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लघु पाराशरी सिद्धांत – I- भाग

जय
्‍ ोतिष की एक नहीं बल्कि कई धाराएं साथ साथ चलती रही हैं। वर्तमान में दशा गणना की जिन पद्धतियों का हम
इसत
्‍ ेमाल करते हैं, उनमें सर्वाधिक प्रयक
ु ् ‍त होने वाली विधि पाराशर पद्धति है । सही कहें तो पारशर की विंशोतत
्‍ री
दशा के इतर कोई दस
ू रा दशा सिसट्‍ म दिखाई भी नहीं दे ता है । महर्षि पाराशर के फलित जय
्‍ ोतिष संबंधी सिद्धांत लघु
पाराशरी (Laghu Parashari Siddhant) में मिलते हैं। इनमें कुल जमा 42 सत्र
ू (42 sutras) हैं।

वर्ष 2000 में मैंने सभी सिद्धांतों को लेकर नोट्स बनाए थे। उन्‍हीं नोट्स में हर नोट के शीर्ष पर मैंने सिद्धांत का हिंदी
अनुवाद सरल हिंदी में लिखा था। अगर आप केवल इन मूल सिद्धांतों को पढ़ें तो आपके दिमाग में भी ज्‍योतिष फलित
के संबंध में कई विचार स्‍पष्‍ट हो जाएंगे। मैं केवल मल
ू सिद्धांत के हिंदी अनव
ु ाद को पेश कर रहा हूं, इसमें न तो टीका
शामिल है , न मूल सूत्र…

1. यह श्रुतियों का सिद्धांत है जिसमें में प्रजापति के शुद्ध अंत:करण, बिम्‍बफल के समान लाल अधर वाले और वीणा
धारण करने वाले तेज, जिसकी अराधना करता हूं, को समर्पित करता हूं।

2. मैं महर्षि पाराशर के होराशास्‍त्र को अपनी मति के अनस


ु ार विचारकर ज्‍योतिषियों के आनन्‍द के लिए नक्षत्रों के
फलों को सूचित करने वाले उडूदायप्रदीप ग्रंथ का संपादन करता हूं।

3. हम इसमें नक्षत्रों की दशा के अनुसार ही शुभ अशुभ फल कहते हैं। इस ग्रंथ के अनुसार फल कहने में विशोंतरी
दशा ही ग्रहण करनी चाहिए। अष्‍टोतरी दशा यहां ग्राह्य नहीं है ।

4. सामान्‍य ग्रंथों पर से भाव, राशि इत्‍यादि की जानकारी ज्‍योति शास्‍त्रों से जानना चाहिए। इस ग्रंथ में जो विरोध
संज्ञा है वह शास्‍त्र के अनुरोध से कहते हैं।

5. सभी ग्रह जिस स्‍थान पर बैठे हों, उससे सातवें स्‍थान को दे खते हैं। शनि तीसरे व दसवें, गुरु नवम व पंचम तथा
मंगल चतर्थ
ु व अष्‍टम स्‍थान को विशेष दे खते हैं।

6. (अ) कोई भी ग्रह त्रिकोण का स्‍वामी होने पर शभ


ु फलदायक होता है । (लग्‍न, पंचम और नवम भाव को त्रिकोण
कहते हैं) तथा त्रिषडाय का स्‍वामी हो तो पाप फलदायक होता है (तीसरे , छठे और ग्‍यारहवें भाव को त्रिषडाय कहते
हैं।)

6. (ब) अ वाली स्थिति के बावजद


ू त्रिषडाय के स्‍वामी अगर त्रिकोण के भी स्‍वामी हो तो अशभ
ु फल ही आते हैं।
(मेरा नोट: त्रिषडाय के अधिपति स्‍वराशि के होने पर पाप फल नहीं दे ते हैं- काटवे।)

7. सौम्‍य ग्रह (बुध, गुरु, शुक्र और पूर्ण चंद्र) यदि केन्‍द्रों के स्‍वामी हो तो शुभ फल नहीं दे ते हैं। क्रूर ग्रह (रवि, शनि,
मंगल, क्षीण चंद्र और पापग्रस्‍त बध
ु ) यदि केन्‍द्र के अधिपति हों तो वे अशभ
ु फल नहीं दे ते हैं। ये अधिपति भी
उत्‍तरोतर क्रम में बली हैं। (यानी चतर्थ
ु भाव से सातवां भाव अधिक बली, तीसरे भाव से छठा भाव अधिक बली)
8. लग्‍न से दस
ू रे अथवा बारहवें भाव के स्‍वामी दस
ू रे ग्रहों के सहचर्य से शुभ अथवा अशभ
ु फल दे ने में सक्षम होते हैं।
इसी प्रकार अगर वे स्‍व स्‍थान पर होने के बजाय अन्‍य भावों में हो तो उस भाव के अनस
ु ार फल दे ते हैं। (मेरा नोट:
इन भावों के अधिपतियों का खुद का कोई आत्‍मनिर्भर रिजल्‍ट नहीं होता है ।)

9. अष्‍टम स्‍थान भाग्‍य भाव का व्‍यय स्‍थान है (सरल शब्‍दों में आठवां भाव नौंवे भाव से बारहवें स्‍थान पर पड़ता है ),
अत: शभ
ु फलदायी नहीं होता है । यदि लग्‍नश
े भी हो तभी शभ
ु फल दे ता है (यह स्थिति केवल मेष और तल
ु ा लग्‍न में
आती है )।

