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राम रावण कथा खंड तीन

राम
स म िव ु का अ ुदय
उप ास
सुलभ अि हो ी

रे ड ैब बु
यागराज
राम : स म िव ु का अ ुदय (उप ास)
सवािधकार - सुलभ अि हो ी

काशक :
रे ड ैब बु
942, मु ीगंज, यागराज - 211003

एवं
एनीबुक
जी248, ि तीय तल, से र-63, नोयडा - 201301

टाइप सेिटं ग : ी क ूटस, यागराज


आवरण : ईशान ि वेदी
समपण
राम की कथा
राम को ही समिपत
दीयं व ु गोिव तु मेव समपयािम!
ले खकीय
कोई सावभौम स ा है जो यह सब कुछ संचािलत करती है । कैसे करती है - इसका
अनुमान ही लगाया जा सकता है , िनि त प से कुछ जान पाना िकसी की भी
साम से बाहर है । उसे समझ पाना, ा ाियत कर पाना- चींटी ारा हाथी को
पीठ पर ढोने की क ना के समान ही है । िफर भी हम यास करते ह, इसिलए
करते ह ोंिक वह स ा हमसे करवाती है । वह यं ही हमारा माग भी श
करती है । अपनी ऊजा का सद् योग हमारा कत है , िन ष तो उसीके हाथ म
है - ‘कम ेवािधकार े मा फलेषु कदाचन!’
‘राम-रावण कथा’ का यह तीसरा ख ‘राम : स म िव ु का अ ुदय’ आपके
हाथों म है । पूव के दोनों ख ों को पाठकों ने अपना भरपूर ेह दान िकया है ।
सभी ने िदल खोलकर शंसा भी की है । कुछ को लगा है िक भाषा कुछ सरल होनी
चािहए थी तो कुछ ने ि़सफ इसीिलये िवशेष अनुराग दशाया है िक भाषा प रिनि त
है । भाषा के ित मेरा कोई आ ह नहीं है , िकंतु िजस काल की यह कथा है , उस
काल-खंड के िलए यही भाषा उपयु है । मा कुछ पाठकों को एक िशकायत ई
है , वह यह िक इस कथा म का़फी सारी बात पुराणों और अ रामायणों के
समाना र नहीं चलतीं। इस िवषय म ‘पूव-पीिठका’ के िलए अमे़जन पर आए एक
पाठक के र ू को म उद् धृत करना चा ँ गा। उ कहानी ब त पसंद आई परं तु ...
उ ीं के श ों म-
By Arvind on 28 October 2017
This book is quite different from the common story. Agnigotriji has tried
to find the root of each and every little or well known character of the
Ramayan. Some times you feel excited but at many occasions you will feel
like pure fantasy of the writer, as there is no base in the approved versions
of the Ramayan or Purans. Anyway story is well written and binding. You
will not loose the interest at any page of the book and would not like to wait
for other parts. Good effort by the Writer.
म अरिवंदन जी से यही कह सकता ँ िक ेक कथा ‘फै े सी’ ही होती है । म न
तो वा ीकीय रामायण का िह ी अनुवाद कर रहा ँ न ही रामच रत मानस का।
मुझे भी यिद वही सारी बात दोहरानी होतीं तो िलखने की आव कता ही ा थी?
महिष वा ीिक अथवा गो ामी तुलसीदास जैसे कालजयी मनीिषयों के सामने मेरी
समझ व मता शू से अिधक नहीं है । म तो बस यह बताना चाहता ँ िक कथा को
इस ि कोण से भी दे खा जा सकता है । मुझे संतोष है िक पाठकों को मेरा ि कोण
पसंद भी आ रहा है ।
राम के अ पर कोई िच नहीं है । अब तो उस पर िव ान ने भी अपनी
मुहर लगा दी है । राम के समय के संबंध म वै ािनक शोध के िन ष य िप हमारे
पुराणों की अवधारणा से, जो राम को लाखों वष पुराना िस करते ह, मेल नहीं खाते
तथािप वे पुरातन को सदै व नकारने को उ त िव ानों को उ र तो दे ते ही ह। इस
शोध के अनुसार राम की ज ितिथ 11 जनवरी ईसा पूव 5011 है । इस शोध के तक
गले उतरते ह। रामसेतु भी अब मा ता ा कर ही चुका है । इस पर िव ृत चचा
की आव कता नहीं है ।
ऊपर मने िजस सावभौम स ा का उ ेख िकया, राम हमारे आ थावान समाज
के िलए उसी स ा के ितिनिध ह। क ँ तो उस स ा के ित प ह, यं
पर ह। परं तु यह िविश -पद उ सदै व से ा नहीं था, वे मयादा पु षो म तो
थे िकंतु नहीं थे। इस पर सं ेप म िवचार करना, मुझे तीत होता है यहाँ
आव क है । इसे समझने के िलए, वैिदक काल से लेकर पौरािणक काल तक हमारे
िचंतन म आए प रवतन पर एक सरसरी ि डालना आव क है । य िप यह िवषय
ऐसा नहीं है िजस पर सं ेप म चचा संभव हो, िफर भी यास करता ँ । िज ासु
पाठक यिद िव ृत जानकारी के िलये पुराणों और अनेक ों को न छानना चाह तो
‘िदनकर’ की ‘सं ृ ित के चार अ ाय’ इस िवषय को अिधक समझने म उनकी
पया सहायता कर सकती है ।
वेद िन ंदेह हमारे िचंतन और उस िचंतन से उपल ान के आिद ोत ह िकंतु
यह िचंतन अपने सव ृ वैभव के साथ उपिनषदों म कट होता है । वेदों से ा
बीज उपिनषदों और ा ण ंथों म वृ के प म िवकिसत ए। ा ण ों और
उपिनषदों ने वेदों के ान को ा ाियत िकया, उसे िव ार िदया साथ ही कई
थानों पर वैिदक मा ताओं का अित मण कर नवीन िस ां तों का ितपादन भी
िकया। नवीन ों से जूझना भी आरं भ िकया। इन ों म मुख था कृित और
परमा ा का रह । इसके अित र जीवन और सृि की उ ि का कारण, उदय
और िवकास; मृ ु के उपरां त का स ; अ लोकों की संभावना आिद अ भी
अनेक उनके मन म घुमड़ते थे। इ ीं से जूझते ए उ ोंने जो िस ां त
ितपािदत िकए वे उनकी अिव सनीय मेधा और िनरी ण श का ितिब ह।
आज भी िव ान उ पढ़ कर दाँ तों तले उँ गली दबाने को िववश होते ह। आज भी
उन िस ां तों से आगे, उन िस ां तों से अलग हम कुछ भी नहीं सोच पाए ह।
सुदीघ अविध तक चली िचंतन-मनन की इस सतत ि या से इन रह ों से
संबंिधत कुल नौ िस ां त अ म आए। छह िस ां त आ क मत के ह, जो आज
‘षड् दशन’ के नाम से िव ात है । ये ह-
1. महिष जैिमनी का पूव मीमां सा, 2. महिष बादरायण का वेदा दशन (उ र
मीमां सा), 3. महिष किपल का सां दशन, 4. महिष कणाद का वैशेिषक दशन, 5.
महिष गौतम का ाय दशन और 6. महिष पतंजिल का योग दशन।
सातवाँ आचाय बृह ित णीत और तदु परां त चावाक ारा पोिषत ‘चावाक’
दशन और इन सातों के अित र जैन और बौ दशन।
वैिदक काल म आय के दे वता कृित की िविभ श याँ थीं, या मन की िविभ
अव थितयाँ थीं- कुल िमलाकर 12 आिद (िजनम इ और िव ु स िलत ह),
11 , 8 वसु और दो अि नी कुमार या नास । 33 दे वताओं का उ ेख ऋ ेद म
है । शतपथ ा ण भी 8 वसु, 11 , 12 आिद और पृ ी व आकाश इन 33
दे वताओं का और ऐतरे य ा ण 11 याजदे व, 11 उपयाजदे व और 11 अनुयाजदे व
इन 33 दे वताओं का उ ेख करता है । िभ -िभ थानों पर इन दे वों के नामों म भी
कुछ िभ ता है िकंतु धानत: सभी थानों पर ये कृित और मानव- कृित के त ही
ह।
िभ -िभ दे वता होने के बाद भी ये अंतत: एक ही के ित प ह। इस िवषय
म िन कार या (ई0पू0 सातवीं शता ी) ा ा दे ते ह िक िविभ नामों से
पुकारे जाने पर भी दे व एक ही ह। वे इसे ‘नररा िमव’ की सं ा दे ते ह अथात् जैसे
प से िभ होते ए भी असं मनु रा प म एक ह, वैसे ही िविवध
पों म कट होने पर भी दे वों म एक ही परमा ा ा है ।
उपिनषदों के काल तक आ कता का अथ ई र म िव ास से नहीं था।
‘ना को वेद िन क:’। अथात जो वेदों की अवधारणाओं को पूरी तरह ीकार
नहीं करते, जो इस जीवन के बाद िकसी जीवन के अ को नहीं मानते, वे ही
ना क ह। न±अ से बना ना (नहीं है ) और इस ‘ना ’ की अवधारणा को
मानने वाले ना क कहे गए। उस काल म ये भी पया भावी थे। हमारी कथा म
महामा जाबािल इसी मत के अनुयायी ह।
य िप पूणत: ना क दशन ‘चावाक दशन’ ही है िकंतु ‘सां दशन और ‘योग
दशन’ भी बड़ी हद तक वेदों की अवधारणाओं का अित मण करते ह। वे कहीं-
कहीं पर य ों म बिल था का उपहास भी करते ह। अ आ क दशनों के
िवपरीत ‘सां ’ और ‘योग’ दशन का , सृि -रचना से या हमारे सुख-दु :ख से
उदासीन है । वह सवश -स , शा त और सू प म सव िव मान होते ए
भी सम वासनाओं से ऊपर है । इनकी मा ता के अनुसार सृि की संरचना और
जीवन का िवकास कृित म चलने वाली ‘आटोमेिटक’ ि या है िजसम कोई
ह ेप नहीं करता। कृित यं भी उस के समान ही शा त है , ने उसकी
रचना नहीं की।
योग-दशन थोड़ा और आगे जाता है । वह योग-साधना के ारा यं को ही की
थित तक प ँ चाने का यास करता है । योग के चम ारों के िवषय म पुराणों म
ब त कुछ िलखा है , हम सबने ब त कुछ सुना है और वह सभी कुछ योग की
सव अव था म पूण संभव है । समथ योगी आज भी ह, िकंतु वे भी अपने की
भाँ ित ही इस न र जीवन से उदासीन से एका थािपत करने के यास म
कंदराओं म एकां त साधना म िल ह।
इस काल तक आय िचंतन म मूित-पूजा का अ नहीं था। पौरािणक काल म
संभवत: अनाय म चिलत िशव-पूजा से े रत होकर ही आय म उसने अ
हण िकया। आय- ंथों म िशव के ित दीघकाल तक अना था ही दे खने को िमलती
है । िशविलंग की पूजा को िश -पूजा कहकर उसका उपाहस िकया गया है । शैव
और वै व संघष हमारी सं ृ ित का थािपत इितहास है । इसी आधार पर अनेक
िव ानों ने िशव को मूलत: आयतर दे वता माना है । इस मा ता को इस आधार से
और भी बल िमलता है िक िजतने भी दे व िवरोधी- दै , दानव, रा स आिद ए सब
के सब िशव के भ थे और उ ीं से वरदान पाकर वे दे वों को परािजत करने म
समथ ए।
तो िफर िशव आय म ीकृत कैसे ए और उ ोंने ि दे वों म अ कैसे
बनाया? ...तब अनुलोम िववाह पूणत: मा था। इसी िविध से अनेक ऋिष-
पि याँ आयतर सं ृ ितयों से आईं और अपने साथ िशव-भ भी लाईं। उनसे यह
िशव-भ उनकी संतानों म भी आई। पुराणों म अनेक थानों पर ऋिष पि यों का
िशव के ित अनुराग/आस और ऋिषयों की उनके ित िवतृ ा का वणन है ।

िशव-पूजा के आय म वेश के साथ ही आय म मूित-पूजा अ म आई।


जनमानस को यह सहज ा भी ई। गूढ़ दशन म आम आदमी की िच नहीं होती
अत: पुराणों ने अ दे वों को भी थूल शरीर दान कर रोचक कथाओं की सजना
आरं भ की। उ ोंने सृि -रचना और जीवन की उ ि के गूढ़ िस ां तों के थान पर
सृि की सजना करने के िलए ा की क ना की और िफर उनके मानस-पु
क प के मा म से स ूण जड़-चेतन सृि की उ ि की कथाय ुत कीं। ये
सरल और रोचक कथाय जनसामा ने सहजता से आ सात् कर लीं, उपिनषदों
का िचंतन िव ृित म चला गया। चौदहवीं शता ी म आकर सायण ने चारों वेदों के
भा िलखकर उ पुन: काश म लाने का काय िकया। उ ीसवीं शता ी म
मै मूलर भृित यूरोपीय िव ान ने वेदों और उपिनषदों को स ूण िव म सा रत
िकया।
पुराणों म आरं भ म पाँ च अवतार ही सामने आए- म , क प, वाराह, नरिसंह
और वामन। इ आप दू सरी ि से भी दे ख सकते ह, धरती पर जीवन का िवकास
म भी तो कुछ इसी कार है !
वा ीिक के राम भी अवतार नहीं ह। वा ीिक ने तो यं िव ु को ही अनेक
थानों पर ‘उपे ’ (उप±इ ) की सं ा दान की है । जब िव ु ही नहीं ह तो
राम कैसे हो सकते ह। िव ु भी अ आिद ों की भाँ ित ही क प और अिदित के
पु ह। वा ीिक ने मा बारह हजार ोकों की रचना की थी। वह काल मौ खक
वाचन का काल था। ऐसे वाचक मूलपाठ म अपने ोक भी जोड़ते गए। िव ानों के
अनुसार रामायण के बालका और उ रका तो स ूणत: ि ही ह। पढ़ते
समय तीत भी होता है ऐसा। अ का ों म भी अनेक ोक ि ह। बस
एक उदाहरण दू ँ गा- लंका िवजय के उपरां त िवभीषण सीता के अशोक-वािटका से,
राम जहाँ पर उप थत थे, वहाँ तक आने के माग के दोनों ओर पदा करने का आदे श
करते ह। यह पदा था न तो आय सं ृ ित म थी न ही र सं ृ ित म। इससे भी
आगे सीता के िलए जो श उस समय राम यु करते ह, िजस दप-भाव का
दशन करते ह वह राम के च र से िबलकुल उलट और अ ीकाय है ।
राम के च र म एक ही अवगुण है िक उनम कोई अवगुण नहीं है । अवगुण न
होना िकस कार यं अवगुण बन जाता है यह कथा म आप यं दे खगे, िवशेषकर
अंितम खंड म। अभी इस िवषय म मा इतना ही क ँ गा िक सबको स कोई नहीं
रख सकता। ऐसा यास को यं अपने ित, साथ ही अपने ि यजनों के ित
अ ाय करने को िववश करता है ।
कथा अपने म से आगे बढ़ रही है । थम भाग ‘पूव-पीिठका’ म आपने रामकथा
के िविभ पा ों की पृ भूिम का प रचय ा िकया। दू सरे भाग ‘दशानन’ म रावण
की िद जय को दे खा अब इस तीसरे भाग ‘राम’ म राम का सि य कम- े म
वेश है । पहले भाग म राम का बस ज ही आ था, तो दू सरे म वे िव ाथ थे। इस
भाग म वे एक जननायक के प म थािपत हो चुके ह। इस भाग की कथा राम के
द कार म वेश तक गयी है ।
कुल िमला कर अब यह कथा पाँ च ख ों म ािवत है । ये ह मश:-
1- पूव-पीिठका
2- दशानन
3- राम : स म िव ु का अ ुदय
4- महासं ाम
5- मयादापु षो म
‘महासं ाम’ नाम से ही है , राम और रावण के यु की गाथा होगी। राम ने
द कार म वेश कर िलया है , अब टकराव ही होना है । यह कथा रावण-वध
तक जाएगी। अंितम खंड ‘मयादापु षो म’ म राजा-राम की कथा होगी। रामरा
की कथा होगी। लव-कुश की कथा होगी। यह कथा राम की जलसमािध तक
जाएगी।
यह पुन: कर दू ँ िक यह कथा मेरी क ना है िजसम मने अिधकां श सू
वा ीिक रामायण से िलए ह। कई थानों पर अ पुराणों से भी संदभ िलए गए ह
परं तु मूल आधार रामायण ही है । पर वह मा बीज ही है , बीज को पौधा तो मेरी
क ना ने ही बनाया है । अनेक थानों पर मने रामायण का अित मण िकया है ।
मेरा कतई दावा नहीं है िक यही राम की वा िवक कथा है । संभव है यह स के
ब त करीब हो ... यह भी संभव है िक इसम स का कोई भी अंश न हो। स ा
है इसे तो एकमा जगि यंता ही जानता है ।
अंत म म सभी पाठकों, शंसकों शुभिचंतकों और काशक का आभार
करना आव क समझता ँ । उनका मेरे ित एवं मेरी लेखनी के ित िव ास ही
मुझे िलखने की ेरणा और संबल दे ता है ।
‘‘जय ी राम!’’
- सुलभ अि हो ी
अनु म
पूव कथा

1. िव ािम के साथ
2. वीय शु ा सीता
3. िव ु से भट
4. िद ा
5. सु ीव-हनुमान
6. ताड़का
7. िस ा म
8. आतंक का अंत
9. च नखा
10. िव ुपद
11. िमिथला की ओर
12. अह ा उ ार
13. धनुषभंग
14. अयो ा म
15. वरया ा
16. िवचार
17. परशुराम
18. िवमाताओं से भट
19. दशरथ का संशय
20. मोद
21. श ूक
22. आचाय शु
23. गौतम के आ म म हनुमान
24. रािनयों को सूचना
25. ल ण और श ु की शपथ
26. युधािजत का संदेश
27. राम और उ र का िव ोह
28. युधािजत का आगमन
29. वनगमन की ावना
30. अिभषेक की तैयारी
31. नगमन की ावना
32. थान
33. िच कूट
34. दशरथ का महा याण
35. भरत का आगमन
36. भरत िच कूट म
37. सं ाम के पथ पर
पू व-कथा
ख एक : पूव-पीिठका
दोनों ही खंडों म कई कथाय समानां तर चलती ह। अलग-अलग कथा म िविभ
पृ भूिमयों से िनकलकर िविभ पा बाद म एक कथा म स िलत होंगे। पहले पूव-
पीिठका की चचा करते ह-

पहली कथा है सुमाली और बाद म रावणािद की-


ग से िव ु ारा खदे ड़े गए मा वान, सुमाली और उनके पु ों ने माग म िदवस
तीत करने हे तु, एक आ -वािटका म शरण ले ली। वहाँ एक िकशोरी से इनका
िववाद हो गया। िकशोरी को अनाय से ती घृणा थी, वह िकसी र को अपनी आ -
वािटका म एक पल के िलए भी सहन करने के िलए तैयार नहीं थी। िववाद म
दु घटनावश िकशोरी बुरी तरह घायल हो गयी। चपला नामक यही िकशोरी आगे
चलकर मंथरा के नाम से जानी गयी।
मा वान, सुमाली और माली, इन भाइयों ने ही लंका बसाई थी और िफर अपने
पौ ष से इं को परा कर ग पर भी अिधकार िकया था। इं की ाथना पर
िव ु ने इ ग से खदे ड़ िदया था। िव ु से यु म इनका छोटा भाई माली मारा
गया था। बचकर वापस लंका लौटने के उपरां त बड़े भाई मा वान ने सं ास ले
िलया। मँझला सुमाली िव ु के भय से लंका से अपने सारे कुनबे को समेटकर
भूिमगत हो गया और समय की ती ा करने लगा।
भिव म उसे अवसर िमला। उसकी ेरणा से यौवन म वेश करती उसकी
सुंदरी क ा कैकसी ा के पौ , पुल के पु महिष िव वा से िववाह करने म
सफल ई। िव वा से उसे तीन पु - रावण, कुंभकण व िवभीषण और एक पु ी-
च नखा ा ई। स ानों को ज के उपरां त शी ही वह अपने िपता सुमाली के
पास छोड़ती गयी। मा िवभीषण ही अिधक समय तक िव वा के आ म म रहा।
सुमाली ने अपने सभी दौिह ों को योग और श ा ों की िश ा दे ना आरं भ
िकया। उसने तीनों को योगसमािध ारा ा का ान करने के िलए े रत िकया।
अंतत: ये लोग समािध के ारा ा से स क थािपत करने म सफल ए। ा
अपने पौ ों से िमलकर अ ंत स थे, उ ोंने इ अनेक िद ा दान करने
के अित र अनेक िव ाओं का भी ान िदया। उ ोंने चारों (चौथी चं नखा) से
मनचाहा वर माँ गने को कहा।
रावण के माँ गने पर उ ोंने वचन िदया िक मनु ों के अित र अ कोई भी
दे व, दै , दानव, य आिद यु म उसका वध नहीं कर पायगे। यिद कभी वह इनके
साथ यु म परािजत होने की थित म होगा तो ा यं उसकी सहायता के िलए
उप थत हो जायगे। मनु ों से लड़ाई म वे बीच म नहीं पड़गे। मनु ों को
ये लोग िकसी िगनती म ही नहीं लाते थे, अत: कोई सम ा नहीं थी। कु कण ने
माँ गा िक वह खूब खाये और खूब सोये। ा ने कहा िक खूब खाओगे तो अपने आप
खूब सोओगे भी। खाया आ नुकसान न करे इस हे तु उ ोंने उसे कुछ यौिगक
ि याय और कुछ औषिधयाँ बता दीं। िवभीषण ने बस भु के चरणों म अनुर
माँ गी और च नखा ने ि लोक की सबसे सु री नारी होने की आकां ा कट की।
ा ने उन दोनों को भी उिचत उपाय समझा िदए।
िव वा के पहली प ी दे वविणनी से कुबेर उ आ था। ा ने उसे लोकपाल
का पद दे कर खाली पड़ी लंका उसे दान कर दी थी। जब रावणािद ा से वरदान
ा कर चुके तब सुमाली ने उ लंका पर पुन: अिधकार करने हे तु े रत करना
आरं भ िकया। अंतत: िव वा की म थता म लंका रावण को ा ई। कुबेर ने
कैलाश के िनकट अलकापुरी नाम से, अपने नये रा की थापना की। लंका पर
अिधकार ा होते ही संयोगवश अिभयां ि की म अपनी वीणता के िलए िव -
िव ात, िकंतु प ी के िवयोग और पु ों की अभ ताओं के कारण अ िवि सा
हो गया, दानवराज मय भटकता आ लंका आ प ँ चा। उसने रावण से अपनी
सवगुण स क ा मंदोदरी को ीकार करने का आ ह िकया। कोई बाधा थी ही
नहीं रावण का मंदोदरी से िववाह हो गया। कुछ ही समय बाद कुंभकण का
व ा ाला और िवभीषण का सरमा से िववाह हो गया। कुछ काल बाद रावण को
मंदोदरी से थम पु मेघनाद की ा ई।
िव ु से ई पराजय सुमाली के दय म खटक रही थी। वह रावण के मा म से
एक बार पुन: ग पर अिधकार करने के सपने दे ख रहा था। उसने गुपचुप प से
लंका की सै श िवकिसत करनी आरं भ की साथ ही पड़ोसी ीपों म गु चरों के
मा म से अपना भाव बढ़ाना भी आरं भ िकया। दू सरी ओर उसने ऐसी कूटनीितक
चाल चलनी भी आरं भ कीं िजनसे रावण और कुबेर म वैमन उ हो गया।
प रणामत: रावण ने कुबेर पर आ मण कर उसे परािजत कर िदया। रावण ने
सुमाली की इ ा के िव , अलकापुरी पर अिधकार नहीं िकया िकंतु कुबेर से
उसका िवमान पु क अव हिथया िलया। सै को लंका जाने का आदे श दे रावण
सुमाली और कुछ अ मातुलों के साथ, पु क पर सवार हो िवहार के िलए चल
पड़ा।
थोड़ा बढ़ने पर ही इन लोगों का टकराव िशव से आ। िशव की अिव सनीय
श के स ुख रावण को अपनी तु ता का आभास हो गया। वह िशव का भ
बन गया। िशव ने भी उसे अपनी कृपा और आशीवाद प चं हास नामक अपनी
िद कटार दान की। िशव से िवदा लेने के उपरां त रावण ने सबको लंका भेज
िदया और यं कैलाश के िनकट ही वन म अपने अहं कार का ायि त करने के
िलए तप ा करने लगा।
वन म ही उसकी भट बृह ित की पौ ी वेदवती से ई। वेदवती के िपता
कुश ज का िवचार था िक उनकी क ा के यो वर ि लोक म मा िव ु ह। अत:
उ ोंने वेदवती को उनकी आराधना म वृ कर िदया था। िपता की मृ ु के उपरां त
भी वेदवती उसी वन म िव ु की आराधना म वृ थी। प र थितवश रावण और
वेदवती म िनकटता बढ़ी, प रणाम प वेदवती ने एक क ा को ज िदया िकंतु
संक से ुत होने की आ ािन के चलते उसने क ा रावण को सौंपकर
िचतारोहण कर िलया।
इसी समय सुमाली रावण को िलवाने आ गया। वेदवती के आ दाह से रावण
गहरे मन ाप की थित म था। सुमाली ने इस कार व था की िक क ा साधु
भाव के िमिथला नरे श सीर ज जनक के पास प ँ च गयी। यही क ा कालां तर म
सीता के नाम से िव ात ई। इस बीच रावण की अनुप थित म चं नखा
िवद् यु नामक एक कालकेय दै के ेम म पड़ गयी थी। अचानक िवद् युत को
संदेश िमला िक िपता ने उसे अिवल बुलाया है । शी ता म चं नखा ने िवद् युत के
साथ गंधव िववाह कर िलया।

दू सरी कथा है दशरथ की-


दशरथ की माता इं दुमती का िनधन उनके िशशुकाल म ही हो गया था। िपता अज
को अपनी प ी से अगाध ेह था। जैसे ही दशरथ कुछ बड़े ए, अज ने सारा
रा भार उ सौंपकर, आहार ाग मृ ु का वरण कर िलया। कम आयु म स ा
ा हो जाने से दशरथ उ त भाव के हो गए। एक िदन िम ों के साथ आखेट के
िलए गए दशरथ से धोखे से एक मुिनकुमार वण कुमार की ह ा हो गयी। वण के
अंधे माता िपता ने भी उसकी िचता म ही आ दाह कर िलया। मृ ु का वरण करने
से पूव वण की माता ने दशरथ को भी पु के िवयोग म इसी कार तड़प-तड़प कर
ाण ागने का ाप दे िदया। दशरथ ने इस घटना के िवषय म िकसी को कुछ नहीं
बताया।
महामा जाबािल और आमा सुमं के ाव के अनु प गु दे व विश ने
दशरथ के िववाह हे तु उ र कोशल की राजकुमारी, महाराज भानुमान की पु ी
कौश ा का चयन िकया। उ र कोशल के साथ कोशल के संबंध अ े नहीं थे,
भानुमान ने ाव अ ीकार कर िदया तो दशरथ ने बलात कौश ा का अपहरण
कर िलया और गु दे व के िनदशन म उनसे िववाह िकया।
ब त वष तक कोई संतान न होने पर, कौश ा ारा िववश िकए जाने पर
दशरथ ने केकय नरे श अ पित की िकशोरी क ा कैकेयी से िववाह हे तु ाव
भेजा। दशरथ और कैकेयी का िववाह हो गया िकंतु िववाह के समय अ पित ने एक
अनुबंध कराया िजसके अनुसार दशरथ के उपरां त कोशल का रा कैकेयी के पु
को ा होना था। अ पित अपनी अहं कारी प ी का प र ाग तभी कर चुके थे जब
कैकेयी ब त छोटी थी। युधािजत का भी तब तक िववाह नहीं आ था अत: कैकेयी
के पालन-पोषण हे तु चपला, जो तब तक मंथरा के नाम से जानी जाने लगी थी, की
िनयु की गयी थी। कैकेयी के िववाह के उपरां त उसके साथ मंथरा भी कोशल आ
गयी।
कैकेयी धीरे -धीरे अयो ा म भावशाली होती गयी। कौश ा दशरथ की ओर से
उपेि त होती गयीं। दशरथ के कौश ा के ित वहार के िवपरीत कौश ा और
कैकेयी म अ ंत ेहपूण संबंध थािपत रहे ।
वैजयंत नरे श श र और इं के यु म इं की सहायता करने गए दशरथ की
कैकेयी ने अपने ाणों पर खेलकर र ा की। दशरथ ने भािवत हो उसे दो वर दे ने
का वचन िदया। कैकेयी को िकसी भी चीज की आव कता नहीं थी उसने जब
आव कता होगी कहकर उस समय बात को टाल िदया।
कालां तर म दशरथ ने काशी की राजकुमारी सुिम ा से भी िववाह िकया। िकंतु
िववाह के उपरां त कुछ िदन तक ही दशरथ सुिम ा के ित आकृ रहे तदु परां त वह
भी उपेि त हो गयी। दशरथ के वहार से रािनयों के आपसी संबंधों म कोई अंतर
नहीं आया। कौश ा और कैकेयी म तो पहले से ही गाढ़ संबंध थे, अब सुिम ा भी
इस टोली म शािमल हो गयी थी। इन तीन रािनयों के अित र यु ों म बलात
अप त अथवा उपहार म ा ईं लगभग साढ़े तीन सौ उप-पि याँ भी थीं दशरथ
के, िकंतु स ान का सुख उ अभी तक िकसी भी प ी अथवा उप-प ी से ा
नहीं आ था।
एक िदन नारद का आगमन आ। उ ोंने बताया िक दशरथ की मुँहबोली बेटी
और अंगनरे श रोमपाद की पु ी, शां ता के पित ऋ ंग ऋिष इसका उपचार कर
सकते ह। ऋिष को बुलवाया गया और पु ेि य के मा म से दशरथ को चार पु ों-
कौश ा से राम, कैकेयी से भरत और सुिम ा से ल ण व श ु की ा ई।
चौथेपन म ा ई संतानों के ित दशरथ के मन म अितशय मोह था। पु धीरे -
धीरे बड़े ए और गु विश के गु कुल म िश ा ा करने लगे। इसी समय नारद
ने कैकेयी को संकेत िदया िक भिव म उसे र ों के िवनाश म एक बड़ी भूिमका
िनभानी है ।

तीसरी कथा दे वों की है , िजसम महिष गौतम-अह ा और िफर बािल, सु ीव


और हनुमान भी जुड़ जाते ह-
दे वराज इं भाव से ही स ालोलुप और िवलासी थे। रावण के बढ़ते भाव से वे
ब त िचंितत थे। उ पता था िक रावण की पीठ पर सुमाली जैसा कूटनीित है और
रावण यं िपतामह के वचनों के चलते अव है । दे वों को उनकी इस हीन मनोदशा
से िनकालने के िलए नारद ने उ ल ी रणनीित बनाने की सलाह दी। उस सलाह
के अनुसार दे वों ने द कार म गु कुलों की थापना कर वहाँ के जनजातीय
बालकों को भावी यु हे तु िशि त करना आरं भ कर िदया। इस काय म उनके
सहयोग हे तु महिष अग ने अपना सुंदरवन का आ म छोड़कर द कार म
अपना आ म थािपत िकया। अ भी अनेक ऋिषगण इस काय म दे वों के सहयोगी
ए।
महिष गौतम भारतीय षड् दशन की एक मुख शाखा ाय-दशन के णेता और
िव ात आयुध-िवशेष थे। उनकी प ी अह ा अ ंत िवदु षी और सा ी मिहला
थीं। अह ा ा की पु ी थीं। िशशु अव था म ा ने पालन-पोषण हे तु उ गौतम
को सौंपा था। बाद म िववाह यो होने पर ा ने गौतम से ही उनका पािण हण
करने का अनुरोध िकया िजसे गौतम ने ीकार कर िलया। गौतम-अह ा के एक
पु शतान और पु ी अंजना थी।
सूय दे व की सारथी आ णी पर इं आस हो गए। आ णी से उनके एक पु
आ- बािल। बािल को पालन-पोषण के िलए इं ने गौतम-अह ा को सौंप िदया।
कुछ समय बाद ही आ िण ने सूय दे व के पु सु ीव को ज िदया। उसे भी पालन-
पोषण के िलए गौतम अह ा को सौंप िदया गया।
शतानंद की िनयु जनक की सभा म पुरोिहत के प म हो गयी और अंजना
का िववाह िक ं धा के सेनापित केसरी से हो गया। केसरी आ ा क कृित के
थे और सेनापित का दािय ाग कर तीथ म िवचरण कर रहे थे। अंजना भी
अब उनके साथ हो गयी।
नारद की योजना के अनुसार इं द कार म गु कुल थािपत कर रहे थे।
गौतम ोंिक आयुध िवशेष थे, इं उनका सहयोग ा करने के उ े से उनके
आ म प ँ चे। गौतम उस समय आ म पर उप थत नहीं थे। अह ा का थान पंच-
क ाओं, अथात् ि लोक की पाँ च सव े सु रयों म था। इं िववाह के पूव से ही
उन पर आस थे। गौतम की अनुप थित म वे अपने पर िनयं ण नहीं कर पाए।
अह ा ने भी अनुभव कर िलया िक इं उस पर आस ह। वह भी इं के िनमं ण
को अ ीकार नहीं कर पाई।
ात:काल इं जब छु पकर आ म से िनकल रहे थे तभी गौतम वापस आ गए।
अपनी िद - ि से उ सारे वृ ां त का ान हो गया। उ ोंने द के हार से इं
का अंडकोष िवदीण कर िदया साथ ही अह ा को ब त खरी-खोटी सुनाकर उसके
प र ाग का िनणय ले िलया। बालक बािल और सु ीव स ान की लालसा से गौतम
की शरण म आए िक ं धापित ऋ राज को सौंप िदए गए। गौतम आ मवािसयों
को दू सरा आ म थािपत करने की आ ा दे कर यं िहमालय की कंदराओं म
एकां त तप ा के िलए चले गए।
अंजना गभवती ई तो उसने िक ं धा म संतान को ज दे ने की इ ा कट
की। केसरी उसे लेकर िक ं धा लौट आए। बािल और सु ीव अब ऋ राज के पु
थे। वे दोनों गौतम के आ म म अंजना के साथ ही पले थे इस नाते अंजना उनकी
बहन थी। ऋ राज की प ी ने अंजना को भी पु ीवत ीकार िकया। केसरी और
अंजना के पु का नाम व ां ग रखा गया जो िबगड़कर बजरं ग और िफर हनुमान हो
गया। बािल और सु ीव के साथ हनुमान भी दे वों ारा थािपत गु कुल म िश ा ा
करने लगे।

चौथी कथा अग की है -
महिष अग का आ म सु रवन े म था। इस े म सुकेतु नामक य का
शासन था। उसकी पु ी ताड़का अ ंत दीघकाय और बलवान थी। उसका िववाह
सु नामक दै के साथ आ था। सुकेतु के उपरां त ये दोनों ही उस े के
अिधपित ए। ताड़का और सु के पु मारीच और सुबा अपनी उ ं डताओं से
ऋिषयों को िकया करते थे। सु और ताड़का उनकी उ ं डताओं को ब ों का
खेल समझ कर आन त होते थे। अंतत: एक िदन अग ने उन दोनों बालकों को
द त करने का िनणय ले िलया और उ पकड़कर एक कुिटया म बंद कर िदया।
इस पर सु और ताड़का से िववाद बढ़ गया, प रणामत: य -वेदी सु की िचता
बन गयी और अग ारा अिभमंि त अ तों के हार से ताड़का अ ंत कु प हो
गयी।

पाँचवी ं कथा श ूक की है -
श ूक एक रजक (धोबी) कुल का बालक था िजसकी अ यन के ित गहरी
िच थी। वह संयोगवश महामा जाबािल के स क म आया और उ ोंने उसे
िश ा दे ना आरं भ कर िदया। िकसी शू को िश ा दे ने का िवरोध भी आ िकंतु
गु दे व विश का, असहमित के बावजूद, मौन समथन जाबािल को ा था, अत:
श ूक की िश ा चलती रही।
छठी कथा मंगला की है जो पूणत: का िनक पा है -
मंगला अयो ा के े ी मिणभ की क ा थी। उसका एक भाई ‘वेद’ गु कुल म
अ यन करता था। अचानक मंगला को भी वेद पढ़ने की धुन सवार हो गयी। घर
वाले इसके िलए तैयार नहीं थे। बात जाबािल तक भी प ँ ची, उ ोंने मंगला को पढ़ाने
का ाव िदया। मंगला के िपता तो एक बार सोच भी रहे थे िकंतु माता अपने हठ
पर अिडग थीं िक लड़िकयाँ वेद नहीं पढ़ सकतीं। बात ब त बढ़ गयी ... इतनी िक
अंतत: एक िदन माता की बातों से आहत होकर मंगला घर छोड़कर िनकल गयी।

ख दो : दशानन
दशानन म भी कई कथाय आपस म गु फत चलती ह।

पहली सुमाली-रावण की कथा-


रावण को सुमाली लंका वापस िलवा तो लाया िकंतु वह अभी तक वेदवती के
िचतारोहण के आघात से बाहर नहीं आ पाया था। कुछ सुमाली के यासों से और
कुछ रावण के अपने यासों से धीरे -धीरे रावण ने अपनी मन थित से उबरना आरं भ
िकया। मंदोदरी ने भी उसकी सहायता की। मंदोदरी ने ही उसे सुझाया िक वह इस
मन थित से तभी उबर पाएगा जब वह यं को िव ु से े िस कर दे गा।
रावण यं को सबसे े िस करने के अिभयान पर िनकल पड़ा। सुमाली
ससै अिभयान के प म था िकंतु रावण ने उसका ाव अ ीकार कर िदया।
उसका िवचार था िक उसे अपनी गत े ता थािपत करनी है , इसके िलए
िनद ष सैिनकों और जनता के ाणों से खलवाड़ करने की कोई आव कता नहीं।
िफर भी सुमाली उसे इसके िलए मनाने म सफल आ िक वह एकाएक िव ु या
इ पर नहीं चढ़ दौड़े गा।
रावण ने अिभयान का आर िक ं धा से िकया। ऋ राज की मृ ु के उपरां त
अब बािल वहाँ का शासक बन चुका था। रावण ने यह जानते ए भी िक शारी रक
बल म बािल का कोई मुकाबला नहीं है , उसके साथ म -यु का ाव रखा।
अपनी योगश से उसने बािल को पया ितरोध भी िदया। अंतत: रावण परािजत
आ, िकंतु बािल जानता था िक यिद रावण श ों से यु का ाव करता तो वह
(बािल) उसके सम कहीं नहीं िटकता। उसने सहष रावण के िम ता के ाव को
ीकार कर िलया।
िक ं धा के उपरां त रावण वैजयंतपुर प ँ चा। श र के पतन के उपरां त
वैजयंतपुर कई टु कड़ों म िवभािजत हो गया था िकंतु सभी दे वों से घृणा करते थे।
रावण म उ अपना उ ारक िदखाई पड़ा। वहाँ रावण को िकसी ितरोध का
सामना नहीं करना पड़ा। वैजयंतपुर की दशा ब त िबगड़ी ई थी, रावण उसे
सुधारना चाहता था िकंतु तभी उसे मंदोदरी का संदेश िमला िक मेघनाद का िविधवत
िव ार होना है और उसम रावण की उप थित अिनवाय है । मेघनाद की िश ा के
िलए मंदोदरी की सलाह पर दै गु शु ाचाय का चयन िकया गया था। रावण लंका
लौटा। काय म स होने के उपरां त वह इस बार सुमाली को भी अपने साथा
वैजयंतपुर ले आया और वैजयंतपुर की व थाओं को स ालने म जुट गया।
इसी बीच गंधवराज िम ावसु का आगमन आ। उ ोंने रावण के स ुख अपने
साथ गंधवलोक चलने का ाव रखा। सुमाली ने भी उनके ाव का समथन
िकया। सुमाली आने वाले इं के साथ यु म, दे वलोक के िनकट थत गंधवलोक
के साथ िम ता-संबंधों की उपयोिगता समझता था। गंधवलोक म रावण की
भट िम ावसु की सवगुण-स सु री क ा िच ां गदा से ई। दोनों म पर र
अनुराग बढ़ा िजसकी प रणित उनके िववाह के प म ई।
गंधवलोक के उपरां त रावण ने मिह ती के स ाट् सह बा अजुन से िभड़ने
का िनणय िकया। रावण को एक बार पुन: पराजय का ाद चखना पड़ा। अजुन ने
उसे ब ी बना िलया। सूचना िमलने पर पुल ने आकर उसे मु करवाया।
पुल के कारण अजुन भी रावण का िम बन गया।
रावण एक बार पुन: िद जय पर िनकल पड़ा और एक के बाद एक राजाओं को
परा करता चला गया। उसका तरीका वही था- अकेला जाता और राजा से ‘यु ं -
दे िह’ कहकर यु की याचना करता। अनेक राजाओं ने िबना लड़े ही उसकी
अधीनता ीकार कर ली। रावण का अिभयान चलते-चलते िव पवत पार कर
पूव र के रा ों तक प ँ च गया।
आगे उशीरबीज नामक रा था िजसका राजा म था। म को भी रावण ने
चुनौती दी। म उस समय माहे र य म दीि त था। उसने रावण की चुनौती
ीकार करनी चाही िकंतु य ाचाय महिष संवत ने यह कहकर रोक िदया िक
माहे र य म दीि त श हण नहीं कर सकता। म ने श रख िदए।
रावण के साथ इस या ा म मा उसके दो मं ी शुक और सारण थे, म के श
रखते ही उ ोंने रावण की िवजय की घोषणा कर दी।
रावण और आगे आयावत- ावत की ओर बढ़ता उससे पूव ही नारद ने ह ेप
िकया। नारद ने उसे सलाह दी िक उसका उ े यं को सव े िस करना है ,
इसके िलए इन सारे िनरीह नृपों से यु करने की ा आव कता है , वह सीधे दे वों
और लोकपालों से यु ों नहीं करता? दे वों पर िवजय ा करते ही वह त: ही
सव े िस हो जाएगा। रावण ने नारद की सलाह ीकार कर ली। िकंतु दे वों पर
आ मण करने के िलए उसने एकाकी अिभयान के थान पर ससै अिभयान को
वरीयता दी।
सबसे पहले उसने यमलोक पर चढ़ाई की। यम ने सोचा था िक रावण को आसानी
से परा कर दगे िकंतु रावण भारी पड़ने लगा। उसका कालपाश नामक अ भी
रावण काे रोक नहीं पाया। अंतत: यम अपने सवसंहारक अ कालद का हार
करने को उ त ए िकंतु तभी ा कट हो गए और यम को रोक िदया। यम
िपतामह की अवहे लना नहीं कर सकते थे, ोध म उ ोंने रणभूिम छोड़ दी, रावण
की िवजय हो गयी।
आगे नागराज वासुिक ारा शािसत भोगवती पुरी थी। वहाँ रावण को अिधक
ितरोध का सामना नहीं करना पड़ा।
अगला रा िनवातकवच नामक दै ों ारा शािसत मिणमयीपुरी था।
मिणमयीपुरी एक ऊँची पहाड़ी पर अभे ाचीर ारा रि त नगरी थी। यहाँ भी ा
ने ह ेप कर दोनों प ों म िम ता करवायी।
उसके आगे कालकेयों ारा शािसत अ नगर था। यह ब त छोटा सा रा था।
चं नखा का पित िवद् यु अपने िपता के उपरां त इसका शासक बन चुका था
िकंतु रावण को इस स का सं ान नहीं था। रावण ने यहाँ भी यु की चुनौती दी।
कालकेय भी हठी थे, रावण यिद चुनौती दे ने से पूव िवद् युत से वाता करता तो
वह सहजता से उसकी अधीनता ीकार कर लेता, उसे तो पता ही था िक रावण
उसकी प ी का अ ज है इस नाते उसका भी े है , िकंतु चुनौती को वह
अ ीकार नहीं कर सकता था। उसने अपने संबंध का भी प रचय नहीं िदया। यु
आ और िवद् युत मारा गया।
आगे व ण लोक था। व ण भी इं , यम और कुबेर के समान लोकपाल था। यहाँ
पुन: ा ने रावण की सहायता की। उ ोंने रावण के आ मण से पूव ही संगीत-
गो ी के बहाने व ण को अपने पास बुला िलया। व ण न चाहते ए भी िपतामह के
आ ह पी आदे श की अवहे लना नहीं कर सकता था। थोड़े से ितरोध के उपरां त
रावण को वहाँ भी िवजय ा हो गयी। अब दे वों लोकपालों म मा इं शेष था।
िकंतु सुमाली के परामश के अनुसार इं पर अिभयान से पूव वे एक बार पुन: लंका
वापस आए।
लंका म िवद् युत की मृ ु का समाचार प ँ च चुका था और चं नखा अधिवि
की सी थित म थी। बड़ी किठनाई से रावण उसे उस समय शां त कर पाया। तभी
िवभीषण ने उसे सूचना दी िक उसकी मौसी की पु ी कु ीनसी दै राज मधु के
साथ चली गयी है । दोनों आघात बड़े थे, ोध म रावण ने िवभीषण से ब त कुछ कह
िदया। दोनों भाइयों के मनों म न चाहते ए भी दरार पड़ गयी।
मेघनाद को अब तक आचाय शु सम िव ाओं म द कर चुके थे। व ुत:
अब वह रावण से भी अिधक तेज ी हो चुका था। इस तेज ता के बावजूद वह
अ ंत शालीन का ामी था।
चं नखा को उ ाद की अव था से िनकालने के िलए रावण ने उसे लंका से दू र
करने का िवचार िकया तािक लंका म िवद् युत से जुड़ी ृितयाँ उसके मन को
आ ोिलत न कर पाय। इसिलए उसने चं नखा को द कार की ािमनी बना
िदया। सम कायभार दे खने के िलए मौसेरे भाई खर को उसका सहयोगी बना
िदया और दू षण को सेनापित। चौदह सह सै भी उनके साथ कर िदया।
इं पर अिभयान के िलए सुमाली ने समु माग चुना। यह अब तक का सबसे
िवशाल सै अिभयान था। पहली बार मेघनाद भी इस अिभयान का अंग था। रावण
शेष सै से पृथक पु क से वैजयंतपुर, मधुपुर होते ए गंधवदे श म उनसे िमलने
वाला था। वैजयंतपुर म सभी अ ंत उ ािहत थे इस अिभयान से। श र वध के
बाद से वे दे वों से अ ंत घृणा करते थे। रावण ने उ भी गंधवदे श म आकर िमलने
का आदे श िदया।
रावण मधुपुर अ ंत ोिधत अव था म प ँ चा था। वह मधु को दं िडत करने आया
था, िकंतु वहाँ जब कु ीनसी ने कहा िक वह े ा से मधु के साथ आई थी तब
िफर ोध करने का कोई कारण ही नहीं बचा। वहाँ से मधु भी अपने सै समेत
रावण के साथ हो िलया। आगे जाकर गंधवराज का सै भी इनके साथ िमल गया।
गंधवदे श से सबने दे वलोक की ओर थान िकया। रावण एक बार पुन: सबसे पृथक
पु क म था, वह अिभयान से पूव िशव का आशीवाद लेना चाहता था। िशव से
आशीवाद लेकर जब रावण आगे बढ़ा तो कैलाश की ाकृितक सुषमा म एक बार
पुन: खो गया। यहीं पर कुबेर की अलकापुरी थी। वहाँ कृित की मादकता, गंधव
और अ राओं का उ ु रमण, िच ां गदा की मादक ृितयों और मिदरा के
भाव ने उसकी वासना और अहं कार को उ ी कर िदया। उसकी ऐसी मानिसक
अव था म सोलह ंगार िकए, उ ेजक-झीने व ों म िलपटी अ रा र ा उधर आ
िनकली। र ा ने रावण के रमण के ाव को यह कह कर ठु करा िदया िक आज
के िदन वह उसके भतीजे नलकूबर की प ी है , आज के अित र िकसी भी िदन
वह उसका ाव सहष ीकार कर लेगी। अपनी उस समय की मानिसक अव था
म रावण को उसकी बात पर िव ास नहीं आ, उसने बलात र ा से रमण िकया।
ात: होश म आने पर और नलकूबर ारा िध ारे जाने पर रावण को आ ािन
ई। उसने समािध म जाकर ण िलया िक भिव म कभी भी, िकसी भी ी को
उसकी इ ा के िबना श नहीं करे गा।
नारद के इं से िकए गए अनुमान एक बार पुन: स िस ए। िशव ने इं
की िकसी भी कार की सहायता करने से मना कर िदया। िव ु, जो िक इं के
छोटे भाई थे, ने भी यं को यु से िवरत रखा। रावण ि लोके र हो गया। मेघनाद
ने इं को ब ी बना िलया। मय की प ी, म ोदरी की माता हे मा, िजसे इं अपने
साथ ले गया था, मय को पुन: ा हो गयी। सारी उपल यों के बावजूद इस यु म
रावण को भी अपूरणीय ित उठानी पड़ी थी- सुमाली की मृ ु के प म।
ा के आ ह पर मेघनाद ने इं को मु कर िदया। बदले म उसे उनसे एक
अभे रथ ा आ। इसी अवसर पर आयोिजत िवजयो व म ा ने मेघनाद को
इं िजत की उपािध से स ािनत िकया।
इं िवजय के उपरां त िच ां गदा भी रावण के साथ लंका आई। वह लंका म भी
रावण के साथ वैसे ही उ ु रमण की आकां ा रखती थी जैसा उ गंधवदे श म
ा होता था िकंतु लंका म यह संभव नहीं था। उसे रावण को मंदोदरी के साथ
बाँ टना भी पसंद नहीं था, फलत: दोनों म दू रयाँ बढ़ने लगीं। चं नखा की
थित म कोई सुधार नहीं था। वह रावण से िदल से ार करती थी, उसका स ान
भी करती थी परं तु साथ ही साथ उसे अपने पित का ह ारा भी मानती थी। ये पर र
िवरोधी भावनाय उसे सामा होने नहीं दे रही थीं।
रावण को अब तक मेघनाद के अित र मंदोदरी से एक और पु अ य कुमार
ा आ था। िच ां गदा से उसे जुड़वाँ पु दे वा क और नरां तक ा ए। रावण
को भी िविभ िवजयों म उपहार के प म शतािधक पवती याँ उप-पि यों के
पम ा ई थीं। इनम से भी िक ीं से उसके दो पु थे- अितकाय और ि िशरा।
मंदोदरी के दु कृित के भाई दुं दुभी और मायावी, िजनका दीघ अविध से मय
और मंदोदरी से कोई संबंध नहीं था, भी रावण की बढ़ती ाित सुनकर लंका आ
गए। िकंतु उनके उ ं ड आचरण के चलते अंतत: रावण ने उ अपमािनत कर लंका
से िन ािसत कर िदया।
मेघनाद म इं -िवजय के उपरां त भी अहं कार ने ज नहीं िलया था। वह अब भी
िकसी िव ाथ की भाँ ित ही रहता था और अपना अिधकां श समय िनकु ला
य शाला म ही गु दे व शु से साथ अ यन और अ ेषणों म तीत करता था।
मा वान के परामश पर, उसकी राजकाज म िच जा त करने के उ े से
उसका युवराज के प म, उसकी इ ा के िबना, िविधवत अिभषेक कर िदया गया।
सुमाली ने अपने िव ार अिभयान म लंका से लेकर सुंदरवन तक जो स क-सू
फैलाए थे उनके िवषय म रावण को कोई ान नहीं था। वे सू धीरे -धीरे टू टने लगे।
बस दं डकार म खर-दू षण और सुंदरवन म ताड़का और मारीच-सुबा ही र -
सं ृ ित के िव ार के िलए काय कर रहे थे। दोनों ही े ाचारी हो रहे थे। रावण
को संभवत: उनकी गितिविधयों के िवषय म ान भी नहीं था।
सुमाली अब नहीं था। रावण उसकी छाया से बाहर आ रहा था। अचानक एक िदन
उसे अपने िपता की याद आ गयी, उनसे उसकी ब त समय से भट नहीं ई थी। वह
मंदोदरी और मेघनाद को लेकर िव वा के पास प ँ चा। िव वा ने उसे अपने अंदर
सोये पुल के पौ को जा त करने का उपदे श िकया। उ ोंने कहा िक सुमाली
का दौिह रावण, कभी भी िव ु पर अपनी े ता िस नहीं कर पायेगा िकंतु
पुल का पौ कर सकता है । रावण ने अब अपने समय का उपयोग जा की
उ ित के साथ-साथ सािह , संगीत, कला आिद िविवध िवषयों म करना आरं भ कर
िदया। इन सबका साथक भाव भी पड़ा। इं िवजय की पाँ चवीं वषगाँ ठ के उपल
म आयोिजत उ व म, स ूण ि लोक के मह पूण यों की उप थित म,
नारद ने उसके ब आयामी की शंसा करते ए उसे ‘दशानन’ की उपािध
से िवभूिषत करने का ाव िकया। सव थम िव ु ने ही उसका अनुमोदन िकया।
तदु परां त सबकी सहमित से ा ने उसे दशानन के प म मा ता दी। रावण अब
दशानन हो गया था- सम दस िव ाओं का ाता।

दू सरी कथा दे वों और नारद की -


िक ं धा और द कार म चलते गु कुलों की गित से इं स था िकंतु
उसे शंका थी िक इन गु कुलों म िशि त यो ा भिव के यु म राम का सहयोग
ों करगे? वानरराज बािल रावण का िम है , उसके साथ ये सब भी रावण के प म
ही जायगे। दि ण की सबसे बड़ी श मिह ती का कातवीय अजुन भी रावण का
िम है । मिह ती का कोशल से ब त पुराना वैरभाव भी है , ऐसे म वह भी रावण के
ही प म होगा!
नारद उ आ िकया और एक िदन स ोहन िव ा का योग करते ए बािल
के मन म सु ीव के ित संदेह का बीज रोप िदया। सह ाजुन के िलए भी वे
जामद ेय राम- परशुराम को तैयार करना आरं भ करते ह।

तीसरी कथा राम और उनके भाइयों की-


राम चारों भाई गु कुल म विश के िनदशन म पढ़ और कढ़ रहे थे। जाबािल के
एक से े रत विश ने, नारद से ल ण को भी योजना म स िलत करने का
आ ह िकया। साथ ही उ ोंने राम-ल ण की आगे की दी ा िव ािम के िनदशन
म होने का भी ाव रखा। नारद पहले ही इस िवषय म भूिमका बना चुके थे। नारद
ने विश को सीता के िवषय म भी बताया िक वह व ुत: रावण की पु ी है और
उसका ज ही िपतृकुल के िवनाश का कारण बनने के िलए आ है । अत: िव ािम
राम और सीता के िववाह के भी सू धार बनगे। योजना आगे बढ़ी, िव ािम अपनी
भूिमका के िनवहन हे तु राम और ल ण को, ताड़का से ाण िदलाने के बहाने,
दशरथ से माँ ग ले गये।

चौथी कथा सीता की-


जनक के यहाँ सीता पलने लगीं। कुछ ही िदनों म जनक की अपनी पु ी उिमला
का ज आ। उिमला के ज से सीता के ित जनक या सुनैना का ेह कम नहीं
आ। सीता को आरं िभक िश ा यं जनक ने ही दी, उसके उपरां त दोनों बहनों को
गु कुल भेजा गया। सीता अ ंत िवदु षी क ा के प म िवकिसत हो रही थीं। सीता
के ज की वा िवकता से प रिचत नारद एक िदन जनक से भट करने िमिथला
आये और उ ोंने उ सीता को वीयशु ा घोिषत करने का परामश िदया। जनक
ने ऐसा ही िकया।

पाँचवी ं कथा बािल-सु ीव की-


वानरराज ऋ राज के उपरां त बािल िक ं धा का राजा बना और सु ीव युवराज।
बािल का िववाह पंचक ाओं म एक, अ रा तारा से आ था और सु ीव का मा
से। केसरी और अंजना के पु हनुमान शारी रक और मानिसक दोनों ही प से
अिव सनीय गित कर रहे थे। बािल को तो अब राजकीय ताओं के कारण
समय नहीं िमलता था िकंतु सु ीव के पास समय ही समय था। हनुमान की उसके
साथ बिढ़या जोड़ी जम रही थी। बड़े होने के साथ-साथ बािल का पु अंगद म इस
टोली म शािमल होता जा रहा था। तभी एक िदन नारद का आगमन आ और वे
कुशलता से बािल के मन म सु ीव के ित संदेह का बीजारोपण कर गए।
लंका से िन ािसत दु दुिभ और मायावी िक ं धा म उप व करने लगे। पहले तो
बािल ने रावण का स ी होने के कारण उनके साथ नम का बताव िकया िकंतु
जब अिधक आ तो एक िदन उसने मायावी की तगड़ी धुनाई कर दी और उसे
दु बारा न िदखाई दे ने की चेतावनी भी दे दी। बाद म दु दुिभ बािल को ललकारने
आया और बािल के हाथों मारा गया। बािल ने ोध म दु दुिभ की लाश को उठाकर
दू र फक िदया। वह िनकट ही थत मतंग वन म मतंग ऋिष के आ म के ार पर
िगरी जाकर। आ म अपिव होने के कारण कुिपत ऋिष ने शाप िदया िक िजसने भी
यह कृ िकया है वह जैसे ही मतंग वन म वेश करे गा, उसका िसर टु कड़े -टु कड़े
हो जाएगा।
कुछ िदन बाद मायावी िफर लौटा और ललकारते ए छल से बािल को एक गुफा
म ले गया। बािल सु ीव को गुफा के ार पर छोड़ भीतर मायावी की खोज म चला
गया। भीतर मायावी को खोज उसका वध करने म बािल को कई िदन लग गए। जब
वह वापस आया तो दे खा िक गुफा का ार एक िवशाल च ान से बंद कर िदया गया
है । नारद ारा रोपा गया संदेह का बीज अचानक िवष वृ बन गया। बािल ने सु ीव
को ब त अपमािनत कर िक ं धा से िन ािसत कर िदया। हनुमान सु ीव को नहीं
छोड़ सकते थे, वे भी पीछे -पीछे आ गए। दोनों ने मतंग वन म थत ऋ मूक पवत
पर आ य िलया। धीरे -धीरे अंगद भी वहाँ िन आने लगा। कुछ अ वानर भी वहाँ
आ गए।

छठी कथा परशुराम की-


परशुराम का भी नाम ‘राम’ ही था। वे िशव ारा ा फरसा ‘िवद् युतद् युित’
सदै व अपने साथ रखते थे इसिलए उनका नाम परशुराम पड़ गया। वे िव ािम की
बड़ी बहन स वती के पौ और भागव जमदि के पु थे। भागव पर रागत प
से मिह ती े के सम ि यों के कुलगु थे। इस समय कुलगु के पद पर
जमदि सुशोिभत थे। परशुराम उ भाव के थे और अ -श ों म िवशेष िच
रखते थे। वे इस े म आगे िश ण ा करना चाहते थे िकंतु जमदि का मानना
था िक वे ा ण है और उनके िलए इतनी ही श िव ा पया है । िफर भी नारद
के दबाव दे ने पर वे परशुराम को आगे िश ण लेने हे तु िव ािम के पास भेजने को
सहमत हो गए। परशुराम ने पहले िव ािम से श िव ा सीखी और िफर िव ािम
के ही यास से यं िशव से भी िश ा ा की। मा ताओं के अनुसार परशुराम
और मेघनाद उस समय के सव े यो ा थे।
परशुराम को िशव के पास से वापस आए कुछ ही समय आ था िक एक िदन
आ म की कामधेनु वंश की गौ किपला को लेकर जगदि से है हयराज अजुन का
िववाद हो गया। अजुन किपला को बलात अपने साथ ले जाना चाहता था। इस यास
म वह परशुराम के हाथों मारा गया। इसका बदला लेने के िलए अजुन के पु ों ने
परशुराम की अनुप थित म जमदि की ह ा कर दी और सारा आ म जला डाला।
ोिधत परशुराम ने ितशोध म है हय वंश का समूल नाश कर िदया। इसम उस े
म िनवास करने वाले अ वंशों के ि यों ने भी उनका सहयोग िकया, जमदि के
बाद वे परं परागत प से उन सबके कुलगु जो थे। अजुन ारा गु और गौ का
अपमान और उसके पु ों ारा गु की ह ा से वे सारे ही उन सबसे कुिपत थे।

मंगला की कथा-
घर से भागी ई मंगला भटकती ई सौभा से एक भले िकसान महीधर के पास
प ँ च गयी। महीधर ने उसका पढ़ने का ढ़ िन य जानकर उसे एक बड़े और भले
वसायी सेनिजत के साथ के साथ कर िदया िक वे मंगला को ले जाकर महाराज
जनक को सौंप द। लड़िकयों के िलए िश ा ा करना िमिथला के अित र कहीं
भी संभव नहीं था। माग म ही साथ को लुटेरों ने लूट िलया। उस लूट म सेनिजत
और उनके पु मारे गए। बाद म पता चला िक इस कां ड म यं सेनिजत के अपने
सुर ाकम ही शािमल थे। यह लूट ठीक अह ा के आ म के नीचे से गुजरते माग
पर ई थी। मंगला को अह ा ने बचा िलया और उसे िशि त करने लगी।

अब आगे ...
1- िव ािम के साथ
राम और ल ण िव ािम के साथ सुंदरवन े म रा सों का उ ात रोकने के
िलए िनकल िलए। दशरथ ने ब त चाहा था िक वे लोग एक े रथ से थान कर,
अयो ा के सुकुमार राजकुमार िकस कार बीहड़ वन ां त म पैदल चल पायगे,
िक ु िष िव ािम ने िवन ता पूवक उनका िनवेदन अ ीकार कर िदया।
ल ी या ा थी। अयो ा से िनकल कर तीनों ने सु रवन जाने के िलए दि ण-पूव
का ख िकया। (सु रवन गंगा और सरयू (घाघरा) के संगम के प ात आज का गंगा
और सोन निदयों के म का े है । यह िबहार म पटना से थोड़ा सा पहले, पि म म
पड़ता है । आज पं0 बंगाल म गंगा के डे ा म जो सु र वन े है उससे यह िभ
है ।)
इनका या ा-माग अिधकां शत: सरयू के िकनारे -िकनारे ही था। जहाँ सरयू िवपरीत
िदशा म घुमाव लेती थी, वहाँ ये उसके साथ घूमने के थान पर सीधा माग पकड़कर
आगे बढ़ जाते थे और सरयू से दू र हो जाते थे। ऐसे म वन-उपवन िमल जाते थे, कहीं-
कहीं छोटे -छोटे ाम िमल जाते थे। थोड़ा आगे जाने पर िफर सरयू आकर उनके
साथ िमल जाती थी।
दोनों भाइयों ने कंधे पर धनुष धारण कर रखा था। पीठ पर तूणीर बँधे थे, कमर म
दोनों ओर कृपाण लटक रही थीं। हाथों म गोह के चम के अंगुिल ाण (द ाने) थे।
राम और ल ण दोनों को ही न तो पैदल चलने से और न ही शारी रक म से
कोई असुिवधा थी, गु कुल जीवन म उ इसका पया अ ास हो गया था। िफर
भी िव ािम के साथ चल पाना किठन हो रहा था। उनकी गित अिव सनीय प से
ती थी।
‘अ ज! िष चलते ह अथवा उड़ते ह?’ चलते-चलते ल ण ने राम की बगल म
आते ए िव यपूवक कहा।
‘उपहास नहीं।’ राम ने तुर वजना दी।
िव त राम भी थे, िक ु उनका चेहरा िनिवकार था। गु जनों के िकसी भी कृ
पर उठाना उनके भाव म नहीं था, िफर ये तो यं िष िव ािम थे,
ि भुवन म सुपूिजत।
‘उपहास नहीं कर रहा ाता, म तो स कह रहा ँ । मने पहले कभी िकसी को
इस गित से चलते नहीं दे खा।’
राम ने कोई उ र नहीं िदया तो ल ण यं ही आगे बोले-
‘वह भी इस अव था म, अद् भुत है ? म यं साथ म न चल रहा होता तो िव ास ही
न करता िक कोई इस अव था म भी िनर र ऐसी गित से चल सकता है ।’
‘हम सुदूर या ा करनी है । यिद इस गित से न चले तो िकतना समय तो या ा म ही
तीत हो जाएगा।’ राम ने उ र िदया।
‘ ाता! ऐसा नहीं तीत होता मानो आगे कहीं मेनका मुिनवर की ती ा म बैठी
हो और िवलंब हो जाने पर ...’ राम की भृकुटी पर पड़े बल दे ख कर ल ण ने
अचानक बात बदल दी- ‘दे खए उधर पेड़ों पर कैसी अिमयाँ लटक रही ह! थोड़ी सी
तोड़ लाऊँ? मा कुछ पल, म दौड़ कर आप दोनों से आ िमलूँगा। ... माग भी आन
से कट जाएगा, अिमयाँ खाते-खाते।’ ल ण चुहल से बाज नहीं आ रहे थे। उनकी
वाकपटु ता से राम के मुख पर भी हँ सी खेलने का यास करने लगी िकंतु उ ोंने
सायास उसे रोक िलया, बस आँ खों म उसकी परछाईं मा िदखाई पड़ी ल ण को।
उनके िलए इतना ही पया था।
‘तो जाऊँ ?’ ल ण ने उ ुकता से िकया।
‘नहीं, चुपचाप चलते चलो। हम िष के साथ अिश ता नहीं कर सकते।’ राम ने
ल ण की ओर दे खे िबना उ र िदया, वे अपनी मु ु राहट ल ण को नहीं िदखाना
चाहते थे।
ल ण ने मायूस होकर मुँह फुलाने का अिभनय िकया। कुछ काल मौन रहा, परं तु
ल ण अिधक दे र तक मौन कैसे रह सकते थे! िव ािम पता नहीं इनकी
फुसफुसाहटों को सुन रहे थे अथवा नहीं, िकंतु इस सबका उन पर कोई भी भाव
पड़ता िदखाई नहीं पड़ रहा था। वे इनके वातालाप से पूणत: िनिल , वैसे ही अपनी
गित से बढ़ते चले जा रहे थे और उनके पीछे -पीछे अयो ा के दोनों राजकुमार भी।
राम के िलए भले ही यह या ा उनके िश ण- िश ण का ही एक भाग थी, िकंतु
ल ण के िलए यह एक, आज की भाषा म कह तो- आउिटं ग थी, िजसका वे पूरा
आन लेना चाहते थे। यही दोनों के च र ों म अ र था। राम पूणत: मयािदत थे तो
ल ण असीिमत ऊजा का िनबाध ु टन। राम का अनुशासन इस ‘िनबाध’ को
सीमा म बाँ धे रखने का काय करता था। ऊजा को अनुशासन ाय: स नहीं होता,
िकंतु ल ण को राम का अनुशासन सदै व ीकार होता था, यह उनके पर र ेह
की पराका ा थी।
इसी तरह चलते-चलते साँ झ होने तक यह छोटा सा कािफला सरयू के िकनारे -
िकनारे पूव की ओर बढ़ता आ, अयो ा से डे ढ़ योजन (लगभग 20 िकलोमीटर) दू र
िनकल आया। साँ झ िघरने लगी थी। अक ात जैसे िव ािम को भान आ िक
राजकुमार थक गए होंगे, वे एक थान पर क गए।
‘व ! हम आज यहीं राि -िव ाम करगे।’
‘जैसी आ ा िष!’ दोनों कुमारों ने सहज भाव से उ र िदया।
पेड़ों के झुरमुट म एक थान पर बैठते ए िव ािम बोले-
‘अपने श ा यहीं रख दो और िफर दोनों सरयू म आचमन कर आओ।’
िनदशों के अनुपालन म कुमारों ने अपने धनुष, तूणीर, कमर म दोनों ओर लटक
रहीं कृपाण आिद वहीं िव ािम के पास रख दीं और यं सरयू की ओर चले गए।
‘बैठो यहाँ , मेरे स ुख।’ जब दोनों कुमार लौट आए तो िव ािम ने अपने सामने
संकेत करते ए कहा।
दोनों कुमार भूिम पर ही बैठ गए।
‘आज म तु बला-अितबला िव ाय दान क ँ गा।’
‘जी!’ दोनों ने उ र िदया।
‘जानते हो इन िव ाओं का ा उपयोग है ?’
‘जी, गु दे व ने बताया था िक इन िव ाओं के ान से भूख- ास और िन ा पर
िनय ण ा िकया जा सकता है ।’ राम ने उ र िदया।
‘मा ान से नहीं, इन िव ाओं के स क् अ ास से। िव ा तो मा एक यं है ,
तु ारे इस धनुष के समान। मा धनुष हाथ म पकड़ लेने भर से ल वेध नहीं हो
सकता। साधना-पूवक अ ास करना पड़ता है तब सटीक ल वेध की साम
अिजत होती है । इसी भाँ ित िकसी भी िव ा का साधना-पूवक अ ास करना पड़ता
है तभी वह िव ा उपादे य िस होती है ।’
‘जी गु दे व!’ दोनों कुमारों ने समवेत र म कहा।
ल ण जो कुछ समय पूव तक अ ा िवचारों म म थे, एकदम से पूणत:
एका हो गए। यही उनकी िवशेषता थी।
िव ािम कुमारों को दोनों िव ाओं का ान दे ने लगे। ाश- ाश का म, अंग-
संचालन, ान और मं सभी िव ािम ने कुमारों को भलीभाँ ित समझाये। एक मु त
का समय लगा इस सबम।
िव ाओं का ान दे ने के उपरां त िव ािम बोले-
‘इन िव ाओं के अ ास से की अती य श याँ जा त हो जाती ह।
िजतना अिधक इनका अ ास कर लोगे, तु ारी अती य श याँ उतनी ही
अिधक जा त हो जाएँ गी। इन िव ाओं को िस कर लेने के उपरां त कुछ पलों की
िन ा ही तु ारे िलए पया होगी। कई-कई िदनों तक भोजन ा न होने पर भी
तु ारी काय मता भािवत नहीं होगी। तु ारी एका ता, तु ारी रणश ,
तु ारी िनरी णश सब इतनी िवकिसत हो जाएँ गी िक तुम यं अचंिभत रह
जाओगे।
‘इन िव ाओं का आिव ार यं िपतामह ा ने िकया था, इस कार ये दोनों
िव ाय िपतामह की तेज नी क ाय ह।’
इतना कहकर िव ािम कुछ पल के और दोनों कुमारों की आँ खों म बारी-बारी
झाँ का। ल ण की आँ खों म तैर रहा था।
‘कोई शंका है ल ण?’
‘एक है गु दे व ...’ ल ण अपनी िज ासा रोक नहीं पाए।
‘पूछो ...’ िव ािम ने मु ु रा कर ल ण की आँ खों म झाँ कते ए ही कहा।
‘यिद ये िव ाएँ इतनी ही चम ारी ह, तब गु दे व ने हम पूव म इनका अ ास
ों नहीं करवाया?’
‘उिचत होता िक इस का उ र तु ारे गु दे व ही दे ते।’ िव ािम हठात्
मु ु रा पड़े ।
‘िक ु वे तो यहाँ उप थत ह नहीं!’
िव ािम कुछ ण वैसे ही स त ल ण की आँ खों म झाँ कते रहे िफर बोले-
‘ये अ ंत िविश गोपनीय िव ाएँ ह। ि लोक म कुछ ही यों को इनका ान
है । संभवत: इसीिलए तु ारे गु दे व ने अभी तक तु इनका अ ास नहीं करवाया।
संभव है भिव म करवाते, िक ु िविध ने यह काय मेरे मा म से स ािदत होना
सुिनि त कर रखा होगा, अतएव यह अवसर मुझे दान िकया।’
‘गु दे व को ान है इन िव ाओं का?’
‘िनि त ही है । ऐसी कौन सी िव ा है िजसका उ ान नहीं है !’ िव ािम ने यह
वा िजस िवमु भाव से कहा, उससे दोनों कुमार िव य और गौरव से भर गए।
हाँ , राम का चेहरा िनिवकार ही बना रहा पर ल ण ने अपने भाव िछपाने का कोई
यास नहीं िकया।
विश और िव ािम के म चली आ रही भयंकर ित ता की कहािनयाँ अब
अतीत का िवषय हो चुकी थीं। िव ािम अब अ ा के उस र को श कर
चुके थे, जहाँ लोभ, मोह, भय, ोध, ित ा, मह ाकां ा आिद िकसी भी भाव के
िलए कोई थान शेष नहीं बचता। सम जीवन और सम साम , की ा
और लोक-क ाण - इन दो महत् उ े ों को ही समिपत हो जाती है ।
विश तो पहले ही उस र को ा िकए ए थे।
‘और कोई ल ण?’ गु दे व िव ािम ने िकया।
ल ण, राम के चेहरे की ओर दे खने लगे। राम का चेहरा अभी भी िनिवकार था,
ल ण वहाँ कोई िज ासा नहीं खोज पाये तो वापस गु दे व की ओर मुड़ कर नकार
म िसर िहला िदया।
‘तो िफर शयन को ुत आ जाए।’ कहते ए गु दे व ने अपना उ रीय वहीं
भूिम पर िबछा िदया और लेट गए।
गु दे व के लेट जाने पर राम आगे बढ़कर उनके पैर दबाने लगे। जब यौवन म
वेश करती वय वाले, ऊजा से भरपूर उन दोनों को कुछ-कुछ थकान का अनुभव
होने लगा था, तब गु दे व तो वृ ाव था म वेश कर चुके थे। ल ण ने भी राम का
अनुसरण िकया।
गु दे व ने उ रोका नहीं िक ु अिधक दे र वह ि या चलने भी नहीं दी। कुछ ही
दे र म िनदश िदया-
‘हो गया अब, बस करो। तुम लोग भी शयन करो।’
दोनों कुमार भी अपने-अपने उ रीय िबछा कर लेट गए िकंतु आँ खों म नींद कहाँ
थी अभी!
‘ ाता! सो गए ा?’ ल ण ने राम की ओर करवट लेते ए पूछा।
‘अभी नहीं, बताओ?’
‘आपने दे खा था- िपताजी ताड़का, मारीच और सुबा का नाम सुनकर िकतना
भयभीत से तीत हो रहे थे।’
‘हाँ ! िक ु िपताजी अतीव वृ हो चुके ह।’
‘वृ ाव था शरीर की श को ीण करती है , मन की श को नहीं !’
‘ ा ता य है तु ारा?’ ल ण की बात सुनकर राम ने भी उनकी ओर करवट
बदल ली।
ल ण ने कोई उ र नहीं िदया। कुछ िवचार करते रहे । कुछ पल ती ा करने के
उपरां त राम आगे बोले-
‘िपता के वहार पर िवचार करने का हम अिधकार नहीं है । हम अपने कत ों
का िनवहन करना है । सो जाओ अब।’
‘म िपता के वहार का अनुशीलन नहीं कर रहा ाता। म तो मा इस ओर
संकेत कर रहा ँ िक यिद िपता भयभीत थे तो िन य ही वे दोनों दु दमनीय यो ा
होंगे।’
‘िनि त ही होंगे।’
‘तो ा हमारे िलए यह उिचत नहीं होगा िक थम उनकी वा िवक श का
आकलन कर तदु परा योजनाब ढं ग से उन से यु कर? हम अभी तक यु का
कोई अनुभव नहीं है । अित-आ िव ास भी घातक हो सकता है ।’
‘िनि त ही गु दे व ने इस िवषय म िवचार िकया होगा। मुझसे गु विश ने कहा
था िक अब हमारे आगे के िश ण का दािय गु दे व िव ािम का है । वे हम
ि या क िश ण दगे। यह अिभयान उसी िश ण का एक अंग है ।’ रावण का
नामो ेख िकए िबना राम ने ल ण को संतु करने का यास िकया। (दे ख
दशानन)
‘ ँ !’ ल ण ने कहा। िफर आगे बोले- ‘गु दे व ने अपना काय आरं भ भी तो कर
िदया है । आज ही हम थम दी ा दे दी है ।’
‘ तीत होता है , यह दोनों गु ओं की कोई साँ झी काययोजना है , िजससे िपता भी
अनिभ ह। अत: हमारे िलए उिचत यही है िक कोई िकए िबना िष के
िनदशों का अनुपालन करते रह। इसे कोई अिभयान न समझ कर िश ण का ही
एक भाग मान कर चल।’
‘हाँ !’ कुछ पल सोचने के उपरां त ल ण आगे बोले- ‘यिद गु विश ने पूव म ही
आपसे ऐसा उ ेख िकया था, तब तो यही तीत होता है ।’
‘तो अब सो जाओ। यिद चाहना तो कल गु दे व से इस िवषय म अपनी िज ासा के
शमन का यास करना।’
िक ु दू सरे िदन ल ण ने ऐसा नहीं िकया।
2- वीयशु ा सीता
जैसा नारद ने परामश िदया था, सीर ज जनक ने सीता को वीयशु ा (िजससे
िववाह हे तु िकसी िवशेष परा म को शु प म िनधा रत कर िदया गया हो।
दे खए दशानन।) घोिषत कर िदया था।
यह कोई यंवर नहीं था। सीता की अपनी आकां ा के िलए इसम कोई थान
नहीं था। जो भी पु ष उस धनुष पर शर-संधान कर दे ता, उसी को पित- प म वरण
करना सीता के िलए बा कारी था।
यह कोई िनि त समय पर होने वाला आयोजन भी नहीं था, घोषणा हो जाने के
उपरा जब तक कोई िनयमानुसार िनधा रत शत को पूरा कर िशवधनुष पर
शर-संधान करने म सफलता ा नहीं कर लेता, तब तक ितयोिगता खुली थी।
ऐसा सीता के वीयशु ा घोिषत होने के पहले िदन भी हो सकता था और वष तक
भी ती ा करनी पड़ सकती थी।
इसके िलए कोई उ व भी ािवत नहीं था। रा के सम काय िनर र
सामा िदनों की ही भाँ ित स ािदत हो रहे थे। िजस िदन भी कोई ाशी उप थत
होता था, उसे एक िदन रा का आित दान िकया जाता था और िफर दू सरे िदन
ितयोिगता म भाग लेने का अवसर दान कर िदया जाता था।
िविधवत िनम ण ेिषत कर िकसी को आम त भी नहीं िकया गया था। बस
सीता के वीयशु ा होने की घोषणा सा रत कर दी गयी थी। कोई भी ि य अथवा
ा ण आकर अपनी ािशता ुत कर सकता था। यह ‘बदनाम होंगे तो ा
नाम न होगा’ वाला समय नहीं था, यं को िवशेष परा मी समझने वाले ही आ रहे
थे ... परं तु उनकी सं ा भी कम नहीं थी। आरं भ म तो यह सं ा अिधक ही थी।
धनुधरों की कोई कमी नहीं थी और ि यों म तो ेक पु ष ही धनुधर था।
ािशयों म युवा भी थे, ौढ़ भी और वृ भी थे।
सीर ज को इन ौढ़ और वृ परा िमयों की कोई िचंता नहीं थी। उ नारद के
वचनों पर िव ास था िक इस सृि म दे व यी ( ा, िव ु, महे श) और यं उनके
(जनक के) अित र मा चार ही थे जो िशवधनुष पर शरसंधान करने की
साम रखते थे - रावण, परशुराम, िव ािम और शु ाचाय। इनम से िकसी को भी
अब िववाह म कोई िच नहीं थी। नारद ने सीता के यो दो ही वर बताए थे - राम
और इ िजत मेघनाद। इनम से राम को िव ािम ारा िशि त कर यो बनाया
जाना था और उ ीं के ारा सीता का वरण िकया जाना था। रावण अपने पु मेघनाद
को इस हे तु िशि त कर ुत ों नहीं करे गा? यह न तो सरलमना सीर ज ने
नारद से पूछा था और न ही कूटनीित नारद ने बताया था। िफर भी सीर ज िनि ंत
थे िक राम ही सीता का वरण करगे।
सीता के सौ य और गुणों की ाित चतुिदक ा थी, िक ु तब भी एक
आशंका थी िक ा आयावत के कुलीन ि य एक अ ात कुल-गो की क ा को
हण करना ीकार करगे? सामा थितयों म दशरथ सीता को अपनी पु वधू के
प म ीकार करते, इसकी नारद और सीर ज दोनों को ही कोई संभावना नहीं
तीत हो रही थी। यही तो कारण था िजसके चलते नारद ने सीर ज को सीता को
वीयशु ा घोिषत करने का परामश िदया था। वीयशु ा क ा को अपने परा म
से िविजत करने म छा दप को तुि ा होती, तब दशरथ की ओर से आपि का
कोई कारण शेष नहीं रह जाता। आगे राम के च र पर नारद को पूण िव ास था
और नारद के िव ास म सीर ज का िव ास था।
पहले ही कहा िक सीता के शील और सौ य की ाित सव ा थी। परं तु
अब उनकी तेज ता की ाित उससे भी दू नी गित से फैल रही थी। इसके पीछे भी
एक कथा है ।
कहा जाता है िक यह वही धनुष था िजससे भु िशव ने द के य का िव ंस
िकया था। बाद म दे वताओं ारा ाथना करने पर वे शां त ए और धनुष दे वताओं
को समिपत कर िदया। दे वताओं ने धनुष को धरोहर के प म सीर ज जनक के
पूव-पु ष दे वरात के पास रखवा िदया। तभी से यह धनुष धरोहर के प म जनक
के कुल म रखा चला आ रहा था।
यह धनुष थाई प से एक पिहयों वाली ब त बड़ी सी छकड़े नुमा गाड़ी पर रखा
आ था, िजसे खींचने के िलए ब त सारे िवशालकाय म -यो ा लगते थे। इसके
ऊपर एक ढ न भी था, िजसे कभी भी उठाकर अलग रखा जा सकता था।
अपने ऊपर िशव-धनुष को सँभाले यह िवशाल छकड़े नुमा गाड़ी राजभवन के एक
क म खड़ी रहती थी। धनुष ढ न से ढँ का रहता था। सभी को पता था िक इस
ढ न के नीचे भु िशव का िविश धनुष रखा आ है । िजस िवषय का हम सहज
ही सं ान होता है , उसके िवषय म िवशेष जानने की िज ासा उ नहीं होती। िदन
के समय, कोई भी जाकर उसे ा से णाम कर सकता था। इस कारण वह धनुष
लोगों के िलए आ था का क तो था, िज ासा का नहीं। यिद इस िवषय म कोई
ितबंध लगाया गया होता तो संभवत: अिधक िज ासाय ज लेतीं।
सीता भी िन ही एक बार उस क म जाकर ढ न हटाकर आ थापूवक धनुष
को णाम करती थीं परं तु िजस िदन से उ वीयशु ा घोिषत िकया गया, उनके
मन म इस धनुष के िवषय म िज ासा उ हो गयी। ाभािवक भी था।
सीता ल ी, खूब थ िकशोरी थीं। यौवन से भरपूर। उ ाह और ऊजा से
भरपूर। अपनी िज ासा से े रत, एक िदन सबसे छु पकर वे क म प ँ चीं। पहले-
पहल उ ोंने स दूक का ढ न उठाकर, मा धनुष का ानपूवक िनरी ण िकया।
उ ोंने पाया िक धनुष सामा धनुषों से आकार म ब त बड़ा है । वह का का नहीं
िकसी िवशेष धातु का बना आ है और सामा धनुषों की अपे ा ब त मोटा भी है ।
ऐसा धनुष सीता ने दू सरा कोई नहीं दे खा था।
दू सरे िदन वे पुन: उसी कार क म प ँ चीं। इस बार उ ोंने धनुष को छूकर भी
दे खा, िफर उठाने का यास भी िकया। परं तु अपनी स ूण श का योग करने
के बाद भी वे उसे रं चमा िहला भी नहीं पायीं। उनके माथे पर पसीना झलक आया
पर धनुष जैसे का तैसा ही रखा रहा।
अब तो वे िन ही वहाँ जाने लगीं। असफलता उनकी िज ासा को बढ़ाती ही जा
रही थी, उनके उस धनुष को उठाने के संक को िन ढ़तर ही करती जा रही
थी। वे िभ -िभ उपायों से यास करने लगीं। सारे धनुष को टटोल डाला ... शायद
कोई िवशेष तकनीक योग की गयी हो ... िकंतु कुछ भी समझ नहीं आया। उ
िनराशा होने लगी। वे भी सोचने लगीं िक इस धनुष को तो िहलाया ही नहीं जा
सकता। तब ा उ कुँवारी ही रहना पड़े गा?
एक िदन, संयोगवश जब वे अपने िन के यास म लगी ई थीं, तभी महाराज
सीर ज भी वहाँ आ प ँ चे। वे थोड़ी दे र मु ु राते ए सीता को दे खते रहे । सीता का
ान उनकी ओर नहीं था। िफर महाराज ने धीरे से सीता का कंधा थपथपाया। इस
अक ात श से सीता िसहर उठीं। उ ोंने ि उठाकर दे खा ... िपता थे। ा
िपता ोिधत होंगे? उनके ललाट पर ेद-िबंदु झलक उठे । िकंतु पल भर म ही
उ ोंने यं को संयत िकया और िफर मु ु रा दीं।
सीर ज ने सीता पर ोध नहीं िकया। ोध तो वे करते ही नहीं थे, िफर सीता तो
उनकी िवशेष दु लारी थीं।
‘यह ऐसे नहीं होगा।’ सीर ज बोले- ‘आओ म तु बताता ँ ।’
िफर वे धनुष के िसरों के म की ओर खड़े ए-
‘ ान से दे खना ...’ कहते ए उ ोंने धनुष को णाम िकया और िफर झुक कर
अपने दोनों हाथ उसके म भाग पर रख िदए।
सीता पूरे ान से दे ख रही थीं।
‘िगनना ...’ महाराज बोले। बोलने के साथ ही उ ोंने अपनी मुि याँ धनुष के म
भाग पर कस दीं और दोनों हाथों को एक-दू सरे की िवपरीत िदशा म इस कार
घुमाना आरं भ िकया जैसे हम िकसी चीज की चूिड़याँ खोलते ह। उ ोंने पाँ च बार यह
ि या दोहराई, िफर धनुष की ंचा को खींचा। ंचा एक िसरे पर बँधी ई थी,
दू सरे िसरे पर चढ़ाई जानी थी। महाराज ने उसे चढ़ाने का कोई यास नहीं िकया।
उ ोंने खाली वाले िसरे को उमेठ कर एक पूरा च र घुमा िदया। उनकी भुजाओं
की, कंधे की और पीठ की तनी ई मां सपेिशयाँ बता रही थीं िक इसम उ भरपूर
श लगानी पड़ रही है । एक बार उ ोंने पुन: ंचा को खींचा। इस बार भी
उनकी भुजाओं के तने ए ायु बता रहे थे िक उ भरपूर श का योग करना
पड़ रहा है । उनके म क पर ेद झलकने लगा िकंतु वे अपने यास म सफल ए,
धनुष का म भाग लगभग एक अंगुल और अंदर की ओर झुक गया।
उ ोंने एक लंबी साँ स ली और ि उठाकर सीता की ओर दे खा। वे आ यचिकत
सी पूरे ान से स ूण ि या को दे ख रही थीं। िपता की उठी ि को दे खकर
उ ोंने अपना िसर ह े से िहला िदया, वे ि या को समझ रही थीं।
उसके उपरां त सीर ज ने अपने दोनों हाथों की उँ गिलयों को अलग-अलग कोण
पर मोड़ते ए अपने हाथों को धनुष के िकनारों की ओर सरकाना आरं भ िकया। जब
उनके हाथों ने आधी दू री तय कर ली तो एक खट् की िन यी। उ ोंने मु ु राकर
सीता की ओर दे खा। सीता ने धीरे से िसर िहला िदया, वे समझ रही थीं। अब
सीर ज ने अपने दोनों हाथ धनुष के घूमे ए िकनारों पर रखे और उँ गिलयों को पुन:
िवशेष कोण पर मोड़ा। उ ोंने िफर से िसर उठाकर सीता की ओर दे खा। सीता ने
पुन: मंद त के साथ िसर िहलाया। अब महाराज ने अपने हाथों को उसी कार
म की ओर सरकाना आरं भ िकया। एक बार िफर जब हाथों ने आधी दू री तय कर
ली, तो एक खट का र आ। उनके मुख पर संतोष की मु ान फैल गयी। अब
उ ोंने अपने दोनों हाथ पूरी ढ़ता से धनुष के म भाग पर िटकाए और श
लगायी ... धनुष अपने थान से थोड़ा सा उठ आया। महाराज ने उसे पूरा उठाने का
यास नहीं िकया, वैसे ही वापस रख िदया।
वे सीधा खड़े ए। सीता की ओर ि उठाई।
‘ ि या दय थ की?’ उ ोंने पूछा।
‘हाँ , िपताजी। जिटल है िक ु अब म भी कर लूँगी।’
सीर ज ने पुन: सारी ि या उ ी दोहरायी, िफर पीछे हट गए और सीता के
िलए थान र कर िदया।
इस बार सीता ने स ूण ि या दोहरायी। एक बार उ ककर, बस दो पल के
िलए सोचना पड़ा िकंतु उ ोंने िबना िकसी ुिट के काय स कर िलया। उ ोंने
अपने िपता के समान मा धनुष को थोड़ा सा उचका कर वापस नहीं रख िदया,
उ ोंने दोनों हाथों से उसे पूरा उठा िलया- िबलकुल सीधे सामने तानकर। इस ि या
म उनकी ास ती हो गयी, भुजाओं के ही नहीं पीठ के ायु भी तन गए, ललाट पर
अनेक ेद-िबंदु मचल पड़े , िक ु उनके रोम-रोम म अतीव स ता नतन कर रही
थी।
इसी बीच अक ात् एक कमचारी महाराज से कुछ पूछने के िलए उस क के
वेश ार पर आ गया। उसने जैसे ही सीता को धनुष थामे दे खा, अचंभे से उसकी
आँ खे फटी की फटी रह गयीं। वह महाराज और राजकुमारी को णाम िनवेदन
करना भी भूल गया। िन य ही यह एक अचंभा था। िजस धनुष को कोई नहीं उठा
सकता था, उसे कोमलां गी राजकुमारी ने उठा िलया था।
सीता का पूरा ान धनुष की ओर ही था िकंतु सीर ज ने उस कमचारी की
उप थित को ल िकया। उ ोंने ह े से सीता का कंधा थपथपाते ए धनुष को
यथािविध-यथा थान रखने का संकेत िकया और मु ु राते ए ार की ओर ... उस
हकबकाए कमचारी की ओर बढ़ गए।
उसके बाद तो धीरे -धीरे स ूण िमिथला म और िफर स ूण आयावत म सीता की
ाित फैल गयी िक िजस धनुष को बड़े से बड़ा यो ा नहीं उठा सकता, उसे
राजकुमारी ने खेल-खेल म उठा िलया। सीता की दै वीय श का इससे बड़ा माण
और ा हो सकता था!
इधर सीता को अनुभव हो रहा था िक भले ही उ ोंने धनुष को उठा िलया था,
िकंतु उसकी ंचा चढ़ा पाना उनकी साम के बाहर की बात थी। पर इसका उ
कोई क भी नहीं था। वे तो स थीं िक धनुष को उठाया जा सकता है । इसिलए भी
स थीं िक उ िपता के िव ास पर िव ास हो गया था, िक इतनी जिटल ि या
को मा वही स ािदत कर सकेगा िजसका िविध ने उनके िलए चयन कर
रखा है । सपनों के उस राजकुमार की छिव भले ही अभी उनके ने ों म नहीं
यी थी ... िकंतु उ जैसे उससे अभी से ार हो गया था।
***
अनेक राजपु ष आ रहे थे। वे आते थे, यास करते थे, ाणपण से यास करते थे
... और अंतत: िनराश लौट जाते थे। सीर ज जनक ेक राजपु ष की
असफलता पर ोभ और िनराशा का दशन करते थे, पर वह दशन मा ही होता
था, एक साधु पु ष की िकसी हताश के शोक म सहभािगता। व ुत: तो उ
राम की ती ा थी। उ ती ा थी िक नारद कौन सा चम ार कर राम को सीता
के वरण के िलए लेकर आते ह ... साथ ही िकस कार राम को उस महान धनुष के
संधान की िव ा से प रिचत करवाते ह। वे ती ा कर रहे थे ... िनरास -िनरपे
भाव से।
राजपु षों म अब असंतोष भी पनपने लगा था िकंतु सीर ज अभी भी िनि थे।
एक िदन उनका यह िनरपे भाव आहत आ। लंकापित रावण ... अब तो
ि लोके र रावण, धनुष के दशन हे तु उप थत था। कौन मान सकता था िक दशन
का अथ ितयोिगता म ितभाग करना नहीं था?
सीर ज के भीतर बैठा िपता चाह रहा था िक वे अपने श ों की मयादा तोड़ द
और रावण को ितभाग की अनुमित न दान कर। कैसे कोई िपता अपनी दु लारी
क ा, आयु म उससे इतने बड़े िकसी को सौंप सकता था! पर ु कोई कारण
नहीं था उनके पास रावण को िनषेध करने का। वह मा राजपु ष ही नहीं,
ि लोके र था। वण म ा ण था, यं िपतामह ा के वंश से था। कैसे रोक सकते
थे उसे? अभी तक उ नारद के िव ास पर िव ास था िक रावण ितभाग का यास
नहीं करे गा िकंतु अब तो वह िव ास िम ा िस होता िदखाई पड़ रहा था। रावण के
ितभाग करने का अथ ... यं नारद ने ही कहा था िक रावण को िविध ात है ।
अब ा होगा? ... ा उनकी पु ी?... इसके आगे वे नहीं सोच पाए।
उनका दय धड़क रहा था। धड़कते दय से ही उ ोंने रावण का ागत-
स ार िकया और िफर धड़कते दय से ही अगले िदन धनुष को सभा-क म लाए
जाने का आदे श िदया। राजसभा म वे और अंत:क म महारानी सुनैना ... दोनों के
ने धुँधला रहे थे। कुछ भी अ ा नहीं लग रहा था। उन दोनों के िवपरीत सीता शां त
थीं ... सहज थीं। उ य िप ात नहीं था िक उनके िपता और दे विष म व ुत: ा
वाता ई थी ... उ ोंने जानने का यास ही नहीं िकया था ... उनके शील और
संकोच ने यास करने की इ ा ही कट नहीं की थी, तथािप उ अपने सौभा
पर भरोसा था।
दू सरे िदन, धनुष सभाक म लाया गया। महारानी और सीता भी आ गयी थीं।
रावण ने कुछ पल सीता को दे खा, िफर अपनी आँ ख मूँद लीं ... जैसे सीता की उस
छिव को अपने अंत:करण म थािपत कर रहा हो। िफर उसने आँ ख खोलीं और
सीता की ओर दे खे िबना ही धनुष की ओर घूमा। अपने पद ाण वहीं उतारे , अपना
िकरीट उतार कर िसंहासन पर रख िदया और धनुष की ओर बढ़ गया। धनुष के
पास प ँ च कर उसने दोनों हाथ जोड़े आँ ख बंद कीं और कुछ दे र स र िशव-
ता व ो म् का पाठ करता रहा। उसके र से वहाँ उप थत सभी स ोिहत हो
उठे । उतनी दे र के िलए सीर ज और महारानी सुनयना भी अपनी ता को
भूलकर, उस ो के साथ िशव की जटाओं म िकलोल करती भागीरथी म म न
करने लगे।
िफर रावण ने धनुष के स ुख अपना म ा टे क िदया और कुछ बुदबुदाता रहा।
िफर उठा, मुड़ा ... वापस आकर अपना िकरीट धारण िकया, पद ाण धारण िकये
और थान की अनुमित माँ गने की मु ा म सीर ज के स ुख हाथ जोड़ िदए।
उसने धनुष को उठाने का यास करना तो दू र, उसे श भी नहीं िकया था।

