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अर्थात् ज्योतिष शास्त्र केवि षय के अनु सार अने क भे द हैं जो तीन स्कन्धों पर टिके हैं ।

ये तीन स्कन्ध (भाग) हैं :- -

गणित 2- होरा 3-सं हिता।

ू रा है 'फलित-ज्योतिष।
यदि सरल करें , तो एक भाग है गणित-ज्योतिष और दस

गणित में सिद्धान्त, करण, तन् ्त्र शाखायें हैं । गणित की इन शाखाओं से सृ ष्टि केआर म्भ से अब तक
कितने वर्ष, मास, दिन व्यतीत हुए, बर्ष अयन, ऋतु , ग्रहों की गति, उनके यु गों में सूर्य परिभ्रमण
की सं ख्या, सूर्य-चन्द्र ग्रहण, तिथि, नक्षत्र, योग, करण आदि का ज्ञान होता हैं । इसमें प्राचीन
काल के वे ध यं तर् ों कीस हायता भी ली जा रही है । हजारों वर्ष पूर्व ज्योतिष की इस शाखा में
भारतीय आचार्यों ने सिद्धता प्राप्त कर अने क सिद्धान्त-ग्रन्थों कौरच ना की थी। यह खगोल ज्ञान है
जिसे आधु निक विज्ञान में “ अस्ट् रानामी '” कहते हैं ।