10. शुभ ग्रहों के केन्‍द्राधिपति होने के दोष गुरु और शुक्र के संबंध में विशेष हैं। ये ग्रह केन्‍द्राधिपति होकर मारक
स्‍थान (दस
ू रे और सातवें भाव) में हों या इनके अधिपति हो तो बलवान मारक बनते हैं।

11. केन्‍द्राधिपति दोष शक्र


ु की तल
ु ना में बध
ु का कम और बध
ु की तल
ु ना में चंद्र का कम होता है । इसी प्रकार सर्य

और चंद्रमा को अष्‍टमेष होने का दोष नहीं लगता है ।

12. मंगल दशम भाव का स्‍वामी हो तो शुभ फल दे ता है । किं तु यही त्रिकोण का स्‍वामी भी हो तभी शुभफलदायी
होगा। केवल दशमेष होने से नहीं दे गा। (यह स्थिति केवल कर्क लग्‍न में ही बनती है )

13. राहू और केतू जिन जिन भावों में बैठते हैं, अथवा जिन जिन भावों के अधिपतियों के साथ बैठते हैं तब उन भावों
अथवा साथ बैठे भाव अधिपतियों के द्वारा मिलने वाले फल ही दें गे। (यानी राहू और केतू जिस भाव और राशि में
होंगे अथवा जिस ग्रह के साथ होंगे, उसके फल दें गे।)। फल भी भावों और अधिपतियो के म‍त
ु ाबिक होगा।

14. ऐसे केन्‍द्राधिपति और त्रिकोणाधिपति जिनकी अपनी दस


ू री राशि भी केन्‍द्र और त्रिकोण को छोड़कर अन्‍य
स्‍थानों में नहीं पड़ती हो, तो ऐसे ग्रहों के संबंध विशेष योगफल दे ने वाले होते हैं।

15. बलवान त्रिकोण और केन्‍द्र के अधिपति खुद दोषयुक्‍त हों, लेकिन आपस में संबंध बनाते हैं तो ऐसा संबंध
योगकारक होता है ।

16. धर्म और कर्म स्‍थान के स्‍वामी अपने अपने स्‍थानों पर हों अथवा दोनों एक दस
ू रे के स्‍थानों पर हों तो वे
योगकारक होते हैं। यहां कर्म स्‍थान दसवां भाव है और धर्म स्‍थान नवम भाव है । दोनों के अधिपतियों का संबंध
योगकारक बताया गया है ।

17. नवम और पंचम स्‍थान के अधिपतियों के साथ बलवान केन्‍द्राधिपति का संबंध शभ


ु फलदायक होता है । इसे
राजयोग कारक भी बताया गया है ।

18. योगकारक ग्रहों (यानी केन्‍द्र और त्रिकोण के अधिपतियों) की दशा में बहुधा राजयोग की प्राप्ति होती है ।
योगकारक संबंध रहित ऐसे शभ
ु ग्रहों की दशा में भी राजयोग का फल मिलता है ।
19. योगकारक ग्रहों से संबंध करने वाला पापी ग्रह अपनी दशा में तथा योगकारक ग्रहों की अंतरदशा में जिस प्रमाण
में उसका स्‍वयं का बल है , तदअनस
ु ार वह योगज फल दे गा। (यानी पापी ग्रह भी एक कोण से राजयोग में कारकत्‍व
की भमि
ू का निभा सकता है ।)

20. यदि एक ही ग्रह केन्‍द्र व त्रिकोण दोनों का स्‍वामी हो तो योगकारक होता ही है । उसका यदि दस
ू रे त्रिकोण से
संबंध हो जाए तो उससे बड़ा शभ
ु योग क्‍या हो सकता है ?

21. राहू अथवा केतू यदि केन्‍द्र या त्रिकोण में बैइे हों और उनका किसी केन्‍द्र अथवा त्रिकोणाधिपति से संबंध हो तो
वह योगकारक होता है ।

लघु पाराशरी सिद्धांत – दस


ू रा भाग (Laghu Parashari
Siddhant)
लघु पाराशरी सिद्धांत (Laghu Parashari Siddhant) में महर्षि पाराशर ने कुल 42 सत्र
ू फलित ज्‍योतिष के
दिए हैं। इनमें से पहले 21 सूत्रों को सरल हिंदी में पूर्व के लेख  में लिख चुका हूं अब उससे आगे के सूत्र 22 वें से 42 वें
तक इस भाग में …

22. धर्म और कर्म भाव के अधिपति यानी नवमेश और दशमेश यदि क्रमश: अष्‍टमेश और लाभेश हों तो इनका
संबंध योगकारक नहीं बन सकता है । (उदाहरण के तौर पर मिथुन लग्‍न)। इस स्थिति को राजयोग भंग भी मान
सकते हैं।

23. जन्‍
म स्‍थान से अष्‍टम स्‍थान को आयु स्‍थान कहते हैं। और इस आठवें स्‍थान से आठवां स्‍थान आयु की आयु है
अर्थात लग्‍न से तीसरा भाव। दस
ू रा भाव आयु का व्‍यय स्‍थान कहलाता है । अत: द्वितीय एवं सप्‍
तम भाव मारक
स्‍थान माने गए हैं।

