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महा कोरोना
पलायन महामारी से दुनिया भर में जिंदगियां और
अर्थव्यवस्था तबाह, देश में बदइंतजामी भारी
RNI NO. DELHIN/2009/26981 facebook.com/outlookhindi twitter.com/outlookhindi
अंदर
13
लॉकडाउन का दंश
22 डॉ. टी. जैकब जॉनः चाहिए नई सोच 29 कैसे संभले अर्थव्यवस्था
24 हिमांशु आर. शर्माः बंदी नाकाफी 32 पी. चिदंबरमः और कदम उठाने होंगे
कोविड-19 महामारी पर काबू पाने के कदमों
की बदइंतजामी से नया संकट 26 डॉ. नरेंद्र गुप्ताः अर्थव्यवस्था बचाएं 34 डॉ. नित्या घोटगेः पशुपालक बेसहारा
06 छत्तीसगढ़ः बस्तर फिर लहू-लुहान 11 जम्मू-कश्मीरः बंदी बेमोहलत 40 दिनेश द्विवेदीः सीएए गैर-संवैधानिक
07 मध्य प्रदेशः शिवराज कितने स्थायी 36 शाहीन बागः आंदोलन मुल्तवी, हौसला बरकरार 42 शाजहां मदम्पतः मुस्लिम सियासत कैसी हो
09 उत्तर प्रदेशः कांग्रेस में कैसे आए जान 38 उमेश उपाध्यायः गलत परंपरा
कवर फोटोः पीटीआइ
भारत और इंडिया
य ह मानवीय त्रासदी है, जो हमारे प्रशासकों ने देश के गरीब तबके पर थोप दी है। सरकार ने
कोरोनावायरस से फैलने वाली बीमारी कोविड-19 की रोकथाम के लिए देश भर में 24 मार्च की
आधी रात से 21 दिन का लॉकडाउन किया। उसके बाद जो तसवीर उभरी, उसकी शायद किसी ने
कल्पना न की होगी। ‘न्यू इंडिया’ की बुलदं होती तस्वीर को कमजोर ‘भारत’ की असलियत ने ढंक दिया।
इस फैसले से देश के करोड़ों लोगों को अचानक बेरोजगारी के संकट, रहने और भोजन की किल्लत और घर
से दरू किसी अनहोनी की आशंका ने घर वापसी के लिए मजबरू कर दिया। नोटबंदी के बाद फिर साबित हो
गया कि बिना किसी ठोस तैयारी के अचानक रात के आठ बजे केवल चार घंटे के नोटिस पर प्रधानमंत्री का
फैसला कई दरू गामी संकटों को जन्म दे सकता है। हालांकि सरकार ने अभी भी खुलकर स्वीकार नहीं किया
है कि नवंबर, 2016 का नोटबंदी का फैसला देश की अर्थव्यवस्था, छोटे कारोबारी, गरीब, मजदरू और कृषि
के लिए घातक साबित हुआ था, उसके बाद से घिसटती अर्थव्यवस्था के आंकड़े इसकी गवाही दे रहे हैं।
21 दिन का लॉकडाउन कहीं ज्यादा प्रतिकूल असर वाला साबित होगा क्योंकि जिस तरह दिल्ली,
हरवीर सिंह राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र और दूसरे महानगरों में गरीब, मजदूर और निम्न मध्य वर्ग के लोग बिना किसी
परिवहन साधन के अपने परिवारों को लेकर सड़कों पर निकल पड़े, उससे यह साबित होता है कि जीवन
की अनिश्चितता का भय उनके लिए महामारी के भय से भी भयानक है। असल में हमारे सत्ताधारी नेता और
प्रशासनिक मशीनरी लोगों की मनःस्थिति को नहीं समझ रही है। घर वापसी करने वाले लोग मेहनत-मजदूरी
कर अपने परिवार चलाते हैं। इनकी परवाह तो नहीं की गई लेकिन इसके विपरीत विदेश से लौटने वाले
रसूखदारों की तीमारदारी के लिए क्वारेंटाइन जैसी कई व्यवस्थाएं तत्परता से की गईं।
खैर, इतना बड़ा कदम उठाने के पहले व्यापक तैयारी और केंद्र तथा राज्य सरकारों के बीच बड़े
तालमेल के साथ वित्तीय संसाधनों की जरूरत थी, जिस पर काम नहीं किया गया। हमें यह नहीं भूलना
चाहिए कि विश्वव्यापी कोरोनावायरस महामारी के नतीजे देश के लिए घातक हो सकते हैं। क्योंकि हमारे
संसाधन सीमित हैं इसलिए बचाव ही उपाय है और लॉकडाउन जैसा कदम सोच-समझकर उठाया जाना
चाहिए था। हालांकि केरल और वहां की स्वास्थ्य मंत्री इसका अपवाद हैं। केंद्र ही नहीं, दिल्ली के मुख्यमंत्री
अरविंद केजरीवाल और बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने भी संवेदनशीलता का परिचय नहीं दिया।
हम भले ही पांच ट्रिलियन डॉलर की इकोनॉमी बनने का ढोल पीटते रहें, सच्चाई यह है कि हम स्वास्थ्य
संबंधी ढांचे में दुनिया में सौवें स्थान से भी नीचे हैं। 2016-17 के आर्थिक सर्वे में बाकायदा रेलवे के
आंकड़ों के आधार पर कहा गया था कि हर साल 90 लाख प्रवासी मजदूर काम के सिलसिले में देश के
एक हिस्से से दूसरे हिस्से में जाते हैं। तमाम रिपोर्ट बताती हैं कि देश के असंगठित क्षेत्र के करीब 50 करोड़
लोगों में से 90 फीसदी से ज्यादा श्रमिकों की कोई सामाजिक सुरक्षा नहीं है और न ही वे कहीं पंजीकृत हैं।
लंबी जद्दोजहद के बाद 1.7 लाख करोड़ रुपये का जो प्रधानमंत्री गरीब कल्याण पैकेज घोषित किया गया
है, अधिकांश गरीब उस पैकेज से बाहर रह जाएंगे। यह पैकेज देश के जीडीपी का केवल 0.8 फीसदी है,
जबकि अमेरिका ने 2.2 ट्रिलियन डॉलर का पैकेज घोषित किया है जो वहां की जीडीपी का दस फीसदी
है। लेकिन हमारी सरकार चाहती है कि उससे अधिक जिम्मा देश के लोग उठाएं। तभी तो पुख्ता कदमों के
बजाय ज्ञान ज्यादा दिया जा रहा है। इसमें भी बाकी देशों के मुखिया और स्वास्थ्य मंत्री लगभग रोज नए-नए
उपायों के साथ लोगों को आश्वस्त करते दिख रहे हैं जबकि हमारे स्वास्थ्य मंत्री सीन से ही गायब हैं।
बिना व्यापक योजना असल में आजादी के 73वें साल में भी हम देश की अधिसंख्य जनता को जीविका का स्थायित्व नहीं
दे सके हैं। हमारी सरकारों की प्राथमिकताएं गलत रही हैं। अभी भी देश में दस हजार लोगों पर केवल सात
के महज चार घंटे हॉस्पिटल बेड हैं। हमारी सरकार जीडीपी का केवल 1.2 फीसदी ही स्वास्थ्य पर खर्च करती है। पिछले
की मोहलत पर 21 कुछ बरसों में सार्वजनिक स्वास्थ्य सुविधाओं की भारी अनदेखी की गई और निजी क्षेत्र को बढ़ावा दिया
दिनों के लॉकडाउन के गया। तभी तो आज देश के कुल हास्पिटल बेड में 51 फीसदी निजी क्षेत्र में हैं। कोरोना जैसी महामारी का
सामना बिना सार्वजनिक स्वास्थ्य सुविधाओं के नहीं किया जा सकता है। त्रासदी यह भी है कि जो गरीब
ऐलान से जो तसवीर मजदूर जीवन को जोखिम में डालकर गावों में पहुंचे हैं, उनमें कुछ संक्रमित हुए तो इलाज भी शहरों में हैं।
उभरी वह देश की ऐसे में, जमीनी हकीकत समझकर हमें विकास के मॉडल को बदलने पर विचार करना होगा। एक्सप्रेस-
गलत प्राथमिकताओं वे, एयरपोर्ट, एलिवेटेड रोड और सेंट्रलविस्ता जैसी परियोजनाओं का मॉडल कारगर नहीं है। इसके बदले
ग्रामीण भारत और छोटे कस्बों और शहरों में रोजगार के मौके बढ़ाने, स्वास्थ्य और शिक्षा व्यवस्था को
को दर्शाती है बेहतर करने का मॉडल अपनाना होगा, जिससे भारत और इंडिया के बीच खाई कम की जा सके।
@harvirpanwar
‘तबलीगी वायरस’ जैसे हैशटैग के साथ किए जा रहे ट्वीट किसी भी वायरस से
ज्यादा खतरनाक हैं। ऐसे लोगों की मानसिकता बीमार है
उमर अब्दुल्ला, पूर्व मुख्यमंत्री, जम्मू कश्मीर (तबलीगी जमात मामले में ट्विटर पर प्रतिक्रिया)
हो
रायपुर से रवि भोई खुली चुनौतीः तीन साथियों की मौत की फोटो आउट ऑफ टर्न प्रमोशन दिया है। लेकिन एक बात
जारी कर नक्सलियों ने पुलिस के दावे नकारे साफ है कि नक्सलियों के खात्मे और जवानों की
शहादत को रोकने के लिए ठोस और स्पष्ट नीति बनानी
ली के दस दिन बाद 250 नक्सलियों से मुकाबले के लिए गए थे, पर बाजी होगी। पिछली रमन सिंह की सरकार ने नक्सलियों के
उलटी पड़ गई। नक्सलियों से ज्यादा जवान मारे गए। सफाए के लिए कदम उठाए और बस्तर में भारी
छत्तीसगढ़ में नक्सलियों ने बस्तर के पुलिस महानिरीक्षक (आइजी) सुंदरराज ने संख्या में केंद्रीय बल तैनात किए, लेकिन छत्तीसगढ़
खून की होली खेली। 21 एक बयान जारी कर कम से कम आठ नक्सलियों के के माथे से नक्सलवाद का कलंक नहीं मिट पाया।
मार्च को सुकमा जिले के कसालपाड़ मारे जाने का दावा किया, वहीं घटना के दो दिन बाद कांग्रेस की सरकार पर अब निगाहें टिकी हैं।
23 मार्च को सीपीआइ (माओवादी) के दक्षिण सब इसका एक बड़ा कारण यह है कि कांग्रेस
इलाके में 17 जवान शहीद हो गए। जोनल ब्यूरो ने प्रेस नोट जारी कर अपने तीन साथियों के दिग्गज नेता और कार्यकर्ता नक्सली हिंसा के
15 पुलिसकर्मी घायल भी हुए। यह के मारे जाने की जानकारी दी। बाकायदा शव और सामूहिक शिकार हो चुके हैं, पर एक बात साफ है कि
पहली बार नहीं है कि नक्सलियों के अंत्येष्टि की तस्वीरें भी जारी की गईं। सरकार किसी की भी हो, राजनीति की जगह कदम
बस्तर के आइजी सुंदरराज का कहना है कि राज्य हित में उठाने होंगे। नक्सलियों से मुकाबले के
हाथों जवान मात खा गए। ताड़मेटला सुकमा जिले के चिंतागुफा-बुरकापाल क्षेत्र में मिनपा- लिए भौगोलिक परिस्थिति के अनुसार रणनीति में
की घटना हो या फिर बुरकापाल की, अलमागुड़ा-कोरजडोंगरी के जंगलों में नक्सलियों बदलाव कर जुझारू जवानों की फौज तैयार करनी
नक्सलियों के जाल में जवान फंसे। की मौजूदगी की जानकारी होने पर चिंतागुफा और होगी, जिसकी कमी अभी राज्य में दिखाई देती है। हर
बुरकापाल कैंप से डीआरजी, एसटीएफ और कोबरा नक्सली घटना के बाद हम पानी में लाठी पीटते रह
आखिर ऐसा क्यों होता है और पुलिस के के जवान ऑपरेशन के लिए गए थे। यह वही इलाका जाते हैं और नेताओं-अफसरों के बयान तक मामला
रणनीतिकार नई रणनीति क्यों नहीं बना पा रहे हैं? है, जहां नक्सली कई वारदातों को अंजाम दे चुके सिमटकर रह जाता है। हमें नहीं भूलना चाहिए कि
डिस्ट्रिक्ट रिजर्व गार्ड (डीआरजी), एसटीएफ और हैं और सीआरपीएफ को नुकसान उठाना पड़ा है। गर्मी के दिनों में नक्सली ज्यादा और बड़ी वारदात
कोबरा के लगभग 600 जवान कसालपाड़ में 200 से यह अलग बात है कि इस बार डीआरजी के जवान को अंजाम देते हैं।
पीटीआइ
घर और बाहर की चुनौती
चौथी बार मुख्यमंत्री बने शिवराज सिंह चौहान को अपनी पार्टी के नेताओं से भी जूझना पड़ेगा
म
भोपाल से रवि भोई सरकार न बन पाने के बाद शिवराज निशाने पर रहे
और उनके विरोधियों ने उन्हें राज्य की राजनीति से
ध्य प्रदेश में फिर शिवराज सिंह चौहान का राज आ गया। 61 वर्ष के बेदखल करने की कोशिश भी की। तत्कालीन प्रदेश
शिवराज सिंह चौथी बार मुख्यमत्री बने हैं, लेकिन यह राह आसान नहीं अध्यक्ष राकेश सिंह ने उन्हें भोपाल में एक राजनैतिक
प्रदर्शन की अनुमति नहीं दी थी, पर शिवराज डटे रहे
है। मोदी-शाह के करीबी और भरोसेमंद कहे जाने वाले नेताओं को पीछे और मध्य प्रदेश न छोड़ने और 'टाइगर जिंदा है' जैसे
छोड़कर शिवराज ने मुख्यमंत्री का ताज पाया है। शिवराज के सामने भाजपा नेताओं डायलॉग से अपनी जिजीविषा दिखाते रहे।
के साथ कांग्रेस से भाजपा में आए नेताओं में तालमेल बैठाने की भी चुनौती होगी। 230 सदस्यीय मध्य प्रदेश विधानसभा में बहुमत
के लिए 117 विधायक होने चाहिए। भाजपा के पास
अब तक उनके निशाने पर रहे ज्योतिरादित्य सिंधिया को वे कैसे साधते हैं, यह भी अभी 107 विधायक हैं। 22 विधायकों के इस्तीफे और
बड़ा सवाल होगा। शिवराज को मुख्यमंत्री की कुर्सी नाम चले, लेकिन प्रतिकूल परिस्थिति में भाजपा के दो विधायकों के निधन के कारण सदन की सदस्य
पाने में जातिगत और क्षेत्रीय समीकरण का फायदा पास राज्य में शिवराज के अलावा कोई दूसरा नेता संख्या 206 रह गई है। इस आधार पर शिवराज की
मिला। शिवराज सिंह की असली परीक्षा तो उपचुनाव नजर नहीं आया, जो संकट में मुकाबला कर सके। सरकार ने सदन में विश्वास मत जीत लिया। उसे
में होगी। कांग्रेस के कितने बागी विधायकों को वे भाजपा ने राज्य में 2018 का विधानसभा चुनाव उन्हीं बसपा के दो, सपा के एक और दो निर्दलीय विधायकों
उपचुनाव जिताकर ला पाते हैं, इस पर उनका भविष्य के नेतृत्व में लड़ा था। तब वह कांग्रेस से केवल पांच का भी समर्थन मिल गया। विधानसभा की खाली 24
निर्भर करेगा। सीटों से पीछे रहे। भाजपा का वोट प्रतिशत कांग्रेस सीटों के लिए उपचुनाव में कम से कम 10 सीटें जीत
मध्य प्रदेश में भाजपा और कांग्रेस के बीच से कुछ ज्यादा रहा पर पार्टी सरकार नहीं बना पाई। कर लाना होगा, तभी बहुमत के आंकड़े को वह छू
खुंदक की लड़ाई है। कमलनाथ सरकार गिरने के मुख्यमंत्री की कुर्सी से उतरने के बाद भी शिवराज सकेगी। उपचुनाव वाली 24 सीटों में से अधिकांश
बाद मुख्यमंत्री के लिए भले ही भाजपा के भीतर कई जनता के बीच सक्रिय रहे। राज्य में भाजपा की चंबल और मध्य भारत क्षेत्र की हैं। ये सिंधिया के
प्रभाव वाली सीटें हैं। 2018 के चुनाव में सिंधिया के कम वोटों का रहा था। ऐसे में काफी कम वोटों से मुख्यमंत्री के रूप में उन्हें ज्योतिरादित्य के हर
चेहरे के साथ आरक्षण आंदोलन का भी लाभ कांग्रेस हारने वाले भाजपा नेता कांग्रेस से आए लोगों को कैसे छोटे-बड़े काम करने होंगे। सिंधिया घराने की यह
को मिला था। विधानसभा चुनाव से पहले आरक्षण के पचा पाएंगे। खासकर जयभान सिंह पवैया जैसे नेता, परंपरा रही है। अर्जुन सिंह और दिग्विजय सिंह
मुद्दे पर सवर्ण भाजपा के रुख से नाराज हो गए थे। जिनकी राजनीति ही सिंधिया परिवार के विरोध से मुख्यमंत्री होते हुए भी महल का विरोध करने का
अब चंबल संभाग में भाजपा के पास तीन बड़े चेहरे चलती है। मध्य प्रदेश में शिवराज के प्रतिद्वंद्वी के तौर साहस कभी नहीं जुटा पाए। तब सिंधिया परिवार
केंद्रीय मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर, भाजपा प्रदेश अध्यक्षपर नेताओं की एक फेहरिस्त है, जिसमें उमा भारती, की हरी झंडी के बिना ग्वालियर-चंबल संभाग में
बी.डी. शर्मा और ज्योतिरादित्य सिंधिया हैं। प्रभात झा, नरेंद्र सिंह तोमर, कैलाश विजयवर्गीय, पत्ता नहीं हिलता था। ज्योतिरादित्य सिंधिया की दादी
चंबल और मध्य भारत क्षेत्र में विधानसभा की राकेश सिंह, नरोत्तम मिश्रा, रघुनंदन शर्मा और गोपाल विजयाराजे सिंधिया ने 1967 में जब संविद सरकार
कई सीटों पर सिंधिया राजपरिवार के प्रभाव के चलते भार्गव प्रमुख हैं। मुख्यमंत्री की दौड़ में तोमर और बनाई और गोविंद नारायण सिंह को मुख्यमंत्री बनाया
ज्योतिरादित्य को साथ लेकर चलना शिवराज की नरोत्तम मिश्रा तो शिवराज के बराबर ही चल रहे थे। तो 36 विधायक लेकर कांग्रेस से आए गोविंद नारायण
मजबूरी होगी। कहा जाता है चंबल-ग्वालियर क्षेत्र लोग नरेंद्र सिंह तोमर को मुख्यमंत्री सिंह को लंबे समय तक महल के
में महल आगे-आगे चलता है, पार्टी पीछे-पीछे।
चाहे वह कांग्रेस हो या भारतीय जनता पार्टी। पिछले
के रूप में देखने भी लगे थे। भाजपा
के भीतर कुछ लोगों ने सीएम तोमर
सिंधिया और रिमोट पर चलना पड़ा था। आखिर
में ऐसी स्थिति आई कि उन्होंने
चालीस साल से यहां की सियासत कांग्रेस केंद्रित फेसबुक पेज भी बना लिया था। अपने विरोधियों विजयाराजे सिंधिया से हाथ जोड़
रही। माधवराव सिंधिया के रहते महल-कांग्रेस ही
पनपी। जनसंघ और भाजपा के संस्थापक होते हुए
लेकिन कमलनाथ जैसे दिग्गज
नेता की सरकार गिराकर भाजपा
को संभालने की लिए कि वे अब उनके इशारे पर
काम नहीं कर पाएंगे। इसके बाद
भी विजयाराजे सिंधिया कभी भी बेटे की राह में रोड़ा की सरकार बनाने में शिवराज ने कुशलता पर निर्भर पूरी संविद सरकार गोविंद नारायण
नहीं बनीं। ज्योतिरादित्य के भाजपा में आते ही महल- जो भूमिका निभाई, उससे उन्होंने होगा शिवराज सिंह के नेतृत्व में वापस कांग्रेस
कांग्रेस के कट्टर समर्थक धर्मसंकट में हैं। ठीक ऐसा
ही संकट भाजपा के उन समर्पित कार्यकर्ताओं के
आलोचकों की बोलती बंद कर दी
है। शिवराज ने कांग्रेस की तलवार सिंह का आगे का मेंहोगाचलीकिगई।वे भीशिवराज को देखना
अपनी पार्टी के
सामने आ खड़ा हुआ है, जिन्होंने रात-दिन एक करके से अपने विरोधियों को पटखनी राजनैतिक सफर 107 विधायकों के बहुमत से बने
मुख्यमंत्री हैं। देखते हैं यह बेमेल
मेलजोल जरूरीः कमलनाथ के साथ शिवराज सिंह चौहान शादी कब तक चलती है।
शिवराज को खजाना भी खाली मिला है। मुख्यमंत्री
के रूप में कमलनाथ भी इसका रोना रोया करते थे।
किसान, व्यापारी, कर्मचारी और नौजवान सारे वर्गों
को संतुष्ट करना आसान काम नहीं है। किसानों की
कर्जमाफी पिछली सरकार के गले की हड्डी बन गई
थी। राज्य में बेरोजगारी की स्थिति भी भयावह है।
राज्य में 2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा को
मोदी के नाम पर वोट मिले थे। जनता सिंधिया के
दल-बदल को किस रूप में लेती है और उपचुनाव
में क्या स्थिति होती है, यह समय बताएगा। लेकिन
एक बात साफ है कि चौथी पारी को सफल और
यादगार बनाने के लिए शिवराज को नए अंदाज में
काम करना होगा। तीसरी पारी में उन पर ब्यूरोक्रेसी
के हाथ में खेलने का आरोप लगा था, उन्हें इससे
मुक्त होना होगा।
पार्टी के भीतर ढेर सारे असंतुष्टों को साथ लेकर
पीटीआइ चलना भी शिवराज के लिए टेढ़ी खीर हो सकती है।
संतुलन साधने के लिए सिंधिया खेमे से एक और
पार्टी को इलाक़े में बचाए रखा है। कांग्रेस विरोध की दी है। ज्योतिरादित्य सिंधिया को साथ लेकर उन्होंने भाजपा नेता को उपमुख्यमंत्री बनाने की बात चल रही
धारा से नरेंद्र सिंह तोमर, प्रभात झा और नरोत्तम मिश्रा अपने दलीय सहयोगियों और आलोचकों को साफ है। कांग्रेस से आए दस सिंधिया समर्थकों को मंत्री
जैसे नेता निकले। अब उनके कार्यकर्ता ही उनके संदेश दिया है कि राष्ट्रीय स्तर पर भले ही उनकी ढाल पद भी मिल सकता है। यह कैबिनेट विस्तार के समय
सामने सवाल खड़े कर रहे हैं, क्योंकि ज्योतिरादित्य के रूप में सुषमा स्वराज और अरुण जेटली अब नहीं साफ होगा। मध्य प्रदेश की सरकार में मुख्यमंत्री के
सिंधिया कह चुके हैं कि उनके समर्थक सभी 22 रहे, मगर अब सिंधिया का साथ उनके राजनीतिक अलावा 34 मंत्री बनाए जा सकते हैं। कुल मिलाकर
विधायकों को टिकट मिलेगा। यानी अब भाजपा ही भविष्य को संरक्षित करने वाला हो सकता है। पर शिवराज की चौथी पारी का सफर कांटों भरा है। ऐसे
भाजपा से लड़ेगी। शिवराज को याद रखना होगा कि पिछली तीन पारियों में एक बात तय है कि अगर शिवराज इस पारी में
कांग्रेस 22 सीटों पर कब्जा बरकरार रखने की की तरह चौथी पारी आसान नहीं रहने वाली। तीन चक्रव्यूह को भेदकर बाहर निकल आए तो भारतीय
हरसंभव कोशिश करेगी। यह भी नहीं भूलना चाहिए पारियां उन्होंने अपने लोगों के साथ खेली। चौथी पारी जनता पार्टी की अग्रिम पंक्ति के नेताओं में उनका
कि 2018 में इन सीटों में हार-जीत का अंतर काफी में अपनों के साथ पराए लोग भी होंगे। स्थान पक्का हो जाएगा।
कांग्रेस की नई
दे
लखनऊ से कुमार भवेश चंद्र
डगर की रणनीति
शव्यापी लॉकडाउन के दूसरे ही
दिन उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री
आदित्यनाथ को चिट्ठी लिखकर
प्रियंका गांधी ने सरकार से संवादहीनता
तोड़ने की कोशिश की। उन्होंने लिखा
कि प्रदेश में कोरोना जैसी भीषण आपदा कांग्रेस में जान फूंकने की तैयारी मगर पुरानों की उपेक्षा और बाहर से
में लोगों की मदद के लिए जिला आने वालों की बढ़ती धमक पार्टी के लिए बड़ी चुनौती
स्तर पर कांग्रेस कार्यकर्ताओं की टीम
प्रश्ाासन के साथ मिलकर काम करने कार्यकर्ताओं में नए बदलाव को लेकर कई तरह की बोलने लगे हैं। उनका इशारा सपा अध्यक्ष अखिलेश
को तैयार है। कांग्रेस का यह रुख नया शंकाएं एक साथ उठ खड़ी हुई हैं। यादव पर पार्टी के तीखे हमलों को लेकर है।
है। उत्तर प्रदेश में लगभग बेअसर हो पार्टी अध्यक्ष के सामने दूसरी बड़ी चुनौती
चुकी कांग्रेस की इस सियासी लाइन को नई ब्रिगेड बढ़ा रही शंका है पार्टी के नए विचार के साथ नए-पुराने सभी
बात सिर्फ इतनी नहीं है कि कुछ पुराने कांग्रेसियों कार्यकर्ताओं के बीच सामंजस्य बिठाना। दलित
‘मास्टर स्ट्रोक’ तो नहीं लेकिन संजीवनी को दरकिनार कर अजय कुमार को संगठन की वोटरों को आकर्षित करने के लिए पार्टी की पहल
की तलाश की तरह देखा जा रहा है। जाहिर है, बागडोर सौंपी गई है, कार्यकर्ता इस बात से भी से कार्यकर्ताओं के एक वर्ग में असमंजस है। वे कह
कांग्रेस महासचिव उत्तर प्रदेश में अपनी पार्टी को सशंकित हैं कि प्रियंका के साथ जुड़े जेएनयू रहे हैं कि कांग्रेस ने हमेशा दलित समस्याओं और
मजबूत करने की नई राह तलाश रही हैं। बैंकग्राउंड के नेताओं संदीप पांडेय, मोहित पांडेय दलित चेतना से खुद को संबद्ध रखा है लेकिन कभी
2017 में समाजवादी पार्टी के साथ गठबंधन की पार्टी में दखल लगातार बढ़ती जा रही है। पार्टी भी मनुस्मृति को गाली देने की जरूरत नहीं समझी।
के बावजूद कांग्रेस केवल सात सीटों पर अपने का आम कार्यकर्ता बुजुर्ग नेताओं को दरकिनार इसे कांग्रेस के मूल चरित्र को बदलने की कोशिश से
उम्मीदवार जिता पाई थी। लेकिन उत्तर प्रदेश कांग्रेस किए जाने से भी आहत और उपेक्षित महसूस कर जोड़ कर देखा जा रहा है। कांग्रेस ने कभी अगड़े-
ने अतीत की नाकामियों को भुलाकर प्रियंका गांधी रहा है। एक तरफ पुराने कांग्रेसियों की उपेक्षा और पिछड़े की राजनीति पर इस तरह से जोर नहीं दिया।
की अगुआई में 2022 के लिए बड़े ख्वाब बुनने दूसरी ओर बाहर से आने वालों की बढ़ती धमक
शुरू कर दिए हैं। यूपी कांग्रेस के ट्विटर एकाउंट पार्टी के भीतर अविश्वास की नई दीवार बना रही आरक्षण और दलित मुद्दों पर नया रुख
में सोनिया, राहुल और प्रदेश अध्यक्ष अजय कुमार हालांकि चुनाव विश्लेषक और वर्डिक्ट रिसर्च के
लल्लू की तसवीर के साथ प्रियंका की बड़ी तसवीर निदेशक ओपी यादव कहते हैं, “कांग्रेस ने यूपी
लगी है और लिखा है ‘22 की च्वाइस’ जिसकी में अपनी सियासी जमीन को वापस पाने के लिए
टैगलाइन है 'यूपी की है ललकार, बदलेंगे सरकार।' प्रियंका ने कोरोना से निपटने रणनीति में बदलाव किया है। मंडल विरोधी रही
प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष कहते हैं, “हम जानते हैं में सहयोग के लिए सीएम कांग्रेस आज ‘जय भीम’ और ‘आरक्षण बचाओ’
कि यह लड़ाई बड़ी है, हमारी चुनौतियां बड़ी हैं। जैसे नारों के साथ संबद्ध हो रही है। वह सामाजिक
लेकिन हम इस लड़ाई के लिए मजबूत तैयारी में जुटे योगी को पेशकश करके न्याय की अवधारणा से जुड़ी राजनीति के जरिए
हैं। हम अपने संगठन को पुनर्जीवित करने पर तेजी कांग्स रे की सक्रियता का संकते जमीन पर शुरुआती हलचल मचाने में कामयाब
से काम कर रहे हैं। बहुत जल्द वोटरों से भी नया
रिश्ता कायम करने की दिशा में कदम बढ़ाएंगे।”
दिया है। वे 2022 के चुनाव के भी दिख रही है।” पार्टी ने पिछड़े समाज से प्रदेश
अध्यक्ष चुनकर भी यही संदेश दिया है लेकिन यह
लेकिन सच्चाई यही है कि कांग्रेस के लिए जमीन लिए अभी से तैयारी कर रहीं देखना होगा कि अपेक्षाकृत कम आबादी वाली
पर कड़ा संघर्ष है और बड़ा इम्तहान है। 1989 के पिछड़ी जाति से जुड़े अजय कुमार लल्लू पिछड़ों के
बाद से लगातार कमजोर हो रही कांग्रेस के लिए वृहद समाज में किस तरह अपना कनेक्शन पैदा कर
सबसे बड़ी समस्या है नेतृत्व और कार्यकर्ताओं के पाते हैं। कांग्रेस दलित समाज को लेकर भी अधिक
बीच विश्वास की बड़ी खाई। संगठन में मौजूदा है। पुराने कांग्रेसी एक स्वतंत्र संगठन ‘रिहाई मंच’ उत्सुकता और उत्साह के साथ काम करती हुई दिख
फेरबदल से असहज हुए पुराने कार्यकर्ताओं का से आए लोगों को अल्पसंख्यक सेल का मुखिया रही है। लेकिन पार्टी की असली चुनौती यही है कि
विश्वास हासिल करना प्रदेश अध्यक्ष की सबसे बड़ी और सोशल मीडिया में प्रमुख भूमिका दिए जाने उसके तमाम फॉर्मूलों पर प्रदेश की दूसरी पार्टियां भी
चुनौती है। लल्लू पहले अध्यक्ष हैं जिन्हें पद सौंपने से भी नाराज दिख रहे हैं। एक पुराने कांग्रेसी नेता काम कर रही हैं। दलित समाज के लिए काम करने
के बाद नाराज कांग्रेसियों को पार्टी से बाहर निकाला गोपनीयता की शर्त पर कहते हैं कि अल्पसंख्यक वाले भीम आर्मी के चंद्रशेखर आजाद ने भी सियासी
गया या उन्हें दरकिनार किया गया। इससे पहले के सेल के नए मुखिया शाहनवाज हुसैन मुसलमानों पार्टी बना ली है। पश्चिम के नौजवानों में उनका
अध्यक्ष रीता बहुगुणा जोशी और राज बब्बर को का नेता बनने की इतनी हड़बड़ी में हैं कि वे समान खासा प्रभाव है। दलित समाज से गहराई से जुड़े
ऐसी परिस्थिति का सामना नहीं करना पड़ा। पार्टी विचारधारा वाले दल के नेताओं पर ही तीखे हमले बसपा के कुछ पुराने नेताओं ने समाजवादी पार्टी की
पीटीआइ
लॉकडाउन का
कीजिए, आपको 2जी स्पीड पर मोबाइल पर अपनी
वेबसाइट चलानी है क्योंकि इतनी कम स्पीड पर
लैपटॉप कनेक्ट नहीं हो सकता है। आपको फोन पर
लंबा सिलसिला
कोई डॉक्यूमेंट डाउनलोड करना है और उसके बाद
उसे एडिटिंग के लिए लैपटॉप पर ट्रांसफर करना है
जो संभव नहीं है।”
पुराने श्रीनगर के एक छात्र ने बताया कि उसने
अपने सामने एक बुजुर्ग को दम तोड़ते देखा क्योंकि
सुरक्षा बलों ने उसे कर्फ्यू के दौरान अस्पताल नहीं
जाने दिया। नबील नाम के इस छात्र ने ट्विटर पर
लिखा, “लॉकडाउन के दौरान मैंने तीन रिश्तेदारों को
घाटी के लोगों के मुताबिक कश्मीर के लॉकडाउन से कोविड-19 खो दिया और उनके बारे में कई महीने बाद पता चला,
की दहशत में देशव्यापी लॉकडाउन की तुलना बेमानी और जब टेलीफोन पर लगे प्रतिबंध हटे। अपने लॉकडाउन
जा
शर्मसार करने वाली से हमारी अंतहीन समस्या की तुलना मत कीजिए।”
कई लोगों की दलील है कि मौजूदा लॉकडाउन से
कश्मीर की स्थिति की तुलना करना अनुचित है। ऐसी
श्रीनगर से नसीर गनई तुलना बेहद बेवकूफाना और शर्मसार करने वाली है।
जेएनयू की पूर्व छात्र नेता शेहला रशीद ने अपने
नलेवा कोरोना वायरस का संक्रमण सीमित करने के उद्देश्य से ट्विटर पर लिखा, “कश्मीर तो छह महीने से यह झेल
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पूरे देश में लॉकडाउन की घोषणा की, तो रहा है जबकि आपको सिर्फ तीन सप्ताह ही झेलना
है।” उन्हें इस पर खासी नुक्ता-चीनी झेलनी पड़ी।
कश्मीरी समझ गए कि वे दोबारा बंदी के पुराने दौर में पहुंच गए हैं। एक छात्र ने जवाब में लिखा, “हर चीज की कश्मीर
पिछले साल पांच अगस्त को कश्मीर से अनुच्छेद 370 के तहत मिला विशेष दर्जा से तुलना नहीं की जानी चाहिए। कश्मीर में अंतहीन
हटाने और हजारों लोगों की गिरफ्तारी के पहले से ही लॉकडाउन और संचार माध्यमों कर्फ्यू और सेना की घेराबंदी है क्योंकि बाकी भारत
ने उसके दमन का फैसला किया है। ऐसा कहना
पर प्रतिबंधों के लंबे दौर से वे अभी तक उबर भी नहीं पाए हैं। अन्य राज्यों के बंद कीजिए कि कश्मीरियों ने महामारी से लड़ने का
विपरीत, यहां पुलिस और सुरक्षा एजेंसियों को यह पता लगाने में हफ्तों लग गए कि उनके रिश्तेदारों फैसला अपनी इच्छा से किया है।”
लॉकडाउन लागू करने में ज्यादा वक्त नहीं लगा। को हिरासत में कहां रखा गया है। एक अन्य व्यक्ति तौहा गौहर ने लिखा, “हजार
प्रतिबंध लगाने के लिए समूचा सिस्टम पिछले तीस आतिका के बेटे फैसल अहमद को श्रीनगर के दिनों तक देश में लॉकडाउन जारी रहे, तब भी कश्मीर
वर्षों से कायम है और पिछले पांच अगस्त 2019 से मैसुमा इलाके से पिछले पांच अगस्त को गिरफ्तार के एक दिन के लॉकडाउन से भी उसकी तुलना नहीं
तो वह पूरी तरह तैयार है। किया गया था। वे कहती हैं, “5 अगस्त को की जा सकती है। हम यहां ऐसी यंत्रणा से गुजर रहे
पिछले कुछ महीनों से सरकार ने अगस्त 2019 एसएचओ मेरे बेटे को अपने साथ ले गए। मैंने थाने हैं।” घाटी में लोगों की दलील है कि कश्मीर में लोग
में लगाए प्रतिबंध धीरे-धीरे हटाए थे। शुरू में दूरसंचार में जाकर पूछा तो एसएचओ ने बताया कि उसे कुछ खुद के बचाव के लिए लॉकडाउन में नहीं हैं। उन्हें
सेवाएं कई टुकड़ों में दोबारा बहाल हुईं। सरकार ने दिनों में छोड़ दिया जाएगा।” लेकिन आतिका अपने किसी बीमारी से बचने के लिए घरों के अंदर रहने को
पहले लैंडलाइन फोन चालू किए। उसके बाद बेटे को आज तक नहीं देख पाई हैं। उसे आठ अगस्त नहीं कहा गया है।
पोस्टपेड मोबाइल और सीमित संख्या में वेबसाइटों को उत्तर प्रदेश के आंबेडकरनगर जेल में भेज दिया सैयद हसन काजिम ने फेसबुक पर लिखा, “घाटी
पर जाने की अनुमति के साथ धीमी स्पीड की इंटरनेट गया और तब से वह वहीं बंद है। अब देशव्यापी में लोग गायब हो जाते हैं और फिर कभी वापस
सेवा शुरू की। उसके बाद सोशल मीडिया की लॉकडाउन की वजह से आतिका का दुख दूर होने नहीं आते। अनेक लोगों को उनके घरों से हजारों
अनुमति दी गई लेकिन इंटरनेट सेवा 2जी नेटवर्क के कोई आसार नहीं हैं। वे पूछती किलोमीटर दूर जेलों में बंद कर
पर ही उपलब्ध रही। देश भर के राजनैतिक वर्ग की हैं, “मैं नहीं जानती कि वहां उसकी दिया गया है और कई तो इस तनाव
अपील के बावजूद सरकार ने इंटरनेट सेवा पूरी तरह सेहत कैसी है, वे उसे क्यों नहीं कश्मीर के मुकाबले में होश गंवा बैठते हैं। बाकी देश
बहाल नहीं की। अभी भी इंटरनेट की स्पीड बेहद छोड़ रहे हैं?”
