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तिथि शून्य राशियाँ

सूर्य और चन्द्रमा के बीच जब 12 डिग्री का अं तर होता है तब एक तिथि बनती है .  अमावस्या के बाद जब


चन्द्रमा सूर्य से 12 अं श दरू पहुंचता है तो प्रतिपदा समाप्त होती है . इस प्रकार 30 तिथियों का निर्माण
होता है और इस तरह से एक चन्द्र मास बनता है . हिन्दु ज्योतिष में एक चन्द्र मास को दो पक्षों में बांटा
गया है .  शु क्ल पक्ष और कृष्ण पक्ष. एक पक्ष में 15 तिथियाँ होती है . प्रतिपदा से पूर्णिमा तक शु क्ल पक्ष
होता है . फिर प्रतिपदा से अमावस्या तक कृष्ण पक्ष. I

कई बार कुण्डली में ग्रहों की स्थिति और योग बहुत बली होते हैं परन्तु फिर भी शु भ फल की प्राप्ति नहीं
होती. इस दोष का कारण कई बार “तिथि शून्य” भी हो सकता है . इस दोष का उल्ले ख द्रिक गणित पं चां ग
में मिलता है जो दक्षिण भारत में प्रचलित है . I

शून्य तिथि दोष में एक तिथि दो राशियों को शून्य करती है . चतु र्दशी तिथि में चार राशियाँ शून्य होती हैं .
ले किन पूर्णिमा और अमावस्या किसी भी राशि को शून्य नहीं करती. जब हम शून्य तिथि की गणना करते हैं
तो उसमें शु क्ल या कृष्ण पक्ष का विचार नहीं करते . I

शून्य राशियों के स्वामी कई बार नै सर्गिक शु भ या तात्कालिक शु भ होने पर भी शु भ फलों में कमी लाते हैं .
कई बार शून्य राशियों में स्थित शु भ भावों के स्वामी भी अपने शु भ फल दे ने में असमर्थ हो जाते हैं . परन्तु
पाप भावों के स्वामी शून्य राशि में अगर स्थित हैं तो अपनी दशा/अन्तर्दशा में शु भ फल दे ने में सक्षम हो
सकते हैं . शून्य ग्रह यदि वक् री ना हो तो तृ तीय, षष्ठ, अष्टम व द्वादश भावों या अशु भ राशियों में गोचर
के समय शु भ फल दे ते हैं . I
  
(1) प्रतिपदा व द्वादशी तिथि में तु ला और मकर राशियाँ शून्य मानी जाती हैं .
(2) द्वितीया व एकादशी तिथि में धनु और मीन राशियाँ शून्य मानी जाती हैं .
(3) तृ तीया तिथि में सिं ह और मकर राशियाँ शून्य मानी जाती हैं .
(4) चतु र्थी तिथि में वृ ष ् और कुंभ राशियाँ शून्य मानी जाती हैं .
(5) पं चमी व अष्टमी तिथि में मिथु न और कन्या राशियाँ शून्य मानी जाती हैं .
(6) षष्ठी तिथि में मे ष और सिं ह राशियाँ शून्य मानी जाती हैं .
(7) सप्तमी तिथि में कर्क और धनु राशियाँ शून्य मानी जाती हैं .
(8) नवमी व दशमी तिथि में सिं ह और वृ श्चि
् क राशियाँ शून्य मानी जाती हैं .
(9) त्रयोदशी तिथि में वृ ष ् और सिं ह राशियाँ शून्य मानी जाती हैं .
(10) चतु र्दशी तिथि में मिथु न, कन्या, धनु और मीन राशियाँ शून्य मानी जाती
हैं .
(11) पूर्णिमा तिथि में कोई भी राशि शून्य नहीं होती है .
(12) अमावस्या तिथि में कोई भी राशि शून्य नहीं होती है .

