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भगवती श्री तारा कुल

 अखिलतारिणी श्री तारा माँ शिवपोषिका हैं । समु दर् मं थन काल में हलाहल विष को
आशु तोष भगवान शिव ने अपने कण्ठ में धारण किया। फलस्वरूप विष ने अपना कार्य
किया और आशु तोष भगवान शिव मूर्छि त होकर भूतल पर गिर पड़े । चारां े ओर
हाहाकार मच गया। शिव की इस अवस्था को दे खकर सृ ष्टि लय होने के डर से सभी
दे वताओं में खलबली मच गयी। सभी दे वता भगवती पराम्बा की स्तु ति करने लगे
क्योंकि शिव के बिना सृ ष्टि का कोई अस्तित्व नहीं है । सभी दे वों की प्रार्थना सु नकर
भगवती श्रीमद् अखिलतारिणी एकजटा उग्रतारा दोनों स्तनों में दध ू लिए क्षीर सागर
से बाहर आयीं एवं तट पर मूर्छि त पड़े आशु तोष भगवान शिव को अपनी गोद में उठाकर
स्तनपान कराने लगीं। इस प्रकार से मूर्छि त शिव को अपना स्तनपान कराकर भगवती
तारा माँ ने उनका पोषण किया और नवजीवन दिया। शिव के कष्ट का तारण करने से
उनका नाम ‘‘तारिणी‘‘ पड़ा।
अखिलतारिणी भगवती तारा के इस स्वरूप को भगवान आशु तोष शिव ने कीलित कर
दिया और कहा कि जगततारिणी भगवती तारा के इस स्वरूप की कोई भी उपासना नहीं
करे गा। उन्होंने इनका परिचय दिया ‘‘अखिलतारिणी श्रीमद् एकजटा उग्रतारा’’।
इस विश्व में ऋषि-मु नियों द्वारा ध्ये य सभी दे वी-दे वता की मूर्ति या प्रत्ये क विग्रहों को
किसी न किसी अस्त्र-शस्त्र से सु शोभित करके उन्हें जीवरक्षा हे तु स्थापित किया गया
है । किन्तु यह आश्चर्य है कि ‘‘अखिलतारिणी श्रीमद् एकजटा उग्रतारा दिव्यमूर्ति’’ का
अति सु न्दर स्वरूप विश्व में जो सम्पूर्ण मातृ स्वरूपा हैं , उनकी गोद में स्तनपान करते
हुए पु त्र शिव ही उनके अस्त्र हैं । उनका मातृ त्व ही मोहमय अस्त्र है । उनकी जटा
अं तरिक्ष से भूतल तक का विकास है । वह सूर्य से धरती तक अपनी मातृ मय ममता द्वारा
पोषण करती हैं । (वह भगवान आशु तोष शिव की पोषिका अर्थात् लक्ष्मी हैं ।) यह ‘‘शिव
लक्ष्मी’’ अनन्त चै तन्यमयी हैं , वै राग्यदायिनी हैं , मु क्तिदायिनी महाविद्या हैं । ये तारा
‘‘तु ं कारी’’ मोक्षकारी विद्या हैं । यही तारा ‘‘स्त्रीं‘‘ रूपी वधु हैं । यह तारा ‘‘हुंकारी’’
चै तन्यमय महाप्रकाश हैं । जब भगवान शिव के मूर्छि त होने के कारण अखिल ब्रह्माण्ड
में दुःख छा गया था तब माँ तारा ने आशु तोष भगवान शिव के दुःख का तारण करके
अखिल ब्रह्माण्ड के दुःख का निवारण किया। इसलिए इनका नाम ‘‘अखिलतारिणी’’ है
जो भगवान भास्कर की शक्ति भी हैं ।
‘‘अखिलतारिणी जगत् प्रसविनी श्रीमद् एकजटा उग्रतारा कुल‘‘ एवं ‘‘तारा कुल‘‘ में
भे द है । यह दोनों कुल एक ही शक्ति की उपासना करते हैं किन्तु आकृतिभे द से मं तर् भे द
हुए हैं । श्री नीलतारा ही श्री नीलसरस्वती हैं । ब्रह्मर्षि को दीर्घकाल तक यह उपासना
करने पर भी जब सिद्धि नहीं प्राप्त हुई तब उन्होंने इस विद्या को शापित करके
साधना को त्याग दिया। बाद में दे वाधिदे व महादे व के आदे श से गौड़दे श के वीरभूम
क्षे तर् में उन्होंने पु नः साधना करके ‘‘श्री तारा माँ ’’ का दर्शन प्राप्त किया। जिस रूप
का ब्रह्मर्षि ने दर्शन प्राप्त किया था वही रूप ‘‘अखिलतारिणी जगत् प्रसविनी
श्रीमद् एकजटा उग्रतारा’’ हैं ।
भारतवर्ष के गौड़ दे श के वीरभूम भूखण्ड में ‘‘अखिलतारिणी जगत् प्रसविनी श्रीमद्
एकजटा उग्रतारा’’ का सम्पूर्ण मातृ स्वरूप एकमात्र विग्रह अवस्थित है । इसके मं तर्
एवं इसके स्वरूप की परम्परा ज्ञानगं ज से प्रचलित ब्रह्मर्षि वशिष्ठ के श्री ताराकुल के