24. द्वितीय एवं सप्‍तम मारक स्‍थानों में द्वितीय स्‍थान सप्‍तम की तल
ु ना में अधिक मारक होता है । इन स्‍थानों
पर पाप ग्रह हों और मारकेश के साथ यक्ति
ु कर रहे हों तो उनकी दशाओं में जातक की मत्ृ ‍यु होती है ।

25. यदि उनकी दशाओं में मत्ृ ‍यु की आशंका न हो तो सप्‍तमेश और द्वितीयेश की दशाओं में मत्ृ ‍यु होती है ।

26. मारक ग्रहों की दशाओं में मत्ृ ‍यु न होती हो तो कुण्‍


डली में जो पापग्रह बलवान हो उसकी दशा में मत्ृ ‍यु होती है ।
व्‍ययाधिपति की दशा में मत्ृ ‍यु न हो तो व्‍ययाधिपति से संबंध करने वाले पापग्रहों की दशा में मरण योग बनेगा।
व्‍ययाधिपति का संबंध पापग्रहों से न हो तो व्‍ययाधिपति से संबंधित शुभ ग्रहों की दशा में मत्ृ ‍यु का योग बताना
चाहिए। ऐसा समझना चाहिए। व्‍ययाधिपति का संबंध शभ
ु ग्रहों से भी न हो तो जन्‍म लग्‍न से अष्‍टम स्‍थान के
अधिपति की दशा में मरण होता है । अन्‍यथा तत
ृ ीयेश की दशा में मत्ृ ‍यु होगी। (मारक स्‍थानाधिपति से संबंधित शुभ
ग्रहों को भी मारकत्‍व का गण
ु प्राप्‍त होता है ।)
27. मारक ग्रहों की दशा में मत्ृ ‍यु न आवे तो कुण्‍
डली में जो बलवान पापग्रह हैं उनकी दशा में मत्ृ ‍यु की आशंका होती
है । ऐसा विद्वानों को मारक कल्पित करना चाहिए।

28. पापफल दे ने वाला शनि जब मारक ग्रहों से संबंध करता है तब पर्ण


ू मारकेशों को अतिक्रमण कर नि:संदेह मारक
फल दे ता है । इसमें संशय नहीं है ।

29. सभी ग्रह अपनी अपनी दशा और अंतरदशा में अपने भाव के अनुरूप शुभ अथवा अशुभ फल प्रदान करते हैं।
(सभी ग्रह अपनी महादशा की अपनी ही अंतरदशा में शभ
ु फल प्रदान नहीं करते हैं – लेखक)

30. दशानाथ जिन ग्रहों के साथ संबंध करता हो और जो ग्रह दशानाथ सरीखा समान धर्मा हो, वैसा ही फल दे ने वाला
हो तो उसकी अंतरदशा में दशानाथ स्‍वयं की दशा का फल दे ता है ।

31. दशानाथ के संबंध रहित तथा विरुद्ध फल दे ने वाले ग्रहों की अंतरदशा में दशाधिपति और अंतरदशाधिपति दोनों
के अनस
ु ार दशाफल कल्‍पना करके समझना चाहिए। (विरुद्ध व संबंध रहित ग्रहों का फल अंतरदशा में समझना
अधिक महत्‍वपूर्ण है – लेखक)

32. केन्‍द्र का स्‍वामी अपनी दशा में संबंध रखने वाले त्रिकोणेश की अंतरदशा में शुभफल प्रदान करता है । त्रिकोणेश
भी अपनी दशा में केन्‍द्रेश के साथ यदि संबंध बनाए तो अपनी अंतरदशा में शभ
ु फल प्रदान करता है । यदि दोनों का
परस्‍पर संबंध न हो तो दोनों अशभ
ु फल दे ते हैं।

33. यदि मारक ग्रहों की अंतरदशा में राजयोग आरं भ हो तो वह अंतरदशा मनुष्‍य को उत्‍तरोतर राज्‍याधिकार से
केवल प्रसिद्ध कर दे ती है । पर्ण
ू सखु नहीं दे पाती है ।

34. अगर राजयोग करने वाले ग्रहों के संबंधी शभ


ु ग्रहों की अंतरदशा में राजयोग का आरं भ होवे तो राज्‍य से सख
ु और
प्रतिष्‍
ठा बढ़ती है । राजयोग करने वाले से संबंध न करने वाले शुभग्रहों की दशा प्रारं भ हो तो फल सम होते हैं। फलों में
अधिकता या न्‍यन
ू ता नहीं दिखाई दे गी। जैसा है वैसा ही बना रहे गा।

35. योगकारक ग्रहों के साथ संबंध करने वाले शभ


ु ग्रहों की महादशा के योगकारक ग्रहों की अंतरदशा में योगकारक
ग्रह योग का शुभफल क्‍वचित दे ते हैं।

36. राहू केतू यदि केन्‍द्र (विशेषकर चतर्थ


ु और दशम स्‍थान में ) अथवा त्रिकोण में स्थित होकर किसी भी ग्रह के साथ
संबंध नहीं करते हों तो उनकी महादशा में योगकारक ग्रहों की अंतरदशा में उन ग्रहों के अनस
ु ार शभ
ु योगकारक फल
दे ते हैं। (यानी शुभारुढ़ राहू केतू शुभ संबंध की अपेक्षा नहीं रखते। बस वे पाप संबंधी नहीं होने चाहिए तभी कहे हुए
अनस
ु ार फलदायक होते हैं।) राजयोग रहित शभ
ु ग्रहों की अंतरदशा में शभ
ु फल होगा, ऐसा समझना चाहिए।

