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NATIONAL SANSKRIT UNIVERSITY

TIRUPATI
राष्ट्रियसंस्कृतष्ट्िश्वष्ट्िद्यालय ष्ट्तरुपष्ट्तिः
ज्योतिषवास्ितु वभागश्च
Online Diploma Program in Jyotisha & Vastu
प्रश्नपत्रसंख्या (Paper No) = 3
इकाई (Unit) - 5

विषयः – ग्रहगोचरफलविमर्ःश ग्रहिास्तदोषाःउपचाराश्च
् य
अद्यतनीयं पञ्चाङ्गम (स ू ोदयकावलकम )्
स्थानम –् वतरुपवतः,भारतम ् 03/09/2022

् 1944
र्कसंित = ् 2079
विक्रमसंित =
अयनम =् दविणायनम ,् गोलः = उत्तरगोलः, ऋतःु = िषा श

पवू णमश ान्तमासः =भाद्रपद, अमान्तमासः = भाद्रपद,,


पिः =र्क्लु , वतव ः =सप्तमी, िासरः =र्वनिासरः,

् अनराधा
नित्रम = ु ्
, योगः= िैधवृ त , करणम =िवणज,
सयू ोदयकालः = 06-01am, सय ू ास्त
श कालः = 06-21 pm,

सय ू रश ावर्ः = वसंह , सय ् िू फ
ू नश ित्रम =प ु ,
श ाल्गनी
चन्द्ररावर्ः = िृवश्चक, चन्द्रनित्रम ् = अनराधा
ु ,
गोचर का स्वरूप और उसका आधार
आकार्स्थ ग्रह अपन े-अपन े मागश और अपनी-अपनी गवत से सदैि भ्रमण करते हुए एक रावर् से दूसरी
रावर् में प्रिेर् करते रहते हैं ।जन्म समय में ये ग्रह वजस रावर् में पाए जाते हैं िह रावर् उनकी जन्म
कालीन अिस्था कहलाती है जो वक जन्म कुण्डली का आधार है और जन्म समय के अनन्तर वकसी भी
समय िे अपनी गवत से वजस रावर् में भ्रमण करते हुए वदखाई देत े हैं िहां उस रावर् में उनकी वस्थवत
'गोचर' अ िा संचार वस्थवत कहलाती है । 'गो' र्ब्द संस्कृत भाषा की ‘गम' ् धात ु से बनता है और इसका
अ श है 'चलन े िाला' ।आकार् में करोड़ों तारे हैं । िे सब वस्थर प्रायः हैं । ताऱों से ग्रह़ों की पृ क्ता को

दर्ाशन े के वलए उनका नाम 'गो' अ ाशत चलन े िाला रखा गया । ‘चर' र्ब्द का अ श भी चाल अ िा चलन

है, तो 'गोचर' र्ब्द का अ श हुआ — ग्रह़ों का चलन, अ ाशत चलन एिं अवस्थर अिस्था में ग्रह का
पवरितशन प्रभाि ।
गोचर ग्रह़ों के प्रभाि उनकी रावर् पवरितशन के सा -सा बदलते रहते हैं । जातक पर चल रहे ितशमान
समय की र्भु ार्भु जानकारी-सरल और उपयोगी साधन है। िष श की जानकारी गरुु और र्वन से, मास की
सूय श से और प्रवतवदन की चन्द्रगोचर से की जा सकती है। िास्तविकता तो यह है वक गोचर का फल चाहे
ु ू ल ही कहना चावहए न
िह वकसी भी ग्रह से सम्बवित हो उस ग्रह की अन्य प्रत्येक ग्रह से वस्थवत के अनक
वक के िल उस ग्रह की चन्द्रमा की वस्थवत से । इस सन्दभश को िृहद ् जातक अध्याय ६ श्लोक १ में स्पष्ट वकया
ु -अमक
गया है वक चन्द्रमा से अमक ु भाि़ों में सूय श कब अच्छा फल करता है । अ िा अमक
ु -अमक
ु भाि़ों में
मंगल अच्छा फल करता है आवद-आवद । ग्रह़ों की चन्द्र से वकस भाि में वस्थवत है इस बात पर फल़ों का
वनणशय वकया गया है । ज्योवतषर्ास्त्र के वपता न े (बृहत्पारार्र होरार्ास्त्र अध्याय १२, श्लोक ११में) कहा है