िफर वह उसी मु ा म महारानी की ओर घूमा। महाराज और महारानी दोनों ही


अवाक् ... स ोिहत सी अव था म खड़े थे।
िफर रावण की ि सीता की ओर घूमी ... और कुछ पल वहीं िठठक कर रह
गयी। सीता ने उस िठठकी ई ि से यं को रं चमा भी िवचिलत अनुभव नहीं
िकया। उ वह ि वैसी ही लग रही थी जैसी िपता की लगती थी। वे सहजभाव से
मंद-मंद मु ु राती ई उसे दे ख रही थीं।
अचानक रावण मुड़ा और सबको हत भ छोड़ कर वहाँ से िनकल गया। दू र,
बाहर मैदान म खड़े पु क तक प ँ चने तक उसने मुड़कर नहीं दे खा। पु क म
बैठने और उसे आकाश म उठा लेने के बाद भी नहीं। उसके िलए यह कोई रह
नहीं था िक सीता व ुत: उसकी और वेदवती की ही पु ी है । सीता के प र ाग के
उपरां त यह थम अवसर था जब उसे अपनी पु ी को दे खने का सुअवसर ा आ
था। भावनाओं का ार उसे स को उद् घािटत कर दे ने के िलए और अपनी पु ी
को गले से लगा लेने के िलए े रत कर रहा था िक ु उसे अपनी भावनाओं को
िनयंि त रखना आता था।
इधर सीर ज और सुनयना िव त थे ... नारद का कथन स आ था। ... सीता
को समझ ही नहीं आ रहा था िक उ कैसा अनुभव हो रहा था। बस ऐसा पहले
कभी अनुभव नहीं आ था।
3- िव ु से भट
दू सरे िदन ात: ान-पूजन आिद से िनवृ होकर या ा पुन: आर हो गयी।
कहने की आव कता नहीं िक आज दोनों कुमारों के अ ास म बला-अितबला का
अ ास भी स िलत था।
‘गु दे व, सु रवन यहाँ से िकतने िदवस की दू री पर है ?’ थान के पूव ल ण ने
िकया।
‘सामा त: इसम तीन से चार िदवस लगने चािहए। िकंतु हम अिधक समय
लगेगा।’
‘िकस कारण गु दे व?’
‘माग म एक अितिविश तुम दोनों से भट करने की अिभलाषा रखता
है । उस से तु िश ण भी ा होगा और मागदशन भी।’ कहकर
गु दे व ने या ा म पहली बार पीछे मुड़कर दे खा, मु ु राये ... िफर आगे जोड़ा- ‘...
और कुछ अितिविश आयुध और श याँ भी!’
गु दे व पुन: उसी गित से, अपना अनुसरण कर रहे दोनों कुमारों से िनिल से
चलने लगे। उनकी इस िनिल ता ने जैसे ल ण के आगे के ों का माग अव
कर िदया। िववश ल ण ने राम के स ुख अपनी िज ासा ुत की-
‘ ाता!’
‘ ँ ?’
‘कौन हो सकता है यह अितिविश ?’
‘ ा पता? जो भी होगा सामने आयेगा।’
‘आपको िज ासा नहीं होती?’
‘होती है , िकंतु म िज ासा के शमन हे तु उतावला नहीं होता। उनका उ र दे ने के
िलए समय को समय दे ता ँ ।’
यह माग भी ब हो गया। ल ण ने अपनी िज ासाओं को, माग और माग को घेरे
वनों की ओर मोड़ िदया।
यह पूरा का पूरा िदन यूँ ही चलते-चलते तीत आ। पूरा िदन िव ािम ने कहीं
क कर िव ाम करने का यास नहीं िकया। गु कुल के किठन अ ास के बावजूद
दोनों कुमारों के शरीरों पर थकान अपना भाव िदखाने लगी थी। राम अब भी
िनिवकार भाव से गु दे व का अनुसरण कर रहे थे िकंतु ल ण अनमने से उनके
पीछे बस चले जा रहे थे। शायद इसी कारण उनके भी शां त थे। सं ा होते-होते
ये लोग गंगा और सरयू के संगम तक जा प ँ चे। संगम थल के पास ही एक आ म
िदखाई पड़ रहा था।
आ म दे ख कर ल ण कुछ सचेत ए।
‘गु दे व यह सामने कौन सा आ म है ?’ उ ोंने िकया।
‘िकसी समय यहाँ भु िशव ने तप ा की थी। िजस समय उ ोंने क प
(कामदे व) को भ िकया था, तब यही उनका आ म आ करता था। उ ीं के नाम
से इसे थाणु-आ म कहते ह। ( थाणु िशव का एक नाम है ।)’
‘ भु िशव तो अब कैलाश म रहते ह, तो अब यहाँ कौन रहता है ?’
‘अब उनके भ मुिनगणों ने इस आ म को गुंजार कर रखा है । आओ थम
भागीरथी और सरयू के इस पुनीत संगम म ान कर शरीर की िव ां ित को शां त कर
तब पिव होकर इस पु आ म म आज हम लोग राि िव ाम करगे।’
ये लोग संगम म ान करने के िलए बढ़े । इसी बीच आ म म िनवास करने वाले
िद ा ा मुिनगणों को अपनी िद ि से इनके आगमन का आभास हो गया था। वे
सब ेमभाव से इ िलवाने आ गये।
आ म म भोजनािद के म ही गु िव ािम ने दोनों कुमारों का सभी मुिनगणों
से प रचय करवाया। िफर जैसे ही सब लोग भोजन से िनवृ ए, िव ािम ने उ
िनदश िदया-
‘तुम दोनों अब अ राि तक बला-अितबला िव ाओं का अ ास करो।’ िफर वे
आ म के मुिनगणों की ओर उ ुख ए- ‘मुिनवर कोई एका कुटीर इ दान
कर द। ान रख राि म कोई इ वधान न दे । यह अ ंत आव क है ।’
आ म के वयोवृ कुलपित ने एक युवा मुिन को संकेत से कुछ समझाया और
उसके िदशा-िनदशन म दोनों कुमार सबको णाम कर चल िदये। उनके कुटीर से
िनकलते ही िव ािम भी उठ खड़े ए और ‘अभी आता ँ कहकर तीनों के साथ हो
िलए।
िनधा रत कुटीर म प ँ चकर िव ािम ने उस युवा मुिन को िवदा कर िदया। जब
वह चला गया तब मंद त के साथ वे बोले -
‘लाओ, ल ण की िज ासा शां त कर दू ँ !’
िव ािम का वा सुनकर दोनों कुमार कुछ असमंजस म उनकी ओर दे खने
लगे। परं तु उनके असमंजस से अ भािवत गु दे व मु ु राते ए आगे बोले-
‘मने माग म एक अितिविश का उ ेख िकया था, आज राि ही वह
तुमसे स क करे गा।’
कुमारों का कौतूहल और बढ़ गया िकंतु गु दे व ने उस कौतूहल को शां त करने के
थान पर िनदश िदया-
‘उनके ेक इं िगत का पूरा स ान करना। िजतने समय वे तु ारे स क म
रहगे, वह तु ारे जीवन का सवािधक मह पूण समय होगा।’ गु दे व कुछ पल के,
िफर आगे बोले-
‘राम तु रण होगा, गु विश ने मेरे अयो ा आगमन से पूव तु एक अ ंत
िविश संकेत िदया था।’
‘दशानन के संबंध म?’ रावण अब तक दशानन के प म िव ात हो चुका था।
‘और भी कुछ था।’
राम एकदम चौंक पड़े । उनके म म झनाके के साथ गु विश का वह
वा गूँज गया, िजसने उ तब भी अ ंत चौंका िदया था जब गु दे व ने वह कहा
था- ‘याद रखो, तु स ूण भरतभूिम पर स म िव ु के प म िति त होना है ।’
(दे ख-दशानन)
राम के मुख पर ा भावों से िव ािम ने भाँ प िलया िक उ याद आ गया है ।
‘ रण आ?’
‘जी गु दे व!’
‘यह भट तु ारी उसी ित ा की भूिमका िलखेगी।’
राम चम ृ त से खड़े थे, उनके मुख से कोई उ र नहीं िनकला, िकंतु ल ण का
कौतूहल उनके धैय की सीमा तोड़ रहा था। जब उनसे नहीं रहा गया, तो उ ोंने पूछ
ही िलया-
‘िकंतु वह ह कौन गु दे व?’ ल ण का र ही नहीं, उनका ेक अंग उनकी
भयंकर उ ुकता को कट कर रहा था।
‘ यं ीिव ु।’ िव ािम शां त र म बोले। िफर इससे पूव िक ल ण कुछ
और पूछते, उ ोंने आगे जोड़ा- ‘राम, इसे भी बता दे ना, अ था यह उ ात मचा
दे गा। ... और ान रखना, यह भट सभी से गोपन ही रखनी है ... मुझसे भी।’
दोनों कुमारों को खड़ा छोड़कर िव ािम चले गए।
***
िव ािम के जाने के उपरां त राम ने ल ण को सब कुछ बता िदया। वे दोनों इतने
मह पूण अिभयान का नेतृ करने वाले थे, यह जानकर ल ण रोमां िचत हो उठे ।
ऐसा रोमां च जो उ ोंने इससे पूव कभी अनुभव नहीं िकया था। उनका उ ाह,
उनका उ ास उनसे िनयंि त नहीं हो रहा था। बड़ी किठनाई से राम उ बला-
अितबला के अ ास के िलये े रत कर पाए।
दोनों ने समािध म वेश िकया।
वे समािध म ही थे जब उ ोंने र सुना-
‘ने खोलो व !’
यह लगभग अ राि का समय था जब िव ु का आगमन आ।
उ ोंने ने खोले तो सामने खड़ी िवभूित को दे ख कर िच िल खत से रह गए।
िकसी के भी मुख पर ऐसा अद् भुत तेज उ ोंने पहले कभी नहीं दे खा था। यं गु
विश अथवा गु िव ािम के भी नहीं। इसके समान ा, इसका अंशमा भी नहीं
दे खा था। दोनों भाई जैसे स ोिहत थे, मा वही अनुभव कर रहे थे, जो िव ु उ
करवाना चाह रहे थे।
िफर तीन रात, तीन िदन तीनों म से कोई भी उस कुटीर के बाहर नहीं िनकला।
ान, भोजन अथवा िन -ि याओं के िलए भी नहीं। िव ु तो अब तक यं को
सृि के िवल णतम के प म थािपत कर ही चुके थे, राम और ल ण
भी बला-अितबला के थोड़े से ही अ ास से इतने समथ हो चुके थे िक इस िनरं तर
साधना ने उनके शरीरों को ा नहीं िकया था। हाँ , इसम िव ु की उप थित का
भी िनि त योगदान था। पूरे तीन िदन बाद, जब वे कुटीर से बाहर िनकले, तब भी वे
ऊजा और उ ाह से भरपूर थे। िव ु बाहर ही नहीं िनकले। कुमारों के दे खते-दे खते
ही उनका शरीर सू काश-कणों म िवख त होकर मश: धुँधलाता आ
िवलु हो गया। जाते-जाते िव ु भी उ िनिद कर गए िक वे दोनों उनके इस
आगमन की चचा िकसी से न कर।
कुमार जब उस कुटीर से बाहर िनकले तो दोनों ही अनुभव कर रहे थे िक अब वे
वह नहीं रहे ह, जो वे थे। अब तक िजसे वे श और साम समझते आए थे, अब
उ तीत हो रहा था िक वह तो कुछ भी नहीं थी। उ अनुभव हो रहा था जैसे
िव ु ने अपनी अनुपमेय आ श से, अपनी िवल ण श याँ उनकी आ ा
और शरीर म ितरोिपत कर दी हों। ऐसी िवल ण मता स वत: सृि म अ
िकसी के पास भी नहीं थीं। िव ु के िवषय म वणन कर पाना उ ऐसा ही तीत हो
रहा था जैसे गूँगे ने िमठाई खाई हो और चाह कर भी वह उसके ाद का वणन न
कर पा रहा हो।
इतना अव है िक राम ने इस िश ण-स म ल ण से कुछ अिधक ही
उपल ा की थी। दो कारण थे इसके-
पहला तो यही था िक िव ु ने यं ही राम पर अिधक ान के त िकया था।
शायद उनके िलए राम ही मु कता थे, ल ण तो उनके सहयोगी मा होने थे।
दू सरा यह िक राम अपने ाभािवक च र के अनुसार पूणत: शां त और िनिवकार
थे। वे एक कार से र -घट थे िजसम िव ु ने जो भी चाहा, िजतना चाहा, जैसे
चाहा ... भर िदया था। उनके िवपरीत ल ण के घट म उनकी चंचलता, उनकी
िज ासाएँ , उनकी भावनाएँ पूव ही िव मान थीं। ये िज ासाएँ अपने र से िकसी से
कुछ सीखने म तो सहायक और उ े्ररक होती ह िक ु जब कोई दू सरा ... आपके
यास के िबना ... अपनी श याँ आपम आरोिपत कर रहा हो तब बाधक भी बन
जाती ह। यही ल ण के साथ आ था। यह अलग बात है िक इसे न तो राम ने
अनुभव िकया था और न ही ल ण ने।
राम अब िव ु के अगले अवतार के प म िति त होने के िलए गढ़े जा चुके थे।
उ यह ित ा दान करना अब ऋिष-मुिनयों और जनमानस का काय था, िजसके
िलए ताड़का, मारीच और सुबा के आस वध के प म मंच सज चुका था।
दोनों कुमार जब कुटीर से बाहर िनकले तो एक हर राि तीत हो चुकी थी।
अिधकां श आ मवासी सो चुके थे। ये दोनों गु िव ािम के कुटीर म प ँ चे तो पाया
िक गु दे व अभी भी जाग रहे ह।
‘आओ, बैठो।’ गु दे व ने ेह से कहा।
‘ल - ा ई?’ जब दोनों बैठ गए तो िव ािम ने पूछा।
‘जी गु दे व!’ राम ने संि उ र िदया।
‘ ात: से तु ारा एक और िश ण-स चलना है , अत: अब िव ाम-शयन करो।
अब वापस उस कुटीर म जाने की आव कता नहीं, यहीं लेट जाओ।’
4- िद ा
ात: ही गु दे व ने आदे श िदया-
‘िन -ि याओं से िनवृ हो लो, तदु परा स ा उपासना कर िश ण हे तु उसी
कुिटया म ुत हो जाओ।’
‘जी गु दे व!’ दोनों कुमारों ने उ र िदया और अपने काम म लग गए।
दोनों कुमार िन कम, ान, सं ा-उपासना से िनवृ हो चुके थे। बला-अितबला
का अ ास भी कर चुके थे। दोनों ही आज ात: से आ मवािसयों के वहार से
चम ृ त थे, ल ण िवशेष प से। ात: से अनेक आ मवािसयों से भट ई थी,
सबसे यथोिचत अिभवादनों का आदान- दान भी आ था। दोनों ही आशा कर रहे थे
िक आ मवासी उनसे िवगत तीन िदवसों के िवषय म करगे और उ झूठे बहाने
बनाकर उ समझाना पड़े गा, िक ु ऐसा कुछ भी नहीं आ। िकसी भी आ मवासी
ने िवगत तीन िदनों के िवषय म जानने की कोई िज ासा नहीं िदखाई। िष
िव ािम सव पूजनीय थे। यिद वे कुछ गोपनीय रखना चाहते थे, तो उस िवषय म
कोई िज ासा िदखाना उिचत नहीं था। यही आ म की और आ मवािसयों की भी,
मयादा थी। अनेक व र ऋिषयों को अपनी िद श यों से िव ु के आगमन का
आभास हो भी गया था िक ु उ ोंने भी कुछ जानने की उ ुकता नहीं िदखायी थी,
न तो िव ािम से पूछ कर और न ही अपनी िद -आ क श यों का योग कर।
िव ु उनके आरा , उनके इ भु िशव के समक थे। उनके िकसी भी काय म
ह ेप करना अमयािदत आचरण होता। ... ये ऋिषगण सम मानवीय
दु बलताओं से ऊपर उठ चुके िन ृह संत थे, इनका एकमा ल योग के मा म से
पर के साथ एकाकार होना था। शेष वह जीवन को, जीवन की दै नंिदन
घटनाओं को जैसा उनके सम ुत करता था, उ उसी प म सहजभाव से
ीकार करना इन ऋिषयों का भाव बन चुका था।
राम ने आ मवािसयों के इस अनौ ु को अपनी सहज वृि से ीकार िकया
िक ु ल ण के िलए यह असंभव था। थोड़ा सा एकां त िमलते ही वे राम से
फुसफुसाए-
‘कैसे अबूझ जीव ह ये आ मवासी भी!’
‘ ों, ा आ?’
‘िकसी के मन म कोई कौतूहल ही नहीं तीत होता िक हम तीन िदन तक उस
कुिटया से बाहर नहीं िनकले।’
राम बस मु ु रा कर रह गए।
‘यिद अयो ा म ऐसा आ होता तो सभी हमारा जीवन दु र कर दे ते, पूछ-
पूछ कर। नहीं ?’
‘हाँ सो तो है । िक ु वे अयो ा के सामा जन ह। ये आ मवासी ह, िनरं तर
तप या म त ीन ... कुछ तो अ र होगा ही इनम और सामा जनों म।’ राम ने
वाता को िवराम दे िदया। वे अब उस कुटीर के िनकट प ँ च चुके थे, जहाँ के िलए
गु दे व ने िनदिशत िकया था।
िव ािम वहाँ पहले से ही उप थत थे।
‘आसन हण करो दोनों।’ कुमारों का णाम ीकार करने के उपरां त िव ािम
ने आसन की ओर संकेत करते ए कहा।
दोनों बैठ गए।
‘आज म तु अपने सं ह के िद ा दान क ँ गा। मेरे िलए अब उन सब का
कोई योजन नहीं है । म तो ोध और िहं सा से िवरत हो चुका ँ ।’
वे कुछ पल शां त ि से दोनों को दे खते रहे , िफर पूछ बैठे-
‘िद ा ों के िवषय म जानते तो होगे ही न?’
‘कुछ अिधक नहीं गु दे व।’ राम के उ र दे ने से पूव ही ल ण त रता से बोले।
‘इतना ही पया है । शेष धीरे -धीरे त: ात हो जाएगा।’ ि वािम ने अपनी
उसी सहज त के साथ उ र िदया।
‘िवगत तीन िदवसों म इतना कुछ हण िकया है िक उसे मब ढं ग से सहे जना
भी एक काय है ।’ राम स त बोले- ‘उसम िद ा ों से संबंिधत भी ब त कुछ है
िकंतु अभी वह अ - है ।’
‘हाँ , म अनुभव कर रहा ँ , तु ारे पास इस िवषय म पया ान होना चािहए
िकंतु ल ण के मन म अभी अनेक िज ासाय ज लगी ... और उनका शमन होना
आव क है ।’ िव ािम कुछ पल जैसे कुछ सोचते रहे , िफर बोले- ‘अ ा, अब एक
हर के िलए समािध म जाने का यास करो।’
‘जी!’ राम ने उ र िदया और आँ ख मूँद लीं। िकंतु ल ण बोले-
‘उससे पूव एक शंका है गु दे व!’
‘पूछो?’
‘सम आ ा क कृ , िश ण- िश ण काय अथवा अ शुभ काय, ान-
पूजन कर, एवं पिव होकर आर िकए जाते ह।’ आपने भी दे खए हम
िद ा दान करने से पूव ान और सं ा-उपासना से िनवृ होने का आदे श
िदया था।’
िव ािम स त ल ण की बात सुनते रहे । बोले कुछ नहीं।
‘िकंतु ीिव ु अ राि म कट ए थे और सीधे िश ण काय म संल हो गए
थे।’
अब िव ािम जोर से हँ से, िफर जैसे ल ण से खलवाड़ सा करते ए बोले- ‘यह
यं ीिव ु से ही ों नहीं पूछ िलया? वही सबसे उपयु उ र दे सकते थे।’
‘उ ोंने कोई अवसर ही कहाँ िदया- कुछ सोचने का अथवा कुछ भी पूछने का।’
ल ण ने अ ंत मासूिमयत से उ र िदया। ल ण का उ र दे ने का ढं ग सुनकर
अनायास समािध म वृ होने का यास कर रहे राम भी मु ु रा उठे । िव ािम तो
खुल कर हँ स पड़े । हँ सी शा होने पर िष बोले-
‘िव ु कृित की अ तम कृित ह। वे इस सब से ब त ऊपर उठ चुके ह। वे
आ क पिव ता के उस र को श कर चुके ह जहाँ ये सम बात गौण हो
जाती ह। ा तुमने यं ही उ सबसे अद् भुत अनुभव नहीं िकया?’
‘िकया। स ही अनुपमेय ह वे। वे हम िसखा नहीं रहे थे, वे तो जैसे अपना ान,
अपनी ऊजा हमारे अंदर रोिपत कर रहे थे। िबना िकसी यास के ही हम सब जानते
चले जा रहे थे।’
‘हाँ , ऐसे ही ह वे।’ िव ािम बोले। िफर अचानक पूछ बैठे-
‘अ ा बताओ, उनकी आयु ा अनुमान करते हो तुम?’
‘यही कोई पतीस-चालीस वष।’
‘उनकी आयु साढ़े तीन सौ वष से अिधक ही है । ये उनकी अपूव आ ा क
मताएँ ही ह, जो उनकी आयु उनके शरीर पर भाव नहीं डाल पाती। वे आज भी
उतने ही युवा तीत होते ह, िजतने आज से सवा तीन सौ वष पूव तीत होते थे।’
ल ण िव त ... अवाक् ... मुँह बाये गु दे व को दे खते रह गए। िव ािम कुछ
पल उनके िव य का आनंद लेते रहे , िफर वधान दे ते ए बोले-
‘अ ा, ा उ ोंने तुमसे अपनी भट की चचा को िनषेध नहीं िकया था?’
सुनते ही ल ण ने एकाएक अपनी जीभ दाँ तों से दबाकर ऐसी िति या दी
मानों भूल का भान आ हो, पर अगले ही ण यं पर िनय ण करते ए सफाई
दी-
‘िकया था िक ु िनषेध उनके िलए योजनीय है िज इस िवषय म ात नहीं है ।
आप तो इस भट के सू धार ह। इस भट से उपजी हे िलकाओं (पहे िलयों) की
गु याँ तो आप ही सुलझायगे।’
िव ािम मु ु राये। वे इस िवषय म कुछ कहना चाहते थे िकंतु कहा नहीं।
करण समा करते ए बोले-
‘अ ा, अब कोई नहीं। अब समािध म वृ हो जाओ।’
कहने के साथ ही उ ोंने यं भी आँ ख मूँद लीं और ‘ॐ’ का सुदीघ उ ारण
आरं भ कर िदया।
दोनों कुमार समािध की अव था म ही थे, जब उ ोंने िष का र सुना-
‘त र हो जाओ अब िद ा ों का ान ा करने हे तु।’
‘त र ह।’ दोनों ने समवेत उ र िदया।
िव ािम ने अपना एक हाथ सामने फैलाया और कुछ मं बुदबुदाते ए आवाहन
िकया। अगले ही ण उनके हाथों पर एक धुँधली सी आकृित कट ई ... जो धीरे -
धीरे होती गयी। कुछ ही पलों म आकृित पूणत: हो गयी। यह िकसी धातु
का बना एक दं डनुमा अ था िजसके अ भाग पर एक च जुड़ा आ था।
समािध म भी ल ण िव त थे। तीनों के शरीर जड़वत अपने-अपने थान पर
बैठे ए थे, आँ ख ब थीं िक ु उनके सू शरीर गितमान थे। तीनों ा च ुओं से
सब कुछ दे ख रहे थे, सुन रहे थे और ि या- िति या कर रहे थे।
‘यह दं डच है । यह ...’ गु दे व ने कहना आर िकया िक ु अपनी िज ासा के
वशीभूत ल ण बीच म ही बोल पड़े -
‘गु दे व, अभी तो आपकी हथेली र थी। शू म से यह द च कहाँ से
कट हो गया?’
चलो थम इसे ही समझ लेते ह।’ द च को पास म ही पड़े एक अ आसन
पर रखते ए गु दे व बोले-
‘इसे समझने के िलए सव थम यह समझना होगा िक पदाथ ा है ? उसकी
संरचना ा है ?’ ल ण स ूण उ ुकता से और राम िनिवकार भाव से सुनने म
त ीन थे।
‘तुम जानते हो हमारा शरीर पंच-महाभूतों से िनिमत है ।’
‘जी ! भूिम, जल, अि , वायु और आकाश।’ ल ण ने उ र िदया, राम मौन ही
रहे ।
‘जैसे हमारा शरीर पंचमहाभूतों से िनिमत है वैसे ही सृि का ेक पदाथ भी
इ ीं पंचमहाभूतों से िनिमत है ।’
‘जी!’
‘िव ु तु ारे स ुख िकस कार कट ए थे?’
‘हम नहीं ात। हम तो उस समय समािध म थे। जब उ ोंने हम पुकारा तब हम
उनकी उप थित का ान आ।’ िज ासा के वशीभूत ल ण ने ान नहीं िदया िक
अभी तो गु दे व ने िव ु से भट का उ ेख िनषेध िकया था और अब यं ही
उसका उ ेख कर रहे थे।
‘अ ा, वे गए िकस भां ित थे; ार से िनकलकर?’
‘नहीं! वे तो हमारे ने ों के स ुख बैठे-बैठे, शनै:-शनै: धुँधलाते ए अलोप हो
गए।’
‘तुमने इसके िवषय म िच न नहीं िकया?’
‘िकया, िक ु कुछ समझ नहीं आया। यह रह भी पूछना था आपसे।’
‘मने बताया अभी िक सृि की ेक व ु पंच-महाभूतों से िनिमत है । ये पंच-
महाभूत ऊजा के आिद ोत ह। व ुत: ये रं गहीन, गंधहीन, आकारहीन अितसू
कणों का संयोजन ह। यही पंचमहाभूत या त जब िविभ मा ाओं म, िविभ
रासायिनक या भौितक अिभि याओं ारा पर र संगिठत होते ह तब िविभ जड़
अथवा चेतन व ुओं का िनमाण करते ह।
‘तुमने दे खा ही होगा िक जल को ताप दे ने से वह वा कणों म प रवितत हो जाता
है । यही वा िकसी शीतल सतह को श कर पुन: जल-िब दुओं म प रवितत हो
जाती है । जल एक िनि त ताप के उपरां त शीतलता ा करने पर िहम म प रवितत
हो जाता है । ये िकसी एक ही त से बनी संरचना के उदाहरण ह।
‘िकसी भी व ु को जलाने के उपरां त अंतत: राख ही शेष बचती है । शेष त धू
म प रवितत हो आकाश म िवलीन हो जाता है । यह दो त ों- भूिम और आकाश से
बनी संरचना का उदाहरण है । आकाश त आकाश म िवलीन हो जाता है और भूिम
त शेष बच रहता है ।
‘आटे को जल की सहायता से माड़कर तदु परां त सककर उससे रोटी बन जाती
है । यह भूिम, जल और अि तीन त ों की अिभि या का उदाहरण है ।
‘िविभ धातुओं पर िविभ रसायनों के ारा रासायिनक अिभि या के ारा एक
नई ही धातु हम ा करते ह इसका भी तु ान होगा ही।’ िव ािम ने कुछ पल
ककर दोनों कुमारों को दे खा। दोनों अपनी सम चेतना से उनकी बातों को
आ सात कर रहे थे। वे पुन: बोले-
‘इन सम अिभि याओं म हम हर बार िकसी न िकसी नये पदाथ को ज दे ते
ह। िकंतु जल, वा और िहम के उदाहरण के अित र िकसी अ अिभि या म
मूल पदाथ को पुन: नहीं ा कर पाते। यह तो सामा मनु ों की थित है । महान
योगी अपनी आ क श से िबना िकसी अ भौितक त की सहायता िलए,
िकसी भी पदाथ के िविभ त ों को िवखंिडत कर सकते ह और उ पुन: उसी
कार संयोिजत कर, पुन: मूल पदाथ को ा भी कर सकते ह।’
‘मानव को भी िवख त कर सकते ह इस कार?’ ल ण ने ही िकया।
‘हाँ , मानव को भी। िक ु िकसी भी चेतन व ु के साथ साधारणतया ऐसा करते
नहीं ह, जब तक िक अ सम िवक समा न हो गए हों।’
‘अ िवक ों से ता य गु दे व?’
‘तु ा तीत होता है िक िव ु यं यहाँ उप थत ए थे?’ गु दे व ने ल ण
की आँ खों म झाँ कते ए ित िकया- ‘और जाते समय उ ोंने इसी कार अपने
शरीर को कणों म िवख त कर यं को अलोप कर िदया?’
‘हाँ , वे यहीं तीन िदवस, तीन राि िनर र उप थत रहे थे हमारे स ुख।’
‘नहीं, वे यं िव ु नहीं थे।’ गु दे व हँ से। दोनों कुमार आ यचिकत उनका मुख
ताक रहे थे। िकंतु इस बार ल ण ने कोई नहीं िकया बस उ ुकता से गु दे व
के आगे बोलने की ती ा करते रहे । गु दे व आगे बोले-
‘वह िव ु की ित ाया मा थी। यही दू सरा िवक है । योगी अपनी ि आयामी
छिव ि कर सकते ह, िकसी भी थान पर। वे यं वहाँ से ब त दू र थत होते
ह। ऐसे ही िजससे तु ारी भट ई वह िव ु की ि आयामी छिव मा थी। यं िव ु
तो पता नहीं कहाँ िवराजमान रहे होंगे उस समय।’
‘ओह!’ दोनों कुमारों ने दीघ िन: ास ली।
‘िकंतु गु दे व, यह अ तो व ुत: उप थत है अथवा यह भी छाया मा है ?’
ल ण ने िकया।
‘यह वा िवक है ।’ गु दे व मु ु राये- ‘चेतन व ुओं म ाणों का पुन: ितरोपण
जिटल हो सकता है अत: उनके साथ सावधानी बरती जाती है । अचेतन व ुओं के
साथ ऐसी कोई सम ा नहीं होती।’
‘आपने ताे शू म से इस अ को उप थत कर िदया, आप महान योगी ह,
िक ु हम ऐसा कैसे कर सकगे? हम तो आपके समान योगी नहीं ह।’ ल ण ने पुन:
अपनी शंका रखी।
‘इसीिलए तो इस िश ण-स का आयोजन िकया गया है ।’ गु दे व ने हँ सते ए
कहा।
ल ण ने संतोष की साँ स ली।
‘नाद का नाम सुना है कभी?’ गु दे व ने पूछा।
‘जी!’ दोनों ने समवेत र म उ र िदया।
‘िक ु यह िवषय आगे। अभी पदाथ की संरचना पर िवचार कर रहे ह। थमत:
उसे भलीभाँ ित समझते ह।’ गु दे व ने मूल िवषय पर ही िटकने को वरीयता दे ते ए
कहा-
‘सम पदाथ पंच-महाभूतों से िनिमत ह, यह तु ात है । पृ ी, जल, अि ,
आकाश और वायु ये सम त यं म अित सू अणुओं का संगठन ह। ये अणु
हमारी दे खने की मता से भी कई गुना सू होते ह।’
‘तब हम इनके िवषय म ान कैसे आ गु दे व?’
‘ वधान न दो व ! सुनो, मनन करो ... तु ारे सम ों के उ र यमेव
ा हो जायगे।’
‘ मा गु दे व!’
‘योगी, योगसमािध म जब िच न म िनम होता है , तब उसकी भौितक इ याँ
िशिथल हो जाती ह। उस समय उसकी आ ा ही इ य बन जाती है । ... और तब
योगी की मताय सामा की मताओं से लाखों गुना बढ़ जाती ह। वह
अपनी आ ा के ने ों से सू से सू त का आभास ा कर लेता है । ... िक ु
आ ा की मताय भी सीमाहीन नहीं ह, उनकी भी अपनी सीमा होती है । िक ु वह
िवषय भी िफर कभी यिद अवसर िमला तो, ...अभी तो पदाथ की बात कर रहे ह।
‘उपरो पंच-महाभूतों के सू तम अणु भी िविभ परमाणुओं और एक
त से िमलकर बनते ह। पर ु ेक अणु म उप थत िविभ त ों के परमाणुओं
की सं ा िभ होती है । िजस त के परमाणुओं की सं ा अिधक होती है , अणु
उसी त की सं ा हण करता है । अथात् िकसी अणु म यिद भूिम त के परमाणु
अिधक ह तो उसे भूिम त का अणु माना जाता है । यिद जल त के प रमाणु
अिधक ह तो उसे जल त का, इसी कार अ ... ठीक?’
‘जी!’
‘इन अणुओं के के म -त होता है । यही -त सम सृि का
आधारभूत है । यही सम जीवन का आिद- ोत है । यह -त अपनी
सकारा क और नकारा क ऊजा से आ ािदत होता है । यही ऊजा अणु के
सम र भाग को भी आ ािवत िकए होती है । चेतन पदाथ म यह ऊजा सि य
होती है , िनरं तर त का प र मण करती रहती है , इसी ऊजा म परमाणु तैरते
से रहते ह। इसके िवपरीत जड़ पदाथ म यह ऊजा िन य होती है , सु अव था
म होती है । उपरो पंच-महाभूतों के अित र एक त और है जो सम चेतना
का आधार है । वह है ाण-त जो सम वायुमंडल म ा है । सम जल म
घुिलत प म प र ा है । सन ि या ारा यही त हमारे शरीर म वेश कर
हमारे सम अणुओं म िव मान ऊजा को आवेिशत करता है । इसी आवेशन को
ऊजा की जा त अव था कहते ह। जैसे ही हमारी सन ि या बािधत होती है , हमारे
अणुओं की ऊजा का आवेशन क जाता है और कहा जाता है िक हमारी मृ ु हो
गयी।
‘एक बात और मह पूण िक -त जब चाहे इस ऊजा को जा त कर सकता
है ।’
‘तो करता ों नहीं?’
‘यिद ऐसा कर दे गा तो सृि का संतुलन नहीं न हो जाएगा? त ेक अणु
म ा होते ए भी, िनिल भाव से मा सब कुछ दे खा करता है , अपवाद प
ही कभी ह ेप करता है ।’ िव ािम ने हँ सते ए उ र िदया।
‘गु दे व!’ अचानक शां त बैठे राम ने िकया- ‘आ ा ा है ? ... और बु ा
है ? ा ये भी हमारे शरीर के अ अवयवों के समान ही कोई पदाथ है ?’
‘ये पदाथ ह भी और नहीं भी।’
‘ता य गु दे व?’
‘आ ा हमारे शरीर म िव मान सम परमाणुओं म ा सकारा क अथवा
धना क ऊजा है । बु भी ऊजा ही है िक ु वह हमारे म म संिचत िविश
परमाणुओं की संयु ऊजा है - सकारा क और नकारा क दोनों। तभी तो आ ा
कभी भी हम नकारा क िवचारों की ओर े रत नहीं करती िकंतु बु दोनों ओर
े रत करती है ।
‘अब ोंिक ये दोनों ऊजा- प ह तो जब शरीर िव ानी शरीर म खोजते ह तब
उ इन दोनों त ों के दशन नहीं होते, िकंतु दोनों का ही अ तो है ही। इसे
नकारा तो नहीं जा सकता। इसीिलए ये पदाथ ह भी और नहीं भी।’
‘बु यिद सकारा क और नकारा क, दोनों कार की ऊजा का संयु प
है तो इनका संतुलन िकस कार बनता है ? यह िकस भाँ ित िनि त होता है िक िकन
प र थितयों म बु सकारा क िचंतन करे गी और िकनम नकारा क? ... और
ा ऐसी कोई िविध नहीं है जो बु को सदै व सकारा क िचंतन के िलए ही े रत
कर सके?’ अब राम मुखर थे और ल ण सुन रहे थे।
‘यही तो समय का खेल है । यही तो िवराट् कृित का खेल है और अंततोग ा उस
की, ेक अणु म िव मान उस त की लीला है । िजस िदन हम इसके
रह को समझने म स म हो जायगे, हम यं हो जायगे - हम यं अपनी
सृि की संरचना करने म समथ हो जायगे।
‘रही सकारा क िचंतन हे तु े रत करने की बात, तो हम अपनी समझ से ऐसा
करते तो रहते ही ह, चाहे उपदे श ारा कर अथवा हठ ारा अथवा बल योग ारा,
परं तु करते रहते ह। िकंतु यहाँ सबसे मह पूण यह स है िक ेक अपनी
समझ से ाय: सकारा क ही होता है । उसके पास उसके ेक कृ के िलए
कारण उप थत होता है , भले ही दू सरे उस कारण को मा ता न द ... परं तु उसके
यं के पास तो होता है । उसके यं के िलए यही मह पूण होता है ।
‘बस, इस िवषय को यहीं पर छोड़ दे ते ह। ऋिषगण पीिढ़यों तक अपनी स ूण
आयु खपा दे ते ह और इस िवषय का कोई छोर नहीं खोज पाते। हम भी यिद इसी म
उलझ गये तो हमारा वतमान कत उपेि त रह जाएगा।’
‘जैसी आपकी इ ा गु दे व!’ राम ने सहज भाव से गु दे व की बात का अनुमोदन
कर िदया।
‘तो इस पर आते ह िक िद ा िकस भां ित काय करते ह।’ िष ने समझाना
आरं भ िकया-
‘दो सं ाय ह- श और नाद।’
‘जी!’ दोनों कुमारों ने सहमित कट की।
‘श को हमारी बु हण करती है । हण करने के उपरां त अपने अनुसार
उसका अथ ितपािदत करती है । नाद अथवा िन, श के िवपरीत, सीधे चेतना
को श करता है । चेतना बु नहीं होती, अत: वह उस नाद का अथ िनकालने का
यास नहीं करती अिपतु सीधे उसका भाव हण करती है । इस नाद या िन म
असीम श होती है । िक ीं दो पदाथ के पर र टकराने से अथवा घषण से वायु
म तरं ग उ होती ह और ये तरं ग िन उ करती ह। साथ ही ये तरं ग अपने
स क म आने वाली ेक व ु पर भाव भी डालती ह। हमारी कण-त का
इनके ित अित र संवेदनशील होती है , अत: हम श सुनने म समथ होते ह
िक ु भाव ेक व ु हण करती है ।’
‘हमारे कण भी तो एक िनि त सीमा के तरं ग-दै की िनयाँ ही सुन पाते ह,
गु दे व।’ ल ण ने कहा।
‘हाँ , उस सीमा से कम अथवा अिधक तरं ग-दै की िनयाँ हम नहीं सुन पाते
िकंतु अनेक पशु-प ी उससे अिधक की िनयाँ भी हण करते ह। तुमने दे खा होगा
िक िकसी झंझावात के आगमन के पूव ही पशु-प ी िवचिलत होने लगते ह िकंतु हम
कोई अनुमान नहीं होता। हम उन पशु-पि यों का वहार दे खकर ही अनुमान
लगाते ह।’
‘जी!’
‘इसी भां ित ये िनयाँ अचेतन व ुओं पर भी भाव डालती ह।’
‘जी!’
‘हमारे मं इसी िन-िव ान के अनुसार काय करते ह। िकसी िविश आरोह-
अवरोह के साथ िकसी िविश श का उ ारण िकसी िविश पदाथ पर मनोनुकूल
भाव डालने म समथ होता है । तुमने अनुभव िकया होगा िक िकसी भी वन ित के
स ुख यिद मधुर संगीत सा रत िकया जाए तो उसकी वृ की गित ती हो जाती
है , इसके िवपरीत यिद ककश िनयाँ ुत की जाएँ तो यही वृ मंद हो जाती
है ।’
‘जी !’ दोनों ने सहमित म िसर िहलाए।
‘मं इसी िदशा म गहन शोध का ितफल ह। ेक मं की सजना िकसी िनि त
उ े की ा िक िलए की जाती है । ेक मं के उ ारण का अपना िवधान
होता है , उस िवधान के िवपरीत उ ारण से वह मं फलदायी नहीं होता। िक ीं-
िक ीं प र थितयों म तो िवपरीत फल भी दे सकता है ।’
दोनों ने पुन: सहमित म िसर िहलाए। िव ािम बोलते रहे -
‘मने िविश िवधान के साथ इस अ के आवाहन का मं पढ़ा, बस यह अ
उप थत हो गया। इसके िवसजन का मं पाठ क ँ गा तो यह िवलोिपत हो जाएगा।’
‘गु दे व! इसके िवसजन का मं न पढ़कर यिद हम बार-बार आवाहन का ही
मं पाठ कर तो ऐसे अनेक अ ा कर सकते ह?’
‘नहीं’, गु दे व पुन: हँ से- ‘यह अ शू से अवत रत नहीं आ। ेक िद ा
सू अ अणुओं के प म िवघिटत होकर अपने धारक के आभामंडल म
समािहत हो जाता है और उसीके साथ संचरण िकया करता है । आवाहन करने पर
यही अ सू अणु, पुन: संगिठत होकर अ के प म कट हो जाते ह।
आवाहन मं के ारा नये अ की सजना नहीं की जा सकती, मा उससे संब त
अ का आवाहन िकया जा सकता है । यिद उस अ का पूव ही आवाहन िकया जा
चुका है और वह स ुख कट है , तो आवाहन-िन भावी हो जाएगा। यह ि या
दोहराने पर अ त: ही िवसिजत हो जाएगा और भिव म उसका दु बारा
आवाहन संभव नहीं होगा। अत: ऐसी चतुरता,’ कहते-कहते अचानक गु दे व िफर
हँ स पड़े और िफर आगे बोले- ‘अथवा कहा जाए तो धूतता, करने का यास
कदािप मत करना। िद ा ों की अपनी मयादा होती है । ाय: सभी मुख
िद ा ों का एक बार ही योग िकया जा सकता है , अत: उनका योग अ ंत
कृपणता से करना होता है । उनका योग जब तक िववशता ही न उ हो जाए,
िकसी िद ा रिहत ित ी के िव कदािप नहीं िकया जाता।’
‘िववशता?’ ल ण ने आ य से िकया।
‘मान लो तु ारा ित ी तुमसे बल िस हो रहा है और िकसी िद ा का
योग न करने की थित म ाणों का संकट उ हो सकता है , तब िद ा ों से
रिहत ित ी के िव भी िद ा का योग िकया जा सकता है ।’ िव ािम
कुछ पल के। संभवत: ती ा कर रहे थे िक ल ण अपना अगला ुत कर,
पर जब ल ण भी मौन कुछ सोचते रहे तो यं ही बोले-
‘और कोई ?’
‘जी?’ ल ण जैसे चौंक पड़े । िक ु उ ोंने हिथयार नहीं डाले। अगले ही ण
चैत होते ए ुत िकया-
‘आपने अभी कहा गु दे व िक िद ा का एक ही बार योग िकया जा सकता
है । िक ु ाचीन कथाओं म तो िविभ िद ा ों के अनेक बार योग का वणन है ।’
‘जैसे?’
‘जैसे ... आ ेया , वा णा , ऐ ा आिद-आिद। ेक कथा म िविभ
यो ाओं ारा इनके योग का उ ेख आता है । ा का भी कई बार योग
सुनने म आता है ।’
‘तु ा तीत होता है , िपतामह ने मा एक ही ा का िनमाण िकया है ?
व ु त: ा के आिव ता िपतामह ह। थम ा का िनमाण उ ोंने िकया
था िक ु तदु परा उ ोंने िव कमा के सहयोग से उसकी कई ितकृितयों का
िनमाण कराया। आव कता होने पर भिव म और भी करा सकते ह। ेक दे व
ने कई-कई िद ा ों का आिव ार िकया है , भिव म और भी कर सकते ह।
साथ ही अब तक आिव ृ त इन िद ा ों की आव कतानुसार अ ितकृितयाँ
भी वे बना सकते ह।’
‘गु दे व, जैसे ीिव ु का सुदशन च है । उसका तो वे िनरं तर, बार ार योग
करते ह?’
‘व ुत: िव ु का सुदशन च , िशव का ि शूल, इ का व ा, यम का कालद
आिद, इन िविश श यों के िविश आयुध ह। ये िद ा ों के समान ही
श शाली होते ए भी िद ा नहीं ह। व ु थत यह है िक यिद दे खा जाए तो ये
िद ा ों से भी िविश ह। थम तो इनका यही गुण है िक इ बार ार योग
िकया जा सकता है । ि तीयत: ये िवनाशक मता म ा को छोड़कर िकसी भी
िद ा से अिधक ही ह। िव ु का सुदशन तो ा से भी कम नहीं है । इनका
भी आवाहन और िवसजन स व है । िक ु, पूव ही कहा िक ये इन िविश श यों
के िविश आयुध ह। इनकी कोई ितकृित नहीं है । ये आयुध इनकी पहचान ह।
ि शूल के िबना िशव की और सुदशन के िबना िव ु की क ना नहीं की जाती।
‘अिधकां श िद ा ों का योग धनुष ारा ेपण करके ही होता है । इसके
िवपरीत आयुधों के िलए ऐसे िकसी ेपक की आव कता नहीं है । इ हाथ म
लेकर भी यु िकया जाता है और आव कता पड़ने पर फका भी जा सकता है ।
इनके सबके अपने-अपने िविश गुण ह। ये आयुध यं म िव ोट नहीं करते।
इसिलए न भी नहीं होते। िकंतु वही त िक ये िविश श यों के िविश आयुध
ह, िज वे श याँ िकसी अ को दान नहीं करतीं। िफर भी कौमोिदकी गदा
जैसे ऐसे ही कुछ िद आयुध ह जो म तु दान क ँ गा।’
‘जी गु दे व!’ दोनों कुमारों ने स तापूवक उ र िदया।
तभी ल ण ने दू सरा उप थत कर िदया-
‘गु दे व, ऐसा भी तो हो सकता है िक कभी कोई दे वों पर िवजय ा कर
ले ... और तब वह दे वों से बलात अपने िलये िद ा ों का िनमाण करवाये?’
‘ ा तु ऐसा तीत होता है िक दे वों पर िवजय ा करना कोई खलवाड़ है ?’
िव ािम ने ल ण के साथ पुन: खलवाड़ सा करते ए िकया।
‘नहीं गु दे व, मेरा ता य ऐसा कदािप नहीं है । िक ु पूव म भी तो कई यो ाओं
ने दे वों को परािजत िकया है । अभी कुछ काल पूव ही रावण ने ही दे वों को परािजत
िकया है । भिव म अ कोई भी कर सकता है ।’
‘िन ंदेह दे व िवगत म परािजत होते रहे ह और भिव म भी यह असंभव नहीं
है । िक ु व ! ा अभी तक िकसी ने दे वों से बलात् अपने िलए िद ा ों का
िनमाण करवाने का यास िकया है ?’
‘अभी तक नहीं िकया िक ु इसका यह अथ तो नहीं िक भिव म भी नहीं
करे गा!’
‘दे वों को परािजत करने वाला िन ंदेह बल-पौ ष म दे वों से बढ़ा-चढ़ा ही होगा।
उसके पास दे वों से भी े श ा होंगे तभी वह दे वों को परा कर पाएगा। ऐसा
िनकट भिव म तभी संभव है जब तीनों महाश यों म से एक अथवा अिधक
उसके प म हों। ऐसे म तुम ही िवचार करो िक िजसके प म, ा, िव ु अथवा
िशव होंगे उसे दे वों से बलात िद ा ा करने की ा आव कता होगी।’
‘िक ु ...’
‘कोई िक ु नहीं ल ण।’ िव ािम ने ल ण की बात बीच म ही काट दी-
‘सुदूर भिव म ा होगा यह िकसी को ात नहीं। ब त संभव है , तब तक कोई
नवीन ही श अ म आ जाए, िजसके स ुख दे व भी, इन तीनों महाश यों
समेत, गौण होकर रह जाय। हो सकता है , इनका अ ही समा हो जाए। अत:
जो अभी स ुख है उस पर िवचार करो। जो कत तु ारे स ुख अभी ुत है
उस पर िवचार करो। जब इ स ूण कर लेना तब सुदूर भिव की सम ाओं पर
िचंतन करना।’
‘जी गु दे व।’ ल ण के अधरों पर ाय: ही नतन करती रहने वाली त, जो इस
ग ीर वातालाप म कहीं दु बक कर सो गयी थी पुन: मुखर हो उठी। अनायास ही
राम भी मु ु रा उठे ।
‘गु दे व, िद ा ों के आवाहन, िवसजन और प रचालन की ि या पर चचा चल
रही थी।’ इस बार राम ने पुन: छूटे ए सू को पकड़ा।
‘हाँ , वायु की तरं ग िन या नाद उ करती ह। जब हम सामा प म वण
का, श ों का उ ारण करते ह तब िन का मह उसके अथ के िलए होता है ।
उस िन म िछपी भाषा और तदनु प उसके अथ को हम हण करते ह। मं म
इस अथ का उतना मह नहीं होता िजतना नाद या िन का होता है । मने अभी
वन ितयों पर पड़ने वाले, संगीत के सकारा क और ककश िन के नकारा क
भाव का उ ेख िकया था। मं उसी भाव का अ ंत प रमािजत-प र ृ त प
ह। मं ों का अथ मा मउ करने के िलए है , मह पूण उस मं के उ ारण
ारा उ िन-तरं गों का िविभ कारकों पर भाव है ।
‘िद ा ों के साथ चार अिभि याएँ जुड़ी ह। हम उनका आवाहन करते ह, हम
उनका िवसजन करते ह, हम आव कतानु प उनका उपयोग करते ह और हमारे
िलए अनुपयोगी होने पर अथवा िकसी अ के िलए अिधक उपयोगी होने पर, हम
उस िकसी अ को कोई िवशेष िद ा दान भी करते ह ... जैसे अभी म तु
दान करने वाला ँ । ेक काय के िलए पृथक मं का योग िकया जाता है ।
‘जब हम िवधान-पूवक िकसी िवशेष िद ा के िलए उसके िविश आवाहन मं
का उ ारण करते ह, तब उस मं के उ ारण से उ िन-तरं गे उस िवशेष
िद ा के सू कणों के साथ अिभि या करती ह और वह िद ा कट हो
जाता है ।
‘जब हम िवसजन मं का उ ारण करते ह तब उसकी िन-तरं ग उस िद ा
के साथ अिभि या कर पुन: उसे उ ीं सू तम कणों म िवखंिडत कर दे ती ह।
‘जब हम ेपण मं का उ ारण करते ह तो उससे उ िन-तरं ग, उस
िद ा की धातु और उसपर लेिपत िविभ रसायनों के अणुओं को िवशेष कार
से उ ेिजत कर उ सि य कर दे ती ह। िफर जब हम उनका ेपण करते ह तो
यही सि य रासायिणक अणु वायुमंडल के साथ घषण कर िवशाल ऊजा सं हीत
करते ह और इ त ल पर वह सम ऊजा फक दे ते ह। कभी यह ऊजा
िव ोट के प म होती है , तो कभी अि के प म, तो कभी जल के अथवा वायु
के अथवा िकसी भी अ प म, जैसी भी अपे ा की गयी हो, और जैसा उस
िद ा का गुण हो, होती है ।
‘िद ा ों की धातु भी िवशेष होती है साथ ही ेक िद ा म कुछ िभ धातु
का योग होता है । यह धातु अिभि या को उ तम र तक ले जाती है । इस कार
की धातु का ान अभी तक मा दे वों को ही है , इसीिलए िद ा ों का िनमाण करने
म अभी तक वही समथ भी ए ह।
‘िद ा ों का एक और िवशेष गुण है ।’
दोनों कुमार िनिनमेष ि से िव ािम की ओर दे खते ए सुनते रहे ।
‘िद ा ों को इ त ल के भेदन की भावना दी जा सकती है । िजस ल के
भेदन की भावना दे कर ... और उसे ल कर, इ ि िकया जाता है , ये उसे
पहचान कर, उसके थान प रवतन करने पर उसी के अनु प अपनी िदशा
प रवितत कर सकते है ।’
‘गु दे व हम ल िकसी और व ु का कर और भावना िकसी अ व ु की द
तब? ा तब भी ये भावना दी गयी व ु को खोजकर उसे न कर दगे?’ ल ण ने
िकया।
‘नहीं, िबना कोई भावना िदए मा िकसी िवशेष अथवा व ु को ल कर
ि िकया गया अ तो िफर भी िकसी सीमा तक अपने ल को पहचानने म
स म होता है , िक ु जो तुम कहना चाह रहे हो वैसा कृ तो अ को िमत कर
दे गा। तब वह मा उस िदशा का अनुसरण करे गा िजसम उसे ि िकया गया
होगा। वह ल िवशेष का शोधन नहीं कर पाएगा।’
अचानक, एकाएक िव ािम चचा को िवराम दे ते ए बोले-
‘अब यह चचा पया हो चुकी। हमारे पास अिधक समय नहीं है । अब ुत हो
जाओ िद ा ों को हण करने के िलए और उनकी आवाहन, िवसजन और
ेपण िविध समझने के िलए।’
‘ ुत ह गु दे व!’ राम ने कहा।
‘मा एक !’ ल ण ने कहा।
‘पूछो!’ गु दे व ने मु ु राते ए सहमित दी।
‘अभी जब यह द -च आपके हाथ म कट आ, तब तो आपने िकसी
आवाहन मं का उ ारण िकया ही नहीं था। तब यह कैसे कट हो गया?’
‘िकसने कहा नहीं िकया था? मने उ ारण मं पढ़ा था, परं तु मेरा र इतना मंद
था िक तुम सुन नहीं सके।’
‘ ा इतने मंद र से भी इ त िन-तरं ग उ होकर अिभि या करने म
समथ होती ह?’
‘हाँ , ह ी से ह ी फुसफुसाहट भी िन-तरं ग उ करती है । अिधकां श
िद ा ों के िलए आव क िन-तरं ग तो ऐसे ही मंद र म मं के उ ारण से ही
उ होती ह। उनके िलए ती र म मं ो ार आव क नहीं होता। कई
िद ा तो मा मं ों के मानिसक उ ारण से ही प रचािलत होते ह। उनके िलए
मानिसक तरं ग ही पया होती ह।’ गु दे व ने ल ण की शंका का समाधान ुत
िकया।
और िफर दं डच , धमच , कालच , िव ुच , ऐ च , व ाा , शर,
ऐषीका , ा , मोदकी-िशखरी गदाय, धमपाश, कालपाश, व णपाश, तामस,
महाबली, सौमन, संवत, दु जय, मौसल, स , मायामय, तेज भ, िशिशर, शीतेषु जैसे
िद ा िव ािम राम को दे ते चले गए। हाँ राम को, ल ण मा दे ख रहे थे, समझ
रहे थे, िद ा ों को हण राम ही कर रहे थे। अन रामानुरागी ल ण इसीम
स थे। राम म और उनम ा कोई भेद था।
राम के प ात् कुछ िद ा िव ािम ने ल ण को भी दान िकये।
स ूण अहोरा (िदन-रात) इसीम तीत हो गया। िव ािम दान करते गए,
राम हण करते गए ... और एक-एक कर सम िद ा राम के आभामंडल को
सुशोिभत करते चले गए। ल ण ने ल िकया िक ेक िद ा के साथ, राम के
आनन के पृ म उप थत आभामंडल की आभा ती तर होती चली गयी थी।
5-सु ीव-हनु मान
‘कहाँ थे अंगद, आज ात: से ही िदखाई नहीं पड़े ?’ तारा ने िचंितत भाव से अंगद
से िकया।
‘काका के पास गया था माता!’ अंगद ने सहज भाव से उ र िदया।
‘तु काका के पास जाने से म नहीं रोकती पु , िक ु यह भी तो सोचो िक यिद
महाराज को ात हो गया तो ा वे ोिधत नहीं होंगे?’
‘ ात तो है उ !’
‘तुम कभी-कभी अपने काका से िमल आते हो इतना ही तो ात है उ । यह तो
नहीं ात िक यह कभी-कभी िन म प रवितत हो गया है ।’
‘िफर ा क ँ ? ा महाराज का काका पर ोध अकारण नहीं है ? आपको तो
सब ात ही है ।’
‘िन ंदेह अकारण है । महाराज उसे मा ताड़ना दे कर छोड़ सकते थे। तुमसे भी
अिधक ेह करते थे वे तु ारे काका से। दै व जाने ा आ जो इतना िवकट ोध
आ गया। िफर भी वे मा महाराज ही नहीं, तु ारे िपता भी ह। वे सदै व तु ारा शुभ
ही चाहते ह।’
अंगद ने बीच म कुछ कहना चाहा पर तारा ने उसे रोक िदया और कहती
रही- ‘तुम अपने काका से े ष न करो, कभी-कभी िमल लो अथवा
आव कता पड़ने पर उनकी कोई सहायता कर दो, इसम कुछ भी अनुिचत नहीं
है । महाराज भी इसे अ था नहीं लगे िक ु पूव की भाँ ित ही िन पूरा िदन काका
के साथ तीत करना यह तो अब उिचत नहीं है ।’
‘काका के िबना मुझसे समय तीत ही नहीं होता। मेरा समय तो दो ही के साथ
कटता था - काका अथवा बजरं ग भइया। अब ये दोनों ही यहाँ नहीं, ऋ मूक पर ह;
तो बताइये यहाँ ...’
बड़ी दे र चचा ई माता और पु म िक ु कोई िन ष नहीं िनकल सका। तारा
को अंगद के सु ीव और हनुमान के साथ समय तीत करने म कोई आपि नहीं
थी। उसकी ि म यह ेय र ही था, अ ों की अपे ा सु ीव और हनुमान की
संगत े ही थी। अ िक ं धावािसयों की भां ित वह भी हनुमान को सम
िक ं धा म सव े मानती थी - ेक ि से। िफर भी उसे बािल के कुिपत होने
का भय बना रहता था।
***
अंगद दू सरे िदन पुन: र मूक पवत पर अपने काका और हनुमान की संगत म
था। िन की भां ित वह गु कुल से सीधे यहीं आ गया था।
सु ीव ने िन की भां ित उससे उसकी काकी, मा, की कुशल ेम पूछी-
‘तेरे काकी तो कुशलता से ह?’
‘कुशलता से ही होंगी। सभी उनका िवशेष ान रखते ह- माता भी, िपता भी।’
‘िक ु मने यह दािय तुझे सौंपा आ है ।’ सु ीव ने िन की भाँ ित अंगद की
पीठ पर धौल लगाते ए कहा।
‘मने आपको िकतनी बार बताया िक काकी से िमलना मुझे अ ा नहीं लगता।
मुझे तीत होता है िक म उनका अपराधी ँ ।’
‘तू अपराधी ों है , भला? िन समझाता ँ िक ु तुझे समझ ही नहीं आता।’
सु ीव िकंिचत ोध और िकंिचत हताशा के र म बोला।
ये िन की बात थीं। अंगद जहाँ तक संभव हो सकता था, मा से कतराता था।
वैसे उसे अपनी काकी की पूरी िचंता रहती थी, िकंतु उनके सामने पड़ने म उसे
असुिवधा तीत होती थी। सु ीव उसे इसी असुिवधा से बाहर िनकालना चाहता था।
वह गंभीर र म बोला-
‘दे ख! मुझे नहीं तीत होता िक भाई का ोध अब कम होगा। अिपतु मुझे तो
तीत होता है िक उ ोंने मुझे सदै व के िलए ही ाग िदया है । इसिलए अब दु बारा
तेरी काकी से मेरी भट की संभावना लगभग नहीं के समान है । ऐसे म अब तू ही वहाँ
उनका सबसे िनकट का है । तू भी यिद उनसे िछपा-िछपा रहे गा तो उ
िकतना क होता होगा।’
‘काका म सब समझता ँ , िक ु बस साहस नहीं होता उनके सामने जाने का।
अ ा अब यह िवषय ब कीिजए, अ था मै जाता ँ ।’ अंगद ने खड़े होने का
यास करते ए कहा।’
‘अरे , बुरा लग गया मेरे भतीजे को। ठ गया, अभी मनाता ँ ।’ सु ीव ने अपने
फूले ए गाल और फुलाते ए कहा और अंगद के गुदगुदी करने लगा। अंगद हँ स
पड़ा और उठकर भाग िलया। सु ीव बैठा हँ सता रहा।
उधर से हनुमान पहाड़ी पर चढ़ते ए आ रहे थे। पीछे दे खता आ दौड़ता अंगद
उनसे टकरा गया। हनुमान ने उसे पकड़कर भींच िलया और िफर हँ सते ए ऊपर
उछाल िदया। चारों ओर सबकी स िलत हँ सी गूँज उठी।
अब तक मतंगवन े म एक कार से सु ीव का छोटा सा प ह-बीस सद ों
का ाम-रा थािपत हो गया था। हनुमान के उपरां त कई अ वानर भी िक ं धा
छोड़कर उसके पास आ गये थे। इनम सबसे मह पूण ऋ राज जा वान थे। भले
ही सु ीव यं ऐसी कोई अपे ा नहीं रखता था परं तु िफर भी ये सभी उसे राजा के
समान ही स ान दे ते थे। जीवन कोई िवशेष किठन नहीं था। वानर जाित थी, ऊँची
मह ाकां ाय थीं ही नहीं। प रवार भी थे नहीं साथ म, िन खाया-िपया, खेला-
कूदा और सो गये - ऐसे ही िदन कट जाता था। बस बािल का भय ही सबसे बड़ी
सम ा थी। अ सब तो थोड़ा-ब त इधर-उधर घूम-िफर भी आते थे िक ु सु ीव
के िलए मतंगवन ही उसके जीवन की सीमा थी। वह उसके बाहर िनकलने की सोच
भी नहीं सकता था।
अंगद ाय: िन ही आता था। अ भी ब त से िक ं धावासी थे जो ब धा आ
जाया करते थे। चार वष से अिधक हो गया था, िकंतु अभी तक बािल का सु ीव पर
से ोध कम नहीं आ था। अब तो इन लोगों ने आशा भी छोड़ दी थी। बस भा के
आसरे िजए जा रहे थे।
अंगद जब हँ सता आ भूिम पर खड़ा हो गया तो अचानक हनुमान ने एक भूला-
िबसरा िफर से पूछ िदया-
‘अ ा अंगद! वह जो लंका की सै -चौकी वाला िवषय था (दे ख दशानन) उसम
आगे कोई कायवाही ई अथवा उसे भुला ही िदया गया?’
‘मेरे सं ान म तो कुछ भी नहीं आ।’
‘तुमने मातुल से वाता करने को कहा था, की भी थी अथवा नहीं?’
‘स क ँ भैया तो मने नहीं की थी, िकंतु िपता को ात तभी हो गया था। हमारी
चौकी को तुमने जो बंदी सौंपे थे, दू सरे िदन ही चौकी वालों ने उ िक ं धा िभजवा
िदया था। िकंतु िजतना उ ोंने तु बताया था, उससे अिधक वे कुछ भी नहीं बता
पाए। हमारे सुर ा-किमयों ने खोजबीन की औपचा रकताय िनभा कर बता िदया िक
िक ं धा की सीमा म लंका की और कोई सैिनक चौकी नहीं िमली।’
‘मातुल ने भी इसे ग ीरता से नहीं िलया?’
‘नहीं! आप तो जानते ही ह िक िपता को भी और अ सम वानरों को भी अपने
बल का दप आव कता से अिधक ही है । िफर लंका से हमारे िम वत संबंध ह।
यं िपता, रावण के भारी शंसक ह। एक कार से यह स भी है िक रावण की
ओर से आज तक कोई आपि जनक काय नहीं िकया गया।’
हनुमान ने कोई उ र नहीं िदया। बस कंधे उचका िदए। िकंतु जा वान बोल पड़े -
‘माना िक रावण के म अथवा उसके आचरण म अभी तक कोई खोट
नहीं िमली है िक ु राजनीित म िकसी पर इतना भरोसा करना उिचत नहीं होता। वह
एक चौकी तो इन दोनों ने यं ही पकड़ी थी और इनके अनुसार पाँ च सौ चौिकयों
की उप थित उन लोगों ने ीकार की थी। पाँ च सौ सै चौिकयाँ कोई छोटी-मोटी
बात नहीं है । तु ारी बात उिचत है िक स ाट को अपने बल का दप अिधक ही है ।
व ुत: वे अ िधक भोले ह, सहज िव ासी ह। और अ वानरों, िवशेषकर रा -
किमयों को म भलीभाँ ित जानता ँ , उन सभी म कत िन ा र ीभर नहीं है ।’
‘वीर ह िकंतु लापरवाह ह सभी।’ सु ीव ने हताशा से कहा- ‘जब तक कुबेर लंका
का शासक था यह राजनैितक लापरवाही चल जाती थी। कुबेर को अपने वसाय से
ही अवकाश नहीं था जो सै -अिभयानों के िवषय म सोचता िकंतु रावण तो ि लोक-
िवजय कर चुका है । वह तो अनेक सै अिभयान संचािलत कर चुका है , उस पर इस
कार भरोसा कैसे िकया जा सकता है ?’
‘िकंतु काका, रावण ने िकसी भी िविजत रा पर अिधकार नहीं िकया, ा यह
त उसके प म नहीं जाता?’ अंगद ने शंका कट की।
‘जाता है , अव जाता है । िकंतु ा पता उसके सदाचरण वा िवक ह अथवा
मा आवरण भर ह! िफर वे चौिकयाँ भी तो वा िवकता थीं। चार वष पूव तक थीं तो
िकसी कारण से ही रही होंगी। िकसी दू सरे रा की सीमा म अपनी सै -चौिकयाँ
थािपत करना, वह भी िबना उस रा से अनुमित िलए, शुभे ा तो नहीं मानी जा
सकती?’
‘आपका कथन भी सोचने पर िववश तो करता है ।’
‘तुम थोड़ा और बड़े हो जाओ तब यं ही इन िवषयों को दे खना।’ हनुमान ने
हँ सते ए कहा।
‘अब तो म पया बड़ा हो गया ँ , बजरं ग भइया। आप सब लोग कब तक मुझे
इसी भां ित न ा बालक बनाये रहगे।’ अंगद ने िकंिचत रोष का दशन करते ए
कहा।
‘बात-बात पर ब ों जैसे तो ठ जाते हो, बड़ा कैसे मान िलया जाए तु । बड़े
होकर िदखाओ तब बड़ा मान।’ हनुमान ने खंचाई जारी रखी।
‘भइया!’ अंगद ने आहत र म ितरोध िकया। िफर सु ीव की ओर उ ुख
होकर िशकायत की- ‘दे खए काका, बजरं ग भइया िचढ़ा रहे ह और आप ह िक ...’
‘रहने दो न हनुमान।’ कहते ए सु ीव ने अंगद को खींच कर अपनी छाती से
भींच िलया। िफर छोड़ते ए कहा- ‘अ ा अब तुम घर जाओ। भाभी ती ा कर
रही होंगी।’
‘और कल यहाँ आने के थान पर लंका की कोई सै चौकी खोजने जाना तब
तु म बड़ा ीकार कर लूँगा।’ हनुमान ने उसकी पीठ ठोंकते ए िफर चुहल की।
अंगद ने िफर आहत ि से हनुमान की ओर दे खा और पलटकर पहाड़ी से नीचे
उतरने लगा।
‘अब आप भी िच ा छोड़ मातुल।’
‘ठीक कहते हो बजरं ग। जब भाई ही कुछ नहीं सोच रहे तो हम सोचकर कर भी
ा लगे!’
6- ताड़का
िव ािम , राम-ल ण के साथ ात: ही थाणु आ म से िनकल िलए।
आ मवािसयों ने गंगातट पर उनके िलए नाव का ब कर िदया था। पितत पावनी
की धार म वेश करने से पूव िव ािम ने उ णाम िनवेिदत िकया िफर झुककर
अंजिल म जल लेकर माथे से लगाया, आचमन िकया और िफर शेष जल को अपने
ऊपर िछड़क िलया। उनकी दे खादे खी दोनों कुमारों ने भी यही सब िकया। तब
िव ािम ने धारा म वेश िकया और नाव पर चढ़ गये। आ मवािसयों के साथ
णाम-अिभवादन का आदान- दान आ। कुमारों ने भूिम पर लेटकर सम
आ मवािसयों को स िलत द वत णाम िकया। दोनों कुमारों के नाव म वेश
करते ही नािवक ने च ू चलाना आरं भ कर िदया।
ी ऋतु थी। नदी के ऊपर वािहत शीतल वायु शरीर को सुख दान कर रही
थी। िव ािम बड़ी दे र तक वातावरण के भाव म खोये-खोये से आँ ख बंद िकए बैठे
रहे । ल ण एक हाथ नीचे लटकाए नदी के जल से खलवाड़ कर रहे थे। बीच धार
म प ँ चने से पूव ही एक शोर ने दोनों कुमारों का ान आकिषत िकया। ल ण
धारा से खेलना भूल कर शोर का ोत खोजने लगे। समझ नहीं आया तो गु दे व से
पूछा-
‘गु दे व यह ती कोलाहल कैसा सुनाई पड़ रहा है ?’
‘उधर दे खो,’ िव ािम ने उ र-पूव की ओर हाथ उठाकर संकेत करते ए कहा-
‘वो ... उधर से सरयू आ रही ह और इधर से माँ गंगा वािहत हो रही ह। वो दे खो
वहाँ पर दोनों का संगम हो रहा है । यह कोलाहल दोनों निदयों के जल के टकराने
का कोलाहल है । णाम करो इस पिव संगम तीथ को।’ कहते ए िव ािम ने यं
भी आँ ख ब कर हाथ जोड़ िदए।
दोनों कुमारों ने भी ा से णाम िकया।
कुछ ही समय उपरां त नौका ने गंगा के दि णी घाट को श िकया। तीनों उतर
पड़े । नािवक ने उनके आगे बढ़ने से पूव, भूिम पर लेट कर उ द वत णाम
िकया। गु दे व ने आशीवाद िदया और िफर गंगा को णाम िकया और घूम कर आगे
बढ़ चले। दोनों कुमारों ने भी गंगा को णाम िकया और गु दे व के पीछे बढ़ चले।
इस बार गु दे व की गित अपे ाकृत धीमी थी। उ ोंने दोनों कुमारों को अपने
अगल-बगल चलने का संकेत िकया और बोले-
‘राम! अब तु ारी थम परी ा का समय ुत हो गया है ।’
‘हम ुत ह गु दे व ! िकंतु एक शंका है ।’
‘बताओ व !’
‘ताड़का ी है । ा ी पर हार करना ि योिचत है ?’
‘पु ! ी जब तक ी की मयादा का िनवाह करती है , वह ी होती है । ताड़का
तो ी के वेश म यों के िलए कलंक है । वह ी के प म एक अ ाचारी यो ा
है और यो ाओं का समरां गण म वध ायोिचत है । िफर तुम तो उसका वध असं
ऋिषयों और िनरीह नाग रकों को ाण िदलाने के िलए करोगे। यिद तुम ताड़का का
वध करने म संकोच करोगे तो इस स ूण े म वैिदक मयादा की हािन के पातक
के भागी बनोगे। यिद तुम ताड़का का वध करने म संकोच करोगे तो इन सम
िनरीह नाग रकों पर, ताड़का ारा िकए जा रहे अ ाचारों के पातक के भी भागी
बनोगे। ि य का थम कत िनरीह-दु :खी जनों की र ा है , उनका उ ार है ।
अत: िकसी संकोच की ... िकसी कार के िचंतन की आव कता नहीं है ।
अ ाचारी का, धम ोही का सवनाश करना ही ि य का धम है । ताड़का सभी
ि यों से वधयो है ।’
राम शां त भाव से चलते रहे िकंतु उनके मन म अभी भी संभवत: कुछ संदेह था।
ताड़का का वध िकए िबना भी तो उसे िन य िकया जा सकता था। िकंतु उ ोंने
अपने संदेह को नहीं िकया। उनके िवपरीत ल ण की भुजाय फड़कने लगी
थीं।
राम को शां त दे खकर िव ािम पुन: बोले- ‘कोई शंका है अभी भी राम? हो तो
िबना िकसी संकोच को बोलो। म समाधान क ँ गा। िकंतु ताड़का और उसके पु ों
का िवनाश ही इस समय तु ारा थम कत है । यह मेरा आदे श है ।’
‘कोई शंका नहीं गु दे व। हम इस स ूण े को इन रा सों के आतंक से मु
करायगे।’ गु के आदे श के बाद राम आदे श-पालन के अित र और कुछ नहीं
सोच सकते थे। गु और ा णों के आदे श के आगे उनके सभी मनोभाव गौण थे।
िव ािम पुन: बोले-
‘िकसी समय पुरोचन की पु ी म रा (कैकेयी की दासी म रा नहीं) पापाचारों
और अ ाचारों म वृ हो गयी थी। तब इ ने उसका वध कर लोक को उससे
ाण िदलाया था। इसी कार शु ाचाय की माता, भृगु प ी भी जब अ ाचारों म
वृ ईं तो िव ु ने उनका वध कर लोक का क ाण िकया था। ये दोनों ही अपने
कृ के िलए पाप के भागी नहीं बने। अत: लोक के क ाण हे तु ी के वध म कोई
शंका नहीं है ।’
राम ने बस मौन सहमित दान की, बोले कुछ नहीं।
अब वन िदखाई पड़ने लगा था। ल ण ने िकया-
‘यही सु रवन है गु दे व?’
‘हाँ व !’
‘गु दे व! ...’ ल ण बोले और अचानक क गए।
‘ क ों गए? यह तो ल ण की कृित नहीं है । िन:शंक पूछो जो भी पूछना
हो।’ िव ािम सहास बोले।
‘गु दे व, सु रवन का और ताड़का का इितवृ जानने की उ ुकता थी।’
गु दे व बताने लगे। वृ ासुर के वध के उपरां त इं पर लगी ह ा के पाप से
लेकर महिष अग ारा ताड़का के पित सु के वध तक की स ूण कथा उ ोंने
सुना डाली। (दे ख : पूव-पीिठका)
दोपहर ढलने लगी थी। वातावरण अभी भी गम था परं तु सघन वन के कारण धूप
का कोप नहीं था। हवा भी वृ ों को पार कर इन याि यों को श करने तक अपनी
उ ता खो दे ती थी। पैरों के नीचे सूखे प े चरमरा रहे थे। कभी-कभी सप आिद
घूमते-टहलते इन अनजाने याि यों को दे खकर कुछ अचरज से तो कुछ भय से माग
छोड़ कर छु पने का थान खोजने लगते थे। कुल िमला कर या ा किठन नहीं थी।
ल ण को इस या ा म िवशेष आनंद आ रहा था। जंगल म पीपल, बबूल, नीम,
आम भां ित-भां ित के पेड़ थे। बीच-बीच म बरगद के पेड़ भी िमल रहे थे। वे सबसे
पीछे चल रहे थे। बीच-बीच म इतनी ऊँचाई पर आम िदख जा रहे थे जो धनुष उचका
कर तोड़े जा सक। ये आम उ ललचा रहे थे। िबना आगे वालों के मन म कोई संदेह
उ िकए धनुष उचका कर आम तोड़ लेने के अवसर बनाने के िलए उ ोंने थोड़ी
दू री और बढ़ा ली। या ा चलती रही।
लगभग एक मु त की और या ा के बाद एकाएक िव ािम मुड़े। उ ोंने दे खा िक
ल ण थोड़ा पीछे छूट गए ह। वे एक हाथ से आम चूस रहे ह। उनके उ रीय म भी
एक छोर पर कई सारे आम बँधे ए ह। िव ािम मु ु राये िकंतु उ ोंने इस िवषय
म कोई िट णी नहीं की। वे बोले-
‘अ ा, अब दोनों सतक हो जाओ। मुझे आभास हो रहा है िक अब िकसी भी
समय ताड़का और उसके गणों से सामना हो सकता है ।’
ल ण अपनी गित बढ़ाकर राम के बराबर आ गए और बोले-
‘जी गु दे व, हम सतक ह।’
उ ोंने शी ता से हाथ का आम समा िकया। हथेली के पृ भाग से मुँह पोंछा
और राम के बराबर म चलने लगे। राम ने मु ु राकर उ दे खा और सहज भाव से
चलते रहे ।
आधा मु त भी नहीं बीता होगा िक कुछ कोलाहल सुनाई पड़ने लगा। दोनों
कुमारों ने तूणीर से दो-दो तीर िनकाल कर हाथ म पकड़ िलये, अपने-अपने धनुषों
पर उनकी पकड़ कठोर हो गयी।
गु दे व ने कोलाहल की ओर ही बढ़ना आरं भ कर िदया।
कुछ ही दे र म एक िवराटकाय, अ ंत कु प ी कट ई। राम से भी कई
अंगुल ऊँचा कद, भरपूर पु शरीर, गौर वण िक ु चेहरे समेत सारे शरीर पर थान-
थान पर जलने के िच ों ने उसे वीभ प दान कर िदया था। ऐसा िक कोई
दु बल दय का रात म दे खे तो उसे दयाघात हो जाए। हाथ म उसने
िवशालकाय मु र उठा रखा था। इतने िवशालकाय कद की कोई ी कुमारों ने
अपने जीवन म नहीं दे खी थी।
उसके पीछे हाथों म भाले िलए दस-प ह सैिनकों की टोली थी। जो अनगल
कोलाहल कर रही थी।
इन लोगों को दे खकर िव ािम थमककर खड़े हो गए और िनिनमेष ि से उस
ी की आँ खों म आँ ख डालकर दे खने लगे। यही ताड़का थी।
‘अरे ढोंगी दिढ़यल, मने तो सुना था िक तू अपने य ों की र ा के िलए कोई सेना
लेने गया है । म कब से ती ा कर रही ँ , कहाँ है तेरी सेना?’ उपहास उड़ाते ए
ताड़का ने ती र से कहा।
‘तेरे िलए िकसी सेना की आव कता नहीं है ताड़का।’ िव ािम का र सदै व
की भां ित शां त था- ‘तेरे िलए तो ये दो बालक ही पया ह।’
राम और ल ण की ओर दे खकर ताड़का ने िवकट अ हास िकया। कुछ ण
ककर दोनों का सू िनरी ण िकया। िफर िव य भरे र म बोली-
‘तू है तो िन य ही धूत। तेरा खेल मेरी समझ म नहीं आया।’ उसने अपना िसर
ठकठकाया, त ात आगे बोली- ‘तेरी ती ा म मने इतने िदन तेरे उन डरपोक
चेले-चपाटों की ओर भी ि पात नहीं िकया। मन ही नहीं िकया उन मरे ए खलौनों
से खेलने का। सोच रही थी िक तू कुछ नए खलौने लेकर आएगा उनसे खेलूँगी जी
भरके। आन आएगा कुछ। िक ु तूने तो िनराश कर िदया ताड़का को।’
‘नहीं, तुझे िनराश नहीं होना पड़े गा।’ िव ािम मंद हा के साथ बोले- ‘तू आरं भ
कर खेल, िन य ही न तुझे िनराशा होगी ... न मुझे। चल आरं भ कर।’
‘िन य ही कुछ है ,जो तूने अपनी पोटली म अलग िछपा रखा है ।’
‘तुझे पता है , िव ािम लुकािछपी का खेल नहीं खेलता। मने यिद ोध और िहं सा
का पूण प र ाग न कर िदया होता तो तेरे िलए तो म ही पया था। सु को भ
करते समय तुझे जीिवत छोड़ जो काय महिष अग ने अधूरा छोड़ िदया था म उसे
पूरा कर दे ता। िकंतु तू आज अपने भाव के िवपरीत मा िज ा से यु ों कर
रही है ? ा तेरी भुजाओं की श कुंद पड़ गयी है , अथवा भयभीत है ?’
ताड़का ने पुन: अ हास िकया। िफर बोली-
‘ताड़का भयभीत हो जाएगी इन सुकुमार बालकों से? इन पर तो तरस आ रहा है ।
ये तेरे समान ढोंगी नहीं तीत होते।’ िफर कुमारों से स ोिधत ई- ‘जाओ बालकों,
भाग जाओ! ताड़का तु जीवनदान दे ती है । तु ारे तो अभी दू ध के दाँ त भी नहीं टू टे
लगते, अपनी माता का आँ चल ाग इस ढोंगी के कुच म फँसकर थ यहाँ ों
चले आए? तुम ...’
‘ये बालक नहीं ह, काल ह तेरा।’ ताड़का की बात बीच म ही काटते ए िव ािम
बोल पड़े । ‘वार कर, िफर दे ख ये ा ह।’
‘ऐसा ???’ ताड़का ने महान आ य कट करते ए कहा। ‘चलो अ ा तुम ही
थम वार करो।’
‘दे वी ! हम इ ाकु के वंशज ह। अकारण ी पर वार करना हमारी मयादा म
नहीं है ।’ राम ने शां त र म ताड़का को उ र िदया। िकंतु ल ण शां त नहीं रह
सके। वे आवेश म बोल पड़े -
‘इतनी दे र से गु दे व के ित अनगल लाप िकए जा रही है , दु ा! यिद तू ी न
होती तो अब तक यमपुर थान कर चुकी होती। यिद तुझे अपनी श का इतना
ही दं भ है तो वार कर।’
‘अरे ! भयभीत नहीं हो तुम?’ ताड़का ने पुन: उपहास िकया।
‘भयभीत होना इ ाकुओं ने नहीं सीखा। िकंतु तू िज ा से यु करने के थान पर
श ों से यु कर अथवा यह थान ाग कर भाग जा।’ ल ण पूणत: आवेश म आ
चुके थे।
‘चल म ही करती ँ । िकंतु थम एक िज ासा शां त कर।’
‘बोल।’
‘इ ाकुओं के कुलगु तो विश ह और विश से तो इस ढोंगी का ज ों का वैर
है । उसने तु इसके साथ कैसे आने िदया? तेरे िपता ने...’
‘तुझे इससे ा योजन। तू वार कर मूखा। आज र ों के सवनाश का थम
अ ाय िलखा जाना है ।’ उसकी बात बीच म ही काटते ए िव ािम बोल पड़े ।
‘तो ले िफर ...’ कहते ए ताड़का ने एक ही झटके म एक वृ की पूरी डाल
तोड़कर इन लोगों की ओर उछाल दी।
उसके डाल फकते ही उसके सािथयों ने भी जो भी हाथ म आया, उठा-उठा कर
इनकी ओर फकना आरं भ कर िदया।
राम ने डाल को आते दे खकर िव ािम को पीछे कर यं आगे आने का यास
िकया िकंतु िव ािम ने अपनी बाँ ह फैलाकर उ रोक िदया। वे एकटक डाल की
ओर दे खते रहे । डाल उनसे दो हाथ पूव ही िकसी अ दीवार से टकराकर िगर
पड़ी।
‘तुम लोग मेरी िचंता मत करो, वह म यं कर लूँगा। तुम इनसे ही िनपटो और
शी ता करो। शी ही अंधकार हो जाएगा। यह वन इनका घर है , अंधकार म तुम
इनका सामना नहीं कर पाओगे।’
अपना वार िवफल जाते दे ख ताड़का कसमसा उठी।
‘जादू -टोने का यु करता ह ढोंगी।’ चीखते ए उसने पुन: एक डाल ऊँची उछाल
कर फकी तािक वह िव ािम को पार कर राम-ल ण पर िगरे । उसके साथी भी
अब अपने भाले लेकर झपट पड़े ।
िव ािम ने इस डाल को रोकने का यास नहीं िकया और एक ओर हो गए। राम-
ल ण सजग थे, एक उछाल भरते ए वे डाल की प ँ च से दू र हो गए। उछाल भरने
के म म ही उ ोंने हाथों म पकड़े तीर ंचा पर रख कर छोड़ िदए। ल चूकने
का ही नहीं था। ताड़का के चार सैिनक चीख मार कर धराशायी हो गए। सारे
तीर ठीक सैिनकों के माथे के बीचोंबीच लगे थे। जब तक ताड़का ने मुड़कर अपने
िगरते सैिनकों की ओर दे खा तब तक ... इस बार तीन-तीन तीर दोनों कुमारों ने छोड़
िदये थे। छ: सैिनक और ढे र ए। शेष जहाँ थे वहीं जड़ होकर खड़े हो गए। पर
इससे ा होना था, अगले ही पल वे सारे भी ढे र हो चुके थे। कोई समझ ही नहीं
पाया िक कब कुमारों ने तीर िनकाले और कब उनका संधान िकया। सबने बस
सैिनकों को िगरते दे खा और िफर उनका ल बहते दे खा, उ एिड़याँ रगड़कर ाण
ागते दे खा।
अब ताड़का के अित र बस एक सैिनक बचा था। उसने एक पल भी नहीं
गँवाया और भाग खड़ा आ। यह भी नहीं सोचा िक यिद ताड़का बच गई तो वह
उसका ा हाल करे गी!
ताड़का ोधावेश म फुफकार उठी। वह सारा उपहास भूल गयी। और अपना
मु र लेकर ोध म कुमारों की ओर दौड़ी।
दोनों कुमारों की पर र ि िमली और अगले ही पल राम के बाण ताड़का के
दोनों हाथों को उड़ाते ए और ल ण के बाण उसके दोनों कानों को उड़ाते ए
िनकल गए। ताड़का का पहले से ही वीभ शरीर और भी वीभ प धारण कर
िचंघाड़ उठा।
‘अब भी भाग जा। ाण बच जायगे।’ राम ने कहा।
‘राम खलवाड़ मत करो। यह ी वधयो है । इसे समा करो।’ पहली बार
िव ािम का र सामा से कुछ ऊँचा था।
राम ने गु दे व की आ ा का पालन िकया।
ताड़का का िन ाण शरीर डकारता आ वहीं िगर पड़ा। उसकी छाती म बाण
िबंधा आ था।
‘चलो।’ िव ािम का र पुन: पूववत शां त था।
‘िक ु गु दे व इनका अंितम सं ार?’ राम िवचिलत थे।
‘सूचना दे ने के िलए एक जीिवत भाग तो गया है । अभी ये हजारों रा स शेष ह,
अंितम सं ार िवधानपूवक वे यं कर लगे, तुम लोग चलो। इससे पूव िक इनकी
कोई टु कड़ी आ म पर प ँ चकर आ मण करे , हम वहाँ प ँ चना है ।’
‘िकंतु गु दे व, आनंद नहीं आया। यह तो ीड़ा आरं भ होते ही समा हो गयी।’
यह ल ण थे। उनके इस वा ने गंभीर वातावरण को अनायास सहज कर िदया।
7- िस ा म
कहते ह िस ा म की थापना िव ु ने की थी। उ ोंने दीघकाल तक यहाँ रहकर
तप ा की थी। यहीं उ ोंने िस ा की थी। िव ु के बाद अग ने इस आ म
को अपनाया और अब, अग के दं डकार े म अपनी नवीन भूिमका के िलए
थािपत हो जाने के उपरां त, े के ऋिषयों की ाथना पर िव ािम ने इस आ म
को अपना िलया था।
िव ािम के यहाँ आने के बाद यह आ म ब त िवशाल हो गया था। अब यह
आ म मा नहीं रह गया था, स ूण ाम बन गया था। रा सों के भय से आसपास
के सम ऋिषयों ने अपने छोटे -छोटे आ म या कुटीर ागकर यहीं आकर शरण
ा की थी। आसपास के अनेक ामों से अनेक ामवािसयों ने भी यहाँ शरण ा
कर ली थी। सबको िव ास था िक िष िव ािम की उप थित म रा स उ कोई
ित नहीं प ँ चा सकगे। वे भले ही रा सों के िव श न उठाय िकंतु उनकी
आ ा क श यों के भाव से रा सों की सम श भी िन भावी हो जाएगी
और वे सुरि त रहगे।
यह िव ास िम ा भी नहीं था। रा सों की श अभी तक िव ािम की आ क
श यों की सु ढ़ दीवार का अित मण नहीं कर पाई थी। यास वे िन ही करते
रहते थे, िकंतु सफल नहीं हो पाते थे। अब वे आ म से इतर ही ऋिषयों और
ामवािसयों को ित प ँ चाते थे। िव ािम चाह कर भी इसे नहीं रोक सकते थे। वे
एक समय म सभी थानों पर तो उप थत नहीं रह सकते थे।
आ म लगभग एक कोस के वृ ाकार घेरे म फैला आ था। आ म को चारों ओर
से पास-पास थत ऊँचे-घने वृ घेरे थे। वृ ों के बीच की दू री म कँटीली झािड़याँ
डाल कर रोक बनायी गई थी। इनसे व पशुओं से तो सुर ा संभव थी िक ु रा सों
के िलए ये कोई वधान नहीं थीं। ये अभी तक िव मान थीं तो बस इसिलए िक
रा सों ने इ हटाने की अथवा जला दे ने की कोई आव कता अनुभव नहीं की थी।
आ म के ारों पर ही कौन सी कोई बड़ी रोक थी जो वे इन कां टों से जूझने का
यास करते!
आ म म पूव, पि म, उ र, दि ण, चारों िदशाओं म चार ार थे। मु ार पूव
म था। ार के नाम पर पेड़ों की ल ी-ल ी टहिनयों को लताओं के मा म से बाँ ध
कर दो-दो प े बनाये गए थे िज दो पेड़ों से बाँ ध िदया गया था। चारों ार इसी
कार बने थे।
***
इधर, सुमाली की मृ ु के उपरां त रा स-श कुछ ीण भी ई थी। सुमाली
ारा लंका से सु र वन तक तैयार िकया गया त िछ -िभ हो गया था। वह त
सुमाली ने रावण से िछपाकर ही तैयार िकया था। उसके िवषय म सुमाली के बाद
व ामुि को ही इस योजना की पूण जानकारी थी। िकंतु वह सुमाली िजतना खर
तो नहीं था। यह भी एक स है िक वट-वृ की छाया म अ छोटे -मोटे वृ पनप
नहीं पाते। व ामुि सुमाली की छाया म बढ़ा था, सुमाली ने उसे अपनी ितकृित की
भां ित तैयार करना चाहा था ... उसे तं िनणय लेने का अवसर ही नहीं ा आ
था। वह बस सुमाली के िनदशों का अनुपालन ही करता आया था और इसीिलये वह
सुमाली के उपरां त उसके कूट-काय को द ता के साथ सँभालने म स म िस नहीं
आ था।
रावण की इस कार के कुिटल काय म कोई िच नहीं है , यह व ामुि भी
जानता था। इस कारण से वह इस िवषय म उसकी सहायता भी नहीं ा कर
सकता था।
वैसे भी द कार का सा ा रावण ने च नखा को सौंप िदया था। च नखा
िवद् यु की मृ ु के बाद से ही अ िवि सी थी। वह अपने भाई रावण को
ार भी करती थी, साथ ही उसे अपने पित का ह ारा भी मानती थी। कुछ भी
प र थितयाँ रही हों, परं तु स भी यही था। च नखा की ऐसी मन थित के चलते
व ामुि उससे भी िकसी कार की सहायता की आशा नहीं कर सकता था।
द कार म च नखा के सहयोगी, खर और दू षण भुता ा कर भयंकर
िवलासी हो गये थे। रावण च नखा के कारण, ब च नखा को लेकर अपने
अपराध-बोध के कारण; इस े म कोई ह ेप नहीं करता था। खर और दू षण
की िवलािसता के िनबाध िवचरण म यह कारक भी सहायक था। उ भय था तो
केवल बािल का, तो उसकी सीमा से वे दू र ही रहते थे।
िव द और वधन, िजनके ारा सुमाली ने यह तं िवकिसत िकया था, इन
प र थितयों म असहाय पड़े थे। वे तं को टू टते दे ख रहे थे। रावण तक न तो उनकी
प ँ च थी और यिद होती भी तो उसके स ुख इस सम ा को लेकर जाने का उनका
साहस नहीं था। (सब जानने के िलए पढ़ : दशानन)
िफर भी ताड़का और उसके पु ों की यह दु बल प र थित इस े के िनवािसयों
के िलए कोई सुिवधा का कारण नहीं थी। उनके िलए तो ताड़का और उसके पु
यं ही पया स म थे। जब तक कोई बड़ी राजनैितक आय श ह ेप नहीं
करती, ताड़का और उसके पु ों को कोई भय नहीं था।
अब यह था िक कोई आय-श ह ेप करती तो ों करती? अपने
शािसत े म ताड़का नाग रकों को िसर पर बैठाये है अथवा पैरों तले रौंद रही है ,
इससे उ ा लेना-दे ना था, वे तो अपने म मगन थे।
पर ु िविध का च , आय-श का ह ेप हो ही गया। तभी तो राम-ल ण
यहाँ उप थत थे और ताड़का का वध कर चुके थे। अब मारीच-सुबा और अ
रा सों की बारी थी।
िव ािम ने आ म े म रहने वाले ऋिषयों और ामवािसयों की सहायता से
छोटा-मोटा नाग रक र ा-तं िवकिसत तो कर ही िदया था। भले ही यह तं
तीका क ही था िकंतु था तो। काय का स ादन करने तो राम और ल ण आ ही
चुके थे।
***
जब तक ये लोग आ म प ँ चे, अँधेरा िघरने लगा था।
िव ािम की आशंका िनमूल िस ई। उस रात रा सों ने आ म पर कोई
आ मण नहीं िकया। प ँ चते ही िव ािम ने ताड़का के वध की सूचना दी और
नाग रक र ा-दल को चौकसी पर लगा िदया। उ िनदश था िक पूरे े म पहरा
दे ते रह और दू र से ही रा सों की कोई भी हलचल दे खते ही सूिचत कर। यं
उनका ितरोध करने की, उ अनुमित नहीं थी, अगर होती, तो भी वे ऐसा कोई
यास करते इसकी संभावना नहीं थी।
राि कुशलता पूवक तीत हो गयी।
ताड़का के वध के समाचार से सभी स थे, साथ ही आशंिकत भी थे िक अब
मारीच और सुबा कुिपत होकर और भी िवकट आ मण करगे। िफर भी सभी के
मन म िव ास था िक िष के उप थत रहते रा स कोई ित नहीं प ँ चा पायगे।
इतने िदनों म िव ािम की मता से वे प रिचत हो ही चुके थे, और अब तो अयो ा
के राजकुमार भी आ चुके थे। उ ोंने तो खेल-खेल म ही िवकट ताड़का का वध कर
डाला था।
ात:काल िन कम के उपरां त सब एक ए।
सबके चेहरे खले ए थे। सब अयो ा के राजकुमारों का यशोगान कर रहे थे।
दोनों कुमार इस यशोगान से संकुिचत ए जा रहे थे। उ अभी राजसभा म बैठने
का और बैठकर दरबा रयों की श याँ सुनने का अनुभव नहीं आ था। वे तो
गु कुल से सीधे ही इस अिभयान पर िनकल आए थे।
िव ािम ने हाथ उठाकर सबको शां त िकया।
‘आपको ात ही है िक ताड़का का कल राम ने वध कर िदया। एक पातक कटा
िकंतु संकट अभी टला नहीं है । मारीच और सुबा चोट खाये नाग की भां ित
ोधो हो रहे होंगे। अब वे स ूण श से आ मण करगे, इसके िलए हम
तैयार रहना है । सुर ा-दल के िजन सद ों ने रात म पहरा िदया है वे िव ाम कर ल
और उनके थान पर अ सद अिवल थान हण कर ल जाकर।’ िव ािम ने
आदे श िदया।
‘ िष, उ ात: ही बदल िदया गया है ।’ र ा-दल के नायक िसंहलक ने सूचना
दी।
‘ िष यहाँ तो हम सब सुरि त ह। मुझे िनरीह ामवािसयों के िवषय म िचंता हो
रही है । यिद इन रा सों ने उधर आ मण कर िदया तो उनकी र ा का कोई उपाय
नहीं है ।’ ऋिष ायमूित ने आशंका कट की।
‘कोई उपाय नहीं है । अभी उ उनके हाल पर छोड़ना ही पड़े गा।’ ल ण ने
उ र िदया- ‘हम तो यहीं आ म की सुर ा म ही रहना है । यिद आप लोग साहस
कर सक तो कुछ ामों को तो सुरि त कर ही सकते ह।’
‘नहीं कर सकते। आप और िष ही हमारा साहस ह। आपके िबना हम तृणमा
ही शेष रह जायगे।’
‘परं तु ...’
‘परं तु नहीं, ामों म मा वा आ मण का ही भय नहीं है । वहाँ हम भीतरी
ितरोध का भी सामना करना पड़े गा। वहाँ तो ेक पाँ च प रवारों म एक प रवार
र -सं ृ ित को अंगीकार कर चुका है । राजस ा के वरदह के चलते वे अभी
बल ह। सामा ामीणों पर इन आतताइयों से अिधक अ ाचार तो वे नवरा स
ही करते ह।’
‘नवरा स ???’ ल ण के र म असीम आ य था- ‘यह श तो पहली बार ही
सुना है ।’
‘सुमाली से स क के उपरां त ताड़का ने र -सं ृ ित की दी ा ले ली थी। तभी से
उसने सम े म सं ृ ित-प रवतन का अिभयान चलाया आ था। जो र -
सं ृ ित को अंगीकार कर लेता है , उसे कुछ सुिवधाय ा हो जाती ह, कुछ
िवशेषािधकार ा हो जाते ह। उनम से कुछ अितउ ाही और उ ं ड युवक तो इन
रा सों से भी अिधक अ ाचार करने लगते ह।’
‘ओह! यह बात है । तब िफर िनि ंत बैिठये। भिवत ता को टालना हमारे वश म
नहीं होता। मारीच और सुबा के अंत के उपरां त वे यं ही समा हो जायगे। पाँ च
म से चार प रवार तो अभी भी आय सं ृ ित म िव ास रखते ह, सारे अ ाचार
सहकर भी पूरी ढ़ता से अपनी सं ृ ित के अनुयायी ह। वे िन य ही इनका ितकार
यं कर लगे।’
‘हाँ , इसी िव ास का आसरा है ।’ एक अ ऋिष ने कहा।
िव ािम इस बीच ने ब िकए िकसी िच न म िनम थे। एकाएक उ ोंने ने
खोले, चारों ओर ि पात िकया और तब सहज र म बोले-
‘मेरा आकलन कहता है िक वे यहीं आ मण करगे।’
‘मुझे भी यही तीत होता है गु दे व! वे ोधी ह, उ ं ड ह और इस समय चोट
खाए ए ह। मुझे नहीं तीत होता िक उनके अ र शां त-िच से सोचने-िवचारने की
मता होगी।’ राम ने कहा।
‘यही है ।’ कई ऋिषयों ने समथन िकया।
‘ ोध सव थम िववेक का ही भ ण करता है । वे आवेश म सव थम अपनी माता
की ह ा के िलए हम द दे ने का यास करगे। वे सीधा वहीं आ मण करगे जहाँ
हम होंगे। इसिलए ाम अभी सुरि त ह।’
‘... और इस बार वे हम दो िदशाओं से अथवा संभव है , कई िदशाओं से, घेरकर
अिधकािधक ित प ँ चाने का यास करगे।’ िव ािम ने बात आगे बढ़ाई।
‘जी गु दे व! वे पूव म एक बार महिष अग से बुरी कार परािजत और
अपमािनत हो चुके ह। वे जानते ह िक आप भी उ ीं के समान साम वान ह। अत:
वे आपको कहीं एक थान पर अटकाने का यास करगे और हम दू सरी ओर से
घेरने का यास करगे।’ राम कुछ पल के, कुछ सोचते रहे , िफर बोले- ‘उनका
यास यह भी हो सकता है िक हम भी वे िकसी दू सरे थान पर कर िकसी
तीसरी िदशा से आ म वािसयों पर आ मण कर।’
‘इसका तो एक ही उपाय है िक वे िकसी ाम पर भयंकर ता व कर। इतना
भयंकर िक आपको िववश होकर उनके र ाथ वहाँ जाना पड़े । तब उनका शेष दल
यहाँ आ म पर दो िदशाओं से आ मण करे ।’ ऋिष वेदिव ने संभावना कट की।
‘नहीं ऐसा नहीं होगा।’ िष ने िव ासपूवक कहा- ‘िकसी को कहीं जाने की
आव कता नहीं है । ामों से िकतने भी उ ात की सूचनाय ा हों, हम सब यहीं
रहगे। उनका ल हम तीनों ह, अंततोग ा वे अपनी स ूण श से वहीं
आ मण करगे, जहाँ हम तीनों होंगे। ... और यह आ मण संभवत: म ा के
उपरां त होगा ...’
िष अपनी बात पूरी करते, उससे पूव ही र क-दल का एक भागता
आ आया। उसने सूचना दी-
‘गु दे व! उ र की ओर से कुछ रा स सैिनक आ रहे ह।’
‘िकतने होंगे?’ गु दे व ने िकया।
‘प ह-बीस के लगभग।’
‘तुमने दे खा?’
‘नहीं गु दे व, वहाँ उ ुख सबसे ऊँचे वृ पर चढ़ा आ है , उसीने दे खा। उसने
मुझसे आपको सूिचत करने को कहा।’
‘उिचत िकया।’ िफर गु दे व उप थत समुदाय से स ोिधत ए- ‘सभी श
हण कर ल।’
भीड़ छँ ट गयी तो ल ण ने िकया-
‘श ह आ म म?’
‘ब त उपयोगी तो नहीं ह िक ु मन को आ करने के िलए तो ह ही। ऋिषवर
अिन आप ही सही-सही गणना द कुमारों को।’
‘जी, कु ाड़ी तो ेक कुिटया म है । पचासेक कृपाण भी ह, उ म कोिट की
नहीं ह िक ु काय करती ह। लािठयाँ ब त ह, ेक कुटीर म कई-कई ह।’
‘धनुष-बाण?’ ल ण ने िकया।
‘तीस से कुछ अिधक ही ह।’ कहते ए ऋिष कुछ संकुिचत से ए, िफर आगे
जोड़ा- ‘आपके धनुषों के सम तो ब ों के खलौने जैसे ही ह। इ ीं वृ ों की
सामा टहिनयों से बनाए गए ह। िन यो हो चुके य ोपवीतों को भलीभां ित
बटकर उनकी ंचा बनाई गई है ।’
‘बाण?’
‘पतली िकंतु सु ढ़ टहिनयों को नुकीला कर बनाये गए बाणों से तो एक पूरा कुटीर
भरा आ है िकंतु लौह-िनिमत फल वाले बाण एक सह से अिधक नहीं होंगे।’
‘पया ह।’ ल ण ने संतोष पूवक कहा।
‘गु दे व! स ूण रा स-सै िकतना होगा?’
‘पाँ च-छह सह के लगभग।’ ऋिष अिन ने ही उ र िदया।
वह जो सूचना लाया था, अभी भी वहीं खड़ा था।
‘िकतनी दू री पर होंगे आग ुक?’ गु दे व ने उससे पूछा।
‘बस, अभी िदखना आर ए ह। आधे मु त (एक मु त लगभग 48 िमनट का
होता है ) म ही उ यहाँ तक प ँ च जाना चािहए।’
‘ठीक है , तुम पुन: वहीं प ँ च कर अपना दािय िनभाओ।’ गु दे व ने उसे आदे श
िदया।
थोड़ी ही दे र म श ों से स त होकर लोगों का जमा होना आरं भ हो गया। जब
पया लोग आ गए तब राम ने िकया-
‘धनुष-बाण से ल वेध कौन-कौन कर सकता है ?’
पचास-साठ लोगों ने हाथ उठा िदए।
‘ब त सारे ह ये तो!’ ल ण ने आ य से कहा।
उनकी बात पर ान न दे ते ए राम आगे बोले-
‘सबसे सटीक ल -भेदन करने वाले दस आगे आय।’
सात तो िबना िकसी िहचिकचाहट के आगे आ गए। शेष तीन के िलए कुछ
दे र आपस म ध ामु ी ई िफर तीन और िनकल आए। राम ने उन तीनों को
अलग ही खड़ा िकया। पहले आए सातों अपने-अपने धनुष हाथों म थामे ए
थे।
‘तुम सातों उ र िदशा के सबसे ऊँचे वृ ों को छाँ टकर उन पर आसन जमा लो।
िजतने अिधक तीर साथ म ले सको ले लेना।’ तभी जैसे कुछ ान आया हो, पूछा-
‘तूणीर तो होंगे नहीं?’
‘नहीं।’
‘तब िफर वृ पर तीर स ालोगे कैसे?’
वे लोग एक-दू सरे की ओर दे खने लगे। कुछ पल सबने सोचा, िफर एक बोला- ‘दो
र यों म बाँ ध कर बगल की डाल म लटका लगे।’
‘अ ा उपाय है । िकंतु कसकर मत बाँ धना अ था आगे का फलक र ी म फँस
जाए और तुम तीर खींच ही न पाओ।’
इस सलाह से उस को इस प र थित म भी हँ सी आ गयी। बोला-
‘कुमार हमारे इन तीरों म फलक ह ही नहीं, न आगे न पीछे । िफर भी अिधक कस
कर नहीं बाँ धगे िजससे सहजता से खंचते रह।’
‘तो िफर अपने-अपने थान सँभाल लो।’ कहते-कहते राम भी हँ स पड़े । वे सोच
रहे थे िक घातक नहीं होंगे िकंतु कुछ चोट तो करगे ही।
वे लोग चले गए।
बाकी िजतने धनुष चला सकते हों वे सारे अपने धनुष लेकर पीछे की ओर
के वृ ों पर िछप जाय। कुछ लोग नीचे ही रह, िकसी भी आव कता पर सहयोग
करने के िलए त र।’
ल ण राम की इस स ूण कायवाही से िवर से खड़े थे।
इसी बीच वह दौड़ता आ आता िदखाई िदया जो पहले सूचना लाया था।
सब वाचक िनगाहों से उसकी ओर दे खने लगे।
‘आ गए?’ िव ािम ने पूछा।
‘जी!’ उसने संि सा उ र िदया।
‘आओ चल हम लोग भी। मा दस लोग हमारे साथ आय, शेष यहीं रह। िजधर भी
आव कता हो उधर चले जाय।’
कहने के साथ ही गु दे व पूव की ओर मु ार की ओर बढ़ चले।
ये लोग ार पर प ँ चे तो ताड़का के सैिनकों की वेशभूषा म सामने से आते ए
दस-प ह िदखाई िदए। इ दे खते ही वे लोग भूिम पर द वत लेट गए और
‘ ािहमाम्- ािहमाम्’ की गुहार लगाने लगे।
‘इधर आकर अपनी बात कहो।’ िव ािम ने जोर से कहा।
सभी उठकर खड़े ए और सहमे-सहमे से इनकी ओर बढ़े । जब वे पास आ गए
तो िष बोले-
‘अब कहो।’
‘गु दे व हम पुन: आय-सं ृ ित म दीि त कर लीिजए।’
‘ ों? वहाँ तो तुम राजकीय वैभव का भोग कर रहे हो।’
वे लोग एक-दू सरे की ओर दे खने लगे। िफर एक बोला-
‘हमने े ा से रा स सं ृ ित ीकार नहीं की थी। जीवन-र ा हे तु रा स हो
जाना हमारी िववशता थी।’
‘तो अब िववशता नहीं रही।’
‘अब हमारी र ा के िलए अयो ा के कुमार आ गए ह। अब हम कोई भय नहीं है ।
... और आप तो ह ही।’
‘ ा तुम पर िव ास िकया जा सकता है ? ा पता तु मारीच अथवा सुबा ने
यहाँ का भेद लेने के िलए भेजा हो?’ ल ण ने िकया।
‘धम की सबसे मू वान व ु होती है । उसका िछन जाना उसे जीते जी
मार दे ता है । हमारी भी यही थित है । हम पुन: जीना चाहते ह।’ एक ने उ र िदया।
‘मारीच और सुबा अथवा अ रा ािधका रयों को हमारे यहाँ आने के िवषय म
रं चमा भी ान नहीं है । वे सब तो इस समय सा ा ी की अ ेि म ह। हम
भी वहीं थे, अवसर दे ख कर सबकी आँ ख बचाकर िनकल आए।’ दू सरे ने कहा।
‘अब हमारे जीवन की डोर आपके ही हाथों म है ।’ पहले ने पुन: कहा।
ल ण ने गु दे व की ओर दे खा। वे बारी-बारी से उन लोगों की आँ खों म झां क रहे
थे। ल ण उनके बोलने की ती ा करने लगे।
‘आने दो इ । ये स बोल रहे ह।’
***
सब भीतर आकर एक िवशाल वृ के नीचे बैठ गए।
‘तुम इतने ही हो अथवा तु ारे अ साथी भी ह जो हमारे साथ आना चाहते ह?’
राम ने िकया। उनका मुख अ ंत गंभीर था।
‘ब त सारे आ सकते ह।’ उसी पहले ने पूरे िव ास से कहा।
‘अ ा पहले अपना प रचय दो, तब आगे िवचार िकया जाए।’
‘जी कुमार, मेरा नाम कीण है । म ही नहीं हम सभी ज से ि य ह। सभी
आसपास के गाँ वों के मूल िनवासी ह। हम सभी ने जीवन-र ा के िलए िवगत तीन-
चार वष म र -सं ृ ित को अंगीकार िकया है और अब पुन: आय-सं ृ ित म
दीि त होना चाहते ह।’
‘तुमने कहा िक तु ारे अनेक साथी हमारे साथ आ सकते ह?’
‘जी!’
‘िकस आधार पर कहा? तु ारी इस िवषय म सािथयों से वाता कब ई, हम तो
अभी राि म ही यहाँ आए ह।’
‘कुमार! मने कहा था न िक धम की सबसे अमू स ि होती है । रा स
धम अंगीकार करने वाले सभी अपनी यह स ि िछन जाने से िथत ह, मा कुछ
िगनती के मूख और अपराधी वृि के लोगों को छोड़कर। ऊपर से सारे समाज ने,
हमारे सारे स यों ने ... हमसे स तोड़ िलए ह। हम अ ृ मान िलया है ।
लोग भयवश हमसे कुछ कहते नहीं ह िकंतु उनके मनोभाव उनके मुख पर
िलखे होते ह। यह थित हम सभी की है । हम सभी चाहते ह िक इस भयानक
रा स-धम से िकसी कार छु टकारा ा हो और हम पुन: अपनों के बीच अपने
बन कर रह सक।’ उस के दय की पीड़ा उसके मुख पर झलक रही
थी। ... उन सभी के मुखों पर झलक रही थी।
तभी एक अपे ाकृत उन सबसे कम आयु का लड़का जो अभी िकशोराव था से
यौवन की ओर पदापण कर ही रहा था, कहने लगा-
‘कुमार! वे काका, वे दाऊ, वे बाबा ... िजनकी गोद म खेलकर म बड़ा आ ँ ,
अब, जब वे मुझे दे खकर स ान से झुकते ए िकसी बहाने से पीछे हट जाते ह िक
कहीं म उ छू न लूँ तब ऐसा लगता है जैसे िकसी ने भरे चौराहे पर नंगा कर िदया
हो। हम इन दु ों के आदे श से उन अपने लोगों पर ही अ ाचार करना पड़ता है
िज हम ार करते चले आए ह ... िजनका हम ार पाते चले आए ह।’ कहते-
कहते उसका गला ँ ध गया और वह मुँह फेरकर चुप हो गया।
‘मने पूछा था िक तु ारी अपने सािथयों से इस िवषय म वाता कब ई?’
‘हमारी वाता तो जबसे हमने रा स-धम अपनाया है तबसे ाय: िन ही होती
रहती है । सभी लोग अ र ही अ र घुट रहे ह िकंतु अभी तक इस घुटन से िनकलने
का कोई माग नहीं िदखाई पड़ता था। हमारा उ ार करने वाला कोई िदखाई नहीं
पड़ता था। अब दै वकृपा से िमल गया है । जैसे ही सबको ात होगा िक आपने हम
शरण दे ना ीकार कर िलया है , हम पुन: आय सं ृ ित म दीि त करना ीकार
कर िलया है , दे खयेगा सारे रा स धम छोड़कर आपकी शरण म आ जायगे।’
‘एक बात बताओ, कुल िकतने सैिनक होंगे इस समय वहाँ ?’
‘दस सह के लगभग।’
‘मा ?’
‘जी !’
‘उनम से िकतने तु ारी भां ित मन से उनके साथ नहीं ह?’
‘अिधकां श। यूँ समिझए ेक दस म से सात।’
‘ऐसा ???’
‘वे यं थोड़े से ही तो थे। सु -ताड़का के प रवार के अित र शेष सभी तो
हमारी भां ित आय ही थे। रा सों के अ ाचारों से पीिड़त होकर जीवन-र ा के िलए
ही हमने रा स धम अपना िलया है ।’
‘तो इन सात म से िकतने अपने प म आ सकते ह?’
‘छह तो िन ंदेह आ ही जायगे।’
‘ब त बड़े बोल बोल रहे हो सैिनक।’
‘आप दे ख लीिजएगा। आप बस सबको पुन: आय-सं ृ ित म दीि त करने का
आ ासन दीिजए। इसके अित र और कुछ नहीं चािहए हम। रा सों के सं ार
हम रास नहीं आ रहे , दम घुटता है हमारा।’
‘िदया आ ासन, िदया।’ इस बार उ र िव ािम ने िदया- ‘यह िष का वचन
है । यं ा भी इसे अस नहीं कर सकते।’
‘तो अब हम आदे श दीिजए।’
‘उनके आ मण की संभावना कब तक है ?’
‘म ा के उपरां त। अभी तो वे सा ा ी के अंितम सं ार म ह, उसके
तुरंत बाद।’
‘आ मण यहीं करगे, ामों म तो उ ात नहीं मचायगे?’
‘यहीं करगे। सा ा ी का वध तो कुमार ने ही िकया है । ितशोध तो उ ीं से लेना
है रा सों को।’
‘तो अभी तुम लोग चुपचाप वापस लौट जाओ और वहाँ जाकर तु ारे स क के
िजतने भी सैिनक हों, उनके म गुपचुप इस बात का चार करो िक िष ने
सबको आय-सं ृ ित म पुन: दीि त करने का वचन िदया है । साथ ही यह भी चार
करो िक अयो ा के राजकुमारों ने िजस भां ित खेल-खेल म ही ताड़का का वध कर
िदया वैसे ही मारीच और सुबा का भी कर दगे। जाओ, अब िवलंब मत करो ... इन
रा सों के मूलो े दन म तु ारा यह योगदान सबसे मह पूण होगा।’
उन सबने स वदन िफर से िष को द वत णाम िकया।
‘आयु ान भव! यश ी भव!’ िष ने आशीवाद िदया।
वे लोग जाने को मुड़े तभी अचानक राम बोले-
‘कोई ऐसा िच िनधा रत करो िजससे हम श ु और िम की पहचान कर सक।’
कुछ पल के िलए वे सब सोच म पड़ गए। तभी उनम से एक बोला-
‘हम िम प के सभी लोग माथे पर ि पु धारण िकए ए होंगे। ि पु
महामिहम रावण के इ का िच है । सु रवन के रा स उसे धारण नहीं करते,
िकंतु उसके धारण करने पर कोई शंका भी नहीं होगी।’
‘यिद श ु प म से भी िकसी ने ि पु का िच अंिकत कर िलया तो?’
‘ थम तो पहले से िकसी भी ऐसे भट को िजस पर हम शंका होगी, इस िच ां कन
के िवषय म बतायगे ही नहीं। िफर भी यिद िकसी ने धारण कर ही िलया तो उससे
हम यं िनबट लगे, उसके िवषय म आपको िचंता करने की आव कता नहीं।’
‘स क! िकंतु सम कायवाही सावधानी से और गुपचुप ही करना।’
‘आप िनि ंत रह। आज इस धरती से इन रा सों का अंत होकर ही रहे गा। यह
हमारी शपथ है ।’
‘जाओ!’
आशा और उ ाह से भरे वे नव-रा स लौट गए।
8- आतं क का अं त
‘ िष, ा इ इस कार जाने दे कर हमने उिचत िकया?’ उन लोगों के जाते
ही ऋिष पु धाम ने िकया।
‘उ मारकर अथवा बंदी बनाकर ही ा उपल होती? अब एक आशा तो है
िक अनाव क र पात नहीं होगा।’
‘ ा यह संभव नहीं िक वे उन रा सों के गु चर हों?’
‘ ा उ ोंने गु चरों जैसा कोई आचरण िकया यहाँ ? उ ोंने तो यहाँ कुछ भी
जानने का यास ही नहीं िकया, मा अपने उ ार की ाथना करते रहे । िफर यहाँ
गोपन ा है िजसकी कोई गु चरी करे गा। नवीन मा कुमारों की उप थित है और
उसके िवषय म उ ात ही है ।’
‘िफर भी ...’
‘िफर भी के िलए कोई थान नहीं है ऋिषवर! धम मानव की सबसे बड़ी श है
तो सबसे बड़ी दु बलता भी है । उनके मन म अपने धम का प र ाग करने के कारण
आ ािन है ।’
‘िकंतु िष वे पथ हो चुके ह। उनका आचरण हो चुका है । यह सब
जानते ए भी आपने उ पुन: आय-सं ृ ित म दीि त करने का आ ासन दे िदया?
ये दू िषत आचरण वाले हमारी सं ृ ित को भी दू िषत कर दगे। आपने संभवत:
यह उिचत नहीं िकया।’
‘ऋिषवर, आप दू र की नहीं दे ख रहे ह। आपने सुना नहीं िक वह िकशोर ा कह
रहा था? इन नव-रा सों को उनके ही समाज के लोगों ने अ ृ बना िदया है । वे
इनसे भयभीत ह िक ु उससे भी अिधक भयभीत इस सोच से ह िक इ श करने
मा से उनकी पिव ता न हो जाएगी। आज इन नव-रा सों के अंत:करण म अपनी
सं ृ ित का ाग करने के कारण अपराध-बोध है , अपने पूवजों की मयादा को
अपमािनत करने के कारण ािन है । अभी वे नई सं ृ ित को आ सात नहीं कर
पाए ह ोंिक यं उ ोंने ही सं ृ ित प रवतन िकया है । नई सं ृ ित उ िवरासत
म नहीं ा ई है । इसके िवपरीत इनके पु -पौ जो इसी र -सं ृ ित म ज लगे
उ उनकी सं ृ ित िवरासत म िमली होगी। उ अपने कृ के िलए न तो अपराध-
बोध होगा न कोई ािन होगी। ये नव-रा स आय से और आय सं ृ ित से घृणा
नहीं करते ह, अिपतु अब भी उसे अपना मूल समझते ह। इसके िवपरीत इनके पु
और आगे आने वाले वंशज आय से भी घृणा करगे और आय-सं ृ ित से भी। इस
घृणा के बीज को पनपने से पूव ही न कर दे ना ेय र है । यिद इसने जड़ पकड़
ली तो भयंकर िवनाश का कारण बनेगा।’
‘परं तु ...’
‘कोई परं तु नहीं ऋिषवर! िनणय हो चुका है , अब इस पर कोई िवचार-मंथन नहीं
चािहए। इस िवषय म मुझे िकसी का भी परामश नहीं चािहए। यिद ि य िव ािम
िष हो सकता है तो ये आय पुन: आय ों नहीं हो सकते?’
‘गु दे व आप उिचत कह रहे ह। वही होगा जो आप चाहते ह। िकंतु यह इस िवषय
पर िवमश का समय नहीं है । ात: िजसके िलए जो कत िनधा रत िकया गया था,
उसके िलए अब भी वही कत है । िकंतु उससे भी पूव आव क है िक सभी
आ मवासी सू आहार हण कर ल। संघष दीघकालीन भी िस हो सकता है ।’
राम ने इस वातालाप को िवराम दे ते ए कहा।
काश इ ामी सां ृ ितक आ मण के बाद िह दू धम के कणधारों म गु दे व
िव ािम जैसी समझ रही होती तो आज इन कणधारों को िन ही रो-रोकर यह नहीं
बताना पड़ता िक यिद िह दू नहीं चेते तो उनका धम अ सं क होने की ओर
अ सर है ।
गु दे व ने भी उनके परामश से सहमित की और सभी को फलाहार का
िनदश कर िदया। उ ाह से भरे कुछ युवाओं ने आनाकानी की िकंतु गु दे व के
िनदश के स ुख उ झुकना ही पड़ा। राम-ल ण और िव ािम को इसकी कोई
आव कता नहीं थी परं तु उ ोंने अपने िलए भी फलाहार ले आने का िनदश दे
िदया।
इसी सब म म ा तीत हो गया। सारे आ मवािसयों ने अपने-अपने िनधा रत
थानों पर मोचा सँभाल िलया।
दो मु त तीत हो गए। ती ा आ मवािसयों को उकताने लगी। ल ण ने इसे
ल िकया। वे िच ाकर बोले-
‘अब अिधक ती ा नहीं करनी है । सभी पूणत: सजग रह। िशिथलता न आने
पाये, अ था स ूण आयोजन थ हो जाएगा।’
ढीले पड़ते लोग पुन: चैत हो गए।
अिधक ती ा करनी भी नहीं पड़ी।
गु दे व के साथ दोनों कुमार और युवा ऋिष और र क-दल के चालीस पचास
सद मु ार पर ती ारत थे। वृ ऋिष, मिहलाएँ और ब े आ म के म म
एक िवशाल वट वृ के नीचे बैठा िदए गए थे।
तभी सामने से भयंकर कोलाहल सुनाई पड़ने लगा। सब सजग हो गए। दोनों
कुमारों ने अपने धनुष सँभाल िलए।
कुछ ही पलों म भयानक प से चीखते-िच ाते रा स आते िदखाई पड़ने लगे।
‘चार सह से अिधक नहीं होंगे।’ ल ण ने कहा।
कुछ पलों म और आ। कुछ को छोड़कर शेष सारे माथे पर ि पु
धारण िकए ए थे। राम ने ल िकया िक ि पु धारी शोर अिधक मचा रहे थे िकंतु
आ म के पास आते-आते उ ोंने अपनी गित धीमी कर दी और अ ों को आगे जाने
दे ने लगे। राम ने इन आगे आने वालों को अपने बाणों के िनशाने पर ले िलया।
तभी म भाग से र सुनाई िदया-
‘पीछे से व शूकरों की सेना आ रही है ।’
ल ण दौड़ कर एक ऊँचे वृ पर चढ़ गए। सच म ही पाँ च-सात सौ व शूकर
भागते ए आ म की ओर चले आ रहे थे। उनकी गित से तीत होता था जैसे वे पीछे
की सारी बाड़-झािड़यों को तोड़फोड़ कर आ म म िव ंस फैला दगे। ल ण ने
चारों ओर सतक ि दौड़ाई। उ सारा कां ड समझ म आ गया। िजतने भी
धनुषधारी ह सब इन शूकरों पर तीर फकना आरं भ कर द। ल साधने की
आव कता नहीं, बस बाण चलना ब न हो। बाकी सारे लोग भी आ म म िजतने
भी धनुष हों लेकर वृ ों पर चढ़कर तीर फकना आर कर दो। एक भी धनुष खाली
नहीं रहना चािहए। शूकर आ म की सीमा तक नहीं प ँ चने चािहए।
व ुत: शूकरों के पीछे से कुछ सैकड़ा रा स प रों-तीरों की बौछार कर शूकरों
को आ म की ओर खदे ड़ रहे थे। दाय-बाय वृ ों के पीछे िछपे कुछ रा स भी, बाण-
वषा कर शूकरों को दाय-बाय िबखरने नहीं दे रहे थे। ल ण ने उ िनशाने पर लेना
आरं भ कर िदया। ये ल ण थे, अिधक समय नहीं लगा िक दाय-बाय की बाधाय
समा हो गयीं। दाय-बाय से बाणों की वषा कते ही शूकर आगे और पीछे दोनों
ओर से अबाध गित से आ रहे तीरों से बचने के िलए िबखरने लगे। यह बाधा टल गयी
थी।
ल ण ने पेड़ों पर चढ़े अ धनुधा रयों को शूकरों को ही ल बनाते रहने का
संकेत िकया और पीछे से आ रहे रा सों को अपने िनशाने पर ले िलया। वे एक साथ
चार-चार पाँ च-पाँ च तीरों का संधान कर रहे थे। गित ऐसी थी िक हाथों का संचालन
िदखाई ही नहीं पड़ रहा था, बस िवद् युत गित से तीर छूट रहे थे ... और एक भी तीर
थ नहीं जा रहा था। कुछ ही दे र म मैदान साफ हो गया।
ल ण का कौशल दे ख शेष धनुधारी अ ंत अचंभे म थे। उ िव ास ही नहीं हो
रहा था िक इस गित से भी तीर छोड़े जा सकते ह! एक अकेला कुछ ही णों
म इतने सारे लागों को धराशायी कर सकता है । उनका हषनाद गूँज उठा। शूकर भी
अब आ म से ब त दू र भाग गए थे।
सामने भी िबना ि पु िच के िजतने रा स थे ढे र होते चले जा रहे थे।
ि पु धारी भी अचानक पीछे पेड़ों की ओट म हो गए और वहीं से राम की सहायता
करने लगे। अब राम के िलए कुछ करने को बचा ही नहीं था। इसी बीच कीण, आय
सं ृ ित म वापसी का अिभलाषी वही रा स जो ात: आया था, आगे आया और
िव ािम को सां केितक णाम कर धीरे से बोला-
‘ िष अब सभी को यहीं बुलवा लीिजए और िदखावटी यु होने दीिजए। शेष
सैिनकों के साथ सुबा और मारीच भी आते ही होंगे। उनके साथ भी हमारे ब त
सारे साथी होंगे। उन दोनों को कुमार दे ख ल, शेष को हम सँभाल लगे।’
अब इन पर अिव ास का कोई कारण नहीं था। एक ऋिष ने संदेश भीतर सा रत
कर िदया।
अब धनुषों का कोई काय नहीं था। कटारों, भालों, लािठयों से का दशन होने
