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दजससे पाठक का भरोसा िेवी-िेवता / पजू ा-पाठ से उठ जाता है । इसदलये इस को सलु भ करने के साथ-
साथ सही अथथ दनकले इसका ध्यान रखा गया है । संदि-दवच्छे ि का ध्यान सही तरह से रखने का प्रयास
दकया गया है । दफर भी कुछ गलती हो तो, पाठक, उसे अपने स्तर से थोड़ा उदचत तरीके से सिु ार कर
लें । (िन्यवाि) |
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॥ पटल - १८ ॥ ORIGINAL-TO-PRINT
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्
तव स्नेहो महादेव मष्टि नास्त्यत्र ष्टनष्टश्चतम ॥१०॥
भद्रं भद्रं महादेव इष्टत कृ त्वा महेश्वरी ।
ु ीभूि देवश
ष्टवमख े ी तत्रास्ते शैलजा शभु ा ॥११॥
ु ीं देवीं महादेवो महेश्वरः ।
ष्टवलोक्य ष्टवमख
्
प्रहस्य परमेशानीं पष्टरष्वज्य ष्टप्रिां किाम ॥१२॥
कििामास तत्रैव महादेव्य ै महेश्वष्टर ।
मम सवगस्वरूपा त्वं जानीष्टह नर्नष्टन्दष्टन ॥१३॥
त्वां ष्टवनाहं महादेष्टव पूवोक्त-शवरूपवान ।्
क्षमस्व परमानन्दे क्षमस्व नर्नष्टन्दष्टन ॥१४॥
ु र।
ििा प्राणो महेशाष्टन देहे ष्टतष्ठष्टत सन्दष्ट
तिा त्वं जर्तामाद्ये चरणे पष्टततोऽस्म्यहम ॥१५॥्
इष्टत मत्वा महादेष्टव रक्ष मां तव ष्टकङ्करम ।्
ततो देवी महेशानी त्रैलोक्यमोष्टहनी ष्टशवा ॥१६॥
महादेवं पष्टरष्वज्य प्राह र्द्गदिा ष्टर्रा ।
सदा देहस्वरूपाहं देही त्वं परमेश्वर ॥१७॥
तिाष्टप वञ्चनां कतुं ु माष्टमत्थं वदष्टस ष्टप्रिम ।्
ु
महादेवः पनः प्राह भ ैरष्टव प्राणवल्लभे ॥१८॥
नाम्ां सहस्रं तारािाः श्रोतष्टु मिस्य-शेषतः ।
श्रीदेव्यवु ाच ।
न श्रतु ं परमेशान तारा-नाम-सहस्रकम ।्
ु
कििस्व महाभार् सत्यं परम-सन्दरम ्
॥१९॥
ु
श्री पावगत्यवाच ।
ु माम ।्
किमीशान सवगज्ञ लभन्ते ष्टसष्टिमत्त
ु ॥२०॥
साधकाः सवगदा िेन तन्मे किि सन्दर
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्
िस्मात परतरं नाष्टस्त स्तोत्रं तन्त्रेष ु ष्टनष्टश्चतम ।्
सवगपापहरं ष्टदव्यं सवागपष्टिष्टनवारकम ॥२१॥ ्
सवगज्ञानकरं ु
पण्िं सवगमङ्गल-संितु म ् ।
ु
परश्चिाग-शतैस्तल्यं ्
ु स्तोत्रं सवगष्टप्रिङ्करम ॥२२॥
वश्िप्रदं मारणदमच्च ु ाटन-प्रदं महत ् ।
नाम्ां सहस्रं तारािाः कििस्व सरेु श्वर ॥२३॥
श्री महादेव उवाचः ।
नाम्ां सहस्रं तारािाः स्तोत्र-पाठाद ् भष्टवष्यष्टत ।
नाम्ां सहस्रं तारािाः किष्टिष्याम्य-शेषतः ॥२४॥
शृण ु देष्टव सदा भक्त्या भक्तानां परमं ष्टहतम ।्
्
ष्टवना पूजोपहारेण ष्टवना जाप्येन ित फलम ्
॥२५॥
्
तत फलं सकलं देष्टव किष्टिष्याष्टम तच्छृण ु ।
