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गोदान
ह द
ं ीकोश
www.hindikosh.in
Godan
By Premchand
य पस्
ु तक प्रकाशनाधिकार मक्
ु त ै क्योंकक इसकी प्रकाशनाधिकार अवधि
समाप्त ो चक
ु ी ैं।
This work is in the public domain in India because its term of
copyright has expired.
ह द
ं ीकोश
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प्रेमचंद
गोदान
ि नया के दोनों ाथ गोबर से भरे थे। उपले पाथकर आयी थी। बोली -- अरे ,
कुछ रस-पानी तो कर लो। ऐसी जल्दी क्या ै।
'तू जो बात न ीं समझती, उसमें टाूँग क्यों अड़ाती ै भाई! मेरी लाठी दे दे और
अपना काम दे ख। य इसी समलते-जुलते र ने का परसाद ै कक अब तक जान
बची ु ई ै । न ीं क ीं पता न लगता कक ककिर गये। गाूँव में इतने आदमी तो
ैं, ककस पर बेदख़ली न ीं आयी, ककस पर कुड़की न ीं आयी। जब दस ू रे के पाूँवों-
तले अपनी गदद न दबी ु ई ै , तो उन पाूँवों को स लाने में ी कुशल ै ।'
उसने परास्त ोकर ोरी की लाठी, समरजई, जूत,े पगड़ी और तमाखू का बटुआ
लाकर सामने पटक हदये।
'जाकर सीसे में मूँु दे खो। तुम-जैसे मदद साठे पर पाठे न ीं ोते। दि
ू -घी अंजन
लगाने तक को तो समलता न ीं, पाठे ोंगे! तुम् ारी दशा दे ख-दे खकर तो मैं और
भी सूखी जाती ू ूँ कक भगवान ण य बुढ़ापा कैसे कटे गा? ककसके द्वार पर भीख
माूँगेंगे?'
ोरी की व क्षणणक मद
ृ त
ु ा यथाथद की इस आूँच में जैसे झल
ु स गयी। लकड़ी
सूँभालता ु आ बोला -- साठे तक प ु ूँ चने की नौबत न आने पायेगी ि नया!
इसके प ले ी चल दें गे।
स सा उसने दे खा, भोला अपनी गायें सलये इसी तरफ़ चला आ र ा ै । भोला
इसी गाूँव से समले ु ए पुरवे का ग्वाला था और दि
ू -मक्खन का व्यवसाय करता
था। अच्छा दाम समल जाने पर कभी-कभी ककसानों के ाथ गायें बेच भी दे ता
था। ोरी का मन उन गायों को दे ख कर ललचा गया। अगर भोला व आगेवाली
गाय उसे दे तो क्या क ना! रुपए आगे पीछे दे ता र े गा। व जानता था घर में
रुपए न ीं ैं , अभी तक लगान न ीं चुकाया जा सका, बबसेसर सा का दे ना भी
बाक़ी ै , श्जस पर आने रुपए का सूद चढ़ र ा ै ; लेककन दररद्रता में जो एक
प्रकार की अदरू दसशदता ोती ै, व नलदज्जता जो तक़ाज़े, गाली और मार से भी
भयभीत न ीं ोती, उसने उसे प्रोत्साह त ककया। बरसों से जो साि मन को
आंदोसलत कर र ी थी, उसने उसे ववचसलत कर हदया।
भोला ने शान जमायी -- अबकी बाज़ार बड़ा तेज़ र ा म तो, इसके अस्सी रुपए
दे ने पड़े। आूँखें नकल गयीं। तीस-तीस रुपए तो दोनों कलोरों के हदये। तस पर
गा क रुपए का आठ सेर दि
ू माूँगता ै।
'बड़ा भारी कलेजा ै तुम लोगों का भाई, लेककन किर लाये भी तो व माल कक
य ाूँ दस-पाूँच गाूँवों में तो ककसी के पास नकलेगी न ीं। '
भोला पर नशा चढ़ने लगा। बोला -- राय सा ब इसके सौ रुपए दे ते थे। दोनों
कलोरों के पचास-पचास रुपए, लेककन मने न हदये। भगवान ण ने चा ा, तो सौ
रुपए इसी ब्यान में पीट लूँ ग
ू ा।
'इसमें क्या संदे ै भाई! मासलक क्या खाके लें गे। नज़राने में समल जाय, तो
भले ले लें । य तुम् ीं लोगों का गुदाद ै कक अूँजुली-भर रुपए तक़दीर के भरोसे
धगन दे ते ो। य ी जी चा ता
ै कक इसके दरसन करता र ू ूँ। िन्य ै तुम् ारा
जीवन कक गउओं की इतनी सेवा करते ो। में तो गाय का गोबर भी मयस्सर
न ीं। धगरस्त के घर में एक गाय भी न ो, तो ककतनी लज्जा की बात ै।
साल-के-साल बीत जाते ैं, गोरस के दरसन न ीं ोते। घरवाली बार-बार क ती
ै , भोला भैया से क्यों न ीं क ते। मैं क दे ता ू ूँ , कभी समलें गे तो क ू ूँगा।
तम्
ु ारे सभ
ु ाव से बड़ी परसन र ती ै । क ती ै , ऐसा मदद ी न ीं दे खा कक जब
बातें करें गे, नीची आूँखें करके, कभी ससर न ीं उठाते।'
'ताक में ू ूँ म तो, पर कोई जल्दी िूँसता न ीं। सौ-पचास ख़रच करने को भी
तैयार ू ूँ। जैसी भगवान ण की इच्छा।'
'मेरे ससुराल में एक मे ररया ै । तीन-चार साल ु ए, उसका आदमी उसे छोड़-
कर कलकत्ते चला गया। बेचारी वपसाई करके गुज़र कर र ी ै । बाल-बच्चा भी
कोई न ीं। दे खने-सुनने में अच्छी ै । बस, लच्छमी समझ लो।'
भोला का ससकुड़ा ु आ चे रा जैसे धचकना गया। आशा में ककतनी सि
ु ा ै । बोला
-- अब तो तुम् ारा ी आसरा ै म तो! छुट्टी ो, तो चलो एक हदन दे ख आयें।
'य गाय मेरे मान की न ीं ै दादा। मैं तुम् ें नुक़सान न ीं प ु ूँचाना चा ता।
अपना िरम य न ीं ै कक समत्रों का गला दबायें। जैसे इतने हदन बीते ैं , वैसे
और भी बीत जायेंगे।'
'तुम तो ऐसी बातें करते ो ोरी, जैसे म-तुम दो ैं। तुम गाय ले जाओ, दाम
जो चा े दे ना। जैसे मेरे घर र ी, वैसे तुम् ारे घर र ी। अस्सी रुपए में ली थी,
तुम अस्सी रुपये ी दे दे ना। जाओ।'
ोरी की छाती गज़-भर की ो गयी। अस्सी रुपए में गाय मूँ गी न थी। ऐसा
अच्छा डील-डौल, दोनों जून में छः-सात सेर दि
ू , सीिी ऐसी कक बच्चा भी द ु ले।
इसका तो एक-एक बाछा सौ-सौ का ोगा। द्वार पर बूँिेगी तो द्वार की शोभा
बढ़ जायगी। उसे अभी कोई चार सौ रुपए दे ने थे; लेककन उिार को व एक तर
से मुफ़्त समझता था। क ीं भोला की सगाई ठीक ो गयी तो साल दो साल तो
व बोलेगा भी न ीं। सगाई न भी ु ई, तो ोरी का क्या बबगड़ता ै । य ी तो
ोगा, भोला बार-बार तगादा करने आयेगा , बबगड़ेगा, गासलयाूँ दे गा। लेककन ोरी
को इसकी ज़्यादा शमद न थी। इस व्यव ार का व आदी था। कृषक के जीवन
का तो य प्रसाद ै । भोला के साथ व छल कर र ा था और य व्यापार
उसकी मयादाद के अनुकूल था। अब भी लेन-दे न में उसके सलए सलखा-पढ़ी ोने
और न ोने में कोई अंतर न था। सूखे-बूड़े की ववपदाएूँ उसके मन को भी, बनाये
र ती थीं। ईकवर का रौद्र रूप सदै व उसके सामने र ता था। पर य छल उसकी
नी त में छल न था। य केवल स्वाथद-ससवि थी और य कोई बरु ी बात न थी।
इस तर का छल तो व हदन-रात करता र ता था। घर में दो-चार रुपये पड़े
र ने पर भी म ाजन के सामने क़स्में खा जाता था कक एक पाई भी न ीं ै।
सन को कुछ गीला कर दे ना और रुई में कुछ बबनौले भर दे ना उसकी नी त में
जायज था। और य ाूँ तो केवल स्वाथद न था, थोड़ा-सा मनोरं जन भी था। बुड्ढों
का बढ़
ु भस ास्यास्पद वस्तु ै और ऐसे बड्
ु ढों से अगर कुछ ऐंठ भी सलया
जाय, तो कोई दोष-पाप न ीं।
ोरी ने स ानभ
ु ू त के स्वर में क ा -- तम
ु ने मसे प ले क्यों न ीं क ा? मने
एक गाड़ी भूसा बेच हदया।
भोला की संकट-कथा सुनते ी उसकी मनोवश्ृ त्त बदल गयी। पगह या को भोला
के ाथ में लौटाता ु आ बोला -- रुपए तो दादा मेरे पास न ीं ैं , ाूँ थोड़ा-सा
भूसा बचा ै , व तुम् ें दूँ ग
ू ा। चलकर उठवा लो। भस
ू े के सलए तुम गाय बेचोगे,
और मैं लूँ ग
ू ा। मेरे ाथ न कट जायेंगे?
भोला ने आद्रद कंठ से क ा -- तुम् ारे बैल भूखों न मरें गे! तुम् ारे पास भी ऐसा
कौन-सा ब ु त-सा भूसा रखा ै।
'तुम न क ते और पीछे से मझ
ु े मालूम ोता, तो मुझे बड़ा रं ज ोता कक तुमने
मुझे इतना ग़ैर समझ सलया। अवसर पड़ने पर भाई की मदद भाई भी न करे ,
तो काम कैसे चले।'
ोरी में बाल की खाल नकालने की शश्क्त ोती, तो व ख़ुशी से गाय लेकर घर
की रा लेता। भोला जब नक़द रुपए न ीं माूँगता तो स्पष्ट था कक व भूसे के
सलए गाय न ीं बेच र ा ै , बश्ल्क इसका कुछ और आशय ै ; लेककन जैसे पत्तों
के खड़कने पर घोड़ा अकारण ी हठठक जाता ै और मारने पर भी आगे क़दम
न ीं उठाता व ी दसा ोरी की थी। संकट की चीज़ लेना पाप ै, य बात जन्म-
जन्मान्तरों से उसकी आत्मा का अंश बन गयी थी।
भोला की आूँखों में आूँसू भर आये। बोला -- तुमने आज मुझे उबार सलया ोरी
भाई! मुझे अब मालूम ु आ कक मैं संसार में अकेला न ीं ू ूँ। मेरा भी कोई ह तू
ै।
ोरी आगे बढ़ा, तो उसका धचत्त प्रसन्न था। मन में एक ववधचत्र स्िू तद ो र ी
थी। क्या ु आ, दस-पाूँच मन भूसा चला जायगा, बेचारे को संकट में पड़ कर
अपनी गाय तो न बेचनी पड़ेगी। जब मे रे पास चारा ो जायगा, तब गाय खोल
लाऊूँगा। भगवान ण करें , मुझे कोई मे ररया समल जाय। किर तो कोई बात ी न ीं।
उसने पीछे किर कर दे खा। कबरी गाय पूँछ
ू से मश्क्खयाूँ उड़ाती, ससर ह लाती,
मस्तानी, मंद-ग त से झूमती चली जाती थी, जैसे बाूँहदयों के बीच में कोई रानी
ो। कैसा शुभ ोगा व हदन, जब य कामिेनु उसके द्वार पर बूँिेगी!
***
2
सेमरी और बेलारी दोनों अवि-प्रांत के गाूँव ैं। श्ज़ले का नाम बताने की कोई
ज़रूरत न ीं। ोरी बेलारी में र ता ै , राय सा ब अमरपाल ससं सेमरी में । दोनों
गाूँवों में केवल पाूँच मील का अंतर ै । वपछले सत्याग्र -संग्राम में राय सा ब ने
बड़ा यश कमाया था। कौंससल की मेम्बरी छोड़कर जेल चले गये थे। तब से
उनके इलाक़े के असासमयों को उनसे बड़ी श्रिा ो गयी थी। य न ीं कक उनके
इलाक़े में असासमयों के साथ कोई ख़ास ररयायत की जाती ो , या डाूँड़ और
बेगार की कड़ाई कुछ कम ो; मगर य सारी बदनामी मुख़्तारों के ससर जाती
थी। राय सा ब की की तद पर कोई कलंक न लग सकता था। व बेचारे भी तो
उसी व्यवस्था के ग़ल
ु ाम थे। ज़ाब्ते का काम तो जैसे ोता चला आया ै , वैसा
ी ोगा। राय सा ब की सज्जनता उस पर कोई असर न डाल सकती थी ;
इससलए आमदनी और अधिकार में जौ-भर की भी कमी न ोने पर भी उनका
यश मानो बढ़ गया था। असासमयों से व ूँस कर बोल लेते थे। य ी क्या कम
ै ? ससं का काम तो सशकार करना ै ; अगर व गरजने और गरु ाने के बदले
मीठी बोली बोल सकता, तो उसे घर बैठे मनमाना सशकार समल जाता। सशकार
की खोज में जंगल में न भटकना पड़ता।
राय सा ब ने गाड़ी को आगे बढ़ाने के सलए दो बीड़े पान खाये और ोरी के मूँु
की ओर ताकने लगे, जैसे उसके मनोभावों को पढ़ना चा ते ों।
राय सा ब के माथे पर बल पड़ गये। आूँखें नकालकर बोले --चलो, मैं इन दष्ु टों
को ठीक करता ू ूँ। जब कभी खाने को न ीं हदया, तो आज य नई बात क्यों?
एक आने रोज़ के ह साब से मजरू ी समलेगी, जो मेशा समलती र ी ै ; और इस
मजूरी पर उन् ें काम करना ोगा, सीिे करें या टे ढ़े।
किर ोरी की ओर दे खकर बोले -- तुम अब जाओ ोरी, अपनी तैयारी करो। जो
बात मैंने क ी ै , उसका ख़याल रखना। तम्
ु ारे गाूँव से मझ
ु े कम-से-कम पाूँच
सौ की आशा ै।
सय
ू द ससर पर आ गया था। उसके तेज से असभभत
ू ोकर वक्ष
ृ ों ने अपना पसार
समेट सलया था। आकाश पर समटयाला गदद छाया ु आ था और सामने की पथ्
ृ वी
काूँपती ु ई जान पड़ती थी।
ोरी ने अपना डंडा उठाया और घर चला। शगून के रुपये क ाूँ से आयेंगे, य ी
धचंता उसके ससर पर सवार थी।
***
3
ोरी अपने गाूँव के समीप प ु ूँचा, तो दे खा, अभी तक गोबर खेत में ऊख गोड़ र ा
ै और दोनों लड़ककयाूँ भी उसके साथ काम कर र ी ैं। लू चल र ी थी, बगूले
उठ र े थे, भत
ू ल ििक र ा था। जैसे प्रकृ त ने वायु में आग घोल हदया ो।
य सब अभी तक खेत में क्यों ैं ? क्या काम के पीछे सब जान दे ने पर तुले
ु ए ैं? व खेत की ओर चला और दरू ी से धचल्लाकर बोला -- आता क्यों न ीं
गोबर, क्या काम ी करता र े गा? दोप र ढल गया, कुछ सूझता ै कक न ीं?
उसे दे खते ी तीनों ने कुदालें उठा लीं और उसके साथ ो सलये। गोबर साूँवला,
लम्बा, एक रा युवक था, श्जसे इस काम से रुधच न मालूम ोती थी। प्रसन्नता
की जग मुख पर असंतोष और ववद्रो था। व
इससलये काम में लगा ु आ था
कक व हदखाना चा ता था, उसे खाने-पीने की कोई कफ़क्र न ीं ै । बड़ी लड़की
सोना लज्जा-शील कुमारी थी, साूँवली, सड
ु ौल, प्रसन्न और चपल। गाढ़े की लाल
साड़ी श्जसे व घुटनों से मोड़ कर कमर में बाूँिे ु ए थी, उसके लके शरीर पर
कुछ लदी ु ई सी थी, और उसे प्रौढ़ता की गररमा दे र ी थी। छोटी रूपा पाूँच-छः
साल की छोकरी थी, मैली, ससर पर बालों का एक घोंसला-सा बना ु आ, एक
लूँ गोटी कमर में बाूँिे, ब ु त ी ढीठ और रोनी।
ोरी ने उसे गोद में उठाकर प्यार करते ु ए क ा -- तूने ब ु त अच्छा ककया
बेटी, चल घर चलें ।
गोबर ने कटाक्ष ककया -- बड़े आदसमयों की ाूँ-में - ाूँ समलाने में कुछ-न-कुछ
आनंद तो समलता ी ै । न ीं लोग मेम्बरी के सलए क्यों खड़े ों ?
उसे डाूँटकर बोली -- अब गोद से उतरकर पाूँव-पाूँव क्यों न ीं चलती, क्या पाूँव
टूट गये ैं?
सोना ने अपने पक्ष का समथदन ककया -- सोना न ो मो न कैसे बने, नथु नयाूँ
क ाूँ से आयें, कंठा कैसे बने?
गोबर भी इस ववनोदमय वववाद में शरीक ो गया। रूपा से बोला -- तू क दे
कक सोना तो सूखी पत्ती की तर पीला ै , रूपा तो उजला ोता ै जैसे सूरज।
सोना बोली -- शादी-ब्या में पीली साड़ी प नी जाती ै , उजली साड़ी कोई न ीं
प नता।
ोरी को एक नयी युश्क्त सूझ गयी। बोला -- सोना बड़े आदसमयों के सलए ै।
म ग़रीबों के सलए तो रूपा ी ै । जैसे जौ को राजा क ते ैं , गे ू ूँ को चमार;
इससलए न कक गे ू ूँ बड़े आदमी खाते ैं , जौ म लोग खाते ैं।
सोना के पास इस सबल युश्क्त का कोई जवाब न था। परास्त ोकर बोली --
तुम सब जने एक ओर ो गये, न ीं रुवपया को रुलाकर छोड़ती।
रूपा ने उूँ गली मटकाकर क ा -- ए राम, सोना चमार -- ए राम, सोना चमार।
द्वार पर कुआूँ था। ोरी और गोबर ने एक-एक कलसा पानी ससर पर उूँ ड़ेला,
रूपा को न लाया और भोजन करने गये। जौ की रोहटयाूँ थीं ; पर गे ू ूँ-जैसी सुफ़ेद
और धचकनी। अर र की दाल थी श्जसमें कच्चे आम पड़े ु ए थे। रूपा बाप की
थाली में खाने बैठी। सोना ने उसे ईष्यारण-भरी आूँखों से दे खा, मानो क र ी थी,
वा रे दल
ु ार!
गोबर ने व्यंग्य ककया -- तो किर अपना इलाक़ा में क्यों न ीं दे दे त!े म अपने
खेत, बैल, ल, कुदाल सब उन् ें दे ने को तैयार ैं। करें गे बदला? य सब िूतदता ै,
नरी मोटमरदी। श्जसे दःु ख ोता ै, व दरजनों मोटरें न ीं रखता , म लों में न ीं
र ता, लवा-परू ी न ीं खाता और न नाच-रं ग में सलप्त र ता ै । मज़े से राज का
सख
ु भोग र े ैं, उस पर दख
ु ी ैं!
'य बात न ीं ै बेटा, छोटे -बड़े भजवान के घर से बनकर आते ैं। संपश्त्त बड़ी
तपस्या से समलती ै । उन् ोंने पूवज
द न्म में जैसे कमद ककये ैं, उनका आनंद भोग
र े ैं। मने कुछ न ीं संचा, तो भोगें क्या?
'य सब मन को समझाने की बातें ैं। भगवान ण सबको बराबर बनाते ैं। य ाूँ
श्जसके ाथ में लाठी ै, व ग़रीबों को कुचलकर बड़ा आदमी बन जाता ै ।'
'य तुम् ारा भरम ै । मासलक आज भी चार घंटे रोज़ भगवान ण का भजन करते
ैं।'
'अपने बल पर।'
ोरी ने ार कर क ा -- अब तम्
ु ारे मूँु कौन लगे भाई, तुम तो भगवान ण की
लीला में भी टाूँग अड़ाते ो।
ि नया मटक्कर बोली -- गाय न ीं व दे र ा था। इन् ें गाय दे दे गा! आूँख में
अंजन लगाने को कभी धचल्लू-भर दि
ू तो भेजा न ीं, गाय दे गा!
ोरी ने क़सम खायी -- न ीं, जवानी क़सम, अपनी पछाई गाय दे र े थे। ाथ
तंग ै , भूसा-चारा न ीं रख सके। अब एक गाय बेचकर भूसा लेना चा ते ैं। मैंने
सोचा, संकट में पड़े आदमी की गाय क्या लूँ ग
ू ा। थोड़ा-सा भूसा हदये दे ता ू ूँ, कुछ
रुपए ाथ आ जायूँगे तो गाय ले लूँ ग
ू ा। थोड़ा-थोड़ा करके चुका दूँ ग
ू ा। अस्सी रुपए
की ै ; मगर ऐसी कक आदमी दे खता र े ।
ोरी ने पच
ु ारा हदया -- य मैं जानता ू ूँ ; लेककन उनकी भलमनसी को भी तो
दे खो। मुझसे जब समलता ै, तेरा बखान ी करता ै -- ऐसी लक्ष्मी ै , ऐसी
सलीके-दार ै।
ि नया के मख
ु पर श्स्नग्िता झलक पड़ी। मनभाय मडु ड़या ह लाये वाले भाव से
बोली -- मैं उनके बखान की भख
ू ी न ीं ू ूँ , अपना बखान िरे र ें ।
'ब ु एूँ भी तो वैसी ी चटोररन आयी ैं। अबकी सबों ने दो रुपए के ख़रबूज़े
उिार खा डाले। उिार समल जाय, किर उन् ें धचन्ता न ीं ोती कक दे ना पड़ेगा या
न ीं।'
'तब क्या एक खाूँचा दे कर टालोगे? गोबर से क दो, अपना खाूँचा भरकर उनके
साथ चला जाय।'
'य तो उनका काम था कक ककसी को अपने साथ ले लेत।े भगवान ण के हदये दो-
दो बेटे ैं।'
'अच्छा भाई, जान न खा, म दोनों चले जायूँगे। क ाूँ-से-क ाूँ मैंने इन् ें भूसा दे ने
को क हदया। या तो चलेगी न ीं, या चलेगी तो दौड़ने लगेगी।'
तीनों खाूँचे भस
ू े से भर हदये गये। गोबर कुढ़ र ा था। उसे अपने बाप के
व्यव ारों में ज़रा भी ववकवास न था। व समझता था , य ज ाूँ जाते ैं , व ीं
कुछ-न-कुछ घर से खो आते ैं। ि नया प्रसन्न थी। र ा ोरी, व िमद और
स्वाथद के बीच में डूब-उतरा र ा था।
ोरी और गोबर समलकर एक खाूँचा बा र लाये। भोला ने तरु न्त अपने अूँगोछे
का बीड़ा बनाकर ससर पर रखते ु ए क ा -- मैं इसे रखकर अभी भागा आता ू ूँ।
एक खाूँचा और लूँ ूगा।
तीनों भस
ू ा लेकर चले, तो रा में बातें ोने लगीं।
' ाूँ, तम्बू सासमयाना गड़ गया ै । अब की लीला में मैं भी काम करूूँगा। राय
सा ब ने क ा ै , तुम् ें राजा जनक का माली बनना पड़ेगा।'
'मासलक तम
ु से ब ु त ख़श
ु ैं।'
एक क्षण के बाद भोला ने किर पूछा -- सगुन करने के रुपए का कुछ जुगाड़
कर सलया ै ? माली बन जाने से तो गला न छूटे गा।
'आदमी तो म भी ैं।
बढ़
ू ों के सलए अतीत के सख
ु ों और वतदमान के दःु खों और भववष्य के सवदनाश से
ज़्यादा मनोरं जक और कोई प्रसंग न ीं ोता। दोनों समत्र अपने-अपने दख
ु ड़े रोते
र े । भोला ने अपने बेटों के करतूत सुनाये , ोरी ने अपने भाइयों का रोना रोया
और तब एक कुएूँ पर बोझ रखकर पानी पीने के सलए बैठ गये। गोबर ने ब नये
से लोटा माूँगा और पानी खींचने लगा।
इन् ीं दख
ु ड़ों में रास्ता कट गया। भोला का परु वा था तो छोटा; मगर ब ु त
गुलज़ार। अधिकतर अ ीर ी बसते थे। और ककसानों के दे खते इनकी दशा ब ु त
बुरी न थी। भोला गाूँव का मुणखया था। द्वार पर बड़ी-सी चरनी थी श्जस पर
दस-बार गायें-भैंसें खड़ी सानी खा र ी थीं। ओसारे में एक बड़ा-सा तख़्त पड़ा
था जो शायद दस आदसमयों से भी न उठता। ककसी खूट
ूँ ी पर ढोलक लटक र ी
थी ककसी पर मजीरा। एक ताख पर कोई पस् ु तक बस्ते में बूँिी रखी ु ई थी, जो
शायद रामायण ो। दोनों ब ु एूँ सामने बैठी गोबर पाथ र ी थीं और झु नया
चौखट पर खड़ी थी। उसकी आूँखें लाल थीं और नाक के ससरे पर भी सुख़ीरण थी।
मालूम ोता था, अभी रोकर उठी ै । उसके मांसल, स्वस्थ, सुगहठत अंगों में मानो
यौवन ल रें मार र ा था। मूँु बड़ा और गोल था, कपोल िूले
ु ए, आूँखें छोटी
और भीतर िूँसी ु ई, माथा पतला; पर वक्ष का उभार और गात का व ी
गुदगुदापन आूँखों को खींचता था। उस पर छपी ु ई गुलाबी साड़ी उसे और भी
शोभा प्रदान कर र ी थी।
'दरसन तो दोगी?'
य क ते-क ते जैसे उसे कोई भूली ु ई बात याद आ गयी। उसका मूँु उदास
ो गया। व वविवा ै । उसके नारीत्व के द्वार पर प ले उसका प त रक्षक बना
बैठा र ता था। व नश्कचंत थी। अब उस द्वार पर कोई रक्षक न था , इससलए
व उस द्वार को सदै व बंद रखती ै । कभी-कभी घर के सन
ू ेपन से उकताकर
व द्वार खोलती ै ; पर ककसी को आते दे खकर भयभीत ोकर दोनों पट भेड़
लेती ै।
भोला ने क ा -- कल तम
ु आकर गाय ले जाना गोबर, इस बखत तो सानी खा
र ी ै।
'तम्
ु ें जल्दी न ो, में तो जल्दी ै । उसे द्वार पर दे खकर तम्
ु ें व बात याद
र े गी।'
अवसर पाकर उसने पीछे की तरफ़ दे खा। झु नया द्वार पर खड़ी थी, मन आशा
की भाूँ त अिीर, चंचल।
***
4
एक आदमी ने आकर राम-राम ककया और पूछा -- तुम् ारी कोठी में कुछ बाूँस
ोंगे म तो?
किर दोनों लौटे । ोरी ने उसे धचलम वपलायी , जलपान कराया और तब र स्यमय
भाव से बोला -- मेरे बाूँस कभी तीस रुपए से कम में न ीं जाते; लेककन तुम घर
के आदमी ो, तम
ु से क्या मोल-भाव करता। तम्
ु ारा व लड़का, श्जसकी सगाई
ु ई थी, अभी परदे स से लौटा कक न ीं?
चौिरी ने ोरी का आसन पाकर चाबुक जमाया -- मारा तुम् ारा पुराना भाई
चारा ै म तो, ऐसी बात ै भला; लेककन बात य ै कक ईमान आदमी बेचता ै,
तो ककसी लालच से। बीस रुपए न ीं मैं पंद्र रुपए क ू ूँगा; लेककन जो बीस रुपए
के दाम लो।
'ऐसे क्या, इससे अच्छे बाूँस जाते ैं दस रुपए पर, ाूँ दस कोस और पश्च्छम
चले जाओ। मोल बाूँस का न ीं ै , श र के नगीच ोने का ै । आदमी सोचता ै,
श्जतनी दे र व ाूँ जाने में लगेगी, उतनी दे र में तो दो-चार रुपए का काम ो
जायगा।'
चौिरी ने ाथ रोककर क ा -- बाूँस मोल सलए ैं, पंद्र रुपए सैकड़े का बयाना
ुआ ै । सेंत में न ीं काट र े ैं।
चौिरी औरत जात से इस ववषय में बात-चीत करना नी त-ववरुद्ि समझते थे।
बोले -- जाकर अपने आदमी को भेज दे । जो कुछ क ना ो, आकर क ें ।
चौिरी क़समें खा-खाकर अपनी सफ़ाई दे ने लगा। तश्ल्लयों की चोट में उसकी
अपरािी आत्मा मौन थी। य लात उसे नरपराि समली और उसके िूले ुए
गाल आूँसुओं से भींग गये। उसने तो ब ू को छुआ भी न ीं। क्या व इतना
गूँवार ै कक म तो के घर की औरतों पर ाथ उठायेगा।
ोरी ने अववकवास करके क ा -- आूँखों में िूल मत झोंको चौिरी, तुमने कुछ
क ा न ीं, तो ब ू झूठ-मूठ रोती ै ? रुपए की गमी ै , तो व नकाल दी जायगी।
अलग ैं तो क्या ु आ, ैं तो एक ख़ून। कोई तरछी आूँख से दे खे, तो आूँख
नकाल लें ।
पुन्नी चंडी बनी ु ई थी। गला िाड़कर बोली -- तूने मुझे िक्का दे कर धगरा न ीं
हदया? खा जा अपने बेटे की क़सम!
पुन्नी ाय- ाय करती जाती थी और कोसती जाती थी, 'तेरी समट्टी उठे , तुझे ै ज़ा
ो जाय, तुझे मरी आये, दे वी मैया तुझे लील जायूँ, तुझे इन्पलुएंजा ो जाय।
भगवान ण करे , तू कोढ़ी ो जाय। ाथ-पाूँव कट-कट धगरें ।'
चौिरी को पु नया की इस दग
ु द त पर दया आ गयी। ीरा को उदारतापूवक
द
समझाने लगा -- ीरा म तो, अब जाने दो, ब ु त ु आ। क्या ु आ, ब ू ने मुझे
मारा। मैं तो छोटा न ीं ो गया। िन्य भाग कक भगवान ण ने य तो हदखाया।
ीरा ने चौिरी को डाूँटा -- तुम चुप र ो चौिरी, न ीं मेरे क्रोि में पड़ जाओगे
तो बुरा ोगा। औरत जात इसी तर बकती ै । आज को तुमसे लड़ गयी, कल
को दस
ू रों से लड़ जायगी। तुम भले मानस ो, ूँसकर टाल गये, दस
ू रा तो बरदास
न करे गा। क ीं उसने भी ाथ छोड़ हदया, तो ककतनी आबरू र जायेगी, बताओ।
क ाूँ तो पुन्नी रो र ी थी। क ाूँ झमककर उठी और अपना ससर पीटकर बोली --
लगा दे घर में आग, मुझे क्या करना ै । भाग िूट गया कक तुम-जैसी क़साई के
पाले पड़ी। लगा दे घर में आग! उसने कलेऊ की टोकरी व ीं छोड़ दी और घर
की ओर चली।
ीरा गरजा -- व ाूँ क ाूँ जाती ैं, चल कुएूँ पर, न ीं ख़ून पी जाऊूँगा।
'इतनी बेदरदी से मारता, तो तू घर छोड़कर भाग जाती! पु नया बड़ी ग़मख़ोर ै ।'
ि नया ने बात बदलकर क ा -- दे खो, गोबर गाय लेकर आता ै कक ख़ाली ाथ।
चौिरी ने पसीने में लथ-पथ आकर क ा -- म तो, चलकर बाूँस धगन लो। कल
ठे ला लाकर उठा ले जाऊूँगा।
' ीरा म तो ने तुम् ारे सामने पंद्र रुपये क े थे। क ो तो बुला लाऊूँ।'
मगर चौिरी कच्ची गोसलयाूँ न खेला था। अब उसे ककसका डर। ोरी के मूँु में
तो ताला पड़ा ु आ था। क्या क े , माथा ठोंककर र गया। बस इतना बोला --
य अच्छी बात न ीं ै , चौिरी, दो रुपए दबाकर राजा न ो जाओगे।
चौिरी तीक्ष्ण स्वर में बोला -- और तुम क्या भाइयों के थोड़े-से पैसे दबाकर
राजा ो जाओगे? ढाई रुपये पर अपना ईमान बबगाड़ र े थे , उस पर मुझे उपदे स
दे ते ो। अभी परदा खोल दूँ ,ू तो ससर नीचा ो जाय।
ोरी पर जैसे सैकड़ों जूते पड़ गये। चौिरी तो रुपए सामने ज़मीन पर रखकर
चला गया; पर व नीम के नीचे बैठा बड़ी दे र तक पछताता र ा। व ककतना
लोभी और स्वाथी, इसका उसे आज पता चला। चौिरी ने ढाई रुपए दे हदये ोते,
तो व ख़श
ु ी से ककतना िूल उठता। अपनी चालाकी को सरा ता कक बैठे-बैठाए
ढाई रुपए समल गये। ठोकर खाकर ी तो म साविानी के साथ पग उठाते ैं।
ि नया अंदर चली गयी थी। बा र आयी तो रुपए ज़मीन पर पड़े दे खे , धगनकर
बोली -- और रुपए क्या ु ए, दस न चाह ए?
ोरी ने लंबा मूँु बनाकर क ा -- ीरा ने पंद्र रुपए में दे हदये, तो मैं क्या
करता।
ोरी ने अपनी पराजय अपने मन में ी डाल ली, जैसे कोई चोरी से आम तोड़ने
के सलए पेड़ पर चढ़े और धगर पड़ने पर िूल झाड़ता ु आ उठ खड़ा ो कक कोई
दे ख न ले। जीतकर आप अपनी िोखेबाश्ज़यों की डींग मार सकते ैं ; जीत से
सब-कुछ माफ़ ै। ार की लज्जा तो पी जाने की ी वस्तु ै । ि नया प त को
िटकारने लगी। ऐसे सुअवसर उसे ब ु त कम समलते थे। ोरी उससे चतुर था;
पर आज बाज़ी ि नया के ाथ थी।
'घर तुम् ारा, मासलक तुम, मैं भला कौन ोती ू ूँ तुम् ें घर से नकालनेवाली।'
ोरी आज ि नया से ककसी तर पेश न ीं पा सकता। उसकी अक्ल जैसे कंु द ो
गयी ै । इन व्यंग्य-बाणों के रोकने के सलए उसके पास कोई ढाल न ीं ै । िीरे
से कुदाल रख दी और गमछा लेकर न ाने चला गया। लौटा कोई आि घंटे में ;
मगर गोबर अभी तक न आया था। अकेले कैसे भोजन करे । लौंडा व ाूँ जा कर
सो र ा। भोला की व मदमाती छोकरी ै न झु नया। उसके साथ ूँसी-हदल्लगी
कर र ा ोगा। कल भी तो उसके पीछे लगा ु आ था। न ीं गाय दी, तो लौट
क्यों न ीं आया। क्या व ाूँ ढई दे गा।
रूपा प्रसन्न ोकर अपनी ववजय का शुभ समाचार पराश्जता सोना को सुनाने
चली गयी। गाय मेरी ोगी, उसका दि
ू मैं द ु ू ूँगी, उसका गोबर मैं पाथग
ू ूँ ी, तुझे
कुछ न समलेगा। सोना उम्र से ककशोरी, दे के गठन में यव
ु ती और बद्
ु धि से
बासलका थी, जैसे उसका यौवन उसे आगे खींचता था, बालपन पीछे । कुछ बातों में
इतनी चतुर कक ग्रेजुएट युव तयों को पढ़ाये, कुछ बातों में इतनी अल् ड़ कक
सशशुओं से भी पीछे । लंबा, रूखा, ककं तु प्रसन्न मुख, ठोड़ी नीचे को णखंची ु ई,
आूँखों में एक प्रकार की तश्ृ प्त न केशों में तेल, न आूँखों में काजल, न दे पर
कोई आभष
ू ण, जैसे ग ृ स्थी के भार ने यौवन को दबाकर बौना कर हदया ो।
ससर को एक झटका दे कर बोली -- जा तू गोबर पाथ। जब तू दि
ू द ु कर रखेगी
तो मैं पी जाऊूँगी।
'मैं दि
ू की ाूँड़ी ताले में बंद करके रखग
ूूँ ी।'
दोनों किर बाग़ की तरफ़ दौड़ीं, गाय का स्वागत करने के सलए। ि नया और
ोरी दोनों गाय बाूँिने का प्रबंि करने लगे।
ोरी बोला -- चलो, जल्दी से नाूँद गाड़ दें ।
ि नया के मुख पर जवानी चमक उठी थी -- न ीं, प ले थाली में थोड़ा-सा आटा
और गुड़ घोलकर रख दें । बेचारी िूप में चली ोगी। प्यासी ोगी। तुम जाकर
नाूँद गाड़ो, मैं घोलती ू ूँ।
'क ीं एक घंटी पड़ी थी। उसे ढूूँढ़ ले। उसके गले में बाूँिेंगे।'
ि नया अपने ाहदद क उल्लास को दबाये रखना चा ती थी। इतनी बड़ी सम्पदा
अपने साथ कोई नयी बािा न लाये, य शंका उसके नराश हृदय में कम्पन
डाल र ी थी। आकाश की ओर दे खकर बोली -- गाय के आने का आनन्द तो
जब ै कक उसका पौरा भी अच्छा ो। भगवान ण के मन की बात ै।
ि नया ने भयातुर ोकर क ा -- खड़े क्या ो, आूँगन में नाूँद गाड़ दो।
'ब ु त जग ै ।'
'मैं तो बा र ी गाड़ता ू ूँ।'
'जो बात न ीं जानते, उसमें टाूँग मत अड़ाया करो। संसार-भर की बबद्या तुम् ीं
न ीं पढ़े ो।'
ोरी सचमुच आपे में न था। गऊ उसके सलए केवल भश्क्त और श्रद्िा की वस्तु
न ीं, सजीव सपश्त्त भी थी। व उससे अपने द्वार की शोभा और अपने घर का
गौरव बढ़ाना चा ता था। व चा ता था, लोग गाय को द्वार पर बूँिे दे खकर
पछ
ू ें -- य ककसका घर ै ? लोग क ें -- ोरी म तो का। तभी लड़कीवाले भी
उसकी ववभू त से प्रभाववत ोंगे। आूँगन में बूँिी, तो कौन दे खेगा? ि नया इसके
ववपरीत सशंक थी। व गाय को सात परदों के अंदर छपाकर रखना चा ती थी।
अगर गाय आठों प र कोठरी में र सकती, तो शायद व उसे बा र न नकालने
दे ती। यों र बात में ोरी की जीत ोती थी। व अपने पक्ष पर अड़ जाता था
और ि नया को दबना पड़ता था, लेककन आज ि नया के सामने ोरी की एक न
चली। ि नया लड़ने पर तैयार ो गयी। गोबर, सोना और रूपा, सारा घर ोरी के
पक्ष में था; पर ि नया ने अकेले सब को परास्त कर हदया। आज उसमें एक
ववधचत्र आत्म-ववकवास और ोरी में एक ववधचत्र ववनय का उदय ो गया था।
मगर तमाशा कैसे रुक सकता था। गाय डोली में बैठकर तो आई न थी। कैसे
संभव था कक गाूँव में इतनी बड़ी बात ो जाय और तमाशा न लगे। श्जसने
सुना, सब काम छोड़कर दे खने दौड़ा। य मामूली दे शी गऊ न ीं ै । भोला के घर
से अस्सी रुपये में आयी ै। ोरी अस्सी रुपए क्या दें गे, पचास-साठ रुपए में
लाये ोंगे। गाूँव के इ त ास में पचास-साठ रुपए की गाय का आना भी अभूतपूवद
बात थी। बैल तो पचास रुपए के भी आये , सौ के भी आये, लेककन गाय के सलए
इतनी बड़ी रक़म ककसान क्या खा के ख़चद करे गा। य तो ग्वालों ी का कलेजा
ै कक अूँजुसलयों रुपए धगन आते ैं। गाय क्या ै , साक्षात ण दे वी का रूप ै।
दशदकों, आलोचकों का ताूँता लगा ु आ था, और ोरी दौड़-दौड़कर सबका सत्कार
कर र ा था। इतना ववनम्र, इतना प्रसन्न धचत्त व कभी न था।
सत्तर साल के बढ़ ू े पंडडत दातादीन लहठया टे कते ु ए आये और पोपले मूँु से
बोले -- क ाूँ ो ोरी, त नक म भी तुम् ारी गाय दे ख लें । सन
ु ा बड़ी सुंदर ै ।
सारा गाूँव गाय दे खने आया। न ीं आये तो सोभा और ीरा जो अपने सगे भाई
थे। ोरी के हृदय में भाइयों के सलए अब भी कोमल स्थान था। व दोनों आकर
दे ख लेते और प्रसन्न ो जाते तो उसकी मनोकामना परू ी ो जाती। साूँझ ो
गयी। दोनों पुर लेकर लौट आये। इसी द्वार से नकले, पर पूछा कुछ न ीं।
ि नया ने नाक ससकोड़कर क ा -- मैंने तुमसे सौ बार ज़ार बार क हदया मेरे
मूँु पर भाइयों का बखान न ककया करो, उनका नाम सुनकर मेरी दे में आग
लग जाती ै । सारे गाूँव ने सन
ु ा, क्या उन् ोंने न सुना ोगा? कुछ इतनी दरू भी
तो न ीं र ते। सारा गाूँव दे खने आया , उन् ीं के पाूँवों में में दी लगी ु ई थी; मगर
आये कैसे? जलन ो र ी ोगी कक इसके घर गाय आ गयी। छाती िटी जाती
ोगी।
'काकी के पास क्या करने जायगी। किर सोभा-ब ू तो तुझे प्यार करती ै ?'
'धचढ़ाते ैं।'
'क ते ैं, तेरे सलए मूस पकड़ रखा ै । ले जा, भूनकर खा ले।'
घर में एक ी िूल की थाली थी, ोरी उसी थाली में खाता था। थाली में खाने
का गौरव पाने के सलए रूपा ोरी के साथ खाती थी। इस गौरव का पररत्याग
कैसे करे ? ु मककर बोली -- अच्छा, तुम् ारी।
'तम्
ु ारा।'
ि नया को कुप्पी में तेल डालना था, इस समय झगड़ा न बढ़ाना चा ती थी।
रूपा भी लड़कों में जा समली। प र रात से ज़्यादा जा चुकी थी। नाूँद गड़ चुकी
थी। सानी और खली डाल दी गयी थी। गाय मनमारे उदास बैठी थी , जैसे कोई
विू ससुराल आयी ो। नाूँद में मूँु तक न डालती थी। ोरी और गोबर खाकर
आिी-आिी रोहटयाूँ उसके सलए लाये, पर उसने सूँघ
ू ा तक न ीं। मगर य कोई
नयी बात न थी। जानवरों को भी ब ु िा घर छूट जाने का दःु ख ोता ै । ोरी
बा र खाट पर बैठ कर धचलम पीने लगा, तो किर भाइयों की याद आयी। न ीं,
आज इस शुभ अवसर पर व भाइयों की उपेक्षा न ीं कर सकता। उसका हृदय
व ववभू त पाकर ववशाल ो गया था। भाइयों से अलग ो गया ै , तो क्या
ु आ। उनका दकु मन तो न ीं ै । य ी गाय तीन साल प ले आयी ोती, तो सभी
का उस पर बराबर अधिकार ोता। और कल को य ी गाय दि
ू दे ने लगेगी, तो
क्या व भाइयों के घर दि
ू न भेजेगा या द ी न भेजेगा? ऐसा तो उसका िरम
न ीं ै । भाई उसका बुरा चेतें, व क्यों उसका बुरा चेत।े अपनी-अपनी करनी तो
अपने-अपने साथ ै । उसने नाररयल खाट के पाये से लगाकर रख हदया और
ीरा के घर की ओर चला। सोभा का घर भी उिर ी था। दोनों अपने -अपने
द्वार पर लेटे ु ए थे। काफ़ी अूँिेरा था। ोरी पर उनमें से ककसी की नगा न ीं
पड़ी। दोनों में कुछ बातें ो र ी थीं। ोरी हठठक गया और उनकी बातें सुनने
लगा। ऐसा आदमी क ाूँ ै , जो अपनी चचाद सुनकर टल जाय। ीरा ने क ा --
जब तक एक में थे, एक बकरी भी न ीं ली। अब पछाई गाय ली जाती ै । भाई
का क़ मारकर ककसी को िलते-िूलते न ीं दे खा। सोभा बोला -- य तुम
अन्याय कर र े ो ीरा! भैया ने एक-एक पैसे का ह साब दे हदया था। य मैं
कभी न मानूँूगा कक उन् ोंने प ले की कमाई छपा रखी थी।
'कुछ भी ो, गाय ै बड़ी सुंदर, गोबर सलये जाता था, तो मैंने रास्ते में दे खा।'
ोरी से और न सुना गया। व बीती बातों को बबसारकर अपने हृदय में स्ने
और सौ ादद भरे भाइयों के पास आया था। इस आघात ने जैसे उसके हृदय में
छे द कर हदया और व रस-भाव उसमें ककसी तर न ीं हटक र ा था। लत्ते और
धचथड़े ठूूँसकर अब उस प्रवा को न ीं रोक सकता। जी में एक उबाल आया कक
उसी क्षण इस आक्षेप का जवाब दे ; लेककन बात बढ़ जाने के भय से चुप र
गया। अगर उसकी नीयत साफ़ ै , तो कोई कुछ न ीं कर सकता। भगवान ण के
सामने व नदोष ै । दस
ू रों की उसे परवा न ीं। उलटे पाूँव लौट आया। और
व जला ु आ तम्बाकू पीने लगा। लेककन जैसे व ववष प्र तक्षण उसकी
िम नयों में िैलता जाता था। उसने सो जाने का प्रयास ककया , पर नींद न
आयी। बैलों के पास जाकर उन् ें स लाने लगा , ववष शांत न ु आ। दस
ू री धचलम
भरी; लेककन उसमें भी कुछ रस न था। ववष ने जैसे चेतना को आक्रान्त कर
हदया ो। जैसे नशे में चेतना एकांगी ो जाती ै , जैसे िैला ु आ पानी एक हदशा
में ब कर वेगवान ो जाता ै , व ी मनोवश्ृ त्त उसकी ो र ी थी। उसी उन्माद
की दशा में व अंदर गया। अभी द्वार खलु ा ु आ था। आूँगन में एक ककनारे
चटाई पर लेटी ु ई ि नया सोना से दे दबवा र ी थी और रूपा जो रोज़ साूँझ
ोते ी सो जाती थी, आज खड़ी गाय का मूँु स ला र ी थी। ोरी ने जाकर
गाय को खूट
ूँ े से खोल सलया और द्वार की ओर ले चला। व इसी वक़्त गाय
को भोला के घर प ु ूँचाने का दृढ़ नकचय कर चुका था। इतना बड़ा कलंक ससर
पर लेकर व अब गाय को घर में न ीं रख सकता। ककसी तर न ीं।
ि नया ने पछ
ू ा -- क ाूँ सलये जाते ो रात को?
लाला पटे कवरी पटवारी ने उसका समथदन ककया -- बात का जवाब बात ै , गाली
न ीं। तन
ू े लड़कपन में उसे पाला-पोसा; लेककन य क्यों भल
ू जाती ै कक उसकी
जायदाद तेरे ाथ में थी?
ि नया ने समझा, सब-के-सब समलकर मझ
ु े नीचा हदखाना चा ते ैं। चौमख
ु
लड़ाई लड़ने के सलए तैयार ो गयी -- अच्छा, र ने दो लाला! मैं सबको
प चानती ू ूँ। इस गाूँव में र ते बीस साल ो गये। एक-एक की नस-नस
प चानती ू ूँ। मैं गाली दे र ी ू ूँ , व िूल बरसा र ा ै , क्यों?
दल
ु ारी स ु आइन ने आग पर घी डाला -- बाक़ी बड़ी गाल-दराज़ औरत ै भाई!
मरद के मूँु लगती ै । ोरी ी जैसा मरद ै कक इसका नबा ोता ै । दस
ू रा
मरद ोता तो एक हदन न पटती।
अगर ीरा इस समय ज़रा नमद ो जाता, तो उसकी जीत ो जाती; लेककन ये
गासलयाूँ सुनकर आपे से बा र ो गया। औरों को अपने पक्ष में दे खकर व कुछ
शेर ो र ा था। गला िाड़कर बोला -- चली जा मेरे द्वार से, न ीं जूतों से बात
करूूँगा। झोंटा पकड़कर उखाड़ लूँ ग
ू ा। गाली दे ती ै डाइन! बेटे का घमंड ो गया
ै । ख़न
ू ...।
ि नया का कलेजा दन
ू ा ो गया। ोरी से बोली -- सुन लो कान खोल के।
भाइयों के सलए मरते र ते ो। ये भाई ैं , ऐसे भाई का मूँु न दे खे। य मुझे
जूतों से मारे गा। णखला-वपला...।
ोरी ने डाूँटा -- किर क्यों बक-बक करने लगी तू! घर क्यों न ीं जाती?
ि नया ज़मीन पर बैठ गयी और आतद स्वर में बोली -- अब तो इसके जत
ू े खा
के जाऊूँगी। ज़रा इसकी मरदम
ू ी दे ख लूँ ,ू क ाूँ ै गोबर? अब ककस हदन काम
आयेगा? तू दे ख र ा ै बेटा, तेरी माूँ को जूते मारे जा र े ैं!
यों ववलाप करके उसने अपने क्रोि के साथ ोरी के क्रोि को भी कक्रयाशील बना
डाला। आग को िूूँक-िूूँक कर उसमें ज्वाला पैदा कर दी। ीरा पराश्जत-सा पीछे
ट गया। पुन्नी उसका ाथ पकड़कर घर की ओर खींच र ी थी। स सा ि नया
ने ससं नी की भाूँ त झपटकर ीरा को इतने ज़ोर से िक्का हदया कक व िम से
धगर पड़ा और बोली -- क ाूँ जाता ै , जूते मार, मार जूत,े दे खूूँ तेरी मरदम
ू ी!
***
5
उिर गोबर खाना खाकर अह राने में प ु ूँचा। आज झु नया से उसकी ब ु त-सी
बातें ु ई थीं। जब व गाय लेकर चला था, तो झु नया आिे रास्ते तक उसके
साथ आयी थी। गोबर अकेला गाय को कैसे ले जाता। अपररधचत व्यश्क्त के
साथ जाने में उसे आपश्त्त ोना स्वाभाववक था। कुछ दरू चलने के बाद झु नया
ने गोबर को ममदभरी आूँखों से दे खकर क ा -- अब तुम का े को य ाूँ कभी
आओगे।
एक हदन प ले तक गोबर कुमार था। गाूँव में श्जतनी युव तयाूँ थीं, व या तो
उसकी ब नें थीं या भासभयाूँ। ब नों से तो कोई छे ड़छाड़ ो ी क्या सकती थी ,
भासभयाूँ अलबत्ता कभी-कभी उससे ठठोली ककया करती थीं, लेककन व केवल
सरल ववनोद ोता था। उनकी दृश्ष्ट में अभी उसके यौवन में केवल िूल लगे थे।
जब तक िल न लग जायूँ, उस पर ढे ले िेंकना व्यथद की बात थी। और ककसी
ओर से प्रोत्सा न न पाकर उसका कौमायद उसके गले से धचपटा ु आ था।
झु नया का वंधचत मन, श्जसे भासभयों के व्यंग और ास-ववलास ने और भी
लोलुप बना हदया था, उसके कौमायद ी पर ललचा उठा। और उस कुमार में भी
पत्ता खड़कते ी ककसी सोये ु ए सशकारी जानवर की तर यौवन जाग उठा।
'तुम् ारे पास कुछ न ीं ै ? मैं तो समझती ू ूँ, मेरे सलए तुम् ारे पास जो कुछ ै,
व बड़े-बड़े लखप तयों के पास न ीं ै । तम
ु मझ
ु से भीख न माूँगकर मझ
ु े मोल
ले सकते ो।'
गोबर को जैसे अूँिेरे में टटोलते ु ए इश्च्छत वस्तु समल गयी। एक ववधचत्र भय-
समधश्रत आनंद से उसका रोम-रोम पुलककत ो उठा। लेककन य कैसे ोगा?
झु नया को रख ले, तो रखेली को लेकर घर में र े गा कैसे। बबरादरी का झंझट
जो ै । सारा गाूँव काूँव-काूँव करने लगेगा। सभी दस
ु मन ो जायूँगे। अम्माूँ तो
इसे घर में घस
ु ने भी न दे गी। लेककन जब स्त्री ोकर य न ीं डरती, तो परु
ु ष
ोकर व क्यों डरे । ब ु त ोगा, लोग उसे अलग कर दें गे। व अलग ी र े गा।
झु नया जैसी औरत गाूँव में दस ू री कौन ै ? ककतनी समझदारी की बातें करती ै ।
क्या जानती न ीं कक मैं उसके जोग न ीं ू ूँ। किर भी मुझसे प्रेम करती ै । मेरी
ोने को राज़ी ै । गाूँववाले नकाल दें गे, तो क्या संसार में दस
ू रा गाूँव ी न ीं ै ?
और गाूँव क्यों छोड़े? मातादीन ने चमाररन बैठा ली, तो ककसी ने क्या कर सलया।
दातादीन दाूँत कटकटाकर र गये। मातादीन ने इतना ज़रूर ककया कक अपना
िरम बचा सलया। अब भी बबना असनान-पूजा ककये मूँु में पानी न ीं डालते।
दोनों जून अपना भोजन आप पकाते ैं और अब तो अलग भोजन न ीं पकाते।
दातादीन और व साथ बैठकर खाते ैं। णझंगुरीससं ने बाम् नी रख ली, उनका
ककसी ने क्या कर सलया? उनका श्जतना आदर-मान तब था, उतना ी आज भी
ै ; बश्ल्क और बढ़ गया। प ले नौकरी खोजते किरते थे। अब उसके रुपए से
म ाजन बन बैठे। ठकुराई का रोब तो था ी, म ाजनी का रोब भी जम गया।
मगर किर ख़्याल आया, क ीं झु नया हदल्लगी न कर र ी ो। प ले इसकी ओर
से नश्कचंत ो जाना आवकयक था।
'ख़ब
ू याद रखग
ूूँ ा झन
ू ा और मरते दम तक नबा ू ूँगा।'
गोबर आवेश में बोला -- मैं बच्चा को दे ख पाऊूँ, तो खोदकर ज़मीन में गाड़ दूँ ।ू
ख़ून चूस लूँ ।ू तुम मुझे हदखा तो दे ना।
'सन
ु ो तो, ऐसों का मूँु तोड़ने के सलए मैं ी काफ़ी ू ूँ। मेरी छाती िक-िक करने
लगी। य कुछ बदमासी कर बैठे, तो क्या करूूँगी। कोई धचल्लाना भी तो न
सुनेगा; लेककन मन में य नकचय कर सलया था कक मेरी दे छुई, तो दि
ू की
भरी ाूँड़ी उसके मूँु पर पटक दूँ ग
ू ी। बला से चार-पाूँच सेर दि
ू जायगा, बचा को
याद तो ो जायगी। कलेजा मज़बूत करके बोली -- इस िेर में न र ना
पंडडतजी! मैं अ ीर की लड़की ू ूँ। मूँछ ू का एक-एक बाल चन ु वा लूँ ग
ू ी। य ी सलखा
ै तुम् ारे पोथी-पत्रे में कक दस
ू रों की ब ू -बेटी को अपने घर में बंद करके
बेईज़्ज़त करो। इसीसलए तलक-मुद्रा का जाल बबछाये बैठे ो? लगा ाथ जोड़ने,
पैरों पड़ने -- एक प्रेमी का मन रख दोगी, तो तुम् ारा क्या बबगड़ जायगा, झूना
रानी! कभी-कभी ग़रीबों पर दया ककया करो, न ीं भगवान ण पूछेंगे, मैंने तुम् ें इतना
रूपिन हदया था, तम
ु ने उससे एक ब्राह्मण का उपकार भी न ीं ककया, तो क्या
जवाब दोगी? बोले, मैं ववप्र ू ूँ, रुपए-पैसे का दान तो रोज़ ी पाता ू ूँ, आज रूप
का दान दे दो। मैंने यों ी उसका मन परखने को क हदया , मैं पचास रुपए
लूँ ग
ू ी। सच क ती ू ूँ गोबर, तुरंत कोठरी में गया और दस-दस के पाूँच नोट
नकालकर मेरे ाथों में दे ने लगा और जब मैंने नोट ज़मीन पर धगरा हदये और
द्वार की ओर चली, तो उसने मेरा ाथ पकड़ सलया। मैं तो प ले ी से तैयार
थी। ाूँड़ी उसके मूँु पर दे मारी। ससर से पाूँव तक सराबोर ो गया। चोट भी
ख़ूब लगी। ससर पकड़कर बैठ गया और लगा ाय- ाय करने। मैंने दे खा, अब य
कुछ न ीं कर सकता, तो पीठ में दो लातें जमा दीं और ककवाड़ खोलकर भागी।'
गोबर को उसकी दया बुरी लगी -- य तुमने क्या ककया? उसकी औरत से जाकर
क क्यों न ीं हदया? जूतों से पीटती। ऐसे पाखंडडयों पर दया न करनी चाह ए।
तम
ु मझ
ु े कल उनकी सरू त हदखा दो, किर दे खना कैसी मरम्मत करता ू ूँ।
गोबर अपने यौवन का य तरस्कार कैसे स ता। डींग मारकर बोला -- मोटे
ोने से क्या ोता ै । य ाूँ फ़ौलाद की ड्डडयाूँ
ैं। तीन सौ डंड रोज़ मारता ू ूँ।
दि
ू -घी न ीं समलता, न ीं अब तक सीना यों नकल आया ोता।
'और जो न समली?'
***
6
बोले -- नाटक कोई भी अच्छा ो सकता ै , अगर उसके असभनेता अच्छे ों।
अच्छा-से-अच्छा नाटक बुरे असभनेताओं के ाथ में पड़कर बुरा ो सकता ै । जब
तक स्टे ज पर सशक्षक्षत असभनेबत्रयाूँ न ीं आतीं , मारी नाट्य-कला का उद्िार न ीं
ो सकता। अबकी तो आपने कौंससल में प्रकनों की िम
ू मचा दी। मैं तो दावे के
साथ क सकता ू ूँ कक ककसी में बर का ररकाडद इतना शानदार न ीं ै।
बोले -- भाई, मैं प्रकनों का कायल न ीं। मैं चा ता ू ूँ मारा जीवन मारे
ससद्िांतों के अनक ु ू ल ो। आप कृषकों के शुभेच्छु ैं, उन् ें तर -तर की ररयायत
दे ना चा ते ैं , ज़मींदारों के अधिकार छीन लेना चा ते ैं , बश्ल्क उन् ें आप समाज
का शाप क ते ैं, किर भी आप ज़मींदार ैं, वैसे ी ज़मींदार जैसे ज़ारों और
ज़मींदार ैं। अगर आपकी िारणा ै कक कृषकों के साथ ररयायत ोनी चाह ए,
तो प ले आप ख़ुद शुरू करें -- काकतकारों को बग़ैर नज़राने सलए पट्टे सलख दें ,
बेगार बंद कर दें , इज़ाफ़ा लगान को तलांजसल दे दें , चरावर ज़मीन छोड़ दें । मझ
ु े
उन लोगों से ज़रा भी मददी न ीं ै , जो बातें तो करते ैं कम्यु नस्टों की-सी,
मगर जीवन ै रईसों का-सा, उतना ी ववलासमय, उतना ी स्वाथद से भरा ु आ।
मे ता ने थौड़े की दस
ू री चोट जमायी -- मानता ू ूँ, आपका अपने असासमयों के
साथ ब ु त अच्छा बतादव ै , मगर प्रकन य ै कक उसमें स्वाथद ै या न ीं।
इसका एक कारण क्या य न ीं ो सकता कक मद् धिम आूँच में भोजन
स्वाहदष्ट पकता ै ? गुड़ से मारनेवाला ज़ र से मारनेवाले की अपेक्षा क ीं सिल
ो सकता ै । मैं तो केवल इतना जानता ू ूँ , म या तो साम्यवादी ैं या न ीं ैं।
ैं तो उसका व्यव ार करें , न ीं ैं, तो बकना छोड़ दें । मैं नक़ली श्ज़ंदगी का
ववरोिी ू ूँ। अगर मांस खाना अच्छा समझते ो तो खल
ु कर खाओ। बरु ा समझते
ो, तो मत खाओ, य तो मेरी समझ में आता ै ; लेककन अच्छा समझना और
छपकर खाना, य मेरी समझ में न ीं आता। मैं तो इसे कायरता भी क ता ू ूँ
और िूतदता भी, जो वास्तव में एक ैं।
कुछ असमंजस में पड़े ु ए बोले -- आपका ववचार बबल्कुल ठीक ै मे ताजी।
आप जानते ैं, मैं आपकी साफ़गोई का ककतना आदर करता ू ूँ , लेककन आप य
भूल जाते ैं कक अन्य यात्राओं की भाूँ त ववचारों की यात्रा में भी पड़ाव ोते ैं,
और आप एक पड़ाव को छोड़कर दस
ू रे पड़ाव तक न ीं जा सकते। मानव-जीवन
का इ त ास इसका प्रत्यक्ष प्रमाणै । मैं उस वातावरण में पला ू ूँ, ज ाूँ राजा
ईकवर ै और ज़मींदार ईकवर का मंत्री। मेरे स्वगदवासी वपता असासमयों पर इतनी
दया करते थे कक पाले या सख
ू े में कभी आिा और कभी परू ा लगान माफ़ कर
दे ते थे। अपने बखार से अनाज नकालकर असासमयों को णखला दे ते थे। घर के
ग ने बेचकर कन्याओं के वववा में मदद दे ते थे; मगर उसी वक़्त तक, जब तक
प्रजा उनको सरकार और िमावदतार क ती र े , उन् ें अपना दे वता समझकर
उनकी पूजा करती र े । प्रजा का पालन उनका सनातन-िमद था, लेककन अधिकार
के नाम पर व कौड़ी का एक दाूँत भी िोड़कर दे ना न चा ते थे। मैं उसी
वातावरण में पला ू ूँ और मुझे गवद ै कक मैं व्यव ार में चा े जो कुछ करूूँ,
ववचारों में उनसे आगे बढ़ गया ू ूँ और य मानने लग गया ू ूँ कक जब तक
ककसानों को ये ररयायतें अधिकार के रूप में न समलें गी, केवल सद्भावना के
आिार पर उनकी दशा सुिर न ीं सकती। स्वेच्छा अगर अपना स्वाथद छोड़ दे ,
तो अपवाद ै । मैं ख़ुद सद्भावना करते ु ए भी स्वाथद न ीं छोड़ सकता और
चा ता ू ूँ कक मारे वगद को शासन और नी त के बल से अपना स्वाथद छोड़ने के
सलए मज़बरू कर हदया जाय। इसे आप कायरता क ें गे, मैं इसे वववशता क ता
ू ूँ। मैं इसे स्वीकार करता ू ूँ कक ककसी को भी दस
ू रे के श्रम पर मोटे ोने का
अधिकार न ीं ै । उपजीवी ोना घोर लज्जा की बात ै । कमद करना प्राणीमात्र
का िमद ै । समाज की ऐसी व्यवस्था , श्जसमें कुछ लोग मौज करें और अधिक
लोग पीसें और खपें , कभी सुखद न ीं ो सकती। पूँज
ू ी और सशक्षा, श्जसे मैं पूँज
ू ी
ी का एक रूप समझता ू ूँ, इनका कक़ला श्जतनी जल्द टूट जाय, उतना ी
अच्छा ै । श्जन् ें पेट की रोटी मयस्सर न ीं, उनके अफ़सर और नयोजक दस-
दस पाूँच-पाूँच ज़ार िटकारें , य ास्यास्पद ै और लज्जास्पद भी। इस
व्यवस्था ने म ज़मींदारों में ककतनी ववलाससता, ककतना दरु ाचार, ककतनी
परािीनता और ककतनी नलदज्जता भर दी ै, य
मैं ख़ूब जानता ू ूँ ; लेककन मैं
इन कारणों से इस व्यवस्था का ववरोि न ीं करता। मेरा तो य क ना ै कक
अपने स्वाथद की दृश्ष्ट से भी इसका अनुमोदन न ीं ककया जा सकता। इस शान
को नभाने के सलए में अपनी आत्मा की इतनी त्या करनी पड़ती ै कक ममें
आत्मासभमान का नाम भी न ीं र ा। म अपने असासमयों को लूटने के सलए
मज़बूर ैं। अगर अफ़सरों को क़ीमती-क़ीमती डासलयाूँ न दें , तो बागी समझे
जायूँ, शान से न र ें , तो कंजस
ू क लायें। प्रग त की ज़रा-सी आ ट पाते ी म
काूँप उठते ैं, और अफ़सरों के पास फ़ररयाद लेकर दौड़ते ैं कक मारी रक्षा
कीश्जए। में अपने ऊपर ववकवास न ीं र ा, न पुरुषाथद ी र गया। बस, मारी
दशा उन बच्चों की-सी ै , श्जन् ें चम्मच से दि
ू वपलाकर पाला जाता ै , बा र से
मोटे , अन्दर से दब
ु ल
द , सत्व ीन और मु ताज।
मे ता ने ताली बजाकर क ा -- ह यर, ह यर! आपकी ज़बान में श्जतनी बद्
ु धि ै,
काश उसकी आिी भी मश्स्तष्क में ोती! खेद य ी ै कक सब कुछ समझते ु ए
भी आप अपने ववचारों को व्यव ार में न ीं लाते।
ओंकारनाथ बोले -- अकेला चना भाड़ न ीं िोड़ सकता , समस्टर मे ता! में समय
के साथ चलना भी ै और उसे अपने साथ चलाना भी। बुरे कामों में ी स योग
की ज़रूरत न ीं ोती। अच्छे कामों के सलए भी स योग उतना ी ज़रूरी ै।
आप ी क्यों आठ सौ रुपए म ीने ड़पते ैं , जब आपके करोड़ों भाई केवल आठ
रुपए में अपना नवाद कर र े ैं ?
