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चार्ााक दर्ान

चार्ााक दर्ान एक भौतिकर्ादी नास्तिक दर्ान है। यह मात्र प्रत्यक्ष प्रमाण को मानिा है िथा पारलौतकक सत्ताओं
को यह ससद्ांि स्वीकार नहीं करिा है। यह दर्ान र्ेदबाह्य भी कहा जािा है।

र्ेदबाह्य दर्ान छ: हैं- चार्ााक, माध्यतमक, योगाचार, सौत्रास्तिक, र्ैभातिक, और आहाि। इन सभी में र्ेद से
असम्मि ससद्ािों का प्रतिपादन है।

असजि के र्कं बली को चार्ााक के अग्रदूि के रूप में श्रेय तदया जािा है, जबतक बृहस्पति को आमिौर पर चार्ााक या
लोकायि दर्ान के सं स्थापक के रूप में जाना जािा है। चार्ााक , बृहस्पति सूत्र (सीए 600 ईसा पूर्)ा के असिकांर्
प्राथतमक सातहत्य गायब या खो गए हैं। इसकी सर्क्षाओं को ऐतिहाससक माध्यतमक सातहत्य से सं कसलि तकया गया
है जैसे तक र्ास्त्र, सूत्र, और भारिीय महाकाव्य कतर्िा में और गौिम बुद् के सं र्ाद और जैन सातहत्य से। चार्ााक
प्राचीन भारि के एक अनीश्वरर्ादी और नास्तिक िातका क थे। ये नास्तिक मि के प्रर्िाक बृहस्पति के सर्ष्य माने
जािे हैं। बृहस्पति और चार्ााक कब ुएए इसका कु छ भी पिा नहीं है। बृहस्पति को चाण्य ने अपने अथार्ास्त्र ग्र्
में अथार्ास्त्र का एक प्रिान आचाया माना है।

पररचय

चार्ााक का नाम सुनिे ही आपको ‘यदा जीर्ेि सुखं जीर्ेि, ऋण कृ त्वा, घृिं पीर्ेि’ (जब िक जीर्ो सुख से जीर्ो,
उिार लो और घी पीयो) की याद आएगी. ‘चार्ााक’ नाम को ही घृणास्पद गाली की िरह बदल तदया गया है।
मानों इस ससद्ांि को मानने र्ाले ससर्ा कजाखोर, भोगर्ादी और पतिि लोग थे। प्रचसलि िारणा यही है तक चार्ााक
र्ब्द की उत्पति ‘चारु’+’र्ाक् ’ (मीठी बोली बोलने र्ाले) से ुएई है। जातहर है तक यह नामकरण इस ससद्ांि के उन
तर्रोसियों द्वारा तकया गया है तक सजनका मानना था तक यह लोग मीठी-मीठी बािों से भोले-भले लोगों को बहकािे
थे। चार्ााक ससद्ांिों के सलए बौद् तपटकों िक में ‘लोकायि’ र्ब्द का प्रयोग तकया जािा है सजसका मिलब ‘दर्ान
की र्ह प्रणाली है जो जो इस लोक में तर्श्वास करिी है और स्वगा, नरक अथर्ा मुति की अर्िारणा में तर्श्वास नहीं
रखिी’. चार्ााक या लोकायि दर्ान का सजक्र िो महाभारि में भी तमलिा है लेतकन इसका कोई भी मूल ग्र्
उपलब्ध नहीं। जातहर है तक चूं तक यह अपने समय की सत्तािारी िाकिों के सखलार् बाि करिा था, िो इसके ग्रंथों
को नष्ट कर तदया गया और प्रचसलि कथाओं में चार्ााकों को खलनायकों की िरह पेर् तकया गया।

सर्ादर्ानसं ग्रह में चार्ााक का मि तदया ुएआ तमलिा है। पद्मपुराण में सलखा है तक असुरों को बहकाने के सलये
बृहस्पति ने र्ेदतर्रुद् मि प्रकट तकया था। नास्तिक मि के सं बि में तर्ष्णुपरु ाण में सलखा है तक जब िमाबल से
दै त्य बुएि प्रबल ुएए िब दे र्िाओं ने तर्ष्णु के यहााँ पुकार की। तर्ष्णु ने अपने र्रीर से मायामोह नामक एक पुरुि
उत्पन्न तकया सजसने नमादा िट पर तदगबं र रूप में जाकर िप करिे ुएए असुरों को बहकाकर िमामागा में ्रषष्ट तकया।
मायामोह ने असुरों को जो उपदे र् तकया र्ह सर्ादर्ानसं ग्रह में तदए ुएए चार्ााक मि के श्लोकों से तबलकु ल तमलिा
है। जैस,े - मायामोह ने कहा है तक यतद यज्ञ में मारा ुएआ पर्ु स्वगा जािा है िो यजमान अपने तपिा को ्य ों नहीं
मार डालिा, इत्यातद। सलंगपुराण में तत्रपुरतर्नार् के प्रसं ग में भी सर्र्प्रेररि एक तदगं बर मुतन द्वारा असुरों के इसी
प्रकार बहकाए जाने की कथा सलखी है सजसका लक्ष्य जैनों पर जान पड़िा है। र्ाल्मीतक रामायण अयोध्या कांडमें
महतिा जार्ासल ने रामचं द्र को बनबास छोड़ अयोध्या लौट जाने के सलये जो उपदे र् तदया है र्ह भी चार्ााक के मि
से तबलकु ल तमलिा है। इन सब बािों से ससद् होिा है तक नास्तिक मि बुएि प्राचीन है। इसका अतर्भाार् उसी
समय में समझना चातहए जर् र्ैतदक कमाकांड़ों की असिकिा लोगों को कु छ खटकने लगी थी।