जन्म काल के योग


जन्म काल के योग का महत्व शिव प्रसाद गु प्ता फलित ज्याेि तष म ंे समय विशष्े ा की जानकारी हे तु
पं चां ग का प्रयोग आवश्यक होता है । पं चां ग के पांच अं ग हैं - वार, तिथि, नक्षत्र, योग और करण। पृ थ्वी से दरू ी के
घटते क् रम में शनि, गु रु, मं गल, सूर्य, शु क्र, बु ध और चं दर् स्थित हैं अर्थात शनि सबसे दरू है और चं दर् सबसे
नजदीक। चूंकि सृ ष्टि के आरं भ में सबसे पहले सूर्य (प्रकाश स्रोत) दृष्टिगोचर हुआ इसलिए सूर्य के पहली होरा के
स्वामी होने के कारण पहला दिन रविवार होता है । एक होरा एक घं टे की होती है जो ऊपर वर्णित दरू ी के क् रम के
अनु सार होती है । जिस दिन की प्रथम होरा का जो ग्रह स्वामी होता है उस दिन उसी ग्रह के नाम का वार होता है ।
इस प्रकार दिनों में रविवार, सोमवार, मं गलवार, बु धवार, गु रुवार, शु क्रवार और शनिवार का क् रम होता है ।
ज्योतिषीय गणना में ग्रहों के फल विचार हे तु पृ थ्वी को स्थिर मानकर सूर्य एवं अन्य ग्रहों की सापे क्ष गति के
परिपे र् क्ष्य में उनकी स्थिति का निर्धारण किया जाता है । योग व नक्षत्र 27 होते हैं । तिथियां शु क्ल पक्ष की 15 एवं
कृष्ण पक्ष की 15 इस प्रकार कुल 30 होती हैं । चूं कि परिभ्रमण पथ 3600 का होता है इसलिए इसका 27 वां भाग
130 20‘ और 30 वां भाग 120 होता है । अस्त,ु वार के अतिरिक्त पं चां ग के अन्य अं गों का निर्धारण निम्न लिखित
सूतर् ों से किया जा सकता है । करण = एक तिथि का आधा भाग (कुल 11 करण होते हैं ) योग का आशय दो वस्तु ओं
के मे ल से है । सूर्य एवं चं दर् के राश्यां श के जोड़ से जो बिं दु मिलता है वह पं चां ग गणना मं े उस समय का योग
कहलाता है । चूं कि योग 27 होते हैं इसलिए एक योग का भी दायरा 13020’ का रहता है । चूं कि नक्षत्र भी 27 होते हैं
इसलिए एक नक्षत्र का भी दायरा 130 20’ का होता है । किंतु अं तर यह है कि नक्षत्र का निर्धारण केवल सूर्य के
राश्यां श से होता है जबकि (कुल 11 करण होते हैं ) योग का आशय दो वस्तु ओं के मे ल से है । सूर्य एवं चं दर् के
राश्यां श के जोड़ से जो बिं दु मिलता है वह पं चां ग गणना मं े उस समय का योग कहलाता है । चूं कि योग 27 होते हैं
इसलिए एक योग का भी दायरा 13020’ का रहता है । चूंकि नक्षत्र भी 27 होते हैं इसलिए एक नक्षत्र का भी दायरा
130 20’ का होता है । किंतु अं तर यह है कि नक्षत्र का निर्धारण केवल सूर्य के राश्यां श से होता है जबकि योग का
निर्धारण सूर्य एवं चं दर् दोनों के योग के सं युक्त राश्यां शों से किया जाता है । इसलिए वस्तु तः योग का समय
(अवधि) नक्षत्र के समय (अवधि) से अपे क्षाकृत कम रहता है । चूं कि राशियों की सं ख्या 12 है इसलिए एक राशि का
दायरा 300 का होता है । राश्यां श के आधार पर नक्षत्र एवं योग का क् रम निम्नानु सार होता है । जन्म कुंडली में इन
योगों के विषय में सामान्यतः ध्यान नहीं दिया जाता है किंतु यह बात विशे ष रूप से ध्यान में रखने योग्य है कि
जीवन में घटित होने वाली घटनाओं के काल निर्धारण में जन्म समय में उपस्थित योग की भूमिका महत्वपूर्ण होती
है । प्रत्ये क योग के लिए एक विशिष्ट ग्रह शु भ पभ््र ााव दने े वाला आरै एक विशिष्ट गह्र अशु भ प्रभाव
दे ने वाला होता है । शु भ प्रभाव दे ने वाले योगकारक ग्रह को योगी ग्रह एवं अशु भ प्रभाव दे ने वाले ग्रह को
अवयोगी ग्रह सं क्षेप में कह सकते हैं । इनकी गणना निम्नानु सार की जा सकती है ।

योगी ग्रह: योगी ग्रह योग विशे ष के अधिष्ठित नक्षत्र का अधिपति होता है । चूं कि प्रथम योग बिं दु पु ष्य नक्षत्र
के प्रारं भ बिं दु अर्थात 93020’ पर होता है इसलिए योग के राश्यां श में 93020’ जोड़ने पर जो बिं दु आता है , वह उस
नक्षत्र विशे ष का अधिष्ठित नक्षत्र होता है और उसका अधिपति योगी ग्रह।

यह बिं दु जिस राशि में होता है उस राशि का अधिपति उसका सहयोगी ग्रह बन जाता है ।

अवयोगी ग्रह: योग विशे ष के अधिष्ठित नक्षत्र से छठे नक्षत्र का अधिपति अवयोगी ग्रह होता है ।

