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ShrimadValmikiRamayan SktHindi DpSharmaVol03 AyodhyaKandaUttarardh1927 Text
ShrimadValmikiRamayan SktHindi DpSharmaVol03 AyodhyaKandaUttarardh1927 Text
_ संचित्र
श्रीमद्वा ल्मीकि-रामायण
[हिन्दीभाषाजुबाद सहित]...
अयोध्याकाण्ड-३
उत्तराहु5१0५] |)
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मी
अर्मुवारदक
चतुर्वेदी द्वारकाप्रसाद शैमी)/एए७ आए पु//त
के
र् है)
श] |
प्रकाशक १
रामताराथरण 4]
पब्लिशर और बुकसेल्र" ै
इलाहाबाद हु
१९२७
प्रथम संस्करण २००० ] [मूल्य २)
अयोध्याकाण्ड के उत्तरा्
फ़ी
विषय-सूची
चौवनवाँ सगे ५६३-५७३
गड़ा-यपुना के सद्भम-स्थल पर भरद्ाज्ञ के शाश्रम में
श्रोरामचन्धादि का पहुँचना|भरद्वाज को भ्रीरामचन्द्र ज्ञी
का अपने आगमन की सूचना दिलाना | भरद्ाज जी का
» आतिथ्य प्रदण कर, थ्रीरामचन्द्र जीका उनसे रहने के
लिये किसी एकान्त स्थल के विषय मेंप्रश्ष करना । उत्तर
मेंभरदाज़ का चित्रकूटपर्वत पर रहने की सम्मति देना ।
पचपनवाँ सगे . ५७४-५८२
भरद्वाज़ जी के वतलाये हुए मार्य से श्रीरामचद्धादि
का चित्रकूठ की ओर प्रस्थाव। यमुना के दृत्षिणतट
पर वठबृत्त के नीचे स्रीता लक्ष्मण सद्दित ध्रीरामचन्द्र
जो का ठिकनो |
छणनवाँ सर्ग ह ७५८२-५९३
सीता सहित भ्रीरामल्द्मण का चित्रकूठ पहुँचना, वाँ
चात्मीकि मुनि से भेंठ शोर उनसे वार्तालाप। चित्रकूट
पर लक्ष्मण जी का पर्णकुटी बनाना ।
सत्तावनवाँ सगे _ ५९३-६०१
भ्रीरामचन्द्रादि को विदा कर भोर ग़ुद से विदा माँग
समंत्र का श्रयाध्या की ओर प्रयाथ । राजमांगे में पुर-
(३ )
घाहियों का आतंबाद छुबते हुए दृगस्थ-सदत में उनका
दिना उुम्न के आया देख,
प्रदेश | श्रीयमदकू जो के दवा
च्धि
महारात दशस्यथ आर इनकी स्ियों का पर: विकाप |
अद्ववनवाँ सर्ग ६०२-६११
पुर्रों केदनपिवेशा का चृचान्व छुव, महाराव दशरथ
का मात दादा | उद्ददन्ठर छा प्रद्धार सेंड होने पर
प्र्दयव दश्स्थ ही उर्मत्रके साथ वाठचीद |सुसंत्र द्वारा
धंतव्चदध जा का सदेधा पहाराव दृग्य्द के सुवादा
| ६१६-६३३
| महायज्ञ के सामने ओोश्क्या झा विज्ञाप ।
>> >>
वासठ्याँ पर्ग
छः
इ३३-६३८
लंच होते पर महाराज दशरथ का कौड
ज्यावोडे,
« अपने प्रेच् हनी दा स्य
स्ण करद हुए, चाठालाप।
(३)
तिरसववाँ सगे ६३९-६५२
अध-पुन्ि-पुत्रतध सम्बन्धी अपनी पापकथा का
कोशल्या जी से दशरथ जी का निरुपण करना ।
चौसठवाँ सर्ग ६५३-६७२
अन्यमुनि से महाराज दृशप्थ का अपने हाथ से मारे
गये मुनिक्षमार के वध का वृत्तान्त निवेदन करना । अपने
' खुत के मरण का दुस्संवाद सुन ओर दुःखी हो अन्धपुनि
का महाराज दशरथ के शाप देना ।| महाराज दशरथ की
मरणावस्था का वर्णन । मद्दाराज के ज्ञीवन का अन्त |
पैसठ्वाँ सग ६७२-६८०
महाराज के मर जाने पर उनको पतियों का रोनाधेना ।
छयाछठवाँ सर्ग |. ६4८०-८6
कैकेयो की निन्दा कर के कोशल्या जी का विल्लाप।
अमात्यों द्वारा महाराज के शव की रक्ता ।
सरसठवाँ सर्ग ६८८-६९९
मार्कपडेयादि द्वारा सार्वजनिक सभा का बुलाया जाना
और उसमें अराजक राज्य के दोषों का वर्णन ।
अढ्सठवाँ सगे ६९९-७०५
वशिष्ठ ज् ञीक ीसम ्म ति से रा जद ूत ों का भर त जी के
बुलाने का भेजा जाना | ;
उनसठवाँ सगे ७०५-७१०
ननिहाल में उदास भरत जी का अपने छुद्ददों से
पि छु ल् ी रा त के दु ःस ्प ्त का वर ्ण न कर ना ।
( 8 )
सत्तर्ताँ सग ७११-७१९
इतने ही में ध्रवाष्या के दृ्तों काभरत जी के सामने
्-
माध्वसस्थदायो //”
पा हर
९
सातसमस्पदाय;
धल्लारचर्थरं विष्णु शशिवर्ण चतुभेजम।
सब्नवदरन ध्यायेत्सव॑विष्नोपशान्तये ॥ २ ॥|
वायोशाद्या: छमनसः सवोधानामुपत्रमे ।
थे चत्वा छवहझत्याः स्युस्तं ननानि गन्ाननप्त | २॥
दोनियंका चतुमिः स्कविकमणिमवीमत्षमालां दघाना
इस्तेनकेव पह्मा तितनपि च॒ घुद्ठ पुस्तक चापरेण ।
(४७)
भासा कुन्देलुशडुस्फटिकमणिनिता भासमानासमातरा
सा मेंवारदेवतेयं निवसतु वदने सर्वदा सुप्रसन्ना ॥३॥
कूजन्तं राम रामेति मधुर मधुरात्तरम्।
घारह्म कविताशाखां वन्दे वाव्मीकिकेकिलम् | ४ ॥
चाद्मोकेप्ुनिसिहस्य कवितावनचरिण
ा ः।
श्यवन्रमकथानादं के न याति परां गतिम् ॥ ५॥
यः पिवन्सततं रामचरितासतसागरम ।
अतृप्तस्तं मुनि बन्दे प्राचेतसमकतल्मपम्॥ ६ ॥
गाष्पदीकृृतवारोशं मशक्रीकृर॒राक्षपम् ।
शमायशमदामाल्रारत पन्देषनित्ात्मजम् ॥ ७॥
अज्नानन्दनं वीरं जानकीशोकनाशनम् ।
कपीशमच्तदन्तारं बन्दे लद्|भयकुरम् ॥ ८ ॥
डल्छूय सिन्धोः सल्रित्ं सलील॑
यः शाकवहि ज्ञनकात्मज्ञाया। ।
आदाय तेनेव ददाह लड़ां
नमामि त॑ प्राश्नलिराजनियम् ॥ १॥
घआाञनेयमतिपाठलाननं
काञ्चनाद्विकमनोयविश्रहम् ।
पारिज्ञाततरुमूलवासिनं
भावयामि पवमाननन्दूनम् ॥ १० ॥
यत्र यत्र रघुनाथक्रोतन
तथ्न ततन्न रूतमस्तकाजञ्ज
लिम् ।
नह)
वाध्पवारिपरिपूर्णलेचन
मारुति नमत राक्तसान्तकम् ॥ ११ ॥
मनेजवं मास्ततुल्यवेगं
जितेन्द्रियं बुद्धिमर्ता वरिध्रम ।
' चातात्मर्ज चानस्यूथमुख्य
। श्रीरामदूत शिरसा नमामि ॥ १२ ॥
)
ह।
यः कर्याश्नल्षिसस्पुणेरहरहः सम्पकूपिवत्याद्रात्
वाह्मीकेवेद्नारविन्दूगलितं रामायणाख्य॑ मधु ।
जन्मव्याधिजराविपत्तिमरणैरत्यन्तसेपद्रव
संसार स विहाय गच्छूति पुमान्विष्णो: पद शाभ्बतम् ॥११॥
तदुपगतसमाससमन्धियारं
सममधुरोपनता्थंवाक्यवद्धम् ।
रघुधरचरितं घुनिप्रणीर्त
दृशशिर्सश्च वर्ध निशामयघ्वम्॥ १४ ॥
है
वाद्मीकिगिरिसम्भूता रामसागरगामिनी |
पुनातु भुचत पुणया रामायशमदानदी ॥ १५॥
श्लोकसारसम्राकी्ण सर्गकल्लोल्सड्ललम् ।
कागड्म्राहमहामीनं वन्दे रामायणार्णवम्॥ १६॥
चेद्वेधे परे पुंस ज्ञाते दृशस्थाव्मजे । |
बेद्ः प्राचेतसादासीत्सात्षाद्रामायणाव्मना ॥ १७ |
चैदेद्दीसदितं सुरहुमतल्े हैमे महामगडपे
मध्येपुष्पकमासने मणिमये चीरासने सुस्थितम्
अग्ने चाचयति प्रसज्ञनखुते तत्च॑ मुनिम्यः पर
व्याख्यान्त भरतादिभिः परिदृत राम से श्यामत्म् ॥१८५७॥
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वामे भूमिछ॒ता पुरश्च हमुमाग्पश्चात्सुमिनासुतः
शब॒घ्नो भरतश्च पाश्व॑द्लयेवाय्वादिकेणेपु च |
सुप्रीवश्च विभीषणश्च युवराद् ताराखुतो जवान
मध्ये नोलसरोजकेमलरुचि राम भजे श्यामलम् ॥१ १॥
नमे।$स्तु रामाय सलच्मणाय
देव्ये च तस्पे जनकात्मजाये |
नमोस्तु रुद्रेन्द्रयमानिलेश्यो
नमोस्तु चन्द्राकमरुद्गणेभ्यः ॥ २०॥
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अयोध्याकाण्ड
(उत्तराद्ध )
चतुःपञ्माशः सम:
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ततस्त्वाश्रममासाथ सनेदंशनकाडप्षिणा ।
सीतया5तुगता वीरो दूरादेवावतस्थतुः ॥ १० ॥
तदनन्तर सीता सद्दित दोनों वीर भरद्वाज ज्ञो फे दर्शन करने '
की प्रभित्नाषा से, कुटी से कुछ दूर रुक गये। ( रुकने का कारण
भूषण टीकाकार ने यह वतलाया है कि सन्ध्या कासमय था। ,
. झतः' उस समय ऋषिप्गर अश्विहांद्न कर रहे-थे। ऋहीं उनके
कार्य में विश्व न पड़े, अतः कुछ देरवेदददर गये, किन्तु जब अनुमति
मिल्न गयी तव) ॥ १०॥
स प्रविश्य महात्मानमृषिं शिष्यगणैटतम् ।
रसंशितत्रतमेकाग्रं तपसा लब्धचक्षुपम् ॥- ११ ॥
