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ई र या है

जे. कृ णमू त
अनुवादक
संजीव कुमार शमा, वनय कुमार वै ,
श कुमार
मू य : एक सौ प चीस पये ( . 125.00)
थम सं करण : 2006
ISBN10 : 81-7028-670-0
ISBN13 : 978-81-7028-670-7
Ishwar Kya Hai
Hindi Translation of ‘On God’ Author: J. Krishnamurti
Translated by Sanjeev Kumar Sharma, Vinay Kumar Vaidya, Shakti Kumar
For the original English Text
© Krishnamurti Foundation Trust Ltd. Brockwood Park,
Bramdean Hampshire S024 OLQ England
&
© Krishnamurti Foundation of America,
P.O. Box No. 1560 Ojai, California 93024 U.S.A.
For the Hindi Translation
© Krishnamurti Foundation India
Vasanta Vihar, 124-126,
Greenways Road.
Chennai-600 028

राजपाल ए ड स ज़, क मीरी गेट, द ली-110006


ा कथन
जड् डू कृ णमू त का ज म 1895 ई. म भारत के वतमान आं दे श
रा य म आ था। जब वे तेरह वष के थे, तो थयोसो फकल सोसाइट ने
उ ह अपनी दे ख-रेख म ले लया तथा यह घो षत कया क उनम आगामी
व - श क मै ेय बु का अवतरण होगा। इस अवतरण के वषय म
सोसाइट म पूव से ही मा यता थी। बाद के वष म कृ णमू त एक ऐसे
भावशाली और वतं चे ा श क के प म हमारे सामने आते ह, ज ह
कसी ेणी म प रभा षत नह कया जा सकता; उनक वाताएं तथा
लेखन कसी भी धम वशेष से नह जुड़े ह और उनक श ाएं केवल पूव
तथा प म के लए नह , अ पतु संपूण मानवता के लए ह। अपनी
मसीहाई छ व को ढ़तापूवक अ वीकृत करते ए कृ णमू त ने एक बड़े
और समृ संगठन को भंग कर दया, जो उ ह को क म रखकर न मत
कया गया था; उ ह ने प श द म कहा क स य एक ‘मागर हत भू म’
है, और उस तक कसी भी औपचा रक धम, दशन अथवा सं दाय के
मा यम से नह प ंचा जा सकता।
इसके उपरांत कृ णमू त ने गु कहलाने से, जो वशेषण उन पर
ायः आरो पत कया जाता रहा, आ हपूवक इनकार कया। पूरे व म
एक वशाल ोतावग उनक ओर आक षत होता रहा, कतु कृ णमू त ने
कभी स ा- ामा य का दावा नह कया, श य नह चाहे। वे समूह से नह ,
सीधे से बात कर रहे थे, वह भी म क तरह। उनक श ा के
क म इस स य का बोध है क इस समाज म कोई भी आधारभूत प रवतन
केवल वैय क चेतना के पांतरण ारा ही लाया जा सकता है। धा मक
और रा वाद सं कार ारा मनु य को सी मत तथा वभा जत करने वाले
भाव को ठ क से समझ लेने क आव यकता पर उ ह ने नरंतर ज़ोर
दया। कृ णमू त ने एक खुलेपन क , प र धय से वातं य क बात हमेशा
उठाई “म त क म वह वराट अवकाश, जसम वह अक पनीय ऊजा
है।” ऐसा तीत होता है क यही उनक सजना मकता का अ य ोत भी
था और व के व भ थान के, इतनी व तीण व वधता लए लोग के
जीवन क दशा बदल दे ने वाले उनके श द के, उनक उप थ त के गहन
अमुखर भाव क कुंजी भी इसी म छपी है।
1986 ई. म न बे वष क आयु म अपनी मृ यु तक कृ णमू त पूरे
व म व भ थान पर अपनी बात कहते रहे। उनक वाताएं व संवाद,
दै नं द नयां व प साठ से अ धक पु तक म संगह
ृ ीत ह। श ा के इस
वशाल भंडार से व वध वषय पर आधा रत तुत पु तकमाला का
संकलन कया गया है। येक पु तक एक ऐसे वषय को क ब बनाती

ै े ी ै
है, जसक हमारे जीवन म व श ासं गकता तथा मह व है। यह पु तक
‘ई र या है ’ इसी माला का एक पु प है।
एक
मन ात है; ात वह है जसका अनुभव हम कर चुके ह। उसी माप से हम
अ ात को जानने का यास करते ह। कतु यह बात प है क ात कभी
अ ात को नह जान सकता; यह केवल उसी को जान सकता है जसका
अनुभव इसने कया है, जो इसने सीखा है, सं चत कया है। या मन
अ ात को जानने क अपनी असमथता के स य को दे ख सकता है
न त ही, य द म प प से दे ख लूं क मेरा मन अ ात को नह
जान सकता, तो भीतर पूणतः मौन होता है। य द मुझे ऐसा लगता है क म
ात क मता से अ ात पर पकड़ बना सकता ं, तो म ब त शोर
मचाता ं, बात करता ं, म इस तक प ंचने का कोई माग खोजने का
यास करता ं, परंतु य द मन को, अ ात को जानने हेतु अपनी पूण
अ मता का एहसास हो जाए, य द इसे इस बात का बोध हो जाए क यह
अ ात क ओर एक कदम भी नह बढ़ा सकता, तब या होता है तब मन
चुप हो जाता है। यह हताश नह है, अब यह कुछ भी नह खोज रहा है।
खोज क ग त व ध ात से ात क ओर ही हो सकती है; मन तो
बस यही कर सकता है क जान ले क यह ग त व ध अ ात को कभी नह
खोज पाएगी। ात क ओर से क गई येक चे ा ात के े म ही होती
है। यही एक बात है जो मुझे महसूस करनी होगी, जसका मुझे य बोध
करना होगा। तब बना कसी उ पन के, बना कोई योजन बीच म लाए,
मन मौन हो जाता है।
या इस बात क तरफ आपका कभी यान नह गया क ेम मौन
होता है यह कसी का हाथ पकड़ते समय, या नेहपूवक कसी ब चे
को नहारते ए अथवा सं या के स दय को हण करने के ण म हो
सकता है। ेम का कोई अतीत या भ व य नह होता, और इसी लए इसम
मौन क असाधारण अव था होती है। और बना इस मौन के, जो क पूण
र ता है, सजन होता ही नह । अपनी मता म आप बड़े चतुर हो
सकते ह; कतु जहां सजन नह है, वहां वनाश है, य है, और तब मन का
रण होने लगता है, वह मुरझा जाता है, बखर जाता है।
जब मन र , मौन होता है, जब यह पूण नषेध क अव था म होता
है जो त धता नह है, न ही व धपरक होने का वपरीत है, अ पतु एक
पूणतः भ अव था है जसम सम त वचार का अवसान हो गया है
केवल तभी उसका आ वभाव संभव है, जो अनाम है।
मुंबई,
6 जनवरी 1960
दो
जीवन के बारे म यं वाद मत यह है क मनु य चूं क अपने वातावरण तथा
व वध त या का प रणाम मा है, जो केवल इं य ारा ही य
हो सकता है, इस लए वातावरण तथा त याएं एक ऐसी बु संगत
णाली ारा नयं त होनी चा हए जसम को केवल बने-बनाए
ढांचे के भीतर ही काय करने क अनुम त हो। कृपया जीवन के त इस
यं वाद के पूरे न हताथ को समझ ली जए। यह मत कसी परम,
लोको र स ा क क पना नह करता है, ऐसा कुछ नह है जो नरंतर बना
रहे; यह मृ यु के बाद कसी कार के जीवन को वीकार नह करता है;
इसके अनुसार जीवन और कुछ नह बस एक अ प अव ध है जो पूरी तरह
मट जाने क ओर अ सर है। चूं क मनु य पयावरणीय त या के
प रणाम के अ त र कुछ नह है, उसका संबंध बस अपनी वाथपूण
सुर ा से है, इस लए शोषण, ू रता तथा यु के तं क न म त म उसका
योगदान रहा है। इस लए उसके याकलाप को प रवेश के प रवतन व
नयं ण ारा ही ढालना और संचा लत करना पड़ेगा।
फर वे लोग ह जो इस मत को वीकार करते ह क मनु य सारभूत
प से द है, उसक नय त कसी परम ा ारा नयं त व नद शत
है। ये दावा करते ह क ये ई र, पूणता, वतं ता, आनंद, अ त व क एक
ऐसी अव था क खोज कर रहे ह जसम सभी परक अंत समा त
हो जाते ह। मनु य के भा य को नद शत करने वाली सव च स ा म
उनका व ास आ था पर आधा रत है। वे कहगे क इस लोको र स ा या
उ चतम ा ने ही संसार का नमाण कया है तथा ‘म’, अहं, अपने
आपम शा त है व उसम न यता का गुण है।
कभी आप सोचते ह क जीवन यां क है, तथा अ य अवसर पर,
जब ख और असमंजस घेर लेते ह तो आप आ था क ओर लौट आते ह,
मागदशन और सहायता के लए कसी परम स ा क ओर ताकने लगते
ह। आप इन दो वपरीत ुव के बीच डोलते रहते ह, जब क इन वपरीत
ुव के म को समझ कर ही आप वयं को सीमा तथा अटकाव से
मु कर सकते ह। आप ायः क पना कर लेते ह क आप इनसे मु ह,
कतु आप उनसे मूलभूत प से मु तभी हो पाते ह जब आप इन
सीमा के नमाण क पूरी या को समझ लेते ह और इनका अंत कर
दे ते ह। आप यथाथ को, ‘जो है’ उसे तब तक उसक ापकता म नह
समझ सकते जब तक अ ान क अना द या जारी है। जब यह या
थम जाती है, जसने अपनी लालसा क ऐ छक ग त व धय से वयं को

ो ै े ोई े ो
बनाए रखा था, तब वह व मान होता है जसे कोई चाहे तो यथाथ, स य,
परमानंद कह सकता है।
ए ड टन, पेन स वे नया,
12 जून 1936
तीन
संभवतः इस बात का पता लगाने क को शश म कुछ समय दे ना ेय कर
होगा क या जीवन क कोई साथकता है भी। वह जीवन नह जो हम जी
रहे ह, य क आधु नक अ त व क साथकता तो न के बराबर है। हम
जीवन को बौ क अथव ा दे दे ते ह, इसे हम सै ां तक, बौ क,
आ या मक या (य द आप इस श द का योग उ चत समझ) रह यवाद
अथ दे दया करते ह; इसम गहरे मायने तलाशने का यास करते ह जैसा
क कुछ लेखक ने इस नराशाजनक अ त व से सं त होकर कया है,
कसी जीवंत, गहन, बु गत कारण का आ व कार कर लया है। और मुझे
लगता है क यह बात ब त ही साथक होगी य द हम भावना मक या
बौ क प से नह ब क वा त वक, त यपरक ढं ग से वयं ही यह पता
लगाएं क या जीवन म ऐसा कुछ है जो व तुतः पावन है मन के
आ व कार नह , ज ह ने जीवन को प व ता क एक भावना दे रखी है,
अ पतु या वा तव म ऐसा कुछ है य क इस खोज म हम ऐ तहा सक
प से और व तु थ त म भी अपने ारा बताए जा रहे जीवन को दे खते
ह ापार, त प ा, हताशा, अकेलापन, ता एवं यु म होने वाला
वनाश तथा घृणा इस तरह के जीवन का ब त कम अथ है। हो सकता है
हम स र वष जी ल, जनम से हमारे चालीस या पचास वष कसी
कायालय म एक से न य म, ऊब और अकेलेपन म बीत जाएं, जनका
कुछ खास मतलब नह है। इस बात का एहसास होने पर पूव व म और
यहां भी हम एक तीक, एक धारणा, एक ई र को अथव ा और औ च य
दे दे ते ह जो प तः मन के ही आ व कार ह। पूव म उ ह ने कहा है क
सबम एक ही जीवन है, ह या मत करो, ई र येक मनु य म व मान है :
वन मत करो। कतु अगले ही ण वे एक सरे को व तुतः, शा दक
प से या वसाय म वन कर रहे होते ह तो जीवन के एक व और
पावनता क इस धारणा का उनके लए कोई यादा मतलब है नह ।
पा ा य जगत म भी जीवन क अस लयत को दै नक जीवन क
ू रता, आ ामकता, नमम त प ा को प अनुभव करते ए हम एक
तीक को अथवान बना लेते ह, और ये तीक ब त प व माने जाते ह
जन पर सारे धम आधा रत ह। अथात धमशा य , पुरो हत , संत ने
अपने कुछ नजी क म के अनुभव कए होते ह और ये लोग जीवन को
कोई ता पय दे दे ते ह, और हम अपने अथहीन न य म, हताशा,
अकेलेपन के चलते उन अथ से आस बना लेते ह और य द हम इन
सभी तीक , छ वय , वचार और व ास से छू ट सक जनका नमाण
हम स दय -स दय से करते रहे ह और ज ह हमने एक प व भाव दे दया
है, य द हम इन बाहर से आरो पत सं कार से वा तव म मु हो सक, तब
े े ऐ ै ो ै
हम संभवतः वयं से यह पूछ सकते ह क या ऐसा कुछ है जो स य है,
जो व तुतः पावन है, प व है। य क यही तो है जसे मनु य इस व ोभ,
हताशा, अपराध-बोध तथा मृ यु के बीच खोज रहा है। मनु य इसी
अनुभू त को व वध प म खोजता रहा है जो णभंगरु से, समय के
वाह से परे हो। इस सुबह या हम कुछ समय इस चचा म लगा सकते ह
क या ऐसा कुछ व मान है कतु वह नह जो आप चाहते ह, ई र
नह , कोई अवधारणा, कोई तीक नह । या आप इस सबको एक तरफ
हटा कर तब खोज म उतर सकते ह।
श द केवल सं ेषण के मा यम होते ह, पर श द व तु नह ह, और
जब कोई श द म उलझ जाता है तो उस तीक, उन श द , उन
अवधारणा से वयं को छु ड़ा पाना अ त क ठन होता है, जनसे अवबोध
म व तुतः बाधा पड़ती है। य प श द का योग तो करना ही पड़ता है,
परंतु श द त य नह होते। अतः य द इस बारे म भी हम सजग, सावधान
रह सक क श द त य नह ह, तब इस म हम ब त गहरे पैठना ारंभ
कर सकते ह। अथात मनु य ने अपने अकेलेपन और हताशा के चलते एक
वचार को, हाथ से या मन से बनाई गई कसी छ व को प व ता दान
कर द है। वह छ व ईसाई, ह , बौ तथा उसी कार और के लए
असाधारण प से मह वपूण बन गई है और उन सबने उस छ व म एक
प व ता का भाव आरो पत कर दया है। और या हम इस सबको एक
तरफ हटा पाते ह, शा दक या सै ां तक प से नह अ पतु व तुतः इसे
परे कर पाते ह, इस तरह क ग त व ध क नरथकता को दे ख पाते ह तब
हम पूछना आरंभ कर सकते ह कतु उ र दे ने वाला कोई है नह , य क
वयं से कये गए कसी भी आधारभूत का कसी के ारा उ र दया
ही नह जा सकता, और अपने ही ारा तो एकदम नह । पर हम यह कर
सकते ह क रख और उस को खदकने द, खौलने द उस
को ग तशील होने द, और उस का अनुसरण अंत तक करने क
साम य हमम होनी चा हए। हम इस सुबह यही पूछ रहे ह क या कुछ
ऐसा है जो तीक के, श द के पार है, कुछ ऐसा, जो यथाथ है, स य है, जो
अपने आप म पूणतः प व है।
लंदन,
30 सत बर 1967
चार
: आज संसार म ई र क ब त सी अवधारणाएं ह। आपका
ई र के संबंध म या वचार है
कृ णमू त : सबसे पहले हम यह पता लगाना चा हए क अवधारणा
से हमारा मतलब या है। सोचने क या से हमारा या अ भ ाय है
य क अंततः हम जब कसी अवधारणा को तपा दत करते ह, जैसे
ई र को ही ल, तो हमारा यह तपादन, यह अवधारणा हमारे सं कार का
ही प रणाम होती है। एक तो वे लोग ह ज ह बचपन से ही ई र को न
मानने म श त कया गया है; और सरे वे ह ज ह ई र म व ास का
श ण मला है, जैसे क आपम से अ धकतर ह। अतः हम अपने
श ण के अनुसार, अपनी पृ भू म के अनुसार, अपने मान सक गठन,
चय -अ चय , भय-आशा के अनु प ई र क अवधारणा बना लेते
ह। तो प है क जब तक हम अपने सोचने क या को समझ नह
लेते, मा ई र क अवधारणाएं बना लेने का कोई अथ नह है। य क
वचार तो अपनी च के मुता बक कुछ भी े पत कर सकता है। यह
ई र को न मत भी कर सकता है, नकार भी सकता है। हर अपनी
वृ य , सुख व पीड़ा के अनुसार ई र को आ व कृत अथवा वन
कर सकता है। इस लए जब तक वचार स य है, नु खे बना रहा है,
क पना कर रहा है, तब तक जो समय से परे है उसे कभी नह खोजा जा
सकता। ई र या यथाथ का अ वेषण केवल तभी हो पाता है, जब वचार
का समापन हो जाता है।
अब, जब आप पूछते ह, “आपका ई र के बारे म या वचार है ”
तो आपने पहले से ही अपने वचार क लीक बना ली है, है क नह
वचार ई र को न मत कर सकता है तथा जो नमाण इसने कया है,
उसका अनुभव भी कर सकता है; पर न त ही वह स चा अनुभव नह
है। यह तो वचार अपने ेपण का ही अनुभव कर रहा है अतएव यह
यथाथ नह है। परंतु य द आप और म इसक गहराई को दे ख सक, तो
संभवतः वचार के ेपण मा से अ धक वराट कसी त व क अनुभू त
कर पाएं।
वतमान समय म, जब दन-ब- दन बा प से असुर ा बढ़ रही है,
तो वभावतः आंत रक सुर ा के लए भी लालसा ती होती जा रही है।
चूं क हम बाहर सुर ा नह मल पाती है, अतः हम इसे एक अवधारणा,
एक वचार म खोजने लगते ह और तब वह न मत कर लेते ह, जसे हम
ई र कहते ह तथा वही अवधारणा हमारी सुर ा बन जाती है। सुर ा
खोजने वाला मन यथाथ को, स य को नह पा सकता है। जो समय से परे
ै े े े े ो ै
है, उसे समझने के लए, वचार के जाल का व त होना अ नवाय है।
श द , तीक , तमा के बना वचार बना नह रह सकता, केवल तब,
जब मन खामोश होता है, अपनी उधेड़बुन से मु होता है, तभी यथाथ को
खोज पाने क संभावना होती है। अतः यह पूछना क ई र है या नह ,
सम या के त अप रप व त या है। ई र के बारे म मत का
तपादन करना व तुतः बचकानी वृ है।
जो समय से परे है, उसक अनुभू त, उसके बोध के लए प तः हम
समय क या को समझना होगा। मन समय का प रणाम है, यह बीते
ए कल क मृ तय पर आधा रत है। या कल जो बीतते जा रहे ह, उन
सबके गुणनफल से मु होना संभव है न त ही यह गंभीर सम या है,
यह व ास या अ व ास का मामला नह है। व ास या अ व ास करना
तो अ ान क या है, जब क वचार के, समय म बांधने वाले ल ण क
समझ वतं ता लाती है और उसी म अ वेषण हो पाता है। परंतु हमम से
अ धकतर लोग व ास कर लेना चाहते ह, य क यह यादा
सु वधाजनक रहता है। यह हम सुर ा का, कसी समूह से जुड़े होने का
एहसास दे ता है। न त प से यह व ास हम पृथक करता है, आप एक
बात म व ास रखते है और म सरी म। तो व ास एक बाधा क तरह
काम करता है, यह वघटन क या है।
अतः मह व व ास या अ व ास को पोसने का नह , अ पतु यह
समझ लेने का है क यह मन ही है, वचार ही है, जो समय का नमाण
करता है। वचार समय है, और वचार जो भी े पत करेगा, वह समय के
अंतगत ही होगा, इस लए वचार संभवतः अपने आप से परे जा ही नह
सकता। जो समय के पार है उसक खोज करने के लए वचार का अंत हो
जाना चा हए और यह अ यंत कर है, य क वचार का अवसान
अनुशासन से, नयं ण से, अ वीकार या दमन से नह हो सकता। वचार
का अवसान तभी होता है, जब हम वचार करने क सम त या को
समझ लेते ह तथा वचारणा को समझने के लए अपने आप को दे खना-
जानना आव यक है। वचार ही ‘ व’ है, वचार वह श द है जो ‘म’ के प
म अपनी पहचान बना लेता है, तथा उ च या न न, चाहे जस तर पर
‘ व’ को रखा जाए, होता यह वचार के ही े म है।
ई र का, जो समय के पार है उसका पता लगाने के लए वचार क
या को अथात वयं क या को समझना होगा। यह जो ‘म’ है,
ब त ही ज टल है, यह कसी एक तर पर ही नह है, ब क यह ब त से
वचार , ब त सी स ा से बना आ है, जनम से हर एक का अ य के
साथ अंत वरोध है। उन सभी के त नरंतर सजगता होनी आव यक है,
ऐसी सजगता जसम कोई चुनाव, कोई नदा या तुलना नह है; ता पय यह
क व तु थ तय को बना वकृत कए, बना उनका अथ बदले, जैसी वे ह
ै ी ी े े ो ै ो े े ै े
वैसी ही दे खने क मता का होना आव यक है। जो हमने दे खा है, उसे
जब हम आंकने लगते ह, उसके अपने अथ लगाने लगते ह, तो हम अपनी
पृ भू म के अनु प उसे वकृत कर दे ते ह। यथाथ या ई र का अ वेषण
करना हो तो व ास काम नह आ सकता, य क वीकृ त या नषेध
अ वेषण म बाधक है। हम सब बा प से और आंत रक प से भी
सुर त होना चाहते ह, और मन को यह बात समझ लेनी चा हए क
सुर ा क खोज ही एक म है। केवल वही मन अ वेषण कर सकता है जो
अर त है, कसी भी कार के अ धकारभाव से मु है और यह एक
कर काय है। इसका अ भ ाय यह नह है क सब छोड़ कर वन म या
आ म म जा बस, या कसी व श व ास का सहारा ले कर अपने
आपको अलग-थलग कर ल, ब क बात इसके उलट है; अलगाव म कुछ
भी अ त व म नह रह सकता। होने का अथ है संबं धत होना; तथा संबंध
के बीच -बीच ही हम बड़ी सहजता से, ठ क जैसे ह वैसा ही अपने आपको
दे ख पाते ह। और वयं के सम हमारा यही यथा प कटन, जसम
कसी कार क आ म नदा या अपने को सही ठहराने का भाव नह होता,
‘हम जो ह’ उसम एक आधारभूत पांतरण ले आता है। ा का यही
ारंभ है।
सएटल,
16 जुलाई 1950
पांच
धा मक मन उस मन से पूणतः भ है जो धम म व ास रखता है।
धा मक मन समाज क सं कृ त से मनोवै ा नक तर पर वतं होता है;
यह व ास के कसी भी प, अनुभव या व-अ भ क कसी कार
क मांग से भी मु होता है और मनु य ने, मुझे ऐसा लगता है, युग -युग
से, व ास के ारा एक अवधारणा न मत क है जसे ई र कहा जाता
है। मनु य के लए ई र नामक उस अवधारणा म व ास करना आव यक
बन गया है, य क वह पाता है क जीवन एक खद संग है, नरंतर
सं ाम, ं , दशा का सल सला, जसम कभी-कभार काश, स दय व
उ लास क चगारी दमक उठती है।
कसी अवधारणा, कसी सू , कसी वचार म व ास आव यक बन
गया है, य क जीवन का अथ तो न के बराबर रह गया है। वही न यचया,
द तर जाना, प रवार, यौन-संबंध, बो झलता, अपने आपको अ भ
करने का ं इन सबका कुछ अथ नह है, और इस सबके अंत म हमेशा
मृ यु है; अतः व ास करना मनु य के लए जैसे अ नवाय आव यकता बन
गया है।
कसी थान- वशेष क जलवायु के अनुसार, इन वचार और सू
के आ व कारक क बौ क साम य के अनु प, ई र, उ ारक,
द ा मा क अवधारणा आकार लेती रही है और इसके ारा मनु य
परमानंद क अव था, स य, कभी वच लत न होने वाली मनोदशा के
यथाथ तक प ंचने का हमेशा यास करता रहा है। इस कार उसने एक
ल य को मा य कर लया है और उसके य न उसी दशा म रहे ह। इन
वचार और अवधारणा के रच यता कोई न कोई व था या माग
नधा रत कर गए ह, जसका उस परम यथाथ तक प ंचने के लए
अनुसरण करना होगा। और मनु य ने अपने मन को सताया है अनुशासन
के ारा, नयं ण के ारा, आ म-दमन के ारा, संयम और तप के ारा
और उस यथाथ तक प ंचने के वह अलग-अलग रा ते ईजाद करता रहा
है। ए शया म उस यथाथ तक ले जाने वाले ब त से (तथाक थत) माग ह,
जो झान और प र थ तय के हसाब से बने ह और इन माग का
अनुसरण उस यथाथ तक प ंचा दे गा जसका मापन मनु य ारा, वचार
ारा कया जाना संभव नह है। प म म केवल एक ही उ ारक है और
केवल उसी के मा यम से परम को उपल ध कया जा सकेगा। पूव और
प म क सभी व था म सतत नयं ण पुरो हत और धम ंथ ारा,
जो हसा का सारत व ह ऐसी बात ारा बनाए गए ढांचे म लगातार मन
को तोड़-मरोड़ कर बठाया जाना न हत है ता क वह उसी के हसाब से

े े ौ े ै
चले। वह हसा न केवल यौनसुख के याग म है अ पतु हर कार क
इ छा, हर तरह क सुंदरता के नकार म, न ह म, कसी पूव नधा रत ढांचे
के अनु प बनने म भी है।
वे कुछ तरह के चम कार करते रहे ह कतु चम कार कर लेना तो
सबसे आसान बात म से एक है, चाहे वह प म म हो या पूव म। और
ज ह ने ये चम कारी श यां ा त कर ली ह, उ ह संत के प म
त त कर दया जाता है; उ ह ने इस दशा म क तमान था पत कर
लए ह क वे पूरी तरह उस ढांचे के अनु प बन चुके ह, वह ढांचा ही
उनके रोज के जीवन म कट हो रहा है। उनम वन ता तो है ही नह
य क वन ता का बाहर से दखावा नह हो सकता, लंगोट या चोगा
धारण कर लेना वन ता का सूचक कतई नह है। कसी भी अ य सद्गुण
क तरह, वन ता तो ण- त- ण होती है, इसे हसाब लगा कर कसी
नधा रत ढांचे के प म था पत नह कया जा सकता, जसका अनुसरण
होता रहे। कतु मनु य युग -युग से यही करता आया है; कसी मूल
वतक ने यथाथ कहा जाने वाला कोई अनुभव कर लेने के उपरांत कसी
कार क व था, व ध, माग का तपादन कर दया और बाक नया
उसका अनुसरण करने लगी। उसके श य ने चतुर चार के मा यम से,
मनु य के मन को दास बना लेने के धूत तरीक के ारा धम थल , मतवाद
और कमकांड क थापना कर ली। और मनु य उस सबम फंसा आ है।
और हर उस मनु य को, जो भी उसे पाना चाहता है जसक तलाश मन को
सदा से रही है, उसको उस परम स दय तक प ंचने के लए कसी न कसी
तरह क तोड़-मरोड़, दमन, कसी न कसी यातना से गुजरना ही पड़ेगा,
ऐसा मान लया जाता है।
और इस तरह, बौ क प से इस सबका बेतुकापन तो दखता है,
बौ क व शा दक तर पर व ासमा क थता, कसी भी वचारधारा
क मूढ़ता नजर आती है। बु गत तर पर मन इस सबको बकवास कह
कर परे फक सकता है। ले कन अंद नी तौर पर कह गहरे म यह तलाश
हमेशा बनी रहती है जो कमकांड के, ढ़य के, व ास के, उ ारक से
परे है, जो उन सब णा लय से परे है ज ह ज़ा हर तौर पर मनु य ने ही
ईजाद कया है। यह दे ख पाता है क उसके उ ारक, उसके ई र,
आ व कार, क पना भर ह और इ ह अपे ाकृत सरलता से अमा य कया
जा सकता है, और आधु नक मनु य ऐसा कर भी रहा है। (मुझे नह मालूम
क हम आधु नक श द य यु करते ह मनु य तो पीढ़ -दर-पीढ़
वैसा ही रहा है जैसा क वह आज है। पर आज का माहौल कुछ ऐसा है क
वह पुरो हत, व ास, धा मक ढ़य के स ा- ामा य क अवधारणा को
ही सरे से नकार रहा है; उसके लए, ई र मर गया है, उसक जवान मौत
ई है।) अब चूं क न ई र है, न व ास है, तो ठे ठ दै हक सुख, भौ तक

औ ी े ी ै े
संतु और वक सत समाज क अवधारणा ही शेष रही है; मनु य केवल
आज के लए जी रहा है, उसने सम त धा मक संक पना को नकार दया
है।
शु आत कसी भी संग ठत धम के बा ई र को उनके पुरो हत
स हत नकार दे ने से होती है, इ ह पूरी तरह से नकारा जाना ज री है
य क इनक कोई उपयो गता नह है, इ ह ने यु को ज म दया है,
लोग को बांटा है फर चाहे वह य द धम हो, ह धम हो, ईसाई धम हो
या इ लाम हो इन सबने मनु य को वन कया है, उसे वभा जत कया
है, ये यु और हसा के मुख कारण म से एक ह। यह सब दे ख कर
इसे नकार दे ता है, इसे बचकाना और अप रप व समझते ए एक
तरफ हटा दे ता है। बौ क प से यह ब त आसानी से कया जा सकता
है इस संसार म रहते ए, गरज क , मं दर क शोषक प तय को
दे खते ए, इ ह नकारने के अलावा कोई कर ही या सकता है कतु
मनोवै ा नक तर पर व ास से, तलाश करने से मु हो पाना अपे ाकृत
ब त अ धक क ठन है। हम सब ऐसा कुछ खोज लेना चाहते ह जो मनु य
ारा अनछु आ, धूत वचार से अछू ता हो; कुछ ऐसा जो सामुदा यक
बु वाद या सां कृ तक समाज ारा षत न हो, जसे तक व त न कर
सके। हम सब, कह गहरे म, इसे ढूं ढ़ते ह, य क यह जीवन तो एक
क सा य उप म, एक सं ाम, एक ग त, एक लगी-बंधी दनचया बन
कर रह गया है। कसी म वयं को श द म, या च बनाकर, या श प रच
कर अथवा संगीत के मा यम से अ भ करने क मता हो सकती है,
ले कन वह भी न सार हो जाता है। ज़दगी जैसी क यह अब है, ब कुल
खाली-खाली हे और हम इसे संगीत और सा ह य से, मनो वनोद से,
मनोरंजन से, वचार तथा जानकारी से भरने का यास करते ह, ले कन
जब कोई इस संबंध म थोड़ा व तार म जाता है, तो उसे पता चलता है क
कतना खोखला है, उसका पूरा का पूरा अ त व कतना छछला है
कसी के पास चाहे जतनी उपा धयां, संपदाएं और मताएं य न ह ।
जीवन थोथा है, और इसका एहसास हो जाने पर, हम इसे भर लेना
चाहते है, हम ढूं ढते रहते ह न सफ इस खालीपन को भरने के तरीके
और साधन तलाशते रहते ह ब क ऐसा भी कुछ खोज लेना चाहते ह
जसक थाह मनु य नह पा सकता है। कुछ लोग तो मादक लेने
लगते ह, वे एल. एस. डी. या चेतना के व तार का आभास दे ने वाले
व मकारी के व वध कार म से कुछ न कुछ ले लेते ह और उस
दशा म को कुछ खास तरह क अव थाएं उपल ध या अनुभूत होती
ह य क म त क म एक क म क संवेदन मता का संचार हो जाता है।
ले कन ये सब रासाय नक प रणाम होते ह, वजातीय बा कारक ारा
लाए गए भाव होते ह। इसी आस म ये मादक लेता है, तब

ी े े ो े ै े ी ी े
भीतर उसे ये अनुभव होते ह, ठ क वैसे ही जस कार कसी के कुछ
व ास होते ह और उ ह व ास के अनु प उसे अनुभव होते ह। ये
मलती-जुलती याएं ही ह, दोन ही एक सा अनुभव लाती ह तो भी
मनु य व ास म पुनः खो जाता है। व ास के मादक म या फर
कसी रासाय नक मादक के व ास म वह अप रहाय प से अपने
वचार का बंद बना रहता है। और जब कोई यह सब प ता से दे ख लेता
है तो इसे परे हटा दे ता है ता पय यह क वह कसी भी व ास से पूणतः
मु हो जाता है। इसका यह अथ नह क वह अ ेयवाद बन जाता है
अथवा दोषदश या कटु हो जाता है। ब क होता यह है क आप दे खते ह
क व ास क कृ त या है और य वह असाधारण प से मह वपूण
बन गया है; इस लए बन गया है य क हम डरे ए ह मूल कारण यही
है। भय, न केवल जीवन म रोज-रोज पसते रहने का भय, कुछ-न-कुछ न
बन पाने का भय इस सबम अ य धक भय न मत होता है और
इसे बदा त करने लग जाता है ब क इसी भय के चलते व ास इतना
मह वपूण बन गया है। ज़दगी के तमाम खालीपन को साफ दे ख पाने पर
भी व ास को हम पकड़े रहते ह य प कोई व ास क बा स ा को
याग सकता है, संसार भर म पुरो हत ारा आ व कृत व ास को छोड़
सकता है, ले कन उस असाधारण त व को पा लेने, उस तक प ंचने के
लए, जसे मनु य नरंतर, जाने कब से खोजता आ रहा है, वह खुद ही
अपने व ास गढ़ लेता है।
इस तरह, तलाश जारी रहती है। इस तलाश क कृ त, इसक
संरचना एकदम प है। आ खर यह तलाश करता ही य है
अ नवायतः इसके पीछे वाथ ही है, बु वाथ सही, कतु है तो वाथ
ही। य क कहता है “जीवन ब त दखावट , खोखला, उबाऊ,
मूढ़तापूण है, इससे हट कर कुछ और भी होना तो चा हए, तो म उस मं दर
म या उस चच म या फलां जगह जाऊंगा….” और तब वह उस सब को
भी छोड़ दे ता है और गहराई से खोज शु करता है। ले कन यह खोज, यह
तलाश कसी भी प म हो, मनोवै ा नक प से एक बाधा बन जाती है।
मुझे लगता है क यह बात ब त सीधे और प तौर पर समझ लेनी
चा हए। व तु न प से कोई कसी बा मा यम क स ा को नकार
सकता है जो अं तम स य तक प ंचा दे ने का दावा कर रही हो, उसे तो
छोड़ता ही है। ले कन ढूं ढ़ने क कृ त या है, इसे समझ कर फर
छोड़ना, सारी तलाश का ही प र याग करना अ नवाय है, य क
पूछता है क वह तलाश या कर रहा है य द आप इसक जांच कर क
वह है या जसे हम ढूं ढ़ने म लगे ह, हम चाहते या ह, तो या उस तलाश
म यह न हत नह है क कुछ ऐसा है जसे आप पहले से जानते ह, जो
आपने खो दया है और अब आप उसे ढूं ढ़ लेना चाहते ह यह तलाश के
न हताथ म से एक है। तलाश म पहचान क या शा मल होती है
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अथात तलाश करने पर आपको जो मलता है, वह जो कुछ भी हो,
आपको उसे पहचान लेने म स म होना चा हए, अ यथा तलाश का कोई
अथ नह है। कुछ ढूं ढ़ता है, आशा करता है क इसे पा लेगा और पा
लेने पर पहचान जाएगा, ले कन यह पहचान मृ त क ही या है; अतएव
इसम यह बात न हत है क आप पहले से उसे जानते ह, आप पहले से ही
उसक एक झलक पा चुके ह; या आप सभी संग ठत धम के भारी चार
से सघन प से सं का रत ह और इस लए आपने उस अव था म वयं को
स मो हत कर लया है। तो जब आप तलाश रहे ह तो पहले से ही आपक
एक अवधारणा है, एक याल है क आप या तलाश रहे ह; और जब उसे
आप पा लेते ह तो मतलब यह होता है क आप उसे जानते ही थे, अ यथा
आप उसे पहचान कैसे पाते इस कारण से, वह स य है ही नह ।
अतः आव यकता मन क उस थ त को पाने क है, जो सारी
तलाश, सम त व ास से मु हो बना कटु ए, बना अव ए।
य क हमारी सोच का झान यह होता है क य द हम नरंतर खोजगे
नह , य न नह करगे, संघष नह करगे, पीछे नह पड़गे, तो मुरझा
जाएंगे, बखर जाएंगे। मुझे नह मालूम क हम मुरझाना य नह चा हए
जैसे क अब हम न मुरझा रहे ह । मुरझाता ही है, जब वह मरता
है, जब वह बूढ़ा होता जाता है, जब भौ तक दे ह का अवसान होता है।
हमारा जीवन ही मुरझाने क या है, य क इसम रोज के जीवन म
हम अनुकरण करते ह, नकल करते ह, पीछे चलते ह, आ ा मानते ह, जो
मुरझाने के ही ढं ग ह अतः जो अब व ास के कसी प म, कसी व-
न मत व ास म नह फंसा आ है, ढूं ढने म नह लगा है, जो कुछ भी
तलाश नह कर रहा है हालां क यह बात कुछ अ धक मु कल है ऐसा
मन अ य धक जीवंत होता है। स य तो ण- त ण है, सदाचार क
तरह, स दय क तरह; यह कुछ ऐसा है जसम नरंतरता नह होती। जसम
नरंतरता है, वह तो समय क उपज है, और समय वचार है।
यह दे खते ए क मनु य ने अपने साथ या- या कया है, कैसे उसने
वयं को यातनाएं द ह, कठोर बनाया है रा वाद बनकर, मनोरंजन के
कसी भी प म अपने आपको भुलाकर, चाहे सा ह य हो अथवा इस या
उस तरह से अपने जीवन के इस सारे ढर को दे खते ए वह वयं से
पूछता है, या इस सबसे होकर उसे गुजरना ही होगा आप इस को
समझ रहे ह या मनु य के लए इस या से कदम-दर-कदम गुजरना
ज री है पहले तो व ास को छोड़ना (य द आप ज़रा भी सतक ह)
फर कसी भी तरह क तलाश को छोड़ दे ना, मन को यातना दे ना बंद
करना, अ तसेवन का याग यह दे खते ए क मनु य ने जसे वह यथाथ
कहता है उसे पाने के लए अपने साथ या- या कया है, पूछता है
(कृपया वयं से पूछ, न क मुझसे) वह पूछता है क या कोई ऐसा तरीका

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है, या ऐसी कोई अंत व फोट क , फुटन क थ त है, जो एक ही दम म
वह सारा कुछ परे हटा दे य क समय कोई हल नह है।
तलाश म समय न हत है, उसम आ खरकार पा ही लेने वाली बात है
शायद दस साल लग या यादा भी या फर ज म -ज म से गुजरते ए
अंततः उपल ध हो, जैसा क पूरे ए शया का व ास है। इस सबम समय
न हत है, जो भी अंत ह, सम याएं ह, उ ह मशः र करते जाना,
अ धक चतुर, अ धक बु मान बनते जाना, धीरे-धीरे जानकारी-प रचय
बढ़ाना, धीरे-धीरे, मशः, मन को सं कारर हत करना। यह सभी कुछ
समय म न हत है। और यह बात प ही है क समय तो माग नह है, न
ही व ास, न ही कसी णाली, कसी गु , कसी श क, कसी
दाश नक, कसी पुरो हत ारा थोपे गए कृ म अनुशासन यह सब कुछ
तो ब त ही बचकाना है। तो या यह संभव है क इन सबसे होकर
कतई न गुजरे और तो भी उस असाधारण त व के सम हो य क उस
त व को आमं त तो कया जा नह सकता।
कृपया इस सीधे-सरल त य को समझ ल; उसे नमं त नह कया
जा सकता, ढूं ढ़ा नह जा सकता, य क उस असीम, अनंत को इस लघु-
गृह म, इस छोटे -से कमरे म, भले ही यह साफ-सुथरा हो, आमं त नह
कया जा सकता है य क हमारा मन अ यंत मूढ़ है, ु है, हमारी
भावनाएं ब कुल न न- तरीय ह, जीने के हमारे ढं ग एकदम द मत ह।
उसे आमं त नह कर सकते ह आमं त करना हो तो आपके लए
इसको जानना ज री है, और आप इसे जान नह सकते ह, (चाहे कोई भी
ऐसा कहता रहे,) य क जस ण आप कहते ह, “म जानता ं” आप
नह जानते ह। जैसे ही आप कहते ह क आपने इसे पा लया है, आपने
इसे नह पाया होता है। य द आप कहते ह क आपने इसका अनुभव कर
लया है, आपने कभी इसका अनुभव नह कया है। ये सब तो सरे का
शोषण करने के धूत तरीके ह चाहे वह सरा आपका म हो या
श ु।
यह सब दे खते ए औपचा रक तौर पर नह , अ पतु त दन के
जीवन म, अपनी दै नं दन ग त व धय म, जब आप लेखनी उठाते ह, जब
बात करते ह, जब सैर-सवारी के लए बाहर जाते ह, जब बाग म अकेले
टहल रहे होते ह इस सबको एक ही नजर म दे ख कर, इसके लए कई
ंथ पढ़ने क दरकार नह है, आप एक ही म एकदम सारी बात समझ
सकते ह। और व तुतः आप इसे सम ता म केवल तभी समझ पाते ह जब
आप वयं को जानने लगते ह, जैसे आप ह ठ क वैसा ही वयं को जानते
ह, सीधे तौर पर सम मनु य के प रणाम के प म, फर चाहे आप ह
ह , मुसलमान ह , ईसाई ह या कुछ और ह । तभी ऐसा होता है, तब आप

े े े
मनु य के य न , उसके छलाव , उसके पाखंड , उसक पाश वकता,
उसक तलाश क सारी-क -सारी बनावट को समझ लेते ह।
और यह पूछता है, या बना इसे आमं त कए, बना इसक
ती ा कए, बना ढूं ढ़े, बना खोजे इसे समझ पाना संभव है क बस यह
हो जाए, जैसे आपक खड़क खुली हो और शीतल बयार आ जाए; आप
उस बयार को बुलावा नह दे सकते, पर आपको खड़क तो खुली रखनी
ही होती है। इसका यह मतलब नह है क हम ती ा क अव था म होते
ह, वह तो धोखे का ही एक और प है; इसका यह भी अथ नह है क
उसक उपल ध के लए भीतर एक खुलापन न मत करना चा हए, वह
भी तो वचार का ही एक अ य कार आ।
ले कन य द तलाश म लगे बना, व ास का सहारा लए बना,
कसी ने वयं से यह पूछा है, तो यह पूछना ही खोज लेना है। पर हम
पूछते नह ह। हम चाहते ह क हम बस बता दया जाए, हम हर बात संपु
व मा णत चा हए। मूलभूत प से, भीतर गहरे म, हम हर कार के बा
अथवा आंत रक स ा- ामा य से कभी मु होते ही नह ह। यह हमारे
मानस क संरचना के सवा धक व च ल ण म से एक है क हम सभी
चाहते ह क हम बताया जाए; जो कुछ हम बताया गया है हम उसी के
प रणाम ह। हम जो बताया गया है वह हजार साल का चार है। कसी
ाचीन ंथ को या कसी वतमान अगुआ को या फर व ा को माण मान
लया जाता है। कतु य द व तुतः, भीतर गहरे म, कोई सम त स ा-
ामा य को नकार दे ता है, तो उसका अथ यह होता है क अब उसम भय
नह है। भय को दे खना ही अभय है, य क सुख क तरह ही भय से भी
हमारा कभी य संपक नह होता, वा तव म हम कभी भी भय के सीधे
संपक म नह आते ह, जस तरह से आप कसी दरवाजे को, हाथ को, वृ
को छू ते ए उसके संपक म होते ह। भय से हमारा संपक, केवल भय क
तमा के मा यम से होता है, जो हमने वतः बनाई है। हम सुख को केवल
अधसुख के मा यम से जानते ह। हम कभी भी कसी चीज़ के साथ
य संपक म नह होते। मुझे नह मालूम क कभी आपने यान दया है
क जब आप एक वृ को छू ते ह, जैसा क आप झुरमुट म टहलते ए
करते ह तो या आप उस वृ को व तुतः छू रहे होते ह या आपके और
उस पेड़ के बीच कोई आवरण बना रहता है, हालां क आप उसे छू रहे होते
ह। इसी तरह से भय के सीधे संपक म आने के लए उसक कोई तमा,
कोई छ व नह होनी चा हए, जसका अथ है क वा तव म कल के भय क
कोई मृ त ही नह होनी चा हए। तभी तो आप आज के वा त वक भय के
वा त वक संपक म आ पाते ह। तब, य द कल के भय क कोई मृ त नह
है, तो आपके पास इस ण के भय के सा ात् हेतु ऊजा होती है, और
वतमान से संपक के लए आपके पास अ य धक ऊजा होनी आव यक है।

ी ो ो ी ो ी ै ी ी
हम इस जीवंत ऊजा को, जो हम सभी म होती है, कसी छ व, कसी सू ,
कसी स ा- ामा य म बरबाद करते रहते ह और ऐसा ही हम सुख क
खोज म लगे रहकर कया करते ह। सुख क दौड़ हमारे लए ब त
मह वपूण होती है, और ऐसा माना जाता है क सबसे बड़ा सुख ई र है
और हो सकता है क वह आपके सं ान म आने वाला भीषणतम त व हो,
पर हमने इसक , परमत व क एक क पना कर रखी है, अतएव इस तक
हम कभी नह आ पाते। यह ठ क उसी तरह है, जैसे आप कसी सुख को
कल भोगे सुख के प म पहले से ही पहचान रहे ह , और तब आप उस
घ टत होते अनुभव के, उस घ टत होती अव था के वा त वक संपक म
कभी होते ही नह ह। वह केवल कल क ही मृ त होती है, जो वतमान को
आवृत कए रहती है, ढके रहती है।
तो यह सब दे खते ए, या यह संभव है क हम कुछ कर नह ,
य न न कर, ढूं ढ़ नह बना कोई या कए, पूण नषेध म ह , पूरी
तरह र ह य क सम त या धारणा- वृ का प रणाम है। य द
आपने कुछ करते समय वयं का अवलोकन कया हो, तो आपने दे खा
होगा क वह कसी पूव वचार, कसी पूवधारणा, कसी पूव मृ त के कारण
ही घ टत होता है। उस वचार तथा उस या के बीच एक वभाजन होता
है एक अंतराल होता है वह चाहे जतना लघु, चाहे जतना सू म हो
और उस वभाजन के चलते ं होता है। तो या मन पूरी तरह से खामोश
हो सकता है क वह न सोच रहा हो, न भयभीत हो, और इस लए
असाधारण प से सजीव व उ कट हो
आप जानते ह क उ कटता का, आवेग का, अं ेजी समानाथ श द
‘पैशन’ कई बार ःख-भोग के अथ म भी यु होता है; ईसाइय ने उस
श द का योग ःख-भोग के क ह व श प को तीक दान करने
हेतु कया है। हम इस श द का उन अथ म योग ब कुल नह कर रहे ह।
पूण नषेध क इस अव था म उ चतम कार का आवेग होता है तथा उस
आवेग म व को पूरी तरह से छोड़ दया जाना न हत है। इस कार के
संपूण व-प र याग हेतु वराट संयम क आव यकता है; ऐसा संयम, जो
लोग को सता रहे कसी पुरो हत क कठोरता नह है, उन संत का संयम
नह ज ह ने वयं को यातनाएं द ह, जो संयमी बने बैठे ह य क अपने
मन को उ ह ने नृशंस बना लया है। संयम तो एक अद्भुत सादगी है,
कपड़ और खाने-पीने क सादगी नह , अ पतु एक आंत रक सादापन।
ऐसा संयम, ऐसा आवेग संपूण नषेध का सव म कार है। और संभवतः
तब, य द आप सौभा यशाली ह भा य क वहां कोई भू मका रहती नह
उस स व का, अनामं त, बना कसी बुलावे के आ वभाव होता है। तब
मन का य न म लगे रहने का साम य समा त हो चुका होता है। उस
थ त म, आप जो चाहगे, करगे, य क तब ेम व मान होगा।

ऐ ो ो े ो ै
ऐसा धा मक मन न हो, तो स चे समाज का सजन हो नह सकता है।
और स चे समाज का सजन हम करना ही होगा, जसम वाथ क इस
डरावनी ग त व ध के लए कम-से-कम जगह हो। केवल ऐसे धा मक मन
क उप थ त म ही शां त संभव है, बा प से भी, अंतस् म भी।
पे रस,
30 अ ैल 1967
छः
: हमारा मन केवल ात को जानता है। हमारे भीतर वह या है,
जो हम अ ात, यथाथ क , ई र क खोज म वृ करता है
कृ णमू त : या आपका मन अ ात क ओर े रत होता है या
हमारे भीतर अ ात को, यथाथ को, ई र को पाने के लए कोई अ भ ेरणा
मौजूद है इस पर गहराई से सो चए। यह कोई वा पटु ता भरा नह है,
पर आइए, इस बात का व तुतः पता लगाते ह। या हमम से हरएक के
अंदर अ ात को पा लेने क कोई अंद नी ेरणा है सचमुच है आप
अ ात को पा कैसे सकते ह य द आप अ ात को जानते नह ह, तो कैसे
उसे पा सकगे या यह ेरणा अ ात के लए है, या वह ात के लए चाह
का ही व तार है आप मेरे कहने का मतलब समझ रहे ह मने ब त सारी
चीज़ को जाना है, वे सब मुझे खुशी, संतु और आनंद नह दे पाई ह। तो
म अब कुछ और चाह रहा ं, जो मुझे और अ धक आनंद, और यादा
खुशी, और अ धक जीवन-श या और कुछ दे । तो या ात, जो मेरा
मन है य क मन ात ही है, वह अतीत का ही प रणाम है या वह
मन अ ात को खोज सकता है य द म यथाथ को, उस अ ात को,
जानता ही नह ं, तो उसे खोज कैसे सकता ं न त ही, उसी को
आना होगा, म तो इसक खोज म जा नह सकता और य द म इसक
खोज म जाता ं, तो म ऐसी कसी व तु क खोज म जा रहा होता ं, जो
ात है, जसका ेपण मने ही कया है।
हमारी सम या यह नह है क हमम वह या है, जो हम अ ात को
पाने के लए े रत करता है वह बात तो पया त प है। यह अ धक
सुर त, अ धक थायी, अ धक त त, अ धक स होने क तथा
बेचैनी से, पीड़ा और उलझन से पलायन करने क हमारी अपनी ही कामना
है। प तः इसीसे हम वृ होते ह। जब ऐसी वृ , ऐसी ेरणा होती है
तो आपको एक शानदार पलायन मल जाता है, अद्भुत शरण मल जाती
है बु म, ईसा म या राजनी तक नारेबाजी या उस तरह क बात म। वह
यथाथ नह है; वह अ ेय, वह अ ात नह है। इस लए अ ात को उपल ध
कर लेने क वृ का अंत हो जाना, अ ात क खोज का क जाना
आव यक है, जसका अ भ ाय है क आव यकता संचयी, इकट् ठा होते
रहने वाले ात को समझने क है, जो क यह मन है। मन का वयं को
ात के तौर पर जानना ज़ री है, य क वह बस इतना ही जानता है।
आप कसी ऐसी चीज़ के बारे म नह सोच सकते जसे आप जानते नह
ह । आप सोच केवल उसी बारे म सकते ह, जो आप जानते ह।

