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कामाख्या मंत्र और तंत्र.
कामाख्या-मन्त्त्र का महत्त्व ‘कामाख्या तन्त्त्र’ के अनसु ार ‘सससि की हासन’ एवं
‘सवघ्न-सनवारण’ हेतु ‘कामाख्या-मन्त्त्र’ का जप आवश्यक है ।
सभी साधकों को सभी देवताओ ं के उपासकों को ‘कामाख्या-मन्त्त्र की साधना’ अवश्य करनी
चासहए। शसि के उपासकों के सिए ‘कामाख्या-मन्त्त्र’ की साधना अत्यन्त्त आवश्यक है।
यह ‘कामाख्या-मन्त्त्र’ कल्प-वृक्ष के समान है।
सभी साधकों को एक, दो या चार बार इसका साधना एक वर्ष मे अवश्य करना चासहए।
इस मन्त्त्र की साधना में चक्रासद-शोधन या किासद-शोधन की आवश्यकता नहीं है।
इसकी साधना से सभी सवघ्न दरू होते हैं और शीघ्र ही सससि प्राप्त होती है।

‘कामाख्या-मन्त्त्र’ का सवसनयोग, ऋष्यासद-न्त्यास उि ‘कामाख्या-मन्त्त्र’ के सवसनयोग,


ऋष्यासद-न्त्यासासद इस प्रकार हैं-
।। सवसनयोग ।।
ॐ अस्य कामाख्या-मन्त्त्रस्य श्रीअक्षोभ्य ऋसर्:, अनष्टु ुप् छन्त्द:, श्रीकामाख्या देवता,
सवष- सससि-प्राप्तत्यर्थे जपे सवसनयोग:।
।। ऋष्यासद-न्त्यास ।।
श्रीअक्षोभ्य-ऋर्ये नम: सशरसस, अनष्टु ुप-् छन्त्दसे नम: मख ु े, श्रीकामाख्या-देवतायै नम: हृसद,
सवष- सससि-प्राप्तत्यर्थे जपे सवसनयोगाय नम: सवाषङ्गे।
।। कर-न्त्यास ।।
त्रां अगं ष्ठु ाभ्यां नम:, त्रीं तजषनीभ्यां स्वाहा, त्रंू मध्यमाभ्यां वर्ट्,
त्रैं अनासमकाभ्यां हुम,् त्रीं कसनसष्ठकाभ्यां वौर्ट्, त्र: करति-कर-पृष्ठाभ्यां फट्।
।। अङ्ग-न्त्यास ।।
त्रां हृदयाय नम:, त्रीं सशरसे स्वाहा, त्रंू सशखायै वर्ट्,
त्रैं कवचाय हुम,् त्रौं नेत्र-त्रयाय वौर्ट्, त्र: अस्त्राय फट्।
कामाख्या देवी का ध्यान:-
उि प्रकार न्त्यासासद करने के बाद भगवती कामाख्या का सनम्न प्रकार से ध्यान करना चासहए-
भगवती कामाख्या िाि वस्त्र-धाररणी, सि-भजू ा, ससन्त्दरू -सतिक िगाए हैं।
भगवती कामाख्या सनमषि चन्त्र के समान उज्जज्जवि एवं कमि के समान सन्त्ु दर मख ु वािी हैं।
भगवती कामाख्या स्वणाषसद के बने मसण-मासणक्य से जसटत आभर्ू णों से शोसभत हैं।
भगवती कामाख्या सवसवध रत्नों से शोसभत ससंहासन पर बैठी हुई हैं।

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भगवती कामाख्या मन्त्द-मन्त्द मस्ु करा रही हैं। भगवती कामाख्या उन्त्नत पयोधरोंवािी हैं।
कृ ष्ण-वणाष भगवती कामाख्या के बड़े-बड़े नेत्र हैं। भगवती कामाख्या सवद्याओ ं िारा सिरी हुई हैं।
डासकनी-योसगनी िारा शोभायमान हैं। सन्त्ु दर सस्त्रयों से सवभसू र्त हैं।
सवसवध सगु न्त्धों से स-ु वाससत हैं। हार्थों में ताम्बि
ू सिए नासयकाओ ं िारा स-ु शोसभता हैं।
भगवती कामाख्या समस्त ससहं -समहू ों िारा वसन्त्दता हैं। भगवती कामाख्या सत्र-नेत्रा हैं।
भगवती के अमृत-मय वचनों को सनु ने के सिए उत्सक ु ा सरस्वती और िक्ष्मी से यि ु ा देवी
कामाख्या समस्त गणु ों से सम्पन्त्ना, असीम दया-मयी एवं मङ्गि- रूसपणी हैं।