37-38. यदि महादशा के स्‍वामी पापफलप्रद ग्रह हों तो उनके असंबंधी शभ


ु ग्रह की अंतरदशा पापफल ही दे ती है । उन
महादशा के स्‍वामी पापी ग्रहों के संबंधी शुभग्रह की अंतरदशा मिश्रित (शुभ एवं अशुभ) फल दे ती है । पापी दशाधिप से
असंबंधी योगकारक ग्रहों की अंतरदशा अत्‍यंत पापफल दे ने वाली होती है ।
39. मारक ग्रहों की महादशा में उनके साथ संबंध करने वाले शुभग्रहों की अंतरदशा में दशानाथ मारक नहीं बनता है ।
परन्‍तु उसके साथ संबंध रहित पापग्रह अंतरदशा में मारक बनते हैं।

40. शक्र
ु और शनि अपनी अपनी महादशा में अपनी अपनी अंतरदशा में अपने अपने शभ
ु फल दे ते हैं। यानी शनि
महादशा में शुक्र की अंतरदशा हो तो शनि के फल मिलेंगे। शुक्र की महादशा में शनि के अंतर में शुक्र के फल मिलेंगे।
इस फल के लिए दोनों ग्रहों के आपसी संबंध की अपेक्षा भी नहीं करनी चाहिए।

41. दशम स्‍थान का स्‍वामी लग्‍न में और लग्‍न का स्‍वामी दशम में , ऐसा योग हो तो वह राजयोग समझना चाहिए।
इस योग पर विख्‍यात और विजयी ऐसा मनष्ु ‍य होता है ।

42. नवम स्‍थान का स्‍वामी दशम में और दशम स्‍थान का स्‍वामी नवम में हो तो ऐसा योग राजयोग होता है । इस
योग पर विख्‍यात और विजयी परु
ु ष होता है ।