भारतीय दर्शन के अनु सार कर्म तीन प्रकार के होते हैं ,-१.सं चित कर्म,२-प्रारब्ध कर्म,३-क्रियमाण कर्म.
वर्तमान तक किया गया कर्म सं चित कर्म कहलाता है ,
वर्तमान में जो कर्म हो रहा है , वह क्रियमाण है ,
सं चित कर्म का जो भाग हम भोगते है , वह प्रारब्ध कहलाता है ,
ले किन जब हम किसी बात को सोचते हैं तो कहते हैं , कि पीछे जो हम करके आये हैं , वह याद क्यों नहीं रहता है ,
तथा कल जो होने वाला हमें याद क्यों नहीं रहता है , प्रकति से हमारे सामने जो अभी है , वह ही हमे याद रहता है ,
कल हमने जो किया है , कल क्या होगा, यह हमे दस ू रे दिन ही पता लगता है , जो व्यक्ति पीछे और आगे की बात को
कहता है , उसके लिये ही ज्योतिष विज्ञान का निर्माण किया गया है , इस विज्ञान के द्वारा जन्म समय के जो भी तत्व
सामने होते हैं , उनके प्रभाव का असर प्रकॄति के अनु सार जो भी पहले हुआ या इतिहास बताता है , उन तत्वों का
विवे चन करने के बाद ही ज्योतिष का कथन किया जाता है ,
ू रा-रज और तीसरा-तम.उसी तरह से
ज्योतिश में तीन प्रकार के कर्मों की व्याख्या बताई जाती है , पहला-सत, दस
तीन प्रकार के शरीर भी बताये गये हैं -स्थूल शरीर, सूक्षम शरीर, कारण शरीर.
१.स्थूल शरीर जन्म के बाद जो शरीर सामने दिखाई दे ता है , वह स्थूल शरीर होता है , इसी स्थूल शरीर का नाम दिया
जाता है , इसी के द्वारा सं सारी कार्य किये जाते है , इसी शरीर को सं सारी दुखों से गु जरना पड़ता है और जो भी दुख
होते हैं , उनके लिये केवल एक ही भाषा होती है कि हमारी कोई न कोई भूल होती है , जो भूलता है वही भु गतता है ,
इसी शरीर के अन्दर एक शरीर और होता है , जिसे सूक्ष्म शरीर कहते हैं ।
२.सूक्षम शरीर) हर भौतिक शरीर के अन्दर एक सूक्षम शरीर होता है , इस बात का पता पहले नहीं था, मगर जब से
लोगों को पु नर्जनम और ॠषियों द्वारा दिये गये हजारों साल पहले के कारण और आज के वै ज्ञानिक यु ग में आकर
उनका दिखाई दे ना, जिनके बारे में पहले कभी सोचा नहीं हो, वे सामने आयें और उनको दे ख कर हम लोग यही कहें ,
कि यह तो बहुत पहले दे खा था, या सु ना था, मं गल की पूजा के लिये हनु मानजी की पूजा हजारों सालों से की जा
रही है और मं गल के लिये सभी ने पु राने वे दों की बातो के अनु सार ही उनका अभिषे क आदि करना चालू कर दिया
था, मगर जब अमे रिका के नासा सं स्थान ने वाइकिन्ग मं गल पर भे ज कर मं गल का चे हरा प्रकाशित किया, तो लोगों
का कौतूहल और जग गया कि, वे दों में यह बात किस प्रकार से पता लगी थी कि मं गल का चे हरा एक बन्दर से
मिलता है और मं गल एक लाल ग्रह है , इस बात के लिये कितनी बातें जो हम पिछले समय से सु नते आ रहे
हैं ,"लाल दे ह लाली लसे और धरि लाल लं गरू , बज्र दे ह दानव दलन, जय जय जय कपि सूर.", मं गल का रूप
अं गारक, महाभान, अतिबक् र, लोहित और लोहित अं गोसे सु सज्जित शरीर की कामना बिना सूक्षम शरीर की
उपस्थिति के पता नहीं चल सकती है ।
३.कारण शरीर (Causal Body) जब कारण पै दा होता है , तभी शरीर सूर्य की तरह से उदय होता है , इस शरीर को
जो भी कार्य सं सार में करने होते हैं , उन्ही के प्रति इस शरीर का सं सार में आना होता है , कार्यों के खत्म होते ही यह
शरीर बिना किसी पूर्व सूचना के चल दे ता है , पानी में मिल जाता है , मिट् टी मिट् टी में मिल जाती है , हवा हवा में
ू रे काम के लिये पु नर्जन्म ले ने के लिये
मिल जाती है , आग आग में मिल जाती है और आत्मा अपनी यात्रा को दस
बाध्य हो जाती है , यही कारण रूपी शरीर की गति कहलाती है ।
ज्योतिष से व्यक्तित्व का विभाजन ज्योतिष के अनु सार व्यक्तित्व को दो भागों में विभाजित किया है , पहला-बाह्य
व्यक्तित्व और दसू रा-आन्तरिक व्यक्तित्व.
सौरमण्डल के सातों ग्रह उपरोक्त दोनों व्यक्तित्वओं को अपने अपने गु ण धर्म के अनु सार प्रभावित करते हैं , सूर्य
और चन्द्रमा का प्रत्यक्ष प्रभाव सॄष्टि पर द्रष्टिगोचर है , जिस परिस्थति के अनु सार जातक का जन्म होता है ,
उसी के अनु सार जातक का प्राकॄतिक स्वभाव बन जाता है , सूर्य के प्रभाव से जाडा, गर्मी, वर्षा ॠतु ओं का आगमन
होता है और चन्द्र के अनु सार शरीर में पानी का प्रभाव प्रत्यक्ष रूप से दे खा जा सकता है , समु दर् में आने वाला
ज्वार-भाटा चन्द्रमा के प्रभाव का प्रत्यक्ष कारण है । जीवन के भाव, विचार, रूप, व्यक्तित्व, यादें , प्रवॄत्ति, न्याय,
अन्याय, सत्य, असत्य, प्रेम, कला, आदि जितने भी जीवन के कारण हैं , सब के सब ग्रहों के प्रभाव से ही बनते
बिगडते रहते हैं , सात ग्रह तो प्रत्यक्ष है और दो छाया ग्रह हैं , इस प्रकार से वै दिक ज्योतिष में नौ ग्रहों का
विवे चन मिलता है ।

हिं द ू पं चां ग की उत्पत्ति वै दिक काल में ही हो चु की थी। सूर्य को जगत की आत्मा मानकर उक्त काल में सूर्य व नक्षत्र
सिद्धांत पर आधारित पं चां ग होता था। वै दिक काल के पश्चात् आर्यभट, वराहमिहिर, भास्कर आदि जै से खगोलशास्त्रियों
ने पं चां ग को विकसित कर उसमें चं दर् की कलाओं का भी वर्णन किया।