लगा। पीछे से िफर रा सों का कोलाहल सुनाई पड़ने लगा। कीण अपने दो सािथयों
के साथ राम से िभड़ा आ था। वह धीरे से बोला पीछे आने वालों म जो सबसे ऊँचा,
बिल और ब मू व ाभूषणों वाला िदख रहा हो वही सुबा होगा। मारीच भी
लगभग वैसा ही होगा िकंतु वह अपे ाकृत दु बला-पतला है । कहने के साथ ही वह
एक झटके से एक ओर िगर गया, मानो राम के वार से आहत होकर िगरा हो। उसके
दोनों सािथयों ने भी वही ि या दोहराई, अब राम तं थे।
सामने से आ रहे रा सों के िलए मु ार का ऐसे था मानो दोनों प आपस
म गुथे ए हों। धनुष-बाणों के योग का कोई थान ही नहीं था। वे अपने मु र,
कृपाण, भाले लहराते दौड़ते चले आ रहे थे।
राम ने झपट कर अपना धनुष उठाया। सुबा अब तक उनकी ि म आ चुका
था। वह जब तक कुछ समझता, बाण उसके सीने म िव हो चुका था। उसे अ म
बार चीखने का भी अवसर नहीं िमला। उसके पीछे ही मारीच था। दू सरा बाण उसके
सीने म धँस ही गया होता िकंतु सुबा के िगरने से वह िठठक गया और बाण सीने के
थान पर कंधे म धँस गया।
‘जाओ अब तुम लोगों का काय है ।’ राम ने कीण से कहा।
‘हर-हर महादे व !’ कीण ने उद् घोष िकया और उसके सारे साथी यु का
अिभनय छोड़ कर पीछे दौड़ पड़े । िवरोधी अब थे ही िकतने। कुछ पीछे मारे जा चुके
थे, ब त सारे यहीं मारे जा चुके थे।
इस ं कार से मारीच को भी समझ म आ गया िक बाजी हाथ से जा चुकी है ।
उसकी अपनी सेना ही पाला बदल चुकी है । आतंक के दम पर रा स बनाये गये सारे
के सारे सैिनक पुन: आय के दल म स िलत हो चुके ह। उसे समझ नहीं आ रहा
था िक आ खर यह आ कब, और आ तो आ खर आ कैसे?
परं तु यह समझने का समय नहीं था। उसे समझ आ गया था िक अब यह आ म
ही नहीं, स ूण सु रवन े उसके िलये सुरि त नहीं था। वह अपने कंधे म धँसे
तीर की परवाह न करके जान बचाकर भाग छूटा। उसे पता था िक उसके अपने प
का एक भी सैिनक जीिवत नहीं बचने वाला। वह भी यिद िकंचत् मा िशिथल पड़ा तो
जीिवत नहीं बचेगा।
कई योजन जाकर उसने अपने कंधे म धँसा तीर िनकाला और घाव को उ रीय से
कसकर बाँ ध िलया। भय के मारे वह इतनी दू र तक िनर र भागता ही रहा था। न
उसे भूख- ास का अनुभव हो रहा था और न ही थकान का। जब जीवन-मरण का
स ुख होता है तब शारी रक ािधयाँ मुँह ढाँ प कर पड़ रहती ह, वैसे ही जैसे
रं गशाला के मंच पर िकसी बड़े अिभनेता के उप थत होते ही सहायक कलाकार
मह हीन हो जाते ह। मारीच के स ुख भी इस समय जीवन-मरण का उप थत
था। परं तु यह था िक जाए तो कहाँ जाए? कल तक वह अपनी माता के संर ण म
इस स ूण दे श का िनबाध शासक था और आज िकसी खजैले कु े की तरह
अपनों ारा ही दु रदु रा िदया गया था। वही सैिनक जो उसके टु कड़ों पर पलते थे,
उसी की शह पर सम े को अपने आतंक से िकए रहते थे ... वही आज
उसके जीवन को लील लेने को त र थे। यह ढोंगी दाढ़ीवाला सच म ही मायावी है ।
उसकी माता से भी बड़ा मायावी!
थोड़ी सी साँ स काबू म होते ही उसने िफर भागना आरं भ कर िदया। उसे
द कार तक प ँ चना ही होगा, बीच म कहीं भी ाण नहीं है । उसने िन य कर
िलया िक यिद द कार तक जीिवत प ँ च सका तो भिव म िकसी सं ासी का
जीवन िबतायेगा और िव ािम के समान ही तेज और श ा करने का यास
करे गा।
***
रा सों के मूलो े द म तो मु त भर का समय भी नहीं लगा। िफर यह शुभ
समाचार जैसे हवा के पंखों पर चढ़कर सम िदशाओं म फैल गया। कुछ ामीण
तो अपनी बैलगािड़यों म भर कर सूरज डूबते-डूबते ही आ म प ँ च गए थे, अपनी
स ता ािपत करने। दू सरे िदन तो भोर से ही िवशाल मेला लग गया। गािड़यों का
ताँ ता दोपहर तक चलता रहा।
गु दे व ने अपने वचन का पूरे मन से िनवाह िकया। े के सम रा स पुन:
आय सं ृ ित म दीि त होने को त र थे। जो जीवनर ा के उ े से नहीं िकसी
ाथवश रा स बने थे, उ भी अब रा स बने रहने म हािन ही हािन दीखती थी।
उनके आ यदाता, िजनके बल पर वे अ ाचार और लूटपाट करते थे समा हो
चुके थे।
तीन िदवस तक िवशाल आयोजन चलता रहा। हालां िक िव ािम के िवचार से
इसकी कोई आव कता नहीं थी। वे मानते थे िक आय तो एक र -वंश है । िजसम
भी आय र वािहत हो रहा है , वह िनिववाद आय है । उसे दीि त करने, न करने
से कोई अ र नहीं पड़ता। आय-सं ृ ित भी इन आय-र से यु यों की
सां ृ ितक और जीवन-संबंधी मा ताओं का िसलिसला भर है । जो भी इन
मा ताओं म आ था रखता है , वह ाभािवक प से आय है । तथािप इस आयोजन
से वापस आय-सं ृ ित म दीि त हो रहे यों की आ था को संतुि ा हो रही
थी इसिलए उ इस आयोजन म कोई आपि भी नहीं थी।
कुछ ऋिषयों म थोड़ी दु िवधा थी िकंतु दोनों कुमारों के उ ाह का पारावार न था।
राम तो सब कुछ भूल गए थे इस आयोजन म। अपनी सं ृ ित म उनकी आ था
िकतनी गहरी थी, उनका उ ाह इसका प रचय दे रहा था।
सु रवन े म तीन िदवस तक अबाध य की अि िलत बनी रही,
मं ो ार गूँजता रहा। ताड़का और उसके पु ों के आतंक के कथानक का पटा ेप
हो चुका था।
9- च नखा
च नखा अपने िव ामगृह म अ शयिनत अव था म थी।
उसकी वयस पचास वष से अिधक हो चुकी थी िकंतु िपतामह ारा बताये गये
उपायों ने उसकी दे ह को आयु से भािवत नहीं होने िदया था। वह अब भी युवती ही
िदखाई पड़ती थी।
आज पुन: उसका मन ख था, ाय: ही रहता था। उसे यं समझ म नहीं आ
रहा था िक वह चाहती ा है । कभी उसे खर पर ोध आ रहा था तो कभी अपनी
दािसयों पर। कभी वह दू षण को कोस रही थी तो कभी उन वनवासी युवकों को
िज राि म उसने अपनी यौने ा की शां ित के िलए बुलवाया था। रावण पर ोध
तो उसके मन का थाई-भाव था।
द कार म गंगा उ ी बहती थी। यहाँ नवयुवितयाँ नहीं नवयुवक भय
रहते थे। च नखा िन ही दो-चार युवकों को पकड़ मँगवाती थी और उनके साथ
सहवास म वृ होने का यास करती थी। िकंतु सहवास के थम चरण म ही उसे
िवद् यु की कमी खलने लगती थी। पकड़कर मँगवाये गए, भय से थर-थर काँ पते
दास भला ेमी के दािय का िनवहन िकस भां ित कर सकते थे? उनके तो रोम-रोम
म भय समाया होता था िक पता नहीं िकस बात पर सा ा ी कुिपत हो जाएँ और उ
विधकों को सौंप द! उसके िवलास-क म जाने वाला कोई भी दु बारा
दं डकार म िदखाई नहीं पड़ता था। अिधकां श तो उसके ोध का िशकार हो मृ ु
का वरण करते थे। भा से जो बच भी जाते थे वे इतनी दू र जाकर िछप जाते थे िक
च नखा अथवा उसके िकसी गण की ि म न आ पाय। रात भी तीन युवक लाए
गए थे उसकी िवलास- ीड़ा के िलए। उनम से एक का तो च नखा ने अपने हाथों से
ही वध कर िदया था। शेष दो को भी मृ ुदंड का आदे श कर भटों को सौंप िदया था।
उन दोनों म से एक मारा गया था। दू सरा थोड़ा साहसी और चतुर िनकला, वह भागने
म सफल आ। उसके भाग जाने की भटों ने कोई िचंता नहीं की थी। उ पता था
िक अब वह द कार म पुन: िदखाई नहीं पड़े गा। िदखाई पड़ा भी तो इतने िदन
बाद िदखाई पड़े गा िक सब उसकी सूरत भूल चुके होंगे। स ता तो यह थी िक ऐसे
भागने वालों की सूरत तो ये भट दू सरे िदन ही भूल जाते थे। यह तो िन का कम था,
िकतनों की सूरत याद रखते ... और रखते तो ों रखते ?
व ुत: भटों को इन युवकों से कोई सहानुभूित हो ऐसा नहीं था। ऐसा भी नहीं था
िक उ िकसी की ह ा करने म कोई आ ािन होती हो। वे तो बस िन ही यह
कत िनवहन करते-करते उकता गए थे। उ इसम कोई आनंद नहीं िमलता था,
शौय दशन का आ -संतोष भी नहीं िमलता था।
भटों को यिद लापरवाही के पकड़े जाने का भय होता, तो उस थित म िमलने
वाले दं ड का भी भय होता। इस कार मृ ु के मुख म ढकेलने के िलए पकड़े जाने
वाले यों का भी कहीं लेखा-जोखा रखा जाता है ? जो भी पकड़ म आया, थाम
िलया गया और बिल चढ़ने के िलए ुत कर िदया गया। लेखा-जोखा तो उन
यों के प रजन रखते होंगे। िकंतु वे तो इस िवि सा ा ी के सामने जाने से
यं मृ ु का वरण कर लेना ेय र समझते थे। और यिद उ ात हो जाता था
िक उनका कोई प रजन सौभा से सा ा ी के चंगुल से जीिवत बच िनकला है तो वे
तो चुपचाप घर के अंदर घी के िदये जलाते थे। सारे ात-अ ात दे वी-दे वताओं को
ध वाद कहते थे और साद चढ़ाते थे। वे कमचा रयों की लापरवाही का प रवाद
लेकर भला ों आते? उनके िलए तो वह लापरवाही दै व के आशीवाद प ही
होती थी।
सा ा ी यं भला ों याद रखती? उसके पास याद रखने को उसके िवद् यु
की याद थीं, उसका िबछोह था, भाई का असीिमत ार था और उसी भाई के ित
असीिमत घृणा थी। समय तीत करने के िलए उसके पास उसकी थाय थीं,
उसका एकाकीपन था, उसकी ऊलजलूल हरकत थीं साथ ही इस एकाकीपन को
दू र करने के एक से एक िवल ण उपाय खोजने का गु तर दािय था। उसके पास
समय ही कहाँ था, भटों को सौंपे गए कीड़ों की खोजखबर लेने का? समय होता भी
तो यह ा उसकी मयादा के अनुकूल होता?
तभी एक दासी ार पर कट ई। डरते-डरते उसने धीरे से पुकारा-
‘सा ा ी!’
कोई उ र नहीं िमला। वह कुछ काल तक खड़ी रही िफर लौट गयी। च नखा
उसी कार पड़ी रही।
एक मु त बाद दासी पुन: कट ई। उसने िफर उसी कार डरते-डरते पूछा-
‘सा ा ी! दासी मा चाहती है ।’
इस बार च नखा ने सुना। अनमने भाव से पूछा-
‘िकस बात की मा?’
‘लंके र का संदेश आया है ।’
‘तो इसम तुझे मा माँ गने की ा आव कता है ?’
‘सा ा ी के िव ाम म वधान उप थत िकया न दासी ने।’
‘ मा िकया। ा संदेश आया है ?’
‘लंके र ने आपको लंका आमंि त िकया है ।’
‘म ों जाऊँ लंका? पहले यं ही िन ािसत कर िदया अब आमंि त कर रहे
ह। भाग जा।’
दासी सारी िह त सँजोए खड़ी रही। च नखा ने करवट बदल ली। कुछ ण
बाद िसर घुमाकर दे खा, दासी अब भी खड़ी थी।
‘ ा है , गई नहीं अभी तक?’
‘सा ा ी, संदेशवाहक भट की अनुमित चाहता है ।’
‘अभी अवकाश नहीं है मुझे। अब भागती है अथवा कूकुरों के आगे िफंकवाऊँ?’
दासी के पास भाग जाने के अित र कोई माग नहीं था। कु ों से अपनी दु दशा
करवाने का शौक िकसी को नहीं होता।
संदेशवाहक को दू सरे िदन भट का अवसर ा आ ... संयोग से।
च नखा आज कई िदन बाद अपने सभाक म उप थत ई थी। दािसयों से
िघरी वह सभाक म प ँ ची। क पूणत: र था। कोई सभासद नहीं था, व ुत:
सभासद थे ही नहीं। खर के कुछ सहायक थे जो उसीके साथ रहते थे और सेनापित
दू षण था। च नखा को राजकाज म कोई िच नहीं थी। उसे चाटु कारों की संगित म
भी कोई िच नहीं थी। सभाक िवशाल था, भ था। ारों पर ारपाल स खड़े
ए थे।
वेश करते ही च नखा ने पीछे -पीछे चल रही दािसयों को आदे श िदया- ‘नृ
का आयोजन करो।’
दासी ने हाथ जोड़कर मौन सहमित जताई और वैसे ही हाथ जोड़े -जोड़े बाहर
िनकल गई। कल वाली दासी भी साथ म उप थत थी। वह एक बार िफर साहस कर
हाथ जोड़कर सामने खड़ी हो गयी और ती ा करने लगी िक सा ा ी की ि उस
पर पड़ जाए। ि ज ी ही पड़ गई।
‘ ा है ?’ आज च नखा का र शां त था।
‘वह लंके र का संदेशवाहक भट की ती ा कर रहा है ।’
‘गया नहीं वह अभी तक?’
दासी वैसे ही हाथ जोड़े मौन खड़ी रही।
‘भाई के संदेशवाहक भी न ... भाई की भां ित ही हठी होते ह। बुलाओ, िमलना ही
पड़े गा। भट िकए िबना वह दु जाएगा ही नहीं।’
दासी चली गयी िकंतु वह संदेशवाहक को लेकर लौटती, उससे पूव ही खर और
दू षण ने वेश िकया। उनके साथ राजकीय वेशभूषा म पाँ च अ भी थे। ये
खर के सभासद अथवा मं ी थे।
चं नखा का राजसभा म आगमन तो एक िवशेष घटना होती थी। ऐसा भी कभी-
कभी ही होता था िक वह खर-दू षण को अपने इस काय म की पूव सूचना दे दे ,
इसीिलए वे भी कभी-कभी ही सभाक म आते थे। दू षण और शेष पाँ चों मं ी ाय:
सदै व ही उसके साथ रहते थे। अत: िकसी भी िवषय पर उनसे िवचार-िवमश करने
के िलए िकसी राजकीय आड र की आव कता नहीं थी। जा उस दु गम, जनहीन
दे श म ब त थी भी नहीं। जो थी, उसे अपने इन रा ा ों से कोई योजन नहीं
होता था। जाजन जंगलों पर आि त थे। आपसी झगड़े अपने दे सी अ ों के दम पर
यं ही सुलझा लेते थे। कर जैसी कोई णाली अ म थी ही नहीं। जब भी
आव कता होती थी, िजतनी भी आव कता होती थी, दू षण के सैिनक बलात
वसूल लेते थे। यूँ च नखा का यह रा लंका के संर ण म था। दशानन की दु लारी
बहन को जो भी आव कता होती थी उससे दु गने की आपूित पलक झपकते हो
जाती थी।
आज भी िकसी को सूचना नहीं थी िक सा ा ी राजसभा को अपनी उप थित से
ध करगी। खर-दू षण को जैसे ही सूचना ा ई वे सभी को लेकर िबना िकसी
िवल के उप थत हो गये। संयोग से वे नगर म ही उप थत थे।
अिभवादन के आदान- दान की राजकीय मयादाओं का िनवहन आ। च नखा
ने िकसी कार इन औपचा रकताओं को झेला। इस सब के ित उसकी अना था
उसके मुख पर िलखी ई थी।
इन लोगों के पीछे -पीछे ही संदेशवाहक ने भी वेश िकया। उसने भी वही सब
म दोहराया। च नखा ने उसके अिभवादन का कैसा भी उ र दे ने का यास नहीं
िकया। सीधा िकया-
‘भाई कुशल से तो ह?’
‘जी सा ा ी!’
‘तो िफर कैसे आना आ तु ारा?’
‘स ाट् ने संदेश भेजा है आपके िलए।’
‘तो संदेश बताते ों नहीं, थ समय ों न कर रहे हो?’
‘जी स ाट् ने आती एकादशी को एक वृहद उ व का आयोजन िकया है । उ ोंने
कहलवाया है िक यिद आप अपनी उप थित से उ व को ध करगी तो उ
स ता होगी।’
‘अथात, च नखा को मा उ व म स िलत होने के िलए औपचा रक आमं ण
है । भाइयों, भािभयों, बहनों और ब ों से भट करने का कोई आ ीय िनवेदन नहीं
है ।’
‘ऐसा नहीं है सा ा ी। वे सब तो आपका अपना प रवार ह। उनसे तो आप
सािधकार जब चाह तब, कभी भी भट कर सकती ह। उसके िलए भी भला िकसी
िनम ण की आव कता है ?’ संदेशवाहक ने बात सँभालने का यास िकया, पर
बात सँभली नहीं। ताड़का िव ू प से बोली-
‘अथात, म चा ँ तो ... वे नहीं चाहते!’
‘जी ... जी ऐसा कदािप नहीं है । वे सब तो सदै व आपकी बाट जोहते ह, िकंतु ....’
‘ ा िकंतु? वे यिद च नखा से िमलने की आव कता समझते होते, तो तु
भेजने के थान पर यं नहीं आ जाते, अपनी भिगनी को बुला रहे थे, िकसी अ
रा के राजा को नहीं?’
‘जी ... जी ...’ संदेशवाहक हकलाते ए बस इतना ही कह पाया। उसे समझ ही
नहीं आ रहा था िक ऐसा ा कहा जा सकता है िजससे सा ा ी ोिधत न हों, जो
बात उनके मन को भली लग सके।
उसे ही ा िकसी को भी तो यह समझ नहीं आता था। यं रावण अथवा
मंदोदरी को भी।
‘जाओ, कह दे ना भाई से िक च नखा को अवकाश नहीं है ।’
‘जी!’ उसने झुककर अिभवादन िकया िकंतु जाने के िलए मुड़ा नहीं।
‘अब खड़े मेरा मुख ा ताक रहे हो? ा ह रयों से ध े लगवाने पड़गे?’
‘न ... न ... नहीं। म जाता ँ ।’ कहते-कहते उसने पुन: झुक कर णाम िकया।
खर-दू षण को णाम िकया और उ ा चलता आ बाहर िनकल गया।
सभी जानते थे िक च नखा रावण के बुलावे पर अव जाएगी। ोध िदखाएगी,
ठ कर िदखाएगी िकंतु जाएगी। वहाँ जाकर स होगी िकंतु िफर कोई न कोई
बखेड़ा भी अव खड़ा कर दे गी। पर ये सारी बात उससे कहने का अथ था
मधुम यों के छ े म हाथ डालना। अत: बात को दू सरी ओर मोड़ने के उ े से
खर ने पूछा-
‘भिगनी आखेट को चलेगी?’
‘अव !’ यह तो उसका ि य मनोरं जन था। बस अवसर नहीं िमलता था ... खर-
दू षण अपने म रहते थे और ... और उसके र का था कौन िजसके साथ
आखेट का आयोजन करती! अकेले आखेट का कोई योजन नहीं था।
‘तुम िन ही आखेट का आयोजन ों नहीं करते?’ अचानक च नखा ने खर से
िकया।
‘सा ा ी, राजकीय दािय भी तो दे खने होते ह। िकंतु अब ऐसा यास क ँ गा
िक इन आयोजनों के म अिधक अ राल न हो।
‘हाँ , यही उिचत होगा।’ च नखा ने सहमित दी और उठ गयी। नृ के िलए आईं
नतिकयों ने भी मु की साँ स ली।
10- िव ु -पद
सु रवन म जो आ उससे राम को आ क स ोष ा आ था। ल ण
अ ंत उ ािहत थे िक ु उनके उ ाह के मूल म रोमां च था। उ ोंने पहली बार
िकसी बड़े अिभयान म सि य भागीदारी की थी। अभी तक तो गु कुल के आखेट
के अ ास ही िकए थे।
रोमां च राम ने भी अनुभव िकया था िकंतु वह उनकी स ता के मूल म नहीं था।
स ूण े रा सों के आतंक से मु हो गया था। जा स थी, इसिलए राम भी
स थे। अ ाय का ितकार आ था इसिलए भी राम स थे और सबसे बड़ी
बात धम की और आय-सं ृ ित की पुन थापना ई थी इसिलए राम अ ंत स थे।
गत सोच म उ र -सं ृ ित से कोई िवरोध नहीं था, उनका िवरोध तो
बल योग ारा िकसी के आ ा क आचारों को िनय त करने से था। उनका
िवरोध तो की नैसिगक तं ता को अप त कर लेने से था।
तीन िदन के िवशाल उ व के उपरां त राम और ल ण को थोड़ा सा एकां त-
िव ाम ा आ। वे आ म के िपछवाड़े एकां त म िनकल आए और एक पेड़ के
नीचे बैठ गए।
‘ ाता!’
‘हाँ ?’ राम ने ल ण की ओर मुड़ते ए वाचक ि से दे खा।
‘यहाँ का काय तो स ािदत हो गया। हमारे आगमन का उ े भी पूरा हो गया!’
‘यह तो िष ही बता सकते ह िक उ े पूण आ अथवा अभी कुछ शेष है ।’
राम ने सहजता से कहा।
‘अब ा शेष हो सकता है ?’
‘कहा न, इसका उ र तो िष ही दे सकते ह।’
‘तो पूिछये न उनसे!’
‘अरे , तुम करने म कबसे िहचकने लगे?’ राम ने हँ सते ए पूछा।
‘िहचकता नहीं ँ , िकंतु यहाँ आप नायक ह।’
‘तुम नायक नहीं हो? स ूण अिभयान म तु ारी भूिमका मुझसे गु तर ही रही
है ।’
‘ऐसा नहीं है ाता। मा म ही नहीं कहा रहा, यहाँ सभी आपकी ुित कर रहे
ह।’
‘अ ा उपहास ब करो अ था अभी कान उमेठ दू ँ गा।’ राम ने बात को दू सरी
ओर मोड़ने का यास करते ए कहा। अपनी शंसा उ सदै व संकुिचत कर दे ती
थी।
‘स तो कह रहे ह कुमार ल ण।’ यह र पीछे से आया था।
दोनों ने मुड़कर दे खा तो ऋिषवर ायि य उनके पीछे ही खड़े थे। दोनों अचकचा
कर उठ गए।
‘अरे ! आप कब आए ऋिषवर?’ राम ने उ णाम करते ए कहा- ‘िवरािजए।’
ल ण ने भी णाम िकया। ऋिष ने दोनों को आशीवाद िदया और उ ीं के पास
भूिम पर बैठ गए।
‘तुम दोनों यहाँ एका म बैठे ए हो और वहाँ स ूण नाग रक तु खोज रहे ह।
इधर भी आते ही होंगे।’
‘अरे ! िकंतु िकसिलए?’ राम ने आ य से पूछा।
‘िकसिलए का ा ता य ! अपने उ ारक को कोई िकसिलए खोजता है ?’ ऋिष
ने हँ सते ए कहा।
‘उ ारक और हम? ऋिषवर, यह तो गु दे व का आशीष है । उ ारक तो वही ह।
हमने तो मा उनका अनुसरण िकया है ।’
‘यही े पु षों का ल ण है , ेय सदै व दू सरों को दे ना चाहते ह।’
राम कुछ और ितवाद करने जा ही रहे थे िक कोलाहल सुनाई दे ने लगा। दे खा तो
भारी भीड़ इधर ही चली आ रही थी। दोनों कुमार िफर अचकचा कर उठ बैठे।
ऋिषवर उ इस कार हड़बड़ाते दे ख कर हँ सने लगे।
‘अरे , हत भ ों होते हो, वे सब तो तु ारा आभार कट करने आ रहे ह।’ ऋिष
ने वातावरण को सहज करने के उ े से कहा िकंतु अनजाने ही वे राम की
असहजता को बढ़ा गए। राम के िलए ऐसे ण ही सबसे किठन होते थे जब लोग
उनका आभार कट करते थे। वे कोई भी काय कत मानकर करते थे, ेय लेने के
िलए नहीं।
भीड़ िनकट आ गई। दोनों कुमारों को दे खते ही ी-पु ष, बाल-वृ सब उनके
पैरों म पड़ने लगे।
युवाओं तक तब भी ठीक था िकंतु वृ ों और क ाओं को पैरों म पड़ते दे ख राम
अ ंत असहज हो उठे । वे हाथ जोड़कर बार-बार उनसे उठने का िनवेदन करने
लगे। असहज ल ण भी थे िकंतु वे इस स ान का आनंद भी ले रहे थे।
‘संकुिचत ों हो रहे हो व , तुमने इनकी आतंक से र ा की है । तुम इनके
संकटमोचन हो, वैसे ही जैसे िव ु दे वों के संकटमोचन होते ह ... सदै व, ेक
आपि काल म।’ अब तक यं िव ािम भी आ गए थे।
राम के म म एकाएक पुन: गु विश का वह अंितम वा कौंध गया-
‘याद रखो, तु स ूण भारतभूिम पर स म िव ु के प म िति त होना है ।’
उ समझ आ गया िक गु दे व िव ािम ने इसकी ावना रख दी है । अब इस
ावना को महाका इस जनमानस को बनाना है । वे और अिधक संकुिचत हो
उठे ।
उधर जनता ने िव ािम का उद् घोष िबना एक भी ण गँवाये आ सात कर
िलया।
‘राम यं िव ु ह, िष कह रहे ह तो अस कैसे हो सकता है !’
‘हाँ यही बात है , अ था वे रा स जो हमारे ऊपर भां ित-भां ित के अ ाचार िकया
करते थे, उनकी मित कैसे िफर गयी िक उ ोंने यं अपने ही ािमयों को मार
भगाया।’ एक ालु ने अपनी स ित कट की।
‘अरे , इसम आ य ा! जहाँ िव ु होते ह वहाँ उनके साथ उनकी योगमाया भी
तो होती ह। योगमाया के िलए िकसी की भी मित फेर दे ना ा कुछ किठन है ।’
दू सरे ने उस स ित को और िव ार िदया।
‘िन ंदेह यही बात है । योगमाया ने कीण के िसर पर बैठ कर सम रा सों की
मित फेर दी।’ स ित ने और िव ार ा िकया।
‘दे खते नहीं, िबलकुल िव ु के समान ही प है । वैसा ही ामल वण, वैसी ही
मोिहनी मु ान, वैसा ही तेज ी आनन ...।’ िकसी मिहला ने स ित पर अपनी
प ी मुहर ठोंक दी।
कुछ ही पलों म यह स ित स ूण आ म म सा रत हो गयी। जो जन इधर-उधर
िबखरे ए थे, वे भी भागते ए चले आये। राम के चतुिदक िवशाल भीड़ लग गयी।
बाद म आने वालों को इस भीड़ के कारण अपने भु के दशन ा नहीं हो पा रहे
थे। आगे वालों को धकेल कर पीछे करने का यास करने लगे - ‘हटो, तुम तो दशन
ा कर चुके, हम भी करने दो।’
कुल िमलाकर ध ा-मु ी का माहौल बन गया। मुहाँ चाँ वर होने लगी। बात
बढ़ती दे ख अचानक ल ण को हँ सी सूझी, उ ोंने झपटकर राम को अपने कंधे पर
उठा िलया। सभी को सहजता से भु के दशन ा होने लगे।
िष ने सटीक िट णी की- ‘शेषनाग पर िवराजमान ी िव ु!’
इस िट णी को भी जनमानस ने आ सात कर िलया।
‘िव ु को कंधे पर उठाने की साम शेषनाग के अित र और िकसकी हो
सकती है । िन ंदेह ये भी शेषनाग का ही अवतार ह।’
ल ण को अब इस खेल म िवशेष रस ा होने लगा था। जब उ ोंने दे खा िक
अब वे भी अवतारी हो गए ह, न सही िकसी दे वता के शेषनाग के ही सही, अवतार तो
अवतार है । अक ात न जाने िकस भावना के वशीभूत, खेल-खेल म ही उ ोंने नारा
उछाल िदया-
‘ भु ीिव ु की जय!’
आ था से बँधी भीड़ ने तुर नारे को लपक िलया। भु ीिव ु के जयकारों से
आकाश गूँजने लगा। ... थोड़ी दे र म भीड़ ने त: ही एक चूक का सं ान िलया और
नारे को संशोिधत कर िलया-
‘ भु ीराम की जय ! भु ीराम की जय!! भु ीराम की जय!!!
राम को ल ण की इस दु ता पर, अपने शां त भाव के िवपरीत, रह-रह कर
ोध आ रहा था िकंतु िववश थे। भीड़ म िघरे वे कुछ कर नहीं पा रहे थे। सबके बीच
म ल ण को डाँ ट भी नहीं पा रहे थे।
बड़ी किठनाई से राम ल ण के कंधे से उतर पाये।
दे र रात तक यह हसन चलता रहा। राम िथत थे। यह बलात आरोिपत दे व
उ बुरी कार सता रहा था। उ सवािधक ोभ तो यह था िक यं िष भी
उनकी इस अव था का आनंद ले रहे थे। कुछ ऋिषगण अव इस सब से असंतु
भी थे, िकंतु उनकी सुनने वाला था ही कौन!
11- िमिथला की ओर
दे र राि जब स -वदन जन-समुदाय अपने-अपने घरों को लौट गया तब राम ने
िष से ाथना की।
अपने भाव से बँधे वे ऐसा करना नहीं चाहते थे, वे सहजभाव से गु दे व के
आदे शों के अनुसार ही अपने कत िनधा रत करना चाहते थे। वे ढ़ थे िक जब
गु दे व यं आदे श दगे िक अब तु ारा काय स ूण आ, अब तुम अयो ा वापस
लौट सकते हो, तभी वे वापस लौटगे। इसीिलए कल ल ण के ाव को उ ोंने
ल ण पर ही टाल िदया था। िकंतु अयािचत दे व के भार ने उ ाथना करने पर
िववश कर िदया-
‘गु दे व!’
‘कहो व !’ िव ािम ने ेह से कहा।
‘यहाँ का काय तो स हो गया। रा सों का मूलो े द हो गया। य काय िनिव
स ािदत होने लगा है ।’
‘हाँ , तुम दोनों के ताप से ऐसा संभव हो सका है ।’
‘हमारे ताप से नहीं गु दे व, आपके आशीवाद से। िकंतु इस समय म दू सरा ...’
‘बोलो-बोलो, संकोच मत करो।’
‘अब यिद अनुमित हो तो ...’
‘ कहो न व ।’
‘गु व ाता पूछना चाहते ह िक यिद अब आप अनुमित द तो हम लोग वापस
अयो ा के िलए थान कर। िपता और माताय िचंता कर रही होंगी।’ ल ण ने
बात को लपकते ए कहा।
‘नहीं ल ण! अभी कुछ अ अ ंत मह पूण काय शेष ह। अभी अयो ा
वापसी का समय नहीं आ है ।’
‘जी गु दे व!’ ल ण का चेहरा लटक गया। िज ासा भी ई िक अब ा शेष है ।
उ ोंने पूछ ही िलया- ‘वे काय ा ह गु दे व?’
‘समय आने पर त: ात हो जाएगा। अब राि हो गयी है , ात: ही हम िमिथला
की ओर थान करना है अत: अब िव ाम करो।’
***
ात: ही ये लोग िनकल पड़े ।
‘गु दे व! िमिथला हम िकस हे तु जा रहे ह?’ माग म ल ण ने िज ासा कट की।
‘महाराज सीर ज महान िव ान और धमा ा नृप ह। उनके साथ कुछ धम-चचा
हो जाएगी। तुम लोग भी िमिथला के दशन कर लोगे- पवतों की तलहटी म बसी
अ ंत सु र नगरी है ।’ कुछ ककर िव ािम ने आगे जोड़ा- ‘िकंतु सबसे
मह पूण कारण तो यह है िक राम अपने दे व से असहज हो रहा है और िकसी भी
कार से यहाँ से भाग िनकलना चाहता है ।’ कहकर गु दे व हँ स पड़े ।
‘ भु ीराम की जय!’ ल ण ने चंचलता से राम को िचढ़ाते ए जयकारा लगाया।
यह उसके मन का िवषय था। गु दे व ने जैसे ही आगे बढ़ना आर िकया, राम ने
हँ सते ए ल ण की पीठ पर एक हाथ जड़ िदया।
‘आह! ब त कसके लगा है ाता। आप ान रखा कीिजए िक आप यं ीिव ु
के अवतार ह। आपका खेल-खेल म िकया गया वार भी घातक होता है ।’ ल ण ने
अपनी पीठ सहलाने का अिभनय करते ए शरारत जारी रखी।
‘तुम मानोगे नहीं?’ राम ने आँ ख तरे रीं।
‘इसम मानने, न मानने का ही कहाँ है ाता! स तो स ही रहे गा। उसे
भला कैसे झुठलाया जा सकता है !’
‘इसका कथन स है राम! तुम भले ही इसे ीकार न कर पाओ िकंतु जनमानस
ने पूरी आ था के साथ इसे आ सात कर िलया है । स को तुम जानते हो, ल ण
जानते ह, म जानता ँ , िष विश जानते ह। िक ु जनमानस की तु ारे उस स
म कोई आ था नहीं है ; उसकी आ था तो बस उसकी आ था म है । उसकी आ था
तु ारे दे व म है । अब इस आ था को कोई िडगा नहीं सकता।’
‘परं तु गु दे व अस पर आधा रत आ था को हम य नहीं दे ना चािहए। उसका
खंडन करना ही चािहए।’ राम ने ितवाद िकया।
‘जानते हो, आ था तक और माणों की मुखापे ी नहीं होती। वह अपने िव ास
के पंखों पर उड़ती है ... और सातों आकाशों से ऊपर उड़ती है । आ था को झुठलाने
के िलए िजतने तक िकए जायगे, िजतने माण ुत िकए जायगे, आ था अपने प
म उससे दु गने तक, दु गने माण उ कर दे गी। अत: अब इस संकोच से बाहर
आने का यास करो। अब इस दे व के साथ ही जीना तु ारी िववशता है । जीवन
पयत तुम इससे छु टकारा नहीं पा सकते ... और जीवन पय ही ों, संभव है युग-
युगा र तक तु इसके साथ जीना पड़े । हमारे इस धम ाण और आ थावान समाज
म कहीं भी एक प र रखकर उसपर दो फूल चढ़ा दो िफर दे खो खेल, अिधक समय
नहीं लगेगा जब पूरा गाँ व उस प र म िकसी न िकसी दे वता को ितरोिपत कर उसे
पूजने लगेगा।’ कहकर गु दे व एक ण के िलए के, पीछे मुड़कर राम को दे खा।
उनके संकोच को ल कर मु ु राये और ेह से उनकी पीठ थपथपाते ए आगे
कहना आरं भ िकया-
‘तु ा तीत होता है िक आ था का यह ार सु रवन तक ही सीिमत रहे गा
और तुम यहाँ से भाग कर इसम भीगने से बच जाओगे? कदािप नहीं! अब तुम जहाँ
भी जाओगे, आ था का यह ार तु ारे पीछे -पीछे जाएगा। कुछ ही समय म यह
तु ारे आगे-आगे चलने लगेगा और सम भारतभूिम को अपने म समेट लेगा।’
राम के पास बोलने को कुछ था ही नहीं िक ु ल ण स थे। उ ोंने एक बार
िफर राम के कान के पास मुँह करके फुसफुसाया - ‘ भु ीिव ु के अवतार
ीरामच जी की जय!’
राम बस उ घूर कर रह गए।
तभी उ िवषय प रवतन करने का अवसर ा हो गया। दू र सामने एक भ
नगरी के िच िदखाई पड़ रहे थे। राम ने उसकी ओर संकेत करते ए पूछा-
‘गु दे व वह भ सी िदखाई दे ने वाली नगरी कौन सी है ?’
इस ने सच ही राम को उबार िलया। िव ािम उस े का इितहास बताने म
हो गए।
उस राि सोणभ के तट पर िव ाम आ।
अयो ा से िस ा म तक की या ा म ऋिषवर का स ूण ान शी ता पूवक
ग तक प ँ चना ही था। माग म उ ोंने ब त कम ही वाता की थी, बस चलते
रहने पर ान के त िकया था। उसके िवपरीत िस ा म से िमिथला की या ा म वे
भरपूर वाता करते ए चल रहे थे। अपने कुिशक वंश के इितहास से आर कर
उ ोंने इ ाकु वंश का इितहास बताना आर कर िदया। सगर के पु ों के भ
होने से आरं भ करते ए कालां तर म भगीरथ के य ों से गंगा के पृ ी पर अवतरण
तक की कथा सुना डाली। िफर महिष क प से दे वों, दानवों और दै ों की उ ि
तथा उनके िववाद की कथा, सागर-मंथन की कथा और इसके साथ अ भी
अ ा कथाओं म माग कब कट गया पता ही नहीं चला। दोनों कुमार इन कथाओं
म खोये चलते रहे । राि -िव ाम के समय भी कोई न कोई करण िछड़ ही जाता
और िव ािम कथाय सुनाने लगते।
अंतत: ये या ी िमिथला प ँ च गए।
िमिथला म वेश करते ही एक सु र सा िकंतु िफर भी उजाड़ सा िदखता आ म
िदखाई पड़ा। िव ािम उस आ म के िनकट ही एक वृ के नीचे कुछ दे र के िलए
बैठ गए। अब तक माग म ऐसा उ ोंने एक बार भी नहीं िकया था िक सूया से पूव
ही कहीं अचानक ककर बैठ गए हों।
गु दे व का इस कार बैठ जाना कुमारों के िलए अ ािशत था। वे दोनों भी बैठ
गए। दोनों ने आँ खों ही आँ खों म एक-दू सरे से पूछा िक कुछ कारण समझ आया
ा? िकंतु दोनों को ही कुछ समझ नहीं आया था। राम ने ल ण को संकेत िकया
िक पूछ ा कारण है । ल ण ने कंधे उचका िदए और गहन िनरी ण करती ि
से आ म को िनहारने लगे। अंतत: राम ने ही िकया-
‘गु दे व! यह रमणीक थान, िदखने म तो िकसी आ म सा ही तीत होता है िकंतु
यह इस कार िन -जनशू सा ों पड़ा है ? यहाँ ऋिष-मुिनयों की कोई भी
गितिविध ों नहीं ि गोचर हो रही?’
गु दे व तो मानो यहाँ पर के ही मा इसिलए थे िक राम यह पूछ। उ ोंने
बताना आरं भ िकया-
‘व ! यह महिष गौतम का आ म है । षड् दशन म से एक ायदशन के
ितपादक महिष गौतम महान योगी और िचंतक होने के साथ-साथ अ ंत े
आयुध-िवशारद भी ह। उनकी िवदु षी प ी ‘अह ा’ पंचक ाओं म एक ह। उनका
पु ‘शतान ’ सीर ज जनक का राजपुरोिहत है और पु ी अंजना वानरराज बािल
के सेनापित केसरी की प ी है । ... और इसके बाद वे गौतम-अंजना की पूरी कथा
सुनाते चले गए। इं ारा अह ा के साथ सहवास और उसके उपरां त गौतम ारा
अह ा का प र ाग और -िनवासन (दे ख : पूव-पीिठका) तक का स ूण वृ ां त
उ ोंने कुमारों को कह सुनाया।
कुछ काल तक दोनों कुमार बैठे रहे । ल ण के चेहरे पर आ ोश
झलक रहा था। ल ण बोलने जा ही रहे थे िक राम उ रोकते ए यं बोल पड़े -
‘यह उिचत तो नहीं आ गु दे व। दे वे और दे वी अह ा के म जो भी आ
वह अनुिचत था िकंतु मु अपराधी तो दे वे ही ह िफर द मा दे वी को ही ों
भोगना पड़ा?’
‘इसे संभवत: यं महिष गौतम ने भी अनुभव कर िलया था तभी तो उ ोंने
े ा से अपने िलए भी एक कार से वही द ीकार िकया जो उ ोंने दे वी
अह ा को िदया था।’
‘िकंतु तो यह है िक दे वराज के सामािजक बिह ार का आवाहन ों नहीं
िकया महिष ने? महिष ने नहीं िकया था, उ ोंने दे वराज को द हार कर ही छोड़
िदया था तो जगत के अ िव त-समाज ने ों नहीं दे वराज का बिह ार िकया? वे
तो आज भी सव उसी भां ित पू ह। वे तो आज भी य ों म ह हण करते ह।
ों है ऐसा?’
‘तु ारे आरोप पूणत: उिचत ह व ! िकंतु अब हम समय के च को िवपरीत
िदशा म नहीं घुमा सकते। जो घिटत हो चुका वह तो हो ही चुका है । इस समय
िच नीय यह है िक अब ा करणीय है ?’
‘इसम भी ा कोई संशय है , गु दे व?’ ल ण ने ह ेप िकया- ‘दे वी के
सामािजक बिह ार का िवरोध करना, उसे समा करवाना ही करणीय है ।’
‘तो व ! इसी उ े से म तुम दोनों को यहाँ लेकर आया ँ ।’
‘िकंतु इसम हम ा कर सकते ह? यह काय तो स ूण ऋिष समुदाय का है ।
महिष गौतम के िनणय म ह ेप करने की साम हमारी कहाँ है ?’
‘ महिष गौतम का नहीं है । तो अ ाय के ितकार का है । अ ाय तो सदै व
साम वान ही करता है । अ ाय के ितकार के िलए साम वान के िव ही तो
खड़ा होना पड़ता है ।’
‘तब भी गु दे व ... यह काय तो आप मनीिषयों ारा ही स ािदत होने यो है ।
िनणय तो आप ही लगे, हम लोग आपके िनणय के स ूण ि या यन का दािय
लेते ह।’
‘प र ाग का िनणय महिष गौतम का था, उसे वापस भी वही ले सकते ह। अपने
िनणय के अनौिच का भान उ यं भी हो गया था तभी तो उ ोंने यं अपने पर
भी े ा से समान द आरोिपत कर िलया और िहमालय की क राओं म
एका वास के िलए चले गए। उनकी अनुप थित म िव ने उनके िनणय को
अ ायपूण ढं ग से मा ता दान की ई है । अब महिष के िनणय पर टीका-िट णी
का समय नहीं है , अब तो िव की इस अ ायपूण मा ता को नकारने का है ।
तु ारे समान म भी इसे नकारता ँ ।’
‘तब िफर िवरोध म आप ही र ों नहीं उठाते?’
‘िकसके िवरोध म र उठाना है , महिष के ... जो संसार का ाग िकए बैठे ह,
ा लाभ होगा उसका? मेरी बात को समझने का य करो, महिष के ारा िनधा रत
िकए गए द के औिच पर िवचार करने का समय तीत हो चुका है । अब समय
है यं दे वी अह ा को इसके िलए मनाने का।
‘ता य गु दे व?’
‘दे वी िवदु षी ह, तेज नी ह साथ ही मािननी भी ह। उ ोंने महिष ारा िदए गए
द को पूरी ग रमा के साथ अंगीकार िकया है । दे वी यिद यं इस बिह ार का
िवरोध करतीं तब िकसम साहस था जो उनके स ुख ितरोध म खड़ा रह पाता! वे
यं इस बिह ार को ीकार िकए ए ह। यिद इसे समझ सको तो यह महिष
और दे वी के म अहं का टकराव है । महिष का प अ ायपूण है , इसे महिष ने
िकसी अ के स ुख भले ही ीकार न िकया हो, िकंतु यं तो ीकार िकया है ।
उनका िनवासन इसका माण है । दू सरी ओर यिद समाज ने दे वी का बिह ार
िकया आ है तो दे वी भी समाज का बिह ार िकए ई ह। यह उनका मान है । इस
मान का ितकार यं महिष गौतम कर सकते ह िकंतु वे तो अनुपल ह?’ कहकर
गु दे व ने वाचक ि से राम की ओर दे खा।
‘तब गु दे व! ा करणीय है ? समाज को कैसे िववश िकया जा सकता है , दे वी
का बिह ार समा करने के िलए?’
‘तुम अब भी नहीं समझे मेरी बात।’
राम ने भरी ि से गु दे व को दे खा।
‘ समाज ारा दे वी का बिह ार समा करने का नहीं है , अब दे वी के
आहत दप ारा समाज को ीकार करने का है ।’
‘तो आप ऋिषगण उ मनाने का यास ों नहीं करते?’
‘हम नहीं कर सकते।’ िव ािम के अधरों पर णां श के िलए एक िववश सी
मु ान उतरी और िवलु हो गयी- ‘समतु ों के साथ मान अिधक उ हो जाता
है । िफर एक युग तीत हो चुका है दे वी को इस कार एकाकी-अिभश जीवन
तीत करते। ेक बीतते ण के साथ उनका मान और भी खर होता जा रहा
है । वे हमारे ऐसे िकसी अनुरोध को ीकार ही नहीं करगी।’
‘िबना यास िकए ही आप ऐसा कैसे मान सकते ह गु दे व?’
‘मानव मन को समझने की साम है िव ािम म, अ ऋिषयों म भी है ।’
‘तब?’ ल ण ने िकया।
‘दे वी को मनाने की साम मा एक म है , और वह है राम!’ गु दे व ने
मु ु राते ए कहा।
ल ण भी मु ु रा उठे ।
गु दे व आगे बोले-
‘अ िकसी म यह साम नहीं है िक दे वी के मान को झुकाकर उनके वा
को उभार सके। अ िकसी की भी ाथना के उ र म दे वी वही करगी जो अभी
राम ने िकया था- ‘मु अपराधी तो दे वे ह तब द मा उ ही ों भोगना
पड़ा?’
‘मुझसे नहीं करगी?’
‘ ों करगी भला? तुम तो तब अ म ही नहीं थे।’
‘तब ा वे यह हठ नहीं करगी िक यं महिष गौतम ही आय ... ?’
‘करगी, िन य ही करगी। िक ु यह ों भूल जाते हो िक नारी को कृित का
सबसे बड़ा वरदान उसका मातृ है और इस मातृ से वा अनु ािणत होता
है । जगत म एकमा तुम हो जो उनके वा को इस सीमा तक जा त कर सकते
हो िक वह उनके मान को परािजत कर दे ।’
‘एकमा म ही ों गु दे व, उनका पु और उनकी पु ी भी तो ह।’
‘ थम तो अपने माता-िपता के म िकंकत िवमूढ़ वे इस िवषय म कोई
िनणय लेने म स म ही नहीं ह। यिद वे स म हो भी जाय तो वे दे वी का अपना र
ह। अपने र के साथ तो मान और भी बल हो उठता है ।’
दोनों कुमारों के िसर यं ही सहमित म िहल उठे ।
‘अब इस िवचार-मंथन म समय न मत करो। इस गु तर दािय के िनवहन हे तु
थान करो। दोनों जाओ ... िकंतु ल ण, कमान राम को ही सँभालने दे ना। तु ारे
च र म ओज धान है िकंतु यहाँ ओज की आव कता नहीं है । यहाँ राम की
सहज- ाभािवक िवन ता और धैय ही काय स ािदत करगे। ... जाओ अब ...
‘शुभा े पंथान: स ु!’ गु दे व ने आशीवाद िदया।
12- अह ा-उ ार ?
‘आओ राम! म तु ारी ही ती ा कर रही थी।’ अह ा ने आ म म राम के
वेश करते ही सहज वा से प रपूण र म कहा।
राम वेश करते ही अह ा के चरणों म दं डवत हो गये। उनके पीछे आ रहे
ल ण ने भी उनका अनुसरण िकया।
‘उठो पु !’ अह ा दोनों को उठाती ई बोली- ‘यश ी भव!’
‘माता! म अ ंत ल त ँ ।’ उठने से पूव ही राम बोले- ‘आपके स ुख ि
उठाने का साहस नहीं हो रहा है मुझे....’
‘तुम ों ल त हो व ? तुम तो अह ा के दु भा के स ूण कथानक म कहीं
हो ही नहीं।’
‘माता! म भी तो उसी समाज का ितिनिध ँ िजसने आपके ित अपराध िकया।
म भी तो उसी पु ष स ा का ितिनिध ँ िजसने आपके साथ अ ाचार िकया।’
‘हाँ ! यह तो है । िकंतु ा अपने गु दे व को कुिटया से बाहर ही खड़ा रखोगे।
अथवा वे अभी भी अह ा को ा समझते ह?’ अह ा का र एकरस वािहत
म म समीर सा शां त था। िकंतु इस सहज र ने ही राम को असहज कर िदया।
यं को संयत करते ये बोले-
‘कैसी बात कर रही ह माता! यिद गु दे व आपको ा ही मानते होते तो हम
यहाँ लेकर ों आते?’ िफर ल ण का कंधा थपथपाकर बोले- ‘जाओ
ल ण, गु दे व तक माता का संदेश प ँ चा तो दो तिनक।’
गु दे व तो आ म के बाहर ही थे। आने म िवल नहीं लगा। इस समय आ म म
बनी इस छोटी सी कुिटया म अह ा अकेली ही थी। मंगला को उसने दू र उपवन से
कुछ िविश फल और पु लाने भेज िदया था। संभवत: वे उसे अभी इन लोगों के
ि म नहीं आने दे ना चाहती थीं।
िव ािम के वेश करते ही अह ा प रहास सा करती ई, उसी संयत र म
बोली-
‘आइये महिष ... नहीं-नहीं िष! ागत है आपका समाज ारा प र ा
अह ा की इस कुिटया म।’
िव ािम ने हाथ जोड़ कर अह ा का अिभवादन िकया, प रहास के उ र म
कुछ नहीं बोले तो अह ा ने ही बात आगे बढ़ाई-
‘दे खये तो िष, यह राम ल त है । िकंतु खेल तो दे खये ... यह उस अपराध
के िलये ल त है िजसे आप जैसे िव ान अपराध समझते ह। उस वा िवक
अपराध के िलये तो कोई भी ल त नहीं है जो व ुत: आ है ।... और इस नादान
को तो उसका ान भी नहीं है ।’ वे ह े से हँ सीं िकंतु इस हँ सी म कतई आवेश नहीं
था- ‘िफर भी ल त है ।’
‘दे िव! िव ािम उसके िलये भी ल त है िकंतु उसका ितकार तो संभव नहीं है
न! िजस अपराध का ितकार संभव है उसी के िलये यह राम आपके स ुख
उप थत आ है ।’ िव ािम का र भी सदै व की भाँ ित शां त था।
‘अपराध का ितकार यह बालक करे गा?’ अह ा िव य का दशन करते ये
मंद हा से बोली- ‘यह काय तो आप जैसे मनीिषयों को करना चािहये था। उसी
समय करना चािहये था जब यह आ था।’
‘दे िव! िव ािम तो उस समय उ त युवराज था ... दं भी ... मदां ध ... भोगिल ा म
आकंठ डूबा आ, उसे इन बातों पर िवचार करने का अवकाश ही कहाँ था!’
‘और वह सीर ज ... िवदे हराज जनक, ानी, ... और सम मुिनगण ... इन
सब म भी साहस नहीं आ ितकार करने का?’
‘आं िशक स है आपका आरोप। िकसी म साहस नहीं आ .... िकंतु ितकार
करने का नहीं, आपके स ुख आने का। िकस मुँह से आते?’
‘म उस गु तर अपराध की बात कर रही ँ ।’
‘मने कहा न िक उसका ितकार संभव नहीं है ।’
‘ओह!’ अह ा भौंहे उठाकर बोली और हँ स पड़ी। ‘और इसके िलये भी आप
इस बालक की ओट म िछपकर ाव लाये ह।’
‘िकस मुख से आते? और ा आप तब हमारा ाव ीकार कर लेतीं?’
अह ा ने कुछ ण िव ािम की आँ खों म झाँ का िफर बोली-
‘नहीं!’
‘िकंतु मुझे िव ास है िक आपका वा इस बालक के अनुरोध को ीकार कर
लेगा। और दे िव! यह साधारण बालक .....’
‘हाँ ! हाँ !’ अह ा बात काटते ये उसी हा से बोली- ‘मुझे ात है , यह अब
िव ु है ... ’ िफर कटा करते ये जोड़ा - ‘स म िव ु!’
कुछ पल मौन रहा, तदु परां त अह ा ने ही मौन तोड़ा-
‘तो राम! जब तु आयावत के यो ाओं और ािनयों ने सव े ीकार कर ही
िलया है तो रखो भाई अपना ाव! अकारण िवलंब ों कर रहे हो?’
अह ा के िवनोद से राम सकुचा गये िकंतु यं को संयत करते ये बोले-
‘माता! म इ ाकुवंशी राम आपको पुन: स ान से समाज म वेश करने हे तु
िनवेदन करता ँ ।’ कहते-कहते अचानक उनके र म वीरोिचत आवेश आ गया-
‘यिद कोई भी पुन: आपके ित कोई अभ ता करे गा तो उसे राम का शर अपने व
पर झेलना होगा। यिद ...’
‘शां त ... शां त राम!’ अह ा िफर हँ स पड़ी। जैसे राम ने कोई बचपना कर िदया
हो। िफर अपने उसी सहज-शां त र म बोली- ‘अह ा ों जाये कहीं? अह ा तो
िकसी को ाग कर आयी नहीं थी। ाग कर तो तु ारा समाज गया था। उसे यिद
अह ा की आव कता हो तो वह आये अह ा के पास ... जैसे तुम आये हो, जैसे
िष आये ह।’
‘सब आयगे माता। िकंतु आप ...’
‘न न राम! अह ा से चलने की अपे ा मत करना। अह ा तो अब कृित के
साथ एकाकार हो गयी है । व ुत: कृित ही तो उस अनािद-अिवनाशी, प-रस-गंध
हीन अशरीरी का शरीर है । वही तो सव स ा है । इस स ा की समानता
करने की साम िकसे है .. तुमम है ा?’
‘नहीं माता!’
‘जब सब ने अह ा को ाग िदया था, तब इसी सव स ा ने उसे अपनी गोद
म थान िदया। उसे अपने साथ एकाकार कर िलया। अह ा भी अब उसी की भाँ ित
तु ारे सम ान, तु ारे सम , तु ारे सम अहं से ब त ऊपर अव थत
है । वह भी अब सम कम यों- ाने यों के पाश से मु है , सम भावनाओं से
अ भािवत है । तो भला अब वह इस सव ता से नीचे कैसे उतर आये? इस एकां त
परमानंद को कैसे ाग दे ? उसे पुन: उ ीं ु दै िहक लोभनों म बाँ धने का यास
मत करो।’
कोई कुछ नहीं बोला तो अह ा पुन: बोली-
‘म ीकार करती ँ िक उस एक ण म मेरे मन म भी गव का संचार हो गया था-
‘अरे ! यं दे वराज मेरे प के जाल म आब ह।’ ... और मने उनके रमण के
ाव को ीकार कर िलया था। िकंतु मेरा अपराध ा इं के अपराध से गु तर
था? उसका ाग िकसने िकया? उसे आज भी उसी स ान से आप सब ह
समिपत करते ह, ों िष?’
‘दे िव ....!’ िव ािम ने कुछ कहना चाहा िकंतु अह ा हँ सकर हाथ के संकेत से
उ रोकते ये बोली-
‘भले ही कृित से एकाकार हो गयी ँ िकंतु ँ तो मानवी ही। मानव कृित का
कुछ अंश तो बना ही रहे गा। आज िकतने काल उपरां त तो कोई ोता िमला है ... इस
अवसर को थ कैसे जाने दू ँ ! आज तो मुझे ही कहने दीिजये।’
िव ािम भी मु ु राकर चुप हो गये।
‘इं की तो कृित ही ल ट है । िकतने अपकृ िगनाऊँ ! आ िण के गभ म
बािल को रोप िदया और िफर लाकर हम थमा िदया ‘लो पालन करो इसका।’ ...
और आपके सूय दे व, ... उ ोंने भी उसी आ िण के गभ म सु ीव को रोप िदया और
िफर लाकर हम थमा िदया ‘लो इसका भी पालन करो। ..... इनके इन कृ ों को
दं िडत न सही, उनका ितरोध भी करने का यास िकया कभी िकसी ने?’
अह ा ने एक बार सबके मुख की ओर मु ु राकर दे खा। ल ण तो मं मु से
उसे िनहार रहे थे।
‘अ ा, एक पूछूँ आपसे िष?’
‘आपको ा अनुमित की आव कता है ?’
‘माना मने अपराध िकया था, िकंतु ा मेरा अपराध गौतम के अपराध से भी बड़ा
था?’
‘महिष का अपराध?’ िव ािम चिकत से बोले- ‘उ तो आप पर यं से भी
अिधक िव ास था। वह िव ास टू टते दे ख आवेश म वे आपको ...’
‘ओह िष !’ अह ा पुन: उनकी बात बीच म ही काटते ए बोली- ‘म तो
समझती थी िक आप ानी ह। आप समझ रहे होंगे मेरा इं िगत, िकंतु ...! अ ा
दू सरे का उ र दीिजए।’ िव ािम के उ र की अपे ा िकए िबना वह बोलती ही
रही-
‘यिद म पु -तु अपने पािलत बािल-सु ीव के साथ रमण करने लगूँ तो?’
इतनी भयंकर बात भी अह ा ने उसी शां त-सहज र म उसी स ोहक त
के साथ कह डाली थी ... िकंतु िव ािम उसकी बात से सहज नहीं रह पाए-
‘ ा कह रही ह दे िव! आपके मुख से ऐसा सुनना भी पाप है ।’
‘तो िफर जब गौतम ने अपनी पु ीवत पािलता, मुझे, अपनी भो ा बना िलया तब
... ? मेरे मुख से ऐसी बात सुनना भी पाप है और उनका ऐसा करना पु था?’
अह ा का र भले ही पूणत: शां त था िकंतु एक-एक श जैसे ती ण शर सा
मारक था।
इस आघात से िव ािम िहल गए, िकंतु िफर भी ितवाद करने का यास िकया-
‘िकंतु दे िव ! उसम तो आपकी भी सहमित थी!’
‘मेरी सहमित? कैसी सहमित??’ अह ा िफर हँ सी- ‘मेरी सहमित-असहमित
अथवा इ ा-अिन ा का ही कहाँ था! मुझे तो एक िनज व व ु की भाँ ित,
िजसके दय म कोई भावना ही न हो, िजसके मन म कोई आकां ाय ही न हों,
िजसके नयनों म कोई ही न हों ... बस उठाकर, यं मेरे ही पालक िपता को
भोगने के िलए दे िदया गया था ... िबना एक बार भी मुझसे पूछे। िष! ाव तो
मा ऋिषवर के सम रखा गया था ... और ... और उ ोंने ाव को ीकार भी
कर िलया था। िबना िकसी तक के, िबना िकसी ितवाद के ... े ा से। और भी
िवसंगित दे खए िष! ऐसा असंगत ाव रखा िकसने था ... यं मेरे सजक, मेरे
िपता ने ... यं आप सबके िपतामह ा ने।’ अचानक अह ा कुछ खुलकर हँ सी।
उसकी हँ सी ती तर होती रही, िफर अचानक एक झटके से क भी गयी। उसने
पुन: िव ािम से िकया-
‘अ ा िष! मेरी माता के िवषय म कुछ ात है आपको? आपको ा, िकसी
को भी ात है ? ... िकसी को भी नहीं ात कुछ भी ... यं आपके िपतामह को भी
ात नहीं होगा ... िकसी ने कभी पूछा भी नहीं उनसे!
‘इतने सारे ... कहाँ तक िगनाऊँ ... जीवन छोटा पड़ जाएगा िगनाते-िगनाते, पापों
को धूिल-कण के समान हवा म उड़ा िदया गया। सारे पापी समाज म स ािनत बने
रहे , पू बने रहे .... और इन सबके म म हो गयी - कुलटा, कुल नी,
िभचा रणी, पापी .... ध ह भु आप, ध है आपकी लीला। भर पायी अह ा
आपके इन कौतुक-कृ ों से!’
िव ािम जैसे धीर-गंभीर िष भी िवचिलत हो गए थे। िकंतु िवचिलत होने से तो
िन ष नहीं िनकलने वाला था। िजस अपराध के प रमाजन हे तु वे आए थे, यहाँ तक
आकर उसके िलए यास को ागा नहीं जा सकता था। धीरे से बोले-
‘दे िव! दे िव!! ... आपके इसी तेज के भय से तो आज तक िकसी को आपके
स ुख आने का साहस नहीं आ। िकंतु अब शां त हो जाइये। इन सम पापों का
ितकार आपका वा ही कर सकता है । आपके वा से पोिषत राम ही कर
सकता है । उसका अनुरोध ीकार कर लीिजए। ा आपको उसकी शुभे ा पर
संदेह है ? ा आपको उसकी ायि यता पर संदेह है ? ा आपको उसकी
सवजनिहताय वृि पर कोई संदेह है ?’
‘नहीं है िष! म जानती ँ अ ंत चतुर ह आप। आपने ऐसे मोहरे को आगे
बढ़ाया है िजसकी कोई काट ही नहीं है । िकसी के भी ित छोटे से भी अ ाय से जो
िवचिलत हो जाता है , िकसी के ित अ ाय की संभावना को भी दू र करने के िलए
जो यं अपने िलए ... अपनों के िलए; बड़े से बड़ा अ ाय ीकार करने को सहष
त र हो जाता है ... ि लोक म एकमा ही तो ऐसी िवभूित है ... इसे भला अह ा
िनराश कैसे कर सकती है । िकंतु ...’
‘अब िकंतु को ाग दीिजए दे िव! महिष ने मा आवेश म आपके िलए दं ड की
घोषणा ....’
‘ओह िष! महिष को बार ार बीच म ों ले आते ह! उ ोंने तो िजतना दं ड
मुझे िदया था उतना ही, अथवा उससे भी अिधक े ा से यं भी ीकार कर
िलया। म तो इस सुर कृित की गोद म थी ... िकंतु वे तो अ थयों तक को गला
दे ने वाली िहमाि की उप काओं म अपना ायि त कर रहे ह।’
‘दे िव ...’
‘ िष ... मुझे अपना कथन पूण करने दीिजए। अकारण बीच म ही टोक दे ते ह।’
िव ािम चुप ही रहे ।
‘अब तो नहीं टोकगे बीच म?’
‘जब तक आप अनुमित नहीं दगी ... तब तक कदािप नहीं।’ िव ािम ने स त
उ र िदया।
‘तो राम! तु ारी यह लोकरं जन की वृि अ ु म है ... िकंतु इसम तिनक सा
बदलाव लाना पड़े गा अ था म दे ख रही ँ आगत म लोक को संतु करने हे तु तुम
बार ार अपनों के ित अ ाय करोगे। ... और िफर उ ीं लोकिहत के कृ ों के
उपहार प बार ार लोकापवाद का भी सामना करोगे। इस ु जीवन की
समा के उपरां त भी ... अन काल तक तु ारी ाित के साथ ये लोकापवाद भी
जुड़े रहगे।’
‘स ूण यास क ँ गा माते!’
‘नहीं कर पाओगे व ! सबसे बड़ा अ ायी तो यह िविध का िवधान ही है । तु ारे
म क पर इसने यही िलख रखा है । इसे कोई नहीं मेट पाया है , अह ा भी नहीं मेट
पायी, तुम भी नहीं िमटा पाओगे। िफर भी यास करने म बुराई भी ा है ! नहीं?’
‘जी माता।’
‘हाँ िष! अब आप िनिव अपनी बात रख सकते ह। ागत है ...’ कहते ए
अह ा मु ु राई।
‘दे िव! शतानंद को सूचना है , वह आता ही होगा।’
‘शता ...’ अह ा जैसे कहीं खो सी गयी ... खोये-खोये ही बोली- ‘अब तो पया
ौढ़ हो गया होगा। आने दो।’
‘महाराज सीर ज को मने तो सूिचत नहीं िकया िकंतु उ भी सूचना हो ही गयी
होगी, वे भी आते ही होंगे। ... और महिष से भी स क करने का यास करता ँ ।
उ भी सूिचत कर दू ँ िक उनका ायि पूण आ।’
‘ ँ ...’ अह ा ने उनींदे से र म उ र िदया। िफर अचानक चैत ई- ‘ ा
कहा आपने िष?’
‘महिष को सूिचत कर दू ँ िक उनका ायि पूण आ?’
‘जब आप िनि त ही िकए बैठे ह तो पूछ ों रहे ह?’
‘महिष के िवषय म आपका अनुमोदन आव क है दे िव!’
‘अनुमोदन .. चिलए अह ा आपके ाव को अनुमोिदत करती है ।’
तभी मंगला आती िदखाई पड़ी। वह अपनी धोती के प ू म िजतने समा सकते थे,
उतने मधुर फल भरे ए थी।
‘माते! ...’ वह कुछ और भी बोलने जा रही थी िकंतु अजनिबयों को दे ख कर
िठठक गयी।
‘अरी िन ंकोच आ जा। ये सब अपने ही ह। णाम कर सबको - ये िष
िव ािम ह, मने बताया था न इनके िवषय म। ... और ये राम ह, इ ाकुवंशी ...
अयो ा के युवराज ... भु राम ... ीिव ु के स म अवतार ...... और ये ल ण
ह। राम के ि य छोटे ाता, शेषावतार।’ वह मंगला को िनदिशत करती रही और
मधुर भाव से हँ सती रही। संकुिचत सी मंगला यथािनदिशत सबको णाम िनवेिदत
करती रही।
अयो ा के नामो ेख से, अयो ा के कुमारों को अचानक अपने स ुख
उप थत दे ख कर कुछ पल के िलए वह िवचारों म ही सही, वापस अयो ा, अपने
घर प ँ च गयी थी। अह ा ने उसे सचेत िकया-
‘कहाँ खो गयी मंगले! ा राम-ल ण को स ुख दे खकर अयो ा की ृित हो
आयी?’
मंगला सकुचा गयी। अह ा पुन: िव ािम से स ोिधत ई-
‘ िष! आप अितिथ ह, िकंतु अह ा के आ म म संिचत तो कुछ होता नहीं
अत: आपके िलए बड़ी दू र से ... और बड़े म से ये थोड़े से फल लायी है मंगला।
इसके म को सौभा दान कीिजए।’
‘अव करगे दे िव! िकंतु शतानंद और सीर ज आिद भी आते ही होंगे। हम भी
उ ीं के साथ साद हण करगे।’
‘ िष! अह ा आपका ाव ीकार करे अथवा न करे , िकंतु आपकी
सदाशयता की आभारी तो वह है ही। आपके प म इतने काल के बाद िकसी
अितिथ के पाँ व अह ा के आ म म पड़े ह। यह स ार तो आपको अभी ीकार
करना ही पड़े गा। रही बात अ जो आने वाले ह उनकी, तो वे तो आपके िनमं ण
पर आ रहे ह अत: आपके ही अितिथ होंगे ... उनका स ार करना आपका िवषय
होगा। अह ा की न तो साम है उनका स ार करने की, न ही उसकी कोई
आव कता है । उनके स ार का दािय आप नहीं ीकार करगे तो महाराज
सीर ज को यं करना होगा, इस स ूण े के अिधपित तो वही ह अत: थम
आितथेय भी तो वही होंगे।’
अह ा त िबखेरती ई कुछ पल मौन रही, िफर आगे जोड़ा- ‘और स तो
यही है िष िक आप महाराज सीर ज के ही अितिथ ह, उ ीं का आित
ीकार करने आए ह ... अह ा तो बस माग म अनायास पड़ी िदखाई पड़ गई।’
कहते-कहते वह खुल कर हँ स पड़ी।
‘लीिजए ... हण कीिजए। राम ! ... ल ण !! हण करो पु ों।’
िव ािम ने एक फल उठा िलया। उ दे खकर राम और ल ण ने भी फल उठा
िलए।
िफर अह ा ने सबकी आँ खों म मंगला को लेकर तैर रहे ों को पढ़ िलया। वह
उसका वृ ां त बताने लगी।
13- धनु षभं ग
शतानंद और सीर ज एक मु त म ही आ गए थे। महिष गौतम से भी िव ािम
का समािध ारा स क हो गया था, िष के आ ह का मान रखते ए उ ोंने भी
हठ ाग कर आना ीकार कर िलया था, िकंतु वे सुदूर िहमालय की एक कंदरा म
थे। दू री के साथ-साथ अ ंत दु गम माग को तय कर उ िमिथला तक आने म एक
स ाह से अिधक का समय लग जाना ाभािवक था। यही िन य आ िक दे वी
अह ा और मंगला को छोड़कर शेष सभी लोग ात: ही जनकपुर के िलए थान
करगे। सीर ज ने अह ा से बार ार िनवेदन िकया था िक महिष के आते ही दोनों
लोग जनकपुर को आित का अवसर दान कर िकंतु अह ा ने कोई आ ासन
नहीं िदया था। उसने हर बार यही कहा था िक इस िवषय म महिष के आगमन के
उपरां त ही कोई िनणय िलया जा सकता है । अनेक वष बाद गौतम-आ म के पेड़-
पौधे, फूल-प ी, मंद-मंद िवचरती हवा, उस हवा म तैरते प ी ... सभी स ता से
िकलक रहे थे।
राम के नाम के साथ एक और चम ार जुड़ चुका था। महिष गौतम के शाप से
िशला बन गई अह ा को भु ीराम ने पुन: जीवन दान िकया था। ऐसे कौतुकपूण
समाचारों को सा रत करने की आव कता नहीं होती। वे नाग रकों की उ ुकता
के पंखों पर चढ़े ए त: ही सव फैल जाते ह। इस चम ार का समाचार भी फैल
रहा था। ेक मुख से दू सरे कान तक जाने के म म समाचार का चम ार और
भी गाढ़ा होता जा रहा था, और भी ग रमा ा करता जा रहा था। सु रवन का
समाचार अयो ा की सीमा को श करने लगा था। शी ही इसे भी प ँ च जाना था।
िकंतु वह िक ा अभी आगे।
दू सरे िदन ात: ही अह ा से िवदा लेकर सब जनकपुर आ गए।
महारानी सुनैना, सीता और उिमला ने अ ागतों का ागत िकया। राजगु
अ ाव और िष िव ािम ने एक-दू सरे का अिभन न िकया।
राम के सौ मुख पर ा तेज ने राजकुमारी सीता को अनजाने ही अिभभूत
कर िदया। इस तेज म द ता नहीं थी, शीतलता थी जो अनजाने ही सीता के
अ ल की गहराइयों म उतरती चली गयीr। उनके दय म ऊजा-तरं ग सी दौड़
रही थीं। इन तरं गों से इससे पूव कभी उनका प रचय नहीं आ था। ये तरं ग उनके
रोम-रोम म अनबूझे से ु रण को ज दे रही थीं। यह ा हो रहा है , उ समझ
नहीं आ रहा था।
तभी, अकारण ही उनके मन म एक िवचार िसर उठाकर खड़ा आ िक ा यह
सुकुमार सा उस धनुष पर ंचा चढ़ा पाएगा? उ ोंने उस िवचार को
झटक िदया। इन लोगों के आगमन के पीछे ऐसे िकसी योजन की कोई चचा ही
नहीं थी। वे तो दे वी अह ा के आ म तक आए थे और वहीं से िपताजी के साथ
जनकपुर चले आए थे। झटकने के बाद भी यह िवचार बार-बार उठ खड़ा हो रहा
था। उ अ ंत राहत अनुभव ई जब माता ने कहा-
‘चलो सीता, उिमला ... हम लोग अितिथयों के भोजनािद की व था दे ख
चलकर।’
िकंतु आने के बाद भी सीता का मन बार-बार भटक रहा था।
***
कुशल- ेम और अ औपचा रकताओं के उपरां त िव ािम मु िब दु पर आ
गए।
‘िवदे हराज, आपके पास दे वताओं ारा आपके पूवजों को धरोहर प म सौंपा
गया भु िशव का धनुष रखा है । कुमारों ने उसकी बड़ी ाित सुनी है । वे उसके
दशन का सौभा ा करना चाहते ह।’
सीर ज तो इस ाव की ती ा म ही थे। उनका दय स ता से खल उठा।
उ नारद का कथन कभी िव ृत ही नहीं आ था िक सीता का वरण राम ही
करगे। आज राम उनके स ुख थे। नारद ने राम की िजतनी भी शंसा की थी वे
उससे भी बढ़कर ही थे। जनक यं को पूणकाम अनुभव कर रहे थे।
‘ िष ात:काल िन कम और पूजन उपासना के उपरां त का समय उिचत
रहे गा।’
िष ने अपनी सहमित दान कर दी। राि म राम को धनुष के िवषय म सब
कुछ बताना भी तो था।
ात:काल िनधा रत समय पर िष ने दोनों कुमारों के साथ राजसभा म वेश
िकया। महाराज सीर ज, राजगु अ ाव , राजपुरोिहत शतानंद और अ
सभासद पूव ही उप थत हो चुके थे। ागत और अिभवादन की औपचा रकताओं
का िनवाह िकया गया और सबने आसन हण िकया।
सीर ज ने एक ितहारी को धनुष वाला छकड़ा लाने और एक ितहारी को
महारानी, सीता और उिमला सिहत अंत:पुर की अ यों को िलवा लाने हे तु भेज
िदया।
***
उ ोंने राि को जब महारानी सुनैना को िष के आगमन का वा िवक
योजन बताया था तो वे अिव ास से चौंक पड़ी थीं-
‘महाराज, वह सुकुमार सा सुदशन बालक ... वह ... वह ... वह िकस भां ित उस
िवशाल धनुष पर शर-संधान कर सकेगा?’
‘महारानी जी! उस सुकुमार से सुदशन बालक के अितमानवीय चम ारी कृ ों
की जो चचाय इतनी ती गित से चतुिदक स रत हो रही ह, ा आपने वे नहीं
सुनीं?’ सीर ज ने मु ु राते ए कहा, िफर आगे जोड़ा- ‘और ा दे विष का कथन
भी आपको िव ृत हो गया? आज इस भां ित अचंिभत होने का नहीं, हिषत होने का
अवसर है । हमारी सीता कल से ....’ वे बात पूरी नहीं कर पाये। उनका गला ँ ध गया
और असहाय सी अव था म उ ोंने पास ही बैठी सीता को खींच कर गाढ़ आिलंगन
म कस िलया था।
िपता की बात सुनकर सीता का दय लस उठा और पलक संकोच से मुँद गयी
थीं। उनका दय उ गुदगुदाने लगा था ... तो अकारण ही उनके मन म िवचार नहीं
आ रहा था िक यह सुकुमार, सुदशन तेज ी उस महान धनुष पर शर-
संधान कर सकेगा अथवा नहीं? उ ोंने मन ही मन ई र को णाम िकया था...
आभार िकया था।
िफर सभी की राि इसी भां ित हष और िवषाद के सागर म उतराते ए बीती थी।
िकसी को नींद नहीं आयी थी। सीता उ िसत भी थीं और आशंिकत भी। िकंतु सबसे
अिधक स तो उिमला थी। वह रातभर सीता के साथ चुहल करती रही थी, तरह-
तरह से छे ड़ती रही थी।
***
थोड़ी ही दे र म, दू सरे ार से महारानी के साथ-साथ अ :पुर की सभी यों ने
वेश िकया। एक बार पुन: अिभवादनों का च चला, िफर सबने आसन हण
िकया।
िबलकुल सादी सी स ा म सीता की छिव अनुपमेय थी, आँ खों को शीतल करने
वाली चाँ दनी सरीखी। उनके दय के भीतर हलचल मची ई थी। वे अपनी साम
भर उस हलचल को शां त करने का यास कर रही थीं िकंतु उनके व का उठना-
िगरना भीतर चल रही हलचल को गोपन नहीं रहने दे रहा था।
पास ही एक दासी, ितलक का थाल िलए ओर दू सरी दासी जयमाल का थाल िलए
खड़ी थी।
जनता की भीड़ राजसभा म बढ़ती जा रही थी। सीर ज को कुछ िव य सा हो
रहा था िक ा जनता को भी स का भान हो गया है ? उ ोंने तो महारानी के
अित र अ िकसी से भी दे विष के कथन का उ ेख नहीं िकया। िफर ... िफर?
तभी अचानक जैसे उ र िमल गया। यह जन-समु अपने भु ीराम के दशन के
िलए उप थत आ होगा। हो भी ों न, राम के अवतार होने का समाचार तो
कानोंकान चारों ओर स रत हो गया है । यं ीिव ु के अवतार के दशन कर
अपने न र-जीवन को भला कौन ध नहीं करना चाहे गा? ... िन य ही यही कारण
है । ... इस सोच ने उ स ोष िदया।
तभी एक खूब सजे ए छकड़े ने सभाक म वेश िकया। छकड़े पर एक स दूक
जैसा रखा आ था। यह छकड़ा अनेक सजीले, िवशालकाय, शरीर से ही अद् भुत
श शाली तीत हो रहे म ों ारा खींचा जा रहा था। छकड़े को क के ठीक
म म लाकर म क गए और अपने म क पर चुहचुहाते ेद-िबंदु पोंछने
लगे।
छकड़े के वेश करते ही जनक और अ ाव समेत सम सभासद हाथ
जोड़कर खड़े हो गए थे।
छकड़े पर एक सजी ई, गे आ रं ग से रं गी िवशाल का -मंजूषा रखी ई थी।
अ ाव के संकेत पर उन म ों म से दो ने उस मंजूषा को दोनों ओर से पकड़ा
और उठा िलया। व ुत: वह मंजूषा नहीं मा एक ढकना था, िजसने उस छकड़े पर
रखे ए पू िशवधनुष को ढँ क र ा था।
उस ढकने को लेकर सारे म जाकर एक ओर खड़े हो गए।
जनक ने आशा भरी ि से िव ािम की ओर दे खा।
िव ािम ने राम को संकेत िकया।
धनुष के संचालन की स ूण िविध िव ार पूवक उ ोंने राि म ही राम को
समझा दी थी। राम की िकसी भी बात को आ सात करने की यो ता पर संदेह
करने का ही नहीं था।
राम उठ खड़े ए। मंथर गित से चलते ए वे धनुष के िनकट प ँ चे। हाथ जोड़कर
उ ोंने धनुष को णाम िकया। आँ ख बंद कर भु िशव से धनुष के संचालन हे तु
अनुमित ली और अपने हाथ धीरे से धनुष के म भाग पर रख िदए।
सभी के दय धड़क रहे थे।
सीता के व के उठने-िगरने की गित उनके िनयं ण से बाहर हो चली थी, िकंतु
ेक तीत होते ण के साथ उनके ने ों की दी ती तर होती जा रही थी। वे
दे ख रही थीं, अहा ! ये तो र ी-र ी उसी िविध का अनुपालन कर रहे ह, जो िपताजी
ने बताई थी। इसका ता य ये भी स ूण रह से िभ ह ... तो ा ... तो ा ...?
िवचारों ने भी उनका िनयं ण मानना त: अ ीकार कर िदया। यं को िनयंि त
ढं ग से खड़ा रखने के िलए उ अपनी सम संक श का योग करना पड़
रहा था।
तभी राम ने अपने बाय हाथ से थाम कर धनुष को उठा िलया। उ ोंने अपने बाय
हाथ को ऊँचाई म पूरा तान िदया। दाय-बाय अ वृ ाकर घूमे िफर गु दे व की ओर
मुख करके थर खड़े हो गए। उनकी पीठ के ायु तने ए थे, उनकी किट के,
उनकी भुजाओं के ायु तने ए थे।
सभाक पूणत: शा था। उप थत ेक की साँ स जैसे की ई थी।
एक-एक ि राम के हाथ म थमे ए धनुष पर िटकी ई थी। ... और सीता मं िब
सी खड़ी ई थीं।
राम ने दािहने हाथ से धनुष की लटक रही ंचा को थाम िलया और मु ी को
खींचते ए ंचा के छोर तक ले आए। िफर बाय हाथ को च ाकार नीचे की ओर
घुमाना आरं भ िकया। जब उ तीत आ िक अब धनुष का दू सरा िसरा उनकी
दािहनी मु ी की प ँ च म आ गया है , उ ोंने ंचा को खींचना आरं भ कर िदया।
उनके ायु और तन गए। उनकी मु ी धनुष के दू सरे िसरे तक प ँ च गयी। उ ोंने
ंचा चढ़ाने के उ े से थोड़ा सा बल और लगाया, ंचा िनधा रत थान तक
प ँ च गयी। तभी .....
‘चटाक’
भयानक ती िन से दसों िदशाय गूँज उठीं।
ंचा चढ़ने के साथ ही धनुष बीचोंबीच से दो टु कड़े हो गया था।
उस िन से सभा एकबार काँ प गयी िकंतु अगले ही ण तािलयों की गूँज और
हष का कोलाहल एक साथ उभर उठा। क म उप थत एक-एक की इतनी
दे र से अटकी ई साँ स जैसे वापस आ गयी।
अचानक सीता को अपने ललाट पर शीतलता का आभास आ। उ ोंने हथेली
िफराई, हथेली गीली हो उठी। तभी उ आभास आ जैसे उनका पूरा शरीर ेद से
नहाया आ हो। ... ा वे इतनी उ ेिजत हो गयी थीं िक स ूणत: ेद- ात हो
गयीं? यह आभास होते ही उनके कपोल आर हो उठे ।
राम ने टू टा आ धनुष पुन: यथा थान रख िदया था और हाथ जोड़कर उसे णाम
िकया, कुछ बुदबुदाये ... संभवत: भु िशव से धनुष-भंग हो जाने के अपराध के िलए
मा- ाथना की।
करतल-िननाद अभी भी गूँज रहा था।
पृ भाग म खड़ीं अ :पुर की मिहलाओं ने पु वषा आरं भ कर दी। तभी िकसी ने
मंगल-गीत छे ड़ िदया। िफर तो सह कंठों ने उस कंठ के साथ अपना र िमला
िदया।
राजगु अ ाव ने सीता को संकेत िकया। जयमाल का थाल िलए खड़ी दासी ने
थाल उनके स ुख कर िदया। सीता ने जयमाल उठाई, एक बार िपता की ओर
दे खा, िफर माता की ओर दे खा ... हषाितरे क से गीली आँ खों ने मं िब , लजायी
आँ खों को संकेत िदया, सीता ने राम की ओर थम डग बढ़ाया। अचानक उनकी
त भी सम वजनाओं की अवहे लना कर उनके अधरों पर नृ कर उठी। त
की इस धृ ता से पलक संकोच के भार से झुक गयीं, कपोलों की लािलमा और गाढ़ी
हो गयी। ेक पग के साथ उनके दय की कुछ शां त ई धड़कन पुन: ती होने
लगी। करतल िननाद बढ़ता ही जा रहा था। मंगलगीत ने ऊपर उठकर स ूण
िमिथला के आकाश को अपनी बाहों म समेट िलया था।
और िफर दू री िमट गयी। सीता ने राम के कंठ म वरमाला डाल दी। जयमाल का
थाल िलए दासी अब राम की बगल म खड़ी थी। सीता ने जैसे ही वरमाल राम के कंठ
म िपरोयी, उसने थाल राम के स ुख बढ़ा िदया।
राम ने भी सीता के कंठ म जयमाल डाल दी।
सीता राम की हो चुकी थीं। राम सीता के हो चुके थे। युग-युगा र तक के िलए।
***
आगे के काय म के िलए महाराज दशरथ की उप थित अिनवाय थी। महाराज
सीर ज ने िष िव ािम से परामश िकया। उनकी सहमित से उसी िदन
ती गामी अ ों पर सवार संदेशवाहक संदेश और आमं ण के साथ अयो ा भेज
िदए गए।
िफर एक संदेशवाहक सां का ा, सीर ज के छोटे भाई कुश ज के पास भी
भेज िदया गया। िववाहो व म उनकी उप थित भी तो अिनवाय थी।
14- अयो ा म
युवाव था वाले महाराज दशरथ और आज के महाराज दशरथ म कोई सा नहीं
था। य िप यह एक ही िदशा म आ िमक प रवतन नहीं था। युवाव था से इस
वृ ाव था तक आते-आते उनके च र के कई िभ -िभ रं ग अयो ा ने दे खे थे।
िकंतु कुल िमलाकर अंतत: यह गुणा क प रवतन ही था। अब वे पूव की भां ित
राजकाज से पूण लापरवाह, उ त युवा मा नहीं थे। अब वे यु -िपपासु, दं भी और
कामास स ाट् भी नहीं थे। अब वे वृ ाव था की ओर अ सर ौढ़ाव था के-
पु हीन, उ ाहहीन, टू टे -िबखरे और जीवन से परािजत पु ष भी नहीं थे ... अब वे
उमंग और उ ाह से भरे ए चार-चार सवगुण-स युवाव था की ओर पदापण
करते पु ों के िपता थे। कुमारों के गु कुल जाने के बाद से (कुमारों के बालपन म तो
उनका सारा समय उनके साथ खेलने म ही तीत हो जाता था) उ ोंने जीवन म
पहली बार राज-काज पर गंभीरतापूवक ान दे ना आरं भ िकया था। वो जो
युवाव था के सन थे, अव था ने उ अपने आप दु ार िदया था और जो
ौढ़ाव था की हताशा थी उसे वृ ाव था म ा िपतृ के धोबी-पछाड़ ने िचत कर
िदया था।
इस वृ ाव था म जाकर उनके भीतर छु पा आ े नृप उभर कर सामने आ
सका था। परं तु इन िदनों उनके उ ाह को हण लगा आ था। उनकी आँ खों का
तारा, राम और उसके साथ ल ण भी िष िव ािम के साथ संकटों से खेलने
गया आ था। उनके दय को चैन नहीं था।
माताय अपे ाकृत कम िच त थीं। इसका कारण यह नहीं था िक उ राम से
कम लगाव था। कारण तो यह था िक उ नारद के मा म से पूव से ही ात था िक
राम का ज ही आय-सं ृ ित के उ ार और इसी म म रावण के िवनाश के िलए
आ है । उ िव ास था िक िजसे हाथी को परा करना है , उसे भला कूकुर-िबलाव
से ा भय हो सकता है । िफर भी नारद के ित उनके मन म आ ोश था- इस
अिभयान के िवषय म कम से कम उ िव ास म तो लेना चािहए था। यह ा आ
िक अक ात िव ािम कट ए और राम-ल ण को अपने साथ लेकर चले गए।
कैकेयी के क म महाराज समेत तीनों रािनयाँ बैठी यी थीं। इसी िवषय पर
िवचार-मंथन चल रहा था। पु ों के ज के बाद से महाराज का उप-पि यों के
आवास की ओर जाने का अ ास पूणत: छूट गया था। वहाँ तो अब वे िकसी उ व
इ ािद म ही दशन दे ने जाते थे। सायंकाल राजकाज से िनवृ होते ही वे कैकेयी के
ासाद म आ जाते थे। शेष दोनों रािनयाँ भी यहीं एक हो जाती थीं। रािनयों का
पर र बहनापा अब भी उतना ही सु ढ़ था ब समय के साथ और सु ढ़ होता
चला जा रहा था।
‘पता नहीं िकस हाल म होगा मेरा राम?’ महाराज के मुख से आजकल यह वा
ेक वातालाप म संपुट की भां ित ु िटत होता रहता था।
‘सानंद ही होगा महाराज। िष की असीिमत साम से ा आप प रिचत नहीं
ह।’ अपनी िचंता को दबाते ए कैकेयी ने महाराज को िदलासा दी।
‘िकंतु महारानी ...’
दशरथ आगे कुछ कहते उससे पूव ही ार पर बुरी तरह हाँ फती, लड़खड़ाती
मंथरा कट ई। मंथरा भी अब वृ हो रही थी। उसे िदखाई भी कम दे ता था और
सुनाई भी। िकंतु इससे न तो उसके दय की चपलता म कोई कमी आई थी और न
ही र ों के ित उसके आ ोश म।
‘महारानी ! महारानी !!! महारानी!!!’ हाँ फने के कारण वह इससे अिधक कुछ
बोल ही नहीं पा रही थी। उसकी हालत दे ख कर महाराज हँ स पड़े । कौश ा और
सुिम ा भी मु ु राने लगीं।
‘तुमसे िकतने बार कहा है िक अपनी वृ ाव था को ान म रखकर उछल-कूद
िकया करो, िकंतु तुम हो िक समझती ही नहीं। एक बार पैर तुड़वा ही चुकी हो।’
‘महारानी ....’ मंथरा ने जैसे कैकेयी की बात सुनी ही नहीं। सुनी तो उस पर ान
दे ने का उसे अवकाश ही न हो।
‘ओह मेरी धाय माँ !’ हताशा और ित ता से कैकेयी बोली- ‘तु महाराज की
उप थित भी नहीं िदखाई पड़ रही ा?’
‘ओह, अितशय स ता म मुझे कुछ भी समझ नहीं आ रहा। मा कर महाराज!’
अपनी साँ सों पर िनयं ण करने का यास करती ई मंथरा ने झुककर धरती पर
अपना िसर टे क िदया।
महाराज और अ रािनयाँ उसी भाँ ित हँ स रहे थे। मंथरा की हालत ने थोड़ी दे र के
िलए ही सही उनके िवषाद को नेप म ढकेल िदया था। दू सरी ओर कैकेयी को
मंथरा ारा िकए जा रहे इस हसन पर ोध आ रहा था। मंथरा उसकी धाय माँ और
दासी दोनों ही जो थी। उसे तीत हो रहा था िक मंथरा के कृ से उसका यं का
भी उपहास हो रहा है । वह बोली-
‘अ ा अब यह अिभनय बंद करो और स ता से, भीतर आकर सुनाओ िक
व ुत: आ ा है !’
मंथरा भीतर आ गयी। कुछ पल लंबी-लंबी साँ से लेकर अपनी अव था पर िनयं ण
पाने का यास िकया, िफर बोली-
‘महाराज अ ंत शुभ समाचार है । ऐसे ही छूँछे नहीं सुनाऊँगी।’
पहले से ही हँ स रहे सब की हँ सी पुन: ठहाकों के प म फूट पड़ी।
‘समाचार तो सुना पहले। यिद स ही शुभ आ तो तेरा मुँह र ों से भर दू ँ गा।’
दशरथ ने हँ सते ए कहा।
‘महाराज ! कुमारों ने सु रवन म रा सों का मूलो े द कर िदया है ...’
‘सच !!!’ सभी के मुँह से एक साथ िनकला।
‘अभी शेष समाचार तो सुिनये ...’
‘तो अिभनय छोड़कर सुना न सीधे से!’ कैकेयी ने उठते ए कहा।
‘ िष ने हमारे राम को िव ु का अवतार घोिषत िकया है । उस े की स ूण
जनता उनकी जय-जयकार ही नहीं पूजा कर रही है ।’
अब तक कैकेयी उसके पास तक प ँ च गयी थी। उसने अपने गले से भारी
मु ाहार उतारते ए कहा- ‘मुँह खोलो अपना।’
‘क ..क .. ा?’ मंथरा अचकचा गयी।
‘अरे मुँह खोलो।’ कैकेयी ने हँ सी से दु हरा सा होते ए कहा।
‘गले म ही डाल दीिजए न महारानी।’
‘महाराज ने मुँह भर दे ने का वचन िदया था। रघुवंशी का वचन अस कैसे िकया
जा सकता है ।’
‘महाराज ने िदया था वचन तो मुँह भी वे ही भरगे। आप यिद मुँह भर दगी तो
उनका वचन झूठा हो जाएगा।’
‘ब त चतुर है ।’ कहते ए कैकेयी ने मु ाहार मंथरा के गले म डाल िदया।
कौश ा और सुिम ा ने भी अपने-अपने गले से भारी-भारी हार उतार कर उसके
गले म डाल िदए। उन हारों के भार से मंथरा की झुकी कमर और भी झुक गयी।
अब दशरथ ने उसे अपने पास आने का संकेत िकया। उ ोंने भी अपने गले से
भारी सा मु ाहार उतार िलया था। वह कैकेयी को दे ते ए वे बोले-
‘लीिजए महारानी इसका मुख भी भर दीिजए।’
***
यह हसन चल ही रहा था िक एक अ दासी ार पर कट ई और हाथ
जोड़कर बोली-
‘महाराज! िमिथला से संदेशवाहक आए ह और अिवल आपसे भट करना
चाहते ह।’ कहकर वह आदे श की ती ा म हाथ जोड़े खड़ी रही।
‘िमिथला से? ... जाओ, यहीं बुला लाओ।’
‘सीर ज तो सदै व य ािद म ही रहते ह, उनके पास राजनीित के िलए
समय कहाँ होता है । उनका संदेश िकस हे तु आया हो सकता है ?’ दशरथ ने कुछ
सोचते ए जैसे गत-भाषण िकया।
‘आने दीिजए न संदेशवाहक को, अभी हो जाएगा।’ कौश ा ने समाधान
करने का यास िकया।
संदेशवाहक को आने म अिधक समय नहीं लगा। दासी उसे क के ार तक
छोड़कर पीछे अ हो गयी।
‘ णाम महाराज! णाम महारािनयों!’ संदेशवाहक ने औपचा रकता का िनवाह
िकया।’
‘आसन हण करो दू त।’ दशरथ ने एक आस ी (कुस जैसी पीिठका) की ओर
संकेत करते ए कहा। िकंतु संदेशवाहक ने बैठने से पूव हाथ म पकड़ा आ, कपड़े
पर िलखा और एक का -द का पर िलपटा संदेश महाराज के हाथ म थमा िदया।
महाराज ने संदेश कैकेयी की ओर बढ़ा िदया।
कैकेयी ने उसे खोल कर पढ़ना आर िकया। ेक श के साथ उसके चेहरे
पर स ता की चमक बढ़ती जा रही थी।
‘ऐसा ा संदेश है कैकेयी जो तु ारा आनन इस भां ित दमकने लगा है ?’
कौश ा ने उ ुकता से पूछा। कैकेयी ने उ र दे ने के थान पर संदेश ही उनकी
ओर बढ़ा िदया और यं ताली बजाकर दासी को आने का संकेत िदया।
अिवल दासी उप थत ई।
‘जा, पाकशाला से सव े िम ा का थाल लेकर आ।’
‘जी महारानी जी!’ कहकर दासी मुड़ने लगी तो कैकेयी स ता से िवहँ सते ए
बोली-
‘अरी पूरी बात तो सुनती जा! वहाँ मुख से कह दे ना िक आज राि भोजन म म
उसकी स ूण कला के दशन करना चाहती ँ ।’
‘जी!’
‘और यह भी िक कल स ूण नगरवािसयों के िलए महाराज की ओर से भोज का
आवाहन आ है । िबना ण गँवाये व थाओं म लग जाए।’
‘जी महारानी जी!’ दासी हाथ जोड़े खड़ी रही।
‘अब जाती ों नहीं, जा शी ता से।’
दशरथ अच े से मुँह बाये कभी कैकेयी को तो कभी संदेश पढ़ रही कौश ा को
दे ख रहे थे।
संदेश पढ़कर कौश ा ने भी कुछ कहने के थान पर उसे महाराज की ओर बढ़ा
िदया और यं हाथ फैलाकर अपनी दोनों बहनों- कैकेयी और सुिम ा, को आिलंगन
म समेट िलया।
‘राम ने वीयशु ा सीता का वरण िकया है ।’ कौश ा ने सुिम ा के कान म
फुसफुसाते ए कहा- ‘उसने महान िशवधनुष, िजसे आज तक कोई िहला भी नहीं
पाया था, पर ंचा ही नहीं चढ़ाई धनुष ही भंग कर िदया।’
अब तक दशरथ ने भी प पढ़ िलया था। प म सु रवन के स ूण वृ ां त के
साथ-साथ, राम के िव ु के अवतार के पम ात होने और धनुषभंग तक का
िववरण दे ते ए, त ाल िमिथला आगमन का िनमं ण िदया गया था। राम और सीता
का िववाह भला उनके आशीवाद के िबना कैसे स हो सकता था। स ता के
अितरे क म दशरथ उठे और अपने गले से सारे आभूषण िनकाल कर संदेशवाहक के
गले म डाल िदये।
‘महाराज, उ र भी िदलवा दीिजए तािक हम लोग थान कर।’
‘िमल जाएगा। अभी तो अयो ा का आित ीकार करो। इस उपल म
महारानी ने भोज का आयोजन िकया है , उसम स िलत हो। उसके उपरां त ही
थान की अनुमित ा होगी।’
‘िकंतु महाराज ....’
‘यह दशरथ की ...’ उसकी बात काटते ए दशरथ खुलकर हँ सते ए बोले- ‘वर
के िपता की आ ा है । क ा-प को ीकार करनी ही पड़े गी।’
इसके आगे कोई उपाय ही नहीं था। संदेशवाहक णाम कर आ ा लेकर बाहर
िनकल गया। बाहर एक सैिनक त र था, उसके साथ ही संदेशवाहक के शेष साथी
भी खड़े ती ा कर रहे थे। सैिनक ने उ स ान से अितिथशाला म प ँ चा िदया
जहाँ वे सब स तापूवक, ा आभूषणों के बँटवारे म हो गए।
संदेशवाहक के क स्◌ो जाते ही दशरथ ने पुन: ताली बजायी।
एक दासी उप थत ई।
‘िकसी सैिनक को भेजो।’ महाराज ने आदे श िदया।
‘कुछ ही पलों म सैिनक उप थत आ।’
‘दे खो, िकसी को गु दे व के आ म भेज दो संदेश दे कर िक हम उनके दशन
ा करने के अिभलाषी ह।’
‘जी!’
‘और .... सभी आमा ों के पास भी संदेश िभजवा दो िक सभी एक मु त के
भीतर-भीतर गु दे व के आ म पर उप थत हों।’
‘जी!’
‘सभी के िलए पृथक-पृथक यों को भेजना अ था एक मु त तो सूचना दे ने
म ही िनकल जाएगा।’
‘जैसी आ ा महाराज!’
‘जाओ अब।’
सैिनक अिभवादन कर मुड़कर जाने लगा। तभी महाराज ने पीछे से पुन: आदे श
िदया- ‘और सभी पुरोिहतों को भी सूचना करवा दे ना।’
‘जी महाराज।’
‘अरे हाँ स ता के अितरे क म भूला ही जा रहा था। स ूण नगर म घोषणा करवा
दो िक कल कुमार राम के िववाह के उपल म सम नाग रकों के िलए भोज का
आयोजन है । ... जाओ अब।’
‘हाँ जाओ, सब याद रहे गा न?’ कौश ा ने िवनोद पूवक िकया।’
‘जी महारानी जी, भला याद ों नहीं रहे गा।’
सैिनक के जाते ही महाराज भी उठ खड़े ए-
‘आइये, गु दे व के आ म चलते ह।’
िकसी को िकसी साधन की सुिध नहीं थी। जैसे बैठे थे वैसे ही िनकल पड़े ।
आ म म प ँ चे तो गु दे व जैसे इनके ागत म ार पर ही खड़े थे। अिभवादन-
आशीवाद के उपरां त जैसे ही दशरथ ने अपना दय खोलना आरं भ िकया, गु दे व
बोले-
‘मेरी राि म ही िष िव ािम से वाता हो गयी है । हमारे कुमारों ने रघुवंश की
ाित को नये आयाम िदये ह।’
बस दशरथ की स ता अज वा ारा बनकर फूट पड़ी। िकसी को यह भी ान
नहीं रहा िक वे अभी तक ार पर ही खड़े ह।
कुछ ही दे र म एक-एक कर सम आमा और पुरोिहत गण भी उप थत हो
गये। तब गु दे व ने िनवेदन िकया-
‘महाराज अब भीतर वेश िकया जाए?’
‘हाँ ! हाँ चिलए न गु दे व! म तो स ता के अितरे क म आज .... ’ उ ोंने वा
अधूरा ही छोड़ िदया और सारी औपचा रकताओं, राजकीय-मयादाओं को ागकर
महामा के कंधे पर हाथ रख कर बोल पड़े -
‘महामा जी, वरया ा हे तु सम िविश जनों को िनमंि त करने समेत अ
सारी व थाओं का दािय आपका। दे खए कोई चूक न हो।’
‘नहीं होगी महाराज!’ कहते ए जाबािल हँ स पड़े ।
15- वरया ा
तीन िदवस उपरां त बारात चल पड़ी। दशरथ का वश चलता तो सूचना िमलते ही
िनकल पड़ते, िकंतु अपने ि य कुमार की बारात लेकर जाना था, अनेक व थाय
करनी थीं। िफर भी उनका मन तो डोर छु टी पतंग सा, लहराते ए कब का िमिथला
के आँ गन म उतर चुका था।
बारात ा थी, ऐसा तीत होता था मानो रथों और अ ों पर सवार पूरा नगर ही
चला जा रहा हो। अयो ा की आधी सेना बारात के संग थी। जो सैिनक छूट गए थे
उ रोष था िकंतु नगर की सुर ा के ित सचेत रहना भी आव क था। बेचारे मन-
मसोस कर यं को समझाए ए थे।
बारात म आगे-आगे िवशाल अ ारोही सै था। उसके पीछे िवशाल रथ पर
महाराज और गु दे व थे। उनके पीछे भरत और श ु का रथ था, उनके पीछे
आमा और पुरोिहतों के रथ थे। उनके पीछे िफर अ ारोिहयों की ल ी कतार थीं।
इन कतारों के पीछे क ाधन से भरे भूत आभूषणों, र ों और णमु ाओं से भरे
कई दजन रथ थे। उनके पीछे पुन: अ ारोही सैिनकों की कतार थीं। िफर ती गामी
बैलों से जुती अनेक बैलगािड़याँ थीं िजनम खा साम ी समेत अ दै िनक उपयोग
की साम ी लदी ई थी। साम ी इतनी चुर थी िक कई माह तक इस स ूण सचल
नगर की स ूण आव कताओं की पूित के िलए पया थी। उसके पीछे माग म
िव ाम की व था की साम ी लादे बैलगािड़याँ थीं।
इनके पीछे नगर के िविश -जनों के अनिगनत रथ थे। अनेक सामा नाग रक भी
पर र सहयोग से रथों की व था कर बारात म स िलत थे। इनके पीछे
अ ारोही नाग रकों की सुदीघ ंखला थी और अंत म पुन: अ ारोही सश सैिनकों
का िवशाल समु था।
महाराज हािथयों को भी लाना चाहते थे। िकंतु उस अव था म समय का ब त
अप य होता, इस कारण हािथयों का िवचार ाग िदया गया था। माताय बारात म
नहीं थीं, यों के बारात जाने की था नहीं थी। वे अयो ा म वधू के ागत की
तैया रयों म अित थीं।
बारात की गित से एक हर म ही महाराज ित होने लगे। उनका बस चलता तो
वे उड़कर िमिथला प ँ च जाते। िकसी भां ित एक िदवस तीत आ। राि म
महाराज ने सेनापित को बुलाकर िनदश िदया िक उनके रथ के आगे जाने की
व था की जाए। ऐसी मंथर गित से चलते ए वे तो पागल हो जाएँ गे। सेनापित ने,
साथ ही अ आमा ों ने भी ब त समझाना चाहा िकंतु जब कोई समझना चाहता है
तभी तो समझता है । अंतत: महाराज की आ ा का अनुपालन सुिनि त हो ही गया।
ऊषा की लािलमा फूटते ही महाराज का रथ (गु दे व तो उनके साथ थे ही) आगे
बढ़ िलया। इस रथ के पीछे -पीछे भरत-श ु का रथ, महामा का रथ, सेनापित का
रथ और दो रथ आव क सामि यों से भरे ए, िजनम दस सेवक भी सवार थे, भी
बढ़ चले। एक सह सश अ ारोही सैिनक भी उनका अनुसरण करने लगे।
तीसरे िदन सूरज डूबते-डूबते ये सब िमिथला जा प ँ चे।
िमिथला की सीमा आरं भ होने के एक हर पूव ही एक अ ारोही को आगे दौड़ा
िदया गया- महाराज के आगमन की पूव-सूचना िमिथला तक प ँ चाने के योजन से।
जब ये लोग प ँ चे, महाराज सीर ज अपने सम आमा ों के साथ नगर की सीमा
पर ही ागत हे तु त र थे। िव ािम और उनके साथ राम और ल ण तो थे ही।
***
पीछे आ रही बारात को अभी लगभग एक स ाह का समय और लगना था।
िमिथला म य ों का आयोजन और िद ज िव ानों का स ंग एक सतत ि या थी,
उसके िलए िकसी आयोजन अथवा उ व की आव कता नहीं होती थी। गु दे व,
महाराज और आमा ों के िलए तो उनम अपनी उप थित दे ना आव क भी था
और समय तीत करने का उपयु साधन भी। पर ु कुमारों के स ुख
सम ा थी। राम तो सभी कार की व थाओं म सहजता से खप जाते थे। इन
सबके आगमन के पूव गु दे व िव ािम के साथ वे सहज भाव से इन आयोजनों का
िह ा बन ही रहे थे। ल ण िववशता म उप थत रहते थे, और कुछ था ही नहीं
करने को। बाहर िनकलते थे तो भु ीिव ु के दशनाथ घेर लेते थे। पैर पड़ने लगते
थे, आशीवाद माँ गने लगते थे। पहले तो ल ण इसका आनंद लेते रहे िकंतु शी ही
वे उकता गए थे। भरत और श ु के आ जाने से उ ब त बड़ी राहत िमली थी।
‘ ाता चलो घूमने चलते ह।’ श ु के मन म िमिथला दे खने की ती उ ं ठा थी।
‘अरे नहीं, अब ाता के साथ िन घूमना संभव नहीं है ।’ ल ण ने कटा पूण
उ र िदया।
‘ ों भला?’
‘तु ात नहीं?’ ल ण ने अचरज का दशन िकया- ‘ ाता अब हमारे ाता
नहीं रहे । वे तो अब ीिव ु के अवतार हो गए ह। साथ ही अब वे िमिथलेशकुमारी
के होने वाले पित भी ह।’
‘तो?’ श ु बात नहीं समझे थे।
ल ण की उ ृं खलता को बरजने हे तु राम ने उनकी ओर आँ ख तरे रीं। िकंतु
ाता की िचतवन के भय से यिद ल ण समपण कर द तो वह भला ल ण ही कहाँ
रह जाएँ । भरत के पीछे िछपते ए बोले -
‘इनके साथ जाओगे तो माग म आगे बढ़ ही नहीं पाओगे। सारा िमिथला इनके पैरों
म लेटा होगा और हम ती ा कर रहे होंगे िक कब ये अपने भ ों से अवकाश पाय
तो हम िमिथला का, िमिथला की सुकुमारी कुमा रयों का दशन कर।’
‘ऐसा ???’ श ु ने भी आनंद लेते ए कहा। िफर आगे बोले- ‘तब ा हम भी
उन गूढ़ वचनों म ही िसर खपाना पड़े गा?’
‘नहीं, चलो राजकीय उ ान म चलते ह। वहाँ आम-जन अिधक नहीं आते। वहाँ
ागत-स ान तो होगा िकंतु हम अजूबा नहीं समझा जाएगा। ... और उ ान है भी
अतीव सु र।’ यह ल ण ने ग ीरता से कहा था।
‘स व है वहाँ भाभी के भी दशन हो जाएँ ।’ श ु ने उ ाह से कहा।
इस पर राम को छोड़ कर शेष तीनों की सहमित थी। ब मत तब भी भावी होता
था अत: िबना िकसी ितरोध के काय म सु-िनि त हो गया। चारों भाई
अितिथशाला से िनकल कर राजकीय उ ान की ओर बढ़ चले।
माग म जो भी िमला उसने ा से णाम िकया। राम ने िसर िहला कर ीकार
िकया, शेष भाइयों ने राम की ओर ितरछी मु ान का ेपण करते ए ीकार
िकया। आज भरत भी अपने सामा भाव के िवपरीत कुछ-कुछ ल ण और
श ु के रं ग म रँ गे ए थे। संभव है राम से सुदीघ िबछोह का सदु पयोग करते ए
श ु ने उन पर वशीकरण मं का सफल योग िकया हो।
‘दे ख रहे हो श ु , ाता का स ान िकतना बढ़ गया है ! इनके साथ-साथ म भी
स ािनत हो गया ँ । म भी अब शेषनाग का अवतार हो गया ँ ।’ कहकर ल ण
खुलकर हँ स पड़े - ‘तुम लोग भी हमारे साथ आए होते तो तुम भी िकसी न िकसी का
तो अवतार िस हो ही गए होते।’
‘हटो, बड़े आये अवतार!’ श ु भला ल ण की बात िबना िकसी ितरोध के
कैसे ीकार करते- ‘हम ीिव ु के लघु- ाता ह और आप ा ह ... मा एक
िबछावन, िजस पर ीिव ु शयन करते ह। आप हमारी ित ा की बराबरी भला
कहाँ कर सकते ह!’
ल ण श ु की ओर झपटे िकंतु भरत ने हँ सते ए उ थाम िलया।
‘ ाता छोड़ दीिजए, आज म इसकी चटनी बनाकर ही छोड़ूँगा।’
आजकल गली-मोह ों के यु ों म यो ागण एक ‘िटक’ का बड़ी सफलता से
योग करते ह। दोनों ओर के यो ा घनघोर गजन करते ए झपटते ह और उनके
शुभिचंतक उ थाम लेते ह, कुछ इस अंदा़ज म िक यिद छोड़ िदया तो सगर-पु ों
के समान सारी धरती खोद डालगे। पकड़े गए यो ा, छूटने का यास िकए िबना
अपने शुभिचंतकों की पकड़ म उछलते-कूदते रहते ह। इस कार धरती खुदने से
बच जाती है और दोनों प ों के यो ा भी ‘वन पीस’ साबुत बने रहते ह।
इस अद् भुत ‘िटक’ का आिव ार इसी समय ल ण ने िकया था। भरत ल ण
को थामे थे। श ु थोड़ी दू र पर कमर पर हथेिलयाँ िटकाए हँ स रहे थे ... उ ोंने
अपनी अंत ि से दे ख िलया था िक ल ण नवीन यु -शैली का आिव ार कर रहे
ह िकंतु भरत बेचारे नादान थे ... भोले थे, वे इस त को नहीं समझ पाए। वे ल ण
को पकड़े ए मा हँ स रहे थे। अक ात उ ोंने न जाने ा सोचा और ल ण को
छोड़ िदया।
अब चौंकने की बारी श ु की थी। वे चौंके भी, िकंतु इससे उनकी सतकता म
कोई कमी नहीं आई। इधर ल ण की कलाई भरत के हाथ से छूटी उधर श ु उड़
िलए। आगे-आगे श ु , पीछे -पीछे ल ण। दोनों हँ सते जा रहे थे, िच ाते जा रहे थे
और दौड़ते जा रहे थे जैसे उ इस उ ान को नापने का काय सौंपा गया हो। दौड़ते-
दौड़ते वे बड़े भाइयों की ि से ओझल हो गए। दौड़ते-दौड़ते वे यह भी भूल गए िक
वे एक दू सरे की चटनी बनाने के िलए दौड़ रहे ह। उ अपने बचपन का एक-दू सरे
को पकड़ने के िलए दौड़ने का खेल रण हो आया। यह बचपन भी एक ऐसी
अद् भुत चीज है , जो िकसी को भी, िकसी समय भी याद आ सकती है । मौका-बेमौका
नहीं दे खती।
इस बचपन की याद के कारण उ ान, उ ान के पु -वृ -लताय, उनपर कलरव
करते प ी, गुंजार करते मर, नृ करती िततिलयाँ .... सब के सब दोनों कुमारों
का अद् भुत यु -कौशल दे खने से वंिचत रह गए।
दोनों भागते जा रहे थे और बेतहाशा हँ सते जा रहे थे, मानो बचपन की याद ने उ
भाँ ग छनवा दी हो। हँ सी ने श ु के पेट म जैसे मथानी चलानी आरं भ कर दी,
उ ोंने भागते-भागते ही पेट पकड़ िलया। थोड़ी ही दे र म यह मथानी इतनी ती गित
से प र मण करने लगी िक श ु के िलए दौड़ पाना संभव न रहा। वे पेट पकड़कर
हँ सते ए भूिम पर लोट गए। ल ण उनके ऊपर लोट गए। कुछ दे र दोनों एक-
दू सरे से िलपटे कलाबािजयाँ खाते रहे । जब मन भर गया तो बैठ कर अपनी साँ सों
को िनयंि त करने का यास करने लगे।
हमारे दे श म एक वैिदक-कालीन पर रा चली आ रही है । भाई की ससुराल गये
ए नवयुवकों के दयों को पु शर चाँ दमारी (सेना के जवान जहाँ िनशानेबाजी का
अ ास करते ह) का मैदान बना लेता है । इस म म आम युवकों को तो वह बौरा
दे ता है पर जो हमारे ल ण-श ु जैसे विश के गु कुल के साँ चे म पके होते ह,
अपने सारे कौशल का योग करने पर भी पु शर उनके मन म मा फुरफुरी ही
पैदा कर पाता है । अपने े ाताओं से िबछड़े इन दोनों कुमारों के मन म भी
पु शर फुरफुरी ही पैदा कर पाया। पर हाथी की लीद भी प ा भर होती है ।
ल ण और श ु के दयों की यह फुरफुरी भी पया थी।
‘ल ण!’ अपने हँ सी के दौरे पर िनय ण पाते ही श ु ने उछाला- ‘िमिथला
नरे श की िकतनी क ाय ह?’
‘दो ... ों?’ ल ण ने श ु की आँ खों म झाँ कते ए ित- िकया।
‘कुछ नहीं, यूँही ... पर हम तो चार ह।’ श ु ने एक घास के ितनके से खेलते ए
अनमने ढं ग से कहा।
‘सो तो है ।’
‘अ ा, भाभी तो ब त सु र होंगी?’
‘क ना से भी अिधक।’ ल ण ने स ोिहत सी वाणी म उ र िदया।
‘तब तो उनकी भिगनी भी अतीव सु र होगी।’
‘िनि त ही है , िकंतु भाभी िजतनी नहीं।’
‘तो वह मेरे िलए उपयु हो सकती है ।’
‘तु ारे िलए ों, मेरे िलए ों नहीं?’
‘ ोंिक िवचार पहले मेरे मन म आया है ।’
‘उससे ा होता है , दे खा तो पहले मने है ।’
‘छोटे भाई की अनुनय पर ान नहीं दोगे?’
‘कैसा छोटा भाई है , बड़े भाई से पहले अपने ाह की सोच रहा है ?’
‘तो बड़ा भाई अपनी सोचे न! िकसने रोका है ? आपके िववाह के स म यिद
िकसी िवराट् रोमां चकारी अिभयान का आयोजन करना पड़ा तो आपका यह किन
ाता, श ु , उस अिभयान का नेतृ करने म यं को गौरवा त अनुभव करे गा।’
श ु ने नाटकीय ढं ग से उ र िदया।
‘ना छोड़। वह थित ही उ नहीं होगी। ल ण के अ ज, ाता भरत तो
सं ासी ह। उनके िववाह से पूव ल ण कैसे सोचे?’
‘यह सम ा तो है ।’ श ु संसार की सारी ग ीरता अपने ऊपर ओढ़ते ए जैसे
अपने से ही बोले।
ल ण सोच म डूबे बैठे थे जैसे भरत उनके साथ ब त बड़ा अ ाय कर रहे हों,
और उनके पास ितकार का कोई माग न हो।
‘वैसे भाई!’ श ु पुन: बोले- ‘बड़े ाता हमसे कुछ िदन ही तो बड़े ह।’
‘हाँ !’ ल ण ने वैसे ही खोये-खोये र म गंभीरता से कहा।
‘तब यिद उनका िववाह हो रहा है तो हमारा भी होना ही चािहए।’
‘िन ंदेह होना ही चािहए।’
‘एक ही मंडप म हो जाए तो रं ग ही अलग होगा।’
‘कैसे होगा, भाभी की तो एक ही बहन है और हम तीन ह?’
‘ ँ ऽऽऽऽ ...’
‘ ँ ऽऽऽऽ ...’
‘एक माग है !’ श ु ने तन कर बैठते ए कहा।
‘ ा ???’ ल ण भी तन कर बैठ गए और आशा भरी ि से श ु की ओर
दे खने लगे।
‘हम बलात िकसी राजकुमारी का अपहरण कर ल, जैसे िपताजी ने बड़ी माँ का
िकया था।’
‘हम बलात िकसी राजकुमारी का अपहरण कर ल, जैसे िपताजी ने बड़ी माँ का
िकया था।’ ल ण ने श ु की नकल उतारते ए कहा- ‘जानते भी हो िकसी
राजकुमारी को?’
‘नहीं,’ श ु का उ ाह िफर िपचक गया- ‘गु कुल के अित र हम अभी
जानते ही ा ह!’
‘िफर ा अपने बड़े ाता को नहीं जानते? सारे सं ारों - सारी मयादाओं के
उ ार का स ूण दािय जैसे िवधाता ने उ ही सौंप रखा है ।’
‘सच है । िपताजी की बात होती तो कोई सम ा नहीं थी िकंतु राम ाता के होते
तो ऐसा सोचा भी नहीं जा सकता।’
‘हाँ , िफर वे इतने ारे ह िक उ दु :ख भी नहीं दे सकते।’
‘तो कुछ और सोचो।’
कुछ काल के िलए गु -ग ीर मौन ा हो गया। दोनों भाई जीवन म अनचाहे
ही उप थत हो गए इस गु -गंभीर का उ र खोजने म थे।
स ूण सृि उनकी सफलता की कामना कर रही थी। उनके िन ष की ती ा
कर रही थी ... वह भी मौन थी।
इस मौन को तोड़ा एक कोिकलकंठी र ने।
‘ऐ! कौन ह आप लोग? ा िकसी हरी ने आपके सं ान म नहीं लाया िक यह
उ ान राज-प रवार के िलए आरि त है ?’
दो अ ंत सुंदरी, सम शुभ ल णों से स क ाय वातावरण को अपनी
उप थित से सुवािसत करती ईं, उनसे कुछ ही दू री पर खड़ी थीं। उ ीं म से िकसी
ने िकया था।
‘इनम से भाभी कौन सी ह?’ श ु ने ल ण की पसिलयों म कुहनी से टहोका
लगाते ए िकया।
‘कोई भी नहीं।’
‘ता य?’
‘ता य ा, कोई भी नहीं। इनम न भाभी ह और न ही उनकी भिगनी।’
‘तब िफर कौन ह? ये तो कह रही ह िक यह उ ान राजप रवार के िलए आरि त
है ? तब भी यिद ये यहाँ उप थत ह तो इ भी राजप रवार का ही होना चािहए?’
‘म ा जानूँ, इ ीं से पूछो।’
‘ सुनाई नहीं िदया ा? उ र ों नहीं दे ते?’ पुन: आ।
‘ थम आप अपना प रचय दीिजए। आप िकस राज प रवार से ह? महाराज
सीर ज की क ाय तो आप ह नहीं।’ श ु ने ल ण की सलाह का अनुपालन
िकया। ल ण से ा सूचना के आधार पर वे सुिनि त थे िक ये महाराज सीर ज
की क ाय नहीं ह।
‘िकतना धृ है यह दीदी!’ उसी क ा ने उ ेिजत होते ए कहा।
‘ ँ , तो ... ा करगी आप?’ श ु ने भी ढीठता से उ र िदया।
वह भी पलट कर कुछ और कहने जा ही रही थी िक दू सरी क ा ने उसे रोकते
ए कहा-
‘नहीं ुित उ ेिजत होने की आव कता नहीं है ।’
‘आप भी न दीदी! इन जैसे दु सौहा पूण वहार के पा नहीं होते। इनके साथ
स नता का वहार करो तो ये उसे आपकी दु बलता समझते ह और तब और भी
ढीठता पर उतर आते ह। इ तो ....’
श ु ने ुित के उ ेजनावश ऊँचे उठते र को बीच म ही काटते ए पुन: चोट
की-
‘दु बल तो आप ह ही। िकंतु िबना माँ गे परामश दे रहा ँ - आपका यह कोिकल-
कंठ इस भां ित चीखने के िलए नहीं बना। इससे मधुर-मधुर र-लह रयाँ िबखेरने का
ही काय िलया कीिजए।’ इतना कहकर िफर खझाने के उ े से आगे जोड़ा- ‘ ुित
जी!’
ल ण मंद-मंद मु ु राते ए श ु का वाक्-कौशल दे ख रहे थे। इस वा पर
अचानक उनकी मु ु राहट हँ सी बन कर छलक पड़ी।
ल ण के हँ सने से ुित और उ ेिजत हो गयी और चीख पड़ी-
‘ हरी ! हरी !!’
दोनों भाई िनिल भाव से उसकी पुकार सुनते रहे , मानो उनका इन पुकारों से
कोई संबंध ही न हो।
तभी पीछे , ासाद की ओर से एक तीसरी सुमुखी क ा की आकृित िदखाई पड़ी।
दू र से ही उसने हड़बड़ाते ए िकया-
‘ ा आ ुित?’
‘कुछ नहीं उिमला! न जाने कैसे दो मादी उ ान म वेश पा गए ह। ये
हरी आलसी हो गए तीत होते ह।’
अब तक आकृित हो गयी थी। ल ण ने उसे पहचाना और पहचान कर
श ु की पसिलयों म टहोका-
‘ये है भाभी की भिगनी।’
‘अरे ! अथात् िकसी न िकसी भां ित ये दोनों भी राज-प रवार से संबंिधत हो सकती
ह।’
उिमला वहाँ तक आ पाती उससे पूव ही चार हरी भी भागते ए आ उप थत
ए। चारों ही हड़बड़ाए ए थे-
‘जी कुमारी! ा ुिट ई?’ एक ने सहमते ए जानना चाहा।
‘इन मािदयों को वेश कैसे ा आ उ ान म? इ अिवल यहाँ से बाहर
करो।’
हरी दोनों कुमारों को पहचान रहे थे। वे और अिधक हड़बड़ा गए।
‘जी? ... जी? ...’ उ समझ नहीं आ रहा था ा कर। भु राम के भाइयों के साथ
वे िकस कार अभ ता कर सकते थे। तभी उिमला भी वहाँ प ँ च गयी और उसने
उ उनकी िकंकत िवमूढ़ता की थित से उबार िलया-
‘ ा आ ुित? इस कार ों चीख रही थीं?’
तभी उसकी ि ल ण पर पड़ी। वह भी चौंक गयी-
‘आप ... आप ... तो कुमार ल ण ह न?’
‘जी!’ उ र श ु ने िदया। िफर आगे जोड़ा - ‘और म श ु ँ ।’
ल ण िनिनमेष ि से उिमला को ताके जा रहे थे। धनुषभंग के समय भी उिमला
उप थत थी िकंतु उस समय ल ण का पूरा ान ाता राम के कौशल पर था
अथवा अपनी होने वाली भाभी पर था। तब उ ोंने ान से उिमला का िनरी ण नहीं
िकया था।
इस ि से उिमला ने कुछ असहज अनुभव िकया िकंतु प र थित को ान म
रखते ए उसने णां श म यं को िनयंि त िकया और ह रयों को जाने का संकेत
करती ई ुित से बोली-
‘तु समझने म कुछ भूल ई है ुित।’ िफर ल ण और श ु की ओर मुड़ते
ए हाथ जोड़ते ए बोली-
‘अपनी भिगनी की ओर से म मा ाथ ँ आप दोनों से। ... आइये म प रचय
करवा दू ँ - यह ुितकीित है , मेरे काका, सां का ा नरे श महाराज कुश ज की छोटी
पु ी, और यह है काका की बड़ी पु ी मा वी। ये दोनों अभी कुछ काल पूव ही आई
ह, संभवत: तभी आपको पहचान नहीं पाईं .... और ुित ये ीराम के किन
ातागण ह।’
प रचय सुनते ही ुित के कपोल कानों तक आर हो गए। िकसी भां ित उसके
मुख से इतना ही िनकला-
‘ मा कर ... िकंतु आपने प रचय ों नहीं िदया? म तो समझी ....’
‘िक कोई िहं पशु वन से भटक कर उ ान म आ गया है ।’ श ु ने उसका
वा पूरा िकया और हँ स पड़े ।
ुितकीित और भी लजा गयी। उसके कपोल और भी आर हो उठे । अधरों पर
त नृ कर उठी। नयन झुक गये। िफर सकुचाते ए उठे .. िफर झुक गये।

