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श्री गणपति अथर्वशीर्वम्

श्री गणेशाय नमः ।

अथाि:- हे! देवता महा गणपतत को मेरा प्रणाम ।

ॐ नमस्ते गणपिये ।त्वमेर् प्रत्यक्षन् ित्त्वमसि ।


त्वमेर् केर्लङ् किाऽसि ।त्वमेर् केर्लन् धिाऽसि ।
त्वमेर् केर्लम् हिाऽसि ।त्वमेर् िर्वङ् खल्विदम् ब्रह्मासि ।
त्वं िाक्षादात्माऽसि तनत्यम् ।।

अथाि:- हे ! गणेशा तुम्हे प्रणाम, तुम ही सजीव प्रत्यक्ष रूप हो, तुम ही कमम और कता भी तुम ही हो, तुम ही धारण
करने वाले, और तुम ही हरण करने वाले संहारी हो। तुम में ही समस्त ब्रह्माण व्याप्त हैं तुम्ही एक पतवत्र साक्षी
हो।

2.

ऋिं र्च्मि । ित्यं र्च्मि ।।

अथाि :- ज्ञान कहता हूँ सच्चाई कहता हूँ ।

3.

अर् त्वम् माम् । अर् र्क्तारम् । अर् श्रोिारम् । अर् दािारम् ।


अर् धािारम् । अर्ानूचानमर् सशष्यम् । अर् पश्चात्ताि् । अर् पुरस्ताि् ।
अर्ोत्तरात्ताि् । अर् दसक्षणात्ताि् ।अर् चोध्र्र्ात्ताि् । अर्ाधरात्ताि् ।
िर्विो माम् पाहह पाहह िमन्ताि् ।।

अथाि :- तुम मेरे हो मेरी रक्षा करों, मेरी वाणी की रक्षा करो । मुझे सुनने वालो की रक्षा करों । मुझे देने वाले की
रक्षा करों मुझे धारण करने वाले की रक्षा करों । वेदों उपतनषदों एवम उसके वाचक की रक्षा करों साथ उससे
ज्ञान लेने वाले शशष्यों की रक्षा करों । चारो ददशाओं पवम, पशिम, उत्तर, एवम दशक्षण से सम्पणम रक्षा करों ।

4.

त्वं र्ाङ्मयस्त्वञ् चचन्मयः ।त्वम् आनन्दमयस्त्वम् ब्रह्ममयः ।


त्वं िच्मिदानन्दाहििीयोऽसि ।त्वम् प्रत्यक्षम् ब्रह्मासि ।
त्वम् ज्ञानमयो तर्ज्ञानमयोऽसि ।।
अथाि:- तुम वाम हो, तुम ही चचन्मय हो, तुम ही आनन्द ब्रह्म ज्ञानी हो, तुम ही सच्चच्चदानंद, अदितीय रूप हो ,
प्रत्यक्ष कता हो तुम ही ब्रह्म हो, तुम ही ज्ञान तवज्ञान के दाता हो ।

5.

िर्वञ् जगहददन् त्वत्तो जायिे ।


िर्वञ् जगहददन् त्वत्तस्तस्तष्ठति ।
िर्वञ् जगहददन् त्वयय लयमेष्यति ।
िर्वञ् जगहददन् त्वयय प्रत्येति ।
त्वम् भूतमरापोऽनलोऽतनलो नभः ।
त्वञ् चत्वारर र्ाव्पदातन ||

अथाि :- इस जगत के जन्म दाता तुम ही हो,तुमने ही सम्पणम तवश्व को सुरक्षा प्रदान की हैं सम्पणम संसार तुम में
ही तनदहत हैं परा तवश्व तुम में ही ददखाई देता हैं तुम ही जल, भतम, आकाश और वायु हो । तुम चारों ददशा में व्याप्त
हो ।

6.

त्वङ् गुणत्रयािीिः । (त्वम् अर्स्थात्रयािीिः ।)


त्वन् दे हत्रयािीिः । त्वङ् कालत्रयािीिः ।
त्वम् मूलाधारस्थस्थिोऽसि तनत्यम् ।
त्वं शयक्तत्रयात्मकः ।त्वां योयगनो ध्यायन्तन्त तनत्यम् ।
त्वम् ब्रह्मा त्वं तर्ष्णुस्त्वम् रुद्रस्त्वम् इन्द्रस्त्वम् अयिस्त्वं र्ायुस्त्वं िूयवस्त्वञ चन्द्रमास्त्वम् ।
ब्रह्मभूभुवर्ः स्वरोम्

अथाि :- तुम सत्व,रज,तम तीनो गुणों से भभन्न हो। तुम तीनो कालो भत, भतवष्य और वतममान से भभन्न हो । तुम
तीनो दे हो से भभन्न हो । तुम जीवन के मल आधार में तवराजमान हो | तुम में ही तीनो शक्तियां धमम, उत्साह,
मानशसक व्याप्त हैं । योक्तग एवम महा गुरु तुम्हारा ही ध्यान करते हैं । तुम ही
ब्रह्म,तवष्णु,रूद्र,इंद्र,अक्ति,वायु,सयम,चन्द्र हो। तुम मे ही गुणों सगुण, तनगुमण का समावेश हैं ।
7.

