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संगति का प्रभाव-

मनु ष्य में मनु ष्यता का प्रादुर्भाव सं गति से ही होता है जिसे सं स्कार कहते हैं । बच्चा सबसे पहले परिवार के सं गत में
रहता है इसलिये परिवार के परिवे श और सं स्कार का बच्चों पर अमिट प्रभाव पड़ता है । इसलिये सभी लोग कहते हैं
कि बच्चों को धन दो या न दो सं स्कार अवश्य दीजिये ।

संगति क्या है ?

मनु ष्य एक सामाजिक प्राणी है । मनु ष्य का जीवन समाज में उत्पन्न होता है और समाज मे ही विलु प्त हो जाता है ।
प्रत्ये क मनु ष्य अपने जीवन में जड़ और चे तन के सं पर्क में होता है । इन्हीं जड़ चे तन के सं पर्क में सतत रहने के कारण
मनु ष्य पर इसका प्रभाव निश्चित रूप से ही पड़ता है । ‘मनु ष्यों का जड़ चे तन के साथ सं ल्गनता, सं लिप्ता और उनके
प्रभाव से प्रभावित होना सं गति कहलाता है ।’ जड हमारे चारों के ओर के अचल, निर्जीव  वस्तु   है जै से प्रकृति
प्रदत्त  नदि-नाले , पर्वत-पहाड़ आदि या मानव निर्मित मोबाइल, ले पटॉप, टी.वी. आदि आते हैं ं वहीं चे तन के अं तर्गत
जीवित प्राणी आते हैं । किन्तु वै चारिक परिवर्तन केवल मनु ष्य ही कर सकते हैं इसलिये मनु ष्य को चे तन स्वीकार किया
गया बाकी प्राणी पे ड़-पौधे , पशु -पक्षी आदि को जड़ रूप में ही माना गया ।

जड़ चे तन गु ण दोष मय-

रामचरित मानस में गोस्वामी तु लसीदासजी लिखते हैं कि-


जड़ चे तन गु ण दोष मय, बिस्व किन्ह करतार ।
संत हंस गु ण गहहिं पय, परिहरि बारि विकार ।।
सृ ष्टिकर्ता ने सृ ष्टि में जड़ चे तन को गु ण और अवगु ण यु क्त  रचा है । गोस्वामीजी कहते हैं इस गु ण-दोष मय जड़ चे तन
से उसी प्रकार गु ण को ग्रहण करना चाहिये जै से हं स जलयु क्त दध ू से केवल दध ू को ग्रहण करता है । गु ण और दोष में
दोष को पृ थ्क करते हुये केवल गु ण को ग्रहण करने वालों को ही गोस्वामीजी संत की संज्ञा दे ते हैं ।

कुसंग क्या है ?

बु राई का सं ग करना कुसं ग है । अर्थात बु रे व्यक्ति या बु री वस्तु के सं पर्क में रहना । बु राई क्या है ? इस पर चिं तन करना
आवश्यक है समग्र रूप में जिस कार्य से सृ ष्टि की हानि हो उसे बु राई कहा जाता है । आजकल इसके लिये अमानवीय
शब्द अधिक प्रचलन में है । इस प्रचलित शब्द का अर्थ केवल इतना ही है कि जिस कर्म या कार्य से किसी भी मनु ष्य
को नु कसान हो वह बु राई है । जो व्यक्ति या जो वस्तु मनु ष्य का अहित करता हो उनकी सं गति करना ही कुसं ग है । 

सुसंग क्या है ?

निश्चित रूप से यह कुसं ग का विलोम है । अच्छे का सं ग करना सु संग है । अच्छे व्यक्ति या अच्छी वस्तु के सं पर्क में
रहना सु संग है । अच्छाई क्या है ? अच्छाई एक कर्म है जिसके किये जाने से सृ ष्टि का लाभ होता है , सृ ष्टि सं रक्षित और
सं वर्धित होता है । प्रचलित भाषा में मानवता का सं रक्षण और सं वर्धन करना ही अच्छाई है । अच्छे कर्म करने वाले
लोग ही अच्छे हैं और इनकी सं गति करना ही सु संग है ।