लघप
ु ाराशरी के अनस
ु ार अंतर्दशाफल की मीमांसा प्रो. शक
ु दे व चतर्वे
ु दी दशाधीश के विरुद्ध फलदायक ग्रहों की
अंतर्दशा का फल: लघुपाराशरी के अनुच्छे द 54 के अनुसार अंतर्दशाधीशों को निम्नलिखित आठ वर्गों में वर्गीकृत
किया जा सकता है । 1. संबंधी-सधर्मी 2. संबंधी-विरुद्धधर्मी 3. संबंधी-उभयधर्मी 4. संबंधी-अनुभयधर्मी 5. असंबंधी-
सधर्मी 6. असंबंधी-विरुद्धधर्मी 7. असंबंधी-उभयधर्मी 8. असंबंधी-अनुभयधर्मी इन आठ प्रकार के ग्रहों में से पहले
पांच प्रकार के ग्रह या तो संबंधी अथवा सधर्मी होते हैं। अतः इनकी अंतर्दशा में दशाधीश का आत्मभावानुरूपी फल
मिलता है । अवशिष्ट तीन प्रकार के ग्रहों-असंबंधी विरुद्धधर्मी, असंबंधी-उभयधर्मी एवं असंबंधी-अनभ
ु यधर्मी की
अंतर्दशा में कैसा फल मिलेगा इस प्रश्न का सम¬ाधान करने के लिए लघुपाराशरीकार ने कहा है - दशाधीश के
विरुद्ध फलदायक अन्य ग्रहों की अंतर्दशा में विद्वानों को उनके फल का भली भांति अनुगुणन कर फल की कल्पना
करनी चाहिए। इस प्रसंग में दशानाथ के विरुद्ध फलदायक का अर्थ है - वे ग्रह, जो दशानाथ जैसा फल न दे ते हों।
असमान गुण-धर्मों वाले ग्रह परस्पर विरुद्ध फलदायक होते हैं। ये विरुद्ध फलदायक अंतर्दशाधीश तीन प्रकार के होते
हैं- 1. असंबंधी विरुद्धधर्मी 2. असंबंधी उभयधर्मी एवं 3. असंबंधी अनभ
ु यधर्मी विरुद्धधर्मी से अभिप्राय उन ग्रहों से है
जिनके गुणधर्म समान न हों, जैसे त्रिकोणेश एवं त्रिषडायाधीश अथवा कारक एवं मारक आदि। उभयधर्मी उन ग्रहों
को कहा जाता है , जो शुभ एवं अशभ
ु दोनों प्रकार का फल दे ते हं ै। जैसे चतर्थे
ु श, सप्तमेश एवं दशमेश। उभयधर्मी
की यह विशेषता होती है कि यह शुभ एवं पाप ग्रहों का आंशिक रूप से सधर्मी और आंशिक रूप से विरुद्धधर्मी होता
है । इसमें दोनों प्रकार के गुण-धर्म होने के कारण ही यह उभयधर्मी कहलाता है । और अनुभयधर्मी उन ग्रहों को कहते
हैं जो न तो शभ
ु हो और न ही पाप हो जैसे द्वितीयेश एवं द्वादे श स्वराशिस्थ चंद्रमा एवं सर्य
ू । इनमें शभ
ु एवं पाप
दोनों धर्म नहीं होते। अतः ये न तो सधर्मी होते हैं और न ही विरुद्धधर्मी। लघुपाराशरी के सिद्धांतानुसार ग्रह छः प्रकार
के होते हैं- 1. शभ
ु 2. पाप, 3. कारक 4. मारक 5. सम एवं 6. मिश्रित। इनमें से शभ
ु ग्रहों के शभ
ु , पापग्रहों के पाप,
कारक ग्रहों के कारक, मारक ग्रहों के मारक, सम ग्रहों के सम तथा मिश्रित ग्रहों के मिश्रित सधर्मी होते हैं जबकि शुभ
एवं पाप, कारक एवं मारक, शुभ एवं मारक तथा पाप एवं कारक एक-दस
ू रे के विरुद्धधर्मी होते हैं। इनमें से मिश्रित
ग्रह उभयधर्मी तथा समग्रह अनुभयधर्मी होते हैं। क्योंकि मिश्रित ग्रह में दोनों प्रकार के गुण-धर्म होते हैं और मिश्रित
को उभयधर्मी एवं सम को अनुभयधर्मी कहा जाता है । इसलिए विरुद्धधर्मी, उभयधर्मी एवं अनुभयधर्मी- ये तीनों
विरुद्ध फलदायक होते हैं किं तु यदि इनका दशानाथ से संबंध हो तो ये उस संबंध के प्रभाववश दशाधीश का
स्वाभाविक फल दे ते हैं जैसा कि लघुपाराशरी की श्लोक संख्या 19, 21, 32 एवं 33 में बतलाया गया है । किं तु यदि
इनका दशाधीश से संबंध न हो तो इनका फल दशानाथ के विरुद्ध होता है । यहां एक स्वाभाविक प्रश्न उत्पन्न होता है
कि दशानाथ के विरुद्ध फलदायक असंबंधी विरुद्धधर्मी, असंबंधी उभयधर्मी और असंबंधी अनुभयधर्मी की अंतर्दशा में
क्या इनका फल समान या असमान होगा? और वह फल कैसा होगा? इसे जानने के लिए लघुपाराशरीकार ने एक
रीति बतलायी है - ‘‘यदि अंतर्दशाधीश दशानाथ का संबंधी या सधर्मी न हो तो उस (असंबंधी विरुद्ध धर्मी, असंबंधी
उभयधर्मी एवं असंबंधी अनभ
ु यधर्मी) के फलों का अनग
ु ण
ु न कर विभिन्न स्थितियों में फल की तदनरू
ु प कल्पना
कर लेनी चाहिए। निर्णायक-सूत्र: इस विषय में निर्णायक सूत्र है ‘‘तत्तद् फलानुगुण्येन’’। लघुपाराशरी के इस
सांकेतिक सूत्र का अर्थ है - उन दशाधीश एवं अंतर्दशाधीश के फलों का अनुगुणन कर फल का निर्धारण करना चाहिए।
इस सूत्र का सार ‘अनुगणन’ शब्द में अंत¬र्निहित है । अनुगुणन का तात्पर्य है - अनु=बार-बार, गुणन=गुणों का
मूल्यांकन अर्थात ् समग्र परिस्थिति एवं संदर्भ में दशाधीश एवं अंतर्दशाधीश के फलों का गुणों के आधार पर
मल्
ू यांकन करना अनग
ु ण
ु न कहलाता है । उदाहरणार्थ, मान लीजिए कि दशानाथ धनदायक तथा अंतर्दशानाथ
धननाशक है । तो इस दशा-अंतर्दशा में धन लाभ एवं धन नाश दोनों ही फल होंगे। इस विषय में स्मरणीय है कि
दशानाथ एवं अंतर्दशानाथ इन दोनों में से जिसका सामथ्र्य अधिक होगा, अंततोगत्वा वैसा ही फल मिलेगा। यदि इस
स्थिति में एक ही ग्रह में भ¬ावादि स्वामित्वशात ् दोनों विरुद्ध लक्षण हों, जैसे नवमेश एवं द्वादशेश एक ही ग्रह हो
या पंचमेश एवं द्वादशेश एक ही हो अथवा अष्टमेश-नवमेश एक ही हो या पंचमेश-अष्टमेश एक ही ग्रह हो तो उस