ई ी ै ो औ ऐ ी
क ठनाई हमारी यह है क मन ात म अ सर न हो; और ऐसा तभी
हो सकता है जब मन वयं को समझे, और यह भी समझे क कैसे इसक
सारी हलचल अतीत से, वतमान के ारा वयं का ेपण करते ए,
भ व य क ओर होती है। यह ात क ही एक अनवरत ग त व ध है; या
यह ग त व ध थम सकती है यह केवल तभी थम सकती है, जब इसक
अपनी या क णाली को, इसके काम करने के ढं ग को समझ लया
जाए, केवल तभी, जब मन अपने आपको, अपने याकलाप को, अपने
तौर-तरीक को, अपने योजन को, अपनी दौड़ को, मांग को समझ ले
न केवल सतही मांग को, ब क गहरी अंद नी ेरणा और उद्दे य
को भी। यह काफ मसा य काय है। यह कुछ ऐसा नह है जो कसी
सभा म, कसी ा यान म या कोई कताब पढ़कर आपको पता चल
जाए। इसके लए तो नरंतर नरी ण, वचार क येक ग त व ध के त
लगातार जाग कता ज़ री है न केवल तब, जब आप जागे ए ह ,
ब क तब भी जब आप सो रहे ह । यह या सम होनी चा हए,
आं शक या कभी-कभी वाली या नह ।
फर मंशा भी सही होनी चा हए। अथात यह अंध व ास समा त हो
जाना चा हए क आंत रक प से हम सब अ ात के अ भलाषी ह। यह
सोचना एक म है क हम सब ई र को खोज रहे ह हम ऐसा कुछ नह
कर रहे ह। उजाला हम खोजना नह पड़ता। जब अंधेरा नह होगा, तो
उजाला होगा ही, और अंधेरे के ज़ रये आप उजाले को नह ला सकते। जो
हम कर सकते ह, वह इतना ही है क हम उन कावट को हटा द, जो
अंधेरा न मत करती ह, उनका हटना इस बात पर नभर है क हमारी मंशा
या है। य द आप उजाला दे ख पाने के लए इन कावट को हटा रहे ह,
तो आप कुछ हटा नह रहे ह, आप केवल अंधेरे के लए उजाला श द
इ तेमाल कर रहे ह। अंधेरे के पार दे खना भी अंधेरे से पलायन ही है।
वह या है जो हम े रत कर रहा है, इसक बजाय हम गौर इस बात
पर करना है क हमम इस कदर उलझन, ऐसी उथल-पुथल, इतनी कलह,
वैमन य ये सारी मूढ़ताएं य हमारे जीवन म ह जब ये मूढ़ताएं नह
होती ह, तो उजाला होता है, हम उसे ढूं ढ़ना नह पड़ता। जब मूढ़ता वदा
हो जाती है तो ा व मान होती है। पर वह आदमी जो मूख है और
बु मान बनने क को शश कर रहा है, तब भी मूख ही रहता है। बेवकूफ
समझदारी म नह बदली जा सकती, बेवकूफ जब नह रहती तो
समझदारी होती है, ा होती है। प है क मूढ़ जब ावान,
बु मान बन जाने का यास करता है, तो वह ऐसा कभी नह कर पाता।
मूढ़ता या है, यह जानने के लए को इसक सतही तौर पर नह
अ पतु पूरी तरह से, सम ता से, गंभीरता और गहनता से जांच-पड़ताल

ी ो ी ै े ो े ो ै
करनी होती है, उसे मूढ़ता क व भ परत को दे खना-समझना होता है,
और जब मूढ़ता समा त हो जाती है, तो बु म ा है।
जो हमारे भीतर अ त- तता, यु , वग-भेद, दं भ, स क दौड़,
जानकारी का सं ह, संगीत, कला तथा अ य व वध कार से पलायन
इन तमाम वृ य को न मत कर रहा है, वह या है, इसे मालूम करना
मह वपूण है, न क यह जानना क या ात से े तर कुछ और है, जो
हम अ ात क ओर वृ कर रहा है। न य ही, यह मह वपूण है क हम
इन सारी वृ य को उसी प म दे ख, जैसी क वे ह, और ठ क जैसे हम
ह, वैसे ही वयं क ओर वापस आएं। वहां से हम आगे बढ़ सकते ह। जब
मन कसी अ य त व क चाह म भ व य म कए जा रहे अपने ेपण को
रोक दे ता है; जब मन व तुतः चुप, गहन शां त म होता है, तो अ ात
अ त व म आता है। आपको इसे खोजना नह पड़ता। आप इसे आमं त
नह कर सकते ह। जसे आप आमं ण दे सकते ह, वह तो आपको ात
ही होता हे। आप एक अ ात अ त थ को आमं ण नह दे सकते। जसे
आप जानते ह , उसी को आमं त कर सकते ह। अ ात को, ई र को,
यथाथ को, या जो भी आप इसे पुकारते ह , इसको हम नह जानते ह। इसे
ही आना होता है। यह तभी आ सकता है, जब खेत सही हालत म हो,
धरती जोती गई हो, पर आपने य द जोताई इस वजह से क है क यह आ
जाए, तो यह आप तक कभी नह आएगा।
हमारी सम या ानातीत को खोजना नह , मन क संचयी या
को समझना है; मन जो क हमेशा ात ही होता है। यह काम ब त मेहनत
का है, जो नरंतर अवधान क , एक ऐसी सतत सजगता क मांग करता है,
जसम वचलन-भी त का, तादा य का, नदा का कोई भाव नह है; यह
‘जो है,’ उसके साथ होना है। केवल तभी मन न ल हो पाता है। यान व
अनुशासन का कतना भी आ ध य मन को सही मायने म न ल नह बना
सकता। हवाएं थम जाने पर ही झील थर होती है। आप झील को थर
बना नह सकते। हमारा काय उस अ ेय क खोज म वृ होना नह है।
हमारा काय तो अपने भीतर के इस व म को, अशां त को, इस दशा को
समझ लेना है; और तब अनजाने ही, चुपचाप, एक आ वभाव होता है, जो
आनंदमय है।
‘फ ट ए ड ला ट डम’,
अ याय 28
सात
: ई र या है
कृ णमू त : आप कैसे पता लगाएंगे या आप कसी और क
जानकारी को वीकार कर लगे या आप खुद यह खोज करने क को शश
करगे क ई र या है पूछना ब त सरल है, पर स य को अनुभूत
करना चुर ा, गहन संवाद तथा खोज क अपे ा रखता है।
अतएव पहला है, ई र के वषय म कसी अ य ने जो कहा है,
या आप उसे ही मान लेने वाले ह इससे या फक पड़ता है क वह कौन
है, कृ ण, बु या ईसा मसीह, य क ये सभी गलती पर हो सकते ह
इसी तरह आप का अपना व श गु भी गलती पर हो सकता है। स य
का पता लगाने के लए, पूछताछ करने के लए आप का मन अव य ही
मु होना चा हए, इसका अथ है, यह य ही व ास नह कर सकता,
वीकार नह कर सकता। म स य का वणन कर सकता ं, पर यह स य
को वयं अनुभव कर लेने के समान नह है। सभी प व पु तक ई र का
वणन करती ह, पर वह वणन ई र नह है। ‘ई र’ श द ई र नह है, ऐसा
ही है न
स य का पता लगाने के लए आपको उसे कभी वीकार नह करना
चा हए, जो पु तक, श क या अ य कहते ह, इस सबसे कभी
भा वत नह होना चा हए। अगर आप इनसे भा वत ह, तब आपको वही
पता चलेगा, जो वे चाहते ह क आपको पता चले। आप को यह भी अव य
मालूम होना चा हए क आप का मानस जो भी चाहता है उसक तमा
न मत कर सकता है; यह दाढ़ वाले या एका ी ई र क क पना कर
सकता है, यह उसे नीला या बगनी रंग का बना सकता है। अतः आपको
अपनी ही इ छा के त सजग होना है, और अपनी ही इ छा और
आकां ा के ेपण के छलावे म नह आना है। अगर आपक
आकां ा ई र को कसी व श प म दे खने क है, तो जो तमा आप
दे खगे, वह आपक ही अ भलाषा के अनु प होगी, यह तमा ई र नह
है। अगर आप ःख म ह और दलासा चाहते ह, या अपनी धा मक
मह वाकां ा म भावुक एवं रोमानी महसूस करते ह, तो अंततः आप
ऐसे ई र का नमाण कर लगे, जो आपक इ छा क पू त तो कर दे गा,
पर फर भी वह ई र नह होगा।
आप का मानस पूरी तरह से वतं होना चा हए, केवल तभी आप
स य का पता लगा सकते ह, न क कसी अंध व ास को वीकार करके,
या तथाक थत प व पु तक को पढ़ कर, या कसी गु के पीछे जाकर।
जब यह वातं य होता है, बा भाव तथा आपक अपनी इ छा व
े ो ी ै
आकां ा से वा त वक मु होती है, ता क आपका मन बलकुल प
हो केवल तभी ई र का पता लगाना संभव है। कतु अगर आप बैठ कर
अटकलबाजी करते रह, तो आपका अनुमान आपके गु के अनुमान क
तरह ही है और उतना ही ामक भी।
: या हम अपनी अचेतन इ छा के त सजग हो सकते ह
कृ णमू त : सबसे पहली बात तो यह है क या आप अपनी चेतन
इ छा के त सजग ह या आप जानते ह क इ छा या है या
आप इसके त सजग ह क य द कोई आपके व ास के व कुछ कह
रहा हो, तो ायः आप उसे नह सुनते ह आपक इ छा आपको सुनने से
रोकती है। आपक कामना ई र को पाने क है, और कोई यह संकेत
करता है क जस ई र क आप कामना कर रहे ह, वह आप ही क
कुंठा और भय का प रणाम है, तो या आप उसक बात सुनगे
बलकुल भी नह । आप चाहते कुछ ह, पर स य कुछ और है। आप खुद
को अपनी इ छा म सी मत कर लेते ह। आप अपनी चेतन इ छा के
त अध-सजग ह, या ऐसा नह है और वे इ छाएं जो गहराई म छपी
ई ह, उनके त सजग होना तो कह अ धक क ठन काम है। छपी ई
इ छा का पता लगाने के लए, अपने ही योजन को समझ पाने के
लए, खोज म लगे मन का पया त प एवं वतं होना आव यक है।
अतः पहले आप अपनी चेतन इ छा के त पूणतः सजग ह ; तब जैसे-
जैसे आप जो भी सतह पर ह, उसके त अ धका धक सजग होते जाएंगे,
तब आप इसम गहरे, और गहरे जा पाएंगे।
‘लाइफ अहेड’, अ याय 4
आठ
: ई र को पाने का सरलतम माग कौन सा है
कृ णमू त : मुझे लगता है क कोई सरल माग नह है, य क ई र
को पाना अ यंत क ठन, अ य धक मसा य बात है। जसे हम ई र कहते
ह, या मन ही ने उसका नमाण नह कया है आप जानते ही ह क मन
या होता है। मन समय का प रणाम है, और यह कुछ भी, कसी भी ां त
को न मत कर सकता है। धारणा को बुनने क तथा रंगी नय और
क पना म अपना ेपण करने क श इसके पास है। यह नरंतर
संचय, काट-छांट और चयन करता रहता है। संक ण, सी मत तथा पूवा ह
से सत होने के कारण, यह अपनी सीमा के अनुसार ई र क क पना
कर सकता है, उसक छ व बना सकता है। चूं क कुछ खास श क ,
पुरो हत तथा तथाक थत उ ारकता ने कह रखा है क ई र है, और
उसका वणन भी कर दया है, इस लए उसी श दावली म मन ई र क
क पना तो कर सकता है; ले कन वह क पना, वह छ व ई र नह है। ई र
का अ वेषण मन ारा नह कया जा सकता।
ई र को समझने के लए पहले आपको अपने मन को समझना
होगा, जो ब त क ठन है। मन ब त पेचीदा है और इसे समझना सरल नह
है। बैठे-बैठे कसी कार के सपने म खो जाना, व वध द दशन तथा
ां तय म लीन हो जाना और यह सोचने लगना क आप ई र के ब त
करीब आ गए ह, यह सब तो काफ सरल है। मन अपने साथ अ तशय
छल कर सकता है। अतः जसे ई र कहा जा सकता है उसका अनुभव
करने के लए आपको पूणतः शांत होना होगा; और या आपको यह
मालूम नह है क यह कतना अ धक क ठन है या आपने यान दया है
क वय क लोग कभी भी शांत नह बैठ पाते ह, वे कस तरह बेचैन रहते
ह, पैर क उंग लयां हलाते रहते ह, हाथ को डु लाते रहते ह शारी रक
प से ही न ल बैठ पाना कतना ःसा य है, मन का न ल होना तो
और भी कतना यादा मु कल है आप कसी गु का अनुगमन कर
सकते ह और अपने मन को शांत होने के लए बा य कर सकते ह, पर
आपका मन व तुतः शांत नह होता। यह अब भी बेचैन होता है, जैसे क
कसी ब चे को कोने म खड़ा कर दया गया हो। बना कसी ज़ोर-
ज़बरद ती के पूणतः मौन होना, मन क एक महान कला है। केवल तभी
उसक अनुभू त हो पाने क संभावना होती है, जसे ई र कहा जा सकता
है।
: या ई र सब जगह है

े ै
कृ णमू त : या यह पता लगाने म सचमुच आपक च है आप
करते ह और फर दलच पी खो दे ते ह, आप फर सुनते ही नह । या
आपने यह यान दया है क कस तरह वय क लोग आपको लगभग सुनते
ही नह ह चूं क वे अपने वचार , अपनी भावना , अपनी संतु य तथा
ःख से इतने घरे रहते ह क वे आपक बात कभी-कभार ही सुनते ह।
उ मीद है, आपने इस पर यान दया है। अगर आप जानते ह क
अवलोकन कैसे करना है, सुनना कैसे है, व तुतः सुनना, तब आपको न
केवल लोग के वषय म, ब क संसार के वषय म भी ढे र सारी बात पता
चलगी।
यह लड़का पूछ रहा है क या ई र सब जगह है। यह पूछने के
लए अभी यह ब त छोटा है; व तुतः इसका अथ या है, यह भी उसे नह
मालूम है। शायद उसे कसी चीज का अ प सा आभास ह सुंदरता क
भावना, आकाश म उड़ते प ी, बहता द रया, मु कुराता सलोना चेहरा,
हवा म नृ य करते प े तथा बोझा ढोती ी इन सब के होने का
एहसास; और ोध, कोलाहल, ःख, जो हर तरफ है, तो आ खर ज़ दगी
है या, यह पता लगाने म उसक वाभा वक च और उ सुकता है। वह
अपने से बड़ को ई र के बारे म बात करते सुनता है और सोचता है, यह
या गोरखधंधा है। इस कार का करना उसके लए अ य धक
मह वपूण है, या ऐसा नह है और उसके के उ र क तलाश आप
सबके लए भी समान प से मह वपूण है, य क जैसा क मने उस दन
कहा था, आप इन सब बात का अथ अंद नी तौर पर, अचेतन प से
गहरे म समझना शु कर दगे, और फर जैसे-जैसे आप बड़े ह गे, संघष
क भ नया के अलावा कुछ और चीज़ के संकेत भी आपको मलने
लगगे। यह व सुंदर है, यह धरती इतना दे ती है, परंतु हम ही इसके लुटेरे
ह।
: जीवन का वा त वक ल य या है
कृ णमू त : सबसे पहले तो यही है क आप इसका करते या ह
जीवन का ल य वही है, जो आप जीवन को बनाएंगे।
: जहां तक यथाथ का है, यह तो कुछ और ही होगा।
गत ल य म मेरी कोई वशेष दलच पी नह है, पर म यह जानना
चाहता ं क येक का ल य या है
कृ णमू त : आप कैसे पता लगाएंगे कौन बताएगा आपको पढ़ने
से या आप इसे खोज सकते ह अगर आप पढ़ते ह, तो हो सकता है,
एक ंथकार आपको कोई व श प त दे , जब क कोई अ य ंथकार
एक सवथा भ प त बताए। जो मनु य ःखी है, अगर आप उसके पास
जाएं, तो वह कहेगा क जीवन का ल य स होना है। जो मनु य भूखा
ी ै े े ो ो
जी रहा है, जसने वष से पया त भोजन नह कया, उसका ल य होगा क
पेट भरा होना चा हए। अगर आप कसी राजनी त के पास जाएं, तो
संसार के शासक , संचालक म उसक गनती हो, यही उसका ल य होगा।
अगर आप कसी युवा औरत से पूछ तो वह कहेगी, “म मां बनूं, यही मेरा
ल य हे”। अगर आप एक सं यासी के पास जाएं, तो उसका उ े य ई र
को पाना है। तो यह ल य, लोग क भीतरी चाह, कुछ ऐसा पाने क है, जो
प रतोष द तथा आरामदायक हो; वह एक कार क सलामती चाहते ह,
सुर ा चाहते ह, ता क कोई संशय, , ता या भय न रहे। हमम से
अ धकांश एक थायी व तु चाहते ह, जससे चपके रह सक, ऐसा ही है

अतः मनु य के लए जीवन का सामा य ल य कसी तरह क आशा,
कोई सुर ा, कसी कार का था य व है। यह मत क हए, “बस, यही सब
है ” यह तो ता का लक त य है। आप को इससे अ छ तरह प र चत
होना होगा। इस सब पर आपको च लगाना होगा। इसका अथ है,
आप को खुद पर सवाल खड़ा करना होगा। चूं क आप सम के अंश ह,
इस लए मनु य के लए जीवन का सामा य ल य आप ही से जुड़ा है। आप
वयं सुर ा, था य व, स ता चाहते ह; आप कुछ ऐसा चाहते ह, जससे
आप चपके रह सक।
इस सबके पार भी या कुछ है, कोई स य जो मन के े का नह है,
यह पता लगाने के लए मन क सभी ां तय क आ त दे दे नी ज़ री है,
यानी क आप उ ह समझ ल और एक तरफ कर द। केवल तभी आप
यथाथ त व को खोज पाते ह। यह शत जोड़ना क ल य होना चा हए, या
यह व ास करना क ल य होता ही है, ां त के ही अ य प ह। अपने
सारे ं , संघष , पीड़ा , म या भमान, मह वाकां ा, आशा, भय इन
सब पर आप अगर च लगा सक, और इन सबसे गुज़र सक, इन
सबके पार जा सक, इनसे ऊपर उठ सक, तो आपको उ र मल जाएगा।
: अगर म आ या मक अंत वक सत कर लूं, तो या म
अंततः परम के दशन कर सकता ं
कृ णमू त : जब तक आपके और उसके बीच इतने अवरोध ह, आप
परम के दशन कैसे कर सकते ह सव थम आपको अवरोध हटाने ह गे।
बंद कमरे म बैठ कर आप यह नह जान सकते क ताज़ी हवा कैसी होती
है। ताज़ी हवा के वा ते आपको खड़ कयां खोलनी ह गी। आपको अपनी
सभी तब ता , सीमा और अवरोध को दे खना होगा तथा समझ
कर इ ह परे हटा दे ना होगा। तब आपको पता लग जाएगा। पर इस पार
बैठे रहकर यह पता लगाने क को शश करना क उस तरफ या है, इसका
तो कोई अथ नह है।

‘ े ’
‘लाइफ अहेड’,
अ याय 7
नौ
ठहरे-ठहरे पानी पर शाम के ल बे साये थे, और दन ढलने के साथ नद
खामोश होती जा रही थी। मछ लयां रह रह कर पानी क सतह से उछल
आती थ तथा बड़े-बड़े प ी वशाल वृ पर अपने बसेर क ओर लौट
रहे थे। रजत-नील आकाश म एक भी मेघ नह था। सवा रय से भरी एक
नाव नद से गुज़री, वे लोग गा रहे थे और हाथ से ताल दे ते जा रहे थे; र
से कसी गाय के रंभाने क आवाज़ आई। वातावरण म सांझ क महक
थी। गदे के फूल क एक माला पानी म बही जा रही थी, और यह पानी
डू बते सूरज क रोशनी म झल मला रहा था। कतना सुंदर, कतना जीवंत
था सब कुछ वह नद , वे प ी, वे वृ और वे सब गांव के लोग।
हम एक वृ के तले बैठे थे, जहां से नद नज़र आती थी। इस वृ के
समीप ही एक छोटा सा मं दर था, कुछ एक बली गाय वह आस-पास
घूम रही थ । मं दर अ छ तरह से बुहारा आ, व छ था; पास ही भली-
भां त स चे गए उस फूल वाले पौधे क दे खभाल होती थी। एक आदमी
सं या क पूजा-आरती म रत था, उसक आवाज़ धीमी और उदास थी।
सूय क अं तम करण म पानी का रंग नवजात पु प जैसा था। इस बीच
एक हमारे पास आ गया, और अपने अनुभव के बारे म बताने
लगा। उसने कहा क अपने जीवन के कई वष उसने ई र क खोज को
अ पत कर दए थे, आ म-संयम क व वध साधना का उसने अ यास
कया था, और जो उसे य था, ऐसा ब त कुछ उसने याग दया था।
उसने सामा जक काय म, व ालय- नमाण इ या द म भी भरपूर सहयोग
दया था। उसक च कई बात म थी, पर उसक गाढ़ अ भ च थी
ई र क खोज म। इतने वष के उपरांत अब उसे ई र क वाणी सुनाई दे ने
लगी थी, और अब इसी वाणी से अपने जीवन क छोट बड़ी सभी बात म
उसे माग- नदश मलता था। अब उसका कोई भी कम अपने संक प से
नह होता था, अ पतु उसी आंत रक ई रीय वाणी के आदे शानुसार ही वह
सारे काम करता था। कसी भी अवसर पर इस अंतवाणी ने उसे नराश
नह कया, हालां क उसक प ता को वह ायः षत करता रहा। उसक
ाथना सदै व अपनी पा ता को शु करने क होती थी, ता क ा त करने
क इसक यो यता कायम रहे।
या वह अप रमेय आपके और मेरे ारा पाया जा सकता है समय
ारा र चत मा यम से या उसे खोजा जा सकता है, जो समय के े का
नह है या अ यवसायपूवक अ यास से लाया गया अनुशासन हम
अ ात तक ले जा सकता है जसका न आ द है, न अंत, उस तक प ंचने
के लए या कोई साधन है या हम अपनी इ छा के जाल म उस

ो े ो े ै
यथाथ को पकड़ सकते ह जो कुछ हमारे हाथ लगता है, वह ात का
ेपण ही है, कतु अ ात ात के हाथ नह आ सकता है। जसे कोई
नाम दया जाता है, वह तो अन भधेय, अनाम नह है, और नाम दे कर हम
केवल सं कारज नत त याएं ही जगा रहे होते ह। ये त याएं, ये
यु र चाहे जतने े और सुखद ह , यथाथ से उद्भूत नह ह।
त या हम उ पन पर करते ह, पर यथाथ कोई उ पक नह
तुत करता है, वह तो बस होता है।
मन क ग त ात से ात क ओर होती है, कतु इसक प ंच अ ात
तक नह है। आप कसी ऐसे वषय पर वचार नह कर सकते, जसे आप
जानते न ह , ऐसा करना असंभव है। आप जो भी सोचते ह, वह ात से,
अतीत से ही आता है, भले ही वह सु र अतीत हो या अभी-अभी बीते ण
का अतीत हो। यह अतीत वचार ही है, जसे अनेक भाव ने आकार
और सं कार दए ह; प र थ तय और दबाव के अनु प यह अपने
आपम सुधार करता रहता है, पर वचार होता हमेशा समय क या ही
है। वचार नषेध अथवा आ ह मा कर सकता है, यह नूतन क खोज या
तलाश नह कर सकता, पर वचार जब मौन होता है तो नूतन का ाकट् य
हो पाता है, जसे तुरंत वचार ारा पुरातन म, अनुभूत म प रव तत कर
लया जाता है। वचार अनुभव के ा प के अनुसार सदै व वयं को
ढालता रहता है, रंगता रहता है, अपने म कुछ-न-कुछ हेर-फेर करता रहता
है। वचार का काय सं ेषण है, अनुभू त क अव था म होना नह । जब
अनुभू त म वराम आता है, तब वचार लगाम अपने हाथ म ले लेता है,
और उस अनुभू त को ात क ेणी म रखने के लए कोई सं ा दे दया
करता है। वचार अ ात को नह भेद सकता, इस लए यह यथाथ का
अ वेषण या अनुभव कभी नह कर पाता।
अनुशासन, याग, नरास , पूजा-पाठ, सदाचार का अ यास ये
सभी चाहे जतने े ह , वचार क या ही ह; और वचार केवल
कसी ल य क दशा म, उपल ध क दशा म कायरत हो सकता है;
उपल ध और ल य हमेशा ात ही होते ह। उपल ध सुर ा है, ात क
व-संर ी न तता है। जो नामर हत है, उसम सुर ा ढूं ढ़ना तो उसका
नषेध ही है। खोजने-पाने वाली सुर ा तो केवल अतीत के, ात के
ेपण म होती है। इस कारण, मन को पूणता से, गहनता से मौन हो
जाना होगा; कतु इस मौन को याग, उदा ीकरण अथवा दमन ारा
खरीदा नह जा सकता। इस मौन का आगमन तब होता है, जब मन को
अ धक क तलाश नह रह जाती, जब यह कुछ बन जाने क या म
नह उलझा होता। यह मौन संचयी नह है, इसे अ यास क या ारा
वक सत नह कया जा सकता। यह मौन मन के लए वैसा ही अ ात
होना चा हए, जैसा अ ात वह कालातीत है, य क य द मन इस मौन का

ै ो ै ो
अनुभव कर रहा है, तो उस थ त म, एक अनुभवकता है जो गत अनुभव
का प रणाम है, जो भूतकाल म घ टत ए मौन को पहचानता है; और
जसका अनुभव कसी अनुभवकता ारा कया जा रहा है, वह केवल
आ म- े पत दोहराव ही है। मन कभी भी उस नूतन का अनुभव नह कर
सकता, इस लए मन को तो पूणतः थर, न ल हो जाना होगा।
मन केवल तभी न ल हो सकता है, जब यह अनुभव न कर रहा हो,
अथात जब यह कोई श द या नाम न दे रहा हो, मृ त म अं कत अथवा
संगहृ ीत न कर रहा हो। कोई नाम दे दे ना व अं कत कर लेना केवल सतही
मन क ही नह अ पतु मन क व भ परत क अनवरत या है। कतु
जब सतही मन चुप हो जाता है, तो गहरा मन अपने संकेत सू चत कर
पाता है। जब सम चेतना मौन एवं शांत होती है, कुछ बनने क या से
मु होती है, केवल तभी अप रमेय अ त व म आता है। इस मु , इस
वतं ता को बनाए रखने क आकां ा कुछ बनते रहने के इ छु क क
मृ त को नरंतरता दे ती है, जो यथाथ के लए बाधा व प है। यथाथ क
कोई नरंतरता नह है, यह ण त ण होता है, न यनूतन,
चरअ भनव। जसक नरंतरता हो, वह सजना मक कदा प नह है।
सतही मन तो सं ेषण का एक उपकरण मा है; यह उसका प रमाण
नह पा सकता, जो अप रमेय है। यथाथ कहने क बात नह है, और जब
यह कहने क बात है, तो यथाथ नह है।
यही यान है।
‘कम ज़ ऑन ल वग’,
पहला खंड, अ याय 18
दस
मुझे तीत होता है क मनु य शता दय से शां त, मु तथा परमानंद क
उस थ त को खोजता रहा है, जसे वह ई र कहता है। इसे उसने भ -
भ नाम से और इ तहास के अलग-अलग कालखंड म ढूं ढ़ा है; तथा
प तया कुछ ने ही उस महान शां त व मु के आंत रक भाव को, उस
अव था को पाया है, जसे मनु य ई र कहता रहा है। आधु नक समय म
ई र श द का मह व इतना घट चुका है क हम जब इस श द का योग
करते ह, तो उसका ब त ही नग य अथ होता है। हम सदा इस संसार से
र कसी परमानंद, शां त व मु क अव था को खोजते रहते ह, तथा
कुछ ऐसा पा लेने के लए हम इस संसार से व वध प म पलायन करते
रहते ह जो टकाऊ हो, जो हम शरण- थान एवं पुनीतता दे सके, जो हम
कसी गहन आंत रक शां त का कुछ भाव दान कर सके। कसी का ई र
म व ास करना या नह करना मान सक भाव, परंपरा व जलवायु पर
नभर करता है। आनंद क उस थ त, उस वातं य, उस असाधारण
शां त के जो जीवंत है अ वेषण हेतु, मेरे वचार म, को यह
समझना होगा क य वह त य का सामना करने व उस त य को
पांत रत करने और उससे परे जाने म समथ नह हो पाता।
य द हो सका तो म इस बारे म बात करना चा ंगा, ब क साथ-साथ,
इस भाव को सं े षत करना चा ंगा क य हम वचार को इतना अ धक
मह व दे ते ह और कम को नह । य प हम इस बारे म भ - भ कार
से, अलग-अलग समय पर, और यहां बंबई म भी इन वाता के दौरान
बात कर चुके ह, म इस वषय को एक अलग तरीके से लेना चा ंगा।
य क मुझे ऐसा लगता है क हम कुल मला कर पूरी तरह से इस समाज
के लए ज़ मेवार ह, जसम हम रहते ह। हमम से येक पूरी तरह
से, सम प से इस दशा के लए, इस व म के लए, आधु नक जीवन
क इस नपट नृशंसता के लए उ रदायी है। हम संभवतः इससे पलायन
नह कर सकते; हम इसे पांत रत करना होगा। मनु य इस समाज का
ह सा है तथा यह समाज उसी का बनाया आ है, इसके लए वह हर तरह
से और पूरे तौर पर ज़ मेवार है; उसे इस समाज को पांत रत करना
होगा, और अपने खुद के भीतर तथा उसके ारा समाज के ढांचे म भी एक
आमूल प रवतन, एक पांतरण लाना उसके लए तभी संभव है, जब वह
अवधारणा म, वचार म पलायन करना बंद कर दे ।
ई र एक अवधारणा है, जो जलवायु, उस वातावरण तथा उस
परंपरा पर आधा रत है, जसम आपका पालन-पोषण आ है। सा यवाद
संसार म लोग ई र पर व ास नह करते, यह भी उनक प र थ तय पर

ी ै ी
ही आधा रत है। यहां आपका आधार आपक प र थ तयां, आपका जीवन
और आपक परंपराएं ह और उसी पर आपने यह अवधारणा न मत क
है। हम इन प र थ तय से, समाज से वयं को मु करना होगा, तथा
केवल तभी मनु य के लए, अपनी वतं ता म ही, उसका अ वेषण संभव
है, जो स य है। कतु ई र नाम के एक वचार म पलायन करने मा से
सम या कतई हल नह होती है।
‘ई र’ या और जो भी नाम आप इ तेमाल करना चाह मनु य का
चालाक भरा आ व कार है, तथा हम उस आ व कार को, उस चालाक
को धूपब ी से, कमकांड से, तरह-तरह के व ास , मत से ढांपते रहते
ह; हमने मनु य को कैथो लक, ह , मु लम, पारसी, बौ के प म बांट
दया है, जो सब क सब मनु य ारा ही आ व कृत चतुर-चालाक
संरचनाएं ह। और मनु य इसका आ व कार करके, इसी म फंस गया है।
बना वतमान संसार को समझे, उस संसार को जसम वह रहता है
उसक दशा का संसार, उसके व म, ःख, ता, हताशा और
अ त व के सं ास का संसार, अशेष अकेलापन, जीवन क नतांत
अथहीनता का एहसास, बना इस सब को समझे, केवल अवधारणा को
ब गु णत करते जाना चाहे जतना संतोषदायी लगे, उसके मायने कुछ भी
नह ह।
यह समझना अ यंत मह वपूण है क य हम कसी अवधारणा को
न मत या तपा दत करते ह। मन एक अवधारणा का तपादन करता
ही य है तपादन से मेरा अ भ ाय है, दाश नक या ता कक अथवा
मानवतावाद या भौ तकवाद अवधारणा का कोई ढांचा बनाना।
अवधारणा संग ठत वचार है; उस संग ठत वचार, व ास, अवधारणा म
मनु य जीता है। हम सब यही करते ह, चाहे हम धा मक ह या अधा मक।
मेरे वचार म यह पता लगाना मह वपूण है क मनु य हमेशा से
अवधारणा को इतना असाधारण मह व य दे ता आया है। हम
अवधारणाएं तपा दत करते ही य ह हम ज़दगी से सीधे-सीधे य
नह मल पाते ह, कम य नह हो पाता, हमेशा याशीलता संभव य
नह होती य द हम अपना अवलोकन कर, तो यह बात प होगी क हम
अवधारणाएं तब न मत करते ह, जब अनवधान होता है, यान का अभाव
होता है। जब आप पूरी तरह स य होते ह, जसके लए सम अवधान
क ज़ रत होती है जो क कम है उस थ त म कोई अवधारणा नह
होती, आप कम कर रहे होते ह।
य द मेरा सुझाव मान, तो सफ सुन। वीकार या अ वीकार न कर;
अपने वचार , व ास , वरोधाभास तथा ऐसी अ य बात क द वार
खड़ी करके सुन पाने म कावट पैदा न कर। बस केवल सुन। हम आपको
कसी बात के लए कायल करने का यास नह कर रहे ह; कसी भी
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तरीके से, हम आप पर यह ज़ोर नह डाल रहे ह क आप कसी
अवधारणा या ढांचे या कम का अनुसरण कर। हम तो केवल त य बता रहे
ह, चाहे आप उ ह पसंद कर या न कर; और मह व क बात है त य के बारे
म सीखना। ‘सीखने’ म सम ता से सुनना, पूरी तरह से अवलोकन करना
न हत है। जब आप उस कौए क आवाज़ सुन तो अपने खुद के शोर,
अपने ही भय , वचार , अपनी अवधारणा , मत के साथ न सुने। तब
आप दे खगे क कोई धारणा, कोई वचार बीच म नह आता है, ब क आप
वाकई म सुन रहे होते ह।
ठ क उसी तरह से, मेरा सुझाव है आप बस सुन। मा सुन, न केवल
चेतन प से, ब क अचेतन तर पर भी जो संभवतः कह अ धक
मह वपूण है। हमम से अ धकतर लोग भा वत हो जाते ह। चेतन भाव
को हम नकार सकते ह, ले कन अचेतन भाव को परे हटा दे ना कह
अ धक क ठन है। जस ढं ग से सुनने क हमने बात क है, जब आप उस
तरह से सुन रहे होते ह, तो यह मा चेतन अथवा अचेतन वण नह
होता। तब आप पूरी तरह सावधान, यानपूवक होते ह। और अवधान
आपका अथवा मेरा नह होता है। यह रा वाद नह होता, यह धा मक नही
होता, इसके खंड नह कए जा सकते। अतएव जब आप पूण प से सुन
रहे होते ह, तो कोई अवधारणा नह होती, बस एक सुनने क अव था होती
है। हमम से अ धकतर ऐसा तब करते ही ह, जब कुछ मधुर वण कर रहे
होते ह, जब कण य संगीत सुनाई दे रहा होता है, अथवा जब आप एक
पवत को, शाम के उजाले को या पानी पर झल मल करते काश को या
कसी बादल को दे खते ह; तब अवधान क उस थ त म, सुनने, दे खने क
उस अव था म कोई अवधारणा नह होती है, वचार नह होता है।
इसी तरह से य द आप उतनी आसानी से, उस कार के यास र हत
अवधान के साथ सुन पाएं, तब संभवतः हम अवधारणा और या अथात
वचार और कम के वषय क महती साथकता को दे ख सकगे। जैसा क म
कह रहा था, हमम से अ धकतर म जब अनवधान, सावधानी का अभाव
होता है, तभी हम अवधारणाएं बुनने लगते ह। हम अवधारणा क
न म त अथवा क पना तब करते ह, जब वे अवधारणाएं हम एक सुर ा,
एक न तता का भाव दान करती ह । और न तता तथा सुर त होने
का यह भाव ही अवधारणा को ज म दे ता है, एवं इ ह अवधारणा ,
इ ह वचार म हम पलायन करते रहते ह, और इसी लए कम हो नह पाता
है। जब हम, जो है, उसे पूरी तरह समझ नह पाते, तो हम अवधारणाएं
न मत या तपा दत कर लया करते ह। इस तरह अवधारणाएं त य से
कह अ धक मह वपूण बन जाती ह।
यह मालूम करने के लए, व तुतः इस त य का पता लगाने के लए
क ई र है या नह , अवधारणा क कतई कोई साथकता नह है। आप
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व ास करते ह या नह करते ह, आप आ तक ह या अनी रवाद ह, इन
सारी बात का कुछ मतलब नह है। अ वेषण के लए, पता लगाने के लए
आपको अपनी पूरी ऊजा क दरकार होगी आपक सम त ऊजा; ऐसी
ऊजा जसम दाग-ध बे नह ह, खर चे नह ह, वह ऊजा जो वकृत नह
क गई है, जसे षत नह कया गया है।
अतः यह समझने, पता लगाने के लए क या उस यथाथ जैसा कोई
त व है, जसे मनु य लाख -लाख वष से खोजता रहा है, के पास
ऊजा होनी चा हए, ऐसी ऊजा, जो पूणतः सम , षणर हत हो। और उस
ऊजा के ा भाव हेतु हम यास को समझ लेना होगा।
हमम से अ धकतर लोग अपना जीवन यास म, संघष म बता दे ते
ह और यह यास, यह संघष, यह य न उस ऊजा का अप य है।
आदमी ने, पूरे ऐ तहा सक काल म, कहा है क यथाथ या ई र को चाहे
जो नाम उसने उसे दया हो पाने के लए आपको अ ववा हत रहना
होगा, मतलब यह क आपको चय क शपथ लेनी होगी तथा इस शपथ
को कायम रखने के लए जीवन पयत अंतहीन दमन, नयं ण, वयं से
संघष करना होगा। दे खए तो ऊजा क इस बरबाद को भोग- वलास म
जुटे रहना भी ऊजा क बरबाद ही है। तथा जब आप दमन करते ह तो
उसके न हताथ और अ धक र तक जाते ह। दमन म, नयं ण म, अपनी
कामना के उस नकार म जो यास लगता है, वह आपके मन को वकृत
कर दे ता है, तथा इस वकृ त म आपको एक कार क संयमशीलता का
एहसास होता है, जससे कठोरता आ जाती है। कृपया सुन। वयं का
अवलोकन कर एवं अपने आस-पास के लोग का अवलोकन कर; और
ऊजा क इस बरबाद का, इस लड़ाई का अवलोकन कर। यौन म, से स म
जो न हत है, वह नह , वा त वक या नह , ब क वे क पनाएं, वे बब,
वह मनोसुख इस सब के बारे म लगातार चलता वचार ऊजा क बरबाद
है। और अ धकतर लोग या तो आ मदमन से या यौन-शु चता क शपथ
लेकर या इसके वषय म अंतहीन वचार करते ए अपनी ऊजा गंवाते
रहते ह।
जस समाज म हम रहते ह, उसक इस हालत के लए मनु य
उ रदायी है आप उ रदायी ह, और म। उ रदायी आप ह, आपके
राजनी त नह , य क राजनी त को आपने ही वैसा बनाया है, जैसे वे
ह कु टल, अपने को म हमामं डत करते, पद व त ा क खोज म लगे
यही सब हम भी अपने रोज के जीवन म कर रहे ह। समाज के लए
ज़ मेवार हम ह। समाज के संघटना मक प क अपे ा समाज क
मनोवै ा नक संरचना कह अ धक मह वपूण है। समाज का मनोवै ा नक
ढांचा लालच, डाह, बटोरने क ललक, होड़, मह वाकां ा व भय पर
आधा रत है, अपने सभी संबंध म सुर त होने, संप के ारा सुर त
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होने, लोग से संबंध बनाकर सुर त होने, अवधारणा , वचार के साथ
अपने संबंध म सुर त होने क अनवरत मांग पर आधा रत है। यह है
समाज का ढांचा, जसे ने ही बनाया है। और तब समाज हमम से
हरएक पर मान सक प से यह ढांचा थोपता है। तो लालच, डाह,
मह वाकां ा, त प ा यह सब ऊजा का अप य है, य क इसम
हमेशा अंत होता है अंतहीन अंत , जैसा क उस म होता है
जो ई यालु है।
ई या एक अवधारणा है। अवधारणा तथा त य दो अलग-अलग बात
ह। कृपया सुन। आप इस ‘ई या’ नामक भावना को अवधारणा के मा यम
से दे खते ह। आप ई या नाम के इस एहसास के सीधे संपक म नह होते ह,
ब क आप ई या को एक श द वशेष क मृ त के मा यम से दे खते ह,
जसे आपने ई या के प म अपने मन म था पत कर लया है। यही एक
अवधारणा का प ले लेता है, और वह आपको य प से उस भावना
के संपक म आने से रोकता है, जसे आप ई या कहते ह। पुनः, यह एक
त य है। तो वह तपादन, वह वचार आपको उस भावना के य
संपक म आने से रोकता है, और इस लए उस वचार, उस अवधारणा से
ऊजा का रण होता है।
चूं क इस दशा के लए, गरीबी के लए, यु के लए, शां त के
नतांत अभाव के लए हम ही उ रदायी ह, इस लए धा मक ई र
को नह खोजा करता। धा मक का सरोकार समाज के पांतरण से
होता है, जो समाज वह वयं ही है। धा मक वह नह है जो असं य
कमकांड म लगा रहता है, परंपरा का अनुसरण करता है, कसी मृत,
भूतका लक सं कृ त म रहता है, गीता या बाइबल क अंतहीन ा या
करता रहता है, अनवरत मं पाठ करता रहता है या सं यास धारण कर
लेता है; वह धा मक नह है, ऐसा तो त य से भाग रहा है।
धा मक का संबंध तो पूणतया, सम प से समाज को समझने से
है, जो वह वयं है। वह समाज से भ नह है। अपने आप म एक सम ,
संपूण मौ लक प रवतन लाने का अथ है, लालच, ई या, मह वाकां ा क
पूरी तरह समा त, और इस लए वह प र थ तय पर नभर नह करता है,
य प वह प र थ तय का ही प रणाम है, यानी जो भोजन वह खाता है,
जो कताब वह पढ़ता है, जो सनेमा वह दे खने जाता है, धा मक ढ़य ,
व ास, कमकांड और उस सारे गोरखधंधे का प रणाम वह है। वह
ज़ मेवार है; और इस लए धा मक को वयं को समझना होता है,
वह वयं उस समाज क ही उपज है, जसे उसने खुद बनाया है। अतः
यथाथ को पाने के लए उसे आरंभ यह से करना होता है, कसी मं दर से
नह , कसी तमा म नह चाहे तमा हाथ से गढ़ ई हो या मन से।
अ यथा वह कुछ पूणतः नया, एक नूतन अव था कैसे पा सकता है

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शां त मा कानून अथवा सं भुता का व तार नह है। शां त उससे
एकदम अलग है, यह एक आंत रक अव था है, जो संभवतः बा
प र थ तय म बदलाव लाकर नह लाई जा सकती, य प बा
प र थ तयां बदलना भी आव यक है। परंतु एक भ कार के संसार को
अ त व म लाने के लए ारंभ भीतर से ही करना होगा। तथा एक अलग
तरह क नया ले आने के लए आपको वराट ऊजा क ज़ रत पड़ती
है, तथा उस ऊजा क इस समय अनवरत ं म बबाद क जा रही है।
इस लए हम इस ं को समझना होगा।
ं का ाथ मक कारण पलायन है वचार के मा यम से पलायन।
कृपया वयं का अवलोकन कर; ई या, डाह का सामना करने क बजाय
इसके सीधे संपक म आने क बजाय, आप कहते ह, “म इससे कैसे छू टूं
म या क ं कौन सी व धयां ह, ज ह अपना कर म ई यालु नह हो
सकूंगा ” जो सभी वचार ह, अवधारणाएं ह, और इस लए इस त य से
पलायन है क आप ई यालु ह, यह इस त य से र चले जाना है क आप
ई यालु ह। अवधारणा के मा यम से त य से र हटना न सफ आपक
ऊजा थ करता है, ब क त य के सीधे संपक म आने से आपको रोकता
है। तो अब आपको अपना पूरा यान दे ना होता है, कसी अवधारणा,
वचार के मा यम से नह ; वचार, जैसा क हमने कहा था, अवधान म,
यान दे ने म बाधा बनता है। तो जब आप ई या के इस भाव का अवलोकन
करते ह, या इसके त सजग होते ह, और इसे बना अवधारणा के,
बना वचार के पूण अवधान दे ते ह, तो आप दे खगे क आप न सफ उस
भाव के सीधे संपक म होते ह, अ पतु चूं क आपने इस भाव को, बना
अवधारणा , वचार को बीच म लाए, अपना पूण अवधान, पूरा यान
दया है, इस भाव का अवसान हो जाता है; और तब आपम आगामी घटना
अथवा आगामी भावना, अगले एहसास से मल पाने के लए और अ धक
ऊजा होती है।
अ वेषण के लए, एक संपूण मूल प रवतन लाने के लए आपम
ऊजा होनी चा हए वह ऊजा नह जो दमन के ारा लायी जाती है,
ब क वह ऊजा जो आपको तब उपल ध होती है, जब आप अवधारणा
के मा यम से या फर दमन के ारा त य से पलायन नह कर रहे होते ह।
वा तव म, य द आप इस पर गौर कर, तो जीवन जीने के हम केवल दो ही
रा ते मालूम ह या तो हम इससे पूरी तरह से पलायन करते ह, जो
व तता का ही एक प है और जो मान सक असंतुलन क दशा म ले
जाता है, या फर हम सब कुछ द मत करते जाते ह, दबाते जाते ह, य क
हम समझते नह ह। हम बस यही मालूम है।
कसी भावना या संवेदन को ढक दे ना, दबा दे ना ही दमन नह है,
ब क बौ क प ीकरण, तकसंगत ा या भी एक कार से दमन ही
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ह। कृपया वयं का अवलोकन कर, और आप दे खगे क जो कहा जा रहा
है, वह कतना त यपरक है। इस लए यह आव यक है क आप पलायन न
कर। और यह पता लगाना सबसे मह वपूण बात म से एक है क कभी
पलायन न कर। यह पता लगाना सबसे क ठन बात म से एक है य क
हम श द ारा पलायन करते ह। हम त य से पलायन सफ मं दर क
तरफ भाग कर तथा सरे वैसे काम के ारा ही नह करते, ब क श द
के ारा, बौ क बहस , अ भमत , नणय व मू यांकन के मा यम से भी
पलायन करते ह। त य से पलायन के हमारे पास ब त सारे तौर-तरीके ह।
उदाहरण के लए यह त य ल क हम म तमंद ह। य द हम म तमंद ह तो
यह एक त य हे। और जब आपको इस बात का एहसास होता है क आप
म तमंद ह, तो चतुर बनने क को शश करना पलायन है। परंतु संवेदनशील
होने के लए यह ज़ री है क आपका सम त अवधान, पूरा यान मन क
उस थ त क ओर नद शत हो, जो मंद है, समझने म सु त है।
अतः हम ऊजा क आव यकता होती है, जो कसी वरोधाभास,
कसी तनाव का प रणाम नह होती, ब क जसका आगमन तब होता है,
जब कोई भी यास न हो। कृपया इस एकदम सरल, वा त वक त य को
समझ ल : हम अपनी ऊजा का अप य यास के ारा कया करते ह
तथा ऊजा का यास ारा यह अप य हम त य के सीधे संपक म आने
से रोकता है। जब म आपको सुनने के लए ज़बरद त यास कर रहा होता
ं, तो मेरी सारी ऊजा इस यास म जा रही होती है, तथा म व तुतः सुन
नह रहा होता ं। जब म ो धत या अधीर होता ं, तो मेरी सारी ऊजा यह
कहने म जाती है, “मुझे ो धत नह होना चा हए।” कतु जब म श द के
ारा अथवा नदा या नणय के ारा पलायन न करते ए, पूरी तरह से
ोध अथवा मन क उस अव था पर यान दे ता ं, तब उस अवधान क
अव था म ोध नामक उस ल ण से मु घ टत होती है। अतः अवधान,
जो ऊजा क सम ता है, यास नह है। केवल वही मन जो यासर हत
होता है, धा मक मन है। और इस लए ऐसा मन ही पता लगा सकता है क
ई र है, या नह है।
यहां एक और कारक है हम अनुकरणशील मानव ह। हमम कुछ
भी मौ लक नह है। हम हज़ार साल के समाज के प रणाम ह। बचपन से
ही हम अनुकरण करने, आ ा मानने, परंपरा क नकल करने, धम-शा
का पालन करने, स ा का अनुसरण करने के लए पो षत कया गया है।
हम कानून क स ा क बात नह कर रहे, उसका तो पालन करना ही
होगा, ब क हम तो शा , आ या मक स ा- ामा य, उस ढांचे, उस ढर
क बात कर रहे ह। हम आ ा मानते रहते ह और अनुकरण करते रहते ह।
जब आप अनुकरण करते ह जो आंत रक प से कसी समाज
ारा थोपे या वयं अपने ऊपर थोपे ए कसी ा प को अपनाना है तो
ऐ ी ऐ ऐ ी ो
ऐसी सहम त, ऐसा अनुकरण, ऐसी आ ाका रता ऊजा क ांजलता को,
प ता को न करती है। आप अनुकरण करते ह, आप सहमत होते ह,
आप स ा का आ ा-पालन करते ह, य क आप डरे ए ह। वह
जो समझ रहा है, जो प ता से दे ख रहा है, जो अवधानपूण, यानपूवक
है, उसे कोई डर नह है, इस लए उसके पास अनुकरण करने का भी कोई
कारण नह है। वह येक ण म वही होता है, जो वह वा तव म है चाहे
उस ण उसक वा त वकता जो भी कुछ हो।
तो अनुकरण, कसी धा मक ा प का अनुपालन, या कसी धा मक
ा प क अ वीकृ त कतु अपने खुद के अनुभव क वीकायता यह
सब भय का ही प रणाम है। और जो भयभीत है, चाहे ई र से, चाहे
समाज से, चाहे अपने आप से ऐसा मनु य धा मक मनु य नह है तथा
मनु य मु तभी होता है, जब कोई भय नह होता। इस लए उसे भय के
य संपक म आना होगा, भय क अवधारणा, भय के वचार के मा यम
से नह ।
उस न कलुष, नद ष, जीवंत ऊजा का सघन आगमन तभी संभव
है, जब आप अ वीकार करते ह। मुझे नह मालूम क आपने कभी इस
बात पर गौर कया है क जब आप कुछ अ वीकृत करते ह, कसी
त या क तरह नह , तो वह अ वीकृ त ऊजा सृ जत करती है। जब
आप अ वीकृत करते ह, जैसे क मह वाकां ा को इस लए नह क
आप आ या मक होना चाहते ह, क आप शांत जीवन बताना चाहते ह,
क आपको ई र या कुछ और चा हए, ब क बस अ वीकृत कर दे ते ह;
जब आप मह वाकां ा से जुड़े अंत क अतीव वनाशकारी कृ त को
समझ लेते ह, और इसे अ वीकृत कर दे ते ह, तो अ वीकृ त का वह कृ य
ही ऊजा है। मुझे नह पता क आपने कभी कुछ अ वीकार कया है या
नह । जब आप कसी सुख वशेष को अ वीकृत करते ह जैसे जब आप
सगरेट पीने के सुख को अ वीकार कर दे ते ह, इस लए नह क आपके
डॉ टर ने कहा है क यह आपके फेफड़ के लए नुकसानदे ह है, इस लए
नह क आपके पास दन भर म ढे र सारी सगरेट पीने के लए पैसे नह ह,
इस लए नह क आप एक गुलाम बना दे ने वाली आदत म फंस गये ह,
ब क इस लए क आप दे ख लेते ह क इसका कोई मतलब ही नह है
जब आप इसे बना कसी त या के अ वीकार कर दे ते ह, तो वह
अ वीकृ त एक ऊजा लाती है। इसी कार जब आप समाज को अ वीकृत
करते ह, उस तरह नह , जैसे सं यासी, भ ु और तथाक थत धा मक लोग
इससे भाग जाया करते ह, ब क जब आप समाज क मनोवै ा नक
संरचना को पूणतया अ वीकृत कर दे ते ह तो इस अ वीकृ त से आपको
अगाध ऊजा उपल ध होती है। अ वीकार क यह या ही ऊजा है।

