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PAVAMANAM
PAVAMANAM
।।अथ प्रथमोध्यायः।।
सना दक्ष मुत क्रतु मप सोम मृधो॥ जहि।अथा॥ नो वस्यस स्कृ धि।।
त्वं सूर्ये॥ न आ भज तव क्रत्वा तवोतिभिः।अथा॥ नो वस्यस स्कृ धि।।
रयिन्न श्चित्र मश्विन मिन्दो॥ विश्वायु मा भर।अथा॥ नो वस्यस स्कृ धि।।
अभि त्यं मद्यं मद मिन्द विन्द्र इति क्षर।अभि वाजिनो अर्वतः।।
अभि त्यं पूर्व्यं मदं॥ सुवानो अर्ष पवित्र आ।अभि वाज मुत श्रवः।।
वृष्टि न्दिव परि स्रव द्युम्नं पृथिव्या अधि।सहो॥ न स्सोम पृत्सु धाः॥।।
।।इति प्रथमोध्यायः।।
।।अथ द्वितीयोध्यायः।।
मधो र्धारा मनु क्षर तीव्र स्सधस्थ मासदः।चारु र्ऋ ताय पीतये।।
त्वं विप्रस्त्व ङ्कवि र्मधु प्र जात मन्धसः। मदेषु सर्वधा असि।।
एष नृभि र्वि नीयते दिवो मूर्धा वृषा सुतः।सोमो वनेषु विश्ववित्।।
अस्मे धेहि द्युम द्यशो मघवद्भ्य श्च मह्यञ्च।सनिं मेधा मुत श्रवः।।
एष स्य पीतये सुतो हरि रर्षति धर्णसिः।क्रन्द न्योनि मभि प्रियम्।।
।।इति द्वितीयोध्यायः।।
।।अथ तृतीयोध्यायः।।
इन्दो यथा तव स्तवो यथा ते जात मन्धसः।नि बर्हिषि प्रिये सदः।।
उच्चा ते जात मन्धसो दिवि षद्भूम्या ददे।उग्रं शर्म महि श्रवः।।
पवस्वेन्दो वृषा सुत कृ धी नो यशसो जने।विश्वा अप द्विषो जहि।।
अश्वो न चक्रदो वृषा सङ्गा इन्दो समर्वतः।वि नो राये दुरो वृधि।।
।।इति तृतीयोध्यायः।।
।।अथ चतुर्थोध्यायः।।
अग्न आयूंषि पवस आ सुवो र्जमिष ञ्च नः।आरे बाधस्व दुच्छु नाम्।
पवमान ऋतं बृह च्छु क्र ञ्ज्योति रजीजनत्।कृ ष्णा तमांसि जङ्घनत्।
।।इति चतुर्थोध्यायः।।
।।अथ परिशिष्टम्।।
।।इति परिशिष्टम्।।
।।अथ पवमानम्।।
।।अथ प्रथमोध्यायः।।
सना दक्ष मुत क्रतु मप सोम मृधो॥ जहि।अथा॥ नो वस्यस स्कृ धि।।
त्वं सूर्ये॥ न आ भज तव क्रत्वा तवोतिभिः।अथा॥ नो वस्यस स्कृ धि।।
रयिन्न श्चित्र मश्विन मिन्दो॥ विश्वायु मा भर।अथा॥ नो वस्यस स्कृ धि।।
अभि त्यं मद्यं मद मिन्द विन्द्र इति क्षर।अभि वाजिनो अर्वतः।।
अभि त्यं पूर्व्यं मदं॥ सुवानो अर्ष पवित्र आ।अभि वाज मुत श्रवः।।
वृष्टि न्दिव परि स्रव द्युम्नं पृथिव्या अधि।सहो॥ न स्सोम पृत्सु धाः॥।।
।।इति प्रथमोध्यायः।।
।।अथ द्वितीयोध्यायः।।
मधो र्धारा मनु क्षर तीव्र स्सधस्थ मासदः।चारु र्ऋ ताय पीतये।।
त्वं विप्रस्त्व ङ्कवि र्मधु प्र जात मन्धसः। मदेषु सर्वधा असि।।
एष नृभि र्वि नीयते दिवो मूर्धा वृषा सुतः।सोमो वनेषु विश्ववित्।।
अस्मे धेहि द्युम द्यशो मघवद्भ्य श्च मह्यञ्च।सनिं मेधा मुत श्रवः।।
एष स्य मद्यो रसोऽव चष्टे दिव श्शिशुः।य इन्दु र्वार माविशत्।।
एष स्य पीतये सुतो हरि रर्षति धर्णसिः।क्रन्द न्योनि मभि प्रियम्।।
।।इति द्वितीयोध्यायः।।
।।अथ तृतीयोध्यायः।।
उत त्वा मरुणं वय ङ्गोभि रञ्ज्मो मदाय कम्।वि नो राये दुरो वृधि।।
इन्दो यथा तव स्तवो यथा ते जात मन्धसः।नि बर्हिषि प्रिये सदः।।
उच्चा ते जात मन्धसो दिवि षद्भूम्या ददे।उग्रं शर्म महि श्रवः।।
एना विश्वा न्यर्य आ द्युम्नानि मानुषाणाम्।सिषासन्तो वनामहे।।
पवस्वेन्दो वृषा सुत कृ धी नो यशसो जने।विश्वा अप द्विषो जहि।।
उत त्या हरितो दश सूरो अयुक्त यातवे।इन्दु रिन्द्र इति ब्रुवन्न्।।
अश्वो न चक्रदो वृषा सङ्गा इन्दो समर्वतः।वि नो राये दुरो वृधि।।
।।अथ चतुर्थोध्यायः।।
अग्न आयूंषि पवस आ सुवो र्जमिष ञ्च नः।आरे बाधस्व दुच्छु नाम्।
पवमान ऋतं बृह च्छु क्र ञ्ज्योति रजीजनत्।कृ ष्णा तमांसि जङ्घनत्।
अय न्त आघृणे सुतो घृतन्न पवते शुचि।आ भक्ष त्कन्यासु नः।
।।इति चतुर्थोध्यायः।।
।।अथ परिशिष्टम्।।
।।इति परिशिष्टम्।।