकता है । आ मो नित भी एक
पु षाथर् है ; इस मि जल पर वे ही लोग शीघ्र पहुँच सकते ह, जो पु षाथीर् ह, िजनके नायओ
ु ं म बल
और मन म अद य साहस तथा उ साह है ।

जो लोग िपछले जीवन म कुमागर्गामी रहे ह, बड़ी ऊटपटाँग, गड़बड़ करते रहे ह, वे भल
ू े हुए पथभ्र ट तो
अव य ह, पर इस गलत प्रिक्रया वारा भी उ ह ने अपनी चैत यता, बुिद्धम ता, जाग कता और
िक्रयाशीलता को बढ़ाया है । यह बढ़ो तरी एक अ छी पँज
ू ी है । पथभ्र टता के कारण जो पाप उनसे बन
पड़े, वे प चा ताप और द:ु ख के हे तु अव य ह। स तोष की बात इतनी है िक उस कँटीले- पथरीले, लहू-
लह
ु ान करने वाले, ऊबड़- खाबड़, द:ु खदायी मागर् म भटकते हुए भी मि जल की िदशा म ही यात्रा की है ।
यिद अब सँभल जाया जाए और सीधे राजमागर् से सतोगण ु ी आधार से आगे बढ़ा जाए तो िपछला ऊल-
जलल
ू कायर्क्रम भी सहायक िसद्ध होगा।

पाप और दोष का प्रधान कारण प्राय: दिू षत मानिसक भावनाय ही हुआ करती ह। इन गिहर्त भावनाओं
के कारण मनु य की बुिद्ध भ्र ट हो जाती है और इससे वह अकरणीय कायर् करता रहता है । इस कारण
होने वाले पाप से छुटकारा पाने का उपाय यही है िक मनु य स िवचार वारा बुरे िवचार का शमन
और िनराकरण करे । जब मनोभिू म शुद्ध हो जाए, तो उसम हािनकारक िवचार की उ पि त ही नहीं होगी
और मनु य पाप मागर् से हटकर सम
ु ागर्गामी बन जायेगा। इसके िलये वा याय, स संग आिद को
प्रभावशाली साधन बतलाया है । गायत्री म त्र स बुिद्ध का प्रेरणादायक होने से वा याय का एक बड़ा
अङ्ग माना जा सकता है । जब उससे मन े ठ िवचार की तरफ जाता है , तो अस बुिद्ध का वयं ही
123
अ त होने लग जाता है । िकसी भावना के लगातार िच तन म बड़ी शिक्त होती है । जब हम लगातार
स बिु द्ध और शभ
ु िवचार का िच तन करते रहगे, तो पापयक्
ु त भावनाओं का क्षीण होते जाना
वाभािवक ही है ।

िपछले पाप न ट हो सकते ह; कुमागर् पर चलने से जो घाव हो गये ह, वे थोड़ा द:ु ख दे कर शीघ्र अ छे
हो सकते ह। उसके िलये िच ता एवं िनराशा की कोई बात नहीं, केवल अपनी िच और िक्रया को बदल
दे ना है । यह पिरवतर्न होते ही बड़ी तेजी से सीधे मागर् पर प्रगित करते ह और व पकाल म ही स चे
महा मा बन जाते ह। िजन िवशेषताओं के कारण वे सख्त बदमाश थे, वे ही िवशेषताय उ ह सफल
स त बना दे ती ह। गायत्री का आ य लेने से बुरे, बदमाश और दरु ाचारी त्री- पु ष भी व पकाल म
स मागर्गामी और पापरिहत हो सकते ह।

आ मशिक्त का अकूत भ डार :: अनु ठान


य गायत्री िन य उपासना करने योग्य है । ित्रकाल स या म प्रात:, म या न, सायं तीन बार उसी की
उपासना करने का िन यकमर् शा त्र म आव यक बतलाया गया है । जब भी िजतनी अिधक मात्रा म
गायत्री का जप, पज
ू न, िच तन, मनन िकया जा सके, उतना ही अ छा है , क्य िक ‘अिधक य अिधकं
फलम ्।’

पर तु िकसी िवशेष प्रयोजन के िलए जब िवशेष शिक्त का स चय करना पड़ता है , तो उसके िलए
िवशेष िक्रया की जाती है । इस िक्रया को अनु ठान के नाम से पुकारते ह। जब कभी परदे श के िलए
यात्रा की जाती है , तो रा ते के िलए कुछ भोजन सामग्री तथा खचर् के िलए पये साथ रख लेना
आव यक होता है । यिद यह मागर् यय साथ न हो, तो यात्रा बड़ी क टसा य हो जाती है । अनु ठान एक
प्रकार का मागर् यय है । इस साधना को करने से जो पँज
ू ी जमा हो जाती है , उसे साथ लेकर िकसी भी
भौितक या आ याि मक कायर् म जुटा जाए, तो यात्रा बड़ी सरल हो जाती है ।

िसंह जब िहरन पर झपटता है , िब ली जब चह


ू े पर छापा मारती है , बगल
ु ा जब मछली पर आक्रमण
करता है , तो उसे एक क्षणत ध होकर, साँस रोककर, जरा पीछे हटकर अपने अ दर की िछपी हुई
शिक्तय को जाग्रत ् और सतेज करना पड़ता है , तब वह अचानक अपने िशकार पर पूरी शिक्त के साथ
टूट पड़ते ह और मनोवाँिछत लाभ प्रा त करते ह। ऊँची या ल बी छलाँग भरने से पहले िखलाड़ी लोग
कुछ क्षण ु रा त छलाँग भरते ह। कु ती लडऩे वाले पहलवान ऐसे
कते, ठहरते और पीछे हटते ह, तदप
ही पतरे बदलते ह। ब दक
ू चलाने वाले को भी घोड़ा दबाने से पहले यही करना पड़ता है । अनु ठान
वारा यही कायर् आ याि मक आधार पर होता है । िकसी िवपि त को छलाँग कर पार करना है या कोई
सफलता प्रा त करनी है , तो उस ल य पर पडऩे के िलए जो शिक्त स चय आव यक है , वह अनु ठान
वारा प्रा त होती है ।
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ब चा िदन भर माँ- माँ पुकारता रहता है , माता भी िदन भर बेटा, ल ला कहकर उसको उ तर दे ती रहती
है , यह लाड़- दल
ु ार य ही िदन भर चलता रहता है । पर जब कोई िवशेष आव यकता पड़ती है , क ट
होता है , किठनाई आती है , आशंका होती है या साहस की ज रत पड़ती है , तो बालक िवशेष बलपूवक
र् ,
िवशेष वर से माता को पुकारता है । इस िवशेष पुकार को सुनकर माता अपने अ य काम को छोडक़र
बालक के पास दौड़ आती है और उसकी सहायता करती है । अनु ठान साधक की ऐसी ही पुकार है ,
िजसम िवशेष बल एवं िवशेष आकषर्ण होता है , उस आकषर्ण से गायत्री- शिक्त िवशेष प से साधक के
समीप एकित्रत हो जाती है ।

जब सांसािरक प्रय न असफल हो रहे ह , आपि त का िनवारण होने का मागर् न सझ


ू पड़ता हो, चार
ओर अ धकार छाया हुआ हो, भिव य िनराशाजनक िदखाई दे रहा हो, पिरि थितयाँ िदन- िदन िबगड़ती
जाती ह , सीधा करते उलटा पिरणाम िनकलता हो, तो वभावत: मनु य के हाथ- पैर फूल जाते ह।
िच ताग्र त और उ िवग्र मनु य की बुिद्ध ठीक काम नहीं करती। जाल म फँसे कबूतर की तरह वह
िजतना फडफ़ड़ाता है , उतना ही जाल म और फँसता जाता है । ऐसे अवसर पर ‘हारे को हिरनाम’ बल
होता है । गज, द्रौपदी, नरसी, प्र लाद आिद को उसी बल का आ य लेना पड़ा था। दे खा गया है िक कई
बार जब वह सांसािरक प्रय न िवशेष कारगर नहीं होते, तो दै वी सहायता िमलने पर सारी ि थित बदल
जाती है और िवपदाओं की राित्र के घोर अ धकार को चीरकर अचानक ऐसी िबजली क ध जाती है ,
िजसके प्रकाश म पार होने का रा ता िमल जाता है । अनु ठान ऐसी ही प्रिक्रया है । वह हारे हुए का
ची कार है िजससे दे वताओं का िसंहासन िहलता है । अनु ठान का िव फोट दयाकाश म एक ऐसे
प्रकाश के प म होता है , िजसके वारा िवपि तग्र त को पार होने का रा ता िदखाई दे जाता है ।

सांसािरक किठनाइय म, मानिसक उलझन म, आ तिरक उ वेग म गायत्री अनु ठान से असाधारण
सहायता िमलती है । यह ठीक है िक िकसी को सोने का घड़ा भर कर अशिफर् याँ गायत्री नहीं दे जाती,
पर यह भी ठीक है िक उसके प्रभाव से मनोभिू म म ऐसे मौिलक पिरवतर्न होते ह, िजनके कारण
किठनाई का उिचत हल िनकल आता है । उपासक म ऐसी बुिद्ध, ऐसी प्रितभा, ऐसी सझ
ू , ऐसी दरू दिशर्ता
पैदा हो जाती है , िजसके कारण वह ऐसा रा ता प्रा त कर लेता है , जो किठनाई के िनवारण म रामबाण
की तरह फलप्रद िसद्ध होता है । भ्रा त मि त क म कुछ असंगत, अस भव और अनाव यक
िवचारधाराएँ, कामनाएँ, मा यताएँ घुस पड़ती ह, िजनके कारण वह यिक्त अकारण द:ु खी बना रहता है ।
गायत्री साधना से मि त क का ऐसा पिरमाजर्न हो जाता है , िजसम कुछ समय पहले जो बात अ य त
आव यक और मह वपूणर् लगती थीं, वे ही पीछे अनाव यक और अनुपयुक्त लगने लगती ह। वह उधर
से मँह
ु मोड़ लेता है । इस प्रकार यह मानिसक पिरवतर्न इतना आन दमय िसद्ध होता है , िजतना िक
पूवक
र् ि पत कामनाओं के पूणर् होने पर भी सख
ु न िमलता। अनु ठान वारा ऐसे ही ज्ञात और अज्ञात
पिरवतर्न होते ह, िजनके कारण द:ु ख और िच ताओं से ग्र त मनु य थोड़े ही समय म सख
ु - शाि त का
वगीर्य जीवन िबताने की ि थित म पहुँच जाता है ।
125
सवा लाख म त्र के जप को अनु ठान कहते ह। हर व तु के पकने की कुछ मयार्दा होती है । दाल,
साग, ईंट, काँच आिद के पकने के िलए एक िनयत ेणी का तापमान आव यक होता है । वक्ष
ृ पर फल
एक िनयत अविध म पकते ह। अ डे अपने पकने का समय पूरा कर लेते ह, तब फूटते ह। गभर् म
ुर् त िक्रयाओं म िनयत अविध से
बालक जब अपना पूरा समय ले लेता है , तब ज मता है । यिद उपयक्
पहले ही िवक्षेप उ प न हो जाय, तो उनकी सफलता की आशा नहीं रहती। अनु ठान की अविध, मयार्दा,
जप- मात्रा सवा लक्ष जप है । इतनी मात्रा म जब वह पक जाता है , तब व थ पिरणाम उ प न होता
है । पकी हुई साधना ही मधुर फल दे ती है ।

अनु ठान की िविध

अनु ठान िकसी भी मास म िकया जा सकता है । ितिथय म प चमी, एकादशी, पूणम
र् ासी शुभ मानी
गयी ह। प चमी को दग
ु ार्, एकादशी को सर वती, पूणम
र् ासी को ल मी त व की प्रधानता रहती है ।
शुक्लपक्ष और कृ णपक्ष दोन म से िकसी का िनषेध नहीं है , िक तु कृ णपक्ष की अपेक्षा शुक्लपक्ष
अिधक शुभ है ।

अनु ठान आर भ करते हुए िन य गायत्री का आवाहन कर और अ त करते हुए िवसजर्न करना चािहए।
इस प्रित ठा म भावना और िनवेदन प्रधान है । द्धापूवक
र् ‘भगवती, जग जननी, भक्तव सला माँ गायत्री
यहाँ प्रिति ठत होने का अनुग्रह कीिजए’ ऐसी प्राथर्ना सं कृत या मातभ
ृ ाषा म करनी चािहए। िव वास
करना चािहए िक प्राथर्ना को वीकार करके वे कृपापूवक
र् पधार गयी ह। िवसजर्न करते समय प्राथर्ना
करनी चािहए िक ‘आिदशिक्त, भयहािरणी, शिक्तदाियनी, तरणतािरणी मातक
ृ े ! अब आप िवसिजर्त ह ’।
इस भावना को भी सं कृत म या अपनी मातभ
ृ ाषा म कह सकते ह। इस प्राथर्ना के साथ- साथ यह
िव वास करना चािहए िक प्राथर्ना वीकार करके वे िवसिजर्त हो गयी ह।

कई ग्र थ म ऐसा उ लेख िमलता है िक जप से दसवाँ भाग हवन, हवन से दसवाँ भाग तपर्ण, तपर्ण से
दसवाँ भाग ब्रा मण भोजन कराना चािहए। यह िनयम त त्रोक्त रीित से िकये गये परु चरण के िलए
है । इन पंिक्तय म वेदोक्त योगिविध की दिक्षणमागीर् साधना बताई जा रही है । इसके अनस
ु ार तपर्ण
की आव यकता नहीं है । अनु ठान के अ त म १०८ आहुित का हवन तो कम से कम होना आव यक
है । अिधक साम यर् और सिु वधा के अनुसार है । इसी प्रकार ित्रपदा गायत्री के िलए कम से कम तीन
ब्रा मण का भोजन भी होना ही चािहए। दान के िलए इस प्रकार की कोई मयार्दा नहीं बाँधी जा
सकती। यह साधक की द्धा का िवषय है , पर अ त म दान अव य करना चािहए।

िकसी छोटी चौकी, चबूतरी या आसन पर फूल का एक छोटा सु दर- सा आसन बनाना चािहए और उस
पर गायत्री की प्रित ठा होने की भावना करनी चािहए। साकार उपासना के समथर्क भगवती का कोई
सु दर- सा िचत्र अथवा प्रितमा को उन फूल पर थािपत कर सकते ह। िनराकार के उपासक िनराकार
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भगवती की शिक्त पज
ू ा का एक फुि लंग वहाँ प्रिति ठत होने की भावना कर सकते ह। कोई- कोई
साधक धप
ू ब ती, दीपक की अिग्रिशखा म भगवती की चैत य वाला का दशर्न करते ह और उसी दीपक
या धप
ू ब ती को फूल पर प्रिति ठत करके अपनी आरा य शिक्त की उपि थित अनभ
ु व करते ह।
िवसजर्न के समय प्रितमा को हटाकर शयन करा दे ना चािहए, पु प को जलाशय या पिवत्र थान म
िवसिजर्त कर दे ना चािहए। अधजली धूपब ती या ई ब ती को बुझाकर उसे भी पु प के साथ
िवसिजर्त कर दे ना चािहए। दस
ू रे िदन जली हुई ब ती का प्रयोग िफर से न होना चािहए।

गायत्री पूजन के िलए पाँच व तुएँ प्रधान प से मांगिलक मानी गयी ह। इन पूजा पदाथ म वह प्राण
है , जो गायत्री के अनुकूल पड़ता है । इसिलए पु प आसन पर प्रिति ठत गायत्री के स मख
ु धूप जलाना,
दीपक थािपत करना, नैवे य चढ़ाना, च दन लगाना तथा अक्षत की विृ ट करनी चािहए। अगर दीपक
और धूप को गायत्री की थापना म रखा गया है , तो उसके थान पर जल का अघ्र्य दे कर पाँचव पूजा
पदाथर् की पूितर् करनी चािहए।

पूवर् विणर्त िविध से प्रात:काल पूवार्िभमख


ु होकर शुद्ध भिू म पर शुद्ध होकर कुश के आसन पर बैठ। जल
का पात्र समीप रख ल। धूप और दीपक जप के समय जलते रहने चािहए। बूझ जाय तो उस ब ती को
हटाकर नई ब ती डालकर पुन: जलाना चािहए। दीपक या उसम पड़े हुए घत
ृ को हटाने की आव यकता
नहीं है ।

पु प आसन पर गायत्री की प्रित ठा और पज


ू ा के अन तर जप प्रार भ कर दे ना चािहए। िन य यही
क्रम रहे । प्रित ठा और पज
ू ा अनु ठान काल म िन य होती रहनी चािहए। मन चार ओर न दौड़े,
इसिलए पव
ू र् विणर्त यान भावना के अनस
ु ार गायत्री कायान करते हुए जप करना चािहए। साधना के
इस आव यक अङ्ग के यान म मन लगा दे ने से वह एक कायर् म उलझा रहता है और जगह- जगह
नहीं भागता। भागे तो उसे रोक- रोककर बार- बार यान भावना पर लगाना चािहए। इस िविध से
एकाग्रता की िदन- िदन विृ द्ध होती चलती है ।

सवा लाख जप को चालीस िदन म पूरा करने का क्रम पूवक


र् ाल से चला आ रहा है । पर िनबर्ल अथवा
कम समय तक साधना कर सकने वाले साधक उसे दो मास म भी समा त कर सकते ह। प्रितिदन
जप की संख्या बराबर होनी चािहए। िकसी िदन यादा, िकसी िदन कम, ऐसा क्रम ठीक नहीं। यिद
चालीस िदन म अनु ठान पूरा करना हो, तो १२५०००/४०=३१२५ म त्र िन य जपने चािहए। माला म १०८
दाने होते ह, इतने म त्र की ३१२५/१०८=२९, इस प्रकार उ तीस मालाएँ िन य जपनी चािहए। यिद दो
मास म जप करना हो तो १२५०००/६०=२०८० म त्र प्रितिदन जपने चािहए। इन म त्र की मालाएँ
२०८०/१०८=२० मालाएँ प्रितिदन जपी जानी चािहए। माला की िगनती याद रखने के िलए खिडय़ा िमट्टी
को गंगाजल म सान कर छोटी- छोटी गोली बना लेनी चािहए और एक माला जपने पर एक गोली एक
थान से दस
ू रे थान पर रख लेनी चािहए। इस प्रकार जब सब गोिलयाँ इधर से उधर हो जाएँ, तो जप

127
समा त कर दे ना चािहए। इस क्रम से जप- संख्या म भल
ू नहीं पड़ती।

गायत्री आवाहन का म त्र—


आयातु वरदे दे िव! यक्षरे ब्र मवािदिन।
गायित्र छ दसां मात: ब्र मयोने नमोऽ तुते॥
गायत्री िवसजर्न का म त्र—
उ तमे िशखरे दे िव! भू यां पवर्तमध
ू िर् न।
ब्रा मणे यो यनुज्ञाता ग छ दे िव यथासख
ु म ्॥
अनु ठान के अ त म हवन करना चािहए, तदन तर शिक्त के अनुसार दान और ब्र मभोज करना
चािहए। ब्र मभोज उ हीं ब्रा मण को कराना चािहए जो वा तव म ब्रा मण ह, वा तव म ब्र मपरायण
ह। कुपात्र को िदया हुआ दान और कराया हुआ भोजन िन फल जाता है , इसिलए िनकट थ या दरू थ
स चे ब्रा मण को ही भोजन कराना चािहए। हवन की िविध नीचे िलखते ह।

सदै व शुभ गायत्री यज्ञ


प ृ ट संख्या: 1 2 सदै व शुभ गायत्री यज्ञ गायत्री अनु ठान के अ त म या िकसी भी शुभ अवसर पर
गायत्री यज्ञ करना चािहए। िजस प्रकार वेदमाता की सरलता, सौ यता, व सलता, सश
ु ीलता प्रिसद्ध है , उसी
प्रकार गायत्री हवन भी अ य त सग
ु म है । इसके िलए बड़ी भारी मीन- मेख िनकालने की या कमर्का डी
पि डत का ही आ य लेने की अिनवायर्ता नहीं है । साधारण बुिद्ध के साधक इसको भली प्रकार कर
सकते ह। कु ड खोदकर या वेदी बनाकर दोन ही प्रकार से हवन िकया जा सकता है । िन काम बिु द्ध से
आ मक याण के िलए िकए जाने वाले हवन, कु ड खोदकर करना ठीक है और िकसी कामना से
मनोरथ की पूितर् के िलए िकए जाने वाले यज्ञ वेदी पर िकए जाने चािहए। कु ड या वेदी की ल बाई-
चौड़ाई साधक की अँगल
ु ी से चौबीस- चौबीस अंगुल होनी चािहए। कु ड खोदा जाए तो उसे चौबीस अंगल

ही गहरा भी खोदना चािहए और इस प्रकार ितरछा खोदना चािहए िक नीचे पहुँचते- पहुँचते छ: अंगल

चौड़ा और छ: अंगल
ु ल बा रह जाए। वेदी बनानी हो तो पीली िमट्टी की चार अंगल
ु ऊँची वेदी चौबीस-
चौबीस अंगुल ल बी- चौड़ी बनानी चािहए। वेदी या कु ड को हवन करने से दो घ टे पूवर् पानी से इस
प्रकार लीप दे ना चािहए िक वह समतल हो जाए, ऊँचाई- नीचाई अिधक न रहे । कु ड या वेदी से चार
अंगल
ु हटकर एक छोटी- सी नाली दो अंगल
ु गहरी खोदकर उसम पानी भर दे ना चािहए। वेदी या कु ड
के आस- पास गेहूँ का आटा, ह दी, रोली आिद मांगिलक द्र य से चौक परू कर अपनी कलािप्रयता का
पिरचय दे ना चािहए।

यज्ञ थल को अपनी सुिवधानुसार म डप, पु प, प लव आिद से िजतना सु दर एवं आकषर्क बनाया जा


सके उतना अ छा है । वेदी या कु ड के ईशान कोण म कलश थािपत करना चािहए। िमट्टी या उ तम
धातु के बने हुए कलश म पिवत्र जल भरकर उसके मख
ु म आम्रप लव रख और ऊपर ढक्कन म

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चावल, गेहूँ का आटा, िम ठा न अथवा कोई अ य मांगिलक द्र य रख दे ना चािहए। कलश के चार ओर
ह दी से वि तक (सितया) अंिकत कर दे ना चािहए। कलश के समीप एक छोटी चौकी या वेदी पर
पु प और गायत्री की प्रितमा, पूजन सामग्री रखनी चािहए। वेदी या कु ड के तीन ओर आसन िबछाकर
इ ट- िमत्र , ब धु- बा धव सिहत बैठना चािहए। पूवर् िदशा म िजधर कलश और गायत्री थािपत है , उधर
िकसी े ठ ब्रा मण अथवा अपने वयोवद्ध
ृ को आचायर् वरण करके िबठाना चािहए, वह इस यज्ञ का
ब्र मा है ।

यजमान पहले ब्र म के दािहने हाथ म सत्र


ू (कलावा) बाँधे, रोली या च दन से उनका ितलक करे , चरण
ु रा त ब्र म उपि थत सब लोग को क्रमश: अपने आप बुलाकर उनके दािहन हाथ म
पशर् करे । तदप
कलावा बाँधे, म तक पर रोली का ितलक करे और उनके ऊपर अक्षत िछडक़ कर आशीवार्द के मङ्गल
वचन बोले। यजमान को पि चम म बैठना चािहए। उसका मुख पूवर् को रहे । हवन सामग्री और घत

अिधक हो, तो उसे कई पात्र म िवभािजत करके कई यिक्त हवन करने बैठ सकते ह। सामग्री थोड़ी हो
तो यजमान हवन सामग्री अपने पास रखे और उनकी प नी घत
ृ पात्र सामने रखकर च मच ( व
ु ा)
सँभाले; प नी न हो तो भाई या िमत्र घत
ृ पात्र लेकर बैठ सकता है । सिमधाएँ सात प्रकार की होती ह।
ये सब प्रकार की न िमल सक तो िजतने प्रकार की िमल सक, उतने प्रकार की ले लेनी चािहए। हवन
सामग्री ित्रगण
ु ा मक साधना म आगे दी हुई ह, वे तीन गण ु वाली लेनी चािहए, पर आ याि मक हवन
हो तो सतोगण ु ी सामग्री आधी और चौथाई- चौथाई रजोगण
ु ी और तमोगण ु ी लेनी चािहए। यिद िकसी
भौितक कामना के िलए हवन िकया गया हो, तो रजोगण
ु ी आधी और सतोगण
ु ी और तमोगण
ु ी चौथाई-
चौथाई लेनी चािहए। सामग्री भली प्रकार साफ कर धप
ू म सख
ु ाकर जौकुट कर लेना चािहए। सामिग्रय
म िकसी व तु के न िमलने पर या कम िमलने पर उसका भाग उसी गुण वाली दस
ू री औषिध को
िमलाकर पूरा िकया जा सकता है ।

उपि थत लोग म जो हवन की िविध म सि मिलत ह , वे नान िकए हुए ह । जो लोग दशर्क ह , वे
थोड़ा हटकर बैठ। दोन के बीच थोड़ा फासला रहना चािहए। हवन आर भ करते हुए यजमान
ब्र मस या के आर भ म प्रयोग होने वाले ष कम —पवीत्रीकरण, आचमन, िशखाब धन (िशखाव दन),
प्राणायाम, यास एवं प ृ वीपूजन की िक्रयाएँ कर। त प चात ् वेदी या कु ड पर सिमधाएँ िचनकर कपूर
की सहायता से गायत्री म त्र के उ चारण सिहत अिग्र प्र विलत कर। सब लोग साथ- साथ म त्र बोल
और अ त म ‘ वाहा’ के साथ घतृ तथा सामग्री से हवन कर। आहुित के अ त म च मच म से बचे
हुए घत
ृ की एक- एक बँद
ू पास म रखे हुए जलपात्र म टपकाते जाना चािहए और ‘इदं गाय यै इदं न
मम’ का उ चारण करना चािहए।

हवन म साथ- साथ बोलते हुए मधुर वर से म त्रो चार करना उ तम है । उदा त, अनुदा त और विरत
के अनुसार होने न होने को इस सामिू हक स मेलन म शा त्रकार ने छूट दी हुई है । आहुितयाँ कम से
कम १०८ होनी चािहए। अिधक इससे दो- तीन या चाहे िजतने गन ु े िकये जा सकते ह। हवन सामग्री
129
कम से कम २५० ग्राम और घत
ृ १०० ग्राम प्रित यिक्त होना चािहए। साम यार्नस
ु ार इससे अिधक चाहे
िजतना बढ़ाया जा सकता है । ब्र म माला लेकर बैठे और आहुितयाँ िगनता रहे । जब परू ा हो जाय तो
आहुितयाँ समा त करा द। उस िदन बने हुए पकवान- िम ठा न आिद म से अलौने और मधरु पदाथर्
लेने चािहए। नमक- िमचर् िमले हुए शाक, अचार, रायते आिद को अिग्र म होमने का िनषेध है । इस मीठे
भोजन म से थोड़ा- थोड़ा भाग लेकर वे सभी लोग चढ़ाएँ िज ह ने नान िकया है और हवन म भाग
िलया है ।

अ त म एक नािरयल की भीतरी िगरी को लेकर उसम छे द करके सामग्री भरना चािहए और खड़े होकर
पूणार्हुित के प म उसे अिग्र म समिपर्त कर दे ना चािहए। यिद कुछ सामग्री बची हो तो वह भी सब
इसी समय चढ़ा दे नी चािहए। इसके प चात ् सब लोग खड़े होकर यज्ञ की चार पिरक्रमा कर और ‘इदं
न मम’ का पानी पर तैरता हुआ घत
ृ उँ गली से लेकर दोन हथेिलय म रगड़ते हुए पलक व
मख
ु म डल पर लगाएँ। हवन की बुझी हुई भ म लेकर सब लोग म तक पर लगाएँ। कीतर्न या भजन
गायन कर और प्रसाद िवतरण करके सब लोग प्रस नता और अिभवादनपव ू क
र् िवदा ह । यज्ञ की
सामग्री को दस
ू रे िदन िकसी पिवत्र थान म िवसिजर्त करना चािहए। यह गायत्री यज्ञ अनु ठान के
अ त म ही नहीं, अ य सम त शभ
ु कम म िकया जा सकता है ।

प्रयोजन के अनु प ही साधन भी जट


ु ाने पड़ते ह। लड़ाई के िलए युद्ध सामग्री जमा करनी पड़ती है और
िजस प्रकार का यापार हो, उसके िलए उसी तरह का सामान इकट्ठा करना होता है । भोजन बनाने वाला
रसोई स ब धी व तुएँ लाकर अपने पास रखता है और कलाकार को अपनी आव यक चीज जमा करनी
होती है । यायाम करने और द तर जाने की पोशाक म अ तर रहता है । िजस प्रकार की साधना करनी
होती है , उसी के अनु प, उ हीं त व वाली, उ हीं प्राण वाली, उ हीं गण
ु वाली सामग्री उपयोग म लानी
होती है । सबसे प्रथम यह दे खना चािहए िक हमारी साधना िकस उ े य के िलए है ? सत ्, रज, तम म से
िकस त व की विृ द्ध के िलए है ? िजस प्रकार की साधना हो, उसी प्रकार की साधना- सामग्री यव त
करनी चािहए। नीचे इस स ब ध म एक िववरण िदया जाता है — सतोगुण- माला- तुलसी। आसन- कुश।
पु प- वेत। पात्र- ताँबा। व त्र- सत
ू ी (खादी)। मख
ु - पूवर् को। दीपक म घत
ृ - गौ घत
ृ । ितलक- च दन। हवन
ू र। हवन सामग्री- वेत च दन, अगर, छोटी इलायची, ल ग, शंखपु पी, ब्रा मणी,
म सिमधा- पीपल, बड़, गल
शतावरी, खस, शीतलचीनी, आँवला, इ द्रजौ, वंशलोचन, जािवत्री, िगलोय, वच, नेत्रवाला, मल
ु हठी, कमल, केशर,
बड़ की जटाएँ, नािरयल, बादाम, दाख, जौ, िम ी। रजोगण
ु - माला- च दन। आसन- सत
ू । पु प- पीले। पात्र-
काँसा। व त्र- रे शम। मख
ु - उ तर को। दीपक म घत
ृ - भस का घत
ृ । ितलक- रोली। सिमधा- आम, ढाक,
शीशम। हवन सामग्री- दे वदा , बड़ी इलायची, केसर, छार- छबीला, पन
ु नर्वा, जीव ती, कचरू , तालीस पत्र,
रा ना, नागरमोथा, उ नाव, तालमखाना, मोचरस, स फ, िचत्रक, दालचीनी, पद्माख, छुआरा, िकशिमश, चावल,
खाँड़। तमोगण
ु - माला- द्राक्ष। आसन- ऊन। पु प- हरे या गहरे लाल। पात्र- लोहा। व त्र- ऊन। मख
ु -
पि चम को, दीपक म घत
ृ - बकरी का घत
ृ । ितलक- भ म का।

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सिमधा- बेल, छ कर, करील। सामग्री- रक्त च दन, तगर, असग ध, जायफल, कमलगट्टा, नागकेशर, पीपल
बड़ी, कुटकी, िचरायता, अपामागर्, काकड़ािसंगी, पोहकरमल
ू , कुल जन, मस
ू ली याह, मेथी के बीज, काकजंघा,
भारं गी, अकरकरा, िप ता, अखरोट, िचर जी, ितल, उड़द, गड़
ु । गण
ु के अनस
ु ार साधन- सामग्री उपयोग करने
से साधक म उ हीं गण
ु की अिभविृ द्ध होती है , तदनुसार सफलता का मागर् अिधक सग
ु म हो जाता है ।
नवदग
ु ार्ओं म गायत्री साधना य तो वषार्, शरद, िशिशर, हे म त, वस त, ग्री म- ये छ: ऋतुएँ होती ह और
मोटे तौर से सदीर्, गमीर्, वषार् ये तीन ऋतु मानी जाती ह, पर व तुत: दो ही ऋतु ह- (१) सदीर् (२) गमीर्।
वषार् तो दोन ऋतुओं म होती है । गिमर्य मे मेघ सावन- भाद मे बरसते ह, सिदर् य म पौष- माघ म
वषार् होती है । गिमर्य की वषार् म अिधक पानी पड़ता है , सिदर् य म कम। इतना अ तर होते हुए भी
दोन ही बार पानी पडऩे की आशा की जाती है । इन दो प्रधान ऋतुओं के िमलने की सि ध वेला को
नवदग
ु ार् कहते ह।

िदन और रात के िमलन काल को स याकाल कहते ह और उस मह वपूणर् स याकाल को बड़ी


सावधानी से िबताते ह। सय
ू दय और सय
ू ार् त के समय भोजन करना, सोते रहना, मैथन
ु करना, यात्रा
आर भ करना आिद िकतने ही कायर् विजर्त ह। उस समय को ई वराराधन, स याव दन, आ मसाधना
आिद काय म लगाते ह, क्य िक वह समय िजन काय के िलये सू म ि ट से अिधक उपयोगी है , वही
कायर् करने म थोड़े ही म से अिधक और आ चयर्जनक सहायता िमलती है । इसी प्रकार जो कायर्
विजर्त ह, वे उस समय म अ य समय की अपेक्षा हािनकारक होते ह। सदीर् और गमीर् की ऋतुओं का
िमलन िदन और राित्र के िमलन के समान स याकाल है , पु य पवर् है । परु ाण म कहा है िक ऋतए
ु ँ नौ
िदन के िलए ऋतम
ु यी, रज वला होती ह। जैसे रज वला को िवशेष आहार- िवहार और आचार- िवचार
आिद का यान रखना आव यक होता है , वैसे ही उस स याकाल की सि ध वेला म- रज वला अविध
म िवशेष ि थित म रहने की आव यकता होती है । आरोग्य शा त्र के पि डत जानते ह िक आि वन
और चैत्र म जो सू म ऋतु पिरवतर्न होता है , उसका प्रभाव शरीर पर िकतनी अिधक मात्रा म होता है ।

उस प्रभाव से वा य की दीवार िहल जाती ह और अनेक यिक्त वर, जड़


ू ी, है जा, द त, चेचक,
अवसाद आिद अनेक रोग से ग्र त हो जाते ह। वै य- डॉक्टर के दवाखान म उन िदन बीमार का
मेला लगा रहता है । वै य लोग जानते ह िक वमन, िवरे चन, न य, वेदन, वि त, रक्तमोक्षण आिद
शरीर- शोधन काय के िलये आि वन और चैत्र का महीना ही सबसे उपयुक्त है । इस समय म दशहरा
और रामनवमी जैसे दो प्रमख
ु योहार नवदग
ु ार्ओं के अ त म होते ह। ऐसे मह वपण
ू र् योहार के िलये
यही समय सबसे उपयक्ु त है । नवदग
ु ार्ओं के अ त म भगवती दग ु ार् प्रकट हुईं। चैत्र की नवदग
ु ार्ओं के
अ त म भगवान ् राम का अवतार हुआ। यह अमाव या- पण ू म
र् ासी की स या उषा जैसी ही है , िजनके
अ त म सय
ू र् या च द्रमा का उदय होता है । ऋतु पिरवतर्न का अवसर वैसे सामा य ि ट से तो
क टकारक, हािनप्रद जान पड़ता है । उस समय अिधकांश लोग को कुछ न कुछ शारीिरक क ट, कोई
छोटा- बड़ा रोग हो जाता है ; पर वा तव म बात उलटी होती है । उस समय शारीिरक जीवन शिक्त म

131
वर की सी अव था उ प न होती है और उसके प्रभाव से िपछले छ: मास म आहार- िवहार म जो
अिनयिमतताय हुई ह, हमने कुअ यास या वादवश जो अनिु चत और अितिरक्त सामग्री ग्रहण करके
दिू षत त व को बढ़ाया, वह शिक्त उनके िनराकरण का उ योग करने म लगती है ।

यही दोष िन कासन की प्रितिक्रया सामा य जड़


ू ी- बुखार, जक
ु ाम- खाँसी आिद के प म प्रकट होती है ।
यिद उपवास या व प आहार वारा शरीर को अपनी सफाई आप कर लेने का मौका द और जप-
उपासना वारा मानिसक क्षेत्र के मल- िवक्षेप को दरू करने का प्रय न कर, तो आगामी कई महीन के
िलये रोग से बचकर व थ जीवन िबताने के योग्य बन सकते ह। गायत्री का यह लघु अनु ठान इस
ि ट से परमोपयोगी है । क्वार और चैत्र मास के शुक्लपक्ष म प्रितपदा (पड़वा) से लेकर नवमी तक नौ
दग
ु ार्य रहती ह। यह समय गायत्री साधना के िलये सबसे अिधक उपयक्
ु त है । इन िदन म उपवास
रखकर चौबीस हजार म त्र के जप का छोटा- सा अनु ठान कर लेना चािहये। यह छोटी साधना भी बड़ी
के समान उपयोगी िसद्ध होती है । एक समय अ नाहार, एक समय फलाहार, दो समय दध
ू और फल, एक
समय आहार, एक समय फल- दध
ू का आहार, केवल दध
ू का आहार, इनम से जो भी उपवास अपनी
साम यर्नक
ु ू ल हो, उसी के अनस
ु ार साधना आर भ कर दे नी चािहये।

प्रात:काल ब्रा ममह


ु ू तर् म उठकर शौच, नान से िनव ृ त होकर पूवर् विणर्त िनयम को
यान म रखते हुए
बैठना चािहये। नौ िदन म २४ हजार जप करना है । प्रितिदन २६६७ म त्र जपने ह। एक माला म १०८
होते ह। प्रितिदन २७ मालाय जपने से यह संख्या पूरी हो जाती है । तीन- चार घ टे म अपनी गित के
अनुसार इतनी मालाय आसानी से जपी जा सकती ह। यिद एक बार म इतने समय लगातार जप
करना किठन हो, तो अिधकांश भाग प्रात:काल पूरा करके यून अंश सायंकाल को पूरा कर लेना
चािहये। अि तम िदन हवन के िलये है । उस िदन पूवर् विणर्त हवन के अनस
ु ार कम से कम १०८
आहुितय का हवन कर लेना चािहये। ब्रा मण भोजन और यज्ञ पूितर् की दान- दिक्षणा की भी यथािविध
यव था करनी चािहये। यिद छोटा नौ िदन का अनु ठान नवदगु ार्ओं के समय म प्रित वषर् करते रहा
जाए तो सबसे उ तम है । वयं न कर सक तो िकसी अिधकारी सप
ु ात्र ब्रा मण से वह करा लेना
चािहये। ये नौ िदन साधना के िलये बड़े ही उपयुक्त ह। क ट िनवारण, कामनापूितर् और आ मबल
बढ़ाने म इन िदन की उपासना बहुत ही लाभदायक िसद्ध होती है । पाठक आगामी नवदग
ु ार्ओं के समय
एक छोटा अनु ठान करके उसका लाभ दे ख।

नवदग
ु ार्ओं के अितिरक्त भी छोटा अनु ठान उसी प्रकार कभी भी िकया जा सकता है । सवा लक्ष का
जप चालीस िदन म होने वाला पूणर् अनु ठान है । नौ िदन का एक पाद (प चमांश) अनु ठान कहलाता
है । सिु वधा और आव यकतानुसार उसे भी करते रहना चािहये। यह तपोधन िजतनी अिधक मात्रा म
एकित्रत िकया जा सके, उतना ही उ तम है । छोटा गायत्री म त्र—जैसे सवा लक्ष जप का पूणर् अनु ठान
न कर सकने वाल के िलये नौ िदन का चौबीस हजार जप का लघु अनु ठान हो सकता है , उसी प्रकार
अ पिशिक्षत, अिशिक्षत बालक या ि त्रय के िलये लघु गायत्री म त्र भी है । जो २४ अक्षर का पूणर् म त्र
132
याद नहीं कर पाते, वे प्रणव और या ितयाँ ( ऊँ भभ
ू व
ुर् : व:) इतना प चाक्षरी म त्र का जप करके काम
चला सकते ह। जैसे चार वेद का बीज चौबीस अक्षर वाली गायत्री है , वैसे ही गायत्री का मल
ू प चाक्षरी
म त्र प्रणव और या ितयाँ ह। ऊँ भभ
ू व
ुर् : व: यह म त्र व प ज्ञान वाल की सिु वधा के िलये बड़ा
उपयोगी है ।

मिहलाओं के िलये िवशेष साधनाएँ


पु ष की भाँित ि त्रय को भी वेदमाता गायत्री की साधना का अिधकार है । गितहीन यव था को
गितशीलता म पिरणत करने के िलये दो िभ न जाित के पार पिरक आकषर्क करने वाले त व की
आव यकता होती है । ऋण (िनगेिटव) और धन (पोजेिटव) शिक्तय के पार पिरक आकषणर्- िवकषर्ण
वारा ही िव युत ् गित का स चार होता है । परमाणु के इलेक्ट्रोन और प्रोटोन भाग पार पिरक आदान-
प्रदान के कारण गितशील होते ह। शा वत चैत य को िक्रयाशील बनाने के िलये सजीव सिृ ट को नर
और मादा के दो प म बाँटा गया है , क्य िक ऐसा िवभाजन हुए िबना िव व िन चे ट अव था म ही
पड़ा रहता। ‘रिय’ और ‘प्राण’ शिक्त का सि मलन ही तो चैत य है । नर- त व और नारी- त व का
पार पिरक सि मलन न हो, तो चैत य, आन द, फुरणा, चेतना, गित, िक्रया, विृ द्ध आिद का लोप होकर
एक जड़ ि थित रह जाएगी।

नर- त व और नारी- त व एक- दस


ू रे के पूरक ह। एक के िबना दस
ू रा अपूणर् है । दोन का मह व,
उपयोग, अिधकार और थान समान है । वेदमाता गायत्री की साधना का अिधकार भी ि त्रय को पु ष
के समान ही है । जो यह कहते ह िक गायत्री वेदम त्र होने से उसका अिधकार ि त्रय को नहीं है , वे
भारी भल
ू करते ह। प्राचीन काल म ि त्रयाँ म त्रद्र ट्री रही ह। वेदम त्र का उनके वारा अवतरण हुआ
है । गायत्री वयं त्रीिलंग है , िफर उसके अिधकार न होने का कोई कारण नहीं। हाँ, जो ि त्रयाँ अिशिक्षत,
हीनमित, अपिवत्र ह, वे वयमेव प्रविृ त नहीं रखतीं, न मह व समझती ह, इसिलये वे अपनी िनज की
मानिसक अव था से ही अिधकार- वि चत होती ह।

ि त्रयाँ भी पु ष की भाँित गायत्री- साधनाएँ कर सकती ह। जो साधनाएँ इस पु तक म दी गयी ह, वे


सभी उनके अिधकार क्षेत्र म ह। पर तु दे खा गया है िक सधवा ि त्रयाँ िज ह घर के काम म िवशेष
प से य त रहना पड़ता है अथवा िजनके छोटे - छोटे ब चे ह और वे उनके मल- मत्र
ू के अिधक
स पकर् म रहने के कारण उतनी व छता नहीं रख सकतीं, उनके िलये दे र म पूरी हो सकने वाली
साधनाएँ किठन ह। वे संिक्ष त प चाक्षरी गायत्री म त्र ( ऊँ भभ
ू व
ुर् : व:) से काम चला सकती ह।
रज वला होने के िदन म उ ह िविधपूवक
र् साधना ब द रखनी चािहए। कोई अनु ठान चल रहा हो, तो
इन िदन म रोककर रज- नान के प चात ् उसे िफर चालू िकया जा सकता है ।

िन स तान मिहलाएँ गायत्री साधना को पु ष की भाँित ही सिु वधापव


ू क
र् कर सकती ह। अिववािहत या

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िवधवा दे िवय के िलये तो वैसी ही सिु वधाएँ ह जैसी िक पु ष को। िजनके ब चे बड़े हो गये ह, गोदी
म कोई छोटा बालक नहीं है या जो वयोवद्ध
ृ ह, उ ह भी कुछ असिु वधा नहीं हो सकती। साधारण दै िनक
साधना म कोई िवशेष िनयमोपिनयम पालन करने की आव यकता नहीं है । दा प य जीवन के साधारण
धमर्- पालन करने म उसम कोई बाधा नहीं। यिद कोई िवशेष साधना या अनु ठान करना हो, तो उतनी
अविध के िलये ब्र मचयर् पालन करना आव यक होता है ।

िविवध प्रयोजन के िलये कुछ साधनाय नीचे दी जाती ह —

मनोिनग्रह और ब्र म- प्राि त के िलये


िवधवा बिहन आ मसंयम, सदाचार, िववेक, ब्र मचयर् पालन, इि द्रय िनग्रह एवं मन को वश म करने के
िलये गायत्री साधना का ब्र मा त्र के प म प्रयोग कर सकती ह। िजस िदन से यह साधना आर भ
की जाती है , उसी िदन से मन म शाि त, ि थरता, स बुिद्ध और आ मसंयम की भावना पैदा होती है ।
मन पर अपना अिधकार होता है , िच त की च चलता न ट होती है , िवचार म सतोगुण बढ़ जाता है ।
इ छाय, िचयाँ, िक्रयाय, भावनाय सभी सतोगण
ु ी, शुद्ध और पिवत्र रहने लगती ह। ई वर प्राि त, धमर्रक्षा,
तप चयार्, आ मक याण और ई वर आराधना म मन िवशेष प से लगता है । धीरे - धीरे उसकी सा वी,
तपि वनी, ई वरपरायण एवं ब्र मवािदनी जैसी ि थित हो जाती है । गायत्री के वेश म उसे भगवान ् का
साक्षा कार होने लगता है और ऐसी आ मशाि त िमलती है , िजसकी तुलना म सधवा रहने का सख
ु उसे
िनता त तु छ िदखाई पड़ता है ।

प्रात:काल ऐसे जल से नान करे जो शरीर को स य हो। अित शीतल या अित उ ण जल नान के
िलये अनप
ु यक्
ु त है । वैसे तो सभी के िलये, पर ि त्रय के िलये िवशेष प से अस य तापमान का जल
नान के िलये हािनकारक है । नान के उपरा त गायत्री साधना के िलये बैठना चािहये। पास म जल
भरा हुआ पात्र रहे । जप के िलये तल ु सी की माला और िबछाने के िलये कुशासन ठीक है । वष ृ भा ढ़,
वेत व त्रधारी, चतुभज
ुर् ी, प्र येक हाथ म- माला, कम डल, पु तक और कमल पु प िलये हुए प्रस न मख ु
प्रौढ़ाव था गायत्री का यान करना चािहये। यान स गण ु की विृ द्ध के िलये, मनोिनग्रह के िलये बड़ा
लाभदायक है । मन को बार- बार इस यान म लगाना चािहये और मख
ु से जप इस प्रकार करते जाना
चािहये िक क ठ से कुछ विन हो, ह ठ िहलते रह, पर तु म त्र को िनकट बैठा हुआ मनु य भी भली
प्रकार सन
ु न सके। प्रात: और सायं दोन समय इस प्रकार का जप िकया जा सकता है । एक माला तो
कम से कम जप करना चािहये। सिु वधानुसार अिधक संख्या म भी जप करना चािहये। तप चयार्
प्रकरण म िलखी हुई तप चयार्एँ साथ म की जाय तो और भी उ तम है । िकस प्रकार के वा य और
वातावरण म कौन- सी तप चयार् ठीक रहे गी, इस स ब ध म शाि तकु ज, हिर वार से सलाह ली जा
सकती है ।

कुमािरय के िलये आशाप्रद भिव य की साधना

134
कुमारी क याएँ अपने िववािहत जीवन म सब प्रकार के सख
ु शाि त की प्राि त के िलये भगवती की
उपासना कर सकती ह। पावर्ती जी ने मनचाहा वर पाने के िलये नारद जी के आदे शानुसार तप िकया
था और वे अ त म सफल मनोरथ हुई थीं। सीता जी ने मनोवाँिछत पित पाने के िलये गौरी (पावर्ती)
की उपासना की थी। नवदग
ु ार्ओं म आि तक घरान की क याय भगवती की आराधना करती ह। गायत्री
की उपासना उनके िलये सब प्रकार मंगलमयी है ।

गायत्री के िचत्र अथवा मिू तर् को िकसी छोटे आसन या चौकी पर थािपत करके उनकी पज
ू ा वैसे ही
करनी चािहये, जैसे अ य दे व- प्रितमाओं की होती है । प्रितमा के आगे एक छोटी त वीर रख लेनी
चािहये और उसी पर च दन, धूप, दीप, नैवे य, पु प, जल, भोग आिद पूजा सामग्री चढ़ानी चािहये। मिू तर्
के म तक पर च दन लगाया जा सकता है , पर यिद िचत्र है तो उसम च दन आिद नहीं लगाना
चािहए, िजससे उसम मैलापन न आए। नेत्र ब द करके यान करना चािहये और मन ही मन कम से
कम २४ म त्र गायत्री के जपने चािहये। गायत्री का िचत्र या मिू तर् अपने यहाँ प्रा त न हो सके, तो
‘गायत्री तपोभिू म मथुरा’ अथवा ‘शाि तकु ज, हिर वार’ से मँगवा लेनी चािहए। इस प्रकार की गायत्री
साधना क याओं को उनके िलये अनुकूल वर, अ छा घर तथा सौभाग्य प्रदान करने म सहायक होती है ।

सधवाओं के िलये मंगलमयी साधना

अपने पितय को सख
ु ी, समद्ध
ृ , व थ, स प न, प्रस न, दीघर्जीवी बनाने के िलए सधवा ि त्रय को गायत्री
की शरण लेनी चािहये। इससे पितय के िबगड़े हुए वभाव, िवचार और आचरण शुद्ध होकर इनम ऐसी
साि वक बुिद्ध आती है िक वे अपने गह
ृ थ जीवन के क तर् य- धम को त परता एवं प्रस नतापूवक
र्
पालन कर सक। इस साधना से ि त्रय के वा य तथा वभाव म एक ऐसा आकषर्ण पैदा होता है ,
िजससे वे सभी को परमिप्रय लगती ह और उनका समिु चत स कार होता है । अपना िबगड़ा हुआ
वा य, घर के अ य लोग का िबगड़ा हुआ वा य, आिथर्क तंगी, दिरद्रता, बढ़ा हुआ खचर्, आमदनी
की कमी, पािरवािरक क्लेश, मनमट
ु ाव, आपसी राग- वेष एवं बुरे िदन के उपद्रव को शा त करने के
िलये मिहलाओं को गायत्री उपासना करनी चािहये। िपता के कुल एवं पित के कुल दोन ही कुल के
िलये यह साधना उपयोगी है , पर सधवाओं की उपासना िवशेष प से पितकुल के िलये ही लाभदायक
होती है ।

प्रात:काल से लेकर म या नकाल तक उपासना कर लेनी चािहये। जब तक साधना न की जाए, भोजन


नहीं करना चािहये। हाँ, जल िपया जा सकता है । शुद्ध शरीर, मन और शद्ध
ु व त्र से पूवर् की ओर मँह

करके बैठना चािहये। केशर डालकर च दन अपने हाथ से िघस और म तक, दय तथा क ठ पर
ितलक छापे के प मे लगाय। ितलक छोटे से छोटा भी लगाया जा सकता है । गायत्री की मिू तर् अथवा
िचत्र की थापना करके उनकी िविधवत ् पूजा कर। पीले रं ग का पूजा के सब काय म प्रयोग कर।

135
प्रितमा का आवरण पीले व त्र का रख। पीले पु प, पीले चावल, बेसन के ल डू आिद पीले पदाथर् का
भोग, केशर िमले च दन का ितलक, आरती के िलए पीला गो- घत
ृ , गो- घत
ृ न िमले तो उपल ध शद्ध

घत
ृ म केशर िमलाकर पीला कर लेना, च दन का चरू ा, धप
ू । इस प्रकार पज
ू ा म पीले रं ग का अिधक से
अिधक प्रयोग करना चािहये। नेत्र ब द करके पीतवणर् आकाश म पीले िसंह पर सवार पीतव त्र पहने
गायत्री का यान करना चािहये ।। पज
ू ा के समय सब व त्र पीले न हो सक, तो कम से कम एक व त्र
पीला अव य होना चािहये। इस प्रकार पीतवणर् गायत्री का
यान करते हुए कम से कम २४ म त्र
गायत्री के जपने चािहए। जब अवसर िमले, तभी मन ही मन भगवती का यान करती रह। महीने की
हर एक पूणम
र् ासी को त रखना चािहये। अपने िन य आहार म एक चीज पीले रं ग की अव य ल।
शरीर पर कभी- कभी ह दी का उबटन कर लेना अ छा है । यह पीतवणर् साधना दा प य जीवन को
सख
ु ी बनाने के िलये परम उ तम है ।

स तान सख
ु दे ने वाली उपासना

िजनकी स तान बीमार रहती है , अ प आयु म ही मर जाती ह, केवल पुत्र या क याय ही होती ह,
गभर्पात हो जाते ह, गभर् थािपत ही नहीं होता, ब यादोष लगा हुआ है अथवा स तान दीघर्सत्र ू ी,
आलसी, म दबुिद्ध, दग
ु ण
ुर् ी, आज्ञा उ लंघनकारी, कटुभाषी या कुमागर्गामी है , वे वेदमाता गायत्री की शरण
म जाकर इन क ट से छुटकारा पा सकती ह। हमारे सामने ऐसे सैकड़ उदाहरण ह, िजन ि त्रय ने
वेदमाता गायत्री के चरण म अपना आँचल फैलाकर स तान- सख
ु माँगा है , उ ह भगवती ने
प्रस नतापूवक
र् िदया है । माता के भ डार म िकसी व तु की कमी नहीं है । उनकी कृपा को पाकर मनु य
दल
ु भ
र् से दल
ु भ
र् व तु प्रा त कर सकता है । कोई व तु ऐसी नहीं, जो माता की कृपा से प्रा त न हो
सकती हो, िफर स तान- सख
ु जैसी साधारण बात की उपलि ध म कोई बड़ी अड़चन नहीं हो सकती।

जो मिहलाय गभर्वती ह, वे प्रात: सय


ू दय से पव
ू र् या राित्र को सय
ू र् अ त के प चात ् अपने गभर् म गायत्री
ू र् स श प्रच ड तेज का
के सय यान िकया कर और मन ही मन गायत्री जप, तो उनका बालक तेज वी,
बुिद्धमान ्, चतुर, दीघर्जीवी तथा तप वी होता है ।

प्रात:काल किट प्रदे श म भीगे व त्र रखकर शा त िच त से यानावि थत होना चािहये और अपने योिन
मागर् म होकर गभार्शय तक पहुँचता हुआ गायत्री का प्रकाश सयू र् िकरण जैसा यान करना चािहये।
नेत्र ब द रह। यह साधना शीघ्र गभर् थािपत करने वाली है । कु ती ने इस साधना के बल से गायत्री
के दिक्षण भाग (सय
ू र् भगवान ्) को आकिषर्त करके कुमारी अव था म ही कणर् को ज म िदया था। यह
साधना कुमारी क याओं को नहीं करनी चािहये।
साधना से उठकर सय ू र् को जल चढ़ाना चािहये और अघ्र्य से बचा हुआ एक चु लू जल वयं पीना
चािहये। इस प्रयोग से ब याय गभर् धारण करती ह, िजनके ब चे मर जाते ह या गभर्पात हो जाता है ,
उनका यह क ट िमटकर स तोषदायी स तान उ प न होती है ।

136
रोगी, कुबुिद्ध, आलसी, िचड़िचड़े बालक को गोद म लेकर माताय हं सवािहनी, गल
ु ाबी कमल पु प से लदी
हुई, शंख, चक्र हाथ म िलये गायत्री का यान कर और मन ही मन जप कर। माता के जप का प्रभाव
गोदी म िलये बालक पर होता है और उसके शरीर तथा मि त क म आ चयर्जनक प्रभाव होता है ।
छोटा ब चा हो तो इस साधना के समय माता दध
ू िपलाती रहे , बड़ा ब चा हो तो उसके शरीर पर हाथ
िफराती रहे । ब च की शुभकामना के िलये गु वार का त उपयोगी है । साधना से उठकर जल का
अघ्र्य सय
ू र् को चढ़ाएँ और पीछे बचा हुआ थोड़ा- सा जल ब च पर माजर्न की तरह िछडक़ द।

िकसी िवशेष आव यकता के िलए

अपने पिरवार पर, पिरजन पर, िप्रयजन पर आयी हुई िकसी आपि त के िनवारण के िलये अथवा िकसी
आव यक कायर् म आई हुई िकसी बड़ी कावट एवं किठनाई को हटाने के िलये गायत्री साधना के
समान दै वी सहायता के मा यम किठनाई से िमलगे। कोई िवशेष कामना मन म हो और उसके पूणर्
होने म भारी बाधाय िदखाई पड़ रही ह , तो स चे दय से वेदमाता गायत्री को पुकारना चािहये। माता
जैसे अपने िप्रय बालक की पुकार सुनकर दौड़ी आती है , वैसे ही गायत्री की उपािसकाएँ भी माता की
अिमत क णा का प्र यक्ष पिरचय प्रा त करती ह।
नौ िदन का लघु अनु ठान, चालीस िदन का पूणर् अनु ठान इसी पु तक म अ यत्र विणर्त है । त कालीन
आव यकता के िलये उनका उपयोग करना चािहये। तप चयार् प्रकरण म िलखी हुई तप चयार्एँ भगवती
को प्रस न करने के िलये प्राय: सफल होती ह। एक वषर् का ‘गायत्री उ यापन’ सब कामनाओं को पण
ू र्
करने वाला है , उसका उ लेख आगे िकया जायेगा। जैसे पु ष के िलये गायत्री अनु ठान एक सवर्प्रधान
साधन है , उसी प्रकार मिहलाओं के िलये गायत्री उ यापन की िवशेष मिहमा है । उसे आर भ कर दे ने म
िवशेष किठनाई भी नहीं है और िवशेष प्रितब ध भी नहीं ह। सरलता की ि ट से यह ि त्रय के िलये
िवशेष उपयोगी है । माता को प्रस न करने के िलये उ यापन की पु पमाला उसका एक परमिप्रय उपहार
है ।

िन य की साधना म गायत्री चालीसा का पाठ मिहलाओं के िलये बड़ा िहतकारी है । जनेऊ की जगह पर
क ठी गले म धारण करके मिहलाय िवज व प्रा त कर लेती ह और गायत्री अिधकािरणी बन जाती ह।
साधना आर भ करने से पूवर् उ कीलन कर लेना चािहए। इसी पु तक के िपछले प ृ ठ म गायत्री
उ कीलन के स ब ध म सिव तार बताया गया है ।

एक वषर् की उ यापन साधना


कई यिक्तय का जीवन- क्रम बड़ा अ त- य त होता है , वे सदा कायर् म य त रहते ह। यावहािरक
जीवन की किठनाइयाँ उ ह चैन नहीं लेने दे तीं। जीिवका कमाने म, सामािजक यवहार को िनभाने म,
पािरवािरक उ तरदािय व को पूरा करने म, उलझी हुई पिरि थितय को सल
ु झाने म, किठनाइय के
137
िनवारण की िच ता म उनके समय और शिक्त का इतना यय हो जाता है िक जब फुरसत िमलने की
घड़ी आती है , तब वे अपने को थका- माँदा, शिक्तहीन, िशिथल और पिर म के भार से चकनाचरू पाते
ह। उस समय उनकी एक ही इ छा होती है िक उ ह चप
ु चाप पड़े रहने िदया जाए, कोई उ ह छे ड़े नहीं,
तािक वे सु ताकर अपनी थकान उतार सक। कई यिक्तय का शरीर एवं मि त क अ प शिक्त वाला
होता है , मामूली दै िनक काय के म म ही वे अपनी शिक्त खचर् कर दे ते ह, िफर उनके हाथ- पैर
िशिथल पड़ जाते ह।

साधारणत: सभी आ याि मक साधनाओं के िलए और िवशेषकर गायत्री साधना के िलए उ सािहत मन
एवं शिक्त स प न शरीर की आव यकता होती है तािक ि थरता, ढ़ता, एकाग्रता और शाि त के साथ
मन साधना म लग सके। इस ि थित म की गई साधनाय सफल होती ह। पर तु िकतने लोग ह, जो
ऐसी ि थित को उपल ध कर पाते ह? अि थर, अ यवि थत िच त िकसी प्रकार साधना म जट
ु जाये तो
भी उसम वैसा पिरणाम नहीं िनकल पाता जैसा िक िनकलना चािहए। अधूरे मन से की गयी उपासना
भी अधरू ी होती है और उसका फल भी वैसा ही अधरू ा िमलता है ।

ऐसे त्री- पु ष के िलये एक अित सरल एवं बहुत मह वपण


ू र् साधना ‘गायत्री- उ यापन’ है । इसे
बहुध धी, कामकाजी और कायर् य त यिक्त भी कर सकते ह। कहते ह िक बँद ू - बँद बँद
ू जोडऩे से धीरे -
धीरे घड़ा भर जाता है । थोड़ी- थोड़ी आराधना करने से कुछ समय म एक बड़े पिरमाण म साधना-
शिक्त जमा हो जाती है ।

प्रितमास अमाव या और पण
ू म
र् ासी दो िदन उ यापन की साधना करनी पड़ती है । िकसी मास की
पिू णर्मा से उसे आर भ िकया जा सकता है । ठीक एक वषर् बाद उसी पण
ू म
र् ासी को उसकी समाि त
करनी चािहये। प्रित अमाव या और पण
ू म
र् ासी को िनम्र कायर्क्रम होना चािहये और इन िनयम का
पालन करना चािहये।

(१) गायत्री उ यापन के िलये कोई सय


ु ोग्य, सदाचारी, गायत्री िव या का ज्ञाता ब्रा मण वरण करके उसे
ु त करना चािहये।
ब्र मणा िनयक्

१ नोट—यह मयार्दा प्रार भ म बताई गई थी। बाद म यग


ु ऋिष के प्रतीक- िचत्र को ही ‘ब्र म के प म
थािपत करके दिक्षणा की रािश लोक मङ्गल के काय के िलए समिपर्त करने से प्रयोजन की पूितर् हो
जाती है ।

(२) ब्र म को उ यापन आर भ करते समय अ न, व त्र, पात्र और यथा स भव दिक्षणा दे कर इस यज्ञ
के िलये वरण करना चािहये।

(३) प्र येक अमाव या व पूणम


र् ासी को साधक की तरह ब्र म भी अपने िनवास थान पर रहकर

138
यजमान की सहयता के िलये उसी प्रकार की साधना करे ।

यजमान और ब्र म को एक समान िनयम का पालन करना चािहये, िजससे उभयपक्षीय साधनाय
िमलकर एक सवार्ंगपूणर् साधना प्र तत
ु हो।

(४) उस िदन ब्र मचयर् से रहना आव यक है ।

(५) उस िदन उपवास रख। अपनी ि थित और वा य को


यान म रखते हुए एक बार एक अ न का
आहार, फलाहार, दग्ु धाहार या इनके िम ण के आधार पर उपवास िकया जा सकता है । तप चयार् एवं
ृ बात िलखी जा चुकी ह।
प्रायि च त प्रकरण म इस स ब ध म िव तत

(६) तप चयार् प्रकरण म बतायी हुई तप चयार्ओं म से जो अ य िनयम, त पालन िकये जा सक, उनका
यथा स भव पालन करना चािहये। उस िदन पु ष को हजामत बनाना, ि त्रय को सस ु ि जत चोटी
गथ
ू ना विजर्त है ।

(७) उस िदन प्रात:काल िन यकमर् से िनव ृ त होकर व छतापूवक


र् साधना के िलये बैठना चािहये।
गायत्री स या करने के उपरा त गायत्री की प्रितमा (िचत्र या मिू तर्) का पूजन धूप, दीप, अक्षत, पु प,
च दन, रोली, जल, िम ठा न से कर। तदप
ु रा त यजमान इस उ यापन के ब्र म का यान करके मन ही
मन उसे प्रणाम करे और ब्र म यजमान का यान करते हुए आशीवार्द दे । इसके प चात ् गायत्री म त्र
का जप आर भ करे । जप के समय गायत्री माता का यान करता रहे । गायत्री म त्र का दस माला जप
करे । िमट्टी के एक पात्र म अिग्र रखकर उसम घी म िमली हुई धूप डालता रहे , िजससे यज्ञ जैसी
सग
ु ध उड़ती रहे , साथ ही घी का दीपक भी जलता रहे ।

(८) जप पूरा होने पर कपूर या घत


ृ की ब ती जलाकर आरती करे । आरती के उपरा त भगवती को
िम ठा न का भोग लगाएँ और उसे प्रसाद की तरह समीपवतीर् लोग म बाँट द।

ू र् के स मख
(९) पात्र के जल को सय ु अघ्र्य प से चढ़ा द।

(१०) यह सब कृ य लगभग दो घ टे म पूरा हो जाता है । प द्रह िदन बाद इतना समय िनकाल लेना
कुछ किठन बात नहीं है । जो अिधक कायर् य त यिक्त ह, वे दो घ टे तडक़े उठकर सय
ु दय तक
अपना कायर् समा त कर सकते ह। स या को यिद समय िमल सके, तो थोड़ा- बहुत उस समय भी
साधारण रीित से कर लेना चािहये। स या पूजन आिद की आव यकता नहीं। प्रात: और सायं का एक
समय पूविर् नि चत होना चािहए, िजस पर यजमान और ब्र म साथ- साथ साधना कर सक।

(११) यिद िकसी बार बीमारी, सत


ू क, आकि मक कायर् आिद के कारण साधना न हो सके, तो दस
ू री बार
ू ा करके क्षितपिू तर् कर लेनी चािहये या यजमान का कायर् ब्र म एवं ब्र म का कायर् यजमान परू ा कर
दन
139
दे ।

(१२) अमाव या, पूणम


र् ासी के अितिरक्त भी गायत्री जप चालू रखना चािहये। अिधक न बन पड़े तो
नान के उपरा त या नान करते समय कम से कम ४ म त्र मन ही मन अव य जप लेना चािहये।

(१३) उ यापन पूरा होने पर उसी पण


ू म
र् ासी को गायत्री पज
ू न, हवन, जप तथा ब्रा मण भोजन कराना
चािहये। ब्रा मण को गायत्री स ब धी छोटी या बड़ी पु तक तथा और जो बन पड़े दिक्षणा म दे ना
चािहये। गायत्री पज ु ार सोना, चाँदी या ताँबे की गायत्री प्रितमा बनवानी
ू न के िलए अपनी साम यार्नस
चािहये। प्रितमा, व त्र, पात्र तथा दिक्षणा दे कर ब्र म की िवदाई करनी चािहये।

यह ‘गायत्री उ यापन’ वा य, धन, स तान तथा सख


ु - शाि त की रक्षा करने वाला है । आपि तय का
िनवारण करता है , शत्रत
ु ा तथा वेष को िमटाता है , स बुिद्ध तथा िववेकशीलता उ प न करता है एवं
मानिसक शिक्तय को बढ़ाता है । िकसी अिभलाषा को पूणर् करने के िलये, गायत्री की कृपा प्रा त करने
के िलये यह एक उ तम तप है , िजससे भगवती प्रस न होकर साधक का मनोरथ पूरा करती ह। यिद
कोई सफलता िमले, अभी ट कामना की पूितर् हो, प्रस नता का अवसर आए, तो उसकी खुशी म भगवती
के प्रित कृतज्ञता प्रकट करने के प म उ यापन करते रहना चािहये। गीता म भगवान ् ने कहा है —

दे वान ् भावयतानेन ते दे वा भावय तु व:।


पर परं भावय त: ेय: परमवा यथ॥ — अ० ३/११
‘‘इस यज्ञ वारा तुम दे वताओं की आराधना करो, वे दे वता तु हारी रक्षा करगे। इस प्रकार आपस म
आदान- प्रदान करने से परम क याण की प्राि त होगी।’’

गायत्री साधना से अनेक प्रयोजन की िसिद्ध


गायत्री म त्र सव पिर म त्र है । इससे बड़ा और कोई म त्र नहीं। जो काम संसार के िकसी अ य म त्र
से नहीं हो सकता, वह िनि चत प से गायत्री वारा हो सकता है । दिक्षणमागीर् योग साधक वेदोक्त
पद्धित से िजन काय के िलये अ य िकसी म त्र से सफलता प्रा त करते ह, वे सब प्रयोजन गायत्री से
पूरे हो सकते ह। इसी प्रकार वाममागीर् ताि त्रक जो कायर् त त्र प्रणाली से िकसी म त्र के आधार पर
करते ह, वह भी गायत्री वारा िकये जा सकते ह। यह एक प्रच ड शिक्त है , िजसे िजधर भी लगा िदया
जायेगा, उधर ही चम कारी सफलता िमलेगी।

का य कम के िलये, सकाम प्रयोजन के िलये अनु ठान करना आव यक होता है । सवालक्ष का पूणर्
अनु ठान, चौबीस हजार का आंिशक अनु ठान अपनी- अपनी मयार्दा के अनुसार फल दे ते ह। ‘िजतना
गड़
ु डालो उतना मीठा’ वाली कहावत इस क्षेत्र म भी चिरताथर् होती है । साधना और तप चयार् वारा जो
आ मबल संग्रह िकया गया है , उसे िजस काम म भी खचर् िकया जायेगा, उसका प्रितफल अव य

140
िमलेगा। ब दक
ू उतनी ही उपयोगी िसद्ध होगी, िजतनी बिढय़ा और िजतने अिधक कारतस
ू ह गे। गायत्री
की प्रयोग िविध एक प्रकार की आ याि मक ब दक
ू है । तप चयार् या साधनावारा संग्रह की हुई
आि मक शिक्त कारतस
ू की पेटी है । दोन के िमलने से ही िनशाना साधकर िशकार को मार िगराया
जा सकता है । कोई यिक्त प्रयोग िविध जानता हो, पर उसके पास साधन- बल न हो, तो ऐसा ही
पिरणाम होगा जैसा खाली ब दक
ू का घोड़ा बार- बार चटकाकर कोई यह आशा करे िक अचूक िनशाना
लगेगा। इसी प्रकार िजनके पास तपोबल है , पर उसका का य प्रयोजन के िलये िविधवत ् प्रयोग करना
नहीं जानते, वैसे ह जैसे कोई कारतूस की पोटली बाँधे िफरे और उ ह हाथ से फक- फककर शत्रुओं की
सेना का संहार करना चाहे । यह उपहासा पद तरीके ह।

आ मबल स चय करने के िलये िजतनी अिधक साधनाय की जाएँ, उतना ही अ छा है । पाँच प्रकार के
साधक गायत्री िसद्ध समझे जाते ह- (१) लगातार बारह वषर् तक प्रितिदन कम से कम एक माला िन य
जप िकया हो। (२) गायत्री की ब्र मस या को नौ वषर् िकया हो, (३) ब्र मचयर्पूवक
र् पाँच वषर् तक
प्रितिदन एक हजार म त्र जपे ह , (४) चौबीस लक्ष गायत्री का अनु ठान िकया हो, (५) पाँच वषर् तक
िवशेष गायत्री जप िकया हो। जो यिक्त इन साधनाओं म कम से कम एक या एक से अिधक का तप
परू ा कर चक
ु े ह , वे गायत्री म त्र का का य कमर् म प्रयोग करके सफलता प्रा त कर सकते ह। चौबीस
हजार वाले अनु ठान की पँूजी िजनके पास है , वे भी अपनी- अपनी पँज
ू ी के अनस
ु ार एक सीमा तक
सफल हो सकते ह।
नीचे कुछ खास- खास प्रयोजन के िलये गायत्री प्रयोग की िविधयाँ दी जाती ह—

रोग िनवारण—

वयं रोगी होने पर िजस ि थित म भी रहना पड़े, उसी म मन ही मन गायत्री का जप करना चािहये।
एक म त्र समा त होने और दस
ू रा आर भ होने के बीच म एक ‘बीज म त्र’ का स पट
ु भी लगाते
चलना चािहये। सदीर् प्रधान (कफ) रोग म ‘एं’ बीज म त्र, गमीर् प्रधान िप त रोग म ‘ऐं’, अपच एवं िवष
तथा वात रोग म ‘हूं’ बीज म त्र का प्रयोग करना चािहये। नीरोग होने के िलये वष
ृ भवािहनी हिरतव त्रा
गायत्री का यान करना चािहये।

दस
ू र को नीरोग करने के िलये भी इ हीं बीज म त्र का और इसी यान का प्रयोग करना चािहये।
रोगी के पीिडत
़ अंग पर उपयक्
ुर् त यान और जप करते हुए हाथ फेरना, जल अिभमि त्रत करके रोगी
ु सी पत्र और कालीिमचर् गंगाजल म
पर माजर्न दे ना एवं िछडक़ना चािहये। इ हीं पिरि थितय म तल
पीसकर दवा के प म दे ना, यह सब उपचार ऐसे ह, जो िकसी भी रोग के रोगी को िदये जाएँ, उसे लाभ
पहुँचाये िबना न रहगे।

िवष िनवारण—

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सपर्, िब छू, बरर् , ततैया, मधम
ु क्खी और जहरीले जीव के काट लेने पर बड़ी पीड़ा होती है । साथ ही शरीर
म िवष फैलने से म ृ यु हो जाने की स भावना रहती है । इस प्रकार की घटनाय घिटत होने पर गायत्री
शिक्त वारा उपचार िकया जा सकता है ।

पीपल वक्ष
ृ की सिमधाओं से िविधवत ् हवन करके उसकी भ म को सुरिक्षत रख लेना चािहये। अपनी
नािसका का जो वर चल रहा है , उसी हाथ पर थोड़ी- सी भ म रखकर दस
ू रे हाथ से उसे अिभमि त्रत
करता चले और बीच म ‘हूं’ बीजम त्र का स पुट लगावे तथा रक्तवणर् अ वा ढ़ा गायत्री का यान
करता हुआ उस भ म को िवषैले कीड़े के काटे हुए थान पर दो- चार िमनट मसले। पीड़ा म जाद ू के
समान आराम होता है ।

सपर् के काटे हुए थान पर रक्त च दन से िकये हुए हवन की भ म मलनी चािहये और अिभमि त्रत
करके घत ृ िपलाना चािहये। पीली सरस अिभमि त्रत करके उसे पीसकर दश इि द्रय के वार पर
थोड़ा- थोड़ा लगा दे ना चािहये। ऐसा करने से सपर्- िवष दरू हो जाता है ।

बुिद्ध- विृ द्ध—

गायत्री म त्र प्रधानत: बुिद्ध को शुद्ध, प्रखर और समु नत करने वाला म त्र है । म द बुिद्ध, मरण शिक्त
की कमी वाले लोग इससे िवशेष प से लाभ उठा सकते ह। जो बालक अनु तीणर् हो जाते ह, पाठ ठीक
प्रकार याद नहीं कर पाते, उनके िलये िन न उपासना बहुत उपयोगी है ।
सय ू दय के समय की प्रथम िकरण पानी से भीगे हुए म तक पर लगने द। पूवर् की ओर मख
ु करके
अधखुले नेत्र से सय
ू र् का दशर्न करते हुए आर भ म तीन बार ऊँ का उ चारण करते हुए गायत्री का
जप कर। कम से कम एक माला (१०८ म त्र)अव य जपना चािहये। पीछे हाथ की हथेली का भाग सय ू र्
की ओर इस प्रकार कर मानो आग पर ताप रहे ह। इस ि थित म बारह म त्र जपकर हथेिलय को
ु , नेत्र, नािसका, ग्रीवा, कणर्, म तक आिद सम त
आपस म रगडऩा चािहये और उन उ ण हाथ को मख
िशरोभाग पर िफराना चािहये।

राजकीय सफलता—

िकसी सरकारी कायर्, मक


ु दमा, रा य वीकृित, िनयुिक्त आिद म सफलता प्रा त करने के िलये गायत्री
का उपयोग िकया जा सकता है । िजस समय अिधकारी के स मख
ु उपि थत होना हो अथवा कोई
आवेदन पत्र िलखना हो, उस समय यह दे खना चािहये िक कौन- सा वर चल रहा है । यिद दािहना वर
चल रहा हो, तो पीतवणर् योित का मि त क म यान करना चािहये और यिद बायाँ वर चल रहा हो,
तो हरे रं ग के प्रकाश का यान करना चािहये। म त्र म स त या ितयाँ (ऊँ भ:ू भव
ु : व: मह: जन: तप:
स यम ्) लगाते हुए बारह म त्र का मन ही मन जप करना चािहये। ि ट उस हाथ के अँगूठे के नाखून
पर रखनी चािहये, िजसका वर चल रहा हो। भगवती की मानिसक आराधना, प्राथर्ना करते हुए
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राज वार म प्रवेश करने से सफलता िमलती है ।

दिरद्रता का नाश—

दिरद्रता, हािन, ऋण, बेकारी, साधनहीनता, व तओ


ु ं का अभाव, कम आमदनी, बढ़ा हुआ खचर्, कोई का हुआ
आव यक कायर् आिद की यथर् िच ता से मिु क्त िदलाने म गायत्री साधना बड़ी सहायक िसद्ध होती है ।
उससे ऐसी मनोभिू म तैयार हो जाती है , जो वतर्मान अथर्- चक्र से िनकालकर साधक को स तोषजनक
ि थित पर पहुँचा दे ।

दिरद्रता नाश के िलये गायत्री की ‘ ीं’ शिक्त की उपासना करनी चािहये। म त्र के अ त म तीन बार
‘ ीं’ बीज का स पुट लगाना चािहये। साधना काल के िलये पीत व त्र, पीले पु प, पीला यज्ञोपवीत, पीला
ितलक, पीला आसन प्रयोग करना चािहये और रिववार को उपवास करना चािहये। शरीर पर शुक्रवार को
ह दी िमले हुए तेल की मािलश करनी चािहये। पीता बरधारी, हाथी पर चढ़ी हुई गायत्री का यान
करना चािहये। पीतवणर् ल मी का प्रतीक है । भोजन म भी पीली चीज प्रधान प से लेनी चािहये। इस
प्रकार की साधना से धन की विृ द्ध और दिरद्रता का नाश होता है ।

सस
ु तित की प्राि त—

िजसकी स तान नहीं होती ह, होकर मर जाती ह, रोगी रहती ह, गभर्पात हो जाते ह, केवल क याएँ होती
ह, तो इन कारण से माता- िपता को द:ु खी रहना वाभािवक है । इस प्रकार के द:ु ख से भगवती की
कृपा वारा छुटकारा िमल सकता है ।

इस प्रकार की साधना म त्री- पु ष दोन ही सि मिलत हो सक, तो बहुत ही अ छा; एक पक्ष के वारा
ही पूरा भार क धे पर िलये जाने से आंिशक सफलता ही िमलती है । प्रात:काल िन यकमर् से िनव ृ त
होकर पूवार्िभमख
ु होकर साधना पर बैठ। नेत्र ब द करके वेत व त्राभष
ू ण अलंकृत, िकशोर आयु वाली,
कमल पु प हाथ म धारण िकये हुए गायत्री का यान कर। ‘य’ बीज के तीन स पुट लगाकर गायत्री
का जप च दन की माला पर कर।
नािसका से साँस खींचते हुए पेडू तक ले जानी चािहए। पेडू को िजतना वायु से भरा जा सके भरना
चािहये। िफर साँस रोककर ‘य’ बीज स पुिटत गायत्री का कम से कम एक, अिधक से अिधक तीन बार
जप करना चािहये। इस प्रकार पेडू म गायत्री शिक्त का आकषर्ण और धारण कराने वाला यह प्राणायाम
दस बार करना चािहये। तदन तर अपने वीयर्कोष या गभार्शय म शुभ्र वणर् योित का यान करना
चािहये।

यह साधना व थ, सु दर, तेज वी, गुणवान ्, बुिद्धमान ् स तान उ प न करने के िलये है । इस साधना के
िदन म प्र येक रिववार को चावल, दध
ू , दही आिद केवल वेत व तुओं का ही भोजन करना चािहये।

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शत्रत
ु ा का संहार—

वेष, कलह, मक
ु दमाबाजी, मनमट
ु ाव को दरू करना और अ याचारी, अ यायी, अकारण आक्रमण करने
वाली मनोविृ त का संहार करना, आ मा तथा समाज म शाि त रखने के िलए चार ‘क्लीं’ बीजम त्र के
स पट
ु समेत रक्तच दन की माला से पि चमािभमख
ु होकर गायत्री का जप करना चािहये। जप काल
म िसर पर यज्ञ- भ म का ितलक लगाना तथा ऊन का आसन िबछाना चािहये। लाल व त्र पहनकर
िसंहा ढ़, ख गह ता, िवकराल वदना, दग
ु ार् वेशधारी गायत्री का यान करना चािहए।

िजन यिक्तय का वेष- दभ


ु ार्व िनवारण करना हो, उनका नाम पीपल के प ते पर रक्तच दन की
याही और अनार की कलम से िलखना चािहये। इस प ते को उलटा रखकर प्र येक म त्र के बाद जल
पात्र म से एक छोटी च मच भर के जल लेकर उस प ते पर डालना चािहये। इस प्रकार १०८ म त्र
जपने चािहये। इससे शत्रु के वभाव का पिरवतर्न होता है और उसकी वेष करने वाली साम यर् घट
जाती है ।

भत
ू बाधा की शाि त—

कुछ मनोवैज्ञािनक कारण , सांसािरक िवकृितय तथा प्रेता माओं के कोप से कई बार भत
ू बाधा के
उपद्रव होने लगते ह। कोई यिक्त उ मािदय जैसा चे टा करने लगता है , उसके मि त क पर िकसी
दस
ू री आ मा का आिधप य टीगोचर होता है । इसके अितिरक्त कोई मनु य या पशु ऐसी िविचत्र दशा
का रोगी होता है , जैसा िक साधारण रोग से नहीं होता। भयानक आकृितयाँ िदखाई पडऩा, अ य
मनु य वारा की जाने जैसी िक्रयाओं का दे खा जाना भत
ू बाधा के लक्षण ह।

इसके िलए गायत्री हवन सवर् े ठ है । सतोगण


ु ी हवन सामग्री से िविधपूवक
र् यज्ञ करना चािहये और रोगी
को उसके िनकट िबठा लेना चािहये, हवन की अिग्र म तपाया हुआ जल रोगी को िपलाना चािहए। बुझी
हुई यज्ञ- भ म सरु िक्षत रख लेनी चािहए, िकसी को अचानक भत
ू बाधा हो तो उस यज्ञ- भ म को उसके
दय, ग्रीवा, म तक, नेत्र, कणर्, मख
ु , नािसका आिद पर लगाना चािहये।

दस
ू र को प्रभािवत करना—

जो यिक्त अपने प्रितकूल ह, उ ह अनुकूल बनाने के िलये, उपेक्षा करने वाल म प्रेम उ प न करने के
िलये गायत्री वारा आकषर्ण िक्रया की जा सकती है । वशीकरण तो घोर ताि त्रक िक्रया वारा ही होता
है , पर चु बकीय आकषर्ण, िजससे िकसी यिक्त का मन अपनी ओर सद्भावनापूवक
र् आकिषर्त हो, गायत्री
की दिक्षण मागीर् इस योग साधना से हो सकता है ।

इसके िलए गायत्री म त्र का जप तीन प्रणव लगाकर करना चािहये और ऐसा यान करना चािहये िक
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अपनी ित्रकुटी (मि त क के म य भाग) म से एक नील वणर् िव यत
ु ्- तेज की र सी जैसी शिक्त
िनकलकर उस यिक्त तक पहुँचती है , िजसे आपको आकिषर्त करना है और उसके चार ओर अनेक
लपेट मारकर िलपट जाती है । इस प्रकार िलपटा हुआ वह यिक्त अति द्रत अव था म धीरे - धीरे
िखंचता चला आता है और अनुकूलता की प्रस न मद्र
ु ा उसके चेहरे पर छायी हुई होती है । आकषर्ण के
िलए यह यान बड़ा प्रभावशाली है ।

िकसी के मन म, मि त क म से उसके अनुिचत िवचार हटाकर उिचत िवचार भरने ह , तो ऐसा करना
चािहये िक शा तिच त होकर उस यिक्त को अिखल नील आकाश म अकेला सोता हुआ यान कर
और भावना कर िक उसके कुिवचार को हटाकर आप उसके मन म स िवचार भर रहे ह। इस यान-
साधना के समय अपना शरीर भी िबलकुल िशिथल और नील व त्र से ढका होना चािहये।

रक्षा कवच—

िकसी शुभ िदन उपवास रखकर केशर, क तूरी, जायफल, जािवत्री, गोरोचन— इन पाँच चीज के िम ण की
याही बनाकर अनार की कलम से पाँच प्रणव संयुक्त गायत्री म त्र िबना पािलश िकये हुए कागज या
भोजपत्र पर िलखना चािहये। कवच चाँदी के ताबीज म ब द करके िजस िकसी को धारण कराया जाए,
उसकी सब प्रकार की रक्षा करता है । रोग, अकाल म ृ यु, शत्र,ु चोर, हािन, बुरे िदन, कलह, भय, रा यद ड,
भत
ू - प्रेत, अिभचार आिद से यह कवच रक्षा करता है । इसके प्रताप और प्रभाव से शारीिरक, आिथर्क और
मानिसक सख
ु साधन म विृ द्ध होती है ।

काँसे की थाली म उपयक्


ुर् त प्रकार से गायत्री म त्र िलखकर उसे प्रसव- क ट से पीिडत
़ प्रसत
ू ा को
िदखाया जाय और िफर पानी म घोलकर उसे िपला िदया जाय तो क ट दरू होकर सख
ु पूवक
र् शीघ्र प्रसव
हो जाता है ।

बरु े मह
ु ू तर् और शकुन का पिरहार—

कभी- कभी ऐसे अवसर आते ह िक कोई कायर् करना या कहीं जाना है , उस समय कोई शकुन या मह
ु ू तर्
ऐसे उपि थत हो रहे ह, िजनके कारण आगे कदम बढ़ाते हुए िझझक होती है । ऐसे अवसर पर गायत्री
की एक माला जपने के प चात ् कायर् आर भ िकया जा सकता है । इससे सारे अिन ट और आशंकाओं
का समाधान हो जाता है और िकसी अिन ट की स भावना नहीं रहती। िववाह न बनता हो या िविध
वगर् न िमलते ह , िववाह मह
ु ू तर् म सय
ू ,र् बह
ृ पित, च द्रमा आिद की बाधा हो, तो चौबीस हजार जप का
नौ िदन वाला अनु ठान करके िववाह कर दे ना चािहये। ऐसे िववाह से िकसी प्रकार के अिन ट होने की
कोई स भावना नहीं है । यह सब प्रकार शुद्ध और योितष स मत िववाह के समान ही ठीक माना
जाना चािहये।

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बरु े वप्र के फल का नाश—

राित्र या िदन म सोने म कभी- कभी कई बार ऐसे भयंकर व न िदखाई पड़ते ह, िजससे व न काल
म भयंकर त्रास व द:ु ख िमलता है एवं जागने पर उसका मरण करके िदल धड़कता है । ऐसे व न
कभी अिन ट की आशंका का सकेत करते ह। जब ऐसे व न ह , तो एक स ताह तक प्रितिदन १०- १०
मालाय गायत्री जप करना चािहये और गायत्री का पूजन करना या कराना चािहये। गायत्री सह नाम या
गायत्री चालीसा का पाठ भी द:ु वप्र के प्रभाव को न ट करने वाला है ।

उपयक्
ुर् त पंिक्तय म कुछ थोड़े से प्रयोग और उपचार का अ यास कराया गया है । अनेक िवषय म
अनेक िविधय से गायत्री का जो उपयोग हो सकता है , उसका िववरण बहुत िव तत
ृ है , ऐसे छोटे - छोटे
लेख म नहीं आ सकता। उसे तो वयं अनुभव करके अथवा इस मागर् के िकसी अनुभवी सफल
प्रयोक्ता को पथ प्रदशर्क िनयुक्त करके ही जाना जा सकता है । गायत्री की मिहमा अपार है , वह
कामधेनु है । उसकी साधना- उपासना करने वाला कभी िनराश नहीं लौटता।

गायत्री का अथर् िच तन
ऊँ भभ
ू व
ुर् : व: त सिवतुवरर् े यं भग दे व य धीमिह िधयो यो न: प्रचोदयात ्।
ऊँ ब्र म भ:ू — प्राण व प
भव
ु :— द:ु खनाशक व:— सख
ु व प
तत ्— उस सिवत:ु — तेज वी, प्रकाशवान ्
वरे यं— े ठ भग — पापनाशक
दे व य— िद य को, दे ने वाले को धीमिह— धारण कर
िधयो— बुिद्ध को यो— जो
न:— हमारी प्रचोदयात ् करे ।

गायत्री म त्र के इस अथर् पर मनन एवं िच तन करने से अ तःकरण म उन त व की विृ द्ध होती है ,
जो मनु य को दे व व की ओर ले जाते ह। यह भाव बड़े ही शिक्तदायक, उ साहप्रद, सतोगण
ु ी, उ नायक
एवं आ मबल बढ़ाने वाले ह। इन भाव का िन यप्रित कुछ समय मनन करना चािहए।

ु : लोक, व: लोक- इन तीन लोक म ऊँ परमा मा समाया हुआ है । यह िजतना भी


१- ‘‘भ:ू लोक, भव
िव व ब्र मा ड है , परमा मा की साकार प्रितमा है । कण- कण म भगवान ् समाये हुए ह। सवर् यापक
परमा मा को सवर्त्र दे खते हुए मझ
ु े कुिवचार और कुकम से सदा दरू रहना चािहए एवं संसार की सख
ु -
शाि त तथा शोभा बढ़ाने म सहयोग दे कर प्रभु की स ची पज ू ा करनी चािहए।’’

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२- ‘‘तत ् परमा मा, सिवत:ु - तेज वी, वरे यं- े ठ, भग - पापरिहत और दे व य- िद य है , उसको अ त:करण
म- धीमिह करता हूँ। इन गण
ु वाले भगवान ् मेरे अ त:करण म प्रिव ट होकर मझ ु े भी तेज वी, े ठ,
पापरिहत एवं िद य बनाते ह। म प्रितक्षण इन गण ु से यक्
ु त होता जाता हूँ। इन दोन की मात्रा मेरे
मि त क तथा शरीर के कण- कण म बढ़ती है । इन गण ु से ओत- प्रोत होता जाता हूँ।’’

३- ‘‘वह परमा मा, न:- हमारी, िधयो- बुिद्ध को, प्रचोदयात ्- स मागर् म प्रेिरत करे । हम सबकी, हमारे
पिरजन की बुिद्ध स मागर्गामी हो। संसार की सबसे बड़ी िवभिू त, सख
ु की आिद माता स बुिद्ध को
पाकर हम इस जीवन म ही वगीर्य आन द का उपभोग कर, मानव ज म को सफल बनाएँ।’’
उपयक्
ुर् त तीन िच तन- संक प धीरे - धीरे मनन करते जाना चािहए। एक- एक श द पर कुछ क्षण कना
चािहए और उस श द का क पना िचत्र मन म बनाना चािहए।

जब यह श द पढ़े जा रहे ह िक परमा मा भ:ू भव


ु : व: तीन लोक म या त है , तब ऐसी क पना
करनी चािहए, जैसे हम पाताल, प ृ वी, वगर् को भली प्रकार दे ख रहे ह और उसम गमीर्, प्रकाश, िबजली,
शिक्त या प्राण की तरह परमा मा सवर्त्र समाया हुआ है । यह िवरा ब्र मा ड ई वर की जीिवत- जाग्रत ्
साकार प्रितमा है । गीता म अजन
ुर् को िजस प्रकार भगवान ् ने अपना िवरा प िदखाया है , वैसे ही
िवरा पु ष के दशर्न अपने क पनालोक म मानस चक्षुओं से करने चािहए। जी भरकर इस िवरा ब्र म
के, िव वपु ष के दशर्न करने चािहए िक म इस िव वपु ष के पेट म बैठा हूँ। मेरे चार ओर परमा मा
ही परमा मा है । ऐसी महाशिक्त की उपि थित म कुिवचार और कुकम को म िकस प्रकार अङ्गीकार
कर सकता हूँ। इस िव वपु ष का कण- कण मेरे िलए पूजनीय है । उसकी सेवा, सरु क्षा एवं शोभा बढ़ाने
म प्रव ृ त रहना ही मेरे िलए ेय कर है ।

संक प के दस
ू रे भाग का िच तन करते हुए अपने दय को भगवान ् का िसंहासन अनभ ु व करना चािहए
और तेज वी, सवर् े ठ, िनिवर्कार, िद य गण
ु वाले परमा मा को िवराजमान दे खना चािहए। भगवान ् की
झाँकी तीन प म की जा सकती है - (१) िवरा पु ष के प म (२) राम, कृ ण, िव ण,ु गायत्री, सर वती
आिद के प म (३) दीपक की योित के प म। यह अपनी भावना, इ छा और िच के ऊपर है ।
परमा मा का पु ष प म, गायत्री का मात ृ प म अपनी िच के अनुसार यान िकया जा सकता है ।
परमा मा त्री भी है और पु ष भी। गायत्री साधक को माता गायत्री के प म ब्र म का यान करना
अिधक चता है । सु दर छिव का
यान करते हुए उसम सयू र् के समान तेजि वता, सव पिर े ठता,
परम पिवत्र िनमर्लता और िद य सतोगण
ु की झाँकी करनी चािहए। इस प्रकर गण ु और प वाली
ब्र मशिक्त को अपने दय म थायी प से बस जाने की, अपने रोम- रोम म रम जाने की भावना
करनी चािहए।

संक प के तीसरे भाग का िच तन करते हुए ऐसा अनभ


ु व करना चािहए िक वह गायत्री ब्र मशिक्त
हमारे दय म िनवास करने वाली भावना तथा मि त क म रहने वाले बिु द्ध को पकडक़र साि वकता

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के, धमर्- क तर् य के, सेवा के स पथ पर घसीटे िलए जा रही ह। बिु द्ध और भावना को इसी िदशा म
चलाने का अ यास तथा प्रेम उ प न कर रही है और वे दोन बड़े आन द, उ साह तथा स तोष का
अनभ ु व करते हुए माता गायत्री के साथ- साथ चल रही ह।
गायत्री के अथर् िच तन म दी हुई यह तीन भावनाएँ क्रमश: ज्ञानयोग, भिक्तयोग और कमर्योग की
प्रतीक ह। इ हीं तीन भावनाओं का िव तार होकर योग के ज्ञान, भिक्त और कमर् यह तीन आधार बने
ह। गायत्री का अथर् िच तन, बीज प से अपनी अ तरा मा को तीन योग की ित्रवेणी म नान कराने
के समान है ।

इस प्रकार िच तन करने से गायत्री म त्र का अथर् भली प्रकार दयंगम हो जाता है और उसकी प्र येक
भावना मन पर अपनी छाप जमा लेती है , िजससे यह पिरणाम कुछ ही िदन म िदखाई पडऩे लगता है
िक मन कुिवचार और कुकम की ओर से हट गया है और मनु योिचत स िवचार और स कम म
उ साहपूवक
र् रस लेने लगा है । यह प्रविृ त आर भ म चाहे िकतनी ही म द क्य न हो, यह िनि चत है
िक यिद वह बनी रहे , बझ
ु ने न पाए, तो िन चय ही आ मा िदन- िदन समु नत होती जाती है और
जीवन का परम ल य समीप िखसकता चला आता है ।

साधक के व न िनरथर्क नहीं होते


साधना से एक िवशेष िदशा म मनोभिू म का िनमार्ण होता है । द्धा, िव वास तथा साधना िविध की
कायर्- प्रणाली के अनुसार आ तिरक िक्रयाय उसी िदशा म प्रवािहत होती ह, िजससे मन, बुिद्ध, िच त और
अहङ्कार- यह अ त:करण चतु टय वैसा ही प धारण करने लगता है । भावनाओं के सं कार अ तमर्न
म गहराई तक प्रवेश कर जाते ह। गायत्री साधक की मानिसक गितिविधय म आ याि मकता एवं
साि वकता का प्रमख
ु थान बन जाता है , इसिलये जाग्रत ् अव था की भाँित वप्राव था म भी उसकी
िक्रयाशीलता सारगिभर्त ही होती है , उसे प्राय: साथर्क व न ही आते ह।

गायत्री साधक को साधारण यिक्तय की तरह िनरथर्क व न प्राय: बहुत कम आते ह। उनकी
मनोभिू म ऐसी अ यवि थत नहीं होती, िजसम चाहे िजस प्रकार के उलटे - सीधे व न का उद्भव होता
हो। जहाँ यव था थािपत हो चुकी है , वहाँ की िक्रयाय भी यवि थत होती ह। गायत्री साधक के
व न को हम बहुत समय से यानपूवक र् सन
ु ते रहे ह और उनके मल
ू कारण पर िवचार करते रहे ह।
तदनुसार हम इस िन कषर् पर पहुँचना पड़ा है िक साधक लोग के व न िनरथर्क बहुत कम होते ह,
उनम साथर्कता की मात्रा अिधक रहती है ।

िनरथर्क व न अ य त अपण
ू र् होते ह। उनम केवल िकसी बात की छोटी- सी झाँकी होती है , िफर तरु त
उनका तारत य िबगड़ जाता है । दै िनक यवहार की साधारण िक्रयाओं की सामा य मिृ त मि त क म
पन
ु :- पन
ु : जाग्रत ् होती रहती है और भोजन, नान, वायु सेवन जैसी साधारण बात की दै िनक मिृ त के

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अ त य त व न िदखाई दे ते ह। ऐसे व न को िनरथर्क कहा जाता है । साथर्क व न कुछ िवशेषता
िलये हुए होते ह। उनम कोई िविचत्रता, नवीनता, घटनाक्रम एवं प्रभावो पादक क्षमता होती है । उ ह
दे खकर मन म भय, शोक, िच ता, क्रोध, हषर्, िवषाद, लोभ, मोह आिद के भाव उ प न होते ह। िनद्रा याग
दे ने पर भी उसकी छाप मन पर बनी रहती है और िच त म बार- बार यह िजज्ञासा उ प न होती है िक
इस व न का अथर् क्या है ?

