Professional Documents
Culture Documents
राम रावण कथा 3 सुलभ अग्निहोत्री
राम रावण कथा 3 सुलभ अग्निहोत्री
राम
स म िव ु का अ ुदय
उप ास
सुलभ अि हो ी
रे ड ैब बु
यागराज
राम : स म िव ु का अ ुदय (उप ास)
सवािधकार - सुलभ अि हो ी
काशक :
रे ड ैब बु
942, मु ीगंज, यागराज - 211003
एवं
एनीबुक
जी248, ि तीय तल, से र-63, नोयडा - 201301
1. िव ािम के साथ
2. वीय शु ा सीता
3. िव ु से भट
4. िद ा
5. सु ीव-हनुमान
6. ताड़का
7. िस ा म
8. आतंक का अंत
9. च नखा
10. िव ुपद
11. िमिथला की ओर
12. अह ा उ ार
13. धनुषभंग
14. अयो ा म
15. वरया ा
16. िवचार
17. परशुराम
18. िवमाताओं से भट
19. दशरथ का संशय
20. मोद
21. श ूक
22. आचाय शु
23. गौतम के आ म म हनुमान
24. रािनयों को सूचना
25. ल ण और श ु की शपथ
26. युधािजत का संदेश
27. राम और उ र का िव ोह
28. युधािजत का आगमन
29. वनगमन की ावना
30. अिभषेक की तैयारी
31. नगमन की ावना
32. थान
33. िच कूट
34. दशरथ का महा याण
35. भरत का आगमन
36. भरत िच कूट म
37. सं ाम के पथ पर
पू व-कथा
ख एक : पूव-पीिठका
दोनों ही खंडों म कई कथाय समानां तर चलती ह। अलग-अलग कथा म िविभ
पृ भूिमयों से िनकलकर िविभ पा बाद म एक कथा म स िलत होंगे। पहले पूव-
पीिठका की चचा करते ह-
चौथी कथा अग की है -
महिष अग का आ म सु रवन े म था। इस े म सुकेतु नामक य का
शासन था। उसकी पु ी ताड़का अ ंत दीघकाय और बलवान थी। उसका िववाह
सु नामक दै के साथ आ था। सुकेतु के उपरां त ये दोनों ही उस े के
अिधपित ए। ताड़का और सु के पु मारीच और सुबा अपनी उ ं डताओं से
ऋिषयों को िकया करते थे। सु और ताड़का उनकी उ ं डताओं को ब ों का
खेल समझ कर आन त होते थे। अंतत: एक िदन अग ने उन दोनों बालकों को
द त करने का िनणय ले िलया और उ पकड़कर एक कुिटया म बंद कर िदया।
इस पर सु और ताड़का से िववाद बढ़ गया, प रणामत: य -वेदी सु की िचता
बन गयी और अग ारा अिभमंि त अ तों के हार से ताड़का अ ंत कु प हो
गयी।
पाँचवी ं कथा श ूक की है -
श ूक एक रजक (धोबी) कुल का बालक था िजसकी अ यन के ित गहरी
िच थी। वह संयोगवश महामा जाबािल के स क म आया और उ ोंने उसे
िश ा दे ना आरं भ कर िदया। िकसी शू को िश ा दे ने का िवरोध भी आ िकंतु
गु दे व विश का, असहमित के बावजूद, मौन समथन जाबािल को ा था, अत:
श ूक की िश ा चलती रही।
छठी कथा मंगला की है जो पूणत: का िनक पा है -
मंगला अयो ा के े ी मिणभ की क ा थी। उसका एक भाई ‘वेद’ गु कुल म
अ यन करता था। अचानक मंगला को भी वेद पढ़ने की धुन सवार हो गयी। घर
वाले इसके िलए तैयार नहीं थे। बात जाबािल तक भी प ँ ची, उ ोंने मंगला को पढ़ाने
का ाव िदया। मंगला के िपता तो एक बार सोच भी रहे थे िकंतु माता अपने हठ
पर अिडग थीं िक लड़िकयाँ वेद नहीं पढ़ सकतीं। बात ब त बढ़ गयी ... इतनी िक
अंतत: एक िदन माता की बातों से आहत होकर मंगला घर छोड़कर िनकल गयी।
ख दो : दशानन
दशानन म भी कई कथाय आपस म गु फत चलती ह।
मंगला की कथा-
घर से भागी ई मंगला भटकती ई सौभा से एक भले िकसान महीधर के पास
प ँ च गयी। महीधर ने उसका पढ़ने का ढ़ िन य जानकर उसे एक बड़े और भले
वसायी सेनिजत के साथ के साथ कर िदया िक वे मंगला को ले जाकर महाराज
जनक को सौंप द। लड़िकयों के िलए िश ा ा करना िमिथला के अित र कहीं
भी संभव नहीं था। माग म ही साथ को लुटेरों ने लूट िलया। उस लूट म सेनिजत
और उनके पु मारे गए। बाद म पता चला िक इस कां ड म यं सेनिजत के अपने
सुर ाकम ही शािमल थे। यह लूट ठीक अह ा के आ म के नीचे से गुजरते माग
पर ई थी। मंगला को अह ा ने बचा िलया और उसे िशि त करने लगी।
अब आगे ...