वे दों और अन्य ग्रंथों में सूर्य, चं दर् , पृ थ्वी और नक्षत्र सभी की स्थिति, दरू ी और गति का वर्णन किया गया है । स्थिति, दरू ी
और गति के मान से ही पृ थ्वी पर होने वाले दिन-रात और अन्य सं धिकाल को विभाजित कर एक पूर्ण सटीक पं चां ग बनाया
गया है । जानते हैं हिं द ू पं चां ग की अवधारणा क्या है ।
पं चां ग काल दिन को नामं कित करने की एक प्रणाली है । पं चां ग के चक् र को खगोलकीय तत्वों से जोड़ा जाता है । बारह
मास का एक वर्ष और 7 दिन का एक सप्ताह रखने का प्रचलन विक् रम सं वत से शु रू हुआ। महीने का हिसाब सूर्य व चं दर् मा
की गति पर रखा जाता है ।

पं चां ग की परिभाषा: पं चां ग नाम पाँच प्रमु ख भागों से बने होने के कारण है , यह है - तिथि, वार, नक्षत्र, योग और करण।
इसकी गणना के आधार पर हिं द ू पं चां ग की तीन धाराएँ हैं - पहली चं दर् आधारित, दस ू री नक्षत्र आधारित और तीसरी सूर्य
आधारित कैलें डर पद्धति। भिन्न-भिन्न रूप में यह पूरे भारत में माना जाता है । एक साल में 12 महीने होते हैं । प्रत्ये क
महीने में 15 दिन के दो पक्ष होते हैं - शु क्ल और कृष्ण। प्रत्ये क साल में दो अयन होते हैं । इन दो अयनों की राशियों में 27
नक्षत्र भ्रमण करते रहते हैं ।

तिथि : एक दिन को तिथि कहा गया है जो पं चां ग के आधार पर उन्नीस घं टे से ले कर चौबीस घं टे तक की होती है । चं दर्
मास में 30 तिथियाँ होती हैं , जो दो पक्षों में बँ टी हैं । शु क्ल पक्ष में 1-14 और फिर पूर्णिमा आती है । पूर्णिमा सहित कुल
मिलाकर पं दर् ह तिथि। कृष्ण पक्ष में 1-14 और फिर अमावस्या आती है । अमावस्या सहित पं दर् ह तिथि।

ू ), तृ तीया (तीज), चतुर्थी (चौथ), पं चमी


तिथियों के नाम निम्न हैं - पूर्णिमा (पूरनमासी), प्रतिपदा (पड़वा), द्वितीया (दज
(पं चमी), षष्ठी (छठ), सप्तमी (सातम), अष्टमी (आठम), नवमी (नौमी), दशमी (दसम), एकादशी (ग्यारस), द्वादशी
(बारस), त्रयोदशी (ते रस), चतुर्दशी (चौदस) और अमावस्या (अमावस)।

वार : एक सप्ताह में सात दिन होते हैं :- रविवार, सोमवार, मं गलवार, बु धवार, गु रुवार, शु क्रवार और शनिवार।

नक्षत्र : आकाश में तारामं डल के विभिन्न रूपों में दिखाई दे ने वाले आकार को नक्षत्र कहते हैं । मूलत: नक्षत्र 27 माने गए
हैं । ज्योतिषियों द्वारा एक अन्य अभिजित नक्षत्र भी माना जाता है । चं दर् मा उक्त सत्ताईस नक्षत्रों में भ्रमण करता है ।
नक्षत्रों के नाम नीचे चं दर् मास में दिए गए हैं -

ू यों की स्थितियों को योग कहते हैं । दरि


योग : योग 27 प्रकार के होते हैं । सूर्य-चं दर् की विशे ष दरि ू यों के आधार पर बनने
वाले 27 योगों के नाम क् रमश: इस प्रकार हैं :- विष्कुम्भ, प्रीति, आयु ष्मान, सौभाग्य, शोभन, अतिगण्ड, सु कर्मा, धृ ति,
् , ध्रुव, व्याघात, हर्षण, वज्र, सिद्धि, व्यातीपात, वरीयान, परिघ, शिव, सिद्ध, साध्य, शु भ, शु क्ल, ब्रह्म,
शूल, गण्ड, वृ दधि
इन्द्र और वै धृति।