धीमी बनी हुई है। कश्मीरियों को इस बात पर गुस्सा दक्षिण कश्मीर के सामाजिक
पूरे भारत का में लोग फास्ट इंटरनेट स्पीड पर
आराम से घर पर बैठकर वर्क फ्रॉम
आ रहा है कि कश्मीर में लगे प्रतिबंधों की तुलना अब कार्यकर्ता खालिद फैयाज बच्चों के लॉकडाउन तो होम कर रहे हैं। दूसरी ओर कश्मीर
पूरे देश में लॉकडाउन से की जा रही है। पिछले पांच लिए मासिक पत्रिका निकालते हैं।
अगस्त 2019 से लागू कश्मीर के प्रतिबंध पूरे सात वे कहते हैं कि कश्मीर में कैद जैसे
जल्दी खत्म हो में इंटरनेट नहीं है। आपके बच्चे
अपनी यूनीवर्सिटी और स्कूलों से
महीने से प्रभावी हैं। हालात से देशव्यापी लॉकडाउन जाएगा, लेकिन ऑनलाइन क्लास ले रहे हैं, जबकि
इस दौरान जम्मू-कश्मीर ने अप्रत्याशित घेरेबंदी की तुलना करने वालों को समझना घाटी को पता नहीं कश्मीर में छात्रों के पास ऐसी कोई
देखी। तीन पूर्व मुख्यमंत्रियों, कारोबारी नेताओं, चाहिए कि यह तुलना कैसे संभव
वकीलों और हजारों लोगों को हिरासत में ले लिया है। वे कहते हैं, “इस वक्त भी इसके लिए कितना में ताली और थाली बजा सकते
सुविधा नहीं है। आप लॉकडाउन
गया। बड़े पैमाने पर गिरफ्तारियों के बाद लोगों को मैं एकदम लाचार हूं। कल्पना इंतजार करना पड़े हैं और डांस कर सकते हैं जबकि
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कश्मीर
उमर आसिफ
सब कुछ ठपः घाटी पर लंबे समय से प्रतिबंध का साया है, यह लॉकडाउन से भी भयावह हटाने से इनकार कर रहा है। कोविड-19 महामारी के
दौर में इंटरनेट और सूचनाओं तक पहुंच आवश्यकता
कश्मीरियों को बोलने तक की इजाजत नहीं है। संक्षेप अतिरिक्त उन्होंने हल्के-फुल्के अंदाज में क्वारेंटाइन है, न कि विशेषाधिकार। कोरोना वायरस जैसी
में कहें, तो कश्मीरियों को लॉकडाउन में अपमानित और लॉकडाउन में रहने के लिए टिप्स दे दिए। आपदा के समय 90 लाख कश्मीरियों के स्वास्थ्य
किया जा रहा है और डराया जा रहा है जबकि आपके उन्होंने ट्वीट किया, अच्छी बात यह है कि अगर कोई की चिंता करने के बजाय काल्पनिक सुरक्षा खतरों
साथ ऐसा नहीं है।” क्वारेंटाइन और लॉकडाउन में खुद को दुरुस्त रखने को प्राथमिकता देना युद्ध अपराध है। केंद्र सरकार
इस बीच, पूर्व मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने ट्विटर के लिए टिप्स चाहता है तो मेरे पास कई महीनों का को 4जी सेवाएं बहाल करने की सामूहिक अपीलें
पर ये नुस्खे बताए कि कैसे आप लॉकडाउन और अनुभव है। शायद एक पूरा ब्लॉग बनाया जा सकता स्वीकार कर लेनी चाहिए।”
लंबी तन्हाई में जिंदगी संभाले रह सकते हैं। लंबे है। उमर जम्मू-कश्मीर के उन तीन पूर्व मुख्यमंत्रियों सरकार जम्मू-कश्मीर सहित पूरे देश में नए
एकांतवास के लिए उमर की सलाह घाटी में जीवन में शामिल थे, जिन्हें पांच अगस्त को उनके घरों में लॉकडाउन के बावजूद घाटी में इंटरनेट सेवा पूरी तरह
की कड़वी सच्चाई को उजागर करती है, जहां पूर्व नजरबंद कर दिया गया था। उमर और उनके पिता बहाल करने को तैयार नहीं दिख रही है। एक डॉक्टर
मुख्यमंत्री और पूर्व विदेश राज्यमंत्री को सात महीने फारूक अब्दुल्ला तो रिहा कर दिए गए हैं, मगर पूर्व ने अपनी पहचान गुप्त रखते हुए कहा, “अगस्त 2019
की हिरासत बिना किसी गंभीर आरोप के झेलनी पड़ी। मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती अभी भी सार्वजनिक सुरक्षा में लॉकडाउन लागू करके कश्मीरियों का घर से बाहर
उमर को 24 मार्च को रिहा किया गया। हिरासत कानून के तहत नजरबंद हैं। उनकी बेटी इल्तिजा निकलने का अधिकार छीन लिया गया था। यह उन्हें
से रिहा होने के कुछ घंटों के भीतर उमर वापस मुफ्ती ने अपनी मां के ट्विटर हैंडल पर ट्वीट किया, मानसिक और भौतिक पराजय का एहसास कराने
ट्विटर पर सक्रिय हो गए। उन्होंने अपने माता-पिता “दुनिया कोरोना वायरस का सामना कर रही है लेकिन के लिए किया गया। यह लॉकडाउन नई आफत है
के साथ एक फोटो पोस्ट किया और समर्थन के लिए जम्मू-कश्मीर प्रशासन अभी भी नरम नहीं पड़ा है और इसका सामना सिर्फ कश्मीरी नहीं कर रहे हैं।
नेताओं और परिवार का आभार जताया। इन ट्वीट के और 4जी इंटरनेट सेवाओं पर लगी अमानवीय रोक मैं सोचता हूं कि सिर्फ यही संतोष की बात है।”
महामारी
की तालाबंदी
पीटीआइ
और बंटवारा
अपने गांव-घर तक। आज कोई महाकवि नरोत्तम
दास होता तो जरूर याद दिलाता, ‘‘सीस पगा न झगा
तन पे...अरु पांय उपानह की नहिं सामा... प्रभु जाने
को आहिं, बसे केहि ग्रामा।’’ जो खुशकिस्मत थे वे
बसों, ट्रकों वगैरह में गठरियों की तरह ठुंसकर यहां-
वहां निकल लेने का जैसे विशेषाधिकार पा गए थे।
यह विशेषाधिकार एक हद तक कुछ राज्य
महामारी से निपटने के तरीकों से देश में गरीब-अमीर की खाई की सरकारों ने, शायद मजबूरन, तब मुहैया कराया था,
अ
जब वे भूखे-प्यासे, अपना थोड़ा-बहुत सामान और
हकीकत खुली, पुलिसिया राज बढ़ने के खतरे बढ़े और दुनिया बंटी बाल-बच्चों को बटोरे पैदल ही सैकड़ों मील की यात्रा
पर निकल चुके थे। लॉकडाउन के दूसरे-तीसरे-चौथे
हरिमोहन मिश्र दिन राजधानी दिल्ली की चौड़ी-चौड़ी सड़कों और
राजमार्गों पर लंबी-लंबी कतारें और हुजूम जैसे न
ब वे सुर्खियों से छुपा दिए गए। पुलिस की नाकेबंदी कड़ी कर दी गई। जाने कहां चल पड़ा था। दूसरे राज्यों में भी ऐसे ही
मुख्य सड़कें और राजमार्ग खाली हैं। कोरोना वायरस फैलने से रोकने नजारे थे। आजादी के बाद कम से कम तीन पीढ़ियों
ने तो ऐसा नजारा खुशवंत सिंह के ट्रेन टु पाकिस्तान,
के लिए देशव्यापी तालाबंदी (लॉकडाउन) का हफ्ता पूरा होने का यह कुर्रतुलऐन हैदर के आग का दरिया जैसे उपन्यासों
नजारा भ्रामक, या कहिए उन्हें सुर्खियों से गुम करके सत्ता-तंत्र को अपना ‘इकबाल’ और बंटवारे के आख्यानों में ही पढ़ा-सुना था।
साबित करने की एक अदद इबारत थी। यह इबारत देश की सत्ता की राजधानी बंटवारा जैसे दोबारा जमीन पर उतर आया था।
लेकिन दोनों बंटवारे में फर्क था। तब लहू-लुहान,
दिल्ली में सबसे बुलंद दिख रही थी। लेकिन इस इबारत के झीने परदे के अपना सब कुछ छोड़कर, बहुत कुछ गंवाकर, जान
पीछे वे मौजूद थे। दिल्ली के आनंद विहार बस अड्डे गुजरात, राजस्थान, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, पंजाब, बचाने को निकले लोगों को न भारत में रोका जा रहा
में, यमुना पुस्ते पर, बगल के उत्तर प्रदेश के नोएडा हरियाणा की सीमाओं पर, और उत्तर प्रदेश, बिहार, था, न पाकिस्तान में। जान बचाने की आफत अब भी
के एक्सप्रेस-वे पर, गाजियाबाद के लाल कुंआ बंगाल, ओडिशा, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ के राजमार्गों आन पड़ी थी क्योंकि महामारी की दहशत के अलावा
पर। छन-छन कर आ रही जानकारियों के मुताबिक या दूसरी सड़कों पर गठरी और बच्चों को उठाए मीलों रोज कमाने-खाने को अभिशप्त लाखों की तादाद में
इन प्रवासी मजदूरों के लिए काम-धंधे ठप होने से किया जा सकता है कि चीन ने अपने वुहान शहर में केंद्र सरकार पर दबाव बढ़ा। वरना 30 जनवरी को
रोटी के लाले पड़ गए थे, लेकिन उन्हें रोकने, भगाने, ही लॉकडाउन किया जबकि दक्षिण कोरिया, जापान देश में कोविड-19 से पहली मौत और 31 जनवरी
जहां हैं-जैसे हैं वहीं पड़े रहने की हिदायतें दी जा रही ने कोई लॉकडाउन नहीं किया। इटली, स्पेन में जरूर को विश्व स्वास्थ्य संगठन के इसे वैश्विक महामारी
थीं। कुछ बेहद नाकाफी से ऐलान भी जारी किए जा पूरी तरह यह तरीका अपनाया जा रहा है, जहां मौतें के ऐलान के बाद केंद्र सरकार को हरकत में आने
रहे थे। कई राज्यों में पुलिसिया डंडे अपनी ‘बहादुरी’ सबसे ज्यादा हैं लेकिन वे छोटे देश हैं। में लगभग पौने दो महीने का वक्त क्यों लग गया?
दिखा रहे थे, बिहार के सिवान में उन्हें एक स्कूल में इसकी कई वजहें और कहानियां चर्चा में हैं। एक महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री उद्घव ठाकरे ने तो कहा भी
कैद कर लिया गया तो उत्तर प्रदेश के बरेली में उन्हें तो हमारे स्वास्थ्य क्षेत्र की खस्ताहाली का अंदाजा हो कि वे प्रधानमंत्री के ऐलान से हैरान रह गए क्योंकि
सैनिटाइजर की बारिश से ठीक वैसे ही ‘शुद्ध’ किया सकता है क्योंकि फैलने के बाद काबू पाने का तंत्र कोई सलाह-मशविरा नहीं किया गया। सवाल यह
जा रहा था, जैसे सामान वगैरह को सुरक्षित बनाने का हमारे पास नहीं है। वैसे भी, लंबे समय से स्वास्थ्य भी है कि पहले से ही खस्ताहाल अर्थव्यवस्था के
उपक्रम किया जाता है। हरियाणा में उन्हें महामारी रोग क्षेत्र पर लगातार बजट आवंटन में कटौती होती रही रोग छुपाने का सरकार को बहाना तो नहीं मिल
और प्रबंधन कानून, 1897 और हरियाणा महामारी है और इस क्षेत्र को निजीकरण के हवाले करने की गया। अब अर्थव्यवस्था तो पूरी दुनिया की गड़बड़ा
रोग कोविड-19 नियम के तहत गिरफ्तारी के लिए नीतियां बनाई जाती रही हैं। इस बार प्रधानमंत्री के रही है लेकिन चीन इससे उबरने लगा है और उसने
राज्य के इनडोर स्टेडियमों को जेल में तब्दील कर ऐलान में भी स्वास्थ्य इन्फ्रास्ट्रक्चर के मद में सिर्फ कामकाज शुरू कर दिया है। अमेरिका, यूरोप की
दिया है। गोया वे ही कोरोना वायरस के असली वाहक 15,000 करोड़ रुपये का प्रबंध किया गया। दूसरे, कंपनियों के तकरीबन 30 फीसदी शेयर भी खरीद
हों (विस्तार से अगले पन्नों पर पढ़ें)। संदीपन चटर्जी
चुका है। (अर्थव्यवस्था पर विस्तृत रिपोर्ट पढ़ें)।
दोनों बंटवारे में एक और फर्क है। आजादी के वैसे, दुनिया भी इस महामारी से बंटती दिख रही
वक्त देश बेगाना हो गया था। इस बार देश ने ही उन्हें है। संयुक्त राष्ट्र के सबसे विश्वसनीय माने जाने वाले
बेगाना करार दिया। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को भी 24 विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्लूएचओ) पर भी संदेह
मार्च को रात आठ बजे महज चार घंटे बाद तीन के बादल मंडराने लगे हैं। अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड
हफ्ते के देशव्यापी लॉकडाउन का ऐलान करते वक्त ट्रंप डब्लूएचओ के प्रमुख टेड्रोस अदानोम पर चीन
इन प्रवासी मजदूरों का ख्याल नहीं आया, जबकि की तरफदारी करने का आरोप मढ़ चुके हैं। अदानोम
इनकी अनुमानित संख्या 10 करोड़ के आसपास है। पर आरोप है कि उन्हें दिसंबर से ही मालूम था कि
इसलिए उनके ऐलान के बाद ठीक उसी तरह नए- कोविड-19 का खतरा बढ़ रहा है। वे चीन के वुहान
नए निर्देश जारी किए जाने लगे, जैसे नोटबंदी और भी हो आए और वहां से लौटने के बाद कहा कि वे
जीएसटी के दौरान हुआ। यह भी शायद ध्यान नहीं चीन की कोशिश से संतुष्ट हैं। हाल में जी-20 देशों
आया कि 'लॉकडाउन' और 'सोशल डिस्टेंसिंग' जैसे की वीडियो कॉन्फ्रेसिंग के जरिए शिखर बैठक में
शब्द देश में कितनी बड़ी आबादी के पल्ले पड़ेंगे। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी डब्लूएचओ को अधिक
सवाल तो यह भी है कि 22 मार्च को ‘जनता कर्फ्यू’ पारदर्शी बनाने की बात उठाई। संयुक्त राष्ट्र में चीन
के ऐलान के बाद 72 घंटे का वक्त दिया गया का दबदबा बढ़ता जा रहा है। इस तरह संभव है कि
(जिसके दौरान शाम पांच बजे बॉलकनी से ताली- कोविड-19 के बाद पूरी विश्व व्यवस्था बदल जाए
थाली बजाकर आपातकर्मियों का उत्साह बढ़ाने का और नए शक्तिकेंद्र के रूप में चीन उभर आए।
आह्वान भी किया, गोया देश की तकरीबन 135 लेकिन इससे दूसरी खतरनाक आशंकाएं भी
करोड़ आबादी के पास बॉलकनी वगैरह उपलब्ध उभर रही हैं। मसलन, हमारे दौर के प्रखर दार्शनिक
है) तो तीन हफ्ते की तालाबंदी के लिए महज चार युवाल नोवा हरिरी ने हाल में फाइनेंशियल टाइम्स
घंटे की ही मोहलत क्यों? में लिखे लेख ‘द वर्ल्ड ऑफ्टर कोरोनावायरस’
यकीनन, हमारे सिर के एक बाल के तकरीबन में दो खतरों की ओर आगाह किया है, सर्विलांस
800 गुना छोटे जानलेवा कोरोना वायरस (ऐसे थमे दौर में जिंदगी ः लॉकडाउन ने पूरे देश में राज और राष्ट्रवादी अलगाव। वे आगाह करते हैं कि
समझिए कि एक बाल को फुटबॉल के मैदान जरूरी वस्तुओं की आपूर्ति पर भी डाला असर कोरोनावायरस से लड़ने के बहाने सरकारें लोगों की
के बराबर लंबा कर दिया जाए तो उसके कुछ 4 निजता पर निगरानी के लिए टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल
सेंटीमीटर के बराबर) से लड़ने के लिए सख्त उपाय दुनिया के यूरोप, अमेरिका जैसे अमीर देशों ने जो कर सकती हैं और उसके जरिए अपने राजनैतिक
जरूरी थे। इसका सामुदायिक फैलाव रोकने के लिए किया, उस पर ही अमल करना बेहतर विकल्प समझा मकसद को साध सकती हैं। इससे लोकतंत्र का
सामाजिक मेलजोल से दूर रहने की भी दरकार है गया हो। एक तीसरी कहानी राजनैतिक वर्चस्व की स्वरूप बदल सकता है। हमारे देश में इसके खतरे
क्योंकि प्लेग, हैजा, खसरा और सबसे बढ़कर प्रथम है। असल में जनता कर्फ्यू के ऐलान के पहले ही बड़े पैमाने पर मौजूद हैं। मीडिया समेत सारी संस्थाएं
विश्वयुद्घ के दौरान 1918-20 में स्पेनिश फ्लू से हुई केरल, महाराष्ट्र, पंजाब, बंगाल, दिल्ली की सरकारें लोगों के बदले सत्ता संस्थान की ओर रुख कर चुकी
करोड़ों लोगों की जान की तबाही देश पहले भी देख हरकत में आ गईं और कई तरह के उपायों का ऐलान हैं। दूसरा खतरा विश्व में अलगाव बढ़ने का है जिससे
चुका है। तो, अचानक बिना मोहलत िदए, बिना प्रबंध करने लगीं। केरल की सरकार ने तो स्वास्थ्य क्षेत्र की युद्घ और तमाम तरह की स्थितियां पैदा हो सकती हैं।
किए लॉकडाउन की दलील क्या थी? सरकार ने बेहतरी के लिए 20,000 करोड़ रुपये का आवंटन इन दोनों खतरों के प्रति आगाह करते हुए हरिरी कहते
प्रवासी मजदूरों के पलायन पर सुप्रीम कोर्ट ने कहा कर दिया। इन राज्यों के मुख्यमंत्री लगभग हर रोज हैं कि विश्व को एकजुट होकर इसका मुकाबला
कि वे इस फर्जी खबर की चपेट में आए गए कि तीन कुछ न कुछ ऐलान करने लगे। ममता बनर्जी तो करना चाहिए। यही तरीका महामारियों को हरा सकता
महीने बंदी रहेगी। कोर्ट ने यह मासूम-सी दलील मान सड़कों पर भी उतरने लगीं। ओडिशा के मुख्यमंत्री है और अर्थव्यवस्था को पटरी पर ला सकता है।
भी ली और कोई सवाल नहीं किया। गौर यह भी नवीन पटनायक भी रोज संदेश जारी करने लगे। इससे काश! ऐसा हो।
तैयारी तो नाकाफी
पीटीआइ
देश में 15 मई तक संक्रमण बढ़ने का बड़ा खतरा, चुनौती से निपटने की सरकारी तैयारियों पर कई सवाल
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प्रशांत श्रीवास्तव में नहीं है। सरकार में इस दुविधा और विरोधाभास
के बावजूद यह अंदेशा बदस्तूर कायम है कि देश में
कोरोना का संक्रमण मौजूदा आंकड़ों की तुलना में
कीनन कैबिनेट सचिव राजीव गौबा की 27 मार्च को राज्यों को लिखी कहीं ज्यादा हो सकता है। ऐसा होने की बड़ी वजह
चिट्ठी बड़े संकट का इशारा करती है, “पिछले दो महीने में करीब 15 भारत की कोविड-19 संदिग्धों की जांच प्रक्रिया ही
लाख यात्री विदेश से भारत में आए हैं। इस दौरान जिन लोगों की कोविड- है। दुनिया की तुलना में अभी भी भारत में आबादी
की तुलना में काफी कम लोगों की जांच हो पाई है।
19 की जांच हुई है, उसमें और आए लोगों में भारी अंतर है। इसलिए फिर से सभी 29 मार्च तक देश में 38,442 लोगों की ही जांच की
की पहचान कर जांच कराई जाए, नहीं तो गंभीर खतरा पैदा हो सकता है।” लेकिन गई है जबकि अमेरिका ने 5.5 लाख, दक्षिण कोरिया
आइसीएमआर का रुख इससे उलट लगता है, वह अभी बड़े पैमाने पर जांच के पक्ष ने 4.5 लाख लोगों की जांच कराई है।
बढ़ते खतरे का ही परिणाम है कि 30 जनवरी वजह से हो रही परेशानियों पर माफी भी मांग रहे है उसके मुकाबले भारत में इस अवधि तक 1,466लोग