1- िव ािम के साथ
राम और ल ण िव ािम के साथ सुंदरवन े म रा सों का उ ात रोकने के
िलए िनकल िलए। दशरथ ने ब त चाहा था िक वे लोग एक े रथ से थान कर,
अयो ा के सुकुमार राजकुमार िकस कार बीहड़ वन ां त म पैदल चल पायगे,
िक ु िष िव ािम ने िवन ता पूवक उनका िनवेदन अ ीकार कर िदया।
ल ी या ा थी। अयो ा से िनकल कर तीनों ने सु रवन जाने के िलए दि ण-पूव
का ख िकया। (सु रवन गंगा और सरयू (घाघरा) के संगम के प ात आज का गंगा
और सोन निदयों के म का े है । यह िबहार म पटना से थोड़ा सा पहले, पि म म
पड़ता है । आज पं0 बंगाल म गंगा के डे ा म जो सु र वन े है उससे यह िभ
है ।)
इनका या ा-माग अिधकां शत: सरयू के िकनारे -िकनारे ही था। जहाँ सरयू िवपरीत
िदशा म घुमाव लेती थी, वहाँ ये उसके साथ घूमने के थान पर सीधा माग पकड़कर
आगे बढ़ जाते थे और सरयू से दू र हो जाते थे। ऐसे म वन-उपवन िमल जाते थे, कहीं-
कहीं छोटे -छोटे ाम िमल जाते थे। थोड़ा आगे जाने पर िफर सरयू आकर उनके
साथ िमल जाती थी।
दोनों भाइयों ने कंधे पर धनुष धारण कर रखा था। पीठ पर तूणीर बँधे थे, कमर म
दोनों ओर कृपाण लटक रही थीं। हाथों म गोह के चम के अंगुिल ाण (द ाने) थे।
राम और ल ण दोनों को ही न तो पैदल चलने से और न ही शारी रक म से
कोई असुिवधा थी, गु कुल जीवन म उ इसका पया अ ास हो गया था। िफर
भी िव ािम के साथ चल पाना किठन हो रहा था। उनकी गित अिव सनीय प से
ती थी।
‘अ ज! िष चलते ह अथवा उड़ते ह?’ चलते-चलते ल ण ने राम की बगल म
आते ए िव यपूवक कहा।
‘उपहास नहीं।’ राम ने तुर वजना दी।
िव त राम भी थे, िक ु उनका चेहरा िनिवकार था। गु जनों के िकसी भी कृ
पर उठाना उनके भाव म नहीं था, िफर ये तो यं िष िव ािम थे,
ि भुवन म सुपूिजत।
‘उपहास नहीं कर रहा ाता, म तो स कह रहा ँ । मने पहले कभी िकसी को
इस गित से चलते नहीं दे खा।’
राम ने कोई उ र नहीं िदया तो ल ण यं ही आगे बोले-
‘वह भी इस अव था म, अद् भुत है ? म यं साथ म न चल रहा होता तो िव ास ही
न करता िक कोई इस अव था म भी िनर र ऐसी गित से चल सकता है ।’
‘हम सुदूर या ा करनी है । यिद इस गित से न चले तो िकतना समय तो या ा म ही
तीत हो जाएगा।’ राम ने उ र िदया।
‘ ाता! ऐसा नहीं तीत होता मानो आगे कहीं मेनका मुिनवर की ती ा म बैठी
हो और िवलंब हो जाने पर ...’ राम की भृकुटी पर पड़े बल दे ख कर ल ण ने
अचानक बात बदल दी- ‘दे खए उधर पेड़ों पर कैसी अिमयाँ लटक रही ह! थोड़ी सी
तोड़ लाऊँ? मा कुछ पल, म दौड़ कर आप दोनों से आ िमलूँगा। ... माग भी आन
से कट जाएगा, अिमयाँ खाते-खाते।’ ल ण चुहल से बाज नहीं आ रहे थे। उनकी
वाकपटु ता से राम के मुख पर भी हँ सी खेलने का यास करने लगी िकंतु उ ोंने
सायास उसे रोक िलया, बस आँ खों म उसकी परछाईं मा िदखाई पड़ी ल ण को।
उनके िलए इतना ही पया था।
‘तो जाऊँ ?’ ल ण ने उ ुकता से िकया।
‘नहीं, चुपचाप चलते चलो। हम िष के साथ अिश ता नहीं कर सकते।’ राम ने
ल ण की ओर दे खे िबना उ र िदया, वे अपनी मु ु राहट ल ण को नहीं िदखाना
चाहते थे।
ल ण ने मायूस होकर मुँह फुलाने का अिभनय िकया। कुछ काल मौन रहा, परं तु
ल ण अिधक दे र तक मौन कैसे रह सकते थे! िव ािम पता नहीं इनकी
फुसफुसाहटों को सुन रहे थे अथवा नहीं, िकंतु इस सबका उन पर कोई भी भाव
पड़ता िदखाई नहीं पड़ रहा था। वे इनके वातालाप से पूणत: िनिल , वैसे ही अपनी
गित से बढ़ते चले जा रहे थे और उनके पीछे -पीछे अयो ा के दोनों राजकुमार भी।