३ सन्धौ--सह्नमेवतंमान । २ संशितवतं--त्ीक्षणमत्तं | (गो" )
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( यो ० ) ३ यमुनाववात्--यमुनातीरबनांद् । (गो०)
म्रघ० अयाष्याकाणएदे
दोनों भा इय ों न े
एक कै ास चल कर तथ ा यप ुत ा ती खव र् ती वन में
अनेक पविश्न झगों के! मार कर, खाया ॥ ३३ ॥
विह॒त्य ते वर्हिणपूगना दिते
शुभे बने वानरवारणायुतते ।
स्म॒मं रेनदीवप्रसुपेत्य सम्पर्तर
निवासमाजसुरदीनदशनाः ॥ ३४ ॥
इंति पश्चप्चाशः सर्गः ॥
इस प्रकार दोनों वीर भाश्यों नेसीता सहित उस मनेहर
बन में, जहां मारों के कुंड के झुंड वाल रहे थे, तथा हाथी
और बंदर घूम रहे थे; विहार कर, चदीतद पर पुक छुन्दूर
समधथर स्थान पर, जिसे सीता जी ने भी पसंद किया, निर्भय हो,
वास किया ॥ ३४ ॥
अयेध्याकायड का पचपनवां सर्य समाप्त हुआ ।
न्-+ः 5 पस्ि
पट्पन्नाशः से
त॑ तु पव॑तमासाथ नामापक्षिगणायुतम् ।
वहुमूलफर्ल रम्यं सम्पन्न सरसादकर्म! ॥ १३ ॥
इस पर्वत पर झनेक प्रकार के पत्ती रहते थे, वहुत से फल
ब मूल थे तथा अनेक स्वादिष्ट जलन के कुगड थे॥ ११॥
मनेज्ञोज्यं गिरि! सोम्य नानाहुमलतायुतः ।
बहुमूलफले रम्यः खाजीवः' प्रतिभाति मे | १४ ॥
तव भ्रीरामचन्द्र जीनेलद्मण से कहा--है सोस्य |यह परत
कैसा मनेहर है। यह अनेक प्रकार के चूक्ष, लता श्रौर वहुत से
फल्नों तथा मूल्ों सपरेिपूर्ण होने के कारण केसा र्मशीक देख
पड़ता है । यहाँ वड़ी सरलता से हम लेगों का निर्वाह ही
ज्ञायगा ॥ १५॥
मुनयश्र महात्माने! वसन्त्यस्मिभ्शिलाचये |
अय॑ वासे भवेत्तांवदत् साम्य रमेमहि ॥| १५॥
इस पर्बत पर महात्मा और घुनि लाग भी निवास करते हैं।
अंतएव यही हमारे रहने याण्य हेझोर हम यहीं रहेंगे ॥ १४॥
इति* सीता च राम लक्ष्मणश्र कृताझ्ललि! ।
अभिगम्याश्रमं' सर्वे वात्मीकिमभिवादयन् ॥ १६ ॥
इस प्रकार विश्वय कर, भ्रीरामचदछू, लक्ष्मण और सीता'
(तीनों जन ) वाल्मीक्धि जीके आश्रम में गये और हाथ जाड़
फर, उनके प्रणाम किया ॥ १६ ॥ ह >>++कननल
तते्त्रवीन्मद्वाहुलक्ष्मणं लक्ष्मणाग्रजः |
सन्निषेश 'यथान्यायमात्मानमृपये पथ ॥ १८ ॥
तदनन्तर श्रीरामचन्द्र जो महर्षि के अपना, लक्ष्मण का तथा
सीता का परिचय दे और वनवासादि का फारण वतला--लक्ष्मण
से वाले ॥ १८ ॥
लक्ष्मणानय दारूणि हानि च वराणि च |
कुरुष्वावसथं साम्य वासे मेईमिरतं मन! ॥ १९ ॥
देलक्मण ! प्रच्छी श्र मज़बूत लकद्ियाँ एकत्र कर कुटी
वनाझे | क्योंकि है सौरय | यहाँ 4सने की मेरो इच्छा है॥ १६ ॥
तस्य तद्चन॑ श्रत्वा सामित्रिविविधानलुमान् |
आजहांर ततश्क्रे पणशालामरिन्दम) ॥ २० ॥
यद्द छुन, लद्मगा जी प्रनेक प्रकार के जृत्तों कीदोटो द्वाटी
डालें काठ कर जाये और उनसे पर्णुकुदी बना दी ॥ २० ॥
१ यथान्याय॑-यथाक्रम । ( ग्रे० ) २ आत्मानं ऋहपये सन्निवेध--अमुकस्य
पन्नों भय॑ मद्भाता इत्मादि | ( गे।० ;
भष८ श्याध्याकायडे
वनात्तमे व्याल'प्रगानुनादिते
तदा विजह:सुसुख॑ जितेद्धियाः ॥ ३७ ॥
_धनेक् पशु पत्तियों से पूर्ण,तरह तर के पत्र पुष्पों से
शेमित,
चृत्चों से युक्त उस उत्तम चन में, झिसमें हाथी ग्रौर धन्य जहुली |
जानवर वाज्ला करते थे, जितेखिय धीरामचन्ध जो छुल्मपव॑द्ध चिहार
करने लगे ॥ ३७॥ द
मुसयमासाथ तु चित्रकूद
नदी च तांः माल्यवर्ती लुतीयाभ्* |
डे व्याडा;--पर्पा: पद्म वा | (से ) १ बॉ--प्रंसिदां । (दो० )
३ झुततीपॉस-शे।मदज्दाबतरणप्रदेशां | (गो०)
सप्तपञ्चाशः सर्गः ४६३
सप्तपन्नाशः सगे
आचब०३-
तब सुमित्रा और कोशल्य ा ने ज़ मी न पर पड ़े हु ए मद ्द ार ाज के
उठाया और कहने लगी ॥ २८ ॥
इम ं तस ्य मह ाभ ाग द ू त दु ष् कर का रि णः ।
वनवासादनुआएं कस्मान्न अतिभापसे ॥ २९ ॥
हे पद्माभांग ! मद्माकठित कार्य करने वाले धोराम्रचन्ध के,
ये दूत वन कर वन से आय े ह ु ए हैं। इन से आ प क् यो ं बा तच ीत
नहीं करते ॥ २६ ॥
अद्येममनयं' कूला व्यपत्रपसि राघव |
उत्तिष्ठ सुक्ृत' तेउ्स्तु शाके न स्पात्सहायता ॥२०॥
हैगधव ! धोरामदरद्ध नी के देशनिकाला देंकर, अव आप
क्यों लज्ञित दी रहे हैं |उठिये उठिये ! श्रवर॒ इस शाक्ष के लिये
क्ाई चार नहीं-अतः अव शाप शेकह्ू मत कीजिये | शर्यात्
शव इस शोक के निनत्त करने क लिये काई उपाय शेष नहीं रहा ।
ऐसो दशा में आपके लिये शत शोर करना शोत्ा नहों देता ॥३०॥
देव यस्या भयाद्वाम नानुपृच्छसि सारथिम् |
नेह तिष्ठति केकेयी विद्धव्यः प्रतिभाष्यताम ॥ ३२१ ॥
है देव |जिसके नव से आप छुमंग्र सेवातचोत नहीं करते
घह कैकैयी यहाँ नहीं है । श्राप निश्नेय दे वातचीत कोजिये ॥ ३१ ॥
सा तथेक्ला महाराज कासल्या शोकलाछसा |
धरण्यां निपपाताशु वाप्पविष्कुतभाषिणी ॥ ३१ ॥
_... ) इमसलयूं--पुत्नविवास्तन । ( बो० ) ३ छुछ्त॑--ओलन । (गोल)
३ विज्नष्धं--निःशड्म । ( गो० )
सप्तपथ्चाशः सर्गः है०१
महाराज से ये वचन कहते कहते काशक्या शोक से कातर है!
यर्यों, इनका कणठ गदुगदु दो गया । वे भूमि पर गिर पड़ीं ॥३२ ॥
एवं विलपती हृष्टा कासस्यां पतितां भरुवि |
पर्ति चावेक्ष्य ता! सवा! सुस्वरं रुरु! स्रियः ॥२३॥
इस प्रकार विज्ञाप करतो हुई और भूमि पर पूछ्ितावस्था
को प्राप्त कोशल्या को तथा महाराज्ञ का देख, वहां जे प्त्य
रानियाँ तथा भ्रन्त;पुर की हियाँ थीं-ये उद्चल्लर से रुदन करने
जगीं ॥ ३३ ॥
ततस्तमन्तःपुरनादमुत्पित
समीक्ष्या दृद्धास्तरुणाथ मानवा! ।
ख़ियथ सवा रुरुदु समन्ततः ह
पुर तदासी5ध्युनरेवा सडुलम ॥ २४ ॥
इति सप्तयञ्चाणः सर्गः ॥
रनवास मेंरोने का शब्द उन, श्रयाध्यापुरी में उस समय
जितने बूढ़ेभर जवान पु रु ष थे तथ ा वह ां जि तन ी ख् िय ां थी ं, वे
सव की सब चारों शोर रोने लगीं और सप्तूची श्रयोध्यापुरी में
फिर पक वा र वै सा द्व ी द्व ाद् यका र हु आ, जै सा ध् री रा मच नद ्र के वन
जाते सम्रय हुआ था ॥ ३४ ॥
अ्वाध्याकागड का सत्तावनवोँ सर्ग समाप्त हुआ ।
आीआि---
पो ० ) ३ पु नर ेद सद ुछ म | रा सग सन का ल-
३ समीक्ष्य--ध्रत्वा | (
इवब्याकुलमातीत् | ( गो )
ञ्
अष्टपन्नाशः सगेः
(5
+-३ ० $--
व्यालैगगैराचरितं कृष्णसपंनिषेवितम् |
क्॒थ॑ कुमारी वैदेशा साथ वनमुपस्थितों | ८ ॥
६०७ अवेष्याकायदे
अप्पपथ्ाशः संग
हपापात्र माता केकैयी है। .: उसके प्रति भी बैसा हो व्यवह्दार
फेरना जैसा महारान के साथ ॥ 5, |
हमारेभरते इतिवर्तितव्या च रानव््
अथ्येप्ठा हि राजाना राजपर्ममतुस्मर ॥ २० ॥
भर कुमार भरत से राजा जैसा वर्ताव करना--यद्यपि भरत
वय में नहीं, तथापि घन से ज्ये8 देने के कारण, राजधर्माठुसार
उनके प्रति राजा जैसा व्यवह्यर करना ॥ २० ॥
भरतः कुशल वाच्ये। वाच्ये। महचन ेन च ।
सवास्वेव यथान्
०
याय॑ हत्ति वस्त्
७
र मातृष
&
ु ॥ २१ ॥
( हेमहाराज ! श् री रा मच द् ध जो ने भर त जी के लि ये यह कह ा
हैकि )भरत ओ से मे रा कु शल बू त् त कह ना श् रौ र यह वा त कह ना
कि, वे सब मा ता ओं के सा थ न् या यप ूर ्व क व् यव दा र कर े ॥ २ १ ॥
वक्तव्यश्र महावाहुरिएवाकुकुलनन्दन; |
पितर यौवराज्यस् थे । रा ज् यस ्थ मन ुप ाल य ॥ २ २ ॥
>2इच्वाकुकुलनच्बन भरत से यद भी कह ना कि , यु वर ाज है । कर
महाराज पिता की श्राज्ञा मेंचलें ॥२२ ॥