नाम से प्रसिद्ध है । इसके अतिरिक्त एक अन्य परम्परा भी है जो ‘‘श्री तारा
महाविद्या’’ के नाम से जानी जाती है । इस महाविद्या की हमारे दे श में दसमहाविद्या के
द्वितीय रूप में पूजा एवं साधना होती है । श्री नीलतारा (श्री नीलसरस्वती अर्थात्
श्री तारा माँ का प्रथम रूप) के 21 दिव्य स्वरूप हैं । माँ श्री तारा के यह 21 स्वरूप
भगवान बु द्ध की उपासना क् रम से है । ऐसा कहा जाता है कि भगवान बु द्ध ने चीन दे श
(ज्ञानगं ज) में जाकर चीनाक् रम से इस विद्या की साधना की थी और बाद में तिब्बत में
आकर भगवान बु द्ध ने इस विद्या को सिद्ध किया और वहीं स्थापित कर दिया। इसी रूप
में आज भी इस विद्या की उपासना बौद्धिष्ठ मठों में बौद्धिष्ठ उपासकों द्वारा की जाती
है । यह धारा और परम्परा भगवान बु द्ध की परम्परा है जो आज भी तिब्बत में अवस्थित
है ।
दसमहाविद्या की द्वितीय विद्या ‘‘श्री तारा महाविद्या‘‘ इस सूर्यमण्डली की शक्ति हैं ।
इस सूर्यमं डली के नवग्रह, नक्षत्र मण्डली, दिक्पाल आदि दे वता को सु चारू भाव से
भगवान भास्कर सं चालित करते हैं । भगवान भास्कर को कौन सं चालित करता है ? श्री
भगवती तारा को ही नक्षत्र विद्या कहा जाता है । भगवान भास्कर की 27 किरणें प्रधान
बताई जातीं हैं । यह 27 किरणें ही 27 नक्षत्र हैं जिसके मध्य में भगवान भास्कर 24 घं टे
विचरण करते हैं यही सं सार का समय चक् र है , इसी चक् र के
माध्यम से ऋतु काल का परिवर्तन होता है , यही सूर्य की शक्ति एवं मातृ काएँ हैं । 27
किरणें एक साथ होने पर तारा महाप्रकृति का उद्भव होता है । यह तारा सूर्य की शक्ति हैं
और इसी शक्ति के माध्यम से हमारा नवग्रह मं डल सु चारू रूप से सं चालित होता है ।
भगवान भास्कर की शक्ति कौन हैं ? भगवान भास्कर स्वयं एक तारा हैं । इनकी शक्ति
भगवती श्रीमद् एकजटा उग्रतारा हैं । श्री महाप्रकृति ‘‘तारा‘‘ इस चै तन्य
प्रकाशमय विश्व की अधिष्ठात्री दे वी हैं और यही सूर्य, नवग्रह, नक्षत्र, दिक्पाल
आदि व्याप्त जगत की माता हैं और इसे सं चालित करती हैं । प्रकृति की सृ ष्टि की
सम्पूर्ण प्रक्रिया सूर्य की शक्ति द्वारा सं चालित है । सूर्य ही इस जगत एवं समस्त विश्व
के ऊर्जा भण्डार हैं । आकाश में सूर्य विद्यमान हैं तभी सृ ष्टि सु चारू रूप से सं चालित
होती है अर्थात् समस्त सृ ष्टि को यह सु चारू भाव से परिचालित करते हैं ।
सूर्य की किरणों में ही समस्त रहस्य है । उनकी किरणों के प्रभाव से ही प्रत्ये क वस्तु का
अस्तित्व है । सूर्य की किरणें जिसके ऊपर पड़ती हैं उसका अपना एक अस्तित्व बन जाता
है । इस विश्व की पं च प्रकृति हैं । प्रकृति में प्रथम प्रयोजनीय वस्तु है जल (जल
अपने में एक विशाल रहस्य ले कर जल प्रकृति है । जल बिना जीवात्मा जीवन धारण
नहीं कर सकती है ।) सूर्य की किरणों के कारण ही जल की उत्पत्ति हुई है । जल ही प्रथम
अमृ त है । जल से ही प्रत्ये क तरल तत्व की सृ ष्टि हुई है । जल और वनस्पति से औषधि
की सृ ष्टि हुई है । इसलिए प्रकृति का प्रथम रहस्य ‘‘जल‘‘ प्रकृति है जो मूल है ;
जिसके कारण सृ ष्टि में विकास हुआ है । इसी विकास का पालन-पोषण करने के लिए
ऋषि-मु नि, नक्षत्र, ग्रह, दिक्पाल आदि दे वताओं की सृ ष्टि हुई है ताकि यह सम्पूर्ण
सृ ष्टि सु चारू रूप से परिचालित होती रहे । जल के बाद चार प्रकृति और हैं , जिनकी
सृ ष्टि जल के बाद हुई; जिनके बिना पं चतत्वात्मक सृ ष्टि के आगे बढ़ने का कोई अन्य
विकल्प नहीं है ।