'मैं इस ससिान्त का समथदक ू ूँ कक संसार में छोटे -बड़े मेशा र ें गे, और उन् ें
मेशा र ना चाह ए। इसे समटाने की चेष्टा करना मानव-जा त के सवदनाश का
कारण ोगा।'
कुकती का जोड़ बदल गया। राय सा ब ककनारे खड़े ो गये। सम्पादक जी मैदान
में उतरे -- आप इस बीसवीं शताब्दी में भी ऊूँच-नीच का भेद मानते ैं।
'जी ाूँ, मानता ू ूँ और बड़े ज़ोरों से मानता ू ूँ। श्जस मत के आप समथदक ैं, व
भी तो कोई नयी चीज़ न ीं। जब से मनष्ु य में ममत्व का ववकास ु आ, तभी
उस मत का जन्म ु आ। बुद्ि और प्लेटो और ईसा सभी समाज में समता के
प्रवतदक थे। यूनानी और रोमन और सीररयाई, सभी सभ्यताओं ने उसकी परीक्षा
की पर अप्राकृ तक ोने के कारण कभी व स्थायी न बन सकी।'
'आपकी बातें सुनकर मुझे आकचयद ो र ा ै ।'
'आकचयद अज्ञान का दस
ू रा नाम ै ।'
'मैं आपका कृतज्ञ ू ूँ! अगर आप इस ववषय पर कोई लेखमाला शुरू कर दें ।'
'आपने ससद्िांत ी ऐसा सलया ै कक खुले ख़ज़ाने पश्ब्लक को लूट सकते ैं।'
दस
ू री मोटर आ प ु ूँची और समस्टर खन्ना उतरे , जो एक बैंक के मैनेजर और
शक्करसमल के मैनेश्जंग डाइरे क्टर ैं। दो दे ववयाूँ भी उनके साथ थीं। राय सा ब
ने दोनों दे ववयों को उतारा। व जो खद्दर की साड़ी प ने ब ु त गंभीर और
ववचारशील-सी ैं, समस्टर खन्ना की पत्नी, कासमनी खन्ना ैं।
समस्टर खन्ना ने पूछा -- कफ़लासफ़रों की सूरत में क्या ख़ास बात ोती ै
दे वीजी?
'तो सु नए, कफ़लासफ़र मेशा मुदाद-हदल ोते ैं, जब दे णखए, अपने ववचारों में
मगन बैठे ैं। आपकी तरफ़ ताकेंगे, मगर आपको दे खेंगे न ीं; आप उनसे बातें
ककये जायूँ, कुछ सुनेंगे न ीं। जैसे शून्य में उड़ र े ों।'
'मैंने प्र तज्ञा की ै ककसी कफ़लासफ़र से शादी करूूँगी और य वगद शादी के नाम
से घबराता ै। सबेंड सा ब तो स्त्री को दे खकर घर में छप जाते थे। उनके
सशष्यों में कई लड़ककयाूँ थीं। अगर उनमें से कोई कभी कुछ पछ
ू ने के सलए उनके
आकफ़स में चली जाती थी तो आप ऐसे घबड़ा जाते जैसे कोई शेर आ गया ो।
म लोग उन् ें ख़ूब छे ड़ा करते थे, मगर थे बेचारे सरल-हृदय। कई ज़ार की
आमदनी थी, पर मैंने उन् ें मेशा एक ी सूट प ने दे खा। उनकी एक वविवा
ब न थी। व ी उनके घर का सारा प्रबंि करती थीं। समस्टर सबेंड को तो खाने
की कफ़क्र ी न र ती थी। समलने-वालों के डर से अपने कमरे का द्वार बंद
करके सलखा-पढ़ी करते थे। भोजन का समय आ जाता, तो उनकी ब न आह स्ता
से भीतर के द्वार से उनके पास जाकर ककताब बंद कर दे ती थीं , तब उन् ें
मालूम ोता कक खाने का समय ो गया। रात को भी भोजन का समय बूँिा
ु आ था। उनकी ब न कमरे की बत्ती बुझा हदया करती थीं। एक हदन ब न ने
ककताब बंद करना चा ा, तो आपने पस्
ु तक को दोनों ाथों से दबा सलया और
ब न-भाई में ज़ोर-आज़माई ोने लगी। आणख़र ब न उनकी पह येदार कुसी को
खींच कर भोजन के कमरे में लायी।'
'तो आप कफ़लासफ़र न ोंगे। जब अपनी धचंताओं से मारे ससर में ददद ोने
लगता ै , तो ववकव की धचंता ससर पर लादकर कोई कैसे प्रसन्न र सकता ै! '
'संरक्षकों में रा नयों-म ारा नयों को रणखए, श्जनकी थोड़ी-सी ख़ुशामद करके आप
अपने पत्र को लाभ की चीज़ बना सकते ैं।'
'मेरी रानी-म ारानी आप ैं। मैं तो आपके सामने ककसी रानी-म ारानी की
क़ीक़त न ीं समझता। श्जसमें दया और वववेक ै , व ी मेरी रानी ै । ख़ुशामद
से मुझे घण
ृ ा ै ।'
कासमनी ने चट
ु की ली -- लेककन मेरी ख़श
ु ामद तो आप कर र े ैं संपादकजी!
संपादकजी की व सारी अकड़ ग़ायब ो गयी। नम्रता और ववनय की मश्ू त्तद बने
ु ए आकर खड़े ो गये।
दृढ़ता भरे स्वर में बोले -- इस कृपा के सलए आपका कृतज्ञ ू ूँ। उस बज़्म में
अपना श्ज़क्र तो आता ै , चा े ककसी तर आये। आप सेक्रेटरी म ोदय से क
दीश्जयेगा कक ओंकारनाथ उन आदसमयों में न ीं ै जो इन िमककयों से डर
जाय। उसकी क़लम उसी वक़्त ववश्राम लेगी, जब उसकी जीवन-यात्रा समाप्त ो
जायगी। उसने अनी त और स्वेच्छाचार को जड़ से खोदकर िेंक दे ने का श्ज़म्मा
सलया ै।
'आपकी इच्छा।'
'िन की आपको परवा न ीं ै ?'
'तो आपके पत्र में ववदे शी वस्तुओं के ववज्ञापन क्यों ोते ैं? मैंने ककसी भी दस
ू रे
पत्र में इतने ववदे शी ववज्ञापन न ीं दे खे। आप बनते तो ैं आदशदवादी और
ससद्िांतवादी, पर अपने फ़ायदे के सलए दे श का िन ववदे श भेजते ु ए आपको
ज़रा भी खेद न ीं ोता? आप ककसी तकद से इस नी त का समथदन न ीं कर
सकते।'
'पत्र न ीं चलता, तो बंद कीश्जए। अपना पत्र चलाने के सलए आपको ववदे शी
वस्तुओं के प्रचार का कोई अधिकार न ीं। अगर आप मज़बूर ैं, तो ससद्िांत का
ढोंग छोडड़ए। मैं तो ससद्िांतवादी पत्रों को दे खकर जल उठती ू ूँ। जी चा ता ै ,
हदयासलाई हदखा दूँ ।ू जो व्यश्क्त कमद और वचन में सामंजस्य न ीं रख सकता ,
व और चा े जो कुछ ो ससद्िांतवादी न ीं ै।'
मे ता णखल उठे । थोड़ी दे र प ले उन् ोंने ख़ुद इसी ववचार का प्र तपादन ककया
था। उन् ें मालम
ू ु आ कक इस रमणी में ववचार की शश्क्त भी ै , केवल ततली
न ीं। संकोच जाता र ा।
'य ी बात अभी मैं क र ा था। ववचार और व्यव ार में सामंजस्य का न ोना
ी ित
ू दता ै , मक्कारी ै ।'
मालती ने उनकी लगाम खींची -- अच्छा, आपको भी कफ़लासफ़ी में दख़ल ै । मैं
तो समझती थी, आप ब ु त प ले अपनी कफ़लासफ़ी को गंगा में डुबो बैठे। न ीं,
आप इतने बैंकों और कंप नयों के डाइरे क्टर न ोते।
'जब आपका जीवन साथदक करने के सलए स्त्री इतनी आवकयक ै , तो आप शादी
क्यों न ीं कर लेते?'
खन्ना ने इसका समथदन ककया -- बंिन और नग्र पुरानी थ्योररयाूँ ैं। नयी
थ्योरी ै मुक्त भोग।
'अपनी आत्मा का संपूणद ववकास सभी चा ते ैं; किर वववा कौन करे और क्यों
करे ?'
भोजन शुरू ो गया तो समस मालती ने पूछा -- संपादकजी क ाूँ र गये ? ककसी
को भेजो राय सा ब, उन् ें पकड़ लाये।
राय सा ब ने क ा -- व वैष्णव ैं, उन् ें य ाूँ बुलाकर क्यों बेचारे का िमद नष्ट
करोगी। बड़ा ी आचार नष्ठ आदमी ै।
'अच्छा मंज़ूर।'
खन्ना णखससयाकर बोले -- अजी, उनके पास एक पैसा भी न ोगा। कौन जानता
था कक य ाूँ आप तलाशी लेना शुरू करें गे?
मे ता शराब पीकर मस्त ो जाते थे। उस मस्ती में उनका दशदन उड़ जाता था
और ववनोद सजीव ो जाता था। लपककर समसेज़ खन्ना के पास गये और पाूँच
समनट ी में मूँु लटकाये लौट आये।
खुशेद ने घाव पर नमक छड़का -- अरे तो ऐसी कौन-सी बड़ी रक़म ै श्जसके
सलए आपका हदल बैठा जाता ै । ख़ुदा झूठ न बुलवाये तो य आपकी एक हदन
की आमदनी ै । समझ लीश्जएगा, एक हदन बीमार पड़ गये और जायगा भी तो
समस मालती ी के ाथ में । आपके ददद -ए-श्जगर की दवा समस मालती ी के
पास तो ै।
समरज़ा ने दम
ु ह लायी -- कान पकड़ता ू ूँ दे वीजी।
मालती ने श्रिा भरे स्वर में क ा -- आप तकल्लुफ़ समझते ोंगे, मैं समझती ू ूँ,
मैं अपना सम्मान बढ़ा र ी ू ूँ; यों आप अपने को कुछ समझें और आपको शोभा
भी न ीं दे ता ै लेककन य ाूँ श्जतने सज्जन जमा ैं , सभी आपकी राष्र और
साह त्य-सेवा से भली-भाूँ त पररधचत ैं। आपने इस क्षेत्र में जो म त्वपूणद काम
ककया ै , अभी चा े लोग उसका मूल्य न समझें; लेककन व समय ब ु त दरू न ीं
ै -- मैं तो क ती ू ूँ व समय आ गया ै -- जब र-एक नगर में आपके नाम
की सड़कें बनेंगी, क्लब बनेंगे, टाउन ालों में आपके धचत्र लटकाये जायेंगे। इस
वक़्त जो थोड़ी ब ु त जाग ृ त ै , व आप ी के म ान ण उद्योग का प्रसाद ै ।
आपको य जानकर आनंद ोगा कक दे श में अब आपके ऐसे अनुयायी पैदा ो
गये ैं जो आपके दे ात-सुिार आंदोलन में आपका ाथ बूँटाने को उत्सुक ैं ,
और उन सज्जनों की बड़ी इच्छा ै कक य काम संगहठत रूप से ककया जाय
और एक दे ात-सि
ु ार संघ स्थावपत ककया जाय, श्जसके आप सभाप त ों।
ओंकारनाथ के जीवन में य प ला अवसर था कक उन् ें चोटी के आदसमयों में
इतना सम्मान समले। यों व कभी-कभी आम जलसों में बोलते थे और कई
सभाओं के मंत्री और उपमंत्री भी थे; लेककन सशक्षक्षत-समाज में अब तक उनकी
उपेक्षा ी की थी। उन लोगों में व ककसी तर समल न पाते थे , इसीसलए आम
जलसों में उनकी नश्ष्क्रयता और स्वाथाांिता की सशकायत ककया करते थे , और
अपने पत्र में एक-एक को रगेदते थे। क़लम तेज़ थी, वाणी कठोर, साफ़गोई की
जग उच्छृंखलता कर बैठते थे, इससलए लोग उन् ें ख़ाली ढोल समझते थे। उसी
समाज में आज उनका इतना सम्मान! क ाूँ ैं आज 'स्वराज' और 'स्वािीन
भारत' और ' ं टर' के संपादक, आकर दे खें और अपना कलेजा ठं ठा करें । आज
अवकय ी दे वताओं की उन पर कृपादृश्ष्ट ै । सदद्
ु योग कभी नष्िल न ीं जाता,
य ऋवषयों का वाक्य ै। व स्वयम ण अपनी नज़रों में उठ गये।
कृतज्ञता से पुलककत ोकर बोले -- दे वीजी, आप तो मुझे काूँटों में घसीट र ी ैं।
मैंने तो जनता की जो कुछ भी सेवा की, अपना कतदव्य समझकर की। मैं इस
सम्मान को अपना न ीं, उस उद्देकय का सम्मान समझ र ा ू ूँ , श्जसके सलए मैंने
अपना जीवन अवपतद कर हदया ै , लेककन मेरा नम्र- नवेदन ै कक प्रिान का पद
ककसी प्रभावशाली परु
ु ष को हदया जाय, मैं पदों में ववकवास न ीं रखता। मैं तो
सेवक ू ूँ और सेवा करना चा ता ू ूँ।
समरज़ा खश
ु ेद बोले -- ज़रूर-ज़रूर!
'मैं गवद न ीं करता। अभी गवद करने का समय न ीं आया ; लेककन मझ ु े इसका
दावा ै कक ग्राम्य-संगठन के सलए 'बबजली' ने श्जतना उद्योग ककया ै ...'
ाल में ऐसा शोर गुल मचा कक कुछ न पूछो, जैसे वपटारे में बंद ग ग े नकल
पड़े ों। वा दे वीजी! क्या क ना ै ! कमाल ै समस मालती , कमाल ै । तोड़
हदया, नमक का क़ानून तोड़ हदया, िमद का कक़ला तोड़ हदया, नेम का घड़ा िोड़
हदया! ओंकारनाथ के कंठ के नीचे शराब का प ु ूँचना था कक उनकी रससकता
वाचाल ो गयी।
मुस्कराकर बोले -- मैंने अपने िमद की थाती समस मालती के कोमल ाथों में
सौंप दी और मुझे ववकवास ै, व उसकी यथोधचत रक्षा करें गी। उनके चरण-
कमलों के इस प्रसाद पर मैं ऐसे एक ज़ार िमो को न्योछावर कर सकता ू ूँ।
क़ क़ ों से ाल गूँज
ू उठा। संपादकजी का चे रा िूल उठा था, आूँखें झुकी पड़ती
थीं।
दस
ू रा ग्लास भरकर बोले -- य समस मालती की से त का जाम ै । आप लोग
वपएूँ और उन् ें आशीवादद दें । लोगों ने किर अपने-अपने ग्लास ख़ाली कर हदये।
उसी वक़्त समरज़ा खुशेद ने एक माला लाकर संपादकजी के गले में डाल दी और
।
मेज़ पर ाथ पटककर बोले -- न ीं, कदावप न ीं। य ाूँ कोई क़सीदा नई ओगा,
नई ओगा। म सभाप त ैं।
मारा ु क्म ै । म अबी इस सबा को तोड़ सकते
ैं। अबी तोड़ सकते ैं। सभी को नकाल सकते ैं। कोई मारा कुछ न ीं कर
सकता। म सभाप त ैं। कोई दस
ू रा सभाप त नई ै।
समरज़ा खश
ु ेद ने दौड़कर उन् ें सूँभाला और कुससदयाूँ टाकर व ीं ज़मीन पर सलटा
हदया।
राय सा ब ने सामने आकर क्रोि-भरे स्वर में क ा --'कैसी लूट! कैसा डाका? य
तुम लोगों का काम ै । य ाूँ कोई ककसी को न ीं लूटता। साफ़-साफ़ क ो, क्या
मामला ै?
सरदार ने ज़ोर से डाूँटा -- काूँ जाता तुम? कोई कई नयीं जा सकता। नयीं अम
सबको क़तल कर दे गा। अबी िैर कर दे गा। अमारा तुम कुछ नयीं कर सकता।
अम तुम् ारा पुसलस से नयीं डरता। पुसलस का आदमी अमारा सकल दे खकर
भागता ै । अमारा अपना काूँसल ै , अम उसको खत सलखकर लाट सा ब के
पास जा सकता ै । अम याूँ से ककसी को नयीं जाने दे गा। तुम अमारा एक
ज़ार रुपया लट
ू सलया। अमारा रुपया नयीं दे गा, तो अम ककसी को श्ज़न्दा न ीं
छोड़ेगा। तुम सब आदमी दस
ू रों के माल को लूट करता ै और याूँ माशूक़ के
साथ शराब पीता ै।
मजसलस पर आतंक छा गया। समस मालती अपना च कना भूल गयीं। खन्ना
की वपंडसलयाूँ काूँप र ी थीं। बेचारे चोट-चपेट के भय से एक मंश्ज़ले बूँगले में
र ते थे। ज़ीने पर चढ़ना उनके सलए सूली पर चढ़ने से कम न था। गरमी में
भी डर के मारे कमरे में सोते थे। राय सा ब को ठकुराई का असभमान था। व
अपने ी गाूँव में एक पठान से डर जाना ास्यास्पद समझते थे , लेककन उसकी
बंदक़
ू को क्या करते। उन् ोंने ज़रा भी चीं-चपड़ ककया और इसने बंदक़
ू चलायी।
ू श तो ोते ी ैं ये सब, और नशाना भी इन सबों का ककतना अचक ू ोता ै ;
अगर उसके ाथ में बंदक़ ू न ोती, तो राय सा ब उससे सींग समलाने को भी
तैयार ो जाते। मुश्ककल य ी थी कक दष्ु ट ककसी को बा र न ीं जाने दे ता। न ीं ,
दम-के-दम में सारा गाूँव जमा ो जाता और इसके पूरे जत्थे को पीट-पाटकर
रख दे ता।
आणख़र उन् ोंने हदल मज़बूत ककया और जान पर खेलकर बोले -- मने आपसे
क हदया कक म चोर-डाकू न ीं ैं। मैं य ाूँ की कौंससल का में बर ू ूँ और य
दे वीजी लखनऊ की सुप्रससि डाक्टर ैं। य ाूँ सभी शरीफ़ और इज़्ज़तदार लोग
जमा ैं। में बबलकुल ख़बर न ीं, आपके आदसमयों को ककसने लट
ू ा? आप जाकर
थाने में रपट कीश्जए।
मगर दे वीजी मर जाने को श्जतना आसान समझती थीं और लोग न समझते थे।
कोई आदमी बा र नकलने की किर ह म्मत करे और पठान ग़स्
ु से में आकर
दस-पाूँच िैर कर दे , तो य ाूँ सफ़ाया ो जायगा। ब ु त ोगा, पुसलस उसे िाूँसी
की सज़ा दे दे गी। व भी क्या ठीक। एक बड़े क़बीले का सरदार ै । उसे िाूँसी
दे ते ु ए सरकार भी सोच-ववचार करे गी। ऊपर से दबाव पड़ेगा। राजनी त के
सामने न्याय को कौन पछ ू ता ै । मारे ऊपर उलटे मक़ ु दमे दायर ो जायूँ और
दं डकारी पुसलस बबठा दी जाय, तो आकचयद न ीं; ककतने मज़े से ूँसी-मज़ाक़ ो
र ा था। अब तक ड्रामा का आनन्द उठाते ोते। इस शैतान ने आकर एक नयी
ववपश्त्त खड़ी कर दी, और ऐसा जान पड़ता ै , बबना दो-एक ख़ून ककये मानेगा
भी न ीं।
'तुम अमारे साथ चलेगा हदलदार! अम तुम् ारे ऊपर कफ़दा ो जायगा। अपना
जान तम्
ु ारे क़दमों पर रख दे गा। इतना आदमी तम्
ु ारा आसशक़ ै ; मगर कोई
सच्चा आसशक़ न ीं। सच्चा इकक़ क्या ै , अम हदखा दे गा। तम्
ु ारा इशारा पाते
ी अम अपने सीने में खंजर चुबा सकता ै ।'
तंखा ने राय सा ब को डाूँट बतायी -- शेर की माूँद में घुसना कोई ब ादरु ी न ीं
ै । मैं इसे मख
ू त
द ा समझता ू ूँ।
खान ने ाथ बढ़ाकर क ा -- तो अम तम
ु को लट
ू ले जायगा।
'अम अपने माशूक़ के सलए अपने श्जस्म का एक-एक बोटी नुचवा सकता ै ।'
उसने मालती का ाथ पकड़कर खींचा। उसी वक़्त ोरी ने कमरे में क़दम रखा।
व राजा जनक का माली बना ु आ था और उसके असभनय ने दे ा तयों को
ूँसाते- ूँसाते लोटा हदया था। उसने सोचा मासलक अभी तक क्यों न ीं आये। व
भी तो आकर दे खें कक दे ाती इस काम में ककतने कुशल ोते ैं। उनके यार-
दोस्त भी दे खें। कैसे मासलक को बुलाये? व अवसर खोज र ा था, और ज्यों ी
मु लत समली, दौड़ा ु आ य ाूँ आया; मगर य ाूँ का दृकय दे खकर भौचक्का-सा
खड़ा र गया। सब लोग चप्ु पी सािे, थर-थर काूँपते, कातर नेत्रों से खान को दे ख
र े थे और ख़ान मालती को अपनी तरफ़ खींच र ा था। उसकी स ज बुवि ने
पररश्स्थ त का अनुमान कर सलया।
ोरी गूँवार था। लाल पगड़ी दे खकर उसके प्राण नकल जाते थे; लेककन मस्त
साूँड़ पर लाठी लेकर वपल पड़ता था। व कायर न था , मारना और मरना दोनों
ी जानता था; मगर पसु लस के थकंडों के सामने उसकी एक न चलती थी। बूँिे-
बूँिे कौन किरे , ररकवत के रुपए क ाूँ से लाये , बाल-बच्चों को ककस पर छोड़े; मगर
जब मासलक ललकारते ैं, तो किर ककसका डर। तब तो व मौत के मूँु में भी
कूद सकता ै । उसने झपटकर ख़ान की कमर पकड़ी और ऐसा अड़ंगा मारा कक
ख़ान चारों खाने धचत्त ज़मीन पर आ र े और लगे पकतों में गासलयाूँ दे ने। ोरी
उनकी छाती पर चढ़ बैठा और ज़ोर से दाढ़ी पकड़कर खींची। दाढ़ी उसके ाथ में
आ गयी। ख़ान ने तुरन्त अपनी कुला उतार िेंकी और ज़ोर मारकर खड़ा ो
गया।
***
7
मे ता दौड़कर उनके गले सलपट गये और मुग्ि ोकर बोले -- आपकी दृश्ष्ट
इतनी पैनी ै , इसका मझ
ु े अनुमान न था।
दस
ू रे हदन जलपान के बाद सशकार का प्रोग्राम था। व ीं ककसी नदी के तट पर
बाग़ में भोजन बने, ख़ूब जल-क्रीड़ा की जाय और शाम को लोग घर आयूँ।
दे ाती जीवन का आनंद उठाया जाय। श्जन मे मानों को ववशेष काम था , व तो
बबदा ो गये, केवल वे ी लोग बच र े श्जनकी राय सा ब से घ नष्टता थी।
समसेज़ खन्ना के ससर में ददद था, न जा सकीं, और संपादकजी इस मंडली से जले
ु ए थे और इनके ववरुद्ि एक लेख-माला नकालकर इनकी ख़बर लेने के ववचार
में मग्न थे। सब-के-सब छटे ु ए गुंडे ैं। राम के पैसे उड़ाते ैं और मूछों पर
ताव दे ते ैं। द ु नया में क्या ो र ा ै , इन् ें क्या ख़बर। इनके पड़ोस में कौन
मर र ा ै , इन् ें क्या परवा। इन् ें तो अपने भोग-ववलास से काम ै। य मे ता ,
जो कफ़लासफ़र बना किरता ै , उसे य ी िुन ै कक जीवन को संपूणद बनाओ।
म ीने में एक ज़ार मार लेते ो, तम्
ु ें अश्ख़्तयार ै , जीवन को संपण
ू द बनाओ या
पररपूणद बनाओ। श्जसको य कफ़क्र दबाये डालती ै कक लड़कों का ब्या कैसे ो,
या बीमार स्त्री के सलए वैद्य कैसे आएूँ या अब की घर का ककराया ककसके घर
से आएगा, व अपना जीवन कैसे संपूणद बनाये! छूटे साूँड़ बने दस
ू रों के खेत में
मूँु मारते किरते ो और समझते ो संसार में सब सुखी ैं। तुम् ारी आूँखें तब
खल
ु ें गी, जब क्रां त ोगी और तम
ु से क ा जायगा -- बचा, खेत में चलकर ल
जोतो। तब दे खें, तुम् ारा जीवन कैसे संपूणद ोता ै । और व जो ै मालती, जो
ब त्तर घाटों का पानी पीकर भी समस बनी किरती ै ! शादी न ीं करे गी, इससे
जीवन बंिन में पड़ जाता ै , और बंिन में जीवन का पूरा ववकास न ीं ोता।
बस जीवन का पूरा ववकास इसी में ै कक द ु नया को लूटे जाओ और नदणदवंद्व
ववलास ककये जाओ! सारे बंिन तोड़ दो, िमद और समाज को गोली मारो, जीवन
के कतदव्यों को पास न िटकने दो, बस तुम् ारा जीवन संपूणद ो गया। इससे
ज़्यादा आसान और क्या ोगा। माूँ-बाप से न ीं पटती, उन् ें िता बताओ; शादी
मत करो, य बंिन ै ; बच्चे ोंगे, य मो पाश ै ; मगर टै क्स क्यों दे ते ो?
क़ानून भी तो बंिन ै , उसे क्यों न ीं तोड़ते? उससे क्यों कन्नी काटते ो। जानते
ो न कक क़ानन
ू की ज़रा भी अवज्ञा की और बेडड़याूँ पड़ जायूँगी। बस व ी बंिन
तोड़ो, श्जसमें अपनी भोग-सलप्सा में बािा न ीं पड़ती। रस्सी को साूँप बनाकर
पीटो और तीस मारखाूँ बनो। जीते साूँप के पास जाओ ी क्यों व िूकार भी
मारे गा तो, ल रें आने लगें गी। उसे आते दे खो, तो दम
ु दबाकर भागो। य तुम् ारा
सम्पूणद जीवन ै!
समरज़ा खुशेद को जीवन के नये अनुभव प्राप्त करने का शौक़ था, ववशेषकर ऐसे,
श्जनमें कुछ सा स हदखाना पड़े।
मालती ने धगला ककया -- क्षमा कीश्जए। आपने रात मेरी क़लाई इतने ज़ोर से
पकड़ी कक अभी तक ददद ो र ा ै।
समरज़ा खुशेद बोले -- अजी आप लोग तमाशा दे खते रह एगा, मैं सारा इंतज़ाम
कर दूँ ग
ू ा। बात ी कौन-सी ै । जंगल में ाूँडी और बतदन ढूूँढ़ना ह माक़त ै।
ह रन का सशकार कीश्जए, भू नए, खाइए, और व ीं दरख़्त के साये में खरादटे
लीश्जए। य ी प्रस्ताव स्वीक त ु आ।
'तब तो तुम मुझे मार ी डालोगे। अच्छा बताओ; रात तुमने मुझे इतना क्यों
सताया? मुझे तुम् ारे ऊपर बड़ा क्रोि आ र ा था। याद ै , तुमने मुझे क्या क ा
था? तम
ु मारे साथ चलेगा हदलदार? मैं न जानती थी, तम
ु इतने शरीर ो।
अच्छा, सच क ना, तम
ु उस वक़्त मझ
ु े अपने साथ ले जाते?'
मे ता ने कोई जवाब न हदया , मानो सुना ी न ीं। दोनों कुछ दरू चलते र े । एक
तो जेठ की िूप, दस
ू रे पथरीला रास्ता। मालती थककर बैठ गयी।
'मझ
ु े अकेले छोड़कर चले जाओगे?'
एक चौड़ा नाला मूँु िैलाये बीच में खड़ा था। बीच की चट्टानें उसके दाूँतों से
लगती थीं। िार में इतना वेग था कक ल रें उछली पड़ती थीं। सय
ू द मध्याह्न पर
आ प ु ूँचा था और उसकी प्यासी ककरणें जल में क्रीड़ा कर र ी थीं।
मे ता ने पानी में क़दम रखा और पाूँव सािते ु ए चले। ज्यों-ज्यों आगे जाते थे,
पानी ग रा ोता जाता था। य ाूँ तक कक छाती तक आ गया। मालती अिीर ो
उठी। शंका से मन चंचल ो उठा। ऐसी ववकलता तो उसे कभी न ोती थी।
मालती साड़ी ऊपर चढ़ाकर नाले में पैठी। मगर दस ाथ आते-आते पानी उसकी
कमर तक आ गया। मे ता घबड़ाये। दोनों ाथ से उसे लौट जाने को क ते ु ए
बोले -- तुम य ाूँ मत आओ मालती! य ाूँ तुम् ारी गदद न तक पानी ै ।
मालती ने नशीली आूँखों में रोष भरकर क ा -- मैंने तुम् ारे -जैसे बेददद आदमी
कभी न दे खा था। बबल्कुल पत्थर ो। ख़ैर, आज सता लो, श्जतना सताते बने; मैं
भी कभी समझूँूगी।
मालती ने भक
ृ ु टी टे ढ़ी करके क ा -- तो उस पार जाना क्या इतना ज़रूरी ै?
दो पग के बाद उसने करुण स्वर में क ा -- अच्छा बताओ, मैं य ीं पानी में डूब
जाऊूँ, तो तुम् ें रं ज ो या न ो? मैं तो समझती ू ूँ, तुम् ें बबलकुल रं ज न ोगा।
मे ता ने आ त स्वर से क ा -- तम
ु समझती ो, मैं आदमी न ीं ू ूँ ?
'सच क ती ो मालती?'
उस संकट में मालती को ईकवर याद आया, श्जसका व मज़ाक़ उड़ाया करती थी।
जानती थी, ईकवर क ीं बैठा न ीं ै जो आकर उन् ें उबार लेगा ; लेककन मन को
श्जस अवलंबन और शश्क्त की ज़रूरत थी, व और क ाूँ समल सकती थी। पानी
कम ोने लगा था।
मालती ने प्रसन्न ोकर क ा -- अब तम
ु मझ
ु े उतार दो।
'न ीं-न ीं, चुपचाप बैठी र ो। क ीं आगे कोई गढ़ा समल जाय।'
'य ी कक जब तुम् ें जीवन में ऐसा ी कोई अवसर आय तो मुझे बुला लेना।'
उसने इस अनभ
ु व का आनंद उठाते ु ए क ा -- य हदन याद र े गा।
'तम
ु ने समझाया कब। उलटे और जंगलों में घसीटते किरते ो; और अभी किर
लौटती बार य ी नाला पार करना पड़ेगा। तुमने कैसी आफ़त में जान डाल दी।
मुझे तुम् ारे साथ र ना पड़े, तो एक हदन न पटे ।'
मे ता मस्
ु कराये। इन शब्दों का संकेत ख़ब
ू समझ र े थे।
'तुम मुझे इतना दष्ु ट समझती ो! और जो मैं क ू ूँ कक तुमसे प्रेम करता ू ूँ।
मुझसे वववा करोगी?'
'ऐसे काठ-कठोर से कौन वववा करे गा! रात-हदन जलाकर मार डालोगे।'
मालती काूँप उठी। इन शब्दों में ककतना सत्य था। उसने पूछा -- बताओ, तुम
कैसे प्रेम से संतुष्ट ोगे?
'अब?'
मे ता ने उसे िन्यवाद दे ते ु ए क ा -- तम
ु बड़े मौक़े से प ु ूँच गयीं, न ीं मझ
ु े
न जाने ककतनी दरू तैरना पड़ता।
' ाूँ, आये तो थे सशकार ी खेलने; मगर दोप र ो गया और य ी धचडड़या समली
ै।
'तें दआ
ु मारना चा ो, तो मैं उसका ठौर हदखा दूँ ।ू रात को य ाूँ रोज़ पानी पीने
आता ै । कभी-कभी दोप र में भी आ जाता ै ।'
' मारे दादा बाज़ार में बेचते ैं। य ी तो मारा काम ै ।'
युवती ने लजाते ु ए क ा -- तुम् ारे खाने लायक़ मारे घर में क्या ै । मक्के
की रोहटयाूँ खाओ, जो िरी ैं। धचडड़ये का सालन पका दूँ ग
ू ी। तम
ु बताते जाना
जैसे बनाना ो। थोड़ा-सा दि
ू भी ै। मारी गैया को एक बार तें दए
ु ने घेरा था।
उसे सींगों से भगाकर भाग आयी, तब से तें दआ
ु उससे डरता ै।
'तो मैं दौड़कर उनको बुला लाती ू ूँ। तुम चलकर छाूँ में बैठो।'
मे ता अपने परु
ु षत्व का य अपमान न स सके। रस्सी उसके ाथ से किर ले
ली और ज़ोर मारकर एक क्षण में दस
ू रा मटका भी खींच सलया और दोनों ाथों
में दोनों मटके सलए आकर झोंपड़ी के द्वार पर खड़े ो गये। युवती ने चटपट
आग जलायी, लालसर के पंख झुलस डाले। छुरे से उसकी बोहटयाूँ बनायीं और
चूल् े में आग जलाकर मांस चढ़ा हदया और चूल् े के दस
ू रे ऐले पर कढ़ाई में दि
ू
उबालने लगी। और मालती भौं ें चढ़ाये , खाट पर णखन्न-मन पड़ी इस तर य
दृकय दे ख र ी थी मानो उसके आपरे शन की तैयारी ो र ी ो।
मे ता झोपड़ी के द्वार पर खड़े ोकर , यव
ु ती के ग ृ -कौशल को अनरु क्त नेत्रों से
दे खते ु ए बोले -- मुझे भी तो कोई काम बताओ, मैं क्या करूूँ?
मालती ने पुकारा -- तुम व ाूँ क्या खड़े ो? मेरे ससर में ज़ोर का ददद ो र ा ै।
आिा ससर ऐसा िटा पड़ता ै , जैसे धगर जायगा।
मे ता ने आकर क ा -- मालम
ू ोता ै , िूप लग गयी ै।
'मैं क्या जानती थी, तुम मुझे मार डालने के सलए य ाूँ ला र े ो।'
युवती ाथों में आटा भरे , ससर के बाल बबखेरे, आूँखें िुएूँ से लाल और सजल,
सारी दे
पसीने में तर, श्जससे उसका उभरा ु आ वक्ष साफ़ झलक र ा था,
आकर खड़ी ो गयी और मालती को आूँखें बन्द ककये पड़ी दे खकर बोली -- बाई
को क्या ो गया ै?
'बाईं ओर।'
'मैं अभी दौड़ के एक दवा लाती ू ूँ। घसकर लगाते ी अच्छा ो जायगा।'
'कुछ बातें तो उसमें ऐसी ैं कक अगर तुम में ोतीं, तो तुम सचमुच दे वी ो
जातीं।'
यव
ु ती ने दीन नेत्रों से मे ता को दे खा। इतनी मे नत से बट
ू ी लायी, उसका य
अनादर। इस गूँवाररन की दवा इन् ें न ीं जूँ ची, तो न स ी, उसका मन रखने को
ी ज़रा-सी लगवा लेतीं, तो क्या ोता।
व झोपड़ी में गयी, बुझी ु ई आग किर जलायी। दे खा तो मांस उबल गया था।
कुछ जल भी गया था। जल्दी-जल्दी रोहटयाूँ सेंकी, दि
ू गमद था, उसे ठं डा ककया
और एक कटोरे में मालती के पास लायी। मालती ने कटोरे के भें पन पर मूँु
बनाया; लेककन दि
ू त्याग न सकी। मे ता झोपड़ी के द्वार पर बैठकर एक थाली
में मांस और रोहटयाूँ खाने लगे। युवती खड़ी पंखा झल र ी थी।
गूँवाररन मनोभावों के प चानने में चतुर थी। बोली -- मैं ककसी की लौंडी न ीं ू ूँ
बाईजी! तुम बड़ी ो, अपने घर की बड़ी ो। मैं तुमसे कुछ माूँगने तो न ीं जाती।
मैं गाड़ी लेने न जाऊूँगी।
मालती ने डाूँटा -- अच्छा, तूने गुस्ताख़ी पर कमर बाूँिी! बता तू ककसके इलाक़े
में र ती ै?
'मझ
ु े वपटवाने से तम्
ु ें सख
ु समले तो वपटवा लेना बाईजी! कोई रानी-म ारानी
थोड़ी ू ूँ कक लस्कर भेजनी पड़ेगी।'
दस
ू री टोली राय सा ब और खन्ना की थी। राय सा ब तो अपने उसी रे शमी
कुरते और रे शमी चादर में थे। मगर खन्ना ने सशकारी सूट डाटा था, जो शायद
आज ी के सलए बनवाया गया था; क्योंकक खन्ना को असासमयों के सशकार से
इतनी फ़ुरसत क ाूँ थी कक जानवरों का सशकार करते। खन्ना हठं गने, इक रे ,
रूपवान आदमी थे; गे ु ूँआ रं ग, बड़ी-बड़ी आूँखें, मूँु पर चेचक के दाग़; बात-चीत में
बड़े कुशल। कुछ दरू चलने के बाद खन्ना ने समस्टर मे ता का श्ज़क्र छे ड़ हदया
जो कल से ी उनके मश्स्तष्क में रा ु की भाूँ त समाये ु ए थे। बोले -- य
मे ता भी कुछ अजीब आदमी ै । मुझे तो कुछ बना ु आ मालूम ोता ै ।
बोले -- मैं तो उन् ें केवल मनोरं जन की वस्तु समझता ू ूँ। कभी उनसे ब स
न ीं करता। और करना भी चा ू ूँ तो उतनी ववद्या क ाूँ से लाऊूँ। श्जसने जीवन
के क्षेत्र में कभी क़दम ी न ीं रखा, व अगर जीवन के ववषय में कोई नया
ससद्िांत अलापता ैं तो मझ
ु े उस पर ूँसी आती ै । मज़े से एक ज़ार मा वार
िटकारते ैं , न जोरू न जाूँता, न कोई धचंता न बािा, व दशदन न बघारें , तो कौन
बघारे ? आप नद्वंद्व र कर जीवन को संपूणद बनाने का स्वप्न दे खते ैं। ऐसे
आदमी से क्या ब स की जाय।
'मैं सचमुच णखलौना समझता ू ूँ। आप उन् ें प्र तमा बनाये ु ए ैं।'
समस्टर खन्ना भी सा सी आदमी थे, संग्राम में आगे बढ़नेवाले। दो बार जेल ो
आये थे। ककसी से दबना न जानते थे। खद्दर न प नते थे और फ़्ांस की शराब
पीते थे। अवसर पड़ने पर बड़ी-बड़ी तकलीफ़ें झेल सकते थे। जेल में शराब छुई
तक न ीं, और ए. क्लास में र कर भी सी. क्लास की रोहटयाूँ खाते र े , ालाूँकक,
उन् ें र तर का आराम समल सकता था; मगर रण-क्षेत्र में जानेवाला रथ भी तो
बबना तेल के न ीं चल सकता। उनके जीवन में थोड़ी-सी रससकता लाश्ज़मा थी।
बोले -- आप संन्यासी बन सकते ैं , मैं तो न ीं बन सकता। मैं तो समझता ू ूँ,
जो भोगी न ीं ैं व संग्राम में भी पूरे उत्सा से न ीं जा सकता। जो रमणी से
प्रेम न ीं कर सकता, उसके दे श-प्रेम में मुझे ववकवास न ीं।
राय सा ब मस्
ु कराये -- आप मझ
ु ी पर आवाज़ें कसने लगे।
'शायद ो।'
राय सा ब ने बन्दक़
ू चलायी; मगर ह रन भाग गया।
'तो किर क्यों न मारे शुगर समल में शासमल ो जाइए। ह स्से िड़ािड़ बबक र े
ैं। आप ज़्यादा न ीं एक ज़ार ह स्से ख़रीद लें ?'
'रुपए श्जतने चा ें , मुझसे लीश्जए। बैंक आपका ै । ाूँ, अभी आपने अपनी
श्ज़न्दगी इंकयोडद न करायी ोगी। मेरी कम्पनी में एक अच्छी-सी पासलसी
लीश्जए। सौ-दो सौ रुपए तो आप बड़ी आसानी से र म ीने दे सकते ैं और
इकट्ठी रक़म समल जायगी -- चालीस-पचास ज़ार। लड़कों के सलए इससे अच्छा
प्रबन्ि आप न ीं कर सकते। मारी नयमावली दे णखए। म पूणद स काररता के
ससद्िांत पर काम करते ैं। दफ़्तर और कमदचाररयों के ख़चद के ससवा नफ़े की
एक पाई भी ककसी की जेब में न ीं जाती। आपको आकचयद ोगा कक इस नी त
से कंपनी चल कैसे र ी ै । और मेरी सला से थोड़ा-सा स्पेकुलेशन का काम भी
शुरू कर दीश्जए। य जो आज सैकड़ों करोड़प त बने ु ए ैं , सब इसी स्पेकुलेशन
से बने ैं। रूई, शक्कर, गे ू ूँ , रबर ककसी श्जंस का सट्टा कीश्जए। समनटों में लाखों
का वारा-न्यारा ोता ै । काम ज़रा अटपटा ै । ब ु त से लोग गच्चा खा जाते ैं ,
लेककन व ी, जो अनाड़ी ैं। आप जैसे अनभ
ु वी, ससु शक्षक्षत और दरू ं देश लोगों के
सलए इससे ज़्यादा नफ़े का काम ी न ीं। बाज़ार का चढ़ाव-उतार कोई
आकश्स्मक घटना न ीं। इसका भी ववज्ञान ै । एक बार उसे ग़ौर से दे ख लीश्जए ,
किर क्या मजाल कक िोखा ो जाय।'
राय सा ब कंप नयों पर अववकवास करते थे, दो-एक बार इसका उन् ें कड़वा
अनुभव ो भी चुका था, लेककन समस्टर खन्ना को उन् ोंने अपनी आूँखों से बढ़ते
दे खा था और उनकी कायददक्षता के क़ायल ो गये थे। अभी दस साल प ले जो
व्यश्क्त बैंक में क्लकद था, व केवल अपने अध्यवसाय, पुरुषाथद और प्र तभा से
श र में पुजता ै । उसकी सला की उपेक्षा न की जा सकती थी। इस ववषय में
अगर खन्ना उनके पथ-प्रदशदक ो जायूँ, तो उन् ें ब ु त कुछ कामयाबी ो सकती
ै । ऐसा अवसर क्यों छोड़ा जाय। तर -तर के प्रकन करते र े ।
स सा एक दे ाती एक बड़ी-सी टोकरी में कुछ जड़ें, कुछ पश्त्तयाूँ, कुछ िल सलये
जाता नज़र आया।
'बेचूँग
ू ा मासलक! जड़ी-बूटी ै ।'
राय सा ब ने पछ
ू ा -- आप य घास-पात लेकर क्या करें गे?
' ाूँ- ाूँ, शौक़ से। मेरी शाधगदी कीश्जए। प ले सवा सेर लड्डू लाकर चढ़ाइए, तब
बताऊूँगा। बात य ै कक मेरा तर -तर के आदसमयों से साबक़ा पड़ता ै । कुछ
ऐसे लोग भी आते ैं, जो जड़ी-बूहटयों पर जान दे ते ैं। उनको इतना मालूम ो
जाय कक य ककसी फ़कीर की दी ु ई बूटी ैं किर आपकी ख़ुशामद करें गे, नाक
रगड़ेंगे, और आप व चीज़ उन् ें दे दें , तो मेशा के सलए आपके ऋणी ो
जायूँगे। एक रुपए में अगर दस-बीस बि
ु ुओं पर ए सान का नमदा कसा जा
सके, तो क्या बरु ा ै । ज़रा से ए सान से बड़े-बड़े काम नकल जाते ैं।
'समझ में तो मेरे भी कुछ न ीं आता, अबकी आइए, तो उनसे बातें ों। व प्रेम
को जीवन का सत्य क ते ैं। और इसकी ऐसी सुंदर व्याख्या करते ैं कक मन
मुग्ि ो जाता ै ।'
'आप भी हदल्लगी करते ैं। मालती को भला इनसे क्या समलता...। '
वाक्य परू ा न ु आ था कक व सामने झाड़ी में सरसरा ट की आवाज़ सन ु कर
चौंक पड़े और प्राण-रक्षा की प्रेरणा से राय सा ब के पीछे आ गये। झाड़ी में से
एक तें दआ
ु नकला और मंद ग त से सामने की ओर चला।
राय सा ब ने बंदक़
ू उठायी और नशाना बाूँिना चा ते थे कक खन्ना ने क ा --
य क्या करते ैं आप? ख़्वा मख़्वा उसे छे ड़ र े ैं। क ीं लौट पड़े तो ?
'तो मुझे उस टीले पर चढ़ जाने दीश्जए। मैं सशकार का ऐसा शौक़ीन न ीं ू ूँ।'
'शामत और क्या।'
राय सा ब ने बंदक़
ू नीचे कर ली।
'एकाि सशकार तो मार लेने दीश्जए। ख़ाली ाथ लौटते शमद आती ै । '
'आप मुझे कृपा करके कार के पास प ु ूँचा दीश्जए, किर चा े तें दए
ु का सशकार
कीश्जए या चीते का।'
'अच्छा तो आप ख़श
ु ी से लौट सकते ैं।'
'अकेला?'
जब दोनों आदमी बड़ी दरू नकल आये , तो खन्ना के ोश हठकाने आये। बोले --
ख़तरे से न ीं डरता; लेककन ख़तरे के मूँु में उूँ गली डालना ह माक़त ै।
'मैं सशकार खेलना उस ज़माने का संस्कार समझता ू ूँ, जब आदमी पशु था। तब
से संस्कृ त ब ु त आगे बढ़ गयी ै ।'
'मैं अह स
ं ावादी ोना लज्जा की बात न ीं समझता।'
'अच्छा, तो य आपका अह स
ं ावाद था। शाबाश!'
तंखा ने पूछा -- क्यों? मुफ़्त की बकबक कौन करे । फ़ायदा ी क्या! मुझे अब
इस डेमाक्रेसी में भश्क्त न ीं र ी। ज़रा-सा काम और म ीनों की ब स। ाूँ,
जनता की आूँखों में िूल झोंकने के सलए अच्छा स्वाूँग ै । इससे तो क ीं अच्छा
ै कक एक गवनदर र े , चा े व ह द
ं स्
ु तानी ो, या अूँग्रेज़, इससे ब स न ीं। एक
इंश्जन श्जस गाड़ी को बड़े मज़े से ज़ारों मील खींच ले जा सकता ैं उसे दस
ज़ार आदमी समलकर भी उतनी तेज़ी से न ीं खींच सकते। मैं तो य सारा
तमाशा दे खकर कौंससल से बेज़ार ो गया ू ूँ। मेरा बस चले, तो कौंससल में आग
लगा दूँ ।ू श्जसे म डेमाक्रेसी क ते ैं, व व्यव ार में बड़े-बड़े व्यापाररयों और
ज़मींदारों का राज्य ैं और कुछ न ीं। चुनाव में व ी बाज़ी ले जाता ैं श्जसके
पास रुपए ैं। रुपए के ज़ोर से उसके सलए सभी सवु विाएूँ तैयार ो जाती ैं।
बड़े-बड़े पंडडत, बड़े-बड़े मौलवी, बड़े-बड़े सलखने और बोलनेवाले, जो अपनी ज़बान
और क़लम से पश्ब्लक को श्जस तरफ़ चा ें िेर दें , सभी सोने के दे वता के पैरों
पर माथा रगड़ते ैं। मैंने तो इरादा कर सलया ैं अब एलेक्शन के पास न
जाऊूँगा! मेरा प्रोपेगंडा अब डेमाक्रेसी के णख़लाफ़ ोगा।'
समरज़ा कुछ बोले न ीं। ह रन की टूँ गी ु ई, दीन वेदना से भरी आूँखें दे ख र े थे।
अभी एक समनट प ले इसमें जीवन था। ज़रा-सा पत्ता भी खड़कता, तो कान
खड़े करके चौकडड़याूँ भरताु आ नकल भागता। अपने समत्रों और बाल-बच्चों के
साथ ईकवर की उगाई ु ई घास खा र ा था; मगर अब नस्पंद पड़ा ै । उसकी
खाल उिेड़ लो, उसकी बोहटयाूँ कर डालो, उसका क़ीमा बना डालो, उसे ख़बर न
ोगी। उसके क्रीड़ामय जीवन में जो आकषदण था , जो आनंद था, व क्या इस
नजीव शव में ै ? ककतनी संद
ु र गठन थी, ककतनी प्यारी आूँखें, ककतनी मनो र
छवव? उसकी छलाूँगें हृदय में आनंद की तरं गें पैदा कर दे ती थीं , उसकी चौकडड़यों
के साथ मारा मन भी चौकडड़याूँ भरने लगता था। उसकी स्िू तद जीवन-सा
बबखेरती चलती थी, जैसे िूल सुगंि बबखेरता ै ; लेककन अब! उसे दे खकर ग्ला न
ोती ै।
लकड़ ारे ने पूछा -- क ाूँ प ु ूँ चाना ोगा मासलक? मुझे भी दो-चार पैसे दे दे ना।
समरज़ाजी जैसे ध्यान से चौक पड़े। बोले -- अच्छा उठा ले। क ाूँ चलेगा ?
'न ीं-न ीं मैं ख़ुशी से क ता ू ूँ, तुम इसे ले जाओ। तुम् ारा घर य ाूँ से ककतनी
दरू ै ?'
'कोई आिा कोस ोगा मासलक!'
'ऐसे तो मैं न ले जाऊूँगा सरकार! आप इतनी दरू से आये, इस कड़ी िूप में
ससकार ककया, मैं कैसे उठा ले जाऊूँ?
समरज़ाजी िमद के इतने पाबंद न थे। दस साल से उन् ोंने नमाज़ न पढ़ी थी। दो
म ीने में एक हदन व्रत रख लेते थे। बबलकुल नरा ार, नजदल; मगर लकड़ ारे
को इस ख़याल से जो संतोष ु आ था कक ह रन अब इन लोगों के सलए अखाद्य
ो गया ैं उसे िीका न करना चा ते थे। लकड़ ारे ने लके मन से ह रन को
गरदन पर रख सलया और घर की ओर चला।
तंखा अभी तक-तटस्थ से व ीं पेड़ के नीचे खड़े थे। िूप में ह रन के पास जाने
का कष्ट क्यों उठाते। कुछ समझ में न आ र ा था कक मआ
ु मला क्या ै ; लेककन
जब लकड़ ारे को उल्टी हदशा में जाते दे खा , तो आकर समरज़ा से बोले -- आप
उिर क ाूँ जा र े ैं ज़रत! क्या रास्ता भूल गये?
'इसीसलए कक उसे पाकर इसे श्जतनी ख़ुशी ोगी, मुझे या आपको न ोगी।'
'जी न ीं।'
'अच्छी बात ैं इसे जाने दीश्जए। ककसी बीमा कंपनी के डाइरे क्टर बनने में तो
आपको कोई एतराज़ न ीं ै ? आपको कंपनी का एक ह स्सा भी न ख़रीदना
पड़ेगा। आप ससफ़द अपना नाम दे दीश्जएगा।'
समरज़ाजी ने बबना रुके ु ए जवाब हदया -- व ग़रीब बोझ सलये इतनी तेज़ी से
चला जा र ा ै । म क्या अपना बदन लेकर भी उसके बराबर न ीं चल सकते ?
लकड़ ारा ूँसा। समरज़ा डील-डौल में उससे क ीं ऊूँचे और मोटे -ताज़े थे, किर भी
व दब
ु ला-पतला आदमी उनकी इस बात पर ूँसा। समरज़ाजी पर जैसे चाबुक पड़
गया।
'तुम ूँसे क्यों? क्या तुम समझते ो, मैं इसे न ीं उठा सकता?'
लकड़ ारे ने मानो क्षमा माूँगी -- सरकार आप लोग बड़े आदमी ैं। बोझ उठाना
तो म-जैसे मजूरों ी का काम ै।
समरज़ाजी का परु
ु षत्व अपना और अपमान न स सका। उन् ोंने बढ़कर ह रन
को गदद न पर उठा सलया और चले ; मगर मुश्ककल से पचास क़दम चले ोंगे कक
गदद न िटने लगी; पाूँव थरथराने लगे और आूँखों में त तसलयाूँ उड़ने लगीं।
कलेजा मज़बूत ककया और एक बीस क़दम और चले। कम्बख़्त क ाूँ र गया?
जैसे इस लाश में सीसा भर हदया गया ो। ज़रा समस्टर तंखा की गदद न पर रख
दूँ ,ू तो मज़ा आये। मशक की तर जो िूले चलते ैं, ज़रा उसका मज़ा भी दे खें;
लेककन बोझा उतारें कैसे? दोनों अपने हदल में क ें गे, बड़ी जवाूँमदी हदखाने चले
थे। पचास क़दम में चीं बोल गये।
लकड़ ारे ने चट
ु की ली -- क ो मासलक, कैसे रं ग-ढं ग ैं। ब ु त लका ै न?
समरज़ाजी को बोझ कुछ लका मालूम ोने लगा। बोले -- उतनी दरू तो ले ी
जाऊूँगा, श्जतनी दरू तुम लाये ो।
'अजी र ने भी दीश्जए।'
'आप अगर इसे सौ क़दम ले चलें , तो मैं वादा करता ू ूँ आप मेरे सामने जो
तजवीज़ रखेंगे, उसे मंज़ूर कर लूँ ग
ू ा।'
तंखा का मन चुलबुला उठा। समरज़ा अपने क़ौल के पक्के ैं, इसमें कोई संदे न
था। ह रन ऐसा क्या ब ु त भारी ोगा। आणख़र समरज़ा इतनी दरू ले ी आये।
ब ु त ज़्यादा थके तो न ीं जान पड़ते; अगर इनकार करते ैं तो सन
ु रा अवसर
ाथ से जाता ै । आणख़र ऐसा क्या कोई प ाड़ ै । ब ु त ोगा, चार-पाूँच पूँसेरी
ोगा। दो-चार हदन गदद न ी तो दख
ु ेगी! जेब में रुपए ों, तो थोड़ी-सी बीमारी
सुख की वस्तु ै।
तंखा ने जूते का फ़ीता किर से बाूँिा, कोट उतारकर लकड़ ारे को हदया, पतलून
ऊपर चढ़ाया, रूमाल से मूँु पोंछा और इस तर ह रन को दे खा, मानो ओखली में
ससर दे ने जा र े ों। किर ह रन को उठाकर गदद न पर रखने की चेष्ठा की। दो-
तीन बार ज़ोर लगाने पर लाश गदद न पर तो आ गयी; पर गदद न न उठ सकी।
कमर झुक गयी, ाूँि उठे और लाश को ज़मीन पर पटकनेवाले थे कक समरज़ा ने
उन् ें स ारा दे कर आगे बढ़ाया। तंखा ने एक डग इस तर उठाया जैसे दलदल
में पाूँव रख र े ों।
'बस, एक बार और ज़ोर मारो दोस्त। सौ क़दम की शतद ग़लत। पचास क़दम की
ी र ी।'
उसकी बड़ी ब न ने, जो चौद -पंद्र साल की थी, मे मानों की ओर दे खकर छोटे
भाई को डाूँटा -- चप
ु , न ीं ससपाई पकड़ ले जायगा।
इन बच्चों की माूँ बकरी के सलए पश्त्तयाूँ तोड़ र ी थी। दो नये भले आदसमयों
को दे खकर उसने ज़रा-सा घघ
ूूँ ट नकाल सलया और शमादई कक उसकी साड़ी
ककतनी मैली, ककतनी िटी, ककतनी उटं गी ै। व इस वेष में मे मानों के सामने
कैसे जाय? और गये बबना काम न ीं चलता। पानी-वानी दे ना ै । अभी दोप र
ोने में कुछ कसर थी; लेककन समरज़ा सा ब ने दोप री इसी गाूँव में काटने का
नकचय ककया। गाूँव के आदसमयों को जमा ककया। शराब मूँगवायी, सशकार पका,
समीप के बाज़ार से घी और मैदा मूँगाया और सारे गाूँव को भोज हदया। छोटे -
बड़े स्त्री-पुरुष सबों ने दावत उड़ायी। मदों ने ख़ूब शराब पी और मस्त ोकर
शाम तक गाते र े । और समरज़ाजी बालकों के साथ बालक, शराबबयों के साथ
शराबी, बूढ़ों के साथ बूढ़े, जवानों के साथ जवान बने ु ए थे। इतनी दे र में सारे
गाूँव से उनका इतना घ नष्ट पररचय ो गया था, मानो य ीं के नवासी ों।
लड़के तो उनपर लदे पड़ते थे। कोई उनकी िूँु दनेदार टोपी ससर पर रखे लेता था,
कोई उनकी राइफ़ल कंिे पर रखकर अकड़ता ु आ चलता था, कोई उनकी क़लाई
की घड़ी खोलकर अपनी क़लाई पर बाूँि लेता था। समरज़ा ने ख़ुद ख़ूब दे शी
शराब पी और झम
ू -झम
ू कर जंगली आदसमयों के साथ गाते र े । जब ये लोग
सूयादस्त के समय य ाूँ से बबदा ु ए तो गाूँव-भर के नर-नारी इन् ें बड़ी दरू तक
प ु ूँचाने आये। कई तो रोते थे। ऐसा सौभाग्य उन ग़रीबों के जीवन में शायद
प ली ी बार आया ो कक ककसी सशकारी ने उनकी दावत की ो। ज़रूर य
कोई राजा ैं न ीं तो इतना दररयाव हदल ककसका ोता ै । इनके दशदन किर
का े को ोंगे!
कुछ दरू चलने के बाद समरज़ा ने पीछे किरकर दे खा और बोले -- बेचारे ककतने
ख़ुश थे। काश मेरी श्ज़ंदगी में ऐसे मौक़े रोज़ आते। आज का हदन बड़ा मुबारक
था।
***
8
और णझंगुरीससं उन् ें चटपट आशीवादद दे ते -- तुम् ारी आूँखें िूटे , घुटना टूटे ,
समरगी आये, घर में आग लग जाए आहद।
लड़के इस आशीवादद से कभी न अघाते थे ; मगर लेन-दे न में बड़े कठोर थे। सूद
की एक पाई न छोड़ते थे और वादे पर बबना रुपए सलये द्वार से न टलते थे।
'परु ाने रुपए ोते ठाकुर, तो म ाजनी से अपना गला न छुड़ा लेता, कक सद
ू भरते
ककसी को अच्छा लगता ै । '
भीतर बड़ी उमस ो र ी थी। वा बंद थी। एक पत्ती न ह लती थी। बादल छाये
ु ए थे; पर वषाद के लक्षण न थे। ोरी ने गाय को बा र बाूँि हदया।
गाय बाूँिकर व अपने मूँझले भाई शोभा को दे खने गया। शोभा को इिर कई
म ीने से दमे का आरजा ो गया था। दवा-दारू की जग
ु त न ीं। खाने-पीने का
प्रबंि न ीं, और काम करना पड़ता था जी तोड़कर; इससलए उसकी दशा हदन-हदन
बबगड़ती जाती थी। शोभा स नशील आदमी था, लड़ाई-झगड़े से कोसों
भागनेवाला। ककसी से मतलब न ीं। अपने काम से काम। ोरी उसे चा ता था।
और व भी ोरी का अदब करता था। दोनों में रुपए-पैसे की बातें ोने लगीं।
राय सा ब का य नया फ़रमान आलोचनाओं का केन्द्र बना ु आ था। कोई
ग्यार बजते-बजते ोरी लौटा और भीतर जा र ा था कक उसे भास ु आ, जैसे
गाय के पास कोई आदमी खड़ा ै।
पछ
ू ा -- कौन खड़ा ै व ाूँ?
ीरा बोला -- मैं ू ूँ दादा, तुम् ारे कौड़े में आग लेने आया था।
ीरा उसके कौड़े में आग लेने आया ै , इस ज़रा-सी बात में ोरी को भाई की
आत्मीयता का पररचय समला। गाूँव में और भी तो कौड़े ैं। क ीं से आग समल
सकती थी। ीरा उसके कौड़े में आग ले र ा ै , तो अपना ी समझकर तो। सारा
गाूँव इस कौड़े में आग लेने आता था। गाूँव से सबसे संपन्न य ी कौड़ा था ; मगर
ीरा का आना दस
ू री बात थी। और उस हदन की लड़ाई के बाद! ीरा के मन में
कपट न ीं र ता। ग़स्
ु सैल ै ; लेककन हदल का साफ़।
'सोभा तो आज ब ु त बे ाल ै ।'
'कोई दवाई न ीं खाता, तो क्या ककया जाय। उसके लेखे तो सारे बैद, डाक्टर,
कीम अनाड़ी ैं। भगवान ण के पास श्जतनी अक्कल थी, व उसके और उसकी
घरवाली के ह स्से पड़ गयी।'
' ाूँ दादा, भला व बात भूल सकता ू ूँ। तुमने इतना न ककया ोता, तो तुमसे
लड़ने के सलए कैसे बचा र ता। ' ोरी को ऐसा मालम ू ु आ कक ीरा का स्वर
भारी ो गया ै । उसका गला भी भर आया।
दोनों ने साथ धचलम पी। तब ीरा अपने घर गया , ोरी अंदर भोजन करने
चला।
ोरी के कानों में भी इस बात की भनक पड़ी थी , पर उसे ववकवास न आया था।
गोबर बेचारा इन बातों को क्या जाने। बोला -- ककसने क ा तम
ु से?