राम के िलए भले ही यह या ा उनके िश ण- िश ण का ही एक भाग थी, िकंतु
ल ण के िलए यह एक, आज की भाषा म कह तो- आउिटं ग थी, िजसका वे पूरा
आन लेना चाहते थे। यही दोनों के च र ों म अ र था। राम पूणत: मयािदत थे तो
ल ण असीिमत ऊजा का िनबाध ु टन। राम का अनुशासन इस ‘िनबाध’ को
सीमा म बाँ धे रखने का काय करता था। ऊजा को अनुशासन ाय: स नहीं होता,
िकंतु ल ण को राम का अनुशासन सदै व ीकार होता था, यह उनके पर र ेह
की पराका ा थी।
इसी तरह चलते-चलते साँ झ होने तक यह छोटा सा कािफला सरयू के िकनारे -
िकनारे पूव की ओर बढ़ता आ, अयो ा से डे ढ़ योजन (लगभग 20 िकलोमीटर) दू र
िनकल आया। साँ झ िघरने लगी थी। अक ात जैसे िव ािम को भान आ िक
राजकुमार थक गए होंगे, वे एक थान पर क गए।
‘व ! हम आज यहीं राि -िव ाम करगे।’
‘जैसी आ ा िष!’ दोनों कुमारों ने सहज भाव से उ र िदया।
पेड़ों के झुरमुट म एक थान पर बैठते ए िव ािम बोले-
‘अपने श ा यहीं रख दो और िफर दोनों सरयू म आचमन कर आओ।’
िनदशों के अनुपालन म कुमारों ने अपने धनुष, तूणीर, कमर म दोनों ओर लटक
रहीं कृपाण आिद वहीं िव ािम के पास रख दीं और यं सरयू की ओर चले गए।
‘बैठो यहाँ , मेरे स ुख।’ जब दोनों कुमार लौट आए तो िव ािम ने अपने सामने
संकेत करते ए कहा।
दोनों कुमार भूिम पर ही बैठ गए।
‘आज म तु बला-अितबला िव ाय दान क ँ गा।’
‘जी!’ दोनों ने उ र िदया।
‘जानते हो इन िव ाओं का ा उपयोग है ?’
‘जी, गु दे व ने बताया था िक इन िव ाओं के ान से भूख- ास और िन ा पर
िनय ण ा िकया जा सकता है ।’ राम ने उ र िदया।
‘मा ान से नहीं, इन िव ाओं के स क् अ ास से। िव ा तो मा एक यं है ,
तु ारे इस धनुष के समान। मा धनुष हाथ म पकड़ लेने भर से ल वेध नहीं हो
सकता। साधना-पूवक अ ास करना पड़ता है तब सटीक ल वेध की साम
अिजत होती है । इसी भाँ ित िकसी भी िव ा का साधना-पूवक अ ास करना पड़ता
है तभी वह िव ा उपादे य िस होती है ।’
‘जी गु दे व!’ दोनों कुमारों ने समवेत र म कहा।
ल ण जो कुछ समय पूव तक अ ा िवचारों म म थे, एकदम से पूणत:
एका हो गए। यही उनकी िवशेषता थी।
िव ािम कुमारों को दोनों िव ाओं का ान दे ने लगे। ाश- ाश का म, अंग-
संचालन, ान और मं सभी िव ािम ने कुमारों को भलीभाँ ित समझाये। एक मु त
का समय लगा इस सबम।
िव ाओं का ान दे ने के उपरां त िव ािम बोले-
‘इन िव ाओं के अ ास से की अती य श याँ जा त हो जाती ह।
िजतना अिधक इनका अ ास कर लोगे, तु ारी अती य श याँ उतनी ही
अिधक जा त हो जाएँ गी। इन िव ाओं को िस कर लेने के उपरां त कुछ पलों की
िन ा ही तु ारे िलए पया होगी। कई-कई िदनों तक भोजन ा न होने पर भी
तु ारी काय मता भािवत नहीं होगी। तु ारी एका ता, तु ारी रणश ,
तु ारी िनरी णश सब इतनी िवकिसत हो जाएँ गी िक तुम यं अचंिभत रह
जाओगे।
‘इन िव ाओं का आिव ार यं िपतामह ा ने िकया था, इस कार ये दोनों
िव ाय िपतामह की तेज नी क ाय ह।’
इतना कहकर िव ािम कुछ पल के और दोनों कुमारों की आँ खों म बारी-बारी
झाँ का। ल ण की आँ खों म तैर रहा था।
‘कोई शंका है ल ण?’
‘एक है गु दे व ...’ ल ण अपनी िज ासा रोक नहीं पाए।
‘पूछो ...’ िव ािम ने मु ु रा कर ल ण की आँ खों म झाँ कते ए ही कहा।
‘यिद ये िव ाएँ इतनी ही चम ारी ह, तब गु दे व ने हम पूव म इनका अ ास
ों नहीं करवाया?’
‘उिचत होता िक इस का उ र तु ारे गु दे व ही दे ते।’ िव ािम हठात्
मु ु रा पड़े ।
‘िक ु वे तो यहाँ उप थत ह नहीं!’