साधक के साथर्क व न को चार भाग म िवभक्त िकया जा सकता है —(१) पूवर् संिचत कुसं कार का
िन कासन, (२) े ठ त व की थापना का प्रकटीकरण, (३) भिव य- स भावना का पूवार्भास, (४) िद य
दशर्न। इन चार ेिणय के अ तगर्त िविवध प्रकार के सभी साथर्क वप्र आ जाते ह।

(१) कुसं कार का िन कासन

कुसं कार को न ट करने वाले व न पूवर् संिचत कुसं कार के िन कासन म इसिलये होते ह िक
गायत्री साधना वारा आ याि मक नये त व की विृ द्ध साधक के अ त:करण म हो जाती है । जहाँ
कोई व तु रखी जाती है , वहाँ से दस
ू री को हटाना पड़ता है । िगलास म पानी भरा जाए, तो उसम से
पहले से भरी हुई वायु को हटाना पड़ेगा। रे ल के िड बे म नये मस
ु ािफर को थान िमलने के िलये यह
आव यक है िक उसम से बैठे हुए परु ाने मस ु ािफर उतर ।। िदन का प्रकाश आने पर अ धकार को
भागना ही पड़ता है । इसी प्रकार गायत्री साधक के अ तजर्गत ् म िजन िद य त व की विृ द्ध होती है ,
उन सस
ु ं कार के िलये थान िनयक्
ु त होने से पव
ू र् कुसं कार का िन कासन वाभािवक है । यह
िन कासन जाग्रत ् अव था म भी होता रहता है और व न अव था म भी। िवज्ञान के िसद्धा तानस
ु ार
िव फोट वारा उ णवीयर् के पदाथर् जब थान यत
ु होते ह, तो वे एक झटका मारते ह। ब दक
ू जब
चलाई जाती है , तो पीछे की ओर एक जोरदार झटका मारती है । बा द जब जलती है , तो एक धड़ाके की
आवाज करती है । दीपक के बुझते समय एक बार जोर से लौ उठती है । इसी प्रकार कुसं कार भी
मानस लोक से प्रयाण करते समय मि त कीय त तुओं पर आघात करते ह और उन आघात की
प्रितिक्रया व प जो िवक्षोभ उ प न होता है , उसे व नाव था म भयंकर, अ वाभािवक, अिन ट एवं
उपद्रव के प म दे खा जाता है ।

भयानक िहंसक पशु, सपर्, िसंह, याघ्र, िपशाच, चोर, डाकू आिद का आक्रमण होना, सन
ु सान, एका त,
डरावना जंगल िदखाई दे ना, िकसी िप्रयजन की म ृ य,ु अिग्रका ड, बाढ़, भक
ू प, युद्ध आिद के भयानक य
दीखना, अपहरण, अ याय, शोषण, िव वासघात वारा अपना िशकार होना, कोई िवपि त आना, अिन ट की
आशंका से िच त घबराना आिद भयंकर िदल धडक़ाने वाले ऐसे व न, िजनके कारण मन म िच ता,
बेचैनी, पीड़ा, भय, क्रोध, वेष, शोक, कायरता, ग्लािन, घण
ृ ा आिद के भाव उ प न होते ह, वे पव
ू र् संिचत
इ हीं कुसं कार की अि तम झाँकी का प्रमाण होते ह। यह व न बताते ह िक ज म- ज मा तर की
संिचत यह कुप्रविृ तयाँ अब अपना अि तम दशर्न और अिभवादन करती हुई जा रही ह और मन ने

149
व न म इस पिरवतर्न को यानपव
ू क
र् दे खने के साथ- साथ एक आलंकािरक कथा के प म िकसी
शंख
ृ लाबद्ध घटना का िचत्र गढ़ डाला है और उसे व न प म दे खकर जी बहलाया है ।

कामवासना अ य सब मनोविृ तय से अिधक प्रबल है । काम भोग की अिनयि त्रत इ छाय मन म


उठती ह। उन सबका सफल होना अस भव है , इसिलये वे पिरि थितय वारा कुचली जाती रहती ह
और मन मसोसकर वे अत ृ त, असंतु ट प्रेिमका की भाँित अ तमर्न के कोपभवन म खटपाटी लेकर पड़ी
रहती ह। यह अतिृ त चुपचाप पड़ी नहीं रहती, वरन ् जब अवसर पाती है , िनद्राव था म अपने मनसब

को चिरताथर् करने के िलये, मन के ल डू खाने के िलये मनचीते व न का अिभनय रचती है । िदन म
घर के लोग के जाग्रत ् रहने के कारण चूहे डरते और िबल म िछपे रहते ह, पर राित्र को जब घर के
आदमी सो जाते ह, तो चूहे अपने िबल म से िनकलकर िनभर्यतापूवक
र् उछलकूद मचाते ह। कुचली हुई
काम वासना भी यही करती है और ‘खयाली पुलाव’ खाकर िकसी प्रकार अपनी क्षुधा को बुझाती है ।
व नाव था म सु दर- सु दर व तुओं का दे खना, उनसे खेलना, यार करना, जमा करना, पवती ि त्रय
को दे खना, उनकी िनकटता म आना, मनोहर नदी, तड़ाग, वन- उपवन, पु प, फल, न ृ य, गीत, वा य, उ सव,
समारोह जैसे य को दे खकर कुचली हुई वासनाय िकसी प्रकार अपने को त ृ त करती ह। धन की, पद
की, मह व प्राि त की अत ृ त आकांक्षाएँ भी अपनी तिृ त के झठ
ू े अिभनय रचा करती ह। कभी- कभी
ऐसा होता है िक अपनी अतिृ त के ददर् को, घाव को, पीड़ा को प ट प म अनभ
ु व करने के िलए ऐसे
व न िदखाई दे ते ह, मानो अतिृ त भी बढ़ गयी। जो थोड़ा- बहुत सख
ु था, वह भी हाथ से चला गया
अथवा मनोवाँछ परू ी होते- होते िकसी आकि मक बाधा के कारण क गयी।

अतिृ त को िकसी अंश म या िकसी अ य प्रकार से त ृ त करने अथवा और भी उग्र प से अनुभव


करने के िलये उपयक्
ुर् त प्रकार के वप्र आया करते ह। यह दबी हुई विृ तयाँ गायत्री साधना के कारण
उखडक़र अपने थान खाली करती ह। इसिलए पिरवर्तन काल म अपने गु त प को प्रकट करती हुई
िवदा होती ह। तदनुसार साधना काल म प्राय: इस प्रकार के व न आते रहते ह। िकसी मत
ृ प्रेमी का
दशर्न, सु दर य का अवलोकन, ि त्रय से िमलना- जल
ु ना, मनोवाँछाओं का पूरा होना आिद घटनाओं
के वप्र भी िवशेष प से िदखाई दे ते ह। इनका अथर् है िक अनेक दबी हुई अत ृ त त ृ णाय, कामनाएँ,
वासनाएँ धीरे - धीरे करके अपनी िवदाई की तैयारी कर रही ह। आि मक त व की विृ द्ध के कारण ऐसा
होना वाभािवक भी है ।

(२) िद य त व के विृ द्ध सच


ू क व न

दस
ू री ेणी के व न वे होते ह, िजनसे इस बात का पता चलता है िक अपने अ दर साि वकता की
मात्रा म लगातार विृ द्ध हो रही है । सतोगण
ु ी काय को वयं करने या िकसी अ य के
वारा होते हुए,
व न ऐसा ही पिरचय दे ते ह। पीिडत
़ की सेवा, अभावग्र त की सहायता, दान, जप, यज्ञ, उपासना, तीथर्,
मि दर, पज
ू ा, धािमर्क कमर्का ड, कथा, कीतर्न, प्रवचन, उपदे श, माता, िपता, साध,ु महा मा, नेता, िव वान ्,

150
स जन की समीपता, वा याय, अ ययन, आकाशवाणी, दे वी- दे वताओं के दशर्न, िद य प्रकाश आिद
आ याि मक सतोगण
ु ी शभ
ु व न से अपने आप अ दर आये हुए शभ
ु त व को दे खता है और उन
य से शाि त लाभ प्रा त करता है ।

(३) भिव य का आभास एवं दै वी स दे श का व न

तीसरे प्रकार के व न भिव य म होने वाली िक हीं घटनाओं की ओर संकेत करते ह। प्रात:काल
सय
ु दय से एक- दो घ टे पव
ू र् दे खे हुए व न म स चाई का बहुत अंश होता है । ब्रा ममह ु ू तर् म एक तो
साधक का मि त क िनमर्ल होता है , दस ू रे प्रकृित के अ तराल का कोलाहल भी राित्र की त धता के
कारण बहुत अंश म शा त हो जाता है । उस समय सत ् त व की प्रधानता के कारण वातावरण व छ
रहता है और सू म जगत ् म िवचरण करते हुए भिव य का, भावी िवधान का बहुत कुछ आभास िमलने
लगता है ।

कभी- कभी अ प ट और उलझे हुए ऐसे य िदखाई दे ते ह, िजनसे मालम


ू होता है िक भिव य म होने
वाले िकसी लाभ या हािन के सकत ह, पर प ट प से यह िविदत नहीं हो पाता िक इनका वा तिवक
ता पयर् क्या है ? ऐसे उलझन भरे व न के कारण होते ह-

(१) भिव य का िवधान प्रार ध कम से बनता है , पर वतर्मान कम से उस िवधान म हे र- फेर हो सकता


है । कोई पूवर् िनधार्िरत िविध का िवधान साधक के वतर्मान कम के कारण कुछ पिरवितर्त हो जाता है
तो उसका िनि चत और प ट प िदखाकर अिनि चत और अ प ट हो जाता है , तदनुसार व न म
उलझी हुई बात िदखाई पड़ती है ।

(२) कुछ भावी िवधान ऐसे ह जो नये कम के, नयी पिरि थित के अनस
ु ार बनते और पिरवितर्त होते
रहते ह। तेजी, म दी, सट्टा, लाटरी आिद के बारे म जब तक भिव य का भ्रण
ू ही तैयार हो पाता है , पण
ू र्
प से उसकी प टता नहीं हो पाती, तब तक उसका पव
ू ार्भास साधक को व न म िमले तो वह
एकांगी एवं अपण
ू र् होता है ।

(३) अपनेपन की सीमा िजतने क्षेत्र म होती है , वह यिक्त के ‘अहम ्’ के सीमा क्षेत्र तक अपने को
िदखाई पड़ सकते ह, इसिलए ऐसा भी हो जाता है िक जो स दे श व न म िमला है , वह अपनेपन की
मयार्दा म आने वाले िकसी कुटु बी, पड़ोसी, िर तेदार या िमत्र के िलए हो।

(४) साधक की मनोभिू म पण


ू र् प से िनमर्ल न हो गयी हो, तो आकाश के सू म अ तराल म बहते हुए
त य अधूरे या पा तिरत होकर िदखाई पड़ते ह। जैसे कोई यिक्त अपने घर से हमसे िमलने के िलए
रवाना हो चक
ु ा हो तो उस यिक्त के थान पर िकसी अ य यिक्त के आने का आभास िमले। होता
यह है िक साधक की िद य ि ट धध
ुँ ली होती है । जैसे ि टदोष होने पर दरू चलने वाले मनु य पत
ु ले

151
से िदखाई पड़ते ह, पर उनकी शक्ल नहीं पहचानी जाती है , वैसे ही िद य ि ट धध
ुँ ली होने के कारण
प ट आभास के ऊपर हमारी व न- माया एक कि पत आवरण चढ़ा कर कोई झठ
ू - मठ
ू की आकृित
जोड़ दे ती है और र सी को सपर् बना दे ती है । ऐसे व न आधे अस य होते ह; पर तु जैसे- जैसे साधक
की मनोभिू म अिधक िनमर्ल होती जाती है , वैसे ही वैसे उसकी िद य ि ट व छ होती जाती है और
उसके व न अिधक साथर्कतायुक्त होने लगते ह।

(४) जाग्रत ् व न या िद य दशर्न

वप्र केवल राित्र म या िनद्राग्र त होने पर ही नहीं आते, वे जाग्रत ् अव था म भी आते ह। यान को
एक प्रकार का जाग्रत ् व न ही समझना चािहये। क पना के घोड़े पर चढक़र हम सद
ु रू थान के
िविवध- िविध स भव और अस भव य दे खा करते ह, यह एक प्रकार के व न ही ह। िनद्राग्र त
व न म िक्रयाय प्रधान होती ह, जाग्रत ् व न म बिहमर्न की िक्रयाय प्रमख
ु प से काम करती ह।
इतना अ तर तो अव य है , पर इसके अितिरक्त िनद्रा- वप्र और जाग्रत ् वप्र की एक- सी प्रणाली है ।
जाग्रत ् अव था म साधक के मनोलोक म नाना प्रकार की िवचारधाराये और क पनाय घुड़दौड़ मचाती
ह। यह भी तीन प्रकार की होती ह- पूवर् कुसं कार के िन कासन, े ठत व के प्रकटीकरण तथा
भिव य के पूवार्भास की सच
ू ना दे ने के िलये मि त क म िविवध प्रकार के िवचार, भाव एवं क पना
िचत्र आते ह।

कभी- कभी जाग्रत ् अव था म भी कोई चम कारी, दै वी, अलौिकक य िकसी- िकसी को िदखाई दे जाते
ह। इ टदे व का िकसी- िकसी को चमर्चक्षुओं से दशर्न होता है , कोई- कोई भत
ू - प्रेत को प्र यक्ष दे खते ह,
िक हीं- िक हीं को दस
ू र के चेहरे पर तेजोवलय और मनोगत भाव का आकार िदखाई दे ता है , िजसके
आधार पर दस
ू र की आ तिरक ि थित को पहचान लेते ह। रोगी का अ छा होना न होना, संघषर् म
जीतना, चोरी म गयी व त,ु आगामी लाभ- हािन, िवपि त- स पि त आिद के बारे म कई मनु य के
अ त:करण म एक प्रकार की आकाशवाणी- सी होती है और वह कई बार इतनी स ची िनकलती है िक
आ चयर् से दं ग रह जाना पड़ता है ।

साधना की सफलता के लक्षण


गायत्री साधना से साधक म एक सू म दै वी चेतना का आिवभार्व होता है । प्र यक्ष प से उसके शरीर
या आकृित म कोई िवशेष अ तर नहीं आता, पर भीतर ही भीतर भारी हे र- फेर हो जाता है ।
आ याि मक त व की विृ द्ध से प्राणमय कोष, िवज्ञानमय कोष और मनोमय कोष म जो पिरवतर्न होता
है , उसकी छाया अ नमय कोष म िबलकुल ही टीगोचर न हो, ऐसा नहीं हो सकता। यह सच है िक
शरीर का ढाँचा आसानी से नहीं बदलता, पर यह भी सच है िक आ तिरक हे र- फेर के िच न शरीर म
प्रकट हुए िबना नहीं रह सकते।

152
सपर् के मांस कोष म जब एक नई वचा तैयार होती है , तो उसका लक्षण सपर् के शरीर म पिरलिक्षत
होता है । उसकी दे ह भारी हो जाती है , तेजी से वह नहीं दौड़ता, फूितर् और उ साह से वह वि चत हो
जाता है , एक थान पर पड़ा रहता है । जब वह चमड़ी पक जाती है , तो सपर् बाहरी वचा को बदल दे ता
है , इसे कचुली बदलना कहते ह। कचुली छोडऩे के बाद सपर् म एक नया उ साह आता है , उसकी
चे टाओं बदल जाती ह, उसकी नई चमड़ी पर िचकनाई, चमक और कोमलता प ट प से िदखाई दे ती
है । ऐसा ही हे र- फेर साधक म होता है । जब उसकी साधना गभर् म पकती है , तो उसे कुछ उदासी,
भारीपन, अनु साह एवं िशिथलता के लक्षण प्रतीत होते ह, पर जब साधना पूणर् हो जाती है , तो दस
ू रे ही
लक्षण प्रकट होने लगते ह। माता के उदर म जब तक गभर् पकता है , तब तक माता का शरीर भारी,
िगरा- िगरा सा रहता है , उसम अनु साह रहता है ; पर जब प्रसिू त से िनविृ त हो जाती है , तो वह अपने
म एक ह कापन, उ साह एवं चैत यता अनुभव करती है ।

साधक जब साधना करने बैठता है , तो अपने अ दर एक प्रकार का आ याि मक गभर् धारण करता है ।
त त्र शा त्र म साधना को मैथन
ु कहा है । जैसे मैथन
ु को गु त रखा जाता है , वैसे ही साधना को गु त
रखने का आदे श िकया गया है । आ मा जब परमा मा से िलपटती है , आिलंगन करती है , तो उसे एक
अिनवर्चनीय आन द आता है , इसे भिक्त की त मयता कहते ह। जब दोन का प्रगाढ़ िमलन होता है ,
एक- दस
ू रे म आ मसात ् होते ह, तो उस खलन को ‘समािध’ कहा जाता है । आ याि मक मैथन
ु का
समािध- सख
ु अि तम खलन है । गायत्री उपिनष और सािवत्री उपिनष म अनेक मैथन
ु का वणर्न
िकया गया है । यहाँ बताया गया है िक सिवता और सािवत्री का िमथन
ु है । सािवत्री- गायत्री की आराधना
करने से साधक अपनी आ मा को एक योिन बना लेता है , िजसम सिवता का तेजपु ज, परमा मा का
तेज- वीयर् िगरता है । इसे शिक्तपात भी कहा गया है । इस शिक्तपात िवज्ञान के अनुसार अमैथुनी सिृ ट
उ प न हो सकती है । कु ती से कणर् का, मिरयम के पेट से ईसा का उ प न होना अस भव नहीं है ।
दे वशिक्तय की उ पि त इसी प्रकार के सू म मैथुन से होती है । समद्र
ु म थन एक मैथुन था, िजसके
फल व प चौदह र न का प्रसव हुआ। ऋण और धन (िनगेिटव और पोजेिटव) परमाणओ ु ं के आिलंगन
से िव युत ् प्रवाह का रस उ प न होता है । त त्रशा त्र म थान- थान पर मैथुन को प्रशंिसत िकया
गया है , वह यही साधना मैथुन है ।

साधना का अथर् है - अपने भीतर की द्धा तथा िव वास की शिक्तय का सि मलन कराके एक नई
शिक्त का आिवभार्व करना, िजसे िसिद्ध, दै वी वरदान या चम कार भी कहा जा सकता है । इस प्रकार के
उ े य की प्राि त के िलये अपने पास कुछ साधन पहले भी होने आव यक ह। जैसे िकसी ग त य
थान को कोई यिक्त िकसी भी मागर् से जाए, रा ते म खचर् के िलये पया- पैसा, खाने- पीने, व त्रािद
ु , स िवचार और
की आव यकता पड़ती है , वैसे ही िकसी दै वी शिक्त की साधना करने के िलये स गण
स कम की आव यकता होती है । िजसका जीवन आर भ से ही कलिु षत, पापपण
ू र् और दिू षत रहा है ,
उसकी साधना का स प न होना अस भव- सा ही है । इसिलये जो यिक्त स चे मन से साधना के

153
इ छुक ह और उससे कोई उ च ल य प्रा त करना चाहते ह, उनको पहले अपने मन, वचन, काया की
शिु द्ध का भी प्रय न करना चािहये। ऐसा करने पर ही िकसी प्रकार की िसिद्ध की आशा कर सकते ह।

आ मा और परमा मा का, सिवता और सािवत्री का मैथुन जब प्रगाढ़ आिलंगन म आबद्ध होता है , तो


उसके फल व प एक आ याि मक गभर् धारण होता है । इसी गभर् को आ याि मक भाषा म ‘भगर्’ कहते
ह। ‘भगर्’ को जो साधक िजतने अंश म धारण करता है , उसे उतना ही थान अपने अ दर इस नये
त व के िलये दे ना होता है । नये त व की थापना के िलये पुराने त व को पद युत होना पड़ता है ।
इस संक्राि त के कारण वाभािवक िक्रया- िविध म अ तर आ जाता है और उस अ तर के लक्षण
साधक म उसी प्रकार प्रकट होने लगते ह। जैसे गभर्वती त्री को अ िच, उबकाई, को ठबद्धता, आल य
आिद लक्षण होते ह, वैसे ही लक्षण साधक को भी उस समय तक- जब तक िक उसकी अ त:योिन म
गभर् पकता रहता है , पिरलिक्षत होते ह। कचुली म भरे हुए सपर् की तरह वह भी अपने को भारी- भारी,
िबंधा हुआ, जकड़ा हुआ, अवसादग्र त अनुभव करता है । आ मिव या के आचायर् जानते ह िक
साधनाव था म साधक को कैसी िवषम ि थित म रहना पड़ता है । इसिलये वे अनय
ु ाियय को
साधनाकाल म बड़े आचार- िवचार के साथ रहने का आदे श करते ह। रज वला या गभर्वती ि त्रय से
ु ता आहार- िवहार साधक को अपनाना होता है , तभी वे साधना- संक्राि त को ठीक प्रकार से
िमलता- जल
पार कर पाते ह।

मनु य कोई भी मह वपूणर् कायर् करना चाहे , उसम िकसी न िकसी प्रकार की िवघ्न- बाधाय, भय-
प्रलोभन आते ही ह, िक तु जो लोग उनका सफलतापूवक
र् सामना कर सकते ह, वे ही सफलता के वार
पर पहुँचते ह। आहार दोष, आल य, अधैय,र् असंयम, घण
ृ ा, वेष, िवलािसता, कुसंग, अिभमान आिद के
कारण भी साधक अपने मागर् से भटक जाता है । भ्र टाचार, चोरी की कमाई, दस ू रे के अिधकार का
अपहरण, घोर वाथर्परता आिद जैसे दोष का आजकल बाहु य है । वे भी मनु य को िकसी प्रकार की
दै वी सफलता के अयोग्य बना दे ते ह। इसिलये जो यिक्त वा तव म साधना को पूणर् करके सफलता
और िसिद्ध की आकांक्षा रखते ह, उनको उसके िलए सब प्रकार के याग, बिलदान, क ट- सहन आिद के
िलए सहषर् प्र तुत रहना चािहये, िजससे साधना पिरपक्व होकर इि छत फल प्रदान करे गी।

अ डे से ब चा िनकलता है , गभर् से स तान पैदा होती है । साधक को भी साधना के फल व प एक


स तान िमलती है , िजसे शिक्त या िसिद्ध कहते ह। मिु क्त, समािध, ब्रा मी ि थित, तुरीयाव था आिद
नाम भी इसी के ह। यह स तान आर भ म बड़ी िनबर्ल तथा लघु आकार की होती है । जैसे अ डे से
िनकलने पर ब चे बड़े ही लज ुं - पु ज होते ह, जैसे माता के गभर् से उ प न हुए बालक बड़े ही कोमल
होते ह, वैसे ही साधना पण
ू र् होने पर प्रसव हुई नवजात िसिद्ध भी बड़ी कोमल होती है । बिु द्धमान ् साधक
उसे उसी प्रकार पाल- पोसकर बड़ा करते ह, जैसे कुशल माताय अपनी स तान को अिन ट से बचाती
हुई पौि टक पोषण दे कर पालती ह।

154
साधना जब तक साधक के गभर् म पकती रहती है , क ची रहती है , तब तक उसके शरीर म आल य
और अवसाद के िच न रहते ह, वा य िगरा हुआ और चेहरा उतरा हुआ िदखाई दे ता है ; पर जब
साधना पक जाती है और िसिद्ध की सक
ु ोमल स तित का प्रसव होता है , तो साधक म तेज, ओज,
ह कापन, चैत य, उ साह आ जाता है , वैसा ही जैसा िक कचुली बदलने के बाद सपर् म आता है । िसिद्ध
का प्रसव हुआ या नहीं, इसकी परीक्षा इन लक्षण से हो सकती है । यह दस लक्षण नीचे िदये जाते ह—

१- शरीर म ह कापन और मन म उ साह होता है ।

२- शरीर म एक िवशेष प्रकार की सुग ध आने लगती है ।

३- वचा पर िचकनाई और कोमलता का अंश बढ़ जाता है ।

४- तामिसक आहार- िवहार से घण


ृ ा बढ़ जाती है और साि वक िदशा म मन बढऩे लगता है ।

५- वाथर् का कम और परमाथर् का अिधक यान रहता है ।

६- नेत्र म तेज झलकने लगता है ।

७- िकसी यिक्त या कायर् के िवषय म वह जरा भी िवचार करता है , तो उसके स ब ध म बहुत- सी


ऐसी बात वयमेव प्रितभािसत होती ह, जो परीक्षा करने पर ठीक िनकलती ह।

८- दस
ू र के मन के भाव जान लेने म दे र नहीं लगती।

९- भिव य म घिटत होने वाली बात का पूवार्भास िमलने लगता है ।

१०- शाप या आशीवार्द सफल होने लगते ह। अपनी गु त शिक्तय से वह दस


ू र का बहुत कुछ लाभ या
बरु ा कर सकता है ।

यह दस लक्षण इस बात के प्रमाण ह िक साधक का गभर् पक गया और िसिद्ध का प्रसव हो चुका है ।


इस शिक्त- स तित को जो साधक सावधानी के साथ पालते- पोषते ह, उसे पु ट करते ह, वे भिव य म
आज्ञाकारी स तान वाले बुजग
ु र् की तरह आन दमय पिरणाम का उपभोग करते ह। िक तु जो फूहड़
ज मते ही िसिद्ध का द ु पयोग करते ह, अपनीव प शिक्त का िवचार न करते हुए उस पर अिधक
भार डालते ह, उनकी गोदी खाली हो जाती है और मत
ृ व सा माता की तरह उ ह प चा ताप करना
पड़ता है ।

155
िसिद्धय का द ु पयोग न होना चािहये
िसिद्धय का द ु पयोग न होना चािहये

गायत्री साधना करने वाल को अनेक प्रकार की अलौिकक शिक्तय के आभास होते ह। कारण यह है
िक यह एक े ठ साधना है । जो लाभ अ य साधनाओं से होते ह, जो िसिद्धयाँ िकसी अ य योग से
िमल सकती ह, वे सभी गायत्री साधना से िमल सकती ह। जब थोड़े िदन द्धा, िव वास और
िवनयपव
ू क
र् उपासना चलती है , तो आ मशिक्त की मात्रा िदन- िदन बढ़ती रहती है , आ मतेज प्रकािशत
होने लगता है , अ त:करण पर चढ़े हुए मैल छूटने लगते ह, आ तिरक िनमर्लता की अिभविृ द्ध होती है ,
फल व प आ मा की म द योित अपने असली प म प्रकट होने लगती है ।

अङ्गीकार के ऊपर जब राख की मोटी परत जम जाती है तो वह दाहक शिक्त से रिहत हो जाती है ,
उसे छूने से कोई िवशेष अनुभव नहीं होता; पर जब उस अङ्गीकार पर से राख का पदार् हटा िदया जाता
है , तो धधकती हुई अिग्र प्र विलत हो जाती है । यही बात आ मा के स ब ध म है । आमतौर से मनु य
मायाग्र त होते ह, भौितक जीवन की बिहमख ुर् ी विृ तय म उलझे रहते ह। यह एक प्रकार से भ म का
पदार् है , िजसके कारण आ मतेज की उ णता एवं रोशनी की झाँकी नहीं हो पाती। जब मनु य अपने को
ुर् ी बनाता है , आ मा की झाँकी करता है , साधना
अ तमख वारा अपने कषाय- क मष को हटाकर
िनमर्लता प्रा त करता है , तब उसको आ मदशर्न की ि थित प्रा त होती है ।

आ मा, परमा मा का अंश है । उसम वे सब त व, गण


ु एवं बल मौजद
ू ह, जो परमा मा म होते ह। अिग्र
के सब गण
ु िचनगारी म उपि थत ह। यिद िचनगारी को अवसर िमले, तो वह दावानल का कायर् कर
सकती है । आ मा के ऊपर चढ़े हुए मल का यिद िनवारण हो जाए, तो वही परमा मा का प्र यक्ष
प्रितिब ब िदखाई दे गा और उसम वे सब शिक्तयाँ पिरलिक्षत ह गी जो परमा मा के अंश म होनी
चािहये।

अ ट िसिद्धयाँ, नौ िनिधयाँ प्रिसद्ध ह। उनके अितिरक्त भी अगिणत छोटी- बड़ी ऋिद्ध- िसिद्धयाँ होती ह।
वे साधना का पिरपाक होने के साथ- साथ उठती, प्रकट होती और बढ़ती ह। िकसी िवशेष िसिद्ध की
प्राि त के िलए चाहे भले ही प्रय न न िकया जाए, पर यव
ु ाव था आने पर जैसे यौवन के िच न अपने
आप प्र फुिटत हो जाते ह, उसी प्रकार साधना के पिरपाक के साथ- साथ िसिद्धयाँ अपने आप आती-
जाती ह। गायत्री का साधक धीरे - धीरे िसद्धाव था की ओर अग्रसर होता जाता है । उसम अनेक
अलौिकक िसिद्धयाँ िदखाई पड़ती ह। दे खा गया है िक जो लोग द्धा और िन ठापव
ू क
र् गायत्री साधना म
दीघर्काल तक त लीन रहे ह, उनम ये िवशेषताएँ प ट प से पिरलिक्षत होती ह—

(१) उनका यिक्त व आकषर्क, नेत्र म चमक, वाणी म बल, चेहरे पर प्रितभा, ग भीरता तथा ि थरता

156
होती है , िजससे दस
ू र पर अ छा प्रभाव पड़ता है । जो यिक्त उनके स पकर् म आ जाते ह, वे उनसे
काफी प्रभािवत हो जाते ह तथा उनकी इ छानस
ु ार आचरण करते ह।

(२) साधक को अपने अ दर एक दै वी तेज की उपि थित प्रतीत होती है । वह अनभ


ु व करता है िक उसके अ त:करण म कोई
नई शिक्त काम कर रही है ।

(३) बुरे काम से उसकी िच हटती जाती है और भले काम म मन लगता है । कोई बुराई बन पड़ती है ,
तो उसके िलए बड़ा खेद और प चा ताप होता है । सख
ु के समय वैभव म अिधक आन द न होना और द:ु ख,
किठनाई तथा आपि त म धैयर् खोकर िकं कतर् यिवमढ़
ू न होना उनकी िवशेषता होती है।

(४) भिव य म जो घटनाएँ घिटत होने वाली ह, उनका आभास उनके मन म पहले से ही आने लगता
है । आर भ म तो कुछ हलका- सा अ दाज होता है , पर धीरे - धीरे उसे भिव य का ज्ञान िबलकुल सही
होने लगता है ।

(५) उसके शाप और आशीवार्द सफल होते ह। यिद वह अ तरा मा से द:ु खी होकर िकसी को शाप दे ता
है , तो उस यिक्त पर भारी िवपि तयाँ आती ह और प्रस न होकर िजसे वह स चे अ त:करण से
आशीवार्द दे ता है , उसका मङ्गल होता है ; उसके आशीवार्द िवफल नहीं होते।

(६) वह दस
ू र के मनोभाव को दे खते ही पहचान लेता है । कोई यिक्त िकतना ही िछपावे, उसके सामने
ु , दोष , िवचार तथा आचरण को पारदशीर् की तरह सू म
यह भाव िछपते नहीं। वह िकसी के भी गण
ि ट से दे ख सकता है ।

(७) वह अपने िवचार को दस


ू रे के दय म प्रवेश करा सकता है । दरू रहने वाले मनु य तक िबना तार
या पत्र की सहायता के अपने स दे श पहुँचा सकता है ।

(८) जहाँ वह रहता है , उसके आस- पास का वातावरण बड़ा शा त एवं साि वक रहता है । उसके पास
बैठने वाल को जब तक वे समीप रहते ह, अपने अ दर अद्भत
ु शाि त, साि वकता तथा पिवत्रता
अनुभव होती है ।

(९) वह अपनी तप या, आयु या शिक्त का एक भाग िकसी को दे सकता है और उसके वारा दस
ू रा
यिक्त िबना प्रयास या व प प्रयास म ही अिधक लाभाि वत हो सकता है । ऐसे यिक्त दस
ू र पर
‘शिक्तपात’ कर सकते ह।

१०. उसे व न म, जाग्रत ् अव था म, यानाव था म रं ग- िबरं गे प्रकाश पु ज, िद य विनयाँ, िद य


प्रकाश एवं िद य वािणयाँ सन
ु ाई पड़ती ह। कोई अलौिकक शिक्त उसके साथ बार- बार छे डख़ानी,
िखलवाड़ करती हुई- सी िदखाई पड़ती है । उसे अनेक प्रकार के ऐसे िद य अनुभव होते ह, जो िबना

157
अलौिकक शिक्त के प्रभाव के साधारणत: नहीं होते।

यह िच न तो प्र यक्ष प्रकट होते ह, अप्र यक्ष प से अिणमा, लिघमा, मिहमा आिद योगशा त्र म विणर्त
अ य िसिद्धय का भी आभास िमलता है । वह कभी- कभी ऐसे कायर् कर सकने म सफल होता है जो
बड़े ही अद्भत
ु , अलौिकक और आ चयर्जनक होते ह।

सावधान रह—िजस समय िसिद्धय का उ पादन एवं िवकास हो रहा हो, वह समय बड़ा ही नाजक
ु एवं
बड़ी ही सावधानी का है । जब िकशोर अव था का अ त एवं नवयौवन का प्रार भ होता है , उस समय
वीयर् का शरीर म नवीन उद्भव होता है । इस उद्भवकाल म मन बड़ा उ सािहत, काम- क्रीड़ा का इ छुक
एवं चंचल रहता है । यिद इस मनोदशा पर िनय त्रण न िकया जाए तो क चे वीयर् का अप यय होने
लगता है , नवयुवक थोड़े ही समय म शिक्तहीन, वीयर्हीन, यौवनहीन होकर सदा के िलए िनक मा बन
जाता है । साधना म भी िसिद्ध का प्रार भ ऐसी ही अव था है , जबिक साधक अपने अ दर एक नवीन
आि मक चेतना अनुभव करता है और उ सािहत होकर प्रदशर्न ू र पर अपनी मह ता की छाप
वारा दस
िबठाना चाहता है । यह क्रम यिद चल पड़े तो वह क चा वीयर्- ‘प्रारि भक िसिद्ध त व’ व प काल म
ही अप यय होकर समा त हो जाता है और साधक को सदा के िलए छूँछ एवं िनक मा हो जाना पड़ता
है ।

संसार म जो कायर्क्रम चल रहा है , वह कमर्फल के आधार पर चल रहा है । ई वरीय सिु नि चत िनयम


के आधार पर कमर्- ब धन म बँधे हुए प्राणी अपना- अपना जीवन चलाते ह। प्रािणय की सेवा का
स चा मागर् यह है िक उ ह स कमर् म प्रव ृ त िकया जाए, आपि तय को सहने का साहस िदया जाए;
यह आि मक सहायता हुई।

ता कािलक किठनाई का हल करने वाली भौितक सहायता दे नी चािहए। आ मशिक्त खचर् करके
क तर् यहीन यिक्तय को स प न बनाया जाए, तो वह उनको और अिधक िनक मा बनाना होगा,
इसिलए दस
ू र को सेवा के िलए स गण
ु और िववेक दान दे ना ही े ठ है । दान दे ना हो तो धन आिद
ू र का वैभव बढ़ाने म आ मशिक्त का सीधा प्र यावतर्न करना
जो हो, उसका दान करना चािहए। दस
अपनी शिक्तय को समा त करना है । दस
ू र को आ चयर् म डालने या उन पर अपनी अलौिकक िसिद्ध
प्रकट करने जैसी तु छ बात म क टसा य आ मबल को यय करना ऐसा ही है , जैसे कोई मूखर् होली
खेलने का कौतुक करने के िलए अपना रक्त िनकालकर उसे उलीचे; यह मख
ू त
र् ा की हद है । जो
अ या मवादी दरू दशीर् होते ह, वे सांसािरक मान- बड़ाई की र ती भर परवाह नहीं करते।

पर आजकल समाज म इसके िवपरीत धारा ही बहती िदखाई पड़ती है । लोग ने ई वर- उपासना, पूजा-
पाठ, जप- तप को भी सांसािरक प्रलोभन का साधन बना िलया है । वे जआ
ु , लाटरी आिद म सफलता
प्रा त करने के िलए भजन, जप करते ह और दे वताओं की मनौती करते ह, उ ह प्रसाद चढ़ाते ह। उनका

158
उ े य िकसी प्रकार धन प्रा त करना होता है , चाहे वह चोरी- ठगी से और चाहे जप- तप भजन से। ऐसे
लोग को प्रथम तो उपासनाजिनत शिक्त ही प्रा त नहीं होती, और यिद िकसी कारणवश थोड़ी- बहुत
सफलता प्रा त हो गई, तो वे उससे ही ऐसे फूल जाते ह और तरह- तरह के अनिु चत काय म उसका
इस प्रकार अप यय करने लगते ह िक जो कुछ कमाई होती है , वह शीघ्र ही न ट हो जाती है और आगे
के िलए रा ता ब द हो जाता है । दै वी शिक्तयाँ कभी िकसी अयोग्य यिक्त को ऐसी साम यर् प्रदान
नहीं कर सकतीं, िजससे वह दस
ू र का अिन ट करने लग जाए।

ताि त्रक पद्धित से िकसी का मारण, मोहन, उ चाटन वशीकरण करना, िकसी के गु त आचरण या
मनोभाव को जानकर उनको प्रकट कर दे ना और उसकी प्रित ठा को घटाना आिद कायर् आ याि मक
साधक के िलए सवर्था िनिषद्ध ह। कोई ऐसा अद्भत
ु कायर् करके िदखाना िजससे लोग यह समझ ल िक
यह िसद्ध पु ष है , गायत्री- उपासक के िलए कड़ाई के साथ विजर्त है । यिद वे इस चक्कर मंल पड़े, तो
िनि चत प से कुछ ही िदन म उनकी शिक्त का ोत सूख जाएगा और छूँछ बनकर अपनी
क टसा य आ याि मक कमाई से हाथ धो बैठगे। उनके िलए संसार का स ज्ञान दान कायर् ही इतना
बड़ा एवं मह वपण
ू र् है िक उसी के वारा वे जनसाधारण के आ तिरक, बा य और सामािजक क ट को
भली प्रकार दरू कर सकते ह और व प साधन से ही
वगीर्य सख
ु का आ वादन कराते हुए लोग के
जीवन सफल बना सकते ह। इस िदशा म कायर् करने से उनकी आ याि मक शिक्त बढ़ती है । इसके
प्रितकूल वे यिद चम कार प्रदशर्न के चक्कर म पड़गे, तो लोग का क्षिणक कौतह
ू ल अपने प्रित उनका
आकषर्ण थोड़े समय के िलए भले ही बढ़ा ले, पर व तत
ु : अपनी और दस
ू र की इस प्रकार भारी कुसेवा
होनी स भव है ।

इन सब बात को यान म रखते हुए हम इस पु तक के पाठक और अनुयाियय को सावधान करते


ह, कड़े श द म आदे श करते ह िक वे अपनी िसिद्धय को गु त रख, िकसी के सामने प्रकट न कर। जो
दै वी चम कार अपने को ि टगोचर ह , उ ह िव व त अिभ न िमत्र के अितिरक्त और िकसी से न
कह। आव यकता होने पर ऐसी घटनाओं के स ब ध म शाि तकु ज, हिर वार से भी परामशर् िकया जा
सकता है । गायत्री साधक की यह िज मेदारी है िक वे प्रा त शिक्त का र तीभर भी द ु पयोग न कर।
हम सावधान करते ह िक कोई साधक इस मयार्दा का उ लंघन न करे ।

गायत्री वारा कु डिलनी जागरण


शरीर म अनेक साधारण और अनेक असाधारण अंग ह। असाधारण अंग िज ह ‘ममर् थान’ कहते ह,
केवल इसिलए ममर् थान नहीं कहे जाते िक वे बहुत सक
ु ोमल एवं उपयोगी होते ह, वरन ् इसिलए भी
कहे जाते ह िक इनके भीतर गु त आ याि मक शिक्तय के मह वपूणर् के द्र होते ह। इन के द्र म वे
बीज सरु िक्षत रखे रहते ह, िजनका उ कषर्, जागरण हो जाये तो मनु य कुछ से कुछ बन सकता है ।
उसम आि मक शिक्तय के ोत उमड़ सकते ह और उस उभार के फल व प वह ऐसी अलौिकक

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शिक्तय का भ डार बन सकता है जो साधारण लोग के िलए अलौिकक आ चयर् से कम प्रतीत नहीं
होती।

ऐसे ममर् थल म मे द ड या रीढ़ का प्रमख


ु थान है । यह शरीर की आधारिशला है । यह मे द ड
छोटे - छोटे ततीस अि थ ख ड से िमलकर बना है ।

इस प्र येक ख ड म त वदिशर्य को ऐसी िवशेष शिक्तयाँ पिरलिक्षत होती ह, िजनका स ब ध दै वी


शिक्तय से है । दे वताओं म िजन शिक्तय का के द्र होता है , वे शिक्तयाँ िभ न- िभ न प म मे द ड
के इन अि थ ख ड म पाई जाती ह, इसिलए यह िन कषर् िनकाला गया है िक मे द ड ततीस दे वताओं
का प्रितिनिध व करता है । आठ वस,ु बारह आिद य, ग्यारह द्र, इ द्र और प्रजापित इन ततीस की
शिक्तयाँ उसम बीज प से उपि थत रहती ह।

इस पोले मे द ड म शरीर िवज्ञान के अनस


ु ार नािडय़ाँ ह और ये िविवध काय म िनयोिजत रहती ह।
अ या म िवज्ञान के अनस
ु ार उनम तीन प्रमख
ु नािडय़ाँ ह- १. इड़ा, २. िपङ्गला, ३. सष
ु ु ना। यह तीन
नािडय़ाँ मे द ड को चीरने पर प्र यक्ष प से आँख वारा नहीं दे खी जा सकतीं, इनका स ब ध सू म
जगत ् से है । यह एक प्रकार का िव यत
ु ् प्रवाह है । जैसे िबजली से चलने वाले य त्र म नेगेिटव और
पोजेिटव, ऋण और धन धाराएँ दौड़ती ह और उन दोन का जहाँ िमलन होता है , वहीं शिक्त पैदा हो
जाती है , इसी प्रकार इड़ा को नेगेिटव, िपङ्गला को पोजेिटव कह सकते ह। इड़ा को च द्र नाड़ी और
िपङ्गला को सय
ू र् नाड़ी भी कहते ह। मोटे श द म इ ह ठ डी- गरम धाराएँ कहा जा सकता है । दोन
के िमलने से जो तीसरी शिक्त उ प न होती है , उसे सष
ु ु ना कहते ह। प्रयाग म गंगा और यमन
ु ा
िमलती ह। इस िमलन से एक तीसरी सू म सिरता और िविनिमर्त होती है , िजसे सर वती कहते ह।
इस प्रकार तीन निदय से ित्रवेणी बन जाती है । मे द ड के अ तगर्त भी ऐसी आ याि मक ित्रवेणी है ।
ु ु ना की सिृ ट करती ह और एक पूणर् ित्रवगर् बन जाता है ।
इड़ा, िपङ्गला की दो धाराएँ िमलकर सष

यह ित्रवेणी ऊपर मि त क के म य के द्र से, ब्र मर ध्र से, सह ार कमल से स बि धत और नीचे


मे द ड का जहाँ नुकीला अ त है , वहाँ िलङ्गं मल ु ा के बीच ‘सीवन’
ू और गद थान की सीध म
पहुँचकर क जाती है , यही इस ित्रवेणी का आिद- अ त है ।

सष
ु ु ना नाड़ी के भीतर एक और ित्रवगर् है । उसके अ तगर्त भी तीन अ य त सू म धाराएँ प्रवािहत
होती ह, िज ह वज्रा, िचत्रणी और ब्र मनाड़ी कहते ह। जैसे केले के तने को काटने पर उसम एक के
भीतर एक परत िदखाई पड़ती है , वैसे ही सष
ु ु ना के भीतर वज्रा है , वज्रा के भीतर िचत्रणी और िचत्रणी
के भीतर ब्र मनाड़ी है । यह ब्र मनाड़ी सब नािडय़ का ममर् थल, के द्र एवं शिक्तसार है । इस ममर् की
सरु क्षा के िलए ही उस पर इतने परत चढ़े ह।

यह ब्र मनाड़ी मि त क के के द्र म- ब्र मर ध्र म पहुँचकर हजार भाग म चार ओर फैल जाती है , इसी
160
से उस थान को सह दल कमल कहते ह। िव णज
ु ी की श या, शेषजी के सह फन पर होने का
अलंकार भी इस सह दल कमल से िलया गया है । भगवान ् बद्ध
ु आिद अवतारी पु ष के म तक पर
एक िवशेष प्रकार के गंज
ु लकदार बाल का अि त व हम उनकी मिू तर्य अथवा िचत्र म दे खते ह। यह
इस प्रकार के बाल नहीं ह, वरन ् सह दल कमल का कला मक िचत्र है । यह सह दल सू म लोक म,
िव व यापी शिक्तय से स बि धत है । रे िडयो- ट्रा समीटर से विन िव तारक त तु फैलाये जाते ह
िज ह ‘एिरयल’ कहते ह। त तुओं के वारा सू म आकाश म
विन को फका जाता है और बढ़ती हुई
तरं ग को पकड़ा जाता है । मि त क का ‘एिरयल’ सह ार कमल है । उसके वारा परमा मस ता की
अन त शिक्तय को सू म लोक म से पकड़ा जाता है । जैसे भख
ू ा अजगर जब जाग्रत ् होकर ल बी
साँस खींचता है , तो आकाश म उड़ते पिक्षय को अपनी ती शिक्तय से जकड़ लेता है और वे
म त्रमग्ु ध की तरह िखंचते हुए अजगर के मँह
ु म चले जाते ह, उसी प्रकार जाग्रत ् हुआ सह मख
ु ी
शेषनाग- सह ार कमल अन त प्रकार की िसिद्धय को लोक- लोका तर से खींच लेता है । जैसे कोई
अजगर जब क्रुद्ध होकर िवषैली फँु फकार मारता है , तो एक सीमा तक वायुम डल को िवषैला कर दे ता है ,
उसी प्रकार जाग्रत ् हुए सह ार कमल वारा शिक्तशाली भावना तरं ग प्रवािहत करके साधारण जीव-
ज तुओं एवं मनु य को ही नहीं, वरन ् सू म लोक की आ माओं को भी प्रभािवत और आकिषर्त िकया
जा सकता है । शिक्तशाली ट्रा समीटर वारा िकया हुआ अमेिरका का ब्राडका ट भारत म सन
ु ा जाता
है । शिक्तशाली सह ार वारा िनक्षेिपत भावना प्रवाह भी लोक- लोका तर के सू म त व को िहला
दे ता है ।

अब मे द ड के नीचे के भाग को, मल


ू को लीिजये। सष
ु ु ना के भीतर रहने वाली तीन नािडय़ म सबसे
सू म ब्र मनाड़ी मे द ड के अि तम भाग के समीप एक काले वणर् के ष कोण वाले परमाणु से
िलपटकर बँध जाती है । छ पर को मजबूत बाँधने के िलए दीवार म खट
ूँ े गाड़ते ह और उन खट
ूँ म
छ पर से स बि धत र सी को बाँध दे ते ह। इसी प्रकार उस ष कोण कृ ण वणर् परमाणु से ब्र मनाड़ी
को बाँधकर इस शरीर से प्राण के छ पर को जकड़ दे ने की यव था की गयी है ।

कूमर् से ब्र मनाड़ी के गु थन थल को आ याि मक भाषा म ‘कु डिलनी’ कहते ह। जैसे काले रं ग का
होने से आदमी का नाम कलआ ु भी पड़ जाता है , वैसे ही कु डलाकार बनी हुई इस आकृित को
‘कु डिलनी’ कहा जाता है । यह साढ़े तीन लपेटे उस कू मर् म लगाये हुए है और मँहु नीचे को है । िववाह
सं कार म इसी की नकल करके ‘‘भाँवर या फेरे ’’ होते ह। साढ़े तीन (सिु वधा की ि ट से चार)
पिरक्रमा िकये जाने और मँह
ु नीचा िकये जाने का िवधान इस कु डिलनी के आधार पर ही रखा गया
है , क्य िक भावी जीवन- िनमार्ण की यवि थत आधारिशला, पित- प नी का कूमर् और ब्र मनाड़ी िमलन
वैसा ही मह वपण
ू र् है जैसा िक शरीर और प्राण को जोडऩे म कु डिलनी का मह व है ।

इस कु डिलनी की मिहमा, शिक्त और उपयोिगता इतनी अिधक है िक उसको भली प्रकार समझने म
मनु य की बुिद्ध लडख़ड़ा जाती है । भौितक िवज्ञान के अ वेषक के िलये आज ‘परमाण’ु एक पहे ली बना
161
हुआ है । उसके तोडऩे की एक िक्रया मालम
ू हो जाने का चम कार दिु नया ने प्रलयंकर परमाणु बम के
प म दे ख िलया। अभी उसके अनेक िव वंसक और रचना मक पहलू बाकी ह। सर आथर्र का कथन
है िक ‘‘यिद परमाणु शिक्त का परू ा ज्ञान और उपयोग मनु य को मालम
ू हो गया, तो उसके िलए कुछ
भी अस भव नहीं रहे गा। यह सय
ू र् के टुकड़े- टुकड़े करके उसेगदर् म िमला सकेगा और जो चाहे गा, वह
व तु या प्राणी मनमाने ढं ग से पैदा कर िलया करे गा। ऐसे- ऐसे य त्र उसके पास ह गे, िजनसे सारी
प ृ वी एक मह
ु ले म रहने वाली आबादी की तरह हो जायेगी। कोई यिक्त चाहे कहीं क्षण भर म आ
जा सकेगा और चाहे िजससे जो व तु ले दे सकेगा तथा दे श- दे शा तर म ि थत लोग से ऐसे ही घुल-
िमलकर वातार्लाप कर सकेगा, जैसे दो िमत्र आपस म बैठे- बैठे ग प लड़ाते रहते ह।’’ जड़ जगत ् के एक
परमाणु की शिक्त का आकलन करने पर उसकी मह ता को दे खकर आ चयर् की सीमा नहीं रहती। िफर
चैत य जगत ् का एक फुि लंग जो जड़ परमाणु की अपेक्षा अन त गुना शिक्तशाली है , िकतना अद्भत

होगा, इसकी तो क पना कर सकना भी किठन है ।

योिगय म अनेक प्रकार की अद्भत


ु शिक्तयाँ होने के वणर्न और प्रमाण हमंक िमलते ह। योग की ऋिद्ध-
िसिद्धय की अनेक गाथाएँ सन
ु ी जाती ह। उनसे आ चयर् होता है और िव वास नहीं होता िक यह कहाँ
तक ठीक है ! पर जो लोग िवज्ञान से पिरिचत ह और जड़ परमाणु तथा चैत य फुि लंग को जानते ह,
उनके िलए इसम आ चयर् की कोई बात नहीं। िजस प्रकार आज परमाणु की शोध म प्र येक दे श के
वैज्ञािनक य त ह, उसी प्रकार पव
ू क
र् ाल म आ याि मक िवज्ञानवे ताओं ने, त वदशीर् ऋिषय ने मानव
शरीर के अ तगर्त एक बीज परमाणु की अ यिधक शोध की थी। दो परमाणओ
ु ं को तोडऩे, िमलाने या
थाना तिरत करने का सव च थान कु डिलनी के द्र म होता है , क्य िक अ य सब जगह के चैत य
परमाणु गोल और िचकने होते ह, पर कु डिलनी म यह िमथन ु िलपटा हुआ है । जैसे यूरेिनयम और
लेटोिनयम धातु म परमाणओ
ु ं का गु थन कुछ ऐसे टे ढ़े- ितरछे ढं ग से होता है िक उनका तोड़ा जाना
अ य पदाथ के परमाणओ
ु ं की अपेक्षा अिधक सरल है , उसी प्रकार कु डिलनी ि थत फुि लंग
परमाणओ ु म है । इसिलए प्राचीन काल म
ु ं की गितिविध को इ छानुकूल संचािलत करना अिधक सग
कु डिलनी जागरण की उतनी ही त परता से शोध हुई थी, िजतनी िक आजकल परमाणु िवज्ञान के बारे
म हो रही है । इन शोध के परीक्षण और प्रयोग के फल व प उ ह ऐसे िकतने ही रह य भी
करतलगत हुए थे, िज ह आज ‘योग के चम कार’ के नाम से पुकारते ह।

मैडम लेवेट की ने कु डिलनी शिक्त के बारे म काफी खोजबीन की है । वे िलखती ह- ‘‘कु डिलनी
िव व यापी सू म िव यत
ु ् शिक्त है , जो थल
ू िबजली की अपेक्षा कहीं अिधक शिक्तशािलनी है । इसकी
चाल सपर् की चाल की तरह टे ढ़ी है , इससे इसे सपार्कार कहते ह। प्रकाश एक लाख पचासी हजार मील
प्रित सेक ड चलता है , पर कु डिलनी की गित एक सेक ड म ३४५००० मील है ।’’ पा चा य वैज्ञािनक
इसे ‘‘ि प्रट- फायर’’ ‘‘सरपे टलपावर’’ कहते ह। इस स ब ध म सर जान बड
ु रफ ने भी बहुत िव तत

िववेचन िकया है ।

162
कु डिलनी को गु त शिक्तय की ितजोरी कहा जा सकता है । बहुमू य र न को रखने के िलये िकसी
अज्ञात थान म गु त पिरि थितय म ितजोरी रखी जाती है और उसम कई ताले लगा िदये जाते ह,
तािक घर या बाहर के अनिधकारी लोग उस खजाने म रखी हुई स पि त को न ले सक। परमा मा ने
हम शिक्तय का अक्षय भ डार दे कर उसम छ: ताले लगा िदये। ताले इसिलये लगा िदये ह िक वे जब
पात्रता आ जाये, धन के उ तरदािय व को ठीक प्रकार समझने लग, तभी वह सब प्रा त हो सके। उन
छह ताल की ताली मनु य को ही स प दी गयी है , तािक वह आव यकता के समय ताल को खोलकर
उिचत लाभ उठा सके|

ष चक्र

शू य चक्र आज्ञा चक्र िवशुद्धाख्य चक्र अनाहत चक्र


मिणपूरक चक्र वािध ठान चक्र मल
ू ाधार चक्र

नोट :—षटचक्र म केवल आज्ञा चक्र सामने की ओर है , शेष सभी मे द ड ि थत सष


ु ु ना नाड़ी म
ि थत ह।

यह छ: ताले जो कु डिलनी पर लगे हुए ह, छ: चक्र कहलाते ह। इन चक्र को वेधन करके जीव
कु डिलनी के समीप पहुँच सकता है और उसका यथोिचत उपयोग करके जीवन- लाभ प्रा त कर सकता
है । सब लोग की कु डिलनी साधारणत: अ त य त अव था म पड़ी रहती है , पर जब उसे जगाया जाता
है तो वह अपने थान पर से हट जाती है और उस लोक म प्रवेश कर जाने दे ती है िजसम
परमा मशिक्तय की प्राि त हो जाती है । बड़े- बड़े गु त खजाने जो प्राचीन काल से भिू म म िछपे पड़े
होते ह, उन पर सपर् की चौकीदारी पायी जाती है । खजाने के मख
ु पर कु डलीदार सपर् बैठा रहता है और
चौकीदारी िकया करता है ।

ु पर षटकोण कूमर् की िशला रक्खी हुई है और िशला से


दे वलोक भी ऐसा ही खजाना है , िजसके मँह
िलपटी हुइ भयंकर सिपर्णी कु डिलनी बैठी है । वह सिपर्णी अिधकारी पात्र की प्रतीक्षा म बैठी होती है ।
जैसे ही कोई अिधकारी उसके समीप पहुँचता है , वह उसे रोकने या हािन पहुँचाने की अपेक्षा अपने
थान से हटकर उसको रा ता दे दे ती है और उसका कायर् समा त हो जाता है ।

कु डिलनी- जागरण के लाभ पर प्रकाश डालते हुए एक अनुभवी साधक ने िलखा है - ‘‘भगवती
कु डिलनी की कृपा से साधक सवर्गण
ु स प न होता है । सब कलाय, सब िसिद्धयाँ उसे अनायास प्रा त
हो जाती ह। ऐसे साधक का शरीर सौ वषर् तक िबलकुल व थ और सु ढ़ रहता है । वह अपना जीवन
परमा मा की सेवा म लगा दे ता है और उसके आदे शानुसार लोकोपकार करते हुए अ त म वे छा से
अपना कलेवर छोड़ जाता है । कु डिलनी शिक्त स प न यिक्त पूणर् िनभर्य और आन दमय रहता है ।
भगवती की उस पर पण
ू र् कृपा रहती है और वह वयं सदै व अपने ऊपर उसकी छत्रछाया होने का
163
अनभ
ु व करता है । उसके कान म माता के ये श द गँज
ू ते रहते ह िक- भय नहीं, म तु हारे पीछे खड़ी
हूँ।’’ इसम स दे ह नहीं िक कु डिलनी शिक्त के प्रभाव से मनु य का ि टकोण दै वी हो जाता है और
इस कारण उसका यिक्त व सब प्रकार से शिक्त स प न और सख ु ी बन जाता है ।

मि त क के ब्र मर ध्र म िबखरे हुए सह दल भी साधारणत: उसी प्रकार प्रसु त अव था म पड़े रहते
ह, जैसे िक कु डिलनी सोया करती है । उतने बहुमू य य त्र और कोष के होते हुए भी मनु य
साधारणत: बड़ा दीन, दब
ु ल
र् , तु छ, क्षुद्र, िवषय- िवकार का गल
ु ाम बनकर कीट- पतंग की तरह जीवन
यतीत करता है और द:ु ख- दािर य की दासता म बँधा हुआ फडफ़ड़ाया करता है ; पर जब इन य त्र
और र नागार से पिरिचत होकर उनके उपयोग को जान लेता है , उन पर अिधकार कर लेता है , तब वह
परमा मा के स चे उ तरािधकारी की सम त योग्यताओं और शिक्तय से स प न हो जाता है ।
कु डिलनी जागरण से होने वाले लाभ के स ब ध म योगशा त्र म बड़ा िव तत
ृ और आकषर्क वणर्न
है । उन सबकी चचार् न करके यहाँ इतना कह दे ना पयार् त होगा िक कु डिलनी शिक्त के जागरण से
इस िव व म जो भी कुछ है , वह सब कुछ िमल सकता है । उसके िलए कोई व तु अप्रा य नहीं रहती।

ष चक्र का व प

ू तक पहुँचने के मागर् म छ: फाटक ह अथवा य कहना चािहए िक छ: ताले


कु डिलनी की शिक्त के मल
लगे हुए ह। यह फाटक या ताले खोलकर ही कोई जीव उन शिक्त- के द्र तक पहुँच सकता है । इन छ:
अवरोध को आ याि मक भाषा म ष चक्र कहते ह।

सष
ु ु ना के अ तगर्त रहने वाली तीन नािडय़ म सबसे भीतर ि थत ब्र मनाड़ी से वह छ: चक्र
स बि धत ह। माला के सत्रू म िपरोये हुए कमल- पु प से इनकी उपमा दी जाती है । िपछले प ृ ठ पर
िदये गये िचत्र म पाठक यह दे ख सकगे िक कौन- सा चक्र िकस थान पर है । मल
ू ाधार चक्र योिन की
सीध म, वािध ठान चक्र पेडू की सीध म, मिणपुर चक्र नािभ की सीध म, अनाहत चक्र दय की सीध
ृ ु िट के म य म अवि थत है । उनसे ऊपर
म, िवशुद्धाख्य चक्र क ठ की सीध म और आज्ञा चक्र भक
सह ार है ।

सष
ु ु ना तथा उसके अ तगर्त हरने वाली िचत्रणी आिद नािडय़ाँ इतनी सू म ह िक उ ह नेत्र से दे ख
सकना किठन है । िफर उनसे स बि धत यह चक्र तो और भी सू म ह। िकसी शरीर को चीर- फाड़
करते समय इन चक्र को नस- नािडय़ की तरह प ट प से नहीं दे खा जा सकता, क्य िक हमारे
चमर्चक्षुओं की वीक्षण शिक्त बहुत ही सीिमत है । श द की तरं ग, वायु के परमाणु तथा रोग के कीटाणु
हम आँख से िदखाई नहीं पड़ते, तो भी उनके अि त व से इनकार नहीं िकया जा सकता। इन चक्र को
योिगय ने अपनी योग ि ट से दे खा है और उनका वैज्ञािनक परीक्षण करके मह वपण
ू र् लाभ उठाया है
और उनके यवि थत िवज्ञान का िनमार्ण करके योग- मागर् के पिथक के िलए उसे उपि थत िकया है ।

164
‘ष चक्र’ एक प्रकार की सू म ग्रि थयाँ ह, जो ब्र मनाड़ी के मागर् म बनी हुई ह। इन चक्र- ग्रि थय म
जब साधक अपने यान को केि द्रत करता है , तो उसे वहाँ की सू म ि थित का बड़ा िविचत्र अनभ ु व
होता है । वे ग्रि थयाँ गोल नहीं होतीं, वरन ् उनम इस प्रकार के कोण िनकले होते ह, जैसे पु प म
पंखुिडय़ाँ होती ह। इन कोष या पंखुिडय़ को ‘पद्मदल’ कहते ह। यह एक प्रकार के त तु- गु छक ह।

इन चक्र के रं ग भी िविचत्र प्रकार के होते ह, क्य िक िकसी ग्रि थ म कोई और िकसी म कोई त व
प्रधान होता है । इस त व- प्रधानता का उस थान के रक्त पर प्रभाव पड़ता है और उसका रं ग बदल
जाता है । प ृ वी त व की प्रधानता का िम ण होने से गल
ु ाबी, अिग्न से नीला, वायु से शुद्ध लाल और
आकाश से धुमल
ै ा हो जाता है । यही िम ण चक्र का रं ग बदल दे ता है ।

घुन नामक कीड़ा लकड़ी को काटता चलता है तो उस काटे हुए थान की कुछ आकृितयाँ बन जाती ह।
उन चक्र म होता हुआ प्राण वायु आता- जाता है , उसका मागर् उस ग्रि थ की ि थित के अनुसार कुछ
टे ढ़ा- मेढ़ा होता है । इस गित की आकृित कई दे वनागरी अक्षर की आकृित से िमलती है , इसिलए वायु
मागर् चक्र के अक्षर कहलाते ह।

द्रत
ु गित से बहती हुई नदी म कुछ िवशेष थान म भँवर पड़ जाते ह। यह पानी के भँवर कहीं उथले,
कहीं गहरे , कहीं ितरछे , कहीं गोल- चौकोर हो जाते ह। प्राण वायु का सष
ु ु ना प्रवाह इन चक्र म होकर
द्रत
ु गित से गज
ु रता है , तो वहाँ एक प्रकार से सू म भँवर पड़ते ह िजनकी आकृित चतु कोण,
अधर्च द्राकार, ित्रकोण, ष कोण, गोलाकार, िलङ्गकार तथा पण
ू र् च द्राकार बनती है । अिग्न जब भी जलती
है , उसकी लौ ऊपर की ओर उठती है , जो नीचे मोटी और ऊपर पतली होती है । इस प्रकार अ यवि थत
ित्रकोण- सा बन जाता है । इस प्रकार की िविवध आकृितयाँ वायु प्रवाह से बनती ह। इन आकृितय को
चक्र के य त्र कहते ह।

शरीर पंचत व का बना हुआ है । इन त व के यूनािधक सि म ण से िविवध अंग- प्र यंग का


िनमार्ण कायर्, उनका संचालन होता है । िजस थान म िजस त व की िजतनी आव यकता है , उससे
यूनािधक हो जाने पर शरीर रोगग्र त हो जाता है । त व का यथा थान, यथा मात्रा म होना ही
िनरोिगता का िच न समझा जाता है । चक्र म भी एक- एक त व की प्रधानता रहती है । िजस चक्र म
जो त व प्रधान होता है , वही उसका त व कहा जाता है ।

ब्र मनाड़ी की पोली नली म होकर वायु का अिभगमन होता है , तो चक्र के सू म िछद्र के आघात से
उनम एक वैसी विन होती है , जैसी िक वंशी म वायु का प्रवेश होने पर िछद्र के आधार से विन
उ प न होती है । हर चक्र के एक सू म िछद्र म वंशी के वर- िछद्र की सी प्रितिक्रया होने के कारण
स, रे , ग, म जैसे वर की एक िवशेष विन प्रवािहत होती है , जो- यँ, लँ , रँ , हँ , जैसे वर म सन
ु ाई पड़ती
है , इसे चक्र का बीज कहते ह।

165
चक्र म वायु की चाल म अ तर होता है । जैसे वात, िप त, कफ की नाड़ी कपोत, म डूक, सपर्, कुक्कुट
आिद की चाल से चलती है । उस चाल को पहचान कर वै य लोग अपना कायर् करते ह। त व के
िम ण टे ढ़ा- मेढ़ा मागर्, भँवर, बीज आिद के सम वय से प्र येक चक्र म रक्तािभसरण, वायु अिभगमन के
संयोग से एक िवशेष चाल वहाँ पिरलिक्षत होती है । यह चाल िकसी चक्र म हाथी के समान म दगामी,
िकसी म मगर की तरह डुबकी मारने वाली, िकसी म िहरण की- सी छलाँग मारने वाली, िकसी म मेढक़
की तरह फुदकने वाली होती है । उस चाल को चक्र का वाहन कहते ह।

इन चक्र म िविवध दै वी शिक्तयाँ सि निहत ह। उ पादन, पोषण, संहार, ज्ञान, समिृ द्ध, बल आिद शिक्तय
को दे वता िवशेष की शिक्त माना गया है अथवा य किहये िक ये शिक्तयाँ ही दे वता ह। प्र येक चक्र
म एक पु ष वगर् की उ णवीयर् और एक त्री वगर् की शीतवीयर् शिक्त रहती है , क्य िक धन और ऋण,
अिग्न और सोम दोन त व के िमले िबना गित और जीव का प्रवाह उ प न नहीं होता। यह शिक्तयाँ
ही चक्र के दे वी- दे वता ह।

ु होते ह। प ृ वी का ग ध, जल का रस, अिग्र का


पंचत व के अपने- अपने गण प, वायु का पशर् और
आकाश का गण
ु श द होता है । चक्र म त व की प्रधानता के अनु प उनके गण
ु भी प्रधानता म होते
ह। यही चक्र के गण
ु ह।

यह चक्र अपनी सू म शिक्त को वैसे तो सम त शरीर म प्रवािहत करते ह, पर एक ज्ञानेि द्रय और


एक कमि द्रय से उनका स ब ध िवशेष प से होता है । स बि धत इि द्रय को वे अिधक प्रभािवत
करते ह। चक्र के जागरण के िच न उन इि द्रय पर तरु त पिरलिक्षत होते ह। इसी स ब ध िवशेष के
कारण वे इि द्रयाँ चक्र की इि द्रयाँ कहलाती ह।

दे व शिक्तय म डािकनी, रािकनी, शािकनी, हािकनी आिद के िविचत्र नाम को सन


ु कर उनके भत
ू नी,
ै , मशानी जैसी कोई चीज होने का भ्रम होता है , व तुत: बात ऐसी नहीं है । मख
चुड़ल ु से लेकर नािभ तक
चक्राकार ‘अ’ से लेकर ‘ह’ तक के सम त अक्षर की एक ग्रि थमाला है , उस माला के दान को
‘मातक
ृ ाय’ कहते ह। इन मातक
ृ ाओं के योग- दशर्न वारा ही ऋिषय ने दे वनागरी वणर्माला के अक्षर
की रचना की है । चक्र के दे व िजन मातक
ृ ाओं से झंकृत होते ह, स बद्ध होते ह, उ ह उन दे व की
दे वशिक्त कहते ह। ड, र, ल, क, श, के आगे आिद मातक
ृ ाओं का बोधक ‘िकनी’ श द जोडक़र रािकनी,
डािकनी बना िदये गये ह। यही दे व शिक्तयाँ ह।

उपयक्
ुर् त पिरभाषाओं को समझ लेने के उपरा त प्र येक चक्र की िनम्र जानकारी को ठीक प्रकार समझ
लेना पाठक के िलए सग
ु म होगा। अब छह चक्र का पिरचय नीचे िदया जा रहा है —

मल
ू ाधार चक्र-

166
थान- योिन (गद
ु ा के समीप)। दल- चार। वणर्- लाल। लोक- भ:ू लोक। दल के अक्षर- वँ, शँ, षँ, सँ। त व-
प ृ वी त व। बीज- लँ । वाहन- ऐरावत हाथी। गण
ु - ग ध। दे वशिक्त- डािकनी। य त्र- चतु कोण।
ज्ञानेि द्रय- नािसका। कमि द्रय- गद
ु ा। यान का फल- वक्ता, मनु य म े ठ, सवर् िव यािवनोदी, आरोग्य,
आन दिच त, का य और लेखन की साम य।

वािध ठान चक्र-

थान- पेडू (िश के सामने)। दल- छ:। वणर्- िस दरू । लोक- भव


ु :। दल के अक्षर- बँ, भँ, मँ, यँ, रँ , लँ ।
त व- जल त व। बीज- बँ। बीज का वाहन- मगर। गण
ु - रस। दे व- िव ण।ु दे वशिक्त- डािकनी। य त्र-
च द्राकार। ज्ञानेि द्रय- रसना। कमि द्रय- िलङ्गं। यान का फल- अहं कारािद िवकार का नाश, े ठ योग,
मोह की िनविृ त, रचना शिक्त।

मिणपरू चक्र-

थान- नािभ। दल- दस। वणर्- नील। लोक- व:। दल के अक्षर- डं, ढं , णं, तं, थं, दं , धं, नं, पं, फं। त व-
अिग्रत व। बीज- रं । बीज का वाहन- मढ़ा। गण
ु - प। दे व- वद्ध
ृ द्र। दे वशिक्त- शािकनी। य त्र- ित्रकोण।
ज्ञानेि द्रय- चक्षु। कमि द्रय- चरण। यान का फल- संहार और पालन की साम यर्, वचन िसिद्ध।

अनाहत चक्र-

थान- दय। दल- बारह। वणर्- अ ण। लोक- मह:। दल के अक्षर- कं, खं, गं, घं, ङं, चं, छं , जं, झं, ञं, टं , ठं । त व- वायु।
दे वशिक्त- कािकनी। य त्र- ष कोण। ज्ञानेि द्रय- वचा। कमि द्रय- हाथ। फल- वािम व, योगिसिद्ध, ज्ञान जागिृ त, इि द्रय जय,
परकाया प्रवेश।

िवशुद्धाख्य चक्र-

थान- क ठ। दल- सोलह। वणर्- धम्र


ू । लोक- जन:। दल के अक्षर- ‘अ’ से लेकर ‘अ:’ तक सोलह अक्षर।
त व- आकाश। त वबीज- हं । वाहन- हाथी। गण
ु - श द। दे व- पंचमख
ु ी सदािशव। दे वशिक्त- शािकनी।
य त्र- शू य (गोलाकार)। ज्ञानेि द्रय- कणर्। कमि द्रय- पाद। यान फल- िच त शाि त, ित्रकालदिशर् व, दीघर्
जीवन, तेजि वता, सवर्िहतपरायणता।

आज्ञा चक्र-

थान- भ्र।ू दल- दो। वणर्- वेत। दल के अक्षर- हं , क्षं। त व- मह: त व। बीज- ऊँ। बीज का वाहन- नाद।
दे व- योितिलर्ंग। दे वशिक्त- हािकनी। य त्र- िलङ्गकार। लोक- तप:। यान फल- सवार्थर् साधन।
ष चक्र म उपयक्
ुर् त छ: चक्र ही आते ह; पर तु सह ार या सह दल कमल को कोई- कोई लोग सातवाँ
शू य चक्र मानते ह। उसका भी वणर्न नीचे िकया जाता है —

167
शू य चक्र-

थान- म तक। दल- सह । दल के अक्षर- अं से क्षं तक की पन


ु राविृ तयाँ। लोक- स य। त व से
अतीत। बीज त व- (:) िवसगर्। बीज का वाहन- िब द।ु दे व- परब्र म। दे वशिक्त- महाशिक्त। य त्र- पण
ू र्
च द्रवत ्। प्रकाश- िनराकार। यान फल- भिक्त, अमरता, समािध, सम त ऋिद्ध- िसिद्धय का करतलगत
होना।

पाठक जानते ह िक कु डिलनी शिक्त का ोत है । वह हमारे शरीर का सबसे अिधक समीप चैत य
फुि लंग है । उसम बीज प से इतनी रह यमय शिक्तयाँ गिभर्त ह, िजनकी क पना तक नहीं हो
सकती। कु डिलनी शिक्त के इन छ: के द्र म, ष चक्र म भी उसका काफी प्रकाश है । जैसे सौरम डल
म नौ ग्रह ह, सय ू र् की
ू र् उनका के द्र है और च द्रमा, मङ्गल आिद उसम स बद्ध होने के कारण सय
पिरक्रमा करते ह, वे सय
ू र् की ऊ मा, आकषर्णी, िवलियनी आिद शिक्तय से प्रभािवत और ओत- प्रोत रहते
ह, वैसे ही कु डिलनी की शिक्तयाँ चक्र म भी प्रसािरत रहती ह। एक बड़ी ितजोरी म जैसे कई छोटे -
छोटे अनेक दराज होते ह, जैसे मधम
ु क्खी के एक बड़े छ ते म छोटे - छोटे अनेक िछद्र होते ह और उनम
भी कुछ मधु भरा रहता है , वैसे ही कु डिलनी की कुछ शिक्त का प्रकाश चक्र म भी होता है । चक्र के
जागरण के साथ- साथ उनम सि निहत िकतनी ही रह यमय शिक्तयाँ भी जाग पड़ती ह। उनका
सिक्ष त- सा सकत ऊपर चक्र के यान फल म बताया गया है । इनको िव तार करके कहा जाए तो
यह शिक्तयाँ भी आ चय से िकसी प्रकार कम प्रतीत नहीं ह गी।

चक्र का वेधन

ष चक्र का वेधन करते हुए कु डिलनी तक पहुँचना और उसे जाग्रत ् करके आ मो नित के मागर् म
लगा दे ना यह एक महािवज्ञान है । ऐसा ही महािवज्ञान, जैसा िक परमाणु बम का िनमार्ण एवं उसका
िव फोट करना एक अ य त उ तरदािय वपण
ू र् कायर् है । इसे य ही अपने आप केवल पु तक पढक़र
आर भ नहीं कर दे ना चािहए, वरन ् िकसी अनुभवी पथ- प्रदशर्क की संरक्षकता म यह सब िकया जाना
चािहए।

चक्र का वेधन यान- शिक्त के वारा िकया जाता है । यह सभी जानते ह िक हमारा मि त क एक
प्रकार का िबजलीघर है और उस िबजलीघर की प्रमख
ु धारा का नाम ‘मन’ है । मन की गित चंचल और
ु ी होती है । यह हर घड़ी चंचलतामग्न और सदा उछलकूद म य त रहता है । इस उथल- पुथल
बहुमख
के कारण उस िव यत ु ् पु ज का एक थान पर के द्रीकरण नहीं होता, िजससे कोई मह वपूणर् कायर्
स पादन हो। इसके अभाव म जीवन के क्षण य ही अ त- य त न ट होते रहते ह। यिद उस शिक्त
का एकीकरण हो जाता है , उसे एक थान पर संिचत कर िलया जाता है , तो आितशी शीशे वारा
एकित्रत हुई सय
ू र् िकरण वारा आग की लपट उठने लगने जैसे य उपि थत हो जाते ह। यान का
168
एक ऐसा सू म िवज्ञान है , िजसके
वारा मन की िबखरी हुई बहुमख
ु ी शिक्तयाँ एक थान पर एकित्रत
होकर एक कायर् म लगती ह। फल व प वहाँ असाधारण शिक्त का ोत प्रवािहत हो जाता है । यान
वारा मन:क्षेत्र की के द्रीयभत
ू इस िबजली से साधक ष चक्र का वेधन कर सकता है ।

ष चक्र के वेधन की साधना करने के िलए अनेक ग्र थ म अनेक मागर् बताये गये ह। इसी प्रकार गु
पर परा से चली आने वाली साधनाएँ भी िविवध प्रकार की ह। इन सभी माग से उ े य की पूितर् हो
सकती है , सफलता िमल सकती है , पर शतर् यह है िक उसे पण
ू र् िव वास, द्धा, िन ठा तथा उिचत पथ-
प्रदशर्न म िकया जाए।

अ य साधनाओं की चचार् और तुलना करके उनकी आलोचना- प्र यालोचना करना यहाँ हम अभी ट नहीं
है । इन पंिक्तय म तो हम एक ऐसी सग
ु म साधना पाठक के सामने उपि थत करना चाहते ह, िजसके
वारा गायत्री शिक्त से चक्र का जागरण बड़ी सिु वधापूवक
र् हो सकता है और अ य साधनाओं म आने
वाली असाधारण किठनाइय एवं खतर से वत त्र रहा जा सकता है ।

प्रात:काल शुद्ध शरीर और व थ िच त से सावधान होकर पद्मासन म बैिठए। पूवर् विणर्त ब्र मस या
की िक्रयाएँ कीिजए। इसके बाद गायत्री के एक सौ आठ म त्र की माला जिपए।

ब्र मस या करने के प चात ् मि त क के म य भाग ित्रकुटी म (एक रे खा एक कान से दस


ू रे कान
तक खींची जाए और दस
ू री रे खा दोन भ ह के म य म से मि त क के म य तक खींची जाए, तो
दोन का िमलन जहाँ होता है , उस थान को ित्रकुटी कहते ह।) वेदमाता गायत्री का योित व प यान
करना चािहए। मन को उसके म य से योितिलर्ंग के म य म इस प्रकार अवि थत करना चािहए जैसे
लह
ु ार अपने लोहे को गरम करने के िलए भठी म डाल दे ता है और जब वह लाल हो जाता है , तो उसे
बाहर िनकालकर ठोकता- पीटता और अभी ट व तु बनाता है । ित्रकुटी ि थत गायत्री योित म मन को
अवि थत रखने से मन वयं भी तेज व प हो जाता है । तब उसे आज्ञाचक्र के थान म लाना
चािहए। ब्र मनाड़ी मे द ड से आगे बढक़र ित्रकुटी म होती हुई सह ार को गयी है । इस ब्र मनाड़ी की
पोली नली म दीि तमान मन को प्रवेश कराके आज्ञाचक्र म ले जाया जाता है । वहाँ ि थरता करने पर
वे सब अनुभव होते ह, जो चक्र के लक्षण म विणर्त ह। मन को चक्र के दल का, अक्षर का, त व का,
बीज का, दे वशिक्त का, य त्र का, वाहन का, गण
ु - रं ग का अनुभव होता है । आर भ म अनुभव बहुत
अधूरे होते ह। धीरे - धीरे वे अिधक प ट हो जाते ह। कभी- कभी िक हीं यिक्तय के चक्र म कुछ
लक्षण भेद भी होता है । उसे अपने अ दर के चक्र की आकृित का अनुभव होगा।

व थ िच त से, सावधान होकर, एक मास तक एक चक्र की साधना करने से वह प्र फुिटत हो जाता
है । यान म उसके लक्षण अिधक प ट होने लगते ह और चक्र के थान पर उससे स बि धत
मातक
ृ ाओं, ज्ञानेि द्रय और कमि द्रय म अचानक क पन, रोमांच, प्र फुरण, उ तेजना, दाद, खाज, खुजली

169
जैसे अनभ
ु व होते ह। यह इस बात के िच न ह िक चक्र का जागरण हो रहा है । एक मास या
यन
ू ािधक काल म इस प्रकार के िच न प्रकट होने लग, यान म चक्र का प प ट होने लगे, तो
उससे आगे बढक़र इससे नीचे की ओर दस
ू रे चक्र म प्रवेश करना चािहए। िविध यही है - मागर् वही।
गायत्री योित म मन को तपाकर ब्र मनाड़ी म प्रवेश करना और उसम होकर पहले चक्र म जाना, िफर
उसे पार करके दस
ू रे म जाना। इस प्रकार एक चक्र म लगभग एक मास लगता है । जब साधना पक
जाती है , तो एक चक्र से दस
ू रे चक्र म जाने का मागर् खुल जाता है । जब तक साधना क ची रहती है ,
तब तक वार का रहता है । साधक का मन आगे बढऩा चाहे , तो भी वार नहीं िमलता और यह उसी
चक्र के त तुजाल की भल
ू भल
ु य
ै म उलझा रह जाता है ।

जब साधना दे र तक नहीं पकती और साधक को आगे का मागर् नहीं िमलता, तो उसे अनुभवी गु की
सहायता की आव यकता होती है । वह जैसा उपाय बताएँ वैसा उसे करना होता है । इसी प्रकार धीरे - धीरे
ू ाधार म ि थत कु डिलनी तक पहुँचता है और वहाँ
क्रमश: छह चक्र को पार करता हुआ साधक मल
उस वालामख ु ी कराल काल व प महाशिक्त सिपर्णी के िवकराल प का दशर्न करता है । महाकाली
का प्रच ड व प यहीं िदखाई पड़ता है । कई साधक इस सोते िसंह को जगाने का साहस करते हुए
काँप जाते ह।

कु डिलनी को जगाने म उसे पीिडत


़ करना पड़ता है , छे दना पड़ता है । जैसे परमाणु का िव फोट करने
के िलए उसे बीच म से छे दना पड़ता है , उसी प्रकार सु त कु डिलनी को गितशील बनाने के िलए उसी
पर आघात करना होता है । इसे आ याि मक भाषा म ‘कु डिलनी पीडऩ’ कहते ह। इससे पीिडत
़ होकर
क्षु ध कु डिलनी फुसकारती हुई जाग पड़ती है और उसका सबसे प्रथम आक्रमण, मन म लगे हुए
ज म- ज मा तर के सं कार पर होता है । वह सं कार को चबा जाती है , मन की छाती पर अपने
अ त्र सिहत चढ़ बैठती है और उसकी थूलता, मायापरायणता को न ट कर ब्र मभाव म पिरणत कर
दे ती है ।

इस कु डिलनी को जगाने और उसके जागने पर आक्रमण होने की िक्रया का पुराण ने बड़े ही


आलंकािरक और दयग्राही प से वणर्न िकया है । मिहषासरु और दग
ु ार् का युद्ध इसी आ याि मक
रह य का प्रतीक है । अपनी मिु क्त की कामना करते हुए, दे वी के हाथ मरने की कामना से उ सािहत
होकर मिहषासरु (मिह: यानी प ृ वी आिद प चभत ू से बना हुआ मन) च डी (कु डिलनी) से लडऩे लगता
है , उस चुपचाप बैठी हुई पर आक्रमण करता है । दे वी क्रुद्ध होकर उससे युद्ध करती ह, उस पर प्र याघात
करती ह। उसके वाहन मिहष को, सं कार के समह ू को चबा डालती ह। मन के भौितक आचरण को,
मिहषासरु के शरीर को, दस भज
ु ाओं को, दस िदशाओं से, सब ओर से िवदीणर् कर डालती ह और अ त
म मिहषासरु (साधारण बीज) च डी की योित म िमल जाता है , महाशिक्त का अंश होकर जीवन लाभ
को प्रा त कर लेता है । भिक्तमयी साधना का वह रौद्र प बड़ा ही िविचत्र है । इसे ‘साधना- समर’ कहते
ह।
170
जहाँ िकतने ही भक्त, पे ्रम और भिक्त वारा ब्र म को प्रा त करते ह, वहाँ ऐसे भी िकतने ही भक्त ह,
जो साधना- समर म ब्र म से लडक़र उसे प्रा त करते ह। भगवान ् तो िन ठा के भख
ू े ह, वे स चे प्रेमी
को भी िमल सकते ह, स चे शत्रु को भी। भक्त योगी भी उ ह पा सकते ह और साधना- समर म अपने
दो- दो हाथ िदखाने वाले हठयोगी, त त्रमागीर् भी उ ह प्रा त कर सकते ह। कु डिलनी जागरण ऐसा ही
हठ- तंत्र है , िजसके आधार पर आ मा तु छ से महान ् और अणु से िवभु बनकर ई वरीय सवर् शिक्तय
से स प न हो जाती है ।

ष चक्र की साधना करते समय प्रितिदन ब्र मनाड़ी म प्रवेश करके चक्र का यान करते ह। यह यान
पाँच िमनट से आर भ करके तीस िमनट तक पहुँचाया जा सकता है । एक बार म इससे अिधक यान
करना हािनकारक है , क्य िक अिधक यान से बढ़ी ऊ मा को सहन करना किठन हो जाता है । यान
समा त करते समय उसी मागर् पर वापस लौटकर मन को ित्रकुटी म लगाया जाता है और िफर यान
को समा त कर िदया जाता है ।

यह कहने की आव यकता ही नहीं िक साधनाकाल म ब्र मचयर् से रहना, एक बार भोजन करना,
साि वक खा य पदाथर् ग्रहण करना, एका त सेवन करना, व थ वातावरण म रहना, िदनचयार् को ठीक
रखना अिनवायर् है , क्य िक यह साधनाओं की प्रारि भक शत मानी गई ह।
ष चक्र के वेधन और कु डिलनी के जागरण से ब्र मर ध्र म ई वरीय िद यशिक्त के दशर्न होते ह और
गु त िसिद्धयाँ प्रा त होती ह।

यह िद य प्रसाद और को भी बाँिटये
पु य कम के साथ प्रसाद बाँटना एक आव यक धमर्कृ य माना गया है । स यनारायण की कथा के
अ त म पंचामत
ृ , पँजीरी बाँटी जाती है । यज्ञ के अ त म उपि थत यिक्तय को हलआ
ु या अ य
िम ठा न बाँटते ह। गीत- मङ्गल, पज
ू ा- कीतर्न आिद के प चात ् प्रसाद बाँटा जाता है । दे वता, पीर- मरु ीद
आिद की प्रस नता के िलए बतासे, रे वड़ी या अ य प्रसाद बाँटा जाता है । मि दर म जहाँ अिधक भीड़
होती है और अिधक धन खचर्ने को नहीं होता, वहाँ जल म तुलसी पत्र डालकर चरणामत
ृ को ही प्रसाद
के प म बाँटते ह। ता पयर् यह है िक शुभ काय के प चात ् कोई न कोई प्रसाद बाँटना आव यक होता
है । इसका कारण यह है िक शुभ कायर् के साथ जो शुभ वातावरण पैदा होता है , उसे खा य पदाथ के
साथ स बि धत करके उपि थत यिक्तय को दे ते ह, तािक वे भी उन शभ
ु त व को ग्रहण करके
आ मसात ् कर सक। दस
ू री बात यह है िक उस प्रसाद के साथ िद य त व के प्रित द्धा की धारणा
होती है और मधुर पदाथ को ग्रहण करते समय प्रस नता का आिवभार्व होता है । इन त व की
अिभविृ द्ध से प्रसाद ग्रहण करने वाला अ या म की ओर आकिषर्त होता है और यह आकषर्ण अ तत:
उसके िलए सवर्तोमख
ु ी क याण को प्रा त कराने वाला िसद्ध होता है । यह पर परा एक से दस
ू रे म, दस
ू रे
171
से तीसरे म चलती रहे और धमर्विृ द्ध का यह क्रम बराबर बढ़ता रहे , इस लाभ को
यान म रखते हुए
अ या म िव या के आचाय ने यह आदे श िकया िक प्र येक शभ
ु कायर् के अ त म प्रसाद बाँटना
आव यक है । शा त्र म ऐसे आदे श िमलते ह, िजनम कहा गया है िक अ त म प्रसाद िवतरण न करने
से यह कायर् िन फल हो जाता है । इसका ता पयर् प्रसाद के मह व की ओर लोग को सावधान करने
का है ।

गायत्री साधना भी एक यज्ञ है । यह असाधारण यज्ञ है । अिग्न म सामग्री की आहुित दे ना थूल


कमर्का ड है , पर आ मा म परमा मा की थापना सू म यज्ञ है िजसकी मह ता थल ू अिग्नहोत्र की
ु ी अिधक होती है । इतने महान ् धमर्कृ य के साथ- साथ प्रसाद का िवतरण भी ऐसा
अपेक्षा अनेक गन
होना चािहये जो उसकी मह ता के अनु प हो। रे वड़ी, बतासे, ल डू या हलआ
ु - पूरी बाँट दे ने मात्र से यह
कायर् पूरा नहीं हो सकता। गायत्री का प्रसाद तो ऐसा होना चािहये, िजसे ग्रहण करने वाले को वगीर्य
वाद िमले, िजसे खाकर उसकी आ मा त ृ त हो जाए। गायत्री ब्रा मशिक्त है , उसका प्रसाद भी ब्रा मी
प्रसाद होना चािहए, तभी वह उपयक्
ु त गौरव का कायर् होगा। इस प्रकार का प्रसाद हो सकता है -
ब्र मदान, ब्रा मि थित की ओर चलाने का आकषर्ण, प्रो साहन। िजस यिक्त को ब्र म- प्रसाद लेना है ,
उसे आ मक याण की िदशा म आकिषर्त करना और उस ओर चलने के िलए उसे प्रो सािहत करना ही
प्रसाद है ।

यह प्रकट है िक भौितक और आि मक आन द के सम त ोत मानव प्राणी के अ त:करण म िछपे


हुए ह। स पि तयाँ संसार म बाहर नहीं ह; बाहर तो प थर, धातुओं के टुकड़े और िनजीर्व पदाथर् भरे पड़े
ह। स पि तय के सम त कोष आ मा म सि निहत ह, िजनके दशर्न मात्र से मनु य को तिृ त िमल
जाती है और उसके उपयोग करने पर आन द का पारावार नहीं रहता। उन आन द भ डार को खोलने
की कु जी आ याि मक साधनाओं म है और उन सम त साधनाओं म गायत्री साधना सवर् े ठ है । यह
े ठता अतुलनीय है , असाधारण है । उनकी िसद्धय और चम कार का कोई पारावार नहीं। ऐसे े ठ
साधना के मागर् पर यिद िकसी को आकिषर्त िकया जाए, प्रो सािहत िकया जाए और जट
ु ा िदया जाए, तो
इससे बढक़र उस यिक्त का और कोई उपकार नहीं हो सकता। जैसे- जैसे उसके अ दर साि वक
त व की विृ द्ध होगी, वैसे- वैसे उसके िवचार और कायर् पु यमय होते जायगे और उसका प्रभाव दस
ू र
पर पडऩे से वे भी स मागर् का अवल बन प्रा त करगे। यह शंख
ृ ला जैसे- जैसे बढ़े गी, वैसे ही वैसे संसार
म सख
ु - शाि त की, पु य की मात्रा बढ़े गी और इस कमर् के पु य फल म उस यिक्त का भी भाग
होगा, िजसने िकसी को आ म- मागर् म प्रो सािहत िकया था।

जो यिक्त गायत्री की साधना करे , उसे प्रितज्ञा करनी चािहये िक म भगवती को प्रस न करने के िलए
उसका महाप्रसाद, ब्र म- प्रसाद अव य िवतरण क ँ गा। यह िवतरण इस प्रकार का होना चािहये, िजनम
पहले से कुछ शुभ सं कार के बीज मौजद
ू ह , उ ह धीरे - धीरे गायत्री का माहा य, रह य, लाभ
समझाते रहा जाए। जो लोग आ याि मक उ नित के मह व को नहीं समझते, उ ह गायत्री से होने
172
वाले भौितक लाभ का सिव तार वणर्न िकया जाए, ‘गायत्री तपोभिू म, मथरु ा’ वारा प्रकािशत गायत्री
सािह य पढ़ाया जाए। इस प्रकार उनकी िच को इस िदशा म मोड़ा जाए, िजससे वे आर भ म भले ही
सकाम भावना से ही सही, वेदमाता का आ य ग्रहण कर, पीछे तो वयं ही इस महान ् लाभ पर मग्ु ध
होकर छोडऩे का नाम न लगे। एक बार रा ते पर डाल दे ने से गाड़ी अपने आप ठीक मागर् पर चलती
जाती है ।

यह ब्र म- प्रसाद अ य साधारण थूल पदाथ की अपेक्षा कहीं अिधक मह वपूणर् ह। आइये, इसे धन से
ही नहीं, प्रय न से ही िवतरण हो सकने वाले ब्र म प्रसाद को िवतरण करके वेदमाता की कृपा प्रा त
कीिजये और अक्षय पु य के भागीदार बिनये।

गायत्री महािवज्ञान भाग ३ भूिमका


गायत्री वह दै वी शिक्त है िजससे स ब ध थािपत करके मनु य अपने जीवन िवकास के मागर् म बड़ी
सहायता प्रा त कर सकता है । परमा मा की अनेक शिक्तयाँ ह, िजनके कायर् और गण
ु पथ
ृ क् पथ
ृ क् ह।
उन शिक्तय म गायत्री का थान बहुत ही मह वपणू र् है । यह मनु य को स बिु द्ध की प्रेरणा दे ती है ।
गायत्री से आ मस ब ध थािपत करने वाले मनु य म िनर तर एक ऐसी सू म एवं चैत य िव यत ु ्
धारा संचरण करने लगती है , जो प्रधानतः मन, बिु द्ध, िच त और अ तःकरण पर अपना प्रभाव डालती है ।
बौिद्धक क्षेत्र के अनेक कुिवचार , असत ् संक प , पतनो मख
ु दग
ु ण
ुर् का अ धकार गायत्री पी िद य
प्रकाश के उदय होने से हटने लगता है । यह प्रकाश जैसे- जैसे ती होने लगता है , वैसे- वैसे अकार का
अ त भी उसी क्रम से होता जाता है ।

मनोभिू म को सु यवि थत, व थ, सतोगण


ु ी एवं स तुिलत बनाने म गायत्री का चम कारी लाभ
असंिदग्ध है और यह भी प ट है िक िजसकी मनोभिू म िजतने अंश म सिु वकिसत है , वह उसी
अनुपात म सख
ु ी रहे गा, क्य िक िवचार से कायर् होते ह और काय के पिरणाम सख
ु - दःु ख के प म
सामने आते ह। िजसके िवचार उ तम ह, वह उ तम कायर् करे गा, िजसके कायर् उ तम ह गे, उसके चरण
तले सख
ु - शाि त लोटती रहे गी।

गायत्री उपासना वारा साधक को बड़े- बड़े लाभ प्रा त होते ह। हमारे परामशर् एवं पथ- प्रदशर्न म अब
तक अनेक यिक्तय ने गायत्री उपासना की है । उ ह सांसािरक और आि मक जो आ चयर्जनक लाभ
हुए ह, हमने अपनी आँख दे खे ह। इसका कारण यही है िक उ ह दै वी वरदान के प म स बुिद्ध प्रा त
होत है और उसके प्रकाश म उन सब दब ु ल
र् ताओं, उलझन , किठनाइय का हल िनकल आता है , जो
मनु य को दीन- हीन, दःु खी, दिरद्र, िच तातुर, कुमागर्गामी बनाती ह। जैसे प्रकाश का न होना ही
अ धकार है , जैसे अ धकार वत त्र प से कोई व तु नहीं है ; इसी प्रकार स ज्ञान का न होना ही दःु ख
173
है , अ यथा परमा मा की इस पु य सिृ ट म दःु ख का एक कण भी नहीं है । परमा मा सत ्- िचत ् व प
है , उसकी रच भी वैसी ही है । केवल मनु य अपनी आ तिरक दब
ु ल
र् ता के कारण, स ज्ञान के अभाव के
कारण दःु खी रहता है , अ यथा सरु दल
ु भ
र् मानव शरीर ‘‘ वगार्दिप गरीयसी’’ धरती माता पर दःु ख का
कोई कारण नहीं, यहाँ सवर्त्र, सवर्था आन द ही आन द है ।

स ज्ञान की उपासना का ना ही गायत्री उपासना है । जो इस साधना के साधक ह, उ ह आि मक एवं


सांसािरक सख
ु की कमी नहीं रहती, ऐसा हमारा सिु नि चत िव वास और दीघर्कालीन अनुभव है ।
— ीराम शमार् आचायर्

गायत्री के पाँच मख

गायत्री को प चमख
ु ी कहा गया है । प चमख
ु ी शंकर की भाँित गायत्री भी प चमख
ु ी है । पुराण म ऐसा
वणर्न कई जगह आया है िजसम वेदमाता गायत्री को पाँच मख
ु वाली कहा गया है । अिधक मुख,
अिधक हाथ- पाँव वाले दे वताओं का होना कुछ अटपटा- सा लगता है । इसिलए बहुधा इस स ब ध म
स दे ह प्रकट िकया जाता है । चार मख
ु वाले ब्र माजी, पाँच मख
ु वाले िशवजी, छह मख
ु वाले काितर्केयजी
बताए गए ह। चतभ
ु ज
ुर् ी िव ण,ु अ टभज
ु ी दग
ु ार्, दशभज
ु ी गणेश प्रिसद्ध ह। ऐसे उदाहरण कुछ और भी ह।
रावण के दस िसर और बीस भज
ु ाएँ भी प्रिसद्ध ह। सह बाहु की हजार भज
ु ा और इ द्र के हजार नेत्र
का वणर्न है ।

यह प्रकट है िक अ योिक्तयाँ पहे िलयाँ बड़ी आकर् एवं मनोर होती ह, इनके पूछने और उ तर दे ने म
रह यो घाटन की एक िवशेष मह वपूणर् मनोवैज्ञािनक प्रिक्रया का िवकास होता है । छोटे ब च से
पहे िलयाँ पछ
ू ते ह तो वे उस िवलक्षण प्र न का उ तर खोजने म अपने मि त क को दरू - दरू तक दौड़ाते
ह और उ तर खोजने म बुिद्ध पर काफी जोर दे ते ह। वयं नहीं सझ
ू पड़ता तो दस
ू र से आग्रहपूवक
र्
पूछते ह। जब तक उस िवलक्षण पहे ली का उ तर नहीं िमल जाता, तब तक उनके मन म बड़ी
उ सक
ु ता, बेचैनी रहती है । इस प्रकार सीधे- सादे नीरस प्र न की अपेक्षा टे ढ़े- मेढ़े उलझन भरे िवलक्षण
प्र न- पहे िलय के वारा हल करने से बालक को बौिद्धक िवकास और मनोरं जन दोन प्रा त होते ह।

दे वताओं के अिधक अंग का रह य

दे व- दानव के अिधक मुख और अिधक अंग ऐसी ही रह यमय पहे िलयाँ ह, िजनम त स ब धी प्रमख

त य का रह य सि निहत होता है । वह सोचता है ऐसी िविचत्रता क्य हुई? इस प्र न- पहे ली का
समाधान करने के िनिम त जब वह अ वेषण करता है , तब पता चल जाता है िक इस बहाने कैसे
मह वपूणर् त य उसे प्रा त होते ह। अनुभव कहता है िक यिद इस प्रकार उलझी पहे ली न होती, तो

174
शायद उनका यान भी इन रह यमय बात की न जाता और वह उस अमू य जानकारी से वंिचत रह
जाता। पहे िलय के उ तर बालक को ऐसी ढ़तापव
ू क
र् याद हो जाते ह िक वे भल
ू ते नहीं। आ याि मक
कक्षा का िव याथीर् भी अिधक मख
ु वाले दे वताओं को समझने के िलए जब उ सक
ु होता है , तो उसे वे
अद्भत
ु बात सहज ही िविदत हो जाती ह जो उस िद य महाशिक्त से स बद्ध ह।

कभी अवसर िमलेगा तो सभी दे वताओं की आकृितय के बारे म िव तारपूवक


र् पाठक को बताएँगे।
हनुमान जी की पँछ
ू , गणेश जी की सँड़
ू , हयग्रीव का अ वमख
ु , ब्र माजी के चार मख
ु , दग
ु ार्जी की आठ
ु ाएँ, िशवजी के तीन नेत्र, काितर्केय जी के छह मख
भज ु तथा इन दे वताओं के मष
ू क, मोर, बैल, िसंह आिद
वाहन म क्या रह य ह? इसका िव तत
ृ िववेचन िफर कभी करगे। आज तो गायत्री के पाँच मख
ु के
स ब ध म ही प्रकाश डालना है ।

गायत्री सु यव थत जीवन का, धािमर्क जीवन का अिव छ न अंग है , तो उसे भली प्रकार समझना, उसके
ममर्, रह य, त य और उपकरण को जानना भी आव यक है । डॉक्टर, इ जीिनयर, य त्रिव , बढ़ई, लोहार,
रं गरे ज, हलवाई, सन
ु ार, दरजी, कु हार, जल
ु ाहा, नट, कथावाचक, अ यापक, गायक, िकसान आिद सभी वगर् के
कायर्क तार् अपने काम की बारीकय को जानते ह और प्रयोग- िविध तथा हािन- लाभ के कारण को
समझते ह। गायत्री िव या के िजज्ञासओ
ु ं और प्रयोक्ताओं को भी अपने िवषय म भली प्रकार पिरिचत
होना चािहए, अ यथा सफलता का क्षेत्र अव द्ध हो जाएगा। ऋिषय ने गायत्री के पाँच मख
ु बताकर हम
यह बताया है िक इस महाशिक्त के अ तगर्त पाँच त य ऐसे ह िजनको जानकर और उनका ठीक
प्रकार अवगाहन करके संसार- सागर के सभी द ु तर दिु रत से पार हुआ जा सकता है ।

गायत्री के पाँच मख
ु वा तव म उसके पाँच भाग ह—(१) ॐ, (२) भःू भव
ु ः वः, (३) त सवतव
ु रर् े यम ्, (४)
भग दे व य धीमिह, (५) िधयो योनः प्रचोदयात ्। यज्ञोपवीत के पाँच भाग ह- तीन लड़, चौथी म य
ग्रि थयाँ, पाँचवीं ब्र मग्रि थ। पाँच दे वता प्रिसद्ध ह—ॐ अथार्त ् गणश, या ित अथार्त ् भवानी, गायत्री का
प्रथम चरण- ब्र मा, िवतीय चरण- िव ण,ु तत
ृ ीय चरण- महे श। इस प्रकार ये पाँच दे वता गायत्री के प्रमख

शिक्तपु ज कहे जा सकते ह।

गायत्री के इन पाँच भाग म वे स दे श िछपे हुए ह, जो मानव जीवन की बा य एवं आ तिरक


सम याओं को हल कर सकते ह। हम क्या ह? िकस कारण जीवन धारण िकए हुए ह? हमारा ल य क्या
है ? अभावग्र त और दःु खी रहने का कारण क्या है ? सांसािरक स पदाओं की और आि मक शाि त की
प्राि त िकस प्रकार हो सकती है ? कौन ब धन हम ज म- मरण के चक्र म बाँधे हुए ह? िकस उपाय से
छुटकारा िमल सकता है ? अन त आन द का उ गम कहाँ है ? िव व क्या है ? संसार का और हमारा क्या
स ब ध है ? ज म- म ृ यु के त्रासदायक चक्र को कैसे तोड़ा जा सकता है ? आिद जिटल प्र न के सरल
उ तर उपरोक्त पंचक म मौजद
ू ह।

175
गायत्री के पाँच मख
ु असंख्य सू म रह य और त व अपने भीतर िछपाए हुए ह। उ ह जानने के बाद
मनु य को इतनी तिृ त हो जाती है िक कुछ और जानने लायक बात उसको सू नहीं पड़ती। महिषर्
उ ालक ने उस िव या की प्रत ठा की थी िजसे जानकर और कुछ जानना शेष नहीं रह जाता, वह
िव या गायत्री िव या ही है । चार वेद और पाँचवाँ यज्ञ, यह पाँच ही गायत्री के पाँच मख
ु ह, िजनम
सम त ज्ञान- िवज्ञान और धमर्- कमर् बीज प म के द्रीभत
ू हो रहा है ।

शरीर पाँच त व से बना हुआ है और आ मा के पाँच कोश ह। िमट्ट, पानी, हवा, अिग्न और आकाश के
सि म ण से दे ह बनती है । गायत्री के पाँच मख
ु बताते ह िक यह शरीर और कुछ नहीं, केवल पंचभत

का, जड़ परमाणओ
ु ं का सि म ण मात्र है । यह हमारे िलए अ य त उपयोगी औजार, सेवक एवं वाहन
है । अपने आप को शरीर समझ बैठना भारी भल
ू है । इस भल
ू को ही माया या अिव या कहते ह। शरीर
का एवं संसार का वा तिवक प समझ लेने पर जीव मोह- िनद्रा से जाग उठता है और संचय,
ु मोड़कर आ मक याण की ओर लगता है । पाँच मख
वािम व एवं भोग की बाल- क्रीड़ा से मँह ु का
एक स दे श यह है —पंचत व से बने पदाथ को केवल उपयोग की व तु समझ, उनम िल त, त मय,
आसक्त एवं मोहग्र त न ह ।