“एिं चन्द्राच्च विज्ञेय ं फलं जातककोविदै:”अ ाशत ज्योवतष र्ास्त्र के पवण्डत़ों को लग्न की भांवत चन्द्र लग्न से
भी फलादेर् कहना चावहए।
गोचर में ग्रह़ों का विचार लग्न से वकया जािे अ िा जन्म रावर् से—
यह एक महत्त्वपूण श प्रश्न है। इस प्रश्न का उत्तर 'ज्योवतवन शबि'का वनम्नवलवखत श्लोक कुछ हद तक उपवस्थत
करता है : -
"वििाहे सिशमाङ्गल्ये यात्रादौ ग्रहगोचरे
जन्मरार्ेः प्रधानत्वं नाम रावर् न वचन्तयेत”

अ ाशत वििाह और अन्य मंगल कायों में यात्रा आवद में, और ग्रह़ों के 'गोचर' विचार में जन्म रावर् की
प्रधानता है न वक नाम रावर् की । प्रवसद्ध ज्योवतष ग्रन्थ 'फलदीवपका' में भी चन्द्र लग्न से अ ाशत जन्म ् रावर्
से गोचर विचार करन े का वनदेर् है :
ु ष्ववपसत्सहु ोतेचन्द्रलग्नं प्रधानं खलु गोचरेष ु ।“
"सिेषलग्ने
अ ाशत सब ् प्रकार की लग्ऩों (लग्न, सूय श लग्न, चन्द्र लग्न ) के भी गोचर विचार में प्रधानता चन्द्र लग्न ही की
है। िैस े भी चन्द्र लग्न की महानता ज्योवतषर्ास्त्र में कुछ कम नहीं । चन्द्र लग्न की महानता का कुछ
अन्दाजा आपको 'जातक पावरजात' के राजयोग अध्याय ७ के वनम्नवलवखत श्लोक १३ से भी हो जाएगा
नीचं गतो जन्मवन यो ग्रह स्थात्तद ् रावर् ना ोऽवप तदुच्च ना ः
सचन्द्र लग्नाद ् यवद के न्द्रिती राजा भिेद धावमशक चक्रिती।"
प्राक्पिे धिले ( बलि ? ) र्र्ी यवद र्भु ः पस ं ु ांवस पिः र्भु ः
कृ ष्णे चेदर्भु ास्तदा र्भु करो व्यत्यासतो वनष्फलः।
तारािीयशिच्छर्ी विधबले ु दृष्टो रिेः संक्रमः ।

र्स्ता भानबलाद ् भिवन्त खचरा दुष्टाः वस्थतः गोचरे ॥
(राजिल्लभिास्त,ु अ12,1)
ु पि के पहले वदन परुष
वकसी माह में र्क्ल ु का चंद्रमा र्भु हो तो पूरा र्भु कारी मानना चावहए। यवद
ु का चंद्रमा वनबशल हो, लेवकन तारा प्रर्स्त हो तो उस तारा के बल से िह भी
कृ ष्णपि के प्र म वदन परुष
र्भु कारी हो जाता है। इसके विपरीत हो तो वनष्फल मानें । यवद र्क्ल
ु पि के प्र म वदन चंद्रमा वनबशल हो,
लेवकन तारा बलिान हो या कृ ष्ण पि के पहले वदन चंद्रमा बलिान और तारा वनबशल हो तो िह पि
वनष्फल जाना मानें। इसी तरह वजस वदन सूय श की रावर् बदले उस वदन चंद्रमा बलिान हो तो श्रेष्ठ है।
मंगल इत्यावद दुष्ट ग्रह हैं , उनकी रावर् बदले उस समय सूय श बलिान हो तो श्रेष्ठ है ।
ग्रहाणां गोचरफलावन
सिे ग्रहा लाभगताः र्भु ाः स्यवु स्त्रषविर्ाकश स्य त ैि राहुः ।
र्वनवस्त्रषष्ठः र्भु कृ न्महीज: क्रूरा ग्रहा गोचरगा: स्वरार्ेः ॥ (राजिल्लभिास्त,ु अ12,2)
यवद सभी ग्रह ग्यारहिें या लाभ के स्थान के ह़ों तो र्भु मान े जाते हैं । तीसरे, छठे और दसिें स्थान के सूय श ि राहू र्भु मानें
। तीसरा ि छठा र्वन और मंगल र्भु होता है।क्रूर ग्रह अपनी रावर् से गोचरस्थ होकर र्भु कारी होते हैं ।
चन्द्रे षविदर्ाद्य्सप्तमर्भु : र्क्ल
ु े ऽङ्कपञ्चाविगो
ज्ञो यग्ु मेऽन्त्यवििवजशतः सरग ु माशस्तधीयग्ु मतः ।
ु रुधश
ु ोऽस्तावरवििवजशतश्च सकले चन्द्रः सदालोक्यते
र्क्र
होरा साद्धशघटीद्वयं वनजवदनात ष् ष्ठी च षष्टी भिेत ॥ ् (राजिल्लभिास्त,ु अ12,3)