ष्टवष्टनिोर्ः
ॐ अस्य श्री-तारा-सहस्रनाम-स्तोत्रमहामन्त्रस्य,
अक्षोभ्य ऋष्टषः, बृहती-उष्टिक ् छन्दः,
श्री उग्रतारा श्रीमदेकजटा श्री नीलसरस्वती // (श्रीमद ्-एकजटा)
ु
देवता, परुषाि ग-चतिु ि-ष्टसिििे / प्रीतििे ष्टवष्टनिोर्ः॥
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ु ा ॥४९॥
शाष्टन्तर्त्रनद्रा महाष्टनद्रा पूणष्टग नद्रा च रेणक
कौमारी कुलजा कान्ती कौलव्रत-परािणा ।
वनदुर्ाग सदाचारा द्रौपदी द्रुपदािजा ॥५०॥
िशष्टस्वनी िशस्या च िशोधात्री िशःप्रदा ।
ु -प्राणनाष्टशनी ॥५१॥
सृष्टिरूपा महार्ौरी ष्टनशम्ब
ु पृथ्वी रोष्टहणी ष्टवन्ध्यवाष्टसनी ।
पष्टद्मनी वसधा
ष्टशवशष्टक्त-मगहाशष्टक्तः शष्टङ्खनी शष्टक्तष्टनर्तग ा ॥५२॥
दैत्यप्राणहरा देवी सवगरक्षण-काष्टरणी ।
क्षाष्टन्तः क्षेमङ्करी च ैव बष्टु िरूपा महाधना ॥५३॥
श्रीष्टवद्या भ ैरष्टव भव्या भवानी भवनाष्टशनी ।
ताष्टपनी भाष्टवनी सीता तीक्ष्णतेजःस्वरूष्टपणी ॥५४॥
दात्री दानपरा काली दुर्ाग दैत्यष्टवभूषणा ।
ु
महापण्िप्रदा भीमा मधकैु टभ-नाष्टशनी ॥५५॥
पद्मा पद्मावती कृ िा तिु ा पिा
ु तिोवगशी ।
वष्टज्रणी वज्रहस्ता च तिा नारािणी ष्टशवा ॥५६॥
खष्टिनी खिहस्ता च खि-खप गर-धाष्टरणी ।
ु
देवाङ्गना देवकन्या देवमाता पलोमजा ॥५७॥
सष्टु खनी स्वर्दग ात्री च सवगसौख्य-ष्टववर्त्रधनी ।
शीला शीलावती सूक्ष्ा सूक्ष्ाकारा वरप्रदा ॥५८॥
वरेण्िा वरदा वाणी ज्ञाष्टननी ज्ञानदा सदा ।
उग्रकाली महाकाली भद्रकाली च दष्टक्षणा ॥५९॥
भृर्वु श ु ू ता
ं -समद्भ भार्वग ी ु
भृर्वल्लभा ।
शूष्टलनी शूलहस्ता च कत्रीखप गर-धाष्टरणी ॥६०॥
ु ू ता
महावंश-समद्भ मिूर-वर-वाहना ।
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ु
प्रेतमण्िल-मध्यस्ता सवागङ्ग-सन्दरी ष्टशवा ॥८५॥
ु िका षष्ठी पष्प-स्तव-कमण्िला
नवपष्पाष्ट ु ।
ु
नवपष्प-र् ु ोपेता
ण श्मशान-भ ैरवष्टप्रिा ॥८६॥
कुलशास्त्र-प्रदीपा च कुलमार्-ग प्रवर्त्रिनी ।
श्मशानभ ैरवी काली भ ैरवी भ ैरवष्टप्रिा ॥८७॥
आनन्दभ ैरवी ध्येिा भ ैरवी कुरुभ ैरवी ।
महाभ ैरव-सम्प्रीता भ ैरवीकुल-मोष्टहनी ॥८८॥
श्रीष्टवद्याभ ैरवी ु ैरवी ।
नीष्टतभ ैरवी र्णभ
सम्मोहभ ैरवी पष्टु िभ ैरवी तष्टु िभ ैरवी ॥८९॥
संहारभ ैरवी सृष्टिभ ैरवी ष्टिष्टतभ ैरवी ।
ु
आनन्दभ ैरवी वीरा सन्दरी ु
ष्टिष्टत-सन्दरी ॥९०॥
ु ानन्द-स्वरूपा च सन्दरी
र्ण ु कालरूष्टपणी ।
ु
श्रीमािा-सन्दरी ु
सौम्यसन्दरी ु
लोकसन्दरी ॥९१॥
श्रीष्टवद्या-मोष्टहनी बष्टु िमगहाबष्टु ि-स्वरूष्टपणी ।
ु
मष्टल्लका हार-रष्टसका हारालम्बन-सन्दरी ॥९२॥
