You are on page 1of 14

दक्षिण एशिया मे भारत की उभरती भूमिका

दक्षिण एशिया क्षेत्र में रहने वाली जनसंख्या का एक बड़ा हिस्सा निर्वाह कृषि पर ग्रामीण क्षेत्रों में रहता
है । जिनेवा स्थित संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम ने दक्षिण एशिया क्षेत्र के चार दे शों अर्थात ् भट
ू ान,
बांग्लादे श, मालदीव और नेपाल को कम विकसित दे शों (एलडीसी) के रूप में वर्गीकृत किया है । शेष
तीन दे शों, भारत, पाकिस्तान और श्रीलंका को विकासशील दे शों के रूप में वर्गीकृत किया गया है ।
किसी भी दे श (क्षेत्र के) ने अभी तक विकसित अर्थव्यवस्था का दर्जा हासिल नहीं किया। जहां दनि
ु या
का एक तिहाई गरीब रह रहा है ।

दक्षिण एशिया के सात दे शों का अपनी अर्थव्यवस्थाओं पर सीधा प्रभाव पड़ता है । इस क्षेत्र के भीतर,
भारत जनसंख्या और क्षेत्र में सबसे बड़ा राष्ट्र है । इसकी जनसंख्या ने वर्ष 2000 मे एक अरब लोगों
के निशान को पार कर लिया था। और दनि
ु या में , जनसंख्या के आकार में चीन के बगल में है ।
मालदीव इस क्षेत्र में सबसे छोटा दे श है , जनसंख्या और क्षेत्र दोनों दृष्टि में । भूटान और नेपाल भूमि-
बंद दे श हैं जबकि मालदीव और श्रीलंका द्वीपयी दे श हैं। बांग्लादे श, भारत और पाकिस्तान इस क्षेत्र में
एकमात्र ऐसे दे श हैं जहां भूमि और पानी पर्याप्त रूप से उपलब्ध है । मालदीव हिंद महासागर में एक
छोटा सा द्वीप है जिसमें केवल 300 sq.km भमि
ू हैं। भट
ू ान, हालांकि, क्षेत्र के मामले में अपेक्षाकृत
बड़ा है (यानी, 47,000 sq.km) परं तु अधिकांश श्रेणियां बर्फ से ढकी होने के कारण सामान्य मनुष्य
के रहने योग्य नहीं हैं। नेपाल भी हिमालय पर्वत में स्थित है और इसका क्षेत्र बाहरी रूप से बड़ा प्रतीत
होता है लेकिन यहा ज्यादातर पहड़िया होने के करण उपयोगी भूमि कम ही है । पिछले तीन-पांच दशकों
में , इस क्षेत्र के दे शों ने कम औद्योगीकरण और सामहि
ू क गरीबी से जड़
ु ी कुछ समस्याओं को दरू करने
के लिए योजनाबद्ध प्रयास किए हैं। नतीजतन, उनकी आर्थिक संरचना में महत्वपूर्ण परिवर्तन हुए हैं।
अर्थव्यवस्थाओं में राष्ट्रीय आय में विभिन्न क्षेत्रों के हिस्से में भी बदलाव आया है । पिछले दो दशकों
में इस क्षेत्र की आर्थिक संरचनाओं में परिवर्तन तेजी से हुआ है , यानी 2000 से 2020 तक। कृषि की
हिस्सेदारी तेजी से घटी है (पाकिस्तान को छोड़कर) और सेवाओं की हिस्सेदारी सभी अर्थव्यवस्थाओं
(भट
ू ान को छोड़कर) में बढ़ी है जबकि औद्योगिक क्षेत्र मे भारत दक्षिण भारत मे और विश्व मे तेजी
से अपना योगदान बढ़ा रहा है । यद्यपि सकल घरे लू उत्पाद में कृषि का योगदान घटा है , फिर भी कृषि
दक्षिण एशिया में आधे से अधिक नियोजित लोगों को रोजगार प्रदान करती है । दस
ू री ओर सेवा क्षेत्र
जीडीपी में एक महत्वपूर्ण योगदानकर्ता के रूप में उभरा है । दक्षिण एशिया में विनिर्माण और उद्योग
क्षेत्र में गति की कमी ने रोजगार सज
ृ न में गिरावट की है अंततः गरीबी के बढ़ते दबाव को और बढ़ा
दिया है ।

जहां तक कृषि उत्पादों का संबंध है , भारत एक अग्रणी दे श है । गेहूं के उत्पादन मे भारत

तीसरे स्थान पर है और पाकिस्तान की तुलना में उत्पादन 3 गुना से अधिक है । चावल के उत्पादन मे

भारत विश्व मे दस
ू रे स्थान पर है और बांग्लादे श की तुलना में उत्पादन 3 गुना से अधिक है । दक्षिण
एशिया के अन्य दे श कृषि की दृष्टि से गरीब हैं। मक्का, जौ, बाजरा आदि जैसे अन्य अनाजों के

उत्पादन में भी भारत अन्य दक्षिण एशियाई दे शों से आगे है ।

जट
ू के उत्पादन में बांग्लादे श सबसे आगे रहता था लेकिन वर्तमान में भारत बांग्लादे श से बहुत आगे
है । भारत का जट
ू उत्पादन बांग्लादे श की तल
ु ना में दो गन
ु ा है । वास्तव में भारत का कच्चा जट

उत्पादन सबसे अधिक है और यह विश्व उत्पादन का लगभग 50% उत्पादित करता है । जट
ू उत्पादन में
बांग्लादे श दस
ू रे और चीन तीसरे स्थान पर है । जहां तक प्राकृतिक रबड़ का संबंध है , दक्षिण एशिया मे
भारत और श्रीलंका उल्लेखनीय हैं। भारत में रबड़ का उत्पादन श्रीलंका की तल
ु ना में लगभग 8 गन
ु ा
से अधिक है । तेल बीज फसलों में , भारत दनि
ु या में मंग
ू फली व मंग
ू फली के तेल का दस
ू रा सबसे बड़ा
उत्पादक है , जो दनि
ु या के उत्पादन का लगभग 25% है । सोयाबीन के उत्पादन में भी भारत दक्षिण
एशिया में सबसे आगे है । पेय पदार्थों, चाय और कॉफी के उत्पादन में भारत फिर से अन्य दे शों को
बहुत पीछे छोड़ दे ता है । भारत चाय का दस
ू रा सबसे बड़ा उत्पादक दे श है । भारत दक्षिण एशिया में
तम्बाकू का एक प्रमख
ु उत्पादक है , जबकि अन्य दे श इसके पास भी नहीं है । भारत एशिया में गन्ने
का अग्रणी (शीर्ष) उत्पादक है जबकि पाकिस्तान एशिया मे दस
ू रे स्थान पर है ।