छठा,तीसरा, दसिां प्र म ि सातिां चंद्रमा र्भु होता है। र्क्ल


ु पि का दूसरा,पांचिां ि नौिा चंद्रमा भी र्भु होता है।
बारहिीं रावर् के अवतवरक्त र्ेष सभी समांक रावर् में बधु होता है। निां, सातिां, पांचिां ि दूसरा बृहस्पवत र्भु , सातिीं ि
ु र्भु होता है, लेवकन चंद्रमा सभी कायों में देखना चावहए । होरा ढाई घडी की
छठी रावर् के अवतवरक्त अन्य रावर्य़ों में र्क्र
होती है। होरा को ज्ञात करन े के वलए खदु के िार से छठे िार की लेनी चावहए।
ग्रहगोचरविचारः
ग्रह़ों के गवतिर् से रवि, चन्द्रमा, मंगल, र्वन आवद ग्रह़ों का फल-

सूयो रसांत्य े खयगु ऽे वग्ननंद े वर्िाियोभौमर्नी तमश्च ।


रसांकयोलाभर्रे गणां ु त्य े चंद्ऱोंऽबराब्धौ गणनं
ु दयोश्च ॥ १॥

लाभाष्टमे चाद्यर्रे रसांत्य े नगद्वये ज्ञो वद्वर्रेऽवब्धरामे।


रसांकयोनाशगविधौ खनागे लाभव्यये देिगरुःर्राब्धौ ु ॥२॥

ु वर्िाहौ र्क्र
द्व्यन्त्ये निार्ेऽवद्रगणे ु ःकुनागे वद्वनगेऽवग्नरूपे।
िेदांबरे पंचवनधौ गजेषौ नंदर् ु वर्िाग्नौ ॥ ३ ॥
े योभाशनरसे

क्रमाच्छुभो विद्ध इवत ग्रहः स्यावत्पतःु सतस्यात्र


ु न िेधमाहुः ।
दुष्टोवप खेटो विपरीतिेधाच्छुभो वद्वकोणे र्भु दःवसतेब्जः ॥४॥
(महूु तशवचन्तामवणः-4 / 1,2,3,4)
स्वजन्मरार्ेः सूयोग्रहः रसान्त्ये(6,12) खयगु (े 10,4) अवग्ननन्दे(3,9)
वर्िाियोः(11,5),
भौमर्नीतमश्च रसांकयोः(6,9) लाभर्रे(11,5) गणान्त्ये ु (3,12),

चन्द्रः अम्बराब्धौ(10,4) (च) गणनन्दयोः (3,9) लाभाष्टमे(11,8) (च)
आद्यर्रे(1,5) रसान्त्ये(6,12) नगद्वये(7,2),
ज्ञः वद्वर्रे(2,5) अवब्धरामे(4,3) रसांकयोः(6,9) नागविधौ(8,1)
खनागे(10,8) लाभव्यये(11,12),
देिगरुःु र्राब्धौ(5,4) द्रव्यन्त्ये(2,12) निांर्(े 9,10) अवद्रगणे ु (7,3)
वर्िाहौ(11,8),
ु ः कुनागे(1,8) वद्वनगे(2,7) अवग्नरूपे(3,1) िेदाम्बरे(4,10) पञ्चवनधौ(5,9)
र्क्र
गजेषौ(8,5) नन्देर्य(9,11) भानरसे ु (12,6) वर्िाग्नौ(11,3)
एते क्रमात र् ् भु ः स्यात विद्धः
् स्यावदवत। अत्र वपतःु सतस्यु िेध ं न आहुः।
स्वजन्मरार्ेः दुष्ट अवप खेटो विपरीतिेधात र् ् भु स्यात, ् वसते र्क्ल
ु पिे अब्जश्चन्द्रः
वद्वकोणे तदा र्भु दः स्यावदवत।
् ष्य
सूय श छठे -बारहिें, दर्िें- चौ ,े तीसरे-निें, ग्यारहिें- पााँचिें स्थान में क्रम से र्भु और विद्ध होता है, अ ाशत मन ु की जन्म
रावर् से छठिीं रावर् में सूय श हो तो र्भु फल देन े िाला होता है। यवद १२िीं रावर् में र्वन को छोडकर कोई अन्य ग्रह वस्थत