'तो य दोनों लड़ककयाूँ ककसके गले बाूँिोगे ? किर बबरादरी में तुम् ें कौन पूछेगा,
कोई द्वार पर खड़ा तक तो ोगा न ीं।'
स सा गोबर आकर घबड़ाई ु ई आवाज़ में बोला -- दादा, संदु ररया को क्या ो
गया? क्या काले नाग ने छू सलया? व तो पड़ी तड़प र ी ै ।
ोरी चौके में जा चुका था। थाली सामने छोड़कर बा र नकल आया और बोला
-- क्या असगुन मूँु से नकालते ो। अभी तो मैं दे खे आ र ा ू ूँ। लेटी थी।
तीनों बा र गये। धचराग़ लेकर दे खा। संद
ु ररया के मूँु से किचकुर नकल र ा
था। आूँखें पथरा गयी थीं, पेट िूल गया था और चारों पाूँव िैल गये थे। ि नया
ससर पीटने लगी। ोरी पंडडत दातादीन के पास दौड़ा। गाूँव में पशु-धचककत्सक के
व ी आचायद थे। पंडडतजी सोने जा र े थे। दौड़े ु ए आये। दम-के-दम में सारा
गाूँव जमा ो गया। गाय को ककसी ने कुछ णखला हदया। लक्षण स्पष्ट थे। साफ़
ववष हदया गया ै ; लेककन गाूँव में कौन ऐसा मद्
ु दई ै , श्जसने ववष हदया ो;
ऐसी वारदात तो इस गाूँव में कभी ु ई न ीं; लेककन बा र का कौन आदमी गाूँव
में आया। ोरी की ककसी से दकु मनी भी न थी कक उस पर संदे ककया जाय।
ीरा से कुछ क ा-सुनी ु ई थी; मगर व भाई-भाई का झगड़ा था। सबसे जयादा
दख
ु ी तो ीरा ी था। िमककयाूँ दे र ा था कक श्जसने य त्यारों का काम
ककया ै , उसे पाय तो ख़न
ू पी जाय। व लाख ग़स्
ु सैल ो; पर इतना नीच काम
न ीं कर सकता।
ि नया उसके ससर ाने पानी का लोटा रखने आयी तो ोरी ने िीरे से क ा --
तेरे पेट में बात पचती न ीं; कुछ सुन पायेगी, तो गाूँव भर में हढंढोरा पीटती
किरे गी।
'ककसी से क े गी तो न ीं?'
'झठ
ू , बबलकुल झठ
ू ! ीरा इतना नीच न ीं ै । व मूँु का ी ख़राब ै ।'
'व ी, मैं सोभा को दे खकर आया; तो व संद ु ररया की नाूँद के पास खड़ा था। मैंने
पूछा -- कौन ै , तो बोला, मैं ू ूँ ीरा, कौड़े में से आग लेने आया था। थोड़ी दे र
मुझ से बातें करता र ा। मुझे धचलम वपलायी। व उिर गया, मैं भीतर आया
और व ी गोबर ने पुकार मचायी। मालूम ोता ै , मैं गाय बाूँिकर सोभा के घर
गया ू ूँ , और इसने इिर आकर कुछ णखला हदया ै । साइत किर य दे खने आया
था कक मरी या न ीं।'
'कौन, सबेरा ोते ी लाला को थाने न प ु ूँ चाऊूँ, तो अपने असल बाप की न ीं।
य त्यारा भाई क ने जोग ै ! य ी भाई का काम ै ! व बैरी ै , पक्का बैरी
और बैरी को मारने में पाप न ीं, छोड़ने में पाप ै ।'
ि नया आवेश में बोली -- अनथद न ीं, अनथद का बाप ो जाय। मैं बबना लाला
को बड़े घर सभजवाए मानूँूगी न ीं। तीन साल चक्की वपसवाऊूँगी, तीन साल। व ाूँ
से छूटें गे, तो त्या लगेगी। तीरथ करना पड़ेगा। भोज दे ना पड़ेगा। इस िोखे में
न र ें लाला! और गवा ी हदलाऊूँगी तुमसे, बेटे के ससर पर ाथ रखकर।
उसने भीतर जाकर ककवाड़ बंद कर सलये और ोरी बा र अपने को कोसता पड़ा
र ा। जब स्वयम ण उसके पेट में बात न पची, तो ि नया के पेट में क्या पचेगी।
अब य चुड़ल
ै माननेवाली न ीं! श्ज़द पर आ जाती ै , तो ककसी की सुनती ी
न ीं। आज उसने अपने जीवन में सबसे बड़ी भल
ू की। चारों ओर नीरव अंिकार
छाया ु आ था। दोनों बैलों के गले की घंहटयाूँ कभी-कभी बज उठती थीं। दस
क़दम पर मत ृ क गाय पड़ी ु ई थी और ोरी घोर पकचात्ताप में करवटें बदल र ा
था। अंिकार में प्रकाश की रे खा क ीं नज़र न आती थी।
***
9
ि नया सजल क्रोि में बोली -- म ाराज तुम गवा र ना। मैं आज इसे और
इसके त्यारे भाई को जे ल भेजवाकर तब पानी वपऊूँगी। इसके भाई ने गाय को
मा ु र णखलाकर मार डाला। अब जो मैं थाने में रपट सलखाने जा र ी ू ूँ तो य
त्यारा मुझे मारता ै । इसके पीछे अपनी श्ज़ंदगी चौपट कर दी, उसका य
इनाम दे र ा ै।
'तू क़सम खा जा कक तन
ू े ीरा को गाय की नाूँद के पास खड़े न ीं दे खा?'
ि नया ने ज़मीन पर थूक कर क ा -- थुड़ी ै । तेरी झुठाई पर। तूने ख़ुद मुझसे
क ा कक ीरा चोरों की तर नाूँद के पास खड़ा था। और अब भाई के पक्ष में
झूठ बोलता ै । थुड़ी ै ! अगर मेरे बेटे का बाल भी बाूँका ु आ, तो घर में आग
लगा दूँ ग
ू ी। सारी ग ृ स्थी में आग लगा दूँ गू ी। भगवान,ण आदमी मूँु से बात
क कर इतनी बेसरमी से मुकुर जाता ै।
किर व बैन क कर रोने लगी -- इस घर में आकर उसने क्या न ीं झेला, ककस
ककस तर पेट-तन न ीं काटा, ककस तर एक-एक लत्ते को तरसी, ककस तर
एक-एक पैसा प्राणों की तर संचा, ककस तर घर-भर को णखलाकर आप पानी
पीकर सो र ी। और आज उन सारे बसलदानों का य परु स्कार! भगवान ण बैठे य
अन्याय दे ख र े ैं और उसकी रक्षा को न ीं दौड़ते। गज की और द्रौपदी की
रक्षा करने बैकंु ठ से दौड़े थे। आज क्यों नींद में सोये ुए ैं।
दातादीन बोले -- य बात साबबत ो गयी, तो उसे त्या लगेगी। पुसलस कुछ
करे या न करे , िरम तो बबना दं ड हदये न र े गा। चली तो जा रुवपया, ीरा को
बुला ला। क ना, पंडडत दादा बुला र े ैं। अगर उसने त्या न ीं की ै , तो
गंगाजली उठा ले और चौरे पर चढ़कर क़सम खाय।
रूपा एक क्षण में आकर बोली -- काका घर में न ीं ै , पंडडत दादा! काकी क ती
ैं, क ीं चले गये ैं।
दातादीन ने लम्बी दाढ़ी िटकारकर क ा -- तूने पूछा न ीं, क ाूँ चले गये ककया?
घर में छपा बैठा न ो। दे ख तो सोना, भीतर तो न ीं बैठा ै।
ि नया ने टोका -- उसे मत भेजो दादा! ीरा के ससर त्या सवार ै , न जाने
क्या कर बैठे।
ि नया शीतल हृदय से बोली -- मूँु में कासलख लगाकर क ीं भागा ोगा।
ि नया भी आकर पीछे खड़ी थी। तुरंत बोली -- गाय मारी ै तुम् ारे भाई ीरा
ने। सरकार ऐसे बौड़म न ीं ैं कक जो कुछ तम
ु क दोगे, व मान लें गे। य ाूँ
जाूँच-त कक़क़ात करने आये ैं।
तलाशी! ोरी की साूँस तले-ऊपर ोने लगी। उसके भाई ीरा के घर की तलाशी
ोगी और ीरा घर में न ीं ै । और किर ोरी के जीते-जी, उसके दे खते य
तलाशी न ोने पायेगी; और ि नया से अब उसका कोई सम्बन्ि न ीं। ज ाूँ चा े
जाय। जब व उसकी इज़्ज़त बबगाड़ने पर आ गयी ै , तो उसके घर में कैसे र
सकती ै । जब गली-गली ठोकर खायेगी, तब पता चलेगा। गाूँव के ववसशष्ट जनों
ने इस म ान संकट को टालने के सलए काना-िूसी शुरू की।
पटे कवरीलाल ब ु त लंबे थे; पर लंबे ोकर भी बेवक़ूफ़ न थे। अपना लंबा काला
मूँु और लंबा करके बोले -- और य ाूँ आया ै ककस सलए, और जब आया ै
बबना कुछ सलये-हदये गया कब ै?
णझंगरु ीससं ने ोरी को बल
ु ाकर कान में क ा -- नकालो जो कुछ दे ना ो। यों
गला न छूटे गा।
ोरी के मुख का रं ग ऐसा उड़ गया था, जैसे दे का सारा रक्त सूख गया ो।
तलाशी उसके घर ु ई तो, उसके भाई के घर ु ई तो, एक ी बात ै । ीरा अलग
स ी; पर द ु नया तो जानती ै , व उसका भाई ै ; मगर इस वक़्त उसका कुछ
बस न ीं। उसके पास रुपए ोते, तो इसी वक़्त पचास रुपए लाकर दारोग़ाजी के
चरणों पर रख दे ता और क ता -- सरकार, मेरी इज़्ज़त अब आपके ाथ ै।
मगर उसके पास तो ज़ र खाने को भी एक पैसा न ीं ै । ि नया के पास चा े
दो-चार रुपए पड़े ों; पर व चुड़ल
ै भला क्यों दे ने लगी। मत्ृ यु-दं ड पाये
ुए
आदमी की भाूँ त ससर झुकाये, अपने अपमान की वेदना का तीव्र अनुभव करता
ु आ चप
ु चाप खड़ा र ा।
ोरी दीन स्वर में बोला -- अब मैं क्या अरज करूूँ म ाराज! अभी तो प ले ी
की गठरी ससर पर लदी ै ; और ककस मूँु से मागूँ;ू लेककन इस संकट से उबार
लो। जीता र ा, तो कौड़ी-कौड़ी चुका दूँ ग
ू ा। मैं मर भी जाऊूँ तो गोबर तो ै ी।
नेताओं में सला ोने लगी। दारोग़ाजी को क्या भें ट ककया जाय। दातादीन ने
पचास का प्रस्ताव ककया। णझंगुरीससं के अनुमान में सौ से कम पर सौदा न
ोगा। नोखेराम भी सौ के पक्ष में थे। और ोरी के सलए सौ और पचास में कोई
अंतर न था। इस तलाशी का संकट उसके ससर से टल जाय। पूजा चा े ककतनी
ी चढ़ानी पड़े। मरे को मन-भर लकड़ी से जलाओ, या दस मन से; उसे क्या
धचंता! मगर पटे कवरी से य अन्याय न दे खा गया। कोई डाका या क़तल तो
ु आ न ीं। केवल तलाशी ो र ी ै । इसके सलए बीस रुपए ब ु त ैं।
पटे कवरी ने आगे बढ़कर दारोग़ाजी के कान में क ा -- तलासी लेकर क्या करोगे
ु ज़ूर, उसका भाई आपकी ताबेदारी के सलए ाश्ज़र ै।
'सच?'
'क ाूँ की बात ु ज़ूर! दस समल जायूँ, तो ज़ार समणझए। पचास तो पचास जनम
में भी ममु ककन न ीं और व भी जब कोई म ाजन खड़ा ो जायगा!'
पटे कवरी ने दे खा, नशाना और आगे जा पड़ा। बोले -- न ीं ु ज़ूर, ऐसा न कीश्जए,
न ीं किर म क ाूँ जायूँगे। मारे पास दस
ू री और कौन-सी खेती ै ?
'तम
ु इलाक़े के पटवारी ो जी, कैसी बातें करते ो?'
ोरी ख़ून का घट
ूूँ पीकर र गया। सारा समू जैसे थरारण उठा। नेताओं के ससर
झुक गये। दारोग़ा का मूँु ज़रा-सा नकल आया। अपने जीवन में उसे ऐसी
लताड़ न समली थी। ोरी स्तंसभत-सा खड़ा र ा। जीवन में आज प ली बार
ि नया ने उसे भरे अखाड़े में पटकनी दी, आकाश तका हदया। अब व कैसे ससर
उठाये! मगर दारोग़ाजी इतनी जल्दी ार माननेवाले न थे।
णखससयाकर बोले -- मझ
ु े ऐसा मालम
ू ोता ै , कक इस शैतान की ख़ाला ने ीरा
को िूँसाने के सलए ख़ुद गाय को ज़ र दे हदया।
ि नया ाथ मटकाकर बोली -- ाूँ, दे हदया। अपनी गाय थी, मार डाली, किर
ककसी दस
ू रे का जानवर तो न ीं मारा? तुम् ारे त क़ीक़ात में य ी नकलता ै , तो
य ी सलखो। प ना दो मेरे ाथ में थकडड़याूँ। दे ख सलया तुम् ारा न्याय और
तुम् ारे अक्कल की दौड़। ग़रीबों का गला काटना दस
ू री बात ै । दि
ू का दि
ू
और पानी का पानी करना दस
ू री बात।
ोरी परास्त ो गया। उसे ज्ञात ु आ, स्त्री के सामने पुरुष ककतना नबदल, ककतना
नरुपाय ै । नेताओं ने रुपए चुनकर उठा सलये थे और दारोग़ाजी को व ाूँ से
चलने का इशारा कर र े थे।
ि नया ने एक ठोकर और जमायी -- श्जसके रुपए ों, ले जाकर उसे दे दो। में
ककसी से उिार न ीं लेना ै । और जो दे ना ै , तो उसी से लेना। मैं दमड़ी भी न
दूँ ग
ू ी, चा े मझ
ु े ाककम के इजलास तक ी चढ़ना पड़े। म बाक़ी चक
ु ाने को
पचीस रुपए माूँगते थे, ककसी ने न हदया। आज अूँजल
ु ी-भर रुपये ठनाठन नकाल
के हदये। मैं सब जानती ू ूँ। य ाूँ तो बाूँट-बखरा ोनेवाला था, सभी के मूँु मीठे
ोते। ये त्यारे गाूँव के मुणखया ैं, ग़रीबों का ख़ून चूसनेवाले! सूद-ब्याज डेढ़ी-
सवाई, नज़र-नज़राना, घूस-घास जैसे भी ो, ग़रीबों को लूटो। उस पर सुराज
चाह ए। जेल जाने से सरु ाज न समलेगा। सरु ाज समलेगा िरम से, न्याय से।
नेताओं के मूँुमें कासलख-सी लगी ु ई थी। दारोग़ाजी के मूँु पर झाड़-सी किरी
ु ई थी। इज़्ज़त बचाने के सलए ीरा के घर की ओर चले।
पटे कवरी बोले -- हदलेर ै ु ज़ूर, ककदशा ै । ऐसी औरत को तो गोली मार दे ।
'तम
ु लोगों का क़ाकफ़या तंग कर हदया उसने। चार-चार तो समलते ी।'
'मेरे क ाूँ जा सकते ैं। व न दे गा, गाूँव के मणु खया दें गे और पंद्र रुपये की
जग पूरे पचास रुपए। आप लोग चटपट इंतज़ाम कीश्जए।'
दातादीन बोले -- बड़े आदसमयों के य ी लक्षण ैं। ऐसे भाग्यवानों के दशदन क ाूँ
ोते ैं।
'मैं पंद्र समनट का समय दे ता ू ूँ। अगर इतनी दे र में पूरे पचास रुपए न आये,
तो तम
ु चारों के घर की तलाशी ोगी। और गंडाससं को जानते ो। उसका मारा
पानी भी न ीं माूँगता।'
चारों सज्जन चौपाल के अंदर जाकर ववचार करने लगे। किर क्या ु आ ककसी
को मालूम न ीं, ाूँ, दारोग़ाजी प्रसन्न हदखायी दे र े थे। और चारों सज्जनों के
मूँु पर िटकार बरस र ी थी। दारोग़ाजी घोड़े पर सवार ोकर चले, तो चारों
नेता दौड़ र े थे। घोड़ा दरू नकल गया तो चारों सज्जन लौटे ; इस तर मानो
ककसी वप्रयजन का संस्कार करके कमशान से लौट र े ों।
***
10
ीरा का क ीं पता न चला और हदन गुज़रते जाते थे। ोरी से ज ाूँ तक दौड़िूप
ो सकी की; किर ारकर बैठ र ा। खेती-बारी की भी कफ़क्र करनी थी। अकेला
आदमी क्या-क्या करता। और अब अपनी खेती से ज़्यादा कफ़क्र थी पु नया की
खेती की। पु नया अब अकेली ोकर और भी प्रचंड ो गयी थी। ोरी को अब
उसकी ख़ुशामद करते बीतती थी। ीरा था, तो व पु नया को दबाये र ता था।
उसके चले जाने से अब पु नया पर कोई अंकुस न र गया था। ोरी की
पट्टीदारी ीरा से थी। पु नया अबला थी। उससे व क्या तनातनी करता। और
पु नया उसके स्वभाव से पररधचत थी और उसकी सज्जनता का उसे ख़ब
ू दं ड
दे ती थी। ख़ैररयत य ी ु ई कक कारकुन सा ब ने पु नया से बक़ाया लगान वसूल
करने की कोई सख़्ती न की, केवल थोड़ी सी पूजा लेकर राज़ी ो गये। न ीं, ोरी
अपनी बक़ाया के साथ उसकी बक़ाया चुकाने के सलए भी क़रज़ लेने को तैयार
था। सावन में िान की रोपाई की ऐसी िूम र ी कक मजूर न समले और ोरी
अपने खेतों में िान न रोप सका; लेककन पु नया के खेतों में कैसे न रोपाई ोती।
ोरी ने प र रात-रात तक काम करके उसके िान रोपे। अब ोरी ी तो उसका
रक्षक ै ! अगर पु नया को कोई कष्ट ु आ, तो द ु नया उसी को तो ूँसेगी।
नतीजा य ु आ कक ोरी को ख़रीफ़ फ़सल में ब ु त थोड़ा अनाज समला, और
पु नया के बखार में िान रखने की जग न र ी। ोरी और ि नया में उस हदन
से बराबर मनमट
ु ाव चला आता था। गोबर से भी ोरी की बोल-चाल बंद थी।
माूँ-बेटे ने समलकर जैसे उसका बह ष्कार कर हदया था। अपने घर में परदे शी
बना ु आ था। दो नावों पर सवार ोनेवालों की जो दग
ु द त ोती ै , व ी उसकी ो
र ी थी। गाूँव में भी अब उसका उतना आदर न था। ि नया ने अपने सा स से
श्स्त्रयों का ी न ीं, पुरुषों का नेतत्ृ व भी प्राप्त कर सलया था। म ीनों तक
आसपास के इलाक़ों में कांड की ख़ब
ू चचाद र ी। य ाूँ तक कक व अलौककक रूप
तक िारण करता जाता था -- 'ि नया नाम ै उसका जी। भवानी का इष्ट ै
उसे। दारोग़ाजी ने ज्यों ी उसके आदमी के ाथ में थकड़ी डाली कक ि नया ने
भवानी का सुसमरन ककया। भवानी उसके ससर आ गयी। किर तो उसमें इतनी
शश्क्त आ गयी कक उसने एक झटके में प त की थकड़ी तोड़ डाली और दारोग़ा
की मूँछ
ू ें पकड़कर उखाड़ लीं, किर उसकी छाती पर चढ़ बैठी। दारोग़ा ने जब
ब ु त मानता की, तब जाकर उसे छोड़ा।'
कुछ हदन तक तो लोग ि नया के दशदनों को आते र े । व बात अब परु ानी पड़
गयी थी; लेककन गाूँव में ि नया का सम्मान ब ु त बढ़ गया। उसमें अद्भुत
सा स ै और समय पड़ने पर व मदो के भी कान काट सकती ै । मगर िीरे -
िीरे ि नया में एक पररवतदन ो र ा था। ोरी को पु नया की खेती में लगे
दे खकर भी व कुछ न बोलती थी। और य इससलए न ीं कक व ोरी से
ववरक्त ो गयी थी; बश्ल्क इससलए कक पु नया पर अब उसे भी दया आती थी।
ीरा का घर से भाग जाना उसकी प्र तशोि-भावना की तुश्ष्ट के सलए काफ़ी था।
इसी बीच में ोरी को ज्वर आने लगा। फ़स्ली बुख़ार िैला था ी। ोरी उसके
चपेट में आ गया। और कई साल के बाद जो ज्वर आया, तो उसने सारी बक़ाया
चुका ली। एक म ीने तक ोरी खाट पर पड़ा र ा। इस बीमारी ने ोरी को तो
कुचल डाला ी, पर ि नया पर भी ववजय पा गयी। प त जब मर र ा ै , तो
उससे कैसा बैर। ऐसी दशा में तो बैररयों से भी बैर न ीं र ता , व तो अपना
पत ै । लाख बुरा ो; पर उसी के साथ जीवन के पचीस साल कटे ैं , सुख ककया
ै तो उसी के साथ, दःु ख भोगा ै तो उसी के साथ, अब तो चा े व अच्छा ै
या बुरा, अपना ै । दाढ़ीजार ने मुझे सबके सामने मारा, सारे गाूँव के सामने मेरा
पानी उतार सलया; लेककन तब से ककतना लश्ज्जत ै कक सीिे ताकता न ीं। खाने
आता ै तो ससर झुकाये खाकर उठ जाता ै , डरता र ता ै कक मैं कुछ क न
बैठूूँ। ोरी जब अच्छा ु आ, तो प त-पत्नी में मेल ो गया था।
ोरी लजाता ु आ बोला -- अब उसकी चचाद न कर ि नया! मेरे ऊपर कोई भूत
सवार था। इसका मझु े ककतना दःु ख ु आ ै , व मैं ी जानता ू ूँ।
'तो क्या मैं रोने के सलए बैठा र ता? मेरी ल ाश भी तेरे साथ धचता पर जाती।'
'गाय गयी सो गयी, मेरे ससर पर एक ववपश्त्त डाल गयी। पु नया की कफ़क्र मुझे
मारे डालती ै। '
'इसीसलए तो क ते ैं , भगवान ण घर का बड़ा न बनाये। छोटों को कोई न ीं
ूँसता। नेकी-बदी सब बड़ों के ससर जाती ै। '
माघ के हदन थे। मघावट लगी ु ई थी। घटाटोप अूँिेरा छाया ु आ था। एक तो
जाड़ों की रात, दस
ू रे माघ की वषाद। मौत का-सा सन्नाटा छाया ु आ था। अूँिेरा
तक न सूझता था। ोरी भोजन करके पु नया के मटर के खेत की में ड़ पर
अपनी मड़ैया में लेटा ु आ था। चा ता था, शीत को भूल जाय और सो र े ;
लेककन तार-तार कम्बल और िटी ु ई समरज़ई और शीत के झोंकों से गीली
पुआल। इतने शत्रुओं के सम्मुख आने का नींद में सा स न था। आज तमाखू भी
न समला कक उसी से मन ब लाता। उपला सुलगा लाया था, पर शीत में व भी
बुझ गया। बेवाय िटे पैरों को पेट में डालकर और ाथों को जाूँघों के बीच में
दबाकर और कम्बल में मूँु छपाकर अपनी ी गमद साूँसों से अपने को गमद
करने की चेष्टा कर र ा था। पाूँच साल ु ए, य समरज़ई बनवाई थी। ि नया ने
एक प्रकार से ज़बरदस्ती बनवा दी थी, व ी जब एक बार काबुली से कपड़े सलये
थे, श्जसके पीछे ककतनी साूँसत ु ई, ककतनी गासलयाूँ खानी पड़ीं, और कम्बल तो
उसके जन्म से भी प ले का ै । बचपन में अपने बाप के साथ व इसी में सोता
था, जवानी में गोबर को लेकर इसी कम्बल में उसके जाड़े कटे थे और बुढ़ापे में
आज व ी बढ़
ू ा कम्बल उसका साथी ै , पर अब व भोजन को चबानेवाला दाूँत
न ीं, दख
ु नेवाला दाूँत ै । जीवन में ऐसा तो कोई हदन ी न ीं आया कक लगान
और म ाजन को दे कर कभी कुछ बचा ो। और बैठे बैठाये य एक नया जंजाल
पड़ गया। न करो तो द ु नया ूँसे, करो तो य संशय बना र े कक लोग क्या
क ते ैं। सब य समझते ैं कक व द ु नया को लूट लेता ै , उसकी सारी उपज
घर में भर लेता ै । ए सान तो क्या ोगा उलटा कलंक लग र ा ै । और उिर
भोला कई बेर याद हदला चुके ैं कक क ीं कोई सगाई का डौल करो, अब काम
न ीं चलता। सोभा उससे कई बार क चुका ै कक पु नया के ववचार उसकी ओर
से अच्छे न ीं ैं। न ों। पु नया की ग ृ स्थी तो उसे सूँभालनी ी पड़ेगी, चा े
ूँसकर सूँभाले या रोकर। ि नया का हदल भी अभी तक साफ़ न ीं ु आ। अभी
तक उसके मन में मलाल बना ु आ ै । मझ ु े सब आदसमयों के सामने उसको
मारना न चाह ए था। श्जसके साथ पचीस साल गुज़र गये, उसे मारना और सारे
गाूँव के सामने, मेरी नीचता थी; लेककन ि नया ने भी तो मेरी आबरू उतारने में
कोई कसर न ीं छोड़ी। मेरे सामने से कैसा कतराकर नकल जाती ै जैसे कभी
की जान-प चान ी न ीं। कोई बात क नी ोती ै , तो सोना या रूपा से
क लाती ै । दे खता ू ूँ उसकी साड़ी िट गयी ै ; मगर कल मुझसे क ा भी, तो
सोना की साड़ी के सलए, अपनी साड़ी का नाम तक न सलया। सोना की साड़ी
अभी दो-एक म ीने थेगसलयाूँ लगाकर चल सकती ै । उसकी साड़ी तो मारे
पेवन्दों के बबलकुल कथरी ो गयी ै । और किर मैं ी कौन उसका मनु ार कर
र ा ू ूँ। अगर मैं ी उसके मन की दो-चार बातें करता र ता, तो कौन छोटा ो
जाता। य ी तो ोता व थोड़ा-सा अदरवान कराती, दो-चार लगनेवाली बात
क ती तो क्या मुझे चोट लग जाती; लेककन मैं बुड्ढा ोकर भी उल्लू बना र
गया। व तो क ो इस बीमारी ने आकर उसे नमद कर हदया, न ीं जाने कब तक
मूँु िुलाये र ती। और आज उन दोनों में जो बातें ु ई थीं, व मानो भूखे का
भोजन थीं। व हदल से बोली थी और ोरी गद्गद ो गया था। उसके जी में
आया, उसके पैरों पर ससर रख दे और क े -- मैंने तुझे मारा ै तो ले मैं ससर
झुकाये लेता ू ूँ , श्जतना चा े मार ले, श्जतनी गासलयाूँ दे ना चा े दे ले। स सा उसे
मूँड़य
ै ा के सामने चूडड़यों की झंकार सुनायी दी। उसने कान लगाकर सुना। ाूँ,
कोई ै । पटवारी की लड़की ोगी, चा े पंडडत की घरवाली ो। मटर उखाड़ने
आयी ोगी। न जाने क्यों इन लोगों की नीयत इतनी खोटी ै । सारे गाूँव से
अच्छा प नते ैं , सारे गाूँव से अच्छा खाते ैं , घर में ज़ारों रुपए गड़े ैं , लेन-दे न
करते ैं, डयोढ़ी-सवाई चलाते ैं , घूस लेते ैं, दस्तूरी लेते ैं, एक-न-एक मामला
खड़ा करके मा-सुमा को पीसते र ते ैं, किर भी नीयत का य ाल! बाप जैसा
ोगा, वैसी ी संतान भी ोगी। और आप न ीं आते, औरतों को भेजते ैं। अभी
उठकर ाथ पकड़ लूँ ू तो क्या पानी र जाय। नीच क ने को नीच ैं ; जो ऊूँचे ैं ,
उनका मन तो और नीचा ै । औरत जात का ाथ पकड़ते भी तो न ीं बनता ,
आूँखों दे खकर मक्खी नगलनी पड़ती ै । उखाड़ ले भाई, श्जतना तेरा जी चा े ।
समझ ले, मैं न ीं ू ूँ। बड़े आदमी अपनी लाज न रखें, छोटों को तो उनकी लाज
रखनी ी पड़ती ै । मगर न ीं, य तो ि नया ै । पुकार र ी ै ।
मूँड़य
ै ा में आकर पुआल पर बैठती ु ई बोली -- गोबर ने तो मूँु में कासलख लगा
दी, उसकी करनी क्या पूछते ो। श्जस बात को डरती थी, व ोकर र ी।
'अब मैं जानूँू, क्या कर बैठा, चलकर पूछो उसी राूँड़ से?'
'गोबर का क ीं पता न ीं। जाने क ाूँ भाग गया। इसे पाूँच म ीने का पेट ै । '
ोरी सब कुछ समझ गया। गोबर को बार-बार अह राने जाते दे खकर व खटका
था ज़रूर; मगर उसे ऐसा णखलाड़ी न समझता था। युवकों में कुछ रससकता ोती
ी ै , इसमें कोई नयी बात न ीं। मगर श्जस रूई के गाले को उसने नीले
आकाश में वा के झोंके से उड़ते दे खकर केवल मुस्करा हदया था, व सारे
आकाश में छाकर उसके मागद को इतना अंिकारमय बना दे गा , य तो कोई
दे वता भी न जान सकता था। गोबर ऐसा लम्पट! व सरल गूँवार श्जसे व
अभी बच्चा समझता था; लेककन उसे भोज की धचंता न थी, पंचायत का भय न
था, झु नया घर में कैसे र े गी इसकी धचन्ता भी उसे न थी। उसे धचंता थी गोबर
की। लड़का लज्जाशील ै , अनाड़ी ै आत्मासभमानी ै , क ीं कोई नादानी न कर
बैठे।
सबेरा ोते- ोते सारे गाूँव में काूँव काूँव मच जायगी। ऐसा जी ोता
ै , मा ु र खा
लूँ ।ू मैं तुमसे क े दे ती ू ूँ, मैं अपने घर में न रखग
ूूँ ी। गोबर को रखना ो, अपने
ससर पर रखे। मेरे घर में ऐसी छत्तीससयों के सलए जग न ीं ै और अगर तम
ु
बीच में बोले, तो किर या तो तुम् ीं र ोगे, या मैं ी र ू ूँगी।
ोरी बोला -- तुझसे बना न ीं। उसे घर में आने ी न दे ना चाह ए था।
'व क्या जानता था, इनके बीच में क्या णखचड़ी पक र ी ै ।'
'जानता क्यों न ीं था। गोबर रात-हदन घेरे र ता था तो क्या उसकी आूँखें िूट
गयी थीं। सोचना चाह ए था न, कक य ाूँ क्यों दौड़-दौड़ आता ै ।'
दोनों मूँड़य
ै ा से नकलकर गाूँव की ओर चले। ोरी ने क ा -- पाूँच घड़ी रात के
ऊपर गयी ोगी।
ि नया बोली -- ाूँ, और क्या; मगर कैसा सोता पड़ गया ै । कोई चोर आये , तो
सारे गाूँव को मस
ू ले जाय।
'मुदा इतनी रात गये इस अूँिेरे सन्नाटे रात में जायगी क ाूँ, य तो सोचो।'
'जाय ज ाूँ उसके सगे ों। मारे घर में उसका क्या रखा ै ! '
' ाूँ, लेककन इतनी रात गये घर से नकालना उधचत न ीं। पाूँव भारी ै , क ीं डर-
डरा जाय, तो और आफ़त ो। ऐसी दशा में कुछ करते-िरते भी तो न ीं बनता!'
' में क्या करना ै , मरे या जीये। ज ाूँ चा े जाय। क्यों अपने मूँु में कासलख
लगाऊूँ। मैं तो गोबर को भी नकाल बा र करूूँगा।'
'गोबर ने न ीं, डुबाई इसी ने। व तो बच्चा था। इसके पंजे में आ गया।'
दोनों द्वार के सामने प ु ूँच गये। स सा ि नया ने ोरी के गले में ाथ डालकर
क ा -- दे खो तुम् ें मेरी सौं , उस पर ाथ न उठाना। व तो आप ी रो र ी ै ।
भाग की खोटी न ोती, तो य हदन ी क्यों आता।
ोरी की आूँखें आद्ररण ो गयीं। ि नया का य मात-ृ स्ने उस अूँिेरे में भी जैसे
दीपक के समान उसकी धचंता-जजदर आकृ त को शोभा प्रदान करने लगा। दोनों
ी के हृदय में जैसे अतीत-यौवन सचेत ो उठा। ोरी को इस वीत-यौवना में भी
व ी कोमल हृदय बासलका नज़र आयी, श्जसने पच्चीस साल प ले उसके जीवन
में प्रवेश ककया था। उस आसलंगन में ककतना अथा वात्सल्य था , जो सारे
कलंक, सारी बािाओं और सारी मूलबि परं पराओं को अपने अंदर समेटे लेता था।
दोनों ने द्वार पर आकर ककवाड़ों के दराज़ से अन्दर झाूँका। दीवट पर तेल की
कुप्पी जल र ी थी और उसके मध्यम प्रकाश में झु नया घुटने पर ससर रखे,
द्वार की ओर मूँु ककये, अंिकार में उस आनंद को खोज र ी थी, जो एक क्षण
प ले अपनी मोह नी छवव हदखाकर ववलीन ो गया था। व आफ़त की मारी
व्यंग-बाणों से आ त और जीवन के आघातों से व्यधथत ककसी वक्ष
ृ की छाूँ
खोजती किरती थी, और उसे एक भवन समल गया था, श्जसके आश्रय में व
अपने को सुरक्षक्षत और सुखी समझ र ी थी; पर आज व भवन अपना सारा
सुख-ववलास सलये अलादीन के राजम ल की भाूँ त ग़ायब ो गया था और
भववष्य एक ववकराल दानव के समान उसे नगल जाने को खड़ा था। एकाएक
द्वार खुलते और ोरी को आते दे खकर व भय से काूँपती ु ई उठी और ोरी के
पैरों पर धगरकर रोती ु ई बोली -- दादा, अब तम् ु ारे ससवाय मझ ु े दस
ू रा ठौर न ीं
ै , चा े मारो चा े काटो; लेककन अपने द्वार से दरु दरु ाओ मत।
य क ते-क ते उसकी आवाज़ आूँसुओं में डूब गयी। ोरी अपनी व्याकुलता न
छपा सका।
'मझ
ु े तो शंका ोती ै , क ीं बा र चले गये ैं। '
ोरी व ीं पुआल में लेटा। गोबर क ाूँ गया? य प्रकन उसके हृदयाकाश में ककसी
पक्षी की भाूँ त मूँडराने लगा।
***
11
ऐसे असािारण कांड पर गाूँव में जो कुछ लचल मचना चाह ए था, व मचा
और म ीनों तक मचता र ा। झु नया के दोनों भाई लाहठयाूँ सलये गोबर को
खोजते किरते थें। भोला ने क़सम खायी कक अब न झु नया का मूँु दे खेंगे और
न इस गाूँव का। ोरी से उन् ोंने अपनी सगाई की जो बातचीत की थी, व अब
टूट गयी थी। अब व अपनी गाय के दाम लें गे और नक़द और इसमें ववलंब
ु आ तो ोरी पर दावा करके उसका घर-द्वार नीलाम करा लें गे। गाूँववालों ने
ोरी को जा त-बा र कर हदया। कोई उसका ु क़्क़ा न ीं पीता, न उसके घर का
पानी पीता ै । पानी बंद कर दे ने की कुछ बातचीत थी; लेककन ि नया का चंडी-
रूप सब दे ख चुके थे; इससलये ककसी की आगे आने की ह म्मत न पड़ी।
उसने तीव्र स्वर में क ा -- मको कुल-पर तसठा इतनी प्यारी न ीं ै म ाराज,
कक उसके पीछे एक जीव की त्या कर डालते। ब्या ता न स ी ; पर उसकी बाूँ
तो पकड़ी ै मेरे बेटे ने ी। ककस मूँु से नकाल दे ती। व ी काम बड़े-बड़े करते
ैं, मुदा उनसे कोई न ीं बोलता, उन् ें कलंक ी न ीं लगता। व ी काम छोटे
आदमी करते ैं , तो उनकी मरजाद बबगड़ जाती ै , नाक कट जाती ै । बड़े
आदसमयों को अपनी नाक दस
ू रों की जान से प्यारी ोगी, में तो अपनी नाक
इतनी प्यारी न ीं।
दातादीन ार माननेवाले जीव न थे। व इस गाूँव के नारद थे। य ाूँ की व ाूँ,
व ाूँ की य ाूँ, य ी उनका व्यवसाय था। व चोरी तो न करते थे , उसमें जान-
जोणख़म था; पर चोरी के माल में ह स्सा बूँटाने के समय अवकय प ु ूँ च जाते थे।
क ीं पीठ में िल
ू न लगने दे ते थे। ज़मींदार को आज तक लगान की एक पाई
न दी थी, क़ुक़ी आती, तो कुएूँ में धगरने चलते, नोखेराम के ककये कुछ न बनता;
मगर असासमयों को सूद पर रुपए उिार दे ते थे। ककसी स्त्री को कोई आभूषण
बनवाना ै , दातादीन उसकी सेवा के सलए ाश्ज़र ैं। शादी-ब्या तय करने में
उन् ें बड़ा आनन्द आता ै , यश भी समलता ै , दक्षक्षणा भी समलती ै । बीमारी में
दवा-दारू भी करते ैं, झाड़-िूँू क भी, जैसी मरीज़ की इच्छा ो। और सभा-चतरु
इतने ैं कक जवानों में जवान बन जाते ैं , बालकों में बालक और बूढ़ों में बढ़
ू े।
चोर के भी समत्र ैं और सा के भी। गाूँव में ककसी को उन पर ववकवास न ीं ै;
पर उनकी वाणी में कुछ ऐसा आकषदण ै कक लोग बार-बार िोखा खाकर भी
उन् ीं की शरण जाते ैं।
इसी तर एक हदन लाला पटे कवरी ने ोरी को छे ड़ा। व गाूँव में पुडयात्मा
मश ू र थे। पूणमादसी को नत्य सत्यनारायण की कथा सुनते; पर पटवारी ोने के
नाते खेत बेगार में जुतवाते थे, ससंचाई बेगार में करवाते थे और असासमयों को
एक दस
ू रे से लड़ाकर रक़में मारते थे। सारा गाूँव उनसे काूँपता था! ग़रीबों को
दस-दस, पाूँच-पाूँच क़रज़ दे कर उन् ोंने कई ज़ार की संपश्त्त बना ली थी। फ़सल
की चीज़ें असासमयों से लेकर कच री और पुसलस के अमलों की भें ट करते र ते
थे। इससे इलाक़े भर में उनकी अच्छी िाक थी। अगर कोई उनके त्थे न ीं
चढ़ा, तो व दारोग़ा गंडाससं थे, जो ाल में इस इलाक़े में आये थे। परमाथी भी
थे। बुख़ार के हदनों में सरकारी कुनैन बाूँटकर यश कमाते थे, कोई बीमार आराम
ो, तो उसकी कुशल पछ
ू ने अवकय जाते थे। छोटे -मोटे झगड़े आपस में ी तय
करा दे ते थे। शादी-ब्या में अपनी पालकी, क़ालीन, और म कफ़ल के सामान
मूँगनी दे कर लोगों का उबार कर दे ते थे। मौक़ा पाकर न चूकते थे, पर श्जसका
खाते थे, उसका काम भी करते थे।
बोले -- य तम
ु ने क्या रोग पाल सलया ोरी?
ोरी ने पीछे किरकर पूछा -- तुमने क्या क ा लाला -- मैंने सुना न ीं।
णखन्न ोकर बोला -- य सब मैं समझता ू ूँ लाला! लेककन तम् ु ीं बताओ, मैं
क्या करूूँ! मैं झु नया को नकाल दूँ ,ू तो भोला उसे रख लें गे? अगर व राज़ी ों,
तो आज मैं उसे उनके घर प ु ूँचा दूँ ,ू अगर तुम उन् ें राज़ी कर दो, तो जनम-भर
तुम् ारा औसान मानूँू; मगर व ाूँ तो उनके दोनों लड़के ख़ून करने को उतारू ो
र े ैं। किर मैं उसे कैसे नकाल दूँ ।ू एक तो नालायक़ आदमी समला कक उसकी
बाूँ पकड़कर दग़ा दे गया। मैं भी नकाल दूँ ग
ू ा, तो इस दशा में व क ीं
मे नत-मजूरी भी तो न कर सकेगी। क ीं डूब-िस मरी तो ककसे अपराि लगेगा।
र ा लड़ककयों का ब्या सो भगवान ण मासलक ैं। जब उसका समय आयेगा, कोई
न कोई रास्ता नकल ी आयेगा। लड़की तो मारी बबरादरी में आज तक कभी
कूँु आरी न ीं र ी। बबरादरी के डर से त्यारे का काम न ीं कर सकता।
ोरी नम्र स्वभाव का आदमी था। सदा ससर झुकाकर चलता और चार बातें ग़म
खा लेता था। ीरा को छोड़कर गाूँव में कोई उसका अह त न चा ता था , पर
समाज इतना बड़ा अनथद कैसे स ले! और उसकी मुटमदी तो दे खो कक समझाने
पर भी न ीं समझता। स्त्री-परु
ु ष दोनों जैसे समाज को चन
ु ौती दे र े ैं कक दे खें
कोई उनका क्या कर लेता ै । तो समाज भी हदखा दे गा कक उसकी मयादाद
तोड़नेवाले सुख की नींद न ीं सो सकते।
पंडडत नोखेराम कारकुन बड़े कुलीन ब्राह्मण थे। इनके दादा ककसी राजा के
दीवान थे! पर अपना सब कुछ भगवान ण के चरणों में भें ट करके सािु ो गये थे।
इनके बाप ने भी राम-नाम की खेती में उम्र काट दी। नोखेराम ने भी व ी
भश्क्त तरके में पायी थी। प्रातःकाल पूजा पर बैठ जाते थे और दस बजे तक
बैठे राम-नाम सलखा करते थे; मगर भगवान ण के सामने से उठते ी उनकी
मानवता इस अवरोि से ववकृत ोकर उनके मन, वचन और कमद सभी को
ववषाक्त कर दे ती थी। इस प्रस्ताव में उनके अधिकार का अपमान ोता था।
िूले ु ए गालों में िूँसी ु ई आूँखें नकालकर बोले -- इसमें राय सा ब से क्या
पूछना ै । मैं जो चा ू ूँ, कर सकता ू ूँ। लगा दो सौ रुपये डाूँड़। आप गाूँव छोड़कर
भागेगा। इिर बेदख़ली भी दायर ककये दे ता ू ूँ।
णझंगरु ीससं ने समथदन ककया -- ाूँ, लगान के सलए ी तो मसे तीस रुपए सलये
ैं।
ि नया भरी सभा में रुूँ आरिे ु ए कंठ से बोली -- पंचो, ग़रीब को सताकर सुख
न पाओगे, इतना समझ लेना। म तो समट जायूँगे, कौन जाने, इस गाूँव में र ें
या न र ें , लेककन मेरा सराप तुमको भी ज़रूर से ज़रूर लगेगा। मुझ से इतना
कड़ा जरीबाना इससलये सलया जा र ा ै कक मैंने अपनी ब ू को क्यों अपने घर
में रखा। क्यों उसे घर से नकालकर सड़क की सभखाररन न ीं बना हदया। य ी
न्याय ै , ऐं?
ोरी सोच में पड़ गया। ि नया के कथन में सत्य था। उसे अपने बाल-बच्चों की
कमाई छीनकर तावान दे ने का क्या अधिकार ै? व घर का स्वामी इससलए ै
कक सबका पालन करे , इससलए न ीं कक उनकी कमाई छीनकर बबरादरी की नज़र
में सख़
ु -द बने। टोकरी उसके ाथ से छूट गयी।
ोरी रे ननामा सलखकर कोई ग्यार बजे रात घर आया तो , ि नया ने पूछा --
इतनी रात तक व ाूँ क्या करते र े ?
ोरी ने जल
ु ा े का ग़स्
ु सा दाढ़ी पर उतारते ु ए क ा -- करता क्या र ा, इस लौंडे
की करनी भरता र ा। अभागा आप तो धचनगारी छोड़कर भागा , आग मझ ु े
बझ
ु ानी पड़ र ी ै । अस्सी रुपए में घर रे न सलखना पड़ा। करता क्या! अब
ु क़्क़ा खुल गया। बबरादरी ने अपराि क्षमा कर हदया।
ोरी ने डाूँटा -- चुप र , ब ु त चढ़-चढ़ न बोल। बबरादरी के चक्कर में अभी पड़ी
न ीं ै , न ीं मूँु से बात न नकलती।
ि नया उत्तेश्जत ो गयी -- कौन-सा पाप ककया ै , श्जसके सलए बबरादरी से डरें ,
ककसी की चोरी की ै , ककसी का माल काटा ै ? मे ररया रख लेना पाप न ीं ै,
ाूँ, रख के छोड़ दे ना पाप ै । आदमी का ब ु त सीिा ोना भी बरु ा ै । उसके
सीिेपन का िल य ी ोता ै कक कुत्ते भी मूँु चाटने लगते ैं। आज उिर
तुम् ारी वा -वा ो र ी ोगी कक बबरादरी की कैसी मरजाद रख ली। मेरे भाग
िूट गये थे कक तुम जैसे मदद से पाला पड़ा। कभी सुख की रोटी न समली।
वववाद ववनोद के क्षेत्र में आ गया। अस्सी रुपए गये तो गये , लाख रुपए का
बालक तो समल गया! उसे तो कोई न छीन लेगा। गोबर घर लौट आये , ि नया
अलग झोपड़ी में भी सुखी र ेगी।
'ररष्ट-पुष्ट तो ै ?'
***
12
रात को गोबर झु नया के साथ चला, तो ऐसा काूँप र ा था, जैसे उसकी नाक
कटी ु ई ो। झु नया को दे खते ी सारे गाूँव में कु राम मच जायगा, लोग चारों
ओर से कैसी ाय- ाय मचायेंगे, ि नया ककतनी गासलयाूँ दे गी, य सोच-सोचकर
उसके पाूँव पीछे र े जाते थे। ोरी का तो उसे भय न था। व केवल एक बार
िाड़ेंगे, किर शान्त ो जायूँगे। डर था ि नया का, ज़ र खाने लगेगी, घर में आग
लगाने लगेगी। न ीं, इस वक़्त व झु नया के साथ घर न ीं जा सकता। लेककन
क ीं ि नया ने झु नया को घर में घुसने ी न हदया और झाड़ू लेकर मारने
दौड़ी, तो व बेचारी क ाूँ जायगी। अपने घर तो लौट ी न ीं सकती। क ीं कुएूँ
में कूद पड़े या गले में िाूँसी लगा ले, तो क्या ो। उसने लम्बी साूँस ली।
ककसकी शरण ले। मगर अम्माूँ इतनी नदद यी न ीं ैं कक मारने दौड़ें। क्रोि में
दो-चार गासलयाूँ दें गी! लेककन जब झु नया उसके पाूँव पड़कर रोने लगेगी, तो उन् ें
ज़रूर दया आ जायगी। तब तक व ख़ुद क ीं छपा र े गा। जब उपद्रव शांत ो
जायगा, तब व एक हदन िीरे से आयेगा और अम्माूँ को मना लेगा , अगर इस
बीच उसे क ीं मजूरी समल जाय और दो-चार रुपए लेकर घर लौटे , तो किर
ि नया का मूँु बंद ो जायगा।
झु नया बोली -- मेरी छाती िक-िक कर र ी ै । मैं क्या जानती थी, तुम मेरे
गले य रोग मढ़ दोगे। न जाने ककस बुरी साइत में तुमको दे खा। न तुम गाय
लेने आते, न य सब कुछ ोता। तुम आगे-आगे जाकर जो कुछ क ना-सुनना
ो, क -सन
ु लेना। मैं पीछे से जाऊूँगी।
'मझ
ु से दग़ा तो न ीं कर र े ो? मझ
ु े घर भेजकर आप क ीं चलते बनो।'
झु नया घर की ओर चली। गोबर एक क्षण दवु विे में पड़ा खड़ा र ा। किर एका-
एक ससर पर मूँडरानेवाली धिक्कार की कल्पना भयंकर रूप िारण करके उसके
सामने खड़ी ो गयी। क ीं सचमुच अम्माूँ मारने दौड़ें, तो क्या ो? उसके पाूँव
जैसे िरती से धचमट गये। उसके और उसके घर के बीच केवल आमों का छोटा-
सा बाग़ था। झु नया की काली परछाईं िीरे -िीरे जाती ु ई दीख र ी थी। उसकी
ज्ञानेंहद्रयाूँ ब ु त तेज़ ो गयी थीं। उसके कानों में ऐसी भनक पड़ी, जैसे अम्माूँ
झु नया को गाली दे र ी ैं। उसके मन की कुछ ऐसी दशा ो र ी थी, मानो ससर
पर गड़ाूँसे का ाथ पड़ने वाला ो। दे का सारा रक्त जैसे सूख गया ो। एक
क्षण के बाद उसने दे खा, जैसे ि नया घर से नकलकर क ीं जा र ी ो। दादा के
पास जाती ोगी! साइत दादा खा-पीकर मटर अगोरने चले गये ैं। व मटर के
खेत की ओर चला। जौ-गे ू ूँ के खेतों को रौंदता ु आ व इस तर भागा जा र ा
था, मानो पीछे दौड़ आ र ी ै । व ै दादा की मूँड़य
ै ा। व रुक गया और दबे
पाूँव जाकर मूँड़य
ै ा के पीछे बैठ गया। उसका अनम
ु ान ठीक नकला। व प ु ूँचा
ी था कक ि नया की बोली सन
ु ायी दी। ओ ! ग़ज़ब ो गया। अम्माूँ इतनी
कठोर ैं। एक अनाथ लड़की पर इन् ें त नक भी दया न ीं आती। और जो मैं
भी सामने जाकर िटकार दूँ ू कक तुमको झु नया से बोलने का कोई मजाल न ीं
ै , तो सारी सेखी नकल जाय। अच्छा! दादा भी बबगड़ र े ैं। केले के सलए
आज ठीकरा भी तेज़ ो गया। मैं ज़रा अदब करता ू ूँ, उसी का िल ै । य तो
दादा भी व ीं जा र े ैं। अगर झु नया को इन् ोंने मारा-पीटा तो मुझसे न स ा
जायगा। भगवान ण! अब तुम् ारा ी भरोसा ै । मैं न जानता था इस ववपत में
जान िूँसेगी। झु नया मुझे अपने मन में ककतना िूतद, कायर और नीच समझ
र ी ोगी; मगर उसे मार कैसे सकते ैं ? घर से नकाल भी कैसे सकते ैं ? क्या
घर में मेरा ह स्सा न ीं ै ? अगर झु नया पर ककसी ने ाथ उठाया, तो आज
म ाभारत ो जायगा। माूँ-बाप जब तक लड़कों की रक्षा करें , तब तक माूँ-बाप
ैं। जब उनमें ममता ी न ीं ै , तो कैसे माूँ-बाप! ोरी ज्यों ी मूँड़य
ै ा से
नकला, गोबर भी दबे पाूँव िीरे -िीरे पीछे -पीछे चला; लेककन द्वार पर प्रकाश
दे खकर उसके पाूँव बूँि गये। उस प्रकाशरे खा के अन्दर व पाूँव न ीं रख
सकता। व अूँिेरे में ी दीवार से धचमट कर खड़ा ो गया। उसकी ह म्मत ने
जवाब दे हदया। ाय! बेचारी झु नया पर नरपराि य लोग झल्ला र े ैं, और
व कुछ न ीं कर सकता। उसने खेल-खेल में जो एक धचनगारी िेंक दी थी, व
सारे खसल ान को भस्म कर दे गी, य उसने न समझा था। और अब उसमें
इतना सा स न था कक सामने आकर क े -- ाूँ, मैंने धचनगारी िेंकी थी। श्जन
हटकौनों से उसने अपने मन को सूँभाला था, वे सब इस भक
ू म्प में नीचे आ र े
और व झोंपड़ा नीचे धगर पड़ा। व पीछे लौटा। अब व झु नया को क्या मूँु
हदखाये। व सौ क़दम चला; पर इस तर , जैसे कोई ससपा ी मैदान से भागे।
उसने झु नया से प्री त और वववा की जो बातें की थीं, व सब याद आने लगीं।
व असभसार की मीठी स्मृ तयाूँ याद आयीं जब व अपने उन्मत्त उसासों में ,
अपनी नशीली धचतवनों में मानो अपने प्राण नकालकर उसके चरणों पर रख
दे ता था। झु नया ककसी ववयोगी पक्षी की भाूँ त अपने छोटे -से घोंसले में एकान्त-
जीवन काट र ी थी। व ाूँ नर का मत्त आग्र न था , न व उद्दीप्त उल्लास, न
शावकों की मीठी आवाज़ें; मगर ब े सलये का जाल और छल भी तो व ाूँ न था।
गोबर ने उसके एकांत घोसले में जाकर उसे कुछ आनन्द प ु ूँचाया या न ीं, कौन
जाने; पर उसे ववपश्त्त में तो डाल ी हदया।
व सूँभल गया। भागता ु आ ससपा ी मानो अपने एक साथी का बढ़ावा सन ु कर
पीछे लौट पड़ा। उसने द्वार पर आकर दे खा, तो ककवाड़ बन्द ो गये थे। ककवाड़ों
के दराजों से प्रकाश की रे खाएूँ बा र नकल र ी थीं। उसने एक दराज़ से बा र
झाूँका। ि नया और झु नया बैठी ु ई थीं। ोरी खड़ा था। झु नया की सससककयाूँ
सुनायी दे र ी थीं और ि नया उसे समझा र ी थी -- बेटी, तू चलकर घर में
बैठ। मैं तेरे काका और भाइयों को दे ख लूँ ग
ू ी। जब तक म जीते ैं , ककसी बात
की धचन्ता न ीं ै। मारे र ते कोई तुझे तरछी आूँखों दे ख भी न सकेगा। गोबर
गद्गद ो गया। आज व ककसी लायक़ ोता, तो दादा और अम्माूँ को सोने से
मढ़ दे ता और क ता -- अब तुम कुछ परवा न करो, आराम से बैठे खाओ और
श्जतना दान-पुन करना चा ो, करो। झु नया के प्र त अब उसे कोई शंका न ीं ै।
व उसे जो आश्रय दे ना चा ता था व समल गया। झु नया उसे दग़ाबाज़
समझती ै , तो समझे। व तो अब तभी घर आयेगा, जब व पैसे के बल से
सारे गाूँव का मूँु बन्द कर सके और दादा और अम्माूँ उसे कुल का कलंक न
समझकर कुल का तलक समझें। मन पर श्जतना ी ग रा आघात ोता ै,
उसकी प्र तकक्रया भी उतनी ी ग री ोती ै । इस अपकी तद और कलंक ने गोबर
के अन्तस्तल को मथकर व रत्न नकाल सलया जो अभी तक छपा पड़ा था।
आज प ली बार उसे अपने दा यत्व का ज्ञान ु आ और उसके साथ ी संकल्प
भी। अब तक व कम से कम काम करता और ज़्यादा से ज़्यादा खाना अपना
क़ समझता था। उसके मन में कभी य ववचार ी न ीं उठा था कक घरवालों
के साथ उसका भी कुछ कतदव्य ै । आज माता-वपता की उदात्त क्षमा ने जैसे
उसके हृदय में प्रकाश डाल हदया। जब ि नया और झु नया भीतर चली गयीं, तो
व ोरी की उसी मड़ैया में जा बैठा और भववष्य के मंसूबे बाूँिने लगा। श र के
बेलदारों को पाूँच-छः आने रोज़ समलते ैं, य उसने सुन रखा था। अगर उसे छः
आने रोज़ समलें और व एक आने में गुज़र कर ले, तो पाूँच आने रोज़ बच
जायूँ। म ीने में दस रुपए ोते ैं, और साल-भर में सवा सौ। व सवा सौ की
थैली लेकर घर आये , तो ककसकी मजाल ै , जो उसके सामने मूँु खोल सके।
य ी दातादीन और य ी पटे सुरी आकर उसकी ाूँ में ाूँ समलायेंगे। और झु नया
तो मारे गवद के िूल जाय। दो चार साल व इसी तर कमाता र े , तो घर का
सारा दसलद्दर समट जाय। अभी तो सारे घर की कमाई भी सवा सौ न ीं ोती।
अब व अकेला सवा सौ कमायेगा। य ी तो लोग क ें गे कक मजूरी करता ै।
क ने दो। मजरू ी करना कोई पाप तो न ीं ै । और सदा छः आने ी थोड़े
समलें गे। जैसे-जैसे व काम में ोसशयार ोगा, मजूरी भी तो बढ़े गी। तब व दादा
से क े गा, अब तम
ु घर बैठकर भगवान ण का भजन करो। इस खेती में जान
खपाने के ससवा और क्या रखा ै । सबसे प ले व एक पछायीं गाय लायेगा , जो
चार-पाूँच सेर दि
ू दे गी और दादा से क े गा, तुम गऊ माता की सेवा करो। इससे
तुम् ारा लोक भी बनेगा, परलोक भी। और क्या, एक आने में उसका गुज़र आराम
से न ोगा? घर-द्वार लेकर क्या करना ै । ककसी के ओसार में पड़ा र े गा।
सैकड़ों मश्न्दर ैं , िरमसाले ैं। और किर श्जसकी व मजरू ी करे गा, क्या व उसे
र ने के सलए जग न दे गा ? आटा रुपए का दस सेर आता ै । एक आने में ढाई
पाव ु आ। एक आने का तो व आटा ी खा जायगा। लकड़ी, दाल, नमक, साग
य सब क ाूँ से आयेगा ? दोनों जून के सलए सेर भर तो आटा ी चाह ए। ओ !
खाने की तो कुछ न पूछो। मट्ठ
ु ी भर चने में भी काम चल सकता ै। लुवा और
परू ी खाकर भी काम चल सकता ै । जैसी कमाई ो। व आि सेर आटा खाकर
हदन भर मज़े से काम कर सकता ै । इिर-उिर से उपले चुन सलये, लकड़ी का
काम चल गया। कभी एक पैसे की दाल ले ली, कभी आलू। आलू भूनकर भुरता
बना सलया। य ाूँ हदन काटना ै कक चैन करना ै । पत्तल पर आटा गूँि
ू ा, उपलों
पर बाहटयाूँ सेंकी, आलू भूनकर भुरता बनाया और मज़े से खाकर सो र े । घर ी
पर कौन दोनों जन
ू रोटी समलती ै , एक जन
ू चबेना ी समलता ै । व ाूँ भी एक
जून चबेने पर काटें गे। उसे शंका ु ई; अगर कभी मजूरी न समली, तो व क्या
करे गा? मगर मजूरी क्यों न समलेगी? जब व जी तोड़कर काम करे गा, तो सौ
आदमी उसे बुलायेंगे। काम सबको प्यारा ोता ै , चाम न ीं प्यारा ोता। य ाूँ भी
तो सूखा पड़ता ै , पाला धगरता ै , ऊख में दीमक लगते ैं, जौ में गेरुई लगती ै,
सरसों में ला ी लग जाती ै । उसे रात को कोई काम समल जायगा , तो उसे भी
न छोड़ेगा। हदन-भर मजूरी की; रात क ीं चौकीदारी कर लेगा। दो आने भी रात
के काम में समल जायूँ, तो चाूँदी ै । जब व लौटे गा, तो सबके सलए साडड़याूँ
लायेगा। झु नया के सलए ाथ का कंगन ज़रूर बनवायेगा और दादा के सलए एक
मूँड़
ु ासा लायेगा। इन् ीं मनमोदकों का स्वाद लेता ु आ व सो गया; लेककन ठं ड
में नींद क ाूँ! ककसी तर रात काटी और तड़के उठ कर लखनऊ की सड़क पकड़
ली। बीस कोस ी तो ै । साूँझ तक प ु ूँ च जायगा। गाूँव का कौन आदमी व ाूँ
आता-जाता ै और व अपना हठकाना न ीं सलखेगा, न ीं दादा दस ू रे ी हदन
ससर पर सवार ो जायूँगे।
हदन चढ़ने लगा। रात को कुछ न खाया था। भूख मालूम ोने लगी। पाूँव
लड़खड़ाने लगे। क ीं बैठकर दम लेने की इच्छा ोती थी। बबना कुछ पेट में डाले
व अब न ीं चल सकता; लेककन पास एक पैसा भी न ीं ै । सड़क के ककनारे
झुड़-बेररयों के झाड़ थे। उसने थोड़े से बेर तोड़ सलये और उदर को ब लाता ु आ
चला। एक गाूँव में गुड़ पकने की सुगन्ि आयी। अब मन न माना।
बड्
ु ढे ने प्रसन्न ोकर क ा -- बड़ा अच्छा करते ो भैया! बरु ा रोग ै । एक बेर
पकड़ ले, तो श्ज़न्दगी भर न ीं छोड़ता।
यव
ु ती ने प त की ओर घरू कर क ा -- मैं न जाऊूँगी, न जाऊूँगी, न जाऊूँगी। पुरुष
ने ये जैसे अश्ल्टमेटम हदया -- न जायगी?
'न जाऊूँगी।'
'न जाऊूँगी?'
'न जाऊूँगी।'
पुरुष ने उसके केश पकड़कर घसीटना शुरू ककया। युवती भूसम पर लोट गयी।
पुरुष ने ारकर क ा -- मैं किर क ता ू ूँ , उठकर चल।
स्त्री ने उसी दृढ़ता से क ा -- मैं तेरे घर सात जनम न जाऊूँगी, बोटी-बोटी काट
डाल।
पुरुष ने उसके केश छोड़ हदये और ससर पर ाथ रखकर बैठ गया। पुरुषत्व
अपनी चरम सीमा तक प ु ूँच गया। उसके आगे अब उसका कोई बस न ीं ै ।
एक क्षण में व किर खड़ा ु आ और परास्त ोकर बोला -- आणख़र तू क्या
चा ती ै?
'तू क्या पछ
ू े गा? कुछ दम भी ै । जाकर अम्माूँ के आूँचल में मूँु ढाूँककर सो।
व तेरी माूँ ोगी। मेरी कोई न ीं ै । तू उसकी गासलयाूँ सनु । मैं क्यों सुनूँू? एक
रोटी खाती ू ूँ, तो चार रोटी का काम करती ू ूँ। क्यों ककसी की िौंस स ू ूँ ? मैं तेरा
एक पीतल का छल्ला भी तो न ीं जानती!'
रा गीरों को इस कल में असभनय का आनन्द आ र ा था ; मगर उसके जल्द
समाप्त ोने की कोई आशा न थी। मंश्ज़ल खोटी ोती थी। एक-एक करके लोग
णखसकने लगे। गोबर को पुरुष की नदद यता बुरी लग र ी थी। भीड़ के सामने तो
कुछ न क सकता था। मैदान ख़ाली ु आ, तो बोला -- भाई मदद और औरत के
बीच में बोलना तो न चाह ए, मगर इतनी बेदरदी भी अच्छी न ीं ोती।
गोबर ने नःशंक भाव से क ा -- मैं कोई ू ूँ; लेककन अनुधचत बात दे खकर सभी
को बुरा लगता ै ।
परु
ु ष ने ससर ह लाकर क ा -- मालम
ू ोता ै , अभी मे ररया न ीं आयी, तभी
इतना ददद ै!
'अच्छा तो अपनी रा लो। मेरी औरत ै , मैं उसे मारूूँगा, काटूूँगा। तुम कौन ोते
ो बोलने-वाले! चले जाओ सीिें से, य ाूँ मत खड़े ो।'
गोबर का गमद ख़ून और गमद ो गया। व क्यों चला जाय। सड़क सरकार की
ै । ककसी के बाप की न ीं ै। व जब तक चा े व ाूँ खड़ा र सकता ै । व ाूँ से
उसे टाने का ककसी को अधिकार न ीं ै।
पुरुष ने ओठ चबाकर क ा -- तो तुम न जाओगे? आऊूँ?
