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सल

ु गती टहनी
िनमर्ल वमार्

प्रयाग : 1976

मँहु अँधेरे सीटी सनु ाई देती है-घनी नींद में सरु ाख बनाती ह�ई-एक �ण पता नहीं चलता, मैं कहाँ ह�,ँ िकस जगह ह�,ँ कौन-
सा समय है? आँखें खल ु ती हैं, तो ढेस-सा अँधेरा गटगट पीने लगती हैं, जैसे मँहु क� पय् ास आँखें बझु ा रही हैं। याद
आता है मेरे नीचे मेरा स्लीिपगं बैग है, मेरी यात्राओ ं और यातनाओ ं को ढोता ह�आ। मैं जाग गया ह�-ँ लेिकन मेरी समचू ी
देह गरमाई के घेरे में सो रही है।

कुछ देर बाद आँखें अँधेरे में टोहती ह�ई एक-एक चीज पर ठहर जाती हैं-िकताब, ितपाई, लालटेन, फूस का अधखल ु ा
दरवाजा, हवा में सरसराती छत। बाहर एक फुसफुसाता ह�आ शोर है-रें गती ह�ई आवाजों का रे ला-जैसे हजारों पैर रे त को
थपथपाते ह�ए चल रहे हैं। मैं हड़बड़ाकर अपना स्लीिपगं बैग समेटता ह�।ँ हाथों में रे त, िमट्टी फूस के पत्तों को ठे लता
ह�आ दरवाजा खोलता ह�,ँ तो िठठका-सा रह जाता ह�।ँ

चाँद िदखाई देता है। पिू णर्मा का परू ा चाँद, इलाहाबाद के िकले पर ऊँघता ह�आ। िपछली रात उसे गंगा के भीतर देखा
था-एक सफे द भतु ैली परछाई, एक िझलिमला-सा सव् पन् -अब समचू ी रात क� यात्रा में थका ह�आ वह िकले के माथे पर
िचपका था, एक गोल, सफे द, मरु झाई िबंदी-िजसे िसफर् एक अँगल ु ी से पोंछा जा सकता था।

''आप जाग गए?''

सचच् े महाराज का चौक�दार मझु े देखकर कुछ हैरान-सा हो जाता है। दरअसल जब से मैं आया ह�,ँ वह मझु पर हैरान है।
वह उनन् ीस-बीस वषर् का यवु क, जो शायद बचपन में ही आश्रम में बस गया था। मैं जहाँ कहीं भी होता ह�,ँ वह अपनी
फै ली फटी-फटी आँखों से मझु े िनहारता है-मैं क्या ह�,ँ यह वह नहीं समझ पाता-न मैं तीथर्यात्री लगता ह�,ँ न कलप् वासी-
मैं उसे आधा िहपप् ी, आधा िजपस् ी-सा िदखाई देता ह�गँ ा-जो अपने पाप-पणु य् ों को एक डफल बैग में समेटकर कंु भ मेले
में भटकता है।

''आप भी संगम जाएँग?े ''

उसने सदं हे से मेरी ओर देखा।

''हाँ-इसीिलए आया ह�'ँ ', मैंने कहा। ''यह सीटी कौन बजा रहा है?''

''पुिलस'', उसने कहा। ''याित्रयों को रासत् ा िदखाना पड़ता है-बेचारे अँधेरे में भटक जाते हैं।''

दबी िठठुरती आवाजें, भजन क� कुछ पिं �याँ ठंडी रे त और भरू ी चाँदनी पर उठती हैं, िकसी बढ़ू े सन् ानाथ� का काँपता
सव् र हवा में बह�त दरू तक �र�रयाता रहता है। मैं पपं को ढूँढ़ता ह�आ आश्रम का चक्कर लगाता ह�।ँ लगता है सब सो रहे
हैं। हवा में खाली झोपड़ों के दरवाजे सरसराते हैं, खल ु ते हैं, बंद हो जाते हैं। सब कुिटयों से अलग सचच् े महाराज क�
य�शाला िदखाई देती है-पीले फूल के मंडप, एक छत पर दसू री छत-जैसे कोई जापानी पैगोडा चाँदनी में चमक रहा हो।
मैं, इस मेले में खाली होकर आया था। सब कुछ पीछे छोड़ आया था-तकर् बिु द्ध, �ान, कला, जीवन का एसथ् ेिटक
सौंदयर्। मैं अपना दख
ु और गसु स् ा और शमर् और पछतावा और लांछना-प्रेम और लगाव-और स्मिृ तयाँ भी छोड़ आया
था। मैं िबलकुल खाली होकर आया था-खाली और चपु -क् योंिक शबद् बह�त पहले िकसी काम के नहीं रहे थे। चपु और
अ�शय् । मैं अथाह भीड़ में अपने का अ�शय् पाना चाहता था।

कैं प के बाहर आया तो असंख्य छायाएँ िदखाई दीं। बीच सड़क पर रें गता ह�आ प्रेतों का जल ु ूस। एक साल बाद मैं िकसी
जल ु ूस में िनडर शािमल ह�आ था। यहाँ कोई डर नहीं, कोई अफवाह नहीं, कोई झठू नहीं। छायाओ ं से डर कै सा? प्रेतों के
बीच मैं एक प्रेत था। न मैं उनसे डरता था न वे मझु से। सबु ह का अँधेरा-िजसमें िकसी का चेहरा नहीं िदखाई देता था।
कहते हैं यह अँधेरा सबसे िनिवड़, सबसे गहरा, सबसे ज्यादा रहसय् मय होता है। डूबते चाँद क� एक पतली, पीली परत
झर रही थी-रे त के ढूहों पर, अखाड़ों क� पताकाओ ं पर, फूस के झोंपड़ों पर। पीछे बाँध क� बि�याँ, सामने झसू ी का
मैदान-दोनों के बीच देवता हवा में उड़ते ह�ए जैसे वह जगह, वह िबदं ,ु वह कोना ढूँढ़ रहे हों, जहाँ अमृत घट को िछपा
सकें । क्या वे अपने को असरु ों क� आँखों से बचा पाएँग?े

शायद यही ख़याल मेरे सहयाित्रयों को मथ रहा है-वे कभी इधर देखते हैं कभी उधर। सीधी सड़क गंगा क� ओर जाती है,
दाई ं पगडंडीनमु ा रे खा संगम क� ओर। उनके शबद् , गाते ह�ए भजनों के कुछ पद, उनक� थक� ह�ई आहें, उचछ्् वास,
िछटपटु बातें कानों में पड़ जाती हैं। लगता है अँधेरे में मैं उनका चेहरा-मोहरा, वेश-भूषा न भी देख सकँू तो भी िसफर्
शबद् ों के उचच् ारण, बातचीत के लहजे से पता चला सकता ह�ँ िक कौन मधय् प्रदेश से आया है, कौन िबहार से, कौन
राजसथ् ान से। िकंतु ऐसे भी शबद् हैं िजनह् ें मैं िबलकुल नहीं समझ पाता, जो अँधेरे से िनकलकर अँधेरे में लोप हो जाते
हैं-अपने पीछे खामोशी का एक दायरा छोड़ जाते हैं। मेरा संबंध इस खामोशी से रहा है-चेहरों के पीछे किवता क� लाइनों
के बीच, अपने भीतर और अब-कंु भ के मैदान में।

अब मैं देख सकता ह�-ँ अचानक उजाले में! पवू र् में एक छोटा-सा लाल िपडं , एक सख ु र् आँख-सा िडसक् । उसे देखकर मैं
उसी तरह चौंक जाता ह�ँ जैसे पहली बार बाइिबल में यह वाक्य पढ़कर रोमांिचत हो उठा था-लेट देयर िब लाइट एणड्
देयर वॉज लाइट। मैंने कभी ऐसा आलोक नहीं देखा-और तब मझु े सहसा महससू ह�आ िक यह आज का दैिनक उजाला
नहीं, कोई प्रागैितहािसक आलोक है, जब दिु नया पहली बार अँधेरे से बाहर आई थी। मेले का मैदान एक घोंसले-सा धपू
में औधं ा पड़ा है-दरू गंगा को छूता ह�आ। पीली सफे द बालू का द्वीप, िजसे गंगा एक कैं ची क� तरह काटकर आगे बढ़
गयी है-जैसे जमनु ा क� मथं र गित से ऊबकर सव् यं बेचैनी में आगे बढ़कर छोटी बिहन से िमल रही है।

मेरे सहयाित्रयों को अब चैन कहाँ? िगरते-पड़ते भाग रहे हैं-एक बंगाली लड़क� अपनी बढ़ू ी माँ के साथ िघसटती ह�ई,
दोनों हाथों से उसे घसीटती ह�ई चल रही है-बगल में एक पोटली, हाथ में लोटा, आँखें सरू ज और संगम के बीच उठी
ह�ई।ं बढ़ू ी माँ क� धोती बार-बार घटु नों तक उठ आती है, काली सींक-सी टाँगें थरथराती ह�ई आगे बढ़ती हैं-रे त पर धैंसते
पैर ऊपर उठते हैं, नीचे िगरते हैं।

मैं वहीं बैठ जाना चाहता था, भीगी काली रे त पर, असख ं य् पदिच�ों के बीच अपनी भागय् रे खा को बाँधता ह�आ। पर यह
असभं व था। मेरे आगे-पीछे अतं हीन याित्रयों क� कतार थी-शतािब्दयों से चलती ह�ई, थक�, उदभ्र् ातं , मिलन-िफर भी
सतत प्रवहमान। पता नहीं वे कहाँ जा रहे हैं, िकस िदशा में, िकस िदशा को खोज रहे हैं, एक शती से दसू री शती क�
सीिढयाँ
़ चढ़ते ह�ए? कहाँ है वह कंु भ-घटक िजसे देवताओ ं ने यहीं कहीं बालू के भीतर दबाकर रखा था? न जाने कै सा
सव् ाद होगा उस सत्य का-अमृत क� कुछ तलछटी बँदू ों का, िजसक� तलाश में यह लंबी यातनाभरी, धल ू -धूसा�रत यात्रा
श�
ु ह�ई है-हजारों वष� क� लांग माचर्, तीथर् अिभयान, सख
ू े कंठ क� अपार तृषण् ा-िजसे इितहासकार 'भारतीय संसक
् ृ ित'
कहते हैं?