संगति का प्रभाव -संग से हानि और सुसंग से लाभ होता है -

चाहे आप सनातन धर्म के ग्रन्थ वे द पु राण दे खे या किसी भी धर्म के धार्मिक ग्रन्थ या हिन्दी साहित्य के कोई भी कृति
दे खें सभी स्थानों पर आपको कुसं ग और सु संग का प्रभाव प्रतिपादित किया हुआ मिल जाये गा यही कारण है जन-जन
यह जानते और मानते हैं कि कुसं ग से हानि और सु संग से लाभ होता है । गोस्वामी तु लसीदास जी कुसं ग और सु संग के
प्रभाव को बहुत ही प्रभावोत्पादक उदाहरण से स्पष्ट करते हैं कि किस प्रकार कुसं ग से हानि और सु संग से लाभ होता
है -
हानि कुसं ग सु संगति लाहू । लोकहुं बे द बिदित सब काहू
गगन चढ़इ रज पवन प्रसं गा । कीचहिं मिलइ नीच जल सं गा
साधु असाधु सदन सु क सारी । सु मिरही राम दे हिं गन गारी
धूम कुसं गति कारिख होई । लिखिअ पु रान मं जु मसि सोई
सोइ जल अनल अनिल सं घाता । होइ जलद जग जीवन दाता

गगन चढ़इ रज पवन प्रसंगा । कीचहिं मिलइ नीच जल संगा-


तु लसीदास धूल की सं गति का उदाहरण दे ते हुये कहते हैं कि धूल वही है किन्तु सं गति के प्रभाव से उसका महत्व
अलग-अलग हो जाता है । जब धूल वायु के सं पर्क में आता है तो वायु के साथ मिलकर आकाश में उड़ने लगता है
किन्तु जब वही धूल जल की सं गति करता है किचड़ बन कर पै रों तले रौंदे जाते हैं ।

धूम कुसंगति कारिख होई । लिखिअ पुरान मंजु मसि सोई-

धुँ आ की सं गति को परख कर दे खिये वहीं धुँ आ कुसं गति के प्रभाव से धूल-धूसरित होकर कालिख बन अपमानित होता
है तो वही धुँ आ सत्सं गति के प्रभाव से स्याही बन पावन ग्रंथों में अं कित होकर सम्मानित होता है । वहीं धु ऑं जल
अग्नि और वायु के सं पर्क में आकर मे घ बना जाता है और यही मे घ दुनिया के जीवनदाता कहलाता है ।
सोइ जल अनल अनिल संघाता । होइ जलद जग जीवन दाता

कुजोग और सुजोग-

बु रे और बु राई से सं पर्क होना कुजोग होता है जबकि अच्छे और अच्छाई से सं पर्क होना सु जोग कहलाता है । बु रे के
प्रभाव से व्यक्ति क्या वस्तु भी बु रे हो जाते है वहीं अच्छाई के सं पर्क में रहने पर अच्छे हो जाते हैं । इसी बात को
गोस्वामी तु लसीदासजी कुछ इस प्रकार कहते हैं -
ग्रह भे षज जल पवन पट, पाइ कुजोग सु जोग ।
होहिं कुबस्तु सु बस्तु जग लखहिं सु लच्छन लोग ।।

अर्थ-

ग्रह, औषधि, जल, वायु और वस्त्र सं गति के कारण भले और बु रे हो जाते हैं ।
ज्योतिशशास्त्र के अनु सार कुछ ग्रह शु भ और कुछ ग्रह अशु भ होते हैं किन्तु द्वादश भाव में विचरण करते हुये किसी
स्थान शु भ परिणाम दे ते हैं तो किसी स्थान पर अशु भ परिणाम दे ते हैं ।
आयु र्वे द के औषधि के लिये पथ्य-अपथ्य निर्धारित हैं । पथ्य पर औषधि अच्छे परिणाम दे ते हैं जबकि अपथ्य से बु रे
परिणाम हो सकते हैं ।
वायु सुं गंध के सं पर्क में होने पर सु वासित और दुर्गंध के सं पर्क में होने सडां ध फैलाता है ।
इसी प्रकार शालिनता के सं पर्क में वस्त्र पूज्य हो जाते हैं जबकि अश्लिलता के सं पर्क से तिरस्कृत होते हैं ।