चार्ााक ईश्वर और परलोक नहीं मानिे। परलोक न मानने के कारण ही इनके दर्ान को लोकायि भी कहिे हैं।
सर्ादर्ानसं ग्रह में चार्ााक के मि से सुख ही इस जीर्न का प्रिान लक्ष्य है। सं सार में दुुःख भी है, यह समझकर जो
सुख नहीं भोगना चाहिे, र्े मूखा हैं। मछली में कााँ टे होिे हैं िो ्य ा इससे कोई मछली ही न खाय ? चौपाए खेि
पर जायाँ गे, इस डर से ्य ा कोई खेि ही न बोर्े ? इत्यातद। चार्ााक आत्मा को पृथक् कोई पदाथा नहीं मानिे। उनके
मि से सजस प्रकार गुड़, िं डु ल आतद के सं योग से मद्य में मादकिा उत्पन्न हो जािी है उसी प्रकार पृथ्वी, जल, िेज
और र्ायु इन चार भूिों के सं योगतर्र्ेि से चेिनिा उत्पन्न हो जािी है। इनके तर्श्लेिण या तर्नार् से 'मैं' अथााि्
चेिनिा का भी नार् हो जािा है। इस चेिन र्रीर के नाम के पीछे तर्र पुनरागमन आतद नहीं होिा। ईश्वर, परलोक
आतद तर्िय अनुमान के आिार पर हैं।

पर चार्ााक प्रत्यक्ष को छोड़कर अनुमान को प्रमाण में नहीं लेिे। उनका िका है तक अनुमान व्यातिज्ञान का आसश्रि
है। जो ज्ञान हमें बाहर इं तद्रयों के द्वारा होिा है उसे भूि और भतर्ष्य िक बढाकर ले जाने का नाम व्यातिज्ञान है , जो
असं भर् है। मन में यह ज्ञान प्रत्यक्ष होिा है, यह कोई प्रमाण नहीं ्य ोंतक मन अपने अनुभर् के सलये इंतद्रयों का ही
आसश्रि है। यतद कहो तक अनुमान के द्वारा व्यातिज्ञान होिा है िो इिरेिराश्रय दोि आिा है , ्य ोंतक व्यातिज्ञान को
लेकर ही िो अनुमान को ससद् तकया चाहिे हो। चार्ााक का मि सर्ादर्ानसं ग्रह, सर्ादर्ानसर्रोमसण और बृहस्पतिसूत्र
में देखना चातहए। नैिि के १७र्ें सगा में भी इस मि का तर्िृि उल्लेख है।

चार्ााक के र्ल प्रत्यक्षर्ातदिा का समथान करिा है, र्ह अनुमान आतद प्रमाणों को नहीं मानिा है। उसके मि से
पृथ्वी जल िेज और र्ायु ये चार ही ित्व है, सजनसे सब कु छ बना है। उसके मि में आकार् ित्व की स्तस्थति नहीं है ,
इन्ही चारों ित्वों के मेल से यह दे ह बनी है, इनके तर्र्ेि प्रकार के सं योजन मात्र से दे ह में चैिन्य उत्पन्न हो जािा है,
सजसको लोग आत्मा कहिे है। र्रीर जब तर्नष्ट हो जािा है , िो चैिन्य भी खत्म हो जािा है। इस प्रकार से जीर्
इन भूिो से उत्पन्न होकर इन्ही भूिो के के नष्ट होिे ही समाि हो जािा है , आगे पीछे इसका कोई महत्व नहीं है।
इससलये जो चेिन में दे ह तदखाई दे िी है र्ही आत्मा का रूप है, दे ह से अतिररि आत्मा होने का कोई प्रमाण ही नहीं
तमलिा है। चार्ााक के मि से स्त्री पुत्र और अपने कु टु स्तियों से तमलने और उनके द्वारा तदये जाने र्ाले सुख ही सुख
कहलािे है। उनका आसलन्गन करना ही पुरुिाथा है, सं सार में खाना पीना और सुख से रहना चातहये। इस दर्ान में
कहा गया है, तक:-

यार्ज्जीर्ेि सुखं जीर्ेद ऋणं कृ त्वा घृिं तपर्ेि, भस्मीभूिस्य दे हस्य पुनरागमनं कु िुः ॥

अथा है तक जब िक जीना चातहये सुख से जीना चातहये, अगर अपने पास सािन नहीं है, िो दूसरे से उिार लेकर
मौज करना चातहये, र्मर्ान में र्रीर के जलने के बाद र्रीर को तकसने र्ापस आिे दे खा है?