उि प्रकार से ध्यान कर कामाख्या देवी की पजू ा कर कामाख्या मन्त्त्र का ‘जप’ करना चासहए।
'जप’ के बाद सनम्न प्रकार से ‘प्रार्थषना’ करनी चासहए।
कामाख्ये काम-सम्पन्त्न,े कामेश्वरर! हर-सप्रये!
कामनां देसह मे सनत्यं, कामेश्वरर! नमोऽस्तु ते।।
कामदे काम-रूपस्र्थे, सभु गे सरु -सेसवते!
करोसम दशषनं देव्या:, सवष-कामार्थष-ससिये।।
अर्थाषत् हे कामाख्या देसव! कामना पणू ष करनेवािी, कामना की असधष्ठात्री, सशव की सप्रये!
मझु े सदा शभु कामनाएँ दो और मेरी कामनाओ ं को ससि करो। हे कामना देनेवािी, कामना के
रूप में ही सस्र्थत रहनेवािी, सन्त्ु दरी और देव-गणों से सेसवता देसव!
सभी कामनाओ ं की सससि के सिए मैं आपके दशषन करता ह।ँ
कामाख्या देवी का २२ अक्षर का मन्त्त्र ‘कामाख्या तन्त्त्र’ के चतर्थु ष पटि में कामाख्या देवी का
२२ अक्षर का मन्त्त्र उसल्िसखत है-
मंत्र:-
“ त्रीं त्रीं त्रीं हँ हँ स्त्रीं स्त्रीं कामाख्ये प्रसीद स्त्रीं स्त्रीं हँ हँ त्रीं त्रीं त्रीं स्वाहा ”
उि मन्त्त्र महा-पापों को नष्ट करनेवािा, धमष-अर्थष-काम-मोक्ष देनवे ािा है। इसके ‘जप’ से साधक
साक्षात् देवी-स्वरूप बन जाता है। इस मन्त्त्र का स्मरण करते ही सभी सवघ्न नष्ट हो जाते हैं।
इस मन्त्त्र के ऋष्यासद ‘त्र्यक्षर मन्त्त्र’ (त्रीं त्रीं त्रीं) के समान हैं। 'ध्यान’ इस प्रकार सकया जाता है
मैं योसन-रूपा भवानी का ध्यान करता ह,ँ जो कसि-काि के पापों का नाश करती हैं और समस्त
भोग-सविास के उल्िास से पणू ष करती हैं। मैं अत्यन्त्त सन्त्ु दर के शवािी, हँस-मख ु ी, सत्र-नेत्रा, सन्त्ु दर
कासन्त्तवािी, रे शमी वस्त्रों से प्रकाशमाना, अभय और वर-मरु ाओसं े यि ु , रत्न-जसटत आभर्ू णों
से भव्य, देव-वृक्ष के नीचे पीठ पर रत्न-जसटत ससहं ासन पर सवराजमाना, ब्रह्मा-सवष्ण-ु महेश िारा
वसन्त्दता, बसु ि-वृसि-स्वरूपा, काम-देव के मनो-मोहक बाण के समान अत्यन्त्त कमनीया,
सभी कामनाओ ं को पणू क ष रनेवािी भवानी का भजन करता हँ ।
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'शसि’ का महत्त्व: -
‘कामाख्या तन्त्त्र’ के अनसु ार साधना और जपासद का मि ू ‘शसि’ है।
‘शसि’ ही जीवन का मि ू है और वही ‘इह-िोक’ एवं ‘परिोक’ का मि ू है।
धमष,अर्थष, काम, मोक्ष का मि ू भी ‘शसि’ ही है। ‘शसि’ को जो कुछ सदया जाता है, वह देवी
को अपीत होता है। सजन उद्देश्यों से सदया जाता है, वे सभी सफि होते हैं।
‘शसि’ के सबना कसि-यगु में जो अचषन करता या करवाता है, वह नरक में जाता है।
गरुु -तत्त्व:-
‘कामाख्या तन्त्त्र’ के अनसु ार सदा-सशव ही गरुु देव हैं। महा-कािी से यि ु वे देव ससचचदानन्त्द-
स्वरूप हैं। मनष्ु य-गरुु ‘गरुु देव’ नहीं हैं, उनकी भावना मात्र हैं।
मन्त्त्र देनेवािा अपने सशरस्र्थ कमि में गरुु का जो ध्यान करता है, उसी ध्यान को वह सशष्य के
सशर में उपसदष्ट करता है। इस प्रकार यह स्पष्ट है सक मनष्ु य में ‘गरुु देव’ की भावना रखना मखू षता
है। मनष्ु य-‘गरुु ’ मात्र मागष सदखानेवािा है, स्वयं ‘गरुु -देव’ नहीं हैं।