अतिक्रान्तवया रा जा या स म न व् यव रो ाश ्ध ः! |
कुमारराज्ये जीव त्व॑ तस्प ेव ाज ्ञ भव तन ात ् ॥ २ ३ ॥ छः
ा ँ भ ू व े । म ृ श म श ् र ू ण ि व र ् त व त ् ।
अव्रवीज्ञापि म ी ॥ २४ ॥
म र म ा त ा त े द ् र ष ल ् य ा प ु त ् र ग र ् ध ि न
मातेव
ा क र म ु क स े यद द भ ी क ह ा
प्रोरामचन्दर जी ने अत्यन्त दुलिय त् तल ा म ा त ा
र त ज ी स े य ह व ा त क ह दे ना क ि . मे री पु त् रव
हैकि, भ
त र ह सम र् के ॥ २ ४ ॥
के अपनो माता की
इस्पेव॑ मां महा र ा ज बु वच ्न ेव म ह ा य श ा ः |
५ ॥
९
राज्ञा तु ख हकै के
कै य्या लघ ु ला भर िय शा सन म् ।
कृत कायमकाय वा बय॑ येनाभिपीडिता। ॥ २७॥
. महाराज ने कैकेयी को तु च् छ वा त मा न औ र प्र तिज ्ञा कर , का र् य
शरका र् य का कु छ भ ी वि चा र न क् रि या । ( इस का फल ्ल यह हु आ
» कि) इुश्ख दम लोगों के भेगना पढ़ता है॥ २७॥
यदि प्रत्नाजिता रामे! छोभकारणकारितम |
वरदाननिमित वा सवंया दुष्कृत कृतमू ॥२|८ ॥
अष्पश्चाशः सर्गः ६०६
एकोनपंषितमः सगे
>> रे409है
4 * ३ छोनएुष्कारपत्नाः-"ाझान्यतिशयेवमडास्तविंलोनय्यत्रा: । ( गरो० )_
२ छीवा:- -सद्चाररद्िता: । ( यो० ) ३ साद्या नि--इष ्पाणि । ( गो० )
६१४ श्रयेध्याकायडे
में जब अयोध ्य ा नें आय ा, ठद में ने कि सी का भी पस त वे पा या
प्रत्युत क्ञाग [ मेरे रथ में )भीरामचद्ध के देख, वार वार लंदी
साँसे लेने लगे ॥ २० ॥
देव राजरथं दृश्टा विना राममिहागतम |
दु/खादभुम्मखः सवे राजमार्गगता जन! || ११ ॥
हे देव | राजरथ में बैठ कर प्रीरामचद जी के शातें त देख
रास्ते में ज्िवने ज्ञाग थे, वे सब दुःखी है रोने लगे ॥ ११॥
इम्येर्दिमाने! प्रासादेरचेक्ष्य रथमागतस |
शहाकारकृता नाये रामादशनकर्शिता॥॥ १२ ॥
पी >3
१ अच्यकं--सन्यकू न। ( रा० )
पएकानघश्तिमः सर्गः 8६१४
अत नु कि दु/!खतरं ये।ःहमिक्ष्याकुनन्दनम् |
इमामवस्थामाप्ों नेह पश्यामि राघवम ॥ २६ ॥
। पृच्चई॑प्ट्रो--कन्दकुडमछाकारदंट: । गो०)
है १८ अवाध्याकाणईे
पष्टितमः सगः
0
न ३0६००
निवर्त अं ४
य॑ रथं शीघ्र दृण्डकानय मामपि ।
अथ तान्नानुगच्छामि गमिष्यामि यमक्षयम् ॥ ३ ॥
.. अतः भति शीघ्ररथ फिर लौटाओ और घुक्ते भी दश्इकवन
मेंपहुँचा दो, जे। मैंउनके पास न गयी ते में य्रपुरो कोचल
दूंगी ॥३ ॥
वाष्पवेगेपहतया से वाचा सज्जमानया' ।
इृदमाश्वासयन्देवीं सूतः प्राज्ललिख्िवीत् ॥ ४ ॥
यह सुन सुमंत्र भाँतू वहा, विकल हो, और हाथ जाड़ कर,
महारानी के धीरज वँधाते हुए बाते ॥ ४ ॥
त्यन शोक च मोह च सम्भ्नमं' हु!खजं तथा |
व्यवधूय च सन्तापं वने वत्सयति राघव! ॥ ५ ॥
। दैदेवी-! तुम शोक, माद और दुःख के कारण उत्पन्न विकलता
को त्याग दो । क्योंकि धीरामचन्ध सुख से वन मेंवास करेंगे ॥१॥
लक्ष्मणथ्रापि रामस्य पादों परिचरन्वने ।
आराधयति पधर्मज्ञ! परलेक जितेच्धिय! ॥ ६ ॥ "
लह्मण भी भीरामचद्ध को चरणसेवा कर, धर्मपूर्वक ९वं
जितेद्धिय हो, प्रपना परलेक छुधार रहे दें॥ ६ ॥
विजने5पि बने सीता वास प्राप्य शहेष्विव ।
विस्रम्भ॑* लभते5भीता रामे विन्यस्तमानसा ॥ ७ ॥|
१ एपमावपा-.. विदयया(यो०) रे प्रम्भ्षमं--5याकुछत्व ।(गो०) २ प्र
छेकमाराधर्यात-परढेक लाधयति | (गो०) ४ विल्स्सं--अणयं | (गो०)
हक
है२२ *. थ्याध्याकायडे
विज्ञन वन मे ं भी सी ता रा म मे ं अप ना मन लग ा, घर हो के
सम ान , प् री ति पू र् वक एव ं नि र् मय रह ती है ं ॥ ७॥
घी । ( गो ) है ६
पश्टितमः सर्गः न२५
एकपष्टितर हेसगे:
व लक
वन॑ गते धमपरे रामे रमयतांपरे )
कासल््या रुदती# सातो भतारमिदमत्वीत ॥ १॥
ग़ुणामिराम, धर्मात्मा श्रोरामचन्द्र ज्ञी केवन चले ज्ञाने
पर, फैशव्या विकल दो रुदन करती हुई अपने पति से यह
वाली ॥ १॥
यचपि त्रिषु छाकेषु ग्रथितं ते महययद)
साजुक्रोशों वदान्यथ प्रियवादी च राघव। ॥ २॥
# पाठान्तरे--' खाती | ।१
पकपशितमः सर्गः . हैं३७
हेमहाराज ! यद्यपि तोनों ल्ेकों में ग्रापफ्री यद कोति फेली
हुई देकि, मदाराज बड़े दयाल्ु, उदार, और प्रियवादो हैं ॥ २,॥
कं नरबरशरेष्ठ पुत्रों ते! सह सीतया ।
दुखिता; सुखसंदृद्धां बने दुःख सहिष्यतः ॥ ३॥
तथापि देपुरुषोच्तम ! ( यह तो वतलाइये कि ) सीता सह्दित
आपके वे दोनों पुत्र, जे छुस में पालने पोसे गये हैं, दुश्ली दो,
» किस तरद वन में दुःख सदर सकेंगे ॥ ३॥
सा नून॑ तरुणी' श्यामा' सुकुमारी सुखाचिता | '
कथमुष्णं च शीत च मैथिली प्रसहिष्यते ॥ 9 ॥
- निश्चय दी युवावस्था के प्राप्त युवती एवं सुकुमारी सीता,
जे सुख से रहने येष्य है, किस प्रकार गर्मी सर्दी सह सकेगी ॥ ४॥
भुक्त्वाश्शनं विश्वालाक्षी हपदंशानितंर शुभस् |
वनन््य॑ नेवारमाह्ारं कथं सीतेपभोष्ष्यते ॥ ५ ॥
ज्ञा बड़े बड़े नेत्र वाली, (स्सेइयों के वनाये हुए ) सुन्दर
व्यज्चन खातों थी, वह सीता फ्योंकर वत्र के चाँवलोंका खा
सकेगी ॥ ५ ॥
गीतवादित्रनिधेरष श्रुत्वा शुभम्रनिन्दिता ।
कर क्रव्यादसिहानां शब्द शोष्यत्यशोभनम् ॥ ६ ॥
, । तदणी--आरब्धयौवना । ( गो" ) ३ इयामा--योवतभध्यप््या ।
(यो०) ( शयामातरणी--यौवनमध्यल्या चरुणी | गो०) ३ सूपदश्ान्वितं--
शामनव्यक्षन सद्दितं । (गो०)
दश् भ्रयेध्याकायडे
जा अनिन्दिता सीता गाने और वजाने की (मधुर ) ध्वनि ही ह
छुना करती थी, इस समय चह क्यों कर माँसादारी पिंदों का
- भयडुर शब्द छुनेगी ॥ ६ ॥
भहेन्द्रध्यनसड्भाश) के नु शेते महाशुजः ।
भुज॑ परिघसड्भाशमुपधाय असहानुज। ॥ ७॥
जे इन्द्रधयुष के समान वड़ी भरुजाओं वाले और महद्ावत्नी
हैं,वे प्रपनी विशाल भुज्जा तकिये को जगह सिर के नीचे रख
कहाँ शयन करते होंगे ॥ ७॥
पद्मनव्ण सुकेशान्तं पद्मनिःश्वासमुत्तमम् ।
कदा द्रक्ष्यामि रामस्य बदन पुष्करेक्षणम् ॥ ८ ॥
कमल के समान और सुन्दर केशों से युक्त, फमर्न जैसी सुफ्घ
और कम्रतनयन भ्रीरामचन्ध जी के मुखारविन्द के, में कब
"बैखूगी॥ ८॥
वज्सारमयं चून॑ हृदये मे न संशय! ।
अपहयन्त्या न त॑ यहे फलतीदं सहस्तपा ॥ ९ ॥
निश्चय दी मेरा हृदय बज का है--इसमें कुछ भी सन्देह नहीं
है। क्योंकि राम के न देखने से इसके सहस्त टुकड़े नहीं हो
जाते
॥६॥
यत्त्वयाध्करुणं कमे व्यपाह्म मम वान्धवा! ।
निरस्ताः परिधावन्ति सुखाहां! कृपणा बने ॥ १०॥
१ मदेल्वप्वजानाम इन्द्रधनु। |(यो०) # पादान्तरे---४ महावर: |
एकपश्तिसः सर्गः ६२६
महाराज ] आपने मेरे प्रियतनों को राज्य से निकाल कर
बड़ा निदुयतापूर्ण कर्म किया है। जे। सुछ्त से रहने योग्य हैं,हाय
ते दीन दी वन में मारे मारे फिरतें हैं ॥ १० ॥
यदि पश्चद्शे वर्षे राघव! पुनरेष्यति ।
जब्याद्राज्यं च कोश च भरते नेपस्ुज्यते ॥ ११ ॥
यदि चौदद वर्ष वाद श्रोरामचन्द्र लौट भो भावें ( ते भी
मुझे मरोला नहीं कि )भरत उनके राज्य और कोश देदेंगे ॥११॥
, भाजयन्ति किल श्राद्धे केचित्लानेव वान्धवान् |
ततः पश्मात्समीक्षस्ते कृतकार्या द्विजपभान् ॥ १२ ॥
कोई काई भ्राद करने वाले विद्वान ब्राह्मण को निर्मंतरण दे,
पदले गुणदीन भाई वंदों को श्राद में भाजन करवाते हैं। पीछे से
उन निमंत्रित ब्राह्मणों के बुलाते हैं ॥ *३२॥
तत्र ये गुणवन्तश्व विद्वांसश्र द्विनातय ।
न पश्मात्तेजतुमन्यन्ते सुधामपि सुरोपशा। ॥ १३ ॥