को पहले संक्रमण का मामला आने के 54 दिन बाद लेकिन फिर भी सोशल डिस्टेंसिंग की अपील कर संक्रमित हो चुके हैं, और 38 लोगों की मौत हो
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को 24 फरवरी की आधी रात रहे हैं। असल में उनके डर का कारण कोविड-19 चुकी है।
से पूरे देश में लॉकडाउन का ऐलान करना पड़ा। इस से अमेरिका, इटली, स्पेन, फ्रांस, ब्रिटेन, चीन में इस नजर से फौरी तौर पर भारत की स्थिति दूसरे
बीच सरकार ने विदेश से लोगों की घर वापसी से होने वाली मौतें हैं। भारत की तुलना में कहीं ज्यादा देशों की तुलना में बेहतर नजर आती है। अमेरिका,
लेकर ट्रेनों, बसों, मेट्रो, हवाई सेवाओं पर प्रतिबंध साधन संपन्न होने के बावजूद ये देश कोरोना को चीन, इटली सहित देशों में जब 1,000 लोग
लगाकर संक्रमण रोकने की कोशिश की। हालांकि मात नहीं दे पा रहे हैं। दुनिया में (1 अप्रैल सुबह संक्रमित हुए थे, उस वक्त वहां भारत के मुकाबले
बात बनती न देखकर सरकार को लॉकडाउन का 8 बजे तक) 8,60,696 लोग कोरोना से संक्रमित कहीं ज्यादा मौतें हुई थीं। मसलन, अमेरिका में 36,
सहारा लेना पड़ा। लेकिन इस ऐलान से देश में नया हो चुके हैं और 42,352 लोगों की मौत हो गई है। चीन में 32, इटली में 28, कोरिया में 11 लोगों की
संकट खड़ा हो गया है। अकेले इटली में 12,482, स्पेन में 9,053 चीन मौत हुई थी। लेकिन जैसे ही इन देशों में संक्रमण
संकट जान बचाने से लेकर रोजी-रोटी तक में 3,312, ईरान में 3,036, फ्रांस में 3,523 और की संख्या बढ़ी वैसे ही मौतों का सिलसिला भी
का है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी कह रहे हैं कि अमेरिका में 4,059 लोगों की मौत हो चुकी है। बढ़ता गया। आज इटली में प्रति 1,000 पर 110
लॉकडाउन ही हमको बचा सकता है। इसलिए
जान जोखिम में मत डालिए। सवाल उठता है कि
प्रधानमंत्री किस खतरे को देख रहे हैं और उसकी देश में कोरोना के हॉट स्पॉट नोएडा, उत्तर प्रदेश
मेरठ, उत्तर प्रदेश
दिलशाद गार्डन, दिल्ली पत्तनमिट्टा, केरल
घर जाने की आस ः दिल्ली के आनंद विहार निजामुद्दीन पश्चिम, दिल्ली कासरगोड़, केरल
बस टर्मिनल पर हजारों की संख्या में उमड़े लोग मुंबई, महाराष्ट्र बेंगलूरू, कर्नाटक
पुणे, महाराष्ट्र इरोड, तमिलनाडु
अहमदाबाद, गुजरात इंदौर, मध्य प्रदेश
भीलवाड़ा, राजस्थान अंडमान और निकोबार द्वीप समूह
जयपुर, राजस्थान नवांशहर, पंजाब
1 अप्रैल 2020 तक
सुरेश के पांडे
पीटीआइ
पं
समराला, पंजाब
ट्रेन कोच में अस्पताल ः संक्रमण को देखते हुए रेलवे ने 20 हजार कोचों को अस्पताल बनाया
लोगों की मौत हो रही है, चीन में यह 40 के करीब संक्रमण दर को देखते हुए 13 दिन पीछे है। ऐसे में
है। यही ट्रेंड भारत के लिए खतरनाक है। दुनिया आने वाले दिनों में भारत में भी तेजी से संक्रमण बढ़
का सबसे ताकतवर मुल्क अमेरिका भी इस स्टेज सकता है। भारत में अमेरिका और इटली की तुलना
में बेबस हो गया है। खुद राष्ट्रपति डोनॉल्ड ट्रंप ने में संक्रमण दर कम होने की एक वजह लोगों की
कहा है, “अगर हमने सोशल डिस्टेंसिंग मेंटेन नहीं कोरोना टेस्टिंग कम होना है। मिशिगन यूनिवर्सिटी
की तो अगले दो हफ्ते में एक से दो लाख लोगों जैसी ही आशंका इंडियन काउंसिल ऑफ मेडिकल
की जान जा सकती है।” खतरा किस तरह भारत के रिसर्च के सेंटर फॉर एडवांस रिसर्च इन वॉयरोलॉजी
ऊपर मंडरा रहा है, उसे इस कवायद से भी समझा के पूर्व प्रमुख डॉ. टी.जैकब जॉन जताते हैं कि जैसे
जा सकता है कि देश भर में 16 ऐसे हॉटस्पॉट ही लॉकडाउन खत्म होगा भारत में तेजी से संक्रमण
की पहचान हुई है, जहां वायरस के संक्रमण तेजी बढ़ने की आशंका है और दुनिया भर के ट्रेंड को
से हो रहा है। इसके तहत दिल्ली के दिलशाद देखते हुए मई में प्रकोप सबसे ज्यादा दिखेगा। अप्रैल के दूसरे हफ्ते तक आलू नहीं निकाले
गार्डन, निजामुद्दीन पश्चिम, महाराष्ट्र के मुंबई, पुणे, अगर मिशिगन यूनिवर्सिटी और डॉ. जैकब गए तो दिनोदिन बढ़ती गर्मी की वजह से आलू
गुजरात के अहमदाबाद, राजस्थान के भीलवाड़ा, जॉन की आशंका सही साबित होती है तो क्या के जमीन में ही खराब होने का डर है। इस
जयपुर, उत्तर प्रदेश के नोएडा, मेरठ और केरल भारत उसके लिए तैयार है? मेदांता के चेयरमैन देरी की वजह से पंजाब में करीब 80 हजार
के पत्तनमिट्टा,कासरगोड़, कर्नाटक के बेंगलूरू, और मैनेजिंग डायरेक्टर डॉ. नरेश त्रेहन कहते हैं, हेक्टेयर रकबे में 80 फीसदी आलू खराब होने
तमिलनाडु के इरोड, मध्य प्रदेश के इंदौर, अंडमान “नेशनल हेल्थ प्रोफाइल 2018 के आंकड़ों के का डर है। मंडियों में सब्जियां नहीं पहुंच पा
और िनकोबार द्वीप पर खास नजर रखी जा रही है। मुताबिक देश में केवल 23,582 सरकारी अस्पताल रही हैं, इसलिए मुझे अपने खेत से आढ़तियों
राजस्थान के भीलवाड़ा में तेजी से बढ़ते संक्रमण है जिसमें लगभग 7,10,761 बेड हैं। भारत की 70 को बेचना पड़ रहा है। मटर के मुझे 15 रुपये
को देखते हुए 3 अप्रैल से 13 अप्रैल तक सबसे फीसदी आबादी ग्रामीण क्षेत्रों में रहती है। लिहाजा, किलो दाम मिल रहे हैं लेकिन कर्फ्यू में रिटेल
सख्त लॉकडाउन किया जा रहा है। इस दौरान वहां आबादी ग्रामीण क्षेत्रों में संक्रमण फैलता है तो काबू में वह 80 रुपये तक बिक रहा है। इन सबके
सब कुछ बंद रहेगा। जिले में 26 लोग संक्रमित पाए पाना मुश्किल हो सकता है।” कोविड-19 के आगे बीच राहत की बात यह है कि तापमान थोड़ा
गए हैं। इंदौर में भी संक्रमितों की संख्या 69 तक लाचार हो चुके अमेरिका, चीन, यूरोप की स्थिति कम हुआ है। इस कारण गेहूं की कटाई अप्रैल
पहुंच गई है। इन दोनों शहरों में कम्युनिटी संक्रमण स्वास्थ्य सुविधाओं के मामले में हमसे कहीं बेहतर के दूसरे हफ्ते तक रोकी जा सकती है। उम्मीद
का खतरा मंडरा रहा है। है। दक्षिण कोरिया में प्रति 1000 आबादी पर 11.5 है, तब तक लॉकडाउन खत्म हो जाएगा। और
भारत पर ऐसे ही खतरे को मिशिगन यूनिवर्सिटी बेड, फ्रांस में 6.5 बेड, चीन में 3.4, इटली में हम बड़े नुकसान से बच जाएंगे। ऐसा नहीं
के स्कूल ऑफ पब्लिक की रिपोर्ट बयान करती है। 2.9, अमेरिका में 2.8 बेड हैं। एक और आंकड़ा होता है तो काफी बड़े आर्थिक नुकसान होंगे,
रिपोर्ट के अनुसार, 15 मई तक भारत में 58,643 से भारत की स्वास्थ्य सुविधाओं पर सवाल उठाता है। जिसकी भरपाई करना सभी के लिए बहुत
लेकर 9.15 लाख तक लोग संक्रमित हो सकते हैं। किसी भी महामारी से लड़ने की क्षमता का आकलन मुश्किल होगी।
रिपोर्ट के अनुसार 19 मार्च तक भारत, अमेरिका के करने के लिए बनाए गए ग्लोबल स्वास्थ्य सुरक्षा हरीश मानव
ल
मिडिल क्लास परिवार
लखनऊ, उत्तर प्रदेश
कोरोना सेंटरः दिल्ली के राममनोहर लोहिया अस्पताल में कोरोना जांच केंद्र पर बैठे मरीज
सूचकांक 2019 में भारत 46.5 अंकों के साथ करीब एक लाख वेंटिलेटर की जरूरत पड़ेगी। ऐसे
57वें नंबर पर है। इसकी वजह साफ है कि भारत में साफ है कि हम विकट परिस्थितियों के लिए
में स्वास्थ्य सेवाओं पर ओईसीडी की रिपोर्ट के फिलहाल तैयार नहीं हैं। इसी से ऑटो कंपनियों को
अनुसार सरकारी खर्च जीडीपी के मुकाबले केवल भी वेंटिलेटर बनाने की सलाह दी गई है।
0.9 फीसदी है, जबकि अमेरिका में यह 14.6 मिशिगन यूनिवर्सिटी की रिपोर्ट एक और खतरे
फीसदी, जर्मनी का 9.5 फीसदी, इटली का 6.5 की ओर इशारा करती है। उसका कहना है, “भारत
फीसदी और चीन का 2.9 फीसदी है। में प्रति एक लाख लोगों पर 70 बेड हैं। ऐसे में
इसी तरह अगर भारत में अमेरिका, इटली जैसा अगर कोविड-19 का संक्रमण तेजी से फैलता है
संक्रमण बढ़ता है तो बड़े पैमाने पर वेंटिलेटर की तो इसमें से 25 फीसदी बेड ही कोविड-19 के ही मकान में सीमित रहना कई बार बेचैनी पैदा
जरूरत पड़ेगी। अभी भारत में एक अनुमान के मरीजों को मिल पाएंगे। उसमें भी 5-10 फीसदी करता है।” श्रीवास्तव दंपती की शादीशुदा बेटी
अनुसार करीब 40 हजार वेंटिलेटर है, जो संक्रमण बेड आइसीयू के लिए चाहिए होंगे, जो भारत की चिंकी हैदराबाद में हैं। राकेश के मुताबिक उनकी
की आशंका को देखते हुए बेहद कम हैं। ग्लोबल मौजूदा इन्फ्रास्ट्रक्चर को देखते हुए बेहद कम है। बेटी और दामाद दोनों बेहद सावधानी से खुद को
डाटा फर्म की रिपोर्ट के अनुसार, “दुनिया में इस उनका कहना है कि 15 मई तक अगर 22 लाख संभाल रहे हैं। श्रीवास्तव दंपती के मन में कहीं न
समय 8.80 लाख वेंटिलेटर की कमी है। इसमें से लोग संक्रमित होते हैं तो 70 की जगह 161 बेड कहीं इस स्थिति के बदतर होने को लेकर चिंता
अमेरिका को 75 हजार (हालांकि अमेरिकी राष्ट्रपति की जरूरत होगी। हालांकि सरकार बड़े पैमाने पर होती है। वे कहते हैं, टीवी पर चल रही खबरें भी
ने अगले 100 दिन में एक लाख वेंटिलेटर की लॉकडाउन और रोकथाम के दूसरे सख्त तरीके निराश ही करती हैं। कहीं से कोई सकारात्मक
जरूरत बताई है) जबकि फ्रांस, जर्मनी, इटली, स्पेन अपनाकर संक्रमण की संख्या 13,800 पर रोक खबर नहीं। ऐसी स्थिति में पत्रिकाएं पढ़कर वे
और ब्रिटेन को 74 हजार वेंटिलेटर की जरूरत है।” सकती है। ऐसी स्थिति में प्रति एक लाख पर खुद को रिचार्ज करने की कोशिश करते हैं। पूनम
इसी खतरे को देखते हुए भारत सरकार ने करीब 14 कोविड मरीजों के लिए बेड की मांग केवल एक रह कहती हैं, “अचानक रुटीन बदलने का असर भी
हजार वेंटिलेटर कोविड-19 मरीज के लिए सुरक्षित जाएगी। ” तो दिल दिमाग पर होता ही है। लेकिन बात सिर्फ
किए हैं। स्वास्थ्य मंत्रालय के एक अधिकारी के पल्मोलॉजिस्ट डॉ. प्रशांत गुप्ता कहते हैं कि हेल्थ हमारी नहीं, यह संकट तो पूरे देश के सामने है।
अनुसार, एजीवीए हेल्थकेयर कंपनी को 10 हजार इन्फ्रास्ट्रक्चर हमारी सबसे बड़ी समस्या है। ऐसे में कैसे भी इसका सामना तो करना ही पड़ेगा।” बड़े
वेंटिलेटर और भारत इलेक्ट्रॉनिक्स लिमिटेड को दुनिया भर से जो आंकड़े आ रहे हैं, उसे देखते हुए भाई और भाभी हमारे साथ आ तो गए हैं लेकिन
प्राइवेट कंपनियों के साथ साझेदारी कर अगले दो सबसे ज्यादा रिस्क में 60 साल से ज्यादा उम्र वाले उन्हें अपने फ्लैट की चिंता सताती रहती है।
महीने में 30 हजार वेंटिलेटर की मैन्युफैक्चरिंग करने हैं। इसके तहत हाई ब्लडप्रेशर, दिल, डायबिटीज कुमार भवेश चंद्र
को कहा है। हालांकि एक अनुमान के अनुसार और अस्थमा के मरीजों पर ज्यादा खतरा है।
जि
मुश्किल से एक-एक दिन काटना पड़ा। कभी-कभी
डर भी लगता था। लेकिन मैं यहां और वुहान में
स तरह की परिस्थिति हमने चीन में बंद हो गए। कभी बंद कमरे में समय व्यतीत करने काफी अंतर पाता हूं। वुहान में कोई भी घर से बाहर
कोरोनावायरस के फैलने के बाद के लिए मूवी, न्यूज और अपने घर वालों से बात नहीं निकल सकता था। सभी सोसाइटी में दो लोग
हुए लॉकडाउन में झेली, वह काफी करता था। वुहान से करीब 112 लोगों को रवाना बदल-बदलकर हर दिन राशन या जरूरी सामान
भयावह थी। कोई नहीं जानता था कि ऐसा भी कुछ किया गया था, जिसमें 76 भारतीय थे। तीसरे जत्थे के लिए लगाए जाते थे, जिनका काम होता था, हर
होगा। यह कहना है, आशीष यादव का, जो वुहान में हमलोगों को, रेस्क्यू कर 27 फरवरी को दिल्ली घर तक सामान पहुंचाना। जब सरकार की तरफ से
टेक्सटाइल यूनिवर्सिटी में एसोसिएट प्रोफेसर के पद के छावला आइटीबीपी कैंप लाया गया। फिर 13 सूचना जारी की गई की किसी भी विदेशी नागरिक
पर पिछले एक साल से कार्यरत हैं। उनकी पत्नी को इस तरह से नहीं भेजना है। उसके बाद कोई
(नेहा) कंप्यूटर साइंस में पीएचडी कर रही हैं। वे भी जरूरत पड़ने पर एक ऐप पर लोकेशन के साथ
कहते हैं, जब वायरस वुहान में फैला और इसकी वुहान से लौटने के बाद जरूरी सामान लिखना पड़ता था। उसके बाद घर
जानकारी सबसे पहले 26 दिसंबर को मिली, तो उस आशीष और नेहा यादव पर सुरक्षा बल सामान को डबल रैपर में लाते थे।
वक्त हम लोगों को यह नहीं लगा कि ऐसी नौबत भारत आने के बाद आइटीबीपी कैंप में 14 दिनों
आएगी। हमने इसे बड़े हल्के में लिया। लेकिन जब तक क्वारेंटाइन में रखा गया। सुबह-शाम चेक-अप
22 जनवरी की आधी रात को पता चला कि पूरे किया जाता था। जब समय पूरा हुआ तब फिर से
वुहान में लॉकडाउन लगा दिया गया है और सारे एक बार सभी का टेस्ट हुआ, भगवान की कृपा
यातायात के साधन बंद कर दिए गए हैं। हमारे कई से रिजल्ट निगेटिव आया। फिर मैं और मेरी पत्नी,
सारे चीनी मित्र हैं जिन्होंने बताया कि अब स्थिति दोनों उत्तर प्रदेश के एटा में अपने घर पर आए।
विकराल हो रही है, लगातार संक्रमितों की संख्या हम लोगों को फिर से जिला प्रशासन की तरफ से
बढ़ती जा रही है, लोगों की मौत हो रही है। हमने अगले 14 दिनों के लिए होम क्वारेंटाइन पर रखा
भारत के राजदूत से संपर्क कर अनुरोध किया कि गया। सच कहूं तो, गांव में बड़ी घृणा की दृष्टि से
हम लोगों को यहां से निकाला जाए। तकरीबन एक लोग देखते हैं, जिससे मुझे शर्मिंदगी महसूस होती
महीने मैंने वहां लॉकडाउन में अपनी जिंदगी गुजारी। है। ऐसा लगता है, जैसे मैंने कोई अपराध किया है।
हम लोगों को कई तरह के इंडियन फूड्स मिलने (आशीष ने जैसा नीरज झा को बताया )
मो
हो गया तो लोगों को भेजना हम बड़े पैमाने पर होने वाले उन्नाव, उत्तर प्रदेश
मुश्किल हो गया। संक्रमण को रोक सकते हैं।”
इंडियन काउंसिल इस समय भारत के लिए हाली में हार्डवेयर मार्केट में रेहड़ी
ऑफ मेडिकल रिसर्च के
आर.गंगाखेडकर के अनुसार,
70 फीसदी आबादी कम्युनिटी संक्रमण के स्तर पर
चिंता का विषय है कि क्या हम का काम करता हूं। रोज होने वाली
कमाई से खर्चा चलता है। अब
“29 मार्च तक देश में 38,442 ग्रामीण इलाकों में पहुंच गए हैं? स्वास्थ्य मंत्रालय लॉकडाउन है तो कमाई भी बंद हो गई है।
लोगों की कोविड-19 की जांच रहती है, ऐसे में अगर के संयुक्त सचिव लव अग्रवाल अभी 10 दिन पहले ही पत्नी को गांव छोड़कर
की गई है।” यह दूसरे देशों ने एक संवाददाता सम्मेलन में वापस काम पर लौटा था। उस वक्त मेरे पास
की तुलना में बेहद कम है। संक्रमण वहां पहुंचा तो कहा है, “अभी भारत में इसके कुल 1,500 रुपये बचे थे। वह भी खत्म हो
अमेरिका में जहां 5.5 लाख बहुत मुश्किल होगी कोई सबूत नहीं हैं। ” चुके हैं। ऐसे में बच्चों को लेकर गांव जाने के
लोगों की जांच की गई है, वहीं हालांकि सरकार के इस लिए पैदल निकल पड़ा। मेरा गांव यूपी के
दक्षिण कोरिया में 4.5 लाख की डॉ नरेश त्रेहन रुख पर डॉ जॉन सवाल करते उन्नाव जिले में है। लेकिन चंडीगढ़ में पुलिस
जांच हुई है। भारत में अभी भी सीएमडी, मेदांता हुए कहते हैं, “आंख मूंद लेने ने आगे जाने से रोक दिया। वापस हमें मोहाली
भेज दिया। पुलिस ने कहा कि अपने ठिकाने
रेड अलर्ट ः निजामुद्दीन इलाके में संक्रमण का ज्यादा मामले आने के बाद पहुंचे स्वास्थ्यकर्मी पर रहो, एक हफ्ते का राशन पहुंच जाएगा।
समझ में नहीं आ रहा था किक्या करूं। उस
वक्त पुलिस की बात मानने के अलावा कोई
चारा नहीं था। इसलिए वापस लौट गए। वहां
पहुंचने पर बिस्किट का पैकेट और राशन
दे दिया। उससे थोड़ी राहत मिल गई। जिस
बिल्डिंग में रहता हूं, उसमें 17 कमरे हैं। सभी
में प्रवासी मजदूर रहते हैं। मकान मालिक
बहुत अच्छे हैं, उन्होंने कहा है कि कर्फ्यू
खुलने तक किसी को किराया नहीं देना होगा।
इसके अलावा उन्होंने हम लोगों के लिए
राशन का भी इंतजाम कर दिया है। ऐसे में
बड़ी राहत मिल गई है। लेकिन ऐसे कब तक
चलेगा। अगर कमाएंगे नहीं तो कोई कब तक
घर बैठे खिलाएगा। यही चिंता सताती जा रही
है। पत्नी भी गांव में है। बच्चे बार-बार उसके
पास जाने को कह रहे हैं। इस वक्त मोबाइल
फोन ही सहारा है। सरकार के दावे तो बहुत
कुछ सुन रहे हैं कि बैंक खाते में पैसा आएगा,
लेकिन अभी तक कुछ नहीं मिला है। केवल
राशन ही सहायता के नाम पर मिला है। आगे
भगवान भरोसे है। देखें क्या होता है?