मझु े नहीं मालूम। मैं सोचता नहीं-िसफर् िघसटता जाता ह�,ँ धक्के खाता, िगरता-पड़ता, एक-एक इचं आगे सरकता ह�आ।
गंगा मेरे साथ बह रही है, मिटयाली, पीली, अपनी तेज धार से खदु अपने टापू को काटती ह�ई। उसके सामने जमनु ा
िकतनी शांत िदखाई देती है-एक नीली झील क� तरह िनसप् ंद, मक ू , गंभीर-जैसे उसे मालमू हो िक अब उसक� यात्रा का
अतं आ पह�चँ ा है-अब कोई भी छटपटाहट बेमानी है-अब गगं ा क� गोद में अपनी समचू ी थकान को डूबी देना है।

नहान पवर् क� घड़ी-मोमबतत् ी-सा जलता सरू ज, जनवरी क� सफे द धंधु पर िपघलता ह�आ। अनेक प्राथर्नाओ ं से जड़ु ा
शोर-जो शोर नहीं है, न आवाज है, न कोलाहल-िसफर् मनषु य् का अपनी आत्मा से एकालाप, िजसे िसफर् बहता पानी
सनु सकता है। यह पानी इस आवाजों को अपनी धड़कन में िपरोता ह�आ िकस िवराट मौन सागर में लय हो जाएगा, कोई
नहीं जानता। दोनों धाराओ ं के बीच एक-एक काली रे खा िदखाई देती है। मैं समझता ह�ँ यह कोई दीवार है, संगम के बीच
िहलती, धल ु ती, बदलती लाइन। लोग आते हैं, लाइन में डुबक� लगाते हैं और िफर अपनी जगह दसू रों को दे देते हैं-और
वह नर-सेतु जय् ों-का-तय् ों कायम रहता है। हर �ण बदलता ह�आ, िकंतु अपनी संपणू तर् ा में िस्थर और गितहीन।

अब एक भी कदम उठाना असंभव है। यहाँ भीड़ इतनी घनी है िक सत्र् ी-प� ु ष गंगा क� मिटयाली धार में ही नहाने लगे
हैं-संगम से दो गज इधर या उधर, क्या फकर् पड़ता है। पिु लस के िसपाही लाइन बनाकर खड़े हैं-तटसथ् , शांत,
धय् ानाविस्थत। मैंने भारतीय पिु लस को इतना शांत कम ही देखा है, इसिलए उत्सक ु ता से उनक� आँखों का अनक ु रण
करता ह�ँ और पाता ह�ँ िक समचू ी बटेिलयन अटेंशन क� मद्रु ा में नहाती ह�ई औरतों को देख रही है-रात-भर के जगे
िसपािहयों को सबु ह का यह �शय् ज�र एक सव् पन् -सा जान पड़ता होगा।

तभी एक धक्का लगता है। एक पचच् ीस-तीस वषर् का यवु क भीड़ को चीरता ह�आ पिु लस-इसं प् ेक्टर के पास आ खड़ा
ह�आ है, िगड़िगड़ाते स्वर में कुछ कह रहा है। ह�आ पिु लस-इसं प् ेक्टर के पास आ खड़ा ह�आ है, िगड़िगड़ाते सव् र में कुछ
कह रहा है।

''यहाँ साइिकल पर?'' इसं प् ेक्टर साहब आशच् यर् से यवु क को देखते हैं। ''आपको मालमू नहीं, यहाँ कोई भी वाहन नहीं
आ सकता।''

''जी, मेरी बात तो सिु नए।''

उसक� बात सनु ी तो पता चला िक उसके असस् ी बरस के बाबा सैकड़ों मील क� दरू ी से प्रयाग तो चले आए हैं, िकंतु
अपनी झोंपड़ी से संगम पैदल चलकर नहीं आ सकते। क्या वह उनह् ें साइिकल पर िबठाकर नहीं ला सकता?

इसं प् ेक्टर थोड़ा नमर् पड़ते हैं। ''अच्छा, ले आइए-लेिकन देिखए-उनह् ें आपको अलग नहलाना होगा, साइिकल समेत
नहीं।'' दस िमनट बाद उनह् ें दबु ारा देखता ह�-ँ वह एक परु ानी, जजर्�रत साइिकल को घसीटता आ रहा है, पिहये बार-बार
गीली रे त में रपट जाते हैं-वह घबराकर इधर-उधर देखता जाता है िक कोई दसू रा िसपाही उसे न रोक ले। िकंतु पीछे
कै �रयर पर बैठा यात्री िबलकुल अटल और िनि�त है-आँखें मँदु ी ह�ई, मँहु खल ु ा ह�आ, ठुड्डी पर थक ू क� लार बह रही
है, नीचे लटकते पैर रे त पर रगड़ते जा रहे हैं, िजसका उनह् ें कोई धय् ान नहीं। परू ी एक िज़ ंदगी साइिकल पर िघसट रही है।
उनह् ोंने अपना िसर सीट पर रखी मैली पोटली पर िटका रखा है। साइिकल क� चरमराहट में पता नहीं चलता िक ढीले
कल-परु जों क� आवाज िकतनी है, बढ़ू ी हड्िडयों क� खटखटाहट िकतनी। हर टूटी ह�ई साँस उनह् ें अपनी यात्रा के अतं क�
ओर ठे लती जा रही है।

कै सा अतं ? क्या कोई ऐसी जगह है िजसे हम अतं कहकर छुट्टी पा सकें ? िजस जगह एक नदी दसू री में समिपर्त हो जाए
और दसू री अिवरल �प से बहती रहे, वहाँ अतं कै सा? िहदं -ू मानस में कोई ऐसा िबंदु नहीं िजस पर अँगल ु ी रखकर हम
कह सकें , यह श� ु है, यह अतं है। यहाँ कोई आिखरी पड़ाव, 'जजमेंट डे' नहीं, जो समय को इितहास के खंडों में बाँटता
है। नहीं, अतं नहीं है और मरता कोई नहीं, सब समािहत हो जाते हैं, घल ु जाते हैं, िमल जाते हैं।िजस मानस में वय् ि� क�
अलग सतत् ा नहीं, वहाँ अके ली मृतय् ु का डर कै सा? मझु े रामकृ षण् परमहसं क� बात याद हो आती है, ''निदयाँ बहती
हैं, क्योंिक उनके जनक पहाड़ अटल रहेते हैं।'' शायद इसीिलए इस संस्कृित ने अपने तीथर्सथ् ान पहाड़ों और निदयों में
खोज िनकाले थे-शाशव् त अटल और शाशव् त प्रवाहमान-मैं एक के साथ खड़ा ह�,ँ दसू रे के साथ बहता ह�।ँ

वे जा रहे हैं-गगं ा-तट सनू ा पड़ता जा रहा है। िवधवाएँ, मरणासनन् बढ़ू े, वह बगं ाली लड़क� िजसे सबु ह के अँधेरे में देखा
था। वे लौट रहे हैं। सबके हाथों में गीली धोितयाँ, तौिलए हैं, गग�रयों और लोटों में गंगाजल भरा है। मैं इनह् ें िफर कभी
नहीं देखँगू ा। कुछ िदनों में वे सब िहदं सु त् ान के सदु रू कोनों में खो जाएँगे। लेिकन एक िदन हम िफर िमलेंग-े मृतय् ु क� घड़ी
में आज का गंगाजल-उसक� कुछ बँदू -ें उनके चेहरों पर िछड़क� जाएँगी। आँख खल ु ेगी। संभव है आज क� सबु ह बरसों
बाद स्मिृ त पर अटक जाए-फूस के छपप् र, इलाहाबाद का िकला, मेले पर उड़ती धल ू -क् या याद आएगा? एक बँदू में
िकतनी सम् िृ तयाँ गले के भीतर ढरती जाएँगी। अगं रू का रस िजस तरह फम�ट होकर शराब बन जाता है उसी तरह आज
का यह पानी अरसे बाद अमृत बनेगा-हजारों सम् िृ तयों क� धपू में पका ह�आ, लेिकन अभी नहीं, अभी यह मैला पानी है
िजसमें नाइपाल जैसे लेखक के वल मैल और गदं गी देखते हैं। जो आदमी बाहर से देखता है वह िसफर् ऊपरी सतह देख
पाता है, लेिकन ऊपर क� सतह नीचे के ममर् से जड़ु ी है-हम यिद कैं ची से िकसी अधं िवशव् ास को काटेंगे तो उसके साथ
सचच् े िवशव् ास का ममर् भी उघड़ आएगा। िकसी भी संस्कृित क� धल ू उसक� आतम् ा से जड़ु ी होती है-एक को हटाते ही
खदु उसके ममर् का एक िहसस् ा बाहर िनकल आाता है... खनू और मांस के िलथड़ा ह�आ-ड्राइक् लीनर क� उस चेतावनी
क� तरह िजसमें कहा जाता है िक कुछ धबब् े नहीं धोए जा सकते, क्योंिक उनह् ें धोने से कपड़ा भी फट जाएगा। हम
पायँचे उठाकर िकसी ससं क ् ृ ित के क�चड़ से क्यों न बच िनकलें, दभु ार्गय् वश उसके सत्य से भी अछूते रह जाएँगे।

पर मैं कहाँ अलग ह�।ँ घटं ों से हजारों याित्रयों को गाता, नहाता, प्राथर्ना करता देख रहा ह�-ँ िकंतु मेरे भीतर कोई िबलकुल
िनसस् ंग और चपु है। मैं उनमें नहीं ह�ँ जो क�चड़ से भागते हैं, तो उनमें भी नहीं ह�ँ जो आसपास उसे देखते नहीं, उसमें
रसे-बसे हैं। यह कौन-सी वजर्ना है जो हर बार मझु े अिं तम मौके पर पकड़ लेती है, अपने अके लेपन क� ओर खींचने
लगती है? मेरा �रशत् ा अपनी संस्कृित से व़ैसा ही है जैसा िकसी वय् ि� का यातनापणू र् प्रेम में दसू रे से होता है-चाहना
और िनराशा से भरा ह�आ-िनराशा जो धीरे -धीरे एक उदासीन, सनु न् िकसम् क� िवतृषण् ा में बदल जाती है। इससे
छुटकारा पाने के िलए ही मैं यहाँ चला आया ह�-ँ जैसे दसू रों को देखने से ही अपने को पा जाऊँगा, एक दशर्क,
संवाददाता, कंु भ के मैदान में भटकता ह�आ एक �रपोटर्र।

''कहाँ से आए हैं बाबा?''

''घूमता रहता ह�।ँ यहाँ मरने आया ह�।ँ ''

वह िनसप् ंद आँखों से गंगा को देख रहे हैं। बार-बार उनक� देह खाँसी के दौरे में छटपटाती है।
''क् या बह�त कषट् है बाबा?''