हो तो सूयं विद्ध हो जाता है, अ ाशत छठिें ु को र्भु फल न देकर अर्भु फल देन े िाला हो जाता है।
स्थान का सूय श उस मनष्य
ऐसे ही १०िीं रावर् पर सूय श र्भु , यवद चौ ी रावर् पर र्वन के अवतवरक्त कोई ग्रह हो तो विद्ध हो जाता है। एिं तीसरे र्भु -
निमस्थ ग्रह से विद्ध, ११िें र्भु -पंचमस्थ ग्रह से विद्ध हो जाता है।मंगल, र्वन और राहु ये ३ ग्रह, छठी रावर् पर र्भु होते
हैं , यवद निीं रावर् पर कोई ग्रह हो तो विद्ध हो जाते हैं । यहााँ र्वन-सूय श का िेध नहीं होता है। एिं ११िें र्भु पंचमस्थ ग्रह से
विद्ध, तीसरे र्भु बारहिीं रावर् पर वस्थत ग्रह से विद्ध हो जाते हैं ।चन्द्रमा जन्म रावर् से १०िें र्भु चत ु स्थ
श ग्रह से विद्ध;
तीसरे र्भु -निमस्थ ग्रह से विद्ध;११िें र्भु -आठिें वस्थत ग्रह से विद्ध; जन्मरावर् का र्भु पााँचिे वस्थत से विद्ध; ६िें र्भु -
द्वादर्स्थ ग्रह से विद्ध; ७िें र्भु -वद्वतीयस्थ ग्रह से विद्ध हो जाता है (यहााँ चन्द्र-बधु का िेध नहीं होता है)।बधु दूसरे र्भु –५िें
से विद्ध, चौ े र्भु - ३ रे से विद्ध, ६ठे र्भु - ९मस्थग्रह से विद्ध; ८िेंर्भु -जन्मरावर् पर कोई ग्रह हो तो विद्ध, १०िें र्भु -आठिें
से विद्ध, ११िें र्भु -बारहिें वस्थत ग्रह से विद्ध हो जाता है (यहााँ भी चन्द्र-बधु का िेध नहीं होता है)।
विर्ेष
बेध-विचार में वपता-पत्रु का िेध नहीं होता है। ज ैसा वक पहले (सूय-श र्वन का चन्द्र-बधु का ) कहा
ु है । दुष्ट ग्रह भी विपरीत िेध से र्भु हो जाता है। सूय श ६िीं रावर् पर र्भु १२िीं रावर् से
जा चका

विद्ध होता है, वकन्त ु वजस वस्थवत में इससे उलटा हो अ ाशत १२िें स्थान में अर्भु होता है तो छठे
स्थान में कोई ग्रह हो तो १२िें का अर्भु फल न देकर र्भु दायक हो जाता है | इसी भााँवत ग्रह़ों के
जो र्भु और विद्ध स्थान बतलाये गये हैं , उनमें विद्ध स्थान पर ग्रह रहता है तो अर्भु फलदायक
होता है, परन्त ु उस विद्ध स्थान का जो र्भु स्थान है, यवद उसमें कोई ग्रह रहता है तो र्भु स्थानस्थ
् भु फल हो जाता है। र्क्ल
ग्रह के अर्भु त्व के विपरीत अ ाशत र् ु पि में चन्द्रमा की दूसरी, पााँचि एिं
निम रावर् पर र्भु होता है, यवद छठे , आठिें एिं चौ े स्थान में वस्थत वकसी ग्रह से विद्ध न हो ॥
ग्रहाणां र्भु स्थानावन िेधस्थानावन च
शभ
ु म् 6 10 3 11
रव ः
वेधम ् 12 4 9 5
शभ
ु म् 6 11 3
कुजः-र्वनः-राहुः
वेधम ् 9 5 12
शभ
ु म् 10 3 11 1 6 7
चन्द्रः
वेधम ् 4 9 8 5 12 2
शभ
ु म् 2 4 6 8 10 11
बध
ु ः
वेधम ् 5 3 9 1 8 12