हरीश मानव
पीटीआइ
मा
वरिष्ठ नागरिक
गाजियाबाद, उत्तर प्रदेश
से सच नहीं बदल सकता है। 15 लाख लोगों की के नेशनल कन्वीनर डॉ. नरेंद्रनाथ गुप्ता कहते हैं।
स्क्रीनिंग की जा चुकी है तो फिर क्यों मामले बढ़ “सरकार को पूर्ण लॉकडाउन की जगह लक्षित
रहे हैं। जाहिर है, संक्रमण बढ़ रहा है। जॉन कहते लॉकडाउन करना चाहिए। उसके अलावा इस
है सरकार को घनी आबादी वाले इलाकों में सख्त रणनीति से आबादी में प्रतिरोधक क्षमता भी विकसित
निगरानी रखनी चाहिए। क्योंकि अगर ऐसा नहीं होगा नहीं हो पा रही है। जबकि दक्षिण कोिरया, जापान
तो संक्रमण को रोकना बहुत मुश्किल होगा। इसके जैसे देशों ने लॉकडाउन का बिना सहारा लिए
अलावा सभी सरकारी और निजी अस्पतालों को काफी हद तक कोरोना के संक्रमण को नियंित्रत
सेंट्रल कमांड सिस्टम के तहत लाना चाहिए। ऐसा कर लिया है।” प्रतिरोधक क्षमता क्या है? इस पर
होता है तो गंभीर परिस्थितियों में बेहतर समन्वय हो डॉ. प्रशांत गुप्ता कहते हैं, “इसे हर्ड कम्युनिटी कहा
सकेगा।” जाता है। जब कोई वायरस फैलता है तो मानव
शुगर की दवा भी खत्म हो रही है। दिक्कत सीमित संसाधन और बढ़ते खतरे को देखते श्ारीर में उसके खिलाफ लड़ने के लिए धीरे-धीरे
है कि किसी से मंगवा भी नहीं पा रहा हूं। घर हुए 24 मार्च से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 21 दिनों अपने आप प्रतिरोधक क्षमता उत्पन्न हो जाती है।
में कैद होकर रह गया हूं क्योंकि अधिक उम्र के लॉकडाउन का ऐलान कर दिया है। इसकी पूर्ण लॉकडाउन होने से यह क्षमता विकसित होने
के लोगों के कोरोनावायरस से संक्रमित होने वजह से जहां आर्थिक गतिविधियां रुक गई हैं, की दर कम हो जाती है। ऐसे में सरकार के सामने
का ज्यादा खतरा बताया जा रहा है। इसलिए वहीं लाखों मजदूरों को भूखे-प्यासे अपने परिवार सामंजस्य बनाने की भी चुनौती है।” लॉकडाउन से
रोजाना दू्ध, सब्जी और दूसरी दैनिक उपयोग के साथ पलायन करना पड़ा है। अकेले उत्तर लोगों में अवसाद के मामले बढ़ रहे हैं। दिल्ली के
की वस्तुओं की खरीद करने में दिक्कत आ प्रदेश में 6-7 लाख लोग दूसरे राज्यों से पहुंचे हैं। मनोचिकित्सक मनोज अग्रवाल का कहना है, “लोग
रही है। हालांकि पड़ोसी काफी मदद कर रहे इस पलायन से कम्युनिटी संक्रमण का खतरा बढ़ कोरोना के डर और बढ़ते आर्थिक संकट की वजह
हैं। मेरा एक बेटा दिल्ली के रोहिणी में रहता गया है। सरकार के अचानक लॉकडाउन करने से अवसाद में जा रहे हैं। पहले इस तरह के मामले
है, जबकि दूसरा बेटा हैदराबाद में रहता है। के फैसले पर भी सवाल उठ रहे हैं। टाटा ट्रस्ट के मेरे पास हर रोज 5-10 आते थे, अब यह संख्या
लेकिन विडंबना यह है कि दिल्ली में रहकर इंडिया हेल्थ फंड के प्रोग्राम मैनेजर हिमांशु शर्मा डबल हो गई है। "
भी मेरा बेटा मुझसे नहीं मिल पा रहा है। के अनुसार, “लॉकडाउन से न केवल अर्थव्यवस्था अब सरकार के सामने दो तरफ से चुनौती खड़ी
पिछले तीन-चार साल से इस सोसायटी में रह को भारी नुकसान पहुंच रहा है, बल्कि आबादी में हो गई है। एक तो उसके सामने लाखों लोगों की
रहा हूं लेकिन इतना अकेला कभी महसूस नहीं वायरस के खिलाफ लड़ने के लिए प्रतिरोधक क्षमता जान बचाने की चुनौती है, दूसरे देश भर से पलायन
किया। अगर लॉकडाउन जल्द खत्म नहीं हुआ भी विकसित नहीं हो पा रही है।” केयर रेटिंग के कर चुके श्रमिकों को भरोसा वापस दिलाना है कि
तो मुझे और मेरी पत्नी को काफी दिक्कतें अनुसार, अकेले 21 दिन के लॉकडाउन से 6.3 आप घबराए नहीं, आपकी रोजी-रोटी नहीं बिगड़ेगी।
आने वाली हैं। लाख करोड़ रुपये से लेकर 7.2 लाख करोड़ रुपये देेखना यह है कि सरकार क्या करती है, क्योंकि
के.के.कुलश्रेष्ठ का नुकसान हो सकता है। जन स्वास्थ्य अभियान अभी तक के उपाय नाकाफी नजर आ रहे हैं।
महामारी की शक्ल ले चुके कोविड-19 के है। ऐसे में हमें हेल्थ केयर टेस्टिंग पर फोकस करना चाहिए, जिसमें हर
मामले अब भारत में तेजी से बढ़ रहे हैं। साफ उस व्यक्ति का परीक्षण होना चाहिए, जिसे बुखार, बलगम, सांस लेने
है कि यह पूरे देश में पैर पसार चुका है। चिंता में तकलीफ और उसमें गंध पहचान करने की क्षमता खत्म हो रही है।
की बात यह है कि जब देश में लॉकडाउन है, अगर इसमें से किसी भी व्यक्ति को कोई भी तीन लक्षण मिलें तो तुरंत
विदेश से आवाजाही बंद है, उसके बाद भी उसकी टेस्टिंग होनी चाहिए। खास तौर से बुखार को किसी भी हालत
संक्रमित लोगों की संख्या बढ़ रही है। ऐसे में में नजरअंदाज नहीं करना चाहिए। अगर ऐसा करते हैं तो पब्लिक हेल्थ
यह तो तय है कि 21 दिन के लॉकडाउन के टेस्टिंग खुद-ब-खुद हो जाएगी और हमारे लिए संक्रमण को रोकना बेहद
डॉ. टी.जैकब जॉन बाद भी यह खत्म होने वाला नहीं है। आसान हो जाएगा। कुछ लोग मास टेस्टिंग की बात कर रहे हैं, हमें इस
महामारी को रोकने के लिए मेडिकल मूर्खतापूर्ण सोच से बचना चाहिए। इस वक्त हेल्थ केयर टेस्टिंग ही सबसे
साइंस में दो तरीके होते हैं। पहला यह कि हम कारगर तरीका है। हमें एंटीबॉडी टेस्टिंग की भी जरूरत है। इसके जरिए
कोई हस्तक्षेप कर उस पर नियंत्रण कर लें। मसलन उसका टीका विकसित हम उन लोगों के बारे भी पता लगा सकेंगे, जो वायरस से संक्रमित होकर
कर लें। लेकिन फिलहाल ऐसा होता नहीं दिख रहा है। कोविड-19 का अपने आप ठीक हो गए, क्योंकि उनके अंदर एंटीबॉडीज विकसित हो गए।
टीका विकसित होने में कम से कम एक साल लगेगा। फिर हमारे पास इसका फायदा यह होगा कि वास्तविक स्थिति को समझ पाएंगे।
दूसरा तरीका यह है कि लोगों पर नियंत्रण कर उसके प्रसार को रोका यह सब करने के बावजूद हमें कम्युनिटी संक्रमण के लिए तैयार
जाए। हम यही तरीका अपना रहे हैं। तकनीकी तौर पर एक व्यक्ति से रहना चाहिए। क्योंकि लॉकडाउन की वजह से इन 21 दिनों में कम्युनिटी
दूसरे व्यक्ति में संक्रमण की संभावना को कम कर रहे हैं। इसके लिए संक्रमण नहीं होगा। प्रवासी श्रमिकों के पलायन, सड़कों पर काम कर रहा
मास्क, ग्लासेज, ग्लव्स जैसे पर्सनल प्रोटेक्टिव इक्वीपमेंट का इस्तेमाल भी प्रशासनिक तंत्र, स्लम एरिया और दूसरी घनी आबादी वाले क्षेत्रों की वजह
संक्रमण को रोकने में मदद करता है। लेकिन ऐसा करने के बावजूद हम से इसके प्रसार की आशंका काफी बढ़ गई है। क्योंकि लॉकडाउन में रहने
21 दिन में इसे पूरी तरह से नियंत्रित नहीं कर सकते। के बावजूद यहां पर फिजिकल डिस्टेंसिंग बहुत कम है। हमें इस समय
ऐसे में इन 21 दिनों में हमारी सरकार के दो उद्देश्य होने चाहिए। पहला सोशल डिस्टेंसिंग की नहीं, फिजिकल डिस्टेंसिंग की जरूरत है। क्योंकि
तो इस दौरान हम हेल्थ इन्फ्रास्ट्रक्चर मजबूत करें। मसलन कोविड-19 इन क्षेत्रों में कोई व्यक्ति संक्रमित होता है, तो वह न केवल अपने परिवार
के स्पेशलाइज्ड अस्पताल बनाए जाएं। मेडिकल स्टॉफ के लिए पर्सनल को संक्रमित करेगा बल्कि लॉकडाउन खत्म होने के बाद कम्युनिटी को
प्रोटेक्टिव इक्वीपमेंट की उपलब्धता बढ़ाई जाए, आइसीयू, वेंटिलेटर की संक्रमित करेगा। ऐसे में 21 दिन के लॉकडाउन की अवधि भी बढ़ाना
उपलब्धता बढ़ाई जाए। ज्यादा से ज्यादा लोगों को मेडिकल ट्रेनिंग दी जरूरी है, जिसके लक्षण भी हमें दिखने लगे हैं। मुझे उम्मीद है कि सरकार
जाए। भारत के कमजोर हेल्थ इन्फ्रास्ट्रक्चर को देखते हुए सरकार को लॉकडाउन की अवधि जरूर बढ़ाएगी।
चाहिए कि सभी मैन्युफैक्चरर्स को कहे कि वह सारे काम छोड़कर बड़े ऐसे में हम अधूरे मन से भले ही कहें कि अभी देश में कम्युनिटी
पैमाने पर मास्क, ग्लव्स, ग्लासेज, वेंटिलेटर आदि जरूरी चीजों का निर्माण संक्रमण नहीं हो रहा है लेकिन हम जानते हैं कि यह शुरू हो चुका है।
करें, जिससे आने वाले बड़े खतरे से निपटने के लिए हम पूरी तरह से कोविड-19 के मामले में अगर कोई संक्रमित व्यक्ति विदेश से आता है तो
मुस्तैद और तैयार रहें। उसके संपर्क में आए व्यक्ति को संक्रमण होगा। फिर अगर उस संक्रमित
हमारा दूसरा उद्देश्य टेस्टिंग का होना चाहिए। टेस्टिंग के दो चरण होते व्यक्ति के संपर्क में कोई व्यक्ति आता है और उसे भी संक्रमण हो जाए,
हैं। पहला पब्लिक हेल्थ टेस्टिंग और दूसरा हेल्थकेयर टेस्टिंग। जब भारत तो समझ लीजिए कि कम्युनिटी संक्रमण की शुरुआत हो गई है। हमें
में संक्रमण के मामले सामने आए, उसके दो-तीन हफ्ते में पब्लिक हेल्थ इस चेन रिएक्शन को रोकना है। अगर ऐसा नहीं होता है तो स्थिति बहुत
टेस्टिंग होनी चाहिए थी। लेकिन उस वक्त सरकार ने ऐसा नहीं किया। भयावह हो जाएगी।
अगर ऐसा करते तो बहुत से असंक्रमित लोगों को संक्रमण से बचाया जा अगर मैं इस समय प्रधानमंत्री होता तो मैं कई सारे वर्किंग ग्रुप का गठन
सकता था, क्योंकि पब्लिक हेल्थ टेस्टिंग का उद्देश्य ही यह होता है कि करता। हर ग्रुप में दो-तीन विशेषज्ञ होते। पहले वर्किंग ग्रुप का केवल यही
संक्रमित लोगों की पहचान करो और उन्हें असंक्रमित लोगों से अलग काम होता कि वह अगले दिन संक्रमण की क्या स्थिति रहने वाली है,
करो। एक संक्रमित व्यक्ति की पहचान कर हम आसानी से 50 असंक्रमित उसका आकलन करे। खास तौर से विभिन्न भौगोलिक स्थिति में वायरस
लोगों को संक्रमण से बचा सकते थे। लेकिन अब वह दौर निकल चुका के संक्रमण की क्या स्थिति है। उसकी जानकारी लेना उसका काम होता।
संदीपन चटर्जी
वहीं दूसरे वर्किंग ग्रुप का काम जरूरी इन्फ्रास्ट्रक्चर तैयार करना होता। सावधानीः कम्युनिटी संक्रमण से बचने के लिए दूरी जरूरी
जबकि तीसरे ग्रुप का फोकस जरूरी मानव संसाधन खड़े करना होता।
उसके पास हेल्थ केयर प्रोफेशनल्स का प्रशिक्षण, उनके काम करने की शुरुआती समय के अलावा लॉकडाउन के पहले तीन-चार दिन गंवा चुकी
गाइडलाइन आदि तैयार करने की जिम्मेदारी होनी चाहिए। चौथा वर्किंग है। वह अब हरकत में आई है। सरकार खाने-पीने, दवाइयों और दूसरी
ग्रुप लोगों में जागरूकता फैलाने का काम करता और एक अहम ग्रुप होना जरूरी वस्तुओं की आपूर्ति के बारे में बात कर रही है। लेकिन यह केवल
चाहिए था जो राज्यों के साथ समन्वय का काम करता। देखिए, इस समय घबराहट भरा कदम है। क्योंकि जिस आपा-धापी में सरकार ने लॉकडाउन
हम युद्ध की स्थिति में हैं और इस वक्त सबको अनुशासित रहना बेहद का ऐलान किया वह बहुत ही क्रूरता भरा और अमानवीय कदम था।
जरूरी है। आप केवल चार घंटे का समय देकर लोगों को लॉकडाउन नहीं कर
हमारे देश में अभी सार्वजनिक और निजी क्षेत्र के आधार पर हेल्थ सकते हैं। आपको लॉकडाउन के लिए एक मानक तैयार करना चाहिए
केयर सिस्टम खड़ा हुआ है। लेकिन उसमें कोई समन्वय नहीं है। इन था। मसलन, आप देशवासियों से कुछ दिन पहले यह कह सकते थे कि
परिस्थितियों में एक सिंगल कमांड सिस्टम की जरूरत है, जिसके तहत जिस दिन देश में संक्रमित लोगों की संख्या 1000 हो जाएगी उस दिन हम
सार्वजनिक और निजी क्षेत्र के अस्पताल हों। मुझे नहीं लगता कि इस लॉकडाउन कर देंगे। ऐसा होने से लोग मानसिक रूप से तैयार हो जाते।
पहल का कोई भी विरोध करेगा। अगर ऐसा किया जाता है तो उसके लिए आज लोग अवसाद में हैं। मुझसे कई लोग फोन कर बता रहे हैं कि उनकी
जमीनी स्तर पर इन्फ्रास्ट्रक्चर तैयार करना बेहद आसान हो जाएगा, साथ स्थिति सामान्य नहीं रह गई है। इस स्थिति से बचने के लिए सरकार को
ही समन्वय भी हो जाएगा। लेकिन मौजूदा सरकार का रुख निजी क्षेत्र को योजना बनानी चाहिए थी। लेकिन सरकार इस समय रैश ड्राइविंग कर
इस लड़ाई में शामिल करने का नहीं है। वह बार-बार यही कह रही है कि रही है, जो खतरनाक है। उसे यह समझना होगा कि केवल सही दिशा में
हम लड़ाई लड़ रहे हैं। उसे यह समझना चाहिए कि अकेले ऐसा करना चलना जरूरी नहीं है, बल्कि फिनिशिंग लाइन तक पहुंचना भी बेहद अहम
उसके बस की बात नहीं है। है। इस लड़ाई में स्पीड का बेहद महत्व है। अगर वह ऐसा नहीं कर पाती
अगर हम ऐसा कर लेते हैं तो हम यह जान पाएंगे कि वायरस का है तो पूरी लड़ाई बेकार हो जाएगी। अब यह उस पर है कि वह किस तरह
व्यवहार कैसे बदल रहा है, किन क्षेत्रों में उसका प्रकोप ज्यादा हो सकता की ड्राइविंग करती है, क्योंकि पूरा देश उसी के भरोसे है।
है और किस वक्त हमें कहां पर क्या एक्शन लेना है, यह सब बेहद (लेखक इंडियन काउंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च में
आसानी से कर सकेंगे। लेकिन सरकार वही गलती दोहरा रही है, जो वह सेंटर फॉर एडवांस रिसर्च इन वायरोलॉजी के प्रमुख रह चुके हैं।
कोविड-19 के मामले शुरुआत में आने के वक्त कर रही थी। सरकार यह लेख प्रशांत श्रीवास्तव से बातचीत पर आधारित है)
रोकथाम के दूसरे
कदम भी बेहद जरूरी
कोविड-19 के संकट से निपटने के लिए सरकार को दूसरे विकल्पों पर भी विचार करना चाहिए
कोरोनावायरस से फैली महामारी को रोकने एक बड़ी आबादी उसका सामना कर सके। जैसा कि हम जानते हैं, इससे
के लिए भारत सरकार ने लॉकडाउन का लड़ने के लिए न हमारे पास कोई टीका है न कोई दूसरा इलाज। इन
सहारा लिया है। सरकार को उम्मीद है कि चुनौतियों को देखते हुए हमें दो तरह के नजरिए से काम करना चाहिए।
इसके जरिए कोरोना के संक्रमण को रोका एक तो हमें बहुत ही बड़े तबके में लोगों की कोरोना जांच करनी
जा सकता है। इस कदम से निश्चित तौर पर चाहिए और देश भर में क्वॉरेंटाइन की सुविधा विकसित करनी चाहिए।
संक्रमण को रोकने में मदद मिलेगी। लेकिन इसके अलावा जैसे-जैसे कोरोना के संक्रमण के मामले घटते जाएं वैसे-
इस फैसले से आर्थिक मंदी की भी आशंका वैसे हमें प्रतिबंधों में ढील देनी शुरू करनी चाहिए, जिससे बड़ी आबादी
बढ़ गई है। ऐसा इसलिए कि लॉकडाउन से न में संक्रमण के खिलाफ प्रतिरोधक क्षमता विकसित हो सके। इस संकट
हिमांशु आर. शर्मा केवल श्रमिकों की आपूर्ति घट गई है बल्कि से निपटने का एक तरीका यह है कि बड़ी आबादी में प्रतिरोधक क्षमता
वस्तुओं और सेवाओं की मांग में भी गिरावट वायरस के खिलाफ विकसित हो जाए।
आई है। इस संकट को देखते हुए सरकार को कोरोनावायरस का संक्रमण टेस्टिंग के समय हमें इस बात का ध्यान रखना होगा कि हम उन
रोकने के लिए दूसरे बेहतर तरीके अपनाने होंगे, साथ ही लगातार आर्थिक लोगों का परीक्षण न करें, जिनके अंदर फ्लू जैसे लक्षण हैं वरना हम
राहत पैकेज भी देना होगा। अगर यह दोनों कदम सही समय और सही अस्पतालों में कोविड-19 और सामान्य फ्लू वाले मरीजों को मिश्रित कर
तरीके से उठाए गए तो निश्चित तौर पर वायरस संक्रमण को रोकने और देंगे। परीक्षण के लिए हमें भारी मात्रा में टेस्टिंग किट की भी जरूरत होगी।
अर्थव्यवस्था संभालने में मदद मिलेगी। इसके लिए हमें आरटी-पीसीआर तरीके को अपनाना होगा जिससे परीक्षण
कोविड-19 से दुनिया भर में होने वाले संक्रमण और इससे हुई मौतों में देरी न हो। इसके अलावा नर्सिंग के लिए मिडवाइफ नेटवर्क का भी
को अगर देखा जाए तो भारत में मई तक करीब 13 लाख लोगों के कोरोना इस्तेमाल करना होगा। उन्हें बाकायदा प्रशिक्षण देकर ग्रामीण इलाकों में
वायरस से संक्रमित होने की आशंका है। अगर इस दर को देखा जाए तो इसके संक्रमण को रोकने में मदद लेनी होगी।
करीब ढाई लाख लोगों को अस्पताल में भर्ती करना पड़ेगा। भारत में प्रति साथ ही हमें बिना डॉक्टर की पर्ची के तुरंत एंटी मलेरिया दवाओं की
1,000 लोगों पर केवल 0.7 बेड हैं। अगर माना लें कि हर अस्पताल में बिक्री पर प्रतिबंध लगा देना चाहिए, जिससे जरूरतमंदों को यह दवाएं
10 फीसदी बेड आइसीयू में हैं और उनमें 50 फीसदी ही वेंटिलेटर हैं तो आसानी से मिलती रहें। छोटे शहरों के अस्पतालों में खासतौर से संक्रमण
हमारे पास करीब 40,000 आइसीयू बेड और इतनी ही मात्रा में वेंटिलेटर को लेकर भारी लापरवाही है। ऐसे में वहां पर लोगों को रखना काफी
होंगे। वहीं, दुनिया में कोरोना के संक्रमण की दर को देखते हुए भारत में जोखिम भरा हो सकता है इसे देखते हुए राज्य सरकारों को खाली पड़े
करीब 37,500 मरीज गंभीर स्थिति में होंगे, जिन्हें वेंटिलेटर की जरूरत हॉस्टल को अस्पतालों में परिवर्तित कर देना चाहिए।
पड़ेगी। हालांकि, यह आकलन सबसे खराब परिस्थितियों के आधार पर जैसी कि उम्मीद थी, इस गंभीर स्थिति को देखते हुए सरकार आर्थिक
है क्योंकि अभी हम जो भी आकलन कर रहे हैं वह पैकेज का ऐलान करेगी। इसी के तहत सरकार ने 1.7
वैश्विक स्तर पर मिली जानकारी के आधार पर है। लाख करोड़ रुपये के आर्थिक पैकेज का ऐलान किया है।
लेकिन हमें समझना होगा कि भारत में करीब 22 21 दिनों के केयर रेटिंग का अनुमान है कि 21 दिनों के लॉकडाउन से
फीसदी मौतों को ही पंजीकृत किया जाता है, उस अर्थव्यवस्था को 6.3-7.2 लाख करोड़ रुपये का नुकसान
आधार पर कोविड-19 से होने वाली मौतों की बेहद लॉकडाउन से होगा। ऐसे में मौजूदा पैकेज पर्याप्त नहीं है। इसमें भी बुरी
कम संख्या सामने आएगी। अर्थव्यवस्था को 6.3- बात यह है कि 90 फीसदी श्रमिक असंगठित क्षेत्र में
एक बात और समझनी होगी कि लॉकडाउन की
वजह से भले ही संक्रमण रुक जाए लेकिन उसके
7.2 लाख करोड़ रुपये काम करते हैं। पैकेज में शहरी गरीब के लिए कुछ खास
प्रावधान नहीं हैं। ऐसे में उनके सामने नौकरी गंवाने का
बाद स्थिति सामान्य होने पर संक्रमण बढ़ने की का नुकसान हो सकता भी खतरा है। साथ ही प्रवासी श्रमिकों के लिए अपने घर
आशंका है। ऐसा इसलिए कि संभावना जताई जा
रही है कि लोगों में कोरोनावायरस को लेकर वैसी
है। पैकज े की तुलना में लौटने के अलावा कोई चारा नहीं बचा है।
सरकार राहत पैकेज के तहत करीब 1.7 लाख करोड़
प्रतिरोधक क्षमता विकसित नहीं हो पाएगी, जिससे यह कहीं ज्यादा है रुपये खर्च करेगी लेकिन यह पैसा कहां से आएगा यह
जितेन्द्र गुप्ता
सरकार ने नहीं बताया है। इसलिए जरूरी है कि सरकार पैसा जुटाने के लॉकडाउन का असरः दिल्ली के सदर बाजार में बंद पड़ी दुकानें
लिए अतिरिक्त संसाधनों का अधिकतम इस्तेमाल करे। जिस तरह से कच्चे
तेल की कीमतें अंतरराष्ट्रीय बाजार में गिरी हैं उससे सरकार को रकम अलावा सरकार को तुरंत एक एग्जीक्यूटिव ऑर्डर निकालना चाहिए
जुटाने में भारी मदद मिलेगी। हालांकि लॉकडाउन की वजह से जो घरेलू जिसमें वह बड़े कॉरपोरेट घरानों को निर्देश दे कि वे जल्द से जल्द उच्च
स्तर पर पेट्रोल-डीजल आदि की मांग गिरेगी, उससे होने वाले राजस्व गुणवत्ता वाले मॉस्क, सैनिटाइजर, टेस्टिंग किट और वेंटिलेटर का उत्पादन
नुकसान को भी सरकार को ही वहन करन पड़ेगा। लेकिन सरकार ने जिस करना शुरू कर दें। इस भयानक त्रासदी से निपटने के लिए आरबीआइ
तरह से एक्साइज ड्यूटी बढ़ाई है उससे इस घाटे की भरपाई कुछ हद तक को भी बड़े स्तर पर बोल्ड कदम उठाने होंगे। इसके लिए उसे फैसले लेते
हो जाएगी। वैसे तो अब थोड़ी देर हो चुकी है लेकिन जिस तरह से दक्षिण वक्त बैलेंस शीट की परवाह नहीं करनी चाहिए। सरकार को बैंकों से लोन
कोरिया ने कोरोना महामारी से निपटने के लिए कदम उठाएं सिक्युरिटाइजेशन करना चाहिए, जिससे वह रिटेल लोन देने
हैं, भारत सरकार उससे सीख ले सकती है। वहां की सरकार वेतन भोगी को में न डरें। जिस तरह से पूरे देश में लॉकडाउन किया गया
ने बिना लॉकडाउन किए नए संक्रमण को रोकने में सफलता है और सीमाएं सील कर दी गई हैं, उससे अर्थव्यवस्था को
हासिल की है। दक्षिण कोरिया ने थर्मल इमेजिंग की, साथ अड़चन नहीं आए बहुत नुकसान होगा और आबादी को भी संक्रमण से लड़ने
ही भारी तादाद में टेस्टिंग सेंटर बनाए और तेजी से संक्रमित इसके लिए सरकार के लिए तैयार होने का वक्त नहीं मिलेगा। अर्थव्यवस्था
लोगों की पहचान की, जिससे संक्रमण के विस्तार को उसने
सफलतापूर्वक रोक लिया।
को प्राइवेट सेक्टर को सरकार पहले से ही पटरी से उतरती नजर आ रही थी, ऐसे में
को लॉकडाउन के फैसले पर दोबारा विचार करना
राहत पैकेज में वेतन भोगी को कोई अड़चन न आए, वेतन की गारंटी देनी चाहिए, जिससे स्थिति और बुरी न हो पाए।
इसके लिए सरकार को प्राइवेट सेक्टर को वेतन गारंटी देने
जैसे कदम उठाने चाहिए ताकि कंपनियां कर्मचारियों को
चाहिए। यह कदम बड़ी (लेखक टाटा ट्रस्ट के इंडिया हेल्थ फंड के प्रोग्राम मैनेजर हैं
और लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स के
नौकरी से न निकालें और नई भर्तियों में देरी न करें। इसके राहत दे ग ा प्रशिक्षित अर्थशास्त्री हैं)
कोरोना कोविड-19 वायरस पूरे विश्व में एक अधिकतर ऐसे हैं जो अन्य रोग जैसे उच्च रक्तचाप, मधुमेह, दमा अथवा
व्यापक संक्रामक महामारी का रूप ले चुका हदय रोग से ग्रसित हैं। अतः इस रोग को रोकने के लिए एक महत्वपूर्ण
है। रोग की भयावहता और इसकी तेज गति के आवश्यकता यह है कि जो व्यक्ति 55 वर्ष से अधिक आयु के हैं, उन्हें
संक्रमण के कारण कई देशों ने अपने यहां पूर्ण संक्रमित होने से बचाया जाए। इस रोग से अभी तक 9 वर्ष से कम आयु
लॉकडाउन कर दिया, यानी सभी काम रोक के किसी भी बच्चे की मृत्यु नहीं हुई है, अर्थात इससे यह अर्थ निकाला
दिए गए और सभी व्यक्तियों को अपने घरों जा सकता है कि यह रोग बच्चों में गंभीर रूप नहीं लेता है और वे सभी
में रहने के लिए बाध्य कर किया गया। विश्व ठीक हो जाते हैं। ऐसे में क्या 9 वर्ष से छोटे बच्चे जिनकी संख्या भारत
डॉ नरेंद्र गुप्ता में पहली बार इस तरह की घटना हुई कि में लगभग 25 प्रतिशत है, का उपयोग हर्ड प्रतिरोधक क्षमता बनाने में
पूरा विश्व ही जैसे इस महामारी से बचाव के किया जा सकता है। यह एक जोखिम वाला काम है, पर इसकी संभावना
लिए रुक गया हो। किंतु क्या यह कोविड-19 विपत्ति के समय तलाशी जा सकती है ।
वास्तव में इतना भयानक है जितना इसे प्रस्तुत किया जा रहा है? मैं इसके जर्मनी के हेम्बर्ग विश्वविद्यालय ने सन 2020 के प्रथम दो माह में
बारे में कुछ आवश्यक तथ्य प्रस्तुत कर रहा हूं जो कि अभी तक चर्चा में विश्व में हुई मौतों का जो आंकड़ा दिया है, उसके अनुसार फरवरी माह के
अधिक नहीं है। अंत तक विश्व में 11,77,141 रोगी कैंसर से, 2,40,950 एचआईवी से,
सबसे पहले, क्या यह रोग इतना भयावह है जितना कि इसे घोषित 1,53,696 मलेरिया से, 69,602 की साधारण जुकाम से मृत्यु हुई थी।
किया जा रहा है? विश्व में प्रतिवर्ष इन्फ्लुएंजा से 40-50 करोड़ लोग अमेरिका की जोस होपकिन्स विश्वविद्यालय ने एक गणितीय मॉडल
प्रभावित होते हैं। अमेरिका की शीर्ष राजकीय संस्था सेंटर फॉर डिजीज के आधार पर यह दिखलाया है कि भारत अगर इस तालाबंदी को
कंट्रोल के अनुसार इस रोग से वर्ष 2019 में उनके देश में ही 61,000 सफलतापूर्वक लागू करता है तो उसके यहां लगभग 12 करोड व्यक्ति
लोगों की मृत्यु हुई। उस अनुपात में कोविड-19 से अभी तक कम मौतें संक्रमित होंगे और इसका अधिकतम स्तर मई 2020 के तीसरे अथवा चौथे
हुई हैं। जैसा कि हम जानते हैं कि किसी भी प्रकार के वायरस को समाप्त सप्ताह में होगा। कुछ इसी प्रकार की स्थिति लंदन के इम्पीरियल
करने के लिए कोई औषधि नहीं है। इसको केवल टीका द्वारा ही रोका महाविद्यालय और अमेरिका के ही मैसाचुसेट्स इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी
जा सकता है, जिससे कि शरीर में इस वायरस के विरुद्ध एंटीबॉडीज (एमआइटी) ने भी दर्शाई है। उनके अनुसार तालाबंदी से संक्रमण प्रसार
बन जाएं। ताकि जब भी यह वायरस शरीर को रोग ग्रसित करने लगे रुकेगा और कम व्यक्ति संक्रमित होंगे लेकिन यह लंबे समय तक बना
तो एंटीबॉडीज उसको रोक दें और रोग नहीं होने दें। टीके के अतिरिक्त रहेगा। इसके विपरित बिना लॉकडाउन के तेजी से संक्रमण होने से अधिक
शरीर में रोग को पुनः होने से रोकने के लिए एंटीबॉडीज संक्रमित व्यक्ति व्यक्ति रोगग्रस्त होते पर यह कम समय में समाप्त होता। ऐसी विडंबना
में विकसित हो जाते हैं, जिससे उसे दोबारा वह रोग नहीं होता है। भरी परिस्थिति में ब्राजील, मेक्सिको, जापान एवं कुछ समय तक ब्रिटेन ने
कोविड-19 के संबंध में भी यह मानना उचित होगा कि संक्रमित होने लॉकडाउन न करने का निर्णय लिया और वे अभी गलत सिद्ध नहीं हुए हैं।
और ठीक होने के बाद जीवनपर्यन्त प्रतिरोधक क्षमता बनेगी। वैज्ञानिकों भारत में इस रोग से निपटने और प्रकोप को कम करने के लिए
के अनुसार अगर 60 प्रतिशत व्यक्तियों में यह प्रतिरोधकता आ जाती अत्यन्त गंभीर तैयारी की जा रही है। इसके लिए प्रत्येक जिले में रोगियों
है तो शेष व्यक्ति अपने आप प्रतिरोधक क्षमता प्राप्त कर लेंगे। इसे हर्ड एवं शंकित व्यक्तियों को अलग रखने के लिए बड़े पैमाने पर पंलगों की
प्रतिरोधक क्षमता कहते हैं। व्यवस्था की गई है। इसके अतिरिक्त आइसीयू और वेन्टीलेटर भी इसके
अगर रोग का कोई टीका हो तो उससे भी प्रतिरोधक क्षमता प्राप्त की लिए तैयार किए गए हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में मासिक ग्राम स्वास्थ्य एवं
जा सकती है। लेकिन कोविड-19 का टीका बनने में अभी समय लगने पोषण दिवस जिसके माध्यम से टीकाकरण एवं प्रसूति जांच की जाती