गायत्री के पाँच मख
ु से प चकोश का संकेत

पाँच मख
ु का दस
ू रा संकेत आ मा के कोश की ओर है । जैसे शरीर से ऊपर बिनयान, कुरता, बासकट,
कोट और ओवरकोट एक के ऊपर एक पहन लेते ह, वैसे ही आ मा के ऊपर यह पाँच आवरण चढ़े हुए
ह। इन पाँच को (१) अ मय कोश, (२) प्राणमय कोश, (३) मनोमय कोश, (४) िवज्ञानमय कोश, (५)
आन दमय कोश कहते ह। इन पाँच परकोट के िकले म जीव ब दी बना हुआ है । जब इसके फाटक
खल
ु जाते ह तो आ मा ब नमक्
ु त हो जाती है ।

य तो गायत्री के पाँच मुख म अनेक पंचक के अद्भत


ु रह य िछपे हुए ह, पर उन सबकी चचार् इस
पु तक म नहीं हो सकती। यहाँ तो हम इन पाँच कोश पर ही कुछ प्रकाश डालना है । कोश खजाने को
भी कहते ह। आ मा के पास ये पाँच खजाने ह, इनम से हर एक म बहुमू य स पदाएँ भरी पड़ी ह।
जैसे धन- कुबेर के यहाँ नोट रखने की, चाँदी रखने की, सोना रखने की, जवाहरात रखने की, हुंडी- चैक
आिद रखने की जगह अलग- अलग होती है , वैसे ही आ मा के पास भी पाँच खजाने ह। िसद्ध िकए हुए
पाँच कोश के वारा ऐसी अगणत स पदाएँ, सखु - सवु धाएँ िमलती ह, िजनको पाकर इसी जीवन म
वगीर्य आन द की उपलि ध होती है । योगी लोग उसी आन द के िलए तप करते ह और दे वता लोग
उसी आन द के िलए नर- तन धारण करने को तरसते रहते ह। कोश का सदप
ु योग अन त आन द का
उ पादक है और उनका द ु पयोग पाँच परकोट वाले कैदखाने के प म ब धनकारक बन जाता है ।

पंचकोश का उपहार प्रभु ने हमारी अन त सख


ु - सिु वधाओं के िलए िदया है । ये पाँच सवािरयाँ ह, जो

176
अिन ट पी शत्रओ
ु ं का िवनाश और आ मसंरक्षण करने के िलए अतीव उपयोगी ह। ये पाँच
शिक्तशाली सेवक ह, जो हर घड़ी आज्ञापालन के िलए प्र तत
ु रहते ह। इन पाँच खजान म अटूट
स पदा भरी पड़ी है । इस पंचामत
ृ का ऐसा वाद है िक िजसकी बँद
ू चखने के िलए मक्
ु त हुई आ माएँ
लौट- लौटकर नर- तन म अवतार लेती रहती ह।

िबगड़ा हुआ अमत ृ िवष हो जाता है । वािमभक्त कु ता पागल हो जाने पर अपने पालने वाल को ही
संकट म डाल दे ता है । सड़ा हुआ अ न िव ठा कहलाता है । जीवन का आधार रक्त जब सड़ने लगता है ,
ु िर् धत पीव बनकर वेदनाकर फोड़े के प म प्रकट होता है । पंचकोश का िवकृत प भी हमारे
तो दग
िलए ऐसा ही दःु खदायी होता है । नाना प्रकार के पाप- ताप , क्लेश , कलह , दःु ख , दभ
ु ार्ग्य , िच ता- शोक ,
अभाव, दािर य, पीड़ा और वेदनाओं म तड़पते हुए मानव इस िवकृित के ही िशकार हो रहे ह। सु दरता
और ि ट- योित के के द्र नेत्र म जब िवकृित आ जाती है , दःु खने लगते ह, तो सु दरता एक ओर
रही, उलटी उन पर िचथड़ की प ◌्टी बँध जाती है , सु दर य दे खकर मनोरं जन करना तो दरू , ददर् के
मारे मछली की तरह तड़पना पड़ता है । आन द के उ गम पाँच कोश की िवकृित ही जीवन को दःु खी
बनाती है , अ यथा ई वर का राजकुमार िजस िद य रथ म बैठकर िजस न दन वन म आया है , उसम
आन द ही आन द िमलना चािहए। दःु ख- दभ
ु ार्ग्य का कारण इस िवकृित के अितिरक्त और कोई हो ही
नहीं सकता।

पाँच त व, पाँच कोश, पाँच ज्ञानेि द्रयाँ, पाँच कमि द्रयाँ, पाँच प्राण, पाँच उपप्राण, पाँच त मात्राएँ, पाँच
यज्ञ, पाँच दे व, पाँच योग, पाँच अिग्न, पाँच अंग, पाँच वणर्, पाँच ि थित, पाँच अव था, पाँच शूल, पाँच क्लेश
आिद अनेक पंचक गायत्री के पाँच मख
ु से स बि धत ह। इनको िसद्ध करने वाले पु षाथीर् यिक्त
ऋिष, राजिषर्, ब्र मिषर्, महिषर्, दे विषर् कहलाते ह। आ मो नित की पाँच कक्षाएँ ह, पाँच भिू मकाएँ ह। उनम
से जो िजस कक्षा की भिू मका को उ तीणर् कर लेता है , वह उसी ेणी का ऋिष बन जाता है । िकसी
समय भारत भिू म ऋिषय की भिू म थी। यहाँ ऋिष से कम तो कोई था ही नहीं, पर आज तो लोग ने
उस पंचायत का ितर कार कर रखा है और बुरी तरह प्रप च म फँसकर प चक्लेश से पीिड़त हो रहे
ह।

अन त आन द की साधना
तैि तरीयोपिनष की तत
ृ ीय ब ली (भग
ृ ु ब ली) म एक बड़ी ही मह वपण
ू र् आख्याियका आती है । उसम
प चकोश की साधना पर मािमर्क प्रकाश डाला गया है ।

व ण के पुत्र भग
ृ ु ने अपने िपता के िनकट जाकर प्राथर्ना की िक ‘अधीिह भगवो ब्र मेित’ अथार्त ् हे
भगवन ्! मझ
ु े ब्र मज्ञान की िशक्षा दीिजए।

177
व ण ने उ तर िदया— ‘यतो वा इमािन भत
ू ािन जाय ते, येन जातािन जीवि त, य प्रय यिभसंिवशि त,
त िविजज्ञास व, त ब्र मेित।’

अथार्त ्- िजससे सम त प्राणी उ प न होते ह, उ प न होकर जीिवत रहते ह और अ त म िजसम


ृ !ु तू उसी ब्र म को जानने की इ छा कर।
िवलीन हो जाते ह, हे भग

िपता के आदे शानस


ु ार पत्र
ु ने उस ब्र म को जानने के िलए तप आर भ कर िदया। दीघर्कालीन तप के
उपरा त भग
ृ ु ने ‘अ नमय जगत ्’ ( थल
ू संसार) म फैली ब्र म- िवभिू त को जान िलया और वह िपता के
पास पहुँचा।

व ण ने भग
ृ ु से िफर कहा—‘तपसो ब्र म िविजज्ञास व तपो ब्र मेित’ अथार्त ् हे पुत्र! तू तप करके ब्र म
को जानने का प्रय न कर, क्य िक ब्र म को तप वारा ही जाना जाता है ।

भग
ृ ु ने िफर तप या की और ‘प्राणमय जगत ्’ की ब्र म- िवभिू त को जान िलया। िफर वह िपता के पास
पहुँचा, तो व ण ने पुनः उसे तप वारा ब्र म को जानने का उपदे श िदया।

पुत्र ने पन
ु ः कठोर तप िकया और ‘मनोमय जगत ्’ की ब्र म- िवभिू त का अिभज्ञान प्रा त कर िलया।
िपता ने उसे िफर तप म लगा िदया। अब उसने ‘िवज्ञानमय जगत ्’ की ई वरीय िवभिू त को प्रा त कर
िलया। अ त म पाँचवीं बार भी िपता ने उसे तप म ही प्रव ृ त िकया और भग
ृ ु ने उस आन दमयी
िवभिू त को भी उपल ध कर िलया।

‘आन दमय जगत ्’ की अि तम सीढ़ी पर पहुँचने से िकस प्रकार पूणर् ब्र मज्ञान प्रा त होता है , इसका
वणर्न करते हुए ‘तैि तरीयोपिनष ’ की तत
ृ ीय व ली के छठवे म त्र म बताया गया है —

‘आन दो ब्र मेित यजानात ्। आन दा येव खि वमािन भत


ू ािन जाय ते। आन दे न जातािन जीवि त।
आन दं प्रय यिभसंिवश तीित। सैषा भागर्वी वा णी िव या। परमे योमन ् प्रिति ठता।’

ृ ु) ने जाना िक आन द ही ब्र म है । आन द से ही सब प्राणी उ प न होते ह, उ प न


अथार्त ् उस (भग
होकर आन द म ही जीिवत रहते ह और अ त म आन द म ही िवलीन हो जाते ह।

उपिनष कार ने उपरोक्त आख्याियका म ब्र मान द, परमान द, आ मान द म ही ब्र मज्ञान का अि तम
ल य बताया है । आन दमय जगत ् के कोश म पहुँचने के िलए तप करने का संकेत िकया है । कोश की
सीिढ़याँ जैसे- जैसे पार होती जाती ह, वैसे ही वैसे ब्र म की उपलि ध िनकट आती जाती है । आगे
बताया िक—

‘स य एवंिवत ् अ मा लोका प्रे य। ऐतम नमयमा मानमप


ु संक्रामित, एतं प्राणमयमा मानमप
ु संक्रामित,

178
एतं मनोमयमा मानमप
ु संक्रामित, एतं िवज्ञानमयमा मानमप
ु संक्रामित, एतमान दमयमा मानमप
ु संक्रामित।
इमाँ लोका कामा नी काम यनस
ु चरन ्। एत सामगाय ना ते।’

अथार्त ्- इस प्रकार जो मनु य ब्र मज्ञान को प्रा त कर लेता है , वह इस अ नमय कोश को पार कर, इस
प्राणमय कोश को पार कर, इस मनोमय कोश को पार कर, इस िवज्ञानमय कोश को पार कर, इस
आन दमय कोश को पार कर इ छानुसार भोगवाला और इ छानुसार पवाला हो जाता है तथा इन सब
लोक म िवचरता हुआ इस साम का गायन करता रहता है ।

जीवन इसिलए है िक ब्र म पी आन द को प्रा त िकया जाए, न इसिलए िक पग- पग पर अभाग्य,


दःु ख- दािर य और दभ
ु ार्ग्य का अनुभव िकया जाए। जीवन को लोग सांसािरक सिु वधाओं के संचय म
लगाते ह, पर उनके भोगने से पूवर् ही ऐसी सम याएँ उठ खड़ी होती ह िक वह अिभलिषत सख
ु जब
प्रा त होता है , उसम कुछ सख
ु नहीं रह जाता; सारा प्रय न मग
ृ त ृ णावत ् यथर् गया मालम
ू दे ता है ।

संसार के पदाथ म िजतना सख


ु है , उससे अिधक गन ु आि मक उ नित म है ।
ु ा सख व थ प चकोश
से स प न आ मा जब अपने वा तिवक व प म पहुँचता है , तो उसे अिनवर्चनीय आन द प्रा त होता
है । यह अनभ
ु व होता है िक ब्रा मी ि थित का क्या मू य और क्या मह व है ? संसार के क्षुद्र सख
ु की
अपेक्षा असंख्य गन
ु े सख
ु ‘आ मान द’ के िलए अिधकतम याग एवं तप करने म िकसी प्रकार का
संकोच क्य हो? िवज्ञ पु ष ऐसा करते भी ह।

तैि तरीयोपिनष की भग ृ ु व ली म आन द की मीमांसा करते हुए कहा गया है िक कोई मनु य यिद
पूणर् व थ, सिु शिक्षत, गणु वान ्, साम यर्वान ्, सौभाग्यवान ् एवं सम त संसार की धन- संपि त का वामी
हो, तो उसे जो आन द हो सकता है , उसे एक मानुषी आन द कहते ह। उससे करोड़ - अरब गन
ु े आन द
को ब्र मान द कहते ह। ब्र मान द का ऐसा ही वणर्न शतपथ ब्रा मण १४/७/१/३१ म तथा वह
ृ दार यक
उपिनष ४/३/३३ म भी आया है ।

ु ी गायत्री की साधना, प चकोश की साधना है । एक- एक कोश की एक- एक ब्र म- िवभिू त है ।


प चमख
ये ब्र म िवभिू तयाँ वे सीढ़ी ह जो साधक को अपना सख
ु ा वादन कराती हुई अगली सीढ़ी पर चढ़ने के
िलए अग्रसर करती ह।

जीवन जैसी बहुमू य स पदा कीट- पतंग की तरह यतीत करने के िलए नहीं है । चौरासी लक्ष योिनय
म भ्रमण करते हुए नर- तन बड़ी किठनाई से िमलता है । इसको तु छ वाथर् म नहीं, परम वाथर् म,
परमाथर् म लगाना चािहए। गायत्री साधना ऐसा परमाथर् है जो हमारे यिक्तगत और सामािजक जीवन
को सख
ु , शाि त और समिृ द्ध से भर दे ता है ।

अगले प ृ ठ पर वेदमाता, जग जजननी, आिदशिक्त गायत्री के पाँचमख


ु की उपासना का, आ मा के पाँच

179
कोश की साधना का िवधान बताया जाएगा। भग
ृ ु के समान जो इन तप चयार्ओं को करगे, वे ही
ब्र मप्राि त के अिधकारी ह गे।

यिद िवचार िकया जाए तो यह आ चयर् और खेद का िवषय है िक ऐसा साधन सल


ु भ होने पर भी
मनु य केवल पेट भरने और िनकृ ट भोग करने की ि थित म ही पड़ा रहे अथवा इससे भी नीचे
उतरकर छल, कपट, चोरी, ह या आिद जैसे जघ य कृ य करके नरक वास करने के द ड का भागी बन
जाय। ई वर ने हमको इस कायर् भिू म म मख्
ु यतः इसिलए भेजा है िक हम स कमर् और साि वकी
साधना तथा उपासना करके दै वी मागर् पर अग्रसर ह और जीवन को उ चतर बनाते हुए अपने महान ्
ल य को प्रा त कर। दै वी मागर् को अपनाने और जीवन को शुद्ध, पिवत्र, परोपकारमय बनाने म ऐसी
कोई बात नहीं है जो हमारी प्रगित म बाधा व प िसद्ध हो। गरीब से गरीब और सांसािरक साधन से
रिहत यिक्त भी इसको अपना सकता है और गायत्री उपासना तथा सेवामय जीवन के वारा िनर तर
ऊपर की सीिढ़य पर चढ़ता हुआ उ चतम िशखर तक पहुँच सकता है । इसके िलए मख् ु य आव यकता
द्धा, लगन, ढ़ता व आ मिव वास की ही है , िजसको मनु य अ यास वारा प्रा त कर सकता है ।

गायत्री म जरी
िजस पु तक की याख्या व प यह पु तक िलखी गई है , उस ‘गायत्री म जरी’ को िह दी टीका सिहत
नीचे िदया जा रहा है —
एकदा तु महादे वं कैलाश िगिर संि थतम ्।
पप्र छ पावर्ती दे वी व या िवबध
ु म डलैः॥ १॥

एक बार कैलाश पवर्त पर िवराजमान दे वताओं के पू य महादे व जी से व दनीया पावर्ती ने पूछा—


कतमं योगमासीनो योगेश वमप
ु ाससे।
येन िह परमां िसिद्धं प्रा नुवान ् जगदी वर॥ २॥

हे संसार के वामी योगे वर महादे व! आप िकसके योग की उपासना करते ह िजससे आप परम िसिद्ध
को प्रा त हुए ह ?

ु वा तु पावर्ती वाचं मधुिसक्तां ुितिप्रयाम ्।


समव
ु ाच महादे वो िव वक याणकारकः॥ ३॥

पावर्ती की कणर्िप्रय एवं मधुर वाणी को सन


ु कर िव व का क याण करने वाले महादे व जी बोले—
महद्रह यं त गु तं य तु प ृ टं वया िप्रये।
तथािप कथिय यािम नेहा त वामहं समम ्॥ ४॥

180
हे पावर्ती! तमु ने बहुत ही गु त और गढ़
ू रह य के िवषय को पछ
ू ा है , िफर भी नेह के कारण वह सारा
रह य म तम ु से कहूँगा।

गायत्री वेदमाताि त सा या शिक्तमर्ता भिु व।


जगतां जननी चैव तामप
ु ासेऽहमेव िह॥ ५॥

गायत्री दे वमाता है , प ृ वी पर वह आ यशिक्त कहलाती है और वह ही संसार की माता है । म उसी की


उपासना करता हूँ।

यौिगकानां सम तानां साधनानां तु हे िप्रये।


गाय येव मता लोके मूलाधारो िवदांवरै ः॥ ६॥

हे िप्रये! सम त यौिगक साधनाओं का मल


ू ाधार िव वान ने गायत्री को ही माना है ।

अित रह यम येषा गायत्री तु दशभज


ु ा।
लोकेऽित राजते पंच धारयि त मख
ु ािन तु॥ ७॥
दश भजु ाओं वाली अ य त रह यमयी यह गायत्री संसार म पाँच मख
ु को धारण करती हुई अ य त
शोिभत होती है ।

अित गढ
ू ािन सं ु य वचनािन िशव य च।
अित संवद्ध
ृ िजज्ञासा िशवमच
ू े तु पावर्ती॥ ८॥

िशव के अ य त गढ़ ु कर अितशय िजज्ञासा वाली पावर्ती ने िशव से पछ


ू वचन को सन ू ा—

पंचा य दशबाहूनामेतेषां प्राणव लभ।


कृ वा कृपां कृपालो वं िकं रह यं तु मे वद॥ ९॥

हे प्राणव लभ! हे कृपाल!ु कृपा करके इन पाँच मख ु ाओं का रह य मझ


ु और दश भज ु े बतलाइए।

ु वा वेत महादे वः पावर्ती वचनं मद


ृ ।ु
त याः शंकामपाकुवर्न ् प्र युवाच िनजां िप्रयाम ्॥ १०॥

पावर्ती के इन कोमल वचन को सन ु कर महादे व जी पावर्ती की शंका का समाधान करते हुए बोले—
गाय या तु महाशिक्तिवर् यते या िह भत
ू ले।
अन यभावतो यि म नोतप्रोतोऽि त चा मिन॥ ११॥

प ृ वी पर गायत्री की जो महान शिक्त है , वह इस आ मा म अन य भाव से ओत- प्रोत हो रही है ।


181
िबभितर् प चावरणान ् जीवः कोशा तु ते मताः।
मख
ु ािन प च गाय या तानेव वेद पावर्ती॥ १२॥

जीव पंच आवरण को धारण करता है , वे ही कोश कहलाते ह। हे पावर्ती! उ हीं को गायत्री के पाँच मख

कहते ह।
िवज्ञानमया नमय प्राणमय मनोमयाः।
तथान दमय चैव प चकोशाः प्रकीितर्ताः॥ १३॥

अ नमय, प्राणमय, मनोमय, िवज्ञानमय और आन दमय ये पाँच कोश कहलाते ह।


ए वेव कोशकोशेषु यन ता ऋिद्ध िसद्धयः।
गु ता आसा य या जीवो ध य वमिधग छित॥ १४॥

इ हीं कोश पी भ डार म अन त ऋिद्ध- िसिद्धयाँ िछपी हुई ह, िज ह पाकर जीव ध य हो जाता है ।
य तु योगी वरो येतान ् प चकोशा नु वेधते।
स भवसागरं ती वार् ब धने यो िवमु यते॥ १५॥

जो योगी इन पाँच कोश को बेधता है , वह भव- सागर को पार कर ब धन से छूट जाता है ।


गु तं रह यमेतेषां कोशाणां योऽवग छित।
परमां गितमा नोित स एव नात्र संशयः॥ १६॥

जो इन कोश के गु त रह य को जानता है , वह िन चय ही परम गित को प्रा त करता है ।


लोकानां तु शरीरािण य नादे व भवि त न।ु
उप यकासु वा यं च िनभर्रं वतर्ते सदा॥ १७॥

मनु य के शरीर अ न से बनते ह। उप यकाओं पर वा य िनभर्र रहता है ।


आसनेनोपवासेन त वशु या तप यया।
चैवा नमयकोश य संशुिद्धरिभजायते॥ १८॥

आसन, उपवास, त वशिु द्ध और तप या से अ नमय कोश की शिु द्ध होती है ।


ऐ वयर्ं पु षाथर् च तेज ओजो यश तथा।
प्राणशक् या तु वधर् ते लोकानािम यसंशयम ्॥ १९॥

प्राणशिक्त से मनु य का ऐ वयर्, पु षाथर्, तेज, ओज एवं यश िन चय ही बढ़ते ह।


प चिभ तु महाप्राणैलघ
र् ुप्राणै च प चिभः।
एतैः प्राणमयः कोशो जातो दशिभ तमः॥ २०॥

182
पाँच महाप्राण और पाँच लघप्र
ु ाण, इन दश से उ तम प्राणमय कोश बना है ।
ब धेन मद्र
ु या चैव प्राणायामेन चैव िह।
एष प्राणमयः कोशो यतमानं तु िस यित॥ २१॥

ब ध, मद्र
ु ा और प्राणायाम वारा य नशील पु ष को यह प्राणमय कोश िसद्ध होता है ।
चेतनाया िह के द्र तु मनु याणां मनोमतम ्।
जायते महती व तः शिक्त ति मन ् वशंगते॥ २२॥

मनु य म चेतना का के द्र मन माना गया है । उसके वश म होने से महान अ तःशिक्त पैदा होती है ।
यान त्राटक त मात्रा जपानां साधनैनन
र् ु।
भव यु वलः कोशः पावर् येष मनोमयः॥ २३॥

यान, त्राटक, त मात्रा और जप इनकी साधना करने से हे पावर्ती! मनोमय कोश अ य त उ वल हो


जाता है , यह िन चय है ।
यथावत ् पूणत
र् ो ज्ञानं संसार य च व य च।
नूनिम येव िवज्ञानं प्रोक्तं िवज्ञानवे तिृ भः ॥ २४॥

संसार का और अपना ठीक- ठीक और पूरा- पूरा ज्ञान होने को ही िवज्ञानवे ताओं ने िवज्ञान कहा है ।
साधना सोऽहिम येषा तथा वा मानुभत
ू यः।
वराणां संयम चैव ग्रि थभेद तथैव च॥ २५॥

एषां संिसिद्धिभनन
ूर् ं यतमान य या मिन।
नु िवज्ञानमयः कोशः िप्रये याित प्रबद्ध
ु ताम ्॥ २६॥

सोऽहं की साधना, आ मानुभिू त, वर का संयम और ग्रि थ- भेद, इनकी िसिद्ध से य नशील की आ मा


म हे िप्रये! िवज्ञानमय कोश प्रबुद्ध होता है ।

आन दावरणो न या य त शाि त प्रदाियका।


तरु ीयावि थितल के साधकं विधग छित॥ २७॥
आन द- आवरण (आन दमय कोश) की उ नित से अ य त शाि त को दे ने वाली तरु ीयाव था साधक को
संसार म प्रा त होती है ।

नाद िव द ु कलानां तु पूणर् साधनया खल।ु


न वान दमयः कोशः साधके िह प्रबु यते॥ २८॥
नाद, िब द ु और कला की पूणर् साधना से साधक म आन दमय कोश जाग्रत ् होता है ।

183
भल
ू ोक या य गायत्री कामधेनम
ु त
र् ा बध
ु ैः।
लोक आ यणेनामंू सवर्मेवािधग छित॥ २९॥
िव वान ने गायत्री को भल
ू ोक की कामधेनु माना है । इसका आ य लेकर सब कुछ प्रा त कर िलया
जाता है ।

प चा या या तु गाय याः िव यां य ववग छित।


प चत व प्रप चा तु स नूनं िह प्रमु यते॥ ३०॥
पाँच मख
ु वाली गायत्री िव या को जो जानता है , वह िन चय ही प चत व के प्रप च से छूट जाता है ।

दशभज
ु ा तु गाय याः प्रिसद्धा भव
ु नेषु याः।
प चशूल महाशूला येताः संकेतयि त िह॥ ३१॥
संसार म गायत्री की दश भज
ु ाएँ प्रिसद्ध ह, ये भज
ु ाएँ पाँच शूल और पाँच महाशूल की ओर संकेत करती
ह।

दशभज
ु ानामेतासां यो रह यं तु वेि त सः।
त्रासं शूलमहाशूलानां ना नैवावग छित॥ ३२॥
जो मनु य इन दश भज
ु ाओं के रह य को जानता है , वह शूल और महाशल
ू के भय को नहीं पाता।

ि ट तु दोषसंयुक्ता परे षामवल बनम ्।


भय च क्षुद्रताऽसावधानता वाथर्युक्तता॥ ३३॥

अिववेक तथावेश त ृ णाल यं तथैव च।


एतािन दश शल
ू ािन शल
ू दािन भवि त िह॥ ३४॥
दोषयक्
ु त ि ट, परावल बन, भय, क्षुद्रता, असावधानी, वाथर्परता, अिववेक, क्रोध, आल य, त ृ णा—ये
दःु खदायी दश शल
ू ह।

िनजैदर्शभज
ु न
ै न
ूर् ं शूला येतािन तु दश।
संहरते िह गायत्री लोकक याणकािरणी॥ ३५॥
संसार का क याण करने वाली गायत्री अपनी दश भज
ु ाओं से इन दश शूल का संहार करती है ।

कलौ यग
ु े मनु याणां शरीराणीित पावर्ती।
प ृ वीत व प्रधानािन जाना येव भवि त िह॥ ३६॥

हे पावर्ती! किलयुग के मनु य के शरीर प ृ वी त व प्रधान होते ह, यह तो तुम जानती ही हो।


सू मत व प्रधाना ययुगोद्भत
ू नण
ृ ामतः।

184
िसद्धीनां तपसामेते न भव यिधकािरणः॥ ३७॥

इसिलए अ य युग म पैदा हुए सू मत व प्रधान मनु य की िसिद्ध और तप के ये अिधकारी नहीं


होते।
प चाङ्गयोग संिस या गाय या तु तथािप ते।
त युगानां सवर् े ठां िसिद्धं स प्रा नुवि त िह॥ ३८॥

िफर भी वे गायत्री के प चाङ्ग योग की िसिद्ध वारा उन गण


ु की सवर् े ठ िसिद्ध को प्रा त करते ह।
गाय या वाममागीर्यं ज्ञेयम यु चसाधकैः।
उग्रं प्रच डम य तं वतर्ते त त्र साधनम ्॥ ३९॥

उ कृ ट साधक वारा जानने योग्य गायत्री का वाममागीर् त त्र साधन अ य त उग्र और प्रच ड है ।
अतएव तु त गु तं रिक्षतं िह िवचक्षणैः।
या यतो द ु पयोगो न कुपात्रैः कथंचन॥ ४०॥

इसिलए िव वान ने इसे गु त रखा है , िजससे कुपात्र वारा उसका िकसी प्रकार द ु पयोग न हो।
गु णैव िप्रये िव या त वं िद प्रका यते।
गु ं िवना तु सा िव या सवर्था िन फला भवेत ्॥ ४१॥

हे िप्रये! िव या का त व गु के वारा ही दय म प्रकािशत िकया जाता है । िबना गु के वह िव या


िन फल हो जाती है ।
गायत्री तु परािव या त फलावा तये गु ः।
साधकेन िवधात यो गायत्रीत व पंिडतः॥ ४२॥

गायत्री परा िव या है , अतः उसके फल की प्राि त के िलए साधक को ऐसा गु करना चािहए जो गायत्री
त व का ज्ञाता हो।
गायत्रीं यो िवजानाित सवर्ं जानाित स ननु।
जानातीमां न य त य सवार् िव या तु िन फलाः॥ ४३॥

जो गायत्री को जानता है , वह सब कुछ जानता है । जो इसको नहीं जानता, उसकी सब िव या िन फल


है ।
गायत्रेवतपोयोगः साधनं यानमु यते।
िसद्धीनां सा मता माता नातः िकंिचत ् बह
ृ तरम ्॥ ४४॥

गायत्री ही तप है , योग है , साधन है , यान है और वह ही िसिद्धय की माता मानी गई है । इस गायत्री से

185
बढ़कर कोई दस
ू री व तु नहीं है ।
गायत्री साधना लोके न क यािप कदािप िह।
याित िन फलतामेतत ् धु ्रवं स यं िह भत
ू ले॥ ४५॥

कभी भी िकसी की गायत्री साधना संसार म िन फल नहीं जाती, यह प ृ वी पर ध्रुव स य है ।


गु तं मक्
ु तं रह यं यत ् पावर्ित वां पित ताम ्।
प्रा यि त परमां िसिद्धं ज्ञा य येतत ् तु ये जनाः॥ ४६॥

हे परम पित ता पावर्ती! मने जो यह गु त रह य कहा है , जो लोग इसे जानगे, वे परम िसिद्ध को प्रा त
ह गे।

गायत्री लहरी के इन ४६ लोक म भारतीय अ या म िव या का जो सारांश सामा य पाठक के िहताथर्


प्रकट िकया गया है , उसका यिद भली प्रकार मनन िकया जाए और उससे जो िन कषर् िनकले, तदनुसार
आचरण िकया जाए तो मनु य िन स दे ह इस लोक और परलोक के सभी क ट से बचकर स पु ष
को िमलने वाली गित का अिधकारी बन सकता है । इसम मानव शरीर, मन तथा आ मा स ब धी
िजतने भी त य प्रकट िकए गए ह, वे सब तकयक्
ुर् त, बुिद्धसंगत तथा अनुभव वारा भी सब प्रकार से
उपयोगी ह। यिद एक ज्ञानशू य मनु य अपने को केवल शरीर प ही समझता है और केवल उसी के
पालन, पोषण, भोग, सरु क्षा आिद की िच ता म य त रहता है , तो यही कहना चािहए िक वह एक प्रकार
से पशओ
ु ं जैसा जीवन यतीत कर रहा है । य यिप ऊपर से यह शरीर अि थ, चमर्मय ही प्रतीत होता है
िजसम मल, मत्र
ू , रक्त, चबीर् जैसे जग
ु ु सा उ प न करने वाले पदाथर् भरे ह, पर इसके भीतर मन, बिु द्ध,
अ तःकरण जैसे महान त व भी अवि थत ह, िजनको िवकिसत करके मनु य पशु ेणी से ऊपर
उठकर दे व ेणी और
वयं ई वर के समकक्ष ि थित तक पहुँच सकता है । गायत्री लहरी म इ हीं
त व की जानकारी और उनके िवकास की साधना का सत्र
ू प म वणर्न िकया गया है ।

शरीर के िजस प को हम बाहर से नेत्र वारा दे खते ह, वह ‘अ नमय कोश’ के अ तगर्त है । इसको
ि थर रखने के िलए ही मनु य खाता, पीता, सोता और मलमत्र
ू िवसिजर्त करता है ; पर अिधकांश मनु य
इसके स ब ध म यह भी नहीं जानते िक इसे िकस प्रकार के व थ, पूणर् कायर्क्षम, दीघर्जीवी रखा जा
सकता है । अ नमय कोश के भीतर उससे अपेक्षाकृत सू म ‘प्राणमय कोश’ है , िजसका साधन और
िवकास करने से िविभ न शारीिरक अंग पर अिधकार प्रा त हो जाता है और उसकी शिक्त को बहुत
अिधक बढ़ाया जा सकता है । ‘प्राणमय कोश’ से सू म ‘मनोमय कोश’ है , िजसकी साधना से मानिसक
शिक्तय का कद्रीकरण करके अनेक अद्भत
ु कायर् िकए जा सकते ह। इसकी मख्
ु य साधन- िविध यान
बतलाई गई है , िजससे अ य यिक्तय को वश म करना, दरू वतीर् घटनाओं को जानना, भत
ू - भिव य
स ब धी ज्ञान आिद शिक्तय की प्राि त होती है ।

186
‘मनोमय कोश’ के प चात ् उससे भी सू म ‘िवज्ञानमय कोश’ बतलाया गया है , िजससे मनु य आ मा के
क्षेत्र म पहुँच जाता है और जीव को ब धन म रखने वाली तीन ग्रि थय को खोल सकता है । अ त म
‘आन दमय कोश’ आता है िजससे प चत व से बना मनु य परमा मा के िनकट पहुँचने लगता है
और समािध का अ यास करके अपने मल
ू व प म ि थत हो सकता है ।

इस प्रकार गायत्री म जरी के थोड़े से लोक म ही योगशा त्र का अ य त ग भीर ज्ञान सत्र
ू प से
बता िदया गया है । इसे गायत्री योग के िछपे हुए र न- भ डार की चाबी कहा जा सकता है । इसके एक-
एक लोक की िव तत ृ याख्या की जाए तो उस पर िव तत ृ प्रकाश पड़ सकता है । गायत्री महािवज्ञान
का प चकोशािद साधना वाले भाग इ हीं ४६ लोक की िववेचना के प म िलखा है । इससे अिधक
प्रकाश प्रा त करके योग मागर् के पिथक अपना मागर् सरल कर सकते ह।

अ नमय कोश और उसकी साधना


गायत्री के पाँच मख
ु म, आ मा के पाँच कोश म प्रथम कोश का नाम अ नमय कोश है । अ न का
साि वक अथर् है —प ृ वी का रस। प ृ वी से जल, अनाज, फल, तरकारी, घास आिद पैदा होते ह। उ हीं से
दध
ू , घी, मांस आिद भी बनते ह। यह सब अ न कहे जाते ह। इ हीं के वारा रज, वीयर् बनते ह और
इ हीं से इस शरीर का िनमार्ण होता है । अ न वारा ही दे ह बढ़ती है , पु ट होती है तथा अ त
मं अ न प प ृ वी म ही भ म होकर सड़- गलकर िमल जाती है । अ न से उ प न होने वाला और
उसी म जाने वाला यह दे ह- प्रधानता के कारण ‘अ नमय कोश’ कहा जाता है ।

यहाँ एक बात यान रखने की है िक हाड़- मांस का जो यह पुतला िदखाई दे ता है , वह अ नमय कोश
की अधीनता म है , पर उसे ही अ नमय कोश न समझ लेना चािहए। म ृ यु हो जाने पर दे ह तो न ट हो
जाती है , पर अ नमय कोश न ट नहीं होता। वह जीव के साथ रहता है । िबना शरीर के भी जीव
भत
ू योिन म या वगर्- नरक म उन भख
ू - यास, सदीर्- गमीर्, चोट, ददर् आिद को सहता है जो थूल शरीर
से स बि धत ह। इसी प्रकार उसे उन इि द्रय भोग की चाह रहती है जो शरीर वारा भोगे जाने
स भव ह। भत
ू की इ छाएँ वैसी ही आहार- िवहार की रहती ह, जैसी शरीरधारी मनु य की होती ह।
इससे प्रकट है िक अ नमय कोश शरीर का संचालक, कारण, उ पादक, उपभोक्ता आिद तो है , पर उससे
पथ
ृ क् भी है । इसे सू म शरीर भी कहा जा सकता है ।

रोग हो जाने पर डॉक्टर, वै य, उपचार, औषिध, इ जेक्शन, श य िक्रया आिद वारा उसे ठीक करते ह।
िचिक सा पद्धितय की पहुँच थूल शरीर तक ही है , इसिलए वह केवल उ हीं रोग को दरू कर पाते ह
जो िक हाड़- मांस, वचा आिद के िवकार के कारण उ प न होते ह। पर तु िकतने ही रोग ऐसे भी ह
जो अ नमय कोश की िवकृित के कारण उ प न होते ह, उ ह शारीिरक िचिक सक लोग ठीक करने म
प्रायः असमथर् ही रहते ह।
187
अ नमय कोश की ि थित के अनुसार शरीर का ढाँचा और रं ग प बनता है । उसी के अनुसार इि द्रय
की शिक्तयाँ होती ह। बालक ज म से ही िकतनी ही शारीिरक त्रिु टयाँ, अपूणत
र् ाएँ या िवशेषताएँ लेकर
आता है । िकसी की दे ह आर भ से ही मोटी, िकसी की ज म से ही पतली होती है । आँख की ि ट,
वाणी की िवशेषता, मि त क का भ ड़ा या ती होना, िकसी िवशेष अंग का िनबर्ल या यून होना
अ नमय कोश की ि थित के अनु प होता है । माता- िपता के रज- वीयर् का भी उसम थोड़ा प्रभाव होता
है , पर िवशेषता अपने कोश की ही रहती है । िकतने ही बालक माता- िपता की अपेक्षा अनेक बात म
बहुत िभ न पाए जाते ह।

शरीर अ न से बनता और बढ़ता है । अ न के भीतर सू म जीवन त व रहता है , वह अ नमय कोश


को बनाता है । जैसे शरीर म पाँच कोश ह, वैसे ही अ न म तीन कोश ह— थूल, सू म, कारण। थू ल म
वाद और भार, सू म म प्रभाव और गण
ु तथा कारण के कोश म अ न का सं कार रहता है । िज वा
से केवल भोजन का वाद मालम
ू होता है । पेट उसके बोझ का अनुभव करता है । रस म उसकी
मादकता, उ णता आिद प्रकट होती है । अ नमय कोश पर उसका सं कार जमता है । मांस आिद अनेक
अभ य पदाथर् ऐसे ह जो जीभ को वािद ट लगते ह, दे ह को मोटा बनाने म भी सहायक होते ह, पर
उनम सू म सं कार ऐसा होता है , जो अ नमय कोश को िवकृत कर दे ता है और उसका पिरणाम
अ य प से आकि मक रोग के प म तथा ज म- ज मा तर तक कु पता एवं शारीिरक अपूणत
र् ा
के प म चलता है । इसिलए आ मिव या के ज्ञाता सदा साि वक, सस
ु ं कारी अ न पर जोर दे ते ह
तािक थूल शरीर म बीमारी, कु पता, अपूणत
र् ा, आल य एवं कमजोरी की बढ़ो तरी न हो। जो लोग
अभ य खाते ह, वे अब नहीं तो भिव य म ऐसी आ तिरक िवकृित से ग्र त हो जाएँगे जो उनको
शारीिरक सख
ु से वि चत रखे रहे गी। इस प्रकार अनीित से उपािजर्त धन या पाप की कमाई प्रकट म
आकषर्क लगने पर भी अ नमय कोश को दिू षत करती है और अ त म शरीर को िवकृत तथा िचररोगी
बना दे ती है । धन स प न होने पर भी ऐसी दद
ु र् शा भोगने के अनेक उदाहरण प्र यक्ष िदखाई िदया
करते ह।

िकतने ही शारीिरक िवकार की जड़ अ नमय कोश म होती है । उनका िनवारण दवा- दा से नहीं,
यौिगक साधन से हो सकता है । जैसे संयम, िचिक सा, श यिक्रया, यायाम, मािलश, िव ाम, उ तम
आहार- िवहार, जलवायु आिद से शारीिरक वाय म बहुत कुछ अ तर हो सकता है , वैसे ही कुछ ऐसी
भी प्रिक्रया ह, िजनके वारा अ नमय कोश को पिरमािजर्त एवं पिरपु ट िकया जा सकता है और
िविवधिवध शारीिरक अपूणत
र् ाओं से छुटकारा पाया जा सकता है । ऐसी पद्धितय म (१) उपवास, (२)
आसन, (३) त वशुिद्ध, (४) तप चयार्, ये चार मख्
ु य ह। इन चार पर इस प्रकरण म कुछ प्रकाश डालगे।

188
उपवास - अ नमय कोश की साधना
िजनके शरीर म मल का भाग संिचत हो रहा हो, उस रोगी की िचिक सा आर भ करने से पहले ही
िचिक सक उसे जल
ु ाब दे ते ह, तािक द त होने से पेट साफ हो जाए और औषिध अपना काम कर सके।
यिद िचरसंिचत मल के ढे र की सफाई न की जाए, तो औषिध भी उस मल के ढे र म िमलकर
प्रभावहीन हो जाएगी। अ नमय कोश की अनेक सू म िवकृितय का पिरवतर्न करने म उपवास वही
काम करता है जो िचिक सा के पूवर् जल
ु ाब लेने से होता है ।

मोटे प से उपवास के लाभ से सभी पिरिचत ह। पेट म का अपच पच जाता है , िव ाम से पाचन


अंग नव चेतना के साथ दन ू ा काम करते ह, आमाशय म भरे हुए अपक्व अ न से जो िवष उ प न
होता है वह नहीं बनता, आहार की बचत से आिथर्क लाभ होता है । ये उपवास के लाभ ऐसे ह जो हर
िकसी को मालम
ू ह। डॉक्टर का यह भी िन कषर् प्रिसद्ध है िक व पाहारी दीघर्जीवी होते ह। जो बहुत
खाते ह, पेट को ठूँस- ठूँसकर भरते ह, कभी पेट को चैन नहीं लेने दे त,े एक िदन को भी उसे छुट्टी नहीं
दे ते, वे अपनी जीवनी स पि त को ज दी ही समा त कर लेते ह और ि थर आयु की अपेक्षा बहुत
ज दी उ ह दिु नयाँ से िब तर बाँधना पड़ता है । आज के रा ट्रीय अ न- संकट म तो उपवास दे शभिक्त
भी है । यिद लोग स ताह म एक िदन उपवास करने लग, तो िवदे श से करोड़ पए का अ न न
मँगाना पड़े और अ न स ता होने के साथ- साथ अ य सभी चीज भी स ती हो जाएँ।

गीता म ‘िवषया िविनवतर् ते िनराहार य दे िहनः’ लोक म बताया है िक उपवास से िवषय- िवकार की
िनविृ त होती है । मन का िवषय- िवकार से रिहत होना एक बहुत बड़ा मानिसक लाभ है । उसे यान
म रखते हुए भारतीय धमर् म प्र येक शभु कायर् के साथ उपवास को जोड़ िदया है । क यादान के िदन
माता- िपता उपवास रखते ह। अनु ठान के िदन यजमान तथा आचायर् उपवास रखते ह। नवदग
ु ार् के नौ
िदन िकतने ही त्री- पु ष पण
ू र् या आंिशक उपवास रखते ह। ब्रा मण भोजन कराने से पव
ू र् उस िदन घर
वाले भोजन नहीं करते। ि त्रयाँ अपने पित तथा सास- ससरु आिद पू य को भोजन कराए िबना भोजन
नहीं करतीं। यह आंिशक उपवास भी िच त- शिु द्ध की ि ट से बड़े उपयोगी होते ह।

वा याय की ि ट से उपवास का असाधारण मह व है । रोिगय के िलए तो इसे जीवनमिू र भी कहते


ह। िचिक साशा त्र का रोिगय को एक दै वी उपदे श है िक ‘बीमारी को भूखा मारो।’ भख
ू ा रहने से
बीमारी मर जाती है और रोगी बच जाता है । संक्रामक, क टसा य एवं खतरनाक रोग म लंघन भी
िचिक सा का एक अंग है । मोतीझरा, िनमोिनयाँ, िवशूिचका, लेग, सि नपात, टाइफाइड जैसे रोग म कोई
भी िचिक सक उपवास कराए िबना रोग को आसानी से अ छा नहीं कर पाता। प्राकृितक िचिक सा-
िवज्ञान म तो सम त रोग म पूणर् या आंिशक उपवास को ही प्रधान उपचार माना गया है । इस त य
को हमारे ऋिषय ने भली प्रकार समझा था। उ ह ने हर महीने कई उपवास का धािमर्क मह व
थािपत िकया था।

189
अ नमय कोश की शिु द्ध के िलए उपवास की िवशेष आव यकता है । शरीर म कई जाित की उप यकाएँ
दे खी जाती ह, िज ह शरीर शा त्री ‘नाड़ी गु छक’ कहते ह। दे खा गया है िक कई थान पर ज्ञान-
त तओ
ु ं जैसी बहुत पतली नािड़याँ आपस म िचपकी होती ह। यह गु छक कई बार र सी की तरह
आपस म िलपटे और बँटे हुए होते ह। कई जगह वह गु छक गाँठ की तरह ठोस गोली जैसे बन जाते
ह।

कई बार यह समाना तर लहराते हुए सपर् की भाँित चलते ह और अ त म उनके िसर आपस म जड़ ु
जाते ह। कई जगह इनम बरगद के वक्ष
ृ की तरह शाखा- प्रशाखाएँ फैली रहती ह और इस प्रकार के कई
गु छक पर पर स बि धत होकर एक पिरिध बना लेते ह। इनके रं ग, आकार एवं अनु छे दन म काफी
अ तर होता है । यिद अनुस धान िकया जाए तो उनके तापमान, अणु पिरक्रमण एवं प्रितभापुंज म भी
काफी अ तर पाया जाएगा।

वैज्ञािनक इन नाड़ी गु छक के कायर् का कुछ िवशेष पिरचय अभी तक प्रा त नहीं कर सके ह, पर योगी
लोग जानते ह िक यह उप यकाएँ शरीर म अ नमय कोश की ब धन ग्रि थयाँ ह। म ृ यु होते ही सब
ब धन खुल जाते ह और िफर एक भी गु छक ि टगोचर नहीं होता। ये उप यकाएँ अ नमय कोश के
गण
ु - दोष की प्रतीक ह। ‘इि धका’ जाित की उप यकाएँ चंचलता, अि थरता, उ िवग्नता की प्रतीक ह।
िजन यिक्तय म इस जाित के नाड़ी गु छक अिधक ह , उनका शरीर एक थान पर बैठकर काम न
कर सकेगा, उ ह कुछ खटपट करते रहनी पड़ेगी। ‘दीिपका’ जाित की उप यकाएँ जोश, क्रोध, शारीिरक
उ णता, अिधक पाचन, गरमी, खु की आिद उ प न करगी। ऐसी गु छक की अिधकता वाले लोग चमर्
रोग, फोड़ा- फुंसी, नकसीर फूटना, पीला पेशाब, आँख म जलन आिद रोग के िशकार होते रहगे।

‘मोिचकाओं’ की अिधकता वाले यिक्त के शरीर से पसीना, लार, कफ, पेशाब आिद मल का िन कासन
अिधक होगा। पतले द त अकसर हो जाते ह और जक
ु ाम की िशकायत होते दे र नहीं लगती।

‘आ याियनी’ जाित के गु छक आल य, अिधक िनद्रा, अनु साह, भारीपन उ प न करते ह। ऐसे यिक्त
थोड़ी- सी मेहनत म थक जाते ह। उनसे शारीिरक या मानिसक कायर् िवशेष नहीं हो सकता।

‘पष
ू ा’ जाित के गु छक काम वासना की ओर मन को बलात ् खींच ले जाते ह। संयम, ब्र मचयर् के सारे
आयोजन रखे रह जाते ह। ‘पूषा’ का तिनक सा उ तेजन मन को बेचैन कर डालता है और वह बेकाबू
होकर िवकारग्र त हो जाता है । िशवजी पर शर स धान करते समय कामदे व ने अपने कुसम
ु बाण से
उस प्रदे श की पूषाओं को उ तेिजत कर डाला था।

‘चि द्रका’ जाित की उप यकाएँ सौ दयर् बढ़ाती ह। उनकी अिधकता से वाणी म मधुरता, नेत्र म
मादकता, चेहरे पर आकषर्ण, कोमलता एवं मोहकता की मात्रा रहती है ।

190
‘किपला’ के कारण नम्रता, डर लगना, िदल की धड़कन, बरु े व न, आशंका, मि त क की अि थरता,
नपंस
ु कता, वीयर्रोग आिद लक्षण पाए जाते ह।

‘घूसािचर्’ म संकोचन शिक्त बहुत होती है । फोड़े दे र म पकते ह, कफ मिु कल से िनकलता है । शौच
क चा और दे र म होता है , मन की बात कहने म िझझक लगती है । ऊ माओं की अिधकता से मनु य
हाँफता रहता है । जाड़े म भी गरमी लगती है । क्रोध आते दे र नहीं लगती। ज दबाजी बहुत होती है ।
रक्त की गित, वास- प्र वास म ती ता रहती है ।

‘अमाया’ वणर् के गु छक ढ़ता, मजबूती, कठोरता, ग भीरता, हठधमीर् के प्रतीक होते ह। इस प्रकार के
शरीर पर बा य उपचार का कुछ असर नहीं होता, कोई दवा काम नहीं करती। ये वे छापूवक
र् रोगी या
रोगमक्
ु त होते ह। उ ह कोई कुप य रोगी नहीं कर पाता, पर तु जब िगरते ह तो संयम- िनयम का
पालन भी कुछ काम नहीं आता।

िचिक सक लोग के उपचार अनेक बार असफल होते रहते ह। कारण िक उप यकाओं के अि त व के
कारण शरीर की सू म ि थित कुछ ऐसी हो जाती है िक िचिक सा कुछ िवशेष काम नहीं करती।

‘उ गीथ’ उप यकाओं की अिभविृ द्ध से स तान होना ब द हो जाता है । ये िजस पु ष या त्री म अिधक
ह गी, वह पूणर् व थ होते हुए भी स तानो पादन के अयोग्य हो जाएगा।

त्री- पु ष म से ‘अिसता’ की अिधकता िजनम होगी, वही अपने िलंग की स तान उ प न करने म
िवशेष सफल रहे गा। ‘अिसता’ से स प न नारी को क याएँ और पु ष को पुत्र उ प न करने म
सफलता िमलती है । जोड़े म से िजसम ‘अिसता’ की अिधकता होगी, उसकी शिक्त जीतेगी।

‘युक्तिहं ा’ जाित के गु छक क्रूरता, द ु टता, परपीड़न की प्रेरणा दे ते ह। ऐसे यिक्तय को चोरी, जआ


ु ,
यिभचार, ठगी आिद करने म बड़ा रस आता है । आव यक धन, संपि त होते हुए भी उनका अनुिचत
मागर् अपनाने को मन चलता रहता है । कोई िवशेष कारण न होते हुए भी दस
ू र के प्रित ई यार्, वेष
और आक्रमण का आचरण करते ह। ऐसे लोग मांसाहार, म यपान, िशकार खेलना, मारपीट करना या
लड़ाई- झगड़े को तथा पंच बनने को बहुत पस द करते ह। ‘िहं ा’ उप यकाओं की अिधकता वाला
मनु य सदा ऐसे काम करने म रस लेगा, जो अशाि त उ प न करते ह । ऐसे लोग अपना िसर फोड़
लेने, आ मह या करने, अपने ब च को बेतरह पीटने और कुकृ य करते दे खे जाते ह।

उपरोक्त पंिक्तय म कुछ थोड़ी- सी उप यकाओं का वणर्न िकया गया है । इनकी ९६ जाितयाँ जानी जा
सकी ह। स भव है ये इससे भी अिधक होती ह । ये ग्रि थयाँ ऐसी ह जो शारीिरक ि थित को
इ छानुकूल रखने म बाधक होती ह। मनु य चाहता है िक म अपने शरीर को ऐसा बनाऊँ, वह उसके
िलए कुछ उपाय भी करता है , पर कई बार वे उपाय सफल नहीं होते। कारण यह है िक ये उप यकाएँ

191
भीतर ही भीतर शरीर म ऐसी िवलक्षण िक्रया एवं प्रेरणा उ प न करती ह, जो बा य प्रय न को सफल
नहीं होने दे तीं और मनु य अपने को बार- बार असफल एवं असहाय अनभ
ु व करता है ।

अ नमय कोश को शरीर से बाँधने वाली ये उप यकाएँ शारीिरक एवं मानिसक अकम से उलझकर
िवकृत होती ह तथा स कम से सु यवि थत रहती ह। बुरा आचरण तो खाई खोदना है और शरीर को
उस खाई म िगराकर रोग, शोक आिद की पीड़ा सहनी पड़ती है । इन उलझन को सुलझाने के िलए
आहार- िवहार का संयम एवं साि वक रखना, िदनचयार् ठीक रखना, प्रकृित के आदे श पर चलना
आव यक है । साथ म कुछ ऐसे ही िवशेष योिगक उपाय भी ह जो उन आ तिरक िवकार पर काबू पा
सकते ह, िजनको िक केवल बा योपचार से सध
ु ारना किठन है ।

उपवास का उप यकाओं के संशोधन, पिरमाजर्न और सस


ु तुलन से बड़ा स ब ध है । योग साधना म
उपवास का एक सिु व तत
ृ िवज्ञान है । अमक
ु अवसर पर, अमुक मास म, अमक
ु मह
ु ू तर् म, अमक
ु प्रकार
से उपवास करने का अमक
ु फल होता है । ऐसे आदे श शा त्र म जगह- जगह पर िमलते ह। ऋतुओं के
अनुसार शरीर की छह अिग्नयाँ यन
ू ािधक होती रहती ह। ऊ मा, बहुवच
ृ , वादी, रोिहता, आ पता, याित-
ये छह शरीरगत अिग्नयाँ ग्री म से लेकर वस त तक छह ऋतुओं म िक्रयाशील रहती ह। इनम से
प्र येक के गुण िभ न- िभ न ह।

(१) उ तरायण, दिक्षणायन की गोलाद्धर् ि थित, (२) च द्रमा की घटती- बढ़ती कलाएँ, (३) नक्षत्र का भिू म
पर आने वाला प्रभाव, (४) सय
ू र् की अंश िकरण का मागर्, इन चार बात का शरीरगत ऋतु अिग्नय के
साथ स ब ध होने से क्या पिरणाम होता है , इनका
यान रखते हुए ऋिषय ने ऐसे पु य- पवर् िनि चत
िकए ह, िजनम अमक
ु िविध से उपवास िकया जाए तो उसका अमकु पिरणाम हो सकता है । काितर्क
कृ णा चौथ िजसे करवा चौथ कहते ह, उस िदन का उपवास दा प य प्रेम बढ़ाने वाला होता है , क्य िक
उस िदन की गोलाद्धर् ि थित, च द्रकलाएँ, नक्षत्र प्रभाव एवं सय
ू र् मागर् का सि म ण पिरणाम शरीरगत
अिग्न के साथ समि वत होकर शरीर एवं मन की ि थित को ऐसा उपयुक्त बना दे ता है , जो दा प य
ु को सु ढ़ और िचर थायी बनाने म बड़ा सहायक होता है । इसी प्रकार के अ य
सख त, उपवास ह जो
अनेक इ छाओं और आव यकताओं को पूरा करने म तथा बहुत से अिन ट को टालने म उपयोगी
िसद्ध होते ह।

उपवास के पाँच भेद होते ह—(१) पाचक, (२) शोधक, (३) शामक, (४) आनक, (५) पावक। ‘पाचक’ उपवास वे
ह जो पेट के अपच, अजीणर्, को ठबद्धता को पचाते ह। ‘शोधक’ वे ह जो रोग को भूखा मार डालने के
िलए िकए जाते ह, इ ह लंघन भी कहते ह। ‘शामक’ वे ह जो कुिवचार , मानिसक िवकार , द ु प्रविृ तय
एवं िवकृत उप यकाओं का शमन करते ह। ‘आनक’ वे ह जो िकसी िवशेष प्रयोजन के िलए दै वी शिक्त
को अपनी ओर आकिषर्त करने के िलए िकए जाते ह। ‘पावक’ वे ह जो पाप के प्रायि च त के िलए
होते ह। आि मक और मानिसक ि थित के अनु प कौन सा उपवास उपयक्
ु त होगा और उसके क्या

192
िनयमोपिनयम होने चािहए, इसका िनणर्य करने के िलए सू म िववेचन की आव यकता है ।

साधक का अ नमय कोश िकस ि थित म है ? उसकी कौन उप यकाएँ िवकृत हो रही ह? िकस उ तेिजत
सं थान को शा त करने एवं िकस ममर् थल को सतेज करने की आव यकता है ? यह दे खकर िनणर्य
िकया जाना चािहए िक कौन यिक्त िकस प्रकार का उपवास कब करे ?

‘पाचक’ उपवास म तब तक भोजन छोड़ दे ना चािहए जब तक िक कड़ाके की भख


ू न लगे। एक बार
का, एक िदन का या दो िदन का आहार छोड़ दे ने से आमतौर पर क ज पक जाता है । पाचक उपवास
म सहायता दे ने के िलए नीबू का रस, जल एवं िकसी पाचक औषिध का सेवन िकया जा सकता है ।

‘शोधक’ उपवास के साथ िव ाम आव यक है । यह लगातार तब तक चलते ह, जब तक रोगी


खतरनाक ि थित को पार न कर ले। औटाकर ठ डा िकया हुआ पानी ही ऐसे उपवास म एक मात्र
अवल ब होता है ।

ू , छाछ, फल का रस आिद पतले, रसीले, ह के पदाथ के आधार पर चलते ह। इन


‘शामक’ उपवास दध
उपवास म वा याय, आ मिच तन, एका त सेवन, मौन, जप, यान, पूजा, प्राथर्ना आिद आ मशुिद्ध के
उपचार भी साथ म होने चािहए।

‘आनक’ उपवास म सय
ू र् की िकरण वारा अभी ट दै वी शिक्त का आवाहन करना चािहए। सय
ू र् की
स तवणर् िकरण म राहु, केतु को छोड़कर अ य सात ग्रह की रि मयाँ सि मिलत होती ह। सय ू र् म
तेजि वता, उ णता, िप त प्रकृित प्रधान है । च द्रमा- शीतल, शाि तदायक, उ वल, कीितर्कारक। मंगल-
कठोर, बलवान ्, संहारक। बध
ु - सौ य, िश ट, कफ प्रधान, सु दर, आकषर्क। गु - िव या, बिु द्ध, धन,
सू मदिशर्ता, शासन, याय, रा य का अिध ठाता। शक्र
ु - बात प्रधान, च चल, उ पादक, कूटनीितक। शिन-
ि थरता, थल
ू ता, सख ु की आव यकता हो, उसके अनु प
ु ोपभोग, ढ़ता, पिरपिु ट का प्रतीक है । िजस गण
दै वी त व को आकिषर्त करने के िलए स ताह म उसी िदन उपवास करना चािहए। इन उपवास म
लघु आहार उन ग्रह म समता रखने वाला होना चािहए तथा उसी ग्रह के अनु प रं ग की व तए
ु ँ, व त्र
आिद का जहाँ तक स भव हो, अिधक प्रयोग करना चािहए।

रिववार को वेत रं ग और गाय के दध


ू , दही का आहार उिचत है । सोमवार को पीला रं ग और चावल का
माड़ उपयुक्त है । मंगल को लाल रं ग, भस का दही या छाछ। बुध को नीला रं ग और खट्टे - मीठे फल।
गु को नारं गी रं ग वाले मीठे फल। शुक्र को हरा रं ग, बकरी का दध
ू , दही, गड़
ु का उपयोग ठीक रहता है ।
प्रातःकाल की िकरण के स मख
ु खड़े होकर नेत्र ब द करके िनधार्िरत िकरण अपने म प्रवेश होने का
यान करने से वह शिक्त सय
ू र् रि मय वारा अपने म अवतिरत होती है ।

‘पावक’ उपवास प्रायि च त व प िकए जाते ह। ऐसे उपवास केवल जल लेकर करने चािहए। अपनी

193
भल
ू के िलए प्रभु से स चेदय से क्षमा याचना करते हुए भिव य म वैसी भल ू न करने का प्रण
करना चािहए। अपराध के िलए शारीिरक क टसा य ितितक्षा एवं शभु कायर् के िलए इतना दान करना
चािहए जो पाप की यथा को पु य की शाि त के बराबर कर सके। चा द्रायण त, कृ छ्र चा द्रायण
आिद पावक त म िगने जाते ह।

प्र येक उपवास म यह बात िवशेष प से यान रखने की ह— (१) उपवास के िदन जल बार- बार पीना
चािहए, िबना यास के भी पीना चािहए। (२) उपवास के िदन अिधक शारीिरक म न करना चािहए। (३)
उपवास के िदन यिद िनराहार न रहा जाए तो अ प मात्रा म रसीले पदाथर्, दध
ू , फल आिद ले लेना
चािहए। िमठाई, हलआ
ु आिद गिर ठ पदाथर् भरपेट खा लेने से उपवास का प्रयोजन िसद्ध नहीं हो
सकता। (४) उपवास तोड़ने के बाद हलका, शीघ्र पचने वाला आहार व प मात्रा म लेना चािहए। उपवास
समा त होते ही अिधक मात्रा म भोजन कर लेना हािनकारक है । (५) उपवास के िदन अिधकांश समय
आ मिच तन, वा याय या उपासना म लगाना चािहए।

उप यकाओं के शोधन, पिरमाजर्न और उपयोगीकरण के िलए उपवास िकसी िवज्ञ पथ- प्रदशर्क की सलाह
से करने चािहए, पर साधारण उपवास जो िक प्र येक गायत्री उपासक के अनुकूल होता है , रिववार के
िदन होना चािहए। उस िदन सात ग्रह की सि मिलत शिक्त प ृ वी पर आती है , जो िविवध प्रयोजन
के िलए उपयोगी होती है । रिववार को प्रातःकाल नान करके या स भव न हो तो हाथ- मँह
ु धोकर शुद्ध
ू र् के स मख
व त्र म सय ु मख
ु करके बैठना चािहए और एक बार खुले नेत्र ब द कर लेने चािहए। ‘‘इस
सय
ू र् के तेजपुंज पी समद्र
ु म हम नान कर रहे ह, वह हमारे चार ओर ओत- प्रोत हो रहा है ।’’ ऐसा
यान करने से सिवता की ब्र म रि मयाँ अपने भीतर भर जाती ह। बाहर से चेहरे पर धूप पड़ना और
भीतर से यानाकषर्ण वारा उसकी सू म रि मय को खींचना उप यकाओं को सिु वकिसत करने म बड़ा
सहायक होता है । यह साधना १५- २० िमनट तक की जा सकती है ।

उस िदन वेत वणर् की व तुओं का अिधक प्रयोग करना चािहए, व त्र भी अिधक सफेद ही ह । दोपहर
के बारह बजे के बाद फलाहार करना चािहए। जो लोग रह सक, वे िनराहार रह, िज ह किठनाई हो, वे
फल, दध
ू , शाक लेकर रह। बालक, वद्ध
ृ , गिभर्णी, रोगी या कमजोर यिक्त चावल, दिलया आिद दोपहर को,
दध
ू रात को ले सकते ह। नमक एवं शक्कर इन दो वाद उ प न करने वाली व तुओं को छोड़कर
िबना वाद का भोजन भी एक प्रकार का उपवास हो जाता है । आर भ म अ वाद आहार के आंिशक
उपवास से भी गायत्री साधक अपनी प्रविृ त को बढ़ा सकते ह।

आसन - अ नमय कोश की साधना


मोटे तौर से आसन को शारीिरक यायाम म ही िगना जाता है । उनसे वे लाभ िमलते ह, जो यायाम
वारा िमलने चािहए। साधारण कसरत से िजन भीतर के अंग का यायाम नहीं हो पाता, उनका
194
आसन वारा हो जाता है ।

ऋिषय ने आसन का योग साधना म इसिलए प्रमख


ु थान िदया है िक ये वा य रक्षा के िलए
अतीव उपयोगी होने के अितिरक्त ममर् थान म रहने वाली ‘ह य- वहा’ और ‘क य- वहा’ तिड़त शिक्त
को िक्रयाशील रखते ह। ममर् थल वे ह जो अतीव कोमल ह और प्रकृित ने उ ह इतना सरु िक्षत बनाया
है िक साधारणतः उन तक बा य प्रभाव नहीं पहुँचता। आसन से इनकी रक्षा होती है । इन मम की
सरु क्षा म यिद िकसी प्रकार की बाधा पड़ जाए तो जीवन संकट म पड़ सकता है । ऐसे ममर् थान उदर
और छाती के भीतर िवशेष ह। क ठ- कूप, क ध- पु छ, मे द ड और ब्र मर ध्र से स बि धत ३६ ममर्
ह। इनम कोई आघात लग जाए, रोग िवशेष के कारण िवकृित आ जाए, रक्तािभसरण क जाए और
िवष- बालक
ु ा जमा हो जाए तो दे ह भीतर ही भीतर घुलने लगती है । बाहर से कोई प्र यक्ष या िवशेष
रोग िदखाई नहीं पड़ता, पर भीतर- भीतर दे ह खोखली हो जाती है । नाड़ी म वर नहीं होता, पर मँह
ु का
कडुआपन, शरीर म रोमा च, भारीपन, उदासी, हड़फूटन, िशर म हलका- सा ददर् , यास आिद भीतरी वर
जैसे लक्षण िदखाई पड़ते ह। वै य, डॉक्टर कुछ समझ नहीं पाते, दवा- दा दे ते ह, पर कुछ िवशेष लाभ
नहीं होता।

मम म चोट पहुँचने से आकि मक म ृ यु हो सकती है । ताि त्रक अिभचारी जब मारण प्रयोग करते ह,
तो उनका आक्रमण इन ममर् थल पर ही होता है । हािन, शोक, अपमान आिद की कोई मानिसक चोट
लगे तो ममर् थल क्षत- िवक्षत हो जाते ह और उस यिक्त के प्राण संकट म पड़ जाते ह। ममर् अशक्त
हो जाएँ तो गिठया, गंज, वेतक ठ, पथरी, गद
ु की िशिथलता, खु की, बवासीर जैसे न ठीक होने वाले रोग
उपज पड़ते ह।

िशर और धड़ म रहने वाले मम म ‘ह य- वहा’ नामक धन (पोजेिटव) िव यत


ु ् का िनवास और हाथ-
पैर म ‘क य- वहा’ ऋण (नेगेिटव) िव यत
ु ् की िवशेषता है । दोन का स तल
ु न िबगड़ जाए तो लकवा,
अद्धार्ङ्ग, सि धवात जैसे उपद्रव खड़े होते ह।

कई बार मोटे - तगड़े, व थ िदखाई पड़ने वाले मनु य भी ऐसे म द रोग से ग्रिसत हो जाते ह, जो
उनकी शारीिरक अ छी ि थित को दे खते हुए न होने चािहए थे। इन मािमर्क रोग का कारण ममर्
थान की गड़बड़ी है । कारण यह है िक साधारण पिर म या कसरत वारा इन ममर् थान का
यायाम नहीं हो पाता। औषिधय की वहाँ तक पहुँच नहीं होती। श यिक्रया या सच
ू ी- भेद (इ जेक्शन)
भी उनको प्रभािवत करने म समथर् नहीं होते। उस िवकट गु थी को सल
ु झाने म केवल ‘योग- आसन’ ही
ऐसे ती ण अ त्र ह, जो ममर् शोधन म अपना चम कार िदखाते ह।

ऋिषय ने दे खा िक अ छा आहार- िवहार रखते हुए भी, िव ाम- यायाम की यव था रखते हुए भी कई
बार अज्ञात सू म कारण से ममर् थल िवकृत हो जाते ह और उनम रहने वाली ‘ह य- वहा’ ‘क य- वहा’

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तिड़त शिक्त का स तल
ु न िबगड़ जाने से बीमारी तथा कमजोरी आ घेरती है , िजससे योग साधना म
बाधा पड़ती है । इस किठनाई को दरू करने के िलए उ ह ने अपने दीघर्कालीन अनस
ु धान और अनभ
ु व
वारा ‘आसन- िक्रया’ का आिव कार िकया।

आसन का सीधा प्रभाव हमारे ममर् थल पर पड़ता है । प्रधान नस- नािड़य और मांसपेिशय के
अितिरक्त सू म कशे काओं का भी आसन वारा ऐसा आकंु चन- प्रकंु चन होता है िक उनम जमे हुए
िवकार हट जाते ह तथा िन य सफाई होती रहने से नए िवकार जमा नहीं होते। ममर् थल की शुिद्ध,
ि थरता एवं पिरपुि ट के िलए आसन को अपने ढं ग का सव तम उपचार कहा जा सकता है ।

आसन अनेक ह, उनम से ८४ प्रधान ह। उन सबकी िविध- यव था और उपयोिगता वणर्न करने का


यहाँ अवसर नहीं है । सवार्ङ्गपूणर् आसन िव या की िशक्षा यहाँ नहीं दी जा सकती। इस िवषय पर
हमारी ‘बलवद्धर्क आसन- यायाम’ पु तक दे खनी चािहए। आज तो हम गायत्री की योग साधना करने के
इ छुक को ऐसे सल
ु भ आसन बताना पयार् त होगा जो साधारणतः उसके सभी ममर् थल की सुरक्षा म
सहायक ह ।

आठ आसन ऐसे ह जो सभी मम पर अ छा प्रभाव डालते ह। उनम से जो चार या अिधक अपने िलए
सिु वधाजनक ह , उ ह भोजन से पूवर् कर लेना चािहए। इनकी उपयोिगता एवं सरलता अ य आसन से
अिधक है । आसन, उपासना के प चात ् ही करना चािहए, िजससे रक्त की गित ती हो जाने से उ प न
हुई िच त की च चलता यान म बाधक न हो।

हाथ और पैर को मजबत


ू बनाने वाले चार उपयोगी आसन

ये चार ह—सवार्ङ्गासन, बद्ध पद्मासन, पाद- ह तासन, उ कटासन। इन आसन को िन य करने से हाथ-
पाँव की नस तथा मांसपेिशयाँ मजबूत होती ह एवं उनकी शिक्त बढ़ती है ।

सवार्ङ्गासन—आसन पर िच त लेट जाइए और शरीर को िबलकुल सीधा कर दीिजए। हाथ को जमीन


से ऐसा िमला रिखए िक हथेिलयाँ जमीन से िचपकी रह। अब घटु ने सीधे कड़े करके दोन पैर िमले हुए
ऊपर को उठाइए और सीधा खड़े करके रोके रिखए। यान रहे , पैर मड़ु ने न पाव, बि क सीधे तने हुए
रह। हाथ चाहे जमीन पर रिखए, चाहे सहारे के िलए कमर से लगा दीिजए। ठोढ़ी क ठ के सहारे से
िचपकी रहनी चािहए।

(सवार्ङ्गासन का िचत्र)

बद्ध पद्मासन—पालथी मार कर आसन पर बैिठए। अब दािहना पैर को बाएँ जंघा के ऊपर एवं बायाँ पैर
को दािहने जंघा के ऊपर आिह ता से रिखए। िफर पीठ के पीछे से दािहना हाथ ले जाकर दािहने पैर
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का अँगठ
ू ा पकिड़ए और बायाँ हाथ उसी तरह ले जाकर बाएँ पैर का अँगठ
ू ा पकिड़ए। पीठ को तान
दीिजए और ि ट नािसका के अग्र भाग पर जमाइए। ठोढ़ी को क ठ के मल ू म गड़ाए रिखए। बहुत
के पैर आर भ म एक दस ू रे के ऊपर नहीं चढ़ते। हाथ भी शु म ही पीठ के पीछे घम
ू कर अँगठ
ू ा नहीं
पकड़ सकते। इसका कारण उनकी इन नस का शुद्ध और पूरे फैलाव म न होना है । इसिलए जब तक
आसन लगकर दोन पैर के अँगूठे पकड़े न जा सक, तब तक बारी- बारी से एक ही पैर का अँगूठा
पकड़कर अ यास बढ़ाना चािहए।

(बद्ध पद्मासन का िचत्र)

पाद- ह तासन—सीधे खड़े हो जाइए, िफर धीरे - धीरे हाथ को नीचे ले जाकर हाथ से पैर के दोन अँगठ

को पकिड़ए। पैर आपस म िमले और िबलकुल सीधे रह, घुटने- मड़
ु ने न पाव। इसके बाद िशर दोन
हाथ के बीच से भीतर की ओर ले जाकर नाक सीधा घुटन से िमलाइए। दािहने हाथ से बाएँ पैर और
बाएँ हाथ से दािहने पैर का अँगूठा पकड़ करके भी यह िकया जाता है । इस आसन को करते समय पेट
को भीतर की ओर खूब जोर से खींचना चािहए।

(पाद- ह तासन का िचत्र)

उ कटासन—सीधे खड़े हो जाइए। दोन पैर, घुटने, एड़ी और पंजे आपस म िमले रहने चािहए। दोन हाथ
कमर पर रह अथवा स मख
ु की ओर सीधे फैले रह। पेट को कुछ भीतर की तरफ खींिचए और घुटन
को मोड़ते हुए शरीर सीधा रखते हुए उसे धीरे - धीरे पीछे की ओर झक
ु ाइए और उस तरह हो जाइए जैसे
कुसीर् पर बैठे ह । जब कमर झक
ु कर घट
ु न के सामने हो जाए तो उसी दशा म ि थर हो जाना चािहए।

इसका अ यास हो जाने पर एिड़य को भी जमीन से उठा दीिजए और केवल पंज के बल ि थर होइए।
उसका भी अ यास हो जाए तो घट
ु न को खोिलए और उ ह काफी फैला दीिजए। यान रहे , घट
ु न को
इस प्रकार रिखए िक दोन हाथ की उँ गिलयाँ घट
ु न के बाहर जमीन को छूती रह।

(उ कटासन का िचत्र)

पीठ और पेट को मजबूत बनाने वाले


चार प्रभावशाली आसन
इनके नाम ह- पि चमो तानासन, सपार्सन, धनरु ासन, मयरू ासन। इन आसन का अ यास करते रहने से
रीढ़, पसिलयाँ, फेफड़े, दय, आमाशय, आँत और िजगर की दब
ु ल
र् ता दरू होती है ।
पि चमो तानासन—बैठकर पैर को ल बा फैला दीिजए। दोन पैर िमले रह, घट
ु ने मड़
ु े न ह , िबलकुल
सीधे रह, टाँग जमीन से लगी रह। इसके बाद टाँग की ओर झक
ु कर दोन हाथ से पैर के दोन अँगठ

को पकिड़ए। यान रहे िक पैर जमीन से जरा भी न उठने पाएँ। पैर के अँगठ
ू े पकड़कर िसर दोन

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घट
ु न के बीच म करके यह प्रय न करना चािहए िक िसर घट
ु न पर या उनके भी आगे रखा जा सके।
यिद बन सके तो हाथ की कोहिनय को जमीन से छुआना चािहए। शु म पैर फैलाकर और घट
ु ने सीधे
रखकर कमर आगे झक
ु ाकर अँगठ
ू े पकड़ने का प्रय न करना चािहए और धीरे - धीरे पकड़ने लग जाने पर
िसर घुटन पर रखने का प्रय न करना चािहए।

(पि चमो तानासन का िचत्र)

सपार्सन—पेट के बल आसन पर लेट जाइए। िफर दोन हाथ के पंजे जमीन पर टे ककर हाथ खड़े कर
दीिजए। पंजे नािभ के पास रह। शरीर पूरी तरह जमीन से िचपटा हो, मूल घुटने यहाँ तक िक पैर के
पंज की पीठ तक जमीन से पूरी तरह िचपकी हो। अब क्रमशः िशर, गरदन, गला, छाती और पेट को
धीरे - धीरे जमीन से उठाते जाइए और िजतना तान सक तान दीिजए। ि ट सामने रहे । शरीर साँप के
फन की तरह तना खड़ा रहे , नािभ के पास तक शरीर जमीन से उठा रहना चािहए।

(सपार्सन का िचत्र)

धनुरासन—आसन पर नीचे मँह


ु करके लेट जाइए। िफर दोन पैर को घुटन से मोड़कर पीछे की तरफ
ले जाइए और हाथ भी पीछे ले जाकर दोन पैर को पकड़ लीिजए। अब धीरे - धीरे िसर और छाती को
ऊपर उठाइए, साथ ही हाथ को भी ऊपर की ओर खींचते हुए पैर को ऊपर की ओर तािनए। आगे- पीछे
शरीर इतना उठा दीिजए िक केवल पेट और पेडू जमीन से लगे रह जाएँ। शरीर का बाकी तमाम िह सा
उठ जाए और शरीर िखंचकर धनुष के आकार का हो जाए। पैर, िसर और छाती के तनाव म टे ढ़ापन
आ जाए, ि ट सामने रहे और सीना िनकलता हुआ मालम
ू हो।

(धनरु ासन का िचत्र)

मयूरासन—घुटन के सहारे आसन पर बैठ जाइए और िफर दोन हाथ जमीन पर साधारण अ तर से
ऐसे रिखए िक पंजे पीछे भीतर की ओर रह। अब दोन पैर को पीछे ले जाकर पंज के बल होइए और
हाथ की दोन कोहिनयाँ नािभ के दोन तरफ लगाकर छाती और िशर को आगे दबाते हुए पैर को
जमीन से ऊपर उठाने का प्रय न कीिजए। जब पैर जमीन से उठकर कोहिनय के समाना तर आ जाएँ
तो िसर और छाती को भी सीधा कर दीिजए। सारा शरीर हाथ की कोहिनय पर सीधा आकर तुल
जाना चािहए।

(मयरू ासन का िचत्र)

ये आठ आसन ऐसे ह, जो अिधक क टसा य न होते हुए भी मम और सि धय पर प्रभाव डालने वाले


ह। शा त्र म इनकी िवशेष प्रशंसा है ।

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इन सबके वारा जो लाभ होते ह, उसका सि मिलत लाभ सय
ू र् नम कार से होता है । यह एक ही
आसन कई आसन के िम ण से बना है । इसका पर पर ऐसा क्रमवत ् तारत य है िक अलग- अलग
आसन की अपेक्षा यह एक ही आसन अिधक लाभप्रद िसद्ध होता है । हम गायत्री साधक को बहुधा
सय
ू -र् नम कार करने की ही सलाह दे ते ह। हमारे अनुभव म सय
ू र् नम कार के लाभ अिधक मह वपूणर्
रहे ह, िक तु जो कर सकते ह , वे उपरोक्त आठ आसन को भी कर, बड़े लाभदायक ह।

सय
ू -र् नम कार की िविध

प्रातःकाल सय
ू दय समय के आस- पास इन आसन को करने के िलए खड़े होइए। यिद अिधक सदीर्-
गमीर् या हवा हो तो हलका कपड़ा शरीर पर पहने रिहए, अ यथा लँ गोट या नेकर के अितिरक्त सब
कपड़े उतार दीिजए। खुली हवा म, व छ खुली िखड़िकय वाले कमरे म कमर सीधी रखकर खड़े होइए।

मख
ु पूवर् की ओर कर लीिजए। नेत्र ब द करके हाथ जोड़कर भगवान ् सय
ू र् नारायण का यान कीिजए
और भावना कीिजए िक सय
ू र् की तेज वी आरोग्यमयी िकरण आपके शरीर म चार ओर से प्रवेश कर
रही ह। अब िन न प्रकार आर भ कीिजए—

(१) पैर को सीधा रिखए। कमर पर से नीचे की ओर झिु कए, दोन हाथ को जमीन पर लगाइए, म तक
घुटन से लगे।

यह ‘पाद- ह तासन’ है । इससे टखन का, टाँग के नीचे के भाग का, जंघा का, पुट्ठ का, पसिलय का,
क ध के प ृ ठ भाग तथा बाँह के नीचे के भाग का यायाम होता है ।

(२) िसर को घुटन से हटाकर ल बी साँस लीिजए। पहले दािहने पैर को पीछे ले जाइए और पंजे को
लगाइए। बाएँ पैर को आगे की ओर मड़
ु ा रिखए। दोन हथेिलयाँ जमीन से लगी रह। िनगाह सामने और
िसर कुछ ऊँचा रहे ।

इसे ‘एक पादप्रसारणासन’ कहते ह। इससे जाँघ के दोन भाग का तथा बाएँ पेडू का यायाम होता है ।

(३) बाएँ पैर को पीछे ले जाइए। उसे दािहने पैर से सटाकर रिखए। कमर को ऊँचा उठा दीिजए। िसर
और सीना कुछ नीचे झुक जाएगा।

यह ‘ िवपादप्रसारणासन’ है । इससे हथेिलय की सब नस का, भज


ु ाओं का, पैर की उँ गिलय और
िप डिलय का यायाम होता है ।

(४) दोन पाँव के घुटने, दोन हाथ, छाती तथा म तक, इन सब अंग को सीधा रखकर भिू म म पशर्
कराइए। शरीर तना रहे , कहीं लेटने की तरह िन चे ट न हो जाइए। पेट जमीन को न छुए।

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इसे ‘अ टाङ्ग प्रिणपातासन’ कहते ह। इससे बाँह , पसिलय , पेट, गरदन, क धे तथा भज
ु द ड का
यायाम होता है ।

(५) हाथ को सीधा खड़ा कर दीिजए। सीना ऊपर उठाइए। कमर को जमीन की ओर झक
ु ाइए, िसर ऊँचा
कर दीिजए, आकाश को दे िखए। घट
ु ने जमीन पर न िटकने पाएँ। पंजे और हाथ पर शरीर सीधा रहे ।
कमर िजतनी मड़
ु सके मोिड़ए तािक धड़ ऊपर को अिधक उठ सके।

यह ‘सपार्सन’ है । इससे िजगर का, आँत का तथा क ठ का अ छा यायाम होता है ।

(६) हाथ और पैर के परू े तलए


ु जमीन से पशर् कराइए। घट
ु ने और कोहिनय के टखने झक
ु ने न पाएँ।
कमर को िजतना हो सके ऊपर उठा दीिजए। ठोढ़ी क ठमल
ू म लगी रहे , िसर नीचे रिखए।

यह ‘मयरू ासन’ है । इससे गरदन, पीठ, कमर, कू हे , िप डली, पैर तथा भज


ु द ड की कसरत होती है ।

(७) यहाँ से अब पहली की हुई िक्रयाओं पर वापस जाया जाएगा। दािहने पैर को पीछे ले जाइए, पव
ू क्त
नं. २ के अनसु ार ‘एक पादप्रसारणासन’ कीिजए।

(८) पूव क्त नं. १ की तरह ‘पादह तासन’ कीिजए।

(९) सीधे खड़े हो जाइए। दोन हाथ को आकाश की ओर ले जाकर हाथ जोिड़ए। सीने को िजतना पीछे
ले जा सक ले जाइए। हाथ िजतने पीछे ले जा सक ठीक है , पर मड़
ु ने न पाय। यह ‘ऊ वर्नम कारासन’
है । इससे फेफड़ और दय का अ छा यायाम होता है ।

(१०) अब उसी आरि भक ि थित पर आ जाइए, सीधे खड़े होकर हाथ जोिड़ए और भगवान ् सय
ू न
र् ारायण
का यान कीिजए।

यह एक सय ू र् नम कार हुआ। आर भ पाँच से करके सिु वधानस


ु ार थोड़ी- थोड़ी संख्या धीरे - धीरे बढ़ाते
जाना चािहए। यायाम काल म मँह ु ब द रखना चािहए। साँस नाक से ही लेनी चािहए।

त व शुिद्ध - अ नमय कोश की साधना


यह सिृ ट प चत व से बनी हुई है । प्रािणय के शरीर भी इन त व से बने हुए ह। िमट्टी, जल, वायु,
अिग्न और आकाश, इन पाँच त व का यह सब कुछ स प्रसार है । िजतनी व तए ु ँ ि टगोचर होती ह
या इि द्रय वारा अनुभव म आती ह, उन सबकी उ पि त प चत व वारा हुई है । व तुओं का
पिरवतर्न, उ पि त, िवकास तथा िवनाश इन त व की मात्रा म पिरवतर्न आने से होता है ।
200
यह प्रिसद्ध है िक जलवायु का वा य पर प्रभाव पड़ता है । शीत प्रधान दे श तथा यूरोिपयन लोग का
रं ग, प, कद, वा य अफ्रीका के तथा उ ण प्रदे शवािसय के रं ग, प, कद, वा य से सवर्था िभ न
होता है । पंजाबी, क मीरी, बंगाली, मद्रासी लोग के शरीर एवं वा य की िभ नता प्र यक्ष है । यह
जलवायु का ही अ तर है ।

िक हीं प्रदे श म मलेिरया, पीला बख


ु ार, पेिचस, चमर्रोग, फीलपाँव, कु ठ आिद रोग की बाढ़- सी रहती है
और िक हीं थान की जलवायु ऐसी होती है िक वहाँ जाने पर तपेिदक सरीखे क टसा य रोग भी
अ छे हो जाते ह। पशु- पक्षी, घास- अ न, फल, औषिध आिद के रं ग, प, वा य, गण
ु , प्रकृित आिद म
भी जलवायु के अनुसार अ तर पड़ता है । इसी प्रकार वषार्, गमीर्, सदीर् का त व पिरवतर्न प्रािणय म
अनेक प्रकार के सू म पिरवतर्न कर दे ता है ।

आयुवद शा त्र म वात- िप त का अस तुलन रोग का कारण बताया है । वात का अथर् है - वायु, िप त का
अथर् है - गरमी, कफ का अथर् है - जल। पाँच त व म प ृ वी शरीर का ि थर आधार है । िमट्टी से ही शरीर
बना है और जला दे ने या गाड़ दे ने पर केवल िमट्टी प म ही इसका अि त व रह जाता है , इसिलए
प ृ वी त व तो शरीर का ि थर आधार होने से वह रोग आिद का कारण नहीं बनता।

दस
ू रे आकाश का स ब ध मन से, बिु द्ध एवं इि द्रय की सू म त मात्राओं से है । थूल शरीर पर
जलवायु और गमीर् का ही प्रभाव पड़ता है और उ हीं प्रभाव के आधार पर रोग एवं वा य बहुत कुछ
िनभर्र रहते ह।

वायु की मात्रा म अ तर आ जाने से गिठया, लकवा, ददर् , क प, अकड़न, गु म, हड़फूटन, नाड़ी िवक्षेप आिद
रोग उ प न होते ह।

अिग्र त व के िवकार से फोड़े- फु सी, चेचक, वर, रक्त- िप त, है जा, द त, क्षय, वास, उपदं श, रक्तिवकार
आिद बढ़ते ह।

जलत व की गड़बड़ी से जलोदर, पेिचस, संग्रहणी, बहुमत्र


ू , प्रमेह, व नदोष, सोम, प्रदर, जक
ु ाम, अकड़न,
अपच, िशिथलता सरीखे रोग उठ खड़े होते ह। इस प्रकार त व के घटने- बढ़ने से अनेक रोग उ प न
होते ह।

आयुवद के मत से िवशेष प्रभावशाली, गितशील, सिक्रय एवं थूल इस शरीर को ि थर करने वाले कफ,
वात- िप त, अथार्त ् जल- वायु ही ह। दै िनक जीवन म जो उतार- चढ़ाव होते रहते ह, उनम इन तीन का
ही प्रधान कारण होता है ; िफर भी शेष दो त व प ृ वी और आकाश शरीर पर ि थर प म काफी
प्रभाव डालते ह। मोटा या पतला होना, ल बा या िठगना होना, पवान ् या कु प होना, गोरा या काला

201
होना, कोमल या सु ढ़ होना शरीर म प ृ वी त व की ि थित से स बि धत है । इसी प्रकार चतरु ता-
मख
ू त
र् ा, सदाचार- दरु ाचार, नीचता- महानता, ती बिु द्ध- म द बिु द्ध, सनक- दरू दिशर्ता, िख नता- प्रस नता एवं
गण
ु , कमर्, वभाव, इ छा, आकांक्षा, भावना, आदशर्, ल य आिद बात इस पर िनभर्र रहती ह िक आकाश
त व की ि थित क्या है ? उ माद, सनक, िदल की धड़कन, अिनद्रा, पागलपन, दःु व न, मग
ृ ी, मू छार्,
घबराहट, िनराशा आिद रोग म भी आकाश ही प्रधान कारण होता है ।

रसोई का वािद ट तथा लाभदायक होना इस बात पर िनभर्र है िक उनम पड़ने वाली चीज िनयत
मात्रा म ह । चावल, दिलया, दाल, हलआ
ु , रोटी आिद म अिग्न का प्रयोग कम रहे या अिधक हो जाए तो
वह खाने लायक न होगी। इसी प्रकार पानी, नमक, चीनी, घी आिद की मात्रा बहुत कम या अिधक हो
जाए तो भोजन का वाद, गणु तथा प िबगड़ जाएगा।

यही दशा शरीर की है । त व की मात्रा म गड़बड़ी पड़ जाने से वा य म िनि चत प से खराबी आ


जाती है । जलवायु, सदीर्- गमीर् (ऋतु प्रभाव) के कारण रोगी मनु य नीरोग और नीरोग रोगी बन सकता
है ।

योग- साधक को जान लेना चािहए िक प चत व से बने शरीर को सरु िक्षत रखने का आधार यह है
िक दे ह म सभी त व ि थर मात्रा म रह। गायत्री के पाँच मख
ु शरीर म पाँच त व बनकर िनवास
करते ह। यही पाँच ज्ञानेि द्रय और पाँच कमि द्रय को िक्रयाशील रखते ह। लापरवाही, अ यव था और
आहार- िवहार के असंयम से त व का स तल
ु न िबगड़कर रोगग्र त होना एक प्रकार से प चमख
ु ी
गायत्री माता का, दे ह परमे वरी का ितर कार करना है ।

वेदा त शा त्र म इन पाँच त व को आ मा का आवरण एवं ब धन माना गया है । भगवान ् शंकराचायर्


ने ‘त व- बोध’ की संकेत िपिटका म ‘प चीकरण िव या’ बताई है । उनका कथन है िक ब धन से
मिु क्त प्रा त करने के िलए पहले हम यह भलीभाँित जान लेना चािहए िक यह संसार और कुछ नहीं,
केवल प चभत ु ं का इधर- उधर उड़ते िफरना, संयुक्त और िवमक्
ू के परमाणओ ु त होते रहना मात्र है ।
जैसे वायु से प्रेिरत बादल इधर- उधर उड़ते ह तो उनके संयोग- िवयोग से आकाश म पवर्त, रीछ, िसंह,
पक्षी, वक्ष
ृ , गफ
ु ा जैसे नाना प्रकार के कौतूहलपूणर् िचत्र क्षण- क्षण म बनते- िबगड़ते रहते ह, उसी प्रकार
इस संसार म नाना प्रकार के िनमार्ण, िवकास और वंस होते रहते ह।

जैसे बादल से बनने वाले िचत्र िम या ह, भ्रम ह, भल


ु ावा ह, व न ह, वैसे ही संसार माया, भ्रम या
व न है । यह पाँच भत
ू के उड़ने- िफरने का खेल मात्र है । इसिलए उसे लीलाधर की लीला, नटवर की
कला या माया बताया गया है ।

कई अदरू दशीर् यिक्त ‘संसार- व न है ’ यह सन


ु ते ही आगबबूला हो जाते ह और वेदा त शा त्र पर यह
आरोप लगाते ह िक इन िवचार के वारा लोग म अकमर् यता, िनराशा, िन साह, अिन छा पैदा होगी
202
और सांसािरक उ नित की मह वाकांक्षा िशिथल हो जाने से हमारा समाज या रा ट्र िपछड़ा रह जाएगा।
यह आक्षेप बहुत ही उथला और अिववेकपण
ू र् है ।

वेदा त िवरोधी इतना तो जानते ही ह िक हम मरना है और मरने पर कोई भी व तु साथ नहीं जाती।
इतनी जानकारी होते हुए भी वे सांसािरक उ नित को छोड़ते नहीं। व न म भी सब काम होते रहते
ह। इसी प्रकार शरीर का िनमार्ण भी ऐसे ढं ग से हुआ है , उसम पेट की, इि द्रय की, मन की क्षुधाएँ
इतना प्रबल लगा दी गई ह िक िबना क तर् यपरायण हुए कोई प्राणी क्षणभर भी चैन से नहीं बैठ
सकता। िनि षुय यिक्त के िलए तो जीवन धारण िकए रहना भी अस भव है ।

वेदा त ने संसार की दाशर्िनक िववेचना करते हुए उसे प चभत


ू का अि थर परमाण-ु पु ज, व न
बताया है । इसका फिलताथर् यह होना चािहए िक हम आि मक लाभ के िलए ही सांसािरक व तओ ु ं का
उपाजर्न एवं उपयोग कर। व तुओं की मोहकता पर आसक्त होकर उनके स चय एवं अिनयि त्रत भोग
की मग
ृ त ृ णा से अपने आि मक िहत का बिलदान न कर।

क तर् यरत रहना तो शरीर का वाभािवक धमर् है , इसे यागना िकसी भी जीिवत यिक्त के िलए
स भव नहीं। वेदा त की यह िशक्षा िक यह संसार प चभत
ू की क्रीड़ा थली मात्र है , पूणत
र् या िवज्ञान
स मत है । दाशर्िनक की भाँित वैज्ञािनक भी यही बताते ह िक अणु- परमाणओ
ु ं के द्रत
ु गित से
पिरभ्रमण करने के कारण संसार की गितशीलता है और प चत व से बने हुए ९६ जाित के परमाणु
ही संसार की व तओु ं, दे ह , योिनय के उ पादन एवं िवनाश के हे तु ह।

‘प चीकरण िव या’ के अनुसार साधक जब भली प्रकार यह बात दयङ्गम कर लेता है िक यह संसार
उड़ते हुए परमाणओ
ु ं के संयोग- िवयोग से क्षण- क्षण म बनने- िबगड़ने वाली िचत्रावली मात्र है , तो उसका
ि टकोण भौितक न रहकर आि मक हो जाता है । वह व तओ ु ं का अनाव यक मोह न करके उन
बुराइय से बच जाता है , जो लोभ और मोह को भड़काकर नाना प्रकार के पाप, त ृ णा, वेष, िच ता, शोक
और अभावज य क्लेश से जीवन को नारकीय बनाए हुए ह।

दे ह या मन को अपना मानने का कोई कारण नहीं। यह जड़, पिरवतर्नशील दे ह भी संसार के अ य


पदाथ की भाँित ही प चभौितक है , इसिलए इसको अपने उपयोग की व त,ु औजार या सवारी समझकर
आन दमयी जीवन- यात्रा के िलए प्रयुक्त करना तो चािहए, पर दे ह या मन की आव यक त ृ णाओं के
पीछे आ मा को परे शान नहीं करना चािहए। इस मा यता को दयंगम कराने के िलए शरीर का
िव लेषण करते हुए ‘त व- बोध’ म बताया गया है िक िकस त व से शरीर का कौन- सा भाग बनता
है ?