27 योगों में से कुल 9 योगों को अशु भ माना जाता है तथा सभी प्रकार के शु भ कामों में इनसे बचने की सलाह दी गई है । ये
अशु भ योग हैं : विष्कुम्भ, अतिगण्ड, शूल, गण्ड, व्याघात, वज्र, व्यतीपात, परिघ और वै धृति।
करण : एक तिथि में दो करण होते हैं - एक पूर्वार्ध में तथा एक उत्तरार्ध में । कुल 11 करण होते हैं - बव, बालव, कौलव, तै तिल,
गर, वणिज, विष्टि, शकुनि, चतुष्पाद, नाग और किस्तु घ्न। कृष्ण पक्ष की चतु र्दशी (14) के उत्तरार्ध में शकुनि, अमावस्या के
पूर्वार्ध में चतुष्पाद, अमावस्या के उत्तरार्ध में नाग और शु क्ल पक्ष की प्रतिपदा के पूर्वार्ध में किस्तु घ्न करण होता है । विष्टि
करण को भद्रा कहते हैं । भद्रा में शु भ कार्य वर्जित माने गए हैं ।

पक्ष को भी जानें : प्रत्ये क महीने में तीस दिन होते हैं । तीस दिनों को चं दर् मा की कलाओं के घटने और बढ़ने के आधार पर
दो पक्षों यानी शु क्ल पक्ष और कृष्ण पक्ष में विभाजित किया गया है । एक पक्ष में लगभग पं दर् ह दिन या दो सप्ताह होते हैं ।
एक सप्ताह में सात दिन होते हैं । शु क्ल पक्ष में चं दर् की कलाएँ बढ़ती हैं और कृष्ण पक्ष में घटती हैं ।

सौरमास :
ू री सं क्रां ति का समय सौरमास कहलाता है ।
सौरमास का आरम्भ सूर्य की सं क्रां ति से होता है । सूर्य की एक सं क्रां ति से दस
यह मास प्राय: तीस, इकतीस दिन का होता है । कभी-कभी अट् ठाईस और उन्तीस दिन का भी होता है । मूलत: सौरमास
(सौर-वर्ष) 365 दिन का होता है ।

12 राशियों को बारह सौरमास माना जाता है । जिस दिन सूर्य जिस राशि में प्रवे श करता है उसी दिन की सं क्रां ति होती
है । इस राशि प्रवे श से ही सौरमास का नया महीना ‍शुरू माना गया है । सौर-वर्ष के दो भाग हैं - उत्तरायण छह माह का और
दक्षिणायन भी छह मास का। जब सूर्य उत्तरायण होता है तब हिं द ू धर्म अनु सार यह तीर्थ यात्रा व उत्सवों का समय होता
है । पुराणों अनु सार अश्विन, कार्तिक मास में तीर्थ का महत्व बताया गया है । उत्तरायण के समय पौष-माघ मास चल रहा
होता है ।

मकर सं क्रां ति के दिन सूर्य उत्तरायण होता है जबकि सूर्य कुंभ से मकर राशि में प्रवे श करता है । सूर्य कर्क राशि में प्रवे श
करता है तब सूर्य दक्षिणायन होता है । दक्षिणायन व्रतों का समय होता है जबकि चं दर् मास अनु सार अषाढ़ या श्रावण मास
चल रहा होता है । व्रत से रोग और शोक मिटते हैं ।

सौरमास के नाम : मे ष, वृ षभ, मिथु न, कर्क , सिं ह, कन्या, तु ला, वृ श‍चि


् क, धनु , कुंभ, मकर, मीन।

चं दर् मास :
चं दर् मा की कला की घट-बढ़ वाले दो पक्षों (कृष्‍ण और शु क्ल) का जो एक मास होता है वही चं दर् मास कहलाता है । यह दो
् चं दर् मास है । कृष्‍ण
प्रकार का शु क्ल प्रतिपदा से प्रारं भ होकर अमावस्या को पूर्ण होने वाला 'अमांत' मास मु ख‍य
प्रतिपदा से 'पूर्णिमात' पूरा होने वाला गौण चं दर् मास है । यह तिथि की घट-बढ़ के अनु सार 29, 30 व 28 एवं 27 दिनों का
भी होता है ।