ज्ञान की श्रेष्ठता:- ‘कामाख्या तन्त्त्र’ के अनसु ार ‘ज्ञान’ से श्रेष्ठ कुछ नहीं है।
‘ज्ञान’ के सिए ही देवता की उपासना की जाती है।
मसु ि-तत्त्व:-
‘कामाख्या तन्त्त्र’ के अनसु ार ‘मसु ि’ चार प्रकार की है-
१. सािोक्य, २. सारूप्तय, ३. सायज्जु य और ४. सनवाषण।

‘सािोक्य मसु ि’ में इष्ट-देवता के िोक में सनवास करने का सौभाग्य समिता है, ‘सारूप्तय’ में
साधक इष्ट-देवता-जैसा ही बन जाता है, सायज्जु य में वह इष्ट-देव की ‘किा’ से यि ु हो जाता है
और ‘सनवाषण मसु ि’ में मन का इष्ट में िय हो जाता है।
मख्ु यत: ‘आसरु ी व्यसित्व’ का िोप होना ही ‘मसु ि’ है। ‘मसु ि देवी’ - सनातनी हैं, सवश्व-
वन्त्द्या हैं, ससचचदानन्त्द-रूसपणी पराऽम्बा हैं और सभी की अभीष्ट कामनाओ ं की पसू तष करती हैं।

महत्वपणू ष साधना - इस साधना मे साधक "कामरुप यत्रं " और "कािी हसकक" मािा जो रात्री
सि
ु के जाप से प्राण-प्रसतष्ठीत हो इनका उपयोग साधना मे करे तो शीघ्र िाभ प्राप्त होता है |
|| OM ||

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माँ कामाख्या शसिपीठ की सवशेर्ता और तत्रं