''कष्ट झेलना चािहए... मेरा कै सा कषट् ?'' वह मेरी ओर देखते हैं-आँखों पर मैला-सा पानी ितर आता है। ''वह कहानी
नहीं सनु ी-जब एक महातम् ा के फोड़ा िनकल आया। रात भर ददर् में कराहते रहे। दसू रे िदन अपने िशषय् को िभ�ा के िलए
भेजा। बेचारा भोला लड़का शहर में आया तो एक यवु ती िदखाई दी। वह पहले से ही उसक� प्रती�ा में खड़ी थी।
मसु क् ु राते ह�ए उसे िभ�ा दी। िशषय् स्तंिभत था। भागता ह�आ जंगल आया-अपने ग� ु से बोला-महातम् ाजी, आपके
शरीर में एक फोड़ा िनकला और आप रात भर ददर् से चीखते रहे। आपसे �ानवान तो वह लड़क� है, िजसक� छाती पर
मैंने दो फोड़े देखे-िफर भी वह मसु क ् ु रा रही थी।''

डंडी महातम् ा हँस रहे हैं-खल


ु ा मँहु एक खोह क� तरह खल ु ा है, िजसके भीतर से एक वीभतस् -सी गों-गों बाहर आती है।
वह हँसते ह�ए खाँस रहे हैं, खाँसते ह�ए रे त पर लोट रहे हैं-उनका नगं ा शरीर एक काले मांस के लोथ क� तरह ऐठं रहा है-
भगन् , टूटा, अिस्थिपजं र, िजसे िकसी भी �ण मृतय् ु अपनी चोंच में दबाकर उड़ सकती है।

मैं आतंिकत-सा होकर चारों तरफ देखता ह�।ँ मृतय् ?ु मैंने उसे पास से देखा है, दपु हर क� िततीरी धपू में-रे त पर हाँफते ह�ए;
िकतने लोग यहाँ आिखरी �ण में साँस तोड़ने आते हैं। आकाश में उड़ती ह�ई चीलें उनह् ें िनहारती हैं-एक मांसल झपट्टे में
सब कुछ ले जाने को आतरु -प्रेम, चाहना, रात के चबंु न, एक आका� ं ा-अपनी सजीव, िवराट, मांसल तृषण् ा में प्रेम और
मृतय् ु िकतने पास-पास सरक आते हैं।

मेले क� पताकाओ ं से दरू -पुल के पार, छोटे-छोटे आलों-सी झोंपिड़याँ खड़ी हैं। यहाँ कोई जलद् ी नहीं, कोई हड़बड़ाहट
नहीं। ये कल्पवािसयों और तीथर्याित्रयों के झोंपड़े हैं-परू ी गृहसथ् ी में लदे ह�ए। बाँसों पर गीले कपड़े हवा में फरफराते हैं। ये
लोग महीना भर संगम के पास अपनी दिु नया बसाने आए हैं-मकर संक्रांित, अमावसय् ा क� अँधेरी रात, रात और िदन
यहीं सोएँगे। जागेंगे। नहीं, इनह् ें मेरी तरह कोई जल्दी नहीं-जो एक िकनारे से दसू रे िकनारे भागता है। वे उन लुटे-िपटे
लोगों में नहीं हैं जो एक साल क� जमा-पँजू ी संगम क� एक डुबक� में बहाकर घर लौट आते हैं। ये �ानी, अनभु वी,
गृहसथ् लोग हैं- मेरे अनेक िमत्रों क� तरह-जो दोनों दिु नयाओ ं में एक साथ रहते हैं-अपना सख ु इस दिु नया में प्रसाद क�
तरह लाते हैं-गगं ा उसका एक अश ं लेकर बाक� उनह् ें लौटा देती है, िजसे वे दबु ारा अपनी-अपनी पोटली में दबाकर लौट
जाएँग-े कलकतत् ा और िदलल ् ी और लखनऊ के घरों में। मैं उनसे ईषर्य् ा करता ह�,ँ िकंतु उनके पास नहीं जाता। मैं कोई भी
ह�,ँ उनमें नहीं ह�.ँ ..

मैं मड़ु जाता ह�।ँ झँसू ी और गगं ाद्वीप के बीच पटं ू न पल


ु ों पर धल
ू उड़ रही है। दपु हर क� इस घड़ी में सब कुछ वीरान दीखता
है-अखाड़ों के प्रवेश-द्वार खाली पड़े हैं। दरवाजों के ऊपर रंग-िबरंगे फे सट् ू न चमकते हैं-उदासी, िनरंजनी, वैरागी-वे एक
िवराट प्रदशर्नी क� दक ु ानें-सी िदखाई देती हैं-जैसे जनपथ पर कोई सरकारी नमु ाइश चल रही हो। मैं प्रयाग में िदलल् ी
ढूँढ़ने नहीं आया-जहाँ कहीं अखाड़े िदखाई देते हैं, मझु े राजनीित का द:ु सव् पन् घेर लेता है। एक ससत् ा, वय् ावसाियक
सव् पन् , िजसे नारों में बेचा जाता है, धमिकयों से खरीदा जाता है। मैं िजससे बचने यहाँ आया ह�ँ उस फंदे में दबु ारा फँ सना
नहीं चाहता। मैं अपने साथ द:ु सव् पन् ों क� एक परू ी गठरी उठाकर लाया ह�-ँ रात के पसीने में लथपथ डर, आशक ं ाएँ,
महतव् ाका� ं ाएँ। मैं कोई ऐसी जगह ढूँढ रहा ह�ँ जहाँ सबक� आँख बचाकर इस पोटली को रख सकँू ... िछपा सकँू , मक ु ्त
हो सकँू ।
कै सी मिु �? पीछे कोई हँसता है और मेरे पैर अनायास िठठक जाते हैं।एक अजीब-सी कड़वी गंध हवा में उड़ रही है।
सामने एक िशिवर िदखाई देता है-राख और धएु ँ में िलपटा ह�आ। जलती ह�ई लकिड़यों पर धँधु ली छायाएँ बैठी हैं-राख में
िलपटी ह�ई, कृ शकाय, उन तखत् ों क� तरह सखत् और सख ू ी जो धएु ँ के भीतर सल
ु ग रहे हैं।

िशिवर के भीतर-छपप् र के नीचे क�तर्न क� एक मंडली है। चालीस-पचास लोग, जो अभी-अभी नहाकर आए हैं, थक�,
क्लांत धनु में गा रहे हैं। सामने िसंहासन पर एक भवय् स्थल ू काय सव् ामी बैठे हैं-साफ चमकते जोिगया चोगे में िलपटे
ह�ए। वह एक पद गाते हैं-उनके पीछे मडं ली का समवेत सव् र दहु राता है-औरतों क� महीन आवाज सबसे ऊपर है-एक
उदास, संतपत् सव् र जो मझु े आरपार भेद जाता है। कौन हैं ये लोग, यह सव् ामी, बाहर बैठे, धनू ी रमाए नंगे साध?ु एक
संदु र यवु ा संनय् ासी पास से गजु रते हैं तो मैं उनह् ें रोक लेता ह�,ँ एक साँस में जब िज�ासाएँ उँड़ेल देता ह�।ँ वह एक �ण
नीरव आँखों से मझु े देखते हैं और िफर मेरा हाथ पकड़कर िसंहासन के सामने ले जाते हैं, सव् ामीजी के कानों में कुछ
फुसफुसाते हैं और तब सहसा सव् ामीजी गाना बंद कर देते हैं। मेरे गालों को सहलाते हैं। फूलों के बीच एक अम�द-मैला,
ज�रत से ज्यादा पका अम�द उठाकर मझु े दे देते हैं।

मैं बाहर आ जाता ह�।ँ क�तर्न िफर श�ु हो गया है-वही थक�, क्लांत, बझु ी-बझु ी आवाज एक पद से दसू रे पद बह रही
है। अजीब-सी िनराशा िघर आती है-थकान और जलन और मरने क� अदमय् आकां�ा। दरू रे त पर गंगा क� सफे द धारा
चमकती है। दपु हर क� गमर्, िकरिकरी उचछ् ् वास ढूहों पर उठती है और मैं सोता-सा बाहर आ जाता ह�-ँ बाहर, जहाँ वे हैं-
चौकड़ी लगाए भसम् ावृत िपजं र-नगं ,े हड्िडयों के ठूँठ, चमकती सख ु र् आँखें। चरस और गाँजे क� तीखी गधं साँप क� तरह
डोलती है-उठती है-फूतक ् ारती ह�ई मेरी देह को भेद जाती है, 'बैठो, इनह् ीं के साथ बैठ जाओ। भलू जाओ, तुम मनषु य्
हो, िदलल ् ी से आए हो, कहािनयाँ गढ़ते हो, यरु ोप घमू े हो-बैठ जाओ, इस धएु ँ में देह और आत्मा अलग-अलग नहीं
हैं-दोनों के बीच कोई परदा नहीं, कोई दीवार नहीं-एक दसू रे क� प्रितचछ् ाया हैं।'

देह क� आत्मा वही है जो आत्मा क� देह है-एक लपट में घल ु ती ह�ई, हवा में अपनी घमु ड़ती पीड़ा क� गाँठें खोलती
ह�ई, िजसके भीतर एक गठु ली है, एक सव् पन् , एक आलोकवृतत् -जन्म के चमतक ् ार से मृतय् ु के रहसय् तक फै ला ह�आ-
बैठो, भल
ू जाओ, तुम िनरे मनषु य् हो-तुम एक पतत् ा हो, एक टहनी, जानवर क� िस्नगध् आँख, एक पतथ् र, घास का
एक ितनका-जब तुम मनषु य् नहीं तब तुम सब कुछ हो, ईशव् र के पास हो, सव् यं ईशव् र हो...