प ृ वी त व की प्रधानता से अि थ, मांस, वचा, नाड़ी, रोम, आिद भारी पदाथर् बने ह। जल की प्रधानता
से मत्र
ू , कफ, रक्त, शुक्र आिद हुआ करते ह। अिग्न त व के कारण भख
ू , यास, म, थकान, िनद्रा,
203
क्लाि त आिद का अि त व है । वायु त व म चलना- िफरना, गित, िक्रया, िसकुड़ना- फैलना होता है ।
आकाश त व से काम, क्रोध, लोभ, मोह, भय आिद विृ तय , इ छाओं और िवचारधाराओं का आिवभार्व
हुआ करता है । ता पयर् यह है िक शरीर म जो कुछ अंग- प्र यंग, पदाथर् तथा प्रेरणा है , वह प चत व
के आधार पर है ।

जब इस प्रप च प संसार और प चावरण शरीर म से ‘अहम ्’ की मा यता हटाकर िव व यापी चैत य


आ मा म अपने को पिर या त मान िलया जाता है , तो वह पिरपूणर् मा यता ही मिु क्त बन जाती है ।
शरीर और संसार की प चभौितक स ता को ‘प्रप च’ श द से स बोिधत िकया गया है और वेदा त
शा त्र म योग साधना का आदशर् है िक ‘म’ और ‘मेरा’ वैत छोड़कर केवल ‘म’ का अ वैत सीखो।
‘िव व म जो कुछ है , वह म आ मा हूँ, मझ
ु से िभ न कुछ नहीं’ यह मा यता अ वैत ब्र म को प्रा त
करा दे ती है ।

इसी बात को भिक्तमागीर् दस


ू रे श द म कहते ह—‘जो कुछ है - तू है , मेरा अलग अपन व कुछ नहीं।’
दोन ही मा यताएँ िब कुल एक ह। भिक्तमागर् और वेदा त म श द के फेर के अितिरक्त व तत
ु ः
कुछ अ तर नहीं है ।

अ नमय कोश के पिरमाजर्न के िलए तीसरा उपाय ‘त वशुिद्ध’ है । थूल प से शरीर के प चत व


को ठीक रखने के िलए जल, वाय,ु ऋत,ु प्रदे श और वातावरण का यान रखना आव यक है । सू म प
से प चीकरण िव या के अनस
ु ार त वज्ञान प्रा त करके आ मत व और अना मत व के अ तर को
समझते हुए प्रप च से छुटकारा पाना चािहए। त वशिु द्ध के दोन ही पहलू मह वपण
ू र् ह। िजसे अपना
अ नमय कोश ठीक रखना है , उसे यावहािरक जीवन म प चत व की शिु द्ध स ब धी बात का भी
िवशेष यान रखना चािहए।

(१) जल त व—जल से शरीर और व त्र की शुिद्ध बराबर करता रहे । नान करने का उ े य केवल मैल
छुड़ाना नहीं, वरन ् पानी म रहने वाली ‘िविशवा’ नामक िव यत
ु ् से दे ह को सतेज करना एवं ऑक्सीजन,
नाइट्रोजन आिद बहुमू य त व से शरीर को सींचना भी है । सबेरे शौच जाने से बीस- तीस िमनट पूवर्
एक िगलास पानी पीना चािहए िजससे रात का अपच धल ु जाए और शौच साफ हो।

पानी को सदा घूँट- घूँट कर धीरे - धीरे दध


ू की तरह पीना चािहए। हर घूँट के साथ यह भावना करते
जाना चािहए िक ‘इस अमत
ृ तु य जल म जो शीतलता, मधुरता और शिक्त भरी हुई है , उसे खींचकर
म अपने शरीर म धारण कर रहा हूँ।’ इस भावना के साथ िपया हुआ पानी दध
ू के समान गण ु कारक
होता है ।

िजन थान का पानी भारी, खारी, तेिलया, उथला, तालाब का तथा हािनकारक हो, वहाँ रहने पर अ नमय
कोश म िवकार पैदा होता है । कई थान म पानी ऐसा होता है िक वहाँ फीलपाँव, अ ड नासरू , जलोदर,
204
कु ठ, खज
ु ली, मलेिरया, जए
ु ँ, म छर आिद का बहुत प्रसार होता है । ऐसे थान को छोड़कर व थ,
हलके, सपु ा य जल के समीप अपना िनवास रखना चािहए। धनी लोग दरू थान से भी अपने िलए
उ तम जल मँगा सकते ह।

कभी- कभी एिनमा वारा पेट म औषिध िमि त जल चढ़ाकर आँत की सफाई कर लेनी चािहए। उससे
सि चत मल से उ प न िवष पेट म से िनकल जाते ह और िच त बड़ा हलका हो जाता है । प्राचीनकाल
म वि त िक्रया योग का आव यक अंग थी। अब एिनमा य त्र वारा यह िक्रया सग
ु म हो गई है ।

जल िचिक सा पद्धित रोग िनवारण एवं वा य स वद्धर्न के िलए बड़ी उपयुक्त है । डॉक्टर लई
ु क ने
इस िवज्ञान पर वत त्र ग्र थ िलखे ह। उनकी बताई पद्धित से िकए गए किट नान, मेहन नान,
मे द ड नान, गीली चादर लपेटना, कपड़े का पल तर आिद से रोग िनवारण म बड़ी सहायता िमलती
है ।

(२) अिग्न त व—सय


ू र् के प्रकाश के अिधक स पकर् म रहने का प्रय न करना चािहए। घर की सभी
िखड़िकयाँ खल
ु ी रहनी चािहए तािक धूप और हवा खूब आती रहे । सबेरे की धूप नंगे शरीर पर लेने का
प्रय न करना चािहए। सय
ू त
र् ाप से तपाए हुए जल का उपयोग करना, भीगे बदन पर धूप लेना उपयोगी
है ।

सय
ू र् की स त िकरण, अ ट्रा वायलेट और अ फा वायलेट िकरण वा य के िलए बड़ी उपयोगी सािबत
हुई ह। वे जल के साथ धूप का िम ण होने से िखंच आती ह। धूप म रखकर रं गीन काँच से संपूणर्
रोग की िचिक सा करने की िव तत ृ िविध तथा अिग्न और जल के सि म ण से भाप बन जाने पर
उसके वारा अनेक रोग का उपचार करने की िविध सय
ू र् िचिक सा िवज्ञान की िकसी भी प्रामािणक
पु तक से दे खी जा सकती है ।

रिववार को उपवास रखना सय


ू र् की तेजि वता एवं बलदाियनी शिक्त का आ वान है । परू ा या आंिशक
उपवास शरीर की काि त और आि मक तेज को बढ़ाने वाला िसद्ध होता है ।

(३) वायु त व—घनी आबादी के मकान जहाँ धूल, धुआँ, सील की भरमार रहती है और शुद्ध वायु का
आवागमन नहीं होता, वे थान वा य के िलए खतरनाक ह। हमारा िनवास खुली हवा म होना
चािहए। िदन म वक्ष
ृ और पौध से ओषजन वायु (ऑक्सीजन) िनकलती है , वह मनु य के िलए बड़ी
उपयोगी है । जहाँ तक हो सके वक्ष
ृ - पौध के बीच अपना दै िनक कायर्क्रम करना चािहए। अपने घर,
आँगन, चबूतरे आिद पर वक्ष
ृ - पौधे लगाने चािहए।

प्रातःकाल की वायु बड़ी वा यप्रद होती है , उसे सेवन करने के िलए तेज चाल से टहलने के िलए
जाना चािहए। दग
ु िर् धत एवं ब द हवा के थान से अपना िनवास दरू ही रखना चािहए। तराई, सील,

205
नमी के थान की वाय,ु वर आिद पैदा करती है । तेज हवा के झोक से वचा फट जाती है । अिधक
ठ डी या गमर् हवा से िनमोिनया या लू लगना जैसे रोग हो सकते ह। इस प्रकार के प्रितकूल मौसम से
अपनी रक्षा करनी चािहए।

प्राणायाम वारा फेफड़ का यायाम होता है और शुद्ध वायु से रक्त की शुिद्ध होती है । इसिलए व छ
वायु के थान म बैठकर िन य प्राणायाम करना चािहए। प्राणायाम की िविध प्राणमय कोश की साधना
के प्रकरण म िलखगे।

हवन करना—अिग्न त व के संयोग से हवन, वायु को शुद्ध करता है । जो व तु अिग्न म जलाई जाती
है , वह न ट नहीं होती वरन ् सू म होकर वायुम डल म फैल जाती है । िभ न- िभ न वक्ष
ृ की सिमधाओं
एवं हवन सामिग्रय म अलग- अलग गण
ु ह। उनके वारा ऐसा वायुम डल रखा जा सकता है , जो शरीर
और मन को व थ बनाने म सहायक हो। िकस सिमधा और िकन- िकन सामिग्रय से िकस िवधान के
साथ हवन करने का क्या पिरणाम होता है ? इसका िव तत
ृ िवधान बताने के िलए ‘गायत्री यज्ञ िवधान’
िलखा गया है ।

गायत्री साधक को तो अपने अ नमय कोश की वायु शुिद्ध के िलए कुछ हवन सामग्री बनाकर रख लेनी
चािहए, िजसे धूपदानी म थोड़ी- थोड़ी जलाकर उससे अपने िनवास थान की वायु शुिद्ध करते रहना
चािहए।

च दन चूरा, दे वदा , जायफल, इलायची, जािवत्री, अगर- तगर, कपूर, छार- छबीला, नागरमोथा, खस, कपरूर्
कचरी तथा मेवाएँ जौ कूट करके थोड़ा घी और शक्कर िमलाकर धूप बन जाती है । इस धूप की बड़ी
मनमोहक एवं वा यवद्धर्क ग ध आती है । बाजार से भी कोई अ छी अगरब ती या धूपब ती लेकर
काम चलाया जा सकता है । साधना काल म सग
ु ध की ऐसी यव था कर लेना उ तम है ।

ु ु◌ँह से नहीं, सदा नाक से ही लेना चािहए। कपड़े से मँह


वास म◌ ु ढककर नहीं सोना चािहए और िकसी
के मँह ु के इतना पास नहीं सोना चािहए िक उसकी छोड़ी हुई साँस अपने भीतर जाए। धिू ल, धआ
ु ँ और
दगु र् धभरी अशद्ध
ु वायु से सदा बचना चािहए।

(४) प ृ वी त व—शुद्ध िमट्टी म िवष- िनवारण की अद्भत


ु शिक्त होती है । ग दे हाथ को िमट्टी से माँजकर
शुद्ध िकया जाता है । प्राचीनकाल म ऋिष- मिु न जमीन खोदकर गफ
ु ा बना लेते थे और उसम रहा करते
थे। इससे उनके वा य पर बड़ा अ छा असर पड़ता था। िमट्टी उनके शरीर के दिू षत िवकार को खींच
लेती थी, साथ ही भिू म से िनकलने वाले वा प वारा दे ह का पोषण भी होता रहता था। समािध लगाने
के िलए गफ
ु ाएँ उपयुक्त थान समझी जाती ह, क्य िक चार ओर िमट्टी से िघरे होने के कारण शरीर
को साँस वारा ही बहुत- सा आहार प्रा त हो जाता है और कई िदन तक भोजन की आव यकता नहीं
पड़ती या कम भोजन से काम चल जाता है ।
206
छोटे बालक जो प्रकृित के अिधक समीप ह, प ृ वी के मह व को जानते ह। वे भिू म पर खेलना, भिू म
पर लेटना ग - तिकय की अपेक्षा अिधक पस द करते ह। पशुओं को दे िखए, वे अपनी थकान िमटाने
के िलए जमीन पर लोट लगाते ह और लोट- पोटकर प ृ वी की पोषण शिक्त से िफर ताजगी प्रा त कर
लेते ह। तीथर्यात्रा एवं धमर्- काय के िलए नंगे पैर चलने का िवधान है । तप वी लोग भिू म पर शयन
करते ह।

इन प्रथाओं का उ े य धमर्- साधना के नाम पर प ृ वी की पोषक शिक्त वारा साधक को लाभाि वत


करना ही है । पक्के मकान की अपेक्षा िमट्टी के झ पड़ म रहने वाले सदा अिधक व थ रहते ह।

िमट्टी के उपयोग वारा वा


य सध ु ार म हम बहुत सहायता िमलती है । िनद ष, पिवत्र भिू म पर नंगे
पाँव टहलना चािहए। जहाँ छोटी- छोटी हरी घास उग रही हो, वहाँ टहलना तो और भी अ छा है ।

पहलवान लोग चाहे वे अमीर ही क्य न ह , ई के ग पर कसरत करने की अपेक्षा मल


ु ायम िमट्टी के
अखाड़ म ही यायाम करते ह, तािक िमट्टी के अमू य गण
ु का लाभ उनके शरीर को प्रा त हो। साबुन
के थान पर पोतनी या मल
ु तानी िमट्टी का उपयोग भी िकया जा सकता है । वह मैल को दरू करे गी,
िवष को खींचेगी और वचा को कोमल, ताजा, चमकीला और प्रफुि लत कर दे गी।

िमट्टी शरीर पर लगाकर नान करना एक अ छा उबटन है । इससे गमीर् के िदन म उठने वाली
घमोिरयाँ और फुि सयाँ दरू हो जाती ह। िसर के बाल को मल
ु तानी िमट्टी से धोने का िरवाज अभी तक
मौजद ु ायम एवं
ू है । इससे िसर का मैल दरू हो जाता है , खुर ट जमने ब द हो जाते ह, बाल काले, मल
िचकने रहते ह तथा मि त क म बड़ी तरावट पहुँचती है । हाथ साफ करने और बरतन माँजने के िलए
िमट्टी से अ छी और कोई चीज नहीं है ।

फोड़े, फु सी, दाद, खाज, गिठया, जहरीले जानवर के काटने, सज


ू न, जख्म, िग टी, नासरू , दःु खती हुई आँख ,
कु ठ, उपदं श, रक्त िवकार आिद रोग पर गीली िमट्टी बाँधने से आ चयर्जनक लाभ होता है । डॉ. लई ु क
ने अपनी जल िचिक सा म िमट्टी की पट्टी के अनेक उपचार िलखे ह। चू हे की जली हुई िमट्टी से दाँत
माँजने, नाक के रोग म िमट्टी के ढे ले पर पानी डालकर सँघ
ु ाने, लू लगने पर पैर के ऊपर िमट्टी थोप
लेने की िविध से सब लोग पिरिचत ह।

िकसी थान पर बहुत समय तक मल- मत्र ू डालते रह, तो डालना ब द कर दे ने के बाद भी बहुत समय
तक वहाँ दग
ु र् ध आती रहती है । कारण यह है िक भिू म म शोषण शिक्त है , वह पदाथ को सोख लेती
है और उसका प्रभाव बहुत समय तक अपने अ दर धारण िकए रहती है ।

प ृ वी की सू म शिक्त लोग के सू म िवचार और गण


ु को सोखकर अपने म धारण कर लेती है ।

207
िजन थान पर ह या, यिभचार, जआ
ु आिद द ु कमर् होते ह, उन थान का वातावरण ऐसा घातक हो
जाता है िक वहाँ जाने वाल पर उनका प्रभाव पड़े िबना नहीं रहता।

मशान भिू म जहाँ अनेक मत


ृ शरीर न ट हो जाते ह, अपने म एक भयंकरता िछपाए बैठी रहती है ।
वहाँ जाने पर एक िवलक्षण प्रभाव मनु य पर पड़ता है । अनेक ताि त्रक साधना तो ऐसी ह िजनके िलए
केवल मरघट का वातावरण ही उपयुक्त होता है ।

भिू मगत प्रभाव से गायत्री साधक को लाभ उठाना चािहए। जहाँ स पु ष रहते ह, जहाँ वा याय,
स िवचार, स कायर् होते ह, वे थान प्र यक्ष तीथर् ह। उन थान का वातावरण साधना की सफलता म
बड़ा लाभदायक होता है । िजन थान म िकसी समय म कोई अवतार या िद य पु ष रहे ह, उन थान
की प्रभाव- शिक्त का सू म िनरीक्षण करके तीथर् बनाए गए ह। जहाँ कोई िसद्ध पु ष या तप वी बहुत
काल तक रहे ह, वह थान िसद्धपीठ बन जाते ह और वहाँ रहने वाल पर अनायास ही अपना प्रभाव
डालते ह।

सू मदशीर् महा माओं ने दे खा है िक भगवान ् कृ ण की प्र यक्ष लीला तरं ग अभी तक ब्रजभिू म म बड़ी
प्रभावपूणर् ि थित म मौजद
ू ह। तीथर्वािसय के दिू षत िच त के बावजद
ू इस भिू म की प्रभाव- शिक्त
अब भी बनी हुई है और साधक को उसका पशर् होते ही शाि त िमलती है । िकतने ही मम
ु क्ष
ु ु अपनी
आि मक शाि त के िलए इस पु यभिू म म िनवास करने का थायी या अ पकालीन अवसर िनकालते
ह। कारण यह है िक क्लेशयक्
ु त वातावरण के थान म िजतने म और समय म िजतनी सफलता
िमलती है , उसकी अपेक्षा पु य भिू म के वातावरण म कहीं ज दी और कहीं अिधक लाभ होता है । तीथर्-
थान म नंगे पैर भ्रमण करने का भी माहा य इसिलए है िक उन थान की पु य तरं ग अपने शरीर
से पशर् करके आ मशाि त का हे तु बन।

(५) आकाश त व—आकाश त व िपछले चार त व की अपेक्षा अिधक सू म होने से अिधक


शिक्तशाली है । िव व यापी पोल म, शू याकाश म एक शिक्तत व भरा हुआ है , िजसे अंगरे जी म ‘ईथर’
कहते ह। पोले थान को खाली नहीं समझना चािहए। वह वायु से सू म होने के कारण प्र यक्ष प से
अनुभव नहीं होता, तो भी उसका अि त व पूणत
र् या प्रमािणत है ।

रे िडयो वारा जो गायन, समाचार, भाषण आिद हम सन


ु ते ह, वे ईथर म, प्रकाश त व म तरं ग के प
म आते ह। जैसे पानी म ढे ला फक दे ने पर उसकी लहर बनती है , इसी प्रकार ईथर (आकाश) म श द
की तरं ग पैदा होती ह और पलक मारते िव वभर म फैल जाती ह। इसी िवज्ञान के आधार पर रे िडयो
य त्र का आिव कार हुआ है । एक थान पर श द- तरं ग के साथ िबजली की शिक्त िमलाकर उ ह
अिधक बलवती करके प्रवािहत कर िदया जाता है । अ य थान पर जहाँ रे िडयो य त्र लगे ह, उन
आकाश म बहने वाली तरं ग को पकड़ िलया जाता है और प्रेिषत स दे श सन
ु ाई दे ने लगते ह।

208
वाणी चार प्रकार की होती ह— (१) वैखरी- जो मँह
ु से बोली और कान से सन
ु ी जाती है , िजसे ‘श द’
कहते ह। (२) म यमा- जो संकेत से, मख
ु ाकृित से, भावभंगी से, नेत्र से कही जाती है , इसे ‘भाव’ कहते
ह। (३) प य ती- जो मन से िनकलती है और मन ही उसे सन
ु सकता है , इसे ‘िवचार’ कहते ह। (४) परा-
यह आकांक्षा, इ छा, िन चय, प्रेरणा, शाप, वरदान आिद के प म अ तःकरण से िनकलती है , इसे
‘संक प’ कहते ह। यह चार ही वािणयाँ आकाश म तरं ग प से प्रवािहत होती ह। जो यिक्त िजतना
ही प्रभावशाली है , उसके श द, भाव, िवचार और संक प आकाश म उतने ही प्रबल होकर प्रवािहत होते
ह।

आकाश म असंख्य प्रकृित के असंख्य यिक्तय वारा असंख्य प्रकार की थूल एवं सू म श दावली
प्रेिषत होती रहती ह। हमारा अपना मन िजस के द्र पर ि थर होता है , उसी जाित के असंख्य प्रकार के
िवचार हमारे मि त क म धँस जाते ह और अ य प से उन अपने पव
ू र् िनधार्िरत िवचार की पु◌ुि ट
करना आर भ कर दे ते ह। यिद हमारा अपना िवचार यिभचार करने का हो, तो असंख्य यिभचािरय
वारा आकाश म प्रेिषत िकए गए वैसे ही श द, भाव, िवचार और संक प हमारे ऊपर बरस पड़ते ह और
वैसे ही उपाय, सझ
ु ाव, मागर् बताकर उसी ओर प्रो सािहत कर दे ते ह।

हमारे अपने विनिमर्त िवचार म एक मौिलक चु बक व होता है । उसी के अनु प आकाशगामी िवचार
हमारी ओर िखंचते ह। रे िडयो म िजस टे शन के मीटर पर सई
ु कर दी जाए, उसी के स दे श सन
ु ाई
पड़ते ह और उसी समय म जो अ य टे शन बोल रहे ह, उनकी वाणी हमारे रे िडयो से टकराकर लौट
जाती है , वह सन
ु ाई नहीं दे ती। उसी प्रकार हमारे अपने विनिमर्त मौिलक िवचार ही अपने सजाितय
को आमि त्रत करते ह।

मरी लाश को दे खकर कौआ िच लाता है तो सैकड़ कौए उसकी आवाज सन


ु कर जमा हो जाते ह। ऐसे
ही अपने िवचार भी सजाितय को बल
ु ाकर एक अ छी- खासी सेना जमा कर लेते ह। िफर उस िवचार-
सै य की प्रबलता के आधार पर उसी िदशा म कायर् भी आर भ हो जाता है ।

आकाश त व की इस िवलक्षणता को यान म रखते हुए हम कुिवचार से िवषधर सपर् की भाँित


सावधान रहना चािहए, अ यथा वे अनेक वजाितय को बुलाकर हमारे िलए संकट उ प न कर दगे।
जब कोई कुिवचार मन म आए, तो त क्षण उसे मार भगाना चािहए, अ यथा वह सारे मानस क्षेत्र को
वैसे ही खराब कर दे गा, जैसे िवष की थोड़ी- सी बँद
ू सारे भोजन को िबगाड़ दे ती है ।

मन म सदा उ तम, उ च, उदार, साि वक िवचार को ही थान दे ना चािहए, िजससे उसी जाित के
िवचार अिखल आकाश म से िखंचकर हमारी ओर चले आय और स मागर् की ओर प्रेिरत कर। उ तम
बात सोचते रहने, वा याय, मनन, आ मिच तन, परमाथर् और उपासनामयी मनोभिू म हमारा बहुत कुछ
क याण कर सकती है । यिद प्रितकूल कायर् नहीं हो रहे ह , तो उ च िवचारधारा से भी स गित प्रा त हो

209
सकती है , भले ही उन िवचार के अनु प कायर् न हो रहे ह ।

संक प कभी न ट नहीं होते। पूवक


र् ाल म ऋिष- मिु नय के, महापु ष के जो िवचार, प्रवचन एवं संक प
थे, वे अब भी आकाश म गँज
ू रहे ह। यिद हमारी मनोभिू म अनुकूल हो, तो उन िद य आ माओं का
पथ- प्रदशर्न एवं सहारा भी हम अव य प्रा त होता रहे गा।

परब्र म की ब्रा मी प्रेरणाएँ, शिक्तयाँ, िकरण एवं तरग भी आकाश वारा ही मानव अ तःकरण को
प्रा त होती ह। दै वी शिक्तयाँ ई वर की िविवध गण
ु वाली िकरण ही तो ह, आकाश वारा मन के
मा यम से उनका अवतरण होता है ।

िशवजी ने आकाशवािहनी गंगा को अपने िशर पर उतारा था, तब वह प ृ वी पर बही थी। ब्र म की
सवर्प्रधान िद य शिक्त आकाशवािहनी गायत्री- गंगा को साधक सबसे पहले अपने मनःक्षेत्र म उतारता
है । यह अवतरण होने पर ही जीवन के अ य अंग म वह पिततपावनी पु यधारा प्रवािहत होती है ।

शरीर म मन या मि त क आकाश का प्रितिनिध है । उसी म आकाशगामी, परम क याणकारक त व


का अवतरण होता है । इसिलए साधक को अपना मनःक्षेत्र ऐसा शुद्ध, पिरमािजर्त, व थ एवं सचेत रखना
चािहए, िजससे गायत्री का अवतरण िबना िकसी किठनाई के हो सके।

तप चयार् - अ नमय कोश की साधना


तप का अथर् है - उ णता, गित, िक्रयाशीलता, घषर्ण, संघषर्, ितितक्षा, क ट सहना। िकसी व तु को िनद ष,
पिवत्र एवं लाभदायक बनाना होता है तो उसे तपाया जाता है । सोना तपने से खरा हो जाता है । डॉक्टर
पहले अपने औजार को गरम कर लेते ह, तब उनसे ऑपरे शन करते ह। चाकू को शान पर न िघसा
जाए तो काटने की शिक्त खो बैठेगा। हीरा खराद पर न चढ़ाया जाए तो उसम चमक और सु दरता
पैदा न होगी।

यायाम का क टसा य म िकए िबना कोई मनु य पहलवान नहीं हो सकता। अ ययन का कठोर म
िकए िबना िव वान ् बनना स भव नहीं। माता ब चे को गभर् म रखने एवं पालन- पोषण का क ट सहे
िबना मात ृ व का सख
ु प्रा त नहीं कर सकती। कपड़ को धप ु ाया जाए तो उनम बदबू आने
ू म न सख
लगेगी। कोठी म ब द रखा हुआ अ न धप
ू म न डाला जाए तो घन ु लग जाएगा। ईंट यिद भट्ठे म न
पक तो उनम मजबूती नहीं आ सकती। िबना पके भोजन प्राण रक्षा नहीं कर सकता।

प्राचीनकाल म पावर्ती ने तप करके मनचाहा फल पाया था। भगीरथ ने तप करके गंगा को भल


ू ोक म
बुलाया था। ध्रुव के तप ने भगवान ् को द्रिवत कर िदया था। तप वी लोग कठोर तप चयार् करके
िसिद्धयाँ प्रा त करते थे। रावण, कु भकरण, मेघनाद, िहर यकिशपु, भ मासरु आिद ने भी तप के प्रभाव
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से िवलक्षण वरदान पाए थे। आज भी िजस िकसी को जो कुछ प्रा त हुआ है , वह तप के ही प्रभाव से
प्रा त हुआ है ।

ई वर तप वी पर प्रस न होता है और उसे ही अभी ट आशीवार्द दे ता है । जो धनी, स प न, सु दर,


व थ, िव वान ्, प्रितभाशाली, नेता, अिधकारी आिद के प म चमक रहे ह, उनकी चमक वतर्मान के या
िपछले तप के ऊपर ही अवलि बत है । यिद वे नया तप नहीं करते और पुरानी तप चयार् की पँज
ू ी को
खा रहे ह, तो उनकी चमक पूवर् पँज
ू ी चुकते ही धध
ुँ ली हो जाएगी।

जो लोग आज िगरे हुए ह, उनके उठने का एकमात्र मागर् है - तप। िबना तप के कोई भी िसिद्ध, कोई भी
सफलता नहीं िमल सकती, न सांसािरक और न आि मक। क याण की ताली तप की ितजोरी म रखी
हुई है । जो उसे खोलेगा, वही अभी ट व तु पायेगा।

दोन हथेिलय को रगड़ा जाए तो वे गरम हो जाती ह। दो लकिड़य को िघसा जाए तो अिग्न पैदा हो
जाएगी। गित, उ णता, िक्रया, यह रगड़ का पिरणाम है । मशीन को चलाने के िलए उसके िकसी भी भाग
म धक्का या दचका लगाना पड़ेगा, अ यथा कीमती से कीमती मशीन भी ब द ही पड़ी रहे गी।

शरीर को झटका लगाने के िलए यायाम या पिर म करना आव यक है । आ मा म तेजि वता, साम यर्
एवं चैत यता उ प न करने के िलए तप करना होता है । बतर्न को न माँजने, मकान को न झाड़ने से
अशुिद्ध और मिलनता पैदा हो जाती है । तप चयार् छोड़ दे ने पर आ मा भी अशक्त, िन तेज एवं
िवकारग्र त हो जाती है । आलसी और आरामतलब शरीर म अ नमय कोश की व थता ि थर नहीं रह
सकती। इसिलए उपवास, आसन, त वशुिद्ध के साथ ही तप चयार् को प्रथम कोश की सु यव था का
आव यक अंग बताया गया है ।

प्राचीनकाल म तप चयार् को बड़ा मह व िदया जाता था। जो यिक्त िजतना पिर मी, क टसिह ण,ु
साहसी, पु षाथीर् एवं िक्रयाशील होता था, उसकी उतनी ही प्रित ठा होती थी। धनी, अमीर, राजा- महाराजा
सभी के बालक गु कुल म भेजे जाते थे, तािक वे कठोर जीवन की िशक्षा प्रा त करके अपने को इतना
सु ढ़ बना ल िक आपि तय से लड़ना और स पि त को प्रा त करना सग
ु म हो सके।

आज तप के, क टसिह णत
ु ा के मह व को लोग भल
ू गए ह और आरामतलबी, आल य, नजाकत को
अमीरी का िच न मानने लगे ह। फल व प पु षाथर् घटता जा रहा है और योग्यता वारा उपाजर्न
करने की अपेक्षा लोग छल, धूतत
र् ा एवं अ याय वारा बड़े बनने का प्रय न कर रहे ह।

गायत्री साधक को तप वी होना चािहए। अ वाद त, उपवास, ऋत-ु प्रभाव का सहना, ितितक्षा, घषर्ण,
आ मक प, प्रदात य, िन कासन, साधन, ब्र मचयर्, चा द्रायण, मौन, अजर्न आिद तप चयार् की िविध पहले
ही िव तार से िलख चुके ह। उनकी पुन िक्त करने की आव यकता नहीं। यहाँ तो इतना कहना पयार् त

211
होगा िक अ नमय कोश को व थ रखना है तो शरीर और मनका कायर् य त रखना चािहए। म,
क तर् यपरायणता, जाग कता और पु षाथर् को सदा साथ रखना चािहए। समय को बहुमू य स पि त
समझकर एक क्षण को भी िनरथर्क न जाने दे ना चािहए। परोपकार, लोकसेवा, स कायर् के िलए दान, यज्ञ
भावना से िकए जाने वाला परमाथीर् जीवन प्र यक्ष तप है । दस
ू र के लाभ के िलए अपने वाथ का
बिलदान करना तप वी जीवन का प्रधान िच न है । आज की ि थित म प्राचीनकाल की भाँित तो तप
नहीं िकए जा सकते। अब शारीिरक ि थित भी ऐसी नहीं रह गई िक भगीरथ, पावर्ती या रावण के जैसे
उग्र तप िकए जा सक। दीघर्काल तक िनराहार रहना या िबना िव ाम िकए ल बे समय तक साधनारत
रहना आज स भव नहीं है । वैसा करने से शरीर तुर त पीड़ाग्र त हो जाएगा।

सतयुग म ल बे समय तक दान, तप होते थे, क्य िक उस समय शरीर म वायु त व प्रधान था। त्रेता
म शरीर म अिग्न त व की प्रधानता थी। वापर म जल त व अिधक था। उन युग म जो साधनाएँ
हो सकती थीं, आज नहीं हो सकतीं, क्य िक आज किलयुग म मानव दे ह म प ृ वी त व प्रधान है ।
प ृ वी त व अ य सभी त व से थल
ू है , इसिलए आधिु नक काल के शरीर उन तप याओं को नहीं
ु , त्रेता आिद म आसानी से होती थीं।
कर सकते जो सतयग

दस
ू री बात यह है िक वतर्मान समय म सामािजक, आिथर्क बौिद्धक यव थाओं म पिरवतर्न हो जाने से
मनु य के रहन- सहन म बड़ा अ तर पड़ गया है । बड़े नगर म िनवािसय को याि त्रक स यता के
बीच म रहने के फल व प शारीिरक म बहुत कम करना पड़ता है और अिधकांश म कृित्रम वातावरण
के कारण शुद्ध जलवायु से भी वि चत रहना पड़ता है । ऐसी अव था म शरीर को पूवक
र् ालीन तप योग्य
रहना कहाँ स भव हो सकता है ?

कुछ समय पव
ू र् तक नेित, धोित, वि त, योली, वज्रोली, कपालभाित आिद िक्रयाएँ आसानी से हो जाती
थीं, उनके करने वाले अनेक योगी दे खे जाते थे; पर अब यग
ु - प्रभाव से उनकी साधना किठन हो गई है ।
कोई िबरले ही हठयोग म सफल हो पाते ह। जो िकसी प्रकार इन िक्रयाओं को करने भी लगते ह, वे
उनसे वह लाभ नहीं उठा पाते जो इन िक्रयाओं से होना चािहए।

अिधकांश हठयोगी तो इन किठन साधनाओं के कारण िक हीं क टसा य रोग से ग्रिसत हो जाते ह।
रक्त, िप त, अ त्रदाह, मल
ू ाधार, कफ, अिनद्रा जैसे रोग से ग्रिसत होते हुए हमने अनेक हठयोगी दे खे ह।
इसिलए वतर्मान काल की शारीिरक ि थितय का यान रखते हुए तप चयार् म बहुत सावधानी बरतने
की आव यकता है । आज तो समाज सेवा, ज्ञान- प्रचार, वा याय, दान, इि द्रय संयम आिद के आधार पर
ही हमारी तप साधना होनी चािहए।

212
मनोमय कोश की साधना
प चकोश म तीसरा ‘मनोमय कोश’ है । इसे गायत्री कज तत
ृ ीय मख
ु भी कहा गया है । मन बड़ा
च चल और वासनामय है । यह सख
ु प्राि त की अनेक क पनाएँ िकया करता है । क पनाओं के ऐसे
रं ग- िबरं गे िचत्र तैयार करता है िक उ ह दे खकर बुिद्ध भ्रिमत हो जाती है और मनु य ऐसे काय को
अपना लेता है , जो उसके िलए अनाव यक एवं हािनकारक होते ह तथा िजनके िलए उसको पीछे
प चा ताप करना पड़ता है । अ छे और प्रशंसनीय कायर् भी मन की क पना पर अवलि बत ह। मनु य
को नारकीय एवं घिृ णत पितताव था तक पहुँचा दे ना अथवा उसे मानव- भस
ू रु बना दे ना मन का ही
खेल है ।

मन म प्रच ड प्रेरक शिक्त है । इस प्रेरक शिक्त से अपने क पना िचत्र को वह ऐसा सजीव कर दे ता
है िक मनु य बालक की तरह उसे प्रा त करने के िलए दौड़ने लगता है । रं ग- िबरं गी िततिलय के पीछे
जैसे ब चे दौड़ते- िफरते ह, िततिलयाँ िजधर जाती ह, उधर ही उ ह भी जाना पड़ता है , इसी प्रकार मन
म जैसी क पनाएँ, इ छाएँ, वासनाएँ, आकांक्षाएँ, त ृ णाएँ उठती ह, उसी ओर शरीर चल पड़ता है ।

चँ िू क सख
ु की आकांक्षा ही मन के अ तराल म प्रधान प से काम करती है , इसिलए वह िजस बात म,
िजस- िजस िदशा म सख
ु प्राि त की क पना कर सकता है , उसी के अनुसार एक सु दर मनमोहक रं ग-
िबरं गी योजना तैयार कर दे ता है । मि त क उसी ओर लपकता है , शरीर उसी िदशा म काम करता है ।
पर तु साथ ही मन की चंचलता भी प्रिसद्ध है , इसिलए वह नई क पनाएँ करने म पीछे नहीं रहता।
कल की योजना परू ी नहीं हो पाई थी िक उसम भी एक नई और तैयार हो गई। पहली छोड़कर नई म
प्रविृ त हुई। िफर वही क्रम आगे भी चला। उसे छोड़कर और नया आयोजन िकया।

इस प्रकार अनेक अधूरी योजनाएँ पीछे छूटती जाती ह और नई बनती जाती ह। अिनयि त्रत मन का
ृ त ृ णाओं म मनु य को भटकाता है और सफलताओं की, अधूरे कायर्क्रम की
यह कायर्क्रम है । वह मग
अगिणत ढे िरयाँ लगाकर जीवन को मरघट जैसा ककशर् बना दे ता है ।

वतर्मान यग
ु म यह दोष और अिधक बढ़ गया है । इस समय मनु य भौितकता के पीछे पागल हो रहा
है । आ मक याण की बात को सवर्था भल
ू कर वह कृित्रम सख
ु - सिु वधाओं के िलए लालाियत हो रहा है ।
िजनके पास ऐसे साधन िजतने अिधक होते ह, उसे उतना ही भाग्यवान ् समझने लगता है । जो
संयोगवश अथवा शिक्त के अभाव के कारण उन सख
ु - साधन से वंिचत रह जाते ह, वे अपने को परम
अभागा, दीन- हीन अनभ
ु व करते ह। उनका मन सदै व घोर उ िवग्न रहता है और अत ृ त लालसाओं के
कारण भी शाि त का अनुभव करने म असमथर् रहते ह।

गीता म कहा गया है िक ‘मन ही मनु य का शत्रु और मन ही िमत्र है , ब धन और मोक्ष का कारण भी


यही है ।’ वश म िकया हुआ मन अमत
ृ के समान और अिनयि त्रत मन को हलाहल िवष जैसा
213
अिहतकर बताया गया है । कारण यह है िक मन के ऊपर जब कोई िनय त्रण या अनश
ु ासन नहीं होता,
तो वह सबसे पहले इि द्रय भोग म सख
ु खोजने के िलए दौड़ता है ।

जीभ से तरह- तरह के वाद चाटने की लपक उसे सताती है । प यौवन के क्षेत्र म काम- िकलोल करने
के िलए इ द्र के पिर तान को क पना जगत म ला खड़ा करता है । न ृ य, गीत, वा य, मनोरं जन, सैर-
सपाटा, मनोहर य, सव ु ाते ह और उनके िनकट अिधक से अिधक समय िबताना
ु ािसत पदाथर् उसे लभ
चाहता है । सरकस, िथयेटर, िसनेमा, क्लब, खेल आिद के मनोरं जन, क्रीड़ा थल उसे िचकर लगते ह।
शरीर को सजाने या आराम दे ने के िलए बहुमू य व त्राभष
ू ण, उपचार, मोटर- िवमान आिद सवािरयाँ,
कोमल पलंग, पंखे आिद की यव था आव यक प्रतीत होती है । इन सब भोग को भोगने एवं वाहवाही
लट
ू ने, अहं कार की पूितर् करने, बड़े बनने का शौक पूरा करने के िलए अिधकािधक धन की आव यकता
होती है । उसके िलए अथर् संग्रह की योजना बनाना मन का प्रधान काम हो जाता है ।

असं कृत, छुट्टल मन प्रायः इि द्रय भोग, अहं कार की तिृ त और धन संचय के तीन क्षेत्र म ही सख
ु ढूँढ़
पाता है । उसके ऊपर कोई अंकुश न होने से वह उिचत- अनुिचत का िवचार नहीं करता और ‘जैसे बने
वैसे करने’ की नीित अपनाकर जीवन की गितिविध को कुमागर्गामी बना दे ता है । मन की दौड़
व छ द होने पर बुिद्ध का अंकुश भी नहीं रहता। फल व प एक योजना छोड़ने और दस
ू री अपनाने म
योजना के गण
ु - दोष ढूँढ़ने की बाधा नहीं रहती।

पाशिवक इ छाओं की पिू तर् के िलए अ यवि थत कायर्क्रम बनाते- िबगाड़ते रहना और इस अ यव था के
कारण जो उलझन उ प न होती ह, उनम भटकते हुए ठोकर खाते रहना- साधारणतः यही एक
कायर्प्रणाली सभी व छ द मन वाल की होती है । इसकी प्रितिक्रया जीवनभर क्लेश, असफलता, पाप,
अनीित, िन दा और दग
ु िर् त होना ही हो सकता है ।

मन का वश म होने का अथर् उसका बुिद्ध के, िववेक के िनय त्रण म होना है । बुिद्ध िजस बात म
औिच य अनुभव करे , क याण दे खे, आ मा का िहत, लाभ, वाथर् समझे, उसी के अनु प क पना करने,
योजना बनाने, प्रेरणा दे ने का काम करने को मन तैयार हो जाय, तो समझना चािहए िक मन वश म हो
गया है । क्षण- क्षण म अनाव यक दौड़ लगाना, िनरथर्क मिृ तय और क पनाओं म भ्रमण करना
अिनयि त्रत मन का काम है । जब वह वश म हो जाता है तो िजस एक काम पर लगा िदया जाए,
उसम लग जाता है ।

मन की एकाग्रता एवं त मयता म इतनी प्रच ड शिक्त है िक उस शिक्त की तुलना संसार की और


िकसी शिक्त से नहीं हो सकती। िजतने भी िव वान ्, लेखक, किव, वैज्ञािनक, अ वेषक, नेता, महापु ष अब
तक हुए ह, उ ह ने मन की एकाग्रता से ही काम िकया है ।

सय
ू र् की िकरण चार ओर िबखरी पड़ी रहती ह, तो उनका कोई िवशेष उपयोग नहीं होता; पर जब
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आितसी शीशे वारा उन िकरण को एकित्रत कर िदया जाता है , तो जरा से थान की धप
ू से अिग्न
जल उठती है और उस जलती हुई अिग्न से भयंकर दावानल लग सकता है । जैसे दो इ च क्षेत्र म
फैली हुई धप
ू का के द्रीकरण भयंकर दावानल के प म प्रकट हो सकता है , वैसे ही मन की िबखरी हुई
क पना, आकांक्षा और प्रेरणा शिक्त भी जब एक के द्रिब द ु पर एकाग्र होती है , तो उसके फिलताथ की
क पना मात्र से आ चयर् होता है ।

पत जिल ऋिष ने ‘योग’ की पिरभाषा करते हुए कहा िक ‘योगि च तविृ त िनरोधः’ अथार्त ् िच त की
विृ तय का िनरोध करना, रोककर एकाग्र करना ही योग है । योग साधना का िवशाल कमर्का ड इसिलए
है िक िच त की विृ तयाँ एक िब द ु पर किद्रत होने लग तथा आ मा के आदे शानुसार उनकी गितिविध
हो। इस कायर् म सफलता िमलते ही आ मा अपने िपता परमा मा म सि निहत सम त ऋिद्ध- िसिद्धय
का वामी बन जाता है । वश म िकया हुआ मन ऐसा शिक्तशाली अ त्र है िक उसे िजस ओर भी
प्रयुक्त िकया जाएगा, उसी ओर आ वयर्जनक चम कार उपि थत हो जाएँगे। संसार के िकसी कायर् म
प्रितभा, यश, िव या, वा य, भोग, अ वेषण आिद जो भी व तु अभी ट होगी, वह वशवतीर् मन के प्रयोग
से िनि चत ही प्रा त होकर रहे गी। उसकी प्राि त म संसार की कोई शिक्त बाधक नहीं हो सकती।

सांसािरक उ े य ही नहीं, वरन ् उससे पारमािथर्क आकांक्षाएँ भी पूरी होती ह। समािध सख


ु भी ‘मनोबल’
का एक चम कार है । एकाग्र मन से की हुई उपासना से इ टदे व का िसंहासन िहल जाता है और उसे
गज के िलए ग ड़ को छोड़कर नंगे पैर भागने वाले भगवान ् की तरह भागना पड़ता है । अधूरे मन की
साधना अधूरी और व प होने से यून फलदायक होती है , पर तु एकाग्र वशवतीर् मन तो वह लाभ
क्षणभर म प्रा त कर लेता है जो योगी लोग को ज म- ज मा तर की तप या से िमलता है । सदन
कसाई, गिणका, िगद्ध, अजािमल आिद असंख्य पापी जो जीवनभर द ु कमर् करते रहे , क्षणभर के आ तर्नाद
से तर गए।

मे मरे म, िह नोिट म, पसर्नल मैग्नेिट म, मे टलथैरेपी, आक ट साइ स, मे टल हीिलंग, ि प्रचुअिल म


आिद के चम कार की पा चा य दे श म धूम है । त त्र िक्रया, म त्र िक्रया, प्राण िविनमय, सवारी िव या,
छाया पु ष, िपशाच िसिद्ध, शव साधन, ि ट ब ध, अिभचार, घात, चौकी, सपर् कीलन, जाद ू आिद चम कारी
शिक्तय से भारतवासी भी िचर पिरिचत ह। यह सब खेल- िखलौने एकाग्र मन की प्रच ड संक प
शिक्त के छोटे - छोटे मनोिवनोद मात्र ह।

संक प की अपूवर् शिक्त से हमारे पूजनीय पूवज


र् पिरिचत थे, िज ह ने अपने महान ् आ याि मक गण

के कारण सम त भम
ू डल म एक चक्रव तीर् साम्रा य थािपत िकया था और िज ह जग गु कहकर
सवर्त्र पूजा जाता था। उसकी संक प शिक्त ने भल
ू ोक, वगर्लोक, पाताल लोक को पड़ोसी- मह
ु ल की
तरह स बद्ध कर िलया था। उस शिक्त के थोड़े- थोड़े भौितक चम कार को लेकर अनेक यिक्तय ने
रावण जैसी उछल- कूद मचाई थी, पर तु अिधकांश योिगय ने मन की एकाग्रता से उ प न होने वाली

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प्रच ड शिक्त को परक याण म लगाया था।

अजन
ुर् को पता था िक मन को वश म करने से कैसी अद्भत
ु िसिद्धयाँ िमल सकती ह। इसिलए उसने
गीता म भगवान ् कृ ण से पूछा—‘‘हे अ युत! मन को वश म करने की िविध मझ
ु े बताइए, क्य िक वह
वायु को वश म करने के समान किठन है ।’’

वश म िकया हुआ मन भल ू ोक का क पवक्ष


ृ है । ऐसे महान ् पदाथर् को प्रा त करना किठन होना भी
ुर् ने ठीक कहा है िक मन को वश म करना वायु को वश म करने के समान किठन है ।
चािहए। अजन
वायु को तो य त्र वारा िकसी िड बे म ब द िकया भी जा सकता है , पर मन को वश म करने का तो
कोई य त्र भी नहीं है ।

भगवान ् कृ ण ने अज◌
ुर् ुन को दो उपाय मन को वश म करने के बताए— (१) अ यास और (२) वैराग्य।
अ यास का अथर् है - वे योग साधनाएँ जो मन को रोकती ह। वैराग्य का अथर् है - यावहािरक जीवन को
संयमशील और यवि थत बनाना। िवषय- िवकार, आल य- प्रमाद, द ु यर्सन- दरु ाचार, लोलप
ु ता, समय का
द ु पयोग, कायर्क्रम की अ यव था आिद कारण से सांसािरक अधोगित होती है और लोभ, क्रोध, त ृ णा
आिद से मानिसक अधःपतन होता है ।

शारीिरक, मानिसक और सामािजक बुराइय से बचते हुए सादा, सरल, आदशर्वादी, शाि तमय जीवन
िबताने की कला वैराग्य कहलाती है । कई आदमी घर छोड़कर भीख- टूक माँगते िफरना, िविचत्र वेश
बनाना, अ यवि थत कायर्क्रम से जहाँ- तहाँ मारे - मारे िफरना ही वैराग्य समझते ह और ऐसा ही
ऊटपटांग जीवन बनाकर पीछे परे शान होते ह। वैराग्य का वा तिवक ता पयर् है —राग से िनव ृ त होना।

बरु ी भावनाओं और आदत से बचने का अ यास करने के िलए ऐसे वातावरण म रहना पड़ता है , जहाँ
उनसे बचने का अवसर हो। तैरने के िलए पानी का होना आव यक है । तैरने का प्रयोजन ही यह है िक
पानी म डूबने के खतरे से बचने की योग्यता िमल जाए। पानी से दरू रहकर तैरना नहीं आ सकता।
इसी प्रकार राग- वेष जहाँ उ प न होता है , उस क्षेत्र म रहकर उन बरु ाइय पर िवजय प्रा त करना ही
वैराग्य की सफलता है ।

कोई यिक्त जंगल म एका तवासी रहे तो नहीं कहा जा सकता िक वैराग्य हो गया, क्य िक जंगल म
वैराग्य की अपेक्षा ही नहीं होती। जब तक परीक्षा वारा यह नहीं जान िलया गया िक हमने राग
उ प न करने वाले अवसर होते हुए भी उस पर िवजय प्रा त कर ली, तब तक यह नहीं समझना
चािहए िक कोई एका तवासी व तुतः वैरागी ही है । प्रलोभन को जीतना ही वैराग्य है और यह िवजय
वहीं हो सकती है जहाँ वे बुराइयाँ मौजद
ू ह । इसिलए गह
ृ थ म, सांसािरक जीवन म सु यवि थत रहकर
राग पर िवजय प्रा त करने को वैराग्य कहना चािहए।

216
अ यास के िलए योगशा त्र म ऐसी िकतनी ही साधनाओं का वणर्न है , िजनके वारा मन की
च चलता, घड़
ु दौड़, िवषयलोलप
ु ता, एषणा प्रभिृ त को रोककर उसे ऋत भरा बिु द्ध के, अ तरा मा के अधीन
िकया जा सकता है । इन साधनाओं को मनोलय योग कहते ह। मनोलय के अ तगर्त (१) यान, (२)
त्राटक, (३) जप, (४) त मात्रा साधन, यह चार साधन प्रधान प से आते ह। इन चार का मनोमय कोश
की साधना म बहुत मह वपूणर् थान है ।

यान - मनोमय कोश की साधना


यान वह मानिसक प्रिक्रया है िजसके अनुसार िकसी व तु की थापना अपने मनःक्षेत्र म की जाती है ।
मानिसक क्षेत्र म
थािपत की हुई व तु हमारे आकषर्ण का प्रधान के द्र बनती है । उस आकषर्ण की
ओर मि त क की अिधकांश शिक्तयाँ िखंच जाती ह, फल व प एक थान पर उनका के द्रीयकरण होने
लगता है । चु बक प थर अपने चार ओर िबखरे हुए लौहकण को सब िदशाओं से खींचकर अपने पास
जमा कर लेता है । इसी प्रकार यान वारा मन सब ओर से िखंचकर एक के द्रिब द ु पर एकाग्र होता
है , िबखरी हुई िच त- प्रविृ तयाँ एक जगह िसमट जाती ह।

कोई आदशर्, ल य, इ ट िनधार्िरत करके उसम त मय होने को यान कहते ह। जैसा यान िकया जाता
है , मनु य वैसा ही बनने लगता है । साँचे म गीली िमट्टी को दबाने से वैसी आकृित बन जाती है , जैसी
उस साँचे म होती है । कीट- भग
ं ृ का उदाहरण प्रिसद्ध है । भग
ं ृ , झींगरु को पकड़ ले जाता है और उसके
चार ओर लगातार गज
ंु न करता है । झींगरु इस गज
ंु न को त मय होकर सन
ु ता है और भग
ं ृ के प को,
उसकी चे टाओं को एकाग्र भाव से िनहारता है । झींगरु का मन भग
ं ृ मय हो जाने से उसका शरीर भी
उसी ढाँचे म ढलना आर भ हो जाता है । उसके रक्त, मांस, नस, नाड़ी, वचा आिद म मन के साथ ही
पिरवतर्न आर भ हो जाता है और थोड़े समय म वह झींगुर मन से और शरीर से भी असली भग
ं ृ के
समान बन जाता है । इसी प्रकार यान शिक्त वारा साधक का सवार्ङ्गपूणर् कायाक प होता है ।

साधारण यान से मनु य का शरीर- पिरवतर्न नहीं होता। इसके िलए िवशेष प से गहन साधनाएँ
करनी पड़ती ह। पर तु मानिसक कायाक प करने म हर मनु य यान- साधना से भरपूर लाभ उठा
सकता है । ऋिषय ने इस बात पर जोर िदया है िक हर साधक को इ टदे व चुन लेना चािहए। इ टदे व
चुनने का अथर् है - जीवन का प्रधान ल य िनधार्िरत करना। इ टदे व उपासना का अथर् है - उस ल य म
अपनी मानिसक चेतना को त मय कर दे ना। इस प्रकार की त मयता का पिरणाम यह होता है िक
मन की िबखरी हुई शिक्तयाँ एक िब द ु पर एकित्रत हो जाती ह। एक थानीय एकाग्रता के कारण उसी
िदशा म सभी मानिसक शिक्तयाँ लग जाती ह, फल व प साधक के गण ु , वभाव, िवचार, उपाय एवं
काम अद्भत
ु गित से बढ़ते ह, जो उसे अभी ट ल य तक सरलतापव
ू क
र् व प काल म ही पहुँचा दे ते ह।
इसी को इ ट िसिद्ध कहते ह।

217
यान साधना के िलए ही आदश को, इ ट को िद य पधारी दे वताओं के प म मानकर उनम
मानिसक त मयता थािपत करने का यौिगक िवधान है । प्रीित सजाितय म होती है , इसिलए ल य
प इ ट को िद य दे हधारी दे व मानकर उसम त मय होने का गढ़
ू एवं रह यमय मनोवैज्ञािनक आधार
थािपत करना पड़ा है । एक- एक अिभलाषा एवं आदशर् का एक- एक इ टदे व है , जैसे बल की प्रतीक
दग
ु ार्, धन की प्रतीक ल मी, बुिद्ध की प्रतीक सर वती, धािमर्क स पदा की गायत्री एवं भौितक िवज्ञान की
प्रतीक सािवत्री मानी गई है । गौरी, पद्मा, शची, मेधा, सािवत्री, िवजया, जया, दे वसेना, वधा, वाहा, मातर,
लोकमातर, धिृ त, तुि ट, पुि ट, आ मदे वी यह षोडश मातक
ृ ाएँ प्रिसद्ध ह। शैलपुत्री, ब्र मचािरणी, च द्रघ टा,
कू मा डी, क दमाता, का यायनी, कालराित्र, महागौरी, िसिद्धदात्री, ये नव दग
ु ार्एँ अपनी- अपनी िवशेषताओं
के कारण ह।

ऐसा भी हो सकता है िक एक ही इ टदे व को आव यकतानुसार िविभ न गण


ु वाला मान िलया जाए।
एक महाशिक्त की िविवध प्रयोजन के िलए काली, तारा, षोडशी, भव
ु ने वरी, िछ नम ता, ित्रपुर भैरवी,
बगला, मातङ्गी, कमला, इ द्राणी, वै णवी, ब्र माणी, कौमािर, नरिसंही, वाराही, माहे वरी, भैरवी आिद िविवध
प म उपासना की जाती है । एक ही महागायत्री की ीं, ीं, क्लीं (सर वती, ल मी, काली) के तीन प
म आराधना होती है । िफर इन तीन म अनेक भेद हो जाते ह। जो साधक मातश
ृ िक्त की अपेक्षा
िपतश
ृ िक्त म अिधक िच रखते ह, िज ह नारीपरक शिक्तत व की अपेक्षा पु षत व प्रधान
(पङ्
ु क्ष लग) िद य त व म िवशेष मन लगता है , वे गणेश, निृ संह, भैरव, िशव, िव णु आिद इ ट की
उपासना करते ह।

यहाँ िकसी को भ्रम म पड़ने की आव यकता नहीं। अनेक दे वताओं का कोई वत त्र आधार नहीं है ।
ई वर एक है । उसकी अनेक शिक्तयाँ ही अनेक दे व के नाम से पुकारी जाती ह। मनु य अपनी इ छा,
िच और आव यकतानुसार उन ई वरीय शिक्तय को प्रा त करने के िलए, अपनी ओर आकिषर्त करने
के िलए अपना इ ट, ल य चुनता है और उनम त मय होते ही मनोवैज्ञािनक उपासना पद्धित वारा उन
शिक्तय को अपने अ दर प्रचुर पिरमाण म धारण कर लेता है ।

यानयोग साधना म मन की एकाग्रता के साथ- साथ ल य को, इ ट को भी प्रा त करके योग ि थित
उ प न करने का दोहरा लाभ प्रा त करने का प्रय न िकया जाता है । इसिलए इ टदे व का मनःक्षेत्र म
उसी प्रकार यान करने का िवधान िकया गया है । यान के पाँच अंग ह- (१) ि थित, (२) संि थित, (३)
िवगित, (४) प्रगित, (५) संि मित। इन पर कुछ प्रकाश डाला जाता है ।

‘ि थित’ का ता पयर् है —साधक की उपासना करते समय की ि थित। मि दर म, नदी तट पर, एका त
म, मशान म, नान करके, िबना नान िकए, पद्मासन से, िसद्धासन से, िकस ओर मँह
ु करके, िकस मद्र
ु ा
म, िकस समय, िकस प्रकार यान िकया जाए, इस स ब ध की यव था को ि थित कहते ह।

218
‘संि थित’ का अथर् है —इ टदे व की छिव का िनधार्रण। उपा य दे व का मख
ु , आकृित, आकार, मद्र
ु ा, व त्र,
आभष
ू ण, वाहन, थान, भाव को िनि चत करना संि थित कहलाती है ।

‘िवगित’ कहते ह—गण


ु ावली को। इ टदे व म क्या िवशेषताएँ, शिक्तयाँ, साम यर्, पर पराएँ एवं गण
ु ाविलयाँ
ह, उनको जानना िवगित कहा जाता है । ‘प्रगित’ कहते ह—उपासना काल म साधक केमन म रहने वाली
भावना को। दा य, सखा, गु , ब धु, िमत्र, माता- िपता, पित, पुत्र, सेवक, शत्रु आिद िजस िर ते से उपा य
दे व को मानना हो, उस िर ते की ि थरता तथा उस िर ते को प्रगाढ़ बनाने के िलए प्रमख
ु यानाव था
म िविवध श द तथा चे टाओं वारा अपनी आ तिरक भावनाओं को इ टदे व के स मख
ु उपि थत
करना ‘प्रगित’ कहलाती है ।

‘संि मित’ वह यव था है िजसम साधक और सा य, उपासक और उपा य एक हो जाते ह; दोन म


कोई भेद नहीं रहता है । भग
ं ृ कीट की सी त मयता, वैत के थान पर अ वैत की झाँकी, उपा य और
उपासक का अभेद, म वयं इ टदे व हो गया हूँ या इ टदे व म पूणत
र् या लीन हो गया हूँ, ऐसी अनुभिू त
का होना संि मित है । अिग्न म पड़कर जैसे लकड़ी भी अिग्नमय लाल वणर् हो जाती है , वैसी ही अपनी
ि थित िजन क्षण म अनुभव होती है , उसे ‘संि मित’ कहते ह।

एक ही इ टदे व के अनेक प्रयोजन के िलए अनेक प्रकार से यान िकए जाते ह। साधक की आयु,
ि थित, मनोभिू म, वणर्, सं कार आिद के िवचार से भी यान की िविधय म ि थित, संि थित, िवगित,
प्रगित एवं संि मित की जो कई मह वपण
ू र् पद्धितयाँ ह, उनका सिव तार वणर्न इन प ृ ठ म नहीं हो
सकता। यहाँ तो हमारा प्रयोजन मनोमय कोश को यवि थत बनाने के िलए यान वारा मन को
एकाग्र करने की, वश म करने की िविध बताना मात्र है । इसके िलए कुछ यान नीचे िदए जाते ह—

(१) िचकने प थर की या धातु की सु दर- सी गायत्री प्रितमा लीिजए। उसे एक सस


ु ि जत आसन पर
थािपत कीिजए। प्रितिदन उसका जल, धूप, दीप, ग ध, नैवे य, अक्षत, पु प आिद मांगिलक द्र य से
पूजन कीिजए। इस प्रकार िन यप्रित पूजन आरि भक साधक के िलए द्धा बढ़ाने वाला, मन की
प्रविृ तय को इस ओर झक
ु ाने वाला होता है । साधक म अ िच को हटाकर िच उ प न करने का
प्रथम सोपान यह पािथर्व पूजन ही है । मि दर म मिू तर्पूजा का आधार यह प्राथिमक िशक्षा के प म
साधना का आर भ करना ही है ।

(२) शुद्ध होकर पूवर् की ओर मँह


ु करके, कुश के आसन पर पद्मासन लगाकर बैिठए। सामने गायत्री का
िचत्र रख लीिजए। िवशेष मनोयोगपूवक
र् उसी मख
ु ाकृित या अंग- प्र यंग को दे िखए। िफर नेत्र ब द कर
लीिजए। यान वारा उस िचत्र की बारीिकयाँ भी यानाव था म भलीभाँित पिरलिक्षत होने लगगी। इस
प्रितमा को मानिसक सा टाङ्ग प्रणाम कीिजए और अनुभव कीिजए िक उ तर म आपको आशीवार्द
प्रा त हो रहा है ।

219
(३) एका त थान म सिु थर होकर बैिठए। यान कीिजए िक िनिखल नील आकाश म और कोई व तु
नहीं है , केवल एक विणर्म वणर् का सय
ू र् पव
ू र् िदशा म चमक रहा है । उस सय
ू र् को यानाव था म िवशेष
मनोयोगपव
ू क
र् दे िखए। उसके बीच म हं सा ढ़ माता गायत्री की धध
ुँ ली- सी छिव ि टगोचर होगी।
अ यास से धीरे - धीरे यह छिव प ट दीखने लगेगी।

(४) भावना कीिजए िक इस गायत्री- सय


ू र् की विणर्म िकरण मेरे नग्न शरीर पर पड़ रही ह और वे
रोमकूप म होकर प्रवेश हुई आभा से दे ह के सम त थूल एवं सू म अंग को अपने प्रकाश से पूिरत
कर रही ह।

(५) िद य तेजयुक्त, अ य त सु दर, इतनी सु दर िजतनी िक आप अिधक से अिधक क पना कर सकते


ह , आकाश म िद य व त्र , आभष
ू ण से सस
ु ि जत माता का यान कीिजए। िकसी सु दर िचत्र के
आधार पर ऐसा यान करने की सिु वधा होती है । माता के एक- एक अंग को िवशेष मनोयोगपूवक
र्
दे िखए। उसकी मख
ु ाकृित, िचतवन, मु कान, भाव- भंिगमा पर िवशेष यान दीिजए। माता अपनी अ प ट
वाणी, चे टा तथा संकेत वारा आपके मनःक्षेत्र म नवीन भाव का संचार करगी।

(६) शरीर को िबलकुल ढीला कर दीिजए। आराम कुसीर्, मसनद या दीवार का सहारा लेकर शरीर की
नस- नािड़य को िनजीर्व की भाँित िशिथल कर दीिजए। भावना कीिजए िक सु दर आकाश म अ यिधक
ऊँचाई पर अवि थत ध्रव
ु तारे से िनकलकर एक नीलवणर् की शभ्र
ु िकरण सध
ु ा धारा की तरह अपनी
ओर चली आ रही है और अपने मि त क या दय म ऋत भरा बिु द्ध के प म, तरण- तािरणी प्रज्ञा के
प म प्रवेश कर रही है । उस परम िद य, परम प्रेरक शिक्त को पाकर अपने दय म सद्भाव और
मि त क म स िवचार उसी प्रकार उमड़ रहे ह जैसे समद्र
ु म वार- भाटा उमड़ते ह। वह ध्रव
ु तारा, जो
इस िद य धारा का प्रेरक है , स लोकवािसनी गायत्री माता ही है । भावना कीिजए िक जैसे बालक अपनी
माता की गोद म खेलता और क्रीड़ा करता है , वैसे ही आप भी गायत्री माता की गोद म खेल और क्रीड़ा
कर रहे ह।

(७) मे द ड को सीधा करके पद्मासन से बैिठए। नेत्र ब द कर लीिजए। भ्रम


ू य भाग (भक
ृ ु िट) म शुभ्र
वणर् दीपक की लौ के समान िद य योित का यान कीिजए। यह योित िव युत ् की भाँित िक्रयाशील
होकर अपनी शिक्त से मि त क क्षेत्र म िबखरी हुई अनेक शिक्तय का पोषण एवं जागरण कर रही है ,
ऐसा िव वास कीिजए।

(८) भावना कीिजए िक आपका शरीर एक सु दर रथ है , उसम मन, बुिद्ध, िच त, अहं कार पी घोड़े जत
ु े
ह। इस रथ म िद य तेजोमयी माता िवराजमान है और घोड़ की लगाम उसने अपने हाथ म थाम रखी
है । जो घोड़ा िबचकता है , वह चाबुक से उसका अनुशासन करती है और लगाम झटककर उसको सीधे
मागर् पर ठीक रीित से चलने म सफल पथ- प्रदशर्न करती है । घोड़े भी माता से आतंिकत होकर उसके

220
अंकुश को वीकार करते ह।

(९) दय थान के िनकट, सय


ू च
र् क्र म सय
ू र् जैसे छोटे प्रकाश का यान कीिजए। यह आ मा का प्रकाश
है । इसम माता की शिक्त िमलती है और प्रकाश बढ़ता है । इस बढ़े हुए प्रकाश म आ मा के व तु
व प की झाँकी होती है । आ मसाक्षा कार का के द्र यह सय
ू च
र् क्र ही है ।

(१०) यान कीिजए िक चार ओर अ धकार है । उसम होली की तरह प ृ वी से लेकर आकाश तक
प्रच ड तेज जा व यमान हो रहा है । उसम प्रवेश करने से अपने शरीर का प्र येक अंग, मनःक्षेत्र उस
परम तेज के समान अिग्नमय हो गया है । अपने सम त पाप- ताप, िवकार- सं कार जल गए ह और
शुद्ध सि चदान द शेष रह गया है ।

ऊपर कुछ सुगम एवं सव पयोगी यान बताए गए ह। ये सरल और प्रितब ध रिहत ह। इनके िलए
िक हीं िवशेष िनयम के पालन की आव यकता नहीं होती। शुद्ध होकर साधना के समय उनका करना
उ तम है । वैसे अवकाश के अ य समय म भी जब िच त शा त हो, इन यान म से अपनी िच के
अनुकूल यान िकया जा सकता है । इन यान म मन को संयत, एकाग्र करने की बड़ी शिक्त है । साथ
ही उपासना का आ याि मक लाभ भी िमलने से यह यान दोहरा िहत साधन करते ह।

त्राटक - मनोमय कोश की साधना


त्राटक भी यान का एक अंग है अथवा य किहए िक त्राटक का ही एक अंग यान है । आ तर त्राटक
और बा य त्राटक दोन का उ े य मन को एकाग्र करना है । नेत्र ब द करके िकसी एक व तु पर
भावना को जमाने और उसे आ तिरक नेत्र से दे खते रहने की िक्रया आ तर त्राटक कहलाती है । पीछे
जो दस यान िलखे गए ह, वे सभी आ तर त्राटक ह। मे मरे म ढं ग से जो लोग आ तर त्राटक करते
ह, वे केवल प्रकाश िब द ु पर यान करते ह। इससे एकांगी लाभ होता है । प्रकाश िब द ु पर यान करने
से मन तो एकाग्र होता है , पर उपासना का आ मलाभ नहीं िमल पाता। इसिलए भारतीय योगी सदा ही
आ तर त्राटक का इ ट- यान के प म प्रयोग करते रहे ह।

बा य त्राटक का उ े य बा य साधन के आधार पर मन को वश म करना एवं िच त- प्रविृ तय का


एकीकरण करना है । मन की शिक्त प्रधानतया नेत्र वारा बाहर आती है । ि ट को िकसी िवशेष व तु
र् प्रवेश कराने से नेत्र
पर जमाकर उसम मन को त मयतापूवक वारा िवकीणर् होने वाला मनःतेज एवं
िव युत ् प्रवाह एक थान पर के द्रीभत
ू होने लगता है । इससे एक तो एकाग्रता बढ़ती है , दस
ू रे नेत्र का
प्रवाह- चु बक व बढ़ जाता है । ऐसी बढ़ी हुई आकषर्ण शिक्त वाली ि ट को ‘बेधक ि ट’ कहते ह।

बेधक ि ट से दे खकर िकसी यिक्त को प्रभािवत िकया जा सकता है । मे मरे म करने वाले अपने

221
नेत्र म त्राटक वारा ही इतना िव यत
ु ् प्रवाह उ प न कर लेते ह िक उसे िजस िकसी शरीर म प्रवेश
कर िदया जाए, वह तरु त बेहोश एवं वशवतीर् हो जाता है । उस बेहोश या अद्धर्िनिद्रत यिक्त के
मि त क पर बेधक ि ट वाले यिक्त का क जा हो जाता है और उससे जो चाहे वह काम ले सकता
है । मे मरे म करने वाले िकसी यिक्त को अपनी त्राटक शिक्त से पूणिर् निद्रत या अद्धर्िनिद्रत करके उसे
नाना प्रकार के नाच नचाते ह।

मे मरे म वारा स सङ्क प, दान, रोग िनवारण, मानिसक त्रिु टय का पिरमाजर्न आिद लाभ हो सकते ह
और उससे ऊँची अव था म जाकर अज्ञात व तुओं का पता लगाना, अप्रकट बात को मालम
ू करना
आिद कायर् भी हो सकते ह। द ु ट प्रकृित के बेधक ि ट वाले अपने ि ट- तेज से िक हीं त्री- पु ष के
मि त क पर अपना अिधकार करके उ ह भ्रमग्र त कर दे ते ह और उनका सती व तथा धन लट
ू ते ह।
कई बेधक ि ट से खेल- तमाशे करके पैसा कमाते ह। यह इस मह वपूणर् शिक्त का द ु पयोग है ।

बेधक ि ट वारा िकसी के अ तःकरण म भीतर तक प्रवेश करके उसकी सारी मनःि थित को,
मनोगत भावनाओं को जाना जा सकता है । बेधक ू र को प्रभािवत िकया जा सकता
ि ट फककर दस
है । नेत्र म ऐसा चु बक व त्राटक वारा पैदा हो सकता है । मन की एकाग्रता, चँ िू क त्राटक के अ यास
म अिनवायर् प से करनी पड़ती है , इसिलए उसका साधन साथ- साथ होते चलने से मन पर बहुत कुछ
काबू हो सकता है ।

(१) एक हाथ ल बा- एक हाथ चौड़ा चौकोर कागज का पट्ठ


ु ा लेकर उसके बीच म पए के बराबर एक
काला गोल िनशान बना लो। याही एक सी हो, कहीं कम- यादा न हो। इसके बीच म सरस के बराबर
िनशान छोड़ दो और उसम पीला रं ग भर दो। अब उससे चार फीट की दरू ी पर इस प्रकार बैठो िक वह
काला गोला तु हारी आँख के सामने, सीध म रहे ।

साधना का एक कमरा ऐसा होना चािहए िजसम न अिधक प्रकाश रहे , न अँधेरा; न अिधक सदीर् हो, न
गमीर्। पालथी मारकर, मे द ड सीधा रखते हुए बैठो और काले गोले के बीच म जो पीला िनशान हो,
उस पर ि ट जमाओ। िच त की सारी भावनाएँ एकित्रत करके उस िब द ु को इस प्रकार दे खो, मानो
तुम अपनी सारी शिक्त नेत्र वारा उसम प्रवेश कर दे ना चाहते हो। ऐसा सोचते रहो िक मेरी ती ण
ि ट से इस िब द ु म छे द हुआ जा रहा है । कुछ दे र इस प्रकार दे खने से आँख म ददर् होने लगेगा
और पानी बहने लगेगा, तब अ यास ब द कर दो।

अ यास के िलए प्रातःकाल का समय ठीक है । पहले िदन दे खो िक िकतनी दे र म आँख थक जाती ह
और पानी आ जाता है । पहले िदन िजतनी दे र अ यास िकया है , प्रितिदन उससे एक या आधी िमनट
बढ़ाते जाओ।

ि ट को ि थर करने पर तुम दे खोगे िक उस काले गोले म तरह- तरह की आकृितयाँ पैदा होती ह।
222
कभी वह सफेद रं ग का हो जाएगा तो कभी सन
ु हरा। कभी छोटा मालम
ू पड़ेगा, कभी िचनगािरयाँ- सी
उड़़ती दीखगी, कभी बादल- से छाए हुए प्रतीत ह गे। इस प्रकार यह गोला अपनी आकृित बदलता रहे गा,
िक तु जैसे- जैसे ि ट ि थर होना शु हो जाएगी, उसम दीखने वाली िविभ न आकृितयाँ ब द हो
जाएँगी और बहुत दे र तक दे खते रहने पर भी गोला य का य बना रहे गा।

(२) एक फुट ल बे- चौड़े दपर्ण के बीच चाँदी की चव नी के बराबर काले रं ग के कागज का एक गोल
टुकड़ा काटकर िचपका िदया जाता है । उस कागज के म य म सरस के बराबर पीला िब द ु बनाते ह।
इस िब द ु पर ि ट ि थर करते ह। इस अ यास को एक- एक िमनट बढ़ाते जाते ह। जब इस तरह की
ि ट ि थर हो जाती है , तब और भी आगे का अ यास शु हो जाता है । दपर्ण पर िचपके हुए कागज
को छुड़ा दे ते ह और उसम अपना मँह ु दे खते हुए अपनी बाईं आँख की पुतली पर ि ट जमाते ह और
उस पुतली म यानपूवक र् अपना प्रितिब ब दे खते ह।

ृ का दीपक जलाकर नेत्र की सीध म चार फुट की दरू ी पर रिखए। दीपक की लौ आधा इ च
(३) गो- घत
से कम उठी हुई न हो, इसिलए मोटी ब ती डालना और िपघला हुआ घत
ृ भरना आव यक है । िबना
पलक झपकाए इस अिग्निशखा पर ि टपात कीिजए और भावना कीिजए िक आपके नेत्र की योित
दीपक की लौ से टकराकर उसी म घल
ु ी जा रही है ।

(४) प्रातःकाल के सन
ु हरे सय
ू र् पर या राित्र को च द्रमा पर भी त्राटक िकया जाता है । सय
ू र् या च द्रमा
जब म य आकाश म ह गे तब त्राटक नहीं हो सकता। कारण िक उस समय तो िसर ऊपर को करना
पड़ेगा या लेटकर ऊपर को आँख करनी पड़गी; ये दोन ही ि थितयाँ हािनकारक ह, इसिलए उदय होता
सय
ू र् या च द्रमा ही त्राटक के िलए उपयक्
ु त माना जाता है ।

(५) त्राटक के अ यास के िलए व थ नेत्र का होना आव यक है । िजनके नेत्र कमजोर ह या कोई रोग
हो, उ ह बा य त्राटक की अपेक्षा अ तः- त्राटक उपयुक्त है , जो िक यान प्रकरण म िलखा जा चुका है ।
अ तः- त्राटक को पा चा य योगी इस प्रकार करते ह िक दीपक की अिग्निशखा, सय
ू -र् च द्रमा आिद कोई
चमकता प्रकाश प द्रह सेके ड खुले नेत्र से दे खा, िफर आँख ब द कर लीं और यान िकया िक वह
प्रकाश मेरे सामने मौजूद है । एकटक
ि ट से म उसे घूर रहा हूँ तथा अपनी सारी इ छाशिक्त को तेज
न कदार कील की तरह उसम घुसाकर आर- पार कर रहा हूँ।

अपनी सिु वधा, ि थित और िच के अनु प इन त्राटक म से िकसी को चुन लेना चािहए और उसे
िनयत समय पर िनयम पूवक
र् करते रहना चािहए। इससे मन एकाग्र होता है और ि ट म बेधकता,
पारदिशर्ता एवं प्रभावो पादकता की अिभविृ द्ध होती है ।

त्राटक पर से उठने के प चात ् गल


ु ाब जल से आँख को धो डालना चािहए। गल
ु ाब जल न िमले तो
व छ छना हुआ ताजा पानी भी काम म लाया जा सकता है । आँख धोने के िलए छोटी काँच की
223
यािलयाँ अंग्रेजी दवा बेचने वाल की दक
ु ान पर िमलती ह, वह सिु वधाजनक होती ह। न िमलने पर
कटोरी म पानी भरके उसम आँख खोलकर डुबाने और पलक िहलाने से आँख धल
ु जाती ह। इस प्रकार
के नेत्र
नान से त्राटक के कारण उ प न हुई आँख की उ णता शा त हो जाती है । त्राटक का अ यास
समा त करने के उपरा त साधना के कारण बढ़ी हुई मानिसक गमीर् के समाधान के िलए दध ू , दही,
ल सी, मक्खन, िम ी, फल, शबर्त, ठ डाई आिद कोई ठ डी पौि टक चीज, ऋतु का यान रखते हुए सेवन
करनी चािहए। जाड़े के िदन म बादाम का हलव
ु ा, यवनप्राश अवलेह आिद व तुएँ भी उपयोगी होती ह।

जप - मनोमय कोश की साधना


मनोमय कोश की ि थित एवं एकाग्रता के िलए जप का साधन बड़ा ही उपयोगी है । इसकी उपयोिगता
इससे िनिवर्वाद है िक सभी धमर्, मजहब, स प्रदाय इसकी आव यकता को वीकार करते ह। जप करने
से मन की प्रविृ तय को एक ही िदशा म लगा दे ना सरल हो जाता है ।

कहते ह िक एक बार एक मनु य ने िकसी भत


ू को िसद्ध कर िलया। भत
ू बड़ा बलवान ् था। उसने कहा-
‘म तु हारे वश म आ गया, ठीक है , जो आज्ञा होगी सो क ँ गा; पर एक बात है , मझ
ु से बेकार नहीं बैठा
जाता, यिद बेकार रहा तो आपको ही खा जाऊँगा। यह मेरी शतर् अ छी तरह समझ लीिजए।’

उस आदमी ने भत ू को बहुत काम बताए, उसने थोड़ी- थोड़ी दे र म सब काम कर िदए। भत ू की बेकारी
से उ प न होने वाला संकट उस िसद्ध को बेतरह परे शान कर रहा था। तब वह दःु खी होकर अपने गु
के पास गया। गु ने िसद्ध को बताया िक आँगन म एक बाँस गाड़ िदया जाए और भत
ू से कह दो िक
जब तक दस
ू रा काम न बताया जाए, तब तक उस बाँस पर बार- बार चढ़े और बार- बार उतरे । यह काम
िमल जाने पर भत
ू से काम लेते रहने की भी सिु वधा हो गई और िसद्ध के आगे उपि थत रहने वाला
संकट हट गया।

मन ऐसा ही भत
ू है । यह जब भी िनरथर्क बैठता है , तभी कुछ न कुछ खरु ाफात करता है । इसिलए यह
जब भी काम से छुट्टी पाए, तभी इसे जप पर लगा दे ना चािहए। जप केवल समय काटने के िलए ही
नहीं है , वरन ् वह एक बड़ा ही उ पादक एवं िनमार्णा मक मनोवैज्ञािनक म है । िनर तर पुनराविृ त
करते रहने से मन म उस प्रकार का अ यास एवं सं कार बन जाता है िजससे वह वभावतः उसी ओर
चलने लगता है ।

प थर को बार- बार र सी की रगड़ लगने से उसम ग ढा पड़ जाता है । िपंजड़े म रहने वाला कबूतर
बाहर िनकाल दे ने पर भी लौटकर उसी म वापस आ जाता है । गाय को जंगल म छोड़ िदया जाए तो
भी वह रात को वयमेव लौट आती है । िनर तर अ यास से मन भी ऐसा अ य त हो जाता है िक
अपने दीघर्काल तक सेवन िकए गए कायर्क्रम म अनायास ही प्रव ृ त हो जाता है ।

224
अनेक िनरथर्क क पना- प्रप च म उछलते- कूदते िफरने की अपेक्षा आ याि मक भावना की एक
सीिमत पिरिध म भ्रमण करने के िलए जप का अ यास करने से मन एक ही िदशा म प्रव ृ त होने
लगता है । आि मक क्षेत्र म मन लगा रहना, उस िदशा म एक िदन पण
ू र् सफलता प्रा त होने का
सिु नि चत लक्षण है । मन पी भत
ू बड़ा बलवान ् है । यह सांसािरक काय को भी बड़ी सफलतापूवक
र्
करता है और जब आि मक क्षेत्र म जट
ु जाता है , तो भगवान ् के िसंहासन को िहला दे ने म भी नहीं
चूकता। मन की उ पादक, रचना मक एवं प्रेरक शिक्त इतनी िवलक्षण है िक उसके िलए संसार की कोई
व तु अस भव नहीं। भगवान ् को प्रा त करना भी उसके िलए िबलकुल सरल है । किठनाई केवल एक
िनयत क्षेत्र म जमने की है , सो जप के यवि थत िवधान से वह भी दरू हो जाती है ।

हमारा मन कैसा ही उ छृंखल क्य न हो, पर जब उसको बार- बार िकसी भावना पर केि द्रत िकया
जाता रहे गा, तो कोई कारण नहीं िक काला तर म उसी प्रकार का न बनने लगे। लगातार प्रय न करने
से सरकस म खेल िदखाने वाले ब दर, िसंह, बाघ, रीछ जैसे उ ड जानवर मािलक की मजीर् पर काम
करने लगते ह, उसके इशारे पर नाचते ह, तो कोई कारण नहीं िक चंचल और कुमागर्गामी मन को वश
म करके इ छानुवतीर् न बनाया जा सके। पहलवान लोग िन यप्रित अपनी िनयत मयार्दा म द ड- बैठक
आिद करते ह। उनकी इस िक्रयापद्धित से उनका शरीर िदन- िदन ट- पु ट होता जाता है और एक
िदन वे अ छे पहलवान बन जाते ह। िन य का जप एक आ याि मक यायाम है , िजससे आ याि मक
वा य को सु ढ़ और सू म शरीर को बलवान ् बनाने म मह वपूणर् सहायता िमलती है ।

एक- एक बँद
ू जमा करने से घड़ा भर जाता है । चींटी एक- एक दाना ले जाकर अपने िबल म मन
अनाज जमा कर लेती है । एक- एक अक्षर पढ़ने से थोड़े िदन म िव वान ् बना जा सकता है । एक- एक
कदम चलने से ल बी मंिजल पार हो जाती है । एक- एक पैसा जोड़ने से खजाने जमा हो जाते ह। एक-
ू र सी बन जाती है । जप म भी वही होता है । माला का एक- एक दाना
एक ितनका िमलने से मजबत
फेरने से बहुत जमा हो जाता है । इसिलए योग- ग्र थ म जप को यज्ञ बताया गया है । उसकी बड़ी
मिहमा गाई है और आ ममागर् पर चलने की इ छा करने वाले पिथक के िलए जप करने का क तर् य
आव यक प से िनधार्िरत िकया गया है ।

गीता के अ याय १० लोक २५ म कहा गया है —‘‘यज्ञ म जप- यज्ञ े ठ है ।’’ मनु मिृ त म, अ याय २
लोक ८६ म बताया गया है िक होम, बिलकमर्, ाद्ध, अितिथ- सेवा, पाकयज्ञ, िविधयज्ञ, दशर्पौणर्मासािद
यज्ञ, सब िमलकर भी जप- यज्ञ के सोलहव भाग के बराबर नहीं होते। महिषर् भर वाज ने गायत्री
याख्या म कहा है —‘‘सम त यज्ञ म जप- यज्ञ अिधक े ठ है । अ य यज्ञ म िहंसा होती है , पर जप-
यज्ञ म नहीं होती। िजतने कमर्, यज्ञ, दान, तप ह, सब जप- यज्ञ की सोलहवीं कला के समान भी नहीं
होते। सम त पु य साधना म जप- यज्ञ सवर् े ठ है ।’’ इस प्रकार के अगिणत प्रमाण शा त्र म उपल ध
ह। उन शा त्र वचन म जप- यज्ञ की उपयोिगता एवं मह ता को बहुत जोर दे कर प्रितपादन िकया गया

225
है । कारण यह है िक जप, मन को वश म करने का रामबाण अ त्र है और यह सवर्िविदत त य है िक
मन को वश म करना इतनी बड़ी सफलता है िक उसकी प्राि त होने पर जीवन को ध य माना जा
सकता है । सम त आि मक और भौितक स पदाएँ संयत मन से ही तो उपल ध की जाती ह।

जप- यज्ञ के स ब ध म कुछ आव यक जानकािरयाँ नीचे दी जाती ह—

(१) जप के िलए प्रातःकाल एवं ब्रा ममह


ु ू तर् सव तम काल है । दो घ टे रात के रहने से सय
ू दय तक
ब्रा ममह
ु ू तर् कहलाता है । सय
ू दय से दो घ टे िदन चढ़े तक प्रातःकाल होता है । प्रातःकाल से भी
ब्रा ममह
ु ू तर् अिधक े ठ है ।

(२) जप के िलए पिवत्र, एका त थान चुनना चािहए। मि दर, तीथर्, बगीचा, जलाशय आिद एका त के
शुद्ध थान जप के िलए अिधक उपयुक्त ह। घर म यह करना हो तो भी ऐसी जगह चुननी चािहए,
जहाँ अिधक खटपट न हो।

(३) स ू ार् त से एक घ टा उपरा त तक जप कर लेना चािहए। प्रातःकाल


या को जप करना हो तो सय
के दो घ टे और सायंकाल का एक घ टा इन तीन घ ट को छोड़कर राित्र के अ य भाग म गायत्री
म त्र नहीं जपा जाता।

(४) जप के िलए शुद्ध शरीर और शुद्ध व त्र से बैठना चािहए। साधारणतः नान वारा ही शरीर की
शुिद्ध होती है , पर िकसी िववशता, ऋतु प्रितकूलता या अ व थता की दशा म मँह
ु धोकर या गीले कपड़े
से शरीर प छकर भी काम चलाया जा सकता है । िन य धुले व त्र की यव था न हो सके तो रे शमी
या ऊनी व त्र से काम लेना चािहए।

(५) जप के िलए िबना िबछाए न बैठना चािहए। कुश का आसन, चटाई आिद घास के बने आसन
अिधक उपयक्
ु त ह। पशुओं के चमड़े, मग
ृ छाला आिद आजकल उनकी िहंसा से प्रा त होते ह, इसिलए वे
िनिषद्ध ह।

(६) पद्मासन म पालथी मारकर मे द ड को सीधा रखते हुए जप के िलए बैठना चािहए। मँह
ु प्रातः पव
ू र्
की ओर और सायंकाल पि चम की ओर रहे ।

(७) माला तुलसी की या च दन की लेनी चािहए। कम से कम एक माला िन य जपनी चािहए। माला


पर जहाँ बहुत आदिमय की ि ट पड़ती हो, वहाँ हाथ को कपड़े से या गोमख
ु ी से ढक लेना चािहए।

(८) माला जपते समय सम


ु े (माला के प्रार भ का सबसे बड़ा के द्रीय दाना) का उ लंघन न करना
चािहए। एक माला परू ी होने पर उसे मि त क तथा नेत्र से लगाकर अंगिु लय को पीछे की तरफ
उलटकर वापस जप आर भ करना चािहए। इस प्रकार माला परू ी होने पर हर बार उलटकर नया
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आर भ करना चािहए।

(९) ल बे सफर म, वयं रोगी हो जाने पर, िकसी रोगी की सेवा म संलग्न होने पर, ज म- म ृ यु का
सत
ू क लग जाने पर नान आिद पिवत्रताओं की सिु वधा नहीं रहती। ऐसी दशा म मानिसक जप चालू
रखना चािहए। मानिसक जप िब तर पर पड़े- पड़े, रा ता या िकसी भी पिवत्र- अपिवत्र दशा म िकया जा
सकता है ।

(१०) जप िनयत समय पर, िनयत संख्या म, िनयत थान पर, शा त िच त एवं एकाग्र मन से करना
चािहए। पास म जलाशय या जल से भरा पात्र होना चािहए। आचमन के प चात ् जप आर भ करना
चािहए। िकसी िदन अिनवायर् कारण से जप थिगत करना पड़े, तो दस
ू रे िदन प्रायि च त व प एक
माला अिधक जपनी चािहए।

(११) जप इस प्रकार करना चािहए िक क ठ से विन होती रहे , होठ िहलते रह, पर तु समीप बैठा हुआ
मनु य भी प ट प से म त्र को सुन न सके। मल- मत्र
ू याग या िकसी अिनवायर् कायर् के िलए
साधना के बीच म ही उठना पड़े, तो शुद्ध जल से साफ होकर तब दोबारा बैठना चािहए। जपकाल म
यथास भव मौन रहना उिचत है । कोई बात कहना आव यक हो तो इशारे से कह दे नी चािहए।

(१२) जप के समय मि त क के म य भाग म इ टदे व का, प्रकाश योित का यान करते रहना चािहए।
साधक का आहार तथा यवहार साि वक होना चािहए। शारीिरक एवं मानिसक दोष से बचने का
यथास भव पूरा प्रय न करना चािहए।

(१३) जप के िलए गायत्री म त्र सवर् े ठ है । गु


वारा ग्रहण िकया हुआ म त्र ही सफल होता है ।
वे छापव
ू क
र् मनचाही िविध से मनचाहा म त्र जपने से िवशेष लाभ नहीं होता, इसिलए अपनी ि थित
के अनक
ु ू ल आव यक िवधान, िकसी अनभ
ु वी पथ प्रदशर्क से मालम
ू कर लेना चािहए।
उपरोक्त िनयम के आधार पर िकया हुआ गायत्री जप मन को वश म करने एवं मनोमय कोश को
सिु वकिसत करने म बड़ा मह वपण
ू र् िसद्ध होता है ।

त मात्रा साधना - मनोमय कोश की साधना


यह बात प्रकट है िक हमारा शरीर एवं सम त स चार त त्र प चत व का बना हुआ है । प ृ वी, जल,
वायु, अिग्न और आकाश इन पाँच त व की मात्रा म अ तर होने के कारण िविवध आकार- प्रकार और
गण
ु - धमर् की व तुएँ बन जाती ह। इन पाँच त व की जो सू म शिक्तयाँ ह, इनकी इि द्रयज य
अनुभिू त को ‘त मात्रा’ कहते ह। शरीर म पाँच ज्ञानेि द्रयाँ ह। ये पाँच त व से बने हुए पदाथ के
संसगर् म आने पर जैसा अनुभव करती ह, उस अनुभव को ‘त मात्रा’ नाम से पुकारते ह। श द, प, रस,

227
ग ध, पशर् ये पाँच त मात्राएँ ह।

आकाश की त मात्रा ‘श द’ है । वह कान वारा हम अनुभव होता है । कान ही आकाश त व की


प्रधानता वाली इि द्रय है । अिग्न त व की त मात्रा ‘ प’ है । यह अिग्नप्रधान इि द्रय नेत्र वारा
अनुभव िकया जाता है । प को आँख ही दे खती ह। जल त व की त मात्रा ‘रस’ है । रस का जलप्रधान
इि द्रय िज वा वारा अनुभव होता है । षटरस का, खट्टे , मीठे , खारी, तीखे, कडुवे, कषैले का वाद जीभ
पहचानती है । प ृ वी त व की त मात्रा ‘ग ध’ को प ृ वी गण
ु प्रधान नािसका इि द्रय मालम
ू करती है ।
इसी प्रकार वायु त व की त मात्रा ‘ पशर्’ का ज्ञान वचा को होता है । वचा म फैले हुए ज्ञान त तु
ू री व तुओं का ताप, भार, घन व एवं उसके पशर् की प्रितिक्रया का अनुभव कराते ह।
दस

इि द्रय म त मात्राओं का अनुभव कराने की शिक्त न हो, तो संसार का और शरीर का स ब ध ही टूट


जाए। जीव को संसार म जीवन यापन की सिु वधा भले ही हो, पर िकसी प्रकार का आन द शेष न
रहे गा। संसार के िविवध पदाथ म जो हम मनमोहक आकषर्ण प्रतीत होते ह, उनका एकमात्र कारण
‘त मात्रा’ शिक्त है । क पना कीिजए िक हम संसार के िकसी पदाथर् के प को न दे ख सक, तो सवर्त्र
मौन एवं नीरवता ही रहे गी। वाद न चख सक तो खाने म कोई अ तर न रहे गा। ग ध का अनुभव न
हो तो हािनकारक सड़ाँध और उपयोगी उपवन म क्या फकर् िकया जा सकेगा? वचा की शिक्त न हो तो
सदीर्, गमीर्, नान, वायु सेवन, कोमल श या के सेवन आिद से कोई प्रयोजन न रह जाएगा।

परमा मा ने प चत व म त मात्राएँ उ प न कर और उनके अनभ


ु व के िलए शरीर म ज्ञानेि द्रयाँ
बनाकर, शरीर और संसार को आपस म घिन ठ आकषर्ण के साथ स बद्ध कर िदया है । यिद प चत व
केवल थल
ू ही होते, उनम त मात्राएँ न होतीं, तो इि द्रय को संसार के िकसी पदाथर् म कुछ आन द न
आता, सब कुछ नीरस, िनरथर्क और बेकार- सा दीख पड़ता। यिद त व म त मात्राएँ होतीं, पर शरीर म
ज्ञानेि द्रयाँ न होतीं, तो जैसे वायु म िफरते रहने वाले कीटाणु केवल जीवन धारण ही करते ह, उ ह
संसार म िकसी प्रकार की रसानुभिू त नहीं होती, इसी प्रकार मानव जीवन भी नीरस हो जाता। इि द्रय
की स वेदना- शिक्त और त व की त मात्राएँ िमलकर प्राणी को ऐसे अनेक शारीिरक और मानिसक
रस अनुभव कराती ह, िजनके लोभ से वह जीवन धारण िकए रहता है , इस संसार को छोड़ना नहीं
चाहता। उसकी यह चाहना ही ज म- मरण के चक्र म, भव- ब धन म बँधे रहने के िलए बा य करती
है ।

आ मा की ओर न मड़
ु कर, आ मक याण म प्रव ृ त न होकर सांसािरक व तुओं को संग्रह करने की,
उनका वामी बनने की, उनके संपकर् की रसानुभिू त को चखते रहने की लालसा म मनु य डूबा रहता है ।
रं ग- िबरं गे िखलौने से खेलने म जैसे ब चे बेतरह त मय हो जाते ह और खाना- पीना सभी भल
ू कर
खेल म लगे रहते ह, उसी प्रकार त मात्राओं के िखलौने मन म ऐसे बस जाते ह, इतने सह
ु ावने लगते ह
िक उनसे खेलना छोड़ने की इ छा नहीं होती। कई ि टय से क टकर जीवन यतीत करते हुए भी

228
लोग मरने को तैयार नहीं होते, म ृ यु का नाम सन
ु ते ही काँपते ह। इसका एकमात्र कारण यही है िक
सांसािरक पदाथ की त मात्राओं म जो मोहक आकषर्ण है , वह क ट और अभाव की तल
ु ना म मोहक
और सरस है । क ट सहते हुए भी प्राणी उ ह छोड़ने को तैयार नहीं होता।

पाँच इि द्रय के खट
ूँ े से, पाँच त मात्राओं के र स से जीव बँधा हुआ है । यह र से बड़े ही आकषर्क ह।
इन र स म चमकीला, रं गीन, रे शम और सन ु हरी कलाव तू लगा हुआ है । खट
ूँ े चाँदी- सोने के बने हुए ह,
उनम हीरे जवाहरात जगमगा रहे ह। जीव पी घोड़ा इन र स से बँधा है । वह ब धन के दःु ख को
भल
ू जाता है और र स तथा खट
ूँ की सु दरता को दे खकर छुटकारे की इ छा तक करना छोड़ दे ता है ।
ु ने और चाबुक खाने के क ट को भी इन
उसे वह ब धन भी अ छा लगता है । िदनभर गाड़ी म जत
चमकीले र स और खट
ूँ की तुलना म कुछ नहीं समझता। इसी बाल बुिद्ध को, अदरू दिशर्ता को,
वा तिवकता न समझने को शा त्र म अिव या, माया, भ्राि त आिद नाम से पुकारा गया है और इस
भल
ू से बचने के िलए अनेक प्रकार की धािमर्क कथा- गाथाओं, उपासनाओं एवं साधनाओं का िवधान
िकया गया है ।

इि द्रय तथा त मात्राओं के िम ण से खुजली उ प न होती है , उसे ही खज


ु ाने के िलए मनु य के
िविवध िवचार और कायर् होते ह। वह िदन- रात इसी खाज को खुजाने के िलए गोरखध धे म लगा
रहता है । मन को वश म करने एवं एकाग्र करने म बड़ी बाधा यह खुजली है , जो दस
ू री ओर िच त को
जाने ही नहीं दे ती। खुजाने म जो मजा आता है , उसकी तुलना म और सब बात हलकी मालम
ू होती ह।
इसिलए एकाग्रता की साधना पर से मन अक्सर उचट जाता है ।

त मात्राओं की रसानभ
ु िू त घोड़े की र सी अथवा खज
ु ली के समान है । यह बहुत ही ह की, छोटी और
मह वहीन व तु है । यह भावना अ तःभिू त म जमाने के िलए, मनोमय कोश की सु यव था के िलए
त मात्राओं की साधना के अ यास बताए गए ह। इन साधनाओं से अ तःकरण यह अनभ
ु व कर लेता है
िक त मात्राएँ अना म व तु ह। यह जड़ प चत व की सू म प्रिक्रया मात्र है । यह मनोमय कोश म
खुजली की तरह िचपट जाती है और एक िनरथर्क- से झमेले, गोरखध धे म हम फँसाकर ल यप्राि त से
वि चत कर दे ती है । इसिलए इनकी अवा तिवकता, यथर्ता एवं तु छता को भली प्रकार समझ लेना
चािहए। आगे चलकर पाँच त मात्राओं की छोटी- छोटी सरल साधनाएँ बताई जायगी, िजनकी साधना
करने से बुिद्ध यह अनुभव कर लेती है िक श द, प, रस, ग ध, पशर् का जीवन को चलाने म केवल
उतना ही उपयोग है , िजतना मशीन के पुज म तेल का। इनम आसक्त होने की आव यकता नहीं है ।

दस
ू री बात यह भी है िक मन वयं एक इि द्रय है । उसका लगाव सदा त मात्राओं की ओर रहता है ।
मन का िवषय ही रसानभ
ु िू त है । साधना मक रसानुभिू त म उसे लगा िदया जाए तो यह अपने िवषय म
भी लगता है और जो सू म पिर म करना पड़ता है , उसके कारण अित सू म मनःशिक्तय का जागरण
होने से अनेक प्रकार के मानिसक लाभ भी होते ह। प च त मात्राओं की साधनाएँ इस प्रकार ह—

229
श द साधना

एका त थान म जाइए, जहाँ िकसी प्रकार श द या कोलाहल न होते ह । बाहर के श द भी न सन


ु ाई
पड़ते ह । राित्र को जब चार ओर शाि त हो जाती हो, तब इस साधना के िलए बड़ा अ छा अवसर
िमलता है । िदन म करना हो तो कमरे म िकवाड़ ब द कर लेना चािहए, तािक बाहर से श द भीतर न
आएँ।

(१) शा त िच त से पद्मासन लगाकर बैिठए। नेत्र ब द कर लीिजए। एक छोटी घड़ी कान के पास ले
जाइए और उसकी िटक- िटक को यानपूवक
र् सिु नए। अब धीरे - धीरे घड़ी को कान से दरू हटाते जाइए
और यान दे कर उसकी िटक- िटक को सन
ु ने का प्रय न कीिजए। घड़ी और कान की दरू ी को बढ़ाते
जाइए। धीरे - धीरे अ यास से घड़ी बहुत दरू रखी होने पर भी िटक- िटक कान म आती रहे गी। बीच म
जब विन प्रभाव िशिथल हो जाए, तो घड़ी को कान के पास लगाकर कुछ दे र तक उस विन को
ु लेना चािहए और िफर दरू हटाकर सू म कणि द्रर् य से उस श द- प्रवाह को सन
अ छी तरह सन ु ने का
प्रय न करना चािहए।

(२) घिड़याल म एक चोट मारकर उसकी आवाज को बहुत दे र तक सन ु ते रहना और िफर बहुत दे र तक
उसे सू म कणि द्रय से सन
ु ने का प्रय न करना। जब पूवर् यान िशिथल हो जाए, तो िफर घिड़याल म
हथौड़ी मारकर, िफर उस यान को ताजा कर लेना और िफर सू म कणि द्रय से सन
ु ने का प्रय न
करना; इस तरह बार- बार करके सू म होती जाती विन को सन
ु ने का प्रय न िकया जाता है । योग
ग्र थ म ‘मुि टयोग’ नाम से इसी साधना का वणर्न है ।

(३) िकसी झरने के िनकट या नहर की झील के िनकट जाइए, जहाँ प्रपात का श द हो रहा हो। शा त
िच त से इस श द- प्रवाह को कुछ दे र सन
ु ते रिहए। िफर कान को उँ गली डालकर ब द कर लीिजए
और सू म कणि द्रय वारा उस विन को सिु नए। बीच म जब श द िशिथल हो जाए तो उँ गली ढीली
करके उसे सिु नए और कान ब द करके िफर उसी प्रकार यान वारा विन ग्रहण कीिजए।

इन श द साधनाओं म लगे रहने से मन एकाग्र होता है , साथ ही सू म कणि द्रय जाग्रत ् होती है ,
िजनके कारण दरू बैठकर बात करने वाले लोग के श द सू म कणि द्रय म आ जाते ह। सद
ु रू हो रही
गु त वातार्ओं का आभास हो जाता है । दे श- िवदे श म हो रहे न ृ य, गीत, वा य आिद की विन तरं ग
कान म आकर िच त को उ लास- आन द से भर दे ती ह। आगे चलकर यही साधना ‘कणर् िपशािचनी’
िसिद्ध के प म प्रकट होती है । कहाँ क्या हो रहा है , िकसके मन म क्या िवचार उठ रहा है , िकसकी
वैखरी, म यमा, प यि त और परा वािणयाँ क्या- क्या कर रही ह, भिव य म क्या होने वाला है आिद
बात को कोई शिक्त सू म कणि द्रय म आकर इस प्रकार कह जाती है , मानो कोई अ य प्राणी कान
पर मँह
ु रखकर सारी बात कह रहा है । इस सफलता को ‘कणर् िपशािचनी िसिद्ध’ कहते ह।
230
प साधना

(१) वेदमाता गायत्री का या सर वती, दग


ु ार्, ल मी, राम, कृ ण आिद इ टदे व का जो सबसे सु दर िचत्र या
प्रितमा िमले, उसे लीिजए। एका त थान म ऐसी जगह बैिठए, जहाँ पयार् त प्रकाश हो। इस िचत्र या
प्रितमा के अंग- प्र यंग को मनोयोगपव
ू क
र् दे िखए। इसके सौ दयर् एवं िवशेषताओं को खब
ू बारीकी के
साथ दे िखए। एक िमनट इस प्रकार दे खने के बाद नेत्र को ब द कर लीिजए। अब उस िचत्र के प का
यान कीिजए और जो बारीिकयाँ, िवशेषताएँ अथवा सु दरताएँ िचत्र म दे खीं थीं, उन सबको
क पनाशिक्त वारा यान के िचत्र म आरोिपत कीिजए। िफर नेत्र खोल लीिजए और उस छिव को
दे िखए। यान के साथ- साथ ॐ म त्र जपते रिहए। इस प्रकार बार- बार करने से वह प मन म बस
जाएगा। उसका िद य नेत्र से दशर्न करते हुए बड़ा आन द आयेगा। धीरे - धीरे इस िचत्र की मख ु ाकृित
बदलती मालम
ू दे गी; हँ सती, मु कराती, नाराज होती, उपेक्षा करती हुई भावभंगी िदखाई दे गी। यह प्रितमा
व न म अथवा जागिृ त अव था म, नेत्र के सामने आयेगी और कभी ऐसा अवसर आ सकता है , िजसे
प्र यक्ष साक्षा कार कहा जा सके। आर भ म यह साक्षा कार धध
ुँ ला होता है । िफर धीरे - धीरे यान िसद्ध
होने से वह छिव अिधक प ट होने लगती है । पहले िद य दशर्न यान क्षेत्र म ही रहता है , िफर
प्र यक्ष पिरलिक्षत होने लगता है ।

(२) िकसी मनु य के प का यान, िजन भावनाओं के साथ, प्रबल मनोयोगपव


ू क
र् िकया जाएगा, उन
भावनाओं के अनु प उस यिक्त पर प्रभाव पड़ेगा। िकसी के िवचार को बदलने, वेष िमटाने, मधरु
स ब ध उ प न करने, बरु ी आदत छुड़ाने, आशीवार्द या शाप से लाभ- हािन पहुँचाने आिद के प्रयोग इस
साधना के आधार पर होते ह। ताि त्रक लोग िवशेष कमर्का ड एवं म त्र वारा िकसी मनु य का प
आकषर्ण करके उसे रोगी, पागल एवं वशवतीर् करते दे खे गए ह।

(३) छायापु ष की िसिद्ध भी प- साधना का एक अंग है । शुद्ध शरीर और शुद्ध व त्र से िबना भोजन
िकए मनु य की ल बाई के दपर्ण के सामने खड़े होकर अपनी आकृित यानपूवक
र् दे िखए। थोड़ी दे र
बाद नेत्र ब द कर लीिजए और उस दपर्ण की आकृित का यान कीिजए। अपनी छिव आपको
ि टगोचर होने लगेगी। कई यिक्त दपर्ण की अपेक्षा व छ पानी म, ितली के तेल या िपघले हुए घत

म अपनी छिव दे खकर उसका यान करते ह। दपर्ण की साधना- शाि तदायक, तेल की संहारक और घत ृ
की उ पादक होती है । सय
ू र् और च द्रमा जब म य आकाश म ऐसे थान पर ह िक उनके प्रकाश म
खड़े होने पर अपनी छाया साढ़े तीन हाथ रहे , उस समय अपनी छाया पर भी उस प्रकार साधन
क याणकारक माना गया है ।

दपर्ण, जल, तेल, घत


ृ आिद म मख
ु ाकृित प ट दीखती है और नेत्र ब द करके वैसा ही यान हो जाता
है । सय
ू र् च द्र की ओर पीठ करके खड़े होने से अपनी छाया सामने आती है । उसे खुले नेत्र से भली

231
प्रकार दे खने के उपरा त आँख ब द करके उस छाया का यान करते ह। कुछ िदन के िनयिमत
अ यास से उस छाया म अपनी आकृित भी िदखाई दे ने लगती है ।

कुछ काल िनर तर इस छाया- साधना को करते रहा जाए, तो अपनी आकृित की एक अलग स ता बन
जाती है और उसम अपने संक प एवं प्राण का सि म ण होते जाने से वह एक वत त्र चेतना का
ू ’ कह सकते ह। आरि भक अव था म यह
प्राणी बन जाता है । उसके अि त व को ‘अपना जीिवत भत
आकाश म उड़ता या अपने आस- पास िफरता िदखाई दे ता है । िफर उस पर जब अपना िनय त्रण हो
जाता है , तो आज्ञानुसार प्रकट होता तथा आचरण करता है । िजनका प्राण िनबर्ल है , उनका यह मानस
पुत्र (छायापु ष) भी िनबर्ल होगा और अपना प िदखाने के अितिरक्त और कुछ िवशेष कायर् न कर
सकेगा। पर िजनका प्राण प्रबल होता है , उनका छायापु ष दस
ू रे अ य शरीर की भाँित कायर् करता है ।
एक थूल और दस
ू री सू म दे ह, दो प्रकट दे ह पाकर साधक बहुत से मह वपूणर् लाभ प्रा त कर लेता
है । साथ ही प- साधना वारा मन का वश म होना तथा एकाग्र होना तो प्र यक्ष लाभ है ही।

रस साधना

जो फल आपको सबसे वािद ट लगता हो, उसे इस साधना के िलए लीिजए। जैसे आपको कलमी आम
अिधक िचकर है , तो उसके छोटे - छोटे पाँच टुकड़े कीिजए। एक टुकड़ा िज वा के अग्र भाग पर एक
िमनट तक रखा रहने द और उसके वाद का मरण इस प्रकार कर िक िबना आम के भी आम का
वाद िज वा को होता रहे । दो िमनट म वह अनभ
ु व िशिथल होने लगेगा, िफर दस
ू रा टुकड़ा जीभ पर
रिखए और पव
ू व
र् त ् उसे फककर आम के वाद का अनभ
ु व कीिजए। इस प्रकार पाँच बार करने म
प द्रह िमनट लगते ह।

धीरे - धीरे िज वा पर कोई व तु रखने का समय कम करना चािहए और िबना िकसी व तु के रस के


अनुभव करने का समय बढ़ाना चािहए। कुछ समय प चात ् िबना िकसी व तु को जीभ पर रखे, केवल
भावना मात्र से इि छत व तु का पयार् त समय तक रसा वादन िकया जा सकता है । एक बात का
यान रहे िक एक ही फल का कम से कम एक स ताह तक प्रयोग होना चािहए।