तब उन ब्राह्मणों में ना गुणवान एवं विद्वान, दोते हैं, वेआड़
के भदछत तुद्य भाज्य पदार्थों के, मिस के समान (त्थाज्य )
क्या नहीं समक्ते ? ॥ १३ ॥
ब्राह्मणेष्वपि द्ेष पथाद्रोक्ुं द्विषमा।।
नाभ्युपैतुमल पाजाः श्ञच्छेदमिवषमा। ॥ १४ ॥
(यही नहीं वढ्कि) अन्य ब्राह्मणों के माजन से बचे हुए श्रन्न का,
विद्वान आह्यण थ्रद्जीकर करने में वैसा दी अपना अनावर समखते
हैं,जैसा वैज्ञ काअना दर उसक े सींग ों के काट ने से देत ा है ॥ १४ ॥
६३० . अ्रयाध्याकायडे
बनवासाय रामस ्थ पद ्च रा त् रो ज् य गण ्य ते ।
य; शोए्दतहर्षाया: पश्ववपें पम े। मम ॥ १७ ॥
। ( प्ि ० ) २ आप त् ति व/ --
१ ध्रुतम्् _जाक्षक्रवणननित्तनिश्वितथम
इृदातप्रात्तः । (गो? ) ॥'
ईइ५ अयेाष्याकायडे
._ शऔर मेरे माता पिता के भी, जे। दुर्चल तथा अगश्वेहैं एवं
मेरे झाने की प्रतीत्ता करते हुए प्याते बैठे होंगे, मार डाला ॥ ४० ॥
चिरमाशाकझवां तृष्णां #कथ सम्धारयिष्यतः |
न नूनें तपते वा$रित फलयोग! श्रुतर॒य! वा ॥ 9१ ॥
वे मेरे श्राने की वाद-देखते हुए प्यास के कए की कैसे सह
सफेंगे |दा !इससे तो तप का व इतिद्दास पुराणादि के धवण का
कुछ भी सम्बन्ध न ठहरा ॥ ४१॥
पिता यन्मां नजानाति शयान पतितं झुवि ।
जानभ्पि च कि कुयांदशक्तिरपरिक्रम! ॥ ४२॥
जे। पिता जी यह नहीं ज्ञानते कि में इस दशा मेंयहाँ ज़मीन
पर पड़ा हैं और यदि जान भी ज्ञॉय तो कर ही क्या सकते हैं,
क्योंकि उनमें ( शँप्े होते से) चलने की शक्ति नहीं हैअर्थात्
वे पड़ हैं ॥४२ ॥
भिदच्रमानमिवाशक्तस्तातुमन्ये। नंगा नगस् |
पितुस्तवमेत मे गत्वा शीप्रमाचह_्ष्व राघव ॥ ४३ ॥
ेवीय। । ( शि० )
फकये
१ श्रुतत्य--मच्छुवणविषयीभुतेतिद्षातपुराणेद
# पाठान्तरे--४ केश | ? ॒
३६० अयेध्याकायूडे
३ विभयात्ू-पाल्यतु | (रा० )
चतठु।षश्तिमः स्गः ६६३
अपापोधसि यदा पुत्र निहत) पापकर्मणा ।
तेन सत्येन गच्छाशु ये छोका। शस्रयेधिनाम ॥४१॥
है पुत्र |तू निर्देष दाने पर भी इस पापी द्वारा मारा गया
'है । अतः तू अपने सत्य वल्ल से, उस लेक मेंजा, जहां याद्वा
क्षाग जाते हैं ॥४२ ॥
यान्ति शूरा गति यां च संग्रामेष्वनिवर्तिनः ।
हताःस््वमिमुखा; पुत्र गति तां परमां बन ॥ ४२॥
दे क्त्स | युद्ध में पीठ न दिखाने वाले धीर लग, शब्न
द्वारा मारे जाने पर, जिस गतिकी प्राप्त होते हैं, तू भीउसी परम
गति के प्राप्त हो ॥ ४२ ॥
यां गति सगरः शैब्ये दिलीपे जनमेजयः ।
नहुषो धुन्धुमारथ भ्राप्नास्तां गच्छ पुत्र॒क ॥ ४३ ॥
हैबेढों |महाराज सगर, शैव्य, दिल्लीप, जनमेजय, नहुष और '
घुन्धमार जिस गति के प्राप्त हुएहैं,उसी गति के तू भी प्राप्त
है। ॥ ४रे॥
या गतिः सर्वसाधूनां स्वाध्यायात्तपसा च या।
भूमिदस्याहिताग्नेरेकपत्नीवतस्य च ॥ ४४ ॥
जे! गति स्वाध्याय और तप में निरत सब महात्मा पुरुषों को
प्राप्त होती है वद्दी गति तुक्के भो प्राप्त दो| जे गति भूमिदान
करने वाले ध्प्निदात्ी और एक-पत्नी-बत-घारो को प्राप्त दोती
है, चदी तुझे भी प्राप्त दो॥४४ ॥'
न शयेष्याकायडे
गेोसहसपरदातणां या या सुरुभताप्रपि
देहन्यासक्ृता' या च तां गत ि गच् छ पुत ्रक ् ॥ ४५ ॥
हेवत्स ! जे! गति सदत्ध गे दान रे वाल े का, गुव शुक ्वा
करने वाल्षे के तथा महाप्र ध्य ान का सहु दप कर (यय ाग में या श्रम ्मि मे)
दात ी है, वह तुझ े भी प्राप ्त दी ॥४५ ॥
शरीर त्याग करने वाले के प्राप्त
हि लस्मत्कुले जा ते गच् छत् यदु शर् लां गति म् ।
सत ु यास ्् यति ये न त्व ॑ नि हत ा मम वान ्धव / ॥8 4॥
क्योंकि हमारे तपस ्वि कुल ् में उत्प न्न दो का ई भी बी च गत ि के
प्राप्त नहो ं दु आ | नी च गत ि के तो चह प्राप ्त होग ा जिस ने मेर े पुत् र
तुकूझे मारा है ॥ ४६ ॥
एवं स कृपणं तत्र पयदेवयतासकृत ।
ततेस्म कतुप्ुद्क प्रदत्त सह भायया ॥ ४७॥
इस प्रकार वह ठपरदी वार वार करुणापुर्ण विल्ञाप कर, सञतरी
सहित अपने मतपुत्र के जलाखलि देने नें प्रचृद्ध हुआ ॥ २७ ॥
सतु दिव्येन रुपेण घुनिपुत्र; खकमंमि; ।
खतगमध्यारुदत्तिप शक्रेोण सह घवित्॥ ४८ ॥
तब तो बह धर्मात्मा मुनिकुप्तार अपने पुणयक्रमों के वत्,
दिव्य रूप घारण कर, इंच के साथ तुरन्त स्वर्ग के चला
गया ॥ ४८ ॥
१ संप ्तक ्त: --द ीपा विन ाभू ताः । (यो ०) २ आया श्त रना शन- --द ुःख नाश न ।
(गो०) # पाठान्तरे-> अचेतनम”। | पाठन्तरे--४नशिष्यामि ” |
६७२ अ्येष्याकाणडे
तथा # त ु द ी न क थ य न ् न र ा ध ि प ः
प्रियस ्य पु त् नस ्य व ि व ा स न ा त ु र । ।
गतेडधरात्रे भुशदु।|खपीडित;
तदा नही प्राणयुदारदशनः ॥ ७९ ॥
इति चतुःषश्टितमः सगेः ॥
उदार पव॑ दर्शनीय महाराज नेदोत वचन कहते हुए, प्रिय
पुत्र कवेनवास से व् या कु ल हा , थर ाध ी श त बी तन े प र शभ ्र त् यन ्त
दु'खी दे प्राण त्यागे ॥ ७६ ॥
अयेष्याकाणड का चैसउवाँ से समाप्त हुआ |
पञ्नुषष्टितम; सगे:
अथ राज्यां व्यतीतायां प्रातरेबापरेष्हनि ।
वन्दिनः पर्यपातिष्न्पार्थिवस्य निवेशनम् ॥ १ ॥
शत वीतने पर अगले दिन प्रातः!काल के सम्रय, महाराज के
राजद्वार पर वन्दीजन आये ॥ १॥ ,
सता; परमसंस्कारा! मागधाओोत्तमभुता।* |
गायका; स्तुतिशीलाभ निगदन्त; पृथक्पूथक्॥२ ॥
१ परमसंत्कारा:--व्याकरणाथुत्तमसंह्कारयुक्ता: । ( भो० ) ३ उत्तम
श्रुता३--बंशपरम्पराश्रवणमेपा ते मायधा। | (र०) # प्राठान्तरे--यदा तु ” ।
पश्चपप्टितप् सर्गः ६७३
ब्याभरणारि शा्रों में चतुर घुत, औए चंशपरम्पत का कीर्तन
करने में निपुण मागध; तान, लग एवं, स्वर के ज्ञाता गवैया राज-
भवन के द्वार पर उपस्थित हो, पृथक पृथक अपनी रीति के झनुसार
प्रदाराज़ के गुण कोर्तन करने लगे ॥ २॥
राजान॑ स्तुव॒तां तेषामुदात्ताभिहिताशिषाम् |
| जा 6
प्रासादाभेगविस्तीण; स्तुतिशब्दे# व्यवधत ॥ ३ ॥
उच्चछर से महाराज की स्तुति करने वाले और श्राशीर्वाद
देने वाले उन क्षे|गों के नाद से सम्पुर्ण राममवन भर गया ॥ ३ ॥
ततस्तु स्तुव॒तां तेपां खूतानां पाणिवादका! ।
'अपदानान्युदाहत्य पाणिवादानवादयन् ॥ ४ ॥
तदनन्तर ताली वज्ञा कर ताल देने में निपुण ( पाणिवाइक )
लग ताली वजा वज्ञा कर महाराज के पदुभ्भुत कर्मो का वर्णन
फरने लगे ॥ ४ ॥
तेन शब्देन विहगा! प्रतिवुद्धा विसस्वतु) ।
शाखास्थाः पश्नर्थाथ ये राजकुलगोचरा। ॥ ५॥
इससे वे पत्ती जे! राजभग्न के वृत्ों की शाघाश्रों पर रहते
थे और जे। पातू हैने केकारण पिजड़ों में रहते थे, ज्ञागे और
बेलने लगे ॥ ५ ॥
व्याहृताः* पुण्यशब्दाश' वीणानां चापि निःस्वना।।
आशीर्गेयं च गायानां* पूरयामास वेश्म तत् ॥ ६ ॥
३ क्षपदानानि-बत्तान्यदुभ्ुतरूर्माणि | (गो०) २ व्याहृता।- म्राह्गैस्का: |
(पो०) ३ पण्यश्दा!--एरुपक्षेत्रती् डीतेनादिख्पा३ | (गो०) ४ गाधाना--
दशरथ विपय प्रबन्ध पुण्य विशेषाणां | (गो०) # पाठान्तरै--" हावतेत ? |
[9 रा०--४३े
६७४ ग्रयाध्याकारएडे
ब्राह्मणों के आशीर्वादात्मक वाज््यों से, पालतू पत्तियों की उन
वेलियों से, जे भगपन्नाम अथवा पवित्र तीथों के नाम ले कर
वाल रहे थे, वीणा की ध्वनि से, आशीर्वाद से तथा मद्दाराज दृशर्ध
सम्बन्धी प्रवन्ध विशेषों के वखान से राजभवन पूरित हो गया ॥4॥ .