िव ािम कुछ ण वैसे ही स त ल ण की आँ खों म झाँ कते रहे िफर बोले-
‘ये अ ंत िविश गोपनीय िव ाएँ ह। ि लोक म कुछ ही यों को इनका ान
है । संभवत: इसीिलए तु ारे गु दे व ने अभी तक तु इनका अ ास नहीं करवाया।
संभव है भिव म करवाते, िक ु िविध ने यह काय मेरे मा म से स ािदत होना
सुिनि त कर रखा होगा, अतएव यह अवसर मुझे दान िकया।’
‘गु दे व को ान है इन िव ाओं का?’
‘िनि त ही है । ऐसी कौन सी िव ा है िजसका उ ान नहीं है !’ िव ािम ने यह
वा िजस िवमु भाव से कहा, उससे दोनों कुमार िव य और गौरव से भर गए।
हाँ , राम का चेहरा िनिवकार ही बना रहा पर ल ण ने अपने भाव िछपाने का कोई
यास नहीं िकया।
विश और िव ािम के म चली आ रही भयंकर ित ता की कहािनयाँ अब
अतीत का िवषय हो चुकी थीं। िव ािम अब अ ा के उस र को श कर
चुके थे, जहाँ लोभ, मोह, भय, ोध, ित ा, मह ाकां ा आिद िकसी भी भाव के
िलए कोई थान शेष नहीं बचता। सम जीवन और सम साम , की ा
और लोक-क ाण - इन दो महत् उ े ों को ही समिपत हो जाती है ।
विश तो पहले ही उस र को ा िकए ए थे।
‘और कोई ल ण?’ गु दे व िव ािम ने िकया।
ल ण, राम के चेहरे की ओर दे खने लगे। राम का चेहरा अभी भी िनिवकार था,
ल ण वहाँ कोई िज ासा नहीं खोज पाये तो वापस गु दे व की ओर मुड़ कर नकार
म िसर िहला िदया।
‘तो िफर शयन को ुत आ जाए।’ कहते ए गु दे व ने अपना उ रीय वहीं
भूिम पर िबछा िदया और लेट गए।
गु दे व के लेट जाने पर राम आगे बढ़कर उनके पैर दबाने लगे। जब यौवन म
वेश करती वय वाले, ऊजा से भरपूर उन दोनों को कुछ-कुछ थकान का अनुभव
होने लगा था, तब गु दे व तो वृ ाव था म वेश कर चुके थे। ल ण ने भी राम का
अनुसरण िकया।
गु दे व ने उ रोका नहीं िक ु अिधक दे र वह ि या चलने भी नहीं दी। कुछ ही
दे र म िनदश िदया-
‘हो गया अब, बस करो। तुम लोग भी शयन करो।’
दोनों कुमार भी अपने-अपने उ रीय िबछा कर लेट गए िकंतु आँ खों म नींद कहाँ
थी अभी!
‘ ाता! सो गए ा?’ ल ण ने राम की ओर करवट लेते ए पूछा।
‘अभी नहीं, बताओ?’
‘आपने दे खा था- िपताजी ताड़का, मारीच और सुबा का नाम सुनकर िकतना
भयभीत से तीत हो रहे थे।’
‘हाँ ! िक ु िपताजी अतीव वृ हो चुके ह।’
‘वृ ाव था शरीर की श को ीण करती है , मन की श को नहीं !’
‘ ा ता य है तु ारा?’ ल ण की बात सुनकर राम ने भी उनकी ओर करवट
बदल ली।
ल ण ने कोई उ र नहीं िदया। कुछ िवचार करते रहे । कुछ पल ती ा करने के
उपरां त राम आगे बोले-
‘िपता के वहार पर िवचार करने का हम अिधकार नहीं है । हम अपने कत ों
का िनवहन करना है । सो जाओ अब।’
‘म िपता के वहार का अनुशीलन नहीं कर रहा ाता। म तो मा इस ओर
संकेत कर रहा ँ िक यिद िपता भयभीत थे तो िन य ही वे दोनों दु दमनीय यो ा
होंगे।’
‘िनि त ही होंगे।’
‘तो ा हमारे िलए यह उिचत नहीं होगा िक थम उनकी वा िवक श का
आकलन कर तदु परा योजनाब ढं ग से उन से यु कर? हम अभी तक यु का
कोई अनुभव नहीं है । अित-आ िव ास भी घातक हो सकता है ।’
‘िनि त ही गु दे व ने इस िवषय म िवचार िकया होगा। मुझसे गु विश ने कहा
था िक अब हमारे आगे के िश ण का दािय गु दे व िव ािम का है । वे हम
ि या क िश ण दगे। यह अिभयान उसी िश ण का एक अंग है ।’ रावण का