शरीर के िलए िजन रस की आव यकता है , वे पयार् त मात्रा म आकाश म भ्रमण करते रहते ह। संसार
म िजतने पदाथर् ह, उनका कुछ अंश वायु प म, कुछ तरल प म और कुछ ठोस आकृित म रहता है ।
अ न को हम ठोस आकृित म ही दे खते ह। भिू म म, जल म वह परमाणु प से रहता है और आकाश
म अ न का वायु अंश उड़ता रहता है । साधना की िसिद्ध हो जाने पर आकाश म उड़ते िफरने वाले
अ न को मनोबल वारा, संक प शिक्त के आकषर्ण वारा खींचकर उदर थ िकया जा सकता है ।
प्राचीनकाल म ऋिष लोग दीघर्काल तक िबना अ न- जल के तप याएँ करते थे। वे इस िसिद्ध वारा
आकाश म से ही अभी ट आहार प्रा त कर लेते थे, इसिलए िबना अ न- जल के भी उनका काम चलता

232
था। इस साधना का साधक बहुमू य पौि टक पदाथ , औषिधय एवं वािद ट रस का उपभोग अपने
साधन बल वारा ही कर सकता है ◌ै तथा दस
ू र के िलए वह व तए
ु ँ आकाश म उ प न करके इस
तरह दे सकता है , मानो िकसी के वारा कहीं से मँगाकर दी ह ।

ग ध साधना

नािसका के अग्र भाग पर त्राटक करना इस साधना म आव यक है । दोन नेत्र से एक साथ नािसका के
अग्र भाग पर त्राटक नहीं हो सकता, इसिलए एक िमनट दािहनी ओर तथा एक िमनट बाईं ओर करना
उिचत है । दािहने नेत्र को प्रधानता दे कर उससे नाक के दािहने िह से को और िफर बाएँ नेत्र को
प्रधानता दे कर बाएँ िह से को ग भीर ि ट से दे खना चािहए। आर भ एक- एक िमनट से करके अ त
म पाँच- पाँच िमनट तक बढ़ाया जा सकता है । इस त्राटक म नािसका की सू म शिक्तयाँ जाग्रत ् होती
ह।

इस त्राटक के बाद कोई सग


ु ि धत तथा सु दर पु प लीिजए। उसे नािसका के समीप ले जाकर एक
िमनट तक धीरे - धीरे सँिू घए और उसी ग ध का भली प्रकार मरण कीिजए। इसके बाद फूल को फक
दीिजए और िबना फूल के ही उस ग ध का दो िमनट तक मरण कीिजए। इसके बाद दस
ू रा फूल
लेकर िफर इसी क्रम की पुनराविृ त कीिजए। पाँच फूल पर प द्रह िमनट प्रयोग करना चािहए। मरण
रहे , कम से कम एक स ताह तक एक ही फूल का प्रयोग होना चािहए।

कोई भी सु दर पु प ग ध साधना के िलए िलया जा सकता है । िभ न पु प के िभ न गण


ु ह। गल
ु ाब
प्रेमो पादक, चमेली बुिद्धवद्धर्क, गे दा उ साह बढ़ाने वाला, च पा सौ दयर्दायक, क नेर उ ण, सय
ू म
र् ख
ु ी
ओजवद्धर्क है । प्र येक पु प म कुछ सू म गण
ु होते ह। िजस पु प को सामने रखकर उसका यान
िकया जाएगा, उसी के सू म गण
ु अपने म बढ़गे।

हवन, ग ध- योग से स बि धत है । िक हीं पदाथ की सू म प्राण शिक्त को प्रा त करने के िलए उनसे
िविधपव
ू क
र् हवन िकया जाता है । इससे उनका थल
ू प तो जल जाता है , पर सू म प से वायु के
साथ चार ओर फैलकर िनकट थ लोग की प्राणशिक्त म अिभविृ द्ध करता है । सग
ु ि धत वातावरण म
अनक
ु ू ल प्राण की मात्रा अिधक होती है , इससे उसे नािसका वारा प्रा त करते हुए अ तःकरण प्रस न
होता है ।

ग ध साधना से मन की एकाग्रता के अितिरक्त भिव य का आभास प्रा त करने की शिक्त बढ़ती है ।


सय
ू र् वर (दायाँ) और च द्र वर (बायाँ) िसद्ध हो जाने पर साधक अ छा भिव य ज्ञाता हो सकता है ।
नािसका वारा साधा जाने वाला वरयोग भी ग ध साधना की एक शाखा है ।

पशर् साधना

233
(१) बफर् या कोई अ य शीतल व तु शरीर पर एक िमनट लगाकर िफर उसे उठाय और दो िमनट तक
अनुभव कर िक वह ठ डक िमल रही है । स य उ णता का गरम िकया हुआ प थर का टुकड़ा शरीर से
पशर् कराकर उसकी अनुभिू त कायम रहने की भावना करनी चािहए। पंखा झलकर हवा करना, िचकना
काँच का गोला या ई की गद वचा पर पशर् करके िफर उस पशर् का यान रखना भी इस प्रकार
का अ यास है । ब्रुश से रगड़ना, लोहे का गोला उठाना जैसे अ यास से इसी प्रकार की यान भावना
की जा सकती है ।

(२) िकसी समतलभिू म पर एक बहुत ही मल


ु ायम ग ा िबछाकर उस पर िच त लेटे रिहए। कुछ दे र
तक उसकी कोमलता का पशर् सखु अनुभव करते रिहए। उसके बाद िबना ग ा की कठोर जमीन या
तख्त पर लेट जाइए। कठोर भिू म पर पड़े रहकर कोमल ग े के पशर् की भावना कीिजए, िफर पलटकर
ग े पर आ जाइए और कठोर भिू म की क पना कीिजए। इस प्रकार िभ न पिरि थित म िभ न
वातावरण की भावना से ितितक्षा की िसिद्ध िमलती है । पशर् साधना की सफलता से शारीिरक क ट
को हँसते-हँसते सहने की शिक्त पैदा होती है ।

पशर् :-साधना से ितितक्षा की िसिद्ध िमलती है । सदीर्, गमीर्, वषार्, चोट, फोड़ा, ददर् आिद से जो शरीर को
क ट होते ह, उनका कारण वचा म जल की तरह फैले हुए ज्ञान-त तु ही ह। यह ज्ञान-त तु छोटे से
आघात, क ट या अनभ ु व को मि त क तक पहुँचाते ह, तदनस
ु ार मि त क को पीड़ा का भान होने
लगता है । कोकीन का इ जेक्शन लगाकर इन ज्ञान-त तओ
ु ं को िशिथल कर िदया जाए, तो ऑपरे शन
करने म भी उस थान पर पीड़ा नहीं होती। कोकीन इ जेक्शन तो शरीर को पीछे से हािन भी पहुँचाता
है , पर पशर् साधना वारा प्रा त हुई ‘ज्ञानत तु िनय त्रण शिक्त’ िकसी प्रकार की हािन पहुँचाना तो
दरू , उ टी नाड़ी सं थान के अनेक िवकार को दरू करने म सफल होती है , साथ ही शारीिरक पीड़ाओं का
भान भी नहीं होने दे ती।

भी म िपतामह उ तरायण सय ू र् आने की प्रतीक्षा म कई महीने बाण से िछदे हुए पड़े रहे थे। ितल-ितल
शरीर म बाण लगे थे, िफर भी क ट से िच लाना तो दरू , वे उपि थत लोग को बड़े ही गढ़ ू िवषय का
उपदे श दे ते रहे । ऐसा करना उनके िलए इसिलए स भव हो सका िक उ ह ितितक्षा की िसिद्ध थी;
अ यथा हजार बाण म िछदा होना तो दरू , एक सई
ु या काँटा लग जाने पर लोग होश-हवास भल
ू जाते
ह।

पशर् साधना से िच त की विृ तयाँ एकाग्र होती ह। मन को वश म करने से जो लाभ िमलते ह, उनके
अितिरक्त ितितक्षा की िसिद्ध भी साथ म हो जाती है िजससे कमर्योग एवं प्रकृित-प्रवाह से शरीर को
होने वाले क ट को भोगने से साधक बच जाता है ।

मन को आज्ञानुवतीर्, िनयि त्रत, अनुशािसत बनाना जीवन को सफल बनाने की अ य त मह वपूणर्


234
सम या है । अपना ि टकोण चाहे आ याि मक हो, चाहे भौितक, चाहे अपनी प्रविृ तयाँ परमाथर् की ओर
ह या वाथर् की ओर, मन का िनय त्रण हर ि थित म आव यक है । उ छृंखल, च चल, अ यवि थत
मन से न लोक, न परलोक, कुछ भी नहीं िमल सकता। मनोिनग्रह प्र येक यिक्त के िलए आव यक है ।

मानिसक अ यव था दरू करके मनोबल प्रा त करने के िलए इस प्रकार जो साधनाएँ बताई गई ह, वे
बड़ी उपयोगी, सरल एवं सवर्सल
ु भ ह। यान, त्राटक, जप एवं त मात्रा साधना से मन की च चलता दरू
होती है , साथ ही चम कारी िसिद्धयाँ भी िमलती ह। इस प्रकार पा चा य योिगय की मे मिर म के
तरीके से की गई मन: साधनाओं की अपेक्षा भारतीय िविध की योग पद्धित से की गई साधना
िवगिु णत लाभदायक होती है ।

वश म िकया हुआ मन सबसे बड़ा िमत्र है । वह सांसािरक और आि मक दोन ही प्रकार के अनेक ऐसे
अद्भत
ु उपहार िनर तर प्रदान करता रहता है , िज ह पाकर मानव जीवन ध य हो जाता है । सरु लोक म
ृ बताया गया है िजसके नीचे बैठकर मनचाही कामनाएँ पूरी हो जाती ह। म ृ युलोक म
ऐसा क पवक्ष
वश म िकया हुआ मन ही क पवक्षृ है । यह परम सौभाग्य िजसे प्रा त हो गया, उसे अन त ऐ वयर् का
आिधप य ही प्रा त हो गया समिझए।

अिनयि त्रत मन अनेक िवपि तय की जड़ है । अिग्न जहाँ रखी जाएगी उसी थान को जलायेगी। िजस
दे ह म असंयत मन रहे गा, उसम िनत नई िवपि तयाँ, किठनाइयाँ, आपदाएँ, बरु ाइयाँ बरसती रहगी।
इसिलए अ या मिव या के िव वान ने मन को वश म करने की साधना को बहुत ही मह वपण ू र् माना
है । गायत्री का तत
ृ ीय मख
ु मनोमय कोश है । इस कोश को सु यवि थत कर लेना मानो तीसरे ब धन
को खोल लेना है , आ मो नित की तीसरी कक्षा पार कर लेना है ।

िवज्ञानमय कोश की साधना


अ नमय, प्राणमय और मनोमय इन तीन कोश के उपरा त आ मा का चौथा आवरण, गायत्री का चौथा
मख
ु िवज्ञानमय कोश है । आ मो नित की चतथ
ु र् भिू मका म िवज्ञानमय कोश की साधना की जाती है ।

िवज्ञान का अथर् है -िवशेष ज्ञान। साधारण ज्ञान के वारा हम लोक- यवहार को, अपनी शारीिरक,
यापािरक, सामािजक, कला मक, धािमर्क सम याओं को समझते ह। थूल म इसी साधारण ज्ञान की
िशक्षा िमलती है । राजनीित, अथर्शा त्र, िश प, रसायन, िचिक सा, संगीत, वक्त ृ व, लेखन, यवसाय, कृिष,
िनमार्ण, उ पादन आिद िविवध बात की जानकारी िविवध प्रकार से की जाती है । इन जानकािरय के
आधार पर शरीर से स ब ध रखने वाला सांसािरक जीवन चलता है । िजसके पास ये जानकािरयाँ
िजतनी अिधक ह गी, जो लोक- यवहार म िजतना अिधक प्रवीण होगा, उतना ही उसका सांसािरक जीवन
उ नत, यश वी, प्रिति ठत, स प न एवं ऐ वयर्वान होगा।

235
िक तु इस साधारण ज्ञान का पिरणाम थूल शरीर तक ही सीिमत है । आ मा का उससे कुछ िहत
स पादन नहीं हो सकता। दे खा जाता है िक कई यिक्त धनवान ्, प्रिति ठत, नेता और गण
ु वान ् होते हुए
भी आि मक ि ट से िपछड़े हुए होते ह। कई- कई मनु य आ मा-परमा मा के बारे म बहुत बात करते
ह। ई वर, जीव, प्रकृित, वेदा त, योग आिद के बारे म बहुत-सी बात पढ़-सुनकर अपनी जानकारी बढ़ा
लेते ह और बड़ी-बड़ी बात बढ़-चढ़कर करते ह तथा सािथय पर अपनी िवशेषता की छाप जमाते ह।
इतना करते हुए भी व तत
ु : उनकी आि मक धारणाएँ बड़ी िनबर्ल होती ह। द्धा और िव वास की ि ट
से उनकी ि थित साधारण लोग से कुछ अ छी नहीं होती।

गीता, उपिनष , रामायण, वेदशा त्र आिद स ग्र थ के पढ़ने एवं स पु ष के प्रवचन सन
ु ने से आि मक
िवषय की जानकारी बढ़ती है , जो उस क्षेत्र म प्रवेश करने वाले िजज्ञासओ
ु ं के िलए आव यक भी है ।
पर तु इन िवषय की िव तत
ृ जानकारी प्रा त होने पर भी यह आव यक नहीं िक उस यिक्त को
आ मज्ञान हो ही जाए।

इसम तो स दे ह नहीं िक िशक्षा प्रा त करना, भाषा ज्ञान, शा त्रा ययन आिद जीवन के िवकास के िलए
आव यक ह और इनके वारा आ याि मक प्रगित म भी सहायता िमलती है । प्र येक यिक्त कबीर,
रै दास और तुकाराम की तरह सामा य प्रेरणा पाकर ही आ मज्ञानी नहीं बन सकता। पर वतर्मान समय
म लोग ने भौितक जीवन को इतना अिधक मह व दे िदया है , धनोपाजर्न को वे इतना सव पिर गण

मानते ह िक अ या म की ओर उनकी ि ट ही नहीं जाती, उलटा वे उसे अनाव यक समझने लग जाते
ह।

इस पु तक के आर भ म व ण और भग
ृ ु की कथा दी गई है । भग
ृ ु पूणर् िव वान ् थे, वेद-वेदा त के पूरे
ज्ञाता थे, िफर भी वे जानते थे िक मझ
ु े आ मज्ञान, ब्र मज्ञान, िवज्ञान प्रा त नहीं है । इसिलए व ण के
पास जाकर उ ह ने प्राथर्ना की िक ‘हे भगवान ्! मझ
ु े ब्र मज्ञान का उपदे श दीिजए।’ व ण ने भग
ृ ु को
कोई पु तक नहीं पढ़ाई और न कोई ल बा-चौड़ा प्रवचन ही सन
ु ाया, वरन ् उ ह ने आदे श िदया—‘तप
करो।’ तप करने से एक-एक कोश को पार करते हुए क्रमश: उ ह ने ब्र म को प्रा त िकया। ऐसी ही
अनेक कथाएँ ह। उ ालक ने वेतकेतु को, ब्र मा ने इ द्र को, अंिगरा ने िवव वान को इसी प्रकार तप
करके ब्र म को जानने का आदे श िदया था।

ज्ञान का अिभप्राय है -जानकारी। िवज्ञान का अिभप्राय है - द्धा, धारणा, मा यता, अनुभिू त। आ मिव या के
सभी िजज्ञासु यह जानते ह िक ‘आ मा अमर है , शरीर से िभ न है , ई वर का अंश है , सि चदान द
व प है ’, पर तु इस जानकारी का एक कण भी अनुभिू त भिू मका म नहीं होता। वयं को तथा दस
ू र
को मरते दे खकर दय िवचिलत हो जाता है । शरीर के लाभ के िलए आ मा के लाभ की उपेक्षा प्रित
क्षण होती रहती है । दीनता, अभाव, त ृ णा, लालसा हर घड़ी सताती रहती है । तब कैसे कहा जाए िक

236
आ मा की अमरता, शरीर की िभ नता तथा ई वर के अंश होने की मा यता पर हम द्धा है , आ था,
िव वास है ?

अपने स ब ध म ताि वक मा यता ि थर करना और उसका पूणत


र् या अनुभव करना यही िवज्ञान का
उ े य है । आमतौर से लोग अपने को शरीर मानते ह। थल
ू शरीर-से जैसे कुछ हम ह, वही उनकी
आ म-मा यता है । जाित, वंश, प्रदे श, स प्रदाय, यवसाय, पद, िव या, धन, आय,ु ि थित, िलंग आिद के
आधार पर वह मा यता बनाई जाती है िक म कौन हूँ। यह प्र न पूछने पर िक ‘आप कौन ह’ लोग
इ हीं बात के आधार पर अपना पिरचय दे ते ह। अपने को समझते भी वे यही ह। इस मा यता के
आधार पर ही अपने वाथ का िनधार्रण होता है । िजस ि थित म वयं ह, उसी ि थित का अहं कार
अपने म जाग्रत ् होता और ि थित तथा अहं कार की पूितर्, तुि ट तथा स तुि ट िजस प्रकार होनी स भव
िदखाई पड़ती है , वही जीवन की अ तरं ग नीित बन जाती है ।

बाहर से लोग धमर् और सदाचार की, िसद्धा त और आदश की बात करते रहते ह, पर उनका
अ त:करण उसी िदशा म काम करता है िजस ओर उनकी जीवन-नीित प्रेरणा दे ती है । जब अपने को
शरीर मान िलया गया है , तो शरीर का सख
ु ही अभी ट होना चािहए। इि द्रय भोग की, मौज-मजे की,
मान-बड़ाई की, ऐश-आराम की प्राि त ही शरीर का सख
ु है । इन सख
ु के िलए धन की आव यकता है ।
अ तु, धन को अिधक से अिधक जुटाना और भोग-ऐ वयर् म िनमग्न रहना यही प्रधान कायर्क्रम हो
जाता है । इसके अितिरक्त जो िकया जाता है , वह तो एक प्रकार की तफरीह के िलए, िवनोद के िलए
होता है । ऐसे लोग कभी-कभी धमर्चचार् या पूजा-पाठ भी करते दे खे जाते ह। यह उनका मन बहलाव
मात्र है । ि थर ल य तो उनका वही रहे गा जो आ म-मा यता के आधार पर िनधार्िरत िकया गया है ।
आमतौर से आज यही भौितक ि ट सवर्त्र ि टगोचर है । धन और भोग की छीना-झपटी म लोग एक-
दस
ू रे से बाजी मारने म इसी
ि टकोण के कारण जी-जान से जट
ु े हुए ह। पिरणाम व प िजन कलह-
क्लेश का सामना करना पड़ रहा है , वह सामने है ।

िवज्ञान इस अज्ञान पी अ धकार से हम बचाता है । िजस मनोभिू म म पहुँचकर जीव यह अनुभव


करता है िक ‘म शरीर नहीं, व तुत: आ मा ही हूँ’, उस मनोभिू म को िवज्ञानमय कोश कहते ह। अ नमय
कोश म जब तक जीव की ि थित रहती है , तब तक वह अपने को त्री-पु ष, मनु य, पशु, मोटा-पतला,
पहलवान, काला, गोरा आिद शरीर सब धी भेद से पहचानता है । जब प्राणमय कोश म जीव की ि थित
होती है , तो गण
ु के आधार पर अपन व का बोध होता है । िश पी, संगीतज्ञ, वैज्ञािनक, मख
ू ,र् कायर,
शूरवीर, लेखक, वक्ता, धनी, गरीब आिद की मा यताएँ प्राण भिू मका म होती ह। मनोमय कोश की
ि थित म पहुँचने पर अपने मन की मा यता वभाव के आधार पर होती है । लोभी, द भी, चोर, उदार,
िवषयी, संयमी, नाि तक, आि तक, वाथीर्, परमाथीर्, दयाल,ु िन ठुर आिद क तर् य और धमर् की औिच य-
अनौिच य स ब धी मा यताएँ जब अपने स ब ध म बनती ह , उ हीं पर िवशेष यान रहता हो, तो
समझना चािहए िक जीव मनोमय भिू मका की तीसरी कक्षा म पहुँचा हुआ है । इससे चौथी कक्षा िवज्ञान
237
भिू मका है , िजसम पहुँचकर जीव अपने को यह अनभ
ु व करने लगता है िक म शरीर से, गण
ु से, वभाव
से ऊपर हूँ; म ई वर का राजकुमार, अिवनाशी आ मा हूँ।

जीभ से अपने को आ मा कहने वाले असंख्य लोग ह, उ ह आ मज्ञानी नहीं कह सकते। आ मज्ञानी वह
है जो ढ़ िव वास और पूणर्
द्धा के साथ अपने भीतर यह अनुभव करता है —‘‘म िवशुद्ध आ मा हूँ,
आ मा के अितिरक्त और कुछ नहीं। शरीर मेरा वाहन है । प्राण मेरा अ त्र है । मन मेरा सेवक है । म
इन सबसे ऊपर, इन सबसे अलग, इन सबका वामी आ मा हूँ। मेरे वाथर् इनसे अलग ह, मेरे लाभ और
थूल शरीर के लाभ म, वाथ म भारी अ तर है ।’’ इस अ तर को समझकर जीव अपने लाभ, वाथर्,
िहत और क याण के िलए किटबद्ध होता है , आ मो नित के िलए अग्रसर होता है , तो उसे अपना व प
और भी प ट िदखाई दे ने लगता है ।

िवज्ञानमय कोश की चतुथर् भिू मका म पहुँचे हुए जीव का ि टकोण सांसािरक जीव से िभ न होता है ।
गीता म योगी का लक्षण बताया गया है िक जब सब जीव सोते ह, तब योगी जागता है और सब जीव
जब जागते ह, तब योगी सो जाता है । इन आलंकािरक श द म रात को जागने और िदन म सोने का
िवधान नहीं है , वरन ् यह बताया गया है िक िजन चीज के िलए साधारण लोग बेतरह इ छुक, यासे,
लालाियत, सत ृ ण और आकांक्षी रहते ह, योगी का मन इधर से िफर जाता है ; क्य िक वह दे खता है िक
कािमनी और क चन की माया शरीर को गद
ु गद
ु ाती है , पर आ मा को ले बैठती है । इससे क्षिणक सख

के िलए ि थर आन द का नाश करना उिचत नहीं है । िजन धन-स तान, कुटु ब-कबीला, शत्र-ु िमत्र, हािन-
लाभ, आगा-पीछा, िन दा- तुित आिद की सम याओं म साधारण लोग बेतरह फँसे रहते ह, ये बात
योिगय के िलए अबोध ब च की ‘बालक्रीड़ा’ से अिधक कुछ भी मह व की िदखाई नहीं दे तीं; इसिलए
वे उनकी ओर से उदास हो जाते ह। वे इस झमेले को बहुत कम मह व दे ते ह। फल व प यह
सम याएँ उनके िलए अपने आप सल ु झ जाती ह या समा त हो जाती ह।

िजन काय म, िवचार म कामी लोग, मायाग्र त यिक्त अ य त मोहग्र त होकर िचपके रहते ह, उनकी
ओर से योगी मँहु फेर लेते ह। इस प्रकार वे वहाँ सोये हुए माने जाते ह, जहाँ िक अ य जीव जागते ह।
इसी प्रकार िजन काय की ओर, संयम, याग, परमाथर्, आ मलाभ की ओर सांसािरक जीव का िबलकुल
यान नहीं होता, उनम योगी द तिच त होकर संलग्न रहते ह। इस ि थित के बारे म ही गीता म कहा
गया है िक जब जीव सोते ह, तब योगी जागते ह।

शरीर यात्रा के िलए प्राय: सभी मनु य को िमलता-जल


ु ता कायर्क्रम रखना पड़ता है , पर योगी और भोगी
के जीवन तथा रीित म भारी अ तर होता है । प्राय: सभी लोग तड़के िन यकमर् से िनवत
ृ होते और
भोजन करके काम म लगते ह। शाम तक जो म करना पड़ता है , उसम से अिधकांश समय अ न,
व त्र और जीवन आि त की यव था म लग जाता है । शाम को िफर िन यकमर्, भोजन और रात को
सो जाना। इस धरु ी पर सबका जीवन घम
ू ता है , पर तु अ त:ि थित म जमीन-आसमान का भेद है । एक

238
मनु य अपने शरीर के िलए धन और भोग इकट्ठे करने की योजना सामने रखकर अपने हर िवचार और
कायर् को करता है , जबिक दस
ू रा अपने आ मा को समझकर आ मक याण की नीित पर चलता है । ये
िविभ न ि टकोण ही एक के काम को पु य एवं यज्ञ बना दे ते ह और दस
ू रे के काम पाप एवं ब धन
बन जाते ह।

आ मज्ञान, आ मसाक्षा कार, आ मलाभ, आ मप्राि त, आ मदशर्न, आ मक याण को जीवन ल य माना


गया है । यह ल य तभी पूरा होता है जब हमारी अ त:चेतना अपने बारे म पूणर् द्धा और िव वास-
भावना के साथ यह अनभ
ु व करे िक म व तुत: परब्र म परमा मा की अिवि छ न अंश, अिवनाशी
आ मा हूँ। इस भावना की पूणत
र् ा, पिरपक्वता एवं सफलता का नाम ही आ मसाक्षा कार है ।

आ मसाक्षा कार की चार साधनाएँ नीचे दी जाती ह—(१) सोऽहं साधना, (२) आ मानुभिू त, (३) वर संयम,
(४) ग्रि थभेद । ये चार ही िवज्ञानमय कोश को प्रबुद्ध करने वाली ह।

सोऽहं साधना - िवज्ञानमय कोश की साधना


आ मा के सू म अ तराल म अपने आप के स ब ध म पूणर् ज्ञान मौजद
ू है । वह अपनी ि थित की
घोषणा प्र येक क्षण करती रहती है तािक बुिद्ध भ्रिमत न हो और अपने व प को न भल
ू े। थोड़ा सा
यान दे ने पर आ मा की इस घोषणा को हम प ट प से सन
ु सकते ह। उस विन पर िनर तर
यान िदया जाए तो उस घोषणा के करने वाले अमत
ृ भ डार आ मा तक भी पहुँचा जा सकता है ।

जब एक साँस लेते ह तो वायु प्रवेश के साथ-साथ एक सू म विन होती है िजसका श द ‘सो .ऽऽऽ...’
जैसा होता है । िजतनी दे र साँस भीतर ठहरती है अथार्त ् वाभािवक कु भक होता है , उतनी दे र आधे ‘अ
ऽऽऽ’ की सी िवराम विन होती है और जब साँस बाहर िनकलती है तो ‘हं ....’ जैसी विन िनकलती है ।
इन तीन विनय पर यान केि द्रत करने से अजपा-जाप की ‘सोऽहं ’ साधना होने लगती है ।

प्रात:काल सय ू र् िन यकमर् से िनपटकर पूवर् को मख


ू दय से पव ु करके िकसी शा त थान पर बैिठए।
मे द ड सीधा रहे । दोन हाथ को समेटकर गोदी म रख लीिजए, नेत्र ब द कर रिखये। जब नािसका
वारा वायु भीतर प्रवेश करने लगे, तो सू म कणि द्रय को सजग करके यानपूवक
र् अवलोकन कीिजए
िक वायु के साथ-साथ ‘सो’ की सू म विन हो रही है । इसी प्रकार िजतनी दे र साँस के ‘अ’ और वायु
िनकलते समय ‘हं ’ की विन पर यान केि द्रत कीिजए। साथ ही ू -र् चक्र के प्रकाश
दय ि थत सय
िब द ु म आ मा के तेजोमय फुि लंग की धारणा कीिजए। जब साँस भीतर जा रही हो और ‘सो’ की
विन हो रही हो, तब अनुभव कीिजए िक यह तेज िब द ु परमा मा का प्रकाश है । ‘स’ अथार्त ् परमा मा,
‘ऽहम ्’ अथार्त ् म। जब वायु बाहर िनकले और ‘हं ’ की विन हो, तब उसी प्रकाश-िब द ु म भावना
कीिजए िक ‘यह म हूँ।’

239
‘अ’ की िवराम भावना पिरवतर्न के अवकाश का प्रतीक है । आर भ म उस दय चक्र ि थत िब द ु को
‘सो’ विन के समय ब्र म माना जाता है और पीछे उसी की ‘हं ’ धारणा म जीव भावना हो जाती है ।
इस भाव पिरवतर्न के िलए ‘अ’ का अवकाश काल रखा गया है । इसी प्रकार जब ‘हं ’ समा त हो जाए,
वायु बाहर िनकल जाए और नयी वायु प्रवेश करे , उस समय भी जीवभाव हटाकर उस तेज िब द ु म
ब्र मभाव बदलने का अवकाश िमल जाता है । यह दोन ही अवकाश ‘अऽऽऽ’ के समान ह, पर इनकी
विन सन
ु ाई नहीं दे ती। श द तो ‘सो’ ‘ऽहं ’ का ही होता है ।

‘सो’ ब्र म का ही प्रितिब ब है , ‘ऽ’ प्रकृित का प्रितिनिध है , ‘हं ’ जीव का प्रतीक है । ब्र म, प्रकृित और
जीव का सि मलन इस अजपा-जाप म होता है । सोऽहं साधना म तीन महाकारण एकित्रत हो जाते ह,
िजनके कारण आ म-जागरण का वणर् सय
ु ोग एक साथ ही उपल ध होने लगता है ।

‘सोऽहं ’ साधना की उ नित जैसे-जैसे होती जाती है , वैसे ही वैसे िवज्ञानमय कोश का पिर कार होता
जाता है । आ म-ज्ञान बढ़ता है और धीरे -धीरे आ म-साक्षा कार की ि थित िनकट आती चलती है । आगे
चलकर साँस पर यान जमाना छूट जाता है और केवल दय ि थत सय
ू -र् चक्र म िवशुद्ध ब्र मतेज के
ही दशर्न होते ह। उस समय समािध की सी अव था हो जाती है । हं सयोग की पिरपक्वता से साधक
ब्रा मी ि थित का अिधकारी हो जाता है ।

वामी िववेकान द जी ने िवज्ञानमय कोश की साधना के िलए ‘आ मानुभिू त’ की िविध बताई है । उनके
अमेिरकन िश य रामाचरक ने इस िविध को ‘मे टल डेवलपमे ट’ नामक पु तक म िव तारपूवक
र् िलखा
है ।

आ मानुभूित योग - िवज्ञानमय कोश की साधना


१— िकसी शा त या एका त थान म जाइए। िनजर्न, कोलाहल रिहत थान इस साधना के िलए चुनना
चािहए। इस प्रकार का एक थान घर का व छ हवादार कमरा भी हो सकता है और नदी तट अथवा
उपवन भी। हाथ-मँह
ु धोकर साधना के िलए बैठना चािहए। आरामकुसीर् पर अथवा दीवार, वक्ष
ृ या
मसनद के सहारे बैठकर भी यह साधना भली प्रकार होती है ।

सिु वधापव
ू क ू र् प से बाहर
र् बैठ जाइए, तीन ल बे-ल बे वास लीिजए। पेट म भरी हुई वायु को पण
िनकालना और फेफड़ म पूरी हवा भरना एक पूरा वास कहलाता है । तीन पूरे वास लेने से दय और
फु फुस की भी उसी प्रकार एक धािमर्क शुिद्ध होती है जैसे नान करने, हाथ-पाँव धोकर बैठने से शरीर
की शुिद्ध होती है ।

तीन पूरे वास लेने के बाद शरीर को िशिथल कीिजए और ‘हर अंग म से िखंचकर प्राणशिक्त दय म
240
एकित्रत हो रही है ’ ऐसा यान कीिजए। ‘हाथ, पाँव आिद सभी अंग-प्र यंग िशिथल, ढीले, िनजीर्व, िन प्राण
हो गए ह। मि त क से सब िवचारधाराएँ और क पनाएँ शा त हो गई ह और सम त शरीर के अ दर
एक शा त नीला आकाश या त हो रहा है ’ ऐसी भावना करनी चािहए। ऐसी शा त, िशिथल अव था को
प्रा त करने के िलए कुछ िदन लगातार प्रय न करना पड़ता है । अ यास से कुछ िदन म अिधक
िशिथलता एवं शाि त अनुभव होती जाती है ।

शरीर भली प्रकार िशिथल हो जाने पर दय थान म एकित्रत अँगठ


ू े के बराबर, शुभ्र, वेत योित
व प प्राणशिक्त का यान करना चािहए। ‘अजर, अमर, शुद्ध, बुद्ध, चेतन, पिवत्र ई वरीय अंश आ मा म
हूँ। मेरा वा तिवक व प यही है , म सत ्, िचत ्, आन द व प आ मा हूँ।’ उस योित के क पना नेत्र
से दशर्न करते हुए उपरोक्त भावनाएँ मन म रखनी चािहए।

उपयक्
ुर् त िशिथलासन के साथ आ मदशर्न करने की साधना इस योग म प्रथम साधना है । जब यह
साधना भली प्रकार अ यास म आ जाए तो आगे की सीढ़ी पर पैर रखना चािहए। दस
ू री भिू मका म
साधना का अ यास नीचे िदया जाता है ।

२— ऊपर िलखी हुई िशिथलाव था म अिखल आकाश म नील वणर् आकाश का यान कीिजए। उस
आकाश म बहुत ऊपर सय ू र् के समान योित- व प आ मा को अवि थत दे िखए। ‘म ही यह प्रकाशवान ्
आ मा हूँ’ ऐसा िनि चत संक प कीिजए। अपने शरीर को नीचे भत ू ल पर िन प द अव था म पड़ा
हुआ दे िखए, उसके अंग-प्र यंग का िनरीक्षण एवं परीक्षण कीिजए। ‘यह हर एक कल-पज
ु ार् मेरा औजार
है , मेरा व त्र है । यह य त्र मेरी इ छानस
ु ार िक्रया करने के िलए प्रा त हुआ है ।’ इस बात को बार-बार
मन म दह ु राइए। इस िन प द शरीर म खोपड़ी का ढक्कन उठाकर यानाव था से मन और बिु द्ध को
दो सेवक शिक्तय के प म दे िखए। वे दोन हाथ बाँधे आपकी इ छानस
ु ार कायर् करने के िलए
नतम तक खड़े ह। इस शरीर और मन बिु द्ध को दे खकर प्रस न होइए िक ‘इ छानस
ु ार कायर् करने के
िलए यह मझ
ु े प्रा त हुए ह। म इनका उपयोग स चे आ म- वाथर् के िलए ही क ँ गा।’ यह भावनाएँ
बराबर उस यानाव था म आपके मन म गँज ू ती रहनी चािहए।

४.जब दस
ू री भिू मका का यान भली प्रकार होने लगे तो तीसरी भिू मका का यान कीिजए।

अपने को सूयर् की ि थित म ऊपर आकाश म अवि थत दे िखए— ‘‘म सम त भम


ू डल पर अपनी
प्रकाश िकरण फक रहा हूँ। संसार मेरा कमर्क्षेत्र और लीलाभिू म है । भत
ू ल की व तुओं और शिक्तय को
म इि छत प्रयोजन के िलए काम म लाता हूँ, पर वे मेरे ऊपर प्रभाव नहीं डाल सकतीं। पंचभत
ू की
गितिविध के कारण जो हलचल संसार म हर घड़ी होती ह, वे मेरे िलए एक िवनोद और मनोरं जक य
मात्र ह। म िकसी भी सांसािरक हािन-लाभ से प्रभािवत नहीं होता। म शुद्ध, चैत य, स य व प, पिवत्र,
िनलप, अिवनाशी आ मा हूँ। मै आ मा हूँ, महान ् आ मा हूँ।महान ् परमा मा का िवशुद्ध फुिलंग हूँ।“यह

241
म त्र मन ही मन जिपए।

तीसरी भिू मका का यान जब अ यास के कारण पूणर् प से पु ट हो जाए और हर घड़ी वह भावना
रोम-रोम म प्रितभािसत होने लगे, तो समझना चािहए िक इस साधना की िसद्धाव था प्रा त हो गई।
यह जाग्रत ् समािध या जीवन -मक्
ु त अव था कहलाती है ।

आ मिच तन की साधना - िवज्ञानमय कोश की साधना


प्रथम साधना:—

रात को सब काय से िनव ृ त होकर जब सोने का समय हो, तो सीधे िचत लेट जाइए। पैर सीधे फैला
दीिजए, हाथ को मोड़कर पेट पर रख लीिजए। िसर सीधा रहे । पास म दीपक जल रहा हो तो बझ
ु ा
दीिजए या म द कर दीिजए। नेत्र को अधखुला रिखए।

अनुभव कीिजए िक आपका आज का एक िदन, एक जीवन था। अब जबिक एक िदन समा त हो रहा
है , तो एक जीवन की इित ी हो रही है । िनद्रा एक म ृ यु है । अब इस घड़ी म एक दै िनक जीवन को
समा त करके म ृ यु की गोद म जा रहा हूँ।

आज के जीवन की आ याि मक ि ट से समालोचना कीिजए। प्रात:काल से लेकर सोते समय तक के


काय पर ि टपात कीिजए। मझ
ु आ मा के िलए वह कायर् उिचत था या अनुिचत? यह उिचत था, तो
िजतनी सावधानी एवं शिक्त के साथ उसे करना चािहए था, उसके अनुसार िकया या नहीं? बहुमू य
समय का िकतना भाग उिचत रीित से, िकतना अनुिचत रीित से, िकतना िनरथर्क रीित से यतीत
िकया? वह दै िनक जीवन सफल रहा या असफल? आि मक पँज ू ी म लाभ हुआ या घाटा? स विृ तयाँ
प्रधान रहीं या अस विृ तयाँ? इस प्रकार के प्र न के साथ िदनभर के काय का भी िनरीक्षण कीिजए।

िजतना अनिु चत हुआ हो, उसके िलए आ मदे व के स मखु प चा ताप कीिजए। जो उिचत हुआ हो उसके
िलए परमा मा को ध यवाद दीिजए और प्राथर्ना कीिजए िक आगामी जीवन म, कल के जीवन म, उस
िदशा म िवशेष प से अग्रसर कर। इसके प चात ् शभ्र
ु वणर् आ म- योित का यान करते हुए िनद्रा
दे वी की गोद म सख
ु पव
ू क
र् चले जाइए।

िवतीय साधना :-

प्रात:काल जब नींद परू ी तरह खल


ु जाए तो अँगड़ाई लीिजए। तीन परू े ल बे वास खींचकर सचेत हो
जाइए। भावना कीिजए िक आज नया जीवन ग्रहण कर रहा हूँ। नया ज म धारण करता हूँ। इस ज म
को इस प्रकार खचर् क ँ गा िक आि मक पँज
ू ी म अिभविृ द्ध हो। कल के िदन-िपछले िदन जो भल
ू हुई
242
थीं, आ म-दे व के सामने जो प चा ताप िकया था, उसका यान रखता हुआ आज के िदन का अिधक
उ तमता के साथ उपयोग क ँ गा।

िदनभर के कायर्क्रम की योजना बनाइए। इन काय म जो खतरा सामने आने को है , उसे िवचािरए और
उससे बचने के िलए सावधान होइए। उन काय से जो आ मलाभ होने वाला है , वह अिधक हो, इसके
िलए और तैयारी कीिजए। यह ज म, यह िदन िपछले की अपेक्षा अिधक सफल हो, यह चुनौती अपने
आप को दीिजए और उसे साहसपूवक
र् वीकार कर लीिजए।

परमा मा का यान कीिजए और प्रस न मद्र


ु ा म एक चैत य, ताजगी, उ साह, आशा एवं आ मिव वास
की भावनाओं के साथ उठकर श या का पिर याग कीिजए। श या से नीचे पैर रखना मानो आज के
नवजीवन म प्रवेश करना है ।

आ म-िच तन की इन साधनाओं से िदन-िदन शरीरा यास घटने लगता है । शरीर को ल य करके िकए
जाने वाले िवचार और कायर् िशिथल होने लगते ह तथा ऐसी िवचारधारा एवं कायर् प्रणाली समु नत
होती है , िजसके वारा आ म-लाभ के िलए अनेक प्रकार के पु य आयोजन होते ह।

वर योग - िवज्ञानमय कोश की साधना


िवज्ञानमय कोश वायु प्रधान कोश होने के कारण उसकी ि थित म वायु सं थान िवशेष प से सजग
रहता है । इस वायु त व पर यिद अिधकार प्रा त कर िलया जाए तो अनेक प्रकार से अपना िहत
स पादन िकया जा सकता है ।

वर शा त्र के अनुसार वास-प्र वास के माग को नाड़ी कहते ह। शरीर म ऐसी नािड़य की संख्या
७२००० है । इनको िसफर् नस न समझना चािहए, प टत: यह प्राण-वायु आवागमन के मागर् ह। नािभ म
इसी प्रकार की एक नाड़ी कु डली के आकार म है , िजसम से (१) इड़ा, (२) िपङ्गला, (३) सष
ु ु ना, (४)
गा धारी, (५) ह त-िज वा, (६) पूषा, (७) यशि वनी, (८) अल बुषा, (९) कुहू तथा (१०) शंिखनी नामक दस
नािड़याँ िनकली ह और यह शरीर के िविभ न भाग की ओर चली जाती ह। इनम से पहली तीन प्रधान
ह। इड़ा को ‘च द्र’ कहते ह जो बाएँ नथुने म है । िपंगला को ‘सय
ू र् कहते ह, यह दािहने नथन
ु े म है ।
ु ु ना को वायु कहते ह जो दोन नथुन के म य म है । िजस प्रकार संसार म सय
सष ू र् और च द्र
िनयिमत प से अपना-अपना काम करते ह, उसी प्रकार इड़ा, िपंगला भी इस जीवन म अपना-अपना
कायर् िनयिमत प से करती ह। इन तीन के अितिरक्त अ य सात प्रमख
ु नािड़य के थान इस प्रकार
ह—गा धारी बायीं आँख म, ह तिज वा दािहनी आँख म, पूषा दािहने कान म, यशि वनी बाएँ कान म,
अल बुषा मख
ु म, कुहू िलंग दे श म और शंिखनी गद
ु ा (मल
ू ाधार) म। इस प्रकार शरीर के दस वार म
दस नािड़याँ ह।

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हठयोग म नािभक द अथार्त ् कु डिलनी थान गद
ु ा वार से िलंग दे श की ओर दो अँगल
ु हटकर
मल
ू ाधार चक्र माना गया है । वर योग म वह ि थित माननीय न होगी। वर योग शरीर शा त्र से
स ब ध रखता है और शरीर की नािभ या म य के द्र गद
ु ा-मल
ू म नहीं, वरन ् उदर की टु डी म ही हो
सकता है ; इसिलए यहाँ ‘नािभ दे श’ का ता पयर् उदर की टु डी मानना ही ठीक है । वास िक्रया का
प्र यक्ष स ब ध उदर से ही है , इसिलए प्राणायाम वारा उदर सं थान तक प्राण वायु को ले जाकर
नािभ के द्र से इस प्रकार घषर्ण िकया जाता है िक वहाँ की सु त शिक्तय का जागरण हो सके।

च द्र और सय
ू र् की अ य रि मय का प्रभाव वर पर पड़ता है । सब जानते ह िक च द्रमा का गण

शीतल और सय
ू र् का उ ण है । शीतलता से ि थरता, ग भीरता, िववेक प्रभिृ त गण
ु उ प न होते ह और
उ णता से तेज, शौयर्, च चलता, उ साह, िक्रयाशीलता, बल आिद गण
ु का आिवभार्व होता है । मनु य को
सांसािरक जीवन म शाि तपूणर् और अशाि तपूणर् दोन ही तरह के काम करने पड़ते ह। िकसी भी काम
का अि तम पिरणाम उसके आर भ पर िनभर्र है । इसिलए िववेकी पु ष अपने कम को आर भ करते
समय यह दे ख लेते ह िक हमारे शरीर और मन की वाभािवक ि थित इस प्रकार काम करने के
अनुकूल है िक नहीं? एक िव याथीर् को रात म उस समय पाठ याद करने के िलए िदया जाए जबिक
उसकी वाभािवक ि थित िनद्रा चाहती है , तो वह पाठ को अ छी तरह याद न कर सकेगा। यिद यही
पाठ उसे प्रात:काल की अनुकूल ि थित म िदया जाए तो आसानी से सफलता िमल जाएगी। यान,
भजन, पूजा, मनन, िच तन के िलए एका त की आव यकता है , िक तु उ साह भरने और युद्ध के िलए
कोलाहलपूणर् वातावरण की, बाज की घोर विन की आव यकता होती है । ऐसी उिचत ि थितय म िकए
कायर् अव य ही फलीभत
ू होते ह। इसी ि टकोण के आधार पर वर-योिगय ने आदे श िकया है िक
िववेकपूणर् और थायी कायर् च द्र वर म िकए जाने चािहए; जैसे—िववाह, दान, मि दर, कुआँ, तालाब
बनाना, नवीन व त्र धारण करना, घर बनाना, आभष
ू ण बनवाना, शाि त के काम, पुि ट के काम,
शफाखाना, औषिध दे ना, रसायन बनाना, मैत्री, यापार, बीज बोना, दरू की यात्रा, िव या यास, योग िक्रया
आिद। यह सब कायर् ऐसे ह िजनम अिधक ग भीरता और बुिद्धपूवक
र् कायर् करने की आव यकता है ,
इसिलए इनका आर भ भी ऐसे ही समय म होना चािहए, जब शरीर के सू म कोश च द्रमा की
शीतलता को ग्रहण कर रहे ह ।

उ तेजना, आवेश एवं जोश के साथ करने पर जो कायर् ठीक होते ह, उनके िलए सय
ू र् वर उ तम कहा
गया है ; जैसे— क्रूर कायर्, त्री-भोग, भ्र ट कायर्, युद्ध करना, दे श का वंस करना, िवष िखलाना, म य पीना,
ह या करना, खेलना; काठ, प थर, प ृ वी एवं र न को तोड़ना; त त्रिव या, जआ
ु , चोरी, यायाम, नदी पार
करना आिद। यहाँ उपयक्
ुर् त कठोर कम का समथर्न या िनषेध नहीं है । शा त्रकार ने तो एक वैज्ञािनक
की तरह िव लेषण कर िदया है िक ऐसे कायर् उस वक्त अ छे ह गे, जब सय
ू र् की उ णता के प्रभाव से
जीवन त व उ तेिजत हो रहा हो। शाि तपूणर् मि त क से भली प्रकार ऐसे काय को कोई यिक्त कैसे
कर सकता? इसका ता पयर् यह भी नहीं िक सय
ू र् वर म अ छे कायर् नहीं होते। संघषर् और युद्ध आिद
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कायर् दे श, समाज अथवा आि त की रक्षाथर् भी हो सकते ह और उनको सब कोई प्रशंसनीय बतलाता है ।
इसी प्रकार िवशेष पिर म के काय का स पादन भी समाज और पिरवार के िलए अिनवायर् होता है । वे
भी सय
ू र् वर म उ तमतायक्
ु त होते ह।

कुछ क्षण के िलए जब दोन नाड़ी इड़ा, िपंगला ककर, सष


ु ु ना चलती है , तब प्राय: शरीर सि ध अव था
म होता है । वह स याकाल है । िदन के उदय और अ त को भी स याकाल कहते ह। इस समय
ज म या मरण काल के समान पारलौिकक भावनाएँ मनु य म जाग्रत ् होती ह और संसार की ओर से
िवरिक्त, उदासीनता एवं अ िच होने लगती है । वर की स या से भी मनु य का िच त सांसािरक
काय से कुछ उदासीन हो जाता है और अपने वतर्मान अनुिचत काय पर प चा ताप व प िख नता
प्रकट करता हुआ, कुछ आ म-िच तन की ओर झकु ता है । वह िक्रया बहुत ही सू म होती है , अ पकाल
के िलए आती है , इसिलए हम अ छी तरह पहचान भी नहीं पाते। यिद इस समय परमाथर् िच तन और
ई वराराधना का अ यास िकया जाए, तो िन:स दे ह उसम बहुत उ नित हो सकती है ; िक तु सांसािरक
काय के िलए यह ि थित उपयक्
ु त नहीं है , इसिलए सष
ु ु ना वर म आर भ होने वाले काय का
पिरणाम अ छा नहीं होता, वे अक्सर अधरू े या असफल रह जाते ह। सष
ु ु ना की दशा म मानिसक
िवकार दब जाते ह और गहरे आि मक भाव का थोड़ा बहुत उदय होता है , इसिलए इस समय म िदए
हुए शाप या वरदान अिधकांश फलीभत
ू होते ह, क्य िक इन भावनाओं के साथ आ म-त व का बहुत
कुछ सि म ण होता है । इड़ा शीत ऋतु है तो िपंगला ग्री म ऋत।ु िजस प्रकार शीत ऋतु के महीन म
शीत की प्रधानता रहती है , उसी प्रकार च द्र नाड़ी शीतल होती है और ग्री म ऋतु के महीन म िजस
प्रकार गमीर् की प्रधानता रहती है , उसी प्रकार सय
ू र् नाड़ी म उ णता एवं उ तेजना का प्राधा य होता है ।

वर बदलना

कुछ िवशेष काय के स ब ध म वर शा त्रज्ञ के जो अनभ


ु व ह, उनकी जानकारी सवर्साधारण के िलए
बहुत ही सिु वधाजनक होगी। बताया गया है िक प्र थान करते समय चिलत वर के शरीर भाग को
हाथ से पशर् करके उस चिलत वर वाले कदम को आगे बढ़ाकर (यिद च द्र नाड़ी चलती हो तो ४
बार और सय
ू र् वर है तो ५ बार उसी पैर को जमीन पर पटक कर) प्र थान करना चािहए। यिद िकसी
क्रोधी पु ष के पास जाना है तो अचिलत वर (जो वर न चल रहा हो) के पैर को पहले आगे बढ़ाकर
प्र थान करना चािहए और अचिलत वर की ओर उस पु ष को करके बातचीत करनी चािहए। इसी
रीित से उसकी बढ़ी हुई उ णता को अपना अचिलत वर की ओर का शा त भाग अपनी आकषर्ण
िव युत ् से खींचकर शा त बना दे गा और मनोरथ म िसिद्ध प्रा त होगी। गु , िमत्र, अफसर, राजदरबार से
जबिक बाम वर चिलत हो, तब वातार्लाप या कायार्र भ करना ठीक है ।

कई बार ऐसे अवसर आते ह, जब कायर् अ य त ही आव यक हो सकता है , िक तु उस समय वर


िवपरीत चलता है । तब क्या उस कायर् के िकए िबना ही बैठा रहना चािहए? नहीं, ऐसा करने की ज रत

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नहीं है । िजस प्रकार जब रात को िनद्रा आती है , िक तु उस समय कुछ कायर् करना आव यक होता है ,
तब चाय आिद िकसी उ तेजक पदाथर् की सहायता से शरीर को चैत य करते ह, उसी प्रकार हम कुछ
उपाय वारा वर को बदल भी सकते ह। नीचे कुछ ऐसे िनयम िलखे जाते ह—

(१) जो वर नहीं चल रहा, उसे अँगठ


ू े से दबाएँ और िजस नथुने से साँस चलती है , उससे हवा खींच।
िफर िजससे साँस खींची है , उसे दबाकर पहले नथुने से-यानी िजस वर को चलाना है , उससे वास
छोड़। इस प्रकार कुछ दे र तक बार-बार कर, वास की चाल बदल जायेगी।

(२) िजस नथुने से वास चल रहा हो, उसी करवट से लेट जाय, तो वर बदल जायेगा। इस प्रयोग के
साथ पहला प्रयोग करने से वर और भी शीघ्र बदलता है ।

(३) िजस तरफ का वर चल रहा हो, उस ओर की काँख (बगल) म कोई सख्त चीज कुछ दे र दबाकर
रखो तो वर बदल जाता है । पहले और दस
ू रे प्रयोग के साथ यह प्रयोग भी करने से शीघ्रता होती है ।

(४) घी खाने से वाम वर और शहद खाने से दिक्षण वर चलना कहा जाता है ।

(५) चिलत वर म पुरानी व छ ई का फाया रखने से वर बदलता है ।

बहुधा िजस प्रकार बीमारी की दशा म शरीर को रोग-मक्


ु त करने के िलए िचिक सा की जाती है , उसी
प्रकार वर को ठीक अव था म लाने के िलए उन उपाय को काम म लाना चािहए।

वर-संयम से दीघर् जीवन—प्र येक प्राणी का पूणर् आयु प्रा त करना, दीघर् जीवी होना उसकी वास िक्रया
पर अवलि बत है । पूवर् कम के अनुसार जीिवत रहने के िलए परमा मा एक िनयत संख्या म वास
प्रदान करता है , वह वास समा त होने पर प्राणा त हो जाता है । इस खजाने को जो प्राणी िजतनी
होिशयारी से खचर् करे गा, वह उतने ही अिधक काल तक जीिवत रह सकेगा और जो िजतना यथर् गँवा
दे गा, उतनी ही शीघ्र उसकी म ृ यु हो जाएगी। सामा यत: हर एक मनु य िदन-रात म २१६०० वास लेता
है । इससे कम वास लेने वाला दीघर्जीवी होता है , क्य िक अपने धन का िजतना कम यय होगा, उतने
ही अिधक काल तक वह सि चत रहे गा। हमारे वास की पँज
ू ी की भी यही दशा है । िव व के सम त
प्रािणय म जो जीव िजतना कम वास लेता है , वह उतने ही अिधक काल तक जीिवत रहता है । नीचे
की तािलका से इसका प टीकरण हो जाता है ।

नाम प्राणी

वास की गित प्रित िमनट

246
पण
ू र् आयु

खरगोश

३८ बार

८ वषर्

ब दर

३२ बार

१० वषर्

कु ता

२९ बार

११ वषर्

घोड़ा

१९ बार

३५ वषर्

मनु य

१३ बार

१२० वषर्
247
साँप

८ बार

१००० वषर्

कछुआ

५ बार

२००० वषर्

साधारण काम-काज म १२ बार, दौड़-धूप करने म १८ बार और मैथुन करते समय ३६ बार प्रित िमनट
के िहसाब से वास चलता है , इसिलए िवषयी और ल पट मनु य की आयु घट जाती है और प्राणायाम
करने वाले योगा यासी दीघर्काल तक जीिवत रहते ह। यहाँ यह न सोचना चािहए िक चुपचाप बैठे रहने
से कम साँस चलती है , इसिलए िनि क्रय बैठे रहने से आयु बढ़ जाएगी; ऐसा नहीं हो सकता, क्य िक
िनि क्रय बैठे रहने से शरीर के अ य अंग िनबर्ल, अशक्त और बीमार हो जायगे, तदनस
ु ार उनकी साँस
का वेग बहुत ही बढ़ जाएगा। इसिलए शारीिरक अंग को व थ रखने के िलए पिर म करना
आव यक है ; िक तु शिक्त के बाहर पिर म भी नहीं करना चािहए।

साँस सदा परू ी और गहरी लेनी चािहए तथा झक


ु कर कभी न बैठना चािहए। नािभ तक परू ी साँस लेने
पर एक प्रकार से कु भक हो जाता है और वास की संख्या कम हो जाती है । मे द ड के भीतर एक
प्रकार का तरल जीवन त व प्रवािहत होता रहता है , जो सष
ु ु ना को बलवान ् बनाए रखता है , तदनस
ु ार
मि त क की पिु ट होती रहती है । यिद मे द ड को झक ु ा हुआ रखा जाए तो उस तरल त व का
प्रवाह क जाता है और िनबर्ल सष ु ु ना मि त क का पोषण करने से वि चत रह जाती है ।

सोते समय िचत होकर नहीं लेटना चािहए, इससे सष


ु ु ना वर चलकर िवघ्न पैदा होने की स भावना
रहती है । ऐसी दशा म अशुभ तथा भयानक व न िदखाई पड़ते ह। इसिलए भोजनोपरा त पहले बाएँ,
िफर दािहने करवट लेटना चािहए। भोजन के बाद कम से कम १५ िमनट आराम िकए िबना यात्रा
करना भी उिचत नहीं है ।

शीतलता से अिग्न म द पड़ जाती है और उ णता से ती होती है । यह प्रभाव हमारी जठरािग्न पर भी

248
पड़ता है । सय
ू र् वर म पाचन शिक्त की विृ द्ध रहती है , अतएव इसी वर म भोजन करना उ तम है ।
इस िनयम को सब लोग जानते ह िक भोजन के उपरा त बाएँ करवट से लेटे रहना चािहए। उ े य
यही है िक बाएँ करवट लेटने से दिक्षण वर चलता है िजससे पाचन शिक्त प्रदी त होती है ।

इड़ा, िपंगला और सष
ु ु ना की गितिविध पर यान रखने से वायु-त व पर अपना अिधकार होता है ।
वायु के मा यम से िकतनी ही ऐसी बात जानी जा सकती ह, िज ह साधारण लोग नहीं जानते। मकड़ी
को वषार् से बहुत पहले पता लग जाता है िक मेघ बरसने वाला है , तदनस
ु ार वह अपनी रक्षा का प्रब ध
पहले से ही कर लेती है । कारण यह है िक वायु के साथ वषार् का सू म संयोग िमला रहता है , उसे
मनु य समझ नहीं पाता; पर मकड़ी अपनी चेतना से यह अनुभव कर लेती है िक इतने समय बाद
इतने वेग से पानी बरसने वाला है । मकड़ी म जैसी सू म वायु परीक्षण चेतना होती है , उससे भी अिधक
प्रबुद्ध चेतना वर-योगी को िमल जाती है । वह वषार्, गमीर् को ही नहीं वरन ् उससे भी सू म बात,
भिव य की स भावनाएँ, दघ र् नाएँ, पिरवतर्नशीलताएँ, िवलक्षणताएँ अपनी िद य ि ट से जान लेता है ।
ु ट

कई वर-ज्ञाता योितिषय की भाँित इस िव या वारा भिव यवक्ताओं जैसा यवसाय करते ह। वर


के आधार पर ही मक
ू प्र न, तेजी-म दी, खोई व तु का पता, शुभ-अशुभ मह
ु ू तर् आिद बात बताते ह।
असफल होने की आशंका वाले, द ु साहसपूणर् कायर् करने वाले लोग भी वर का आ य लेकर अपना
काम करते ह। चोर, डाकू आिद इस स ब ध म िवशेष यान रखते ह। यापार, राज वार, िचिक सा
आिद जोिखम और िज मेदारी के काम म भी वर िव या के िनयम का यान रखा जाता है । इस
स ब ध म ‘अख ड- योित’ पित्रका म सगय-समय पर त िवषयक जानकारी प्रकािशत होती रहती है ।
उस सिु व तत
ृ ज्ञान का िववेचन यहाँ नहीं हो सकता। इस समय तो हम केवल यह िवचार करना है िक
वर साधन से िवज्ञानमय कोश की सु यव था म हम िकस प्रकार सहायता िमल सकती है ।

वायु साधना - िवज्ञानमय कोश की साधना


(१) शा त वातावरण म मे द ड सीधा करके बैठ जाइए और नािभ -चक्र म शुभ्र योितम डल का
यान कीिजए। उस योित के द्र म समद्र
ु के वार-भाटे की तरह िहलोर उठती हुई पिरलिक्षत ह गी।

(२) यिद बायाँ वर चल रहा होगा तो उस योित-के द्र का वणर् च द्रमा के समान पीला होगा और
उसके बाएँ भाग से िनकलने वाली इड़ा नाड़ी म होकर वास-प्रवाह का आगमन होगा। नािभ से नीचे
की ओर मल ु ा और िलंग का म यवतीर् भाग) म होती हुई मे द ड म होकर मि त क के
ू ाधार चक्र (गद
ऊपर भाग की पिरक्रमा करती हुई नािसका के बाएँ नथुने तक इड़ा नाड़ी जाती है । नािभके द्र के वाम
भाग की िक्रयाशीलता के कारण यह नाड़ी का काम करती है और बायाँ वर चलता है । इस त य को
भावना के िद य नेत्र वारा भली-भाँित िचत्रवत ् पयर्वेक्षण कीिजए।

249
(३) यिद दािहना वर चल रहा होगा तो नािभके द्र का योित म डल सय
ू र् के समान तिनक लािलमा
िलए हुए वेत वणर् का होगा और उसके दािहने भाग म से िनकलने वाली िपंगला नाड़ी म होकर वास-
प्र वास की िक्रया होगी। नािभ के नीचे मल
ू ाधार म होकर मे द ड तथा मि त क म होती हुई दािहने
नथुने तक िपंगला नाड़ी गई है । नािभ चक्र के दािहने भाग म चैत यता होती है और दािहना वर
चलता है । इस सू म िक्रया को यान-शिक्त वारा ऐसे मनोयोगपूवक
र् िनरीक्षण करना चािहए िक व तु-
ि थित यान क्षेत्र म िचत्र के समान प ट प से पिरलिक्षत होने लगे।

(४) जब वर सि ध होती है तो नािभ चक्र ि थर हो जाता है , उसम कोई हलचल नहीं होती और न
उतनी दे र तक वायु का आवागमन होता है । इस सि धकाल म तीसरी नाड़ी मे द ड म अ य त द्रत

वेग से िबजली के समान क धती है और साधारणत: एक क्षण के सौव भाग म यह क ध जाती है , इसे
ही सष
ु ु ना कहते ह।

(५) सष
ु ु ना का जो िव युत ् प्रवाह है , वही आ मा की च चल झाँकी है । आर भ म एक झाँकी एक हलके
झपट्टे के समान िकि चत ् प्रकाश की म द िकरण जैसी होती है । साधना से यह चमक अिधक
प्रकाशवान ् और अिधक दे र ठहरने वाली होती है । कुछ िदन के प चात वषार्काल म बादल के म य
चमकने वाली िबजली के समान उसका प्रकाश और िव तार होने लगता है । सष
ु ु ना योित म िक हीं
रं ग की आभा होना, उसका सीधा, टे ढ़ा, ितरछा या वतुल
र् ाकार होना आि मक ि थित का पिरचायक है ।
तीन गण
ु , पाँच त व, सं कार एवं अ त:करण की जैसी ि थित होती है , उसी के अनु प सष
ु ु ना का प
यानाव था म ि टगोचर होता है ।

(६) इड़ा-िपंगला की िक्रयाएँ जब प ट दीखने लग, तब उनका साक्षी प से अवलोकन िकया कीिजए।
नािभचक्र के िजस भाग म वार-भाटा आ रहा होगा, वही वर चल रहा होगा और के द्र म इसी आधार
ू र् या च द्रमा का रं ग होगा। यह िक्रया जैसे-जैसे हो रही है , उसको
पर सय वाभािवक रीित से होते हुए
दे खते रहना चािहए। एक साँस के भीतर पूरा प्रवेश होने पर जब लौटती है , तो उसे ‘आ य तर सि ध’
और साँस पूरी तरह बाहर िनकलकर नई साँस भीतर जाना जब आर भ करती है , तब उसे ‘बा य
सि ध’ कहते ह। इन कु भक काल म सष
ु ु ना की द्रत
ु ् गितगािमनी िव युत ् आभा का अ य त चपल
प्रकाश िवशेष सजगतापूवक
र् िद य नेत्र से दे खना चािहए।

(७) जब इड़ा बदलकर िपंगला म या िपंगला बदलकर इड़ा म जाती है , अथार्त ् एक वर जब दस


ू रे म
पिरवितर्त होता है , तो सष
ु ु ना की सि ध वेला आती है । अपने आप वर बदलने के अवसर पर
वाभािवक सष
ु ु ना का प्रा त होना प्राय: किठन होता है । इसिलए वर िव या के साधक िपछले प ृ ठ
म बताए गए वर बदलने के उपाय से वह पिरवतर्न करते ह और तब सष
ु ु ना की सि ध आने पर
आ म योित का दशर्न करते ह। यह योित आर भ म च चल और िविवध आकृितय की होती है और
अ त म ि थर एवं म डलाकार हो जाती है । यह ि थरता ही िवज्ञानमय कोश की सफलता है । उसी

250
ि थित म आ म-साक्षा कार होता है ।

सष
ु ु ना म अवि थत होना वायु पर अपना अिधकार कर लेना है । इस सफलता के वारा लोक-
लोका तर तक अपनी पहुँच हो जाती है और िव व-ब्र मा ड पर अपना प्रभु व अनुभव होता है । प्राचीन
समय म वर-शिक्त वारा अिणमा, मिहमा, लिघमा आिद िसिद्धयाँ प्रा त होती थीं। आज के युग-प्रवाह
म वैसा तो नहीं होता, पर ऐसे अनुभव होते ह िजनसे मनु य शरीर रहते हुए भी मानिसक आवरण म
दे वत व की प्रचरु ता हो जाती है । िवज्ञानमय कोश के िवजयी को भस
ू रु , भद
ू े व या नर-तनुधारी िद य
आ मा कहते ह।

ग्रि थ-भेद - िवज्ञानमय कोश की साधना


िवज्ञानमय कोश की चतुथर् भिू मका म पहुँचने पर जीव को प्रतीत होता है िक तीन सू म ब धन ही
मझु े बाँधे हुए ह। प च-त व से शरीर बना है , उस शरीर म पाँच कोश ह। गायत्री के ये पाँच कोश ही
पाँच मख
ु ह। इन पाँच ब धन को खोलने के िलए कोश की अलग-अलग साधनाएँ बताई गई ह।
िवज्ञानमय कोश के अ तगर्त तीन ब धन ह, जो प च भौितक शरीर न रहने पर भी-दे व, ग धवर्, यक्ष,
भत
ू , िपशाच आिद योिनय म भी वैसे ही ब धन बाँधे रहते ह जैसा िक शरीरधारी का होता है ।

ये तीन ब धन-ग्रि थयाँ द्रग्रि थ, िव ण-ु ग्रि थ, ब्र मग्रि थ के नाम से प्रिसद्ध ह। इ ह तीन गण
ु भी कह
सकते ह। द्रग्रि थ अथार्त ् तम, िव णग्र
ु ि थ अथार्त ् सत ्, ब्र मग्रि थ अथार्त ् रज। इन तीन गण
ु से
अतीत हो जाने पर, ऊँचा उठ जाने पर ही आ मा शाि त और आन द का अिधकारी होता है ।

इन तीन ग्रि थय को खोलने के मह वपण


ू र् कायर् को यान म रखने के िलए क धे पर तीन तार का
यज्ञोपवीत धारण िकया जाता है । इसका ता पयर् यह है िक तम, रज, सत ् के तीन गण
ु वारा थल
ू ,
सू म, कारण शरीर बने हुए ह। यज्ञोपवीत के अि तम भाग म तीन ग्रि थयाँ लगाई जाती ह। इसका
ता पयर् यह है िक द्रग्रि थ, िव णग्र
ु ि थ तथा ब्र मग्रि थ से जीव बँधा पड़ा है । इन तीन को खोलने की
िज मेदारी का नाम ही िपतऋ
ृ ण, ऋिषऋण, दे वऋण है । तम को प्रकृित, रज को जीव, सत ् को आ मा
कहते ह।

यावहािरक जगत ् म तम को सांसािरक जीवन, रज को यिक्तगत जीवन, सत ् को आ याि मक जीवन


कह सकते ह। जैसे हमारे पूवव
र् तीर् लोग ने, पूवज
र् ने अनेक प्रकार के उपकार , सहयोग वारा िनबर्ल
दशा से ऊँचा उठाकर हम बल, िव या, बुिद्ध स प न िकया है , वैसे ही हमारा भी क तर् य है िक संसार म
अपनी अपेक्षा िकसी भी ि ट से जो लोग िपछड़े हुए ह, उ ह सहयोग दे कर ऊँचा उठाएँ, सामािजक
जीवन को मधुर बनाएँ ।दे श, जाित और समाज के प्रित अपने क तर् य का पालन कर; यही िपतऋ ृ ण से,
पूवव
र् तीर् लोग के उपकार से उऋण होने का मागर् है । यिक्तगत जीवन को शारीिरक, बौिद्धक और

251
आिथर्क शिक्तय से सस
ु प न बनाना अपने को मनु य जाित का सद य बनाना ऋिष- ऋण से छूटना
है । वा याय, स संग, मनन, िच तन, िनिद यासन आिद आ याि मक साधनाओं वारा काम, क्रोध, लोभ,
मोह, मद, म सर आिद अपिवत्रताओं को हटाकर आ मा को परम िनमर्ल, दे वतु य बनाना यह दे व-ऋण
से उऋण होना है ।

दाशर्िनक ि ट से िवचार करने पर तम का अथर् होता है -शिक्त, रज का अथर् होता है -साधन, सत ् का


अथर् होता है -ज्ञान। इन तीन की यूनता एवं िवकृत अव था ब धन कारक अनेक उलझन , किठनाइय
और बुराइय को उ प न करने वाली होती है ; िक तु जब तीन की ि थित स तोषजनक होती है , तब
ित्रगण
ु ातीत अव था प्रा त होती है । हमको भली प्रकार यह समझ लेना चािहए िक परमा मा की सिृ ट
म कोई भी शिक्त या पदाथर् दिू षत अथवा भ्र ट नहीं है । यिद उसका सदप
ु योग िकया जाए तो वह
क याणकारी िसद्ध होगा।

आि मक क्षेत्र म सू म अ वेषण करने वाले ऋिषय ने यह पाया है िक तीन गण


ु , तीन शरीर , तीन क्षेत्र
का यवि थत या अ यवि थत होना अ य के द्र पर िनभर्र रहता है । सभी दशाओं को उ तम बनाने
से ये के द्र उ नत अव था म पहुँच सकते ह। दस
ू रा उपाय यह भी है िक अ य के द्र को आि मक
साधना-िविध से उ नत अव था म ले जाएँ तो थूल, सू म एवं कारण शरीर को ऐसी ि थित पर
पहुँचाया जा सकता है जहाँ उनके िलए कोई ब धन या उलझन शेष न रहे ।

साधक जब िवज्ञानमय कोश की ि थित म होता है तो उसे ऐसा अनभ


ु व होता है मानो उसके भीतर
तीन कठोर, गठीली, चमकदार, हलचल करती हुई हलकी गाँठ ह। इनम से एक गाँठ मत्र
ू ाशय के समीप,
दस
ू री आमाशय के ऊ वर् भाग म और तीसरी मि त क के म य के द्र म िविदत होती है । इन गाँठ म
से मत्र
ू ाशय वाली ग्रि थ को द्र-ग्रि थ, आमाशय वाली को िव ण-ु ग्रि थ और िशर वाली को ब्र मग्रि थ
कहते ह। इ हीं तीन को दस
ू रे श द म महाकाली, महाल मी और महासर वती भी कहते ह।

इन तीन महाग्रि थय की दो सहायक ग्रि थयाँ भी होती ह, जो मे द ड ि थत सष


ु ु ना नाड़ी के म य
म रहने वाली ब्र मनाड़ी के भीतर रहती ह। इ ह चक्र भी कहते ह। द्रग्रि थ की शाखा ग्रि थयाँ
मल
ू ाधार चक्र और वािध ठान कहलाती ह। िव णु -ग्रि थ की दो शाखाएँ मिणपूरक चक्र और अनाहत
चक्र ह। मि त क म िनवास करने वाली ब्र मग्रि थ के सहायक ग्रि थ-चक्र को िवशुिद्धचक्र और
आज्ञाचक्र कहा जाता है । हठयोग की िविध से ष चक्र का वेधन िकया जाता है । इन ष चक्र वेधन की
िविध के स ब ध म इस पु तक म पहले से ही हम काफी प्रकाश डाल चुके ह। उसकी पुनराविृ त
करने की आव यकता नहीं। िज ह हठयोग की अपेक्षा गायत्री की प चमख
ु ी साधना के अ तगर्त
िवज्ञानमय कोश म ग्रि थभेद करना है , उ हीं के िलए आव यक जानकारी दे ने का यहाँ प्रय न िकया
जाएगा।

252
द्रग्रि थ का आकार बेर के समान ऊपर को नक
ु ीला, नीचे को भारी, पदे म ग ढा िलए होता है ; इसका
वणर् कालापन िमला हुआ लाल होता है । इस ग्रि थ के दो भाग ह। दिक्षण भाग को द्र और वाम भाग
को काली कहते ह। दिक्षण भाग के अ तरं ग ग वर म प्रवेश करके जब उसकी झाँकी की जाती है , तो
ऊ वर् भाग म वेत रं ग की छोटी-सी नाड़ी हलका-सा वेत रस प्रवािहत करती है ; एक त तु ितरछा पीत
वणर् की योित-सा चमकता है । म य भाग म एक काले वणर् की नाड़ी साँप की तरह मल
ू ाधार से
िलपटी हुई है । प्राणवायु का जब उस भाग से स पकर् होता है , तो िडम-िडम जैसी विन उसम से
िनकलती है । द्रग्रि थ की आ तिरक ि थित की झाँकी करके ऋिषय ने द्र का सु दर िचत्र अंिकत
िकया है । म तक पर गंगा की धारा, जटा म च द्रमा, गले म सपर्, डम की िडम-िडम विन, ऊ वर् भाग
म ित्रशूल के प म अंिकत करके भगवान ् शंकर का यान करने लायक एक सु दर िचत्र बना िदया।
उस िचत्र म आलंकािरक प से द्रग्रि थ की वा तिवकताएँ ही भरी गई ह। उस ग्रि थ का वाम भाग
िजस ि थित म है , उसी के अनु प काली का सु दर िचत्र सू मदशीर् आ याि मक िचत्रकार ने अंिकत
कर िदया है ।

िव णग्र
ु ि थ िकस वणर् की, िकस गण
ु की, िकस आकार की, िकस आ तिरक ि थित की, िकस विन की,
िकस आकृित की है , यह सब हम िव णु के िचत्र से सहज ही प्रतीत हो जाता है । नील वणर्, गोल
आकार, शंख- विन, कौ तभ
ु मिण, वनमाला यह िचत्र उस म यग्रि थ का सहज प्रितिब ब है ।

जैसे मनु य को मख
ु की ओर से दे खा जाए तो उसकी झाँकी दस
ू रे प्रकार की होती है और पीठ की ओर
से दे खा जाए, तब यह आकृित दस
ू रे ही प्रकार की होती है । एक ही मनु य के दो पहलू दो प्रकार के
होते ह। उसी प्रकार एक ही ग्रि थ दिक्षण भाग से दे खने म पु ष व प्रधान आकार की और बाईं ओर
से दे खने पर त्री व प्रधान आकार की होती है । एक ही ग्रि थ को द्र या शिक्तग्रि थ कहा जा सकता
है । िव ण-ु ल मी, ब्र मा और सर वती का संयोग भी इसी प्रकार है ।

ब्र मग्रि थ म य मि त क म है । इससे ऊपर सह ार शतदल कमल है । यह ग्रि थ ऊपर से चतु कोण
और नीचे से फैली हुई है । इसका नीचे का एक त तु ब्र मर ध्र से जड़
ु ा हुआ है । इसी को सह मख ु
वाले शेषनाग की श या पर लेटे हुए भगवान ् की नािभ कमल से उ प न चार मख ु वाला ब्र मा िचित्रत
िकया गया है । वाम भाग म यही ग्रि थ चतुभज
ुर् ी सर वती है । वीणा की झंकार-से ओंकार विन का
यहाँ िनर तर गु जार होता है ।

यह तीन ग्रि थयाँ जब तक सु त अव था म रहती ह, बँधी हुई रहती ह, तब तक जीव साधारण दीन-
हीन दशा म पड़ा रहता है । अशिक्त, अभाव और अज्ञान उसे नाना प्रकार से द:ु ख दे ते रहते ह। पर जब
इनका खुलना आर भ होता है तो उनका वैभव िबखर पड़ता है । मँह
ु ब द कली म न प है , न सौ दयर्
और न आकषर्ण। पर जब वह कली िखल पड़ती है और पु प के प म प्रकट होती है , तो एक सु दर
य उपि थत हो जाता है । जब तक खजाने का ताला लगा हुआ है , थैली का मँह
ु ब द है , तब तक

253
दिरद्रता दरू नहीं हो सकती; पर जैसे ही र नरािश का भ डार खल
ु जाता है , वैसे ही अतिु लत वैभव का
वािम व प्रा त हो जाता है ।

रात को कमल का फूल ब द होता है तो भ रा भी उसम ब द हो जाता है , पर प्रात:काल वह फूल िफर


िखलता है तो भ रा ब धन-मक्ु त हो जाता है । ये तीन किलयाँ, तीन-तीन ग्रि थयाँ, जीव को बाँधे हुए ह।
जब ये खुल जाती ह तो मिु क्त का अिधकार वयमेव ही प्रा त हो जाता है । इन र न-रािशय का ताला
खुलते ही शिक्त, स प नता और प्रज्ञा का अटूट भ डार ह तगत हो जाता है ।

िचिड़या अपनी छाती की गरमी से अ ड को पकाती है , चू हे की गमीर् से भोजन पकता है , सय


ू र् की गमीर्
से वक्ष
ृ , वन पितय और फल का पिरपाक होता है । माता नौ महीने तक बालक को पेट म पकाकर
उसको इस ि थित म लाती है िक वह जीवन धारण कर सके। िवज्ञानमय कोश की ये तीन -ग्रि थयाँ
भी तप की गमीर् से पकती ह। तप वारा ब्र मा, िव ण,ु महे श, सर वती, ल मी, काली सभी का पिरपाक
हो जाता है । ये शिक्तयाँ समदशीर् ह; न उ ह िकसी से प्रेम है , न वेष। रावण जैसे असरु ने भी शंकर
जी से वरदान पाए थे और अनेक सरु भी कोई सफलता नहीं प्रा त कर पाए। इसम साधक का पु षाथर्
ही प्रधान है । म और प्रय न ही पिरपक्व होकर सफलता बन जाते ह।

द्र, िव णु और ब्र म ग्रि थय को खोलने के िलए ग्रि थ के मल


ू भाग म िनवास करने वाली बीज
शिक्तय का स चार करना पड़ता है । द्रग्रि थ के अधोभाग म बेर के ड ठल की तरह एक सू म प्राण
अिभप्रेत होता है , उसे ‘क्लीं’ बीज कहते ह। िव णग्र
ु ि थ के मल
ू म ‘ ीं’ का िनवास है और ब्र मग्रि थ
के नीचे ‘ ीं’ त व का अव थान है । मल
ू ब ध बाँधते हुए एक ओर से अपान और दस ू री ओर से
कूमर्प्राण को िचमटे की तरह बनाकर द्रग्रि थ को पकड़कर रे चक प्राणायाम वारा दबाते ह। इस
दबाव की गमीर् से क्लीं बीज जाग्रत ् हो जाता है । वह नोकदार ड ठल आकृित का बीज अपनी विन
और रक्त वणर् प्रकाश- योित के साथ प ट प से पिरलिक्षत होने लगता है ।

इस जाग्रत ् क्लीं बीज की अिग्रम न क से कंु चुिक िक्रया की जाती है , जैसे िकसी व तु म छे द करने के
िलए न कदार कील क ची जाती है ; इस प्रकार की वेधन-साधना को ‘कंु चुकी िक्रया’ कहते ह। द्रग्रि थ
के मल
ू के द्र म क्लीं बीज की अग्र िशखा से जब िनर तर कंु चुकी होती है , तो प्र तत
ु किलका म भीतर
ही भीतर एक िवशेष प्रकार के लहलहाते हुए तिड़त प्रवाह उठाने पड़ते ह; इनकी आकृित एवं गित सपर्
जैसी होती है । इन तिड़त प्रवाह को ही श भु के गले म फुफकारने वाले सपर् बताया है । िजस प्रकार
वालामख
ु ी पवर्त के उ च िशखर पर धूम्र िमि त अिग्न िनकलती है , उसी प्रकार द्रग्रि थ के ऊपरी
भाग म पहले क्लीं बीज की अिग्निज वा प्रकट होती है । इसी को काली की बाहर िनकली हुई जीभ
माना गया है । इसको श भु का तीसरा नेत्र भी कहते ह।

मल
ू ब ध, अपान और कूमर् प्राण के आघात से जाग्रत ् हुई क्लीं बीज की कंु चुकी -िक्रया से धीरे -धीरे

254
द्रग्रि थ िशिथल होकर वैसे ही खल
ु ने लगती है , जैसे कली धीरे -धीरे िखलकर फूल बन जाती है । इस
कमल पु प के िखलने को पद्मासन कहा गया है । ित्रदे व के कमलासन पर िवराजमान होने के िचत्र का
ता पयर् यही है िक वे िवकिसत प से पिरलिक्षत हो रहे ह।

साधक के प्रय न के अनु प खुली हुई द्रग्रि थ का तीसरा भाग जब प्रकिटत होता है , तब साक्षात ् द्र
का, काली का अथवा रक्त वणर् सपर् के समान लहलहाती हुई, क्लीं-घोष करती हुई अिग्न िशखा का
साक्षा कार होता है । यह द्र जागरण साधक म अनेक प्रकार की गु त-प्रकट शिक्तयाँ भर दे ता है ।
संसार की सब शिक्तय का मल
ू के द्र द्र ही है । उसे द्रलोक या कैलाश भी कहते ह। प्रलय काल म
संसार संचािलनी शिक्त यय होते-होते पूणर् िशिथल होकर जब सष
ु ु त अव था म चली जाती है , तब
द्र का ता डव न ृ य होता है । उस महाम थन से इतनी शिक्त िफर उ प न हो जाती है िजससे
आगामी प्रलय तक काम चलता रहे । घड़ी म चाबी भरने के समान द्र का प्रलय ता डव होता है ।
द्रशिक्त की िशिथलता से जीव की तथा पदाथ की म ृ यु हो जाती है , इसिलए द्र को म ृ यु का दे वता
माना गया है ।

िव णग्र
ु ि थ को जाग्रत ् करने के िलए जाल धर ब ध बाँधकर ‘समान’ और ‘उदान’ प्राण वारा दबाया
जाता है , तो उसके मल
ू भाग का ‘ ीं’ बीज जाग्रत ् होता है । यह गोल गद की तरह है और इसकी अपनी
धुरी पर द्रत
ु गित से घूमने की िक्रया होती है । इस घूणन
र् िक्रया के साथ-साथ एक ऐसी सनसनाती हुई
सू म विन होती है , िजसको िद य ोत्र से ‘ ीं’ जैसे सन ु ा जाता है ।

ीं बीज को िव णग्र
ु ि थ की बा य पिरिध म भ्रामरी िक्रया के अनस
ु ार घम
ु ाया जाता है । जैसे प ृ वी सय
ू र्
की पिरक्रमा करती है , उसी प्रकार पिरभ्रमण करने को भ्रामरी कहते ह। िववाह म वर-वधू की भाँवर या
फेरे पड़ना, दे व-मि दर तथा यज्ञ की पिरक्रमा या प्रदिक्षणा होना भ्रामरी िक्रया का प है । िव णु की
उँ गली पर घम
ू ता हुआ चक्र सद
ु शर्न िचित्रत करके योिगय ने अपनी सू म ि ट से अनभ ु व िकए गए
ु ि थ की भ्रामरी गित से पिरक्रमा करने लगता है , तब
इसी रह य को प्रकट िकया है । ‘ ीं’ बीज िव णग्र
उस महात व का जागरण होता है ।

पूरक प्राणायाम की प्रेरणा दे कर समान और उदान वारा जाग्रत ् िकए गए ीं बीज से जब िव णग्र
ु ि थ
के बा य आवरण की म य पिरिध म भ्रामरी िक्रया की जाती है , तो उसके गु जन से उसका भीतरी
भाग चैत य होने लगता है । इस चेतना की िव युत ् तरं ग इस प्रकार उठती ह जैसे पक्षी के पंख दोन
ु ं म िहलते ह। उसी गित के आधार पर िव णु का वाहन ग ड़ िनधार्िरत िकया गया है ।
बाजओ

इस साधना से िव णग्र
ु ि थ खुलती है और साधक की मानिसक ि थित के अनु प िव ण,ु ल मी या
पीत वणर् की अिग्निशखा की लपट के समान योितपु ज का साक्षा कार होता है । िव णु का पीता बर
इस पीत योितपु ज का प्रतीक है । इस ग्रि थ का खुलना ही बैकु ठ, वगर् एवं िव णल
ु ोक को प्रा त

255
करना है । बैकु ठ या वगर् को अन त ऐ वयर् का के द्र माना जाता है । वहाँ सव कृ ट सख
ु -साधन जो
स भव हो सकते ह, वे प्र तत
ु ह। िव णग्र
ु ि थ वैभव का के द्र है , जो उसे खोल लेता है , उसे िव व के
ऐ वयर् पर पण
ू र् अिधकार प्रा त हो जाता है ।

ब्र म ग्रि थ मि त क के म य भाग म सह दल कमल की छाया म अवि थत है । उसे अमत


ृ कलश
कहते ह। बताया गया है िक सरु लोक म अमत
ृ कलश की रक्षा सह फन वाले शेषनाग करते ह।
इसका अिभप्राय इसी ब्र म ग्रि थ से है ।

उ िडयान ब ध लगाकर यान और धन जय प्राण वारा ब्र मग्रि थ को पकाया जाता है । पकाने से
उसके मल
ू ाधार म वास करने वाली ीं शिक्त जाग्रत ् होती है । इसकी गित को लावनी कहते ह। जैसे
जल म लहर उ प न होती ह और िनर तर आगे को ही लहराती हुई चलती ह, उसी प्रकार ीं बीज की
लावनी गित से ब्र मग्रि थ को दिक्षणायन से उ तरायण की ओर प्रेिरत करते ह। चतु कोण ग्रि थ के
ऊ वर् भाग म यही ीं त व
क- ककर गाँठ सी बनाता हुआ आगे की ओर चलता है और अ त म
पिरक्रमा करके अपने मल
ू सं थान को लौट आता है ।

गाँठ बाँधते चलने की नीची-ऊँची गित के आधार पर माला के दाने बनाए गए ह। १०८ दचके लगाकर
तब एक पिरिध पूरी होती है , इसिलए माला के १०८ दाने होते ह। इस ीं त व की तरं ग म थर गित
से इस प्रकार चलती ह जैसे हं स चलता है । ब्र मा या सर वती का वाहन हं स इसीिलए माना गया है ।
वीणा के तार की झंकार से िमलती-जल
ु ती ‘ ीं’ विन सर वती की वीणा का पिरचय दे ती है ।

कु भक प्राणायाम की प्रेरणा से ीं बीज की लावनी िक्रया आर भ होती है । यह िक्रया िनर तर होते


रहने पर ब्र मग्रि थ खुल जाती है । तब उसका ब्र म के प म, सर वती के प म अथवा वेत वणर्
प्रकि पत शुभ्र योित िशखा के समान साक्षा कार होता है । यह ि थित आ मज्ञान, ब्र मप्राि त, ब्रा मी
ि थित की है । ब्र मलोक एवं गोलोक भी इसको कहते ह। इस ि थित को उपल ध करने वाला साधक
ज्ञान-बल से पिरपूणर् हो जाता है । इसकी आि मक शिक्तयाँ जाग्रत ् होकर परमे वर के समीप पहुँचा
दे ती ह, अपने िपता का उ तरािधकार उसे िमलता है और जीव मक् ु त होकर ब्रा मीि थित का आन द
ब्र मान द उपल ध करता है ।

ष चक्र का हठयोग-स मत िवधान अथवा महायोग का यह ग्रि थभेद, दोन ही समान ि थित के ह।
साधक अपनी ि थित के अनुसार उ ह अपनाते ह, दोन से ही िवज्ञानमय कोश का पिर कार होता है ।

256
आन दमय कोश की साधना
गायत्री का पाँचवाँ मख
ु आन दमय कोश है । िजस आवरण म पहुँचने पर आ मा को आन द िमलता है ,
जहाँ उसे शाि त, सिु वधा, ि थरता, िनि च तता एवं अनुकूलता की ि थित प्रा त होती है , वही आन दमय
ू रे अ याय म ‘ि थतप्रज्ञ’ की जो पिरभाषा की गई है और ‘समािध थ’ के जो
कोश है । गीता के दस
लक्षण बताए गए ह, वे ही गण
ु , कमर्, वभाव आन दमयी ि थित म हो जाते ह। आि मक परमाथ की
साधना म मनोयोगपूवक र् संलग्न होने के कारण सांसािरक आव यकताएँ बहुत सीिमत रह जाती ह।
उनकी पूितर् म इसिलए बाधा नहीं आती िक साधक अपनी शारीिरक और मानिसक व थता के वारा
जीवनोपयोगी व तुओं को उिचत मात्रा म आसानी से कमा सकता है ।

प्रकृित के पिरवतर्न, िव व यापी उतार-चढ़ाव, कम की गहन गित, प्रार ध भोग, व तओ


ु ं की न वरता,
वैभव की च चल-चपलता आिद कारण से जो उलझन भरी पिरि थितयाँ सामने आकर परे शान िकया
करती ह, उ ह दे खकर वह हँस दे ता है । सोचता है प्रभु ने इस संसार म कैसी धूप-छाँह का, आँखिमचौनी
का खेल खड़ा कर िदया है । अभी खुशी तो अभी र ज, अभी वैभव तो अभी िनधर्नता, अभी जवानी तो
अभी बुढ़ापा, अभी ज म तो अभी म ृ यु, अभी नमकीन तो अभी िमठाई, यह दरु ं गी दिु नया कैसी िवलक्षण
है ! िदन िनकलते दे र नहीं हुई िक रात की तैयारी होने लगी। रात को आए जरा सी दे र हुई िक
नवप्रभात का आयोजन होने लगा। वह तो यहाँ का आिद खेल है , बादल की छाया की तरह पल-पल म
धूप-छाँह आती है । म इन िततिलय के पीछे कहाँ दौडूँ? म इन क्षण-क्षण पर उठने वाली लहर को कहाँ
तक िगनँू ? पल म रोने, पल म हँ सने की बालक्रीड़ा म क्य क ँ ?