कै सी मिु �? कोई हँसता है और मैं चौंक जाता ह�-ँ दो चमकती आँखें मेरी आँखों पर िचपक� हैं-एक बौने साधु मेरी ओर
हँसते ह�ए घरू ते हैं और पलक मारते ही उलट जाते हैं-टाँगें ऊपर हवा में मड़ु ी ह�ई,ं पीठ को छूती ह�ई,ं िसर कहीं पीछे बाँहों
क� गंजु ल में िछपा ह�आ, आग क� लपट में जाँघों के पट्ठु े चमक रहे हैं-जैसे समचू ा शरीर एक मांसिपंड में गँथु गया है।
मड़ु ी ह�ई देह के अँधेरे से दो आँखें चमक रही हैं, मसु क
् ु रा रही हैं, 'मैं गभर् ह�।ँ मैं अपने गभर् में माँ ह�।ँ मैं अपनी माँ के गभर्
में लेटा ह�।ँ '

यह आवाज मेरे साथ चलती है और मझु े हलका छोड़ देती है। एक ऐसा �ण आता है जब हम अपने भीतर मरकर दबु ारा
जनम् ले लेते हैं। हम सव् यं अपने िमथक बन जाते हैं-िजसमें अतीत भी है और भिवषय् भी-बफर् के उन फूलों क� तरह
िजनह् ें मैंने प्राग में वष� पहले देखा था, जो झरते ह�ए भी चारों तरफ बीती ह�ई गिमर्यों क� गम� बफर् पर िबखेर देते हैं।

मैं हलका हो गया ह�।ँ मेरे हाथ में सड़ा ह�आ अम�द है। मैं पल
ु पर चल रहा ह�।ँ
कुिटया के पीले अँधेरे में एक सव् र सनु ाई देता है-मैं उठकर बैठ जाता ह�।ँ हवा और धपू में नहाते ह�ए सव् चछ
् , उचछ् ल
शबद् भीतर आते हैं।

िसत िसते स�रते यत्र संगते

तत्रापल
् ुतासो िदवय् तु ्पतिन्त

मैं बाहर आता ह�ँ तो घासफूस के पगोडा-तले एक ह्षट् -पुषट् , तेजसव् ी चेहरा िदखाई देता है। शायद ही ऋगव् ेद क�
ऋचाओ ं का इतना मधरु , ओजसव् ी पाठ मैंने पहले कभी सनु ा हो। पाठ समापत् होने पर मेरा प�रचय वैिदक दामोदर
शासत्र् ी जोगलेकर से कराया जाता है। वह कनार्टक से प्रयाग आए हैं। सचच् े महाराज ने उनह् ें िवशेष �प से कंु भ पवर् पर
ऋगव् ेद का पाठ करने के िलए आमंित्रत िकया है। बातों ही बातों में पता चलता है िक उनके िपता, िपतामह भी वैिदक
थे। वेद-पाठ करके ही जीवन-िनवार्ह करते थे। वह सव् यं बचपन से वेदों का अध्ययन करते आए हैं-अब यह उनका पेशा
ही नहीं 'पैशन' बन चक ु ा है।

शाम होते ही य�शाला में चहल-पहल होने लगती है। कंु भ के यात्री घड़ी-दो-घड़ी धमर्वातार् के िलए यहाँ �कते हैं, सचच् े
महाराज के दशर्न करते हैं और िफर सगं म क� तर फ बढ़ जाते हैं। चाय के समय मझु े भी बल ु ाया जाता है। पता चला
सचच् े महाराज उस वय् ि� से िमलना चाहते हैं जो िदलल ् ी से आया है। मैं सव् यं उनसे िमलने के िलए उत्सक ु ह�।ँ मैंने
उनह् ें कभी नहीं देखा-िसफर् उनके िशषय् ों से पता चला था िक उनका आश्रम जमनु ा पार अरै ल में है। देश के सदु रू कोनों
से उनके भक्त आते हैं। गरीब, अनाथ िवद्यािथर्यों क� प्रचरु सहायता करते हैं। मेरे िमत्र ल�म् ीकांत वमार् पर उनक� िवशेष
कृ पा है-यिद उनक� िसफ़ा�रश न होती तो कंु भ मेले के बीचोबीच रहने का सौभागय् कभी प्रापत् न होता।

अब सोचता ह�ँ तो उनका सपं नन् सौमय् चेहरा और िविचत्र-सी हँसी याद आती है। वह एक ऊँचे तखत् पर बैठे थे। हम
कोई दस-पंद्रह लोग होंगे। कोई औपचा�रक प्रवचन नहीं, न कोई भाषण या उपदेश-शायद इसीिलए सब उनसे सहज भाव
से बातचीत कर रहे थे। कुछ देर बाद उनह् ोंने मझु े देखा-दो चार उड़ते-उड़ते प्रशन् पछ
ू े -कहाँ-कहाँ घमू आया? िकतने िदन
रह�गँ ा? कोई कषट् तो नहीं है? मैं सब उत्तर देता गया, िकंतु अिं तम प्रशन् पर अटक गया। 'कष्ट' से उनका क्या मतलब
है? कंु भ मेले में रहने क� कोई असिु वधा या िज़ ंदगी में पड़ी कोई तकलीफ? इचछ् ा होती है उनसे कुछ पछ ू ू ँ -कोई प्रशन् ,
भीतर क� कोई िज�ासा। पर अिं तम मौके पर सब प्रशन् िनरथर्क से जान पड़े-िजस �ण कोई प्रशन् उठता है, उसका उतत् र
उसके साथ जड़ु ा रहता है-दसू रा कुछ भी कहे, हम िसफर् अपने उतत् र का ही पीछा करते हैं-चाहे वह िकतना ही गलत या
खतरनाक क्यों न हो।

नहीं, मैं उनसे कुछ भी नहीं पछ ू ता। िसफर् उनक� हँसी देखता रहता ह�।ँ वह हँसते ह�ए कुछ बोलते जाते हैं। मेले का
कोलाहल बीच-बीच में बाहर से भीतर चला आता है-वह ठहर जाते हैं, शोर को गजु र जाने देते हैं, िफर दबु ारा वहीं से
श�ु कर देते हैं जहाँ से आधी बात को अधरू ा छोड़ िदया जाता था। कभी-कभी लगता है उनके शबद् िकसी िनि�त,
बने-बनाए अथर् क� तरफ नहीं जाते, िकंतु िफर भी मैं मंत्रमगु ध् -सा उनके शबद् ों को सनु रहा ह�,ँ उनह् ें उनके मँहु से बाहर
िनकलता ह�आ देख रहा ह�,ँ जैसे कोई बचच् ा साबनु के बल ु बलु े उड़ाता है-संदु र, साबतु , चमक�ले-िफर हठात् एक छोटी-
सी हँसी में वह उनह् ें तोड़ देता है, िबखरा देता है, उड़ा देता है। लेिकन कभी-कभी उनका कोई एक वाक्य शबद् ों क�
अराजकता में कौंध जाता है, अथर् का एक परू ा पैटनर् िदखाई दे जाता है; हमारे बाहर एक प्रवाह है, वह कह रहे हैं,
मनषु य् जब भटकता ह�आ इस प्रवाह से एकातम् हो जाता है तो उसे ईशव् र क� प्राि� होती है। दरअसल ईशव् र कुछ नहीं,
िसफर् एक प्रवाह है, जो हमारे बाहर बह रहा है...

सहसा वह हँसने लगते हैं-बनता ह�आ तकर् िबखर जाता है, िकंतु उनके शबद् बह�त देर तक मेरे भीतर खटकते रहते हैं।

बाहर सचमचु एक प्रवाह है। दपु हर को खल ु ी धपू में एक उमड़ता ह�आ जव् ार। िनरंजनी साधओु ं का जलु सू िनकल रहा है।
नीले आकाश-तले धव् जाएँ फहराती हैं-बैंड और नगाड़े और हाथी पर बैठे ऊँघते-अलसाए मठाधीश, जो परी-कथा के
राजा िदखाई देते हैं, िजनह् ें हम बचपन में िसफर् बादलों पर देखते थे, हाथी पर डोलते ह�ए, सथ् ल
ू काय, मसत् मौला,
सव् पन् देश के अधेड़ और थल ु थल
ु सम्राट।

हािथयों के पीछे एक सनन् ाटा है, िजसमें नगं ,े िनरंजनी साधु चपु चाप चल रहे हैं-एक लंबी कतार में रें गती ह�ई भसम् ावृत,
कृ शकाय, गदर् और धलू में िलपटी छायाएँ। पता नहीं क्यों उनह् ें देखकर मैले क� गहमागहमी नहीं, जंगल-पहाड़ों का
वीरान अके लापन याद हो आता है...

अचानक एक घोड़ा िबदक जाता है-जल ु सू के बीच एक कंपन-सी दौड़ जाती है। वह एक तरफ भागता है, िफर दसू री
तरफ-पहले �ण मैंने सोचा था घोड़े क� यह उछल-कूद प्रदशर्न का ही एक िहसस् ा है, िकंतु घड़ु सवार िजस गसु स् े और
आक्रोश में घोड़े को पीट रहा है, खींच रहा है, घोड़े क� आँखें िजस काले आतंक में फट रही हैं, मँहु से झाग बह रहा है-
उससे पता चलता है िक वह तमाशा नहीं, धपू में एक हताश जानवर क� थरथराती देह है। िकंतु अगले �ण घोड़ा गायब
हो जाता है-साधओ ु ं क� एक नई कतार आती है; उनके पीछे बैंड मासट् र हवा में बेंत िहलाता ह�आ, िफर हािथयों का
अगला झडंु , वे अपनी सँडू से एक-दसू रे के पाँवों को छूतें हैं, चाटते हैं-घड़ु सवार क� 'आिदम' क्रूरता के बाद हािथयों का
यह 'पाशिवक' सन् ेह कुछ अजीब-सा जान पड़ता है...

दपु हर के ये �ण मेरे िलए एक जादू िलए होते हैं... जल


ु ूस के पीछे उड़ती धल
ू में मैं सबसे िछपता, आँख बचाता ह�आ
चलता है। यह चमकदार घड़ी है जब अँधेरे कोनों में चमत्कार िछपे रहत हैं। सबु ह के सन् ान क� हड़बड़ अब नहीं है-धमर्
और पणु य् कमानें का उत्साह मंद पड़ गया है। झोंपड़ों के बीच रिस्सयों पर गीले कपड़े हवा में फरफराते हैं। बह�त दरू
चीलें हैं, जो इलाहाबाद के शहर से उड़ती ह�ई मेले के आकाश पर मॅडराती हैं... 'वॉच टावर' पर िसपाही ऊँघते हैं.....
यह मेले क� 'िस्टल लाइफ' घड़ी है.. मौन, िनसत् बध् , ठहरी ह�ई।

लेिकन ख़ास इस घड़ी में जादू िछपा रहात है.... जलती रे त और धूप से बचता ह�आ में अखाड़ों के भीतर चला जाता ह�-ँ
ये कंु भ मेले के अस्थायी आश्रम हैं, चारो तरफ छोटी-छोटी आरामदेह कुिटयों के भीतर एक ठंडी छाँह िबछी रहती है।
उनह् ें देखकर यरू ोप क� मधय् कालीन मॉनेसट् री क� कोठ�रयाँ याद आती हैं, िजनमें िभ�कु अपना समचू ा जीवन िबता देते
थे। ये कुिटयों भी खाली नहीं हैं-जल
ु ूस खतम् होते ही थके -माँदे साधु इनमें अपने-अपने कोने छाँट लेते हैं। मैं कभी-कभी
झाँककर देखता ह�-ँ तो कोई अधलेटा, कोई बैठा, कोई सोता ह�आ शरीर िदखाई दे जाता है।