पूर्णिमा के दिन, चं दर् मा जिस नक्षत्र में होता है उसी आधार पर महीनों का नामकरण हुआ है । सौर-वर्ष से 11 दिन 3 घटी
48 पल छोटा है चं दर् -वर्ष इसीलिए हर 3 वर्ष में इसमें 1 महीना जोड़ दिया जाता है ।

सौरमास 365 दिन का और चं दर् मास 355 दिन का होने से प्रतिवर्ष 10 दिन का अं तर आ जाता है । इन दस दिनों को
चं दर् मास ही माना जाता है । फिर भी ऐसे बड़े हुए दिनों को 'मलमास' या 'अधिमास' कहते हैं ।

चंद ्रमास के नाम : चै तर् , वै शाख, ज्ये ष्ठ, अषाढ़, श्रावण, भाद्रपद, अश्विन, कार्तिक, अगहन, पौष, माघ और फाल्गु न।

नक्षत्रमास :
आकाश में स्थित तारा-समूह को नक्षत्र कहते हैं । साधारणतः यह चं दर् मा के पथ से जु डे हैं । ऋग्वे द में एक स्थान पर सूर्य
को भी नक्षत्र कहा गया है । अन्य नक्षत्रों में सप्तर्षि और अगस्त्य हैं । नक्षत्र से ज्योतिषीय गणना करना वे दां ग ज्योतिष
का अं ग है । नक्षत्र हमारे आकाश मं डल के मील के पत्थरों की तरह हैं जिससे आकाश की व्यापकता का पता चलता है । वै से
नक्षत्र तो 88 हैं किंतु चं दर् पथ पर 27 ही माने गए हैं ।

चं दर् मा अश्‍विनी से ले कर रे वती तक के नक्षत्र में विचरण करता है वह काल नक्षत्रमास कहलाता है । यह लगभग 27
दिनों का होता है इसीलिए 27 दिनों का एक नक्षत्रमास कहलाता है ।

महीनों के नाम पूर्णिमा के दिन चंद ्रमा जिस नक्षत्र में रहता है :
1.चै तर् : चित्रा, स्वाति।
2.वै शाख : विशाखा, अनु राधा।
3.ज्ये ष्ठ : ज्ये ष्ठा, मूल।
4.आषाढ़ : पूर्वाषाढ़, उत्तराषाढ़, सतभिषा।
5.श्रावण : श्रवण, धनिष्ठा।
6.भाद्रपद : पूर्वभाद्र, उत्तरभाद्र।
7.आश्विन : अश्विन, रे वती, भरणी।
8.कार्तिक : कृतिका, रोहणी।
9.मार्गशीर्ष : मृ गशिरा, उत्तरा।
10.पौष : पुनर्वसु , पुष्य।
11.माघ : मघा, अश्ले शा।
12.फाल्गु न : पूर्वाफाल्गु न, उत्तराफाल्गु न, हस्त।
नक्षत्रों के गृ ह स्वामी :
केतु : अश्विन, मघा, मूल।
शु क्र : भरणी, पूर्वाफाल्गु नी, पूर्वाषाढ़।
रवि : कार्तिक, उत्तराफाल्गु नी, उत्तराषाढ़।
चं दर् : रोहिणी, हस्त, श्रवण।
मं गल : मॄगशिरा, चित्रा, श्रविष्ठा।
राहु : आद्रा, स्वाति, शतभिषा ।
बृ हस्पति : पुनर्वसु , विशाखा, पूर्वभाद्रपदा।
शनि . पुष्य, अनु राधा, उत्तरभाद्रपदा।
बु ध : अश्ले शा, ज्ये ष्ठा, रे वती।

भारतीय सं स्कृति का आधार वे द को माना जाता है । वे द धार्मिक ग्रंथ ही नहीं है बल्कि विज्ञान की
पहली पु स्तक है जिसमें चिकित्सा विज्ञान, भौतिक, विज्ञान, रसायन और खगोल विज्ञान का भी विस्तृ त
वर्णन मिलता है । भारतीय ज्योतिष विद्या का जन्म भी वे द से हुआ है । वे द से जन्म ले ने के कारण इसे
वै दिक ज्योतिष के नाम से जाना जाता है ।