गोबर ने अूँगोछा कमर में बाूँि सलया और समर के सलए तैयार ोकर बोला --
तुम आओ या न आओ। मैं तो तभी जाऊूँगा, जब मेरी इच्छा ोगी।
'तो मालम
ू ोता ै , ाथ पैर तड़
ु वा के जाओगे।'
पुरुष मुट्ठी बाूँिकर गोबर की ओर झपटा। उसी क्षण युवती ने उसकी िोती पकड़
ली और उसे अपनी ओर खींचती ु ई गोबर से बोली -- तुम क्यों लड़ाई करने पर
उतारू ो र े ो जी, अपनी रा क्यों न ीं जाते। य ाूँ कोई तमाशा ै । मारा
आपस का झगड़ा ै । कभी व मुझे मारता ै , कभी मैं उसे डाूँटती ू ूँ। तुमसे
मतलब।
गोबर य धिक्कार पाकर चलता बना। हदल में क ा -- य औरत मार खाने ी
लायक़ ै।
गोबर आगे नकल गया, तो युवती ने प त को डाूँटा -- तुम सबसे लड़ने क्यों
लगते ो। उसने कौन-सी बरु ी बात क ी थी कक तम्
ु ें चोट लग गयी। बरु ा काम
करोगे, तो द ु नया बुरा क े गी ी; मगर ै ककसी भले घर का और अपनी बबरादरी
का ी जान पड़ता ै । क्यों उसे अपनी ब न के सलए न ीं ठीक कर लेते?
परु
ु ष ने दस क़दम दौड़कर गोबर को आवाज़ दी और ाथ से ठ र जाने का
इशारा ककया। गोबर ने समझा, शायद किर इसके ससर भूत सवार ु आ, तभी
ललकार र ा ै । मार खाये बबना न मानेगा। अपने गाूँव में कुत्ता भी शेर ो
जाता ै लेककन आने दो। लेककन उसके मुख पर समर की ललकार न थी। मैत्री
का नमन्त्रण था। उसने गाूँव और नाम और जात पूछी। गोबर ने ठीक-ठीक
बता हदया। उस परु
ु ष का नाम कोदई था।
कोदई ने मुस्कराकर क ा -- म दोनों में लड़ाई ोते- ोते बची। तुम चले आये,
तो, मैंने सोचा, तुमने ठीक ी क ा। मैं ना क़ तुमसे तन बैठा। कुछ खेती-बारी
घर में ोती ै न?
'व ख़द
ु पछता र ी ै । चलो, ज़रा माता जी को समझा दे ना। मझ
ु से तो कुछ
क ते न ीं बनता। उन् ें भी सोचना चाह ए कक ब ू को बाप-भाई की गाली क्यों
दे ती ैं। मारी ी ब न ै । चार हदन में उसकी सगाई ो जायगी। उसकी सास
में गासलयाूँ दे गी, तो उससे सन
ु ा जायगा? सब दोस लुगाई ी का न ीं ै । माता
का भी दोस ै । जब र बात में व अपनी बेटी का पच्छ करें गी , तो में बुरा
लगेगा ी। इसमें इतनी बात अच्छी ै कक घर से रूठकर चली जाय ; पर गाली
का जवाब गाली से न ीं दे ती।'
युवती ने घघ
ूूँ ट की आड़ से गोबर को दे खकर क ा -- इतनी ी डाूँट में डर
गये? लग
ु ाई आ जायगी, तब क ाूँ भागोगे?
गाूँव समीप ी था। गाूँव क्या था, पुरवा था; दस-बार घरों का, श्जसमें आिे
खपरै ल के थे, आिे िूस के। कोदई ने अपने घर प ु ूँ चकर खाट नकाली, उस पर
एक दरी डाल दी, शबदत बनाने को क , धचलम भर लाया। और एक क्षण में व ी
युवती लोटे में शबदत लेकर आयी और गोबर को पानी का एक छींटा मारकर
मानो क्षमा माूँग ली। व अब उसका ननदोई ो र ा था। किर क्यों न अभी से
छे ड़-छाड़ शुरू कर दे !
***
13
गोबर अूँिेरे ी मूँु उठा और कोदई से बबदा माूँगी। सबको मालूम ो गया था
कक उसका ब्या ो चुका ै ; इससलए उससे कोई वववा -संबंिी चचाद न ीं की।
उसके शील-स्वभाव ने सारे घर को मग्ु ि कर सलया था। कोदई की माता को तो
उसने ऐसे मीठे शब्दों में और उसके मातप
ृ द की रक्षा करते ु ए, ऐसा उपदे श
हदया कक उसने प्रसन्न ोकर आशीवादद हदया था।
'तम
ु बड़ी ो माता जी, पज्
ू य ो। पत्र
ु माता के ररन से सौ जन्म लेकर भी उररन
न ीं ो सकता, लाख जन्म लेकर भी उररन न ीं ो सकता। करोड़ जन्म लेकर
भी न ीं ...।'
बहु ढ़या इस संख्यातीत श्रिा पर गद्गद ो गयी। इसके बाद गोबर ने जो कुछ
क ा, उसमें बुहढ़या को अपना मंगल ी हदखायी हदया। वैद्य एक बार रोगी को
चंगा कर दे , किर रोगी उसके ाथों ववष भी ख़ुशी से पी लेगा -- अब जैसे आज
ी ब ू घर से रूठकर चली गयी, तो ककसकी े ठी ु ई। ब ू को कौन जानता ै?
ककसकी लड़की ै , ककसकी ना तन ै , कौन जानता ै ! संभव ै , उसका बाप
घससयारा ी र ा ो... ।
स सा समरज़ा खश
ु ेद ने मज़दरू ों के बीच में आकर ऊूँची आवाज़ से क ा --
श्जसको छः आने रोज़ पर काम करना ो, व मेरे साथ आये। सबको छः आने
समलें गे। पाूँच बजे छुट्टी समलेगी। दस-पाूँच राजों और बढ़इयों को छोड़कर सब के
सब उनके साथ चलने को तैयार ो गये। चार सौ िटे - ालों की एक ववशाल
सेना सज गयी। आगे समरज़ा थे, कंिे पर मोटा सोटा रखे ु ए। पीछे भुखमरों की
लम्बी क़तार थी, जैसे भेड़ें ों।
समरज़ा ने सबको क़तार में खड़ा करके ी मजूरी बाूँट दी। अब ककसी को उनके
पागलपन में संदे न र ा। गोबर पैसे प ले ी पा चक
ु ा था, समरज़ा ने उसे
बुलाकर पौिे सींचने का काम सौंपा। उसे कबड्डी खेलने को न समलेगी। मन में
ऐंठकर र गया। इन बुड्ढों को उठा-उठाकर पटकता; लेककन कोई परवा न ीं।
ब ु त कबड्डी खेल चुका ै । पैसे तो पूरे समल गये। आज यग
ु ों के बाद इन ज़रा-
ग्रस्तों को कबड्डी खेलने का सौभाग्य समला। अधिकतर तो ऐसे थे , श्जन् ें याद
भी न आता था कक कभी कबड्डी खेली ै या न ीं। हदनभर श र में वपसते थे।
प र रात गये घर प ु ूँ चते थे और जो कुछ रूखा-सूखा समल जाता था, खाकर पड़े
र ते थे। प्रातःकाल किर व ी चरखा शुरू ो जाता था। जीवन नीरस, नरानंद,
केवल एक ढराद मात्र ो गया था। आज जो य अवसर समला , तो बूढ़े भी जवान
ो गये। अिमरे बूढ़े, ठठररयाूँ सलये, मूँु में दाूँत न पेट में आूँत, जाूँघ के ऊपर
िो तयाूँ या त मद चढ़ाये ताल ठोक-ठोककर उछल र े थे, मानो उन बढ़
ू ी
ड्डडयों में जवानी िूँस पड़ी ो। चटपट पाली बन गयी, दो नायक बन गये।
गोईयों का चुनाव ोने लगा। और बार बजते-बजते खेल शुरू ो गया।
जाड़ों की ठं डी िप
ू ऐसी क्रीड़ाओं के सलए आदशद ऋतु ै । इिर अ ाते के िाटक
पर समरज़ा सा ब तमाशाइयों को हटकट बाूँट र े थे। उन पर इस तर की कोई-
न-कोई सनक मेशा सवार र ती थी। अमीरों से पैसा लेकर ग़रीबों को बाूँट
दे ना। इस बूढ़ी कबड्डी का ववज्ञापन कई हदन से ो र ा था। बड़े-बड़े पोस्टर
धचपकाये गये थे, नोहटस बाूँटे गये थे। य खेल अपने ढं ग का नराला ोगा,
बबलकुल अभत
ू पव
ू ।द भारत के बढ़
ू े आज भी कैसे पोढ़े ैं, श्जन् ें य दे खना ो,
आयें और अपनी आूँखें तप्ृ त कर लें । श्जसने य तमाशा न दे खा, व पछतायेगा।
ऐसा सुअवसर किर न समलेगा। हटकट दस रुपए से लेकर दो आने तक के थे।
समरज़ा ने मूँछ
ू ों पर ताव दे कर क ा -- तो क्या आप समझती ैं, मैं कफ़लासफ़र
न ीं ू ूँ। मेरे पास पुछल्ला न ीं ै ; लेककन ू ूँ मैं कफ़लासफ़र। आप मेरा इंत ान ले
सकते ैं मे ताजी!
'य क्योंकर?'
समरज़ा ने खन्ना से पछ
ू ा -- आपके सलए भी कोई जोड़ ठीक करूूँ?
मालती ने पुचारा हदया -- ाूँ, ाूँ, इन् ें ज़रूर ले जाइए समस्टर तंखा के साथ।
जनता बूढ़े कुलेलों पर ूँसती थी, तासलयाूँ बजाती थी, गासलयाूँ दे ती थी, ललकारती
थी, बाश्ज़याूँ लगाती थी। वा ! ज़रा इन बढ़
ू े बाबा को दे खो! ककस शान से जा र े
ैं, जैसे सबको मारकर ी लौटें गे। अच्छा, दस
ू री तरफ़ से भी उन् ीं के बड़े भाई
नकले। दोनों कैसे पैंतरे बदल र े ैं! इन ड्डडयों में अभी ब ु त जान ै । इन
लोगों ने श्जतना घी खाया ै , उतना अब में पानी भी मयस्सर न ीं। लोग क ते
ैं, भारत िनी ो र ा ै। ोता ोगा। म तो य ी दे खते ैं कक इन बुड्ढों-जैसे
जीवट के जवान भी आज मश्ु ककल से नकलें गे। व उिरवाले बड्
ु ढे ने इसे दबोच
सलया। बेचारा छूट नकलने के सलए ककतना ज़ोर मार र ा ै ; मगर अब न ीं जा
सकते बच्चा! एक को तीन सलपट गये। इस तर लोग अपनी हदलचस्पी ज़ाह र
कर र े थे; उनका सारा ध्यान मैदान की ओर था। णखलाडड़यों के आघात-
प्र तघात, उछल-कूद, िर-पकड़ और उनके मरने-जीने में सभी तन्मय ो र े थे।
कभी चारों तरफ़ से क़ क़ े पड़ते, कभी कोई अन्याय या िाूँिली दे खकर लोग
'छोड़ दो, छोड़ दो' का गुल मचाते, कुछ लोग तैश में आकर पाली की तरफ़ दौड़ते,
लेककन जो थोड़े-से सज्जन शासमयाने में ऊूँचे दरजे के हटकट लेकर बैठे थे , उन् ें
इस खेल में ववशेष आनंद न समल र ा था। वे इससे अधिक म त्व की बातें कर
र े थे।
राय सा ब ने मूँछ
ू ों में मस्
ु करा ट को लपेटकर क ा -- आपकी नी त में घरवालों
को ी उलटे छुरे से लाल करना चाह ए?
'उस कोठी का सभ
ु ीते से नकलना ज़रा मुश्ककल ै । आप जानते ैं , व जग
बस्ती से ककतनी दरू ै ; मगर ख़ैर, दे खग
ूूँ ा। आप उसकी क़ीमत का क्या अंदाज़ा
करते ैं?'
'मैं ख़रीददार की तलाश में र ू ूँगा; मगर मेरा कमीशन पाूँच प्र तशत ोगा,
आपसे।'
'औरों से शायद दस प्र तशत ो क्यों; क्या करोगे इतने रुपए लेकर?'
'जी न ीं, व्यश्क्त भी एक चीज़ ै । लेककन मैंने केवल एक बार जेल जाने के
ससवा और क्या जन-सेवा की ै ? और सच पू छए तो उस बार भी मैं अपने
मतलब ी से गयी थी, उसी तर जैसे राय सा ब और खन्ना गये थे। इस नयी
सभ्यता का आिार िन ै , ववद्या और सेवा और कुल और जा त सब िन के
सामने ेय ै । कभी-कभी इ त ास में ऐसे अवसर आ जाते ैं , जब िन को
आंदोलन के सामने नीचा दे खना पड़ता ै ; मगर इसे अपवाद समणझए। मैं अपनी
ी बात क ती ू ूँ। कोई ग़रीब औरत दवाखाने में आ जाती ै , तो घंटों उससे
बोलती तक न ीं। पर कोई मह ला कार पर आ गयी , तो द्वार तक जाकर उसका
स्वागत करती ू ूँ और उसकी ऐसी उपासना करती ू ूँ , मानो साक्षात ण दे वी ै । मेरी
और रानी सा ब का कोई मुकाबला न ीं। श्जस तर के कौंससल बन र े ैं, उनके
सलए रानी सा ब ी ज़्यादा उपयुक्त ैं।'
उिर मैदान में मे ता की टीम कमज़ोर पड़ती जाती थी। आिे से ज़्यादा णखलाड़ी
मर चुके थे। मे ता ने अपने जीवन में कभी कबड्डी न खेली थी। समरज़ा इस
िन के उस्ताद थे। मे ता की तातीलें असभनय के अभ्यास में कटती थीं। रूप
भरने में व अच्छे -अच्छे को चककत कर दे ते थे। और समरज़ा के सलए सारी
हदलचस्पी अखाड़े में थी, प लवानों के भी और पररयों के भी। मालती का ध्यान
उिर भी लगा ु आ था।
'मैं पछ
ू ती ू ूँ, इस खेल में ाफ़ टाइम न ीं ोता?'
मे ता ने एक बार किर उठने की चेष्टा की; पर समरज़ा ने उनकी गदद न दबा दी।
'अदावत ी स ी।'
'आप न छोड़ेंगे?'
मालती शमद से लाल ु ई जाती थी। बोली -- आप बड़े बेमरु ौवत आदमी ैं
समरज़ाजी! मुझे आज मालूम ु आ।
'आपकी।
'न ीं-न ीं, मैं सच क ता ू ूँ , मुझे बबलकुल ख़बर न ीं ै । क्या मेरी शादी ोने जा
र ी ै ?'
'लेककन खन्ना!'
खुशेद ने दाढ़ी पर
ाथ िेरते ु ए जैसे कोई भूली ु ई बात याद करके क ा --
आपका ख़याल ब ु त ठीक ै समस्टर मे ता! ऐसी औरत अगर क ीं समल जाय,
तो मैं भी शादी कर लूँ ,ू लेककन मुझे उम्मीद न ीं ै कक समले।
'ऐसी औरतों से मैं केवल मनोरं जन कर सकता ू ूँ , ब्या न ीं। ब्या तो आत्म-
समपदण ै ।'
'श्जतना तू माूँगे।'
' म तुम् ें पंद्र रुपए दें गे और ख़ूब कसकर काम लें गे।'
ोरी की फ़सल सारी की सारी डाूँड़ की भें ट ो चुकी थी। वैशाख तो ककसी तर
कटा, मगर जेठ लगते-लगते घर में अनाज का एक दाना न र ा। पाूँच-पाूँच पेट
खानेवाले और घर में अनाज नदारद। दोनों जन
ू न समले, एक जन
ू तो समलना ी
चाह ए। भर-पेट न समले, आिा पेट तो समले। नरा ार कोई कै हदन र सकता
ै ! उिार ले तो ककससे! गाूँव के सभी छोटे -बड़े म ाजनों से तो मूँु चुराना पड़ता
था। मजूरी भी करे , तो ककसकी। जेठ में अपना ी काम ढे रों था। ऊख की
ससंचाई लगी ु ई थी; लेककन ख़ाली पेट मे नत भी कैसे ो! साूँझ ो गयी थी।
छोटा बच्चा रो र ा था। माूँ को भोजन न समले, तो दि
ू क ाूँ से नकले? सोना
पररश्स्थ त समझती थी; मगर रूपा क्या समझे! बार-बार रोटी-रोटी धचल्ला र ी
थी। हदन-भर तो कच्ची असमया से जी ब ला; मगर अब तो कोई ठोस चीज़
चाह ए। ोरी दल
ु ारी स ु आइन से अनाज उिार माूँगने गया था; पर व दक
ू ान
बंद करके पैठ चली गयी थी। मूँगरू सा ने केवल इनकार ी न ककया, लताड़
भी दी -- उिार माूँगने चले ैं, तीन साल से िेला सद
ू न ीं हदया, उस पर उिार
हदये जाओ। अब आकबत में दें गे। खोटी नीयत ो जाती ै , तो य ी ाल ोता
ै । भगवान ण से भी य अनी त न ीं दे खी जाती। कारकुन की डाूँट पड़ी, तो कैसे
चुपके से रुपए उगल हदये। मेरे रुपए, रुपए ी न ीं ैं। और मे ररया ै कक
उसका समज़ाज ी न ीं समलता। व ाूँ से रुआूँसा ोकर उदास बैठा था कक पुन्नी
आग लेने आयी। रसोई के द्वार पर जाकर दे खा तो अूँिेरा पड़ा ु आ था।
जब से गोबर भागा था, पुन्नी और ि नया में बोलचाल ो गयी थी। ोरी का
ए सान भी मानने लगी थी। ीरा को अब व गासलयाूँ दे ती थी -- त्यारा, गऊ-
त्या, करके भागा। मूँु में कासलख लगी ै , घर कैसे आये ? और आये भी तो घर
के अन्दर पाूँव न रखने दूँ ।ू गऊ- त्या करते इसे लाज भी न आयी। ब ु त अच्छा
ोता, पसु लस बाूँिकर ले जाती और चक्की वपसवाती!
ि नया कोई ब ाना न कर सकी। बोली -- रोटी क ाूँ से बने, घर में दाना तो ै
ी न ीं। तेरे म तो ने बबरादरी का पेट भर हदया, बाल-बच्चे मरें या श्जयें। अब
बबरादरी झाूँकती तक न ीं।
पन्
ु नी की फ़सल अच्छी ु ई थी, और व स्वीकार करती थी कक य ोरी का
पुरुषाथद ै । ीरा के साथ कभी इतनी बरक्कत न ु ई थी।
व उलटे पाूँव लौटी और सोना को भी साथ लेती गयी। एक क्षण में दो डल्ले
अनाज से भरे लाकर आूँगन में रख हदये। दो मन से कम जौ न था। ि नया
अभी कुछ क ने न पायी थी कक व किर चल दी और एक क्षण में एक बड़ी-सी
टोकरी अर र की दाल से भरी ु ई लाकर रख दी, और बोली -- चलो, मैं आग
जलाये दे ती ू ूँ।
आूँगन में बच्चा खटोले पर पड़ा रो र ा था। पु नया उसे गोद में लेकर दल
ु राती
ु ई बोली -- तुम् ारी दया से अभी ब ु त ै भाभीजी! पंद्र मन तो जौ ु आ ै
और दस मन गे ू ूँ। पाूँच मन मटर ु आ, तम ु से क्या छपाना ै । दोनों घरों का
काम चल जायगा। दो-तीन म ीने में किर मकई ो जायगी। आगे भगवान ण
मासलक ै।
झु नया ने आकर अंचल से छोटी सास के चरण छुए। पु नया ने असीस हदया।
सोना आग जलाने चली, रूपा ने पानी के सलए कलसा उठाया। रुकी ु ई गाड़ी
चल नकली। जल में अवरोि के कारण जो चक्कर था , िेन था, शोर था, ग त
की तीव्रता थी, व अवरोि के ट जाने से शान्त मिुर-ध्व न के साथ सम,
िीमी, एक-रस िार में ब ने लगी।
' ोन ार को कौन टाल सकता ै पगली! अभी इतने ी से गला न ीं छूटा भोला
अब अपनी गाय के दाम माूँग र ा ै । तब तो गाय दी थी कक मेरी सगाई क ीं
ठीक कर दो। अब क ता ै , मझ
ु े सगाई न ीं करनी, मेरे रुपए दे दो। उसके दोनों
बेटे लाठी सलये किरते ैं। मारे कौन बैठा ै , जो उससे लड़े! इस सत्यानासी गाय
ने आकर चौपट कर हदया।'
कुछ और बातें करके पु नया आग लेकर चली गयी। ोरी सब कुछ दे ख र ा था।
भीतर आकर बोला -- पु नया हदल की साफ़ ै।
'मैं तम्
ु ारे दोनों बैल खोल ले जाऊूँगा।'
दीन स्वर में बोला -- दोनों बैल ले लोगे, तो मेरा सवदनाश ो जायगा। अगर
तम्
ु ारा िरम य ी क ता ै , तो खोल ले जाओ।
'तुम् ारे बनने-बबगड़ने की मुझे परवा न ीं ै । मुझे अपने रुपए चाह ए।'
भोला सन्नाटे में आ गया। उसे अपने कानों पर ववकवास न आया। ोरी इतनी
बड़ी बेईमानी कर सकता ै, य संभव न ीं। उग्र ोकर बोला -- अगर तुम ाथ
में गंगाजली लेकर क दो कक मैंने रुपए दे हदये, तो सबर कर लूँ ।ू
'तुम क ी न ीं सकते।'
जाकर रूपा से बोली -- अम्माूँ को जल्दी से बुला ला। क ना, बड़ा काम ै , बबलम
न करो।
ि नया के पेट की आूँतें भीतर ससमट गयीं। दोनों बैल माूँग र े ैं?
व इसी तैश में बा र आकर ोरी से बोली -- म तो दोनों बैल माूँग र े ैं, तो दे
क्यों न ीं दे ते?
'उनका पेट भरे , मारे भगवान ण मासलक ैं। मारे ाथ तो न ीं काट लें गे? अब
तक अपनी मजूरी करते थे, अब दस
ू रों की मजूरी करें गे। भगवान ण की मरज़ी
ोगी, तो किर बैल-बधिये ो जायूँगे, और मजरू ी ी करते र े , तो कौन बरु ाई ै।
बूड़स
े ूखे और जोत-लगान का बोझ तो न र े गा। मैं न जानती थी, य मारे बैरी
ैं, न ीं गाय लेकर अपने ससर पर ववपश्त्त क्यों लेती! उस नगोड़ी का पौरा श्जस
हदन से आया, घर त स-न स ो गया।
'न ीं रोऊूँगा।'
भोला णखससयाकर बोला -- दरू ो मेरे सामने से। भगवान ण न करे मुझे किर तेरा
मूँु दे खना पड़े। कुसलच्छनी, कुल-कलंककनी क ीं की। अब तेरे सलए डूब मरना ी
उधचत ै।
ि नया उसको अपनी ओर खींचती ु ई बोली -- व तेरा बाप न ीं ै , तेरा बैरी ैं;
त्यारा। माूँ ोती, तो अलबत्ते उसे कलक ोता। ला सगाई। मे ररया जूतों से न
पीटे , तो क ना!
झु नया सास के पीछे -पीछे घर में चली गयी। उिर भोला ने जाकर दोनों बैलों
को खूट
ूँ ों से खोला और ाूँकता ु आ घर चला, जैसे ककसी नेवते में जाकर पूररयों
के बदले जूते पड़े ों -- अब करो खेती और बजाओ बंसी। मेरा अपमान करना
चा ते ैं सब, न जाने कब का बैर नकाल र े ैं , न ीं, ऐसी लड़की को कौन भला
आदमी अपने घर में रखेगा। सब के सब बेसरम ो गये ैं। लौंडे का क ीं ब्या
न ोता था इसी से। और इस राूँड़ झु नया की हढठाई दे खो कक आकर मेरे
सामने खड़ी ो गयी। दस
ू री लड़की ोती, तो मूँु न हदखाती। आूँख का पानी मर
गया ै । सब के सब दष्ु ट और मूरख भी ैं। समझते ैं, झु नया अब मारी ो
गयी। य न ीं समझते जो अपने बाप के घर न र ी , व ककसी के घर न ीं
र े गी। समय ख़राब ै , न ीं बीच बाज़ार में इस चुड़ल
ै ि नया के झोंटे पकड़कर
घसीटता। मुझे ककतनी गासलयाूँ दे ती थी।
किर उसने दोनों बैलों को दे खा, ककतने तैयार ैं। अच्छी जोड़ी ै । ज ाूँ चा ू ूँ , सौ
रुपए में बेच सकता ू ूँ। मेरे अस्सी रुपए खरे ो जायूँगे। अभी व गाूँव के बा र
भी न नकला था कक पीछे से दातादीन, पटे कवरी, शोभा और दस-बीस आदमी
और दौड़े आते हदखायी हदये। भोला का ल ू सदद ो गया। अब फ़ौजदरी ु ई; बैल
भी छन जायूँगे, मार भी पड़ेगी। व रुक गया कमर कसकर। मरना ी ै तो
लड़कर मरे गा।
दातादीन ने समीप आकर क ा -- य तम
ु ने क्या अनथद ककया भोला ऐं! उसके
बैल खोल लाये, व कुछ बोला न ीं, इसी से सेर ो गये। सब लोग अपने-अपने
काम में लगे थे, ककसी को ख़बर भी न ु ई। ोरी ने ज़रा-सा इशारा कर हदया
ोता, तो तुम् ारा एक-एक बाल चुन जाता। भला चा ते ो, तो ले चलो बैल, ज़रा
भी भलमंसी न ीं ै तुममें ।
पटे कवरी बोले -- य उसके सीिेपन का िल ै । तुम् ारे रुपये उस पर आते ैं,
तो जाकर हदवानी में दावा करो, डडग्री कराओ। बैल खोल लाने का तुम् ें क्या
अश्ख़्तयार ै ? अभी फ़ौजदारी में दावा कर दे तो बूँि-े बूँिे किरो।
पटे कवरी ने शोभा से क ा -- तुम बैलों को लौटा दो शोभा। ककसान अपने बैल
ख़ुशी से दे गा, तो इन् ें ल में जोतेगा।
भोला बैलों के सामने खड़ा ो गया। मारे रुपए हदलवा दो में बैलों को लेकर
क्या करना ै। म बैल सलये जाते ैं , अपने रुपए के सलए दावा करो और न ीं
तो मारकर धगरा हदये जाओगे। रुपए हदये थे नगद तुमने? एक कुसलच्छनी गाय
बेचारे के ससर मढ़ दी और अब उसके बैल खोले सलये जाते ो। '
दातादीन ने एक क़दम आगे बढ़कर अपनी झुकी कमर को सीिा करके ललकारा
-- तम
ु सब खड़े ताकते क्या ो, मार के भगा दो इसको। मारे गाूँव से बैल
खोल ले जाएगा।
बंशी बसलष्ठ युवक था। उसने भोला को ज़ोर से िक्का हदया। भोला सूँभल न
सका, धगर पड़ा। उठना चा ता था कक बंशी ने किर एक घस
ूूँ ा हदया।
***
15
उसके बाप उन ववधचत्र जीवों में थे, जो केवल ज़बान की मदद से लाखों के वारे -
न्यारे करते थे। बड़े-बड़े ज़मींदारों और रईसों की जायदादें बबकवाना , उन् ें क़रज़
हदलाना या उनके मुआमलों को अफ़सरों से समलकर तय करा दे ना, य ी उनका
व्यवसाय था। दस
ू रे शब्दों में, दलाल थे। इस वगद के लोग बड़े प्र तभावान ोते
ैं। श्जस काम से कुछ समलने की आशा ो, व उठा लें गे, ककसी न ककसी तर
उसे नभा भी दें गे। ककसी राजा की शादी ककसी राजकुमारी से ठीक करवा दी
और दस-बीस ज़ार उसी में मार सलये। य ी दलाल जब छोटे -छोटे सौदे करते ैं,
तो टाउट क े जाते ैं, और म उनसे घण
ृ ा करते ैं। बड़े-बड़े काम करके व ी
टाउट राजाओं के साथ सशकार खेलता ै और गवनदरों की मेज़ पर चाय पीता ै।
समस्टर कौल उन् ीं भाग्यवानों में से थे। उनके तीन लड़ककयाूँ ी लड़ककयाूँ थीं।
उनका ववचार था कक तीनों को इंगलैंड भेजकर सशक्षा के सशखर पर प ु ूँचा दें ।
अन्य ब ु त से बड़े आदसमयों की तर उनका भी ख़याल था कक इंगलैंड में सशक्षा
पाकर आदमी कुछ और ो जाता ै । शायद व ाूँ के जल-वायु में बुवि को तेज़
कर दे ने की कोई शश्क्त ै ; मगर उनकी य कामना एक- त ाई से ज़्यादा परू ी न
ु ई। मालती इंगलैंड में ी थी कक उन पर फ़ासलज धगरा और बेकाम कर गया।
अब बड़ी मश्ु ककल से दो आदसमयों के स ारे उठते-बैठते थे। ज़बान तो बबलकुल
बंद ी ो गयी। और जब ज़बान ी बंद ो गयी, तो आमदनी भी बंद ो गयी।
जो कुछ थी, ज़बान ी की कमाई थी। कुछ बचा रखने की उनकी आदत न थी।
अ नयसमत आय थी और अ नयसमत ख़चद था; इससलए इिर कई साल से ब ु त
तंग ाल ो र े थे।
सारा दा यत्व मालती पर आ पड़ा। मालती के चार-पाूँच सौ रुपए में व भोग-
ववलास और ठाट-बाट तो क्या नभता! ाूँ, इतना था कक दोनों लड़ककयों की
सशक्षा ोती जाती थी और भलेमानसों की तर श्ज़ंदगी बसर ोती थी। मालती
सुब से प र रात तक दौड़ती र ती थी। चा ती थी कक वपता साश्त्वकता के
साथ र ें , लेककन वपताजी को शराब-कवाब का ऐसा चस्का पड़ा था कक ककसी
तर गला न छोड़ता था। क ीं से कुछ न समलता, तो एक म ाजन से अपने
बूँगले पर प्रोनोट सलखकर ज़ार दो ज़ार ले लेते थे। म ाजन उनका पुराना
समत्र था, श्जसने उनकी बदौलत लेन-दे न में लाखों कमाये थे, और मुरौवत के मारे
कुछ बोलता न था। उसके पचीस ज़ार चढ़ चुके थे, और जब चा ता, क़ुक़ी करा
सकता था; मगर समत्रता की लाज नभाता जाता था। आत्मसेववयों में जो
नलदज्जता आ जाती ै, व
कौल में भी थी। तक़ाज़े ु आ करें , उन् ें परवा न थी।
मालती उनके अपव्यय पर झूँुझलाती र ती थी; लेककन उसकी माता जो साक्षात ण
दे वी थीं और इस युग में भी प त की सेवा को नारी-जीवन का मुख्य े तु
समझती थीं, उसे समझाती र ती थी; इससलए ग ृ -युि न ोने पाता था।
'रोज़ भेजते ैं, रोज़। अभी तो आज ी भेजा था। क ो तो बुलाकर पुछवा दूँ ?ू '
'पछ
ु वायेगी, बल
ु ाऊूँ?'
मालती ने कटाक्ष ककया -- लेडी ु क़्क़ू ने? इस ववषय में व भी कुछ बोलने का
सा स रखती ैं! तुम् ें डाक्टर सा ब का भाषण आहद से अंत तक सुनना चाह ए
था। उन् ोंने हदल में लड़ककयों को क्या समझा ोगा?
'पूरा भाषण सुनने का सब्र ककसे था? व तो जैसे घाव पर नमक छड़कते थे। '
'किर उन् ें बल
ु ाया ी क्यों? आणख़र उन् ें औरतों से कोई वैर तो ै न ीं। श्जस
बात को म सत्य समझते ैं , उसी का तो प्रचार करते ैं। औरतों को ख़ुश करने
के सलए व उनकी-सी क नेवालों में न ीं ैं और किर अभी य कौन जानता ै
कक श्स्त्रयाूँ श्जस रास्ते पर चलना चा ती ैं व ी सत्य ै । ब ु त संभव ै , आगे
चल कर में अपनी िारणा बदलनी पड़े।'
उसने फ़्ांस, जमदनी और इटली की मह लाओं के जीवन आदशद बतलाये और क ा
-- शीघ्र ी वीमें स लीग की ओर से मे ता का भाषण ोनेवाला ै।
सरोज को कुतू ल ु आ।
'अब भी क ती ू ूँ ; लेककन दस
ू रे पक्षवाले क्या क ते ैं, य भी तो सुनना चाह ए।
संभव ै ; मीं ग़लती पर ों।'
तासलयाूँ बजीं।
'बबजली' संपादक को बरु ा लगा -- कोई नई बात न ीं। मैं ककतनी ी बार य
भाव व्यक्त कर चक
ु ा ू ूँ।
मे ता आगे बढ़े -- इससलए जब मैं दे खताू ूँ, मारी उन्नत ववचारोंवाली दे ववयाूँ
उस दया और श्रिा और त्याग के जीवन से असंतुष्ट ोकर संग्राम और कल
और ह स
ं ा के जीवन की ओर दौड़ र ी ैं और समझ र ी ैं कक य ी सख
ु का
स्वगद ै , तो मैं उन् ें बिाई न ीं दे सकता।
समसेज़ खन्ना ने मालती की ओर सगवद नेत्रों से दे खा। मालती ने गदद न झुका
ली।
ओंकारनाथ ने टीका की -- लेककन बातें सभी परु ानी ैं, सड़ी ु ईं।
'जो एक ज़ार रुपए र म ीने िटकारकर ववलास में उड़ाता ो , उसमें आत्मबल
जैसी वस्तु न ीं र सकती। य केवल पुराने ववचार की नाररयों और पुरुषों को
प्रसन्न करने के ढं ग ैं। '
खन्ना पर झेंप छा गयी -- मैं ऐसे समाजों को चंदे न ीं हदया करता, जो कला
का ढोंग रचकर दरु ाचार िैलाते ैं।
'असत्य सन
ु कर मझ
ु से स ा न ीं जाता!'
मे ता ने उत्तर हदया -- संसार में सबसे बड़े अधिकार सेवा और त्याग से समलते
ैं और व आपको समले ु ए ैं। उन अधिकारों के सामने वोट कोई चीज़ न ीं।
मझ
ु े खेद ै , मारी ब नें पश्कचम का आदशद ले र ी ैं , ज ाूँ नारी ने अपना पद
खो हदया ै और स्वासमनी से धगरकर ववलास की वस्तु बन गयी ै । पश्कचम की
स्त्री स्वच्छं द ोना चा ती ै ; इसीसलए कक व अधिक से अधिक ववलास कर
सके। मारी माताओं का आदशद कभी ववलास न ीं र ा। उन् ोंने केवल सेवा के
अधिकार से सदै व ग ृ स्थी का संचालन ककया ै । पश्कचम में जो चीज़ें अच्छी ैं ,
व उनसे लीश्जए। संस्कृ त में सदै व आदान-प्रदान ोता आया ै ; लेककन अंिी
नक़ल तो मानससक दब
ु ल
द ता का ी लक्षण ै ! पश्कचम की स्त्री आज ग ृ -
स्वासमनी न ीं र ना चा ती। भोग की ववदग्ि लालसा ने उसे उच्छृखल बना
हदया ै। व अपनी लज्जा और गररमा को जो उसकी सबसे बड़ी ववभू त थी,
चंचलता और आमोद-प्रमोद पर ोम कर र ी ै । जब मैं व ाूँ की सुसशक्षक्षत
बासलकाओं को अपने रूप का, या भरी ु ई गोल बाूँ ों या अपनी नग्नता का
प्रदशदन करते दे खता ू ूँ , तो मझ
ु े उन पर दया आती ै । उनकी लालसाओं ने उन् ें
इतना पराभूत कर हदया ै कक वे अपनी लज्जा की भी रक्षा न ीं कर सकतीं।
नारी की इससे अधिक और क्या अिोग त ो सकती ै?
'जी न ीं, अपने लोग ककसी के मुरीद न ीं ोते। मैं इसका जवाब ढूूँढ़ नकालूँ ग
ू ा,
'बबजली' में दे णखएगा।'
'मैं उन सभी लोगों का वकील ू ूँ, जो नबदल ैं, नस्स ाय ैं, पीडड़त ैं।'
'बड़े बे या ो यार।'
मे ताजी क र े थे -- और य परु
ु षों का षडयंत्र ै । दे ववयों को ऊूँचे सशखर से
खींचकर अपने बराबर बनाने के सलए, उन पुरुषों का, जो कायर ैं , श्जनमें
वैवाह क जीवन का दा यत्व सूँभालने की क्षमता न ीं ै , जो स्वच्छं द काम-क्रीड़ा
की तरं गों में साूँड़ों की भाूँ त दस
ू रों की री-भरी खेती में मूँु डालकर अपनी
कुश्त्सत लालसाओं को तप्ृ त करना चा ते ैं। पश्कचम में इनका षडयंत्र सिल ो
गया और दे ववयाूँ ततसलयाूँ बन गयीं। मझ
ु े य
क ते ु ए शमद आती ै कक इस
त्याग और तपस्या की भूसम भारत में भी कुछ व ी वा चलने लगी ै ।
ववशेषकर मारी सशक्षक्षत ब नों पर व जाद ू बड़ी तेज़ी से चढ़ र ा ै। व
गहृ णी का आदशद त्यागकर ततसलयों का रं ग पकड़ र ी ैं।
ज़ोर से तासलयाूँ बजीं, ववशेषकर अगली पंश्क्तयों में ज ाूँ मह लाएूँ थीं।
मालती ूँसी -- आप क्यों न बिाई दें गे, चोर-चोर मौसेरे भाई जो ोते ैं ; न मगर
य सारा उपदे श ग़रीब नाररयों ी के ससर क्यों थोपा जाता ै , उन् ीं के ससर
क्यों आदशद और मयादाद और त्याग सब कुछ पालन करने का भार पटका जाता
ै?
'तो आपको ये ववचार सौ साल वपछड़े ु ए मालूम ोते ैं! तो कृपा करके अपने
ताज़े ववचार बतलाइए। दं प त कैसे सुखी र सकते ैं , इसका कोई ताज़ा नुसख़ा
आपके पास ै ?'
समसेज़ खन्ना बरामदे में चली गयी थीं। मे ता ने उनके पास जाकर प्रणाम
करते ु ए पछ
ू ा -- मेरे भाषण के ववषय में आपकी क्या राय ै?
समसेज़ खन्ना ने आूँखें झक
ु ाकर क ा -- अच्छा था, ब ु त अच्छा; मगर अभी आप
अवववाह त ैं, सभी नाररयाूँ दे ववयाूँ ैं, श्रेष्ठ ैं, कणिादर ैं। वववा कर लीश्जए तो
पूछूूँगी, अब नाररयाूँ क्या ैं? और वववा आपको करना पड़ेगा; क्योंकक आप वववा
से मूँु चुरानेवाले मदों को कायर क चुके ैं।
'शतद य ी ै कक व कुछ हदन आपके चरणों में बैठकर आपसे नारी-िमद सीखें।'
'तक़रीर तो ख़ैर जैसी थी, वैसी थी; मगर कामयाब ख़ूब र ी। आपने परी को शीशे
में उतार सलया। अपनी तक़दीर सराह ए कक श्जसने आज तक ककसी को मूँु न ीं
लगाया, व आपका कलमा पढ़ र ी ै ।'
समसेज़ खन्ना दबी ज़बान से बोली -- जब नशा ठ र जाय, तो कह ए।
समसेज़ खन्ना ने अपने प त को कार की तरफ़ जाते दे खा, तो उिर चली गयीं।
समरज़ा भी बा र नकल गये। मे ता ने मंच पर से अपनी छड़ी उठायी और
बा र जाना चा ते थे कक मालती ने आकर उनका ाथ पकड़ सलया और आग्र -
भरी आूँखों से बोली -- आप अभी न ीं जा सकते। चसलए, पापा से आपकी
मुलाक़ात कराऊूँ और आज व ीं खाना खाइए।
'जी न ीं, य न ोगा। मेरी कार सरोज को लेकर चल दी। आप मुझे प ु ूँचाने तो
चलें गे ी।'
दोनों मे ता की कार में बैठे। कार चली। एक क्षण के बाद मे ता ने पूछा -- मैंने
सुना ै , खन्ना सा ब अपनी बीबी को मारा करते ैं। तब से मुझे इनकी सूरत से
नफ़रत ो गयी। जो आदमी इतना नदद यी ो , उसे मैं आदमी न ीं समझता। उस
पर आप नारी जा त के बड़े ह तैषी बनते ैं। तम
ु ने उन् ें कभी समझाया न ीं?
'अगर मदद बदसमज़ाज ै , तो तुम् ारी राय में उस मदद पर ं टरों की बौछार करनी
चाह ए, क्यों?'
मालती ने तीव्र स्वर में पूछा -- लेककन आपने य अनुमान कैसे कर सलया कक
मैं आपके शब्दों में खन्ना और गोववंदी के बीच आना चा ती ू ूँ। आप ऐसा
अनुमान करके मेरा अपमान कर र े ैं। मैं खन्ना को अपनी जू तयों की नोक
के बराबर भी न ीं समझती।
मालती का गला भराद गया और उसने मूँु िेरकर रूमाल से आूँसू पोंछे । किर
एक समनट बाद बोली -- औरों के साथ तम
ु भी मझ
ु े .. मझ
ु े ... इसका दख
ु ै
... मझ
ु े तम
ु से ऐसी आशा न थी।
'मैं मानवता की त्या न ीं कर सकती। व आयेंगे तो मैं उन् ें दरु -दरु ाऊूँगी
न ीं।'
मालती का बूँगला आ गया। कार रुक गयी। मालती उतर पड़ी और बबना ाथ
समलाये चली गयी। व य भी भूल गयी कक उसने मे ता को भोजन की दावत
दी ै। व एकांत में जाकर ख़ूब रोना चा ती ै । गोववंदी ने प ले भी आघात
ककये ैं; पर आज उसने जो आघात ककया ै, व ब ु त ग रा, बड़ा चौड़ा और बड़ा
ममदभेदी ै।
***
16
नोखेराम ने इतनी गासलयाूँ खायीं, तो ज़रा गमद ोकर बोले -- मैं अकेला थोड़ा ी
था। गाूँव के और पंच भी तो थे। मैं अकेला क्या कर लेता।
'नक़द?'
'नक़द उसके पास क ाूँ थे ु ज़ूर! कुछ अनाज हदया, बाक़ी में अपना घर सलख
हदया।'
पटे कवरी ने अपनी लंबी शंकाशील गदद न ह लाकर क ा -- मैं मना करता था कक
ोरी के ववषय में में चुप्पी सािकर र जाना चाह ए। गाय के मामले में सबको
तावान दे ना पड़ा। इस मामले में तावान ी से गला न छूटे गा, नौकरी से ाथ
िोना पड़ेगा; मगर तम
ु लोगों को रुपए की पड़ी थी। नकालो बीस-बीस रुपए।
अब भी कुशल ै । क ीं राय सा ब ने रपट कर दी, तो सब जने बूँि जाओगे।
संपादक ओंकारनाथ तो ऐसे पत्रों की ताक में र ते थे। पत्र पाते ी तुरंत राय
सा ब को सूचना दी। उन् ें एक ऐसा समाचार समला ै , श्जस पर ववशवास
ण करने
की उनकी इच्छा न ीं ोती; पर संवाददाता ने ऐसे प्रमाण हदये कक स सा
अववकवास भी न ीं ककया जा सकता। क्या य सच ै कक राय सा ब ने अपने
इलाक़े के एक असामी से अस्सी रुपए तावान इससलए वसूल ककये कक उसके पुत्र
ने एक वविवा को घर में डाल सलया था? संपादक का कतदव्य उन् ें मज़बूर करता
ै कक व मुआमले की जाूँच करें और जनता के ह ताथद उसे प्रकासशत कर दें ।
राय सा ब इस ववषय में जो कुछ क ना चा ें , संपादक जी उसे भी प्रकासशत कर
दें गे। संपादकजी हदल से चा ते ैं कक य ख़बर गलत ो ; लेककन उसमें कुछ भी
सत्य ु आ, तो व उसे प्रकाश में लाने के सलए वववश ो जायूँगे। मैत्री उन् ें
कतदव्य-पथ से न ीं टा सकती।
राय सा ब ने य सच
ू ना पायी, तो ससर पीट सलया। प ले तो उनकी ऐसी
उत्तेजना ु ई कक जाकर ओंकारनाथ को धगनकर पचास ं टर जमायें और क दें ,
ज ाूँ व पत्र छापना व ाूँ य समाचार भी छाप दे ना ; लेककन इसका पररणाम
सोचकर मन को शांत ककया और तुरंत उनसे समलने चले। अगर दे र की, और
ओंकारनाथ ने व संवाद छाप हदया, तो उनके सारे यश में कासलमा पुत जायगी।
ओंकारनाथ सैर करके लौटे थे और आज के पत्र के सलए संपादकीय लेख सलखने
की धचंता में बैठे ु ए थे; पर मन पक्षी की भाूँ त अभी उड़ा-उड़ा किरता था।
उनकी िमदपत्नी ने रात में उन् ें कुछ ऐसी बातें क डाली थीं जो अभी तक
काूँटों की तर चुभ र ी थीं। उन् ें कोई दररद्र क ले , अभागा क ले, बुिू क ले,
व ज़रा भी बुरा न मानते थे; लेककन य क ना कक उनमें पुरुषत्व न ीं ै, य
उनके सलए असह्य था। और किर अपनी पत्नी को य क ने का क्या क़ ै?
उससे तो य आशा की जाती ै कक कोई इस तर का आक्षेप करे , तो उसका
मूँु बंद कर दे । बेशक व ऐसी ख़बरें न ीं छापते, ऐसी हटप्पणणयाूँ न ीं करते कक
ससर पर कोई आफ़त आ जाय। िूूँक-िूूँककर क़दम रखते ैं। इन काले कानूनों
के युग में व और कर ी क्या सकते ैं; मगर व क्यों साूँप के बबल में ाथ
न ीं डालते? इसीसलए तो कक उनके घरवालों को कष्ट न उठाने पड़े। और उनकी
सह ष्णुता का उन् ें य पुरस्कार समल र ा ै ? क्या अूँिेर ै ! उनके पास रुपए
न ीं ैं, तो बनारसी साड़ी कैसे मूँगा दें ? डाक्टर सेठ और प्रोफ़ेसर भाहटया और न
जाने ककस-ककस की श्स्त्रयाूँ बनारसी साड़ी प नती ैं , तो व क्या करें ? क्यों
उनकी पत्नी इन साड़ीवासलयों को अपनी खद्दर की साड़ी से लश्ज्जत न ीं
करती? उनकी ख़द
ु तो य आदत ै कक ककसी बड़े आदमी से समलने जाते ैं, तो
मोटे से मोटे कपड़े प न लेते ैं और कुछ कोई आलोचना करे तो उसका मूँु तोड़
जवाब दे ने को तैयार र ते ैं। उनकी पत्नी में क्यों व ी आत्मासभमान न ीं ै?
व क्यों दस
ू रों का ठाट-बाट दे खकर ववचसलत ो जाती ै ? उसे समझना चाह ए
कक व एक दे श-भक्त पुरुष की पत्नी ै । दे श-भक्त के पास अपनी भश्क्त के
ससवा और क्या संपश्त्त ै । इसी ववषय को आज के अग्रलेख का ववषय बनाने
की कल्पना करते-करते उनका ध्यान राय सा ब के मुआमले की ओर जा प ु ूँचा।
राय सा ब सूचना का क्या उत्तर दे ते ैं , य दे खना ै । अगर व अपनी सफ़ाई
दे ने में सिल ो जाते ैं, तब तो कोई बात न ीं, लेककन अगर व य समझें कक
ओंकारनाथ दबाव, भय, या मुला जे में आकर अपने कतदव्य से मूँु िेर लें गे तो
य उनका भ्रम ै । इस सारे तप और सािन का पुरस्कार उन् ें इसके ससवा और
क्या समलता ै कक अवसर पड़ने पर व इन क़ानूनी डकैतों का भंडा-िोड़ करें ।
उन् ें ख़ूब मालूम ै कक राय सा ब बड़े प्रभावशाली जीव ैं। कौंससल के मेम्बर
तो ैं ी। अधिकाररयों में भी उनका काफ़ी रुसख
ू ै। व चा ें , तो उन पर झठ
ू े
मुक़दमे चलवा सकते ैं, अपने गुंडों से रा चलते वपटवा सकते ैं; लेककन ओंकार
इन बातों से न ीं डरता। जब तक उसकी दे में प्राण ै, व आतता ययों की
ख़बर लेता र े गा।
स सा मोटरकार की आवाज़ सन
ु कर व चौंके। तुरन्त काग़ज़ लेकर अपना लेख
आरं भ कर हदया। और एक ी क्षण में राय सा ब ने उनके कमरे में क़दम
रक्खा। ओंकारनाथ ने न उनका स्वागत ककया, न कुशल-क्षेम पूछा, न कुरसी दी।
उन् ें इस तर दे खा मानो कोई मुलाश्ज़म उनकी अदालत में आया ो और रोब
से समले ु ए स्वर में पछ
ू ा -- आपको मेरा परु ज़ा समल गया था? मैं व पत्र
सलखने के सलए बाध्य न ीं था, मेरा कतदव्य य था कक स्वयम ण उसकी त क़ीक़ात
करता; लेककन मुरौवत में ससिांतों की कुछ न कुछ त्या करनी ी पड़ती ै।
क्या उस संवाद में कुछ सत्य ै?
'अच्छी बात ै । मैं आपकी चुनौती स्वीकार करता ू ूँ। मैं अब तक आपको समत्र
समझता आया था; मगर अब आप लड़ने ी पर तैयार ैं , तो लड़ाई ी स ी।
आणख़र मैं आपके पत्र का पूँचगुना चंदा क्यों दे ता ू ूँ। केवल इसीसलए कक व
मेरा ग़ल
ु ाम बना र े । मुझे परमात्मा ने रईस बनाया ै । पच त्तर रुपया दे ता ू ूँ ;
इसीसलए कक आपका मूँु बंद र े । जब आप घाटे का रोना रोते ैं और स ायता
की अपील करते ैं, और ऐसी शायद ी कोई तमा ी जाती ो, जब आपकी
अपील न नकलती ो, तो मैं ऐसे मौक़े पर आपकी कुछ न कुछ मदद कर दे ता
ू ूँ। ककससलए! दीपावली, दस रा, ोली में आपके य ाूँ बैना भेजता ू ूँ , और साल में
पच्चीस बार आपकी दावत करता ू ूँ, ककससलए! आप ररकवत और कतदव्य दोनों
साथ-साथ न ीं नभा सकते।'
ओंकारनाथ कुछ नमद ोकर बोले -- जब कभी अवसर आया ै , मैंने क़दम पीछे
न ीं टाया।
राय सा ब कुसी पर बैठकर ज़रा मीठे स्वर में बोले -- अच्छा भाई, जो चा े
सलखो। मैं तुम् ारे ससिांत को तोड़ना न ीं चा ता। और तो क्या ोगा, बदनामी
ोगी। ाूँ, क ाूँ तक नाम के पीछे पीछे मरूूँ! कौन ऐसा ताल्लक़
ु े दार ै , जो
असासमयों को थोड़ा-ब ु त न ीं सताता। कुत्ता ड्डी की रखवाली करे तो खाय
क्या? मैं इतना ी कर सकता ू ूँ कक आगे आपको इस तर की कोई सशकायत
न समलेगी; अगर आपको मुझ पर कुछ ववकवास ै , तो इस बार क्षमा कीश्जए।
ककसी दस
ू रे संपादक से मैं इस तर की ख़ुशामद न करता। उसे सरे बाज़ार
वपटवाता; लेककन मझ
ु से आपकी दोस्ती ै; इससलए दबना ी पड़ेगा। य समाचार-
पत्रों का युग ै । सरकार तक उनसे डरती ै , मेरी स्ती क्या! आप श्जसे चा ें
बना दें । ख़ैर य झगड़ा ख़तम कीश्जए। कह ए, आजकल पत्र की क्या दशा ै?
कुछ ग्रा क बढ़े ?
ओंकारनाथ ने अ नच्छा के भाव से क ा -- ककसी न ककसी तर काम चल जाता
ै और वतदमान पररश्स्थ त में मैं इससे अधिक आशा न ीं रखता। मैं इस तरफ़
िन और भोग की लालसा लेकर न ीं आया था ; इससलए मुझे सशकायत न ीं ै।
मैं जनता की सेवा करने आया था और व यथाशश्क्त ककये जाता ू ूँ। राष्र का
कल्याण ो, य ी मेरी कामना ै । एक व्यश्क्त के सुख-दःु ख का कोई मूल्य न ीं।
उनकी स्त्री गोमती ने आकर ववद्रो के स्वर में क ा -- क्या अभी भोजन का
समय न ीं आया, या य भी कोई नयम ै कक जब तक एक न बज जाय,
जग से न उठो। कब तक कोई चूल् ा अगोरता र े ।
ओंकारनाथ ने दख
ु ी आूँखों से पत्नी की ओर दे खा। गोमती का ववद्रो उड़ गया।
व उनकी कहठनाइयों को समझती थी। दस
ू री मह लाओं के वस्त्राभूषण दे खकर
कभी-कभी उसके मन में ववद्रो के भाव जाग उठते थे और व प त को दो-चार
जली-कटी सन
ु ा जाती थी; पर वास्तव में य क्रोि उनके प्र त न ीं , अपने दभ
ु ादग्य
के प्र त था, और इसकी थोड़ी-सी आूँच अनायास ी ओंकारनाथ तक प ु ूँ च जाती
थी। व उनका तपस्वी जीवन दे खकर मन में कुढ़ती थी और उनसे स ानुभू त
भी रखती थी। बस, उन् ें थोड़ा-सा सनकी समझती थी।
उनका उदास मूँु दे खकर पूछा -- क्यों उदास ो, पेट में कुछ गड़बड़ ै क्या?
गोमती को ववकवास न आया, बोली -- झूठे ो। तुम् ें पंद्र सौ क ाूँ समल जाते
ैं। ाूँ, पंद्र रुपए क ो, मान लेती ू ूँ।'
'न ीं-न ीं, तुम् ारे ससर की क़सम, पंद्र सौ मारे । अभी राय सा ब आये थे। सौ
ग्रा कों का चंदा अपनी तरफ़ से दे ने का वचन दे गये ैं। '
'भेजा करो। क दें गे, कल आना। कल अपने इलाक़े पर चले जायूँगे। तीन म ीने
में लौटें गे।'
गोमती ने उसी संदे के भाव से क ा -- इसी से तो मैं तुम् ें बुि क ती ू ूँ। ज़रा
ककसी ने स ानुभू त हदखायी और तुम िूल उठे । ये मोटे रईस ैं। इनके पेट में
ऐसे ककतने वादे ज़म ो सकते ैं। श्जतने वादे करते ैं , अगर सब पूरा करने
लगें , तो भीख माूँगने की नौबत आ जाय। मेरे गाूँव के ठाकुर सा ब तो दो-दो,
तीन-तीन साल-तक ब नयों का ह साब न करते थे। नौकरों का ह साब तो नाम
के सलए दे ते थे। साल-भर काम सलया, जब नौकर ने वेतन माूँगा, मारकर नकाल
हदया। कई बार इसी नाहद ें दी में स्कूल से उनके लड़कों के नाम कट गये।
आणख़र उन् ोंने लड़कों को घर बुला सलया। एक बार रे ल का हटकट उिार माूँगा
था। य राय सा ब भी तो उन् ीं के भाईबंद ैं। चलो भोजन करो और चक्की
पीसो, जो तुम् ारे भाग्य में सलखा ै। य समझ लो कक ये बड़े आदमी तुम् ें
िटकारते र ें , व ी अच्छा ै। य तुम् ें एक पैसा दें गे, तो उसका चौगुना अपने
असासमयों से वसूल कर लें गे। अभी उनके ववषय में जो कुछ चा ते ो, सलखते
ो। तब तो ठकुरसो ाती ी क नी पड़ेगी।
पंडडत जी भोजन कर र े थे; पर कौर मूँु में िूँसा ु आ जान पड़ता था। आणख़र
बबना हदल का बोझ लका ककये भोजन करना कहठन ो गया।
बोले -- अगर रुपए न हदये, तो ऐसी ख़बर लूँ ग
ू ा कक याद करें गे। उनकी चोटी मेरे
ाथ में ै । गाूँव के लोग झूठी ख़बर न ीं दे सकते। सच्ची ख़बर दे ते तो उनकी
जान नकलती ै , झूठी ख़बर क्या दें गे! राय सा ब के णख़लाफ़ एक ररपोटद मेरे
पास आयी ै । छाप दूँ ,ू बचा को घर से नकलना मश्ु ककल ो जाय। मझ
ु े य
ख़ैरात न ीं दे र े ैं , बड़े दबसट में पड़कर इस रा पर आये ैं। प ले िमककयाूँ
हदखा र े थे, जब दे खा इससे काम न चलेगा, तो य चारा िेंका। मैंने भी सोचा,
एक इनके ठीक ो जाने से तो दे श से अन्याय समटा जाता न ीं , किर क्यों न
इस दान को स्वीकार कर लूँ ।ू मैं अपने आदशद से धगर गया ू ूँ ज़रूर; लेककन
इतने पर भी राय सा ब ने दग़ा की, तो मैं भी शठता पर उतर आऊूँगा। जो
ग़रीबों को लूटता ै , उसको लट
ू ने के सलए अपनी आत्मा को ब ु त समझाना न
पड़ेगा।
***
17
गाूँव में ख़बर िैल गयी कक राय सा ब ने पंचों को बुलाकर ख़ूब डाूँटा और इन
लोगों ने श्जतने रुपए वसूल ककये थे, व सब इनके पेट से नकाल सलये। व तो
इन लोगों को जे ल भेजवा र े थे; लेककन इन लोगों ने ाथ-पाूँव जोड़े, थक
ू कर
चाटा, तब जाके उन् ोंने छोड़ा। ि नया का कलेजा शीतल ो गया , गाूँव में घूम-
घूमकर पंचों को सलज्जत करती किरती थी -- आदमी न सुने ग़रीबों की पुकार,
भगवान ण तो सुनते ैं। लोगों ने सोचा था, इनसे डाूँड़ लेकर मज़े से िुलौडड़याूँ
खायेंगे। भगवान ण ने ऐसा तमाचा लगाया कक िुलौडड़याूँ मूँु से नकल पड़ीं। एक-
एक के दो-दो भरने पड़े। अब चाटो मेरा मकान लेकर।
मगर बैलों के बबना खेती कैसे ो? गाूँवों में बोआई शुरू ो गयी। का तदक के
म ीने में ककसान के बैल मर जायूँ, तो उसके दोनों ाथ कट जाते ैं । ोरी के
दोनों ाथ कट गये थे। और सब लोगों के खेतों में ल चल र े थे। बीज डाले
जा र े थे। क ीं-क ीं गीत की तानें सुनायी दे ती थीं। ोरी के खेत ककसी अनाथ
अबला के घर की भाूँ त सूने पड़े थे। पु नया के पास भी गोई थी; शोभा के पास
भी गोई थी; मगर उन् ें अपने खेतों की बुआई से क ाूँ फ़ुरसत कक ोरी की
बुआई करें । ोरी हदन-भर इिर-उिर मारा-मारा किरता था। क ीं इसके खेत में
जा बैठता, क ीं उसकी बोआई करा दे ता। इस तर कुछ अनाज समल जाता।
ि नया, रूपा, सोना सभी दस
ू रों की बोआई में लगी र ती थीं। जब तक बोआई
र ी, पेट की रोहटयाूँ समलती गयीं, ववशेष कष्ट न ु आ। मानससक वेदना तो
अवकय ोती थी; पर खाने भर को समल जाता था। रात को नत्य स्त्री-पुरुष में
थोड़ी-सी लड़ाई ो जाती थी। य ाूँ तक कक का तदक का म ीना बीत गया और
गाूँव में मज़दरू ी समलनी भी कहठन ो गयी। अब सारा दारमदार ऊख पर था, जो
खेतों में खड़ी थी।
रात का समय था। सदी ख़ूब पड़ र ी थी। ोरी के घर में आज कुछ खाने को न
था। हदन को तो थोड़ा-सा भन
ु ा ु आ मटर समल गया था; पर इस वक़्त चल्ू ा
जलाने का कोई डौल न था और रूपा भूख के मारे व्याकुल भी और द्वार पर
कौड़े के सामने बैठी रो र ी थी। घर में जब अनाज का एक दाना भी न ीं ै , तो
क्या माूँगे, क्या क े ! जब भूख न स ी गयी तो व आग माूँगने के ब ाने पु नया
के घर गयी। पु नया बाजरे की रोहटयाूँ और बथए
ु का साग पका र ी थी। सग
ु ंि
से रूपा के मूँु में पानी भर आया।
ोरी सोच में पड़ गया। चौमासे-भर इन खेतों में खाद डाली, जोता और आज
केवल बोआई के सलए आिी फ़सल दे नी पड़ र ी ै । उस पर ए सान कैसा जता
र े ैं; लेककन इससे तो अच्छा य ी ै कक खेत परती पड़ जायूँ। और कुछ न
समलेगा, लगान तो नकल ी आयेगा। न ीं, अबकी बेबाक़ी न ु ई, तो बेदख़ली
आयी िरी ै । उसने य प्रस्ताव स्वीकार कर सलया।
दातादीन प्रसन्न ोकर बोले -- तो चलो, मैं अभी बीज तौल दूँ ,ू श्जसमें सबेरे का
झंझट न र े । रोटी तो खा ली ै न?
झु नया ने िीरे से ाथ छुड़ा सलया और पीछे टकर बोली -- सब तुम् ारी दया
ै म ाराज? मैं तो क ीं की न र ी। घर से भी गयी, य ाूँ से भी गयी। न माया
समली, न राम ी ाथ आये। द ु नया का रं ग-ढं ग न जानती थी। इसकी मीठी-
मीठी बातें सन
ु कर जाल में िूँस गई।
'मझ
ु े तो बड़ा भला आदमी लगता ै । क्या ख़राबी ै उसमें ?'
सोना ने इसका जवाब न दे कर क ा -- मेरे घर में किर कभी आयेगा, तो दत्ु कार
दूँ ग
ू ी।
'तो क्या तुम् ारा ब्या ककसी दे वता से ोगा। गाूँव में ऐसा सुंदर, सजीला जवान
दस
ू रा कौन ै ?'
'तो तम
ु चली जाओ उसके साथ, सससलया से लाख दजे अच्छी ो।'
'मैं क्यों चली जाऊूँ? मैं तो एक के साथ चली आयी। अच्छा ै या बुरा।'
'तो मैं भी श्जसके साथ ब्या ोगा, उसके साथ चली जाऊूँगी, अच्छा ो या बुरा।'
'और जो ककसी बूढ़े के साथ ब्या ो गया?'