चार्ााक दर्ान के अनुसार पृथ्वी, जल, िेज िथा र्ायु ये चार ही ित्त्व सृतष्ट के मूल कारण हैं। सजस प्रकार बौद् उसी
प्रकार चार्ााक का भी मि है तक आकार् नामक कोई ित्त्व नहीं है। यह र्ून्य मात्र है। अपनी आणतर्क अर्स्था से
स्थूल अर्स्था में आने पर उपयुाि चार ित्त्व ही बाह्य जगि, इसिय अथर्ा दे ह के रूप में दृष्ट होिे हैं। आकार् की
र्स्त्वात्मक सत्ता न मानने के पीछे इनकी प्रमाण व्यर्स्था कारण है। सजस प्रकार हम गन्ध, रस, रूप और स्पर्ा का
प्रत्यक्ष अनुभर् करिे ुएए उनके समर्ातययों का भी ित्ति इसियों के द्वारा प्रत्यक्ष करिे हैं। आकार् ित्त्व का र्ैसा
प्रत्यक्ष नहीं होिा। अि: उनके मि में आकार् नामक ित्त्व है ही नहीं। चार महाभूिों का मूलकारण ्य ा है ? इस
प्रश्न का उत्तर चार्ााकों के पास नहीं है। यह तर्श्व अकस्माि सभन्न-सभन्न रूपों एर्ं सभन्न-सभन्न मात्राओं में तमलने र्ाले
चार महाभूिों का सं ग्रह या सं घट्ट मात्र है।

आत्मा

चार्ााकों के अनुसार चार महाभूिों से अतिररि आत्मा नामक कोई अन्य पदाथा नहीं है। चैिन्य आत्मा का गुण है।
चूाँ तक आत्मा नामक कोई र्िु है ही नहीं अि: चैिन्य र्रीर का ही गुण या िमा ससद् होिा है। अथााि यह र्रीर ही
आत्मा है। इसकी ससतद् के िीन प्रकार है- िका , अनुभर् और आयुर्ेद र्ास्त्र।

िका से आत्मा की ससतद् के सलये चार्ााक लोग कहिे हैं तक र्रीर के रहने पर चैिन्य रहिा है और र्रीर के न रहने
पर चैिन्य नहीं रहिा। इस अन्वय व्यतिरेक से र्रीर ही चैिन्य का आिार अथााि आत्मा ससद् होिा है।

अनुभर् 'मैं स्थूल हाँ', 'मैं दुबाल हाँ', 'मैं गोरा हाँ', 'मैं तनसिय हाँ' इत्यातद अनुभर् हमें पग-पग पर होिा है। स्थूलिा
दुबालिा इत्यातद र्रीर के िमा हैं और 'मैं' भी र्ही है। अि: र्रीर ही आत्मा है।

आयुर्ेद सजस प्रकार गुड, जौ, मुएआ आतद को तमला देने से काल क्रम के अनुसार उस तमश्रण में मदर्ि उत्पन्न
होिी है, अथर्ा दही पीली तमट्टी और गोबर के परस्पर तमश्रण से उसमें तबच्छू पैदा हो जािा है अथर्ा पान, कत्था,
सुपारी और चूना में लाल रंग न रहने पर भी उनके तमश्रण से मुाँ ह में लासलमा उत्पन्न हो जािी है उसी प्रकार चिुभूािों
के तर्सर्ष्ट सस्तम्मश्रण से चैिन्य उत्पन्न हो जािा है। तकिु इन भूिों के तर्सर्ष्ट मात्रा में तमश्रण का कारण ्य ा है ?
इस प्रश्न का उत्तर चार्ााक के पास स्वभार्र्ाद के अतिररि कु छ नहीं है। ईश्वर-न्याय आतद र्ास्त्रों में ईश्वर की ससतद्
अनुमान या आि र्चन से की जािी है। चूाँ तक चार्ााक प्रत्यक्ष और के र्ल प्रत्यक्ष प्रमाण को मानिा है अि: उसके
मि में प्रत्यक्ष दृश्यमान राजा ही ईश्वर हैं र्ह अपने राज्य का िथा उसमें रहने र्ाली प्रजा का तनयिा होिा है। अि:
उसे ही ईश्वर मानना चातहये।