नीलपङ्कज-वणाग च नार्के सर-भूष्टषता ।
जपाकुसम-सङ्काशा
ु जपाकुसम-शोष्ट
ु भता ॥९३॥
ष्टप्रिा ष्टप्रिङ्करी ष्टविोदागनवेन्द्र-ष्टवनाष्टशनी ।
े री ज्ञानदात्री ज्ञानानन्द-प्रदाष्टिनी ॥९४॥
ज्ञानश्व
ु र्ौरव-सम्पन्ना
र्ण ु शील-समष्टिता ।
र्ण
रूपिौवन-सम्पन्ना रूपिौवन-शोष्टभता ॥९५॥
ु ाश्रिा
र्ण ु रता
र्ण ु र्ौरव-सन्दरी
र्ण ु ।
मष्टदरामोद-मत्ता च ताटङ्क-िि-शोष्टभता ॥९६॥
वृक्षमूल-ष्टिता देवी वृक्षशाखो-पष्टरष्टिता ।
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ु क
सभािां व्यसन े घोरे ष्टववादे शत्रस ं टे ।
ु े सवगत्राष्टरप्रपीष्टिते ॥१९३॥
चतरु ङ्गे च तिा िि
स्मरणादेव कल्याष्टण संक्षिं िाष्टन्त दूरतः।
पूजनीिं प्रित्नेन शून्यार्ारे ष्टशवालिे ॥१९४॥
ष्टबल्वमूले श्मशान े च तटे वा कुलमण्िले ।
ु ै -भ गक्तै -दुगग्ध ैः
शकग रा-सवसंिक्त सपािस ैः॥१९५॥
ु ै -नैवद्य
अपूपाष्टपि-संिक्त े श्च
ै ििोष्टचतैः।
ष्टनवेष्टदतं च िद्द्रव्य ं भोक्तव्यं च ष्टवधानतः॥१९६॥
ु
तन्न चेद ् भज्यते मोहाद ् भोक्तं ु न ेिष्टन्त देवताः।
अनने ैव ष्टवधानने िोऽच गिेत ् परमेश्वरीम ॥१९७॥ ्
स भूष्टमवलिे देष्टव साक्षादीशो न संशिः।
्
महाशङ्खेन देवष्टे श सवुं कािुं जपाष्टदकम ॥१९८॥
कुलसवगस्व-कस्य ैवं प्रभावो वर्त्रणतो मिा ।
न शक्यते समाख्यात ं ु वषग-कोष्टटशतैरष्टप ॥१९९॥
् ितं परमेश्वष्टर ।
ष्टकष्टञ्चद ् मिा च चापल्यात कष्ट
जन्मान्तर-सहस्रेण वर्त्रणत ं ु न ैव शक्यते॥२००॥
कुलीनाि प्रदातव्यं तारा-भष्टक्तपराि च ।
अन्य-भक्ताि नो देि ं वैिवाि ष्टवशेषतः॥२०१॥
कुलीनाि महेिाि भष्टक्त-श्रिा-पराि च ।
ु
महािन े सदा देि ं परीष्टक्षत-र्णाि च ॥२०२॥
नाभक्ताि प्रदातव्यं पथ्यन्तर-पराि च ।
न देि ं देवदेवष्टे श र्ोप्यं सवागर्मेष ु च ॥२०३॥
ु नन्दकाि च ।
पूजा-जप-ष्टवहीनाि स्त्रीसरा-ष्ट
् प सन्दश्िग ष्टशवहा भवेत ॥२०४॥
न स्तवं दशगिते क्वाष्ट ्
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ु
देवाङ्गना देवकन्या देवमाता पलोमजा ॥५७॥
सष्टु खनी स्वर्गदात्री च सवग-सौख्य-ष्टववर्त्रधनी ।
्
शीला शीलावती सूक्ष्ा सूक्ष्ाकारा* वरप्रदा ॥५८॥ *?सूक्ष्-आकारा.
वरेण्िा वरदा वाणी ज्ञाष्टननी ज्ञानदा सदा ।
उग्रकाली महाकाली भद्रकाली च दष्टक्षणा ॥५९॥
भृर्वंु श-समद्भ ु
ु ू ता* भार्गवी भृर्-वल्लभा । ु ू ता=समदु -भू
*समद्भ ् ता
शूष्टलनी शूलहस्ता च कत्री-खप गर-धाष्टरणी ॥६०॥
ु ू ता* मिूर-वर-वाहना ।
महावंश-समद्भ ु ू ता=समदु -भू
*समद्भ ् ता.
महाशङ्ख-रता रक्ता रक्त-खपरग -धाष्टरणी ॥६१॥
ु िका । *रक्ताम्बर=रक्त-अम्बर.