सोना ूँसी -- मैं उसके सलए नरम-नरम रोहटयाूँ पकाऊूँगी, उसकी दवाइयाूँ कूटूूँ-
छानूँूगी, उसे ाथ पकड़कर उठाऊूँगी, जब मर जायगा, तो मूँु ढाूँपकर रोऊूँगी।
'मझ
ु े तो उस बढ़
ू े पर दया आये।'
इस साल इिर एक शक्कर का समल खुल गया था। उसके काररंदे और दलाल
गाूँव-गाूँव घूमकर ककसानों की खड़ी ऊख मोल ले लेते थे। व ी समल था, जो
समस्टर खन्ना ने खोला था। एक हदन उसका काररंदा इस गाूँव में भी आया।
ककसानों ने जो उससे भाव-ताव ककया, तो मालमू ु आ, गड़ु बनाने में कोई बचत
न ीं ै ; जब घर में ऊख पेरकर भी य ी दाम समलता ै , तो पेरने की मे नत
क्यों उठायी जाय? सारा गाूँव खड़ी ऊख बेचने को तैयार ो गया; अगर कुछ कम
भी समले, तो परवा न ीं। तत्काल तो समलेगा। ककसी को बैल लेना था, ककसी को
बाक़ी चक
ु ाना था, कोई म ाजन से गला छुड़ाना चा ता था। ोरी को बैलों की
गोईं लेनी थी। अबकी ऊख की पैदावार अच्छी न थी ; इससलए य डर था कक
माल न पड़ेगा। और जब गुड़ के भाव समल की चीनी समलेगी, तो गुड़ लेगा ी
कौन? सभी ने बयाने ले सलये। ोरी को कम-से-कम सौ रुपये की आशा थी।
इसमें एक मामूली गोई आ जायगी; लेककन म ाजनों को क्या करे ! दातादीन,
मूँगरू, दल
ु ारी, ससंगुरीससं सभी तो प्राण खा र े थे। अगर म ाजनों को दे ने
लगेगा, तो सौ रुपए सद
ू -भर को भी न ोंगे! कोई ऐसी जग
ु त
ु न सझ
ू ती थी कक
ऊख के रुपए ाथ आ जायूँ और ककसी को ख़बर न ो। जब बैल घर आ
जायूँगे, तो कोई क्या कर लेगा? गाड़ी लदे गी, तो सारा गाूँव दे खेगा ी, तौल पर
जो रुपए समलें गे, व सबको मालूम ो जायूँगे। सम्भव ै मूँगरू और दातादीन
मारे साथ-साथ र ें । इिर रुपए समले, उिर उन् ोंने गदद न पकड़ी। शाम को
दस
ू रे हदन शोभा आकर बोला -- दादा कोई ऐसा उपाय करो कक णझंगुरी को ै ज़ा
ो जाय। ऐसा धगरे कक किर न उठे ।
शोभा ने िूतत
द ा के साथ क ा -- मैं तो दादा, इन सबों को अबकी चकमा दूँ ग
ू ा।
जमादार को कुछ दे -हदलाकर इस बात पर राज़ी कर लूँ ग
ू ा कक रुपए के सलए में
ख़ूब दौड़ायें। णझंगुरी क ाूँ तक दौड़ेंगे।
दस
ू रे हदन प्रातःकाल गाूँव के कई आदसमयों ने ऊख काटनी शुरू की। ोरी भी
अपने खेत में गूँड़ासा लेकर प ु ूँचा। उिर से शोभा भी उसकी मदद को आ गया।
पु नया, झु नया, ि नया, सोना सभी खेत में जा प ु ूँचीं। कोई ऊख काटता था, कोई
छीलता था, कोई पूले बाूँिता था। म ाजनों ने जो ऊख कटते दे खी, तो पेट में चू े
दौड़े। एक तरफ़ से दल
ु ारी दौड़ी, दस
ू री तरफ़ से मूँगरू सा , तीसरी ओर से
मातादीन और पटे कवरी और णझंगुरी के वपयादे ।
दल
ु ारी ाथ-पाूँव में मोटे -मोटे चाूँदी के कड़े प ने, कानों में सोने का झूमक, आूँखों
में काजल लगाये, बढ़
ू े यौवन को रूँ गे-रूँ गाये आकर बोली -- प ले मेरे रुपये दे दो
तब ऊख काटने दूँ ग
ू ी। मैं श्जतना
ी ग़म खाती ू ूँ , उतना ी तुम शेर ोते ो।
दो साल से एक िेला सद
ू न ीं हदया, पचास तो मेरे सूद के ोते ैं।
दल
ु ारी ने उसके ाथ से गूँड़ासा छीनकर क ा -- नीयत इतनी ख़राब ो गयी ै
तम
ु लोगों की, तभी तो बरक्कत न ीं ोती। आज पाूँच साल ु ए, ोरी ने दल ु ारी
से तीस रुपये सलये थे, तीन साल में उसके सौ रुपये ो गये , तब स्टाम्प सलखा
गया। दो साल में उस पर पचास रुपया सूद चढ़ गया था।
शोभा ने किर छे ड़ा -- अच्छा, ईमान से बताओ सा , ककतने रुपए हदये थे, श्जसके
अब तीन सौ रुपये ो गये ैं ?
ोरी ने इन् ें भी धचरौरी-बबनती करके बबदा ककया। दातादीन ने ोरी के साझे में
खेती की थी। बीज दे कर आिी फ़सल ले लें गे। इस वक़्त कुछ छे ड़-छाड़ करना
नी त-ववरुि था। णझंगरु ीससं ने समल के मैनेजर से प ले ी सब कुछ क -सन
ु
रखा था। उनके प्यादे गाडड़यों पर ऊख लदवाकर नाव पर प ु ूँचा र े थे। नदी
गाूँव से आि मील पर थी। एक गाड़ी हदन-भर में सात-आठ चक्कर कर लेती
थी। और नाव एक खेवे में पचास गाडड़यों का बोझ लाद लेती थी। इस तर
ककफ़ायत पड़ती थी। इस सुवविा का इंतज़ाम करके णझंगुरीससं ने सारे इलाक़े
को ए सान से दबा हदया था। तौल शुरू ोते ी णझंगुरीससं ने समल के िाटक
पर आसन जमा सलया। र-एक की ऊख तौलाते थे, दाम का पुरज़ा लेते थे,
ख़ज़ांची से रुपए वसूल करते थे और अपना पावना काटकर असामी को दे दे ते
थे। असामी ककतना ी रोये, चीख़े, ककसी की न सन
ु ते थे। मासलक का य ी ु क्म
था। उनका क्या बस! ोरी को एक सौ बीस रुपए समले। उसमें से णझंगुरीससं ने
अपने पूरे रुपये सूद समेत काटकर कोई पचीस रुपये ोरी के वाले ककये।
शोभा को इतने ी रुपये समले थे। व बा र नकला, तो पटे कवरी ने घेरा। शोभा
बदल पड़ा।
पटे कवरी लाला आगे बढ़ गये। शोभा और ोरी कुछ दरू चुपचाप चले। मानो इस
धिक्कार ने उन् ें संज्ना ीन कर हदया ो।
दोनों को दे खकर बोला -- णझंगरु रया ने सारे का सारा ले सलया ोरी काका! चबैना
को भी एक पैसा न छोड़ा। त्यारा क ीं का। रोया धगड़धगड़ाया ; पर इस पापी को
दया न आयी। शोभा ने क ा -- ताड़ी तो वपये ुए ो, उस पर क ते ो, एक
पैसा भी न छोड़ा!
ोरी घर प ु ूँचा, तो रूपा पानी लेकर दौड़ी, सोना धचलम भर लायी, ि नया ने
चबेना और नमक लाकर रख हदया और सभी आशा भरी आूँखों से उसकी ओर
ताकने लगीं। झु नया भी चौखट पर आ खड़ी ु ई थी। ोरी उदास बैठा था। कैसे
मूँु - ाथ िोये, कैसे चबेना खाये। ऐसा लश्ज्जत और ग्ला नत था , मानो त्या
करके आया ो।
ि नया ससर से पाूँव तक भस्म ो उठी। मन में ऐसा उद्वेग उठा कक अपना मूँु
नोच ले।
बोली -- तुम जैसा घामड़ आदमी भगवान ण ने क्यों रचा, क ीं समलते तो उनसे
पूछती। तुम् ारे साथ सारी श्ज़न्दगी तलख़ ो गयी, भगवान ण मौत भी न ीं दे ते
कक जंजाल से जान छूटे । उठाकर सारे रुपए ब नोईयों को दे हदये। अब और
कौन आमदनी ै , श्जससे गोई आयेगी। ल में क्या मझ
ु े जोतोगे, या आप
जुतोगे? मैं क ती ू ूँ , तुम बूढ़े ु ए, तुम् ें इतनी अक्ल भी न ीं आई कक गोईं-भर
के रुपए तो नकाल लेत!े कोई तुम् ारे ाथ से छीन थोड़े लेता। पूस की य ठं ड
और ककसी की दे पर लत्ता न ीं। ले जाओ सबको नदी में डुबा दो। सससक-
सससक कर मरने से तो एक हदन मर जाना किर अच्छा ै । कब तक पुआल में
घस
ु कर रात काटें गे और पआ
ु ल में घस
ु भी लें , तो पआ
ु ल खाकर र ा तो न
जायगा! तुम् ारी इच्छा ो घास ी खाओ, मसे तो घास न खायी जायगी।
य क ते-क ते व मुस्करा पड़ी। इतनी दे र में उसकी समझ में य बात आने
लगी थी कक म ाजन जब ससर पर सवार ो जाय, और अपने ाथ में रुपए ों
और म ाजन जानता ो कक इसके पास रुपए ैं , तो असामी कैसे अपनी जान
बचा सकता ै!
ोरी ससर नीचा ककये अपने भाग्य को रो र ा था। ि नया का मुस्कराना उसे न
हदखायी हदया।
ि नया ने पूछा -- क ाूँ ै इस गाूँव में मजूरी? और कौन मूँु लेकर मजूरी
करोगे? म तो न ीं क लाते!
'अम्माूँ व ाूँ ोतीं, तो म ाजन को मज़ा चखा दे तीं। अभागा रोकर र जाता। '
शोभा ने आकर ोरी को पुकारा और पटे कवरी के रुपए उसके ाथ में रखकर
बोला -- भैया, तम
ु जाकर ये रुपए लाला को दे दो। मझ
ु े उस घड़ी न जाने क्या
ो गया था।
ोरी रुपए लेकर उठा ी था कक शंख की ध्व न कानों में आयी। गाूँव के उस
ससरे पर ध्यानससं नाम के एक ठाकुर र ते थे। पल्टन में नौकर थे और कई
हदन ु ए, दस साल के बाद रजा लेकर आये थे। बगदाद, अदन, ससंगापुर, बमाद --
चारों तरफ़ घूम चुके थे। अब ब्या करने की िुन में थे। इसीसलए पूजा-पाठ
करके ब्राह्मणों को प्रसन्न रखना चा ते थे।
ोरी ने धचं तत भाव से क ा -- तुम जाओ, मैं थोड़ी दे र में आता ू ूँ। ध्यानससं
श्जस हदन आये थे, सब के घर सेर-सेर भर समठाई बैना भेजी थी। ोरी से जब
कभी रास्ते समल जाते, कुशल पछ
ू ते। उनकी कथा में जाकर आरती में कुछ न
दे ना अपमान की बात थी। आरती का थाल उन् ीं के ाथ में ोगा। उनके सामने
ोरी कैसे ख़ाली ाथ आरती ले लेगा! इससे तो क ीं अच्छा ै कक व कथा में
जाये ी न ीं। इतने आदसमयों में उन् ें क्या याद आयेगी कक ोरी न ीं आया।
कोई रश्जस्टर सलये तो बैठा न ीं ै कक कौन आया , कौन न ीं आया। व जाकर
खाट पर लेट र ा। मगर उसका हृदय मसोस-मसोस कर र जाता था। उसके
पास एक पैसा भी न ीं ै ! ताूँबे का एक पैसा! आरती के पुडय और मा ात्म्य का
उसे बबलकुल ध्यान न था। बात थी केवल व्यव ार की। ठाकुरजी की आरती तो
व केवल श्रिा की भें ट दे कर ले सकता था; लेककन मयाददा कैसे तोड़े, सबकी
आूँखों में े ठा कैसे बने! स सा व उठ बैठा। क्यों मयाददा की ग़ल
ु ामी करे ।
मयाददा के पीछे आरती का पड
ु य क्यों छोड़े। लोग ूँसेंगे, ूँस लें । उसे परवा न ीं
ै । भगवान ण उसे कुकमद से बचाये रखें , और व कुछ न ीं चा ता। व ठाकुर के
घर की ओर चल पड़ा।
***
18
आज समस्टर खन्ना ककसी बुरे आदमी का मूँु दे खकर उठे थे। सबेरे ी पत्र
खोला, तो उनके कई स्टाकों का दर धगर गया था, श्जसमें उन् ें कई ज़ार की
ान ोती थी। शक्कर समल के मज़दरू ों ने ड़ताल कर दी थी और दं गा-फ़साद
करने पर अमादा थे। नफ़े की आशा से चाूँदी ख़रीदी थी ; मगर उसका दर आज
और भी ज़्यादा धगर गया था। राय सा ब से जो सौदा ो र ा था और श्जसमें
उन् ें ख़ासे नफ़े की आशा थी, व कुछ हदनों के सलए टलता ु आ जान पड़ता
था। किर रात को ब ु त पी जाने के कारण इस वक़्त ससर भारी था और दे टूट
र ी थी। इिर शोफ़र ने कार के इंजन में कुछ ख़राबी पैदा ो जाने की बात
क ी थी और ला ौर में उनके बैंक पर एक दीवानी मक़
ु दमा दायर ो जाने का
समाचार भी समला था।
बैठे मन में झूँझ
ु ला र े थे कक उसी वक़्त गोववंदी ने आकर क ा -- भीष्म का
ज्वर आज भी न ीं उतरा, ककसी डाक्टर को बुला दो।
बस ठन गयी। खन्ना गरजने लगे। गोववंदी बरसने लगी। उनके बीच में मालती
का नाम आ जाना मानो लड़ाई का अश्ल्टमेटम था।
'य ी कक मालती तम
ु -जैसों को अपना ग़ल
ु ाम बनाकर रखना चा ती ै , प त
बनाकर न ीं।'
और उन् ींने इसके ववरुि प्रमाण दे ने शुरू ककया। मालती श्जतना उनका आदर
करती ै , उतना शायद ी ककसी का करती ो। राय सा ब और राजा सा ब को
मूँु तक न ीं लगाती; लेककन उनसे एक हदन भी मुलाक़ात न ो, तो सशकायत
करती ै ...।
'तम्
ु ारे ख़याल में मैं बि
ु ू और मख
ू द ू ूँ, तो ये ज़ारों क्यों मेरे द्वार पर नाक
रगड़ते ैं? कौन राजा या ताल्लुक़ेदार ै , जो मुझे दं डवत न ीं करता। सैकड़ों को
उल्लू बना कर छोड़ हदया।'
'तुम मालती की चा े श्जतनी बुराई करो, तुम उसकी पाूँव की िूल भी न ीं ो।'
दस
ू रे हदन बच्चे का ज्वर उतर गया था। गोववंदी ने एक ताूँगा मूँगवाया और घर
से नकली। ज ाूँ उसका इतना अनादर ै , व ाूँ अब व न ीं र सकती। आघात
इतना कठोर था कक बच्चों का मो भी टूट गया था। उनके प्र त उसका जो िमद
था, उसे व पूरा कर चुकी ै । शेष जो कुछ ै, व खन्ना का िमद ै । ाूँ, गोद के
बालक को व ककसी तर न ीं छोड़ सकती। व उसकी जान के साथ ै । और
इस घर से व केवल अपने प्राण लेकर नकलेगी। और कोई चीज़ उसकी न ीं
ै । इन् ें य दावा ै कक व उसका पालन करते ैं। गोववंदी हदखा दे गी कक व
उनके आश्रय से नकलकर भी श्ज़ंदा र सकती ै।
तीनों बच्चे उस समय खेलने गये थे। गोववंदी का मन ु आ, एक बार उन् ें प्यार
कर ले; मगर व क ीं भागी तो न ीं जाती। बच्चों को उससे प्रेम ोगा, तो उसके
पास आयेंगे, उसके घर में खेलेंगे। व जब ज़रूरत समझेगी , ख़ुद बच्चों को दे ख
आया करे गी। केवल खन्ना का आश्रय न ीं लेना चा ती। साूँझ ो गयी थी। पाकद
में रौनक़ थी। लोग री घास पर लेटे वा का आनन्द लूट र े थे।
गोववंदी ज़रतगंज
ोती ु ई धचडड़याघर की तरफ़ मुड़ी ी थी कक कार पर
मालती और खन्ना सामने से आते ु ए हदखायी हदये। उसे मालूम ु आ, खन्ना ने
उसकी तरफ़ इशारा करके कुछ क ा और मालती मुस्करायी। न ीं, शायद य
उसका भ्रम ो। खन्ना मालती से उसकी नंदा न करें गे ; मगर ककतनी बेशमद ै ।
सन
ु ा ै इसकी अच्छी प्रैककटस ै घर की भी संपन्न ै किर भी यों अपने को
बेचती किरती ै । न जाने क्यों ब्या न ीं कर लेती ; लेककन उससे ब्या करे गा
ी कौन? न ीं, यबात न ीं। पुरुषों में भी ऐसे ब ु त ो गये ैं, जो उसे पाकर
अपने को िन्य मानेंगे; लेककन मालती ख़ुद ककसी को पसंद करे । और ब्या में
कौन-सा सुख रखा ु आ ै । ब ु त अच्छा करती ै , जो ब्या न ीं करती। अभी
सब उसके ग़लु ाम ैं। तब व एक की लौंडी ोकर र जायगी। ब ु त अच्छा कर
र ी ै । अभी तो य म ाशय भी उसके तलवे चाटते ैं। क ीं इनसे ब्या कर
ले, तो उस पर शासन करने लगें ; मगर इनसे व क्यों ब्या करे गी? और समाज
में दो-चार ऐसी श्स्त्रयाूँ बनी र ें , तो अच्छा; पुरुषों के कान तो गमद करती र ें ।
मे ता ने मस्
ु कराकर क ा -- मेरी बात न चलाइए। िोबी का कुत्ता न घर का न
घाट का। लाइए, मैं बच्चे को चप
ु कर दूँ ।ू
य क ते ु ए उसने बच्चे को उनकी गोद में दे हदया। उन् ोंने बच्चे को कई बार
उछाला, तो व चपु ो गया।
गोववंदी अपनी ूँसी न रोक सकी -- तो आप स्त्री न ीं, कोई प्र तमा चा ते ैं।
स्त्री तो ऐसी आपको शायद क ीं समले।
'जी न ीं, ऐसी एक दे वी इसी श र में ै ।
'व आदशद सनातन ै और अमर ै । मनुष्य उसे ववकृत करके अपना सवदनाश
कर र ा ै।
गोववंदी का अंतःकरण णखला जा र ा था। ऐसी िुरे ररयाूँ व ाूँ कभी न उठी थीं।
श्जतने आदसमयों से उसका पररचय था, उनमें मे ता का स्थान सबसे ऊूँचा था।
उनके मुख से य प्रोत्सा न पाकर व
मतवाली ु ई जा र ी थी। उसी नशे में
बोली -- तो चसलए, मुझे उन के दशदन करा दीश्जए।
गोववंदी ने सन्नाटे में आकर क ा -- य आपने क्या ककया मे ताजी! मैं ईकवर
से क ती ू ूँ , मेरा य आशय न था। मुझे इसका दःु ख ै।
'न ीं, आपको प्रसन्न ोना चाह ए कक आपने एक व्यश्क्त का उद्िार कर हदया।'
'मैंने आपका उद्िार कर हदया। मैं तो ख़ुद आप से अपने उद्िार की याचना
करने जा र ी ू ूँ।'
गोववंदी ने करूण स्वर में क ा -- ाूँ, आपके ससवा मुझे कोई ऐसा न ीं नज़र
आता श्जससे मैं अपनी कथा सन
ु ाऊूँ। दे णखए, य बात अपने ी तक रणखएगा,
ालाूँकक आपसे य याद हदलाने की ज़रूरत न ीं। मुझे अब अपना जीवन
असह्य ो गया ै । मुझसे अब तक श्जतनी तपस्या ो सकी, मैंने की; लेककन
अब न ीं स ा जाता। मालती मेरा सवदनाश ककये डालती ै । मैं अपने ककसी शस्त्र
से उस पर ववजय न ीं पा सकती। आपका उस पर प्रभाव ै। व श्जतना
आपका आदर करती ै , शायद और ककसी मदद का न ीं करती। अगर आप ककसी
तर मुझे उसके पंजे से छुड़ा दें , तो मैं जन्म भर आपकी ऋणी र ू ूँगी। उसके
ाथों मेरा सौभाग्य लुटा जा र ा ै । आप अगर मेरी रक्षा कर सकते ैं , तो
कीश्जए। मैं आज घर से य इरादा करके चली थी कक किर लौटकर न आऊूँगी।
मैंने बड़ा ज़ोर मारा कक मो के सारे बंिनों को तोड़कर िेंक दूँ ;ू लेककन औरत का
हृदय बड़ा दब
ु ल
द ै मे ता जी! मो उसका प्राण ै । जीवन र ते मो तोड़ना
उसके सलए असंभव ै । मैंने आज तक अपनी व्यथा अपने मन में रखी ; लेककन
आज मैं आपसे आूँचल िैलाकर सभक्षा माूँगती ू ूँ। मालती से मेरा उिार कीश्जए।
मैं इस मायाववनी के ाथों समटी जा र ी ू ूँ ...।
मे ता ने चौंककर पछ
ू ा -- क्यों, आपके घर प ु ूँचा दूँ ग
ू ा।
***
19
समरज़ा ने खड़े-खड़े क ा -- तुम् ारे पास कुछ रुपए ों, तो दे दो। आज तीन हदन
से बोतल ख़ाली पड़ी ु ई ै , जी ब ु त बेचैन ो र ा ै।
समरज़ा ने अपने स्वर में बड़ा दीन आग्र भरकर क ा -- मैं किर तम
ु से कभी न
माूँगूँग
ू ा गोबर! मुझसे खड़ा न ीं ु आ जा र ा ै । इस शराब की बदौलत मैंने
लाखों की ै ससयत बबगाड़ दी और सभखारी ो गया। अब मझ ु े भी श्ज़द पड़ गयी
ै कक चा े भीख ी माूँगनी पड़े, इसे छोड़ूूँगा न ीं।
गोबर ने श र के ख़चद का रोना रोया -- थोड़ी आमदनी में ग ृ स्थी कैसे चलेगी?
अलादीन बीड़ी जलाता ु आ बोला -- ख़रच अल्ला दे गा भैया! सोचो, ककतना
आराम समलेगा। मैं तो क ता ू ूँ , श्जतना तुम अकेले ख़रच करते ो, उसी में
ग ृ स्थी चल जायगी। औरत के ाथ में बड़ी बरक्कत ोती ै । ख़ुदा क़सम, जब
मैं अकेला य ाूँ र ता था, तो चा े ककतना ी कमाऊूँ खा-पी सब बराबर। बीड़ी-
तमाखू को भी पैसा न र ता। उस पर ै रानी। थके-माूँदे आओ, तो घोड़े को
णखलाओ और ट लाओ। किर नानबाई की दक
ू ान पर दौड़ो। नाक में दम आ
गया। जब से घरवाली आ गयी ै , उसी कमाई में उसकी रोहटयाूँ भी नकल
आती ैं और आराम भी समलता ै । आणख़र आदमी आराम के सलए ी तो
कमाता ै । जब जान खपाकर भी आराम न समला, तो श्ज़ंदगी ी ग़ारत ो गयी।
मैं तो क ता ू ूँ , तुम् ारी कमाई बढ़ जायगी भैया! श्जतनी दे र में आलू और मटर
उबालते ो, उतनी दे र में दो-चार प्याले चाय बेच लोगे। अब चाय बार ों मास
चलती ै ! रात को लेटोगे तो घरवाली पाूँव दबायेगी। सारी थकान समट जायगी।
इतने में भूरे एक्का लेकर आ गया। अभी हदन-भर का िावा मारकर आया था।
ख़बर समली, गोबर घर जा र ा ै । वैसे ी एक्का इिर िेर हदया। घोड़े ने
आपश्त्त की। उसे कई चाबक
ु लगाये। गोबर ने एक्के पर सामान रखा, एक्का
बढ़ा, प ु ूँचाने वाले गली के मोड़ तक प ु ूँ चाने आये, तब गोबर ने सबको राम-राम
ककया और एक्के पर बैठ गया। सड़क पर एक्का सरपट दौड़ा जा र ा था। गोबर
घर जाने की ख़ुशी में मस्त था। भूरे उसे घर प ु ूँचाने की ख़ुशी में मस्त था।
और घोड़ा था पानीदार, घोड़ा चला जा र ा था। बात की बात में स्टे शन आ
गया। गोबर ने प्रसन्न ोकर एक रुपया कमरे से नकाल कर भरू े की तरफ़
बढ़ाकर क ा -- लो, घरवाली के सलए समठाई लेते जाना।
***
20
िागुन अपनी झोली में नवजीवन की ववभू त लेकर आ प ु ूँचा था। आम के पेड़
दोनों ाथों से बौर के सुगंि बाूँट र े थे, और कोयल आम की डासलयों में छपी
ु ई संगीत का गप्ु त दान कर र ी थी। गाूँवों में ऊख की बोआई लग गयी थी।
अभी िूप न ीं नकली; पर ोरी खेत में प ु ूँच गया ै । ि नया, सोना, रूपा तीनों
तलैया से ऊख के भीगे ु ए गट्ठे नकाल- नकालकर खेत में ला र ी ैं, और ोरी
गूँड़ासे से ऊख के टुकड़े कर र ा ै । अब व दातादीन की मज़दरू ी करने लगा
ै । ककसान न ीं, मजूर ै । दातादीन से अब उसका पुरोह त-जजमान का नाता
न ीं, मासलक-मज़दरू का नाता ै।
दातादीन मजरू ों से रगड़ कर काम लेते थे; इससलए उनके य ाूँ कोई मजरू हटकता
न था। ोरी उसका स्वभाव जानता था ; पर जाता क ाूँ!
पंडडत उसके सामनें खड़े ोकर बोले -- चलाने-चलाने में भेद ै । एक चलाना व
ै कक घड़ी भर में काम तमाम, दस
ू रा चलाना व ै कक हदन-भर में भी एक
बोझ ऊख न कटे ।
दातादीन बबगड़ उठे -- पैसे दे ने ैं काम करने के सलए, दम मारने के सलए न ीं।
दम मार लेना ै , तो घर जाकर दम लो।
ि नया के पास जवाब तैयार था; पर सोना उसे खींचकर तलैया की ओर ले गयी,
न ीं बात बढ़ जाती; लेककन आवाज़ की प ु ूँच के बा र जाकर हदल की जलन
नकाली -- भीख माूँगो तुम, जो सभखमंगे की जात ो। म तो मजूर ठ रे , ज ाूँ
काम करें गे, व ीं चार पैसे पायेंगे।
लाला पटे कवरी भागेु ए आये और स्ने भरी कठोरता से बोले -- क्या करती ै
ि नया, ोश सूँभाल। ोरी को कुछ न ीं ु आ। गमी से अचेत ो गये ैं। अभी
ोश आया जाता ै । हदल इतना कच्चा कर लेगी, तो कैसे काम चलेगा?
ि नया ने पटे कवरी के पाूँव पकड़ सलये और रोती ु ई बोली -- क्या करूूँ लाला,
जी न ीं मानता। भगवान ण ने सब कुछ र सलया। मैं सबर कर गयी। अब सबर
न ीं ोता। ाय रे मेरा ीरा!
सोना पानी लायी। पटे कवरी ने ोरी के मूँु पर पानी के छींटे हदये। कई आदमी
अपनी-अपनी अूँगो छयों से वा कर र े थे। ोरी की दे ठं डी पड़ गयी थी।
पटे कवरी को भी धचन्ता ु ई; पर ि नया को व बराबर सा स दे ते जाते थे।
ि नया अिीर ोकर बोली -- ऐसा कभी न ीं ु आ था। लाला, कभी न ीं।
ि नया बोली -- ाूँ, रोहटयाूँ पकायी थीं; लेककन आजकल मारे ऊपर जो बीत र ी
ै, व क्या तुमसे छपाै ? म ीनों से भरपेट रोटी नसीब न ीं ु ई। ककतना
समझाती ू ूँ, जान रखकर काम करो; लेककन आराम तो मारे भाग्य में सलखा ी
न ीं।
ोरी ने कातर स्वर में क ा -- अच्छा ू ूँ। न जाने कैसा जी ो गया था।
झु नया भी घघ
ूूँ ट नकाले द्वार पर खड़ी ो गयी। गोबर ने माूँ-बाप के चरण
छूए और रूपा को गोद में उठाकर प्यार ककया। ि नया ने उसे आशीवादद हदया
और उसका ससर अपनी छाती से लगाकर मानो अपने मातत्ृ व का पुरस्कार पा
गयी। उसका हृदय गवद से उमड़ा पड़ता था। आज तो व रानी ै । इस िटे - ाल
में भी रानी ै । कोई उसकी आूँखें दे खे , उसका मुख दे ख,े उसका हृदय दे खे, उसकी
चाल दे खे। रानी भी लजा जायगी। गोबर ककतना बड़ा ो गया ै और प न-
ओढ़कर कैसा भलामानस लगता ै।
गोबर ने पछ
ू ा -- दादा को क्या ु आ ै , अम्माूँ?
ि नया घर का ाल क कर उसे दख
ु ी न करना चा ती थी। बोली -- कुछ न ीं ै
बेटा, ज़रा ससर में ददद ै । चलो, कपड़े उतरो, ाथ-मूँु िोओ? क ाूँ थे तुम इतने
हदन? भला इस तर कोई घर से भागता ै ? और कभी एक धचट्ठी तक न भेजी।
आज साल-भर के बाद जाके सुधि ली ै । तुम् ारी रा दे खते-दे खते आूँखें िूट
गयीं। य ी आसा बूँिी र ती थी कक कब व हदन आयेगा और कब तुम् ें दे खग
ूूँ ी।
कोई क ता था, समरच भाग गया, कोई डमरा टापू बताता था। सन
ु -सन
ु कर जान
सूखी जाती थी। क ाूँ र े इतने हदन?
उिर सोना और रूपा भीतर गोबर का सामान खोलकर चीज़ का बाूँट -बखरा करने
में लगी ु ई थीं; लेककन झु नया दरू खड़ी थी; उसके मुख पर आज मान का शोख
रं ग झलक र ा ै । गोबर ने उसके साथ जो व्यव ार ककया ै , आज व उसका
बदला लेगी। असामी को दे खकर म ाजन उससे व रुपये वसूल करने को भी
व्याकुल ो र ा ै , जो उसने बट्टे खाते में डाल हदये थे। बच्चा उन चीज़ों की ओर
लपक र ा था और चा ता था, सब-का-सब एक साथ मूँु में डाल ले; पर झु नया
उसे गोद से उतरने न दे ती थी।
समठाई बाूँटने की श्ज़म्मेदारी ि नया ने अपने उपर ली। इतने हदनों के बाद
लड़का कुशल से घर आया ै। व गाूँव-भर में बैना बटवायेगी। एक गुलाब-
जामन
ु रूपा के सलए ऊूँट के मूँु में जीरे के समान था। व चा ती थी, ाूँडी
उसके सामने रख दी जाय, व कूद-कूद खाय। अब संदक़
ू खुला और उसमें से
साडड़याूँ नकलने लगीं। सभी ककनारदार थीं; जैसी पटे कवरी लाला के घर में प नी
जाती ैं, मगर ैं बड़ी लकी। ऐसी म ीन साडड़याूँ भला कै हदन चलें गी! बड़े
आदमी श्जतनी म ीन साडड़याूँ चा े प नें। उनकी मे ररयों को बैठने और सोने के
ससवा और कौन काम ै । य ाूँ तो खेत-खसल ान सभी कुछ ै । अच्छा! ोरी के
सलए िोती के अ तररक्त एक दप
ु ट्टा भी ै।
ि नया प्रसन्न ोकर बोली -- य तुमने बड़ा अच्छा ककया बेटा! इनका दप
ु ट्टा
बबलकुल तार-तार ो गया था। गोबर को उतनी दे र में घर की पररश्स्थ त का
अंदाज़ ो गया था। ि नया की साड़ी में कई पें वदे लगे
ु ए थे। सोना की साड़ी
ससर पर िटी ु ई थी और उसमें से उसके बाल हदखाई दे र े थे। रूपा की िोती
में चारों तरफ़ झालरें -सी लटक र ी थीं। सभी के चे रे रूखे , ककसी की दे पर
धचकना ट न ीं। श्जिर दे खो, ववपन्नता का साम्राज्य था। लड़ककयाूँ तो साडड़यों में
मगन थीं।
ि नया बोली -- अभी तो कुछ न ीं खुला दीदी! अभी मैंने भी कुछ क ना उधचत
न समझा। ाूँ, सबके सलए ककनारदार साडड़याूँ लाया ै । तम्
ु ारे आससरबाद से
कुशल से लौट आया, मेरे सलए तो य ी ब ु त ै।
दल
ु ारी ने असीस हदया -- भगवान ण करे , ज ाूँ र े कुशल से र े । माूँ-बाप को और
क्या चाह ए! लड़का समझदार ै । और छोकरों की तर उड़ाऊ न ीं ै। मारे
रुपए अभी न समलें , तो ब्याज तो दे दो। हदन-हदन बोझ बढ़ ी तो र ा ै । इिर
सोना चन्
ु नू को उसका फ़्ाक और टोप और जत
ू ा प नाकर राजा बना र ी थी,
बालक इन चीज़ों को प नने से ज़्यादा ाथ में लेकर खेलना पसन्द करता था।
'सच!'
'तीनों जने य ाूँ चढ़ आये थे। अम्माूँ ने ऐसा डाूँटा कक मूँु लेकर र गये। ाूँ,
मारे दोनों बैल खोल ले गये।'
बच्चा उसकी गोद में ज़रा-सा मुस्कराया, किर ज़ोर से चीख़ उठा जैसे कोई
डरावनी चीज़ दे ख ली ो।
'रुपए की ब ु त गमी चढ़ी ै साइत। लाओ नकालो, दे खूूँ, इतने हदन में क्या कमा
लाये ा?'
उसने गोबर की कमर में ाथ लगाया। गोबर खड़ा ोकर बोला -- अभी क्या
कमाया; ाूँ, अब तम
ु चलोगी, तो कमाऊूँगा। साल-भर तो स र का रं ग-ढं ग
प चानने ी में लग गया।
'और य ाूँ बैठकर क्या करूूँगा। कमाओ और मरो, इसके ससवा य ाूँ और क्या
रखा ै ? थोड़ी-सी अकल ो और आदमी काम करने से न डरे , तो व ाूँ भूखों न ीं
मर सकता। य ाूँ तो अकल कुछ काम ी न ीं करती। दादा क्यों मुझसे मूँु
िुलाए ु ए ैं?'
'अपने भाग बखानो कक मूँु िुलाकर छोड़ दे ते ैं। तुमने उपद्रव तो इतना बड़ा
ककया था कक उस क्रोि में पा जाते, तो मूँु लाल कर दे त।े '
'तो तम्
ु ें भी ख़ब
ू गासलयाूँ दे ते ोंगे?'
'कभी न ीं, भूलकर भी न ीं। अम्माूँ तो प ले बबगड़ी थीं; लेककन दादा ने तो कभी
कुछ न ीं क ा, जब बुलाते ैं, बड़े प्यार से। मेरा ससर भी दख
ु ता ै , तो बेचैन ो
जातेैं। अपने बाप को दे खते तो मैं इन् ें दे वता समझती ू ूँ । अम्माूँ को
समझाया करते ैं , ब ू को कुछ न क ना। तम् ु ारे ऊपर सैकड़ों बार बबगड़ चकु े ैं
कक इसे घर में बैठाकर आप न जाने क ाूँ नकल गया। आज-कल पैसे-पैसे की
तंगी ै । ऊख के रुपए बा र ी बा र उड़ गये। अब तो मजरू ी करनी पड़ती ै।
आज बेचारे खेत में बे ोश ो गये। रोना-पीटना मच गया। तब से पड़े ैं।'
मूँु - ाथ िोकर और ख़ूब बाल बनाकर गोबर गाूँव का हदश्ग्वजय करने नकला।
दोनों चाचाओं के घर जाकर राम-राम कर आया। किर और समत्रों से समला। गाूँव
में कोई ववशेष पररवतदन न था। ाूँ, पटे कवरी की नयी बैठक बन गयी थी और
णझंगुरीससं ने दरवाज़े पर नया कुआूँ खुदवा सलया था। गोबर के मन में ववद्रो
और भी ताल ठोंकने लगा। श्जससे समला उसने उसका आदर ककया , और युवकों
ने तो उसे अपना ीरो बना सलया और उसके साथ लखनऊ जाने को तैयार ो
गये। साल ी भर में व क्या से क्या ो गया था।
ठाकुर ने कुतू ल भरी आूँखों से उसे ससर से पाूँव तक दे खा -- ककतना रोज़ पैदा
करते थे?
गोबर ने छुरी को भाला बनाकर उनके ऊपर चलाया -- य ी कोई ढाई-तीन रुपए
समल जाते थे। कभी चटक गयी तो चार भी समल गये। इससे बेसी न ीं।
य तमाचा लगाकर गोबर आगे नकल गया। णझंगरु ी मन में ऐंठकर र गये।
लौंडा ककतने घमंड की बातें करता ै , मानो िमद का अवतार ी तो ै।
गोबर को दे खकर प्रसन्न ोकर बोले -- मज़े में तो र े गोबर? सुना व ाूँ कोई
अच्छी जग पा गये ो। मातादीन को भी ककसी ीले से लगा दो न? भंग पीकर
पड़े र ने के ससवा य ाूँ और कौन काम ै।
गोबर ने बनाया -- तुम् ारे घर में ककस बात की कमी म ाराज, श्जस जजमान के
द्वार पर जाकर खड़े ो जाओ कुछ न कुछ मार ी लाओगे। जनम में लो, मरन
में लो, सादी में लो, गमी में लो; खेती करते ो, लेन-दे न करते ो, दलाली करते
ो, ककसी से कुछ भूल-चूक ो जाय तो डाूँड़ लगाकर उसका घर लूट लेते ो;
इतनी कमाई से पेट न ीं भरता? क्या करोगे ब ु त-सा िन बटोरकर? कक साथ ले
जाने की कोई जुगुत नकाल ली ै ?
'सच क ता ू ूँ गोबर तुम् ारी ब ु त याद आती थी। अब तो र ोगे कुछ हदन?
' ाूँ, अभी तो र ू ूँगा कुछ हदन। उन पंचों पर दावा करना ै , श्जन् ोंने डाूँड़ के
ब ाने मेरे डेढ़ सौ रुपए ज़म ककये ैं। दे खूूँ, कौन मेरा ु क़्क़ा-पानी बंद करता ै ।
और कैसे बबरादरी मुझे जात बा र करती ै ।'
य िमकी दे कर व आगे बढ़ा। उसकी े कड़ी ने उसके युवक भक्तों को रोब में
डाल हदया था।
गोबर ने मूँछ
ू ों पर ताव दे कर क ा -- मुझसे क्या क ते ो भाई, साल भर में
भूल थोड़े ी गया। य ाूँ मुझे र ना ी न ीं ै , न ीं एक-एक को नचाकर छोड़ता।
अबकी ोली िूम-िाम से मनाओ और ोली का स्वाूँग बनाकर इन सबों को ख़ूब
सभंगो-सभंगोकर लगाओ।
ोली का प्रोग्राम बनने लगा। ख़ूब भंग घुटे, दधू िया भी, नमकीन भी, और रं गों के
साथ कासलख भी बने और मुणखयों के मूँु पर कासलख ी पोती जाय। ोली में
कोई बोल ी क्या सकता ै ! किर स्वाूँग नकले और पंचों की भद्द उड़ाई जाय।
रुपए-पैसे की कोई धचन्ता न ीं। गोबर भाई कमाकर आये ैं। भोजन करके गोबर
भोला से समलने चला। जब तक अपनी जोड़ी लाकर अपने द्वार पर बाूँि न दे ,
उसे चैन न ीं। व लड़ने-मरने को तैयार था।
ोरी ने कातर स्वर में क ा -- राढ़ मत बढ़ाओ बेटा, भोला गोईं ले गये, भगवान ण
उनका भला करे ; लेककन उनके रुपए तो आते ी थे।
गोबर ने उत्तेश्जत ोकर क ा -- दादा, तम
ु बीच में न बोलो। उनकी गाय पचास
की थी। मारी गोईं डेढ़ सौ में आयी थी। तीन साल मने जोती। किर भी सौ
की थी ी। व अपने रुपये के सलए दावा करते, डडग्री कराते, या जो चा ते क ते,
मारे द्वार से जोड़ी क्यों खोल ले गये ? और तुम् ें क्या क ू ूँ। इिर गोईं खो बैठे,
उिर डेढ़ सौ रुपए डाूँड़ के भरे । य ै गऊ ोने का िल। मेरे सामने जोड़ी खोल
ले जाते, तो दे खता। तीनों को य ाूँ ज़मीन पर सल
ु ा दे ता। और पंचों से तो बात
तक न करता। दे खता, कौन मुझे बबरादरी से अलग करता ै; लेककन तुम बैठे
ताकते र े ।
गोबर ने बात काटी -- ु क़्क़ा-पानी सब तो था, बबरादरी में आदर भी था, किर
मेरा ब्या क्यों न ीं ु आ? बोलो। इससलए कक घर में रोटी न थी। रुपए ों तो न
ु क़्क़ा-पानी का काम ै , न जात-बबरादरी का। द ु नया पैसे की ै , ु क़्क़ा-पानी कोई
न ीं पूछता।
गोबर ने दे खा, जंगी पेड़ की आड़ में खड़ा झाूँक र ा ै । बोला -- डरो मत जंगी
भैया, मैं ू ूँ। राम-राम! आज ी आया ू ूँ। सोचा, चलूँ ू सबसे समलता आऊूँ, किर न
जाने कब आना ो! मैं तो भैया, तम्ु ारे आससरबाद से बड़े मज़े में नकल गया।
श्जस राजा की नौकरी मैं ू ूँ, उन् ोंने मझ
ु से क ा ै कक एक-दो आदमी समल
जायूँ तो लेते आना। चौकीदारी के सलए चाह ए। मैंने क ा, सरकार ऐसे आदमी
दूँ ग
ू ा कक चा े जान चली जाय, मैदान से टनेवाले न ीं, इच्छा ो तो मेरे साथ
चलो। अच्छी जग ै।
जंगी उसका ठाट-बाट दे खकर रोब में आ गया। उसे कभी चमरौिे जूते भी
मयस्सर न ु ए थे। और गोबर चमाचम बूट प ने ु ए था। साफ़-सुथरी, िारीदार
कमीज़, सूँवारे ु ए बाल, पूरा बाबू सा ब बना ु आ। िटे ाल गोबर और इस
पररष्कृत गोबर में बड़ा अंतर था। ह स ं ा-भाव कुछ तो यों ी समय के प्रभाव से
शान्त ो गया था और बचा-खच
ु ा अब शांत ो गया। जआ
ु ड़ी था ी, उस पर
गाूँजे की लत। और घर में बड़ी मश्ु ककल से पैसे समलते थे। मूँु में पानी भर
आया।
बोला -- चलूँ ग
ू ा क्यों न ीं, य ाूँ पड़ा-पड़ा मक्खी ी तो मार र ा ू ूँ। कै रुपए
समलें गे?
'जग की कौन कमी। पूरा म ल पड़ा ै । पानी का नल, बबजली। ककसी बात की
कमी न ीं ै । कामता ैं कक क ीं गये ैं ?'
'दि
ू लेकर गये ैं। मुझे कोई बाज़ार न ीं जाने दे ता। क ते ैं , तुम तो गाूँजा पी
जाते ो। मैं अब ब ु त कम पीता ू ूँ भैया, लेककन दो पैसे रोज़ तो चाह ए ी।
तुम कामता से कुछ न क ना। मैं तम् ु ारे साथ चलूँ ग
ू ा।'
दोनों आदमी बातें करते भोला के द्वार पर आ प ु ूँच।े भोला बैठे सुतली कात र े
थे। गोबर ने लपक कर उनके चरण छुए और इस वक़्त उसका गला सचमुच भर
आया।
' ोली करके चला जाऊूँगा। य ाूँ खेती-बारी का ससलससला किर जमा दूँ ,ू तो
नसधचंत ो जाऊूँ।'
'एक नामी बैद तो मेरे पड़ोस ी में र ते ैं। उनसे ाल क के दवा बनवा कर
भेज दूँ ग
ू ा। खाूँसी रात को ज़ोर करती ै कक हदन को?'
'न ीं बेटा, रात को। आूँख न ीं लगती। न ीं व ाूँ कोई डौल ो, तो मैं भी व ीं
चलकर र ू ूँ। य ाूँ तो कुछ परता न ीं पड़ता।'
'रोज़गार का जो मज़ा व ाूँ ै काका, य ाूँ क्या ोगा? य ाूँ रुपए का दस सेर दि
ू
भी कोई न ीं पछ
ू ता। लवाइयों के गले लगाना पड़ता ै । व ाूँ पाूँच-छः सेर के
भाव से चा ो तो एक घड़ी में मनों दि
ू बेच लो।'
जंगी गोबर के सलए दधू िया शबदत बनाने चला गया था। भोला ने एकांत दे खकर
क ा -- और भैया! अब इस जंजाल से जी ऊब गया ै । जंगी का ाल दे खते ी
ो। कामता दि
ू लेकर जाता ै । सानी-पानी, खोलना-बाूँिना, सब मुझे करना
पड़ता ै । अब तो य ी जी चा ता ै कक सुख से क ीं एक रोटी खाऊूँ और पड़ा
र ू ूँ। क ाूँ तक ाय- ाय करूूँ। रोज़ लड़ाई-झगड़ा। ककस-ककस के पाूँव स लाऊूँ।
खाूँसी आती ै , रात को उठा न ीं जाता; पर कोई एक लोटे पानी को भी न ीं
पछ
ू ता। पगह या टूट गयी ै , मद
ु ा ककसी को इसकी सधु ि न ीं ै । जब मैं
बनाऊूँगा तभी बनेगी।
भोला ने एक समनट के बाद संकोच भरे भाव से क ा -- क्रोि में बेटा, आदमी
अंिा ो जाता ै । मैं तुम् ारी गोईं खोल लाया था। उसे लेते जाना। य ाूँ कौन
खेती-बारी ोती ै।
'न ीं-न ीं, नयी गोईं लेकर क्या करोगे? इसे लेते जाओ।'
'तो मैं तुम् ारे रुपए सभजवा दूँ ग
ू ा।'
***
21
दे ातों में साल के छः म ीने ककसी न ककसी उत्सव में ढोल-मजीरा बजता र ता
ै। ोली के एक म ीना प ले से एक म ीना बाद तक िाग उड़ती ै ; आषाढ़
लगते ी आल् ा शुरू ो जाता ै और सावन-भादों में कजसलयाूँ ोती ैं।
कजसलयों के बाद रामायण-गान ोने लगता ै । सेमरी भी अपवाद न ीं ै।
म ाजन की िमककयाूँ और काररन्दे की बोसलयाूँ इस समारो में बािा न ीं डाल
सकतीं। घर में अनाज न ीं ै , दे पर कपड़े न ीं ैं , गाूँठ में पैसे न ीं ैं , कोई
परवा न ीं। जीवन की आनंदवश्ृ त्त तो दबाई न ीं जा सकती, ूँसे बबना तो
श्जया न ीं जा सकता। यों ोली में गाने-बजाने का मख्
ु य स्थान नोखेराम की
चौपाल थी। व ीं भंग बनती थी, व ीं रं ग उड़ता था, व ीं नाच ोता था। इस
उत्सव में काररंदा सा ब के दस-पाूँच रुपए ख़चद ो जाते थे। और ककसमें य
सामथ्यद थी कक अपने द्वार पर जलसा कराता? लेककन अबकी गोबर ने गाूँव के
सारे नवयुवकों को अपने द्वार पर खींच सलया ै और नोखेराम की चौपाल ख़ाली
पड़ी ु ई ै।
'उसे तो लाया ू ूँ तुम् ारी सेवा करने के सलए। व तुम् ारी क्या बराबरी करे गी?'
'तम्
ु ारी लाड़ली ज ाूँ ो, व ाूँ जाओ। मैं तो लौंड़ी ू ूँ, दस
ू रों की सेवा-ट ल करने
के सलए आयी ू ूँ।'
'तुम मेरी रानी ो। तुम् ारी सेवा-ट ल करने के सलए व बुहढ़या ै ।'
दातादीन ने सरु ती िाूँकते ु ए क ा -- काम कैसे न ीं करें गे? साल के बीच में
काम न ीं छोड़ सकते। जेठ में छोड़ना ो छोड़ दें , करना ो करें । उसके प ले
न ीं छोड़ सकते।
'ना!'
'तो मारे रुपए सूद समेत दे दो। तीन साल का सूद ोता ै सौ रुपया। असल
समलाकर दो सौ ोते ैं। मने समझा था, तीन रुपए म ीने सूद में कटते
जायूँगे; लेककन तम्
ु ारी इच्छा न ीं ै , तो मत करो। मेरे रुपए दे दो। िन्ना सेठ
बनते ो, तो िन्ना सेठ का काम करो।
गोबर ने बाप को डाूँटा -- कैसी चाकरी और ककसकी चाकरी? य ाूँ तो कोई ककसी
का चाकर न ीं। सभी बराबर ैं। अच्छी हदल्लगी ै । ककसी को सौ रुपए उिार दे
हदये और उससे सूद में श्ज़ंदगी भर काम लेते र े । मूल ज्यों का त्यों! य
म ाजनी न ीं ै , ख़न
ू चस
ू ना ै।
'तो रुपए दे दो भैया, लड़ाई का े की। मैं आने रुपए ब्याज लेता ू ूँ। तुम् ें गाूँवघर
का समझकर आि आने रुपए पर हदया था।'
' म तो एक रुपया सैकड़ा दें गे। एक कौड़ी बेसी न ीं। तुम् ें लेना ो तो लो, न ीं
अदालत से लेना। एक रुपया सैकड़े ब्याज कम न ीं ोता। '
'गमी उन् ें ोती ै , जो एक के दस लेते ैं। म तो मजूर ैं। मारी गमी पसीने
के रास्ते ब जाती ै । मझ
ु े याद ै , तम
ु ने बैल के सलए तीस रुपए हदये थे।
उसके सौ ु ए। और अब सौ के दो सौ ो गये। इसी तर तम
ु लोगों ने ककसानों
को लूट-लूटकर मजरू बना डाला और आप उनकी ज़मीन के मासलक बन बैठे।
तीस के दो सौ! कुछ द ै । ककतने हदन ु ए ोंगे दादा?'
दातादीन ने ोरी को बीच में डालकर क ा -- सुनते ो ोरी गोबर का फ़ैसला? मैं
अपने दो सौ छोड़ के सत्तर रुपए ले लूँ ,ू न ीं अदालत करूूँ। इस तर का
व्यव ार ु आ तो कै हदन संसार चलेगा? और तुम बैठे सुन र े ो; मगर य
समझ लो, मैं ब्राह्मण ू ूँ , मेरे रुपए ज़म करके तुम चैन न पाओगे। मैंने ये
सत्तर रुपए भी छोड़े, अदालत भी न जाऊूँगा, जाओ। अगर मैं ब्राह्मण ू ूँ , तो
अपने पूरे दो सौ रुपए लेकर हदखा दूँ ग
ू ा! और तुम मेरे द्वार पर आवोगे और
ाथ बाूँिकर दोगे।
दातादीन झल्लाये ु ए लौट पड़े। गोबर अपनी जग बैठा र ा। मगर ोरी के पेट
में िमद की क्रां त मची ु ई थी। अगर ठाकुर या ब नये के रुपए ोते, तो उसे
ज़्यादा धचंता न ोती; लेककन ब्राह्मण के रुपए! उसकी एक पाई भी दब गयी, तो
ड्डी तोड़कर नकलेगी। भगवान ण न करें कक ब्राह्मण का कोप ककसी पर धगरे ।
बंस में कोई धचल्लू-भर पानी दे नेवाला, घर में हदया जलानेवाला भी न ीं र ता।
उसका िमद भी, मन त्रस्त ो उठा।
उसने दौड़कर पंडडतजी के चरण पकड़ सलये और आतद स्वर में बोला -- म ाराज,
जब तक मैं जीता ू ूँ, तुम् ारी एक-एक पाई चुकाऊूँगा। लड़कों की बातों पर मत
जाओ। मामला तो मारे -तुम् ारे बीच में ु आ ै । व कौन ोता ै ?
'उनका रोयाूँ जो दख
ु ी ोगा?'
'बेटा, जब तक मैं जीता ू ूँ, मुझे अपने रास्ते चलने दो। जब मैं मर जाऊूँ, तो
तम्
ु ारी जो इच्छा ो व करना।'
'तो किर तुम् ीं दे ना। मैं तो अपने ाथों अपने पाूँव में कुल् ाड़ी न मारूूँगा। मेरा
गिापन था कक तुम् ारे बीच में बोला -- तुमने खाया ै , तुम भरो। मैं क्यों
अपनी जान दूँ ?ू '
उिर मुणखयों में गोबर को नीचा हदखाने के सलए षडयंत्र रचा जा र ा था। य
लौंडा सशकंजे में न कसा गया, तो गाूँव में अिमद मचा दे गा। प्यादे से फ़रज़ी ो
गया ै न, टे ढ़े तो चलेगा ी। जाने क ाूँ से इतना क़ानून सीख आया ै ? क ता
ै , रुपए सैकड़े सूद से बेसी न दूँ ग
ू ा। लेना ो तो लो, न ीं अदालत जाओ। रात
इसने सारे गाूँव के लौंडों को बटोरकर ककतना अनथद ककया। लेककन मणु खयों में
भी ईष्याद की कमी न थी। सभी अपने बराबरवालों के परर ास पर प्रसन्न थे।
नोखेराम ने ठट्टा मारकर क ा -- मगर नक़ल सच्ची थी। मैंने कई बार उनकी
छोटी बेगम को द्वार पर खड़े लौंडों से ूँसी करते दे खा।
'और बड़ी रानी काजल और सेंदरु और म ावर लगाकर जवान बनी र ती ैं।'
'सुना, तुम् ारी बड़ी भद्दी नक़ल की। चमररया के घर में बंद कराके वपटवाया।'
ोरी और गोबर दोनों ऊख बोने के सलए खेत सींच र े थे। अबकी ऊख की खेती
ोने की आशा तो थी न ीं, इससलए खेत परती पड़ा ु आ था। अब बैल आ गये
ैं, तो ऊख क्यों न बोई जाय! मगर दोनों जैसे छत्तीस बने ु ए थे। न बोलते थे,
न ताकते थे। ोरी बैलों को ाूँक र ा था और गोबर मोट ले र ा था। सोना और
रूपा दोनों खेत में पानी दौड़ा र ी थीं कक उनमें झगड़ा ो गया। वववाद का
ववषय य था कक णझंगुरीससं को छोटी ठकुराइन प ले ख़ुद खाकर प त को
णखलाती ै या प त को णखलाकर तब ख़द
ु खाती ै । सोना क ती थी, प ले व
ख़ुद खाती ै । रूपा का मत इसके प्र तकूल था।
सोना ने प्र तवाद ककया -- तू समझती ै , अच्छा खाने से लोग मोटे ो जाते ैं।
अच्छा खाने से लोग बलवान ण ोते ैं, मोटे न ीं ोते। मोटे ोते ैं , घास-पात खाने
से।
'और क्या। अभी उस हदन दोनों में लड़ाई ु ई, तो ठकुराइन ने ठाकुर को ऐसा
ढकेला कक उनके घुटने िूट गये।'
'और क्या।'
'तभी तो जब दे खो तब दादा डाूँट दे ते ैं। मैं बलवान ोकर अपने मरद को क़ाबू
में रखूग
ूँ ी। तेरा मरद तुझे पीटे गा, तेरी ड्डी तोड़कर रख दे गा।'
रूपा रुआूँसी ोकर बोली -- क्यों पीटे गा, मैं मार खाने का काम ी न करूूँगी।'
व कुछ न सुनेगा। तूने ज़रा भी कुछ क ा और व मार चलेगा। मारते-मारते
तेरी खाल उिेड़ लेगा।'
ोरी ने पछ
ू ा -- पानी कौन चलायेगा? दौड़े-दौड़े गये, दोनों को भगा आये। अब
जाकर मना क्यों न ीं लाते?
'दो जन
ू खाना बन्द कर दो, आप ठीक ो जायूँ।'
पाूँव में एक बार ठोकर लग जाने के बाद ककसी कारण से बार-बार ठोकर लगती
ै और कभी-कभी अूँगूठा पक जाता ै और म ीनों कष्ट दे ता ै । वपता और पूत्र
के सद्भाव को आज उसी तर की चोट लग गयी थी और उस पर य तीसरी
चोट पड़ी।
गोबर ने घर जाकर झु नया को खेत में पानी दे ने के सलए साथ सलया। झु नया
बच्चे को लेकर खेत में गयी। ि नया और उसकी दोनों बेहटयाूँ ताकती र ीं। माूँ
को भी गोबर की य उद्दं डता बरु ी लगती थी। रूपा को मारता तो व बरु ा न
मानती, मगर जवान लड़की को मारना, य उसके सलए असह्य था। आज ी रात
को गोबर ने लखनऊ लौट जाने का नकचय कर सलया। य ाूँ अब व न ीं र
सकता। जब घर में उसकी कोई पूछ न ीं ै , तो व क्यों र े । व लेन-दे न के
मामले में बोल न ीं सकता। लड़ककयों को ज़रा मार हदया तो लोग ऐसे जामे के
बा र ो गये , मानो व बा र का आदमी ै । तो इस सराय में व न र े गा।
दोनों भोजन करके बा र आये थे कक नोखेराम के प्यादे ने आकर क ा -- चलो,
काररंदा सा ब ने बुलाया ै।
प्यादा बोला -- मुझे तो तुम् ें बुलाने का ु क्म समला ै । जो कुछ अरज करना
ो, व ीं चलकर करना।
ोरी की इच्छा न थी, मगर जाना पड़ा; गोबर ववरक्त-सा बैठा र ा। आि घंटे में
ोरी लौटा और धचलम भर कर पीने लगा।
अब गोबर से न र ा गया। पछ
ू ा -- ककस मतलब से बल
ु ाया था?
'तो तम
ु बबना रसीद सलए रुपए दे ते ी क्यों ो?'
'मैं क्या जानता था, व लोग बेईमानी करें गे। य सब तुम् ारी करनी का िल
ै । तुमने रात को उनकी ूँसी उड़ाई, य उसी का दं ड ै । पानी में र कर मगर
से बैर न ीं ककया जाता। सद
ू लगाकर सत्तर रुपए बाक़ी नकाल हदये। ये
ककसके घर से आयेंगे?'
उसकी वाणी में सत्य का बल था। डरपोक प्राणणयों में सत्य भी गूँग
ू ा ो जाता
ै । व ी सीमें ट जो ईट पर चढ़कर पत्थर ो जाता ै , समट्टी पर चढ़ा हदया जाय,
तो समट्टी ो जायगा। गोबर की नभीक स्पष्टवाहदता ने उस अनीत के बख़्तर
को बेि डाला श्जससे सश्ज्जत ोकर नोखेराम की दब
ु ल
द आत्मा अपने को
शश्क्तमान ण समझ र ी थी।
ि नया ने डरते-डरते क ा -- जैसी तुम् ारी इच्छा; लेककन व ाूँ व कैसे अकेले
घर सूँभालेगी, कैसे बच्चे की दे ख-भाल करे गी?'
'ले जाने को मैं न ीं रोकती, लेककन परदे श में बाल-बच्चों के साथ र ना, न कोई
आगे न पीछे ; सोचो ककतना झंझट ै ।'
'आूँखों दे ख र ा ू ूँ।'
'क्या जाने तम
ु ने ककसके सलए करज़ सलया? मैंने तो एक पैसा भी न ीं जाना।'
'बबना पाले ी इतने बड़े ो गये?'
गोबर भी बीच-बीच में डंक मारता जाता था। ोरी बरौठे में बैठा सब कुछ सुन
र ा था। सोना और रूपा आूँगन में ससर झुकाये खड़ी थीं; दल
ु ारी, पु नया और कई
श्स्त्रयाूँ बीच-बचाव करने आ प ु ूँची थीं। गरजन के बीच में कभी-कभी बूँद
ू ें भी
धगर जाती थीं। दोनों ी अपने-अपने भाग्य को रो र ी थीं। दोनों ी ईकवर को
कोस र ी थीं, और दोनों अपनी-अपनी नदोवषदता ससि कर क ी थीं। झु नया गड़े
मुदे उखाड़ र ी थी। आज उसे ीरा और शोभा से ववशेष स ानुभू त ो गयी थी,
श्जन् ें ि नया ने क ीं का न रखा था। ि नया की आज तक ककसी से न पटी
थी, तो झु नया से कैसे पट सकती ै । ि नया अपनी सफ़ाई दे ने की चेष्टा कर
र ी थी; लेककन न जाने क्या बात थी कक जनमत झु नया की ओर था। शायद
इससलए कक झु नया संयम ाथ से न जाने दे ती थी और ि नया आपे से बा र
थी। शायद इससलए कक झु नया अब कमाऊ परु
ु ष की स्त्री थी और उसे प्रसन्न
रखने में ज़्यादा मसल त थी।
तब ोरी ने आूँगन में आकर क ा -- मैं तेरे पैरों पड़ता ू ूँ ि नया, चुप र । मेरे
मूँु में कासलख मत लगा। ाूँ, अभी मन न भरा ो तो और सुन।
झु नया ने सास के पास जाकर उसके चरणों को अंचल से छुआ। ि नया के मूँु
से असीस का एक शब्द भी न नकला। उसने आूँख उठाकर दे खा भी न ीं।
गोबर बालक को गोद में सलए आगे -आगे था। झु नया बबस्तर बग़ल में दबाये
पीछे । एक चमार का लड़का संदक़
ू सलये था। गाूँव के कई स्त्री-पुरुष गोबर को
प ु ूँचाने गाूँव के बा र तक आये। और ि नया बैठी रो र ी थी, जैसे कोई उसके
हृदय को आरे से चीर र ा ो। उसका मातत्ृ व उस घर के समान ो र ा था,
श्जसमें आग लग गयी ो और सब कुछ भस्म ो गया ो। बैठकर रोने के सलए
भी स्थान न बचा ो।
***
22
'मझ
ु से जो कुछ ो सकता था व मैंने ककया। इसके ससवा मैं और क्या कर
सकता था। अगर कोई व्यश्क्त अपने दो-चार लाख रुपए िूँू कने ी पर तल
ु ा ुआ
ो, तो मेरा क्या बस!'
'ऐसा ी समणझए।'
'आप मझ
ु े झठ
ू ा समझते ैं?'
राय सा ब ने मट्ठ
ु ी बाूँिकर क ा -- मैं?
'जी ाूँ, आप! प ले चुनाव में मैंने जी-जान से आपकी पैरवी की। आपने बड़ी
मुश्ककल से रो िोकर पाूँच सौ रुपए हदये, दस
ू रे चुनाव में आपने एक सड़ी-सी
टूटी-िूटी कार दे कर अपना गला छुड़ाया। दि
ू का जला छाूँछ भी िूँू क-िूँू ककर
पीता ै ।'
खन्ना ने ऐसा भाव बनाया, मानो उन् ें बड़ी धचंता ो गयी ै , बोले -- मेरी तो
सला ै ; आप एलेक्शन को गोली मारें , और अपने सालों पर मुक़दमा दायर कर
दें । र ी शादी, व तो तीन हदन का तमाशा ै । उसके पीछे ज़ेरबार ोना मुनाससब
न ीं। कुूँवर सा ब मेरे दोस्त ैं, लेन-दे न का कोई सवाल न उठने पायेगा।
'मैं तम्
ु ारे द्वार पर सर पटककर प्राण दे दूँ ग ू ा, खन्ना इतना समझ लो। मैंने
तुम् ारे ी भरोसे य सारे प्रोग्राम बाूँिे ैं। अगर तुमने नराश कर हदया, तो
शायद मुझे ज़ र खा लेना पड़े। मैं सूयप्र
द तापससं के सामने घुटने न ीं टे क
सकता। कन्या का वववा अभी दो चार म ीने टल सकता ै । मुक़दमा दायर
करने के सलए अभी काफ़ी वक़्त ै ; लेककन य एलेक्शन ससर पर आ गया ै,
और मझ
ु े सबसे बड़ी कफ़क्र य ी ै ।'
राय सा ब का मूँु धगर गया। खन्ना उनके अंतरं ग समत्रों में थे। साथ के पढ़े
ु ए, साथ के बैठनेवाले। और य उनसे कमीशन की आशा रखते ैं , इतने
बेमुरव्वती? आणख़र व जो इतने हदनों से खन्ना की ख़श
ु ामद करते ैं , व ककस
हदन के सलए? बाग़ में िल नकले, शाक-भाजी पैदा ो, सब से प ले खन्ना के
पास डाली भेजते ैं। कोई उत्सव ो, कोई जलसा ो, सबसे प ले खन्ना को
नमन्त्रण दे ते ैं। उसका य जवाब ो।
उसी वक़्त ानद की आवाज़ आयी और एक क्षण में समस्टर मे ता आकर खड़े ो
गये। गोरा धचट्टा रं ग, स्वास्थ्य की लासलमा गालों पर चमकती ु ई, नीची अचकन,
चूड़ीदार पाजामा, सुन ली ऐनक। सौम्यता के दे वता-से लगते थे।
'श्जस काम में आप शरीक ैं, व िमद ै या अिमद, इसकी मैं परवा न ीं
करता।'
'मैं चा ता ू ूँ , आप ख़द
ु ववचार करें । और अगर आप इस आयोजन को समाज के
सलए उपयोगी समझें, तो उसमें स योग दें । समस्टर खन्ना की नी त मुझे ब ु त
पसन्द आयी।'
राय सा ब ने दब
ु ल
द मुस्कान के साथ क ा -- मुझ में तो ववचार करने की शश्क्त
ै न ीं। सज्जनों के पीछे चलना ी मैं अपना िमद समझता ू ूँ।
'जो आप की इच्छा।'
उन् ोंने क़लम उठाया और अपना नाम सलखकर उसके सामने पाूँच ज़ार सलख
हदये। मे ता ने सूची उनके ाथ से ले ली; मगर उन् ें इतनी ग्ला न ु ई कक राय
सा ब को िन्यवाद दे ना भी भल
ू गये। राय सा ब को चंदे की सच
ू ी हदखाकर
उन् ोंने बड़ा अनथद ककया, य शूल उन् ें व्यधथत करने लगा।
'तो तम्
ु ें दे ने को कौन क ता ै ?'