शभ
ु म् 5 2 9 2 11
गर
ु ः
वेधम ् 4 12 10 3 8
शभ
ु म् 1 2 3 4 5 8 9 12 11
शुक्रः
वेधम ् 8 7 1 10 9 5 11 6 3
ग्रह़ों के गवतिर् से रवि, चन्द्रमा, मंगल, र्वन और राहु का फल-
जन्मरावर् से छटे स्थान में सूय श र्भु है परन्त ु उस समय में जब वक बारहिें स्थानमें
र्वनके विना कोई ग्रह न हो । जो बारहिें स्थानमें कोई ग्रह न हो तो सूय श र्भु है। उसी प्रकार
दर्म सूय श र्भु है यवद चौ े र्वनके विना कोई ग्रह न हो तो। तीसरे स्थानमें सूय श र्भु है यवद
निम स्थानमें र्वनके विना कोई दूसरा ग्रह न हो तो । ग्यारहिें स्थान में सूय श र्भु है यवद पांचिें
स्थानमें र्वनको छोड कोई ग्रह न हो तो। छठे स्थान में मंगल र्भु है यवद निम स्थान में कोई
ग्रह न हो तो, ग्यारहिां मंगल र्भु है यवद पांचिें स्थानमें कोई ग्रह न हो तो, तीसरे मंगल र्भु है
जो बारहिें स्थानमें कोई ग्रह न हो तो। छठे स्थानमें र्वन र्भु है यवद निम स्थानमें सूय श के विना
कोई ग्रह न हो तो। तीसरे में र्वन र्भु है जो बारहिें स्थानमें सूय श के विना कोई ग्रह न हो तो।
छठे में राहु र्भु है यवद निम स्थानमें कोई ग्रह न हो तो। ग्यारहिें में राहु र्भु पांचिें में कोई ग्रह
न हो तो। तीसरे में राहु र्भु है यवद बारहिें में कोई ग्रह न हो तो ।
जन्मका र्क्रु र्भु है, जो आठिें कोई ग्रह न हो तो । दूसरे र्क्र ु र्भु है, जो
सातिें कोई ग्रह न हो तो। तीसरे र्क्रु र्भु है जो जन्म का कोई ग्रह न हो तो। चौ े
ु र्भु है यवद दसिें कोई ग्रह न हो तो । पांचिें र्क्र
र्क्र ु र्भु है, जो निें कोई ग्रह न
हो तो। आठिें र्क्र ु र्भु है, जो पांचिें कोई ग्रह न हो तो। निें र्क्र
ु र्भु है, जो
ग्यारहिें कोई ग्रह न हो तो । बारहिें र्क्र ु र्भु है, जो छठ कोई ग्रह न हो तो।
ु र्भु है, जो तीसरे में कोई ग्रह न हो तो।
ग्यारहिें र्क्र
ु पि में चंद्रबल कहते हैं -
विपवरतिेध और र्क्ल
इस क्रमसे र्भु और विद्ध ग्रह होते हैं । वपता और पत्रु का िेध नहीं होता ।
ज ैसे सयू श और र्वनका चंद्रमा और बधका ु इत्यावद। विपरीत िेधसे पाप ग्रह भी र्भु
हो जाता है, ज ैसे बारहिें स्थानमें सयू श र्भु है जो छठे स्थान में र्वनके विना कोई

ग्रह न हो तो । जो र्क्लपिका चंद्रमा दूसरे निें पांचिें इन स्थाऩों में हो तो िह र्भु
फल देता है।
अत्र ग्रहाणां विवहतवनवषद्धस्थानफलावन