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अब आपने वयं यह दे खा है या समझ लया है या इस शाम सुना है
क ं व यास, जो ऊजा का रण करते ह, इनक कृ त या है; और
आपने ऊजा के इस भाव को मा शा दक प से नह अ पतु व तुतः
समझा या जाना है क यह ऊजा ं का प रणाम नह है, ब क इसका
ाकट् य तब होता है, जब मन ने पलायन , दमन, ं , अनुकरण, भय के
पूरे जंजाल को समझ लया होता है। तब आप आगे बढ़ सकते ह, तब
आप वयं यह पता लगाना आरंभ कर सकते ह क यथाथ या है और यह
अ वेषण पलायन नह होगा, इस नया क अपनी ज़ मेदा रय से भागना
नह होगा। यथाथ या है, शुभ या है य द शुभ होता है तो इसका
अ वेषण आप व ास के ारा नह , वरन् अपनी संप के साथ, लोग के
साथ, अवधारणा के साथ अपने संबंध को पांत रत करके, अतएव
समाज से मु होकर ही कर सकते ह। केवल तभी आपके पास अ वेषण
के लए ऊजा होती है, पलायन या दमन के ज़ रये नह ।
य द आप इतनी र आ चुके ह तब आपको उस अनुशासन, उस
संयम क कृ त का पता लगाना आरंभ करना होगा जसे अपनाता
है चाहे वह संयम-अनुशासन परंपरागत हो, अथवा इस लए हो क आप
समझ चुके ह। संयम क , अनुशासन क एक वाभा वक या होती है,
जो कठोर नह है, जो कसी के अनुसार चलना नह है, जो कसी
सुखदायक आदत वशेष का अनुकरण मा नह है। जब आप वैसा कर
पाएंगे, तो आपको पता चल जाएगा क सव च को ट क संवेदनशीलता
क अपनी ा है। इस संवेदनशीलता के अभाव म आप स दय से प र चत
नह हो पाते ह।
एक धा मक मन के लए संवेदनशीलता तथा स दय के इस
असाधारण भाव के त सजग होना ज़ री है। जस धा मक मन के वषय
म हम बात कर रहे ह, वह ढ़वा दय के धा मक मन से पूरी तरह भ
है। य क उस परंपरावाद धा मक मन म सुंदरता का कोई भान नह है,
वह इस व से पूरी तरह अनजान है, जसम हम रहते ह इस व क ,
इस धरती क सुंदरता, कसी पहाड़, कसी वृ क सुंदरता, कसी
मु कुराते ए यारे चेहरे क सुंदरता से उसका कोई नाता नह ह। उसके
लए स दय लोभन है, उसके लए सुंदरता नारी है, ई र को पाने के लए
जससे उसे हर क मत पर बचना है। ऐसा मन धा मक मन नह है, य क
वह संसार के त संवेदनशील नह है सुंदरता के संसार के त,
म लनता के संसार के त। आप केवल स दय के त संवेदनशील नह हो
सकते, आपको म लनता के त, गंदगी के त, अ त- त मन के त
भी संवेदनशील होना होगा। संवेदनशीलता का अथ है सव
संवेदनशीलता, मा कसी वशेष दशा म होने वाली संवेदनशीलता नह ।
अतः ऐसा मन, जो अपने स दय के त वयं म ही सजग नह है, इस

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अ वेषण म और आगे नह जा सकता। संवेदनशीलता का यह गुण होना
आव यक है।
तब ऐसा मन, जो क धा मक मन है, मृ यु क कृ त को समझ लेता
है। य क य द यह मृ यु को नह समझ पाता है, तो यह ेम को भी नह
समझ पाएगा। मृ यु जीवन का अंत नह है। मृ यु कोई ऐसी घटना नह है,
जो रोग, जराजीणता, वृ ाव था अथवा घटना क प रण त हो। मृ यु तो
कुछ ऐसी घटना है, जसके साथ आप रोज जीते ह, य क आप हर रोज
उस सब के त मर रहे होते ह, जो-जो आपने जाना है। य द आप मृ यु से
अवगत नह ह, तो आप कभी नह जान पाएंगे क ेम या है।
ेम मृ त नह है; ेम कोई तीक, कोई च , कोई अवधारणा नह
है; ेम कोई सामा जक कृ य नह है; न ही ेम कोई सद्गुण है। य द ेम
है, तो आप सद्गुणी ह, आपको गुणवान बनने के लए संघष नह करना
पड़ेगा। परंतु ेम है नह , य क आपने कभी समझा ही नह क मरना
या होता है अपने अनुभव के त मरना, अपने सुख के त मर जाना,
अपनी कसी ऐसी खास तरह क छपी ई याद के त मर जाना जो
आपको ही पता नह है। और जब आप इस सबको अंतस् से बाहर
उलीचते ह, तथा येक ण वे छा से, सहजता से व बना कसी यास
के, अपने घर के त, अपनी मृ तय के त, अपने सुख के त मर
जाते ह, तब आप जान पाएंगे क ेम या है।
एवं स दय और मृ यु के एहसास के बना, ेम के बगैर आप यथाथ
को कभी नह जान पाएंगे, चाहे आप कुछ भी कर ल सारे मं दर म चले
जाएं, हर बु हीन ारा आ व कृत येक गु का अनुसरण कर ल
इन तरीक से आप यथाथ को कभी नह जान पाएंगे। वह यथाथ ही
सजन है।
सजन का अथ शशु का जनन, या कोई त वीर बना लेना या
क वता लख लेना अथवा कोई अ छा ंजन तैयार करना नह है यह
सब सजन नह है, यह तो कसी वशेष तभा, दे न, अथवा कोई खास
तकनीक सीख लेने का प रणाम मा है। आ व कार सजन नह है। सजन
केवल तभी हो सकता है जब आप समय के त मृत हो जाएं अथात
जब कोई कल न हो। सजन केवल तभी संभव है, जब ऊजा का संपूण
सघनीकरण होता है, जसम ऊजा क ग त भीतर क ओर अथवा बाहर
क ओर नह होती है।
कृपया इस बात पर यान द जए। आप समझ पा रहे ह या नह ,
इससे अंतर नह पड़ता। हमारा जीवन इतना घ टया, इतना दयनीय है,
इसम इतनी दशा, इतनी हताशा है। हम बीस लाख साल से जीते आ रहे
ह, और नया कुछ भी नह है। हम केवल पुनरावृ , ऊब तथा अपने ारा

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क गई येक या क नतांत अथहीनता को ही जानते ह। एक नूतन
मन, एक नद षता के, ताज़गी के एहसास को अ त व म लाने के लए
इस संवेदनशीलता, इस मृ यु व ेम तथा उस सजन का होना ज़ री है।
वह सजन तभी घ टत हो पाता है, जब यह संपूण ऊजा होती है, जसम
कसी भी दशा म कोई ग त नह हो रही होती।
दे खए जब मन का कसी सम या से सामना होता है, तो यह हमेशा
इससे बाहर नकलने का रा ता तलाश करता है, इसे हल करने क , इससे
उबरने क , कतराने क , इसके ऊपर या पार जाने क को शश करता है,
यानी क यह सम या के साथ सदा कुछ न कुछ करता रहता है, बाहर क
ओर अथवा भीतर क ओर ग त करता रहता है। य द यह कसी भी दशा
म ग त न करे जब भीतर या बाहर क ओर ग त हो ही नह , बस वह
सम या ही रह जाए तब उस सम या म ही एक फोट, एक फुटन
होता है। आप इसे कभी करके दे ख, तो जो कहा जा रहा है आप उसक
वा त वकता को दे ख पाएंगे जसके बारे म आपको व ास करने, बहस
करने या न करने क ज़ रत ही नह पड़ेगी। यहां कोई माण-स ा नह
है।
अतएव जब ऊजा का यह सघनीकरण, एक त हो जाना घ टत
होता है, जो न यास होने का प रणाम है, तथा जब उस ऊजा म कसी
भी दशा म कोई ग त नह होती है, उस ण ही सजन होता है। और यह
सजन ही स य है, ई र है या आप इसे जो भी कह तब नाम का कोई
अथ नह रह जाता है। तब वह वराट फुटन, वह सजन ही शां त है,
आपको शां त क तलाश नह करनी पड़ती। वह सजन ेम है।
और केवल ऐसा धा मक मन ही इस व म एवं वषाद से ा त
संसार म व था ला सकता है। और यह आपका ही दा य व है आपका,
कसी और का नह क इस संसार म रहते ए ही ऐसा सजना मक
जीवन जी सक। मा ऐसा मन ही धा मक मन है, ध य मन है।
मुंबई,
3 माच 1965
यारह
: इससे पहले क मनु य ई र को जान सके, उसे पता तो होना
चा हए क ई र या है। आप ई र को मनु य के तर पर लाए बना ई र
क अवधारणा तुत कैसे करगे
कृ णमू त : आप ऐसा नह कर सकते, सर। अब ई र क इस खोज
के पीछे कौन सी ेरणा काम कर रही है, और या यह खोज स ची है
हमम से अ धकतर के लए यह खोज वा त वकता से एक पलायन भर है।
तो हम इस बारे म अपने आप म ब त प होना चा हए क या ई र क
यह खोज पलायन मा है, अथवा यह हर बात म सच क खोज है हमारे
संबंध का सच, व तु को दए जा रहे मू य का सच, अवधारणा का
सच। य द हम ई र को सफ इस लए खोज रहे ह य क हम इस संसार
व इसक ग तय से थक चुके ह, तब तो यह खोज एक पलायन ही है।
तब हम ई र न मत कर रहे होते ह और इस लए वह ई र नह होता।
ज़ा हर है क मं दर का ई र, पु तक का ई र, तो ई र नह है, वह तो
बस एक शानदार पलायन है। कतु य द हम सच क तलाश का जतन कर,
या के कसी व श समु चय म नह , अ पतु अपनी सारी या ,
अपने सभी वचार और संबंध म, य द अपने जीवन म हम भोजन, व
और आवास का सही मू यांकन मालूम कर पाएं, तब चूं क हमारे मन
प ता व समझ म स म ह गे, तो फर जब हम यथाथ को खोजगे, उसे
पा लगे। तब यह एक पलायन नह होगा। ले कन य द हम नयावी चीज
म ही द मत ह रोट , कपड़ा, मकान, र ते और खयालात तो हम
यथाथ को कैसे पा सकते ह हां, एक क पत यथाथ हम गढ़ सकते ह।
अतः ई र, स य अथवा यथाथ को वह मन नह जान पाएगा, जो मत,
सं कार त व सी मत है। ऐसा मन यथाथ या ई र के बारे म वचार कैसे
कर सकता है पहले इसे खुद को सं कारमु करना होगा। इसे वयं को
अपनी ही सी मतता से मु कर लेना होगा, केवल तभी इसे पता चलेगा
क ई र या है, उससे पहले तो बलकुल नह । यथाथ अ ात है तथा जो
ात है, वह यथाथ नह है।
इस लए वह मन जो यथाथ को जानना-समझना चाहता है, उसे
अपनी सं कारब ता से वयं को मु करना पड़ेगा, तथा यह
सं कारब ता या तो बा प से या आंत रक प से आरो पत क गई है;
और जब तक मन संबंध म कलह व ं न मत करता रहता है, यह
यथाथ को नह जान पाता। तो य द को यथाथ का बोध करना हो,
मन को शांत, न ल होना होगा; कतु य द मन को न ल होने के लए
बा य या अनुशा सत कया जाता है, तो वह न लता अपने आप म ही

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एक सीमाब ता होगी, एक आ म-स मोहन मा होगी। मन मु एवं
न ल तभी हो पाता है, जब यह उन मू य को समझ लेता है, जनसे यह
घरा आ है। अतः जो उ चतम है, परम है, यथाथ है, उसे समझने के लए
हम आरंभ नतांत न न से, नतांत नकट से करना होगा, जसका अथ है
क जन व तु , संबंध व वचार म, अवधारणा म हम दन-रात त
रहते ह, हम उनका मू य मालूम कर लेना होगा। और उ ह समझे बना मन
यथाथ को खोज ही कैसे सकता है यह यथाथ को ईजाद कर सकता है,
तछ व बना सकता है, अनुकरण कर सकता है, य क इसने खूब सारी
कताब पढ़ रखी ह, यह सर के अनुभव को दोहराता रह सकता है। पर
न त ही वह तो यथाथ नह है। यथाथ क अनुभू त हेतु मन को अपनी
सृ थाम दे नी होगी, य क मन जो भी रचता है, वह अतीत क दासता
ही होती है। सम या यह नह है क ई र होता है या नह , अ पतु यह है क
मनु य ई र का अ वेषण कस कार करे; और य द अपनी खोज म वह
वयं को सबसे मु कर ले, तो वह अप रहाय प से उस यथाथ को पा
लेगा। परंतु उसे आरंभ नकट से करना होगा, कह र से नह । ज़ा हर है
क र जाना हो, तो शु आत पास से ही करनी होती है। पर हमम से
अ धकतर लोग अनुमान लगा लेना चाहते ह, जो अ यंत सु वधाजनक
पलायन है, इसी वजह से धम यादातर लोग को हैरतअंगेज़ अफ म
मुहैया कराते ह।
तो मन को अपने ही बुने ए सम त मू य के उलझाव से छु ड़ा लेने
का काय अ यंत कर है, और चूं क हमारे मन थके-हारे ह, या हम
आलसी ह, हम धा मक पु तक पढ़ लेने और ई र के बारे म अटकल
लगाते रहने को तरज़ीह दया करते ह, ले कन यक नन वह तो यथाथ क
खोज नह है। अवबोध अनुभू त म है, अनुकरण म नह ।
: या मन वचारक से भ है
कृ णमू त : या वचारक अपने वचार से भ है या वचार के
बना वचारक का अ त व है या वचार से अलग कोई वचारक है।
वचार करना रोक द, तो कहां होता है वचारक या एक वचार का
वचारक, अ य वचार के वचारक से भ है या वचारक अपने वचार
से अलग है, अथवा या वचार ही वचारक को न मत करता है जो तब
वचार से अपना तादा य कर लेता है, जब वह इसे सु वधाजनक पाता है
और जब यह सु वधाजनक नह होता तो वयं को वचार से वलग कर
लेता है अथात यह ‘म’, यह वचारक या है प तः वचारक व वध
वचार के संघात से बना होता है, ज ह ने ‘म’ के प म पहचान बना ली
है। तो वचार वचारक को उ प करते ह, न क इसका उलट होता है।
अगर मुझम वचार नह ह, तो कोई वचारक भी नह है; ऐसा नह है क
वचारक हर बार अलग होता है, ले कन य द वचार नह होते ह, तो
ी ो ै ै ै े
वचारक भी नह होता है। अतः वचारक वचार का उ पाद है, जैसे कता
कम का उ पाद है। कता कम को न मत नह करता।

ोता : मेरा अनुभव यह है क ‘म’ के सहयोग के बना बोध नह


होता है।
कृ णमू त : हम वशु बोध क बात नह कर सकते ह। बोध सदा
बोधकता से म त होता है यह संयु घटना है। य द हम बोध क बात
करते ह, बोधकता तुरंत उसम न हत हो जाता है। बोधमा के बारे म
बोलना अपनी अनुभू त के परे क बात करना है; केवल बोध हो रहा हो,
ऐसी अनुभू त कभी हम होती नह है। यह हो सकता है क आप गहन
सुषु त म, गहरी न द म चले जाएं, परंतु गहन सुषु त म न तो बोध हो रहा
होता है, न बोधकता होता है। य द आप ऐसी अव था से अवगत ह, जसम
बोधकता को बना बोध के अ य वषय बीच म लाए, मा वयं का बोध हो
रहा हो, केवल तभी आप ामा णक प से बोधकता क बात कर सकते
ह। जब तक वह अव था नह जानी गई है, तब तक हम बोध से अलग
कसी बोधकता क बात करने का अ धकार नह है। तो बोधकता और
बोध या संयु घटना है, वे एक ही तमगे के दो पहलू ह। वे पृथक नह ह
और हम उन दो घटना को पृथक करने का कोई अ धकार नह है, जो
पृथक नह ह। हम बोधकता को बोध से अलग करने का आ ह करते ह,
जब क उसके लए कोई वैध आधार नह है। हम बोध से र हत बोधकता से
अवगत नह ह, तथा हम बोधकता से र हत बोध से भी अवगत नह ह।
अतएव एकमा ामा णक न प यह है, क बोध एवं बोधकता, ‘म’ एवं
संक प एक ही पदक के दो प ह, वे एक ही घटना के दो आयाम ह, जो
न तो बोध है, न ही बोधकता है; कतु, इसक स यक् परी ा गहन अवधान
क अपे ा रखती है।
ोता : यह चचा हम कहां ले जाती है
कृ णमू त : सर, यह ई र के अ वेषण क समी ा के संदभ म
उठा था। प तः हमम से अ धकतर लोग यथाथ के अनुभव के वषय म
जानना चाहते ह। न त ही, इसे तभी जाना जा सकता है, जब
अनुभवकता अनुभव करना बंद कर दे , य क अनुभवकता अनुभव क
सृ कर रहा है। य द अनुभवकता ही अनुभव को रच रहा है, तब वह ई र
रच तो लेगा, पर इस लए वह ई र नह होगा। या अनुभवकता का अंत
हो सकता है यही इस का सम अ भ ाय है। अब य द अनुभवकता
और अनुभव संयु घटना ह, जो क इतनी सीधी-साफ बात है, तो उस
अनुभव करने वाले को, कता को, वचारक को, वचार करना बंद करना
पड़ेगा। या यह सु प नह है तो या वचारक वचार करना बंद कर
सकता है य क जब वह सोचता है, तो वह रचता है, और जो वह रचता
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है, वह यथाथ नह होता है। इस लए यथाथ, ई र, या जो भी आप उसे
कहते ह , वह है या नह है, यह पता लगाने के लए वचार या का
समापन आव यक है, जसका अ भ ाय है क वचारक को समा त होना
होगा। उसका नमाण वचार ारा आ है या नह , यह बात फलहाल
अ ासं गक है। सम त वचार- या को, जसम वचारक भी शा मल है,
समा त हो जाना होगा। केवल तभी हम यथाथ का अ वेषण कर पाएंगे।
अब, उस या का अंत लाने के संदभ म सबसे पहली बात यह है क
कैसे यह कया जाना है और कौन इसे करने वाला है। य द वचारक यह
करता है तो वचारक अभी भी वचार क ही उपज है। वचार का अंत लाने
वाला वचारक अभी भी वचार क ही नरंतरता है। तो वचारक को करना
या है उसक ओर से कया जा रहा कोई भी आयास अभी भी वचार
क ही या है। उ मीद है, म अपनी बात प कर पा रहा ं।

ोता : हम बोधकता को बोध से, मरणकता को मृ त से वलग


करने का आ ह करते ही य ह या यही हमारी सम या के मूल म नह
है
कृ णमू त : हम इसे वलग इस लए करते ह, य क इस वलगता से
मरणकता, अनुभवकता, वचारक थायी बन जाता है। मृ तयां तो साफ
तौर पर णभंगरु होती ह, अतः मरण करने वाला, अनुभव करने वाला
यह जो मन है, अपने आप को पृथक कर लेता है, य क यह था य व
चाहता है। वह मन जो कसी यास म लगा है, होड़ म जुटा है, जो चुन रहा
है, अनुशा सत हो रहा है, न त ही यथाथ को नह पा सकता, य क
जैसा क हमने कहा है क इस यास के मा यम से वह वयं का ेपण
करता है, और इस कार वचारक को बनाए रखता है। अब वचारक को
उसके वचार से मु कैसे कया जाए इस पर हम वमश कर रहे ह।
य क जो भी वह सोचता है, वह अतीत का ही प रणाम होता है, और इस
तरह वह मृ त के आधार पर ई र क , स य क रचना कर लेता है, जो क
प ही स य नह है। सरे श द म, मन नरंतर ात से ात क ओर ही
ग तमान होता है। जब मृ त काम करती है तो मन सफ ात के े म ही
ग त कर रहा है, जब मृ त कायरत होती है, तो मन केवल ात के े म
ग त कर सकता है और जब यह ात के े म ही ग त करता है, रहता है,
तो यह अ ात को कभी नह जान सकता। अतः हमारी सम या यह है क
मन को ात से मु कैसे कर। वयं को ात से मु करने हेतु कोई भी
यास हा नकारक है, य क यह भी ात का ही यास है। अतः सम त
यास का अवसान आव यक है। या आपने कभी न यास रह कर दे खा
है य द म समझ जाता ं क सम त यास थ ह, सारा यास मन का
ही, ‘म’ का ही, वचारक का ही एक और ेपण है, य द मुझे इसके स य
का बोध हो जाता है, तो या घ टत होता है य द म साफ-साफ दे ख लेता
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ं क कसी बोतल के लेबल पर ‘ वष’ लखा आ है, तो म उसे वह छोड़
दे ता ं। उसक ओर आक षत न होने के लए मुझे कोई यास नह करना
पड़ता। ठ क इसी कार से और यही बात हम सबसे क ठन लगती है
य द मुझे यह प हो जाए क मेरी ओर से कया जाने वाला कोई भी
यास तकारी है, य द म इसके स य को दे ख लेता ं, तो यास से मु
हो जाता ं। हमारी तरफ से कया जाने वाला कोई भी यास हा न द
होता है, ले कन हम इस बारे म सु न त नह ह य क हम कोई प रणाम
चाहते ह, कोई उपल ध चाहते ह और यही हमारी मु कल है। इसी लए
हम यास पर यास करते चले जाते ह। परंतु ई र, स य, कोई प रणाम,
कोई फल, कोई सा य नह है। न त ही इसे ही हम तक आना होता है,
हम इस तक नह जा सकते; य द हम इस तक जाने का यास करते ह, तो
हम एक प रणाम, एक उपल ध ढूं ढ़ रहे होते ह। कतु स य के आगमन
हेतु मनु य को न य प से सजग होना होता है। न य सजगता एक
ऐसी अव था है, जसम कोई यास नह है; कसी चरम अथ म नह
अ पतु हर से, सजग होना है; आपको अपनी या के त, अपने
वचार के त, अपनी सापे त या के त, बना चयन के, बना
नदा के, बना तादा य अथवा नषेध के सजग होना है, ता क मन येक
वचार तथा येक या को, बना कोई राय बनाए, समझना आरंभ कर
दे । इससे यह उभरता है क या वचार के बना समझना हो सकता
है।
ोता : ज़ र, य द आपका कसी चीज़ के त उपे ा-भाव है तो।
कृ णमू त : सर, उपे ा-भाव, उदासीनता भी राय बना लेने का ही
एक कार है। एक मंद मन, एक उदासीन मन, सजग नह है। बना
नणायक बने दे खना, जो हो रहा है उसे ठ क-ठ क, त यतः जानना ही
सजगता है। अभी, नकटतम वतमान म सजग ए बना ई र को खोजना
वृथा है। मं दर चले जाना तो अपे ाकृत सरल है, कतु वह तो अनुमान के
े म एक पलायन ही है। यथाथ को समझने के लए हम इसे य प
से जानना होगा, और प है क यथाथ, समय तथा आकाश क प र ध
का नह है; यह वतमान म है, एवं यह वतमान हमारा अपना वचार, हमारी
अपनी या ही है।
बंगलोर,
4 जुलाई, 1948
बारह
: या बना मनु य से ेम कए कोई स य से ेम कर सकता है
बना स य से ेम कए या कोई मनु य से ेम कर सकता है पहले-पहल
या है
कृ णमू त : न त ही सर, पहले-पहल ेम है। य क स य को ेम
करने हेतु आपके लए स य को जानना आव यक होगा, और स य को
जानना इसे नकार दे ना है। जो ात है, वह स य नह है, य क ात तो
समय के आवरण म ही होता है, अतएव वह स य नह रह जाता। स य तो
सतत ग तमान है, इस लए समय या श द इसका पैमाना नह बन सकते,
यह आपक मुट्ठ म नह बंध सकता। तो स य को ेम करना स य को
जानना है आप कसी ऐसी चीज़ से ेम नह कर सकते, जसे आप
जानते न ह । ले कन स य को पु तक म, मू तपूजा म, मं दर म नह पाया
जा सकता। इसे तो कम म, जीने म, सोचने म पाया जाता है; इस लए
ज़ा हर है क पहले तो ेम ही है, अ ात क खोज अपने आप म ही ेम है,
और अ य से संबं धत ए बना आप अ ात का अ वेषण नह कर सकते।
खुद को कसी एकांत म अलग-थलग करके आप यथाथ, ई र या जो कुछ
भी है, उसको नह खोज सकते। आप अ ात को केवल संबंध म ही, जब
मनु य मनु य से संबं धत हो, तभी खोज पाते ह। अतः मनु य से ेम ही
अ ात क खोज है।
बना मनु य से ेम कए, बना मनु यता से ेम कए यथाथ क कोई
खोज नह हो सकती, य क जब म आपको जानने लगता ं कम से
कम जब म संबंध म आपको जानने क को शश करता ं तो उस संबंध
म ही म वयं को जानना आरंभ कर दे ता ं। संबंध एक आईना है, जसम
मुझे अपना पता चल रहा है, अपने ‘उ चतर’ व का नह , ब क म वयं
क सम , पूरी क पूरी या को दे ख-समझ पा रहा ं। ‘उ चतर’ व
और ‘ न नतर’ व मन के ही े क चीज़ ह; और बना मन को समझे,
बना वचारक को समझे म वचार के परे कैसे जा सकता ं, और अ वेषण
कैसे कर सकता ं वह संबंध ही यथाथ क खोज है, य क वही वयं से
मेरा एकमा संपक है, अतः संबंध म वयं क समझ ही न त प से
जीवन का आरंभ है। य द म यह नह जानता क आपसे कैसे ेम क ं ,
आपसे, जसके साथ मेरा संबंध है, तो म कैसे यथाथ क खोज कर सकता
ं, और इस लए कैसे यथाथ से ेम कर सकता ं आपके बना म नह ं,
या ं मेरा अ त व आपसे पृथक नह हो सकता, म पृथकता म, अलगाव
म व मान नह रह सकता। इस लए हमारे संबंध म, उस संबंध म जो
आपके और मेरे बीच है, म खुद को समझना शु कर रहा होता ं, और

ो ी ै ो
वयं को समझना ही ा का आरंभ है। अतः यथाथ क खोज संबंध म
ेम का ारंभ है। जससे ेम करना हो, आपको उसे जानना होता है,
समझना होता है, है न
आपसे ेम करने के लए मुझे आपको जानना होगा, मुझे पूछना
और पता लगाना होगा, मुझे आपक सभी मनोदशा , आपके बदलाव
के त हणशील होना होगा, वयं को अपनी ही मह वाकां ा , ल य
और लालसा के दायरे म बांधे रखने से तो बात नह बनेगी। और
आपको जानने म ही म अपने आपको बूझ रहा होता ं। आपके बना, म
हो नह सकता; और अगर म आपके और अपने बीच उस र ते को नह
समझ पाता, तो ेम कैसे हो सकता है और न त ही, ेम के बना कोई
खोज नह होती, होती है या आप यह नह कह सकते क हम स य से
ेम करना चा हए, य क स य से ेम करने के लए आपका स य को
जानना ज़ री है। या आप स य को जानते ह या आप जानते ह क
यथाथ या है जस ण आप कुछ जान लेते ह, वह नबट चुका होता है,
है न वह समय के े म आ चुका होता है, अतएव स य नह रह जाता।
हमारी सम या यह है : एक शु क दय, एक रीता दय स य को
कैसे जान सकता है नह जान सकता। स य ऐसा कुछ नह है, जो सु र
कह हो। यह ब त पास है, ले कन हम जानते नह क इसे ढूं ढ़ कैसे। इसे
ढूं ढ़ने के लए हम संबंध को समझना होगा, न केवल मनु य के साथ संबंध
को, अ पतु कृ त के साथ, वचार के साथ अपने संबंध को भी समझ लेना
होगा। मुझे इस धरती के साथ अपने संबंध को तथा उद्भावना, क पना के
साथ संबंध को, एवं साथ ही आपके साथ अपने संबंध को समझ लेना
होगा; और संबंध को समझने के वा ते यक नन एक खुलेपन क ज़ रत
होती है। य द म आपको समझना चाहता ं, तो मुझे आपके त
अवरोधर हत होना होगा, हणशील होना होगा, मुझे आपसे कोई छपाव-
राव नह रखना होगा, अलगाव का कोई सल सला नह रह सकता है।
समझ म ही स य है, और समझने के लए ेम होना चा हए, इस लए क
ेम बना समझना तो हो ही नह सकता। अतः मनु य अथवा स य नह ,
पहले-पहल तो ेम ही होता है, और ेम का उद्भव संबंध को समझने म
ही होता है, जसका अथ है क हम संबंध के त खुले, अवरोधर हत ह ,
अतएव यथाथ के त अवरोधर हत ह । स य को नमं त नह कया जा
सकता, इसे वयं ही आप तक आना होता है। स य क तलाश करना स य
को नकारना है। स य आप तक तब आता है, जब आप खुले, बना कसी
अवरोध के होते ह, जब आप पूरी तरह, कसी भी रोक- कावट से र हत
होते ह, जब वचारक वचार करने म रत नह रह जाता, अपनी सृ और
नमाण नह कर रहा होता, जब मन बलकुल थर, न ल होता है

ो े
बा य होकर नह , नशे म डू बकर नह , श द ारा, पुनरावृ ारा
स मो हत होकर नह । आना स य को ही होता है।
जब वचारक स य के पीछे भागता है, तो वह सफ अपने फायदे के
पीछे ही भाग रहा होता है। इस लए स य उसक समझ के दायरे से बाहर
रहता है। वचारक का अवलोकन केवल संबंध म ही कया जा सकता है,
और समझने के लए ेम आव यक है। ेम के बना खोज होती ही नह ।

: आप ई र का ज़ कभी नह करते। या आपक श ा


म उसका कोई थान नह है
कृ णमू त : आप ई र के वषय म ब त चचा करते ह, करते ह न
आपक कताब इससे भरी ई ह। आप गरजे बनाते ह, मं दर बनाते ह,
आप याग और ब लदान करते ह, आप पूजा-पाठ करते ह, अनु ान
आयो जत करते ह और आप ई र वषयक धारणा से भरे पड़े ह, ह क
नह आप यह श द तो दोहरा लेते ह, पर आपके कम तो ई रीय नह ह,
या ह य प जसे आप ई र कहते ह, उसक आप उपासना करते ह,
आपके तौर-तरीके, आपके वचार, आपका अ त व ई रीय नह ह, या
ह हालां क आप ई र श द दोहराते रहते ह, तो भी आप सर का शोषण
कया करते ह, या आप ऐसा नह करते आपके अपने-अपने ई र ह
ह , मु लम, ईसाई और बाक सारे। आप मं दर बनवाते ह, आप जतने
यादा अमीर होते जाते ह, उतने यादा मं दर बनवाने लगते ह। (हंसी)
हं सए मत, आप खुद भी यही कर रहे होते, बाक फलहाल आप अमीर
होने क को शश म लगे ह, फक बस इतना ही है।
तो आप ई र से खूब प र चत ह, कम से कम इस श द से तो ह ही;
पर यह श द तो ई र नह है, श द वह व तु नह होता है। हम इस मु े पर
पूरी तरह से प हो ल। यह श द ई र नह है। आप ई र श द का अथवा
कसी अ य श द का योग कर सकते ह, कतु ई र वह श द नह है
जसका योग आप कर रहे ह। चूं क आप इसका योग कर लेते ह,
इसका मतलब यह नह है क आप ई र को जानते ह, आप सफ इस
श द को जानते ह। म इस श द का इ तेमाल नह करता, इसक बड़ी साफ
वजह है क आप इसे जानते ह। जो आप जानते ह, वह यथाथ नह है।
इसके अ त र , यथाथ का पता लगाने के लए मन क सारी शा दक
बड़बड़ का बंद होना ज़ री है, नह आपके यहां ई र क तमाएं ह,
कतु न त ही वह तमा ई र नह है। आप ई र को कैसे जान पाएंगे
ज़ा हर है, कसी मू त के, कसी मं दर के ज़ रये तो नह । ई र को, अ ात
को हण करने के लए मन को भी अ ात हो जाना होता है। य द आप
ई र क तलाश म ह, तो आप ई र को पहले से ही जानते ह, आप उस
ल य से अवगत ह। य द आप ई र को ढूं ढ़ रहे ह, तो आप जानते ही ह गे
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क ई र या है, नह तो आप उसे ढूं ढ़ते ही नह , या ढूं ढ़ते ह आप उसे या
तो अपनी पु तक के मुता बक ढूं ढ़ते ह, या अपनी भावना के अनु प
ढूं ढ़ते ह, और आपक भावनाएं आपक मृ त क त याएं मा ह।
इस लए जसे आप ढूं ढ़ रहे ह, वह पहले से ही गढ़ लया गया है, या तो
मृ त के ारा, या सुनी-सुनाई बात के ारा, और जो पूव न मत है, वह
शा त नह है वह तो मन क ही उपज है।
अगर कताब नह होत , गु नह होते, दोहराने के लए सू नह
होते, तो आपको पता होता केवल ःख और स ता का यही होता न
लगातार ःख और परेशा नयां एवं स ता के कुछ वरल ण। और
तब आप जानना चाहते क आपको ःख होता य है। पर आप ई र म
पलायन नह कर पाते ले कन शायद आप सरे तरीक से पलायन करने
लगते, और शी ही पलायन के प म दे वता का आ व कार कर लेते।
कतु य द आप ःख क सम या को व तुतः समझना चाहते ह, एक
नूतन मानव क तरह, एक नए खले इंसान क तरह, पलायन नह ब क
जांच-परख करते ए, तब आप वयं को ःख से मु कर लगे, तब आप
खोज लगे क यथाथ या है, ई र या है। पर जो मनु य ःख से त है,
वह ई र अथवा यथाथ को नह खोज पाता; यथाथ को तभी खोजा-पाया
जा सकता है, जब ःख का अंत हो जाता है, जब स ता व मान होती
है, तुलना क जा सकने वाली वषमता के प म नह , वपरीत के प म
नह , अ पतु वह तो एक ऐसी अव था है, जसम वपरीत ह ही नह ।
अतः अ ात, वह जसक सृ मन ने नह क है, मन ारा
तपा दत, सू ब नह कया जा सकता। वह जो क अ ात है, उसके
बारे म सोचा नह जा सकता। जस ण आप अ ात के वषय म सोचने
लगते ह, यह ात ही होता है। न त ही, आप अ ात के वषय म वचार
नह कर सकते, कर सकते ह या आप वचार केवल ात के ही बारे म
कर सकते ह। वचार क ग त ात से ात क ओर ही होती है; और जो
ात है, वह यथाथ नह है। तो जब आप सोचते और यान करते ह, जब
आप बैठ जाते ह और ई र के वषय म वचार करने लगते ह, तब आप
उसी के वषय म वचार कर रहे होते ह, जो ात है; वह समय म है, वह
समय के जाल म आब है, अतएव वह यथाथ नह है। यथाथ केवल तभी
अ त व म आ सकता है, जब मन समय के जाल से मु हो जाता है। जब
मन सजन करना बंद कर दे ता है, तब सजन होता है। ता पय यह क मन
का पूण पेण थर होना, न ल होना ज़ री है, ले कन वह उकसाई गई
तथा स मोहनज य थरता नह होनी चा हए, वह तो मा एक प रणाम ही
होगी। यथाथ का अनुभव करने के लए थर बनने क को शश करना
पलायन का ही एक और प है। शां त, थरता तभी होती है, जब सारी
सम याएं समा त हो चुक होती ह। जैसे समीर के थमने पर सरोवर शांत

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हो जाता है, वैसे ही मन वाभा वक प से मौन, शांत हो जाता है, जब
बेचैन करने वाला, वचारक नह रहता। वचारक के अंत हेतु, वे सभी
वचार जनका वह नमाण कर रहा है, सोच लए जाने ज़ री ह। वचार
का तरोध करने से, उसके खलाफ तरोध खड़े करने से कुछ होने
वाला नह है, य क सभी वचार को अनुभूत कर लेना, महसूस कर लेना
आव यक है।
जब मन थर, शांत होता है, तो यथाथ, वह अ नवचनीय कट
होता है। आप इसे नमं त नह कर सकते। इसे नमं त करने के लए तो
आपका इसे जानना ज़ री होगा, और जो जाना आ है, ात है, वह
यथाथ नह है। अतः यह आव यक है क मन सरल हो, व ास से,
क पत धारणा से लदा आ न हो। और जब थरता होती है, जब कोई
इ छा, कोई ललक नह रहती, जब ऐसी थरता स हत, जसे वृ नह
कया गया है, लादा नह गया है, मन खामोश होता है, तब यथाथ का
आगमन होता है एवं वह स य, वह यथाथ ही एकमा पांतरकारी त व
है, केवल यही वह कारक है, जो हमारे अ त व म, हमारे दै नक जीवन म
एक आधारभूत, आमूल ां त ले आता है। और उस यथाथ को पाने के
लए उसे खोजना नह पड़ता, ब क उन कारक को समझ लेना होता है,
जो मन को उ े लत, बेचैन करते रहते ह, जो खुद मन ही को ु ध, अशांत
कर दया करते ह। तब मन सरल, मौन, थर होता है। उस थरता म वह
अ ात, वह अ व ेय आ वभूत होता है। और जब ऐसा होता है, तो
आशीवाद होता है, व त होती है।
मुंबई,
8 फरवरी 1948
तेरह
मेरे वचार म कम क सम या से हमारा गहरा सरोकार आव यक है। जब
इतनी सारी सम याएं हमारे सामने ह गरीबी, अ धक जनसं या, यं का
असाधारण वकास, औ ोगीकरण, आंत रक तथा बा प से गरावट
का एहसास तो हम करना या होगा समाज से अपने संबंध के
सल सले म का क अथवा दा य व या है यह सम या न त
प से सभी वचारशील लोग के सरोकार का वषय होती है और
जतना अ धक बु मान, जतना अ धक स य होता है, उतना ही यादा
वह खुद को कसी न कसी कार के समाज-सुधार म झ क दे ना चाहता
है। तो का वा त वक दा य व या है मुझे लगता है इस का
उ र पूरी तरह से तथा जीवंत साथकता स हत तभी दया जा सकता है,
जब हम स यता के, सं कृ त के सम उ े य को समझ ल।
आ खरकार, वतमान समाज को हमने ही बनाया है, यह हमारे ही
गत संबंध का प रणाम है; और यथाथ को, ई र को, या जो भी नाम
आप उसे दे ना चाह, उसको खोजने-पाने के लए या यह समाज
आधारभूत प से मनु य क मदद करता है या या यह मा एक ढांचा
है जो त या को नधा रत करता है क कसी मसले पर हम कैसे
त या करनी है, अथवा समाज के साथ अपने संबंध म कैसे कमरत
होना है य द वतमान सं कृ त, वतमान स यता ई र को, स य को पाने म
मनु य क मदद नह करती, तो यह एक बाधा ही है; और य द यह एक
बाधा है, तो इसके पुन थान हेतु कया गया येक सुधार, येक या-
कलाप यथाथ के अ वेषण म एक और गरावट ही है, एवं मा यथाथ के
उस अ वेषण से ही स ची कमशीलता का ज म होता है।
मेरे वचार म इस बात को समझ लेना ब त मह वपूण है, न क
सफ इससे सरोकार रखना क कस कार के सामा जक सुधार या
ग त व ध से तादा य था पत कर लया जाए। न त प से, सम या
यह नह है। सम या प ही अ धक गहरी है। बड़ी आसानी से
कसी ग त व ध या समाज-सुधार म जुट सकता है और तब यह पलायन
का एक मा यम बन जाता है, कम के ारा वयं के व मरण अथवा
ब लदान का साधन बन जाता है; पर मुझे नह लगता क इससे हमारी
अग णत सम या का हल नकल आएगा। हमारी सम याएं कह अ धक
गहन ह तथा हमारी आव यकता एक अ धक गहन समाधान क ही है, जो
मेरे वचार म हम तब मलेगा जब हम इस क पड़ताल कर सक क
या हमारी यह वतमान सं कृ त सं कृ त म न हत है धम तथा सम त
सामा जक व नै तक संरचना यथाथ को खोज लेने म मनु य क कोई

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सहायता करती है। य द ऐसा नह है, तो इस तरह क सं कृ त या स यता
का सुधार मा करना समय का अप य है; ले कन य द यह स चे मायने
म मनु य क सहायक है, तो हम सभी को इसके सुधार क ओर तहे दल
से, पूरे तौर पर यान दे ना चा हए। यह मसला, मेरे याल म, इसी बात पर
नभर करता है।
सं कृ त से हमारा ता पय है वचार क सम सम या, है न हमम से
अ धकतर के लए वचार व भ कार क सं कारब ता, श ा,
अनुसरण-वृ एवं उन दबाव तथा भाव का प रणाम है, जनके अधीन
कसी व श स यता के ा प के भीतर रहते यह काम करता है।
वतमान म हमारे वचार को समाज ारा ही ढाला जाता है तथा जब तक
हमारी सोच म एक ां त घ टत नह होती है, तब तक कसी सतही
सं कृ त या समाज का मा सुधार-काय मुझे तो एक मन-बहलाव भर
लगता है, एक ऐसा कारक जो आ खरकार और दशा का ही कारण
बनेगा।
अंततः जसे हम स यता कहते ह, वह वचार को ह सांचे, ईसाई
या सा यवाद सांचे या वैसे ही कसी और सांचे म ढालने क , श त करने
क या ही है; और या इस तरीके से श त क गई सोच कभी भी
आधारभूत ां त सृ जत कर सकती है या वचार को आकार दे ने का
कोई भी जतन, उस पर पड़ने वाला कोई भी दबाव स य के शोध को,
उसक समझ को ज म दे सकता है न त ही, वचार को अपने आपको
सभी दबाव से मु करना होगा, जसका असल म अ भ ाय यह है क
उसे खुद को समाज से, सभी तरह के भाव से मु कर लेना होगा और
इस तरह खोज लेना होगा क स य या है; तब उस स य क अपनी ही
एक या होगी, जो एक पूरी तरह से भ सं कृ त का सू पात करेगी।
ता पय यह क या समाज का अ त व यथाथ के कटन हेतु है, या
या यथाथ को पाने के लए का समाज से मु होना आव यक है
य द समाज यथाथ को खोज पाने म मनु य का सहयोग करता है, तब तो
समाज के भीतर हर तरह का सुधार अ नवाय है; कतु य द यह उस खोज
म एक कावट है तो या को समाज से नकल नह आना चा हए
और स य क खोज म नह लग जाना चा हए केवल ऐसा ही
वा तव म धा मक है, न क वह जो पूजा-पाठ का अनु ान कया
करता है अथवा जीवन को क ह धमशा ीय तमान के अनुसार जीता
है; और जब कोई वशेष वयं को समाज से मु कर लेता है और
स य को खोजता है, तो या वह अपनी इस खोज म ही एक भ सं कृ त
का ा भाव नह कर रहा होता
मेरी सोच म यह एक मह वपूण मसला है य क हमम से यादातर
लोग का सरोकार महज़ सुधार ले आने से है। हम नधनता, बढ़ती
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जनसं या तथा हर तरह के वघटन, वभाजन व ं को दे खते ह, और
यह सब दे खने पर को करना या है या उसे कसी व श समूह
म शा मल होकर या कसी वचारधारा के लए काम करके शु आत करनी
है या यही धा मक मनु य का काय है धा मक मनु य न त तौर पर
वही है जो यथाथ को खोज रहा है, वह नह जो गीता से उ रण
दे ता रहता है, या जो रोज मं दर जाया करता है। ज़ा हर है क यह धम नह
है, यह तो बा यता है, समाज ारा वचार को सं कार त करना है। तो
वह मनु य या करे, जो इस बारे म संजीदा है, जो एक अ वलंब ां त के
घ टत होने क आव यकता को दे खता है, उस ां त क अभी सा से यु
है या वह समाज के ढांचे के भीतर ही सुधार के लए काय करे समाज
एक कारागार है, और या वह बस इस कारागार म सुधार लाता रहे, इसके
स खच को सजाता रहे और इसक द वार के भीतर चीज़ को खूबसूरती
से अंजाम दे ता रहे न त प से वही मनु य, जो सचमुच ही गंभीर है,
जो खरे अथ म धा मक है, वही एक मा ां तकारी है, और कोई नह ;
और ऐसा मनु य वही है जो यथाथ को खोज रहा है, जो यह पता लगाने
क को शश कर रहा है क ई र अथवा स य या है
अब ऐसे मनु य का कम या है वह या करे या वह वतमान
समाज के भीतर ही काम करे, या इससे नकल आए और उसके वा ते
समाज का बलकुल भी संदभ न रहे। नकल आने का मतलब क ह खास
तरह के स मोहनकारी सुझाव के ज़ोर पर खुद को अलग-थलग कर लेना,
सं यासी बन जाना, एकांतवासी हो जाना नह है; फर भी वह सुधारक तो
नह बन सकता है य क कसी वाकई संजीदा इनसान के लए महज़
सुधार म जुट जाना ऊजा का, वचार का, सजना मकता का अप य है।
तो वह व तुतः गंभीर मनु य या करे य द वह जेलखाने क द वार को
सजाने, कुछ सलाख हटा लेने, थोड़ा और उजाला आने दे ने म उ सुक नह
है, य द उसके लए इन सब बात का कोई संदभ ही नह बनता, और य द
वह मनु य तथा मनु य के बीच संबंध म वह संबंध, जसने यह भयावह
समाज न मत कया है, जसम ऐसे लोग भी ह जनके पास अकूत संप
है, और ऐसे भी ह जनके पास कुछ भी नह है, बाहरी और भीतरी दोन
प म उस संबंध म आमूल ां त, आधारभूत प रवतन लाने के मह व
को भी दे खता है, तो उसे करना या होता है मेरे वचार म, वयं के सम
यह रखना मह वपूण है।
अंततः, या सं कृ त स य के मा यम से अ त व म आती है, अथवा
या सं कृ त मानव- न मत है य द यह मानव न मत है, तो प ही यह
आपको स य क ओर नह ले जाएगी। और हमारी सं कृ त मानव न मत
ही है, य क यह न केवल सांसा रक व तु के, अ पतु तथाक थत
आ या मक ज स के व वध ा तलोभ पर आधा रत है। यह सं कृ त


हर तरह क पद क अ भलाषा, आ म- ाघा तथा इसी तरह क बात का
प रणाम है। यह बात बलकुल साफ है क इस कार क सं कृ त मनु य
को उसक अनुभू त क ओर नह ले जा सकती, जो परम है; और य द म
इस बात को दे ख लेता ं, तो मुझे करना या होगा आप या करगे, सर,
य द आपको वा तव म इसका एहसास हो जाए क समाज बाधा है
समाज एक या दो या-कलाप मा नह है, यह मानव-संबंध क सम त
संरचना है जसम सारी सृजनशीलता समा त हो चुक है, जसम नरंतर
अनुकरण हो रहा है; यह भय का एक ढांचा है जहां श ा केवल अनुसरण
है और जसम ेम बलकुल भी नह है, बस ेम के प म व णत एक
ा प है, य क यही तो है जसके लए हम सब होड़ म लगे ह क हम
मा यता मले। हमारी मता को, हमारे ान को समाज क ओर से
मा यता मले, ता क हम कोई ह ती बन जाएं। तो जब वह यह सब महसूस
करता है और गरीबी को, भुखमरी को, तमाम तरह के व ास म मन के
वखंडन को दे खता है, तो एक व तुतः गंभीर को करना या होता
है
अब य द हम जो कुछ कहा जा रहा है, उसे हम वा तव म सुन, इस
अथ म सुन क हम यह पता लगाने क चाह हो क स य या है, ता क मेरी
राय के व आपक राय, मेरे वभाव के व आपके वभाव का ं
न रहे, य द हम उस सबको एक तरफ हटा सक और यह पता लगाने क
को शश कर क स य या है, जसके लए ेम क आव यकता है, तब म
सोचता ं क हम उस ेम म ही, अ छाई के उस एहसास म ही स य को
पा लगे, जो एक नई सं कृ त का सजन करता है। तब समाज से
मु होता है, वह समाज के सुधार के वषय म च तत नह होता है। परंतु
यह पता लगाने के लए क स य या है, ेम क दरकार होती है, और
हमारे दय खाली ह य क वे समाज क व तु से भरे ए ह। इनसे भरे
रहकर हम सुधार का यास करते ह, और हमारा यह सुधार-काय ेम क
सुगंध से र हत होता है।
अतः वह मनु य जो गंभीर है; या करे या वह स य, ई र या जो
भी नाम आप उसे दे ते ह , उसक खोज करे, या वह अपना दल और
दमाग समाज क उ त म लगाए, जो वा तव म उसका अपना ही सुधार
है। आप समझ रहे ह न वह स य या है, इसका अ वेषण करे, या वह
समाज के हालात म सुधार लाए, जो क उसका वयं म सुधार लाना ही है
या वह समाज के नाम पर वयं को उ त करे, या वह स य क खोज करे,
जसम उ त वाली बात ही नह है उ त म समय न हत है, कुछ बनने
के लए समय, जब क स य का समय से कोई वा ता नह है, इसका बोध
तो त काल करना होता है।