खन्ना ने ोंठ चबाकर क ा -- कैसी बेसमझी की-सी बातें करती ो? तुम व ाूँ
नींव रखोगी और कुछ दोगी न ीं, तो संसार क्या क े गा?
'जाने क ाूँ डुबकी लगा गये। मैं चारों तरफ़ घूम आयी। आपने व्यायामशाला के
सलए ककतना हदया?'
'इसमें समझने की क्या बात थी, और समझ लेते आगे-पीछे , इस वक़्त तो कुछ
दे ने की बात थी। मैंने मे ता को ठे लकर य ाूँ भेजा था। बेचारे डर र े थे कक
आप न जाने क्या जवाब दें । आपकी इस कंजस
ू ी का क्या िल ोगा, आप जानते
ैं? य ाूँ के व्यापारी समाज से कुछ न समलेगा। आपने शायद मुझे अपमा नत
करने का नकचय कर सलया ै । सबकी सला थी कक लेडी ववलसन बु नयाद
रखें। मैंने गोववंदी दे वी का पक्ष सलया और लड़कर सब को राज़ी ककया और अब
आप फ़रमाते ैं , आपने इस मुआमले को समझा ी न ीं। आप बैंककं ग की
गुश्त्थयाूँ समझते ैं; पर इतनी मोटी बात आप की समझ में न आयी। इसका
अथद इसके ससवा और कुछ न ीं ै , कक तुम मुझे लश्ज्जत करना चा ते ो।
अच्छी बात ै , य ी स ी?'
मालती का मुख लाल ो गया था। खन्ना घबराये , े कड़ी जाती र ी; पर इसके
साथ ी उन् ें य
भी मालूम ु आ कक अगर व काूँटों में िूँस गये ैं, तो मालती
दल-दल में िूँस गयी ै ; अगर उनकी थैसलयों पर संकट आ पड़ा ै , तो मालती
की प्र तष्ठा पर संकट आ पड़ा ै , जो थैसलयों से ज़्यादा मूल्यवान ै । तब उनका
मन मालती की दरु वस्था का आनंद क्यों न उठाये ? उन् ोंने मालती को अरदब में
डाल हदया था। और यद्यवप व उसे रुष्ट कर दे ने का सा स खो चुके थे; पर
दो-चार खरी-खरी बातें क सुनाने का अवसर पाकर छोड़ना न चा ते थे। य भी
हदखा दे ना चा ते थे कक मैं नरा भोंद ू न ीं ू ूँ।
'अच्छा मान लो, तुम् ारा अनुमान ठीक ै , तो किर? मैं तुमसे एक शुभ-कायद में
स ायता माूँगने आयी ू ूँ , अपने व्यव ार की परीक्षा दे ने आयी ू ूँ। और अगर तुम
समझते ो, कुछ चंदा दे कर तम ु यश और िन्यवाद के ससवा और कुछ पा सकते
ो, तो तुम भ्रम में ो।'
खन्ना परास्त ो गये। व ऐसे सकरे कोने में िूँस गये थे, ज ाूँ इिर-उिर
ह लने का भी स्थान न था। क्या व उससे य क ने का सा स रखते ैं कक
मैंने अब तक तुम् ारे ऊपर ज़ारों रुपए लुटा हदये, क्या उसका य ी पुरस्कार ै?
लज्जा से उनका मूँु छोटा-सा नकल आया, जैसे ससकुड़ गया ो!
मालती ने परर ास के स्वर में क ा -- ख़ुदा करे , मैंने ग़लत समझा ो, क्योंकक
अगर मैं उसे सच समझ लूँ गू ी, तो तम्
ु ारे साये से भी भागूँग
ू ी। मैं रुपवती ू ूँ।
तुम भी मेरे अनेक चा नेवालों में से एक ो। व मेरी कृपा थी कक ज ाूँ मैं औरों
के उप ार लौटा दे ती थी, तुम् ारी सामान्य-से-सामान्य चीज़ें भी िन्यवाद के साथ
स्वीकार कर लेती थी, और ज़रूरत पड़ने पर तुमसे रुपए भी माूँग लेती थी, अगर
तुमने अपने िनोन्माद में इसका कोई दस
ू रा अथद नकाल सलया, तो मैं तुम् ें
क्षमा करूूँगी। य परु
ु ष-प्रकृ त का अपवाद न ीं; मगर य समझ लो कक िन ने
आज तक ककसी नारी के हृदय पर ववजय न ीं पायी, और न कभी पायेगा।
खन्ना सजल आूँखों से बोले -- अब मेरी जान बख़्शो मालती, क्यों मेरे मूँु में
कासलख पोत र ी ो।
'कान पकड़ता ू ूँ ; मगर अब तुम दया करके जाओ और मुझे एकांत में बैठकर
सोचने और रोने दो।
'तम
ु बबलकुल प े ली ो, आज य साबबत ो गया।'
***
23
ि नया गरज उठी -- अच्छा चुप र ो। तुम् ीं ने राूँड़ को मूड़ पर चढ़ा रखा था,
न ीं मैंने प ले ी हदन झाड़ू मारकर नकाल हदया ोता।
खसल ान में डाठें जमा ो गयी थीं। ोरी बैलों को जख
ु र कर अनाज माूँड़ने जा
र ा था। पीछे मूँुिेरकर बोला -- मान ले, ब ू ने गोबर को िोड़ ी सलया, तो
तू इतना कुढ़ती क्यों ै ? जो सारा ज़माना करता ै , व ी गोबर ने भी ककया। अब
उसके बाल-बच्चे ु ए। मेरे बाल-बच्चों के सलए क्यों अपनी साूँसत कराये , क्यों
मारे ससर का बोझ अपने ससर पर रखे!
'तो मझ
ु े भी नकाल दे । ले जा बैलों को अनाज माूँड़। मैं ु क़्क़ा पीता ू ूँ।'
ववनोद में दःु ख उड़ गया। व ी उसकी दवा ै । ि नया प्रसन्न ोकर रूपा के बाल
गूँथ
ू ने बैठ गयी जो बबलकुल उलझकर र गये थे, और ोरी खसल ान चला।
रससक बसंत सुगंि और प्रमोद और जीवन की ववभू त लुटा र ा था, दोनों ाथों
से, हदल खोलकर। कोयल आम की डासलयों में छपी अपनी रसीली, मिुर,
आत्मस्पशी कूक से आशाओं को जगाती किरती थी। म ु ए की डासलयों पर मैनों
की बरात-सी लगी बैठी थी। नीम और ससरस और करौंदे अपनी म क में नशा-
सा घोल दे ते थे।
ोरी आमों के बाग़ में प ु ूँचा, तो वक्ष
ृ ों के नीचे तारे -से णखले थे।
उसका व्यधथत, नराश मन भी इस व्यापक शोभा और स्िू तद में आकर गाने
लगा --
सामने से दल ु ारी स ु आइन, गुलाबी साड़ी प ने चली आ र ी थीं। पाूँव में मोटे
चाूँदी के कड़े थे, गले में मोटी सोने की ूँसली, चे रा सूखा ु आ; पर हदल रा।
एक समय था, जब ोरी खेत-खसल ान में उसे छे ड़ा करता था। व भाभी थी,
ोरी दे वर था, इस नाते से दोनों में ववनोद ोता र ता था। जब से सा जी मर
गये, दल
ु ारी ने घर से नकलना छोड़ हदया। सारे हदन दक
ू ान पर बैठी र ती थी
और व ीं वे सारे गाूँव की ख़बर लगाती र ती थी। क ीं आपस में झगड़ा ो
जाय, स ु आइन व ाूँ बीच-बचाव करने के सलए अवकय प ु ूँचग
े ी। आने रुपए सूद
से कम पर रुपए उिार न दे ती थी। और यद्यवप सूद के लोभ में मल ू भी ाथ
न आता था -- जो रुपए लेता, खाकर बैठ र ता -- मगर उसके ब्याज का दर
ज्यों-का-त्यों बना र ता था। बेचारी कैसे वसूल करे । नासलश-फ़ररयाद करने से
र ी, थाना-पुसलस करने से र ी, केवल जीभ का बल था; पर ज्यों-ज्यों उम्र के
साथ जीभ की तेज़ी बदलती जाती थी, उसकी काट घटती जाती थी। अब उसकी
गासलयों पर लोग ूँस दे ते थे और मज़ाक़ में क ते -- क्या करे गी रुपए लेकर
काकी, साथ तो एक कौड़ी भी न ले जा सकेगी। ग़रीब को णखला-वपलाकर श्जतनी
असीस समल सके, ले-ले। य ी परलोक में काम आयेगा। और दल
ु ारी परलोक के
नाम से जलती थी।
ोरी ने छे ड़ा -- आज तो भाभी, तम
ु सचमच
ु जवान लगती ो।
स ु आइन मगन ोकर बोली -- आज मंगल का हदन ै , नज़र न लगा दे ना। इसी
मारे मैं कुछ प नती-ओढ़ती न ीं। घर से नकली तो सभी घरू ने लगते ैं, जैसे
कभी कोई मे ररया दे खी न ो। पटे कवरी लाला की परु ानी बान अभी तक न ीं
छूटी।
ोरी हठठक गया; बड़ा मनोरं जक प्रसंग छड़ गया था। बैल आगे नकल गये।
ोरी लपककर बैलों के पास प ु ूँच गया और उन् ें पौर में डालकर चक्कर दे ने
लगा। सारे गाूँव का य ी एक खसल ान था। क ीं मूँड़ाई ो र ी थी, कोई अनाज
ओसा र ा था, कोई गल्ला तौल र ा था। नाई, बारी, बढ़ई, लो ार, पुरोह त, भाट,
सभखारी, सभी अपने-अपने जेवरें लेने के सलए जमा ो गये थे।
एक पेड़ के नीचे णझंगुरीससं खाट पर बैठे अपनी सवाई उगा र े थे। कई ब नये
खड़े गल्ले का भाव-ताव कर र े थे। सारे खसल ान में मंडी की-सी रौनक़ थी।
एक खटककन बेर और मकोय बेच र ी थी और एक खोंचेवाला तेल के सेव और
जलेबबयाूँ सलये किर र ा था। पंडडत दातादीन भी ोरी से अनाज बूँटवाने के सलए
आ प ु ूँचे थे और णझंगुरीससं के साथ खाट पर बैठे थे।
णझंगुरी तमाखू िाूँककर बोले -- पंडडत मैं तो एक बात जानता ू ूँ। तुम् ें गरज
पड़ेगी तो सौ बार मसे रुपए उिार लेने आओगे, और म जो ब्याज चा ें गे,
लें गे। सरकार अगर असासमयों को रुपए उिार दे ने का कोई बंदोबस्त न करे गी ,
तो में इस क़ानून से कुछ न ोगा। म दर कम सलखायेंगे; लेककन एक सौ में
पचीस प ले ी काट लें गे। इसमें सरकार क्या कर सकती ै।
'और जो िूँस जाओ! जाली ह साब सलखा और गये चौद साल को।'
गमद ोकर बोले -- पीठ पीछे आदमी जो चा े बके, मारे मूँु पर कोई कुछ क े ,
तो उसकी मूँछ
ू ें उखाड़ लूँ ।ू कोई मारी तर नेमी बन तो ले। ककतनों को जानता
ू ूँ , जो कभी संध्या-बंदन न ीं करते, न उन् ें िरम से मतलब, न करम से; न कथा
से मतलब, न पुरान से। व भी अपने को ब्राह्मण क ते ैं। मारे ऊपर क्या
ूँसेगा कोई, श्जसने अपने जीवन में एक एकादसी भी नागा न ीं की , कभी बबना
स्नान-पूजन ककये मूँु में पानी न ीं डाला। नेम का नभाना कहठन ै । कोई बता
दे कक मने कभी बाज़ार की कोई चीज़ खायी ो , या ककसी दस
ू रे के ाथ का
पानी वपया ो, तो उसकी टाूँग की रा नकल जाऊूँ। सससलया मारी चौखट न ीं
लाूँघने पाती, चौखट; बरतन-भाूँड़े छूना तो दस
ू री बात ै । मैं य न ीं क ता कक
मतई य ब ु त अच्छा काम कर र ा ै , लेककन जब एक बार एक बात ो गयी
तो य पाजी का काम ै कक औरत को छोड़ दे । मैं तो खल्
ु लमखुल्ला क ता ू ूँ ,
इसमें छपाने की कोई बात न ीं। स्त्री-जा त पववत्र ै।
डाढ़ी पर ाथ िेरकर बोले -- पास कुछ न स ी, मैं भीख ी माूँगता ू ूँ, लेककन
मैंने अपनी लड़ककयों के ब्या में पाूँच-पाूँच सौ हदये ैं; किर लड़के के सलए पाूँच
सौ क्यों न माूँगूँ?
ू ककसी ने सेंत-में त में मेरी लड़की ब्या ली ोती तो मैं भी सेंत
में लड़का ब्या लेता। र ी ै ससयत की बात। तुम जजमानी को भीख समझो, मैं
तो उसे ज़मींदारी समझता ू ूँ; बंकघर। ज़मींदारी समट जाय, बंकघर टूट जाय,
लेककन जजमानी अंत तक बनी र े गी। जब तक ह द ं -ू जा त र े गी, तब तक
ब्राह्मण भी र ें गे और जजमानी भी र े गी। स ालग में मज़े से घर बैठे सौ-दो
सौ िटकार लेते ैं। कभी भाग लड़ गया, तो चार-पाूँच सौ मार सलया। कपड़े,
बरतन, भोजन अलग। क ीं-न-क ीं नत ी कार-परोजन पड़ा ी र ता ै । कुछ
न समले तब भी एक-दो थाल और दो-चार आने दक्षक्षणा समल ी जाते ैं। ऐसा
चैन न ज़मींदारी में ै , न सा ू कारी में । और किर मेरा तो सससलया से श्जतना
उबार ोता ै , उतना ब्राह्मन की कन्या से क्या ोगा? व तो ब ु ररया बनी बैठी
र े गी। ब ु त ोगा रोहटयाूँ पका दे गी। य ाूँ सससलया अकेली तीन आदसमयों का
काम करती ै । और मैं उसे रोटी के ससवा और क्या दे ता ू ूँ ? ब ु त ु आ, तो साल
में एक िोती दे दी।
दस
ू रे पेड़ के नीचे दातादीन का नजी पैरा था। चार बैलों से मूँड़ाई ो र ी थी।
िन्ना चमार बैलों को ाूँक र ा था, सससलया पैरे से अनाज नकाल- नकालकर
ओसा र ी थी और मातादीन दस
ू री ओर बैठा अपनी लाठी में तेल मल र ा था।
सससलया साूँवली सलोनी, छर री बासलका थी, जो रूपवती न ोकर भी आकषदक
थी। उसके ास में , धचतवन में , अंगों के ववलास में षद का उन्माद था, श्जससे
उसकी बोटी-बोटी नाचती र ती थी, ससर से पाूँव तक भूसे के अणुओं में सनी,
पसीने से तर, ससर के बाल आिे खुले, व दौड़-दौड़कर अनाज ओसा र ी थी,
मानो तन-मन से कोई खेल खेल र ी ो।
मातादीन ने क ा -- आज साूँझ तक नाज बाक़ी न र े सससलया! तू थक गयी ो
तो मैं आऊूँ?
दल
ु ारी स ु आइन आज अपना ले ना वसल ू करती किरती थी। सससलया उसकी
दकू ान से ोली के हदन दो पैसे का गल
ु ाबी रं ग लायी थी। अभी तक पैसे न हदये
थे।
उसने कोई जवाब न हदया। कंठ में नमक के एक डले का-सा अनुभव करती ु ई,
आ त हृदय और सशधथल ाथों से किर काम करने लगी। उसी वक़्त उसकी माूँ,
बाप, दोनों भाई और कई अन्य चमारों ने न जाने ककिर से आकर मातादीन को
घेर सलया।
रखू ने नडरता से उत्तर हदया -- तुम् ारे घर में भी लड़ककयाूँ ैं ोरी म तो,
इतना समझ लो। इस तर गाूँव की मरजाद बबगड़ने लगी, तो ककसी की आबरू
न बचेगी।
एक क्षण में शत्रु पर परू ी ववजय पाकर आक्रमणकाररयों ने व ाूँ से टल जाना ी
उधचत समझा। जनमत बदलते दे र न ीं लगती। उससे बचे र ना ी अच्छा ै।
मातादीन क़ै कर र ा था।
रखू ने े कड़ी के साथ जवाब हदया -- इसका य ाूँ कोई ग़म न ीं। कौन तुम् ारी
तर बैठे मौज करते ैं। ज ाूँ काम करें गे, व ीं आिा पेट दाना समल जायगा।
मातादीन क़ै कर चुकने के बाद नजीव-सा ज़मीन पर लेट गया, मानो कमर टूट
गयी ो, मानो डूब मरने के सलए चुल्लू भर पानी खोज र ा ो। श्जस मयाददा के
बल पर उसकी रससकता और घमंड और पुरुषाथद अकड़ता किरता था, व समट
चुकी थी। उस ड्डी के टुकड़े ने उसके मूँु को ी न ीं, उसकी आत्मा को भी
अपववत्र कर हदया था। उसका िमद इसी खान-पान, छूत-ववचार पर हटका ु आ
था। आज उस िमद की जड़ कट गयी। अब व लाख प्रायश्कचत्त करे , लाख गोबर
खाय और गंगाजल वपये , लाख दान-पुडय और तीथद-व्रत करे , उसका मरा ु आ
िमद जी न ीं सकता; अगर अकेले की बात ोती, तो छपा ली जाती; य ाूँ तो
सबके सामने उसका िमद लुटा। अब उसका ससर मेशा के सलए नीचा ो गया।
आज से व अपने ी घर में अछूत समझा जायगा। उसकी स्ने मयी माता भी
उससे घण
ृ ा करे गी। और संसार से िमद का ऐसा लोप ो गया कक इतने आदमी
केवल खड़े तमाशा दे खते र े । ककसी ने चूँू तक न की। एक क्षण प ले जो लोग
उसे दे खते ी पालागन करते थे , अब उसे दे खकर मूँु िेर लें गे। व ककसी मंहदर
में भी न जा सकेगा, न ककसी के बरतन-भाूँड़े छू सकेगा। और य
सब ु आ इस
अभाधगन सससलया के कारण। सससलया ज ाूँ अनाज ओसा र ी थी , व ीं ससर
झुकाये खड़ी थी, मानो य उसी की दग
ु दत ो र ी ै।
'न ीं।'
'न ीं जाती।'
सससलया जान पर खेलकर बोली -- ाूँ, जब तुम् ारे द्वार पर जाऊूँ, तो पी लेना।
बु
बहु ढ़या किर झपटी, तो रखू ने उसे िक्के दे कर पीछे टाते ु ए क ा -- तू बड़ी
त्याररन ै कसलया! क्या उसे मार ी डालेगी?
सससलया बाप के पैरों से सलपटकर बोली -- मार डालो दादा, सब जने समलकर
मार डालो। ाय अम्माूँ, तुम इतनी नदद यी ो; इसीसलए दि
ू वपलाकर पाला था?
सौर में ी क्यों न गला घोंट हदया? ाय! मेरे पीछे पंडडत को भी तुमने भररस्ट
कर हदया। उसका िरम लेकर तुम् ें क्या समला? अब तो व भी मुझे न पूछेगा।
लेककन पूछे न पूछे, र ू ूँगी तो उसी के साथ। व मुझे चा े भूखों रखे, चा े मार
डाले, पर उसका साथ न छोड़ूूँगी। उनकी साूँसत कराके छोड़ दूँ ?ू मर जाऊूँगी, पर
रजाई न बनूँूगी। एक बार श्जसने बाूँ पकड़ ली, उसी की र ू ूँगी।
'उनके साथ क्यों जाऊूँ? श्जसने बाूँ पकड़ी ै , उसके साथ र ू ूँगी।'
सससलया ने भी उद्दंडता से क ा -- मुझे ज ाूँ व रखेंगे, व ाूँ र ू ूँगी। पेड़ तले रखें ,
चा े म ल में रखें।
मातादीन संज्ञा ीन-सा बैठा था। दोप र ोने आ र ा था। िूप पश्त्तयों से छन-
छनकर उसके चे रे पर पड़ र ी थी। माथे से पसीना टपक र ा था। पर व
मौन, नस्पंद बैठा ु आ था।
मातादीन ने पीछे किरकर नमदम स्वर में क ा -- मेरे साथ मत आ। मेरा तुझसे
कोई वास्ता न ीं। इतनी साूँसत करवा के भी तेरा पेट न ीं भरता।
'समझते ोंगे, इस तर अपने मूँु की लाली रख लें गे; लेककन श्जस बात को
द ु नया जानती ै , उसे कैसे छपा लें गे। मेरी रोहटयाूँ भारी ैं, न दें । मेरे सलए
क्या? मजूरी अब भी करती ू ूँ, तब भी करूूँगी। सोने को ाथ भर जग तुम् ीं से
माूँगूँूगी तो क्या तुम न दोगे?'
ि नया ने नभीक स्वर में क ा -- बबगड़ेंगे तो एक रोटी बेसी खा लें गे, और क्या
करें गे। कोई उनकी दबैल ू ूँ। उसकी इज़्ज़त ली, बबरादरी से नकलवाया, अब
क ते ैं, मेरा तुझसे कोई वास्ता न ीं। आदमी ै कक क़साई। य उसी नीयत का
आज िल समला ै । प ले न ीं सोच सलया था। तब तो बब ार करते र े । अब
क ते ैं, मुझसे कौन वास्ता।
***
24
सोना सत्र वें साल में थी और इस साल उसका वववा करना आवकयक था। ोरी
तो दो साल से इसी कफ़क्र में था, पर ाथ ख़ाली ोने से कोई क़ाबू न चलता था।
मगर इस साल जैसे भी ो, उसका वववा कर दे ना ी चाह ए, चा े क़रज़ लेना
पड़े, चा े खेत धगरों रखने पड़ें। और अकेले ोरी की बात चलती तो दो साल
प ले ी वववा ो गया ोता। व ककफ़ायत से काम करना चा ता था। पर
ि नया क ती थी, ककतना ी ाथ बाूँिकर ख़चद करो ; दो-ढाई सौ लग ी जायूँगे।
झु नया के आ जाने से बबरादरी में इन लोगों का स्थान कुछ े ठा ो गया था
और बबना सौ दो-सौ हदये कोई कुलीन वर न समल सकता था। वपछले साल चैती
में कुछ न समला। था तो पंडडत दातादीन से आिा साझा; मगर पंडडत जी ने
बीज और मजूरी का कुछ ऐसा ब्योरा बताया कक ोरी के ाथ एक चौथाई से
ज़्यादा अनाज न लगा। और लगान दे ना पड़ गया पूरा। ऊख और सन की फ़सल
नष्ट ो गयी। सन तो वषाद अधिक ोने और ऊख दीमक लग जाने के कारण।
ाूँ, इस साल की चैती अच्छी थी और ऊख भी ख़ब
ू लगी ु ई थी। वववा के सलए
गल्ला तो मौजूद था; दो सौ रुपए भी ाथ आ जायूँ, तो कन्या-अण से उसका
उद्िार ो जाय। अगर गोबर सौ ,रुपए की मदद कर दे , तो बाक़ी सौ रुपए ोरी
को आसानी से समल जायूँगे। णझंगुरीससं और मूँगरू सा दोनों ी अब कुछ नमद
पड़ गये थे। जब गोबर परदे श में कमा र ा ै , तो उनके रुपए मारे न पड़ सकते
थे।
एक हदन ोरी ने गोबर के पास दो-तीन हदन के सलए जाने का प्रस्ताव ककया।
मगर ि नया अभी तक गोबर के व कठोर शब्द न भूली थी। व गोबर से एक
पैसा भी न लेना चा ती थी , ककसी तर न ीं!
ि नया ससर ह लाकर बोली -- मान लो, गोबर परदे श न गया ोता, तब तम
ु क्या
करते? व ी अब करो।
ोरी की ज़बान बन्द ो गयी। एक क्षण बाद बोला -- मैं तो तुझसे पूछता ू ूँ।
कुश-कन्या ोरी भी दे सकता था। इसी में उसका मंगल था ; लेककन कुछ-मयाददा
कैसे छोड़ दे ? उसकी ब नों के वववा में तीन-तीन सौ बराती द्वार पर आये थे।
द े ज भी अच्छा ी हदया गया था। नाच-तमाशा, बाजा, गाजा, ाथी-घोड़े, सभी
आये थे। आज भी बबरादरी में उसका नाम ै । दस गाूँव के आदसमयों से उसका
े ल-मेल ै । कुश-कन्या दे कर व ककसे मूँु हदखायेगा? इससे तो मर जाना
अच्छा ै । और व क्यों कुश-कन्या दे ? पेड़-पालों ैं, ज़मीन ै और थोड़ी-सी साख
भी ै ; अगर व एक बीघा भी बेंच दे , तो सौ समल जायूँ; लेककन ककसान के सलए
ज़मीन जान से भी प्यारी ै , कुल-मयाददा से भी प्यारी ै । और कुल तीन ी बीघे
तो उसके पास ैं; अगर एक बीघा बेंच दे , तो किर खेती कैसे करे गा? कई हदन
इसी ै स-बेस में गुज़रे ।
ोरी कुछ फ़ैसला न कर सका। दश रे की छुहट्टयों के हदन थे। णझंगुरी, पटे कवरी
और नोखेराम तीनों ी सज्जनों के लड़के छुहट्टयों में घर आये थे। तीनों अूँग्रेज़ी
पढ़ते थे और यद्यवप तीनों बीस-बीस साल के ो गये थे, पर अभी तक
यू नवससदटी में जाने का नाम न लेते थे। एक-एक क्लास में दो-दो, तीन-तीन
साल पड़े र ते। तीनों की शाहदयाूँ ो चक
ु ी थीं। पटे कवरी के सपत
ू बबंदेसरी तो
एक पुत्र के वपता भी ो चुके थे। तीनों हदन भर ताश खेलते, भंग पीते और छै ला
बने घूमते। वे हदन में कई-कई बार
ोरी के द्वार की ओर ताकते ु ए नकलते
और कुछ ऐसा संयोग था कक श्जस वक़्त वे नकलते, उसी वक़्त सोना भी
ककसी-न-ककसी काम से द्वार पर आ खड़ी ोती। इन हदनों व व ी साड़ी
प नती थी, जो गोबर उसके सलए लाया था। य सब तमाशा दे ख -दे खकर ोरी
का ख़ून सूखता जाता था, मानो उसकी खेती चौपट करने के सलए आकाश में
ओलेवाले पीले बादल उठे चले आते ों!
एक हदन तीनों उसी कुएूँ पर न ाने जा प ु ूँ चे, ज ाूँ ोरी ऊख सींचने के सलए परु
चला र ा था। सोना मोट ले र ी थी। ोरी का ख़ून आज खौल उठा। उसी साूँझ
को व दल
ु ारी स ु आइन के पास गया। सोचा, औरतों में दया ोती ै , शायद
इसका हदल पसीज जाय और कम सूद पर रुपए दे दे । मगर दल ु ारी अपना ी
रोना ले बैठी। गाूँव में ऐसा कोई घर न था श्जस पर उसके कुछ रुपए न आते
ों, य ाूँ तक कक णझंगुरीससं पर भी उसके बीस रुपए आते थे; लेककन कोई दे ने
का नाम न लेता था। बेचारी क ाूँ से रुपए लाये?
ोरी ने धगड़धगड़ाकर क ा -- भाभी, बड़ा पुन्न ोगा। तुम रुपए न दोगी, मेरे गले
की िाूँसी खोल दोगी। णझंगुरी और पटे सरी मेरे खेतों पर दाूँत लगाये ु ए ैं। मैं
सोचता ू ूँ , बाप-दादा की य ी तो नसानी ै , य नकल गयी, तो जाऊूँगा क ाूँ?
एक सपतू व ोता ै कक घर की संपत बढ़ाता ै , मैं ऐसा कपत
ू ो जाऊूँ कक
बाप-दादों की कमाई पर झाड़ू िेर दूँ ।ू
दल
ु ारी ने क़सम खाई -- ोरी, मैं ठाकुर जी के चरन छू कर क ती ू ूँ कक इस
समय मेरे पास कुछ न ीं ै । श्जसने सलया, व दे ता न ीं, तो मैं क्या करूूँ? तम
ु
कोई ग़ैर तो न ीं ो। सोना भी मेरी ी लड़की ै ; लेककन तुम् ीं बताओ, मैं क्या
करूूँ? तुम् ारा ी भाई ीरा ै । बैल के सलए पचास रुपए सलये। उसका तो क ीं
पता-हठकाना न ीं, उसकी घरवाली से माूँगो तो लड़ने को तैयार। शोभा भी दे खने
में बड़ा सीिा-सादा ै ; लेककन पैसा दे ना न ीं जानता। और असल बात तो य ै
कक ककसी के पास ै
ी न ीं, दें क ाूँ से। सबकी दशा दे खती ू ूँ, इसी मारे सबर
कर जाती ू ूँ। लोग ककसी तर पेट पाल र े ैं, और क्या। खेत-बारी बेचने की मैं
सला न दूँ ग
ू ी। कुछ न ीं ै , मरजाद तो ै ।
ोरी ने मीठे प्र तवाद के साथ क ा -- य तो तुम झूठ बोलती ो भाभी! बबना
कुछ रस पाये थोड़े ी आता था। धचडड़या एक बार परच जाती ै , तभी दस
ू री बार
आूँगन में आती ै।
'चल झूठे।'
ोरी नराश मन से बोला -- व कुछ न दे गा। लड़के चार पैसे कमाने लगते ैं,
तो उनकी आूँखें किर जाती ैं। मैं तो बे याई करने को तैयार था; लेककन ि नया
न ीं मानती। उसकी मरज़ी बबना चला जाऊूँ तो घर में र ना अपाढ़ कर दे ।
उसका सुभाव तो जानती ो।
दल
ु ारी ने कटाक्ष करके क ा -- तम
ु तो मे ररया के जैसे ग़ल
ु ाम ो गये।
'मेरी ग़ल
ु ामी करने को क ते तो मैंने सलखा सलया ोता, सच!
'और जो बोले?'
'सुना ै , पंडडत कासी गये थे। व ाूँ एक बड़ा नामी ववद्वान ण पंडडत ै । व पाूँच
सौ माूँगता ै । तब परासधचत करायेगा। भला, पूछो ऐसा अूँिरे न ीं ु आ ै । जब
िरम नष्ट ो गया, तो एक न ीं ज़ार परासधचत करो , इसे क्या ोता ै । तम् ु ारे
ाथ का छुआ पानी कोई न वपयेगा, चा े श्जतना परासधचत करो।'
ोरी य ाूँ से घर चला, तो उसका हदल उछल र ा था। जीवन में ऐसा सुखद
अनुभव उसे न ु आ था। रास्ते में शोभा के घर गया और सगाई लेकर चलने के
सलए नेवता दे आया। किर दोनों दातादीन के पास सगाई की सायत पूछने गये।
व ाूँ से आकर द्वार पर सगाई की तैयाररयों की सला करने लगे।
'तू इतना बता दे कक मारी ब नों के ब्या में क्या-क्या सामान आया था।'
'य क्यों न ीं क ते कक इसी ब ाने दो गाल ूँसने-बोलने गया था। बूढ़े ो गये,
पर य बान न गयी। '
'तू तो ि नया, कभी-कभी बच्चों की-सी बातें करने लगती ै । मेरे-जैसे िटे ालों
से व ूँस-बोलेगी? सीिे मूँु बात तो करती न ीं।'
ोरी रोटी खाने गया और शोभा अपने घर चला गया, तो सोना सससलया के साथ
बा र नकली। व द्वार पर खड़ी सारी बातें सुन र ी थी। उसकी सगाई के सलए
दो सौ रुपए दल
ु ारी से उिार सलये जा र े ैं , य बात उसके पेट में इस तर
खलबली मचा र ी थी, जैसे ताज़ा चूना पानी में पड़ गया ो। द्वार पर एक
कुप्पी जल र ी थी, श्जससे ताक के ऊपर की दीवार काली ो गयी थी। दोनों बैल
नाूँद में सानी खा र े थे और कुत्ता ज़मीन पर टुकड़े के इन्तज़ार में बैठा ु आ
था। दोनों युव तयाूँ बैलों की चरनी के पास आकर खड़ी ो गयीं।
सोना बोली -- तूने कुछ सुना? दादा स ु आइन से मेरी सगाई के सलए दो सौ
रुपए उिार ले र े ैं।
'बूढ़े के साथ क्यों जाऊूँ? भैया बूढ़े थे जो झु नया को ले आये। उन् ें ककसने कै
पैसे द े ज में हदये थे?'
'और जो व क दें , कक मैं क्या करूूँ, तुम् ारे बाप दे ते ैं, मेरे बाप लेते ैं, इसमें
मेरा क्या अश्ख़्तयार ै ?'
सससलया को जान पड़ा, जैसे उसकी आूँख में नयी ज्यो त आ गयी ै । आवेश में
सोना को छाती से लगाकर बोली -- तन
ू े इतनी अक्कल क ाूँ से सीख ली सोना?
दे खने में तो तू बड़ी भोली-भाली ै।
सससलया ने ह कारत के साथ क ा -- बबरादरी में क्यों न लेंगे; ाूँ, बूढ़ा रुपए न ीं
ख़रच करना चा ता। इसको पैसा समल जाय, तो झठ
ू ी गंगा उठा ले। लड़का
आजकल बा र ओसारे में हटक्कड़ लगाता ै।
'तू इसे छोड़ क्यों न ीं दे ती? अपनी बबरादरी में ककसी के साथ बैठ जा और
आराम से र । व तेरा अपमान तो न करे गा।'
' ाूँ रे , क्यों न ीं, मेरे पीछे उस बेचारे की इतनी दरु दशा ु ई, अब मैं उसे छोड़ दूँ ।ू
अब व चा े पंडडत बन जाय चा े दे वता बन जाय , मेरे सलए तो व ी मतई ै ,
जो मेरे पैरों पर ससर रगड़ा करता था; और बाह्मण भी ो जाय और बाह्मणी से
ब्या भी कर ले, किर भी श्जतनी उसकी सेवा मैंने की ै, व कोई बाह्मणी क्या
करे गी। अभी मान-मरजाद के मो में व चा े मुझे छोड़ दे ; लेककन दे ख लेना,
किर दौड़ा आयेगा।'
'आ चक
ु ा अब। तझ
ु े पा जाय तो कच्चा ी खा जाय।'
' मारे घर में र ती न ीं ै ? उसके पीछे सारे गाूँव में बदनाम न ीं ो र े ैं ?'
पुर चलने लगा। ि नया को ोरी ने न आने हदया। रूपा क्यारी बराती थी। और
सोना मोट ले र ी थी। रूपा गीली समट्टी के चल्
ू े और बरतन बना र ी थी, और
सोना सशंक आूँखों से सोनारी की ओर ताक र ी थी। शंका भी थी , आशा भी थी,
शंका अधिक थी, आशा कम। सोचती थी, उन लोगों को रुपए समल र े ैं , तो क्यों
छोड़ने लगे। श्जनके पास पैसे ैं , वे तो पैसे पर और भी जान दे ते ैं। और गौरी
म तो तो एक ी लालची ैं। मथुरा में दया ै , िरम ै ; लेककन बाप की इच्छा
जो ोगी, व ी उसे माननी पड़ेगी; मगर सोना भी बचा को ऐसा िटकारे गी कक
याद करें गे। व साफ़ क े गी, जाकर ककसी िनी की लड़की से ब्या कर, तुझ-जैसे
पुरुष के साथ मेरा नबा न ोगा। क ीं गौरी म तो मान गये , तो व उनके
चरन िो-िोकर वपयेगी। उनकी ऐसी सेवा करे गी कक अपने बाप की भी न की
ोगी। और सससलया को भर-पेट समठाई णखलायेगी। गोबर ने उसे जो रुपया हदया
था उसे व अभी तक संचे ु ए थी। इस मद
ृ ु कल्पना से उसकी आूँखें चमक उठीं
और कपोलों पर लकी-सी लाली दौड़ गई। मगर सससलया अभी तक आयी क्यों
न ीं? कौन बड़ी दरू ै । न आने हदया ोगा उन लोगों ने। अ ा! व आ र ी ै;
लेककन ब ु त िीरे -िीरे आती ै । सोना का हदल बैठ गया। अभागे न ीं माने
साइत, न ीं सससलया दौड़ती आती। तो सोना से ो चक ु ा ब्या । मूँु िो रखो।
सससलया आयी ज़रूर पर कुएूँ पर न आकर खेत में क्यारी बराने लगी। डर र ी
थी, ोरी पूछेंगे क ाूँ थी अब तक, तो क्या जवाब दे गी। सोना ने य दो घंटे का
समय बड़ी मश्ु ककल से काटा। परु छूटते ी व भागी ु ई सससलया के पास
प ु ूँची।
ोरी तबद्
ु धि-सा आूँगन में खड़ा था और ि नया उस उदारता की प्र तकक्रया में
जो गौरी म तो की सज्जनता ने जगा दी थी, संदेशा क र ी थी। किर उसने
नाई को रस वपलाया और बबदाई दे कर बबदा ककया।
ि नया बोली -- मूँु दे खकर बीड़ा हदया जाता ै , जानते ो कक न ीं। तब गौरी
अपनी सान हदखाते थे, अब व भलमनसी हदखा र े ैं। ईट का जवाब चा े
पत्थर ो; लेककन सलाम का जवाब तो गली न ीं ै।
'मैं तो दल
ु ारी से ी लूँ ग
ू ा।'
'ले लो उसी से। सूद तो सभी लें गे। जब डूबना ी ै , तो क्या तालाब और क्या
गंगा।'
ोरी बा र आकर धचलम पीने लगा। ककतने मज़े से गला छूटा जाता था; लेककन
ि नया जब जान छोड़े तब तो। जब दे खो उल्टी ी चलती ै । इसे जैसे कोई भूत
सवार ो जाता ै । घर की दशा दे खकर भी इसकी आूँखें न ीं खुलतीं।
***
25
भोला इिर दस
ू री सगाई लाये थे। औरत के बग़ैर उनका जीवन नीरस था। जब
तक झु नया थी, उन् ें
ु क़्क़ा-पानी दे दे ती थी। समय से खाने को बुला ले जाती
थी। अब बेचारे अनाथ-से ो गये थे। ब ु ओं को घर के काम-िाम से छुट्टी न
समलती थी। उनकी क्या सेवा-सत्कार करती; इससलए अब सगाई परमावकयक ो
गयी थी। संयोग से एक जवान वविवा समल गयी, श्जसके प त का दे ांत ु ए
केवल तीन म ीने ु ए थे। एक लड़का भी था। भोला की लार टपक पड़ी। झटपट
सशकार मार लाये। जब तक सगाई न ु ई, उसका घर खोद डाला। अभी तक
उसके घर में जो कुछ था, ब ु ओं का था। जो चा ती थीं, करती थीं, जैसे चा ती
थीं, र ती थीं।
गाूँववालों में भी ककसी ने भोला का पक्ष न सलया। नयी सगाई ने उन् ें नक्कू
बना हदया था। रात तो उन् ोंने ककसी तर एक पेड़ के नीचे काटी , सुब ोते ी
नोखेराम के पास जा प ु ूँचे और अपनी फ़ररयाद सन
ु ायी।
नोखेराम नाटे , मोटे , खल्वाट, लम्बी नाक और छोटी-छोटी आूँखोंवाले साूँवले आदमी
थे। बड़ा-सा पग्गड़ बाूँिते, नीचा कुरता प नते और जाड़ों में सल ाफ़ ओढ़कर
बा र आते-जाते थे। उन् ें तेल की मासलश कराने में बड़ा आनंद आता था ,
इससलए उनके कपड़े मेशा मैले, चीकट र ते थे। उनका पररवार ब ु त बड़ा था।
सात भाई और उनके बाल-बच्चे सभी उन् ीं पर आधश्रत थे। उस पर स्वयम ण
उनका लड़का नवें दरजे में अूँग्रेज़ी पढ़ता था और उसका बबआ
ु ई ठाठ नभाना
कोई आसान काम न था। राय सा ब से उन् ें केवल बार रुपए वेतन समलता
था; मगर ख़चद सौ रुपए से कौड़ी कम न था। इससलए आसामी ककसी तर उनके
चंगुल में िूँस जाय तो बबना उसे अच्छी तर चूसे छोड़ते न थे। प ले छः रुपए
वेतन समलता था, तब असासमयों से इतनी नोच-खसोट न करते थे; जब से बार
रुपए ो गये थे, तब से उनकी तष्ृ णा और भी बढ़ गयी थी; इससलए राय सा ब
उनकी तरक़्क़ी न करते थे। गाूँव में और तो सभी ककसी-न-ककसी रूप में उनका
दवाब मानते थे; य ाूँ तक कक दातादीन और णझंगुरीससं भी उनकी ख़ुशामद
करते थे, केवल पटे कवरी उनसे ताल ठोकने को मेशा तैयार र ते थे। नोखेराम
को अगर य जोम था कक म ब्राह्मण ैं और कायस्थों को उूँ गली पर नचाते
ैं, तो पटे कवरी को भी घमंड था कक म कायस्थ ैं , क़लम के बादशा , इस
मैदान में कोई मसे क्या बाज़ी ले जायगा। किर व ज़मींदार के नौकर न ीं ,
सरकार के नौकर ैं, श्जसके राज में सूरज कभी न ीं डूबता। नोखेराम अगर
एकादशी को व्रत रखते ैं और पाूँच ब्राह्मणों को भोजन कराते ैं तो पटे कवरी
र पूणमादसी को सत्यनारायण की कथा सुनेंगे और दस ब्राह्मणों को भोजन
करायेंगे। जब से उनका जेठा लड़का सज़ावल ो गया था , नोखेराम इस ताक में
र ते थे कक उनका लड़का ककसी तर दसवाूँ पास कर ले , तो उसे भी क ीं
नक़ल-नवीसी हदला दें । इससलए ु क्काम के पास फ़सली सौगातें लेकर बराबर
सलामी करते र ते थे।
एक और बात में पटे कवरी उनसे बढ़े ु ए थे। लोगों का ख़याल था कक व अपनी
वविवा क ाररन को रखे ु ए ैं। अब नोखेराम को भी अपनी शान में य कसर
पूरी करने का अवसर समलता ु आ जान पड़ा।
भोला को ढाढ़स दे ते ु ए बोले -- तुम य ाूँ आराम से र ो भोला, ककसी बात का
खटका न ीं। श्जस चीज़ की ज़रूरत ो , मसे आकर क ो। तम् ु ारी घरवाली ै ,
उसके सलए भी कोई न कोई काम नकल आयेगा। बखारों में अनाज रखना ,
नकालना, पछोरना, िटकना क्या थोड़ा काम ै?
भोला ने अरज की -- सरकार, एक बार कामता को बुलाकर पूछ लो, क्या बाप के
साथ बेटे का य ी सलूक ोना चाह ए। घर मने बनवाया, गायें-भैंसें मने लीं।
अब उसने सब कुछ धथया सलया और में नकाल बा र ककया। य अन्याय
न ीं तो क्या ै। मारे मासलक तो तुम् ीं ो। तुम् ारे दरबार से इसका फ़ैसला
ोना चाह ए।
ोरी ने अपनी बीती सुनायी -- लड़कों की आजकल कुछ न पूछो भोला भाई।
मर-मरकर पालो; जवान ों, तो दस
ु मन ो जायूँ। मेरे ी गोबर को दे खो। माूँ से
लड़कर गया, और सालों ो गये, न धचट्ठी, न पत्तर। उसके लेखे तो माूँ-बाप मर
गये। बबहटया का ब्या ससर पर ै ; लेककन उससे कोई मतलब न ीं। खेत रे न
रखकर दो सौ रुपए सलये ैं। इज़्ज़त-आबरू का नबा तो करना ी ोगा।
कामता ने बाप को नकाल बा र तो ककया ; लेककन अब उसे मालूम ोने लगा
कक बुड्ढा ककतना कामकाजी आदमी था। सबेरे उठकर सानी-पानी करना, दि
ू
द ु ना, किर दि
ू लेकर बाज़ार जाना, व ाूँ से आकर किर सानी-पानी करना, किर
दिू द ु ना; एक पखवारे में उसका ु सलया बबगड़ गया। स्त्री-पुरुष में लड़ाई ु ई।
स्त्री ने क ा -- मैं जान दे ने के सलए तम्
ु ारे घर न ीं आयी ू ूँ। मेरी रोटी तम्
ु ें
भारी ो, तो मैं अपने घर चली जाऊूँ। कामता डरा, य क ीं चली जाय, तो रोटी
का हठकाना भी न र े , अपने ाथ से ठोकना पड़े। आणख़र एक नौकर रखा;
लेककन उससे काम न चला। नौकर खली-भूसा चुरा-चुराकर बेचने लगा। उसे
अलग ककया। किर स्त्री-पुरुष में लड़ाई ु ई। स्त्री रूठकर मैके चली गयी। कामता
के ाथ-पाूँव िूल गये। ारकर भोला के पास आया और धचरौरी करने लगा --
दादा, मुझसे जो कुछ भूल-चूक ुई ो क्षमा करो। अब चलकर घर सूँभालो, जैसे
तम
ु रखोगे, वैसे ी र ू ूँगा।
नो री ने मटककर क ा -- तम्
ु ें जाना ो तो जाओ, मैं न ीं जाती।
भोला जानता था, नो री ववरोि करे गी। इसका कारण भी व कुछ-कुछ समझता
था, कुछ दे खता भी था, उसके य ाूँ से भागने का एक कारण य भी था। य ाूँ
उसकी तो कोई बात न पछ
ू ता था; पर नो री की बड़ी ख़ा तर ोती थी। प्यादे
और श ने तक उसका दबाव मानते थे। उसका जवाब सुनकर भोला को क्रोि
आया; लेककन करता क्या? नो री को छोड़कर चले जाने का सा स उसमें ोता तो
नो री भी झख मारकर उसके पीछे -पीछे चली जाती। अकेले उसे य ाूँ अपने
आश्रय में रखने की ह म्मत नोखेराम में न थी। व टट्टी की आड़ से सशकार
खेलनेवाले जीव थे, मगर नो री भोला के स्वभाव से पररधचत ो चक
ु ी थी।
एक हदन लाला पटे कवरी प्रसाद की शामत आ गयी। गसमयों के हदन थे। लाला
बग़ीचे में बैठे आम तड़
ु वा र े थे। नो री बनी-ठनी उिर से नकली।
लाला ने पुकारा -- नो रा रानी, इिर आओ, थोड़े से आम लेती जाओ, बड़े मीठे
ैं।
'तो क्या तुम् ारे द्वार कभी भीख माूँगने आयी थी?'
नो री को लाल समचद-सा लगा। जो कुछ मूँु में आया बका -- दाढ़ीजार, लंपट,
मूँु झौंसा और जाने क्या-क्या क ा और उसी क्रोि में भरी ु ई कोठरी में गयी
और अपने बरतन-भाूँड़े नकाल- नकालकर बा र रखने लगी।
भौं ें ससकोड़कर बोली -- समय का िेर ै , य ाूँ आ गयी; लेककन अपनी आबरू न
गवाऊूँगी।
नोखेराम के ससर पर भूत सवार ो गया। अपना मोटा डंडा उठाया और आूँिी की
तर र राते ु ए बाग़ में प ु ूँचकर लगे ललकारने -- आ जा बड़ा मदद ै तो।
मूँूछें उखाड़ लूँ ूगा, खोदकर गाड़ दूँ ग
ू ा। नकल आ सामने। अगर किर कभी नो री
को छे ड़ा तो ख़ून पी जाऊूँगा। सारी पटवारधगरी नकाल दूँ ग
ू ा। जैसा ख़ुद ै , वैसा
ी दस
ू रों को समझता ै । तू ै ककस घमंड में ?
लाला पटे कवरी ससर झुकाये, दम सािे जड़वत ण खड़े थे। ज़रा भी ज़बान खोली और
शामत आयी। उनका इतना अपमान जीवन में कभी न ु आ था। एक बार लोगों
ने उन् ें ताल के ककनारे रात को घेरकर ख़ूब पीटा था; लेककन गाूँव में उसकी
ककसी को ख़बर न ु ई थी। ककसी के पास कोई प्रमाण न था; लेककन आज तो
सारे गाूँव के सामने उनकी इज़्ज़त उतर गयी। कल जो औरत गाूँव में आशय
माूँगती आयी थी, आज सारे गाूँव पर उसका आतंक था। अब ककसकी ह म्मत ै
जो उसे छे ड़ सके। जब पटे कवरी कुछ न ीं कर सके, तो दस
ू रों की बबसात ी
क्या! अब नो री गाूँव की रानी थी। उसे आते दे खकर ककसान लोग उसके रास्ते
से ट जाते थे। य खुला ु आ र स्य था कक उसकी थोड़ी-सी पूजा करके
नोखेराम से ब ु त काम नकल सकता ै । ककसी को बटवारा कराना ो, लगान के
सलए मु लत माूँगनी ो, मकान बनाने के सलए ज़मीन की ज़रूरत ो, नो री की
पूजा ककये बग़ैर उसका काम ससि न ीं ो सकता। कभी-कभी य अच्छे -अच्छे
आसासमयों को डाूँट दे ती थी। आसामी ी न ीं, अब कारकुन सा ब पर भी रोब
जमाने लगी थी। भोला उसके आधश्रत बनकर न र ना चा ते थे। औरत की
कमाई खाने से ज़्यादा अिम उनकी दृश्ष्ट में दस
ू रा काम न था। उन् ें कुल तीन
,पये मा वार समलते थे, य भी उनके ाथ न लगते। नो री ऊपर ी ऊपर उड़ा
लेती। उन् ें तमाखू पीने को िेला मयस्सर न ीं, और नो री दो आने रोज़ के पान
खा जाती थी। श्जसे दे खो, व ी उन पर रोब जमाता था। प्यादे उससे धचलम
भरवाते, लकड़ी कटवाते; बेचारा हदन-भर का ारा-थका आता और द्वार पर पेड़
के नीचे णझलूँ गे खाट पर पड़ा र ता। कोई एक लहु टया पानी दे नेवाला भी न ीं।
दोप र की बासी रोहटयाूँ रात को खानी पड़तीं और व भी नमक या पानी और
नमक के साथ। आणख़र ारकर उसने घर जाकर कामता के साथ र ने का
नकचय ककया। कुछ न ोगा एक टुकड़ा रोटी तो समल ी जायगी, अपना घर तो
ै।
मूँगरू सा गाूँव का सबसे िनी आदमी था; पर स्थानीय राजनी त में बबलकुल
भाग न लेता था। रोब या अधिकार की लालसा उसे न थी। मकान भी उसका
गाूँव के बा र था, ज ाूँ उसने एक बाग़ और एक कुआूँ और एक छोटा-सा सशव-
मंहदर बनवा सलया था। बाल-बच्चा कोई न था; इससलए लेन-दे न भी कम कर
हदया था और अधिकतर पूजा-पाठ में ी लगा र ता था। ककतने ी असासमयों ने
उसके रुपए ज़म कर सलए थे; पर उसने ककसी पर नासलश-फ़ररयाद न की। ोरी
पर भी उसके सूद-ब्याज समलाकर कोई डेढ़ सौ ो गये थे ; मगर न ोरी को ऋण
चक
ु ाने की कोई धचंता थी और न उसे वसल
ू करने की। दो-चार बार उसने
तक़ाज़ा ककया, घुड़का-डाूँटा भी; मगर ोरी की दशा दे खकर चुप ो बैठा।
ोरी ने दीनता से क ा -- पछ
ू ने के सलए तन
ू े मूँु भी रखा ो। तेरी गासलयाूँ
क्या उन् ोंने न सुनी ोंगी?
'जो गाली खाने का काम करे गा, उसे गासलयाूँ समलें गी ी।'
'दे खग
ूूँ ी, मेरे खेत के नगीच कौन जाता ै ।'
'समलवाले आकर काट ले जायूँगे, तू क्या करे गी, और मैं क्या करूूँगा। गासलयाूँ
दे कर अपनी जीभ की खुजली चा े समटा ले।'
' ाूँ- ाूँ, तेरे और मेरे जीते-जी। सारा गाूँव समलकर भी उसे न ीं रोक सकता। अब
व चीज़ मेरी न ीं, मूँगरू सा की ै ।'
'व सब तन
ू े ककया; मगर अब व चीज़ मूँगरू सा की ै । म उनके करज़दार
न ीं ैं?'
ऊख तो गयी; लेककन उसके साथ ी एक नयी समस्या आ पड़ी। दल
ु ारी इसी
ऊख पर रुपए दे ने पर तैयार ु ई थी। अब व ककस जमानत पर रुपए दे ? अभी
उसके प ले ी के दो सौ पड़े ु ए थे। सोचा था, ऊख के परु ाने रुपए समल जायूँगे,
तो नया ह साब चलने लगेगा। उसकी नज़र में ोरी की साख दो सौ तक थी।
इससे ज़्यादा दे ना जोणख़म था। स ालग ससर पर था। तधथ नश्कचत ो चुकी
थी। गौरी म तो ने सारी तैयाररयाूँ कर ली ोंगी। अब वववा का टलना असम्भव
था।
'मजूरी।'
मगर ज़मीन दोनों को एक-सी प्यारी थी। उसी पर तो उनकी इज़्ज़त और आबरू
अवसलंबत थी। श्जसके पास ज़मीन न ीं , व ग ृ स्थ न ीं, मजूर ै।
'मैंने तो सुना, इसी स ालग में ोगा। तधथ ठीक ो गयी ै ?'
'बेटा कमाता ै , तम
ु कमाते ो; किर भी रुपए-पैसे की तंगी? ककसे ववकवास
आयेगा।'
इतने में सोना बैलों के चारे के सलए ररयाली का एक गट्ठा ससर पर सलये , यौवन
को अपने अंचल से चुराती, बासलका-सी सरल, आयी और गट्ठा व ीं पटककर अंदर
चलो गयी।
' ाूँ, वर तो ठीक ै । रुपए का बंदोबस्त ो गया, तो इसी म ीने में ब्या कर
दें गे।'
नो री हदल की ओछी थी। इिर उसने जो थोड़े-से रुपए जोड़े थे, वे उसके पेट में
उछल र े थे; अगर व सोना के ब्या के सलए कुछ रुपए दे दे , तो ककतना यश
समलेगा। सारे गाूँव में उसकी चचाद ो जायगी। लोग चककत ोकर क ें गे , नो री
ने इतने रुपए दे हदए। बड़ी दे वी ै। ोरी और ि नया दोनों घर-घर उसका
बखान करते किरें गे। गाूँव में उसका मान-सम्मान ककतना बढ़ जायगा। व
उूँ गली हदखानेवालों का मूँु सी दे गी। किर ककसकी ह म्मत ै , जो उस पर ूँसे,
या उस पर आवाज़ें कसे। अभी सारा गाूँव उसका दकु मन ै । तब सारा गाूँव
उसका ह तैषी ो जायगा। इस कल्पना से उसकी मुद्रा णखल गयी।
'तो तम्
ु ीं से लें गे। कन्यादान का िल भी क्यों बा र जाय।'
'तम
ु ककतने दे सकोगी?'
हदया-बत्ती का समय आ गया था। ठं डक पड़ने लगी थी। ज़मीन ने नीली चादर
ओढ़ ली थी। ि नया अन्दर जाकर अूँगीठी लायी। सब तापने लगे। पुआल के
प्रकाश में छबीली, रूँ गीली, कुलटा नो री उनकी सामने वरदान-सी बैठी थी। इस
समय उसकी उन आूँखों में ककतनी सहृदयता थी; कपोलों पर ककतनी लज्जा,
ओठों पर ककतनी सत्प्रेरणा! कुछ दे र तक इिर-उिर की बातें करके नो री उठ
खड़ी ु ई और य क ती ु ई घर चली -- अब दे र ो र ी ै । कल तुम आकर
रुपए ले लेना म तो!
***
27
झु नया के पास इसका कोई जवाब न था। व उठकर पतीली में कचालू के सलए
आलू उबालने लगी। गोबर को ऐसा पाषाण-हृदय उसने न समझा था। इस बेददी
ने लल्लू को उसके मन में और सजग कर हदया। लल्लू उसी का ै , उसमें ककसी
का साझा न ीं, ककसी का ह स्सा न ीं। अभी तक लल्लू ककसी अंश में उसके
हृदय के बा र भी था, गोबर के हृदय में भी उसकी कुछ ज्यो त थी। अब व
संपूणद रूप से उसका था।
गोबर ने खोंचे से नराश ोकर शक्कर के समल में नौकरी कर ली थी। समस्टर
खन्ना ने प ले समल से प्रोत्साह त ोकर ाल में य दस
ू रा समल खोल हदया
था। गोबर को व ाूँ बड़े सबेरे जाना पड़ता , और हदन-भर के बाद जब व हदया-
जले घर लौटता, तो उसकी दे में ज़रा भी जान न र ती। घर पर भी उसे इससे
कम मे नत न करनी पड़ती थी; लेककन व ाूँ उसे ज़रा भी थकन न ोती थी।
बीच-बीच में व ूँस-बोल भी लेता था। किर उस खुले ु ए मैदान में, उन्मुक्त
आकाश के नीचे, जैसे उसकी क्ष त परू ी ो जाती थी। व ाूँ उसकी दे चा े
श्जतना काम करे , मन स्वच्छं द र ता था। य ाूँ दे की उतनी मे नत न ोने पर
भी जैसे उस कोला ल, उस ग त और तूफ़ानी शोर का उस पर बोझ-सा लदा
र ता था। य शंका भी बनी र ती थी कक न जाने कब डाूँट पड़ जाय। सभी
श्रसमकों की य ी दशा थी। सभी ताड़ी या शराब में अपनी दै ह क थकान और
मानससक अवसाद को डुबाया करते थे। गोबर को भी शराब का चस्का पड़ा। घर
आता तो नशे में चरू , और प र रात गये। और आकर कोई-न-कोई ब ाना
खोजकर झु नया को गासलयाूँ दे ता, घर से नकालने लगता और कभी-कभी पीट
भी दे ता।
'तेरा मदद आ
ु कैसा ै , जो कान में तेल डाले बैठा ै ?'
' ाूँ, दे ख तो र ी ू ूँ। तुम तो सौर में बैठोगी, कोई करने-िरनेवाला चाह ए कक
न ीं। सास-ननद, दे वरानी-जेठानी, कोई ै कक न ीं? ककसी को बुला लेना था।'
व पानी लाकर जूठे बरतन माूँजने लगी, तो प्रसव की शंका से हृदय में िड़कनें
ो र ी थीं। सोचने लगी -- कैसे क्या ोगा भगवान?ण ऊ ! य ी तो ोगा मर
जाऊूँगी; अच्छा ै , जंजाल से छूट जाऊूँगी। शाम को उसके पेट में ददद ोने लगा।
समझ गयी ववपश्त्त की घड़ी आ प ु ूँची। पेट को एक ाथ से पकड़े ु ए पसीने से
तर उसने चूल् ा जलाया, णखचड़ी डाली और ददद से व्याकुल ोकर व ीं ज़मीन पर
लेट र ी।
उसने झु नया को जगाया न ीं। कुछ बोला भी न ीं। चुपके से णखचड़ी थाली में
नकाली और दो-चार कौर नगलकर बरामदे में लेट र ा। वपछले प र उसे सदी
लगी। कोठरी में कंबल लेने गया तो झु नया के करा ने की आवाज़ सुनी। नशा
उतर चक
ु ा था। पछ
ू ा -- कैसा जी ै झु नया! क ीं दरद ै क्या?
'तन
ू े प ले क्यों न ीं क ा। अब इस बखत क ाूँ जाऊूँ?'
'ककससे क ती?'
गोबर ने बरामदे में जाकर क ा -- पेट में ददद ै । छटपटा र ी ै । य ाूँ कोई दाई
समलेगी?
'व तो मैं आज उसे दे खकर ी समझ गयी थी। दाई कच्ची सराय में र ती ै ।
लपककर बुला लाओ। क ना, जल्दी चल। तब तक मैं य ीं बैठी ू ूँ।'
'अच्छा तुम उसे पंखा झलते र ो, मैं बुलाये लाती ू ूँ। य ी क ते ैं, अनाड़ी
आदमी ककसी काम का न ीं। पूरा पेट और दाई की ख़बर न ीं।'
व झु नया के पास जा बैठी और उसका ससर अपनी जाूँघ पर रखकर उसका पेट
स लाती ु ई बोली -- मैं तो आज तझु े दे खते ी समझ गयी थी। सच पछ ू ो, तो
इसी िड़के में आज मुझे नींद न ीं आयी। य ाूँ तेरा कौन सगा बैठा ै ।
चहु या स्ने
से उसके केश सल ु झाती ु ई बोली -- िीरज िर बेटी, िीरज िर।
अभी छन-भर में कष्ट कटा जाता ै । तूने भी तो जैसे चप्ु पी साि ली थी। इसमें
ककस बात की लाज! मुझसे बता हदया ोता, तो मैं मौलवी सा ब के पास से
तावीज़ ला दे ती। व ी समरज़ाजी जो इस ाते में र ते ैं।
'मैं तो न ीं प तयाती।'
'दे ख ले!'
लेककन झु नया और गोबर में अब भी न पटती थी। झु नया के मन में बैठ गया
था कक य पक्का मतलबी, बेददद आदमी ै ; मझ
ु े केवल भोग की वस्तु समझता
ै । चा े मैं मरूूँ या श्जऊूँ; उसकी इच्छा पूरी ककये जाऊूँ, उसे बबलकुल ग़म न ीं।
सोचता ोगा, य मर जायगी, तो दस
ू री लाऊूँगा; लेककन मूँु िो रखें बच्चू। मैं ी
ऐसी अल् ड़ थी कक तुम् ारे िंदे में आ गयी। तब तो पैरों पर ससर रखे दे ता था।
य ाूँ आते ी न जाने क्यों जैसे इसका समज़ाज ी बदल गया। जाड़ा आ गया
था; पर न ओढ़न, न बबछावन। रोटी-दाल से जो दो-चार रुपए बचते, ताड़ी में उड़
जाते थे। एक पुराना सल ाफ़ था। दोनों उसी में सोते थे; लेककन किर भी उनमें
सौ कोस का अंतर था। दोनों एक ी करवट में रात काट दे त।े
गोबर का जी सशशु को गोद में लेकर खेलाने के सलए तरसकर र जाता था।
कभी-कभी व रात को उठाकर उसका प्यारा मुखड़ा दे ख सलया करता; लेककन
झु नया की ओर से उसका मन णखंचता था। झु नया भी उससे बात न करती, न
उसकी कुछ सेवा ी करती और दोनों के बीच में य मासलन्य समय के साथ
लो े के मोचेर ण की भाूँ त ग रा, दृढ़ और कठोर ोता जाता था। दोनों एक दस
ू रे
की बातों का उलटा ी अथद नकालते, व ी श्जससे आपस का द्वेष और भड़के।
और कई हदनों तक एक-एक वाक्य को मन में पाले र ते और उसे अपना रक्त
वपला-वपलाकर एक दस
ू रे पर झपट पड़ने के सलए तैयार करते र ते, जैसे सशकारी
कुत्ते ों।
उिर गोबर के कारख़ाने में भी आये हदन एक-न-एक ं गामा उठता र ता था।
अबकी बजट में शक्कर पर डयूटी लगी थी। समल के मासलकों को मजूरी घटाने
का अच्छा ब ाना समल गया। डयूटी से अगर पाूँच की ा न थी, तो मजूरी घटा
दे ने से दस का लाभ था। इिर म ीनों से इस समल में भी य ी मसला छड़ा
ु आ था। मजरू ों का संघ ड़ताल करने को तैयार बैठा ु आ था। इिर मजरू ी
घटी और उिर ड़ताल ु ई। उसे मजूरी में िेले की कटौती भी स्वीकार न थी।
जब इस तेज़ी के हदनों में मजरू ी में एक िेले की भी बढ़ती न ीं ु ई, तो अब व
घाटे में क्यों साथ दे !