की संभावना है। ऐसे में रोग के माध्यम से हर्ड का एक विकल्प हो थी, उसे भी बंद कर दिया गया है। आकस्मिक ऑपरेशन के अलावा
सकता है। इस विकल्प में अनेक अनिश्चितताएं हैं। पर संभव है कि यह अन्य सभी ऑपरेशन टाल दिए गए हैं। निजी क्षेत्र को भी सहयोग हेतु
रोग उन व्यक्तियों में अधिक से अधिक फैले जिनमें यह पाबंद कर दिया गया है। वैसे चीन जहां पर यह रोग
गंभीर रूप नहीं ले पाए और वे सभी बिना कोई लक्षण अप्रत्याशित रूप से प्रारम्भ हुआ वह अब कह रहा है कि
के या बहुत ही कम लक्षणों के साथ ठीक हो जाएं और इस परिस्थिति में भी उनके देश में यह समाप्ति के कगार पर है। लेकिन यह
उनमें प्रतिरोधक क्षमता बन जाए। अभी तक कोविड
-19 से संक्रमित व्यक्तियों में पुरुष अधिक संक्रमित
ब्राजील, मेक्सिको, जो लॉकडाउन है और इसके कारण से लोगों के रोजगार
छिन गए हैं और भूखे रहने की स्थिति बनती जा रही है।
हुए हैं और महिलाएं कम। संक्रमित होने वाले व्यक्तियों जापान और कुछ विकल्प के रूप में अगर पूर्ण लॉकडाउन के स्थान पर
की औसत आयु 47-49 वर्ष है और मृतकों की औसत समय तक ब्रिटेन ने भी आवश्यकतानुसार लक्षित लॉकडाउन को अपनाया जाता
आयु 76-80 वर्ष है। अर्थात मृत होने वाले अधिकतर तो अधिक बेहतर होता।
व्यक्ति 75 वर्ष से अधिक आयु के ही हैं और उनमें भी लॉकडाउन नहीं किया है (लेखक जन स्वास्थ्य अभियान के नेशनल को-कन्वीनर हैं)
वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण का प्रधानमंत्री सुरक्षा है, लेकिन इसकी सफलता इसे लागू करने में समाहित है क्योंकि
गरीब कल्याण पैकेज (पीएमजीकेपी) सिर्फ सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) का रिकॉर्ड बहुत प्रभावशाली नहीं
उस सीमा तक स्वागत योग्य है, जहां तक है। इस उपाय में अनौपचारिक कामगार भी शामिल होंगे, क्योंकि उनमें
यह कोविड-19 के सामाजिक खतरे के ज्यादातर गरीब हैं और खाद्य सुरक्षा के दायरे में आते हैं।
कारण गरीब परिवारों के सामने आने वाली पीएमजीकेपी में बिना किसी आधार के कहा गया है कि सिर्फ उन्हीं
कठिनाइयों को दूर करेगा। इसमें टैक्स से जुड़ी लोगों की नौकरी जाने का खतरा है जो 100 कर्मचारियों से कम को
राहतें भी हैं। आरबीआइ ने भी ब्याज दरें घटाने रोजगार देने वाले संस्थानों में काम करते हैं और जिनका वेतन 15,000
प्रो. के आर के साथ बैंकों को टर्म लोन की किस्तें स्थगित रुपये महीना तक है। इसी तर्क के आधार पर इसमें कर्मचारी (15,000 से
श्याम सुंदर करने की अनुमति दी है। सरकार और इसकी कम आय वाले) और नियोक्ता दोनों के हिस्से के ईपीएफ अंशदान का
संस्थाओं की इसके लिए प्रशंसा की जानी भुगतान करने का प्रस्ताव है। यानी सरकार तीन महीने तक उनके वेतन
चाहिए। वित्त मंत्री की 26 मार्च 2020 की के 24% के बराबर राशि उनके पीएफ खाते में जमा कराएगी। इसके लिए
घोषणा के अनुसार, भविष्य में निश्चित ही ऐसे और उपाय किए जाएंगे। 5,000 करोड़ रुपये का प्रस्ताव किया गया है। सरकार का दावा है कि इस
यह और भी उपयुक्त होता अगर सरकार ने टैक्स, गरीबों, औपचारिक उपाय से कामगारों की नौकरी बचाने में मदद मिलेगी। सरकार इंडस्ट्रियल
और अनौपचारिक कर्मियों, उद्योगों और व्यापार खासकर एमएसएमई डिस्प्यूट्स एक्ट 1947 के चैप्टर V-बी और ईपीएफ एक्ट 1952 के
और स्वास्थ्य संसाधनों के लिए एक ही बार में व्यापक उपाय किए होते, बीच स्पष्ट रूप से उलझ गई है। पहला कानून 99 से अधिक कर्मचारियों
क्योंकि ये सभी एक-दूसरे से जुड़े हैं। आरबीआइ भी इसके समानांतर वाली केवल पंजीकृत फैक्टरियों, खदानों और बागानों में लगातार एक
वित्तीय उपाय पेश कर सकता था। साल काम करने वाले श्रमिकों को रोजगार सुरक्षा प्रदान करता है। इन
पीरियॉडिक लेबर फोर्स के 2017-18 के सर्वे अनुसार, गैर कृषि फर्मों को श्रमिकों की छंटनी और उन्हें निकालने से पहले अनुमति लेनी
क्षेत्र में नियमित मजदूरी/वेतन वाले 72.8% श्रमिकों के पास औपचारिक पड़ती है। ईपीएफ एक्ट के तहत 15 हजार रुपये महीने से कम आय वाले
रोजगार कॉन्ट्रैक्ट नहीं है, इनमें से लगभग 53% को सवैतनिक छुट्टी नहीं कर्मी नियोक्ता और कर्मचारी दोनों के अंशदान के लिए पात्र होते हैं। अगर
मिलती और इनमें से 48% के पास कोई सामाजिक सुरक्षा नहीं है। यह सरकार 15 हजार रुपये से कम आय और 100 से कम कर्मचारियों वाले
जान लेना जरूरी है कि मैन्युफैक्चरिंग क्षेत्र के लगभग 85% (4.77 करोड़ संस्थानों में ईपीएफ अंशदान का भुगतान करती है, तो नौकरी जाने के
श्रमिक), नॉन-मैन्युफैक्चरिंग के लगभग 95% (इसमें भवन निर्माण की खतरे से मिलने वाली सुरक्षा बहुत मामूली होगी।
हिस्सेदारी लगभग 93% है, जिनमें ज्यादातर अनौपचारिक श्रमिक हैं) छठवें आर्थिक जनगणना, 2016 के अनुसार 4.53 करोड़ प्रतिष्ठानों
और सेवा क्षेत्र के लगभग 79% श्रमिक अनौपचारिक हैं। शहरों में भवन में से सिर्फ 0.08 फीसदी में 100 या अधिक कर्मचारी हैं। इन प्रतिष्ठानों
निर्माण क्षेत्र के 70.4% श्रमिक अनियमित हैं। संगठित फैक्टरी क्षेत्र में कुल में से 99.35 फीसदी में तो काम करने वालों की संख्या 20 से भी कम
कामगारों में से आधिकारिक रूप से 35% ठेका श्रमिक हैं। है। सरकार का तर्क है कि अगर कॉस्ट टू कंपनी (सीटीसी), जिसमें
इस तरह, हम देख सकते हैं कि अनौपचारिकता व्यापक पैमाने पर नियोक्ता द्वारा दिया जाने वाला ईपीएफ अंशदान शामिल है, सरकारी छूट
है और कुल गैर-कृषि श्रमिकों में से बड़ी संख्या में ऐसे हैं, जिनके पास के कारण घटती है तो 100 लोगों से कम को रोजगार देने वाले नियोक्ता
किसी तरह की सुरक्षा नहीं है। शहरों में फेरी लगाने वाले अनौपचारिक (जो इंडस्ट्रियल डिस्प्यूट्स एक्ट के दायरे से बाहर होंगे) कर्मचारियों
कामगारों का एक और बड़ा वर्ग है। इसके अलावा लाखों लोग ऐसे हैं जो की छंटनी पर कम जोर देंगे। यहां महत्वपूर्ण है कि सरकार यह मान रही
महामारी के जोखिम, राष्ट्रीय स्तर पर लॉकडाउन और क्षेत्रीय सीमाओं और है कि इंडस्ट्रियल डिस्प्यूट्स एक्ट के चैप्टर V-बी के तहत नहीं आने
प्रतिबंधों के कारण प्रभावित हैं। विडंबना यह है कि ये वे लोग हैं जिन्हें वाले कामगारों के सामने ‘नौकरी जाने का खतरा है’। इसलिए यह उपाय
काम और आय की जरूरत है, इसलिए इन पर वायरस का खतरा अधिक भ्रमित करता है। इसके लिए रखी गई 5,000 करोड़ रुपये की रकम बहुत
है। हालांकि, केंद्र और कई राज्य सरकारों ने निजी क्षेत्र के नियोक्ताओं से ज्यादा हो सकती है, हालांकि संभव है कि सरकार ने अपने पास उपलब्ध
अपने कामगारों को नौकरी से न निकालने और उनका वेतन नहीं काटने आंकड़ों के आधार पर ऐसा किया हो। स्वयं सहायता समूहों (एसएचजी)
की अपील की है, लेकिन यह नैतिक आग्रह मात्र है। गैर कृषि क्षेत्र के के लिए कोलेटरल फ्री लोन की सीमा बढ़ाना एक आकर्षक उपाय है।
बहुत कम श्रमिकों को इसका लाभ मिल पाएगा। लेकिन अभी यह निश्चित नहीं है कि आर्थिक सुस्ती को देखते हुए वे कर्ज
वित्त मंत्री ने जो राहत पैकेज की घोषणा की है, उसमें सबसे महत्वपूर्ण लेना चाहेंगे। ब्याज में छूट के साथ ही कर्ज की सीमा में बढ़ोतरी उन्हें
उपाय खाद्य सुरक्षा से जुड़ा हुआ है, जिसमें पांच किलो गेहूं या चावल आर्थिक सुस्ती के बावजूद कर्ज लेने के लिए प्रोत्साहित कर सकती है,
और एक किलो क्षेत्रीय रूप से पसंद की जाने वाली दाल शामिल है। लेकिन इसे सही मायने में राहत उपाय नहीं कहा जा सकता है।
सरकार का अनुमान है कि इससे 80 करोड़ लोगों को मदद मिलेगी। यह पीएफ खाताधारक अपने ईपीएफ एकाउंट से शादी, शिक्षा, बीमारी,
दुनिया में संभवतः अपनी तरह की सबसे साहसिक और सबसे बड़ी खाद्य घर खरीदने और बेरोजगारी (हर मद में रकम निकालने की सीमा अलग
है) की अवस्था में सेवानिवृत्ति से पहले या सेवानिवृत्ति की उम्र के करीब पैकेज सबके लिए नहींः कंस्ट्रक्शन सेक्टर के सिर्फ रजिस्टर्ड
एडवांस ले सकते हैं। अब सरकार ने महामारी को भी एक कारण के रूप कर्मचारियों को मिल पाएगी मदद
में जोड़ दिया है। ईपीएफ अंशधारक अपने खाते में जमा कुल राशि का
75% या तीन महीने के वेतन के बराबर, दोनों में जो भी कम हो, बतौर (सेस फंड) के इस्तेमाल की बात कही है। इसे भी राहत पैकेज की श्रेणी
एडवांस ले सकते हैं। यह रकम उन्हें दोबारा जमा नहीं करनी पड़ेगी। यह में नहीं रखा जाना चाहिए, क्योंकि अगर ये कामगार कंस्ट्रक्शन वर्कर्स
कामगारों के अदूरदर्शी कदम को प्रोत्साहित करता है। बल्कि सरकार वेलफेयर स्कीम के तहत पंजीकृत हैं तो वे फंड से ‘अपने धन का ही’
तो हाल के कुछ वर्षों में इसे प्रोत्साहित करती रही है। अगर सरकार इस्तेमाल करेंगे। यह इस कोष के सदुपयोग का अच्छा मौका है, लेकिन
कर्मचारियों की नौकरी बचाना चाहती है तो उसे नियोक्ताओं, खासकर इसे किसी भी तरह से राहत उपाय नहीं कह सकते। कई राज्य सरकारों ने
एमएसएमई को वेतन की मदद या ले-ऑफ सब्सिडी देनी चाहिए। भी इन श्रमिकों के लिए राहत उपायों की घोषणा की है, लेकिन वहां भी
इसके अलावा न्यूनतम वेतन से कम आय वाले कर्मचारियों को डायरेक्ट रजिस्ट्रेशन की शर्त है।
बेनिफिट ट्रांसफर के जरिए पूरक राशि देनी चाहिए। वैसे यह अच्छा है कि सरकार ने मनरेगा के तहत काम करने वालों की
गैर-कृषि क्षेत्र में काम करने वाले अनेक श्रमिकों को इस राहत दिहाड़ी 20 रुपये बढ़ा दी है, लेकिन बढ़ने के बाद भी दिहाड़ी 202 रुपये
पैकेज का लाभ नहीं मिल पाएगा। इसमें ठेका कर्मचारी, आकस्मिक है। यह सबको पता है कि कृषि मजदूरों की तुलना में मनरेगा में काम करने
और अस्थायी श्रमिक और सालों से प्रशिक्षु के रूप में काम कर रहे वालों की दिहाड़ी बहुत कम है। सी-कैटेगरी के शहरों में कृषि मजदूरों की
कर्मचारी शामिल हैं, जिनका ईपीएफ खाता होने की संभावना बेहद कम दैनिक मजदूरी 300 रुपये है। मनरेगा और कृषि मजदूरों की मजदूरी के
है। अगर उनके ईपीएफ खाते हुए भी तो उनमें रकम बहुत कम होगी। बीच समानता की मांग पुरानी है, फिर भी इस पर अमल नहीं किया गया
इसलिए बिना ईपीएफ/ईएसआई कवर वाले कामगारों के लिए सरकार को है। इससे भी ज्यादा गंभीर बात यह है कि हर परिवार को मनरेगा के तहत
टेम्पररी यूनिवर्सल नॉन-फार्म अनएंप्लॉयमेंट अलाउंस स्कीम (अस्थायी औसतन 45-50 दिनों का ही काम मिलता है। पिछले चार वर्षों से यही
सार्वभौमिक गैर-कृषि बेरोजगारी भत्ता योजना) तैयार करनी चाहिए थी, औसत बना हुआ है, हालांकि राज्यों के आधार पर इसमें अंतर हो सकता
जिसके लिए धन का इंतजाम टैक्स से होना चाहिए। ईपीएफ/ईएसआइ है। सरकार की ही रिपोर्ट बताती है कि 2019-20 के दौरान 7.77 करोड़
कवरेज वालों के लिए बेरोजगारी बीमा योजना लानी चाहिए थी। इसके लोगों और 5.41 परिवारों को इस योजना के तहत काम मिला।
साथ ही शहरों में अनौपचारिक क्षेत्र में काम करने वालों के लिए डायरेक्ट भारत का श्रम बाजार जिस तरह बंटा हुआ और अनौपचारिक है, उसे
कैश बेनिफिट ट्रांसफर की व्यवस्था करनी चाहिए। इसमें फेरी वालों और देखते हुए वित्त मंत्री के राहत पैकेज से लोगों को बेहद सीमित सामाजिक
दूसरे गरीब स्वरोजगार वालों को भी शामिल करना चाहिए। लेकिन सरकार सुरक्षा मिल पाएगी। बेशक, राज्य सरकारें असंगठित क्षेत्र के श्रमिकों के
ने सिर्फ चार श्रेणियों के लिए कैश ट्रांसफर की घोषणा की है- महिला लिए राहत उपाय लेकर आ रही हैं। ये राष्ट्रीय योजना के पूरक के रूप में
जनधन खाताधारक, वरिष्ठ नागरिक, विधवा व दिव्यांग और किसान। इस काम करेंगे।
तरह उसने बड़ी संख्या में शहरी अनौपचारिक कामगारों को छोड़ दिया है। (लेखक एक्सएलआरआइ, जेवियर स्कूल ऑफ मैनेजमेंट,
सरकार ने कंस्ट्रक्शन कर्मचारियों के कल्याण के लिए उपकर कोष जमशेदपुर में प्रोफेसर हैं)
मंदी की
तीखी
ढलान
पूरे विश्व में आर्थिक गतिविधियां पूर्ण या आंशिक रूप से बंद, करोड़ों बेरोजगार, देश में हालात बुरे
म
एस.के. सिंह उद्योग जगत तक, हर कोई सरकार से उम्मीद लगाए
बठै ा है। सरकार ने कुछ घोषणाएं की हैं, पर वे नाकाफी
हामारी डरावनी हारी भी ले आती है और माली हालत पहले से ही गोता हैं। आर्क थि गतिविधियां लगभग ठप हैं, इसलिए
लगा रही हो तो यह किस गर्त में ले जाएगी, इसके अशुभ संकेत चारों ओर डायरेक्ट टैक्स कलेक्शन घटेगा। कंपनियों में उत्पादन
कम हो रहा है या ठप है, तो आगे जीएसटी कलेक्शन
दिखने लगे हैं। बुजुर्गों और रिटायर्ड लोगों की आय के प्रमुख साधन लघु भी मामूली ही होगा। पेट्रोल-डीजल की बिक्री सामान्य
बचत योजनाओं पर केंद्र सरकार ने 1.4% तक की बड़ी कटौती की है। कोविड-19 दिनों की तुलना में 5% रह गई है, इसलिए एक्साइज
महामारी के चलते मैन्युफैक्चरिंग, होटल और रेस्तरां और सड़क ट्रांसपोर्ट लगभग ड्टयू ी संग्रह भी कम रहेगा। ऐसे में सरकार का राजस्व
लक्ष्य से काफी कम रहेगा। नोमुरा का अनुमान है कि
बंद हैं। हालांकि दवा और जरूरी जिंसों की दुकानें खुली हैं। करीब 80% आर्थिक 2020-21 में राजकोषीय घाटा छह फीसदी तक पहुंच
गतिविधियां ठप हैं और लाखों लोग बेरोजगार हो रहे घर चले गए हैं, जिनका जल्दी लौटना मुश्किल है। सकता है। लेकिन पीएचडी चैंबर के प्रेसिडेंट डी.के.
हैं। कंपनियां और राज्य सरकारें वेतन में कटौती कर लॉकडाउन के बाद आर्क थि गतिविधियां शुरू होंगी तब अग्रवाल समेत तमाम विशेषज्ञों का मानना है कि अभी
रही हैं। तेलगं ाना सरकार ने वेतन कटौती की घोषणा श्रमिकों की बड़ी कमी हो सकती है। इसलिए एसबीआइ राजकोषीय घाटा प्राथमिकता नहीं, संकट से निकलना
की है। महाराष्ट्र सरकार ने वेतन दो किस्तों में, पहले ने इस वर्ष विकास दर 2.5% रहने की उम्मीद जताई प्राथमिकता है। सरकार को तरलता के साथ मांग बढ़ाने
60% और फिर 40% देने का फैसला किया है। दुनिया है, जो उदारीकरण के बाद सबसे कम होगी। नोमुरा के उपाय भी करने होंग।े इस लिहाज से लघु बचत
के शेयर बाजारों के लिए मार्च तिमाही 1987 के बाद सिक्युरिटीज ने तो यहां तक कहा है कि जून तिमाही योजनाओं पर ब्याज घटाना प्रतिगामी कदम है।
सबसे खराब साबित हुई। में भारत की अर्थव्यवस्था का आकार 10% तक घट
एक अप्रैल से वित्त वर्ष 2020-21 की काफी सकता है। आइएमएफ के अनुसार विश्व अर्थव्यवस्था जरूरी वस्तुओं की सप्लाई बाधित
मायूस शुरुआत हुई है। महामारी के डर और खाने-पीने मंदी में प्रवेश कर चुकी है, इस बार स्थिति 2009 एक तो महामारी का डर और दूसरे, सरकार के आदेशों
का कोई साधन नहीं होने से लाखों प्रवासी श्रमिक अपने से ज्यादा गंभीर होगी। ऐसे में आम आदमी से लेकर में अनिश्चितता। दोनों का मिला-जुला असर है कि
जरूरी चीजों की ढुलाई भी प्रभावित हो रही है। मेडिकल जरूरी सामान के लिए रिटेल स्टोर तो खुले हैं पर
टेक्नोलॉजी एसोसिएशन ऑफ इंडिया के चेयरमैन पवन बिजनेस लगातार गिर रहा है। रिटेलर्स एसोसिएशन पांच साल के निवेश के
चौधरी के अनुसार चिकित्सा उपकरण ले जाने वाले
ट्रकों को भी रोका जा रहा है। एफएमसीजी कंपनियों
ऑफ इंडिया के सीईओ कुमार राजगोपालन ने बताया
कि 15 दिनों में बिक्री 30-40% कम हो गई है।
लिए यह अच्छा समय
का कहना है कि ट्रकों की कमी और कर्मचारी नहीं होटल और रेस्तरां तो पूरी तरह बदं हैं। नेशनल रेस्तरां
मिलने से जरूरी वस्तुओं की सप्लाई बाधित हो रही है। एसोसिएशन ऑफ इंडिया के प्रेसिडेंट अनुराग कटियार
कैच ब्रड ां नाम से खाद्य पदार्थ बेचने वाले डीएस ग्परु के के मुताबिक दुकानें खुलने के बाद भी कुछ महीने तक
सीनियर मैनज े र मनोज कुमार ने बताया कि लॉकडाउन बिक्री आधी ही रहने का अदं श े ा है। ज्यादातर देशों ने
के चौथे दिन कुछ घंटों के लिए ऑनलाइन विक्तरे ाओं अतं रराष्ट्रीय उड़ानें बदं कर रखी हैं। भारत में घरेलू उड़ानें
को सप्लाई की अनुमति मिली। लेकिन सप्लाई हो तो भी बदं हैं। इंटरनेशनल एयर ट्रांसपोर्ट एसोसिएशन का
कैस? े राज्यों के बॉर्डर सील होने के कारण ट्रक खड़े आकलन है कि दुनिया भर की एयरलाइंस को 250
हैं। ऑल हरियाणा ट्रक ऐंड ट्रांसपोर्ट एसोसिएशन के अरब डॉलर के रेवने ्यू का नुकसान होगा। सेंटर फॉर
प्रेसिडेंट सुरश
े शर्मा के अनुसार, ट्रक मालिकों को प्रति एशिया पेसिफिक एविएशन ने भारत के लिए 3.6 अरब
ट्रक रोजाना 4,000 रुपये का नुकसान हो रहा है। देश डॉलर के नुकसान का अनुमान लगाया है।
निवेशकों को झटका ः सेंसेक्स अपने उच्चतम स्तर से अब तक 32 फीसदी नीचे
निमेश शाह
एमडी और सीईओ,
आइसीआइसीआइ प्रूडेंशियल
में करीब 30 लाख ट्रक खड़े हैं, जो सप्लाई चेन के मैन्युफैक्चरिंग में 25% योगदान करने वाले 15,000 करोड़ रुपये के नुकसान का अदं श े ा है। यह
टूटने संकते हैं। बहुत जगहों पर तो ड्राइवर ट्रक छोड़कर ऑटोमोबाइल सेक्टर (कंपोनेंट समेत) में 76 लाख महामारी ऐसे समय फैली है जब फसलों की कटाई
आ गए हैं। बजाज ऑटो के एमडी राजीव बजाज ने तो लोग काम करते हैं। ऑटोमोबाइल कंपनियों के सगं ठन चल रही है। शुरुआती रोक के बाद सरकार ने किसानों
लॉकडाउन को अनावश्यक बताया है। सियाम के अनुसार, बदं ी के कारण रोजाना 2,300 और मंडियों को लॉकडाउन से छूट दे दी है। इस
करोड़ रुपये के रेवने ्यू का नुकसान हो रहा है। मोबाइल महामारी से खेती को कितना नुकसान होगा अभी यह
असर हर सेक्टर पर फोन कंपनियों में भी कामकाज नहीं हो रहा है। इंडियन अनुमान लगाना मुश्किल है।
लॉकडाउन से मैन्युफैक्चरिंग, रिटेल, होटल और रेस्तरा,ं सेलल
ु र ऐंड इलेक्ट्रॉनिक्स एसोसिएशन के चेयरमैन जब सर्विस सेक्टर, मैन्युफैक्चरिंग और कृषि तीनों
एयरलाइंस और मॉल जैसे बिजनेस ज्यादा प्रभावित हैं। पक
ं ज महेंद्रू के अनुसार 21 दिन के लॉकडाउन से प्रभावित हो तो आर्थिक विकास की बात करना बेमानी
60 लाख लोग काम करते हैं 73 लाख लोग काम करते हैं होटल 15,000 करोड़ रुपये नुकसान
मॉडर्न रिटेल स्टोर में और रेस्तरां सेक्टर में लॉकडाउन से मोबाइल कंपनियों को
4.75 लाख करोड़ रुपये सालाना 4 लाख करोड़ रुपये है इनका 268 कंपनियां मोबाइल फोन
बिजनेस है इन स्टोरों का सालाना टर्नओवर बनाती हैं भारत में
(स्रोतः रिटेलर्स एसोसिएशन ऑफ इंडिया) (स्रोतः नेशनल रेस्तरां एसोसिएशन ऑफ इंडिया) (स्रोतः इंडियन सेलुलर ऐंड इलेक्ट्रॉनिक्स एसोसिएशन)
है। इसीलिए रिजर्व बैंक ने मौद्रिक नीति समीक्षा में पैकज े में शामिल कर लिया गया। बीपीएल परिवारों रहेगी। अग्रवाल के अनुसार कंपनियों को अतिरिक्त
पहली बार विकास दर का कोई अनुमान नहीं लगाया। को तीन महीने तक प्रति माह पांच किलो गेहूं या 25% वर्किंग कैपिटल की जरूरत पड़ेगी। सरकार को
हालांकि एसबीआइ की ईकोरैप रिपोर्ट के अनुसार मार्च चावल और एक किलो दाल, बुजर्ु गों, विधवाओं और इस पर ब्याज में रियायत देनी चाहिए।
तिमाही में विकास दर 2.5% रहेगी। इसका अंदश े ा है विकलांगों को एक-एक हजार रुपये नकद, महिला
कि 21 दिन के लॉकडाउन से कम से कम आठ लाख जनधन खाताधारकों को 500 रुपये प्रति माह और दूसरे देशों से पैकज
े की तुलना नहीं
करोड़ रुपये का नुकसान होगा। पीएचडी चैंबर के उज्ज्वला स्कीम के तहत तीन महीने तक मुफ्त रसोई दूसरे देशों के राहत पैकज े देखें तो उनमें अरव्थ ्यवस्था
अग्रवाल कहते हैं, “अगले वित्त वर्ष की पहली छमाही गैस सिलिंडर कुछ अच्छे कदम अवश्य हैं, लेकिन ये के हर क्षेत्र का ध्यान रखा गया है। भारत में अभी तक
अर्थव्यवस्था के लिए खराब रहेगी। उसके बाद रिकवरी इतने छोटे हैं कि लंबे समय तक लोगों का गुजारा नहीं टुकड़ों में पैकज े दिए गए हैं। अमेरिका ने दो लाख
इस बात पर निर्भर करेगी कि महामारी पर कितना काबू हो सकता। पूर्व िवत्त मंत्री और वरिष्ठ कांग्रेस नेता करोड़ डॉलर के पैकज े की घोषणा की है, जो उसकी
पाया जा सका है और उससे कितना नुकसान हुआ है।” पी. चिदंबरम के अनुसार खेतिहर मजदूरों और निजी जीडीपी का 10% है। भारत में सरकार का पैकज े
क्रिसिल के मुख्य अर्थशास्त्री डीके जोशी इस संकट क्षेत्र में काम करने वालों की संख्या बहुत है, उनका जीडीपी का एक फीसदी भी नहीं है। ज्यादातर अमेरिकी
को 2008 के संकट से इस मायने में अलग मानते हैं रोजगार चलता रहे इसके लिए ठोस योजना नहीं है। नागरिकों को 1,200 डॉलर और बच्चों के लिए 500
कि इसने आर्थिक गतिविधियों पर पूरी तरह ब्क रे लगा बिना काम-धंधे के कर्ज लौटाने में सबको दिक्कत डॉलर मिलेंग।े छोटी कंपनियां कर्मचारियों को वेतन दे
दिया है। सबसे ज्यादा बुरी स्थिति असंगठित क्षेत्र में होगी। इसलिए रिजर्व बैंक ने बैंकों को अनुमति दी सकें, इसके लिए उन्हें 367 अरब डॉलर दिए जाएंग।े
काम करने वालों की है, जिनमें से आधे के पास किसी है कि वे इएमआइ भुगतान पर मार्च से मई तक छूट फेड रिजर्व पहली बार कॉरपोरेट बांड खरीद रहा है।
तरह की सामाजिक सुरक्षा नहीं है। दे सकते हैं। कंपनियों के लिए भी इगं ्लैंड ने कॉरपोरेट के लिए 425 अरब डॉलर के पैकज े
अग्रवाल के अनुसार, सरकार को वर्किंग कैपिटल लोन के ब्याज पर की घोषणा की है। कंपनियों को सरकार की गारंटी वाले
असंगठित क्षेत्र के लिए रिवाइवल तीन महीने की छूट है। लॉकडाउन सस्ते लोन दिए जाएंग।े बेरोजगार होने वालों को 80%
पैकज े लाना चाहिए, उन्हें ब्याज खत्म होने के बाद कंपनियों के वेतन के बराबर भुगतान किया जाएगा। ऑस्ट्लरे िया
मुक्त और बिना कोलेटरल वाला सामने नकदी की समस्या होगी। हर 15 दिन में 1,500 डॉलर देगा। भारत में कॉरपोरेट
कर्ज मिले। एमएसएमई के लिए इसके लिए रिजर्व बैंक ने कई उपाय सेक्टर को अभी पैकज े का इंतजार है।
25,000 करोड़ रुपये का अलग किए हैं। पांच साल में पहली बार 21 दिन के लॉकडाउन के बाद क्या होगा, कोई नहीं
फंड बनाना चाहिए। तय समय से पहले मौद्रिक नीति जानता। अमेरिका में कंपनियां बंद होने से बेरोजगारों
की समीक्षा करते हुए रिजर्व बैंक की संख्या 33 लाख बढ़ गई। मई में वहां बेरोजगारी दर
सरकार की मदद बहुत कम ने रेपो रेट 0.75% घटाकर 4.4% 13% तक पहुंचने की आशंका है, जो फरवरी में 50
भारत में कोरोना वायरस का पहला कर दिया। यह 2008-09 के संकट साल में सबसे कम 3.5% थी। भारत में तो बेरोजगारी
मामला 30 जनवरी को सामने आया के समय से भी कम है। तरलता दर पहले ही चार दशकों के उच्चतम स्तर पर है। इस
था। इसके बावजूद सरकार की अतिरिक्त वर्किंग बढ़ाने के अन्य उपायों में कैश महामारी के चलते कितने लाख लोग बेरोजगार होंग,े
तरफ से राहत उपायों की घोषणा
में दो महीने लग गए। 26 मार्च
कैपिटल पर ब्याज फीसदी रिजर्व रेशियो चार से घटाकर तीन
करना और लॉन्ग टर्म रेपो
यह इस बात पर निर्भर करेगा कि संकट कितने दिनों
तक चलता है। हालांकि मायूसी भरी इन खबरों के बीच
को वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने कम हो, एसएमई ऑपरेशन भी शामिल हैं। इनसे 3.74 एक अच्छी खबर भी है। जिस चीन से कोरोना वायरस
1.7 लाख करोड़ रुपये के पैकज े के लिए 25 हजार लाख करोड़ रुपये की लिक्विडिटी पूरी दुनिया में फैला, वहां दो महीने की बंदी के बाद
की घोषणा की। लेकिन एटक बढग़े ी। इसके बावजूद सुधार 98.6% मैन्युफैक्चरिगं कंपनियों में उत्पादन शुरू हो
महासचिव अमरजीत कौर ने एक करोड़ का फंड बने आसान नहीं होगा। लॉकडाउन के गया है। इनमें 90% कर्मचारी भी काम पर लौट आए
बयान में कहा कि किसान सम्मान डी.के. अग्रवाल चलते आम लोगों और कंपनियों हैं। जिस हुबेई से संक्रमण की शुरुआत हुई थी, वहां 29
निधि जैसी पुरानी स्कीमों को भी प्रेसिडेंट, पीएचडी चैंबर की आमदनी बंद होने से मांग कम मार्च से घरेलू उड़ानें भी शुरू कर दी गईं।
सरकार
को प्लान-2
लाना होगा
कोविड-19 का संकट अब आर्थिक चुनौतियां भी
लेकर आ रहा है। आशंका है कि दुनिया महामंदी
की ओर जा रही है। ऐसे में भारत इस चुनौती से
कैसे निपटे और उसे क्या कदम उठाने चाहिए,
इस पर पूर्व वित्त मंत्री और कांग्रेस के वरिष्ठ नेता
पी.चिदंबरम ने कई अहम सुझाव दिए हैं। पेश हैं
प्रशांत श्रीवास्तव द्वारा चिदंबरम से पूछे गए सवालों
का जवाब
कोरोना से लड़ाई लॉकडाउन तक पहुंच गई
है, क्या हम महामंदी की ओर हैं?
इस समय आर्थिक मंदी की बात करना
जल्दबाजी होगी। लेकिन हमें स्लोडाउन के लिए तैयार
रहना चाहिए क्योंकि पहले ही अक्टूबर-दिसंबर की
तिमाही में जीडीपी 4.7 फीसदी के स्तर पर आ चुकी
है। 2020 में वैश्विक अर्थव्यवस्था में 2 फीसदी की
गिरावट की आशंका है। ऐसे में आर्थिक रिकवरी दूर
की कौड़ी है। हमें तुरंत और मझोले स्तर की चुनौतियों मिली है। ऐसे लोगों को 3,000 रुपये की मदद बैंक उसके लिए इसमें कोई ठोस योजना नहीं दिखती है।
का सामना करने के लिए तैयार होना होगा। खाते में देनी चाहिए। 8. किसी भी तरह की टैक्स जीएसटी रेट में भी कटौती नहीं की है, उम्मीद है कि
सरकार को राहत के लिए किस तरह के देनदारी की अवधि को 30 जून तक बढ़ा देना चाहिए। सरकार जल्द ही प्लान-2 लेकर आएगी।
बड़े कदम उठाने चाहिए? 9. जरूरी वस्तुओं और सेवाओं और बड़ी मात्रा में आरबीआइ के कदम कैसे हैं?