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अतः यह सम या असाधारण प से अथपूण है, है न हम समाज
के सुधार के बारे म चचा कर सकते ह, ले कन वह अभी भी अपना खुद का
सुधार ही है। और उस मनु य के लए, जो यह खोज रहा है क यथाथ या
है, स य या है, व का कोई सुधार है ही नह ; ब क बात इसके ठ क
उलट है, व का तो, जो क समाज है, पूण अवसान ही होना है; इस लए
उसका सरोकार समाज के सुधार से नह है।
समाज क पूरी संरचना मा यता तथा त ा क या पर
आधा रत है, और न त ही, कोई गंभीर समाज के सुधार क चाह
नह कर सकता है, जो क उसका खुद का ही सुधार है। समाज को
सुधारने म, कसी भले से अपना तादा य था पत करने म वह यह सोच
सकता है क वह अपना उ सग कर रहा है, पर है यह अभी भी आ मो त
ही। जब क जो मनु य उसे खोज रहा है जो परम है, सव च है, उसके लए
आ मो त का ही नह है; उस दशा म ‘म’ क कोई उ त, कोई
सुधार नह है, कुछ बनना नह है, कोई अ यास नह है, “म हो जाऊं” का
कोई वचार नह है। इसका वा तव म अथ है, वचार पर सम त दबाव क
समा त; और जब वचार पर कोई दबाव नह होता, तो या वचार करने
क या होती है वचार पर पड़ने वाला दबाव ही सोचने क या है,
कसी खास समाज के हसाब से सोचना, या उस समाज के खलाफ
त या के हसाब से सोचना; और जब कोई दबाव नह है, तो या
सोचने क यह या है केवल वही मन जसम वचार क यह ग त व ध
नह होती, जो क समाज का दबाव ही है केवल ऐसा ही मन यथाथ का
अ वेषण कर पाता है, और उस परम को खोजने म ऐसा मन नई सं कृ त
का सजन करता है। यही है, जो क आव यक है : एक सवथा भ कार
क सं कृ त को ज म दे ना, न क वतमान समाज को सुधारते रहना। और
इस कार क सं कृ त का उदय तब तक नह हो सकता, जब तक क इस
सबको वा तव म गंभीरता से लेने वाला संपूण ऊजा के साथ, ेम
के साथ, पूरी तरह से उसक खोज म न लगे जो क यथाथ है। उस यथाथ
को कसी पु तक म, कसी अगुआ के मा यम से नह पाया जा सकता;
वह तब अ त व म आता है जब वचार न ल होता है तथा वह न लता
कसी अनुशासन ारा नह लाई जा सकती। जब ेम होता है तो न लता
का आगमन होता है।
इन म से कुछ पर गौर करते व , म समझता ं यह मह वपूण
है क जो कहा जा रहा है उसका हम य प से अनुभव कर, और
आप ऐसा नह कर सकते अगर आपका सरोकार सफ उस के उ र
से ही है। य द हम सम या का मलकर अ वेषण करना है, तो हम उसके
बारे म मता ह नह रख सकते, मेरे मत- स ांत बनाम आपके मत-
स ांत, य क मतवाद और अनुमान सम या को समझने म बाधक बनते

े औ ी े
ह। ले कन आप और म बना कसी आ ह के, शां तपूवक सम या म
गहनता से वेश कर, तो संभवतः इसे समझ पाएं। वा तव म कोई सम या
है ही नह , यह मन ही है जो सम या बना लया करता है। कसी सम या
को समझने म हम अपने आपको, अपने ही मन के काय- ापार को समझ
रहे होते ह। अंततः कसी सम या क व मानता तभी होती है, जब कोई
मु ा या खलबली, बेचैनी मन क जमीन म जड़ जमा ले। और या मन
कसी बेचैनी के त, उस बेचैनी को मन म जड़ जमा दए बना, जाग क
होने म, कसी मु े , कसी सम या को दे खने म स म नह है मन कसी
संवेदनशील फ म क भां त होता है, यह अनुभूत करता है, व वध कार
क त या को महसूस करता है; कतु या ेम स हत अनुभूत
करना, महसूस करना, त या करना संभव नह है, ता क मन ही वह
मृदा, वह म न बने, जसम त या जड़ पकड़ ले और एक सम या
बन जाए।
: आपने कहा है क पूण अवधान शुभ है; तब अशुभ या है
कृ णमू त : मुझे संदेह है क या अशुभ जैसा कुछ होता भी है
मेहरबानी करके थोड़ा यान द, साथ आएं, साथ-साथ छानबीन कर। हम
कहते ह क शुभ है और अशुभ है। ई या है, और ेम है, एवं हम कहते ह
क ई या बुरी है, अशुभ है तथा ेम भला है, शुभ है। हम इसे ‘भला’ और
उसे ‘बुरा’ कहकर जीवन को वभा जत य करते ह, और ऐसा करके
वपरीत का ं य न मत कर लेते ह ऐसा नह क मनु य के मन तथा
दय म ई या, घृणा, ू रता नह है, क णा व ेम का अभाव नह है, पर
हम ‘शुभ’ कहे जाने वाले वषय और ‘अशुभ’ कहे जाने वाले वषय म
जीवन को य बांटा करते ह या वा तव म वषय-व तु एक ही नह है,
जो क वह मन है जो अनवधान म है, यान नह दे रहा है न त ही, जब
पूण अवधान होता है, जसका अथ है क मन पूरी तरह से सजग, सतक,
सावधान होता है, दे ख रहा होता है, तो शुभ या अशुभ जैसा कुछ नह
होता, केवल एक जा त दशा होती है। शुभता, अ छाई तब कोई ल ण,
कोई सद्गुण नह है, यह तो ेम क दशा है। जब ेम है, तो न अ छा है, न
बुरा है, केवल ेम है। जब आपको कसी से ेम होता है, तो आप अ छाई
या बुराई, शुभ या अशुभ के बारे म नह सोच रहे होते, आपका सम
अ त व उस ेम से आपू रत होता है, भरा होता है। केवल तभी जब संपूण
अवधान का, ेम का अभाव होता है, तब ‘जो म ं’ और ‘जो मुझे होना
चा हए’ के बीच ं आ जाता है। तब जो म ं, वह ‘अशुभ’ होता है, बुरा
होता है, और जो मुझे होना चा हए, वह तथाक थत ‘शुभ’ होता है, अ छा
होता है।
अब या यह संभव है क हम वखंडन के संदभ म न सोच, जीवन
को शुभ और अशुभ म न तोड़, इस ं म न फंस। अ छे और बुरे का ं
े े े ै
कुछ बनने के लए कया जाने वाला संघष है। जस ण मन कुछ बन
जाने क कामना करता है, यास होगा ही, वपरीत म ं होगा ही। यह
कोई प रक पना नह है। आप अपने खुद के मन को दे ख तो आप पाएंगे
क जस पल मन कुछ बन जाने क भाषा म सोचना बंद करता है, या
का अवसान हो जाता है, वह क जाती है, जो ता, ग तहीनता क
थ त नह है, यह संपूण अवधान क थ त है, जो क शुभता है, अ छाई
है; परंतु वह संपूण अवधान तब तक संभव नह होता, जब तक मन कुछ
बनने के यास म जकड़ा रहता है।
कृपया सुन ज़ र, न सफ उसे जो म कह रहा ं, ब क अपने खुद
के मन क ग त व धय को सुन, जससे आप पर यह कट हो जाएगा क
कस असाधारण आ ह के साथ मन कुछ बन जाने के घोर य न म लगा
है, जो यह है उससे भ कुछ हो जाने के अंतहीन संघष म जुटा है, जसे
हम असंतोष कहा करते ह। कुछ बन जाने का जो यह य न है, यही
‘अशुभ’ है, य क यह आं शक अवधान है, अधूरा यान है, पूण अवधान
नह है। जब पूण अवधान होता है, तो बन जाने का कोई वचार नह होता,
मा अ त व क , होने क एक अव था होती है। पर जैसे ही आप पूछते
ह, “म होने मा क उस अव था तक कैसे प ंच जाऊं, म पूरी तरह सजग
कैसे हो जाऊं ” तो आप ‘अशुभ’ के पथ पर क़दम रख ही चुके होते ह,
य क आप उपल ध चाहते ह। जब क इसे पहचान भर ले क
जब तक उसे कुछ बनना है, कुछ हो जाने का यास करते रहना है, बन
जाने क होड़ है, वह ‘अशुभ’ के पथ पर ही है, य द इस बात के
स य का बोध कर पाए, इस त य को ठ क जस-का-तस दे ख पाए, तब वह
पाएगा क वही पूण अवधान क थ त है, और वही थ त शुभ व है,
अ छाई है, उसम कोई संघष नह है।
: महान सं कृ तयां सदै व कसी तमान पर आधा रत रही ह,
पर आप एक नई सं कृ त क बात करते ह जो तमान से मु है। पर
या बना तमान के, बना कसी ढांचे के सं कृ त का होना संभव है
कृ णमू त : या मन को यथाथ के अ वेषण के लए सभी ा प
से मु नह होना चा हए और वह जो यथाथ है, उसके अ वेषण हेतु मु
होने पर या यह अपना तमान नह न मत कर लेगा, जसे हो सकता है
वतमान समाज मा यता न दे या वह मन जो कसी ढांचे म जकड़ा आ
है, जो उस ढांचे के अनु प ही सोच पाता है जो समाज ारा सं का रत-
अनुकू लत है, या ऐसा मन उस अप रमेय का अ वेषण कर सकता है
जसका कोई ा प, कोई बंधा-बंधाया ढांचा नह है यह भाषा जो बोली
जा रही है, अं ेजी, यह भी स दय म वक सत एक ा प ही है। य द
ा प से वतं सजना मकता है, तो वह सजना मकता, वह वतं भाषा
क तकनीक का योग कर सकती है, पर उस तकनीक के मा यम से,
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भाषा के ढांचे-ढर के ज़ रये, यथाथ को कभी नह पाया जा सकता।
अ यास के ारा, कसी वशेष कार के यान के ारा, ान के ारा,
कसी भी तरह के अनुभव के ारा, जो सभी एक ा प के भीतर ही आते
ह, मन यह कभी नह समझ सकता क स य या है। स य या है, इसे
समझने के लए, मन को तमान - ा प से वयं को मु कर लेना
होगा। ऐसा मन एक न ल मन होता है, और तब वह जो सजनशील है,
अपनी वतः क ग त व ध का सजन कर सकता है। ले कन बात ऐसी है
क हमम से अ धकतर, तमान से कभी मु नह हो पाते। न तो इस
जगत म, न ही उस मनोगत, आ या मक जगत म, कभी ऐसा ण नह
आता, जब मन भय से, अनु पता से, कुछ बनते रहने क इस आदत से
पूणतया मु हो। जब कसी भी दशा म कुछ बनने क या पूरी तरह
से समा त हो जाती है, तब वह जो ई र है, स य है, आ वभूत होता है और
एक नूतन ा प, अपनी ही एक सं कृ त का सजन करता है।
: मन क सम या और नधनता व असमानता क सामा जक
सम या को एक साथ समझने क , हल करने क ज रत है। आप सफ
एक ही पर य ज़ोर दे ते ह
कृ णमू त : या म एक ही पर ज़ोर दे रहा ं या मन क सम या
से अलग, नधनता और असमानता क , पतन और दशा क सामा जक
सम या जैसा कुछ है या सम या केवल एक ही नह है, जो क मन है
यह मन ही है, जसने सामा जक सम या न मत क है; और सम या को
न मत करके, यह वयं को आधारभूत प से बदले बना उसे हल करने
क को शश करता है। इस लए हमारी सम या मन ही है, वह मन जो े
महसूस करना चाहता है और इस कार सामा जक असमानता रच लेता है,
जो उपल ध के, लोभ-वृ के व वध प के पीछे भागता है, य क यह
संप म, संबंध म या वचार म, जो क जानकारी है, सुर त अनुभव
करता है। सुर त होने क यह सतत मांग ही असमानता न मत करती है,
जो क एक ऐसी सम या है जसे तब तक कदा प हल नह कया जा
सकता, जब तक क हम उस मन को न समझ ल जो भेद पैदा करता है,
उस मन को, जसम ेम नह है। कानून बनाकर इस सम या का हल नह
नकलने वाला है, न ही इसे सा यवा दय या समाजवा दय ारा हल कया
जा सकता है। असमानता क सम या का समाधान केवल तभी संभव है,
जब ेम हो, और ेम सफ एक श द नह है जसे हम उछालते फर। जो
मनु य ेम करता है उसे इस बात क चता नह होती क कौन ऊंचा है
और कौन नीचा है, उसके लए न समानता है, न असमानता है; बस होने
क एक अव था मा है, जो ेम है। पर हम उस अव था को जानते नह
ह, हमने उसे कभी महसूस नह कया है। अतः पूरी तरह अपनी ही
ग त व धय और तता से वा ता रखने वाला मन, जो पहले ही संसार

ी ै ी ीऔ औ
म इतनी दशा ला चुका है तथा अभी भी और अ धक अ न और वनाश
लाए जा रहा है इस तरह का मन कैसे अपने ही भीतर एक संपूण ां त
को ज म दे न त प से, सम या यही है। और हम यह ां त कसी
कार के सामा जक सुधार के ारा नह ला सकते; कतु जब मन वयमेव
ही इस बंधन- वमु क आव यकता को दे ख लेता है, तभी ां त घ टत
होती है।
सर, हम लोग हमेशा नधनता, असमानता और सुधार क बात कया
करते ह य क हमारे दय रीते ह। जब ेम हो, तो हमारी सम याएं ह गी
ही नह , ले कन ेम कसी अ यास ारा नह लाया जा सकता; इसका
ाकट् य तभी होता है जब आप नह होते ह, मतलब यह क जब आप
अपने बारे म, अपने पद, अपनी त ा के बारे म, अपनी मह वाकां ा
और कुंठा के बारे म च तत नह रह जाते ह। जब आप अपने वषय म
सोचना पूण पेण बंद कर दे ते ह, कल नह , अभी। अपने वषय म यह
तता एक ही जैसी है, चाहे यह तता उस श स क हो जो उसक
तलाश म लगा है जसे वह ई र कहता है, या फर उसक जो कसी
सामा जक ां त के लए काय कर रहा है; और जो मन इस भां त त
है, वह कभी नह जान पाएगा क ेम या है।
: हम ई र के बारे म बताइए
कृ णमू त : म आपको ई र के बारे म बताऊं, इसक बजाय आइए,
यह मालूम करते ह क या आप उस असाधारण अव था क अनुभू त कर
सकते ह अथवा नह , कल या कसी सु र भ व य म नह , ब क ठ क
इसी व , जब हम यहां शां तपूवक साथ-साथ बैठे ए ह। न त ही यह
कह अ धक मह वपूण है। ले कन यह पता लगाने के लए क ई र या
है, सम त व ास वदा हो जाने चा हए। जो मन यह अ वेषण करना चाहे
क स य या है, स य म व ास नह कर सकता, ई र के वषय म
धारणाएं और प रक पनाएं नह बनाए रख सकता। कृपया सुन ल।
आपक अपनी प रक पनाएं ह, अपने व ास ह, अपने मता ह ह, आप
अटकलबा जय से भरे ए ह, स य अथवा ई र या है, इसके बारे म इस
या उस पु तक को पढ़कर आपके मन आ यजनक प से बेचैन ह। जो
मन जानकारी से भरा होता है, बेचैन होता है, शांत नह होता है, वह सफ
बो झल होता है, और मा मंदता थर मन क सूचक नह होती। जब मन
व ास से भरा होता है चाहे वह व ास इसम हो क ई र है, या इसम
हो क ई र नह है तो यह बोझ लए होता है और बोझ से दबा मन कभी
यह पता नह लगा सकता क स य या है। यह अ वेषण करने हेतु क
स य या है, मन को मु होना होगा, इसे कमकांड से, व ास से, मत-
स ांत से, ान और अनुभव से मु हो जाना होगा। केवल तभी मन
उसक ती त कर पाता है जो स य है, य क ऐसा मन मौन होता है,
ओ े ी औ ी ओ े
इसम अब बाहर क ओर जाने वाली ग त व ध और भीतर क ओर आने
वाली ग त व ध नह हो रही होती, जो क इ छा क ग त व ध है। इसने
इ छा का, जो ऊजा है, दमन नह कया है। इसके उलट, मन के न ल,
थर हो पाने के लए चुर ऊजा क आव यकता होती है; ले कन ऊजा
क प रप वता अथवा प रपूणता संभव नह हो पाती, य द बाहर क ओर
उ मुख कोई भी ग त व ध और उसके फल व प भीतर क ओर
त या व मान हो। जब वह सब कुछ शांत हो गया हो, मन थर हो
जाता है।
म आपको थर, शांत बनाने के लए स मो हत नह कर रहा ं।
स दय के सम त संचय को, अंध-आ था को, ान को, व ास को
बना कसी तरोध के, बना कसी यास के याग दे ने का, परे हटा दे ने
का मह व आपको वयं दे खना होगा, आपको यह स य दे ख लेना होगा क
ढोते चले जाने का कोई भी प मन को बेचैन बनाता है, ऊजा क बरबाद
करता है। मन के चुप होने के लए ऊजा का ाचुय चा हए और वह ऊजा
न ल, थर होनी चा हए। और य द आप वा तव म उस अव था तक आ
गए ह, जसम यास है ही नह , तब आप पाएंगे क वह ऊजा चूं क थर
है, उसक अपनी ग तशीलता है, जो समाज के दबाव अथवा बा यता का
प रणाम नह है। चूं क अब मन म अगाध ऊजा है, जो थर और मौन है,
मन वयं वह हो जाता है जो क परम है : उस परम का कोई अनुभवकता
नह होता, ऐसी कोई ह ती नह होती जो कहे, “मने यथाथ का अनुभव
कया है”। जब तक कोई अनुभवकता है, यथाथ हो नह सकता, य क
अनुभवकता तो अनुभव एक त करने क या अनुभव का नरसन करने
क , उसे मटा दे ने क ग त व ध ही है; इस लए अनुभवकता का संपूण
समापन आव यक है।
इसे बस सुन, कोई यास न कर, केवल दे ख क अनुभवकता, जो
क मन क बाहर जाने वाली तथा भीतर आने वाली ग त व ध है, उसका
अंत ज़ री है। इस कार क सम त ग त व ध का अवसान ज़ री है,
और इसके लए अपार ऊजा क आव यकता है, जसका अ भ ाय है क
ऊजा का न तो रण हो रहा है, न उसे अनुशासन ारा वकृत कया जा
रहा है, तब वही ऊजा ेम है। तब वह जो यथाथ है, वयं उस ऊजा से
भ नह है।
मुंबई,
27 फरवरी 1955
चौदह
का सव च मह व है, भले ही समाज, धम और सरकार इस त य
को मा यता नह दे ते। आप अ यंत मह वपूण ह य क आप यथाथ क
फोटक सजना मकता को लाने वाले एकमा साधन ह। आप वयं ही
वह वातावरण ह जसम यथाथ अ त व म आ सकता है। ले कन आप
दे ख चुके ह क सभी सरकार, सभी संग ठत धम और समाज के
मह व पर ज़ोर दे ते ए भी के मम, क भावना को मटाने
क को शश करते ह, य क वे सामू हक भावदशा, सामू हक त या
चाहते ह। परंतु ऐसा मन वैय क मन नह है जो कसी खास ढर के
व ास के अनुसार संग ठत हो, जो था , परंपरा व ान के भार से
दबा आ हो। वैय क मन तभी हो सकता है जब आप सोच-समझकर,
जानते ए, भावपूवक इन सब भाव को अलग हटा दे ते ह, य क आप
उनका अ भ ाय, उनका सतही मू य समझ चुके ह। एक वैय क
सजनशील मन केवल उसी थ त म संभव है।
मनु य को समूह से अलग करना असाधारण प से क ठन है,
ले कन इस पृथ करण के बगैर यथाथ संभव नह है, अतः स चा
वह नह है जसके पास बस एक नाम है, कुछ खास भावना मक यु र
ह, कुछ वशेष थागत त याएं ह, कुछ संप आ द है, ब क स चा
वह है जो धारणा के इस व म, परंपरा के इस दलदल के पार
लग जाने का य न कर रहा है, जो इस सबको परे हटाकर मनु य क दशा
के मम, क , कारण को खोज पाने क को शश कर रहा है। ऐसा मनु य
पु तक , भुस ा, जानी-पहचानी था म शरण नह लेता, ब क इन
सबको र हटा कर जांचना आरंभ करता है वही स चे अथ म
होता है। परंतु हमम से अ धकांश दोहराते, वीकारते, मानते, आ ा-पालन
करते रहते ह या हम यह सब नह करते य क हमारे लए आ ा
मानना नयम बन गया है घर म आ ा मानना, पु तक क आ ा मानना,
गु क , श क क आ ा मानना इ या द तथा इस आ ाका रता म हम
सुर ा का, सलामती का अनुभव करते ह। कतु वा तव म जीवन म सुर ा
नह है, जीवन कभी भी सुर त नह है, उलटे यह तो सबसे अ धक
अ न त बात है। और चूं क यह अ न त है, इसी लए यह गहन प से
समृ , अप रमेय है। ले कन मन अपनी तलाश म सुर ा और सलामती
खोजता रहता है और यह आ ा मानता है, अनुपालन एवम् अनुकरण
करता है; और ऐसा मन वैय क मन कदा प नह है।
हमम से अ धकतर लोग नह ह, य प हमम से हरएक का
एक अलग नाम, एक अलग प है, य क आंत रक प से मन क


अव था समयब है, था, परंपरा तथा भु व सरकार का भु व,
समाज का भु व, घर का भु व इस सबके भार से दबी ई है। ऐसा
मन वैय क मन नह है; वैय क मन इस सबसे बाहर होता है, वह
समाज के ढर के भीतर नह होता है। वैय क मन ां त क , व ोह क
अव था म होता है, इस लए उसे सुर ा क तलाश नह होती है। ां तकारी
कहा जाने वाला मन व तुतः ां त क थ त म नह है, बाहरी ां त का
समथक मन हालात को बस एक खास ढर के अनुसार बदलना चाहता है,
तथा ऐसा मन अपने आप म असंतु , वा त वक ां तकारी मन नह है।
मुझे नह मालूम य द आपने कभी यान दया है या नह क असंतोष
कतनी असाधारण बात है। आप ब त से युवा लोग को जानते ह गे जो
असंतु ह; वे नह जानते क या करना है, वे तकलीफ म ह, नाखुश ह,
बगावत क हालत म ह, कभी कुछ तलाशते ह, कभी कुछ को शश करते
ह, लगातार पूछते रहते ह। परंतु जैसे ही वे उमर म बड़े होते ह,
नौकरी-धंधे से लग जाते ह, शाद कर लेते ह, और उस असंतोष का अंत
हो जाता है। उनका आधारभूत असंतोष कनार म बंध जाता है, और तब
दशा आरंभ होती है। जब वे छोटे होते ह, तो उनके माता- पता, श क,
समाज, सब उनसे कहते ह क असंतु नह होना है, पता लगाओ क या
करना चाहते हो और वही करो ले कन हो वह हमेशा इस ढांचे के भीतर
ही। ऐसा मन दरअसल बगावत म नह है, तथा स य को पाने के लए
आपको ऐसे मन क आव यकता है जो वा तव म ां त क , व ोह क
अव था म हो। व ोह का अथ है उ कटता, आवेग।
इस लए होना अ यंत मह वपूण है, तथा वैय कता मा व-
ान से आती है अपने आपको जानने से, यह जानने से क य आप
अनुकरण करते ह, य आप कसी के अनुसार चलते ह, य आप आ ा
मानते ह। आप भय के कारण आ ा मानते ह, या ऐसा नह है आप
सुर त होने क इ छा के चलते, अ धक पैसा, अ धक श या अ धक
कुछ और ा त करने के लए अनुसरण करते ह। परंतु जसे आप ई र
कहते ह, उसका सच जानने के लए और पता करने के लए क यथाथ है
अथवा नह , एक ऐसे का होना आव यक है जो अतीत के त मर
चुका हो, जो जानकारी के त, अनुभव के त मर चुका हो; ऐसा मन
आव यक है जो पूणतया, सम प से नूतन, अनथका और नद ष हो।
धम यथाथ का अ वेषण है, जसका अथ है आपको वयं ही खोजना है
और कसी का अनुसरण नह करना है, जो कह रहा है क उसने पा लया
है तथा आपको उस बारे म बताना चाहता है। एक ऐसा मन आव यक है,
जो यथाथ को हण करे, ऐसा मन नह जो मा शा दक प से यथाथ
को वीकार कर ले, तथा फर सुर त होने क आशा म यथाथ क उस
अवधारणा का अनुसरण करता रहे।

ेऔ े े ी ै े े
अतः जानने और महसूस करने के बीच एक अंतर है, तथा मेरे याल
म इसे समझ लेना अ यंत मह वपूण है। हमारे लए ा या ही पया त
होती है, जो क ‘जानना’ है। हम कहते ह : “म जानता ं क म
मह वाकां ी ं, म जानता ं क म लालची ं, म जानता ं क म घृणा
करता ं”, परंतु ऐसा जानना त य से मु होना नह होता। आप जान
सकते ह क आप घृणा करते ह, कतु उससे मु होना एवं उसक ा या
और उसके कारण के पीछे पड़े रहना बलकुल अलग चीज़ ह। ता पय यह
क इस बात को जानना क म फू तहीन ं, मूख ं, तथा अपनी
फू तहीनता, मूखता के भाव के त सचेत प से जाग क होना, दो
एकदम अलग बात ह। भाव म, महसूस करने म, भरपूर जीवंतता, भरपूर
श और ओज वता न हत है, परंतु केवल जानना तो जीवन के त
आं शक प ंच है, यह सम प ंच, स पूण नह है। आप वन प त-
व ान क से यह जान सकते ह क एक प ी कैसे बनती है, परंतु
एक प ी का पश करने, उसे सूंघने, उसे वा तव म दे खने के लए,
अ य धक मम ता क आव यकता होती है वयं के मम म पैठने क
आव यकता होती है। मुझे नह पता क कभी आपने एक प ी अपने हाथ
म ली है और उसे दे खा है। आप सब शहरवाले ह, और आप अपने आप म,
अपनी ग त म, अपनी सफलता , मह वाकां ा , ई या म, अपने
नेता , मं य और ऐसी ही अ य नरथकता म त रहा करते ह।
यह हंसने क बात नह है, ासद थ त है, य क य द आपको मालूम हो
क गहराई से महसूस करना या होता है, तो आपके भीतर चुर
सहानुभू त होगी; तब आप कुछ करगे, तब आप अपने पूरे अ त व के
साथ कमरत ह गे, कतु य द आप जानते भर ह क गरीबी है, और सफ
बौ क प से, बना कसी भावना के, एक सरकारी अ धकारी या ाम-
सुधारक के प म गरीबी हटाने के लए काम करते ह, बना कसी
एहसास के, तो जो भी आप कर रहे होते ह, उसका एकदम नग य मह व
होता है।
दे खए, स य को समझना हो तो उ कटता, आवेग आव यक है। म
आवेग’ श द का योग उसके संपूण अथ म कर रहा ं य क बल
भावना का होना, गहनता से तथा अपने पूरे अ त व के साथ महसूस कर
पाना अ नवाय है; अ यथा यथाथ नामक उस अनूठे त व का कभी आपके
जीवन म आगमन नह होगा। कतु आपके धम, आपके संत कहते ह क
आपम इ छा नह होनी चा हए, आपको इसका न ह, दमन करना चा हए,
इसे जीतना और न कर दे ना चा हए, जसका अथ है क आप स य के
पास बुझे-बुझे, थके-मांदे, खाली-खाली, मरे-मराए प ंचते ह। जीवन
नामक इस वल णता से मल पाने के लए आपम आवेग होना चा हए,
ले कन य द आप समाज ारा, रवाज़ ारा स मो हत ह, य द आप
व ास , ढ़य , कमकांड म उलझे ए ह, तो आपके पास आवेग नह
ो े ो े
हो सकता। अतः उस काश, उस स य, उस अप रमेय यथाथ को समझने
के लए पहले हम उसे समझना होगा, जसे हम धम कहते ह, और उससे
वतं होना होगा मा शा दक तौर पर नह , बौ क प से या
ा या ारा नह , ब क व तुतः वतं होना होगा, य क वतं ता
आपक बौ क वतं ता नह , अ पतु वतं ता क वा त वक अव था
जीवंतता दान करती है। जब आप इस सारे कूड़े-करकट से आगे
नकल जाते ह, जब आप इन सब मत करने वाली पारंप रक,
अनुकरणा मक बात को परे कर दे ते ह, तब मन वतं होता है, तब मन
सतक होता है, तब मन आवेगमय, उ कट होता है और केवल ऐसा मन ही
इसम और आगे जा सकता है।
अतः हम -मानव के प म य क आप और म ही इन
बात से संबं धत महसूस करते ह, जनसमूह नह ; जनसमूह, जनता तो
महज़ राजनी तक लेबल है तो हम इस बात का पता लगाएं क धम से
हमारा या अ भ ाय है। हमम से अ धकतर के लए यह या है या यह
कसी व तु म व ास नह है कसी अ तमानवीय द ता म, जो हम
नयं त करती है, ढालती है, आशा दे ती है, नद शत करती है और हम
उस स ा को अपनी पूजा- तु तयां अ पत करते ह, उस स ा के नाम पर
हम याग करते ह, उसे स करते ह, उससे मांगते ह, ाथना करते ह,
तथा मुसीबत म सहायता करने वाले अपने ‘ पता’ के प म उसे दे खते
ह। हमारे लए धम केवल मं दर म तराशी ई तमा, म जद म खुदे ए
अ र अथवा गरजे म लगा ॉस है, न सफ हाथ से तराशी ई तमा,
ब क मन ारा, वचार ारा न मत तमा भी है। अतएव प तः हमारे
लए धम अपने रोज़ के ख , रोज़ के व म से पलायन का मा यम है।
हम असमानता , अ याय , मृ यु, अनवरत ख , संघष , नाउ मीद और
हताशा को समझ नह पाते ह, इस लए हम कसी ई र, क ह अनु ान ,
सामू हक ाथना क ओर मुड़ते ह तथा उनके ारा कुछ सां वना, कुछ
राहत पाने क आशा रखते ह। और इस या म संत-महा मा, दाश नक
लोग, पु तक ये सब हम अपनी व श ा या, री त व परंपरा के भार
से दबाए रहते ह। यही हमारे जीने का तरीका है, है क नह य द आप
अपने भीतर झांक, तो या आप सहमत नह ह गे क धम क यही
सामा य परेखा है यह मन को राहत प ंचाने के लए मन ही के ारा
गढ़ बात है, न क कुछ ऐसा, जो जीवन को समृ ता व पूणता दान करे,
जीने क उ कटता दे । तो हम यह जानते ह, मगर यहां फर जानना और
महसूस करना दो अलग-अलग बात ह। संग ठत धम के झूठपने को जानना
एक बात है, ले कन इसे दे खने, इस सबको बलकुल परे कर दे ने के लए
वा त वक भावना क अथाह गहराई क आव यकता होती है। अतः
सम या जसका कोई आसान हल नह है यह है क कोई चीज़ कैसे
छू टे , उसके त मृत कैसे ह ; इन सारी ा या , इन सब म या ई र
ो ै े े ीई औ े
को कैसे तलांज ल द य क ये सभी ई र मन और हाथ ारा गढ़े गए
ह और म या ह। कोई ा या आपको इस सबसे उपराम नह कर
सकती।
तो वह या है जो आपका इससे तनका तुड़वा दे , जो आपसे यह
कहलवा दे : ‘अब म इसे छोड़ता ं ’ सामा यतया हम कुछ बेहतर पाने के
लए ही कुछ छोड़ते ह, तथा उसे ही हम याग कह दे ते ह। क तु न त
तौर पर वह याग नह है। याग का अथ है बना यह जाने छोड़ना क
भ व य म या होगा, बना यह जाने यागना क आने वाला कल या
लाएगा। य द आप यह जानते ए छोड़ते ह क कल या लाएगा, तब तो
यह मा व नमय है, बाज़ार क व तु है, इसका कोई मू य नह है। जब
शारी रक मृ यु आती है तो आप नह जानते ह क आगे या होने वाला है,
वह एक अं तमता होती है। उसी तरह जस सब को हम धम कहा करते ह,
उसके त मर जाना, उसे पूरी तरह गहराई से छोड़ दे ना, परे कर दे ना,
बना यह जाने क अब या होगा; या आपने कभी ऐसा करके दे खा है
मुझे नह मालूम क यह आपक सम या है या नह , ले कन जो सतक है,
ज़रा भी जाग क है, न त प से यह उसक सम या है, य क संसार
म अ याय इतना ापक है। ऐसा य है क कोई कार म घूमता है, जब क
सरे पैदल चलते ह ऐसा य है क भूख है, गरीबी है और बेइंतहा
अमीरी भी है ताकतवर, स ा और पद पर का बज़ श स अपनी ताकत
का योग ू रता से य करता है कसी ब चे क मौत य होती है हर
तरफ यह असहनीय ग त य है जो मनु य ये पूछ रहा है, उसे इन
से व लत होना चा हए, न क कोई मूखतापूण कारण खोज कर
बैठ जाना चा हए कोई आ थक, सामा जक या राजनी तक कारण।
न त ही एक बु मान को मा ा या मक कारण क अपे ा
कसी अ धक गहरी साथकता क ओर मुड़ना चा हए। इसी म हमारी
सम या न हत है।
सबसे पहली और सबसे मह वपूण बात यह है ा या से संतु
न ह , कम श द से, धूततापूण दाश नकता से संतु न हो जाएं, ब क
आपको इसका एहसास हो, इसे पूरी तरह से महसूस कर क यह सम या
इतनी वशाल है क इसे मा ा या से नह मटाया जा सकता। य द
आप उस तरह से महसूस कर पाएं, तो दे खगे क मन म एक ां त घ टत
होती है। आम तौर पर अगर कोई इस दशा का हल नह खोज
पाता, तो वह कटु दोषदश हो जाता है, या फर वह अपनी कुंठा पर
आधा रत कोई दाश नक स ांत आ व कृत कर लेता है। कतु य द ख के
त य से मेरा सामना होता है क यहां मौत है, पतन है, तथा य द मन सम त
ा या , सभी समाधान , सभी उ र से प ला झाड़ लेता है, तो मन का

ी े ी े े ो ै औ ै
सामना सीधे-सीधे उस त य से होता है, और व च बात यह है क हमारा
मन यह य -बोध कभी होने नह दे ता।
तो दे खने और जानने से महसूस करना, ेम करना भ है। ेम
करने, महसूस करने का अथ समपण नह है; आप समपण के ारा यथाथ
तक नह आ सकते। भावुकतापूवक कसी धारणा के लए वयं को अ पत
कर दे ना सामा यतया समपण कहलाता है, परंतु यथाथ इससे बाहर ही रह
जाता है, य क कसी बात के लए अपने को अ पत कर दे ना उस चीज़
से अपना तादा य था पत कर पाना मा है। अपने भगवान से ेम
करना, कुछ श द को दोहराते रहना, अपने गु को हार पहनाना, उसक
उप थ त म बेसुध होना और आंसू बहाना आप यह सब चाहे अगले
हज़ार वष तक करते रह, कतु इससे आप कभी यथाथ को नह पा
सकगे। कसी बादल, कसी वृ , कसी मनु य का य बोध कर पाने,
उससे ेम कर पाने के लए अ मत अवधान क , यान दे ने क आव यकता
होती है और आप यान दे ही कैसे सकते ह जब क आपका मन जानकारी
ारा बा धत- वच लत है जानकारी तकनीक प से उपयोगी है, पर और
कोई इसका उपयोग नह है। य द एक च क सक ऑपरेशन करना नह
जानता, तो उससे र रहना ही अ छा है। एक वशेष तर, एक वशेष
दशा म जानकारी आव यक है, परंतु वह हमारी दशा का हल नह है।
संपूण समाधान उस भावना म, उस उ कटता म है जो आपके अनुप थत
हो जाने पर, आप जो कुछ ह उसके व मरण पर होती है। उ कटता का,
आवेग का यह गुण महसूस करने के लए, समझने के लए और ेम करने
के लए ज़ री है।
यथाथ बु ज य नह है, ले कन हमने बचपन से ही श ा ारा, हर
तरह के तथाक थत सीखने के ारा एक ऐसा मन उपजा लया है जो तेज़
है, जो होड़ म लगा रहता है, जो सूचना से लदा है वक ल , राजनी त ,
तकनी शयन और वशेष के मामले म यही बात है। हमारे मन तेज-तरार
और हो शयार बना दए जाते ह और जीवन चलाने के लए यही दशा
सबसे मह वपूण होती जा रही है, तथा इसी लए हमारी सारी भावनाएं
कु हला गई ह। गरीब आदमी क बदहाली को दे खकर आपम कोई भावना
नह उपजती, कसी अमीर आदमी को अपनी आलीशान कार चलाते ए
दे खकर आप कभी खुशी महसूस नह करते, एक अ छा चेहरा दे ख कर
आप कभी स ता का अनुभव नह करते; जब आप एक इं धनुष को
अथवा हरी घास के वैभव को दे खते ह तो आपका दय उमगता नह । हम
अपने काम-धंध , अपनी ःख-तकलीफ म इतने त रहते ह क कभी
भी हमारे पास अवकाश का कोई ण नह होता, जब हम महसूस कर
सक क ेम करना, दयालु होना, उदार होना या होता है यह सब न होने
पर भी हम जानना चाहते ह क ई र या है कतनी अ व सनीय मूढ़ता

औ ै े ै ी
और बचपना है अतः के लए यह ब त मह वपूण है क वह जी
उठे बात पुनज वत होने क नह है; आप मरी ई भावना म, वदा हो
चुक म हमा म पुनज वन नह फूंक सकते। कतु या हम सघनता से,
पूणता से, चुरता से जी नह सकते, चाहे ऐसा एक ही दन के लए य न
हो य क ऐसा एक दन हजार साल को आवृत कर लेगा। यह कोई
का -क पना नह है। जब आप एक ऐसा समृ दवस जी लगे, जसम
समय नह है, न भ व य है, न अतीत, तभी आप इसे जान पाएंगे, तभी
आपको उस असाधारण थ त क संपूणता का बोध होगा। उस कार से
जीने का जानकारी के साथ कोई भी संबंध नह हे।
मुंबई,
24 दस बर 1958
पं ह
जब म अपने आप को एक ह , एक ईसाई, एक बौ कहता ं जो क
पूरी क पूरी परंपरा है, परंपरा का बोझ, ान का बोझ, सं कार का बोझ
है तो म कुछ दे ख नह सकता ं, म प और सही तरीके से अवलोकन
नह कर सकता ं। इस कार के मन से म जीवन को मा एक ईसाई, एक
बौ , एक ह , एक रा वाद , एक सा यवाद अथवा कसी अ य वाद के
अनुगामी क से ही दे ख पाता ं तथा उस तरह क मुझे
अवलोकन करने से रोकती है। यह सीधी सी बात है।
जब मन एक सं कारब इकाई के तौर पर अपना अवलोकन करता
है, तो वह एक थ त है। कतु जब मन कहता है, “म सं कारब ं” तब
थ त अलग होती है। जब मन कहता है, ‘म सं कारब ं’ तो मन क
उस थ त म े क के प म एक ‘म’ होता है, जो उस सं कारब
अव था को दे ख रहा है। जब म कहता ं, ‘म फूल को दे ख रहा ं’, तब
वहां ा और य होते ह, अथात अवलोकन करने वाला, अवलोकन के
वषय से भ होता है, इस लए उनम री होती है, समय का एक अंतराल
होता है, ै त होता है, दो वपरीत होते ह तथा उन वपरीत से पार पाना
पड़ता है, उस ई को जोड़ना पड़ता है वह एक थ त है। फर एक अ य
थ त है जब मन वयं के सं कारब होने का अवलोकन करता है,
जसम ऐसा नह होता क एक अवलोकन करने वाला है और एक
अवलोकन का वषय है। आप अंतर दे ख रहे ह
या आपका मन सजग हो सकता है क यह सं कार त है अपने
सं कार त होने को दे खते ए अवलोकनकता क तरह नह उस थ त
क अनुभू त अभी कर सकता है, जसम अवलोकन करने वाला नह है,
कल नह , अगले ण नह , अभी; ठ क उस तरह जैसे आप उस थ त म
अनुभव करते ह, जब आपको ोध आ रहा होता है इसके लए
अ य धक अवधान क , यान दे ने क आव यकता होती है; एका ता क
नह , य क जब आप एका ता लाते ह तो ै त होता है। जब आप कसी
वषय पर एका ता साधते ह, तो मन उस येय वषय को ही दे खता है,
उसी पर क त होता है; अतएव वहां ै त होता है। अवधान म कोई ै त
नह होता, य क उस थ त म मा अनुभू त क अव था होती है।
जब आप कहते ह ‘मुझे सारे सं कार से मु होना चा हए, मुझे
अनुभव होना चा हए’, तो अभी भी ‘म’ होता है जो क वह क है, जससे
आप अवलोकन कर रहे ह; इस लए उस हालत म कोई छु टकारा नह होता
है, य क वहां हमेशा वह क , वह न कष, वह मृ त, वह व तु होती है,
जो दे ख रही है, जो कह रही है “मुझे यह करना चा हए, मुझे यह नह
” े े ो े े ो े ो
करना चा हए।” पर जब आप दे ख रहे होते ह, अनुभव कर रहे होते ह, तो
एक ार हत अव था होती है, एक ऐसी अव था, जसम कोई क नह
है, जसके ारा आप दे ख रहे ह । वा त वक पीड़ा क थ त म ‘म’ नह
होता है। गहन उ लास के पल म ा नह होता है, सब कुछ उ लासमय
होता है, आप उस सम आनंद का ह सा होते ह, उससे अलग नह होते।
मन क यह थ त तब घ टत होती है, जब मन उस मनः थ त के म या व
को दे ख लेता है, जसम मन कुछ बनने, कुछ उपल ध कर लेने के य न म
रत है, कसी कालातीत अव था क चचा म लगा है। कालातीत अव था है,
कतु तभी, जब अवलोकनकता नह है।
: जो मन अपने सं कार का अवलोकन कर चुका है, या
वचार और ै त से परे जा सकता है
कृ णमू त : आप दे ख रहे ह क कस तरह आप सीधी, एकदम
सरल बात को भी दे खने से इनकार कर दे ते ह। सर, जब आप ोध म
आते ह तो उस अव था म या कोई धारणा होती है, कोई वचार होता है,
अवलोकनकता होता है जब आप आवेगमय होते ह, तो या उसके
अ त र कोई अ य त य होता है जब आप नफरत से भरे होते ह, तो
या ा, धारणा और इस तरह क तमाम चीज मौजूद रहती ह यह सब
कुछ बाद म घ टत होता है; चाहे एक सेकंड से भी कम अव ध के बाद;
परंतु उस अव था म तो इस सब म से कुछ भी नह होता।
: ेम कसी ेम-पा क ओर न द होता है। या ेम म ै त
है
कृ णमू त : सर, ेम कसी क ओर न द नह होता। धूप आपक
या मेरी ओर न द नह होती है; वह तो बस होती है।
ा और य, वचार और कम, ‘जो है’ और ‘जो होना चा हए’
इसम ै त है, उस ै त म न हत दो वपरीत ह तथा उन वपरीत म मेल
बठाने क लालसा है; इस े म दो का ं है। यही समय का सम त े
है। ऐसे मन से आप इस बात क खोज-परख नह कर सकते क समय है
अथवा नह है। तो इसे कैसे मटा पाना संभव है ‘कैसे’ उस अथ म नह ,
कसी व था, कसी व ध के प म नह , य क जस ण कोई व ध
योग म लाते ह, आप पुनः समय के े म ही होते ह। सम या यह है :
या उससे परे छलांग लगाना संभव है आप इसे मब प से नह कर
सकते ह, य क उसम फर समय आ जाता है। या मन के लए
सं कारब ता को र कर पाना संभव है समय के मा यम से नह , ब क
य बोध ारा; इसका अथ है क मन को दे खना होगा क म या या है
और स य या है। जब मन कहता है, “मुझे पता लगाना है क कालातीत
या है”, तो समय म आब मन के लए इस का कोई उ र नह
ो ो ी ै ी औ
होता। कतु यह मन जो समय का ही प रणाम है, या कसी य न और
अनुशासन का सहारा लए बना वयं को मटा सकता है या मन इस
चीज़ को बना कसी कारण के प छ सकता है य द कोई कारण है, तो
आप फर समय म लौट आते ह।
अतः आप नषेधा मक प से पता लगाना आरंभ करते ह क ेम
या है, जैसा क मने पहले प कया है। यह बात तो साफ ही है क वह
ेम जसका कोई योजन हो, ेम नह है। जब म कसी बड़े आदमी को
हार पहनाता ं, य क मुझे एक नौकरी चा हए, य क उससे म कुछ
चाहता ं, तो या यह आदर है या वा तव म यह अनादर ही है वह
जसम कसी के लए अनादर नह है, वाभा वक प से आदरयु है।
ऐसा मन नषेध क अव था म है, जो व धपरक होने का वपरीत नह ,
अ पतु ऐसा नषेध है, जो दे ख लेता है क म या या है, और उस म या
को म या के प म जानकर अलग हटा दे ता है ऐसा मन ही अ वेषण
कर पाता है।
जब मन ने इस त य को पूरी तरह से दे ख लया हो क यह चाहे जो
भी कर ले, समय के मा यम से उस अ य को कभी नह पा सकता, तब वह
अ य व मान होता है। यह ऐसा कुछ है, जो वराट, न सीम, अप रमेय
है; यह ऊजा है, जसम कोई आरंभ नह है, कोई अंत नह है। आप इस
तक नह आ सकते, कोई मन इस तक नह आ सकता; इसका बस ‘होना’
मा है। हमारा सरोकार तो केवल उस मटाने से होना चा हए जसक हम
बात कर रहे थे क या मन को प छ- मटाना संभव है, धीरे-धीरे नह ; वही
ऋजुता है, नद षता है। मा नद ष मन ही इसको, इस असाधारण त व
को दे ख सकता है, जो एक नद क तरह है। आप नद से तो प र चत ह
न या आपने कभी नाव म बैठ कर आगे बहती और पीछे छू टती नद को
दे खा है; कतनी यारी होती है यह इसका आरंभ कह होगा, इसका अंत
भी होगा। कतु आरंभ नद नह है, और अंत भी नद नह है। नद तो वह
है जो इनके म य म है; यह गांव से होकर नकलती है, ब त कुछ इसम
मलता चला जाता है; यह शहर से गुज़रती है, जहां हा नकर रसायन का
बहाव इसे षत करता रहता है, मल और गंदगी सब इसम गरते चले
जाते ह; पर कुछ मील आगे जा कर यह फर शु -साफ हो जाती है; इस
नद पर ही सब रहते ह भीतर मछली रहती है और कनारे पर वह
आदमी जो इसका पानी पीता है। यह नद है, ले कन इसके पीछे अगाध
जलरा श का अद य वेग है, तथा वतः शु होते रहने क या ही यह
नद है।
नद ष मन इसी ऊजा क तरह है। इसका न कोई आरंभ है और न
कोई अंत। यही ई र है मं दर का ई र नह । तो न आरंभ है और न अंत
है, अतएव न काल है, न कालातीत है। और मन इस तक प ंच नह सकता
ै ो ी ै े े ो ो
है। मन, जो समय म ही मापता है, उसे अपने आप को प छ डालना होगा
एवं इसे जाने बना ही इसम वेश करना होगा। य क आप इसे जान नह
सकते ह, आप इसे चख नह सकते ह, इसका कोई रंग नह है, कोई थान
नह है, कोई आकार नह है। व ा के लए तो यह है, आपके लए नह ,
य क आपने अभी इस वाले अ य को छोड़ा नह है। मत क हए क वैसी
अव था होती है। यह अव था म या ही होगी, जब इस बारे म व कोई
ऐसा दे रहा हो, जो भा वत हो रहा है। आप अगर कुछ कर सकते
ह तो यही क इससे बाहर कूद पड़, और तब आप जान लगे ब क आप
जानगे तक नह आप उस असाधारण अव था का ही भाग ह गे।
मुंबई,
8 माच 1961
सोलह
अनुभव कोई मापन नह है, यह स य क ओर ले जाने वाला माग भी नह
है। अनुभव आपको, अपने व ास व सं कार के अनुसार होते ह, और
व ास का तो अथ ही वयं से पलायन है। मुझे य द वयं को समझना हो,
तो मुझे कसी व ास क दरकार नह है; मुझे केवल प ता से, बना
कसी चयन के अपना अवलोकन करना होगा, पर पर संबंध म, पलायन
म, आस य म वयं का नरी ण करना होगा। वतः का यह नरी ण
बना कसी पूवा ह, बना कसी न कष, बना कोई न य कए करना
ज़ री है। इस न य सजगता म ही अकेलेपन क एक असाधारण दशा
का हम एहसास होता है। मुझे यक न है क आपम से अ धकतर ने इसे
जाना होगा-पूरी तरह से खाली-खाली होने का एहसास, जसे कुछ भी नह
भर पाता। केवल इस दशा म ठहरने से ही, जसके दौरान सारे मू य
समा त हो चुके होते ह, केवल तभी जब हम अकेले हो पाने म समथ होते
ह और इस अकेलेपन का कसी भी पलायन के भाव के बगैर सामना कर
पाते ह, तभी यथाथ अ त व म आता है। य क मू य तो हमारे सं कार
का ही प रणाम होते ह; अनुभव क भां त, वे भी कसी व ास पर ही
आधा रत होते ह और यथाथ को समझ पाने म बाधा बनते ह।
परंतु यह ःसा य काय है तथा हमम से अ धकतर ऐसा करने के
इ छु क नह होते ह। इस लए हम अपने अनुभव से चपके रहते ह
अंध व ास पर आधा रत, गूढ़ अनुभव, संबंध के, तथाक थत ेम के
अनुभव, अ धकार के अनुभव। ये ब त मह वपूण बन जाते ह, य क
हमारा नमाण ही इनसे आ है। हम व ास , सं कार , प रवेशगत भाव
ारा न मत ह; यही हमारी पृ भू म है। इसी पृ भू म से हम नणय लेते ह,
मू य नधा रत करते ह। और जब इस सब से गुज़रता है, इस
पृ भू म क सम त या को समझ लेता है, तो वह एक ऐसे ब पर
प ंचता है, जहां वह नतांत एकाक होता है। यथाथ के अ वेषण हेतु
को एकाक होना ही होता है, जसका अथ पलायन नह है, जीवन
से भागना नह है। इसके उलट, यह तो जीवन को संपूण सघनता से जीना
है, य क उस थ त म अपनी पृ भू म से, पलायन के उन अनुभव क
मृ त से मु होता है। उस एकाक भाव म, उस अकेलेपन म कोई
चयन नह होता है, जो है, उसका कोई भय नह होता है। भय का नमाण
तो तभी होता है, जब हम, जो है उसे दे खने या मानने से इनकार कर दे ते
ह।
अतः यथाथ के ाकट् य हेतु, उन अन गनत पलायन को परे हटा दे ना
अ नवाय है, ज ह ने था पत कया है और जनम वह फंसा आ