‘एक बात क ँ ?’ श ु ने मु ु राते ए िकया।


हठात् नयन िफर उठे । अधरों पर कंपन आ - ‘जी!’ और नयन िफर झुक गए।
‘सच म ! आप ोध म अ ंत सुंदर लगती ह।’
ुितकीित अचानक घूमी और भाग ली। कुछ डग बाद एक बार पीछे मुड़कर दे खा
और िफर भागती ही चली गयी।
‘अ ा कुमार! हम आ ा द। म तो इन दोनों को बुलाने ही आई थी, माता बुला
रही ह।’ उिमला ने हाथ जोड़कर तिनक सा िसर झुकाते ए आ ा माँ गी।
‘जी!’ ल ण के मुख से इतना ही िनकला।
‘चल मा वी।’
***
‘ल ण !’
‘ ँ !’ ल ण अभी भी कहीं खोये ए थे।
‘ये तो चार ह .... हम भी चार ह।’
ल ण के स ुख जैसे कोई िवराट् स उद् घािटत आ हो। एकदम से चौंक
पड़े । हठात् उनके मुख से िनकला-
‘दे ख, म ाता राम का िवशेष ि य ँ ... उनकी सगी वाली साली मेरे िह े म है ।’
‘बड़े ाता को ि य तो म भी उतना ही ँ िजतने तुम। िकंतु तु ारा मन है तो यही
सही। मुझे तो वैसे भी वह तीखी िमच भा रही है ।’
ल ण ने संतोष से िसर िहलाया।
‘और ाता भरत के िलए वह सीधी-सादी मा वी ही उिचत भी है ।’
‘ ँ ऽ ऽ ऽ !’
‘िकंतु ... ?’
‘ ा िकंतु?’
‘िकंतु यह बात आगे कैसे बढ़ाई जाए?’
‘ ा िवधाता! सम जिटल आज ही उप थत करने थे हमारे स ुख?’
ल ण ने दोनों हाथ उठाकर जैसे िवधाता के ायालय म अपना प रवाद ुत
िकया। िफर अचानक भान आ िक दोनों े ाता अभी तक नहीं आए-
‘अरे ! िकंतु दोनों े ाता कहाँ िवलीन हो गए?’
‘उ छोड़ो। यह जो उप थत आ है , यह अिधक ग ीर है ।’
‘हाँ ... इसम उनसे परामश िलया भी नहीं जा सकता।’
***
िवधाता की अहे तुकी कृपा िकस पर, कब और िकस भां ित बरस जाए कोई नहीं
जानता।
अब पता नहीं इन दोनों कुमारों पर िवधाता की अहे तुकी कृपा बरसी थी अथवा
िष िव ािम की अ ि ने यहाँ घिटत हो रहा स ूण करण दे ख िलया था।
कुछ भी हो िजस ण ये दोनों कुमार इस भीषण-जिटल से जूझ रहे थी, ठीक
उसी ण -
‘गु दे व !’ िव ािम विश से स ोिधत ए- ‘एक ाव है ।’
‘ िष गु दे व कहकर मुझे ल त न कर।’ विश ने सहज हा से कहा- ‘जहाँ
तक आपके ाव का है ... तो आदे श दीिजए।’
सभागृह म एक आसन पर िव ािम बैठे थे, उनके ठीक सामने गु विश िवराज
रहे थे। िव ािम की दािहनी ओर महाराज दशरथ बैठे ए थे। उनके पीछे अयो ा
के अ आमा गण थे।
‘महाराज दशरथ के चार सवगुण स तापी पु ह।’ िव ािम वा लास म
उलझे िबना आगे बोले- ‘इधर महाराज सीर ज की दो, और महाराज कुश ज की
दो, अथात् कुल चार सुंदरी, सुसं ृ त, गुणवती ... कुमारों के सब भां ित यो क ाय
ह।’
‘अ ु म! अ ु म िवचार िष!’ विश ने ाव रखे जाने की ती ा भी नहीं
की, मंद हा के साथ अपनी ीकृित दान कर दी- ‘दोनों ही कुल भूम ल पर
सव सुपूिजत ह। इन दोनों कुलों म पर र इतना सु ढ़ स सवथा उपयु
और ेय र है ।’ कहने के साथ ही विश वाचक ि से दशरथ की ओर दे खने
लगे।
‘िजस ाव को दोनों िषयों का अनुमोदन ा हो ... वह तो यमेव आदे श
हो गया। दशरथ को आपका आदे श सहष ीकार है ।’ दशरथ ने हाथ जोड़कर िसर
झुकाकर हँ सते ए दोनों िषयों को णाम िकया और सामने बैठे सीर ज और
कुश ज की ओर दे खने लगे। उनके हाथ भी पहले ही जुड़ चुके थे।
‘आपका आभार िकस भां ित कर िष! यौवन म वेश करती क ाओं के
िपता के िलए सबसे गंभीर उनके िलए सुयो वर का चयन ही होता है । आपने
तो हम णमा म ि लोक की स ूण स दा दान कर दी।’ कुश ज ने भी
अनुमोदन कर िदया।
‘तो िफर राम और सीता का िववाह तो सुिनि त हो ही चुका है । उसी मंडप म,
उसी मु त म ल ण-उिमला, भरत-मा वी और श ु - ुितकीित का भी िववाह
स हो जाए।’
िवचार करने को था ही ा, हष िन-मंगल िन के म कुछ ही िदन म आने
वाले, िववाहािद कृ ों हे तु अ ु म माने जाने वाले उ रा फा ुनी न म, वैिदक
िविध-िवधान से उपरो मानुसार चारों कुमारों और चारों कुमा रयों का िववाह-
संबंध थािपत होना सुिनि त हो गया।
16 - िवचार
उसी िदन सायंकाल, चारों कुमारों के िववाह के ाव के अनुमोदन के दो मु त
बाद महाराज दशरथ, गु विश और जाबािल सिहत अ आमा गण मं णा हे तु
बैठे ... अिपतु उिचत होगा यिद कहा जाए िक अ ािशत प से चौगुनी हो गयी
स ता म डूबे उसी स ी आयोजन के िवषय म िवचार-िवमश कर रहे थे। संयोग
से दशरथ का मुख ार की ओर ही था। एकाएक उनकी ि उठी। दे खा िक
उ ु दय राम और भरत... और उनके पीछे िवचारों म डूबे ल ण और श ु
चले आ रहे ह। णां श के िलए उनके म म िवचार कौंधा िक कुमारों का यह
िवपरीत भाव ों ि गोचर हो रहा है ? िकंतु इस आनंद के अवसर पर यह
मह हीन िवचार िटका न रह सका। आन के अितरे क म उ कुछ िठठोली सूझी,
आँ खों के संकेत से ही सबको समझा िदया िक अभी कुमारों के स ुख इस नवीन
समाचार का उद् घाटन न िकया जाए। उनके मुख पर गहन त यता थी। इस
त यता के पीछे एक चंचल सी मु ु राहट िछपी ई थी।
‘आओ पु ों! कहाँ -कहाँ मण िकया? अ ंत मनोरम है न िमिथला नगर?’
‘बस उ ान दे खा आज तो िपता जी।’ भरत ने उ र िदया।
‘अरे , स ूण िदवस म मा उ ान!’ दशरथ ने आ य का दशन करते ए कहा-
‘िमिथला म तो अनेक रमणीक थल ह।’
उ र म भरत ने मु ु राते ए उ ल ण ारा ुत िकया गया कारण बताया।
सुनकर क सबके स िलत अ हास से गूँज गया।
‘कैसा लगा उ ान?’
‘कुछ दे ख ही कहाँ पाए!’
‘ ों भला!’
‘हमारे साथ ये दोनों जो थे।’
‘ता य?’ दशरथ सिहत कोई भी सच म ही समझ नहीं पाया था- ‘कोई नवीन
हसन तो नहीं रच डाला इ ोंने वहाँ ?’
‘नहीं िपताजी, ऐसा नहीं ... िकंतु पर र झगड़ते ए ये उ ान म ऐसे िवलु ए
िक स ूण हर तो इ खोजने म ही तीत हो गया।’
‘ ों ल ण! ों श ु ! ... अपनी इन उ ृं खलताओं को अयो ा के िलए ही
बचा रखो। कम से कम यहाँ तो अयो ा की ग रमा का ान रखो ... हम यहाँ
अितिथ ह, अितिथ की मयादा का ान रखो।’ दशरथ ने मंद-मंद मु ु राते ए,
दय से आन त होते परं तु ऊपर से ोध का अिभनय करते ए डाँ ट लगाई।
‘नहीं िपताजी ...’ कहते ए ल ण िशकायती िनगाहों से भरत को दे ख रहे थे
मानो कह रहे हों- हम आपसे ऐसी श ुता की अपे ा नहीं थी। श ु के मुख पर भी
ठीक ऐसे ही भाव थे। वे दोनों तो इस उधेड़बुन म थे िक अपना ाव िकस कार
गु जनों के स ुख ुत िकया जाए िकंतु भरत ने तो सारा माहौल ही िवरोधी कर
िदया था। अब ऐसे म ाव कैसे रखा जाए भला?
संयोग से अिधक ताड़ना का सामना नहीं करना पड़ा। दशरथ और कुछ कहते
उससे पूव ही एक हरी उप थत आ-
‘महाराज! केकय नरे श, आय युधािजत दशन की अनुमित चाहते ह।’
‘अरे !’ दशरथ कुछ आ य तो उससे भी अिधक स ता से चहक पड़े - ‘उ
अनुमित की ा आव कता है । शी ही िलवा कर लाओ।’
युधािजत कैकेयी के सबसे बड़े भाई और भरत के मातुल थे। चारों कुमार ार के
समीप ही खड़े थे, युधािजत के वेश करते ही चारों ने चरणधूिल लेकर मातुल को
स ान िदया। युधािजत ने चारों के िसर पर हाथ फेर कर उ आशीष िदया। िफर
राम को अपने आिलंगन म समेट िलया।
युधािजत के क म वेश करते ही गु दे व विश के अित र अ सभी ने खड़े
होकर स ान दिशत िकया। युधािजत वयस म भले ही महाराज से छोटे थे िकंतु वे
उनकी प ी के बड़े भाई थे, इस नाते उनके भी गु जन थे।
पर र अिभवादनों का आदान दान आ।
‘अपने भािगनेय के िववाह की बधाई ीकार कर अ ज!’ दशरथ ने युधािजत से
गले भटते ए कहा।
‘ थम आप ीकार कर, कुमार राम के िपता बधाई के थम अिधकारी ह।’
‘ ीकार की!’ दशरथ ने हँ सते ए कहा। िफर युधािजत की अचानक उप थित
को लेकर उनका अचरज मुखर हो उठा-
‘िकंतु अ ज आपको इतनी शी सूचना िकस भाँ ित ा ई? सब कुछ इतना
अक ात आ िक हम तो कहीं सूचना भेज ही नहीं पाए।’
‘भेज ही नहीं पाए अथवा आन ाितरे क म रण ही नहीं रहा?’
‘अब जो भी किहए।’ दशरथ िकंिचत संकुिचत ए िकंतु अगले ही ण यं पर
िनयं ण ा कर सफाई ुत की-
‘स कहा जाए तो आपका कथन ही स है , रण ही नहीं रहा। आपको,
महाराज रोमपाद को, शां ता को, महाराज भानुमान को, कािशराज को िकसी को भी
सूचना-संदेश नहीं भेज पाए। िफर यह भी िवचार आया िक अब अयो ा लौटकर ही
िवशाल आयोजन कर सबके साथ अपनी स ता साँ झी की जाएगी ! िक ु मेरा
तो आप ....’
‘कोई सूचना नहीं िमली मुझे। म तो मा िपताजी के आदे श से कुमार भरत को
िलवाने आया था। ब त िदनों से दे खा नहीं था न उ ोंने अपने दौिह को, तो ड़क
रहे थे। अयो ा प ँ चा तो इस उ ाहजनक समाचार का ान आ। यह भी पता
चला िक बस एक हर पूव ही आपने िमिथला के िलए थान िकया है ... तो बस म
तीनों बहनों से औपचा रक भट कर भागा-भागा सीधा यहीं चला आया।’ िफर थोड़ी
सी चुहल कर डाली- ‘ वधान तो नहीं िदया न मने?’
‘ वधान!’ दशरथ खुलकर हँ से- ‘भािगनेय का िववाह मातुल की उप थित के
िबना भी कहीं स होता है ? आपके आगमन से तो आयोजन को पूणता ा ई
है अ ज!’
कुछ दे र और इसी भां ित चुहल होती रही।
इस सब म महाराज दशरथ को िव ृत ही हो गया िक उ ोंने नवीन घटना म
अभी कुमारों से छु पाने का िन य िकया था। उनके मुख पर खेल रही चंचल त
और भी सघन हो उठी, वे युधािजत से पुन: स ोिधत ए-
‘अ ज एक समाचार अभी भी आपको ात नहीं होगा!’
‘भला वह ा?’
‘अभी कुमारों की माताओं को भी ात नहीं है ।’ दशरथ ने रह पूण त के
साथ पतंग को ढील दी।
‘िकंतु है ा वह समाचार?’ युधािजत की उ ुकता बढ़ती जा रही थी। कुमार भी
िव त थे, शेष सभी के अधरों पर िबखरी त और भी िव ृत होती जा रही थी।
‘मा राम ही नहीं,’ दशरथ ने रह खोलते ए कहा- ‘चारों ही कुमार प रणय
बंधन म आब होने जा रहे ह। एक ही साथ, एक ही मंडप म। ... तो अब एक नहीं,
चार बधाइयाँ ीकार कर।’ कहते ए उ ोंने पुन: अपनी बाह फैला दीं। दोनों पुन:
गाढ़ आिलंगन म आब हो गए। मंद हा का जलतरं ग पुन: अपनी लह रयाँ
िबखेरने लगा।
िपता की बात सुनकर आ य तो ार पर खड़े भरत और राम को भी आ िकंतु
ल ण और श ु के तो जैसे आ य से मुँह खुले के खुले ही रह गए। श ु ने
ल ण का हाथ थामा और - ‘िपताजी! हम बस अभी आते ह।’ कहते ए उसे बाहर
खींच ले गए।
बाहर आकर दोनों आपस म िलपट गए।
अचानक श ु के म म कुछ कौंधा। आिलंगन से बाहर आते ए उ ोंने
ल ण से िकया-
‘िकंतु यिद संबंध उलट-पुलट हो गए ए तो?’
‘ता य?’
‘ता य यह िक यिद मेरी वाली का संबंध तु ारे साथ और तु ारी वाली का मेरे
अथवा ाता भरत के साथ िनि त हो गया आ तो ...’
‘तो ... तो ... तो ा, उसी म संतोष करना पड़े गा। िकंतु मुझे िव ास है , ऐसा आ
नहीं होगा। दै व ने यिद हमारी ाथना सुन ही ली है तो पूरी-पूरी सुनी होगी न!’
‘ऐसा ही हो ...।’
‘और यिद उलट भी गए तो ा ... जो िमलेगी उसीसे संतोष कर लगे। इस
कुँवारे पन से तो छु टकारा िमलेगा।’
‘ ँ .......’
भीतर दशरथ अब युधािजत को आिलंगन से मु कर महाराज अ पित का
कुशल ेम पूछ रहे थे-
‘महाराज कुशल से तो ह?’
‘पूण कुशल से ह।’
‘सुना है अब तो उ ोंने सम रा भार आपको ही सौंप िदया है ।’
‘सही सुना है आपने! वे तो सब कुछ ागकर वान थ हण करने हे तु त र थे।
हम लोग बड़ी किठनाई से उ कुछ िदन और रा को अपना आशीवाद दान
करते रहने हे तु मना पाए।’ कहकर युधािजत हँ सने लगे।
सहज बात थी िकंतु दै व की लीला, दशरथ के िलए सहज नहीं रही। अचानक
उनके मन म कौंधा- यिद अ पित सा ा का भार पु ों को सौंपकर वैरा म वृ
हो सकते ह तो वे ों नहीं? अभी तक तो वे कुमारों को बालक ही मानते आए थे,
िकंतु अब तो उनका िववाह होने जा रहा है अब उ बालक कैसे माना जा सकता
है । िफर राम और ल ण ने तो यं को उनसे ... अपने िपता से भी अिधक परा मी
िस कर िदया है । भरत और श ु भी िकसी से कम नहीं ह। यही उिचत होगा िक
अब वे भी सा ा के दािय कुमारों को सौंपकर िनि ंत हो जाय। राम का
िविधपूवक रा ािभषेक कर द और शेष कुमारों को भी उनके यो उिचत दािय
सौंप द और यं भारहीन होकर आनंद से पौ ों के साथ िवहार कर। िवचार आने
भर की दे र थी, वे दािय मु होकर पौ ों के साथ खेलने को छटपटाने लगे। िक ु
वे अ पित की भां ित वान थ हण करने का नहीं सोचगे, वे तो जीवन का आन
लगे।
‘कहाँ खो गए महाराज?’ युधािजत ने उ िवचारों की वीिथका से बाहर खींच
िलया।
‘कहीं नहीं, बस मन ही मन कुमारों के िववाह का आन ले रहा था।’ दशरथ ने
बात बना दी।
सब हँ स पड़े ।
िकसी को भी यह भान नहीं हो पाया िक युधािजत का एक वा महाराज के मन
म कैसी उथल-पुथल मचा गया है ।
दशरथ जो सोच रहे थे उसम त: कोई बाधा नहीं थी िकंतु िफर भी एक ब त
बड़ी बाधा थी। यही बाधा उ मथने लगी थी। कैकेयी के साथ उनके िववाह के
समय एक अनुब आ था िक उनके बाद रा का उ रािधकारी कैकेयी का पु
ही बनेगा। ... और दशरथ राम के अित र िकसी अ को उ रािधकारी बनाने को
त र नहीं थे।
नहीं, यह काय अब शी ाितशी करना होगा। अठह र वष की इस आयु म अब
जीवन का ा भरोसा! यिद दै वयोग से मेरे साथ कुछ अघिटत घट गया तो मेरे
उपरां त कोई भी राम को िसंहासना ढ़ नहीं होने दे गा! युधािजत, कैकेयी दोनों भरत
के साथ होंगे। जीवन म थम बार उ कैकेयी की िन ा पर संदेह होने लगा था।
कैकेयी से भी अिधक उ राम पर संदेह होने लगा था। वह तो िनरा मूख है , सदै व
ाग की सोचता है । अनुबंध के िवषय म ात होते ही वह त: ही भरत को रा
सौंप दे गा। कोई इस अनीित का िवरोध करने वाला भी नहीं होगा। नहीं, इस काय म
िवल उिचत नहीं, वे राम के साथ अ ाय नहीं होने दगे।
‘आज महाराज क नालोक म ही िवचरण करते तीत हो रहे ह। तीत होता है
िक िववाह का मु त आने से पूव ही महाराज अपनी क ना म िववाह का ही नहीं,
पौ ों के साथ खेलने का आन भी ा कर लगे।’ महामा जाबािल के इस
ेहपगे कटा ने उ वापस वा िवक जगत म खींच िलया। राम के रा ािभषेक
का माग खोजने की योजना पर िचंतन उ ोंने अयो ा वापसी तक थिगत कर
िदया। गु दे व और महामा से परामश कर ही कोई माग खोजना होगा।
17- परशु राम
िववाह के सम आयोजन पूरे वैभव के साथ स ए। सव आन ही आन
ा था। दशरथ भी अपनी उि ता को दय के भीतर ही दबाये आयोजनों का
आन ले रहे थे।
थान का समय आया तब तक इ अयो ा से िनकले ए एक माह तीत हो
चुका था।
युधािजत उ व समा होते ही िनकल गए थे। ब त समय तीत हो गया था।
तीन-चार िदनों की या ा के िलए ही िनकले थे। इस समय भरत को अपने साथ ले
जाने के ाव का कोई अथ ही नहीं था।
िवदा जैसे सदै व स होती आई है वैसे ही अ ुपू रत माहौल म स ई।
अयो ा की यह बारात अंतत: चार वधुय लेकर थान के िलए अ सर ई।
आधी सेना आगे, उसके बाद एक रथ पर गु दे व विश के साथ िव ािम । उनके
बाद महाराज दशरथ का रथ, िफर आमा ों और अ िविश जनों के रथ। िफर एक
रथ पर चारों कुमार, िफर दहे ज से भरे दजनों रथ और जो क ाधन महाराज दशरथ
अयो ा से लेकर आए थे उससे भरे रथ, त ात एक रथ पर चारों वधुय, उनके
पीछे कुछ रथ वधुओं की स खयों और दािसयों के, त ात कुछ रथ दै न न
उपयोगी साम ी और राि -िव ाम की सामि यों से भरे ए और उसके पीछे शेष
सेना।
जाते समय सामि यों से लदी जो अनेक बैलगािड़याँ थीं उनकी कुछ साम ी
उपयोग म आ चुकी थी, कुछ आव क साम ी रथों और अ ों पर लाद ली गयी थी
और उन बैलगािड़यों को पीछे आते रहने के िलए छोड़ िदया गया था। उनम ऐसी
कोई साम ी नहीं थी िजसकी लूट का डर होता और िफर अयो ा के राजकीय दल
की बैलगािड़यों को लूटने का साहस भी िकसे था! कुल िमलाकर व था यह थी िक
तीन से चार िदनों की या ा म ही सब लोग आयो ा वापस प ँ च जाय।
वापस लौटती यी इस बारात ने िमिथला की नगरीय सीमा पार कर ली और
पि म की ओर घूमकर मु -माग पर अ सर ई। आगे के सैिनक िनकल गए।
विश और िव ािम का रथ घूम गया, महाराज दशरथ का रथ घूमने को ही था िक
पूव की ओर से एक चंड र ने रोक िदया-
‘ को!’
रथ िठठक गया। महाराज का रथ कते ही पीछे सभी कते चले गए। दू र पीछे
जो लोग थे वे नहीं समझ पाए परं तु कुमारों के रथ तक वह चंड घोष सुनाई
िदया था। सभी की उ ुक ि उसी ओर उठ गयी।
यह एक ल ा, थ युवा सं ासी था। तेज ी ने , सुदीघ दाढ़ी, ल ी जटाय,
गै रक अधोव , कंधे पर पड़ा गै रक उ रीय और मोटा सा य ोपवीत, कंधे पर एक
अ ंत िवशाल धनुष, पीठ पर तूणीर और सबसे िविश हाथ म थमा िवशालकाय
अद् भुत परशु जो बरबस अ े -अ े यो ाओं को भया ां त करने की साम रखता
था।
उस आकृित को पहचानते ही दशरथ सहम से गए। यह तो महिष परशुराम थे,
िज ोंने सह बा के िवशाल सा ा को धूिल-धूस रत कर िदया था।
पीछे ल ण ने िज ासा की-
‘कौन है यह िवभूित ाता?’
राम और भरत मौन रहे ।
‘वेशभूषा जो बता रही है , उसके अनुसार तो इ भी राम होना चािहए। जामद ेय
राम।’
‘अरे वाह! दो-दो राम, दो-दो िव ु! जामद ेय भी तो ष िव ु की उपािध से
िवभूिषत ह।’
‘तुम लोग यहीं कना, म दे खता ँ । िपताजी संभवत: न सँभाल पाय इ !’ राम ने
कहा और रथ से उतर िलए।
‘ िकए ाता, रथ ही आगे बढ़वाए लेते ह।’ भरत ने उ वापस रथ म खींच
िलया।
आगे आमा ों और िविश जनों के रथ थे। ये सभी लोग उतर कर दशरथ और
परशुराम के पास जमा हो गए थे। रथ भी झुंड के प म एक हो गए थे िकंतु
कुमारों का सारथी कुशलता से रथ उस झुंड से आगे िनकाल ले गया और दशरथ के
रथ के पीछे रोक िदया। राम रथ से उतर गए, भरत ने भी उतरना चाहा िकंतु राम ने
रोक िदया। संभवत: वे ल ण और श ु के भाव से आशंिकत थे। जामद ेय की
यं की ही ाित ोधी भाव की थी। ल ण और श ु अपने खर भाव से
िववश उ और उ ेिजत कर सकते थे। इस समय उनका उ ेिजत होना कदािप
उिचत नहीं होता।
‘ ाता! ाता राम के िवषय म िच त होना थ है । आप नहीं जानते िकंतु म
जानता ँ , िष िव ािम की कृपा से वे आज स ूण आयावत म सव े ह। यं
जामद ेय भी उनके तेज को मिलन करने म समथ नहीं ह, आप िनशंक रह।’ भरत
को राम के अकेले उतर जाने से िचंितत दे ख कर ल ण ने िट णी की।
‘तुम जामद ेय का समुिचत आकलन नहीं कर रहे हो ल ण। उ ोंने अकेले ही
...’
‘आप ेहवश ाता का समुिचत आकलन नहीं कर पा रहे ।’ ल ण भरत की
बात बीच म ही काट कर मु ु राते ए बोल उठे - ‘जामद ेय बीता आ कल ह। वे
ष िव ु ह, उनका काय स ािदत हो चुका है । अब अपने ाता का काय आरं भ
आ है , वे स म िव ु ह।’
‘िफर भी ल ण!’
‘आप बैिठए तो ाता। उस छोटे से कालखंड म ाता राम की उपल यों से
अभी आप प रिचत ही कहाँ है । वे ... ’ ल ण िव ु से भट के िवषय म बोलने ही जा
रहे थे िक सचेत हो गए। त रता से उ ोंने बात को सँभाल िलया- ‘ऋिषयों ने उ
िव ु की उपािध से यों ही मंिडत नहीं कर िदया। ... और िफर हम यहीं तो ह। यिद
आव कता ई तो पलक झपकते हम उनके पास होंगे।’
भरत ने िववशता से कंधे उचका िदये।
***
राम जब वहाँ प ँ चे तो दे खा िक िपता परशुराम की अनुनय कर रहे ह िकंतु वे सुन
ही नहीं रहे । बस एक ही रट लगाए ह- ‘राम को बुलाओ। मुझे आपसे कोई वाता नहीं
करनी।’
‘राम उप थत है जामद ेय!’ राम ने ह ेप करते ए कहा- ‘ थम तो उसका
णाम ीकार कर ा ण े !’
परशुराम ने नख से िशख तक राम का िनरी ण िकया।
राम मंद-मंद मु ु राते ए खड़े रहे ।
‘ऐसे उ ं ड तीत तो नहीं होते हो?’
‘राम उ ं ड है भी नहीं ऋिषवर!’
‘उ ं डता और िकसे कहते ह? भु िशव का धनुष भंग कर िदया ... ा तुम उस
धनुष के वैिश से अप रिचत थे?’
‘भलीभां ित प रिचत था, ऋिषवर!’
‘तब भी तुमने ऐसा साहस िकया, और कहते हो िक तुम उ ं ड नहीं हो?’
‘वह मा एक दु घटना थी। राम ने तो शर-संधान हे तु मा धनुष पर ंचा चढ़ाने
का यास िकया था।’
‘और धनुष भंग हो गया। िशव का इतना सु ढ़ धनुष, इतना मह पूण धनुष ...
ंचा चढ़ाने के यास मा से हो गया।’ परशुराम ने उपहास पूवक हँ सते ए
कहा।
‘यही वा िवकता है ऋिषवर!’
‘जामद ेय के साथ उपहास का यास?’ परशुराम का र एकाएक ती हो
उठा- ‘तेरे इस कृ से भु िशव का िकतना अपमान आ है तू नहीं समझ पाएगा।
काम प-कामा ा तक तेरे इस अपकृ की िन प ँ च गई है । वहीं मुझे ात
आ िक िशव के धनुष को भंग करने का दु ाहस िकसी मेरे समान नामधारी ने कर
डाला है । म तुझे दं ड दे ने मा के िलए वहाँ से भागा चला आ रहा ँ ।’
परशुराम का ोध म आना दशरथ को िवचिलत कर गया। उ ोंने पुन: ह ेप
िकया-
‘ऋिषवर! यह बालक है , नादान है । इसकी भूल के िलए म आपसे मा माँ गता ँ ।
कृपया ोध ाग द।’
िक ु परशुराम ने जैसे उनकी अनुनय सुनी ही न हो, उ ोंने अपना परशु अपनी
कमर पर अधोव म खोंस िलया और धनुष हाथ म ले िलया। राम अब भी मंद-मंद
मु ु रा रहे थे। उनके मुख पर अधीरता का लेशमा भी िच नहीं था। परशुराम ने
अपना धनुष वाला हाथ आगे कर दशरथ को आगे बढ़ने से रोक िदया। दू सरा हाथ
उठाकर शर का आवाहन िकया। उि भरत ल ण के रोकते-रोकते भी अपने रथ
से कूद पड़े । वे कूदे तो ल ण और श ु भी कूद पड़े । और िकसी का साहस नहीं
था ह ेप करने का, सभी आँ ख ब िकए, हाथ जोड़े ई र से ाथना कर रहे थे िक
िकसी कार यह िवपदा टल जाए।
‘भागव िन:श पर वार नहीं करता, तू भी श हण कर।’ परशुराम का र
अब रौ प धारण कर रहा था। दशरथ िकसी अनथ की आशंका से भयभीत थे।
उनके क से र नहीं िनकल रहा था।
‘आप ा ण ह। िवधान मुझे अनुमित नहीं दान करता ा ण के िव श
हण करने हे तु।’
‘इस कार बहानों की ओट लेकर तू बच नहीं सकता। इस समय म ा ण नहीं,
एक यो ा ँ । तू यो ा है तो मेरा सामना कर अ था श ाग कर पलायन कर
जा, भिव म कभी श न धारण करने की शपथ ले, भागव तुझे अभय दान
करे गा।’
‘राम पलायन नहीं कर सकता। इससे राम की नहीं, तापी इ ाकु वंश की
मयादा की हािन होगी।’
‘तो यो ा के समान सामना कर।’
‘आप िववश कर रहे ह राम को।’
‘हाँ , म िववश कर रहा ँ ।’
अब तक भरत, ल ण और श ु भी वहाँ प ँ च चुके थे। तीनों ने अपने धनुष
हाथों म हण कर िलये थे।’
‘भागव!’ ल ण चीख पड़े - ‘राम का किन ाता ुत है आपका सामना करने
के िलए। वह यो ा के प म आपका रण-आमं ण ीकार करता है । हार कर।’
वे भूल गए िक कुछ पल पहले तक वे भरत को शां त और िनशंक रहने का
परामश दे रहे थे।
हाँ , िनशंक तो वे थे, राम की साम पर उ अगाध िव ास भी था िकंतु यह
उनकी मयादा नहीं थी िक उनके उप थत रहते कोई उनके बड़े भाई से अपश
कहे और वे दे खते रह, उनके िव श उठाये और वे दे खते रह। राम की ित ा
को जरा सी भी आँ च उ स नहीं थी।
परशुराम हँ स रहे थे-
‘ये बालक भागव का रण-आमं ण ीकार कर रहा है , आ य है !’
वे आगे कुछ और कहते िकंतु तभी राम का र गूँज उठा-
‘भरत! ल ण! श ु ! तु मने विजत िकया था न!’
‘िकंतु ाता ...’
‘नहीं!!!’ राम ने कहा और अपना धनुष उतार िलया- ‘आपका आदे श है तो राम
आपका आमं ण ीकार करता है ।’
उ ोंने भी अपना हाथ उठाकर ा का आवाहन िकया। ा ण यो ा के
िव और िकसी िद ा का आवाहन उिचत नहीं होता।
परशुराम ने भी चिकत ि से राम के हाथ म ा को कट होते दे खा।
राम ा को अपने धनुष तक ले जा पाते उससे पूव ही िव ािम का ती र
वातावरण को प र ा कर गया-
‘राऽऽऽम! नहींऽऽऽ!’
राम ठहर गए। परशुराम ने भी र की ओर ि उठाई।
***
कुछ आगे जाकर दोनों िषयों ने जब दे खा िक पीछे कोई नहीं आ रहा, महाराज
दशरथ का रथ भी जो उनके ठीक पीछे था, वह भी नहीं िदख रहा, तो उनका माथा
ठनका। उ ोंने अपना रथ वापस घुमवा िलया और लौट पड़े थे। यहाँ आकर दे खा तो
लय का आवाहन हो रहा था। ा ों के टकराने से लय िनि त थी। अधीरता से
िव ािम चीख उठे थे।
***
‘म दोनों राम से स ोिधत ँ । म दोनों को श रखने का आदे श दे ता ँ ।’
‘िकंतु ...’ परशुराम ने कुछ कहना चाहा।
‘जामद ेय इतना सं ारहीन कबसे हो गया जो अपने गु जनों को पलट कर
उ र दे ने लगा?’ िव ािम ने उ फटकार िदया।
अब तक िव ािम का रथ आकर ठीक इन लोगों के सामने क गया था। रथ से
कूदते ए िव ािम पूरी ढ़ता से बोले-
‘राम!’ वे परशुराम से स ोिधत थे- ‘इस स ूण करण के िलए कौिशक
िव ािम उ रदायी है । यह दाशरिथ राम त: यहाँ नहीं आया था, इसे म लेकर
आया था। मने ही इसे िशवधनुष पर शर-संधान करने की आ ा दी थी। इसने जो भी
िकया मेरी आ ा के अनुपालन म िकया। तु यिद उ र की आकां ा है तो मुझसे
कहो, यिद रण की आकां ा है तो भी मुझसे कहो। आज म तु ारी ेक आकां ा
पूण क ँ गा।’
अब परशुराम के हड़बड़ाने की बारी थी। उ ोंने झुककर िष को णाम िकया
और बोले-
‘यह आप ा कह रहे ह िष? म आपको रण-आमं ण दे ने की सोच भी कैसे
सकता ँ ? आप मेरे गु जन ह, आप मेरे गु भी ह।’
‘म वही कह रहा ँ जो कथनीय है । यिद मुझे गु जन ीकार करते हो तो
सव थम अपने ोध को ितलां जिल दो। इसे चाहे मेरा परामश समझो अथवा
आदे श।’
‘दी गु दे व, दी!’ इस बार परशुराम ने शां त र म कहा- ‘आप मेरे गु जन ह।
मेरी िपतामही के अनुज ह। आप मेरे गु ह, आपने मुझे दी ा दी है । यह तो अका
स है । मेरी ीकृित-अ ीकृित से स तो प रवितत नहीं हो जाएगा। आपका
आदे श मेरे िलए ेक थित म स ा है , आप आदे श कर।’
‘तब अपने संक का रण करो जो तुमने िविजत भूिम महिष क प को दान
करते समय िलया था िक तुम भिव म कभी श हण नहीं करोगे, कभी ोध
नहीं करोगे। ... रण आ।’
‘ आ। िकंतु दाशरिथ के गु तर अपराध का ा ...?’
‘कुछ नहीं, जो कुछ भी आ यं िशव की अनुमित से आ।’
‘यिद ऐसा है ...’ परशुराम ने दीघ िन: ास ली- ‘तब िफर कहने को शेष ही ा
रह गया। आप आदे श कर, मेरा ा कत है ?’
‘आओ मेरे साथ।’ कहने के साथ ही िव ािम ने परशुराम का हाथ पकड़ िलया
और सबसे थोड़ी दू र, एक ओर बढ़ गए।
िव ािम ने एका म परशुराम को भिव की स ूण योजना से प रिचत
कराया। त ात उ सुदूर दि ण म मह पवत (आधुिनक उड़ीसा से केरल तक
िव ृत) पर िनवास करते ए वहाँ के िनवािसयों को सै -कला म िशि त करने
और उ आने वाले आय-र यु म राम का सहयोगी बनाने का िनदश िदया।
‘तो म थान क ँ ?’ आ ा िशरोधाय करते ए भागव ने अनुमित माँ गी।
‘शुभा े पंथान: स ु।’ िव ािम ने आशीवाद के साथ अनुमित दान की।
18- िवमाताओं से भट
िववाह के उपरां त दशरथ ने चारों कुमारों को अपनी माताओं के ासादों से पृथक
नवीन ासाद उपल करवा िदए थे। उिचत भी था। वह काल ऐसा था जब राजा की
इ ा के सामने असंभव जैसा कोई श श कोश म नहीं आ करता था। दशरथ
ने अपनी आकां ा की और एक पखवाड़े म चारों कुमारों के िलए अगल-बगल
भ ासादों का िनमाण हो गया।
भीतर से चारों ासाद भले ही पृथक-पृथक थे िकंतु मु वेश ार एक ही था।
चारों एक िवशाल प रहा म थत थे। चारों ासादों के अपने छोटे -छोटे उ ान
अव थे िकंतु साथ ही एक स िलत िवशाल उ ान भी था। ऐसा कुमारों की इ ा
के अनु प ही िकया गया था। चारों िकसी भी थित म एक-दू सरे से अलग रहना
नहीं चाहते थे। उनकी पि याँ भी आपस म बहन ही थीं, वे भी भला ों अलग रहना
चाहतीं!
ासादों का िनमाण होने के एक स ाह के भीतर ही शुभ मु त म कुमारों का उन
नवीन ासादों म गृह- वेश भी स हो गया।
अब थित यह थी िक िदन भर तो चारों कुमार एक साथ जहाँ इ ा होती नगर म
मण करते, उ शासन म अभी तक दशरथ ने कोई दािय सौंपा नहीं था। वे
चाहते थे िक अभी ये चारों नविववािहत युगल अपने वैवािहक जीवन का ंद
आनंद ल। िदन की इस अविध म पु वधुय अपनी-अपनी सास के ासाद म रहतीं,
राि म चारों कुमार अपनी पि यों के साथ अपने-अपने ासाद म आ जाते। यह
िन का म था।
अयो ा का राज ासाद एक अ भुज के आकार म बना िवशाल प रसर था,
िजसकी ेक भुजा की ल ाई तीन कोस की थी। स ूण प रसर ब त ऊँची सु ढ़
प रहा से िघरा आ था। प रसर म वेश के िलए एक ही अ ंत िवशाल ार था,
िजसपर सदै व ही भारी सुर ा व था रहती थी। मु ार से वेश करते ही सामने
िवशाल उपवन था। वेश ार के अित र स ूण प रहा के साथ-साथ चौथाई
कोस की चौड़ाई म फैला आ िवशाल उ ान था। वेश ार के स ुख एक िवशाल
मैदान था। उसके बाद प रसर की चौड़ाई के ठीक बीचोंबीच िवशाल सभाभवन था।
सभाभवन से वेश ार तक की दू री आधे कोस (1.6 िकमी) के लगभग थी।
सभाभवन के दािहनी ओर तीनों महारािनयों के ासाद थे। बायीं ओर अब कुमारों
के ासाद बन गए थे।
प रसर के पीछे के भाग म राज-प रवार के अ सद ों के िनवास थे। और सबसे
अंत म उपपि यों का आवासीय प रसर था।
भोजन कुमार सप ीक अपनी माताओं के यहाँ ही ा करते थे। उनका चू ा
अलग नहीं आ था। वे अपने ासादों म मा ात:काल का ाहार ही हण
करते थे।
िदन आन पूवक तीत हो रहे थे। कोई दािय नहीं, कोई िचंता नहीं केवल
ं द िवहार। िकंतु इस ं द िवहार से राम जैसा शी ही िवर
अनुभव करने लगा।
एक िदन सायंकाल जब चारों भाई िपता के साथ उपवन म िवहार कर रहे थे राम
ने अवसर दे खकर िपता से आ ह िकया-
‘िपताजी! यिद अनुमित हो तो कुछ िनवेदन करना चाहता ँ !’
‘तु भला अनुमित माँ गने की ा आव कता है ? कहो जो कुछ कहना है ।’
दशरथ ने ेिहल र म उ र िदया।
‘िपता जी, हम चारों भाई मा आनंद-िवहार म अपना समय न कर रहे ह। इस
कार हमारी िव ा भी िनरथक जा रही है । हम भी रा - शासन म कुछ दािय
सौंिपये तािक हम कुछ साथक कर सक।’
‘रा का शासन तो आमा गण भलीभाँ ित सँभाल ही रहे ह ...’ दशरथ ने हँ सते
ए उ र िदया- ‘तु ारे अभी खेलने-खाने के िदन ह, इनका अपनी पि यों के साथ
पूरा रस लो। बाद म तो तु ही यह सब सँभालना है । तब आन -िवहास के िलए
तु अवसर ही कहाँ िमलेगा।’
‘नहीं िपताजी, िदवस का स ूण समय हमारे पास होता है । हम उसे थ गँवा रहे
ह।’
‘ थ नहीं गँवा रहे हो, ये भी जीवन के अनुभव ह जो भिव म तु ारे काम
आयगे।’ कुछ पल ककर दशरथ ने आगे कहा-
‘दे खो, अभी तु ारी पि याँ अयो ा के िलए नई ह। अभी वे िवशेष प से तुम पर
ही आि त ह। उनका भलीभाँ ित ान रखना तु ारा दािय है । अभी तुम लोग
अपनी पि यों का मनरं जन ही अपना दािय समझो। तु यिद कोई अ दािय
सौंप िदया जाएगा तो तुम उसम हो जाओगे और वे यं को उपेि त अनुभव
करगी।’
राम िपता की इस बात को आदे शवत हण कर चुप हो गए। वे कभी गु जनों से
बहस नहीं करते थे। िकंतु श ु ने जब दे खा िक राम चुप हो गए ह तो उ ोंने मोचा
सँभाल िलया। उ ोंने तक िकया-
‘िपताजी, िदवस के समय तो हमारी पि याँ हमारी माताओं के साि म होती ह
और उन सबका पर र ब त अ ा सामंज भी बैठ गया है । िदवस के समय तो
हम उनकी सेवा से मु ही होते ह ... तब हम कुछ साथक, सो े काय कर सकते
ह।’
श ु के मोचा सँभाल लेने पर दशरथ को लगा िक यह बहस ल ी खंच सकती
है । उ ोंने इसे समा करने का िनणय कर िलया और बोले-
‘तो ऐसा करते ह, तुम लोग अपनी-अपनी पि यों को अित शी एक-एक ऐसा
खलौना सौंप दो जो सारा िदन उ ्◌ा रख सके। तब म तु उनकी सेवा से
मु कर रा की सेवा म कोई दािय सौंप दू ँ गा।’
दशरथ के ऐसे खुले उ र से एकबारगी श ु और ल ण भी झप गए। िपता के
साथ इस कार के वातालाप के िवषय म वे सोच भी नहीं सकते थे। राम तो कट कर
ही रह गए।
िपता के इस कार के उ र के बाद कुमारों के िलए उनसे आँ ख िमला कर बात
कर पाना संभव नहीं था। िपता के साथ इस कार के िवषय पर बात करना उनके
सं ार म नहीं था। चारों धीरे से दू सरी ओर िनकल गए।
बात वहीं समा हो गयी।
ल ण और श ु ने तो शी ही यं को इस आघात से उबार िलया। भरत का
तो आ -िनयं ण वैसे ही अनुपमेय था िकंतु राम यं को सहज नहीं कर पाए। राि
म सीता के साथ जब वे शयन के िलए वृ ए तब भी वे सहज नहीं हो पाए थे।
सीता ने इसे सहज ही ल िकया।
इन थोड़े से िदनों म ही सीता और राम का स अ ंत गाढ़ हो गया था।
उनका संबंध शारी रक की अपे ा मानिसक और आ क र पर सु ढ़ हो रहा
था। राम िबलकुल वैसे थे जैसा सीता चाहती थीं और सीता िबलकुल वैसी थीं जैसा
राम चाहते थे। इन थोड़े से िदनों म ही दोनों दो शरीर एक आ ा के समान बन गए
थे। सीता िबना कहे ही राम के मन की हर बात समझ जाती थीं और राम सीता के
मन की।
‘आप कुछ अ मन तीत हो रहे ह आय!’ सीता ने अपनी दोनों कोहिनयाँ
राम के िवशाल व के इधर-उधर िटकाते ए, ेह से उनकी आँ खों म झाँ कते ए
िकया।’
‘नहीं, कोई िवशेष बात नहीं ह।’ राम ने अपनी दोनों बाह उनकी पीठ पर िपरोते
ए उ अपने आिलंगन म समेट लेने का य िकया तािक यह िवषय आगे न बढ़े ,
िक ु सीता ने अपनी कोहिनयों को िडगने नहीं िदया और राम का मुख अपनी दोनों
हथेिलयों म समेटते ए, पूववत उनकी आँ खों म झाँ कते ए कहा-
‘ ा आपको यह म हो गया है िक आप अपनी प ी से अपना मन िछपा सकते
ह?’ कह कर वे बरबस मु ु रा पड़ीं- ‘बताइये न, ा उलझन है ? ा पता म ही
कुछ सुझाव दे सकूँ! सुझाव न भी दे सकी तो भी मन का बोझ िकसी से कह दे ने से,
मन ह ा तो हो ही जाता है ।’
और राम ने सारा करण सीता से कह िदया।
सीता भी सुनकर लजा गयीं और एकबारगी राम के व म अपना मुख िछपा
िलया।
थोड़ी दे र बाद उ ोंने िफर अपना मुख उठाया, िफर कोहिनयों पर अपना शरीर
साधते ए आगे को झुकीं और अपनी नाक राम की नाक से रगड़ते ए लजाई
मु ान के साथ बोलीं-
‘आप भी ब त भोले ह!’
‘वह तो ँ िकंतु यह संदभ कहाँ से आ गया।’
‘ ा जा अथवा रा के िहत म अपना कत िनवहन हे तु कोई औपचा रक
पद-दािय होना आव क है ?’
‘ ा ता य है आपका?’ राम सीता की बात कुछ-कुछ समझ रहे थे िकंतु िफर भी
उ ोंने िकया।
‘आप चारों ही भाई अपना समय मा आमोद- मोद और भोग-िवलास अथवा
आखेट आिद म य नहीं करते, आप लोग जाजनों से भी सहज स क म रहते
ह।’
‘हाँ , यह हम अ ा लगता है ।’
‘तो यह ा कोई काय नहीं है ? राजा जब जा के स क म रहता है तभी तो
उसके सुख-दु :ख समझ पाता है और उनके िनवारण हे तु य कर पाता है । जा भी
ऐसे राजा के सामने अपना दय खोल कर रख दे ती है ।’
‘आपका कथन स है ! िकंतु जा के दु :खों के िनवारण हे तु हमारे पास कोई
अिधकार तो नहीं है ।’
‘ ा अिधकार स ही िकसी का िहत कर सकता है ? आपके पास
साम है ... अपने मन की भी, अपनी बु की भी और अपनी बा ओं की भी; आप
चारों भाई तो कुछ भी कर सकते ह। िफर िकसने कहा िक आपके पास अिधकार
नहीं है ? जहाँ कहीं भी आप कोई िवसंगित दे ख मा स त अिधकारी से उसका
उ ेख भर कर द। आप युवराज ह, िकस अिधकारी म इतना साहस है िक आपके
उ ेख को आदे श की भाँ ित न ले।’ कहकर सीता मंद र म खल खला उठीं।
‘िबना रा ारा ािधकृत िकए, िकसी अिधकारी को िकसी भी िवषय म
आदे िशत करना ा अनिधकार चे ा नहीं होगी? अिधकारी को यह नहीं तीत होगा
िक राम अपने राजकुमार होने का अनुिचत लाभ लेने की चे ा कर रहा है ?’
‘ ािधकृत तो आपको यं िवधाता ने कर रखा है ...’ सीता हँ सते ए बोलीं- ‘रा
की जा का िहत करने का दािय सौंपा है उसने, आपको युवराज के पमज
दे कर। रा ारा अिधकृत न होने का बहाना लेकर आप उसके िनणय की
अवहे लना नहीं कर सकते। ा आपको अपने दािय ों का बोध नहीं है ?’
‘िनि त ही है , िकंतु उन दािय ों के िनवहन हे तु िपताजी की अनुमित ा होना
अभी शेष है । अभी की थित म म िकसी िवषय म िपताजी ारा पूछे जाने पर अपनी
अनुशंसा दे सकता ँ िकंतु त: िकसी अिधकारी को आदे िशत नहीं कर सकता।
यं कोई िनणय नहीं ले सकता।’
सीता उ बीच म ही टोकने को ईं िकंतु िफर क गयीं। उनके बात समा
करते ही बोलीं-
‘िपताजी कभी आपसे अनुशंसा माँ गगे नहीं और उनके माँ गे िबना आप दगे नहीं।
यह आपका भाव ही नहीं है । तब आप आपनी आँ खों के स ुख जा पर अ ाय
होता दे खते रहगे और िपताजी से उस िवषय म कुछ कहने का साहस नहीं कर
पायगे। यह ा िविध ने आपको जो दािय सौंपा है उसकी अवहे लना नहीं होगा?
और आप यह ों िव ृत कर दे ते ह िक िविध ने आपको स म िव ु के पम
अकारण ही िति त नहीं िकया होगा! िविध ने यिद आपको इतना महनीय स ान
दान िकया है तो उसके पीछे गु तर दािय भी छु पा है । आप रा ारा अिधकृत
हों अथवा न हों, कृित ारा आप अिधकृत ह। स म िव ु के प म आपको
ेक अ ाय के ितकार हे तु ितपल संक ब और स रहना ही होगा।’
राम मन ही मन सीता के कथन की ा ा करने लगे।
कुछ क कर सीता पुन: बोलीं-
‘िकसी अ के ारा सौंपा गया दािय मन के ितकूल भी हो सकता है । मन के
ितकूल होने पर वह बोझ भी तीत हो सकता है । वह शरीर और मन को थका भी
सकता है । िकंतु अपने मन की ेरणा से िकया गया काय सदै व संतोष दे ता है । वह
मन को थकाता नहीं, ऊजा दे ता है ... और अिधक काय करने की ेरणा दे ता है ।’ वे
िफर वैसे ही ह े से खल खलायीं और राम की नाक िहलाते ए बोलीं- ‘समझ
आया अथवा नहीं?’
‘समझ आ गया ... गु दे वी!’ राम भी हँ स पड़े । उनके मन की उलझन ब त कुछ
सुलझ गयी थी।
थोड़ी दे र सीता का मुख राम के व पर िव ाम करता रहा और राम की हथेिलयाँ
उनकी सुदीघ वेणी से खेलती रहीं।
थोड़ी दे र बात सीता एक बार िफर उसी भां ित कोहिनयों के बल उठीं-
‘एक मेरे मन म भी है ।’
‘आदे श कीिजए!’
‘आदे श नहीं, बस मन का एक भाव है ।’
‘किहए तो!’
‘हम लोगों ने िववाह के उपरां त तीनों माताओं का आशीवाद ा िकया।’
‘हाँ ... िक ु इस का ा योजन है भला? ... वह तो हम करना ही था।’
‘मुझे दासी बता रही थी िक िपता ी की कुछ उप-पि याँ भी ह। वे भी तो हमारे
िलए मातावत् ही ह।’
‘ह तो!’ राम चिकत थे िक उ ोंने यं कभी इस त पर िवचार ों नहीं िकया?
उ लगा िक एक ी ही दू सरी ी के मन के भाव सही से समझ सकती है ।
‘तो हम उनका आशीवाद भी तो ा करना चािहए।’
‘आपके मन के भाव सवथा उिचत ह, अनुकरणीय ह ... हम िन ंदेह उनका भी
आशीष ा करना चािहए।’
‘तो िफर ...?’
‘तो िफर ा, कल ही सभी भाइयों से वाता करता ँ । िफर माँ से अनुमित लेकर
सभी चलगे।’
‘ ा हम मँझली माँ अथवा छोटी माँ से िमलने जाने के िलए भी माँ से अनुमित
माँ गते ह?’
‘नहीं, िक ु अ र है उनम और इन यों म!’
‘ ा अ र है ... हमारे िलए तो वे भी मातावत् ही ह। िफर भी यिद आप माँ से
अनुमित लेना ही चाहते ह तो ले लीिजए। मुझे िव ास है वे स ता से इसकी अनुमित
दान करगी।’
कौश ा, कैकेयी, सुिम ा तीनों ही राम और सीता के इस िनणय से स ही
यीं। उ तीनों माताओं से अनुमित और आशीवाद दोनों ा ए। साथ ही यह
आ ीय उलाहना भी िमला िक ‘अब तुम लोग बड़े हो गए हो, ऐसी छोटी-छोटी बातों
के िलए कब तक माँ की उँ गली पकड़े रहोगे!’
उस िदन से चारों कुमारों और उनकी पि यों का िनयम बन गया िक वे माह म
कम से कम एक बार अपनी इन उपेि ता माताओं से िमलने अव जाने लगे। राम
और सीता तो गत प से कभी-कभी माह म दो बार भी घूम आते थे।
इन उपेि ताओं के िलए तो यह उनकी अपे ा से ब त दू र की बात थी। उ ोंने तो
कभी ऐसे सौभा की क ना ही नहीं की थी। उनम से कई तो अभी तक अ त-
यौवना थीं। महाराज की कृपा ि उन पर पड़ी ही नहीं थी कभी। वे सभी कुमारों के
ज के पूव से ही यहाँ थीं। कुमारों के ज के उपरां त उप-पि यों की कोई नई खेप
नहीं आई थी। महाराज ही यु ों से िवरत हो गए थे। कुमारों के ज के उपरां त से
महाराज का यहाँ आना भी नहीं होता था। मा उस प रसर म आयोिजत िकसी
उ व-आयोजन म कभी चले गए तो चले गए। ये याँ भी महाराज के दशन मा
उ वों म ही कर पाती थीं, जब वे भी उस उ व म िकसी अलंकरण की भाँ ित
उप थत होती थीं।
वे याँ कैसी भी उपेि ता ों न हों, महाराज से उ िकतनी भी िशकायत कों
न हों ... िकंतु वा तो ेक ी को कृित दान करती ही करती है । इन
माताओं का अभी तक कुमारों के ित िनरपे भाव था। राम की उपल यों और
उनके अवतार होने की चचाय उ ोंने भी सुनी थीं िकंतु इससे उ ा लेना-दे ना
था! उ तो सामा जा की भाँ ित भी इस अवतारी से भट करने की
अनुमित नहीं थी। व ुत: उ तो उस प रसर से बाहर िनकलने की ही अनुमित नहीं
थी। उस प रसर म ही उनकी आव कता अथवा भोग-िवलास की ेक व ु की
आपूित हो जाती थी। कुमारों के उस प रसर म आने का कोई ही नहीं उठता था।
वे सारी की सारी अब िकसी न िकसी प म अपनी िनयित को ीकार कर चुकी
थीं।
उनके यं के तो कोई संतान थी नहीं। कुछ दु ाहसी उप-पि यों को अपने
अवैध स ों से गभधारण का सौभा ा भी आ था िकंतु वे महाराज की
संतान के अित र और िकसी की संतान को ज दे ने का साहस नहीं कर सकती
थीं। ऐसे गभ का वही हाल आ था, जो हो सकता था। ऐसे म जब कुमारों ने वहाँ पु
प म जाना आरं भ िकया तो आरं भ म उ कुछ शंका और कुछ िहचिकचाहट तो
ई िकंतु िफर उ ोंने ... उन सबने, अपना अब तक का सम संिचत वा उन
पर लुटा िदया। िवशेषकर राम और सीता पर। अब कुमार उनके अपने पु थे और
उनकी पि याँ उनकी अपनी पु वधुय। वे आतुरता से उनके आगमन की ती ा
िकया करती थीं।
उनकी स ता इन सबसे भी िछपी नहीं थी। अ र राम की आँ ख उनके वा
को अनुभव कर भीग जाती थीं।
19- दशरथ का सं शय
महाराज अ पित ारा रा का संपूण भार युधािजत को सौंप िदये जाने का
समाचार महाराज दशरथ के मन म हलचल मचाए था। वे भी अब शी ाितशी सब
कुछ राम को सौंप सारे जंजाल से मु पाना चाहते थे और पौ ों के साथ ीड़ा-
िवलास करते ए उ ु जीवन तीत करना चाहते थे।
राम का रा ािभषेक िकस भाँ ित स हो िक कैकेयी से िववाह के समय ई
संिवदा का उ ेख भी न हो, इस िवषय पर उनका िच न िनरं तर चल रहा था। यह
एक ऐसा िवषय था िजसपर वे िकसी से परामश भी नहीं ले सकते थे। युधािजत से तो
वे सशंिकत थे ही िकंतु सवािधक सशंिकत यं राम से थे। अत: जब तक कोई
समाधान नहीं िमल जाता उ धीरज रखना ही था।
इसके िवपरीत पौ ों के आगमन के ित अपनी उ ं ठा को महारािनयों के स ुख
रखने म कोई बाधा नहीं थी। उ िव ास था िक महारािनयाँ यं भी तो उ ं िठत
होंगी? अभी िववाह के तीन माह भी तीत नहीं ए थे, वधुय िववाह के उपरां त
पहली बार मातृगृह गयी थीं, तभी एक िदन जब तीनों महारािनयाँ कैकेयी के क म
एक थीं, दशरथ यं को नहीं रोक पाये-
‘महारानी! वधुओं की ओर से कोई शुभ-समाचार नहीं है अभी तक?’
दशरथ का मंत तीनों ही रािनयाँ समझ गयी थीं। तीनों ही बरबस मु ु रा उठीं।
िकंतु कैकेयी अनजान बनती ई बोली-
‘कैसा शुभ-समाचार महाराज?’
दशरथ एक पल को तो िहचके िकंतु िफर खुलकर बोल ही िदया-
‘पौ ों के संबंध म!’
‘अ ंत ह महाराज अपने पौ ों के संग खेलने के िलए!’ कैकेयी
खल खलाकर हँ सती ई बोली। अ रािनयाँ भी हठात् हँ स पड़ीं।
‘िन ंदेह!’ दशरथ भी हँ सते ए बोले- ‘दशरथ के जीवन का णकाल वही था
जब वह अपने िशशु-पु ों के साथ उ ु िकलोल करता था। ... मन म वे िदन एक
बार पुन: जीने की उ ट लालसा है । आपको नहीं है ा?’
इस पर कैकेयी की हँ सी एकाएक थम गयी। बोली-
‘है तो हम भी, िकंतु हमम धीरज भी है । अभी िदन ही िकतने ए ह उनके िववाह
के! अभी दो-एक वष तो वधुओं का आवागमन ही चलता रहे गा। ती ा कीिजए,
कोई भी काय समय से पूव नहीं होता।’
‘कैसे ती ा क ँ ? आप तो जानती ही ह िक दशरथ के पास धैय का सदा से ही
सवथा अभाव रहा है ।’
‘रखना तो पड़े गा ही महाराज। पु ों के िलए भी तो हम िकतनी ती ा करनी पड़ी
थी!’
‘शुभ-शुभ बोिलए महारानी, उतनी ती ा दशरथ कैसे कर पाएगा? अब तो
उतनी साँ स भी शेष नहीं ह।’
दशरथ के मुँह से अनायास िनकले श ों ने तीनों रािनयों को िथत कर िदया।
कौश ा हठात् बोल पड़ीं-
‘आप भी िबना िवचारे कैसी अशुभ बात बोलने लगते ह!’
***
यह ती ाकाल सुदीघ होता जा रहा था। दशरथ ेक माह-दो माह म
महारािनयों से इस िवषय म करते थे और उनकी ओर से हर बार नकारा क
उ र ही ा होता था। पु ों के िववाह को दो वष तीत हो गए। अब वधुओं का
बार-बार मायके जाना भी बंद हो गया था। दशरथ की ता बढ़ती ही जा रही थी।
‘ भु ा पुन: ...?’ इससे आगे वे नहीं सोच पाते थे।
उनकी यह छटपटाहट महामा ने भी ल की। एक िदन राजसभा का काय म
स होने के उपरां त उ ोंने महाराज से कर ही िलया-
‘महाराज! यिद अनुमित द तो एक कुलबुला रहा है मन म?’
‘पूिछए!’
‘िमिथला से आगमन के उपरां त से ही आप कुछ उि से तीत होते ह। कुछ
अ थता है ा अथवा कोई मानिसक ेश है ?’
‘नहीं-नहीं! ऐसा कुछ नहीं है । म पूण थ ँ !’
‘म दे ह की नहीं, मन की बात कर रहा ँ , कुछ तो है जो िनरं तर आपके मन को
मथ रहा है । कह डािलए, ा पता जाबािल ही कुछ परामश दे सके!’
दशरथ कुछ दे र जाबािल को घूरते रहे , िफर बरबस मु ु रा पड़े ।
‘बड़ी तीखी ि पाई है आपने भी।’
उ र म जाबािल भी मु ु राये और दशरथ के आगे बोलने की ती ा करने लगे।
दशरथ कुछ काल तक सोचते रहे ... कह अथवा टाल द ... अंतत: उ ोंने कह
डालने का ही िन य िकया।
‘महामा अब यह राजकाज जी का जंजाल सा तीत होने लगा है । म चाहता ँ
िक यह सब राम को सौंप दू ँ और पौ ों के साथ ं द जीवन का आनंद लूँ।’
‘तो उसम बाधा ा है महाराज?
‘पौ भी तो पु ों के समान ही ती ा करवा रहे ह।
‘यिद अ था न ल तो कुछ परामश दू ँ महाराज!’
‘अब ये औपचा रकताय छोड़कर सीधे-सीधे बोल ही दीिजए।’
‘राम का पु राम के उपरां त स ूण सा ा का उ रािधकारी होगा।’
‘इसम भी कोई संशय है ा?’
‘र ीभर भी नहीं, तभी तो कह रहा ँ ।’ जाबािल मु ु राते ए बोले, कुछ दे र वे
अपने आगे के श ों को तौलते रहे तदु परां त बोले-
‘महाराज! युवराज अथवा स ाट् अपनी प ी के साथ काम-केिल म अपनी वासना
को शां त करने के िलए नहीं, रा का सुयो उ रािधकारी ा करने हे तु वृ
होते ह। इस हे तु शुभ मु त का शोधन िकया जाता है ... यह सम महान राजवंशों
म सामा था रही है । रा को सुयो उ रािधकारी दे ना राजा अथवा युवराज का
कत होता है । इस परं परा के चलते ही महान राजवंश सुदीघ काल तक समथ
साशकों की ंखला दे पाने म स म ए ह।’
‘स कह रहे ह आप। हम भी तो य के उपरां त ऋिषवर ने संसग के िलए मु त
िनदिशत िकए थे!’
‘तो महाराज! गु दे व से स क कीिजए िकसी िदन!’
‘नहीं, इस िवषय म गु दे व से वाता नहीं कर पायगे हम!’
‘तो राज- ोितषी से परामश लीिजए। उनकी यो ता म भी कोई संशय नहीं है ।
िकंतु राज ोितषी ने भी दशरथ को िनराश ही िकया। उ ोंने बताया-
‘अभी कुछ काल तक तो ऐसा कोई शुभ-मु त नहीं है ।
‘ता य? ऐसा भला कैसे हो सकता है ?’
‘ऐसा ही है महाराज!’
‘अभी िनकट भिव म नहीं है मु त, िकंतु आगे तो होगा?’
‘आगे मु त ह, िक ु ...’ अचानक राज- ोितषी चुप हो गए।
‘िक ु ा? किहए ...’ राज- ोितषी का सहम कर चुप हो जाना प
से कुछ अनहोनी की संभावना को बल दे रहा था। आशंका से दशरथ की ता
और बढ़ गयी।
‘महाराज! म मा ाथ ँ !’
‘ किहए!’ दशरथ खीजकर बोले।
‘मु त ह, िक ु तब दीघकाल तक िकसी भी कुमार को स ान- ा का योग ही
नहीं है । न ही कुमारों के ज ां गों म और न ही उनकी पि यों के।’
‘िकसी के भी?’ दशरथ अिव ास से बोले।
‘जी महाराज!’
‘कब तक?’
‘महाराज, आगामी प ह वष तक तो त: कोई संभावना नहीं ि गोचर होती
... शेष भु की लीला अपर ार है ... वे जो चाह संभव कर सकते ह।’
‘ओह !!!’ दशरथ ने एक दीघ िन: ास ली। कुछ दे र तक कुछ िवचार करते रहे
तदु परा पुन: िकया-
‘कोई उपाय नहीं है ?’
‘ह तो महाराज, अनेक उपाय ह। िकंतु जब योग ही नहीं है तब उपाय भी ा
करगे। योग होने पर ही उपाय भी फलदायी होते ह।’
‘तो भी ...!’
‘ भु से आराधना के अित र हम और ा सुझा सकते ह, महाराज! भु का ही
अवल हण कीिजए।’
‘तो ा हमारे भा म पौ ों के साथ खेलना िलखा ही नहीं है ?’
‘अपराध मा हो महाराज, िकंतु हयोग तो यही बता रहे ह।’
इस उद् घाटन ने दशरथ को हताश कर िदया। उ अपनी यं की पु - ा के
िलए था रण हो आयी। परं तु ा करते, िविध के िवधान के स ुख सभी को
नतम क होना पड़ता है ।
***
इस रह ोद् घाटन के उपरां त कोई कारण नहीं था पौ ों के आगमन की ती ा
करने का। दशरथ ने िन य कर िलया िक अब राम के अिभषेक पर ही अपना ान
के त करना है ।
‘िक ु युधािजत ...? वे आपि नहीं करगे? मन के चोर ने िकया।
‘अव करगे!’ बु ने उ र िदया।
‘यिद उ ात ही न हो पाए तो ...!’ मन ने माग सुझाया।
‘ ात कैसे नहीं हो पाएगा? कैकेयी सव थम अपने भाई को ही सूचना ेिषत
करे गी।’ बु ने शंका कट की।
‘यिद उसे अवसर ही न ा हो, भाई तक सूचना ेिषत करने का?’ मन ने िफर
पाँ से फके।
‘यिद ऐसा हो सके तब तो ... िकंतु कैसे होगा?’ बु ने संभावना पर िच
अंिकत िकया।
‘ यास करो, िच न करो ... कोई न कोई माग अव िमलेगा।’ मन ने िफर भी
हार नहीं मानी।
इस बार बु ने भी मन का ाव ीकार कर िलया। दशरथ माग खोजने म
जुट गए।
सव थम उ ोंने रा के मह पूण यों को टटोलने का िनणय िलया।
िनि त ही इस सूची म थम नाम गु दे व विश का ही होना था।
***
‘आइए महामा , गु दे व से िमलने चलते ह।’ एक िदन साँ झ को राजसभा की
कायवािहयों से िनवृ होने के उपरां त महाराज ने जाबािल के स ुख ाव रखा।
‘कोई िवशेष िवषय महाराज?’
‘नहीं, बस गु दे व को णाम करने का मन आ।’
महाराज की अिभलाषा की अवहे लना करने का ही नहीं था।
सूय अ ाचल की ओर बढ़ चला था। गु दे व अपनी कुिटया के बाहर बैठे ह रण-
शावकों की िकलोल दे ख रहे थे। महाराज और आमा को दे खकर एक िव ाथ
दोनों के िलए आसन ले आया िकंतु गु दे व ने उसे रोक िदया।
औपचा रकताओं के उपरां त गु दे व ने ाव िकया-
‘आइये महाराज कुिटया म ही चलते ह।’
महाराज तो यह चाहते ही थे।
‘गु दे व! ा कैसा है ?’ कुिटया म आसन हण करते ही दशरथ ने
औपचा रक िकया।
‘ ा अब इस अव था म जैसा हो सकता है वैसा ही है । यूँ कोई सम ा
नहीं है िकंतु वाध यं ही सबसे बड़ी सम ा है ।’ कहते-कहते गु दे व हँ स पड़े ।
गु दे व की आयु एक सौ चालीस साल से अिधक हो चुकी थी। यं दशरथ भी तो
अ ी वष के हो गये थे और जाबािल भी न े पार कर चुके थे।
‘स कहते ह, गु दे व!’
कुछ काल तक तीनों वृ ों म उनकी वृ ाव था की ही चचा होती रही।
िफर दशरथ ने धीरे से अपना मंत कट िकया-
‘गु दे व! िमिथला म युधािजत बता रहे थे िक महाराज अ पित ने राजकीय
दािय उ सौंपकर यं अवकाश ले िलया है । जब से मने यह सुना है तभी से मुझे
भी यही उिचत तीत हो रहा है िक मुझे भी उनका अनुसरण करना चािहए। कुमार
अब इस यो हो गए ह िक राजकीय दािय ों का िनवहन कर सक और िफर मेरी
यं की अव था भी महाराज अ पित से कम तो नहीं है ।’
‘महाराज, यह तो राजकीय िनणय है , इस िवषय म आपको महामा से परामश
लेना चािहए। ये ...’
‘कैसी बात कह रहे ह गु दे व! अयो ा म आप से ऊपर कोई नहीं हो सकता।
जब तक हम आपका संर ण ा है , आप ही सव प र रहगे। ...और िफर यह तो
इतना मह पूण िनणय है , जो आपके परामश के िबना िलया ही नहीं जा सकता।
तभी तो महाराज आपके पास आए ह, मुझसे तो इ ोंने अपनी ऐसी िकसी इ ा का
संकेत मा तक नहीं िकया।’ जाबािल ने गु दे व की पद-ग रमा को स ान दे ते ए
बीच म ही टोकते ए कहा।
‘जी गु दे व ! महामा स कह रहे ह।’
‘आप लोग िबना पूरी बात सुने ही बीच म बोल पड़ते ह, यह अनुिचत आचरण है ।’
गु दे व ने मु ु राते ए कटा िकया।
‘अ ा किहए...’ महामा हँ से- ‘अब ऐसा दु ाहस नहीं होगा।’
‘मेरी ओर से तो सदै व ही ाग का परामश िदया जाएगा। राजकीय आव कताय
ा कहती ह यह तो महामा ही बता सकते ह।’
‘महामा को गु दे व इतनी ग रमा दान कर रहे ह, यह आपकी उदारता है ,
अ था रा म कुछ भी आपसे गोपन नहीं है ।’
‘अ ा महाराज, अपनी स ूण योजना बताइये, तब इस पर िवचार-मंथन िकया
जाए।’ गु दे व ने वा लास का पटा ेप करते ए कहा।
‘गु दे व! राम चारों भाइयों म े है । वह सबका ि य है , सभी गुणों से स है ।
िन ंदेह वह रघुकुल का गौरव है ।’
‘इसम कोई भी संशय नहीं है महाराज।’
‘ऐसी थित म मुझे यही उिचत तीत होता है िक म राम का रा ािभषेक कर
यं अवकाश हण क ँ ।’
‘आपका िवचार उ म है महाराज, िक ु उसम एक सम ा है ।’
‘उसीके िलए तो िवशेष प से आपका परामश चािहए।’
‘सम ा गंभीर है ... नहीं भी है ।’
‘आप तो पहे िलयाँ बुझाने लगे।’ महामा हँ से।
‘नहीं...’ गु दे व भी हँ से- ‘पहे िलयाँ नहीं बुझा रहा। धम कहता है िक अनुबंध का
पालन होना ही चािहए और अनुबंध के अनुसार रा भरत को ही िमलना चािहए।
िकंतु दू सरी ओर राजा का थम धम जापालन है और उस ि कोण से रा का
अिधकारी राम ही होता है । जा ... मा अयो ा की ही नहीं, स ूण भरतखंड की,
राम से ेम करती है , राम पर िव ास करती है ... उसम अगाध आ था रखती है । शेष
तीनों कुमार भी राम के ित एकिन समिपत ह। वे राम के िवरोध म सुन भी नहीं
सकते। स ूण जा और स ूण राजप रवार राम को ही आपके उ रािधकारी के
प म दे खता है । परं परा भी े पु के उ रािधकारी बनने की है । मा उसके
अयो होने की थित म ही िकसी अ के नाम पर िवचार िकया जा सकता है । ऐसे
म सविविध िवचार के उपरां त, राम ही एकमा उ रािधकारी तीत होता है । यही
आपकी यं की इ ा भी है और िन ंदेह यही भरत और यं महारानी की भी
इ ा होगी।’
‘स कह रहे ह गु दे व। व ु थित यही है । राजा- जा सभी राम को ही महाराज
के उ रािधकारी के प म दे खना चाहते ह।’ जाबािल ने भी गु दे व का समथन
िकया।
‘अब आप ही मेरा मागदशन कर गु दे व। एक ओर कैकेयी के िववाह के समय
मेरे ारा िकया गया अनुबंध है तो दू सरी ओर सबकी इ ा और सबका िहत है । ऐसे
म मेरा क ा होना चािहए। आप ही मेरी दु िवधा का समाधान कर सकते ह।’
‘म तो सदै व एक ही बात क ँ गा िक जा का िहत सव प र है । जा है इसिलए
राजा है , राजा है इसिलए जा नहीं है । रा की सुर ा राजा अपने बा बल से करता
है । रा का संचालन और जा का पालन राजा अपनी यो ता से करता है िकंतु
रा का अ जा के कारण ही होता है । जा रिहत रा का कोई अथ नहीं
होता। जारिहत रा के राजा का भी कोई अथ नहीं होता। ऐसी थित म राजा की
अपनी कोई भी िववशता, राजा का अपना कोई भी वचन जा के िहत और जा की
आकां ा से अिधक मह पूण नहीं हो सकता। जा के िहत के िलए यिद आपको
रघुकुल की आन का ाग भी करना पड़े , अपने वचन से िफरना भी पड़े , तो राजा
होने के नाते यही आपका दािय है ।’
‘अथात् आपकी अनुशंसा मेरे िनणय के प म है ?’
‘िन ंदेह!’
‘मेरी और सम राजसभा की भी महाराज!’ जाबािल ने पूछने से पूव ही अपना
अनुशंसा घोिषत कर दी।
‘अब भी कोई दु िवधा है महाराज?’ गु दे व ने अपनी िचर-प रिचत त के साथ
िकया।
‘नहीं गु दे व!’
‘तब, इसकी घोषणा कब करने का िवचार है । इस िवषय म भी िनणय कर िलया
जाए।’ जाबािल ने सलाह दी।
‘नहीं, अभी नहीं। अभी कुछ और ती ा करते ह। एक बार महारािनयों से भी
परामश कर दे खूँ।’
‘जैसा आप उिचत समझ!’
गु दे व ने भी कोई आपि नहीं की।
‘िकंतु महामा , अभी इस िवषय म अ िकसी से भी आप कुछ नहीं कहगे।
उिचत समय पर म यं ही घोषणा क ँ गा।’ दशरथ ने िनवेदन के प म महामा
को आदे श िदया।
‘जैसी महाराज की आ ा।’ जाबािल ने हँ सते ए आदे श ीकार िकया।
औपचा रक िनणय हो गया था, बस घोषणा होनी थी, उस घोषणा का अनुपालन
होना था।
***
िनणय हो गया था, िकंतु िनयित के िनणय के स ुख हमारे िनणय कोई अथ नहीं
रखते। िनयित के िनणय ने महाराज को ऐसा कृ करने को िववश कर िदया, िजसे
यिद मूखतापूण कहा जाए तो अनुिचत नहीं होगा। उनके मन के चोर ने, रघुवंश की
अपने वचन पर अटल रहने की कीित के ित उनकी संवेदना ने, उ िनणय को
गोपन रखने पर िववश कर िदया। यिद उस समय उनके मन म कैकेयी और भरत,
कारां तर से युधािजत के ित अकारण अिव ास ने ज न िलया होता तो नारद की
योजना सफल कैसे होती? दशरथ यिद एक बार अपनी आकां ा भरत और कैकेयी
के सम कर दे ते तब ... तब तो राम के रा ािभषेक के िलए ये दोनों ही
दशरथ के आगे-आगे चलते। िकंतु ऐसा हो जाता तब तो राम के ज का उ े ही
थ हो जाता। यिद ऐसा हो जाता तो र सं ृ ित का मूलो े द कैसे होता?
गु दे व के पास से आकर दशरथ उ ान म टहलने लगे। उनका िवचार मंथन अभी
भी चल रहा था। सूय ि ितज के िनकट प ँ चने ही वाला था िकंतु दशरथ को संभवत:
इसका भान ही नहीं था। वे बस िवचार करते जा रहे थे, करते जा रहे थे, करते जा रहे
थे।
अचानक उ ोंने चारों ओर ि दौड़ाई, आसपास कोई नहीं था। वे सोचते ए ही
ार की ओर बढ़े , थोड़ी ही दू र पर अंगर क सतक खड़े थे।
‘एक जाकर सेनापित मोद को बुला लाओ।’ उ ोंने आ ा दी।
‘जैसी आ ा महाराज!’ अंगर कों के मुख ने आ ा को िशरोधाय िकया। िफर
उसने एक सैिनक को संकेत िकया, वह जाने के िलए मुड़ गया।
‘अथवा को ...’
वह सैिनक आदे श की ती ा म ककर महाराज की ओर दे खने लगा।
‘.... उ मा सूिचत करो िक महाराज आ रहे ह।’
सैिनक णाम कर चला गया।
‘रथ ुत िकया जाए।’
एक दू सरा सैिनक रथ लेने चला गया।
20- मोद
मोद युवाव था म दशरथ के सेनापित होने के साथ-साथ उनके िम भी आ
करते थे। अब वे ब त वृ हो गए थे, उनके शतायु होने म कुछ ही वष शेष थे, अत:
उ ोंने सेनापित के पद से अवकाश हण कर िलया था। िफर भी सेना संबंधी िवषयों
म वे अब भी अनौपचा रक प से महाराज के िवशेष सलाहकार की भूिमका का
िनवहन करते थे। सेनापित पद का दािय अब मोद के पु िव ाधर सँभालते थे।
महाराज के सै सलाहकार के अित र एक अ अ ंत मह पूण दािय का
िनवहन करते थे मोद- वे महाराज की िविश और अितगोपन गु चर वािहनी के
मुख अभी भी थे। इस वािहनी का िवशेष काय अ रा ों म गु चरी था। इधर
िवगत कई वष से वे महाराज से िनवेदन कर रहे थे िक अब उ इस दािय से भी
मु कर िदया जाए िकंतु महाराज हर बार टाल जाते थे। अभी तक कोई अ
उपयु महाराज को नहीं िमला था।
मोद अपने ासाद के ार पर ही महाराज की ती ा कर रहे थे। उनके ेत
केश मानो च का की अगवानी कर रहे थे। ऊँचा कद िकंतु शरीर अब पूव की
अपे ा दु बला हो गया था। किट अब भी अव था के कारण नहीं, महाराज के ागत
म झुकी ई थी।
महाराज अकेले ही आए थे। अंगर कों को उ ोंने उ ान से ही िवदा कर िदया
था।
औपचा रकाताओं के उपरां त मोद महाराज को िवशेष गोपनीय क म ले गए।
महाराज का इस काल म और वह भी एकाकी आना ही कट कर रहा था िक कुछ
गोपनीय िवषय है ।
दोनों के क म वेश करते ही एक दासी जलपान की साम ी रख गयी। उसके
साथ ही मोद की प ी भी थीं। उ ोंने महाराज को णाम िकया तो दशरथ बोले-
‘अरे थम णाम का सौभा मुझे ा करने द, आप े ह।’
‘िकंतु आप महाराज ह। राजा सभी का े होता है ।’
‘इस समय महाराज नहीं, दशरथ आया है अपने सखा का कुशल ेम ा
करने।’
औपचा रकताओं का िनवहन कर मोद की प ी जाने लगीं तो मोद ने कहा-
‘हम एकां त चािहए, आप ान र खएगा।’
‘जी!’ संि सा उ र दे कर वे चली गयीं।
‘आदे श महाराज!’ प ी के जाते ही मोद ने अपनी वाचक ि महाराज के
चेहरे पर िटकाते ए पूछा।
‘आपने तो अवकाश ले िलया अपने दािय ों से। मेरा िवचार है िक अब मुझे भी
आपका अनुसरण करना चािहए।’ दशरथ ने मंद हा के साथ कहा।
‘अभी से ा आव कता है महाराज! अभी तो आप पूण थ है ।’
‘नहीं िम , आयु तो अपना भाव िदखाती ही है । िफर अब कुमार इस यो हो
गए ह िक वे मुझे इन दािय ों से मु दान कर सक।’
‘कुमारों की यो ता म तो कोई संशय ही नहीं है । सव उनकी शंसा ही सुनाई
पड़ती है । कुमार राम तो िवल ण ह। ... और अब तो वे स म िव ु के पम
ात हो रहे ह। िन य ही उ स ाट् के प म ा कर अयो ा ध हो
जाएगी।’
‘हाँ , जब राम को अयो ा का स ाट् बनाना ही है तो इस शुभ काय म िवल की
ा आव कता?’
‘उिचत है । िकंतु मेरा परामश है महाराज िक कुमार राम का स ाट् के पम
अिभषेक करने पूव अभी उनका अिभषेक युवराज के प म कर !’
‘भला ों? अभी भी आप ों मुझे इस जंजाल म फँसाए रखना चाहते ह? राम
सवथा यो है ।’
‘कुमार राम की यो ता पर कोई िच नहीं है महाराज! िकंतु, जहाँ तक मने
उ समझा है , उनका भाव अभी स ाटों के अनु प नहीं है । वे तो यं को जा
का ही एक मानते ह। वे ेक को अपनी ही भाँ ित सरलमना मानते
ह।’
‘िकंतु इसे अयो ता तो नहीं माना जा सकता?’
‘ के प म यह यो ता है महाराज, िक ु एक स ाट् के प म यह
अप रप ता ही कही जाएगी।’
‘तो समय के साथ प रप हो जाएगा।’
‘वही समय तो उ दे ने के िलए म कह रहा ँ महाराज!’ मोद ने स त कहा-
‘अभी उनका अिभषेक युवराज के प म कर, स ाट् आप ही बने रह, भले ही सारे
दािय उ सौंप द िकंतु उन दािय ों के िनवहन म उनका मागदशन करते रह।’
‘वह तो वैसे भी करता र ँ गा। वह िकरीटधारी स ाट् बन जाने के बाद भी कदािप
मेरी स ित की अवहे लना नहीं करे गा।’
‘स है महाराज, िकंतु स ाट् को अपने िकसी िनणय को िकसी भी कारण से यिद
उलटना पड़ता है तो इसका उिचत संदेश नहीं जाता। कुछ वष युवराज के प म वे
जब इस जगत् म ा िम ाचार से प रिचत हो जायगे तभी वे स ाट् के पम
प रप ता िदखा पायगे। तभी वे समझ पायगे िक संसार म ेक उनके
समान सरलिच अथवा स ा नहीं होता। तभी उनके भीतर सच और झूठ को
पहचान पाने का िववेक िवकिसत होगा।’
‘कदािचत आप स कह रहे ह, िकंतु रा ािभषेक ही उिचत रहे गा।
‘तो मुझे आदे श कर, मुझे िकस कार की भूिमका का िनवहन करना है ? कटत:
तो इसम मेरी कोई भूिमका लि त होती नहीं, यह तो गु दे व और महामा का काय
है ।’
‘गु दे व और महामा की स ित है ... और जहाँ तक आपकी भूिमका का
है , तीत होता है िक आप कुछ भूल रहे ह।’
‘ ा महाराज?’ मोद ने िव य से पूछा।
‘कैकेयी से िववाह के समय आ अनुब ।’
‘ओह!’ मोद के मुँह से बस एक श िनकला।
‘वही एक बाधा है ।’
मोद कुछ ण सोचते रहे िफर िसर िहलाते ए बोले-
‘ थम ा ऐसा तीत तो होता है , िकंतु महाराज यह बाधा है तो नहीं। वह
अनुबंध अब िकसे रण है । महारानी कैकेयी का तो कुमार राम पर अगाध ेह है
और कुमार भरत का तो कहना ही ा, उनसा शील और परा म का सम य तो
िवरले ही ि गोचर होता है ।’
‘िचंता इधर से नहीं है , िचंता युधािजत की ओर से है ।’
‘हाँ , संभव है िक वे कुछ आपि कर। िकंतु जब भरत को कोई आपि नहीं होगी
तब वे ा करगे?’
‘म मानता ँ िक भरत को राम पर अटू ट ा है । परं तु भुता की आकां ा कब
िकसकी मित िफरा दे , ा कहा जा सकता है !’
‘नहीं महाराज, िव ास नहीं होता!’
‘दू सरी कार से सोचो अ ा! भरत अथवा कैकेयी स ता से युधािजत को यह
सूचना तो दगे ही दगे। तब युधािजत यिद उ इस अनुबंध का रण करा द? वे यिद
भरत को िववश कर िक नहीं िनयमत: रा पर उनका अिधकार है ... तब? ा तब
भी भरत कुछ नहीं सोचेगा?’
मोद कुछ नहीं बोले, बस सोचते रहे ।
‘ऐसा नहीं है िक युधािजत हम रोक लगे, िक ु उ व के समय म िकसी कार के
िववाद म नहीं उलझना चाहता। रा ािभषेक िनिव स होने के उपरां त कोई
भय नहीं है । बाद म भरत भी इसे सहजता से ीकार कर लेगा।’
‘... और महाराज यिद कहीं कुमार राम ही अनुबंध के िवषय म जानकर .... ?’
मोद ने वा पूरा नहीं िकया। अशुभ का उ ारण भी वे नहीं करना चाहते थे िकंतु
दशरथ उनका आशय समझ गए।
‘व ुत: यही तो सबसे बड़ी आशंका है । राम को यिद अनुब के िवषय म ात हो
गया तो वह कदािप अपने अिभषेक को ीकार नहीं करे गा। वह अ ाय का प धर
बनने के थान पर रा का ाग करने को ही वरीयता दे गा। वह ऐसा ही है ।’
‘स है महाराज! गु दे व की ा स ित है इस िवषय म?’
‘गु दे व का कहना है िक राजा के िलए जािहत से अिधक मह पूण कुछ नहीं
होता। जा के िहत म राजा को यिद अपने वचन की अवमानना भी करनी पड़े तो
कर दे नी चािहए।’
‘ता य?’
‘ जा का िहत, अयो ा का िहत राम के साथ जुड़ा है । पर रा े पु के ही
रा ािभषेक की है , जब तक िक उसम कोई अ ंत गंभीर िवकार न हो। कारां तर
से वे राम के ही रा ािभषेक के प धर ह। महामा भी।’
‘तब ा शंका है ?’
‘अभी आप यं ही शंका उप थत कर चुके ह।’ दशरथ िकंिचत मु ु राये-
‘अनुबंध के िवषय म ान होते ही राम त: ही ....’
मोद मौन सोचते रहे । कुछ ण उपरां त अिन य से बोले-
‘तब ... तब ा कुमार भरत का ही रा ािभषेक करना होगा? य िप सभी कार
से यो ह वे भी िक ु ...’
‘भरत का रा ािभषेक हम करना भी चाह तो ा जा इसे ीकार करे गी?’
‘कदािप नहीं करे गी महाराज!’ मोद एक ण के िफर आगे बोले- ‘कुमार राम
यिद मा आपके पु होते तब प र थित िभ होती िकंतु जा के मन म वे ीिव ु
के अवतार के प म िति त हो रहे ह।’
‘हाँ , जा राजा को ई र का ितिनिध मानती है इस नाते उसका ेक आदे श
ीकार करती है । कोई िवरोध नहीं करती। िकंतु यहाँ यं ई र और ई र के
ितिनिध के म होगा ... िजसम िन ंदेह जा ई र के प म होगी। िव ु
जनसामा के िलए का ही दू सरा नाम ह और राम उ ीं िव ु का अवतार!’
‘तब आपने ा सोचा है ?’
‘सोच पाया होता तो आपके पास परामश माँ गने ों उप थत आ होता? तब तो
सीधे आपको यह शुभ-समाचार दे ता िक अमुक-अमुक ितिथ को राम का
रा ािभषेक होना है ।’ कहकर दशरथ मु ु राये।
मोद भी मु ु राये।
कुछ पल मौन रहा, िफर दशरथ ने ही मौन तोड़ा-
‘मुझे तो एक ही माग ि गोचर हो रहा है ।’
‘ ा महाराज?’
‘रा ािभषेक तो राम का ही होना है । बस इस भां ित हो िक युधािजत को सूचना ही
न िमल पाए।’
‘उसम कौन सी बड़ी बात है ?’
‘है बड़ी बात। रा ािभषेक का िनणय ा हम भरत और कैकेयी से गोपन रख
सकते ह?’
‘नहीं!’
‘कैकेयी से तो एक बार रखा जा सकता है । अक ात िनणय ल और अिभषेक
कर डाल। पूव म उसके िवषय म कोई चचा ही न हो।’
मोद ने सहमित म िसर िहलाया।
‘िकंतु चारों कुमार तो अिभ ह। चारों सदै व एकसाथ ही रहते ह। राम को सूचना
होते ही चारों को हो जाएगी। और तब भरत उ ाह से यह शुभ-सूचना अपने मातुल
और मातामह को भी दे दे गा।’
‘राम को रोक नहीं सकते भाइयों को सूचना दे ने से?’
‘ ा कहगे? बालकों के समान वहार कर बैठते ह कभी-कभी आप!’
मोद बस मु ु रा िदए, बात ही उ ोंने ब ों वाली कर दी थी।
‘रोकते ही राम कारण पूछेगा, ा बताया जाएगा? बता िदया गया तो वह यं ही
भरत के रा ािभषेक का ाव कर बैठेगा।’
‘भरत को भी नहीं रोक सकते िक युधािजत को सूचना न करे ...’ मोद बोले-
‘इतने उ ाह का समाचार, मन अपने ेहीजनों को अिवल दे ना ही चाहता है ।’
कहकर वे सोचते ए ऊपर-नीचे िसर िहलाने लगे।
‘कुमारों के िववाह के समय युधािजत भरत को िलवाने आए थे, यह तो ात होगा
आपको?’ एकाएक दशरथ ने िकया।
‘जी! ात है । य िप म तो यहीं था िकंतु सूचना िमली थी।’
‘उस समय तो यह संभव ही नहीं था अत: उ ोंने भी आ ह नहीं िकया था, िकंतु
अब तीत होता है िक सबसे उिचत अवसर वही होगा जब भरत युधािजत के साथ
गए ए हों।’
‘सही सोचा है आपने।’ मोद के िचंितत चेहरे पर उ ाह झलक उठा।
‘भरत यिद यहाँ नहीं होंगे तभी वृ ां त को उनके सं ान म आने से बचाया जा
सकता है । रा ािभषेक हो जाने के उपरां त न तो युधािजत साहस करगे ... यिद
करगे भी तो अयो ा दु बल नहीं है । ... और तब चाहकर भी राम जा का आ ह
टाल नहीं पाएगा।’
‘स है ... िकंतु महारानी?’
‘महारानी तक सूचना कुछ काल तक टाली जा सकती है । राम को कुछ काल तक
िकसी भी काय म उलझाकर महारानी कैकेयी से उसकी भट टाली जा सकती है ,
िकंतु भरत से नहीं। िफर महारानी के पास उतने संसाधन भी नहीं ह िजतने भरत के
पास ह। महारानी को समय लगेगा युधािजत से स क थािपत करने म िकंतु भरत
के िलए एक िदन ही पया है । भरत यिद यहाँ नहीं होंगे तो रा ािभषेक से पूव
युधािजत को ात ही नहीं हो सकेगा।’
‘घोषणा अिभषेक से िकतनी पूव करगे महाराज?’
‘दो, अिधकतम तीन िदवस पूव। संभव आ तो एक ही िदवस पूव।’
‘इतने कम समय म सम व थाय पूण हो जायगी?’
‘ ों नहीं! कुछ व थाय आपके िनदशन म, िकसी भी बहाने से, घोषणा के पूव
से ही चलती रहगी।’
मोद ने सहमित म िसर िहलाया। कुछ दे र सोचा, दशरथ मौन उनकी ओर ताकते
रहे ।
‘अब मुझे आदे श कीिजए, मुझे ा करना होगा इस स म? मुझे तो अब भी
अपनी कोई भूिमका समझ म नहीं आ रही।’
‘है आपकी भूिमका। आपके िजतने भी गु -सू ह केकय और उसके आसपास,
उ सतक कर दीिजएगा। यिद उ वहाँ कोई हलचल िदखाई पड़े तो अिवल
ग ण संदेशवाहकों के मा म से अयो ा संदेश भेज द।’
‘अभी करता ँ ।’
‘अभी नहीं! अभी नहीं! ...’ दशरथ हँ से- ‘जब घोषणा का समय आएगा उससे
कुछ पूव। अभी तो आपको दू सरा काय स ािदत करना है ।’
‘वह भी आदे श कीिजए।’
‘कुछ ऐसी व था कीिजए िजससे युधािजत पुन: भरत को िलवाने आ जाय ...
शी ही आ जाय ... और इसम हमारी कोई संिल ता भी िदखाई न दे । ऐसा न तीत
हो िक हम यं भरत को केकय भेजने के इ ु क ह।’ कहकर दशरथ पुन: एकबार
हँ से।
इस बार मोद ने भी उनका साथ िदया।
‘करता ँ कुछ उपाय। वहाँ राज ासाद म भी कुछ गु -सू ह। उ सूचना
भेजता ँ िक वे शी ही कोई उिचत अवसर दे खकर महाराज अ पित को भरत की
याद िदलवाने का यास कर।’
‘िकंतु सावधानी से, इसम अयो ा की संिल ता भािसत न हो।’
‘वहाँ िकसी को उनके अयो ा से िकसी कार के संबंध का ान नहीं है । वे
अयो ा के राजकुमार का नहीं महाराज अ पित के दौिह का ही रण करगे।’
कहते ए मोद हँ स पड़े - ‘गु चर का भेद िजस िदन कट हो जाता है , उसकी
मृ ु उसी िदन िनि त हो जाती है । श ु प रह उगलवाने के िलए उसे ितल-ितल
कर मृ ु की ओर धकेलता है तो िम प उसे एक झटके म ही मृ ु की गोद म
सुला दे ने का यास करता है ।
‘यह सब आप ही समझ।’
21- श ू क
‘अरे द र शू ! तेरा साहस कैसे आ िव ों की इस गली म वेश करने का?’
लगभग पचास वष के, वेशभूषा से ा ण तीत होने वाले एक ने श ूक का
माग रोकते ए ितर ारपूण र म कहा।
‘इसम साहस की ा बात है िव वर! अयो ा म कोई भी माग िकसी के िलए भी
िनिष नहीं है । मेरे गंत हे तु यही माग उपयु था अत: मुझे इससे आना पड़ा।’
श ूक ने शा से उ र िदया।
‘उ ं ड शू ! तुझे महामा ने व ृâता कुछ अिधक ही िसखा दी तीत होती है ।
अपनी िज ा को िनयं ण म रख अ था दु रणाम का उ रदायी तू यं होगा।’
‘िव वर! मने तो कुछ भी अनुिचत नहीं कहा है , न ही आपके स ान को ठे स
प ँ चाने का कोई यास िकया है । िफर भी यिद आप अकारण मुझपर ह तो मेरे
पास कोई उपाय नहीं है आपका ि य करने का।’
‘तू मेरा अि य करे गा? इतना साहस हो गया है तेरा?’
‘म आपका कुछ भी अि य नहीं कर रहा ँ , न ही करना चाहता ँ । म तो मा
अपनी राह जा रहा ँ ।’
‘नहीं तू मेरा अि य कर। दे खूँ तो िकतनी साम है तुझम!’
‘अकारण िववाद का कोई योजन नहीं है । मुझे माग दे दीिजए और मुझे जाने
दीिजए।’
‘नहीं अब ऐसे नहीं जाएगा तू। तू अपनी अिभलाषा पूण कर, मेरा अि य कर, ा
करना चाहता है ?’
‘मने पहले ही कहा िक म आपका कुछ भी अि य नहीं करना चाहता िकंतु ि य
करने का भी कोई उपाय मुझे िदखाई नहीं पड़ता।’
‘ ा िववाद है काका?’ आस-पास के चबूतरों पर कुछ युवकों के िसर िदखाई
पड़ने लगे थे। सभी वेशभूषा से ा ण तीत होते थे। उ ीं म से एक युवक ने
िकया।
‘अरे कुछ नहीं िवभूित! हमारी ही गली म आकर हमारा अि य करने की धमकी
दे रहा है ।’
‘िव वर! ों वृथा िववाद बढ़ाने का यास कर रहे ह? मने ऐसा तो कुछ भी नहीं
कहा।’
‘अ ा! अब मुझ पर िम ा भाषण का आरोप भी लगा रहा है । तू ही तो एकमा
महाराज ह र का उ रािधकारी उ आ है पृ ी पर।’
‘मुझसे बात कर ....’ अब तक िवभूित भी चबूतरे से कूद कर वहाँ आ गया था।
उसने श ूक का कंधा पकड़ कर उसे अपनी ओर घुमाने का यास करते ए
कहा। िफर उसने उस ा ण से कहा- ‘काका आप बैिठए।’
‘मुझे कुछ नहीं कहना, मुझे माग दीिजए और अपनी राह जाने दीिजए।’
‘ऐसे कैसे जाने द तुझे?’ एक दू सरे युवक ने उसे ध ा मारते ए कहा- ‘कर
अि य काका का, हम भी तो दे ख तेरी साम !’
श ूक कोई उ र दे ता उससे पूव ही माग पर जहाँ ये लोग एक थे उसके पूव
की ओर बने भवन के वातायन से एक ौढ़ र ने बाधा दी-
‘छोड़ो उसे सुमेघ, तुम भी अलग हटो िवभूित, उसकी कोई ुिट नहीं है ।’ िफर
वही र िववाद आर करने वाले से स ोिधत आ- ‘और जग ाथ यही
तु ारा पा है ? यही िव ाजन िकया है तुमने जो अकारण इससे िववाद उ
करने का यास कर रहे हो? म स ूण करण यहाँ से यं दे ख रहा था, उस बेचारे
का कोई दोष नहीं है ।’
‘बाबा! इसका और कुछ दोष हो अथवा न हो, िकंतु शू होकर एक ा ण का
अपमान िकया है , शू होकर जग ाथ काका से समता करने का यास िकया है ।
इसका द तो इसे दे ना ही पड़े गा। अ था ...’
‘इसिलए तुम मेरी आ ा का उ ंघन कर मेरा अपमान करोगे? ... और तुम
ायाधीश कबसे बन गए? छोड़ो उसे।’ वह र अब श ूक से स ोिधत आ-
‘जाओ व ! तुम अपनी राह जाओ।’
‘प त ि लोचन जी, आप ों बीच म पड़ रहे ह। आप जैसे लोगों के कारण ही
तो ा णों को अपमान का दं श झेलना पड़ रहा है ।’ जग ाथ प त ने वातायन से
झाँ कते उस ौढ़ को पलट कर उ र िदया- ‘मेरे अपमान का द तो इसे भुगतना
ही पड़े गा।’ कहने के साथ ही उ ोंने श ूक पर हाथ छोड़ िदया। प त ि लोचन
के ह ेप और श ूक के ित उनकी प धरता ने उनके ोध की अि म घृत का
काय िकया था।
पर ु उनका हाथ श ूक को श नहीं कर सका, जैसे माग म ही िकसी अ
श ने उसे जकड़ िलया हो। वे और ितलिमला उठे । उनका संदेह सीधा प त
ि लोचन पर ही गया। श ूक म भी कुछ आ ा क श याँ हो सकती ह इसे
उनके ा ण का अहं ीकार करने की सोच भी नहीं सकता था। वे िसर उठा
कर चीख पड़े -
‘ि लोचन जी! आपका यह कृ उिचत नहीं है । आप एक शू के स ुख मुझे
अपमािनत कर रहे ह। म ा ण महासभा म प रवाद ुत क ँ गा, वहाँ आपको
अपनी धृ ता का समुिचत उ र दे ना पड़े गा।’ उनका हाथ अभी भी असहाय सा
अधर म अटका आ था।
‘मुझ पर िनराधार दोषारोपण ों कर रहे ह िम ! मने तो जो कुछ दे खा वही कह
िदया। इस पर भी यिद आप ा ण सभा म प रवाद ुत करना चाह तो आप
तं ह। म इसका उ र दे लूँगा वहाँ ।’
‘और इसका ा उ र दगे?’ जग ाथ पंिडत ने अपने अधर म अटके हाथ की
ओर आँ ख से संकेत करते ए कहा-‘यह जो आपने अकारण मेरा हाथ बाँ धा आ
है !’
‘यह मेरा कृ कदािप नहीं ह। िक ु एक बात अव क ँ गा िक ा णों का
अपमान तो आप जैसे लोगों के कारण हो रहा है । जो आ ा क श आपके पास
होनी चािहए थी, वह शू होते ए भी इसके पास है । आपका हार इसे श तक
नहीं कर पा रहा है । ल ा आनी चािहए आपको।’
‘ वचन बाद म दाrिजएगा, पहले मेरा हाथ मु कीिजए।’
‘उससे किहए ...’ पंिडत ि लोचन ने हँ सते ए कहा- ‘महामा िन य ही आप से
ब त अिधक यो ह। पा -कुपा का िनणय करने की उ समझ भी है और
अिधकार भी। यिद उ ोंने इसे सुपा माना है तो उनके िनणय का स ान कीिजए
और इसकी िव ा का भी। ा ण वही है जो िव ा का स ान करना जानता है । इसे
अपमािनत कर आप व ुत: इसका अपमान नहीं कर रहे , आप तो यं महामा
का अपमान कर रहे ह, दे वी सर ती का अपमान कर रहे ह और सबसे मुख
अपने ा ण का अपमान कर रहे ह।’
पंिडत जग ाथ ने अब अिव ास से आँ ख तरे र कर श ूक की ओर दे खा। वह
अब भी शां त खड़ा था। पंिडत जी को अपनी ओर आकृ दे ख कर वह पूववत
िवन ता से बोला-
‘मुझे माग दे दीिजए, आपका हाथ त: मु हो जाएगा।’
िववशता थी, पंिडत जग ाथ ने माग छोड़ िदया। श ूक आगे बढ़ गया।
‘तुझे इस धृ ता का दं ड अव िमलेगा मूख! रण रखना, यह पंिडत जग ाथ
की ित ा है । यह पंिडत अब अपनी िशखा म ंिथ तभी लगाएगा जब तेरे िवनाश की
अपनी ित ा पूण कर लेगा।’ पीछे से पंिडत जग ाथ चीखते रहे ।
श ूक ने उनके लाप की ओर ान नहीं िदया।
***
जाबािल अब पया वृ हो चुके थे, अपने महामा के उ रदािय ों का भी
भलीभां ित िनवहन अब उ किठन तीत होता था। आयु भी तो उनकी न े वष से
अिधक हो रही थी। इधर श ूक की िश ा भी अब पूण हो चुकी थी, गु कुल का
दािय अिधकां शत: अब वही सँभालता था। आर क िदनों म जो अ छा इस
गु कुल से जुड़े थे, वे इस व था म उसका सहयोग करते थे। व ुत: उनके
गु कुल म चमकार समुदाय के मा दो छा थे। इधर कुछ िदनों से दोनों ही
अनुप थत थे। श ूक उ ीं की खोज-खबर लेने जा रहा था िक माग म यह वधान
उ हो गया।
जाबािल का यह गु कुल अ गु कुलों से थोड़ा सा िभ था। अ पर रागत
गु कुलों म िव ाथ गु कुल म ही रहते थे, माह म मा दो बार उ अपने घर जाने
की अनुमित होती थी। उनके िवपरीत यहाँ िव ाथ राि म नहीं कते थे। वे िन
ात: मु त म आते थे और म ा म उनकी छु ी हो जाती थी। आर के कुछ
वष म यहाँ भी िव ािथयों के थाई प से गु कुल म ही रहने की व था रखी गयी
थी िकंतु वह व था चल नहीं पाई। शू वग के नाग रकों के िलए अपने बालकों का
वेदा यन उतना मह पूण नहीं था िजतना उनके अपने पैतृक काय म िनपुणता
ा करना था। उसीसे उनकी रोटी चलनी थी। ा णों की भाँ ित वे िभ ाटन से
अ ा की साधना नहीं कर सकते थे। उ भला कौन िभ ा दे ता? गु कुलवािसयों
और सं ािसयों के अित र अ ा ण िभ ाटन नहीं करते थे िकंतु उ स
गृह थों से और रा की ओर से भी पया दान िमलता रहता था, िजससे उनका
सहजता से िनवाह हो जाता था। िकंतु दान ा करने का अिधकार तो मा ा णों
को ही था, इन शू ों को दान भी कौन दे ता! इ तो अपनी पारं प रक जीिवका के
ारा ही जीवन यापन की व था करनी थी।
इस कारण जब कई वष तक िव ािथयों की सं ा चार से आगे नहीं बढ़ी तो
िववश होकर यह प ित अपनानी पड़ी थी। इससे अ र पड़ा था िकंतु ब त भारी
अ र भी नहीं पड़ा था। अब इस गु कुल म चालीस िव ाथ थे। इनम बीस से ऊपर
तो श ूक के समुदाय के ही थे। शेष अ वग के थे। ि ज वग का कोई भी िव ाथ
अब इस गु कुल म नहीं था। ि जों म, मु तया ा णों म ऐसे ब त से थे
जो जाबािल की इस पहल के समथक थे िकंतु वे मुखर होकर उनका समथन नहीं
कर सकते थे। मुखर समथक उँ गिलयों पर िगनने भर के ही थे। उनम से कुछ ने
आरं भ म अपने ब ों को यहाँ भेजा भी था िकंतु यह भी अिधक समय तक नहीं चल
पाया। शी ही उन लोगों को अनुभव होने लगा िक महामा के सब िविध यो होते
ए भी उनके गु कुल म उन लोगों के ब ों की िश ा उस र की नहीं हो सकती
थी िजस र की गु विश के गु कुल म अथवा अ गु कुलों म होती थी। कारण
जाबािल के गु कुल की अ मता नहीं था, कारण था िक वहाँ िश ा उन शू बालकों
के र के अनुसार दी जाती थी, जो वहाँ अिधकां शत: थे। ाभािवक तौर पर
औपचा रक िश ा की ि से शू बालकों का र ा ण बालकों से काफी नीचे
था। उ जो कुछ भी िश ा ा होती थी गु कुल म ही ा होती थी जबिक
ा ण बालकों को अनेक शैि क सं ार घर पर दै न न जीवन म ही ा हो
जाते थे।
इ ीं सारे िवषयों पर िवचार करता आ श ूक चला जा रहा था। उसका मन
िव ािथयों की अनुप थित से पहले ही ख था, इस करण ने उसकी ख ता और
बढ़ा दी। उसे यही आशंका हो रही थी िक कहीं उन दोनों िव ािथयों की अनुप थित
के पीछे भी ऐसा ही कोई सामािजक दबाव तो नहीं था? उ भी तो धमकाया नहीं
गया था?
िक ु उन िव ािथयों के घर प ँ चने पर पता चला िक उसकी आशंका िनमूल थी।
दोनों िव ाथ चचेरे भाई थे, एक ही घर म रहते थे। दोनों ही र से पीिड़त थे। घर
के चबूतरे पर एक ही छ र के नीचे दोनों लेटे ए थे। प रवार वाले भी वहीं एक
थे। पूछने पर श ूक को एक बुजुग ने बताया िक ात:काल तां ि क को बुलाया गया
था और उसने बताया था िक बालकों पर िकसी ेता ा का साया है ।
श ूक को ोध आ गया। सामा त: आता नहीं था पर आ गया। िफर भी ोध
पर िनयं ण करते ए उसने कहा-
‘हटो मुझे दे खने दो।’
प रवारीजनों ने उसके िलए थान कर िदया।
श ूक ने बालक का नाड़ी परी ण िकया। जीभ की थित दे खी। माथा दे खा। घर
वालों से कुछ िकए ... कारण उसकी समझ म आ गया। यह एक सं मण था जो
सं िमत पशुओं के स क म आने से फैलता था। इसम रोगी को ती र हो जाता
था और वह लाप करने लगता था। उिचत िचिक कीय सुिवधा न िमलने पर
उसकी मृ ु भी हो सकती थी। वय ाय: बच जाते थे िकंतु ब ों के िलए
यह जानलेवा िस होता था। चमकारों का इस ािध से सं िमत होना सामा बात
थी। उनका वसाय ही मृत पशुओं की खाल उतारना था। उ सूचना दे ता
था िक उसका पशु मर गया है और वे जाकर उसे उठा लाते थे। पशु सं िमत है यह
कौन दे खता था ... दे खना चाहता भी तो िकस कार दे खता!
श ूक प रवार वालों को उनकी मूखता के िलए डाँ टने ही जा रहा था, िकंतु कुछ
सोच कर चुप रह गया। यह भूत- ेतों म आ था अयो ा के शू ों म ा सबसे बड़ा
रोग था। यिद वह उ डाँ टता तो वे अपनी आ था के चलते उसे ही मूख िस कर
दे ते और वही करते जो वह तां ि क उ बताता।
‘तुम लोग गु कुल म सूचना नहीं कर सकते थे, महामा से बड़ा कौन तां ि क है
अयो ा म?’ श ूक ने उनसे उ ीं की िविध म बात करने का िन य करते ए
कहा।
‘जी, हमारा साहस नहीं आ।’ एक ने उ र िदया।
‘िकसी िम ी के पा म लाकर गाय के गोबर के उपले सुलगा दो।’ श ूक ने
िनदश िदया।
एक ी उपले लेने चली गयी।
‘आस-पास कोई प शाला (दु कान) है ?’ श ूक ने िफर िकया।
‘हाँ , है एक छोटी सी।’ एक युवक ने उ र िदया।
‘तो चलो मेरे साथ।’
‘ ा उपचार िकया है तां ि क ने?’ माग म श ूक ने पूछा।
‘पता नहीं जाने ा मं पढ़ता रहा। एक-एक गंडा बाँ ध गया है दोनों की बाँ ह
पर। कुछ भभूत दे गया है पानी म िमलाकर िपलाने को।’
‘ठीक है , िदखाना चलके मुझे भभूत।’
तब तक प शाला आ गयी थी।
श ूक ने अगु , कपूर और कुछ अ जड़ी-बूिटयाँ लीं उससे। मू चुकाया।
साम ी की पोटली युवक ने उठा ली।
‘... और ले ा गया तु ारा तां ि क?’ वापसी म श ूक ने पूछा।
‘तीन भां ड म ले गया है । कल पुन: आएगा। कल की पूजा म एक कु ु ट की
बिल दी जाएगी, उसकी व था करने को कह गया है । कल तीन भां ड म और
लेगा।’
‘कोई उपवन है पास म? अथवा कोई सरोवर या वापी (छोटा तालाब) जहाँ व
वन ितयाँ िमल जाएँ !’
‘वापी तो घर के पीछे ही है ।’
युवक घर के बगल म र पड़े थान से होकर श ूक को घर के िपछवाड़े तक
ले गया। वापी स ही घर के पीछे ही थी। उसके बाद ढे र सारे वृ , झािड़याँ और
लता-गु फैले ए थे। वापी का घेरा काटकर दोनों दू सरी ओर प ँ चे। थोड़े से यास
से ही श ूक को वां ि त वन ितयाँ िमल गयीं।
ये लोग वापस प ँ चे तो उपले सुलगते िमले।
दोनों ब े भूिम पर एक ही िबछौने पर लेटे ए थे। श ूक ने दोनों के िलए पृथक
िबछौनों की व था करवाई। दोनों के म दो हाथ का अ र रखाया और दोनों के
बीच म सुलगते उपलों का पा रख िदया। िफर जो भी साम ी उसने प शाला से
य की थी वह एक ी को दी और उसे कूट लाने को कहा। वह ी जब साम ी
कूट लाई तो श ूक ने उसके छ: भाग िकए और एक भाग सुलगते उपलों पर डाल
िदया।
‘दो िदन तक ये उपले िनरं तर सुलगते रहने ह। जैसे ही आग कम हो जाए उपले
बढ़ाते रहना और ेक हर म इस साम ी का एक भाग अि म डाल दे ना। इन
बूिटयों का धू िनरं तर ास के साथ इन दोनों के भीतर जाता रहना चािहए। ... समझ
गए?’
‘हाँ !’ एक युवक ने उ र िदया।
‘तुम नहीं, तुम से नहीं होगा।’ श ूक मु ु राया- ‘माता कौन है इसकी?’
एक ी आगे आई।
‘तुम समझ गयीं?’
ी चुप खड़ी रही। श ूक ने उसे िफर से समझाया।
िफर उसने साथ लायी यीं वन ितयाँ उठाईं।
‘ये दे खो, इस जड़ को ... प र पर िघस कर, मु त म एक बार दोनों के नथुनों पर,
सीने पर और हाथों-पैरों के नखों पर लगाना है , ठीक?’
ी ने िसर िहला िदया।
‘िकतनी-िकतनी दे र म?’ श ूक ने पुन: िकया।
‘मु त म एक बार।’ ी समझ गयी थी।
‘आज और कल दो िदन तक ऐसे ही करना है । ... और ये बाकी सारी वन ितयाँ
पीस कर रख लो। ेक दो मु त बाद इसम से एक चुटकी भर लेकर थोड़े से
गौमाता के दु म िमलाकर दे ते रहना है ।’
ी ने िसर िहला िदया पर पीछे से एक लड़की ने पूछा-
‘सो जाय ये तब भी दे ना है जगाकर?’
‘नहीं सो जाय तब नहीं दे ना है , पर लगाने वाली दवाई सोते पर भी िजतनी बार तुम
जाग सको, लगा दे ना ... और ये जड़ी-बूटी वाला धुआँ ब नहीं होना चािहए ...
समझ गए?’
‘जी!’ ी ने उ र िदया।
‘और दे खो, उस तां ि क को दु बारा नहीं आने दे ना है ।’
‘िक ु ...’ एक वृ ने कुछ कहना चाहा।
‘िकसी भी थित म नहीं। महामा के िश से अिधक यो नहीं होगा तु ारा
तां ि क।’
इसके बाद श ूक कुछ समय तक होठों म कुछ मं बुदबुदाता रहा। अथववेद के
वे मं ई र से ब ों के ा की कामना करते ए थे। उनका योजन शारी रक
उपचार से अिधक अिभभावकों के मानिसक उपचार के िलए था। उन शू ों को तं -
मं की श पर अगाध आ था थी, यह मं ो ार उनकी उसी आ था की संतुि के
िलए था।
तीसरे िदन जब शंबूक वहाँ पुन: प ँ चा तो ब े पया थ हो चुके थे। स ूण
चमकार समुदाय म उसकी यो ता की धाक बैठ गयी और कुछ ही िदनों म गु कुल
म उनके बीस से अिधक ब ों ने वेश ले िलया।
22- आचाय शु
दु िनया का सबसे जो खम भरा काम है िकसी आ ामक भाव के अ िवि
को यह समझाने का यास करना िक उसे पागलपन के दौरे पड़ते ह और उसे
उपचार की आव कता है । ऐसी अ िवि मिहला यिद यं सा ा ी हो, साथ ही
साथ सवश मान स ाट् की दु लारी बहन हो तब ...?
यही थित थी च नखा के साथ। िकसी का साहस नहीं था उसे यह सलाह दे ने
का िक उसे उपचार की आव कता है ।
रावण कर सकता था िकंतु वह िवद् यु के वध के अपराधबोध के चलते और
च नखा के ित अपने ेह के चलते नहीं कर पा रहा था।
च नखा की िवि ता के िशकार द कार के सामा बनते थे।
लंका म सामा यों से उसका स क ही नहीं होता था। यहाँ वह सामा तया
राजप रवार के सद ों के ही स क म रहती थी और उ अब उसकी िवि ता
का अ ास हो गया था। वे अब इसे ग ीरता से नहीं लेते थे, िसवाय म ोदरी और
रावण के। िक ु दोनों ही िववश थे। जब भी च नखा रावण के सामने कोई उप व
करती थी तो वह उसे स ोिहत कर शां त कर दे ता था िकंतु यह उपचार तो न था।
जैसी िक अपे ा थी, च नखा ठने, ना-ना करने के बाद भी उ व म लंका आई
थी। लंका का यह उ व भी, भले ही छोटा सा था िकंतु भ था। च नखा ने इस
उ व म भी छोटा-मोटा उप व िकया। कुछ पा रवा रक लोगों को अपमािनत िकया
और रावण ने सदै व की भां ित स ोहन से वशीभूत कर उसे शां त कर िदया। इस
कार उ व सो ास, िनिव िनबट गया।
दू सरे िदन च नखा द कार वापस लौट गयी।
आचाय शु भी उ व म स िलत थे। िक ु जब वे उ व से लौटे तब रावण
च नखा म होने के कारण उ िवधानपूवक िवदा नहीं कर सका था अत:
अगले िदन वह उनसे एक औपचा रक भट करने प ँ च गया।
बात च नखा की ही िछड़ गयी।
‘स ाट् अपनी भिगनी का उिचत उपचार ों नहीं करते ह?’ औपचा रकताओं के
आदान- दान के उपरा आचाय ने िबना िकसी लाग-लपेट के सीधा िकया।
‘आचाय! कोई उपचार िदखता ही नहीं।’
‘यह दशानन रावण कह रहे ह िजनके पास ात आयुवदाचाय की पूरी सेना है
... जो यं म िव के सव े आयुवद प तों म थान रखते ह?’ आचाय के रम
आ य था।
‘आयुवदाचाय औषिध बता सकता है ... दे सकता है िक ु सेवन तो रोगी को ही
करना होता है ।’
‘ ा स ाट् यह कहना चाह रहे ह िक द कार म प रचा रकाओं का अभाव
है ?’
‘नहीं आचाय! आपके आशीवाद से अभाव श का नामो ेख तक लंका म नहीं
है । िकंतु च नखा को उसकी यं की इ ा के िव औषिध दे ना ा िकसी के
िलए संभव है ?’
‘ ों बालकों सी बात कर रहे ह स ाट् ?’ कहते ए आचाय मु ु राये- ‘वै ऐसे
रोिगयों को अनेक उपायों से औषिध-का सेवन करवाते ह।’
‘आचाय वर! च नखा उ ािदनी है , मूख नहीं। उसे छल से औषिध दे पाना
संभव नहीं है । वह रावण को अपना अपराधी मानती है ... अनुिचत भी नहीं मानती।
वह यह आ ेप भी लगाती है िक उसे लंका से, प रवार से, सारे अपनों से पृथक कर
िदया गया है , िकंतु लंका म िटकती भी नहीं है । यहाँ िटके तो कोई माग िनकाला भी
जाए, वहाँ द कार म इतनी साम िकसकी है जो ऐसा यास भी कर सके!’
‘मानी आपकी बात िकंतु िजस स ोहन-वशीकरण से स ाट् उसकी िवि ता
को िनयंि त करते ह उसीके योग से उसे िनयिमत औषिध-सेवन की भावना नहीं दे
सकते?’
‘नहीं दे सकता आचाय! बार ार यास िकया है इसका िकंतु कभी फलीभूत नहीं
आ।’
‘ ों भला?’
‘आपने संभवत: ग ीरता पूवक मनन नहीं िकया इस पर अ था आप यं
समझ गए होते!’ रावण ने कुछ हताश से र म कहा।
‘स है आपका कथन। मेरे स ुख तो यह कल थम बार ही उप थत आ
िकंतु िफर भी यह िव ास करना संभव नहीं है िक दशानन भी िववश हो सकता है
और वह भी एक साधारण से काय के िलए।’
‘आपको भले ही िव ास न हो रहा हो िकंतु कठोर वा िवकता यही है आचाय!
रावण अपनी भिगनी से, उसके िहताथ ही सही, यह िकस भां ित कह सकता है िक
वह िवि है । िकतना आघात प ँ चेगा उसे इस स को ीकार करते समय!
इससे यिद उसके मन म हताशा ने अथवा हीनभावना ने घर बना िलया तब? तब तो
थित इससे भी िवकट हो सकती है ।’
‘ऐसा कुछ नहीं होगा दशानन! दशानन की मताओं से कौन अप रिचत है भला!
आप जो इस भां ित सोच रहे ह उससे आपकी दु बलता ही दिशत हो रही है ।’
‘अपनी भिगनी के िवषय म रावण दु बल है आचाय!’
‘िकंतु दशानन मा च नखा का भाई ही नहीं है , वह स ाट् भी है ।’
‘ि लोक के िलए रावण स ाट् हो सकता है िकंतु च नखा के िलए तो उसका भाई
ही है । उसका अभागा, अपराधी भाई!’
‘सोिचए दशानन, सोिचए! आप राजनीित के महापंिडत ह। ा आपको यह
रण कराने की आव कता है िक राजनीित संवेदनाओं से नहीं, कूटनीित से
चलती है । स ाट् को आव कता पड़ने पर कठोर होना ही पड़ता है । मह पूण
उ े की साधना के िलए यिद संवेदनाओं से समझौता करना पड़े तो करणीय है ।’
रावण ने कोई उ र नहीं िदया।
‘राजा का िव ान होना उ म है ...’ शु ाचाय आगे बोले- ‘संवेदनशील होना और
भी उ म है िकंतु इनका राजा के पाँ वों की अगला बन जाना कदािप ेय र नहीं
है ।’
रावण अब भी मौन रहा।
‘अ ा स ाट् कुछ और भी िनवेदन करना था।’ शु ाचाय ने अनुभव िकया िक