ज्ञान मीमांसा

प्रमेय अथााि तर्िय का यथाथा ज्ञान अथााि प्रमा के सलये प्रमाण की आर्श्यकिा होिी है। चार्ााक लोक के र्ल
प्रत्यक्ष प्रमाण मानिे हैं। तर्िय िथा इसिय के सतन्नकािा से उत्पन्न ज्ञान प्रत्यक्ष ज्ञान कहलािा है। हमारी इसियों के
द्वारा प्रत्यक्ष तदखलायी पड़ने र्ाला सं सार ही प्रमेय है। इसके अतिररि अन्य पदाथा असि है। आाँ ख, कान, नाक,
सजह्वा और त्वचा के द्वारा रूप र्ब्द गन्ध रस एर्ं स्पर्ा का प्रत्यक्ष हम सबको होिा है। जो र्िु अनुभर्गम्य नहीं
होिी उसके सलये तकसी अन्य प्रमाण की आर्श्यकिा भी नहीं होिी। बौद्, जैन नामक अर्ैतदक दर्ान िथा
न्यायर्ैर्ेतिक आतद अद्ा र्तै दक दर्ान अनुमान को भी प्रमाण मानिे हैं। उनका कहना है तक समि प्रमेय पदाथों की
सत्ता के र्ल प्रत्यक्ष प्रमाण से ससद् नहीं की जा सकिी। परिु चार्ााक का कथन है तक अनुमान से के र्ल सम्भार्ना
पैदा की जा सकिी है। तनश्चयात्मक ज्ञान प्रत्यक्ष से ही होिा हैं। दूरस्थ हरे भरे र्ृक्षों को देखकर र्हााँ पसक्षयों का
कोलाहल सुनकर, उिर से आने र्ाली हर्ा के ठण्डे झोके से हम र्हााँ पानी की सम्भार्ना मानिे हैं। जल की
उपलस्तब्ध र्हााँ जाकर प्रत्यक्ष देखने से ही तनसश्चि होिी है। अि: सम्भार्ना उत्पन्न करने िथा लोकव्यर्हार चलाने के
सलये अनुमान आर्श्यक होिा है तकिु र्ह प्रमाण नहीं हो सकिा। सजस व्याति के आिार पर अनुमान प्रमाण की
सत्ता मानी जािी है र्ह व्याति के अतिररि कु छ नहीं है। िूम के साथ अति का, पुष्प के साथ गन्ध का होना
स्वभार् है। सुख और िमा का दु:ख और अिमा का कायाकारण भार् स्वाभातर्क है। जैसे कोतकल के र्ब्द में
मिुरिा िथा कौर्े के र्ब्द में कका र्िा स्वाभातर्क है उसी प्रकार सर्ात्र समझना चातहये। जहााँ िक र्ब्द प्रमाण की
बाि है िो र्ह िो एक प्रकार से प्रत्यक्ष प्रमाण ही है। आि पुरुि के र्चन हमको प्रत्यक्ष सुनायी देिे हैं। उनको
सुनने से अथा ज्ञान होिा है। यह प्रत्यक्ष ही है। जहााँ िक र्ेदों का प्रश्न है उनके र्ा्य अदृष्ट और अश्रुिपूणा तर्ियों
का र्णान करिे हैं अि: उनकी तर्श्वसनीयिा ससिग्ध है। साथ ही अिमा आतद में अश्वसलंगग्रहण सदृर् लज्जास्पद
एर्ं मांसभक्षण सदृर् घृणास्पद काया करने से िथा जभारी िुर्ारी आतद अथाहीन र्ब्दों का प्रयोग करने से र्ेद अपनी
अप्रामासणकिा स्वयं ससद् करिे हैं।

आचार मीमांसा

उपयुाि तर्र्रण से यह स्पष्ट हो जािा है तक चार्ााक लोग इस प्रत्यक्ष दृश्यमान दे ह और जगि के अतिररि तकसी
अन्य पदाथा को स्वीकार नहीं करिे। िमा, अथा, काम और मोक्ष नामक पुरुिाथाचिुष्टय को र्े लोग पुरुि अथााि
मनुष्य दे ह के सलये उपयोगी मानिे हैं। उनकी दृतष्ट में अथा और काम ही परम पुरुिाथा है। िमा नाम की र्िु को
मानना मूखािा है ्य ोंतक जब इस सं सार के अतिररि कोई अन्य स्वगा आतद है ही नहीं िो िमा के र्ल को स्वगा में
भोगने की बाि अनगाल है। पाखण्डी िूत्तों के द्वारा कपोलकस्तिि स्वगा का सुख भोगने के सलये यहााँ यज्ञ आतद
करना िमा नहीं है बस्ति उसमें की जाने र्ाली पर्ु तहंसा आतद के कारण र्ह अिमा ही है िथा हर्न आतद करना
ित्त्द र्िुओ ं का दुरुपयोग िथा व्यथा र्रीर को कष्ट देना है इससलये जो काया र्रीर को सुख पुएाँचाये उसी को करना
चातहये। सजसमें इसियों की िृति हो मन आसिि हो र्ही काया करना चातहये। सजनसे इसियों की िृति हो मन
आनसिि हो उन्हीं तर्ियों का सेर्न करना चातहये। र्रीर इसिय मन को अनिाप्लातर्ि करने में जो ित्त्व बािक
होिे हैं उनको दूर करना, न करना, मार देना िमा है। र्ारीररक मानससक कष्ट सहना, तर्ियानि से मन और र्रीर
को बलाि तर्रि करना अिमा है। िात्पया यह है तक आस्तिक र्ैतदक एर्ं यहााँ िक तक अिार्ैतदक दर्ानों में , पुराणों
स्मृतियों में र्सणाि आचार का पालन यतद र्रीर सुख का सािक है िो उनका अनुसरण करना चातहये और यतद र्े
उसके बािक होिे हैं िो उनका सर्ाथा सर्ादा त्याग कर देना चातहये।

मोक्ष

चार्ााकों की मोक्ष की किना भी उनके ित्त्व मीमांसा एर्ं ज्ञान मीमांसा के प्रभार् से पूणा प्रभातर्ि है। जब िक
र्रीर है िब िक मनुष्य नाना प्रकार के कष्ट सहिा है। यही नरक है। इस कष्ट समूह से मुति िब तमलिी है जब
दे ह चैिन्यरतहि हो जािा है अथााि मर जािा है। यह मरना ही मोक्ष है ्य ोंतक मृि र्रीर को तकसी भी कष्ट का
अनुभर् मर जािा है। यह मरना ही मोक्ष है ्य ोंतक मृि र्रीर को तकसी भी कष्ट का अनुभर् नहीं होिा। यद्यतप
अन्य दर्ानों में आत्मा के अस्तित्व को स्वीकार करिे ुएए उसी के मुि होने की चचाा की गयी है और मोक्ष का स्वरूप
सभन्न-सभन्न दर्ानों में सभन्न-सभन्न है, िथातप चार्ााक उनकी मान्यिा को प्रश्रय नहीं दे ि।े र्े न िो मोक्ष को तनत्य मानिे
ुएए सन्मात्र मानिे हैं, न तनत्य मानिे ुएए सि और सचि स्वरूप मानिे हैं न ही र्े सस्तिदानि स्वरूप में उसकी
स्तस्थति को ही मोक्ष स्वीकार करिे हैं।