समरज़ा खश
ु ेद संघ के सभाप त और पंडडत ओंकारनाथ, 'बबजली' -सम्पादक, मंत्री
थे। दोनों ऐसी ड़ताल कराने पर तुले ु ए थे कक समल-मासलकों को कुछ हदन
याद र े । मजूरों को भी ड़ताल से क्ष त प ु ूँचग
े ी, य ाूँ तक कक ज़ारों आदमी
रोहटयों को भी मु ताज ो जायूँगे, इस प लू की ओर उनकी नगा बबलकुल न
थी। और गोबर ड़तासलयों में सबसे आगे था। उद्दंड स्वभाव का था ी , ललकारने
की ज़रूरत थी। किर व मारने-मरने को न डरता था।
इस पर गोबर बबगड़ उठा -- तू कौन ोती ै मेरे बीच में बोलनेवाली ? मैं तुझसे
सला न ीं पूछता।
चुह या ने व्यंग के साथ क ा -- तुम् ारे घर में न आऊूँगी, तो मेरी रोहटयाूँ कैसे
चलें गी। य ीं से माूँग-जाूँचकर ले जाती ू ूँ, तब तवा गमद ोता ै । मैं न ोती
लाला, तो य बीबी आज तम् ु ारी लातें खाने के सलए बैठी न ोती।
गोबर घूस
ूँ ा तानकर बोला -- मैनै क हदया, मेरे घर में न आया करो। तुम् ीं ने
इस चुड़ल
ै का समज़ाज आसमान पर चढ़ा हदया ै।
गोबर झल्लाया ु आ अपने काम पर चला गया। चुह या औरत न ोकर मदद
ोती, तो मज़ा चखा दे ता। औरत के मूँु क्या लगे।
समल में असंतोष के बादल घने ोते जा र े थे। मज़दरू 'बबजली' की प्र तयाूँ जेब
में सलये किरते और ज़रा भी अवकाश पाते, तो दो-तीन मज़दरू समलकर उसे पढ़ने
लगते। पत्र की बबक्री ख़ूब बढ़ र ी थी। मज़दरू ों के नेता 'बबजली' कायालदय में
आिी रात तक बैठे ड़ताल की स्कीमें बनाया करते और प्रातःकाल जब पत्र में
य समाचार मोटे -मोटे अक्षरों में छपता, तो जनता टूट पड़ती और पत्र की
कावपयाूँ दन
ू े- तगुने दाम पर बबक जातीं।
उिर कंपनी के डायरे क्टर भी अपनी घात में बैठे ु ए थे। ड़ताल ो जाने में ी
उनका ह त था। आदसमयों की कमी तो ै न ीं। बेकारी बढ़ी ु ई ै ; इसके आिे
वेतन पर ऐसे ी आदमी आसानी से समल सकते ैं। माल की तैयारी में एकदम
आिी बचत ो जायगी। दस-पाूँच हदन काम का रज़ ोगा, कुछ परवा न ीं।
आणख़र य नकचय ो गया कक मज़ूरी में कमी का ऐलान कर हदया जाय। हदन
और समय नयत कर हदया गया, पसु लस को सच
ू ना दे दी गयी। मजरू ों को
कानोंकान ख़बर न थी। वे अपनी घात में थे। उसी वक़्त ड़ताल करना चा ते
थे; जब गोदाम में ब ु त थोड़ा माल र जाय और माूँग की तेज़ी ो।
एकाएक एक हदन जब मजूर लोग शाम को छुट्टी पाकर चलने लगे, तो डायरे क्टरों
का ऐलान सन
ु ा हदया गया। उसी वक़्त पसु लस आ गयी। मजरू ों को अपनी इच्छा
के ववरुि उसी वक़्त ड़ताल करनी पड़ी, जब गोदाम में इतना माल भरा ु आ था
कक ब ु त तेज़ माूँग ोने पर भी छः म ीने से प ले न उठ सकता था।
समरज़ा खुशेद ने य ख़बर सुनी, तो मुस्कराये, जैसे कोई मनस्वी योिा अपने
शत्रु के रण-कौशल पर मग्ु ि ो गया ो। एक क्षण ववचारों में डूबे र ने के बाद
बोले -- अच्छी बात ै । अगर डायरे क्टरों की य ी इच्छा ै , तो य ी स ी। ालतें
उनके मुआकफ़क़ ैं; लेककन में न्याय का बल ै। व लोग नये आदमी रखकर
अपना काम चलाना चा ते ैं। मारी कोसशश य ोनी चाह ए कक उन् ें एक भी
नया आदमी न समले। य ी मारी फ़त ोगी।
झु नया के रुके ु ए आूँसू उबल पड़े; कुछ बोल न सकी। भयभीत आूँखों से चुह या
की ओर दे खा। चहु या ने गोबर का मूँु दे खा, उसकी छाती पर ाथ रखा, और
आकवासन भरे स्वर में बोली -- य चार हदन में अच्छे ो जायूँगे। घबड़ा मत।
कुशल ु ई। तेरा सो ाग बलवान था। कई आदमी उसी दं गे में मर गये। घर में
कुछ रुपए-पैसे ैं?
स सा झु नया भारी कंठ से बोली -- मैं बड़ी अभाधगन ू ूँ दीदी। मेरे मन में ऐसा
आ र ा ै , जैसे मेरे ी कारन इनकी य दशा ु ई ै । जी कुढ़ता ै , तब मन
दख
ु ी ोता ी ै , किर गासलयाूँ भी नकलती ैं, सराप भी नकलता ै । कौन जाने
मेरी गासलयों ... इसके आगे व कुछ न क सकी। आवाज़ आूँसुओं के रे ले में
ब गयी।
उसी समय गोबर ने आूँखें खोलीं और झु नया को सामने दे खकर याचना भाव से
क्षीण-स्वर में बोला -- आज ब ु त चोट खा गया झु नया! मैं ककसी से कुछ न ीं
बोला। सबों ने अनायास मुझे मारा। क ा-सन ु ा माफ़ कर! तुझे सताया था, उसी
का य िल समला। थोड़ी दे र का और मे मान ू ूँ। अब न बचूँग
ू ा। मारे दरद के
सारी दे िटी जाती ै ।
गोबर के मख
ु पर आशा की रे खा झलक पड़ी। बोला -- सच क ती ो, मैं मरूूँगा
न ीं?
' ाूँ, न ीं मरोगे। तुम् ें ु आ क्या ै ? ज़रा ससर में चोट आ गयी ै और ाथ की
ड्डी उतर गयी ै । ऐसी चोटें मरदों को रोज़ ी लगा करती ैं। इन चोटों से
कोई न ीं मरता।'
गोबर इस समय बच्चों की-सी बातें ककया करता। दस-पाूँच समनट अचेत-सा पड़ा
र ता। उसका मन न जाने क ाूँ-क ाूँ उड़ता किरता। कभी दे खता , व नदी में
डूबा जा र ा ै , और झु नया उसे बचाने के सलए नदी में चली आ र ी ै । कभी
दे खता, कोई दै त्य उसकी छाती पर सवार ै और झु नया की शकल की कोई दे वी
उसकी रक्षा कर र ी ै । और बार-बार चौंककर पछ
ू ता -- मैं मरूूँगा तो न ीं
झु नया?
***
28
समस्टर खन्ना को मजूरों की य ड़ताल बबलकुल बेजा मालूम ोती थी। उन् ोंने
मेशा जनता के साथ समले र ने की कोसशश की थी। व अपने को जनता का
ी आदमी समझते थे। वपछले कौमी आंदोलन में उन् ोंने बड़ा जोश हदखाया था।
श्ज़ले के प्रमुख नेता र े थे, दो बार जेल गये थे और कई ज़ार का नुक़सान
उठाया था। अब भी व मजूरों की सशकायतें सुनने को तैयार र ते थे; लेककन य
तो न ीं ो सकता कक व शक्कर समल के ह स्सेदारों के ह त का ववचार न करें ।
अपना स्वाथद त्यागने को व तैयार ो सकते थे , अगर उनकी ऊूँची मनोवश्ृ त्तयों
को स्पशद ककया जाता; लेककन ह स्सेदारों के स्वाथद की रक्षा न करना , य तो
अिमद था। य तो व्यापार ै , कोई सदाव्रत न ीं कक सब कुछ मजूरों को ी बाूँट
हदया जाय। ह स्सेदारों को य ववकवास हदलाकर रुपये सलये गये थे कक इस काम
में पंद्र -बीस सैकड़े का लाभ ै । अगर उन् ें दस सैकड़े भी न समले , तो वे
डायरे क्टरों को और ववशेष कर समस्टर खन्ना को िोखेबाज़ ी तो समझेंगे। किर
अपना वेतन व कैसे कम कर सकते थे। और कंप नयों को दे खते उन् ोंने अपना
वेतन कम रखा था। केवल एक ज़ार रुपया म ीना लेते थे। कुछ कमीशन भी
समल जाता था; मगर व इतना लेते थे, तो समल का संचालन भी करते थे।
मजूर केवल ाथ से काम करते ैं। डायरे क्टर अपनी बुवि से, ववद्या से, प्र तभा
से, प्रभाव से काम करता ै । दोनों शश्क्तयों का मोल बराबर तो न ीं ो सकता।
मजरू ों को य संतोष क्यों न ीं ोता कक मंदी का समय ै , और चारों तरफ़
बेकारी िैली र ने के कारण आदमी सस्ते ो गये ैं। उन् ें तो एक की जग
पौन भी समले, तो संतुष्ट र ना चाह ए था। और सच पूछो तो वे संतुष्ट ैं।
उनका कोई क़सूर न ीं। वे तो मूख ैं, ब छया के ताऊ! शरारत तो ओंकारनाथ
और समरज़ा खुशेदद ी ै । य ी लोग उन बेचारों को कठपुतली की तर नचा र े
ैं, केवल थोड़े-से पैसे और यश के लोभ में पड़कर। य न ीं सोचते कक उनकी
हदल्लगी से ककतने घर तबा ो जायूँगे। ओंकारनाथ का पत्र न ीं चलता तो
बेचारे खन्ना क्या करें ! और आज उनके पत्र के एक लाख ग्रा क ो जायूँ, और
उससे उन् ें पाूँच लाख का लाभ ोने लगे , तो क्या व केवल अपने गुज़ारे भर
को लेकर शेष कायदकतादओं में बाूँट दें गे? क ाूँ की बात! और व त्यागी समरज़ा
खश
ु ेदद भी तो एक हदन लखप त थे। ज़ारों मजरू उनके नौकर थे। तो क्या व
अपने गुज़ारे -भर को लेकर सब कुछ मजूरों को बाूँट दे ते थे। व उसी गुज़ारे की
रक़म में युरोवपयन छोकररयों के साथ वव ार करते थे। बड़े-बड़े अफ़सरों के साथ
दावतें उड़ाते थे, ज़ारों रुपए म ीने की शराब पी जाते थे और र-साल फ़्ांस
और स्वीटज़रलैंड की सैर करते थे। आज मजूरों की दशा पर उनका कलेजा
िटता ै ! इन दोनों नेताओं की तो खन्ना को परवा न थी। उनकी नयत की
सफ़ाई में पूरा संदे था। न रायसा ब की ी उन् ें परवा थी, जो मेशा खन्ना
की ाूँ-में - ाूँ समलाया करते थे और उनके र-एक काम का समथदन कर हदया
करते थे। अपने पररधचतों में केवल एक ी ऐसा व्यश्क्त था, श्जसके नष्पक्ष
ववचार पर खन्ना जी को पूरा भरोसा था और व डाक्टर मे ता थे। जब से
उन् ोंने मालती से घ नष्ठता बढ़ानी शुरू की थी, खन्ना की नज़रों में उनकी
इज़्ज़त ब ु त कम ो गयी थी। मालती बरसों खन्ना की हृदयेकवरी र चुकी थी;
पर उसे उन् ोंने सदै व णखलौना समझा था। इसमें संदे न ीं कक व णखलौना
उन् ें ब ु त वप्रय था। उसके खो जाने, या टूट जाने, या छन जाने पर व ख़ब
ू
रोते, और व रोये थे, लेककन थी व णखलौना ी। उन् ें कभी मालती पर ववकवास
न ु आ। व कभी उनके ऊपरी ववलास-आवरण को छे दकर उनके अंतःकरण तक
न प ु ूँच सकी थी। व अगर ख़ुद खन्ना से वववा का प्रस्ताव करती, तो व
स्वीकार न करते। कोई ब ाना करके टाल दे त।े अन्य ककतने ी प्राणणयों की
भाूँ त खन्ना का जीवन भी दो रा या दो-रुखी था। एक ओर व त्याग और जन-
सेवा और उपकार के भक्त थे, तो दस
ू री ओर स्वाथद और ववलास और प्रभुता के।
कौन उनका असली रुख़ था, य क ना कहठन ै । कदाधचत ण उनकी आत्मा का
उत्तम आिा सेवा और सहृदयता से बना ु आ था, मद्धिम आिा स्वाथद और
ववलास से। पर उत्तम और मद्धिम में बराबर संघषद ोता र ता था। और
मद्धिम ी अपनी उद्दं डता और ठ के कारण सौम्य और शांत उत्तम पर
ग़ासलब आता था। उनका मद्धिम मालती की ओर झुकता था, उत्तम मे ता की
ओर; लेककन व उत्तम अब मद्धिम के साथ एक ो गया था। उनकी समझ में
न आता था कक मे ता-जैसा आदशदवादी व्यश्क्त मालती-जैसी चंचल, ववलाससनी
रमणी पर कैसे आसक्त ो गया। व
ब ु त प्रयास करने पर भी मे ता को
वासनाओं का सशकार न श्स्थर कर सकते थे और कभी-कभी उन् ें य संदे भी
ोने लगता था कक मालती का कोई दस
ू रा रूप भी ै , श्जसे व न दे ख सके या
श्जसे दे खने की उनमें क्षमता न थी।
समस्टर खन्ना की कथा सुनकर उन् ोंने कठोर मुद्रा से उनकी ओर दे खकर क ा -
- क्या य ज़रूरी था कक डयूटी लग जाने से मजूरों का वेतन घटा हदया जाय?
आपको सरकार से सशकायत करनी चाह ए थी। अगर सरकार ने न ीं सुना तो
उसका दं ड मजरू ों को क्यों हदया जाय? क्या आपका ववचार ै कक मजरू ों को
इतनी मजूरी दी जाती ै कक उसमें चौथाई कम कर दे ने से मजूरों को कष्ट न ीं
ोगा। आपके मजूर बबलों में र ते ैं -- गंदे, बदबूदार बबलों में -- ज ाूँ आप एक
समनट भी र जायूँ, तो आपको क़ै ो जाय। कपड़े जो प नते ैं, उनसे आप
अपने जूते भी न पोछें गे। खाना जो व खाते ैं, व आपका कुत्ता भी न
खायेगा। मैंने उनके जीवन में भाग सलया ै । आप उनकी रोहटयाूँ छीनकर अपने
ह स्सेदारों का पेट भरना चा ते ैं ...
स सा मे ता ने पछ
ू ा -- आपने अपनी दे वीजी से भी इस ववषय में राय ली?
'व ी जो आप की ै ।'
मालती नःसंकोच भाव से बोली -- इन् ोंने मार-मारकर वैद्य बना हदया। इनका
ु क्म कैसे टाल सकती। पुरुष दे वता ठ रे ।
मे ता ने पछ
ू ा -- आग-बीमा तो करा सलया था न?
ये तीनों आदमी भीड़ के पीछे खड़े थे। कुछ समझ में न आता था, क्या करें ।
आणख़र आग लगी कैसे! और इतनी जल्द िैल कैसे गयी? क्या प ले ककसी ने
दे खा ी न ीं? या दे खकर भी बझ
ु ाने का प्रयास न ककया? इस तर के प्रकन सभी
के मन में उठ र े थे; मगर व ाूँ पूछें ककससे, समल के कमदचारी ोंगे तो ज़रूर;
लेककन उस भीड़ में उनका पता समलना कहठन था। स सा वा का इतना तेज़
झोंका आया कक आग की लपटें नीची ोकर इिर लपकीं , जैसे समुद्र में ज्वार आ
गया ो। लोग ससर पर पाूँव रखकर भागे। एक दस
ू रे पर धगरते, रे लते, जैसे कोई
शेर झपटा आता ो। अश्ग्न-ज्वालाएूँ जैसे सजीव ो गयी थीं, सचेष्ट भी, जैसे
कोई शेषनाग अपने सह्रस मुख से आग िुूँकार र ा ो। ककतने ी आदमी तो
इस रे ले में कुचल गये। खन्ना मूँु के बल धगर पड़े, मालती को मे ताजी दोनों
ाथों से पकड़े ु ए थे, न ीं ज़रूर कुचल गयी ोतीं?
तीनों आदमी ाते की दीवार के पास एक इमली के पेड़ के नीचे आकर रुके।
खन्ना एक प्रकार की चेतना-शून्य तन्मयता से समल की धचमनी की ओर
टकटकी लगाये खड़े थे।
खन्ना ने कोई जवाब न हदया। उसी तरफ़ ताकते र े । उनकी आूँखों में व
शून्यता थी, जो ववक्षक्षप्तता का लक्षण ै।
मालती ने क ा -- तुम चलकर आराम से लेटो, म बैठे गप-शप करें गे; घर जाने
की तो ऐसी कोई जल्दी न ीं ै।
गोववंदी ने उन् ें एक सोफ़ा पर बैठा हदया और स्ने -कोमल स्वर में बोली -- तो
तुम इतना हदल छोटा क्यों करते ो? िन के सलए, जो सारे पाप की जड़ ै ? उस
िन से में क्या सुख था? सबेरे से आिी रात तक एक-न-एक झंझट -- आत्मा
का सवदनाश! लड़के तुमसे बात करने को तरस जाते थे, तुम् ें संबंधियों को पत्र
सलखने तक की फ़ुरसत न समलती थी। क्या बड़ी इज़्ज़त थी ? ाूँ, थी; क्योंकक
द ु नया आज तक िन की पूजा करती चली आयी ै । उसे तुमसे कोई प्रयोजन
न ीं। जब तक तुम् ारे पास लक्ष्मी ै , तुम् ारे सामने पूँछ
ू ह लायेगी। कल उतनी
ी भश्क्त से दस
ू रों के द्वार पर ससजदे करे गी। तुम् ारी तरफ़ ताकेगी भी न ीं।
सत्पुरुष िन के आगे ससर न ीं झुकाते। व दे खते ैं , तुम क्या ो; अगर तुममें
सच्चाई ै , न्याय ै , त्याग ै , परु
ु षाथद ै , तो वे तम्
ु ारी पज
ू ा करें गे। न ीं तम्
ु ें
समाज का लुटेरा समझकर मूँु िेर लें गे; बश्ल्क तुम् ारे दकु मन ो जायूँगे! मैं
ग़लत तो न ीं क ती मे ताजी?
गोववंदी के पीले, सूखे मुख पर तेज की ऐसी चमक थी, मानो उसमें कोई ववलक्षण
शश्क्त आ गयी ो, मानो उसकी सारी मूक सािना प्रगल्भ ो उठी ो। मे ता
उसकी ओर भश्क्त-पूणद नेत्रों से ताक र े थे, खन्ना ससर झुकाये इसे दै वी प्रेरणा
समझने की चेष्टा कर र े थे और मालती मन में लश्ज्जत थी। गोववंदी के
ववचार इतने ऊूँचे, उसका हृदय इतना ववशाल और उसका जीवन इतना उज्ज्वल
ै!
***
29
नो री उन औरतों में न थी, जो नेकी करके दररया में डाल दे ती ै । उसने नेकी
की ै , तो उसका ख़ूब हढंढोरा पीटे गी और उससे श्जतना यश समल सकता ै,
उससे कुछ ज़्यादा ी पाने के सलए ाथ-पाूँव मारे गी। ऐसे आदमी को यश के
बदले अपयश और बदनामी ी समलती ै । नेकी न करना बदनामी की बात
न ीं। अपनी इच्छा न ीं ै , या सामथ्यद न ीं ै । इसके सलए कोई में बुरा न ीं
क सकता। मगर जब म नेकी करके उसका ए सान जताने लगते ैं , तो व ी
श्जसके साथ मने नेकी की थी, मारा शत्रु ो जाता ै , और मारे ए सान को
समटा दे ना चा ता ै । व ी नेकी अगर करनेवालों के हदल में र े , तो नेकी ै,
बा र नकल आये तो बदी ै । नो री चारों ओर क ती किरती थी -- बेचारा ोरी
बड़ी मुसीबत में था, बेटी के ब्या के सलए ज़मीन रे न रख र ा था। मैंने उनकी
य दशा दे खी, तो मुझे दया आयी। ि नया से तो जी जलता था, व राूँड़ तो
मारे घमंड के िरती पर पाूँव ी न ीं रखती। बेचारा ोरी धचन्ता से घुला जाता
था। मैंने सोचा, इस संकट में इसकी कुछ मदद कर दूँ ।ू आणख़र आदमी ी तो
आदमी के काम आता ै । और ोरी तो अब कोई ग़ैर न ीं ै , मानो चा े मानो,
व तुम् ारे नातेदार ो चुके। रुपए नकाल कर दे हदये; न ीं, लड़की अब तक बैठी
ोती। ि नया भला य ज़ीट कब सुनने लगी थी। रुपए ख़ैरात हदये थे? बड़ी
दे नेवाली! सूद म ाजन भी लेगा, तुम भी लोगी। ए सान का े का! दस
ू रों को दे ती,
सद
ू की जग मल
ू भी ग़ायब ो जाता; मने सलया ै , तो ाथ में रुपए आते ी
नाक पर रख दें गे। मीं थे कक तुम् ारे घर का बबस उठाके पी गये, और कभी
मूँु पर न ीं लाये। कोई य ाूँ द्वार पर न ीं खड़ा ोने दे ता था। मने तुम् ारा
मरजाद बना हदया, तुम् ारे मूँु की लाली रख ली।
रात के दस बजे गये थे। सावन की अूँिेरी घटा छायी थी। सारे गाूँव में अंिकार
था। ोरी ने भोजन करके तमाखू वपया और सोने जा र ा था कक भोला आकर
खड़ा ो गया।
ोरी ने पूछा -- कैसे चले भोला म तो! जब इसी गाूँव में र ना ै , तो क्यों
अलग छोटा-सा घर न ीं बना लेत?
े गाूँव में लोग कैसी-कैसी कुत्सा उड़ाया करते
ैं, क्या य तुम् ें अच्छा लगता ै ? बुरा न मानना, तुमसे संबि
ं ो गया ै,
इससलए तुम् ारी बदनामी न ीं सुनी जाती, न ीं मुझे क्या करना था।
ि नया उसी समय लोटे में पानी लेकर ोरी के ससर ाने रखने आयी।
सन
ु कर बोली -- दस
ू रा मदद ोता, तो ऐसी औरत का ससर काट लेता।
ि नया उसे पानी का एक छींटा मारकर बोली -- कुरा चले तुम् ारी ब न, मैं
क्यों कुरा
चलने लगी। मैं तो द ु नया की बात क ती ू ूँ , तुम मुझे गासलयाूँ दे ने
लगे। अब मूँु मीठा ो गया ोगा। औरत चा े श्जस रास्ते जाय, मदद टुकुर-टुकुर
दे खता र े । ऐसे मदद को मैं मदद न ीं क ती।
भोला के ख़ून में कुछ स्िू तद आयी। बोला -- तो तुम् ारी य ी सला ै?
ि नया बोली -- ाूँ, मेरी सला ै । अब सौ पचास बरस तो जीओगे न ीं। समझ
लेना इतनी ी उसमर थी।
भोला य ाूँ से प्र तज्ञा करके अपने घर गये। अब बेटों के साथ र ें गे , ब ु त िक्के
खा चुके; लेककन दस ू रे हदन प्रातःकाल ोरी ने दे खा, तो भोला दल
ु ारी स आईन की
दक
ु ान से तमाखू सलए चले जा र े थे।
ोरी ने पुकारना उधचत न समझा। आसश्क्त में आदमी अपने बस में न ीं र ता।
व ाूँ से आकर ि नया से बोला -- भोला तो अभी व ीं ै । नो री ने सचमुच इन
पर कोई जाद ू कर हदया ै।
ोरी को भोला पर दया आ र ी थी। बेचारा इस कुलटा के िेर में पड़कर अपनी
श्ज़ंदगी बरबाद ककये डालता ै । छोड़कर जाय भी , तो कैसे? स्त्री को इस तर
छोड़कर जाना क्या स ज ै? य चुड़ल
ै उसे व ाूँ भी तो चैन से न बैठने दे गी!
क ीं पंचायत करे गी, क ीं रोटी-कपड़े का दावा करे गी। अभी तो गाूँव ी के लोग
जानते ैं। ककसी को कुछ क ते संकोच ोता ै । कनिुसककयाूँ करके ी र जाते
ैं। तब तो द ु नया भी भोला ी को बुरा क े गी। लोग य ी तो क ें गे, कक जब
मदद ने छोड़ हदया, तो बेचारी अबला क्या करे ? मदद बुरा ो, तो औरत की गदद न
काट लेगा। औरत बुरी ो, तो मदद के मूँु में कासलख लगा दे गी।
इसके दो म ीने बाद एक हदन गाूँव में य ख़बर िैली कक नो री ने मारे जूतों
के भोला की चाूँद गंजी कर दी।
एक हदन पु नया के खेत में ल जाता, एक हदन ोरी के खेत में । खेतों की
जुताई जैसी ोनी चाह ए, वैसी न ो पाती थी।
ोरी ल लेकर खेत में गया; मगर भोला की धचंता बनी ु ई थी। उसने अपने
जीवन में कभी य न सुना था कक ककसी स्त्री ने अपने प त को जूते से मारा
ो। जूतों से क्या थप्पड़ या घूूँसे से मारने की भी कोई घटना उसे याद न आती
थी; और आज नो री ने भोला को जत
ू ों से पीटा और सब लोग तमाशा दे खते
र े । इस औरत से कैसे उस अभागे का गला छूटे ! अब तो भोला को क ीं डूब ी
मरना चाह ए। जब श्ज़ंदगी में बदनामी और दद
ु द सा के ससवा और कुछ न ो, तो
आदमी का मर जाना ी अच्छा। कौन भोला के नाम को रोनेवाला बैठा ै । बेटे
चा े कक्रया-करम कर दें ; लेककन लोकलाज के बस, आूँसू ककसी की आूँख में न
आयेगा। तरसना के बस में पड़कर आदमी इस तर अपनी श्ज़ंदगी चौपट करता
ै । जब कोई रोनेवाला ी न ीं, तो किर श्ज़ंदगी का क्या मो और मरने से क्या
डरना! एक य नो री ै और एक य चमाररन ै सससलया! दे खने -सुनने में
उससे लाख दरजे अच्छी। चा े तो दो को णखलाकर खाये और राधिका बनी घूमे;
लेककन मजूरी करती ै , भूखों मरती ै और मतई के नाम पर बैठी ै , और व
नदद यी बात भी न ीं पछ
ू ता। कौन जाने, ि नया मर गयी ोती, तो आज ोरी की
भी य ी दसा ोती। उसकी मौत की कल्पना ी से ोरी को रोमांच ो उठा।
ि नया की मू तद मानससक नेत्रों के सामने आकर खड़ी ो गयी -- सेवा और
त्याग की दे वी; ज़बान की तेज़, पर मोम जैसा हृदय; पैसे-पैसे के पीछे प्राण
दे नेवाली, पर मयाददा-रक्षा के सलए अपना सवदस्व ोम कर दे ने को तैयार। जवानी
में व कम रूपवती न थी। नो री उसके सामने क्या ै । चलती थी , तो रानी-सी
लगती थी। जो दे खता था, दे खता ी र जाता था। य पटे कवरी और णझंगुरी तब
जवान थे। दोनों ि नया को दे खकर छाती पर ाथ रख लेते थे। द्वार के सौ-सौ
चक्कर लगाते थे। ोरी उनकी ताक में र ता था; मगर छे ड़ने का कोई ब ाना न
पाता था। उन हदनों घर में खाने-पीने की बड़ी तंगी थी। पाला पड़ गया था और
खेतों में भस
ू ा तक न ु आ था। लोग झड़बेररयाूँ खा-खाकर हदन काटते थे। ोरी
को क़ त के कैंप में काम करने जाना पड़ता था। छः पैसे रोज़ समलते थे।
ि नया घर में अकेली ी र ती थी; लेककन कभी ककसी ने उसे ककसी छै ला की
ओर ताकते न ीं दे खा। पटे कवरी ने एक बार कुछ छे ड़ की थी। उसका ऐसा
मूँु तोड़ जवाब हदया कक अब तक न ीं भूले।
मातादीन ने समीप आकर क ा -- तुम् ारा दाह ना तो बूढ़ा ो गया ोरी, अबकी
ससंचाई में न ठ रे गा। कोई पाूँच साल ु ए ोंगे इसे लाये?
ोरी ने दायें बैल की पीठ पर ाथ रखकर क ा -- कैसा पाूँचवाूँ, य आठवाूँ चल
र ा ै भाई! जी तो चा ता ै , इसे वपंससन दे दूँ ;ू लेककन ककसान और ककसान के
बैलन को जमराज ी वपंससन दें , तो समले। इसकी गदद न पर जुआ रखते मेरा मन
कचोटता ै । बेचारा सोचता ोगा, अब भी छुट्टी न ीं, अब क्या मेरा ाड़ जोतेगा
क्या? लेककन अपना कोई क़ाबू न ीं। तुम कैसे चले? अब तो जी अच्छा ै?
मातादीन इिर एक म ीने से मलेररया ज्वर में पड़ा र ा था। एक हदन तो उसकी
नाड़ी छूट गयी थी। चारपाई से नीचे उतार हदया गया था। तब से उसके मन में
य प्रेरणा ु ई थी कक सससलया के साथ अत्याचार करने का उसे य दं ड समला
ै । जब उसने सससलया को घर से नकाला, तब व गभदवती थी। उसे त नक भी
दया न आयी। पूरा गभद लेकर भी व मजूरी करती र ी। अगर ि नया ने उस
दया न की ोती तो मर गयी ोती। कैसी-कैसी मुसीबतें झेलकर जी र ी ै।
मजरू ी भी तो इस दशा में न ीं कर सकती। अब लश्ज्जत और द्रववत ोकर व
सससलया को ोरी के स्ते दो रुपए दे ने आया ै ; अगर ोरी उसे व रुपए दे दे ,
तो व उसका ब ु त उपकार मानेगा।
ोरी ने क ा -- तम्
ु ीं जाकर क्यों न ीं दे दे त?
े
दे ातों में हदन-भर के थके-माूँदे ककसान सरे शाम ी से सो जाते ैं। सारे गाूँव में
सोता पड़ गया था। मथुरा के घर के द्वार बंद थे। सससलया ककवाड़ न खुलवा
सकी। लोग उसे इस भेस में दे खकर क्या क ें गे ? व ीं द्वार पर अलाव में अभी
आग चमक र ी थी। सससलया अपने कपड़े सेंकने लगी।
सससलया ने जल्दी से अंचल ससर पर खींच सलया और समीप आकर बोली -- मैं
ू ूँ , सससलया।
मथरु ा उसे अंदर ले गया। बरोठे में अूँिेरा था। उसने सससलया का ाथ पकड़कर
अपनी ओर खींचा।
'क्या इससलए सोना से सुंदर ू ूँ। अपने भाग न ीं बखानते ो कक ऐसी इंदर की
परी पा गये। अब भौंरा बनने का मन चला ै । उससे क दूँ ू तो तुम् ारा मूँु न
दे खे।'
मथुरा लंपट न ीं था। सोना से उसे प्रेम भी था। इस वक़्त अूँिेरा और एकांत
और सससलया का यौवन दे खकर उसका मन चंचल ो उठा था। य तंबी पाकर
ोश में आ गया।
सससलया को छोड़ता ु आ बोला -- तुम् ारे पैरों पड़ता ू ूँ ससल्लो, उससे न क ना।
अभी जो सज़ा चा ो, दे लो।
'और जो करो?'
ससल्लो का मूँु उसके मूँु के पास आ गया था, और दोनों की साूँस और आवाज़
और दे में कंपन ो र ा था।
ससल्लो पीछे ट गयी। मथुरा आगे बढ़कर आूँगन में आ गया और बोला --
ससल्लो तुम् ारे गाूँव से आयी ै।
ससल्लो भी पीछे -पीछे आकर आूँगन में खड़ी ो गयी। उसने दे खा, सोना य ाूँ
ककतने आराम से र ती ै । ओसारी में खाट ै । उस पर सुजनी का नमद बबस्तर
बबछा ु आ ै ; बबलकुल वैसा ी, जैसा मातादीन की चारपाई पर बबछा र ता था।
तककया भी ै , सल ाफ़ भी ै । खाट के नीचे लोटे में पानी रखा ु आ ै । आूँगन में
ज्योत्स्ना ने आईना-सा बबछा रखा ै । एक कोने में तुलसी का चबूतरा ै , दस
ू री
ओर जआ
ु र के ठे ठों के कई बोझ दीवार से लगाकर रखे ैं। बीच में पआ
ु लों के
गड्ढे ैं। समीप ी ओखल
ै , श्जसके पास कूटा ु आ िान पड़ा ु आ ै । खपरै ल
पर लौकी की बेल चढ़ी ु ई ै और कई लौककयाूँ ऊपर चमक र ी ैं। दस ू री ओर
की ओसारी में एक गाय बूँिी ु ई ै । इस खंड में मथुरा और सोना सोते ैं? और
लोग दस
ू रे खंड में ोंगे। सससलया ने सोचा, सोना का जीवन ककतना सख
ु ी ै।
सोना उठकर आूँगन में आ गयी थी; मगर ससल्लो से टूटकर गले न ीं समली।
ससल्लो ने समझा, शायद मथुरा के खड़े र ने के कारण सोना संकोच कर र ी ै।
या कौन जाने उसे अब असभमान ो गया ो -- ससल्लो चमाररन से गले समलने
में अपना अपमान समझती ो। उसका सारा उत्सा ठं डा पड़ गया। इस समलन
से षद के बदले उसे ईष्याद ु ई। सोना का रं ग ककतना खल
ु गया ै , और दे कैसी
कंचन की तर नखर आयी ै । गठन भी सुडौल ो गया ै । मख ु पर गहृ णीत्व
की गररमा के साथ युवती की स ास छवव भी ै।
आणख़र सोना ने रूखे स्वर में पूछा -- इतनी रात को कैसे चली, ससल्लो?
वास्तव में सोना को उसका आना बुरा लग र ा था। व समय उसकी प्रेम-क्रीड़ा
और ास-ववलास का था, ससल्लो ने उसमें बािक ोकर जैसे उसके सामने से
परोसी ु ई थाली खींच ली थी। ससल्लो नःसंज्ञ-सी भूसम की ओर ताक र ी थी।
िरती क्यों न ीं िट जाती कक व उसमें समा जाय। इतना अपमान! उसने
अपने इतने ी जीवन में ब ु त अपमान स ा था, ब ु त दद
ु द शा दे खी थी; लेककन
आज य िाूँस श्जस तर उसके अंतःकरण में चुभ गयी, वैसी कभी कोई बात न
चभ
ु ी थी। गड़
ु घर के अंदर मटकों में बंद रखा ो, तो ककतना ी मस
ू लािार पानी
बरसे, कोई ा न न ीं ोती; पर श्जस वक़्त व िप
ू में सख
ू ने के सलए बा र
िैलाया गया ो, उस वक़्त तो पानी का एक छींटा भी उसका सवदनाश कर दे गा।
सससलया के अंतःकरण की सारी कोमल भावनाएूँ इस वक़्त मूँु खोले बैठी ु ई थीं
कक आकाश से अमत
ृ -वषाद ोगी। बरसा क्या, अमत
ृ के बदले ववष, और सससलया
के रोम-रोम में दौड़ गया। सपद-दं श के समान ल रें आयीं। घर में उपवास करके
सो र ना और बात ै ; लेककन पंगत से उठा हदया जाना तो डूब मरने ी की बात
ै । सससलया को य ाूँ एक क्षण ठ रना भी असह्य ो गया, जैसे कोई उसका
गला दबाये ु ए ो। व कुछ न पूछ सकी। सोना के मन में क्या ै , य व
भाूँप र ी थी। व बाूँबी में बैठा ु आ साूँप क ीं बा र न नकल आये , इसके
पह ले ी व व ाूँ से भाग जाना चा ती थी। कैसे भागे , क्या ब ाना करे ? उसके
प्राण क्यों न ीं नकल जाते!
सससलया काूँप उठी। एक-एक शब्द उसके मूँु से नकल पड़ा, मानो ग्रामोफ़ोन में
भरी ु ई आवाज़ ो। व एक शब्द भी न छपा सकी, सोना के चे रे पर भीषण
संकल्प खेल र ा था, मानो ख़न
ू सवार ो।
सोना ने उसकी ओर बरछी की-सी चुभनेवाली आूँखों से दे खा और मानो कटार
का आघात करती ु ई बोली -- ठीक-ठीक क ती ो?
ससल्लो िीरे से उठी और सूँभलकर खड़ी ु ई। जान पड़ा, उसकी कमर टूट गयी
ै । एक क्षण सा स बटोरती र ी, ककन्तु अपनी सफ़ाई में कुछ सूझ न पड़ा।
आूँखों के सामने अूँिेरा था , ससर में चक्कर, कंठ सूख र ा था। और सारी दे
सुन्न ो गयी थी, मानो रोम- छद्रों से प्राण उड़े जा र े ों। एक-एक पग इस
तर रखती ु ई, मानो सामने गड्ढा ै, व बा र आयी और नदी की ओर चली।
***
30
समल क़रीब-क़रीब पूरी जल चुकी ै ; लेककन उसी समल को किर से खड़ा करना
ोगा। समस्टर खन्ना ने अपनी सारी कोसशशें इसके सलए लगा दी ैं। मज़दरू ों की
ड़ताल जारी ै ; मगर अब उससे समल मासलकों की कोई ववशेष ा न न ीं ै।
नये आदमी कम वेतन पर समल गये ैं और जी तोड़ कर काम करते ैं ; क्योंकक
उनमें सभी ऐसे ैं, श्जन् ोंने बेकारी के कष्ट भोग सलये ैं और अब अपना बस
चलते ऐसा कोई काम करना न ीं चा ते श्जससे उनकी जीववका में बािा पड़े।
चा े श्जतना काम लो, चा े श्जतनी कम छुहट्टयाूँ दो, उन् ें कोई सशकायत न ीं।
ससर झक
ु ाये बैलों की तर काम में लगे र ते ैं। घड़
ु ककयाूँ, गासलयाूँ, य ाूँ तक कक
डंडों की मार भी उनमें ग्ला न न ीं पैदा करती ; और अब पुराने मज़दरू ों के सलए
इसके ससवा कोई मागद न ीं र गया ै कक व
इसी घटी ु ई मजूरी पर काम
करने आयें और खन्ना सा ब की ख़ुशामद करें । पंडडत ओंकारनाथ पर तो उन् ें
अब रत्ती-भर भी ववकवास न ीं ै । उन् ें वे अकेले-दक
ु े ले पाएूँ तो शायद उनकी
बरु ी गत बनाये; पर पंडडतजी ब ु त बचे ु ए र ते ैं। धचराग़ जलने के बाद अपने
कायालदय से बा र न ीं नकलते और अफ़सरों की ख़श ु ामद करने लगे ैं। समरज़ा
खुशेद की िाक अब भी ज्यों-की-त्यों ै ; लेककन समरज़ाजी इन बेचारों का कष्ट
और उसके नवारण का अपने पास कोई उपाय न दे खकर हदल से चा ते ैं कक
सब-के-सब ब ाल ो जायूँ; मगर इसके साथ ी नये आदसमयों के कष्ट का
ख़्याल करके श्जज्ञासओ
ु ं से य ी क हदया करते ैं कक जैसी इच्छा ो वैसा
करो। समस्टर खन्ना ने पुराने आदसमयों को किर नौकरी के सलए इच्छुक दे खा,
तो और भी अकड़ गये , ालाूँकक व मन में चा ते थे कक इस वेतन पर पुराने
आदमी नयों से क ीं अच्छे ैं। नये आदमी अपना सारा ज़ोर लगाकर भी पुराने
आदसमयों के बराबर काम न कर सकते थे। पुराने आदसमयों में अधिकांश तो
बचपन से ी समल में काम करने के अभ्यस्त थे और ख़ब ू मूँजे ु ए। नये
आदसमयों में अधिकतर दे ातों के दख
ु ी ककसान थे, श्जन् ें खुली वा और मैदान
में पुराने ज़माने के लकड़ी के औजारों से काम करने की आदत थी। समल के
अंदर उनका दम घुटता था और मशीनरी के तेज़ चलनेवाले पुरज़ों से उन् ें भय
लगता था। आणख़र जब पुराने आदमी ख़ूब परास्त ो गये तब खन्ना उन् ें
ब ाल करने पर राज़ी ु ए; मगर नये आदमी इससे कम वेतन पर काम करने के
सलए तैयार थे और अब डायरे क्टरों के सामने य सवाल आया कक व परु ानों
को ब ाल करें या नयों को र ने दें । डायरे क्टरों में आिे तो नये आदसमयों का
वेतन घटाकर रखने के पक्ष में थे। आिों की य िारणा थी कक परु ाने आदसमयों
को ाल के वेतन पर रख सलया जाय। थोड़े-से रुपए ज़्यादा ख़चद ोंगे ज़रूर,
मगर काम उससे ज़्यादा ोगा। खन्ना समल के प्राण थे, एक तर से सवेसवाद।
डायरे क्टर तो उनके ाथ की कठपुतसलयाूँ थे। नकचय खन्ना ी के ाथों में था
और व अपने समत्रों से न ीं, शत्रुओं से भी इस ववषय में सला ले र े थे। सबसे
प ले तो उन् ोंने गोववंदी की सला ली। जब से मालती की ओर से उन् ें नराशा
ो गयी थी और गोववंदी को मालूम ो गया था कक मे ता जैसा ववद्वान ण और
अनुभवी और ज्ञानी आदमी मेरा ककतना सम्मान करता ै और मुझसे ककस
प्रकार की सािना की आशा रखता ै , तब से दं प त में स्ने किर जाग उठा था।
स्ने मत क ो; मगर सा चयद तो था ी। आपस में व जलन और अशां त न
थी। बीच की दीवार टूट गयी थी।
और उनकी इस उदार वश्ृ त्त का असर अज्ञात रूप से मालती पर भी पड़ता जाता
था। अब तक श्जतने मदद उसे समले, सभी ने उसकी ववलास-वश्ृ त्त को ी
उसकाया। उसकी त्याग-वश्ृ त्त हदन-हदन क्षीण ोती जाती थी; पर मे ता के संसगद
में आकर उसकी त्याग-भावना सजग ो उठी थी। सभी मनस्वी प्राणणयों में य
भावना छपी र ती ै और प्रकाश पाकर चमक उठती ै । आदमी अगर िन या
नाम के पीछे पड़ा ै , तो समझ लो कक अभी तक व ककसी पररष्कृत आत्मा के
सम्पकद में न ीं आया। मालती अब अक्सर ग़रीबों के घर बबना फ़ीस सलये ी
मरीज़ों को दे खने चली जाती थी। मरीज़ों के साथ उसके व्यव ार में मद
ृ त
ु ा आ
गयी थी। ाूँ, अभी तक व शौक़-ससंगार से अपना मन न टा सकती थी। रं ग
और पाउडर का त्याग उसे अपने आंतररक पररवतदनों से भी क ीं ज़्यादा कहठन
जान पड़ता था।
इिर कभी-कभी दोनों दे ातों की ओर चले जाते थे और ककसानों के साथ दो-चार
घंटे र कर उनके झोपड़ों में रात काटकर, और उन् ीं का-सा भोजन करके, अपने
को िन्य समझते थे। एक हदन वे सेमरी प ु ूँच गये और घूमते-घामते बेलारी जा
नकले।
ोरी द्वार पर बैठा धचलम पी र ा था कक मालती और मे ता आकर खड़े ो
गये।
दोनों खाट पर बैठे। ोरी तबुवि-सा खड़ा था। इन लोगों की क्या ख़ा तर करे ।
बड़े-बड़े आदमी ैं। उनकी ख़ा तर करने लायक़ उसके पास ै ी क्या ?
आणख़र उसने पछ
ू ा -- पानी लाऊूँ?
मालती ने आकर उसके बच्चे को गोद में ले सलया और प्यार करती ु ई बोली --
ककतने हदनों का ै ?
दल
ु ारी स ु आइन ने पूछा -- य सारी बातें तुम् ें कैसे मालूम ु ईं सरकार, आपका
तो अभी ब्या ी न ीं ु आ?
मालती ने मस्
ु कराकर पछ
ू ा -- तम्
ु ें कैसे मालम
ू ु आ कक मेरा ब्या न ीं ु आ
ै?
सससलया मालती के पाूँव दबाने लगी -- सरकार ककतनी दरू से आयी ैं, थक गयी
ोंगी।
मालती ने पाूँव खींचकर क ा -- न ीं-न ीं, मैं थकी न ीं ू ूँ। मैं तो वागाड़ी पर
आयी ू ूँ। मैं चा ती ू ूँ , आप लोग अपने बच्चे लायें, तो मैं उन् ें दे खकर आप
लोगों को बताऊूँ कक आप उन् ें कैसे तंदरु
ु स्त और नरोग रख सकती ैं।
ज़रा दे र में बीस-पच्चीस बच्चे आ गये। मालती उनकी परीक्षा करने लगी। कई
बच्चों की आूँखें उठी थीं, उनकी आूँख में दवा डाली। अधिकतर बच्चे दब
ु ल
द थे।
इसका कारण था, माता-वपता को भोजन अच्छा न समलना। मालती को य
जानकर आकचयद ु आ कक ब ु त कम घरों में दि ू ोता था। घी के तो सालों
दशदन न ीं ोते। मालती ने य ाूँ भी उन् ें भोजन करने का म त्व समझाया , जैसा
व सभी गाूँवों में ककया करती थी। उसका जी इससलए जलता था कक ये लोग
अच्छा भोजन क्यों न ीं करते? उसे ग्रामीणों पर क्रोि आ जाता था। क्या
तुम् ारा जन्म इसीसलए ु आ ै कक तुम मर-मरकर कमाओ और जो कुछ पैदा
ो, उसे खा न सको? ज ाूँ दो-चार बैलों के सलए भोजन ै , एक दो गाय-भैसों के
सलए चारा न ीं ै ? क्यों ये लोग भोजन को जीवन की मुख्य वस्तु न समझकर
उसे केवल प्राणरक्षा की वस्तु समझते ैं ? क्यों सरकार से न ीं क ते कक नाम-
मात्र के ब्याज पर रुपए दे कर उन् ें सूदख़ोर म ाजनों के पंजे से बचाये? उसने
श्जस ककसी से पूछा, य ी मालूम ु आ कक उसकी कमाई का बड़ा भाग म ाजनों
का क़रज़ चक ु ाने में ख़चद ो जाता ै । बटवारे का मरज़ भी बढ़ता जाता था।
आपस में इतना वैमनस्य था कक शायद ी कोई दो भाई एक साथ र ते ों।
उनकी इस दद
ु द शा का कारण ब ु त कुछ उनकी संकीणताद और स्वाथदपरता थी।
संध्या ो गयी थी। मालती को औरतें अब तक घेरे ु ए थीं। उसकी बातों से जैसे
उन् ें तश्ृ प्त न ोती थी। कई औरतों ने उससे रात को व ीं र ने का आग्र
ककया। मालती को भी उनका सरल स्ने ऐसा प्यारा लगा कक उसने उनका
नमंत्रण स्वीकार कर सलया। रात को औरतें उसे अपना गाना सुनायेंगी। मालती
ने भी प्रत्येक घर में जा-जाकर उसकी दशा से पररचय प्राप्त करने में अपने
समय का सदप
ु योग ककया, उसकी नष्कपट सद्भावना और स ानुभू त उन
गूँवाररनों के सलए दे वी के वरदान से कम न थी।
मालती बबना बुलाये मे मान की भाूँ त उनके द्वार पर आकर खड़ी ो गयी थी,
और मे ता ने उसका स्वागत ककया था। इसमें प्रेम का भाव न था , केवल
पुरुषत्व का भाव था। अगर मालती उन् ें इस योग्य समझती ै कक उन पर
अपनी कृपा-दृश्ष्ट िेरे , तो मे ता उसकी इस कृपा को अस्वीकार न कर सकते थे।
इसके साथ ी व मालती को गोववंदी के रास्ते से टा दे ना चा ते थे और व
जानते थे, मालती जब तक आगे अपना पाूँव न जमा लेगी, व वपछला पाूँव न
उठायेगी। व जानते थे, मालती के साथ छल करके व अपनी नीचता का
पररचय दे र े ैं। इसके सलए उनकी आत्मा बराबर उन् ें धिक्कारती र ी थी ;
मगर ज्यों-ज्यों व मालती को नकट से दे खते थे , उनके मन में आकषदण बढ़ता
जाता था। रूप का आकषदण तो उन पर कोई असर न कर सकता था। य गुण
का आकषदण था। य व जानते थे, श्जसे सच्चा प्रेम क सकते ैं , केवल एक
बंिन में बूँि जाने के बाद ी पैदा ो सकता ै । इसके प ले जो प्रेम ोता ै,
व तो रूप की आसश्क्त-मात्र ै , श्जसका कोई हटकाव न ीं; मगर इसके प ले य
नकचय तो कर लेना ी था कक जो पत्थर सा चयद के ख़राद पर चढ़े गा, उसमें
ख़रादे जाने की क्षमता ै भी या न ीं। सभी पत्थर तो ख़राद पर चढ़कर सुंदर
मू तयााँ न ीं बन जाते। इतने हदनों में मालती ने उनके हृदय के सभन्न-सभन्न
भागों में अपनी रश्कमयाूँ डाली थीं; पर अभी तक वे केंहद्रत ोकर उस ज्वाला के
रूप में न िूट पड़ी थीं, श्जससे उनका सारा अंतस्तल प्रज्वसलत ो जाता। आज
मालती ने ग्रामीणों में समलकर और सारे भेद-भावों को समटाकर इन रश्कमयों को
मानो केंहद्रत कर हदया। और आज प ली बार मे ता को मालती से एकात्मता
का अनुभव ु आ।
ज्यों ी मालती गाूँव का चक्कर लगाकर लौटी, उन् ोंने उसे साथ लेकर नदी की
ओर प्रस्थान ककया। रात य ीं काटने का नकचय ो गया। मालती का कलेजा
आज न जाने क्यों िक-िक करने लगा। मे ता के मुख पर आज उसे एक
ववधचत्र ज्यो त और इच्छा झलकती ु ई नज़र आयी। नदी के ककनारे चाूँदी का
फ़शद बबछा ु आ था और नदी रत्न-जहटत आभूषण प ने मीठे स्वरों में गाती
चाूँद की और तारों की और ससर झक
ु ाये नींद में माते वक्ष
ृ ों को अपना नत्ृ य
हदखा र ी थी। मे ता प्रकृ त की उस मादक शोभा से जैसे मस्त ो गये। जैसे
उनका बालपन अपनी सारी क्रीड़ाओं के साथ लौट आया ो। बालू पर कई कुलाटें
मारीं। किर दौड़े ु ए नदी में जाकर घुटने तक पानी में खड़े ो गये।
'तुम मेरे साथ न चलोगी, उस सूनी बस्ती में ज ाूँ स्वप्नों का राज्य ै ।'
'मझ
ु े तो तैरना न ीं आता।'
मे ता ने दाशद नक मस्
ु कान के साथ क ा -- श्जस तरी पर बैठे म लोग जीवन-
यात्रा कर र े ैं, व तो इससे क ीं नस्सार ै मालती? क्या डर र ी ो?
'सच क ती ो?'
'अब तक मैंने बग़ैर ककसी की स ायता के बािाओं को जीता ै । अब तो तुम् ारे
संग ू ूँ।'
स सा मालती ने कातर कंठ से पूछा -- और मैं तुम् ारे जीवन में कभी न ीं
आती?
'कभी न ीं।'
'भावक
ु ता में न आओ मालती! प्रेम दे ने के प ले म सब परीक्षा करते ैं और
तुमने की, चा े अप्रत्यक्ष रूप से ी की ो। मैं आज तुमसे स्पष्ट क ता ू ूँ कक
प ले मैंने तम्
ु ें उसी तर दे खा, जैसे रोज़ ी ज़ारों दे ववयों को दे खा करता ू ूँ ,
केवल ववनोद के भाव से; अगर मैं गलती न ीं करता, तो तुमने भी मुझे
मनोरं जन के सलए एक नया णखलौना समझा।'
मालती ने टोका -- ग़लत क ते ो। मैंने कभी तम्
ु ें इस नज़र से न ीं दे खा।
मैंने प ले ी हदन तुम् ें अपना दे व बनाकर अपने हृदय ...।
मे ता बात काटकर बोले -- किर व ी भावुकता। मुझे ऐसे म त्व के ववषय में
भावक
ु ता पसंद न ीं; अगर तम
ु ने प ले ी हदन से मझ
ु े इस कृपा के योग्य
समझा, तो इसका य ी कारण ो सकता ै , कक मैं रूप भरने में तुमसे ज़्यादा
कुशल ू ूँ, वरना ज ाूँ तक मैंने नाररयों का स्वभाव दे खा ै , व प्रेम के ववषय में
काफ़ी छान-बीन करती ैं। प ले भी तो स्वयंवर से पुरुषों की परीक्षा ोती थी?
व मनोवश्ृ त्त अब भी मौजूद ै , चा े उसका रूप कुछ बदल गया ो। मैंने तब
से बराबर य ी कोसशश की ै कक अपने को संपण
ू द रूप से तम्
ु ारे सामने रख दूँ ू
और उसके साथ ी तुम् ारी आत्मा तक भी प ु ूँच जाऊूँ। और मैं ज्यों-ज्यों
तुम् ारे अंतस्तल की ग राई में उतरा ू ूँ, मुझे रत्न ी समले ी ैं। मैं ववनोद के
सलए आया और आज उपासक बना ु आ ू ूँ। तुमने मेरे भीतर क्या पाया य
मुझे मालूम न ीं।
नदी का दस
ू रा ककनारा आ गया। दोनों उतरकर उसी बालू के फ़शद पर जा बैठे
और मे ता किर उसी प्रवा में बोले -- और आज मैं य ाूँ व ी पूछने के सलए
तुम् ें लाया ू ूँ ?
मालती ने उसकी ओर चककत ोकर दे खा। इसका आशय उसकी समझ में न
आया।
'लेककन यहद तम
ु मझ
ु से य ी प्रकन करो, तो मैं उसका दस
ू रा जवाब दूँ ग
ू ा।'
'इससलए कक तम
ु ऐसे ह स
ं ावादी न ीं जान पड़ते।'
'न ीं मालती, इसी ववषय में मैं पूरा पशु ू ूँ और उस पर लश्ज्जत ोने का कोई
कारण न ीं दे खता। आध्याश्त्मक प्रेम और त्यागमय प्रेम और नःस्वाथद प्रेम
श्जसमें आदमी अपने को समटाकर केवल प्रेसमका के सलए जीता ै , उसके आनंद
से आनंहदत ोता ै और उसके चरणों पर अपनी आत्मा समपदण कर दे ता ै , मेरे
सलए नरथदक शब्द ैं। मैंने पुस्तकों में ऐसी प्रेम-कथाएूँ पढ़ी ैं ज ाूँ प्रेमी ने
प्रेसमका के नये प्रेसमयों के सलए अपनी जान दे दी ै ; मगर उस भावना को मैं
श्रद्िा क सकता ू ूँ , सेवा क सकता ू ूँ, प्रेम कभी न ीं। प्रेम सीिी-सादी गऊ
न ीं, ख़ख़्
ूूँ वार शेर ै , जो अपने सशकार पर ककसी की आूँख भी न ीं पड़ने दे ता। '
मालती ने उनकी आूँखों में आूँखें डालकर क ा -- अगर प्रेम ख़ख़्
ूूँ वार शेर ै तो
मैं उससे दरू
ी र ू ूँगी। मैंने तो उसे गाय ी समझ रखा था। मैं प्रेम को संदे
से ऊपर समझती ू ूँ। व दे की वस्तु न ीं, आत्मा की वस्तु ै । संदे का व ाूँ
ज़रा भी स्थान न ीं और ह स
ं ा तो संदे का ी पररणाम ै। व संपूणद आत्म-
समपणद ै । उसके मंहदर में तम
ु परीक्षक बनकर न ीं, उपासक बनकर ी वरदान
पा सकते ो।
व उठकर खड़ी ो गयी और तेज़ी से नदी की तरफ़ चली, मानो उसने अपना
खोया ु आ मागद पा सलया ो। ऐसी स्िू तद का उसे कभी अनुभव न ु आ। उसने
स्वतंत्र जीवन में भी अपने में एक दब
ु ल
द ता पायी थी, जो उसे सदै व आंदोसलत
करती र ती थी, सदै व अश्स्थर रखती थी। उसका मन जैसे कोई आश्रय खोजा
करता था, श्जसके बल पर हटक सके, संसार का सामना कर सके। अपने में उसे
य शश्क्त न समलती थी। बुद्धि और चररत्र की शश्क्त दे खकर व उसकी ओर
लाला यत ोकर जाती थी। पानी की भाूँ त र एक पात्र का रूप िारण कर लेती
थी। उसका अपना कोई रूप न था। उसकी मनोवश्ृ त्त अभी तक ककसी परीक्षाथी
छात्र की-सी थी। छात्र को पुस्तकों से प्रेम ो सकता ै और आज ो जाता ै;
लेककन व पुस्तक के उन् ीं भागों पर ज़्यादा ध्यान दे ता ै , जो परीक्षा में आ
सकते ैं। उसकी प ली ग़रज परीक्षा में सिल ोना ै । ज्ञानाजदन इसके बाद।
अगर उसे मालूम ो जाय कक परीक्षक बड़ा दयालु ै या अंिा ै और छात्रों को
यों ी पास कर हदया करता ै , तो शायद व पस्
ु तकों की ओर आूँख उठाकर भी
न दे खे। मालती जो कुछ करती थी, मे ता को प्रसन्न करने के सलए। उसका
मतलब था, मे ता का प्रेम और ववकवास प्राप्त करना, उसके मनोराज्य की रानी
बन जाना; लेककन उसी छात्र की तर अपनी योग्यता का ववकवास जमाकर।
सलयाक़त आ जाने से परीक्षक आप- ी-आप उससे संतुष्ट ो जायगा, इतना िैयद
उसे न था।
***
31
राय सा ब का ससतारा बुलंद था। उनके तीनों मंसूबे पूरे ो गये थे। कन्या की
शादी िूम-िाम से ो गयी थी, मुक़दमा जीत गये थे और नवादचन में सिल ी
न ु ए थे, ोम में बर भी ो गये थे। चारों ओर से बिाइयाूँ समल र ी थीं। तारों
का ताूँता लगा ु आ था। इस मुक़दमे को जीतकर उन् ोंने ताल्लुक़ेदारों की प्रथम
श्रेणी में स्थान प्राप्त कर सलया था। सम्मान तो उनका प ले भी ककसी से कम
न था; मगर अब तो उसकी जड़ और भी ग री और मज़बूत ो गयी थी।
साम यक पत्रों में उनके धचत्र और चररत्र दनादन नकल र े थे। क़रज़ की मात्रा
ब ु त बढ़ गयी थी; मगर अब राय सा ब को इसकी परवा न थी। व इस नयी
समसलककयत का एक छोटा-सा टुकड़ा बेचकर क़रज़ से मुक्त ो सकते थे। सुख
की जो ऊूँची-से-ऊूँची कल्पना उन् ोंने की थी , उससे क ीं ऊूँचे जा प ु ूँचे थे। अभी
तक उनका बूँगला केवल लखनऊ में था। अब नैनीताल, मंसरू ी और सशमला --
तीनों स्थानों में एक-एक बूँगला बनवाना लाश्ज़म ो गया। अब उन् ें य शोभा
न ीं दे ता कक इन स्थानों में जायूँ, तो ोटलों में या ककसी दस
ू रे राजा के बूँगले में
ठ रें । जब सूयप्र
द तापससं के बूँगले इन सभी स्थानों में थे, तो राय सा ब के सलए
य बड़ी लज्जा की बात थी कक उनके बूँगले न ों। संयोग से बूँगले बनवाने की
ज़ मत न उठानी पड़ी। बने-बनाये बूँगले सस्ते दामों में समल गये। र एक
बूँगले के सलए माली, चौकीदार, काररंदा, ख़ानसामा आहद भी रख सलये गये थे।
और सबसे बड़े सौभाग्य की बात य थी कक अबकी ह ज़ मैजेस्टी के जन्म-हदन
के अवसर पर उन् ें राजा की पदवी भी समल गयी। अब उनकी म त्वाकांक्षा
संपूणद रूप से संतुष्ट ो गयी। उस हदन ख़ूब जशन मनाया गया और इतनी
शानदार दावत ु ई कक वपछले सारे रे काडद टूट गये। श्जस वक़्त ह ज़ एक्सेलेंसी
गवनदर ने उन् ें पदवी प्रदान की, गवद के साथ राज-भश्क्त की ऐसी तरं ग उनके
मन में उठी कक उनका एक-एक रोम उससे प्लाववत ो उठा। य ै जीवन!
न ीं, ववद्रोह यों के िेर में पड़कर व्यथद बदनामी ली, जेल गए और अफ़सरों की
नज़रों से धगर गए। श्जस डी. एस. पी. ने उन् ें वपछली बार धगरफ़्तार ककया था ,
इस वक़्त व उनके सामने ाथ बाूँिे खड़ा था और शायद अपने अपराि के
सलए क्षमा माूँग र ा था।
मगर जीवन की सबसे बड़ी ववजय उन् ें उस वक़्त ु ई, जब उनके पुराने, परास्त
शत्रु, सूयप्र
द तापससं ने उनके बड़े लड़के रुद्रपालससं से अपनी कन्या के वववा का
संदेशा भेजा। राय सा ब को न मक़ु दमा जीतने की इतनी ख़श ु ी ु ई थी, न
सम नस्टर ोने की। व सारी बातें कल्पना में आती थीं; मगर य बात तो
आशातीत ी न ीं, कल्पनातीत थी। व ी सूयप्र
द तापससं जो अभी कई म ीने तक
उन् ें अपने कुत्ते से भी नीचा समझता था, व आज उनके लड़के से अपनी
लड़की का वववा करना चा ता था! ककतनी असंभव बात! रुद्रपाल इस समय
एम. ए. में पढ़ता था, बड़ा नभीक, पक्का आदशदवादी, अपने ऊपर भरोसा रखने
वाला, असभमानी, रससक और आलसी युवक था, श्जसे अपने वपता की य िन
और मानसलप्सा बुरी लगती थी। राय सा ब इस समय नैनीताल में थे। य
संदेशा पाकर िूल उठे । यद्यवप व वववा के ववषय में लड़के पर ककसी तर
का दबाव डालना न चा ते थे ; पर इसका उन् ें ववकवास था कक व जो कुछ
नकचय कर लें गे, उसमें रुद्रपाल को कोई आपश्त्त न ोगी और राजा
सूयप्र
द तापससं से नाता ो जाना एक ऐसे सौभाग्य की बात थी कक रुद्रपाल का
स मत न ोना ख़याल में भी न आ सकता था।
उन् ोंने तरु ं त राजा सा ब को बात दे दी और उसी वक़्त रुद्रपाल को फ़ोन ककया।
राय सा ब को अपने जीवन में न कभी इतनी नराशा ु ई थी, न इतना क्रोि
आया था। पूछा -- कोई वज ?