आन दमय कोश म पहुँचा हुआ जीव अपने िपछले चार शरीर -अ नमय, प्राणमय, मनोमय और
िवज्ञानमय कोश को भली प्रकार समझ लेता है । उनकी अपूणत
र् ा और संसार की पिरवतर्नशीलता दोन
के िमलने से ही एक िवषैली गैस बन जाती है , जो जीव को पाप-ताप के काले धए
ु ँ से कलिु षत कर
दे ती है । यिद इन दोन पक्ष के गण
ु -दोष को समझकर उ ह अलग-अलग रखा जाए, बा द और अिग्न
को इकट्ठा न होने िदया जाए तो िव फोट की कोई स भावना नहीं है । यह समझकर वह अपने
ि टकोण म दाशर्िनकता, ताि वकता, वा तिवकता, सू मदिशर्ता को प्रधानता दे ता है । तदनस
ु ार उसे
सांसािरक सम याएँ बहुत ह की और मह वहीन मालम ू पड़ती ह। िजन बात को लेकर साधारण
मनु य बेतरह द:ु खी रहते ह, उन ि थितय को वह ह के िवनोद की तरह समझकर उपेक्षा म उड़ा दे ता
है और आि मक भिू मका म अपना ढ़ थान बनाकर स तोष और शाि त का अनुभव करता है ।

गीता के दस
ू रे अ याय म भगवान ् ीकृ ण ने बताया है िक ि थतप्रज्ञ मनु य अपने भीतर की आ म -
ि थित म रमण करता है । सख
ु -द:ु ख म समान रहता है , न िप्रय से राग करता है , न अिप्रय से वेष
करता है । इि द्रय को इि द्रय तक ही सीिमत रहने दे ता है , उनका प्रभाव आ मा पर नहीं होने दे ता
और कछुआ जैसे अपने अंग को समेटकर अपने भीतर कर लेता है , वैसे ही वह अपनी कामनाओं और

257
लालसाओं को संसार म न फैलाकर अपनी अ त:भिू मका म ही समेट लेता है । िजसकी मानिसक ि थित
ऐसी होती है , उसे योगी, ब्र मभत
ू , जीवनमक्
ु त या समािध थ कहते ह।

आन दमय कोश की ि थित पंचम भिू मका है । इसे समािध अव था भी कहते ह। समािध अनेक प्रकार
की है । का ठ-समािध, भाव-समािध, यान-समािध, प्राण-समािध, सहज-समािध आिद २७ समािधयाँ बताई
ू ने से आई हुई समािध को का ठ-समािध कहते ह। िकसी
गई ह। मू छार्, नशा एवं क्लोरोफॉमर् आिद सँघ
भावना का इतना अितरे क हो िक मनु य की शारीिरक चे टा संज्ञाशू य हो जाए, उसे भाव-समािध कहते
ह। यान म इतनी त मयता आ जाए िक उसे अ य एवं िनराकार स ता साकार िदखाई पड़ने लगे,
उसे यान-समािध कहते ह। इ टदे व के दशर्न िज ह होते ह, उ ह यान-समािध की अव था म ऐसी
चेतना आ जाती है िक यह अ तर उ ह नहीं िविदत होने पाता िक हम िद य नेत्र से यान कर रहे ह
या आँख से प ट प से अमक
ु प्रितमा को दे ख रहे ह। प्राण-समािध ब्र मर ध्र म प्राण को एकित्रत
करके की जाती है । हठयोगी इसी समािध वारा शरीर को बहुत समय तक मत ृ बनाकर भी जीिवत
रहते ह। अपने आप को ब्र म म लीन होने का िजस अव था म बोध होता है , उसे ब्र म समािध कहते
ह।

इस प्रकार की २७ समािधय म से वतर्मान दे श, काल, पात्र की ि थित म सहज समािध सल


ु भ और सख

सा य है । महा मा कबीर ने सहज समािध पर बड़ा बल िदया है । अपने अनुभव से उ ह ने सहज
समािध को सवर् सल
ु भ दे खकर अपने अनुयाियय को इसी साधना के िलए प्रेिरत िकया है ।

महा मा कबीर का वचन है —

साधो! सहज समािध भली।

गु प्रताप भयो जा िदन ते सरु ित न अनत चली॥

आँख न मँद
ू ँ ू कान न ँ दँ ,ू काया क ट न धा ँ ।

खल
ु े नयन से हँस-हँ स दे ख,ूँ सु दर प िनहा ँ ॥

कहूँ सोई नाम, सन


ु ँू सोई सिु मरन, खाऊँ सोई पूजा।

गह
ृ उ यान एक सम लेख,ूँ भाव िमटाऊँ दज
ू ा॥

जहाँ-जहाँ जाऊँ सोई पिरक्रमा, जो कुछ क ँ सो सेवा।

जब सोऊँ तब क ँ द डवत, पज
ू ँ ू और न दे वा॥

258
श द िनर तर मनआ
ु राता, मिलन वासना यागी।

बैठत उठत कबहूँ ना िवसर, ऐसी ताड़ी लागी॥

कहै ‘कबीर’ वह उ मिन रहती, सोई प्रकट कर गाई।

दख
ु सख
ु के एक परे परम सख
ु , तेिह सख
ु रहा समाई॥

उपयक्
ुर् त पद म स गु कबीर ने सहज समािध की ि थित का प टीकरण िकया है । यह समािध सहज
है , सवर्सल
ु भ है , सवर् साधारण की साधना शिक्त के भीतर है , इसिलए उसे सहज समािध का नाम िदया
गया है । हठ साधनाएँ किठन ह। उनका अ यास करते हुए समािध की ि थित तक पहुँचना असाधारण
क टसा य है । िचरकालीन तप चयार्, ष कम के मसा य साधन सब िकसी के िलए सल ु भ नहीं ह।
अनभ
ु वी गु के स मख
ु रहकर िवशेष सावधानी के साथ वे िक्रयाएँ साधनी पड़ती ह। िफर यिद उनकी
साधना खि डत हो जाती है तो संकट भी सामने आ सकते ह, जो योग-भ्र ट लोग के समान कभी
भयंकर प से आ खड़े होते ह। कबीर जी सहज योग को प्रधानता दे ते ह। सहज योग का ता पयर् है —
िसद्धा तमय जीवन, क तर् यपूणर् कायर्क्रम। क्य िक इि द्रय भोग , पाशिवक विृ तय एवं काम, क्रोध, लोभ,
मोह की तु छ इ छाओं से प्रेिरत होकर आमतौर से लोग अपना कायर्क्रम िनधार्िरत करते ह और इसी
कारण भाँित-भाँित के क ट का अनुभव करते ह।

सहज समािध असंख्य प्रकार की योग साधनाओं म से एक है । इसकी िवशेषता यह है िक साधारण


रीित के सांसािरक कायर् करते हुए भी साधनाक्रम चलता है । इसी बात को ही य कहना चािहए िक ऐसा
यिक्त जीवन के सामा य सांसािरक कायर्, क तर् य, यज्ञ, धमर्, ई वरीय आज्ञा पालन की ि ट से करता
है । भोजन करने म उसकी भावना रहती है िक प्रभु की एक पिवत्र धरोहर शरीर को यथावत ् रखने के
ु ाव करते समय शरीर की
िलए भोजन िकया जा रहा है । खा य पदाथ का चन व थता उसका येय
रहती है । वाद के चटोरे पन के बारे म वह सोचता तक नहीं। कुटु ब का पालन-पोषण करते समय वह
परमा मा की एक सरु य वािटका के माली की भाँित िस चन, स वद्धर्न का यान रखता है , कुटुि बय
को अपनी स पि त नहीं मानता। जीिवकोपाजर्न को ई वरप्रद त आव यकताओं की पिू तर् का एक पन
ु ीत
साधन मात्र समझता है । अमीर बनने के िलए जैसे भी बने वैसे धन-संग्रह करने की त ृ णा उसे नहीं
होती है । बातचीत करना, चलना-िफरना, खाना-पीना, सोना-जागना, जीिवकोपाजर्न, प्रेम- वेष आिद सभी
काय को करने से पूवर् परमाथर् को, क तर् य को प्रधानता दे ते हुए करने से वे सम त साधारण काम-
काज भी यज्ञ प हो जाते ह।

जब हर काम के मल
ू म क तर् य भावना की प्रधानता रहे गी तो उन काय म पु य प्रमख
ु रहे गा।
स बुिद्ध से, सद्भाव से िकए हुए काय वारा अपने आप को और दस ू र को सखु -शाि त ही प्रा त होती
है । ऐसे स कायर् मिु क्तप्रद होते ह, ब धन नहीं करते। साि वकता, सद्भावना और लोक-सेवा की पिवत्र
259
आकांक्षा के साथ जीवन स चालन करने पर कुछ िदन म वह नीित एवं कायर्-प्रणाली पण
ू त
र् या अ य त
हो जाती है और जो चीज अ यास म आती है , वह िप्रय लगने लगती है , उसम रस आने लगता है । बरु े
वाद की, खचीर्ली, प्र यक्ष हािनकारक, द ु पा य, नशीली चीज, मिदरा, अफीम, त बाकू आिद जब कुछ िदन
के बाद िप्रय लगने लगते ह और उ ह बहुत क ट उठाते हुए भी छोड़ते नहीं बनता; जब तामसी त व
काला तर के अ यास से इतने प्राणिप्रय हो जाते ह तो कोई कारण नहीं िक साि वक त व उससे
अिधक िप्रय न हो सक।

साि वक िसद्धा त को जीवन-आधार बना लेने से, उ हीं के अनु प िवचार और कायर् करने से आ मा
को सत ्-त व म रमण करने का अ यास पड़ जाता है । यह अ यास जैसे-जैसे पिरपक्व होता है , वैसे-
वैसे सहज योग का रसा वादन होने लगता है , उसम आन द आने लगता है । जब अिधक ढ़ता, द्धा,
िव वास, उ साह एवं साहस के साथ स परायणता म, िसद्धा त स चािलत जीवन म संलग्न रहता है , तो
वह उसकी थायी विृ त बन जाती है , उसे उसी म त मयता रहती है , एक िद य आवेश-सा छाया रहता
है । उसकी म ती, प्रस नता, स तु टता असाधारण होती है । इस ि थित को सहजयोग की समािध या
‘सहज समािध’ कहा जाता है ।

कबीर ने इसी समािध का उपयक्


ुर् त पद म उ लेख िकया है । वे कहते ह—‘‘हे साधुओ! सहज समािध े ठ
है । िजस िदन से गु की कृपा हुई और वह ि थित प्रा त हुई है , उस िदन से सरू त दस
ू री जगह नहीं
गई, िच त डावाँडोल नहीं हुआ। म आँख मँद
ू कर, कान मँद
ू कर कोई हठयोगी की तरह काया की
क टदाियनी साधना नहीं करता। म तो आँख खोले रहता हूँ और हँ स-हँ सकर परमा मा की पुनीत कृित
का सु दर प दे खता हूँ। जो कहता हूँ सो नाम जप है ; जो सन
ु ता हूँ सो सिु मरन है ; जो खाता-पीता हूँ
सो पूजा है । घर और जंगल एक सा दे खता हूँ और अ वैत का अभाव िमटाता हूँ। जहाँ-जहाँ जाता हूँ,
सोई पिरक्रमा है ; जो कुछ करता हूँ सोई सेवा है । जब सोता हूँ तो वह मेरी द डवत है । म एक को
छोड़कर अ य दे व को नहीं पूजता। मन की मिलन वासना छोड़कर िनर तर श द म, अ त:करण की
ई वरीय वाणी सनु ने म रत रहता हूँ। ऐसी तारी लगी है , िन ठा जमी है िक उठते-बैठते वह कभी नहीं
िबसरती।’’ कबीर कहते ह िक ‘‘मेरी यह उनमिन, हषर्-शोक से रिहत ि थित है िजसे प्रकट करके गाया
है । द:ु ख-सख
ु से परे जो एक परम सख
ु है , म उसी म समाया रहता हूँ।’’

यह सहज समािध उ ह प्रा त होती है ‘जो श द म रत’ रहते ह। भोग एवं त ृ णा की क्षुद्र विृ तय का
पिर याग करके जो अ त:करण म प्रितक्षण विनत होने वाले ई वरीय श द को सन
ु ते ह, सत ् की
िदशा म चलने की ओर दै वी संकेत को दे खते ह और उ हीं को जीवन-नीित बनाते ह, वे ‘श द रत’
सहज योगी उस परम आन द की सहज समािध म सख
ु को प्रा त होते ह। चँ िू क उनका उ े य ऊँचा
रहता है , दै वी प्रेरणा पर िनभर्र रहता है , इसिलए उनके सम त कायर् पु य प बन जाते ह। जैसे खाँड़
से बने िखलौने आकृित म कैसे ही क्य न ह , ह गे मीठे ही, इसी प्रकार सद्भावना और उ े य परायणता
के साथ िकए हुए काम बा य आकृित म कैसे ही क्य न िदखाई दे ते ह , ह गे वे यज्ञ प ही, पु यमय
260
ही। स यपरायण यिक्तय के स पण
ू र् कायर्, छोटे से छोटे कायर्, यहाँ तक िक चलना, सोना, खाना-दे खना
तक ई वर-आराधना बन जाते ह।

व प प्रयास म समािध का शा वत सख
ु उपल ध करने की इ छा रखने वाले अ या ममागर् के पिथक
को चािहए िक वे जीवन का ि टकोण उ च उ े य पर अवलि बत कर, दै िनक कायर्क्रम का सैद्धाि तक
ि ट से िनणर्य कर। भोग से उठकर योग म आ था का आरोपण कर। इस िदशा म जो िजतनी प्रगित
करे गा, उसे उतने ही अंश म समािध के लोको तर सख
ु का रसा वादन होता चलेगा।

आन दमय कोश की साधना म आन द का रसा वादन होता है । इस प्रकार की आन दमयी साधनाओं


म से तीन प्रमख
ु साधनाएँ नीचे दी जाती ह। सहज समािध की भाँित ये तीन महासाधनाएँ भी बड़ी
मह वपूणर् ह, साथ ही उनकी सग
ु मता भी असि दग्ध है ।

नाद साधना - आन दमय कोश की साधना


‘श द’ को ब्र म कहा है , क्य िक ई वर और जीव को एक ंख
ृ ला म बाँधने का काम श द के वारा ही
होता है । सिृ ट की उ पि त का प्रार भ भी श द से हुआ है । प चत व म सबसे पहले आकाश बना,
आकाश की त मात्रा श द है । अ य सम त पदाथ की भाँित श द भी दो प्रकार का है —सू म और
थूल। सू म श द को िवचार कहते ह और थूल श द को नाद।

ब्र मलोक से हमारे िलए ई वरीय श द-प्रवाह सदै व प्रवािहत होता है । ई वर हमारे साथ वातार्लाप करना
चाहता है , पर हमम से बहुत कम लोग ऐसे ह, जो उसे सन
ु ना चाहते ह या सन
ु ने की इ छा करते ह।
ई वरीय श द िनर तर एक ऐसी िवचारधारा प्रेिरत करते ह जो हमारे िलए अतीव क याणकारी होती है ,
उसको यिद सन
ु ा और समझा जा सके तथा उसके अनस
ु ार मागर् िनधार्िरत िकया जा सके तो िन स दे ह
जीवनो े य की ओर द्रत
ु गित से अग्रसर हुआ जा सकता है । यह िवचारधारा हमारी आ मा से टकराती
है ।

हमारा अ त:करण एक रे िडयो है , िजसकी ओर यिद अिभमखु हुआ जाए, अपनी विृ तय को अ तमख ुर्
बनाकर आ मा म प्र फुिटत होने वाली िद य िवचार लहिरय को सन
ु ा जाए, तो ई वरीय वाणी हम
प्र यक्ष म सन
ु ाई पड़ सकती है , इसी को आकाशवाणी कहते ह। हम क्या करना चािहए, क्या नहीं? हमारे
िलए क्या उिचत है , क्या अनुिचत? इसका प्र यक्ष स दे श ई वर की ओर से प्रा त होता है । अ त:करण
की पुकार, आ मा का आदे श, ई वरीय स दे श, आकाशवाणी, त वज्ञान आिद नाम से इसी िवचारधारा को
पुकारते ह। अपनी आ मा के य त्र को व छ करके जो इस िद य स दे श को सन
ु ने म सफलता प्रा त
कर लेते ह, वे आ मदशीर् एवं ई वरपरायण कहलाते ह।

261
ई वर उनके िलए िबलकुल समीप होता है , जो ई वर की बात सन
ु ते ह और अपनी उससे कहते ह। इस
िद य िमलन के िलए हाड़-मांस के थल
ू नेत्र या कान का उपयोग करने की आव यकता नहीं पड़ती।
आ मा की समीपता म बैठा हुआ अ त:करण अपनी िद य इि द्रय की सहायता से इस कायर् को
आसानी से पूरा कर लेता है । यह अ य त सू म ब्र म श द, िद य िवचार तब तक धध
ुँ ले प म
िदखाई पड़ता है जब तक कषाय-क मष आ मा म बने रहते ह। िजतनी आ तिरक पिवत्रता बढ़ती जाती
है , उतने ही िद य स दे श िबलकुल प ट प से सामने आते ह। आर भ म अपने िलए क तर् य का
बोध होता है , पाप-पु य का संकेत होता है । बुरा कमर् करते समय अ तर म भय, घण
ृ ा, ल जा, संकोच
आिद का होना तथा उ तम कायर् करते समय आ मस तोष, प्रस नता, उ साह होना इसी ि थित का
बोधक है ।

यह िद य स दे श आगे चलकर भत
ू , भिव य, वतर्मान की सभी घटनाओं को प्रकट करता है । िकसके
िलए क्या भिवत य बन रहा है और भिव य म िकसके िलए क्या घटना घिटत होने वाली है , यह सब
कुछ उससे प्रकट हो जाता है । और भी ऊँची ि थित पर पहुँचने पर उसके िलए सिृ ट के सब रह य
खलु जाते ह, कोई ऐसी बात नहीं है जो उससे िछपी रहे । पर तु जैसे ही इतना बड़ा ज्ञान उसे िमलता
है , वैसे ही वह उसका उपयोग करने म अ य त सावधान हो जाता है । बालबिु द्ध के लोग के हाथ म
यह िद यज्ञान पड़ जाए तो वे उसे बाजीगरी के िखलवाड़ करने म ही न ट कर द, पर अिधकारी पु ष
अपनी इस शिक्त का िकसी को पिरचय तक नहीं होने दे ते और उसे भौितक बखेड़ से पण
ू त
र् या बचाकर
अपनी तथा दस
ू र की आ मो नित म लगाते ह।

श दब्र म का दस
ू रा प जो िवचार स दे श की अपेक्षा कुछ थूल है , वह नाद है । प्रकृित के अ तराल म
एक विन प्रितक्षण उठती रहती है , िजसकी प्रेरणा से आघात वारा परमाणओ
ु ं म गित उ प न होती है
और सिृ ट का सम त िक्रया-कलाप चलता है । यह प्रारि भक श द ‘ॐ’ है । यह ‘ॐ’ विन जैसे-जैसे
अ य त व के क्षेत्र म होकर गज
ु रती है , वैसे ही वैसे उसकी विन म अ तर आता है । वंशी के िछद्र
म हवा फकते ह तो उसम एक विन उ प न होती है । पर आगे के िछद्र म से िजस िछद्र से िजतनी
हवा िनकाली जाती है , उसी के अनुसार िभ न-िभ न वर की विनयाँ उ प न होती ह। इसी प्रकार ॐ
विन भी िविभ न त व के स पकर् म आकर िविवध प्रकार की वर लहिरय म पिरणत हो जाती है ।
इन वर लहिरय का सन
ु ना ही नादयोग है ।

प चत व की प्रित विनत हुई ॐकार की वर लहिरय को सन ु ने की नादयोग साधना कई ि टय से


बड़ी मह वपूणर् है । प्रथम तो इस िद य संगीत के सन
ु ने म इतना आन द आता है , िजतना िकसी मधुर
से मधुर वा य या गायन सन
ु ने म नहीं आता। दस
ू रे इस नाद वण से मानिसक त तुओं का प्र फुटन
होता है । सपर् जब संगीत सन
ु ता है तो उसकी नाड़ी म एक िव युत ् लहर प्रवािहत हो उठती है । मग
ृ का
ु कर इतना उ सािहत हो जाता है िक उसे तन-बदन का होश नहीं रहता।
मि त क मधुर संगीत सन
योरोप म गाय दह
ु ते समय मधुर बाजे बजाए जाते ह िजससे उनका नायु समह
ू उ तेिजत होकर
262
अिधक मात्रा म दध
ू उ प न करता है । नाद का िद य संगीत सन
ु कर मानव-मि त क म भी ऐसी
फुरणा होती है , िजसके कारण अनेक गु त मानिसक शिक्तयाँ िवकिसत होती ह। इस प्रकार भौितक
और आि मक दोन ही िदशाओं म गित होती है ।

तीसरा लाभ एकाग्रता है । एक व तु पर, नाद पर


यान एकाग्र होने से मन की िबखरी हुई शिक्तयाँ
एकित्रत होती ह और इस प्रकार मन को वश म करने तथा िनि चत कायर् पर उसे पूरी तरह लगा दे ने
की साधना सफल हो जाती है । यह सफलता िकतनी शानदार है , इसे प्र येक अ या ममागर् का िजज्ञासु
भली प्रकार जानता है । आितशी काँच वारा एक-दो इ च जगह की सूयर् िकरण एक िब द ु पर एकित्रत
कर दे ने से अिग्न उ प न हो जाती है । मानव प्राणी अपने सिु व तत
ृ शरीर म िबखरी हुई अन त िद य
शिक्तय का एकीकरण कर ऐसी महान ् शिक्त उ प न कर सकता है , िजसके वारा इस संसार को
िहलाया जा सकता है और अपने िलए आकाश म मागर् बनाया जा सकता है ।

नाद की वर लहिरय को पकड़ते-पकड़ते साधक ऊँची र सी को पकड़ता हुआ उस उ ◌्गम ब्र म तक


पहुँच जाता है , जो आ मा का अभी ट थान है । ब्र मलोक की प्राि त, मिु क्त, िनवार्ण, परमपद आिद
नाम से इसी को पुकारी जाती है । नाद के आधार पर मनोलय करता हुआ साधक योग की अि तम
सीढ़ी तक पहुँचता है और अभी ट ल य को प्रा त कर लेता है । नाद का अ यास िकस प्रकार करना
चािहए, अब इस पर कुछ प्रकाश डालते ह।

अ यास के िलए ऐसा थान प्रा त कीिजए जो एका त हो और जहाँ बाहर की अिधक आवाज न आती
हो। ती ण प्रकाश इस अ यास म बाधक है , इसिलए कोई अँधेरी कोठरी ढूँढ़नी चािहए। एक पहर रात
हो जाने के बाद से लेकर सय
ू दय से पव
ू र् तक का समय इसके िलए बहुत ही अ छा है । यिद इस
समय की यव था न हो सके तो प्रात: ७ बजे तक और शाम को िदन िछपे बाद का कोई समय िनयत
िकया जा सकता है । िन य-िनयिमत समय पर अ यास करना चािहए। अपने िनयत कमरे म एक
आसन या आरामकुसीर् िबछाकर बैठो। आसन पर बैठो तो पीठ पीछे कोई मसनद या कपड़े की गठरी
आिद रख लो। यह भी न हो तो अपना आसन एक कोने म लगाओ। िजस प्रकार शरीर को आराम
िमले, उस तरह बैठ जाओ और अपने शरीर को ढीला छोड़ने का प्रय न करो।

भावना करो िक मेरा शरीर ई का ढे र मात्र है और म इस समय इसे परू ी तरह


वत त्र छोड़ रहा हूँ।
थोड़ी दे र म शरीर िबलकुल ढीला हो जाएगा और अपना भार अपने आप न सहकर इधर-उधर को ढुलने
लगेगा। आरामकुसीर्, मसनद या दीवार का सहारा ले लेने से शरीर ठीक प्रकार अपने थान पर बना
रहे गा। साफ ई की मुलायम सी दो डाट बनाकर उ ह कान म इस तरह लगाओ िक बाहर की कोई
आवाज भीतर प्रवेश न कर सके। उँ गिलय से कान के छे द ब द करके भी काम चल सकता है । अब
बाहर की कोई आवाज तु ह सन
ु ाई न पड़ेगी। यिद पड़े भी तो उस ओर से यान हटाकर अपने मद्ध
ू ार्
थान पर ले आओ और वहाँ जो श द हो रहे ह, उ ह यानपव
ू क
र् सन
ु ने का प्रय न करो।

263
आर भ म शायद कुछ भी सन
ु ाई न पड़े, पर दो-चार िदन प्रय न करने के बाद जैसे-जैसे सू म
कणि द्रय िनमर्ल होती जाएगी, वैसे ही वैसे श द की प टता बढ़ती जाएगी। पहले पहल कई श द
सन
ु ाई दे ते ह। शरीर म जो रक्त-प्रवाह हो रहा है , उसकी आवाज रे ल की तरह धक् -धक् , धक् -धक् सन
ु ाई
पड़ती है । वायु के आने-जाने की आवाज बादल गरजने जैसी होती है । रस के पकने और उनके आगे
की ओर गित करने की आवाज चटकने की सी होती है । यह तीन प्रकार के श द शरीर की िक्रयाओं
वारा उ प न होते ह। इसी प्रकार दो प्रकार के श द मानिसक िक्रयाओं के ह। मन म च चलता की
लहर उठती ह, वे मानस-त तुओं पर टकराकर ऐसे श द करती ह, मानो टीन के ऊपर मेह बरस रहा हो
और जब मि त क बा य ज्ञान को ग्रहण करके अपने म धारण करता है , तो ऐसा मालम
ू होता है मानो
कोई प्राणी साँस ले रहा हो। ये पाँच श द शरीर और मन के ह। कुछ ही िदन के अ यास से,
साधारणत: दो-तीन स ताह के प्रय न से यह श द प ट प से सन
ु ाई पड़ते ह। इन श द के सन
ु ने से
सू म इि द्रयाँ िनमर्ल होती जाती ह और गु त शिक्तय को ग्रहण करने की उनकी योग्यता बढ़ती
जाती है ।

जब नाद वण करने की योग्यता बढ़ जाती है , तो वंशी या सीटी से िमलती-जल


ु ती अनेक प्रकार की
श दाविलयाँ सनु ाई पड़ती ह। यह सू मलोक म होने वाली िक्रयाओं का पिरचायक है । बहुत िदन से
िबछुड़े हुए ब चे को यिद उसकी माता की गोद म पहुँचाया जाता है तो वह आन द से िवभोर हो जाता
है , ऐसा ही आन द सन
ु ने वाले को आता है ।

िजन सू म श द विनय को आज वह सन
ु रहा है , वा तव म यह उसी त व के िनकट से आ रही ह,
जहाँ से िक आ मा और परमा मा का िवलगाव हुआ है और जहाँ पहुँच कर दोन िफर एक हो सकते
ह। धीरे -धीरे यह श द प ट होने लगते ह और अ यासी को उनके सनु ने म अद्भत
ु आन द आने
लगता है । कभी-कभी तो वह उन श द म म त होकर आन द से िव वल हो जाता है और अपने तन-
ु भल
मन की सध ू जाता है । अि तम श द ॐ है , यह बहुत ही सू म है । इसकी विन घ टा विन के
समान रहती है । घिड़याल म हथौड़ी मार दे ने पर जैसे वह कुछ दे र तक झनझनाती रहती है , उसी प्रकार
ॐ का घ टा श द सन
ु ाई पड़ता है ।

ॐकार विन जब सन
ु ाई पड़ने लगती है तो िनद्रा, त द्रा या बेहोशी जैसी दशा उ प न होने लगती है ।
साधक तन-मन की सध
ु भल
ू जाता है और समािध सख
ु का, तुरीयाव था का आन द लेने लगता है ।
उस ि थित से ऊपर बढ़ने वाली आ मा परमा मा म प्रवेश करती जाती है और अ तत: पूणत
र् या
परमा माव था को प्रा त कर लेती है ।

अनहद नाद का शुद्ध प है अनाहत नाद। ‘आहत’ नाद वे होते ह जो िकसी प्रेरणा या आघात से
उ प न होते ह। वाणी के आकाश त व से टकराने अथवा िक हीं दो व तुओं के टकराने वाले श द

264
‘आहत’ कहे जाते ह। िबना िकसी आघात के िद य प्रकृित के अ तराल से जो विनयाँ उ प न होती ह,
उ ह ‘अनाहत’ या ‘अनहद’ कहते ह। वे अनाहत या अनहद श द प्रमख
ु त: दस होते ह, िजनके नाम (१)
संहारक, (२) पालक, (३) सज
ृ क, (४) सह दल, (५) आन द म डल, (६) िचदान द, (७) सि चदान द, (८)
अख ड, (९) अगम, (१०) अलख ह। इनकी विनयाँ क्रमश: पायजेब की झंकार की सी, सागर की लहर की,
मद
ृ ं ग की, शंख की, तुरही की, मरु ही की, बीन-सी, िसंह गजर्ना की, नफीरी की, बुलबुल की सी होती ह।

जैसे अनेक रे िडयो टे शन से एक ही समय म अनेक प्रोग्राम ब्राडका ट होते रहते ह, वैसे ही अनेक
प्रकार के अनाहत श द भी प्र फुिटत होते रहते ह, उनके कारण, उपयोग और रह य अनेक प्रकार के ह।
चौसठ अनाहत अब तक िगने गए ह, पर उ ह सन
ु ना हर िकसी के िलए स भव नहीं। िजनकी आि मक
शिक्त िजतनी ऊँची होगी, वे उतने ही सू म श द को सन
ु गे, पर उपयक्
ुर् त दस श द सामा य आ मबल
वाले भी आसानी से सन
ु सकते ह।

यह अनहद सू म लोक की िद य भावना है । सू म जगत ् म िकस थान पर क्या हो रहा है , िकस


प्रयोजन के िलए कहाँ क्या आयोजन हो रहा है , इस प्रकार के गु त रह य इन श द वारा जाने जा
सकते ह। कौन साधक िकस विन को अिधक प ट और िकस विन को म द सुनेगा, यह उसकी
अपनी मनोभिू म की िवशेषता पर िनभर्र है ।

अनहद नाद एक िबना तार की दै वी स दे श प्रणाली है । साधक इसे जानकर सब कुछ जान सकता है ।
इन श द म ॐ विन आ मक याणकारक और शेष विनयाँ िविभ न प्रकार की िसिद्धय की जननी
ह। इस पु तक म उनका िव तत
ृ वणर्न नहीं हो सकता। गायत्री योग वारा आन दमय कोश के
जागरण के िलए िजतनी जानकारी की आव यकता है , वह इन प ृ ठ पर दे दी गई है ।

िब द ु साधना - आन दमय कोश की साधना


िब द ु साधना का एक अथर् ब्र मचयर् भी है । इस िब द ु का अथर् ‘वीयर्’ अ नमय कोश के प्रकरण म
िकया गया है । आन दमय कोश की साधना म िब द ु का अथर् होगा-परमाण।ु सू म से सू म जो अणु
है , वहाँ तक अपनी गित हो जाने पर भी ब्र म की समीपता तक पहुँचा जा सकता है और सामी य सख

का अनुभव िकया जा सकता है ।

िकसी व तु को कूटकर यिद चूणर् बना ल और चूणर् को खुदर्बीन से दे ख तो छोटे -छोटे टुकड़ का एक
ढे र िदखाई पड़ेगा। यह टुकड़े कई और टुकड़ से िमलकर बने होते ह। इ ह भी वैज्ञािनक य त्र की
सहायता से कूटा जाए तो अ त म जो न टूटने वाले, न कुटने वाले टुकड़े रह जायगे, उ ह परमाणु
कहे गे। इन परमाणओ
ु ं की लगभग १०० जाितयाँ अब तक पहचानी जा चुकी ह, िज ह अणत
ु व कहा
जाता है ।

265
अणओ
ु ं के दो भाग ह- एक सजीव, दस
ू रे िनजीर्व। दोन ही एक िप ड या ग्रह के प म मालम
ू पड़ते ह,
पर व तुत: उनके भीतर भी और टुकड़े ह। प्र येक अणु अपनी धुरी पर बड़े वेग से पिरभ्रमण करता है ।
प ृ वी भी सय
ू र् की पिरक्रमा के िलए प्रित सेके ड १८॥ मील की चाल से चलती है , पर इन १००
परमाणओ
ु ं की गित चार हजार मील प्रित सेके ड मानी जाती है ।

यह परमाणु भी अनेक िव यत
ु ् कण से िमलकर बने ह, िजनकी दो जाितयाँ ह—(१) ऋण कण, (२) धन
कण। धन कण के चार ओर ऋण कण प्रित सेके ड एक लाख अ सी हजार मील की गित से
पिरभ्रमण करते ह। उधर धन कण, ऋण कण की पिरक्रमा के के द्र होते हुए भी शा त नहीं बैठते। जैसे
प ृ वी सय
ू र् की पिरक्रमा लगाती है और सय
ू र् अपने सौरम डल को लेकर ‘कृितका’ नक्षत्र की पिरक्रमा
करता है , वैसे ही धन कण भी परमाणु की अ तरगित का कारण होते ह। ऋण कण जो िक द्ररतगित
ु्
से िनर तर पिरक्रमा म संलग्न ह, अपनी शिक्त सय
ू र् से अथवा िव व यापी अिग्न-त व से प्रा त करते
ह।

वैज्ञािनक का कथन है िक यिद एक परमाणु के अ दर का शिक्तपु ज फूट पड़े, तो क्षण भर म ल दन


जैसे तीन नगर को भ म कर सकता है । इस परमाणु के िव फोट की िविध मालम
ू करके ही ‘एटमबम’
का आिव कार हुआ है । एक परमाणु के फोड़ दे ने से जो भयंकर िव फोट होता है , उसका पिरचय गत
महायद्ध
ु से िमल चक
ु ा है । इसकी और भी भयंकरता का पण ू र् प्रकाश होना अभी बाकी है , िजसके िलए
वैज्ञािनक लगे हुए ह।

यह तो परमाणु की शिक्त की बात रही, अभी उनके अंग ऋण कण और धन- कण के सू म भाग का


भी पता चला है । वे भी अपने से अनेक गन
ु े सू म परमाणओ
ु ं से बने हुए ह, जो ऋण कण के भीतर
एक लाख िछयासी हजार, तीन सौ तीस मील प्रित सेक ड की गित से पिरभ्रमण करते ह। अभी उनके
भी अ तगर्त कषार्णओ
ु ं की खोज हो रही है और िव वास िकया जाता है िक उन कषार्णओ
ु ं के भीतर भी
ु ं की अपेक्षा ऋण कण तथा धन कण की गित तथा शिक्त अनेक गन
सगार्णु ह। परमाणओ ु ी है । उसी
अनुपात से इन सू म, सू मा तर और सू मतम अणओ
ु ं की गित तथा शिक्त होगी। जब परमाणओ
ु ं के
िव फोट की शिक्त ल दन जैसे तीन शहर को जला दे ने की है , तो सगार्णु की शिक्त एवं गित की
क पना करना भी हमारे िलए किठन होगा। उसके अि तम सू म के द्र को अप्रितम, अप्रमेय और
अिच य ही कह सकते ह।

दे खने म प ृ वी चपटी मालम


ू पड़ती है , पर व तुत: वह ल ◌्टू की तरह अपनी धुरी पर घूमती रहती है ।
चौबीस घ टे म उसका एक चक्कर पूरा हो जाता है । प ृ वी की दस
ू री चाल भी है , वह सय
ू र् की पिरक्रमा
करती है । इस चक्कर म उसे एक वषर् लग जाता है । तीसरी चाल प ृ वी की यह है िक सय
ू र् अपने ग्रह-
उपग्रह को साथ लेकर बड़े वेग से अिभिजत नक्षत्र की ओर जा रहा है । अनुमान है िक वह कृितका

266
नक्षत्र की पिरक्रमा करता है । इसम प ृ वी भी साथ है । लट्टू जब अपनी कीली पर घम
ू ता है , तो वह
इधर-उधर उठता भी रहता है । इसे मँडराने की चाल कहते ह िजसका एक चक्कर करीब २६ हजार वषर्
म परू ा होता है । कृितका नक्षत्र भी सौरम डल आिद अपने उपग्रह को लेकर धु ्रव की पिरक्रमा करता
है , उस दशा म प ृ वी की गित पाँचवीं हो जाती है ।

सू म परमाणु के सू मतम भाग सगार्णु तक भी मानव बिु द्ध पहुँच गई है और बड़े से बड़े महा अणओ
ु ं
के प म पाँच गित तो प ृ वी की िविदत हुईं। आकाश के असंख्य ग्रह-नक्षत्र का पार पिरक स ब ध
न जाने िकतने बड़े महाअणु के प म पूरा होता होगा! उस महानता की क पना भी बुिद्ध को थका दे ती
है । उसे भी अप्रितम, अप्रमेय और अिच य ही कहा जाएगा।

सू म से सू म और महत ् से महत ् के द्र पर जाकर बुिद्ध थक जाती है और उससे छोटे या बड़े की


क पना नहीं हो सकती, उस के द्र को ‘िब द’ु कहते ह।

अणु को योग की भाषा म अ ड भी कहते ह। वीयर् का एक कण ‘अ ड’ है । वह इतना छोटा होता है


िक बारीक खुदर्बीन से भी मिु कल से ही िदखाई दे ता है ; पर जब वह िवकिसत होकर थूल प म
आता है तो वही बड़ा अ डा हो जाता है । उस अ डे◌े के भीतर जो पक्षी रहता है , उसके अनेक अंग-
प्र यंग िवभाग होते ह। उन िवभाग म असंख्य सू म िवभाग और उनम भी अगिणत कोषा ड रहते ह।
इस प्रकार शरीर भी एक अणु है , इसी को अ ड या िप ड कहते ह। अिखल िव व-ब्र मा ड म अगिणत
सौरम डल, आकाश गंगा और ध्रव
ु चक्र ह।

इन ग्रह की दरू ी और िव तार का कुछ िठकाना नहीं। प ृ वी बहुत बड़ा िप ड है , पर सय


ू र् तो प ृ वी से
भी तेरह लाख गन ु ा बड़ा है । सय
ू र् से भी करोड़ गुने ग्रह आकाश म मौजद
ू ह। इनकी दरू ी का अनुमान
इससे लगाया जाता है िक प्रकाश की गित प्रित सेके ड पौने दो लाख मील है और उन ग्रह का प्रकाश
प ृ वी तक आने म ३० लाख वषर् लगते ह। यिद कोई ग्रह आज न ट हो जाए, तो उसका अि त व न
रहने पर भी उसकी प्रकाश िकरण आगामी तीस लाख वषर् तक यहाँ आती रहगी। िजस नक्षत्र का
प्रकाश प ृ वी पर आता है , उनके अितिरक्त ऐसे ग्रह बहुत अिधक ह जो अ यिधक दरू ी के कारण प ृ वी
पर दरु बीन से भी िदखाई नहीं दे ते। इतने बड़े और दरू थ ग्रह जब अपनी पिरक्रमा करते ह गे, अपने
ग्रहम डल को साथ लेकर पिरभ्रमण को िनकलते ह गे, उस शु य के िव तार की क पना कर लेना
मानव मि त क के िलए बहुत ही किठन है ।

इतना बड़ा ब्र मा ड भी एक अणु या अ ड है । इसिलए उसे ब्र म+अ ड=ब्र मा ड कहते ह। पुराण म
वणर्न है िक जो ब्र मा ड हमारी जानकारी म है , उसके अितिरक्त भी ऐसे ही और अगिणत ब्र मा ड ह
और उन सबका समह
ू एक महाअ ड है । उस महाअ ड की तुलना म प ृ वी उतनी ही छोटी बैठती है ,
िजतना िक परमाणु की तुलना म सगार्णु छोटा होता है ।

267
इस लघु से लघु और महान ् से महान ् अ ड म जो शिक्त यापक है , जो इन सबको गितशील, िवकिसत,
पिरवितर्त एवं चैत य रखती है , उस स ता को ‘िब द’ु कहा गया है । यह िब द ु ही परमा मा है । उसी को
छोटे से छोटा और बड़े से बड़ा कहा जाता है । ‘अणोरणीयान ् महतो महीयान ्’ कहकर उपिनषद ने उसी
परब्र म का पिरचय िदया है ।

इस िब द ु का िच तन करने से आन दमय कोश ि थत जीव को उस परब्र म के प की कुछ झाँकी


होती है और उसे प्रतीत होता है िक परब्र म की, महा-अ ड की तुलना म मेरा अि त व, मेरा िप ड
िकतना तु छ है । इस तु छता का भान होने से अहं कार और गवर् िवगिलत हो जाते ह। दस
ू री ओर जब
सगार्णु से अपने िप ड की, शरीर की तुलना करते ह तो प्रतीत होता है िक अटूट शिक्त के अक्षय
भ डार सगार्णु की इतनी अटूट संख्या और शिक्त जब हमारे भीतर है , तो हम अपने को अशक्त
समझने का कोई कारण नहीं है । उस शिक्त का उपयोग जान िलया जाए तो संसार म होने वाली कोई
भी बात हमारे िलए अस भव नहीं हो सकती।

जैसे महाअ ड की तुलना म हमारा शरीर अ य त क्षुद्र है और हमारी तुलना म उसका िव तार
अनुपमेय है , इसी प्रकार सगार्णओ
ु ं की ि ट म हमारा िप ड (शरीर) एक महाब्र मा ड जैसा िवशाल
होगा। इसम जो ि थित समझ म आती है , वह प्रकृित के अ ड से िभ न एक िद य शिक्त के प म
िविदत होती है । लगता है िक म म य िब द ु हूँ, के द्र हूँ, सू म से सू म म और थल
ू से थूल म मेरी
यापकता है ।

लघत
ु ा-मह ता का एका त िच तन ही िब द ु साधना कहलाता है । इस साधना के साधक को सांसािरक
जीवन की अवा तिवकता और तु छता का भली प्रकार बोध हो जाता है और साथ ही यह भी प्रतीत हो
जाता है िक म अन त शिक्त का उ गम होने के कारण इस सिृ ट का मह वपण
ू र् के द्र हूँ। जैसे
जापान पर फटा हुआ परमाणु ऐितहािसक ‘एटम बम’ के प म िचर मरणीय रहे गा, वैसे ही जब अपने
शिक्तपु ज का सदप
ु योग िकया जाता है , तो उसके वारा अप्र यक्ष प से संसार का भारी पिरवतर्न
करना स भव हो जाता है ।

िव वािमत्र ने राजा हिर च द्र के िप ड को एटम बम बनाकर अस य के साम्रा य पर इस प्रकार


िव फोट िकया था िक लाख वषर् बीत जाने पर भी उसकी ऐिक्टव िकरण अभी समा त नहीं हुई ह और
अपने प्रभाव से असंख्य को बराबर प्रभािवत करती चली आ रही ह। महा मा गाँधी ने बचपन म राजा
हिर च द्र का लेख पढ़ा था। उसने अपने आ म-चिरत्र म िलखा है िक म उसे पढ़कर इतना प्रभािवत
हुआ िक वयं भी हिर च द्र बनने की ठान ली। अपने संक प के वारा वे सचमचु हिर च द्र बन भी
गए। राजा हिर च द्र आज नहीं ह, पर उनकी आ मा अब भी उसी प्रकार अपना महान कायर् कर रही
है । न जाने िकतने अप्रकट गाँधी उसके वारा िनिमर्त होते रहते ह गे। गीताकार आज नहीं ह, पर आज
उनकी गीता िकतन को अमत
ृ िपला रही है ? यह िप ड का सू म प्रभाव ही है , जो प्रकट या अप्रकट प

268
से व पर क याण का महान ् आयोजन प्र तत
ु करता है ।

कालर्माक्सर् के सू म शिक्तके द्र से प्र फुिटत हुई चेतना आज आधी दिु नया को क युिन ट बना चुकी
है । पूवक
र् ाल म महा मा ईसा, मह ु मद, बुद्ध, कृ ण आिद अनेक महापु ष ऐसे हुए ह, िज ह ने संसार पर
बड़े मह वपण
ू र् प्रभाव डाले ह। इन प्रकट महापु ष के अितिरक्त ऐसी अनेक अप्रकट आ माएँ भी ह
िज ह ने संसार की सेवा म, जीव के क याण म गु त प से बड़ा भारी काम िकया है । हमारे दे श म
योगी अरिव द, महिषर् रमण, रामकृ ण परमहं स, समथर् गु रामदास आिद वारा जो कायर् हुआ तथा
आज भी अनेक महापु ष जो कायर् कर रहे ह, उसको थूल ि ट से नहीं समझा जा सकता है । युग
पिरवतर्न िनकट है , उसके िलए रचना मक और वंसा मक प्रविृ तय का सू म जगत ् म जो महान ्
आयोजन हो रहा है , उस महाकायर् को हमारे चमर्-चक्षु दे ख पाय तो जान िक कैसा अनुपम एवं अभत
ू पूवर्
पिरवतर्न चक्र प्र तुत हो रहा है और वह चक्र िनकट भिव य म कैसे-कैसे िवलक्षण पिरवतर्न करके
मानव जाित को एक नये प्रकाश की ओर ले जा रहा है ।

िवषया तर चचार् करना हमारा प्रयोजन नहीं है । यहाँ तो हम यह बताना है िक लघत


ु ा और मह ता के
िच तन की िब द ु साधना से आ मा का भौितक अिभमान और लोभ िवगिलत होता है , साथ ही उस
आ तिरक शिक्त का िवकास होता है जो ‘ व’ पर क याण के िलए अ य त ही आव यक एवं
मह वपूणर् है ।

िब दस
ु ाधक की आ मि थित उ वल होती जाती है , उसके िवकार िमट जाते ह। फल व प उसे उस
अिनवर्चनीय आन द की प्राि त होती है िजसे प्रा त करना जीवन धारण का प्रधान उ े य है ।

कला साधना - आन दमय कोश की साधना


कला का अथर् है -िकरण। प्रकाश य तो अ य त सू म है , उस पर सू मता का ऐसा समह
ू , जो हम एक
िनि चत प्रकार का अनभ
ु व करावे ‘कला’ कहलाता है । सय
ू र् से िनकलकर अ य त सू म प्रकाश तरं ग
भत
ू ल पर आती ह, उनका एक समह
ू ही इस योग्य बन पाता है िक नेत्र से या य त्र से उसका अनभ
ु व
िकया जा सके। सय
ू र् िकरण के सात रं ग प्रिसद्ध ह। परमाणओ
ु ं के अ तगर्त जो ‘परमाण’ु होते ह, उनकी
िव युत ् तरं ग जब हमारे नेत्र से टकराती ह, तभी िकसी रं ग प का ज्ञान हम होता है । प को
प्रकाशवान ् बनाकर प्रकट करने का काम कला वारा ही होता है । कलाएँ दो प्रकार की होती ह—

(१) आि त, (२) याि त। आि त िकरण वे ह, जो प्रकृित के अणओ


ु ं से प्र फुिटत होती ह। याि त वे ह
जो पु ष के अ तराल से आिवभत
ूर् होती ह, इ ह ‘तेजस ्’ भी कहते ह। व तुएँ प चत व से बनी होती
ह, इसिलए परमाणु से िनकलने वाली िकरण अपने प्रधान त व की िवशेषता भी साथ िलए होती ह, वह
िवशेषता रं ग वारा पहचानी जाती है । िकसी व तु का प्राकृितक रं ग दे खकर यह बताया जा सकता है

269
िक इन प चत व म कौन सा त व िकस मात्रा म िव यमान है ? स ् याि त कला, िकसी मनु य के
‘तेजस ्’ म पिरलिक्षत होती है । यह तेजस ् मख
ु के आस-पास प्रकाश म डल की तरह िवशेष प से फैला
होता है । य तो यह सारे शरीर के आस-पास प्रकािशत रहता है ; इसे अंग्रेजी म ‘ऑरा और सं कृत म
‘तेजोवलय’ कहते ह। दे वताओं के िचत्र म उनके मख
ु के आस-पास एक प्रकाश का गोला सा िचित्रत
होता है , यह उनकी कला का ही िच न है ।

अवतार के स ब ध म उनकी शिक्त का माप उनकी किथत कलाओं से िकया जाता है । परशुराम जी
म तीन, रामच द्र जी म बारह, कृ ण जी म सोलह कलाएँ बताई गई ह। इसका ता पयर् यह है िक उनम
साधारण मात्रा म इतनी गन
ु ी आि मक शिक्त थी। सू मदशीर् लोग िकसी यिक्त या व तु की
आ तिरक ि थित का पता उनके तेजोवलय और रं ग, प, चमक एवं चैत यता को दे खकर मालम
ू कर
लेते ह। ‘कला’ िव या की िजसे जानकारी है , वह भिू म के अ तगर्त िछपे हुए पदाथ को, व तुओं के
अ तगर्त िछपे हुए गण
ु , प्रभाव एवं मह व को आसानी से जान लेता है । िकस मनु य म िकतनी
कलाएँ ह, उसम क्या-क्या शारीिरक, मानिसक एवं आि मक िवशेषताएँ ह तथा िकन-िकन गण
ु , दोष,
योग्यताओं, साम य की उनम िकतनी यन
ू ािधकता है , यह सहज ही पता चल जाता है । इस जानकारी
के होने से िकसी यिक्त से समिु चत स ब ध रखना सरल हो जाता है । कला िवज्ञान का ज्ञाता अपने
शरीर की ताि वक यन
ू ािधकता का पता लगाकर इसे आ मबल से ही सध
ु ार सकता है और अपनी
कलाओं म समिु चत संशोधन, पिरमाजर्न एवं िवकास कर सकता है । कला ही साम यर् है । अपनी
आि मक साम यर् का, आि मक उ नित का माप कलाओं की परीक्षा करके प्रकट हो जाता है और
साधक यह िनि चत कर सकता है िक उ नित हो रही है या नहीं, उसे स तोषजनक सफलता िमल रही
है या नहीं। सब ओर से िच त हटाकर नेत्र ब द करके भक
ृ ु टी के म य भाग म यान एकित्रत करने से
मि त क म तथा उसके आस-पास रं ग-िबरं गी धि जयाँ, िचि दयाँ तथा िततिलयाँ सी उड़ती िदखाई
पड़ती ह।

इनके रं ग का आधार त व पर िनभर्र होता है । प ृ वीत व का रं ग पीला, जल का वेत, अिग्न का


लाल, वायु का हरा, आकाश का नीला होता है । िजस रं ग की िझलिमल होती है , उसी के आधार पर यह
जाना जा सकता है िक इस समय हमम िकन त व की अिधकता और िकनकी यूनता है । प्र येक रं ग
म अपनी-अपनी िवशेषता होती है । पीले रं ग म-क्षमा, ग भीरता, उ पादन, ि थरता, वैभव, मजबूती,
संजीदगी, भारीपन। वेत रं ग म-शाि त, रिसकता, कोमलता, शीघ्र प्रभािवत होना, तिृ त, शीतलता, सु दरता,
विृ द्ध, प्रेम। लाल रं ग म-गमीर्, उ णता, क्रोध, ई यार्, वेष, अिन ट, शरू ता, साम यर्, उ तेजना, कठोरता,
कामक
ु ता, तेज, प्रभावशीलता, चमक, फूितर्। हरे रं ग म-च चलता, क पना, व नशीलता, जकड़न, ददर् ,
अपहरण, धत
ू त
र् ा, गितशीलता, िवनोद, प्रगितशीलता, प्राण पोषण, पिरवतर्न। नीले रं ग म-िवचारशीलता, बिु द्ध
सू मता, िव तार, साि वकता, प्रेरणा, यापकता, संशोधन, स वद्धर्न, िस चन, आकषर्ण आिद गण
ु होते ह।
जड़ या चेतन िकसी भी पदाथर् के प्रकट रं ग एवं उससे िनकलने वाली सू म प्रकाश- योित से यह जाना

270
जा सकता है िक इस व तु या प्राणी का गण
ु , वभाव एवं प्रभाव कैसा हो सकता है ? साधारणत: यह
पाँच त व की कला है , िजनके वारा यह कायर् हो सकता है —

(१) यिक्तय तथा पदाथ की आ तिरक ि थित को समझना, (२) अपने शारीिरक तथा मानिसक क्षेत्र म
अस तुिलत िकसी गण
ु -दोष को स तुिलत करना, (३) दस
ू र के शारीिरक तथा मन की िवकृितय का
संशोधन करके सु यव था थािपत करना, (४) त व के मल
ू आधार पर पहुँचकर त व की गितिविध
तथा िक्रया पद्धित को जानना, (५) त व पर अिधकार करके सांसािरक पदाथ का िनमार्ण, पोषण तथा
िवनाश करना। यह उपरोक्त पाँच लाभ ऐसे ह िजनकी याख्या की जाए तो वे ऋिद्ध-िसिद्धय के समान
आ चयर्जनक प्रतीत ह गे। ये पाँच भौितक कलाएँ ह, िजनका उपयोग राजयोगी, हठयोगी, म त्रयोगी तथा
ताि त्रक अपने-अपने ढं ग से करते ह और इस ताि वक शिक्त का अपने-अपने ढं ग से सदप
ु योग-
द ु पयोग करके भले-बुरे पिरणाम उपि थत करते ह। कला वारा सांसािरक भोग वैभव भी िमल सकता
है , आ मक याण भी हो सकता है और िकसी को शािपत, अिभचािरत एवं द:ु ख-शोक-स त त भी बनाया
जा सकता है । प चत व की कलाएँ ऐसी ही प्रभावपण
ू र् होती ह। आि मक कलाएँ तीन होती ह—सत ्,
रज, तम। तमोगण
ु ी कलाओं का म य के द्र िशव है । रावण, िहर यकिशप,ु भ मासरु , कु भकरण, मेघनाद
आिद असरु इ हीं तामिसक कलाओं के िसद्ध पु ष थे। रजोगण
ु ी कलाएँ ब्र मा से आती ह। इ द्र, कुबेर,
व ण, वह
ृ पित, धु ्रव, अजन
ुर् , भीम, यिु धि ठर, कणर् आिद म इन राजिसक कलाओं की िवशेषता थी।
सतोगण
ु ी िसिद्धयाँ िव णु से आिवभत
ूर् होती ह। यास, विस ठ, अित्र, बद्ध
ु , महावीर, ईसा, गाँधी आिद ने
साि वकता के के द्र से ही शिक्त प्रा त की थी।

आि मक कलाओं की साधना गायत्रीयोग के अ तगर्त ग्रि थभेदन वारा होती है । द्रग्रि थ, िव णग्र
ु ि थ
और ब्र मग्रि थ के खुलने से इन तीन ही कलाओं का साक्षा कार साधक को होता है । पूवक
र् ाल म लोग
के शरीर म आकाश त व अिधक था, इसिलए उ ह उ हीं साधनाओं से अ यिधक आ चयर्मयी साम यर्
प्रा त हो जाती थी; पर आज के युग म जनसमद
ु ाय के शरीर म प ृ वीत व प्रधान है , इसिलए अिणमा,
मिहमा आिद तो नहीं, पर सत ्, रज, तम की शिक्तय की अिधकता से अब भी आ चयर्जनक िहतसाधन
हो सकता है । पाँच कलाओं वारा ताि वक साधना (१) प ृ वी त व—इस त व का थान मल
ू ाधार चक्र
अथार्त ् गद
ु ा से दो अंगल
ु अ डकोश की ओर हटकर सीवन म ि थत है । सष
ु ु ना का आर भ इसी थान
से होता है । प्र येक चक्र का आकार कमल के पु प जैसा है । यह ‘भल
ू ोक’ का प्रितिनिध है । प ृ वीत व
का यान इसी मल
ू ाधार चक्र म िकया जाता है । प ृ वी त व की आकृित चतु कोण, रं ग पीला, गण

ग ध है । इसको जानने की इि द्रय नािसका तथा कमि द्रय गद
ु ा है । शरीर म पीिलया, कमलबाई आिद
रोग इसी त व की िवकृित से पैदा होते ह। भय आिद मानिसक िवकार म इसकी प्रधानता होती है ।
इस त व के िवकार, मल
ू ाधार चक्र म यान ि थत करने से अपने आप शा त हो जाते ह।

साधन िविध—सबेरे जब एक पहर अँधेरा रहे , तब िकसी शा त थान और पिवत्र आसन पर दोन पैर
को पीछे की ओर मोड़कर उन पर बैठ। दोन हाथ उलटे करके घुटन पर इस प्रकार रख िजससे
271
उँ गिलय के छोर पेट की ओर रह। िफर नािसका के अग्रभाग पर ि ट रखते हुए मल
ू ाधार चक्र म ‘लं’
बीज वाली चौकोर पीले रं ग की प ृ वी का यान कर। इस प्रकार करने से नािसका सगु ि ध से भर
जाती है और शरीर उ वल काि त वाला हो जाता है ।

यान करते समय ऊपर कहे प ृ वीत व के सम त गण


ु को अ छी तरह यान म लाने का प्रय न
करना चािहए और ‘लं’ इस बीजम त्र का मन ही मन (श द प से नहीं, वरन ् विन प से) जप करते
जाना चािहए। (२) जल त व—पेडू के नीचे, जननेि द्रय के ऊपर मल
ू भाग म वािध ठान चक्र म
जलत व का ु :’ लोक का प्रितिनिध है । रं ग वेत, आकृित अद्धर्च द्राकार और
थान है । यह चक्र ‘भव
गण
ु रस है । कटु, अ ल, ितक्त, मधुर आिद सब रस का वाद इसी त व के कारण आता है । इसकी
ज्ञानेि द्रय िज वा और कमि द्रय िलंग है । मोहािद िवकार इसी त व की िवकृित से होते ह। साधन
िविध—प ृ वीत व का यान करने के िलए बताई हुई िविध से आसन पर बैठकर ‘बं’ बीज वाले
अद्धर्च द्राकार, च द्रमा की तरह काि त वाले जलत व का वािध ठान चक्र म यान करना चािहए।
इनसे भख
ू - यास िमटती है और सहन शिक्त उ प न होती है । (३) अिग्न त व—नािभ थान म ि थत
मिणपरू क चक्र म अिग्नत व का िनवास है । यह ‘ व:’ लोक का प्रितिनिध है । इस त व की आकृित
ित्रकोण, रं ग लाल, गण
ु प है । ज्ञानेि द्रय नेत्र और कमि द्रय पाँव ह। क्रोधािद मानिसक िवकार तथा
सज
ू न आिद शारीिरक िवकार इस त व की गड़बड़ी से होते ह। इसके िसद्ध हो जाने पर म दािग्न,
अजीणर् आिद पेट के िवकार दरू हो जाते ह और कु डिलनी शिक्त के जाग्रत ् होने म सहायता िमलती
है ।

साधन िविध—िनयत समय पर बैठकर ‘रं ’ बीज म त्र वाले ित्रकोण आकृित के और अिग्न के समान
लाल प्रभा वाले अिग्नत व का मिणपूरक चक्र म यान कर। इस त व के िसद्ध हो जाने पर सहन
करने की शिक्त बढ़ जाती है । (४) वायु त व—यह त व दय दे श म ि थत अनाहत चक्र म है एवं
‘महल क’ का प्रितिनिध है । रं ग हरा, आकृित ष कोण तथा गोल दोन तरह की है । गण
ु - पशर्, ज्ञानेि द्रय-
वचा और कमि द्रय-हाथ ह। वात- यािध, दमा आिद रोग इसी की िवकृित से होते ह। साधन िविध—
िनयत िविध से ि थत होकर ‘यं’ बीज वाले गोलाकार, हरी आभा वाले वायुत व का अनाहत चक्र म
यान कर। इससे शरीर और मन म हलकापन आता है । (५) आकाश त व—शरीर म इसका िनवास
िवशुद्धचक्र म है ।

यह चक्र क ठ थान ‘जनलोक’ का प्रितिनिध है । इसका रं ग नीला, आकृित अ डे की तरह ल बी, गोल,
गण
ु श द, ज्ञानेि द्रय कान तथा कमि द्रय वाणी है । साधन िविध—पूव क्त आसन पर ‘हं ’ बीज म त्र
का जाप करते हुए िचत्र-िविचत्र रं ग वाले आकाश त व का िवशुद्ध चक्र म यान करना चािहए। इससे
तीन काल का ज्ञान, ऐ वयर् तथा अनेक िसिद्धयाँ प्रा त होती ह। िन य प्रित पाँच त व का छ: मास
तक अ यास करते रहने से त व िसद्ध हो जाते ह; िफर त व को पहचानना और उसे घटाना-बढ़ाना

272
सरल हो जाता है । त व की साम यर् तथा कलाएँ बढ़ने से साधक कलाधारी बन जाता है । उसकी
कलाएँ अपना चम कार प्रकट करती रहती ह।

तुरीयाव था - आन दमय कोश की साधना


मन को पण
ू त
र् या संक प रिहत कर दे ने से िरक्त मानस की िनिवर्षय ि थित होती है , उसे तरु ीयाव था
कहते ह। जब मन म िकसी भी प्रकार का एक भी संक प न रहे , यान, भाव, िवचार, संक प, इ छा,
कामना को पूणत
र् या बिह कृत कर िदया जाए और भावरिहत होकर केवल आ मा के एक के द्र म अपने
अ त:करण को पूणत
र् या समािव ट कर िदया जाए, तो साधक तुरीयाव था म पहुँच जाता है । इस ि थित
म इतना आन द आता है िक उस आन द के अितरे क म अपनेपन की सारी सुध-बुध छूट जाती है
और पूणर् मनोयोग होने से िबखरा हुआ आन द एकीभत
ू होकर साधक को आन द से पिरत ृ त कर दे ता
है , इसी ि थित को समािध कहते ह।

समािध काल म अपना संक प ही एक सजीव एवं अन त शिक्तशाली दे व बन जाता है और उसकी


झाँकी य जगत ् से भी अिधक प ट होती है । नेत्र के दोष और च चलता से कई व तए
ु ँ हम धध
ुँ ली
िदखाई पड़ती ह और उनकी बारीिकयाँ नहीं सझ
ू पड़तीं। पर तु समािध अव था म पिरपण
ू र् िद य
इि द्रय और िच त-विृ तय का एकीकरण िजस संक प पर होता है , वह संक प सब प्रकार मिू तर्मान ्
एवं सिक्रय पिरलिक्षत होता है । िजस िकसी को जब कभी ई वर का मिू तर्मान ् साक्षा कार होता है , तब
समािध अव था म उसका संक प ही मिू तर्मान ् हुआ होता है ।

भावावेश म भी क्षिणक समािध हो जाती है । भूत-प्रेत आवेश, दे वो माद, हषर्-शोक की मू छार्, न ृ य-वा य
म लहरा जाना, आवेश म अपनी या दस
ू रे की ह या आिद भयंकर कृ य कर डालना, क्रोध का यितरे क,
िबछुड़ से िमलन का प्रेमावेश, कीतर्न आिद के समय भाव-िव वलता, अ ुपात, ची कार, आतर्नाद, क ण
क्र दन, हूक आिद म आंिशक समािध होती है । संक प म, भावना म आवेश की िजतनी अिधक मात्रा
होगी, उतनी ही गहरी समािध होगी और उसका फल भी सख ु या द:ु ख के प म उतना ही अिधक
होगा। भय का यितरे क या आवेश होने पर डर के मारे भावना मात्र से लोग की म ृ यु तक होती दे खी
गई है । कई यिक्त फाँसी पर चढ़ने से पूवर् ही डर के मारे प्राण याग दे ते ह।

आवेश की दशा म अ तरं ग शिक्तय और विृ तय का एकीकरण हो जाने से एक प्रच ड भावो वेग
होता है । यह उ वेग िभ न-िभ न दशाओं म मू छार्, उ माद, आवेश आिद नाम से पुकारा जाता है । पर
जब वह िद य भिू मका म आ मत मयता के साथ होता है , तो उसे समािध कहते ह। पूणर् समािध म
पूणर् त मयता के कारण पूणार्न द का अनुभव होता है । आर भ व प मात्रा की आंिशक समािध के
साथ होता है । दै वी भावनाओं म एकाग्रता एवं त मयतापूणर् भावावेश जब होता है , तो आँख झपक जाती
ह, सु ती, त द्रा या मू छार् भी आने लगती है , माला हाथ से छूट जाती है , जप करते-करते िज वा क
273
जाती है । अपने इ ट की हलकी-सी झाँकी होती है और एक ऐसे आन द की क्षिणक अनभ
ु िू त होती है
जैसा िक संसार के िकसी पदाथर् म नहीं िमलता। यह ि थित आर भ म व प मात्रा म ही होती है , पर
धीरे -धीरे उसका िवकास होकर पिरपण
ू र् तरु ीयाव था की ओर चलने लगती है और अ त म िसिद्ध िमल
जाती है ।

आन दमय कोश के चार अंग प्रधान ह—(१) नाद, (२) िब द,ु (३) कला और (४) तुरीया। इन साधन वारा
साधक अपनी प चम भिू मका को उ तीणर् कर लेता है । गायत्री के इस पाँचव मख
ु को खोल दे ने वाला
साधक जब एक-एक करके पाँच मख
ु से माता का आशीवार्द प्रा त कर लेता है , तो उसे और प्रा त
करना कुछ शेष नहीं रह जाता।

पंचकोशी साधना का ज्ञात य


िपछले प ृ ठ पर प चकोशी साधना के अ तगर्त योगिव या की वे साधनाएँ बताई गई ह जो
सवर्साधारण के िलए सरल एवं उपयोगी ह। यह प्रकट है िक आ याि मक महात व गायत्री ही है ।
िजतना भी ज्ञान, िवज्ञान और योग है , वह सब गायत्री से आिवभत
ूर् होता है , इसिलए ऐसी कोई साधना
हो नहीं सकती जो गायत्री की महापिरिध से बाहर हो। स पण
ू र् योगशा त्र िनि चत प से गायत्री के
अ तगर्त है । योग साधनाएँ अनेक ह। वे सब एक ही महात व की प्राि त के िलए ह। गायत्री का नाम
ही ‘मिु क्त’ है और उसी को िसिद्ध कहते ह। जैसे िकसी नगर मे पहुँचने के िलए अनेक िदशाओं के
अनेक रा ते होते ह,

उसी प्रकार प्रभु प्राि त के िलए अनेक योग ह। प्र येक मागर् म अलग-अलग प्रकार के य, पदाथर् और
मनु य िमलते ह। इनको यान म रखते हुए लोग िनिदर् ट थान पर पहुँचने का मागर् िनधार्िरत करते
ह। इसी प्रकार प्र येक योग साधना की यह िवशेषता है िक उसके मागर् म अपने-अपने ढं ग के अनोखे-
अनोखे अनुभव होते ह, िभ न-िभ न िसिद्धयाँ एवं अनुभिू तयाँ प्रा त होती ह। अ त म पहुँचते सब एक
ही थान पर ह। योग साधनाएँ अनेक प्रकार की इसिलए ह िक मनोभिू म, ि थित, शिक्त, सिु वधा, िच,
दे श, काल, पात्र के भेद से िभ न-िभ न पिरि थित के लोग उ ह अपना सक। युग पिरवतर्न के अनुसार
त व की ि थित म अ तर आता रहता है । पूवक
र् ाल म जलवायु म जो गण
ु था, वह अब नहीं है ; जो
अब है , वह आगे न रहे गा। सिृ ट धीरे -धीरे बूढ़ी होती जाती है । बालक म िजतनी फूितर्, कोमलता,
च चलता, उमंग और सु दरता होती है , वह बूढ़े म नहीं रहती। जवान आदमी िजतना बोझ उठा सकता
है , उतना वद्ध
ृ पु ष के िलए स भव नहीं।

सतयुग सिृ ट का बालकपन है , त्रेता जवानी, वापर अधेड़ाव था है तो किलयुग बुढ़ापा। प चत व की


यही ि थित होती है । जब बुढ़ापा अिधक आ जाता है तो सिृ ट मर जाती है , प्रलय हो जाती है । िफर
उसका नया ज म होता है । सतयुग के बालक-प चत व म प्रािणय के शरीर भी वैसे ही थे। खा य
274
पदाथर् तथा जलवायु म भी वैसी ही िवशेषता थी। मानिसक चेतना, इि द्रय लालसा, आहार-िवहार, आयु
एवं शरीर के ढाँचा का, गमीर् तथा वायु के भी यग
ु -प्रभाव से बहुत कुछ स ब ध रहता है । भग ू भर् िवज्ञान
के अ वेषक ने कुछ हजार वषर् परु ाने ऐसे जीव-ज तओ ु ं के प्रमाण पाए ह, जो वतर्मान जीव की अपेक्षा
कहीं िभ न आकृित के और कहीं अिधक बड़े थे। ऐसे मनु य के अि थ-प जर िमले ह जो दस फीट
ल बे थे। महागज, महामकर और महाशूकर अपने वतर्मान वंशज की अपेक्षा पाँच गन
ु े से लेकर सतीस
गन
ु े तक बड़े थे, ऐसे प्रमाण िमल चुके ह। िजस प्रकार सय र् ाल म अिग्न त व प्रधान शरीर वाले प्राणी
ू क
रहते ह,

उसी प्रकार सतयुग म आकाश त व की प्रधानता इस प ृ वी पर होने से उस समय उसी त व की


प्रधानता वाले प्राणी इस प ृ वी पर थे। उनके िलए आकाश म िबना पंख के भी उड़ना सरल था।
हनुमान ने िबना पंख के छलाँग मारकर समद्र
ु को पार िकया था। त्रेता म ऐसा करना कुछ लोग के
िलए स भव रह गया था, इसिलए हनुमान जी को िवशेष मह व िमला। सतयुग म यह िबलकुल
साधारण बात थी। पव
ू र् यग
ु की ि थित का कुछ पिरचय यहाँ हम इसिलए दे ना पड़ा है िक पाठक यह
जान जाएँ िक जो योग साधनाएँ सतयग
ु के मनु य के िलए अ य त सरल और वाभािवक थीं, वे अब
ू क
नहीं हो सकतीं। जो िसिद्धयाँ पव र् ाल म थोड़ी सी साधना से िमल जाती थीं, वे अब अस भव ह। पावर्ती
ने िशव को प्रा त करने के िलए िकतने ल बे समय तक िकतना क टसा य तप िकया था, वैसा आज
की ि थित म िकसी के िलए स भव नहीं है ।

स भव इसिलए नहीं है िक मनु य की आयु सौ वषर् रह गई है और प ृ वी त व प्रधान हो जाने से


शरीर म जड़ता का अंश अिधक आ गया है । िकसी समय म शरीर म पाप के होने न होने की परीक्षा
अिग्न म तपाकर वैसे ही कर ली जाती थी जैसे िक आजकल सोने को तपाकर कर ली जाती है ।
सीताजी ने हँ सते-हँ सते उस प्रकार की अिग्नपरीक्षा दी थी और उनके शरीर को जरा भी क ट न हुआ
था; पर आज तो परम सा वी का शरीर भी अिग्न से जले िबना नहीं रह सकता। किलयुग म सती प्रथा
का इसिलए िनषेध है िक पित की िचता पर जलने से आज कोई त्री क टपीिड़त हुए िबना नहीं रह
सकती। इसिलए पूवक
र् ाल की सितय की भाँित वह पित को शाि त दे ना तो दरू , उलटे अपने आतर्नाद
से पित की आ मा को अ य त द:ु ख और नारकीय यथा म डुबो दे ती है । कहने का ता पयर् केवल
इतना ही है िक युग की ि थित के अनस
ु ार योग साधना का मागर् और पिरणाम बदल जाता है , इसिलए
साधनाक्रम की यव था और िविध-िवधान म अ तर पड़ता जाता है । इस यग
ु के त ववे ता अपनी
सू म ि ट से अ वेषण करके यह िन चय करते ह िक आज की ि थित म कौन-सा साधन आव यक
है और िकस प्रकृित का, िकस मनोभिू म का साधक िकस साधना को ठीक प्रकार कर सकेगा? यह िनणर्य
ठीक न हो, तो योग साधना से कई बार लाभ के बदले उलटी हािन होती दे खी जाती है । ऐसी अनेक
दघ
ु ट
र् नाएँ हमने अपनी आँख से दे खी ह।

प्राण को ब्र मा ड म चढ़ाकर वापस लौटाने की िक्रया से अपिरिचत होने के कारण एक साधक की आधे
275
घ टे म म ृ यु हो गई थी। एक स जन कु डिलनी जागरण के िसलिसले म पक्षपात के चंगल
ु म फँस
गए। कु डिलनी का कूमर् मे जरा-सा िवचिलत हुआ था िक वे ‘िपंगला’ म ‘कृकल’ प्राण को प्रवेश
कराने लगे, फल व प वायु कुिपत हो गई और लकवा से उनके हाथ-पाँव जकड़ गए। गायत्री म त्र की
साधना करते हुए प्राणकोश की ‘िहं ा’ को एक स जन जगा रहे थे। िकसी दस ू रे पर घात चलाने का
उनका इरादा था, पर ‘िहं ा’ जाग्रत ् न हो सकी और भल
ू से उनके वाम पा वर् म रहने वाला ितयर्क् अणु
ु और नाक से खून डालने लगे। तीन सेर (िक.ग्रा.) खून िनकल जाने से उनकी म ृ यु ४०
फट गया, वे मँह
िमनट के भीतर हो गई। हठयोग की हम अिधक चचार् सन
ु ते ह, क्य िक वह िनकट भत
ू म किलयुग के
प्रार भ म काफी िक्रयाशील था। नागाजन
ुर् हठयोग को पूणर् िसद्ध कर चुके थे।

नाथ स प्रदाय के आचायर् गोरखनाथ और म ये द्रनाथ पूणर् हठयोगी थे। बौद्धकाल म महायान, वज्रयान
आिद का प्रचलन था, पर अब हठयोग का समय भी बीत चुका है । व थ हठयोगी जहाँ-तहाँ ही एकाध
दीख पड़ता है । ष कमर्, नेित, धोित, वि त, योिल, बज्रोली, कपालभाित करते हुए िकतने ही साधक हमने
उदर रोग से ग्र त दे खे ह। नािसका से होकर सत ू की डोरी चढ़ाते हुए एक स जन अपने नेत्र खो बैठे।
मँह
ु से कपड़े की पट्टी पेट म पहुँचाने की िक्रया आर भ करते हुए एक स जन संग्रहणी म ग्र त हुए तो
िफर उस रोग से उ ह छुटकारा ही न िमला। बज्रोली िक्रया करने वाले अकसर बहुमत्रू और गद ु की
सज ू न से ग्रिसत हो जाते ह। कारण यह है िक साधक की ि थित का भली प्रकार िनरीक्षण िकए िबना
यिद उसकी प्रकृित से िवपरीत साधन बता िदया जाए, तो इससे उसका अिहत ही हो सकता है । कई
साधक ऐसे द ु साहसी, अहं कारी और ज दबाज होते ह िक िबना उपयक्
ु त पथ-प्रदशर्क की सलाह िलए
अपनी मजीर् से, कहीं पढ़-सन
ु कर मनमानी साधना करने लगते ह, मनमाने लाभ की क पना कर लेते
ह, मनमानी िविध- यव था रख लेते ह। इससे उ ह लाभ के थान पर हािन ही अिधक होती है । इ हीं
कारण से योग मागर् म गु का होना आव यक माना गया। इस पु तक म प चकोश की साधना की
चचार् करते हुए गायत्री योग का उ लेख िकया है । उनम िक हीं योग िक्रयाओं की िबलकुल चचार् नहीं
की गई है य यिप वे भी इ हीं पाँच के अ तगर्त ह। कारण यह है िक जो साधनाएँ वापर, त्रेता,
सतयुग आिद पूवर् युग के उपयुक्त थीं, िज ह आकाश, अिग्न, वायु एवं जल प्रधान शरीर वाले साधक
ही आसानी से कर सकते थे,

उनकी चचार् इस सवर्साधारण के िलए िलखी गई पु तक म अनाव यक ही नहीं, अनुिचत भी होती;


क्य िक स भव है कोई यिक्त उस आधार पर साधना करने लगते तो उससे उ ह लाभ तो कुछ नहीं
होता, उलटे समय का अप यय, िनराशा, अ द्धा, अ िच एवं कोई हािन हो जाने का भय और बना रहता।
इसिलए उ हीं साधनाओं की चचार् की गई है , जो आज की ि थित म उपयक्
ु त हो सकती ह। िजन
साधनाओं का वणर्न िकया गया है , उनके स ब ध म यह कहा जा सकता है िक ये संिक्ष त प से
िलखी गई ह; उनका परू ा िविध-िवधान, सम त िनयमोपिनयम नहीं बताए गए ह। इसका कारण यह है
िक एक प्रकार के योग की ही सबके िलए एक िविध- यव था नहीं हो सकती। नादयोग को सब लोग

276
एक िविध से नहीं साध सकते। उ ण प्रकृित वाल को अि थर, च चल अनेक विनय का िमला हुआ
नाद सन
ु ाई दे ता है , ऐसे साधक को वे उपाय बताए जाते ह िजससे उनकी उ णता शा त हो और िद य
विनयाँ ठीक सन
ु ाई दे ने लग। इसके िवपरीत िजनकी प्रकृित शीत प्रधान है , उनको अनाहत नाद बहुत
म द, क- ककर, दे र म सन ु ाई पड़ते ह।

उनकी िद य कणि द्रय को उ णता प्रधान साधन से उ तेिजत करके इस योग्य बनाना पड़ता है
िजससे नाद भली प्रकार खुल जाए। जैसे शीत और उ ण प्रकृित के दो भेद ऊपर बताए ह, वैसे और भी
अनेक भेद-उपभेद ह, िजनके कारण एक ही साधना के िलए अनेक प्रकार के िनयम-उपिनयम बनाने
पड़ते ह। ऐसी दशा म यह स भव नहीं िक सम त प्रकार की प्रकृित वाले मनु य की पिरि थित भेद
के कारण िकए जाने वाले सम त िवधान का एक पु तक म उ लेख हो सके। िचिक सा शा त्र म
िनदान, िनघ टु तथा औषिध िनमार्ण का िव तत
ृ उ लेख िमलता है । पर तु ऐसा कोई ग्र थ अब तक
नहीं छपा, िजसम सम त रोग के रोिगय का सम त पिरि थितय के अनुसार सम त िचिक सा
िविधय का वणर्न िमलता हो। यही बात योग साधना के स ब ध म भी लागू होती है । यिद िकसी एक
छोटी साधना के स ब ध म भी साधक भेद से उसके अ तर को िलखा जाए, तो एक भारी ग्र थ बन
सकता है , िफर भी वह ग्र थ अपण
ू र् रहे गा। ऐसी ि थित म गायत्री की प चमख
ु ी साधना के अ तगर्त
जो साधनाएँ इस पु तक म िलखी गई ह, वे मोटे तौर पर भली प्रकार समझाकर ही िलखी गई ह, िफर
भी उनम अपण
ू त
र् ा का दोष तो रहे गा ही। यह आव यक नहीं िक प चकोश के अ तगर्त आने वाली
सभी साधनाएँ करने पर जीवनो े य प्रा त हो। िजस साधक की िजस कोश म वतर्मान ि थित है , वह
उसी कोश की सीमा म बताई गई साधना करके अपने ब धन खोल सकता है । इस पु तक म चौबीस
से अिधक साधनाएँ बताई गई ह। इसके अितिरक्त अनेक और साधनाएँ ह।

छोटे से जीवन म उन सबका साधन मनु य नहीं कर सकता, करना आव यक भी नहीं है । आयुवद म
हजार औषिधय का वणर्न है । वे सभी रोग को दरू करके व थ होने के एक ही उ े य के िलए बताई
गई ह, िफर भी कोई ऐसा नहीं करता िक िजतनी भी औषिधय का वणर्न है , उन सबका सेवन करे ।
बुिद्धमान ् लोग दे खते ह िक रोगी को क्या बीमारी है , उसकी आय,ु ि थित एवं प्रकृित क्या है ? तब यह
िनणर्य िकया जाता है िक कौन औषिध िकस अनुपान म दी जाए? कई बार थोड़ी-थोड़ी करके कई
औषिधय का िम ण करके दे ना होता है । साधना के स ब ध म भी यही बात है । अपनी मनोभिू म के
अनस
ु ार साधना का चन
ु ाव आव यक है । जो लोग सबको एक ही लकड़ी से हाँकते ह, सब धान बाईस
पसेरी तोलते ह, वे भारी भल
ू करते ह। रोगी अपने आप अपने िलए औषिध का िनणर्य नहीं कर सकता।
कोई वै य या डॉक्टर बीमार पड़ता है , तो वह भी िकसी कुशल िचिक सक से ही अपना इलाज कराता
है । कारण यह है िक अपने आप को समझना सबके िलए बड़ा किठन है । अक्सर लोग दस
ू र की बरु ाई
िकया करते ह, पर अपनी गलितयाँ उनको नहीं सझ
ू तीं। दस
ू र की आँख हम िदखाई पड़ती है , पर अपनी
आँख को आप नहीं दे ख सकते। अपनी आँख की बात जाननी हो, तो िकसी दस
ू रे से पछ
ू ना पड़ेगा या

277
दपर्ण की मदद लेनी पड़ेगी। यही बात अपनी मनोभिू म को परखने और उसके उपयक्
ु त उपचार ढूँढ़ने के
बारे म है । इसम िकसी दस
ू रे अनभ
ु वी मनु य की सहायता आव यक है । इस आव यक सहायता का
सु यव था का नाम ‘गु का वरण’ है ।

अ छा पथ-प्रदशर्क िमल जाना आधी सफलता िमल जाने के बराबर है । इन साधनाओं का अिधकार
प्र येक यिक्त को है । त्री-पु ष, बाल-वद्ध
ृ की ि थित भेद से साधना िविधय म अ तर होता है , पर तु
ऐसा कोई प्रितब ध नहीं है िक गायत्री साधना से अमक
ु वगर् को वि चत रखा जाए। माता के सभी पुत्र
ु ार करती है और सभी को
ह। उसे अपने सभी बालक पर समान ममता है , सभी को वह भरपूर दल
अपना पय-पान कराना चाहती है । कोई माता ऐसा नहीं करती िक अपने पुत्र को तो पय-पान कराए
और क या ज मे तो उसे द ु कार दे । ऐसा द ु यर्वहार न मनु य म होता है और न पिक्षय म, िफर
परम िद य स ता ऐसा पक्षपात, भेदभाव करे गी, इसकी क पना भी नहीं की जानी चािहए। पूवक
र् ाल म
अनेक ब्र मवािदनी, परम योिगनी मिहलाएँ हुई ह। वेदा त कायर् म सदै व पु ष की वामांग बनकर
समान प से भाग लेती रही ह। माता के सभी पत्र ु िबना िकसी भेदभाव के उसकी उपासना कर सकते
ह और प्रस नतापव
ू क
र् उसका नेह एवं आशीवार्द प्रा त कर सकते ह। आधिु नक पिरि थितय म जो
ू क
साधनाएँ सध सक, उ ह ही अपनाना उिचत है । अब पव र् ाल के सतयग
ु आिद यग
ु की सी ि थित नहीं
है , इसिलए वैसे योग साधन भी नहीं हो सकते और उन साधनाओं के फल व प वैसी िसिद्धयाँ भी नहीं
िमल सकतीं जैसी िक उन यग
ु म प्रा त होती थीं। अिणमा, लिघमा, मिहमा आिद िजन िसिद्धय का
योग ग्र थ म वणर्न है , वे पव
ू र् यग
ु की ही ह।

शरीर को अ य त छोटा कर लेना, अ य त बड़ा बना लेना, अ य हो जाना, शरीर बदल लेना, आकाश
म उड़ना, पानी पर चलना जैसी शरीर स ब धी िसिद्धयाँ आकाश त व प्रधान शरीर और युग अथार्त ्
दस
ू रे युग म ही होती थीं। त्रेता म िबना य त्र के आि मक शिक्त से वे सब काम होते थे जो आज
वैज्ञािनक य त्र वारा होते ह। िवमान, रे िडयो, िव युत ्, दरू दशर्न, दरू वण, अ य त भारी चीज का
उठाना जैसे काम के िलए आज तो वैज्ञािनक य त्र की आव यकता होती है , पर त्रेता म यह सब कायर्
म त्रबल से, प्राणशिक्त से हो जाते थे। रावण, कु भकरण, मेघनाद, हनुमान, नल, नील आिद के चिरत्र
पढ़ने से पता चलता है िक वे प्रकृित की उन िवज्ञानभत
ू सू म शिक्तय से मनमाना काम लेते थे,
िजतना आज बहुमू य य त्र वारा बहुत थोड़ा उपयोग स भव हो सकता है । महाभारत म िद य अ त्र-
श त्र का वणर्न िमलता है । श दभेदी बाण, अिग्न अ त्र, व ण अ त्र, वायु अ त्र, स मोहन अ त्र, चक्र
सद
ु शर्न आिद का प्रयोग उस यद्ध
ु म हुआ था। उस काल म मनु य और पश-ु पिक्षय म िवचार का
आदान-प्रदान स भव रहा।

पशु-पक्षी और मनु य की वाणी म उ चारण का अ तर था, पर दोन के शरीर म अिग्नत व तथा


जलत व की सू मता पयार् त मात्रा म रहने से एक-दस
ू रे से अपने िवचार का भलीभाँित आदान-प्रदान
कर लेते थे। त्रेता तथा वापर की ऐसी अनेक कथाएँ उपल ध ह, िजनम मनु य तथा पशु-पिक्षय के
278
स भाषण के िव तत
ृ उ लेख ह। इस यग
ु म प्रकृित का अ तराल पहले की भाँित सू म नहीं रहा है ,
सिृ ट का बालकपन समा त हो गया और वद्ध
ृ ाव था आ रही है । इन िदन जलत व और प ृ वीत व
की िमि त सि ध चल रही है । जलत व घटता जा रहा है और प ृ वीत व बढ़ता जा रहा है ।
जलत व का गण ु मन है । ऊँचे उठे हुए आ याि मक महापु ष म आज मनोबल िवकिसत पाया जाता
है । उनम िवचारशिक्त, इ छाशिक्त और प्रेरणाशिक्त अब भी पयार् त है । इस मनोबल वारा वे अपना
तथा दस
ू र का बहुत कुछ िहत साधन कर सकते ह। इस यग ु म बुद्ध, ईसा, मह
ु मद, गाँधी, कालर्माक्सर्
आिद महापु ष ने अपनी प्रच ड प्ररे णाशिक्त से संसार को बहुत हद तक प्रभािवत िकया है । मे मेिर म
मनोबल का ही एक खेल है । दस
ू र को अपने िवचार दे ना, उनके िवचार जानना या िकसी के िवचार-
पिरवतर्न करना, यह मनोबल की िसिद्धयाँ ह। और भी िकतनी ही छोटी-मोटी िसिद्धयाँ इन िदन हो
सकती ह, िजनका इस पु तक म यत्र-तत्र वणर्न िकया गया है । कई िसद्धपु ष कभी-कभी ऐसे भी िमल
जाते ह, िज ह पूवर् युग की भाँित िसिद्धयाँ प्रा त होती ह, पर अब उनकी संख्या नहीं के बराबर है ।
जलत व घट रहा है , इसिलए आ याि मक पु ष प्रय न करके मनोबल ही स पािदत कर पाते ह।

धीरे -धीरे यह भी कम होता जाएगा और जब प ृ वीत व की जड़ता यापक हो जाएगी, तो केवल


शरीरबल ही लोग की िवशेषता रह जाएगी। आगे चलकर जो शारीिरक ि ट से शिक्तशाली होगा उसे
ही त कालीन िसद्धपु ष माना जाएगा। कई यिक्त योग साधना वारा ऐसे चम कार प्रा त करने की
िफराक म रहते ह िक लोग को आ चयर् म डालकर उन पर अपनी मह ता की छाप जमा सक। इसी
उधेड़-बुन म वे इधर-उधर िफरते ह और धत ू के चंगु ल म पड़कर अपना बहुत-सा समय और धन
बबार्द करते ह। हमने वयं चम कारी िसिद्ध की खोज म अपने जीवन का बहुत बड़ा भाग लगाया है ।
एक-दो अज्ञात रहने वाले महापु ष के अितिरक्त हम सभी चम कारी लोग म धूतत
र् ा ही िमली। अपने
पाठक को हमारी सलाह है िक वे चम कारी बनने की बालक्रीड़ा म न उलझ, क्य िक पहले तो वतर्मान
युग ही ऐसी िसिद्धय के अनुकूल नहीं है , िफर कदािचत ् बहुत पिर म से कुछ िमले भी, तो बहुमू य
पिर म की तुलना म वह अ य त तु छ होगा। बाजीगर कैसे-कैसे खेल िदखाते ह, सरकस वाले लोग
को है रत म डाल दे ते ह, पर इससे वे क्षिणक कौतूहल और मनोरं जन के अितिरक्त कुछ नहीं कर पाते
ह। यह सब ब च की सी बात ह। इस ओर िकसी बुिद्धमान ् की प्रविृ त नहीं हो सकती। गायत्री की
ु ी योग साधना का वणर्न इस पु तक म िकया गया है । इन साधनाओं से साधक की
प चमख
अ त:चेतनाओं का आिव कार होता है ।

मन और शरीर के िवकार दरू होते ह। इ छा, िच, भावना, आकांक्षा, बिु द्ध, िववेक, गण
ु , वभाव,
िवचारधारा, कायर्-प्रणाली आिद म ऐसा अद्भत
ु सतोगण
ु ी पिरवतर्न होता है , िजसके कारण जीवन की सभी
िदशाएँ आन द से पिरपण
ू र् हो जाती ह। उसे वा य, धन, िव या, चतरु ाई एवं सहयोग की कमी नहीं
रहती। इन व तओ
ु ं को पयार् त मात्रा म उपल ध करके वे स मान, कीितर्, प्रेम एवं शाि त के साथ
जीवनयापन करते ह। इसके अितिरक्त आ तिरक जीवन की, आ मक याण की अमू य िसिद्धयाँ प्रा त

279
होती ह। इनकी तल
ु ना म सारे चम कार, कुतह
ू ल, आ चयर्जनक कृ य िमलकर तराजू के पासंग के
बराबर भी मह ता नहीं रखते। गायत्री के उपासक प चमख
ु ी माँ की उपासना द्धापव
ू क
र् कर, तो उ ह
आशाजनक लाभ होते ह। चम कारी बाबा वे भले ही न कहलाय, पर गह
ृ थ रहकर भी वे अपने आप म
ऐसा पिरवतर्न पा सकते ह, जो अनेक चम कार की तुलना म उनके िलए अिधक मंगलमय होगा।
‘स बुिद्ध’ मानव जीवन की सबसे बड़ी स पदा है । िजसके पास यह स पदा होगी, उसे कभी िकसी व तु
की कमी न रहे गी। व तुओं का अभाव और पिरि थितय की किठनाई उसका कुछ नहीं िबगाड़ सकेगी
िजसके पास स बुिद्ध है । गायत्री स बुिद्ध का महाम त्र है । इस म त्र वारा साधक को उस िद य शिक्त
की प्राि त होती है , जो संसार के सम त सौभाग्य की जननी है ।

गायत्री-साधना िन फल नहीं जाती


अपनी आ तिरक ि थित के अनुकूल पंचमख
ु ी गायत्री की पाँच साधनाओं म से एक उपयुक्त साधना
चुन लेनी चािहए। जो िव याथीर् िजस कक्षा का होता है , उसे उसी कक्षा की पु तक पढ़ने को दी जाती
ह। बी. ए. के िव याथीर् को छठव दज की पु तक पढ़ाई जाएँ तो इससे उनकी उ नित म कोई सहायता
न िमलेगी। इस प्रकार पाँचव दज वाले को बारहव दज का पा यक्रम पढ़ाया जाए, तो घोर पिर म करने
पर भी उसम सफलता न िमलेगी। साधना के स ब ध म भी यह बात लागू होती है । जो साधक अपनी
मनोभिू म के अनु प साधना चुन लेते ह, वे प्राय: असफल नहीं होते।

गायत्री-साधना का प्रभाव त काल होता है । उसका पिरणाम दे खने के िलए दे र तक प्रतीक्षा नहीं करनी
पड़ती। साधना आर भ करते ही िच त म साि वकता, शाि त, प्रफु लता, उ साह एवं आशा का जागरण
होता है । कोई यिक्त िकतनी ही किठनाई, परे शानी, असिु वधा एवं संकट म पड़ा हुआ क्य न हो, उसकी
मानिसक िच ता, बेचैनी, घबराहट म त काल कमी होती है ।

जैसे ददर् करते हुए घाव के ऊपर शीतल मरहम लगा दे ने से त काल चैन पड़ जाता है , और ददर् ब द हो
ु ी दय पर गायत्री-साधना की मरहम ऐसी
जाता है , वैसे ही अनेक किठनाइय की पीड़ा के कारण दख
शीतल एवं शांितदायक प्रतीत होती है िक बहुत से मानिसक बोझ तो त काल हलके हो जाते ह।

साधक को ऐसा लगता है िक वह िचरकाल से िबछुड़ा हुआ िफरते रहने के बाद अपनी सगी माता से
िमला हो। माता से िबछुड़ा हुआ बालक बहुत समय इधर-उधर भटकने के बाद जब माता को ढूँढ़ पाता
है , तो उसकी छाती भर जाती है और माता से िलपटकर उसकी गोदी म चढ़कर ऐसा अनुभव करता है
मानो उसकी ज म-ज मा तर की िवपि त टल गई हो। िहरन का ब चा अपनी माता के साथ घने वन
म िहंसक जानवर के बीच िफरते हुए भी िनभर्य रहता है । वह िनि च त हो जाता है िक जब माता मेरे
ु े क्या िफक्र है ? िहरनी भी अपने िशशुशावक की सरु क्षा के िलए कोई बात उठा नहीं
साथ है तो मझ
रखती। वह उसे अपने प्राण के समान यार करती है , माता का यार उससे कदािप कम नहीं होता।
280
भली और बुरी पिरि थितयाँ तो प्र येक मनु य के सामने आती ही रहती ह। सख
ु -द:ु ख का चक्र संसार
का साधारण िनयम है । सामा य ेणी का मनु य इससे िनर तर प्रभािवत होता रहता है । वह कभी तो
अपने को सौभाग्य के सरोवर म तैरता अनुभव करता है और कभी आपि तय के दलदल म फँसा
हुआ। पर िजस यिक्त ने गायत्री उपासना करके मन को संयत रखना सीख िलया है और यह िव वास
ढ़ कर िलया है िक स मागर् पर चलने वाल की वह महाशिक्त अव य सहायता और रक्षा करती है ,
वह कभी िवपरीत पिरि थितय म याकुल नहीं हो सकता। वह प्र येक दशा म शा तिच त रहता हुआ
गायत्री माता की अनुक पा पर भरोसा रखकर प्रय नशील रहता है और शीघ्र ही िवपि तय से छुटकारा
पा जाता है ।

िवपि तयाँ वयं इतना क ट नहीं पहुँचातीं िजतना िक उसकी आशंका, क पना, भावना द:ु ख दे ती है ।
िकसी का यापार िबगड़ जाए, घाटा आ जाए तो उस घाटे के कारण शरीर यात्रा म कोई प्र यक्ष बाधा
नहीं पड़ती। रोटी, कपड़ा, मकान आिद को वह घाटा नहीं छीन लेता और न घाटे के कारण शरीर म ददर् ,
वर आिद होता है , िफर भी लोग मानिसक कारण से बेतरह द:ु खी रहते ह। इस मानिसक क ट म
गायत्री-साधना से त काल शाि त िमलती है । उसे एक ऐसा आ मबल िमलता है , ऐसी आ तिरक ढ़ता
एवं आ मिनभर्रता प्रा त होती है , िजसके कारण अपनी किठनाई उसे तु छ िदखाई पड़ने लगती है और
िव वास हो जाता है िक वतर्मान का जो बुरे से बुरा पिरणाम हो सकता है , उसके कारण भी मेरा कुछ
नहीं िबगड़ सकता। असंख्य मनु य की अपेक्षा िफर भी मेरी ि थित अ छी रहे गी।

गायत्री साधना की यही िवशेषता है िक उससे त काल आ मबल प्रा त होता है , िजसके कारण मानिसक
पीड़ाओं म त क्षण कमी होती है । हम ऐसे अनेक अवसर याद ह, जब द:ु ख के कारण आ मह या करने
के िलए त पर होने वाले मनु य के आँसू के ह और उनने स तोष की साँस छोड़ते हुए आशा भरे
नेत्र को चमकाया है । घाटा, बीमारी, मक
ु दमा, िवरोध, गह
ृ -क्लेश, शत्रत
ु ा आिद के कारण उ प न होने वाले
पिरणाम की क पना से िजनके होठ सख
ू े रहते थे, चेहरा िवषादग्र त रहता था, उ ह ने माता की कृपा
पाकर हँसना सीखा और मु कराहट की रे खा उनके कपोल पर दौड़ने लगी।

‘जो होना है होकर रहे गा। प्रार ध भोग हम वयं भोगने पड़गे। जो टल नहीं सकता उसके िलए दख
ु ी
होना यथर् है । अपने कम का पिरणाम भोगने के िलए वीरोिचत बहादरु ी को अपनाया जाए’, इन
भावनाओं के साथ वह अपनी उन किठनाइय को तण
ृ वत ् तु छ समझने लगता है , िज ह कल तक पवर्त
के समान भयंकर और द ु तर समझता था।

िजन लोग को यह भय था िक उ ह सताया जाएगा, द:ु ख िदया जाएगा, न जाने क्या-क्या आपि तयाँ
उठानी पड़ेगी, भिव य घोर अ धकार म रहे गा, उनके मन म साहस का उदय होते ही यह िव वास जम
गया िक मझ
ु अिवनाशी आ मा का कोई कुछ नहीं िबगाड़ सकता। िदन के बाद रात और रात के बाद

281
िदन आना िनि चत है , इसी प्रकार सख
ु के बाद द:ु ख और द:ु ख के बाद सख
ु आना भी िनि चत है । यह
हो नहीं सकता िक आज की किठनाई सदा बनी रहे और उससे छुटकारा पाने का कोई उपाय न
िनकले। यिद स भािवत किठनाई आई भी, तो यह िनि चत है िक उसकी भयंकरता कम करने के िलए
कोई न कोई नया उपाय भी भगवान ् अव य सझ
ु ावेगा।

इस प्रकार ऐसे अनेक साहसपूणर् िवचार मन म उठना आर भ हो जाते ह और उस आ मबल के कारण


साधक की आधी किठनाई तो त क्षण दरू हो जाती है , उसका सोता हुआ मानस अपने िवषाद से
छुटकारा पा जाता है , आशा और उ साह की िकरण उसे अपने चार ओर फैली हुई दीखती ह।

‘जो प्रभु राई को पवर्त कर सकता है और पवर्त को राई बना सकता है , वह हमारे भाग्याकाश का
अ धकार िमटाकर प्रकाश भी चमका सकता है ’ इस िव वास के साथ गायत्री साधक म आशा एवं
उ साह की तरं गे िहलोर लेने लगती ह।

अनेक बार तो गायत्री के उपासक की किठनाइयाँ ऐसे अचरज भरे ढं ग से हल होती ह िक उसे दै वी
चम कार ही कहना पड़ता है । ऐसी घटनाएँ हमने वयं अपनी आँख से दे खी ह िक ‘‘जहाँ सब लोग
पूणर् िनराश हो चुके थे, कायर् िसद्ध होना अस भव मालम
ू होता था, भय एवं आशंका की घड़ी िबलकुल
नजदीक आ गई थी और मालम
ू पड़ता था िक िवपि त का पवर्त अब टूटना ही चाहता है ; लोग के
कलेजे धक् -धक् कर रहे थे िक अब िवपि त िनि चत है , रक्षा का कोई उपाय कारगर नहीं हो सकता’’,
ऐसी िवप न पिरि थितय म एकाएक जाद ू की तरह पिरवतर्न हुआ है , पिरि थितय ने ऐसा पलटा
खाया िक कुछ से कुछ हो गया। अ धकार की काली घटाएँ उड़ गईं और प्रकाश का सन ु हरा सरू ज
चमकने लगा। ऐसी घटनाओं को दे खकर सहसा यह श द मँह
ु से िनकले िक ‘‘प्रभु की कृपा से कुछ भी
अस भव नहीं है ।’’ तल
ु सीदास जी की ‘‘मक
ू होिहं वाचाल पंगु चढ़िहं िगरवर गहन’’ वाली मा यता
अनेक बार चिरताथर् होती दे खी गई है ।

कई बार अ य त प्रबल प्रार ध इतना अटल होता है िक वह टल नहीं पाता। हिर च द्र, प्र लाद, पा डव,
राजा नल, दशरथ सरीखे महापु ष को प्रार ध के कुचक्र की यातनाएँ सहनी पड़ीं, य यिप उनके सहायक,
स ब धी और गु जन अ य त उ चकोिट के आ मशिक्त स प न थे, िफर भी दभ
ु ार्ग्य टल न सके।
जहाँ ऐसे अिनवायर् अवसर होते ह, वहाँ भी गायत्री महाशिक्त के कारण प्रा त हुए आ मबल के कारण
मानिसक त्रास त क्षण कम हो जाता है और साधक िवषाद, दीनता, कायरता, बेचैनी, घबराहट, िनराशा,
याकुलता का पिर याग करके साहस और धैयप
र् ूवक
र् पिरि थितय का मक
ु ाबला करता है और हँ स-
खेलकर स तोष और शाि त के साथ बुरी घिड़य को गज
ु ार लेता है ।

वेदमाता की आराधना एक प्रकार का आ याि मक कायाक प करना है । िज ह कायाक प की िव या


मालम
ू है , वे जानते ह िक इस महाअिभयान को करते समय िकतने धैयर् और संयम का पालन करना

282
होता है , तब कहीं शरीर की जीणर्ता दरू होकर नवीनता प्रा त होती है । गायत्री-आराधना का आ याि मक
कायाक प और भी अिधक मह वपण
ू र् है । उसके लाभ केवल शरीर तक ही सीिमत नहीं, वरन ् शरीर,
मि त क, िच त, वभाव, ि टकोण सभी का नविनमार्ण होता है और वा य, मनोबल एवं सांसािरक
सख
ु -सौभाग्य की विृ द्ध होती है ।

ऐसे असाधारण मह व के अिभयान म समिु चत द्धा, सावधानी, िच एवं त परता रखनी पड़े, तो इसे
कोई बड़ी बात न समझना चािहए। केवल शरीर को पहलवानी के योग्य बनाने म काफी समय तक
धैयप
र् ूवक
र् यायाम करते रहना पड़ता है । द ड बैठक, कु ती आिद के क टसा य कमर्का ड होते ह। दध
ू ,
घी, मेवा, बादाम आिद म काफी खचर् होता रहता है , तब कहीं जाकर पहलवान बना जा सकता है । क्या
आ याि मक कायाक प करना पहलवान बनने से भी कम मह व का है ? बी. ए. की उपािध लेने वाले
जानते ह िक उनने िकतना धन, समय, म और अ यवसाय लगाकर उस उपािध पत्र को प्रा त कर
पाया है । गायत्री की िसिद्ध प्रा त करने म यिद पहलवान या ग्रेजए
ु ट के समान प्रय न करना पड़ा, तो
कोई घाटे की बात नहीं है । प्राचीनकाल म हमारे पव
ू ज
र् ने जो आ चयर्जनक िसिद्धयाँ प्रा त की थीं,
उनका उ ह ने समिु चत मू य चक
ु ाया था। हर एक लाभ की उिचत कीमत दे नी होती है । गायत्री साधना
का आ याि मक कायाक प यिद अपना मू य चाहता है , तो उसे दे ने म िकसी भी ईमानदार साधक को
आनाकानी नहीं करनी चािहए।

यह स य है िक कई बार जाद ू की तरह गायत्री उपासना का लाभ होता है । आई हुई िवपि त अित शीघ्र
दरू होती है और अभी ट मनोरथ आ चयर्जनक रीित से पूरे हो जाते ह; पर कई बार ऐसा भी होता है
िक अका य प्रार ध भोग न टल सके और अभी ट मनोरथ पूरा न हो। राजा हिर च द्र, नल, पा डव,
राम, मोर वज जैसे महापु ष को होनहार भिवत यता का िशकार होना पड़ा था। इसिलए सकाम
उपासना की अपेक्षा िन काम उपासना ही े ठ है । गीता म भगवान ् ीकृ ण ने िन काम कमर्योग का
ही उपदे श िदया है । यह साधना कभी िन फल नहीं जाती। उसका तो पिरणाम िमलेगा ही, पर हम
अ पज्ञ होने के कारण अपना प्रार ध और वा तिवक िहत नहीं समझते। माता सवर्ज्ञ होने से सब
समझती है और वह वही फल दे ती है , िजनम हमारा वा तिवक लाभ होता है । साधन काल म एक ही
कायर् हो सकता है , या तो मन भिक्त म त मय रहे या कामनाओं के मनमोदक खाता रहे । मनमोदक
म उलझे रहने से भिक्त नहीं रह पाती, फल व प अभी ट लाभ नहीं हो पाता। यिद कामनाओं को हटा
िदया जाए, तो उससे िनि च त होकर समय और मन भिक्तपव
ू क
र् साधना म लग जाता है ; तदनस
ु ार
सफलता का मागर् प्रश त हो जाता है ।

कोई युवक िकसी दस


ू रे युवक को कु ती म पछाड़ने के िलए यायाम और पौि टक भोजन वारा शरीर
को सु ढ़ बनाने की उ साहपूवक
र् तैयारी करता है । पूरी तैयारी के बाद भी वह कदािचत ् कु ती पछाड़ने
म असफल रहता है , तो ऐसा नहीं समझना चािहए िक उसकी तैयारी िनरथर्क चली गई। वह तो अपना
लाभ िदखाएगी ही। शरीर की सु ढ़ता, चेहरे की काि त, अंग की सड
ु ौलता, फेफड़ की मजबूती, बलवीयर्
283
की अिधकता, नीरोगता, दीघर्जीवन, कायर्क्षमता, बलवान स तान आिद अनेक लाभ उस बढ़ी हुई
त द ु ती से होकर रहगे। कु ती की सफलता से वंिचत रहना पड़ा यह ठीक है , पर शरीर को बल-विृ द्ध
वारा प्रा त होने वाले अ य लाभ से उसे कोई वि चत नहीं कर सकता। गायत्री साधक अपने का य
प्रयोजन म सफल नहीं हो सके, तो भी उसे अ य अनेक माग से ऐसे लाभ िमलगे, िजनकी आशा िबना
साधना िकए नहीं की जा सकती।

बालक चीज माँगता है , पर माता उसे वह चीज नहीं दे ती। रोगी की सब माँगे बुिद्धमान वै य या
पिरचयार् करने वाले पूरी नहीं करते। ई वर की सवर्ज्ञता की तुलना म मनु य बालक या रोगी के
समान ही है । िजन अनेक कामनाओं को हम िन य करते ह, उनम से कौन हमारे िलए वा तिवक
लाभ और कौन हािन करने वाली है , इसे सवर्ज्ञ माता ही अ छी तरह समझती है । िजसे उसकी
भक्तव सलता पर स चा िव वात है , उसे कामनाओं को पूरा करने की बात उसी पर छोड़ दे नी चािहए
और अपना सारा मनोयोग साधना पर लगा दे ना चािहए। ऐसा करने से हम घाटे म नहीं रहगे, वरन ्
सकाम साधना की अपेक्षा अिधक लाभ म ही रहगे।

जयपुर के महाराज रामिसंह एक बार िशकार खेलते हुए रा ता भल


ू कर एक िनजर्न वन म भटक गए
थे। वहाँ एक अपिरिचत वनवासी ने उनका उदार आित य िकया। उसकी खी-सख ू ी रोटी का महाराज ने
कुछ िदन बाद िवपुल धनरािश के प म बदला िदया। यिद उस वनवासी ने अपनी रोटी की कीमत
उसी वक्त माँग ली होती, तो वह राजा का प्रीित-भाजन नहीं बन सकता था। सकाम साधना करने वाले
मतलबी भक्त की अपेक्षा माता को िन काम भक्त की द्धा अिधक िप्रय लगती है । वह उसका
प्रितफल दे ने म अिधक उदारता िदखाती है ।

हमारा दीघर्कालीन अनभ


ु व है िक कभी िकसी की गायत्री साधना िन फल नहीं जाती, न उलटा पिरणाम
ही होता है । आव यकता केवल इस बात की है िक हम धैय,र् ि थरता, िववेक और मनोयोगपव
ू क
र् कदम
बढ़ाएँ। उस मागर् म छछोरपन से नहीं, सु ढ़ आयोजन से ही लाभ होता है । इस िदशा म िकया हुआ
स चा पु षाथर् अ य िकसी भी पु षाथर् से अिधक लाभदायक िसद्ध होता है । गायत्री साधना म िजतना
समय, म, धन और मनोयोग लगता है , सांसािरक ि ट से उस सबका जो मू य है , वह कई गन
ु ा होकर
साधक के पास िनि चत प से लौट आता है ।

प चमुखी साधना का उ े य
मोटी ि ट से दे खने पर एक शरीर के अ दर एक जीव मालम
ू पड़ता है ; पर तु सू म ि ट से िवचार
करने पर पता चलता है िक एक ही आवरण म पाँच चैत य स ताएँ मौजद
ू ह। दे खा जाता है िक
मनु य म अनेक पर पर िवरोधी त व िव यमान रहते ह। जब जो त व प्रबल होता है , उसके आधार
पर वह अपनी ि ट के अनुसार पूणर् त परता से काम करता है ।
284
दे खा गया है िक एक मनु य बड़ा लोभी है , खाने और पहनने म बड़ी कंजूसी करता है , पैसे को दाँत से
दबाकर पकड़ता है , पर तु वही यिक्त अपने लड़के-लड़िकय की िववाह-शादी का अवसर आने पर इतनी
िफजल
ू -खचीर् करता है िक धन को होली की तरह फँू क दे ता है । यह पर पर िवरोधी बात एक ही
यिक्त म समय-समय पर प्रकट होती ह।

एक समय म एक यिक्त बड़ा द्धालु होता है , दस


ू रे के साथ बड़ी उदारता एवं स जनता का यवहार
करता है , पर तु दस
ू रे समय म िकसी के प्रित ऐसा अनद
ु ार एवं दज
ु न
र् बन जाता है िक इन दो प्रकार
की िभ नताओं म संगित िबठाना किठन हो जाता है ।

एक यिक्त बहुत संयमी एवं सदाचारी होता है , पर कभी-कभी उसी का वह यिक्त व प्रबल हो जाता है ,
िजसके कारण वह दरु ाचार म िल त हो जाता है । इसी प्रकार अि तकता-नाि तकता, सध
ु ारकता-
िढ़वािदता, दयालत
ु ा-िन ठुरता, सदाचार-दरु ाचार, स य-अस य, लोभ- याग, मख र् ा-बुिद्धम ता, िन कपटता-
ू त
व चकता के पर पर िवरोधी प समय-समय पर मनु य म प्रकट होते ह।

इन िवसंगितय को दे खकर अक्सर ऐसा अनुमान लगाया जाता है िक अमक


ु यिक्त वा तव म एक
प्रकार का है , दस
ू रा प तो उसने धोखा दे ने के िलए बनाया है । प्राय: बुराई के आधार पर मनु य का
वा तिवक प माना जाता है और उसम जो अ छाई थी, उसे ढ ग कह िदया जाता है । कोई यिक्त
दानी भी है , तो भी आमतौर पर उसे सब लोग चोर मानगे और ख्याल करगे िक दान का ढ ग तो उसने
दस
ू र को भ्रम म डालने के िलए रचा है , पर तु वा तिवकता ऐसी नहीं। कोई यिक्त केवल मात्र
आड बर के िलए अपना समय, म, धन आिद अिधक मात्रा म खचर् नहीं कर सकता। जब िकसी िदशा
म िवशेष त परता एवं द्धा होती है , तभी उसके िलए अिधक याग एवं म िकया जाना स भव है ।

बात यह है िक एक ही शरीर म कई शिक्तय का िनवास होता है । एक घ सले म कई ब चे साथ रहते


ह, पर तु बाहर से घ सला एक ही िदखाई पड़ता है । गल
ू र के फल के भीतर भन
ु गे उड़ते रहते ह, पर
बाहर से उनकी प्रतीित नहीं होती। उसी प्रकार इस दे ह के अ दर कई प्रकृितय , वभाव और िचय के
अलग-अलग यिक्त व रहते ह। एक ही घर म रहने वाले कई यिक्तय की प्रकृित, िच और कायर्-
प्रणािलयाँ अलग-अलग होती ह। इसी तरह मनु य की अ तरं ग प्रविृ तयाँ भी अनेक िदशाओं म चलती
ह।