पीछे क� तरफ एक छोटे-से तंबू में रसोई सलु ग रही है। यहाँ िहपप् ी िदखाई देते हैं-खल
ु ी धपू में पसरे ह�ए-िसरहाने के पास
एक िगटार, कुछ िकताबें? स्लीिपगं बैग। लेिकन भक्तों क� असली भीड़ अखाड़े के अिं तम िसरे पर है, जहाँ एक लंबा
तखत् द�रयों ओर तिकयों से अटा पड़ा है-ऊपर चौक� पर वही मठाधीश बैठे हैं िजन्हें जल ु ूस के आगे-आगे हाथी पर
देखा था। िसहं ासन के नीचे नगं ी सड़क पर िनधर्न, फटेहाल, लटु े-िपटे आदिमयों क� लंबी पाँत बैठी है-भख ू ी उ�पत्
आँखों से ऊपर िसंहासन को िनहारती हई। एक �ण समझ में नहीं आया वे कौन हैं, कहाँ से आए हैं? वे इस अखाड़े के
साधु नहीं थे-िकंतु िभखारी भी नहीं जान पड़ते थे-एक िकसम् के धािमर्क प्रोिलता�रयत-िजनह् ोंने अपनी दिु नया छोड़ दी
थी, िकंतु िजनह् ें अभी तक िकसी मठ या संप्रदाय क� दिु नया में सथ् ान नहीं िमला था।

उन िदनों सनू ी दपु हरों में अखाड़ोंके चक्कर लगाता ह�आ मैं अक्सर 'त्याग' के बारे में सोचा करता था-िजसे कृ षण् ने
बार-बार दहु राया है। जीसस क्राइसट् के ये शबद् अक्सर िझंझोड़ जाते थे : 'सब कुछ छोड़कर मेरे पीछे चले आओ-ं एक
ऊँट सईु के छे द से बाहर िनकल सकता है, िकंतु एक धनी प� ु ष सव् गर् नहीं जा सकता, िकंतु साधओु ,ं महतों, मठाधीशों
क� भीड़ में मझु े लगता था िक वे एक दिु नया के बधं न काटकर दसू री दिु नया के जजं ाल में इतना फँ स गए हैं िक ईशव् र
का वहाँ कहीं पता नहीं चलता था। फॉसट् र ने एक बार कुछ लेखकों के बारे में कहा था िक वे आधी आँख से रॉयलट् ी
को देखते हैं, आधी आँख से यश-खय् ाित को, आधी आँख अखबारी आलोचना पर िटक� रहती है-शेष चौथाई आँख से
सािहतय् रचते हैं।

कुछ लोग ईशव् र के िलए िसफर् 'चौथाई आँख' इसत् ेमाल नहीं करते क्या?

एक बार मैंने अपनी यह िज�ासा एक उदासी बाबा के सामने रखी थी। उनका उ�र बह�त कुछ कै थोिलक चचर् के
अनयु ािययों से िमलता-जल ु ता था। ''यिद मठ नहीं रहेंगे तो ईशव् र और सांसा�रक लोगों के बीच कौन कायर्कलाप करे गा?
हम एक तहर से िमडलमैन हैं-लौिकक और पारलौिकक के बीच,'' यह कहकर उनह् ोंने अखाड़े क� सीमा पर बैठे नंगे
साधओ ु ं क� ओर देखा, जो लकड़ी जलाकर बैठे थे। ''इन्होंने सब कुछ छोड़ िदया है।'' उनह् ोंने कुछ उदास सव् र में कहा,
''ये हमारी तरह नहीं हैं-इसीिलए इनके खाने-पीने क� वय् वसथ् ा हम करते है।''

पता नहीं उनक� बात में िकतना सत्य था, िकंतु उनके मन में उन साधओ
ु ं के प्रित हलक�-सी ईषर्य् ा ज�र थी जो सब
छोड़कर अँधेरी, ठंडी रात में नगं े िठठुर रहे थे।

एक दसू री दपु हरी याद आती है।

मेले में घमू ता ह�आ अनजाने में ही मैं पणड् ाल में चला आता ह�।ँ भीतर तो चला गया, पर आगे जाने का साहस नहीं
ह�आ। चारों तरफ साध-ु महनत् ों क� टोिलयाँ घमू रही थीं। सौभागय् वश मझु े िकसी ने नहीं देखा। धीरे -धीरे मैं एक भव्य
रंगीन ईट,ं सीमेंनट् क� इमारत के सामने चला आया। चार सीिढयाँ ़ ऊपर चढ़कर देखा-एक बड़ा हॉल-ऊपर मचं पर गद्दी
के सहारे जोिगयाधारी प्रधान बैठे थे-ऊँचा कद, बह�त रौबीला, तेजवान वय् ि�तव् , िसर मँड़ु ा ह�आ। नीचे द�रयों पर दस-
बारह साधु बैठै थे-दो शाखाओ ं में बैंटे ह�ए-एक टोली, महाराज के दाई ओर, दसू री बाई ओर, मैंने सोचा कोई प्रवचन
चल रहा है। इसिलए पीछे क� पिं � में मैं बैठ गया।

मझु े अपनी गलती पता चलते देर नहीं लगी। प्रवचन-उपदेश क� जगह पर अजीब अदभतू मंत्रणा चल रही थी। सब लोग
बहस में इतने तलल ् ीन थे िक िकसी को मेरी ओर देखने क� फुसर्त नहीं थी। हवा में करकराती अ�ेजना थी। प्रस्ताव रखे
जाते, िववाद होता, संशोधन पेश होते और ठुकरा िदए जाते, जहाँ तक समझ पाया स्वामीजी का मठ िकसी दसू रे मठ को
मानय् ता देने से इनकार कर रहा था - प्रितद्वद्वं ी मठ के प्रितिनिध उनह् ें मनाने क� कोिशश कर रहे थे। सव् ामीजी कुछ ऊँचा
सनु ते थे। जब दसु रे दल का कोई डेलीगेट उनसे प्रशन् पछ ू ता था तो एक िशषय् सट् ेनोग्राफर जलद् ी-जलद् ी सल ् ेट पर
खिड़या के प्रशन् िलख लेता था। सव् ामीजी सल ् ेट पर एक िनगाह डालते और अपनी िजद्दी, उद्धत भंिगमा में गरजती,
गँजू ती आवाज में उ�र देते। यह चक्र बह�त देर तक चलता रहा-प्रशन् पछ ू ा जाता, स्लेट िदखाई जाती और सव् ामीजी
गरजते लगते। एक �ण भ्रम ह�आ, मैं िकसी साध-ु आश्रम में नहीं, िदलल ् ी के िकसी िडपल ् ोमेिटक मंडल में बैठा ह�-ँ मैं
भलू गया, बाहर गंगा का रे तीला तट है, यात्री भजन गाने ह�ए संगम क� ओर जा रहे हैं, मैं प्रयाग में कंु भ मेले के बीच
बैठा ह�.ँ ..

पता नहीं अिं तम िनणर्य क्या ह�आ-जब मैं बाहर आया भींतर बहस तब भी चल रही थी।

मैं भी कोई िनणर्य नहीं ले पाता। हजारों अनभु वों में कौन-सा अिधक सही और प्रामािणक है, इसके िलए कोई तराजू नहीं
ढूँढ पाया है। क्या उस रात का अनभु व भल ू पाऊँगा जब मैं रासत् ा था। मख
ु य् रासत् े से भटककर मैं एक ऐसे रहसय् मय
जगत में पह�चँ गया था िजसे 'कुं भ का अडं रवलर्ड् ' कहा जा सकता है-ठंडी रात, नीचे लेटी ह�ई पोटिलयाँ, िजनक� साँसों
से ही पता चल पाता था िक वे ढूह नहीं देह हैं-जीिवत तीथर्यात्री, जो दो कैं पों के बीच बसेरा कर लेते थे। कभी-कभी
सोई ह�ई छायाओ ं के बीच �रक्शा िदखाई देता-यात्री जलद् ी-जलद् ी अपना सामान उतारते-बचच् ,े औरतें, आदमी, परू ा
प�रवार-अपने-अपने कंधों पर गठ�रयाँ सँभाले भागते जाते ओर देखते-अँधेरे में गायब हो जाते। लगता जैसे भवय् , िवराट,
ससु िज्जत अखाड़ों के पीछे गिलयाँ हैं : अँधेरे कोने, जहाँ सैकड़ों प�रवार रात-भर िठठुरते ह�ए अगली सबु ह क� प्रित�ा में
बैठे रहते हैं-न कोई उनह् ें देखता है, न उनह् ें आँकड़़ों कें शािमल िकया जात है। यहाँ न कोई लैंपपोसट् थे, न आग क�
लपटें-यह िवशव् ास करना असंभव था िक मैं िकसी रे िगसत् ान में नहीं, कंु भ मेले के बीच ह�,ँ जहाँ िसटी बजाने ही से
पिु लस दौड़ी आएगी-पता नहीं, वह कै सा उजाड़ भतु ैला कोन था, जहाँ मैंने तंबू क� तरफ लौटते का सीधा-सादा खो िदया
था।

कुछ आवाजें सनु ीं तो िठठक गया। पाँच-छह तंबओु ं का एक कैं प था, जहाँ आगे क� तरफ दो बाँस खड़े थे, िजन पर
लाल कपड़े का फे सट् ू न बँधा ह�आ था-उस पर िकसी मठ का नाम िलखा होगा, िजसे अँधेरे में पढ़ पाना असंभव था।
लालटेनों के मिद्धम काँपले आलोक में कुछ चेहरे िदखाई िदए, तो अनमु ान लगाया िक िसख साधओ ु ं के िकसी पड़ाव में
चला आया ह�।ँ मैं बाहर िनकलने के िलए रासत् ा टटोल रहा था िक अचानक िकसी ने धीरे -से-मेरे कंधे पर हाथ रख
िदया।

''गु�जी, से िमलने आए है।''

अँधेरे में चेहरा िदखाई नहीं िदया, िकंतु स्वर में सहज मधरु ता थी। 'कहाँ है?" मैंने तिनक िज�ासा से पछ
ू ा।

वह मझु े तंबओ ु ं के बीच टेढ़े-मेंढ़े रासत् े से ले जाने लगे। एक बार इचछ् ा ह�ई पीछे मड़ु कर भाग जाऊॅ-ं अँधेरे में पता भी
नहीं चलेगा। लेिकन मेरे गाइड के कदमों में इतना िवशव् ास था िक वह मझु े भी छू गया। आिखर वह एक िशवालानमु ा
तंबमू ें सामने खड़े हो गए- भीतर लालटेन जल रही थी सनु हरे तखत् पोश पर एक बढ़ू े-बह�त बढ़ु े सरदार साहब बैठे थे।
लंबी सफे द दाढ़ी, झ�ु रर् यों से भरपरु चेहरा, आँखे अधमँदु ी। वह िकसी �रयासत के जमींदार और कहीं बह�त पह�तँ े ह�ए संत-
दोनों ही एक साथ िदखाई देते थे।