ै ौ े े ो ो
है। य द आप गौर से दे ख तो आपको साफ नज़र आएगा, क हम कस
तरह लोग का इ तेमाल कया करते ह कैसे हम अपने प तय का,
प नय का या समूह का, रा ीयता का इ तेमाल अपने-आपसे भागने
के लए करते रहते ह। अपने संबंध म हम राहत खोजते ह। राहत क यह
तलाश कुछ कार के अनुभव लाती है और उन अनुभव को हम कस के
पकड़े रहते ह। जानकारी को भी वयं से पलायन का मा यम बना कर हम
असाधारण मह व दे दे ते ह; पर ज़ा हर है क जानकारी तो यथाथ क ओर
ले जाने वाला माग नह है। यथाथ के ाकट् य के लए मन को पूणतः र ,
थर होना होता है। कतु ऐसा मन जो ान क डु गडु गी बजा रहा है,
व ास और धारणा का नशेड़ी है, लगातार बड़बड़ा रहा है, उसे हण
करने म असमथ रहता है जो व तुतः है।
इसी कार, य द हम संबंध म राहत तलाशते ह, तो संबंध हमारा
वयं से बचाव बन जाता है, खुद को टालने का ज़ रया बन जाता है।
अंततः हम संबंध म राहत चाहते ह, कुछ ऐसा चाहते ह जसका हम सहारा
ले सक, हम आसरा चाहते ह, हम चाहते ह हम ेम कया जाए, हम कसी
के बन जाना चाहते ह जो सब हमारे अपने वजूद क गरीबी को ही
बताता है। यही बात संप , नाम, उपा धय और व तु के वा म व क
हमारी लालसा के बारे म है, जो उस आंत रक अभाव क ही सूचक ह।
जब को यह एहसास हो जाता है क यह यथाथ क राह नह
है, तब वह उस थ त म होता है, जब मन आराम और राहत क तलाश
नह कर रहा होता, जब मन, ‘जो है’ से पूरी तरह संतु होता है जसका
अथ ग तहीनता नह है। जो है, उससे भागने म मृ यु है; जो है, उसक
पहचान और सजगता म जीवन है। अतः सं कारब ता पर आधा रत
अनुभव, कसी व ास का अनुभव जो क वयं से हमारे पलायन का
प रणाम है, और संबंध का अनुभव ये सब बाधा बन जाते ह, अवरोध
बन जाते ह, ये हमारी अपया तता पर, अपूणता पर पदा डाले रहते
ह। और केवल तभी जब हम इन सब को पलायन के प म पहचान लेते
ह, अतएव इनका सच म मू य दे ख लेते ह केवल तभी उस खालीपन म,
उस अकेलेपन म शांत, थर बने रहने क संभावना होती है। और जब मन
नतांत मौन होता है, वह जो है उसके त न उसे वीकार करते ए, न
अ वीकार करते ए न य प से सजग होता है मा तभी उस
अप रमेय यथाथ क व मानता क संभावना होती है।
ः कोई दै वी योजन है या नह है य द नह है तो हमारे य नरत
रहने का या अथ है
कृ णमू त : हम य नरत य रहते ह और वह या है, जसके
लए हम य न म लगे ह य द हम य नरत न रह तो या होगा या
हम ग तहीन हो जाएंगे, हमारा य होने लगेगा कुछ बन जाने के लए
े ै
लगातार कया जाने वाला यह संघष या है यह संघष, यह यास या
दशाता है और या समझ यास से, य न म जुटे रहने से आती है
बेहतर बनने के लए, खुद को बदलने के लए, खुद को कसी खास
ढर म ढाल लेने के लए, कुछ बन जाने के लए लक से मैनेजर और
मैनेजर से द ा मा बन जाने के लए य न म लगातार जुटा रहता है।
और या यह संघष समझ लाता है
मेरे वचार म यास के इस को व तुतः समझ लेना चा हए। वह
या है, जो यास कर रहा है, और ‘होने के संक प’ से हमारा मतलब या
है हम कोई प रणाम ा त करने के लए, कुछ बन जाने के लए, अ धक
सदाचारी हो जाने या कम, कुछ और हो जाने के लए यास कया करते
ह, करते ह न हमारे भीतर सकारा मक और नकारा मक इ छा म यह
लगातार लड़ाई चलती रहती है, एक इ छा सरी पर हावी होती रहती है,
एक इ छा सरी को नयं त करती रहती है बस हम इसे उ च या न न
व कह दया करते ह। ले कन ज़ा हर है क यह इ छा ही है। आप इसे
कसी भी तर पर आसीन कर सकते ह और कोई अलग नाम दे सकते ह,
तब भी रहेगी यह इ छा ही, कुछ बन जाने क तृ णा भर। तो अपने भीतर
और सर के साथ, समाज के साथ भी यह नरंतर संघष बना रहता है।
अब सवाल यह है क या इ छा का यह ं समझ लाता है
या वपरीत का, चाह और अचाह का यह ं कुछ भी प कर पाता
है और या अपने आपको कसी धारणा के अनु प ढालने के संघष से
समझ का आगमन होता है तो सम या य न क , संघष क नह है,
सम या यह भी नह है क य द हम मान सक प से और बाहरी तौर पर
भी कुछ हो जाने के लए य नरत न रहते, य द हम संघष न करते, य द
हम यास न करते, तो या होता; सम या यह है क समझ का आगमन
कैसे होता है। य क एक बार य द समझ आ जाए, तो य न रहता नह ।
जो आप समझ लेते ह, उससे आप मु हो जाते ह।
समझ अ त व म कैसे आती है मुझे नह मालूम अगर आपने कभी
इस बात पर गौर कया है क जतना यादा आप समझने के लए संघष
करते ह, उतना ही कम आप कसी सम या को समझ पाते ह। ले कन
जस पल आप संघष करना बंद करते ह और उस सम या को अपनी सारी
कहानी सुनाने दे ते ह, अपना सम त अ भ ाय बताने दे ते ह तब बात
समझ आ जाती है, प ही जसका अथ यह है क समझने के लए
आपके मन का चुप होना ज़ री है। मन का, बना हां-ना के, न य प
से सजग रहना ज़ री है; और उस थ त म अपने जीवन क उन ब त
सारी सम या क समझ हमम होती है।
कता यह जानना चाहता है क कोई दै वी योजन है अथवा नह
है। म नह जानता क ‘दै वी योजन’ से आपका या ता पय है पर हम यह
ो े ी
तो जानते ही ह क हम ख म ह, हम व म म ह, उलझन म ह, वह
व म और ख सामा जक तर पर, मनोवै ा नक तर पर, गत
और सामू हक तर पर हमेशा बढ़ता ही जाता है। इस नया का हमने यही
हाल कर रखा है। तो कोई दै वी योजन है या नह , इस बात का कतई भी
मह व नह है। पर मह व क बात उस व म को समझना है जसम हम
बा प से और आंत रक प से भी रह रहे ह। और उस व म को
समझने के लए आरंभ प तः हम वयं से ही करना होगा य क हम
ही व म ह, हमने ही संसार म इस बा व म को उ प कया है। और
इस व म को र करने के लए हम वयं से ही आरंभ करना होगा,
य क जो हम ह, वही यह संसार भी है।
अब आप कहगे, “इस तरीके से संसार म व था लाने म तो काफ
लंबा व लग जाएगा।” म ज़रा भी न त नह ं क आप सही ह,
य क आ खरकार वे कुछएक ही होते ह, जो बलकुल प होते ह और
समझ लेते ह, वे ही ां त लाते ह, प रवतन लाते ह। पर हम आलसी ह,
मु कल यही है। हम चाहते ह क सरे बदल जाएं, हम चाहते ह क
प र थ तयां बदल जाएं, सरकार हमारे जीवन म व था ले आए या कोई
चम कार घट जाए जो हम पांत रत कर दे । और इस तरह, हम व म से
नभाए चले जाते ह।
तो जो वा तव म मह वपूण बात है, वह इस बात क छान-बीन म
लग जाना नह है क कोई ई रीय योजना होती है या नह होती है, य क
उस अटकलबाजी म आप यह सा बत करते ए घंट बरबाद कर सकते ह
क होती है या नह होती है। वह चारक का खेल बन जाता है। पर
मह वपूण बात वयं को व म से मु कर लेना है, और उसके लए समय
क दरकार नह होती है। अ नवायता इस बात को दे ख लेने क है क
व म म है, क वह सारी ग त व ध, सम त या जो उस व म से
ज म लेती है, वह भी द मत ही होगी। यह ऐसे ही है जैसे कोई
द मत कसी नेता क तलाश करे, उसका नेता भी द मत ही
होगा। तो आव यक यह है क हम इसे दे ख क हम मत ह, उलझन म
ह, और इससे भागने क को शश न कर, इसका प ीकरण न तलाशते
रह; न य प से, बना हां-ना के सजग रह। और तब आप दे खगे क
उस न य सजगता से एक सवथा भ या का ज म होता है; य क
य द आप व म क अव था को प कर लेने का यास करते ह, तो जो
आप रचते ह, वह अभी भी मत ही होगा। कतु य द आप वयं के त
सजग होते ह, चुनावर हत और न य प से सजग होते ह, तो वह
व म, वह असमंजस खुलने लगता है और लु त हो जाता है।
य द आप इसके साथ योग करगे, तो दे ख पाएंगे और इसम कोई
ब त अ धक समय नह लगने वाला है य क समय क तो इसम कोई
ी ै ी ी ै ी ो ी
भू मका ही नह है क प ीकरण भी मल जाता है, चीज प हो जाती
ह। पर आपको अपना पूरा यान इसे दे ना होगा, अपनी पूरी दलच पी इसे
दे नी होगी। और इस बारे म म ज़रा भी न त नह ं क हमम से
अ धकतर लोग व म म, उलझन म बने रहना पसंद नह करते ह
य क असमंजस क हालत म आपको कुछ करने क दरकार नह होती।
और इस लए हम व म से संतु रहते ह य क व म को समझना कम
क मांग करता है, जो कसी आदश अथवा उद्भावना का अनुसरण नह
है।
अतः ई रीय योजना है या नह है, यह ही अ ासं गक है। हम
वयं को तथा इस व को समझना है जसे हमने न मत कया है : दशा,
व म, ं , यु , शोषण। सर के साथ संबंध म जो भी हम ह, यह सब
उसी का प रणाम है। य द हम दे ख सक क कैसे हम सर का इ तेमाल
करते ह, कैसे हम लोग के मा यम से, संप के, जानकारी के मा यम से
वयं से भागने क को शश करते ह और इस वजह से संबंध को, संप
को, जानकारी को ज़बरद त मह ा दे दया करते ह य द हम इस सब को
दे ख सक, इसके त न य प से सजग हो सक, तो हम उस पृ भू म
से मु हो जाएंगे, जो क हम ह। केवल तभी, ‘जो है’ का पता लगाने क
संभावना होती है। ले कन यह अनुमान लगा दे ने म घंट बता दे ना क
ई रीय योजना होती है या नह होती है, इसके बारे म पता लगाने के
यास म लगे रहना, इसके बारे म ा यान दया जाना, मुझे ये सब
एकदम ब च वाली बात लगती ह। य क शां त कसी योजना का
अनुगामी बनने से नह आती, फर वह योजना चाहे वामपंथी हो या ई रीय
हो। अनुगमन दमन मा है और दमन म भय होता है। शां त और न लता
केवल समझ म ही संभव है, और उस न लता म यथाथ का ाकट् य होता
है।
: या समझ म अक मात आ जाती है अतीत के यास
तथा अनुभव से या उसका कोई संबंध नह होता
कृ णमू त : अतीत के अनुभव से हमारा या ता पय है आप कसी
चुनौती का अनुभव कैसे करते ह जीवन अंततः चुनौती एवं यु र क
या है, है क नह चुनौती हमेशा नयी ही होती है, अ यथा वह चुनौती
ही नह है। और हमारा यु र अप रहाय प से हमारे सं कार क
पृ भू म का ही प रणाम होता है। अतः य द यह यु र उस चुनौती के
संदभ म उपयु , नःशेष व संपूण नह है, तो यह संघष व ं ही न मत
करेगा ही। चुनौती व यु र के बीच इस ं को ही हम अनुभव कहते ह।
मुझे नह मालूम क य द आपने कभी इस पर यान दया है क अगर
चुनौती के त आपका उ र पूण है, तो अनुभव करने क एक अव था

ो ी ै ो ौ ी े
मा होती है, अनुभव का मरण नह होता। परंतु जब यु र चुनौती हेतु
पया त नह होता, तो हम अनुभव क मृ त से चपटे रहते ह।
यह इतना मु कल नह है, यूं परेशान न ह । इसक थोड़ी छान-बीन
और करते ह और आप इसे दे ख पाएंगे। जैसा क मने कहा, जीवन चुनौती
और यु र क एक या है सभी तर पर, कसी एक वशेष तर
पर नह ; और जब तक वह यु र, वह जवाब चुनौती के हसाब से
नाकाफ है, ं होगा ही। न त ही यह बात बलकुल साफ है। और ं
नरपवाद प से समझ को घ टत नह होने दे ता। ं के ारा हम कसी
सम या को नह समझ पाते, या समझ पाते ह य द म अपने पड़ोसी से,
अपनी प नी से, अपने सहयो गय से लगातार झगड़ता रहता ं, तो उस
संबंध को समझ पाना संभव ही नह है। समझना तभी संभव होता है, जब
कोई ं नह होता।
या समझ अक मात आ जाती है ता पय यह क या ं
अक मात समा त हो सकता है या फर, या को अन गनत ं
से गुजरना होगा, येक ं को समझना होगा, और तब कह जाकर
सम त ं से मु मल पाएगी मतलब यह क अगर इस सम या को
अलग तरीके से रख, तो मुझे यक न है क इस के पीछे एक और
है : चूं क आप तमाम धुंधलक , व म व ं से होकर गुज़रे थे,
द ा मा , पुनज म, तरह-तरह क सोसाइ टय वगैरह-वगैरह म
आपक आ था आ करती थी, तो या मुझे भी इन सब से होकर नह
गुज़रना होगा चूं क आप कुछ वशेष अव था म से होकर गुज़रे थे,
“ या मुझे भी मु होने के लए उन अव था से होकर नह जाना
पड़ेगा ” अथात या व म से मु होने के लए हम सब को व म का
अनुभव नह कर लेना होगा
इस लए, या यह नह है : “ या मु होने हेतु कुछ व श
ा प का, ढांच का अनुसरण करने या उ ह वीकार करने एवं उन
ा प के हसाब से जी लेने से समझ का आगमन होता है ” उदाहरण के
लए, मान ल क कभी कसी व आप क ह खास धारणा म व ास
कया करते थे, पर अब आपने उ ह परे हटा दया है, आप मु ह और
आपम बोध है, समझ है। और म उधर आता ं एवं दे खता ं क आप कुछ
वशेष व ास के अनुसार जीते रहे और फर आपने उ ह याग दया व
समझ उपल ध कर ली। तो म खुद से कहता ं, “म भी उन व ास का
अनुसरण क ं गा या उन व ास को वीकार कर लूंगा और आ खरकार
बोध तक, समझ तक प ंच ही जाऊंगा।” न त ही यह एक गलत
या है, है ना जो मह व क बात है, वह है समझना। या समझ समय
का मसला है यक नन नह । अगर आपक कसी चीज़ म दलच पी है,
तो समय का सवाल ही नह उठता। आपका पूरा अ त व एका ता से,
ी ी ी ो ै ो ी
पूरी तरह उस चीज़ म त लीन होता है। समय का सवाल तो इसम तभी
आता है, जब आप कोई फल, कोई प रणाम ा त करना चाहते ह। अतः
य द आप बोध को, समझ को एक ल य क तरह मानकर चलते ह जसे
आपने हा सल करना है, तब आपको समय क दरकार होती है, तब आप
‘त काल कर लेने’ या ‘ थ गत कर दे ने’ क बात उठाते ह। परंतु समझ
न त ही एक प रणाम- या नह है। समझ का, बोध का आगमन तब
होता है, जब आप शांत होते ह, जब मन न ल होता है। और य द आप
मन के न ल होने क आव यकता को दे ख लेते ह, तो समझ त काल ही
घ टत होती है।
: आपके अनुसार स चे अथ म यान या है
कृ णमू त : यान का उ े य या है और आप यान को कस अथ
म लेते ह मुझे मालूम नह क आपने कभी यान कया है या; अतः
आइए, यह पता लगाने के लए साथ-साथ योग कर क स चे अथ म
यान या है। आप इस बारे म केवल मेरे कथन को ही न सुन, अ पतु हम
साथ-साथ अ वेषण तथा अनुभव करना है क स य ही म यान होता या
है। य क यान मह वपूण है, है क नह य द आप नह जानते क
स यक्, सही यान या है, तो वयं का ान नह हो सकता है, और बना
वयं को जाने यान का कोई मतलब नह है। कसी कोने म बैठकर अथवा
कसी बगीचे या गली म इधर-उधर टहलने और यान करने क को शश
करने का कोई अथ नह है। यह एक खास नजी क म क एका ता तक
ले जाता है, जो एक को पृथक करके बाक का ब ह कार है। आप लोग म
कुछ ने इन सब व धय को न त ही आज़माकर दे खा होगा। अथात
आप कसी व श वषय पर एका ता साधते ह, जब आपका मन यहां-
वहां भटक रहा होता है तो उसे एका हो जाने के लए मजबूर करने क
को शश करते ह, और जब यह बात बनती नह है तो आप ाथना कर लेते
ह।
य द हम वा तव म जानना चाहते ह क स यक् यान या है, तो हम
यह मालूम कर लेना होगा क वे म या याएं या- या ह, ज ह हमने
यान कहा है। न त ही, एका ता यान नह है य क य द आप
नरी ण कर, तो एका ता क या म एक को वलग करके शेष का
ब ह कार है और इस लए इसम भटकाव है। आप कसी चीज़ पर एका
होने क को शश करते ह व आपका मन कसी और चीज़ म भटकने लगता
है; और कसी एक वषय पर क त हो जाने क लड़ाई नरंतर चला करती
है जब क मन साफ मना कर दे ता है और फर भटकने लगता है। और इस
तरह एका होने के यास म, एका ता सीखने म, जसे गलती से यान
कह दया जाता है, हम साल बता दे ते ह।

ै ै ो
फर ाथना का नह आता है। प है क ाथना प रणाम तो
दे ती है, अ यथा लाख लोग ाथना न कया करते। ाथना म कुछ वशेष
श द-समूह को लगातार दोहरा कर मन शांत बना लया जाता है, मन शांत
तो हो जाता है। और उस शां त म कुछ संकेत, कुछ अनुभू तयां, कुछ
यु र ा त होते ह। पर है यह अभी भी मन क यु का ही एक भाग,
य क एक कार के स मोहन से आप मन को एकदम शांत बना सकते
ह। और उस शां त म कुछ छ , छपे ए उ र कट होते ह, जो
अचेतन से तथा चेतन मन के बाहर से आते ह। ले कन यह अभी भी एक
ऐसी अव था ही है, जसम बोध नह है, समझ नह है।
और यान पूजा-भ भी नह है चाहे वह भ भाव कसी च
के त हो या फर कसी स ांत के त, य क मन क बनाई चीज़ भी
मू तपूजा के दायरे म ही आती ह। हो सकता है कोई कसी मू त को
न पूजता हो, इसे मूढ़ता और अंध व ासपूण बुतपर ती मानता हो, ले कन
वह भी यादातर लोग क तरह मन क बनाई चीज़ क पूजा तो करता
है, तो यह भी बुतपर ती ही ई। अतः कसी च या धारणा या कसी गु -
महा मा के त भ पूण होना, सम पत होना यान नह है। य तः यह
वयं से पलायन का ही एक प है। यह बड़ा व ामदायक पलायन है, पर
है तो पलायन ही।
सदाचारी बनने के लए नरंतर य नरत रहना, भली-भां त अपनी
जांच-परख तथा अनुशासन के मा यम से सद्गुण क ा त करते रहना
भी यान नह है। हमम से अ धकतर लोग इन या म उलझे ए ह,
और चूं क इनसे हम वयं का बोध नह होता है, अपने बारे म समझ नह
ा त होती है, ये भी सही यान का तरीका नह ह। खुद को समझे बना
आपके पास आ खर स यक् वचार का, सही सोच का आधार ही या है
उस समझ के बना आप जो कर लगे, वह इतना ही होगा क आप अपने
सं कार के यु र का, उनक पृ भू म का अनुसरण करने लगगे। और
ऐसे सं कार त यु र यान नह ह। ले कन इन यु र , इन
त या के त सजग होना, ता क व क हलचल, व के रंग-ढं ग
पूरी तरह से समझ म आ जाएं यही तरीका सही यान का तरीका है।
जीवन से पीछे हट जाना यान नह है। यान अपने आप को समझने
क एक या है। और जब कोई अपने आपको, केवल चेतन तर पर
नह अ पतु भीतर के सभी छ तर पर भी समझना शु करता है,
तब शां त का आगमन होता है। जस मन को यान करके, बा य करके,
अनुसरण करके थर कया जाता है, वह मन थर नह होता है। वह तो
एक अव , ग तहीन मन होता है। वह ऐसा मन नह होता, जो सतक,
न य एवं सजना मक हणशीलता म समथ हो। यान म सतत े ण
क , जाग कता क , येक श द, येक वचार तथा भाव के त
ो ी ै े े े ो े
सजगता क दरकार होती है, जससे हमारे अ त व क , अपने होने क
अव था उद्घा टत होती है, साफ पता चलती है, जो छपी थी वह भी, और
जो सतह पर है वह भी; और चूं क इसम ब त मेहनत लगती है, हम हर
क म क , छलावे से भरी और राहत दे ने वाली चीज़ के ज़ रये पलायन
करते रहते ह और इसे ही यान कह दया करते ह।
यद यह दे ख पाता है क वयं का ान ही यान का ारंभ है,
तब यह सम या असाधारण प से रोचक तथा जीवंत बन जाती है।
य क य द आपको वयं का ही ान नह है, तो आप जसे यान कहते
ह, उसके अ यास म लगे रह सकते ह, और इस पर भी अपने स ांत म,
अपने प रवार म, अपनी संप म आस बने रह सकते ह, या फर
अपनी संप को छोड़-छाड़ कर आप कसी अवधारणा के त, कसी
वचार के त आस हो सकते ह और उसम इस कदर क त, एका रह
सकते ह क उसी अवधारणा को आप और-और अ धक न मत करते चले
जाएं। न त ही, वह यान नह है। अतः व- ान ही यान का आरंभ है,
और व- ान के बना यान होता ही नह है। और जब कोई व- ान के
इस क और गहराई म जाता है, तो न केवल ऊपर का, कट मन
शांत, मौन हो जाता है, ब क छ मन के व भ तर भी काश म
आते ह। जब सतही मन चुप होता है, तब चेतना क छपी ई, अचेतन
परत अपना ेपण करने लगती ह, वे अपनी अंतव तु को कट करती ह,
वे अपने इशारे ज़ा हर करती ह, ता क हमारे अ त व क सम या को
पूण पेण समझा जा सके।
तो मन नतांत न ल हो जाता है यह न ल है , इसे न ल
बनाया नह गया है। इसे न ल हो जाने के लए कसी पा रतो षक ारा,
भय ारा बा य नह कया गया है। तब एक खामोशी होती है, मौन होता
है, जसम यथाथ अ त व म आता है। परंतु वह मौन ईसाई मौन, ह मौन
या बौ मौन नह है। वह मौन बस मौन है, उसका कोई नाम नह है। य द
आप ईसाई या ह या बौ मौन के पथ का अनुसरण करगे, तो आप
कभी मौन नह ह गे। जो मनु य यथाथ का अ वेषण करना चाहता हो, उसे
अपनी सं कारब ता का पूरी तरह से प र याग करना होगा चाहे वह
सं कारब ता ईसाई हो, ह हो, बौ हो या कसी अ य समुदाय क हो।
यान के मा यम से, अनुसरण के मा यम से पृ भू म को मजबूत कर लेना
केवल मन क ग तहीनता, मन क मंदता लाता है और म कतई न त
नह ं क यही वह नह है, जो हमम से अ धकतर लोग चाहते ह, य क
कोई ा प, कोई ढांचा बना लेना और उसका अनुसरण करना अपे ाकृत
ब त आसान है। कतु पृ भू म से मु होना संबंध म नरंतर जाग कता
क , नरी ण क मांग करता है।

ौ ो ी
जब एक बार वह मौन आ जाए, तो एक असाधारण सजनशीलता
क थ त होती है ऐसा नह है क आप क वताएं लखगे ही, च
बनाएंगे ही; हो सकता है आप ऐसा कर, या हो सकता है आप यह सब न
कर। ले कन उस मौन के पीछे नह भाग सकते, उसक नकल नह उतारी
जा सकती, अनुकरण नह कया जा सकता उस हालत म वह मौन नह
रह जाता। आप इस तक कसी माग ारा नह प ंच सकते। यह तब वजूद
म आता है, जब व के, ‘म’ के तरीके समझ लए जाते ह और उस व का
अपनी तमाम हलचल और खुराफात के साथ अंत हो जाता है। अथात मन
जब सजन करना बंद कर दे , तो सजन व मान होता है।
अतएव मन को सरल होना होगा, शांत होना होगा ‘होगा’ तो गलत
है : यह कहने म क मन को शांत होना होगा, बा यता न हत है और मन
तभी शांत होता है, न ल होता है, जब व क , ‘म’ क सम या का
अवसान हो चुका हो। जब व के सारे तौर-तरीके समझ लए गए ह , और
इस लए व क ग त व धय का अंत हो गया हो, मौन केवल तभी होता है।
वह मौन ही स चे अथ म यान है। और उस मौन म ही शा त का
आ वभाव होता है।
लंदन,
23 अ टू बर 1949
स रह
य द संभव हो, तो इस शाम म यान के बारे म चचा करना चा ंगा। म इस
बारे म बात करना चा ंगा, य क मुझे लगता है क यह वषय जीवन म
सवा धक मह वपूण है।
‘ यान’ को समझने के लए और इसम गहराई से पैठने के लए
सबसे पहले हम श द और त य को समझना होगा। कारण क हमम से
अ धकतर लोग श द के गुलाम ह। ‘ यान’ श द से ही अ धकतर लोग म
एक वशेष भावदशा, एक तरह क संवेदन मता, शां त, कुछ न कुछ
उपल ध करने क अभी सा जागने लगती है। कतु श द वह व तु नह है,
य क श द को, तीक को, नाम को य द कोई पूरी तरह न समझे, तो यह
भयावह होता है। तब यह बाधा बन जाता है, मन ही को दासता म बांध
लेता है। और श द क , तीक क हमम जो त या होती है, वही हमम
से अ धकतर को कमरत करती है, य क श द जस त य को कर
रहा है, उसका हम भान नह होता, एहसास नही होता। हम त य तक, ‘जो
है’ तक अपने मत , नणय , मू यांकन के साथ, अपनी मृ तय के साथ
प ंचते ह। इस तरह हम कभी भी त य को, ‘जो है’, उसे दे ख नह पाते ह।
मुझे लगता है क इस बात को प प से समझ लेना चा हए।
कसी भी अनुभव को, मन क कसी भी अव था को, वा त वक
त य, व तु थ त को, ‘जो है’ उसे भली भां त समझना हो, तो हम श द
क गुलामी छोड़नी पड़ेगी और यह काम ब त क ठन होता है। उसे नाम
दे ना, कोई श द दे ना अनेक मृ तयां जगाता है; और ये मृ तयां त य का
अ त मण करती ह, उस त य को, ‘जो है’ उसे नयं त करती, ढालती,
दशा दे ती ह। अतः हम इस व म के त असाधारण प से सजग होना
होगा और दे खना होगा क श द तथा व तु थ त, ‘जो है’ के बीच ं न
हो। और यह मन के लए ब त कर काय है, जसके वा ते अचूक और
प होने क आव यकता होती है।
बना प ता के व तु को हम जैसी वे ह, वैसी ही नह दे ख पाते।
व तु को जैसी वे ह, ठ क वैसी, अपने मत , नणय , मृ तय के बना
दे ख पाने म असाधारण स दय होता है। हम कसी पेड़ को, बना कोई म
बीच म लाए, वैसा ही दे खना होता है जैसा क वह है; इसी तरह कसी
झील के ऊपर सं या के आकाश को हम दे खते ह सफ दे खते ह, श द
दए बना, तीक , वचार , मृ तय को जगाए बना, और इस कार
दे खने म अद्भुत स दय होता है। एवं स दय परमाव यक है। अपने आस-
पास जो कुछ भी है, कृ त हो, लोग ह , वचार ह , उ ह कदर दे ना, उनके
त संवेदनशीलता ही स दय है। य द संवेदनशीलता नह हो तो प ता भी
ी े ो ो
नह आ पाती, ये दोन संयु ह, समानाथक ह। यह प ता अ नवाय हो
जाती है, य द हम समझना हो क यान या है।
ऐसा मन जो मत है, धारणा , अनुभव , इ छा के तमाम आ ह
म जकड़ा आ है, वह केवल अंत ही न मत करता है। और उस मन
को जसे व तुतः यान क थ त म होना हो, न केवल श द के त,
ब क उस अनुभव या उस थ त को नाम दे ने क वयंचा लत अनु या
के त भी सजग होना होगा तथा उस थ त अथवा अनुभव को, वह जो
भी अनुभव हो, चाहे जतना ू र, चाहे जतना वा त वक, चाहे जतना
म या हो उसे कोई नाम दे दे ना मा ही मृ त को ढ़ता दे ता है, जसे
लादे ए हम अगले अनुभव क ओर अ सर होते ह।
कृपया मुझे यह यान दलाने द क जस बारे म हम बात कर रहे ह,
उसे समझना ब त मह वपूण है, य क य द आप इसे नह समझ लेते ह,
तो व ा के साथ आप यान क इस संपूण सम या म सहया ा नह कर
पाएंगे।
जैसा क हमने कहा, यान जीवन क सवा धक मह वपूण बात म
से एक है, या संभवतः जीवन म यह सवा धक मह वपूण है। य द यान न
हो, तो म त क तथा मन एवं वचार क सीमा से परे जाने क कोई
संभावना नह रहती। और यान क इस सम या म वेश करने के लए
ारंभ म ही सदाचार क न व रखनी होगी। मेरा ता पय समाज ारा
आरो पत सदाचार से नह है, उस नै तकता से नह है जो भय, लोभ, ई या,
कसी तरह के दं ड या पुर कार के मा यम से पो षत होती है।
म उस सदाचार क बात कर रहा ं, जो तब वाभा वक प से,
वतः ही, सहजता से, बना कसी ं या अवरोध के आता है, जब अपने
आपको जाना जाता है। व ान के बना, वयं को जाने बना, आप चाहे
जो कर ल, संभवतः यान क थ त आ ही नह सकती। ‘ व ान’ से मेरा
अ भ ाय है अपने येक वचार, येक भावदशा, येक श द, येक
भावना को जानना; अपने मन क ग त व ध को जानना न क कसी
‘परम व’, ‘ वराट व’ का ान; ऐसा कुछ नह है; ‘उ चतर व’,
‘आ मन्’ अभी भी वचार के े म ही ह। वचार आपके सं कार का
प रणाम है, वचार आपक मृ त का यु र है चाहे वह मृ त पुरख
क हो अथवा ता का लक हो। तो पहले गहन व अचल प से उस
सदाचार को जीवन म लाए बना, जो व ान के मा यम से आता है, मा
यान करने का यास नतांत वंचनापूण और पूरी तरह थ है।
दे खए, यह बात उनके लए ब त मह वपूण है, जो इस सबको
संजीदगी से समझना चाहते ह, य क य द आप यह नह कर पाते तो
आपका यान और आपका वा त वक जीवन जुदा रहते ह, इनम री बनी
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रहती है इतनी अ धक री क चाहे आप आसन-मु ाएं लगा कर
अ न त काल तक यान करते रह, सारी उ आप अपने नासा से आगे
कुछ नह दे ख पाएंगे; कोई आसन आप लगा ल, चाहे जो आप करते रह,
उसका कुछ मतलब नह होगा।
अतः जो मन जांच-पड़ताल करता है जांच-पड़ताल श द का
योग म जान-बूझ कर कर रहा ं क यान या है, उसे यह न व रखनी
ही होगी, जो वाभा वक प से अपने आप ही, न यास ही सहजता के
साथ रखी जाती है जब व ान होता है। और यह समझना भी मह वपूण
है क यह व ान, वयं को जानना या है, यह है ‘म’ के त, जसका
ोत मृ तय के ढे र म है, बना कुछ चयन कए, सजग होना म अभी
सजगता के अथ म जाऊंगा इस ‘म’ के त बना कसी ा या के
सचेत होना, मन क ग त का अवलोकन मा करना। कतु वह अवलोकन
हो नह पाता है, जब आप अवलोकन के मा यम से केवल सं ह करते ह
क या करना है, या नह करना है, या उपल ध करना है, या उपल ध
नह करना है। और य द आप ऐसा करते ह, तो व के प म मन क ग त
क जीवंत या पर रोक लगा दे ते ह। ता पय यह क मुझे त य का,
वा त वक का, ‘जो है’ उसका अवलोकन करना होगा, उसे दे खना होगा।
य द म इस तक कसी मत, कसी धारणा के साथ आता ं, जैसे क ‘मुझे
यह नह करना होगा’ या ‘ऐसा करना होगा’ जो मृ त क त याएं ही
ह तब ‘जो है’ क ग त म अवरोध आते ह, बाधा पड़ती है, अतएव
सीखना नह हो पाता।
वृ से होकर बहती हवा का अवलोकन करना हो, तो आप उसका
कुछ कर नह सकते, वह वेग से बह सकती है, या सौ यता से, स दय पूवक
बह सकती है। आप, जो इसका अवलोकन कर रहे ह, इसे नयं त नह
कर सकते। आप इसे आकार नह दे सकते, आप ऐसा नही कह सकते,
“म इसे मन म संजो रखूंगा”। यह तो बस होती है। आप इसे याद तो रख
सकते ह। परंतु य द आप इसे याद रखते ह, और अगली बार वृ से
गुजरती हवा को नहारते समय उस याद को बीच म ले आते ह, तो आप
वृ म हवा के ाकृ तक बहाव को नह दे ख पाते, ब क केवल अतीत के
बहाव को याद कर रहे होते ह। इस लए आप सीख नह रहे होते, अ पतु
जो आप पहले से जानते ह, उसम बस कुछ जोड़ रहे होते ह। तो एक तर
पर जानकारी, अगले तर के लए बाधा बन जाती है।
मुझे उ मीद है क यह बात एकदम प है। य क जस बात को
अब हम समझने जा रहे ह, उसके लए एक ऐसे मन क दरकार है जो पूरी
तरह प हो, पूवपहचान क कसी भी ग त के बना दे ख और सुन पाने म
समथ हो।

े ो ो
अतः पहले तो हम ब कुल प होना चा हए, मत नह रहना
चा हए। प ता अ नवाय है। ‘ प ता’ से मेरा अ भ ाय है, चीज़ को जैसी
वे ह ठ क वैसी ही दे ख पाना; बना कसी मत के, ‘जो है’ को दे खना;
अपने मन क ग त को दे खना, इसका ब त करीब से, भली-भां त
प र मपूवक, कसी योजन के बना, दशा- नदश के बना अवलोकन
करना। इस कार मा अवलोकन के लए अद्भुत प ता क
आव यकता होती है, अ यथा आप अवलोकन नह कर सकते। य द
आपने घूमती ई च ट का, जो कुछ भी वह करती है उस सबका नरी ण
करना हो, तो अगर ऐसा करने म आप च ट के बारे म व वध जै वक त य
को बीच म लाते ह, तब वह जानकारी आपके दे खने म कावट बन जाती
है। इस तरह आप त काल यह दे खने लगते ह क कहां जानकारी
आव यक होती है, और कहां जानकारी बाधा बन जाती है। तो अब कोई
उलझन नह रहती।
जब मन प , अचूक होता है, गहन व मूलभूत ववेचना म समथ
होता है, तो यह नषेध क अव था म होता है। हमम से अ धकतर लोग
बात को आसानी से वीकार कर लेते ह, हम इतने भोले, आशु व ासी
होते ह, य क हम तस ली चाहते ह, सुर ा चाहते ह, उ मीद का एहसास
चाहते ह, हम चाहते ह कोई हमारा उ ार कर दे द ा माएं, मसीहा,
गु , ऋ ष-मु न, आप इस सम त बखेड़े से प र चत ही ह हम तुरंत,
आसानी से वीकार कर लेते ह, और उतनी ही आसानी से, अपने मन के
मौसम के मुता बक, अ वीकार भी कर दे ते ह।
चीज़ वयं के भीतर जैसी ह, वैसी ही दे ख पाने का भाव ‘ प ता’ है।
य क यह जो वयं है, यह संसार का ही एक भाग है। वयं ही
संसार क ग तशीलता है। जसे हम ‘ वयं’ कह रहे ह, वह बा
अभ है, जो भीतर क ओर उ मुख ग त है यह उस वार-तरंग क
तरह है जो बाहर क ओर वाह लेती है, और फर भीतर लौट आती है।
संसार से भ वयं पर आपका एका होना, अवलोकनरत होना आपको
अलगाव क ओर ले जाता है, - वल णता, मन के असंतुलन और
अकेला करने वाले भय और ऐसी अ य दशा क तरफ ले जाता है।
कतु य द आप संसार का अवलोकन करते ह, और संसार क ग त का
अनुसरण करते ए उसी ग त पर आ ढ़ होकर भीतर क ओर लौटते ह,
तब आपके और संसार के बीच कोई वभाजन नह होता, तब आप
सामू हक से वपरीत वैय क नह होते।
और अवलोकन का यह भाव आव यक है, जो अ वेषी भी है जो
खोज रहा है और साथ ही अवलोकन कर रहा है, सुन रहा है, सजग है।
म ‘अवलोकन’ श द का योग उस अथ म कर रहा ं। अवलोकन का
काय ही अ वेषण का काय है। य द आप वतं नह है, तो खोज नह कर
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सकते। इस लए खोजने के लए, अवलोकन के लए, प ता होनी ज़ री
है; वयं के भीतर गहराई से खोजने के लए आपको हर बार इस तक नये
सरे से आना होगा। ता पय यह क उस अ वेषण म, उस खोज म आपने
कभी कोई प रणाम उपल ध नह कया होता है, आप कभी कसी सीढ़
पर नह चढ़े होते ह, और आप ऐसा कभी नह कहते, ‘अब म जानता ं।’
कोई सीढ़ नह है। य द आप चढ़ते भी ह, तो आपको त काल नीचे आना
होता है, ता क आपका मन अवलोकन करने, दे खने, सुनने के लए
अ तशय संवेदनशील रहे।
इस अवलोकन करने, सुनने, दे खने, नरी ण करने म ही सद्गुण का
वह असाधारण स दय आता है। अपने-आप को जानने से आने वाले
सद्गुण के अ त र अ य कोई सद्गुण नह होता। तब वह सद्गुण
जीवंत, ऊज वी, स य होता है न क कोई मृत ल ण जसका आपने
अ यास कर लया है। और वह न व आव यक है। अथात अवलोकन,
प ता तथा सद्गुण यान के लए न व ह, उस अथ म जसक हमने बात
क है उस अथ म नह जो आपने सद्गुण को दया आ है क उसे दन-
ब- दन अ यास से बढ़ाते ह, वह तो तरोध मा होता है।
तब, वहां से हम तथाक थत ाथना , कसी कोने म बैठ कर श द ,
मं के तथाक थत जप, और कसी वशेष व तु या श द या तीक पर
मन को एका करने के य न, जो क संक पपूवक आयो जत यान है
इन सबके न हताथ को दे ख सकते ह। यान से सु नएगा। जानते-बूझते
कसी आसन-मु ा म बैठने या तय करके, सचेत प से यान के लए
वशेष कुछ करने का आशय यही है क आप अपनी ही कामना , अपनी
ही सं कारब ता के े म खेल खेल रहे ह; और इस लए यह तो यान
नह है। य द कोई अवलोकन करे तो भली-भां त दे ख सकता है क जो
लोग वैसा यान करते ह, उ ह ने मन म तमाम तरह क छ वयां बना रखी
होती ह; वे कृ ण, ईसा मसीह, बु को दे खने लगते ह और सोच लेते ह क
उ ह कुछ उपल ध हो गया है जैसे क जो ईसाई होता है वह ईसा मसीह
को दे खता है। अब यह जस कार होता है, वह बलकुल सीधी, एकदम
प बात है; यह उसके अपने सं कार , अपने भय, अपनी आशा ,
अपनी सुर ा क कामना का ेपण होता है। ईसाई ईसामसीह को दे ख
लेता है, जैसे आप राम को अथवा अपने कसी भी इ दे वता को दे खते।
इन दशन म कुछ भी असाधारण नह है। ये आपके अचेतन क
उपज ह, जो क अ य धक सं कार त, भय म श त रहा है। जब
आप थोड़े से शांत होते ह, तो यह अपनी तमा , तीक , धारणा
स हत झट से ऊपर आ जाता है। तो दशन , भाव-समा धय , च और
यय का कुछ भी, कसी भी तरह का मू य नह है। यह तो इस तरह है,
जैसे कोई कुछ मं , वा यांश या नाम बार-बार दोहराता चला जाए।
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जब आप कसी नाम को बारंबार पुनः दोहराते रह, तो ज़ा हर है क यही
होता है क आप अपने मन को त ध, मूढ़ बना दे ते ह और उस मूढ़ता म
यह शांत हो जाता है। यह ऐसे ही है जैसे आप मन को शांत बनाने के लए
कोई मादक ले ल इस तरह के होते ह और उस त धता क ,
नशे क अव था म आपको दशन होने लगते ह। प तः ये सब आपके
अपने समाज, अपनी सं कृ त, अपनी आशा और भय क उपज है;
यथाथ से इनका कुछ भी लेना-दे ना नह है।
ाथना क भी यही थ त है। वह जो ाथना करता है, उस
क तरह है जसक नज़र कसी और क जेब पर है। ापारी,
राजनेता और त प ा म लगा सारा समाज शां त के लए ाथना तो
करता है, ले कन ये सारे वह सब कुछ करने म लगे ह, जससे यु , घृणा
और वैमन य उपजते ह इसका कोई अथ, कोई औ च य नह है। आपक
ाथना एक याचना है, आप कुछ ऐसा मांग रहे ह जसे मांगने का आपको
कोई अ धकार नह है य क आप जी ही नह रहे ह, आप सदाचारी
नह ह। आप अपने जीवन को समृ दे ने के लए कुछ ऐसा चाहते तो ह,
जो शां तमय हो, महान हो, परंतु कर आप वह सब कुछ रहे ह जो इसके
वपरीत है व इसे वन करता है : अधम, ु , मूढ़ बनते जा रहे ह।
तो ाथनाएं, द दशन, कसी कोने म सीधे होकर बैठना, सही
तरीके से सांस लेना, अपने मन के साथ कुछ न कुछ करते रहना, ये सब
बचपने क , अप रप व बात ह, इन सबका उस के लए कोई मह व
नह है, जो इस बात के पूरे ता पय को समझना चाहता है क यान या
है। अतः वह जसे यह समझना हो क यान या है, उस तरह क
बात को पूरी तरह याग दे ता है, चाहे उसका काम छू ट जाए; वह नौकरी
पाने के लए कसी ु दे व के पास नह जा प ंचता इस तरह का खेल
आप सब खेलते ह। जब आप कसी कार के ख म होते ह, परेशान होते
ह, मं दर क ओर ख करते ह, और वयं को धा मक कहा करते ह यह
सब आपको पूरी तरह, एकदम से परे करना होगा, ता क यह आपको छू
तक न सके। य द आपने यह कर लया है, तो हम इस सम त म आगे
बढ़ सकते ह क यान या है।
आपम अवलोकन, प ता, व ान और उससे उद्भूत सदाचार का
होना आव यक है। सदाचार वह है, जो हर समय अ छाई म पु पत होता
है; हो सकता है आप कोई गलती कर बैठ, आपसे बुरे काम हो जाएं,
ले कन वे समा त हो चुके होते ह; आप आगे बढ़ रहे होते ह, अ छाई म
खल रहे होते ह य क आप वयं को जान रहे होते ह। उस न व को रख
कर, तब आप ाथनाएं, श द का बुदबुदाना और आसन-मु ा लगाना एक
तरफ हटा सकते ह। तब आप इस बात क पड़ताल शु कर सकते ह क
अनुभव या होता है।
ै े ै
अनुभव या है, इसे समझना ब त मह वपूण है य क हम सब
अनुभव चाहते ह। एक तो हमारे रोज के अनुभव होते ह द तर जाना,
झगड़ना, डाह रखना, ई यालु, ू र, त प ारत, कामातुर होना। जीवन म
दन- त दन, चेतन या अचेतन प से, हम येक कार के अनुभव से
गुजरते ह। और हम अपने जीवन क सतह पर जीते रहते ह, बना स दय
के, बना कसी गहराई के; हमारे पास अपना ऐसा कुछ नह है जो
मौ लक, नैस गक, सु प हो। हम सब दोयम दज के नकलची मनु य ह,
सर को उद्धृत करते रहते ह, सर का अनुसरण करते रहते ह, शंख क
तरह खोखले ह। और वभावतः हम रोज के अनुभव से भ अ धक
अनुभू त क चाह होती है। अतः हम या तो यान के मा यम से, या कुछ
नवीनतम मादक लेकर ऐसी अनुभू त ा त करना चाहते ह। एल एस
डी 25 इ ह नये मादक म से एक है; और जस ण आप इसे लेते
ह, आपको लगता है क आपने ‘झटपट रह य ’ का अनुभव कर लया
है ऐसा नह है क मने इस को लेकर दे खा है। (हंसी)
हम गंभीरता से बात कर रहे ह। आप ज़रा सी उकसाहट पर हंस
पड़ते ह, इस लए आप गंभीर नह ह, आप वयं को दे खते ए एक-एक
कदम करके इसम वेश नह कर रहे ह, आप केवल श द को सुन रहे ह
और उन पर सवार हो कर बहे जा रहे ह जैसा न करने के लए मने
आपको इस वाता के आरंभ म ही चेता दया था।
तो ऐसे मादक होते ह, जो आपक चेतना को फैलाते से लगते ह
तथा उतने से समय के लए आपको उ च-संवेदन म बना दे ते ह। और उस
बढ़ ई संवेदन मता क दशा म आप व तु को दे खते ह : वृ
आ यजनक प से जीवंत लगने लगता है, चटख, प और न सीम सा।
अथवा आप य द धा मक वृ के ह, तो आपको उस ती संवेदन वाली
हालत म शां त और काश का एक असाधारण बोध होने लगता है;
आपके ारा जो भी दे खा जा रहा है उसके और आपके बीच भेद नह
रहता, आप वही हो जाते ह; जैसे पूरा सृ - व तार आप ही का अंश होता
है। और फर आप इन मादक के लए ललकने-तरसने लगते ह
य क अब आपको और अनुभव चा हए, और अ धक व तृत, और
अ धक गहरा अनुभव, जससे आपक आशा बंधी होती है क वह आपके
सम त जीवन क साथकता कट करेगा, और इस तरह इन पर
आपक नभरता शु हो जाती है। तो भी, आपको जब ये अनुभव होते ह,
आप उस समय भी होते वचार के ही े म ह, वह े ात का ही होता
है।
तो आपको अनुभव को समझना होगा; अनुभव अथात कसी चुनौती
को दया गया यु र जो त या बन जाता है, और वह त या
आपके वचार, आपक भावना, आपके अ त व को आकार दे ती है। तथा
औ औ ो े े े ो े
आप इसम और-और अनुभव जोड़ते चले जाते ह, आप सोचते ह क
आपको अ धका धक अनुभव होते रह। जतनी अ धक प इन अनुभव
क मृ त होती है, उतना ही अ धक आपको याल होता है क आप
जानते ह। ले कन य द आप गौर कर तो पाएंगे क जतना अ धक आप
जानते ह, उतने ही अ धक छछले और खाली आप हो जाते ह। तो आपको
न केवल वह समझना होगा जो आपको पहले मने कहा है, अ पतु अनुभव
क इस असाधारण मांग को भी समझ लेना होगा। अब हम आगे बढ़
सकते ह।
ऐसा मन जो कसी भी कार के अनुभव क तलाश म है, अभी भी
समय के, ात के े म ही है, व- े पत इ छा के े म ही है। जैसा
क मने वाता के ारंभ म कहा था, तय करके कया गया यान केवल म
क ओर ले जाता है। तो भी, यान क आव यकता तो प है।
संक पपूवक, सोच-बूझ कर कया गया यान केवल आपको व भ
कार के आ म-स मोहन, आपक अपनी इ छा , अपने सं कार ारा
े पत तमाम तरह के अनुभव क ओर ले जाता है, और ये इ छाएं, ये
सं कार आपके मन को आकार दे ते ह, आपके वचार इनसे नयं त होने
लगते ह। इस लए वह जो यान क गहन अथव ा को व तुतः
समझना चाहता हो, उसे अनुभव के अ भ ाय को भी समझ लेना होगा;
और यह भी आव यक है क उसका मन तलाशते रहने से मु हो। यह
ब त क ठन होता है। म अब इसी पहलू क व तार से चचा क ं गा।
इन सब बु नयाद बात को सहज, वतः फूत, सरल प से कह लेने
के बाद अब हम यह पता लगाना होगा क वचार को नयं त करने का
अथ या होता है। य क इसी क तो आप तलाश म ह। जतना अ धक
आप वचार को नयं त कर पाते ह, उतना अ धक आप यान म आगे बढ़
गए ह ऐसा सोचने लगते ह। मेरे दे खे तो, शारी रक, मान सक, बौ क,
भावा मक कसी भी कार का नयं ण तकारक है। कृपया इसे यान
से सुन। यह न कहने लग, “तब तो जो मुझे पसंद हो, क ं गा”। म ऐसा
नह कह रहा ं। नयं ण म, वश म करना, दमन, अनुकूलन, वचार को
कसी वशेष सांचे म ढाल लेना, ये सारी बात आ जाती ह और यह भी क
वह सांचा, वह ा प इस बात क खोज क अपे ा अ धक मह व का हो
जाता है क स य या है। तो कसी भी कार का नयं ण वह तरोध,
दमन या उदा ीकरण चाहे जस प म हो मन को अतीत के अनुसार,
उन सं कार के अनु प जनम आप पले-बढ़े ह, कसी वशेष समुदाय के
सं कार तथा ऐसी ही अ य-अ य बात के मुता बक ढालने लगता है।
यान या है यह समझना ब त आव यक है। अब कृपया
सावधानीपूवक सुन। मुझे पता नह क आपने पहले कभी इस कार का
यान कया भी है या नह , शायद नह कया है। पर अब आप इसे मेरे साथ
े े े े े
करने जा रहे ह। हम यह या ा साथ-साथ करने वाले ह, शा दक प से
नह अ पतु वा तव म, इस सबसे गुज़रते ए ठ क उस छोर तक जाना है,
जहां तक शा दक सं ेषण क प ंच है। अथात यह ऐसा ही है, जैसे क
हम उस ार तक साथ-साथ जाएं, और तब आप या तो उस ार से होकर
जा सकते ह, या ार के इस ओर ही ठठक सकते ह। आप ार के इस
ओर ही क जाएंगे, य द आपने वा तव म, त यतः वह सब नह कया है
जस बारे म बात क जा रही है इस लए नह क व ा यह कह रहा है,
ब क इस लए, य क यह व थ, संतु लत व तकसंगत बात है और हर
जांच, हर परी ा म खरी उतरेगी।
तो अब साथ-साथ हम यान म उतरने जा रहे ह तय करके कये
जाने वाला यान नह , य क वैसा कुछ तो होता ही नह है। यान तो ऐसा
है जैसे कोई खड़क खुली छोड़ दे , हवा को जब आना होगा, आ जाएगी
फर वह हवा जो भी लाए, जैसी भी वह बयार हो। कतु य द आप
हवा के आने क अपे ा रख, ती ा कर, य क आपने खड़क खुली
छोड़ रखी है, तो वे कभी नह आएंगी। अतः खड़क का खुलना ेम क
वजह से, नेह और वतं ता क वजह से हो, इस लए नह क आप कुछ
चाहते ह, और यही स दय क अव था है, यही मन क वह थ त है, जो
दे खती है और कुछ मांग नह करती।
सजग होना मन क एक असाधारण थ त है अपने प रवेश के
त, वृ के त, उस गाते ए प ी के त, पीछे छू टते सूया त के त
सजग होना; उन चेहर , उन मु कान के त सजग होना, सड़क क गद
के त सजग होना; धरती के स दय, डू बते सूरज के सामने खड़े ताड़ और
पानी क छोट सी लहर के त सजग होना बस केवल सजग, जाग क
होना, बना कसी चयन के। कृपया इसे अब कर, जब आप साथ या ा कर
रहे ह। इन प य को सुन, इ ह नाम न द, कौन सा प ी है यह न
पहचानने लग, ब क सफ सुन, उस व न को सुन। अपने वचार क
हलचल को सुन, उ ह नयं त मत कर, आकार न द, यह न कह, “यह
सही है, वह गलत है”, बस उनके साथ बढ़। यह सजगता है, जसम कोई
चयन, चुनाव नह है, नदा नह है, नणय नह है, कोई तुलना या ा या
नह है, बस अवलोकन मा है। ऐसी सजगता आपके मन को अ यंत
संवेदन म, संवेदनशील बनाती है। जस ण आप नाम दे ते ह, आप
वापस लौट चुके होते ह, आपका मन मंद बन जाता है, य क उसी का
आपको अ यास पड़ा आ है।
सजगता क उस थ त म अवधान, सावधानता होती है नयं ण
नह , एका ता नह । अवधान है इसका अथ है, आप प य को सुन रहे
ह, आप सूया त को दे ख रहे ह, आप वृ क हल-चल के क जाने को
दे ख रहे ह, गुज़रती ई कार क आवाज़ आपको सुनाई पड़ रही है, आप
ो े औ े े
व ा को सुन रहे ह और आप इन श द के अथ के त सावधान ह, आप
अपने वचार और भावना के त एवं इस अवधान क ग तमयता के
त सावधान ह। आप ापक प से, बना कोई सीमा बनाए, न केवल
चेतन तर पर अ पतु अचेतन तल पर भी सावधान ह। अचेतन कह
अ धक मह वपूण है, इस लए अचेतन क आपको जांच-पड़ताल करनी
होगी।
म ‘अचेतन’ श द का इ तेमाल कसी पा रभा षक श द या तकनीक
के तौर पर नह कर रहा ं। मनोवै ा नक इसे जस अथ म लेते ह, उस
अथ म म इसका योग नह कर रहा ं, ब क म उसक बात कर रहा ं,
जसके त आप सचेत नह होते। य क हमम से अ धकतर लोग मन
क सतह पर ही जया करते ह : द तर जाते ह, कोई तकनीक या
जानकारी हा सल करते ह, झगड़ते रहते ह, और इसी तरह क और चीज़
कया करते ह। हम अपने अ त व के उस गहरे तल क ओर कभी यान
नह दे ते, जो हमारे समुदाय का, जातीय आनुवं शक अव श का, सम
अतीत का केवल के प म आपके अतीत का ही नह , ब क
मनु यमा के अतीत का और उसक ता का प रणाम है। जब
आप सो जाते ह, तो यह सब कुछ अपने-आप को व के प म े पत
करता है, और फर उन व क ा या क बात आती है। व उस
मनु य के लए पूरी तरह अनाव यक हो जाते ह, जो जागा आ है, सतक
है, जो दे ख रहा है, सुन रहा है, सजग है, अवधानयु है, सावधान है।
अब ऐसा अवधान अ य धक ऊजा क मांग करता है : वह ऊजा नह
जो आपने अ यास के ारा, अ ववा हत रह कर या इसी तरह क अ य
बात से इकट् ठ क है वह सब तो लोभ क ऊजा है। म व ान क ,
वयं को जानने क ऊजा क बात कर रहा ं। चूं क आप यह सही न व
रख चुके ह, उसी से ऊजा आती है अवधान के लए, जसम एका ता
वाला अ भ ाय नह होता।
एका ता तो वजन है, ब ह कार है आप उस संगीत को सुनना
चाहते ह और वह भी सुनना चाहते ह जो व ा कह रहा है, इस लए आप
अपने भीतर उस संगीत का तरोध करते ह और व ा को सुनने का
य न करते ह; अतः आप वा तव म पूण अवधान, अपना पूरा यान नह
दे रहे होते। आपक ऊजा का एक ह सा उस संगीत का तरोध करने म
जा रहा है और सरे ह से से आप व ा को सुनने का यास कर रहे ह,
इस लए आप पूरी तरह नह सुन रहे ह, अतएव आप पूण अवधान, पूरा
यान नह दे रहे ह। अतः य द आप एका होते ह, तो केवल तरोध कर
रहे होते ह, ब ह कार कर रहे होते ह। कतु ऐसा मन जो अवधानयु है,
बना कुछ व जत कए एका भी हो सकता है।