संपर्को का प्रभाव का वै ज्ञानिक अभिमत-

हमारे चारों ओर पाई जाने वाली वस्तु को विज्ञान की भाषा मेें पर्यावरण कहते हैं । वै ज्ञानिक रूप से यह अभिप्रमाणित
है कि पर्यावरण का हम पर शतप्रतिशत प्रभाव पड़ता है । वै ज्ञानिक रूप से जब यह प्रमाणित है कि निर्जीव वस्तु ओं
का भी हम पर प्रभाव पड़ता है तो क्या सजीव प्राणियों एवं मनु ष्यों का प्रभाव हम पर नहीं पड़े गा । निश्चित रूप से
सक्रिय-निष्क्रिय , जड़-चे तन, जीवित-मृ त सबका प्रभाव हम पर पड़ता है । पर्यावरण के प्रभाव से जिस प्रकार हम
शारीरिक रूप से स्वस्थ-अस्वस्थ हो सकते हैं तो उसी प्रकार चे तैन्य मनु ष्य के सं पर्क में होने पर हम मानसिक रूप से
स्वस्थ-अस्वस्थ हो सकते हैं ।

अपनी संगति का पहचान करना आवश्यक है -

जब यह निर्वाद रूप से प्रमाणित ही है कि सं गति का प्रभाव होता है । अच्छी सं गति का अच्छा परिणाम और बु री
सं गति का बु रा परिणाम । इस स्थिति में हर व्यक्ति को अपने सं पर्को का मूल्यांकन करना चाहिये कि आप किसके साथ
सं गति कर सकते हैं । अपनी सं गति का पहचान करना आवश्यक है । सं गति केवल दोस्तों से ही नहीं होता अपने परिवार
के लोगों पड़ोसियों या अन्य व्यक्तियों जिसके साथ आपका ऊठना-बै ठना बोल-चाल होता है सभी आपके सं गति के
दायरे में आते हैं । आप जिसके सं गत में रहते हैं अर्थात आपका अधिकां श समय जिन लोगों के साथ गु जरता है उन
लोगों का मूल्यांकन करें कि ये बु रे हैं या भले । यदि ये बु रे हो तों तत्काल इनकी सं गति छोड़ दे नी चाहिये ।

परिवार से अधिक दोस्तों को महत्व दे ना किशोरावस्था की भूल –

किशोरा अवस्था व्यक्ति की वह अवस्था होती है जब वह अपने परिवार के अतिरिक्त किसी अन्य से आत्मीय सं बंध
स्थापित करता है । इस समय अधिकां श बच्चे अपने परिवार से अधिक अपने हमउम्र दोस्तों को अधिक महत्व दे ने
लगते हैं । अपने व्यक्तिगत फैसलों में परिवार से अधिक अपने मित्रमं डली के सलाह और सु झाव को महत्व दे ने लगते
हैं । यह आवश्यक नहीं कि इस मित्रमं डली का सु झाव सही ही हो । इस मित्र मं डली के पास अनु भव की नितांत कमी
होती है । ये लोग को केवल जो फैशन ट् रेन कर रहा होता है उसी के अनु रूप सोचते हैं , उसे ही सही मानते हैं । जबकि
बच्चों को चाहिये कि अपने मित्रों के सु झाओं का अनु भवी व्यक्तियों, परिवार के लोगों से मूल्यांकन करायें । वर्तमान
समय में अधिकां श किशोर ये समझने लगे हैं उनके परिवार के लोग मार्डन नहीं हैं और हम मार्डन है ऐसे में परिवार वाले
हमें क्या सलाह दे सकते हैं । इसी का परिणाम दे खने को मिल रहे हैं ये बच्चे गलत रास्तें में पड़ जाते हैं , इनमें नशाखोरी
का व्यसन जागृ त हो जाता है । सुं गत का पहचान अनु भव से ही किया जा सकता है ।
कबीर संगत साधु की, नित प्रति कीजै जाय 
दुरमति दूर बहावासी, दे शी सुमति बताय 
 