िसर एक है , पर उसम नाक, कान, आँख, मख


ु , वचा की पाँच इि द्रयाँ अपना काम करती ह। हाथ एक है ,
पर उसम पाँच उँ गिलयाँ लगी रहती ह, पाँच का काम अलग-अलग है । वीणा एक है , पर उसम कई तार
होते ह। इन तार की स तुिलत झंकार से ही कई वर लहरी बजती ह। हाथ की पाँच उँ गिलय के
सि मिलत प्रय न से ही कोई काम पूरा हो सकता है । िसर म यिद पाँच ज्ञानेि द्रयाँ जड़
ु ी न ह , तो
म तक का कोई मू य न रह जाए, तब खोपड़ी भी कू ह की तरह एक साधारण अंग मात्र रह जाएगी।
285
िवसंगितय का एकीकरण ही जीवन है ; इन िभ नताओं के कारण ही जीवन म चेतना, िक्रयाशीलता,
िवचारशीलता, म थन और प्रगित का स चार होता है ।

सू मदशीर् ऋिषय ने अपने योगबल से जाना िक मनु य के शरीर म पाँच प्रकार के यिक्त व, पाँच
चेतना, पाँच त व िव यमान ह; इ ह पाँच कोश कहते ह। शरीर पाँच त व का बना है । इन त व की
सू म चेतना ही प चकोश कहलाती है । यह पाँच पथ
ृ क् -पथ
ृ क् होते हुए भी एक ही मलू के द्र म जड़ ु े
हुए ह। गायत्री के पाँच मख
ु का अलंकार इसी आधार पर है । मानव प्राणी की पाँच प्रकृितयाँ ह, यही
गायत्री के पाँच मख ु एक ही गदर् न पर जड़
ु ह। यह पाँच मख ु े हुए ह। इसका ता पयर् यह है िक पाँच
कोश एक ही आ मा से स बि धत ह।

महाभारत के आ याि मक गढ़
ू रह य के अनुसार पाँच पा डव शरीर थ पाँच कोश ही ह। पाँच की एक
ही त्री द्रौपदी है । पाँच कोश की के द्र शिक्त एक आ मा है । पाँच पा डव की अलग-अलग प्रकृित है ,
पाँच कोश की प्रविृ त अलग-अलग है । इस पथ
ृ कता को जब एक पता म, स तुिलत सम वरता म
ढाल िदया जाता है तो उनकी शिक्त अजेय हो जाती है । पाँच पा डव की एक प नी, एक िन ठा, एक
द्धा, एक आकांक्षा हो जाती है , तो उनका रथ हाँकने के िलए वयं भगवान ् को आना पड़ता है और
अ त म उ ह ही िवजय ी िमलती है ।

पाँच कोश को मनु य की प चधा प्रकृित कहते ह— १-शरीरा यास, २-गण


ु , ३-िवचार, ४-अनभ
ु व, ५-सत ्।
इन पाँच चेतनाओं को ही अ नमय, प्राणमय, मनोमय, िवज्ञानमय और आन दमय कोश कहा जाता है ।
यही गायत्री के पाँच मख
ु ह।

साधारणतया इन पाँच म एक वरता नहीं होती। कोई िकधर को चलता है , कोई िकधर को। वा य,
योग्यता, बुिद्ध, िच और ल य म एकता न होने के कारण मनु य ऐसे िवलक्षण कायर् करता रहता है जो
िकसी एक िदशा म उसे नहीं चलने दे ते। िकसी रथ म पाँच घोड़े जत
ु े ह , वे पाँच अपनी इ छानुसार
अपनी इि छत िदशा म रथ को खींच, तो उस रथ की बड़ी दद
ु र् शा होगी। कभी वह एक फलार्ंग पूवर् को
चलेगा तो कभी एक मील उ तर को खींचेगा। कोई घोड़ा पि चम को घसीटे गा तो कोई दिक्षण को
खींचेगा। इस प्रकार रथ िकसी िनि चत ल य पर न पहुँच सकेगा, घोड़ की शिक्तयाँ आपस म एक-
दस
ू रे के प्रय न को रोकने म खचर् होती रहगी और इस खींचातानी म रथ बेतरह टूटता रहे गा।

यिद घोड़े एक िनधार्िरत िदशा म चलते, सबकी शिक्त िमलकर एक शिक्त बनती तो बड़ी तेजी से, बड़ी
आसानी से वह रथ िनिदर् ट थान तक पहुँच जाता। वीणा के तार िबखरे हुए ह तो उसको बजाने से
प्रयोजन िसद्ध नहीं होता, पर यिद वे एक वर-के द्र पर िमला िलए जाएँ और िनधार्िरत लहरी म उ ह
बजाया जाए तो दय को प्रफुि लत करने वाला मधुर संगीत िनकलेगा। जीवन म पार पिरक िवरोधी
इ छाएँ, आकांक्षाएँ, मा यताएँ इस प्रकार िक्रयाशील रहती ह िजससे प्रतीत होता है िक एक ही दे ह म

286
पाँच आदमी बैठे ह और पाँच अपनी-अपनी मजीर् चला रहे ह। जब िजसकी बन जाती है , तब वह अपनी
ढपली पर अपना राग बजाता है ।

अ या मिव या के ज्ञाताओं ने इस पथ
ृ कता को, िवसंगित को एक थान पर केि द्रत करने, एकसत्र
ू से
स बि धत करने के िलए प चकोश का, प चमख
ु ी गायत्री साधना का सि वधान प्र तुत िकया है ।
गायत्री के िचत्र म पाँच मख
ु िदए गए ह। इन पाँच की िदशाएँ, आकृितयाँ, चे टाएँ दे खने म अलग
ू पड़ती ह, पर तु वह एक ही मल
मालम ू कद्र से स बद्ध होने के कारण एक वरता धारण िकए हुए ह।
यही आदशर् गायत्री-साधक का होना चािहए। उसकी िदनचयार्, मशीलता, िवचारधारा, अिभ िच एवं
आकांक्षा एक ही िनधार्िरत ल य से संलग्न रहनी चािहए। पा डव पाँच होते हुए भी एक थे। एक ही
‘पा डव’ श द कह दे ने से युिधि ठर, अजन
ुर् , भीम, नकुल, सहदे व पाँच का बोध हो जाता है । ऐसी ही
एकता हमारे भीतरी भाग म रहनी चािहए।

डॉक्टर जानते ह िक रक्त म िवजातीय पदाथ का प्रवेश हो जाए तो अनेक रोग घेर लेते ह। ओझा
लोग जानते ह िक दे ह म भत
ू घुस जाए, एक शरीर म दो स ताएँ प्रवेश कर जाएँ, तो मनु य रोगी या
उ मादग्र त हो जाता है । घर म िवरोधी
वभाव की बहुएँ आ जाएँ तो पिरवार म भारी क्लेश और
कलह उ प न हो जाता है । जब तक पर पर िवरोधी त व मनोभिू म म काम करते रहगे, उनकी िदशाएँ
पथ
ृ क् -पथ
ृ क् रहगी, तब तक कोई यिक्त चैन से नहीं बैठ सकता, उसके अ त: थल म घोर अशाि त
घुसी रहे गी। आमतौर से लोग इसी अशाि त म ग्रिसत रहते ह और पयार् त साधन स प न होते हुए
भी मनु य ज म जैसे अमू य सौभाग्य से कुछ लाभ नहीं उठा पाते। आ तिरक िवरोध से उ प न हुई
गिु थयाँ भी उनके िलए एक सम या बन जाती ह और म ृ यु समय तक सल
ु झ नहीं पातीं।

गायत्री की प चमख
ु ी साधना का उ े य आ तिरक िवरोध को िमटाकर उनम सम वरता की थापना
करना है । अ तर म सत ्-असत ् की र साकशी होती है , दे वासरु संग्राम, राम-रावण यद्ध
ु , महाभारत होता
रहता है । यह कलह तभी शा त हो सकता है , जब एक पक्ष अशक्त हो जाय। असरु का, असत ् का पक्ष
ग्रहण करके यिद सत ् को पूणत
र् या कुचलने का प्रय न िकया जाए तो वह स भव भी नहीं, क्य िक
असरु ता वयं एक िवपि त होने के कारण अपने आप अनेक संकट उ प न कर लेती है । दस
ू रे सत ् की
ि थित आ मा म इतनी सु ढ़ है िक उसे पूणत
र् या कुचलना स भव नहीं है । इसिलए आ तिरक संघष
की समाि त का एक ही उपाय है —सत ् का समथर्न एवं पोषण करके उसे इतना प्रबल कर िलया जाय
िक असत ् को उससे संघषर् का साहस ही न हो। लड़ाकू बकरा जब अपने सामने िसंह को खड़ा दे खेगा,
तो उसे लड़ने की िह मत न होगी। आसरु ी त व तभी तक प्रबल रहते ह, जब तक दै वी त व कमजोर
होते ह। जब साधना वारा सतोगण
ु को पयार् त मात्रा म बढ़ा िलया जाता है , तो िफर असरु ता अपने
हिथयार डाल दे ती है और शाि त का शासन थािपत हो जाता है ।

प चकोश की जो साधनाएँ पीछे बताई गई ह, वे मनु य की पाँच महाशिक्तय को िवनाशकारी मागर् पर

287
जाने से रोकती ह, उ ह िनय त्रण म लाकर उपयोगी िदशा म लगाती ह। सकर्स वाले खख
ूँ ार शेर-चीत
को जंगल म से पकड़ लाते ह और उ ह इस प्रकार साधते ह िक वे जानवर िकसी प्रकार का नक
ु सान
पहुँचाना तो दरू , उलटे उन साधने वाल को प्रचरु धन तथा यश िमलने के मा यम बन जाते ह। पाँच
कोश पाँच शेर ह। इ ह साधने के िलए सरकस वाल की तरह गायत्री साधक को भी अटूट साहस,
अिवचल धैयर् एवं सतत प्रय नशीलता को अपनाना होता है । इस साधना का आर भ काफी किठनाइय
और िनराशाओं से भरा हुआ होता है , पर तु धीरे -धीरे सफलता िमलने लगती है और गायत्री साधक जब
इन पाँच महा िसंह को, प चकोश को वश म कर लेता है , तो उसे अन त ऐ वयर् एवं अक्षय कीितर् का
लाभ होता है । सरकस के शेर की अपेक्षा इन आि मक िसंह की मह ता अनेक गन
ु ी है , इसिलए इनके
सध जाने पर सरकस वाल की अपेक्षा लाभ भी असंख्य गन
ु े ह। कायर इस साधना की क पना मात्र से
डर जाते ह, पर वीर के िलए आपि तय से भरा हुआ परम पु षाथर् ही आन ददायक होता है ।

कोश के अस तुिलत, अिवकिसत, अिनयि त्रत रहने से मानव अ त:करण की िवषम ि थित रहती है ।
उसम पर पर िवरोधी िवचारधाराएँ, भावनाएँ और िचयाँ उभरती एवं दबती रहती ह। गायत्री साधना से
इनम एकता उ प न होती है और अ तर के सम त संक प-िवक प की उधेड़बन
ु समा त होकर एक
सु यवि थत गितशीलता का आिवभार्व होता है । यह यवि थत गितशीलता िजस िदशा म भी चलेगी,
उसी िदशा म आशाजनक सफलता िमलेगी।

योग साधना का सबसे बड़ा लाभ मानिसक ि थित का पिरमािजर्त हो जाना है । पिरमािजर्त मनोभिू म
एक प्रकार का क पवक्ष
ृ है िजसके कारण वे सभी व तुएँ प्रा त हो जाती ह, जो मानव जीवन के िलए
उपयोगी, आव यक, लाभदायक एवं आन दवद्धर्क ह। पाँच यिक्तय को एक ही यिक्त व से सस
ु य
ं ुक्त
कर दे ना एक ऐसा मह वपूणर् कायर् है , िजसके वारा अपनी शिक्त पाँच गन
ु ी हो जाती है । चँ िू क यह
के द्रीकरण सतोगण
ु के आधार पर िकया जाता है , इसिलए साि वक आ मबल की प्रच ड अिभविृ द्ध से
प चमख
ु ी गायत्री साधना का साधक महामानव, महापु ष, महाआ मा बन जाता है ।

कीट-पतंग की तरह सभी जीते ह। आहार, िनद्रा, भय, मैथुन की तु छ िक्रयाओं म संलग्न रहकर साँस
पूरी कर लेना कोई बड़ी बात नहीं है । इस रीित से तो पशु-पक्षी भी जी लेते ह। बि क इस ि ट से
अ य जीव, मनु य से कहीं अ छे जीते ह। उ ह ई यार्, वेष, म सर, छल, द भ, काम, क्रोध, कुढ़न,
अस तोष, शोक, िवयोग, िच ता आिद की आ तिरक ग्रि थय म हर घड़ी झल
ु सते रहना नहीं पड़ता। वे
अनेक प्रकार के पाप की गठरी अपने ऊपर जमा नहीं करते। मनु य इन सब बात म अ य जीव-
ज तुओं की अपेक्षा कहीं अिधक घाटे म रहता है । मरते-मरते अ य जीव-ज तु अपने मत
ृ शरीर से
दस
ू र का कुछ भला कर जाते ह, पर मनु य वह भी नहीं कर पाता।

मानव जीवन की जो प्रशंसा और मह ता है , उसकी आि मक िवशेषताओं के कारण है । यिद ये


िवशेषताएँ अपने व थ प म िवकिसत ह , तो मनु य स चे अथ म मानव जीवन का लाभ प्रा त कर

288
सकता है । योग-साधना का उ े य यिक्त का पण
ू र् िवकास करना है । उसके भीतर जो अद्भत
ु शिक्तयाँ
िछपी ह, उनको योग वारा इतनी उ नत दशा तक पहुँचाया जाता है िक मनु य म दे व व की झाँकी
होने लगे।

भारतीय जीवन की आिदकाल से यह िवशेषता रही है िक उसम उ े यमय, आदशर्युक्त, पिरमािजर्त


जीवन को ही प्रधानता दी गई है । इस दे श म उस शिक्त को मनु य माना जाता रहा है , जो उ े यमय
आदशर् जीवन जीता रहा है । अज्ञान, आसिक्त और अभाव से संघषर् करने का त लेने वाले ही िवज
कहे जाते ह। जो िवज नहीं है , अथार्त ् िजसने पारमािथर्क जीवन का त नहीं िलया है , उस वाथीर्,
लोभी, िवषयी मनु य को शूद्र बताकर िन दा की है और एक प्रकार से उसका अद्धर् सामािजक बिह कार
िकया गया है । आज तो यापक प से शूद्रता फैली हुई है । गण
ु , कमर्, वभाव से आज चा डाल त व
और शूद्रता का िव तत
ृ प्रसार हो रहा है ।

भारतीय सं कृित की यह अद्भत


ु महानता है िक वह अपने हर अनुयायी को यह प्रेरणा दे ती है िक पशु-
पिक्षय , कीट-पतंग जैसा िश नोदरपरायण तु छ जीवन न जीये वरन ् अपना प्र येक क्षण महान ् आदश
की पूितर् म लगाए। अपनी यिक्तगत आव यकताओं को, शरीर-िनवार्ह की ज रत को कम से कम रखे
िजससे उनको कमाने म कम से कम समय और म लगे, बचे हुए अवकाश, बुिद्धबल एवं उ साह को
महानता के स पादन म लगाया जा सके।

इस सां कृितक प्रेरणा को ऋत भरा, प्रज्ञा एवं स बिु द्ध नाम से पक


ु ारा गया है । इसी को गायत्री कहते
ह। गायत्री म त्र म परमा मा से स बिु द्ध प्रदान करने की प्राथर्ना की गई है । यह स बिु द्ध प्राचीनकाल
म अिधकांश भारतवािसय को प्रा त थी। इसी से इस भिू म को पु यभिू म, तपोभिू म, वगार्दिप गरीयसी
आिद नाम से स बोिधत िकया जाता था और यहाँ ज म लेने के िलए दे वता भी इ छा करते थे।
ु त आ माएँ ललचा-ललचाकर इस दे श म अवतार लेने के िलए मक्
जीव मक् ु त-धाम से वापस लौट आती
थीं। ऋत भरा बुिद्ध ने इस दे श को महान ् मानव से पाट रखा था। िव या म, बुिद्धबल म, पराक्रम म,
धन म, वा य म, स दयर् म यह दे श भरा-पूरा था। कारण िक स बुिद्ध ने भारतवािसय की
अ त:भिू मका ऐसी पिरमािजर्त कर दी थी िक उससे भौितक एवं आि मक शिक्तय का अक्षय भ डार
उद्भव होना वाभािवक ही था।

स बुिद्ध उन सब किठनाइय को न ट करती है जो हमारी उ नित एवं सख


ु -शाि त म रोड़ा बनती ह।
स बुिद्ध उन सिु वधाओं को बढ़ाती है जो सस
ु प न बनाने के िलए आव यक ह। स बुिद्ध का एक
अ य त ही मह वपूणर् वैज्ञािनक आधार गायत्री है । इस महाम त्र के एक-एक अक्षर म गढ़
ू ज्ञान भरा
हुआ है । वह इतना उ वल है िक उसके प्रकाश म अज्ञान का अ धकार न ट हो जाता है । इन २४
अक्षर म ऐसा अद्भतु ज्ञान-भ डार भरा हुआ है िजसम दशर्न, धमर्, नीित, िवज्ञान, िशक्षा, िश प आिद सभी
पयार् त मात्रा म मौजद
ू ह। इस ज्ञान का अवगाहन करने पर तु छ मानव महामानव बनता है ।

289
गायत्री के अक्षर म ज्ञान-भ डार तो भरा हुआ है , इसके अितिरक्त इस महाम त्र की रचना भी ऐसे
िवलक्षण ढं ग से हुई है िक उसका उ चारण एवं साधना करने से शरीर और मन के सू म के द्र म
िछपी हुई अ य त मह वपूणर् शिक्तयाँ जाग्रत ् होती ह, िजनके कारण दै वी वरदान की तरह स बुिद्ध
प्रा त होती है । स बिु द्ध वारा अनेक लाभ उठाना तो सरल है , पर अस बुिद्ध वाले के िलए यही बड़ा
किठन है िक वह अपने आप अपने कुसं कार को हटाकर सस
ु ं कािरत स बुिद्ध का वामी बन जाए।
इस किठनाई का हल गायत्री महाम त्र की उपासना वारा होता है । जो इस साधना को करते ह, वे
अनुभव करते ह िक कोई अज्ञात शिक्त रह यमय ढं ग से उनके मन:क्षेत्र म नवीन ज्ञान, नवीन प्रकाश,
नवीन उ साह आ चयर्जनक रीित से बढ़ा रही है ।

यह छोटा सा म त्र ‘अमर फल’ के नाम से प्रिसद्ध है । अमत


ृ का फल खाने से भी मधुर होता है और
उसम अमरता का लाभ भी होता है । गायत्री के अक्षर म संसार का सम त ज्ञान-िवज्ञान बीज प म
मौजद
ू है । इसके अितिरक्त स बुिद्ध को िद य मागर् से अ त:करण म प्रिति ठत करने की शिक्त भी
उसम मौजद
ू है । सोना और सग
ु ध की लोकोिक्त गायत्री के स ब ध म भली प्रकार चिरताथर् होती है ।
गायत्री को कामधेनु कहा गया है । कामधेनु अ य त वािद ट पौि टक दध
ू प्रचुर पिरमाण म िनर तर
दे ती रहती है । इसके अितिरक्त उसके आशीवार्द से अनेक आपि तय से रक्षा और अनेक स पि तय
की प्राि त भी होती है । इस दह
ु रे लाभ के कारण ही साधारण गौ की अपेक्षा कामधेनु की अिधक
मह ता है । गायत्री की दोन मह ताएँ भी कामधेनु की भाँित ही ह। इसी से उसे भल
ू ोक की कामधेनु
कहते ह।

भारतवषर् म िश प, कृिष, यापार, िवज्ञान, रसायन, श त्र िव या आिद भौितक उ नितय के स ब ध म


सदै व मह वपण
ू र् प्रय न होते रहे ह, आज भी उनकी आव यकता है । पँज
ू ी, कुशलता, म एवं सहयोग के
आधार पर उनको बढ़ाया जाना चािहए और यथास भव उ ह बढ़ाया जा रहा है , क्य िक जीवन को
सिु वधापूवक
र् जीने के िलए भौितक साधन-सामिग्रय की अिनवायर् आव यकता है । भूखा आदमी न
ईमानदार रह सकता है और न व थ िच त। इसिलए जीवनयात्रा की सिु वधाएँ बढ़ाने के िलए भौितक
स पि तय का उपाजर्न आव यक है , पर यह यान रखने की बात है िक यिद भौितक उ नित पर ही
एकमात्र यान रखा गया और स पि त के ऊपर से आि मक िनय त्रण उठा िदया गया, तो जो कुछ
सांसािरक उ नित होगी, वह केवल मनु य की आपि तयाँ बढ़ाने का कारण बनेगी।

इन िदन िवज्ञान का बड़ा जोर है , सिु वधाओं के साधन िनत नए िनकलते जा रहे ह। फल व प मनु य
िवलासी, आलसी, दब र् , रोगी, कायर और अ पजीवी होता चला जा रहा है । िजन दे श ने अपनी शिक्त
ु ल
बढ़ाई है , वे छोटे दे श को गल
ु ाम बनाने एवं उनका शोषण करने म लगे हुए ह। वैज्ञािनक अ वेषण का
पिरणाम यह है िक एटम बम, हाइड्रोजन बम संसार म प्रलय उपि थत करने के िलए तैयार ह।
साधारण लोग पर ि ट डािलए तो उनका भी यही हाल है । भौितक शिक्त पाकर लोग अपना और

290
दस
ू र का िवनाश ही करते ह। वकील की िव या से िकसका क्या िहत है ? यादा कमाने वाले मजदरू
शराब और ताड़ी म अपनी कमाई फँू क दे ते ह। साहसी वभाव और बलवान ् शरीर वाले गु डा, डाकू,
अ याचारी बनने म अपना गौरव दे खते ह। दे हात म आजकल अ न की महँ गाई से िकसान की
आिथर्क दशा थोड़ी सध
ु री है , तो फौजदारी, मक
ु दमेबाजी, िववाह-शािदय आिद बात म िफजल
ू खचीर् की
बेतरह बाढ़ आ गई है । यह िनि चत है िक यिद भौितक उ नित के ऊपर आ याि मक अंकुश न होगा,
तो वह भ मासरु के वरदान की तरह अपना ही सवर्नाश करने वाली िसद्ध होगी। इसिलए यह अ य त
आव यक है िक भौितक उपाजर्न के साथ-साथ आि मक उ नित का भी यान रखा जाए। सु दर
बहुमू य व त्राभष
ू ण तभी शोभा पाते ह, जब पहनने वाले का वा य अ छा हो। मरणास न
अि थपंजर रोगी को यिद रे शमी कपड़ से और जेवर से लाद िदया जाए, तो उसकी शोभा तो कुछ न
बढ़े गी, उलटे उसकी असिु वधा बढ़ जाएगी। आि मक उ नित के िबना भौितक स पदाओं की बढ़ो तरी से
मनु य की अहं कािरता, ई यार्, िवलािसता, कु िच, िच ता, कुढ़न, शत्रत
ु ा आिद क टकारक बुराइयाँ भी बढ़
जाती ह।

गायत्री आ मो नित का, आ मबल बढ़ाने का सवर् े ठ मागर् है । सांसािरक स पि तयाँ उपाजर्न करना
िजस प्रकार आव यक समझा जाता है , उसी प्रकार गायत्री-साधना वारा आि मक पँज
ू ी बढ़ाने का प्रय न
भी िनर तर जारी रहना चािहए। दोन िदशाओं म साथ-साथ स तिु लत िवकास होगा तो व थ उ नित
होगी, िक तु यिद केवल धन या भोग के स चय म ही लगा रहा गया, तो िनि चत है िक वह कमाई
मनोिवनोद के िलए अपने पास इकट्ठी भले ही दीखे, पर उसम वा तिवक सख
ु की उपलि ध तिनक भी
न हो सकेगी। जो सांसािरक व तओ
ु ं का समिु चत लाभ उठाना चाहता हो, उसे चािहए िक आ मो नित
के िलए उतना ही प्रय न करे ।

आँख के िबना सु दर य दे खने का लाभ नहीं िमल सकता, कान बहरे ह तो मधुर संगीत का
रसा वादन स भव नहीं। आि मक शिक्त न हो ,तो सांसािरक व तुओं से कोई वा तिवक लाभ नहीं
उठाया जा सकता है । सु दर य और ती नेत्र योित के संयोग से ही िच त प्रस न होता है । भौितक
और आि मक उ नित का सम वय ही जीवन म सिु थर शाि त की थापना कर सकता है । हम धन
कमाएँ, िव या पढ़ और उ नित कर, पर यह न भल
ू िक इसका वा तिवक लाभ तभी िमल सकेगा, जब
आ मो नित के िलए भी समिु चत साधना की जा रही हो।

१- वा य, २-धन, ३-िव या, ४-चतुरता, ५-सहयोग, यह पाँच स पि तयाँ इस संसार म होती ह। इ हीं पाँच
के अ तगर्त सम त प्रकार के वैभव आ जाते ह। इसी प्रकार पाँच कोश की पिरमािजर्त ि थित ही पाँच
आ याि मक स पदाएँ ह। अ नमय, प्राणमय, मनोमय, िवज्ञानमय और आन दमय—यह पाँच कोश
आ याि मक शिक्तय के पाँच भ डार ह। इन कोश पर जो अिधकार कर लेता है , उसकी अ त:चेतना
का प चीकरण हो जाता है और १-आ मज्ञान, २-आ मदशर्न, ३-आ मानुभव, ४-आ मलाभ, ५-आ मक याण,
यह पाँच आ याि मक स पदाएँ प्रा त हो जाती ह।
291
गायत्री के िचत्र म दस भज
ु ाएँ िदखाई गई ह—पाँच बायीं और पाँच दािहनी ओर। बायीं ओर की पाँच
भज
ु ाएँ सांसािरक स पि तयाँ ह और दािहनी ओर की भज
ु ाएँ पाँच आि मक शिक्तयाँ ह। गायत्री उपासक
इन दस लाभ को प्रा त करके रहता है ।

(१) ‘आ मज्ञान’ का अथर् है —अपने को जान लेना, शरीर और आ मा की िभ नता को भली प्रकार समझ
लेना और शारीिरक लाभ को आ मलाभ की तल
ु ना म उतना ही मह व दे ना िजतना िक िदया जाना
उिचत है । आ मज्ञान होने से मनु य का असंयम दरू हो जाता है । इि द्रय भोग की लोलप
ु ता के कारण
लोग की शारीिरक और मानिसक शिक्तय का अनुिचत, अनाव यक यय होता है , िजससे शरीर असमय
म ही दब
ु ल
र् , रोगी, कु प एवं जीणर् हो जाता है । आ मज्ञानी इि द्रय भोग की उपयोिगता-अनुपयोिगता
का िनणर्य आ मलाभ की ि ट से करता है , इसिलए वह वभावत: संयमी रहता है और शरीर से
स ब ध रखने वाले द:ु ख से बचा रहता है । दब
ु ल
र् ता, रोग एवं कु पता का क ट उसे नहीं भोगना पड़ता।
जो क ट उसे प्रार ध कम के अनुसार भोगने होते ह, वह भी आसानी से भग
ु त जाते ह।

(२) ‘आ मदशर्न’ का ता पयर् है अपने व प का साक्षा कार करना। साधना वारा आ मा के प्रकाश का
जब साक्षा कार होता है , तब प्रीित-प्रतीित, द्धा-िन ठा और िव वास की भावनाएँ बढ़ती ह। कभी
भौितकवादी, कभी अ या मवादी होने की डावाँडोल मनोदशा ि थर हो जाती है और ऐसे गण
ु , कमर्,
वभाव प्रकट होने लगते ह, जो एक आ म ि ट वाले यिक्त के िलए उिचत ह। उस आ मदशर्न की
िवतीय भिू मका म पहुँचने पर दस
ू र को जानने, समझने और उ ह प्रभािवत करने की िसिद्ध िमल
जाती है ।

िजसे आ मदशर्न हुआ है उसकी आि मक सू मता अिधक यापक हो जाती है , वह संसार के सब शरीर
म अपने को समाया हुआ दे खता है । जैसे अपने मनोभाव, आचरण, गण
ु , वभाव, िवचार और उ े य
अपने को मालम
ू होते ह, वैसे ही दस
ू र के भीतर की सब बात भी अपने को मालम
ू हो जाती ह।
साधारण मनु य िजस प्रकार अपने शरीर और मन से काम लेने म समथर् होते ह, वैसे ही आ मदशर्न
करने वाला मनु य दस
ू र के मन और शरीर पर अिधकार करके उ ह प्रभािवत कर सकता है ।

(३) ‘आ मानभ
ु व’ कहते ह, अपने वा तिवक व प का िक्रयाशील होना, अपने अ या म ज्ञान के आधार
पर ही अपनी वाणी, िक्रया, योजना, इ छा, आकांक्षा, िच एवं भावना का होना। आमतौर से लोग िवचार
तो बहुत ऊँचे रखते ह, पर बा य जीवन म अनेक कारण से उ ह चिरताथर् नहीं कर पाते। उनका
यावहािरक जीवन िगरी हुई ेणी का होता है । िक तु िज ह आ मानुभव होता है , वे भीतर-बाहर एक
होते ह। उनके िवचार और काय म तिनक भी अ तर नहीं होता। जो िवघ्न-बाधाएँ सामा य लोग को
पवर्त के समान दग
ु म
र् मालम
ू पड़ती ह, उ ह वे एक ठोकर से तोड़ दे ते ह। उनका जीवन ऋिष जीवन
बन जाता है ।

292
आ म-अनभ
ु व से सू म प्रकृित की गितिविध मालम
ू करने की िसिद्ध िमलती है । िकसका क्या भिव य
बन रहा है ? भत
ू काल म कौन क्या कर रहा है ? िकस कायर् म दै वी प्रेरणा क्या है ? क्या उपद्रव और भय
उ प न होने वाले ह? लोक-लोका तर म क्या हो रहा है ? कब, कहाँ, क्या व तु उ प न और न ट होने
वाली है ? आिद ऐसी अ य एवं अज्ञात बात, िज ह साधारण लोग नहीं जानते, उ ह आ मानुभव की
भिू मका म पहुँचा हुआ यिक्त भली प्रकार जानता है । आर भ म उसे अनुभव कुछ धध ुँ ले होते ह, पर
जैसे-जैसे उनकी िद य ि ट िनमर्ल होती जाती है , सब कुछ िचत्रवत ् िदखाई दे ने लगता है ।

(४) ‘आ मलाभ’ का अिभप्राय है -अपने म पूणर् आ मत व की प्रित ठा। जैसे भट्ठी म पड़ा लोहा तपकर
अिग्नवणर् सा लाल हो जाता है , वैसे ही इस भिू मका म पहुँचा हुआ िसद्ध पु ष दै वी तेजपु ज से पिरपूणर्
हो जाता है । वह सत ् की प्र यक्ष मिू तर् होता है । जैसे अँगीठी के पास बै◌ैठने से गमीर् अनुभव होती है ,
वैसे ही महापु ष के आस-पास ऐसा सतोगण
ु ी वातावरण छाया रहता है , िजसम प्रवेश करने वाले
साधारण मनु य भी शाि त अनुभव करते ह। जैसे वक्ष
ृ की सघन शीतल छाया म ग्री म की धूप से तपे
हुए लोग को िव ाम िमलता है , उसी प्रकार आ मलाभ से लाभाि वत महापु ष अनेक द:ु िखय को
शाि त प्रदान करते रहते ह।

आ मलाभ के साथ-साथ आ मा की-परमा मा की अनेक िद य शिक्तय से स ब ध हो जाता है ।


परमा मा की एक-एक शिक्त का प्रतीक एक-एक दे वता है । यह दे वता अनेक ऋिद्ध-िसिद्धय का
अिधपित है । ये दे वता जैसे िव व-ब्र मा ड म यापक ह, वैसे ही मानव शरीर म भी ह। िव व-ब्र मा ड
का ही एक छोटा सा प यह िप ड दे ह है । इस िप ड दे ह म जो दै वी शिक्तय के गु य सं थान ह, वे
आ मलाभ करने वाले साधक के िलए प्रकट एवं प्र यक्ष हो जाते ह और वह उन दै वी शिक्तय से
इ छानुसार कायर् ले सकता है ।

(५) ‘आ मक याण’ का अथर् है —जीवन-मिु क्त, सहज समािध, कैव य, अक्षय आन द, ब्र मिनवार्ण, ि थत-
प्रज्ञाव था, परमहं स -गित, ई वर -प्राि त। इस प चम भिू मका म पहुँचा हुआ साधक ब्रा मीभतू होता है ।
इसी प चम भिू मका म पहुँची हुई आ माएँ ई वर की मानव प्रितमिू तर् होती ह। उ ह दे वदत ू , अवतार,
पैग बर, युगिनमार्ता, प्रकाश त भ आिद नाम से पुकारते ह। उ ह क्या िसिद्ध िमलती है ? इसके उ तर
म यही कहा जा सकता है िक कोई चीज ऐसी नहीं, जो उ ह अप्रा य हो। वे अक्षय आन द के वामी
होते ह। ब्र मान द, परमान द एवं आ मान द से बड़ा और कोई सख
ु इस ित्रगण
ु ा मक प्रकृित म स भव
नहीं; यही सव च लाभ आ मक याण की भिू मका म पहुँचे हुए को प्रा त हो जाता है ।

दशभज
ु ी गायत्री की पाँच भज
ु ा सांसािरक ह, पाँच आि मक। आि मक भज
ु ाएँ, आ मज्ञान, आ मदशर्न,
आ मानुभव, आ मलाभ और आ मक याण ह। यह दै वी स पदाएँ िजनके पास ह, उनके वैभव की तुलना
कुबेर से भी नहीं हो सकती। गायत्री का उपासक आि मक ि ट से इतना सस
ु प न और पिरपण
ू र् हो
जाता है िक उसकी तल
ु ना िक हीं भी सांसािरक स पदाओं से नहीं की जा सकती। ये पाँच भिू मकाएँ,

293
िसिद्धयाँ, प चकोश से स बि धत ह। एक-एक कोश की साधना एक-एक भिू मका म प्रवेश कराती जाती
है । अ नमय कोश का साधक आ मज्ञान प्रा त करता है । प्राणमय कोश की साधना से आ मदशर्न होता
है , मनोमय कोश के साथ आ मानभ
ु व होता है , िवज्ञानमय कोश से आ मलाभ का स ब ध है और
आन दमय कोश म आ मक याण सि निहत है ।

दशभज
ु ी गायत्री की पाँच भज
ु ाएँ सू म और पाँच थूल ह। िन काम उपासना करने वाले माता के सू म
हाथ से आशीवार्द पाते ह और सकाम उपासक को थूल हाथ से प्रसाद िमलता है । असंख्य यिक्त
ऐसे ह, िज ह ने माता की कृपा से सांसािरक स पि तयाँ प्रा त की ह और अपनी दग
ु म
र् किठनाइय से
त्राण पाया है । वा य, धन, िव या, चतुरता और सहयोग, ये पाँच सांसािरक स पि तयाँ प चमख
ु ी माता
की थूल भज
ु ाओं से िमलती ह।

ऐसे िकतने ही अनुभव हमारे सामने ह, िजनम लोग ने साधारण गायत्री साधना वारा आशाजनक
सांसािरक सफलताएँ प्रा त की ह। िजनके घर म रोग घुस रहा था, बीमारी की पीड़ा सहते-सहते और
डॉक्टर का घर भरते-भरते जो कातर हो रहे थे, उ ह ने रोगमिु क्त के वरदान पाए। क्षय सरीखे
प्राणघातक रोग की म ृ युश या पर से उठकर खड़े हो गए। कइय को ज मजात पैतक
ृ रोग तक से
छुटकारा िमला। िकतने ही बेकार, दिरद्र और अयोग्य यिक्त अ छी जीिवका के अिधकारी बन गए।
साधनहीन और अिवकिसत लोग चतुर, बुिद्धमान ्, कलाकार, िश पी, गण
ु वान ्, प्रितभावान ्, सवर्िप्रय नेता और
यश वी बन गए। िजनको सब ओर से ितर कार, अपमान, वेष, संघषर् और असहयोग ही िमलता था,
उनको घर-बाहर सवर्त्र प्रेम, सहयोग, सद्भाव तथा मधुर यवहार प्रा त होने लगा।

ऐसे अगिणत चम कारी लाभ उठाने वाले लोग से हम वयं पिरिचत ह। मक


ु दमा, आक्रमण, ब धन,
भय, आशंका, िवरोध, परीक्षा, बीमारी, दिरद्रता, भत
ू -बाधा, स तित-क ट, यसन, दग
ु ण
ुर् आिद कुचक्र के
त्रासदायक चंगल
ु से छूटकर अनेक यिक्तय ने स तोष की साँस ली है । क टकर वतर्मान और भयंकर
भिव य को दे खकर जो लोग िकंक तर् यिवमढ़
ू हो रहे थे, उ ह ने जब गायत्री का आ य िलया तो
त क्षण उ ह धैय,र् साहस और प्रकाश प्रा त हुआ। यह ठीक है िक कोई दे वता आकर उनका काम वयं
नहीं कर गया, पर यह भी स य है िक उ ह अनायास ही ऐसा मागर् सझ ू पड़ा, ऐसी युिक्त समझ म
आई, िजससे झट िबगड़ा काम बन गया और पवर्त-सी भारी किठनाई राई की तरह छोटी होकर हल हो
गई। िजस आपि त म यह लगता था िक न जाने इसके कारण हम पर क्या बीतेगी, वह सब आशंकाएँ
काई की तरह फट गईं और किठनता सरल हो गई। माता की कृपा से अनेक बार ऐसे चम कार होते
हुए दे खे गए ह।

वा य और धन की ही भाँित दशभज
ु ी गायत्री की तीसरी थूल भज
ु ा का प्रसाद ‘िव या’ के प म
िमलता है । म दबिु द्ध, मढ़
ू मगज, भल
ु क्कड़, मख
ू ,र् अदरू दशीर्, िसड़ी, सनकी एवं अद्धर्िविक्ष त मनु य को
बिु द्धमान ्, दरू दशीर्, ती बिु द्ध, िववेकवान ् बनते दे खा गया है । िजनकी मि त क दशा को दे खकर हर कोई

294
यह भिव यवाणी करता था िक अपना पेट भी न भर सकगे, उन लोग का मि त क और भाग्य ऐसा
पलटा िक वे कुछ से कुछ हो गए, लोग उनकी सलाह लेकर काम करने म अपनी भलाई समझने लगे।

िजनकी पढ़ाई म िच न थी, वे पु तक के कीड़े हो गए। हर साल फेल होने वाले िव याथीर् गायत्री की
थोड़ी बहुत उपासना करने से ऐसे ती बुिद्ध के हुए िक सदै व अ छे न बर से उ ह सफलता िमलती
गई। अनेक उलझन, कायर् य तता एवं अवकाश का अभाव रहने पर भी िकतने ही साधनहीन यिक्त
िव वान ् बने ह। मि त क से काम लेने वाले िकतने ही बुिद्धजीवी मनु य ऐसे ह, िजनकी गायत्री साधना
ने उनके मि त क को अ य त प्रखर बनाया है और फल व प वे उ वल नक्षत्र की तरह प्रकािशत
हुए ह। अपने बुिद्धबल से उ ह ने आशाजनक सफलता, प्रित ठा, कीितर् और स पदा उपािजर्त की है ।

िवकृत मि त क वाले, िविक्ष त, डरपोक, आलसी, झगड़ालू, िचड़िचड़े मनु य तीसरी भज


ु ा के प्रसाद से
व थ मनोभिू म प्रा त करते ह। भत
ू ो माद, प्रेतबाधा, ि त्रय और बालक पर होने वाले द ु ट आ माओं
के आक्रमण को दरू करने की अद्भत
ु शिक्त गायत्री उपासना म है । हजार ओझा, सयाने और ताि त्रक
तराजू के एक पलड़े म रखे जाएँ और एक गायत्री उपासक एक ओर रखा जाए, तो िनि चत प से इस
िद य शिक्त की ही उपयोिगता िसद्ध होगी।

चातुयप
र् ूणर् काम का आर भ करते समय शारदा का, सर वती का आ वान, व दन और पूजन करने की
प्रथा है । कारण यही है िक बिु द्ध त व म माता की कृपा से एक ऐसी सू म िवशेषता बढ़ जाती है ,
िजससे वे िविश ट बात आसानी से दयंगम हो जाती ह। िचत्रकला, संगीत, किवता, स भाषण, लेखन,
िश प, रसायन, िचिक सा, िशक्षण, नेत ृ व, अ वेषण, परीक्षण, िनणर्य, दलाली, प्रचार, यवसाय, खेल,
प्रित व िवता कूटनीित आिद िकतनी ही बात ऐसी ह, िजनम िवशेष सफलता वही पा सकता है
िजसकी बिु द्ध म सू मता हो। मोटी अक्ल से इस प्रकार के कम म लाभ नहीं होता। कुशाग्र, सू मवेधी
बिु द्ध-चातय
ु र् गायत्री माता के पु य-प्रसाद के प म प्रा त होता है , ऐसी द्धा रखने के कारण ही लोग
अपने काय को आरं भ करते हुए शारदा-व दना करते ह।

गायत्री की ु ाओं म पाँचवीं भज


थूल पाँच भज ु ा का प्रसाद सहयोग है । यह िजसे िमलता है , वह वयं
िवनम्र, मधुरभाषी, प्रस निच त, हँ समख
ु , उदार, दयाल,ु उपकारी, स दय, सेवाभावी, िनरहं कारी बन जाता है ।
ये िवशेषताएँ उनम बड़ी तेजी से बढ़ती ह, फल व प उनके संपकर् म जो भी कोई आता है , वह उनका
बेपैसे का गुलाम बन जाता है । ऐसे वभाव के मनु य के त्री, पु ष, पुत्र, भाई, भतीजे, चाचा, ताऊ सभी
अनुकूल, सहायक और प्रशंसक रहते ह। घर म उसका मान-स कार होता है और सब कोई उसकी
सिु वधा का यान रखते ह। घर म ह , बाहर बाजार म, िमत्र म, पिरिचत म, सवर्त्र उसे प्रेम, स कार और
सहयोग प्रा त होता है । ऐसे वभाव के यिक्त कहीं भी िमत्रिवहीन नहीं रहते। वे जहाँ भी रहते ह,
वहीं उ ह प्रेमी, प्रशंसक, िमत्र, सहायक-सहयोगी प्रा त हो जाते ह।

295
दािहनी और बाईं, सू म और थल
ू गायत्री की दस भज
ु ाएँ साधक को प्रा त होने वाली पाँच आि मक
और पाँच भौितक िसिद्धयाँ ह। ये दस िसिद्धयाँ ऐसी ह िजनके वारा यही जीवन, यही लोक वगीर्य सख

से ओत-प्रोत हो जाता है । यह जीवन अगले जीवन की पव
ू र् भिू मका है । यिद मनु य आज संतु ट है तो
कल भी उसे संतोष ही उपल ध होगा, यिद आज उसे क याण का अनुभव होता है तो कल कल भी
क याण ही होगा। स पु ष अक्सर द ु साहसपूणर् और वतर्मान वातावरण से िभ न कायर्क्रम अपनाते ह,
इसिलए बा य ि ट से उ ह कुछ असिु वधाएँ िदखाएँ दे ती ह। पर तु उनकी आ तिरक ि थित पण
ू र्
प्रस न और स तु ट होती है । ऐसी दशा म यह भी िनि चत है िक उनका अगला जीवन भी पूणत
र् या
प्रस नता एवं संतोष की भिू मका म और भी अिधक िवकिसत होगा और आज की बा य किठनाइयाँ भी
कल तक ि थर न रहगी।

क्या योग साधना के िलए घर-गह


ृ थ छोड़कर साधु बनना, कपड़े रँ गना, यत्र-तत्र भ्रमण करते रहना
आव यक है ? इस प्र न पर िवचार करते समय हम पूवक
र् ाल के योिगय की वा तिवक ि थित की
जानकारी प्रा त कर लेना आव यक है । प्राचीनकाल म ऋिष लोग अिववािहत ही रहते थे, यह मा यता
ठीक नहीं। यह ठीक है िक ऋिष-मिु नय म से कुछ ऐसे भी थे जो कुछ समय तक अथवा आजीवन
ब्र मचारी रहते थे, पर उनम से अिधकांश गह
ृ थ थे, यह बात भी िबलकुल ठीक है । त्री-ब च के साथ
होने से उ ह तप चयार् एवं आ मो नित म सहायता िमलती थी।

इितहास-पुराण म पग-पग पर इस बात की साक्षी िमलती है िक भारतीय महिषर्गण योगी, यती, साधु,
तप वी, अ वेषक, िचिक सक, वक्ता, रचियता, उपदे टा, दाशर्िनक, अ यापक, नेता आिद िविवध प म
अपना जीवन यापन करते थे और इन महान ् काय म त्री-ब च को भी अपना भागीदार बनाते थे।

ब्र मा, िव ण,ु महे श तीन ही िववािहत थे। ब्र मा की गायत्री और सािवत्री दो ि त्रयाँ थीं। िव णु की
ु सी और ल मी दो प नी ह। सती के मरने के बाद महादे व जी का दस
तल ू रा िववाह पावर्ती से हुआ था।
यास, अित्र, गौतम, विस ठ, िव वािमत्र, याज्ञव क्य, भर वाज, यवन आिद सभी ऋिष गह ृ थ ही थे।
ू ा अपने समय की प्रमख
याज्ञव क्य की दो पि नयाँ गागीर् और मैत्रेयी थीं। अित्र की प नी अनसय ु
ब्र मवािदनी थी। ऐसे प्रमाण से इितहास-पुराण का प ना-प ना भरा पड़ा है , िजससे प्रतीत होता है िक
पूवक
र् ाल म योगी लोग गह
ृ थ धमर् का पालन करते थे।

उस समय की पिरि थितयाँ, प्रथाएँ, सिु वधाएँ तथा सादगी की पद्धित के अनुसार ऋिष लोग साि वक
जीवन िबताते थे। वेश बनाने या घर छोड़ने की उनकी कोई योजना न थी। लकड़ी की खड़ाऊँ, तु बी का
जलपात्र उनकी सादगी तथा सिु वधा के आधार पर थे। उस समय आबादी कम और वन अिधक थे।
आसानी से बन सकने वाली झ पड़ी, छोटे -छोटे ग्राम उस समय की साधारण पिरपाटी थी। पर आज की
बदली हुई पिरि थितय म उन बात की नकल करना कहाँ तक उिचत है , यह पाठक वयं सोच सकते
ह।

296
उस समय दध
ू पीकर फल खाकर रहने वाले लोग यागी नहीं समझे जाते थे, क्य िक िव तत
ृ वन म
चरने की सिु वधा होने से कोई मनु य िकतनी ही गाएँ पाल सकता था। जंगल मे अपने आप उगे फल
को लाने म कोई बाधा न थी। पर आज तो एक गाय पालने म एक पिरवार के बराबर खचर् आता है ।
पेट को खराब कर डालने वाले फल को न लेकर यिद सख
ु ा य फल को िलया जाए, तो भी काफी खचर्
होता है । जो बात उस समय अ य त सादगी की थी, वह आज अमीर के िलए भी दल
ु भ
र् है ।

रा ते रोके पड़ी रहने वाली, टूटे हुए वक्ष


ृ की सख
ू ी लकड़ी को साफ करने तथा िहंसक जानवर का
आक्रमण रोकने के िलए िदन-रात ‘धूनी’ जलाई जाती थी। पर आज तो लकड़ी का भाव इतना अिधक
है िजसे िकसी भी ि थित म वहन नहीं िकया जा सकता। उस समय वाभािवक म ृ यु से मरते रहने
वाले मग
ृ आिद जीव का चमड़ा चाहे िजतना िमलता था। पर आज तो िबना ह या का चमड़ा प्रा त
करना असंभव-सा लगता है । िफर एक मग
ृ चमर् का मू य भी क पनातीत है । इतने पए से तो कुश के
ढे र आसन खरीदे जा सकते ह। सदीर्-गमीर् से बचने के िलए दे ह पर भ म मलने से, भभत
ू रमाने से
काम चल जाता था। व त्र वहाँ जंगल म थे नहीं। पर आज जब व त्र का िमलना सग
ु म है , तो भभत

लगाने की क्या आव यकता है ?

उस जमाने म पेड़ काटने, अिग्न सँभालने, जंगली पशुओं से मक


ु ाबला करने के िलए बड़ा-सा िचमटा
रखना आव यक था, पर आज जब िक वह तीन ही कारण नहीं रहे , तो िचमटे का क्या प्रयोजन रह
गया? पव
ू क
र् ाल म िजन बात को सादगी एवं पिरि थितय के अनस
ु ार वाभािवक आव यक समझा
जाता था, आज की पिरि थितय म उनम से िकतनी ही बात अनाव यक ह। हमने भारतवषर् की एक
छोर से दस
ू रे छोर तक कई बार आ याि मक यात्राएँ की ह। अपने अनभ
ु व के बल पर हम कह सकते
ह िक अब कोई वन ऐसा नहीं रहा है , जहाँ फल खाकर या अपने आप चरकर आने वाली गौओं का दध

पीकर कोई यिक्त गज
ु ारा कर सके, न आज के मनु य के शरीर ही ऐसे ह िक शीत प्रधान दे श म
मकान या व त्र के िबना रह सक। जो योगी-यती गंगोत्री आिद म रहते ह, उनको भी व त्र, मकान
आिद की यव था करनी पड़ती है ।

िभक्षाजीवी होकर, दस
ू र से ऋण लेकर आज की अभावग्र त जनता पर, अ द्धालु जनता पर भार बनकर
‘साधु’ वेश बना लेना, बदली हुई पिरि थितय का िवचार न करके पूवज र् की वेशभष
ू ा का अ धानुकरण
करना कोई बुिद्धमानी की बात नहीं है । साधु हो जाने वाल को भी अपनी आव यकता पूरी करने के
िलए उतना ही प्रय न करना पड़ता है , िजतना िक गह
ृ थ को। ऐसी दशा म यही उिचत है िक अपनी
जीिवका की आप यव था रखते हुए पािरवािरक कायर्क्रम के साथ-साथ सादा वेश म साधु जीवन
यतीत िकया जाए।

साधना मन से होती है न िक वेश से। मन तो भारी भीड़ म भी शांत रह सकता है और एकांत वन म

297
भी िवकारग्र त हो सकता है , िफर एकांतसेवी लोग की इंिद्रय-िवजय भी क ची होती है । िजसे चोरी
करने का अवसर ही नहीं िमलता, वह ईमानदार है । इस बात पर िव वास नहीं िकया जा सकता, क्य िक
प्रलोभन के वक्त वह िफसल सकता है । िजसको चोरी के सदा अवसर ह, िफर भी अपने पर काबू रखता
है , उसी को िव व त, प्रमािणक, ईमानदार कहा जाएगा। एका त जंगल म बैठकर, लोग से संबंध तोड़कर
कोई यिक्त बुराइय से बच जाए, तो उसके सं कार उतने सु ढ़ नहीं हो सकते िजतने िक िनर तर
बुराइय से संघषर् करके अपनी अ छाई को िवकिसत करने वाले के होते ह। शूर की परीक्षा युद्धभिू म म
होती है । घर म बैठा हुआ तो मरीज भी तीसमारखाँ कहला सकता है ।

गायत्री-साधना वारा योग साधना करके आि मक उ नित करने एवं क याण-पथ पर चलने के िलए
यह कतई आव यक नहीं िक कोई िविचत्र वेश बनाया जाए, घर- वार छोड़कर भीख के टूँक पर गज
ु ारा
िकया जाए। कुछ िविश ट आ माएँ सं यास की अिधकारी होती ह। वह अिधकार तब िमलता है , जब
साधना पूणर् पिरपक्व होकर मनोभिू म इस योग्य हो जाती है िक वह संसार का पथ-प्रदशर्न करने के
िलए पिर ाजक बने। साधारण साधक के िलए यह मागर् ग्रहण करना अनिधकार चे टा करना है ।

गायत्री की पंचमख
ु ी साधना करने के िलए िकसी को छोड़ने की आव यकता नहीं है , क्य िक िनि चत
समय, िनि चत यव था, िनि चत आहार-िवहार की सिु वधा घर छोड़ने वाले को नहीं हो सकती। पात्र-
कुपात्र का अ न, पेट म जाकर बुिद्ध पर तरह-तरह के सं कार डालता है , इसिलए अपने पिर म की
कमाई हुई रोटी पर गज
ु ारा करते हुए गह
ृ थ जीवन म ही साधनाक्रम का आयोजन करना चािहए।

ब्र मचयर् उिचत और आव यक है , िजससे िजतना संयम हो सके उतना अ छा है । परु चरण की
िनि चत अविध म जब तक िनि चत संक प का जप परू ा न हो, ब्र मचयर् का पालन आव यक है ।
पर तु िनयतकालीन िनधार्रण संख्या या अविध के िवशेष परु चरण को छोड़कर, सामा य साधनाक्रम म
ब्र मचयर् अिनवायर् शतर् नहीं है । गह
ृ थ लोग अपने साधारण एवं वाभािवक दा प य क तर् य का
पालन करते हुए प्रस नतापूवक
र् अपनी साधना जारी रख सकते ह। इससे उनके साधन म कोई बाधा न
आएगी।

मन पर िनय त्रण करने की साि वकता के िनयम पालन करने की सिु वधा घर पर ठीक प्रकार से होती
है । जहाँ पानी होगा, वहीं तो तैरना सीखा जाएगा। पानी से सैकड़ कोस दरू रहने वाला मनु य भला
अ छा तैराक िकस प्रकार बन सकेगा? तैरने की अनेक िशक्षाएँ ग्रहण करने पर भी उसकी िशक्षा तब
तक अधूरी रहे गी, जब तक िक वह पानी म रहकर भी न डूबने की अपनी योग्यता प्रमािणत न कर दे ।
ृ थ जीवन म अनेक अनुकूल-प्रितकूल, भले-बुरे, हषर्-िवषाद के अवसर आते ह, उन परीक्षा के अवसर
गह
पर अपने मन के साधन से वभाव और सं कार म प्रौढ़ता एवं पिरपक्वता आती है ।

अपने बुरे सं कार एवं वभाव से िन य संघषर् करना चािहए। प्रितकूल पिरि थितय को अनुकूल बनाने

298
के िलए घोर प्रय न करना चािहए। इस घोर प्रय न एवं संघषर् को म थन कहते ह। इसे ही गीता म
‘धमर्यद्ध
ु ’ या ‘कमर्योग’ कहा है । अजन
ुर् चाहता है -हमारा अज्ञानग्र त मन कहता है िक इस झंझट से दरू
रहकर, एका तवासी बनकर सफलता का कोई दस
ू रा मागर् िमल जाए। वह लड़ना नहीं चाहता, क्य िक
संघषर् सदा ही क टसा य होता है । मनु य की कायर प्रकृित सदा उससे बचना चाहती है । कायर िसपाही
सदा ही लड़ाई के मोच से भाग खड़े होने की योजना बनाते ह। इसी प्रकार अपने वभाव की, पिरवार
की, समाज की, दे श-काल की पिरि थितय से खीजकर कई आदमी िनराश होकर बुराइय को
आ मसमपर्ण ही कर दे ते ह।

इस ि थित के प्रितिनिध अजन


ुर् को भगवान ् ने बुरी तरह लताड़ा था और उसके तक म झाँकती हुई
कायरता का पदार्फाश कर िदया था। भगवान ् ने कहा—‘‘िबना लड़े क याण नहीं, सफलता-असफलता की
बात को मन से हटाकर लड़ने को अपने क तर् य मानकर तू लड़।’’ साधक के िलए भी यही मागर् है ।
िवपरीत पिरि थितय से उ ह िनर तर अित उ साहपूवक
र् युद्ध करना चािहए। इतना प्रय न करने पर भी
कम सफलता िमली, यह सोचना धमर्यद्ध
ु के िवज्ञान के िवपरीत है । संघषर् एक साधना है । उससे प्रकाश
एवं तेज की विृ द्ध होना अव य भावी है । म थन से िक्रया, गित और शिक्त का उ प न होना सिु नि चत
है । साधन-समर के सैिनक का प्र येक कदम ल य की ओर बढ़ता है । मंिजल चाहे िकतनी दरू क्य न
हो, प्रगित चाहे िकतनी म द क्य न हो, पर यह ध्रव
ु िन चय है िक यिद साधक की यात्रा उसी दशा म
जारी है , तो वह आज नहीं तो कल पण
ू र् सफलता की प्राि त करके रहे गा।

गायत्री का त त्रोक्त वाम-मागर्


वाम मागर्, त त्र िव या का आधार प्राणमय कोश है । िजतनी शिक्त प्राण म या प्राणमय कोश के
अ तगर्त है , केवल उतनी त त्रोक्त प्रयोग वारा चिरताथर् हो सकती है । ई वरप्राि त, आ मसाक्षा कार,
जीवन मिु क्त, अ त:करण का पिरमाजर्न आिद कायर् त त्र की पहुँच से बाहर ह। वाम मागर् से तो वह
भौितक प्रयोजन सध सकते ह जो वैज्ञािनक य त्र वारा िसद्ध हो सकते ह।

ब दक
ू की गोली मारकर या िवष का इंजेक्शन दे कर िकसी मनु य का प्राणघात िकया जा सकता है ।
त त्र वारा अिभचार िक्रया करके िकसी दस
ू रे का प्राण िलया जा सकता है । िनबर्ल प्राण वाले मनु य
पर तो प्रयोग और भी आसानी से हो जाते ह, जैसे छोटी िचिड़या को मारने के िलए टे नगन की
ु ेल म रखकर फकी गई मामल
ज रत नहीं पड़ती। गल ू ी कंकड़ के आघात से ही िचिड़या िगर पड़ती है
और पंख फड़फड़ाकर प्राण याग कर दे ती है । इसी प्रकार िनबर्ल प्राण वाले, कमजोर, बीमार, बालक, वद्ध

या डरपोक मनु य पर मामल
ू ी शिक्त का तांित्रक भी प्रयोग कर लेता है और उ ह घातक बीमारी और
म ृ यु के मँह
ु म धकेल दे ता है ।

शराब, चरस, गाँजा आिद नशीली चीज की मात्रा शरीर म अिधक पहुँच जाए, तो मि त क की िक्रया
299
पद्धित िवकृत हो जाती है । नशे म मदहोश हुआ मनु य ठीक प्रकार सोचने, िवचारने, िनणर्य करने एवं
अपने ऊपर काबू रखने म असमथर् होता है । उसकी िवचारधारा, वाणी एवं िक्रया म अ त य तता होती
है । उ माद या पागलपन के सब लक्षण उस नशीली चीज की अिधक मात्रा से उ प न हो जाते ह। इसी
प्रकार ताि त्रक प्रयोग वारा एक ऐसा सू म नशीला प्रभाव िकसी के मि त क म प्रवेश कराया जा
सकता है िक उसकी बुिद्ध पद युत हो जाए और ती प्रयोग की दशा से कपड़े फाड़ने वाला पागल बन
जाए अथवा म द प्रयोग की दशा म अपनी बुिद्ध की ती ता खो बैठे और चतुरता से वि चत होकर
वज्रमख
ू र् हो जाए।

ू से सेवन कर िलया जाए तो शरीर म भंयकर उपद्रव खड़े हो


कुछ िवषैली औषिधयाँ ऐसी ह, िज ह भल
जाते ह। कै, द त, िहचकी, छींक, बेहोशी, मू छार्, ददर् , अिनद्रा, भ्रम आिद रोग हो जाते ह। इसी प्रकार
ताि त्रक िवधान म ऐसी िविधयाँ भी ह, िजनके वारा एक प्रकार का िवषैला पदाथर् िकसी के शरीर म
प्रवेश कराया जा सकता है ।

िवज्ञान ने रे िडयो िकरण की शिक्त से अपने आप उड़ने वाला ‘रे डारबम’ नामक ऐसा य त्र बनाया है
जो िकसी िनधार्िरत थान पर जाकर िगरता है । कृ या, घात, मारण आिद के अिभचार म ऐसी ही सू म
िक्रया प्राणशिक्त के आधार पर की जाती है । दरू थ यिक्त पर वह ताि त्रक ‘रे डार’ ऐसा िगरता है िक
ल य को क्षत-िवक्षत कर दे ता है ।

यद्ध
ु काल म बमबारी करके खेत, मकान, कारखाने, उ योग, उ पादन, रे ल, मोटर, पल
ु आिद न ट कर िदए
जाते ह िजससे उस थान के मनु य साधनहीन हो जाते ह, उनकी स प नता और अमीरी उस बमवारी
वारा न ट हो जाती है और वे थोड़े ही समय म असहाय बन जाते ह। त त्र वारा िकसी के सौभाग्य,
वैभव और स प नता पर बमवारी करने से उसे इस प्रकार न ट िकया जा सकता है िक सब है रत म
रह जाएँ िक उसका सब कु◌ुछ इतनी ज दी, इतने आकि मक प से कैसे न ट हो गया या होता जा
रहा है ?

कूटनीितक जासस
ू ी और यवसायी ठग ऐसा छद्म वेश बनाते और ऐसा जाल रचते ह, िजसके आकषर्ण,
प्रलोभन और कुचक्र म फँसकर समझदार आदमी भी बेवकूफ बन जाता है । मे मेिर म एवं िह नोिट म
वारा िकसी के मि त क को अद्धर्स मोिहत करके वशवतीर् बना िलया जाता है , िफर उस यिक्त को
जैसे आदे श िदए जाएँ, तदनुसार ही आचरण करता है । मे मेिर म या त त्र से वशीभत
ू मनु य उसी
प्रकार सोचता, िवचारता, अनुभव करता है जैसा िक प्रयोक्ता का संकेत होता है । उसकी इ छा, मनोविृ त
भी उसी समय वैसी ही हो जाती है , जैसी िक कायर् करने की प्रेरणा दी जा रही हो। त त्रिव या म
मे मेिर म से अनेक गुनी प्रच ड शिक्त है ; उसके वारा िजस मनु य पर गु त प से बौिद्धक
वशीकरण का जाल फका जाता है , वह एक प्रकार की सू म त द्रा म जाकर दस
ू रे का वशवतीर् हो जाता
है । उसकी बिु द्ध वही सोचती, वैसी ही इ छा करती है , वैसा ही कायर् करती है जैसा िक उससे गु त

300
षडय त्र वारा कराया जा रहा है । अपनी िनज की िवचारशीलता से वह प्राय: वंिचत हो जाता है ।

यिभचारी पु ष िकतनी सरल वभाव ि त्रय पर इस प्रकार का जाद ू चलाते ह िक उ ह पथभ्र ट करने
म सफल हो जाते ह। िकसी सीधी-सादी, कुलशील, पूरा संकोच और स मान करने वाली दे िवयाँ दस
ू र के
वशीभत
ू होकर अपनी प्रित ठा, लोक-ल जा आिद को ितलांजिल दे कर ऐसा आचरण करती ह, िजसे
दे खकर है रत होती है िक इनकी बुिद्ध ऐसे आकि मक तरीके से िवपरीत क्य हो गई? पर तु व तुत: वे
बेचारी िनद ष होती ह। वे बाज के चंगल
ु म फँसे हुए पक्षी या भेिड़ये के मँह
ु म लगी हुई बकरी की
तरह िजधर घसीटी जाती ह, उधर ही िघसट जाती ह।

इसी प्रकार दरु ाचािरणी ि त्रयाँ िक हीं पु ष पर अपना ताि त्रक प्रभाव डालकर उनकी नाक म नकेल
डाल दे ती ह और मनचाहे नाच नचाती ह। कई वे याओं को इस प्रकार का जाद ू मालम
ू होता है । वे ऐसे
पक्षी फँसा लेती ह, जो अपना सब कुछ खो बैठने पर भी उस चंगल
ु से छूट नहीं पाते। उन फँसे हुए
पिक्षय का वा य, स दयर् और धन अपहरण करके वे अपने वा य, स दयर् और धन को बढ़ाती
रहती ह।

त त्र वारा त्री पु ष आपस म एक-दस


ू रे की शिक्त को चूसते ह। ऐसे साधन त त्र प्रिक्रया म मौजद

ह, िजनके वारा एक पु ष अपनी सहगािमनी त्री की जीवनशिक्त को, प्राणशिक्त को चूसकर उसे छूँछ
कर सकता है और वयं उससे पिरपु ट हो सकता है । अ ड की प्राणशिक्त चस
ू कर तगड़े बनने एवं
दस
ू र के रक्त का इंजेक्शन लेकर अपने शरीर को पु ट करने के उदाहरण अनेक होते ह, पर ऐसे भी
उदाहरण होते ह िक समागम वारा साथी की सू म प्राणशिक्त को चस
ू िलया जाए। ताि त्रक प्रधानता
के म यकालीन यग ु म बड़े आदमी इस आधार पर बहुिववाह की ओर अग्रसर हो रहे थे और रनवास
म सैकड़ रािनयाँ रखी जाने लगी थीं।

इस प्रिक्रया को ि त्रयाँ भी अपना लेती ह। जादग


ू रनी ि त्रयाँ सद
ुं र युवक को मेढ़ा, बकरा, तोता आिद
बना लेती थीं, ऐसी कथाएँ सन
ु ी जाती ह। तोता, बकरा आिद बनाना आज किठन है , पर अब भी ऐसी
घटनाएँ दे खी गई ह िक वद्धृ ा त त्रसािधनी युवक को चूसती ह और वे अिन छुक होते हुए भी अपनी
प्राणशिक्त खोते रहने के िलए िववश होते ह। इससे एक पक्ष पु ट होता है और दस
ू रा अपनी
वाभािवक शिक्त से वंिचत होकर िदन-िदन दब
ु ल
र् होता जाता है ।

वाम-मागर् के पंचमकार म पंचम मकार ‘मैथुन’ है । अ नमय कोश और प्राणमय कोश के सि मिलत
मैथुन से यह मह वपूणर् िक्रया होती है । इस अगिणत गु त, अ तरं ग, शिक्तय के अनुलोम-िवलोम क्रम
के आकषर्ण-िवकषर्ण, घूणन
र् -चूणन
र् , आकंु चन-िवकंु चन, प्र यारोहण, अिभवद्धर्न, वशीकरण, प्र यावतर्न आिद
सू म म थन होते ह, िजनके कारण जोड़े म, त्री-पु ष के शरीर म आपसी मह वपण
ू र् आदान-प्रदान
होता है । रित-िक्रया साधारणत: एक अ य त साधारण शारीिरक िक्रया िदखाई दे ती है , पर उसका सू म

301
मह व अ यिधक है । उस मह व को समझते हुए ही भारतीय धमर् म सवर्साधारण की सरु क्षा का, िहत
का यान रखते हुए इस संबंध म अनेक मयार्दाएँ बाँधी गई ह।

मि त क, दय और जननेि द्रयाँ शरीर म ये तीन शिक्तपुंज ह। इ हीं थान म ब्र मग्रि थ,


िव णग्र
ु ि थ, द्रग्रि थ ह। वाम-मागर् म काली त व से संबंिधत होने के कारण द्रग्रि थ से जब शिक्त
संचय करने के िलए कूमर् प्राण को आधार बनाना होता है , तो मैथुन वारा साम यर्-भ डार जमा िकया
जाता है । जननेि द्रय के प्रभाव क्षेत्र म मल
ू ाधार चक्र, वािध ठान चक्र, वज्र मे , तिड़त, क छप, कंु डल,
ु ु ना आिद के अव थान ह।
सिपर्णी, द्रग्रि थ, समान, कृकल, अपान, कूमर्, प्राण, अल बुषा, डािकनी, सष
इनका आकंु चन-प्रकंु चन जब त त्रिव या के आधार पर होता है तो यह शिक्त उ प न होती है और वह
शिक्त दोन ही िदशा म उलटी-सीधी चल सकती है । इस िव या के ज्ञाता जननेि द्रय का उिचत रीित
से योग करके आशातीत लाभ उठाते ह, पर तु जो लोग इस िवषय म अनिभज्ञ ह, वे वा य और
जीवनी शिक्त को खो बैठते ह। साधारणत: रित-िक्रया म क्षय ही अिधक होता है , अिधकांश नर-नारी
उसम अपने बल को खोते ही ह, पर त त्र के गु त िवधान वारा अ नमय और प्राणमय कोश की
सु त शिक्तयाँ इससे जगाई भी जा सकती ह।

वाम-मागर् म मैथुन को इि द्रयभोग की क्षुद्र सरसता के प म नहीं िलया जाता, वरन ् शिक्तके द्र के
जागरण एवं म थन वारा अभी ट िसिद्ध के िलए उसका उपयोग होता है । स त प्राण का जागरण एवं
एक ही साम य का दस
ू रे शरीर म पिरवतर्न, ह ता तरण करने के िलए इसका ‘रित साधना’ के प म
प्रयोग होता है । मानव प्राणी के िलए परमा मा वारा िदए हुए अ य त मह वपूणर् उपहार इस ‘रित’
और प्राण के पुंज को ई वरीय भाव से परम द्धा के साथ पूजा जाता है । िशव-िलंग के साथ शिक्त-
योिन के तादा य की मिू तर्याँ आमतौर से पूजी जाती ह। उनम जननेि द्रय म ि थत िद यशिक्त के
प्रित उ चकोिट की द्धा का संकेत है । क्षुद्र सरसता के िलए उसका प्रयोग तो हे य ही माना गया है ।

चँ िू क इस िव या के सावर्जिनक उ घाटन से इसका द ु पयोग होने और अनैितकता फैलने का पूरा


खतरा है , इसिलए इसे अ य त गोपनीय रखा गया है । उपयक्
ुर् त पंिक्तय म त त्र म सि निहत
शिक्तय के स ब ध म कुछ प्रकाश डालना ही यहाँ अभी ट है ।

िकसी अ त्र को आगे की ओर भी चलाया जा सकता है और पीछे की ओर भी। ईख से वािद ट


िम टा न भी बन सकता है और मिदरा भी। गायत्री महाशिक्त को जहाँ आ मक याण एवं साि वक
प्रयोजन के िलए लगाया जाता है , वहाँ उसे तामिसक प्रयोजन म भी प्रयुक्त िकया जा सकता है ।
गायत्री का दिक्षण मागर् भी है और वाम मागर् भी। दिक्षण मागर् वेदोक्त, सतोगण
ु ी, सरल, धमर्पूणर् एवं
क याण का साधन है । वाम मागर् त त्रोक्त, तमोगण
ु ी, द ु साहसपूणर् अनैितक एवं सांसािरक चम कार को
िसद्ध करने वाला है ।

302
गायत्री के दिक्षण मागर् की शिक्त का ोत ब्र म का परम सतोगण
ु ी ‘ ीं’ त व है और वाम मागर् का
महात व ‘क्लीं’ कद्र से अपनी शिक्त प्रा त करता है । अपने या दस
ू रे के प्राण का म थन करन के
त त्र की तिड़त शिक्त उ प न की जाती है । रित और प्राण के म थन एवं रितकमर् के स ब ध म
िपछले प ृ ठ पर कुछ प्रकाश डाला जा चुका है । दस
ू रा म थन िकसी प्राणी के वध वारा होता है ।
प्राणा त समय म भी प्राणी का प्राण मैथुन की भाँित उ तेिजत, उ िवग्न एवं याकुल होता है , उस
ि थित म भी ताि त्रक लोग उस प्राणशिक्त का बहुत भाग खींचकर अपना शिक्त-भ डार भर लेते ह।
नीित-अनीित का यान न रखने वाला ताि त्रक पशु-पिक्षय का बिलदान इसी प्रयोजन के िलए करते
ह।

मत
ृ मनु य के शरीर म कुछ समय तक उपप्राण का अि त व सू म अंश म बना रहता है । ताि त्रक
लोग मशान भिू म म मरघट जगाने की साधना करते ह। अघोरी लोग शव-साधना करके मत
ृ क की
बची-खुची शिक्त चूसते ह। दे खा जाता है िक कई अघोरी मत
ृ क की लाश को जमीन म से खोद ले
जाते ह। मत
ृ क की खोपिड़याँ संग्रह करते ह, िचताओं पर भोजन पकाते ह। यह सब इसिलए िकया
जाता है िक मरे हुए शरीर के अित सू म भाग के भीतर, िवशेषत: खोपड़ी म जहाँ-जहाँ उपप्राण की
प्रसु त चेतना िमल जाती है । दाना-दाना बीनकर अनाज की बोरी भर लेने वाले कंजस
ू की तरह अघोरी
लोग ह िडय का फा फोरस िमि त ‘ य’ु त व एक बड़ी मात्रा म इकट्ठा कर लेते ह।

दिक्षण मागर् िकसान के िविधपूवक


र् खेती करके यायानुमोिदत अ न-उपाजर्न करने के समान है ।
िकसान अपने अ न को बड़ी सावधानी और िमत यियता से खचर् करता है , क्य िक उसम उसका
दीघर्कालीन कठोर म लगा है । पर डाकू की ि थित ऐसी नहीं होती, वह द ु साहसपण
ू र् आक्रमण करता
है और यिद सफल हुआ तो उस कमाई को होली की तरह फँू कता है । योगी लोग चम कार प्रदशर्न म
अपनी शिक्त खचर् करते हुए िकसान की भाँित िझझकते ह, पर ताि त्रक लोग अपने गौरव और बड़ पन
का आतंक जमाने के िलए छुद्र वाथ के कारण दस ू र को अनुिचत हािन-लाभ पहुँचाते ह। अघोरी,
कापािलक, रक्त बीज, वैतािलक, ब्र मराक्षस आिद कई संप्रदाय तांित्रक के होते ह, उनकी साधना-पद्धित
एवं कायर्-प्रणाली िभ न-िभ न होती है । ि त्रय म डािकनी, शािकनी, कपालकंु डला, सपर्सत्र
ू ा पद्धितय का
प्रचार अिधक पाया जाता है ।

ब दक
ू से गोली छूटते समय वह पीछे की ओर झटका मारती है । यिद सावधानी के साथ छाती से
सटाकर ब दक
ू को ठीक प्रकार से न रखा गया, तो वह ऐसे जोर का झटका दे गी िक चलाने वाला ओंधे
ु पीछे को िगर पड़ेगा। कभी-कभी इससे अनािड़य के गले की हँ सली ह डी तक टूट जाती है । त त्र
मँह
वारा भी ब दक
ू जैसी तेजी के साथ िव फोट होता है , उसका झटका सहन करने योग्य ि थित यिद
साधक की न हो, तो उसे भयंकर खतरे म पड़ जाना होता है ।

त त्र का शिक्त- ोत, दै वी, ई वरीय शिक्त नहीं वरन ् भौितक शिक्त है । प्रकृित के सू म परमाणु अपनी

303
धरु ी पर द्रत
ु गित से भ्रमण करते ह, तब उसके घषर्ण से जो ऊ मा पैदा होती है , उसका नाम काली या
दग
ु ार् है । इस ऊ मा को प्रा त करने के िलए अ वाभािवक, उलटा, प्रितगामी मागर् ग्रहण करना पड़ता है ।
जल का बहाव रोका जाए तो उस प्रितरोध से एक शिक्त का उद्भव होता है । ताि त्रक वाममागर् पर
चलते ह, फल व प काली शिक्त का प्रितरोध करके अपने को एक तामिसक, पंचभौितक बल से
स प न कर लेते ह। उलटा आहार, उलटा िवहार, उलटी िदनचयार्, उलटी गितिविध सभी कुछ उनका
उलटा होता है । अघोरी, रक्तबीजी, कापािलक, डािकनी आिद के संपकर् म जो लोग रहे ह, वे जानते ह िक
उनके आचरण िकतने उलटे और वीभ स होते ह।

ु गित से एक िनयत िदशा म दौड़ती हुई रे ल, मोटर, नदी, वायु आिद के आगे आकर उसकी गित को
द्रत
रोकना और उस प्रितरोध से शिक्त प्रा त करना यह खतरनाक खेल है । हर कोई इसे कर भी नहीं
सकता, क्य िक प्रितरोध के समय झटका लगता है । प्रितरोध िजतना कड़ा होगा, झटका उतना ही
जबदर् त लगेगा। त त्र साधक जानते ह िक जब कोलाहल से दरू एका त ख डहर , मशान म अद्धर्राित्र
के समय उनकी साधना का म यकाल आता है , तब िकतने रोमांचकारी भय आ उपि थत होते ह।
गगनचु बी राक्षस, िवशालकाय सपर्, लाल नेत्र वाले शूकर और मिहष, छुरी से दाँत वाले िसंह साधक के
आस-पास िजस रोमांचकारी भयंकरता से गजर्न-तजर्न करते हुए कोहराम मचाते और आक्रमण करते ह,
उनसे न तो डरना और न िवचिलत होना—यह साधारण काम नहीं है । साहस के अभाव म यिद इस
प्रितरोधी प्रितिक्रया से साधक भयभीत हो जाए तो उसके प्राण संकट म पड़ सकते ह। ऐसे अवसर पर
कोई यिक्त पागल, बीमार, गँग
ू े, बहरे , अ धे हो जाते ह। कइय को प्राण से हाथ धोना पड़ता है । इस
मागर् म साहसी और िनभीर्क प्रकृित के मनु य ही सफलता पाते ह।

ऐसी िकतनी ही घटनाएँ हम मालम


ू ह िजनम त त्र साधक को खतरे से होकर गज
ु रना पड़ा है ।
िवशेषत: जब िकसी सू म प्राण स ता को वशीभत
ू करना होता है , तो उसकी िवपरीत प्रितिक्रया बड़ी
िवकट होती है । सू म जगत ् पी समद्र
ु म मछिलय की भाँित कुछ चैत य प्राणधािरय म वत त्र
स ताओं का अि त व पाया जाता है । जैसे समद्र
ु म मछिलयाँ अनेक जाित की होती ह, उसी प्रकार यह
स ताएँ भी अनेक वभाव , गण
ु , शिक्तय से स प न होती ह। इ ह िपतर, यक्ष, ग धवर्, िक नर, राक्षस,
दे व, दानव, ब्र मबेताल, कू मा ड, भैरव, रक्तबीज आिद कहते ह। उनम से िकसी को िसद्ध करके उसकी
शिक्त से अपने प्रयोजन को साधा जाता है । इनको िसद्ध करते समय वे उलटकर कुचले हुए सपर् की
तरह ऐसा आक्रमण करते ह िक िनबर्ल साधक के िलए उस चोट का झेलना किठन होता है । ऐसे खतरे
म पड़कर कई यिक्त इतने भयभीत एवं आतंिकत होते हमने दे खे ह िक िजनकी छाती की रक्तवािहनी
नािड़याँ फट गईं और मख
ु , नाक तथा मल मागर् से खन
ू बहने लगा। ऐसे आहत लोग म से अिधकांश
ु म प्रवेश करना पड़ा, जो बचे उनका शरीर और मि त क िवकारग्र त हो गया।
को म ृ यु के मख

भत
ू ो माद, मानिसक भ्रम, आवेश, अज्ञात आ माओं वारा क ट िदया जाना, द:ु व न, ताि त्रक के
अिभचारी आक्रमण आिद िकसी सू म प्रिक्रया वारा जो यिक्त आक्रा त हो रहा हो, उसे ताि त्रक
304
प्रयोग वारा रोका जा सकता है और उस प्रयोक्ता पर उसी के प्रयोग को उलटाकर उस अ याचार का
मजा चखाया जा सकता है । पर तु इस प्रकार के कायर् दिक्षणमागीर् गायत्री उपासना से भी हो सकते ह।
अिभचािरय या द ु ट पर ता कािलक उलटा आक्रमण करना तो त त्र वारा ही स भव है , पर हाँ,
प्रय न को वेदोक्त साधना से ही िन फल िकया जा सकता है और उनकी शिक्त को छीनकर भिव य
के िलए उ ह िवषरिहत सपर् जैसा हतवीयर् बनाया जा सकता है । त त्र वारा िक हीं त्री-पु ष की
काम-शिक्त अपहरण करके उ ह नपस
ंु क बना िदया जाता है , पर अित असंयम को दिक्षण मागर् वारा
भी संयिमत िकया जा सकता है । त त्र की शिक्त प्रधानत: मारक एवं आक्रमणकारी होती है , पर योग
वारा शोधन, पिरमाजर्न, संचय एवं रचना मक िनमार्ण कायर् िकया जाता है ।

त त्र के चम कारी प्रलोभन असाधारण ह। दस


ू र पर आक्रमण करना तो उनके वारा बहुत ही सरल है ।
िकसी को बीमारी, पागलपन, बुिद्धभ्रम, उ चाटन उ प न कर दे ना, प्राणघातक संकट म डाल दे ना आसान
है । सू म जगत ् म भ्रमण करती हुई िकसी ‘चेतनाग्रि थ’ को प्राणवान ् बनाकर उससे प्रेत, िपशाच, वैताल,
भैरव, कणर् िपशािचनी, छाया पु ष आिद के प म सेवक की तरह काम लेना, सद ु रू दे श से अजनबी
चीज मँगा दे ना, गु त रखी हुई चीज या अज्ञात यिक्तय के नाम-पते बता दे ना ताि त्रक के िलए
स भव है । आगे चलकर वेश बदल लेना या िकसी व तु का प बदल दे ना भी उनके िलए स भव है ।
इसी प्रकार की अनेक िवलक्षणताएँ उनम दे खी जाती ह, िजससे लोग बहुत प्रभािवत होते ह और उनकी
भट-पजू ा भी खबू होती है । पर तु मरण रखना चािहए िक इन यिक्तय की ोत परमाणग ु त ऊ मा
(काली) ही है जो पिरवतर्नशील है । यिद थोड़े िदन साधना ब द रखी जाए या प्रयोग छोड़ िदया जाए, तो
उस शिक्त का घट जाना या समा त हो जाना अव य भावी है ।

त त्र वारा कुछ छोटे -मोटे लाभ भी हो सकते ह। िकसी के ताि त्रक आक्रमण को िन फल करके िकसी
िनद ष की हािन को बचा दे ना ऐसा ही सदप
ु योग है । ताि त्रक िविध से ‘शिक्तपात’ करके अपनी उ तम
शिक्तय का कुछ भाग िकसी िनबर्ल मन वाले को दे कर उसे ऊँचा उठा दे ना भी सदप
ु योग ही है । और
भी कुछ ऐसे ही प्रयोग ह िज ह िवशेष पिरि थित म काम म लाया जाए, तो वह भी सदप
ु योग ही कहा
जाएगा। पर तु असं कृत मनु य इस तमोगण
ु प्रधान शिक्त का सदा सदप
ु योग ही करगे, इसका कुछ
भरोसा नहीं। वाथर् साधना का अवसर हाथ म आने पर उसका लाभ छोड़ना िक हीं िवरल का ही काम
होता है ।

त त्र अपने आप म कोई बुरी चीज नहीं है । वह एक िवशुद्ध िवज्ञान है । वैज्ञािनक लोग य त्र और
रासायिनक पदाथ की सहायता से प्रकृित की सू म शिक्तय का उपयोग करते ह। ताि त्रक अपने को
ऐसी रासायिनक एवं याि त्रक ि थित म ढाल लेता है िक अपने शरीर और मन को एक िवशेष प्रकार
से संचािलत करके प्रकृित की सू म शिक्तय का मनमाना उपयोग करे । इस िवज्ञान का िव याथीर्
कोमल परमाणओ
ु ं वाला होना चािहए, साथ ही साहसी प्रकृित का भी, कठोर और कमजोर मन वाले इस
िदशा म अिधक प्रगित नहीं कर पाते। यही कारण है िक पु ष की अपेक्षा ि त्रयाँ अिधक आसानी से
305
सफल ताि त्रक बनती दे खी गई ह। छोटी-छोटी प्रारि भक िसिद्धयाँ तो उ ह व प प्रय न से ही प्रा त
हो जाती ह।

त त्र एक वत त्र िवज्ञान है । िवज्ञान का द ु पयोग भी हो सकता है और सदप


ु योग भी। पर तु इसका
आधार अनुिचत और खतरनाक है और शिक्त प्रा त करने के उ गत ोत अनैितक, अवा छनीय ह,
साथ ही प्रा त िसिद्धयाँ भी अ थायी ह। आमतौर से ताि त्रक घाटे म रहता है । उससे संसार का िजतना
उपकार हो सकता है , उससे अिधक उपकार होता है , इसिलए चम कारी होते हुए भी इस मागर् को िनिषद्ध
एवं गोपनीय ठहराया गया है । अ य सम त त त्र साधन की अपेक्षा गायत्री का वाममागर् अिधक
शिक्तशाली है । अ य सभी िविधय की अपेक्षा इस िविध से मागर् सग
ु म पड़ता है , िफर भी िनिषद्ध व तु
या य है सवर्साधारण के िलए तो उससे दरू रहना ही उिचत है ।

य त त्र की कुछ सरल िविधयाँ भी ह। अनुभवी पथ-प्रदशर्क इन किठनाइय का मागर् सरल बना सकते
ह। िहंसा, अनीित एवं अकमर् से बचकर ऐसे लाभ के िलए साधन कर सकते ह जो यावहिरक जीवन
म उपयोगी ह और अनथर् से बचकर वाथर्-साधन होता रहे । पर यह लाभ तो दिक्षणमागीर् साधन से
भी हो सकते ह। ज दबाजी का प्रलोभन छोड़कर यिद धैयर् और साि वक साधन िकए जाएँ तो उनके
भी कम लाभ नहीं ह। हमने दोन माग का ल बे समय तक साधन करके यही पाया है िक दिक्षण
मागर् का राजपथ ही सवर्सल
ु भ है ।

गायत्री वारा सािधत त त्रिव या का क्षेत्र बड़ा िव तत


ृ है । सपर्-िव या, प्रेतिव या, भिव य-ज्ञान, अ य
व तओ
ु ं का दे खना, परकाया-प्रवेश, घात-प्रितघात, ि ट-ब धन, मारण, उ मादकरण, वशीकरण, िवचार-
स दोह, मोहनम त्र, पा तरण, िव मत
ृ , स तान सय
ु ोग, छाया पु ष, भैरवी, अपहरण, आकषर्ण-अिभकषर्ण
आिद अनेक ऐसे-ऐसे कायर् हो सकते ह, िजनको अ य िकसी भी ताि त्रक प्रिक्रया वारा िकया जा
सकता है । पर तु यह प ट है िक त त्र की प्रणाली सव पयोगी नहीं है , उसके अिधकारी कोई िबरले ही
होते ह।

दिक्षणमागीर्, वेदोक्त, योगस मत, गायत्री-साधना िकसान वारा अ न उपजाने के समान, धमर्सग
ं त, ि थर
लाभ दे ने वाली और लोक परलोक म सख
ु शाि त दे ने वाली है । पाठक का वा तिवक िहत इसी राजपथ
के अवल बन म है । दिक्षण मागर् से, वेदोक्त साधन से जो लाभ िमलते ह, वे ही आ मा को शाि त दे ने
वाले, थायी प से उ नित करने वाले एवं किठनाइय को हल करने वाले ह। त त्र म चम कार बहुत
ह, वाममागर् से आसरु ी शिक्तयाँ प्रा त होती ह, उसकी संहारक एवं आतंकवादी क्षमता बहुत है , पर तु
इससे िकसी का भला नहीं हो सकता। ता कािलक लाभ को यान म रखकर जो लोग त त्र के फेर म
पड़ते ह, वे अ तत: घाटे म रहते ह। त त्रिव या के अिधकारी वही हो सकते ह जो तु छ वाथ से ऊँचे
उठे हुए ह। परमाणु बम के रह य और प्रयोग हर िकसी को नहीं बताए जा सकते, इसी प्रकार त त्र की
खतरनाक िज मेदारी केवल स पात्र को ही स पी जा सकती है ।

306
गायत्री की गु दीक्षा
मनु य म अ य प्रािणय की अपेक्षा जहाँ िकतनी ही िवशेषताएँ ह, वहाँ िकतनी ही किमयाँ भी ह। एक
सबसे बड़ी कमी यह है िक पश-ु पिक्षय के ब चे िबना िकसी के िसखाये अपनी जीवनचयार् की साधारण
बात अपने आप सीख जाते ह, पर मनु य का बालक ऐसा नहीं करता है । यिद उसका िशक्षण दस
ू रे के
वारा न हो, तो वह उन िवशेषताओं को प्रा त नहीं कर सकता जो मनु य म होती ह।

अभी कुछ िदन पूवर् की बात है , दिक्षण अफ्रीका के जंगल म मादा भेिड़या मनु य के दो छोटे ब च
को उठा ले गई। कुछ ऐसी िविचत्र बात हुई िक उसने उ ह खाने के बजाय अपना दध
ू िपलाकर पाल
िलया, वे बड़े हो गये। एक िदन िशकािरय का दल भेिड़ये की तलाश म इधर से िनकला तो िहंसक पशु
की माँद म मनु य के बालक दे खकर उ ह बड़ा आ चयर् हुआ, वे उ ह पकड़ लाये। ये बालक भेिड़य की
तरह चलते थे, वैसे ही गरु ार्ते थे, वही सब खाते थे और उनकी सारी मानिसक ि थित भेिड़ये जैसी थी।
कारण यही था िक उ ह ने जैसा दे खा, वैसा सीखा और वैसे ही बन गये।

जो बालक ज म से बहरे होते ह, वे जीवनभर गग


ूं े भी रहते ह; क्य िक बालक दस
ू रे के मँह
ु से
िनकलने वाले श द को सन
ु कर उसकी नकल करना सीखता है । यिद कान बहरे होने की वजह से वह
दस
ू र के श द सन
ु नहीं सकता, तो िफर यह अस भव है िक श दो चारण कर सके। धमर्, सं कृित,
रीित-िरवाज, भाषा, वेश-भष
ू ा, िश टाचार, आहार-िवहार आिद बात बालक अपने िनकटवतीर् लोग से सीखता
है । यिद कोई बालक ज म से ही अकेला रखा जाए, तो वह उन सब बात से वि चत रह जायेगा, जो
मनु य म होती ह।

पश-ु पिक्षय के ब च म यह बात नहीं है । बया पक्षी का छोटा ब चा पकड़ िलया जाय और वह माँ-
बाप से कुछ न सीखे तो भी बड़ा होकर अपने िलए वैसा ही सु दर घ सला बना लेगा जैसा िक अ य
बया पक्षी बनाते ह; पर अकेला रहने वाला मनु य का बालक भाषा, कृिष, िश प, सं कृित, धमर्, िश टाचार,
लोक- यवहार, म-उ पादन आिद सभी बात से वि चत रह जायेगा। पशओ
ु ं के बालक ज म से ही
चलने िफरने लगते ह और माता का पय पान करने लगते ह, पर मनु य का बालक बहुत िदन म कुछ
समझ पाता है । आर भ म तो वह करवट बदलना, दधू का थान तलाश करना तक नहीं जानता, अपनी
माता तक को नहीं पहचानता, इन बात म पशुओं के ब चे अिधक चतुर होते ह।

मनु य कोरे कागज के समान है । कागज पर जैसी याही से जैसे अक्षर बनाये जाते ह, वैसे ही बन
जाते ह। कैमरे ही लेट पर जो छाया पड़ती है , वैसा ही िचत्र अंिकत हो जाता है । मानव मि त क की
रचना भी कोरे कागज एवं फोटो- लेट की भाँित है । वह िनकटवतीर् वातावरण म से अनेक बात सीखता
है । उसके ऊपर िजन बात का िवशेष प्रभाव पड़ता है , उ ह वह अपने मानस क्षेत्र म जमा कर लेता है ।

307
मनु य गीली िमट्टी के समान है , जैसे साँचे म ढाल िदया जाए, वैसा ही िखलौना बन जाता है । उ च
पिरवार म पलने वाले बालक म वैसी ही िवशेषताएँ होती ह और िनकृ ट ेणी के बीच रहकर जो
बालक पलते ह, उनम वैसी क्षुद्रताएँ बहुधा पाई जाती ह।

हमारे पारदशीर् पूवज


र् मनु य की कमजोरी को भली प्रकार समझते थे। उ ह अ छी तरह मालम
ू था
िक यिद बालक पर अिनयि त्रत प्रभाव पड़ता रहा, उनके सध
ु ार और पिरवतर्न का प्रार भ से ही यान
न रखा गया, तो यह बहुत मिु कल है िक वे अपनी मनोभिू म को वैसी बना सक जैसी िक मानव
प्रित ठा के िलए आव यक है । आमतौर से सब माता-िपता उतने ससु ं कृत नहीं होते िक अपने ब च
पर केवल अ छा प्रभाव ही पड़ने द और बुरे प्रभाव से उ ह बचाते रह। दस
ू रे यह भी है िक माँ-बाप म
बालक के प्रित लाड़- यार का भाव वभावत: अिधक होता है , वे उनके प्रित अिधक उदार एवं मोहग्र त
होते ह। ऐसी दशा म अपने बालक की बुराइयाँ उ ह सझ
ू भी नहीं पड़तीं। िफर इतने सू मदशीर् माँ-बाप
कहाँ होते ह, जो अपनी स तान की मानिसक ि थित का सू म िनरीक्षण एवं िव लेषण करके कुसं कार
का पिरमाजर्न त काल करने को उ यत रह।

सत ् िशक्षण की आव यकता

मनु य की यह कमजोरी है िक वह दस
ू र से ही सब कुछ सीखता है , जो िक उसके उ च िवकास म
बाधक होती है । कारण िक साधारण वातावरण म भले त व की अपेक्षा बरु े त व अिधक होते ह। उन
बरु े त व म ऐसा आकषर्ण होता है िक क चे िदमाग उनकी ओर बड़ी आासनी से िखंच जाते ह।
फल व प वे बरु ाइयाँ अिधक सीख लेने के कारण आगे चलकर बरु े मनु य सािबत होते ह। छोटी आयु
म यह पता नहीं चलता िक बालक िकन सं कार को अपनी मनोभिू म म जमा रहा है । बड़ा होने पर
जब वे सं कार एवं वभाव प्रकट होते ह, तब उ ह हटाना किठन हो जाता है ; क्य िक दीघर्काल तक वे
सं कार बालक के मन म जमे रहने एवं पकते रहने के कारण ऐसे सु ढ़ हो जाते ह िक उनका हटाना
किठन होता है ।

ऋिषय ने इस भारी किठनाई को दे खकर एक अ य त ही सु दर और मह वपूणर् उपाय यह िनि चत


िकया िक प्र येक बालक पर माँ-बाप के अितिरक्त िकसी ऐसे यिक्त का भी िनय त्रण रहना चािहए
जो मनोिवज्ञान की सू मताओं को समझता हो ।दरू दशीर् त वज्ञानी और पारदशीर् होने के कारण बालक
के मन म रहने वाले सं कार-बीज को अपनी पैनी ि ट से त काल दे ख लेने और उनम आव यक
सध
ु ार करने की योग्यता रखता हो। ऐसे मानिसक िनय त्रणकतार् की उनने प्र येक बालक को अिनवायर्
आव यकता घोिषत की।

शा त्र म कहा गया है िक मनु य के तीन प्र यक्ष दे व ह-(१) माता, (२) िपता, (३) गु । इ ह ब्र मा,
िव ण,ु महे श की उपािध दी है । माता ज म दे ती है इसिलए ब्र मा है , िपता पालन करता है इसिलए

308
िव णु है और गु कुसं कार का संहार करता है इसिलए शंकर है । गु का थान माता-िपता के
समकक्ष है । कोई यह कहे िक म िबना माता के पैदा हुआ, तो उसे ‘झठू ा’ कहा जायेगा, क्य िक माता के
गभर् म रहे िबना कोई िकस प्रकार ज म ले सकता है ? इसी प्रकार कोई यह कहे िक म िबना बाप का
ं र’ कहा जायेगा, क्य िक िजसके बाप का पता न हो, ऐसे ब चे तो वे याओं के यहाँ
हूँ, तो वह ‘वणर्सक
पैदा होते ह। उसी प्रकार कोई कहे िक मेरा कोई गु नहीं है , तो समझा जायेगा िक यह अस य एवं
असं कािरत है , क्य िक िजसके मि त क पर िवचार, वभाव, ज्ञान, गण
ु , कमर् पर िकसी दरू दशीर् का
िनय त्रण नहीं रहा, उसके मानिसक वा य का क्या भरोसा िकया जा सकता है ? ऐसे असं कृत
यिक्तय को ‘िनगरु ा’ कहा जाता है । ‘िनगरु ा’ का अथर् है िबना गु का। िकसी समय म ‘िनगरु ा’ कहना
भी वणर्सक
ं र या िम याचारी कहलाने के समान गाली समझी जाती थी।

िबना माता का, िबना िपता का, िबना गु का भी कोई मनु य हो सकता है , यह बात प्राचीनकाल म
अिव व त समझी जाती थी। कारण िक भारतीय समाज के सस
ु बद्ध िवकास के िलए ऋिषय की यह
अिनवायर् यव था थी िक प्र येक कायर् का गु होना चािहए, िजससे वह महान ् पु ष बन सके। उस
समय प्र येक माता-िपता को अपने बालक को महापु ष बनाने की अिभलाषा रहती थी। इसके िलए यह
आव यकता रहती थी िक उनके बालक िकसी सिु वज्ञ आचायर् के िश य ह ।

गु कुल प्रणाली का उस समय आम िरवाज था। पढ़ने की आयु होते ही बालक ऋिषय के आ म म
भेज िदये जाते थे। राजा महाराजाओं तक के बालक गु कुल का कठोर जीवन िबताने जाते थे, तािक वे
कुशल िनय त्रण म रहकर सस
ु ं कृत बन सक और आगे चलकर मनु य के महान ् गौरव की रक्षा करने
वाले महापु ष िसद्ध हो सक। म अमक ु आचायर् का िश य हूँ, यह बात बड़े गौरव के साथ कही जाती
थी। प्राचीन पिरपाटी के अनुसार जब कोई मनु य िकसी दस
ू रे को पिरचय दे ता था तो कहता था, ‘‘म
अमक ु आचायर् का िश य, अमक ु िपता का पुत्र, अमक
ु गोत्र का, अमक
ु नाम का यिक्त हूँ।’’ संक प म,
प्रितज्ञाओं म, साक्षी म, राजदरबार म अपना पिरचय इसी आधार पर िदया जाता था।

मनोभिू म का पिर कार

बगीचा को यिद सु दर बनाना है , तो इसके िलए िकसी कुशल माली की िनयिु क्त आव यक है । जब
आव यकता हो तब सींचना, जब अिधक पानी भर गया हो तो उसे बाहर िनकाल दे ना, समय पर गोड़ना,
िनराई करना, अनाव यक टहिनय को छाँटना, खाद दे ना, पशुओं को चरने न दे ने की रखवाली करना
आिद बात के स ब ध म माली सदा सजग रहता है , फल व प बगीचा हरा-भरा, फला-फूला, सु दर और
समु नत रहता है ।

मनु य का मि त क एक बगीचा है ; इसम नाना प्रकार के मनोभाव, िवचार, संक प, इ छा, वासना,
योजना पी वक्ष
ृ उगते ह, उनम से िकतने ही अनाव यक और िकतने ही आव यक होते ह। बगीचे म

309
िकतने ही पौधे झाड़-झंखाड़ जैसे अपने आप उग आते ह, वे बढ़ तो बगीचे को न ट कर सकते ह,
इसिलए माली उ ह उखाड़ दे ता है और दरू -दरू से लाकर अ छे -अ छे बीज उसम बोता है । गु अपने
िश य के मि त क पी बगीचे का माली होता है । वह अपने क्षेत्र म से जंगली झाड़-झंखाड़ जैसे
अनाव यक संक प , सं कार , आकषर्ण और प्रभाव को उखाड़ता रहता है और अपनी बुिद्धम ता,
दरू दिशर्ता एवं चतुरता के साथ ऐसे सं कार बीज जमाता रहता है , जो उस मि त क पी बगीचे को
बहुमू य बनाएँ।

कोई यिक्त यह सोचे िक म वयं ही अपना आ मिनमार्ण क ँ गा, अपने आप अपने को सस


ु ं कृत
ु े िकसी गु
बनाऊँगा, मझ की आव यकता नहीं, तो ऐसा िकया जा सकता है । आ मा म अन त शिक्त
है । अपना क याण करने की शिक्त उसम मौजद
ू है , पर तु ऐसे प्रय न म कोई मन वी यिक्त ही
सफल होते ह। सवर् साधारण के िलए यह बात बहुत क टसा य है , क्य िक बहुधा अपने दोष अपने को
नहीं दीखते, जैसे अपनी आँख अपने आपको वयं िदखाई नहीं दे तीं। िकसी दस
ू रे मनु य या दपर्ण की
सहायता से ही अपनी आँख को दे खा जा सकता है । जब कोई वै य, डॉक्टर बीमार होते ह तो वयं
अपना इलाज आप नहीं करते, क्य िक अपनी नाड़ी वयं दे खना, अपना िनदान आप कर लेना
साधारणतया बहुत किठन होता है , इसिलए वे िकसी दस
ू रे वै य या डॉक्टर से अपनी िचिक सा कराते
ह।

कोई सय
ु ोग्य यिक्त भी आ मिनरीक्षण म सफल नहीं होते ह। हम दस
ू र की जैसी अ छी आलोचना
कर सकते ह, दस
ू र को जैसी नेक सलाह दे सकते ह, वैसी अपने िलए नहीं कर पाते, कारण यह है िक
अपने स ब ध म आप िनणर्य करना किठन होता है । कोई अपराधी ऐसा नहीं िजसे यिद मिज ट्रे ट बना
िदया जाए, तो अपने अपराध के स ब ध म उिचत फैसला िलखे। िन पक्ष फैसला करना हो तो िकसी
दस
ू रे जज का ही आ य लेना पड़ेगा। आ मिनमार्ण का कायर् भी ऐसा ही है िजसके िलए दस
ू रे सय
ु ोग्य
सहायक की, गु की आव यकता होती है ।