ो े ऐ े ो ै ो ौ
तो इस अवधान से एक ऐसे म त क का ा भाव होता है जो मौन
है, म त क-को शकाएं वतः ही शांत ह उ ह शांत बनाया नह गया है,
उ ह अनुशा सत करके, बा य करके, ज़बरद ती अनुकू लत नह कया
गया है। कतु चूं क यह सम अवधान वाभा वक प से, वतः ही बना
कसी यास के, सहजता से घ टत आ है, म त क क को शका को
वकृत जड़, , कठोर नह बना दया गया है। मुझे आशा है, आप यह
सब समझ रहे ह। जब तक वयं म त क-को शकाएं ही अद्भुत प से
संवेदनशील, जीवंत नह होत , कठोर बना कर, ठोक-पीट कर, अ तकाय
से बो झल होकर, ान के कसी खास वभाग म वशेष ता ारा नह ,
अ पतु जब तक वे असाधारण प से संवेदन म नह हो जात , वे शांत
नह हो सकत । तो आव यक है क म त क शांत हो, पर साथ ही हर
त या के त संवेदनशील हो, इस सारे संगीत, आवाज़ , प य के
त सजग हो, इन श द को सुन रहा हो, सूया त होता दे ख रहा हो
कसी भी दबाव, असर या तनाव के बना। म त क का शांत होना
आव यक है, य क ऐसी शां त के बना जो अ े रत है, जसे कृ म प
से नह लाया गया है, प ता संभव नह है।
ऐसी प ता केवल तभी आ सकती है, जब अवकाश होता है, खाली
जगह होती है। और आपके भीतर अवकाश तब होता है, जस ण
म त क पूणतः शांत कतु अ य धक संवेदनशील होता है, नज व नह ।
और इसी कारण यह ब त मह वपूण है क आप सारा दन या करते ह।
प र थ तय ारा, समाज ारा, आपके नौकरी-धंध और वशेष ता
ारा, कसी द तर म तीस या चालीस साल नदयता से घसते- पसते
इस सबके ारा म त क कठोर बना दया जाता है, उसक असाधारण
संवेदनशीलता न हो जाती है और म त क का शांत होना ज़ री है। तब
उसी से संपूण मन, जसम म त क भी शा मल है पूरी तरह न ल होने म
समथ होता है। यह न ल मन अब कुछ नह खोज रहा है, इसे कसी
अनुभव क ती ा नह है, यह कतई कसी अनुभव से नह गुज़र रहा है।
मुझे आशा है क आप यह सब समझ पा रहे ह। शायद आप नह
समझ रहे ह पर इससे कोई अंतर नह पड़ता। आप केवल सुन। मुझसे
स मो हत न ह , ले कन इस बात के स य को सुन। और शायद फर कभी,
जब आप बाज़ार म टहल रहे ह , बस म बैठे ह , कसी जल वाह को, या
हरे-भरे लहलहाते धान के खेत को नहार रहे ह , यह सच अनजाने ही, र
दे श से आती कसी सांस क तरह आपको पश कर ले।
इस लए तब मन, बना कसी दबाव के, बना कसी बा यता के,
पूणतः न ल हो जाता है। यह न लता वचार ारा न मत नह है,
य क वचार तो समा त हो चुका है, वचार का पूरा का पूरा यं अब क
चुका है। वचार का अंत आव यक है, नह तो वचार, और अ धक छ वयां,
औ औ े औ औ औ
और धारणाएं, और म उपजाता रहेगा और, और, और। इस लए
आपको वचार के इस पूरे के पूरे यं को समझना पड़ेगा यह नह क
वचार करना रोक कैसे। य द आप वचार के सम त यं को समझ लेते ह,
जो क मृ त का यु र, साहचय व पहचानना, नाम दे ना, तुलना तथा
मू यांकन है य द आप इसे समझ लेते ह, तो वभावतः वचार का
अवसान हो जाता है। जब मन पूणतः न ल होता है, तब उस न लता से,
उस न लता म, एक बलकुल अलग तरह क ग त होती है।
वह ग त वचार ारा, समाज ारा, आपने जो पढ़ा है या नह पढ़ा है
उस सबके ारा न मत ग त नह है। वह ग त समय व अनुभव क नह है,
य क उस ग त म कोई अनुभव नह है। एक न ल मन म कोई अनुभव
घ टत नह होता है। एक खर जगमगाते काश को कुछ और अ धक नह
चा हए होता है, वह अपना काश वयं होता है। वह ग तशीलता कसी
दशा क ओर ग त नह करती है, य क दशा म तो समय न हत है। उस
ग तमयता का कोई कारण नह है, य क जसका कुछ कारण होता है,
उसका कोई काय अथात प रणाम भी होता है और वह काय पुनः कारण
बन जाता है और इस कार से कारण और काय क अंतहीन शृंखला
बनती जाती है, जो प रणाम होता है, वह फर कारण बना करता है। तो
अब न कह कोई प रणाम है, न कारण है, न योजन है, न ही कसी
अनुभव का एहसास है। अतएव चूं क मन पूणतः न ल है, वाभा वक
प से न ल है य क आप वह न व रख चुके ह, इसका जीवन से
य संबंध है, यह दै नं दन जीवन से व छ , अलग नह है।
य द मन वहां तक जा पाया है, तो वह ग तमयता ही सजन है। तब
अभ क बेचैनी नह होती है, य क जो मन सजन क थ त म है,
उससे अ भ हो भी सकती है, नह भी हो सकती है। इस संपूण मौन
म मन क जो थ त है उसम ग त होगी, उसक अपनी ग तशीलता
होगी, अ ात म, उसम जसे कोई नाम नह दया जा सकता।
तो जो यान आप कया करते ह, यह यान नह है जसक हम बात
कर रहे ह। यह यान शा त से शा त क ओर है, य क आप न व रख
चुके ह, समय पर नह , अ पतु यथाथ पर।
चे ई,
29 जनवरी 1964
अठारह
वे चीज़ ज ह वचार ने पावनता के प म गढ़ा है, वे पावन नह ह। वे तो
जीवन को कोई साथकता दे दे ने के लए द श द मा ह, य क आप
जैसा जीवन जी रहे ह, वह तो पावन नह है, प व नह है। प व श द तो
सम से आता है, जसका अथ है व थ, संतु लत, अतएव प व । उस
श द म वह सब स हत है। तो वह मन ज़रा इसे सम झए जो वचार
के मा यम से कायरत है, उस पावन को पा लेने के लए चाहे जतना
इ छु क हो, अभी भी समय के े म, वखंडन के े म ही याशील है,
तो या मन अ वखं डत, सम हो सकता है यह सब समझना, यान या
है इसे समझने का ही अंश है। मन, जो क म वकास का, समय का
उ पाद है, उतने सारे भाव , उतनी सारी चोट , लां तय , इतने सघन
ःख, गहरी चता क उपज है, इ ह सब म जकड़ा आ है। और यह सब
वचार का ही प रणाम है। जैसा क हमने कहा है, वचार का वभाव ही
खं डत होना है, और मन, जस थ त म यह अब है, वचार का ही नतीजा
है। तो या मन वचार क ग त व ध से मु हो सकता है या मन पूणतः
अखं डत हो सकता है या आप जीवन को सम प म दे ख सकते ह
या मन सम हो सकता है, जसका अथ है उसका एक भी खंड न हो।
इस लए यहां अ यवसाय क , कमठता क बात आती है। मन तब सम
होता है, जब यह अ यवसायी होता है, जसका अथ है, यह परवाह लेता है,
इसम गहन नेह, अथाह ेम होता है, जो नर-नारी के ेम से नतांत भ
है।
तो ऐसा मन जो सम है, अवधानयु होता है, सावधान होता है,
इस लए यान रखता है, परवाह करता है और इसम ेम के गहन थायी
भाव क गुणव ा होती है। ऐसा मन ही वह सम ता है। तब आप उस थल
पर आते ह, जब यह अ वेषण आरंभ होता है क यान या है। अब हम
पावन के अ वेषण म आगे बढ़ सकते है। कृपया सुन, यह आपका जीवन
है, अपना दय तथा मन इस बात का पता करने म लगाएं क जीवन जीने
का एक बलकुल भ ढं ग कौन-सा है। जसका अथ है, जब मन सम त
नयं ण का प र याग कर दे । इसके ये मायने नह ह क आप एक ऐसी
ज़ दगी जीने लग, जसम जो चाहे कया कर, खुद को हर इ छा, हर
वासना भरी झलक या त या, हर सुख, सुख क दौड़ क मांग के
हवाले कर द, ब क यह पता लगाएं क या आप कसी भी नयं ण के
बना, कोई भी बं दश लगाए बना अपना दै नक जीवन जी सकते ह। यह
यान का ही एक ह सा है। इसका अथ है क म अवधान का,
सावधानी का यह गुण होना आव यक है। वह अवधान ही इस बारे म
अंत को ज म दे ता है क वचार क सही जगह या है; वचार
ी ो ै ो ै औ
खंडनशील होता है, तथा जहां नयं ण होता है, वहां नयं क और नयं त
होते ह, जो क वखंडन है। तो कसी भी नयं ण के बना जीवन का ढं ग
पता लगाने के लए अपार अवधान क , अनथक अनुशासन क दरकार
होती है, और यह वैसा अनुशासन नह है जसके आप अ य त ह, जो
दमन, नयं ण, अनुसरण मा है, अ पतु हम बात एक ऐसे अनुशासन क
कर रहे ह, जसका अथ होता है सीखना। अनुशासन श द श य श द से
आया है। श य वह है, जो सीख रहा हो। अब यहां न कोई श क है, न
श य है : आप ही श क ह और आप ही श य ह, य द आप सीख रहे ह।
और सीखने का यह कृ य ही अपनी व था वयं लाता है।
अब वचार ने इस बात का पता लगा लया है क इसक जगह, सही
जगह या है। तो अब मन पर भौ तक या के प म होने वाली उस
ग त व ध का बोझ नह है, जो क वचार है। जसका अथ यह है क मन
पूरी तरह खामोश है, मौन है। यह वाभा वक प से मौन है, इसे मौन
बनाया नह गया है। जसे मौन बना लया गया हो, शांत बना लया गया
हो, वैसा मन तो बंजर है। पर जब मन मौन होता है, खामोश होता है, तो
उस खामोशी म, उस र ता म कुछ नयाघ टत होता है।
तो या यह मन, आपका मन, बना नयं ण के, बना वचार क
ग त व ध के पूण प से मौन हो सकता है, न ल हो सकता है यह
वाभा वक प से मौन हो जाएगा, य द आपको वह अंत मल जाय
वह अंत , जो वचार को इसके सही थान पर ले आती है। तब फर
वचार क अपनी एक सही जगह होती है, अतएव मन शांत हो जाता है।
आप समझ रहे ह क शांत श द का, मौन श द का या अथ होता है ऐसा
है क आप मन को कोई मादक ले कर, कसी मं पाठ के ारा,
उसको लगातार, बारबार दोहराकर शांत तो कर सकते ह, ज़ा हर है क तब
आपका मन चुप पड़ ही जाएगा। पर ऐसा मन एक मंद, मूढ़ मन होगा।
फर एक शां त वह है, जो दो व नय के म य म होती है। दो सुर के बीच
एक खामोशी होती है। फर शाम क एक चु पी है, जब पंछ खूब बो लयां
बोल लेने, चहचहा लेने के बाद सोने चले गए ह और एक भी प ा नह
खड़क रहा है, हवाएं थम गई ह और फज़ा पूरी तरह से खामोश है, कसी
शहर म नह ब क जब आप कह बाहर होते ह, कुदरत के साथ, पेड़ के
आस-पास, या आप कसी नद के कनारे बैठे होते ह तो एक चु पी उतर
आती है धरती पर, और आप उस चु पी का ही ह सा होते ह। तो अलग-
अलग ढं ग क शां त होती है, पर जस शां त क बात हम कर रहे ह, मन के
मौन क , उस मौन को खरीदा नह जा सकता, आप उसका अ यास नह
कर सकते, वह ऐसा कुछ नह है जसे एक भ ज़दगी के मुआवज़े के
तौर पर, ईनाम क श ल म आप हा सल कर ल। यह तो तभी घ टत होता
है, जब यह व प ू जीवन एक अ छे जीवन म पांत रत हो जाए, यहां

े े े ै े े ई े ी े
अ छे से मेरा ता पय वैभव से नह , अ पतु शुभता के, अ छाई के जीवन से
है; उस शुभता के, सुंदरता के खलने पर ही उस मौन का आगमन होता है।
और आपको इस पर भी सोच- वचार करना है क सुंदरता या
है। स दय होता या है या आप कभी इस म गए ह, या इसका
जवाब आप कसी कताब म ढूं ढ़ लगे और मुझे या एक- सरे को बताने
लगगे क उस कताब के मुता बक स दय या है। तो या है स दय या
आपने यहां बैठे ए इस शाम ढलते सूरज को दे खा व ा के पीछे क
ओर सूरज ढल रहा था। या आपने उसे दे खा या आपने उस रोशनी
को, प े पर झलकती उस रोशनी क शान को महसूस कया या फर
आप यह सोचते ह क स दय तो य है, इं य-संवेदन का वषय है, और
जो मन प व ता क खोज म लगा है, उसे स दय म आकृ नह होना
चा हए, स दय से उसे या लेना-दे ना, इस लए आपको तो बस उस छोट
सी छ व पर एका ता साधे रखनी है, जसका शुभ के प म ेपण
आपने ही वचार ारा कया है। तो आपको यह मालूम करना होगा, य द
आप पता लगाना चाहते ह क यान या है तो आपको यह पता लगाना
होगा क स दय या है। चेहरे का स दय, च र का स दय नह , च र
नह , य क च र तो एक मामूली-सी बात है, जो आपक प रवेशगत
त या पर नभर करती है और उस त या का पोषण ही च र
कहलाता है। कम का स दय, वहार क , आचरण क सुघड़ता, वह
अंद नी खूबसूरती, जस ढं ग से आप चलते ह, बात करते ह, जो आपके
हाव-भाव होते ह, मु ाएं होती ह, उन सबक सुंदरता, यह सभी कुछ स दय
है। और इसके बना यान मा एक पलायन, सां वना, नरथक या बन
जाता है। फर सादगी म एक स दय है, अप र ह का वराट स दय
अप र ह सं यासी का नह , अ पतु उस मन का अप र ह जसम व था
आ गई है। व था तब आती है, जब आप उस सम त अ व था को
समझ लेते ह, जसम आप रह रहे ह और उस व था म से एक सहज
व था उ दत होती है, जो क सदाचार है। अतः सदाचार, व था ही
परम अप र ह है, न क दन म तीन बार खाने का नषेध अथवा उपवास
या सर मुंडाना या वैसी ही तमाम बात।
तो एक व था है, जो क स दय है; ेम का स दय है, क णा का
स दय है। फर एक साफ-सुथरी गली का, कसी भवन के सु चपूण श प
का स दय है, एक वृ का, यारी सी प ी का, फैली ई बड़ी-बड़ी
शाखा का स दय है, इस सबको नहारना स दय है, न क सं हालय म
जाते रहना और स दय के बारे म लगातार बात बनाते रहना। एक मौन मन
क शां त ही इस स दय का सार है। चूं क यह मौन है और वचार का कोई
खेल- खलौना नह है, अतः इस मौन म, इस शां त म उसका आगमन होता
है, जो अ वनाशी है, जो पुनीत है, पावन है। और उस पावन के आगमन के

ी ी ै ी ै
साथ ही जीवन पावन बन जाता है, आपका जीवन पावन बन जाता है,
हमारा संबंध पावन बन जाता है, सब कुछ पावन बन जाता है य क
आपने उसका पश कर लया है, जो क पावन है।
हम इस बात का भी पता लगाना होगा क या यान म कुछ ऐसा है
अथवा ऐसा कुछ नह है जो शा त है, कालातीत है; जसका अथ यह है
क या मन, जसका पोषण समय के े म ही होता रहा है, या ऐसा
मन उसका पता लगा सकता है या उस तक आ सकता है या उसे दे ख
सकता है, जसका व तार अनंतता से अनंतता तक है इसका अ भ ाय
है क या मन समय से र हत हो सकता है हालां क यहां से वहां जाने
और इस कार क बात के लए समय आव यक है, या वह मन, वही
मन जो समय के अंतगत कायरत है, यहां से वहां मनोवै ा नक प से नह
अ पतु शारी रक प से जा रहा है, या ऐसा हो सकता है क वह मन
अतीत से, वतमान से, भ व य से र हत हो या वह मन संपूण शू यता म
हो सकता है इस श द से भयभीत न ह । चूं क यह र है, इस लए इसम
व तीण अवकाश होता है। या आपने कभी अपने मन का नरी ण कया
है क या इसम कोई भी अवकाश है अवकाश, आप समझ रहे ह, बस
थोड़ा सा र थल या सब कुछ भरा-भराया है इसम भीड़ भरी है
आपक चता क , आपक यौनवासना क अथवा उसके नषेध क ,
आपक उपल धय , आपक जानकारी, आपक मह वाकां ा , भय ,
आपक ता क , आपक ू ता क भीड़ ही भीड़ है। ऐसा मन
कैसे उस थ त को समझ सकता है, जसम उसके भीतर वराट अवकाश
है, जसम वही वराट अवकाश है अवकाश हमेशा वराट होता है।
अवकाश, आकाश सदै व वराट ही होता है। ऐसा मन जसके भीतर
दै नक जीवन म यह अवकाश नह है, संभवतः उस तक कभी नह आ
सकता जो शा त है, और इसी कारण यान असाधारण प से मह वपूण
हो जाता है। वह यान नह जसका आप सब अ यास करते ह, वह तो
यान कतई नह है, पर जस यान क हम बात कर रहे ह, वह मन म
पांतरण ले आता है। केवल ऐसा मन ही धा मक मन है। और ऐसा
धा मक मन ही एक भ सं कृ त को ज म दे ता है, यह अलग ही संबंध,
जीवन जीने का एक अलग ही ढं ग ले आता है, इसम उस पावनता का भाव
अतएव महान स दय एवं आजव होता है, ईमानदारी होती है। और इस
सबका आगमन सहज- वाभा वक प से, बना कसी संघष के,
न यास ही होता है।
चे ई, 15 दस बर 1974
उ ीस
20 जुलाई, 1961
कमरा उस आ शष से प रपूण हो उठा। इसके प ात जो कुछ घ टत
आ, उसे श द म अ भ कर पाना लगभग असंभव है; श द कतने
नज व होते ह, उनका सु न त और तय अथ होता है और जो घ टत
आ, वह श द तथा वणन क मता से पूणतया परे था। यह सम त सृ
का क था; यह एक पावनकारी गांभीय था, जसने म त क को हर
वचार व हर भावना से मु कर प रमा जत कर दया था। इसका यह
गांभीय बजली सा था जो न कर दे ती है, जलाकर भ म कर दे ती है;
इसक गहनता को मापा जाना संभव न था, यह अचल, अभे था,
अ वकंप और य कतु आकाश सा नभार। यह ने म था, ास म
था। जन ने ने दे खा, ज ह ने अवलोकन कया, वे ने थूल च ु से
वैसे तो पूणतः भ थे, तथा प वे थे वही। वहां बस दे खना मा रह गया
था, वे आंख जो समय-आकाश से परे दे ख रही थ । इसम एक अभे
ग रमा थी और थी एक ऐसी शां त जो सम त ग तशीलता का, सम त कम
का सार- व प त व है। इसे कोई पु य पश नह करता, य क यह
सम त पु य से और सभी मानवस मत नणय से परे है। वहां केवल ेम
था, जो अ यंत भंगरु था, कोमल था, और इस लए इसम सभी स ःजात
व तु जैसी सुकुमारता थी, आक मक आघात से अपनी र ा न कर
पाने क कोमलता, सुभे ता, भंगरु ता थी, तथा प वह इन सबसे मु था
अतएव अ वनाशी था, इसे कोई सं ा नह द जा सकती थी, यह ान से
अ प शत था। इसे कोई वचार कभी न भेद सकता था; कोई कम इसे छू
भी न सकता था। यह वशु था, पश से परे; और इसी लए त ण
म य होते ए सुंदर था।
यह सब म त क को भा वत करता आ जान पड़ता था, अब यह
पूव क तरह नह था ( वचार कतनी सतही चीज़ होता है, आव यक, कतु
सतही)। इसक व मानता के कारण संबंध पांत रत हो गए से लगते थे।
जैसे कोई भयानक झंझावात, कोई वनाशकारी भूकंप न दय के ख को
बदल दे ता है, ाकृ तक भू य को प रव तत कर दे ता है, धरती म गत
न मत कर दे ता है, वैसे ही इसने वचार के पाकार को संतुलन दे दया है,
दय क रचना को बदल डाला है।
30 जुलाई, 1961
यह एक मेघा छ दवस था, काले बादल के भार से बो झल; सुबह
वृ ई थी और वातावरण म ठं डक आ गई थी। घूमने के प ात य प

ो ो े े ी े
हम लोग बात तो कर रहे थे, पर हमारा अ धक यान धरती के स दय पर,
मकान पर तथा वृ के गहरे रंग क छटा पर था।
अ या शत प से अचानक उस अल य ाय श और ढ़ता क
एक चमक क धी जो क शरीर को त ध कर दे ने वाली थी। दे ह मानो
ठठक कर न ल हो गई हो, और अपने ने बंद कर लेने पड़े, ता क मू छा
न आए। यह वभंजनकारी था, और ऐसा जान पड़ा जैसे वह सब कुछ जो
वहां था, एकाएक अ त वर हत हो गया हो। और उस श क अचलता
ने तथा उसक सहवत व वंसा मक ऊजा ने, तथा वण श क
सारी सी मतता को जलाकर भ मसात् कर दया था। यह कुछ ऐसा
वराट था, जसका वणन कया जाना असंभव है और जसक ऊंचाई तथा
गहराई अनवग य है, उसे जाना नह जा सकता।
आज पौ फटने के साथ ही, सुबह-सवेरे, जब आकाश म एक भी मेघ
न था, और हमढके पवत बस आभासमान ही ए थे क अपने ने तथा
कंठ म उस अभे श क उप थ त के बोध से जाग गया; यह थ त
कुछ ऐसी लग रही थी, जसे छु आ जा सकता है, कुछ ऐसा, जसका न
होना कभी संभव ही न हो। ायः एक घंटे तक यह व मान रही और
म त क र रहा। यह ऐसा कुछ नह था जसे वचार पकड़ ले और
रोककर मृ त म सं चत कर ले, ता क फर कभी इसे मरण कर सके। यह
तो बस व मान था, और सम त वचार मृत था। वचार याधम होता है
और उसी प र े य म इसका उपयोग भी है; वचार इसके बारे म नह सोच
सकता य क वचार समय है; और यह तो सम त काल तथा प रमाण के
पार था। वचार, कामना इसके सात य अथवा पुनरावृ हेतु यास नह
कर सकते, य क वचार व कामना तो सवथा अनुप थत थे। फर यह
या है जो इसे लख लेने के लए मरण रखता है केवल यं चा लत
अंकन, परंतु यह अंकन, यह श द वह व तु नह है।
18 अग त 1961
ायः रा -भर वषा होती रही थी, जसके फल व प ठं ड काफ बढ़
गई थी; ऊंची पहा ड़य तथा पवत पर ढे र सारी ताज़ा बफ जमा हो गई
थी। और हवा म भी चुभन सी थी। हरे-भरे मैदान असाधारण प से
उ वल थे, और उनक हरी तमा चम कृत कर दे ने वाली थी। लगभग पूरे
दन पानी बरसता रहा था और तीसरे पहर के जाते-जाते आकाश खुलने
लगा और सूय पवत के म य दखलाई दे ने लगा। हम एक ऐसे रा ते पर
चल रहे थे, जो कई गांव से होकर गुज़रता था, जो फाम हाउस के बीच से
मुड़ता-घूमता आ, हरे-भरे मैदान से होकर जाता था। बजली के
उ चश के तार ढोने वाले भीमकाय तंभ सां य आकाश क पृ भू म म
चम कारी ढं ग से खड़े थे। चपल मेघ और उनक स ध तक प ंचती
उ ुंग लौह संरचनाएं, सुंदरता और श म ा का एक अद्भुत य तुत
ी ी े े े ी े
कर रही थ । लकड़ी के पुल पर से पार जाते ए, इस सारी वृ से उमड़
आई धारा अपने यौवन के चरम पर दखलाई दे ती थी; यह एक ऐसी ऊजा
और श के साथ ती वेग से बहती जा रही थी, जो केवल पवत से
नकलने वाली धारा म ही दे खी जा सकती है। ऊपर तथा नीचे क ओर,
प थर और वृ से भरे कनार के बीच ढ़तापूवक बंधी ई उस धारा पर
डालते समय, काल क ग त का, अतीत, वतमान तथा भ व य का पूरा
भान था; पुल वतमान था और इस वतमान से ही होकर सम त जीवन
ग तमान तथा ाणवान था, च मय और चेतन था।
पर इस सबसे परे उस बा रश से धुली और क चड़ सनी गली म वह
अ यतम, वह जगत व मान था जसे मानव वचार, उसक ग त व धयां
तथा उसक अंतहीन वेदनाएं कभी पश तक नह कर सकत । यह जगत
आशा अथवा व ास क उ प न था। उस समय य प इस ओर पूण
एका ता न थी, य क दे खने, अनुभव करने तथा गंध लेने हेतु तब कतनी
ही व तुएं वहां पर थ ; मेघ थे, पवत के पार धूसर-नील आकाश था, और
उसके म य थत सूय भी था; चमकदार मैदान पर फैला सां य आलोक
था तथा गोशाला एवं फाम हाउस के चार ओर खले लाल फूल क
गंध भी थी। इस अलौ ककता ने वहां पर इस सबको आवृत कर लया था,
कोई छोट से छोट व तु भी व मृत नह क गई थी; और शैया पर जा त
पड़े होने क इस अव था म, यह वृ क तरह से उमड़ती ई, मन और
दय को प र ा त करते ए व ई। और इसके गहन स दय का,
इसक उ कटता और ेम का पश बोध म उतरने लगा। यह ेम वह नह
है, जसे तमा म ढालकर मं दर म पूजा जाता है; यह ेम वह नह है
जसका तीक , च और श द आ द के ारा आह्वान कया जाता है;
यह ेम वह भी नह है जो ई या और डाह के वेश म होता है; वरन् यह
ऐसा ेम है, जो वचार तथा भावना से वमु है, जो वतः संचा लत
व छं द ग तशीलता है। इसका स दय व-प र याग के भावो े क से यु
होता है। य द यह संयम से र हत हो, तो उस स दय म भावो े क का अभाव
रहेगा। संयम मन के े क कोई व तु नह होती, जसे याग, दमन और
अनुशासन के मा यम से एक त कया जा सके। इन सबका तो अनायास
सहज प म पयवसान हो जाना आव यक है, य क उस अ यतम के
लए इनका कोई योजन नह है। एक बाढ़ क तरह यह अपनी अ मत
वपुलता के साथ भीतर बरस गया। इस ेम का न तो कह क था, और न
प र ध थी और यह इतना प रपूण, ऐसा अभे था, क इसम कोई छाया
तक व मान न थी, जो इसे पश कर सकती हो; अतः यह सदै व मटाया
भी जा सकता था।
अपने अंतःकरण म भी हम सदा बा परक का ही योग करते
ह; जानकारी से हम और अ धक जानकारी क दशा म आगे बढ़ते ह,

ै े ी े औ ी ी े
सदै व इसक वृ करने म ही संल न रहते ह; और य द कभी जानकारी से
मु का य न भी कया जाता है तो वह भी पुनः वृ का ही एक और
नया कार मा होता है। और हमारी चेतना हजार मृ तय तथा प रचय -
मा यता से न मत है; इसम थरथराती प ी के त हमारी चेतना, फूल
के त, उस मनु य के हमारे समीप से गुज़रने के त, मैदान म दौड़ रहे
उस ब चे के त, इसी कार चट् टान के, नझर के, चटक ले लाल पु प
तथा सुअरबाड़े क गध के त हमारी चेतना सभी संयु है; हमारी
चेतना इस सबका योग है। इस मरण तथा प रचय के आधार पर, इन
बाहरी यु र के मा यम से हम अपने अंतजगत को, अपने गहनतर
योजन और बा यता को समझने का य न करने लगते ह, हम मन क
व तीण गहनता म अ धक से अ धक गहरे जाकर खोजबीन करने
लगते ह। चुनौ तय और यु र को, छ तथा कट ग त व धय को
अनुभव करने तथा पहचानने क यह सारी या ही समय म आब
चेतना है।
याला केवल उसक आकृ त, रंग तथा व यास भर नह है, याले क
र ता भी इसम समा व है। वह याला, एक प- वशेष म गृहीत शू यता
भी है; उस शू यता के अभाव म न तो याला हो सकता है और न प हो
सकता है। चेतना को हम बा ल ण से जानते ह, ऊंचाई तथा गहराई,
वचार तथा भावना के संबंध म इसक सी मतता के आधार पर जानते
ह। परंतु यह सब चेतना का बाहरी प है; बा के मा यम से हम
आंत रक का पता लगाना चाहते ह। या यह संभव है स ांत तथा
अनुमान-आ त चतन इस वषय म ब कुल मह व नह रखते; व तुतः वे
तो सम त अ वेषण को सवथा अव ही करते ह। ब हरंग से हम
आंत रक का पता लगाना चाहते ह, ात से हम अ ात का पता लगा लेने
क आशा रखते ए खोज-बीन करते ह। या अंतरंग से बा का
अनुसंधान कया जाना संभव है उस यं को तो हम जानते ह, जो बा
के मा यम से अनुसंधान करता है, परंतु या ऐसा कोई साधन या उपकरण
है, जो अ ात क सहायता से ात का अनुसंधान करता हो या उसका
अ त व है भी और ऐसे कसी यं का अ त व कस कार हो सकता
है ऐसा यं हो नह सकता। और मान ल क ऐसा यं है, तो उसे पहचाना
जा सकेगा; वह प रचय के अंतगत अव य होगा, और य द यह प रचय के
अंतगत है तो ात क प र ध म, ात के दायरे के भीतर ही रहेगा।
उस अद्भुत ध यता का आगमन उसक अपनी चाह से होता है, पर
येक भट के साथ, अंतस् क गहराइय म एक पांतरण भी घ टत हो
जाता है; यह फर कभी पूववत् नह रहता।
21 अग त 1961

ी ी ी औ
आज भी फर एक व छ धूप-भरा, लंबी-लंबी छाया और
चमचमाती प य का दन था; पवत शांत, सघन तथा नकट थे; आकाश
का नीलवण असाधारण था, न कलंक और मृ ल। छायाएं धरती पर सव
फैली ई थ , यह सुबह जैसे वशेष प से उनके ही लए आई थी, छोट -
छोट और बड़ी-बड़ी, लंबी-लंबी और बली-पतली छायाएं और
थूलकाय, व थ और संतु छायाएं, समट सी सीधी-साद छायाएं, और
उ लास-उमंग भरी चंचल, नटखट और शैतान छायाएं। फाम हाउस तथा
पवतीय आवास क नई पुरानी छत पा लशदार संगमरमर क तरह
चमचमा रही थ । ऐसा लग रहा था मानो वृ और मैदान आनंदो सव मना
रहे ह और शोरगुल कर रहे ह ; उनका अ त व एक सरे के लए था और
उनके ऊपर वग था, वह मानव न मत नह था, जहां यातनाएं और
आशाएं आ करती ह। और सभी दशा म जीवन का व तार था,
अपार, वराट, वैभवशाली और पं दत ाण यह जीवन ही था, चरयुवा
और सदै व चुनौ तय से भरा जीवन, जो कभी ठहरता नह , जो सारी धरती
पर नःसंग भाव से वचरता रहता है, कभी कह भी अपना नशान नह
छोड़ता, न कभी कुछ मांगता और न कसी के लए ती ारत। यह वहां
पर चुरतापूवक व मान था, बबर हत और मृ यु से अतीत, अमर; इसे
इसक परवाह न थी क इसका आगमन कहां से आ है और गंत कहां,
कस दशा म है। जहां यह था, वह जीवन था, काल और वचार से नतांत
परे। यह अद्भुत था, मु , नभार, और अथाह। इसे रोककर बंद नह
बनाया जा सकता था, जहां कह भी इसे बंद बनाया गया, फर चाहे वह
पूजागृह हो, बाजार हो, घर हो, कह भी य न हो, वह पर पतन, ता
और उनसे संब अंतहीन सुधार अ त व म आने लगे। यहां यह
सहजतापूवक व मान था, तेज वी और लयंकर, और वचारातीत तथा
भावनातीत है इसका स दय। यह इतना ापक और अतुलनीय है क
धरती और आकाश म सव ा त है, घास के उस तनके म भी, जसे
शी ता से मटाया जा सकता है। यह व मान है, ेम और मृ यु स हत।
वन म शीतलता थी, जहां कुछ ही फुट नीचे एक जलधारा ऊंचे वर
म पुकार रही थी; चीड़ वृ धरती पर एक तक न डालते ए, ती वेग
से आकाश क ओर मानो उसे छू ने जा रहे थे। वृ म उगने वाली खुं बय
को खाती काली गलह रयां वृ पर संक ण वतुल म घूमते ए एक-
सरे का पीछा कर रही थ ; आसपास का सारा प रवेश अ यंत मोहक था,
अद्भुत प से लुभावना था; एक छोट सी फुत ली च ड़या संभवतः
रॉ बन या उस जैसी ही सरी कोई उड़कर तेजी से ऊपर जा रही थी और
पुनः नीचे हवा म ही गोता लगा रही थी। ठं डी पवतीय जलरा श क उस
धारा के सवा वहां बस शीतलता और नः त धता का ही सा ा य था।
और था ेम, सजन तथा संहार, कसी तीक क तरह नह , वचारगत
और भावनापरक नह , वरन् एक वा त वक यथाथ क तरह। आप इसे दे ख
े े े े े
नह सकते थे, इसका संवेदन नह कर सकते थे, पर वहां यह था, बल
व तार स हत, दस सह के समान श शाली एवम् सवा धक नमनीय
क ढ़ता स हत। यह व मान था, और सब कुछ त ध हो उठा, ठठक
कर न ल हो गया, म त क और दे ह भी। यह एक अनु ह था, और मन
इससे अ भ था।
गहनता क कोई सीमा नह होती; इसका सार-त व काल तथा
आकाश से र हत है। इसे अनुभव नह कया जाता; अनुभव तो अ यंत
नकली, चमक-भरी स ती व तु है, आसानी से मलने तथा खो जाने वाली;
वचार इसे संयो जत नह कर सकता और न भावना इस तक प ंच सकती
है। ये मूढ़तापूण और अप रप व बात ह। प रप वता का समय से कोई
संबंध नह होता, यह आयु से संबं धत नह है, और न यह भाव और
प रवेश के ारा, वातावरण के ारा लायी जा सकती है। इसे खरीदा नह
जाता, पु तक, श क अथवा एक या अनेक उ ारकता इस प रप वता
के लए अनुकूल प रवेश न मत नह कर सकते। प रप वता वयं अपने
आपम कोई ल य नह है; यह वचार के ारा संव धत नह क जाती,
उसके बना वयं ही अ त व म आती है, चुपचाप यान के आयोजन
बना, अ ात प से। इस प रप वता का होना आव यक है, इस ौढ़ता
का जीवन म घ टत होना आव यक है; वह ौढ़ता नह जो ा ध और
अराजकता से, वषाद और आशा से वयमेव आ जाती है। हताशा तथा
क इस सवागीण प रप वता को अ त व म नह ला सकते, इसे तो
अनायास ही आना होता है।
य क इस सवागीण प रप वता म ही संयम-तप का वास है, भ मी
रमाने और टाट लपेटने वाला संयम नह , वरन् संसार क व तु , इसके
सद्गुण , भगवान , त ा , आशा तथा मू य के त सहज
वाभा वक और अनायो जत उदासीनता। एकाक पन से फ लत होने वाले
इस संयम हेतु इन सबका पूण पेण नषेध आव यक है। इस एकाक पन
को समाज अथवा सं कृ त का कोई भाव कभी पश तक नह कर
सकता। पर यह सहज प से ही हो, समय और भाव क संत त न हो,
म त क से उ प होने वाली कोई का प नक रचना न हो। मेघ-गजन क
तरह इसका आगमन हो; इसका उद्गम कहां है यह जान सकना संभव न
हो। और इसके अभाव म पूण प रप वता नह आ पाती। एक अकेलापन
वह होता है जो आ मदया व आ मर ा का सार होता है, जो कसी मथक
म, जानकारी म और धारणा आ द के प म बंधकर जीवन से अलगाव
का ही सारभूत प होता है, और यह अकेलापन एकाक होने से एकदम
अलग बात है; अकेलेपन म तो पुनः जुड़ने और पुनः वलग होते रहने का
अनवरत यास सदा के लए बना ही रहता है। पर एकाक पन जीवन का

ै ी ो ै ी
वह प है, जसम सभी भाव क इ त हो चुक है। यही एकाक पन
संय मत जीवन का सार-सव व है।
22 अग त 1961
वातावरण म उस अस तेज वता क खर और भावी उप थ त
थी। यह कपोल क पना न थी; जहां यथाथ है, वहां क पना खो जाती है;
क पना संकटकारी होती है, इसक कोई ामा णकता नह होती, केवल
त य ही ामा णक होता है। मन के सपने और क पना सुखदायी और
छल-भरे ह, और उनका पूण पेण नरसन कर दया जाना आव यक है।
हर कार के मथक , मन तरंग और क पना को समझ लया जाना
आव यक है, और उनक यही समझ उनम तीत हो रही साथकता से उ ह
वं चत कर दे ती है। यह व मान था, और यान के प म जो ारंभ आ
था, उसक समा त हो चुक थी। जब यथाथ य हो, तो यान का या
अथ रह जाता है यथाथ क व मानता, यान का प रणाम कदा प नह
थी, कोई भी बात इसके कटन का कारण नह हो सकती; यान के होते
ए भी यह व मान था, परंतु आव यक था एक अ यंत संवेदनशील,
सतक म त क जसने पूरी तरह से, वे छा से और अनायास, अपनी
ता कक और अता कक बड़बड़ बंद कर द हो। यह एकदम मौन हो गया
था, कोई ा या, कोई वग करण न करते ए यह बस दे ख रहा था और
सुन रहा था; यह चुप था व और कोई ऐसी स ा या आव यकता नह थी,
जो इसे चुप कर रही हो। म त क पूणतः न ल और अतीव चैत य था।
उस अगाधता ने रा को वयं से आपू रत कर दया और आनंद सघन हो
उठा।
यह संबं धत कसी से भी नह था; यह कसी को आकार दे ने, कसी
म प रवतन लाने, या कसी भी आ ह को करने का कोई य न नह
कर रहा था; यह भाव से वर हत था, और इसी लए अद य था। यह
क याण करने के काय म नह लगा था, सुधार नह ला रहा था; यह
त ा- ा त म रत नह था, अतएव अ मत संहारक था। कतु यह ेम
था, वैसा ेम नह जसे समाज संव धत करता है, जो एक उ पी ड़त थ त
है। यह तो जीवन, वाह का सार-त व ही था। यह व मान था,
अदमनीय, संहारकारी और इसम एक ऐसी कोमलता भी थी जसे केवल
अ भनव ही जानता है, जैसे वसंत ऋतु क वह नयी प ी; वह आपको बता
दे गी। और एक सु ढ़ता थी जो प रमाण से परे थी, तथा वह श भी जो
केवल सजन म आ करती है। सब कुछ चुप था। वह एक तारा जो पहाड़
से थोड़ा ही ऊंचा दख रहा था, अब ब त ऊपर तक आरोहण कर चुका
था, और अपने एकांत म तेजोद त था।
‘कृ णमू त नोटबुक’
बीस
: म ई र का अनुभव कैसे कर सकता ं इस अनुभव के बना
जीवन का या उ े य है
कृ णमू त : या म जीवन को सीधे-सीधे समझ सकता ं, अथवा
मुझे अपने जीवन को अथ दान करने के लए कसी त व का अनुभव
करना होगा या आप समझ रहे ह या स दय क कदरदानी के लए
मुझे उसका उ े य समझना होगा या ेम का एक कारण होना चा हए
और य द ेम का कोई कारण हो, तो या वह ेम होगा कता कहता
है क य द उसे अपने जीवन को कुछ अथ दान करना है, तो उसके लए
कुछ अनुभव घ टत होना चा हए इसका ता पय यह है क उसका जीवन
अपने आप म मह वपूण नह है अतः वह वा तव म ई र क तलाश म
जीवन से पलायन कर रहा है; शोक से, स दय से, कु पता से, ोध,
ु ता, ई या, व स ा क आकां ा से, जीने क असाधारण ज टलता से
पलायन कर रहा है। यह सब ही जीवन है, तथा चूं क वह इस सब को
समझ नह पाता, इस लए कहता है, “म कुछ और महान व तु खोजूंगा,
जो मेरे जीवन को अथ दान कर सके।”
कृपया सुन क म या कह रहा ं, परंतु मा शा दक, बौ क प
से नह , य क तब इसका कोई मतलब नह होगा। आप इस बारे म ढे र
सारे श द बुन सकते ह, इस धरती क सम त प व पु तक पढ़ सकते ह,
ले कन वह थ होगा य क वह आपके जीवन से, आपके दै नं दन
अ त व से जुड़ा आ नह होगा।
या है हमारा जीवन वह या है, जसे हम अपना अ त व कहते
ह दाश नक प से नह , सहज प से दे ख तो यह सुख और पीड़ा के
अनुभव क शृंखला है, तथा हम सुख को पकड़े रह कर पीड़ा को टालना
चाहते ह। श का सुख, स ा क बड़ी नया म बड़ा आदमी होने का
सुख, अपने छोटे से प त या प नी पर आ धप य जमाने का सुख, पीड़ा,
हताशा, मह वाकां ा के साथ आने वाली ता, मह वपूण य क
चाटु का रता करके लाभ उठाने क कु पता आ द इस सबसे ही हमारा
रोज का जीवन न मत होता है। मतलब यह क जसे हम जीवन कहते ह,
वह ात के े के भीतर मृ तय क शृंखला है, और य द मन ात से
मु न हो, तो ात सम या बन जाता है। ात के े म काय करते ए
ात अथात ान, अनुभव और उस अनुभव क मृ त मन कहता है,
“मुझे ई र को जानना चा हए।” तो यह अपनी परंपरा , धारणा ,
अपने सं कार के अनुसार एक स ा का ेपण करता है, जसे यह ई र

े ै ी ै ी े
कह लेता है। परंतु यह स ा ात का ही प रणाम है, वह अब भी समय के
े के भीतर ही है।
जब मन ात से पूरी तरह मु होता है, तभी आप प ता, स चाई
और यथाथ अनुभव के साथ पता लगा सकते ह क ई र है अथवा नह है।
यह न त है क ऐसा कुछ जसे ई र अथवा स य कहा जा सके, वह
पूणतः नवीन होता है, आपक पहचान के दायरे म नह होता; और य द
वह मन, ान से, अनुभव से, वचार से, सं चत कये ए सद्गुण से इस
तक जाने क को शश करता है, तो वह ात के े म रहते ए अ ात को
हण करने क चे ा कर रहा होता है जो संभव ही नह है। मन मा यही
कर सकता है क इस बात क जांच करे क वयं को ात से मु करना
संभव है अथवा नह । ात से मु होना अतीत के सारे भाव , परंपरा के
सारे भार से मु हो जाना है। मन अपने आप म ान क ही उपज है, इसे
समय ारा ‘यह म’ और ‘यह म नह ’ के प म गढ़ा गया है, जो ै त का
ं ही है। य द ात चेतन तर पर और अचेतन म भी पूरी तरह समा त हो
जाता है और मेरा कहना है, और यह बात म केवल स ांततः नह कह
रहा, क इसका समा त होना संभव है तब आप कभी नह पूछगे क
ई र है अथवा नह है, य क ऐसा मन अपने आप म ही अप रमेय होता
है; ेम क भां त, इसक अपनी चरंतनता होती है।
नई द ली,
31 अ टू बर 1956
इ कस
या मन अपनी सम त अंतव तु को, अपने नषेध , तरोध को,
अपनी अनुशासना मक ग त व धय को, सुर ा के लए कए जा रहे अपने
व वध य न को, जो इसक सोच को सं का रत और सी मत बना दे ते ह
इन सब को समझकर मन एक एक कृत या के प म शा त का
अ वेषण करने के लए मु हो सकता है य क उस अ वेषण के बना,
उस यथाथ अनुभव के अभाव म हमारी सारी सम याएं और उनके हल हम
और अ धक तबाही क ओर ले जाएंगे। यह य है, इसे आप अपने
दै नक जीवन म दे ख सकते ह। गत, राजनी तक, अंतरा ीय तर पर,
अपनी येक ग त व ध से हम अ धका धक अ न उ प कर रहे ह, जो
अप रहाय है, जब तक हम धम क उस थ त का अनुभव न आ हो जो
तभी अनुभवग य है, जब मन पूणतः मु होता है।
अब या यह सुनने के बाद आप, चाहे एक ण के लए ही सही,
उस मु को, उस वातं य को जान सकते ह आप इसे सफ इस लए
नह जान लगे य क म इसका सुझाव दे रहा ं; तब तो यह केवल एक
वचार, एक मत होगा, जसम कोई अथव ा नह होगी। परंतु य द आपने
पया त गंभीरतापूवक इन सब वाता पर गौर कया है, तो आप वयं के
वचार क या के त, इसक दशा , इसके उ े य , इसक
ेरणा के त सजग होना आरंभ कर दे ते ह; तथा सजग होते ए आप
एक ऐसी थ त म आ ही जाने वाले ह, जहां मन अब तलाश नह कर रहा
है, चुन नह रहा है, उपल ध करने के लए संघषरत नह है। वयं क सम
या का बोध हो जाने पर मन बना कसी नदशन, बना कसी चाह के,
संक प क कसी भी या के बना, असाधारण प से थर हो जाता है।
संक प तो इ छा ही है, है क नह जो आदमी सांसा रक अथ म
मह वाकां ी है, उसम उपल ध क , सफल होने क , स होने क ती
इ छा होती है, तथा वह अपने अहंकार क पू त के लए अपने संक प का
योग करता है। इसी कार हम सद्गुण वक सत करने के लए, कसी
तथाक थत आ या मक अव था को ा त करने के लए, संक प को
योग म लाते ह। परंतु म जसक बात कर रहा ं वह थ त बलकुल
भ है, वह कसी भी इ छा से, पलायन क कसी भी या से, ‘यह’ या
‘वह’ हो जाने के कसी भी दबाव से पूणतः र हत होती है।
जो म कह रहा ं, उसक जांच के लए आप ववेक का, तक का
योग कर रहे ह, ऐसा ही है न परंतु तक आपको मा यह तक ला
सकता है, और आगे नह ले जा सकता। न त ही हम तक का, चीज को
पूरी तरह सोच वचार लेने क साम य का योग करना ही चा हए, आधे