ग्रह के गुण-दोषों की समान सत्ता के कारण गुण एवं अवगुणों का नाश हो जाएगा। किं तु यदि एक ग्रह में एक और
दस
ू रे में एकाधिक गुण हों, जैसे दशाधीश एवं अंतर्दशाधीश में से एक व्ययेश हो और दस
ू रा धनेश-पंचमेश या धनेश-
लग्नेश अथवा धनेश-भाग्येश हो, तो धनदायक दो हे तु तथा धननाशक एक हे तु होने के कारण अनग
ु ण
ु न के आधार
पर (2-1=1) एक धनदायक गुण शेष रहे गा। इसलिए इस उदाहरण में धन लाभ एवं धन नाश के बाद लगभग आधा
धन बच जाएगा। इसी प्रकार दशाधीश एवं अंतर्दशाधीश की सभी स्थितियों का समग्र संदर्भ में गुणों के आधार पर
मूल्यांकन किया जा सकता है । पाठक चाहे तो इस प्रसंग में अनुच्छे द 37 में दी गई भाव एवं उसके गुणों की तालिका
का उपयोग कर सकते हैं। इस संदर्भ में एक बात स्पष्ट है कि दशानाथ के असंबधि
ं त-विरुद्धधर्मी, उभयधर्मी एवं
अनभ
ु यधर्मी ग्रहों की अंतर्दशाओं में दोनों का फल मिलता है । इन दोनों के फलों में परस्पर विद्ध ता भी होती है । किं तु
इन दोनों प्रकार के फलों में से किसका फल कम और किसका अधिक होगा इसका मूल्यांकन उन दोनों के गुणों के
आधार पर समग्र दृष्टि से करना चाहिए। संबंध होने या न होने पर केंद्रे श एवं त्रिकोणेश की दशा-अंतर्दशा का फल:
त्रिकोणेश लघुपाराशरी के अनुसार शुभ तथा केंद्रे श उभयधर्मी होता है । अतः इन दोनों में संबंध होने पर यह संबंधी-
उभयधर्मी और संबंध न होने पर असंबंधी-उभयधर्मी का उदाहरण माना जाता है । संबंध होने पर तथा संबंध न होने
पर केंद्रे श की दशा एवं त्रिकोणेश की भुक्ति में अथवा त्रिकोणेश की दशा एवं केंद्रे श की भुक्ति में क्या एवं कैसा फल
होगा इस प्रश्न का समाधान करते हुए लघुपाराशरीकार कहते हैं कि ‘‘संबंध होने पर केंद्रे श अपनी दशा एवं त्रिको णे
श की अं तर्द शा म े ंशु भ फल दे ता है और वह त्रिकोणेश भी अपनी दशा एवं केंद्रे श की अंतर्दशा में शभ
ु फल दे ता
है । यदि उन दोनों में संबंध न हो तो पाप फलदायक होता है । कारण यह है कि केंद्रे श एवं त्रिकोणेश आपस में सधर्मी
नहीं होते। इसलिए इन दोनों में जब तक संबंध न हो तब तक ये एक-दस
ू रे की दशा-अंतर्दशा में पापफल दे ते हैं जैसा
कि कथन है - ‘‘उक्तं शुभत्त्वं सम्बन्धात ् केन्द्रकोण ् ोशयोः पुरा। सम्बन्धेऽत्र शुभं तस्मादसम्बन्धेऽन्यथा फलम ्।’’
इस प्रकार केंद्रे श एवं त्रिकोणेश का आपस में संबंध हो तो केंद्रे श की दशा और त्रिकोणेश की अंतर्दशा में शुभ फल
मिलता है । इसी प्रकार त्रिकोणेश की दशा एवं केन्द्रे श की अंतर्दशा में शभ
ु फल मिलता है । और इनमें संबंध न होने
पर एक-दस
ू रे की अंतर्दशा में पाप फल मिलता है । योगकारक की दशा एवं मारक की अंतर्दशा का फल सामान्यतया
कारक एवं मारक ग्रह एक दस
ू रे के विरुद्धधर्मी होते हैं। अतः यदि इनमें परस्पर संबंध न हो तो श्लोक संख्या 31 के
अनुसार पाप फल मिलेगा। किं तु श्लोक संख्या 33 में मारक ग्रह की अंतर्दशा में ‘‘राजयोगस्य प्रारं भ‘‘ अर्थात
राजयोग का प्रारं भ बतलाया गया है । राजयोग का यह फल तभी संभव है जब इनमें संबंध हो। कारक ग्रह का मारक
से संबंध होने पर श्लोक संख्या 30 के अनस
ु ार कारक ग्रह की दशा में उसके संबंधी मारक ग्रह की दशा की अंतर्दशा
के समय में राजयोग का फल मिलना संभव है । इसलिए यह संबंधी विरुद्धधर्मी का उदाहरण है । उदाहरण
इस कंु डली में शनि स्वयं योगकारक है और उसका सप्तमेश मंगल से युति संबंध होने के कारण दोनों योग कारक हैं
और द्वितीयेश बुध सप्तम स्थान में स्थित होने के कारण मारक है । इस व्यक्ति, जो कि प्रसिद्ध फिल्म अभिनेता
एवं राज्यसभा के सदस्य हैं, को दिनांक 18 मार्च 1991 में शनि की दशा शुरू हुई। इस शनि की दशा में दिनांक 21
मार्च 1994 तक शनि की अंतर्दशा में अनच्
ु छे द 53 के अनस
ु ार शनि का आत्मभावानरू
ु प योगजफल नहीं मिला।
तदप
ु रांत शनि की दशा में दिनांक 28 नवंबर 1996 तक बुध की अंतर्दशा में इन्हें राज्यसभा की सदस्यता मिली।
वस्तुतः कारक शनि की दशा में मारक बुध की भक्ति
ु में इन्हें राजयोग का फल मिला है । इस फल का अष्टमस्थ
केतु एवं षष्ठे श शुक्र की भुक्ति में विस्तार होना चाहिए। योगकारक के संबंधी/असंबंधी शुभ ग्रह की अंतर्दशा का
फल: सुश्लोक शतक के अनुसार योगक¬ारक ग्रह की दशा में संबंधित शुभ ग्रह की अंतर्दशा में तेज, सुख, यश एवं
धन बढ़ता है जबकि योग कारक की दशा में असंबधि
ं त शभ
ु ग्रह की अंतर्दशा में सम फल अर्थात विशेष शभ
ु नहीं
होता। यदि तल
ु नात्मक दृष्टि से विचार किया जाए, तो योगकारक ग्रह की दशा में कारक ग्रह की अंतर्दशा में योगज
फल मिलता है । यह फल विशेष या उत्कृष्ट फल है । और योगकारक की दशा में उसके संबंधी या असंबंधी शभ
ु ग्रह
(त्रिकोणेश) की अंतर्दशा में जो फल मिलता है , वह उससे कम ही होता है । कारक के संबंधी शुभ ग्रह की दशा में