ततः शुचिसमाचाराः पर्युपस्थानकेविदा!! ।
धरस्भूयिष्ठा उपतस्थुयथापुरम् ॥ ७ ॥
स्तीवध
चर्षघरमुयिष्ठा:--अन्तःपुराष्यक्षतरीस्ि: वर्पधरेषप्देश्नसम॒द्धाः । ( गे )
| कुमारोबहुला--कुसारीआया। | ( यो० ) पे
१ पश्चपश्तिमः सर्गः ६७५
भुवं र स ् त ् य ; क र ु ण ं स ु द ु ः ख ि त ा ः
प्रग्द व ा ह ू व ् य ल प त ् न न ा थ व त ् ॥ २ ९ ॥
इति पश्चपश्ितमः सर्ग। ॥
राजाओं में श्रेष्ठ और यशत््वी मद गज्ञदृशस्थ के मरा देख,
उनकी सईद रानियां महा दुःखी हो श्त्यन्त फेणपूर्ण स्वर से रो
शे कर और महाराज् दशरथ की वाह पकड़ अनाथ की तरह
विल्लाप करने लगीं ॥ २६ ॥
अयेष्याक्ाणड का पेंलठर्वीं सर्ग पूरा हुआ ।
जाई
पट्षश्तिमः सर्गः
«०-१ ६ ६०००-«
तमग्रिमिव संज्ञान्तमम्बुहीनमिवा्ंवम् |
हतप्रभमिवादित्यं खगरथ॑ प्रेक्ष्य पार्यिवम् ॥ १ ॥
महाराज दशरथ को बुरी हुई श्राग, अथवा जलदहीन समुद्र
अथवा दतप्रभ धूये को तरह जर्गवरासी हुआ देख ॥ १॥
कैसल्या वाष्पपूर्णाक्षी विविध शेककर्शिता ।
उपगृह्म! शिरो राज! कैकेयीं प्रत्यभापत | २॥
कैशद्या ने महाराज का सिर श्रपनी गोद में रख और
विविध प्रकार के शोकों से उत्पीड़ित देने के कारण सोते शेते -
कैकेयी से कद्दा | २॥
१ राज्षा शिरर्पगृहथ--राज्ञ।शिरभह्टें कृत्वा | (गो० )
“ पट्पएितमः सगे $फ९
॥
घदपश्ितमः सर्गः हद३
हृद्धश्वेवास्पप्युत्रथ' वैदेहीममुचिन्तवन् ।
सा्प शेकसमाविष्टो ननु त्यक्ष्यति जीवितम् ॥१६॥
वे राज ा जन क भो, जो बूढ ़े हैं और जिन के के वल कन् या
सन् तति है, सी ता ज्ञी के करो ं का, स्म रण कर और शो क से
चिकल हो शरीर छोड़ देंगे ॥ ११॥
साह॒ इम थे व 'द िष ्ट ान ्त ं गम िष ्य ाम ि पत ित ्र ता |
इदं शर ीर मा लि द् वय प् रव ेक ष् या मि हु ता शन स् ॥ १ २ ॥
थ्रतः पतिय्रत धर्म का पा लन कर ती हु ई मै ं श्र ाज् दी प् रा ण
त्यागने के जिये, मह ार ाज के शव से चि पट , अप ्न ि मे ं प् रव ेश कर ूं गी
झर्थात् सती द्वोजाऊँगी ॥ १२ ॥
ताँ तत ) सम ्प रि ष् वज ्य वि लप न् ती तप स् िन ीम ् |
अव्यपनिन ्य ु! सु दु /ख ात ा' कै सल ्य ां व् या वह ार िक ा: '॥ रे ॥
अन््त/पुर के तथ ा रा ज् य के री ति व् यो हा र ( शर ्थ ात ् ज्ञ ाप् ता)
झानने वाक्षे थर्थात मं त् रि यो ं न े
मह ार ाज के शव से भ्र त्य न्त दु ःश िन ी
वापु री कै शब ्य ा के हठ ा ऋर अल ्ल ग कि या ॥ ऐ३ ॥
(म ोर ) २ से ा5 पि -- जन ऊा पि । ( ग ०
ो )
१ अध्पपुत्र:--दुद्वितृमात्रपुन्र+ |
-- मर णं । ( ग ो ) 4 ब् या वद ्ा रि का :- -ण ्य वद ्द ार ेव ाह ्य ास ्व न् तर
३ दिल्लास्तं
। (ग ो० ) मे पा ठा न् तर े- -/ / व् यव नी य ? ।
"पकछराजहत्येनियुक्ताः अमाह्याइस्थें:
हैं८४ प्रयेध्याकायडे
सहपष्टितमः सर्ग /
+4०३--
आक्रन्दिवनिरानन्दा साथ्रुकण्टजनाकुछा |
अयेध्यायागवतता' सा व्यतीयाय शबरी ॥ १ ॥|
रोते रोते किमी के भो मन में श्ानन्द नहीं रह गया शा, सव
लग प्रांत गिरते वरावर रो रखे थे |वह दुःख को रात लोगों के
लिये पहाड़ जैसो बड़ी हो गयी थी। क्रिस्तो न करिसो तरह बह
ब्यतोत हुई] १ ॥
१ अवतता--दीर्ा । ( यो० )
सप्तपष्टितमः स्ेः है८ह
स्व॒गंतथ्॒ महार ान े। ! र ा म ब ा र ण ् य म ा श ् र ि त ; ।
लक्ष्मणश्रापि तेजस ्व ी रा मे णे व ग त ः स ह ॥ $ ॥ .
द ी र य त ू - - भ क प य त ् । ( ह् ि० )
१ पृथकू--मिन्न | (शि० ) रे इ
वा० रा०--४४
ईै६० अयेध्याकायडे
ये हि सम्मिन्नमर्यादा: नास्तिकाश्छिन्रसंशया/ ।
तेषपि भावायरे कल्पस्ते” राजदण्डनिपरीडिता। ॥ ३१२ ॥
जे क्ाग वर्णाअप धर्म की मर्यादा को त्याग नास्तिक है जाते
हैं,किन्तु राज दूप ठ के डर से दवे रहत े हैं , वेभीअर ाज क देश में
राजदण्ड के भय से निरभय हो, क्षौगों पर श्रपना प्रभाव डालते
हैंग्रथवा प्रपना प्रभुत प्रकद करते हैं ॥ ३२ ॥
यथा दृष्टि! शरीरस्य नित्यमेव प्रवर्तते ।
तथा नरेन्द्रों राष्ट्रस्य प्रभवः सत्यपर्मया! ॥ ३३ ॥
जिस प्रकार दृष्टि, या भ्राँखें शरीर को भलाई क्षरने और बुराई
दूर करने में सदा ! ही तत् पर रह ती हैं --उ सी अक् वार राज ा भी थ्र पने
राज्य मेंसथ व धर् म का प्र चार कर राष्ट ्र की भल ाई करन े में और
दुशक्षमाओं का शा सन कर बुर ाई दूर करन े में सद ा तत् पर रहत ा
है॥ ३३ ॥
राजा सत्यं च धर् मथ रा जा कुल व्त ा' कुल म् ' |
राजा मा ता पि ता चे व रा जा हि तक रो दृण ाम् ॥३ ४॥
राजा ही सत्य और धर् म का प्रज् ञा में प्र वर् तक दे, राज ा ही
कुलीनोचित कुलाचार का प्र वत् तक है, राज ा ही प्रज ा फा मा वाप
राज ा ही प्र जाज नों का दि तस ाध न करन े चाल ा अर् थात ्
है शो र
षी॥देत॥७
हितेतषीिहै
दि ॥ _ _ . _ . _ . _ . ] ] ] _ ] ] _ / ै ै _
/झ ा् ो ि ि न ् न ् ् ् ि न ा द ए ा
उबखढख४ऊ#र&ई॒ई्ा्
। सम्मिक्नसर्यादाः--उल्छद्वितस्वस् वज ात िव र् णा अम मर ्य ाद ाः । (ग ो० ) २ छि ल् त-
३ भा वा य- -प त् का वा य, प् रभ ाव ाय त् ा।
संशया/--राजदण्डशहारद्ििताः ।(या०)
्त वै ष् टि कप ीड ास मर ्य ाभ पन ्त ीत ्य थे |. ( गो न )
(यो० ) ४ कहपन्ते--घमल
धव ता ं | (ग ो० ) ६ क ु छ -- छु छा चा रम वत ंक ः । (ग ो० )
५ कु लव र् ता -- क् षे त् रव ीज शु द्
डडककहरबी
डे अयेध्याकायडे
श्रधपश्तिमः सगे
नाथ के 4
तेषां हि वचन श्रुत्वा वसिष्ठ प्रत्यवाच ह ।
!मित्रामात्यगणान्सवोन्ब्राक्मणां
स्तानिदंवच। ॥ १ ॥
उन लेगों के ुख से ऐसी बातें खुन वशिए्ठ जी, दितैदी
सुमंत्रादि मंत्रियों गरर मार्केयडेयादि ब्राह्मणोंसे यह बेल ॥ १॥
यदसे मातुलकुले दत्तराज्य! परंसुखी !
भरते वसत्ति प्रात्रा झन्रुष्नेन समन्वितः ॥ २ ॥
मद्दाराज़, भरत के राज्य देगये हैं। वे भरत अपने भाई शन्रप्न
के साथ मामा के घर परम खुखपूर्वक निवास कर रहे हैं ॥ २॥
तच्छीप्रं जवना+ दूता गच्छन्तु लरितिहये! ।
आनेतुं भ्रातरों वीरो कि समीक्षामहदे वयम् ॥ रे ॥
जल पक जद कम नमक नकल बमनकद ललित
१ सिन्रामालगणानू--मिन्रभूनासात्यगणानूसुमन्त्रादीन |(गी०) २ ब्राह्म-
णानू--मार्कण्डेयादीनू । (गो> ) ३ जवना+--बैंगवन्तः ! ( गो० )
899 अवाष्याकायड
अहेव्माना'सवर॒या सम दूता
रात्यां तु ते तत्युरमेव याता; ॥ २२ ॥
इति अध्पष्टितमः सगे! ॥
शपने स्वामी धर्थाव् मद्दारात् दृशरथ का प्रियकार्य (भरत
के ले ज्ञा कर महाराज के शव का दाहादि कर्म) करवाने के,
कुल को रत्ता फे लिये और महाराज दशरथ के वंश को प्रतिष्ठा
के लिये, बड़े भादर के साथ, जक्दों केकारण रात दी मेंउन्र दूतों
ने उस पुर मेंप्रवेश किया ॥ २२॥
शयेध्याकाणद का अरसठवाँ सम समाप्त हुआ |
-“-4०--
एकोनसप्ततितमः सगे
मम
६ ॥
रस
दस े ॥
ख्ध
े ना नु मा
पर्यपासीन
सुह ृद् धि! पयपा सीन!
जे कि
22 सख
अर ए स : एम लिअश िन क क
ििबल,...2४ से .. . जल
के
१ भायात्ं--सवशखे द॑ े] (य ो० ) २ छाप ्तव न्त ि-- आध् यंक ुबन ्ति -
डाल्ये--सुछुमालूच | ( गो० ) ३ प्रेयत्ततः--अन्तस्डूचुछद ( गो? )
एकेानसप्ततितमः स्गः ७०७
मित्रों केवीच बैठे भरत जी सेउनके एक पत्थन्त पघन्तरड
मित्र ने कद्दा, है मित्र | हम लोगों फे इतना प्रय्ष फरने पर भी
तुम हर्षित फ्यों नहीं होते ॥ ६ ॥
एवं ब्रुवाणं सुहृदं भरतः प्रत्युवाच तम् ।
भ्रृणु त्व॑ यन्निमित्तं मे देन्यमेतदुपागतम् ॥ ७ ॥
इस प्रकार इस मित्र केकहने पर सरत जो बाल्े-े मिन्न!
मेरे मन के उद्ा छदाने का फारण छुनो ॥ ७ ॥
खप्ने पितरमद्राक्ष॑ मलिनं मुक्तमूपजम् ।
पतन्तमद्रिशिखरात्कलुपे गे।मयेहदे# ॥॥ ८ ॥
मैंने स्वप्न में मैंके कपड़े पदने श्रौर सिर के वाल खोले हुए
झापने पिता के पर्वत की चेटो से बुरे गेवर के गड्ढे मेंगिरते हुए
देखा है ॥ ८॥
पएवमानथ! मे दृष्ठ! स तस्मिन्गामयेहदे ।
पिवन्नज्ञलिना तैल इसन्नपि मुहुमेहः ॥ ९॥
और देखा है कि, वह उस गावर के कुण्ड में मैड़क की तरह
तैरते तैस्ते वारंवार हँस कर घप्रश्नलि भर भर कर तेलपीरहेहैं॥९॥
ततस्तिंडादन शुक्त्वा पुनः पुनरध/शिरा। ।.