अस्तु , सूर्य एवं चं दर् के राश्यां श अर्थात योग के राश्यां श में 93020’ के अतिरिक्त 66040’ अर्थात 1600 जोड़ने पर
जो बिं दु आता है , वह उस योग विशे ष के अधिष्ठित नक्षत्र से छठा नक्षत्र (अवयोगी नक्षत्र) हुआ जिसका
अधिपति उस योग विशे ष के लिए अवयोगी ग्रह होगा।
जै सा कि नाम से स्पष्ट है , योगी एवं सहयोगी ग्रह जिस भाव में स्थित रहते हैं या जिस भाव को दे खते हैं उस भाव
के सकारात्मक प्रभाव में वृ दधि ् तथा नकारात्मक प्रभाव को कम करते हैं । ये जिस ग्रह के साथ स्थित होते हैं या
जिस ग्रह को दे खते हैं उसके शु भ प्रभाव को बढ़ाते हैं । इसके विपरीत अवयोगी ग्रह सं बंधित भाव और ग्रह के
शु भ सकारात्मक प्रभाव को कम करते हैं तथा अशु भ नकारात्मक प्रभाव को बढ़ाते हैं और सफलता में व्यवधान
उत्पन्न करते हैं । वस्तु तः योगी एवं अवयोगी ग्रह उत्प्रेरक के रूप में कार्य करते हैं । इनकी भूमिका केवल
जन्मस्थिति के अनु सार ही सीमित नहीं है अपितु गोचर में भी इनका प्रभाव स्पष्टतः परिलक्षित होता है । अब कुछ
जन्मकुंडलियों की सहायता से योगी एवं अवयोगी ग्रहों की भूमिका दे खते हैं । में चं दर् के राश्यां श (4-260-03’-
02’’) जोड़ने पर 1-110-16’-21’’ प्राप्त होते हैं जिनके अनु सार जातक का जन्म सौभाग्य योग में हुआ। इन
राश्यां शों में 930 20’ जोड़ने पर राश्यां श 4-140-36’ 21’’ प्राप्त होते हैं जो सिं ह राशि व पूर्वाफाल्गु नी नक्षत्र में
है । पूर्वाफाल्गु नी नक्षत्र का अधिपति शु क्र जातक के लिए योगी और सिं ह राशि का अधिपति सूर्य सहयोगी ग्रह
हुआ। सौभाग्य योग के राश्यां श (1-110-16’-21’’) में 1600 जोड़ने पर 6-210-16’ 21’’ राश्यां श प्राप्त होते हैं जो
विशाखा नक्षत्र के अं तर्गत है जिसका अधिपति गु रु जातक के लिए अवयोगी ग्रह हुआ। योगी ग्रह कर्मेश व
पराक् रमे श होकर पं चम भाव में लग्ने श सूर्य व धने श लाभे श बु ध के साथ है । इसके फलस्वरूप बु दधि ् , भाग्य, कर्म के
सु संयोग से जातक ने आशातीत उन्नति की और ऐश्वर्य व धन अर्जित किया। गु रु के अवयोगी ग्रह होने तथा उसकी
सप्तम भाव में राहु के साथ स्थिति के कारण जीवन साथी के साथ सामं जस्य अच्छा नहीं रहा। गु रु की लाभ भाव पर
पं चम दृष्टि एवं प्रथम (तनु ) भाव पर सप्तम दृष्टि ने उसे शारीरिक पीड़ा भी दी तथा उसके लाभ (आर्थिक स्रोत्र)
में भी व्यवधान पहुंचाया। यद्यपि जातक की कुंडली में गु रु व चं दर् के केंद्रस्थ होने से गजकेसरी योग बन रहा है ,
फिर भी गु रु में चं दर् (अवयोगी ग्रह में व्यये श) की दशा के दौरान उसे धन की हानि उठानी पड़ी तथा माता से भी
वियोग हुआ। गु रु की महादशा में राहु की अं तर्दशा में जातक को घोर आर्थिक नु कसान उठाना पड़ा तथा इस दौरान
उसे अपने जीवन साथी के साथ भयं कर शारीरिक कष्ट भी झे लने पड़े । उस समय गोचर में भी गु रु तु ला राशि में
भ्रमण कर रहा था और सप्तम (पत्नी), नवम (भाग्य) व एकादश (लाभ) स्थान पर उसकी दृष्टि थी। गु रु के अवयोगी
एवं अष्टमे श होने के कारण अशु भ फल मिले । कुंडली सं . 2 में सूर्य के राश्यां श 4-150 7’ एवं चं दर् के राश्यां श 4-
150-22’ को जोड़ने पर 9-0’ 29’ प्राप्त होते हैं जिसके अनु सार जातक का जन्म सिद्ध योग में हुआ। इन राश्यां शों
में 93020’ जोड़ने पर राश्यां श 0-30-49’ प्राप्त होते हैं जो मे ष राशि व अश्विनी नक्षत्र में हैं । जन्म के समय शु क्र