सूर्य की किरणों की दसरी प्रकृति है ‘‘अग्नि‘‘। अग्नि के बिना सं सार निश्चल है ,
निश्ते ज है , अनु त्पादित है ।
सूर्य की तीसरी प्रकृति है ‘‘वायु ‘‘। वायु के बिना सृ ष्टि की किसी भी वस्तु , जीव इत्यादि
का जीवन सम्भव नहीं है ।
सूर्य की चै थी प्रकृति है ‘‘पृ थ्वी‘‘ और पृ थ्वी के लिए ही सूर्य के अन्य चारों तत्वों का
अस्तित्व है अर्थात् पृ थ्वी के बिना ये चारों तत्व अपूर्ण हैं ।
सूर्य की पं चम प्रकृति है ‘‘आकाश‘‘। इसी आकाश से सत्ताईस नक्षत्र, दस दिक्पाल,
नवग्रह, दो पक्ष, चै दह तिथि, पूर्णिमा-अमावस्या, रात-दिन मिलकर काल को क् रम में
बां धकर प्रकृति को ऋतु ओं में परिवर्तित करके पृ थ्वी को सु चारू रूप से सं चालित करते
हैं । वही काल इन पं चतत्वों के साथ मिलकर जीव जगत को सु चारू लय से सं चालित
करता है ।
इस सृ ष्टि में ऋतु काल बनकर समय के साथ मिलकर सूर्य की किरणों के प्रभाव से
अपने को भारतवर्ष में छः भागों में विभाजित करती है । इस पृ थ्वी पर भारत भूखण्ड
दे वताओं का प्रिय स्थल है । ऋतु ओं के बदलने से प्रत्ये क वस्तु , रं ग, स्वाद और समस्त
वातावरण नाना रूपों का अनु भव कराते हैं । यह सारी कृपा एकमात्र दृष्टिगोचर दे वता
भास्कर अर्थात् सूर्य की है । सूर्य तो महाविज्ञान है । सूर्य विज्ञानी इसी सूर्य विज्ञान से
सृ ष्टि को निर्मित कर सकते हैं । यह सम्पूर्ण सृ ष्टि महाआकाश में घटित हो रही है जो
पं चप्रकृति में एक प्रकृति है । इसी कथन को तु लसीदास जी ने मानस में कुछ इस
प्रकार से कहा है :-