तैलेनाभ्यक्तसवाड्रस्तैमेवावगाहत ॥ १० ॥
यह भी देखा हैकि, मद्दाराज तिल मिश्चित भात खा कर वबारंवार
मस्तक नोचे छुका कर, सर्वाड़ में तेल लगाये हुए हैं और तेज हो
में व रहे हैं ॥ १० ॥ कल
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3२४ अयेव्याकायडे
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अयेध्यां मनुना राज्ञा निर्मितां सन्ददश ह।
तां पुरी पुरुषव्याप्र: सप्तरात्रापितः पथि ॥ १८ ॥
तब घहों से रवाना दे भरत मे महाराज म्रत्नु की बसाई
अयेष्यापुरी देखी |राजगृह से अयोध्या तक्ष आने में,रास्ते मेंसरत
के सात रातें (दिन ) लगीं ॥ २५ ॥
अयोध्यामग्रता दृष्टा सारथि वाक्यमत्रवीद |
एपा नातिप्रतीता मे एृण्योधाना यशस्थिनी ॥ १९ ॥
दूर ही से अयोध्या को देख, भरत जी सारदी से “ऋहने लगे
छवि, यह पुरी ते! मु्ते जगतपसिद्ध और उच्छ एवं हरे भरे उच्चातों
से पूर्ण्रयोष्या जेसी दो नहीं ज्ञान पड़ती ॥ २६ ॥
अयेष्या दृश्यते द्रात्सारथे पाण्डमृत्तिका ।
ज्यभिगुणसम्पन्नत्राह्मणबेंदपारों: ॥ २० ॥
यज्यभिगणसम्पनेत्राह्मण
च्छे नें
आचक च्हे
'भूयिष्ठमृद्धेराकीर्णा राजर्पिपरिपालिता ।
अयेध्यायां पुरा शब्दः श्रुवते तुझुला महाव् ॥२श॥।
हे सारथे | दूर से देखने पर ते अवाष्या पीली मिह्ठो का एक ढेर
सा जान पड़ती है। देखो, अत्यन्त उदद्धशालिनी श्र रावरवियों
द्वारा पालित थ्योध्यापुरी में तो पहले वन्चरर्चा, गुण एवंवेद- '
पदों बाह्मयों का बड़ा ठुछल् शब्द छुनाई पड़ता था ॥ २० ॥ २१ !!
समस्तानरनारीणां तमद् न शुणेम्पहम् |
उद्यानानि हिं साथाहे क्रीडिलापरतैनरे) || २२ |]
१ नूधिछ॑--मृक्न । ( यो० )
प्फसपतितमः सर्गः ७१४
और चारो ओर ख्रो पुरुषों का जे वड़ा केलाइल हुआा
करता था, वह तो मुक्के ्राज छुनाई ही नहीं पड़ता । यहाँ के
उपवर्नों में सायड्ञाल के समय खेलों से निवृत्त हो, वहुच से
पुरुष ॥ २२ ॥
प्रमन्ताद्िषरधावद्धि! प्रकाशन्ते ममान्यदा |
तान्यबानुरुदन्तीव परित्यक्तानि कामिमि। ॥ २३॥
इधर उधर दोड़ते हुए पहक्ते देख पड़ते थे, किन्तु भाज तो
वे उपवन मुझे कामो लोगों द्वारा ,प्ररित्यक्त देने के कारण सेते
हुए से ज्ञान पड़ रहे हैं॥ २३ ॥
अरण्यभूतेव पुरी सारथे प्रतिभाति मे |
न ब्न्र यानेदृश्यन्ते नगमैने च वाजिमि! ॥ २४ ॥
नियान््तों वाधभियान्ता वा नरमुझूुया यथापुरम |
उद्यानानि पुरा भान्ति मत्तपमुद्तानि च ॥ २५ ॥
है सारथे | यह अयोष्या नहीं, किन्तु यद्द तो मुझे उजड़ों हुईं
अयेष्या का वन जैसा जान पड़ता है। क्योंकि न तो यहाँ ओई
सवारो और न कोई हाथो अधवा घोड़ों पर चढ़े श्रतिष्ठित पुरवासी
पाते ज्ञात देख पड़ते हैं |धाटिद्राओं में पहले खूब चहल पदल
' बनी रहती थी ॥ २४ ॥ २४५.॥
जनानां रतिसंयेगेष्वस्यन्तगुणवन्ति च्।,
तान्येतान्य्य पश्यामि निरानन्दानि सर्वश। ॥ २६ ॥
१ कत्यदा--पूर्व' ।( गो० ) २ रतिस्वंयेगगेपु --रव्यर्थघ्ंयागेषु ।(गो०)
१
कश अयोध्याकाये
' हव ा/ स् वै रु त् था य वि जय पृ ष् ठस ्त े! सह ित ा य य ो ।
से ल्वनेकाग्रहदया' द्वाःस्थं प्रत्यच्य' त॑ जनम ॥रे७)
भरत जी को देख द्वारपात्न उठ खड़े हुए और ( रीत्याठुसार )
विज्ञय प्रश्ष कर उनके साथ दा लिये | उस सम्रय भरत जी का
मन च्यप्न है| रहा था | अतः उन्दोंने उन द्वारपात्रों के छत्कारपूर्वक
ज्ींदा दिया ॥ ३४ ॥
सूतमखपतेः क्ान्तमत्रवीत्तत्र राधवः |
किमह ल॒रयानीत) कारणेन विनाध्नथ ॥ ३५ ॥
केकयराज्न का सारथी जे वहुत. थक गया था उससे भरत जी
नेकहा--है ग्रनध !किस लिये घिना कारण वतलाये शीघ्रता से
मेंयहाँ तुलाया गया हूँ ॥ ३४ ॥
अशुभागह्नि हृदयं शीढं* च पततीव मे |
श्रुता ना यादशाः पूर्व उृपतीनां विनाशने ॥ ३६ ॥
मेरे पन्र में अनेक प्रकार की अशुभ णहुपएँ उत्पन्न द्वो रही हैं
और मन पर दीनता छाती ज्ञाठी है। राजाओं के मरने पर जे
भ्रम्मांडुलिक लक्षण देख पड़ते हैंग्रौर जिन्हें मेने पहले छुन रखे
हैं॥ ३६ ॥
आकारांस्तानहं सर्वानिद पश्यामि सारथे !
संमाजनविहीनानि परुषाप्युपलक्षये ||३७ ॥
के 0नविहीनानि
हक
१ दबल्द्रद्ा:---8इचठाछन्द्र
तु
: (स्वत
कस एकसप्ततितमः सगे: ६३१
पकवेश्मन; ।
अथ ते कतिचिद्रात्यश्च्युतस्या
अपि' नाध्षयश्रमः शीघ्र रथेनापततरतव ॥| ५ ॥
हेबरस ! थाज्ञ तुमका नाना के धर से चलने क्रितने दिन दी
गये ? तुप्त रथ पर सवार जद्दी जद्दी आये द्े। सा रास्ते की
घकावट ता तुम्द ऋष्ट नहीं देरदी ॥ ५ ॥
आयंकस्ते सुकुशली युधानिन्मातुलस्तव ।
प्रवासाच सुर्ख पुत्र सब मे वक््तुमईसि ॥ ६॥
दे वत्स | तुस्दारे नाना और मामा युधान्नित तो वहुत श्रच्दी
तरद सेहैं? बेटा ! जब से तुम विदेश गये, तव से रहे'ते अ्रच्द्ी
तरह न ? यद सव मुझे कद्ी ॥ ६ ॥
३ ्युतस्थ--पिर्गतत्थ । ( गो ० ) रे जा यक ः- -म ात ाम दर ः । ( गो ).
३ अपि:--प्रदने | (योर ) 5
७३४ शयेाष्याकायदे
|
यजजाबनाए
ृत ्त ान ्त मज ान न् तं
मतब अल
तं -- रा जप
जल.
अज ान न् ्
3 3कल अल
३ ग्रियवत्--प्रियमि व | ( गो " ) २
( गो० ) $ घर्माम िज नव ान ू- -ध म् मय ुक ्त वं शव ान ् । ( रा ० )
७३६ अयेष्याकायडे
और गिरते समय, मद्दावाहु एवं महावली भरत ज्ञी दोत़ोंहाथ
पृथिवी पर पठक “ हाय मेंमारा गया ” कह कर, करुणापूर्ण वचन
बाते ॥ १७॥
ततः शाकेन संविम्न।# पितुमरणदु!खितः ।
विलकाप महातेजा प्रान्ता'कुलितचेतनः ॥ १८ ॥
तदननतर महातेज्ञस्वी मरत, पिता के मरने का संवाद झुनने
के कारण, शोक थरर दुःख से विकल हो, घवड़ा गये और विज्ञाप
करने लगे ॥ १८॥
एतत्सुरुचिरं भाति पितुर्मे शयन पुरा |
शशिनेवामर्छ रातों गगन तोयदात्यये ॥ १९॥
बादलों केविदा होने पर प्र्थात् शरकाल में चन्धमा से
आकाश की जैसो शोभा होती है,पहले चैसी ही शामा मेरे पिता
की इस सेज्ञ की थी ॥ १६ ॥
यदिदं न विभालद्य विहीनं तेन धीमता ।
व्येम्रेव शशिना होन॑ विश्ुष्क इव सागरः ॥२०॥
आज़ उन बुद्धिमान पिता जी के विना चन्रहीन आकाश और
जलहीब सागर को तरह यह सेज बुरी मालूम पड़तो है ॥ २० ॥
वाध्पपुत्स॒ज्य कण्ठेन खाते; परमपीहितः |
प्च्छाद्य बदन श्रीमदस्सेण जयतांवर!* ॥ २१ ॥
हैमरणदु/खित:--मरणश्रवणैचसज्षातदु:खः | (गो०) २ आमग्ता--भव-
वस्थिता | (यो०) ३ जयतांवर; भरता । (शि०) # पाठाम्तरे--« संवीतः !।
दिखप्ततितमः सर्गः ७१७
१ यात्रामयासिपए--यात्रामकार्ष | ( यो० )
द्विलप्ततितमः सर्मः ७३६
कस पाणिः सुखस्पशनस्तातस्पाछिष्टकमंण; ।
येन मां रजसा ध्वस्तमभीक्ष्णं परिमाजति ॥ ३१॥
हा | महाराज का वह हाथ, जे झंग से स्पर्श करते ही खुल
दिया करता था और मेरे धघूलधूसरित शसेर की धूल वार वार
ऋाड़ता था, कहाँ गया ? ॥ ११॥
बड़ा हाथी जिस प्रज्नार वंधन में बाधा जाता है, उसी प्रकार
तुस्दारे पिता नेकाल और धर्म के वश हो कर, अन्तिम समय
यह कहा था ॥ ३७ ॥
सिद्धार्थास्ते नरा राममागतं सीतया सह।
लक्ष्मणं च महावाहुं द्रश्यन्ति पुनरागतम् ॥ रे८ ॥
कि, ये नर ही सफल्न मनारथ होंगे, ले! सीता सहित ओराम
और लक््मण के वन से कटा हुआ देखेंगे ॥ ३८ ॥
तच्छुला, विषसादेव द्वितीयाभरियशंसनात् ।
विषण्णवदना भूत्वा भूय। पर्रच्छ मातरम ॥ ३२९ ॥
जब कैकेयी ने यह दूसरी अभिय वात कद्दी, तव भरत जो और
भी अधिक उदास हुए और फिर माता से पूंछुनेलगे ॥ ३३ ॥
क चेदानीं स धर्मात्मा कैसल्यानन्दवधनः ।
लक्ष्मणेन सह श्रात्रा सीतया च सम॑ गतः ॥ ४०,॥
है प्रस्मा | वे धर्मात्मा और फैशल्या के थाननद को बढ़ाने
चाल्ने श्रीराम, इस समय सीता और लक्ष्मण के सहित कहाँ
' हैं?॥४०॥
१ काछुघमंपरिक्षिप।--कालघर्मेम्यः धरीरविकारादिम्यः परितयक्तः । (ज्षि०)
98२ थ्रवेध्याकायहे
चतुःसप्ततितमः सगेः
एवमुक्ला
कप.