'श्जस बात को मेरी आत्मा स्वीकार न ीं करती, उसे मैं आपके ु क्म से न ीं
मान सकता।'
राय सा ब ने बड़ी नम्रता से समझाया -- बेटा, तम
ु आदशदवाद के पीछे अपने पैरों
में कुल् ाड़ी मार र े ो। य संबंि समाज में तुम् ारा स्थान ककतना ऊूँचा कर
दे गा, कुछ तुमने सोचा ै ? इसे ईकवर की प्रेरणा समझो। उस कुल की कोई दररद्र
कन्या भी मुझे समलती, तो मैं अपने भाग्य को सरा ता, य तो राजा सूयप्र
द ताप
की कन्या ै , जो मारे ससरमौर
ैं। मैं उसे रोज़ दे खता ू ूँ। तुमने भी दे खा ोगा।
रूप, गण
ु , शील, स्वभाव में ऐसी यव
ु ती मैंने आज तक न ीं दे खी। मैं तो चार हदन
का और मे मान ू ूँ। तुम् ारे सामने सारा जीवन पड़ा ै । मैं तुम् ारे ऊपर दबाव
न ीं डालना चा ता। तमु जानते ो, वववा के ववषय में मेरे ववचार ककतने उदार
ैं, लेककन मेरा य भी तो िमद ै कक अगर तुम् ें ग़लती करते दे खू,ूँ तो चेतावनी
दे दूँ ।ू
दस
ू रे हदन राय सा ब ख़ुद आ गये। दोनों अपने-अपने शस्त्रों से सजे ु ए तैयार
खड़े थे। एक ओर संपण ू द जीवन का मूँजा ु आ अनभ
ु व था, समझौतों से भरा
ु आ ; दस
ू री ओर कच्चा आदशदवाद था, श्ज़द्दी, उद्दंड और नमदम।
'जी ाूँ, ख़ब
ू दे खा ै ।'
'किर भी ...।'
'तुम् ारी अक्ल पर मुझे अफ़सोस आता ै । मालती को जानते ो कैसी औरत
ै ? उसकी ब न क्या कुछ और ोगी।'
उन् ोंने जैसे तलवार खींचकर क ा -- ाूँ, मेरे बाद ी ोगी और अभी उसे ब ु त
हदन ैं।
रुद्रपाल ने जैसे गोली चला दी -- ईकवर करे , आप अमर ों! सरोज से मेरा
वववा ो चुका।
'झूठ!'
मे ता ने सारा वत्ृ तान्त सुनकर उन् ें बनाना शुरू ककया। गंभीर मूँु बनाकर बोले
-- य तो आपकी प्र तष्ठा का सवाल ै।
राय सा ब भाूँप न सके। उछलकर बोले -- जी ाूँ, केवल प्र तष्ठा का। राजा
सूयप्र
द तापससं को तो आप जानते ैं ?
व्यधथत स्वर में बोले -- आपको भी मुझसे मज़ाक़ करने का य ी अवसर समला।
मैं आपके पास इससलए आया था कक मुझे यक़ीन था कक आप मेरी ालत पर
ववचार करें गे, मुझे उधचत राय दें गे। और आप मुझे बनाने लगे। श्जसके दाूँत न ीं
दख
ु े, व दाूँतों का ददद क्या जाने।
तंखा पाूँव दबाते ु ए, रोनी सूरत सलये कमरे में दाणख़ल ु ए और ज़मीन पर
झुककर सलाम करते ु ए बोले -- मैं तो ु ज़ूर के दशदन करने नैनीताल जा र ा
था। सौभाग्य से य ीं दशदन ो गये! ु ज़रू का समज़ाज तो अच्छा ै । इसके बाद
उन् ोंने बड़ी लच्छे दार भाषा में , और अपने वपछले व्यव ार को बबल्कुल भूलकर,
राय सा ब का यशोगान आरं भ ककया -- ऐसी ोम-में बरी कोई क्या करे गा, श्जिर
दे णखये ु ज़ूर ी के चचे ैं। य पद ु ज़ूर ी को शोभा दे ता ै।
राय सा ब मन में सोच र े थे, य आदमी भी ककतना बड़ा िूतद ै , अपनी ग़रज़
पड़ने पर गिे को दादा क नेवाला, प ले ससरे का बेवफ़ा और नलदज्ज; मगर उन् ें
उन पर क्रोि न आया, दया आई।
पछ
ू ा -- आजकल आप क्या कर र े ैं?
'कुछ न ीं ु ज़ूर, बेकार बैठा ू ूँ। इसी उम्मीद से आपकी णख़दमत में ाश्ज़र ोने
जा र ा था कक अपने पुराने खाहदमों पर नगा र े । आजकल बड़ी मुसीबत में
पड़ा ु आ ू ूँ ु ज़रू । राजा सय
ू प्र
द तापससं को तो ु ज़रू जानते ैं , अपने सामने
ककसी को न ीं समझते। एक हदन आपकी नंदा करने लगे। मझ ु से न सुना
गया। मैंने क ा, बस कीश्जए म ाराज, राय सा ब मेरे स्वामी ैं और मैं उनकी
नंदा न ीं सुन सकता। बस इसी बात पर बबगड़ गये। मैंने भी सलाम ककया और
घर चला आया। मैंने साफ़ क हदया, आप ककतना ी ठाट-बाट हदखायें; पर राय
सा ब की जो इज़्ज़त ै; व आपको नसीब न ीं ो सकती। इज़्ज़त ठाट से न ीं
ोती, सलयाक़त से ोती ै । आप में जो सलयाक़त ै व तो द ु नया जानती ै।
राय सा ब ने असभनय ककया -- आपने तो सीिे घर में आग लगा दी।
तंखा ने ऐसा ससर गड़ाया कक किर न उठाया। िीरे से चले गये। जैसे कोई चोर
कुत्ता मासलक के अंदर आ जाने पर दबकर नकल जाय।
'शैतान ै ।'
'पूरा।'
'बाप-बेटे में लड़ाई करवा दे , समयाूँ-बीबी में लड़ाई करवा दे । इस फ़न में उस्ताद
ै । ख़ैर, आज बचा को अच्छा सबक़ समल गया।'
'सनक तो ै ी; मगर इसकी दवा मेरे पास ै । मैं उस छोकरी को ऐसा ग़ायब
कर दूँ ू कक क ीं पता न लगेगा। दस-पाूँच हदन में य सनक ठं डी ो जायगी।
समझाने से कोई नतीजा न ीं। '
दस
ू रे हदन राय सा ब ने भी नैनीताल को प्रस्थान ककया। और उसके एक हदन
बाद रुद्रपाल ने सरोज के साथ इंगलैंड की रा ली। अब उनमें वपता-पुत्र का
नाता न था। प्र तद्वंद्वी ो गये थे। समस्टर तंखा अब रुद्रपाल के सला कार
और पैरोकार थे। उन् ोंने रुद्रपाल की तरफ़ से राय सा ब पर ह साब-फ़ मी का
दावा ककया। राय सा ब पर दस लाख की डडग्री ो गयी। उन् ें डडग्री का इतना
दःु ख न ु आ श्जतना अपने अपमान का। अपमान से भी बढ़कर दःु ख था जीवन
की संधचत असभलाषाओं के िूल में समल जाने का और सबसे बड़ा दःु ख था इस
बात का कक अपने बेटे ने ी दग़ा दी। आज्ञाकारी पुत्र के वपता बनने का गौरव
बड़ी नदद यता के साथ उनके ाथ से छीन सलया गया था।
मगर अभी शायद उनके दःु ख का प्याला भरा न था। जो कुछ कसर थी, व
लड़की और दामाद के संबंि-ववच्छे द ने पूरी कर दी। सािारण ह द
ं ू बासलकाओं
की तर मीनाक्षी भी बेज़बान थी। बाप ने श्जसके साथ ब्या कर हदया , उसके
साथ चली गयी; लेककन स्त्री-पुरुष में प्रेम न था। हदश्ग्वजयससं ऐयाश भी थे,
शराबी भी। मीनाक्षी भीतर ी भीतर कुढ़ती र ती थी। पुस्तकों और पबत्रकाओं से
मन ब लाया करती थी। हदश्ग्वजय की अवस्था तो तीस से अधिक न थी। पढ़ा-
सलखा भी था; मगर बड़ा मग़रूर, अपनी कुल-प्र तष्ठा की डींग मारनेवाला, स्वभाव
का नदद यी और कृपण। गाूँव की नीच जा त की ब ू -बेहटयों पर डोरे डाला करता
था। सो बत भी नीचों की थी, श्जनकी ख़ुशामदों ने उसे और भी ख़ुशामदपसंद
बना हदया था। मीनाक्षी ऐसे व्यश्क्त का सम्मान हदल से न कर सकती थी।
किर पत्रों में श्स्त्रयों के अधिकारों की चचाद पढ़-पढ़कर उसकी आूँखें खल
ु ने लगी
थीं। व ज़नाना क्लब में आने-जाने लगी। व ाूँ ककतनी ी सशक्षक्षत ऊूँचे कुल की
मह लाएूँ आती थीं। उनमें वोट और अधिकार और स्वािीनता और नारी-जाग ृ त
की ख़ूब चचाद ोती थी, जैसे परु
ु षों के ववरुद्ि कोई षडयंत्र रचा जा र ा ो।
अधिकतर व ी दे ववयाूँ थीं श्जनकी अपने पुरुषों से न पटती थी, जो नयी सशक्षा
पाने के कारण परु ानी मयादादओं को तोड़ डालना चा ती थीं। कई यव
ु तयाूँ भी
थीं, जो डडधग्रयाूँ ले चुकी थीं और वववाह त जीवन को आत्मसम्मान के सलए
घातक समझकर नौकररयों की तलाश में थीं। उन् ीं में एक समस सुलतान थीं, जो
ववलायत से बार-ऐट-ला ोकर आयी थीं और य ाूँ परदानशीन मह लाओं को
क़ानूनी सला दे ने का व्यवसाय करती थीं। उन् ीं की सला से मीनाक्षी ने प त
पर गज़
ु ारे का दावा ककया। व अब उसके घर में न र ना चा ती थी। गज़
ु ारे की
मीनाक्षी को ज़रूरत न थी। मैके में व बड़े आराम से र सकती थी; मगर व
हदश्ग्वजयससं के मुख में कासलख लगाकर य ाूँ से जाना चा ती थी।
हदश्ग्वजयससं ने उस पर उलटा बदचलनी का आक्षेप लगाया। राय सा ब ने इस
कल को शांत करने की भरसक ब ु त चेष्टा की; पर मीनाक्षी अब प त की सूरत
भी न ीं दे खना चा ती थी। यद्यवप हदश्ग्वजयससं का दावा ख़ाररज ो गया और
मीनाक्षी ने उस पर गुज़ारे की डडग्री पायी; मगर य अपमान उसके श्जगर में
चुभता र ा। व अलग एक कोठी में र ती थी, और ससमष्टवादी आंदोलन में
प्रमुख भाग लेती थी, पर व जलन शांत न ोती थी।
मीनाक्षी ने उसकी ओर घण
ृ ा से दे खकर क ा -- ाूँ, तू नरपराि ै । जानती ै
न, मैं कौन ू ूँ! चली जा। अब कभी य ाूँ न आना। म श्स्त्रयाूँ भोग-ववलास की
चीज़ें ैं ी, तेरा कोई दोष न ीं!
वेकया ने उसके चरणों पर ससर रखकर आवेश में क ा -- परमात्मा आपको सुखी
रखे। जैसा आपका नाम सन
ु ती थी, वैसा ी पाया।
वेकया के प्राण नखों में समा गये। क ाूँ से क ाूँ आशीवादद दे ने चली। जान बच
गयी थी, चुपके से अपनी रा लेनी चाह ए थी, दआ
ु दे ने की सनक सवार ु ई।
अब कैसे जान बचे।
***
32
समरज़ा सा ब ने थोड़े-से शब्दों में अपनी नयी स्कीम उनसे बयान की। उनकी
िारणा थी कक रूप के बाज़ार में व ी श्स्त्रयाूँ आती ैं, श्जन् ें या तो अपने घर में
ककसी कारण से सम्मान-पूणद आश्रय न ीं समलता, या जो आधथदक कष्टों से
मज़बरू ो जाती ैं, और अगर य दोनों प्रकन ल कर हदये जायूँ, तो ब ु त कम
औरतें इस भाूँ त प तत ों।
समरज़ा ने मूँछ
ू ें खड़ी कीं -- और मैं क ता ू ूँ कक व म ज़ रोज़ी का सवाल ै।
ाूँ, य सवाल सभी आदसमयों के सलए एक-सा न ीं ै । मज़दरू के सलए व
म ज़ आटे -दाल और एक िूस की झोपड़ी का सवाल ै । एक वकील के सलए व
एक कार और बूँगले और णख़दमतगारों का सवाल ै । आदमी म ज़ रोटी न ीं
चा ता, और भी ब ु त-सी चीज़ें चा ता ै । अगर औरतों के सामने भी व प्रकन
तर -तर की सूरतों में आता ै तो उनका क्या क़ुसूर ै ?
समरज़ा ने पछ
ू ा -- अब किर कब मल
ु ाक़ात ोगी?
'जाऊूँगा।'
***
33
'मैं एक पैसा भी फ़ालतू न ीं ख़चद करता। मुझे कोई ऐसा शौक़ भी न ीं ै ।'
'कड़ी स ी। तम
ु जैसों के साथ बबना कड़ाई ककये काम न ीं चलता। '
संयोग से उस वक़्त मालती भी बैठी थी। बोली -- कैसी क़ुक़ी ै ? ककस बात की?
अमीन ने क ा -- व ी ककराये कक डडग्री जो ु ई थी। मैंने क ा, ु ज़ूर को इत्तला
दे दूँ ।ू चार-पाूँच सौ का मामला ै , कौन-सी बड़ी रक़म ै । दस हदन में भी रुपए
दे दीश्जए, तो कोई रज़ न ीं। मैं म ाजन को दस हदन तक उलझाए र ू ूँगा।
'ह साब क्यों न ीं रखता। जो कुछ पाता ू ूँ, व सब दरज़ करता जाता ू ूँ, न ीं
इनकमटै क्सवाले श्ज़ंदा न छोड़ें।'
'क्यों?'
'उसमें तो ववशेष कुछ न ीं करना पड़ता। क़लम लेकर बैठ जाता ू ूँ। र वक़्त
ख़चद का खाता तो खोलकर न ीं बैठता।'
मालती ने धचढ़कर क ा -- ाूँ, और क्या, यश तो तुम लो, अपयश मेरे ससर मढ़ो।
मैं न ीं समझती, तम
ु ककस तकद से इस दान-प्रथा का समथदन कर सकते ो।
मनुष्य-जा त को इस प्रथा ने श्जतना आलसी और मुफ़्तख़ोर बनाया ै और
उसके आत्मगौरव पर जैसा आघात ककया ै , उतना अन्याय ने भी न ककया
ोगा; बश्ल्क मेरे ख़्याल में अन्याय ने मनष्ु य-जा त में ववद्रो की भावना उत्पन्न
करके समाज का बड़ा उपकार ककया ै।
मालती ने तीसरे म ीने ब ु तों को नराश ककया। ककसी को साफ़ जवाब हदया,
ककसी से मज़बूरी जताई, ककसी की फ़जी त की। समस्टर मे ता का बजट तो
िीरे -िीरे ठीक
ो गया; मगर इससे उनको एक प्रकार की ग्ला न ु ई। मालती ने
जब तीसरे म ीने में तीन सौ की बचत हदखायी , तब व उससे कुछ बोले न ीं;
मगर उनकी दृश्ष्ट में उसका गौरव कुछ कम अवकय ो गया। नारी में दान और
त्याग ोना चाह ए। उसकी य ी सबसे बड़ी ववभू त ै । इसी आिार पर समाज
का भवन खड़ा ै । वणणक-बुद्धि को व आवकयक बुराई ी समझते थे। श्जस
हदन मे ता की अचकनें बन कर आयीं और नयी घड़ी आयी , व संकोच के मारे
कई हदन बा र न नकले। आत्म-सेवा से बड़ा उनकी नज़र में दस
ू रा अपराि न
था।
इिर मालती ने अपने बाग़ के सलए गोबर को माली रख सलया था। एक हदन व
ककसी मरीज़ को दे खकर आ र ी थी कक रास्ते में पेरोल न र ा। व ख़ुद ड्राइव
कर र ी थी। कफ़क्र ु ई पेरोल कैसे आये ? रात के नौ बज गये थे और माघ का
जाड़ा पड़ र ा था। सड़कों पर सन्नाटा ो गया था। कोई ऐसा आदमी नज़र न
आता था, जो कार को ढकेल कर पेरोल की दक
ू ान तक ले जाय। बार-बार नौकर
पर झूँुझला र ी थी। रामख़ोर क ीं का। बेख़बर पड़ा र ता ै । संयोग से गोबर
उिर से आ नकला। मालती को खड़े दे खकर उसने ालत समझ ली और गाड़ी
को दो फ़लांग ठे ल कर पेरोल की दक
ू ान तक लाया।
एक हदन मालती बाग़ में आयी तो बालक न हदखाई हदया। झु नया से पूछा तो
मालूम ु आ बच्चे को ज्वर आ गया ै।
बालक खटोले पर ज्वर में अचेत पड़ा था। खपरै ल की उस कोठरी में इतनी
सील, इतना अूँिेरा, और इस ठं ड के हदनों में भी इतनी मच्छड़ कक मालती एक
समनट भी व ाूँ न ठ र सकी; तरु ं त आकर थमामीटर सलया और किर जाकर
दे खा, एक सौ चार था! मालती को भय ु आ, क ीं चेचक न ो। बच्चे को अभी
तक टीका न ीं लगा था। और अगर इस सीली कोठरी में र ा , तो भय था, क ीं
ज्वर और न बढ़ जाय।
उसी वक़्त बूँगले में आकर उसने अपना बैठक का कमरा ख़ाली कर हदया और
उसी वक़्त झु नया उस नये कमरे में डट गयी। मंगल ने उस स्वगद को कुतू ल-
भरी आूँखों से दे खा। छत में पंखा था, रं गीन बल्ब थे, दीवारों पर तस्वीरें थीं। दे र
तक उन चीज़ों को टकटकी लगाये दे खता र ा।
' ाूँ- ाूँ, बड़ी समझदार औरत मालूम ोती थी। मुझसे ख़ूब बातें करती र ी। तो
गोबर को भेज दे , अपनी माूँ को बुला लाये।'
'क्यों?'
प ले हदन तो दाने छोटे थे और अलग-अलग थे। जान पड़ता था, छोटी माता ैं।
दस
ू रे हदन जैसे णखल उठे और अंगरू के दाने के बराबर ो गये और किर कई-
कई दाने समलकर बड़े-बड़े आूँवले जैसे ो गये। मंगल जलन और खुजली और
पीड़ा से बेचैन ोकर करुण स्वर में करा ता और दीन, अस ाय नेत्रों से मालती
की ओर दे खता। उसका करा ना भी प्रौढ़ों का-सा था, और दृश्ष्ट में भी प्रौढ़ता
थी, जैसे व एकाएक जवान ो गया ो। इस असह्य वेदना ने मानो उसके
अबोि सशशुपन को समटा डाला ो। उसकी सशशु-बवु ि मानो सज्ञान ोकर समझ
र ी थी कक मालती ी के जतन से व अच्छा ो सकता ै । मालती ज्यों ी
ककसी काम से चली जाती, व रोने लगता। मालती के आते ी चुप ो जाता।
रात को उसकी बेचैनी बढ़ जाती और मालती को प्रायः सारी रात बैठना पड़
जाता; मगर व न कभी झूँझ
ु लाती, न धचढ़ती। ाूँ, झु नया पर उसे कभी-कभी
अवकय क्रोि आता, क्योंकक व अज्ञान के कारण जो न करना चाह ए, व कर
बैठती। गोबर और झु नया दोनों की आस्था झाड़-िूूँक में अधिक थी; य ाूँ उसको
कोई अवसर न समलता। उस पर झु नया दो बच्चे की माूँ ोकर बच्चे का पालन
करना न जानती थी, मंगल हदक करता, तो उसे डाूँटती-कोसती। ज़रा-सा भी
अवकाश पाती, तो ज़मीन पर सो जाती और सबेरे से प ले न उठती; और गोबर
तो उस कमरे में आते जैसे डरता था। मालती व ाूँ बैठी ै , कैसे जाय? झु नया से
बच्चे का ाल- वाल पूछ लेता और खाकर पड़ र ता। उस चोट के बाद व पूरा
स्वस्थ न ो पाया था। थोड़ा-सा काम करके भी थक जाता था। उन हदनों जब
झु नया घास बेचती थी और व आराम से पड़ा र ता था, व कुछ रा ो गया
था; मगर इिर कई म ीने बोझ ढोने और चन
ू े-गारे का काम करने से उसकी
दशा धगर गयी थी। उस पर य ाूँ काम ब ु त था। सारे बाग़ को पानी नकालकर
सींचना, क्याररयों को गोड़ना, घास छीलना, गायों को चारा-पानी दे ना और द ु ना।
और जो मासलक इतना दयालु ो, उसके काम में कान-चोरी कैसे करे ? य
ए सान उससे एक क्षण भी आराम से न बैठने दे ता, और जब मे ता ख़ुद खुरपी
लेकर घंटों बाग़ में काम करते तो व कैसे आराम करता ? व ख़द
ु सख
ू ता था;
पर बाग़ रा ो र ा था।
'मेरी मूँछ
ू ें मझ
ु े प्राणों से वप्रय ैं।'
और उसी प्रेमोंमाद में उन् ोंने पुकारा -- मालती, ज़रा द्वार खोल दो।
मे ता ने पछ
ू ा -- क्या झु नया न ीं उठी? य तो ब ु त रो र ा ै।
मालती ने बच्चे को उनकी गोद में दे हदया। उनकी गोद में जाते ी व एकदम
चुप ो गया। बालकों में जो एक अंतज्ञादन ोता ै , उसने उसे बता हदया, अब रोने
में तुम् ारा कोई फ़ायदा न ीं। य नया आदमी स्त्री न ीं, पुरुष ै और पुरुष
ग़स्
ु सेवर ोता ै और नदद यी भी ोता ै और चारपाई पर लेटाकर, या बा र
अूँिेरे में सल
ु ाकर दरू चला जा सकता ै और ककसी को पास आने भी न दे गा।
'तुमसे।
'क्या मझ
ु े कुछ याचना करने की अनम
ु त न दोगी?'
मालती ने आद्रद ोकर क ा -- तुम जानते ो, तुमसे ज़्यादा नकट संसार में मेरा
कोई दस
ू रा न ीं ै । मैंने ब ु त हदन ु ए, अपने को तुम् ारे चरणों पर समवपदत कर
हदया। तुम मेरे पथ-प्रदशदक ो, मेरे दे वता ो, मेरे गुरु ो। तम्
ु ें मुझसे कुछ
याचना करने की ज़रूरत न ीं, मझ
ु े केवल संकेत कर दे ने की ज़रूरत ै । जब
मुझे तुम् ारे दशदन न ु ए थे और मैंने तुम् ें प चाना न था, भोग और आत्म-सेवा
ी मेरे जीवन का इष्ट था। तुमने आकर उसे प्रेरणा दी, श्स्थरता दी। मैं तुम् ारे
ए सान कभी न ीं भूल सकती। मैंने नदी की तटवाली तुम् ारी बातें गाूँठ बाूँि
लीं। दःु ख य ी ु आ कक तुमने भी मुझे व ी समझा जो कोई दस ू रा पुरुष
समझता, श्जसकी मझ ु े तम
ु से आशा न थी। उसका दा यत्व मेरे ऊपर ै , य मैं
जानती ू ूँ ; लेककन तुम् ारा अमूल्य प्रेम पाकर भी मैं व ी बनी र ू ूँगी, ऐसा
समझकर तुमने मेरे साथ अन्याय ककया। मैं इस समय ककतने गवद का अनुभव
कर र ी ू ूँ य तुम न ीं समझ सकते। तुम् ारा प्रेम और ववकवास पाकर अब मेरे
सलए कुछ भी शेष न ीं र गया ै । य वरदान मेरे जीवन को साथदक कर दे ने
के सलए काफ़ी ै। य मेरी पण
ू ताद ै।
य क ते-क ते मालती के मन में ऐसा अनरु ाग उठा कक मे ता के सीने से
सलपट जाए। भीतर की भावनाएूँ बा र आकर मानो सत्य ो गयी थीं। उसका
रोम-रोम पुलककत ो उठा। श्जस आनंद को उसने दल
ु भ
द समझ रखा था, व
इतना सुलभ इतना समीप ै ! और हृदय का व आह्लाद मुख पर आकर उसे
ऐसी शोभा दे ने लगा कक मे ता को उसमें दे वत्व की आभा हदखी। य नारी ै;
या मंगल की, पववत्रता की और त्याग की प्र तमा!
उसी वक़्त झु नया जागकर उठ बैठी और मे ता अपने कमरे में चले गये और
किर दो सप्ता तक मालती से कुछ बातचीत करने का अवसर उन् ें न समला।
मालती कभी उनसे एकांत में न समलती। मालती के व शब्द उनके हृदय में
गूँज
ू ते र ते। उनमें ककतनी सांत्वना थी, ककतनी ववनय थी, ककतना नशा था!
दो सप्ता में मंगल अच्छा ो गया। ाूँ, मूँु पर चेचक के दाग़ न भर सके।
एक हदन मे ता के ससर में ज़ोर का ददद ो र ा था। व आूँखें बंद ककये चारपाई
पर पड़े तड़प र े थे कक मालती ने आकर उनके ससर पर ाथ रखकर पूछा --
कब से य ददद ो र ा ै?
मे ता को ऐसा जान पड़ा, उन कोमल ाथों ने जैसे सारा ददद खींच सलया। उठकर
बैठ गये और बोले -- ददद तो दोप र से ी ो र ा था और ऐसा ससर-ददद मुझे
आज तक न ीं ु आ था, मगर तम् ु ारे ाथ रखते ी ससर ऐसा ल्का ो गया ै
मानो ददद था ी न ीं। तुम् ारे ाथों में य ससवि ै ।
'तम
ु एक समनट बैठोगी न ीं?'
'तब तमु ने मझ
ु े ख़ब
ू समझा। मैं और त्याग! मैं तम
ु से सच क ती ू ूँ , सेवा या
त्याग का भाव कभी मेरे मन में न ीं आया। जो कुछ करती ू ूँ , प्रत्यक्ष या
अप्रत्यक्ष स्वाथद के सलए करती
ू ूँ। मैं गाती इससलए न ीं कक त्याग करती ू ूँ , या
अपने गीतों से दख
ु ी आत्माओं को सांत्वना दे ती ू ूँ ; बश्ल्क केवल इससलए कक
उससे मेरा मन प्रसन्न ोता ै । इसी तर
दवा-दारू भी ग़रीबों को दे दे ती ू ूँ;
केवल अपने मन को प्रसन्न करने के सलए। शायद मन का अ ं कार इसमें सख ु
मानता ै । तुम मुझे ख़्वा मख़्वा दे वी बनाये डालते ो। अब तो इतनी कसर
र गयी ै कक िूप-दीप लेकर मेरी पूजा करो।'
मे ता ने कातर स्वर में क ा -- व
तो मैं बरसों से कर र ा ू ूँ, मालती, और उस
वक़्त तक करता जाऊूँगा जब तक वरदान न समलेगा।
और दोनों एकांत ोकर प्रगाढ़ आसलंगन में बूँि गये। दोनों की आूँखों से आूँसुओं
की िारा ब र ी थी।
***
34
चटपट क ता -- लामू।
'तम्
ु ारे बाप का क्या नाम ै ?'
'मातादीन।'
'और तम्
ु ारी माूँ का?'
' छसलया।'
न जाने ककसने दातादीन से उसका य नाता बता हदया था। रामू और रूपा में
ख़ूब पटती थी। व रूपा का णखलौना था। उसे उबटन मलती, काजल लगाती
न लाती, बाल सूँवारती, अपने ाथों कौर-कौर बनाकर णखलाती, और कभी-कभी
उसे गोद में सलये रात को सो जाती। ि नया डाूँटती , तू सब कुछ छुआछूत ककये
दे ती ै ; मगर व ककसी की न सुनती। चीथड़े की गुडड़या ने उसे माता बनना
ससखाया था। व मात-ृ भावना का जीता-जागता बालक पाकर अब गुडड़यों से
संतुष्ट न ो सकती थी।
उसी के घर के वपछवाड़े ज ाूँ ककसी ज़माने में उसकी बरदौर थी , ोरी के खूँड र
में सससलया अपना एक िूस का झोपड़ा डालकर र ने लगी थी। ोरी के घर में
उम्र तो न ीं कट सकती थी। मातादीन को कई सौ रुपए ख़चद करने के बाद अंत
में काशी के पंडडतों ने किर से ब्राह्मण बना हदया। उस हदन बड़ा भारी वन
ु आ, ब ु त-से ब्राह्मणों ने भोजन ककया और ब ु त से मंत्र और कलोक पढ़े गये।
मातादीन को शुि गोबर और गोमूत्र खाना-पीना पड़ा। गोबर से उसका मन पववत्र
ो गया। मूत्र से उसकी आत्मा में अशुधचता के कीटाणु मर गये। लेककन एक
तर से इस प्रायश्कचत ने उसे सचमुच पववत्र कर हदया। वन के प्रचंड अश्ग्न-
कंु ड में उसकी मानवता नखर गयी और वन की ज्वाला के प्रकाश से उसने
िमद-स्तंभों को अच्छी तर परख सलया।
उस हदन से उसे िमद के नाम से धचढ़ ो गयी। उसने जनेऊ उतार िेंका और
परु ोह ती को गंगा में डुबा हदया। अब व पक्का खे त र था। उसने य भी दे खा
कक यद्यवप ववद्वानों ने उसका ब्राह्मणत्व स्वीकार कर सलया ; लेककन जनता अब
भी उसके ाथ का पानी न ीं पीती, उससे मु ू तद पूछती ै , साइत और लग्न का
ववचार करवाती ै , उसे पवद के हदन दान भी दे दे ती ै , पर उससे अपने बरतन
न ीं छुलाती। श्जस हदन सससलया के बालक का जन्म ु आ उसने दन ू ी मात्रा में
भंग पी, और गवद से जैसे उसकी छाती तन गयी, और उूँ गसलयाूँ बार-बार मूँछ
ू ों पर
पड़ने लगीं। बच्चा कैसा ोगा? उसी के जैसा? कैसे दे खे? उसका मन मसोसकर र
गया।
रूवपया बोली -- दे खा क्यों न ीं। लाल-लाल ै ख़ूब मोटा, बड़ी-बड़ी आूँखें ैं , ससर
में झबराले बाल ैं, टुकुर-टुकुर ताकता ै।
मातादीन के हृदय में जैसे व बालक आ बैठा था, और ाथ-पाूँव िेंक र ा था।
उसकी आूँखों में नशा-सा छा गया। उसने उस ककशोरी रूपा को गोद में उठा
सलया, किर कंिे पर बबठा सलया, किर उतारकर उसके कपोलों को चूम सलया।
रूपा बाल सूँभालती ु ई ढीठ ोकर बोली -- चलो, मैं तुमको दरू से हदखा दूँ ।ू
ओसारे में ी तो ै । सससलया ब न न जाने क्यों रदम रोती र ती ै ।
मातादीन ने मूँु िेर सलया। उसकी आूँखें सजल ो आयी थीं, और ओठ काूँप र े
थे। उस रात को जब सारा गाूँव सो गया और पेड़ अंिकार में डूब गये, तो व
सससलया के द्वार पर आया और संपूणद प्राणों से बालक का रोना सुना, श्जसमें
सारी द ु नया का संगीत, आनंद और मािुयद भरा ु आ था। सससलया बच्चे को ोरी
के घर में खटोले पर सल ु ाकर मजरू ी करने चली जाती। मातादीन ककसी-न-ककसी
ब ाने से ोरी के घर आता और कनणखयों से बच्चे को दे खकर अपना कलेजा
और आूँखें और प्राण शीतल करता।
ि नया मुस्करा कर क ती -- लजाते क्यों ो, गोद में ले लो, प्यार करो, कैसा
काठ का कलेजा ै तम्
ु ारा। बबलकुल तम
ु को पड़ा ै।
एक हदन ख़ूब ओले धगरे । सससलया घास लेकर बाज़ार गयी ु ई थी। रूपा अपने
खेल में मग्न थी। रामू अब बैठने लगा था। कुछ-कुछ बकवाूँ चलने भी लगा था।
उसने जो आूँगन में बबनौले बबछे दे खे, तो समझा, बतासे िैले
ु ए ैं। कई उठाकर
खाये और आूँगन में ख़ूब खेला। रात को उसे ज्वर आ गया। दस ू रे हदन
नमो नया ो गया। तीसरे हदन संध्या समय सससलया की गोद में ी बालक के
प्राण नकल गये।
लेककन बालक मरकर भी सससलया के जीवन का केंद्र बना र ा। उसकी छाती में
दि
ू का उबाल-सा आता और आूँचल भींग जाता। उसी क्षण आूँखों से आूँसू भी
नकल पड़ते। प ले सब कामों से छुट्टी पाकर रात को जब व रामू को ह ये से
लगाकर स्तन उसके मूँु में दे दे ती तो मानो उसके प्राणों में बालक की स्िू तद
भर जाती। तब व प्यारे -प्यारे गीत गाती, मीठे -मीठे स्वप्न दे खती और नये -नये
संसार रचती, श्जसका राजा रामू ोता। अब सब कामों से छुट्टी पाकर व अपनी
सूनी झोंपड़ी में रोती थी और उसके प्राण तड़पते थे, उड़ जाने के सलए, उस लोक
में ज ाूँ उसका लाल इस समय भी खेल र ा ोगा। सारा गाूँव उसके दःु ख में
शरीक था। रामू ककतना चोंचाल था, जो कोई बल
ु ाता, उसी की गोद में चला
जाता। मरकर और प ु ूँच से बा र ोकर व और भी वप्रय ो गया था, उसकी
छाया उससे क ीं सुंदर, क ीं चोंचाल, क ीं लुभावनी थी।
मातादीन उस हदन खल
ु पड़ा। परदा ोता ै वा के सलए। आूँिी में परदे उठाके
रख हदये जाते ैं कक आूँिी के साथ उड़ न जायूँ। उसने शव को दोनों थेसलयों
पर उठा सलया और अकेला नदी के ककनारे तक ले गया, जो एक मील का पाट
छोड़कर पतली-सी िार में समा गयी थी। आठ हदन तक उसके ाथ सीिे न ो
सके। उस हदन व ज़रा भी न ीं लजाया, ज़रा भी न ीं णझझका। और ककसी ने
कुछ क ा भी न ीं; बश्ल्क सभी ने उसके सा स और दृढ़ता की तारीफ़ की।
ोरी ने क ा -- य ी मरद का िरम ै । श्जसकी बाूँ पकड़ी, उसे क्या छोड़ना!
एक म ीना बीत गया। सससलया किर मजूरी करने लगी थी। संध्या ो गयी थी।
पूणमादसी का चाूँद वव ूँसता-सा नकल आया था। सससलया ने कटे ु ए खेत में से
धगरे ु ए जौ के बाल चन
ु कर टोकरी में रख सलये थे और घर जाना चा ती थी
कक चाूँद पर नगा पड़ गयी और ददद -भरी स्मृ तयों का मानो स्रोत खुल गया।
अंचल दि
ू से भींग गया और मुख आूँसुओं से। उसने ससर लटका सलया और
जैसे रुदन का आनंद लेने गयी। स सा ककसी की आ ट पाकर व चौंक पड़ी।
य क ते-क ते व ख़द
ु रो पड़ा। सससलया के कंठे में आये ु ए भत्सदना के शब्द
वपघल गये।
मातादीन कातर ोकर बोला -- इिर से जा र ा था। तुझे बैठा दे खा, चला आया।
'सच?'
'सच!'
'सच?'
'सच!'
' ाूँ एक ी हदन; मगर दे खने रोज़ आता था। उसे खटोले पर खेलते दे खता था
और हदल थामकर चला जाता था।'
'तम्
ु ीं को पड़ा था।'
'मुझे तो पछतावा ोता ै कक ना क़ उस हदन उसे गोद में सलया। य मेरे पापों
का दं ड ै ।'
सससलया ने क ा -- मैं तो अब ि नया काकी के बरौठे में सोती ू ूँ। अपने घर में
अच्छा न ीं लगता।
'सच?'
'सच?'
दोनों और आगे बढ़े । मातादीन आगे था। सससलया पीछे । ोरी का घर आ गया।
मातादीन उसके वपछवाड़े जाकर सससलया की झोपड़ी के द्वार पर खड़ा ो गया
और बोला -- य ी मारा घर ै।
सससलया की आूँखें चमकने लगीं। बोली -- मंहदर ै तो एक लोटा पानी उूँ ड़ेलकर
चले जाओगे।
'झूठ क ते ो।'
'सच?'
सससलया ने उसकी पीठ पर ाथ रखकर पूछा -- तुम् ें कभी मेरी याद आती थी?
'कभी न ीं।'
'जो भले आदमी ैं, व क ें गे य ी इसका िरम था। जो बुरे ैं उनकी मैं परवा
न ीं करता।'
***
35
ोरी की दशा हदन-हदन धगरती ी जा र ी थी। जीवन के संघषद में उसे सदै व ार
ु ई; पर उसने कभी ह म्मत न ीं ारी। प्रत्येक ार जैसे उसे भाग्य से लड़ने की
शश्क्त दे दे ती थी; मगर अब व उस अं तम दशा को प ु ूँच गया था, जब उसमें
आत्म-ववकवास भी न र ा था। अगर व अपने िमद पर अटल र सकता , तो भी
कुछ आूँसू पुछते; मगर व बात न थी। उसने नीयत भी बबगाड़ी, अिमद भी
कमाया, कोई ऐसी बुराई न थी, श्जसमें व पड़ा न ो; पर जीवन की कोई
असभलाषा न पूरी ु ई, और भले हदन मग
ृ तष्ृ णा की भाूँ त दरू ी ोते चले गये ,
य ाूँ तक कक अब उसे िोखा भी न र गया था, झठ ू ी आशा की ररयाली और
चमक भी अब नज़र न आती थी। ारे
ु ए म ीप की भाूँ त उसने अपने को इन
तीन बीघे के कक़ले में बंद कर सलया था और उसे प्राणों की तर बचा र ा था।
फ़ाके स े , बदनाम ु आ, मज़ूरी की; पर कक़ले को ाथ से न जाने हदया; मगर अब
व कक़ला भी ाथ से नकला जाता था। तीन साल से लगान बाक़ी पड़ा ु आ था
और अब पश्डडत नोखेराम ने उस पर बेदख़ली का दावा कर हदया था। क ीं से
रुपए समलने की आशा न थी। ज़मीन उसके ाथ से नकल जायगी और उसके
जीवन के बाक़ी हदन मजूरी करने में कटें गे। भगवान ण की इच्छा! राय सा ब को
क्या दोष दे ? असासमयों ो से उनका भी गुज़र ै । इसी गाूँव पर आिे से ज़्यादा
घरों पर बेदख़ली आ र ी ै ; आवे। औरों की जो दशा ोगी, व ी उसकी भी ोगा।
भाग्य में सख
ु बदा ोता, तो लड़का यों ाथ से नकल जाता ? साूँझ ो गयी थी।
इन हदनों नोखेराम से मेरी बोल-चाल बंद ै । कुछ पता न ीं। सुना, तारीख़ को
पंद्र हदन और र गये ैं।
ोरी ने उनके सलए खाट डालकर क ा -- व मासलक ैं, जो चा ें करें ; मेरे पास
रुपए ोते, तो य दद
ु द शा क्यों ोती। खाया न ीं, उड़ाया न ीं; लेककन उपज ी न
ो और जो ो भी, व कौडड़यों के मोल बबके, तो ककसान क्या करे ?
'एक उपाय ै जो तम
ु करो।'
ोरी को जैसे अभय-दान समल गया। इनके पाूँव पड़कर बोला -- बड़ा िरम ोगा
म ाराज, तुम् ारे ससवा मेरा कौन ै । मैं तो नरास ो गया था।
' नरास ोने की कोई बात न ीं। बस, इतना ी समझ लो कक सुख में आदमी का
िरम कुछ और ोता ै , दख
ु में कुछ और। सुख में आदमी दान दे ता ै , मगर
दःु ख में भीख तक माूँगता ै । उस समय आदमी का य ी िरम ो जाता ै।
सरीर अच्छा र ता ै तो म बबना असनान-पज
ू ा ककये मूँु में पानी भी न ीं
डालते; लेककन बीमार ो जाते ैं , तो बबना न ाये-िोये, कपड़े प ने, खाट पर बैठे
पथ्य लेते ैं। उस समय का य ी िरम ै । य ाूँ ममें -तुममें ककतना भेद ै;
लेककन जगन्नाथपुरी में कोई भेद न ीं र ता। ऊूँचे-नीचे सभी एक पंगत में
बैठकर खाते ैं। आपत्काल में श्रीरामचंद्र ने सेवरी के जूठे िल खाये थे, बासल को
छपकर वि ककया था। जब संकट में बड़े-बड़ों की मयाददा टूट जाती ै , तो
मारी-तम्
ु ारी कौन बात ै ? रामसेवक म तो को तो जानते ो न?'
'मेरा जजमान ै । बड़ा अच्छा ज़माना ै उसका। खेती अलग, लेन-दे न अलग।
ऐसे रोब-दाब का आदमी ी न ीं दे खा। कई म ीने ु ए उसकी औरत मर गयी
ै । संतान कोई न ीं। अगर रुवपया का ब्या उससे करना चा ो , तो मैं उसे राज़ी
कर लूँ ।ू मेरी बात व कभी न टालेगा। लड़की सयानी ो गयी ै और ज़माना
बरु ा ै । क ीं कोई बात ो जाय, तो मूँु में कासलख लग जाय। य बड़ा अच्छा
औसर ै । लड़की का ब्या भी ो जायगा , और तुम् ारे खेत भी बच जायूँगे। सारे
ख़रच-वरच से बचे जाते ो।'
रामसेवक ोरी से दो ी चार साल छोटा था। ऐसे आदमी से रूपा के ब्या करने
का प्रस्ताव ी अपमानजनक था। क ाूँ िूल-सी रूपा और क ाूँ व बूढ़ा ठूूँठ।
जीवन में ोरी ने बड़ी-बड़ी चोट स ी थी, मगर य चोट सबसे ग री थी। आज
उसके ऐसे हदन आ गये ैं कक उससे लड़की बेचने की बात क ी जाती ै और
उसमें इनकार करने का सा स न ीं ै । ग्ला न से उसका ससर झुक गया।
'तम
ु राज़ी ो कक न ीं।'
दातादीन चले गये। ोरी की ओर से उन् ें कोई अंदेशा न था। अंदेशा था ि नया
की ओर से। उसकी नाक बड़ी लम्बी ै । चा े समट जाय , मरजाद न छोड़ेगी।
मगर ोरी ाूँ कर ले तो व रो-िोकर मान ी जायगी। खेतों के नकलने में भी
तो मरजाद बबगड़ती ै।
'ककससे?'
'मैंने उन् ें कब दे खा, ाूँ नाम ब ु त हदन से सुनती ू ूँ। व तो बूढ़ा ोगा।'
लेककन ोरी इस प्रकन पर श्जतना ी ववचार करता, उतना ी उसका दरु ाग्र कम
ोता जाता था। कुल-मयादाद की लाज उसे कुछ कम न थी; लेककन श्जसे असाध्य
रोग ने ग्रस सलया ो, व खाद्य-अखाद्य की परवा कब करता ै ? दातादीन के
सामने ोरी ने कुछ ऐसा व प्रकट ककया था, श्जसे स्वीकृ त न ीं क ा जा सकता,
मगर भीतर से व वपघल गया था। उम्र की ऐसी कोई बात न ीं। मरना-जीना
तक़दीर के ाथ ै । बूढ़े बैठे र ते ैं, जवान चले जाते ैं। रूपा को सुख सलखा ै,
तो व ाूँ भी सुख उठायेगी; दख
ु सलखा ै , तो क ीं भी सुख न ीं पा सकती और
लड़की बेचने की तो कोई बात ी न ीं। ोरी उससे जो कुछ लेगा, उिार लेगा
और ाथ में रुपए आते ी चुका दे गा। इसमें शमद या अपमान की कोई बात ी
न ीं ै । बेशक, उसमें समाई ोती, तो व रूपा का ब्या ककसी जवान लड़के से
और अच्छे कुल में करता, द े ज भी दे ता, बरात के णखलाने-वपलाने में भी ख़ूब
हदल खोलकर ख़चद करता; मगर जब ईकवर ने उसे इस लायक़ न ीं बनाया , तो
कुश-कन्या के ससवा और व कर क्या सकता ै ? लोग ूँसेंगे; लेककन जो लोग
ख़ाली ूँसते ैं, और कोई मदद न ीं करते, उनकी ूँसी की व क्यों परवा करे ।
मश्ु ककल य ी ै कक ि नया न राज़ी ोगी। गिी तो ै ी। व ी परु ानी लाज ढोये
जायेगी। य कुल-प्र तष्ठा के पालने का समय न ीं, अपनी जान बचाने का
अवसर ै । ऐसी ी बड़ी लाजवाली ै , तो लाये, पाूँच सौ नकाले। क ाूँ िरे ैं ? दो
हदन गुज़र गये और इस मामले पर उन लोगों में कोई बातचीत न ु ई। ाूँ, दोनों
सांके तक भाषा में बातें करते थे।
' ाूँ, मैं क ता जो ू ूँ। भगवान ण आदमी को श्जस दशा में डाल दें , उसमें सख
ु ी र ना
तपस्या न ीं, तो और क्या ै ?'
दस
ू रे हदन ि नया ने वैवाह क आनंद का दस
ू रा प लू सोच नकाला। घर में जब
तक सास-ससरु , दे वरा नयाूँ-जेठा नयाूँ न ों, तो ससरु ाल का सख
ु ी क्या? कुछ
हदन तो लड़की ब ु ररया बनने का सुख पाये।
ि नया तनक उठी -- तुम् ारी बातें भी नराली ोती ैं। अकेली ब ू घर में कैसे
र े गी, न कोई आगे न कोई पीछे ।
ोरी बोला -- तू तो इस घर में आयी तो एक न ीं, दो-दो दे वर थे, सास थी, ससुर
था। तूने कौन-सा सुख उठा सलया, बता।
किर भी बात य ीं तक र गयी; मगर ि नया का पल्ला लका ोता जाता था।
चौथे हदन रामसेवक म तो ख़ुद आ प ु ूँच।े कलाूँ-रास घोड़े पर सवार, साथ एक
नाई और एक णख़दमतगार, जैसे कोई बड़ा ज़मींदार ो। उम्र चालीस से ऊपर थी ,
बाल णखचड़ी ो गये थे; पर चे रे पर तेज था, दे
गठी ु ई। ोरी उनके सामने
बबलकुल बढ़
ू ा लगता था। ककसी मक़
ु दमे की पैरवी करने जा र े थे। य ाूँ ज़रा
दोप री काट लेना चा ते ैं। िूप ककतनी तेज़ ै , और ककतने ज़ोरों की लू चल
र ी ै!
ोरी स ु आइन की दकू ान से गे ू ूँ का आटा और घी लाया। पूररयाूँ बनीं।
तीनों मे मानों ने खाया। दातादीन भी आशीवादद दे ने आ प ु ूँच।े बातें ोने लगीं।
गोबर आद्रद कंठ से बोला -- माूँ बाप से णखंचे र ना कोई अच्छी बात न ीं ै।
अब मारे ाथ-पाूँव ैं, उनसे णखंच लें , चा े लड़ लें ; लेककन जन्म तो उन् ीं ने
हदया, पाल-पोसकर जवान तो उन् ीं ने ककया, अब व में चार बात भी क ें , तो
में ग़म खाना चाह ए। इिर मझ
ु े बार-बार अम्माूँ-दादा की याद आया करती ै।
उस बखत मुझे न जाने क्यों उन पर ग़स्
ु सा आ गया। तेरे कारन माूँ-बाप को भी
छोड़ना पड़ा।
'अच्छा मेरे ी कारन स ी। मैंने भी तो तुम् ारे सलए अपना घर-बार छोड़
हदया।'
उसी वक़्त पंडडत दातादीन ने ोरी को इशारे से बुलाया और दरू ले जाकर कमर
से सौ-सौ रुपये के दो नोट नकालते ु ए बोले -- तुमने मेरी सला मान ली, बड़ा
अच्छा ककया। दोनों काम बन गये। कन्या से भी उररन ो गये और बाप-दादों
की नशानी भी बच गयी। मझ
ु से जो कुछ ो सका, मैंने तुम् ारे सलए कर हदया,
अब तुम जानो, तुम् ारा काम जाने।
ोरी ने रुपए सलए तो उसका ाथ काूँप र ा था, उसका ससर ऊपर न उठ सका,
मूँु से एक शब्द न नकला, जैसे अपमान के अथा गढ़े में धगर पड़ा ै और
धगरता चला जाता ै । आज तीस साल तक जीवन से लड़ते र ने के बाद व
परास्त ु आ ै और ऐसा परास्त ु आ ै कक मानो उसको नगर के द्वार पर
खड़ा कर हदया गया ै और जो आता ै , उसके मूँु पर थक
ू दे ता ै । व
धचल्ला-धचल्ला कर क र ा ै , भाइयो मैं दया का पात्र ू ूँ मैंने न ीं जाना जेठ
की लू कैसी ोती ै और माघ की वषाद कैसी ोती ै ? इस दे को चीरकर दे खो,
इसमें ककतना प्राण र गया ै , ककतना ज़ख़्मों से चूर, ककतना ठोकरों से कुचला
ु आ! उससे पछ
ू ो, कभी तन
ू े ववश्राम के दशदन ककये, कभी तू छाूँ में बैठा। उस
पर य अपमान! और व अब भी जीता ै , कायर, लोभी, अिम। उसका सारा
ववकवास जो अगाि ोकर स्थूल और अंिा ो गया था, मानो टूक-टूक उड़ गया
ै।
ोरी दीनता से बोला -- चला जाऊूँगा म ाराज! मगर मेरी इज़्ज़त तम्
ु ारे ाथ
ै।
***
36
तीसरे हदन जब गोबर चलने लगा, तो ोरी ने ि नया के सामने आूँखों में आूँसू
भरकर व अपराि स्वीकार ककया, जो कई हदन से उसकी आत्मा को मथ र ा
था, और रोकर बोला -- बेटा, मैंने इस ज़मीन के मो से पाप की गठरी ससर
लादी। न जाने भगवान ण मुझे इसका क्या दं ड दें गे!
गोबर ज़रा भी गमद न ु आ, ककसी प्रकार का रोष उसके मूँु पर न था। श्रिाभाव
से बोला -- इसमें अपराि की तो कोई बात न ीं ै दादा, ाूँ रामसेवक के रुपए
अदा कर दे ना चाह ए। आणख़र तुम क्या करते ो? मैं ककसी लायक़ न ीं, तुम् ारी
खेती में उपज न ीं, करज़ क ीं समल न ीं सकता, एक म ीने के सलए भी घर में
भोजन न ीं। ऐसी दशा में तुम और कर ी क्या सकते थे? जैजात न बचाते तो
र ते क ाूँ? जब आदमी का कोई बस न ीं चलता, तो अपने को तक़दीर पर ी
छोड़ दे ता ै । न जाने य िाूँिली कब तक चलती र े गी। श्जसे पेट की रोटी
मयस्सर न ीं, उसके सलए मरजाद और इज़्ज़त सब ढोंग ै । औरों की तर तुमने
भी दस
ू रों का गला दबाया ोता, उनकी जमा मारी ोती, तो तुम भी भले आदमी
ोते। तुमने कभी नी त को न ीं छोड़ा, य उसी का दं ड ै । तुम् ारी जग मैं
ोता तो या तो जेल में ोता या िाूँसी पर गया ोता। मझ
ु से य कभी बरदाकत
न ोता कक मैं कमा-कमाकर सबका घर भरूूँ और आप अपने बाल-बच्चों के
साथ मूँु में जाली लगाये बैठा र ू ूँ।
ि नया ब ू को उसके साथ भेजने पर राज़ी न ु ई। झु नया का मन भी अभी
कुछ हदन य ाूँ र ने का था। तय ु आ कक गोबर अकेला ी जाय।
दस
ू रे हदन प्रातःकाल गोबर सबसे बबदा ोकर लखनऊ चला। ोरी उसे गाूँव के
बा र तक प ु ूँ चाने आया। गोबर के प्र त इतना प्रेम उसे कभी न ु आ था। जब
गोबर उसके चरणों पर झुका, तो ोरी रो पड़ा, मानो किर उसे पुत्र के दशदन न
ोंगे। उसकी आत्मा में उल्लास था, गवद था, संकल्प था। पुन्न से य श्रिा और
स्ने पाकर व तेजवान ो गया ै , ववशाल ो गया ै । कई हदन प ले उस पर
जो अवसाद-सा छा गया था, एक अंिकार-सा, ज ाूँ व अपना मागद भूल जाता
था, व ाूँ अब उत्सा ै और प्रकाश ै।
रूपा अपनी ससूराल में ख़ुश थी। श्जस दशा में उसका बालपन बीता था, उसमें
पैसा सबसे क़ीमती चीज़ थी। मन में ककतनी सािें थीं, जो मन में ी घुट-घुटकर
र गयी थीं। व अब उन् ें परू ा कर र ी थी और रामसेवक अिेड़ ोकर भी
जवान ो गया था। रूपा के सलए व प त था, उसके जवान, अिेड़ या बूढ़े ोने
से उसकी नारी-भावना में कोई अंतर न आ सकता था। उसकी य भावना प त
के रं ग-रूप या उम्र पर आधश्रत न थी, उसकी बु नयाद इससे ब ु त ग री थी, कवेत
परं पराओं की त में , जो केवल ककसी भूकंप से ी ह ल सकती थीं। उसका यौवन
अपने ी में मस्त था, व अपने ी सलए अपना बनाव-ससंगार करती थी और
आप ी ख़ुश ोती थी। रामसेवक के सलए उसका दस
ू रा रूप था। तब व गहृ णी
बन जाती थी, घर के कामकाज में लगी ु ई। अपनी जवानी हदखाकर उसे लज्जा
या धचंता में न डालना चा ती थी। ककसी तर की अपूणताद का भाव उसके मन
में न आता था। अनाज से भरे ु ए बखार और गाूँव से ससवान तक िैले ु ए
खेत और द्वार पर ढोरों की क़तारें और ककसी प्रकार की अपणू त
द ा को उसके
अंदर आने ी न दे ती थीं। और उसकी सबसे बड़ी असभलाषा थी अपने घरवालों
की ख़ुशी दे खना। उनकी ग़रीबी कैसे दरू कर दे ? उस गाय की याद अभी तक
उसके हदल में री थी, जो मे मान की तर आयी थी और सब को रोता छोड़कर
चली गयी थी। व स्मृ त इतने हदनों के बाद अब और भी मद
ृ ु ो गयी थी।
अभी उसका नजत्व इस नये घर में न जम पाया था। व ी परु ाना घर उसका
अपना घर था। व ीं के लोग अपने आत्मीय थे , उन् ीं का दःु ख उसका दःु ख और
उन् ीं का सुख उसका सुख था। इस द्वार पर ढोरों का एक रे वड़ दे खकर उसे व
षद न ो सकता था, जो अपने द्वार पर एक गाय दे खकर ोता। उस के दादा
की य लालसा कभी परू ी न ु ई। श्जस हदन व गाय आयी थी, उन् ें ककतना
उछा ु आ था, जैसे आकाश से कोई दे वी आ गयी ो। तब से किर उन् ें इतनी
समाई ी न ु ई कक कोई दस
ू री गाय लाते, पर व जानती थी, आज भी व
लालसा ोरी के मन में उतनी ी सजग ै । अबकी य जायगी , तो साथ व
िौरी गाय ज़रूर लेती जायगी। न ीं, अपने आदमी से क्यों न भेजवा दे ।
रामसेवक से पछ
ू ने की दे र थी। मंज़रू ी ो गयी, और दस
ू रे हदन एक अ ीर के
मारफ़त रूपा ने गाय भेज दी। अ ीर से क ा, दादा से क दे ना, मंगल के दि
ू
पीने के सलए भेजी ै। ोरी भी गाय लेने की कफ़क्र में था। यों अभी उसे गाय
की कोई जल्दी न थी; मगर मंगल य ीं ै और बबना दि
ू के कैसे र सकता ै!
रुपए समलते ी व सबसे प ले गाय लेगा। मंगल अब केवल उसका पोता न ीं
ै , केवल गोबर का बेटा न ीं ै , मालती दे वी का णखलौना भी ै । उसका लालन-
पालन उसी तर का ोना चाह ए। मगर रुपये क ाूँ से आयें।
संयोग से उसी हदन एक ठीकेदार ने सड़क के सलए गाूँव के ऊसर में कंकड़ की
खद
ु ाई शुरू की। ोरी ने सन
ु ा तो चट-पट व ाूँ जा प ु ूँचा, और आठ आने रोज़ पर
खुदाई करने लगा; अगर य काम दो म ीने भी हटक गया, तो गाय भर को रुपए
समल जायूँगे। हदन-भर लू और िूप में काम करने के बाद व घर आता, तो
बबलकुल मरा ु आ; पर अवसाद का नाम न ीं। उसी उत्सा से दस ू रे हदन काम
करने जाता। रात को भी खाना खा कर डडब्बी के सामने बैठ जाता, और सुतली
कातता। क ीं बार -एक बजे सोने जाता। ि नया भी पगला गयी थी, उसे इतनी
मे नत करने से रोकने के बदले ख़ुद उसके साथ बैठी-बैठी सुतली कातती। गाय
तो लेनी ी ै , रामसेवक के रुपए भी तो अदा करने ैं। गोबर क गया ै । उसे
बड़ी धचंता ै । रात के बार बज गये थे। दोनों बैठे सुतली कात र े थे।
'चल; बीमार व पड़ते ैं, श्जन् ें बीमार पड़ने की फ़ुरसत ोती ै । य ाूँ तो य
िुन ै कक अबकी गोबर आये, तो रामसेवक के आिे रुपए जमा र ें । कुछ व
भी लायेगा। बस इस साल इस ररन से गला छूट जाय, तो दस
ू री श्ज़ंदगी ो।'
'व ाूँ दि
ू , मक्खन, क्या न ीं पाता था? य ाूँ रोटी समल जाय व ी ब ु त ै ।
ठीकेदार से रुपए समले और गाय लाया।'
ीरा कातर स्वर में बोला -- क ाूँ बताऊूँ दादा! बस य ी समझ लो कक तम्
ु ारे
दशदन बदे थे, बच गया। त्या ससर पर सवार थी। ऐसा लगता था कक व गऊ
मेरे सामने खड़ी ै ; रदम, सोते-जागते, कभी आूँखों से ओझल न ोती। मैं पागल
ो गया और पाूँच साल पागल-खाने में र ा। आज व ाूँ से नकले छः म ीने
ु ए। माूँगता-खाता किरता र ा। य ाूँ आने की ह म्मत न पड़ती थी। संसार को
कौन मूँु हदखाऊूँगा। आणख़र जी न माना। कलेजा मज़बत ू करके चला आया।
तुमने बाल-बच्चों को..।
ोरी प्रसन्न था। जीवन के सारे संकट, सारी नराशाएूँ मानो उसके चरणों पर
लोट र ी थीं। कौन क ता ै जीवन संग्राम में व ारा ै। य उल्लास , य गवद,
य पल
ु क क्या ार के लक्षण ैं! इन् ीं ारों में उसकी ववजय ै । उसके टूटे -िूटे
अस्त्र उसकी ववजय-पताकाएूँ ैं। उसकी छाती िूल उठी ैं, मुख पर तेज आ गया
ै। ीरा की कृतज्ञता में उसके जीवन की सारी सिलता मू तदमान ो गयी ै।
उसके बखार में सौ-दो-सौ मन अनाज भरा ोता, उसकी ाूँड़ी में ज़ार-पाूँच सौ
गड़े ोते, पर उससे य स्वगद का सुख क्या समल सकता था?
'उससे तो रात को भेंट ो गयी थी। तुमने तो अपनों को भी पाला, जो तुमसे बैर
करते थे, उनको भी पाला और अपना मरजाद बनाये बैठे ो। उसने तो खेत-बारी
सब बेच-बाच डाली और अब भगवान ण ी जाने उसका नबा कैसे ोगा?'
आज ोरी खुदाई करने चला, तो दे भारी थी। रात की थकान दरू न ो पाई
थी; पर उसके क़दम तेज़ थे और चाल में नद्दवंद्वता की अकड़ थी। आज दस
बजे ी से लू चलने लगी और दोप र ोते- ोते तो आग बरस र ी थी। ोरी
कंकड़ के झौवे उठा-उठाकर खदान से सड़क पर लाता था और गाड़ी पर लादता
था।
ोरी के ससर में चक्कर आ र ा था। बोला -- कुछ न ीं, अच्छा ू ूँ।
उसी मज़दरू ने किर पुकारा -- दोप री ढल गयी ोरी, चलो झौवा उठाओ।
ोरी कुछ न बोला। उसके प्राण तो न जाने ककस-ककस लोक में उड़ र े थे।
उसकी दे जल र ी थी, ाथ-पाूँव ठं डे ो र े थे। लू लग गयी थी। उसके घर
आदमी दौड़ाया गया। एक घंटा में ि नया दौड़ी ु ई आ प ु ूँची। शोभा और ीरा
पीछे -पीछे खटोले की डोली बनाकर ला र े थे। ि नया ने ोरी की दे छुई, तो
उसका कलेजा सन से ो गया। मुख काूँ त ीन ो गया था।
ि नया ने मौत की सूरत दे खी थी। उसे प चानती थी। उसे दबे पाूँव आते भी
दे खा था, आूँिी की तर भी दे खा था। उसके सामने सास मरी , ससुर मरा, अपने
दो बालक मरे , गाूँव के पचासों आदमी मरे । प्राण में एक िक्का-सा लगा। व
आिार श्जस पर जीवन हटका ु आ था, जैसे णखसका जा र ा था, लेककन न ीं य
िैयद का समय ै , उसकी शंका नमल
ूद ै , लू लग गयी ै , उसी से अचेत ो गये
ैं।
और उसकी आूँखें किर बंद ो गयीं। उसी वक़्त ीरा और शोभा डोली लेकर
प ु ूँच गये। ोरी को उठाकर डोली में सलटाया और गाूँव की ओर चले। गाूँव में
य ख़बर वा की तर िैल गयी। सारा गाूँव जमा ो गया। ोरी खाट पर पड़ा
शायद सब कुछ दे खता था, सब कुछ समझता था; पर ज़बान बंद ो गयी थी।
ाूँ, उसकी आूँखों से ब ते ु ए आूँसू बतला र े थे कक मो का बंिन तोड़ना
ककतना कहठन ो र ा ै । जो कुछ अपने से न ीं बन पड़ा, उसी के दःु ख का
नाम तो मो ै । पाले
ु ए कतदव्य और नपटाये ु ए कामों का क्या मो ! मो
तो उन अनाथों को छोड़ जाने में ै , श्जनके साथ म अपना कतदव्य न नभा
सके; उन अिूरे मंसूबों में ै , श्जन् ें म न पूरा कर सके। मगर सब कुछ
समझकर भी ि नया आशा की समटती ु ई छाया को पकड़े ु ए थी। आूँखों से
आूँसू धगर र े थे, मगर यंत्र की भाूँ त दौड़-दौड़कर कभी आम भन
ू कर पना
बनाती, कभी ोरी की दे
में गे ू ूँ की भसू ी की मासलश करती। क्या करे , पैसे न ीं
ैं, न ीं ककसी को भेजकर डाक्टर बल ु ाती।
ीरा ने रोते ु ए क ा -- भाभी, हदल कड़ा करो, गो-दान करा दो, दादा चले।
ि नया ने उसकी ओर तरस्कार की आूँखों से दे खा। अब व हदल को और
ककतना कठोर करे ? अपने प त के प्र त उसका जो कमद ै , क्या व उसको बताना
पड़ेगा? जो जीवन का संगी था उसके नाम को रोना ी क्या उसका िमद ै ?
ि नया यंत्र की भाूँ त उठी, आज जो सुतली बेची थी उसके बीस आने पैसे लायी
और प त के ठं डे ाथ में रखकर सामने खड़े दातादीन से बोली -- म राज, घर में
न गाय ै , न ब छया, न पैसा। य ी पैसे ैं, य ी इनका गो-दान ै । और पछाड़
खाकर धगर पड़ी।
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