ऊर्जा संसाधन:- दक्षिण एशिया मे ऊर्जा के मख्


ु य संसाधन कोयला, पेट्रोलियम और बिजली हैं।
द्वितीयक संसाधन दक्षिण एशिया के लकड़ी, पशु अपशिष्ट , ज्वार, पवन और सौर ऊर्जा हैं। भारत के

पास इनमें से सबसे ज्यादा संसाधन हैं जबकि अन्य दे शों के पास बहुत कम ऊर्जा संसाधन हैं। वास्तव

में अन्य सभी दे श पूरी तरह से आयात पर निर्भर हैं। भारत कोयले के मामले में आत्मनिर्भर है लेकिन

अपनी जरूरत को पूरा करने के लिए उसे लगभग एक तिहाई पेट्रोलियम का आयात करना पड़ता है ।

औद्योगिक उत्पादन:- दक्षिण एशिया में प्रमुख औद्योगिक शक्ति भारत है । दस


ू रा पाकिस्तान है ,
बांग्लादे श भी इस दौड़ मे आ चुका है , जबकि शेष पांच को अभी भी औद्योगिक शक्ति के रूप मे

विकसित होना है और कुछ महत्व की स्थिति ढूंढनी है । भारत के प्रमुख उद्योग लोहा और इस्पात,

कपड़ा, मशीन उपकरण, चीनी, सीमें ट, उर्वरक, इलेक्ट्रिकल, इलेक्ट्रॉनिक्स, ऑटोमोबाइल, कार्गो और

नौसेना के जहाज, तेल शोधन, कृषि मशीनें , पेट्रोकेमिकल्स, रसायन, रे लवे इंजन, रे ल कोच आदि हैं।

परिवहन:- भारत दक्षिण एशिया का सबसे बड़ा दे श है और रे ल, सड़क, वायु और जल परिवहन की


एक बहुत विस्तत
ृ प्रणाली का मालिक है जबकि अन्य दे श बहुत पीछे हैं। कई दे शों में रे लवे लाइनें नहीं
हैं। जैसे:- भूटान और नेपाल
दक्षिण एशिया में बड़ी संख्या में ग्रामीण आबादी है और उनमें से अधिकांश का निर्वाह कृषि पर निर्भर
रहता है । इस दक्षिण एशिया का व्यापार (निर्यात और आयात) कुल विश्व व्यापार में बहुत कम है :
दक्षिण भारत का व्यापार (निर्यात और आयात) अन्य 7 दे शों के कुल व्यापार (निर्यात और आयात) से
भी अधिक है जो भारत को एक मजबूत अर्थव्यवस्था बनाने मे मदद करता है । 81 बिलियन डॉलर से
अधिक के प्रत्यक्ष विदे शी निवेश के साथ, भारत इस क्षेत्र में सबसे बड़े एफडीआई की मेजबानी करता
है । हालांकि, इसकी अर्थव्यवस्था के बड़े आकार को दे खते हुए, एफडीआई प्रवाह अभी भी कम है और
पड़ोसी-पूर्व और दक्षिण पूर्व एशिया के दे श एफडीआई के उच्च स्तर की मेजबानी करते हैं। उदाहरण के
लिए, चीन सालाना लगभग यए
ू स 240 बिलियन एफडीआई को आकर्षित करता है और सिंगापरु 74
बिलियन एफडीआई को आकर्षित करता है ।

वर्तमान में दक्षिण एशिया कई समस्याओं से गज


ु र रहा है , विशेष रूप से लंबे समय
तक लगातार गरीबी, जो समग्र आर्थिक पिछड़ेपन के लिए केंद्रीय बिन्द ु है । आतंकवाद जैसी सामाजिक
समस्याएं, जातीय संघर्ष, आदि प्रचुर मात्रा में मौजूद हैं। कड़ी मेहनत से अर्जित आर्थिक संसाधनों को
आतंकवाद के खतरे से निपटने और नागरिकों को सुरक्षा प्रदान करने के लिए उपयोग में लाया जाता
है । सैन्य खर्च बढ़ रहे हैं, जबकि सामाजिक व्यय कम हो रहा है और इस क्षेत्र की चार बड़ी
अर्थव्यवस्थाएं बांग्लादे श, भारत, पाकिस्तान और श्रीलंका है क्योंकि इन अर्थव्यवस्थाओं के बारे में
आंकड़े और आर्थिक जानकारी पर्याप्त रूप से उपलब्ध है । इन अर्थव्यवस्थाओं ने काफी समय से
उदारीकरण की शरु
ु आत की है । बचे हुए तीन दे श अर्थात ् भट
ू ान, मालदीव और नेपाल निर्भर
अर्थव्यवस्थाएं हैं। भारत कई मामलों में इन्हें आर्थिक रूप से समर्थन दे ता है । भारत इन दे शों को काफी
बाहरी सहायता प्रदान करता है । उदाहरण के लिए, भारत ने भट
ू ान को शरु
ु आती वर्षों में परू ी विकास
योजनाओं के वित्तपोषण में मदद की थी, भूटान की पंचवर्षीय योजनाओं का लगभग तीसरा हिस्सा
भारत द्वारा वित्त पोषित है ।