क्षिति, जल, पावक, गगन, समीरा,


पं चतत्व यह अधम शरीरा।

सूर्य की शक्ति ‘‘सावित्री‘‘ हैं और इस सावित्री शक्ति का ही नाम है तारा; अर्थात्


नक्षत्र। तारा और सूर्य सम्मिलित होकर उपरोक्त वर्णित पं चतत्वात्मक प्रकृति को
सं चालित करते हैं । तारा की ही शक्ति से सूर्य ऐश्वर्यवान होकर भगवती पराम्बा की इस
असीमित सृ ष्टि के पिता बनकर इनका भरण-पोषण कर रहे हैं । जीव के प्राण रहते जीव
शिव है और उस शिव के प्राण रहते जीव शक्ति है । जब तक जीवरूपी शिव के भीतर
शक्ति स्थापित रहती है शिवरूपी जीव कर्मशील रहते हैं और जिस क्षण जीव के अन्दर
से शक्ति निकल जाती है वही जीवरूपी शिव शव बन जाता है । ठीक वै से ही सूर्य की
ते ज तारा हैं । तारा सूर्य के सं ग जब तक सम्मिलित रहती हैं या रहें गी तब तक सृ ष्टि की
स्थिति एवं लय निरन्तर सं तुलित भाव से चलें गे । इस सं सार की समस्त क्रियाओं का
सं चालन सौरि साधक वर्ग के श्रेष्ठ लोग कर रहे हैं । इसमें भगवान सूर्य प्रधान कर्ता हैं
तथा इनके साथ सम्मिलित होकर तारा माँ समस्त सृ ष्टि को अपने प्रिय साधकों के द्वारा
बड़े सु चारू भाव से चला रही हैं । ये सारे सौरि-साधक ज्ञानगं ज में रहते हैं ।

इसके उपरान्त ताराकुल का गु रुवर्ग निर्दिष्ट हो रहा है । विष्णु गु रु वर्ग को ‘‘ऋष्यस्तु ‘‘


कहते हैं । शिव गु रु वर्ग को ‘‘नाथस्तु ‘‘ कहते हैं । शक्ति गु रुवर्ग को ‘‘आनन्दनाथस्तु ‘‘
कहते हैं ।

आनन्दनाथ शब्दास्तु गु रुगण सर्वसिद्धिप्रदः।


अं बास्तु शब्द – स्त्री गु रुगण।

ताराकुल के गु रुगणों का परिचयः-


श्रीमद् पूज्यपाद योगे श्वर ज्ञाने श्वर बाबा कैलाशपति की ज्ञानगं ज धारा के रूप:-
श्री तारा के दिबौघनाथ गु रु वर्ग:-
1. श्रीमद् केशानन्द नाथाये गु रुवे
2. श्रीमद् बमकेशानन्द नाथाये गु रुवे
3. श्रीमद् नीलकण्ठानन्द नाथाये गु रुवे
4. श्रीमद् विश्वध्वजानन्द नाथाये गु रुवे
श्री तारा के सिद्धौघ साधक वर्ग एवं तारा के नीलक् रम स्वरूप के उपासक:-
1. श्रीमद् वशिष्ठानन्द नाथाये गु रुवे
2. श्रीमद् काॅ मरानन्द नाथाये गु रुवे
3. श्रीमद् मीननाथानन्द नाथाये गु रुवे
4. श्रीमद् महे शानन्द नाथाये गु रुवे
5. श्रीमद् हरिनाथानन्द नाथाये गु रुवे

श्री तारा की साधिकागण अम्बास्वरूपा उपासिका, मानबौघ गु रुवर्ग तारा के उपासक


एवं उपासिकागण:-
1. श्रीमद् तारा वत्यम्ब गु रुमाता
2. श्रीमद् भानु मत्यम्ब गु रुमाता
3. श्रीमद् जगदम्ब गु रुमाता
4. श्रीमद् महोदज्र्यम्ब गु रुमाता

मानबौघ उपासकगण:-
1. श्रीमद् सु खानन्द नाथ गु रुवे
2. श्रीमद् परानन्द नाथ गु रुवे
3. श्रीमद् परिजातानन्द नाथाये गु रुवे
4. श्रीमद् कुले श्वरानन्द नाथाये गु रुवे
5. श्रीमद् वीरूपाक्षानन्द नाथाये गु रुवे
6. श्रीमद् फेरव्यम्ब नाथाये गु रुवे

अग्रलिखित तीन दिव्य गु रु, काली और तारा पं क्ति के हैं


यह दिव्यगु रु पं क्ति है :-
1. ¬ श्रीमद् ब्रह्मानन्द नाथाये परमगु रुवे नमः
2. ¬ श्रीमद् वशिष्ठानन्द नाथाये परापर गु रुवे नमः
3. ¬ श्रीमद् सदानन्द नाथाये परमे ष्ठि गु रुवे नमः