इस िवषय म और बात करने का कोई औिच नहीं है , रावण चं नखा के ित
अपनी कोमल भावनाओं के आगे िववश है अत: उ ोंने िवषय प रवतन करते ए
कहा।
‘आदे श दीिजए, आचाय वर!’
‘अब शु ाचाय अनुमित चाहता है । लंका म उसका काय स ूण हो चुका है ।’
‘ ा रावण ने कुछ अनुिचत कह िदया?’ रावण चिकत था। वह तो अब तक
शु ाचाय को लंका का अिभ अंग मानने लगा था।
‘नहीं स ाट् , ऐसी कोई बात नहीं है । िकंतु अब शु ाचाय की आव कता उसकी
ज भूिम को भी है ।’
‘िकंतु कुमारों की िश ा।’
‘वह तो स ूण हो ही चुकी है और अब तो लंका के पास अनेक समथ आचाय ह
जो िनकु ला को शु ाचाय की अनुप थित का अनुभव नहीं होने दगे।’
‘शु ाचाय का थानाप कोई नहीं हो सकता आचाय वर और अ य तो अभी
गु कुल म ही है ।’
‘अ य की िश ा स ूण होने म अभी पया समय शेष है । उतने काल तक क
पाना शु ाचाय के िलए संभव नहीं है ।’
‘तब आचाय, उसकी िश ा का ा होगा? उसके ित यह अ ाय नहीं होगा
आचाय?’
‘नहीं स ाट् ! शु ाचाय यिद यहाँ का, तो वह अ अपनों के ित अ ाय
करे गा। अ य के िश ण- िश ण के िलए अब िनकु ला म अनेक समथ आचाय
ह ... और सबसे मुख यं मेघनाद है । अ य की िश ा कोई सम ा नहीं है ।’
‘तो भी आचाय! .... िकसी ने भी यिद अनजाने म भी आपके ित अव ा दिशत
की हो तो ...’
‘स ाट् , ा िकसी म शु ाचाय की अव ा करने की साम है ?’ शु ाचाय ने
हँ सते ए ित िकया।
‘िफर? िफर ों आप लंका के गु कुल को अनाथ करना चाहते ह?’
‘ऐसा नहीं है स ाट् ! लंका म शु ाचाय को जो स ान िमला है उससे वह
अिभभूत है । उस स ान से भी अिधक मह पूण है लंका म उसे मेघ जैसा िश
िमला ... िजसे पाकर कोई भी आचाय यं को ध मानेगा। िकंतु ज भूिम की
पुकार की भी तो उपे ा नहीं की जा सकती, जाना ही होगा अब!’
‘यिद आप जाने का िन य कर ही चुके ह तो इतना िनवेदन ीकार कर िक जाने
के उपरां त भी समय-समय पर लंका को अपना आशीवाद दान करते रहने का
अनु ह बनाये रख। यहाँ से जाने के प ात् लंका, रावण और मेघनाद को िव ृत ही
न कर द।’
‘जैसी आपकी इ ा।’ शु ाचाय ने मंद त के साथ अनुरोध ीकार कर िलया-
‘वैसे भी स ाट् मेघनाद जैसे िश को कोई भी गु अपने जीवन म िव ृत नहीं कर
सकता। उसे जब भी आव कता होगी, शु ाचाय अपने अ सम उ रदािय ों
का अनुपालन थिगत कर उसके मागदशन हे तु उपल होगा।’
‘रावण कृताथ है आचाय! िकंतु ा सच म ही कोई संभावना नहीं है िक आप
अपने िनणय पर पुनिवचार कर सक?’ रावण ने एक और यास िकया।’
‘नहीं स ाट् ! इसके िलए शु ाचाय को िववश करने का यास न कर।’
‘इतनी ाथना तो ीकार कर िक लंका आपको भ समारोह पूवक, आपके
गौरव के अनुकूल िवदा कर सके। लंका को इ िजत दान करने हे तु आपके ित
िविधपूवक अपनी कृत ता ािपत कर सके।’ रावण ने हाथ जोड़ कर िनवेदन िकया।
शु ाचाय ने भी इस हे तु स त मौन ीकृित दान कर दी।
एक स ाह के उपरां त आयोिजत भ समारोह म लंका ने अपने इस महान
आचाय को अ ुपू रत ने ों से स ानपूवक िवदा िकया।
ाभािवक था, आचाय के लंका से जाने के िनणय से सवािधक िव ल इ िजत
मेघनाद ही था।
23- गौतम के आ म म हनु मान
‘ ों रे ! सु ीव के साथ-साथ तूने भी िक ं धा को पूणत: ाग िदया?’
‘अरे नहीं माता! आप भी कैसी बात करती ह।’
‘िम ा कहती ँ ा? आज िकतने िदन बाद तेरे दशन हो रहे ह, वह भी तब, जब
मने अंगद से कहकर तुझे बुलवाया!’
‘तो आप जब चाह तब बुलवा सकती ह, अंगद तो िन ही आता है ।’
‘ता य, िबना बुलवाये तू नहीं आएगा? सु ीव के आगे माता-िपता का कोई मू
नहीं तेरे िलये?’
‘कैसी बात कहती हो अ ा?’ कहते ए हनुमान अंजना से िलपट गए। जब वे
िअधक लाड़ म होते थे तो अंजना से अ ा ही कहते थे। अपना िसर उसके कंधे पर
रख िदया िफर बोले- ‘तुमसे और बाबा से अिधक मू वान तु ारे बजरं ग के िलए
कोई नहीं हो सकता।’
‘हट! बात बनाना ब त सीख गया है ।’ अंजना के ने सजल हो उठे ।
‘अरे अ ा, तुम भी न! िबना बात रोने लगती हो। हँ सो अ ा!’ कहते ए हनुमान
अंजना के पेट म गुदगुदी करने लगे।’
‘छोड़ अ ा!’ कहते-कहते अंजना की मु ु राहट छूट गयी- ‘ ोध भी नहीं करने
दे ता!’
‘हनुमान के अ ा-बाबा भला उस पर ोध कर सकते ह!’ कहते ए हनुमान
खुलकर हँ से- ‘अ ा यह तो बताओ िक िकस योजन से बुलवाया था?’ हनुमान ने
अधीरता से िकया।
‘ ा िबना िकसी योजन के तुझे बुलवा भी नहीं सकती तेरी अ ा?’
‘अरे अ ा तो कान पकड़ कर जब चाहे बुला सकती है , परं तु कुछ न कुछ िवशेष
तो अव ही है ।’ हनुमान ने लिड़याते ए जोड़ा- ‘बताओ न!’
‘िमिथला से सूचना ा ई है ।’
‘िमिथला से? िक ु वहाँ से हमारा ा संबंध?’
‘कोई स ही नहीं हमारा िमिथला से? इतना शी सब भूल गया?’
‘अरे हाँ , हनुमान की अ ा तो िमिथला की ही ह, म तो भूल ही गया था। िकंतु वहाँ
से भला ा सूचना हो सकती है , बजरं ग के मातामह और मातामही तो ...’
‘अरे तेरी मातामही का िनवासन समा हो गया है ।’
‘ ा?? सच अ ा! कैसे आ? िकसम इतना साहस आ जो सबके िव
जाकर मातामही अह ा को ... अरे अ ा, सच म म िकतना स ँ ...’ हनुमान ने
वा पूरा नहीं िकया बस अंजना को उठाकर आँ गन म च र खलाने लगे।
‘अरे छोड़ मुझे!’ अंजना ने लाड़ से हनुमान के गाल पर चपत मारते ए कहा-
‘छोड़, और पूरी बात सुन।’
‘अरे ! अभी और भी है , ा मातामह भी िनवासन से लौट आए?’ हनुमान ने
माता को छोड़ते ए कहा।
‘दे ख मुझे च र आने लगे। तेरी माता तेरे समान िशव का अंश थोड़े ही है ! वह
सामा ी भर है ।’
‘अरे बात बताओ अ ा, मुझसे अब ती ा नहीं होती।’
‘हाँ , िपता भी लौट आए ह। उन दोनों का जीवन पुन: सामा हो गया है । उनका
आ म पुन: व थत होने लगा है ।’
‘िकंतु अ ा, यह सब संभव कैसे आ?’
‘हट, मुझे च र आ रहे ह।’ अंजना िसर पकड़ते ए मु ु रा कर बोली- ‘इतनी
जोर से तो नचा िदया।’
‘बताओ, नहीं तो िफर से नचाऊँ!’ कहते-कहते हनुमान ने अंजना के कंधे पकड़
िलए।
‘रहने दे , रहने दे ... बताती ँ ।’ कहकर अंजना पेट पकड़ कर हँ स पड़ी- ‘बैठ
अ ा सीधी तरह से!’
हनुमान भी सामने पड़ी दू सरी चारपाई पर बैठ गए।
‘ यं भु ीिव ु ने िकया यह सब।’
‘ भु ीिव ु ने?’ अनुमान ने आ य से पूछा - ‘ भु ीिव ु आए थे यं?’
‘उस प म नहीं आए थे। ... तुझे ात नहीं भु िव ु ने राम के प म अवतार
िलया है ।’
‘वह तो ब त पुरानी बात है ।’
‘पुरानी नहीं। म जामद ेय राम की बात नहीं कर रही।’
‘िफर? ीिव ु का अवतार तो वही कहे जाते ह।’
‘वे तो ष िव ु ह, अब तो स म िव ु का अवतार भी हो चुका है ।’
‘िकंतु बात तो तुम राम की कर रही हो।’
‘ भु के स म अवतार का भी लौिकक नाम राम ही है ।’ अंजना मु ु राई-
‘अयो ापित दशरथ के पु राम।’
‘कैसा संयोग है अ ा? एक ही समय म भु के दो-दो अवतार और दोनों का नाम
भी एक ही - राम!’
‘संयोग तो है । िकंतु जामद ेय तो अब परशुराम के नाम से ही जाने जाते ह, अपने
परशु के कारण।’
‘ ँ ऽऽऽ ... ष परशुराम, स म राम ... यही न?’
‘हाँ , िकंतु आगे तो सुन।’
हनुमान ान से सुनने लगे।
‘सम भूम ल पर से अ ाय का नाश करने के िलए भु ीिव ु ने दरशथ पु
राम के प म अवतार िलया है । वे ऋिषयों के य ों की और आय सं ृ ित की र ा
के िलए ज े ह।’
‘वह सब तो ठीक है अ ा, िकंतु तुम मातामही के करण पर आओ न!’ हनुमान
उकताने से लगे थे।
‘दे ख यिद सुनना है तो बीच म वधान मत डाल। वधान डालना हो तो जा वहीं
अपने मतंग वन म।’ अंजना तुनक गयी।
‘अ ा सुनाओ, नहीं डालूँगा वधान।’
पर अंजना बैठी रही।
‘अब सुना न, कह तो िदया िक नहीं डालूँगा वधान।’
‘तो सुन, पर समझ ले।’ अंजना ने ोध का अिभनय करते ए आँ ख तरे रीं।
‘समझ िलया।’ हनुमान आकर माता की ही चारपाई पर बैठ गए और उसके गले
म एक हाथ डालकर लिड़याते ए बोल- ‘मेरी अ ी अ ा!’
अंजना पसीज गयी।
‘ताड़का और उसके पु सुंदरवन म आतंक मचाए ए थे। ऋिषगण य भी नहीं
कर पा रहे थे उनके कारण। ऋिषगणों की ओर से िष िव ािम गए य ों की र ा
के िलए राजा दशरथ से भु राम को माँ गने। भु के साथ उनके छोटे भाई ल ण
भी आए, और सु रवन आकर दोनों ने रा सों का नाम तक िमटा िदया।’
‘ ँ ऽऽऽ!’ हनुमान ने कुछ उकताई सी ई ं कारी भरी।
‘इन घटनाओं के िवषय म तूने तो सुना नहीं होगा?’ अह ा ने हनुमान का गाल
थपथपाते ए िकया।
‘नहीं माता! वहाँ मतंगवन तक सूचनाय प ँ च ही नहीं पातीं।’
‘और पड़ा रह वहाँ कूप-म ू क बनकर! म मना तो नहीं करती तुझे वहाँ जाने से
िकंतु वहीं बस जाने की कौन सी रीत है भला।’
‘इस पर बाद म चचा कर लगे, अभी तुम िवषय से मत भटको। ... परं तु यहाँ तक
यह चचा कैसे प ँ ची? अंगद ने भी नहीं बताया मुझे।’
‘चचा तो अभी यहाँ तक भी नहीं प ँ ची है ।’ अंजना मु ु राई।
‘तो तु कैसे पता चला?’
‘मेरी माता ने सूचना भेजी न मेरे पास! बुलाया है हम तीनों को।’
‘अव चलगे, पर अभी तुम कथा कहो। िवषय से मत भटको।’
‘सु रवन जब रा सों से मु हो गया तो िष िव ािम ने सोचा िक जब भु ने
न र शरीर धारण िकया ही है तो इनका इनके अनु प क ा से िववाह भी होना
चािहए।’ अंजना कुछ पल की, िसर उठाकर हनुमान की आँ खों म दे खा और
उपालंभ दे डाला- ‘एक तू है , िववाह के िवषय म बात ही नहीं करने दे ता।’
‘मेरी अ ी अ ा, सह ों बार समझाया तु िक तु ारा हनुमान चय त
धारण िकए है । उसका िववाह संभव ही नहीं है । पर तुम अभी कथा कहो, अ बात
बाद म कर लेना!’
‘तेरे िपता भी तो चय- त धारण िकए ए थे ... उ ोंने िववाह िकया अथवा
नहीं?’
‘ओह अ ा ... अब इस िवषय को ाग भी दो ...’ हनुमान ने गहरी िवर से
कहा- ‘और वापस िवषय पर आओ। इस िवषय पर हम बाद म कभी तक कर लगे।’
अंजना ने आहत ि से पु को दे खा िफर आगे कहना आरं भ िकया-
‘ि भुवन म भु के यो क ा तो एक ही हो सकती थी। जनकन नी, िजसने
भु िशव के धनुष को, िजसे आज तक कोई िहला तक नहीं सका ... रावण तक, उसे
बस कौतुक म ही उठा िलया।’
‘ ँ ऽऽऽ’
‘बस िष भु को लेकर चल िदए िमिथला की ओर। माग म माता का आ म
था, जहाँ वे स ूण जगत ारा बिह ृ त रवत िनवास कर रही थीं। वह जनशू
आ म दे खकर भु ने िज ासा की तो िष ने सारी कथा सुनाई। बस, भु को
ोध आ गया। उ ोंने घोषणा कर दी िक जो भी अह ा के बिह ार का साहस
करे गा,उनका बाण उसकी छाती छे द दे गा।’
अब हनुमान सतक होकर बैठ गए।
‘अब भला भु का आदे श कौन टाल सकता है , माता का बिह ार समा हो
गया।’
‘और मातामह?’
‘जब सुनाती ँ तो बीच म टोकता है । सुन ान से, बता तो रही ँ सब।’
‘अ ा सुनाओ।’ हनुमान हँ स िदए।
‘ भु ने तेरे मातामह को भी संदेश भेज िदया। अब यं भु का आदे श वे भी कैसे
टाल सकते थे ... उ ोंने भी अपनी ित ा वापस ले ली। अब वे भी लौट आए ह
आ म म। आ म पुन: जीवंत हो उठा है ।’
‘यह तो तुमने ब त अ ा समाचार िदया। िकंतु समाचार लाया कौन?’
‘ ों? मेरा भाई िमिथला का राजपुरोिहत है । सह ों साधन ह उसके पास।’ गौरव
का दशन करती ई अंजना बोली और हँ स पड़ी।
‘बताओ न माँ !’
‘म भी नहीं पहचानती कौन ह, तेरे बाबा के साथ गए ह।’
‘कब आए थे?’
‘कल राि से पूव।’
‘और ा- ा बताया उ ोंने?’ हनुमान अब अधीर हो रहे थे, अपने मातामह-
मातामही के िवषय म, साथ ही उस िद पु ष के िवषय म जानने को भी िजसकी
कृपा से उनकी मातामही इतने बड़े कलंक से मु यी थीं।’
‘ब त शंसा कर रहे थे भु की। उनकी त, उनका हा , उनका ला ,
उनकी छिव सभी की मु -कंठ से शंसा कर रहे थे।’ अंजना हँ सी- ‘उनके पास तो
श ों का भयंकर संकट उ हो गया था भु की शंसा के िलए।’
‘कब तक लौटगे बाबा?’
‘तू भी न! ...’ अंजना ने आँ ख तरे रीं- ‘पहले भी कभी बता कर गए ह तेरे बाबा जो
आज बताकर जाते ... म ा जानूँ!’
‘ओह!’
‘तू यं ही ों नहीं खोज लेता जाकर उ ?’
‘नहीं, मेरा मन नहीं िमलता मातुल से।’
‘उ ोंने तो सदै व तुझे ेह ही िदया है , िफर मन ों नहीं िमलता?’
‘पता नहीं, बस ऐसे ही।’
‘ऐसे-वैसे कुछ नहीं! जा, बाबा जहाँ कहीं हों उनसे और अितिथ दोनों से िमलकर
आ। वे महाराज के पास हों तो वहीं चले जाना, दे खना िक महाराज ा वहार
करते ह तेरे साथ। ... और हाँ , अपने िपता से कहना िक शी ही आय ... और
िमिथला जाने के िवषय म भी महाराज से अनुमित ले ल। म शी ही जाना चाहती ँ ।’
हनुमान बैठे रहे , उ समझ नहीं आ रहा था- ा कह, ा कर।
‘अब जा भी, बैठा ों है ? जा ज ी’ अंजना ने हनुमान को ठे लते ए कहा।’
***
हनुमान को वैरा अपने िपता से िवरासत म िमला था। िनरास भाव से
सद् कम म त ीन रहना उनका भाव था। माता-िपता का ढ़ िव ास था िक
उनम िशव का अंश है । िशव ने यं उनकी माता को दे कर यह बात बताई थी।
यह स था अथवा माता-िपता की आ था भर ही थी, यह मा िवधाता के अित र
कोई नहीं बता सकता िकंतु श म वे िशव के समान अपराजेय थे। बल म बािल,
िजसके िवषय म मा ता थी िक यु म ितप ी का भी आधा बल वह अप त कर
लेता है , भी उनके सम फीका था।
बु उनकी अतुलनीय थी ही। सूयदे व और इ के साथ अबोध बचपन म ही ई
थम मुठभेड़ के बाद से ही सूयदे व उनके अन शंसक बन गए थे और उ ोंने
पूण मनोयोग से उ िश ा दान की थी। फल प ान का महासागर उनके
भीतर िहलोर लेता था।
उनके जीवन म यह पहला अवसर था जब उनका यह िनरास भाव थोड़ा सा
िवचिलत आ था। माता से वाता के उपरां त से ही उनके मन म अपने नाना-नानी से
भट करने की ती उ ं ठा जा त हो गयी थी। िपता के प रवार म कोई जीिवत ही
नहीं था। प रवार के प म उ ोंने अभी तक माता-िपता के अित र मा बािल,
तारा, सु ीव, मा और अंगद को ही जाना था। उ ोंने भी उ अपनों के समान ही
ेह िदया था िकंतु अबोध अव था के उपरां त ही उ ात हो गया था िक वे सब
अपने अव थे, िकंतु उनके प रवार से उनका कोई र -संबंध नहीं था।
मातामह-मातामही के िवषय म स ूण कथा उ ात थी, इ के ित उनके मन
म आ ोश भी था। तभी तो अबोध बचपन म ही इं के साथ उनका टकराव आ था,
िजसके उपरां त उ हनुमान नाम ा आ था। िकंतु समय के साथ-साथ वह
आ ोश अब शा सा हो गया था। नाना-नानी दोनों से ही िमलना ोंिक संभव नहीं
था, अत: उनके िवषय म िज ासा भी नहीं होती थी। परं तु इस नवीन रह ोद् घाटन
से उनसे िमलने की वह सु िज ासा पुन: िसर उठाने लगी। माता के उकसाने पर
वे िपता और यह सूचना लाने वाले अितिथ को खोजने िनकल पड़े ।
बाहर िनकल कर थोड़ा सा ही पूछताछ से उ पता चल गया िक िपता और
संदेशवाहक दोनों अभी सभाभवन म महाराज बािल के साथ ही ह। वे उधर ही बढ़
चले।
‘अरे ! आज तो युगों बाद अपने व ां ग के दशन ा हो रहे ह।’ हनुमान
को दे खते ही बािल ने स तापूवक कटा िकया। केसरी और बािल ये दो ही थे जो
अब भी हनुमान को व ां ग कहते थे। अंजना बजरं ग और शेष सब तो हनुमान कहते
ही थे।
हनुमान सकुचा गये, उ ोंने मा एक संकोची मु ान से उ र िदया और आगे
बढ़कर चरण श कर महाराज का आशीवाद िलया। िफर उ ोंने इसी भां ित
महाराज की बगल म ही बैठे अपने िपता का आशीवाद िलया और शेष सभी
सभासदों को िसर झुकाकर हाथ जोड़कर णाम िनवेिदत िकया। िपता ने अपने
दािहनी ओर बैठे एक की ओर संकेत िकया, हनुमान ने दे खा, वह कृश शरीर,
ख ाट शीश, कंधे पर अँगौछे के प म पड़े गै रक उ रीय, ेत अधोव और
कंधे से लेकर जंघाओं तक आता आ य ोपवीत धारण िकए कोई युवा स ासी था।
हनुमान ने उसे भी चरण श कर णाम िकया और बैठ गए।
‘व ां ग! ये ह आय िवरं िच। महिष गौतम के आ म से पधारे ह और इतना
उ ाहजनक समाचार लाए ह िक हम सभी इनके ज -ज ां तर तक के िलए ऋणी
हो गए ह।’
‘जी महाराज! माता ने बताया।’
‘इस समय ये औपचा रकताय उतार कर एक ओर धर दो। सभा समा हो चुकी
है , अब इस समय तु ारा मातुल तुमसे स ोिधत है ।’ कहते ए बािल खुलकर
हँ सा।
सभी हँ स पड़े ।
‘तो यह सौभा दीदी ने पहले ही ा कर िलया।’ बािल ने कहा।
हनुमान बस मु ु राकर रह गए। िकसी कार बस िवरं िच से इतना ही कह सके-
‘िव वर! कुछ और समाचार दीिजए मातामह और मातामही के।’
‘अरे अब और समाचार ा ... बस िमिथला चलने को त र हो जाओ।’ उ र
बािल ने ही िदया।
‘हाँ व ! इस समय हम िमिथला- थान के िवषय म ही िवचार कर रहे ह।’
केसरी बोले।
***
अगले िदन ही िमिथला के िलए थान हो गया। केसरी, अंजना और हनुमान के
अित र बािल और अंगद भी साथ थे। तारा भी आना चाहती थी िकंतु मा के
कारण क गयी। मा का अब कहीं भी आने-जाने का मन नहीं होता था। ... और
हाँ िवरं िच तो साथ थे ही।
ल ी दू री थी। प ह िदन तो माग म ही तीत हो गए।
‘माता!’ आ म म प ँ चते ही अंजना माता से िलपट गयी।
‘ ों, िपता से कोई ेह ही नहीं है तुझे?’ गौतम ने उलाहना िदया।
‘ ती ा कीिजए ऋिषवर, थम मुझे भलीभां ित भट लेने दीिजए।’ उ र, अंजना
को और भी कसकर अपनी बाहों म भींचते ए अह ा ने िदया।
‘जैसी आपकी इ ा दे वी।’ ऋिषवर मु ु रा उठे ।
इस बीच शेष सभी आगंतुक उनके चरण- श कर आशीवाद लेने लगे।
गौतम का आशीवाद लेने के उपरां त सब अह ा के मु होने की ती ा करने
लगे। उसे दे ख कर सभी िव त थे। आयु ने मानों उसे श ही नहीं िकया था। यिद
ात न होता िक वह अंजना की माता है तो सब उसे अंजना की बहन ही समझते।
इस बीच मंगला आ म की अ यों के साथ फलाहार की व था कर लाई।
तब अह ा ने अंजना को मु िकया और ती ारत शेष यों को आशीवाद
दे ने का उप म िकया। हनुमान ने जैसे ही उसके पैरों म िसर रखा, उसने हनुमान
को उठाकर सीने से िचपटा िलया और उसके भाल पर चु नों की झड़ी लगा दी।
िफर आँ खों से ही मानो उनकी छिव को पीती ई बोली-
‘व ां ग, उपयु नाम रखा है अंजना तूने इसका। राम का सव े सहयोगी िस
होगा यह।’
मातामही के कथन से हनुमान पुलक उठे । उ भु की सेवा का अवसर ा
होगा, िन य ही यह ब त बड़ा सौभा था।
‘िव त मत हो पु , युगों तक तु ारा नाम तु ारे भु के नाम के साथ रण
िकया जाएगा।’
‘िकंतु माता मेरी उनसे भट कैसे होगी? म मातुल सु ीव को ागकर अयो ा म
िनवास तो नहीं कर सकता।’
‘यह िचंतन करना तु ारा काय नहीं है , तु ारे भु तु यं ही खोज लगे, जहाँ
भी तुम होगे।’ अह ा ने मंद त के साथ उनकी िज ासा को शां त िकया।
हनुमान और भी स हो गए।
िफर सब पुरानी यादों को दु हराने म हो गए।
सूचना ा होते ही अगले िदन शतानंद भी आ गए। उनके साथ यं महाराज
सीर ज भी थे। एक बािल जैसा साम वान नृप उनके रा म आया था, उसका
औपचा रक ागत करना उनका कत था।
कुल िमला कर िमिथला की या ा अ ंत उ ासमय रही। ेक िमिथलावासी
को जैसे राम और सीता की शंसा करने की लत थी। जो भी िमलता वह िकसी भी
िवषय पर बात चल रही हो, घुमा-िफरा कर उसे राम पर या सीता पर ले आता था
और लग जाता था उनकी शंसा करने म। हनुमान यं राम के कृत थे अत: इस
शंसा- ापार से उ कोई आपि भी नहीं थी। िफर अह ा के कथन ने उ राम
के ित और भी स ोहन म जकड़ िदया था। वे तीत होते ेक ण के साथ
िसया-राम के भ बनते चले जा रहे थे।
एक स ाह आ म म तीत करने के उपरां त बािल ने वापसी की बात की।
उसने केसरी, अंजना और हनुमान के स ुख यह ाव भी रखा िक यिद वे चाह तो
क सकते ह िकंतु केसरी ने भी चलने का ही िनणय िकया।
चलते समय अह ा ने मंगला का हाथ अंजना के हाथ म दे ते ए कहा-
‘पु ी तुझे यह एक भिगनी सौंप रही ँ । इसका ान रखना, यह हनुमान के भु,
राम के य म उनकी सहयोिगनी बनेगी।’
अह ा के इस अचानक िनणय से मंगला भी िव त रह गयी-
‘िकंतु माता मुझे यं से िवलग ों करना चाहती ह? ा मुझसे कोई ुिट हो
गयी?’
‘िनणय करने वाले हम नहीं होते पु ी! सारे िनणय तो वह जो एक िवदू षक बैठा है
न अनंत आकाश म ... वही लेता है । हम-तु तो मा उसके िनणयों का स ान
करना होता है । तु ारे िलए अब उसका िनणय यही है िक तुम मेरे हनुमान की
सहयोिगनी बनो।’
24- रािनयों को सू चना
अयो ा म दशरथ के पु ों के िववाह की दू सरी वषगाँ ठ थी। अयो ा के सम
छोटे -बड़े उ व पूरे वैभव के साथ आयोिजत होते थे। यह भी एक छोटा सा ही
उ व था िकंतु अनायास बड़ा हो गया था।
इस आयोजन म दशरथ ने राज-प रवार के सद ों, आमा ों और अ मह पूण
राजकीय कमचा रयों के अित र मा नगर के कुछ िविश जनों को ही आमंि त
िकया था। ात:काल से लेकर स ूण िदवस भर चलने वाला काय म था। सभी
आ ीयजन उप थत थे। खूब भीड़-भाड़ थी। राज-प रवार म ही ा कम लोग थे।
राजप रवार से मा दशरथ और उनकी पि यों-पु ों-पु वधुओं को ही मत िगन
लीिजएगा। इ ाकुवंश की चालीस से अिधक पीिढ़याँ अयो ा पर शासन कर चुकी
थीं। पर रानुसार राजा का े पु रा का उ रािधकारी बनता चला आया था,
परं तु राजवंश म तो सारे पु और उनके प रवार आते थे, उनके सारे उ रािधकारी
भी आते थे। उनम से कुछ ने ही राज ासाद को छोड़कर अ अपनी व था की
थी अथवा अ कहीं अपना रा थािपत िकया था, शेष सभी अभी भी अयो ा के
स ूण नगर के समान िवशाल राज ासाद प रसर म ही िनवास करते थे। य िप
सामा िदनों म इनका दशरथ अथवा कुमारों के साथ कोई िवशेष स क नहीं होता
था िकंतु उ वों म सारे ही पूरे उ ाह से स िलत होते थे।
राज प रवार के सद ों के अित र प रवार सिहत आमा गण, अ िविश
अिधकारीगण और िविश जन उप थत थे। ासाद का िवशाल मैदान खचाखच भरा
आ था। कमी थी तो बस जा की। िन के पा रवा रक आयोजनों म आम जा का
ा काम था!
सभाभवन के ठीक पीछे के िवशाल आँ गन के म म िवशाल वेदी म य की अि
िलत थी। गु दे व विश और उनके पीछे बैठे ए अ पुरोिहतगण मं ो ार
कर रहे थे। चारों कुमार सप ीक वेिदका के तीन ओर वतुलाकार प म बैठे ए
आ ितयाँ समिपत कर रहे थे। ात:काल से म ा हो गया, तब पूणा ित तक प ँ च
पाये। सभी के शरीर ेद- ात थे। दािसयों के चँवर उस ेद को सुखा पाने म
असमथ थे।
य के उपरां त सारे िविश जन ासाद के िवशाल उ व-क म आ गए। अ
जनों को आँ गन म ही साद िवतरण होने लगा।
क म अ सभी के िलए अनुचर साद और भोजन की व था कर रहे थे।
गु दे व और पुरोिहतों के िलए तीनों महारािनयाँ यं फलाहार लेकर आयीं। य म
दीि त सभी यों और पुरोिहतों के िलए अ का सेवन विजत था।
‘जबसे वधुएँ आ गयी ह, महारािनयों के तो दशन ही दु लभ हो गए ह।’ महारािनयाँ
जब साम ी गु दे व के स ुख पीिठका पर सजा रही थीं तो गु दे व ने िवनोदपूण
कटा िकया।
‘गु दे व! सास का अिधकार जगत म सबसे बड़ा अिधकार होता है । अब
महारािनयों ने वही अिधकार ा कर िलया है ।’ महाराज ने िवनोद म गु दे व का
साथ िदया।
‘ऐसी कोई बात नहीं है गु दे व!’ कौश ा ने मु ु राते ए उ र िदया- ‘ ा
बताएँ , वधुएँ अभी नयी ह ... अयो ा की रीित-नीित से अप रिचत ह। साथ ही अपनों
से िबछु ड़कर आयी ह; उ हमारे ेह की आव कता है ।’
‘ता य, अब वधुओं के स ुख विश का कोई मू नहीं रह गया।’ गु दे व ने
अ हास िकया।
‘ ों ल त कर रहे ह गु दे व!’
‘नहीं, ल त नहीं कर रहा, म तो स को उद् घािटत कर रहा ँ ।’ गु दे व ने
हँ सते ए ही प रहास जारी रखा।
‘ऐसा करते ह जीजी!’ कैकेयी ने वाता की बागडोर सँभालते ए कहा- ‘आज साँ झ
ही हम तीनों आ म चलती ह।’
‘हाँ , गु दे व को असंतु नहीं िकया जा सकता।’ मु ु राते ए सुिम ा ने जोड़ा।
‘ ागतम् ! ागतम् !! महारािनयों का गु कुल म सदै व ागत है । सम
आ मवासी आज सायंकाल आतुरता से ती ा करगे।’ गु दे व ने सहज हा से
कहा।
‘हम अव उप थत होंगी गु दे व! िकंतु अभी आप इन अिकंचन फलों पर तो
कृपा कर।’ कैकेयी के इस सहज कटा पर सभी हँ स पड़े ।
‘महाराज! आप भी चलगे न?’ कैकेयी ने दशरथ से िकया।
‘यिद आपका आदे श होगा तो अव चलगे। गु दे व का आशीवाद तो सदै व
का है ; अयो ा को भी, अयो ा-नरे श को भी।’
‘नहीं महाराज!’ विश दशरथ की बात काटते ए िवनोदपूवक बोले- ‘यह
आमं ण मा महारािनयों के िलए ही है ।’
‘अब तो हमारा चलना संभव ही नहीं है महारानी!’ दशरथ ने भी अिभनयपूवक
कैकेयी को उ र िदया।
तभी एक हरी आकर हाथ जोड़कर खड़ा हो गया और महाराज के उसकी ओर
दे खने की ती ा करने लगा। शी ही महाराज उसकी ओर आकिषत ए- ‘ ा
है ?’ उ ोंने िकया।
‘महाराज! ासाद के बाहर भारी सं ा म जाजन भी कुमारों को बधाई दे ने हे तु
एक ह और भीतर वेश की अनुमित चाहते ह।’
दशरथ िवचार करने लगे- अनुमित दी जाए अथवा नहीं। तभी गु दे व ने ह ेप
िकया-
‘जाओ राम को बुला लाओ।’
हरी आ ापालन हे तु चला गया तो गु दे व बोले-
‘ जाजनों को आज अपने राम से िमलने से रोका नहीं जा सकता महाराज।’
दशरथ भी िवचार करने के उपरां त इसी िन ष पर प ँ चे थे।
थोड़ी ही दे र म अकेले राम ही नहीं, चारों कुमार आ गए। जाजनों की इ ा को
भला राम कैसे नकार सकते थे। चारों भाई, अपनी पि यों सिहत ासाद के बाहर के
मु मैदान म साँ झ होने तक जाजनों से भट करते रहे , उनकी बधाई और
आशीवाद हण करते रहे ।
सभी आने वालों के िलए भरपेट ही नहीं घर ले जाने लायक साद की भी व था
हो गयी।
***
सायंकाल तीनों महारािनयाँ समय से गु कुल म उप थत यीं।
मंथरा के अित र कोई प रचा रका साथ म नहीं थी।
गु दे व अपनी कुटी म ही थे, उ ोंने त रता से तीनों का ागत िकया। गु प ी
अ ं धती भी उप थत थीं। णाम और आशीवाद की औपचा रकताओं के उपरां त
विश ने अ ं धती से िनवेदन िकया-
‘दे वी! महारािनयों के िलए कुछ जलपान का बंध तो दे खए !’
जलपान की व था हे तु यं अ ं धती के जाने की कोई आव कता नहीं थी।
आ म म अनेक ऋिष-पि याँ थीं, मयादानुकूल यह सम व था सँभालने के
िलए। िकंतु अ ं धती सहज भाव से व था हे तु चली गयीं। वे अपने पित का संकेत
समझ गयी थीं िक वे महारािनयों के साथ एकां त चाहते थे और अ ं धती को इसीकी
व था दे खनी थी िक िकसी को शंका भी न हो और इस एकां त म कोई वधान भी
उप थत न हो।
ार पर मंथरा बैठी थी। गु दे व की एका -वाता को सुिनि त करने के उ े से
कुिटया से िनकलते ए अ ं धती ने उससे आ ह िकया- ‘मंथरे ! ा मेरे सहयोग हे तु
चलेगी?’
‘अरे दे वी! उसे ों क दगी? इतने सहयोगी ह तो आ म म आपके िलए।’
गु दे व ने संकेत िदया िक उसकी यहाँ आव कता पड़ सकती है ।
अ ं धती मु ु राती ई चली गयीं।
‘महारानी! अब आपके कत -िनवहन का समय उप थत हो गया है ।’ अ ं धती
के जाते ही गु दे व कैकेयी से संबोिधत ए।
‘आदे श कर गु दे व, कैसा कत ?’ कैकेयी के र म िव य झलक रहा
था। िव य की रे खाय अ दोनों रािनयों के मुख पर भी कट हो गयी थीं।
‘वही कत िजसके िनवहन का वचन आपने दे विष को िदया था।’
कैकेयी के चेहरे पर एक पल के िलए न समझने वाले भाव आए। इधर उ ासपूण
वातावरण म वे उस अि य दािय का बोध लगभग िबसार ही चुकी थीं। अ
रािनयाँ भी कुछ चिकत थीं िकंतु मंथरा के चेहरे पर उ ाह की त नृ कर उठी।
गु दे व मु ु राते ए कैकेयी के मुख पर अपनी ि जमाए रहे । उनकी मौन
मु ु राहट ने ही कैकेयी से सब कुछ कह िदया। उ सब रण हो आया।
‘िकंतु गु दे व इस समय? अभी िदन ही िकतने ए ह उनके िववाह को ... इस
समय ...? ’
‘यही उिचत समय है महारानी!’ गु दे व पूववत मु ु राते ए बोले।
‘िकंतु गु दे व ...’ सुिम ा ने ह ेप िकया- ‘दे विष ने हमसे स क ों नहीं
िकया? िकतने करने ह हम उनसे।’
‘संभवत: इसीिलए नहीं िकया होगा।’ गु दे व हँ स पड़े - ‘आप तीनों के एक साथ
-शरों का सामना कर पाना भला िकसके िलए संभव है ।’
‘तो ा हम मा बिलदान दे ने के िलए ही ह, हम िव ास म लेने की कोई
आव कता नहीं? राम के ब िष के साथ जाने के समय भी उ ोंने हम सूचना तक
दे ना आव क नहीं समझा था।’ सुिम ा का रोष था।
‘दे विष ऐसे ही ह!’ विश मु ु राये।
‘छोड़ सुिम े!’ कौश ा ने उसे शा करने का यास िकया।
‘ ा छोड़ूँ जीजी, अभी भी दे विष ने हमसे सीधे स क करने के थान पर गु दे व
से स क िकया है । हमारे जो ह ...’
‘अरे तो ा आपके गु दे व इस यो नहीं ह िक दे विष उनसे स क कर सक?’
गु दे व ने कुछ इस कार कहा िक तीनों रािनयाँ बरबस मु ु रा उठीं- ‘आपको ा
तिनक भी आभास नहीं हो रहा िक मने आपको एका म ों बुलाया है ?’ गु दे व
आगे बोले।
‘राम को रावण-अिभयान हे तु भेजने के संदभ म।’ कैकेयी ने उ र िदया।
‘िनि त प से। ... और हाँ , आपको बता दू ँ िक दे विष ने मुझसे स क नहीं
िकया, मने ही उनसे स क थािपत िकया था। यहाँ जो थितयाँ बन रही थीं, उनम
मुझे आव क तीत आ था।’
‘कैसी थितयाँ गु दे व? अयो ा म तो सब सामा ही चल रहा है ।’ तीनों रािनयों
के मुख से एकसाथ िनकला। तीनों की टकटकी गु दे व के मुख पर लगी थी।
‘व ुत: कुछ िदन पूव महाराज ने मुझसे स क िकया था।’ गु दे व ने बारी-बारी
तीनों रािनयों की ओर ि पात करते ए कहा- ‘राम के रा ािभषेक के संबंध म
परामश करने के िलए।’
‘अरे ! यह तो अ ंत शुभ है ।’ तीनों ही रािनयों के मुख उ िसत हो उठे ।
‘तो ा परामश िदया आपने महाराज को?’ कैकेयी ने िकया।
‘वही जो मुझे दे ना चािहए था। ... मने उ शुभ शी म् का ही परामश िदया।
यह जानते ए भी िक आपके िववाह के समय आ अनुब इसकी अनुमित नहीं
दे ता।’ गु दे व ने स त कैकेयी की ओर दे खा।
‘ओह गु दे व! उस अनुब को कचरे म डािलये। वह तो एक थ की
औपचा रकता थी जो िपताजी ने िनभाई थी। संभवत: वे जीजी के भाव से प रिचत
नहीं थे।’ कहती ई कैकेयी स ता से कौश ा से िलपट गयी।
‘िकंतु महारानी ...?’
‘कोई िक ु-पर ु नहीं गु दे व ! राम के रा ािभषेक म िकसी िक ु-पर ु के
िलए थान नहीं है ।’ कैकेयी ने गु दे व की बात पूरी नहीं होने दी।
‘है महारानी!’ गु दे व वैसे ही स त बोले- ‘है , और यह िक ु आपको ही
उप थत करना है ।’
‘कैसी अशुभ बात कर रहे ह गु दे व?’ कैकेयी िच ँ क कर कौश ा से अलग
ई।
‘यही तो आपने दे विष को वचन िदया था।’
‘राम को र ों के िव अिभयान पर भेजने का वचन िदया था, उसे उसके
अिधकार से ुत करने का नहीं ...’
‘एक ही बात है महारानी!’
‘एक ही बात कैसे है गु दे व? कैकेयी अपने राम के साथ ऐसा अ ाय कदािप नहीं
कर सकती।’
‘आपको करना ही पड़े गा महारानी, अ था आप सम आय सं ृ ित और
कह तो सम मानवता के ित अपराध करगी।’
‘मानवता की र ा राम जैसे सवजन िहताय का आचरण करने वाले के ित ऐसा
घोर अ ाय करने को बा नहीं कर सकती।’
‘महारानी, अपने आवेश को िनयंि त कीिजए। अपनी इस िणक भावुकता से
बाहर आइये। राम के िलए वनवास माँ ग कर आप उसके साथ अ ाय नहीं, ाय ही
करगी।’
‘कैसी िवरोधाभासी बात कह रहे ह आप गु दे व! राम को रा ािभषेक के थान
पर दु गम वनों म िन ािसत कर म उसके साथ ाय क ँ गी?’ अनचाहे ही कैकेयी
के र म उपहास उभर आया।
‘यही स है !’ गु दे व ने संि उ र िदया।
‘िकस भाँ ित?’ कैकेयी ने पुन: िकया।
‘राम का ज िजस काय हे तु आ है , उसके िलए उसे वन जाना ही पड़े गा। उसे
वनवास दे कर आप उसके ज का उ े पूरा करगी।’
‘गु दे व! कैकेयी की बात को कृपया अ था मत लीिजएगा, िकंतु आपका मंत
अभी भी अ है । राम का रा ािभषेक उसे उसके ज का उ े ा करने म
भला िकस कार रोक सकता है ?’
‘महारानी! रा ािभषेक के उपरां त राम भी मा अपने िपता के समान एक स ाट्
भर होकर रह जाएगा। आयावत के सह ों-ल ों स ाटों म से मा एक। िकंतु र ों
के िव अिभयान के उपरां त वह मानवता का र क बनेगा।’
‘उस अिभयान पर तो राम रा ािभषेक के उपरां त भी जा सकता है !’
गु दे व जोर से हँ स पड़े । गु दे व की हँ सी से कैकेयी ने कुछ अपमािनत सा
अनुभव िकया, िकंतु उसने अपने चेहरे पर उसके ल ण नहीं कट होने िदए। र
को सहज रखते ए िकया-
‘इसम हँ सने की ा बात है गु दे व?’
‘आप भूल गयीं िक यह एक गु अिभयान होगा। िकसी को ात नहीं होना चािहए
िक राम का उ े ा है ।’
‘तो?’
‘तो को छोिड़ये और पहले व थत प से मेरी पूरी बात सुिनये।’
कोई कुछ नहीं बोला।
‘महाराज ने जब अपने मन की बात मुझे बतायी, महामा भी उनके साथ थे,
उनकी भी सहमित थी महाराज के साथ ... तो मने उ वही परामश िदया जो दे ना
चािहये था। राम इसके सवथा यो है । आप सही कह रही ह िक उस अनुब का
कोई मू नहीं है । होता, िक ु तभी जब आप और भरत उसे मह दे ते। सभी
जानते ह िक आप राम को अपने पु से भी अिधक ेह करती ह। भरत, भरत ही
ों शेष तीनों कुमार भी राम से अिभ ह। भरत, राम के होते िकसी भी प र थित म
अपना रा ािभषेक ीकार नहीं करे गा।’
‘यही करणीय है गु दे व!’ कैकेयी ने शा से कहा।
‘नहीं महारानी! यह करणीय नहीं है । राम को तो एकाकी, एक स ासी के वेश म
वनगमन करना ही है । उसे एक सुदीघ अिभयान पर जाना ही है ...। अयो ा का
िसंहासन अिभयान से वापसी तक उसकी ती ा करे गा, मुझे भरत पर पूण िव ास
है ।’
‘पर ु ... ’ कैकेयी ने कुछ कहने का यास िकया।
‘नहीं महारानी मुझे अपनी बात पूरी करने दीिजए।’ विश ने कैकेयी को रोकते
ए आगे कहा-
‘महाराज के जाते ही मने समािध ारा दे विष से स क थािपत िकया और उ
प र थित से अवगत कराते ए ह ेप करने को कहा।
‘मेरी इ ा के िव दे विष ने यह अि य दािय मुझे ही सौंप िदया। बोले िक
उनकी सि य सहभािगता का काल पूण हो गया है । हाँ , उ ोंने मुझे माग अव
सुझा िदया ... और वह माग आपसे बिलदान माँ गता है । संभवत: दे विष ने आपको
पूव म भी ऐसा संकेत िदया है , वे बता रहे थे।’
‘हाँ , िदया तो था ...’ कैकेयी सदमे की थित म बोली।
‘माग ा है गु दे व?’ यह ार पर खड़ी मंथरा की ओर से आया था।
‘महारानी को इसके िलये प र थितयाँ उ करनी होंगी। इ महाराज को
िववश करना होगा। इ उनसे भरत के िलए अयो ा का रा और राम के िलये 14
वष का वनवास ... द कार के दु गम वनों म; माँ गना होगा।’
‘िक ु गु दे व ...’ कैकेयी का र आँ सा हो उठा। उसकी आँ ख गीली हो उठीं-
‘कैसे हो पाऊँगी म अपने राम के ित इतनी कठोर। कैसे माँ गूँगी म उसके िलए
वनवास।’
‘यह तो आपको करना ही होगा महारानी। आप दे विष से वचनब ह।’
‘एक है गु दे व! यिद न हों तो पूछूँ?’
गु दे व मु ु राये- ‘अव पूिछए महारानी! अभय है आपको।’
‘इस अि य दािय का िनवहन आप यं ही ों नहीं करते?’
गु दे व कुछ पल मंद-मंद मु ु राते ए, मौन कैकेयी को िनहारते रहे । िफर बोले-
‘महारानी, आपने ा िष को िनरा बालक ही समझ रखा है ?’
‘यह कटा असंगत नहीं है गु दे व? ... आप मुझे अभय दे चुके ह।’
‘म कटा नहीं कर रहा। यिद नारद के पास कोई अ िवक रहा होता तो वे
आपका चयन कदािप नहीं करते। आपके अित र अ कोई िवक है ही नहीं,
म भी नहीं!’
‘ ों नहीं गु दे व?’ कैकेयी ने हठ िकया- ‘कैकेयी का अनुरोध तो महाराज ठु करा
भी सकते ह िकंतु आपके आदे श का अस ान करने का उनका साहस नहीं होगा।’
‘आपके पास ऐसा एक अ है जो महाराज को िववश कर दे गा, िकंतु उसकी
चचा बाद म। पहले अपने िवषय म कारण कर दू ँ आपको, अ था आपको यही
तीत होता रहे गा िक विश पलायनवादी िनकला।’ गु दे व की त अब भी उनके
अधरों पर नृ कर रही थी।
‘मेरा ता य यह कदािप नहीं था गु दे व, म तो मा एक िवक ...’
‘मान ली आपकी बात ...’ गु दे व कैकेयी की बात बीच म ही काटते ए बोले,
िकंतु िफर भी मुझे अपनी थित करनी ही होगी।’
सब उनकी ओर टकटकी लगाए दे खते रहे ।
‘कई कारण ह, िजनके चलते म महाराज के स ुख ऐसा कोई ाव नहीं
रख सकता। सव थम तो यही िक मेरे पास कोई कारण ही नहीं है राम के िलए
वनवास माँ गने का। ा उ र दू ँ गा म जब महाराज पूछगे िक राम तो आपका
सवि य िश है , तब आप अक ात उससे इतने असंतु ों हो गए जो उसके
िलए इतनी दीघ अविध के वनवास की कामना कर रहे ह?’
‘कारण तो मेरे पास भी नहीं है गु दे व, सभी जानते ह िक मुझे भी राम सवािधक
ि य है ! म ा उ र दू ँ गी महाराज को?’
‘आपके पास कारण है महारानी, पर ु इस िवषय पर चचा ुत िवषय के
उपरां त करगे।’ गु दे व ने हाथ के संकेत से कैकेयी के ह ेप को बािधत करते ए
कहा- ‘ है िक मेरे पास अपनी माँ ग के समथन म कोई तक नहीं होगा। मुझे कोई
न कोई अनगल कारण उप थत करना होगा िजसे महाराज ही नहीं, कोई भी
ीकार नहीं करे गा। राम के च र म कोई दोष है ही नहीं। तब? ... तब ब त
संभावना है िक महाराज को न चाहते ए भी स की ित ा के िलए गु के आ ह
की अवहे लना करनी पड़े । उनका पु -मोह भी उ इसके िलए ही े रत करे गा। यह
सब अकारण महाराज और राजगु के म स े ह और िववाद को ज दे गा।’
‘ ीकार भी तो कर सकते ह वे आपका आ ह!’
‘हाँ , ीकार भी कर सकते ह। िकंतु महाराज और राजगु के म अिव ास तो
उ हो ही जाएगा। महाराज यिद अ ीकार कर द तब भी एक संभावना है िक
यं राम ही गु के आदे श को ाथिमकता दे ते ए वनवास हे तु े ा से ुत हो
जाए और इसके िलए वह िपता के आदे श की भी अवहे लना कर दे । िकंतु कुछ भी
हो, यह थित हम दोनों के म अिव ास ही नहीं अनकही श ुता को ज तो दे ही
दे गी। ा वह थित अयो ा के िलए िहतकर होगी?’
तीनों रािनयाँ मौन सुन रही थीं। िकसी ने भी गु दे व के का उ र नहीं िदया तो
गु दे व आगे बोले-
‘मान िलया राम वन के िलए थान कर जाता है । आपको ा तीत होता है िक
यह िव के िलए कोई साधारण समाचार होगा? ... यह ब त बड़ा समाचार होगा,
ि लोक म इसकी चचा होगी। कोई इस पर िव ास नहीं करे गा। विश का च र
ि लोक म िकसी से गोपन नहीं है । विश से ऐसे अिववेकी आचरण की अपे ा िकसी
को नहीं होगी। प रणाम ा होगा- सम िव विश के इस अनपेि त आचरण
की समी ा म जुट जायेगा ... उसके पीछे के रह के उद् घाटन के यास म जुट
जाएगा। अनेक मत-मता र सामने आयगे और अंतत: यह रह उद् घािटत हो ही
जाएगा िक यह दे वों की दु रिभसंिध है , रावण को पदा ा करने की रणनीित है , ...’
‘िवंâतु गु दे व, िव को यह कैसे ात होगा िक राम के वनगमन के पीछे आप ह
अथवा कैकेयी?’
हठात् विश खल खलाकर हँ स पड़े । बोले-
‘महारानी, हताशा म आप भी कैसे बचकाने कर रही ह। राम के चौदह वष के
िलए वनगमन के ाव से ही महाराज को िकतना बड़ा आघात प ँ चेगा ा आप
अनुमान नहीं कर पा रहीं? वे यं चीख-चीखकर स ूण जगत को यह बता दगे।
अयो ा की जा विश को कोस-कोसकर सब कुछ उजागर कर दे गी।’
‘आप अपने अपयश से भयभीत तो नहीं हो रहे गु दे व?’ अचानक कैकेयी के मुख
से िनकल गया और िनकलने के साथ ही उसने कसकर अपना मुँह भींच िलया, उसे
यं आभास हो गया था िक वह ा कह गयी है । तीनों रािनयाँ भया ां त हो गयीं िक
गु दे व इस से कुिपत न हो जाय िकंतु गु दे व यह सुनकर ठठाकर हँ स पड़े ।
हँ सी कने पर वे बोले-
‘ ा आपको यं ही अपने कथन पर िव ास है महारानी?’ वे मु ु राये और
आगे जोड़ा- ‘ ा सच म आपको ात नहीं िक विश को जगत िष की सं ा से
स ोिधत करता है ? ा आपको यह भी ात नहीं िक िष के प म िकसी भी
ऋिष को ित ा दे ने से पूव िपतामह िकतनी परी ा लेकर यह सु थर कर लेते ह िक
उ ऋिष इस न र जीवन के िवकारों- काम, ोध, लोभ, मोह, मद, म र,
मह ाकां ा, यश-अपयश आिद से ऊपर उठ चुका है ?’
‘ मा कर गु दे व, हताशा म वाणी पर संयम नहीं रहा।’
‘ मा ाथ होने जैसी कोई बात नहीं है महारानी!’ गु दे व वैसे ही हँ सते ए बोले-
‘होता है ... गहन हताशा की अव था म ऐसा ही होता है । िफर भी मेरा करण तो
अब सबको िव रण हो चुका होगा िकंतु िष िव ािम का करण तो अभी
सबको रण है । िपतामह ने िकतनी परी ा ली थी उनकी। िकतनी बार उ कठोर
तप करना पड़ा था ... और हर बार िकसी छोटी सी चूक के कारण सारा तप थ हो
जाता था ...’
‘गु दे व दयतल से मा ाथ ँ म ... इस करण को यहीं िवराम दे द, भिव म
पुन: ऐसी चूक नहीं होगी।’
‘चिलये िवराम िदया। पुन: िवषय पर आते ह।’ गु दे व हँ सते ए बोले ‘यह चचा
रावण तक भी प ँ चेगी। मेरा िव ास है िक अिवल प ँ चेगी, रावण के पास इतने
संसाधन ह। िकंतु यिद िवल से भी प ँ चे तो भी ा अ र पड़ता है , इस िवषय म
विश की संिल ता सं ान म आते ही वह भी इसी िनणय पर प ँ चेगा िक इस
सबकी पृ भूिम म हो न हो, दे वगण ही ह। उसे भलीभां ित ात है िक अपनी पराजय
से दे वराज िकतना आहत ह और कैसे भी छल-बल से उसे िनमूल करना चाहते ह।
आपको अनुमान है िक तब दशानन ा करे गा?’
‘वह अिवल राम पर आ मण कर दे गा।’ सुिम ा ने आशंका की।
‘नहीं, मुझे नहीं तीत होता िक वह राम पर अिवचा रत आ मण करे गा।’ गु दे व
कुछ सोचते ए बोले- ‘िकंतु वह राम पर और द कार म ऋिषयों और दे वों ारा
संचािलत गु कुलों की गितिविधयों पर िनरं तर ि रखे जाने का ब अव करवा
दे गा। वह राम का उनसे स क कर पाना असंभव बना दे गा।’
‘नहीं गु दे व! उस जैसा दु तो राम की मृ ु की ही कामना करे गा।’ सुिम ा ही
पुन: बोली। य िप सहमित म तीनों ही रािनयों के िसर िहले।
‘कर भी सकता है । िकंतु मेरा िव ेषण यही कहता है िक रावण, राम से सीधे
संघष का चयन अंितम िवक के प म ही करे गा।’ गु दे व रािनयों को रावण और
सीता के स म नहीं बता सकते थे।
गु दे व ने िजस भयावह थित का िच ण िकया था उससे तीनों ही रािनयाँ दहल
गयी थीं। वे िवचारम थीं, तभी गु दे व आगे बोले-
‘यह थित इतने िदनों के सम यासों को अथहीन कर दे गी। ... इसके िवपरीत
यिद आप महाराज से राम का वनवास माँ गती ह तो आपके पास श शाली तक
होंगे।’
‘ ा ता य है आपका?’ कैकेयी ने िकया।
‘महाराज राम के रा ािभषेक की सम योजना, आपसे, यं भरत से और
युधािजत से गोपनीय रखने का यास कर रहे ह। वे संभवत: इसकी घोषणा तब
करगे जब भरत युधािजत के साथ केकय गया आ होगा ... और संभवत: घोषणा के
उपरां त अिवल अिभषेक भी स करने का यास करगे तािक आपको भी यह
शुभ-सूचना भरत और युधािजत तक ेिषत करने का समय न ा हो सके।’
इस रह ोद् घाटन ने कैकेयी को तोड़ ही िदया। उसकी आँ ख डबडबा आयीं।
कौश ा और सुिम ा भी एकाएक इस पर िव ास नहीं कर सकीं।
‘गु दे व! यिद महाराज ऐसा करते ह तब तो उनका कृ सवथा अनुिचत ही कहा
जाएगा!’ कौश ा ने हठात् िट णी की।
‘िन ंदेह माना जाएगा। िकंतु आप दे ख लीिजएगा, वे यही करगे। ... और उनका
यही कृ तो महारानी कैकेयी को कारण दे गा उनसे अपने वर माँ गने का। भरत के
और अपने ित हो रहे अ ाय का ितकार करने का।’
‘गु दे व! स क ँ तो मुझे आज तक महाराज ने कभी अस ोष का कोई अवसर
दान नहीं िकया। पु - ा म िवल आ िक ु उस पर उनका कोई वश नहीं
था। यिद जैसा आप बता रहे ह, महाराज वैसा ही करते ह तो यह थम अवसर होगा
जब महाराज मेरे ित अ ाय करगे। ा महाराज की इस एकमा भूल का इतना
िवकट ितशोध उिचत कहा जाएगा?’ कैकेयी भरे गले से बोली।
‘यह ितशोध का ना तो िव को छलने के िलए ... कारा र से रावण को
छलने के िलए होगा। आप उसे म म डाल कर राम को अपना कत िनवहन
करने का अवसर दान करगी। िजस महत् काय हे तु उसने ज िलया है , उसे
उसके िलए े रत करगी। व ुत: तो आप उसके ज को साथकता दान करगी।’
‘िकंतु गु दे व ...’
‘कोई िक ु नहीं महारानी, और कोई उपाय नहीं है । यही तो वह बिलदान है
िजसका आपने नारद को वचन िदया था।’
‘चिलए ... म क ँ गी ऐसा। ... िक ु महाराज मेरा अनुरोध ों ीकार करगे?’
कैकेयी का र ऐसा लग रहा था मानो िकसी अंधकूप से आ रहा हो।
‘करगे ... उ करना पड़े गा। वे भी तो वचनब ह।’
‘कैसे ...’ कैकेयी सच ही नहीं समझी थी।
‘याद कीिजए श र यु को। उ ोंने आपको दो वरदान दे ने को कहा था। वे
आज भी आपकी धरोहर के प म उनके पास सुरि त ह। यही उिचत समय है
उनसे अपनी वह धरोहर माँ गने का।’
‘ओह! िक ु मने तो उ कभी ग ीरता से िलया ही नहीं।’
‘मुझे ात है िक आपने कभी उ ग ीरता से नहीं िलया। िक ु अब लेना
पड़े गा। वे दोनों वर ही तो आपके अ ह जो महाराज को िववश करगे। जो राम के
चरमो ष का माग श करगे। जा की उनके ई र म जो आ था है , उस
आ था को िव सनीयता दान करगे।’
‘िक ु म िकस मुँह से माँ गूगी उनसे राम के िलए वनवास। वे जब करगे िक
ा मेरा राम का ित ेह िदखावा था ... तो म ा उ र दू ँ गी उ ? म ा उ र
दू ँ गी यं अपने आप को?’
‘ यं को कोई उ र दे ने की आव कता ही नहीं है आपको। अपने मन पर कोई
बोझ रखने की आव कता ही नहीं है आपको। आप यह काय सम मानवता के
िहत के िलए करगी। आप मानवता की र ा के िलए, आय सं ृ ित की र ा के िलए
अपनी ममता का बिलदान करगी, अपनी धवल-कीित का बिलदान करगी।’
‘और महाराज को ...’
‘उसके िलए तो महाराज यं ही कारण उप थत कर रहे ह!’
‘गु दे व पुन: मा ाथ ँ िकंतु मुझे अभी भी िव ास नहीं होता िक महाराज हमसे
छल करने का यास करगे। मेरी राम के ित ममता के ित, भरत की राम के ित
िन ा के ित इस कार अिव ास करगे!
‘आपको भले ही िव ास न आए िकंतु स यही है महारानी! महाराज आशंिकत ह
आपसे और भरत से। उससे भी अिधक आशंिकत ह वे युधािजत से। उनका पूरा
यास है िक युधािजत तक राम के रा ािभषेक की सूचना न प ँ च सके। उनका
िव ास है िक अिभषेक हो जाने के उपरां त युधािजत कुछ भी नहीं कर सकगे िक ु
उसके पूव िवकट ितरोध उप थत कर सकते ह।’
कैकेयी का चेहरा आँ सुओं से तर हो गया था। कौश ा के गालों पर भी कई बूँद
लुढ़क आई थीं। सुिम ा अव संयिमत थी िकंतु आँ ख उसकी भी गीली थीं। मंथरा
की छाती तेजी से उठ-िगर रही थी, उसके मुख की दी कई गुना बढ़ गयी थी।
‘यही पुर ार िमलेगा कैकेयी को उसकी िन ा का?’ कैकेयी ँ धे गले से बुदबुदा
रही थी- ‘महाराज को आज तक उसके ेम पर िव ास नहीं हो सका, उसकी राम के
ित ममता पर िव ास नहीं हो सका!’ कहते-कहते वह सुबकने लगी।
‘महारानी, िन ा लाभ-हािन की मुखापे ी नहीं होती। कत लाभ-हािन का
आकलन कर िनधा रत नहीं िकया जाता। कत मह पूण तो तभी होता है जब
िनि त हािन की आशंका के बाद भी िन ापूवक कत का िनवहन करता
रहे । इस समय मानवता आपसे यही अपे ा कर रही है ।’
‘महाराज ने यह कैसे सोच िलया िक कैकेयी अथवा भरत अथवा भरत के मातुल,
कोई भी राम के रा ािभषेक का िवरोध कर सकते ह?’ ... कैकेयी ने अपना हाथ
अपने माथे पर पटका और दय को िवदीण कर दे ने वाले र म िफर अपनी बात
दोहराई- ‘कैऽसेऽ सोचाऽ उ ोंने!!’
‘महारानी, यह ों नहीं सोचतीं िक यिद महाराज ने ऐसा नहीं सोचा होता, उ ोंने
राम के रा ािभषेक को आप सब से गोपन रखने का िनणय न िकया होता तो आप
अपने कत का िनवहन कदािप नहीं कर पातीं। भरत के होते आप राम के िलये
वनवास माँ ग ही नहीं पातीं, सव थम भरत ही िव ोह कर दे ता। भरत मयािदत है
िकंतु राम के िवपरीत, मयादा उसके पाँ वों की अगला नहीं है । स की र ा के िलए
मयादाओं से भी टकराने का साहस है उसम। भरत ही नहीं, तीनों कुमारों म से कोई
भी राम के थान पर यं अयो ा का रा लेने को त र नहीं हो सकता। राम के
िलए उसके तीनों भाई िकसी से भी िभड़ जाने का साहस रखते ह ... िफर वे चाहे
उनके गु जन ही ों न हों!’
‘िफर भी गु दे व दय तो फटता ही है इससे ...’ कैकेयी िससकती ई बोली।
‘िनि त ही फटता है िकंतु यही तो िनयित का खेल है । ा पूव म कभी दशरथ ने
आपके ित अिव ास दशाया है ?’
‘मने पूव म ही कहा- कभी नहीं! अिपतु उ ोंने सदै व ही संभवत: सवािधक िव ास
कैकेयी पर ही िकया है ।’
कौश ा और सुिम ा ने भी मौन सहमित म अपने िसर िहलाये।
‘तब? तब अक ात यह अिव ास ... यह दशरथ के म की उपज नहीं है ,
यह तो िनयित ने बलात् उनके म म रोपा है ... तािक आप अपने कत का
िनवहन कर सक। ... यह कारा र से िनयित का आपके िलए संदेश है िक आपको
यह ासद दािय िनवहन करना ही है ।’
कैकेयी बस िससकती रही। गु दे व आगे बोले-
‘महारानी, उस सवश मान का ीड़ा-िवलास इसी भाँ ित होता है । वह हमारी
परी ा लेने के िलए हमारे स ुख ऐसे ही धमसंकट उप थत करता है । इस परी ा
म उ ीण होने के िलए ऐसे धमसंकटों म भी धम पर अिडग रहना पड़ता है । इसके
िलए चाहे िकतना भी दु :ख ों न सहन करना पड़े , चाहे िकतना भी बड़ा बिलदान
ों न दे ना पड़े । जो इन किठन परी ाओं म भी अपने कत ों पर ढ़ रहता है , वही
उस सवश मान को ि य होता है ।’
‘करे गी गु दे व, करे गी। कैकेयी अपने कत का िनवहन अव करे गी। भले ही
इसके िलए उसे युगों तक यातना सहन करनी पड़े । भले ही उसके इस कृ के िलए
युगों तक मानव-जाित उससे घृणा करती रहे । कैकेयी आय-सं ृ ित के उ ार के
िलए अपना सव दाँ व पर लगा दे गी।’
कैकेयी बुदबुदाती रही। कौश ा ने उसे खींचकर छाती से िचपटा िलया और
सा ना दे ने का यास करने लगी। सुिम ा भी सुबक उठी। गु दे व शां त-िन ल बैठे
रहे ।
‘जीजी! कैसी हतभािगनी है आपकी यह भिगनी। उसे अपने ाणों से ारे राम के
िलए कठोर अर वास की कामना करनी पड़े गी।’ कहती ई कैकेयी िबलख उठी-
‘एकाकी दु द रा सों से यु करने भेजना पड़े गा। कैसे हो पाएगी वह इतनी कठोर
... कैसे िनकलगे उसके मुख से ऐसे वचन िज सोचने से भी उसे घृणा है ।’
कुछ काल तक विश दे खते रहे । िफर बोले-
‘रो लीिजए महारानी। इसी समय अपना सम अ ु-कोष र कर डािलए। ये
अ ु अब के उपरां त कभी भी, िकसी के स ुख भी कट नहीं होने पाय। आज के
उपरां त दीघकाल तक आपके आनन पर ममता और क णा नहीं; दं भ, हठ और
कुिटलता के भावों को ही थान पाना है । आपको अपना दय िशलावत् करना पड़े गा
अ था आपके तिनक सा िशिथल होते ही महाराज आपको अपने भाव म ले लगे
और सारा िकया-धरा िम ी म िमल जाएगा। दशरथ राम को वन नहीं जाने दगे। ...
समझ रही ह न आप?’
कैकेयी ने रोते-रोते ही िसर िहला िदया।
‘और छोटी रानी ...!’
गु दे व को अपनी ओर आकृ दे खकर सुिम ा ने िसर उठाया।
‘आपको भी बड़ा दािय िनभाना है ।’
‘आदे श कीिजए गु दे व!’
‘आपको ल ण को े रत करना है िक वह भी राम के साथ जाए।’
‘उस िवषय म आप िच ा न कर गु दे व...’ इस थित म भी सुिम ा के अधरों पर
त खेल गयी- ‘राम जहाँ भी जाएगा, ल ण छाया की भाँ ित उसके साथ जाएगा।
उसे कोई रोक ही नहीं सकता।’
‘अ ा गु दे व, एक शंका का समाधान और कीिजए।’ अचानक कैकेयी ने
िकया।
‘पूिछये महारानी?’
‘आपने राम के िलए चौदह वष का वनवास माँ गने का िनदश िदया। ... यह अविध
चौदह वष की ही ों ...?’
‘महारानी, राम को वन म सारी प र थितयाँ भी तो समझनी होंगी। स ूण
दि णापथ म र -सं ृ ित का वच है । आय के िलए तो हमारे मनीिषयों ने िव
पार जाना विजत ही कर रखा है । आयावत- ावत के आय म मा अग ही तो
गए ह अभी तक उस पार ... अथवा अभी परशुराम गए ह। ... अथवा िज हमने दं ड
प आय सं ृ ित से िन ािसत कर िनवािसत कर िदया है , वे गए ह। उ
िनवािसत ही इसिलए िकया गया ोंिक उनका आचरण समाज के िलए घातक था।
दि णापथ म कुछ थानों पर र भावी ह तो अिधकां श थानों पर वनवासी जाितयों
की अपनी पृथक सं ृ ित है । वे हमारे दे वों को मानते ह िक ु उनसे भािवत नहीं
ह। उन सबको अपने रं ग म रँ गने का काय भी तो करना होगा राम को। उ ीं सबको
संगिठत कर अपना सै भी तो गिठत करना होगा, और वह भी इस कार िक
रावण को िकसी कूट योजना का तिनक भी आभास न होने पाए।
‘आपको बता दू ँ िक राम वहाँ सवथा एकाकी नहीं होंगे। वनवािसयों को िशि त
करने का काय तो दे व अपने गु कुलों के मा म से कर ही रहे ह। ... और वे उनकी
गित से पूणत: संतु भी ह। एक सूचना और दे दू ँ आपको, ष िव ु के पम
िति त परशुराम भी अब तो दे वों के साथ इस अिभयान म स िलत हो चुके ह।
है हय वंश का नाश कर, राम के माग की एक बड़ी बाधा तो वे पहले ही दू र कर चुके
ह। राम जब रावण के साथ यु ठानेगा तो उसके पास र -सै से अिधक समथ
सै होगा।’
अब गु दे व ने अनुभव िकया िक महारािनयों ने यं को संयत कर िलया है , तो वे
मंथरा से संबोिधत ए-
‘अरी दे ख न मंथरा, जलपान की व था करने गयीं तेरी गु माता कहाँ रह गयीं।’
25- ल ण और श ु की शपथ
राि का थम हर तीत हो रहा था, जब ल ण और श ु ने सदै व के समान
एक-दू सरे से उलझते ए, माँ के ासाद म वेश िकया।
सुिम ा ार पर ही उनकी ती ा कर रही थी।
‘अरे माता, आप यहाँ ार पर ों खड़ी यी ह?’ दोनों ही ने आ य से िकया।
‘तु ारी ही ती ा कर रही थी। िकतना िवल कर दे ते हो तुम लोग आने म!’
सुिम ा ने उलाहना िदया।
‘आप तो जानती ही ह माता िकतने रहते ह हम लोगा।’ ल ण ने मु ु राते
ए उ र िदया। साथ ही दोनों ने दाय-बाय से उसे अपनी बाहों म समेट िलया।
‘वाचाल तो तुम दोनों ज से ही हो!’ सुिम ा ने दोनों के मुख पर ार से हाथ
फेरते ए कहा।
‘आपही के पु ह माता!’ कहते ए श ु हँ स पड़े ।
‘अ ा तो म वाचाल ँ ।’ सुिम ा भी हँ स पड़ी।
‘नहीं आप वाचाल नहीं ह िकंतु आव कता पड़ने पर हो सकती ह। आपम यह
कला है ... आपसे ही हम उ रािधकार म ा ई है ।’ श ु ने बात सँभाल ली।
‘िक ु आपने हमारे का उ र नहीं िदया!’ ल ण ने पूछा।
‘ ा?’
‘आप यहाँ ों खड़ी थीं?’
‘बताया तो, तुम दोनों की ती ा कर रही थी।’
‘अरे ! हम तो आ ही रहे थे। िन ही हम इस समय तक आ जाते ह।’
‘िन ही हम इस समय तक आ जाते ह ...’ सुिम ा ने ल ण की नकल उतारते
ए कहा- ‘िक ु माता से भट करने का अवकाश कहाँ होता है तु ारे पास! आते
हो, भोजन पाते हो और अपनी-अपनी पि यों के साथ अपने ासादों म भाग जाते
हो।’
‘अब तो आप उपहास करने लगीं माता!’
‘उपहास नहीं कर रही, स कह रही ँ ।’
‘अ ा छोिड़ये इस िववाद को, आदे श दीिजए ा कहना है ।’
‘आदे श कुछ नहीं बस अपने पु ों के साथ वाता का सुख ा करना है , जैसे
तु ारे िववाह के पूव करती थी।’
‘बस !!! इ ी सी बात? भोजन पर तो हम िकतनी सारी बात करते ह।’ इस बार
श ु बोले।
‘मने तु बचपन से ही िसखाया है न िक भोजन करते समय बोला नहीं जाता।’
‘मेरा ता य है भोजन से पूव और प ात!’ श ु ने जीभ काटते ए अपना कथन
संशोिधत िकया।
‘िक ु तब तो तु ारी पि याँ भी उप थत होती ह।’ सुिम ा ने िफर िचढ़ाया।
‘अब वे तो सदै व होंगी ही। उ उनके मायके भेज द, तभी उनसे मु हो सकती
ह।’
‘भेजने दे गा तू मायके अपनी प ी को?
‘मुझे पता है आप यं ही नहीं भेजगी। बस हम िचढ़ा रही ह। आपको तो अपनी
वधुय अपने पु ों से भी अिधक ारी ह।’
‘सो तो ह ही। वे तुम लोगों की भाँ ित उ ं ड जो नहीं ह।’
‘माता यह िम ा आरोप है आपका। हम उ ं ड कहाँ ह? हमसे सरल तो आपको
स ूण कोशल म कोई नहीं िमलेगा।’ ल ण ने ह ेप िकया।
‘अ ा ऽऽऽऽ?’ सुिम ा ने आ य का अिभनय करते ए कहा और ार से दोनों
के कान खींच िदये।
‘आ ऽऽऽऽऽऽ ह! माता लगता है ।’ दोनों समवेत र म िच ाये।
यूँ ही बितयाते ए तीनों सुिम ा के क म वेश कर गए।
‘माता पता है आज ा आ?’ सहसा ल ण बोले।
‘ ा आ? जब तक तुम बताओगे नहीं मुझे भला कैसे ात होगा!’
‘आज उपवन म, पु ों से राम भइया ने अपने हाथों से भाभी के िलये इतने सु र-
सु र आभूषण बनाए िक बस ... अब ा बताऊँ ... नहीं श ु ?’
सुिम ा का मंत हल हो गया था। वह यही तो चाहती थी िक उसके पु अपने
भाइयों की बात छे ड़ ... और उसे यह भी िव ास था िक इसके िलए उसे अिधक
यास नहीं करना पड़े गा। दोनों ही अपने भाइयों के इतने बड़े भ थे िक कोई भी
बात हो, थोड़ी ही दे र म घूम-िफर कर अपने भाइयों की गाथा बखानना आर कर
दे ते थे।
‘ऐसा ऽऽऽऽऽ ?’ सुिम ा ने घोर आ य का दशन िकया।
‘सच माता, सुघड़ से सुघड़ मािलन भी नहीं बना सकती इतने सु र पु ाभरण!’
‘चल झूठा! तू तो अपने भाई का गुणगान करता ही रहता है ।’
‘नहीं माता, श ु से पूछ लो!’
‘हाँ माता, ल ण स कह रहा है ।’
‘चलो मान लेती ँ । पर तुम लोगों को अपनी शपथ तो याद है न?’
‘कौन सी शपथ माता?’ दोनों ने एकसाथ िकया।
‘वही िक तु ारे भाई अितशय सरल ह और तुम लोग चतुर-चालाक। अत: ...’
‘ओह वह !’ िफर दोनों एकसाथ बोले।
‘पर वह शपथ थोड़े ही है माता।’ ल ण ने कहा।
‘तो ा है ।’
‘वह तो हमारी अंतरा ा का र है । वह तो हमारा थाई-भाव है ।’
‘ ा?’
‘हम अपने े - ाताओं को कभी भी एकाकी कहीं छोड़ सकते। यिद वे पृथक-
पृथक ह तो ...’ ल ण बोले।
‘ ाता राम के साथ ल ण होगा और ाता भरत के साथ श ु होगा ही होगा।
कोई हम रोक नहीं सकता।’ वा श ु ने पूरा िकया।
‘ऐसा?’
‘हाँ ऐसा!’ दोनों ने पूरे िव ास के साथ कहा।
‘और यिद म तु मना क ँ ... अथवा तु ारे िपताजी मना कर?’
‘तो भी!!!’ दोनों ने खुलकर हँ सते ए उ र िदया।
इस मुखर हा का र ऊपर उिमला और ुित तक भी प ँ चा, वे दोनों भी उतर
आयीं।
‘ब त खुल कर हँ स रहे थे आप लोग? कुछ िवशेष कारण है ... हम नहीं बतायगे?’
उिमला ने िकंिचत संकोच के साथ िकया।
‘यह हम माँ -बेटों का गत िवषय है । इसम और कोई साझा नहीं कर
सकता।’ सुिम ा ने भी हँ सते ए उ र िदया।
‘बता ही द माता, कोई हािन नहीं है इ बताने म।’ ल ण ने उदारता से ाव
िकया।
‘चल बता ही दे । िकंतु अ िकसी को मत बताना तुम दोनों।’
‘जी माता, कदािप नहीं बतायगी।’
सुिम ा को संतोष था। उसे संतोष मा ल ण के राम के साथ जाने का ही नहीं
था। व ुत: वह चाहती थी िक जब कैकेयी को अपना अि य कत िनवहन करना
पड़े , तब श ु भी अयो ा म उप थत न हो, वह भी भरत के साथ ही हो। ल ण
और श ु दोनों िमलकर बड़ा बखेड़ा खड़ा कर सकते थे। एक साथ दोनों को
सँभाल पाना िकसी के वश म नहीं था। वह सोच रही थी- राम के ित अ ाय के
ितकार हे तु यिद दोनों उप थत ए तो ... तो कैकेयी के िलए किठन हो जाएगा
अपने िनणय पर अिडग पाना।
26- यु धािजत का सं देश
दशरथ अभी सो ही रहे थे। कैकेयी ने उ आकर जगाया-
‘महाराज! म ा वेला होने जा रही है , ा होता जा रहा है आजकल आपको?
पूव म तो कभी आपने उठने म इतना िवल नहीं िकया?’ कहकर कैकेयी थोड़ा सा
मु ु राई िफर अक ात् न जाने ा सूझा, वह पयक पर उनकी बगल म बैठ कर
अपनी दोनों बाह उनकी छाती पर िटकाते ए उनपर अधलेटी सी हो गयी और
उनकी आँ खों म झाँ कते ए शरारत से बोल पड़ी-
‘तब भी जब आप रात-रात भर न यं सोते थे और न मुझे ही सोने दे ते थे।’ कहने
के साथ ही उसका मुख अब भी िकंिचत आर हो गया परं तु उसने महाराज की
आँ खों से अपनी आँ ख नहीं हटायीं।
दशरथ ने अपनी बाह कैकेयी की पीठ पर लपेट दीं और उसे अपनी ओर खींचने
का यास िकया। कैकेयी सहजता से खंच आई और अपनी ठोढ़ी उनके सीने पर
िटका दी और पूववत मु ु राती ए उनकी आँ खों म झाँ कती ई बोली- ‘उिठये
अब!’
‘उठते ह महारानी, िकंतु भोर तो होने दीिजये।’
‘भोर? महाराज सूय दे व म गगन की ओर अ सर ह।’ कहती ई कैकेयी हठात्
हँ स पड़ी।
‘दशरथ तो अभी भी अपने ने ों के स ुख िनशाकर को िवहँ सता दे ख रहा है ,
कैसे मान ले िक सूय दे व म गगन को श कर रहे ह!’ दशरथ ने िठठोली की।
‘महाराज! अब चौथेपन म वेश कर चुके ह। वधुय आ चुकी ह ... ऐसी िठठोली
अब पु ों को करने दीिजये वधुओं के साथ। अब हम यह आचरण शोभा नहीं दे ता।’
कहकर कैकेयी ने कोहिनयों की सहायता से अपने शरीर को आगे झुकाते ए अपनी
नाक दशरथ की नाक से लड़ा दी। उसके होंठ दशरथ के होठों के इतने िनकट थे
िक तिनक सा िहलते ही छू जाय। दशरथ से नहीं रहा गया, उ ोंने उचक कर अपने
होठों से उ छू लेना चाहा पर कैकेयी ने हँ सते ए त ाल अपनी हथेिलयों को
उनकी छाती पर िटकाते ये अपने शरीर को उचका िलया-
‘नहीं महाराज! यह उिचत समय नहीं है इस काय के िलये। छोिड़ये मुझे और आप
भी उिठये।’
‘बस एक चु न! ... आपके अधरों की सुधा से शरीर को चैत ा होता है !
िदवस उ ाहपूण तीत होता है ... बु चपल हो जाती है ...’ दशरथ ने हठ करना
चाहता िकंतु कैकेयी ने बीच म ही अपनी एक हथेली उनके मुँह पर रख दी-
‘बस, अब का -रचना रहने दीिजये। अभी कोई न कोई आता ही होगा ...
सभाभवन से चर पूव ही आ चुका है ।’
‘ ा ऽऽऽ?’ दशरथ चौंक पड़े - ‘ ा कह िदया आपने उससे?’
‘कहना ा था ... कह िदया िक महाराज िकंिचत अ थ है । अभी उठे नहीं।’
कहकर कैकेयी पुन: हँ सी।
दशरथ ने बचपना भूल कर कैकेयी को बाहों के बंधन से मु कर िदया और
झटपट उठ बैठे और िशकायत भरे र म बोले-
‘आपने मुझे पूव ही ों नहीं उठा िदया?’
‘लीिजए अभी भी उठने को ुत नहीं थे और उपाल दे रहे ह िक पूव ही ों
नहीं उठा िदया?’ कैकेयी ितयक त के साथ भौह उठाकर बोली।
महाराज ने कोई उ र नहीं िदया और िन ि या के िलए थान कर गए।
दशरथ अभी िनवृ होकर वापस नहीं आ पाए थे िक एक दासी ार पर कट
यी-
‘महारानी जी! आमा गण उप थत ए ह। महाराज के दशन ा करना चाहते
ह।’
‘अितिथ-क म िबठा िदया न उ ?’ कैकेयी ने िकया।
‘जी महारानी जी!’
‘जलपान को बोल िदया िकसी से?’
‘जी महारानी जी!’
‘जा उनसे कह दे िक महाराज साधन क म ह।’ कहकर कैकेयी मु ु रायी।
उसे पता था िक दासी इस कार से नहीं कहे गी। अचानक उसे जैसे कुछ याद आया
हो-
‘और ये धाय माँ कहाँ िवलीन हो गयीं?’
‘दे खा नहीं महारानी जी उ तो। स वत: अपने क म हों।’
अ सभी दािसयों के िलए स िलत क ही थे। एक-एक िवशाल क म दस-
दस दािसयाँ रहती थीं, िकंतु कैकेयी ने मंथरा को एक अलग छोटा सा क दे रखा
था, य िप वह अपने क म मा राि म सोने ही जाती थी।
‘आमा ों के पास जाने से पूव बाहर िकसी से कह दे िक उ दे खकर आये ...
दे खकर ा साथ ही िलवाकर लाए।’
‘जी महारानी जी!’ दासी वैसे ही हाथ जोड़े खड़ी रही, शायद अभी कोई और
आ ा िमले।
‘जा अब!’
दासी चली गयी तो कैकेयी अनायास िवचारों म खो गई।
गु दे व से वाता के िदन से ही उसके मन म महाराज को लेकर एक फाँ स सी गड़
गयी थी। वह पूरा यास कर रही थी िक उसकी इस मन थित को कोई ल न कर
पाए, इसीिलए वह स यास पुराने िदनों के समान एकां त णों म महाराज के संग
अंतरं ग होने का यास करती थी। परं तु िकसी भी कार वह अपने मन को नहीं
समझा पा रही थी। वह भलीभां ित समझती थी िक यिद महाराज ऐसा न करते तो
उसके िलए राम के िलए वनवास माँ गना िनतां त असंभव हो जाता, िकंतु िफर भी वह
अपने मन की बेचैनी को शां त नहीं कर पा रही थी।
दू सरी ओर दशरथ की भी यही थित थी। जब से राम के अिभषेक की बात उनके
मन म आयी थी, वे कैकेयी और भरत के ित सशंिकत हो उठे थे। कैकेयी उनके
इस भाव को समझ न ले इसिलए वे भी पूणत: सहज और स यास अंतरं ग होने का
यास कर रहे थे। कैकेयी कहीं यं को उपेि त न अनुभव करे इसिलए वे
आजकल िन उसीके ासाद म शयन कर रहे थे। वे उसके साथ ेमालाप करते
और शी ही सो जाने का बहाना कर आँ ख मूँद कर लेट जाते। परं तु नींद तो जैसे बैर
ठाने ई थी उनसे, बड़ी किठनता से आती थी। कई-कई बार तो रात भर नींद ठी
ही रहती थी। यही उधेड़बुन रहती थी िक मोद के कूटचर कब संदेश भेजते ह!
आज भी यही आ था, भरत के निनहाल जाने के उपरां त वे िकस कार गोपनीयता
से सारा आयोजन करगे, सारी रात इसी की परे खा बनाते रहे थे। जब भोर के प ी
चहचहाने लगे तब कहीं जाकर नींद ने उ अपनी गोद म आ य िदया था। ... तो
ात: आँ ख भला कैसे खुलती!
कुल िमलाकर दोनों ही अिभनय कर रहे थे और सदै व सशंिकत रहते थे िक सामने
वाला उनका अिभनय पकड़ न ले।
***
‘ ा बात है महारानी जी, िकस उलझन म पड़ी ह?’
मंथरा के र ने कैकेयी की तं ा तोड़ी।
‘कुछ नहीं!’ कैकेयी कुछ अनमने से र म बोली, परं तु एक ण म ही उसने
यं को संयत कर िलया- ‘ थ तो ह न आप?’
‘हाँ ! स ूणत:!’
‘तब इतना िवल कैसे हो गया, ऐसा तो आप कभी नहीं करतीं?’
‘वो म ...’ मंथरा ने सफाई दे ने का यास िकया िकंतु कैकेयी ने बीच म ही रोक
िदया-
‘उसे छोिड़ये, आप अितिथ क म जाइये। आमा गण महाराज की ती ा कर
रहे ह वहाँ । उनकी व था दे ख लीिजये।’
‘जैसी आ ा िक ु महाराज के िवषय म बताऊँ ा उ ?’
‘आप जैसी चतुर-सयानी को भी यह सब समझाना पड़े गा?’
‘नहीं ऐसा नहीं है िकंतु अकारण िम ावादन भी उिचत नहीं होता न!’
‘महाराज िन -ि याओं से िनवृ हो रहे ह अभी। अभी तो उठे ही ह सोकर। अब
कुछ तो िवलंब होगा ही हम आने म।’
मंथरा आगे कोई िकये िबना चली गयी। कैकेयी को िव ास था िक मंथरा
अपनी बातों म आमा ों को इस कार उलझा लेगी िक उ महाराज के आगमन म
हो रहे िवलंब का भान भी नहीं होगा।
महाराज ानािद से िनवृ होकर जैसे ही क म आए, कैकेयी ने उ आमा ों
के आगमन की सूचना दी। उसकी आँ खों मे तैर रही चंचल मु ु राहट को दे खकर
दशरथ भी बरबस मु ु रा उठे -
‘आपने अनाव क सबको क िदया। आपने उनसे मेरी अ थता के िवषय म
कह िदया और दे खये ...’
दशरथ बात पूरी नहीं कर पाये थे िक दासी ने ार से गुहार लगाई-
‘महारानी जी ...’
‘ ँ ! बोलो ...’ कैकेयी ने पूछा।
‘महारानी जी! राजवै आ रहे ह।’
‘आने दो उ ...’ कैकेयी बरबस हँ स पड़ी।
दासी चली गयी तो दशरथ ने िशकायती ि से दे खते ये कुछ ता से कहा-
‘दे खये, आपके एक छोटे से उपहास के कारण सबको अकारण क हो रहा है ।
राजवै ....’
पर दशरथ इससे आगे नहीं बोल पाये। राजवै ार पर कट हो गये थे।
राजवै की आयु व ुत: सवा सौ वष से कम नहीं थी। ह ी सी र म आभा
िलए सुदीघ ेत केशरािश और वैसी ही सुदशन ेत दाढ़ी। इस उ म भी सीधी
कमर। इकहरा शरीर, के भीतर तक झाँ कने म समथ तेजो ी ने और माथे
की गहरी लकीरों को ढाँ पती ईं चंदन की तीन मोटी रे खाय।
‘आइये राजवै जी।’
दशरथ और कैकेयी दोनों के मुख से एक साथ िनकला। दोनों ने उ णाम
िकया। वे ा ण थे।
राजवै ने भी यथोिचत प से दोनों को आशीवाद िदया और त ाल बाद
िकया-
‘ ा आ महाराज? मने सुना िक ....’ वे चिकत से दशरथ के मुख की ओर दे ख
रहे थे। उनकी अनुभवी ि अनुभव कर रही थी िक महाराज को कोई
शारी रक क नहीं है ।
‘राजवै जी! दशरथ माकां ी है । महारानी की िवनोद-वृि के कारण आपको
अकारण क उठाना पड़ा। आपके साथ ही आमा गण को भी थ ही क उठाना
पड़ा है ।’ दशरथ ने कुछ संकोच के साथ कहा।
कैकेयी कुछ नहीं बोली, बस मु ु राती रही।
‘महाराज! जीवन म थोड़ा सा िवनोद भी आव क होता है । इससे जीवन की
एकरसता समा होती है और मन को ऊजा ा होती है ।’ राजवै ने मंद त के
साथ कहा।
‘तो आइये, हम भी अितिथ-क म चल। वहीं आमा गण भी ती ा कर रहे ह।’
दशरथ, राजवै और कैकेयी तीनों ही अितिथ-क म प ँ चे।
दशरथ के क म वेश करते ही सभी उठ खड़े ए और एक साथ उनकी
कुशल- ेम संबंधी करने लगे।
ये तीनों बरबस मु ु रा उठे ।
राजवै ने थत सँभाली। उ ोंने हाथ उठा कर सबको शां त होने का संकेत
िकया। कुछ पलों म सब शां त ए तो राजवै ने महाराज के पूण थ होने की
घोषणा की।
कुछ औपचा रकताओं के उपरां त कैकेयी को छोड़कर शेष सभी लोग सभा-भवन
के िलए थत ए। राजवै अपने आवास की ओर चले गये।
***
सभाभवन म कुछ खास होने को नहीं था।
कुछ ासंिगक तो कुछ अ ासंिगक िवषयों की चचा होती रही। कुछ हँ सी-ठ ा भी
आ। इस सबके बीच सदै व के समान सभासद महाराज का श -गायन और
अपनी राजभ की चचा भी करते रहे । यह आिदकालीन था है िजसका िनवहन
आज तक अबाध गित से हो रहा है । इसम जो िजतना यो होता है वह उतनी ही
शी ता से भौितक उ ित के पथ पर आगे बढ़ता है । उसकी यह एकमा यो ता
उसकी अ सम अयो ताओं को ढँ क लेती है और वह सहज ही स ा का चहे ता
बन जाता है ।
महाराज आ -मु अव था म अपनी श का आनंद ले रहे थे।
अक ात् उनकी बायीं ओर बैठे सुम के म म र ने महाराज के इस
मनोिवनोद म बाधा दी-
‘महाराज! कुछ िनवेदन करना है ।’
र बस इतना ही ती था िक महाराज और अिधकतम उनकी दायीं ओर बैठे
महामा सुन सक।
‘तो किहये भी। आपको भला इस भाँ ित अनुमित माँ गने की ा आव कता है !’
दशरथ ने भी धीमे र म ही उ र िदया।
‘महाराज! सभा म सबके म कहने यो िवषय नहीं है । यिद उिचत समझ तो
सभा को िवसिजत कर िदया जाए और मा आमा गणों के म यह चचा हो।’
‘जैसा आप उिचत समझ। िक ु िवषय है ा?’ सुम की भंिगमा ने दशरथ की
िज ासा बढ़ा दी थी।
‘अभी सामने आता है महाराज!’ कहते ए सुम खड़े ए और सभा के िवसजन
की घोषणा कर दी।
सभा िवसिजत होने लगी। एक-एक कर सभासदगण महाराज को णाम कर
बाहर िनकलने लगे। आमा ों और सेनापित को सुम ने आँ खों ही आँ खों म
गत प से कने का संकेत कर िदया।
इसी बीच सेनापित मोद ने क म वेश िकया।
मोद अवकाश लेने के बाद से िवशेष अवसरों पर आम त होने पर ही राजसभा
म स िलत होते थे। उ दे खकर सुम और अ आमा गण कुछ िव त ए।
जाबािल भी िव त थे िकंतु उ ोंने अपने मनोभावों को दबाते ए मोद का ागत
िकया।
महाराज के िलए मोद का आगमन स ता बढ़ाने वाला ही था। वे तो कब से
उनके आगमन की ती ा कर रहे थे। उनके आगमन का िनि त अथ था िक
युधािजत के संबंध म कुछ सूचना है । उनकी फु त मुखमु ा इस सूचना के शुभ
होने का संकेत कर रही थी।
औपचा रकताओं का िनवहन आ िफर मोद ने आसन हण िकया।
‘सुम जी! पूव सेनापित की उप थित म तो चचा हो ही सकती है ?’ जैसे ही
सभासदगण क से बाहर ए दशरथ ने िकया।
‘िनि त प से। इस चचा म मोद जी की अक ात उप थित तो सुखद संयोग
की भां ित है । व ुत: िवषय ही ऐसा है िजसे सुलझाने म इनकी स ित सवािधक
उपयोगी रहे गी।’
‘तब िफर िवल ों कर रहे ह?’
‘कोई िवल नहीं है महाराज!’ कहते ए सुम उठ खड़े ये।
‘बैठे-बैठे ही किहए, अब इन औपचा रकताओं की आव कता नहीं है ।’ दशरथ
ने हँ सते ए कहा।
वा व म तो दशरथ इस समय सव थम मोद की बात सुनना चाहते थे िकंतु
आमा ों की उप थित म वह संभव नहीं था। इसिलए उनका यास यही था िक यह
करण शी ाितशी समा हो। औपचा रकताय समय तो न करती ही ह।
सुम पुन: बैठ गये।
‘महाराज! उ र म कुछ द ु िसर उठाने लगे ह। ामों म उनके उ ात के
समाचार ब धा सुनाई पड़ने लगे ह।’ सुम ने िवषय का सू पात िकया।
‘तो आप लोग ा कर रह ह, दमन ों नहीं कर रहे उनका?’
‘महाराज! उनका दमन सहज नहीं है । इसीिलए तो मने यह आपके स ुख
उप थत िकया है ।’
‘ कर। ा आप यह कहना चाहते ह िक अयो ा का सै सामा द ुओं
का दमन भी नहीं कर सकता?’
‘कदािप नहीं महाराज! अयो ा का सै ि लोक के बड़े से बड़े सै का
मानमदन करने म स म है ।’
सुम का कथन सुनकर जाबािल ह े से मु ु रा िदये। इस कार िक उनके
अधर तिनक सा फैले और पुन: सामा अव था म आ गए। सुम ने इसे लि त
िकया िक ु कोई िति या नहीं दी।
‘िफर ा कारण है जो हमारा सै उनका दमन नहीं कर पा रहा है ?’
‘महाराज! व ुत: वे द ु नहीं ह। वे तािड़त नाग रक ह िज ोंने थानीय
शासन से िव ोह कर िदया है । अ ाय के िव श हण कर िलये ह।’
‘आमा जी! शासन के िव श हण करने वाला िव ोही ही कहा जा
सकता है । उसके साथ िकसी भी कार की स दयता िदखाने की आव कता नहीं
होती। ा यह साधारण सा स आप लोगों की समझ म नहीं आया?’
‘महाराज, यिद दोष शासन का ही हो तो भी?’
‘हाँ , तो भी। रा के िव श उठाना राज ोह ही होता है । यिद आज िकसी
एक के ित हम स दयता िदखायगे तो कल दू सरा भी उससे ो ािहत होगा। वह
भी श - दशन कर अपनी माँ ग मनवाना चाहे गा। ... और िफर यह एक अनवरत
ि या बन जायेगी। अनेक ाथ त कुछ सश यों का गुट बनाकर,
श - दशन से जा म आतंक फैलाकर शासन को झुकाने का यास करने
लगगे। एक बार झुकने के उपरां त बार ार झुकना शासन की िववशता बन जाएगी।
ु ु
अत: इस वृि को आर म ही िनममता पूवक कुचल दे ना आव क है । अयो ा
म आतंक के सहारे अपनी बात मनवाने का यास करने वालों के िलए कोई थान
नहीं है ।’
‘महाराज! मेरे िवचार से तो िकसी भी प र थित म त ों का अ ेषण आव क
है । सश िव ोह के पीछे यिद रा की कोई चूक कारण प म है तो थम उसे
सुधारना आव क है । इसके साथ ही रा की चूक के कारण अथवा रा ारा
पीिड़त होने पर िव ोही को समझा-बुझा कर िव ोह ाग कर मु -धारा म
स िलत होने का एक अवसर दान करना थित को िनयंि त करने का उिचत
उपाय हो सकता है ।’
‘मंि वर! आप आदश की बात कर रहे ह। सा ा मा आदश से नहीं
सँभलता। सा ा की सुर ा हे तु जा के मन म राजस ा का भय बना रहना
आव क होता है । िजस िदन भी यह भय समा हो जाएगा उसी िदन जा राजा ा
की अवहे लना करने लगेगी और तब सुचा प से शासन संभव ही नहीं रह
जाएगा।’
‘म आपके कथन से सहमत ँ महाराज! िकंतु कोई भी कारण राजस ा को अपनी
जा के ित संवेदनहीन होने की अनुमित नहीं दे ता।’
‘इसम संवेदनहीनता का िकस भाँ ित उ हो गया? म तो सश िव ोह को
िनममता से कुचलने की बात कर रहा ँ , जा के उ ीड़न की नहीं। राजस ा के
समानां तर िकसी स ा की थापना का यास कदािप ीकार नहीं िकया जा सकता।
ऐसे यास के दमन को यिद आप उ ीड़न का नाम दे ना चाह तो दे ते रह िकंतु उसे
ीकार नहीं िकया जा सकता।’
‘महाराज संभवत: मेरा मंत नहीं समझे। राजस ा के समानां तर स ा थािपत
करने के यास का िनदयतापूवक दमन करना ही ेय र है । िकंतु यहाँ थित िभ
है । इन िव ोिहयों की राजस ा के ित पूण आ था है । दु भा से स ा के थानीय
ितिनिधयों के अ ाय और अ ाचारों से पीिड़त होकर इ उनके िव सश
संघष का माग अपनाना पड़ा है । उनका उ े तं समानां तर स ा की थापना
नहीं है , उनका उ े स ा ारा अ ायपूवक िकए गए दमन का ितकार करना
है । अ ायपूवक जा के दमन को उ ीड़न की कहा जा सकता है और उसका
ितकार करने का अिधकार जा को है । दमन से इस िव ोह को नहीं दबाया जा
सकता, स दय वहार से ही उ भरोसा िदलाया जा सकता है िक स ा उनके
ित ए अ ाय के ित संवेदनशील है और उ ाय िदलाने हे तु ितब है । यिद
हम उ यह िव ास िदला पाए तो वे िन ंदेह िव ोह का माग ाग कर सहज ही
पुन: मु धारा म स िलत हो जायगे।’
दशरथ मोद ारा लाए गए समाचार को जानने की अपनी ता के बावजूद,
धैयपूवक सुमं के तक को सुनते रहे । िफर कुछ दे र सोचने के उपरां त बोले-
‘आप इतने भरोसे से कैसे कह सकते ह?’
‘मेरे पास जो सूचनाय ह उनके आधार पर!’
‘जब आपके पास सूचनाय थीं तो िफर आपने अ ाय अथवा उ ीड़न होने ही ों
िदया? उसी समय उसका प रहार ों नहीं िकया?’
‘मेरे पास तब सूचनाय नहीं थीं महाराज! मेरे सं ान म तो करण तब आया जब
नाग रक िव ोह कर उठे ।’ कहने के साथ ही सुम ने मोद की ओर दे खा, िफर
आगे जोड़ा- ‘इस िवल के िवषय म संभवत: मोद जी अिधक काश डाल सकते
ह। सौभा से वे हमारे म उप थत भी ह आज।’
महाराज ने भी मोद की ओर दे खा। जाबािल अब भी शां त बैठे मु ु रा रहे थे। वे
भी मोद की ओर दे खने लगे।
‘महाराज! मेरे अधीन िजतने भी कूट-चर है , उनका काय मुखत: िनकट थ
रा ों की गितिविधयों पर ि रखना है । अयो ा की सीमा के अंतगत वे ब त
अिधक सि य नहीं ह। अयो ा म वे मा जो संभािवत िवदे शी गु चर हो सकते ह
उन पर ि रखते ह अथवा रा के अंदर जो िवरोधी श याँ ह, अथवा हो सकती
ह, उन पर ि रखते ह। रा -कमचा रयों के ि याकलापों पर ि रखना उनके
कत ों म नहीं आता।’
‘िकंतु ों?’
‘महाराज! वह असंभव काय है । िकतने रा कमचा रयों के ि याकलापों पर
ि रखने का बंध कर सकते ह हम? ेक तो िकसी न िकसी र पर अपने पद
का दु पयोग कर रहा है । िकस-िकस के पीछे हम अपने लगायगे? ... और
कहाँ से लायगे इतने ?’
‘िफर?’ दशरथ ने असंतोष के रम िकया।
‘िफर ा महाराज, यह मान िलया जाता है िक ये सब स ा के साथ ाभािवक
प से आने वाले दु गुण ह। इ रोक पाना संभव नहीं है ।’
‘यह तो उिचत नहीं है ।’
‘कदािप उिचत नहीं है , िकंतु अ कोई माग भी तो नहीं है । इसी करण को
लीिजए, जब जनता म असंतोष फैलना आरं भ आ तो हमारे सं ान म आया। हमने
उसे आमा सुमं के सं ान म िदया। इ ोंने भी आरं भ म वही िकया जो करने का
अभी आप इ परामश दे रहे थे, अथात् बलात उस असंतोष को कुचल दे ने का
यास िकया। प रणाम आपने सम है ।’
‘तो आप अब ा परामश दे रहे ह? ा करणीय है , इन थितयों म?’
‘ थम सुम जी का परामश तो पूरा सुन लीिजए ... त ात् ही मेरा कोई
परामश दे ना उिचत होगा।’ मोद थोड़ा सा के और िफर महामा की ओर दे ख
कर मु ु राते ए आगे बोले- ‘... और महाराज ा आपने अभी तक ल नहीं
िकया िक स ूण वातालाप म महामा पूणत: मौन धारण िकए ए बैठे ह। इनके
उप थत रहते ा िकसी अ के परामश की आव कता है ? नीित-िनधारण म
इनसे अिधक कुशल और कौन हो सकता है भला?’
मोद के कहने पर दशरथ को भी इस त का भान आ िक इतनी दे र से
जाबािल बस मंद-मंद मु ु रा रहे ह, बोल कुछ नहीं रहे ।
‘महामा !’ दशरथ उनकी ओर ल करते ए बोले- ‘आप मौन आनंद ले रहे ह
स ूण करण का? यह करण आनंद लेने का िवषय नहीं है , यह रा के ित
िव ोह का करण है , इसे सुलझाने म आप इतने िन य कैसे रह सकते ह?’
‘म िन य कदािप नहीं ँ महाराज! िकंतु जैसा अभी मोद जी ने कहा सुमं जी
को अपनी बात तो पूरी करने दीिजए।’
‘कीिजए आमा जी, आप अपनी बात पूरी कीिजए। आप बल योग के थान पर
और ा करने का परामश दे रहे ह?’
‘महाराज! जब जनता की सहानुभूित िव ोिहयों के साथ हो जाती है तो उनका
बलपूवक दमन संभव नहीं होता। यहाँ भी यही थित है । हमारे रा - कमचा रयों
के अनु रदािय पूण और ाथ आचरणों के चलते िनरीह जा के ित घोर अ ाय
आ है । जा ने थानीय अिधका रयों तक बार ार अपने क का दु खड़ा रोया िकंतु
वे भी संवेदनहीन ही िनकले। उ ोंने जा को ाय दे ने के थान पर अपने
सहकिमयों का ही साथ िदया। संभव है िक वे भी लाभ म भागीदार रहे हों। िकंतु इस
सबका प रणाम यह आ िक वह असंतोष धीरे -धीरे सश िव ोह म प रवितत हो
गया। हमारा बल योग िन ल आ। िव ोही हमारी सुर ा-चौिकयों पर िछप कर
आ मण करते ह और श लूट कर भाग जाते ह। हमारे र क दल कुछ नहीं कर
पाते।
‘र क दल जब उन िव ोिहयों की खोज करते ह तो कोई भी उनके िवषय म कुछ
भी बताने को तैयार नहीं होता। सब यही कहते ह िक उ कुछ ात ही नहीं है ।’
‘यह तो आ आमा जी, म समझ गया प र थित। िकंतु मेरा था िक आपका
सुझाव ा है ?’ दशरथ सुमं के ल े हो रहे व से उकताते ए बोले। वे तो
मोद ारा लाया गया समाचार जानने को थे।
‘महाराज! मेरा गत सुझाव है िक हम कुमार राम को इस करण को
सुलझाने का दािय सौंप द। वे ...’
‘राम को कैसे इतनी जिटल प र थितयों म भेजा जा सकता है ?’ दशरथ ने सुम
की बात बीच म ही काट दी।
‘महाराज सुन तो ल उनकी बात। एकमा कुमार राम ही स म ह इस करण को
सुलझाने म।’ पहली बार जाबािल ने ह ेप िकया।
‘आप भी यही कह रहे ह? ता य आपकी और सुमं जी की वाता हो चुकी है इस
िवषय म?’
‘महाराज ऐसा कैसे संभव है िक इतने गंभीर करण म मेरी महामा से वाता न
ई हो?’ सुमं ने कहा।
‘िकंतु म राम को इसम उलझाने की अनुमित नहीं दे सकता। म यं जा सकता ँ
िव ोह का दमन करने हे तु िकंतु राम को ... कदािप नहीं।’ दशरथ ने ढ़ता से
ाव को अ ीकार कर िदया।
‘महाराज! मने भी सुमं जी से यही कहा था िक महाराज कदािप इसकी अनुमित
नहीं दगे। इसीिलए म अब तक मौन था ... िकंतु मेरा भी मत है िक कुमार राम
के अित र अ कोई भी समथ नहीं है इस करण को सुलझाने म।’
‘वह कैसे? अयो ा की चतुरंिगणी सेना िकस योजन के िलए है ?’
‘महाराज, सै अपने ही लोगों का र बहाने के िलये नहीं होता। परं तु उसे
छोिड़ये, कुमार राम की बात करते ह।’ जाबािल ने पुन: ह ेप िकया।
‘कीिजए ...’ दशरथ ने अिन ा से कहा।
‘यहाँ िव ास का संकट है । उस स ूण े की जा का शासन के ऊपर से
िव ास हट गया है । कुमार राम का ऐसा है िजस पर कोई अिव ास नहीं
कर सकता। अयो ा की ही नहीं सम आयावत की जा उनपर आँ ख मूँद कर
िव ास करती है । िव ास ही नहीं करती, अिधकां श जा उ यं िव ु का अवतार
ीकार कर चुकी है । वे यिद जा को आ ासन दगे िक अब उन पर अ ाचार नहीं
होगा, अब कोई उनके साथ अ ाय नहीं करे गा तो सब उनके आ ासन को ीकार
करगे ... वे िव ोही भी। िव ास का संकट िमट जाने के बाद वहाँ कोई भी उलझन
नहीं है । उन िव ोिहयों को भी कोशल से उतना ही लगाव है िजतना हम है । दोषी
रा -किमयों की पहचान हो चुकी है । उनम से अिधकां श को हमने पद ुत भी कर
िदया है । उनके थान पर िनयु िकये गए कम ायि य ह। वे सब सँभाल लगे।’
‘कुछ भी हो, अभी म राम को इस संकट म भेजने की अनुमित नहीं दे सकता।’
दशरथ ने मोद की ओर दे खते ए कहा। मोद की उप थित मा से ही उ
िव ास हो गया था िक वे अव ही युधािजत के आगमन के संबंध म कोई सूचना
लाये होंगे। युधािजत के साथ भरत के जाते ही वे राम का रा ािभषेक कर दे ना
चाहते थे। राम को इस संकट से िनपटने भेजने का अथ था रा ािभषेक को टाल
दे ना जो दशरथ को कदािप ीकाय नहीं था।
दशरथ को अपनी ओर दे खता दे खकर मोद ने भी ीकृित म िसर िहला िदया।
दू सरी ओर सुमं ने हताशा म अपने कंधे झटक िदये। जाबािल उसी कार मौन
मु ु राते रहे ।
‘महाराज! यिद कुमार राम नहीं जा सकते तो कुमार भरत को भी भेजा जा सकता
है । जा को ....’
‘नहीं, कदािप नहीं।’ दशरथ ने िफर पूरी ढ़ता से ाव को अ ीकार कर
िदया। भरत को तो युधािजत के साथ अपनी निनहाल जाना था उसे कैसे कहीं और
भेज सकते थे दशरथ!
हताश सुमं चुप हो गये।
‘आप लोग पर र और िवचार-िवमश कीिजए। कल पुन: इस िवषय म वाता
करगे। म भी िचंतन क ँ गा इस पर।’ दशरथ ने करण का पटा ेप करते ए कहा
और मोद की ओर उ ुख हो गये-
‘किहए मोद जी, आपके तो अब दशन ही नहीं होते। अवकाश हण कर लेने
का ता य यह तो नहीं होता िक राजा से पूणत: ही दू री ही बना ली जाए?’ कहते ए
दशरथ हँ से और िफर आगे जोड़ा- ‘... और िफर आप को अभी हमने पूणत:
अवकाश िदया भी कहाँ है , हमारी कूटचर सेवा के तो मुख आप अभी भी ह ही।’
‘ऐसी कोई बात नहीं है महाराज! यिद मने आपसे दू री बना ली होती तो आज यहाँ
ों उप थत होता।’ मोद ने भी उसी तरह हँ सते ए उ र िदया।
महाराज का इस कार िवषय प रवतन कर दे ना आमा ों के िलये संकेत था
थान का। सबसे थम जाबािल ने ही अनुमित माँ गी-
‘अ ा, अब जाबािल को अनुमित दीिजये महाराज! आप मोद जी से वाता
कीिजए।’
‘हाँ , उिचत है । आप लोग थान कीिजए। म तो अभी कुछ काल इनसे वाता
क ँ गा, िकतने काल बाद तो ये उपल ए ह ... इनका स ूणत: शोषण क ँ गा
अभी म।’ दशरथ ने िवनोद पूवक कहा।
यह एक कार से सबके िलए थान का आदे श था। एक-एक कर सभी उप थत
आमा अनुमित लेकर िनकल िलये।
***
‘अब बताओ िम , ा सूचना है ?’
‘सूचना आपके मनोनुकूल ही है । युधािजत अब तक केकय से थान कर चुके
होंगे।’
‘होंगे से ा ता य?’ दशरथ ने भृकुटी टे ढ़ी करते ए पूछा।
‘महाराज, चर युधािजत के थान की ती ा नहीं कर सकता था।’ मोद
मु ु राये- ‘वह तो सूचना ा होते ही वहाँ से िनकल िलया था।’
‘कब तक संभािवत है उनका आगमन?’
‘परसों तक, अिधकतम एक िदन का िवलंब संभव है ।’
‘उ म।’ दशरथ ने स ता से उ र िदया।
‘तो अब मोद को अनुमित द महाराज!’ मोद ने हाथ जोड़ कर उठने का यास
करते ये कहा।
‘ ा िनि त ही आप जाना चाहते ह?’
‘यिद आपकी अनुमित हो तो ...’
‘भिव की योजनाओं पर कोई परामश नहीं दगे दशरथ को। अब तो सब कुछ
अ ंत रत गित से करना होगा। नहीं ...?’
‘िनि त ही। युवराज युधािजत के केकय दे श प ँ चने से पूव ही राम के
रा ािभषेक की घोषणा कर दे नी उिचत होगी और अिधकतम दो िदवस के अंतराल
म रा ािभषेक का काय म स भी कर लेना होगा तािक उ केकय प ँ चने पर
जब तक सूचना ा हो, हमारे राम राजा बन चुके हों।’
िफर बड़ी दे र तक दोनों िम परे खा बनाते रहे ।
राम के युवराज बनाने स ी सम व थाय गु प से स ूण करने का
दािय दशरथ ने मोद को ही सौंप िदया, तािक घोषणा और राम के रा ािभषेक
के म कम से कम समय की आव कता पड़े । यह भी िन य आ िक भरत के
युधािजत के साथ थान करते ही महामा और सुमं को भी इस िवषय म सूचना
दे दी जाए।
27- राम और उ र का िव ोह
िजस समय दशरथ सभाक म बैठे मं णा कर रहे थे, ठीक उसी समय चारों
कुमार नगर मण पर िनकले ए थे। अब उनके िकसी भी कार के नगर मण पर
कोई अंकुश नहीं था, अिपतु यह तो उनका िन का िनयम बन गया था। गु कुल की
पढ़ाई वे लोग स ूण कर ही चुके थे और अभी तक रा की ओर से उ कोई
दािय सौंपा नहीं गया था, अत: समय का कोई अभाव नहीं था उनके पास। दशरथ
सोचते थे िक अभी उनके जीवन का आनंद उठाने के िदन ह, अपनी पि यों के साथ
भोग-िवलास के िदन ह। उ ा पता था िक उनके पु ों की कृित उनके िवपरीत
है । उनके पु भोग-िवलास के ित आ ही कदािप नहीं ह। कत उनके िलए
सव मुख है ।
कभी-कभी तो यह नगर- मण रा - मण म भी प रवितत हो जाता था। हाँ , उस
अव था म ये लोग माताओं तक सूचना अव ेिषत कर िदया करते थे िक संभव है
उनकी वापसी म िवलंब हो जाए अथवा अगले िदन वापसी संभव हो। सूचना का
उ े माताओं को िनि ंत करने के साथ-साथ अपनी नव-प रणीता पि यों को
सां ना दान करना भी होता था। इन लोगों के आगमन म िवलंब होने से वे अकारण
ही उि होने लगती थीं।
गु कुल जीवन म जब कुमार नगर- मण के िलए िनकलते थे तब सदै व पैदल ही
होते थे, िकंतु अब वे सदै व अ ा ढ़ होकर िनकलते थे, इसम इ सुिवधा भी रहती
थी। य िप िपता तो चाहते थे िक कुमार रथा ढ़ होकर ही मण पर िनकल ... वे
राजकुमार थे और उनका वाहन उस मयादा के अनुकूल ही होना चािहए, िकंतु
कुमारों को रथ म बंधन तीत होता था। अ ा ढ़ होने से दू र-दू र तक मण करना
सहज होता था। अ वहाँ भी प ँ च सकता था जहाँ तक प ँ च पाना रथ के िलए संभव
नहीं होता था।
गु कुल की उस प रपाटी का कुमार अब भी अनुसरण कर रहे थे िजसके अनुसार
कोई भी आम जन अपनी था कहने के िलये माग म कहीं भी उ रोक सकता था।
यह एक कार से अब उनका भाव बन गया था। माग म जा-जनों ारा रोके जाने
को वे सहज भाव से ही लेते थे। इसका प रणाम भी सुखद था। रा के िलये सवथा
िहतकारी था। उस काल म जा, राजा को ई र का ितिनिध मानती थी यह सच है ,
िफर भी राजा का जा के साथ सहज भाव से घुलना-िमलना जा पर अनुकूल भाव
ही डालता था। जा ऐसे राजा की भ हो जाती थी। अयो ा की जा भी अपने
कुमारों म भ का भाव रखती थी। िफर राम तो उसके िलए यं िव ु का अंश थे
ही।
चारों कुमार नगर माग पर अपने अ ों पर आ ढ़ दु लकी चाल से चले जा रहे थे।
उनके अ ों को दे खते ही जाजन स ान से माग छोड़ कर, आ था से सर झुका कर
णाम िनवेदन कर रहे थे। कुमारों के, िवशेषकर राम और भरत के सर िनरं तर उन
णामों के उ र दे ने म ही थे।
अक ात एक वधान आ गया।
एक मिलन-मुख ौढ़ा,माग म हाथ जोड़े खड़ी थी। कुमारों के अ ों को दे खकर भी
उसने माग नहीं छोड़ा था। राम ने उसके िनकट प ँ चकर अपना अ रोक िदया और
िवन र म पूछा-
‘ ा था है माता, हम आपके िलये ा ि यकर कर सकते ह?’
‘कुमार मेरे पु की जीवन-र ा कीिजए। आप ही उसे बचा सकते ह!’ ौढ़ा ने ँ धे
र म कहा। उसके आँ सू उसके गालों पर ढु लक आये थे।
‘माता, पूरी बात तो बताओ, आ ा है ?’
‘कुमार, मेरा पु आजीिवका के िलए उ र ां त म गया था। वहाँ उसे र कों ने
िव ोही बताकर पकड़ िलया और कारागार म डाल िदया।’
‘कब आ यह सब?’
‘ ात नहीं कुमार! यहाँ से वह तीन माह पूव गया था, वहाँ कब उसके साथ यह
सब आ हम कुछ भी नहीं ात। बस कृपा कर उसे बचा लीिजए, हम सबका जीवन
उसी पर आि त है ।’
‘िकंतु माता आप अब इतने िदन बाद घटना की सूचना दे रही ह?’
‘हम भी अभी दो िदवस पूव ही तो ात आ है । पु का एक िम िकसी कार से
वहाँ से बच कर वापस आया तो उसने हम भी सूिचत िकया।’
‘अिधका रयों से स क नहीं िकया आपने?’
‘िकया था िकंतु कोई सुनवाई नहीं ई। ... आप कह दगे कुमार तो हो सकता है
हमारा पु वापस आ जाये।’
‘ थम तो आप अपना प रचय द माता, ा नाम है आपका?’
‘िशवकली, कुमार!’
‘और आपके पित का?’
‘मधुसूदन!’
‘और आपके पु का िजसे बंदी बनाया गया है ?’
‘दे वीदीन!’
‘िकतनी आयु होगी उसकी?’
‘पचीस-छ ीस वष की होगी।’
‘और कोई िववरण िजससे उसे हम पहचान सक?’
‘साँ वला रं ग है कुमार, आप से थोड़ा सा दबता। खूब लंबा है , आपसे थोड़ा ही
छोटा होगा। दु बला-पतला है । छिव ब त सुंदर है उसकी, सदै व मुख पर आपके जैसे
ही मु ान खेलती रहती है ...’ माता अपने पु की सु रता का बखान करने म
कभी कृपणता नहीं करती। ौढ़ा बताती रही और राम पूरी गंभीरता से सुनते रहे ।
ल ण और श ु मु ु राते रहे , भरत सदै व के समान शां त थे।
‘ठीक है माता, हम यास करते ह आपके पु को खोजने का। यिद वह वा व म
िनरपराध आ तो हम अव उसे मु करायगे।’
उसे आ ासन दे कर कुमारों ने आगे बढ़ना चाहा िकंतु यह संभव नहीं था। उ
खड़ा दे ख कर चारों ओर अनेक आमजन इक ा हो गए थे। उधर उस ौढ़ा के
आशीषों का लंबा िसलिसला भी जारी था।
कुमारों को उस ौढ़ा से िनपटते दे ख एक अ नाग रक बोल उठा-
‘कुमार उ र ां त म सच म ही अ ंत अ ाचार हो रहा है ।’
‘तो तुम ा चाहते हो रा के ित िव ोह करने वालों की पूजा की जाए?’ दू सरे
नाग रक ने तुरंत उसकी बात काट दी।
धीरे -धीरे उप थत लोग दो दलों म बँट गए। एक दल िव ोिहयों के
बबरतापूवक दमन का प धर था तो दू सरा उनके साथ सहानुभूित रखता था और
चाहता था िक उनका दमन त ाल बंद कर िदया जाए और उनकी सम ाओं को
समझने का यास िकया जाए।
बड़ी किठनाई से कुमार लोगों को शां त कर पाये। राम ने सबको आ ासन िदया
िक वे यं इस िवषय म जानकारी करगे और यास करगे िक िकसी के साथ भी
अ ाय न हो; साथ ही दोिषयों को, चाहे वे कोई भी हों, उिचत द भी िमले।
उस भीड़ से छु टकारा पाने म कुमारों का पया समय तीत हो गया। हाट की
भीड़भाड़ से बाहर िनकलने के बाद राम ने बगल म चल रहे ल ण की ओर
वाचक ि से दे खा।
‘मेरे िवचार से तो हम यं उ र ां त की ओर चलना चािहए। ब त िदनों से मण