रक्ताम्बर*-धरा रामा रमणी सरनाष्ट
मोक्षदा ष्टशवदा श्िामा मद-ष्टवभ्रम-मन्थरा ॥६२॥
्
परमानन्ददा* ज्येष्ठा िोष्टर्नी र्णसेष्टवता । *परमानन्ददा=परम-आनन्द-दा.
सारा जाम्बवती च ैव सत्यभामा नर्ािजा ॥६३॥
् िका
रौद्रा रौद्रबला घोरा रुद्र-सारारुणाष्टिका* । *सारारुण-आष्ट
रुद्ररूपा महा-रौद्री, रौद्रदैत्य-ष्टवनाष्टशनी ॥६४॥
कौमारी कौष्टशकी चण्िा कालदैत्य-ष्टवनाष्टशनी ।
ु
शम्भ-पत्नी ु
शम्भरता, ु
शम्बजािा महोदरी ॥६५॥
ष्टशवपत्नी ष्टशवरता ष्टशवजािा ष्टशवष्टप्रिा ।
हरपत्नी हररता हरजािा हरष्टप्रिा ॥६६॥
मदनान्तक-कान्ता च मदनान्तक-वल्लभा ।
ष्टर्ष्टरजा ष्टर्ष्टरकन्या च ष्टर्रीशस्य च वल्लभा ॥६७॥
भूता भव्या भवा स्पिा पावनी परपाष्टलनी ।
अदृश्िा च व्यक्त-रूपा इिाष्टनि-प्रवर्त्रिनी ॥६८॥ ?इिाष्टनि=इिा-ष्टनष्ठ.
( इिाष्टनि-प्रवर्त्रिनी = इि के प्रष्टत ष्टनष्ठा बढ़ने वाली)
अच्यतु ा प्रच्यतु -प्राणा प्रमदा वासवेश्वरी ।
ु ू ता धाष्टरणी च प्रष्टतष्टष्ठता ॥६९॥
अपांष्टनष्टध-समद्भ
उद्भवा क्षोभणा क्षेमा श्रीर्भाग परमेश्वरी ।
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ु
नव-पष्प-समदु -भू ्
ु -सवोत्सवा
् ता नवपष्पोत ।
ु
नव-पष्पस्रजा-माला माल्य-भूषण-भूष्टषता ॥८४॥
ु
नव-पष्प-समप्राणा ु
नवपष्पोत्सव-ष्टप्रिा ।
ु
प्रेत-मण्िल-मध्यस्ता सवागङ्ग-सन्दरी ष्टशवा ॥८५॥
ु िका* षष्ठी पष्प-स्तव-कमण्िला
नवपष्पाष्ट ु ु िका=नवपष्प
। *नवपष्पाष्ट ् िका
ु -आष्ट
ु
नवपष्प-र् ु ता श्मशान-भ ैरवष्टप्रिा ॥८६॥
णोपे
कुलशास्त्र-प्रदीपा च कुलमार्ग-प्रवर्त्रिनी ।
श्मशान-भ ैरवी काली भरै वी भ ैरवष्टप्रिा ॥८७॥
आनन्द-भ ैरवी ध्येिा भरै वी कुरुभ ैरवी ।
महा-भरै व-सम्प्रीता भ ैरवीकुल-मोष्टहनी ॥८८॥
ु ैरवी ।
श्री-ष्टवद्या-भ ैरवी, नीष्टतभरै वी र्णभ
सम्मोह-भ ैरवी पष्टु ि-भ ैरवी तष्टु ि-भरै वी ॥८९॥
संहार-भरै वी सृष्टि-भरै वी ष्टिष्टत-भ ैरवी ।
ु
आनन्द-भ ैरवी वीरा सन्दरी ु
ष्टिष्टत-सन्दरी ॥९०॥
ु
र्णानन्द-स्वरूपा ु
च सन्दरी कालरूष्टपणी ।
ु
श्रीमािा-सन्दरी ु
सौम्य-सन्दरी ु
लोकसन्दरी ॥९१॥
श्रीष्टवद्या-मोष्टहनी बष्टु िर-महाब
् ष्टु ि-स्वरूष्टपणी ।
ु
मष्टल्लका हार-रष्टसका हारालम्बन-सन्दरी ॥९२॥
नील-पङ्कज-वणाग च नार्के सर-भूष्टषता ।
जपा-कुसम-सङ्काशा
ु जपा-कुसम-शोष्ट
ु भता ॥९३॥
ष्टप्रिा ष्टप्रिङ्करी ष्टविोदागनवेन्द्र-ष्टवनाष्टशनी ।
ज्ञानेश्वरी ज्ञानदात्री ज्ञानानन्द-प्रदाष्टिनी ॥९४॥
ु
र्ण-र्ौरव-सम्पन्ना ु
र्ण-शील-समष्टिता ।
रूप-िौवन-सम्पन्ना रूप-िौवन-शोष्टभता ॥९५॥
ु
र्णाश्रिा ु
र्णरता ु
र्णर्ौरव-स ु
न्दरी ।
मष्टदरामोद-मत्ता च ताटङ्क-िि-शोष्टभता ॥९६॥
वृक्षमूल-ष्टिता देवी वृक्षशाखो-पष्टरष्टिता । ?वृक्ष-शाखो-उपष्टर-ष्टिता
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"ह्रीं"कारबीज-सष्टहता ह्रींकारैरुप-शोष्टभता ।
ग कला कुन्दा कौष्टलनी कुल-दर्त्रपता ॥१११॥
कन्दपस्य
के तकी-कुसम-प्राणा
ु के तकी-कृ त-भूषणा ।
के तकी-कुसमासक्ता*
ु के तकी-पष्टरभूष्टषता ॥११२॥ *कुसमासक्ता=क
ु ्
ु समु -आसक्ता.