मामले की गंभीरता को देखते हुए सरकार को 10 खपत होने वाले उत्पादों पर जीएसटी रेट घटाकर 5 आरबीआइ द्वारा रेपो रेट में कटौती करना
पॉइंट एक्शन प्लान पर काम करना चाहिए। जिसके फीसदी कर देना चाहिए। 10. बैंकों को ईएमआई पर निश्चित तौर पर नगदी को बढ़ाएगा। लेकिन
आधार पर मेरे कुछ सुझाव हैं- 1. पीएम किसान 30 जून तक छूट देनी चाहिए। आरबीआइ ने ईएमआइ पर जो राहत दी है वह अधूरे
योजना के तहत किसानों को दी जाने वाली 6,000 सरकार ने 1.70 लाख करोड़ रुपये के राहत मन से दी है। इसे ऑटोमेटिक रूप से टल जाना
रुपये की राशि को डबल कर 12,000 रुपये कर देनी पैकेज का ऐलान किया है, क्या कहना है? चाहिए था लेकिन बैंकों के भरोसे छोड़ दिया गया
चाहिए। 2. राज्यों के सहयोग से ठेके पर काम करने सरकार ने जो आर्थिक राहत पैकेज का ऐलान है। साथ ही ईएमआइ पर 30 जून तक छूट मिलनी
वाले किसानों को भी पीएम किसान योजना के तहत किया है उसका मैं कुछ अन्य चिंताओं के साथ चाहिए थी, जिसका ख्याल नहीं रखा गया है।
लाना चाहिए और उन्हें भी 12,000 रुपये की रकम दी स्वागत करता हूं। खुशी है कि मेरे द्वारा पेश किए लंबी अवधि की क्या रणनीति होनी चाहिए?
जाए। 3.मनरेगा के तहत पंजीकृत लोगों के बैंक खाते गए 10 पॉइंट एक्शन प्लान में से कुछ चीजें शामिल एक बात और हमें समझनी होगी कि कोविड-
में तुरंत 3,000 रुपये डाले जाएं। 4. जनधन खातों की गई हैं। लेकिन मुझे लगता है कि सरकार को कुछ 19 का असर लंबी अवधि के लिए होगा। ऐसे में हमें
के खाताधारकों के खाते में तुरंत 6,000 रुपये की दिनों में एहसास होगा कि उसे बहुत कुछ करना बाकी आने वाले दिनों में स्वास्थ्य सुविधाओं पर ज्यादा
राशि जमा करनी चाहिए। 5. सभी राशन कार्डधारकों है। पैकेज में गरीबों के लिए जो 3 महीने तक राशन फोकस करना होगा। इसके तहत इन्फ्रास्ट्रक्चर,
को चावल या गेहूं कम से कम 10 किलो मुफ्त देना की व्यवस्था की गई है वह अच्छा कदम है। लेकिन हेल्थ एजुकेशन, प्रशिक्षण, सफाई, शहरों में ड्रेनेज
चाहिए। 6. सभी पंजीकृत नियोक्ताओं को वेतन की इसमें गरीब को जो नकद राशि देने की योजना है वह सिस्टम को बेहतर करने, कचरा प्रबंधन, साफ
गारंटी देनी चाहिए जिससे वह अपने कर्मचारियों को पूरी तरह से पर्याप्त नहीं है। इसकी वजह से कई लोग पानी और साफ हवा के लिए रणनीति बनानी होगी।
नहीं निकालें और उनके वेतन में कटौती नहीं करें। यह लाभ पाने से छूट जाएंगे। ठेके पर काम करने इस चुनौती को भी हमें राष्ट्रीय सुरक्षा जैसा महत्व
7. सरकार को हर ब्लॉक और पंचायत पर ऐसे लोगों वाले किसान और निजी क्षेत्र में काम करने वाले देना होगा। तभी जाकर हम इस तरह की आपदा से
की पहचान करनी चाहिए जिन्हें सहायता राशि नहीं बहुत से लोग हैं, उनके रोजगार को कोई चोट न पहुंचे अपने को संभाल सकेंगे।
राहत पैकज
े के हकदार किसान भी
हरवीर सिंह
जो देश्ा अहिंसा का पुजारी कहा जाता हो, सकता है क्योंकि वह मीडिया के ध्यान में आ जाता है। चिकन की
उसने इस मद में पिछले कुछ महीनों में खपत में भ्ाारी गिरावट के कारण इस क्षेत्र को नुकसान हो रहा है।
बहुत कम अंक हासिल किए हैं। यह देश पूरे देश में चिकन की बिक्री बुरी तरह गिर गई क्योंकि वॉट्सएप और
पशुओं, खासकर गायों से प्रेम करने का टिक टॉक जैसे सोशल मीडिया चैटिंग प्लेटफार्म पर यह अफवाह
भी दावा करता है लेकिन इस मामले में भी फैलाई गई कि औद्योगिक रूप से उत्पादित चिकन बीमारियां खासकर
उसका प्रदर्शन काफी खराब रहा है। कोविड-19 वायरस फैलाते हैं। औद्योगिक चिकन को लेकर भय
भारत कृषि प्रधान देश होने पर भी गर्व निराधार नहीं है। इससे पहले एन्फ्लूएंजा महामारी दक्षिण-पूर्व एशिया
डॉ. नित्या करता है और तमाम नेता अपने भाषणों के औद्योगिक पोल्ट्री फॉर्म से ही शुरू हुई थी। हालांकि मौजूदा
संबामूर्ति घोटगे की शुरुआत इसी वाक्य से करते हैं। कोविड-19 महामारी भारत में उत्पादित औद्योगिक चिकन खाने से
लेकिन स्टील, क्रोम, बुलेट ट्रेन और हाई जुड़ी नहीं है। मैं औद्योगिक रूप से उत्पादित चिकन की प्रशंसक नहीं
टेक्नोलॉजी के जुनून ने देश को घुटनों के हूं लेकिन अफवाह और गलत सूचनाएं सामाजिक और आर्थिक रूप
बल लाकर छोड़ा है और उससे कई तरह के संकट पैदा हो रहे हैं। से नुकसानदायक हो सकती हैं।
पिछले साल पशुधन क्षेत्र को भारी नुकसान हुआ है। जलवायु आरोप-प्रत्यारोप नया नहीं है। हमारे संगठन ने 2016 में एक रिसर्च
परिवर्तन, जिसके कारण मानसून लंबा खिंचने की जिसमें हमें पता चला कि गोवा से लेकर
लगा है, से न सिर्फ प्याज की कीमतें आसमान मेघालय तक देश भर में छोटे सुअर पालकों
छूने लगीं, बल्कि दूसरी समस्याएं भी होने लगी ने अपने घर के पिछवाड़े में सुअर पालना
हैं। महाराष्ट्र में बाढ़ के कारण राज्य के सबसे बंद कर दिया, क्योंकि इस तरह सुअर पालना
बड़े दूध उत्पादक जिलों में अनेक डेयरी फार्मों गंदगी युक्त माना गया और कहा गया कि इससे
और पशुओं पर असर पड़ा। कई सौ पशुओं बीमारियां होती हैं। धीर-धीरे देश में सुअर पालन
को बचाया नहीं जा सका। कई अन्य राज्यों में, संगठित पिगरीज में होने लगा। सुअर के मीट का
घुमंतू चरवाहों का पशुधन ब्लू टंग नामक बीमारी इस्तेमाल समाज के सबसे गरीब समुदाय किया
के कारण नष्ट हो गया। इस घटना की पर्याप्त करते थे। अब संगठित पिग फार्मों का मीट सिर्फ
रिपोर्टिंग नहीं हुई, क्योंकि इस बीमारी से सरकार अमीर खाते हैं। इसी तरह घरों के पिछवाड़े में
और अपर्याप्त पशु चिकित्सा सुविधा की छवि को मुर्गीपालन खूब होता था। लेकिन इसमें गंदगी
धक्का लगता। इन किसानों ने सरकार से अपने के कारण बीमारी फैलाने वाला माना जाता था।
पशुधन के नुकसान की शिकायत की लेकिन 2005 में बर्ड फ्लू फैला, उस समय यही स्थिति
उन्हें अभी भी मदद और मुआवजे का इंतजार
है। अधिकांश घुमंतू चरवाहे पढ़े-लिखे नहीं हैं और
जलवायु परिवर्तन थी। लेकिन बाद में इंडोनेशिया जैसे देशों ने
बाकायदा घरों के पिछवाड़े में मुर्गी पालन पर रोक ही
वे चारे की तलाश में अपने गृह गांव से चले जाते और महाराष्ट्र में बाढ़ लगा दी।
हैं, इसलिए उन्हें निकट भविष्य में किसी तरह का के कारण पिछले साल भारत में आज स्थितियां बदल गई हैं। स्थानीय
मुआवजा मिल पाने की संभावना नहीं है। यह एक प्रजाति, स्थानीय उत्पादन और स्थानीय प्रणाली मुख्य
और बड़ी समस्या बनकर उभरी है। राज्य के सबसे बड़े दूध मंत्र बन गया है। कोविड-19 से बचने के लिए
इस साल जनवरी से संगठित पोल्ट्री इंडस्ट्री उत्पादक जिलों में अनेक गो-मूत्र पार्टियों से लेकर ए2 मिल्क घी तक, हम देसी
की बिक्री घटने लगी है और सैकड़ों करोड़ रुपये
का घाटा होने लगा है। यह क्षेत्र बड़ा और संगठित
डेयरी फार्मों और पशुओं गायों को बचाने की बात कर रहे हैं।
हालांकि विभिन्न क्षेत्रों से सामने आ रही घटनाओं
है। वह इस संकट को प्रभावी तरीके से सामने ला पर बुरा असर पड़ा से पता चलता है कि हम पर्याप्त प्रयास नहीं कर रहे हैं।
ऐसे मुश्किल भरे दौर में विदर्भ क्षेत्र में गड़रिया और ग्वाला समुदायों पास बैंक खाते नहीं होते हैं, जिनमें सरकार मदद के तौर पर पैसा जमा
को दूध बेचने और पशुचारा खरीदने के लिए गांवों में घुसने नहीं दिया कर सके। हमने न सिर्फ भेड़ों को भुला दिया बल्कि पालने वाले घुमंतू
जा रहा है। स्थानीय उत्पादक कंपनियां जैसे हल्दीराम और दिनशॉ ने चरवाहों को भी भुला दिया।
उनका दूध खरीदना बंद कर दिया है। स्थानीय ढाबा और भोजनालयों ने कोविड-19 महामारी ने विभाजन और बढ़ा दिया है। पहले से ही
भी दूध खरीदना बंद कर दिया है। यहां तक कि एनडीडीबी ने भी खरीद विभाजित समाज में जाति और वर्ग का विभेद करने वाले स्वच्छ बनाम
कम कर दी है और पशुपालक समुदाय कहीं भी अपना दूध नहीं बेच पा अस्वच्छ, सफाई बनाम गंदगी, प्रदूषित बनाम अप्रदूषित, शाकाहारी
रहे हैं। जल्दी ही उनके पास दूध फेंकने के अलावा कोई दूसरा रास्ता बनाम मांसाहारी के कड़वे और खतरनाक सवाल फिर से उठने लगे
नहीं बचेगा। अगर उन्हें कहीं से पैसा नहीं मिल पाएगा तो वे पशुचारा हैं। जहां अमीर बड़े और चमकदार स्टोरों में पैकेज्ड और प्रोसेस्ड फूड
नहीं खरीद पाएंगे। लॉकडाउन के कारण परिवहन सुविधाएं न होने से खरीद रहे हैं और सोशल डिस्टेंसिंग का पालन कर रहे हैं, वहीं गरीब
वे किसी दूर के स्थान पर जाकर दूध नहीं बेच सकते हैं और पशुचारा और असंगठित और ज्यादा वंचित हो गए हैं। रोजगार नहीं, पैसा नहीं,
नहीं खरीद सकते हैं। ऐसे समय में जब हजारों लोग बेरोजगार हैं, दुग्ध भोजन नहीं, परिवहन नहीं, साबुन नहीं, पानी नहीं, स्वास्थ्य सुविधा
उत्पादकों को दूध फेंकना पड़ता है तो यह शर्मनाक स्थिति होगी। इन नहीं और कोई बैंक एकाउंट भी नहीं है। शेयर बाजार में मामूली
पशुपालकों का कहना है कि भले ही देश के लिए यह गिरावट उनके पहले से ही संकटग्रस्त जीवन को
लॉकडाउन 21 दिन के लिए हो, लेकिन उन्हें इसका और क्या बिगाड़ सकती है। ग्रामीण क्षेत्रों में अमीर
नुकसान पूरे साल झेलना होगा। लॉकडाउन के कारण किसान और कॉमर्शियल फार्मिंग कंपनियां मुआवजे
पूरे देश में पशुधन बाजार बंद हैं। ये वे बाजार हैं, की मांग कर रही हैं जबकि गरीब किसान अपनी
जहां अधिकांश पशुधन उत्पादक अपने उत्पादों और परिवहन सुविधाएं न होने उपज बिकने का चुपचाप इंतजार कर रहा है।
पशुओं की खरीद-फरोख्त करते हैं। घुमंतू चरवाहे से दुग्ध किसान किसी ऐसी बहुत ही अहम चीजें हैं जिन पर हमें ध्यान
अपने पशुओं को बेच नहीं सकते हैं, क्योंकि ट्रांसपोर्ट
चेन, कसाइयों की दुकानें और खाने की दुकानें सभी
दूर के स्थान पर जाकर देना चाहिए। मंदिर, मस्जिद, बुलेट ट्रेन पर नहीं
बल्कि हमारे कृषि और पशुधन क्षेत्र, स्वास्थ्य और
बंद हैं। अगर वे अपने पशुओं को नहीं बेच पाएंगे तो दूध नहीं बेच सकते हैं शिक्षा प्रणाली पर ध्यान देना समय की मांग है।
उन्हें अपने परिवार को पालने के लिए आमदनी कैसे
होगी। अधिकांश पशुपालक समुदाय खासकर घुमंतू
और पशु च ारा नहीं खरीद (लेखिका चरवाहा समुदाय और छोटे पशुपालकों के
बीच काम करने वाले संगठन
चरवाहे जनगणना में शामिल नहीं हो पाते हैं। उनके सकते हैं अं त रा में रिसर्चर और डायरेक्टर हैं)
आधी आबादी की
पहल: शाहीन बाग
नेताओं का नहीं
आम महिलाओं का
मंच था
पि
प्रीता नायर नेताविहीन शाहीन बाग आंदोलन को कइयों ने
एक नए अफसाने का सूत्रधार बताया, जिनमें एक
यह कि संविधान को संघर्ष का औजार बनाया गया
छले तीन महीनों से शगुफ्ता अहमद की दिनचर्या जैसे दो दुनिया में बंटी और आम औरतों को खुलकर अपनी आवाज बुलंद
हुई थी। एक, ‘घेटो’ जैसे हालात में जिंदगी जीने की निपट मजबूरियां, करने के लिए बाहर निकलने का मौका दिया।
हालांकि उसे हटाने का तरीका भी विवाद का विषय
और दूसरी, इतिहास की पुकार। वे दोनों को ऐसे साध रही थीं, जैसे किसी है, अलबत्ता सामाजिक मेलजोल से दूर रहने के इस
मिशन पर हों। 43 साल की शगुफ्ता अपना घरेलू कामकाज पूरा करके सुबह 6 बजे दौर में इसका हटना फौरी तौर पर बेहद जरूरी हो
ही शाहीन बाग के विरोध स्थल पर उन हजारों महिलाओं में जा मिलती थीं। शाम 7 चला था। तो, क्या विरोध प्रदर्शन अपनी उपयोगिता
से कुछ ज्यादा ही खिंच गया था? आखिर इस
बजे ही घर लौटना होता था। उनका ब्यूटी पार्लर कुछ दिनों से बंद था और स्कूल आंदोलन ने कड़ाके की सर्दी भी झेल ली थी और
जाने वाले बच्चों का जीवन अस्त-व्यस्त था। है, बशर्ते लॉकडाउन हटे, लेकिन एक बात पर शहर के दूसरे हिस्से में हुए ‘दंगों’ के बीच भी
लेकिन उनके बच्चों को अपनी मां पर गर्व है कि उन्हें पक्का यकीन है कि विरोध प्रदर्शन का यह अडिग बना रहा था। तो, क्या अब वह महामारी के
वे ऐतिहासिक धरने का हिस्सा रही हैं। यह इबारत अल्पविराम है, पूर्ण विराम नहीं। यह केवल दौर में सार्वजनिक जिम्मेदारी से भी मुंह मोड़ लेता?
‘‘ओखला के एक कोने’’ में लिखी गई, जैसा कोविड-19 की आपात स्थिति में सिर्फ टल-सा यह सवाल पूछने के पहले ही शगुफ्ता बिफर
मखौल उड़ाते एक दक्षिणपंथी टिप्पणीकार ने कहा, गया है। वे चाहती हैं कि सरकार नए नागरिकता उठती हैं। वे कहती हैं कि रविवार को ‘जनता कर्फ्यू’
लेकिन वह कोना दुनिया भर की सुर्खियों में छा कानून, एनपीआर/एनआरसी की प्रक्रिया को निरस्त के दौरान इसे केवल पांच महिलाओं के प्रतीकात्मक
गया और आगे इतिहासकारों के लिए दिलचस्पी का करे, जिसे वे अपने और अपने बच्चों के भविष्य विरोध प्रदर्शन तक ही सीमित कर दिया गया था।
विषय बना रहेगा। के लिए खतरा मानती हैं। वे देश के उन लाखों राजनैतिक कार्यकर्ता कविता कृष्णन ने ट्वीट किया
हालांकि 25 मार्च को दिल्ली पुलिस ने शाहीन प्रदर्शनकारियों में हैं, जो सक्रिय एक्टिविस्ट नहीं हैं था कि पुलिस ‘‘उस विरोध स्थल को हटा आई
बाग विरोध स्थल को खाली करवा लिया, तो हर और पहली बार सड़कों पर उतरे हैं। ये लोग सीएए जिसे बहादुर महिलाओं ने पहले ही खाली कर दिया
किसी को इस बारे में जानने की उत्सुकता है। को भेदभावपूर्ण कानून और अपने ही देश में बेगाना था।’’ एक प्रदर्शनकारी रितु कौशिक का हैरानी भरा
शगुफ्ता का सैलून भी जल्दी ही शुरू हो सकता बनाने का औजार मानते हैं। सवाल है कि वहां तो कोविड-19 के सभी जरूरी
जितेंद्र गुप्ता
एहतियात बरते गए थे, फिर सरकार ने क्यों हटाया। हमने बहुत कुछ झेला। हम पर हमले हुए, सरकार ने क्यों उजड़ा: धरनास्थल से लोगों के हटने के
रितु पूछती हैं, “हम सभी दिशा-निर्देशों का पालन हमारे खिलाफ फर्जी खबरों का अभियान चलाया, हमें बाद पुलिस ने खाली किया रास्ता
करके छोटे समूहों में बैठते थे। अगर सरकार हमारे दिल्ली दंगों के लिए दोषी ठहराने की कोशिश हुई।’’
बारे में चिंतित थी, तो हमारी मांगों पर चर्चा क्यों बकौल सैयद तासीर अहमद, शाहीन बाग रास्ता अपने 66 दिनों के विरोध प्रदर्शन को कुछ वक्त
नहीं की?” रोकने वाला नहीं, बल्कि पूरे देश को नई राह दिखाने के लिए उठा रही हैं। उन्होंने आउटलुक से कहा,
विरोध प्रदर्शन पर उसी दिन से अनिश्चितता- वाला है। वे कहते हैं, ‘‘हम पूरी ताकत से वापस ‘‘हम विराम ले रहे हैं लेकिन लड़ाई जारी रखेंग।े ’’
सी मंडराने लगी थी, जबसे दिल्ली में कोरोना के आएंग।े हम कोरोना के आतंक के पहले जेल भरो वे कहती हैं कि उन्हें सरकार पर कोई भरोसा नहीं
सिलसिले में लॉकडाउन का ऐलान हुआ। दिल्ली अभियान की योजना बना रहे थे। जब हालात सामान्य है क्योंकि वह झुकने का इरादा जाहिर नहीं कर रही
सरकार ने प्रदर्शनकारियों से भी अपील की लेकिन होंगे तो हम अपना आंदोलन तेज करेंग।े ’’ फिर भी, है लेकिन लोग भी झुकने को तैयार नहीं हैं। उन्होंने
वे नहीं डिगे। रितु अब कहती हैं कि हालात सामान्य इसके भविष्य को लेकर सिर्फ आलोचक ही सवाल आउटलुक से कहा, ‘‘हमने यह सोचकर विरोध
होते ही फिर पूरे जोशोखरोश से प्रदर्शन शुरू हो नहीं उठा रहे हैं। एक तबके को लगता है कि विरोध शुरू नहीं किया है कि इससे सरकार पर असर
जाएगा। ‘‘यह अस्थायी दौर है। अभी तो यह विरोध प्रदर्शन का मौजूदा तरीका काफी लंबा खिंच गया है, होगा।’’ 12 मार्च को, केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह
और बढ़ेगा। सिर्फ संख्या का सवाल नहीं है। गांधी जिससे उसका उलटा असर हो रहा है इसलिए नए ने राज्यसभा में आश्वासन दिया था कि किसी को
तो अकेले भी अभियान छेड़ दिया करते रहे हैं। तरीके अपनाए जाने चाहिए। दूसरे तबकों का तर्क भी एनपीआर के दौरान संदिग्ध नागरिक के रूप में
सरकार को जनता के सामने झुकना ही पड़ेगा।’’ है कि नई राजनैतिक जागृति पैदा करने वाला यह चिह्नित नहीं किया जाएगा और न कोई दस्तावेज
महिला अधिकार कार्यकर्ता कल्याणी मेनन सेन आंदोलन बदस्तूर जारी रहना चाहिए। दिखाने को कहा जाएगा। हालांकि, हाल ही में सुप्रीम
इसे सरकार का सत्ता-अहंकार बताती हैं। वे कहती दिल्ली के इतिहासकार सैयद इरफान हबीब कोर्ट में दायर सरकार के हलफनामे से चिंताएं बढ़
हैं, ‘‘हमारे ताली-बजाने वाले नेताओं ने उन्हें सुरक्षित पहले तबके की दलील के साथ हैं। उनका मानना गई हैं। सीएए पर एक जनहित याचिका के जवाब में,
स्थान से हटा दिया, जहां वे सामाजिक जिम्मेदारी है कि शाहीन बाग की महिलाएं “अपनी बात” सरकार ने कहा कि नागरिकता संशोधन अधिनियम,
निभाते हुए कोविड-19 के पूरे एहतियात बरत रही सशक्त रूप से रख चुकी हैं। हबीब ने आउटलुक से 2019 ‘अनुकल ू ’ कानून है और संसद में पास इस
थीं। अब उन्हें ऐसी जगह भेज दिया गया, जहां उनकी कहा, “हमेशा के लिए इसे नहीं खींचा जा सकता। कानून की न्यायिक समीक्षा की गुज ं ाइश सीमित है।
सुरक्षा पर खतरे बनिस्बतन ज्यादा हो सकते हैं।’’ प्रदर्शनकारियों को यहां से मुड़ना होगा और भविष्य सरकार ने यह भी कहा है कि प्रस्तावित एनआरसी
दिसंबर के मध्य में मुट्ठी भर महिलाओं का शुरू की योजना तैयार करनी होगी।” लखनऊ, पटना, जरूरी अभ्यास है। संविधान विशेषज्ञ फैजान मुस्तफा
किया विरोध प्रदर्शन अपने 101 दिनों के मुकाम में बेंगलूरू और कोलकाता जैसे अन्य शहरों में भी का कहना है कि हलफनामे में कई विरोधाभास हैं।
कई अड़चनों और खतरों से गुजरा। मीडिया के बड़े कोरोना महामारी को देखते हुए विरोध प्रदर्शन उठा मुस्तफा ने आउटलुक से कहा, ‘‘यह चौंकाने वाला
हिस्से ने यह प्रचार किया कि शाहीन बाग आंदोलन लिए गए हैं। राजनैतिक कार्यकर्ता तथा कांग्सरे है कि हलफनामे में रामलीला मैदान में प्रधानमंत्री के
की वजह से दक्षिण-पूर्वी दिल्ली और नोएडा का कार्यकर्ता सदफ जफर भी हबीब की राय से सहमत कहे और हफ्ते भर पहले ही गृह मंत्री के संसद में
रास्ता रुक गया है। इस मामले पर गौर करने के हैं। सदफ को उत्तर प्रदेश सरकार ने दिसंबर में स्पष्ट आश्वासन से उलटी बात कही गई है। हलफनामे
लिए सुप्रीम कोर्ट ने भी वक्त निकाल लिया। हालांकि लखनऊ में सीएए विरोधी मार्च की वजह से जेल में में याचिकाकर्ताओं की किसी भी आपत्ति का जवाब
कुछ ही लोग जानते हैं कि असल में दिल्ली यातायात डाल दिया था। लखनऊ में घंटाघर धरने में सक्रिय नहीं है।’’ संक्षेप में कहें, तो शाहीन बाग आंदोलन की
पुलिस ने मुख्य सड़कों को बंद कर दिया था। एक सदफ कहती हैं कि महिला प्रदर्शनकारियों ने पुलिस वजहें आज भी जिंदा हैं और उसे अपने जोशोखरोश
अन्य प्रदर्शनकारी कहते हैं, ‘‘पिछले 100 दिनों में आयुक्त को पत्र लिखा है कि महामारी के मद्नदे जर के लिए भी पर्याप्त मसाला जुट गया है।
यह राजनैतिक
परंपरा तो गलत
हर नागरिक को शांतिपूर्ण ढंग से विरोध का अधिकार लेकिन आम लोगों को परेशान करना
और अराजकता का माहौल पैदा करना मान्य राजनैतिक मर्यादाओं के विपरीत
शाहीन बाग के प्रदर्शनकारियों को आखिरकार बहरहाल, आजादी का आंदोलन बड़ी बात थी। उसकी तुलना अन्य किसी
