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हिन्दी साहित्य लेखकों की महत्वपूर्ण (280) प्रसिद्ध पंक्तियाँ, सुविचार,अनमोल वचन व नारे - Gyan Sadhna
हिन्दी साहित्य लेखकों की महत्वपूर्ण (280) प्रसिद्ध पंक्तियाँ, सुविचार,अनमोल वचन व नारे - Gyan Sadhna
2- छाप तिलक सब छीनी रे मोसे नैना मिलाइके ( पूर्वी अवधी में रचित कव्वाली )
-- अमीर खुसरो
3- एक थाल मोती से भरा , सबके सिर पर औंधा धरा / चारो ओर वह थाल फिरे , मोती उससे एक न गिरे ( पहेली )
-- अमीर खुसरो
4- नित मेरे घर आवत है रात गये फिर जावत है / फं सत अमावस गोरी के फं दा हे सखि साजन , ना सखि , चंदा ( मुकरी
/ कहमुकरनी )
-- अमीर खुसरो
5- खीर पकाई जतन से और चरखा दिया जलाय । । आया कु त्ता खा गया , तू बैठी ढोल बजाय । ला पानी पिला । (
ढकोसला )
-- अमीर खुसरो
6- जेहाल मिसकी मकु न तगाफु ल दुराय नैना बनाय बतियाँ ; के ताब - ए - हिज्रा न दारम - ए - जां न लेहु काहे लगाय
छतियाँ ।
अर्थ - प्रिय मेरे हाल से बेखबर मत रह , नजरों से दूर रहकर यूँ बातें न बनाओ कि मैं जुदाई को सहने की ताकत नहीं
रखता , मुझे अपने सीने से लगा क्यों नहीं लेते ( फारसी - हिन्दी मिश्रित गजल)
-- अमीर खुसरो
7- गोरी सोवे सेज पर मुख पर डारे के स / चल खुसरो घर आपने रैन भई चहुँ देस ( अपने गुरु निजामुद्दीन औलिया की
मृत्यु पर )
--अमीर खुसरो
8- खुसरो दरिया प्रेम का , उल्टी वाकी धार । मनमा का जो उबरा सो डू ब गया , जो डू बा सो पार ।
-- अमीर खुसरो
9- खुसरो पाती प्रेम की , बिरला बांचे कोय । वेद करआन पोथी पढ़े , बिना प्रेम का होय ।
-- अमीर खुसरो
10- खुसरो रैन सुहाग की जागी पी के संग । तन मेरो मन पीव को दोऊ भय एक रंग ।
-- अमीर खुसरो
11- तुर्क हिन्दुस्तानियम मन हिंदवी गोयम जवाब ( अर्थात मैं हिन्दुस्तानी तुर्क हूँ , हिन्दवी में जवाब देता हूँ । )
-- अमीर खुसरो
12- बारह बरस लौं कू कर जीवै अरु तेरह लौं जिये सियार / बरस अठारह क्षत्रिय जीवै आगे जीवन को धिक्कार ।
– जगनिक
13- भल्ला हुआ जो मारिया बहिणी म्हारा कं तु / लज्जेजंतु वयस्सयहु जइ भग्गा घरु एंतु ।
भावार्थ- अच्छा हुआ जो मेरा पति युद्ध में मारा गया ; हे बहिन ! यदि वह भागा हुआ घर आता तो मैं अपनी
समवयस्काओं ( सहेलियों ) के सम्मुख लज्जित होती । )
- हेमचंद्र
16- मैंने एक बूंद चखी है और पाया है कि घाटियों में खोया हआ पक्षी अब तक महानदी के विस्तार से अपरिचित था ' (
संस्कृ त साहित्य के संबंध में )
- अमीर खुसरो
19- गगन मंडल मैं ऊँ धा कू बा , वहाँ अमृत का बासा / सगुरा होइ सु भरि - भरि पीवै , निगुरा जाइ पियासा ।
-- गोरखनाथ
22- पिय - संगमि कउ निद्दडी पिअहो परोक्खहो के म / मइँ विन्निवि विन्नासिया निद्द न एम्ब न तेम्ब ।
भावार्थ- प्रिय के संगम में नींद कहाँ ? प्रिय के परोक्ष में ( सामने न रहने पर ) नींद कहाँ ? मैं दोनों प्रकार से नष्ट हुई ?