ग ण-ग वदना महामािा महेश्वरी ।
कपूर-पू
कला के ष्टलः ष्टििा कीणाग कदम्ब-कुसमोत्स
ु ु ा* ॥११३॥ * कुसमोत्स
क ु क ्
ु ा=कुसमु -उत्स ु ा.
क
कादष्टम्बनी कष्टर-शण्ु िा कुञ्जरेश्वर-र्ाष्टमनी ।
ु
खवाग सखञ्ज-निना खञ्जन-िन्द्व-भूषणा ॥११४॥
खद्योत इव दुलगक्षा खद्योत इव चञ्चला ।
महामािा ज्र्िात्री र्ीतवाद्य-ष्टप्रिा रष्टतः॥११५॥
ु ज्या र्णप्रदा
र्णेश्वरी र्णेज्या च र्णपू ु ।
ु
र्णाढ्या ु
र्ण-सम्पन्ना ु
र्णदात्री ु िका ॥११६॥
र्णाष्ट
ु र्रुतरा
र्वी ु र्ौरी र्ाणपत्य-फलप्रदा ।
महाष्टवद्या महामेधा तष्टु लनी र्णमोष्टहनी ॥११७॥
भव्या भवष्टप्रिा भाव्या भावनीिा भवाष्टिका ।
घघगरा घोरवदना घोरदैत्य-ष्टवनाष्टशनी ॥११८॥
ु घनाचला ।
घोरा घोरवती घोषा घोरपत्री
गु ा ॥११९॥
चचगरी चारुनिना चारुवक्त्रा चतर्ु ण
चतवु दे -मिी चण्िी चन्द्रास्या चतरु ानना ।
्
चलच-चकोर-निना ्
चलत-खञ्जन-लोचना ॥१२०॥
चलदम्भोज-ष्टनलिा चलदम्भोज-लोचना ।
छत्री छत्रष्टप्रिा छत्रा छत्रचामर-शोष्टभता ॥१२१॥
ष्टछन्नछदा ष्टछन्नष्टशराश-ष्ट् छन्ननासा छलाष्टिका ।
छलाढ्या छल-संत्रस्ता छलरूपा छलष्टिरा ॥१२२॥
छकारवणग-ष्टनलिा छकाराढ्या छलष्टप्रिा ।
्
छष्टद्मनी छद्मष्टनरता छद्म-च-छद्म-ष्टनवाष्टसनी ॥१२३॥
जर्न्नाि-ष्टप्रिा जीवा जर्न्मष्टु क्तकरी मता ।
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ु
पराणार्म-र्ोप्या ु
च पराणार्म-र्ोष्ट ु
पता । *?पराणार्म=प ु
राण+आर्म
ु
पराण-र्ोचरा पूणाग पूवाग प्रौढा ष्टवलाष्टसनी ॥१५१॥
्
प्रह्लाद-हृदि-आह्लाद-र्े ु
ष्टहनी पण्िचाष्ट रणी ।
ु फाल्गन-प्रीता
फाल्गनी ु ु धाष्टरणी ॥१५२॥
फाल्गन-प्रे
ु मदा च ैव फष्टणराज-ष्टवभूष्टषता ।
फाल्गन-प्रे
फष्टणकाञ्ची फष्टणप्रीता फष्टणहार-ष्टवभूष्टषता ॥१५३॥
फणीश-कृ त-सवागङ्ग-भूषणा फष्टणहाष्टरणी ।
फष्टणप्रीता फष्टणरता फष्टण-कङ्कण-धाष्टरणी ॥१५४॥
फलदा ष्टत्रफला शक्ता फलाभरण-भूष्टषता ।
ु