21 वीं सदी को एशिया का युग माना जाता है और एशिया मे भारत की उभरती भमि
ू का को आज पूरा
विश्व मान रहा है , भारत को अपनी वर्तमान स्थिति को प्राप्त करने मे काफी समय लगा है । ये कई
महत्त्वपूर्ण निर्णय के परिणाम है । जिनमे गुटनिर्पछ राजनीति एक महत्वपूर्ण निर्णय माना जाता है ।
भारत ने अंग्रेजों से आजादी प्राप्त करते समय ये सिख लिया था कि किसी भी विदे शी ताकत पर
अंधविस्वास करना सही कदम नहीं होता अत: भारत की स्वतंत्रता प्राप्ति के समय विश्व मे दो ही
ताकत थी इनको पहली दनि
ु या(अमेरिका) तथा दस
ू री दनि
ु या(USSR) कहा गया। इन दोनों दनि
ु या के
मध्य 1945-1991 तक चले शीत युद्ध के कारण कई दे श बर्बाद हो गए क्यूंकि एक के साथ मित्रता
दस
ु रे के साथ शत्रत
ु ा के समान थी। और ईराक और सीरिया इसी का उदारण बने। USSR के साथ
दोस्ती और मित्रता ने अमेरिका को ईराक और सीरिया का शत्रु बना दिया। इस शीत युद्ध ने कई दे शों
को आर्थिक रूप से कमजोर कर दिया था।

पहली दनि
ु या और दस
ू री दनि
ु या अपने-अपने पक्षों मे ज्यादा से ज्यादा दे शों को करने के प्रयास कर
रही थी पहली दनि
ु या अमेरिका और दस
ू री दनि
ु या USSR जो जल्द ही टूट कर रूस का निर्माण करने
वाला था। भारत के समक्ष दोनों दे शों के रास्ते खल
ु े हुए थे और दोनों दे श भारत को अपनी तरफ
करना चाहता थे जहा रूस के साथ भारत के पुराने संबंध थे तथा रूस के समाजवाद से भारत के कई
राजनेता प्रभावीत भी थे और रूस के समाजवाद को भारत मे लोकतंत्र के साथ जोड़ना चाहते थे। वही
अमेरिका एशिया मे अपनी शक्ति को बढ़ाने के लिए भारत की मदद चाहता था। अमेरिका केवल
एशिया मे प्रभाव के लिए भारत के साथ मित्रता का हाथ नहीं मिला रहा था बल्कि वो USSR के और
भारत के पुराने संबंधों को दे खते हुए भारत को USSR की ओर अधिक झुकाओ से रोकने के लिए
भारत और पाकिस्तान दोनों से संबंधों को मजबूत करना चाहता था। तात्कालिक भारत के पास इतने
अधिक विकल्प और रास्ते थे कि वो एक नव जनित शिशु के समान था। किसी एक महाशक्ति के
कारण उसरी महाशक्ति को अपना शत्रु समझना सही नहीं था और ये ही कारण था की भारत ने किसी
गट
ु को न अपनाने का फेसला किया तात्कालिक प्रधानमंत्री श्री पंडित जवाहरलाल नेहरू का मानना था
की भारत को अपना भविष स्वयं अपने हाथों से लिखना है और इसमे वो किसी प्रकार का गलत
निर्णय नहीं लेना चाहते थे जिससे आने वाले समय मे भारत को अन्तराष्ट्रीय संबंध निभाने और बनाने
मे कठिनाई हो।

इस सब का केवल एक ही हल था कि भारत गुटनिरपेक्ष राजनीति की ओर बढ़े और


किसी को अपना शत्रु न माने और किसी एक महाशक्ति का पक्ष न चुन कर दोनों के साथ संतुलन
स्थापित करने का प्रयास करे । ये रास्ता चुनना अत्यंत कठिन कार्य था क्यूंकी दोनो महाशक्तियाँ
भारत के ऊपर किसी एक पक्ष को चन
ु ने का दवाव डाल रही थी और भारत भी तब इतना आत्म-निर्भर
नहीं था कि वो दोनों महाशक्तियों की सहायता के बिना विकास की और बढ़ सके और अन्तराष्ट्रीय
राजनीति मे एक महत्वपर्ण
ू स्थान प्राप्त कर सके। अत: भारत ने दोनों महाशक्तियों से अपने मैत्री-पर्ण

संबंध बनाए रखने का निर्णय लिया और अन्तराष्ट्रीय राजनीति मे गुटनिर्पक्ष राजनीति का जन्म हुआ।

गुटनिर्पक्ष राजनीति तीसरी दनि


ु या की राजनीति के लिए एक
आयाम था जहां लोग पहली दनि
ु या और दस
ू री दनि
ु या का पक्ष तटस्थ रूप से ले सके । परं तु
गुटनिर्पक्षता का अर्थ तटस्थ होना नहीं होता है । जार्ज लिस्का ने इसका सही अर्थ बताते हुए कहा कि “
गट
ु निरपेक्षता तटस्थता नहीं है । इसका अर्थ है – उचित और अनचि
ु त का भेद जानकर उचित का साथ
दे ना। ” उपरोक्त कथन द्वरा समझा जा सकता है कि गुटनिर्पक्ष आंदोलन तीसरी दनि
ु या के दे शों के
लिए शांति और उन्नति का मार्ग था जिसे तत्कालिक समय के कई दे शों ने अपनाया और शीत यद्ध
ु मे
भाग न लेने का निर्णय लिया परं तु युद्ध मे भाग न लेकर भी भारत और अन्य गुटनिरपेक्ष दे शों ने
विश्व स्तर पर शांति और शीत युद्ध की समाप्ति मे अपना समर्थन दिया।

पंडित जवाहरलाल नेहरू, गमल अब्दल


ु नासिर (मिस्र के राष्ट्रपति), सुकर्णो (इंडोनेशिया के राष्ट्रपति,
जोसेफ बरोज टीटो (यग
ु ोस्लाविया के मार्शल) व क्वामे नकरुमह (घाना के प्रधानमंत्री) ने गट
ु निरपेक्षता
के 5 सिद्धांत विश्व के समक्ष रखे।

1. जो राष्ट्र किसी सैनिक गट


ु का सदस्य नहीं हो ।
2. जिसकी अपनी स्वातंत्र्य विदे शी नीति हो।
3. जो किसी महाशक्ति से द्विपक्षीय समझौता न करता हो।
4. जो अपने क्षेत्र मे किसी महाशक्ति को सैनिक अड्डा बनाने की अनुमति न दे ता हो।
5. जो उपनिवेशवाद का विरोधी हो।