वह बातें कर रहे थे - या शायद यह कहना ज्यादा सही होगा िक वह सनु रहे थे- दो हट्टे-कट्टे जवान िशषय् आपस में
बातचीत कर रहे थे और ग� ु महाराज आँखे मँदू े चपु चाप िसर िहलाते जा रहे थे। बातें कुछ अजीब थीं और ग�
ु जी क�
चपु प् ी उससे भी ज्यादा अजीब।

मझु े कुछ ऐसा लगा िक बढ़ु े सरदार साहब को हल ही में उस संघ का प्रधान बनाया गया था। बहस इसी 'चुनाव' को
लेकर चल रही थी।
"आप बरु े फँ स गए।" पहले िशषय् ने ग�
ु जी को सनु ाते ह�ए कहा। "आपसे यह कामधाम नहीं सँभालेगा। जरा अपनी उम्र
भी तो देिखए।"

"नहीं, नहीं... क्या कहते हो," ... दसू रे जवान ने तड़ाक से उ�र िदया। "बूढ़े हैं तो क्या, इनमें बड़ी शि� है। हमने खबू
सोच-समझकर इनह् ें चनु ा है।"

ग�
ु महाराज तटसथ् मद्रु ा में िसर िहलाते रहे।

"शि� खाक है..." पहले ने कहा। "िमट्टी के माधों हैं, ऐ चोट पड़ी नहीं िक वहीं ढेर हो जाएँगे।"

"कौन है चोट मारनेवाला?" दसू रे ने कुछ खीजकर कहा। "हमारे महाराज ऊपर से भोले दीखते हैं-भीतर से बम के गोले
हैं। सारी माया देखे हैं-कोई हाथ तो लगाए भला!"

सरदार साहब खामोश - जैसे उनह् ें अपने िशषय् ों के झगड़े से कोई सरोकार नहीं, मानो वे दोनों उसक� नहीं िकसी
अजनबी, िकसी अ�शय् प्राणी क� चचार् कर रहे हों।

बाहर हवा के झोंके से तंबू िहलने लगा। उड़ती ह�ई रे ल का रे ला भीतर चला आया। उनका धय् ान भटक गया, आँखे खल ु
गई, जैसे िकसी अ�ात झटके से वह दबु ारा इस धरती पर लौट आए हों। िनगाहें मझु पर पड़ीं तो कुछ चौंक-से गए - जैसे
अभी तक उनह् ें मेरी उपिस्थित का �ान न हो। िफर सँभाल गए। एक महीन-सी वय् था चेहरे पर िसमट आई। असंखय्
झ�ु रर् यों के बीच रासत् ा बनाती ह�ई एक लंबी साँस ली-जैसे अब आ गया ह�ँ तो मझु े बाहर नहीं धके ला जा सकता।

"कहाँ से आ रहे हो?" उनह् ोंने बह�त धीमें सव् र में पछ


ू ा-शायद दोनों िशषय् ों से बचकर वह मझु से बात करना चाहते थे।

मैंने अपना और अपने शहर का नाम बताया। न जाने कै से उस अजाने तंबू के नीचे उन बढ़ू े सरदार साहब को देखकर मेरा
िदल क्यों भीग गया। मैं उनसे कहना चाहता था िक उनके दशर्न से मझु े िकतनी अिधक शांित िमली है-एक ऐसा सकून
जो शायद के वल उन लोगों को िमल पाता है िजनके माँ-बाप पहले गजु र चक ु े हों - लेिकन उनक� िनिवर्कार चपु प् ी,
उनक� िवरल, सख ू ी-सी तटसथ् ता के सामने चपु रहना ही बेहतर जान पड़ा।

"क् या मझु े पहले कभी देख है?" उनह् ोंने अचानक पछ


ू ा।

"नहीं सरदार साहब," मैंने कहा।

"मुझे सरदार साहब मत कहो," उनह् ोंने कहा। वह बह�त देर तक मेरी आँखों में, आँखों में, आँखों के भीतर कुछ टोहते
रहे।

"नहीं देखा-तो यहाँ कै से चले आए?"

"मैं सैर के िलए गगं ा क� तरफ गया था। वािपस लौटते ह�ए रासत् े से भटक गया... आपके िशषय् मझु े यहाँ ले आए," मैंने
कहा।
"ओह!"

उनक� घनी सफे द दाढ़ी िहली-आँखे मझु पर िटक� रहीं। िफर पीछे हाथ रखकर चौक� से उठ खड़े ह�ए... सहसा वह मझु े
बह�त लंबे िदखाई िदए। या शायद तंबू क� छत बावजदू नीची थी िक उनका कद मझु े िवराटकाय-सा जान पड़ा। इतनी
लंबी उम्र के बावजदू वह एक सीधी कमान खड़े थे-और तब वह मझु े सहसा टॉलसट् ॉय से जान पड़े, जैसा सागर के तट
पर गोक� क� आँखों ने उनह् ें देखा था।

"मैं अभी आता ह�,ँ " उनह् ोंने अपने िशषय् ों से कहा, जो हम दोनों से बेख़बर अभी तग अपने िववाद में उलझे थे।

बाहर आए, तो तेज हवा का झोंका हड्िडयों को बरफा गया। समचू ा आकाश तारों से भरा था। वह तेज कदमों से चल रहे
थे-अँधेरे में लंब-े लंबे डग भरते ह�ए। पता नहीं, उनह् ोंने कौन-सा रासत् ा पकड़ा िक कुछ ही देर में हम तंबओ
ु ,ं गिलयों
और रे त के ढूहों से िनकलकर खाली सड़क पर चले आए। वह एक लैपपोसट् के नीचे खड़े हो गए। मेरे कंधे पर हाथ
रखा।

"कभी मझु े पहले देखा है?"

इस बार िवसम् य से मैंने उनह् ें देखा। उनके सव् र में अजीब-सा आग्रह था। हवा में उड़ती लंबी, सफे द दाढ़ी-लेिकन आँखें
उदास और िवरक्त-जैसे मृतय् ु से पहले ही उनह् ोंने अपना चोला उतार िदया हो, अपनी देह को एक िछलके क� तरह
अलग कर िदया हो...

"अके ले चले जाओगे-या तुमह् ारे साथ आऊँ?"

"नहीं, नहीं... " मैंने हड़बड़ाहट में कहा। "आप तकलीफ न करें -मझु े अब रासत् ा मालमू है।"

वह मड़ु गए-मैं उनह् ें धनय् वाद दे सकँू , इससे पहले ही, वह तंबओ
ू ं के बीच अँधेरे में खो गए।

मैं देर तक बीच सड़क पर खड़ा रहा। पीछे संगम, सामने बाँध क� रोशिनयाँ, बीच में कंु भ के हजारों सोते तीथर्यात्री। अपने
कैं प क� तरफ चलते ह�ए एक अजीब-सा िवचार आया-शायद मैंने उनह् ें कभी देखा है, तभी वह बार-बार पछ ू रहे थे।
लेिकन कहाँ? शायद मेरी धँधु ली सम् िृ त में वह कहीं जीिवत थे, जबिक सव् यं मझु े इसका कोई �ान नहीं। तभी उनह् ें
देखते ही मझु े सहसा इतनी शांित िमली थी जैसे इतने िदनों से मैं उनसे िमलने क� ही बाट जोह रहा था।

मैंने सोचा था यह घटना िकसी से नहीं कह�गँ ा। िकंतु जब श्रीिनवास िमले तो मैंने उनह् ें सब कुछ बता िदया-यों भी िनरे
अजनिबयों से अपने मन क� बात कहना ज्यादा सहज होता है। मेरे िलए स्वयं श्रीिनवास से िमलना एक अदभतु सयं ोग
था।

वह मेले में मेरा अिं तम िदन था। मैं अखाड़ों, जल


ु ूसों क� भीड़ से छुटकारा पाने के िलए गंगा-द्वीप पर चला आया था।
शाम के समय लोग अक्सर भजन, क�तर्न, कथा, वातार्ओ ं में चले जाते थे-गंगा का तट सनू ा पड़ जाता था। िसफर् कहीं
कोई साध,ु कोई िसपाही, कोई कलप् वासी िदखाई दे जाता था। मिं दर क� घिं टयों का सव् र, जलती लकिड़यों का धआ ु ँ,
जनवरी क� धंधु , सब एक में उलझकर अके लेपन का अलग टापू बन देते थे-गंगा के द्वीप क� अतं छार्या-जैसा एक बाहर,
दसू रा भीतर। दोनों को जोड़नेवाले पल
ु कहीं अँधेरे में िछपे रहते।

"आपके पास िसगरे ट है?"

मैं हलके -से चौंक गया। एक वय् ि� मेरी बगल में बैठा था। पहले सोचा कोई िभखारी है, जो शाम के समय, पिु लस क�
आँख बचाकर, अके ले याित्रयों से कुछ-न-कुछ झाड़ लेते हैं। लेिकन िसगरे ट देते ह�ए उनका चेहरा पास से िदखाई िदया।
गलती पता चलते देर न लगी। वह कोट-पतलनू पहने थे। गले में ऊनी मफलर था। मधय् वग�य प�रवार के कोई अधेड़
सजज् न जान पड़ते थे।

"आदमी बड़ी चीजें छोड़ देता है। लेिकन छोटी-मोटी आदतें िचपक� रहती है," वह िसगरे ट सल
ु गाकर हँसने लगे।
"देिखए-तीन िदन से हाथ नहीं लगाया। अब आपको िसगरे ट पीता देखकर अपने को नहीं रोक सका।"

"यहीं प्रयाग में रहते हैं?" मैंने पछू ा।

"नहीं। कोटा से आया ह�।ँ इस मेले का बह�त िदनों से इतं जार था।"

"इतं जार कै सा?"

"बस वैसे ही। बह�त-बह�त वष� से घर छोड़ते का िवचार आता था, लेिकन िहमम् त नहीं वटोर पाता था। कुछ िदन पहले
एकाएक फै सला कर िलया : कंु भ नहाने जाऊँगा और वािपस घर नहीं लौटूँगा।"

मैं िवचिलत-सा हो गया। डूबती रोशनी, रे त, गंगा-क्या आदमी दिु नया में रहकर दिु नया को छोड़ सकता है?