कारक की भुक्ति का फल: लघुपाराशरी की श्लोक संख्या 35 में कारक ग्रह के संबंधी शुभ ग्रह की महादशा मंे
कारक ग्रह की भुक्ति में क्या और कैसा फल मिलेगा इस बात का प्रतिपादन करते हुए बतलाया गया है कि इस
(योगकारक) के संबंधी शुक्र ग्रह की (दशा में ) योगकारक ग्रहों की भक्ति
ु यों में कभी-कभी या कुछ-कुछ योगज फल
मिलता है । किं तु यह कथन तर्क संगत या उचित नहीं लगता। क्योंकि योगकारक का शभ
ु (त्रिकोणेश) से संबंध होने
पर योगजफल का उत्कर्ष होता है । ऐसी स्थिति में कारक ग्रह के संबंधी शुभ ग्रह की दशा में (उसके संबंधी एवं
सधर्मी) योगकारक ग्रह की भक्ति
ु में निश्चित रूप से राजयोग का फल मिलना चाहिए न कि कदाचित ् कभी-कभी या
कुछ-कुछ। इस विषय में सुश्लोक शतककार का मत स्पष्ट एवं तर्क संगत है । उनका कहना है कि शुभ ग्रह की दशा में
उसके संबंधी योगकारक की अंतर्दशा में राजसौख्य निश्चित मिलता है । कारण स्पष्ट है कि यहां त्रिकोणेश एवं
कारक संबंधी भी है और सधर्मी भी। अतः यह संबंधी सधर्मी का उदाहरण है । अतः अनच्
ु छे द 53 के अनस
ु ार यहां
निश्चित रूप से योगजफल मिलना चाहिए। शुभ स्थान में राहु-केतु की दशा में असंबंधी ग्रहों का फल: इस विषय में
लघुपाराशरीकार का कथन है कि राहु एवं केतु शुभ स्थान में आरूढ़ (स्थित) हों तो, (किसी योगकारक से) संबंध न
होने पर भी योगकारक ग्रह की अंतर्दशा में योगकारक होते हैं। इस प्रसंग में शुभ स्थान का अर्थ कुछ आचार्यों ने
त्रिकोण स्थान तो कुछ अन्य आचार्यों ने चतर्थ
ु स्थान माना है । किं तु यदि ऐसा मान लिया जाए, तो श्लोक संख्या 30
से काम चल जाएगा और श्लोक संख्या 36 की रचना की आवश्यकता नहीं रहे गी। यदि शुभ स्थान का अर्थ केवल
त्रिकोण स्थान मान लिया जाए, तो पंचम में राहु या केतु में से एक के रहने पर दस ू रा एकादश में रहे गा तथा नवम में
राहु या केतु में से एक के रहने पर दस
ू रा तत
ृ ीय में रहे गा। इस स्थिति में पंचमस्थ राहु या केतु का एकादशस्थ केतु
या राहु से संबंध क्या इनकी कारकता को प्रभावित नहीं करे गा? क्योंकि एकादशस्थ राहु या केतु लाभेश के समान
होता है और लाभेश तथा अष्टमेश का संबंध राजयोग को भंग कर दे ता है । अतः शुभ स्थान का अर्थ ‘‘कर्मधर्मो शुभौ
प्रोक्तौ’’ के अनुसार नवम एवं दशम स्थान में दोनों शुभ स्थान हैं। धर्म स्वभावतः शुभ स्थान है और कर्म बिना धर्म
हो ही नहीं सकता। वस्तुतः धर्म एवं कर्म एक दस
ू रे के पूरक होते हैं तथा लघुपाराशरी के अनुसार ये दा¬ेनों शुभ
स्थान भी हैं। इसलिए शभ
ु स्थान का अर्थ नवम एवं दशम स्थान मानना चाहिए। राहु एवं केतु जिस भाव में हों, उस
भाव के अनुसार फल दे ते हैं। इसलिए नवमस्थ राहु-केतु नवमेश के समान और दशमस्थ राहु-केतु दशमेश के समान
शुभ फलदायक होते हैं। यदि इनका योगकारक ग्रह से संबंध हो, तो ये अनुच्छे द 53 के अनुसार योगजफलदायक हो
जाएंगे। किं तु यदि इनका योगकारक से संबंध न हो तो इनका फल कैसा होगा इस पाराशर प्रश्न का विचार एवं
निर्णय करने के लिए श्लोक संख्या 36 की रचना की गई है और इस श्लोक में बतलाया गया है कि राहु-केतु यदि
नवम या दशम स्थान में हों, तो इनकी दशा में इनसे असंबंधी कारक की अंतर्दशा में योगजफल मिलता है । यह
असंबंधी सधर्मी का उदाहरण है । उदाहरण इस कंु डली में राहु दशम (शुभ) स्थान में स्थित है तथा लग्नेश एवं दशमेश
युति के कारण राजयोग है । इन्हें दिनांक 18 नवंबर 1995 से 17 नवंबर 1998 के मध्य राहु की दशा में शुक्र की
अंतर्दशा के समय में दो बार भारत का प्रधानमंत्री पद मिला। शुक्र के अष्टमेश होने के कारण प्रथम बार में राजयोग
का भंग होना और कारक की अंतर्दशा के कारण पुनः योगज फल मिलना स्पष्ट रूप से परिलक्षित होता है ।
इस कंु डली में कर्क राशि में केन्द्रस्थ राहु पराशर के अनस
ु ार राजयोग कारक है , यथा- ‘‘अजकर्कालिकन्यैण यग्ु मस्थ
केन्द्रगः फणी पाराशर मुनि प्राह राजयोगकरः स्वय्म।।’’ अर्थात मेष, कर्क , वश्चि
ृ क, कन्या, मकर या मिथुन राशि में
कंेद्र स्थान में राहु हो, तो पराशर का कथन है कि वह स्वयं राजयोग कारक होता है । निष्कर्ष 1. नवम या दशम में
स्थित राहु एवं केतु की दशा में असंबधि
ं त योग कारक की अंतर्दशा में योगजफल मिलता है । 2. नवम या दशम में
स्थित राहु-केतु की दशा में असंबधि
ं त त्रिकोणेश की भक्ति
ु में शुभ फल मिलता है । 3. नवम या दशम में स्थित राहु-
केतु की दशा म े ंअसं बं धित के ंद्र ेश की भु क्ति में अल्प मात्रा में शभ
ु फल मिलता है । 4. नवम या दशम में
स्थित राहु-केतु की दशा में संबंधी कारक की भक्ति
ु में विशेष योगजफल मिलता है । 5. नवम में स्थित राहु-केतु की
दशा में संबंधित त्रिकोणेश की भक्ति
ु में पर्ण
ू शभु फल मिलता है । 6. दशम में स्थित राहु-केतु की दशा में संबंधित
त्रिकोणेश की भक्ति
ु में योगज फल मिलता है । 7. त्रिकोणस्थ राहु-केतु की दशा में असंबंधित कारक ग्रह की भक्ति