नामो ेख िकए िबना राम ने ल ण को संतु करने का यास िकया। (दे ख
दशानन)
‘ ँ !’ ल ण ने कहा। िफर आगे बोले- ‘गु दे व ने अपना काय आरं भ भी तो कर
िदया है । आज ही हम थम दी ा दे दी है ।’
‘ तीत होता है , यह दोनों गु ओं की कोई साँ झी काययोजना है , िजससे िपता भी
अनिभ ह। अत: हमारे िलए उिचत यही है िक कोई िकए िबना िष के
िनदशों का अनुपालन करते रह। इसे कोई अिभयान न समझ कर िश ण का ही
एक भाग मान कर चल।’
‘हाँ !’ कुछ पल सोचने के उपरां त ल ण आगे बोले- ‘यिद गु विश ने पूव म ही
आपसे ऐसा उ ेख िकया था, तब तो यही तीत होता है ।’
‘तो अब सो जाओ। यिद चाहना तो कल गु दे व से इस िवषय म अपनी िज ासा के
शमन का यास करना।’
िक ु दू सरे िदन ल ण ने ऐसा नहीं िकया।
2- वीयशु ा सीता
जैसा नारद ने परामश िदया था, सीर ज जनक ने सीता को वीयशु ा (िजससे
िववाह हे तु िकसी िवशेष परा म को शु प म िनधा रत कर िदया गया हो।
दे खए दशानन।) घोिषत कर िदया था।
यह कोई यंवर नहीं था। सीता की अपनी आकां ा के िलए इसम कोई थान
नहीं था। जो भी पु ष उस धनुष पर शर-संधान कर दे ता, उसी को पित- प म वरण
करना सीता के िलए बा कारी था।
यह कोई िनि त समय पर होने वाला आयोजन भी नहीं था, घोषणा हो जाने के
उपरा जब तक कोई िनयमानुसार िनधा रत शत को पूरा कर िशवधनुष पर
शर-संधान करने म सफलता ा नहीं कर लेता, तब तक ितयोिगता खुली थी।
ऐसा सीता के वीयशु ा घोिषत होने के पहले िदन भी हो सकता था और वष तक
भी ती ा करनी पड़ सकती थी।
इसके िलए कोई उ व भी ािवत नहीं था। रा के सम काय िनर र
सामा िदनों की ही भाँ ित स ािदत हो रहे थे। िजस िदन भी कोई ाशी उप थत
होता था, उसे एक िदन रा का आित दान िकया जाता था और िफर दू सरे िदन
ितयोिगता म भाग लेने का अवसर दान कर िदया जाता था।
िविधवत िनम ण ेिषत कर िकसी को आम त भी नहीं िकया गया था। बस
सीता के वीयशु ा होने की घोषणा सा रत कर दी गयी थी। कोई भी ि य अथवा
ा ण आकर अपनी ािशता ुत कर सकता था। यह ‘बदनाम होंगे तो ा
नाम न होगा’ वाला समय नहीं था, यं को िवशेष परा मी समझने वाले ही आ रहे
थे ... परं तु उनकी सं ा भी कम नहीं थी। आरं भ म तो यह सं ा अिधक ही थी।
धनुधरों की कोई कमी नहीं थी और ि यों म तो ेक पु ष ही धनुधर था।
ािशयों म युवा भी थे, ौढ़ भी और वृ भी थे।
सीर ज को इन ौढ़ और वृ परा िमयों की कोई िचंता नहीं थी। उ नारद के
वचनों पर िव ास था िक इस सृि म दे व यी ( ा, िव ु, महे श) और यं उनके
(जनक के) अित र मा चार ही थे जो िशवधनुष पर शरसंधान करने की
साम रखते थे - रावण, परशुराम, िव ािम और शु ाचाय। इनम से िकसी को भी
अब िववाह म कोई िच नहीं थी। नारद ने सीता के यो दो ही वर बताए थे - राम
और इ िजत मेघनाद। इनम से राम को िव ािम ारा िशि त कर यो बनाया
जाना था और उ ीं के ारा सीता का वरण िकया जाना था। रावण अपने पु मेघनाद
को इस हे तु िशि त कर ुत ों नहीं करे गा? यह न तो सरलमना सीर ज ने
नारद से पूछा था और न ही कूटनीित नारद ने बताया था। िफर भी सीर ज िनि ंत
थे िक राम ही सीता का वरण करगे।
सीता के सौ य और गुणों की ाित चतुिदक ा थी, िक ु तब भी एक
आशंका थी िक ा आयावत के कुलीन ि य एक अ ात कुल-गो की क ा को