सुमित् रां विवण
सा
४३,
ा म ल
महिना
ि न ा क्ृशा |
प्रतस्ये भरतों यत्र वेगमाना विचेतना ॥ ७ ॥
धीराम के विद्ठोद के शोक से अति दुर्वक्षगात, कान्तिद्वीव मुख
बाली कोपब् या धरथर काँपत ी हुई और भ्रचे त सी नस्त जो को
झोर चली ॥ ७ ॥
स तु रामानुजथापि अन्रुम्नसहिदस्तदा |
प्रतस्थे भरता यत्र कासल्याया निवेशनम | ८ ॥
उघर श्रीराम के छोटे भाई भरत ज्ञी भो शत्र॒न्न को साथ के
कशक्षया के भवन की ओर चलते ॥ ८ |
तत; शत्रुश्नभरता कैसल्यां प्रेशष्य दुःखिता |
पर्यघनमेतां दुःखाता' पतितां नप|्नचेतनाम ॥ ९ ॥
छ्लैशब्या को दुः्खो और वहको वहक्नो देख, दोनों माई--मस्त
और शन्नष्त अत्यन्त दुःखित हो कैशल्या से ज्िपठ कर रोते
लगे॥६॥
रुदन्ता रुदती दुःखात्समेत्यायाँ! मनस्विनीम ।
भरत॑ प्रत्युवाचेदं कासल्या भुशहु!|खिता ॥ १० ॥
व्येश्ामाता क्ैशल्या उच समय अत्यन्त दुःखित दो, शोक के
मारे रोते हुए भरत जी के लिपठा कर, कहने लगी ॥ १० ॥
इदं ते राज्यकामस्य राज्य प्राप्ृमकण्टऊम् |
सम्पाप्त वत केकेय्या शीत ऋरेण कमगा ॥ ११॥
भाया--ज्येष्ठां मातर | (यो? ) '
पश्चसप्ततितमः गे 8६५४
तुमने राज्य पाने की कामना की थो से क्र कर्म करने वाली
तुम्दारी माता ने निष्ठुर कर्म फर के, तुम्हें निष्कायटक राज्य दिला
दिया ॥ ११ ॥
प्रस्थाप्य चीरवसन पुत्र॑ मेवनवासिनम् ।
केकेयी क॑ शु् तत्र पश्यति क्ररदर्शिनी ॥ १२ ॥
हकेयी
कैक >
पड़ूससतितमः सगे;
शिविका मि श् र या नै श् व य थ ा ई तस ्य ये षि तः ।
नगराजिययुसतत्र हडे! परिश्तारतदा ॥ १९॥
मद्दाराज की शा कस म् तप ्त सव रा नि या ँ भी वध ाय ेष ्य पा लक ो
रथ आदि सदारियों में बैठ, कृ द् ध रक ्ष को ं क े स ा थनग र क ेवा हि र,
जहाँ मह ार ाज की चि ता बन ाई गय ी थी , पह ुँ ची ं॥ १६ ॥
१ जेपु -प ैत मे थि कर ्म न् रव िश ेष ान ित िश ेष ए | ( गो > ) २. तल ्य - पर म
गद्यय॑मितिशेपः । ( गो 2 -
बा० रा०--६०
ड़
छा अयेाध्याकायदे
भरत ज्ञी ने वह त से सफ ेद बक रे , सै ऋड ़ो ं गा एँ , प् रन ेक
दास दासी , सव ार िय ाँ औ र वड ़े बढ़ े मक ान मह ार ाज फे स् त
कर ्म मे ं ब्र ाह् यणो ं के दा न दि ये । तदन नन् ्त र ते रह वे ं दि न प्र ात
॥ल
का ३॥ ४॥
विलछाप महावाहभरत) शोककर्शितः
शब्दापिहितिकण्ट्रतु शोपनाथंगुपागतः ॥ ५॥
चितामूले पितुवाक्यमिदमाह सुदुःखित! ।
वात यस्मिन्रिसष्टो# त्वया भ्रातरि राघवे ॥ ६ ॥
महावादु भरत ज्ञी शाक्र से मूद्तित है, विलाप करने लगे
ओर चिता से अरत्यि वीनने $ लिये चिता के समीप जा
गदगद वाणी से प्रथवन्त दुली हा श्लोर पिता के पुकार कर
कहने लगे-है तात | जिन भाई ध्रोरामचद्ध के भरोसे आपने
हुक्के छोड़ा था॥ ५ ॥ ६ ॥
तसिमिन्वन॑ प्रत्नजिते शुन्ये! ल्क्तोश्स्म्यहं ल्या।
यर्या गतिरनाथायाः पुत्र: प्रताजितों बनम ॥ ७ ॥
उनके बन में भेज, आपने भी मुझे अ्रनाथ की तरह द्याग
दिया । जिन धनाथिनी का पुन्र वन में-निकाल द्यि गया ॥ ७॥
सोंग झरे दु ए बै ज को तर द, पृ थि त् री पर ति ( कर , बे दय दा ते
लो । उस सम य प्र शात ्त स् वव ाव सर् वक् ष औ र उन के पि ता के
पुरोहित ॥ २१ ॥
वसिट्तों भरत वाक्यपुत्याप्य तमुतराच है ।
त्रयोदशो5्यं दिवस: पितुहत्तरय' ते विभे ॥ २२ ॥
कप हि तप ही [हर
:? चुत्त्य--संस्कृतत्य | (योब ) ,
सप्तसप्ततितमः स्गः 86३३
अ्रष्रसाप्ततितमः समेः
शने समाइवासयदातरूपां
क्रोश्चीं विलग्रामिव वीक्षमाणाय ॥ २६ ॥
इति अश्सप्ततितमः सगे ॥
शब्घ्न जी के कढ्ारने सेअचेत और पीड़ित मन्यरा को जाल-
पाश में वंधी श्रोची पक्तिणी की तरह देख, भरतमानता कैकेयी ने .
धीरे धीरे उसे समझाया ॥ २६ ॥
अयेष्याकाणड का शठत्तरवां से समाप्त हुआ |
“है
एकोनाशीतितमः सगे;
७4०६०
तत्ः प्रभातसमये दिवसे च चतुदशे ।
समेत्य राजकर्तारो भरतं वाक्यमत्रुबन् ॥ १॥
»/ चादृहवे दिन प्रातःकाल होने पर राज-कर्मचारी लोग इकट्टे
हुए झोर भरत जी से फहने लगे ॥ १॥
गते। दशरथः खग ये। ने गुरुतरो गुरु ।
राम॑ प्रत्राज्य वेज्येष्ठं रक्ष्मणं च महावलुम्॥ २॥
हमारे पूज्यों केभी पृज्य महाराज दशरथ, प्ापने ज्येष्ठ पुत्र
भीरामउन्द्र जीश्रार मद्यावल्वान लक्ष्मण जी के वन भेज्ञ ख्रय॑
सगे पधारे ॥ २॥
त्वमथ भव ने राजा राजपुत्र महायत्ञ) ।
सज्ञत्या नापराध्नाति सज्यमेतदनायकम | ३ ॥
पएकेनाशीतितमः संगेः ्०१
शतणएथ है मद्ययशल्वी राजकुमार | धाव शाप हमारे राजा
हों। फ्योंकि यह राज्य विना राजा का है शेर जब पिता आपके
यह राज देगये हैं,तव श्रापका इसे अरहण करवा न ते अस्त है
ओर न आपके ऐसा करने से कोई दोष ही लग सकता है॥ ३े ॥
अभिषेचनिक॑ सर्वभिदमादाय राघव ।
प्रतीक्षते त्वां खननः! श्रेणयश्र' नृपात्मम ॥ ४ ॥
है रघुवंशसम्भूत राजकुमार | यद फ्थन केवल दम राजकर्म-
चारियों द्वी का नहीं है--वढ्कि ध्रापके मंत्रोगण और पुरवासी
लेग अभिषेक की सामग्री लिये भ्रापको भ्रुमति की प्रतीक्षा कर
रहे हैं ॥ ४॥
राज्यं गृह्ण भरत पित्पैतामहं भ्रुवम्।
० €् हर
अभिषेचय चात्मानं पाहि चास्मान्नरपभ ॥ ५॥
देनरश्रे्ठ ग्राप अपने इस पिता ' पितामह के राज्य को
घचए्य ग्रहण करें और ध्मपना अभिषेक फरवा, हम सब का
पालन कर ॥ ५ ॥
[एवमुक्तः शुभ वाक्य बुतिमान्सत्यवाकछुचि; || . ,
आभिषेचनिरक भाण्ड॑ कृत्वा से प्रदक्षिणण ॥ ६॥
इस प्रकार उन सब का यह शुभ वचन खुन तेजस्वी, सत्यवादी
प्॒व॑ पवित्र भरत ने प्रसिषेक की सामग्री से भरे हुए सव पात्नों
की प्रदकत्तिणा की ॥ ६ ॥
भरतरतं जन॑ सब भ्रत्युवाच धुतत्रतः ।
ज्येहस्य राजता निलमुचिता हि कुलस्य न! ॥ ७॥
' ३ खननः--अमाल्यादि । (,गो० ) २ श्रेणय+-मैरा। । ( रा० )
बा० रा०--५१
५०५ गअयेाध्याकायदे
अय प्ूमिपदेशजा! सूजउर्मविश्ञारदा!! ।
रखकर्मामिता। श्र; खनका यलकास्तथार ॥ १ ॥
कर्मान्तिकां) स्थपतय) एुछ्षार यम्रकेविदा। ।
तथा वधकयशथव मार्गिणे। हक्षतक्षक्ना) ॥ २ ॥
ए
अपरे !वीरणस्तम्बानवलिनेवलवत्तरा! |
पिधमन्तिः सम दुर्गाणि" स्थलानि च ततस्ततः ॥ ८ ॥
कुछ पल्वान लोगों ने धत्यन्त मज़बूत ढुंों के, जे उखाड़े नहीं
उखड़ सकते थे, जत्ला कर साफ कर दिया शोर जितने ऊँचे नीचे
रास्ते घोर दुर्गभ स्थान थे, उन सव के ठोंक पोट कर तथा मिद्ो से
पाठ कर ठीक कर दिया ॥ ८ ॥
अपरेष्पूरयन्कृपान्पांसुभि! श्वश्रमायतम ।
निम्नभागांस्तत) केचित्समांथक्र), समन््ततः ॥ ९ ॥
कुछ लोग वीच रास्ते में जे कुएँ और गड़दे झाते, उनके मिट्टी
से पाठते और नीची भूमि के पट्टी सेभर वरावर करते चक्के
जाते थे ॥ ६ ॥
ववस्धु"चन्धनीयाँश् *क्षोदनीयांश चुद
विभिदुर्भेदनीयांश तांस्तान्देशान्नरास्तदा ॥ १०॥
वे लोग, रास्ते की दाठी नदियों या नालों पर पुल्न बनाते जाते
थे, जहाँ कहीं गेखरू या कंकड़ी ग्रादि पाते उनके बटर कर फेक
देते थे,जहाँ कहीं जल के भाने मेंरुकावट देखते वहाँ के बांध के
ताड़ कर जल निकाल देते थे ॥ १० ॥
अनिरेणेव कालेन परिवाहान्वहृदकान |
चक्रुवहुविधाकारान्सागरप्रतिमान्वहून् ॥ ११ ॥
वेहवि
। देवता जिस प्रद्भार इन्द्र के देख प्रसन्न होते हैँ, उसी प्रकार
भरत को आते देख मंत्री भ्रादि ऐसे प्रसन्न हुए, मानों वे महाराज
दृशरथ के समाप्रवेश पर प्रसन्नता प्रकठ कर रदे द्वों ॥ १५ ॥