ये सिद्धांत भारत को पुन: किसी विदे शी शक्ति के अधीन होने से भी बचाता हुआ नजर आता है तथा
भारत की अन्तराष्ट्रीय राजनीति मे स्वतंत्र नीति को भी कायम रखने मे सहायक सिद्ध होता है । भारत
की स्वतंत्रता के पश्चात का समय भारत और एशिया के इतिहास का सबसे कठिन समय रहा जिसमे
एशिया महाद्वीप मे कई यद्ध
ु हुए और दे शों की स्थिति कई वर्षों पीछे चली गई। इसमे पाकिस्तान,
भारत, चीन, नेपाल, श्री लंका, ताइवान, आदि प्रमुख है । इन युद्धों के परिणाम स्वरूप कई दे शों की
भूगोलिक-राजनीति को अमेरिका और USSR मे से इसी एक की सहायता मांगने के लिए विवश होना
पड़ा और एशिया मे भी तीसरी दनि
ु या के दे शों ने पहली व दस
ू री मे से किसी एक दनि
ु या को अपना
समर्थन दे ना शुरू कर दिया। इसका उदाहरण भारत द्वरा USSR से द्विपक्षीय समझौता कर भारत
की राजनीति को USSR के पक्ष मे कर दिया। ये तात्कालिक समय की जरूरत थी कि भारत किसी
एक महाशक्ति के संरक्षण मे रहे क्यूंकि भारत के पड़ोसी दे शों ने भारत पर आक्रमण कर दिया था
और भारत की सेना एक साथ पाकिस्तान और चीन के साथ यद्ध
ु नहीं लड़ सकती थी और जब
पाकिस्तान द्वरा अमेरिका युद्ध मे अमेरिका को लाने का प्रयास किया गया और अमेरिका ने भी अपना
युद्धपोत भारतीय समुद्र की और भेज दिया तब भारत की सहायता के लिए USSR ने अपनी परमाणु
संपन पांडुबियों को और युद्धपोत को भारतीय समुद्र मे भेज कर भारत की रक्षा की थी। ये एशिया मे
यद्ध
ु के कारण हुए राजनीतिक पक्ष विपक्ष के कारण भारत और अमेरिका के कई साल संबंध अच्छे नहीं
रहे । इसका उदाहरण

अमेरिका द्वरा एशिया मे सैन्य अड्डा स्थापित करने के कई प्रयास माने जाते है जैसे श्री लंका मे
हुमबंटोंटा बंदरगाह की मांग दक्षिणी श्रीलंका में अमेरिका की रुचि, सत्तर के दशक में भी, संभवतः
द्वितीय विश्व युद्ध के बाद पहली बार था जब भारत को विशाल हिंद महासागर की ओर से दे श की
सुरक्षा के बारे में चिंतित महसूस करने के लिए मजबूर किया गया था, जिसे वह उस समय सीमित
नौसेना और वायु-शक्ति के साथ सरु क्षित करने की उम्मीद नहीं कर सकता था। और अमेरिका द्वरा
नेपाल मे निवेश भी एशिया मे सैन्य अड्डा स्थापित करने का प्रयास था जिसमे नेपाल ने मंजूरी दे दी
परं तु चीन ने अमेरिका को दरू रखने के लिए नेपाल मे विद्रोही करवा दिया और राजतन्त्र को खत्म
करने का प्रयास किया।

भारत की ये नीति काफी हद तक सफल रही और


भारत के संबंध दोनों महाशक्तियों से बने रहे परं तु अमेरिका को भारत की ये नीति ज्यादा पसंद नहीं
आई उसका मानना था भारत को अमेरिका का साथ दे ना चाहिए था और क्यूंकि तात्कालिक अधिकान्स
लोकतंत्र का समर्थन अमेरिका के पक्ष मे था और ब्रिटिश भी इस शीतयुद्ध मे अमेरिका का समर्थन
करते नजर आ रहे थे। और भारत जेसे विकासशील दे श को विकास के लिए अमेरिका की सहायता की
आवश्यकता पड़ेगी जो कि सच था भारत को अपनी शरु
ु आती अन्तराष्ट्रीय राजनीति मे कुछ खास बढ़त
नहीं मिली थी इसका कारण भारत और पड़ोसी दे शों के मध्य युद्ध थे जिसने भारत की आर्थिक स्तिथि
को कमजोर कर दिया था और भारत विकास की दौड़ मे कई साल पीछे हो गया। भारत के स्वतंत्र होने
पर ही 1947 मे पाकिस्तान और भारत के मध्य जम्मू कश्मीर को ले कर युद्ध हो गया था और इसी
साल भारत के अंदर जूनागढ़ के एकीकरण को लेकर आंतरिक संघर्ष का सामना करना पद और एक
साल बाद 1948 मे है दराबाद के निजाम द्वरा (है दराबाद के जनमत के विरुद्ध) भारत से अलग होने
की मांग को नकारते हुए। ऑपरे शन पोलो के तहत है दराबाद को भारत का अभिन्न भाग बनाने के
लिए 13 सितंबर 1948 को सैन्य कार्यवाही की गई जो 5 दिन न चल सकी और 18 सितंबर 1948
को है दराबाद का भारत मे एकीकरण किया गया।

1950-1960 तक भारत की आर्थिक-स्थिति सकारात्मक


और संतलि
ु त बनी हुए थी भारत बहुत तेज गति से विकास की ओर बढ़ रहा था परं तु 1962 का साल
भारत के इतिहास मे एक काला पन्ना है 1962 मे चीन ने भारत के ऊपर आक्रमण कर दिया था और
इस युद्ध के परिणाम स्वरूप भारत को अपने हाथों से आक्साइ चीन होना पड़ा। जिसके कारण भारत
की स्तिथि राजनीतिक और आर्थिक रूप से काफी कमजोर हो गई थी। भारत अभी चीन के साथ यद्ध

से निकल ही था कि 1965 मे पाकिस्तान ने भारत पर आक्रमण कर दिया और भारत की कमजोर
स्तिथि का फायदा उठाने का प्रयास किया जिसमे वो सफल नहीं हो सका और ये यद्ध
ु UN द्वरा बढ़ते
दबाव के कारण किसी परिणाम तक न पहुच सका और 10 जनवरी 1966 को ताशकेंट घोषणा द्वरा
समाप्त हुआ।