वै दिक ज्योतिष की परिभाषा

वै दिक ज्योतिष को परिभाषित किया जाए तो कहें गे कि वै दिक ज्योतिष ऐसा विज्ञान या शास्त्र है जो
आकाश मं डल में विचरने वाले ग्रहों जै से सूर्य, चन्द्र, मं गल, बु ध के साथ राशियों एवं नक्षत्रों का
अध्ययन करता है और इन आकाशीय तत्वों से पृ थ्वी एवं पृ थ्वी पर रहने वाले लोग किस प्रकार
प्रभावित होते हैं उनका विश्ले षण करता है । वै दिक ज्योतिष में गणना के क् रम में राशिचक् र, नवग्रह,
जन्म राशि को महत्वपूर्ण तत्व के रूप में दे खा जाता है ।

राशि और राशिचक् र

राशि और राशिचक् र को समझने के लिए नक्षत्रों को को समझना आवश्यक है क्योकि राशि नक्षत्रों
से ही निर्मित होते हैं । वै दिक ज्योतिष में राशि और [[राशिचक् र[[ निर्धारण के लिए 360 डिग्री का एक
आभाषीय पथ निर्धारित किया गया है । इस पथ में आने वाले तारा समूहों को 27 भागों में विभाजित
किया गया है । प्रत्ये क तारा समूह नक्षत्र कहलाते हैं । नक्षत्रो की कुल सं ख्या 27 है । 27 नक्षत्रो को
360 डिग्री के आभाषीय पथ पर विभाजित करने से प्रत्ये क भाग 13 डिग्री 20 मिनट का होता है ।
इस तरह प्रत्ये क नक्षत्र 13 डिग्री 20 मिनट का होता है ।

वै दिक ज्योतिष में राशियो को 360 डिग्री को 12 भागो में बांटा गया है जिसे भचक् र कहते हैं । भचक् र
में कुल 12 राशियां होती हैं । राशिचक् र में प्रत्ये क राशि 30 डिग्री होती है । राशिचक् र में सबसे
पहला नक्षत्र है अश्विनी इसलिए इसे पहला तारा माना जाता है । इसके बाद है भरणी फिर कृतिका
इस प्रकार क् रमवार 27 नक्षत्र आते हैं । पहले दो नक्षत्र हैं अश्विनी और भरणी हैं जिनसे पहली राशि
यानी मे ष का निर्माण होता हैं इसी क् रम में शे ष नक्षत्र भी राशियों का निर्माण करते हैं ।
नवग्रह

वै दिक ज्योतिष में सूर्य, चन्द्र, मं गल, बु ध, गु रू, शु क्र, शनि और राहु केतु को [[नवग्रह[[ के रूप में
मान्यता प्राप्त है । सभी ग्रह अपने गोचर मे भ्रमण करते हुए राशिचक् र में कुछ समय के लिए
ठहरते हैं और अपना अपना राशिफल प्रदान करते हैं । राहु और केतु आभाषीय ग्रह है , नक्षत्र मं डल
में इनका वास्तविक अस्तित्व नहीं है । ये दोनों राशिमं डल में गणीतीय बिन्दु के रूप में स्थित होते हैं ।

लग्न और जन्म राशि

पृ थ्वी अपने अक्ष पर 24 घं टे में एक बार पश्चिम से पूरब घूमती है । इस कारण से सभी ग्रह नक्षत्र व
राशियां 24 घं टे में एक बार पूरब से पश्चिम दिशा में घूमती हुई प्रतीत होती है । इस प्रक्रिया में सभी
राशियां और तारे 24 घं टे में एक बार पूर्वी क्षितिज पर उदित और पश्चिमी क्षितिज पर अस्त होते हुए
नज़र आते हैं । यही कारण है कि एक निश्चित बिन्दु और काल में राशिचक् र में एक विशे ष राशि पूर्वी
क्षितिज पर उदित होती है । जब कोई व्यक्ति जन्म ले ता है उस समय उस अक्षां श और दे शांतर में जो
राशि पूर्व दिशा में उदित होती है वह राशि व्यक्ति का जन्म लग्न कहलाता है । जन्म के समय चन्द्रमा
जिस राशि में बै ठा होता है उस राशि को जन्म राशि या चन्द्र लग्न के नाम से जाना जाता है ।

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