"घर में बताकर आए हैं, िक आप नहीं लौटेंग?े " मैंने पछ


ू ा।

"नहीं..." वह धीरे -से मसु क


् ु राए, "वे सब यही समझे हैं िक मैं कंु भ नहाने के बाद लौट आऊँगा.... कुछ िदन मेरा इतं जार
करें ग,े िफर आदी हो जाएँगे।"

कुछ देर तक हम दोनों चपु बैठे रहे। गगं ा क� बहती आवाज में सब कुछ बहता जान पड़ा। ख़याल आया इस मेले में रोज
हजारों तीथर्यात्री िदखाई देते हैं, िकंतु हर व्यि� का अप�ा और इितहास है-न जाने, वे यहाँ कौन-सी पीड़ा छोड़ने आए
हैं, िकस शाप और अिभशाप से मिु � पाने क� छटपटाहट उनके भीतर िछपी है-यह हममें से कोई नहीं जान पाएगा...
िसफर् संगम ही एक िखड़क� है, िजसके पीछे हम सब 'कनफे स' करते हैं-दो निदयाँ उस रहसय् को अपने पलल ् ों में हमेशा
के िलए बंद करके आगे बह जाती हैं और हम खाली और मक ु ् त और हलके होकर लौट आते हैं।

िकंतु ऐसे भी लोग हैं जो कंु भ यात्रा में आिखर तक अमृत क� खोज में चलते रहेंग-े वे कभी घर नहीं लौटेंगे।

"आप क्या करते हैं?" उनह् ोंने मझु से पछ


ू ा। मैं एक �ण िहचिकचाया-आज भी अपने को 'लेखक' कहने से घबराता ह�,ँ
हमेशा अपने को '�रपोटर्र' कहना चाहता ह�,ँ अपने को वही समझता भी ह�।ँ
"क् या �रपोटर् करें ग?े " उनह् ोंने मसु क
् ु राते ह�ए पछ
ू ा।

मैं उनह् ें सरदार साहब के बारे में बताता ह�,ँ िजनह् ें अचानक आधी रात के समय मैं िमला था। ''क् या ऐसा संभव है िक
कोई अजनबी आदमी आपको जानता है और आप उससे पहली बार िमल रहे हों?" मैंने पछ ू ा।

श्रीिनवास (उनका यही नाम था) एक �ण सोचते रहें, िफर धीरे से बोले, ''सभं व है बह�त पहले कभी आपको देखा हो। मैं
खदु कभी-कभी सोचता ह�ँ िक बरसों बाद संनय् ासी के वेश में क्या मेरी पतन् ी या पत्रु मझु े पहचान पाएँग?े "

"क् या अपने सचमचु सनं य् ास लेने का फै सला कर िलया?" मैंने कहा। ''लेिकन घर छोड़ने का फै सला ज�र ले िलया है।
मैं गए िसरे से िजदं गी श�
ु करना चाहता ह�।ँ ''

मैं उनक� ओर देखता ह�-ँ जैसे उनके शबद् ों क� मट्टु ी में भींचकर िवशव् ास करना चाहता ह�ँ िक कोई ऐसा �ण है िजसके परे
आदमी नए िसरे से जी सकता है, अपनी परु ानी िजदं गी, सम् िृ तयों, गलितयों और पछतावों को गगं ा के िकनारे रे त में
दबाकर कहीं भी जा सकता है, कहीं से भी दबु ारा श� ु हो सकता है। लेिकन िफर? िफर कोई कोई गारंटी है िक वह वही
गलितयाँ, अपराध और पाप नहीं करे गा जो उसे यहाँ आज घसीट ले आए हैं? क्या मनषु य् एक िजंदगी में 'रफ' और
'फे यर' मसौदे रख सकता है?

डूबते सरू ज क� पीली छाँह रे त पर िगर रही थी। हजारो पैरों के िनशान बझु ती धपू में चमक रहे थे। पहली बार मझु े उस
लैंडसक् े प का बोध ह�आ जहाँ मैं और श्रीिनवास खड़े थे। वह एक अदभतु पिवत्रता का एहसास था। अरै ल के िकनारे एक
बादल जमनु ा-पार उठा था। सरू ज रँ गा एक पदार्, िजसे झोंपड़ों से उड़ता ह�आ धआ ु ँ पोंछ रहा था। नीचे गंगा के िकनारे एक
रि�म, सख ु र्, सैलाब-सा उमड़ आया था-रे त पर िखचं ी खनू क� लक�र जो सयू ार्स्त के फटे रंगों से बाहर वह िनकली थी।
शायद वैिदक आय� ने ऐसी ही शाम उसे देखकर समझा होगा-एक ऐसी नदी, जो हवा, शाम क� छाया और धपू के
मायावी रंगों से िमलकर बनी है-सरसव् ती, गगं ा और यमनु ा का एक सामिू हक सव् पन् -िजसे िकसी �ण उनह् ोंने एकसाथ
देखा होगा...

सोचता ह�ँ कंु भ का मह�व क्या इसी सव् पन् , इस कल्पनाशील बोध, पिवत्रता के इस दैवी एहसास में ही तो िनिहत नहीं
हैं?

कुछ देर बाद अँधेरा हो गया। श्रीिनवास ने िवदा माँगी-वह अरै ल क� िकसी झोपड़ी में रहते थे। ''जीता रहा तो अगले कंु भ
में िमलेंग,े '' उनह् ोंने कहा।

"यहाँ से कहाँ जाएँग?े " मैंने पछ


ू ा।

"अभी कुछ भी नहीं सोचा है। इतना बड़ा िहदं सु त् ान है, कहीं-न-कहीं शरण िमल जाएगी।" उनके स्वर में एक अजीब-सी
उदासी उभर आई, जैसे शाम क� इस बेला में उनह् ें अचानक अपना घर याद आ गया हो।

उनके जाने के बाद मैं देर तक भटकता रहा। बार-बार टी.एस. एिलयट क� एक पिं � िदमाग में घमू रही थी-क्या कृ षण्
का यही मतलब था?
मैं अँधेरे में चलता ह�आ सोचता ह�।ँ कृ षण् ने क्या कहा था? जब कोई अपनी घर-गृहसथ् ी छोड़कर चला जाता है तो उसे
िकसी मदद या मतलब क� ज�रत नहीं। वह अपने अँधेरे में चलता है-कैं सर के मरीज को अस्पताल में छोड़कर जब हम
बाहर आ जाते हैं-खल ु ,े िनमर्म, क�णाहीन आकाश तले वहाँ भी तुम मदद के बाहर हो। शायद मदद क� सीमा के बाहर
ईशव् र क� सीमा है, लेिकन वह उतना ही िनसस् हाय है िजतना तमु । दोनों ही एक-दसू रे के सामने अके ले हैं-ईशव् र को
िनसस् हाय पाकर भी उसमें िवशव् ास करना-क्या कृ षण् का यही मतलब था?

अचानक एक रोशनी देखता ह�।ँ मेले क� सीमा पर कुछ लोग बैठे हैं। ऊपर शािमयाने क� छत है, जगह-जगह से फटी ह�ई।
हर सरु ाख से आकाश के तारे िदखाई देते हैं, पीछे झँसू ी का मैदान हैं, जहाँ से कु�ों के �र�रयाने का सव् र रात के सनन् ाटे
को भेद जाता है।

दरू से ही एक छोटा, जमीन से एक फुट उठा ह�आ सट् ेज िदखाई देता है-वहाँ राम-ल�म् ण क� मिू �याँ बैठी हैं, मैं घटं ो
बाहर ठंड और हवा में घमू ता रहा था - शािमयाने क� रोशनी को देखते ही एक अजीब-सा धीरज िमलता है। तबले क�
सोई-सी धमाधमक और हारमोिनयम पर उठता-िगरता, झमू ता ह�आ सव् र। मैं और पास चला आता ह�,ँ शािमयाने के
भीतर, जहाँ चालीस-पचास सत्र् ी-प�ु ष सद� में िसकुड़े, गड़ु मड़ु ी-से बैठे हैं।

पता नहीं इतनी रात बीते कै सी पजू ा-प्राथर्ना हो रही है? पासवाले वय् ि� से पछू ता ह�,ँ तो पता चलता है िमिथला क� कोई
टोली है-एक भक्तमंडली, जो कंु भ मेले का चक्कर लगाने आई है। मैं और पास िखसक आता ह�-ँ श्रोताओ ं क� भीड़ में-
परु ाने कंबलों और गदू ड़ रजाइयों में िलपट् ी 'ऑिडयेंस' एकटक मंच को देख रही है।

सहया राम आँख झपकाते हैं और ल�म् ण बाँह मोड़कर कमर सीधी करते है; वे असली हैं, मिू तर्याँ नहीं, यह भ्रम
अचानक टूट जाता है। ल�म् ण इतने छरहरे , संदु र शम�ले हैं िक लगता है कोई लड़क� ल�म् ण क� वेशभषू ा में बैठी है-
शायद वह असली, सचमचु में लड़क� है और यह बात मैं िकसी से नहीं पछ ु ता, तािक इस बार मेरा भ्रम बना रहे। धपू
और कपरू का धआ ु ँ उड़ रहा है, हारमोिनयम और तबले के बीच सोंधा-भीगा सव् र भजन के कतरों को एक-एक करके
उठाता है-आग्रह में, अननु य में-एक आतुर उत्कंठा में, पर राम इतने िनठुर हैं िक चेहरे पर जरा भी भाव, तिनक-सी
आह, ितनके भर क� हमदद� भी नहीं आते।

तब सहसा हारमोिनयम तेज हो जाता है-तबला ितलिमलाता है। यह संकेत है, एक इशारा, िजसे पाते ही कोने में बैठी एक
लड़क� झटके से खड़ी हो जाती है, जैसे कोई चमक�ली कौंध, लपलपाती उलक ् ा मचं के आगे चली आई हो... पाँव
िहलते हैं, िफर हाथ। बारह-तेरह बरस क� वह बचच् ी नाचती ह�ई सहसा बड़ी होने लगती है-उन िबिल्लयों क� तरह जो
कभी शरारत में फूलते लगती हैं, कभी राम के पास जाती हैं, कभी ल�म् ण के हँसती हैं, रोती हैं-भजन के हर पद के
साथ मद्रु ाएँ बदलती है और हम सब दम रोके उसे देखते रहते हैं। िदन भर क� उदासी, िवषाद, थकान सब झरने लगते हैं,
सव् यं राम िपघलने आगे हैं। अब लड़क� उनक� ठुड्डी उठाती है तो उनका मँहु शमर् से लाल हो जाता है लेिकन बेचारे
ल�म् ण परे शान हैं। पता नहीं क� मद्रु ा में िकतनी देर से बैठे हैं। शरीर अकड़ गया है-'कभी-कभी सबक� आँख बचाकर
उबासी ले लेते हैं-उनह् ें लड़क� क� भाव-मद्रु ा, तड़क-भड़क में कोई िदलचसप् ी नहीं िजससे मेरा सदं हे और भी पक्का हो
जाता है िक वह स्वयं लड़क� है।

