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InstaPDF - in Syamantak Mani Katha 993
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सम्पूिण कथा
भाद्रपद मास की चतुथी ततथथ शुरू होने से लेकर खत्म होने
तक चंद्रमा का दशणन नहीं करना चाहहए। यहद भूल से गिेश
चतुथी के हदन चंद्रमा के दशणन हो जाए तो तमथ्या दोष से
बचाव के ललए तनम्नललखखत मंत्र का जाप करना चाहहए तथा
दी गई कथा का श्रवि करना चाहहए ...
एक बार नंदककशोर ने सनतकुमारों से कहा कक चौथ की चंद्रमा के दशशन करने से
श्रीकृष्ण पर जो लांछन लगा था, वह ससद्धि ववनायक व्रत करने से ही दूर हुआ था। ऐसा
उन्होंने पूर्ब्र
श ह्म श्रीकृष्ण को कलंक लगने की कथा पूछी तो नंदककशोर ने बताया-एक
बार जरासन्ध के भय से श्रीकृष्ण समुद्र के मध्य नगरी बसाकर रहने लगे। इसी नगरी का
नाम आजकल द्वाररकापुरी है।द्वाररकापुरी में वनवास करने वाले सत्रासजत यादव ने
सूयन
श ारायर् की आराधना की। तब भगवान सूयश ने उसे वनत्य आठ भार सोना देने वाली
मद्धर् पाकर सत्रासजत यादव जब समाज में गया तो श्रीकृष्ण ने उस मद्धर् को प्राप्त करने
की इच्छा व्यक्त की। सत्रासजत ने वह मद्धर् श्रीकृष्ण को न देकर अपने भाई प्रसेनसजत को
दे दी। एक ददन प्रसेनसजत घोडे पर चढ़कर सशकार के सलए गया। वहाँ एक शेर ने उसे
मार डाला और मद्धर् ले ली। रीछों का राजा जामवन्त उस ससंह को मारकर मद्धर् लेकर
सोचा, श्रीकृष्ण ने ही मद्धर् प्राप्त करने के सलए उसका वध कर ददया होगा। अतुः वबना
मारकर स्यमन्तक मद्धर् छीन ली है। इस लोक-वनन्दा के वनवारर् के सलए श्रीकृष्ण बहुत
से लोगों के साथ प्रसेनसजत को ढू ं ढने वन में गए। वहाँ पर प्रसेनसजत को शेर द्वारा मार
डालना और शेर को रीछ द्वारा मारने के चचह्न उन्हें वमल गए। रीछ के पैरों की खोज करते-
करते वे जामवन्त की गुफा पर पहुुँचे और गुफा के भीतर चले गए। वहाँ उन्होंने देखा कक
जामवन्त की पुत्री उस मद्धर् से खेल रही है। श्रीकृष्ण को देखते ही जामवन्त युि के सलए
तैयार हो गया।
युि चछड गया। गुफा के बाहर श्रीकृष्ण के साथथयों ने उनकी सात ददन तक प्रतीक्षा की।
कफर वे लोग उन्हें मर गया जानकर पश्चाताप करते हुए द्वाररकापुरी लौट गए। इधर
तब उसने सोचा, कहीं यह वह अवतार तो नहीं सजसके सलए मुझे रामचंद्रजी का वरदान
वमला था। यह सोचकर उसने अपनी कन्या का वववाह श्रीकृष्ण के साथ कर ददया और
मद्धर् दहेज में दे दी। श्रीकृष्ण जब मद्धर् लेकर वापस आए तो सत्रासजत अपने ककए पर
बहुत लज्जित हुआ। इस लिा से मुक्त होने के सलए उसने भी अपनी पुत्री का वववाह
कुछ समय के बाद श्रीकृष्ण ककसी काम से इंद्रप्रस्थ चले गए। तब अक्रूर तथा ऋतु वमा
की राय से शतधन्वा यादव ने सत्रासजत को मारकर मद्धर् अपने कब्जे में ले ली। सत्रासजत
को मारकर मद्धर् छीनने को तैयार हो गए। इस कायश में सहायता के सलए बलराम भी तैयार
उसका पीछा करके उसे मार तो डाला, पर मद्धर् उन्हें नहीं वमल पाई।
बलरामजी भी वहाँ पहुुँच।े श्रीकृष्ण ने उन्हें बताया कक मद्धर् इसके पास नहीं है। बलरामजी
को ववश्वास न हुआ। वे अप्रसन्न होकर ववदभश चले गए। श्रीकृष्ण के द्वाररका लौटने पर
लोगों ने उनका भारी अपमान ककया। तत्काल यह समाचार फैल गया कक स्यमन्तक मद्धर्
के लोभ में श्रीकृष्ण ने अपने भाई को भी त्याग ददया। श्रीकृष्ण इस अकारर् प्राप्त अपमान
के शोक में डू बे थे कक सहसा वहाँ नारदजी आ गए। उन्होंने श्रीकृष्ण को बताया- आपने
भाद्रपद शुक्ल चतुथी के चंद्रमा का दशशन ककया था। इसी कारर् आपको इस तरह लांचछत
से मनुष्य कलंककत होता है। तब नारदजी बोले- एक बार ब्रह्माजी ने चतुथी के ददन
गर्ेशजी का व्रत ककया था। गर्ेशजी ने प्रकट होकर वर माँगने को कहा तो उन्होंने माँगा
कक मुझे सृकि की रचना करने का मोह न हो। गर्ेशजी ज्यों ही ‘तथास्तु’ कहकर चलने
लगे, उनके ववचचत्र व्यक्तक्तत्व को देखकर चंद्रमा ने उपहास ककया। इस पर गर्ेशजी ने रुि
होकर चंद्रमा को शाप ददया कक आज से कोई तुम्हारा मुख नहीं देखना चाहेगा।
शाप देकर गर्ेशजी अपने लोक चले गए और चंद्रमा मानसरोवर की कुमुददवनयों में जा
आज्ञा से सारे देवताओं के व्रत से प्रसन्न होकर गर्ेशजी ने वरदान ददया कक अब चंद्रमा
शाप से मुक्त तो हो जाएगा, पर भाद्रपद शुक्ल चतुथी को जो भी चंद्रमा के दशशन करे गा,
उसे चोरी आदद का झूठा लांछन जरूर लगेगा। ककन्तु जो मनुष्य प्रत्येक दद्वतीया को दशशन
चंद्रमा का दशशन करने से आपको यह कलंक लगा है। तब श्रीकृष्ण ने कलंक से मुक्त होने
कुरुक्षेत्र के युि में युथधकिर ने भगवान श्रीकृष्ण से पूछा- भगवन! मनुष्य की मनोकामना
ससद्धि का कौन-सा उपाय है? ककस प्रकार मनुष्य धन, पुत्र, सौभाग्य तथा ववजय प्राप्त कर
सकता है? यह सुनकर श्रीकृष्ण ने उत्तर ददया- यदद तुम पावशती पुत्र श्री गर्ेश का
ववथधपूवक
श पूजन करो तो वनश्चय ही तुम्हें सब कुछ प्राप्त हो जाएगा। तब श्रीकृष्ण की
आज्ञा से ही युथधकिरजी ने गर्ेश चतुथी का व्रत करके महाभारत का युि जीता था।