रवि:- स्थानं जन्मवन नार्येविनकर: कुयाशद ् वद्वतीये भयं,


दुवश्चक्ये वश्रयमातनोवत वहबकेु मानियं यच्छवत ।
दैन्य ं पञ्चगम: करोवत वरपहा ु षष्ठोऽ शहा सप्तमे,
पीडामष्टमगः करोवत परुषे ु कावन्तियं धमशगः ॥
कमशवसवद्धजनकस्त ु कमशगो वित्तलाभकृ द ायसंवस्थतः ।
द्रव्यनार्जवनतां महापदं यच्छवत व्ययगतो वदिाकर ।।
चन्द्रः- जन्मन्यन्नं वदर्वत वहमगविश ु त्तनार्ं वद्वतीये
दद्याद ् द्रव्यं सहजभिन े कुविरोगं चत ु े ।
काये नार्ं तनयगृहगो वित्तलाभं च षष्ठे
ु स्थोऽपमृत्यमु ।् ।
द्यून े द्रव्यं यिु वतसवहतं मृत्यसं
नृपभयं कुरुते निमः र्र्ी दर्मधामगतस्त ु महत्सख ु म ।्
विविधमायगतः कुरुते धनं व्ययगतस्त ु रुजं धनसङ्क्षयम ।् ।
भौमः-
प्र मगृहगतः िोणीसूनःु करोत्यवरजं भयं
िपयवत धनं वित्तस्थान े तृतीयगतोऽ शगः ।
अवरभयमत: पातालेऽ ाशविणोवत वह पञ्चमो
ु हगतः कुयाशवद्वत्तं रुजं मदनवस्थतः ।।
वरपगृ
जनयवत वनधनस्थ: र्त्रबु ाधां धराजो
वदर्वत निमसंस्थ: कायपीडामतीि ।
र्भु मवप दर्मस्थो लाभगो भवू रलाभं
व्ययभिनगतोऽसौ व्याध्यन ाश शनार्ान ।् ।
बधु ः-
ु प्र मगो भयं वदर्वत बिम े धन े
बधः

धनं वरपभयावितं सहजगश्चत ु ोऽ शगः ।
अवनिृवश त्तकरो भिेत्तनयगोऽवरग: स्थानदः
करोवत मदनवस्थतो बहुविधां र्रीरव्य ाम ।। ्
अष्टमे र्वर्सतेु धनिृवद्धं धमशगस्त ु महतीं तनपीडाम
ु ।्
कमशगः सखं ु अ ायगतोऽ श द्वादर्े भिवत वित्तविनार्ः ।।

गरुः- ु ं
भयं जन्मन्यायो जनयवत धनस्थोऽ शमतल

तृतीयेऽङ्गक्लेर्ं वदर्वत च चत ु ऽे शविलयम ।्

ु पत्रस्थान
सखं ु े रुजमवप च कुयाशदवरगृहे

ु न े पूजां धनवनचयनार्ं न वनधन े ।।


गरुद्यू

धमशगतो धनिृवद्धकर: स्यावद्वत्तहरो दर्मेऽमरपूज्यः ।


स्थानधनावन ददावत स चाये द्वादर्गस्तनमानसपीडाम ।् ।

र्क्र ु
ु :- जन्मन्यवरियकरो भृगजोऽ ु
शदोऽ े दुवश्चक्यग: सखकरो धनदश्चत ु शः ।

ु वद्धं र्ोकप्रदो मदनगो वनधन ेऽ शदाता ।।


स्यात्पत्रगस्तनयगोऽवरगतोऽवरिृ


जनयवत विविधाम्बरावण धमे न सखकरो दर्मवस्थस्त ु र्क्र
ु ः।

धनवनचयकर: स लाभसंस्थो व्ययभिन ेऽवप धनागमं करोवत ।।


र्वनः - वित्तभ्रंर् ं रुगावप्तं वदनकरतनये जन्मरावर्ं प्रपन्ने
वित्तक्लेर्ं वद्वतीये धनहरणकृ वतं वित्तलाभं तृतीये ।
पाताले र्त्रिु वृ द्धं सतभिनगतः
ु ु त्या शनार्ं
पत्रभृ
षष्ठे स्थान ेऽ शलाभं जनयवत मदन े दोषसङ्घातमावकक ः ॥
र्रीरपीडा वनधन े धमे धनियं कमशवण दौमशनस्यम ।्
उपान्त्यगो वित्तं अन शमन्त्ये र्वनदशदातीत्यिदङ्गवसष्ठः।।

राहु के तू - राहुजशन्मगतो भयं च कलहं सौभाग्यमानियं


ु नृपभयं चा शियं यच्छवत।
वित्तभ्रंर्महामखं
सन्ताप कलहं च वित्तमवधकं र्ीघ्रं विनार्ं नृणां
के तोस्तत्फलमेि रावर्ष ु िदेच्छस
श वन्त गगाशदय ।।
धन्यिादिः
THANK YOU
BALAKRAM SARSWAT
ASSISTANT PROFESSOR
DEPT. OF JYOTISHA & VASTU
NATIONAL SANSKRIT UNIVERSITY
TIRUPATI

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