इसी प्रकार समय समय पर भारत को युद्ध का सामना करना पड़ा है जिसके कारण
भारत के विकास मे रुकावट आयी है और भारत अन्तराष्ट्रीय स्तर पर राजनीति मे प्रतिभाग नहीं कर
सका। इसका सबसे बढ़ा उदारण भारत को संयक्
ु त राष्ट्र संघ मे स्थायी सदस्यता प्राप्त न होना है । इन
युद्धों को रोकने के लिए ये जरूरी था की भारत किसी महाशक्ति के साथ सुरक्षा समझौता करे और
भारत ने USSR को चन
ु ा और सरु क्षा समझौता कर लिया जिससे भारत को बाहरी आक्रमणों से काफी
राहत मिली।

दक्षिण एशिया में क्षेत्रीय सहयोग का विचार सर्वप्रथम नवंबर 1980 में सामने आया। सात संस्थापक
दे शों- बांग्लादे श, भूटान, भारत, मालदीव नेपाल, पाकिस्तान एवं श्रीलंका के विदे श सचिवों के परामर्श के बाद
इनकी प्रथम मुलाकात अप्रैल 1981 में कोलंबिया में हुई। 8 दिसंबर,1985 को ढाका में दक्षिण एशियाई क्षेत्रीय
सहयोग संगठन (SAARC) का उदय भी भारत और दक्षिण एशिया के क्षेत्रीय दे शों की सुरक्षा व साहियोग
को ध्यान मे रख कर ही किया गया था। हालांकि ये किसी प्रकार का सैन्य संगठन नहीं है । इसका
मख्
ु य उद्देश दक्षिण एशिया मे क्षेत्रीय दे शों के मध्य अन्तराष्ट्रीय संबंधों को मजबत
ू करना और
साहियोग की भावना को बढ़ावा दे ना था। इस संगठन का मुख्यालय एवं सचिवालय नेपाल के काठमांडू में
स्थित है । वर्तमान मे इसके 8 सदस्य हैं बांग्लादे श, भट
ू ान, भारत, मालदीव नेपाल, पाकिस्तान, श्रीलंका
एवं अफ़गानिस्तान(2005)। तथा 9 पर्यवेक्षक सदस्य दे श हैं 1990 के दशक मे यूरोपीय संघ (EU),
उत्तर अमेरिकी मुक्त व्यापर समझौते (NAFTA), और उनके नेतत्ृ व के बाद अन्य क्षेत्रों जैसे बहुत
महत्वपूर्ण ब्लाकों के उदय के साथ क्षेत्रवाद विश्व अर्थव्यवस्था मे एक बहुत ही महत्वपूर्ण प्रवर्ति बन
गया, हालांकि दक्षिण एशियाई क्षेत्रीय सहयोग (सार्क ), आर्थिक सहयोग संगठन(ECO) और बंगला की
खड़ी बहु-क्षेत्रीय तकनीकी और आर्थिक सहयोग पहल (बिंसटे क) का गठन दक्षिण एशिया मे किया गया
था, लेकिन यह क्षेत्र विकास मे धीमा रहा है । क्षेत्रीय आर्थिक एकीकरण की क्षमता और पिछले दो
दशकों मे अपने विकास का समर्थन करने के लिए उन्नत अर्थव्यवस्था मे अपने उत्पादों की बढ़ती
मांग पर काफी हद तक निर्भर रहा है ।
सार्क तत्कालिक समय
की एक जरूरत थी जो आज विश्व की 21 प्रतिशत से ज्यादा आबादी और 6 प्रतिशत से ज्यादा
आर्थव्यवस्था को दर्शाती है । इसमे भारत एक महत्वपर्ण
ू स्थान रखता है क्यंकि
ू सार्क का निर्माण
NATO की तर्ज पर भारत व चीन के एकाधिकार को रोकने और अंकुश लगाने के लिए किया जाना
प्रस्तावित था परं तु भारत ने इसमे भाग ले कर दक्षिण एशिया मे साहियोग को और मजबूत करने का
प्रयास किया ताकि कोई भी दे श भारत से भयभीत न हो और ये न विचारे की भारत उस पर आक्रमण
कर उसको अपने अधिन करने का प्रयास करे गा भारत के सार्क मे सदस्य बनने के और भी कई कारण
थे जेसे:- दक्षिण एशिया में आर्थिक वद्धि
ृ , सांस्कृतिक विकास में तेज़ी लाना, सामहि
ू क आत्मनिर्भरता को
बढ़ावा दे ना एवं मज़बूत करना आदि।

भारत के वर्तमान समय के सबसे बड़े शत्रु या विपक्षी दे श चीन के


विरुद्ध सार्क का निर्माण रूस के विरुद्ध NATO के समान तो नहीं है परं तु चीन की विदे शी नीति को
दक्षिण एशिया मे कमजोर करने और चीन के प्रभाव पर अंकुश लगाने मे सहायता अवश्य करता है ।
इसके साथ साथ भारत की दक्षिण एशिया मे शक्ति को बढ़ाने मे तथा दक्षिण एशिया मे सामहि
ू क
सुरक्षा की भावना उत्तपन करने मे भी सार्क का बहुत महत्वपूर्ण स्थान है । भारत की पहले पड़ोसी की
नीति को अगर कोई समूह दर्शाता है तो वो सार्क ही है भारत ने अपने समीवर्ती दे शों की हमेशा
सहायता की है और समय समय पर अपनी अंतराष्ट्रीय नीतियों मे भी पड़ोसी दे शों को प्राथमिकता दी
है इसके कई सारे उदाहरण है जैसे हाल ही में अफ़गानिस्तान मे खाद्य पर्ति
ू मे सहायता, श्री लंका को
3 बिलियन की क्रेडिट लाइन प्रदान करना तथा नेपाल को निर्यात मे छूट व अनुदान प्रदान करना
आदि।

दक्षिण एशिया मे चीन


का बढ़ता प्रभावा तथा वन बेल्ट एण्ड वन रोड कार्यक्रम भारत की भू-राजनीति के प्रति खतरा है ये
चीन द्वारा दक्षिण एशिया मे विकास के नाम पर कर्ज दे ने की नीति का ही भाग है जिसे ऋण जाल
कहा जाता है इसमे श्री लंका तथा पाकिस्तान दो दे शों की आर्थिक स्थिति को अत्यधिक नुकसान
पहुचाया है