फकारकू ट-सवागङ्गी फाल्गनानन्द-वर्त्रिनी ॥१५५॥
वासदेु वरता ष्टवज्ञा ष्टवज्ञ-ष्टवज्ञान-काष्टरणी ।
वीणावती बलाकीणाग बालपीिूष-रोष्टचका ॥१५६॥
ु
बाला-वसमती ष्टवद्या ष्टवद्याहार-ष्टवभूष्टषता ।
ष्टवद्यावती वैद्यपदप्रीता वैवस्वती बष्टलः॥१५७॥
बष्टल-ष्टवध्वंष्टसनी च ैव वराङ्गिा वरानना ।
्
ष्टविोर-वक्षःिल-िा च वाग्वती ष्टवन्ध्यवाष्टसनी ॥१५८॥
भीष्टतदा भिदा भानोरं श-ु जाल-समप्रभा ।
े ा भृर्ोः पूज्या भरिार-नमस्कृ ता ॥१५९॥
भार्गवज्य
ु
भीष्टतदा भि-संहन्त्री भीमाकारा च सन्दरी ।
मािावती मानरता मान-सम्मान-तत्परा ॥१६०॥
माधवानन्ददा माध्वी मष्टदरा-मष्टु दतेक्षणा । ्
?माधवानन्ददा= माधव-आनन्द-दा
ु ता महती च महद्गणा*
महोत्सव-र्णोपे ु ॥१६१॥ *महद्गणा=महद
ु ् ण
-र् ु ा
मष्टदरा-मोदष्टनरता मष्टदरा-मिने रता ।
िशोधरी िशोष्टवद्या िशोदानन्द-वर्त्रिनी ॥१६२॥
िशोदानन्द-वर्त्रिनी = कृ ि-वर्त्रिनी ?
िशोदा-आनन्द-वर्त्रिनी = कृ ि की माता -की आनन्द वर्त्रिनी ?
ग
िशः-कपूर-धवला िशोदाम-ष्टवभूष्टषता ।
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ु तारा-नाम-सहस्रकम ।्
इष्टत ते कष्टितं र्ह्यं
्
अस्मात परतरं स्तोत्रं नाष्टस्त(? न-अष्टस्त) तन्त्रेष ु ष्टनश्चिः॥२०६॥
इष्टत श्री-बृहन्नील-तन्त्रे भरै व-भ ैरवी-संवादे तारा-सहस्रनाम-ष्टनरूपणं अिादशः
पटलः॥१८॥
****************** ॥ पटल - १८ ॥*******************
Basic Information:-
दकसी भी सहस्त्रनाम / कवच या स्तोत्र में मख्ु यतः ३-भाग होतें हैं ।
१. पवू थ पीदठका २. मलू पाठ ( दवदनयोग,ध्यान के साथ) ३. फलश्रतु ी
॥ पवू थ पीदठका - में इस कवच/सहस्रनाम को पहली बार कब, कहां दकस िेवी-िेवता-या ऋदष-
मनु ी ने, दकस िेवी-िेवता-या ऋदष-मनु ी से पछ
ु ा, दकसने दकसको कब बताया- ये बताया जाता
है, इसकी जानकारी िी हुई होती है॥
जैसे यहां पता चलता है दक, इस सहस्त्रनाम को भैरव जी ने बताया है...इत्यादि...