चार्ााक लोकायि

चार्ााक दर्ान र्ह दर्ान है जो जन सामान्य में स्वभार्ि: तप्रय है। सजस दर्ान के र्ा्य चारु अथााि रुसचकर हों र्ह
चार्ााक दर्ान है। सभी र्ास्त्रीय गम्भीर तर्ियों का व्यार्हाररक एर्ं लौतकक पूर्ा पक्ष ही चार्ााक दर्ान है। सहज
रूप में जो कु छ हम करिे हैं र्ह सब कु छ चार्ााक दर्ान का आिार है। चार्ााक दर्ान जीर्न के हर पक्ष को सहज
दृतष्ट से दे खिा है। जीर्न के प्रति यह सहज दृतष्ट ही चार्ााक दर्ान है। र्ाितर्किा िो यह है तक, तर्श्व का हर
मानर् जो जीर्न जीिा है र्ह चार्ााक दर्ान ही है। ऐसे र्ा्य और ससद्ाि जो सबको रमणीय लगें लोक में आयि
या तर्श्रुि आर्श्य होंगे। सम्भर्ि: यही कारण है तक हम चार्ााक दर्ान को लोकायि दर्ान के नाम से भी जानिे
हैं। यह दर्ान बाहास्पत्य दर्ान के नाम से भी तर्द्वानों में प्रससद् है। इस नाम से यह प्रिीि होिा है तक यह दर्ान
बृहस्पति के द्वारा तर्रसचि है।

चार्ााक दर्ान के प्रणेिा बृहस्पति


बृहस्पति भारिीय समाज में दे र्िाओं के गुरु के रूप में मान्य हैं। परिु भारिीय सातहत्य में बृहस्पति एक नहीं हैं।
चार्ााक दर्ान के प्रर्िाक आचाया बृहस्पति कौन हैं , यह तनणाय कर पाना अत्यि कतठन काया है। आतिगरस एर्ं
लौ्य रूप में दो बृहस्पतियों का समुल्लेख ऋग्वेद में प्राि होिा है। अश्वघोि के अनुसार आतिगरस बृहस्पति
राजर्ास्त्र के प्रणेिा हैं। लौ्य बृहस्पति के मि में सि पदाथा की उत्पतत्त असि से मानी जािी है। इसी प्रकार असि
पदाथा की उत्पतत्त सि से मानी गयी है। जड़ पदाथों को ही असि कहा जािा है। चेिन पदाथों को इस मान्यिा के
अनुसार सि कहा जािा हैं।

एक बृहस्पति का तनदे र् महाभारि के र्न पर्ा में भी प्राि होिा है। यह बृहस्पति र्ुक्र का स्वरूप िारण कर इि का
सरं क्षण एर्ं दानर्ों का तर्नार् करने के उद्दे श्य से अनात्मर्ाद या प्रपं च तर्ज्ञान की सं रचना करिा है। इस प्रपं च
तर्ज्ञान के र्लस्वरूप र्ुभ को अर्ुभ एर्ं अर्ुभ को र्ुभ मानिे ुएए दानर् र्ेद एर्ं र्ास्त्रों की आलोचना एर्ं तनिा
में सं लि हो जािे हैं। अन्य प्रसं ग में महाभारि में ही एक और बृहस्पति का र्णान तमलिा है जो र्ुक्राचाया के साथ
तमल कर प्रर्ं चनार्ास्त्र की रचना करिे हैं। तर्सभन्न र्ास्त्रों के आचायों की माने िो चार्ााक मि दर्ान की श्रेणी में
नहीं माना जा सकिा ्य ोंतक इस दर्ान में मात्र मिुर र्चनों की आड़ में र्ं चना का ही काया तकया गया है। यह बाि
और है तक यतद चार्ााक की सुनें िो र्ह भी तर्सभन्न र्ास्त्रज्ञों को र्ं चक ही घोतिि करिा है।

एक ऐसे बृहस्पति का िैत्तरीय ब्राह्मण ग्र् में र्णान तमलिा है जो गायत्री देर्ी के मिक पर आघाि करिा है
गायत्री दे र्ी को पद्म पुराण के अनुसार समि र्ेदों का मूल माना गया है। इस दृतष्ट से यह बृहस्पति र्ेद का तर्रोिी
माना जा सकिा है। सम्भर्ि: र्ेद का तर्रोि प्रति पद करने के कारण इस बृहस्पति को चार्ााक दर्ान का प्रणेिा भी
माना जाना युतियुि होगा।