दक्षिण एशिया एक ऐसा क्षेत्र है जिसका बढ़ता राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक महत्व है । भारत

और पाकिस्तान के बीच कड़वी प्रतिद्वंद्विता, जो 1947 में विभाजन के साथ शुरू हुई थी और समय
समय पर बढ़ती रही है इस क्षेत्र में परमाणु हथियारों और मिसाइलों के प्रसार के पीछे प्रेरणा बनी हुई

है । दक्षिण एशिया में परमाणु मद्द


ु े भारत और पाकिस्तान की नीतियों पर ध्यान केंद्रित करते हैं। भारत
और पाकिस्तान दोनों के पास विकास की प्रक्रिया को सवि
ु धाजनक बनाने के लिए परमाणु कार्यक्रम थे।
ये कार्यक्रम विशद्ध
ु रूप से नागरिक कार्यक्रम से हथियारों के विकल्प में जाने की तकनीकी क्षमता का
आधार बन गए। भारत ने 12 मई, 1974 को पोखरण में अपने पहले परमाणु उपकरण का विस्फोट किया

था। यह परमाणु हथियारों की क्षमता का पहला प्रदर्शन था। पाकिस्तान ने भी 1970 के दशक में

परमाणु हथियारों के विकल्प की ओर बढ़ना शरू


ु कर दिया था। 1998 में भारत और पाकिस्तान द्वारा
किए गए परमाणु परीक्षणों के साथ ही दोनों दे शों ने औपचारिक रूप से अपनी परमाणु हथियार क्षमता

की घोषणा की। आज, भारत और पाकिस्तान दोनों सक्रिय परमाणु और मिसाइल कार्यक्रमों को बनाए

रखते हैं, और दोनों परमाणु हथियारों के लिए विखंडनीय सामग्री का उत्पादन कर रहे हैं। किसी भी दे श

ने अप्रसार संधि (एनपीटी) या व्यापक परीक्षण प्रतिबंध संधि (सीटीबीटी) पर हस्ताक्षर नहीं किए हैं,

हालांकि वे परमाणु परीक्षणों पर स्व-लगाए गए स्थगनों का पालन करते हैं। इस क्षेत्र की सरु क्षा चीन

को खतरे के रूप में दे खती है जो इसे और जटिल बनाती है । परमाणु हथियारों और मिसाइल प्रणालियों

को विकसित करने के लिए पाकिस्तान के प्रयासों का उद्देश्य भारत के सामान सैन्य और भारत के

परमाणु हथियारों का मक
ु ाबला करना रहा है ।

1991 मे USSR का टूट कर रूस का निर्माण शीत युद्ध का अंत अवश्य था परं तु ये भारत के साथ

USSR की सुरक्षा संधि का भी अंत था किन्तु भारत अब एक परमाणु शक्ति संपन दे श बन चुका था

और ये भारत की सुरक्षा के लिया अति आवश्यक था कि वो जल्द से जल्द परमाणु शक्ति को प्राप्त

करे । “भारत ने परमाणु शक्ति को स्वयं की रक्षा के लिए प्राप्त किया था न कि किसी दे श पर

आक्रमण करने के उद्देश्य से” ये बात भारत समय समय पर अन्तराष्ट्रीय मंच पर कह च ुका है । इसके

बावजूद भारत को युरेनीअम खरीदने मे कठिनाई का सामना करना पड़ता है । भारत युरेनीअम का

उपयोग केवल परमाणु हथियार बनाने के लिए नहीं करता है बल्कि इसका मुख्य उपयोग भारत ऊर्जा
के उत्पादन मे करता है और भारत के विकास मे परमाणु ऊर्जा का बहुत महत्वपर्ण
ू स्थान है । वाजपेयी

शासन के दौरान किसी अन्य मुद्दे ने उतना विवाद नहीं उठाया है जितना कि 11 मई, 1998 को

पोखरण में हुए परमाणु विस्फोट के रूप में उठाया था। जबकि कुछ भारतीयों ने खश
ु ी और गर्व के साथ
विस्फोट का स्वागत किया, क्योंकि इसने भारत को परमाणु क्लब का सदस्य बना दिया, कुछ ऐसे

लोग थे जो बेहद महं गे और बेकार के अभ्यास से निराश थे, क्यूंकि ये दे श के अल्प संसाधनों को

प्रभावित करता है । जैसा कि अपेक्षित था, अंतर्राष्ट्रीय समुदाय ने व्यापक रूप से दक्षिण एशिया के

तीसरी दनि
ु या के दे शों में हथियारों की दौड़ के प्रसार को दे खते हुए भारत के परमाणु परीक्षण की निंदा
की। और अमेरिका, जापान, जर्मनी ने भारत के खिलाफ आर्थिक प्रतिबंध लगाए, अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष

और विश्व बैंक ने भी या तो अपनी वित्तीय सहायता को निलंबित कर दिया या कई परियोजना


प्रस्तावों से उनकी वापसी की घोषणा की, जिन पर अंतिम रूप दे ने के लिए कार्रवाई की जा रही थी।