दशा शे ष 15 दिन 11 माह 16 वर्ष था। इस तरह, अश्विनी नक्षत्र का अधिपति केतु योगी एवं मे ष राशि का
अधिपति मं गल सहयोगी ग्रह हुआ। सिद्ध योग के राश्यां श 9-0’29’ में 1600 जोड़ने पर 2-180-29’ राश्यां श
प्राप्त होते हैं जो आद्र्रा नक्षत्र के अं तर्गत है जिसका अधिपति राहु जातक के लिये अवयोगी ग्रह हुआ। कर्म
(दशम) स्थान का स्वामी मं गल नीच राशि का होकर षष्ठ स्थान (दशम से नवम) में है और नवम भाव पर उसकी
चतु र्थ दृष्टि है दशम भाव पर द्वादशे श व लग्ने श शनि की तृ तीय दृष्टि है और शनि के कारण शत्रु सूर्य के नक्षत्र
उत्तराफाल्गु नी में होने के कारण पृ थकवादी गु ण का आधिक्य है जिसके फलस्वरूप जातक का कार्यक्षे तर् बदला।
जातक, जो एक इं जीनियर है , ने अपनी नौकरी छोड़कर अपना व्यवसाय प्रारं भ किया। उस समय वर्ष 1985 में
जातक पर मं गल की महादशा प्रभावी थी। मं गल के सहयोगी होने व कर्म भाग्य से सं बंधित होने के कारण जातक के
व्यवसाय में आशातीत प्रगति हुई। उस समय योगी ग्रह केतु के नवम भाव में भ्रमण ने भी जातक के भाग्य में
् की। मं गल के बाद वर्ष 1991 में राहु की महादशा प्रारं भ हुई। राहु जातक के लिए अवयोगी ग्रह है और नवम
वृ दधि
भाव को नवमी दृष्टि से दे ख रहा है जिसके फलस्वरूप भाग्य हीनता की स्थिति बनने लगी। साथ ही पं चम भाव
् भाव) पर राहु की पं चम दृष्टि ने उसकी बु दधि
(बु दधि ् को भ्रमित किया। और उसने अपने व्यवसाय में कतिपय गलत
निर्णय लिए जिसके फलस्वरूप उसे नु कसान हुआ। राहु में गु रु की अं तर्दशा तक स्थिति नियं तर् ण में रही किंतु वर्ष 96
में शनि की अं तर्दशा प्रारं भ होते ही बिगड़ती चली गई। फलस्वरूप जातक का व्यवसाय बं द हो गया और उसे घोर
आर्थिक सं कट का सामना करना पड़ा। कुंडली सं . 3 में सूर्य के राश्यां श 0-230 33’ और चं दर् के राश्यां श 4-140 41’
को जोड़ने पर 5-080-14’ प्राप्त होते हैं जिसके अनु सार जातका का जन्म ध्रुव योग में हुआ। इन राश्यां शों में
93020’ जोड़ने पर राश्यां श 8-110 34’ प्राप्त होते हैं जो धनु राशि और मूल नक्षत्र के अं तर्गत है । जन्म के समय
शु क्र की महादशा 17 वर्ष 11 माह 17 दिन की शे ष रही। मूल नक्षत्र का अधिपति केतु योगी ग्रह एवं धनु राशि का
अधिपति गु रु सहयोगी ग्रह हुआ। ध्रुव योग के राश्यां श 5-08014’ में 160’ जोड़ने पर 10-180 14’ राश्यां श
प्राप्त होते हैं जो शतभिषा नक्षत्र के अं तर्गत है जिसका अधिपति राहु जातका के लिए अवयोगी ग्रह हुआ। राहु
सप्तम (पति भाव) में शनि (षष्ठे श) के साथ है । सप्तमे श गु रु द्वादश भाव में एकादशे श चं दर् के साथ है और उन पर
अष्टमे श तृ तीये श मं गल की चतु र्थ दृष्टि है । शु क्र भाग्ये श होकर अष्टम भाव में विराजमान है । चं दर् कुंडली में भी
अष्टम भाव में शनि व राहु स्थित हैं । नवमां श में भी सप्तमे श गु रु अष्टम भाव में स्थित है । ये सभी स्थितियां यह
इं गित करती हैं कि जातका को पति सु ख पूर्ण रूपे ण प्राप्त नहीं होगा। राहु के अवयोगी ग्रह होने और सप्तम में
स्थित होने के कारण इस दुष्प्रभाव में और वृ दधि ् हुई। यद्यपि मनकारक चं दर् द्वादश भाव में गु रु के साथ गजकेसरी

योग बना रहा है किंतु अष्टमे श मं गल की दष्टि इस शु भ प्रभाव को निष्प्रभावी कर रही है ।

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