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रा ते म क नह जाना चा हए। परंतु जब तक अपनी सीमा तक प ंचा
दया जाता है तथा उसे और आगे नह ख च सकते, तब मन तक, चतुराई,
हसाब- कताब, आ मण व र ा का उपकरण नह रह जाता है, य क
जहां से हमारे सारे वचार, सारे अंत ज म लया करते ह, उस क का
अंत हो चुका होता है।
तो अब, जब क आप इन वाता को सुन चुके ह, न त ही आप
अपनी दन भर क व वध ग त व धय के त, ण- त ण सजग होने
का आरंभ कर रहे ह; मन वयं को अपने सारे वचलन , तरोध ,
व ास , दौड़ , मह वाकां ा , अपने सभी भय , तृ त के सम त आ ह
स हत जान रहा है। इस सब के त सजग होते ए, या मन के लए,
चाहे एक पल के लए ही सही, पूणतः न ल हो पाना, उस मौन को जान
पाना संभव है जसम मु है, और जब मौन का वह वातं य होता है, तो
या वह मन वयं ही शा त नह है
अ ात क अनुभू त के लए मन को वयं ही अ ात हो जाना होगा।
अब तक मन ात का ही प रणाम रहा है। आप ात के संचय, अपनी
सारी परेशा नय , आडंबर , मह वाकां ा , पीड़ा , प रतोष और
कुंठा के अलावा और या ह वह सब कुछ ात ही है, और ात समय
और थान के दायरे म ही होता है, तथा जब तक मन समय के, ात के
े म कायरत है, वह अ ात कभी नह हो पाता। वह मा उसका अनुभव
करता रह सकता है, जो इसका जाना आ है। दे खए, इसम कुछ ज टल
या रह यमय नह है। हमारे दै नक जीवन के जो सुप र चत त य ह, उ ह
का म वणन कर रहा ं। ात के बोझ म दबा आ मन अ ात को ढूं ढ़
नकालने क खोज म लग जाता है। यह ऐसा कैसे कर सकता है हम सब
ई र क बात करते ह, येक धम म, येक गरजे और मं दर म इस श द
का योग होता है, पर इसका अथ- बब हमेशा ात का ही होता है। ब त,
ब त कम ऐसे होते ह जो सारे मं दर , गरज , पु तक को छोड़ दे ते ह, जो
पार जाते ह और खोज लेते ह।
अभी मन समय का, ात का ही प रणाम है तथा जब ऐसा मन
अ वेषण आरंभ करता है, तो यह मा उसी का अ वेषण कर पाता है,
जसका इसे पहले से ही अनुभव हो चुका है, जो क ात है। अ ात का
अ वेषण करने के लए मन को वयं को ात से, अतीत से मु कर लेना
होगा, और यह धीमे व ेषण ारा, कदम-दर-कदम अतीत को खोदते
ए, हर व , हर त या क ा या करते ए नह होगा ब क इसके
लए आपको अभी इसी ण, जब आप यहां बैठे ए ह, आपको इस
सबका स य पूरी तरह से दे ख लेना होगा। जब तक मन समय का, ात का
प रणाम है, वह कभी उस अ ात को नह खोज सकता जो ई र है, यथाथ
है या जो भी आप उसे कह। इस बात के स य को दे ख लेना मन को अतीत
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से मु कर दे ता है। अतीत से मु हो जाने का झट से यह मतलब न लगा
ल क आपको अपने घर का रा ता याद नह रहेगा। वह तो अ नी सया,
मृ त-लोप है। इसे इस तरह क बचकानी सोच के तर तक न लाइए।
परंतु मन उसी ण मु हो जाता है, जब वह दे ख लेता है क ात के बोझ
से लदे रह कर वह उस यथाथ को, अ ात क उस असाधारण अव था को
नह पा सकता है। जानकारी अनुभव है, अहं है, ‘ व’ है, जो इकट् ठा
करता रहा है, जमा करता रहा है; अतएव सम त ान को थ गत होना
होगा, सम त अनुभव को छोड़ना पड़ेगा। और जब उस मु का मौन
होता है, तब या मन वयं म ही शा त नह है तब इसे कुछ सवथा नूतन
क अनुभू त हो रही होती है, जो यथाथ है; पर उस अनुभू त के लए मन
को वही हो जाना होता है। यह मत कहने ल गए क मन ही यथाथ होता है;
ऐसा नह है। मन को यथाथ क अनुभू त तभी हो पाती है, जब यह समय
से पूणतया मु होता है।
अ वेषण क यह संपूण या ही धम है। न त प से, धम वह
नह है, जसम आप व ास करते ह; इसका इससे कुछ लेना-दे ना नह है
क आप ईसाई ह, बौ ह, मुसलमान ह अथवा ह ह; इन बात का कोई
मह व नह है, ये तो बाधा ह, अ वेषण करने वाले मन को तो इन सब से
छु टकारा पाना होगा। नवीन होने के लए मन को एकाक होना होगा;
शा त सजन क व मानता के लए, उसे हण करने हेतु मन का वयं
उसी अव था म होना आव यक है। कतु जब तक मन अपने क व
संघष से भरा है, जब तक यह ान के भार से बो झल है तथा
मनोवै ा नक अवरोध से ज टल बना है, तब तक मन कभी भी हण
करने, समझने और अ वेषण करने के लए मु नह हो पाता है।
एक स चा धा मक वह नह है जस पर व ास , ढ़य ,
कमकांड क कठोर परत चढ़ ह। स चे धा मक के पास व ास
नह होता है, वह कसी अनुभव का संचय न करते ए पल- त-पल जी
रहा होता है, अतएव वही एकमा ां तकारी है। स य समय म नरंतरता
नह है, इसे हर ण नया पाना होता है। वह मन जो कसी भी अनुभव को
जोड़ता है, पकड़ता है, संजोये रहता है, ण- ण नूतन का अ वेषण करते
ए नह जी सकता है।
जो वा तव म गंभीर ह, जो महज शौ कया तौर पर इस सब से
खलवाड़ म नह लगे ह, जीवन म वे असाधारण मह व रखते ह, य क वे
ही वयं म, अतएव संभवतः अ य के लए भी काश-पुंज बन सकगे।
बना अनुभव के, बना उस मन के जो पूणतः मु है और इस लए अ ात
के त अवरोधर हत, खुला है, ई र क बात करने का कुछ भी मू य नह
है, यह ऐसे ही है जैसे बड़ी उमर के लोग खलौन से खेल रहे ह ; और जब

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हम खलौन से खेलते ह और उसी को ‘धम’ कहते ह, तब हम अ धक
व म, अ धका धक दशा न मत करते चले जाते ह।
मा उस थ त म ही, जब मन वचार करने क सम त या को
समझ लेता है, जब हम अपने ही वचार म नह जकड़े होते, तभी मन के
लए न ल होना संभव होता है; केवल तब, शा त का आ वभाव होता
है।
ओहाइ,
5 जुलाई 1953
बाईस
यह एक य त य है क मानव को उपासना करने के लए कुछ न कुछ
चा हए। आप और म और अ य अनेक लोग अपने जीवन म कुछ प व ,
कुछ पावन उपल ध कर लेना चाहते ह, और हम या तो मं दर , म जद
और गरज म जाते ह, अथवा हमारे पास अ य तीक, तमाएं अथवा
अवधारणाएं होती ह, जनक हम उपासना कया करते ह। कसी क
उपासना करने क आव यकता बड़ी ती तीत होती है, य क हम अपने
आप से नकलकर कसी महान, व तृत, गहनतर, अ धक थायी थ त म
जाना चाहते ह। इसी लए हम महा मा, श क, वग म या धरती पर कसी
द स ा का आ व कार कर लेते ह, हम ॉस, अ चं जैसे व भ
तीक बना लेते ह। य द इनम से कोई भी संतोषजनक नह होता, तो हम
ये अनुमान लगाने बैठ जाते ह क मन के परे या है, यह मानकर क वह
कुछ ऐसा है, जो क पावन है, पूजनीय है। यह हमारे त दन के जीवन म
होता है, जहां तक म सोचता ं, हमम से अ धकतर लोग इससे अ छ तरह
अवगत ह। ात के े म, मन और मृ त के े म सदा यह य न होता
रहता है, तथा हम कभी इस सबसे मु पाने म एवं उसे खोज लेने म
स म तीत नह होते, जो पावन है, जसका नमाण मन ने नह कया है।
य द संभव हो, तो इस सुबह म इस म जाना चा ंगा क या
व तुतः कुछ अप रमेय है, कुछ ऐसा है जसक थाह मन ारा नह पायी
जा सकती। ऐसा करने के लए हम अपनी सोच म, अपने मू य म एक
ां त लानी होगी। मेरा अ भ ाय कसी आ थक या सामा जक ां त से
नह है, वह तो मा अप रप वता है; वह सतही तौर पर हमारे जीवन को
भा वत कर सकती है, ले कन आधारभूत प से यह ां त बलकुल नह
है। म उस ां त क बात कर रहा ं, जो व- ान से आती है, मन क
सतह पर वचार क परी ा से आने वाले सतही व- ान से नह , ब क
व-बोध क अगाध गहराइय से आती है।
न य ही हमारी सबसे बड़ी क ठनाई यह त य है क हमारे सारे
य न ात के े म ही होते ह। हम मा उन सीमा के भीतर काम
करते तीत होते ह, ज ह हम पहचानने म समथ ह, अथात जो मृ त के
े म ह; या मन उस े से बाहर आ सकता है
य द म सुझाव दे सकूं, तो जब म बात कर रहा ं, आप अपने मन का
अवलोकन कर, य क म इस वषय म गहरे उतरना चाहता ं, तथा य द
आप इसे त काल अमल म लाए बना मा शा दक ा या का अनुसरण
कर रहे ह, तो इस ा या का कोई मह व नह है। य द आप इसे सुन ल
और कह, “म इस बारे म कल अथवा इस वाता के उपरांत सोचूंगा”, तो
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बात नकल चुक होती है, इसका कोई मू य नह होता। परंतु य द आप जो
कुछ कहा जा रहा है उसक ओर पूरा यान दे रहे ह, तथा उसे अमल म
लाने म समथ ह, जसका अथ है क आप अपनी बौ क व भावना मक
या के त सजग ह, तब जो म कह रहा ं, उसक साथकता आप
त काल दे ख पाएंगे।

ऐसा है, हम सोचते ह क हम ान सं चत करके, तुलना करके समझ


पाते ह। न त प से उस ढं ग से हम नह समझते ह। य द आप एक
व तु क सरी से तुलना करते ह तो आप बस तुलना म ही खोए होते ह।
कसी बात को आप अपना पूरा यान दे कर ही समझ सकते ह, तथा
कसी भी तरह क तुलना अथवा मू यांकन तो एक वचलन है।
तो, व- ान सं चत ान नह है, और मेरे याल म यह समझ लेना
अ यंत आव यक है। य द व- ान सं चत कया आ है तो वह मा
यां क होगा। यह कसी च क सक के ान क तरह होगा, जसने कोई
तकनीक सीख ली है तथा शरीर के कसी खास भाग म नरंतर वशेष ता
ा त कर रहा है। एक श य च क सक अपनी श य च क सा का े
यं वद् हो सकता है, य क उसने तकनीक सीख ली है, उसके पास
इसके लए जानकारी और तभा है, तथा सं चत अनुभव भी है, जो
उसक सहायता करता है। परंतु हम ऐसे सं चत अनुभव क बात नह कर
रहे ह, ब क बात इसके उलट है, कसी भी कार का सं चत ान आगे के
अ वेषण को रोक दे ता है; कतु जब कोई अ वेषण कर लेता है, तब
संभवतः वह सं चत तकनीक का योग कर सकता है।
न त ही, म जो कह रहा ं, वह एकदम सरल है। य द कोई वयं
को दे खने म, अपना अ ययन करने म समथ है, तो उसे प होना शु हो
जाता है क कैसे सं चत मृ त हर उस चीज़ पर काम कर रही है, जस-
जस को वह दे खता है; अनुभव हमेशा ात के, सं कार के े म होता
है, य क हम हमेशा मू यांकन, वीकार-अ वीकार, बुराई या बड़ाई करते
रहते ह। कतु य द सं चत मृ त का नदशन न हो, तो हमम से यादातर
लोग खुद को खोया-हारा आ महसूस करते ह, डरा आ महसूस करते ह,
और इस लए हम उस प म अपना अवलोकन करने म अ म होते ह,
जैसे क व तुतः हम ह। जब संचय क या होती है, जो मृ त क उपज
है, तो हमारा वयं का अवलोकन सतही हो जाता है। मृ त वयं को
नद शत करने, सुधारने म सहायक है, परंतु आ म-सुधार से कभी कोई
ां त, कोई मूलभूत पांतरण संभव नह है। जब आ म-सुधार क वृ
बना कसी संक प के पूरी तरह क जाती है, तब कुछ अनुभवातीत, कुछ
सवथा नया अ त व म आने क संभावना होती है।

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य द कोई सर के कहे ए को दोहराने क , सर के माण पर,
जो बकवास हो सकते ह, नभर रहने क थता क ओर यान दलाता है,
तो यक नन आप कह दगे, ‘म नह जानता’। य द कोई वा तव म ‘म नह
जानता’ कहने क अव था म आ सके, तो इससे वन ता का असाधारण
भाव कट होता है, उसम ान का कोई दप नह होता, भा वत करने के
लए कोई व-आ ही उ र नह होता। जब आप वा तव म कह सक क
‘म नह जानता’ जसे कहने म ब त कम लोग स म होते ह तब उस
अव था म सम त भय समा त हो जाता है, य क पहचान का सारा भाव,
मृ त म हो रही सारी खोजबीन का अंत हो गया होता है, तब ात के े
म कोई छान-बीन नह हो रही होती है। तब उस असाधारण का आगमन
होता है। मने अब तक जो कुछ कहा है, य द आपने उसे समझा है, मा
शा दक तौर पर नह , ब क आप उसे वा तव म अनुभव कर रहे ह, तो
आप पाएंगे क जब आप कह पाते ह, ‘म नह जानता’, तो आप क
सम त सं कार तता थम चुक होती है, और तब मन क अव था या
होती है आप समझ रहे ह, म या बात कर रहा ं या म अपने आप
को प कर पा रहा ं म सोचता ं आपके लए इस ओर थोड़ा सा यान
दे ना मह वपूण है, य द आप चाह तो।
दे खए, हम कुछ थायी खोज रहे ह, कुछ ऐसा जो समय के संदभ म
थायी हो, अटल हो, शा त हो। हम दे खते ह क हमारे आस-पास हर
व तु अ न य, प रवतनशील है, ज म लेना, मुरझाना और मरना और हमारी
तलाश सदा ात के े म कुछ ऐसा था पत करने क होती है, जो बना
रहे। परंतु जो सच म ही पावन है, वह समय के माप से परे होता है, उसे
ात के े म नह पाया जाता है। ात केवल वचार के मा यम से काम
करता है, जो चुनौती के लए मृ त का यु र है। य द म इसे दे ख लेता ं,
और यह पता लगाना चाहता ं क वचार का अंत कैसे हो, तो मुझे या
करना होता है न त प से, मुझे व- ान ारा अपनी सोच क संपूण
या के त सजग होना होगा। मुझे दे खना होगा क येक वचार,
चाहे वह कतना ही सू म हो, कतना ही उदा हो अथवा कतना ही हेय
हो, मूखतापूण हो, उसक जड़ ात म, मृ त म ही होती ह। य द म इसे
प ता से दे ख लेता ं, तो मन कसी वराट सम या का सामना होने पर
यह कहने म समथ होता है, “म नह जानता” य क इसका कोई उ र है
ही नह । तब सभी उ र का कोई मतलब नह रह जाता है, चाहे वे उ र
बु के ह , ईसा के ह , या फर द ा मा के, श क के, गु के ह ;
य क य द उनका कोई अथ है, तो वह अथ मृ तय के सं ह से अथात
अपने ही सं कार से ज मा है।
य द म इस सबके स य को दे ख लेता ं और सभी उ र एक तरफ
हटा दे ता ं, जो म न जानने क अगाध वन ता होने पर ही कर पाता ं,

ो ो ी ै ो ी ै ो
तो मन क या अव था होती है उस मन क या अव था होती है, जो
कहता है, “म नह जानता क ई र है अथवा नह है, ेम है या नह है”,
अथात जब मृ त का कोई यु र नह होता, तो मन क या अव था
होती है कृपया अपने आप को तुरंत उ र मत द जए; य क य द आप
ऐसा करते ह, तो आपका उ र मा इस बात क पहचान होगा क आपके
वचार म इसे या होना और या नह होना चा हए। य द आप कहते ह क
यह ‘ नषेध क अव था’ है, तो आप इसक तुलना उससे कर रहे ह, जो
आप पहले से ही जानते ह; इस लए इसम उस अव था का, जसम आप
कहते ह, “म नह जानता”, अभाव होता है।
म इस सम या क जांच-पड़ताल ापक प म करना चाहता ं,
ता क आप भी अपने मन के अवलोकन ारा इसे समझ सक। जसम मन
कहता है, “म नह जानता” वह अव था नषेध नह है। मन ढूं ढ़ना, तलाश
करना पूरी तरह रोक चुका है। इसने कसी भी ओर ग त करना बंद कर
दया है, य क यह दे खता है क ात से, उस व तु क ओर जसे अ ात
कहते ह, कोई भी ग त मा ात का ही ेपण है। केवल वह मन, जो यह
कहने म समथ है, “म नह जानता”, वही ऐसी अव था म होता है जसम
कोई अ वेषण कया जा सके। परंतु जो आदमी कह रहा हो, ‘म जानता
ं’, जस आदमी ने व वध मानवीय अनुभव का खूब सारा अ ययन कर
लया हो, तथा जसका मन सूचना के, व कोश से ा त जानकारी के
बोझ से दबा आ हो, या वह कभी कुछ ऐसा अनुभव कर सकता है,
जसे सं चत नह कया जा सके उसके लए यह अ यंत कर होगा। जब
मन अपने ारा अ जत सम त जानकारी को परे हटा दे ता है, जब उसके
लए न बु , न ईसा, न द ा माएं और न ही कोई श क या धम-उ रण
रह जाता है, जब मन पूरी तरह एकाक , अ षत होता है जसका अथ है
क ात क हलचल का अवसान हो गया है तभी एक महती ां त, एक
आधारभूत प रवतन क संभावना होती है। प तः यह प रवतन आव यक
है; ब त थोड़े से लोग ही, आप और म, या ‘अ’, वयं म इस ां त का
सू पात कर पाए ह, वे ही एक नया संसार रचने म स म ह, न क वे लोग
जो आदशवाद ह, बौ क ह, और न ही वे, जनके पास अपार जानकारी
है, जो भलाई के काम म लगे ह; ये लोग वे नह ह। ये सारे तो सुधारक ह।
धा मक मनु य वह है, जो कसी धम से, कसी रा से, कसी न ल से जुड़ा
आ नह है, जो आंत रक तौर पर पूणतः एकाक है, न जानने क थ त
म है, और उसके लए उस पावन के आशीष का ाकट् य होता है।
ओहाइ,
21 अग त 1955
तेईस
: मन का काय वचार करना है। मने कई वष उन चीज के बारे
म सोचते ए बताए ह ज ह हम सब जानते ह ापार, व ान, दशन,
मनो व ान, कलाएं आ द तथा अब म ई र के बारे म काफ कुछ वचार
करता ं। अनेक रह यद शय तथा धा मक ंथकार ारा तुत माण
का अ ययन करने से म कायल हो गया ं क ई र है, तथा म इस वषय म
अपने वचार का योगदान दे सकता ं। इसम गलत या है या ई र के
बारे म वचार करने से ई र के सा ा कार म सहायता नह मलती है
कृ णमू त : या आप ई र के बारे म वचार कर सकते ह या
आप ई र क मौजूदगी के बारे म इस वजह से कायल हो सकते ह क
आपने सारे माण पढ़ डाले ह अनी रवाद के पास भी अपने माण ह,
वह भी संभवतः उतना ही पढ़ चुका है जतना क आप और उसका कहना
है क ई र नह है। आप व ास करते ह क ई र है और वह व ास
करता है क ई र नह है, आप दोन के अपने व ास ह, तथा आप दोन
ने ही ई र के बारे म वचार करने म अपना समय खच कया है। परंतु
जसके वषय म आप जानते नह ह, उसके वषय म वचार करने से पहले
आपको यह पता लगाना होगा क वचार करना होता या है। जसे आप
जानते नह ह, उसके बारे म आप वचार कैसे कर सकते ह आपने
बाइबल, भगवद्गीता या अ य ंथ पढ़े ह गे, जनम व भ ब ुत व ान
ने खंडन-मंडन करते ए कौशल स हत वणन कया है क ई र या है,
परंतु जब तक आप अपनी वचार क या को नह समझ लेते, तब तक
आप ई र के बारे म जो भी सोचते ह, हो सकता है वह मूखतापूण तथा
ु ही हो, सामा यतया होता यही है। आप ई र के अ त व के बारे म ढे र
सारे माण एक त कर सकते ह, और इस बारे म बड़े चतुराई भरे लेख
भी लख सकते ह, पर न त ही पहला सवाल यह उठता है क आपको
कैसे मालूम क जो आप सोच रहे ह वह सच है और या वचार करने से
कभी भी उसक अनुभू त हो सकती है, जो अ व ेय है जसका मतलब
यह नह है क आपको भावुकता के वशीभूत होकर ई र के वषय म कुछ
भी अनाप-शनाप वीकार कर लेना चा हए।
अतः जो सं कार के पार है उसक तलाश करने क अपे ा या यह
पता लगाना मह वपूण नह है क हमारा मन सं कार त है या नह । यह
न त है क य द आपका मन सं कार से सत है, जो क यह व तुतः है,
तो यह ई र के यथाथ क चाहे जतनी छान-बीन कर ल, यह अपनी
सं कारब ता के मुता बक ही जानकारी या सूचना एक त कर पाएगा।
अतः आपका ई र के बारे म वचार करना समय का नतांत अप य है,

ऐ ी ी ै ोई ै
यह एक ऐसी अटकलबाजी है जसक कोई क मत नह है। य द म वा तव
म पता लगाना चाहता ं क पवत के शखर पर और उसके पार या है, तो
मुझे उस तक जाना होगा। इससे कुछ हा सल होने वाला नह है क म बैठे-
बैठे अटकल लगाया क ं , मं दर, गरजे खड़े कर लूं और उनके संदभ म
उ े जत होता र ं। करना मुझे यह होगा क म उठ कर चल पडं, राह
बनाऊं, आगे बढं , वहां प ंचूं और पता लगा लूं; ले कन चूं क हमम से
अ धकतर ऐसा करने के अ न छु क ह, हम इसीसे संतु हो लया करते ह
क यहां बैठे रह और कसी ऐसी बात के बारे म अनुमान लगाते रह जसे
हम जानते ही नह ह। और मेरा कहना है क इस तरह का अनुमान एक
बाधा है, मन का रण है। इसका कुछ भी मू य नह है। यह मनु य के लए
केवल और व म, और ख लाता है।
तो ई र ऐसा कुछ है, जसके बारे म बात नह क जा सकत ,
जसका वणन नह हो सकता, जसे श द म नह रखा जा सकता, य क
इसे सदै व अ ात ही रहना है। जस पल पहचान लेने क या घ टत
होती है, आप मृ त के े म लौट आते ह। या आप समझ रहे ह जैसे
क उदाहरण के लए आपको कसी असाधारणता क णक अनुभू त
होती है। ठ क उसी ण म कोई वचारक नह होता जो यह कह रहा हो,
‘मुझे इसे याद रखना होगा’; उस समय तो मा अनुभू त क वह अव था
होती है। पर जब वह ण बीत जाता है तो पहचान क या अ त व म
आती है। इस बात को ज़रा समझ। मन यह कहता है, “मुझे एक अद्भुत
अनुभव आ है और मेरी कामना है यह अनुभव मुझे और हो”, इस लए
और अ धक का संघष आरंभ हो जाता है। यह प र ह- वृ , और-और
के वा म व क यह दौड़ व भ कारण से वजूद म आती है : य क
इससे आपको सुख मलता है, त ा मलती है, आप जानकार हो जाते
ह, माण-पु ष बन जाते ह तथा इसी तरह क बाक नरथकताएं।
मन जसका अनुभव कर चुका होता है, उसके पीछे भागता है, कतु
जसका उसने अनुभव कया है, वह तो नबट चुका है, मर चुका है, जा
चुका है, और जो है, उसका अ वेषण करने हेतु मन को उसके त मर
जाना होगा जसका वह अनुभव कर चुका है। यह ऐसा कुछ नह है जसे
रोज़-रोज़ अ यास ारा पो षत कया जा सके, जसे एक त व सं चत
करके कायम रखा जा सके और तब इसके बारे म बोला या लखा जा
सके। हम मा इतना कर सकते ह क यह दे ख क हमारा मन सं कारब
है और वयं को जानने के मा यम से अपनी ही वचार करने क या
को समझ ल। मुझे अपने आपको जानना ही चा हए, उस प म नह जैसा
क म आदशतः होना पसंद क ं गा, ब क जैसा क म व तुतः ं, चाहे
जतना असुंदर या सुंदर, चाहे जतना ई यालु, डाह भरा और लोभी-
प र ही। ले कन हम जैसे भी ह, उसे बना उ कंठा के, बस दे ख पाना ब त

ो ैऔ े े
मु कल होता है और उसे बदलने क उ कंठा, वह चाहत सं कारब ता का
ही एक अ य प होती है; और इस तरह हम चलते जाते ह, एक
सं कार तता से सरी सं कार तता क ओर, एवं उसक अनुभू त हम
कभी नह होती, जो ससीम के पार है।
: म आपको कई वष से सुन रहा ं तथा म अपने वचार को
दे खने म तथा जो भी म कर रहा होता ं, उसके त सजग रहने म काफ
द हो गया ं, ले कन म गहरे पानी म कभी नह पैठ पाया ं, जस
पांतरण क आप बात कया करते ह, उसका अनुभव कभी नह कर
पाया ं। ऐसा य है
कृ णमू त : मेरे याल से यह बात काफ प है क हमम से कोई
भी मा अवलोकन से परे का अनुभव य नह कर पाता है। भावदशा के
कुछ वरल ण हो सकते ह, जनम हम मानो मेघ के बीच वमल आकाश
दख जाए, कतु मेरा अ भ ाय उस कार क घटना से नह है। ऐसे सभी
अनुभव अ थायी तथा नतांत अ प मह व के होते ह। कता जानना
चाहता है क ऐसा य है क अवलोकन करते रहने के कई वष के उपरांत
भी उसे गहरा पानी अभी नह मल पाया है, जसम वह वेश कर सके।
वह उसे य मलना चा हए आप समझ रहे ह आप सोचते ह क अपने
वचार का अवलोकन करने से आपको कोई पुर कार उपल ध होने वाला
है : य द आप यह करगे, तो आपको वह मलेगा। आप व तुतः अवलोकन
कर ही नह रहे ह, य क आपका मन कोई उपल ध हा सल कर लेने क
फराक म है। आप सोचते ह क अवलोकन करते रहने से, सजग बने रहने
से आप अ धक ेमपूण हो जाएंगे, कम ःख उठाएंगे, कम खीजा करगे,
कह उस पार प ंचना हो जाएगा, तो आपका दे खना, अवलोकन करना
खरीद-फरो त क एक या है। ‘इस’ स के से आप ‘उस’ को खरीद
रहे ह, जसका अथ है क आपका दे खना चयन क या है अतएव यह
दे खना नह है, अवधान नह है। दे खने का अ भ ाय है बना चयन के
अवलोकन करना, बदल जाने क इ छा क कसी भी ग त व ध के बना
वयं को ठ क वैसा ही दे खना जैसे क आप ह, जो कर पाना अ यंत कर
है; पर इसका मतलब यह भी नह क आप वैसे ही बने रहगे जस थ त
म आप अब ह। आप जानते नह ह क उस थ त म या होगा, जब आप
कोई प रवतन लाने क चाह के बना वयं को वैसा ही दे ख पाते ह जैसे क
आप ह। समझ रहे ह न
म एक मसाल लेता ं, फर उसक तफसील म जाते ह और बात
आपको साफ हो जाएगी। मान ली जए म हसक ं, जैसे क अ धकतर
लोग ह। हमारी सं कृ त हसक है, ले कन म इस समय हसा क संरचना
का वषय नह लूंगा, य क हम अभी उस सम या पर गौर नह कर रहे
ह। तो म हसक ं, और मुझे इस बात का एहसास होता है क म हसक
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।ं तब या होता है मेरी ता का लक त या यह होती है क मुझे इस
बारे म कुछ करना चा हए, है न म कहता ं क मुझे अ हसक बनना
चा हए। तो म अ यास करने लगता ं, सब तरह के आदशवाद काम म
लग जाता ं, पर अब म यह दे ख पाता ं क थ त कतनी असंगत है,
य क वह स ा जो हसा का अवलोकन कर रही है और उसे अ हसा म
प रव तत करना चाहती है, अभी भी हसक ही है। तो अब मेरा सरोकार
उस स ा क , उस क अभ से नह , अ पतु वयं उस स ा से
है। मुझे आशा है आप यह सब समझ पा रहे ह।
अब वह स ा कौन है, वह ह ती कौन है जो कहती है, “मुझे हसक
नह होना चा हए ” या वह स ा उस हसा से भ है जसका वह
अवलोकन कर रही है या वे दो भ अव थाएं ह आप समझ रहे ह
इसे, या फर यह कुछ अ धक ही अमूत है हम इस वाता क समा त के
नकट आ रहे ह, और आप शायद थोड़ा थक गए ह। न त ही “मुझे
हसा को अ हसा म बदलना होगा”, ऐसा कहने वाली ह ती और हसा,
दोन एक ही ह। इस त य क पहचान कर लेना सम त ं क समा त है,
है क नह तब प रवतन के यास का अंत नह रहता, य क म दे ख
लेता ं क मन क हसक न होने क ग त व ध हसा का प रणाम ही है।
तो कता जानना चाहता है क ऐसा य है क वह मन के इन सब
सतही बखेड़ के परे नह जा पा रहा है। कारण सीधा सा है क चेतन या
अचेतन प से मन कुछ न कुछ तलाशता रहता है, और यही तलाश हसा,
त प ा तथा नतांत असंतु के एहसास का कारण बनती है। केवल
तभी, जब मन पूणतः न ल होता है, गहरे पानी म पैठने क संभावना
बनती है।
: जब हम मरते ह तो या हमारा इस धरती पर पुनज म होता है
अथवा हम कसी और जगत म चले जाते ह
कृ णमू त : यह हम सब क च का है, युवा हो या वृ , है ना
तो म इस वषय म काफ गहराई से जाऊंगा और उ मीद है आप भी इसे
भली-भां त समझगे, केवल श द नह , ब क वह वा त वक अनुभव
जसक चचा म आपके साथ करने जा रहा ं।
हम सब जानते ह क मृ यु होती है, वशेष प से वृ लोग और
युवा भी जो क इसे घ टत होता दे खते ह। जो युवा ह, वे कहते ह, “अभी
इसे छोड़ो, जब आएगी तब नबट लगे”; और बूढ़े तो चूं क मृ यु के करीब
ही आते जा रहे ह, इस लए उ ह ने सां वना के व वध कार का आ य ले
लया है।
आपका ई र म व ास है, आपका भरोसा कयामत के दन फर से
जी उठने म अथवा कम तथा पुनज म म है; आप कहते ह क आपका यह
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या कसी और नया म फर ज म होने वाला है या आप मृ यु को
तकसंगत बनाते ह, कहते ह क मृ यु अव यंभावी है, यह हर कसी को
घ टत होती है; वृ सूखता-ढहता है, म को पोषण दे ता है और एक नया
वृ फर वहां होता है। या फर आप रोज़ क अपनी परेशा नय , चता ,
ई या- े ष म, अपनी त प ा म, अपनी धन-दौलत म इस कदर उलझे
होते ह क मृ यु के बारे म आप सोचते ही नह ह। ले कन यह आपके मन
म कह होती तो है, चेतन या अचेतन प से इसका रह य बना रहता है।
सव थम, मृ यु के संदभ म आप जो व ास, तकसंगत ा याएं या
उदासीनभाव पो षत करते रहे ह, या आप उनसे मु हो सकते ह या
आप उस सबसे अभी मु हो सकते ह य क मह व इस बात का है क
आप जीते जी, जब आप पूण चैत य, स य, व थ ह , मृ यु के घर म
वेश कर, और मृ यु के आने क ती ा न कर, जो आपको कसी घटना
के न म त काल उठा ले या कसी बीमारी के ज़ रये जसम आप धीरे-
धीरे होश खोते चले जाएं। जब मृ यु आती है, तो वह एक असाधारण ण
ही होगा, उतना ही जीवंत, जैसा क जीवन है।
तो या म, या आप जीते जी मृ यु के घर म वेश कर सकते ह
सम या यह है, यह नह क पुनज म होता है या नह , अथवा या कोई
सरा लोक है या नह है जसम आप फर पैदा हो जाने वाले ह, ये सब तो
एकदम अप रप व, बलकुल बचकानी बात ह। वह जो जी रहा है
कभी नह पूछता क जीना या होता है, उसके पास जीने के वषय म
धारणाएं-प रक पनाएं नह होत । ये तो केवल अ -जी वत लोग ही ह, जो
जीवन के उ े य के बारे म ब तयाया करते ह।
अतः, या आप और म, जीते जी, होश और स यता के रहते, जो
भी हमारी मताएं ह उनके रहते, जान सकते ह क मृ यु या है और तब
मृ यु या जीवन से वलग है हमम से अ धकतर के लए जीना उसक
नरंतरता है जसे हमने थायी समझा आ है। हमारा नाम, हमारा प रवार,
हमारी स प , वे चीज़ जनसे हमारे आ थक या आ या मक वाथ जुड़े
ह, वे सद्गुण ज ह हम पो षत करते रहे ह, वह सब जो हमने भावना मक
प से अ जत कर लया है यही सारा कुछ है जसक नरंतरता हम
चाहते ह, और जस ण को हम मृ यु कहते ह, वह अ ात का ण है।
इसी लए हम भयभीत ह, अतः हम कसी कार क सां वना, कसी तरह
क राहत खोजने क को शश करते ह; या मृ यु के उपरांत कोई जीवन है
और ऐसी ही बी सय बात हम जानना चाहते ह। ये सब अ ासं गक
सम याएं ह, आल सय क सम याएं ह, ये उनके लए ह जनक यह
मालूम करने क तैयारी नह है क जी वत रहते ए मृ यु या होती है। तो
या आप और म इसका पता लगा सकते ह

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मृ यु या है यह उस सबक संपूण समा त है जो आपको ात है।
जो भी आपने जाना है य द यह उसक संपूण समा त नह है तो यह मृ यु
नह है। य द आप मृ यु को पहले से जानते ह तो इसम आपके लए डरने
जैसा कुछ नह है। पर या आप मृ यु को जानते ह जो अ न य है, उसम
नरंतरता तलाशते रहने के इस अंतहीन संघष का या आप जी वत रहते
ए ही अंत कर सकते ह उस अ व ेय को, उस अव था को जसे मृ यु
कहते ह, या आप जीवन जीते ए ही जान सकते ह ज ह आपने
पु तक म पढ़ रखा है या राहत पाने क आपक अचेतन इ छा ने ज ह
न द कया है, या आप उन सारे ववरण को परे हटा सकते ह क मृ यु
के बाद होता या है, और उस अव था का वाद अभी ले सकते ह, उसे
अभी अनुभूत कर सकते ह, जो अव था असाधारण ही होगी य द उस
अव था क अनुभू त हो सके, तो जीना और मरना फर एक ही है।
तो या म, जसके पास वशद श ा है, ान है, जसने अन गनत
अनुभव व संघष कए ह, यार कए ह, नफरत क ह या यह ‘म’
समा त हो सकता है यह ‘म’ उस सब कुछ क अं कत मृ त ही है; और
या इस ‘म’ का अंत हो सकता है कसी घटना या बीमारी से अंत को
ा त ए बना, या आप और म अभी, जब क हम यहां बैठे ए ह, उस
अंत को जान सकते ह तब आपको प होगा क आप मृ यु और
नरंतरता के बारे म, परलोक के बारे म मह वपूण अब और नह पूछ
पा रहे ह। तब आप उ र वयं ही जान जाएंगे, य क वह जो अ व ेय है,
अ त व म आ चुका होगा। तब आप पुनज म क सारी अंट-शंट को वदा
कर दगे, और आपके अनेकानेक भय जीने का भय और मरने का भय,
बूढ़े हो जाने और और को अपनी दे खभाल क परेशानी म डालने का भय,
अकेलेपन का, कसी पर आ त हो जाने का भय ये सभी समा त हो
जाएंगे। ये वृथा श द नह ह। केवल तभी, जब मन अपनी नरंतरता के
ग णत म सोचना बंद कर दे ता है, उस अ व ेय का आ वभाव होता है।
ओहाइ,
21 अग त 1955
चौबीस
धम क साथकता के पर म बात करना चा ंगा, ता क हम सफ इसक
शा दक ा या तक सी मत न रह कर इसे गहनता से समझ सक। परंतु
इससे पहले क हम इस म गहराई से उतर, हम इस बारे म एकदम
प होना होगा क धा मक मन या है तथा मन क वह या अव था है,
जो यथाथपरक ढं ग से धम के संपूण क जांच-पड़ताल करती है।
मुझे यह बड़ा मह वपूण तीत होता है क अलगाव और एकाक पन
का अंतर समझा जाए। हमारे अ धकांश दै नक या-कलाप हमारे वयं
के आसपास ही क त होते ह; ये हमारे व श कोण, व श अनुभव
तथा हमारी वभावगत वल णता पर आधा रत होते ह। हम सदै व
अपने प रवार, अपने काम, जो कुछ हम पाना चाहते ह, उसके हसाब से
तथा अपने भय , आशा और नराशा के संदभ म सोचा करते ह। यह
सब य तः आ म-क त है और यह आ म-अलगाव क थ त लाता है,
जैसा क हम अपने रोज़ के जीवन म दे ख सकते ह। हमारी अपनी गु त
इ छाएं, अपने छ ल य तथा मह वाकां ाएं होती ह और हम कभी
कसी से गहराई से नह जुड़ पाते, न अपनी प नी से, न अपने प त से और
न ही अपने ब च से। इस कार यह आ म-अलगाव, हमारी रोज़ क ऊब,
दै नक जीवन क कुंठा तथा ु ता से पलायन का प रणाम है। यह
अकेलेपन के उस ज़बरद त एहसास से पलायन करने का प रणाम भी है
जो तब होता है, जब हम अचानक हर चीज़ से कटा आ महसूस करते ह,
जब सब कुछ हमसे ब त र होता है, और कसी के साथ कोई संवाद,
कोई संबंध नह होता है। मेरे याल से हमम से अ धकतर लोग ने य द
हम अपने अ त व क या के त जरा भी सचेत ह इस अकेलेपन
को ब त श त से महसूस कया होगा।
इस अकेलेपन के कारण, अलगाव के इसी एहसास क वज़ह से हम
कसी ऐसे से अपना तादा य था पत करने क को शश करते ह, जो मन
से े तर हो वह दे श या रा य हो सकता है, अथवा एक आदश या फर
ई र या है, इसक कोई धारणा हो सकती है। कुछ महान अथवा अन र,
कुछ ऐसा, जो हमारे अपने वचार के े से बाहर हो, उससे अपना
तादा य कर लेना ही सामा यतया धम कहलाता है, तथा यह हम व ास ,
मता ह , कमकांड , उसी चीज़ के अलग-अलग पहलु म व ास रखने
वाले त प ारत समूह क अलगाव गहराने वाली दौड़ क तरफ ले
जाता है; इस तरह, जसे हम धम कहते ह वह और अ धक अलगाव ही
पैदा करता है।

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यह भी दे खता है क कैसे यह धरती त प ा म लगे रा म
बंट है, जनक अपनी-अपनी सं भुतापूण सरकार तथा आ थक
नाकाबं दयां ह। य प हम सब मनु य ह, ले कन हमने अपने और अपने
पड़ो सय के बीच रा ीयता क , न ल, जा त और वग क द वार खड़ी कर
ली ह, जनसे अलगाव और अकेलापन ही उ प होता है।
जो मन अकेलेपन म, अलगाव क इस अव था म जकड़ा आ है,
संभवतः कभी नह समझ पाएगा क धम या है। यह व ास कर सकता
है, इसके अपने कुछ स ांत, अवधारणाएं, सू हो सकते ह; जसे यह
ई र कहता है उसके साथ अपना तादा य बठाने क चे ा यह कर सकता
है; परंतु मुझे लगता है क धम का कसी व ास, कसी पुरो हत, कसी
धम थल, अथवा कसी तथाक थत पावन पु तक से कुछ लेना-दे ना नही
है। धा मक मन क अव था तभी समझी जा सकती है, जब हम समझना
आरंभ करते ह क स दय या है; तथा स दय क इस समझ तक पूणतया
एकाक होकर ही प ंचा जा सकता है। केवल तब, जब मन पूणतया
एकाक होता है, यह जान पाता है क स दय या है, कसी अ य थ त म
नह ।
एकाक होना न त ही अलगाव नह है और यह अनूठापन भी नह
है। अनूठा होना तो एक तरह से व श होना भर है, जब क पूणतया
एकाक होना असाधारण संवेदनशीलता, ा व समझ क मांग करता है।
पूरी तरह से एकाक होने म कसी भी कार के भाव से मन का मु
होना न हत है, अतएव यह समाज ारा अ षत है; तथा धम या है, यह
समझने के लए एकाक होना आव यक है वयं इस बात का पता
लगाना ही धम है क या कुछ ऐसा है, जो अन र है, समय से परे है।
जैसी क थ त इस समय है, हमारा मन हज़ार साल के भाव का,
जीव-वै ा नक, सामा जक, पयावरणज नत, जलवायु व आहारज य एवं
अ य भाव का, प रणाम है। यह बात तो प ही है। उस भोजन से जो
आप खाते ह, उस समाचार-प से जो आप पढ़ते ह, अपने प त या प नी
से, अपने पड़ोसी से, राजनी त से, रे डयो व टे ली वजन से, और सरी
हज़ार चीज़ से आप भा वत होते रहते ह। जो कुछ भी अनेक व भ
दशा से आपके चेतन और अचेतन मन म उंड़ेला जा रहा है, उससे आप
लगातार भा वत हो रहे ह। या इन अनेकानेक भाव के त इतना
सजग हो पाना संभव नह है क इनम से कसी भी भाव म फंसे
नह और इन सबसे अ षत बना रहे अ यथा मन अपने वातावरण का
उपकरण भर हो कर रह जाता है। जसके बारे म यह सोचता है क यही
ई र या शा त स य है, उसक यह कोई छ व न मत कर सकता है तथा
उसम व ास रख सकता है, परंतु यह छ व अभी भी प रवेश क मांग ,

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तनाव , अंध व ास , दबाव से ही ढली-बनी है, और इस पर व ास करना
धा मक मन क थ त तो कदा प नह है।
आप एक ईसाई के प म दो हज़ार वष क अव ध म मनु य ारा
न मत चच, उसके पुरो हत , स ांत एवं व धय के भाव म पले-बढ़े ह।
बचपन म आपका बप त मा कर दया गया, जैसे-जैसे आप बड़े ए
आपको बताया गया क या व ास करना है, आप सं का रत कए जाने
और मत-आरोपण क सारी या से गुज़रे। ज़ा हर है क इस चारवाद
धम का दबाव बड़ा बल है, वशेष तौर पर इस लए य क यह सुसंग ठत
है, तथा श ा, छ वय क उपासना व भय के मा यम से मनोवै ा नक
भाव डालने म और सरे हज़ार तरीक से मन को सं का रत करने म यह
समथ है। पूरब म भी सभी जगह लोग अपनी आ था , था पत मत ,
अंध व ास और दस हज़ार साल या उससे भी पहले से चली आ रही
परंपरा के सं कार से बेतरह त ह।
जब तक मन के पास वतं ता नह है, तब तक उसे यह पता नह
चल सकता क स य या है, और वतं ता होने का अथ है, भाव से मु
होना। आपको अपनी रा ीयता के भाव, व ास और स ांत स हत
अपने सं दाय के भाव से मु होना होगा, तथा आपको लालच, डाह,
भय, शोक, मह वाकां ा, त प ा, ता से भी मु होना होगा। य द
मन इन सब चीज से, बाहर व अपने भीतर के व वध दबाव से मु नह
है, तो वह एक वरोधाभासी, असंतु लत अव था न मत कर लेगा, और
ऐसा मन संभवतः इस बात का अ वेषण नह कर सकता क स य या है,
अथवा या कुछ ऐसा है, जो समय से परे है।
इस कार हम दे ख सकते ह क मन के लए सम त भाव से मु
होना कतना आव यक है। या ऐसा होना संभव है य द यह संभव नह
है, तो उस शा त, अनाम, परम का अ वेषण हो नह सकता है। वयं यह
पता लगाने के लए क यह संभव है या नह , हम इन अनेक भाव के
त केवल इस जगह ही नह , ब क अपनी रोज़ाना क ज़ दगी म भी
सजग होना होगा। हम अवलोकन करना होगा क कस तरह से यह भाव
मन को षत कर रहे ह, कैसे उसे ढाल रहे ह, सं कारब कर रहे ह।
ज़ा हर है क हम हर समय मन पर डाले जा रहे अलग-अलग तरह के
अनेक भाव के त सजग नह रह सकते, परंतु हम सम त भाव से
मु होने का मह व दे ख सकते ह, और मेरे याल से यही इस मामले म
कांटे क बात है; और जब एक बार हम इसक अ नवायता को समझ लेते
ह, तो अचेतन कसी भी भाव के त सजग रहता है, भले ही चेतन मन
अ सर ऐसा न कर पाए।
या म अपनी बात प कर पा रहा ं म बताना यह चाह रहा ं
क असाधारण प से सू म भाव आपके मन को आकार दे ते जा रहे ह,
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तथा वह मन जसे भाव आकार दे रहे ह जो हमेशा समय के े से ही
आते ह, ऐसा मन संभवतः कभी शा त को नह खोज पाता, वह यह पता
कभी नह लगा पाता क शा त जैसा कुछ होता भी है या नह । अतः
तब यह है : य द चेतन मन इन सभी अनेकानेक भाव के त सजग न
हो पाए, तो इसे करना या होगा य द आप वयं के सम सचमुच ही
गंभीरतापूवक यह रख, ता क इसे आपके संपूण अवधान, पूरे यान
क दरकार हो, तो आप पाएंगे क आपका वह अचेतन ह सा जो तब भी
पूरी तरह त नह होता है जब मन क ऊपरी सतह काम म लगी होती
है, वह अचेतन मन काम संभाल लेता है और भीतर आ रहे सभी भाव
का नरी ण करता रहता है।
मेरे वचार से इस बात को समझ लेना ब त मह वपूण है, य क
य द आप भा वत होने का सफ तरोध कर रहे ह, अथवा उससे अपना
बचाव कर रहे ह, तो वह तरोध, जो एक त या है, मन म और
अ धक सं कार न मत करता है। भाव क इस सम त या क समझ
यासर हत होनी चा हए, उसम त काल बोध क गुणव ा होनी चा हए।
यह इस कार है : य द आप भा वत न होने के अगाध मह व को व तुतः
वयं दे ख पाते ह, तो जस समय आप सरे काम म त होते ह, तब
आपके मन का एक खास ह सा इस मामले को अपने हाथ म ले लेता है
तथा मन का वह भाग एकदम सतक, स य, सावधान, जाग क रहता
है। अतः मह व इस बात का है क कसी भी प र थ त, कसी भी
से भा वत न होने क गहन अथपूणता को हम त काल दे ख पाएं।
वा त वक मुददा ् यही है न क भाव का तरोध कैसे कर अथवा
भा वत हो जाने क थ त म आप या कर। एक बार यह क य त य
आपक पकड़ म आ जाए, तब आप पाएंगे क मन का एक ह सा हमेशा
सावधान है, दे ख रहा है, वयं पर पड़ रहे येक भाव को प छ डालने के
लए सदै व त पर है, भले ही वह भाव चाहे जतना सू म य न हो।
सम त भाव से मु हो जाने पर एकाक पन का आगमन होता है, जो
अलगाव से पूरी तरह भ है। यह एकाक पन आव यक है, य क स दय
समय के े से बाहर होता है और एक पूणतः एकाक मन ही यह जान
पाता है क स दय या है।
हमम से अ धकांश के लए स दय अनुपात, आकृ त, आकार, रंग-
प का वषय है। हम कसी भवन, वृ , पवत या नद को दे खते ह और
कह दे ते ह क यह सुंदर है; परंतु अभी भी एक बाहरी , एक
अनुभवकता ही है जो इन सब चीज़ को दे ख रहा है, और इस लए जसे
हम सुंदरता कहते ह, वह समय के े के भीतर ही है। ले कन मुझे
महसूस होता है क स दय समय से परे है तथा स दय को जानने के लए
अनुभवकता का समापन आव यक है। अनुभवकता अनुभव का एक