गणाहदम् पूर्वमुिायव र्णाहदन् िदनन्तरम् ।


अनुस्वारः परिरः । अधेन्दल ु सििम् ।
िारे ण ऋद्धम् । एित्तर् मनुस्वरूपम् ।
गकारः पूर्वरूपम् । अकारो मध्यमरूपम् ।
अनुस्वारश्चान्त्यरूपम् । तिन्दुरुत्तररूपम् ।
नादः िन्धानम् । िंहहिा िन्तन्धः ।
िैर्ा गणेशतर्द्या । गणक ऋषर्ः ।
तनचृद्गायत्री छन्दः । गणपतिदेर्िा ।
ॐ गँ गणपिये नमः ।।

अर्थात :- “गण” का उच्चारण करके बाद के आददवणण अकार का उच्चारण करें । ॐ कार का
उच्चारण करे । यह पुरे मन्त्र ॐ गं गणपतये नम: का भक्ति से उच्चारण करें ।

8.

एकदन्ताय तर्द्महे । र्क्रिुण्डाय धीमहह ।


िन्नो दन्तन्तः प्रचोदयाि्

अर्थात :- एकदं त, वक्रतुंड का हम ध्यान करते हैं । हमें इस सद मागण पर चलने की भगवन प्रेरणा
दे ।

9.

एकदन्तञ् चिुहवस्तम्, पाशमङ्कुशधाररणम् ।


रदञ् च र्रदम् हस्तैतिवभ्राणम्, मूर्कध्वजम् ।
रक्तं लम्बोदरं , शूपवकणवकम् रक्तर्ाििम् ।
रक्तगन्धानुसलप्ताङ्गम्, रक्तपुष्ैःिुपूसजिम् ।
भक्तानुकम्पिनन् देर्ञ्, जगत्कारणमच्युिम् ।
आतर्भूविञ् च िृष्ट्यादौ, प्रकृिेः पुरुर्ात्परम् ।
एर्न् ध्यायति यो तनत्यं ि योगी योयगनां र्रः ||
अर्थात :- भगवान गणेश एकदन्त चार भुजाओं वाले हैं दजसमे वह पाश,अंकुश, दन्त, वर मुद्रा
रखते हैं । उनके ध्वज पर मूषक हैं | यह लाल वस्त्र धारी हैं । चन्दन का लेप लगा हैं | लाल पुष्प
धारण करते हैं | सभी की मनोकामना पूरी करने वाले जगत में सभी जगह व्याप्त हैं | श्रृदि के
रदचयता हैं । जो इनका ध्यान सच्चे ह्रदय से करे वो महा योदग हैं ।

10.

नमो व्रािपिये, नमो गणपिये, नमः प्रमथपिये,


नमस्ते अस्तु लम्बोदराय एकदन्ताय,
तर्घ्ननासशने सशर्िुिाय, र्रदमूिवये नमः ||

अर्थात :– व्रातपदत, गणपदत को प्रणाम, प्रथम पदत को प्रणाम, एकदं त को प्रणाम, दवध्नदवनाशक,
लम्बोदर, दशवतनय श्री वरद मूती को प्रणाम ।

11.

एिदथर्वशीर्ं योऽधीिे । ि ब्रह्मभूयाय कल्पिे ।


ि िर्वतर्घ्नैनव िाध्यिे । ि िर्विः िुखमेधिे ।
ि पञ्चमहापापाि् प्रमुच्यिे । िायमधीयानो हदर्िकृिम्
पापन् नाशयति । प्रािरधीयानो राषत्रकृिम्
पापन् नाशयति । िायम् प्रािः प्रयुञ्जानोऽअपापो भर्ति ।
िर्वत्राधीयानोऽपतर्घ्नो भर्ति । धमाथवकाममोक्षञ् च तर्न्दति ।
इदम् अथर्वशीर्वम् असशष्याय न देयम् । यो यहद मोहाद्दास्यति
ि पापीयान् भर्ति । िहस्रार्िवनाि् ।
यं यङ् काममधीिे िन् िमनेन िाधयेि् ।।

अर्थात :- इस अथवण शीष का पाठ करता हैं वह दवघ्ों से दू र होता हैं । वह सदै व ही सुखी हो जाता
हैं वह पंच महा पाप से दू र हो जाता हैं । सन्ध्या में पाठ करने से ददन के दोष दू र होते हैं । प्रातः पाठ
करने से रादि के दोष दू र होते हैं । हमेशा पाठ करने वाला दोष रदहत हो जाता हैं और साथ ही
धमण, अथण, काम एवम मोक्ष पर दवजयी बनता हैं | इसका 1 हजार बार पाठ करने से उपासक
दसक्ति प्राप्त कर योदग बनेगा ।
12