देर रात तक भजन चलते रहते हैं। लोग सद� और हवा को सहते ह�ए िनशच् य बैठे रहते हैं। िकंतु लड़क� के नृतय् और
गायक के स्वर में कुछ ऐसी अकुलाहट, अथक उनम् ाद में डूबी आकां�ा छलछलाती है िक अतं में राम मसु क ् ु राने लगते
हैं, ल�म् ण अपनी नींद भल
ू कर नतर्क� के बढ़े ह�ए हाथों क� छूने लगते हैं-यही शायद चरमोतक
् षर् �ण है, जब मझु े अपने
पीछे िससिकयाँ सनु ाई देती हैं, देखता ह�ँ मंडली में बैठी िकतनी ही ि�याँ रो रही हैं, खश
ु ी और दख
ु से अलग वह कौन-
सा रस है जो सिदयों से हमारी आत्मा को सींचता रहा है-हम अनजाने में अपने आप का अितक्रमण कर लेते हैं, राम क�
सौमय् �ि�, बद्ध
ु क� क�णा, नतर्क� क� अनतं िपपासा में झाँकती पीड़ा को एक साथ भोग लेते हैं।

मैं बाहर रात में चला आता ह�।ँ हवा में बह�त दरू तक हारमोिनयम का सव् र सनु ाई देता रहता है-वही सव् र बचच् ी के पैरों
पर िथरकता ह�आ इतना उल्लासमय था-अब दरू अँधेरे में बह�त उदास और थका ह�आ जान पड़ता है। मैं एक कदम और
लँगू ा, और वह मर जाएगा, उसक� गँजू कुछ दरू पीछे चलकर लौट जाएगी, खो जाएगी, खतम् हो जाएगी-िसफर् मेरे
िलए-क्योंिक दसू रों के िलए वह उस समय तक जीिवत रहेगी जब तक लोग उसे सनु ते रहेंग,े इसिलए शायद मरता कुछ
नहीं-न प्रेम, न स्वर, न किवत-जब तक हम उसे खदु न मार दें, छोड़ दें, छोड़कर अपने स्वाथर् में उसे न भल ु ा दें। िकतना
िविचत्र हैं, सब धमर् मनषु य् वे सब कुछ तय् ागकर राख में िलपटे रहते हैं?

यिद तृषण् ा से मेरा इतना लगाव हे तो त्याग के प्रित इतना मोह क्यों? शायद इसी िवडंबना को झेलने के िलए मैं कंु भ
आया था। िकंतु आधी रात के सनन् ाटे में लगता है मैं कुछ भी नहीं झेल पाया ह�-ँ मैं वहीं ह�ँ जहाँ पहले था, जहाँ से
चलकर आया था।

वह पहली रात थी, जब उनह् ोंने मझु े बल ु ाया था। झँसू ी के एक छपप् र तले वह अके ले आग ताप रहे थे। मैं पास आया तो
तेज सव् र में दतु कार िदया, "जूते उतारकर आओ।"

मैं नगं े पाँव उनके पास आकर बैठ गया। पचच् ीस से अिधक उम्र न होगी-गौरवणर्, पतली देह, दाढ़ी के पहले बाल आग
क� लपटों में चमचमा रहे थे। झकु � ह�ई मँछ
ू े ऊपरी होंठ को ढँकती ह�ई नीचे दाढ़ी में आकर खो गई थीं-िबलकुल
रामकृ षण् परमहसं क� तरह।

"एक बात कह�?ँ " उनह् ोंने िचलम मँहु से हटाकर मेरी ओर देखा।

"तुमह् ें कुछ लेकर आना चािहए था।"

मैं समझा नहीं और उनक� ओर देखता रहा। उनह् ोंने िचमटे से जलती लकड़ी क� राख कुरे दी। िफर एक लंबी सख
ू ी डंडी
को बाहर िनकाला-आधी झल ु ती ह�ई, आधी राख से भरी।

"यह देखते हो?"

"हाँ... "

"क् या हैं?"

"एक लकड़ी," मैंने कहा।


"तुमह् ें इस लकड़ी को अपने कंधे पर रखकर चलना चािहए।" एक �ण भीतर उतक ् ट इचछ् ा ह�ई, उसे ले लँ,ू जैसे यही
एक सच है, िजसका कोई मलतब िनकलता है, िकंतु उनह् ोंने मझु े िझझकते देख िलया था; िचमटे में लकड़ी को दबाकर
दबु ारा आग में डाल िदया था।

मैं चला आया। पीछे मड़ु कर भी नहीं देखा। मैं कतरा गया था। ऐन मौके पर िकसी िवराट चमतक ् ार से वंिचत रह गया था।
बह�त देर तक राख और लपटों के बीच उनका सव् र मेरे कानों में गँजू ता रहा, जैसे वह बार-बार मझु से कह रहे हों, लो यह
लकड़ी, पेड़ क� एक शाख, िजसे सलीब बनाकर जीसस अपने कंधे पर ढोते ह�ए गोलगोथा के टीले पर चढ़ थे। यह वही
टहनी है, एक शाख, राख और िचनगा�रयों में मनषु य् क� शाशव् त वेदना में सल ु गती ह�ई... िजस पर कृ षण् बैठे थे, पैर
तीर से तीर िबधं े ह�ए, लह�लहु ान, �त-िव�त, हवा में झल
ू ती अनेक शाखाओ ं के बीच समचू ी गीता का ममर् खनू के
कतरों में बँदू -बूँद टपक रहा था...

शायद मेरे िलए कंु भ-घटक में यही कुछ बँदू ें बची हैं-मैंने अँधेरे में चलते ह�ए सोचा-मैं इतनी दरू उनह् ें समेटने आया ह�,ँ
जैसे कोई अपनी मृतय् ु के बाद सव् यं राख में अपनी अिस्थयाँ समेटता हो, पोटली में बाँधता हो, गगं ा में बहा देता हो।
शायद यही इस फै ले प्रसार का संदश े मेरे िलए-सोए ह�ए झोपड़ों, रे त के ढूहों, मेले के मैदान पर िसर उठाए सनू े वॉच टॉवर
पर िटमिटमाती नीली रोशिनयों पर यही एक िवचार फड़फड़ाता ह�आ मझु े भींच लेता है-अपने घटक में सव् यं अपनी
हड्िडयों को जमा करना-िजनमें दसू रों का समचू ा कषट् िचपका है-शायद यही ईशव् र है... एक नािस्तक के िलए, जो न
कमर् में िवशव् ास करता है, न दसू रे जनम् में। मृतय् ु के बाद िसफर् शनू य् को सत्य मानता है-उसके िलए ईशव् र को िसफर्
इस राख, इन अिस्थयों, खनू क� इन कषट् -भीगी बँदू ों में ही ढूँढना होग।

मैं बाँध पर चला आता ह�,ँ हनमु ान का मंिदर अब सनू ा पड़ा है। एक िबलल
् ी िकसी मकान क� छत से नीचे कूदती है और
अपनी हरी चमकती आँखों से मझु े घरू ती ह�ई िकले क� दीवार क� और चली जाती है।

धधंु और चाँदनी में िकला अपने में एक स्वपन् जान पड़ता है, जैसे मेरे साथ सटा ह�आ शतािब्दयों से ऊँध रहा हो। नंगे
आकाश-तले लोग रहे हैं-आदमी, औरतें, बचच् -े झीनी-फटी चादरों में िलपटे ह�ए, जनवरी क� रे तीली ठंड में काँपते,
िठठुरते ह�ए।

बाँध के अिं तम िसरे पर पह�चँ कर पाँव सहसा िठठक जाते हैं-िदल धड़कने लगता है-दाई ओर जमनु ा है, िजसमें भेले क�
हजारों बि�यों िटमिटमा रही हैं। लगता है एक मेला ऊपर है, एक नीचे, जमनु ा के पानी पर जहाँ रोशिनयों का प्रितिबंब
सव् यं रोशिनयों का एक िसलिसला श� ु कर देता है। गंगा के पल
ु से अरै ल तक कंु भ मेले का एक चमकता पन्ना खल ु
गया है-रोशिनयाँ, अँधेरे के द्वीप, कहीं-कहीं दरू जलती ह�ई आग क� लपटें। कहीं बह�त पीछे गंगा का टापू है-स्वयं गंगा
है, जो धधंु और अँधेरे में िछप गई है। इस मील फै ला कंु भ का मैदान एक झपक में अपने हजारों याित्रयों क� नींद में
िसमटा ह�आ िदखाई दे जाता है।

एक उचछ्् वास उठती है। मेले के मैदान पर िसरिसराती ह�ई-जैसे नीचे क� रोशिनयों और आकाश के बीच मेरी सम् िृ तयाँ
बाहर िनकली हों-रे त पर चलती ह�ई बंगाली लड़क�, जमीन पर लोटते ह�ए डंडी महातम् ा, सचच् े महाराज क� अँधेरी
झोंपड़ी में िटमिटमाती लालटेन, िजसके नीचे मैं अपनी डायरी के नोट्स िलखता था। शायद अतं में सम् िृ त के ये वे अक ं
बचे रह जाते हैं; न इस धरती के , न ईशव् र के -िकंतु दोनों को एक 'एिपक' गाथा बाँधते ह�ए। मेरे िलए कंु भ मेला अपने में
एक बहता, अनिलखा महाकावय् था, गरीबी, गौरव, सख ु , यातना को एक कड़ी में िपरोता ह�आ-�रल्के ने िजस देवदतू
(ऐिं जल) से ईषयर्् ा क� थी, क्या उसका प्रित�प इस दिु नया में लेखक नहीं है : एक �रपोटर्र, एक खबर देनेवाला हरकारा-
दोतरफा दतू -जो ईशव् र क� खबर मनषु य् को और धरती का सौदयर् कहीं दरू ईशव् र को देता रहता है-एक ऐसा ईशव् र जो
शायद नहीं है, िकंतु िजसे वह सल
ु गती लकड़ी क� तरह कंधे पर रखकर चलता है?

मझु े नहीं मालूम, लेिकन मैं इस पर िवशव् ास करना चाह�गँ ा, इस िवशव् ास के सहारे जीना चाह�गँ ा।

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