दवदनयोगः- में यह दकस िेवी या िेवता का स्तोत्र/कवच या सहस्रनाम है, इसके ऋदषः कौन हैं
। इसका छन्ि क्या है (बोलने का तरीका, सरु , लय और ताल), बीज-क्या है, शदक्त -क्या है,
कौन सी है । कीलक - क्या है। और आप दकस दलये पाठ कर रहें हैं ।
यह सारी जानकारी पाठ करने वाले को अच्छी तरह से होनी चादहये, दक वो दकस िेवी या
िेवता का पाठ कर रहा है, और क्यों कर रहा है, इत्यादि ।
फलश्रतु ी - में पाठ पढ़ने का क्या-२ फल प्राप्त होता है । पाठ कै से करना है । दकस दिन-पाठ
करने का क्या फल दमलता है । दकतने-२ पाठ का क्या-२ फल है । िेव-या िेवी को भोग में
क्या-क्या िेना चादहये, उन्हे क्या-पसंि है, इत्यादि-२ जानकारी होती है, आप बार-बार
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हमे जब एक बार से ज्यािा पाठ करना है तो परू ा स्तोत्र/सहस्रनाम/या कवच एक बार पढ़ते है,
और अंत में एक बार परू ा पाठ करते हैं । बीच में बार -बार मख्ु य स्तोत्र/सहस्रनाम/या कवच
ज्यािा पढ़तें है।
उिाहरर्ण के दलये - अगर हमने ७ या ११ या २१-पाठ प्रदतदिन पढ़ने का संकल्प दलया है तो,
प्रथम बार परू ा सहस्रनाम/कवच पाठ करें गे,
दफर बीच में ५ या ९-या-१९-बार के वल मख्ु य सहस्रनाम/कवच पाठ करें गे,
अतं में दफर एक बार परू ा सहस्रनाम/कवच पाठ करें गे ।
तो कुल ७ -या-११ या २१- पाठ हो जायेगा । ऐसा ही आप अपनी सक ं दल्पत सख्ं या में करें
और समझें ।
। नोि: यह एक सािारर्ण सा दनयम और ज्ञान है, यह एक फोमथल ू े की तरह, हर स्तोत्र, कवच या
सहस्रनाम पर, उसके अपने पवू थ पीदठका, दवदनयोग, ध्यान, िेवता, पाठ और फलश्रदु त के साथ,
इसी तरह से लागू लागू होगा ।
आप गरुु , गणेश, शशव जी का सशं िप्त पजू ा शकसी भी पजू ा के पहले कर
सकते हैं।
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॥ तारा-कवचम ् ॥
ॐ श्री र्णेशाि नमः ।
ईश्वर उवाच ।
कोष्टटतन्त्रेष ु र्ोप्या ष्टह ष्टवद्या-अष्टत-भिमोष्टचनी ।
ष्टदव्यं ष्टह कवचं तस्याः श्रृणष्व ु सवगकामदम ॥१॥ ्
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ु
पत्र-पौताष्टितो मत्यो ष्टवलासी सवगिोष्टषताम ।्
शत्रवो दासतां िाष्टन्त सवेषां वल्लभः सदा ॥३६॥
र्वी खवी भवत्येव*, वादी स्खलष्टत दशगनात ।् *भवत्येव=भवत्य-एव
्
मृत्यश ् वश्ितां िाष्टत दासास्तस्यावनी-भजः
ु -च ु ॥३७॥
् ितं सवुं कवचं सवगकामदम ।्
प्रसङ्गात-कष्ट
ु
प्रपठिा स्मरन्मत्यगः शापानग्रहणे ु
* क्षमः ॥३८॥ *?शापानग्रहणे ु
=शाप-अनग्रहणे
ू ामष्टधपः कष्टवराि ् भवेत ।्
आनन्द-वृन्द-ष्टसन्धन
सवग-वाष्टर्श्वरो मत्यो लोकवश्िः सदा सखी ु ॥३९॥
ु पताम ।्
ु प्रसादमासाद्य ष्टवद्यां प्राप्य सर्ोष्ट
र्रोः
तत्राष्टप कवचं देष्टव ु
दुलगभ ं भवनत्रिे ॥४०॥
ु वो हरः साक्षात्तत्पत्नी* त ु हरष्टप्रिा ।
र्रुदे ् -पत्नी
*साक्षात्तत्पत्नी=साक्षात-तत ्
्
अभेदने भजेद-िस्त ु तस्य ष्टसष्टि-दूरतः ॥४१॥
मन्त्राचारा* महेशाष्टन कष्टिताः पूववग ष्टत्प्रिे । *मन्त्राचारा=मन्त्र-अचारा
नाभौ ज्योष्टतस्तिा रक्तं हृदिोपष्टर ष्टचन्तिेत ् ॥४२॥
( नाभौ ज्योष्टतस-तिा ् रक्तं हृदिो-उपष्टर ष्टचन्तिेत )्