अनेन गणपतिमभभषर्ञ्चति । ि र्ाग्मी भर्ति ।


चिुथ्र्यामनश्नन् जपति,ि तर्द्यार्ान् भर्ति ।
इत्यथर्वणर्ाक्यम् । ब्रह्माद्यार्रणम् तर्द्याि् ।
न तिभेति कदाचनेति ।।

अर्थात :- जो इस मन्त्र के उच्चारण के साथ गणेश जी का अदभषे क करता हैं उसकी वाणी उसकी
दास हो जाती हैं | जो चतुथी के ददन उपवास कर जप करता हैं दवद्वान बनता हैं | जो ब्रह्मादद
आवरण को जानता है वह भय मुि होता हैं |

13

यो दूर्ाङ्कुरै यवजति । ि र्ैश्रर्णोपमो भर्ति ।


यो लाजैयवजति, ि यशोर्ान् भर्ति ।
ि मेधार्ान् भर्ति । यो मोदकिहस्रेण यजति ।
ि र्ास्थििफलमर्ाप्नोति । यः िाज्यितमद्भियवजति
ि िर्ं लभिे, ि िर्ं लभिे ।।

अर्थात :- जो दु वणकुरो द्वारा पूजन करता हैं वह कुबेर के समान बनता हैं जो लाजा के द्वारा पूजन
करता हैं वह यशस्वी बनता हैं मेधावी बनता हैं जो मोदको के साथ पूजन करता हैं वह मन:
अनुसार फल प्राप्त करता हैं | जो घृतात्क सदमधा के द्वारा हवन करता हैं वह सब कुछ प्राप्त
करता हैं |

14.

अष्टौ ब्राह्मणान् िम्यग्ग्राहययत्वा, िूयवर्चवस्वी भर्ति ।


िूयवरहे महानद्याम् प्रतिमाियन्नधौ, र्ा जप्त्त्वा, सिद्धमन्त्रो भर्ति ।
महातर्घ्नाि् प्रमुच्यिे । महादोर्ाि् प्रमुच्यिे ।
महापापाि् प्रमुच्यिे । ि िर्वतर्द् भर्ति, ि िर्वतर्द् भर्ति ।
य एर्म् र्ेद ।।

अर्थात :- जो आठ ब्राह्मणों को उपदनषद का ज्ञाता बनाता हैं वे सूयण के सामान तेजस्वी होते हैं |
सूयण ग्रहण के समय नदी तट पर अथवा अपने इि के समीप इस उपदनषद का पाठ करे तो दसिी
प्राप्त होती हैं | दजससे जीवन की रूकावटे दू र होती हैं पाप कटते हैं वह दवद्वान हो जाता हैं यह
ऐसे ब्रह्म दवद्या हैं |
शान्तन्तमन्त्र
ॐ भद्रङ् कणेभभः शृणुयाम देर्ाः ।
भद्रम् पश्येमाक्षभभयवजत्राः ।
स्थस्थरै रङ्गैस्तष्ट
ु ु र्ांिस्तनूभभः
व्यशेम देर्हहिं यदायुः ।।

अर्थात :- हे ! गणपदत हमें ऐसे शब्द कानो में पड़े जो हमें ज्ञान दे और दनन्दा एवम दु राचार से दू र
रखे |हम सदै व समाज सेवा में लगे रहे था बुरे कमों से दू र रहकर हमेशा भगवान की भक्ति में
लीन रहें |हमारे स्वास्थ्य पर हमेशा आपकी कृपा रहे और हम भोग दवलास से दू र रहें | हमारे तन
मन धन में ईश्वर का वास हो जो हमें सदै व सुकमो का भागी बनाये | यही प्राथणना हैं |

ॐ स्वस्तस्त न इन्द्रो र्ृद्धश्रर्ाः ।


स्वस्तस्त नः पूर्ा तर्श्वर्ेदाः ।
स्वस्तस्त नस्ताक्ष्र्योऽअररष्टनेतमः
स्वस्तस्त नो िृहस्पतिदव धािु ।।
ॐ शान्तन्तः शान्तन्तः शान्तन्तः ।।

अर्थात :- चारो ददशा में दजसकी कीदतण व्याप्त हैं वह इं द्र दे वता जो दक दे वों के दे व हैं उनके जैसे
दजनकी ख्यादत हैं जो बुक्ति का अपार सागर हैं दजनमे बृहस्पदत के सामान शक्तियााँ हैं दजनके
मागणदशणन से कमण को ददशा दमलती हैं दजससे समस्त मानव जादत का भला होता हैं |
॥ इति श्री गणपति अथर्वशीर्वम् ििूणव ॥

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