समिु चत बौिद्धक िवकास की सु यव था के िलए ‘गु ’ की िनयुिक्त को भारतीय धमर् म आव यक माना


गया है , तािक मनु य की िवचारधारा, वभाव, सं कार, गण
ु , प्रकृित, आदत, इ छाएँ, मह वाकांक्षाय, कायर्
पद्धित आिद का प्रवाह उ तम िदशा म हो सके, िजससे मनु य अपने आप म स तु ट, प्रस न, पिवत्र
और पिर मी रहे एवं दस
ू र को अपनी उदारता तथा स यवहार से सख
ु पहुँचाए। इस प्रकार के
सस
ु ं कािरत मनु य िजस दे श म अिधक ह गे, वहाँ िन चयपव
ू क
र् सख
ु -शाि त की, सु यव था की,
पार पिरक सहयोग की, प्रेम की, साथी-सहयोिगय की बहुलता रहे गी। हमारा पूवर् इितहास साक्षी है िक
ससु ं कािरत मि त क के भारतीय महापु ष ने कैसे महान ् कायर् िकये थे और इस भिू म पर िकस
प्रकार वगर् को अवतिरत कर िदया था।

हमारे पव
ू क
र् ालीन महान ् गौरव की नींव म ऋिषय की दरू दिशर्ता िछपी हुई है , िजसके अनस
ु ार प्र येक

310
भारतीय को अपना मानिसक पिर कार कराने के िलए िकसी उ च चिरत्र, आदशर्वादी, सू मदशीर् िव वान ्
के िनय त्रण म रहना आव यक होता था। जो यिक्त मानिसक पिर कार करने की आव यकता से जी
चरु ाते थे, उ हे ‘िनगरु ा’ की गाली दी जाती थी। ‘िनगरु ा’ श द का अपमान करीब-करीब ‘िबना बाप का’
या ‘वणर्सक
ं र’ कहे जाने के बराबर समझा जाता था। धन कमाना, िव या पढ़ना, अ त्र चलाना सभी बात
आव यक थीं, पर मानिसक पिर कार तो सबसे अिधक आव यक था, क्य िक असं कृत मनु य तो
समाज का अिभशाप बनकर ही रहता है , भले ही उसके पास िकतनी ही अिधक भौितक स पदा क्य न
हो। गु को प्र यक्ष तीन दे व म, तीन परम पू य म थान दे ने का यही कारण था।

दिू षत वातावरण का प्रभाव

आज यह प्रथा टूट चली है । गु कहलाने के अिधकारी यिक्तय का िमलना मिु कल है । िजनम गु


बनने की योग्यता है , वे अपने यिक्तगत, आि मक या भौितक लाभ के स पादन म लगे हुए ह। लोक
सेवा, रा ट्र-िनमार्ण की रचना मक प्रविृ त की ओर, सस
ु ं कृत बनाने का उ तरदािय व िसर पर लेने की
ओर उनका यान नहीं है । वे इसम व प लाभ, अिधक झंझट और भारी बोझ अनुभव करते ह। इसकी
अपेक्षा वे दस
ू रे सरल तरीक से अिधक धन और यश कमा लेने के अनेक मागर् जब सामने दे खते ह, तो
‘गु ’ का गहन उ तरदािय व ओढ़ने से क नी काट जाते ह।

दस
ू री ओर ऐसे अयोग्य यिक्त िजनका चिरत्र, ज्ञान, अनभ
ु व, िववेक आिद कुछ भी नहीं, िजनम दस
ू र
को सस
ु ं कृत करने की क्षमता होना तो दरू , अपने को सस
ु ं कृत नहीं बना सके, ऐसे लोग पैर पज
ु ाने
और दिक्षणा लेने के लोभ म कान फँू कने लगे, खश
ु ामद, दीनता और िभक्षाविृ त का आ य लेकर िश य
तलाश करने लगे, तो गु व की प्रित ठा न ट हो गई। िजस काम को कुपात्र लोग हाथ म लेते ह, वह
अ छा काम भी बदनाम हो जाता है और िजस साधारण काम को यिद भले यिक्त करने लग, तो वह
अ छा हो जाता है । दीन-दिु खय के हाथ म रहने से चरखा ‘दभ
ु ार्ग्य’ का िच न समझा जाता था, पर
गाँधीजी जैसे महापु ष के हाथ का वही चरखा दीन-दिु खय के हाथ म पहुँचकर यज्ञ बन जाता है ।
ऋिषय के हाथ म जब तक ‘गु व’ था, तब तक उस पद की प्रित ठा रही, पर आज जबिक कुपात्र,
िभखारी और क्षुद्र लोग गु बनने का द ु साहस करने लगे तो वह महान ् पद ही बदनाम हो गया। आज
‘गु ’ या ‘गु घ टाल’ श द िकसी पुराने पापी या धूतरर् ाज के िलए प्रयुक्त िकया जाता है ।

लोग ने दे खा िक एक आदमी दिक्षणा भी लेता है , पैर भी पुजवाता है , पर वह िकसी प्रकार का कोई


लाभ नहीं पहुँचाता, तो उनने भी इस यथर् के झंझट को तोड़ दे ना उिचत समझा। गु िश य की
पर परा िशिथल होने लगी और धीरे -धीरे उसका लोप होने लगा है । िन प्रयोजन, िन प्राण, िन पायी होने
पर जो पर पराय खचीर्ली ह, वे दे र तक जीिवत नहीं रह सकतीं। अब बहुत कम मनु य रह गये ह जो
गु की िनयिु क्त आव यक समझते ह या ‘िनगरु ा’ कहलाने म अपना अपमान समझते ह ।

311
आज के दिू षत वातावरण ने सभी िदशाओं म गड़बड़ी पैदा कर दी है । असली सोना कम है , पर नकली
सोना बेिहसाब तैयार हो रहा है । असली घी िमलना मिु कल है , पर वेजीटे बल घी से दक
ु ान पटी पड़ी ह।
असली मोती, असली जवाहरात कम है , पर नकली मोती और इमीटे शन र न ढे र िबकते ह। इतना होते
हुए भी असली चीज का मह व कम नहीं हुआ है । लोग घासलेट घी को खूब खरीदते-बेचते ह, पर
इससे असली घी की उपयोिगता घट नहीं जाती। असंख्य बड़बिड़याँ होते रहने पर भी असली घी के
गण
ु वही रहगे और उसके लाभ म कोई कमी न होगी। असली सोना, असली र न आिद भी इसिलए
िन पयोगी नहीं हो जाते िक नकली चीज ने उस क्षेत्र को बदनाम कर िदया है । िमलावट, नकलीपन,
धोखेधड़ी के हजार पवर्त िमलकर भी वा तिवकता का, व तुि थित का मह व राई भर भी नहीं घटा
सकते।

यिक्त वारा यिक्त का िनमार्ण एक स चाई है , जो आज की िवषम ि थित म तो क्या, िकसी भी


बुरी से बुरी ि थित म भी गलत िसद्ध नहीं हो सकती। रोटी बनानी होगी तो आटे की, पानी की, आग
की ज रत पड़ेगी। चाहे कैसा भी भला या बरु ा समय हो, इस अिनवायर् आव यकता म कोई अ तर नहीं
आ सकता। अ छे मनु य, स चे मनु य, प्रिति ठत मनु य, सख
ु ी मनु य की रचना के िलए यह आव यक
है िक अ छे , सय
ु ोग्य और दरू दशीर् मनु य वारा हमारे मि त क का िनय त्रण, संशोधन, िनमार्ण और
िवकास िकया जाए। मनु य कोरे कागज के समान है । वह जैसा ग्रहण करे गा, जैसा सीखेगा वैसा करे गा।
साथ ही यह भी सिु नि चत है िक यिद आरि भक अव था म प्रय नपव
ू क
र् स गण
ु नहीं िसखाये जायगे,
तो वह सामा यत: बरु ाई की ओर ही झक
ु े गा। यिद बरु ाई से बचना है तो अ छाई से स ब ध जोड़ना
आव यक है । मनु य का मन खाली नहीं रह सकता; उसे अ छाई का प्रकाश न िमलेगा, तो िन चय ही
बुराई के अ धकार म रहना होगा।

िशक्षा और िव या का मह व

ु ोग्य बनाने के िलए उसके मि त क को दो प्रकार से उ नत िकया जाता है - (1) िशक्षा


मनु य को सय
वारा, (2) िव या वारा। िशक्षा के अ तगर्त वे सब बात आती ह, जो कूल म, कॉलेज म, ट्रे िनंग कै प
म, हाट-बाजार म, घर म, दक
ु ान म, समाज म िसखाई जाती ह। गिणत, भग
ू ोल, इितहास, भाषा, िश प,
यायाम, रसायन, िचिक सा, िनमार्ण, यापार, कृिष, संगीत, कला आिद बात सीखकर मनु य यवहार
कुशल, चतुर, कमाऊ, लोकिप्रय एवं शिक्त स प न बनता है । िव या वारा मनोभिू म का िनमार्ण होता
है । मनु य की इ छा, भावना, द्धा, मा यता, िच एवं आदत को अ छे ढाँचे म ढालना िव या का काम
है । चौरासी लाख योिनय म घूमते हुए आने का कारण िपछले पाशिवक सं कार म मन भरा रहता है ,
उनका संशोधन करना िव या का काम है । यिद मनु य इससे वि चत रह जाये तो िफर उसका जीवन
अिवकिसत, अनुपयोगी और अपने तथा समाज के िलए भार व प बना जाता है ।

िशक्षक िशक्षा दे ता है । िशक्षा का अथर् है -सांसिरक ज्ञान। िव या का अथर् है -मनोभिू म की सु यव था।

312
िशक्षा आव यक है , पर िव या उससे भी अिधक आव यक है । िशक्षा बढ़नी चािहए, पर िव या का
िव तार उससे भी अिधक होना चािहए, अ यथा दिू षत मनोभिू म रहते हुए यिद सांसािरक साम यर् बढ़ी
तो उसका पिरणाम भयंकर होगा। धन की, चतरु ता की, िवज्ञान की इन िदन बहुत उ नित हुई है , पर
यह प ट है िक उ नित के साथ-साथ हम सवर्नाश की ओर बढ़ रहे ह। कम साधन होते हुए भी
िव वान ् मनु य सख
ु ी रह सकता है , पर तु केवल बौिद्धक या सांसािरक शिक्तयाँ होने पर दिू षत
मनोभिू म का मनु य अपने िलये तथा दस
ू र के िलए केवल िवपि त, िच ता, किठनाई, क्लेश एवं बुराई
ही उ प न कर सकता है । इसिलए िव या पर उतना ही नहीं बि क उससे भी अिधक जोर िदया जाना
चािहए िजतना िक िशक्षा पर िदया जाता है ।

आज हम अपने बालक को गे ्रजए


ु ट बना दे ने के िलए ढे र पैसा खचर् करते ह, पर उनकी आ तिरक
भिू मका को सु यवि थत करने की िशक्षा का कोई प्रब ध नहीं करते। फल व प िशक्षा प्रा त कर लेने
के बाद भी वे बालक अपने प्रित, अपने पिरवार के प्रित कोई आदशर् यवहार नहीं कर पाते। िकसी भी
ओर उनकी प्रगित ऐसी नहीं होती, जो प्रस नतादायक हो। िशक्षा के साथ उनम जो अनेक दग
ु ण
ुर् आ
जाते ह, उन दग
ु ण
ुर् म ही उनकी योग्यता वारा होने वाली कमाई बबार्द होती रहती है ।

इस त य को हमारे पूवज
र् जानते थे िक िशक्षा से भी िव या का मह व अिधक है , इसिलए वे छोटी
सी आयु म अपने ब च को गु का िनय त्रण थािपत करा दे ते थे। गु लोग अपने ग भीर ज्ञान,
िवशाल अनुभव, सू मदशीर् िववेक और उ वल चिरत्र वारा िश य को प्रभािवत करके उनकी मनोभिू म
का िनमार्ण करते थे। अपनी प्रच ड शिक्त-िकरण वारा उनके अ त:करण म ऐसे बीज अंकुिरत कर
दे ते थे, जो फलने-फूलने पर उस यिक्त को महापु ष िसद्ध कर।

गायत्री वारा िवज व की प्राि त

भारतीय धमर् के अनस


ु ार गु की आव यकता प्र येक भारतीय के िलए है । जैसे ई वर के प्रित, शा त्र
के प्रित, भारतीय आचार के प्रित, ऋिषय और दे वताओं के प्रित आ था एवं आदर बिु द्ध का होना
भारतीय धमर् के अनय
ु ाियय के िलए आव यक है , वैसे ही यह आव यक है िक वह ‘िनगरु ा’ न हो। उसे
िकसी सय
ु ोग्य स पु ष का ऐसा पथ-प्रदशर्न प्रा त होना चािहए, जो उनके सवार्ंगीण िवकास म सहायता
दे सके। िकसी भी मनु य के सस
ु ं कृत, स य होने का मागर् यही है िक योग्य िशक्षक या गु से
स गण
ु और स कम का प्रिशक्षण प्रा त करे । इसके िबना मानव पद की साथर्कता किठन ही रहती है ।

स भ्र ्रा त भारतीय धमार्नुयायी को िवज कहते ह।


िवज वह है िजसका दो बार ज म हुआ है । एक
बार माता-िपता के रज-वीयर् से सभी का ज म होता है । इस तरह मनु य ज म पा लेने से कोई मनु य
प्रिति ठत आयर् नहीं बन सकता। केवल ज म मात्र से मनु य का गौरव नहीं। िकतने ही मनु य ऐसे ह
जो पशुओं से भी गये बीते ह। वभावत: ज मजात पशुता तो प्राय: सभी म होती है । इस पशुता का
313
मनोिवज्ञान वारा पिर कार िकया जाता है , इस पिर कार की पद्धित को िवज व या दस
ू रा ज म कहते
ह।

शा त्र वारा बताया गया है िक ‘‘ज मना जायते शूद्र:, सं कारात ् िवज उ यते।’’ अथार्त ् ज म से
सभी शूद्र उ प न होते ह, सं कार वारा, प्रभाव वारा मनु य का दस
ू रा ज म होता है । यह दस
ू रा
ज म माता गायत्री और िपता आचायर् वारा होता है । गायत्री के २४ अक्षर म ऐसे िसद्धा त और आदशर्
सि निहत ह, जो मानव अ त:करण को उ च तर पर िवकिसत करने के प्रधान आधार ह। सम त वेद,
शा त्र, पुराण, मिृ त, उपिनष , आर यक, ब्रा मण, सत्र
ू आिद ग थ म जो कुछ भी िशक्षा है , वह गायत्री
के अक्षर म सि निहत िशक्षाओं की याख्या मात्र है । सम त भारतीय धमर्, सम त भारतीय आदशर्,
सम त भारतीय सं कृित का सवर् व गायत्री के २४ अक्षर म बीज प म मौजद
ू है , इसिलए िवज के
िलए, दस
ू रे ज म के िलए गायत्री माता को माना गया है ।

पर ये िशक्षाएँ केवल म त्र याद कर लेने या पु तक म िलखी हुई बात पढ़ लेने मात्र से दयंगम
नहीं हो सकतीं। पढ़ने से िकसी बात की जानकारी तो हो जाती है , पर दय म उनका प्रवेश करा दे ना
िकसी सय
ु ोग्य यिक्त वारा ही हो सकता है । दीपक को दीपक से जलाया जाता है , अिग्र से अिग्र
उ प न होती है , साँचे म व तुएँ ढाली जाती ह, यिक्तय से यिक्तय का िनमार्ण होता है । इसिलए
गायत्री की िशक्षाओं को यावहािरक प से जीवन म घुला दे ने का कायर् न तो अपने आप िकया जा
सकता है और न उसके पढ़ने मात्र से होता है , उसके िलए िकसी प्रितभाशाली यिक्त की आव यकता
होती है । ऐसे यिक्त को गु कहते ह। दस
ू रे ज म का, िवज व का, आदशर् जीवन का िपता गु को
माना गया है ।

गु वारा गायत्री की जो िशक्षाय दी जाती ह, उनको भली प्रकार दयंगम करने, सदा छाती से
िचपकाये रहने, उसका परू ी तरह प्रयोग करने का उ तरदािय व क धे पर रखा हुआ अनभ
ु व करने की
बात हर समय आँख के आगे रहे , इसके िलए िवज व का प्रतीक यज्ञोपवीत पहना िदया जाता है ।
यज्ञोपवीत गायत्री की मिू तर्मान प्रितमा है । गायत्री म नौ पद ह— १- तत ्, २-सिवतुर,् ३-वरे यं, ४-भग , ५-
दे व य, ६-धीमिह, ७-िधयो, ८-यो न:, ९-प्रचोदयात ्। यज्ञोपवीत म ९ धागे ह, प्र येक धागा गायत्री के एक-
एक पद का प्रतीक है । यज्ञोपवीत म तीन ग्रि थयाँ और एक अि तम ब्र मग्रि थ होती है । बड़ी ग्रि थ
‘ॐ’ की और शेष तीन ‘भ:ू ’, ‘भव
ु :’, ‘ व:’ की प्रतीक ह। जैसे प थर या धातु की मिू तर् म दे वता की
प्रित ठा करके उसकी पूजा की जाती है , वैसे ही गायत्री की मिू तर् सत
ू की बनाकर दय-मि दर पर
प्रिति ठत की जाती है । मि दर म मिू तर् के स मख
ु हर घड़ी नहीं रहा जा सकता, पर गायत्री की प्रितमा,
यज्ञोपवीत का तो हर घड़ी पास रहना आव यक है , उसे तो क्षण भर के िलए भी अलग नहीं िकया जा
सकता। वह तो हर घड़ी दय के ऊपर झल
ू ता रहता है । उसका बोझ तो हर घड़ी क धे पर रखा रहता
है । इस प्रकार गायत्री पूजा को, गायत्री की प्रितमा को, गायत्री की िशक्षा को जीवन-संिगनी बनाया गया
है । कोई प्रिति ठत भारतीय धमार्नय
ु ायी यज्ञोपवीत को छोड़ नहीं सकता, उसकी मह ता की आव यकता
314
से इनकार नहीं िकया जा सकता।

कहा जाता है गायत्री का अिधकार केवल िवज को ह। िवज व का ता पयर्-गु वारा गायत्री को
ग्रहण करना। जो लोग अ द्धालु ह, आ मिनमार्ण से जी चुराते ह, आदशर् जीवन िबताने से उदासीन ह,
िजनकी स मागर् म प्रविृ त नहीं, ऐसे लोग ‘शूद्र’ कहे जाते ह। जो दस
ू रे ज म का, आदशर् जीवन का,
मनु य की महानता का, स मागर् का अवल बन नहीं करना चाहते, ऐसे लोग का ज म पाशिवक ही
कहा जायेगा, ऐसे लोग गायत्री म क्या िच लगे? िजनकी िजस मागर् म द्धा न होगी, वह उसम क्या
सफलता प्रा त करे गा? इसिलए ठीक ही कहा गया है िक शूद्र को गायत्री का अिधकार नहीं। इस
महािव या का अिधकारी वही है , जो आि मक कायाक प का ल य रखता है , िजसे पाशिवक जीवन की
अपेक्षा उ च जीवन पर आ था है और जो िवज बनकर सैद्धाि तक ज म लेकर स पु ष बनना चाहता
है । वतर्मान समय म इस िसद्धा त को भल
ू कर ल गो ने जाित पर परा के आधार पर िवज व मानना
आर भ कर िदया है , इसी से अनेक दोष उ प न हो रहे ह।

उ कीलन और शाप िवमोचन

शा त्र म बताया गया है िक गायत्री म त्र कीिलत है , उसका जब तक उ कीलन न हो जाए, तब तक


वह फलदायक नहीं होता। यह कहा गया है िक गायत्री को शाप लगा हुआ है । उस शाप का जब तक
‘अिभमोचन’ न कर िलया जाए, तब तक उससे कुछ लाभ नहीं होता। कीिलत होने और शाप लगने के
प्रितब ध क्या ह और उ कीलन एवं अिभमोचन क्या ह? यह िवचारणीय बात है ।

जैसे यह कहा जा सकता है िक-‘‘औषिध िव या कीिलत है ।’’ क्य िक अगर कोई ऐसा यिक्त जो
शरीर शा त्र, िनदान, िनघ टु, िचिक सा िवज्ञान की बारीिकय को नहीं समझता और अपनी अधूरी
जानकारी के आधार पर अपनी िचिक सा आर भ कर दे , तो उससे कुछ भी लाभ न होगा, उलटी हािन
हो सकती है । यिद औषिध से कोई लाभ लेना हो तो िकसी अनुभवी वै य की सलाह लेना आव यक है ।
आयुवद ग्र थ म बहुत कुछ िलखा हुआ है , उ ह पढ़कर बहुत सी बात जानी जा सकती ह, िफर भी
वै य की आव यकता तो है ही। वै य के िबना हजार पये के िचिक सा ग्र थ और लाख पये का
औषधालय भी रोगी को कुछ लाभ नहीं पहुँचा सकता। इस ि ट से कहा जा सकता है िक ‘‘औषिध
िव या कीिलत है ।’’ गायत्री महािव या के बारे म भी यही बात है । साधक की मनोभिू म के आधार पर
साधना िवधान म, िनयम-उपिनयम म, आदश म अनेक हे र-फेर करने होते ह, सबकी साधना एक-सी
नहीं हो सकती, ऐसी दशा म उस यिक्त का पथ-प्रदशर्न आव यक है जो इस िव या का ज्ञाता एवं
अनुभवी हो। जब तक ऐसा िनदशक न िमले, तब तक औषिध िव या की तरह गायत्री िव या भी
साधक के िलए कीिलत ही रहे गी। उपयुक्त िनदशक का िमल जाना ही उ कीलन है । ग्र थ म बताया
गया है िक गु वारा ग्रहण करायी गई गायत्री ही उ कीिलत होती है , वही सफल होती है ।

315
क द परु ाण म वणर्न है िक एक बार विस ठ, िव वािमत्र और ब्र मा ने क्रुद्ध होकर गायत्री को शाप
िदया िक ‘उसकी साधना िन फल होगी।’ इतनी बड़ी शिक्त के िन फल होने से हाहाकर मच गया। तब
दे वताओं ने प्राथर्ना की िक इन शाप का िवमोचन होना चािहये। अ त म ऐसा मागर् िनकाला गया िक
जो शाप िवमोचन िविध को पूरा करके गायत्री की साधना करे गा, उसका प्रय न सफल होगा और शेष
ल गो का म िनरथर्क जायेगा। इस कथन म एक भारी रह य िछपा हुआ है िजसे न जानने वाले
केवल ‘‘शापमक्
ु तो भव’’ वाले म त्र को पढ़ लेने मात्र से यह मान लेते ह िक हमारी साधना शापमक्
ु त
हो गई।

िव वािमत्र का अथर् है -संसार का िमत्र, लोकसेवी, परोपकारी। विस ठ का अथर् है -िवशेष प से े ठ,


ब्र मा का अथर् है -ब्र मपरायण। इन तीन गण
ु वाले पथ-प्रदशर्क के आदे शानुसार होने वाले आ याि मक
प्रय न ही सफल एवं क याणकारी होते ह।

वाथीर्, दस
ू रे का बुरा करने को उ यत, वाममागीर् मनोविृ त का मनु य यिद साधक को वैसी ही
साधना िसखायेगा, तो वह अपना और िश य दोन का नाश करे गा। िजसका चिरत्र उ च नहीं, जो उदार
नहीं, िजसम महानता और प्रितभा नहीं, वह दस
ू र का नया िनमार्ण क्या करे गा? इसी प्रकार जो
ब्र मपरायण नहीं, िजसकी साधना एवं तप या नहीं, ऐसा गु िकसी की आ मा म क्या प्रकाश दे
सकेगा? ता पयर् यह है िक िव वािमत्र- उदार, विस ठ-महानता युक्त, ब्र मा-ब्र मपरायण, इन तीन गण
ु से
युक्त िनदशक जब िकसी यिक्त का िनमार्ण करे गा, तो उसका प्रय न िन फल नहीं जा सकता। इसके
िवपरीत कुपात्र, अयोग्य और अनुभवहीन यिक्तय की िशक्षानुसार की गई साधना तो इसी प्रकार यथर्
रहे गी, मानो िकसी ने शाप दे कर उसे िन फल कर िदया हो। शाप लगने और उसके िवमोचन करने का
गु त रह य उपयुक्त मागर्दशर्क की अ यक्षता म अपनी कायर्पद्धित का िनमार्ण करना ही है ।

गायत्री मानव जीवन की ज मदात्री, आधारिशला एवं बीज शिक्त है । भारतीय सं कृित पी ज्ञान-गंगा
की उ गम भिू म गंगोत्री यह गायत्री ही है , इसिलए इसे िवज की माता कहा गया है । माता के पेट म
रहकर मनु य दे ह का ज म होता है , गायत्री माता के पेट म रहकर मनु य का आ याि मक, सैद्धाि तक,
िद य िवशेषताओं वाला दसू रा ज म होता है । पर तु यह माता सवर्स प न होते हुए भी िपता के अभाव
म अपूणर् है । िवज व का दसू रा शरीर माता और िपता दोन के ही त विब दओ ु ं से िनिमर्त होता है ।
गायत्री माता की अ य स ता को गु वारा ही ठीक प्रकार से िश य की मनोभिू म म आरोिपत िकया
जाता है । इसीिलए जब िवज व का सं कार होता है , तो इस दस
ू रे आ याि मक ज म म गायत्री को
माता और आचायर् को िपता घोिषत िकया जाता है ।

उ च आदश की िशक्षा न तो अपने आप ही प्रा त होती है , न केवल आधार ग्र थ से। हीन चिरत्र के
अयोग्य यिक्त उ च आदश की ओर दस
ू र को आकिषर्त नहीं कर सकते। बिढ़या धनष
ु -बाण पास होते
हुए भी कोई यिक्त वयं श दवेधी बाण चलाने वाला नहीं बन सकता और न अनाड़ी िशक्षक वारा

316
बाण-िव या म पारं गत बना जा सकता है । अ छा िशक्षक और अ छा धनष
ु -बाण दोन िमलकर ही
सफल पिरणाम उपि थत करते ह। गायत्री के कीिलत एवं शािपत होने का और उसके उ कीलन एवं
शाप िवमोचन करने का यही रह य है ।

आ मक याण की तीन कक्षाएँ


आ याि मक साधना का क्षेत्र तीन भाग म बँटा हुआ है । तीन या ितय म उनका प टीकरण कर
िदया गया है । १-भ:ू , २-भव
ु :, ३- व: यह तीन आि मक भिू मकाय मानी गई ह। ‘भ:ू ’ का अथर् है - थूल
जीवन, शारीिरक एवं सांसािरक जीवन। ‘भव
ु :’ का अथर् है - अ त:करण चतु टय, मन, बुिद्ध, िच त, अहं कार
का कायर्क्षेत्र। ‘ व:’ का अथर् है - िवशुद्ध आि मक स ता। मनु य की आ तिरक ि थित इन तीन क्षेत्र म
होती है ।

‘‘भ:ू ’’ का स ब ध अ नमय कोश से है । ‘‘भव


ु :’’ प्राणमय और मनोमय कोश से आ छािदत है । ‘‘ व:’’
का प्रभाव क्षेत्र िवज्ञानमय कोश और आन दमय कोश है । शरीर से स ब ध रखने वाली जीिवका
उपाजर्न, लोक- यवहार, नीित, िश प, कला, कूली िशक्षा, यापार, सामािजक, राजनीितक ज्ञान, नागिरक
क तर् य आिद बात भ:ू क्षेत्र म आती ह। ज्ञान, िववेक, दरू दिशर्ता, धमर्, दशर्न, मनोबल, प्राणशिक्त, ताि त्रक
प्रयोग, योग साधना आिद बात भव
ु : क्षेत्र की ह। आ मसाक्षा कार, ई वरपरायण, ब्रा मी ि थित, परमहं स
गित, समािध, तरु ीयाव था, परमान द, मिु क्त का क्षेत्र ‘ व:’ के अ तगर्त ह। आ याि मक क्षेत्र के ये तीन
लोक ह। प ृ वी, पाताल, वगर् की भाँित ही हमारे भीतर भ:ू , भव
ु : व: तीन लोक ह।

इन तीन ि थितय के आधार पर ही गायत्री के तीन िवभाग िकये गये ह। उसे ित्रपदा कहा गया है ,
उसके तीन चरण ह। पहली भिू मका, प्रथम चरण, भ:ू क्षेत्र के िलए है । उसके अनुसार वे िशक्षाएँ दी जाती
ह, जो मनु य के यिक्तगत और सांसािरक जीवन को सु यवि थत बनाने म सहायक िसद्ध होती ह।

‘‘गायत्री गीता’’ एवं ‘‘गायत्री मिृ त’’ म गायत्री के चौबीस अक्षर की याख्या की गई है । एक-एक
अक्षर एवं श द से िजन िसद्धा त , आदश एवं उपदे श की िशक्षा िमलती है , वे इतने अमू य ह िक
उनके आधार पर जीवन-नीित बनाने का प्रय न करने वाला मनु य िदन-िदन सख
ु , शाि त, समिृ द्ध,
उ नित एवं प्रित ठा की ओर बढ़ता चला जाता है । इस ग्र थ म ‘गायत्री क पवक्ष
ृ ’ उपशीषर्क के
ृ ’ का िचत्र बनाकर यह समझाने का प्रय न िकया है िक तत ्, सिवतुर,् वरे यं
अ तगर्त ‘गायत्री क पवक्ष
आिद श द का मनु य के िलए िकस प्रकार आव यक एवं मह वपूणर् िशक्षण है ? वे िशक्षाय अ य त
सरल, त काल अपना पिरणाम िदखाने वाली एवं घर-बाहर सवर्त्र शाि त का साम्रा य थािपत करने
वाली ह।

गायत्री की दस भज
ु ाओं के स ब ध म ‘‘गायत्री म जरी’’ म यह बताया गया है िक इन दस भज
ु ाओं
317
से माता दस शल
ू को न ट करती ह। १-दिू षत ि ट, २-परावल बन, ३-भय, ४-क्षुद्रता, ५-असावधानी, ६-
वाथर्परता, ७-अिववेक, ८-आवेश, ९-त ृ णा, १०-आल य। यह दस शल
ू माने गये ह। इन दस दोष ,
मानिसक शत्रओ
ु ं को न ट करने के िलए १ प्रणव या ित तथा ९ पद वारा दस ऐसी अमू य िशक्षाय
दी गई ह, जो मानव जीवन म वगीर्य आन द की सिृ ट कर सकती ह। नीित, धमर्, सदाचार, स प नता,
यवहार, आदशर्, वाथर् और परमाथर् का जैसा सु दर सम वय इन िशक्षाओं म है , वैसा अ यत्र नहीं
िमलता। वेदशा त्र की स पूणर् िशक्षाओं का िनचोड़ इन अक्षर म रख िदया गया है । इनका जो िजतना
अनुसरण करता है , वह त काल उतने ही अंश म लाभाि वत हो जाता है ।

म त्र दीक्षा - आ मक याण की तीन कक्षाएँ


जीवन का प्रथम चरण ‘भ:ू ’ है । यिक्तगत तथा सामािजक यवहार म जो अनेक गिु थयाँ, उलझन,
किठनाइयाँ आती ह, उन सबका सल ु झाव इन अक्षर म दी हुई िशक्षा से होता है । सांसािरक जीवन का
कोई भी किठन प्र न ऐसा नहीं है , िजनका उ तर और उपाय उन अक्षर म न हो। इस रह यमय
यावहािरक ज्ञान की अपने उपयुक्त याख्या कराने के िलए िजस गु की आव यकता होती है , उसे
‘आचायर्’ कहते ह। आचायर् ‘म त्र-दीक्षा’ दे ते ह। म त्र का अथर् है - िवचार, तकर्, प्रमाण, अवसर, ि थित पर
िवचार करते हुए आचायर् अपने िश य को समय-समय पर ऐसे सझ ु ाव, सलाह, उपदे श गायत्री म त्र की
िशक्षाओं के आधार पर दे ते ह, िजनसे उसकी िविभ न सम याओं का पथ प्रश त होता चले। यह प्रथम
भिू मका है । इसे भ:ू क्षेत्र कहते ह। इस क्षेत्र के िश य को आचायर् वारा म त्र दीक्षा दी जाती है ।

म त्र दीक्षा लेते समय िश य प्रितज्ञा करता है िक ‘‘म गु का आदे श, अनश


ु ासन पण
ू र् द्धा के साथ
मानँूगा। समय-समय पर उनकी सलाह से अपनी जीवन नीित िनधार्िरत क ँ गा, अपनी सभी भल

िन कपट प से उनके स मख
ु प्रकट कर िदया क ँ गा।’’ आचायर् िश य को म त्र का अथर् समझाता है
और माता गायत्री को यज्ञोपवीत प से दे ता है । िश य दे वभाव से आचायर् का पूजन करता है और
गु -पूजा के िलए उ ह व त्र, आभष
ू ण, पात्र, भोजन, दिक्षणा आिद सामा यार्नुसार भट करता है । रोली,
अक्षत, ितलक, कलावा वरण आिद के वारा दोन पर पर एक दस
ू रे को बाँधते ह। म त्र-दीक्षा एक प्रकार
से दो यिक्तय म आ याि मक िर तेदारी की थापना है । इस दीक्षा के प चात ् पाप-पु य म से वे एक
प्रितशत के भागीदारी हो जाते ह। िश य के सौ पाप म से एक का फल गु को भोगना पड़ता है । इसी
प्रकार पु य म भी एक- दस
ू रे के साझीदार होते ह। यह सामा य दीक्षा है । यह म त्र दीक्षा साधारण
ेणी के सिु शिक्षत स पु ष आचायर् प्रारि भक ेणी के साधक को दे सकते ह।

318
अिग्न दीक्षा - आ मक याण की तीन कक्षाएँ
दस
ू री ‘भव
ु :’ भिू मका म पहुँचने पर दस
ू री दीक्षा लेनी पड़ती है । इसे प्राण-दीक्षा या अिग्न-दीक्षा कहते ह।
प्राणमय कोश एवं मनोमय कोश के अ तगर्त िछपी हुई शिक्तय को जाग्रत ् करने की साधना का
िशक्षण क्षेत्र यही है । साधना संग्राम के अ त्र-श त्र को धारण करना, सँभालना और चलाना इसी भिू मका
म सीखा जाता है । प्राणशिक्त की यूनता का उपचार इसी क्षेत्र म होता है । साहस, उ साह, पिर म,
ढ़ता, फूितर्, आशा, धैय,र् लगन आिद वीरोिचत गण
ु की अिभविृ द्ध इसी दस
ू री भिू मका म होती है ।
मनु य शरीर के अ तगर्त ऐसे अनेक चक्र, उपचक्र, भ्रमर, उपि यका, सत्र
ू प्र यावतर्न, बीज, मे आिद गु त
सं थान होते ह, जो प्राणमय भिू मका की साधना से जाग्रत ् होते ह। इस जागरण के फल व प साधक
म ऐसी अनेक िवशेषताएँ उ प न हो जाती ह जैसी िक साधारण मनु य म नहीं दे खी जातीं।

ु : भिू मका म ही मन, बुिद्ध, िच त, अहं कार के चतु टय का संशोधन, पिरमाजर्न एवं िवकास होता है ।
भव
यह सब कायर् म यमा और प य ती वाणी वारा िकया जाता है । वैखरी वाणी वारा वचन के मा यम
से प्रारि भक साधक को ‘भ:ू ’ क्षेत्र के म त्र दीिक्षत को सलाह, िशक्षा आिद दी जाती है । जब प्राण दीक्षा
होती है , तो गु अपना प्राण िश य के प्राण म घोल दे ता है , बीज प से अपना आ मबल साधक के
अ त:करण म थािपत कर दे ता है । जैसे आग से आग जलायी जाती है , िबजली की धारा से ब व
जलते या पंखे चलते ह, उसी प्र ्रकार अपना शिक्त-भाग बीज प से दस
ू रे की मनोभिू म म जमाकर
वहाँ उसे सींचा और बढ़ाया जाता है । इस िक्रया पद्धित को अिग्न दीक्षा कहते ह। अशक्त को सशक्त
बनाना, िनि क्रय को सिक्रय बनाना, िनराश को आशाि वत करना प्राण दीक्षा का काम है । मन से िवचार
उ प न होता है , अिग्न से िक्रया उ प न होती है । अ त:भिू म म हलचल, िक्रया, प्रगित, चे टा, क्राि त,
बेचैनी, आकांक्षा का ती गित से उदय होता है ।

साधारणत: लोग आ मो नित की ओर कोई यान नहीं दे ते, थोड़ा-सा दे ते ह तो उसे बड़ा भारी बोझ
समझते ह, कुछ जप तप करते ह तो उ ह अनभ ु व होता है मानो बहुत बड़ा मोचार् जीत रहे ह । पर तु
जब आ तिरक ि थित भव ु : क्षेत्र म पहुँचती है , तो साधक को बड़ी बेचैनी और अस तिु ट होती है । उसे
अपना साधन बहुत साधारण िदखाई पड़ता है और अपनी उ नित उसे बहुत मामल ू ी दीखती है । उसे
छटपटाहट उवं ज दी होती है िक म िकस प्रकार शीघ्र ल य तक पहुँच जाऊँ। अपनी उ नित चाहे
िकतनी ही सु यवि थत ढं ग से हो रही हो, पर उसे स तोष नहीं होता। यह याकुलता उसकी कोई भल

नहीं होती वरन ् भीतर ही भीतर जो ती िक्रया शिक्त काम कर रही है उसकी प्रितिक्रया है । भीतरी
िक्रया, प्रविृ त और प्रेरणा का बा य लक्षण अस तोष है । यिद अस तोष न हो, तो समझना चािहए िक
साधक की िक्रया शिक्त िशिथल हो गई। जो साधक दस
ू री भिू मका म है , उसका अस तोष िजतना ही
ती होगा, उतनी ही िक्रया शिक्त तेजी से काम करती रहे गी। बुिद्धमान ् पथ-प्रदशर्क दस
ू री कक्षा के
साधक म सदा अस तोष भड़काने का प्रय न करते ह तािक आ तिरक िक्रया और भी सतेज हो, साथ
ही इस बात का भी यान रखा जाता है िक वह अस तोष कहीं िनराशा म पिरणत न हो जाय।

319
अिग्न दीक्षा लेकर साधक का आ तिरक प्रकाश व छ हो जाता है और उसे अपने छोटे से छोटे दोष
िदखाई पड़ने लगते ह। अँधेरे म, धध
ुँ ले प्रकाश म बड़ी व तुय ही ठीक प्रकार दीखती ह और कई बार
तो प्रकाश की तेजी के कारण वे व तुएँ और भी अिधक मह वपूणर् दीखती ह। आ मा म ज्ञानािग्न का
प्रकाश होते ही साधक को अपनी छोटी-छोटी भल
ू , बुराई, किमयाँ भली प्रकार दीख पड़ती ह। उसे मालम

पड़ता है िक म असंख्य बुराइय का भ डार हूँ, नीची ेणी के मनु य से भी मेरी बुराइयाँ अिधक ह।
अब भी पाप मेरा पीछा नहीं छोड़ते। इस प्रकार वह अपने अ दर घण ृ ा पद त व को बड़ी मात्रा म
दे खता है । िजन गलितय को साधारण ेणी के लोग कतई गलती नहीं मानते, उनका नीर-क्षीर िववेक
वह करता है , मानस पाप तक से द:ु खी होता है ।

महा मा सरू दास जय परम भागवत हो रहे थे, तब उ ह अपनी बुराइयाँ सझ


ू ीं। जब तक वे व तुत:
पापी और यिभचारी रहे , तब तक उ ह अपने काम म कोई बुराई न दीखी; पर जब वे भगवान ् की
शरण म आये तो भत
ू काल की बुराइय का मरण करने मात्र से उनकी आ मा काँप गई और उसकी
ती संवेदना को शा त करने के िलए अपने नेत्र फोड़ डाले। िफर भी आ मिनरीक्षण करने पर उ ह
अपने भीतर दोष ही दोष दीखे, िजनकी घोषणा उ ह ने अपने प्रिसद्ध पद म की- ‘मो सम कौन कुिटल
खल कामी।’

भव
ु : की भिू मका म पहुँचे हुए साधक के तीन लक्षण प्रधान प म होते ह- (१) आ मक याण के िलए
तप चयार् म ती प्रविृ त, (२) अपनी प्रगित को म द अनभ ु व करना, अपनी उ नित के प्रित अस तोष,
(३) अपने िवचार, कायर् एवं वभाव म अनेक बरु ाइय का िदखाई दे ना। यह भिू मका धीरे -धीरे पकती
रहती है । यिद हाँडी के भीतर शाि त हो तो उसके दो कारण समझे जा सकते ह- (१) या तो अभी पकना
आर भ नहीं हुआ, हाँडी गरम नहीं हुई, (२) या पककर दाल िबलकुल तैयार हो गई। या तो
अज्ञाना धकार म डूबे हुए मख
ू र् प्रकृित के लोग मिु दत रहते ह और अपनी बरु ाइय म ही मौज करते ह
या िफर अि तम कक्षा म पहुँचा योगी आ मसाक्षा कार करके ब्र मज्ञान को प्रा त कर शा त हो जाता
है । म यम कक्षा म तप, प्रय न, अस तोष एवं वेदना की प्रधानता रहती है । यह ि थित आव यक है ,
इसे ही आ मा का अिग्न सं कार कहते ह। इसम अ त:करण का पिरपाक होता है । शरीर को
तप चयार्ओं की अिग्न म और अ त:करण को अस तोष की अिग्न म तपाकर पकाया जाता है । पूरी
मात्रा म अिग्न-सं कार हो जाने पर न तो शरीर को तपाने की आव यकता रहती है और न ही मन को
तपाना पड़ता है । तब वह तीसरी कक्षा ‘ व:’ की शाि त भिू मका प्रा त करता है ।

म त्र दीक्षा के िलये कोई भी िवचारवान ्, दरू दशीर्, उ च चिरत्र, प्रितभाशाली स पु ष उपयुक्त हो सकता
है , वह अपनी तकर्शिक्त और बुिद्धम ता से िश य के िवचार का पिरमाजर्न कर सकता है । उसके
कुिवचार को, भ्रम को सल
ु झाकर अ छाई के मागर् पर चलने के िलए आव यक सलाह, िशक्षण एवं
उपदे श दे सकता है , अपने प्रभाव से उसे प्रभािवत भी कर सकता है । अिग्न दीक्षा के िलए ऐसा गु

320
चािहए िजसके भीतर अिग्न पयार् त मात्रा म हो, तप की पँज
ू ी का धनी हो। दान वही कर सकता है
िजसके पास धन हो, िव या वही दे सकता है िजसके पास िव या हो। िजसके पास जो व तु नहीं, वह
दस
ु र को क्या दे गा? िजसने वयं तप करके प्राणशिक्त संिचत की है , अिग्न अपने अ दर प्र विलत कर
रखी है , वही दस
ू र को प्राण या अिग्न दे कर भव
ु : भिू मका की दीक्षा दे सकता है ।

तीसरी भिू मका ‘ व:’ है । इसे ब्र ्र म-दीक्षा कहते ह। जब दध


ू अिग्र पर औटाकर नीचे अतार िलया जाता
है और ठ डा हो जाता है , तब उसम दही का जामन दे कर जमा िदया जाता है , फल व प वह सारा दही
ही बन जाता है । म त्र वारा ि टकोण का पिरमाजर्न करके साधक अपने सांसािरक जीवन को
प्रस नता और स प नता से ओत-प्रोत करता है , अिग्र वारा अपने कुसं कार , पाप , भल
ू , कषाय ,
दब
ु ल
र् ताओं को जलाता है , उनसे अपना िप ड छुड़ाकर ब धन मक्
ु त होता है एवं तप की उ मा वारा
अ त:करण को पकाकर ब्रा मीभत
ू करता है । दध
ू पकते-पकते जब रबड़ी, मलाई आिद की शक्ल म
पहुँच जाता है , तब उसका मू य और वाद बहुत बढ़ जाता है ।

पहली ज्ञान-भिू म, दस
ू री शिक्त-भिू म और तीसरी ब्र म-भिू म होती है । क्रमश: एक के बाद एक को पार
करना पड़ता है । िपछली दो कक्षाओं को पार कर साधक जब तीसरी कक्षा म पहुँचता है , तो उसे स गु
वारा ब्र म-दीक्षा लेने की आव यकता होती है । यह ‘परा’ वाणी वारा होती है । बैखरी वाणी वारा मँह

से श द उ चारण करके ज्ञान िदया जाता है । म यमा और प य ती वािणय वारा िश य के प्राणमय
और मनोमय कोश म अिग्र सं कार िकया जाता है । परा वाणी वारा आ मा बोलती है और उसका
स दे श दस
ू री आ मा सन
ु ती है । जीभ की वाणी कान सन
ु ते ह, मन की वाणी नेत्र सन
ु ते ह, दय की
वाणी दय सन
ु ता है और आ मा की वाणी आ मा सन
ु ती है । जीभ ‘बैखरी’ वाणी बोलती है , मन
‘म यमा’ बोलता है , दय की वाणी ‘प य ती’ कहलाती है और आ मा ‘परा’ वाणी बोलती है । ब्र म-दीक्षा
म जीभ, मन, दय िकसी को नहीं बोलना पड़ता। आ मा के अ तरं ग क्षेत्र म जो अनहद विन उ प न
ू री आ मा ग्रहण करती है । उसे ग्रहण करने के प चात ् वह भी ऐसी ही ब्रा मीभत
होती है , उसे◌े दस ू हो
जाती है जैसा थोड़ा-सा दही पड़ने से औटाया हुआ दध
ू सबका सब दही बन जाता है ।

काला कोयला या सड़ी-गली लकड़ी का टुकड़ा जब अिग्न म पड़ता है , तो उसका पुराना व प बदल
जाता है और वह अिग्नमय होकर अिग्न के ही गण
ु से सुसि जत हो जाता है । यह कोयला या लकड़ी
का टुकड़ा भी अिग्न के गण
ु से पिरपूणर् होता है और गमीर्, प्रकाश तथा जलाने की शिक्त भी उसम
अिग्न के समान होती है । ब्रा मी दीक्षा से ब्र मभत
ू हुए साधक का शरीर तु छ होते हुए भी उसकी
अ तरं ग स ता ब्रा मीभत
ू हो जाती है । उसे अपने भीतर-बाहर चार ओर सत ् ही सत ् ि टगोचर होता
है । िव व म सवर्त्र उसे ब्र म ही ब्र म पिरलिक्षत होता है ।

गीता म भगवान ् कृ ण ने अजन


ुर् को िद य ि ट दे कर अपना िवरा प िदखाया था, अथार्त ् उसे वह
ज्ञान िदया था िजससे िव व के अ तरं ग म िछपी हुई अ य ब्र मस ता का दशर्न कर सके। भगवान ्

321
सब म यापक है , पर उसे कोई िबरले ही दे खते, समझते ह। भगवान ् ने अजन
ुर् को यह िद य ि ट दी
िजससे उसकी ईक्षण शिक्त इतनी सू म और पारदशीर् हो गयी िक वह उन िद य त व का अनभ
ु व
करने लगा, िजसे साधारण लोग नहीं कर पाते। इस िद य ि ट को ही पाकर योगी लोग आ मा का,
ब्र म का साक्षा कार अपने भीतर और बाहर करते ह तथा ब्रा मी गण
ु से, िवचार से, वभाव से, काय
से ओतप्रोत हो जाते ह। यशोदा ने, कौश या ने, काकभश
ु ुि ड ने ऐसी ही िद य ि ट पाई थी और ब्र म
का साक्षा कार िकया था। ई वर का दशर्न इसे ही कहते ह। ब्र म दीक्षा पाने वाला िश य ई वर म
अपनी समीपता और ि थित का वैसे ही अनुभव करता है जैसे कोयला अिग्र म पड़कर अपने को
अिग्नमय अनुभव करता है ।

िवज व की तीन कक्षाएँ ह-(१) ब्रा मण, (२) क्षित्रय, (३) वै य। पहली कक्षा है - वै य । वै य का उ े य
है - सख
ु सामग्री का उपाजर्न। उसको म त्र (िवचार) वारा यह लोक यवहार िसखाया जाता है , वह
ि टकोण िदया जाता है िजसके वारा सांसािरक जीवन सख
ु मय, शाि तमय, सफल एवं सस
ु प न बन
सके। बरु े गण
ु , कमर् एवं वभाव के कारण लोग अपने आपको िच ता, भय, द:ु ख, रोग, क्लेश एवं दिरद्रता
ु म फँसा लेते ह। यिद उनका
के चंगल ि टकोण सही हो, दस शल
ू से बचे रह तो िन चय ही मानव
जीवन वगीर्य आन द से ओत-प्रोत होना चािहए।

क्षित्रय त व का आधार है - शिक्त। शिक्त तप से उ प न होती है । दो व तुओं को िघसने से गमीर्


पैदा होती है । प थर पर िघसने से चाकू तेज होता है । िबजली की उ पि त घषर्ण से होती है । बुराइय
के, त्रिु टय के, कुसं कार के, िवकार के िव द्ध संघषर् कायर् को तप कहते ह। तप से आि मक शिक्त
उ प न होती है और उसे िजस िदशा म भी प्रयुक्त िकया जाए उसी म चम कार उ प न हो जाते ह।
शिक्त वयं ही चम कार है , शिक्त का नाम ही िसिद्ध है । अिग्र-दीक्षा से तप आर भ होता है , आ मदान
के िलए युद्ध छे ड़ा जाता है । गीता म भगवान ् ने अजन
ुर् को उपदे श िदया था िक ‘तू िनर तर यद्ध
ु कर।’
ुर् िनर तर
िनर तर युद्ध िकससे करता? महाभारत तो थोड़े ही िदन म समा त हो गया था, िफर अजन
िकससे लड़ता? भगवान ् का संकेत आ तिरक शत्रओ
ु ं से संघषर् जारी रखने का था। यही अिग्र-दीक्षा का
उपदे श था। अिग्न-दीक्षा से दीिक्षत यिक्त म क्षित्रय व का, साहस का, शौयर् का, पु षाथर् का, पराक्रम का
िवकास होता है । इससे वह यश का भागी बनता है ।

म त्रदीक्षा से साधक यवहार कुशल बनता है और अपने जीवन को सुख-शांित, सहयोग एवं
स प नता से भरा-पूरा कर लेता है । अिग्र-दीक्षा से उसकी प्रितभा, प्रित ठा, ख्याित, प्रशंसा एवं महानता
का प्रकाश होता है । दस
ू र का िसर उसके चरण म वत: झुक जाता है । लोग उसे नेता मानते ह, उसका
अनुसरण और अनुगमन करते ह। इस प्रकार उपयक्
ुर् त दो दीक्षाओं वारा वै य और क्षित्रय बनने के
उपरा त साधक ब्रा मण बनने के िलए अग्रसर होता है । ब्र मदीक्षा से उसे ‘िद य ि ट’ िमलती है , इसे
नेत्रो मीलन कहते ह।

322
शंकर ने तीसरा नेत्र खोलकर कामदे व को जला िदया था। अजन
ुर् को भगवान ् ने ‘‘िद यं ददािम ते
चक्षु:’’ िद य नेत्र दे कर अपने िवरा व प का दशर्न स भव करा िदया था। वह तत
ृ ीय नेत्र हर योगी
का खल
ु ता है , उसे वे बाते िदखाई पड़ती ह जो साधारण यिक्तय को नहीं िदखतीं। उनको कण-कण म
परमा मा का पु य प्रकाश बहुमू य र न की तरह जगमगाता हुआ िदखाई पड़ता है । भक्त माइकेल को
प्र येक िशला म वगीर्य फिर ता िदखाई पड़ता था। सामा य यिक्तय की ि ट बड़ी संकुिचत होती है ,
वे आज के हािन-लाभ म रोते-हँ सते ह, पर ब्र मज्ञानी दरू तक दे खता है । वह व तु और पिरि थित पर
पारदशीर् िवचार करता है और प्र येक पिरि थित म प्रभु की लीला एवं दया का अनुभव करता हुआ
प्रस न रहता है । िव व मानव की सेवा म ही वह अपना जीवन लगाता है । इस प्रकार ब्र मदीक्षा म
दीिक्षत हुआ साधक परम भागवत होकर परम शाि त को अ त:करण म धारण करता हुआ िद य त व
से पिरपूणर् हो जाता है । इस ेणी के साधक को ही भस
ू रु कहते ह।

ब्र म दीक्षा - आ मक याण की तीन कक्षाएँ


तीसरी भिू मका ‘ व:’ है । इसे ब्र ्र म-दीक्षा कहते ह। जब दध
ू अिग्र पर औटाकर नीचे अतार िलया जाता
है और ठ डा हो जाता है , तब उसम दही का जामन दे कर जमा िदया जाता है , फल व प वह सारा दही
ही बन जाता है । म त्र वारा ि टकोण का पिरमाजर्न करके साधक अपने सांसािरक जीवन को
प्रस नता और स प नता से ओत-प्रोत करता है , अिग्र वारा अपने कुसं कार , पाप , भल
ू , कषाय ,
दब
ु ल ु त होता है एवं तप की उ मा
र् ताओं को जलाता है , उनसे अपना िप ड छुड़ाकर ब धन मक् वारा
अ त:करण को पकाकर ब्रा मीभत
ू करता है । दध
ू पकते-पकते जब रबड़ी, मलाई आिद की शक्ल म
पहुँच जाता है , तब उसका मू य और वाद बहुत बढ़ जाता है ।

ू री शिक्त-भिू म और तीसरी ब्र म-भिू म होती है । क्रमश: एक के बाद एक को पार


पहली ज्ञान-भिू म, दस
करना पड़ता है । िपछली दो कक्षाओं को पार कर साधक जब तीसरी कक्षा म पहुँचता है , तो उसे स गु
वारा ब्र म-दीक्षा लेने की आव यकता होती है । यह ‘परा’ वाणी वारा होती है । बैखरी वाणी वारा मँह

से श द उ चारण करके ज्ञान िदया जाता है । म यमा और प य ती वािणय वारा िश य के प्राणमय
और मनोमय कोश म अिग्र सं कार िकया जाता है । परा वाणी वारा आ मा बोलती है और उसका
स दे श दस
ू री आ मा सन
ु ती है । जीभ की वाणी कान सन
ु ते ह, मन की वाणी नेत्र सन
ु ते ह, दय की
वाणी दय सन ु ती है । जीभ ‘बैखरी’ वाणी बोलती है , मन
ु ता है और आ मा की वाणी आ मा सन
‘म यमा’ बोलता है , दय की वाणी ‘प य ती’ कहलाती है और आ मा ‘परा’ वाणी बोलती है । ब्र म-दीक्षा
म जीभ, मन, दय िकसी को नहीं बोलना पड़ता। आ मा के अ तरं ग क्षेत्र म जो अनहद विन उ प न
होती है , उसे◌े दस
ू री आ मा ग्रहण करती है । उसे ग्रहण करने के प चात ् वह भी ऐसी ही ब्रा मीभत
ू हो
जाती है जैसा थोड़ा-सा दही पड़ने से औटाया हुआ दध
ू सबका सब दही बन जाता है ।

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काला कोयला या सड़ी-गली लकड़ी का टुकड़ा जब अिग्न म पड़ता है , तो उसका परु ाना व प बदल
जाता है और वह अिग्नमय होकर अिग्न के ही गण
ु से सस
ु ि जत हो जाता है । यह कोयला या लकड़ी
का टुकड़ा भी अिग्न के गण
ु से पिरपण
ू र् होता है और गमीर्, प्रकाश तथा जलाने की शिक्त भी उसम
अिग्न के समान होती है । ब्रा मी दीक्षा से ब्र मभत
ू हुए साधक का शरीर तु छ होते हुए भी उसकी
अ तरं ग स ता ब्रा मीभत
ू हो जाती है । उसे अपने भीतर-बाहर चार ओर सत ् ही सत ् ि टगोचर होता
है । िव व म सवर्त्र उसे ब्र म ही ब्र म पिरलिक्षत होता है ।

गीता म भगवान ् कृ ण ने अजन


ुर् को िद य ि ट दे कर अपना िवरा प िदखाया था, अथार्त ् उसे वह
ज्ञान िदया था िजससे िव व के अ तरं ग म िछपी हुई अ य ब्र मस ता का दशर्न कर सके। भगवान ्
सब म यापक है , पर उसे कोई िबरले ही दे खते, समझते ह। भगवान ् ने अजन
ुर् को यह िद य ि ट दी
िजससे उसकी ईक्षण शिक्त इतनी सू म और पारदशीर् हो गयी िक वह उन िद य त व का अनुभव
करने लगा, िजसे साधारण लोग नहीं कर पाते। इस िद य ि ट को ही पाकर योगी लोग आ मा का,
ब्र म का साक्षा कार अपने भीतर और बाहर करते ह तथा ब्रा मी गण
ु से, िवचार से, वभाव से, काय
से ओतप्रोत हो जाते ह। यशोदा ने, कौश या ने, काकभश
ु िु ड ने ऐसी ही िद य ि ट पाई थी और ब्र म
का साक्षा कार िकया था। ई वर का दशर्न इसे ही कहते ह। ब्र म दीक्षा पाने वाला िश य ई वर म
अपनी समीपता और ि थित का वैसे ही अनभ
ु व करता है जैसे कोयला अिग्र म पड़कर अपने को
अिग्नमय अनभ
ु व करता है ।

िवज व की तीन कक्षाएँ ह-(१) ब्रा मण, (२) क्षित्रय, (३) वै य। पहली कक्षा है - वै य । वै य का उ े य
है - सख
ु सामग्री का उपाजर्न। उसको म त्र (िवचार) वारा यह लोक यवहार िसखाया जाता है , वह
ि टकोण िदया जाता है िजसके वारा सांसािरक जीवन सख
ु मय, शाि तमय, सफल एवं सस
ु प न बन
सके। बुरे गुण, कमर् एवं वभाव के कारण लोग अपने आपको िच ता, भय, द:ु ख, रोग, क्लेश एवं दिरद्रता
के चंगल
ु म फँसा लेते ह। यिद उनका ि टकोण सही हो, दस शूल से बचे रह तो िन चय ही मानव
जीवन वगीर्य आन द से ओत-प्रोत होना चािहए।

क्षित्रय त व का आधार है - शिक्त। शिक्त तप से उ प न होती है । दो व तुओं को िघसने से गमीर्


पैदा होती है । प थर पर िघसने से चाकू तेज होता है । िबजली की उ पि त घषर्ण से होती है । बुराइय
के, त्रिु टय के, कुसं कार के, िवकार के िव द्ध संघषर् कायर् को तप कहते ह। तप से आि मक शिक्त
उ प न होती है और उसे िजस िदशा म भी प्रयुक्त िकया जाए उसी म चम कार उ प न हो जाते ह।
शिक्त वयं ही चम कार है , शिक्त का नाम ही िसिद्ध है । अिग्र-दीक्षा से तप आर भ होता है , आ मदान
के िलए युद्ध छे ड़ा जाता है । गीता म भगवान ् ने अजन
ुर् को उपदे श िदया था िक ‘तू िनर तर यद्ध
ु कर।’
िनर तर युद्ध िकससे करता? महाभारत तो थोड़े ही िदन म समा त हो गया था, िफर अजन
ुर् िनर तर
ु ं से संघषर् जारी रखने का था। यही अिग्र-दीक्षा का
िकससे लड़ता? भगवान ् का संकेत आ तिरक शत्रओ
उपदे श था। अिग्न-दीक्षा से दीिक्षत यिक्त म क्षित्रय व का, साहस का, शौयर् का, पु षाथर् का, पराक्रम का
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िवकास होता है । इससे वह यश का भागी बनता है ।

म त्रदीक्षा से साधक यवहार कुशल बनता है और अपने जीवन को सुख-शांित, सहयोग एवं
स प नता से भरा-पूरा कर लेता है । अिग्र-दीक्षा से उसकी प्रितभा, प्रित ठा, ख्याित, प्रशंसा एवं महानता
का प्रकाश होता है । दस
ू र का िसर उसके चरण म वत: झुक जाता है । लोग उसे नेता मानते ह, उसका
अनुसरण और अनुगमन करते ह। इस प्रकार उपयक्
ुर् त दो दीक्षाओं वारा वै य और क्षित्रय बनने के
उपरा त साधक ब्रा मण बनने के िलए अग्रसर होता है । ब्र मदीक्षा से उसे ‘िद य ि ट’ िमलती है , इसे
नेत्रो मीलन कहते ह।

शंकर ने तीसरा नेत्र खोलकर कामदे व को जला िदया था। अजन


ुर् को भगवान ् ने ‘‘िद यं ददािम ते
चक्षु:’’ िद य नेत्र दे कर अपने िवरा व प का दशर्न स भव करा िदया था। वह तत
ृ ीय नेत्र हर योगी
का खुलता है , उसे वे बाते िदखाई पड़ती ह जो साधारण यिक्तय को नहीं िदखतीं। उनको कण-कण म
परमा मा का पु य प्रकाश बहुमू य र न की तरह जगमगाता हुआ िदखाई पड़ता है । भक्त माइकेल को
प्र येक िशला म वगीर्य फिर ता िदखाई पड़ता था। सामा य यिक्तय की ि ट बड़ी संकुिचत होती है ,
वे आज के हािन-लाभ म रोते-हँ सते ह, पर ब्र मज्ञानी दरू तक दे खता है । वह व तु और पिरि थित पर
पारदशीर् िवचार करता है और प्र येक पिरि थित म प्रभु की लीला एवं दया का अनुभव करता हुआ
प्रस न रहता है । िव व मानव की सेवा म ही वह अपना जीवन लगाता है । इस प्रकार ब्र मदीक्षा म
दीिक्षत हुआ साधक परम भागवत होकर परम शाि त को अ त:करण म धारण करता हुआ िद य त व
से पिरपूणर् हो जाता है । इस ेणी के साधक को ही भस
ू रु कहते ह।

क याण मि दर का प्रवेश वार - आ मक याण की तीन कक्षाएँ


तीन दीक्षाओं से तीन वण मे प्रवेश िमलता है । दीक्षा का अथर् है - िविधवत ्, यवि थत कायर्क्रम और
िनि चत द्धा। य कोई िव याथीर् िनयत कोसर् न पढ़कर, िनयत कक्षा म न बैठकर कभी कोई, कभी
कोई पु तक पढ़ता रहे , तो भी धीरे -धीरे उसका ज्ञान बढ़ता ही रहे गा और क्रमश: उसके ज्ञान म उ नित
होती ही जायेगी। स भव है वह अ यवि थत क्रम से ग्रेजए
ु ट हो जाय, पर यह मागर् है क टसा य और
ल बा। कमश: एक-एक कक्षा पार करते हुए, एक-एक कोसर् पूरा करते हुए िनधार्िरत क्रम से यिद पढ़ाई
जारी रखी जाए, तो अ यापक को भी सिु वधा रहती है और िव याथीर् को भी। यिद कोई िव याथीर् आज
कक्षा ५ की, कल कक्षा १० की, आज संगीत की, कल डॉक्टरी की पु तक को पढ़े तो उसे याद करने म
और िशक्षक को पढ़ाने म असिु वधा होगी। इसिलए ऋिषय ने आ मो नित की तीन भिू मकाय िनधार्िरत
कर दी ह, िवज व को तीन भाग म बाँट िदया है । क्रमश: एक-एक कक्षा म प्रवेश करना और िनयम,
प्रितब ध, आदे श एवं अनश
ु ासन को द्धापव
ू क
र् मानना, इसी का नाम दीक्षा है । तीन कक्षाओं को उ तीणर्
करने के िलए तीन बार भतीर् होना पड़ता है । कई जगह एक ही अ यापक तीन कक्षाओं को पढ़ाते ह,

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कई जगह हर कक्षा के िलए अलग-अलग अ यापक होते ह। कई बार तो कूल ही बदलने पड़ते ह।
प्रायमरी कूल उ तीणर् करके हाई कूल म भतीर् होना पड़ता है और हाई कूल, इ टर पास करके कॉलेज
म नाम िलखाना पड़ता है । तीन िव यालय की पढ़ाई परू ी करने पर एम. ए. की पण
ू त
र् ा प्रा त होती है ।

इन तीन कक्षाओं के अ यापक की योग्यता िभ न-िभ न होती है । प्रथम कक्षा म स िवचार और


सत ् आचार िसखाया जाता है । इसके िलए कथा, प्रवचन, स संग, भाषण, पु तक, प्रचार, िशक्षण, सलाह, तकर्
आिद साधन काम म लाये जाते ह। इनके वारा मनु य की िवचार भिू मका का सध
ु ार होता है , कुिवचार
के थान पर स िवचारथािपत होते ह, िजनके कारण साधक अनेक शूल और क्लेश से बचता हुआ
सख
ु शांितपव
ू क
र् जीवन यतीत कर लेता है । इस प्रथम कक्षा के िव याथीर् को गु के प्रित द्धा रखना
आव यक है । द्धा न होगी तो उनके वचन का, उपदे श का न तो मह व समझ म आयेगा और न
उन पर िव वास होगा। प्र यक्ष है िक उसी बात को कोई महापु ष कहे तो लोग उसे बहुत मह वपूणर्
समझते ह और उसी बात को यिद तु छ मनु य कहे , तो कोई कान नहीं दे ता। दोन ने एक ही बात
कही, पर एक के कहने पर उपेक्षा की गई, दस
ू रे के कहने पर यान िदया गया। इसम कहने वाले के
ऊपर सन
ु ने वाल की द्धा या अ द्धा का होना ही प्रधान कारण है । िकसी यिक्त पर िवशेष द्धा हो,
तो उसकी साधारण बात भी असाधारण प्रतीत होती ह। द्धा म अपिरिमत शिक्त होती है और िजस
िकसी म यह पयार् त मात्रा म होगी, उसे जीवन म सफलता प्रा त होना िनि चत है ।

रोज सैकड़ कथा, प्रवचन, याख्यान होते ह। अखबार म, पच , पो टर म तरह-तरह की बात सुनाई
जाती ह, रे िडयो से िन य ही उपदे श सन
ु ाये जाते ह, पर उन पर कोई कान नहीं दे ता। कारण यही है िक
सन
ु ने वाल को सन
ु ाने वाल के प्रित यिक्तगत द्धा नहीं होती, इसिलए ये मह वपण
ू र् बात भी
िनरथर्क एवं उपेक्षणीय मालम
ू दे ती ह। कोई उपदे श तभी प्रभावशाली हो सकता है जब उसका दे ने वाला,
सन
ु ने वाल का द्धा पद हो। वह द्धा िजतनी ही ती होगी, उतना ही अिधक उसका प्रभाव पड़ेगा।
प्र ्रथम कक्षा के म त्र दीिक्षत, गायत्री का समिु चत लाभ उठा सक, इस ि ट से साधक को, दीिक्षत को
यह प्रितज्ञा करनी पड़ती है िक वह गु के प्रित अटूट द्धा रखेगा। उसे वह दे वतु य या परमा मा का
प्रतीक मानेगा। इसम कुछ िविचत्रता भी नहीं है । द्धा के कारण जब िमट्टी, प थर और धातु की मिू तर्याँ
हमारे िलए दे व बन जाती ह तो कोई कारण नहीं िक एक जीिवत मनु य म दे व व का आरोपण करके
अपनी द्धानुसार उसे अपने िलए दे व न बना िलया जाए।

द्धा का प्रकटीकरण करने की आव यकता

एकल य भील ने िमट्टी के द्रोणाचायर् बनाकर उससे बाण-िव या सीखी थी और उस मिू तर् ने उस भील
को बाण-िव या म इतना पारं गत कर िदया था िक उसके वारा बाण से कु ते का मँह
ु सी िदये जाने
पर द्रोणाचायर् से प्र यक्ष पढ़ने वाले पा डव को भी ई यार् हुई थी। वामी रामान द के मना करते रहने
पर भी कबीर उनके िश य बन बैठे और अपनी ती द्धा के कारण वह लाभ प्रा त िकया, जो उनके

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िविधवत ् दीिक्षत िश य म से एक भी प्रा त न कर सका था। रजोधमर् होने पर गभार्शय म एक बँद

वीयर् का पहुँच जाना गभर् धारण कर दे ता है , पर िजसे रजोदशर्न न होता हो, उस ब या त्री के िलए
पण
ू र् पंस
ु व शिक्त वाला पित भी गभर् थािपत नहीं कर सकता। द्धा एक प्रकार का रजोधमर् है िजससे
साधक के अ त:करण म सदप
ु दे श जमते और फलते-फूलते ह। अ द्धालु के मन पर ब्र मा का उपदे श
भी कुछ प्रभाव नहीं डाल सकता। द्धा के अभाव म िकसी महापु ष के िदन-रात साथ रहने पर भी
कोई यिक्त कुछ लाभ नहीं उठा सकता और द्धा होने पर दरू थ यिक्त भी लाभ उठा सकता है ।
इसिलए आरि भक कक्षा के म त्र दीिक्षत को गु के प्रित ती द्धा की धारणा करनी पड़ती है ।

िवचार को मत
ू र् प दे ने के िलए उनको प्रकट प से यवहार म लाना पड़ता है । िजतने भी धािमर्क
कमर्का ड, दान, पु य, त, उपवास, हवन, पूजन, कथा, कीतर्न आिद ह, वे सब इसी प्रयोजन के िलए ह िक
आ तिरक द्धा यवहार म प्रकट होकर साधक के मन म पिरपु ट हो जाए। गु के प्रित म त्रदीक्षा म
‘ द्धा’ की शतर् होती है । द्धा न हो या िशिथल हो तो वह दीक्षा केवल िच न पूजा मात्र है । अ द्धालु
की गु दीक्षा से कुछ िवशेष प्रयोजन िसद्ध नहीं हो सकता। दीक्षा के समय थािपत हुई द्धा कमर्का ड
के वारा सजग रहे , इसी प्रयोजन के िलए समय-समय पर गु पज
ू न िकया जाता है । दीक्षा के समय
व त्र, पात्र, पु प, भोजन, दिक्षणा वारा गु का पुजन करते ह। गु पिू णर्मा (आषाढ़ सद
ु ी १५) को यथा
शिक्त गु के चरण म द्धांजिल के प म कुछ भट पज
ू ा अिपर्त करते ह। यह प्रथा अपनी आ तिरक
द्धा को मत
ू र् प दे ने, बढ़ाने एवं पिरपु ट करने के िलए है । केवल िवचार मात्र से कोई भावना पिरपक्व
नहीं होती; िक्रया और िवचार दोन के सि म ण से एक सं कार बनता है जो मनोभिू म म ि थर होकर
आशाजनक पिरणाम उपि थत करता है ।

प्राचीनकाल म यह िनयम था िक गु के पास जाने पर िश य कुछ व तु भट के िलए ले जाता था,


चाहे वह िकतने ही व प मू य की क्य न हो? सिमधा की लकड़ी को हाथ म लेकर िश य गु के
स मख
ु जाते थे, इसे ‘सिम पािण’ कहते थे। वे सिमधाय उनकी द्धा की प्रतीक होती ह चाहे उनका
मू य िकतना ही कम क्य न हो। शक
ु दे व जी जब राजा जनक के पास ब्र मिव या की िशक्षा लेने गये,
तो राजा जनक मौन रहे , उनने एक श द भी उपदे श नहीं िदया। शुकदे व जी वापस लौट आये। पीछे
उ ह यान आया िक भले ही म स यासी हूँ और राजा जनक गह ृ थ ह, पर जबिक म उनसे कुछ
सीखने गया, तो अपनी द्धा का प्रतीक साथ लेकर जाना चािहए था। दस
ू री बार शुकदे वजी हाथ म
सिमधाय लेकर नम्र भाव से उपि थत हुए, तो उनको िव तार पव
ू क
र् ब्र म का रह य समझाया।

द्धा न हो तो सन
ु ने वाले का और कहने वाले का म तथा समय िनरथर्क जाता है । इसिलए
िशक्षण के समान ही द्धा बढ़ाने का भी प्रय न जारी रखना चािहए। िनधर्न यिक्त भले ही यूनतम
मू य की व तय
ु ही क्य न भट कर, उ ह सदै व गु को बार-बार अपनी द्धांजिल अिपर्त करने का
प्रय न करना चािहए। यह भट पूजन एक प्रकार का आ याि मक यायाम है , िजससे द्धा पी ‘ग्रहण
शिक्त’ का ती िवकास होता है । द्धा ही वह अ त्र है , िजससे परमा मा को पकड़ा जा सकता है ।
327
भगवान ् और िकसी व तु से वश म नहीं आते, वे केवल मात्र द्धा के ब्र मपाश म फँसकर भक्त के
गल
ु ाम बनते ह। ई वर को परा त करने का एटम बम द्धा ही है । इस महानतम दै वी स मोहना त्र को
बनाने और चलाने का प्रारि भक अ यास गु से ही िकया जाता है । जब यह भली प्रकार हाथ म आ
जाता है , तो उससे भगवान ् को वश म कर लेना साधक के बाय हाथ का खेल हो जाता है ।

प्रारं ि भक कक्षा का रसा वादन करने पर साधक की मनोभिू म काफी सु ढ़ और पिरपक्व हो जाती
है । वह भौितकवाद की तु छता और आि मकवाद की महानता यावहािरक ि ट से, वैज्ञािनक ि ट से,
दाशर्िनक ि ट से समझ लेता है , तब उसे पूणर् िव वास हो जाता है िक मेरा लाभ आ मक याण के
मागर् पर चलने म ही है । द्धा पिरपक्व होकर जब िन ठा के प म पिरणत हो जाती है , तो वह भीतर
से काफी मजबूत हो जाता है । अपने ल य को प्रा त करने के िलए उसम इतनी ढ़ता होती है िक वह
क ट सह सके, तप कर सके, याग की परीक्षा का अवसर आये तो िवचिलत न हो। जब ऐसी पक्की
मनोभिू म होती है तो ‘गु ’ वारा उसे अिग्र-दीक्षा दे कर कुछ और गरम िकया जाता है िजससे उसके
मैल जल जाय, कीितर् का प्रकाश हो तथा तप की अिग्र म पककर वह पण
ू त
र् ा को प्रा त हो।

तप वी की गु दिक्षणा

गीली लकड़ी को केवल धूप म सख ु ाया जा सकता है । उसे थोड़ी सी गमीर् पहुँचाई जाती है । धीरे -धीरे
उसकी नमी सखु ाई जाती है । जब वह भली प्रकार सख
ु जाती है , तो अिग्र म दे कर मामलू ी लकड़ी को
महाशिक्तशािलनी प्रच ड अिग्र के प मे पिरणत कर िदया जाता है । गीली लकड़ी को चू हे म िदया
जाए, तो उसका पिरणाम अ छा न होगा। प्रथम कक्षा के साधक पर केवल गु की द्धा की िज मेदारी
है और ि टकोण को सध
ु ार कर अपना प्र यक्ष जीवन सध
ु ारना होता है । यह सब प्रारि भक छात्र के
उपयक्
ु त है । यिद आर भ म ती साधना म नये साधक को फँसा िदया जाय तो वह बझ
ु जायेगा, तप
की किठनाई दे खकर वह डर जायेगा और प्रय न छोड़ बैठेगा। दस
ू री कक्षा का छात्र चँ िू क धप
ू म सख

चुका है , इसिलए उसे कोई िवशेष किठनाई मालम
ू नहीं दे ती, वह हँ सते-हँ सते साधना के म का बोझ
उठा लेता है ।

अिग्न-दीक्षा के साधक को तपाने के िलए कई प्रकार के संयम, त, िनयम, याग आिद करने-कराने
होते ह। प्राचीन काल म उ ालक, धौ य, आ िण, उपम यु, कच, लीमख
ु ,ज कार, हिर च द्र, दशरथ,
निचकेता, शेष, िवरोचन, जाबािल, सम
ु नस, अ बरीष, िदलीप आिद अनेक िश य ने अपने गु ओं के
आदे शानुसार अनेक क ट सहे और उनके बताये हुए काय को पूरा िकया। थूल ि ट से इन महापु ष
के साथ गु ओं का जो यवहार था, वह ‘ दयहीनता’ का कहा जा सकता है । पर स ची बात यह है िक
उ ह ने वयं िन दा और बुराई को अपने ऊपर ओढ़कर िश य को अन त काल के िलए प्रकाशवान ्
एवं अमर कर िदया। यिद किठनाइय म होकर राजा हिर च द्र को न गज
ु रना पड़ा होता, तो वे भी
असंख्य राजा, रईस की भाँित िव मिृ त के गतर् म चले गये होते।

328
अिग्न-दीक्षा पाकर िश य गु से पूछता है िक-‘‘आदे श कीिजए, म आपके िलए क्या गु दिक्षणा
उपि थत क ँ ?’’ गु दे खता है िक िश य की मनोभिू म, साम यर्, योग्यता, द्धा और याग विृ त िकतनी
है , उसी आधार वह उससे गु दिक्षणा माँगता है । यह याचना अपने िलए पया, पैसा, धन, दौलत दे ने के
प म कदािप नहीं हो सकती। स गु सदा परम यागी, अपिरग्रही, क टसिह णु एवं व प स तोषी
होते ह। उ ह अपने िश य से या िकसी से कुछ माँगने की आव यकता नहीं होती। जो गु अपने िलए
कुछ माँगता है वह गु नहीं; ऐसे लोग गु जैसे परम पिवत्र पद के अिधकारी कदािप नहीं हो सकते।
अिग्न-दीक्षा दे कर गु जो कुछ माँगता है , वह िश य को अिधक उ वल, अिधक सु ढ़, अिधक उदार,
अिधक तप वी बनाने के िलए होता है । यह याचना उसके यश का िव तार करने के िलए, पु य को
बढ़ाने के िलए एवं उसे याग का आ मस तोष दे ने के िलए होती है ।

‘गु दिक्षणा माँिगये’ श द म िश य कहता है िक ‘‘म सु ढ़ हूँ, मेरी आि मक ि थित की परीक्षा


लीिजए।’’ कूल कालेज म परीक्षा ली जाती है । उ तीणर् छात्र की योग्यता एवं प्रित ठा को वह
उ तीणर्ता का प्रामाण पत्र अनेक गन
ु ा बढ़ा दे ता है । परीक्षा न ली जाए तो योग्यता का क्या पता चले?
िकसी यिक्त की महानता का पु य प्रसार करने◌े के िलए, उसके गौरव को सवर्साधारण पर प्रकट करने
के िलए, साधक को अपनी महानता पर आ म िव वास कराने के िलए गु अपने िश य से गु दिक्षणा
माँगता है । िश य उसे दे कर ध य हो जाता है ।

प्रारि भक कक्षा म म त्र-दीक्षा का िश य सामा यार्नस


ु ार गु पज
ू न करता है । द्धा रखना और उनकी
सलाह से अपने ि टकोण को सध
ु ारना, बस इतना ही उसका कायर्क्षेत्र है । न वह िश य दिक्षणा माँगने
के िलए गु से कहता है और न गु उससे माँगता ही है । दस
ू री कक्षा का िश य अिग्न दीक्षा लेकर
‘गु दिक्षणा’ माँगने के िलए, उसकी परीक्षा लेने के िलए प्राथर्ना करता है ।

गु इस कृपा को करना वीकार करके िश य की प्रित ठा, महानता, कीितर् एवं प्रामािणकता म चार
चाँद लगा दे ता है । गु की याचना सदै व ऐसी होती है जो सबके िलए, सब ि टय से परम
क याणकारी हो, उस यिक्त का तथा समाज का उससे भला होता हो। कई बार िनबर्ल मनोभिू म के
लोग भी आगे बढ़ाए जाते ह, उनसे गु दिक्षणा म ऐसी छोटी चीज माँगी जाती है िजसे सन
ु कर हँसी
आती है । अमक
ु फल, अमक
ु शाक, अमक
ु िमठाई आिद का याग कर दे ने जैसी याचना कुछ अिधक
मह व नहीं रखती। पर िश य का मन हलका हो जाता है , वह अनुभव करता है िक मने याग िकया,
गु के आदे श का पालन िकया, गु दिक्षणा चुका दी, ऋण से उऋण हो गया और परीक्षा उ तीणर् कर
ली। बुिद्धमान ् गु साधक की मनोभिू म और आ तिरक ि थित दे खकर ही उसे तपाते ह।

329
ब्र मदीक्षा की दिक्षणा आ मदान - आ मक याण की तीन कक्षाएँ
क्रमश: दीक्षा का मह व बढ़ता है , साथ ही उसका मू य भी बढ़ता है । जो व तु िजतनी बिढ़या होती है
उसका मू य भी उसी अनुपात म होता है । लोहा स ता िबकता है , कम पैसे दे कर मामल
ू ी दक
ु ानदार से
लोहे की व तु खरीदी जा सकती है । पर यिद सोना या जवाहरात खरीदने ह , तो ऊँची दक
ु ान पर जाना
पड़ेगा और अिधक दाम खचर् करना पड़ेगा। ब्र मदीक्षा म न िवचारशिक्त से काम चलता है और न
प्राणशिक्त से। एक आ मा से दस
ू री आ मा ‘परा’ वाणी वारा वातार्लाप करती है । आ मा की भाषा को
परा कहते ह। वैखरी भाषा को कान सन
ु ते ह, ‘म यमा’ को मन सन
ु ता है , प य ती दय को सन
ु ाई
पड़ती है और ‘परा’ वाणी वारा दो आ माओं म स भाषण होता है । अ य वािणय की बात आ मा नहीं
समझ सकती। जैसे चींटी की समझ म मनु य की वाणी नहीं आती और मनु य चींटी की वाणी नहीं
सनु पाता, उसी प्रकार आ मा तक याख्यान आिद नहीं पहुँचते। उपिनष का वचन है िक ‘‘बहुत पढ़ने
से व बहुत सनु ने से आ मा की प्राि त नहीं होती। बलहीन को भी वह प्रा त नहीं होती।’’ कारण प ट
है िक यह बात आ मा तक पहुँचती ही नहीं, तो वह सन
ु ी कैसे जायगी?

कीचड़ म फँसे हुए हाथी को दस ू रा हाथी ही िनकालता है । पानी म बहते जाने वाले को कोई तैरने
वाला ही पार िनकालता है । राजा की सहायता करना िकसी राजा को ही स भव है । एक आ मा म
ू , ब्र मपरायण बनाना केवल उसी के िलए स भव है जो
ब्र मज्ञान जाग्रत ् करना, उसे ब्रा मीभत वयं
ब्र मत व म ओत-प्रोत हो रहा हो। िजसम वयं अिग्र होगी, वही दस
ू रो को प्रकाश और गमीर् दे
सकेगा। अ यथा अिग्र का िचत्र िकतना ही आकषर्क क्य न हो, उससे कुछ प्रयोजन िसद्ध न होगा।

कई यिक्त साधु महा माओं का वेश बना लेते ह, पर उनम ब्र मतेज की अिग्र नहीं होती। िजसम
साधत
ु ा हो वही महा मा है , िजसको ब्र म का ज्ञान हो वही ब्रा मण है , िजसने राग से मन को बचा
िलया है वही वैरागी है , जो वा याय म, मनन म लीन रहता हो वही मिु न है , िजसने अहं कार को, मोह-
ममता को याग िदया है , वही स यासी है , जो तप म प्रव ृ त हो वही तप वी है । कौन क्या है , इसका
िनणर्य गण
ु -कमर् से होता है , वेश से नहीं। इसिलए ब्र मपरायण होने के िलए कोई वेश बनाने की
आव यकता नहीं। दस
ू र को िबना प्रदशर्न िकए, सीधे-सादे तरीके से रहकर जब आ मक याण िकया जा
सकता है , जो यथर् म लोक िदखावा क्य िकया जाय? सादा व त्र, सादा वेश और सादा जीवन म जब
महानतम आि मक साधना हो सकती है , तो असाधरण वेश तथा अि थर कायर्क्रम क्य अपनाया जाय?
पुराने समय अब नहीं रहे , पुरानी पिरि थितयाँ भी अब नहीं ह; आज की ि थित म सादा जीवन म ही
आि मक िवकास की स भावना अिधक है ।

ब्रा मी ि ट का प्रा त होना ब्र मसमािध है । सवर्त्र सब म ई वर का िदखाई दे ना, अपने अ दर


तेजपु ज की उ वल झाँकी होना, अपनी इ छा और आकांक्षाओं का िद य, दै वी हो जाना यही ब्रा मी
ि थित है । पूवर् युग म आकाश त व की प्रधानता थी। दीघर् काल तक प्राण को रोककर ब्र मा ड म

330
एकित्रत कर लेना और शरीर को िन:चे ट कर दे ना समािध कहलाता था। यान काल म पण
ू र् त मयता
होना और शरीर की सिु ध-बिु ध भल
ू जाना उन यग
ु म ‘समािध’ कहलाता था। उन यग
ु ो म वायु और
अिग्र त व की प्रधानता थी । आज के यग
ु म जल और प ृ वी त व की प्रधानता होने से ब्रा मी
ि थित को ही समािध कहते ह। इस युग के सवर् े ठ शा त्र भगव गीता के दस
ू रे अ याय म इसी
ब्र मसमािध की िव तारपूवक
र् िशक्षा दी गयी है । उस ि थित को प्रा त करने वाला ब्र मसमािध थ ही
कहा जायेगा।

अभी भी कई यिक्त जमीन म ग ढा खोदकर उसम ब द हो जाने का प्रदशर्न करके अपने को


समािध थ िसद्ध करते ह। यह बालक्रीड़ा अ य त उपहासा पद है । वह मन की घबराहट पर काबू पाने
की मानिसक साधना का चम कार मात्र है । अ यथा ल बे-चौड़े ग ढे म क्या कोई भी आदमी काफी
ल बी अविध तक सख
ु पूवक
र् रह सकता है ? रात भर लोग ई की रजाई म मँह
ु ब द करके सोते रहते
ह, रजाई के भीतर की जरा-सी हवा से रात भर का गज
ु ारा हो जाता है , तो ल बे चौड़े ग ढे की हवा
आसानी से दस प द्रह िदन काम दे सकती है । िफर भिू म म वयं भी हवा रहती है । गफ
ु ाओं म रहने
का अ यासी मनु य आसानी से जमीन म गड़ने की समािध का प्रदशर्न कर सकता है । ऐसे क्रीड़ा-
कौतक
ु की ओर यान दे ने की स चे ब्र मज्ञानी को कोई आव यकता नहीं जान पड़ती।

परावाणी वारा अ तरं ग प्रेरणा

आ मा म ब्र म त व का प्रवेश करने म दस


ू री आ मा वारा आया हुआ ब्र म-सं कार बड़ा काम
करता है । साँप जब िकसी को काटता है तो ितल भर जगह म दाँत गाड़ता है और िवष भी कुछ र ती
भर ही डालता है , पर िवष धीरे -धीरे स पण
ू र् शरीर म फैल जाता है , सारी दे ह िवषैली हो जाती है और
ू रे को चढ़
अ त म पिरणाम म ृ यु होता है । ब्र म-दीक्षा भी आ याि मक सपर्-दं शन है । एक का िवष दस
जाता है । अिग्र की एक िचनगारी सारे ढे र को अिग्र प कर दे ती है । भली प्रकार ि थत िकया हुआ दीक्षा
सं कार तेजी से फैलता है और थोड़े ही समय म पूणर् िवकास को प्रा त हो जाता है । ब्र मज्ञान की
पु तक पढ़ते रहने और आ याि मक प्रवचन करते रहने से मनोभिू म तो तैयार होती है , पर बीज बोये
िबना अंकुर नहीं उगता और अंकुर को सींचे िबना शीतल छाया और मधुर फल दे ने वाला वक्ष
ृ नहीं
होता। वा याय और स संग के अितिरक्त आ मक याण के िलए साधना की भी आव यकता होती है ।
साधना की जड़ म सजीव प्राण और सजीव प्रेरणा हो, तो वह अिधक सग
ु मता और सिु वधापूवक
र्
िवकिसत होती है ।

ब्रा मी ि थित का साधक अपने भीतर और बाहर ब्र म का पु य प्रकाश प्र यक्ष प से अनुभव
करता है । उसे प ट प्रतीत होता है िक वह ब्र म की गोदी म िकलोल कर रहा है , ब्र म के अमत

िस धु म आन दमग्र हो रहा है । इस दशा म पहुँचकर वह जीवन मक्ु त हो जाता है । जो प्रार ध बन
चकु े ह, उन कम का लेखा जोखा परू ा करने के िलए वह जीिवत रहता है । जब वह िहसाब बराबर हो

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जाता है तो पण
ू र् शाि त और पण
ू र् ब्रा मी ि थित म जीवन लीला समा त हो जाती है । िफर उसे भव
ब धन म लौटना नहीं होता। प्रार ध को परू ा करने के िलए वह शरीर धारण िकये रहता है । सामा य
ेणी के मनु य की भाँित सीधा-सादा जीवन िबताता है , तो भी उसकी आि मक ि थित बहुत ऊँची
रहती है । हमारी जानकारी म ऐसे अनेक ऋिष, राजिषर् और महिषर् ह, जो बा यत: बहुत ही साधारण रीित
से जीवन िबता रहे ह, पर उनकी आ तिरक ि थित सतयुग आिद के े ठ ऋिषय के समान ही महान ्
है । युग प्रभाव से आज चम कार का युग नही रहा, तो भी आ मा की उ नित म कभी कोई युग बाधा
र् ाल म जैसी महान ् आ माय होती थीं, आज भी वह सब क्रम यथावत ् जारी है ।
नहीं डाल सकता। पूवक
उस समय वे योगी आसानी से पहचान िलये जाते थे, आज उनको पहचानना किठन है । इस किठनाई
के होते हुए भी आ मिवकास का मागर् सदा की भाँित अब भी खुला हुआ है ।

ब्र मदीक्षा के अिधकारी गु -िश य ही इस महान ् स ब ध को थािपत कर सकते ह। िश य गु को


आ मसमपर्ण करता है , गु उसके काय का उ तरदािय व एवं पिरणाम अपने ऊपर लेता है । ई वर को
आ मसमपर्ण करने की प्रथम भिू मका गु को आ मसमपर्ण करना है । िश य अपना सब कुछ गु को
समपर्ण करता है । गु उस सबको अमानत के तौर पर िश य को लौटा दे ता है और आदे श कर दे ता है
िक इन सब व तओ
ु ं को गु की समझ कर उपयोग करो। इस समपर्ण से प्र यक्षत: कोई िवशेष हे र-
फेर नहीं होता, क्य िक ब्र मज्ञानी गु अपिरग्रही होने के कारण उस सब ‘समपर्ण’ का करे गा भी क्या?
दस
ू रे यव था एवं यावहािरकता की ि ट से भी उसका स पा हुआ सब कुछ उसी के संरक्षण म ठीक
प्रकार रह सकता है , इसिलए ब्रा यत: इस समपर्ण म कुछ िवशेष बात प्रतीत नहीं होती, पर आि मक
ि ट से इस ‘आ मदान’ का मू य इतना भारी है िक उसकी तल
ु ना और िकसी याग या पु य से नहीं
हो सकती।

जब दो चार पया दान करने पर मनु य को इतना आ मस तोष और पु य प्रा त होता है , तब शरीर
भी दान कर दे ने से पु य और आ मस तोष की अि तम मयार्दा समा त हो जाती है । आ मदान से
बड़ा और कोई दान इस संसार म िकसी प्राणी से स भव नहीं हो सकता, इसिलए इसकी तुलना म इस
िव व ब्र मा ड म और कोई पु य फल भी नहीं है । िन य सवा मन सोने का दान करने वाला कणर्
‘दानवीर’ के नाम से प्रिसद्ध था, पर उसके पास भी दान के बाद कुछ न कुछ अपना रह जाता था।
िजस दानी ने अपना कुछ छोड़ा ही नहीं, उसकी तुलना िकसी दानी से नहीं हो सकती।

‘आ मदान’ मनोवैज्ञािनक ि ट से एक महान ् कायर् है । अपनी सब व तए


ु ँ जब वह गु की, अ त म
परमा मा की समझकर उनके आदे शानुसार नौकर की भाँित प्रयोग करता है , तो उसका वाथर्, मोह,
अहं कार, मान, मद, म सर, क्रोध आिद सभी समा त हो जाते ह। जब अपना कुछ रहा ही नहीं तो ‘मेरा’
क्या? अहं कार िकस बात का? जब उपािजर्त की हुई व तुओं का वामी गु या परमा मा ही है तो वाथर्
कैसा? जब हम नौकर मात्र रह गये तो हािन-लाभ म शोक स ताप कैसा? इस प्रकार ‘आ मदान’ म
व तुत: ‘अहं कार’ का दान होता है । व तुओं के प्रित ‘मेरी’ भावना न रहकर ‘गु की’ या ‘परमा मा की’
332
भावना हो जाती है । यह ‘भावना पिरवतर्न, आ मपिरवतर्न’ एक असाधारण एवं रह यमय प्रिक्रया है ।
इसके वारा साधक सहज ही ब धन से खल
ु जाता है । अहं कार के कारण जो अनेक सं कार उसके
ऊपर लदते थे, वे एक भी ऊपर नहीं लदते। जैसे छोटा बालक अपने ऊपर कोई बोझ नहीं लेता, उसका
सब कुछ बोझ माता-िपता पर रहता है , इसी प्रकार आ मदानी का बोझ भी िकसी दस
ू री उ च स ता पर
चला जाता है ।

ब्र मदीक्षा का िश य गु को ‘आ मदान’ करता है । म त्रदीिक्षत को ‘गु पूजा’ करनी पड़ती है ।


अिग्नदीिक्षत को ‘गु दिक्षणा’ दे नी पड़ती है । ब्र मदीिक्षत को आ मसमपर्ण करना पड़ता है । राम को
रा य का अिधकारी मानकर उनकी खड़ाऊ िसंहासन पर रख कर जैसे भरत राज काज चलाते रहे , वैसे
ही आ मदानी अपनी व तुओं का समपर्ण करके उनके यव थापक के प म वयं काम करता रहता
है ।

वतर्मानकालीन किठनाइयाँ - आ मक याण की तीन कक्षाएँ


आज यापक प म अनैितकता फैली हुई है । वाथीर् और धत
ू का बाहु य है । स चे और स पात्र का
भारी अभाव हो रहा है । आज न तो ती उ क ठा वाले िश य ह और न स चा पथ प्रदशर्न की योग्यता
रखने वाले चिरत्रवान ् तप वी, दरू दशीर् एवं अनभ
ु वी गु ही रहे ह। ऐसी दशा म गु -िश य स ब ध की
मह वपण
ू र् आव यकता का परू ा होना किठन हो रहा है । िश य चाहते ह िक उ ह कुछ न करना पड़े,
कोई ऐसा गु िमले जो उनकी नम्रता मात्र से प्रस न होकर सब कुछ उनके िलए करके रख दे । गु ओं
की मनोविृ त यह है िक िश य को उ लू बनाकर उनसे आिथर्क लाभ उठाया जाए, उनकी द्धा को दह
ु ा
जाए। ऐसे जोड़े-‘लोभी गु लालची चेला, दह
ू ु ँ नरक म ठे लमठे ला’ का उदाहरण बनते ह। ऐसे ही लोग
की अिधकता के कारण यह महान ् स ब ध िशिथल हो गया है । अब िकसी को गु बनाना एक
आड बर म फँसना और िकसी को िश य बनाना एक झ झट मोल लेना समझा जाता है । जहाँ स चाई
है , वहाँ दोन ही पक्ष स ब ध जोड़ते हुए कतराते ह। िफर भी, आज की िवषम ि थित िकतनी ही बरु ी
और िकतनी ही िनराशाजनक क्य न हो, भारतीय धमर् की मल ू भत
ू आधारिशला का मह व कम नहीं हो
सकता।

गायत्री वारा आ मिवकास की तीन कक्षाएँ पार की जाती ह। सवर्साधारण की जानकारी के िलए
‘गायत्री महािवज्ञान’ के इस ग्र थ म यथास भव उपयोगी जानकारी दे ने का हमने प्रय न िकया है ।
इसम वह िशक्षा मौजद
ू है , िजसे ि टकोण का पिरमाजर्न एवं म त्रदीक्षा कहते ह। यज्ञोपवीत का रह य,
गायत्री ही क पवक्ष
ृ है , गायत्री गीता, गायत्री मिृ त, गायत्री रामायण, गायत्री उपिनष , गायत्री की दस
भज
ु ा आिद प्रकरण म यह बताया गया है िक हम अपने िवचार , भावनाओं और इ छाओं म संशोधन
करके िकस प्रकार सख
ु मय जीवन यतीत कर सकते ह। इसम अिग्नदीक्षा की िवतीय भिू मका की

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िशक्षा भी िव तार पव
ू क
र् दी गई है । ब्र मस या, अनु ठान, यान, पापनाशक तप चयार्एँ, उ यापन, िवशेष
साधनाएँ, उपवास, प्राणिव या, मनोमय कोश की साधना, परु चरण आिद प्रकरण म शिक्त उ प न करने
की िशक्षा दी गई है । ब्र मदीक्षा की िशक्षा कु डिलनी जागरण, ग्रि थभेद, िवज्ञानमय कोश, आन दमय
कोश की साधना के अ तगर्त भली प्रकार दी गई है । िशक्षाएँ इस प्रकार मौजद
ू ही ह, उपयुक्त यिक्त
की तलाश करने से कई बार द ु प्रा य व तुएँ भी िमल जाती ह।

यिद उपयुक्त यिक्त न िमले तो िकसी वगीर्य, पूवर् कालीन या दरू थ यिक्त की प्रितमा को गु
मानकर* यात्रा आर भ की जा सकती है । एक आव यक पर परा का लोप न हो जाए, इसिलए िकसी
साधारण ेणी के स पात्र से भी काम चलाया जा सकता है । गु का िनल भ, िनरहं कारी एवं शुद्ध चिरत्र
होना आव यक है । यह योग्यताएँ िजस यिक्त म ह , वह कामचलाऊ गु के प म काम दे सकता है ।
यिद उसम शिक्त दान एवं पथ-प्रदशर्क की योग्यता न होगी, तो भी वह अपनी द्धा को बढ़ाने म साथी
की तरह सहयोग अव य दे गा। ‘िनगरु ा’ रहने की अपेक्षा म यम ेणी के पथ-प्रदशर्क से काम चल
सकता है । यज्ञोपवीत धारण करने एवं गु दीक्षा लेने की प्र येक िवज को अिनवायर् आव यकता है ।
िच नपज
ू ा के प म यह प्रथा चलती रहे तो समयानस
ु ार उसम सध
ु ार भी हो सकता है ; पर यिद उस ंृ
खला को ही तोड़ िदया, तो उसकी नवीन रचना किठन होगी।

गायत्री वारा आ मो नित होती है , यह िनि चत है । मनु य के अ त:क्षेत्र के संशोधन, पिरमाजर्न,


स तुलन एवं िवकास के िलए गायत्री से बढ़कर और कोई ऐसा साधन भारतीय धमर्शा त्र म नहीं है , जो
अतीत काल से असंख्य यिक्तय के अनुभव म सदा खरा उतरता आया हो। मन, बुिद्ध, िच त, अहं कार
का अ त:करण चतु टय गायत्री वारा शुद्ध कर लेने वाले यिक्त के िलए सांसािरक जीवन म सब ओर
से, सब प्रकार की सफलताओं का वार खुल जाता है । उ तम वभाव, अ छी आदत, व थ मि त क,
दरू ि ट, प्रफु ल मन, उ च चिरत्र, क तर् यिन ठा आिद प्रविृ तय को प्रा त कर लेने के प चात ् गायत्री
के साधक के िलए संसार म कोई द:ु ख, क ट नहीं रह जाता, उसके िलए सामा य पिरि थितय म भी
सख
ु ही सख
ु उपि थत रहता है ।

पर तु गायत्री का यह लाभ केवल २४ अक्षर के म त्र मात्र से उपल ध नहीं हो सकता। एक हाथ से
ताली नहीं बजती, एक पिहए की गाड़ी नहीं चलती, एक पंख का पक्षी नहीं उड़ता; इसी प्रकार अकेली
गायत्री साधना अपूणर् है , उसका दस
ू रा भाग गु का पथ-प्रदशर्न है । गायत्री गु म त्र है । इस महाशिक्त
की कीिलत कु जी अनुभवी एवं सय
ु ोग्य गु के पथ-प्रदशर्न म सि निहत है । जब साधक को उभय
पक्षीय साधन, गायत्री माता और िपता गु की छत्रछाया प्रा त हो जाती है , तो आशाजनक सफलता
प्रा त होने म दे र नहीं लगती।

*नोट- यग
ु ऋिष ने गु को चेतन स ता मानकर प्रतीक के मा यम से भी दीक्षा लेने की जो बात

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कही है , वह अ या म िवज्ञान के अनु प है । िजनकी द्धा उनके प्रित है , उनके िलए िनदश है िक
यग
ु शिक्त की प्रतीक ‘लाल मशाल’ को प्रतीक के प म थािपत करके दीक्षा ली जा सकती है ।

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