ु वत्वं च महा-वाष्टर्श्वरो नृपः।
ऐश्विुं स-कष्ट
ष्टनत्यं तस्य महेशाष्टन मष्टहला-सङ्गमं चरेत ् ॥४३॥
पञ्चाचार-रतो मत्यगः ष्टसिो भवष्टत नान्यिा ।
ु ो भवेन्मत्यगः ष्टसिो भवष्टत नान्यिा* ॥४४॥ *नान्यिा=न-अन्यिा
शष्टक्तिक्त
ु रुद्रश्च िे देवासर-मान
ब्रह्मा ष्टविश्च ु ु ।
षाः
( ब्रह्मा ष्टविश ् रुद्रश-च
ु -च ् िे देव-असर-मान
ु ु
षाः)
ु ा भवष्टन्त ते ॥४५॥
तं दृष्ट्वा साधकं देष्टव, लिािक्त
स्वर्े मत्ये च पाताले, िे देवाः ष्टसष्टिदािकाः ।
प्रशंसष्टन्त सदा देष्टव, तं दृष्ट्वा साधकोत्तमम ् ॥४६॥
ष्टवघ्नािकाश्च िे देवाः स्वर्े मत्ये रसातले ।
प्रशंसष्टन्त सदा सवे तं दृष्ट्वा साधकोत्तमम*् ॥४७॥ *साधकोत्तमम=् साधक-उत्तमम
् ्
्
इष्टत ते कष्टितं देष्टव मिा सम्यक-प्रकीर्त्रततम ।्
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् क्ष-स्वरूपकम ् ॥४८॥
भष्टु क्त-मष्टु क्त-करं साक्षात-कल्पवृ
्
आसाद्याद्यर्रुु ं * प्रसाद्य ि इदं कल्पद्रुमालम्बनं । *आसाद्याद्यर्रुु ं = आसाद्य-आद्य-र् रुु ं
् प
ु ते । मोहेनाष्टप= मोहेन-अष्ट
मोहेनाष्टप* मदेन चाष्टप रष्टहतो, जाड्येन वा िज्य
ष्टसिोऽसौ भष्टु व सवग-दुःख-ष्टवपदां पारं प्रिात्यन्तके |
् देष्टव ष्टवपदो नश्िष्टन्त तस्याश ु च ॥४९॥
ष्टमत्रं तस्य नृपाश-च
तद्गात्रं* प्राप्य शस्त्राष्टण ब्रह्मास्त्रादीष्टन वै भष्टु व । ्
*तद्गात्रं=तद-र्ात्रं
तस्य र्ेहे ष्टिरा लक्ष्ीर-वाणी ् ्
वक्त्रे वसेद ् ध्रवु म ॥५०॥
्
इदं कवचम-अ-ज्ञात्वा तारां िो भजते नरः ।
अल्पाि-ु र्त्रनिगनो मूखो भवत्येव न संशिः ॥५१॥
(दबना कवच के जो तारा को भजता है, वह अल्पाय,ु दनिथन और मख
ू थ होता है, इसमे संशय नहीं है)
ष्टलष्टखत्वा धारिेद्यस्त*ु कण्ठे वा मस्तके भज ु धारिेद-िस्त
ु े । *धारिेद्यस्त= ् ु
तस्य सवागि-ग ष्टसष्टिः स्याद्यद्यन्मनष्टस वतगत े ॥५२॥
र्ोरोचना-कुङ्कुमने रक्त-चन्दन-के न वा ।
िावकै वाग महेशाष्टन ष्टलखेन्मन्त्रं समाष्टहतः॥५३॥
अिम्यां मङ्गलष्टदने चतद्दु श्ग िामिाष्टप वा । ( ? अिमी, मङ्गल-ष्टदन, चतदु श
ग ी)
्
सन्ध्यािां देव-देवष्टे श ष्टलखेद्यन्त्रं* समाष्टहतः ॥५४॥ *ष्टलखेद्यन्त्रं=ष्टलखेद-िन्त्रं
मघािां श्रवणे वाष्टप रेवत्यां वा ष्टवशेषतः ।
ससहराशौ र्ते चन्द्रे, ककग टिे ष्टदवाकरे ॥५५॥
ु िाते, वृष्टश्चकिे शन ैश्चरे ।
मीनराशौ र्रौ
ष्टलष्टखत्वा धारिेद्यस्त,ु उत्तराष्टभमख ु ो भवेत ् ॥५६॥
( दवशेष??: मघा/श्रवर्ण नक्षत्र में, या दवशेषतः रे वती नक्षत्र में, जब दसंह रादश में चन्रमा हो, ककथ राशी मे सयू थ हो, मीन
रादश मे गरुु , या वृदिक में शनी हो, तब उत्तर के तरफ महंु करके , यह कवच दलखकर िारर्ण करना चादहये ॥५५-५६॥)
श्मशाने प्रान्तरे वाष्टप शून्यार्ारे ष्टवशेषतः ।
ष्टनशािां वा ष्टलखेन्मन्त्रं तस्य ष्टसष्टिर-चञ्चला ॥५७॥
ु
भूजपग त्रे ष्टलखेन्मन्त्रं र्रुणा च महेश्वष्टर ।
ध्यान-धारण-िोर्ेन धारिेद्यस्त ु भष्टक्ततः ॥५८॥
अष्टचरात्तस्य ष्टसष्टिः स्यान्नात्र कािाग ष्टवचारणा ॥५९॥
॥इष्टत श्री रुद्रिामले तन्त्रे उग्रतारा-कवचं सम्पूणम ्
ग ॥
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