भारत मे, वामपंथी दलों और कुछ


बद्धि
ु जीवियों ने परमाणु विस्फोट की निंदा की, जो इसके औचित्य और इसके समय दोनों के साथ दोष
खोजते थे। यह आरोप लगाया गया था कि “सरकार ने लाखों गरीब लोगों की जल आपर्ति
ू , स्वास्थ्य
दे खभाल, शिक्षा और खाद्य सरु क्षा से जड़
ु े महत्वपर्ण
ू मद्द
ु ों से लोगों का ध्यान हटा दिया है ।” बक
ु र
परु स्कार विजेता अंग्रेजी उपन्यासकार अरुं धति रॉय ने इस विस्फोट को जनता के साथ क्रूर मजाक
करार दिया। उनके अनुसार “ परमाणु विस्फोट पर खर्च किए गए धन से कई ग्रामीण घरों में लंबे
समय से प्रतीक्षित पानी की आपर्ति
ू या बिजली और अशिक्षित जनता के लिए शिक्षा का प्रकाश हो
सकता था।” भारत में कई लोगों, विशेष रूप से वैज्ञानिक समुदाय ने परमाणु विस्फोट को भारत की
आत्मनिर्भरता और गरिमा के निशान के रूप में सराहना की। उन्होंने इसमें विज्ञान और प्रौद्योगिकी के
क्षेत्र में भारत की प्रगति का एक स्पष्ट प्रदर्शन दे खा। इसने एक तकनीकी शक्ति के रूप में भारत की
स्थिति स्थापित की। जबकि कुछ विपक्षी दलों ने विस्फोट के समय के लिए सत्तारूढ़ पार्टी को
राजनीतिक उद्देश्यों के लिए जिम्मेदार ठहराया, उन्होंने भारतीय वैज्ञानिकों की उनके उल्लेखनीय कौशल
के लिए प्रशंसा की, जिसने इस उपलब्धि को संभव बनाया, कोई भी दे श अब हमारे दे श को धमकी
नहीं दे सकता क्योंकि महाशक्तियों की तरह भारत के पास भी परमाणु बम है । कुछ लोगों का कहना
है कि, इससे पारं परिक हथियार पर खर्च कम हो जाएगा क्योंकि भारत और पाकिस्तान दोनों द्वारा
परमाणु बम रखने से उनके युद्ध में जाने का खतरा कम हो गया है । यह एहसास कि दोनों के पास
एक-दस
ू रे को नष्ट करने की शक्ति है , उन्हें एक-दस
ू रे के खिलाफ युद्ध छे ड़ने से रोक दे गा। परमाणु
समानता दोनों के बीच शांति वार्ता करने के लिए प्रेरित कर सकती है । भारत की परमाणु नीति को
उसकी भू-राजनीतिक स्थिति से अलग-थलग नहीं माना जा सकता है । जब उसके पड़ोसी, चीन ने
परमाणु बम विकसित किया है और एक बड़े पैमाने पर परमाणु शस्त्रागार बनाया है , तो भारत से गैर-
परमाणु बने रहने की उम्मीद कैसे की जा सकती है ? चीन या पाकिस्तान जैसी परमाणु शक्ति द्वारा
भारत के खिलाफ यद्ध
ु छे ड़े जाने की स्थिति में कौन उसकी मदद के लिए आएगा? यहां तक कि
संयक्
ु त राज्य अमेरिका जैसी महाशक्ति द्वारा दी गई गारं टी भी तत्काल व्यावहारिक उपयोग की नहीं
हो सकती है । वैसे भी भारत जैसा बड़ा दे श अपनी सुरक्षा के मामले में दस
ू रे दे श पर निर्भरता बर्दाश्त
नहीं कर सकता। इसलिए भारत का परमाणु हथियारों से लैस होने का प्रयास पूरी तरह से उचित है ।
युद्ध के लिए तैयारी शांति के लिए सबसे अच्छी गारं टी है । इस प्रकार दे खा जाये तो परमाणु शस्त्रागार
के निर्माण पर खर्च किया गया धन सार्थक है । अब खर्च किया गया धन भारत को जान-माल के भारी
नुकसान से बचा सकता है , जो एक संभावित युद्ध में शामिल है । किसी भी मामले में रक्षा बलों को युद्ध
की तैयारी की स्थिति में रखने के लिए न केवल प्रशिक्षण और आवधिक युद्ध अभ्यास की आवश्यकता
होती है , बल्कि नवीन व हथियारों की भी आवश्यकता होती है । परमाणु हथियारों पर होने वाले खर्च को
भी वैध रक्षा खर्च के हिस्से के रूप में दे खा जाना चाहिए। क्यकि
ूं भारत की परमाणु नीति भारत की
विदे श नीति का अभिन्न अंग है । अंतर्राष्ट्रीय क्षेत्र में , कोई सार्वभौमिक रूप से लागू करने योग्य कानून
नहीं है । विभिन्न दे शों को नियंत्रित करने वाले संबंधों में शक्ति सचमुच सबसे प्रभावी है । यहां तक कि
संयुक्त राष्ट्र ने पहले पांच परमाणु शक्तियों को वीटो अधिकार प्रदान किए हैं। उनके पास गैर -परमाणु
राष्ट्रों की तुलना में अंतरराष्ट्रीय विवादों को सुलझाने में अधिक शक्ति है । भारत का आकार और कद
उसे अंतरराष्ट्रीय मामलों में अब तक की तुलना में बेहतर स्थिति का हकदार बनाता है । भारत का
परमाणु दर्जा भारत को रक्षा बलों के आधुनिकीकरण में मदद करे गा। भारत ने बार-बार घोषणा की है
कि वह अपने दश्ु मन दे श के साथ सशस्त्र संघर्ष के मामले में परमाणु ऊर्जा का पहला उपयोगकर्ता
कभी नहीं होगा। दस
ू री ओर पाकिस्तान ने कभी भी ऐसा कोई संकेत नहीं दिया है कि वह परमाणु बम
का पहले उपयोग नहीं करे गा। भारत का इरादा आत्मरक्षा में केवल अंतिम उपाय के रूप में परमाणु
हथियारों का उपयोग करने का है । हाल के इतिहास ने बार-बार दिखाया है कि हिटलर जैसे महत्वाकांक्षी
और मेगालोमेनियाक लोग लोकतांत्रिक प्रक्रिया का अपहरण करके सत्ता पर कब्जा कर सकते हैं। ऐसे
लोग कभी तर्क की आवाज नहीं सुनते। हमारा पड़ोसी दे श पाकिस्तान समय-समय पर सैन्य तानाशाहों
के अधीन रहा है और परमाणु संयम के मामले में उनकी अच्छी समझ पर निर्भर रहना आत्मघाती हो
सकता है । ऐसे पड़ोसी को केवल बल प्रदर्शन द्वारा काबू में रखा जा सकता है । इसलिए भारत की
परमाणु तैयारी आत्मरक्षा के लिए अपरिहार्य शर्त है ।