माँ कामाख्या के मंसदर के तंत्र को जानने के सिये पहिे सशवसिंग को सकारात्मक और माता
के मंसदर की बनावट को नकारात्मक रूप से देखना पडेगा। माता के मंसदर के अन्त्दर जाने पर जो
रश्य सामने होता है वह इस प्रकार का होता है जैसे हम सशवसिगं के अन्त्दर प्रवेश कर गये
हों।मसं दर की बनावट को वास्तु अनसु ार बनाकर अन्त्दर कोई सफे दी या रंग का प्रयोग नही सकया
गया है,अक्सर िोगों के मन में भ्रम होगा सक अन्त्दर कोई रंग या सफे दी नही करने का उद्देश्य
मसन्त्दर के प्रबन्त्धकों का यह रहा होगा सक कोई मसन्त्दर के अन्त्दर माँ की फोटो नही िे िे,और
अक्सर फोटो उन्त्ही स्र्थानों की समिती है, जहां कोई रूप सकारात्मक रूप से सदखाई देता
है,िेसकन जो नकारात्मक रूप में शसि होती है उसे सकारात्मक रूप में देखने के सिये सकसी
भौसतक चीज को देखने की जरूरत नही पडती है, जैसे ही मसन्त्दर के अन्त्दर प्रवेश करते है अचानक
दीपक की धीमी िौ के िारा जो रूप सामने आता है वह माता का साक्षात रूप ही माना जा
सकता है। िनिोर अन्त्धरे ा और उस अन्त्धेरे के अन्त्दर जो रश्य सामने होता है वह अगर आंखों
को बन्त्द करने के बाद देखा जाये तो वही रश्य सामने होता है, इसे अजं वाने के सिये मसन्त्दर में
जब सबसे नीचे जाकर माता के स्र्थान पर के वि बहते हुये पानी को हार्थ से स्पशष सकया जाये तो
उस समय आंखों को बन्त्द करते ही एक सवसचत्र सनु हिी आभा सिये रश्यमान भगवती का सचत्र
एक क्षण के सिये आता है और गायब हो जाता है,वही दश्य मन में बसाने वािा होता है। अक्सर
इस मसन्त्दर को तासं त्रक साधना का स्र्थान बताया गया है और कहा जाता है सक यहाँ पर मनोवासं छत
साधनायें परू ी होती है, िेसकन माता की साधना के सिये र्ोडाक्षरी मत्रं को ह्रदयगं म करने के बाद
ही सम्भव है। र्ोडशाक्षरी के सिये भी कहा गया है सक "राज्जयं देसह,ससरं देसह,ना देसह
र्ोडाक्षरी",राजपाट दे दो,ससर दे दो िेसकन र्ोडाक्षरी मत दो,र्ोडाक्षरी के रहने पर राज्जय और
जीवन वापस समि जायेगा िेसकन र्ोडाक्षरी जाने के बाद कुछ नही समिेगा।
माता के दशषन और स्पशष के सिये अन्त्दर जाने से पहिे दरवाजे के ठीक सामने बसि स्र्थान है,
इस बसि स्र्थान पर कहा जाता है सक भतू काि में यहां मनष्ु यों की बसि दी जाती र्थी, आजकि
यहाँ इस बसि स्र्थान के ठीक पीछे बकरों की बसि दी जाती है, तंत्र में जो बसि देने का ररवाज
भतू डामर तंत्र में कहा गया है, उसके अनसु ार सकसी जीव की बसि देना प्रकृ सत के अनसु ार नही
है। तत्रं शास्त्रों में सिखे गये बसि कारकों में उन कारकों का वणषन सकया गया है जो मानससक
धारणा से जडु ॆ है। इस बसि स्र्थान का जो मसन्त्दर में स्र्थान बनाया गया है वह प्राचीन भवन सनमाषण
पिसत से सबिकुि दसक्षण-पसिम कोने में बनाया गया है। प्रवेश का स्र्थान दसक्षण से होने के
कारण जो सकारात्मक इनजी का मख्ु य स्तोत्र है, वह उत्तर की तरफ नीचे उतरने के सिये माना
जाता है, बसि देने का मतिब यह नही होता है सक कोई मान्त्यता से बसि दी जाती है, यह एक
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कुप्रर्था है और इसके पीछे जो भेद छुपा है उसके अनसु ार मनष्ु य के अन्त्दर जो िोभ मोह िािच
कपट कष्ट देने की आदतें है, उनकी बसि देने का ररवाज है,जैसे बकरे की बसि देने का जो कारण
बताया गया है वह के वि अहम "मैं" को मारने का कारण है, िेसकन िोगों ने अपने सनजी स्वार्थष
को समझा नही और मैं (अहम) को न काटकर मैं मैं कहने वािे जानवर को ही काट डािा, धमष
स्र्थान का महत्व अिोर सससि के सिये कई नही माना जाना चासहये, जीव जीव का आहार है
जरूर िेसकन बबषरता और सबना सकसी जीव को कष्ट सदये जब भोजन को धरती माता उपिब्ध
करवाती है तो क्या जरूरी है सक अपने स्वार्थष और जीभ के स्वाद के सिये बसि दी जाये। मैं को
काटने के सिये पहिे अहम को काट सदया तो सभी सससियां अपने आप सामने प्रस्ततु हो जायेंगी।
माँ के दशषन करने से पहिे इसी मैं को काटने का ध्येय बताया र्था।
इस मसन्त्दर को बनाकर शैव और शसि के उपासकों का मख्ु य उद्देश्य सवपरीत कारकों से सससियों
को प्राप्त करना और माना जा सकता है, वास्तु का मख्ु य रूप जो इस मसन्त्दर से समिता है उसके
अनसु ार आसरु ी शसियां सजनका सनवास दसक्षण पसिम (नैऋत्य) के कोने से समिता है उसको
भी दशाषने का है, मख्ु य मंसदर सजसके नीचे भौसतक तत्व सवहीन सशव सिंग (के वि वायु सनसमषत
सशवसिगं ) है, को समझने के सिये यह भी जाना जाता है सक सजन मकानों में उत्तर की तरफ
असधक ऊंचा और दसक्षण की तरफ असधक नीचा होता है, अर्थवा उत्तर से दसक्षण की तरफ
ढिान बनाया जाता है उन िरों के िोग के वि अिोर साधना की तरफ ही उन्त्मि ु भाव से चिे
जाते है, व्यसभचार जआ ु शराब मारकाट आसद बातें उन्त्ही िरों में समिती है, िेसकन जब यह बात
धासमषक स्र्थानों में आती है तो जो भी धासमषक स्र्थान दसक्षण मख
ु ी होते है अर्थवा उनका उत्तर का
भाग ऊंचा होता है वहां पर जो व्यसि के सदमाग में आसरु ी वृसत्तयां भरी होती है,उनका सनराकरण
भी इसी प्रकार के स्र्थानों में होता है। जैसे सक सकसी भी अस्पताि को देसखये,जो दसक्षण मख ु ी
होगा उसकी प्रसससि और इिाज बहुत अचछा होगा, और जो अन्त्य सदशाओ ं में अपनी मख ु ाकृ सत
बनायें होंगे वहां अन्त्य प्रकार के तत्वों का सवकास समिता होगा, यही बात भोजन और
इन्त्जीसनयररंग वािे मामिों में जानी जाती है। माता कामाख्या के और ऊपर भवु नेश्वरी माता का
मसन्त्दर है,उस मंसदर का सनमाषण भी इसी तरीके से सकया जाता है िेसकन यह प्रकृ सत की कल्पना
ही कही जाये सक सजतनी भीड इस कामाख्या के मंसदर में होती है उतनी भवु नेश्वरी माता के मसन्त्दर
में नही होती है। जो व्यसि अपनी कामना की सससि के सिये आता है वह के वि कामाख्या को
ही जानता है, िेसकन जो कामनाओ ं की सससि से भी ऊपर चिा गया है वह ही भवु नेश्वरी माता
के दशषन और परसन कर पाता है।