नींद न यों , न त्यों ।
-- हेमचन्द्र ( प्राकृ त व्याकरण )
23- जो गुण गोवइ अप्पणा पयडा करइ परस्सु / तसु हउँ कलजुगि दुल्लहहो बलि किज्जऊँ सुअणस्सु ।
भावार्थ- जो अपना गुण छिपाए , दूसरे का प्रकट करे , कलियुग में दुर्लभ सुजन पर मैं बलि जाउँ ।
-- हेमचन्द्र ( प्राकृ त व्याकरण )
43- पठत - पठत किते दिन बीते गति एको नहीं जानि ।
— कबीरदास
49 - हिन्दुअन की हिन्दुआइ देखी , तुरकन की तुरकाइ अरे इन दोऊ कहीं राह न पाई ।
-- कबीरदास
51 - जात भी ओछी , करम भी ओछा , ओछा करब करम हमारा । नीचे से फिर ऊं चा कीन्हा , कह रैदास खलास चमारा
।।
-- रैदास
53-- दशरथ सुत तिहुँ लोक बखाना , राम नाम का मरम है आना ।
--कबीरदास
59- आँखड़ियाँ झाँई पड़ी , पंथ निहारि - निहारि जीभड़ियाँ झाला पड़याँ , राम पुकारि पुकारि ।
-- कबीरदास
61- तलफत रहति मीन चातक ज्यों , जल बिनु तृषानु छीजे अँखियां हरि दर्शन की भूखी ।
-- सूरदास
65- पाँड़े कौन कु मति तोहि लागे , कसरे मुल्ला बाँग नेवाजा ।
-- कबीरदास
73- जांति - पांति पूछ नहीं कोई , हरि को भजै सो हरि का होई ।
-- रामानंद
74-- साईं के सब जीव है कीरी कुं जर दोय ।
सब घाट साईयां सूनी सेज न कोय ।
-- कबीरदास
76- जिस तरह के उन्मुक्त समाज की कल्पना अंग्रेज कवि शेली की है ठीक उसी तरह का उन्मुक्त समाज है गोपियों का
।
-- आचार्य राम चन्द्र शुक्ल
77- गोपियों का वियोग - वर्णन , वर्णन के लिए ही है उसमें रिस्थितियों का अनुरोध नहीं है । राधा या गोपियों के विरह
वह तीव्रता और गंभीरता नहीं है जो समुद्र पार अशोक जन में बैठी सीता के विरह में है ।
--- आचार्य रामचंद्र शुक्ल
79- सास कहे ननद खिजाये राणा रह्यो रिसाय पहरा राखियो ,
चौकी बिठायो , तालो दियो जराय ।
-- मीरा
83- मानुस हौं तो वही रसखान बसो संग गोकु ल गांव के ग्वारन ।
-- रसखान
84- ' जिस प्रकार रामचरित का गान करने वाले भक्त कवियों में गोस्वामी तुलसीदास जी का स्थान सर्वश्रेष्ठ है उसी
प्रकार कृ ष्णचरित गानेवाले भक्त कवियों में महात्मा सूरदास जी का । वास्तव में ये हिन्दी काव्यगगन के सूर्य और चंद्र
हैं ।
- आचार्य शुक्ल
85- रचि महेश निज मानस राखा पाई सुसमय शिवासन भाखा ।
-- तुलसीदास
88- हे खग, हे मृग मधुकर श्रेणी क्या तुने देखी सीता मृगनयनी ।
-- तुलसीदास
93- गुपुत रहहु , कोऊ लखय न पावे , परगट भये कछ हाथ आवे ।
गुपुत रहे तेई जाई पहुँचे , परगट नीचे गए विगुचे ।।
- उसमान