भी नहीं आ, वह भी हो जाएगा।’ ल ण ने ाव रखा।
‘चाहता तो म भी यही ँ ।’ राम बोले- ‘िकंतु िपताजी से अनुमित तो लेनी ही होगी।’
‘अब हम बालक थोड़े ही रह गए ह ाता, जो कहीं भी जाने से पूव हम अनुमित
लेनी होगी।’ अपने भाव के अनु प ल ण बोले। िफर प रहास के र म जोड़ा-
‘हम स म िव ु के ातागण ह और यं स म िव ु हमारा नेतृ कर रहे ह।’
ल ण की बात पर श ु ठठाकर हँ स पड़े । भरत और यं राम भी मु ु रा
िदये। राम ने खेल म ही एक हाथ से ल ण पर वार करना चाहा िकंतु ल ण को
इसका पूवाभास था, उ ोंने झट से अपने अ को दािहनी ओर काट िलया। इस
यास म उनका अ श ु के अ से टकराते-टकराते बचा।
‘सदै व प रहास अ ा नहीं होता।’ राम ने ल ण को डाँ टने का यास िकया।
‘प रहास से ही तो जीवन म आनंद है ाता ... िकंतु आप दोनों इसे नहीं समझगे।’
ल ण कुछ बोलते उससे पूव ही श ु ने उ र िदया।
‘िकंतु इस समय गंभीर हमारे स ुख है । प रहास, प रहास के समय ही शोभा
दे ता है ।’ भरत ने राम का समथन िकया।
‘उस गंभीर से िनपटने के िलये हम अभी चलने को त र तो ह। ा िकसी
गंभीर प र थित का सामना सदै व दनो ुख ( आँ सा) मुख के साथ ही िकया जाना
चािहए।’ श ु हिथयार डालने को तैयार नहीं थे- ‘और यह भी ान र खएगा िक
आपने उस ी को भरोसा िदया है उसके पु को मु कराने का।’
‘अब िवलंब हो गया है , इस समय चलकर हम कदािप आज अपने गंत तक
नहीं प ँ च पायगे। दू सरी ओर हमारी अक ात अनुप थित से यहाँ सभी िचंितत हो
जायगे। िपताजी को सूचना दे कर और उनकी अनुमित लेकर ही चलना उिचत
होगा।’ राम ने परामश िदया।
‘आप हमारा और हमारे अ ों का अपमान कर रहे ह ाता ...’ ल ण ने रोष का
अिभनय करते ए कहा- ‘अभी िदवस का दू सरा हर ही चल रहा है , हम िनि त ही
समय रहते वहाँ तक प ँ च जायगे। रही सूचना की बात तो माग म िकसी भी सैिनक
को माताओं तक सूचना प ँ चाने के िलए िनदिशत कर दगे।’
‘िकंतु ... ा यह उिचत होगा? ... िपताजी की अनुमित ा िकए िबना िकसी
अिभयान पर ...’ राम उहापोह म थे िकंतु ल ण नहीं थे। राम की बात को काटते
ए वे बोल पड़े -
‘हम िकसी अिभयान पर कहाँ जा रहे ह ाता, हम तो िवहार हे तु जा रहे ह। ...
और िवहार हे तु जाने के िलए िकसी अनुमित की अब हम बा ता नहीं है । इतनी
तं ता तो िपताजी हम दे ही चुके ह।’
‘हाँ ाता, िचंतन म समय न मत कीिजए।’ श ु ने भी ल ण का समथन
िकया।
राम ने सहायता के िलए भरत की ओर दे खा।
‘ ाता, आप उिचत कह रहे ह। यह एक अिभयान ही होगा िकंतु ये दोनों भी सही
ह। जहाँ तक इतने समय म म समझ पाया ँ , यहाँ पर जा और स ा के म
िव ास का है । जा को स ा पर िव ास नहीं रहा उस े म। उसे तीत हो रहा है
िक स ा उसके साथ अ ाय कर रही है , उसका अकारण दमन कर रही है ।’
‘वह तो है िकंतु बात हमारे चलने की हो रही थी।’ राम ने बाधा दी।
‘उसी की बात कर रहा ँ म भी। जब िव ास का संकट उ गया हो, तो उस
संकट को समा करने हे तु आपकी उप थित से े कोई िवक नहीं हो
सकता।’
भरत की बात सुनकर राम ही नहीं ल ण और श ु भी चौंक पड़े । भरत के
मयािदत च र को ि गत रखते ए िकसी को भी उनसे ऐसे परामश की अपे ा
नहीं थी।
‘तब ा करणीय है ?’
‘हम िवहार हे तु ही चलते ह।’
‘िकंतु यह तो अस -भाषण होगा ?’
‘नहीं होगा। हम िवहार हे तु ही जायगे, वहाँ यिद जा त: ही हमसे सहायता की
याचना करे तो हमारा कत होगा िक हम उसकी सहायता कर।’
‘वैसे भी ाता, स -अस जो कुछ बोलगे, हम बोलगे न, आप तो बस दाय-बाय
रहना।’ श ु ने हँ सते ए समाधान ुत िकया।
राम अभी भी िहचिकचा रहे थे।
‘ ाता, ा िपताजी ने स ूण रा म हमारे िवहार पर कोई ितबंध आरोिपत
िकया आ है ?’ राम को िहचिकचाते दे ख श ु ने िकया।
‘नहीं, िक ु ...’
‘ ा िपता जी िन हमसे हमारे स ूण िदवस के ि याकलापों का िववरण माँ गते
ह?’
‘नहीं!’ राम ने मु ु राते ए उ र िदया- ‘िकंतु ...’
‘ ा िक ु? ा हम लोग िनबल ाणी ह जो ऐसी िकसी या ा म संकट म िघर
जायगे?’
‘नहीं!’ राम ने उसी भां ित मु ु राते ए पुन: उ र िदया।
‘तब िफर यह उहापोह ों है ? चिलए उ ाहपूवक! आप दोनों तो िष के साथ
सुदूर या ाय कर आये ह, िकंतु हम तो बस इस नगर के कारागार म ही िवचरते रहे
ह। हम यिद एक-दो िदवस के िलए उ ु मण का अवसर ा हो रहा है तो
आप ों बाधा बन रहे ह?’
श ु के इस अपन भरे तक का राम के पास कोई उ र नहीं था िकंतु ल ण
भला कैसे चूकते!
‘ ों तुम भी तो गए थे िमिथला? हमारी या ा भी तो वहीं तक की थी।’
‘तुम ाता के साथ उ ु िवचरण करते ए गए थे, रोमां चक या ा थी तु ारी।
तु ारे िवपरीत हम िपताजी की ि -प रिध म बंदी सीधे िमिथला गए और लौट आए।
हमारी या ा म वह रोमां च कहाँ था जो तु ारी या ा म था!’
ल ण और श ु िववाद म उलझे थे और राम को सीता का कथन रण हो रहा
था-
‘आप रा ारा अिधकृत हों अथवा न हों, कृित ारा आप अिधकृत ह। स म
िव ु के प म आपको ेक अ ाय के ितकार हे तु ितपल स रहना ही
होगा।’
‘ ाता, आप कुछ बोलते ों नहीं?’ अचानक ल ण का र सुनकर राम सचेत
ए।
‘अ ा अब थ िववाद मत बढ़ाओ। चलो, दे खते ह उ र ां त म ा अ व था
है !’ राम ने ल ण की बात को अनसुना करते ए कहा और अपने अ को ऐड़
लगा दी।
अक ात राम के सहमत हो जाने से ल ण और श ु िव त रह गए। अपना
िववाद भूलकर उ ोंने एक-दू सरे की आँ खों म दे खा और मु ु राकर अपने अ ों को
भी ऐड़ लगा दी। चारों भाई उड़ चले।
माग म जो थम सैिनक चौकी पड़ी वहाँ ककर ल ण ने िनयु ह रयों को
माताओं तक उनके िवहार हे तु जाने की सूचना प ँ चाने का दािय सौंप िदया। कह
िदया िक यिद दो-तीन िदवस का समय लग जाए तो िचंता न कर। चौकी म ल ण
अकेले ही गए थे। उ भय था िक यिद राम भी साथ आए तो पता नहीं अपने आदश
के अनुपालन म ा कह बैठ।
पां चाल की सीमा पर थत अिह नगरी उ र ां त की राजधानी थी। अयो ा
से उसकी दू री 15 योजन से अिधक नहीं थी। इस माग पर वे पूव म कभी नहीं आये थे
इसिलए माग म दो-तीन थानों पर पूछना पड़ा। माग म एक वन- े म थोड़ी दे र
ककर कुछ फलाहार भी िकया। आमों की ऋतु तीत हो चुकी थी िकंतु फल तो
सभी ािद होते ह। ल ण और श ु ने कुछ पलों म ही पया फलों का ढे र
लगा िदया था।
माग म राम के िनदशानुसार कुमारों ने यास िकया िक वे नगर े ों को बचाकर,
यिद आव कता पड़े तो उनकी प र मा करते ए िनकल। नगर े म िकसी के
ारा भी पहचान िलए जाने पर अनाव क िवलंब होता।
अिह तक प ँ चते-प ँ चते िदन ढलने लगा। कुमारों का और उनकी
वेशभूषा ही उनकी पहचान करने के िलए पया थी। उ नगर के माग पर
िवचरण करते दे ख नाग रकों म कानाफूसी आरं भ हो गयी। एक थान पर ककर
राम ने कारागृह का पता पूछा और चारों कुमार सीधे कारागृह ही प ँ चे। कारागृह का
मुख कुमारों को पहचानता था। वह उ दे खते ही रह गया।
िकंकत िवमूढ़ता की थित म उसे समझ ही नहीं आ रहा था िक ा करे , ा न
करे !
उसने कुमारों को दे खते ही ां तपाल और अ अिधका रयों को सूचना िभजवा दी
और यं कुमारों के स ार म ुत हो गया। उपल सबसे अ ी पीिठकाय
उसने कुमारों के बैठने के िलए मँगवाईं। सादर उ उन पर बैठने का िनवेदन िकया
िफर हाथ जोड़ कर बोला-
‘कुमार, यहाँ कारागृह म आप लोगों के यो कोई भी व था नहीं है , मुझे आशा
है आप मेरी िववशता को समझ कर मुझे मा करगे।’
‘उसके िवषय म आप कदािप िचंितत न हों।’ राम ने सहजता से उ र िदया- ‘हम
यहाँ िकसी भ स ार की अपे ा से आए भी नहीं ह। हम तो बस इस े को
दे खने-समझने के उ े से ही चले आये ह।’
‘आप आदे श कर, मेरे िलये जो भी संभव होगा वह करने हे तु म त र ँ ।’
‘आप उि न हों। ऐसा कुछ भी िवशेष नहीं है िजसे लेकर आपको िचंितत होना
पड़े । आप सहज होकर बैठ और अपनी ओर से इस स ूण ां त के िवषय म और
इस कारागृह के िवषय म जो भी बताना उिचत समझ बताय। हम तो बस अपने रा
को अिधक से अिधक समझना चाहते ह।’ भरत ने उसकी असहजता को अनुभव
करते ये उसे सा ना दे ने का यास िकया।
‘कुमार यिद अनुमित द तो कुछ कहने की धृ ता क ँ ?’ कारा मुख ने वैसे ही
हाथ जोड़े -जोड़े िनवेदन िकया।
‘आपको अनुमित है ।’ राम बरबस उसकी भंिगमा को ल कर मु ु रा पड़े ।
ल ण और श ु पहले ही स यास अपनी हँ सी रोके ए थे और एक-दू सरे को
कोहनी से टहोकते ए अपने िनराले अंदाज म मौन संवाद कर रहे थे।
‘ मादान भी दे कर अभय कर!’ कारा मुख िफर बोला।
‘िदया!’ इस बार राम के मुख पर भी ह ी सी हँ सी खेल गयी।
‘कुमार, आपके आगमन का उ े िनि त ही इस कारागृह से संबंिधत है ।
अ था अव था म आप का ल रा - मुख अथवा सै - मुख का िनवास होता।’
‘िनि त ही हमारे आगमन के कारण प म एक िवशेष है जो इस कारागृह
म ब ी हो सकता है । िक ु वह हमारे आगमन का मुख कारण नहीं है ।’ राम
मु ु राते ए बोले- ‘ थम आप यं को संयत कर ल तदु परां त हम िव ार से वाता
करते ह। िकंतु तब तक आप इस स ूण ां त के िवषय म जो कुछ भी हमारे सं ान
म ला सक वह लाय। िवगत िदनों अयो ा म इस ां त के िवषय म अनेक िववािदत
कथाएँ सुनने म आई ह।’
‘उस का प रचय द कुमार, यिद वह यहाँ ब ी है तो अभी म उसे आपके
स ुख उप थत करता ँ । जहाँ तक ा के िवषय म चिलत अ िववािदत
कथाओं का है तो उनम िन य ही स ता है । िक ु उिचत होगा िक उस िवषय
म ा - मुख ही आपको संतु कर। आप समझ सकते ह िक वह िवषय मेरे
अिधकार- े म नहीं है । उस पर कुछ भी कहना मेरे ारा अपनी अिधकार-सीमा
का उ ंघन ही होगा।’ कारा मुख ने पुन: िवन ता पूवक कहा। उसकी बात सही
भी थी।
ल ण और श ु को यह वा लास भा नहीं रहा था। वे दोनों ही व ा थे,
सीधी-सीधी बात करने म िव ास रखते थे। अंतत: ल ण बोल ही पड़े -
‘ मुख जी, एक युवक है , लगभग प ीस-छ ीस वष का, दे वीदीन नाम है
उसका ...’
ल ण आगे कुछ कहते उससे पूव ही कारा मुख बोल पड़ा-
‘जी कुमार है । ा उसे आपके स ुख ुत िकया जाए?’
तभी एक र क जलपान की साम ी लेकर उप थत हो गया। साम ी उसने वहीं
म म रखी एक पीिठका पर रख दी और हाथ जोड़ कर कमर से लगभग दोहरा
होते ए कुमारों को णाम िकया। कुमारों ने उसका णाम ीकार िकया। उसके
सीधा होते ही कारा मुख ने कुमारों से जलपान ीकार करने का आ ह िकया और
िफर उस र क को आदे श िदया-
‘जाओ, वह जो दे वीदीन नाम का युवक ब ी है उसे ले आओ।’
र क ने मु ी भींच कर छाती पर मारते ए मुख को सै - णाम िकया और
चला गया।
‘लीिजए कुमार, यह साम ी आपकी ग रमा के अनुकूल तो नहीं है िक ु इससे
अिधक की व था यहाँ संभव नहीं थी। इसे ही हण कर इस कारागृह को
अनु हीत कीिजए।’
चारों ही कुमार उसकी मृदुभािषता और समझदारी से भािवत िदख रहे थे।
उ ोंने सहज भाव से जलपान हण करना आर कर िदया।
‘आप भी लीिजये!’ ल ण ने कारा मुख से कहा।
‘नहीं कुमार म यह धृ ता कैसे कर सकता ँ । आप लीिजए, ां त- मुख और
सै - मुख भी आते ही होंगे। ... आप सोच नहीं सकते िक आपके आगमन से मुझे
िकतनी स ता हो रही है । मुझे ही नहीं यहाँ के सभी अिधका रयों को इस समाचार
से अ ंत संतोष ा होगा।’
य िप ये कारा मुख के दय के उ ार थे िकंतु कुमारों को यह उसका िवन ता-
दशन ही लगा। अत: कुछ उ र दे ने की आव कता नहीं अनुभव की।
‘हम सब दयतल की गहराइयों से आपके आगमन की अिभलाषा रखते थे िकंतु
हम आशा नहीं थी िक हमारी अिभलाषा पूण होगी।’ कारा मुख कहता जा रहा था-
‘यहाँ की थित स ही अ ंत िवषम है । यहाँ के पूव अिधका रयों ने स ही
अनाचार की पराका ा को श िकया है ।’
उसके अंितम वा ने चारों ही कुमारों को चौंका िदया था। हठात् राम के मुँह से
िनकल पड़ा-
‘पूव अिधका रयों ने ... ा ता य है आपका?’
‘कुमार, हम सभी ने िवगत एक माह के भीतर ही यहाँ का कायभार हण िकया
है । यहाँ के समाचार सुनकर महामा और आमा सुम ने यहाँ के सभी
अिधका रयों को िनल त कर िदया है और हम सबको इस िनदश के साथ
यहाँ िनयु िकया है िक िवशेष संवेदनशीलता से यहाँ की िवषम प र थितयों को
सुलझाने का यास कर।’
‘ता य, आप सभी यं अभी यहाँ कुछ काल पूव ही िनयु ए ह? तब तो आप
लोग भी प र थितयों से अभी पूणत: प रिचत नहीं होंगे।’ राम ने संदेह िकया।
‘ऐसा नहीं है कुमार, हम इतने िदनों म ही प र थितयों को भलीभां ित समझ चुके
ह ... और ां त- मुख ने महामा के पास अपना िनवेदन भी ेिषत िकया था िक
यहाँ की थित मा आप ही िनयंि त कर सकते ह।’
‘आप अकारण मुझे मिहमामंिडत करने का यास कर रहे ह। यह राजनैितक
सम ा है और हम लोगों को अभी राजनीित की र ीभर भी समझ नहीं है ।’ राम ने
सदै व की भां ित अपनी शंसा से असहज होते ए कहा।
‘कुमार यह आपकी िवन ता है जो आप अपनी शंसा से संकुिचत होते तीत हो
रहे ह, िक ु स यही है ।’ कारा मुख के रमभ का भाव था।
राम कुछ उ र दे ते उससे पूव ही र क एक ब ी को लेकर आता िदखाई पड़ा।
यही संभवत: दे वीदीन था, िजसकी माता ने ात:काल कुमारों से अपना दु खड़ा रोया
था।
‘लीिजए कुमार दे वीदीन आ गया।’ कारा मुख ने उनके अनुमान पर अपनी मुहर
लगाते ए कहा।
दे वीदीन औसत कद का सामा सा युवक था िजसके चेहरे पर मिलनता सव
ा थी। वह मा अधोव धारण िकए था, वह भी ग ा हो रहा था। वह चुपचाप
िसर झुकाये चला आ रहा था। वह िकसी भी कार के ब न म नहीं था। र क भी
उसके पीछे िनि ंत भाव से चला आ रहा था, जैसे उसे इस ब ी ारा िकसी भी
कार के उप व की कोई आशंका न हो।
कुमारों ने उसे दे खा।
‘अपनी ि ऊपर उठाओ दे वीदीन! दे खो तो तुमसे भट करने कौन आया है !’
दे वीदीन के िनकट आते ही कारा मुख ने सहज र म कहा।
दे वीदीन ने अपना चेहरा ऊपर उठाया। उसकी ि कुमारों पर पड़ी। एक पल
को वह खोयी-खोयी आँ खों से उ दे खता रहा िक ु अगले ही ण उसके ने ों म
पहचानने का भाव चमक उठा। उसकी आँ खों से अ ु वािहत हो उठे । वह दौड़ कर
राम के चरणों म लेट गया।
‘मेरा तो जीवन सफल हो गया। भु यं मुझे दशन दे ने चले आये।’ िहचिकयों से
भरे र म वह िकसी कार इतना भर कह पाया।
लोगों का यह भ दशन राम को सदै व असहज कर दे ता था। परं तु िकसी भी
कार इसे सहन करना उनकी िववशता थी। िष ने ऐसा दे व उन पर आरोिपत
कर िदया था िक कहीं मु की संभावना नहीं िदखती थी।
अ तीनों कुमार उनकी इस असहजता का आनंद ले रहे थे।
‘उठो-उठो!’ राम हड़बड़ाये र म उसे कंधों से पकड़कर उठाने का यास
करते ए बोले।
‘नहीं भु! भ का थान तो भु के चरणों म ही होता है ।’ दे वीदीन उसी कार
उनके चरणों को अपने आँ सुओं से धोता आ बोला।
‘ ाभ का कत भु के आदे श की अवहे लना भी है ?’ यह अचानक
ल ण की ओर से आया था। वे राम को उस असहज थित से उबारना चाहते थे।
ल ण के कथन की दे वीदीन पर वही िति या ई िजसका ल ण को अनुमान
था। वह अपने आँ सू पोंछता आ उठ बैठा और ापूवक राम के मुख की ओर
िनहारने लगा।
‘ मुख जी! यिद इस कारागृह म रहने से भु के दशन ा होते ह तो मुझे जीवन
पयत यहाँ रहना ीकार है ।’ अचानक दे वीदीन कारा मुख की ओर उ ुख होकर
बोल पड़ा।
उसकी बात सुनकर ल ण और श ु ठठाकर हँ स पड़े । बाकी भी अपनी
मु ान रोक नहीं पाये।
‘और वहाँ तु ारे माता-िपता तु ारे िवयोग म दर-दर की ठोकर खाते रह और
अंतत: ाण ाग द? उनके ित कोई कत नहीं है तु ारा?’ राम ने उसकी भ
से असहज होकर उसे िझड़का।
यह बात आगे नहीं बढ़ पाई। अचानक अ ों की टापों ने सबका ान आकिषत
िकया।
‘ तीत होता है ा मुख आ गये।’ कारा मुख बोलते-बोलते उठ खड़ा आ।
िफर टापों का र क गया और कारागृह के ार पर िकसी रथ के कने का
र सुनाई पड़ा।
‘कुमार, मुझे कुछ पलों के िलए अपने अिधका रयों के ागत के िलए जाने की
अनुमित दान कर।’ कारा मुख ने हाथ जोड़कर कहा।
राम ने अनुमित म सर िहला िदया और िफर घूमकर दे वीदीन की ओर दे खने लगे।
‘ ा संबंध है तु ारा, यहाँ के िव ोिहयों के साथ?’ राम ने उसकी आँ खों म
झाँ कते ए िकया।
‘कुछ भी नहीं भु!’ उसने उ र िदया।
‘तो ा अकारण ही तु ब ीगृह म डाल िदया गया?’
‘मुझे यं नहीं ात भु! मुझे ब ी बनाते समय कहा गया था िक म िव ोिहयों
को अ िव य करता ँ ।’
‘ ा तुम ऐसा करते थे?’
‘ भु! अ प साम ी के साथ-साथ मेरे पास पाँ च कृपाण भी थीं, िजनम से तीन
मने िव य भी की थीं, िक ु मुझे नहीं ात िक यकता कौन थे। कुछ भी िव य
करते समय कोई भी िव े ता इसका िववरण नहीं लेता, उसे तो मा अपनी साम ी
का उिचत मू ा करना होता है । ... और िफर म तो यहाँ िकसी को जानता भी
नहीं था िक कौन िव ोही है कौन नहीं!’
यह बातचीत यहीं पर क गयी। कारा मुख के साथ तीन और वेश कर
रहे थे। एक तो अपनी वेशभूषा से ही लग रहा था िक सै मुख होगा। दू सरा िनि त
ही ा मुख होना चािहए था, तीसरे के िवषय म कुमारों को कोई अनुमान नहीं
था।
कारागार मुख ने तीनों से कुमारों का प रचय करवाया।
ा - मुख भ मिण, छ: हाथ से भी अिधक ल े, ख ाट िसर, ल ी दाढ़ी,
िजसम कुछ ेत केश भी आने लगे थे, वाले वृ ाव था की ओर अ सर हो रहे
थे। उनकी वयस स र वष से अिधक ही होगी। माथे पर च न की तीन रे खाय खंची
ई थीं। बदन पर ेत अधोव और ेत ही उ रीय सुशोिभत था। य ोपवीत और
गले म एक ा की माला के अित र उनके शरीर पर कोई अलंकरण नहीं था।
पैरों म काठ की खड़ाऊँ पहने ए थे। उनके तेजो ी आनन पर अनुभव और
बु म ा झलक रही थी।
सै - मुख ािद , लगभग पचास वष की आयु के अ ंत -पु शरीर के
थे। ल ाई उनकी भी भ मिण के बराबर ही थी। उनके ल े काले बाल िसर
पर बँधी र वण की पगड़ी के नीचे से िनकल कर गदन के पीछे कंधों तक लहरा
रहे थे। ल ी गलमु े दार मूछ पूरे गालों को घेरे ये थीं। दाढ़ी सफाचट थी। गले म,
बा ओं म और पगड़ी पर भी िणम आभूषण शोभा पा रहे थे। उनका कौषेय
उ रीय और ेत अधोव भी ब मू था। पैरों म र जिटत ा -चम पादु काय
थीं। अ आभूषणों के साथ ही शरीर पर कई थानों पर सुशोिभत िविभ यु ों म
पाये गये घावों के िच भी उनकी वीरता की कहानी कह रहे थे। यो ा ऐसे िच ों
को िछपाने के थान पर उ दिशत करने म गौरव अनुभव करते थे।
तीसरा , अ तीथ एक िबलकुल सामा सा िदखने वाला था, िकंतु
उसकी आँ खों का पैनापन उसे सबसे अलग करता था। राम ने अनुभव िकया िक
उसकी आँ खों म कुछ अलग ही बात है , ऐसी आँ ख उ ोंने पहले कभी नहीं दे खी थीं।
ऐसा लगता था जैसे उसकी ि िकसी भी को भीतर तक बेधने की साम
रखती हो। अ दोनों अिधकारी अयो ा से भेजे गए थे िक ु उनके िवपरीत
अ तीथ यहाँ का थानीय िनवासी था और स ा व िव ोिहयों के म चल रही वाता
म सेतु के दािय का िनवहन कर रहा था। थानीय होने के कारण, उसके िलए
िव ोिहयों का िव ास जीतना अपे ाकृत सरल माना गया था।
औपचा रक प रचय के उपरां त राम ने भ मिण से िकया-
‘ मुख जी, इस युवक दे वीदीन के िवषय म आपका ा िवचार है । ा स ही
इसका िव ोिहयों से िकसी कार का स क है ?’
‘नहीं कुमार, मेरे िवचार से तो यह अकारण ही ब ी बना िलया गया है । हम अभी
तक इसकी िव ोिहयों से स ता का कोई माण नहीं ा आ है ।’
‘आप ा सोचते ह इस िवषय म ािद जी?’ राम ने वही सै मुख से
दोहराया।
‘मुझे ात त ों अनुसार भी यह युवक िनद ष है । हमने अभी तक इसकी िकसी
भी षड़यं म संिल ता नहीं पाई है । वैसे भी हमारा मानना है िक वा िवक दोषी
राज-कम रहे ह। उनकी मदा ता ने भोले-भाले जा-जनों को िव ोह के िलए िववश
िकया। अत: यह तो वैसे भी मु होने का पा है । िफर भी इस िवषय म सवािधक
ामािणक मत मेरे िवचार से अ तीथ का होगा, ोंिक यही तो िव ोिहयों से स क
बनाने का ही काय कर रहे ह।’ कहने के साथ ही सै - मुख ने अ तीथ की ओर
दे खा। यह उसके िलये संकेत था िक वह अपना मत ुत करे ।
राम और अ सभी उप थत यों की ि भी त: ही उसकी ओर घूम
गयी।
‘कुमार, यह युवक िन ंदेह िनद ष है । साथ ही मुझे नहीं तीत होता िक यह
िकसी भी िव ोही से प रिचत भी है अथवा िकसी अ कार से उनके साथ स क
थािपत करने म हमारी कोई सहायता कर सकता है । इसे व ुत: अभी तक रोक
कर इसीिलए रखा गया था िक स व है िव ोही इससे स क करने का यास कर
और हम उस बहाने कोई माग िमले, परं तु अब मुझे यह हो चुका है िक यह
संभव नहीं है । यह अकारण ही द का भागी बन गया है । इसे सस ान मु
करना ही उिचत होगा।’
‘तो िफर इस थित म इसे अभी तक मु ों नहीं िकया गया?’ राम ने
िकया।
‘तीन कारण थे कुमार!’ भ मिण ने कुछ सोचते ए करना आरं भ िकया-
‘ थम तो हम ती ा कर रहे थे िक हो सकता है िक िव ोिहयों का कोई ितिनिध
इससे स क करने का यास करे और इस बहाने हम आगे बढ़ने का कोई सू
ा हो जाए।
‘दू सरा यह, िक हम ात है िक इसके पास इतने संसाधन नहीं ह जो यह सकुशल
अयो ा तक प ँ च सके। इसके पास जो भी स ि अथवा साम ी थी, इसके ब ी
होने के उपरां त उसका ा आ िकसी को नहीं ात।
‘और तीसरा सबसे मुख कारण यह है िक अिभलेखों म इसका उ ेख
िव ोिहयों के सहयोगी के प म ही है । हम लोगों के अिधकार म िव ोिहयों से
स क कर सहानुभूितपूवक उ समझाकर िव ोह का माग छोड़ने के िलए मनाना
भर है । िव ोिहयों को मादान दे ना हमारे अिधकार े म नहीं है । हम महाराज की
ओर से अिधकृत िकसी ितिनिध की अनुशंसा के अभाव म िकसी भी िव ोही को
मु नहीं कर सकते। अभी हम यं ही यह ात नहीं है िक इस िवषय म महाराज
का मत ा है ।’
‘ ँ ऽ ऽ ऽ!’ राम ने िवचारम मु ा म ं कारी भरी।
ा - मुख ने कहना जारी रखा-
‘इसीिलए हमने िवशेष प से आमा सुम के पास संदेश भेजा था िक वे कुछ
ऐसा बंध कर िक आप यं यहाँ आ सक।’
‘िवशेष प से मेरे िलए ही ों? इस िवषय को सुलझाने के िलए तो िकसी िनपुण
राजनीित की आव कता थी, मुझ जैसे िकसी अप रप की नहीं?’ राम ने
मु ु राते ए पुन: िकया।
‘कुमार, यहाँ की प र थितयों म राजनीित की नहीं, ऐसे स दय की
आव कता है िजसके कथन पर िव ोही िव ास कर सक। और िजसम िकसी भी
कार का िनणय लेने की साम हो। ऐसा स ूण रा म आपके
अित र दू सरा कोई नहीं है ।’
‘िकंतु हम भी महाराज के ारा अिधकृत प से नहीं आए ह। हम तो मा िवहार
के उ े से ही इधर िनकल पड़े थे। व ुत: महाराज को तो ात ही नहीं िक हम
यहाँ आए ह।’ ल ण ने ह ेप िकया।
‘और हम तो यह भी नहीं ात िक आपका संदेश आमा सुमं तक प ँ चा अथवा
नहीं और उनकी अभी तक महाराज से इस संबंध म कोई वाता ई अथवा नहीं।’
राम ने कहा।
‘उससे ा अंतर पड़ता है कुमार! आप लोग कुमार ह यह तो अका स है ,
कुमार राम अयो ा के भावी स ाट् ह यह भी वा िवकता है । युवराज के प म ये
तो यं ई र ारा कोई भी िनणय लेने के िलए अिधकृत ह। यं महाराज के
उपरां त त: ही इनका आदे श सव प र है । ... दू सरे स ूण रा म यही एकमा
ऐसे ह िजनपर मा अयो ा ही नहीं स ूण आयावत के ेक के
मन म अगाध ा है । ा मुझे यह कहने की आव कता है िक ये जा के दय म
यं भु ीिव ु के अवतार के प म िति त ह। इनम िव ोिहयों को भी उतनी
ही आ था है िजतनी हम सबको है ।’
‘तो अब ा करणीय है ?’ राम ने िवचारम मु ा म पुन: िकया।
‘यह िनणय तो आपको लेना है कुमार। हम ाण-पण से आपके िनणय का
अनुपालन करने हे तु त र ह।’
कुछ काल तक क म मौन ा रहा। राम बारी-बारी से अपने भाइयों की ओर
दे खते रहे । िफर भरत का संकेत समझ कर बोले-
‘हम कुछ समय दीिजए, पर र इस िवषय पर िवचार करने के िलए। अभी तक
तो हम लोग मा गु जनों की आ ाओं का ही अनुपालन करते रहे ह। शासन-
शासन संबंधी कोई छोटा सा भी िनणय लेने की आव कता ही नहीं पड़ी कभी।
िफर यह तो अ ंत मह पूण एवं संवेदनशील िवषय है ।’
‘कुमार इस भाँ ित अनुमित माँ ग कर हम ल त मत कीिजए ...’ ां त- मुख ने
िवन ता से हाथ जोड़ कर कहा- ‘आप हम आदे श कीिजए। कहने के साथ ही सभी
अिधका रयों म आँ खों ही आँ खों म संकेत आ और सब उठकर बाहर िनकलने को
उ त हो गए।
‘नहीं-नहीं! आप लोग यहीं बैिठए!’ कहते ए राम यं उठ खड़े ए। उनके साथ
ही उनके तीनों भाई भी उठ खड़े ए- ‘इसी बहाने हम इस कारागृह का िनरी ण भी
कर लगे।’ िफर वे कारा- मुख से संबोिधत ए- ‘अपने मा कुछ पल हम दीिजये
माग िदखाने के िलए।’
राम के ाव को आदे श के समान ही ीकार िकया गया।
वा क , िजसम अभी तक ये लोग बैठे थे, के दोनों ओर दस-दस िवशाल क
थे। एक ओर सबसे कोने म भंडारगृह और उसकी बगल म पाकशाला थी। उसके
बाद दो क सहायक किमयों के िलए थे। िफर पाँ च क र कों के िलए थे। वा या
मु क के दोनों ओर एक-एक श ागार था। दू सरी ओर के दसों क ब ी-
र कों के योग के िलए थे। कारागार के सुदूर दू सरे छोर पर भी ऐसे ही चौबीस क
थे िजनम म के दो क श ागार के प म और शेष ब ी र कों और सहायक
किमयों के िलए यु होते थे।
कारागार के शेष दोनों ओर इस छोर से उस छोर तक पं म ढाई-ढाई सौ
कोठ रयाँ बनी ई थीं िजनम से ेक कोठरी म दो-दो बंदी रखे जाने की व था
थी। इस पूरे िनमाण के म िवशाल मैदान था िजसे म म ऐसी ही कोठ रयों की
दोहरी पं ारा दो भागों म िवभािजत कर िदया गया था। दोनों पं यों की
कोठ रयों के िनकास ार िवपरीत िदशाओं म थे। म की कोठ रयों की पं के
दोनों छोरों पर एक साथ दो-दो रथों के िनकलने भर का थान छोड़ िदया गया था।
इस कारण इन पं यों म कोठ रयों की सं ा दो-दो सौ रह गयी थी। इस कार
कुल नौ सौ कोठ रयाँ थीं। िकसी भी कोठरी म वेश ार के अित र कोई झरोखा
इ ािद नहीं था।
कोठ रयों की म की पं ने अ ंत िवशाल मैदान को दोनों छोरों से आपस म
जुड़े दो िवशाल मैदानों म िवभ कर िदया था। दोनों ही मैदान इतने बड़े थे िक
उनम एक साथ कई सह बड़ी सरलता से समा सकते थे।
कारागार के भवन के चारों ओर एक कम से कम पचास हाथ ऊँची प रहा
(चहारदीवारी) थी। प रहा की दीवार इतनी चौड़ी थी िक एक रथ उसपर बड़ी
सरलता से दौड़ सकता था। इस दीवार के चारों कोनों पर एक-एक गु दनुमा
िनमाण था। ेक गु द म अहोरा चार-चार सश सैिनक िनयु रहते थे।
प रहा और मु भवन के म आगे की ओर 100 हाथ चौड़ा थान छूटा था तथा
शेष तीनों ओर तीस-तीस हाथ थान छूटा था। आगे के इस र मैदान के अित र
शेष तीनों ओर के र थान म िवशेष कार की घनी काँ टेदार झािड़याँ भरी ई
थीं। इन झािड़यों की िवशेषता यह थी िक इनके काँ टे िवषैले थे। िकसी के
शरीर म इनके काँ टे चुभने के कुछ ही पलों म वह अचेत हो जाता था और
यिद समय रहते उपचार न िमला तो िदन बीतते-बीतते वह मृ ु का वरण कर लेता
था।
कारागार म उ र की ओर के मैदान के दोनों ओर की कोठ रयों म मा िव ोही
ही ब ी थे। इनम कई कोठ रयों म तीन-तीन ब ी भी थे।
दि ण की ओर के मैदान के दोनों ओर की कोठ रयाँ आधे से अिधक र थीं।
इनम सामा ब ी थे।
पूरे कारागार का एक च र काटने के बाद राम ने कारा- मुख को मु कर
िदया और चारों भाई यं उ र की ओर के मैदान म खड़े होकर िवचार करने लगे।
कुछ काल तक पर र िवचार-िविनमय के उपरां त राम ने प रसर म घूम रहे
र क-सैिनकों म से एक को पुकारा और सम अिधका रयों को वहीं बुला लाने का
आदे श िदया।
कुछ पलों म ही चारों अिधकारी वहीं उप थत थे।
‘इन सम ब यों को बाहर िनकलवाइये तािक म सबसे वाता कर सकूँ।’ राम
ने कारा- मुख को आदे श िदया।
कारा मुख ने एक ओर हटकर खड़े दो बंदी र कों को बुलाकर कुछ वाता की।
वाता के उपरां त दोनों र क अपने-अपने िनदशों के अनुपालन म लग गये। थोड़ी
ही दे र म उस स ूण मैदान को सश र कों ने घेर िलया। िफर कुछ र कों ने
ब यों की कोठ रयाँ खोलना आरं भ िकया।
धीरे -धीरे इन लोगों के स ुख िव ोही ब यों की भीड़ लगनी आरं भ हो गयी।
‘कुल िकतने िव ोही ब ी ह इस कारागार म?’ राम ने कारा- मुख से िकया।
‘एक सह से कुछ अिधक, कुमार!’
‘कब से ब ी ह ये?’
‘इनम सबसे ाचीन चार वष से ब ी ह। तब से िनरं तर कुछ न कुछ बढ़ ही रहे
ह।’
‘ ा ब ी बनाए गया कोई भी िव ोही मु भी िकया गया है ?’
‘नहीं कुमार! िवगत चार वष म ब ी बनाया गया कोई भी िव ोही मु नहीं
िकया गया।’
‘ ा इ ब ी बनाने से पूव िकसी ायाधीश के स ुख भी ुत िकया जाता
है ?’
‘नहीं कुमार, सामा अपरािधयों को ायालय म ुत िकया जाता है िक ु
राज ोिहयों अथवा िकसी यु म ब ी बनाए गए िवदे शी सैिनकों को ायालय के
सम ुत करने का िनयम नहीं। उ तो त: दोष-िस माना जाता है ।’
‘यिद इनम से कोई वा व म िनद ष हो तो .... ? यिद आपको अपनी छानबीन म
उसकी िनद िषता के माण िमल जाय तो?’
‘तो भी राज ोिहयों के िवषय म हम यं कोई िनणय नहीं ले सकते। हम
अिधकतम आमा ों के मा म से उनकी िनद िषता के माण महाराज तक ेिषत
करने का यास कर सकते ह।’
‘अथात् यिद िकसी को एक बार राज ोह का आरोप लगाकर कारागार म डाल
िदया जाए, तो उसका स ूण जीवन यहीं एक कोठरी म तीत होना उसकी िनयित
बन जाती है ?’
‘जी कुमार, आमा के िनदशानुसार हमने िफर भी इनके िलए जीवन अ ंत
सहज कर िदया है , अ था तो इस कार के ब यों को अ ंत अमानवीय थितयों
म रहना पड़ता है ।’
अब तक सभी ब ी उनके स ुख एक हो गए थे। बीस-प ीस सश र क
इन लोगों के चारों ओर जमा हो गए थे और बड़ी सं ा म ब यों को चारों ओर से
घेरे थे। ब यों पर इन र कों की उप थित का कोई भाव नहीं था। उनम से दस-
बारह एक ओर शां त भाव से बैठे इन सबकी ओर िनहार रहे थे, शेष र कों से िघरे
मैदान म इस भां ित िवचर रहे थे मानों अिधका रयों के आदे श पर एक ए न होकर
िकसी उपवन म िवहार कर रहे हों। उन दस-बारह ब यों के अित र कोई भी
कुमारों और अिधका रयों की ओर ान दे ता तीत नहीं हो रहा था। यह
अवहे लनापूण आचरण प से राजस ा के ित उनके िवरोध को दिशत कर
रहा था।
‘आप सभी कृपया इधर ान द।’ कारा- मुख ने ऊँचे र म सबका ान
आकिषत करने का यास िकया। िक ु कोई िवशेष अ र नहीं पड़ा, बस दस-
बारह और उन पहले से बैठे यों के साथ आकर बैठ गये।
‘ ा आप लोगों को भान है िक आपके स ुख आज कौन उप थत है ?’ कारा
मुख ने पुन: उदासीनता िदखा रहे ब यों को आकृ करने का िन ल यास
िकया।
‘सब लोग इधर ान दीिजए।’ इस बार सै मुख ने अ ंत उ और कुछ रोष
भरे र म कहा।
‘कुछ बोलोगे तब न ान दगे!’ एक ने घूम कर ढीठता से कहा।
उस ने मा एक अधोव पहन रखा था। ऊपर का पूरा बदन अनेक अब
काले पड़ चुके िनशानों से, जो कभी गहरे नीले रहे होंगे, भरा आ था। िन ंदेह
ब त मार खाई होगी उसने और संभव है इस मार ने ही उसकी ढीठता को और भी
उभार िदया हो।
‘हम लोग ब त काल से य कर रहे ह िक आप लोगों से और स ूण े म
िबखरे आपके सहयोिगयों से िम तापूण वातावरण म वाता कर कोई स ानजनक
हल िनकाला जा सके।’
‘संभव नहीं है ।’ एक अ ने उसी ढीठता से उ र िदया।
‘स े मन से यिद यास िकया जाए तो कुछ भी असंभव नहीं है । िन पट वाता
से ेक गितरोध का हल िनकल सकता है ।’
‘कपिटयों के मुख िन पट वाता के िलए हम आमंि त कर रहे ह।’ पहले वाला
ठठाकर हँ सते ए उपहास भरे र म बोला।
‘तुम लोग समझते ा हो यं को, हम िजतना तु ारे साथ स दयता का
वहार करना चाहते ह, तुम लोग उतनी ही ढीठता पर उतर आते हो।’ सै मुख
आ ोिषत हो उठे थे। चारों ओर खड़े सैिनकों के हाथ भी अपनी कटारों की मूठ पर
कस गए थे।
‘आभीर ऽऽऽ ...’
पहले वाला िफर कोई तीखा उ र दे ने जा रहा था िकंतु उन बैठे ए
यों म से एक का ती र सुनकर िठठक गया।
‘सै - मुख जी!’ वह खड़ा होते ए ग ीर िकंतु िवन र म बोला- ‘म
मानता ँ िक िवगत कुछ माह म आपके वहार म प रवतन आया है । यहाँ िदखाई
दे ने वाली आकृितयाँ भी बदल गयी ह। िकंतु इसका ा माण है िक स ही
आपका दय-प रवतन हो गया है ? आप भी तो उसी कुिटल स ा के एक ितिनिध
ह!’
‘ ा हमारा आप लोगों के ित बदला वहार हमारे सौहा पूण ि कोण का
प रचायक नहीं है ?’ उ र ा - मुख ने िदया।
‘कदािप नहीं। कूटनीित म ऐसी चाल तो ेक खलाड़ी चलता ही रहता है । जब
आप श के ारा हमारा दमन नहीं कर पाये तो अब स दयता का मुखौटा ओढ़
िलया।’
‘नहीं, ऐसा नहीं है । हम स ही दय से सबका िहत चाहते ह। अयो ा से हम
इसी िनदश के साथ भेजा गया है िक आपके साथ िम वत वातावरण म वाता कर
आपके साथ ए अ ाय का ितकार िकया जाए।’
‘ब यों और स ा म कहीं िम ता होती है मुख जी!’ उस ने मु ु राते ए
उ र िदया।
मुख कुछ कहने जा रहे थे िकंतु राम ने उनका हाथ दबाते ए रोक िदया। उ
एक बार पुन: सीता का कथन रण हो आया था और उसके साथ ही उ ोंने अपना
कत िनि त कर िलया था।
‘ ािद जी! सारे र कों से किहए घेरा हटा ल और अपने क ों म चले जाय।’
‘िकंतु ...?’ सै - मुख ने अिव ास से भरे र म ितरोध करना चाहा।
‘इसे आदे श समिझये!’ राम का र ढ़ था भले ही उनके मुख पर अभी भी
सवदा नृ करने वाली त नृ कर रही थी।
सै - मुख के संकेत पर सैिनक िहचिकचाते ए पीछे हट गए।
‘अपने-अपने क ों म जाय सम सैिनक!’ राम ने ऊँचे र म आदे श िदया।
सैिनक अभी कुमारों को पहचान नहीं पाए थे िकंतु िजस कार उनके अिधकारी
उनके स ुख समिपत भाव से वहार कर रहे थे, उससे इतना तो उ भी हो
ही गया था िक वे िनि त ही कोई ब त अिधक अिधकार स ह।
सारे सैिनक िहचिकचाते ए अपने क ों की ओर बढ़ने लगे।
‘िकंतु ये लोग आ ामक हो सकते ह!’ सै मुख ने एक बार िफर ितरोध
करना चाहा।
‘धैय रख, ािद जी! कुछ नहीं होगा।’
इस अक नीय से घटनाच से अिधकारी और सैिनक ही नहीं यं ब ी भी
आ यचिकत थे। जो िव ोही बार ार आ ह करने से भी इनकी ओर उ ुख नहीं हो
रहे थे अनायास हत भ से मुँह बाये, अब इ ीं की ओर ताक रहे थे िक यह हो ा
रहा है !
जब सैिनक अपने क ों तक प ँ च गए तो राम ने अिधका रयों को अगला आदे श
िदया-
‘आप लोग भी कुछ पग पीछे हो जाय।’
अिधकारीगण िहचिकचाये।
‘हमारी सुर ा को लेकर भयभीत न हों आप। हम यं अपनी सुर ा करने म
समथ ह।’ राम ने ढ़ र म कहा।
अिधका रयों के सामने कोई उपाय नहीं था। चारों अिधकारी कुछ पीछे हट गए।
अब मा कुमार ही उन सह ािधक बंिदयों के ठीक सामने खड़े थे।
‘आपम से कोई कदािप एक पग भी आगे नहीं बढ़ायेगा।’ राम ने पुन: अिधका रयों
को चेतावनी दी और अपनी शा त त के साथ, उस गंभीर की ओर बढ़े ।
वह भी अचंिभत था।
‘कुमार !! यह ा कर रहे ह आप?’ पीछे से ा - मुख ने आतनाद सा िकया।
‘ मुख जी!’ ल ण ने पीछे घूमते ए मुख को इस कार िझड़का िक उनका
र उन अिधका रयों और भरत-श ु के अित र कोई नहीं सुन सका- ‘आपको
ा ाता की साम म कोई शंका है ? आप ा अब भी नहीं जानते िक व ुत: वे
ा ह?’
अचानक वह , िजसे गंभीर िदखने वाले ने आभीर नाम से स ोिधत
िकया था, आ ामक प से राम की ओर बढ़ा िकंतु वह पुन: ती
आदे शा क र म बोला- ‘पीछे हटो आभीर!’
आभीर के पैर जैसे अपने थान पर जम गए। वह र-मूितवत् जहाँ था वहीं
खड़ा हो गया।
‘जो ...’ उस ने बोलना जारी रखा- ‘िबना कोई सुर ा िलए एकाकी
हमारी ओर बढ़ने का साहस कर सकता है वह कोई चरम पर प ँ ची ई आ श
वाला ही हो सकता है । तुमम से कोई भी िकसी भी कार का
दु ाहस करने की सोचेगा भी नहीं।’
चारों ओर स ाटा पसर गया।
‘िम हमारे दय म कोई कपट नहीं है , इसका ा माण चािहए आपको ...
आप इसी पल से मु ह। जहाँ जाना चाह जा सकते ह।’
वह भौंचक सा राम को दे ख रहा था। अनायास यं चािलत ढं ग से उसके
हाथ जुड़ गये। िसर और पलक कुछ झुक गयीं-
‘सव थम मेरा णाम ीकार कर!’ उसके मुख से अपने आप िनकल पड़ा।
‘नहीं, सव थम राम की िम ता ीकार कर।’ कहते ए राम ने अपनी ल
बाह पसाद दीं।
‘ भु!?’ नाम सुनते ही आ य की पराका ा से एकाएक उस की आँ ख एक
बार उठीं और िफर राम की बाहों म समाने के थान पर वह उनके पैरों म झुकता
चला गया।
राम ने उसे माग म ही थाम िलया और अपनी बाहों म समेट िलया।
‘िकतना मूख है यह ूष भी! भु यं आये ह उसका उ ार करने और वह
पहचान ही नहीं पा रहा है ! भु िकस मुँह से अपने अपराध की मा माँ गूँ?’ उसका
गला ँ ध गया। आँ खों की कोर अनायास ही गीली हो गयीं।
‘राम’ यह नाम सुनते ही शेष िव ोही भी हाथ जोड़ कर बैठ गये थे। कइयों ने
ल ा से अपने मुख घुटनों म िछपा िलये थे। कुछ मुँह बाये खड़े थे। अनेकों के मुख
उनके अपने अ ुओं से गीले हो रहे थे।
‘ भु, मा कर द!’
ूष के आँ सू अब उसके गालों को िभगोने लगे थे। राम ने उसे रोने िदया। िफर
उ ोंने उसके दोनों कंधे थाम कर उसे सीधा िकया और अपने दािहने हाथ की तजनी
उसके िचबुक के नीचे लगाकर उसका मुख ऊपर िकया-
‘अब हम िम ह। आप सब तं ह। िकंतु एक आ ह है , अभी समय है ... आज
राि म ही आप अपने सम सािथयों को, जो भूिमगत ह उ भी, एक कर।
ात:काल आप जहाँ चाहगे राम अपने तीनों भाइयों के साथ उप थत हो जाएगा।’
ूष भाविवभोर सा राम की मुखाकृित म खोया आ था। अचानक उसे भान
आ िक राम कुछ कह रहे ह। हड़बड़ाया सा बोला-
‘ भु ामी और सेवक िम कैसे हो सकते ह। ूष को सेवक ही बना रहने द।
ात: आपको कहीं आना नहीं पड़े गा, हम सभी आपके दशनों को त: यहीं
उप थत हो जायगे।’
‘ ा आप सब लोग इस ां गण म समा सकगे?’ राम ने हँ सते ए िकया।
‘न् ... न ... सब तो नहीं समा सकगे।’ ूष हड़बड़ाया सा बोला। िकंतु अचानक
जैसे उसे कुछ बोध आ, वह हाथ जोड़ कर बोला-
‘तो भु आज ही ों न आप हमारे साथ चिलए। मेरे घर के सामने सीमाहीन
ऊसर खेत पड़े ह ... वहाँ सभी समा जायगे।’
‘िकंतु ...’ हठात् ा - मुख ने बाधा उप थत की। अब तक सारे अिधकारी भी
िनकट सरक आये थे। ‘कुमारों के राि िव ाम का बंध तो मेरे िनवास पर हो चुका
है ।’
‘ मुख जी! हमारे स ूण समपण का यह एकमा पण (शत) है । आपको आपके
कुमार तो िन ही िमलगे िकंतु भ को भु बार-बार नहीं िमलते।’
‘ मुख जी, मान लेते ह न इनकी माँ ग!’ राम ने स त कहा।
‘िकंतु इनके साथ जाने से पूव आपको अपनी चरणधूिल से मेरी कुिटया भी पिव
करनी होगी। मेरी प ी और ब ों को आपके आगमन का सं ान है , म उ वचन दे
आया ँ िक आपको लेकर आऊँगा ... वे स ूण व था के साथ आपकी ती ा
कर रहे होंगे। आपके िबना म उ िकस भां ित अपना मुख िदखा सकूँगा?’
इसी बीच कारागृह के दू सरे भाग से कुछ कोलाहल के र सुनाई दे ने लगे थे,
िक ु उस पर िकसी ने अिधक ान नहीं िदया। उधर साधारण ब ी थे िज र क
सहज ही सँभाल सकते थे।
‘तो ऐसा करते ह, िक इन सबको िवदा कर दे ते ह, आप सबके साथ हम सभी
सव थम आपके िनवास पर चलते ह। आपकी प ी और ब ों के उपरां त सै
मुख की प ी और ब े भी तो ती ारत होंगे, उनके यहाँ भी हो लगे कुछ समय के
िलए।’ श ु ने ं ा क र म कहा।
‘और म यिद एकाकी ँ तो ा मेरी कुिटया का कोई मू ही नहीं है ?’ अ तीथ
ने आ ोशपूवक ह ेप िकया- ‘मेरी कुिटया भी तो ती ारत है ।’
‘चिलये आपकी कुिटया को भी भु ध कर दगे, स !’ ा - मुख ने
मु ु राते ए उ र िदया, िफर सहमित के िलए राम की ओर दे खा।
राम ने मु ु राकर िसर िहलाते ए अपनी सहमित दान कर दी।
ूष कुछ उ र दे ना चाहता था िकंतु कारागृह की दू सरे ओर से आता कोलाहल
ती हो गया था। अनयास ही सबका ान उधर गया और राम के पग अपने आप
उधर बढ़ चले-
‘आइये दे खते ह िक उधर ा सम ा उ हो गयी है !’ वे बोले।
सब अपने आप उधर ही घूम पड़े , िकंतु बढ़ नहीं पाये।
घूमते ही सबने दे खा िक सबके पीछे िवि सा आभीर अपनी मुि याँ और घुटने
बुरी तरह कोठरी की दीवार पर पटक रहा है ।
राम दौड़ कर उसके पास प ँ चे।
‘ ा कर रहे हो यह? दे खो कैसे अपने हाथ आहत कर िलए ह ... और दे खो घुटनों
से भी र वािहत हो रहा है !’ राम ने भावुक होते ए उसे पकड़कर खींच िलया।
‘ भु इ तो कठोरतम द िमलना ही चािहए ... म तो इ कुचल डालना चाहता
ँ ।’ उसने रोते ए कहा।
‘िकंतु ऐसा ों करना चाहते हो तुम?’ राम ने उसे सँभालते ए पूछा।
‘ये हाथ भु पर आ मण करने को उ त ए थे ... ये पग भु पर आ मण करने
के िलए दौड़े थे।’
‘िकंतु अब उसी भु का आदे श है िक यं को संयत करो।’ राम ने सा ह कहा,
िफर िसर पीछे घुमाकर सारे यों पर ि डाली। कारा मुख उ नजर आ
गए- ‘कारा मुख जी इसके उपचार की व था कीिजए।’
कारा मुख के संकेत पर दो सैिनक उसे पकड़ने के िलए बढ़े िकंतु उसने मना कर
िदया।
‘अपने भु की अवहे लना कर रहे हो आभीर?’ राम ने पुन: गंभीर र म कहा।
‘ भु ऽऽऽ!’ आभीर ने भी पुन: अनुरोध भरे र म दोहराया।
‘अभी इन र कों के साथ जाकर उपचार करवाओ, िफर शेष सबके साथ
थमन से ात: मुझसे भट करने ूष के आवास पर आना। अपने सम
सािथयों को े रत कर ात: अपने साथ लाने का गु तर दािय म तु सौंप रहा ँ ।
अपने दािय का उिचत कार िनवहन करो।’
अब आभीर की िववशता थी। वह राम को णाम कर र कों के साथ, उपचार
करवाने चला गया।
सब कारागृह के दू सरे भाग म प ँ चे। दे खा तो वहाँ के ब ी भी भु के दशन
करना चाह रहे थे।
राम के संकेत पर उन सारी कोठ रयों के ार भी खोल िदए गए। सबने स मन
से अपने भु के दशन और चरण-वंदन िकया।
‘आप सभी से एक वचन माँ गता ँ म।’ जब कोलाहल थोड़ा शां त आ तो राम ने
अपनी धीर-गंभीर वाणी म कहा।
सारी िनगाह उ ुकता से राम की ओर उठ गयीं।
‘यह जो दं ड आपको शासन ने िदया है , यह तो इस लोक का दं ड है , िकंतु आपने
जो अपराध िकया है उसका इस न र शरीर के अंत के उपरां त दं ड आपकी आ ा
को भोगना अभी शेष है । उस दं ड को िन भावी करने अथवा ून करने का एक ही
उपाय है िक भिव म आप ायि त प अपना स ूण जीवन मानव-मा की
सेवा करने म तीत कर। यास कर िक आपसे भिव म िकसी को भी कोई क
ा न हो।’
भु की आ ा सभी को ीकार थी। साथ ही यह िव ास भी था िक भु के दशन
ा होने का सुफल तो उ िमलेगा ही िमलेगा।
सम ा का समाधान तो हो चुका था। िकंतु अभी उसकी औपचा रक प रणित शेष
थी।
कारागार से िनकलने से पूव ा - मुख ने कारा- मुख से कुमारों के रथ के िवषय
म िकया। जब उ ात आ िक कुमार रथों पर नहीं अ ों से ही आए ह तो वे
एकबार पुन: आ यचिकत रह गए।
चलने से पूव राम ने दे वीदीन से पूछा-
‘दे वीदीन तुम पूणत: तं हो, जहाँ चाहो जा सकते हो। तु ारे अयो ा जाने का
अभी बंध करवा िदया जाएगा। तुम ात: ही अपने प रवार के पास जाने के िलए
थान कर सकते हो। तु ारे पास ा- ा साम ी है ?’
‘ भु मेरे पास कुछ भी साम ी नहीं है । मुझे तो माग से ऐसे ही उठवाकर ब ी
बना िलया गया था। मेरे पास जो कुछ भी थोड़ी ब त साम ी थी वह पा शाला म
रखी थी। अब तक पता नहीं वह वहाँ सुरि त होगी भी अथवा नहीं। ... पर ु भु, म
आपको छोड़कर कहीं भी नहीं जाना चाहता, मुझे अपने चरणों म ही रहने द।’
‘कारा मुख जी, इससे इसकी पा शाला का पता लेकर िकसी को भेजकर पता
लगवाइये िक इसकी साम ी का ा आ? यिद सुरि त हो तो वह मँगवा लीिजये।
उसके िलए पा शाला को यिद कोई शु दे ना पड़े तो वह राजकीय कोष से
िदलवाइयेगा।’ राम ने कारा मुख को आदे श िदया। उसके उपरां त वे दे वीदीन से
स ोिधत ए-
‘दे वीदीन, तु ारे माता-िपता और तु ारे प रवार का तु ारे ऊपर थम अिधकार
है ।’ कहते-कहते वे मु ु रा उठे - ‘तु म कदािप अपने चरणों म रहने की अनुमित
नहीं दे सकता। अिधकतम तुम यहाँ से मेरे थान तक मेरे साथ क सकते हो और
हमारे साथ वापस अयो ा चल सकते हो।’
दे वीदीन के पास भु का आदे श ीकार करने के अित र कोई उपाय नहीं था।
उसने बुझे मन से उसे ीकार कर िलया। उसे तं होने की स ता से अिधक
भु से िबछड़ने का ोभ था। िफर भी यह संतोष तो था ही िक भु भी अयो ा म ही
तो होंगे, उसे उनके दशन ा होते ही रहगे। अब तो वे उसे पहचानते भी ह,
उसका नाम भी जानते ह। ा वे उसे याद भी रखगे? ... मा एक पल के िलए यह
शंका उसके मन म उठी िकंतु दू सरे ही पल आ था ने उस शंका को झटक िदया।
ूष के गाँ व के िलए थान करते-करते राि का दू सरा हर भी आधा तीत
हो चुका था। अिधका रयों के प रवारों ने सूचना को यथासंभव गोपन ही रखा था िफर
भी कुमारों के आते समय कुछ नाग रकों को तो उनके िवषय म संशय हो ही गया
था। भावत: ही उ ोंन,े उस अनुमान को यथासंभव चारों ओर फैलाने का स ाय
स ूण उ रदािय के साथ स िकया था। िफर उन सभी ने दे खा था िक
िव ोिहयों की भारी भीड़ स मन कारागार से िनकली और कहीं भी कोई उप व
िकये िबना शां ितपूण ढं ग से अपने माग पर चली गयी। यह भी उनका कौतूहल बढ़ाने
के िलये पया था। िव ोिहयों से कुछ पूछने का िकसी का साहस नहीं आ था, परं तु
कुछ न कुछ अ ंत िवशेष होने का अनुमान तो सभी लगा ही रहे थे। जब ये सब लोग
कारागार के बाहर िनकले तो बाहर िज ासु नाग रकों की भारी भीड़ एक थी। राम
को अपना प रचय दे ना ही पड़ा और सभी का णत- णाम भी ीकार करना ही
पड़ा।
जब वे ूष के गाँ व प ँ चे तो वहाँ भी सारा गाँ व एक था। उनके प ँ चने के एक
मु त बाद से ही अ ामों से भी जन-समुदाय का आगमन आरं भ हो गया। सभी
समझ रहे थे िक आज शयन संभव नहीं है । भोजन अपनी साम से अिधक ही उ
हण करना पड़ा था। पहले तीनों अिधका रयों के यहाँ और िफर ूष के यहाँ ,
सबने आ ीय मनुहार कर-करके अिधक से अिधक खलाने का यास िकया था।
राम को अपनी और ल ण की िचंता नहीं थी। उ तो िष बला-अितबला
िस याँ दान कर ही चुके थे। िचंता तो भरत और श ु की थी। िकंतु उ ोंने भी
िव ाम करने के ित अिन ा ही कट की। वे भी अपने ाता का भु प म
ागत दे ख कर उतने ही आ ािदत थे िजतना भु का ागत करने वाले भ
नाग रक थे।
सूरज िनकलते-िनकलते ूष के घर के सामने जन-समु ठाठ मार रहा था।
ेक पल भीड़ बढ़ती ही जा रही थी।
तीनों अिधकारी भी कुमारों के साथ आए थे। िकंतु राम की उप थित म वहाँ सब
भ ही थे ... कोई िव ोही नहीं था, कोई अिधकारी नहीं था। िव ोिहयों ने एक र
से भु का ेक आदे श मानने की शपथ ली। राम ने भी शासन की ओर से उ
आ ासन िदया िक िकसी के साथ भी अ ाय नहीं होने िदया जाएगा।
िववाद तो कहीं बचा ही नहीं था िजसके हल होने म समय लगता। संकट तो मा
पर र िव ास का था और वह राम की उप थित मा से दू र हो चुका था। िफर भी
उस आ थावान जनसमु की आ था को स ोष दान करते-करते पूरा िदन तीत
हो गया। िकसी को भोजन के िवषय म सोचने का भी अवकाश नहीं था। ूष के
घर की मिहलाय िचंितत थीं िक भु ने भोजन नहीं िकया। सूरज ढलते-ढलते वे चार-
पाँ च बार नये िसरे से रसोई बना चुकी थीं और हर बार सारा भोजन थ हो गया था।
न तो वे भु को रखा आ भोजन खला सकती थीं और न ही भु के खाये िबना कोई
भी अ भोजन हण कर सकता था। राम को इन लोगों की था की िचंता
थी िकंतु ा करते, भ ों के उमड़ते समु की लहर कम होने का नाम ही नहीं ले
रही थीं।
अंतत: ूष की सेना ने ही कहीं रोष कट कर तो कहीं भु के कल ात: से ही
जागे होने और स ूण िदवस से िनराहार होने की था रो-रोकर उस जनसमु को
िवदा होने के िलए िववश िकया।
समु के शां त होते-होते पुन: राि का एक हर तीत हो चुका था। गाँ व के लोग
अब भी बड़ी सं ा म उप थत थे। उनका आ ह था िक भु भोजन ा कर
शयन कर ... वे बस ार के बाहर बैठे उनका रण करगे। पुन: ताजी रसोई बनी
और भु के साथ अ कुमारों ने भोग लगाया तब सभी उप थत लोगों ने साद
पाया। एक-एक कौर साद बाहर उप थत ा जनों ने भी ा िकया। इस सबसे
िनपटते-िनपटते राि का दू सरा हर भी बीत चुका था। आ ह पूवक भु को सुलाया
गया। अब भु के पैर दबाने वालों म होड़ लगी थी, बड़ी किठनाई से राम उ टाल
पाए। भरत चिकत से, और ल ण व श ु मुँह दाबे हँ सते ए यह सब लीला दे ख
रहे थे।
ल ण और श ु को यहाँ अ ंत आनंद आ रहा था। अयो ा म भु का ऐसा
भाविवभोर ागत-स ार भला कहाँ दे खने को िमलता था। भरत भी म थे िव ास
और आ था का ऐसा अद् भुत कटीकरण इससे पूव उ ोंने नहीं दे खा था। इन
सबके िवपरीत राम भोर होते ही वहाँ से िनकल लेना चाह रहे थे। उ अब िपता और
माताओं की अ स ता की िचंता हो रही थी। रात तो बातों म ही कट गयी, भोर होते
ही राम ने िनकलने का यास भी िकया, िकंतु रात म वहाँ से िवदा आ जनसमु टल
नहीं गया था ... उसने भी थोड़ी ही दू र जाकर डे रा डाल िदया था और िमल-बाँ ट कर
साथ बाँ धकर लाये स ू आिद का आहार हण िकया था और िफर भु का गुणगान
करते ए बातों ही बातों म रात काट दी थी।
सारे यासों के बाद भी उस समु को पार करने म साँ झ हो ही गयी। अब राि म
भला भु को कैसे इतनी दू र जाने िदया जा सकता था! जनसमु के यह वचन दे ने
पर िक कल ात: वे भु का माग रोकने का यास नहीं करगे, कुमारों ने एक राि
और वहीं तीत करने का सबका आ ह ीकार कर िलया।
ा - मुख भ मिण, करण िनपटते ही एक ती गामी अ पर सवार
संदेशवाहक को स ूण सूचना महामा और आमा सुम तक प ँ चाने के िलए
भेज ही चुके थे।
28- यु धािजत का आगमन
दशरथ अ ंत ोिधत भी थे और िथत भी थे। युधािजत िकसी भी समय आ
सकते थे, ात: ही उनके आगमन की औपचा रक सूचना लेकर अ गामी दू त आ
चुका था, िकंतु चारों ही कुमारों का कहीं पता नहीं था। माताओं से बस इतना ही ात
आ था िक कुमार िवहार के िलए गए ह िकंतु कहाँ यह िकसी को ात नहीं था।
कुमारों के िवहार हे तु जाने की सूचना िमलने पर दशरथ की सबसे पहली
िति या तो संतोष िमि त हष की ही थी। आखेट, िवहार, िवलास ये तो राजपु षों
के सन अथवा मनरं जन के सहज उपादान ... और यिद राजपु षों की भाषा म
कह तो आभूषण आ करते थे। अपने पु ों की जीवनचया दे खकर कई बार दशरथ
को िचंता भी होती थी िक वे कब राजपु षों के आचरण सीखगे! ऐसे म इस कार
अचानक िवहार के िलए जाना उनके संतोष का कारण तो था ही। िकंतु अब तक
उ आ जाना चािहए था। भरत के युधािजत के साथ जाने म वे कोई िव नहीं आने
दे ना चाहते थे।
जाबािल और सुम को भ मिण के ारा ेिषत सूचना ा हो चुकी थी। वे दोनों
दय से स थे िकंतु अभी इस सूचना को गोपन रखे ए थे और यथासंभव गोपन
ही बनाये भी रखना चाहते थे। उ बस राम की िचंता थी िक कहीं वे अपनी
स वादी वृि के चलते सब उगल न द। िकंतु युधािजत के आगमन के समाचार
और उस समाचार को सुनकर दशरथ के मन की स ता, उ बड़ी हद तक संबल
दान कर रही थी। दशरथ सहज रहने का पूरा यास कर रहे थे िफर भी अपने
उ ाह को इन दोनों अनुभवी आमा ों से िछपा नहीं पा रहे थे। दोनों को ही यह
आभास हो गया था िक कुछ न कुछ ऐसा है अव िजसका अभी उद् घाटन होना
शेष है । असली पोटली महाराज ने कहीं अलग ही दबा रखी है । उ बार ार उस
िदन की सभा म पूव सेनापित और अब कूटचरों के कूट- मुख, मोद की उप थित
रण हो रही थी। यह भी रण हो रहा था िक िकस कार अंतत: महाराज ने
मोद से एका वाता करने के उ े से सबको एक कार बलात ही जाने को
िववश कर िदया था। वे दोनों इस रह के उद् घाटन की ती ा कर रहे थे।
युधािजत कुमारों से पूव ही आ गए।
दशरथ उनके स ार म हो गए।
कुमारों को आते ही मातुल के आगमन की सूचना ा ई। यह भी ात आ िक
सभी लोग माता कैकेयी के ासाद म ही ह। वे सीधे वहीं चले गए।
कुमार जब ासाद म प ँ चे तो सभी बैठे वातालाप कर रहे थे।
कुमारों के वेश करते ही दशरथ ने िचंता िमि त ोध म कुमारों से ों की झड़ी
लगा दी-
‘कहाँ चले गए थे चारों के चारों एकाएक, िबना िकसी सूचना के? तु यह भी भान
नहीं रहा िक यहाँ सबको िकतनी िचंता हो रही होगी? ... और दे खो तु ारे मातुल
तुमसे िमलने के िलए आए ए ह, ा सोच रहे होंगे ये तु ारे आचरण के िवषय म?
पहले तो कभी तुमने ऐसा नहीं िकया ... अचानक ऐसा ा कारण उप थत हो गया
था जो तु जाना पड़ गया? तुम लोग राजकुमार हो ... इस कार का आचरण तु
शोभा नहीं दे ता ....’
एक ओर कुमार युधािजत को उिचत रीित से णाम कर अिभवादन कर रहे थे
और युधािजत उ जीभर के आशीष दे रहे थे दू सरी ओर दशरथ का वचन अबाध
चल रहा था। वे कुमारों से िकसी उ र की अपे ा भी नहीं कर रहे थे, बस धारा वाह
िकये जा रहे थे, उपदे श िदए जा रहे थे। अिभवादन और आशीष की औपचा रक
ि या से जैसे ही युधािजत िनवृ ए उ ोंने दशरथ के उस वाह को िनयंि त
करने का यास िकया-
‘महाराज कैसी बात कर रहे ह आप भी ...’ युधािजत हँ सते ए बोले- ‘कुमार
िवहार के िलए ही तो गए थे तो इसम अघटनीय ा घट गया? आप अपनी युवाव था
को रण कीिजए, ये बेचारे तो आपका दशां श भी िवहार नहीं कर पाते होंगे!’
युधािजत के ह ेप पर एक ण तो दशरथ ने कुिपत सी ि से उ घूरा पर
दू सरे ही ण अचानक ठठाकर हँ स पड़े । हँ सी कने पर बोले-
‘ये मूख तो उसका सह ां श भी नहीं करते, इसी कारण तो मुझे िचंता हो रही थी।
यिद ये जाते रहते होते तो कोई बात ही नहीं थी ... यह तो राजपु षोिचत आचरण है !’
कहते-कहते वे पुन: हँ स पड़े । माताय पहले ही मुँह दबा कर हँ स रही थीं।
‘तब तो आपको स होना चािहए िक आपके पु राजपु षों के आचरण सीख
रहे ह।’ कहते-कहते युधािजत ने भी उ ु हँ सी िबखेरते ए आगे जोड़ा- ‘... और
िवहार के िलए जाने वाले युवा-पु ों से ा आप यह अपे ा करते ह िक वे अपने
िवहार-िवलास का िववरण अपने माता-िपता को द आकर?’
साले-बहनोई का र ा उस-समय भी उ ु प रहास की अनुमित दे ता था और
िफर युधािजत कैकेयी के े ाता थे इसिलए वे दशरथ के भी गु जनों म िगनती
रखते थे। वे उनपर ऐसा कटा कर सकते थे। इस कटा ने दशरथ को भी आनंिदत
ही िकया और इस िवषय म आगे िकसी भी कार के ो र का माग पूणत:
अव हो गया। वैसे भी ल ण और श ु यं को स यास आगे रखे ए थे तािक
यिद िकसी का उ र दे ना ही पड़े तो वे द, राम अथवा भरत न द। राम तो कदािप
न द।
‘िव ाम िकया?’ एकाएक िवषय प रवितत करते ए दशरथ ने पूछा।
‘अभी नहीं। मातुल के आगमन की सूचना पाकर हम लोग सीधे यहीं चले आए।’
ेक उ र दे ने के िलए आगे ही तैयार खड़े ल ण ने उ र िदया।
‘तो िफर िव ाम कर लो चारों लोग। ... और सुनो भरत! मातुल तु िलवाने आये
ह। तु ारे मातामह तु दे खना चाहते ह।’
‘जी!’ भरत ने संि सा उ र िदया।
‘आज िव ाम कर लो, कल तु केकय के िलए थान करना होगा।’
‘जी!’
‘ ाता आप अकेले जायगे केकय?’ बाहर िनकलते ए श ु ने भरत से
िकया।
‘चारों लोग चलो न!’ भरत ने ाव िकया।
‘िपताजी से अनुमित लेनी होगी। दे खा नहीं तुम सब ने अभी, दो िदन के िवहार के
िलए ही चारों की अनुप थित से वे िकतने िचंितत थे। मातुल ने बचा िलया आज,
अ था ... ’
‘ ा अ था ाता, आप भी अनाव क िचंितत होते ह।’ ल ण ने राम की बात
बीच म ही काटते ए कहा।
‘हाँ , िपताजी िचंितत इसिलए थे िक हम थम बार गए थे ... परं तु व ुत: तो वे
स ही थे िक हम लोगों ने भी ‘राजपु षोिचत’ आचरण करना सीख िलया।’ कहते-
कहते श ु हँ स पड़े ।
बाकी चारों भी हँ स पड़े ।
‘वैसे कुछ भी हो म तो जाऊँगा केकय, ाता भरत के साथ ...’ श ु ने
िनणया क र म कहा, िफर िवनोद पूवक जोड़ा- ‘िपट् ठू जो ँ उनका।’
श ु की बात पर सब िफर हँ स पड़े ।
‘मुझे तो ाता राम के िनणयानुसार ही करना पड़े गा।’ ल ण ने हताशा का
अिभनय करते ए कहा- ‘म तो इनका िपट् ठू ँ ।’
चारों के ठहाकों से वातावरण गूँज उठा।
दू सरे िदन भरत-मा वी और श ु - ुतकीित युधािजत के साथ केकय के िलए
थान कर गए। भरत को तो जाना ही था, उ ही िलवाने तो युधािजत आए थे
अथवा ऐसे किहए िक दशरथ ने यं भूिमका गढ़कर उ बुलवाया था। श ु को
भी सहज ही उनके साथ जाने की अनुमित िमल गयी। दोनों के साथ उनकी
नविववािहता पि यों का जाना भी ाभािवक ही था, परं तु राम का अनुरोध दशरथ ने
प से अ ीकार कर िदया। प म उनका तक था िक चारों कुमारों के
जाने से अयो ा सूनी हो जाएगी। िकंतु वा व म तो भरत की अनुप थित म उ
राम का रा ािभषेक करना था, उ जाने की अनुमित भला कैसे दे सकते थे वे?
राम नहीं गए तो ल ण भी भला कैसे जा सकते थे! वे तो िनरे बचपन म ही अपनी
माता को वचन दे चुके थे िक कभी भी अपने बड़े ाता राम को अकेला नहीं छोड़गे।
29- वनगमन की ावना
जब तक युधािजत रहे , दशरथ ाभािवक था िक उनके साथ रहे । युधािजत
िव त भी थे िक पूव म कभी महाराज उनके आगमन से इतना स नहीं ए थे,
िकंतु िफर भी यह कोई िच ा का कारण तो था नहीं अत: उ ोंने इस पर कोई ान
नहीं िदया।
दशरथ भी नगर की सीमा तक इन पाँ चों को िवदा करने आये थे। वे अपने रथ पर
थे, राम और ल ण भी साथ थे िकंतु वे सदै व की भां ित अपने अ ों पर थे।
नगर की सीमा पर युधािजत ने अपना रथ रोक िदया और नीचे उतर कर दशरथ
के रथ की ओर बढ़े । उनका रथ कते ही दशरथ ने भी अपने सारथी को कने का
संकेत िकया।
‘अ ा महाराज! अब िवदा द हम।’ कहते ए युधािजत ने अपनी बाह फैला दीं।
साले-बहनोई एक दू सरे के आिलंगन म समा गए।
भरत और श ु ने भी उतर कर िपता के और राम के चरण श कर िवदाई ली।
पहले दशरथ ने और िफर राम ने उ सीने से लगा िलया। ल ण ने भी भरत से
आशीष ा िकया।
‘शी ही वापस भेज दे ना मेरे पु ों को!’ दशरथ ने अपने दय के उ ास को
दबाते ए युधािजत से औपचा रक िनवेदन िकया।
‘ऐसी भी ा शी ता है महाराज! दो पु तो आपके पास ह ही, इन दो को कुछ
िदन िनिव केकय के जीवन का आन लेने दीिजए।’ कहकर युधािजत खुलकर
हँ स पड़े ।
‘माता-िपता को अपने सभी पु ों की िचंता रहती है । इनके िबना राम और ल ण
अधूरे ही रहगे।’ दशरथ ने भी हँ सते ए ही उ र िदया।
‘ठीक है -ठीक है । म मानता ँ िक अयो ा के कुमारों पर थम अिधकार आपका
ही है । जैसे ही आपका संदेश ा होगा हम इ वापस अयो ा भेजने की व था
कर दगे। ... अब तो संतु ?’
‘उिचत है !’ दशरथ ने मु ु राते ए उ र िदया।
‘िकंतु, एक माह से पूव ऐसा कोई संदेश मत भेज दीिजएगा।’ युधािजत ने
आिलंगन से अलग होकर अपने रथ की ओर मुड़ते ए कहा।
‘चिलए, आपका यह आदे श ीकार है ।’ दशरथ ने भी िवनोद पूवक उ र िदया।
***
युधािजत और उनके साथ भरत-श ु के जाते ही दशरथ का दय स ता से
धड़कने लगा- अब राम के रा ािभषेक के माग म कोई बाधा नहीं थी। उनका मन
चाह रहा था िक िकसी से वे अपनी स ता बाँ ट िकंतु यह संभव नहीं था। वे अपनी
स ता रा ािभषेक की औपचा रक घोषणा के उपरां त ही बाँ ट सकते थे। यह
िवचार आते ही उ ोंने िन य िकया िक अभी गु दे व के पास चल और राम के
रा ािभषेक के अपने िनणय से अवगत कराते ए, उनसे बस एक-दो िदवस के
भीतर ही शुभ मु त िनधा रत करने का िनवेदन कर।
गु दे व के आ म की ओर मुड़ने वाला माग आने ही वाला था। वे उ ाह से उठ
खड़े ए। रथ से झाँ क कर दे खा, राम और ल ण के अ रथ के ठीक पीछे थे।
उ ोंने उ बराबर म आने का संकेत िकया।
‘तुम लोग चलो ... म तिनक गु दे व से िमलकर आता ँ ।’
‘जी!’ राम ने िपता की आ ा िबना िकसी के िशरोधाय की।
‘रथ को गु दे व के आ म की ओर मोड़ लो।’ राम और ल ण के अ जब आगे
बढ़ गए तो दशरथ ने सारथी को आदे श िदया। रथ गु दे व के आ म की ओर घूम
गया।
रथ घूम गया िकंतु अक ात दशरथ के मन म नवीन ने ज िलया-
‘गु दे व से ा क ँ गा? वे करगे िक भरत और श ु के जाते ही यह
ोंकर उठ खड़ा आ? यह िनणय तो उनके जाने के पूव भी िलया जा सकता था,
अथवा उनके आने की ती ा की जा सकती है ....’
जिटल था। उ एकाएक कोई समाधान नहीं सूझ रहा था।
‘रथ रोक लो तिनक।’ उ ोंने सारथी को आदे श िदया।
िव त से सारथी ने रथ रोक िदया। अपने िव य को श दे ने का उसे अिधकार
नहीं था।
‘वन की ओर ले चलो।’ दशरथ ने पुन: आदे श िदया।
सारथी ने रथ वन की ओर घुमा िदया। दशरथ अपने का उ र ा करने के
िलए जूझ रहे थे।
अचानक रथ क गया।
‘महाराज इससे आगे रथ नहीं जा सकता।’ सारथी ने िवन र म उ सूचना
दी।
सारथी का र सुनकर दशरथ चौंक पड़े । स ही इसके आगे रथ के जाने यो
माग नहीं था।
‘सरयू की ओर चलो।’ अगला आदे श आ।
एक हर तक दशरथ यूँ ही िन े रथ को घुमाते रहे और अपने से जूझते
रहे िक ‘गु दे व से ा कहा जाए। ा बहाना बनाया जाए िक गु दे व को कोई
शंका भी न हो और एक-दो िदन म ही राम का रा ािभषेक भी स हो जाए ...
िफर वे राम को स ूण राजपाट सौंपकर पूणत: िनःशंक होकर जीवन का आनंद ल।
काश िवधाता शी ही उनकी पु वधुओं की गोद भर दे ता तो बस ... िफर उनकी
कोई आकां ा शेष नहीं रहती, वे सब कुछ ागकर अपने पौ ों के अनुचर बनकर
जीवन का आनंद लेते। उनके पु इतने समथ ह िक रा की व था सहज ही
सँभाल सकते ह। िकंतु ... बस, इस िकंतु का उ र नहीं ा हो रहा था।
सूयदे व अ ाचलगामी हो चले थे। अंतत: वे वापस ासाद लौट आए।
तीनों महारािनयाँ कैकेयी के ासाद म ही उप थत थीं। तीनों ही िकंिचत उदास
थीं। तीनों ही भरत के गा ीय और श ु की चंचलता की चचाओं म थीं।
दशरथ के िलए उनकी यह वाता बड़ी सहायक ई। कुछ औपचा रक बात कर वे
ानािद के िलए चले गए। शयन से पूव ान और त ात सं ा-पूजन उनकी
िदनचया का अिवभा अंग था।
दशरथ जब तक ान और सं ा से िनवृ ए कौश ा और सुिम ा जा चुकी थीं।
स ा से िनवृ होने के उपरां त दशरथ ने भोजन िकया और िफर उपवन म
िनकल गए। वे एका म कैकेयी का सामना नहीं करना चाहते थे। उ शंका थी के
कैकेयी उनकी अ मन मन थित को अव अनुभव कर लेगी और िफर कारण
जानने का हठ करे गी। य िप भरत और श ु के जाने के प म एक अ ा बहाना
था उनके पास, िफर भी उ भय था िक अनजाने म उनके मुख से कुछ ऐसा न
िनकल जाए िजससे महारानी उनके मन म चल रहे अ का अनुमान लगा ल।
अपने िच न म डूबे ए उ समय का कोई अनुमान ही नहीं रहा। कैकेयी एक
बार आईं भी उ बुलाने, िक ु उ ोंने बस इतना कहकर िक भरत और श ु के
चले जाने के कारण उ कुछ अ ा नहीं लग रहा, उ वापस भेज िदया।
अंतत: उ अपने का उ र िमल ही गया।
वे शां त मन से भीतर आए और िफर कैकेयी से भरत के िवषय म बात करते-करते
सो गए।
***
ात:काल दशरथ स मन उठे और िन कम से िनवृ होकर गु दे व से िमलने
जाने का बताकर ासाद से िनकल िलए।
गु दे व गौशाला म गौवों की सेवा कर रहे थे।
णाम और आशीवाद की औपचा रकताओं के उपरां त गु दे व ने त: ही कुिटया
म चलने का ाव िकया। गौओं की व था तो अ ऋिषगण दे ख ही रहे थे।
माग म ही दशरथ ने अपने मन की बात कहने की भूिमका बाँ धना आर कर
िदया।
‘गु दे व! राि म ब त िदनों बाद पुन: िपता ी ने म दशन िदए।’
‘अरे ! िक ु वे तो िपतृऋण न चुकाने का उलाहना दे ने के िलए कट होते थे, अब
तो वह कारण ही नहीं रहा।’ गु दे व ने सहज भाव से कहा।
‘हाँ , वह कारण तो कुमारों के ज के साथ ही समा हो गया। तभी इतने िदनों से
वे म कट नहीं ए थे। िकंतु कल राि म उ ोंने सवथा नवीन उलाहना िदया।’
‘ ा कहा उ ोंन?े ’
‘कह रहे थे िक दशरथ, कब तक तू स ा से िचपका रहे गा? स ा का मोह
ागकर वान थ ों नहीं हण करता?’
‘कह तो सही ही रहे थे महाराज अज!’ गु दे व ने मंद हा के साथ सहमित
की।
‘आज ात: ान के उपरां त मने भी दपण म ान से दे खा, केशों म एक ेत लट
ि गोचर होने लगी है ।’ दशरथ ने भी मंद हा से आगे बढ़ने का माग श
िकया।
गु दे व ने अपनी ि दशरथ के केशों की ओर उठाई, ान से दे खा और िफर
सहमित की-
‘हाँ , हो तो रही है ।’
‘तो अब ा करणीय है गु दे व?’
‘इसम मेरी सलाह की ा आव कता है , िपता के आदे श का पालन कीिजए।
वैसे भी आप िवलंब कर चुके ह।’ गु दे व ने माrठी चुटकी ली।
दशरथ ने अंदर ही अंदर एक चैन की साँ स ली। कट म बोले-
‘राि से ही म इस िवषय पर म न कर रहा ँ गु दे व ... और िजतना िवचार
करता ँ उतना ही मेरा मत ढ़ होता जा रहा है िक िजतना शी आप मु त िनकाल
द, उतना ही शी म राम का रा ािभषेक कर सम दािय उसे सौंप दू ँ ।’
‘िक ु अभी कल ही तो भरत और श ु केकय गए ह। उ तो आ जाने दीिजए।’
‘नहीं गु दे व अब म ती ा नहीं कर सकता। राि म िपता से ि िमलाने का
साहस नहीं हो रहा था मुझे। यिद पुन: वे म कट हो गए तो म ा मुँह
िदखाऊँगा उ ।’
‘यह भी सही है । उ ोंने यं तो तु ारे िकशोराव था म पदापण करते ही तु
सब सौंप िदया था।’
अब तक ये लोग कुिटया तक आ गए थे।
इ कुिटया की ओर जाते दे ख कर एक मुिन-पु े रत प से कुिटया तक
दौड़ गया था। ये दोनों जब तक कुिटया म प ँ चते, इनके िलए भूिम पर कुशासन
िबछे ए थे।
दोनों यों ने आसन हण िकये।
गु दे व ने बैठते ही आँ ख मूँद लीं।
विश जैसे यों को कोई सूचना ा करने के िलए अिभलेखों को दे खने की
आव कता नहीं होती थी। सब कुछ उनके म म सुरि त होता था, बस उसे
टटोलने की आव कता होती थी। जो कुछ उनके म म नहीं भी होता था,
ानाव था म िव होकर उसे भी जानने म वे स म थे।
‘एक माह बाद अ ंत शुभ मु त है ।’
‘गु दे व! ...’ दशरथ ने आतनाद सा िकया- ‘एक माह तक ती ा कैसे होगी?’
विश को दशरथ के दय म चल रही उथल-पुथल का पूरा अनुमान था। वे समझ
रहे थे िक दशरथ की ता का वा िवक कारण ा है । वे यह भी समझ रहे थे
िक अब नारद की योजना को मूत- प दे ने का समय आ गया है । अब कैकेयी के
बिलदान का समय आ गया है । िफर भी उ ोंने मा कुछ पल आनंद लेने के िलए
अपनी सहज मंद-मंद त के साथ कहा-
‘ ों, एक माह की अिविध कोई अिधक तो नहीं होती!’
‘एक माह तक िकस भां ित म अपने िदवंगत िपता का सामना क ँ गा?’
‘उसम ा किठनाई है ! जब आप महाराज अज को सूिचत करगे िक आपने राम
को सम स ा सौंप दे ने का िनणय ले िलया है , बस उिचत मु त की ती ा है , तब
वे िन ंदेह शी ता करने का हठ नहीं करगे। इतना मह पूण आयोजन शुभ मु त
के िबना तो स ािदत नहीं िकया जा सकता! ... अिपतु आप तो सहजता के साथ अब
िवल के िलए मुझे उ रदायी ठहरा सकते ह। आप के स ुख िवक है िक अपने
िपता से कह िक गु दे व ने ही एक माह प ात् का मु त िनि त िकया है ... न ों की
चाल पर आपका कोई वश तो नहीं है !’
‘कृपया उपहास न कर गु दे व! कोई अ ंत शी मु त िनि त कर।’ दशरथ ने
ता से पुन: िनवेदन िकया।
‘ठीक है , जैसी आपकी इ ा।’ कहते ए गु दे व ने पुन: अपने ने ब कर
िलये।
कुछ ही णों बाद उ ोंने ने खोले और उसी भाँ ित मंद मु ान के साथ बोले-
‘तब तो कल का ही मु त सव े है । िक ु इतनी शी ता म काय उिचत प से
कैसे स ािदत हो पायेगा?’
‘सब हो जाएगा गु दे व! इससे े तो कुछ हो ही नहीं सकता। म अभी
व थाओं म लग जाता ँ ।’ दशरथ ने उठने का यास करते ए कहा।
‘इतनी ता भी उिचत नहीं है महाराज! मन की इस अधीरता को िनयंि त
कीिजए सव थम, और मेरी पूरी बात सुिनये। आपके आमा इतने कुशल ह िक
सारी व था सँभाल लगे।’
दशरथ िफर बैठ गए।
‘अभी च मा पुनवसु न म थत है । कल सूय दय से कुछ पूव वह पु न
म वेश करे गा। पु न म िकए गए काय सदै व ही शुभ होते ह।’ गु दे व ने आगे
कहा।
‘जी गु दे व, मने भी सुना है ऐसा।’
‘िक ु मने अभी ान म आपके िलए कुछ अशुभ भी दे खा है ।’ अचानक गु दे व
ने कहा।
गु दे व की बात सुनकर दशरथ कुछ चौंके अव िकंतु शी ही उ ोंने अपने
मनोभावों को िनयंि त कर िलया-
‘वह अशुभ ा है गु दे व? राम का युवरा ािभषेक सकुशल स होने के
उपरां त म िकसी भी अशुभ के िलए सहष ु त ँ ।’
‘आप पर अिन की छाया चल रही है । यह ाणघातक भी हो सकती है ।
ाणा क क ों का तो योग है ।’
‘ओह गु दे व! तब तो कल ही राम का रा ािभषेक और भी आव क है । राम
को रा का सारा भार सौंपने के उपरां त मुझे मृ ु का वरण करने म भी कोई क
नहीं होगा।’
‘तब आप थान कर और आयोजन की व था कर। कल सूय दय के साथ ही
यथािविध राम के अिभषेक का अनु ान आर हो जाएगा। आप अपने दािय
सँभाल ... और म भी अपने दािय ों के िनवहन म लगता ँ ।’
‘जी गु दे व, तो अब अनुमित है ?’
‘हाँ , दै व सब शुभ कर!’
‘एक िनवेदन और है गु दे व!’ चलते-चलते दशरथ बोले।
‘वह भी किहए!’ गु दे व मु ु राये।
‘एक या दो मु त उपरां त कृपया राजसभा को अपना आशीवाद दे ने का अनु ह
कर। अनु ान का िवधान और आव क साम ी इ ािद तो आप ही बतायगे!’
‘ठीक है , आ जाऊँगा।’
‘म िकसी को भेज दू ँ गा आपको िलवाने के िलए।’
और दशरथ ने गु दे व की अनुमित लेकर राजसभा की ओर थान िकया।
दशरथ के आ म से थान करते ही गु दे व ने एक मुिनकुमार को बुलाया और
िनदश िदया-
‘महारानी कैकेयी से जाकर मेरा नामो ेख करते ए िनवेदन करना िक अब
समय आ गया है । आज राि ही उ दे विष को िदया आ अपना वचन पूण करना
है । उ महाराज से अपने दोनों वर ा करने का आयोजन करना है ।’
‘यिद वे पूछ िक कैसे वर, तो ा कहना है गु दे व?’
‘वे कुछ नहीं पूछगी। ... और यिद पूछ भी तो कह दे ना िक गु दे व ने बस इतना ही
कहा है । िफर भी यिद उ कोई शंका हो तो अपरा मंथरा को आ म म भेज द।’
‘जी गु दे व!’ मुिनकुमार उठने को उ त आ।
‘ ान रहे िक यह संदेश महारानी को एकां त म दे ना है । िकसी भी तीसरे
को इसकी भनक तक नहीं लगनी चािहए। यं महाराज को भी! समझ गए?’
‘जी गु दे व!’
‘तो जाओ।’
उसके जाते ही गु दे व भी उठे और रा ािभषेक हे तु व थाय करने म वृ हो
गए।
30- अिभषे क की तै यारी
सभाभवन प रसर म दशरथ ने रथ के ठीक कार से कने की भी ती ा नहीं
की, ार तक प ँ चते ही रथ से कूद पड़े । वाध का असर था, इसम वे कुछ
लड़खड़ा भी गए िकंतु उ ोंने िचंता नहीं की और सभाभवन की ओर बढ़ चले।
महाराज को दे खते ही सभाभवन के कम और उप थत सैिनक सजग हो गए।
आज महाराज समय से पूव ही आ गए थे। सभाभवन म आते समय सदै व उनके साथ
सैिनकों की एक टु कड़ी रहती थी, आज वह भी नहीं थी। वे चिकत तो ए िकंतु िबना
कोई िकये उनके ागत म त र हो गए।
सभाभवन म अभी कुछ ही सभासद उप थत हो पाए थे। आमा गणों म अभी
कोई भी नहीं आ पाया था।
एक सैिनक को बुलाकर दशरथ ने आदे श िदया-
‘जाओ और महामा और आमा सुम िजस अव था म भी हों, उ अपने
साथ लेकर आओ। कहना यह मेरा आदे श है ।’
सैिनक चला गया।
अब दशरथ ने सभाभवन के मु कायपालक को बुलवाया। उसके उप थत होते
ही उ ोंने आदे श िदया-
‘आज सभा की िजतनी भी कायवािहयाँ पंजीकृत ह सभी को िनर कर दो। आज
ही नहीं आज से लेकर आगामी नौ ... नहीं दस िदनों तक की सम कायवािहयाँ
िनर कर दो।’
मु कायपालक भी चिकत-िव त सा आदे श-पालन हे तु चला गया।
उप थत सभासद भी िव य से महाराज को दे ख रहे थे। उ कुछ समझ नहीं
आ रहा था िकंतु साहस भी नहीं हो रहा था कुछ पूछने का। अंतत: एक सभासद ने
साहस कर, खड़े होकर हाथ जोड़कर िनवेदन िकया-
‘आज महाराज समय से पूव ही उप थत हो गए ह और आज से आगे दस िदवस
तक की सम कायवािहयाँ भी िनर करवा दी ह। कुछ िवशेष है ा ...?’
सभासदों की आशा के िवपरीत दशरथ मु ु राये।
‘िवशेष नहीं, अ ंत िवशेष है !’
‘ ा महाराज ...?’ महाराज की मु ु राहट से कता सभासद का साहस बढ़
गया।
‘अधीर ों होते हो, थोड़ा धैय धारण करो। महामा के आते ही सबके स ुख
ही घोषणा होगी।’
‘जी महाराज, यही उिचत होगा।’ उसने चापलूसी भरे र म हाँ म हाँ िमलायी।
महाराज ने एक और सैिनक को बुलाया और आदे श िदया-
‘जाओ उद् घोषक को बुला लाओ, अिवल ।’
वह भी आदे श पालन हे तु चला गया। महाराज ने एक और सैिनक को बुलाया-
‘जाओ और नगर के ंगार की व था दे खने वालों को बुला लाओ। ...और नगर म
िजतने भी माली ह, सबको शी ही यहाँ उप थत होने का आदे श प ँ चाओ। अ ंत
शी जाओ ... उनके आने म िवलंब आ तो तुम दं िडत होगे।’
वह भी चला गया।
िफर उ ोंने एक और सैिनक को पूव-सेनापित मोद को बुलाने भेज िदया।
सभासदों की उ ुकता बढ़ती जा रही थी। वे पर र फुसफुसाकर अनुमान लगा
रहे थे। सबके अनुमान अंतत: एक ही िब दु पर के त हो रहे थे- ‘महाराज के इतना
स होने का एक ही कारण हो सकता है , कुमार राम का रा ािभषेक!’
जाबािल और सुम शी ही आ गए। उनके आने तक महाराज का एक-एक
सैिनक को बुलाकर िकसी न िकसी काम के िलए भेजना और सभासदों का
फुसफुसाना चलता रहा। अ सभासदों के आने का म भी चलता रहा। कुछ अ
आमा गण भी आ गए।
सभाभवन म वेश करते समय जाबािल और सुम दोनों के ही मुखम ल पर
गहन िच ा की रे खाय िघरी ई थीं, िकंतु महाराज का स -वदन दे खते ही वे रे खाय
िवलु हो गयीं और दोनों ने एक-दू सरे की आँ खों म दे खा ... दोनों ही ने संतोष की
साँ स ली और महाराज के अिभवादन की औपचा रकताओं म लग गए।
औपचा रकताओं से िनपटते ही दशरथ खड़े ए और बोलना आर िकया-
‘आप सभी लोग उ ुक हो रहे होंगे िक आज ा िवशेष बात है ? कहकर वे
मु ु राये, चारों ओर एक ि दौड़ाई िफर आगे जोड़ा- ‘म दे ख रहा ँ , सभासदों म
बड़ी दे र से फुसफुसाहट चल रही ह। तो अब म अिधक ती ा न करवाकर एक
अ ंत शुभ समाचार आप सबके साथ साझा कर रहा ँ ।’
दशरथ कुछ दे र के। मु ु राते ए चारों ओर िफर ि दौड़ाई और िफर एक
झटके से बोले-
‘कल, ठीक सूय दय के साथ ही, आप सबके ि य राजकुमार राम का
रा ािभषेक स होगा।’
सभाभवन युवराज राम के जयकारों से गूँज उठा। ेक स था। राम
को सभी दय से ार करते थे। दय से उनका स ान करते थे ... और उनम भु
ीिव ु की छिव तो दे खते ही थे।
दशरथ ने अपने हाथ ऊपर उठाकर सबको शां त होने का संकेत िकया और आगे
बोले-
‘हमारे पास समय का पूणतया अभाव है । हम सबको अभी से अपने-अपने
दािय ों के िनवहन म जुट जाना है । अत: आज की सभा इसी समय थिगत की
जाती है । कल से दस िदनों तक सभा थिगत ही रहे गी। कल का िदवस राम के
अिभषेक के नाम पर और उसके उपरां त नौ िदन इस उ ासो व के उपल म
रा म पूण अवकाश रहे गा। आप सम सभासदों से एक ही अपे ा है िक अभी से
लग जाय और स ूण रा म जहाँ तक इस शुभ समाचार को सा रत कर सकते
ह, करने म जुट जाय।
‘बस आमा ों के अित र अ सभी सभासद अब जा सकते ह। ... कल
सूय दय से पूव आप सभी राम के रा ािभषेक म, यहीं ... इसी सभाभवन म सादर
आमंि त ह।’
कहकर दशरथ बैठ गए। सभासदों के िलए आदे श हो गया था। सब महाराज को
णाम कर एक-एक कर थान करने लगे। सभी स थे और यं ही ेक
िमलने वाले को यह शुभ-समाचार सुनाना चाहते थे। ेक गली चौराहे म चीख-
चीख कर इसकी उद् घोषणा करना चाहते थे।
‘महाराज! यह तो ब तीि त िनणय था। यह मा हमारी ही नहीं स ूण जा की
भावनाओं की अिभ है िकंतु ....’ महाराज के आसन पर पुन: बैठते ही जाबािल
ने कहना आरं भ िकया।
‘ ा िकंतु महामा ? क ों गए, आज म अ ंत स ँ िन ंकोच किहए जो
भी कहना चाहते हों।’ दशरथ ने मु ु राते ए उ ो ािहत िकया।
‘िकंतु इस कार अक ात महाराज ... इतने अ समय म तो हम अपने िम
रा ों तक िनमं ण भी नहीं भेज पायगे इस समारोह म भाग लेने के िलए!’
‘िववशता है महामा , गु दे व ने कल सूय दय काल का ही मु त िनि त िकया है ।
इसके उपरां त िफर कुछ माह तक मु त नहीं बनता है । मने पूव म आपसे उ ेख
नहीं िकया िकंतु िपता ी िन राि म दे कर मुझसे आ ह कर रहे ह िक म इस
दािय को शी ाितशी िन ािदत कर उनके समान वान थ हण क ँ । म
उनकी आ ा नहीं टाल सकता ... िफर आप तो जानते ह िक इस अवसर के िलए म
यं िकतना उ ािहत था!’
‘आप ही नहीं महाराज, हम सभी उ ुकता से इस अवसर की ती ा कर रहे थे
... मा यही एक शंका है िक हम अपने िम नृपों को इस समारोह म आमंि त नहीं
कर पायगे, िवशेषकर केकय और िमिथला को। इस उ व म उनकी भी उप थित
से उ व की ग रमा और बढ़ जाती।’
‘महामा , अब छोिड़ये भी इस िवषय को, अपना ान और अपनी ऊजा
अिभषेक की व थाओं म लगाइये।’
‘जैसी आ ा महाराज!’ जाबािल ने बात वहीं समा कर दी।
अ आमा ों का पता नहीं, िक ु वे और सुम तो वा िवक कारण समझ ही
रहे थे। महाराज को युधािजत और संभवत: भरत की ओर से भी अकारण भय था
तभी उ ोंने भरत के जाते ही इस िनणय की घोषणा की थी। राम के रा ािभषेक
का िनणय तो दो िदन पूव भी िलया जा सकता था और युधािजत को इस आयोजन के
िलए रोका भी जा सकता था। तब भरत और श ु भी समारोह म उप थत रहते।
कट म िकसी ने कुछ भी नहीं कहा। जाबािल अथवा सुम ने उ र रा की
घटनाओं का भी कोई उ ेख नहीं िकया। कल से तो राम त: ही सवािधकार
स होने जा ही रहे थे।
सभी लोग व थाओं की सूची बनाने और सम काय म िकस भां ित स
होंगे इस िवषय म मं णा म जुट गए। आमा ों के सभाभवन म आने से पूव महाराज
ने िजस-िजस को बुलवाया था, एक-एक कर सभी आते जा रहे थे। सबसे पहले आने
वाले पूव सेनापित मोद ही थे।
‘महाराज युवराज और युवरा ी को सूचना है ।’ अचानक जाबािल ने िकया।
‘अरे नहीं!’ दशरथ ने चौंकते ए उ र िदया- ‘िकंतु अभी िभजवाता ँ । अिपतु
उसे यहीं बुलवाता ँ ।’
दशरथ का उ र सुनते ही जाबािल ने मु ु राते ए एक सैिनक को संकेत िकया
और राम को बुला लाने का आदे श िदया।
‘अरे , रथ लेकर जाओ। उसका रथ तो पता नहीं कहाँ होगा ... वह तो अ ा ढ़
होकर ही चल दे गा। अब वह स ाट् होने जा रहा है , उसे अपनी और कोशल की
ग रमा का ान रखना पड़े गा।’ दशरथ ने टोका।
सैिनक अनुमित लेकर जाने लगा। वह ार तक प ँ चा ही होगा िक दशरथ ने पीछे
से पुकारा-
‘ को, तुम रहने दो। आमा सुम यह दािय आप िनवहन कीिजए। िकसी
सैिनक की बात को संभव है वह गंभीरता से न ले।’
आ ानुसार सुम राम को िलवाने चले गए।
‘महामा ! एक काय आपको ही करना उिचत होगा।’
‘आ ा दीिजए महाराज!’
‘गु दे व को सादर लेकर आने का दािय आप ही िनवहन कीिजए। स ूण िविध
तो वही बतायगे। न तो िविध-िवधान म और न ही भ ता म कोई ूनता रहनी
चािहए।’
‘जी महाराज, सब कुछ अयो ा की ग रमानुकूल भ ही नहीं भ तम होगा।
आप िनि ंत रह!’ कहते ए थान को त र जाबािल उठ खड़े ए।
‘और दे खए, िकसी को वामदे व जी को बुलाने के िलए भी भेज दीिजए। और माग
म यं भी िवचार करते जाइयेगा िक ा- ा व थाय की जानी ह। आप पर
ब त बड़ा दािय है इस समारोह म!’
‘जी महाराज।’ कहने के साथ ही जाबािल ने एक अ आमा रा वधन को साथ
आने का संकेत िकया और उनके साथ ती ता से बाहर िनकल गए।
‘अरे आमा धृि ! आप दे खए तिनक, युवराज की ग रमा के अनुकूल एक भ
िसंहासन यहाँ ठीक मेरे िसंहासन की बगल म डलवाने की व था कीिजए। अब
राम िकसी भी आसन पर कैसे बैठ सकता है ?’
धृि उिचत व था म लग गए।
‘अरे वो उद् घोषण वाले, साज-स ा वाले ... और शेष सब िजनको बुलवाया था,
आ गए?’ दशरथ ने एक सैिनक को बुलाकर िकया।
‘जी महाराज, सब आ गए ह और बाहर आपके आदे श की ती ा कर रहे ह।’
सैिनक ने हाथ जोड़कर उ र िदया।
‘भेज दो सबको भीतर।’
दशरथ उन सबके साथ हो गए।
थोड़ी ही दे र म गु दे व और वामदे व भी आ गए।
णाम और आशीवाद की औपचा रकताओं के उपरां त दशरथ सीधे मु िवषय
पर आए-
‘गु दे व आप और वामदे व जी आव क साम ी की सूची बनवा दीिजए, तािक
व था करते समय कोई व ु छूट न जाए।’
‘स क!’ विश ने कहा और आमा जय और िवजय को संकेत िकया सूची
बनाने के िलए।
गु दे व ने बोलना आर िकया-
‘सुवण आिद र , दे वपूजन की साम ी, सब कार की औषिधयाँ , ेत पु ों की
मालाय, खील, अलग-अलग पाँ च पा ों म मधु और घृत, नवीन व , रथ, सम
कार के अ -श , चतुरंिगणी सेना, उ म ल णों से यु हाथी, चमरी गाय की
पूँछ के बालों से बने ए दो जन, ज, ेत छ , अि के समान दै दी मान सौ
ण कलश, सुवण मढ़े सींगों वाला एक साँ ड, एक समूचा ा चम ... और भी यिद
कुछ भूल रहा होगा तो म बताता र ँ गा।’
‘आप दोनों लोग इस सम साम ी की व था कर राि का अंितम हर
आर होने से पूव ही यहाँ य शाला म प ँ चवा दीिजए।’ दशरथ ने दोनों आमा ों
को िनवेदन के प म आदे श िदया।
‘और महाराज ...’ गु दे व पुन: बोले- ‘राि म ही नगर के सम ार च न और
पु -मालाओं से अलंकृत करवा दीिजए तथा ेक ार पर सुग त धूप भी
सुलगवा दीिजए।’
‘जी गु दे व, यह काय आर हो गया है ।’
‘... और एक ल ा णों के भोजन हे तु उ म रसोई की व था करवाइये।’
‘आमा सुरा और आमा अकोप यह व था आप दोनों दे खये।’ दशरथ ने
आदे श िदया।
‘जी महाराज!’ दोनों आमा ों ने आदे श ीकार िकया- ‘िक ु सुयो ा णों
को िनमंि त करने का दािय वामदे व जी यिद ीकार कर ल तो ...’
वामदे व ने उनके वा पूरा करने से पूव ही सहमित म िसर िहला िदया।
‘तो महाराज हम अनुमित द, ल ी व था है ।’ दोनों आमा ों ने अनुमित चाही।
महाराज ने अनुमित दे दी।
‘ ा णों के िलए दि णा और व ािद ...’ गु दे व ने आगे बताया।
यह व था दशरथ ने आमा धमपाल को सौंप दी।
‘नगर के सभी भवनों पर पताकाय, राजमाग पर िछड़काव ...’
‘इन व थाओं पर भी काय आर हो गया है ।’
‘मंगल-गान और नृ हे तु िनपुण गायक, वादक और नतिकयाँ ...’
‘हो जाएगा गु दे व!’ आमा सुय ने उ र िदया।
‘नगर के सभी दे वालयों, चै वृ ों और चौराहों के िजतने भी दे वता ह सभी के
पूजन, नैवे और दि णा की व था।
आमा का प और गौतम ने यह दािय ीकार कर िलया।
यह म चलता रहा ... चलता रहा ... तभी आमा धृि के िनदशन म कुछ सेवक
एक भ िसंहासन लेकर आते िदखाई िदए। उ दे खते ही दशरथ उठ खड़े ए
और एक ओर आकर खड़े हो गये। शेष सब ने भी महाराज का अनुसरण िकया।
दशरथ ने यं अपने िनदशन म ठीक अपने िसंहासन की बगल म उस िसंहासन
को थािपत करवाया।
पुन: सबने अपने-अपने आसन हण िकये और योजना पर िवचार-िवमश आर
हो गया।
तभी बाहर रथ के कने का र आ। सब राम की ती ा कर ही रहे थे।
सबकी उ ुक ि सभाभवन के ार की ओर उठ गयी।
कुछ ही पलों म ार पर राम कट ए। सभी आमा और वामदे व उनके ागत
म उठ खड़े ए और उनकी अगवानी करने के िलए ार की ओर बढ़ चले। दशरथ
और गु दे व भी अपने आसनों पर खड़े हो गये।
राम आज इस िविश ागत को दे खकर िव त थे। उ ोंने िवन ता पूवक
आमा ों का अिभवादन ीकार करते ए यथासंभव यास िकया िक इस िव य
के िच उनके मुख पर ि गोचर न होने पाय।
राम ने िसंहासन के िनकट प ँ च कर िपता और गु दे व को यथायो णाम िकया
और आदे श की ती ा म खड़े हो गये।
‘आकर यहाँ थान हण करो, हमारे पा म।’ दशरथ ने राम का हाथ पकड़ते
ए ेह से खींचा।
राम हतबु से खंचे चले आए। यह आसन तो पहले नहीं आ करता था, यह
कब पड़ गया? अक ात उनके मन म िवचार आया। िकंतु उ ोंने कहा कुछ नहीं
चुपचाप िनिद िसंहासन पर बैठ गये और ती ा करने लगे।
‘तु याद है , एक िदन तुमने िनवेदन िकया था िक तुम लोगों को भी कुछ दािय
सौंपे जाय?’ दशरथ ने मंद त के साथ िकया।
राम ने सहमित म िसर िहला िदया।
‘तो अपने नवीन दािय को सँभालने के िलए त र हो जाओ।’
‘िकंतु दािय ा है िपताजी?’ िव त राम ने िज ासा कट की।
‘कल सूय दे व की थम र याँ तु ारा अिभषेक करगी। कल से तुम िविधवत
अयो ा के स ाट् होगे!’ दशरथ ने राम के स ुख रह उजागर िकया।
‘िकंतु अक ात िपताजी ... ?’ राम के मुख से बरबस िनकल पड़ा। वे चिकत थे,
अभी िकतने िदन ए थे जब िपताजी ने उ कोई भी औपचा रक दािय सौंपने से
मना कर िदया था। उस िदन िवनोद म ही कहा गया िपता का कथन उ
बरबस रण हो आया और अनायास उनके कपोल आर हो उठे ।
‘गु दे व ने कल का ही मु त िनि त िकया है । कल के उपरां त दीघ अविध तक
कोई उ म मु त नहीं है , और म अब ती ा नहीं कर सकता। तु ारे गोलोकवासी
िपतामह महाराज िन मुझे म वान थ म वृ होने का आदे श दे रहे ह।’
‘जी!’ राम के मुख से बस इतना ही िनकल पाया।
उसके बाद उ ािहत दशरथ, दे र तक राम को राजनीित के उपदे श दे ते रहे और
राम उ आ सात् करते रहे ।
भोजन का समय कब का तीत हो चुका था िकंतु आज उ ास और उ ाह म
िकसी को भी ुधा पीिड़त नहीं कर रही थी। िफर भी िकसी आमा के संकेत पर
अथवा ेरणा से, सभाभवन के कमचा रयों ने सभी के िलए वहीं ाहार ुत
कर िदया।
ाहार चलता रहा और दशरथ के उपदे श भी चलते रहे ।
तदु परां त राम को वापस जाने की अनुमित िमल गयी।
***
कौश ा के ासाद म सादगी रची-बसी थी। कैकेयी से िववाह के उपरां त जैसे-
जैसे दशरथ उनसे िवर होते गए, उ ोंने अपने पद और मयादा के िलए िकसी भी
कार का ेश उ करने के थान पर यं को वैरा के पथ पर अ सर कर
िलया था। उनके ासाद म भ ता के दशन के िलए कोई थान नहीं था। उस
िवशाल ासाद का एक ब त छोटा सा भाग ही वे अपने उपयोग म लाती थीं। अपने
और अपने पु के िलए भोजन उ ोंने सदै व ही यं बनाने को ाथिमकता दी थी।
अब तो सुघड़ सहयोिगनी के प म उ सीता भी ा हो गयी थी। यं सीता को
भी िपतृगृह से ही अपने काय यं ही करने का अ ास था। एक महारािजन थी,
िकंतु उसे कोई काय ाय: तभी होता था जब महाराज का वहाँ आगमन होता था।
स ूण ासाद के रख-रखाव के िलए ब त सारे दास-दासी थे, िक ु उस भाग म,
िजसका कौश ा उपयोग करती थीं, मा तीन ही दिसयाँ थीं और उनके पास भी
ात:काल साफ-सफाई के अित र , सारे िदन ाय: कोई काय नहीं होता था करने
के िलए। अत: ात:काल के अपने दािय ों से िनवृ होने के उपरां त कोई एक ही
इधर रहती थी अ ाय: दािसयों के पास शेष भाग म चली जाती थीं।
राम और सीता िन की भाँ ित आज भी अपनी ात:कालीन िन -ि याओं से
िनवृ होने के उपरां त यथा समय आ गए थे। थोड़ी ही दे र म ल ण भी आ गए और
िफर म ा भोजन के ठीक बाद ही, िन की भाँ ित दोनों िवहार के िलए िनकल
गए। ासाद म मा वे दोनों सास-ब य ही बच रही थीं।
राम और ल ण जैसे ही थोड़ी दू र िनकले होंगे िक राम को खोजते ए सुम आ
प ँ चे। सुम ने जब यह बताया िक महाराज ने राम को ही बुलाया है तो राम के साथ
चलने को कहने पर भी ल ण त: ही क गए।
ल ण अनमने से अकेले माग पर चले जा रहे थे िक अचानक उनका ान राह
चलते यों की बातों पर चला गया। राम के रा ािभषेक की चचा हो रही थी।
व ुत: सभासदों ने अपने दािय का भलीभाँ ित िनवहन आर कर िदया था। वे जो
भी िमल रहा था उससे इस िवषय म चचा करते चले जा रहे थे, फलत: हवाओं के
पंखों पर चढ़कर कानोंकान चचा सारे नगर म फैलती चली जा रही थी।
तभी एक सभासद यं उधर से ही आ िनकला। ल ण को दे खते ही उसने
ककर णाम िकया और िकया-
‘कुमार, ा सूचना ा ई?’
‘कुछ-चचा सुनाई तो पड़ी है अभी-अभी, िकंतु अब आप प म िव ार से
समझाइये।’ ल ण के िलए भी उस सभासद से अिधक उपयु और कौन हो
सकता था व ु थित से अवगत होने के िलए!
उस सभासद ने सभाभवन म सभासदों की उप थित म आ सारा घटना म
िव ार से कह सुनाया।
सुनते ही, ल ण के िलए अपनी भावनाओं पर िनयं ण रखना असंभव हो गया। वे
उ े पाँ व वापस आये और सुिम ा से िलपट गए और शुभ समाचार कह सुनाया।
सुनते ही सुिम ा स रह गयी। बरबस उसकी आँ ख गीली हो गयीं।
सुिम ा की आँ खों म आँ सू दे खकर ल ण और उिमला िथत हो उठे । तब
सुिम ा ने ही बड़े यास से िकसी भाँ ित होंठों पर मु ान लाते ए बात सँभाली और
उ समझाया िक ये तो स ता के अ ु ह।
ल ण और उिमला अिवल माता कौश ा को यह शुभ समाचार दे ना चाहते
थे। सुिम ा के िलए भी यं को रोक पाना संभव नहीं था। वह तो यं इस समय
कौश ा के पास होना चाहती थी। व ुत: वह कौश ा के पास भी होना चाहती थी
और कैकेयी के पास भी। वह समझ रही थी िक उसकी दोनों बड़ी बहनों को इस
समय उसके सहारे की आव कता है िकंतु कैकेयी के पास जाना संभव नहीं था।
इस समय उसके क म, कौश ा अथवा सुिम ा िकसी की भी उप थित, अकारण
संदेह का कारण बन सकती थी। उसे यही उिचत लगा िक कैकेयी को था के ये
ण अकेले ही जीने िदया जाए। कैकेयी की ढ़ता पर उसे िव ास करना ही था। ...
तो वह बस कौश ा को सँभालने उनके ासाद म दौड़ी चली आई।
ल ण उन दोनों को ासाद के ार पर ही छोड़कर राम को लेने के िलए वापस
दौड़ गए। उिमला और सुिम ा भीतर गयीं। उ ोंने सीता को यह शुभ समाचार
सुनाया। समाचार सुनते ही सीता का दय लस उठा, वह दौड़ कर सुिम ा के पैरों
म झुक गयी िकंतु सुिम ा ने उसे बीच म ही थाम कर छाती से भींच िलया। ज ही
उसने सीता को अपने से अलग िकया और पूछा-
‘जीजी कहाँ ह?’
‘मंिदर म। अभी सूिचत करती ँ उ भी।’ सीता मंिदर की ओर दौड़ने को ईं
िकंतु सुिम ा ने रोक िदया-
‘तू रहने दे ! तू उिमला के साथ बैठ, म यं उ यह शुभ समाचार सुनाती ँ ।’
सुिम ा सीता का उिधक दे र तक सामना नहीं करना चाहती थी।
सुिम ा भीतर घुसी और कौश ा से िचपट गयी। दोनों के आँ सू बाँ ध तोड़ कर बह
िनकले।
‘जीजी! हमारे राम के रा ािभषेक की औपचा रक घोषणा हो गयी है ।’
‘हो गयी?’ कौश ा के मुख से िनकला र अजीब सा था, जैसे िकसी गहरे कुय
से आ रहा हो- ‘दे खते ह, मेरा राम कहाँ का युवराज बनता है ... अयो ा का अथवा
बीहड़ वनों का!’ कहती ई कौश ा िससक उठी। सुिम ा भी िससक उठी।
िकंतु सुिम ा ने अ ंत शी यं को संयत िकया। कौश ा को भी ढाढस दे ती
ई बोली-
‘जीजी, यिद हम ही इस कार िथत होंगी तो सीता और उिमला का ा होगा?
यं पर िनयं ण कीिजए। हम चौदह वष काटने ह अभी इसी कार। अ ुओं को
बहने के िलए अभी अनेक अवसर ा होंगे।’
‘हाँ सो तो है ।’ कहकर कौश ा ने आँ चल से आँ सू पोंछ िलए।
‘कुछ दे र पहले मंथरा आई थी।’ कौश ा ने सुिम ा को अपनी ओर की सूचना
दी।
‘वह ा बता गयी?’ सुिम ा ने पूछा।
‘उसे तब तक औपचा रक घोषणा के िवषय म ात नहीं था। उसे कैकेयी ने ही
भेजा था। ात:काल ही कैकेयी के पास एक मुिनकुमार गु दे व का संदेश दे गया है
िक आज राि म ही उसे महाराज से अपने दोनों वर ा करने ह।’
‘ओहऽऽ!’ सुिम ा के मुख से िनकला।
‘दीदी हम तीनों को ही ात था िक एक न एक िदन यह होना ही है , िकंतु दे खये,
जब वह ण आया है तो हम िकतनी अधीर हो रही ह!’ सुिम ा ने दीघ िन: ास
छोड़ते ए भरे गले से कहा।
कौश ा अब भी िससक रही थीं। िकसी कार वे िहचिकयों से डूबे र म बोलीं-
‘मंथरा ने जब से मुझे सूचना दी है , मेरे आँ सू क ही नहीं रहे ह। सभी कार से