वैश्विक महामारी कोरोना के लॉकडाउन के आंदोलन से नहीं की जा सकती। इसका जिक्र यहां इसलिए किया गया,
समय पुलिस को जबरन हटाना पड़ा। वैसे क्योंकि नागरिकता कानून विरोधी शाहीनबाग और अन्य प्रदर्शनों में कथित
तो स्थिति की गंभीरता को देखते हुए इन ‘आजादी’ के खूब नारे लगे लगे।
प्रदर्शनकारियों को स्वयं धरना समाप्त करना आप इन नारों को कुछ सिरफिरे लोगों की भड़ास कहकर छोड़ भी
चाहिए था, पर ऐसा नहीं हुआ। प्रदर्शनकारी सकते हैं। परंतु जब आप पिछले कुछ बरसों से ‘आजादी’ के नारे को
दिल्ली के आम शहरियों की तकलीफों और बार-बार प्रतिध्वनित होते देखते हैं तो एक खास पैटर्न उभरता है। ऊपर
उमेश उपाध्याय सु प्री म कोर्ट द्वारा नामित कमे ट ी की दलीलों हमने कहा कि किसी भी आंदोलन के लिए आवश्यक है कि कौन उसका
से भी पसीजे नहीं थे। ऐसे में सवाल उठता है नेतृत्व कर रहा है, यह स्पष्ट होना चाहिए। परंतु शाहीन बाग और उस जैसे
कि शाहीन बाग में चल रहा नागरिकता कानून प्रदर्शनों के नेतृत्व की जिम्मेदारी किसी ने नहीं ली है। इन्हें स्वतःस्फूर्त
विरोधी धरना और उससे फलित घटनाक्रम एक राजनीतिक आंदोलन था बताया गया, पर ये नारे इस बात को नकारते हैं और स्पष्ट करते हैं कि इसे
या फिर सुविचारित उपद्रव? चलाने वाले सामने आने से डरते हैं। मासूम महिलाओं और बच्चों को धरने
किसी भी लोकतंत्र में हर नागरिक को अधिकार है कि वह सरकार पर बैठाकर उन्हें राजनीतिक हथियार के रूप में इस्तेमाल करने वाले इन
की नीतियों और कानूनों का शांतिपूर्ण विरोध कर सके। विरोध का यह तत्वों और उनके मंसूबों की पहचान होना जरूरी है।
अधिकार अकेले नागरिक को, नागरिकों के समूह तथा दलों को भी है। एक बात तो पिछले दिनों साफ हो गई कि अति वामपंथी विचार रखने
मगर विरोध करने का अधिकार न तो असीमित है और न ही अनियंत्रित। वाले कतिपय संगठन और एनजीओ इसके पीछे हैं। पॉपुलर फ्रंट ऑफ
इसकी अपनी सीमाएं हैं। जब विरोध दूसरे नागरिकों के अधिकारों का इंडिया (पीएफआई) का नाम भी इन प्रदर्शनों और दिल्ली में हुए दंगों
अतिक्रमण करे तथा सार्वजनिक जीवन में बाधा बने तो यह विचार करने से जुड़ गया है। दिल्ली पुलिस ने पीएफआई से जुड़े कुछ लोगों को इस
की जरूरत है कि यह कितना विधि सम्मत और लोकतांत्रिक है। सिलसिले में पकड़ा भी है। एक्टिविस्ट हर्ष मंदर का वीडियो सामने आया
किसी भी लोकतंत्र में एक राजनीतिक आंदोलन के कुछ मूल तत्व है जिसका संज्ञान सुप्रीम कोर्ट ने भी लिया है। इस वीडियो में वे भारत की
या बिंदु होते हैं। पहला, किसी भी राजनीतिक आंदोलन का एक मुखरित हर स्थापित संस्था, यहां तक कि सर्वोच्च न्यायालय में भी अनास्था व्यक्त
उद्देश्य और लक्ष्य होता है। दूसरा, उस उद्देश्य की प्राप्ति के पीछे कौन काम कर रहे हैं। वे वीडियो में लोगों से सड़क पर उतर आने का आह्वान करते
कर रहा है यह भी स्पष्ट होता है। तीसरा और महत्वपूर्ण तत्व है आंदोलन हैं। लोकतांत्रिक व्यवस्था में बदलाव का जरिया सड़क पर जोर-जबरदस्ती
के साधनों के बारे में साफगोई। गांधीजी जिसे साधनों और साध्य की नहीं बल्कि मतपेटी होना चाहिए। यदि हर नागरिक या समूह अपनी बात
शुचिता कहते थे, वह किसी भी आंदोलन के लिए आवश्यक होती है। मनवाने के लिए सड़क पर उतरेगा तो यह अराजकता होगी।
स्वस्थ लोकतंत्र के लिए आवश्यक है कि आंदोलन शांतिपूर्ण हो तथा दूसरे नागरिकता कानून में संशोधन भारत की संसद ने बहुमत से पारित
नागरिकों के अधिकारों का अतिक्रमण न करता हो। किया है। इसमें पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान
भारत में राजनीतिक आंदोलनों का लंबा इतिहास है। वे
छोटे भी रहे हैं और बड़े भी। हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था
लोकतांत्रिक व्यवस्था मेंनागरिकता सताए हिंदू, सिख, बौद्ध, पारसी, जैन और ईसाइयों को
के अधिकार देने का प्रावधान है। ये तीनों घोषित
इससे पुष्ट और परिपक्व होती रही है। हमारे देश में ही नहीं, में बदलाव का जरिया इस्लामी देश हैं। यहां दूसरे धर्म के लोगों के साथ क्या
बल्कि एक तरह से दुनिया का सबसे बड़ा राजनीतिक सड़क नहीं, मतपेटी अमानवीय व्यवहार होता है, यह जगजाहिर है। इन देशों में
आंदोलन महात्मा गांधी के नेतृत्व में भारत की आजादी की हिंदू, ईसाई और सिख इत्यादि अल्पसंख्यक तलवार की
लड़ाई के रूप में चल चुका है। महात्मा गांधी ने आंदोलन होनी चाहिए। हर नोक पर या तो धर्म परिवर्तन करने को मजबूर हुए या मार
में साधन और साध्य, दोनों की शुचिता पर जोर दिया। नागरिक सड़क दिए गए। इसका ताजा उदाहरण काबुल के गुरुद्वारे में प्रार्थना
उन्होंने कहा कि सत्याग्रह, सत्य के लिए आग्रह है। वह
स्वयं को कष्ट देने के लिए है न कि दूसरों को कष्ट देकर पर उतरेगा तो यह केसंगलिए इकट्ठे हुए सिखों का नरसंहार है। जिहादी इस्लामी
ठन के इस हमले में 27 सिख मौत के घाट उतार दिए
जोर जबरदस्ती के साथ अपनी मांग मनवाने के लिए। अराजकता होगी गए। इन देशों में अल्पसंख्यकों की ये कत्लोगारत कोई एक
घटना नहीं है। अमेरिका के स्टेट्स डिपार्टमेंट और मीडिया के अनुसार सही या गलत: शाहीनबाग प्रदर्शन पर सबका अपना-अपना मत
अफगानिस्तान में 1990 में एक लाख हिंदू और सिख आबादी थी, जो अब
3,000 के आसपास है। अब यह समझना कठिन नहीं कि उन 97,000 संस्थाएं, मीडियाकर्मियों का एक वर्ग और एनजीओ कहते हैं कि यह
हिंदूओं और सिखों के साथ क्या हुआ होगा। विरोध प्रदर्शन एक मजहब द्वारा नहीं है। इनसे जरूर पूछा जाना चाहिए
इन सताए अल्पसंख्यकों को यदि भारत उनका नैसर्गिक अधिकार कि अगर ऐसा है तो उन्होंने मुस्लिम बहुल इलाके शाहीनबाग में ही यह
देने का फैसला लेता है तो इसमें क्या गलत है? नए कानून में भारतीय क्यों किया? उन्होंने देश में ऐसे ही स्थान क्यों चुने? इस धरने में बार-बार
नागरिकों के किस अधिकार का हनन होता है यह समझ नहीं आता? फिर लोकतांत्रिक मूल्यों और संस्थाओं की दुहाई भी दी जाती है। लोकतंत्र में
भी किसी को इससे आपत्ति है तो वह न्यायालय जा सकता है। परंतु इसके अपनी बात कहने का अधिकार है। अगर बात न मानी जाए तो उसके लिए
बहाने एक अर्धसत्य को नागरिकों के एक वर्ग के सामने परोसकर उनमें इसरार करने, धरना और प्रदर्शन करने का भी हक है। पर वह नियत स्थानों
आशंका और भय का माहौल बनाकर अराजकता पैदा करने का काम कोई पर ही हो सकता है। अगर आपको लगता है कि बात बहुत बड़ी है तो फिर
जिम्मेदार नागरिक या संस्था कैसे कर सकती है? आप सत्याग्रह भी कर सकते हैं। आजादी के बाद लोकतांत्रिक परंपराओं,
यहां यह प्रश्न उठना भी लाजिमी है कि ‘लोकतंत्र’, ‘संविधान’, लोकतांत्रिक संस्थाओं और लोकतांत्रिक मूल्यों की पुनर्स्थापना के लिए देश
‘तिरंगा’, ‘पारदर्शिता’, ‘लोकतांत्रिक संस्थाएं’ और ‘सहिष्णुता’ जैसे शब्द में एक बड़ा आंदोलन हुआ था। इमरजेंसी के खिलाफ विभिन्न विचारधाराओं
धरना प्रदर्शन करने वालों के पीछे बैठे तत्वों के लिए सिर्फ जुमला हैं या वे के लोग इकट्ठे हुए और संघर्ष किया। इस संघर्ष में हजारों लोग जेल गए।
इनमें यकीन भी करते हैं। इस सवाल का जवाब तो उन्हें देना ही चाहिए। उन्होंने यातनाएं सही लेकिन हिंसा का सहारा नहीं लिया।
क्योंकि संविधान में स्थापित लोकतांत्रिक मूल्य और उनसे निकली व्यवस्था यहां इमरजेंसी का जिक्र इन दो परिस्थितियों की तुलना के लिए नहीं
हर भारतीय के लिए आस्था के मंदिर की तरह है। यह इस्तेमाल कर फेंक बल्कि यह बताने के लिए है कि कुछ मूल्यों के लिए संस्थाओं और उसके
दिया जाने वाला औजार नहीं हो सकता। देश के लिए यह गंभीर चिंता का नेततृ ्व को स्वयं त्याग करना पड़ता है। आम शहरियों को परेशान करना
विषय होना चाहिए कि शहरी नक्सल, अति वामपंथी तथा जिहादी संगठन और अराजकता का माहौल पैदा करना- यह स्थापित और मान्य राजनीतिक
कहीं इस मौके का इस्तेमाल कर ऐसे विचार विषाणु हमारे सार्वजनिक मर्यादाओं के विपरीत है। इसके लिए महिलाओं और बच्चों का इस्मते ाल
जीवन में आरोपित न कर दें जिनका इलाज करने में असहनीय पीड़ा का बेहद खतरनाक परंपरा की शुरुआत है। ऐसा वे ही कर सकते हैं जिनकी
सामना करना पड़े। आस्था भारत के भले में नहीं, बल्कि यहां मजहब की दरारों को गहरा करने
इन प्रदर्शनों में लगने वाले अन्य नारों का जिक्र करना भी गैर मुनासिब में हो। इसे किसी भी तरह से राजनीतिक आंदोलन कहना सही नहीं होगा।
नहीं होगा। एक नारा लगा ‘तेरा-मेरा रिश्ता क्या, ला इलाह इल्ललाह’। यह तो एक उपद्रव है जो परदे के पीछे रहकर उन ताकतों ने भड़काया है
भारत विभाजन के समय लगने वाला यह नारा शाहीनबाग में क्यों लगा? जिनकी आस्था भारत के चिर स्थापित शांतिपूर्ण सह अस्तित्व और समन्वय
भारत के नागरिकों को मजहब के आधार पर बांटने से ज्यादा खतरनाक के मूल्यों में कतई नहीं लगती।
बात नहीं हो सकती। धरने के समर्थक, इससे सहानभूति रखने वाली (लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)
यह राष्ट्रीय भावना
के तो विपरीत
नया नागरिकता कानून न संविधान की भावना के अनुरूप है, न हमारी राष्ट्रीयता के अनुरूप, यह नागरिकता
कानून, 1955 की भी बुनियाद पर चोट करता है
कोई भी कानून या नैतिक आग्रह संविधान साथ करने का है, जो अवैध प्रवासियों की पहचान करेंगे। ऐसे प्रवासी
की भावना के विपरीत या उससे ऊपर नहीं अवैध हैं, जो बिना किसी वैध कागजात के भारत में आए हैं या उन
है जिसे हम भारत के लोगों ने अपने लिए कागजात में तय तारीख के बाद यहां रह रहे हैं। इस तरह यहां सीएए
अपनाया है। अगर हम अपने संविधान की भूमिका होगी। क्योंकि जो लोग दिसंबर 2014 के पहले पाकिस्तान,
की प्रस्तावना पर गौर करें तो यह एकदम बांग्लादेश और अफगानिस्तान से भारत में आए हैं और जो मुसलमान
साफ हो जाता है कि हमारे संविधान का नहीं हैं, उन्हें अवैध प्रवासी नहीं माना जाएगा। उन्हें नागरिकता कानून,
मुख्य उद्देश्य राष्ट्र की एकता और अखंडता 1955 की धारा 6बी के तहत पंजीकरण या देसीकरण की प्रक्रिया से
दिनेश द्विवेदी हासिल करना है। संविधान में जोर इस नागरिकता दे दी जाएगी। इस तरह सही स्थिति तो यही है कि सीएए
उद्देश्य के लिए राजनैतिक न्याय, हैसियत यकीनन किसी को नागरिकता से वंचित नहीं करता लेकिन दिसंबर
और अवसर की समानता और सबसे 2014 के पहले पाकिस्तान, बांग्लादेश या अफगानिस्तान से आए
बढ़कर भाईचारे को प्रश्रय देने पर है। संविधान निर्माता हमारे राष्ट्र की मुसलमानों को नागरिकता प्रदान करने का वह समान अवसर नहीं देता,
एकता और अखंडता कायम रखने के लिए इसी एकमात्र तरीके के जो हिंदू, सिख, जैन और ईसाइयों वगैरह को मुहैया कराता है। लेकिन
हिमायती हैं। राष्ट्रवाद के इसी एकमात्र स्वरूप को हमें अपने दैनिक इन समुदायों के जो लोग पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान से
जीवन में तवज्जो देनी चाहिए। राष्ट्रवाद की इस कसौटी पर जो खरा नहीं आए हैं, उन्हें भी मुसलमानों की तरह नागरिकता से वंचित होना
नहीं है, संविधान की भावना के प्रतिकूल है, उसे राष्ट्रीयता नहीं कहा होगा। गौरतलब यह भी है कि भारत के बंटवारे से अफगानिस्तान का
जा सकता। जो कानून हमारे राष्ट्र की एकता और अखंडता के उपरोक्त कोई संबंध नहीं रहा है। बहरहाल, कोई भी मुसलमान अवैध प्रवासी
उद्देश्य के विपरीत हो, उसकी आलोचना को राष्ट्र-विरोधी करार नहीं घोषित किए जाने के बाद भारत का नागरिक कभी नहीं बन सकता या
दिया जा सकता। मैं आम बोलचाल में इस्तेमाल होने वाली देशभक्ति उसे नागरिकता कानून के तहत देसीकरण की प्रक्रिया के लिए 11 से
की कसौटी की बात नहीं कर रहा हूं क्योंकि हमारे संविधान निर्माताओं 14 साल प्रवास के बाद नागरिकता हासिल हो सकती है। इससे अलग
ने सोच-समझकर इस पद का उपयोग नहीं किया है। दावा करने वाले सरासर झूठ बोल रहे हैं। उनके लिए जल्द प्रक्रिया
हमारा संविधान हमारा बाइबिल है और उसमें राष्ट्रवाद की बेहद का कोई रास्ता नहीं है। ऐसे में, क्या यह सवाल मौजूं नहीं है कि वे
सरल परिभाषा है। क्या नागरिकता संशोधन कानून, 2019 (सीएए) ठगा हुआ महसूस नहीं करेंगे?
राष्ट्रवाद के उपरोक्त उद्देश्य या कसौटी पर खरा है? अगर नहीं, तो इसलिए यह देखना उचित है कि यह सारा मामला न सिर्फ
क्या उसका विरोध करने वालों को राष्ट्रविरोधी या भेदभावपूर्ण, बल्कि गैर-धर्मनिरपेक्ष भी है। हमारा
देशद्रोही कहना उचित और तर्कसंगत है? ये कुछ संविधान लोगों की समान भागीदारी पर आधारित
सवाल हम सभी को परेशान कर रहे हैं और हम लोकतंत्र की बात करता है। हमारे संविधान में समानता
एक अर्धसत्य से रू-ब-रू हैं। संविधान में प्रदत्त हमारे का सिद्धांत धर्म के आधार पर वर्गीकरण करने की
यह आसानी से कहा जा सकता है कि सरकार
गलत नहीं कह रही है कि सीएए की धारा 21 बी
राष्ट्र की एकता और मनाही करता है। दरअसल, हमारे संविधान की
धर्मनिरपेक्ष भावना धर्म की समानता पर ही आधारित
और धारा 6 बी स्वत: किसी को भी नागरिकता से अखंडता के उद्देश्य के है। उसमें धार्मिक समानता के लक्ष्य को हासिल
वंचित नहीं करता है। यह बेहद मासूम-सा जवाब जो कानून विपरीत हो, करने के लिए अल्पसंख्यकों के विशेष अधिकारों का
शब्दों की बाजीगरी और अर्धसत्य से अधिक भी इरादा जाहिर किया गया है। धर्मनिरपेक्षता और
कुछ नहीं है। सीएए स्वत: किसी को नागरिकता उसकी आलोचना को समानता की अवधारणाओं में कोई विरोधाभास नहीं
से वंचित नहीं कर सकता। लेकिन इसे अलग से राष्ट्र-विरोधी नहीं करार है। इसलिए हम सीएए को इस कसौटी पर कसते हैं
या शून्य में लागू करने का इरादा नहीं है, इस पर
अमल का इरादा तो एनपीआर और एनआरसी के
दिया जा सकता तो हमें यह मुसलमानों के प्रतिकूल जान पड़ता है।
फिर, इस पर कुछ बारीकी से गौर करें तो यह साफ
हो जाता है कि न तो यह (सीएए) संविधान निर्माताओं के मकसद के से सीएए का कोई रिश्ता पूरी तरह अतार्किक और भ्रामक है या
अनुकूल है, न नागरिकता कानून, 1955 की धारा के हिसाब से है। महज दिखावे का हो सकता है। इसके अलावा, यह भी गौर कीजिए
यह संविधान बड़ी संजीदगी के साथ हर क्षेत्र के भेदभाव पर कि अफगानिस्तान से भारत के बंटवारे का क्या लेना देना है? अगर
अंकुश लगाता है। इसमें लोगों की प्रत्यक्ष भागीदारी से चुनाव और ‘‘धार्मिक उत्पीड़न’’ सहने वालों से सच्ची सहानुभूति होती तो धर्म
राजकाज का प्रावधान है, जिसमें धर्म के आधार पर कोई भेदभाव नहीं या देश के आधार पर फर्क नहीं किया जाता। क्या पाकिस्तान और
है। इसके अनुच्छेद 14, 15, 16, 25, 26, 325 और 326 जैसे अनेक बांग्लादेश में हिंदुओं और मुसलमानों के धार्मिक उत्पीड़न में कोई फर्क
प्रावधान हर क्षेत्र में गैर-बराबरी पर प्रतिबंध लगाते हैं। संविधान अपने है? बेशक कोई यह तर्क दे सकता है कि धार्मिक उत्पीड़न के शिकार
समानता संहिता के तहत अल्पसंख्यकों के प्रति विशेष रुख की बात लोगों को शरण देना मानवीय फर्ज है लेकिन वे पाकिस्तान, बांग्लादेश,
करता है। हमारे संविधान की इसी भावना के अनुरूप इसके नागरिकता अफगानिस्तान के मुसलमानों या दूसरे देशों के हिंदुओं, ईसाइयों वगैरह
संबंधी अध्याय में नागरिकता के मामले में धर्म की चर्चा सोच- के मामले में मौन क्यों हो जाते हैं? क्यों ऐसा ही व्यवहार श्रीलंका
समझकर नहीं की गई है। कहीं भी यह धर्म के आधार पर नागरिकता के हिंदुओं या भूटान के ईसाइयों वगैरह के बारे में नहीं है? ये भी तो
देने की बात नहीं करता। यह सभी धर्मों के प्रति समान भाव रखता है। ब्रिटिश राज में भारत के हिस्से रहे हैं। महज तीन देशों के चयन में तर्क
गौरतलब यह है कि ये प्रावधान उस वक्त अपनाए गए, जब सीमा के ढूंढ़ पाना मुश्किल है या श्रीलंका के हिंदुओं और भूटान के ईसाइयों
आर-पार बड़े पैमाने पर लोगों का पलायन हो रहा था। यह समझा को शामिल न करने का भी कोई तर्क नहीं दिखता। मुझे बताया गया
जा सकता है कि उस वक्त भारत से जो पश्चिमी और पूर्वी पाकिस्तान है कि बर्मा या म्यांमार से हिंदू भी आए हैं। तो, उन्हें क्यों छोड़ दिया
जा रहे थे, वे धार्मिक अल्पसंख्यक बिरादरी से थे। लेकिन संविधान गया?
निर्माताओं ने बंटवारे की फिजा में जो भारत से पाकिस्तान चले गए थे, इन बेतुके भेदभाव के अलावा सबसे उलझन भरा सवाल ‘‘अवैध
उन्हें लौटने पर नागरिकता देने की अनुमति दी। संविधान में नागरिकता प्रवासियों’’ के मामले में सीएए का कानूनी असर है कि हिंदू, सिखों
प्रदान करने की यही भावना है और उससे धर्म या मजहब को दूर को ‘‘अवैध प्रवासी’’ नहीं माना जाएगा। उन्हें कुछ साबित करना नहीं
रखा गया है। दिलचस्प यह है कि अनुच्छेद 6 और 7 दोनों ही भारत पड़ेगा। इस तरह उन्हें नागरिकता देने का रास्ता खुल जाता है क्योंकि
से जाने और भारत में आने वालों से संबंधित हैं लेकिन दोनों में किसी वे कानून की नजर में अवैध प्रवासी नहीं हैं। सीएए की तर्क-पद्धति
धार्मिक पूर्वाग्रह का जिक्र नहीं है। संविधान निर्माता ने हर तरह के साफ-साफ मुसलमानों के प्रति धार्मिक पूर्वाग्रह पर आधारित है। इसे
प्रवासियों के लिए नागरिकता प्रदान करने का विकल्प खुला रखा, चाहे जायज ठहराने के लिए 1950 के लियाकत अली-नेहरू के समझौते
उनका धर्म कुछ भी हो। का हवाला देना अर्धसत्य को फेंटने जैसा है। उस समझौते का इस मुद्दे
संविधान के लगभग फौरन बाद बनाए गए नागरिकता कानून 1955 से कोई लेना-देना नहीं है। उस समझौते में दो पहलू थे। एक, भारत
में भी यही भावना है। नागरिकता कानून का कोई भी प्रावधान धर्म और पाकिस्तान की सरकारें अपने-अपने दायरे में अल्पसंख्यकों के
की बात नहीं करता, चाहे नागरिकता देने की बात हो या नागरिकता साथ पूरी तरह समान नागरिकों जैसा व्यवहार करेंगी। अल्पसंख्यकों
वापस लेने की। पंजीकरण या देशीकरण से नागरिकता देने की प्रक्रिया को अवसर, सुरक्षा और सार्वजनिक जीवन में हिस्सेदारी का समान
में धर्म का कोई मतलब नहीं है। 2019 में सीएए के अलावा संसद अधिकार होगा। दूसरे, बंटवारे के बाद पहुंचे प्रवासियों को, बिना धर्म
ने भी नागरिकता के मामले में बड़ी संजीदगी के साथ कभी धर्म का पूछे, पर्याप्त सुरक्षा, राहत और मदद दी जाएगी। अगर हम समझौते
हल्का-सा जिक्र भी नहीं आने दिया। सीएए में ‘‘अवैध प्रवासियों’’ को को ध्यान से पढ़ें तो सीएए यकीनन उसका उल्लंघन लगेगा। समझौते
नागरिकता प्रदान करने की प्राथमिक शर्त धर्म है। इसका सबसे विषाक्त में कहीं धर्म का जिक्र नहीं है। उसमें संबंधित वाक्य है, ‘‘अपने क्षेत्र
अंश यह है कि कथित तीन देशों से 2014 तक आए सभी ‘‘अवैध में अल्पसंख्यकों को नागरिकता की संपूर्ण समानता, बिना धर्म पूछे,
प्रवासी’’ इस विशेष प्रावधान से नागरिकता पा सकते हैं, लेकिन मुहैया कराने को रजामंद।’’ क्या सीएए इस भावना पर खरा बैठता है?