में परिस्थितिवश योगज या शुभ फल मिलता है । तारतम्य शुभ भावों में राहु-केतु की स्थिति के अनुसार फल में इस
प्रकार तारतम्य होता है - 1. दशम में स्थित राहु या केतु की दशा में में असंबंधी कारक की भुक्ति में योगजफल
सर्वाधिक होता है । 2. उससे कम योगज फल नवमस्थ राहु-केतु की दशा में असंबंधी कारक की भक्ति
ु में होता है । 3.
उससे कम योगज फल चतर्थ
ु स्थ राहु-केतु की दशा में असंबंधी कारक की भक्ति
ु में होता है । 4. और सबसे कम
योगज फल पं¬चमस्थ राहु-केतु की दशा में असंबंधी कारक की भुक्ति में होता है । 5. यदि नवमस्थ या दशमस्थ
राहु-केतु की दशा में संबंधित कारक की अंतर्दशा हो, तो योगज फल परम मानना चाहिए। संदर्भ: ‘‘इतरे षां
दशानाथविद्धफलदायिनाम ्। तत्तत्फलानुगुण्येन फलान्यह् ू यानिसूरिभिः।।’’ लघुपाराशरी श्लोक 31 ‘‘स्वदशायां
त्रिकोणेशभुक्तौ केन्द्रपतिः शुभम ्। दिशेत्सोऽपि तथा नो चेदसम्बन्धेन पापकृत ्।।’’ -लघुपाराशरी श्लोक 32 ‘‘पापाः
यदि दशानाथाः शभ
ु ानां तदसंयज
ु ाम ्। भक्
ु तयो पापफलदा..........।।’’ -लघप
ु ाराशरी श्लोक 37 ‘‘आरम्भो राजयोगस्य
भवेनमारकभुक्तिष।ु प्रथयन्ति तमारभ्य क्रमशः पापभुक्तयः।।’’ -लघुपाराशरी श्लोक 33 ‘‘आरम्भे राजयोगस्य
पापमारकभुक्तिषु। नान्नैव स भवेद्राजा तेजोहीनोल्पसौख्यभाक् ।।’’ सुश्लोक शतक दशाध्याय श्लोक 1 ‘‘संबंधी
राज्यदातुर्यः शुभस्यान्र्दशा भवेत ्। प्रारम्भे राजयोगस्य तेजः सौख्य यशोऽर्थदा।। असम्बन्धि शुभस्येह समा
चान्तर्दशा भवेत ्।।’’ -तत्रैव श्लोक 2-3 ‘‘तत्सम्बधिशुभानां च तथा पुनरसंयुजाम ्। शुभानां तु समत्त्वेन संयोगो
योगकारिणाम ्।।’’ -लघुपाराशरी श्लोक 34 ‘‘शुभस्यास्य प्रसक्तस्य दशायां योगकारकाः। स्वभक्तिषु प्रयच्छन्ति
कुत्रचिद्योगजं फलम ्।।’ -लघुपाराशरी श्लोक सं. 35

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