प्रसिद्ध भारतीय वैज्ञानिक प्रोफेसर अब्दल


ु कलाम ने कहा है कि “परमाणु क्षमता के विकास ने परमाणु
चिकित्सा के विकास के क्षेत्र में भारत को काफी मदद की है ।” कई प्रकार के खतरनाक कैं सर को
परमाणु चिकित्सा द्वरा जवाब दिया है जो कई निराशाजनक कैं सर रोगियों के जीवन में आशा की
किरण बनी है । परमाणु अनुसंधान ने नई धातुओं को बनाने में भी सहायता की हैं जिसकों पोलियो से
प्रभावित लोगों के लिए बहुत कम वजन वाले लेकिन मजबूत कैलिपर्स के उत्पादन में सहायता मिली
है , जिसका उल्लेख प्रोफेसर एपीजे अब्दल
ु कलाम ने अपनी पुस्तक इंडिया विजन 2020 में किया है ।
परमाणु वैज्ञानिकों द्वारा विकसित रे डियोआइसोटोप का उपयोग थायराइड की कई बीमारियों से पीड़ित
रोगियों को ठीक करने के लिए भी किया जा रहा है । यह स्पष्ट है कि परमाणु विज्ञान में अनस
ु ंधान न
केवल रक्षा के क्षेत्र में बल्कि परमाणु चिकित्सा और सहायक उपकरणों जैसे अन्य क्षेत्रों में भी उपयोगी
रहा है । भारत ने बिजली उत्पादन में परमाणु ऊर्जा का भी उपयोग किया है । परमाणु अनुसंधान महान
क्षमताओं से भरा एक क्षेत्र है और इसका उपयोग शांति और आत्मरक्षा दोनों के लिए किया जा सकता
है । भारत को इस क्षेत्र में नवीनतम प्रगति से खुद को अवगत रखना चाहिए और स्वदे शी क्षमता का
निर्माण जारी रखना चाहिए, क्योंकि हम जरूरत के समय अन्य दे शों पर मदद के लिए निर्भर नहीं हो
सकते हैं। भारत हमेशा शांति में विश्वास करता था और उसने हमेशा इसे हर तरह से बढ़ावा दिया है ।
वह कभी भी एक परमाणु बम के निर्माण के पक्ष में नहीं थी जो केवल लाखों लोगों के लिए विनाश
और आपदा लाता है । लेकिन जितने भी दे श विकसित हों या विकासशील, कई परमाणु परीक्षण किए हैं,
हमारे दे श के लिए परमाणु परीक्षण करना एक आवश्यकता बन गया था। इसके अलावा, विकासशील
दे शों के आंतरिक मामलों में औद्योगिक राष्ट्रों द्वारा हस्तक्षेप की बढ़ती प्रवत्ति
ृ , जिनमें से भारत भी
एक है , मुख्य कारणों में से एक था जिसने भारत को अपने परमाणु संसाधनों को परमाणु हथियारों की
ओर मोड़ने के लिए मजबूर किया। हमे हमारी राष्ट्रीय सुरक्षा की रक्षा करने की तत्काल आवश्यकता
थी, क्योंकि राष्ट्रीय विकास राष्ट्रीय सुरक्षा पर निर्भर करता है । इसी करण अंत में भारत ने 11 मई,
1998 को तीन परमाणु परीक्षण किए और 13 मई, 1998 को पोखरण में दो और परीक्षण किए। लेकिन
परमाणु हथियारों की भमि
ू का को लेकर भारत का रुख बिल्कुल स्पष्ट है । वह किसी अन्य परमाणु
शक्ति के साथ दौड़ में नहीं है । उसने किसी भी अंतरराष्ट्रीय दायित्वों का उल्लंघन किए बिना अपने
परमाणु विकल्प का उपयोग किया है ताकि उन खतरों को रोका जा सके जो उनकी राष्ट्रीय सरु क्षा के
लिए खतरा थे। भारत इस मद्दु े पर बहुत स्पष्ट है कि वह केवल शांतिपर्ण
ू उद्देश्यों के लिए परमाणु
ऊर्जा का उपयोग करे गा। और सबसे महत्वपर्ण
ू बात यह है कि भारत परमाणु हथियारों का पहले से
उपयोग नहीं करने और उन दे शों के खिलाफ इन हथियारों का उपयोग नहीं करने के लिए अपनी
प्रतिबद्धता की पष्टि
ु करता है जो गैर-परमाणु हथियार वाले दे श हैं। परमाणु हथियारों का उपयोग केवल
भारतीय क्षेत्र या कहीं और भारतीय बलों पर परमाणु हमले के खिलाफ जवाबी कार्रवाई में किया
जाएगा। इस प्रकार परमाणु हथियार रखने का भारत का मुख्य उद्देश्य राष्ट्रीय सुरक्षा प्रणाली को एक
ठोस आधार प्रदान करना है । परमाणु ऊर्जा का उपयोग शांतिपूर्ण उद्देश्यों के लिए किया जाना चाहिए
और भारत चाहता है कि हथियारों की दौड़ को हर तरह से रोका जाना चाहिए। लेकिन यह दर्भा
ु ग्यपूर्ण
है कि पांच प्रमुख परमाणु शक्तियां परमाणु हथियारों के उत्पादन और तैनाती पर अपना एकाधिकार
छोड़ने के लिए अनिच्छुक हैं , जबकि अन्य दे शों को समान विशेषाधिकार दे ने से इनकार कर रही हैं।
इन परिस्थितियों में , भारत के लिए परमाणु हथियार रखना वास्तव में एक सराहनीय कदम है ताकि
अन्य लोग हमें मूर्ख न बना सकें या वे हमारे खिलाफ आक्रामक करने का विचार मन मे न ला सकें।
आज दे शों और व्यक्तियों को प्रभावित करने वाली सबसे महत्वपूर्ण वैश्विक समस्याओं में से एक
निरस्त्रीकरण है । हथियारों की दौड़ इस तरह के एक खतरनाक अनुपात तक पहुंच गई है और यहां तक
कि बाहरी अंतरिक्ष में भी फैल रही है । यह हथियारों की दौड़ द्वितीय विश्व यद्ध
ु के मद्देनजर शरूु हुई
और शीत यद्ध
ु के साथ मेल खाती थी जिसने दनि ु या को ब्लॉकों में विभाजित किया था। दर्भा
ु ग्य से,
यद्ध
ु के बाद राष्ट्रों के बीच अपने हथियारों का निर्माण करने और अन्य से आगे रहने के लिए एक
प्रतियोगिता उभरी। तब से, हथियारों के लिए यह दौड़ एक बढ़ती हुई गति से जारी है । आज दनि
ु या को
परमाणु प्रलय का भी खतरा है ।

You might also like