श्री तारा कुल के 14 सिद्ध साधक गु रुवर्ग:-


1. श्रीमद् कैलाशानन्द नाथाये गु रुवे नमः
2. श्रीमद् त्र्यम्बकानन्द नाथाये गु रुवे नमः
3. श्रीमद् ब्रह्मानन्द नाथाये गु रुवे नमः
4. श्रीमद् विष्णु देवानन्द नाथाये गु रुवे नमः
5. श्रीमद् रूद्रदे वानन्द नाथाये गु रुवे नमः
6. श्रीमद् शं करदे वानन्द नाथाये गु रुवे नमः
7. श्रीमद् सत्यानन्द नाथाये गु रुवे नमः
8. श्रीमद् योगानन्द नाथाये गु रुवे नमः
9. श्रीमद् शाम्भवानन्द नाथाये गु रुवे नमः
10.श्रीमद् सं कटानन्द नाथाये गु रुवे नमः
11.श्रीमद् बामदे वानन्द नाथाये गु रुवे नमः
12.श्रीमद् तारानन्द नाथाये गु रुवे नमः
13.श्रीमद् शं करानन्द नाथाये गु रुवे नमः
14.श्रीमद् ज्ञानदानन्द अम्बानाथाये गु रुवे नमः
ये सिद्ध साधकगण श्री तारा कुल की दस ू री सात अन्य धाराओं को परिचालित करते हैं ।
ज्ञानगं ज के सूर्य विज्ञानी, योगी, ऋषिगण दो विशिष्ट परम्परा अर्थात् धारा के अनु गामी
हैं । ज्ञानगं ज का सूर्य परिवार तीन शक्ति कुलों से परिचालित होता है । ‘‘योग कुल‘‘ से
भी तीन कुल चलते हैं । इस सूर्य परिवार के महारथी साधकगण सूर्यमण्डली के बाहर एवं
भीतर सु चारू रूप से ब्रह्माण्ड का परिचालन करते हैं । इन धाराओं में से प्रथम धारा है
‘‘श्री आद्यामहाप्रकृति’’ अर्थात् ‘‘श्री काली-कुल’’, दस ू री धारा है ‘‘श्री कुल’’ तथा
तीसरा उपकुल, ‘‘श्री तारा कुल‘‘ के नाम से जाना जाता है । श्री आद्या (काली) एवं
श्री तारा यह दो महाविद्या अभे द्य हैं । एक सूर्य की ऊर्जा (जो श्री तारा हैं ) चराचर
विश्व का पोषण करती हैं । दस ू री अव्यक्त महाप्रकृति की महाऊर्जा हैं , जिनके द्वारा
अव्यक्त प्रकृति का सं चालन हो रहा है । महाअं तरिक्ष का सं चालन श्री आद्या भगवती
पराम्बा करती हैं । इन्हें ही पराविद्या कहा जाता है । यही अचै तन्य एवं चै तन्य ब्रह्म हैं
तथा दस ू री व्यक्त महाप्रकृति अर्थात् इस सूर्य के भीतर जो भी सृ ष्टि-असृष्टि कालक् रम
से चली आ रही है , जो प्रकृति दिवा और निशा में विभाजित होकर नक्षत्र, दिक्पाल
और नवग्रह के साथ मिलकर ऋतु ओं को सं चालित करके समस्त जीवों के इस विश्व
का नियमित रूप से सं चालन कर इसका सं रक्षण कर रही हैं वे अखिलतारिणी अर्थात्
तारा हैं । काली एवं तारा इन दो महाविद्याओं द्वारा चराचर विश्व का परिचालन हो रहा
है । काली महाप्रकृति हैं जिनको समझना और जानना कठिन है - जो महाआकाश,
महाप्रकृति और महामोहमाया हैं अर्थात् जो अव्यक्त है परन्तु यही सनातन सत्य हैं ।
ज्ञानगं ज के इस श्री आद्या महाकाली कुल के दिव्य साधक ही महायोगीगण हैं और
दस ू री धारा के महायोगीगण सूर्य शक्ति श्री तारा कुल के योगीगण हैं । यह सूर्यशक्ति
तारा ही प्रकाशित विश्व की माता हैं । सूर्य के भीतर जो कुछ है वह प्राणमय है क्योंकि
सूर्य शक्ति के भीतर जो भी सृ ष्टि होती है उसका प्राणमय होना ही सूर्य का अस्तित्व है
अर्थात् जो सृ ष्टि और लय हो रहा है यही काल का सृ ष्टि, स्थिति, लयकारक कारण है ।
इस कारण विश्व की अधिष्ठात्री जननी स्वयं श्री तारा हैं । यह दोनों सौर विज्ञानी कुल
मिलकर द्वादश सूर्यमण्डली का सं चालन कर रहे हैं । इसी ज्ञानगं ज के सं चालक पूज्यपाद
बाबा श्री श्री कैलाशपति हैं जो स्वयं शाम्भव दे वाधिदे व महादे व हैं ।

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