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सं ह मा है, जसके आधार पर वह नणय लेता है, मू यांकन करता है,
सोचता है। जब मन कसी च को दे खता है, या संगीत सुनता है या फर
कसी नद के त ू गामी वाह को दे खता है, तो सामा यतया वह सं चत
अनुभव क पृ भू म से ही ऐसा कर रहा होता है, वह अतीत से, समय के
े से ही दे ख रहा होता है और मेरे लए यह स दय को जान लेना कतई
नह है। स दय को जान लेना, जो क यह पता लगा लेना है क शा त या
है, केवल तभी संभव है, जब मन पूरी तरह से एकाक होता है और
उसका इस बात से कुछ भी लेना-दे ना नह है क पुरो हत या कहते ह,
था पत धम या कहते ह। मन का पूरी तरह समाज से, लालच, डाह,
ता, भय के मनोवै ा नक ढांच से अ भा वत, असं मत होना
आव यक है। मन को इस सब से मु होना होगा, यही मु एकाक पन
लाती है, तथा एकाक होने क अव था म ही मन उसे जान पाता है जो
समय के े से परे है।
स दय तथा वह जो शा त है, इ ह अलग नह कया जा सकता।
आप च बना सकते ह, लख सकते ह, कृ त का अवलोकन कर सकते
ह, कतु य द कसी भी प म व क ग त व ध वचार क कोई भी
आ म-क त हलचल व मान है, तो उस थ त म आप जसका बोध कर
पाते ह, वह अब स दय नह होता। य क वह अभी भी समय के ही े
म है; और य द आप स दय को नह समझ लेते, तो आप संभवतः यह
अ वेषण कभी नह कर पाएंगे क शा त या है, य क ये दोन साथ-
साथ ही होते ह। जो शा त है, अन र है, उसका पता लगाने के लए
आपके मन को समय से मु होना होगा समय अथात परंपरा, सं चत
ान एवं अतीत का अनुभव। यह नह है क आप कस पर व ास
अथवा अ व ास करते ह यह तो अप रप व, एकदम बचकानी बात है
तथा इसका इस वषय से कुछ भी संबंध नह है। ले कन एक मन जो इस
बारे म गंभीर है, जो वा तव म पता लगाना चाहता है, वह अलगाव क
आ म-क त ग त व ध को याग दे गा तथा इस कार एक ऐसी अव था म
आ जाएगा जसम वह पूणतः एकाक होगा। पूणतया एकाक होने क इस
अव था म ही स दय का, उस शा त का अवबोध हो पाता है।
दे खए, श द खतरनाक चीज़ ह, य क वे तीक होते ह और तीक
वा त वक नह होते। वे एक अथ, एक धारणा सं े षत करते ह, कतु श द
वह व तु नह होता। इस लए जब म शा त क बात कर रहा ं, तो
आपको यह पता लगा लेना होगा क कह आप बस मेरे श द से भा वत
तो नह हो रहे ह, अथवा कसी व ास के शकार तो नह बन रहे ह
ऐसा होना तो बेतुक बात होगी।
यह पता लगाने के लए क या शा त जैसा कुछ होता भी है, हम
यह समझना होगा क समय या होता है। समय एक अ य धक
ै औ ी े
असाधारण घटना है और म मक समय, घड़ी वाले समय क बात नह
कर रहा, जो य ही है और आव यक भी। म समय क बात मान सक
नरंतरता के प म कर रहा ं। और या उस नरंतरता के बना रह पाना
संभव है नरंतरता दे ने वाला, व तुतः वचार ही है। य द कोई लगातार
कसी चीज़ के बारे म सोचता रहता है, तो उसे नरंतरता मल जाती है।
य द कोई अपनी प नी का च रोज़ दे खता रहे, तो वह उसे नरंतरता दे
रहा होता है। या इस संसार म कसी भी या को ऐसी नरंतरता दए
बगैर रहना संभव है, ता क हर या नये सरे से संप हो अथात या म
पूरे दन, येक या के त मृत हो सकता ं, ता क मन उसे कभी
सं चत न करे अतएव अतीत ारा कभी षत न हो, अ पतु सदै व नूतन,
ताज़ा-दम व नद ष रहे मेरा कहना है क ऐसा संभव है, इस कार
से जी सकता है परंतु इसका यह अथ नह है क यह आपके लए भी
वा त वकता है। आपको इसे वयं ही खोज लेना होगा।
तो यह दे खना शु करता है क मन को पूरी तरह एकाक
होना होगा, कतु अलग-थलग नह । संपूण एकाक पन क इस अव था म
एक असाधारण स दय का, कसी ऐसे त व का बोध होता है, जो मन ारा
न मत नह है। इसका कुछ सुर को मला पाने से या त वीर बनाने के लए
कुछ रंग का इ तेमाल कर पाने से कोई संबंध नह है, कतु चू क यह
एकाक है, अतः मन स दय म ही है और इसी लए यह पूणतः संवेदनशील
है, तथा पूणतः संवेदनशील होने से इसम ा है। इसक ा चालाक या
जानकारी से न मत नह है, न ही यह कुछ कर पाने क मता है। मन
ावान इस अथ म है क अब वह कसी से शा सत, भा वत नह हो रहा
तथा नडर है। परंतु इस थ त म होने के लए मन म अपने आपको रोज़
नया कर लेने क यो यता होनी चा हए, जसका अथ है अतीत के त, वह
सब जो इसने जाना है उसके त, त दन मृत होना।
जैसा क मने कहा, श द, तीक, यथाथ नह होता। पेड़ श द पेड़
नह होता, अतः श द म न उलझने के लए को ब त सतक रहना
पड़ता है। जब मन श द से, तीक से मु होता है, तो यह आ यजनक
प से संवेदनशील बन जाता है, और तभी यह अ वेषण क थ त म
होता है।
आ खरकार मनु य ब त ल बे समय से पुराने ज़माने से लेकर अब
तक इस त व क खोज करता रहा है। वह कुछ ऐसा खोज लेना चाहता
है, जो मानव- न मत न हो। एक ावान मनु य के लए संग ठत धम का
कोई अथ नह है, तो भी संग ठत धम हमेशा कहते रहे ह क ऐसा कुछ है
जो सबके परे है; मनु य सदा उसक खोज म रहा है, य क वह नरंतर
शोक, दशा, ां त और हताशा से घरा रहा है। सदा अ न यता क
अव था म रहने के कारण वह ऐसा कुछ पा लेना चाहता है जो न य थायी
ो ो े े ो ी
हो, जो बना रहे, टका रहे, जसम नरंतरता हो, तथा इसी लए उसक
तलाश सदै व समय के े के भीतर ही रही है। परंतु जैसा क हम दे ख ही
सकते ह क थायी कुछ भी नह है। हमारे संबंध, हमारे नौकरी-धंधे सब
कुछ अ थायी ह। अपने इसी अ था य व के अ तशय भय के कारण हम
कुछ ऐसा थायी त व खोजते रहते ह, जसे हम अन र, शा त अथवा
कुछ और कह सक। परंतु थायी, अन र, शा त क यह तलाश मा एक
त या है अतएव यह ामा णक नह है। केवल तभी, जब मन न त
होने क इस इ छा से मु होता है, वह इस बारे म अ वेषण आरंभ कर
सकता है क या कुछ ऐसा है जो शा त है, जो समय और आकाश से परे
है, वचारक एवं उसके सोचने और खोजने के वषय से परे है। इस सबका
अवलोकन करने और समझने के लए पूण अवधान और उस अवधान से
आने वाले अनुशासन के लचीले गुण क आव यकता होती है। ऐसे
अवधान म न कोई वचलन है, न तनाव है, न कसी वशेष दशा म होने
वाली हलचल है, य क ऐसी येक हलचल, येक योजनवृ या तो
अतीत या फर वतमान के भाव का प रणाम है। अवधान क उस
यासर हत थ त म ही वातं य का, मु का असाधारण बोध होता है,
और केवल तभी जब मन पूणतः र , मौन, न ल होता है मन उसे
खोज पाने म स म होता है, जो शा त है।
जो कुछ इस सुबह कहा गया है, संभवतः आप उस बारे म करना
चाह।
: न त होने क इ छा से मु कैसे हो
कृ णमू त : कैसे श द एक व ध क ओर संकेत करता है, है क
नह य द आप भवन- नमाता ह और म आपसे पूछूं क मकान कैसे
बनाते ह, तो आप मुझे बता तो सकते ह क करना या है, य क उस
काम को शु करने का एक तरीका है, एक व था है, एक ढं ग है। कतु
कसी व ध अथवा णाली का अनुसरण पहले ही मन को सं का रत कर
चुका होता है, इस लए कैसे श द के योग क क ठनाई को जरा दे ख ल।
हम इ छा को भी समझना होगा। इ छा या है जैसा क म उस दन
कह रहा था, पहले दे खना या य करना होता है, उसके बाद संपक
अथवा पश, तब संवेदन और अंत म उसका उदय होता है जसे हम इ छा
कहते ह। न त प से यही सब घ टत होता है। कृपया इसे बारीक से
समझ। मान ली जए, हम एक सुंदर सी कार दे खते ह। दे खने क उस या
से ही, कार को पश कए बना भी, संवेदन होता है, कुछ महसूस होता है,
जससे उस कार को चलाने, उसक माल कयत क इ छा न मत हो जाती
है। हमारा वा ता इस बात से नह ह क इ छा का तरोध कैसे कर अथवा
उससे मु कैसे ह , य क जो आदमी इ छा का तरोध करता है और
सोचता है क वह इ छा से मु हो गया है, वह वा तव म जड़ हो चुका है,
ै ी ो े ै
मर चुका है। मह वपूण बात इ छा क पूरी या को जान लेना है,
जसका अथ है, इसके मह व और इसक पूरी मह वहीनता, दोन को
जान लेना। हम पता यह लगाना है क वह या है, जो इ छा को नरंतरता
दे ता है, न क यह क इ छा का अंत कैसे हो।
इ छा को नरंतरता कौन दे ता है यह वचार ही है, है न पहले कार
को दे खना घ टत होता है, फर संवेदन, जसके पीछे इ छा आती है; और
य द वचार ह त ेप न करे, तथा यह कह कर इसे नरंतरता न दे , “मेरे
पास यह कार होनी चा हए, म इसे हा सल कैसे कर लूं ” तो इ छा का अंत
हो जाएगा। आप समझ रह ह मेरा ज़ोर इस बात पर नह है क इ छा से
मु मल जानी चा हए ब क बात इसके उलट है। पर आपको इ छा
के पूरे ढांचे को समझ लेना होगा, और तब आप पाएंगे क अब इ छा क
कोई नरंतरता नह है, पर कुछ है, जो सवथा भ ही है।
अतः मह व इ छा का नह , ब क इस बात का है क हम इ छा को
नरंतरता दे ते रहते ह। उदाहरण के लए हम कामवासना को वचार के
ारा, क पना और च के मा यम से, सनसनी और याद के ज़ रये
नरंतरता दया करते ह; इसके बारे म सोच-सोच कर हम मृ त को
चलायमान रखते ह, तथा यह सब कामवासना को, इं य के मह व को
सात य दये रहता है। ऐसा नह है क इं यां मह वपूण नह ह : वे
मह वपूण ह। ले कन हम इं य के सुख को एक नरंतरता दे ते ह, जो
हमारे जीवन म अ य धक मह वपूण बन जाती है। तो ासं गकता इ छा से
मु क नह , अ पतु इ छा क संरचना को समझने, यह समझ लेने क है
क कैसे वचार उसको नरंतरता दे ता रहता है सारी बात इसी म आ
जाती है। तब मन वतं होता है, मु होता है, और आपको इ छा से
मु क तलाश नह करनी पड़ती। जस ण आप इ छा से मु क
तलाश म पड़ते ह, आप ं क गर त म आ जाते ह। हर बार जब भी
आप कसी कार को, कसी ी को, या कसी भी ऐसी चीज़ को दे खते ह,
जो आपको आक षत करती हो, तो वचार फौरन घुस आता है और इ छा
को नरंतरता दे ने लगता है, और तब यह सब एक अंतहीन सम या बन
जाया करता है।
मह व ऐसा जीवन जीने का है, जसम कोई यास न हो, एक भी
सम या न हो; और बना कसी सम या के आप तभी जी सकते ह, जब
आप यास क कृ त को समझ ल तथा इ छा क पूरी संरचना को
एकदम प ता से दे ख ल। हमम से यादातर लोग क हज़ार सम याएं ह,
एवं सम या से मु होने के लए हम येक सम या को उसके उ प
होते ही तुरंत समा त करने म स म होना होगा। मेरे याल से हमने इस
बारे म पया त बात कर ली है तथा इस समय म इस वषय म और नह
जाना चा ंगा। परंतु मन के लए यह पूण पेण अ नवाय है क इसम
ी ी े
सम याएं बलकुल न रह पाएं, ता क यह एक यासर हत जीवन जी सके।
न त ही, केवल ऐसा मन ही धा मक मन है, य क इसने ख तथा ख
के अंत को समझ लया है; यह नभय है, इस लए अपना आलोक यह वयं
है।
सानेन,
2 अग त 1964
प चीस
दे खए, जैसा क मने उस दन कहा था, व ा मह वपूण नह है, पर वह
या कहता है, यह मह वपूण है, य क वह जो कुछ कह रहा है, वह
आपके ही आ म-वातालाप का उ च वर है। व ा जन श द का योग
कर रहा है, उनके ारा आप अपने आप को ही सुन रहे ह, न क व ा को,
और इसी लए सुनना अ य धक मह वपूण हो जाता है। सुनना सीखना है,
सं चत करना नह । य द आप ान सं चत करते ह तथा उस संचय व ान
क अपनी पृ भू म से सुनते ह, तब आप सुन नह रहे होते। जब आप
सुनते ह, तभी आप सीखा करते ह। आप अपने बारे म ही सीख रहे ह,
और इस लए आपको यान से, असाधारण अवधान स हत सुनना होगा
तथा य द आप जो कुछ सुनते ह उसका प लेने लगते ह, नदा करते ह या
कसी और तरह से मू यांकन करते ह, तो अवधान नह रहता।
य द आप एक तूफान के बाद नद के कनारे बैठे ह , तो आप दे खते
ह क जल-धारा ढे र सारा मलबा बहा कर ले जा रही है। इसी कार
आपको अपनी हर ग त व ध को सावधानी से दे खना होगा, येक वचार,
येक भावना, येक अ भ ाय, येक उ े य का अनुसरण करते ए
बस इसे दे खना भर होगा, यह दे खना सुन लेना भी है। यह मनु य ारा
न मत उन सब मू य के त, जो आपको सं कारब कए ए ह,
आपका अपनी आंख से, अपने कान से, अपनी अंत ारा सजग हो
जाना है, और सम सजगता क यह अव था ही सारी तलाश का अंत ले
आती है।
जैसा क मने कहा था, तलाशना व पाना ऊजा का अप य है। जब
मन अपने आप म अ प , मत, भयभीत, खी, ाकुल हो, तो इसक
तलाश का मतलब ही या रह जाता है इस अ त तता से आप सवाय
और अ त तता के या पा सकते ह कतु जब मन भयभीत न हो,
पुनरा ासन क मांग न करे, तब कोई तलाश नह है, इस लए कुछ पाने को
भी नह है। ई र का, स य का दशन करना धा मक कृ य नह है। एकमा
धा मक कृ य है व- ान के ारा इस आंत रक प ता तक प ंचना,
अथात सभी अंतरंग, गु त इ छा के त सजग होकर उ ह कट होने
दे ना, हमेशा सावधानीपूवक दे खते ए, बना उ ह सही और नयं त कये
अथवा उनम संल न ए। इस तरह लगातार सावधानीपूवक दे खने से
असाधारण प ता व संवेदनशीलता आती है तथा ऊजा का ज़बरद त
संर ण होता है; और अपने पास अपार ऊजा होनी चा हए, य क सम त
या ऊजा है, जीवन अपने आपम ऊजा है। जब हम दशा त, ाकुल,
झगड़ते ए, ई यालु होते ह, जब हम डरे ए होते ह, जब हम अपमा नत

े ो ै ी
या शं सत महसूस करते ह, तब ऊजा का य होता है। शारी रक या
आंत रक प से रोग त होना भी ऊजा का य है। जो कुछ भी हम
करते, सोचते या महसूस करते ह, वह ऊजा का बाहर न कासन ही है।
अब या तो हम ऊजा के य को समझ लेते ह, और इस लए उस समझ से
सम त ऊजा का वाभा वक समागम होता है, अथवा हम बा प र ध से
मूल क तक आने क आशा म अपना जीवन ऊजा क व भ
वरोधाभासी अ भ य को साथ लाने के संघष म खच कर दे ते ह।
धम का सार पावनता है, जसका न तो धा मक संगठन से कुछ
लेना-दे ना है, न ही उस मन से जो व ास म, धमनी त म फंसा और
सं का रत है। ऐसे मन के लए कुछ भी पावन नह है, सवाय उस ई र के
जो इसने वयं गढ़ा है, सवाय उन कमकांड के जो इसने वयं रच लए ह
या उन व भ संवेदन के सवाय जो इसे ाथना, उपासना, समपण आ द
से ा त होते ह। ले कन इन सब म तो कुछ भी पावन नह ह। मतांधता म,
कमकांड म, भावुकता या भाव व लता म कुछ भी पावन नह है।
पावनता धा मक मन का सारत व है, तथा इस सुबह हम इसी का अ वेषण
करने जा रहे ह। हमारा सरोकार उससे नह है, जसे पावन माना लया
जाता है तीक, वह श द, वह , वह च , कोई व श अनुभव, ये
सब बचकाने ह ब क हमारा सरोकार तो मूल त व से है; और इस हेतु
हमम से येक के लए उस समझ का होना ज़ री है जो दे खने या सजग
होने से आती है, पहले बाहरी चीज़ के त; बा वहार, हाव-भाव,
पहनावे, आकृ तय , कसी पेड़ के आकार व रंग, कसी , कसी
भवन के प के त पहले सजग ए बना मन आंत रक सजगता क
लहर पर सवार नह हो सकता। यह वार है जो बाहर जाता है, व भीतर
आता है तथा जब तक आप बाहर जाती लहर को नह समझ लेते, आप
भीतर आती लहर को भी नह समझ पाएंगे।
ज़रा इसे यान से सुन। हमम से अ धकतर लोग समझते ह क
सजगता कुछ ऐसी रह यमय बात है जसका अ यास कया जाना चा हए
और इसके बारे म बात करने के लए हम दन- त- दन मलते रहना
चा हए। अब आप इस ढं ग से तो कभी सजगता तक प ंच नह सकते।
परंतु य द आप बा व तु के त सजग होते ह सड़क का मोड़,
कसी क पोशाक का रंग, नीले आकाश म पवत क प ररेखा, एक पु प
क कोमलता, कसी प थक के चेहरे पर लखी पीड़ा, और क
अन भ ता, ई या, डाह, धरती का स दय इन सब बाहरी चीज़ को बना
बुराई-बड़ाई के दे खते ए, आप आंत रक सजगता के वाह पर आरोहण
कर सकते ह। तब आप अपनी वयं क त या , अपनी ु ता ,
अपनी ई या के त सजग हो जाएंगे। बा सजगता से आप आंत रक

ओ े े ो
सजगता क ओर आते ह, कतु य द आप बा के त सजग नह ह, तो
आप संभवतः आंत रक तक नह आ पाएंगे।
जब मन व शरीर क येक ग त व ध के त भीतरी सजगता होती
है, जब आप अपने छ तथा कट, चेतन तथा अचेतन वचार व भाव
के त सजग होते ह, तब उस सजगता से एक प ता आती है जो मन
ारा वृ तथा न मत नह होती। और उस प ता के बना, आप चाहे
जो कर ल, आसमान, धरती एवं पाताल छान डाल, कतु आप कभी पता
नह लगा पाएंगे क स य या है।
तो जसे यह अ वेषण करना हो क स य या है, उसम सजगता क
इस संवेदनशीलता का होना आव यक है, जसका मतलब सजगता का
अ यास करना नह है। सजगता का अ यास केवल आदत क ओर ले
जाता है तथा आदत सम त संवेदनशीलता न कर दे ती है; कोई भी
आदत, चाहे वह से स क आदत हो, पीने क आदत हो, सगरेट क
आदत हो या और कोई भी आदत हो, मन को असंवेदनशील बना दे ती है,
और ऐसा मन जो असंवेदनशील होता है, ऊजा का रण तो करता ही है,
साथ ही मंद, सु त भी हो जाता है। एक मंद, उथला, सं कार त, ु मन
कोई मादक ले सकता है तथा एक पल के लए उसे कोई
आ यजनक अनुभव भी हो सकता है, ले कन रहता तब भी वह एक ु
मन ही है। और अभी हम इस बात का पता लगा रहे ह क मन क ु ता
का अंत कैसे हो।
ु ता का अंत अ धक मालूमात, अ धक जानकारी जमा करने,
उ चको ट के संगीत को सुनने, संसार के रमणीक थल को दे खने आ द से
नह होता, ु ता का इन सब से कुछ लेना-दे ना नह है। ु ता का अंत
होता है वयं को जानने क प ता से, उस मन क ग तशीलता से जसम
अवरोध ह ही नह ; और ऐसा मन ही धा मक मन है।
धम का सार है पावनता। परंतु पावनता कसी गरजे, मं दर, म जद
या कसी छ व म नह है। म सार-त व क बात कर रहा ं, न क उन
व तु के वषय म ज ह हम पावन कहा करते ह। जब कोई धम के इस
सार को समझ लेता है जो क पावनता है, तब जीवन का पूरी तरह से कुछ
और ही अथ हो जाता है; तब हर चीज़ म स दय होता है और स दय
पावनता है। स दय वह नह है, जो उ पन जगाए। जब आप कसी पवत,
कसी भवन, नद , घाट , फूल या चेहरे को दे खते ह तो आप कह पाते ह
क यह सुंदर है, य क इसके ारा आपम उ पन जागता है, परंतु जस
स दय क बात म कर रहा ं, वह कोई उ पन, कोई उ ेजना नह दे ता।
यह कसी च म, तीक म, श द म, संगीत म पाया जाने वाला स दय
नह है। यह स दय पावनता है; धा मक मन का यह सार है, उस मन का
सार जो अपने व- ान म प है। इस स दय से भट, अनुभव क इ छा
े े े े ो ी ै ी
करने, चाहने, उ कं ठत रहने से नह होती है, ब क इसका आगमन तभी
होता है, जब अनुभव क सम त कामना का ही अंत हो जाए और इसे
समझ पाना सवा धक क ठन बात म से एक है।
जैसा मने पहले यान दलाया था, जो मन अनुभव क तलाश कर
रहा है, अभी भी प र ध पर घूम रहा है, और हर अनुभव क ा या
आपके व श सं कार पर नभर करती है। आप चाहे ईसाई, बौ ,
मुसलमान, ह या सा यवाद ह , या जो भी ह , आपका अनुभव आपक
पृ भू म के अनु प अनू दत व सं का रत होगा, तथा जतने अ धक
अनुभव क आप मांग करते ह, आप अपनी पृ भू म उतना ही अ धक
मज़बूत कर रहे होते ह। इस या से ःख का अभाव, अवसान नह
होता, ब क यह तो ःख से पलायन मा है। वह मन जो अपने आपको
जानते ए सु प है, जो मन प ता व काश का सार है, उसे अनुभव क
आव यकता नह होती है। यह तो जो है, वही है। अतः प ता अपने
आपको जानने से आती है, न क कसी अ य के नदश के मा यम से, चाहे
वह कोई चतुर लेखक, कोई मनोवै ा नक, दाश नक या तथाक थत
धा मक श क ही य न हो।
ेम के बना, मृ यु क समझ के बना पावनता नह है। आपको पता
है यह जीवन क अ यंत अद्भुत बात म से एक है, कसी चीज़ का
अनपे त प से, सहज ही पता चलना, बना कसी पूवमनन के कुछ
मल जाना तथा त ण उसक सुंदरता, पावनता व वा त वकता को दे ख
पाना। ले कन जो मन कुछ तलाश रहा है, कुछ पाना चाह रहा है, वह कभी
उस थ त म नह होता। ेम ऐसी बात नह है, जसे अ यास के ारा
उपजाया जा सके। वन ता क तरह ेम को भी उ प नह कया जा
सकता। सफ अहंकारी लोग ही वन होने का यास करते ह, सफ
अ भमानी लोग ही वन ता का अ यास करके अपने अ भमान को यागने
का यास करते ह। वन ता का अ यास अहंकार क ही एक या है।
सुनने एवं सीखने के लए वन ता क सहज गुणव ा आव यक है। और
वह मन जो वन ता क कृ त समझ चुका है, कभी अनुसरण नह करता,
आ ानुसारी नह बनता। य क वह, जो पूरी तरह नषेधा मक है, र है,
कैसे कसी का अनुसरण या आ ापालन कर सकता है
एक मन जो क वयं को जानने क प ता म यह पता लगा चुका है
क ेम या है, वह मृ यु क कृ त व संरचना के त भी सजग होगा।
य द हम अतीत के त, कल क हर बात के त मर नह जाते, तो मन
अपनी लालसा म, मृ त क परछाइय म, अपने सं कार म ही जकड़ा
रहता है और इस लए उसम प ता नह होती। बीते ए कल के त
सहजता से, वे छा से, बना कसी बहस या प -समथन के मृत हो पाने
के लए खासी ऊजा क आव यकता होती है। बहस करना, सफाई दे ना,
ै औ ी ी े
पसंद-नापसंद ऊजा क बरबाद है, और इसी कारण बीते ए तमाम
कल के त मृत नह होता, उनका वसजन नह करता जससे क मन
ताज़ा व नूतन हो सके। जब एक बार वयं को जानने क या म समझ
नखरती है तो ेम अपनी सौ यता लए आ उप थत होता है। वन ता क
सहज गुणव ा आ जाती है, तथा मृत होने के मा यम से अतीत से यह
मु भी घ टत होती है।
और इस सब से सजन का आगमन होता है। आ मा भ सजन
नह है, यह च फलक पर रंग भरने अथवा पु तक के प म थोड़े से या
ब त से श द लख लेने, अथवा रसोई म डबलरोट बनाने या गभ म शशु
धारण करने का मामला नह है। इनम से कुछ भी सजन नह है। सजन
केवल तभी होता है जब ेम व मृ यु घ टत होते ह।
सजन केवल तब होता है जब हर दन हर चीज़ के त मरना होता
रहे, ता क मृ त के प म कोई संचय न हो। न त ही अपने व ,
मकान तथा गत संप के लए आपको थोड़ा संचय चा हए ही, म
बात उसक नह कर रहा ं। यह तो मन म संचय व अ धकार क आंत रक
वृ है, जससे आ धप य, भु व, अनु पता व आ ाका रता क
उ प होती है, और इसक वजह से सजन घ टत नह हो पाता, य क
ऐसा मन कभी मु नह होता। केवल एक मु मन ही जानता है क ेम
या है तथा मृ यु या है, और सजन केवल ऐसे मन के लए ही संभव है।
इस थ त म वह मन धा मक होता है; इस थ त म ही पावनता व मान
होती है।
मेरे लए पावनता श द असाधारण अथ रखता है। दे खए, म इस
श द का चार नह कर रहा ं, म आपसे कोई बात मनवाने क को शश
नह कर रहा ं और न ही उस श द के ारा आपको यथाथ क अनुभू त
या ती त कराने का मेरा कोई यास है। आप ऐसा कर भी नह सकते।
आपको अपने आप इस सब से गुज़रना होगा, शा दक प से नह ,
अ पतु वा तव म। आपको व तुतः हर उस चीज़ के त जो आप जानते
ह, अपनी मृ तय के त, अपनी दशा के त, अपने सुख के त
मृत होना होगा। और जब ई या, डाह, लालच व हताशा क यातना का
अभाव होगा, तब आप जान लगे क ेम या है, तथा आप उस तक आ
पाएंगे, जसे पावन कहा जा सकता है।
अतः पावनता धम का सार है। दे खए, एक वशाल नद कसी शहर
से गुज़रते समय षत हो सकती है, ले कन य द यह षण ब त ही
यादा नह है तो आगे बहने पर नद अपने आप को व छ कर लेती है,
और कुछ कोस बाद ही यह पुनः नमल, अ भनव, वशु हो जाती है।
इसी कार जब मन एक बार इस पावनता को साकार कर लेता है, तब
येक या वशु करण क या हो जाती है। अपनी येक ग त व ध
े ो ै
से मन वयं को नद ष बनाता रहता है; तथा इस लए यह संचय नह कर
रहा होता। वह मन जसने इस प व ता का अ वेषण कर लया है, अनवरत
ां त म होता है आ थक या सामा जक ां त नह , वरन् एक आंत रक
ां त जसके ारा यह नरंतर वयं को शु करता रहता है। इसक या
कसी अवधारणा अथवा कसी सू पर आधा रत नह होती। जैसे नद
अपनी चंड जलरा श स हत बहते-बहते अपने को साफ करती चलती है,
ठ क उसी तरह मन भी वयं को नमल करने लगता है, जब उसे इस
धा मक पावनता का सा ात् हो जाता है।
सानेन,
1 अग त 1965
छ बीस
कृ णमू त : सर, आप वै ा नक ह, आपने परमाणु इ या द का
नरी ण कया है। इस सारे नरी ण के उपरांत या आप यह महसूस नह
करते क इस सबके परे ब त कुछ और भी है
डे वड बोम : हमेशा यह महसूस होता है क इसके पार कुछ और है,
पर इससे यह पता नह चलता क यह या है। यह तो प है ही क जो
कुछ भी मनु य जानता है, सी मत है।
कृ णमू त : हां।
डे. बो. : और इसके परे कुछ और होना ही चा हए।
कृ णमू त : कैसे वह आपसे संपक करे, ता क आप अपनी वै ा नक
जानकारी, स म म त क व अ य मता आ द-आ द स हत….., कैसे
आप इसे भली-भां त समझ सकगे
डे. बो. : या आप कह रहे ह क इसे भली-भां त समझा नह जा
सकता
कृ णमू त : नह , नह । या आप इसे समझ सकते ह म यह नह
कह रहा क आप समझ नह सकते या आप इसे भली-भां त समझ
सकते ह
डे. बो. : दे खये यह प नह है। पहले आप कह रहे थे क यह
समझ के बाहर…..
कृ णमू त : भली-भां त समझने से मेरा आशय है क या आपका
मन, जो उ च श त है, जो य -बोध म समथ है, स ांत इ या द के
परे जाकर म आपको या बताने क को शश कर रहा ं म कहना यह
चाह रहा ं क या आप इसम ग त कर सकते ह ग त नह आप समझ
रहे ह यो क ग त म तो समय और बाक चीज़ आ जाती ह। या आप
म कहना या चाहता ं या आप इसम वेश कर सकते ह नह , ये
तो सारे श द ह। सर, र ता के पार या है या वह मौन है
डे. बो. : या वह र ता से मलता-जुलता नह है
कृ णमू त : हां, यही म कहना चाह रहा ं। इसम एक-एक कदम
करके आगे बढ़ते ह। या वह मौन है या, या मौन र ता का अंश है
डे. बो. : हां, म यही क ंगा।

ी ी ौ ै
कृ णमू त : म भी यही कहना चा ंगा। य द यह मौन नह है एक
मनट सर, म बस यह पूछ रहा ं, या हम कह सकते ह क यह
आ यं तक है, परम है आप समझ रहे ह
डे. बो. : इसके लए, ‘परम’ से हम या अ भ ेत है, यह दे खना
होगा। यह कुछ ऐसा होना चा हए जो पूणतया वाधीन हो; ‘परम’ का अथ
व तुतः यही है। यह कसी पर नभर नह करता।
कृ णमू त : जी हां, खुशी क बात है; हम इसके कुछ करीब प ंच
रहे ह।
डे. बो. : पूरी तरह से अपने आप ग तशील, जैसे क यह वतः
स य हो।
कृ णमू त : हां। या आप कहगे क येक व तु का एक कारण
होता है, और इसका कोई कारण नह है
डे. बो. : दे खए, यह धारणा तो पहले से ही है, काफ पुरानी है। इस
धारणा को अर तू ने वक सत कया था क वह परम अपना कारण वयं
होता है।
कृ णमू त : हां।
डे. बो. : एक अथ म इसका कोई कारण नह है। यह वही बात है।
कृ णमू त : दे खए, जैसे ही आपने अर तू क बात क , तो यह वह
नह है। अब हम इस बात तक प ंच कैसे र ता ऊजा है और र ता
का अ त व मौन म होता है, या इस बात को वपरीत म म कह, उससे
कोई फक नह पड़ता ठ क है जी हां, इस सबके पार कुछ है तो।
स भवतः इसे श द म कभी नह कया जा सकता। पर इसे श द म
रखना तो होगा। समझ रहे ह
डे. बो. : आप यह कह रहे ह क परम को श द म करना
आव यक है, साथ ही हम यह भी महसूस करते ह क ऐसा कया नह जा
सकता। इसे श द म रखने का कोई भी यास इसे सापे बना दे ता है।
कृ णमू त : हां। मुझे नह मालूम क इस सबको श द म कैसे कह।
डे. बो. : म सोचता ं क परम के संदभ म इस खतरे का हमारा एक
लंबा इ तहास रहा है। लोग ने इसे श द म रखा है और यह ब त
दमनकारी बन गया है।
कृ णमू त : वह सब जाने द। आप दे ख, अ य लोग, अर तू, बु
आ द ने जो कहा है, उसक जानकारी न होने का एक लाभ है। आप मेरा
अ भ ाय समझ रहे ह लाभ इस अथ म क मन तब सर क धारणा

ो े ो े
म नह रंगा होता, उनके व म नह उलझा रहता। वह सब तो हमारे
सं कार वगैरह का ही ह सा है। अब बात उस सबके पार जाने क है। हम
को शश या कर रहे ह, सर
डे. बो. : मेरे याल म हमारी को शश उसे सं े षत करने क है, जो
पार है, परम है।
कृ णमू त : परम श द तो मने तुरंत नकाल दया था।
डे. बो. : तब जो भी यह है, र ता और मौन से परे है।
कृ णमू त : उस सबसे परे। उस सबके पार है। वह सब तो वराटता
का अंश ही है।
डे. बो. : हां, पर र ता और मौन भी तो वराटता ही है, या ऐसा
नह है ऊजा वयं म ही एक वराटता है।
कृ णमू त : हां, वह म समझता ं। पर कुछ ऐसा है, जो इस सबसे
ब त अ धक वराट है। सर, र ता व मौन व ऊजा वराट है, व तुतः
अप रमेय है। पर कुछ ऐसा है जो इस सबसे म इस श द का योग कर
रहा ं मह र है।
डे. बो. : हां, म इसे टटोल रहा ं, मेरा मतलब है इसे दे ख रहा ।ं यह
तो नज़र आता है क आप जो भी कहते ह, र ता के बारे म या कसी
अ य त व के बारे म, उस सबसे परे भी कुछ और है।
कृ णमू त : नह , एक वै ा नक के प म आप इसे वीकार य
करते ह ‘ वीकार’ श द के योग के लए मुझे मा कर आप इसके
साथ आते ही य ह
डे. बो. : हां, य क हम कदम-दर-कदम, हर एक कदम क ज़ रत
दे खते ए यहां तक आए ह।
कृ णमू त : दे खए यह सब एकदम यु यु , तकसंगत और
संतु लत है।
डे. बो. : और यह भी दखाई दे ता है क बात सही है; ऐसा ही है।
कृ णमू त : हां। तो य द म क ं क कुछ है जो इस सबसे, मौन से,
ऊजा से, मह र है, अ धक वराट है, तो या आप इसे वीकार करगे
वीकार इस अथ म क अब तक हम तकसंगत रहे ह।
डे. बो. : हम यह कहगे क जो कुछ भी आप कहते ह, न त ही
उसके पार भी कुछ तो है। जो भी आप कह मौन, ऊजा या जो कुछ, तो जो
भी परे हो, ता कक प से उससे भी परे के लए थान तो बचा ही रहता
है।
कृ णमू त : नह , नह ।
डे. बो. : अ छा ऐसा य है आप दे खए, जो कुछ भी आप कहते
ह, हमेशा उससे परे के लए गुंजाइश तो बची रहती है।
कृ णमू त : बात तो यही है क उससे परे और कुछ है नह ।
डे. बो. : हां, ले कन यह बात प नह हो रही है य क ……
कृ णमू त : उससे परे कुछ नह है। म इस पर कायम ं। मता ह या
हठ के कारण नह , पर मुझे यह ती त होती है क वही येक व तु का
आरंभ और अंत है। सर, सामा य सं ेषण म, आप बोलचाल म कह, तो
अंत तथा आरंभ एक ही है। ठ क
डे. बो. : कस अथ म या इस अथ म क आप येक व तु के
आरंभ को उसके अंत के प म ले रहे ह
कृ णमू त : हां। ठ क है आप ऐसा कहगे
डे. बो. : हां, य द हम कह क एक आधारभू म है, जहां से यह आता
है तो लौटना भी उस आधारभू म म ही होना चा हए।
कृ णमू त : सही है। यही वह आधारभू म है जससे सब कुछ
अ त व म है, आकाश…
डे. बो. : ..ऊजा …
कृ णमू त : ..ऊजा, र ता, मौन, यह सभी कुछ उसी पर है कोई
भू म नह , आप समझ रहे ह
डे. बो. : नह , वह तो बस एक पक है।
कृ णमू त : इसके परे और कुछ नह है, इसका कोई कारण नह है।
य द आप कह क कारण है, तो आधारभू म भी होनी चा हए।
डे. बो. : तब एक और आधारभू म होगी।
कृ णमू त : नह । वही आरंभ और अंत है।
डे. बो. : यह और प हो रहा है।
कृ णमू त : ठ क बात है। या इससे आप को कुछ सं े षत होता
है
डे. बो. : हां, मेरे वचार म इससे कुछ सं े षत होता है।
कृ णमू त : कुछ ही। या आप इससे आगे यह कहगे कोई आरंभ
नह है, तथा कोई अंत नह है

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डे. बो. : जी हां। यह आधारभू म से आता है, आधारभू म म ही लौट
जाता है, कतु ारंभ या समा त नह होता है।
कृ णमू त : हां, कोई ारंभ नह है, कोई अंत नह । इसके वराट
न हताथ ह। सर, या यह मृ यु है मृ यु इस अथ म नह क म मर
जाऊंगा ब क हर चीज का पूण अवसान
डे. बो. : दे खए, पहले तो आपने कहा था क र ता सभी कुछ का
अंत है, तो अब यह और अंत कस अथ म है र ता व तु का अंत है,
है क नह
कृ णमू त : हां, हां। या वही मृ यु है वह र ता हर उस चीज़
क मृ यु जसे मन ने उपजाया-पोसा है। यह र ता मन क , कसी वशेष
मन क ही उपज नह है।
डे. बो. : नह , यह तो वै क मन है।
कृ णमू त : वह र ता वही है।
डे. बो. : हां।
कृ णमू त : उस र ता का अ त व तभी होता है, जब व श क
मृ यु होती है।
डे. बो. : हां।
कृ णमू त : म यह ठ क से कह नह सकता क म इसे कर पा
रहा ं।
डे. बो. : हां, वही र ता है, पर अब आप यह भी कह रहे ह क इस
आधारभू म म मृ यु और भी आगे जाती है
कृ णमू त : जी, हां, बलकुल।
डे. बो. : तो आप कह रहे ह क व श का अंत, व श क मृ यु,
र ता है जो क वै क है। या अब आप यह कहने वाले ह क उस
वै क क भी मृ यु होती है
कृ णमू त : हां, म यही कहने क को शश कर रहा ं।
डे. बो. : उस आधारभू म म लौट जाता है।
कृ णमू त : या इससे कुछ सं े षत होता है
डे. बो. : लगता है, हां।
कृ णमू त : ज़रा एक ण इसके साथ ठहरे रह। इसे दे खते ह। मेरे
याल म, सर, यह कुछ सं े षत कर रहा है, है न

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डे. बो. : हां। अब, य द व श और वै क मरते ह, तो वह मृ यु है,
ठक
कृ णमू त : जी हां। आ खरकार, एक खगोल- व ानी कहता ही है
क ांड म येक व तु मर रही है, व फो टत होती जा रही है, मरती जा
रही है।
डे. बो. : हां, ले कन न त ही आप यह अंदाज़ा लगा सकते ह क
इससे परे कुछ रहा होगा।
कृ णमू त : हां, यह बलकुल ऐसा ही है।
डे. बो. : मेरा याल है क हम आगे बढ़ रहे ह। वै क तथा व श
पहले व श क मृ यु र ता म होती है और तब आता है वै क।
कृ णमू त : और वह भी मरता है।
डे. बो. : आधारभू म म; ठ क है
कृ णमू त : हां।
डे. बो. : अतः आप कह सकते ह क आधारभू म न ज म लेती है
और न उसक मृ यु होती है।
कृ णमू त : सही है।
डे. बो. : अ छा, मुझे लग रहा है क य द आप कहते ह क वै क
का अवसान होता है, तो इसके होने क मता का तो लगभग
अभाव हो जाएगा, यो क ही तो वै क है।
कृ णमू त : दे खए, म इसे बस इस री त से प कर रहा ं : सब
कुछ मर रहा है सवा ‘उस’ के। या इससे कुछ बात बन रही है
डे. बो. : हां, उसी म से सब कुछ उ दत हो रहा है और उसी म इसका
अवसान हो रहा है।
कृ णमू त : तो उसका न तो ारंभ है, न अंत है।
डे. बो. : वै क के अंत क बात करने का या अ भ ाय होगा
वै क के अवसान का ता पय या होगा
कृ णमू त : कुछ नह । य द वैसा हो रहा है तो उसका कोई ता पय
य होना चा हए उस घटना का मनु य से संबंध ही या है आप मेरा
अ भ ाय समझे मनु य, जो भयावह समय और वैसी तमाम बात से
गुज़र रहा है, तो ‘उसका’ मनु य के संदभ म अथ ही या है
डे. बो. : अ छा, ऐसा कह क मनु य यह महसूस करता है क अपने
जीवन म उस आ यं तक आधारभू म से उसका कुछ तो संपक होना
ी ी ै
चा हए, अ यथा जीवन का अथ ही या है
कृ णमू त : पर वैसा है नह । उस आधारभू म का मनु य से कोई
संबंध नह है। मनु य तो अपनी ह या म लगा है, वह सब कुछ उस
आधारभू म के वपरीत ही कर रहा है।
डे. बो. : इसी कारण से मनु य के लए जीवन का कोई अथ नह
रहा।
कृ णमू त : म एक आम आदमी ं : म कहता ं, ठ क है, आपने
अद्भुत री त से सूया त के वषय म चचा क है, ले कन इस सब का मेरे
साथ या नाता है। या उससे या आपक चचा से मुझे अपने भ े पन से
छु टकारा पाने म मदद मलेगी यह जो मेरी प नी मुझसे झगड़ती है या
जो भी कुछ होता रहता है।
डे. बो. : म समझता ं क म पीछे लौटूं गा और क ंगा क हमने इस
पर तकसंगत री त से चचा क थी, मनु य के ःख से बात आरंभ करके,
यह दखाते ए क इसक शु आत एक गलत मोड़ लेने से ई थी और
जसके अ नवाय प रणाम के प म …..
कृ णमू त : वह कहता है क ठ क है, ले कन मेरी मदद क रए ता क
म सही मोड़ ले सकूं। मुझे सही रा ते पर ले जाइए। और इस बात के उ र
म आप कहते ह, कुछ भी अ यथा होना, बनना बंद कर द जए।
डे. बो. : ठ क है। फर सम या या है
कृ णमू त : वह इसको सुनेगा तक नह ।
डे. बो. : तब मुझे लगता है क जो इसे दे ख पा रहा है, उसके लए
यह मालूम करना आव यक होगा क सुनने म बाधा या है।
कृ णमू त : ज़ा हर है, आप दे ख सकते ह क बाधा या है।
डे. बो. : या बाधा है
कृ णमू त : ‘म’।
डे. बो. : हां, पर मेरा मतलब है और गहरे म
कृ णमू त : और गहरे म, आपके सारे वचार, गहन आस यां और
वह सारा कुछ यह सब आपक राह रोकता है। य द आप इस सबको
छोड़ नह सकते, तो आपका ‘उससे’ कोई संबंध नह होता है। ले कन
यह सब छोड़ना चाहता नह ।
डे. बो. : हां, म वह समझ रहा ं। पर उसका चाहना तो उसके
सोचने के ढं ग का प रणाम ही है।

ो ी े ी े े े े
कृ णमू त : वह तो बस बना कसी परेशानी के जये चले जाने का
कोई आरामदे ह, आसान तरीका चाहता है, और वह उसे मल सकता नह ।
डे. बो. : नह । सफ यह सब छोड़ दे ने पर ही।
कृ णमू त : कोई संपक तो होना चा हए। उस आधारभू म और
इसके, इस आम आदमी के बीच कोई संबंध तो होना चा हए, नह तो जीने
का अथ ही या है
डे. बो. : हां, यही म पहले कहने क को शश कर रहा था क इस
संबंध के बना……
कृ णमू त : ….कोई अथ नह है।
डे. बो. : और तब लोग अथ गढ़ लेते ह।
कृ णमू त : बलकुल।
डे. बो. : अ छा, पीछे लौट कर भी दे ख, तो ाचीन धम ने इससे
मलती-जुलती बात कही ह क ई र ही वह आधार है, और इसी लए,
आपको पता ही है, वे कहते रहे ह क ई र को खो जए।
कृ णमू त : नह जी, यह ई र नह है।
डे. बो. : नह , यह ई र नह है, पर बात वही कही जा रही है आप
कह सकते ह क ‘ई र’ इस बात को शायद कुछ अ धक ही परक
प से तुत करने का यास है।
कृ णमू त : हां, उ ह आशा द जए, उ ह आ था द जए, समझ रहे
ह जीवन को जीने के लए थोड़ा और आरामदे ह बना द जए।
डे. बो. : अ छा, या इस ब पर, आप पहले यह पूछ रहे ह : आम
आदमी को यह कैसे सं े षत कया जाए या यही आपका है
कृ णमू त : हां, कमोबेश यही है और यह भी मह वपूण है क उसे
इस बात को सुनना चा हए। आप एक वै ा नक ह। आप सुनने को त पर
ह, य क हम म ह। पर आपके म म से कौन इसे सुनेगा वे कहगे,
आप या अजूबा बात कए जा रहे हो सर, म यह महसूस करता ं क
य द कोई इसम जा पाए, तो हम एक अद्भुत प से व थत संसार
दे खने को मलेगा।
डे. बो. : हां, और उस संसार म हम कर या रहे ह गे
कृ णमू त : जी रहे ह गे।
डे. बो. : हां, पर मेरा मतलब है, हमने सजना मकता के बारे म कुछ
कहा था।
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कृ णमू त : हां, और तब य द आप म ं नह है, ‘म’ नह है, तो
कुछ और स य है।
डे. बो. : हां, यह कहना मह वपूण है, य क प रपूणता उपल ध
कर लेने क ईसाई अवधारणा काफ उबाऊ लग सकती है, य क फर
करने को कुछ नह रहता।
कृ णमू त : हम आगे भी कसी और समय इस वषय पर यह बात
जारी रखनी चा हए, य क यह कुछ ऐसा है जसे सम लाया ही जाना
चा हए।
डे. बो. : असंभव सा लगता है।
कृ णमू त : हम काफ र आ चुके ह।
‘द एं डग आफ टाइम’,
2 अ ैल 1980
स ाईस
27 जून 1961
इस सबको सू और श द म करना कतना थ जान पड़ता
है; चाहे जतने सही श द योग य न कये गये ह , वणन कतना भी
अ धक सु प य न हो, इस सबके मा यम से वा त वक त य सं े षत
नह हो पाता।
इस सबम एक वराट और अ नवचनीय सुंदरता है। जीवन क एक
ही ग त है, बा हो या आंत रक हो; वैसे तो यह ग त अ वभा य है, पर
इसे वभा जत कर दया जाता है। वभाजन के फल व प अ धकतर लोग
इसके बा प अथात ान, धारणा , व ास , ामा य, सुर ा और
समृ आ द के पीछे भागते ह। इसक ही एक त या के प म
तथाक थत आंत रक जीवन का अनुसरण करता है, जसक अपनी सू म
अनुभू तयां, आशाएं, लालसाएं, रह य, ं तथा हताशाएं होती ह। चूं क
यह ग त भी एक त या ही है, अतएव बा ग त से इसका टकराव
चलता रहता है। इसके फल व प एक अंत वरोध उ प हो जाता है,
जसके अपने ही लेश, ताएं तथा पलायन आ द होते ह।
व तुतः केवल एक ही ग त है, वही बा है और वही आंत रक भी।
बा को समझने के साथ ही आंत रक ग त का ारंभ होता है, और यह
आंत रक ग त न तो बा के व होती है और न उसक वरोधाभासी
होती है। तब चूं क ं का नवारण हो चुका होता है, इस लए म त क न
केवल अ य धक संवेदनशील तथा सतक होता है, वरन् वह अनायास ही
मौन भी हो जाता है। और इस थ त म केवल आंत रक ग त ही ामा णक
तथा अथपूण होती है।
इस ग त से एक उदारता और क णा अ त व म आती है, जो कसी
तकबु अथवा योजनपरक व- नषेध का तफल नह है।
कसी पु प का जीवट स दय इसी म न हत है क इसे व मृत कया
जा सकता है, उपे ा से र हटाया जा सकता है, या फर वन ही कर
दया जा सकता है।
मह वाकां ी लोग स दय से अन भ होते ह। सारभूत क भावना,
स व का एहसास ही स दय है।
28 जून 1961
वह जो क पावन है, ल ण से र हत है। दे वालय म रखा तर, चच
म लगी तमा, कोई तीक पावन नह है। मनु य अपनी ज टल
औ े ो
उ कंठा , भय और तृ णा से प रचा लत होकर उ ह पावन, प व
आरा य कहता है। यह ‘पावनता’ अब भी वचार ही के े म होती है;
इसका नमाण वचार के ारा ही कया जाता है, और वचार म कभी भी
कुछ नूतन अथवा प व नह होता है। वचार ज टल मतवाद और व ास
क रचना कर सकता है, और जन तमा , तीक आ द को यह
े पत करता है, वे कसी भवन के न श से अथवा एक नये हवाई-
जहाज क परेखा से अ धक प व नह होते। यह सभी कुछ वचार के
ही सीमांत म प रब है और इसम ऐसा कुछ नह है जसे प व अथवा
रह यमय कहा जा सके। वचार पदाथ ही है और इससे कुछ भी बनाया जा
सकता है, असुंदर भी, सुंदर भी।
पर एक पावनता है, जसका ोत न वचार म है, न वचार ारा
पुनज वत क गई कसी भावना म। इसे वचार ारा नह पहचाना जा
सकता, न ही यह वचार के उपयोग म आ सकती है। वचार इसका
तपादन नह कर सकता। कतु एक पावनता है तो; कसी भी तीक या
श द से अ प शत, अनछु ई। यह नवचनीय नह है, इसका सं ेषण नह हो
सकता। यह पावनता एक त य है।
त य को तो दे खना होता है, और दे खना श द के मा यम से नह आ
करता। जब कसी त य क ा या कर द जाती है, तो वह त य नह रह
जाता; यह उससे कुछ नतांत भ ही बात हो जाती है। सवा धक मह व
दे खने का है। यह दे खना समय-आकाश से बाहर है; यह दे खना त ण,
तुरंत होता है। और जो दे ख लया जाता है, वह पुनः वही कभी नह होता
है। इसम ‘ फर से’ या ‘इस दौरान’ जैसा कुछ है ही नह ।
इस पावनता का उपासक, वह अवलोकनकता जो इस पर यान
लगाए, है ही नह । यह खरीदने या बेचने क , बाज़ार क व तु नह है।
स दय क तरह इसे इसके वपरीत के मा यम से नह दे खा-समझा जा
सकता, य क इसके वपरीत का अ त व है ही नह ।
वह उप थ त यहां है, क को आपू रत करती, पवत पर छलकती,
जलरा शय पर ा त होती, और उनसे पार ध र ी को आवृत करती।
‘कृ णमू त नोटबुक’
अनुवादक का मंत
कृ णमू त के ल खत व मौ खक सा ह य का अनुवाद करना ऐसे है,
जैसे ग णत क भाषा म रची गई कसी क वता का अनुवाद करना। अपनी
सी मत साम य के अनुसार जतना बेहतर हो सकता है, हमने कया है, पर
हम इस बात क ती त है क अभी भी और बेहतर क गुंजाइश है। सुधी
पाठक जहां कह भी कोई ु ट अथवा वसंग त दे ख, या कसी अ भ
के लए अ धक सट क श द सुझा सक, तो हम अव य प लख, हम
आभारी ह गे। इस संबंध म उनके वचार हमारे वमश का वषय ह गे एवम्
यथासमय, यथा थान उनका उपयोग भी कया जा सकेगा।
अनुवादकगण
प - वहार का पता :
अनुवाद एवम् काशन को ,
कृ णमू त टडी सटर, के. एफ. आई.
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