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प्रमाद - असावधानी

निद्राया लोकवार्तायाः शब्दादे रपि विस्मृ तेः। 


क्वच्चिन्नावसरं दत्त्वा चिन्तयात्मानमात्मनि ॥२८७॥
निद्रा, लौकिक बातचीत अथवा शब्दादि किसीसे भी आत्मविस्मृ तिको अवसर न दे कर अर्थात् किसी
भी कारणसे स्वरूपानु सन्धानको न भूलकर अपने अन्त:करणमें निरन्तर आत्माका चिन्तन करो।

प्रमादो ब्रह्मनिष्ठायां न कर्तव्यः कदाचन। 


प्रमादो मृ त्यु रित्याह भगवान्ब्रह्मणः सु तः ।। ३२२॥
ब्रह्मविचारमें कभी प्रमाद (असावधानी) न करना चाहिये , क्योंकि ब्रह्माजीके पु त्र (भगवान्
सनत्कुमारजी)-ने 'प्रमाद मृ त्यु है '-ऐसा कहा है । 

न प्रमादादनर्थोऽन्यो ज्ञानिनः स्वस्वरूपतः। 


ततो मोहस्ततोऽहं धीस्ततो बन्धस्ततो व्यथा॥३२३॥
विचारवान् पु रुषके लिये अपने स्वरूपानु सन्धानसे प्रमाद करने से बढ़कर और कोई अनर्थ नहीं है ,
क्योंकि इसीसे मोह होता है और मोहसे अहं कार, अहं कारसे बन्धन तथा बन्धनसे क्ले शकी प्राप्ति
होती है ।

विषयाभिमु खं दष्ट् वा विद्वांसमपि विस्मृतिः। 


विक्षे पयति धीदोषै र्योषा जारमिव प्रियम्॥ ३२४॥
जिस प्रकार कुलटा स्त्री अपने प्रेमी जार-पु रुषको उसकी बु दधि ् बिगाड़कर पागल बना दे ती है उसी
् दोषोंसे विक्षिप्त कर
प्रकार विद्वान् पु रुषको भी विषयोंमें प्रवृ त्त होता दे खकर आत्मविस्मृति बु दधि
दे ती है ।

यथापकृष्टं शै वालं क्षणमात्रं न तिष्ठति।


आवृ णोति तथा माया प्राज्ञं वापि पराङ्मु खम्॥ ३२५॥ 
जिस प्रकार शै वालको जलपरसे एक बार हटा दे नेपर वह क्षणभर भी अलग नहीं रहता, [ तु रन्त ही फिर
उसको ढं क ले ता है ] उसी प्रकार आत्म-विचार-हीन विद्वान्को भी माया फिर घे र ले ती है ।

लक्ष्यच्यु तं सद्यदि चित्तमीषद्


बहिर्मुखं सन्निपते त्ततस्ततः।
प्रमादतः प्रच्यु तकेलिकन्दुकः 
सोपानपङ्क्तौ पतितो यथा तथा॥३२६ ।।
जै से असावधानतावश (हाथसे छट ू री सीढ़ीपर
ू कर) सीढ़ियोंपर गिरी हुई खे लकी गें द एक सीढ़ीसे दस
गिरती हुई नीचे चली जाती है वै से ही यदि चित्त अपने लक्ष्य (ब्रह्म)-से हटकर थोड़ा-सा भी बहिर्मुख
हो जाता है तो फिर बराबर नीचे हीकी ओर गिरता जाता है ।

सं कल्पयति विषये ष्वाविशच्चे तः तद्गुणान्। 


सम्यक्सं कल्पनात्कामः कामात्पु ं सः  प्रवर्तनम्॥ ३२७॥ 
विषयोंमें लगा हुआ चित्त उनके गु णोंका चिन्तन करता है , फिर निरन्तर चिन्तन करने से उनकी कामना
जागृ त होती है और कामनासे पु रुषकी विषयोंमें प्रवृ त्ति हो जाती है ।

ततः स्वरूपविभ्रंशो विभ्रष्टस्तु पतत्यधः । 


पतितस्य विना नाशं पु नर्नारोह ईक्ष्यते । 
सङ्कल्पं वर्जये त्तस्मात्सर्वानर्थस्य कारणम् ॥ ३२८ ॥ 
विषयोंकी प्रवृ त्तिसे मनु ष्य आत्मस्वरूपसे गिर जाता है और जो एक बार स्वरूपसे गिर गया, उसका
निरन्तर अध:पतन होता रहता है तथा पतित पु रुषका नाशके सिवा फिर उत्थान तो प्राय: कभी दे खा
नहीं जाता है । इसलिये सम्पूर्ण अनर्थोके कारणरूप सं कल्पको त्याग दे ना चाहिये ।

अतः प्रमादान्न परोऽस्ति मृ त्यु -


र्विवे किनो ब्रह्मविदः समाधौ। 
समाहितः सिद्धिमु पैति सम्यक्  
समाहितात्मा भव सावधानः॥३२९॥
इसलिये विवे की और ब्रह्मवे त्ता पु रुषके लिये समाधिमें  प्रमाद करने से बढ़कर और कोई मृ त्यु नहीं है ।
समाहित पु रुष ही पूर्ण आत्म-सिद्धि प्राप्त कर सकता है ; इसलिये
सावधानतापूर्वक चित्तको समाहित (स्थिर) करो।

kaho bharoso deh ko, vinashi jaay chinn maahi


shwaas shwaas sumiran karo, aur jatan kachu naahi

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