मन को समझाने का यास कर चुकी ँ िकंतु ... बस सीता ये आँ सू न दे ख ले, इसी
भय से पाठ के बहाने यहाँ अपने िशव के चरणों म बैठ गयी ँ । ा पता, वे कुछ
चम ार कर ही द ... और राम का वनगमन टल जाये।’
‘आप भी जानती ह ... म भी जानती ँ िक ऐसा नहीं हो सकता। यं िवधाता का
ही तो रचा आ खेल है यह सब। बस यही सोच कर मन को समझाने का यास
करती ँ िक ा पता जन-चचा स ही हो ... हमारे राम के प म यं ीिव ु ने
ही र ों के िवनाश हे तु अवतार िलया हो!’
इस थित म भी एक उदास सी मु ु राहट एक पल के िलए कौश ा को होठों
पर कट ई और िफर धीरे -धीरे मुरझा गयी।
‘बस यही एक िदलासा दे सकती ह हम अपने मन को, िक हम यं ीिव ु की
माताय ह।’
दे र तक दोनों पर र एक-दू सरे को इसी कार िदलासा दे ती रहीं।
तभी बाहर कुछ हलचल का आभास आ।
***
वापसी म राम के रथ के िलए माग पर आगे बढ़ना किठन हो रहा था। अब तक
उनके रा ािभषेक का समाचार स ूण नगर म फैल चुका था। सम नगरवासी
अ ंत उ ाह म थे और राज ासाद प रसर म भागे चले आ रहे थे। सभाभवन से
लेकर राम के ासाद और कौश ा के ासाद तक के माग पर भीड़ जमा होती जा
रही थी। र कों के िलए इस भीड़ को सँभालना किठन होता जा रहा था। राम को
दे खकर ये नाग रक अपने उ ाह पर िनयं ण नहीं कर पाये। राम ने वैसे भी कभी
नगरवािसयों के स ुख यं को िविश िदखलाने का यास नहीं िकया था। वे उनसे
सदै व सहजभाव से, उनम से एक बनकर ही िमलते आए थे। इस कारण जा भी
उनम और अपने म कोई भेद नहीं समझती थी। वह तो उनपर ोछावर होने को हर
पल त र रहती थी। िफर आज उ ीं राम के जीवन के इतने मह पूण िदन वह
हषाितरे क से पागल ों न हो उठती! राम का रा ािभषेक सबको ऐसे ही तीत हो
रहा था मानो यं उनका अिभषेक हो रहा हो।
जा का अिभवादन ीकार करते-करते राम का रथ रगता आ िकसी कार
कौश ा के ासाद तक प ँ च ही गया। ल ण ासाद के ार पर ही उनकी ती ा
कर रहे थे। राम को दे खते ही वे दौड़कर उनसे िलपट गए।
‘चिलये माताय भी ती ा कर रही ह।’ ल ण ने राम से अलग होते ए कहा।
उनकी स ता की सीमा नहीं थी। थाणु आ म म राम ारा िदये गये संकेत इस
समय उ िव ृत हो चुके थे अथवा उ अभी यह आभास नहीं हो पाया था िक उन
संकेतों के अनु प थान का अवसर उप थत हो गया है ।
***
‘माता कहाँ ह?’ राम ने क म वेश करते ही सीता से िकया।
सीता और उिमला दोनों ही आपस म बात कर रही थीं और साथ ही माताओं के
पूजाक से बाहर िनकलने की ती ा भी कर रही थीं।
राम को दे खते ही सीता ने अपने सल नयन उठाते ए उ बधाई दी-
‘रा ािभषेक की बधाई आयपु !’
‘आपको भी सा ा ी बनने की बधाई!’
‘सीता तो आपकी ीतदासी है युवराज! उसका जो भी स ान है आपके ताप के
कारण ही है ।’ सीता ने पुन: सल र म कहा।
‘जीजी मुझे भी तो अवसर द बधाई दे ने का!’ उिमला ने िवनोद पूवक ह ेप
िकया।
‘तो दे न, िकसने रोका है तुझे?’
उिमला ने भी बधाई दी ... दोनों को। ल ण मु ु राते ए सब दे ख रहे थे। पता
नहीं ों आज उ ोंने ह ेप नहीं िकया।
‘िकंतु मने माता के िवषय म िकया था, वे क म भी नहीं िदख रहीं और माग
म भी नहीं िमलीं?’ बधाई के लेन-दे न के उपरा राम ने अपना दोहराया।
‘माता और छोटी माता दोनों ही म र म ह, बड़ी दे र से। हम भी उनके बाहर
आने की ही ती ा कर रही ह।’ सीता ने उ र िदया।
‘चलो ल ण उधर ही चलते ह। हम भी भु िशव का आशीवाद ले लगे।’
इन लोगों के आने की आहट सुनकर दोनों माताओं ने यं को संयत कर िलया
था। सुिम ा ने म र के ार पर ही राम का ागत िकया-
‘आओ पु ! बधाई हो रा ािभषेक की!’
‘यह आप सब गु जनों के आशीवाद का ितफल है माता।’ राम ने िवन रम
कहा और सुिम ा के चरणों म झुकने लगे। सुिम ा ने उ बीच म ही थाम िलया ओर
बोली-
‘सव थम भु का आशीष लो व !’
राम ने मंिदर म वेश िकया।
‘तुम भी आओ सीता। िववाह के उपरा भु सप ीक ही पूजा ीकार करते ह।’
सुिम ा ने सीता को आमंि त िकया।
सीता ने भी आदे श का पालन िकया। दोनों ने िविधपूवक िशव की मूित के चरणों म
शीश रखकर आभार कट िकया। िफर कुछ पल वे आँ ख ब िकए, हाथ जोड़े और
िसर झुकाये कुछ मं बुदबुदाते रहे ।
िशव के बाद दोनों ने ही पहले कौश ा और िफर सुिम ा का आशीवाद िलया।
‘चिलये माँ , क म चलते ह।’ राम ने आ ह िकया।
‘तुम लोग चलो, मने आज भु की िवशेष ाथना का त िलया है ।’ कौश ा ने
टाल िदया।
राम, सीता, ल ण और उिमला वापस क म आ गए और सामा वातालाप म
लग गए। अचानक राम ने सीता से िकया-
‘ ा िवशेष त कर रही ह माता?’
‘उ ोंने मुझे भी कुछ नहीं बताया। बस मंिदर म िकसी एका साधना म लगी ह।
जब से छोटी माँ आयी ह, वे भी उ ीं के साथ ह।’
‘अरे आपके रा ािभषेक के संबंध म ही कुछ त होगा। भु को ध वाद कर
रही होंगी और उनसे कल के सम काय म िनिव स कराने की ाथना कर
रही होंगी।’ ल ण ने सबकी उ ं ठा को शां त करने का यास िकया। य िप वे
यं भी उ ं िठत थे। उ यं भी समझ नहीं आ रहा था िक दोनों माताय िकस
िवशेष पूजा म ह और उन सबको उस पूजा से दू र रखने का यास ों कर
रही ह?
तभी बाहर ‘महाराज की जय हो! ... महाराज की जय हो!!’ का कोलाहल सुनकर
सभी चौंक पड़े ।
‘ ा, िपताजी का आगमन हो रहा है ?’ राम ने हो उठे र म जैसे अपने से
ही िकया।
‘ तीत तो ऐसा ही होता है ।’ ल ण ने उ र िदया।
इसके साथ ही चारों उठ खड़े ए और ती गित से ार की ओर बढ़ चले।
कौश ा, अपने दु ख े ासाद के दू सरे ख के ही पीछे के भाग को योग म
लाती थीं। नीचे का पूरा खंड खाली पड़ा था िजसका अिधकां श भाग ाय: ब ही
रहता था। मा ासाद के बाहरी भाग म थत अितिथ-क ही, भले ही उसका कभी
उपयोग न होता हो, सदै व योग के िलए व थत रहता था। अितिथ क की स ा
सदै व राजमहलों की भ ता के अनु प ही की जाती थी।
सीिढ़यों से नीचे उतरते ही सुम आते ए िदखाई िदये। उ दे खते ही राम ने
िकया-
‘िपताजी का आगमन आ है ा आमा वर?’
‘हाँ युवराज, महाराज पधारे ह और अितिथ-क म आपकी ती ा कर रहे ह। म
तो आपको बुलाने ही आ रहा था।’
सभी अितिथ-क की ओर बढ़ चले।
सबसे आगे-आगे राम ने घुटनों के बल बैठ कर िपता के चरणों म म क झुकाकर
णाम िकया, दशरथ ने उ दय से आशीवाद िदया।
राम के बाद सीता और िफर ल ण और उिमला ने भी यही ि या दोहराई।
‘आदे श कर िपताजी!’ राम ने िवन ता से कहा।
‘कुछ बात तु समझाने को शेष रह गयी थीं। िकंतु पहले चारों बैठो।’ दशरथ ने
अपनी साँ सों को थर करने का यास करते ए कहा।
चारों बैठ गए। और दशरथ के बोलने की ती ा करने लगे।
‘राम, अब म स ही वृ हो गया ँ ।’ जब साँ से सु थर हो गयीं तो दशरथ बोले।
‘कैसी बात करते ह िपताजी, आप अभी भी पूण पेण युवा ह।’ ल ण ने िकंिचत
लिड़याते ए सां ना के र म िवरोध िकया।
‘दे खा नहीं अभी तुमने ...’ दशरथ हँ सते ए बोले- ‘अभी िकस कार से मने
अपने ास- ास पर िनयं ण खो िदया था।
‘आज ात:काल से ही आप िकतना म कर रहे ह, ा हम ात नहीं! इतने म
से तो कोई युवा भी इसी भां ित िमत हो सकता है ।’ ल ण ने िफर िपता को आ
करने का यास िकया। उनकी बातों पर सीता और उिमला बरबस मुँह छु पाकर
मु ु रा उठीं।
‘ ा कहना चाह रहे हो व ुत: तुम? इतने म से तो कोई युवा भी इसी भां ित
िमत हो सकता है का ता य तो यही आ िक म युवा नहीं रहा अब!’ हँ सते ए
दशरथ ने ल ण पर कटा िकया। पर ु इसके तुर बाद इस िवनोद-वाता को
समा करते ए जोड़ा- ‘िक ु अब तुम अपनी वाकपटु ता िदखाना ब करो और
मुझे राम से आव क वाता करने दो। उिचत होगा िक तुम लोग यहाँ से थान करो
अ था तुम अपने भाववश ह ेप करते ही रहोगे। मेरे पास आज समय का
अभाव है , कल के बाद दे खूँगा तु ारा वा ातुय!’
एकबारगी तो सब हत भ रह गए िकंतु िफर चुपचाप उठे और ऊपर चले गए।
अब दशरथ और राम ही क म शेष थे। सुमं पहले ही बाहर जा चुके थे।
‘राम मेरी बातों को ग ीरता से हण करना।’ दशरथ ने कहना आर िकया-
‘इधर स ही वृ ाव था के कारण मेरी ऊजा को हण लग गया है , अत: ेय र
है िक म रा का दािय तु सौंप कर अवकाश ा क ँ । ग य िपता ी भी
म मुझे बार ार यही आदे श दे रहे ह। उनका आदे श टालना मेरे िलए संभव
नहीं है । उ ोंने तो म जब ब त छोटा था तभी सब मुझे सौंप िदया था। दू सरी ओर
तुम सब कार से यो हो। जा की तुम पर अगाध आ था है । कोई कारण नहीं है
िक म अब तु दािय सौंपने म िवल क ँ । मुझे िव ास है िक तुम यं को
इ ाकु-कुल का सव े नृप िस करोगे।’ दशरथ कुछ पल साँ स लेने के िलए के।
आज अ ंत दीघकाल के उपरां त वे ात: से ही भयंकर प से रहे थे।
‘सब आप गु जनों के आशीवाद का सुफल है िपताजी।’ दशरथ को कते
दे खकर राम ने िवन ता से कहा।
‘िन य ही ऐसा सुयो पु ा करना िपतरों और दै व के आशीवाद से ही संभव
होता है ।’
राम कुछ नहीं बोले। बोलने को था ही नहीं, अपनी शंसा सुनकर वे भावत: ही
संकुिचत हो उठते थे।
‘एकमा िपता की आ ा ही कारण नहीं है मेरे इस अक ात िनणय के पीछे ।
कल ही वातालाप म गु दे व ने बताया िक न ों की गित इस समय मेरे िवपरीत है ।
यह ाणघातक भी हो सकती है ...’
‘ऐसी अशुभ बात ों कर रहे ह िपताजी?’ राम ने िथत होकर, अपने भाव
के िवपरीत बीच म ही उनकी बात काटते ए कहा।
‘मुझे कहने दो, बाधा मत दो। यह म अपनी ओर से नहीं कह रहा, यह काल की
गित कह रही है । यह गु दे व कह रहे ह और तुम जानते हो िक गु दे व का आकलन
अस नहीं हो सकता। अत: यही ेय र है िक म अपने सामने तु ारा अिभषेक
कर दू ँ तािक भिव म िकसी भी कार का कोई गितरोध न उ हो सके। तुम ही
अयो ा के उ रािधकारी हो और तुम ही सवािधक यो हो। रा का और जा का
भी क ाण तु ारे ही हाथों म सवािधक सुरि त है । मुझे िव ास है िक तुम हमारे
महान इ ाकु वंश की यशोगाथा म नवीन अ ाय जोड़ने म स म हो ...’
दशरथ दे र तक इसी कार राम को समझाते रहे , आशीवाद दे ते रहे , उपदे श दे ते
रहे । राम सुनते रहे , गुनते रहे । िकंतु वे बड़ी हद तक यह समझने म असमथ थे िक
िपता यह सब उनसे ों कह रहे ह, िवशेष कर यं अपने िवषय म वे सारी अशुभ
बात।
दू सरी ओर दशरथ के मन का चोर संभवत: राम को सफाई दे रहा था। उ भरत
और श ु की अनुप थित म ऐसे आक क ढं ग से िलये गए िनणय की
आव कता और साथकता के ित आ करने का यास कर रहा था।
‘अ ा अब म चलता ँ ... और तुम भी अब सीता सिहत अपने ासाद की ओर
थान करो। इसी समय से तुम दोनों को उपवास रखना है । तुम अिभषेक स ूण
होने तक कोई आहार हण नहीं करोगे। अपने ासाद म जाते ही तुम दोनों भु का
रण-पूजन कर शां तिच से भूिम पर कुश की शैया पर शयन करना ... साथ ही
राि म पूण संयम का आचरण करना। ात:काल सूयादय से पूव ही रथ तु लेने आ
जाएगा। ... अब तुम जाओ और वधू सिहत अपने ासाद म जाने को ुत हो
जाओ।’ कहते ए दशरथ एकाएक उठ खड़े ए।
‘अरे िपताजी, माता से भट नहीं करगे?’ दशरथ को एकाएक थान हे तु उ त
दे खकर राम ने िव य से पूछा।
‘नहीं समय भी नहीं है और सीिढ़याँ चढ़ने म अब वृ ाव था के कारण मुझे क
भी होता है । तुम भी शी ता करो और मुझे भी करने दो। राि म ही सारी व था
स करनी है और म सब कुछ अपनी दे खरे ख म ही करना चाहता ँ ।’
‘तब आपने थ यहाँ आने का क िकया, मुझे ही बुलवा िलया होता!’
‘ऐसा संभव था, िकंतु वहाँ तुमसे ऐसी शां ित से एका -वाता का अवसर कहाँ
उपल होता? ... अ ा! यश ी भव!’ कहते ए दशरथ ार की ओर बढ़ चले।
राम ने जब ऊपर जाकर माता को सब कुछ बताया तो उ ोंने सहष उ और
सीता को जाने की अनुमित दे दी। उ संतोष था िक अब उ बलात् स ता का
अिभनय नहीं करना पड़े गा।
राम-सीता और ल ण-उिमला अपने-अपने ासाद की ओर चले गए।
कौश ा और सुिम ा स ूण राि उसी मंिदर म बैठीं भु से ाथना करती रहीं,
आने वाले घटनाच को सहने की श दे ने की याचना करती रहीं और कैकेयी की
था के िवषय म चचा करती रहीं।
31- वनगमन की ावना
कैकेयी को जैसे ही गु दे व का संदेश ा आ, उसे ऐसा तीत आ मानो
भूचाल आ गया हो। बड़ी किठनाई से वह यं को चकराकर िगरने से सँभाल पाई।
उसने मंथरा को बुलाया और कौश ा तक सूचना प ँ चाने का दािय सौंपकर यं
को एक क म ब कर िलया।
उसे समझ नहीं आ रहा था िक ा करे , ा न करे । इस अि य कत को िकस
कार िनभाये? बार ार उसे तीत हो रहा था िक वह यह नहीं कर पायेगी। और
गु दे व ने भी तो अधूरी सूचना भेजी थी। िकस आधार पर वह एकाएक महाराज से
वरदान माँ ग बैठे! सारा िदन उसकी कुछ भी खाने-पीने की इ ा नहीं ई। दािसयाँ
पूछने आईं भी िकंतु उसने अपने क का ार ही नहीं खोला, न ही कोई उ र िदया।
मंथरा भी कौश ा के यहाँ से लौटने के बाद ब त दे र तक उसके क के ार पर
बैठी रही, तब जाकर कहीं कैकेयी ने उसके िलए ार खोला। िफर भी इस बीच
मंथरा भोजन हण कर चुकी थी। उसे राम से ेह था िकंतु उससे अिधक उसे भरत
से ेह था ... और सबसे अिधक र ों से घृणा थी। आने वाले घटनाच को लेकर वह
तो अितशय स ही थी। उसे तो मा एक ही क था िक कैकेयी अ -जल ागे
पड़ी थी। कैकेयी बार ार यही कह रही थी िक वह यह नहीं कर पायेगी और मंथरा
उसे समझा रही थी िक नहीं, उसे यह करना ही होगा, भले ही इसम उसे िकतना भी
क हो, भले ही इसके प रणाम कुछ भी हों। कैकेयी िनरं तर रो रही थी िकंतु मंथरा
ढ़ थी। वह उसके दन को अनदे खा कर िनरं तर उसे े रत कर रही थी।
इस बीच सारे नगर म राम के रा ािभषेक की चचा फैल गयी थी िकंतु कैकेयी
अभी भी इससे अनिभ थी। उसके क म उप थत मंथरा भी तो अनिभ थी।
उनके म तो यही िवकराल तैर रहा था िक गु दे व ारा बताये गए वरदान
महाराज से माँ गे जाय तो िकस आधार पर।
दािसयों को सूया तक सूचना ा हो गयी थी िकंतु उनके स ुख यह था
िक महारानी की ऐसी कुिपत अव था म उन तक यह शुभ सूचना प ँ चाये तो कौन?
मंथरा भी तो क के भीतर थी। िकसी का साहस नहीं हो रहा था ार खटखटाने का।
राि के थम हर म मंथरा बाहर िनकली तो उसे दािसयों ने बताया। सूचना सुनकर
मंथरा चौंक पड़ी। सूय दय के साथ ही राम का रा ािभषेक आरं भ हो जाएगा। राि
का एक हर तीत होने वाला है और कैकेयी के ासाद म महाराज का आगमन
अभी तक नहीं आ है । िन तो समय से ही आ जाते थे। आज पता नहीं आयगे भी
अथवा नहीं। यिद महाराज नहीं आए तो? यह िवकट उसके सामने मुँह बाये
खड़ा हो गया। यिद शी ही महाराज नहीं आए तो उसके सारे िबखर जायगे।
राम का अिभषेक होने के बाद उनका एकाकी र ों के नाश के िलए जाना कैसे संभव
हो पाएगा? भरत का अयो ा का उ रािधकारी बनना कैसे संभव हो पाएगा?
उसने सूचना की स ता जाँ चने के िलए, धड़कते दय से ासाद की छत पर
चढ़कर चारों ओर ि घुमाई। उसने जो कुछ दे खा, वह उसकी धड़कन और बढ़ाने
के िलए पया था। दु लहन की तरह सजी अयो ा जगमग-जगमग कर रही थी। दू र
माग पर अभी भी नाग रकों का स कोलाहल सुनाई पड़ रहा था। ऐसा तीत हो
रहा था जैसे आज अयो ा म राि का आगमन आ ही नहीं हो।
वह नीचे उतर आई और कैकेयी को सारी सूचना दी। कैकेयी के दय म एक
गहरी टीस उठी। इतना सब कुछ हो गया और उसे कोई सूचना ही नहीं दी गयी।
महाराज ने अपने आप मान िलया िक वह राम का अिन चाहती है । वह और िथत
हो उठी। था के मारे वह अपने केश नोचने लगी। आभूषण उतार कर फकने
लगी। िवि जैसी अव था हो गयी उसकी। सारे िदन की भूखी- ासी कैकेयी इस
आघात को नहीं सह पाई ... बेसुध होकर वहीं भूिम पर पसर गयी।
बड़ी किठनाई से म रा ने उसे सँभाला। उसने कैकेयी को समझाया िक यह तो
उसके िलए ण-अवसर है । महाराज का राम के ित उसके ेह पर यह
संदेह ही तो उसे इस समय दोनों वर माँ गने का अवसर दान कर रहा है । बस िकसी
कार एक बार महाराज आ जाय ...। मंथरा महाराज के इस वहार के ित
कैकेयी के रोष की आग म िनरं तर घी डालती रही तािक वह मंद न होने पाए। उसे
सफलता भी िमल रही थी।
अब कैकेयी िथत होकर और मंथरा उ ुकता से महाराज के आने की ती ा
करने लगी। कैकेयी मना रही थी िक महाराज आय ही नहीं तो वह इस अि य कत
के िनवहन से बच जाए। महाराज के ित उसका रोष बढ़ता जा रहा था िकंतु राम के
ित कठोर होने के िलए उसका दय अब भी ीकृित नहीं दे रहा था। दू सरी ओर
मंथरा मना रही थी िक महाराज शी ही आय, यिद वे नहीं आए तब कोई माग नहीं
था राम का अिभषेक रोकने का। तब कोई माग नहीं था राम को र ों के दलन हे तु
एकाकी दि णावत भेजने का!
िकंतु राम का रावण के दलन हे तु जाना तो यं िवधाता की ही इ ा थी, महाराज
आते कैसे नहीं! राि का दू सरा हर जब तीत होने को था, तब दशरथ का कैकेयी
के ासाद म आगमन आ।
ासाद म पसरा मौन दे खकर दशरथ हत भ थे। वे तो मन म यह सोचते ए आए
थे िक उ ोंने कैकेयी को परा कर िदया है । उ ोंने उसे िकसी भी कार का
षड़य रचने का कोई अवसर दान नहीं िकया है । अब राि के इस दू सरे हर म
सूचना ा होने पर वह कर भी ा पाएगी। सूय दय के साथ तो राम का अिभषेक
आर ही हो जाएगा। वह अब चाहकर भी युधािजत तक कोई संदेश नहीं भेज
पाएगी। उसे हँ सकर इसे ीकार करना ही होगा।
दशरथ कैकेयी के क म प ँ चे। वहाँ भी स ाटा पसरा था। ऐसा तो पहले कभी
नहीं आ था? राि के इस हर म उसके कहीं जाने का ही नहीं उठता था! उ
कुछ भी समझ नहीं आ रहा था। वैसे भी इस समय थकावट के कारण उनका बुरा
हाल था।
अंतत: उ ोंने एक दासी को बुलाया। दासी बुरी तरह सहमी ई थी। वह घबराई
ई आई और हाथ जोड़कर खड़ी हो गयी।
‘महारानी कहाँ ह?’ दशरथ ने िकया।
‘महाराज ....’ दासी के मुख से बोल नहीं िनकल रहा था।
‘शी उ र दे अ था ...’ थके ए दशरथ को अचानक ही ोध आ गया।
महाराज के ोध ने दासी को और सहमा िदया। िकसी कार उसके मुख से
िनकला-
‘म... म... महारानी तो आज ात: से ही कोपभवन म ह।’
‘कोपभवन म? यह कौन सा भवन आ?’
‘ ात: आपके थान के कुछ काल उपरां त ही उ ोंने यं को उधर एक क म
ब कर िलया है । तब से ार ही नहीं खोला है ... कुछ खाया-िपया भी नहीं है ।’
‘और मंथरा, वह कहाँ है ?’
‘वह भी महारानी के साथ उसी क म है ।’
दशरथ को कुछ समझ नहीं आ रहा था। कैकेयी तो कभी ऐसा िवि ों जैसा
आचरण नहीं करती थी।
‘उ राम के अिभषेक के िवषय म सूचना है ?’ कुछ सोच कर दशरथ ने दासी से
िकया।
‘हमारा साहस ही नहीं आ उ सूचना दे ने का। वे तो ात: से ही ार खटकाने
पर भी कोई उ र नहीं दे रही ह।’
‘ता य नहीं है सूचना?’
‘अब है स वत: महाराज!’
‘तुझे सीधे से एक बार म सारी बात बताना नहीं आता ा? अथवा जीवन से तेरा
मोह छूट गया है ?’ दशरथ ोधावेश म चीख पड़े ।
‘म... महाराज! मा कर। अभी कुछ काल पूव ही मंथरा क से बाहर आई थी तो
हमने उसे सूचना दे दी थी। अब हम नहीं ात िक उसने महारानी जी को सूचना दी
है अथवा नहीं।’
‘िकस क म ह महारानी? ... चल माग िदखा।’ दशरथ ने आदे श िदया।
आगे-आगे दासी और उसके पीछे -पीछे दशरथ उस क म प ँ चे जहाँ कैकेयी ने
यं को बंद कर रखा था। दशरथ के पुकारने पर अ मंथरा ने ार खोला।
दशरथ ने उसे एक ओर धकेलते ए भीतर वेश िकया। वेश करते ही वे और
घबरा उठे । कैकेयी अ िवि सी भूिम पर पड़ी थी। उसके व अ थे,
केश िबखरे ए थे, आभूषण चारों ओर िछतराये ए थे।
कुछ दे र दशरथ िकंकत िवमूढ़ से खड़े रहे । थकान उन पर पूरी तरह हावी हो
रही थी। आँ ख खोलने म भी क हो रहा था। कुछ काल उपरां त ही उ पुन:
ानािद से िनवृ होकर राम के अिभषेक के िलए जाना था। वे कुछ ण अपने
शरीर को िव ाम दे ना चाहते थे ... िकंतु अब तो वह भी संभव नहीं तीत हो रहा था।
अंतत: वे भी भूिम पर ही कैकेयी की बगल म बैठ गए और उसके कंधे को िहलाते
ए धीरे से पुकारा-
‘महारानी! महारानी!!’
दशरथ के हाथ का श पाते ही कैकेयी िबफर पड़ी-
‘मत श कीिजए मुझे। म तो एक दासी से भी गयी-बीती ँ , मत पुका रए मुझे
महारानी।’
‘महारानी, आ ा है ? कुछ बताइये तो। हम तो आपको अ ंत शुभ समाचार
दे ने आए थे िकंतु आप तो ...’
‘हाँ , म तो िवि हो गयी ँ । म तो ....’ कैकेयी ने वा अधूरा छोड़ िदया और
िवलाप करने लगी।
‘महारानी! कृपया शां त होकर हम कुछ बताय, अ था हम कैसे समझ पायगे
आपकी था को?’
‘कैकेयी की था की िचंता िकसे है यहाँ !’
‘हम है महारानी, आप बताइये तो।’
‘ ा बताऊँ म? िजस समाचार की सूचना सारी अयो ा को है , उसकी सूचना
एकमा कैकेयी को ही नहीं है ... यही िचंता है आपको कैकेयी की? यही उपल है
कैकेयी की िन ा की? इतना ही स ान है कैकेयी का आपकी ि म?’ कैकेयी उसी
भां ित िवलाप करती ई चीखी।
दशरथ तो हत भ थे ही, मंथरा भी हत भ थी। उसे िव ास ही नहीं हो रहा था िक
यह वही कैकेयी है ! कैकेयी सचमुच िवि हो गयी थी। िवि ाव था म ही वह,
वह सब कहे जा रही थी जो कुछ कहना उसे यं को कुछ काल पूव तक असंभव
तीत हो रहा था।
‘महारानी!’ दशरथ भी हताश हो उठे , उ ोंने आतनाद िकया।
‘मत किहये मुझे महारानी। मेरा स ान तो यहाँ एक दासी के बराबर भी नहीं है ।’
‘ऐसा नहीं है महारानी! दशरथ की ि म आपका िकतना स ान है यह िकसी से
िछपा नहीं है । आपको हमारे ऊपर इस कार का लां छन लगाना शोभा नहीं दे ता ...’
‘यह लां छन नहीं है , यही स है ।’
‘महारानी!!’
‘यिद आपका कथन स है तो ा आपको रण है िक आपने श र यु के
समय कैकेयी को दो वरदान दे ने का वचन िदया था।’
एकाएक दशरथ नहीं समझे िकंतु दू सरे ही ण उ सब कुछ रण हो आया। वे
बोल पड़े -
‘हाँ महारानी, दशरथ को रण है और आपके वे दोनों वरदान आज भी उसके
पास सुरि त ह ... आपने ही कहा था ऐसा।’
‘यिद ऐसा है तो मुझे आज चािहए वे दोनों वरदान, बोिलये दान करगे?’
‘अव , यिद दशरथ की साम म आ तो वह आपके इ त वरदान अव
दान करे गा। आप माँ िगए तो ...’
‘इस कार नहीं!’
‘तो िकस कार?’ दशरथ अब भी असमंजस म थे- ‘ ा आपको दशरथ के
कथन पर अिव ास है ? ा आपको रघुकुल की रीित पर अिव ास है ?’
‘मुझे इस समय आपका रघुकुल की रीित पर वचन नहीं सुनना। मुझे मा मेरे
दोनों वरदानों से योजन है ।’
‘तो माँ िगए भी तो ... किहए तो िक आप ा चाहती ह!’ दशरथ ता से बोले।
वे िकसी भी भां ित इस अि य संग का पटा ेप करना चाहते थे।
‘ऐसे नहीं!’
‘तो यही बताइये कैसे?’
‘ि वाचा (तीन बार संक करना) कीिजए!’
‘िकया।’
‘ प से कहकर कीिजए।’
‘इ ाकुवंशी, अजपु , अयो ा नरे श दशरथ संक करता है िक आपके इ त
वरदान, यिद उसकी साम म ए तो आपको दान करे गा।’
‘अभी।’
‘यिद संभव आ तो!’
‘संभव है ।’
‘यिद संभव है तो अभी दान करे गा।’
‘ि वाचा ...’
दशरथ ने तीन बार पूरा संक दोहराया।
‘अब माँ िगये तो वरदान ...’ दशरथ ता से बोले।
‘कैकेयी थम वर यह माँ गती है िक अयो ा का रा उ रािधकार म उसके पु
भरत को दान िकया जाए।’ कैकेयी ने उसी िवि ाव था म अपना पहला वरदान
माँ ग िलया।
दशरथ की छाती म एकाएक ती पीड़ा उठी िकंतु उसे दबाते ए वे बोले-
‘महारानी यह ा माँ ग रही ह आप? आपको ात है िक कुछ काल उपरां त ही
राम का अिभषेक होना िनि त है ! घोषणा हो चुकी है , सभी ती ा कर रहे ह।’
‘कुछ काल बाद ही है न, हो तो नहीं गया?’ कैकेयी िव ू प से बोली- ‘और िफर जो
सूचना सव थम कैकेयी को ा होनी चािहए थी वह उसे अब दे रहे ह आप ? ...
वह भी िववशता म। िकंतु अब इस िवषय म तक से कोई लाभ नहीं। मुझे मा इतना
बताइये िक आप मेरा इ त वरदान मुझे दान कर रहे ह अथवा नहीं? ान
र खएगा ... आप अपने कुल का नाम लेकर संक कर चुके ह ... ि वाचा कर चुके
ह। अब यिद आप वचनभंग करते ह तो एकमेव आप ही नहीं आपके सम पूवज
भी आपके कारण रौरव नक भोगगे।’
‘महारानी आप इतनी ू र कैसे हो सकती ह?’
‘यिद अपना दाय माँ गना ू रता है तो हाँ म ू र ँ । िक ु आप यं के िलए ा
कहगे िज ोंने अकारण मेरे साथ, मेरे पु के साथ छल िकया है ?’
‘मने कोई छल नहीं िकया महारानी आपके साथ। मेरी िववशता थी इस कार
अक ात राम का अिभषेक करना। गु दे व ने बताया िक ....’
‘मुझे नहीं जानना िक आपके गु दे व ने आपको ा बताया। मुझे मा इतना ात
है िक राम के अिभषेक के ठीक पूव मेरे पु को रा से बाहर भेज िदया गया,
ोंिक वह रा का वा िवक उ रािधकारी था। ोंिक यही संिवदा ई थी मेरे
िववाह के समय। ... और यं मुझे भी पूणत: अंधकार म रखा गया। यिद आपके
मन म कोई दु भावना नहीं थी, तो ऐसा ों िकया? ों इतने मह पूण अवसर पर
संबंिधयों को कोई सूचना नहीं दी गयी? न कैकेयी के भाइयों को, न ही सुिम ा के
भाइयों को और न ही महाराज जनक और महाराज कुश ज को? जबिक संका ा
तो अयो ा से दू रवत भी नहीं है ! महाराज कुश ज तो सहज ही उप थत हो सकते
थे?’
‘जो आप सोच रही ह, वैसा कुछ भी नहीं है महारानी...’ दशरथ ने सफाई दे नी
चाही िकंतु कैकेयी ने उनकी बात बीच म ही काट दी-
‘अपने तक अपने पास र खए महाराज! मुझे इस समय अ िकसी भी त से
कोई योजन नहीं है , मुझे मा अपने वरदानों से योजन है ... किहए, आप
मुझे मेरे इ त वरदान दे रहे ह अथवा नहीं?’
‘महारानी, कुछ भी अ माँ ग लीिजए िक ु राम के रा ािभषेक म वधान मत
डािलए इस समय, इस वृ की याचना ीकार कर उपकार कीिजए।’
‘मने कहा न मुझे िकसी भी अ िवषय से कोई योजन नहीं है इस समय। मुझे
मा यह बताइये िक आप मेरे पु को, भरत को रा दे ने हे तु त र ह अथवा नहीं?’
दशरथ िववश थे। वे अपने कुल की आन को नहीं ाग सकते थे। अपने पूवजों की
ाित िम ी म नहीं िमला सकते थे, अपने पूवजों के रौरव नरक भोगने का कारण
नहीं बन सकते थे। अपनी सारी श सँजोकर िकसी भाँ ित बोले-
‘यिद आपकी ऐसी ही इ ा है तो ऐसा ही सही! िकसी को बुलाइये तािक कुछ ही
समय म आर होने वाले आयोजन को थिगत िकया जा सके। दशरथ म इतनी
साम नहीं है िक वह यं जाकर ऐसी घोषणा कर सके।’
‘इतनी शी ता भी ा है महाराज?’ कैकेयी िव ू प से बोली- ‘अभी तो दू सरा
वरदान शेष है । वह भी तो माँ गने दीिजए मुझे।’
‘माँ िगए, वह भी माँ िगये। दशरथ भी तो दे खे िक दू सरा ा आघात दे ना चाहती ह
आप!’
‘िकंतु अभी आपने थम वरदान के िलए हाँ कहाँ कहा है ? भरत को रा दे ने का
वचन तो दीिजए।’
‘िदया! दशरथ वचन दे ता है िक आपको िदए गए वरदान के अनु प, भरत के
आते ही उसका रा ािभषेक िकया जाएगा।’
‘उिचत है महाराज! अब दू सरा वरदान।’
‘किहए, शी ही किहए। जो भी व ापात करना है शी ही कीिजए।’
‘राम को व ल व ों म चौदह वष का वनवास, द कार म।’
दशरथ के दय की पीड़ा एकाएक अ ंत ती हो गयी। उनका यं पर से
िनयं ण छूट गया। उनकी आँ ख मुँदने लगीं। बड़े क से िकसी कार ेद- ात
उनके मुख से श िनकले-
‘कुलटा! आज ा तू दशरथ के ाण ही लेने का िन य िकए बैठी है ? सीधे ही
कटार ों नहीं उतार दे ती उसके दय म, वह तेरे स ुख िववश पड़ा है ।’
ोधावेश म दशरथ एकाएक वाणी की मयादा भूल गए। वे कैकेयी के िलए खुलकर
अपश ों का योग करने लगे, जो इससे पूव उ ोंने िकसी के िलए भी, कभी नहीं
िकया था।
‘आपको मुझे जो भी अपश कहने हों, जीभर कह लीिजएगा। िकंतु मुझे मेरा
दू सरा वरदान दान कीिजए। एत ंबंधी आदे श िनगत कीिजए अथवा ीकार
कीिजए िक इ ाकुवंशी अपने वचनों का आदर करना नहीं जानते। वे बात का धनी
होने का मा ढोंग करते ह।’
‘राम ने तेरा ा िबगाड़ा है कुल नी? वह तो तेरा िकतना स ान करता है ! तू
भी तो आज तक उससे िकतना ेह का दशन करती थी, वह सब ा तेरा ढोंग
मा था?’ दशरथ की वाणी उनका साथ नहीं दे रही थी। उनके श अटक-अटक
कर िनकल रहे थे ... अ िनकल रहे थे। उनका सारा शरीर पसीने से लथपथ हो
चुका था। िकंतु कैकेयी इस समय अपने आपे म नहीं थी। ऐसा तीत होता था जैसे
कोई दु रा ा उसके शरीर म वेश कर गयी हो। वह दशरथ की दशा को अनदे खा
कर बोल पड़ी-
‘महाराज तक नहीं कीिजए, मुझे मेरा वरदान दान करते ह अथवा अपने कुल
की मयादा को धूिल-धूस रत करते ह?’
‘ ा राम को उसके अिधकार से वंिचत करके ही तुझे संतोष नहीं है ेितनी! अब
ों उस बेचारे को वनवास दे ना चाहती है ? वह भी थोड़े -ब त समय के िलए नहीं पूरे
चौदह वष के िलए? िफर द कवन म ही ों, ा तुझे ात नहीं िक वहाँ रा सों
का कैसा घोर आतंक ा है ? ... और... और आय के िलए िव की सीमा पार
करना विजत है ? ा तू िनि त ही राम के ाणों की ासी हो गयी है ह ा रन?’
‘मुझे मा ‘हाँ ’ अथवा ‘न’ म उ र दीिजए- आप मुझे इ त वरदान दान कर
रहे ह अथवा नहीं?’
‘तूने आज ा वैध का वरण करने का ही िनणय ले िलया है कुलटा? तुझे तो म
ऐसी नहीं समझता था। मने तो तेरे कारण ही कभी कौश ा को उनके पद के यो
स ान नहीं िदया। तेरे ही कारण मने कभी सुिम ा को उसका अिधकार नहीं िदया।’
‘महाराज आप िवषय से भटक रहे ह।’
‘म िवषय से भटक नहीं रहा, सीधे-सीधे मेरे ाण ही ों नहीं माँ ग लेती? राम को
छोड़ दे उसके थान पर दशरथ वनवास हण करने को सहष त र है ।’
कैसे छोड़ दे ती कैकेयी। राम का वनवास ही तो दै व का योजन था। वह पूरी
िनममता से बोल पड़ी-
‘मुझे राम के िलए चौदह वष के दं डकार म वनवास के अित र कुछ भी
ीकार नहीं है । भले ही एक बार आप भरत को रा दे ना अ ीकार कर द िकंतु
राम के वनवास से कोई समझौता कैकेयी को ीकार नहीं है ।’
‘तुझे ा अनुमान नहीं है , तेरा यह वरदान िनि त ही मेरे ाण ले लेगा?’
‘महाराज म इस समय कोई भी अनुमान लगाने की थित म नहीं ँ । मुझे राम के
िलए चौदह वष का वनवास चािहए। भले ही इसके िलए आप मुझसे मेरा सब कुछ
छीन ल।’
यह तक-िवतक दे र तक चलता रहा। दशरथ सभी कार से कैकेयी को समझाने
का यास करते रहे िकंतु कैकेयी भी िवि सी अपनी माँ गों पर अिडग थी। यहाँ
तक िक सूय दय का समय िनकट आ गया। अंतत: दशरथ को हामी भरनी ही पड़ी।
हाँ कहने के साथ ही वे अचेत हो गए।
***
उधर सभाभवन के य मंडप म गु दे व विश सिहत सभी आमा जुट चुके थे।
सारी साम ी व थत रख दी गयी थी। भारी सं ा म जा भी एक हो चुकी थी।
राम और दशरथ की जय-जयकार का कोलाहल सम िदशाओं को गुंजायमान
िकए था। ती ा थी तो बस यं दशरथ के आगमन की। वे आ जाय तो राम और
सीता को भी बुलवाया जाए और अिभषेक का अनु ान आरं भ िकया जाए।
दशरथ को िवलंब होते दे ख विश ने सुमं को आ ा दी िक वे जाकर दे ख और
महाराज को िलवा लाय। आमा ों म सुमं ही ऐसे थे जो िन ंकोच िबना िकसी बाधा
के अंत:पुर म भी जा सकते थे।
सुमं जब कैकेयी के ासाद म प ँ चे तो दािसयों का ान मुख दे ख कर उ भी
अचंभा आ। अतीव हष के इस अवसर पर इन दािसयों के मुख पर यह िवषाद सा
ों छाया आ है ? इनके ने लाल ों ह? इ दे खकर ऐसा ों तीत हो रहा है
िक ये स ूण राि रोती ही रही ह? ... और स ूण ासाद म यह अबूझ सा स ाटा
ों ा है ? इ ीं ों से जूझते ए वे दािसयों ारा इं िगत क तक प ँ चे।
क का ार खुला आ था। उ ोंने बाहर से ही इ ाकु वंश का श गान
करते ए महाराज को पुकारा।
‘भीतर आ जाइये!’ भीतर से कैकेयी का र सुनाई पड़ा।
सुम ने भीतर वेश िकया। महाराज भूिम पर ही अ अव था म सोये पड़े
थे। वैसी ही अव था म महारानी कैकेयी भी एक ओर बैठी थीं।
सुम को कुछ समझ नहीं आया। उ ोंने महारानी को णाम िकया और
महाराज को पुकारते ए उनसे जागने का िनवेदन करने लगे। सुम को अभी यह
समझ नहीं आया था िक महाराज अ मू त अव था म ह। महाराज के कान
उनकी बात सुन तो रहे ह िक ु म उ समझने की अव था म नहीं है । वे तो
यही सोच रहे थे िक महाराज अभी तक सो ही रहे ह।
जब दशरथ पर उनकी पुकारों का कोई भाव नहीं पड़ा तो सुम ने कैकेयी से
ही िनवेदन िकया-
‘महारानी जी! आप ही जगाइये महाराज को। गु दे व ने अिवल बुला लाने का
आदे श िदया है , मु त िनकला जा रहा है ।’
‘आमा जी! आपके महाराज आज हष की अिधकता के कारण स ूण राि सो
नहीं पाए ह। बस अभी इ तिनक सी झपकी लगी है । इस समय इ उठा पाना मेरे
अथवा आपके वश म नहीं है ।’
‘िकंतु महारानी जी मु त िनकला जा रहा है । य शाला म सभी लोग ता से
महाराज की ती ा कर रहे ह। महाराज प ँ च तो युवराज राम और युवरा ी सीता
को भी बुलाया जाए, वे भी अब तक तैयार होकर ती ा कर रहे होंगे।’
‘तब एक ही माग है - आप युवराज राम को यहीं बुला लाइये। उनकी पुकार पर ही
ये उठ पायगे।’
‘िकंतु महारानी जी! मुझे इसकी अनुमित नहीं है ।’
‘अपने महाराज से ही पूछ लीिजए।’ कैकेयी ने परामश िदया। उसे तीित हो रही
थी िक राम का नाम ही इस अ मूिछत अव था म महाराज की चेतना को श कर
पाएगा। वही आ भी, राम का नाम सुनते ही दशरथ ने अनजाने ही अ ु ट र म
उ र िदया-
‘हाँ , राम ... राम को बुलाओ।’
‘जैसी आ ा महाराज की!’ कहते ए सुम णाम कर राम को िलवाने चले गए।
राम और सीता तो पूण प से तैयार होकर, अिभषेक के अनु ान हे तु य शाला
जाने के िलए ती ारत ही थे। उ आघात लगा जब सुम ने आकर अकेले राम
को कैकेयी के ासाद चलने को कहा। राम सोचने लगे िक ा कारण हो सकता है ?
अभी तक िपताजी माता के ासाद म ा कर रहे ह? िकंतु िपता की आ ा पर
उप थत करना उनका भाव नहीं था, वे चुपचाप सुम के साथ चल िदये।
जैसे ही ये लोग ासाद से बाहर िनकले ल ण भी आ गए। राम ने उ भी अपने
साथ ले िलया। माग म जुटी जाजनों की भीड़ के हषनाद और राम के दशनों की
उ ट लालसा के चलते रथ अपनी गित से नहीं चल पा रहा था। राम रथ से ही
जाजनों का अिभवादन ीकार कर रहे थे।
जब तक राम का रथ कैकेयी के ासाद तक प ँ चा, महाराज के आगमन म होते
िवल से िचंितत अनेक सभासद भी िवल के िवषय म जानकारी ा करने के
उ े से कैकेयी के ासाद के बाहर जुट गए थे। राम को आता दे ख उनम हलचल
मच गयी। राम के जयकारे लगने लगे। सबको शां त कर िकसी भाँ ित राम और
ल ण ने सुम के साथ ासाद म वेश िकया। ल ण को अचानक कल का
रण हो आया जब िपता ने राजसभा म राम को अकेले ही बुलाया था। उ ोंने सोचा
संभव है आज भी िपता ऐसा ही चाहते हों, वे रथ कवाकर वहीं उतर गए और
सभासदों का अिभवादन ीकार करने लगे।
अब तक दशरथ ने यं को िकसी सीमा तक सँभाल िलया था। उनकी छाती म
उठी ती पीड़ा भी कुछ शां त हो गई थी। वे उठकर एक कुशासन पर बैठ गए।
उनके सामने ही कैकेयी बैठी थीं। राम ने वेश करते ही यथािविध दोनों को णाम
िकया। दोनों ने आशीवाद िदया िकंतु राम को तीत आ िक आशीवाद म वह
उ ता नहीं है जो सदै व होती थी। राम ने सदै व दे खा था िक यिद िपता िकसी उलझन
म भी होते थे, तो भी उ दे खते ही वे खल उठते थे, िकंतु आज ऐसा नहीं आ था।
उ ोंने य वत अपना हाथ राम के िसर पर रखा और य वत ही वह हाथ िफर नीचे
लटक गया। उनके मुख से आशीवाद का कोई श उ रत नहीं आ।
जब दशरथ कुछ नहीं बोले तो राम ने कैकेयी से ही पूछा-
‘माता! ा कारण है ? िपताजी को तो अब तक य शाला म उप थत होना चािहये
था, िकंतु ये तो िवषाद से अभी यहीं बैठे ह। मुझे भी य शाला के थान पर यहीं
बुलवा िलया है । कोई आपात- थित उ हो गयी है ा?
‘हाँ आपत थित ही उप थत ई है ।’ कैकेयी ने संि उ र िदया। उसे समझ
नहीं आ रहा था िक राम से सब िकस कार कहे ।
िपताजी कुशल से तो ह? आप दोनों ही लोग िथत तीत हो रहे ह, ऐसा तीत हो
रहा है जैसे अभी यहाँ कोई अि य संग घिटत आ है ।’ राम ने पुन: िज ासा
की।
यह कैकेयी के िलए सबसे किठन ण थे। दशरथ से कठोर वचन कहना उतना
दु र नहीं था िकंतु राम से ... ! राम को तो वह अपने दय की सम गहराइयों से
ेह करती थी। राम था ही ऐसा, उसके स क म आने वाला कोई भी उससे
ार िकए िबना रह ही नहीं सकता था। स ूण आयावत का आमजन यों ही नहीं
उसे ीिव ु के स म अवतार के प म पूजता था! ... परं तु कत का िनवहन तो
करना ही था। अब तो वह इतना आगे बढ़ आई थी िक वापसी के सारे माग अव
हो चुके थे।
‘हाँ राम! तु ारा अनुमान ठीक ही है । तुम इ अ ंत ि य हो इसिलए ये तु ारे
स ुख कुछ कह नहीं पा रहे ह। व ुत: अ ंत अि य संग घिटत आ है यहाँ ।’
‘तो माता, आप ही मुझे व ु थित से अवगत कराइये।’
‘इ ोंने पहले तो मुझे स तापूवक दो वरदान िदये िकंतु अब अपने कुल की
ित ा को धूिल-धूस रत करते ए उनसे िफर जाना चाह रहे ह।’
‘िकंतु माता, वे वरदान ा ह? ा वे मुझसे संबंिधत ह।’
‘हाँ व , उनम से एक तुमसे ही स त है । अथवा स क ँ तो दोनों ही तुमसे
स त ह।’
‘तो बताइये माता, म िपताजी का वचन कदािप िम ा नहीं होने दू ँ गा। यह
इ ाकुवंशी राम का वचन है आपसे।’
‘इ ाकुवंशी तो तु ारे िपता भी ह, िकंतु िफर भी ये अपने वचन से िडग रहे ह।
वरदान दे कर अब उ उलट दे ने की इ ा रखते ह।’
‘आपने अभी बताया िक वे अि य वरदान मुझसे स त ह। कदािचत ये मुझसे
अपने अगाध ेह के कारण उ उलटना चाह रहे ह। िक ु माता म ऐसा नहीं होने
दू ँ गा। म िपता के वचन की र ा के िलए कुछ भी करने को सहष त र ँ । आप मा
आदे श कर िक मुझे ा ाग करना है ।’
‘सोच लो राम, कहीं ऐसा न हो िक तुम भी अपने िपता के क को अनुभव कर
बाद म वचन से पलट जाओ। इनका ि य करने के िलए स का ाग कर दो। ये
इस समय की अपनी हताश मानिसक थित म तु स के िवपरीत आचरण करने
का आदे श दे बैठ और इनके आदे श से बँधे तुम भी स का अपमान कर बैठो ...
ान रखना स संसार म सवािधक मह पूण होता है ।’
‘आप िव ास रख माता, राम के होते ए स का अपमान नहीं होने पाएगा। आप
िन ंकोच कह, स िकतना भी अि य होगा, राम उसकी र ा करे गा। राम, िपता
के वचनों की र ा करे गा।’
‘तुम ढ़ ित हो इसके िलए।’
‘हाँ माता! राम ढ़ ित है ।’
‘तो सुनो ...’ अपने दय को कठोर करते ए कैकेयी ने कहा- ‘श र यु के
समय अपनी ाण-र ा करने पर तु ारे िपता ने मुझे दो वरदान दे ने का वचन िदया
था। मने वे दोनों वरदान इनके पास सुरि त रख छोड़े थे। आज जब इ ोंने
ित ापूवक मुझे वरदान माँ गने की अनुमित दी तो मने वे वरदान माँ ग िलए।’
‘वरदान ा ह माता? मुझे मा यह बताइये, और यह बताइये िक मुझे ा करना
है । म कदािप िपताजी के वचन िम ा नहीं होने दू ँ गा।’
‘एक बार पुन: िवचार लो राम! ऐसा न हो िक अि य वचनों को सुनकर तुम भी
िडग जाओ और एक बार पुन: इ ाकु कुल की मयादा भंग हो जाए।’
‘माता, आप लोगों की गोद म खेलकर ही राम इतना बड़ा आ है ...’ कहते ए
राम मु ु राए- ‘ ा उसे इतना भी नहीं ात िक आप यिद राम के िलए कुछ अि य
भी कहगी, तो उसम भी कहीं न कहीं आपके राम का िहत ही अ िनिहत होगा।
आप िनशंक कह।’
राम की बात सुनकर कैकेयी का दय मानों फट पड़ा- इतना िव ास है राम को
उसपर, और वह राम के िलए ा माँ गने जा रही है । बड़ी किठनाई से उसने अपने
आँ सुओं को ढु लकने से रोका और बोली-
‘ थम वर तो तु ारे अनुज भरत के िलए रा है । अयो ा का सावभौम स ाट्
राम नहीं भरत होगा।’
‘इतनी सी बात माता?’ राम िफर मु ु राए- ‘भरत और राम म ा कोई अंतर
समझती ह आप। आपका कथन ीकार है , भरत ही अयो ा का सावभौम स ाट्
होगा। ... दू सरा वर माता ...?’ राम ने मु ु राते ए अपने ने पुन: कैकेयी की ओर
उठाए।
अचानक दशरथ को जैसे चेत आ हो, वे िच ा पड़े -
‘आगे मत सुनो पु । इस कुलघाितनी की बात सुनने यो नहीं ह। तुम अपने िपता
के वचनों को िम ा हो जाने दो। तुम समथ हो, अयो ा के रा पर बलात्
अिधकार कर लो। म तु आदे श दे ता ँ ।’
‘सुन िलया राम!’ कैकेयी ने िवषाद और उपहास से िमले-जुले र म कहा।
‘आप दू सरा वरदान बताइए माता!’
कैकेयी के ने हठात् राम की अिवचिलत मु ा की ओर उठ गए। मेरा राम तो अब
भी मु ु रा रहा है । ध ह जीजी, िज ोंने ऐसे पु को ज िदया।
‘माता, िवचिलत ों हो रही ह, किहए तो ... आप िव ास रख राम िपता के वचनों
को िम ा नहीं होने दे गा।’
कैकेयी कहना चाहती थी िक मुझे िव ास है तुम पर पु परं तु िकस मुँह से क ँ ;
िकंतु यह कहने का अवसर नहीं था। कट म वह बोली-
‘दू सरा वरदान है िक तुम आज ही व ल धारण कर चौदह वष के िलए
द कार म वनवास हे तु थान करो। आज से तु ारा िनवास अयो ा का
राज ासाद नहीं दु गम वन होंगे।’ इतनी दे र से कैकेयी अपनी भावनाओं पर िनयं ण
िकए ए थी। इतना कहते-कहते वह िनयं ण थोड़ा सा िवचिलत हो ही गया। उसकी
आँ खों की कोर गीली हो ही गयीं।
राम के म म िबजली सी कौंधी। जब से उ अपने अिभषेक की सूचना
िमली थी, तभी से वे सोच रहे थे िक यह ा घिटत होने जा रहा है ? गु दे व विश
और िष िव ािम दोनों ने ही तो इसके िवपरीत संकेत िदए थे? ा उनके संकेत
भी िम ा हो सकते ह?
कैकेयी के कथन से राम का संदेह िमट गया। गु ओं के संकेत िम ा नहीं थे। मंद
हा उनके होंठों पर खेलने को आतुर हो उठा िकंतु उ ोंने बलात् उसे रोक िलया
और संयत र म बोले-
‘ ीकार है माता! राम अभी थान के िलए उ त होता है । अनुमित हो तो अ
दोनों माताओं से अनुमित और आशीष ा कर ले।’
‘अनुमित है पु !’ कैकेयी के मुख से इतना ही िनकला।
दशरथ पुन: अचेत हो गये थे। वे अब राम को रोकने की थित म नहीं थे।
‘तो अनुमित द माता!’ राम ने हाथ जोड़कर कैकेयी से अनुमित माँ गी।
‘यश ी भव!’ कैकेयी बस इतना ही बोल पायी।
िफर राम अचेत िपता के चरणों म झुकते ए बुदबुदाए-
‘िपता जी, राम को मा कर दीिजएगा, वह आपके आदे श की अवहे लना कर रहा
है । िकंतु वह िववश है , आपके वचनों की र ा करना भी तो उसीका कत है ।’
राम चले गए। उनके जाते ही कैकेयी पछाड़ खा कर िगर पड़ी।
अब तक ार की ओट म िछपी खड़ी मंथरा ने दौड़कर उसे सँभाला। मंथरा के
क म वेश करते ही असमंजस म सहमी सी खड़ी अ दािसयाँ भी दौड़ पड़ीं।
***
बाहर ल ण अ सभासदों के साथ ती ारत थे। राम को अकेले बाहर
िनकलते दे ख सभी चिकत हो गए। ा कारण है , ा महाराज अचानक अ थ हो
गए ह? सबके मन म इसी कार की आशंकाएँ कुलबुलाने लगीं। उ र पाने के िलए
सभी की उ ुक ि राम के मुख पर िटकी थी।
राम की मुख-मु ा गंभीर थी, इसे ल ण ने भी ल िकया। वे राम से करने
को उ त ए िकंतु वे कुछ बोलते उससे पूव ही राम ने उनका हाथ दाब िदया। यह
संकेत था शां त रहने का। सभासदों से राम इतना ही बोले-
‘आप लोग कृपापूवक अपने-अपने घर जाय। महाराज अ थ ह, अिभषेक का
अनु ान थिगत हो गया है ।’
इतना कह कर राम ल ण का हाथ थामे ए रथ पर चढ़ गए।
‘माता कौश ा के ासाद म।’ उ ोंने सारथी की वाचक ि को संि सा
उ र िदया।
***
महाराज और राम को अनाव क िवलंब होते दे ख य शाला म सभी बेचैन थे।
यह सूचना वहाँ प ँ च चुकी थी िक महाराज महारानी कैकेयी के ासाद म ह और
राम को भी वहीं बुलवाया गया है । उ ुक भीड़ धीरे -धीरे उधर ही बढ़ने लगी। गु दे व
और सुम भी इस भीड़ के साथ थे। अ आमा गणों को उ ोंने वहीं य शाला म
ही रोक िदया था।
इस भीड़ म गु दे व के अित र सभी थे। गु दे व को आभास था िक ा
आ होगा, उ ोंने ही तो कैकेयी को कत -पालन के िलए े रत िकया था।
माग म ही उ उधर से उदास से आते ए सभासद िमल गए। उनसे सूचना िमली
िक महाराज के अ थ होने के कारण अनु ान थिगत हो गया है । सभी को लग
रहा था िक इस सूचना म कुछ भेद है , िकंतु यह सूचना यं राम ने दी थी। उन पर
अिव ास करना भी संभव नहीं था।
गु दे व ने सभी को राम के िनदशानुसार अपने-अपने िनवास की ओर थान
करने का आदे श दे िदया और यं कौश ा के ासाद की ओर बढ़ चले।
***
राम ासाद के ार पर रथ से उतर कर सीधे भीतर वेश कर गए। वे अभी भी
ल ण का हाथ थामे थे। ल ण उनके इस आचरण पर अचंिभत थे। वे उनसे अनेक
करना चाहते थे, िकंतु िववश उनके पीछे िघसटते से चले जा रहे थे।
कौश ा और सुिम ा अभी भी मंिदर म ही थीं।
‘माता! आपके भु ने आपकी िवनती नहीं ीकार की है , उ ोंने आपके राम के
िलए कुछ और ही भूिमका िनधा रत कर रखी थी संभवत:।’ मंिदर के ार से ही राम
ने कौश ा को पुकारते ए कहा।
राम के श कौश ा और सुिम ा के सीने म बाण के समान उतरते चले गए।
सब कुछ पहले से जानते ए भी दोनों का दय बैठ गया। राम तो इस कार कभी
नहीं बोलता था। अव ही िनयित ने अपना काय कर िदया है , सोचती ई दोनों
हड़बड़ाकर बाहर िनकल आयीं।
राम के श ल ण की समझ म भी नहीं आए थे, िकंतु वे अभी मौन थे। अचानक
उनका चुलबुलापन कहीं िछप गया था।
बाहर िनकलते ही कौश ा ने हठात् राम को अपने व म भींच िलया और ता
से िकया-
‘ ा आ? ऐसे अशुभ वचन ों बोल रहा है ?’
‘माता, िपता ने रा भरत को दे ने का िनणय िकया है और मेरे िलए व ल धारण
कर चौदह वष के वनवास का आदे श आ है ।’
‘ ा?’ कौश ा सहन नहीं कर पायीं। कल से के ए उनके आँ सुओं का बाँ ध
टू ट ही गया। सुिम ा के आँ सुओं ने भी अब िनयं ण अ ीकार कर िदया।
‘ आ ा? पूरी बात बता।’ कौश ा ने िससकते ए िकया।
राम ने स ूण करण कह सुनाया।
कौश ा और सुिम ा के िलए अब पूछने को बचा ही ा था। कैकेयी अपने
कत का िनवहन कर चुकी थी। कैसे िकया होगा उसने अपने दय को इतना
कठोर? दोनों यही सोच रही थीं।
ल ण अवाक् से खड़े थे।
‘ल ण!’ अचानक राम बोले।
‘जी ाता!’ राम का र सुनकर ल ण सचेत ए। अभी तक तो उ समझ ही
नहीं आ रहा था िक यह सब हो ा रहा है ।
‘जाओ तिनक सीता को तो िलवा लाओ। जाने से पूव उससे भी तो िवदा लेनी
होगी।’
‘कोई कहीं नहीं जाएगा ाता। ल ण ऐसा अनैितक िनणय कदािप ीकार नहीं
कर सकता।’
‘ल ण! िपता के वचनों की मयादा रखना पु का कत है । अत: ...’
‘आप बँधे होंगे मयादा से ...’ ल ण राम की बात काटते ए आवेश म बोले-
‘िकंतु ल ण ऐसी िकसी मयादा को ीकार नहीं करता जो अ ाय की प धर हो।’
‘यह अ ाय नहीं है । अयो ा के रा पर भरत, ल ण और श ु का भी उतना
ही अिधकार है िजतना राम का। तो ा अंतर पड़ जाएगा यिद राम के थान पर
भरत का अिभषेक होता है ?’
‘नहीं ाता, रा पर बड़े पु का ही अिधकार होता है । िफर भी, ाता भरत को
रा िमल जाए मुझे एक बार स है , िकंतु तब िपता के वचनों की मयादा का िनवाह
करना भी उ ीं का कत होगा। िपताजी का दू सरा आदे श ल ण कदािप ीकार
नहीं कर सकता। भले ही इसके िलए उसे सबसे यु ही ों न करना पड़े ।’
‘ल ण!!’ राम ने ल ण को समझाना चाहा।
‘नहीं ाता, यिद िपताजी ने अपना िनणय नहीं प रवितत िकया तो ल ण एकाकी
ही अयो ा की सम सेना को परािजत कर बलपूवक रा को अिध हीत करने म
समथ है ।’
‘अनगल लाप मत करो ल ण।’
‘यह अनगल लाप नहीं है ाता, यही स ता है ।’
‘नहीं, हमारा कत रा की र ा करना है , रा से यु करना नहीं।’
‘हमारा कत अनीित का िवरोध करना भी है ाता। िपताजी अनीित के सहयोगी
हो रहे ह।’
‘नहीं िपताजी अपने वचन से बँधे ए ह। तुम शां त हो जाओ ... यह तु ारे िलए
राम का, तु ारे अ ज का आदे श है ।’
अंतत: ल ण शां त ए िकंतु सहजता से नहीं। राम को ब त यास करना पड़ा,
ब त समझाना पड़ा, और थाणु-आ म की घटनाओं का संकेत भी दे ना पड़ा।
‘ठीक है ाता, जब आप यं ही इस अनैितक आदे श की र ा करने का िनणय
कर चुके ह तब ल ण कर भी ा सकता है !’ ल ण ने हताशा से कहा। िफर
आगे जोड़ा- ‘तो ा आप यहीं से थान करगे?’ ऐसा तीत हो रहा था जैसे वे मन
ही मन कुछ संक कर रहे हों।
‘हाँ !’ राम ने संि सा उ र िदया।
‘ठीक है , िकंतु उससे पूव मुझे मँझली माँ से कुछ करने ह। तदु परा म भाभी
को लेकर आता ँ ।’
‘नहीं, तुम ऐसा कदािप नहीं करोगे।’ राम का र अनायास कठोर हो गया था।
ल ण एक बार पुन: चौंक पड़े । राम तो ऐसे र म कभी नहीं बोलते थे?
‘ठीक है ।’ ल ण ने िववश से र म उ र िदया और चले गए।
‘माता, म अपनी वेशभूषा प रवितत करके आता ँ ।’ राम ने कौश ा से कहा
और वे भी भीतर चले गए। उ करना ही ा था, आभूषण और राजसी व उतार
कर रखने थे और उनके थान पर साधारण से गै रक व धारण करने थे। उ पता
था िक वे माता के यहाँ कहाँ उपल ह।
कौश ा के िलए बोलने को कुछ था ही नहीं।
कुछ ही पलों म राम अपनी वेशभूषा प रवितत कर आ गए। उ इस वेश म
दे खकर दोनों माताओं के दय और ती िवलाप करने लगे। दोनों की ही िहचिकयाँ
बँधी ई थीं। दोनों के ही मुख से श नहीं िनकल रहे थे।
तभी गु दे व और सुम भी आ गए।
‘गु दे व! िनयित अपना खेल खेल गयी।’
‘महारानी! ा पहले भी कभी कोई िनयित से िवजयी आ है िक हम ही हो
जाते?’
सब मौन सीता और ल ण के आगमन की ती ा करने लगे।
***
स ूण नगर म अब तक यह समाचार सा रत हो गया था िक अचानक राम को
वनवास का आदे श आ है । सब िथत थे और था म अपने-अपने अनुसार
अनुमान लगा रहे थे। कोई दशरथ को अपश कह रहा था तो कोई कैकेयी को
कोस रहा था। कौश ा के ासाद के बाहर जैसे सारा नगर उमड़ा पड़ रहा था।
***
ल ण भी आ गए। उनके साथ सीता और उिमला भी थीं। सभी िव त हो उठे
जब दे खा िक ल ण भी िकसी मुिनकुमार की सी वेशभूषा म ह।
‘यह ा है ल ण, तुमने यह ा िकया है ?’
‘जो आदे श आपके िलए है वह ल ण के िलए भी है ।’
‘यह तुम ा कह रहे हो? िपता का आदे श मा मेरे िलए ही है ।’
‘आप यह कैसे सोच सकते ह िक ल ण आपसे पृथक है ?’
‘मेरा आशय यह कदािप नहीं था। हम चारों भाइयों म कोई अ र नहीं है । िकंतु
इस समय वनगमन का आदे श मा मेरे िलए ही है ।’
‘नहीं ल ण आपसे अिभ है ।’
‘ल ण! िपताजी अ ंत िथत ह। भरत और श ु भी यहाँ ह नहीं। यहाँ सबकी
दे खभाल करने के िलए तु ारा यहाँ रहना आव क है ।’
‘मुझे कुछ नहीं ात। मुझे मा इतना ान है िक ल ण वहीं रहे गा जहाँ राम
होंगे।’
‘ल ण!’ राम का र कुछ ती हो गया।
‘ ाता! आप थ यास कर रहे ह। आपका एक आदे श म ीकार कर चुका ँ
िकंतु अपने इस िनणय के िवषय म म न तो िकसी का परामश मानने को त र ँ न
ही िकसी का आदे श ... चाहे वह आपका ही ों न हो।’
‘यहाँ की प र थित को समझने का यास करो ल ण!’ राम ने हताशा म अपना
िसर झटका।
‘ ाता आप भलीभाँ ित जानते ह िक ल ण को आपके साथ जाना ही है , िफर थ
मुझे रोकने म समय और अपनी ऊजा ों य कर रहे ह। रण र खए िक यं
िनयित ने ल ण को आपके साथ बाँ ध रखा है ।’ ल ण ने गु -गंभीर र म कहा।
ल ण के श ों का िनिहताथ राम के अित र कोई नहीं समझा था। िकसी को
ा पता था िक ल ण और राम दोनों ही नारद की स ूण योजना से प रिचत ह,
और इस संदभ म उनकी यं ीिव ु से भट भी हो चुकी है और आशीवाद प
अनेक िद ा भी ा हो चुके ह।
‘ल ण! राम उिचत ही कह रहा है ।’ कौश ा ने भी यास िकया।
‘माता कृपया ऐसा कुछ न कह िजसकी आपके ल ण को अवहे लना करनी पड़े ।
उस पर माता के आदे श का िनरादर करने का कलंक लगे।’
कौश ा िन र हो गयीं।
तभी सीता भी अपने आभूषण उतारने लगीं।
‘सीते! तुम यह ा कर रही हो?’ चिकत राम ने िकया।
‘कोई भी अनु ान प ी के िबना पूरा नहीं होता। प ी, पित की अ ािगनी होती है ।
सीता के िबना आपका वनगमन अधूरा ही रहे गा। आप का अ ाग यिद यहाँ राजसी
सुख भोगता रहे गा तो आपका वचन कैसे पूण हो सकता है ?’
‘नहीं ऐसा नहीं हो सकता।’
‘ऐसा ही होगा, सीता भी आपके साथ ही जायेगी।’
‘सीता! ों हठ कर रही हो।’
‘यह हठ ही इस समय सीता का कत है ।’
‘गु दे व! आप ही समझाइये इसे।’ सीता के हठ से िववश राम ने गु दे व की ओर
दे खा।
िकंतु गु दे व को तो नारद के वचन रण हो रहे थे- सीता रावण की पु ी है और
रावण के कुल के स ूण िवनाश का कारण बनेगी। तो रावण के िवनाश के कारण
को वे रावण के ार तक जाने से कैसे रोक सकते थे।
‘सीता उिचत ही कह रही है राम। प ी पित की अ ािगनी होती है । उसकी शोभा
पित के साथ ही होती है । यिद तु वनवास का आदे श आ है तो सीता का भी
तु ारे साथ ही जाना उिचत है ।’
राम िववश हो गए। इस प र थित म भी सीता के मुख पर संतोष भरी त खेल
गयी।
‘ठीक है पु ी, तू भी राम के साथ जा सकती है । प ी का कत है सुख-दु :ख सभी
म समान भाव से पित का साथ िनभाना। िकंतु तू अयो ा की कुलवधू है । तुझे
िनराभरण म नहीं दे ख सकूँगी। यह कुलदे वता का भी अपमान होगा।’ गु दे व की
सहमित दे ख, भरी आँ खों से, िववश कौश ा ने कहा।
‘महारानी उिचत कह रही ह पु ी।’ गु दे व ने भी समथन िकया- ‘तेरा िनराभरण
जाना कदािप उिचत नहीं है । िफर तेरे ये आभूषण अयो ा की स ि नहीं ह, ये तेरा
ी धन ह। इ कोई तुझसे नहीं छीन सकता। तू इन आभूषणों को धारण िकए ए
ही अपने पित का साथ दे गी। िफर यह भी तो सोच, िकसी िवपि म ये आभूषण
िकतना साथ दे सकते ह तुम लोगों का!’
‘िकंतु गु दे व ...!’ सीता ने कुछ कहना चाहा।
‘कोई िकंतु-पर ु नहीं। यह हम सबका आदे श है ।’ गु दे व ने सीता की बात बीच
म ही काट दी।
‘तो िफर थान की अनुमित द माता।’ सीता और ल ण के हठ को अंतत:
ीकार करते ए राम ने अनुमित माँ गी।
राम के इतना कहते ही उिमला भी ल ण की बगल म आकर खड़ी हो गयी- ‘म
भी चल रही ँ साथ म।’
‘नहीं उिमला! यिद तुम भी हमारे साथ चलोगी तो यहाँ माताओं का ान कौन
रखेगा?’ ल ण ने उिमला के हठ को नकार िदया।
‘ ों भला? मेरा दािय नहीं है सुख-दु :ख म समान भाव से अपने पित का साथ
िनभाना?’
‘भाभी ाता के साथ जा रही ह ोंिक वे उनकी अ ािगनी ह ...’
‘म भी तो आपकी अ ािगनी ँ ।’ ल ण की बात काटती ई उिमला बोल पड़ी।
‘िकंतु मुझे वन जाने का आदे श नहीं आ है । म तो अपने ाता और भाभी की
सेवा और सुर ा के िलए उनके साथ जा रहा ँ और अपनी अनुप थित म माताओं
की सेवा और सुर ा का दािय तु सौंपकर जा रहा ँ । ... ाता के वनगमन के
उपरां त िपताजी और माताओं की सेवा और सुर ा का दािय अब मेरा ही है और
मेरी अ ािगनी होने के नाते वह तु ारा भी दािय है । म अपने दोनों दािय ों का
िनवहन एक साथ नहीं कर सकता। म या तो इस संकटकाल म ाता और भाभी की
सेवा कर सकता ँ या िफर यहाँ रहकर िपताजी और माताओं की सेवा कर सकता
ँ । इस थित म मेरी अ ािगनी होने के नाते मेरे दािय ों को बँटाना तु ारा दािय
है । अत: तु ारा यहाँ रहना ही उिचत है ।’
उिमला ने ब त सारे तक िकए िकंतु अंतत: सबने िमलकर उसे माताओं की सेवा
करने हे तु कने के िलए मना ही िलया।
राम, सीता और ल ण सबसे िवदा लेकर चलने के िलए उ त ए। साम ी के
प म उनके पास मा उनके धनुष, बाणों से भरे तूणीर और कमर म बँधी कटार
ही थीं। इनके अित र एक कुठार (कु ाड़ी) थी और एक पोटली िजसम सुिम ा ने
सीता के बदलने के िलए कुछ व बाँ ध िदए थे। पोटली ल ण ने अपने कंधे पर
टाँ ग ली और कुठार हाथ म उठा ली।
‘सुम !’ एकाएक गु दे व बोले।
‘आदे श गु दे व!’
‘राम को अिभषेक हे तु लाने का दािय तु सौंपा गया था, अब इ अयो ा की
सीमा तक प ँ चाने का अि य दािय भी तु ीं िनवहन करो।’
‘जैसी आ ा गु दे व!’
‘गु दे व! एक िनवेदन है ।’ चलते-चलते राम पुन: एकबार गु विश से स ोिधत
ए।
‘कहो पु !’
‘आज ही िकसी ती गामी संदेशवाहक को केकय भेज िदिजएगा, भरत को िलवा
लाने के िलए। तािक िपताजी के थम वचन का भी स क िनवाह हो सके।’
‘िनि ंत रहो व !’
32- थान
कौश ा के ासाद के बाहर जैसे जन-समु िहलोर मार रहा था। जैसे सारा नगर
वहीं एक हो गया था। ेक नगरवासी था जानने को िक व ुत: हो ा रहा
है ? ा राम स ही वनवास हण कर रहे ह?
राम और ल ण के राजसी भूषा ाग कर िकसी वनवासी के प म ासाद से
बाहर आते ही सम उप थत जनों को भयंकर आघात लगा। और यह ा उनके
साथ यं सीता भी ह। इ ाकु वंश की कुलवधू! अयो ा की राजल ी की तीक!
कोशल के स ान का ितिब ... वह भी इनके साथ जा रही ह ा? ा सच म
ही महाराज की मित मारी गयी है , जो यह सब होने दे रहे ह?
थान से पूव राम एक बार पुन: कैकेयी के ासाद की ओर बढ़ चले, िपता से
िवदा लेने हे तु। वहाँ दशरथ ने उ अनेक कार से समझाने का यास िकया।
उनके साथ चतुरंिगणी सेना, आमोद- मोद और िवलास की िवशाल साम ी, दास-
दािसयों का पूरा दल, अपनी िव य साम ी से लदी बैलगािड़यों के साथ बड़ी सं ा
म कुशल विणक और ... और भी ब त कुछ भेजने का ाव िकया। इतना सब
कुछ िक जहाँ भी राम जाते वहाँ वन म ही एक स ूण नगर बस जाता और राम
सहजता से एक युवराज के समान ही अपना वनवास का समय तीत कर सकते।
िकंतु कैकेयी के साथ ही यं राम ने भी इसे ीकार नहीं िकया और दशरथ व
कैकेयी दोनों को णाम िनवेिदत कर िवदा लेकर वनगमन हे तु िनकल पड़े ।
राम के िनकलते ही दशरथ पुन: पछाड़ खाकर िगर पड़े ।
अब तक अयो ा म हाहाकार मच चुका था। बड़ी किठनाई से सुम रथ को
आगे बढ़ा पा रहे थे। राम कुछ नहीं बोल रहे थे, बस रथ पर हाथ जोड़े खड़े सबका
अिभवादन ीकार कर रहे थे। बीच-बीच म राम के नाम के जयकारे भी लगने लगते
थे तो कभी-कभी दशरथ को कोसने वाले नारे भी आकाश को छे दने लगते थे, तब
राम को उ र म लोगों को शां त करने का यास करना पड़ता था। िकंतु वह
यास ब त लाभदायी तो नहीं हो रहा था। जा का ेक इस अनपेि त
घटना म से िथत था, आ ोिशत भी था और अपने-अपने र से, अपने अपने
तरीके से इसका ितरोध करने का यास भी कर रहा था।
आज पहली बार ऐसा आ था िक दशरथ की उप-पि याँ भी माग पर िनकल आई
थीं, अ था उनका तो उस प रसर से िनकलना मा िवशेष उ वों पर ही, िकसी
सजावट की व ु की भां ित ही होता था। राम ने उनके शु हो चुके दयों म भी
वा का पौधा पुन: रोप िदया था। आज पहली बार वे भी खुलकर दशरथ और
कैकेयी के ित अपना रोष कर रही थीं।
***
ाकुल जा-जनों की भीड़ म थान बनाता आ रथ धीरे -धीरे सरकता रहा।
िजतने भी युवा रथ म इधर-उधर लटक सकते थे लटके ए सुमं से और राम से भी,
रथ को रोकने की ाथना कर रहे थे।
माग म पड़ने वाले घरों की छतों पर इतनी मिहलाय, ब े और वृ टँ गे थे िक
लगता था कहीं छत टू टकर िगर ही न पड़े ।
इसी तरह जूझते ए ती गामी अ ों से जुता वह रथ चींटी की भाँ ित रगता आ,
राि होते-होते मा तमसा के तट तक प ँ च पाया। िन य आ िक वहीं राि िव ाम
िकया जाएगा। आसपास के िनवासी राम की उप थत के िवषय म सुनते ही दौड़कर
आ गए। सब राम-सीता-ल ण के िलए कुछ न कुछ ािद भो पदाथ भी लाए
थे, िकंतु राम ने िवन ता से मना कर िदया। ल ण और सुम इधर-उधर पेड़ों से
कुछ फल बटोर लाए, राम ने उ ीं का आहार िकया और तमसा का जल पीकर
शयन का यास करने लगे। ल ण और सुमं भी राम के ही िवषय म बितयाने
लगे।
रथ के साथ लटके लोग, रथ के साथ दौड़ते आते लोग और थानीय लोग तो थे ही।
पीछे -पीछे आने वालों के ज े के ज े चले ही आ रहे थे। सबका एक ही उ े था
िक िकसी भी भाँ ित राम को मना ल, वे यहीं से वापस लौट चल, परं तु राम को सोता
जानकर चुप रहे । बड़ी सं ा म ऐसे लोग भी थे जो िकसी भी थित म भी राम का
साथ छोड़ना ही नहीं चाहते थे। राम को सोया दे खकर वे सब भी वहीं तमसा के तट
पर लेट गए। उस बालुकारािश म एक छोटा-मोटा नगर बस गया। शीतल समीर ने
सारे थिकत व िथत जनों को धीरे से अनचाहे ही िन ा की गोद म जाने को िववश
कर िदया।
राि का तीसरा हर आरं भ होते-होते राम उठ बैठे। उ ोंने चारों ओर ि
दौड़ाई, सारे लोग सो रहे थे।
राम ने सुम को जगाया और चुपचाप रथ तैयार करने का आदे श िदया। सुमं
जब तक रथ तैयार करते, उ ोंने सीता और ल ण को भी जगा िदया। उसी समय
उ ोंने नदी पार की और आगे बढ़ चले।
ात: काल जब लोग उठे तो राम को न पाकर ठगे से रह गए। उ ोंने भी तमसा
को पार कर रथ की लीक के सहारे राम को खोजने का ब त यास िकया िकंतु राम
तब तक ब त दू र िनकल चुके थे। अब इन सबके पास िनराश लौटने के िसवा कोई
चारा नहीं था।
दू सरे िदन राम के रथ ने दि ण कोशल को पार िकया। िफर वेद ुित, गोमती और
का निदयों को पार िकया और अंतत: गंगा के तटवत ंगवेरपुर पर प ँ च गए।
ंगवेरपुर का िनषाद शासक गुह राम का पुराना िम था। राम के आगमन की सूचना
िमलते ही वह ब ु-बा वों सिहत आ प ँ चा।
गुह को आता दे ख राम ने पहचानकर बाह फैला दीं और दोनों गाढ़ आिलंगन म
समा गए। राम की वेशभूषा दे खकर गुह को अ ंत ेश आ। उसने िनवेदन
िकया-
‘ भु, आपने ा गुह को पराया मान िलया जो यहाँ िनजन तट पर पड़े ह?’
‘नहीं िम ! मुझे िपता ने वनवास का आदे श िदया है , म नगर म वास नहीं कर
सकता।’
‘वनवास का आदे श आपको अयो ा से आ होगा, गुह का स ूण रा भी
आपका ही है । आप िन:शंक ंगवेरपुर पर शासन कीिजए। गुह आपके सेवक के
प म सदै व त र रहे गा।’
‘िम ! ...’ राम हँ से- ‘राम अपने िपता के वचन की र ा के िलए वनवास हे तु
िनकला है । रा , वह चाहे अयो ा हो अथवा ंगवेरपुर, वन कदािप नहीं हो
सकता।’
‘िकंतु आप अयो ा से िन ािसत ह, गुह के रा से नहीं।’ कहते ए गुह ने राम
का हाथ थाम िलया और खींचता आ बोला- ‘आप मेरे साथ त ाल चिलए। आपको
कोई असुिवधा नहीं होगी। गुह का, छोटा ही सही, ासाद होते ए आप यहाँ िनजन
वन म िनवास नहीं कर सकते।’
‘म िन ािसत तो अयो ा से भी नहीं ँ िम , मुझे मेरे िपता ने वनवास का आदे श
िदया है और उनके वचनों की र ा करना मेरा दािय है । नगर म वेश कर म
उनके वचनों को िम ा िकस कार कर सकता ँ ?’
‘ भु ऐसा कैसे संभव है ? माग म अनेक नगर-गाँ व-ब याँ पड़गी, उनम वेश तो
आपको करना ही पड़े गा। उसी भाँ ित ंगवेरपुर भी आपके माग म पड़ रहा है । आप
मेरे साथ चलकर राि भर िव ाम कीिजए, ात: ा करना है , उसपर ात: ही
िवचार कर लगे।’
नहीं िम ! िदवस के समय िकसी काय से ब ी म वेश संभव है अथवा माग म
यिद नगर पड़ जाये तो उससे होकर जाया जा सकता है िकंतु राि -िव ाम हे तु नगर
म ठहरना सवथा मयादा का उ ंघन होगा। अत: मुझे मा कर।’
गुह ने सभी यास िकए िकंतु राम ने उसके साथ नगर म जाना ीकार नहीं
िकया। तब गुह ने अपने साथ आए यों म से कुछ को वहीं पया सु िचपूण
भो साम ी ले आने का आदे श िदया। िकंतु राम ने उसम भी त ाल बाधा दी-
‘िम , मेरी बात को अपनी उपे ा मत समझना, न ही इसे अ था लेना। व ुत:
वनवासी का भोजन मा वन म सहज ा साम ी, क मूल फल इ ािद ही होता
है । हम लोग तु ारी पाकशाला म बना अ ीकार नहीं कर सकते। तुम मा
सुम जी और रथ के इन अ ों के भोजन का बंध कर दो।’
गुह के सम यास िवफल हो गए। अंतत: उसने वही िकया जैसा राम का
आदे श था। राम ने आज भी ल ण ारा आस-पास के वृ ों से लाए गए फलों का ही
आहार ा िकया।
आहार से िनवृ होकर राम ने गुह से कहा-
‘िम , यिद संभव हो सके तो थोड़े से बड़-वृ के दु का बंध करवा दो।’
गुह ने अपने एक की ओर दे खा। वह िबना कुछ कहे चला गया और थोड़ी
ही दे र म बड़ का दू ध लेकर आ गया। राम ने उसे लेकर अपने केशों पर मला। उनके
केश तप यों की जटाओं के समान खे हो गए तो उ ोंने उ जटाओं के समान
ही िसर पर लपेट िलया। राम की दे खादे खी ल ण ने भी यही ि या दोहरायी।
‘िम जब तप ी का बाना धारण ही िकया है तो पूरा होना चािहए न।’
गुह कुछ नहीं बोला िकंतु उसकी आँ ख बोल रही थीं िक उसे यह कृ पसंद नहीं
आया है ।
रात वहीं गंगा की बालुका-रािश पर लेटे-लेटे, कुछ सोते-कुछ जागते तीत ई।
गुह और कुछ अ सारी रात इनके साथ ही रहे ।
ात:काल राम ने सुम को वहीं से वापस लौट जाने का आदे श िदया और गुह
ारा उपल करायी गयी नौका से चौड़े पाट वाली, पु सिलला गंगा को पार कर
व दे श ( याग) म वेश िकया और वन का माग पकड़कर आगे बढ़ चले।
‘ ाता!’ ऐसा नहीं तीत होता िक हमारे शरीर अकम होते चले जा रहे ह?’
माग म ल ण ने नाटकीय र म िकया।
‘िनरं तर हम लोग पाँ व-पाँ व चले जा रहे ह और आप कह रहे ह िक शरीर
अकम होते जा रहे ह?’ सीता ने आ य से ित- िकया।
‘नहीं भाभी! मा चलने भर से शरीर का पया ायाम नहीं हो पाता। आल
शरीर को जकड़ने लगता है ।’
‘तो आप ा करना चाह रहे ह।’ ल ण की बात सुनकर सीता इस थित म भी
हँ स पड़ीं- ‘वानरों की भाँ ित वृ ाटन करना?’
‘सच म म यही चाह रहा ँ भाभी।’
राम को ल ण की इस कार की चंचल वृि का बचपन से ही अ ास था। वे
बस मु ु राते ए चलते रहे । भाई पर कोई िति या होती न दे ख ल ण इस बार
सीधे उनसे ही स ोिधत ए-
‘आइये न ाता, मृगया ारा इस आल का उपचार करते ह।’
‘और तु ारी भाभी को यहाँ वन म असुरि त छोड़ द?’
‘यह कुठार मुझे दे दीिजए, म अपनी सुर ा यं कर लूँगी।’ ल ण कुछ कहते
उससे पूव ही सीता ने िव ास भरे र म उ र िदया।
‘इन व ों म?’ राम ने आशंका की।’
‘हाँ भाभी, हम जानते ह िक आप श -संचालन म िनपुण ह, िकंतु इन व ों म
आव कता पड़ने पर भागना अथवा चपलता से अपने थान पर ही गितमान होना
कदािप संभव नहीं होगा।’
‘यह तो है , ... िकंतु आप लोग तो आसपास ही रहगे?’
‘सो तो रहगे। परं तु िफर भी ...’ राम अब भी आशंिकत थे।
‘तो म िकसी ऊँचे वृ पर चढ़ जाती ँ । कहीं भागने की आव कता ही नहीं
रहे गी।’
‘चढ़ पायगी।’
‘आपकी शंका अभी िनमूल करती ँ ।’ सीता उ ाह से हँ सते ए बोलीं। िफर
जोड़ा- ‘अब वन म कुलवधू बनकर तो रहा नहीं जा सकेगा।’
उ ोंने ल ण से कुठार लेकर अपनी धोती की कमर म पीछे की ओर घुरस ली।
प ू को भी खींच कर कमर म घुरसा, िफर पास ही के एक पेड़ की एक डाल को
उछलकर पकड़ िलया और लटक गयीं। िफर कुछ ही णों म वे एक ऊँची डाल के
ऊपर बैठी थीं। अब कुठार उनके हाथों म थी। उ ोंने खेल-खेल म ही बगल की एक
पतली डाल पर भरपूर वार िकया, डाल कटकर नीचे जा िगरी।
‘कल से म भी धोती आप लोगों की भाँ ित ही लाँ ग लगाकर बाँ धा क ँ गी।’ उ ोंने
हँ सते ए कहा। वे अपने दशन से संतु थीं। इस कुलवधू के जीवन ने उनकी
चपलता को कुंद नहीं िकया था।
राम और ल ण दोनों आ य से उनका यह दशन दे खते रहे ।
‘जाइये अब आप दोनों िनःशंक होकर मृगया के िलए जा सकते ह।’
दोनों भाइयों ने कुछ दे र वन म मृगया का आनंद िलया। सीता के कहने के बाद भी
राम पूणत: िनि ंत नहीं हो पाए थे। थोड़ी दे र म ही वे बोले-
‘पया हो गया ल ण, अब लौट चलते ह। सीता एकाकी होंगी, इस वन म उ
अिधक काल तक एकाकी छोड़ना उिचत नहीं है ।’
‘िकंतु ाता, अभी तो हमने मृगया की भी नहीं है ? ऐसा कीिजए, आप चिलये, म
भी शी ही आता ँ ।’
‘यिद तुम यही चाहते हो तो ठीक है । िकंतु अिधक िवल मत करना और अिधक
दू र तक भी मत जाना।’ ल ण को सावधान कर राम लौट आए।
राम जब लौटे तो सीता ने वृ के नीचे फलों का ढे र लगा िदया था। राम को आता
दे खकर वे भी नीचे उतर आयीं।
‘लीिजये, आपके आहार की व था कर दी मने।’ सीता ने इठलाकर कहा-
‘िकंतु ल ण कहाँ ह?’
‘ल ण का मन मृगया से इतनी शी कहाँ भरता है !’
‘तो िकसका आखेट िकया आपने?’ एक फल राम की ओर बढ़ाते ए सीता ने
िकया।’
‘िकसी का नहीं।’ राम ने सहज भाव से उ र िदया- ‘मा अपने ीड़ा-िवलास हे तु
िनरीह पशुओं पर हार करने का कोई अथ नहीं है और कोई िहं पशु िमला ही
नहीं। ल ण को यिद कोई िमल गया तो वे करके आते होंगे।’
ल ण शी ही नहीं लौटे । उ दो मु त का समय लग ही गया। इस बीच खाली
बैठे राम और सीता वनवास की अविध कहाँ और कैसे तीत करगे इस पर िवचार
करते रहे । इस िवचार-िवमश का िन ष यह िनकला िक य िप िपताजी की
आ ानुसार अंतत: तो द कार म ही िव ाम करना है िकंतु यिद माग म पड़ने
वाले सम ऋिष-आ मों म कते ए ऋिषयों का आशीवाद लेते ए चला जाए तो
उिचत होगा। भिव म ऐसा अवसर पता नहीं ा हो अथवा नहीं, यह अवसर
िमला है तो इसका सदु पयोग िकया जाए। इस म म िनि त आ िक आगे गंगा-
यमुना के संगम पर महिष भर ाज का आ म है , वहीं से आर िकया जाए और
वहीं महिष से आगे के आ मों की जानकारी ले ली जाए।
ल ण जब लौटे तो ेद- ात थे। उनके आते ही राम ने ता से िकया-
‘तुमने तो शी ही लौटने के िलए कहा था, यह शी है ? दो मु त से अिधक का ही
समय तीत हो गया है । हम अभी आगे भी जाना है ।’
‘ ाता! ोिधत ों होते ह?’ ल ण ने अपने ाभािवक खलंदड़े पन से धनुष
उतार कर पेड़ से िटकाते ए कहा- ‘हम अब चौदह वष मा समय ही तो तीत
करना है , शी ता अथवा िवलंब से ा अंतर पड़ता है ?’
‘तब भी समय का ान रखना तो आव क है ।’
‘अब छोिड़ये भी ...,’ सीता ने ह ेप िकया- ‘बैठो, थक गए होगे, पहले िव ाम
करो और कुछ आहार पाओ।’
ल ण बैठ गए।
‘आप लोगों ने हण िकया?’ उ ोंने िकया।
‘ये सामने पड़े िछलके ा कह रहे ह?’ सीता ने हँ सते ए ित िकया। सीता
के साथ सभी हँ स पड़े ।
बैठे-बैठे राम ने अचानक पुन: ल ण को वापस लौट जाने के िलए समझाना
आर कर िदया। य िप वे भलीभाँ ित जानते थे िक ल ण का उनके साथ जाना
िनयित ने िनि त िकया है , िकंतु िफर भी ेहवश वे ल ण को संकटों से दू र ही
रखना चाहते थे। िकंतु ल ण इसके िलए कदािप ुत नहीं थे। वे इस िवपि काल
म राम का साथ छोड़ने की सोच भी नहीं सकते थे, और िफर अभी तो यह वन-जीवन
उ रास ही आ रहा था। यह जीवन ब त कुछ गु कुल जीवन जैसा ही था अिपतु
उससे भी े , वजनाओं से मु , उ ु ; तब भला ल ण को रास ों नही
आता! राम कहते रहे , ल ण िनिल भाव से फलों को उदर थ करते ए सुनते रहे
जैसे राम उनसे नहीं िकसी और से कह रहे हों। फल समा करते ही वे उठे और
बोले-
‘चल ाता?’
‘म इतने समय से तु कुछ समझाने का यास कर रहा था ...?’
‘धृ ता मा ाता, िकंतु िनरथक कर रहे थे। आइये आगे बढ़, उिठये भाभी।’
सीता ल ण की िनिल भंिगमा दे ख-दे ख कर पहले ही मु ु रा रही थीं, उनके
इस उ र पर खुलकर हँ स पड़ीं। बोलीं -
‘अब थ म मत कीिजएगा हम दोनों म से िकसी को भी समझाने म।’
अब दु गम वन- ां त आरं भ हो गया था। यहाँ िह व -पशुओं का िमल जाना
ाभािवक था अत: राम ने तीनों लोगों के चलने का म िनधा रत िकया तािक सीता
की सुर ा सुिनि त की जा सके। आगे-आगे ल ण, बीच म सीता और पीछे यं
राम।
राि होने पर पुन: वहीं वृ ों से ा फलों का आहार िकया और वहीं ल ण ारा
घास और प ों से िनिमत शैया पर शयन िकया। एक िदन और तीत हो गया था।
दू सरे िदन, जब तक ये तीनों या ी महिष भर ाज के आ म म प ँ चे, स ा का
आगमन हो गया था। ऋिषवर ने उनसे वनवास की अविध अपने आ म म ही तीत
करने का आ ह िकया िकंतु राम ने िवन ता से उनका आ ह अ ीकार कर िदया-
‘ऋिषवर!’ रामने कहा- ‘आपका परामश उिचत है िकंतु यह े कोशल से
अिधक दू र नहीं है । कुछ ही समय म अयो ावािसयों को हमारे यहाँ होने की सूचना
िमल जाएगी और वे हम िलवाने यहाँ भी आ जायगे। म वनवास की अविध पूण होने
से पूव अयो ा कदािप नहीं लौट सकता।’
‘तो ा आ, अयो ावासी आ ही तो जायगे, बलात् तो आपको नहीं खाRच ले
जायगे!’ भर ाज हँ से और आगे बोले- ‘जब वे अयो ा म आपको नहीं रोक पाए तो
यह आ म तो िफर भी अ ंत दू र थ है ।’
‘िकंतु ऋिषवर, अयो ावािसयों के बार ार आगमन से वृथा ही आ म की शां ित
भंग होगी ... और बार ार जा के आ ह को अ ीकार करने म मुझे भी ेश
होगा और जाजनों को भी। िफर िपताकी आ ानुसार वनवास की अविध हम
द कार म तीत करनी है । आप माग के िवषय म हमारा मागदशन कर ... इस
कार िक हम माग म अिधकािधक ऋिषगणों का आशीवाद भी ा कर सक।
आप ही इस संबंध म हम उिचत परामश दे सकते ह।’
‘तब तो यो यही होगा िक आप लोग सव थम िच कूट के िलए थान कर।
उस मनोरम े म अनेक ऋिषयों के आ म ह। वहीं महिष वा ीिक का भी आ म
है । कुछ काल वहाँ ककर सभी ऋिषयों का आशीवाद ल। आगे अि मुिन का
आ म है , वहाँ अि मुिन और दे वी अनुसूया का आशीवाद ल और तब आगे
द कार के िलए थान कर।’
ात:काल भर ाज ने तीनों याि यों को भरपूर आशीवाद िदया और िच कूट तक
का माग समझा िदया।
या ा पुन: आरं भ हो गयी।
चलते-चलते ये लोग यमुना के तट पर प ँ च गए। उठा िक नदी िकस भाँ ित
पार की जाए। राम और ल ण के िलए यह कोई किठन काय नहीं था। किठन सीता
के िलए भी नहीं था, िकंतु अब वे इ ाकु वंश की कुलवधू थीं, नदी-संतरण उनके
प रधान और कुलवधू की मयादा के अनुकूल नहीं था। िफर भी सीता को यं पर
िव ास था िक वे सहजता से यमुना को पार कर सकती ह परं तु राम ने उ ऐसा
दु ाहस करने की अनुमित नहीं दी। तब?
इस तब का हल कोई किठन नहीं था। दोनों भाइयों ने पर र थोड़ा सा परामश
िकया और िफर सीता को वहीं कने को कह वन की ओर बढ़ गए। तट पर बचीं
सीता हाथ जोड़कर यमुना माता की ाथना करने म त ीन हो गयीं। वे जब से
अयो ा से िनकली थीं तभी से माग म पड़ने वाले ेक छोटे -बड़े दे व थान, ेक
मह पूण वृ , ेक नदी से हाथ जोड़कर सबकी कुशलता के िलए ाथना करती
चली आ रही थीं।
राम और ल ण कुछ ही दे र म ढे र सारी लकिड़यों, बाँ स और लताओं से लदे -
फँदे लौट आए। दोनों ने लाई ई टहिनयों और बाँ सों को लताओं से बाँ धकर एक
बेड़ा सा तैयार िकया। उस बेड़े पर खस की घास िबछा दी और उसके ऊपर जामुन
की पतली-पतनी टहिनयाँ और बत िबछाकर सुिवधाजनक आसन तैयार कर िदया।
दोनों ने ही एक-एक ल ा बाँ स पतवार के प म ले िलया। नौका तैयार थी। तीनों
उस पर सवार ए। धार के बीच म प ँ च कर सीता ने पुन: यमुना से कुशलता की
ाथना की और मनौती माँ गी।
यमुना पार कर, बेड़ा वहीं छोड़कर वे लोग आगे बढ़े । थोड़ी ही दू र पर उ वह
ाम-वट िमल गया िजसका उ ेख महिष भर ाज ने िकया था। सीता ने इस वट से
भी अपनी ाथना दोहरायी।
साँ झ हो आयी थी। ल ण आगे बढ़ना चाहते थे िकंतु राम ने िन य िकया िक इस
समय सीता के साथ आगे बढ़ना उिचत नहीं होगा। वन म राि तीत करना
अकारण संकट को आमं ण दे ना ही होगा। फलत: तीनों ने वन से फल बटोरे और
वापस यमुना के तट पर लौट आए। वहीं बैठकर लाए ए फलों का आहार िकया।
बेड़ा वहीं तट पर पड़ा ही आ था। सीता के लेटने के िलए वह पया था। ल ण ने
उनसे आ ह भी िकया िक वे उस बेड़े के िबछौने पर सो जाय िकंतु सीता ने अकेले
उस पर लेटना ीकार नहीं िकया। तीनों ने ही बालुका के नम-शीतल िबछौने पर,
सतक िकंतु िफर भी चैन की नींद ली। दोनों ही बला-अितबला के भाव से इतने
समथ थे िक सुषु ाव था म भी िकसी भी संकट का आभास उ तुरंत हो जाता और
वे जाग जाते।
परं तु कोई संकट नहीं आया, राि िनिव तीत ई।
33- िच कूट
सीता ने आज धोती लां गदार िविध से ही बाँ धी थी। इस िविध से प ू थोड़ा छोटा
अव पड़ रहा था िकंतु अब उनके पित और दे वर उनकी शारी रक चपलता पर
िच नहीं उप थत कर सकते थे। िनरीह अथवा अबला समझा जाना उ
ीकार नहीं था। सासों के सामने ल ा और मयादा का भान उनकी इस मन थित
को कुछ िशिथल कर दे ता था िकंतु यहाँ वन म ऐसी कोई िववशता नहीं थी ... यहाँ तो
वैसे भी िनरीह बनकर िनवाह संभव नहीं था। यमुना म ान के उपरां त जब वे पेड़
की ओट से व प रवतन कर वापस आईं तो राम उ दे ख कर मु ु रा िदए।
‘यह आव क था।’ उनकी मु ु राहट को ल कर सीता िकंिचत लजा गयीं
और सफाई दी।
‘मने कब िवरोध िकया। इस कार धोती बाँ धकर तो आप और भी सु र िदख
रही ह।’
‘वनवास म आपने चय- त का पालन करने की ित ा की है ।’ सीता ने
ितयक ि से िनहारते ए उ र िदया।
‘ रण है मुझे, िकंतु उस त म िवधाता की िनपुणता की शंसा करना विजत तो
नहीं है ।’
‘िवधाता की िनपुणता की ही शंसा कीिजए। इस े म िवधाता ने स ूण
मनोयोग से अपने नैपु का दशन िकया भी है , िक ु प ी पर मोिहत ि डालना
विजत है । यह ि मन म िवकार उ कर दे गी।’ सीता ने िचढ़ाया।
‘मेरे मन म अथवा आपके?’ राम ने भी कटा पूण िकया।
सीता ने मु ु राते ए मुँह िफरा िलया और धीरे से बोलीं-
‘दोनों के ही।’
‘नहीं, मुझे िव ास है , यं पर भी और आप पर भी। आइये अब थान हे तु त र
हों अ था सूयदे व तपने लगगे।’
तीनों या ी आगे की या ा पर बढ़ चले।
िच कूट पवत िन ंदेह अ ंत सुर दे श था। यह भले ही िमिथला के िनकट के
पवतों िजतना ऊँचा और िहमा ािदत नहीं था िकंतु इसकी ाकृितक सु रता िकसी
भी भाँ ित वहाँ से कम नहीं थी। स ूण दे श सघन वनों से ढँ का आ था। थोड़ी-थोड़ी
दू री पर अनेक ऋिषयों के छोटे -बड़े आ म थे। सभी आ मों के म म सबसे बड़ा
आ म महिष वा ीिक का आ म था। महिष वा ीिक ही इन सम आ मों के
स िलत प से कुलपित थे। पास ही म मंदािकनी नदी वािहत हो रही थी। कुछ
काल िनवास के िलए तीनों को ही वह थान सवथा यो तीत आ। तीनों या ी
आ मों के कुलपित महिष वा ीिक से आशीवाद लेने उस म के आ म की ओर
बढ़ चले।
राम ने वा ीिक को अपना तीनों का प रचय िदया और कुछ काल वहीं िनवास
करने की इ ा जताई। ऋिष ने उनका उिचत कार से ागत स ार िकया और
िनवास के िलए उनके ारा िच कूट का चयन करने पर हष िकया और सफल
मनोरथ होने का आशीवाद भी िदया।
ऋिषवर के साथ चचा आर हो गयी। तभी अक ात जैसे वा ीिक को कुछ
ान आया, उ ोने परामश िदया-
‘जब आपने यहाँ िनवास का िन य कर ही िलया है तो कुिटया के िनमाण का काय
भी आज ही स कर डाल। आज थर सं क (िजस िदन उ रा और िफर रोिहणी
न हों और रिववार भी हो। तीनों के इस मेल को वा ुशा के अनुसार गृहशां ित
के िलए अ ंत शुभ माना जाता है ।) मु त है , यह मु त आवास के िनमाण हे तु
अ ु म योग है ।’
महिष के परामश के अनुसार दोनों भाइयों ने िमलकर वा ीिक के आ म से
थोड़ी ही दू री पर उिचत थान का चयन कर वा ु के अनुसार टहिनयों और लताओं
आिद से कुिटया का िनमाण िकया। िफर गजकंद नामक एक िवशेष क के गूदे को
पकाकर िविधपूवक वा ुदेवता का पूजन और य कर तीनों ने कुिटया म वेश
िकया। वेश के उपरां त राम ने उस छोटी सी कुिटया म ही िवधानपूवक आठ
िद ालों के िलए बिल थलों और िविभ दे वों के थानों की थापना की।
***
राि म जब ल ण और सीता सो गए, राम को िवचारों ने आ घेरा।
उ पुन: गु दे व विश और िष िव ािम के संकेत याद आने लगे। उ
िव ु से वह िद भट भी याद आने लगी।
अब िविध ने उनके िलए जो काय े िनधा रत िकया है , उसम पूरी त रता से
उतरने का समय आ गया है ।
कैसे करगे वे यह दु र काय? रावण कोई साधारण नहीं है । अभी तक
उ उसके िवषय म जो भी सूचनाय ा ई ह, उनके अनुसार तो वह एक
अनुकरणीय है । िफर ा वे मा दे वों की मह ाकां ा का एक यं भर
बनकर रावण के िवनाश का उ े लेकर इस या ा पर आए ह? उ शंका घेरने
लगी ... िकंतु गु दे व विश पर उनकी अगाध आ था थी। वे अनीित के समथक
कदािप नहीं हो सकते। उ ोंने भी यिद दे वों की इस योजना का समथन िकया है तो
इसके पीछे कुछ न कुछ कारण तो होगा ही।
रावण के स ुख इस अव था म उनका अ ही ा है ? एक ितनका भर भी
तो नहीं। ल ण को तो इस या ा का वा िवक उ े ात है िकंतु ा इस िवषय
म सीता को बताया जा सकता है ? उनके िववेक ने उ र िदया- ‘नहीं! यिद गु दे व
और िष दोनों ने ही इसे िनषेध िकया है तो सीता से इस िवषय म कुछ भी कहना
उिचत नहीं है ।
तब? कैसे आगे बढ़ा जाए? ा िनयित के भरोसे ही सब छोड़ िदया जाए? ा
िनयित के भरोसे यं को बहने दे ना िकसी पु षाथ को शोभा दे ता है ? कदािप नहीं!
उ अंतत: द कार प ँ चना था और िफर वहाँ से लंका। िष ने उ मोटै
तौर पर द ूण दि णापथ का मानिच समझाया था। िव पवत को पार करते ही
द कार आर हो जाता था। वहाँ रावण की अ िवि बहन शूपनखा शासन
करती थी। परं तु वह तो मा कहने के िलए सा ा ी थी, वहाँ शासन तो खर-और
दू षण का था। वा व म द कार भरतभूिम पर र ों का गढ़ था। िष के
अनुसार वे स ा के मद म अनाचारी और अ ाचारी हो गए ह। रावण के िवपरीत वे
वहाँ के िनवािसयों पर बलात् र -सं ृ ित थोप रहे ह।
िक ु वे उनसे िकस भाँ ित िनपटगे? िष का िनदश है िक िद ा ों से
रिहत ित ी के िव िद ा ों का योग नहीं िकया जा सकता। वे िकतने भी
समथ हों िक ु मा दो खर-दू षण जैसे श शाली रा सों की पूरी सेना का
सामना िकस भाँ ित करगे? ा वहाँ की जनता उनकी उप थित मा से इतनी समथ
हो जाएगी िक उनका नाश कर सके? ... नहीं उ वहाँ की जनता म ाण फूँकने
पड़गे, उसे समथ बनाना पड़े गा। िफर महिष अग भी तो वहीं कहीं होंगे। वे भी तो
अपना काय कर रहे होंगे। वहाँ , उनके परामश से ही कत िनि त िकया जाएगा।
िनयित राह बनाती है , इस पर उ िव ास था। जब अिभषेक होते-होते अक ात
माता कैकेयी ने, उस माता ने जो उ भरत से भी अिधक ेह करती थी, िपता से
उनके वनवास का वर माँ ग िलया तब से उ िनयित के खेल पर और भी अिधक
भरोसा हो गया था। अिभषेक की सूचना िमलने पर उ तो तीत होने लगा था िक
गु दे व और िष के आकलन म कहीं ुिट ई थी। वे रावण का सामना करने के
थान पर अयो ा के शासक बनने जा रहे थे। गु दे व, िष ... दोनों और मूल म
नारद, इस कार तीनों का ही यह मानना था िक अयो ा के शासक के प म सेना
सिहत जाकर वे रावण को परािजत नहीं कर सकते ... िफर उनके अिभषेक का ा
ता य था? अचानक उनके मन म िवचार उठा िक ा माताओं को इस िवषय म
कुछ पूव-संकेत ह? ा नारद की योजना म वे भी स िलत ह? गु दे व ने िवशेष
प से िपता से कोई भी चचा करने से मना िकया था ... माताओं से नहीं!
िवचारों की ंखला का कोई ओर-छोर नहीं िमल रहा था। असं संदेह थे,
असं थे िकंतु उ र कोई नहीं था। उ यं ही सम ों के उ र खोजने
थे। िन ष िनकालना था और अपने ज के उ े को साथकता दान करनी थी।
ये सारे अनु रत स ूण राि उनके म को मथते रहे । अ त: उ ोंने
िनणय िकया िक वे अपना काय करते रह और िनयित को ... नारद को, अपना काय
करने द। वे ात: से ही िबना िकसी से सीधा िकए, इस े म र ों के अ
को खोजना, उनके बल को आँ कना आर कर दगे। िफर दे खगे िक ा करना है ,
और िकस कार करना है ।
िनणय पर प ँ चते ही उनके मन को शां ित ा ई। उ ोंने लेटे-लेटे ही मन को
िवचार-शू करना आरं भ िकया और कुछ ही काल म िन ादे वी ने उ अपनी
सुखकर गोद म सहे ज िलया।
***
ात:काल अपने चेहरे पर, गदन पर, व पर ... एक-एक कर टपकती पानी की
बूँदों ने राम को जागने पर िववश कर िदया। िफर भी उ ोंने आँ ख नहीं खोलीं,
अ िनि त अव था म ही हाथ से चेहरे पर पड़ी बूँदों को हटाने का यास करने लगे।
तभी जैसे आरती की घ याँ बजी हों, उ सीता का र सुनाई िदया-
‘आज ा भोर होनी ही नहीं है पितदे व?’
बरबस राम की पलक ऊपर उठीं। स ाता सीता उनके स ुख खड़ी
खल खला रही थीं। उनका मुख उनके गीले बालों से ढँ का आ था, जो उ ोंने पता
नहीं सुखाने के उ े से अथवा राम के साथ खलवाड़ करने के उ े से आगे की
ओर फैला रखे थे। उ ीं से टपक रहे जल-िब दुओं ने राम को जागने पर िववश
िकया था।
‘थोड़ा और सोने दो न!’ राम ने अलसाये र म अनुरोध िकया। ात: काल के
आसपास तो वे सोये ही थे।
‘नहीं! ...’ सीता िफर खल खलायीं- ‘अब नहीं, आँ ख खोलकर तो दे खए, िकतना
िदन िनकल आया है । आज एक कार से हमारा वनवास का थम िदवस है ...
आल िबखराकर इसका अपमान मत कीिजए।’
राम झटके से उठ बैठे। भले ही िवल से आई थी िफर भी कैसी िनि ंत नींद आई
थी! वे तो भूल ही गए थे िक अब वे वनचारी ह। बैठे-बैठे ही उ ोंने अपनी हथेली
सीता की ओर फैला दी।
‘नहीं, मैने अभी आराधना नहीं की है । अभी म आपका श नहीं कर सकती।’
सीता ने खल खलाते ए चुहल की- ‘पहले दै िनक ि याओं से िनवृ होकर ान
कीिजए।’
पर राम ने अपनी हथेली वापस नहीं खींची। बोले-
‘अब हम वनचारी ह। अब हम गाह जीवन के आडं बरों से मु ह। हाथ
पकड़कर उठाइये अ था म पुन: सो जाता ँ ।’ राम ने भी चुहल का उ र चुहल से
िदया।
‘आप भी न ...’ सीता ने कहा और उनकी हथेली थाम कर खींचने का यास करने
लगीं। राम ने उ ा उ ही ह ा सा झटका िदया। वे लड़खड़ा कर िगरने को ईं
िकंतु सँभल गयीं और बोलीं-
‘अब इतने भी उ ु नहीं हो गए ह हम! मयादा म रिहए, वनवास की अविध म
आपने अपनी प ी के साथ मयािदत रहने का भी ण िलया है ।’
राम िठठक गए। इस बार सीता के खींचने से वे मु ु राते ए खंच आए और
उठते ही िन -ि याओं से िनवृ होने चले गए। जाते-जाते उ ोंने िकया-
‘ल ण कहाँ है , िदख नहीं रहा?’
‘वे तो मुझसे भी पूव ही िनवृ हो चुके ह। अब फलाहार की व था करने गए
ह।’
‘ओहऽऽ!’ राम ने इतना ही कहा और चले गए।
***
‘अब?’ ल ण ने िकया।
सब लोग िन -ि याओं से िनवृ हो चुके थे। ल ण ारा लाया गया फलाहार भी
उदर थ कर चुके थे। सीता और ल ण अलसाये से बैठे थे राम एक बार पुन:
िच न म िनम थे। खाली बैठे ल ण के मन म यह ाभािवक ही था िक अब
ा करना है । मनु का मन भी ऐसा ही अजीब होता है , जब होता है तो उस
ता का अंत चाहता है और जब पूरी तरह खाली होता है तो होने को
तरसता है । ल ण भी यिद अयो ा म होते तो िकतने ही काय उनकी सि यता की
बाट जोह रहे होते, िकंतु यहाँ तो कोई काय था ही नहीं।
‘ता य ा है तु ारा?’ ल ण के ने राम को उनके िच न से बाहर खींच
िलया। उ ोंने सहज प से ित िकया।
‘यहाँ तो करने को कुछ है ही नहीं। इस कार खाली बैठे िदवस कैसे तीत
होगा?’
‘करने को है ों नहीं? इतना िवशाल अ हीन वन है । समीप ही वािहत
मंदािकनी है । सबकी सुषमा का आनंद लो। स ूण े को जानने-समझने का
यास करो। स ूण चौदह वष भी इसी म लगे रहोगे तो सारा नहीं जान पाओगे।’
राम ने मंद हा के साथ कहा।
‘स कह रहे ह ाता! म इसी म जुटता ँ ।’ ल ण उ ाह म भरकर खड़े हो
गए- ‘म जा रहा ँ ।’
‘और .... और े म र ों की गितिविधयों की टोह लो।’ राम ने जोड़ा।
‘और आप ा करगे?’ चलते-चलते ल ण ने पूछा।
‘म सव थम यहाँ के आ मों की प र मा क ँ गा। मुिनयों से वाता कर यहाँ की
प र थितयाँ समझूँगा।’
‘एकाकी भाभी ा सुरि त होंगी यहाँ ?’ ल ण ने िचंता की।
‘मुझे अबला भी मत समझ दे वर जी!’ सीता ने व मु ान के साथ कहा- ‘श ों
से खेलने का मुझे भी पया अ ास है । िकंतु अभी तो सव थम म रसोई की
व था क ँ गी। इस कार मा क मूल का आहार कर कब तक रहा जा सकता
है भला!’
‘तो हम िनि ंत रह, आप अपनी सुर ा कर लगी?’
‘आप पूणत: िनि ंत रह, यहाँ तो मुिनयों का वास है ... यहाँ िकस बात का भय?’
‘द कार यहाँ से ब त दू र है िफर भी ा पता उनके कुछ दल भूले-भटके
यहाँ भी उ ात मचाने आ जाते हों!’
ल ण की बात ने राम के िचंतन को एक बार िफर झकझोर िदया।
‘तो ऐसा करो न तुम, मा वनों म िवहार के अित र िनकटवत ब यों म भी
स क थािपत करने का यास करो और र ों के आवागमन की सूचनाय एक
करो। म अिधक दू र न जाकर ऋिषयों से इस िवषय म वाता करता ँ ।’
‘यही उिचत होगा ाता।’ ल ण उ ािहत हो उठे । वे भावत: ही रोमां चि य
थे। उनके मन म अभी से र ों से मुठभेड़ और उ पददिलत करने के साकार
होने लगे थे।
राम और ल ण अपने-अपने उ े लेकर मण पर िनकल गए तो सीता ने
रसोई की व था सोचना आरं भ िकया। पाककला म वे िन ात थीं िकंतु चू ा
बनाने का उ कभी अवसर नहीं िमला था। ऊपर से वहाँ जो िम ी उपल थी वह
लाल रोड़ीदार-भुरभुरी िम ी थी जो ठीक से िटक ही नहीं रही थी। िकसी कार
उ ोंने थोपथाप कर एक चू ा तैयार िकया। चू ा तैयार होते ही दू सरा सामने
था। अभी पकाने के िलए य िप कोई साम ी नहीं थी िकंतु पकाने के िलए पा ों की
आव कता तो होगी ही? भोजन खाने के िलए तो प ों का उपयोग िकया जा सकता
था िकंतु पकाने के िलए ... जल लाने के िलए ... उसके िलए भी तो पा की
आव कता थीr। हर बार ास लगने पर म ािकनी तक दौड़ कर तो नहीं जाया
जा सकता!
सीता इसी िवचार म पड़ी थीं िक ार पर एक अधेड़ मिहला ि गोचर ई। सीता
ने बाहर िनकल कर णाम िकया और प रचय पूछा।
मिहला ने बताया िक उसका नाम सुचेता है और वह महिष वा ीिक के आ म म
िनवास करती है । महिष ने ही उसे यह जानने के िलए भेजा है िक िकसी सहायता की
आव कता तो नहीं है ?
सीता को तो सहायता की आव कता थी ही िकंतु उ अपनी सम ा कहते ए
ल ा भी आ रही थी। परं तु आव कता ल ा से अिधक बलवती िस ई। उ ोंने
अपनी सम ा कट करना ही उिचत समझा-
‘दे वी! म भोजन पकाने के िलए चू ा बनाने का यास कर रही थी िकंतु मुझे
बनाना आता नहीं, सो वह ठीक से बन ही नहीं रहा।’ सीता ने अपनी पहली सम ा
भा से आ गयी उस सहयोिगनी के सम ुत की।
‘दे खूँ तो तिनक ...’
सीता ने सुचेता को कुिटया के भीतर आने का माग दे िदया और चू ा िदखाया।
‘यह तो पा रखते ही धसक जाएगा। मेरे साथ आ म चलना म तु आव क
साम ी दे दू ँ गी।’ िफर कुछ सोच कर वह हँ सीं और बोलीं- ‘िकंतु उिचत होगा िक
साम ी लाकर म यं ही बना दू ँ । मुझे चू ा बनाते दे खकर तुम यं भी सीख
जाओगी।’
‘अ ंत उपकार होगा आपका माते!’ सीता के मुख पर बरबस एक संतु मु ान
खेल गयी।
‘और बताओ ...’ सुचेता ने भी मु ु राते ए पुन: िकया।
‘कुछ पा ों की आव कता होगी। जल भरने के िलए, भोजन पकाने के िलए ...’
‘उनकी भी व था हो जाएगी, चलो मेरे साथ।’
‘िकंतु मेरे पित और दे वर न जाने कब आ जाय। आज हमारा थम िदवस है यहाँ ,
मुझे अनुप थत दे खकर वृथा िच त होंगे वे।’
‘बात तो तु ारी उिचत ही है । िकंतु यह कोई सम ा नहीं है , हम थोड़ी दे र
बैठकर बात करती ह ... एक-दू सरे का प रचय ा करती ह, तब तक वे लोग भी
आ जायगे।’
और वे दोनों बितयाने लगीं। थोड़ी ही दे र म सीता को ऐसा लगने लगा जैसे सुचेता
उनके घर की ही कोई बुजुग मिहला हो। म ा म जब तक राम और ल ण लौटे ,
सीता उ अपने िवषय म सभी कुछ बता चुकी थीं।
सुचेता को यह जानकर हािदक क आ िक ऐसे सुपूिजत राजवंश की क ा और
इतने महान राजवंश की वधू इस भाँ ित असहाय सी वन म भटक रही है , िकंतु उसने
इस पर कोई िट णी नहीं की। उसने सीता को आ ासन िदया िक कोई भी क हो,
िबना िकसी संकोच के आ म म आकर उससे सहायता माँ ग सकती ह। सीता को
इस िनजन वन म और चािहए ही ा था! वे स हो उठीं।
राम पहले लौट आए थे। उनके कुछ ही काल बाद ल ण भी अपने उ रीय म ढे र
सारे ािद फल लेकर आ गए। सबने उन फलों का आहार िकया। सीता ने