हण करना ीकार करगे? सामा थितयों म दशरथ सीता को अपनी पु वधू के
प म ीकार करते, इसकी नारद और सीर ज दोनों को ही कोई संभावना नहीं
तीत हो रही थी। यही तो कारण था िजसके चलते नारद ने सीर ज को सीता को
वीयशु ा घोिषत करने का परामश िदया था। वीयशु ा क ा को अपने परा म
से िविजत करने म छा दप को तुि ा होती, तब दशरथ की ओर से आपि का
कोई कारण शेष नहीं रह जाता। आगे राम के च र पर नारद को पूण िव ास था
और नारद के िव ास म सीर ज का िव ास था।
पहले ही कहा िक सीता के शील और सौ य की ाित सव ा थी। परं तु
अब उनकी तेज ता की ाित उससे भी दू नी गित से फैल रही थी। इसके पीछे भी
एक कथा है ।
कहा जाता है िक यह वही धनुष था िजससे भु िशव ने द के य का िव ंस
िकया था। बाद म दे वताओं ारा ाथना करने पर वे शां त ए और धनुष दे वताओं
को समिपत कर िदया। दे वताओं ने धनुष को धरोहर के प म सीर ज जनक के
पूव-पु ष दे वरात के पास रखवा िदया। तभी से यह धनुष धरोहर के प म जनक
के कुल म रखा चला आ रहा था।
यह धनुष थाई प से एक पिहयों वाली ब त बड़ी सी छकड़े नुमा गाड़ी पर रखा
आ था, िजसे खींचने के िलए ब त सारे िवशालकाय म -यो ा लगते थे। इसके
ऊपर एक ढ न भी था, िजसे कभी भी उठाकर अलग रखा जा सकता था।
अपने ऊपर िशव-धनुष को सँभाले यह िवशाल छकड़े नुमा गाड़ी राजभवन के एक
क म खड़ी रहती थी। धनुष ढ न से ढँ का रहता था। सभी को पता था िक इस
ढ न के नीचे भु िशव का िविश धनुष रखा आ है । िजस िवषय का हम सहज
ही सं ान होता है , उसके िवषय म िवशेष जानने की िज ासा उ नहीं होती। िदन
के समय, कोई भी जाकर उसे ा से णाम कर सकता था। इस कारण वह धनुष
लोगों के िलए आ था का क तो था, िज ासा का नहीं। यिद इस िवषय म कोई
ितबंध लगाया गया होता तो संभवत: अिधक िज ासाय ज लेतीं।
सीता भी िन ही एक बार उस क म जाकर ढ न हटाकर आ थापूवक धनुष
को णाम करती थीं परं तु िजस िदन से उ वीयशु ा घोिषत िकया गया, उनके
मन म इस धनुष के िवषय म िज ासा उ हो गयी। ाभािवक भी था।
सीता ल ी, खूब थ िकशोरी थीं। यौवन से भरपूर। उ ाह और ऊजा से
भरपूर। अपनी िज ासा से े रत, एक िदन सबसे छु पकर वे क म प ँ चीं। पहले-
पहल उ ोंने स दूक का ढ न उठाकर, मा धनुष का ानपूवक िनरी ण िकया।
उ ोंने पाया िक धनुष सामा धनुषों से आकार म ब त बड़ा है । वह का का नहीं
िकसी िवशेष धातु का बना आ है और सामा धनुषों की अपे ा ब त मोटा भी है ।
ऐसा धनुष सीता ने दू सरा कोई नहीं दे खा था।
दू सरे िदन वे पुन: उसी कार क म प ँ चीं। इस बार उ ोंने धनुष को छूकर भी
दे खा, िफर उठाने का यास भी िकया। परं तु अपनी स ूण श का योग करने
के बाद भी वे उसे रं चमा िहला भी नहीं पायीं। उनके माथे पर पसीना झलक आया
पर धनुष जैसे का तैसा ही रखा रहा।
अब तो वे िन ही वहाँ जाने लगीं। असफलता उनकी िज ासा को बढ़ाती ही जा
रही थी, उनके उस धनुष को उठाने के संक को िन ढ़तर ही करती जा रही
थी। वे िभ -िभ उपायों से यास करने लगीं। सारे धनुष को टटोल डाला ... शायद
कोई िवशेष तकनीक योग की गयी हो ... िकंतु कुछ भी समझ नहीं आया। उ
िनराशा होने लगी। वे भी सोचने लगीं िक इस धनुष को तो िहलाया ही नहीं जा
सकता। तब ा उ कुँवारी ही रहना पड़े गा?