बचपन में हमसे अपने घर में यदि कोई अवां छित हरकतें होतीं तो हमें कोसने के साथ साथ हमारी सं गति को भी बखाना
जाता। गु स्से में कहा जाता- इनकी सं गति ही ख़राब है । किसके सं ग रह कर सिखा यह सब? यहां तक कि हमारी सखी-
सहे लियों की जात-बिरादरी और पु श्तें गिनवा दी जातीं। 
 
तब से ही ये बात दिमाग में घर कर गई थी  कि सं गति का बड़ा गहरा असर पड़ता होगा जीवन में । तभी तो बड़े हमे शा
सं गति पर नजर रखते हैं । आज इसी सं गति का असर, पूरी दुनिया में अपना असर दिखा रहा है । और कोरोना में तो और
भी ज्यादा। अब तो साथ रह कर भी दरू -दरू रहने को मजबूर हम आज इस सं गति विषय पर ही बात करते हैं क्योंकि
मनु ष्य जीवन की उन्नति सं गति से ही होती है । सं गति  से उसका स्वभाव परिवर्तित हो जाता है । सं गति ही उसे नया
जन्म दे ता है । जै से, कचरे में चल रही चींटी यदि गु लाब के फू ल तक पहुंच जाए तो वह दे वताओं के मु कुट तक भी पहुंच
जाती है । ऐसे ही महापु रुषों के सं ग से नीच व्यक्ति भी उत्तम गति को पा ले ता है ।
तु लसीदास जी ने कहा है ः
 
 जाहि बड़ाई चाहिए, तजे न उत्तम साथ। ज्यों पलास संग पान के, पहुच ं े राजा हाथ।।
जै से, पलाश के फू ल में सु गंध नहीं होने से उसे कोई पूछता नहीं है , परं तु वह भी जब पान का सं ग करता है तो राजा के
हाथ तक भी पहुंच जाता है । इसी प्रकार जो उन्नति करना चाहता हो उसे महापु रुषों का सं ग करना चाहिए।
 
-कबीर संगति साधु की, निष्फल कभी न होय |
ऐसी चंदन वासना, नीम न कहसी कोय ||
सं तों की सं गत कभी निष्फल नहीं होती । मलयगिर की सु गंधी उड़कर लगने से नीम भी चन्दन हो जाता है , फिर उसे
कभी कोई नीम नहीं कहता।
 
-एक घड़ी आधी घड़ी, आधी में पु नि आध |
कबीर संगत साधु की, कटै कोटि अपराध ||
एक पल आधा पल या आधे का भी आधा पल ही सं तों की अच्छी सं गत करने से मन के करोडों दोष मिट जाते हैं ।
 
-कोयला भी हो उजला, जरि बरि हो जो से त |
मूरख होय न अजला, ज्यों कालम का खे त ||
कोयला भी उजला हो जाता है जब अच्छी तरह से जलकर उसमे सफेदी आ जाती है । लकिन मु र्ख का सु धरना उसी
प्रकार नहीं होता जै से ऊसर खे त में बीज नहीं उगते ।
 
-ऊंचे कुल की जनमिया, करनी ऊंच न होय |
कनक कलश मद सों भरा, साधु निन्दा कोय ||
जै से किसी का आचरण ऊंचे कुल में जन्म ले ने से , ऊंचा नहीं हो जाता । इसी तरह सोने का घड़ा यदि मदिरा से भरा है ,
तो वह महापु रुषों द्वारा निन्दित ही है ।
 
-साखी शब्द बहु तक सुना, मिटा न मन का मोह |
पारस तक पहुच ँ ा नहीं, रहा लोह का लोह ||
ज्ञान से पूर्ण बहुतक साखी शब्द सु नकर भी यदि मन का अज्ञान नहीं मिटा, तो समझ लो पारस-पत्थर तक न पहुंचने से ,
लोहे का लोहा ही रह गया।
 
-सज्जन सो सज्जन मिले , होवे दो दो बात |
गदहा सो गदहा मिले , खावे दो दो लात ||
सज्जन व्यक्ति किसी सज्जन व्यक्ति से मिलता है तो दो दो अच्छी बातें होती हैं । लकिन गधा गधा जो मिलते हैं ,
परस्पर दो दो लात खाते हैं ।
 