तर्ष्णु पुराण में भी बृहस्पति का प्रसं ग प्राि होिा है। बृहस्पति की इस मान्यिा के अनुसार र्ैतदक कमाकाण्ड बुएतर्त्त
के व्यय एर्ं प्रयास से साध्य हे। तर्तर्ि सुख के सािक ये र्ैतदक उपाय कु छ अथा लोलुप स्वाथा के सिि िूिों का ही
तर्िान है। िातका क बृहस्पति का भी कहीं कहीं र्णान तमलिा है। ये बृहस्पति र्ेद के अनुगामी िो अर्श्य हैं पर
िका सम्मि अनुष्ठानों का ही समथान करिे हैं। इनकी दृतष्ट से ित्त्व तनणाय र्ास्त्र पर आिाररि अर्श्य होना चातहए
परिु यह र्ास्त्रीय अनुसन्धान िका पोतिि होना तनिाि आर्श्यक है। िका तर्रतहि सचिन िमा के तनिाारण में कभी
भी साथाक नहीं हो सकिा है।

र्ात्स्यायन मुतन ने अपने तर्श्व प्रससद् ग्र् कामसूत्र में अथार्ास्त्र के रचतयिा के रूप में बृहस्पति का उल्लेख तकया
है। बृहस्पति द्वारा तर्रसचि अथार्ास्त्र के एक सूत्र के अनुसार र्ास्त्र के रूप में मात्र लोकायि को ही मान्यिा दी गयी
है। र्लि: अथार्ास्त्र के प्रणेिा बृहस्पति एर्ं लोकायि र्ास्त्र के प्रर्त्ताक में अिर कर पाना अत्यि दुरूह काया है।
कु छ समालोचकों ने अथार्ास्त्र के एर्ं लोकायि र्ास्त्र के तनमाािा को असभन्न मानने के साथ-साथ कामसूत्रों के
प्रणेिा भी बृहस्पति ही हैं, यह माना है। यतद लौतकक इच्छाओं को पूणा करना ही चार्ााक दर्ान का उद्दे श्य है िो
कामर्ास्त्र के प्रर्त्ताक मुतन र्ात्स्यायन ही बृहस्पति हैं, यह मानना उपयुि ही है।
कौतटल्य ने अथार्ास्त्र में लोकायि दर्ान का सहज प्रतिपादन तकया है। इस प्रकार अथार्ास्त्र के रचनाकार कौतटल्य
एर्ं लोकायि दर्ान के प्रणेिा बृहस्पति एक ही हैं ऐसा माना जा सकिा है। कोिकार हेमचि के अनुसार अथार्ास्त्र,
कामसूत्र, न्यायसूत्र-भाष्य, पं चिन्त्र एर्ं चाण्य नीति के रचतयिा एक ही है।

इिनी तर्र्ेचना के बाद जो बृहस्पति र्ैतदक र्ािमय में तर्सभन्न प्रसं गों में चसचाि हैं उनके यथा क्रम नाम इस प्रकार
स्पष्ट होिे हैं।

लौ्य बृहस्पति

आं तगरस बृहस्पति

दे र्गुरु बृहस्पति

अथार्ास्त्र प्रर्त्ताक बृहस्पति

कामसूत्र प्रर्त्ताक बृहस्पति

र्ेदतर्तनिक बृहस्पति

िातका क बृहस्पति।

पद्म पुराण के सिभा में अंतगरा ब्रह्मा के मानस पुत्र हैं। आं तगरस बृहस्पति अंतगरा के पुत्र एर्ं ब्रह्मा के पौत्र हैं।
र्लि: इनकी दे र्ों में गणना होिी है। इस प्रकार दे र् गुरु बृहस्पति एर्ं आं तगरस बृहस्पति में कोई भेद नहीं माना जा
सकिा। दे र्ों की सं रक्षा के सलए दे र्िाओं के गुरु द्वारा असुरों को प्रदत्त उपदे र् तर्सभन्न लोकों में आयि हो गया यह
कथन दे र् गुरु बृहस्पति के सिभा में तर्श्वसनीय नहीं हो सकिा। असुर अपने गुरु र्ुक्राचाया के रहिे दे र्गुरु के
उपदे र् को ्य ों आदर देंग?े अि: दे र्गुरु से अतिररि कोई चार्ााक दर्ान का प्रर्त्ताक होना अपेसक्षि है।

कु छ समालोचकों ने स्पष्ट रूप से स्वीकार तकया है तक चार्ााक के गुरु बृहस्पति, स्वगा के स्वामी इि के आचाया
तर्श्वतर्ख्याि बृहस्पति नहीं हैं। ये बृहस्पति तकसी राजकु ल के गुरु हैं। ऐतिहाससक दृतष्ट से दें खे िो र्ससष्ठ, तर्श्वातमत्र,
द्रोणाचाया आतद का तकसी राजकु ल का गुरु होना इस मान्यिा को आिार भी दे रहा है ।