एक िदन, संयोगवश जब वे अपने िन के यास म लगी ई थीं, तभी महाराज
सीर ज भी वहाँ आ प ँ चे। वे थोड़ी दे र मु ु राते ए सीता को दे खते रहे । सीता का
ान उनकी ओर नहीं था। िफर महाराज ने धीरे से सीता का कंधा थपथपाया। इस
अक ात श से सीता िसहर उठीं। उ ोंने ि उठाकर दे खा ... िपता थे। ा
िपता ोिधत होंगे? उनके ललाट पर ेद-िबंदु झलक उठे । िकंतु पल भर म ही
उ ोंने यं को संयत िकया और िफर मु ु रा दीं।
सीर ज ने सीता पर ोध नहीं िकया। ोध तो वे करते ही नहीं थे, िफर सीता तो
उनकी िवशेष दु लारी थीं।
‘यह ऐसे नहीं होगा।’ सीर ज बोले- ‘आओ म तु बताता ँ ।’
िफर वे धनुष के िसरों के म की ओर खड़े ए-
‘ ान से दे खना ...’ कहते ए उ ोंने धनुष को णाम िकया और िफर झुक कर
अपने दोनों हाथ उसके म भाग पर रख िदए।
सीता पूरे ान से दे ख रही थीं।
‘िगनना ...’ महाराज बोले। बोलने के साथ ही उ ोंने अपनी मुि याँ धनुष के म
भाग पर कस दीं और दोनों हाथों को एक-दू सरे की िवपरीत िदशा म इस कार
घुमाना आरं भ िकया जैसे हम िकसी चीज की चूिड़याँ खोलते ह। उ ोंने पाँ च बार यह
ि या दोहराई, िफर धनुष की ंचा को खींचा। ंचा एक िसरे पर बँधी ई थी,
दू सरे िसरे पर चढ़ाई जानी थी। महाराज ने उसे चढ़ाने का कोई यास नहीं िकया।
उ ोंने खाली वाले िसरे को उमेठ कर एक पूरा च र घुमा िदया। उनकी भुजाओं
की, कंधे की और पीठ की तनी ई मां सपेिशयाँ बता रही थीं िक इसम उ भरपूर
श लगानी पड़ रही है । एक बार उ ोंने पुन: ंचा को खींचा। इस बार भी
उनकी भुजाओं के तने ए ायु बता रहे थे िक उ भरपूर श का योग करना
पड़ रहा है । उनके म क पर ेद झलकने लगा िकंतु वे अपने यास म सफल ए,
धनुष का म भाग लगभग एक अंगुल और अंदर की ओर झुक गया।
उ ोंने एक लंबी साँ स ली और ि उठाकर सीता की ओर दे खा। वे आ यचिकत
सी पूरे ान से स ूण ि या को दे ख रही थीं। िपता की उठी ि को दे खकर
उ ोंने अपना िसर ह े से िहला िदया, वे ि या को समझ रही थीं।
उसके उपरां त सीर ज ने अपने दोनों हाथों की उँ गिलयों को अलग-अलग कोण
पर मोड़ते ए अपने हाथों को धनुष के िकनारों की ओर सरकाना आरं भ िकया। जब
उनके हाथों ने आधी दू री तय कर ली तो एक खट् की िन यी। उ ोंने मु ु राकर
सीता की ओर दे खा। सीता ने धीरे से िसर िहला िदया, वे समझ रही थीं। अब
सीर ज ने अपने दोनों हाथ धनुष के घूमे ए िकनारों पर रखे और उँ गिलयों को पुन:
िवशेष कोण पर मोड़ा। उ ोंने िफर से िसर उठाकर सीता की ओर दे खा। सीता ने
पुन: मंद त के साथ िसर िहलाया। अब महाराज ने अपने हाथों को उसी कार
म की ओर सरकाना आरं भ िकया। एक बार िफर जब हाथों ने आधी दू री तय कर
ली, तो एक खट का र आ। उनके मुख पर संतोष की मु ान फैल गयी। अब
उ ोंने अपने दोनों हाथ पूरी ढ़ता से धनुष के म भाग पर िटकाए और श
लगायी ... धनुष अपने थान से थोड़ा सा उठ आया। महाराज ने उसे पूरा उठाने का
यास नहीं िकया, वैसे ही वापस रख िदया।
वे सीधा खड़े ए। सीता की ओर ि उठाई।
‘ ि या दय थ की?’ उ ोंने पूछा।
‘हाँ , िपताजी। जिटल है िक ु अब म भी कर लूँगी।’
सीर ज ने पुन: सारी ि या उ ी दोहरायी, िफर पीछे हट गए और सीता के
िलए थान र कर िदया।
इस बार सीता ने स ूण ि या दोहरायी। एक बार उ ककर, बस दो पल के
िलए सोचना पड़ा िकंतु उ ोंने िबना िकसी ुिट के काय स कर िलया। उ ोंने
अपने िपता के समान मा धनुष को थोड़ा सा उचका कर वापस नहीं रख िदया,
उ ोंने दोनों हाथों से उसे पूरा उठा िलया- िबलकुल सीधे सामने तानकर। इस ि या
म उनकी ास ती हो गयी, भुजाओं के ही नहीं पीठ के ायु भी तन गए, ललाट पर
अनेक ेद-िबंदु मचल पड़े , िक ु उनके रोम-रोम म अतीव स ता नतन कर रही
थी।
इसी बीच अक ात् एक कमचारी महाराज से कुछ पूछने के िलए उस क के
वेश ार पर आ गया। उसने जैसे ही सीता को धनुष थामे दे खा, अचंभे से उसकी
आँ खे फटी की फटी रह गयीं। वह महाराज और राजकुमारी को णाम िनवेदन
करना भी भूल गया। िन य ही यह एक अचंभा था। िजस धनुष को कोई नहीं उठा
सकता था, उसे कोमलां गी राजकुमारी ने उठा िलया था।
सीता का पूरा ान धनुष की ओर ही था िकंतु सीर ज ने उस कमचारी की
उप थित को ल िकया। उ ोंने ह े से सीता का कंधा थपथपाते ए धनुष को
यथािविध-यथा थान रखने का संकेत िकया और मु ु राते ए ार की ओर ... उस
हकबकाए कमचारी की ओर बढ़ गए।
उसके बाद तो धीरे -धीरे स ूण िमिथला म और िफर स ूण आयावत म सीता की
ाित फैल गयी िक िजस धनुष को बड़े से बड़ा यो ा नहीं उठा सकता, उसे
राजकुमारी ने खेल-खेल म उठा िलया। सीता की दै वीय श का इससे बड़ा माण
और ा हो सकता था!