कामाख्या शसिपीठ सजस स्र्थान पर सस्र्थत है, उस स्र्थान को कामरुप भी कहा जाता है. 51 पीठों
में कामाख्या पीठ को महापीठ के नाम से भी सम्बोसधत सकया जाता है. इस मसं दर में एक गफ ु ा
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है. इस गफु ा तक जाने का मागष बेहद पर्थरीिा है. सजसे नरकासरु पर्थ कहते है. मसं दर के मध्य भाग
में देवी की सवशािकाय मसू तष सस्र्थत है. यहीं पर एक कंु ड सस्र्थत है. सजसे सौभाग्य कुण्ड कहा
जाता है. कामाख्या देवी शसि पीठ के सवर्य में यह मान्त्यता है सक यहां देवी को िाि चनु री या
वस्त्र चढाने मात्र से सभी मनोकामनाएं परू ी होती है.

तासं त्रक और छुपी हुई शसियों की प्रासप्त का महाकंु भ :-


कामाख्या शसिपीठ देवी स्र्थान होने के सार्थ सार्थ तंत्र-मंत्र सक सससद्दयों को प्राप्त करने का महाकंु भ
भी है. देवी के रजस्विा होने के सदनों में उचच कोसटयों के तांसत्रकों-मांसत्रकों, अिोररयों का बड़ा
जमिट िगा रहता है. तीन सदनों के उपरातं मां भगवती की रजस्विा समासप्त पर उनकी सवशेर्
पजू ा एवं साधना की जाती है. इस महाकंु भ में साध-ु सन्त्याससयों का आगमन आम्बवु ाची अवसध
से एक सप्ताह पवू ष ही शरुु हो जाता है. इस कुम्भ में हठ योगी, अिोरी बाबा और सवशेर् रुप से
नागा बाबा पहुचं ते है. साधना सससद्दयों के सिये ये साध,ु तांसत्रक पानी में खडे होकर, पानी में
बैठकर और कोई एक पैर पर खडा होकर साधना कर रहा होता है.
कामाख्या देवी मन्त्त्र :
कामाख्ये वरदे देसव नीिपवषतवासससन । त्वं देसव जगतां मातयोसनमरु े नमोऽस्तु ते।।
|| OM ||

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