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घेरे से बाहर निकालने में कामयाबी हासिल कर ली है। अब यह मान लिया गया है कि सार्विक मताधिकार आधारित लिकतंत्र
अब तक की सर्वश्रेष्ठ राजनीतिक प्रणाली है और निजी-संपत्ति आधारित अर्थ-व्यवस्था यानी पूंजीवाद का कोई विकल्प नहीं
है। बस नजर इस पर रखे जाने की जरूरत है कि पूंजीवाद अपनी हद न पार करे यानी वह नरम बना रहे और लोकतंत्र भी
कम-से-कम अपने औपचारिक संस्थाओं के साथ औपचारिक ढ़ंग से काम करता रहे। नरम पूंजीवाद और औपचारिक
लोकतंत्र वाली व्यवस्था में मध्यवर्ग के लिए ‘स्पेस’ बना रहता है।
को भी कोई आँच न पहुँचे। । अर्थात यह इतना अधिक आगे न बढ़ जाए कि कु छ लोग तो अत्यधिक अमीर हो जाएँ, बहुत
सारे लोग गरीब बने रहें और मध्य-वर्ग सिकु ड़ता चला जाए। साथ ही, यह विश्वास कायम रहे कि मेहनत, लगन और प्रतिभा
के बल पर इस व्यवस्था में गरीब से अमीर, कमजोर से ताकतवर और यहाँ तक कि एक चाय वाले का प्रधानमंत्री बनना तक
मुमकिन है।
यह पूंजीवाद की जीत का दौर है। एक सिस्टम के रूप में इसने खुद को एक मात्र विकल्प या यूँ कह
लीजिए मानव समाज की यात्रा के गंतव्य के रूप में पेश करने में बहुत हद तक कामयाबी हासिल कर
ली है। पूंजीवाद के सबसे बड़े सिद्धांतकार कार्ल मार्क्स और उनसे प्रेरित राजनीति ने इसे गंतव्य भले
नहीं माना लेकिन समाजवादी या साम्यवादी समाज की संभावना का पूर्व-शर्त घोषित कर उन्होंने
पूंजीवाद को वांछनीय बनाने का काम जरूर किया। इससे पूंजीवाद को गैर-पूंजीवादी समाजों को
पिछड़ा और असभ्य घोषित करने और उनकी जगह खुद को स्थापित करने की सुविधा मिल गई।
उसने इस काम को कहीं उपनिवेशवाद के जरिए तो कहीं तथाकथित लोकतंत्र बहाल करने के जरिए
अंजाम दिया। यह पूंजीवाद को अनिवार्य और सकारात्मक मानने का ही नतीजा था कि विद्वतसमुदाय
के बीच पूर्व-उपनिवेशों के भी स्वत: (बिना उपनिवेशन से गुजरे) पूंजीवादी व्यवस्था की तरफ बढ़ने
की संभावना के होने या न होने को लेकर अच्छी-ख़ासी बहस चली।
खैर, पूंजीवाद समाजवाद की पूर्व-शर्त साबित नहीं हुआ। अपने अनुकू ल मूल्यों को परिपोषित कर
(कु छ परंपरा से छंटनी करके तो कु छ गढ़ कर), वह सहज बोध-सा बन चला। पूंजीवादी जीवन शैली,
वर्चस्वी जीवन शैली बन गई। कु छ विद्वानों ने इसे मनुष्य के महज आर्थिक प्राणी के रूप में विघटित
या सीमित हो जाने की परिघटना माना है। वहीं, प्रकृ ति का इस कदर दोहन हुआ (जो अभी जारी है)
कि धरती पर जीवन ही संकट में पड़ गया। मानव समेत अन्य जीव-जंतुओं और प्रकृ ति
प्रगतिशील और उदारवादी तबका विऔपनिवेशीकरण की बात करने वालों को प्राय: शक की निगाहों से देखा
करता है। उसे लगता है कि विऔपनिवेशीकरण के पक्षधर पश्चिम का अंधविरोध करते हैं और कहीं अतीत में
लौट जाने की पैरवी करते हैं। जबकि हकीकत यह है कि विऔपनिवेशीकरण और उसके बाद के चरण
‘डिकोलोनियलिटी’ के विमर्शकार जब पश्चिमी सभ्यता की आलोचना और उससे मुक्ति की बात करते हैं, तब
उनका आशय आधुनिकता और सभ्यता के नाम पर पश्चिम द्वारा गैर-पूंजीवादी समाजों को जबरन पूंजीवाद के
दायरे में लाने की ओर ध्यान दिलाने और उससे बाहर निकलने से होता है।
2008 के वित्तीय संकट के दौरान जब अमेरिकी नेता ‘सिस्टम को कै से बचाया जाए’ जैसा सवाल उठा रहे थे
तब डिकोलोनियलिटी के अग्रणी सिद्धांतकार वाल्टर मिगनोलो ने इसे गलत सवाल बताते हुए यह पूछा कि ‘इसे
भला बचाया ही क्यों जाए’? मिगनोलो से जब इसका कारण बताने के लिए कहा गया तो उन्होंने बड़े ही मार्के की
और आँखें खोल देने वाली बात कही। उन्होंने कहा कि जिसे हम बचाना चाहते हैं वह दरअसल पश्चिमी सभ्यता
का आर्थिक खंभा (पूंजीवाद) है, जो यह मानता है कि विकास और वृद्धि से खुशहाली आती है। मिगनोलो ने
इसमें आगे यह जोड़ा कि मेरा और मुझ जैसे कई और चिंतकों या विमर्शकारों का यह मानना है कि यह सिस्टम
धरती और उस पर मौजूद मानव एवं अन्य जीव-जंतुओं को ही मौत की खाई में धके ल रहा है। इसलिए अब
सवाल यह होना चाहिए कि धरती और उस पर मौजूद जीवन को कै से बचाया जाए? पूंजीवादी सभ्यता को वे
ऐसा घोड़ागाड़ी मानते हैं जिसमें गाड़ी आगे लगी हुई है और घोड़ा पीछे। इसमें सीमित संसाधनों के संतुलित,
विवेकसम्मत और न्यायपूर्ण इस्तेमाल की योजना नहीं बनाई जाती है और न ही सबके कल्याण और पर्यावरण
को बचाने की चिंता की जाती है। बस एक ही ध्येय रहता है संसाधनों का अंधाधुंध दोहन और अधिक-से-अधिक
धन-संचय, जिसका नतीजा महज कु छ ही के पास अकू त धन-संपत्ति के इकट्ठा होने और बहुत बड़ी आबादी के
तंगहाली में जीवन-बसर करने के रूप में निकलता है। मिगनोलो ‘विकास और वृद्धि’ वाले इस पैराडाईम की
गिरफ्त से बाहर निकलकर ऐसे पैराडाईम को अपनाने की बात करते हैं जिसमें वैविध्यपूर्ण जीवन, मनुष्यों के बीच
परस्पर सहयोग, प्रकृ ति के साथ तालमेल आदि प्राथमिकता रखते हों। इसी से पीछे लगा हुआ घोड़ा गाड़ी के
आगे आ सके गा और गाड़ी चल पाएगी।
जहाँ तक लोकतंत्र की बात है तो मिगनोलो का मत है कि पूंजीवादी व्यवस्था ज्यादा दिनों तक लोकतांत्रिक नहीं
बनी रह सकती है। पश्चिमी देशों में कु छ अरसे तक पूंजीवाद और लोकतंत्र साथ-साथ चलते पाए गए, लेकिन
उसकी पृष्ठभूमि में साम्राज्यवादी शोषण था।