कबीर विषधर बहु मिले , मणिधर मिला न कोय |
विषधर को मणिधर मिले , विष तजि अमृ त होय ||
सन्त कबीर जी कहते हैं कि विषधर सर्प बहुत मिलते है , मणिधर सर्प नहीं मिलता। यदि विषधर को मणिधर मिल जाए,
तो विष मिटकर अमृ त हो जाता है ।
-जे ा रहीम उत्तम प्रकृति का करि सकत कुसंग
चंदन विष ब्यापत नहीं लिपटे रहत भुजंग 
अच्छे चरित्र के स्वभाव बालों पर बु रे लोगो के साथ का कोई असर नहीं होता। चं दन के वृ क्ष पर सांप लिपटा रहने से
विष का कोई प्रभाव नहीं होता है ।
 
-रहिमन जो तुम कहत थे संगति ही गु ण होय,
बीच ईखारी रस भरा रस काहै ना होय ।
रहीम कहते हैं कि सं गति से गु ण हे ाता । पर कभी कभी सं गति से भी लाभ नहीं होता। ईख के खे त में कड़वा पौधा अपना
गु ण नहीं छोड़ता।  दुष्ट कभी अपना जहर नहीं त्यागता है ।
 
-ओछे को सतसंग रहिमन तजहुं अंगार ज्यों
तातो जारै अंग सीरे पै कारो लगै ।
नीच की सं गति आग के समान छोड़नी चाहिए। जलने पर वह शरीर को जलाती है और बु झने पर वह कालिख लगा
दे ती है ।
 
-रहिमन ओछे नरन सों बैर भलो न प्रीति
काटे चाटे स्वान को दुहुं भांति बिपरीत।
बु रे लोगों से दुश्मनी और प्रेम दोनों हीं अच्छा नहीं होता। कुत्ता को मारो या दुत्कारो तो वह काटता है और पु चकारने
पर चाटने लगता है । वह दोनों अवस्था में खराब ही है । 
 
-कदली सीप भुजंग मुख स्वाति एक गु ण तीन
जैसी संगति बै ठिये तैसोई फल दीन।
स्वाति नक्षत्र का बूंद कदली में मिलकर कपूर और समु दर् का जल सीपी में मिल कर मोती बन जाता है वही पानी सांप
के मुं ह में विष बन जाता है । सं गति का प्रभाव जरूर पड़ता है । जै सी सं गति होगी-वै सा ही फल मिलता है ।
 
-ससि की शीतल  चांदनी सुद ं र सबहिं सु हाय
लगे चोर चित में लटी घटि रहीम मन आय ।
चन्द्रमा की शीतल चांदनी सबों को अच्छी लगती है पर चोर को यह चांदनी अच्छी नहीं लगती है । बु रे लोगों को
अच्छाई में भी बु राई नजर आती है ।
 
-रहिमन लाख भली करो अगुनी अगुन न जाय
राग सुनत पय पियतहुं सांप सहज धरि खाय।
दुष्ट की लाख भलाई करने पर भी उसकी दुष्टता अवगु ण नही जाती है ।सांप को बीन पर राग सु नाने और दध ू पिलाने पर
भी वह सपे रा को डस ले ता है ।
 
-रहिमन नीचन संग बसि लगत कलंक न काहि
दूध कलारी कर गहे मद समु झै सब ताहि । 
दुष्ट, नीच के सं ग रहने से किसे कलं क नहीं लगता। शराब बे चने बाली कलवारिन के घड़े में दध ू रहने पर भी लोग उसे
शराब ही समझें गें । सज्जन व्यक्ति को दुर्जन से दरू ही रहना चाहिए।
 
-मूढ मंडली में सुजन ठहरत नहीं विसेख
श्याम कं चन में से त ज्यों दूरि किजियत दे ख।
मूर्खों की मं डली में सज्जन लोग अधिक समय तक नहीं रह सकते हैं । काले बालों के बीच में यदि कोई सफेद बाल दिख
जाये तो उसे तु रंत उखाड़  कर दरू कर दिया जाता है । सज्जन व्यक्ति अपने सही स्थान पर ही ठहर पाते हैं ।
 