चार्ााक के ससद्ाि

सजस प्रकार आस्तिक दर्ानों में र्ं कर दर्ान सर्रोमसण के रूप में स्वीकृ ि है उसी प्रकार नास्तिक दर्ानों में सबसे
उत्कृ ष्ट नास्तिक के रूप में सर्रोमसण की िरह चार्ााक दर्ान की प्रतिष्ठा तनतर्ार्ाद है। नास्तिक सर्रोमसण चार्ााक
इससलए भी माना जािा है तक र्ह तर्श्व में तर्श्वास के आिार पर तकसी न तकसी रूप में मान्य ईश्वर की अलौतकक
सर्ामान्य सत्ता को ससरे से नकार देिा है। इनके मिानुसार ईश्वर नाम की कोई र्िु सं सार में नहीं है। नास्तिक
सर्रोमसण चार्ााक जो कु छ बाहरी इसियों से तदखाई दे िा है अनुभि
ू होिा है, उसी की सत्ता को स्वीकार करिा है।
यही कारण है तक चार्ााक के ससद्ाि में प्रत्यक्ष प्रमाण को छोड़ कर कोई दूसरा प्रमाण नहीं माना गया है। सजस
ईश्वर की किना अन्य दर्ानों में की गई है उसकी सत्ता प्रत्यक्ष प्रमाण से सम्भर् नहीं है। इनके मि से बीज से जो
अंकुर का प्रादुभाार् होिा है उसमें ईश्वर की भूतमका को मानना अनार्श्यक एर्ं उपहासास्पद ही है। अंकुर की
उत्पतत्त िो तमट्टी एर्ं जल के सं योग से तनिाि स्वाभातर्क एर्ं सहज प्रतक्रया से सर्ाानुभर् ससद् है। इस स्वभातर्क
काया को सम्पन्न करने के सलए तकसी अदृष्ट कत्ताा की स्वीकृ ति तनरथाक है।

ईश्वर को न मानने पर जीर् सामान्य के र्ुभ एर्ं अर्ुभ कमों के र्ल की व्यर्स्था कै से सम्भर् होगी? इस प्रश्न का
समािान करिे ुएए चार्ााक पूछिा है तक तकस कमा र्ल की व्यर्स्था अपेसक्षि? सं सार में दो प्रकार के कमा दे खे जािे
हैं। एक लौतकक िथा दूसरा अलौतकक कमा। ्य ा आप लौतकक कमों के र्ल की व्यर्स्था के सिन्ध में सचस्तिि
हैं? यतद हााँ , िो यह सचिा अनार्श्यक है। लौतकक कमों का र्ल तर्िान िो लोक में सर्ा मान्य राजा या प्रर्ासक
ही करिा है। यह सर्ाानुभर् ससद् िथ्य, प्रत्यक्ष ही है। हम दे खिे हैं तक चौया कमा आतद तनतिद् काया करने र्ाले को
उसके दुष्कमा का समुसचि र्ल, लोक ससद् राजा ही दण्ड के रूप में कारागार आतद में भेज कर देिा है। इसी प्रकार
तकसी की प्राण रक्षा आतद र्ुभ कमा करने र्ाले पुरुि को राजा ही पुरस्कार रूप में सुर्ल अथााि िन िान्य एर्ं
सम्मान से तर्भूतिि कर देिा है।

यतद आप अलौतकक कमों के र्ल की व्यर्स्था के सिभा में ससचि हैं िो यह सचिा भी नहीं करनी चातहए।
्य ोंतक पारलौतकक र्ल की दृतष्ट से तर्तहि ये सभी यज्ञ, पूजा, पाठ िपस्या आतद र्ैतदक कमा जन सामान्य को
ठगने की दृतष्ट से िथा अपनी आजीतर्का एर्ं उदर के भरण पोिण के सलए कु छ िूिों द्वारा कस्तिि ुएए हैं। र्ािर्
में अतिहोत्र, िीन र्ेद, तत्रदण्ड का िारण िथा र्रीर में जगह जगह भस्म का सं लेप बुतद् एर्ं पुरुिाथा हीनिा के ही
पररचायक हैं। इन र्ैतदक कमों का र्ल आज िक तकसी को भी दृतष्ट गोचर नहीं ुएआ है। यतद र्ै तदक कमों का
कोई र्ल होिा िो अर्श्य तकसी न तकसी को इसका प्रत्यक्ष आज िक ुएआ होिा। अि: आज िक तकसी को भी
इन र्ैतदक या र्णााश्रम-व्यर्स्था से सिद् कमों का र्ल-स्वगा, मोक्ष, दे र्लोक गमन आतद प्रत्यक्ष अनुभतू ि नहीं है
अि: ये समि र्ैतदक कमा तनष्फल ही हैं, यह स्वि: युति पूर्क
ा ससद् हो जािा है।

अदृष्ट एर्ं ईश्वर का तनिेि

यहााँ यतद आस्तिक दर्ान यह कहे तक परलोक स्वगा आतद को ससद् करने र्ाला व्यापार अदृष्ट या िमा एर्ं अिमा है
सजससे स्वगा की ससतद् होिी है िो यह चार्ााक को स्वीकाया नहीं है। अलौतकक अदृष्ट का खण्डन करिे ुएए चार्ााक
स्वगा आतद परलोक के सािन में अदृष्ट की भूतमका को तनरि करिा है िथा इस प्रकार आस्तिक दर्ान के मूल पर
ही कु ठाराघाि कर देिा है। यही कारण है तक अदृष्ट के आिार पर ससद् होने र्ाले स्वगा आतद परलोक के तनरसन के
साथ ही इस अदृष्ट के तनयामक या व्यर्स्थापक के रूप में ईश्वर का भी तनरास चार्ााक मि में अनायास ही हो जािा
है।