इधर सीता को अनुभव हो रहा था िक भले ही उ ोंने धनुष को उठा िलया था,
िकंतु उसकी ंचा चढ़ा पाना उनकी साम के बाहर की बात थी। पर इसका उ
कोई क भी नहीं था। वे तो स थीं िक धनुष को उठाया जा सकता है । इसिलए भी
स थीं िक उ िपता के िव ास पर िव ास हो गया था, िक इतनी जिटल ि या
को मा वही स ािदत कर सकेगा िजसका िविध ने उनके िलए चयन कर
रखा है । सपनों के उस राजकुमार की छिव भले ही अभी उनके ने ों म नहीं
यी थी ... िकंतु उ जैसे उससे अभी से ार हो गया था।
***
अनेक राजपु ष आ रहे थे। वे आते थे, यास करते थे, ाणपण से यास करते थे
... और अंतत: िनराश लौट जाते थे। सीर ज जनक ेक राजपु ष की
असफलता पर ोभ और िनराशा का दशन करते थे, पर वह दशन मा ही होता
था, एक साधु पु ष की िकसी हताश के शोक म सहभािगता। व ुत: तो उ
राम की ती ा थी। उ ती ा थी िक नारद कौन सा चम ार कर राम को सीता
के वरण के िलए लेकर आते ह ... साथ ही िकस कार राम को उस महान धनुष के
संधान की िव ा से प रिचत करवाते ह। वे ती ा कर रहे थे ... िनरास -िनरपे
भाव से।
राजपु षों म अब असंतोष भी पनपने लगा था िकंतु सीर ज अभी भी िनि थे।
एक िदन उनका यह िनरपे भाव आहत आ। लंकापित रावण ... अब तो
ि लोके र रावण, धनुष के दशन हे तु उप थत था। कौन मान सकता था िक दशन
का अथ ितयोिगता म ितभाग करना नहीं था?
सीर ज के भीतर बैठा िपता चाह रहा था िक वे अपने श ों की मयादा तोड़ द
और रावण को ितभाग की अनुमित न दान कर। कैसे कोई िपता अपनी दु लारी
क ा, आयु म उससे इतने बड़े िकसी को सौंप सकता था! पर ु कोई कारण
नहीं था उनके पास रावण को िनषेध करने का। वह मा राजपु ष ही नहीं,
ि लोके र था। वण म ा ण था, यं िपतामह ा के वंश से था। कैसे रोक सकते
थे उसे? अभी तक उ नारद के िव ास पर िव ास था िक रावण ितभाग का यास
नहीं करे गा िकंतु अब तो वह िव ास िम ा िस होता िदखाई पड़ रहा था। रावण के
ितभाग करने का अथ ... यं नारद ने ही कहा था िक रावण को िविध ात है ।
अब ा होगा? ... ा उनकी पु ी?... इसके आगे वे नहीं सोच पाए।
उनका दय धड़क रहा था। धड़कते दय से ही उ ोंने रावण का ागत-
स ार िकया और िफर धड़कते दय से ही अगले िदन धनुष को सभा-क म लाए
जाने का आदे श िदया। राजसभा म वे और अंत:क म महारानी सुनैना ... दोनों के
ने धुँधला रहे थे। कुछ भी अ ा नहीं लग रहा था। उन दोनों के िवपरीत सीता शां त
थीं ... सहज थीं। उ य िप ात नहीं था िक उनके िपता और दे विष म व ुत: ा
वाता ई थी ... उ ोंने जानने का यास ही नहीं िकया था ... उनके शील और
संकोच ने यास करने की इ ा ही कट नहीं की थी, तथािप उ अपने सौभा
पर भरोसा था।
दू सरे िदन, धनुष सभाक म लाया गया। महारानी और सीता भी आ गयी थीं।
रावण ने कुछ पल सीता को दे खा, िफर अपनी आँ ख मूँद लीं ... जैसे सीता की उस
छिव को अपने अंत:करण म थािपत कर रहा हो। िफर उसने आँ ख खोलीं और
सीता की ओर दे खे िबना ही धनुष की ओर घूमा। अपने पद ाण वहीं उतारे , अपना
िकरीट उतार कर िसंहासन पर रख िदया और धनुष की ओर बढ़ गया। धनुष के
पास प ँ च कर उसने दोनों हाथ जोड़े आँ ख बंद कीं और कुछ दे र स र िशव-
ता व ो म् का पाठ करता रहा। उसके र से वहाँ उप थत सभी स ोिहत हो
उठे । उतनी दे र के िलए सीर ज और महारानी सुनयना भी अपनी ता को
भूलकर, उस ो के साथ िशव की जटाओं म िकलोल करती भागीरथी म म न
करने लगे।
िफर रावण ने धनुष के स ुख अपना म ा टे क िदया और कुछ बुदबुदाता रहा।
िफर उठा, मुड़ा ... वापस आकर अपना िकरीट धारण िकया, पद ाण धारण िकये
और थान की अनुमित माँ गने की मु ा म सीर ज के स ुख हाथ जोड़ िदए।
उसने धनुष को उठाने का यास करना तो दू र, उसे श भी नहीं िकया था।
मश: ...