95- रवि ससि नखत दियहि ओहि जोती . रतन पदारथ माणिक मोती । जहँ तहँ विहसि सुभावहि हँसी ।
तहँ जहँ छिटकी जोति परगसी ॥
- जायसी
96- बसहि पक्षी बोलहि बहुभाखा , करहि हुलास देखिके शाखा ।
- जायसी
99- मानुस प्रेम भएउँ बैकुं ठी नाहि त काह छार भरि मूठि
भावार्थ
प्रेम ही मनुष्य के जीवन का चरम मूल्य है , जिसे पाकर मनुष्य बैकुं ठी हो जाता है , अन्यथा वह एक मुट्ठी राख नहीं तो
और क्या है ? )
— जायसी
104- जसोदा हरि पालने झुलावे / सोवत जानि मौन है रहि करि करि सैन बतावे / इहि अंतर अकु लाइ उठे हरि , जसुमती
मधुरै गावे ।
-- सूरदास
105- सिखवत चलत जसोदा मैया अरबराय करि पानि गहावत डगमगाय धरनी धरि पैंया ।
-- सूरदास
115- हिन्दी काव्य की सब प्रकार की रचना शैली के ऊपर गोस्वामी तुलसीदास ने अपना ऊँ चा आसन प्रतिष्ठित किया
है । यह उच्चता और किसी को प्राप्त नहीं ।
--- रामचन्द्र शुक्ल
123- समूचे भारतीय साहित्य में अपने ढंग का अके ला साहित्य है । इसी का नाम भक्ति साहित्य है । यह एक नई
दुनिया है ।
-- हजारी प्रसाद द्विवेदी
124- जब मैं था तब हरि नहीं ,
अब हरि हैं मैं नाहिं ।
प्रेम गली अती सांकरी ,
ता में दो न समाहि ।।
-- कबीरदास
132- स्याम गौर किमि कहौं बखानी । गिरा अनयन नयन बिनु बानी ।।
-- तुलसीदास
156- मो मन गिरिधर छवि पै अटक्यो / ललित त्रिभंग चाल पै चलि कै , चिबुक चारु गड़ि ठटक्यो।
-- कृ ष्णदास
157- कहा करौ बैकुं ठहि जाय जहाँ नहिं नंद , जहाँ न जसोदा , नहिं जहँ गोपी , ग्वाल न गाय ।
-- परमानंद दास
172- अभिधा उत्तम काव्य है मध्य लक्षणा लीन अधम व्यंजना रस विरस , उलटी कहत प्रवीन ।
-- देव
174- भले बुरे सम , जौ लौ बोलत नाहिं जानि परत है काक पिक , ऋत बसंत के माहि ।
-- वृन्द
175- कनक छु री सी कामिनी काहे को कटि छीन ।
-- आलम
179- देखे मुख भावै अनदेखे कमल चंद ति मुख मुरझे कमला न चंद ।
-- के शवदास
185- भीतर - भीतर सब रस चसै, हँसि - हँसि के तन - मन - धन मूसै । जाहिर बातन में अति तेज,
क्यों सखि सज्जन ! नही अंगरेज ।
--भारतेन्दु हरिश्चन्द्र
186- सब गुरुजन को बुरा बतावै ,
अपनी खिचड़ी अलग पकावै ।
भीतर तत्व न , झूठी तेजी ,
क्यों सखि साजन नहिं अंगरेजी ।
-- भारतेन्दु हरिश्चन्द्र
200- के वल मनोरंजन न कवि का कर्म होना चाहिए । उसमें उचित उपदेश का भी मर्म होना चाहिए ।
-- मैथिली शरण गुप्त
228- ताल - ताल से रे सदियों के जकड़े हृदय कपाट खोल दे कर - कर कठिन प्रहार आए अभ्यन्तर संयत चरणों से नव्य
विराट करे दर्शन पाये आभार ।