हठपूवक सुचेता को भी कुछ फल खलाये और िफर राम से अनुमित लेकर उसके
साथ चली गयीं।
सीता जब चली गयीं तो राम ने ल ण से कहा िक दू र से ही इन दोनों पर इस
कार ि रख िक वे जान न पाय, और यह सुिनि त कर िक वह ी उ आ म
ही ले जा रही है । अभी सीता आ म म िकसी को पहचानती नहीं ह, अत: सचेत
रहना आव क है ।
बात सही थी। कुिटया से कुछ ही दू र पर वृ ों का एक झु था। ल ण वहाँ
प ँ चे और एक ऊँचे वृ की डाल पकड़ कर लटक गए। एक ही झटके म वे वृ के
ऊपर थे। उस घने वृ के प ों म वे िकसी को िदखाई नहीं दे सकते थे।
वे दे खते रहे , कोई छल नहीं था। वह ी स ही सीता को लेकर म के आ म
म वेश कर रही थी। िकंतु ल ण ने इतने से ही संतोष नहीं िकया, वे उनके लौटने
की ती ा करते रहे । समय लगा िकंतु अिधक नहीं। उ सीता और सुचेता लौटती
िदखाई दीं। सीता के दोनों हाथों म एक-एक छोटी मटकी थी। सुचेता ने एक हाथ म
एक बड़ी मटकी थाम रखी थी और दू सरे म मटिकयों को ढाँ कने के िलए िसरवे।
ल ण अभी भी वृ पर ही बैठे रहे ।
जब दोनों याँ कुिटया म वेश कर गयीं तब वे धीरे से उतरे और दू सरी ओर से
च र काटते ए कुिटया म वेश िकया।
उनके वेश करते ही सीता बोलीं-
‘अरे कहाँ चले गए थे दे वर जी? म तो आपको ही दे ख रही थी।’
‘आदे श कर भाभी!’
‘तिनक इस मटकी म जल तो भर लाइये।’ सीता ने बड़ी वाली मटकी की ओर
संकेत करते ए कहा।
ल ण ने दे खा वहाँ पया मा ा म भूसा िमली िम ी पड़ी थी। िनि त ही वह इसी
मटकी म रही होगी। दो-तीन कु ड़ भी रखे ए थे, वे भी िनि त ही िकसी न िकसी
मटकी म रहे होंगे। वे मु ु राये, भाभी चू ा बनाने की तैयारी कर रही थीं। इसका
अथ था िक उ पूरा वनवास काल मा फल खाकर ही नहीं तीत करना होगा!
उ ोंने कुछ चुहल करनी चाही, िकंतु सुचेता के सामने कुछ कहना उिचत नहीं
होता, अत: मटकी उठाई और मंदािकनी की ओर बढ़ चले।
चू ा बनाने का काय जल आ जाने के बाद ही आरं भ हो सकता था। उस बीच
सीता और सुचेता िफर बितयाने लगीं। धीरे -धीरे उ ोंने राम को भी अपनी बातों म
स िलत कर िलया। बातों ही बातों म सुचेता ने राम को बताया िक पास म ही भीलों
का एक ब त छोटा सा ाम है वहाँ से आव कता की सभी कार की साम ी ा
हो जाती है ।’
‘िकंतु ामवािसयों से कुछ भी य करने के िलए मू भी तो चािहए होगा?’ राम
ने िववशता से कहा- ‘हमारे पास तो कुछ भी नहीं है दे ने को।’
‘हम आ म वािसयों के पास ही कौन सी मु ा रखी है उ दे ने को!’ सुचेता ने
हँ सते ए उ र िदया- ‘ ामवासी सरल भाव के ह और तप ों के ित उदारभाव
रखते ह, वे हम लोगों से िकसी भी व ु का मू नहीं लेते, मा आशीवाद की
कामना करते ह।’
‘दे वी! ामवािसयों से मू चुकाए िबना कुछ भी ा करना दान हण करने के
समान ही तो होगा? आपकी और हमारी थित म अ र है । आप स ासी ह, ा ण
ह, दान हण करना आपको अनुम है ; िकंतु हम तो ि य ह, ामवासी भले ही
तप ी समझकर हम िनःशु व ुय दान करना भी चाह िकंतु हम उनसे दान
िकस कार हण कर सकते ह?’
‘उसी कार, िजस कार अभी आपकी प ी ने मुझसे ये घट हण िकये ह।’
सुचेता ने मु ु राते ए कहा, िफर गंभीर र म आगे जोड़ा- ‘यह दान नहीं है , यह
िवपि काल म िकसी अपने की सहायता है । आप भी अपने कार से आव कता
पड़ने पर उन ामवािसयों की सहायता कर सकते ह। आप ि य ह, शूरवीर ह,
िकसी भी संकट म उनकी सुर ा कर सकते ह।’
‘वह तो ि य होने के नाते मेरा दािय है । वे इस किठन समय म हमारी कोई
सहायता कर अथवा न कर, उ यिद सुर ा की आव कता होगी तो राम और
ल ण उससे िवरत नहीं रह सकते।’
‘तो यह भी जान लीिजए िक भले ही वे ामवासी आपको पहचानते नहीं होंगे ...
यह भी नहीं जानते होंगे िक यह े िकस रा की सीमा म आता है िकंतु
वा िवकता तो यही है िक यह े भी कोशल की सीमा म ही आता है । आप कोशल
के राजकुमार ह, जा यिद अपने मन से राजा को उपहार दे ती है तो उसे ीकार
करना राजा का धम है ।’
‘आपने ही कहा दे वी िक वे हम पहचानते नहीं। वे अपने राजकुमार को नहीं एक
तप ी को ही उपहार दगे ... उपहार नहीं व ुत: दान ही दगे।’
‘कुमार!’ सुचेता धीरे से हँ सी- ‘मन को िमत ों कर रहे ह आप? जब आप
अपने ि य-धम की मयादा ीकार कर रहे ह, तो जा का उपहार हण करने म
संकोच ों? दू सरी ओर यिद यं को तप ी मान रहे ह तो दान लेने म संकोच
ों? युवराज होते ए भी व ुत: इस समय आप तप ी ह। िजस भाँ ित आपका
कत दु बलों को सुर ा दान करना है उसी भाँ ित गृह थों का कत तप यों
दान दे ना है । आप यिद उनका दान ठु करायगे तो उनके दय को ेश होगा। ...
अथवा कह तो आपकी पहचान उनके स ुख उजागर कर दू ँ , सारे संशय िमट
जायगे।’ कहते-कहते सुचेता मु ु रा उठी।
‘नहीं-नहीं ऐसा मत कीिजयेगा दे वी। िकंतु हम ि य कुमार ह। हम इ ाकु के
वंशज ह। हमने सदै व दान िदया है , िलया नहीं है । हम ...’
‘राम, वनवास काल म आपको यह भूलना ही पड़े गा िक आप अयो ा के युवराज
ह। आप ा भूल गए िक आपकी िवमाता ने ...’
‘मँझली माँ को राम की िवमाता मत किहए दे वी। उ ोंने कभी मुझे भरत से कम
ेह नहीं िदया।’ सुचेता ारा कैकेयी के िलए िवमाता श का योग राम को चुभ
गया था, वे हठात् उसकी बात काटते ए बोल पड़े ।
कुछ पल के िलए सुचेता हत भ सी राम की ओर दे खती रह गयी।
‘चिलये नहीं क ँ गी। िकंतु ...’
‘ मा कीिजएगा म पुन: बाधा उ कर रहा ँ , िकंतु आपको िकस कार ात
आ िक माता ने ा आ ा दी है ?’
‘आपने यं ही ऋिषवर को अपने वनवास का कारण बताया था।’ सुचेता
मु ु राती ई बोली।
‘िकंतु मने तो िपता का आदे श बताया था ऋिषवर को, जो िक वा िवक स है ।
माता ने तो मा िपता का आदे श मुझ तक प ँ चाया था।’ राम ने सरोष ि सीता पर
डालते ए कहा।
‘छोिड़ये इस िववाद को...’ सुचेता ने बात समा करते ए कहा- ‘इतना तो स
है िक आपको तप ी के प म यह समय तीत करने का आदे श आ है ?’
‘हाँ , यह तो स है ।’
‘तब आप इस स को ीकार करना ों नहीं चाहते? िपता के आदे शानुसार
आपको तप ी के प म ही रहना है । तप ी प का अथ मा वेश से ही नहीं
होता, आचरण से भी होता है ।’ कहते-कहते सुचेता पुन: धीरे से हँ स पड़ी।
‘िकंतु दे वी ...’ राम ने पुन: ितवाद करना चाहा िकंतु सुचेता ने उ बोलने का
अवसर ही नहीं िदया। हँ सते ए आगे बोली- ‘और आपको ा तीत होता है ,
स म िव ु के प म आपकी ाित यहाँ तक प ँ चेगी ही नहीं?’
‘दे वी! कैसी बात छे ड़ दी आप ने भी! िष ने राम के नाम के साथ अवतार का
ऐसा आडं बर जोड़ िदया है जो िनरं तर मुझे संकुिचत करता चला आ रहा है । जब भी
आ थावान नाग रक मुझे भु का प मानकर मेरे सामने नतम क होते ह तो म
संकोच से भूिम म समा जाना चाहता ँ । मुझे तीत होता है जैसे म उनकी आ था के
साथ छल कर रहा ँ ... उनके भोलेपन का दोहन कर रहा ँ !’
‘आप वृथा संकुिचत होते ह। आप ने तो कभी नहीं कहा िक आप ीिव ु के
अवतार ह ... आप भु ह। आपने तो सदै व इसका खंडन ही िकया है ।’
‘तो भी दे िव! इस िम ा धारणा का कारण तो म ही ँ ।’
‘अ ा एक क ँ आपसे?’
‘कीिजए!’
‘ ा आप इस स को नकार सकते ह िक हमारी आ था ही हमारी सबसे बड़ी
श होती है ?’
‘नहीं दे वी! कोई नहीं नकार सकता।’
‘तो िफर यिद उनकी आ था उ जीवन की िवषमताओं से लड़ने की श दे ती
है ... तो आप उनसे उनकी यह श ों छीनना चाहते ह।’
‘दे वी आ था तो आ था होती है । उस अनािद, अनंत पर म आ था होनी
चािहए, न िक िकसी न र ाणी म। उस भु म आ था होनी चािहए जो सबका
कारण प है , सबकी श का मूल ोत है ... न िक उस म जो यं
उसीकी श से अनु ािणत है , उसके खेल का एक मोहरा भर है ।’
‘राम! सदै व परो से अिधक ेरणादायी होता है । आप - प
ह अपने अनुयािययों के िलए। वह पर तो उनके िलए एक क ना जैसा है ...
िजसे उ ोंने दे खा नहीं, अनुभव नहीं िकया ... िजसके िवषय म उ ोंने मा िव ानों
से सुना भर है । वह उ उस कार ेरणा कैसे दे सकता है , जैसे उप थत
आप दे सकते ह? ... और यह ों भूल जाते ह िक आज आप जो स म िव ु के
प म थािपत ए ह, यह भी उसी पर का खेल ही है । उसीकी लीला है । यिद
वह न चाहता तो ा आप लोगों के मन म इस कार थािपत हो सकते थे? ... लाख
उपाय कर लेते, लोग आपको उस प म ीकार नहीं करते।’
‘आपकी बात स है दे वी! िकंतु अपनी इस मनोदशा का ा क ँ ?’
‘इस पर िवजय पाइये। उस सावभौम स ा ने आपको िजस प म थािपत कर
िदया है , उसे उसका िनणय मानकर ीकार कीिजए। उसकी इ ा का स ान
कीिजए।’
‘मेरा मन नहीं ीकार कर पाता, और िववशता है िक म लोगों की इस भोली
आ था का ितकार भी नहीं कर पाता। मेरे िवरोध को लोग मा मेरी िवन ता मानते
ह और उनकी आ था और भी बलवती हो जाती है ।’
‘यही िनयित है । यही उस परम भु का खेल है । उससे लड़कर आप कुछ भी ा
नहीं कर पायगे। उसकी इ ा के सम पूण समपण ही एकमा माग है , उसीका
अनुकरण कीिजए। आप भी लोगों की आ था को ीकार कीिजए।’
‘ यास क ँ गा दे वी! और कोई उपाय भी तो नहीं िदखता।’
‘याद र खए िक लोगों की यही आ था आपको अपने उ े की ा कराएगी।’
सुचेता के इन श ों ने राम को आ ोिलत कर िदया- ा इ भी स का भान
है , ा इ भी नारद की योजना की भनक है ? िकंतु उ ोंने कुछ पूछा नहीं।
उधर सुचेता कहे जा रही थी- ‘राम, आप दे खगे िक आप की उप थित मा इन
िनरीह यों को िकस कार ऊजा से भर दे गी। आप दे खगे िक आपकी
उप थित मा इ बड़ी से बड़ी श से भी टकरा जाने और उसे कर दे ने
का साहस और साम दे गी। आ था की श का िव ोटक कटीकरण आपने
अभी दे खा ही कहाँ है !’
िवचारम राम मौन सुनते रहे । सुचेता कहती रही-
‘िफर आपको उस अन -अिवनाशी ने कुछ सोचकर ही इस उपािध से िवभूिषत
करने का खेल रचा होगा! ... और ा आपको उसने इस यो नहीं बनाया है ? ा
उसने आप दोनों भाइयों को इतनी श दान नहीं की है िक आप इस वृहद
उ े की ा कर सक?’
‘बनाया है दे वी, जो भी बनाया है ... उसीने तो बनाया है ।’
‘तो िफर उसकी इस िनिमित का आदर कर। संकुिचत होने के थान पर अपनी
इस भुता का सव थम यं स ान कर ... वही उस भु का भी स ान होगा।’
‘दे वी! एक है ?’ अक ात राम पूछ बैठे।
‘तो पूछते ों नहीं? को मन म दबाकर नहीं रखना चािहए।’ सुचेता ने
मु ु राते ए उ र िदया।
‘राम के िव ु प के िवषय म यहाँ आ मों म ा चचा है ? उ अवतारों की
मा ता पर िकतना िव ास है ?’
‘आ मों म इस चचा के िवषय म सभी को ात है ...’ सुचेता मु ु राती ई बोली-
‘िकंतु ऋिषगण िव ु की वा िवकता से प रिचत ह। वे मुख दे वता के प म
िव ु का स ान करते ह। य ों म उ िविधवत ह भी समिपत करते ह, िकंतु वे
जानते ह िक िव ु का ित प नहीं ह अत: उनकी आपके अवतारी-पु ष वाले
प पर आ था नहीं है । वे यह भी मानते ह िक आपका आगमन दे वकाय हे तु आ
है । वे इस काय म आपकी सहायता भी करना चाहते ह िकंतु वे सभी भी तप ी ह।
वे आपकी सहायता के िलए कोई सि य योगदान नहीं दे पायगे।’
‘ओह!’ राम ने एक संतोष की दीघ ास ली- ‘उनकी सहायता की आव कता
भी नहीं है अभी। संतोष तो इस बात का है िक वे मुझे सामा पु ष ही मानते ह।
उनके साि म मुझे अकारण संकुिचत नहीं होना पड़े गा।’ कहकर राम धीरे से हँ स
पड़े ।
सुचेता ने भी हँ सी म उनका साथ िदया।
‘एक ाथना और है दे वी!’ कुछ पल ककर राम ने पुन: िनवेदन िकया।
‘वह भी िन ंकोच कह डािलए!’
‘आ मवासी अपनी ओर से ब यों म मेरे अवतारी प की चचा न कर। ये
सामा जन जब तक इस लोकापवाद से अनजान बने रहगे वे मुझसे सहजता से िमल
पायगे।’
‘िनि ंत रिहए आप। िजस त पर आ मवासी यं िव ास नहीं करते उसके
सार म वे सहायक कदािप नहीं बनगे। जब कभी कोई आपका भ इस ओर
भटकता आ आ लगेगा तभी ये लोग आपके अवतारी प के िवषय म जान
पायगे।’ सुचेता ने हँ सते ए आ ासन िदया।
राम के िसर से मानो एक बड़ा बोझा उतर गया।
सीता चिकत-िव त सी इस वातालाप को सुन रही थीं और राम सोच रहे थे िक
मने अकारण ही इस िवदु षी पर शंका की थी।
तभी ल ण घट भरकर ले आये और सुचेता चू ा बनाने के काय म जुट गयी।
वह साथ-साथ सीता को समझाती भी जा रही थी।
***
‘कभी िकसी रा स से भट भी ई है तुम लोगों की अथवा यूँ ही उनका बखान
िकए जा रहे हो?’ ल ण ने खलंदड़े पन से, साथ बैठे युवाओं से िकया।
एक स ाह से भी कम समय म ही ल ण ने यं को आ म के वातावरण म
ढाल िलया था। वे अयो ा के समान ही यहाँ भी ात: िन कम से िनवृ होते ही
घूमने िनकल पड़ते थे। आ म के युवा स ासी उनके िम बन गए थे। पास की
ब यों म भी अनेक युवाओं से उनकी िम ता थािपत हो गयी थी। उनके भ
म िनि त ही चु कीय आकषण था और उनकी ल े दार धारा वाह बातों
म जादू । उस िदन भी वे िन की भाँ ित िनकल पड़े थे ब ी की ओर, आ म के
उनके नये बने िम , युवा स ासी उनके साथ थे। ब ी के एक अखाड़े म उनकी
चौपाल जमी थी। उसी चौपाल म रा सों की चचा िछड़ गयी। िछड़ ा गयी थी
ल ण ने अपनी चतुराई से िछड़वा दी थी।
‘नहीं, मेरी तो भट नहीं ई, िकंतु इतने सारे लोग जो कहते ह वे ा िम ाभाषण
करते ह?’ उस युवक ने, िजससे ल ण स ोिधत थे, उ र िदया। वह युवक थानीय
म शाला का सबसे िति त म था।
‘रा स अ ंत श शाली होते ह?’ ल ण ने उसकी बात पर ान न दे ते ए
दू सरा िकया।
‘हाँ !’
‘नरभ ी भी होते ह?’
‘हाँ !’
‘सं ा म भी पया ह?’
‘हाँ !’
‘यिद वे इतने ही श शाली ह तो िदन-दहाड़े खुलकर तु ारी ब ी पर
आ मण ों नहीं करते, रात म छु पकर ों करते ह?’
वह युवक गड़बड़ा गया।
‘पता है छु पकर वार कौन करता है ?’ ल ण ने पुन: िकया।
‘कौन?’
‘वह जो दु बल होता है । सबल को छु पकर वार करने की आव कता नहीं होती।
होती है ा?’
‘नहीं!’ उसे मानना पड़ा।
‘जब िकसी रा स से सामना होगा तो सारी बात हवा हो जायगी।’ उस युवक को
कमजोर पड़ता दे ख दू सरा युवक बोल पड़ा।
ल ण ठठाकर हँ स पड़े ।
‘मेरा नाम ल ण है । भूम ल पर िकसी रा स म इतनी साम नहीं जो ल ण
का सामना कर पाये।’
‘ब त दे खे ह ऐसी बड़ी-बड़ी बात करने वाले। अवसर आने पर ऐसे ही ढपोरशंखी
सबसे पहले दु म दबाकर भागते ह।’ उस युवक ने ख ी उड़ाने वाले अंदाज
म कहा।
‘ऐसा?’ ल ण िफर हँ से- ‘तुम सारे ही ब ी के सव े म हो?’
‘हाँ ह ... तो?’
‘शरीर भ्◌ाी खूब बनाया है ।’ ल ण ने भी हँ सी उड़ाने वाले अंदाज म शंसा की।
‘मा शरीर ही नहीं बनाया, श भी है । मिहष को भी पछाड़ सकते ह हम।’
युवक ने गव की।
‘दे खते ह। आओ परी ण हो जाए।’ ल ण चुनौती दे ते ए मु ु राये।
‘तुम लड़ोगे हमसे?’
‘ ों, भयभीत हो गए?’
‘भयभीत होना अर क ने नहीं सीखा।’ संभवत: उस युवक का नाम अर क था।
‘अभी तो रा सों के नाम से भयभीत हो रहे थे।’ ल ण ने पुन: उसे खजाया।
‘रा सों की बात अलग है । तुम आओ तो मैदान म, अभी आकाश िदखाता ँ ।’
‘अरे थ ही इतना म करोगे? पंजा लड़कर ही परी ण कर लेते ह।
‘जैसी तु ारी इ ा।’ अर क ने आ िव ास से कहा।
दोनों ने कुहिनयाँ वहीं भूिम पर िटका दीं। दोनों के पंजे आपस म जकड़ गए।
आरं भ म उस युवक ने ल ण को ह े म ही िलया िकंतु कुछ ही णों म उसे
आभास होने लगा िक सामने वाले के शरीर की मां सपेिशयाँ भले ही उसके समान
खूब िवकिसत ि गोचर नहीं होतीं, िकंतु उसकी श अिव सनीय है । उसके चेहरे
की मां सपेिशयाँ खंचने लगीं। ल ण अभी भी मु ु रा रहे थे। उ ोंने उसे एक बार
िफर िचढ़ाया-
‘श लगाओ िम , आनंद नहीं आ रहा अभी ... अ ा दोनों हाथ लगा लो अथवा
िम तुम भी आ जाओ।’ उ ोंने पहले वाले युवक की ओर संकेत िकया। वह युवक
पहले कुछ िझझका िकंतु अर क के म क पर झलक रहे ेद िबंदु और ल ण
के चेहरे की मु ान दे ख उसे तीत हो गया िक पलड़ा ल ण का ब त भारी है ।
उसने भी अर क की हथेली के पीछे अपने दोनों हाथ और उसके पीछे अपनी छाती
िटका दी।
ल ण अभी भी मु ु रा रहे थे। ऐसा तीत हो रहा था मानो वे यं धा म ह ही
नहीं, उनकी भुजा के थान पर कोई लौह-भुजा रखी है िजसके साथ वे दोनों युवक
श परी ण कर रहे ह और वे यं उस श परी ण का आनंद ले रहे ह।
कुछ ही दे र म दोनों के चेहरे लाल हो गए। पसीना चेहरे से टपककर भूिम पर
िगरने लगा िकंतु ल ण वैसे ही मु ु रा रहे थे मानो खेल कर रहे हों।
‘बस, यही साम है तुम लोगों की। छोड़ो आनंद नहीं आ रहा।’
उन दोनों को यह अपना अपमान लगा। दोनों ने पूरी ताकत लगा दी। ल ण ने
अब नया खलवाड़ िकया, धीरे से अपनी भुजा को एक झटका िदया। सामने वाले की
भुजा पतालीस अंश के कोण पर झुक गयी।
‘छोड़ो भी अब, िम ों म जय-पराजय नहीं होती।’ इस बार ल ण ने अपन भरे
र म कहा- ‘श है तुम लोगों म भी। बस एक बार अपने मन म छु पे इस भय
पी रा स को परािजत कर दो तो कोई रा स तुमसे नहीं जीत सकता।’
वे दोनों अचंिभत थे। ल ण की बात सुनकर पहले वाले युवक ने आँ ख उठाकर
ल ण से ि िमलाई। वा व म उनम िम ता की चमक थी। वह कुछ ढीला पड़ा।
ल ण ने उसके ढीले पड़ने का लाभ लेने का कोई यास नहीं िकया। उ ोंने अपनी
उँ गिलयाँ खोल दीं। उन दोनों ने भी अपने हाथ हटा िलये। दोनों ल त तीत हो रहे
थे।
‘आओ!’ ल ण ने उ आमंि त करते ए अपनी बाह फैला दीं। दोनों उनकी
बाहों म िसमट गये।
‘अरे सारे आओ न!’ ल ण ने सबको पुकारा। वहाँ उप थत सारे युवक बाह
फैलाकर आपस म िलपट गए।
‘आप लोगों को ा पृथक िनमं ण दे ना पड़े गा?’ ल ण ने अपने साथ आये
युवक ऋिषयों को भी आमं ण िदया।
‘इतनी अिव सनीय श कहाँ िछपाये थे िम ? मुझे तो तीत हो रहा है तुम
हमारे साथ बस खलवाड़ ही कर रहे थे। श तो तुमने लगाई ही नहीं। तु ारे
शरीर को दे खकर तो नहीं लगता िक इसकी शतां श श भी हो सकती है तुमम!’
‘मन म!’ ल ण ने सहजता से कहा- ‘और अपने आ िव ास म!’
‘कैसे करते हो इसे?’ अर क ने िकया।
‘सीखना चाहो तो िसखा दू ँ गा, िकंतु उसके िलए सव थम रा सों का भय मन से
िनकालना पड़े गा।’ कहते ए ल ण हँ स पड़े । िफर आगे बोले- ‘जब तक मन म
उनका भय बना रहे गा, श के िलए थान ही कहाँ बचेगा?’
उनकी बात पर सभी हँ स पड़े ।
‘िकंतु पहले सभी अपने नाम बताओ।’ ल ण ने पूछा।
सबने अपने-अपने नाम बताये- अरं धक तो था ही, शेष थे िवष र, भात, म ार,
िनशीथ, पवत, सोमे , मनज और इरावत। युवा ऋिषयों के नाम ल ण को पहले ही
ात थे। वे थे- रज , मनिसज, संघिम , दे विम , मं िस , िव दे व, बु ,
अर क, रस और स ि य।
दू सरे िदन से ही ल ण की क ाय आर हो गयीं। वे उनम आ िव ास
फूँककर उनके मन से र ों का भय िनकालने का यास करने लगे साथ ही उ
हठयोग की कुछ िविधयों और गदा, कटार और धनुष संचालन की सू तकनीक भी
िसखाने लगे। अपने इस नवीन काय- ापार से वे अ ंत स थे। उनका समय
आन मय तीत हो रहा था।
राम ऋिषयों से चचा कर र ों के िवषय म सूचनाय एक करने का यास कर रहे
थे। इस कार दोनों भाई सारे िदन रहने लगे थे। सारा िदन कुिटया से
अनुप थत रहते थे।
सीता की भी य िप आ मों की यों से पहचान बढ़ने लगी थी िकंतु वे कुिटया
को छोड़कर ाय: नहीं जाती थीं। ऐसे म कुिटया के बाहर फुलवारी लगाकर उसके
साथ अपना समय तीत करने का यास करती थीं। कभी-कभी अ आ मों की
याँ आ जाती थीं तो उसके साथ भी समय बीत जाता था। िकंतु िफर भी उनका
अिधक समय पित और दे वर की ती ा करने म ही कटता था। उ यह ती ा
खलने लगी थी। अंतत: एक िदन उ ोंने उलाहना दे ही िदया-
‘सीता के िलए इससे अिधक समय तो आपको अयो ा म िमल जाता था, यहाँ तो
आपका स ूण समय आ मों की प र मा म ही तीत हो जाता है ।’
‘आप स कह रही ह, िकंतु द कार के िलए थान करने से पूव म वहाँ की
प र थितयों के िवषय म अिधकािधक सूचनाय एक करना चाहता ँ , और ल ण
े वािसयों के मन से र ों का भय िनकालने का यास कर रहे ह। ा ये काय
आव क नहीं ह?’
‘म कब कह रही ँ िक आव क नहीं ह, िकंतु प ी के िलए भी कुछ समय तो
िनकाल ही िलया कर।’ सीता तुनक गयीं।
‘ कारा र से आपका आशय तो यही है ।’ राम ने मु ु राते ए छे ड़ा।
‘मेरा ता य यह कदािप नहीं है । आप अकारण मेरे कथन का िम ा िव ेषण
कर रहे ह।’
‘तो यं बताय िक आपका आशय ा है ?’
‘कुछ ऐसा उपाय कीिजए िक आप के काय भी होते रह और अपनी प ी को भी
आप पया समय दे सक।’
‘आप यं ही सुझाय न कोई उपाय, तो आपने ही उठाया है ।’
‘आप मुझे भी अपने साथ ले चला कीिजए।’
‘जैसा ािमनी का आदे श!’ राम ने सीता को छे ड़ते ए अिभनय पूवक उ र
िदया।’
उस िदन से सीता भी सदै व राम के साथ ही जाने लगीं।
***
ल ण ने सुदूर वनों म भी या ा करना आर कर िदया था। वन म भटक न जाय
इसके िलए उ ोंने एक िविध िनकाली थी- वे माग म बीच-बीच म पेड़ों की िनचली
शाखाओं म लताओं से बाँ ध कर कुछ िवशेष िच लटकाते जाते थे, जो सहजता से
ि म आ जाय।
राम और सीता भी आ मों के बाद अब िनकट की ब यों म मण करने लगे थे।
सीता का साथ राम के िलए व ुत: अ ंत सहायक िस हो रहा था। वे सहज ही
यों के म घुलिमल जाती थीं और र ों के िवषय म अनेक िव यकारी सूचनाय
साथ लेकर लौटती थीं। कोई ी बताती थी िक रा सों के बड़े -बड़े सींग होते ह।
कोई बताती थी िक वे मनु ों को अपने नखों से ही मार डालते ह और िफर उसे
क ा ही चबा जाते ह। पु ष भी ब त कुछ ऐसी ही बात बताते थे। परं तु ऐसा कोई
उ अभी तक नहीं िमला था िजसने रा सों को दे खा हो। रा सों ारा
मारे गये त-िव त शव तो अिधकां श ने दे खे थे िकंतु उनकी ह ा होते िकसी ने नहीं
दे खी थी।
ल ण ने सुदूर वनों म अपने मण म ऐसे संकेत दे खे िजनसे यह सहज ही
अनुमान लगाया जा सकता था िक कुछ संिद चोरी-िछपे वहाँ िवचरण करते
ह, िक ु िकसी संिद के दशन उ भी नहीं ए थे।
अपने इन मण काय मों म कुछ ही िदनों म उ आभास हो गया िक े म
र ों का आना-जाना तो है , िकंतु वे अभी खुलकर ब यों म आने का साहस नहीं
करते। एक राि जब ये तीनों वनवासी ा सूचनाओं का िव ेषण कर रहे थे तो
तीनों का साँ झा िन ष यही था िक वनों म इस कार घूमने वाले या तो र ों के
गु चर ह जो चुपचाप इस े म िवचरण करते ह अथवा कोई द ु आिद ह जो
कहीं कोई अपराध कर कुछ काल के िलए वन म आकर िछप जाते ह। रा सों के
िवषय म ब यों म जो वीभ वणन िबखरे ए ह, उनम ा अिधक है स कम
है । स कहा जाए तो उनकी क ना के रा स, भय का भूत से अिधक नहीं ह।
अब िवचारणीय यह था िक इस थित म यहाँ अिधक समय तक कना उपादे य
है अथवा आगे बढ़ना चािहए। ल ण का ाव था िक आगे बढ़ना चािहए। ल ण
के इस ाव पर सीता ने िकया-
‘परं तु अकारण द कार जाकर रा सों से िभड़ने की आव कता ा है ?
हम यहीं शां ितपूवक अपने वनवास की अविध ों नहीं तीत कर सकते?’
ल ण के िलए इस का उ र दे ना किठन था। भाभी को अिभयान के िवषय म
िकतनी सूचना दे नी है यह िनणय वे यं नहीं कर सकते थे। उ ोंने सहायता के िलए
राम की ओर दे खा।
‘माता ने आदे श दे ते समय प से द कार का उ ेख िकया था। अत:
मु प से तो हम अपना वनवास वहीं तीत करना है ।’
‘अथात् माता स ही यह चाहती ह िक द कार आपका समािध- थल बन
जाए? िफर भी आप सदै व उनका प लेते रहते ह।’ सीता के र म रोष
प रलि त था।
‘ऐसा नहीं है सीते!’
‘ऐसा कैसे नहीं है , सब कुछ तो ि गोचर हो रहा है । आप दे खना ही नहीं
चाहते।’
राम कुछ दे र मौन रहे । वे भी यही सोच रहे थे िक ा कर, सीता को बता द ा?
इतने िदनों म उ यह तो अनुभव हो ही गया था िक सीता के दय म भी ता के
िलए कोई थान नहीं है । वा िवकता जानकर वे िथत नहीं होंगी, उ ािहत ही
होंगी। अंतत: उ ोंने सब कुछ सीता को बता दे ने का िनणय ले िलया। इतना बड़ा
स उनसे आ खर कब तक गोपन रखा जा सकता था?
राम ने अपने िनणय पर अमल िकया।
जैसे-जैसे सीता सुनती गयीं, उनके ने आ य से फैलते गए। ... और अंत म उनके
मुख पर भी ल ण के समान ही रोमां च की उ ािहत त पसर गयी। वे उ ाह से
बोल पड़ीं-
‘ओह िकतना आनंद आएगा, इन र ों के दलन म!’ िकंतु दू सरे ही ण उनके ने
आ ोश से िसकुड़ गए- ‘िकंतु, इतना बड़ा स आपने इतने िदन सीता से िछपाये
रखा? ा सोचा था आपने िक सीता भयभीत हो जाएगी स जानकर?’
‘अपराधी भूल के िलए मा ाथ है । दु बारा ऐसी भूल कदािप नहीं होगी।’ राम ने
अिभनयपूवक कान पकड़ कर कहा।
उनके अिभनय ने सीता का आ ोश धो डाला। वे खल खलाकर हँ स पड़ीं-
‘ऐसा है तो मा िकया।’ उ ोंने भी अिभनय पूवक उ र िदया।
अंतत: यह िन ष िलया गया िक दू सरे िदन आ मों के कुलपित महिष वा ीिक
से परामश िकया जाए और तभी कोई अंितम िनणय िलया जाए।
िकंतु दू सरे िदन यह संभव नहीं हो सका।
34- दशरथ का महा याण
चेत आते ही दशरथ राम को सामने न दे खकर पुन: िथत हो उठे और राम!
राम! िच ाने लगे। दािसयों ने बताया िक राम तो चले गए। तब िकसी कार दािसयों
की ही सहायता से वे ासाद की छत पर चढ़ गये, कैकेयी को उ ोंने यं को श
भी नहीं करने िदया।
ासाद की छत से उ दू र जाता आ राम का रथ िदखाई पड़ा। वे बड़ी दे र तक
िव ल राम को टे रते रहे िकंतु उनका ीण र ासाद के नीचे तक भी नहीं प ँ च पा
रहा था, उतनी दू र राम तक कैसे प ँ चता! उस पर भी राम के चारों ओर इतना
कोलाहल था िक िनकट थ की पुकार भी समझ म नहीं आती थी। दशरथ की
आत पुकार िकसी ने नहीं सुनी। कोई सुनता भी तो कैसे, सभी का तो पूरा ान वन
के िलए थान करते ए राम की ओर था। सभी का म तो इस िचंतन म
था िक िकस कार राम को रोका जाए अथवा िकस कार यं भी उनका अनुसरण
िकया जाए?
धीरे -धीरे राम का रथ दशरथ की ि से ओझल हो गया। मन और शरीर दोनों से
टू टे दशरथ, हताश हो वहीं बैठ गए। बड़ी दे र तक वे वहीं बैठे रहे । उ न चटक धूप
का आभास हो रहा था न ही अपनी थित का। मंथरा और कैकेयी का
साहस नहीं हो रहा था उनके पास आने का। उ तो दे खते ही दशरथ और अिधक
उि हो उठते थे। अंतत: कुछ दािसयों ने साहस कर उ जल लाकर िदया।
अनजाने ही उ ोंने जल का पा थाम िलया और जल पी िलया। जल पीकर उ
कुछ चेत आ तो उ ीं दािसयों ने थोड़ा और साहस िदखाते ए उ उठाने का
यास िकया। दशरथ उठे और आदे श िदया-
‘मुझे महारानी कौश ा के ासाद म ले चलो। इस कुलटा का म मुख भी नहीं
दे खना चाहता अपने जीवन म।’
दािसयों ने व था की। कुछ सेवकों की सहायता से महाराज नीचे उतरे और रथ
पर बैठ कर कौश ा के ासाद की ओर थान कर गए।
कैकेयी एक बार पुन: अपने उसी क म अवस सी पड़ी ई थी। उसे भूख-
ास, अ ा-भला िकसी भी कार की कोई अनुभूित नहीं हो रही थी।
***
कौश ा के ासाद म कौश ा और सुिम ा िथत बैठी ई थीं, उिमला अपने
दय पर प र रख उ सँभालने का यास कर रही थी। तभी अचानक एक दासी
दौड़ती ई आई और सूचना दी-
‘महारानी जी! महाराज का रथ ासाद के ार पर है । महाराज आ रहे ह, ... और
... और ... उनकी अव था अ ंत शोचनीय तीत हो रही है ।’
कौश ा और सुिम ा दोनों ही अपनी पीड़ा भूल गयीं और महाराज को िलवाने के
िलए सीिढ़यों की ओर बढ़ीं। दोनों जब तक नीचे प ँ चीं सारथी ने रथ ासाद के
िवशाल वेश- ार से भीतर लाकर अितिथ-क के ार पर लगा िदया था। दशरथ
रथ से उतर चुके थे और अितिथ-क की ओर जाने के थान पर सीिढ़यों की ओर
बढ़ने का यास कर रहे थे। वे यं को कौश ा का अपराधी मान रहे थे और उनसे
मा की याचना करना चाह रहे थे।
कौश ा को दे खते ही दशरथ क गए। उनके हाथ यमेव जुड़ गए। उनके
मुख से मा- ाथना के अ ु ट से श िनकले और आँ खों से अ ुधारा वािहत हो
चली।
कौश ा के पास आते ही वे उसके चरणों की ओर झुकने लगे। कौश ा ने उ
बीच म ही थाम िलया-
‘महाराज यह ा कर रहे ह? इस अभािगनी के चरणों म झुककर ों इसके
िलए नक का ार खोल रहे ह?’
‘महारानी ....’ दशरथ ने कुछ बोलना चाहा िक ु वाणी ने साथ नहीं िदया।
कौश ा और सुिम ा दोनों ने एक-एक ओर से सहारा दे कर उ अितिथक म
ले जाकर पयक पर िलटा िदया और यं उनके पैताने बैठकर उनके पैर दबाने
लगीं।
‘जीजी आप उधर जाकर उनका िसर सहलाइये।’ सुिम ा ने कौश ा को सलाह
दी। कौश ा ने वैसा ही िकया। वे दशरथ के िसरहाने भूिम पर ही बैठ गयीं और
उनका िसर सहलाने लगी।
सेवकों को आदे श िदया गया िक गु दे व और राजवै को महाराज की थित की
सूचना दे ते ए अिवलंब आने का आ ह िकया जाए।
आदे श ार से झाँ कते रथ के सारथी ने भी सुना। उसने सेवकों को राजवै के
िनवास की ओर जाने को कहा और यं रथ को घुमाकर गु दे व के आ म की ओर
मोड़ िदया। आ म साद से पया दू र था, सेवकों को वहाँ तक जाने म और गु दे व
को लाने म पया समय लग जाता।
कुछ ही काल म गु दे व आ गए। वे राम के पीछे नहीं गए थे, अत: आ म म ही
िमल गए। सूचना िमलते ही वे चल पड़े । राजवै के आने तक उ ोंने महाराज की
नाड़ी परी ा की और ाथिमक उपचार िदया।
राजवै को भी अिधक िवल नहीं आ।
उ ोंने सेवकों से पूछकर ही महाराज की थित का आकलन कर िलया था और
आव क औषिधयाँ साथ ही लेकर आए थे। आकर उ ोंने िविधवत परी ण िकया
और औषिधयाँ दे दीं।
गु दे व और राजवै म पर र िवचार-िविनमय आ। दोनों का ही मत था िक
थित िचंताजनक है । औषिधयाँ शरीर को रोगमु कर सकती ह, उसे श दे
सकती ह िकंतु मन को रोगमु करने म वे एक सीमा तक ही सहयोग कर सकती
ह। मन को रोगमु तो की अपनी इ ाश अथवा समय ही कर सकता
है । दु भा से महाराज के पास इस समय, इन दोनों का ही अभाव लि त हो रहा था।
दोनों ही वयोवृ वहीं बैठकर काल के िनणय की ती ा करने लगे। वह िदन
िकसी कार महाराज खींच ले गए।
दू सरे िदन म ा होते-होते जब दू र तक राम के पीछे जाने के उपरां त, थके-हारे
आमा गण वापस लौटे तो उ भी महाराज की शोचनीय अव था की सूचना िमली।
वे सारे भी एक-एक कर कौश ा के ासाद म एक होने लगे।
‘मेरा राम कहाँ है ? तुम तो उसके रथ के साथ थे।’ अभी आए इन आमा ों म से
एक को पहचान कर दशरथ ने अ ु ट वाणी म िकया।
‘वे चले गए महाराज! हम सबने रोकने का ब त यास िकया िकंतु ...’
‘कुछ भी नहीं होता तुम लोगों से।’ हताशा म दशरथ के मुँह से िनकला और
उनका मुरझाया चेहरा और भी मुरझा गया। ऐसे ही धीरे -धीरे साँ झ ढली और िफर
रात उतर आई।
ात:काल होते-होते दशरथ की थित और भी िबगड़ चुकी थी। राजवै का कोई
भी उपचार थोड़ा सा भी लाभ प ँ चाने म समथ नहीं िस आ था। ात:काल
महाराज को कुछ चेत आ। गु दे व और राजवै के अित र सबके मुख पर थोड़ा
सा संतोष झलका।
चेत आते ही दशरथ ने कौश ा को दे खा। दे खते ही उनकी आँ खों से िफर आँ सू
बह चले।
‘यह सब उसी मुिन-प ी के शाप का ितफलन है ।’ दशरथ के मुख से अ ु ट से
श िनकले।
‘िकसके महाराज?’ कौश ा को कुछ भी समझ नहीं आया था।
‘आप नहीं जानतीं, हमारे िववाह के भी पूव की घटना है ।’
और िफर दशरथ ने टू टी-फूटी वाणी म, धीरे -धीरे कौश ा को, अपने ारा
अनजाने म ई वण कुमार की ह ा की पूरी कथा सुना दी।
‘उसने िचता पर रखे पु के शव पर िवलाप करते ए मुझे ाप िदया था िक िजस
कार हम अपने पु के िवयोग म तड़प-तड़प कर ाण ाग रहे ह, उसी कार तुम
भी एक िदन अपने पु के िवयोग म तड़प-तड़पकर ाण ागोगे।’
कौश ा और सुिम ा दशरथ को सा ना दे ने का यास करने लगीं।
गु दे व और राजवै के समझ म आ गया िक ों कोई उपचार साथक िस नहीं
हो रहा है । प र थितयों ने दशरथ की अंत ेतना को उस ाप की श पर ऐसा ढ़
िव ास िदला िदया था िक वह शरीर को कोई उपचार ीकार ही नहीं करने दे रहा
था। राजवै सोच रहे थे- काश! िकसी कार महाराज के मन से यह िव ास िमटाया
जा सकता!
राजवै ने गु दे व की ओर दे खा। गु दे व को दशरथ का वह आखेट रण हो
आया था। उ तभी से संदेह था िक कुछ तो अघिटत घिटत आ है िजसने दशरथ
को एकाएक आखेट का काय म बीच म ही रोक कर वापस लौटने पर िववश कर
िदया। (दे खए- पूव-पीिठका) िकंतु न तो कभी उ ोंने ही उसे जानने का यास
िकया था और न ही यं दशरथ ने िकसी को कुछ भी बताया था।
राजवै की ि के उ र म गु दे व ने नकारा क ढं ग से िसर िहला िदया। वे
दशरथ को स ोिहत कर उ िवपरीत भावना दे ने का यास कर सकते थे िकंतु वे
जानते थे िक स ोहन भी की ढ़ आ था को बदलने म समथ नहीं होता।
यिद दशरथ के पास पया समय होता तो वे उनकी इस आ था को भावना दे कर
धुँधला करने का यास अव करते िकंतु समय था ही कहाँ उनके पास! िदवस का
दू सरा हर आते-आते, दशरथ की आ ा न र शरीर को ागकर परमा ा म
िवलीन होने के िलए थान कर गयी।
वायुमंडल म चारों ओर घोर िवलाप तैरने लगा।
जो नगरवासी राम के वनगमन के समय महाराज को तरह-तरह से कोस रहे थे, वे
भी उनकी मृ ु से िवत थे। अब सबकी आलोचना का के -िब दु एकमा कैकेयी
बची थी और उसके साथ म मंथरा।
गु दे व अपने कत के िनवहन म लग गए। उ ोंने अिवल दू तों को भरत को
बुला लाने के िलए भेज िदया- इस िनदश के साथ िक यहाँ के इस घटनाच के िवषय
म वहाँ कुछ भी न बताया जाए, बस इतना ही कहा जाए िक महाराज ने अिवल
बुलाया है । वहाँ पर िकसी को कोई आशंका न हो इस िनिम सामा चिलत
राजकीय पर रा के अनुसार राज-प रवार के सभी सद ों के िलये यथोिचत उपहार
लेकर ती गामी अ ों से जुते रथों पर दू त थान कर गए।
दशरथ के शव को, भरत के आने तक के िलए, मसालों से िमि त िवशेष तैल म
संरि त कर िलया गया।
***
केकय म सब आ यचिकत थे िक अभी तो भरतािदक आए ही ह। ऐसा ा आ
जो महाराज दशरथ अक ात ही इतना शी उ वापस बुलवा रहे ह, िफर भी
िकसी ने आपि नहीं की। दू तों के प ँ चने के दू सरे ही िदन भरत और श ुघन को
चुर उपहारों और चुर सै के साथ अयो ा के िलए िवदा कर िदया गया।
35- भरत का आगमन
भरत और श ु को अयो ा आते ही जो कुछ दे खने और सुनने को िमला, उसकी
उ ोंने म भी आशा नहीं की थी। उ ोंने तो अ ंत स ता के साथ अयो ा म
वेश िकया था, िकंतु वेश करते ही उ तीत होने लगा िक कुछ ब त ही दय-
िवदारक का आ है । अयो ा के सदै व चहल-पहल से भरे रहने वाले माग सूने
पड़े ए थे। जो इ ा-दु ा नाग रक िदखाई भी पड़ रहे थे, उनके मुँह उतरे ए
थे। भरत को दे ख कर वे मुँह घुमा ले रहे थे। नाग रकों के इस अबूझे बताव से
िव त भरत और श ु का रथ राज ासाद प ँ चा। मा वी और ुतकीित भी
असमंजस म थीं।
ासाद के िवशाल वेश ार पर िनयु ह रयों ने भरत को दे खते ही िसर
झुकाते ए माग छोड़ िदया। िकंतु भरत ने रथ कवाया और एक हरी को बुलाकर
िकया-
‘िपताजी कहाँ होंगे इस समय?’
‘उधर, सामने मु भवन म दािहनी ओर थम क म!’ हरी ने हाथ से संकेत
करते ए बताया।
‘इन सारे सैिनकों के िनवास और भोजनािद की व था करवा दीिजए।’ भरत ने
अपने पीछे आ रही केकय की िवशाल सेना की ओर संकेत िकया। सारथी ने भरत के
आदे श पर रथ ार के भीतर ले िलया।
भीतर िवशाल उपवन को पार करते ए रथ मु भवन के ार पर प ँ चा। वहाँ
भी ह रयों ने भरत को दे खकर िसर झुकाकर माग छोड़ िदया। भरत दे ख कर
अचंिभत थे, आज उपवन म जाजनों की भारी भीड़ एक थी िकंतु सबके मुखों पर
िवषाद की छाया ा थी। भरत को दे खते ही एक भीड़ म फुसफुसाहट आरं भ हो
गयी।
भरत और श ु ने मु भवन म वेश िकया। मु ार के बायीं ओर अितिथ-
क ों की बड़ी सी ंखला थी और दािहनी ओर एक ब त िवशाल क था जो
मु त: िवशेष उ वों म ही यु होता था। उस क के बाहर भी भारी भीड़ एक
थी। उनम अनेक सभासदों को दोनों कुमार पहचानते थे। िकंतु उ अचरज आ
िक सभासदों ने उनके स ान म यं वत मा हाथ जोड़ िदये, अ कोई भी
िति या नहीं दी।
िव त से चारों ाणी आगे बढ़ते रहे । मौन सभासदों ने क के वेश ार तक
का माग उनके िलए छोड़ िदया।
क म वेश करते ही चारों को झटका लगा।
क के म म भूिम पर एक िवशाल ेत चादर िबछी ई थी, उस पर कोई लेटा
आ था। िकंतु भूिम पर ों? ... और जैसे ही भूिम पर ों का अथ समझ म आया
दोनों ही रह गए- ा िपताजी?
भरत और श ु धड़कते दय से दौड़कर दशरथ तक प ँ चे और शव पर िगर
पड़े । अ ु यमेव गालों को िभगोने लगे।
मा वी और ुतकीित शव के चरणों म िसर रख कर णाम करने के उपरां त
माताओं के साथ बैठ गयीं। उ समझ ही नहीं आ रहा था िक इस समय िकस भाँ ित
बताव करना है ! ऐसी थित की तो िकसी ने म भी क ना नहीं की थी। स ूण
क म िन ता ा थी। रह-रह कर िकसी न िकसी की दबी ई िससकी का
र इस िन ता को भंग कर रहा था।
दोनों ही भाइयों ने शी ही यं को संयत िकया।
िसर उठाकर दे खा तो सामने ही तीनों माताय ेत व ों म िलपटी, िनराभरण बैठी
यी थीं। उ ीं के साथ उिमला भी वैसे ही ेत व ों म बैठी थी। माताओं की बगल म
गु दे व थे। उनके पीछे सारे प रवारीजन और आमा गण उप थत थे।
‘कैसे आ यह?’ भरत ने ँ धे गले से पूछा।
‘ दयाघात।’ गु दे व ने संि सा उ र िदया।
‘िकंतु ... िकंतु ऐसे तो कोई ल ण नहीं थे। अभी जब हम लोगों ने केकय के िलए
थान िकया था तब तक तो पूण थ और स िच थे?’
‘काल की गित कौन समझ पाया है व ! यं को संयत करो, तु ारे ऊपर अब
ब त बड़ा दािय है ।’
अपनी था म डूबे भरत नहीं समझ पाए िक व ुत: गु दे व का आशय ा है ।
सही कहा जाए तो उ ोंने उस ओर ान ही नहीं िदया। अचानक उनके म म
कुछ कौंधा। संभवत: श ु के म म वह पहले ही कौंध चुका था, दोनों
भाइयों की ि क म चारों ओर घूम गयी। राम और ल ण क म कहीं नहीं थे।
सामने माताओं के साथ उिमला तो थी िकंतु सीता भाभी नहीं थीं। ों?
‘ ाता राम और ल ण कहाँ ह गु दे व? वे िकस व था म गए ह? ... और भाभी
भी नहीं ह?’ भरत के दय म िकसी अ अिन की आशंका भी उथल-पुथल मचाने
लगी।
‘वे तीनों अयो ा म नहीं ह।’
‘िक ु ों? ऐसी कौन सी िवकट आव कता आ पड़ी िक इस अव था म
िपताजी को छोड़कर वे अयो ा से बाहर चले गए। वह भी एकाकी नहीं, भाभी और
ल ण को भी साथ लेकर?’
‘ऐसी ही िवकट प र थित उ हो गयी थी व !’ गु दे व ने समझाने का यास
िकया।
‘नहीं गु दे व! कुछ न कुछ ऐसा अव है जो आप हम से गोपन रखने का यास
कर रहे ह। ा है वह?’ श ु पैने र म बोल पड़े ।
‘तुम लोगों से भला ा गु रखा जा सकता है ! तु ही तो सब कुछ सँभालना
है ।’ गु दे व अ ंत गंभीर र म बोले।
‘ ा रह है गु दे व? ा अघटनीय घटा है ? तु ही तो सब कुछ सँभालना है
ऐसा ों कहा आपने? ाता राम का नामो ेख ों नहीं िकया?’ श ु उ होते
जा रहे थे।
भरत ने उनका हाथ दबाते ए उ शां त करने का यास िकया िकंतु उनकी भी
वाचक ि गु दे व के मुख पर जमी ई थी।
‘आओ मेरे साथ, तु ारे सम ों के उ र दू ँ गा म।’ गु दे व ने बस इतना कहा
और श ु का हाथ थाम कर बाहर की ओर बढ़ चले। भरत यमेव उनके पीछे
चल पड़े ।
बाहर एक भीड़ के म से माग बनाते ए गु दे व उ पीछे , उस िवशाल भवन
के लगभग म भाग म एक क म ले गए। यहाँ कोई भी उप थत नहीं था।
‘भरत! अयो ा म स ही अघटनीय घिटत आ है ।’ कहकर गु दे व मौन हो
गए। संभवत: िवचार कर रहे थे िक िकस कार सारा घटना म कुमारों के स ुख
ुत कर। दोनों कुमारों की उ ुक ि उनपर जमी रही।
‘भरत!’ गु दे व पुन: संयत र म बोले- ‘श र यु के िवषय म तो तुमने सुना ही
होगा?’
‘जी गु दे व!’
‘उस यु म तु ारी माता ने अपने ाणों पर खेलकर महाराज की ाणर ा की
थी।’
‘जी!’
‘तभी महाराज ने उनसे दो वर माँ गने माँ गने का आ ह िकया था। महारानी ने वे
दोनों वर महाराज के पास धरोहर के प म रख छोड़े थे।’
‘यह सब तो मने भी सुना है , िकंतु इस समय उनका उ ेख करने का ा कारण
है गु दे व? माता ने तो कभी म भी उन वरों को याद नहीं िकया। मुझसे तक
उ ोंने कभी उनकी चचा नहीं की।’
‘हाँ , पूव म उ ोंने कभी उन वरों को माँ गने के िवषय म िवचार तक नहीं िकया,
िकंतु अभी अक ात उ ोंने वे दोनों वर माँ ग िलए।’
‘ ा??’ भरत और श ु दोनों के ही मुँह से आ य से िनकला।
‘ ा वर माँ गे उ ोंन?े ’ भरत ने अपने आ य पर िनयं ण करते ए पूछा।
‘तु ारे िलए अयो ा का रा और ...’ अचानक गु दे व बोलते-बोलते बीच म ही
क गए।
‘... और ा गु दे व? शी किहए, दू सरा आघात ा है ?’
‘राम के िलए चौदह वष का वनवास।’ गु दे व ने दीघ िनः ास लेते ए उ र
िदया।
‘ ा?’ दोनों के मुख से िफर एकसाथ िनकला। दोनों ही सदमे की सी अव था म
थे।
‘िव ास नहीं होता गु दे व! कह दीिजए िक यह अस है ।’ भरत ने दीवाल की
टे क लेते ए कहा। उनका िसर चकरा रहा था।
‘यही स है व !’
‘िकंतु माता ऐसा कैसे कर सकती ह? उ ोंने तो सदै व ही ाता राम से मुझसे भी
अिधक ेह िकया है । उनके तो ाण बसते थे ाता राम म। उनकी शंसा करते
उनका मुख नहीं थकता था कभी?’ दोनों ही भाइयों को अभी भी िव ास नहीं हो रहा
था।
विश के िलए यह अ ंत किठन घड़ी थी। सवजन के िहत के िलए भी अस को
य दे ना स ु षों के िलए किठन परी ा होती ही है । चाह कर भी विश नहीं कह
पा रहे थे िक कैकेयी ने अपनी छाती पर प र रखकर यह सब स ूण आय-सं ृ ित
के िहताथ िकया है । उ ोंने राम के साथ अ ाय नहीं िकया अपना बिलदान िदया है ।
‘िकंतु उ ोंने ऐसा ों िकया गु दे व? ाता भरत सवथा स कह रहे ह। मँझली
माँ स ही ाता राम पर अगाध ेह रखती ह। वे भला उनके िलए ऐसा कैसे चाह
सकती ह?’
‘तु ारी मँझली माँ के िववाह के समय एक संिवदा ई थी िजसके अनुसार
महाराज दशरथ के उपरां त रा का उ रािधकारी तु ारी मँझली माँ के पु अथात्
भरत को बनना था।’
‘मुझे ऐसी िकसी संिवदा के िवषय म नहीं ात गु दे व िकंतु यिद ई भी थी तो भी
उसका ाता राम के वनवास से ा संबंध? ाता भरत के राजा बनने म बड़े ाता
को कदािप कोई आपि नहीं होती। वे तो सदै व दू सरों को ही िदया चाहते ह। उनके
वनवास की बात कहाँ से उ हो गयी?’
‘महाराज को तु ारी मँझली माँ , यं भरत और तु ारे मातुल युधािजत पर इस
िवषय म िव ास नहीं था। तभी उ ोंने तुम लोगों के अयो ा से थान करते ही
गुपचुप राम के अिभषेक का आयोजन कर डाला।’
‘ ा?’ यह एक और आघात था दोनों के िलए- ‘ ा सच म ऐसा था? ा सच म
ही िपता हमारे पीछे गुपचुप ाता का अिभषेक करना चाहते थे?’ श ु अिव ास से
बोले।
‘हाँ , ऐसा ही था। तुम लोगों के जाने के दू सरे िदन ही उ ोंने अक ात इसकी
घोषणा कर दी। अगले िदन सूय दय काल का मु त िनकला था। मने कहा भी िक
इतनी शी ता ा है , भरत और श ु को आ जाने दो िकंतु उ ोंने उ र िदया िक
उनके िपता ने म उ आदे श िदया है िक अिवलंब राजपाट ाग कर वान थ
हण कर।’
दोनों कुमारों के िसर घूम रहे थे।
‘सूय दय के साथ ही राम का रा ािभषेक होना था और राि तक तु ारी मँझली
माता को इसकी कोई सूचना तक नहीं थी। तु तो अयो ा से बाहर ही भेज िदया
गया था। ... यह उपे ा और यह अिव ास महारानी से सहन नहीं आ और उ ोंने
इससे कुिपत होकर आवेश म ितशोध के प म उपरो दोनों वर माँ ग डाले।’
‘िपताजी ने ऐसा कैसे सोच िलया िक हमम से कोई भी ाता राम के अिभषेक का
िवरोध करने की सोच भी सकता है ?’ श ु ने बुझे मन से कहा।
‘और माँ ने भी आवेश म आकर यह कैसा अनथ कर डाला!’ भरत की आँ ख भर
आयी थीं। िसर झुक गया था- ‘अब म िकस कार िकसी से आँ ख िमला पाऊँगा?
कैसे िकसी को िव ास िदला पाऊँगा िक म राजिसंहासन का इ ु क कदािप नहीं
ँ ।’ कहते-कहते वे िबलख उठे ।
‘गु दे व वनवास का आदे श तो ाता को आ है , भाभी और ल ण कहाँ ह?’
अचानक श ु ने िकया।
‘वे भी राम के ही साथ वनवास पर गए ह।’
‘ल ण तो समझ आया, सौभा शाली है जो उसे इन दु िदनों म ाता की सेवा का
अवसर ा आ, िकंतु भाभी ... उ आप लोगों ने कैसे जाने िदया? वे वनों का
किठन जीवन िकस भाँ ित सहन कर पायगी?’
‘सबने समझाया िकंतु सीता नहीं मानी। वह अटल थी िक यिद राम को वनवास
का आदे श आ है तो वह आदे श उसके िलए भी है । वह राम की अधािगनी है । जैसे
य और पूजन िबना प ी के स नहीं हो सकता यह वनया ा का य भी प ी के
िबना अधूरा ही रहे गा।’
‘ओह! दोनों िकतने सौभा शाली ह, और यह भरत अभागा वह ऐसे दे व प
भाई और दे वी पा भाभी के िलए इस भयानक क का कारण बन गया है ।’
भरत और भी ाकुल हो उठे ।
‘अव ही यह सब उस कुटनी मंथरा की चाल होगी।’ अचानक िचंतन म डूबे
श ु आवेश म आते ए चीख पड़े । भरत का िबलखना उनसे दे खा नहीं जा रहा था-
‘उसी ने मँझली माँ को उकसाया होगा, उसीने उनकी मित फेरी होगी ...’ कहते-
कहते वे भाग छूटे -
‘उस कुलटा को तो आज म जीिवत नहीं छोड़ूँगा।’
भरत और विश एक पल को हत भ रह गए। िफर भरत भी श ु के पीछे भागे।
विश के िलए भागना संभव नहीं था िकंतु वे भी िजतनी शी ता से चल सकते थे,
उसी ओर लपके।
विश जब क के ार पर प ँ चे, श ु मंथरा को बालों से पकड़कर घसीट रहे
थे। उसके िसर से र बह रहा था, व फट गए थे िकंतु िफर भी वह िनिवकार थी,
न तो रो-चीख कर मायाचना कर रही थी, न ही उसके ने ों म अ ु अथवा प ाताप
के भाव थे। भरत अ ंत उ हो चुके श ु को रोकने का यास कर रहे थे-
‘श ु छोड़ दो उसे। वा िवक अपराधी वह नहीं है ।’ इस बार भरत ने ती र
म कहा और श ु को एक ओर धकेलते ए बलात उ मंथरा से अलग कर िदया।
‘इसे ले जाओ और इसकी िचिक ा की व था करो।’ श ु के अलग हटते ही
भरत ने मंथरा को अ दािसयों को सौंप िदया। मंथरा को पया चोट लगी थी िकंतु
वह अब भी पूणत: सहज और शां त थी। उसके ने अब भी ािभमान से चमक रहे
थे। इसे भरत ने भी ल िकया िकंतु वे समझ नहीं पाए। वे अपना ान उस पर से
हटाकर कैकेयी की ओर घूमे और घृणा से बोले-
‘मुझे आज ल ा अनुभव हो रही है िक म आपका पु ँ ।’ आवेश म उनका पूरा
शरीर काँ पने लगा था- ‘आज से भूल जाइयेगा िक आपने िकसी पु को जना भी था।’
कहकर वे कैकेयी की िति या की ती ा िकए िबना वापस घूम गए और यं को
संयत करने का यास करने लगे।
कैकेयी ने कोई िति या दी भी नहीं। वह उसी भाँ ित भूिम पर ि िटकाए बैठी
रही। कौश ा उसे सां ना दे ने का यास कर रही थीं।
‘भरत! यं को संयत करो। यह समय ोध अथवा आवेश का नहीं है । इस समय
तु ारा थम कत िवधानपूवक िपता का अंितम सं ार करना है । उनकी मृ ु
को एक स ाह से अिधक समय तीत हो चुका है । रसायनों के बल पर शव को
अिधक समय तक सुरि त नहीं रखा जा सकता। अपना ान उसपर कि त करो।
श ु तुम भी।’ विश ने दोनों को िनदिशत िकया।’
‘गु दे व! म कुछ भी सोचने-समझने की थित म नहीं ँ इस समय। सब कुछ
आप ही दे खये। आप जैसा आदे श दगे म करता जाऊँगा।’ भरत ने उ र िदया।
श ु ने कोई िति या ही नहीं दी, वे िकसी सोच म डूबे थे। उनके होंठ ोध म
बार-बार थरथरा उठते थे।
***
दशरथ का अंितम सं ार स हो गया। अंितम सं ार के उपरां त तेरह िदनों
तक के अ सं ार भी यथािविध पूरी भ ता से स ए।
तेरहव िदन, सारे कमका ों से िनवृ होते ही भरत गु दे व के पास प ँ चे।
गु दे व अभी ासाद म ही उप थत थे। जाबािल और अ आमा गण भी वहीं थे।
‘गु दे व एक िनवेदन है ।’ भरत ने हाथ जोड़कर िनवेदन िकया।
‘बताओ ... िकंतु उससे पूव मुझे कुछ कहना है ।’
भरत गु दे व के कहने की ती ा करने लगे। श ु भी उनकी बगल म आकर
खड़े हो गए थे।
‘भरत! राजिसंहासन र नहीं छोड़ा जा सकता। महाराज दशरथ के उपरां त
अब तुम इस िसंहासन के अिधकारी हो। थम मु त म ही तु ारा अिभषेक हो जाना
चािहए।’
‘आप कैसा अनीितपूण परामश दे रहे ह गु दे व? आपने सोच भी कैसे िलया िक
भरत अपने भाई के िसंहासन पर बैठने की सोच सकता है । इस िसंहासन के
अिधकारी एकमा ाता राम ह, उनके अित र कोई दू सरा इस पर बैठने का
साहस नहीं कर सकता।’
‘यह म नहीं कह रहा व ! यह तु ारे िपता ारा तु ारी माता को िदया गया
वचन है । िपता के वचन का पालन करना तु ारा कत है ।’
‘नहीं गु दे व! यह मुझे िकसी भी मू पर ीकाय नहीं है ।’
‘सोच लो पु ! राम ने िपता के वचन की र ाथ सहज वनगमन ीकार िकया, अब
तु ारा दािय है िक उनके दू सरे वचन की र ा तुम करो।’
‘नहीं गु दे व! मेरी माता ने मेरे ित मोह के वशीभूत होकर होकर िपताजी को
िववश िकया होगा ये अनीितपूण वचन दान करने के िलए। वे े ा से ाता राम
के ित ऐसा अ ाय कदािप नहीं कर सकते थे।’
‘िक ु वचन तो उ ोंने िदए ही थे। उनके वचनों की मयादा िनभाना तु ारा
दािय है ।’
‘उन वचनों का प रणाम आप दे ख ही चुके ह। अयो ा ने अपना जापालक नृप
खो िदया है । यह ुव स है िक िपताजी ने ाता के िवयोग म ाण ागे ह। मुझे
अब ात है िक अंितम समय म वे अपनी इस िववशता से िकतने संत थे! िकस
कार िबलख रहे थे ाता के िलए! स क ँ तो िपताजी की मृ ु नहीं ई, उनकी
ह ा ई है । मेरी माता ने उनकी ह ा की है और कारण प रहा ँ यं म! म
तो व ुत: अपराधी ँ िपताजी का भी, बड़े भाई का भी, भाभी का भी और ल ण
का भी। िसंहासन ीकार कर म इस अपराध को और गु तर नहीं बना सकता।’
‘भरत! अभी तुम आघात से उबर नहीं पाए हो। धैयपूवक िवचार करो, यह सोचो
िक िसंहासन र नहीं रह सकता। राम इस दािय को ीकार करने हे तु उपल
नहीं है । उसके बाद तु ीं इस िसंहासन के ाभािवक उ रािधकारी भी हो। चाहे
वचन की र ाथ ीकार करो अथवा प र थितयों की िववशता के अधीन ीकार
करो, िसंहासन तो तु ीकार करना ही होगा। तुम ...!’
‘नहीं गु दे व! मुझे अपने आदे श की अवहे लना करने हे तु िववश मत कीिजए।
िजतनी बार आप मुझसे िसंहासन ीकार करने को कहगे म मना कर दू ँ गा। एक
बार नहीं, सौ बार नहीं, सह ों बार नहीं; मेरा उ र सदै व यही रहे गा नहीं, यह नहीं
हो सकता। अत: कृपाकर इस िवषय को यहीं समा कर द।’
‘तब तु ीं सुझाओ िक उपाय ा है ? िसंहासन कदािप र नहीं रह सकता।’
‘ ाता राम अयो ा म नहीं ह तो ा आ, िसंहासन के अिधकारी वे ह और वे ही
रहगे। हम उ , जहाँ भी वे होंगे, वहाँ से िलवाकर लायगे और उनकी धरोहर उ
सौंप दगे।’
‘मुझे नहीं तीत होता िक राम इसे ीकार करे गा।’
‘उ करना ही होगा। हम सब यिद स िलत यास करगे तो उ ीकार
करना ही होगा। वचन मेरी माता ने माँ गे थे ... ाता को आदे श भी, भले ही िपताजी
की ओर से िदया था, िकंतु उ ोंने ही िदया था। जब वे यं अपना आदे श वापस ले
लगी तो उ ीकार करना ही होगा।’
‘िकंतु ा महारानी आदे श वापस लगी?’
‘उ लेना ही पड़े गा, यह भरत की ित ा है ।’ भरत का र अ ंत ढ़ था।
उनकी आँ खों म ोध और िव ास का िमलाजुला भाव था।
गु दे व के समझाने का कोई िन ष नहीं िनकला, दू सरे ही िदन िवशाल सै के
साथ सबने राम को वापस िलवा लाने के िलए थान कर िदया। तीनों रािनयाँ भी
उनके साथ थीं। बड़ी सं ा म सामा नाग रक भी उ ाह से उनके साथ स िलत
हो गए थे। उनके मन म भरत को लेकर जो संदेह उ आ था वह उनके इस
िनणय से िमट चुका था।
36- भरत िच कूट म
अगले िदन म ा म राम और ल ण कुिटया पर एक ए। आज भोजन म
फल तो थे ही, साथ ही सीता ने नविनिमत चू े पर कुछ पकाया भी था। यह कुछ
व -वन ितयों का बना स ीनुमा ंजन था। राम के साथ वे कल ही ब ी से
नमक, कुछ मसाले और कुछ अनाज ले आयी थीं। कुल िमलाकर सीता का योग
ािद था। लाये गए अनाज को िकसी भाँ ित कूट-पीस कर उस आटे की रोिटयाँ भी
बनायी थीं। तीनों ही फलों के साथ उस भोजन को ा कर मन से तृ ए
थे।
भोजनोपरां त ल ण कुिटया से बाहर िनकले तो उनके चौक े कानों ने कुछ
िवशेष आहट अनुभव की। वे सजग हो गए और दौड़कर अपना धनुष और तूणीर
धारण कर िलया।
थोड़ी ही दे र म उ दू र धूल सी उड़ती िदखाई दी, जैसे कोई चतुरंिगनी सेना चली
आ रही हो। िफर कोलाहल भी सुनाई पड़ने लगा। अ ों की टाप और िहनिहनाहट,
बीच-बीच म हािथयों की िचंघाड़ ... िनि त ही कोई सै है । कहीं ये भरत ही तो नहीं
आ मण करने आ रहे ? अक ात उनके मन म िवचार उपजा। यह िवचार ोध
बनकर उनकी रगों म वािहत होने लगा। उनके नथुने फड़कने लगे।
ल ण िजस भाव से कुिटया म आए और श धारण िकए उसे राम ने भी
ल िकया। ल ण के पीछे -पीछे वे भी बाहर िनकल आए।
‘ ा बात है ल ण?’ राम ने अपने सदै व ही शां त रहने वाले र म िकया।
‘ ाता! तीत होता है भरत की िल ा अयो ा का रा ा कर भी शां त नहीं
ई है । वह हम पर आ मण के उ े से यहाँ भी आ रहा है ।’
राम ने ल िकया िक ल ण के श ों म बड़े भाई के िलए अ ा का भाव
है , उ बुरा लगा। उ ोने ल ण को समझाने का यास िकया-
‘अभी से तुम कैसे कह सकते हो िक वह भरत ही है ? मान लो यिद वह भरत ही हो
तो भी अभी यह कैसे कहा जा सकता है िक उसके आगमन का उ े िकसी भी
कार से हमारा अिहत करना ही है ?’
‘आप तो ाता िकसी के ित बुरा सोच ही नहीं सकते, तभी तो आपके ित लोग
अ ाय कर जाते ह और आप िबना िकसी ितरोध के उसे सहन भी कर लेते ह।
भला अब भरत के यहाँ आने का और ा उ े हो सकता है ? अयो ा का रा
तो उसे िमल ही चुका है । उसने सोचा होगा िक यिद आप जीिवत रहे तो वनवास के
उपरां त रा पर अपना दावा ुत कर सकते ह तो ों न यह कंटक सदै व के
िलए िमटा ही िदया जाए।’ ल ्◌ाण का आ ोश थम ही नहीं रहा था।
‘कुछ भी हो, हम उसके आने की ती ा करगे। हम अपनी ओर से वार कदािप
नहीं करगे, यिद वह िम भाव से आया होगा तो हम उसका ागत करगे। म िव ास
नहीं कर सकता िक उसके मन म हमारे िलए श ु भाव भी ज ले सकता है , परं तु
यिद दु भा से ऐसा आ भी, तो हम समथ ह।’
‘जी ाता, हम पूण स म है भरत के स ूण सै को पल भर म िवन करने म,
आप िनि ंत रह।’ ल ण ने िव ास पूवक उ र िदया।
‘िकंतु ान रहे , भरत की ओर से कोई आ मण होने से पूव हम वार नहीं करगे।’
‘परं तु ाता, थम वार का अवसर श ु को दे ना ब धा अिन कारी िस होता है ।’
‘भरत हमारा भाई है , श ु नहीं। हम पहले वार नहीं करगे, यह मेरा आदे श है ...
ान रखना।’
ल ण को इस समय भरत की सदाशयता पर र ी भर िव ास नहीं था िकंतु राम
के आदे श के स ुख िववश थे। वे चुपचाप आने वालों की ती ा करने लगे। थोड़ी
ही दे र म ऊपर चढ़ती आकृितयाँ िदखाई दे ने लगीं। ल ण की मु ी अपने धनुष पर
कस चुकी थी। ने ों से िचंगा रयाँ झरने लगी थीं। वे पूरी तरह िकसी भी आ मण का
उ र दे ने के िलए स थे।
***
भरत को राम को खोजने म िवशेष किठनाई नहीं ई थी। य िप वे माग म जहाँ
भी प ँ चे थे, चाहे वह गुह हों अथवा महिष भर ाज, पहले सबने उनको संदेह की
ि से ही दे खा था और ितरोध को उ त ए थे, परं तु भरत की भाव-िव ल अव था
दे खकर और गु दे व व माताओं के िव ास िदलाने पर सबको भरत की सदाशयता
पर िव ास हो गया था और सभी राम के ग के िवषय म उनका मागदशन करते
चले गए थे। ... अंतत: वे िच कूट तक आ प ँ चे थे।
िच कूट प ँ च कर उ ोंने सै को नीचे ही म ािकनी के तट पर पड़ाव डालने
का िनदश िदया। यहाँ तक आने म कोई सम ा नहीं थी िकंतु अब किठनाई थी,
इतने िव ृत दे श म ाता ने अपनी कुिटया कहाँ पर बनाई थी यह खोजना था। इस
िनजन दे श म पूछा भी जाए तो िकससे? वे िवचार करने लगे िक ा सेना को चारों
और फैला िदया जाए ाता की खोज म? िकंतु यिद दू र से ाता दे खगे तो इससे
उनके मन म आशंका ही उ होगी। वे थ ही दु ःखी होंगे। भरत सोचने लगे िक
ा िकया जाए।
उनके िवपरीत श ु सोच-िवचार म नहीं उलझे। वे दौड़कर एक ऊँचे वृ पर चढ़
गए और चारों ओर ि दौड़ाने लगे। श ु को दे खकर अनेक सैिनकों ने भी उनका
अनुसरण िकया और चारों ओर फैलकर वृ ों पर चढ़कर राम की कुिटया की िनि त
थित खोजने का यास करने लगे। सुदूर े म िबखरे ए कई आ म िदखाई पड़े ।
सैिनकों ने आकर बताया, यह भी असमंजस की थित थी। तभी श ु , जो अब तक
तीसरे वृ पर चढ़ चुके थे स ता से िच ाये-
‘वे रहे !’
‘िकधर?’ भरत ने ता से श ु की ओर बढ़ते ए पूछा।
‘आइये। ाता और ल ण वहाँ कुिटया के बाहर खड़े इधर ही दे ख रहे ह।
संभवत: उ हमारे आगमन का अनुमान लग चुका है ।’ श ु अब तक पेड़ से नीचे
कूद चुके थे।
सेना को वहीं ती ा करने का आदे श दे िदया गया। गु दे व, माताओं और
वयोवृ आमा ों के िलए पालिकयों की व था की गयी, और भरत यं मा वी,
उिमला और ुतकीित के साथ पदाित ही श ु के िनदशन म आगे बढ़े ।
***
दोनों भाइयों के म हो रहे िववाद की िन सुनकर सीता भी बाहर आ गयीं। अब
तक नीचे दू र तक फैला िवशाल सै िदखाई पड़ने लगा था। सीता भी ल ण
से सहमत थीं िक ये भरत ही हो सकते ह िकंतु भरत के यहाँ आने के उ े को
लेकर वे असमंजस म थीं। थोड़ी दे र म पहाड़ी पर चढ़ती आकृितयाँ होने लगीं।
थोड़ी सी ही आकृितयाँ थीं, उनम कुछ पालिकयाँ भी थीं। िव ृत सै ारा ऊपर
चढ़ने जैसा कोई यास नहीं िदखाई पड़ रहा था। राम शां त थे िकंतु ल ण के होंठ
आवेश म फड़क रहे थे। सीता का दय धड़क रहा था। हे भु ा होने वाला है , वे
पुन: आँ ख ब कर भु का ान करने लगीं। सुर ा के िलए मनौितयाँ माँ गने लगीं।
कुछ ही समय म आकृितयाँ और हो गयीं। तभी दू सरे म पर चल रही
आकृित ने अचानक भागना आर कर िदया। जो आकृित अभी तक सबसे आगे थी,
वह भी उसके पीछे -पीछे भागी। दोनों आकृितयाँ अब पहचान म आ रही थीं,
आगे-आगे भरत थे और उनके पीछे श ु ।
भरत दौड़ते ए आए और राम के चरणों म लेट गए। उनके अ ु राम के चरणों
को िभगोने लगे। राम पूरा यास कर रहे थे उ उठाने का लेिकन भरत उनके चरण
छोड़ने को तैयार ही नहीं थे।
श ु ने भी झुक कर तीनों के चरण श िकए और गीली आँ ख िलए, िसर झुकाए
खड़े हो गए। ल ण की अपने धनुष पर कसी मुि याँ ढीली पड़ गयीं। भरत के
िवषय म उनका अनुमान सचमुच िम ा िस आ िदख रहा था।
थोड़ी ही दे र म शेष लोग भी आ गए। कहारों ने पालिकयाँ नीचे रख दीं। सबसे
पहले पालकी से गु दे व बाहर िनकले, िफर माताय और अ आमा गण।
गु दे व को दे खते ही राम ने बलात भरत को खींचा और बोले-
‘अब उठो भी भरत, मुझे गु दे व को णाम करने दो। ा तुम चाहोगे िक राम से
गु दे व के ित धृ ता हो?’
‘कैसे उठूँ ाता, कैसे अपना अपराधी मुख िदखाऊँ आपको?’ भरत ने ँ धे ए
गले से िकसी कार उ र िदया।
‘उठना तो पड़े गा ही। तुम जब तक मुझे नहीं छोड़ोगे म अपने गु जनों का
समुिचत स ान कैसे कर पाऊँगा? कैसे उनका आशीष ले पाऊँगा?’
‘लीिजए, भरत आपके कत पालन म बाधा कदािप नहीं बनेगा।’ कहते ए भरत
ने राम के पैर छोड़ िदए िकंतु उठने का कोई उप म नहीं िकया। राम ने भी त ाल
उ उठाने का यास नहीं िकया। वे सोच रहे थे िक कुछ दे र रो लेने के बाद जब
भरत यं पर िनयं ण ा कर लगे तभी बात करना उिचत होगा।
राम, सीता और ल ण ने सबसे पहले गु दे व और त ात अ सभी गु चनों
का चरण-वंदन िकया। णाम-िनवेदन के उपरां त सभी वहीं भूिम पर ही बैठ गए,
और कोई व था थी ही नहीं। ल ण घट लेकर जल लेने चल िदए तो श ु ने
उनसे घट ले िलया-
‘आज यह काय अपने इस िनक े भाई को करने द।’ वे मु ु राते ए बोले।
ल ण ने भी मु ु राते ए उ घट दे िदया और यं भी उनके साथ बढ़ िलए।
शेष सभी भरत की ओर आकृ ए। भरत की दशा दे खकर सभी िवत हो रहे
थे। कौश ा और सुिम ा के ने ों से भी अ ुधारा वािहत थी। मा कैकेयी ही
िशलावत् पूणत: शां त िसर झुकाए बैठी थी।
‘उठो भरत! यं को शां त करो। दे खो तु ारे कारण सभी िव ल हो रहे ह।’ राम
ने भरत को उठाने का यास करते ए कहा।
‘िकंतु कैसे उठूँ। मेरा शीश उठने का साहस ही नहीं कर पा रहा।’
‘ ा बालकों जैसी बात कर रहे हो तुम भी? भला ऐसा ा आ जो तुम यं पर
इतने ल त हो?’
‘मेरे कारण आपको अपने अिधकार से वंिचत होना पड़ा। मेरे कारण आपको इस
कार दीन-हीन अव था म वन म िनवास करना पड़ रहा है । मेरे ही कारण ...’
‘तु ारे कारण कुछ नहीं है । थ यं को दोष मत दो। िनयित हम सब के िलए
कुछ िवशेष कत िनधा रत करती है और वे हम करने ही होते ह। म अपना कत
कर रहा ँ , तुम अपना कत करो।’
‘वही तो कर रहा ँ ाता। िपताजी के उपरां त अयो ा के रा ....’
राम ने भरत की बात बीच म ही काट दी-
‘िपताजी के उपरां त ... ा ता य है तु ारा?’
भरत जो पहले से ही रो रहे थे, अब िबलखने लगे। वे कोई उ र दे ने की थित म
ही नहीं थे।
‘उ र ों नहीं दे ते भरत?’ राम पुन: बोले- ‘िपताजी थ तो ह, यहाँ सभी
िदखाई पड़ रहे ह, मा वे ही नहीं ह?’
भरत िबलखते ही रहे , उ र विश ने िदया-
‘तु ारे वनगमन के तीसरे िदन महाराज ने तु ारे िवयोग म ाण ाग िदये।’
‘ ा???’ राम, सीता, ल ण तीनों के ही मुख से अिव ास भरे र म िनकल
पड़ा।
ल ण और श ु भी अब तक जल लेकर लौट चुके थे।
राम िव ल होकर एकाएक बैठ गए। िफर थोड़ा संयत होकर भरे गले से बोले-
‘गु दे व मा कर, िकंतु इस समय मेरा थम कत िपताजी को जलां जिल और
िप दान करना है । उ मुखाि दे ने के कत का तो िनवहन म नहीं कर सका
िकंतु यह तो कर ही सकता ँ ।’
गु दे व ने सहमित म िसर िहलाया तो राम पुन: ल ण से स ोिधत ए- ‘ल ण
तिनक इं गुदी के फल और बेरों की व था करो, उसी से हम िप दान करगे।
िजसका आहार हम यं करते ह, वही िपतरों को भी समिपत कर सकते ह।’
थोड़ी ही दे र म ल ण और श ु दोनों कार के फल लेकर आ गए। वे थोड़े से
कुश भी साथ म ले आए थे। उतनी दे र राम िपता के अंत समय म उनकी सेवा न कर
पाने का शोक करते रहे ।
राम, सीता और ल ण दशरथ को जलां जिल दे ने के िलए मंदािकनी की ओर बढ़
चले। शेष सबने भी उनका अनुकरण िकया।
नदी म म धार म उतरकर, दि णमुख होकर दोनों भाइयों ने िपता को जलां जिल
दी और िफर तट पर आकर कुश िबछाकर इं गुदी के फल के गूदे म बेर िमलाकर
उसके िप बनाए और िपता के िलए ग की कामना करते ए िप दान स
िकया।
थोड़ी दे र सब शां त रहे , िफर विश ने ही पुन: वातालाप का सू सँभाला-
‘राम! महाराज के िनधन के उपरां त अभी तक अयो ा का राजिसंहासन र है ।
यह िन ंदेह एक दु भा पूण थित है । राजिसंहासन को र नहीं छोड़ा जा
सकता।’
‘िकंतु िसंहासन र ों है गु दे व? भरत का रा ािभषेक तो पूव म ही िनि त
हो चुका था!’
‘नहीं ाता! भरत पहले ही अ अपराध कर चुका है । अब एक और अपराध
का बोझ वह नहीं सह सकता। आपके िसंहासन पर बैठने की धृ ता वह नहीं कर
सकता।’ भरत ने आ र म कहा।
‘ ों अकारण अपनी आ ा पर बोझ लाद रहे हो भरत? िनयित ने तु अयो ा
के शासन का दािय सौंपा है , उसे तु ीकार करना ही पड़े गा, यही तु ारा
कत है । उठो, इस मिलन मन थित से बाहर आकर अपना दािय ीकार
करो।’
‘नहीं ाता, कदािप नहीं। भरत का ण है िक उस िसंहासन पर आपके अित र
अ कोई भी नहीं बैठ सकता। आप ही चलकर अपने िसंहासन को सनाथ
कीिजए।’
‘यह िकस भाँ ित संभव है ? िपता ने दो वचन िदए थे माता को, हम दोनों को उनम
से एक-एक की र ा करनी है । मेरे िलए िपता का आदे श चौदह वष का वनवास है ,
म उनके कथन को िम ा नहीं होने दे सकता। तु ारे िलए उनका आदे श अयो ा
का शासन सँभालना है , तुम उसका पालन करो।’
‘नहीं ाता! अयो ा का राजिसंहासन आपका है और आपका ही रहे गा। उस पर
बैठने की अनिधकार चे ा म कदािप नहीं कर सकता। इस संबंध म म िकसी भी
प र थित म, िकसी का भी परामश ... िकसी का भी आदे श ीकार करने हे तु
ुत नहीं ँ ।’
‘ ा तुम िपता का वचन िम ा कर दोगे? ा तुम रघुकुल की रीित को कलंिकत
कर दोगे?’
‘िपता से वचन इस ाथ ी ने दु तापूवक ....’
‘भरत!’ राम ने भरत को आगे नहीं बोलने िदया। उनका र एकाएक ती हो
उठा। उनके अिवचिलत मुख पर एकाएक ोधावेश झलक उठा - ‘तुम मयादा का
उ ंघन कर रहे हो। माता के ित अपश ों का योग करने से पूव तु ारी िज ा
कटकर िगर ों नहीं गयी?’
‘यही स है ाता।’ भरत ने िकसी कार कहा।
‘यह स नहीं है ।’ राम का आवेश कम नहीं आ था- ‘माता यिद पु के िलए
कभी कठोर िनणय भी लेती है तो व ुत: उसम पु का िहत ही अ िनिहत होता है ।
माता ने मुझे अपने जीवन का उ े पहचानने का अवसर दान िकया है । माता ने
मुझे द कार जाकर उस अ ात-अनजाने े के यों को समझने और
उनकी किठनाइयों को पहचानने का अवसर िदया है । यह िन ंदेह माता का
उपकार है राम पर।’
कहते ए राम बढ़े और कैकेयी के चरणों म झुकते ए बोले-
‘माता! अपने भाई से नादानी म ए अपराध की मा राम माँ गता है आपसे।’
मौन, िसर झुकाए िशलावत बैठी कैकेयी की ि एकाएक उठी। उसकी सूखी
आँ ख ने एकाएक बरसना आर कर िदया। उससे रहा नहीं गया, उसने राम को
खींच कर अपने सीने से िचपटा िलया।
कभी िवचिलत न होने वाले गु दे व ने भी पीछे घूमकर अपनी आँ खों की गीली
होती कोर छु पा लीं। कौश ा और सुिम ा के अ ु तो अवरोध तोड़ कर बह ही पड़े ।
जाबािल को छोड़कर अ आमा गण िव त थे िक राम इस थित म भी ....’
कैकेयी से छूटकर राम पुन: भरत के पास आए और ेह से उ उठाते ए बोले-
‘भरत! अयो ा िनि त ही ध होगी तु ारे जैसा सुयो शासक ा कर। तुम
िन ंदेह शासनकाय म राम से े िस होगे। उठो और अपने कत का िनवहन
करो।... परं तु ान रहे , दु बारा माता का अनादर राम को स नहीं होगा।’
‘आपका आदे श िसर-माथे।’ कहते ए भरत भी उठे और कैकेयी के चरणों म
िसर रख कर मा-याचना की। िफर आगे बोले- ‘िकंतु अयो ा के िसंहासन पर
बैठने का आदे श म ीकार नहीं कर सकता। वह आपका है और आपका ही
रहे गा।’
‘तु ारे ऐसा करने से िपताजी अकारण ही वचन-भंग के दोषी बन जायगे, तुम
अकारण ही उनके िलए नक का ार खोल दोगे।’ राम के इस कथन ने भरत को
कुछ पल के िलए िन र कर िदया।
जाबािल जानते थे िक िनयित का िनणय यही है िक राम वापस नहीं लौटगे, उनका
तो ज ही र -सं ृ ित के समूल नाश के िलए आ है । उ बोलने की कोई
आव कता नहीं थी। िकंतु िनयित का खेल, भरत को िन र दे ख वे बोल पड़े -
‘कुमार! ग-नक मानव की क ना भर ह। इनकी अवधारणा मनु को े
कम म वृ करने के िलए ही की गई है । अत: यिद लोकिहत वचन की अवहे लना
की अपे ा करता है तो वह करणीय है । तु ारा रा ािभषेक लोकिहत की माँ ग है
अत: तु भरत का अनुरोध ीकार करना चािहए। ऐसा करना कदािप ग य
महाराज के नरकगामी होने का कारण नहीं बनेगा, ोंिक न तो ग और नक का
कोई अ है और न ही अब महाराज का हमारी क ना के अित र अ कहीं
अ है ।’
राम की धम, पर राओं ा णों और गु जनों पर अगाध आ था थी। इनका
िवरोध उ स नहीं होता था। वे िकसी के ित अि य नहीं बोलते थे िकंतु जाबािल
ारा इस कार धम और परं पराओं के िवरोध म कहे गए श ों ने उ आवेश म ला
िदया। उनका सदै व शां त रहने वाला र आ ोश से भर उठा-
‘अथात अभी मने जो िप दान िकया िपताजी के िलए वह एक थ का आयोजन
था। हमारी सनातन पर रा थ के आड र को पोिषत करती है ?’
‘कुमार! भले ही ये पर राय को स ाग पर चलने हे तु े रत करने हे तु
बनाई गयी हों िकंतु व ु थित तो यही है िक ये आड र मा ह। इस ज के
अित र अ कोई ज नहीं होता। इस योिन के अित र कोई अ योिन नहीं
होती। िचता म भ होने के उपरां त ाणी का कोई अ अवशेष ही नहीं रहता
जो इन सबको हण कर सके। यिद मृता ा इस कार इन सामि यों को हण कर
सकती तो ...’
जाबािल के तक ने राम के आवेश को ती तर कर िदया। उ ोंने भरसक यं को
शां त रखने का यास िकया िकंतु सफल नहीं हो पाए। वे लगभग चीख ही पड़े -
‘बस कीिजए महामा ! आपकी बात ना क मत का समथन कर रही ह। मेरे
िवचार से तो ना कों को भी अ अपरािधयों की भाँ ित ही द त करना यो है ।
आप ा ण ह अत: पू ह िकंतु आपके िवचार ा ण के सवथा िवपरीत ह। न
जाने ों िपताजी आपकी बातों को सदै व इतना मह दे ते रहे ?’
राम अभी और भी कुछ कहते िकंतु विश ने उ सँभाल िलया-
‘राम, शा हो जाओ! महामा का उ े परं पराओं का खंडन कदािप नहीं था।
वे मा तु ारे िहतिचंतक ह इसीिलए उ ोंने ऐसा कहा।’
‘िकंतु गु दे व ...’
‘कोई िकंतु-परं तु नहीं। अभी मह पूण अयो ा के राजिसंहासन की र ता
है । िसंहासन र नहीं रह सकता। शेष सम िवषयों पर िफर कभी िवचार कर
लगे।’ गु दे व ने राम को अपने आदे श से बाँ ध िदया।
‘आप यं िनणय कीिजए गु दे व िक म िकस भाँ ित िपता के वचनों को िम ा कर
भरत का और आप सबका आ ह ीकार कर सकता ँ ?’
बड़ी दे र तक इस पर चचा होती रही। न भरत िसंहासन ीकार करने को त र
थे और न ही राम। कैकेयी का आ ह भी राम ने अ ीकार कर िदया। ... कोई
िन ष ही नहीं िनकल रहा था। अंतत: भरत ने एक म माग खोज िनकाला। वे
बोले-
‘यिद आपका यही ढ़ िन य है तो कृपापूवक मुझे अपनी पादु काय दान
कीिजए। चौदह वष तक आपकी पादु काय ही अयो ा के राजिसंहासन की शोभा
बढ़ायगी।’
‘िकंतु भरत! हम तो नंगे पाँ व ह, हमारे पास पादु काय ह ही कहाँ तु दान करने
हे तु!’ कहते ए राम मु ु रा उठे ।
‘वह कोई सम ा नहीं है ाता।’ भरत ने कहा। िफर श ु की ओर उ ुख ए-
‘श ु व था करो। साथ आए सैिनकों म अनेक का कम म िनपुण होंगे और वन
म का तो चुर उपल है ही। भले ही वे सैिनक एत ंबंधी उपकरण साथ नहीं
लाए होंगे िकंतु जो भी उपकरण सै के साथ ह उनसे भी वे सु र सी नवीन
पादु काय िनिमत करने म स म होंगे।’
श ु और उनके साथ ल ण भी दौड़ते ए नीचे उतर गए।
राम मु ु रा उठे । राम अपने पीछे अयो ा म घिटत घटनाओं का िव ृत िववरण
लेने लगे। अयो ा से आए गु जन इन लोगों के कुशल ेम पूछने लगे। सभी के पास
इतनी साम ी थी पूछने-बताने के िलए िक समय का पता नहीं नहीं चला।
कुशल ेम के आदान- दान का यह म तब टू टा जब श ु और ल ण नवीन
पादु काय लेकर आ गए। पादु काय दे ख कर तीत ही नहीं होता था िक वे एकाएक
कामचलाऊ औजारों से गढ़ी गयी ह। व ुत: ऐसा था भी नहीं, सै दल सदै व
आव कता के सम उपकरण साथ लेकर ही चलता था, उसके पास आव क
सभी उपकरण थे। पादु काओ पर जड़ने के िलए श ु के पास आभूषणों की कमी
नहीं थी। िफर अपने ि य राम के िलए पादु काय िनिमत करनी थीं, किमयों ने अपनी
स ूण िनपुणता का दशन िकया था।
श ु ने लाकर पादु काय भरत को थमा दीं। भरत ने वे राम के पैरों के पास रख
दीं-
‘लीिजए ाता, इ धारण कीिजए।’
‘राम ने पादु काय पहन लीं ... और िफर उतार भी दीं।
भरत ने उ आदर से उठाकर माथे से लगाया और िफर अपने िसर पर रख
िलया।
‘ ाता, चौदह वष तक आपकी ये पादु काय ही अयो ा पर शासन करगी। म भी
आपके समान ही स ासी वेश म जटा-जूट धारण कर चौदह वष तक नगर से बाहर
न ी ाम म रहकर इन पादु काओं की सेवा क ँ गा। िकंतु भरत की यह ित ा भी
सदै व रण र खयेगा िक यिद चौदह वष की अविध तीत होने के उपरां त थम
िदवस ही आपने मुझे अपने दशन नहीं िदए तो आपके चरणों की सौगंध भरत वह
िदवस तीत होते-होते अि - वेश कर लेगा।’
भरत की ित ा सुनकर सब अवाक् रह गए। कोई अ माग नहीं था, राम ने
भरत का यह आ ह ीकार िकया-
‘तु ारा आ ह राम को ीकार है िकंतु एक आदे श अथवा आ ह जो भी मानो,
मेरा भी है - भिव म कभी भी मँझली माँ का अपमान न होने पाये। उनका जो
स ान िपताजी के समय म था, वही स ान उ सदै व िमलता रहे ।’
भरत ने राम का आदे श ीकार िकया। तदु परां त िवदा की औपचा रकताय यीं
और भरत राम की पादु काओं को सेना के साथ आए सव म गजराज के म क पर
थािपत कर, चौदह वष तक राम की ती ा करने के िलए अयो ा वापस लौट
गए।
***
राम िज ोंने अपने स ूण जीवन म अपनी वाणी से िकसी को आहत नहीं िकया,
आज उ ोंने अनजाने ही दशरथ के आमा -मंडल के सव े र , महामा
जाबािल के दय को गंभीर आघात दे िदया था। जाबािल को अपार क था, उनसे
कभी इस र म तो यं ग य महाराज ने भी बात नहीं की थी, जो िक अपनी
युवाव था म अपने उ त भाव के िलए िस थे; िफर राम तो बा काल से ही
अपने मयािदत भाव के िलए शंिसत होता रहा था, उसने ... उसने ...
37- सं ाम के पथ पर
‘ऋिषवर! हमसे िकसी कार मयादा का उ ंघन आ है ा?’ िच कूट आ म
के वयोवृ कुलपित वा ीिक को िविधवत णाम िनवेदन और आशीवाद ा
करने के उपरां त राम ने हाथ जोड़कर पास ही एक कुशासन पर बैठते ए िज ासा
कट की।
ऋिष आ म म अपनी चारपाई पर लेटे ए थे। उ ोंने उठते ए कहा-
‘आप ऐसा ों कह रहे ह राम? आप तो मयादा की सा ात ितमूित ह, आपसे
मयादा का उ ंघन संभव ही नहीं है ।’
‘िफर जाने-अनजाने अ कोई अपराध आ है मुझसे?’
‘नहीं, ऐसी भी कोई बात नहीं है ।’
‘मने नहीं तो अनजाने म सीता अथवा ल ण ने कोई अपराध िकया हो, अथवा
िकसी कार से िकसी आ मवासी की भावनाओं को आहत िकया हो?
‘राम, मुझे समझ म नहीं आ रहा िक आप बार ार यह ों कर रहे ह? मने
कहा तो िक आपसे अथवा सीता अथवा ल ण से ऐसे िकसी आचरण की अपे ा की
ही नहीं जा सकती। आप थ िचंता कर रहे ह।’
‘कुछ तो है ऋिषवर, िवगत कुछ िदनों से हम आ मवािसयों के वहार म
प रवतन का अनुभव कर रहे ह। वही आ मवासी जो अभी तक हमसे उ ाहपूवक
िमलते थे, अब हमसे कतराकर िनकलने का यास करते ह। ... और ऐसा मने ही
अनुभव नहीं िकया सीता और ल ण का भी यही अनुभव है । वे भी मेरे ही समान
आ मवािसयों के इस अनपेि त वहार से िव त ह और इसका कारण खोजने
का यास कर रहे ह।’
राम के साथ ही खड़े ल ण ने भी िसर िहलाकर राम के कथन से सहमित जताई।
कुलपित कुछ दे र सोचते रहे , िफर कुछ िझझकते ए बोले-
‘राम! मेरे कथन को अ था न लेना। यह स है िक आपम से िकसी से भी कोई
ऐसा काय नहीं आ है िजससे िकसी भी आ मवासी को कोई ेष प ँ चा हो। िकंतु
यह भी स है िक आपकी उप थित से आ मवासी सशंिकत ह और िकसी सीमा
तक भयभीत भी ह।’
‘यही तो हम िज ासा है िक उनकी इस अकारण शंका का कारण ा है ? यिद
हमसे कोई अपराध नहीं आ, हमने उनका कोई अपमान भी नहीं िकया, तो िफर वे
ों सशंिकत और भयभीत ह?’
‘राम! आ मवासी शां िति य ाणी ह। वे दीघकाल से यहाँ इस आ म म
शां ितपूवक तप या म लीन थे। आप लोगों के आगमन से वे स ही थे, स ु षों के
साि से भला िकसे स ता नहीं होती!’
‘िफर उनकी उि ता का ा कारण है ऋिषवर?’ ल ण बोले। उनकी
उ ुकता बढ़ती जा रही थी और कुलपित श ाडं बर म उलझे थे।
‘व , जन थान भले ही यहाँ से ब त दू र है । वहाँ के र सामा त: यहाँ उप व
करने नहीं आते िकंतु यह थान उनकी प ँ च से बाहर भी नहीं है । यहाँ हम िकसी
तापी आय-नृप की छ छाया भी उपल नहीं है । उपल हो भी तो र पित
दशानन रावण का सामना करने का साहस िकसी आय-नृप म नहीं है ।’ कहकर
कुलपित ने एक दीघ िन: ास ली।
‘आप ने ही कहा ऋिषवर िक सामा त: र इस े म नहीं आते, िफर अकारण
उनका भय ों उ हो गया है ऋिषगणों को? यिद र आ भी जाते ह तो हम ह न
आपकी र ा हे तु।’
ऋिष कुछ बोले नहीं िकंतु उनके मुख पर एक पल के िलए उतरी मु ु राहट
कह रही थी िक उ ोंने ल ण के आ ासन को बचकानी बात से अिधक मह नहीं
िदया है । कुछ दे र सोचने के उपरां त वे बोले-
‘अभी तक इस थान का जन थान के अिधपित खर-दू षण के िलए कोई मह
नहीं था। वे हम लोगों की यहाँ उप थित पर कोई ान नहीं दे ते थे अत: यह थान
हमारे िलए िनरापद था। परं तु इतने िवशाल दल-बल के साथ भरत का आगमन
िन य ही उनकी ि म भी आया होगा। अब वे अव इस ओर आकृ होंगे। और
यही संभावना ऋिषयों के भय का कारण है ।’
‘तो आने दीिजए न उ । हम दोनों भाई पया समथ ह उ उ र दे ने हे तु। आप
र ीभर िचंता न कर।’
‘हम ात है िक तुम दोनों भाई वीर हो, इ ाकु कुल के आभूषण हो िकंतु तुम मा
दो हो जबिक र ों के पास िवशाल सै है । ... और खर-दू षण यं भी कम
श शाली नहीं ह।’
‘िकतने भी श शाली ों न हों वे, हम उनसे आपकी सुर ा करने म स म ह।’
ल ण ने पूण आ िव ास से कुलपित को आ करना चाहा।
‘नहीं ल ण, तु अभी उनकी मता का ान नहीं है इसीिलए ऐसा कह रहे हो।
शां िति य आ मवासी िकसी को आमंि त करना नहीं चाहते। यु म कोई भी
िवजयी हो, दोनों ही प ों से अनेक िनरपराध हताहत होते ह, हम नहीं चाहते िक
थ िकसी के भी ाणों की हािन हो।
‘कुछ भी नहीं होगा ऋिषवर, हम वचन दे ते ह।’ ल ण ने पुन: यास िकया।
‘नहीं ल ण। एक बार मान िलया िक तुम खर-दू षण की अि म पं को परा
कर दोगे। िकंतु उसके बाद एक अंतहीन िसलिसला आरं भ हो जाएगा। एक दल को
तुम परा करोगे तो दू सरा आ जाएगा। वानरराज बािल रावण का िम है । उसकी
साम िकसी से िछपी नहीं है । और िफर लंका म यं रावण बैठा ही है । अपने
िकसी सै दल की पराजय ि लोक िवजयी रावण के िलये िकसी चुनौती के समान
होगी। वह ऐसे िकसी दु ाहस को कदािप सहन नहीं करे गा। वह चुनौती दे ने वाले
को समूल न करके ही मानेगा और इस सब म हम िनरीह आ मवासी अकारण
िपस जायगे।’
जब िकसी कार समझाने का कुलपित पर कोई असर नहीं आ तो अंतत: राम ने
पूछा-
‘तो िफर आपने ा िनणय िलया है ?’
‘ऋिषयों का िवचार है िक हम यह थान ागकर िकसी अ िनरापद थान पर
अपना आ म थािपत करना चािहए। हम शी ही यहाँ से अ के िलए थान
करगे।’
‘आप लोग अपना आ म ों छोड़गे? संकट हमारे कारण उ आ है , हम ही
यहाँ से कहीं अ चले जायगे।’ राम ने समाधान ुत िकया।
‘कोई लाभ नहीं होगा उससे।’ वा ीिक िसर िहलाते ए बोले। वे इस समाधान से
सहमत नहीं थे।
‘ ों, संकट का कारण तो हम लोग ही ह, जब हम ही यहाँ से चले जायगे तो ...’
‘संकट तु ारे कारण नहीं है राम! संकट तो भरत के साथ आए उस िवशाल सै
के कारण है । खर-दू षण के चरों की ि से वह सै कदािप छु पा नहीं रहा होगा। वे
लोग अब उसके आगमन के िवषय म छानबीन करगे। म मानता ँ िक भरत का
आगमन मा तु मनाने के िलए था िकंतु इससे ा अ र पड़ता है ! द कार
के रा स भाव से ही उप वी ह, वे भरत के आगमन का कारण जानने के िलए हम
लोगों पर अ ाचार करगे। वे हमारे इस कथन को ीकार नहीं करगे िक भरत यहाँ
उनके िव िकसी उ े से नहीं आए थे। वे तो उनके आगमन को अपने िव
िकसी अिभयान की परे खा ही मानगे और हमसे बलात उस िवषय म जानना
चाहगे। तुम यहाँ रहो अथवा चले जाओ वे हम पर अव अ ाचार करगे। अत:
उनके आने से पूव ही हमारा यहाँ से िकसी िनरापद थान पर चला जाना ेय र
है ।’
कुलपित कुछ दे र िवचार करते रहे , संभवत: सोच रहे थे िक अपने मन की बात
राम से कह अथवा न कह। अंतत: उ ोंने कहने का ही िनणय िलया-
‘म तो तुम तीनों को भी यही परामश दू ँ गा िक तुम भी यहाँ से अ कहीं चले
जाओ और शां ितपूवक अपने वनवास का समय तीत करो।’
‘ऋिषवर! हम तो यं ही यहाँ से थान करने का िनणय कर चुके थे। यिद भरत
का आगमन न आ होता तो तभी हम आगे बढ़ भी गए होते, िकंतु अब हम कहीं
नहीं जायगे। यहीं ककर रा सों के आ मण की ती ा करगे। हम रा सों से
भयभीत होने वाले नहीं ह, यिद वे हम पर आ मण करते ह तो हम उनका ु र
दे ने म पूण स म ह।’ राम ने ढ़ता पूवक कहा।
***
दू सरे िदन ही वह आ म उजाड़ हो गया। मा कुछ युवा ऋिष जो ल ण के िम
बन चुके थे और उनकी साम से प रिचत हो चुके थे, ही के रहे । शेष सारे
आ मवासी अपनी गौवों और थोड़े -ब त सामान के साथ वहाँ से थान कर गए।
अ ऋिषगण तो िनि त ही भयभीत थे िकंतु यं वा ीिक पता नहीं भयभीत थे,
अथवा उनकी भिव दश अ ि ने उनके सम उनकी भावी भूिमका अभी से
कर दी थी। भिव म उ सीता को आ य दे ना था, लव-कुश को संर ण दे ना
था और इसके िलए उ अयो ा के िनकट उप थत रहना ही था। ा पता भिव
की अपनी भूिमका के स क् िनवहन हे तु ही उ ोंने अभी से गंगा और तमसा के
संगम-तट पर अपना आ म थािपत करने का िन य कर िलया हो।
उन सबके जाने के उपरां त ये लोग भी कुछ िदवस तक र ों के आगमन की
ती ा करते रहे िकंतु कोई आ मण नहीं आ।
ल ण इस नीरस जीवन से दो-तीन िदन म ही उकता गए। वन- ां तों म िवचरण
था, ामीण जीवन के उ ु खलवाड़ थे िकंतु उ तीत हो रहा था िक यह तो
उनका उ े नहीं है । वे तो र ों से मुठभेड़ हे तु ती ारत थे। अंतत: उ ोंने अपने
मन की बात राम से कह ही डाली-
‘ ाता, ा हम िन े इस िनजन आ म म िनवास करते रहगे? र ों के दशन
की यहाँ तो कोई स ावना तीत नहीं होती।’
‘मेरा भी यही िवचार है ।’ राम ने भी सहमित दी।’
‘तो िफर आगे ों न बढ़ा जाए? समय न करने से ा लाभ!’
‘तु ारा ा िवचार है सीता?’ राम ने सीता से भी परामश लेना उिचत समझा।
‘जो आप दोनों का िवचार है , जब हमारा ग द कार है तो र ों के यहाँ
आगमन की ती ा करने से ा लाभ?’
‘उिचत है , तो कल ही हम लोग आगे बढ़ते ह। िकंतु थान से पूव, जो ऋिषगण
हमारे भरोसे के रहे ह उनसे भी तो परामश करना होगा।’
‘तो चलते ह न उधर ही!’ ल ण ने ाव िकया।
***
वे सम युवा ऋिष ल ण के ऐसे भ बन चुके थे िक सभी साथ ही चलने को
त र थे। वे कने म भयभीत नहीं थे, िकंतु ल ण का साथ नहीं छोड़ना चाहते थे।
िवगत कुछ ही िदनों म ल ण ने उ और ब ी की म शाला के अपने िम ों को
श िनमाण से लेकर श संचालन तक ब त कुछ िसखा िदया था। राम ने भी
उनकी सुर ा की ि से उ साथ ले लेना ही उिचत समझा। कुछ न कुछ तो
सहयोग करगे ही, एकाकीपन भी नहीं रहे गा सुदूर या ा म। िफर भी राम ने एक बार
उ चेताया िक आगे की या ा ब त किठन िस होने वाली थी, वे लोग िसंह की
माँ द म उतरने वाले थे, िकंतु वे लोग भयभीत नहीं ए और न ही कने को तैयार
ए।
वहाँ से सभी लोग ब ी म गए। वहाँ एक पूरा िदन ककर राम-ल ण दोनों ने ही
म -युवकों को कुछ और आव क िश ण िदया। वहाँ से भी कई युवक इनके
साथ चलना चाहते थे िकंतु राम ने सहमित नहीं दी। वे अपने साथ अिधक भीड़ नहीं
चाहते थे, साथ ही यहाँ ब ी की सुर ा के िलए भी उनका यहीं कना आव क
था।
***
द कार के िलए या ा आर हो गयी। अब इस दल म आठ युवा ऋिषयों
सिहत कुल ारह या ी थे।
या ा का अगला पड़ाव अि ऋिष के आ म म आ।
अि और उनकी प ी सती अनुसूया ने सभी का उ ु दस से ागत िकया।
दोनों पित-प ी अ ंत वृ हो चुके थे। आ म म थोड़े से ही ऋिष थे। ागत,
णाम-आशीवाद और तदु परां त जलपान के उपरां त अनुसूया सीता को अपने साथ
दू सरी कुिटया म ले गयीं। राम, ल ण और िच कूट से ही इनके साथ आए ऋिषगण
अि के साथ बाहर ही खुले म बैठ कर बात करने लगे।
अनुसूया का भाव ऐसा था िक सीता थोड़ी ही दे र म उनके साथ पूरी तरह सहज
हो गयीं और खुलकर बितयाने लगीं। बातों ही बातों म अनुसूया ने सीता से उनके
बचपन से लेकर िच कूट तक की सारी बात पूछ डालीं। िफर उ न जाने ा सूझा,
अचानक वे उठीं और कुिटया के एक कोने म जाकर कुछ साम ी इधर-उधर
उलटी-पलटी िफर एक छोटी सी संदूकची खोज िनकाली। उसे उ ीं व ों से झाड़-
पोंछ कर लेकर सीता के पास लौट आयीं।
सीता उ ुकता से उनके ि याकलाप दे ख रही थीं। ‘ ा होगा इस का -मंजूषा
म?’ उ ोंने सोचा।
सीता के पास आकर जब अनुसूया ने वह मंजूषा खोली तो सीता चौंक गयीं। मंजूषा
णाभरणों से भरी ई थी।
‘लो सँभालो इसे।’ अनुसूया बोलीं।
‘म?’ सीता को समझ नहीं आया।
‘और कौन?’ कहती ई अनुसूया हँ सीं। िफर अचानक जाने ा मन म आया
बोलीं- ‘िक ु ऐसे नहीं!’
कहने के साथ ही उ ोंने एक-एक आभूषण िनकाल कर सीता को पहनाना आरं भ
कर िदया। पहनाती जा रही थीं और यं ही मु भाव से सीता को िनहारती भी जा
रही थीं। सीता िव त थीं। इतने ब मू और इतने सारे आभूषण उस स ािसनी से
ीकार करते ए उ संकोच हो रहा था। वे िनरं तर ितरोध कर रही थीं िकंतु
अनुसूया उनके ितरोधों को र ीभर भी मह नहीं दे रही थीं। सारे आभूषण सीता
को पहनाकर उ ोंने उनकी बलाय लीं और तब स मन टे र लगाने लगीं-
‘अरे मुिनवर! सुिनये तो ... तिनक यहाँ आइये।’
कुछ ही दे र म अि मुिन और उनके साथ राम और ल ण दे वी की कुिटया म
िव ए।
‘दे खए! िकतनी सु र लग रही है ...!’ अनुसूया मु भाव से बोलीं।
‘िक ु माता! म इ कैसे ीकार कर सकती ँ ? अ ंत ब मू ह ये तो!’ सीता
ने िहचिकचाते ए एक बार पुन: ितरोध करने का यास िकया।
‘तो?’ अनुसूया जैसे उ िचढ़ाते ए बोलीं।
सीता को समझ ही नहीं आया ा उ र द। उ ोंने सहायता के िलए राम की
ओर दे खा। राम को भी समझ नहीं आया ा कह। िफर साहस कर वे बोले-
‘सीता स कह रही है माता, इतने ब मू आभूषण हम कैसे ीकार कर
सकते ह?’
‘ ों, ा ये उन आभूषणों से भी मू वान ह जो सीता धारण िकए है ?’ अनुसूया
ने अपनी ेत भवों म बल डालते ए िकया।
राम के पास, एकाएक आए इस रोषपूण का कोई उ र नहीं था।
‘अथवा इ हण करने से मना कर तुम इन आभूषणों की तु ता दशाना चाहते
हो? अनुसूया को यह बताना चाहते हो िक तु ारी प ी के पास इनसे अ ंत े
आभूषण पहले से ही ह। अयो ा की युवरा ी ऐसे तु आभूषण धारण नहीं कर
सकती?’ अनुसूया रोषपूवक बोलीं।
राम और सीता दोनों हत भ थे अनुसूया के इस अपन भरे ोध पर। ल ण
मुँह घुमा कर मु ु रा रहे थे। अि भी मु ु राते ए मौन खड़े थे।
‘माता मा कर, मेरा ऐसा ता य कदािप नहीं था। हम इ ाकुवंशी सदै व ा णों
को दान करते रहे ह, उनसे कुछ लेने म संकोच होता है । उसी अ ासवश ....’
‘तो ा आशीवाद नहीं लेते रहे ा णों और ऋिषयों से तुम इ ाकुवंशी?’
‘अव लेते ह माता। ा णों का आशीवाद तो सदै व का होता है ।’
‘तो ा तुम यह बताना चाहते हो िक तु ारे ये आभूषण ऋिषयों के आशीवाद से
अिधक मू वान ह?’
राम ने कोई उ र नहीं िदया। बस आँ खों से सीता को संकेत िकया। सीता संकेत
समझ कर अनुसूया के पाँ वों म झुक गयीं-
‘माता! आपका आशीष सीता के िसर-माथे पर। आप ारा िदए गए ये आभूषण
सीता की सबसे अनमोल िनिध ह।’
‘तब ठीक है !’ पल भर म ही अनुसूया का सारा ोध ितरोिहत हो गया। िकलकती
यी अि से बोलीं-
‘दे खा आपने, िकतनी सु र लग रही है ! ये आभूषण सनाथ हो गए आज।’
‘स कह रही हो दे वी।’ अि ने मु ु राते ए उ र िदया।
‘ ा बताऊँ, िववाह के समय माता ने िदए थे...’ अनुसूया सीता से बोलीं- ‘िववाह
के उपरां त कभी इ धारण करने का अवसर ही नहीं आया। और कोई सुपा भी
नहीं िमला िक उसे ही दे दे ती। बेचारे अनाथ से कुिटया के कोने म पड़े रहते थे। िम ी
म िम ी हो रहे थे। फक इसिलए नहीं सकती थी िक माता ने मन से िदए थे मुझे,
फकने से ममता का अनादर होता। माता भी आज ग म आनंिदत होंगी िक उनकी
पु ी ने उनकी िनिध सुपा को सौंपकर उनका दान साथक कर िदया है ।’
राम और सीता भाव-िव ल थे अनुसूया के ेह से।
‘आओ व हम लोग बाहर चल, अब इन माँ -बेिटयों को पर र बितयाने दो।’
सम ा का िनदान हो जाने पर अि ने राम से कहा।
राि म अि से वातालाप म राम को र ों के िवषय म अपे ाकृत अिधक साथक
और स सूचनाय ा यीं। अि ने बताया-
‘राम! र भी हम आय के समान साधारण मानव ही ह। जैसे हमम कुछ
साधु कृित के होते ह तो कुछ दु कृित के, वैसे ही उनम भी होते ह। अकारण ही
न जाने ों और कैसे उ आतंक का पयाय बनाकर िकसी अित-मानवीय श के
प म जनमानस के सम ुत कर िदया गया है । उनका आतंक जन थान म ही
है । उससे बाहर वे यदा-कदा ही आते ह।’
‘ ा व ुत: ऐसा ही है ?’
‘तुम यं दे ख लोगे। जन थान से पहले तु ारा सामना र ों से नहीं होगा।’
‘मुिन े ! ताड़का ा र नहीं थी?’
‘तुम जानते हो िक वह यि णी थी। रावण से उसका िकसी भी कार का कोई
संबंध नहीं रहा। सुमाली ने अव अपनी मह ाकां ाओं के चलते उससे स क
िकया था िकंतु वह कभी भी उसे िकसी कार की सहायता प ँ चाने म समथ नहीं हो
पाया। ताड़का ने अपना ाथ साधने के िलए अव रावण के नाम का योग िकया।
ाथवश ही उसने र -सं ृ ित अंगीकार की। ... और अब तो उसके िवषय म सभी
कुछ तुम यं जानते हो, तुमने ही तो उसका वध िकया है ... यं ही िवचार करो िक
ा स ही वह कोई ऐसी श थी िजससे यिद चाहते तो आय नृप पार नहीं पा
सकते थे? अग ही यिद सु रवन म के रहते तो उसे समा कर डालते जैसे
सु को िकया था। िव ािम भी यिद ोध और िहं सा का ाग न कर चुके होते तो
उसे समा करने म समथ थे।’
न राम कुछ बोले, न ल ण।
‘आगे भी संभवत: सव थम िजस रा स से तु ारी भट होगी वह िवराध होगा।’
अि ने कहना चालू रखा- ‘उसका भी न तो रावण से कोई संबंध है और न ही खर-
दू षण से। वह भी मूलत: रा स नहीं है । वह तो तु ु नामक गंधव है जो अपनी
दु ताओं के कारण कुबेर से मार खाकर यहाँ बस गया है आकर। उसे िव ास है िक
लंका के आसपास वह कुबेर से सुरि त रहे गा। वह भी रावण के नाम का उपयोग
कर यहाँ उप व कर रहा है । ऐसे ही अनेक उदाहरण तु आगे दे खने को िमलगे।’
‘तो िफर हमारे िलए ा करणीय है ऋिषवर?’
‘अब यह िवचार करने का समय तीत हो चुका है राम! अब तो वही होगा जो
िविध ने िनि त कर रखा है । नारद का कोई आयोजन कभी िन ल नहीं जाता। अब,
जब तुम वनवास की अविध पूण कर वापस अयो ा लौटोगे तो लंका तु ारे
अिधकार म होगी। रावण का अंत हो चुका होगा।’
‘िकंतु यह सब कैसे होगा ऋिषवर!’
‘िजसने तु यहाँ भेजा है , वही आगे भी माग श करे गा। मा मेरा एक
परामश सदै व रण रखना िक रावण घृणा का पा नहीं है । यिद अवसर िमले तो
उससे ान ा करने का यास करना।’
इसी कार ब त कुछ बात ईं अि के साथ राम की। ल ण ाय: ोता ही बने
रहे ।
ात: जब ये लोग थान के िलए उ त ए तो अनुसूया सीता से बोली-
‘कुछ पल कना पु ी!’ और वह आ म म एक ओर लगी ई फुलवारी की ओर
बढ़ गयीं। जब वे लौटीं तो उनके हाथ म एक छोटी सी िम ी की हाँ डी थी िजसम एक
पौधा लगा आ था।
‘इसे सँभाल कर ले जाना और जहाँ िटकना वहाँ रोप दे ना। इसकी पि यों का लेप
लगाती रहोगी तो जरा (बुढ़ापा) कभी तु ारे पास आने का साहस नहीं करे गी।
तु ारा यह सलोना सौ य सदै व ऐसा ही बना रहे गा।
सभी लोग िवदा लेकर बाहर िनकल आए। सीता के हाथ म आभूषणों की उस
मंजूषा के अित र एक छोटी सी गठरी भी थी। उसम रात म अनुसूया ारा िदए
गए ब मू व बँधे ए थे।
***
अि के आ म से यह छोटा सा दल िव की घािटयों से होता आ अपने
ग - द कार की ओर बढ़ चला।

मश: ...

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