मुसलमान नहीं, उन्हें इस विशेष प्रावधान के तहत कभी नागरिकता अनुच्छेद 6 और 7 के लिए संविधान सभा की बहस को पढ़ते हुए
नहीं मिलेगी। बेशक, यह फर्क धर्म के आधार पर किया गया है और ऐसा जरूर लगता है कि बहस खासकर हिंदुओं की ओर मुड़ी हुई है।
यह हमारे संविधान की समानता और धर्मनिरपेक्षता की बुनियाद पर ही लेकिन उसकी वजहें बंटवारे के दौरान होने वाली घटनाएं थीं। बड़ी
चोट करता है। इसमें यह दो-टूक मान लिया गया है कि पाकिस्तान संख्या में लोग सीमा के आर-पार जा रहे थे। 1947 में पाकिस्तान से
वगैरह देशों में मुस्लिम समुदाय कभी कट्टरता का हिंदू बड़ी संख्या में भारत में आए। फिर 1948 में
शिकार नहीं हो सकता, जो सच नहीं है। इस मामले पश्चिम पाकिस्तान में मुसलमान आने लगे जो पहले
में अहमदिया और हजारा समुदाय का उत्पीड़न सब पाकिस्तान में चले गए थे। इसलिए नागरिकता देने
के सामने है। यह कानून यह भी मान लेता है कि सीएए समानता और के तब के सवाल समझ में आते हैं। तकनीकी तौर
दूसरे देशों में हिंदू कभी सताए नहीं जाते। इसकी
जीती-जागती मिसाल तो श्रीलंका ही है। इस कानून में
धर्मनिरपेक्षता की पर अनुच्छेद 6 और 7 में कुछ मुस्लिम विरोधी
पूर्वाग्रह दिख सकता है लेकिन उसकी वजह
अलगाव के दूसरे अतार्किक प्रावधान भी हैं। बुनियाद पर चोट करता संपत्तियों के मामले थे। इसलिए पाकिस्तान चले गए
दरअसल कहीं भी ‘‘धार्मिक उत्पीड़न’’ की है। उत्पीड़न सहने वालों मुसलमानों को वापस आने से हतोत्साहित करना
परिभाषा स्पष्ट न होने से समस्या और पेचीदा हो था। अब 70 साल बाद जब ये मुद्दे खत्म हो चुके
जाती है। यह तय करने की कोई कसौटी नहीं है कि से सच्ची सहानुभूति होती हैं, फिर उसे उभारना बेतुका है।
धार्मिक उत्पीड़न का शिकार किसे कहा जाएगा। यह तो धर्म या देश के आधार कुल मिलाकर सीएए न संविधान की भावना के
कानून अजीबो-गरीब रूप से इस मामले में मौन है।
इसलिए बंटवारे की वजह से हुए धार्मिक उत्पीड़न
पर फर्क नहीं किया जाता अनुरूप है, न हमारी राष्ट्रीयता के अनुरूप है।
(लेखक सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ वकील हैं)
फरवरी के आखिरी हफ्ते में उत्तर-पूर्वी मानता है कि हिंदुओं का उत्पीड़न हुआ है। अगर दिल्ली में मुस्लिम
दिल्ली के सांप्रदायिक दंगों में मुसलमानों को समुदाय का मजबूत राजनैतिक नेतृत्व होता तो संकट के समय आगे आने
जान-माल के भारी नुकसान के साथ लगभग की जिम्मेदारी से बच नहीं पाता। मुसलमानों के राजनैतिक रूप से एकजुट
सभी राजनैतिक दलों की जैसी बेरुखी झेलनी होने से मुस्लिम नेतृत्व उभरने के अलावा उन कट्टरपंथी तत्वों पर भी
पड़ी, उससे एक स्वाभाविक नतीजा तो अंकुश लगेगा, जो अपने आसपास के इलाकों में जाकर निर्दोष हिंदुओं पर
यह निकलता है कि भारत में मुसलमानों के हमले करते हैं।
पास अपनी राजनैतिक गोलबंदी ही एकमात्र तीसरे, हमारा राजनैतिक इतिहास गवाह है कि समाज के कमजोर
शाजहां मदम्पत विकल्प बचा है। अभी तक उनके आजमाए समुदायों ने राजनैतिक ताकत और कुछ आत्मविश्वास का एहसास तभी
सारे विकल्प निहायत ही बेमानी साबित हुए किया, जब वे राजनैतिक रूप से संगठित हुए। सपा, बसपा, राजद और
हैं। अपने ही समुदाय के लोगों की राजनैतिक आइयूएमएल ऐसे ही कुछ उदाहरण हैं। चौथे, मुसलमानों का सही सोच
गोलबंदी हमलावर भीड़ से कारगर बचाव के उन्हें शायद बेहतर मौके वाला सामाजिक और राजनैतिक नेतृत्व संभावित कट्टरता और बहकावे से
मुहैया करा पाती। संकट की इस घड़ी में उनकी बात उठाने और नेतृत्व बचाने के लिए वाजिब विकल्प होगा। देश के राजनैतिक हालात मुस्लिम
करने के लिए दिल्ली में मुस्लिम समुदाय का एक भी जाना-पहचाना नेता समाज के इस कदर पूरी तरह खिलाफ हो चुके हैं कि संकट की इस आग
नहीं है, यह इस बात का सबूत है कि तथाकथित धर्मनिरपेक्ष पार्टियों पर में हाथ सेंकने को तत्पर कट्टरपंथी तत्वों को अपना काम बेहद आसान
निर्भरता और उनका शोषण भी, अब और झेल पाना संभव नहीं रहा। लगेगा। हम बड़े गर्व से कहते हैं कि देश के 20 करोड़ मुसलमानों में
से महज कुछ सैकड़ा ही वैश्विक जेहादी संगठनों की ओर आकर्षित
वजहें हैं चार हुए्र लेकिन यह जल्दी ही बीते दिनों की बात हो जा सकती है। भारतीय
चार वजहें हैं कि क्यों भारतीय मुसलमानों को अपने समुदाय के अधिकांश मुसलमानों ने जेहादी संगठनों के दुस्साहस में कभी दिलचस्पी नहीं दिखाई
लोगों को एक राजनैतिक छतरी के तले गोलबंद करने के बारे में गंभीरता क्योंकि संविधान में प्रदत्त समान नागरिकता का अधिकार उन्हें आश्वस्त
से सोचना होगा? एक, आज के हालात में भारत में किसी मुसलमान करता रहा है, भले ही असलियत में समान व्यवहार दूर की कौड़ी हो।
की हैसियत उसके पक्के समर्थक गैर-मुसलमान धर्मनिरपेक्ष लोगों से भी लेकिन अब वे महसूस कर रहे हैं कि उन्हें एक ओर तो साथियों से धोखा
एकदम अलग है। दिल्ली हिंसा के दौरान योगेंद्र यादव और निधि राजदान मिला और नागरिकता छिनने, यहां तक कि हत्या और कत्लेआम का
के ट्वीट उनकी स्थिति में फर्क को दर्शाते हैं। दोनों ही अमेरिकी राष्ट्रपति वास्तविक डर बड़े पैमाने पर मोहभंग पैदा कर रहा है।
के दौरे के समय भारत की छवि बिगड़ने को लेकर चिंतित थे। इसमें दो मुसलमानों का देश की सभी संस्थाओं सरकार, पुलिस, न्यायपालिका,
राय नहीं कि भारत में बहुलतावाद के प्रति उनकी प्रतिबद्धता संदेह से परे मीडिया, सिविल सोसायटी और राजनैतिक पार्टियों से भरोसा उठ चुका है।
है, लेकिन उनकी सामाजिक स्थिति उन्हें देश की छवि को लेकर चिंतित उन्हें पता है कि उनके खिलाफ नफरत हिंदुओं में जंगल की आग की तरह
होने की सुविधा मुहैया कराती है। इसके विपरीत कोई मुसलमान सिर्फ फैल रही है। उन्हें यह भी मालूम है कि नफरत फैलाने वालों में सत्ता में
जिंदगी की दुआ ही मांग सकता था क्योंकि कत्लेआम के हालात ने उसकी शीर्ष पदों पर बैठे लोग शामिल हैं, जो मुसलमानों का वजूद अपने ही देश
और उसके परिवार की जान और उसकी जायदाद सब खतरे में डाल दी में नारकीय बनाने के मकसद से बड़े करीने से नए कानूनों और नीतियों पर
थी। फिर, सीएए, एनआरसी और एनपीआर उसकी नागरिकता पर ही काम कर रहे हैं। ऐसी प्रतिकूल परिस्थितियां कट्टरता और उग्र प्रवृत्तियों की
सीधा खतरा पेश कर रहे हैं। ऐसे में मुसलमान अपना दरवाजा खोलकर जड़ें जमाती हैं। ऐसे में, मुस्लिम समुदाय में कोई मजबूत नैतिकता आग्रहों
बड़े धीर-गंभीर लहजे में हत्यारी भीड़ से यह तो नहीं कह सकते थे, और संविधान के मूल्यों के प्रति प्रतिबद्ध सामाजिक-राजनैतिक नेतृत्व नहीं
‘‘दोस्तों, अमेरिकी राष्ट्रपति अभी दौरे पर हैं। अगर आप हमें मारोगे औरे उभरता, तो नेतृत्व के मौजूदा खालीपन को उतावले कट्टरपंथी और सनकी
घरों को जलाओगे तो देश की छवि खराब होगी। कुछ दिन बाद आना।’’ भाषण-वीर भरने की कोशिश करेंगे।
दूसरे, आजादी के बाद से ही सेक्युलर पार्टियों ने
भारतीय मुसलमानों की अपने ऊपर निर्भरता का खूब नई मुस्लिम राजनीति का स्वरूप
फायदा लिया। लेकिन उन्हें दंगों के समय बचाने और इतिहास गवाह है कि नई मुस्लिम राजनीति समग्र रूप में गांधीवादी होनी चाहिए,
उनकी दशा सुधारने के लिए कुछ नहीं किया। किसी भी
सेक्युलर पार्टी के शीर्ष नेता के पास इतना साहस नहीं है
हाशिए के समुदायों को जिसमें समुदाय के भीतर और बाहर विविधता स्वीकार्य
हो, हिंदू-मुस्लिम एकता के लिए प्रतिबद्धता हो और
कि वह दंगों के बीच आकर खड़ा हो जाए और पीडि़तों तब ताकत मिली जब अहिंसा की पक्षधरता हो। उसे न सिर्फ खुला होना चाहिए,
की मदद करे। इसकी मुख्य वजह है कि उन्हें हिंदू वोट वे राजनीतिक रूप से बल्कि संगठन और नेतृत्व में तमाम पंथों, नास्तिकों, सुन्नी,
कटने का भय रहता है। शायद उनका यह मानना है कि शिया, एलजीबीटीक्यू समुदायों और स्वतंत्र विचारकों को
बहुसंख्यक हिंदू संघ परिवार के इस दुष्प्रचार को सही संगठित हुए शामिल करके विविधता लाने के प्रति सक्रिय पहल दिखनी
जितेंद्र गुप्ता
चाहिए। दूसरे शब्दों में कहें तो मुसलमानों की तरह हिंदुत्ववादी ताकतों के एकजुटताः अल्पसंख्यक समुदाय संगठित होकर ही आज के
निशाने पर आने की संभावना वाले सभी को समान स्थान मिलना चाहिए। माहौल से लड़ पाएगा
दूसरे, महिलाओं को राजनैतिक संगठन और उसके संचालन में अगली
कतार में होना चाहिए। इतिहास गवाह है कि पुरुष प्रधानता की सोच में पगे लिए परिपक्व है। छठे, उसे सांप्रदायिकता, पर्यावरण विध्वंस, नागरिक
आदमी हमेशा ही अपने क्षुद्र स्वार्थों के आगे महान साझा मकसदों को पीछे आजादी और मानवाधिकारों के उल्घलं न के खिलाफ लड़ने वाले सिविल
धकेलते रहे हैं। शाहीन बाग ने दिखा दिया कि औरतों के नेतृत्व में कोई सोसायटी समूहों के साथ मिलकर काम करना चाहिए। अधिकांश सिविल
आंदोलन अपने स्वरूप में एकदम अनोखा हो सकता है, हिंसा से अछूता सोसायटी समूहों और तथाकथित धर्मनिरपेक्ष पार्टियों के बीच अंतर यह है
रह सकता है और मकसद के प्रति अडिग रहता है। मुस्लिम औरतों का कि तात्कालिक फायदों के लिए सिविल सोसायटी समूह अपने आदर्शों
कमान हाथ में लेने के लिए बाहर निकलना समुदाय के भीतर बेहद जरूरी को राजनैतिक दलों की तरह आसानी से तिलांजलि नहीं देत।े राजनैतिक
सामाजिक मंथन की शुरुआत हो सकता है। दल आदर्शों से समझौता करने और दगा करने में पीछे नहीं है। इसका एक
तीसरे, नए संगठन को धार्मिक चिह्न और नारों से बचना चाहिए, उदाहरण यह है कि अधिकांश धर्मनिरपेक्ष पार्टियां कभी न कभी भाजपा के
बल्कि उसे भारतीय राष्ट्रीयता के प्रतीक और चिह्नों को चुनना चाहिए। साथ गठजोड़ कर चुकी हैं।
शाहीन बाग ने इसे न सिर्फ रणनीति बल्कि नागरिकता पर जोर देने के लिए सातवें, उसे ऐसा कुछ नहीं कहना या करना चाहिए जो हिंदुओं को
प्रभावी मॉडल साबित किया। वहां और दूसरे प्रतिरोध स्थलों पर भारत के संघ के पाले में जाने को उन्मुख करे। नए संगठन को ऐसे शब्दों और
बहुलतावादी इतिहास के प्रतीकों और चिह्नों पर जोर देने और संविधान कृत्यों पर हमेशा ध्यान देना होगा, जिनसे एक ओर हिंदुत्व और संघ
की प्रस्तावना पढ़े जाने से धर्मनिरपेक्षता का एक नया मुहावरा गढ़ा गया परिवार और दूसरी ओर विशाल हिंदू समाज के बीच अंतर किया जा
है। चौथे, यह कोई एकरूप संगठन नहीं होना चाहिए, बल्कि क्षेत्रीय और सके। आठवें, नए राजनैतिक संगठन को पहचान की राजनीति की लालच
राज्य स्तरीय दलों का ढीला-ढाला ढांचा होना चाहिए। प्रत्येक राज्य में में फंसने के बदले नागरिकता का दावा करने पर फोकस करना चाहिए।
राजनैतिक स्थितियां अलग-अलग हैं इसलिए कोई एकरूप संगठन उलटे हर्ष मंदर ने हाल में कहा, ‘‘यहां मौजूद मुसलमान भाई-बहनें और बच्चे
नतीजे दे सकता है। इससे किसी खास क्षेत्र या राज्य का दबदबा बढ़ अपनी पसंद से भारतीय हैं। बाकी हम सभी संयोग से भारतीय हैं। हमारे
सकता है। राष्ट्रीय स्तर पर एकमात्र साझा तत्व नैतिक सिद्धांत और भारत पास कोई विकल्प नहीं था। हमारे पास सिर्फ यही देश था। लेकिन आपके
को उसके विवेकसंपन्न स्वरूप में लौटा ले जाने का सपना होना चाहिए। (मुसलमानों) पास और विकल्प था लेकिन आपके पूर्वजों ने इस देश में
पांचवें, ऐसे संगठन को कम से कम दस साल तक चुनावों में शामिल रहने का विकल्प चुना। आज, जो लोग सरकार में हैं, वे यह साबित करने
होने से दूर रहना चाहिए और संगठन खड़ा करने, राजनैतिक प्रशिक्षण, की कोशिश कर रहे हैं कि जिन्ना सही थे और महात्मा गांधी गलत।’’
समाज कल्याण और धर्मों के बीच संवाद पर फोकस करना चाहिए। फौरन भारतीय मुसलमानों की यह नैतिक और ऐतिहासिक जिम्मेदारी है कि वे
चुनाव में उतर जाने से ऐसे संगठन को उन तमाम वजहों के लिए संदिग्ध जिन्ना और सावरकर को गलत साबित कर दें। यही उनके पुरखों को सच्ची
माना जाने लगेगा जिसके लिए भारतीय राजनीति को गलत माना जाता है। श्रद्धांजलि होगी जिन्होंने भारत में रहना चुना था।
सुझाव चुनावों के बहिष्कार का नहीं, बल्कि उस वक्त तक रुकने का है, (लेखक सांस्कृतिक टिप्पणीकार हैं। उनकी ताजा किताब गॉड इज नाइदर ए
जब समुदाय को यह महसूस हो कि भरोसेमदं चुनावी गठजोड़ करने के खोमैनी नाॅर ए भागवत है। यहां व्यक्त विचार उनके निजी हैं)
हम प्रायः सूची बनाते हैं। शब्दों को पेज पर देने के लिए जा रही थी। यह मामला उन्नाव का है, लेकिन इसे उन्नाव
करीने से सजाते हैं ताकि उनका कोई अर्थ रेप केस नहीं कहा गया क्योंकि यह एक अन्य मामला है।
या उद्देश्य हो। लेकिन कुछ शब्दों की कुछ एक अन्य मामले में एक विधायक बलात्कार का आरोपी बना।
सूचियां सिर्फ डर पैदा करती हैं। इनके कुछ पीड़िता के पिता की मौत पुलिस की हिरासत में उत्पीड़न के कारण हो गई।
उदाहरण भी हैंः इसके बाद पीड़िता के साथ एक सड़क दुर्घटना हुई, जिसमें वह मरते-मरते
2013: एक कॉलेज की छात्रा का उस बची। विधायक को बलात्कार के लिए दस साल की सजा हुई।
समय अपहरण हो जाता है जब वह अपने कौन सा अपराध ज्यादा दुर्लभ है और कौन सा ज्यादा डरावना?
एनी जैदी घर के पास टहल रही होती है। एक बंद हम तय नहीं कर सकते, लेकिन हमें यह अनुमान अवश्य लग जाता
पड़ी फैक्ट्री में उसके साथ बलात्कार किया है कि किसे कितनी सजा होगी क्योंकि यह इस पर निर्भर होता है कि
जाता है। बलात्कारी उसका गला काटने के उसके पास अपनी या संयुक्त रूप से कितनी संपदा है, उसकी जाति
बाद उसकी टांगों को धड़ से अलग कर देते हैं। यह ‘कमदुनी रेप केस’ क्या है और जांच अधिकारी कितना कर्तव्यनिष्ठ है। 2018 के कठुआ
के तौर पर चर्चित हुआ। इस मामले में नौ लोग आरोपी बनाए गए। तीन केस पर गौर कीजिए। आठ वर्षीय आसिफा का अपहरण किया जाता है
को मौत की सजा हुई। तीन अन्य को आजीवन कारावास मिला। दो और मंदिर के भीतर बलात्कार करके हत्या कर दी जाती है। सात लोग
आरोपियों को बरी कर दिया गया, एक की ट्रायल के दौरान मौत हो गई। गिरफ्तार किए जाते हैं, जिनमें से चार पुलिस अधिकारी हैं। किसी को भी
2014: बदायूं में एक से ज्यादा घटनाएं सुर्खियों में छा गईं। ‘बदायूं मौत की सजा नहीं हुई।
सिस्टर केस’ कहे गए इस मामले में दो बहनों को एक पेड़ से बांध इस केस का कौन सा पहलू सबसे जघन्य अपराध है? बच्चे की
दिया गया। पोस्टमार्टम रिपोर्ट में शुरू में कहा गया था कि उनके साथ आयु? अपराध का स्थान? या फिर यह तथ्य कि कई लोग आरोपियों
बलात्कार किया गया और फिर गला घोंटकर हत्या कर दी गई। बाद के समर्थन में रैलियां निकालते हैं? अथवा यह तथ्य कि पुलिसकर्मियों ने
में सीबीआइ रिपोर्ट में कहा गया कि बलात्कार नहीं हुआ। तीन लोग साजिश रची और उन्हें सिर्फ पांच साल की सजा हुई?
गिरफ्तार किए गए, बाद में जमानत मिल गई। (एक अन्य बदायूं केस हम मानते हैं कि न्याय तब होता है जब हत्यारे को फांसी दे दी जाए।
में पीड़िता को पुलिस में केस दर्ज कराने के लिए खासी मशक्कत करनी मौत होने के साथ मामला खत्म हो जाता है। इसके साथ ही यह कड़वा
पड़ी। बाद में उसने निराश होकर आत्महत्या कर ली।) सच भी ढंक जाता है कि एक समाज में, जहां बार-बार और लगातार
2014: सौम्या केस। चलती ट्रेन में बलात्कार के बाद बाहर फेंक दिया ऐसे अपराध हो रहे हैं, उसमें बड़ा बदलाव लाने की आवश्यकता है।
गया जिससे सिर में गंभीर चोटें आईं। हिस्ट्रीशीटर आरोपियों को मौत की हमने देखा है कि 2012 में यह ढर्रा छिन्न-भिन्न हो गया, निर्भया केस
सजा मिली लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने सजा आजीवन कारावास में बदल दी। का दिल दहलाने वाला सच सब के सामने आया। बड़ी संख्या में लोग
2015: मणिपुर की अदालत ने चार वर्षीय बच्ची के साथ बलात्कार और सड़कों पर आ गए और इस बारंबारता को रोकने के लिए कड़े कदम
हत्या के मामले में एक आरोपी को मौत की सजा दी। उठाने की मांग करने लगे। आरोपियों को गिरफ्तार किया गया और
2016: जिशा केस। लॉ स्टूडेंट को उसके घर के भीतर मार डाला गया केस चलाकर आरोप साबित करने के बाद सात साल में उन्हें फांसी पर
और उसके शव को क्षत-विक्षत कर दिया गया। रिपोर्ट के अनुसार लटका दिया गया।
निर्भया केस की तरह इस घटना में छात्रा की अंतड़ियां निकल आईं। बाद कुछ लोगों ने वीडियो डाले। मैं उन्हें नहीं देखना चाहती। मैं उन
में आरोपी को मौत की सजा हुई। आरोपियों के बारे में और नहीं जानना चाहती। पहले ही यह भूलना मेरे
2016: डेल्टा मेघवाल का शव वाटर टैंक में मिला। लिए मुश्किल है कि वे जिंदा रहने के लिए छटपटा
वह हॉस्टल में रहती थी। माना जाता है कि उसने पीटी रहे थे और बार-बार अपील दायर कर रहे थे। मैं
टीचर द्वारा बलात्कार करने के बारे में अपने माता-
पिता को बताया। पुलिस को कथित तौर पर नगर
अगर फांसी से मानती हूं कि मुझे नहीं पता कि उनके साथ क्या होना
चाहिए। 14 साल, 25 साल या फिर 50 साल की भी
निगम के कूड़ा घर से उसका शव मिला। तीन लोगों अपराध्ा रुकता है और सजा न्यायोचित नहीं लगती। लेकिन यह भी सच है
के खिलाफ मामला आत्महत्या के लिए उकसाने का अपराधियों पर अंकुश कि मैं किसी तरह राहत या खुशी महसूस नहीं करती।
बना, न कि बलात्कार या हत्या का।
2019: टोंक में छह वर्षीय बच्ची के साथ बलात्कार
लगता है, तो दंगों के मैं डरती हूं, 2012 में जितना भयभीत थी, उससे भी
ज्यादा घबराती हूं।
किया गया और बाद में उसकी स्कूल यूनीफॉर्म बेल्ट दोषियों के लिए मृत्युदंड मैंने जिन घटनाओं का जिक्र किया है, वे अंग्रेजी
से गला घोंटकर हत्या कर दी गई।
2019: एक महिला को आग के हवाले कर दिया
की मांग क्यों नहीं की प्रे स रिपोर्ट में आए महज चुनिंदा मामले हैं। इनमें से
कुछ ‘जघन्यतम’ अपराध निर्भया केस में आरोपियों
गया, जब वह अपने बलात्कारियों के खिलाफ गवाही जाती? के गिरफ्तारी के बाद हुए। अपराधी फिर भी जघन्य
अपराधों को अंजाम देने से बाज नहीं आए। मृत्यु दंड लगभग अंतिम ही उसे उस स्थान पर नहीं ले जाया गया जो न तो उसका घर था और
निष्कर्ष माना जाता है। इसके बावजूद ‘जघन्यतम’ अपराध बार-बार हो न ही पुलिस स्टेशन जहां वह ऐसा कुछ करता जिसके कारण किसी को
रहे हैं। अकेले अथवा गैंग में लोग उसी तरह की बर्बरता दिखा रहे हैं आत्मरक्षा में गोली चलानी पड़ती।
जैसी उन्होंने निर्भया केस की मीडिया कवरेज से सुनी। एक भयावह तथ्य क्या होता अगर बाबू को मौत की सजा दे दी जाती या फिर मुठभेड़
सामने आया कि अपराधी पीड़ित की हत्या करने का सुनिश्चित करते हैं। में पुलिस द्वारा कथित तौर पर बच भागने के प्रयास करते समय उसे
उत्तर प्रदेश में 2019 के दौरान एक रिपोर्ट में पांच घटनाओं का गोली मार दी जाती। और इस तरह न जाने कितने बलात्कारी पुलिस के
उल्लेख किया गया, जिनमें बलात्कार की पीड़िताओं को जला दिया उत्पीड़न और हिरासत में टूट जाते।
गया। ये घटनाएं उन्नाव, फतेहपुर, चित्रकूट, संभल में हुईं। बिहार में एक 2017 में भारत में बलात्कार की प्रतिदिन 92 घटनाएं हुई थीं।
16 वर्षीया का शव मिला, उसका सिर काट दिया गया और एसिड से बलात्कार पर समाचार पत्रों और टीवी पर प्रायः बहसें होती हैं, क्योंकि
जला दिया गया। इस वजह से उसकी पहचान भी मुश्किल थी। पुलिस उनके साथ हत्या, बर्बरता और परिवार के साथ विश्वासघात भी जुड़ा
ने इसे ऑनर किलिंग बताया लेकिन आम लोगों ने प्रदर्शन किया और होता है। लेकिन हिरासत में लड़कों के साथ होने वाले समलैंगिक
दोषपूर्ण जांच का आरोप लगाया। तेलंगाना में वेटनरी डॉक्टर के साथ बलात्कार और उत्पीड़न की वारदातें शायद ही कभी सुर्खियां बनती
गैंग रेप किया गया और हत्या करके शव को जला दिया गया। जांच पूरी हैं। क्या इस वजह से कि इस तरह के अपराध जघन्य नहीं हैं या फिर
भी नहीं हो पाई थी कि पुलिस ने एक मुठभेड़ में आरोपियों को गोली मार हम इन्हें अपराध मानते ही नहीं हैं। और अगर यह अपराधियों को रोक
दी। कहा गया कि आरोपियों ने भागने का प्रयास किया। हमसे अपेक्षा सकता है तो फिर दंगों और सामूहिक हत्या के लिए मौत की सजा की
की गई कि हम इस घटना में पुलिस के बयान पर भी भरोसा कर लें। मांग क्यों नहीं सुनाई देती है।
आयशा मिरान केस पर भी गौर कीजिए। 2007 में विजयवाड़ा में हम सब जानते हैं कि पुलिस, न्यायपालिका, नेता इनसान ही हैं। वे
19 वर्षीय छात्रा का उसके हॉस्टल के बाथरूम में बलात्कार किया गया दुर्भावनाग्रस्त और अहंकारी हो सकते हैं, बदतर स्थिति में बलात्कारी और
और हत्या कर दी गई। सत्यम बाबू नाम के एक व्यक्ति को गिरफ्तार बर्बर हो सकते हैं। हमें याद रखना चाहिए कि पश्चिमी जगत में वर्गवाद
किया गया। उस पर पुलिस हिरासत से फरार होने का आरोप था लेकिन ने कैसे कानून प्रवर्तन एजेंसियों को अपने प्रभाव में ले लिया है। अमेरिका
उसे तुरंत पकड़ लिया गया। निचली अदालत ने उसे 14 साल की सजा में सेंट्रल पार्क फाइव का केस बड़ी चेतावनी है। 1989 में पांच किशोरों
सुनाई, हालांकि उसे एक बीमारी थी जिसके कारण वह ठीक तरीके पर एक श्वेत महिला के साथ बलात्कार का आरोप लगता है। उन्हें इतना
से चल नहीं सकता था। उसने पुलिस पर थर्ड डिग्री टॉर्चर का आरोप पीटा जाता है कि उनकी मौत हो जाती है। 2002 में वास्तविक बलात्कारी
लगाया। उसे अदालत में सुनवाई के लिए उठाकर लाना होता था। ने जब यह जुर्म कबूला तो वे पांचों निर्दोष साबित हुए।
पीड़िता का परिवार भी इससे सहमत नहीं था। उन्होंने कहा कि पुलिस हम किसी की जिंदगी को छीनने में जल्दबाजी दिखाते हैं क्योंकि हम
ने बाबू को केस में फंसाया ताकि राजनीतिक रूप से दबंग एक अन्य मानते हैं कि पुरुष दोषी होते हैं। हम न्याय पर जोर नहीं देते हैं। कहा
व्यक्ति को बचा सके। जा सकता है कि हम अपनी सीमाओं को नजरअंदाज कर रहे हैं। हम
2017 में हाइकोर्ट के एक फैसले में बाबू को बरी कर दिया गया भगवान नहीं हैं। हम कोई जीवन वापस नहीं ला सकते हैं। अगर किसी
और आठ साल तक जेल में बेवजह रखने के लिए मुआवजा देने का भी निर्दोष को सजा देने पर हमें कोई पछतावा नहीं होता है तो फिर कहने
आदेश दिया गया। सीबीआइ को इस मामले की जांच का आदेश दिया को कुछ नहीं बचता है।
गया। 2019 में एक रिपोर्ट में कहा गया कि राजनीतिक रूप से ताकतवर (लेखिका मुंबई स्थित कवियत्री, नाटककार, कहानीकार और रिपोर्ताज लेखक
व्यक्ति से पूछताछ की गई लेकिन गिरफ्तार नहीं किया गया। निश्चित तथा निबंधकार हैं। यहां व्यक्त विचार निजी हैं)
आ
रवीन्द्र भारती बल्कि पड़ोसी देश नेपाल में राजशाही के खात्मे हालत में चंडीगढ़ जेल से पेरोल पर रिहा होकर
और लोकशाही की बहाली के सशस्त्र आंदोलन तक अपने पटना स्थित निवास आ गए। संयोग से मैं
म जन के विलक्षण किस्सागो फैला है। वे हमारे समय के सबसे बड़े एक्टिविस्ट भी फुलवारी शरीफ जेल से बाहर आया। छूटते ही
फणीश्वर नाथ रेणु का यह जन्म लेखकों में एक थे जिन्होंने 1974 के बिहार जेपी से मिलने गया। मालूम हुआ रेणु पीएमसीएच
शताब्दी वर्ष (4 मार्च 1921-11 आंदोलन में केंद्र सरकार की दमनकारी नीतियों के के के.एल. शाही वार्ड में भर्ती हैं। चंद ही दिनों के
अप्रैल 1977) है। वे जन मुक्ति के गायक थे। विरुद्घ पद्मश्री अवार्ड वापस किया था और राष्ट्रभाषा बाद इमरजेंसी हटा ली गई। चुनाव की घोषणा हुई।
अंधेरे-उजाले के बीच आवाजाही करती पगध्वनियां परिषद के मासिक मुआवजे को लेने से भी इनकार रेणु ने उसी समय जेपी के नाम एक पत्र मुझे दिया,
उन्हें घर से निकाल कभी कोसी के कछार तक ले कर दिया था। कमजोर वर्ग की समस्याओं को लेकर जिसका मजमून था, “चरणेषु जयप्रकाश जी, आप
जाती थीं तो कभी घर के चूल्हें पर चढ़ी पतीली के जब भी कोई आंदोलन खड़ा हुआ, रेणु उसमें दिखे। देश की समस्याओं को सुलझाने में जब व्यस्त हैं,
आसपास होती बतकही तक। वहां से वे उन कमजोर भूदान आंदोलन में भी राष्ट्रकवि दिनकर के साथ ऐसे में अपनी बात कहने की धृष्टता कर रहा हूं,
दबी आवाजों को उठाते और अपनी कलम के जोर कूद पड़े जबकि देश के तमाम लेखकों ने उससे मुंह कृपया अन्यथा नहीं लेंगे। मेरा हिमोग्लोबीन ठीक
से उसे विस्तृत फलक पर मुखर कर देते हैं। कलम फेर लिया था, उनके समाजवादी वरिष्ठ साथियों ने है, शुगर भी, मगर मैं अभी अपने पेप्टिक अल्सर
का यह जादूगर पाठकों को हर बार अपनी लेखनी से भी। उन्होंने किसी की परवाह नहीं की, क्योंकि उस का ऑपरेशन नहीं कराना चाहता। इसकी आज्ञा मुझे
विस्मित कर देता हैं, हर बार हम उसमें खो जाते हैं आंदोलन में भूमिहीनों को जमीन मिलने की बात थी। दें। मैं चाहता हूं कि लोकशाही और तानाशाही के
और खुद को उनके पात्रों में ढूंढ़ने लगते हैं। उनकी याद आ रहा है कि इमरजेंसी के दौरान कवियों बीच होने जा रहे चुनाव में हम लेखकों, कवियों की
शैली अपूर्व है। वह मनुष्यों की ही नहीं, नदियों, में बाबा नागार्जुन, रामप्रिय मिश्र ‘लालधुआं’ और क्या भूमिका हो, आप इसका मार्गदर्शन कीजिए।
पंछियों, बादलों, वनस्पतियों की भाषा भी जानते थे। मैं विभिन्न जेलों में डाल दिए गए थे। रेणु नेपाल रवीन्द्र भारती का मत है और मेरा भी यही मत है
जब वे उसे अभिव्यक्त करते तो कई छवियां उजागर में भूमिगत थे। कुछ महीने बाद जेपी मरणासन्न कि जानकी बहन की आवाज में आंदोलन के गीत
हो जातीं। चौक-चौराहों पर कैसेट के रूप में बजाया
1974 के बिहार आंदोलन में हम साथ जाए और आपके भाषणों के अंश भी।”
थे। उनकी लेखनी का कायल छात्र जीवन से यह पत्र जेपी को जाकर जब मैंने दिया,
रहा, मगर उनके व्यक्तित्व की सुगंध 8 अप्रैल, उसके एक-दो घंटे पहले, डायलिसिस से वे
1974 को मिली जब जेपी ने शांति में विश्वास उठे ही थे। पत्र सुनते ही खड़े हो गए। कहा,
रखने वाली निर्दलीय शक्तियों की ओर से चलिए, अस्पताल चलिए। उनके सचिव
सरकार की बदगुमानी के विरुद्घ मौन जुलूस सच्चिदा बाबू उनकी सेहत को देखकर कुछ
निकालने का निर्णय लिया। दूसरे दिन वह मौन कहना चाहते थे, मगर उनकी हिम्मत नहीं
जुलूस निकला जिसमें 1,500 लोगों ने शिरकत हुई। वे चुपचाप गाड़ी की अगली सीट पर मेरे
की। हाथ पीछे बंधे थे और मुंह पर काली साथ बैठ गए। जेपी अस्पताल पहुंचे तो रेणु
पट्टियां थीं। मौन जुलूस में रेणु सबसे आगे थे। उन्हें देखकर हक्का-बक्का रह गए। जेपी ने
रेणु हर तरह के दमन, पाखंड के विरुद्घ डॉक्टरों से बात की। उन्होंने डॉ. यू.एन. शाही
हमेशा खड़े रहे। उनके संपूर्ण लेखन में से स्पष्ट शब्दों में कहा, “रेणु यहां ठीक नहीं
भाववाद, वस्तुवाद के साथ एक मानवीय हो सकते हैं तो हम उन्हें दुनिया के किसी भी
व्यवस्था को स्थापित करने की चिंता है। मुंशी अस्पताल में भेज सकते हैं। इसके लिए मुझे
प्रेमचंद के लेखन में जो ग्रामीण रसिकता और भीख ही क्यों न मांगनी पड़े।” यह सुनकर रेणु
अनकहा प्रेम, संघर्ष, दुख छूट गया था, उसे रेणु ने रेणु हर तरह के दमन, पाखंड की आंखें डबडबा गईं। भीगे स्वर में रेणु ने कहा,
मर्मांतक ढंग से आगे बढ़ाया। वह चाहे विदापत नाच “जेपी आप चिंता मत कीजिए। मैं ठीक हो जाऊंगा।
का विकटा जोकर हो, तीसरी कसम का गाड़ीवान के विरुद्घ हमेशा खड़े रहे। इस अस्पताल ने जीवन दिया है। इस बार भी देगा।”
हीरामन हो, चाहे रसप्रिया का नायक पचकौड़ी उनके संपूर्ण लेखन में भाववाद, चुनाव हुआ। भारी बहुमत से जनता पार्टी विजयी
हो या मैला आंचल उपन्यास का वामन दास हो, हुई। जीत की खुशी और उसकी टूट देखने के लिए
जिसके शव को हिंदुस्तान, पाकिस्तान की सीमा के वस्तुवाद के साथ एक मानवीय रेणु नहीं रहे। सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है
सिपाही इस पार से उस पार फेंकते हैं, यह कहते हुए व्यवस्था स्थापित करने की कि वे आज जीवित होते तो किस ओर होते? नए-
कि यह मेरे देश का नहीं है।
रेणु का सफर 1942 के स्वतंत्रता संग्राम से
चिंता है नए भय पैदा कर रही व्यवस्था के साथ या उससे
लड़ने वालों के साथ।
लेकर 1974 के बिहार आंदोलन तक ही नहीं, (लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)
ग्लैमरस देवियां
बानी जे, कीर्ति कुल्हारी, मानवी गागरू और सयानी गुप्ता का फोर मोर शॉट्स प्लीज! का दूसरा
सीजन बस दस्तक देने ही वाला है। चारों देवियों का पहले से ग्लैमरस अंदाज दर्शकों के जुटान के
लिए पूरी तरह तैयार है।
शॉर्ट एंड
स्वीट
ऑफ शोल्डर ब्लैक शॉर्ट
ड्रेस में अनन्या पांडे की
गैटी इमेजेज सेल्फी लेती तसवीर इन
दिनों वायरल है। जब
सब ठहरा हुआ हो, तब
महंगी पड़ी भूल अनन्या को पता है,
हलचल कैसे मचाई
कनिका कपूर ने तीन पार्टियों में शिरकत की। इससे 160 मेहमानों को जाती है।
संक्रमण का खतरा हो गया। बेबी डॉल को छोटी सी भूल महंगी पड़ गई।
उम्मीद है जल्द ही सब कुछ ठीक हो जाएगा।