-- निराला
233-विजन - वन - वल्लरी पर ,
सोती थी सुहाग भरी,
स्नेह - स्वप्न - मग्न - अमल-कोमल तन तरूणी,
-- निराला
235- मुक्त छं द महज प्रकाशन वह मन का सिर निज भावों का प्रकट अकृ त्रिम चित्र ।
-- निराला
238- जो घनीभूत पीड़ा थी की हर किया मस्तक में स्मृति - सी छाई , दुर्दिन में आँसू बनकर तालाब के मन वह आज
बरसने आई ।
-- जयशंकर प्रसाद
241- प्रसाद पढाने योग्य है निराला पढे जाने योग्य है और पतजी से काव्यभाषा सीखने योग्य है ।
--- अज्ञेय
242- छायावादी कविता का गौरव अक्षय है उसकी समृद्धि की । कवल भक्ति काव्य ही कर सकता है ' ।
- - डॉ० नगेन्द्र
243- निराला से बढकर स्वच्छं दतावादी कवि हिन्दी में नहीं है ।
-- हजारी प्रसाद द्विवेदी
244- मै मजदूर हूँ , मजदरी किए बिना मुझे भोजन करने का अधिकार नहीं।
-- प्रेमचंद
245- नील परिधान बीच सुकु मारास खुल रहा मृदुल अधखुला अंग भक खिला हो ज्यों बिजली का फू ल माला मेघ बीच
गुलाबी रंग ।
-- जयशंकर प्रसाद
249- राजनीति का प्रश्न नहीं रे आज जगत के सम्मुख एक वृहत सांस्कृ तिक समस्या जग के निकट उपस्थित।
-- सुमित्रानंदन पंत
252- अरुण यह मधुमय देश हमारा । जहाँ पहुँच अनजान झितिज को मिलता एक सहारा ।
-- जयशंकर प्रसाद
264- मझे जगत जीवन का प्रेमी लाट बना रहा है प्यार तुम्हारा ।
-- त्रिलोचन
265- खेत हमारे , भूमि हमारी सारा देश हमारा है बाजार इसलिए तो हमको इसका म चप्पा - चप्पा प्यारा है ।
-- नागार्जुन
271- जी हाँ , हुजूर , मैं गीत बेचता हूँ । म पनि तिल मैं तरह - तरह के गीत बेचता हूँ मैं किसिम - किसिम के मालिक
गीत बेचता हूँ ।
--भवानी प्रसाद मिश्र
273- मैं प्रस्तुत हूँ . - एक यह क्षण भी कहीं न खो जाय । अभिमान नाम का , पद का भी तो होता है ।
-- कीर्ति चौधरी
274- कु छ होगा , कु छ होगा अगर मैं बोलूंगा ज ल न टू टे , न टू टे तिलिस्म सत्ता काम मेरे अंदर एक कायर टू टेगा , टू ट्
।
-- रघुवीर सहाय
275- जो कु छ है , उससे बेहतर चाहिए पूरी दुनिया साफ करने के लिए एक मेहतर चाहिए जो मैं हो नहीं सकता ।
-- मुक्तिबोध
279- मैं रथ का टू टा हुआ पहिया हूँ लेकिन मुझे फे क मतदार इतिहासों की सामूहिक गतिमा कामही सहसा झूठी पड़
जाने पर क्या जाने सच्चाई टू टे हुए पहिये का आश्रय ले ।
- धर्मवीर भारती
280- जिंदगी , दो उं गलियों में दबी सस्ती सिगरेट के जलते हुए टु कड़े की तरह है । जिसे कु छ लम्हों में पीकर गली में
फें क दूंगा ।
-- नरेश मेहता