अधम बचन ते को फल्यो बै ठि ताड की छांह 
रहिमन काम न आइहै ये नीरस जग  मांह|
अधर्म की बातें किसी को फल नहीं दे ती। अधर्मी का आश्रित होना ताड़ की छाया में बै ठने जै सा बे कार है । नीच लोगों
द्वारा बहुत सं गर् ह कर ताकतवर हो जाने पर वह बहुत दिनों तक काम नहीं दे ता।यह सं सार क्षणभं गुर है ।
रहिमन उजली प्रकृति को नहीं नीच को संग
करिया वासन कर गहे कालिख लागत अंग।
अच्छे लोग को नीच लोगों की सं गति नहीं करनी चाहिए। कालिख लगे बरतन को पकड़ने से हाथ काले हो जाते हैं ।
नीच लोगों के साथ बदनामी का दाग लग जाता है ।
 
-कहु रहीम कैसे निभै बेर केर को संग
वे डोलत रस आपने उनके फाटत अंग।
बे र और केला एक जगह साथ नहीं रह सकते । बे र की डाली जब हवा में झम ू ती है तो वह केले के पत्ते को फाड़ दे ती है ।
केले का अं ग जख्मी हो जाता है ।सज्जन और दुर्जन एक साथ नही रह सकते । दुर्जन के सं ग रहने पर सज्जन को भी
अपमानित होना पड़ता है ।
 
-बसि कुसंग चाहत कुशल यह रहीम जिय सोस
महिमा घटी समुद ्र की रावण बस्यो परोस ।
दुष्ट लोगों के साथ रहने पर कुशलता की कामना नहीं करनी चाहिए। समु दर् के पड़ोस में रावण के रहने पर समु दर् की
महत्ता भी घट गई। राम की से ना समु दर् को लांघ कर लं का गई। बु रे लोगों से हमे शा दरू रहना चाहिए।
 
-अनु चित उचित रहीम लु ध करहि बड़े न के जोर
ज्यों ससि के संयोग ते पचवत आगि चकोर ।
बड़े लोगों की सहायता से कभी कभी छोटे लोग भी बड़ा काम कर ले ते हैं , जै से चन्द्रमा के प्रेम से सहयोग से चकोर
भी आग खा कर पचा ले ता है ।
 
-रीति प्रीति सबसों भली बैर न हित मित गोत
रहिमन याही जनम की बहुरि न संगति होत ।
सबों से प्रेम का सं बंध रखने में भलाई है ।दुश्मनी का भाव रखने में कोई भलाई नहीं। इसी जीवन में यह प्रेम सं भव है ।
पता नही पु नः मनु ष्य जीवन मिले या नही -तब हम कैसे सं गी साथी के साथ सं गति रख पाएं गे? 
 
-जब लगि जीवन जगत में सुख दुख मिलन अगोट
रहिमन फू टे गोट ज्यों परत दुहुन सिर चोट ।
जब तक सं सार में जीवन है हमें सबसे मिलजु ल कर रहना चाहिए-इससे सारे दुख भी सु ख में बदल जाते हैं । अलग रहने
से सु ख भी दुख में बदल जाता है । चै पड़ के खे ल में अकेली गोटी मर जाती है और समूह बाली गोटी बच जाती हैं ।
 
महाजनस्य संसर्गः, कस्य नोन्नतिकारकः। 
पद्मपत्रस्थितं तोयम्, धत्ते मु क्ताफलश्रियम् ॥
महापु रुषों या अच्छी सं गति का सामीप्य किसके लिए लाभदायक नहीं होता, कमल के पत्ते पर  पड़ी हुई पानी की बूंद
भी मोती जै सी शोभा प्राप्त कर ले ती है ।
 
हमारा दे श, इसका ज्ञानकोष, सं स्कृति, शास्त्र, पु राण, वे द, काव्य-महाकाव्य और इतिहास ऐसी ही कितनी शिक्षाप्रद
हीरे -मोती  सी बातों को अपने गर्भ में छुपा कर बै ठा हुआ है ।ये एक महासागर, महा समु दर् है इसमें जितने गहरे गोते
लगाओगे उतने रत्न हमारे हाथ लगें गे । ये वो रत्न हैं जो आपके जीवन को अपने अनु भव की कहासु नी से आसन,सरल
और सहज बना दें गे ।

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