जीर् एर्ं चैिन्य की अर्िारणा

चार्ााक मि में कोई जीर् र्रीर से सभन्न नहीं है। र्रीर ही जीर् या आत्मा है। र्लि: र्रीर का तर्नार् जब मृत्यु के
उपराि दाह सं स्कार होने के बाद हो जािा है िब जीर् या जीर्ात्मा भी तर्नष्ट हो जािा है। र्रीर में जो चार या
पााँ च महाभूिों का समर्िान है, यह समर्िान ही चैिन्य का कारण है। यह जीर् मृत्यु के अनिर परलोक जािा है
यह मान्यिा भी, र्रीर को ही चेिन या आत्मा स्वीकार करने से तनरािार ही ससद् होिी है। र्ास्त्रों में पररभातिि
मोक्ष रूप परम पुरुिाथा भी चार्ााक नहीं स्वीकार करिा है। चेिन र्रीर का नार् ही इस मि में मोक्ष है। िमा एर्ं
अिमा के न होने से चार्ााक ससद्ाि में िमा-अिमा या पुण्य-पाप को, कोई अदृश्य स्वगा एर्ं नरक आतद र्ल भी
नहीं है यह अनायास ही ससद् हो जािा है।

र्रीरात्मर्ाद में स्मरण का उपपादन

चार्ााक मि में र्रीर को ही आत्मा मान लेने पर बाल्यार्स्था में अनुभि


ू किुक क्रीडा आतद का र्ृद्ार्स्था या
युर्ार्स्था में स्मरण कै से होिा है? यह एक ज्वलि प्रश्न सहज ही उठ खड़ा होिा है। यहााँ यह नहीं कहा जा सकिा
तक बाल्यार्स्था का र्रीर, र्ृद्ार्स्था का र्रीर एर्ं युर्ार्स्था का र्रीर एक ही है। यतद िीनों अर्स्थाओं का र्रीर
एक ही होिा िो इन िीनों अर्स्थाओं के र्रीरों में इिना बड़ा अिर नहीं होिा। अिर से यह स्पष्ट ससद् होिा है तक
र्रीर के अर्यर् जो मांस तपण्ड आतद हैं इनमें र्ृतद् एर्ं ह्रास होिा है। िथा इन ह्रास एर्ं र्ृतद् के कारण ही
बाल्यार्स्था के र्रीर का नार् एर्ं युर्ार्स्था के र्रीर की उत्पतत्त होिी है यह भी ससद् होिा है। यतद यह कहें तक
युर्ार्स्था के र्रीर में यह र्ही र्रीर है, यह व्यर्हार होने के कारण र्रीर को एक मान कर उपयुाि स्मरण को
उत्पन्न तकया जा सकिा है, िो यह कथन भी युतियुि नहीं हो सकिा। ्य ोंतक यह र्ही र्रीर है यह प्रत्यसभज्ञान िो
स्वरूप एर्ं आकृ ति की समानिा के कारण होिा है। र्लि: दोनों अर्स्थाओं के र्रीरों को असभन्न नहीं माना जा
सकिा है। ऐसी स्तस्थति में पूर्ा दसर्ाि बाल्य-काल के स्मरण को सम्पन्न करने के सलए चार्ााक बाल्यकाल के र्रीर में
उत्पन्न क्रीड़ा से जन्य सं स्कार दूसरे युर्ा-काल के र्रीर में अपने जैसे ही नये सं स्कार पैदा कर देिे हैं। इसी प्रकार
युर्ार्स्था के र्रीर में तर्द्यमान सं स्कार र्ृद्ार्स्था के र्रीर में अपने जैसे सं स्कार उत्पन्न कर देिे हैं । एिार्िा इन
बाल्यार्स्था के सं स्कारों के उद्बोिन से चार्ााक मि में स्मरण तबना तकसी बािा के हो जािा है। अिि: चार्ााक
दर्ान में र्रीर ही आत्मा है यह सहज ही ससद् होिा है।

यतद र्रीर ही आत्मा है िो चार्ााक से यह पूछा जा सकिा है तक 'मम र्रीरम्' यह मेरा र्रीर है, ऐसा लोकससद् जो
व्यर्हार है र्ह कै से उत्पन्न होगा? इस व्यर्हार से िो यह प्रिीि हो रहा है तक र्रीर अलग है एर्ं र्रीर का स्वामी
कोई और है, जो र्रीर से सभन्न आत्मा ही है। इस प्रश्न का समािान करिे ुएए चार्ााक कहिा है तक जैसे दानर्
तर्र्ेि के ससर को ही राह कहा गया है , तर्र भी जन-सामान्य 'राह का ससर' यह व्यर्हार बड़े ही सहज रूप में
करिा है, उसी प्रकार र्रीर के ही आत्मा होने पर भी 'मेरा र्रीर' यह लोकससद् व्यर्हार उपपन्न हो जायेगा।
चार्ााकों में कु छ चार्ााक इसियों को ही आत्मा मानने पर इसिय के नष्ट होने पर स्मरण की आपतत्त का तनरास नहीं
हो पािा है। तकन्हीं चार्ााकों ने प्राण एर्ं मन को भी आत्मा के रूप में माना है। र्रीर ही आत्मा है यह ससद् करने
के सलए चार्ााक इस र्ेद के सिभा को भी आस्तिकों के सिोि के सलए प्रिुि करिा है। इस र्ेद र्चन का िात्पया
है तक 'तर्ज्ञान से युि आत्मा इन भूिों से उत्पन्न हो कर अि में इन भूिों में ही तर्लीन हो जािा है। यह भूिों में
र्रीर स्वरूप आत्मा का तर्लय ही मृत्यु है।'

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