हद इव तिमिनागसंहतः
स्तिमितनले मणिशहुशकर/' |
रे (0
दशरथसुतशोभिता सभा
सदशरथेव वा यथा पुरा ॥ १६॥
इति पकाशीतितमः सगेः ॥
उस समय भरत फी उपध्यिति सेवह राजसभा उसी प्रकार
शोमित हुई, जिस प्रकार सप्तुद्र का स्थिर जल बड़े वड़े मच्छ, नाके,
मणियों, शट्टों, और वालू से छुशोभित द्वोता दे।डस समय पेसा
मालूम पड़ता था, मानों महाराज दशरथ रुवयं सभा में आरा कर
बैठे हो ॥ १६ ॥
श्रयाध्याकाण्ड का इक्यासोर्याँ सर्ग समाप्त हुआ ।
-त++
इचशीतितमः सर्गः
अब # ६०५
भरत ज्ञो भुठ वशिष्ठ के येवचन सुन, बहुत डुश्खी हुए ! बंश-
परम्ययगत ज्येठ्ठ राजकुमार दी राजा होता है--इस कुल्नधर्म का
जानने वाले, भरत ज्ञो ने वढ़े भाई का अनुगमन करने की आकात्ता
से, श्रीरामचन्द्र जी का स्मरण किया ॥ ६ ॥
स वाष्पकलया वाचा कलइंससरे युवा |
विलछाप सभामध्ये जगहें च पुरोहितम ॥ १० ॥
उस सम्रय कलहंस क्नो तरह स्वर वाले युवा भरत का गन्ना
भर झाया, वे विज्ञाप करने लगे और उन्होंने कुजपुराहित वशिष्ठ ज्ञी
के इस कथन के सर्वया अठुचित वतलाया ॥ १० ॥|
“चरितब्रह्मचयेस्य विद्यास्नातस्य* घीमतः६ |
यम अयतमानस्य को राज्य मद्धिया: हरेत् ॥ ११॥
2."ख ह॥ हर कि
प्रसादयिष्यन्भरतेथ्त्रवीत्तदा ॥ २९ ॥
वे थैर्यचान, प्रतापो, बढ़प्रतिज्ष और सत्यपराकमी भरत ज्ञी,
मद्दावन मेंगये हुए यशस्वी श्रीरामचन्द्र को प्रसक्ष करलोटा लाने
का विचार कर, छुमंत्र ज्ञी से चात्ते ॥ २६ ॥
तूण समुत्याय सुमन्त्र गच्छ
बलूस्य योगाय वक्प्रधानान् |
आनेतुमिच्छामि हि त॑वनस्थ॑
प्रसाथ राम जगते| हििताय ॥ ३० ॥
१ सत्मशतिः--अमच्युतवैयः । (गो० ) २ छुयुक्ततुवन--पुद पसादयि-
ष्यन् | ( गो० ) |
घ्२४् अयराष्याकायदे
उनमे कोई धादी थे, केई दज्लों थे, कोई गाँवों के पुलिया थे,
कई अहीरों के पुलिया थे, केई बढ पशपनी ल्लियों सहित थे (ये नट
१ रोचका+--आचकृप्यादिकर्तारः इति ऋतकूः । ३ ह्नापकाम--तैछा-
दिश्यनकऋारिण। (यो ) ३ बच्छादका --अड्ढमदेका! । ( गो०
४ तुद्ददाया:--छूच्यातीवनऊर्तार: | ( रा० ) ० आमवे।पमदत्ता।--प्राम्र-
प्रदत्त: वाषमइत्ताश। (यो ) ६ शैदबा:--नुमिकाधारिणः ख्री-
जीविनादा । ( गोब् ) ह
व्यशीतितमः से | धर
ज्रीजीवी दोने के कारंग ही द्ियों स कि गये थे )और ,कई
मह्ाद थे ॥ १४॥ ह]
'समाहिता वेदविदे! व्राह्मणा हत्तसम्भता: का
ओोस्थेररत यास्तमतुजणः सदसग३॥॥१३:॥ -..
सहस्लों सदाचारी वेदपाठों भाह्यगा जिनका मन/्रोराम में लगा
था, छुकड़ों पर वैठ भरत ज्ञो के पीछे हालिये थे ॥ १६ ॥
सुवेषा। शुद्धवसनार्ताम्रगृष्लेपन
ठानुा! |
सर्वे ते विविभेयाने! शनैभरतमन्धयुः || १७ ॥
खब ही सुन्द्स्पेश वनाये, सुन्दर चस्र पदिने भ्ोर लाल
चन्दन लगाये शोर तरह तरह की सवारियों पर सवार, धीरे धीरे
भरत जी केपीछे चले ज्ञाते थ ॥ १७ ॥
पद्माशीतितमः सर्मः
. विनिःखसन् भुशदुर्भनास्ततः
प्रमूहसंज! परमापद गतः ।
श्रम न लेगे हृदयज्वरादितेा
नरपभे यूथगता यथपभ) ॥ २१॥
४७ ५
बज हर
अतिक्रान्तमतिक्वान्तमनवाप्य मनारयप्् |
राच्य राममनिश्षिप्य पिता में विनश्षिष्यति॥ १७ ॥
पषदशीतितमः सगे ८७७
अतर्दिमिज्ञातिभिरात्तकासु के;
सहेन्द्रकरपं परिपालयंस्तदा ॥ २३ ॥
इति सप्तशीतितमः सगे ॥
मेंभो एक वढ़िया घलुष द्वाथ मेंले, अपनी विराद्री के घतुप-
घारी ले|ों के साथ, उच इन्द्र तुद्य श्रीयप्रचच्ध ज्ञी की रखवाली
करता हुआ लद्मण जी के साथ यहाँ रात भर जायता रहा ॥ २९२॥
अयवेध्याकारड का सत्ताघीयां सर्ग सप्राप्त हुआ ।
न
अ्रशशीतितमः संगेः
ना ४मे क्--
तच्छुत्वा निपु्ण' सब भरतः सह मन्त्रिमिः |
इच्गुदीमूलमागम्य रामशय्यामवेक्ष्य तामू ॥ १ ॥
श॒द्द केचचन सुन भरत जी मंत्रियों सहित, सावधानतापूर्वक
इंगुदी दत्त केनीचे गये और श्रीरामदद्ध ज्ञी की तृणशब्या के
देखने लगे ॥ १॥
अव्रवीज्जननीः सवा इह तेनर महात्मना |
शवेरी शयिता भूमाविदमस्य विमर्दितम्॥ २॥
शऔर अपनी माताओं से बाले कि, महात्मा श्ीरामचद्ध ने
उस राव, इसी पर यहाँ शयन किया था यह कुश उन्हींके शरीर
सेमदन किये हुएहैं॥ २ ॥ हे
१ निषुर्ण--धावधाव | ( गो० ) २ देव--रामेग । ( मो? )
शगशीतितमः सर्गः घ५७
हैमाता ! देखो मेरे भाई की यद्द सेज्ञ है! देखो, जैसे जैसे
उन्होंने करवर्ट बदली हैं,वैसे दी वेसे कड़ी भूमि पर विछ्ले हुए तृश
उनके शरीर से दव दृव कर कुचल गये हैं ॥ १३ ॥
३ कालेन--काछात् परमाक्तोच्छवा । ( शि० ) 3 ह्थण्डले--भूतके |
(गो? )
5६० अयोाध्याक्ाणडे
आफ .
दरष्टभरद्ानमृपिप्रवर्य-
'मूलिग्दतः सन््मरतः प्रतस्थे ॥ २२ ॥
प्रयाग मेंपहुँच, महामति भरत ने सव सेना तथा साथियों
को मधुर वचनों से सानवना प्रदान कर, जहाँ जिसका छुविधा
जान पड़ी, वहाँ टिकाया । तद्नन्तर भरत ज्ञी, वशिष्ठादि ऋषियों
को साथ ले, भरद्वाज जी के दर्शव करने के उनके प्राप्षम की
ओर प्रस्यानित हुए ॥२२ ॥
स "ब्राह्मणस्याभ्रममभ्युपेल
रमहात्मने 'देवपुरोहितस्य ।
ददश रम्येटनह॒क्षपण्डं
पहन विप्रवरस्य रम्यम्॥ २३ ॥
इति एकाननवतितमतः सर्गः ॥
उन वेद्वित् मद्ाज्ञानी देवपुरोहित ब्ृहस्पतिपुत्र भरद्दाज के
श्राध्रम मेंपहुँच, भरतादि ने भरद्याज जी की रमणीय पर्णशात्रा
और सघन बूत्तों सेसुशोमित बड़े वन के देखा ॥ २३ ॥
भयेध्याफाय॒ड का उनवासीवाँ सर्ग समाप्त हुआ ।
-+कैकीय
नवतितमः सगेः पे
इच्छा से, क्या आप उन दोनों का कुछ श्रमभल्न तो करना नहीं
चाहते ॥ ११॥ १२॥ १३ ॥
एवमुक्तो भरद्वां भरतः प्रत्युवाच है |
पयंश्रनयना दु।खाद्दाचा संसब्जमानया ॥ १४ ॥
भरदाज़ जी के ऐसा कहने पर, भरत ज्ञी ने दुःखी होने के
कारण श्रांत्रों में श्रांत् भरभोर गदगद कयठ दो कहा ॥ १४ ॥
रहतोरस्मि यदि मामेव॑ भगवानपि! मन्यते |
मत्तो न देशमागड़े नेवं मामनुशाधि हि॥ १५॥
देभगवन् ! सव क॒छ जान कर भी (भूत भविष्य वर्तमान के
ह्ाता दे कर भी ) यदि शाप ऐसा समझ रहे हैं, तो मेरा जीना
बूया दै। मेरा तो इस उपस्थित विपत्ति सेकुछ भी ज्गाव नहीं
है। मेरे मन में तोइसको कभी कहपना भी नहीं थी। भतः श्राप
घुकसे ऐसा कठोर वचन न कहिये ॥ १४ ॥
“न चैतदिष्ठं माता मे यदवेचन्मदन्तरे |
नाहमेतेन तुप्ठथ न तदचनमाददे" ॥ १६ ॥
मेसे माता ने भी जे मेरे बारे में महाराज से कद, वह भी ने
ते मेरा इष था थ्रौर न मेंउससे सन्तुष्ट हैँ ओर न उसका कहना
मुझे स्वीकार ही है॥ १६ ॥
अहं तु ठ॑ नरव्याप्रमुपयातः प्रसादकः ।
प्रतिनेतुमयेध्यां च पादों तस्यामिवन्दितुम् ॥ १७ ॥
,] संपम्नमानवा--हखकन्त्या । (गो? ) २ दतेस्सि--व्यर्थेनरम्राध्मि ।
३ भगवानपि--भूतभविष्यद्ठतंमानशोपीयर्थः। ४ नाददे--नाज्लीक्षतवानस्मि ।
( गोण )
६ 'अयेष्याकायडे
एकनवतितमः सर्गः
हैं॥३॥
एकनवर्तितमः सर्गः | घ8
आहये 'देवगन्धवान्विश्वावसुहृहहुहन्
हन्॥
तथंवाप्सरसा 'देवीगन्धचर्वीबापिः स्वेश! | १६ ||
में विश्वावछ्ध, दाह, हह चामकझ वेवेगन्धर्यो को और देव
ज्ञाति में उत्पन्न मन्धवियों के तथा सब अप्सराशों का मी श्रावादत
करता हूँ॥ २६ ॥
घृताचीमय विश्वा्ची प्रिश्रकेशीमलम्युसाम् |
नागदन्तां च हेमां च हिमामद्रिक्ृतस्थछाम् ॥ १७॥
इनके श्रतिरिछ घ्वताची, विश्वायो. मिश्रक्रेशो, पल्तंत्रुसा,
नागदन्ता, देमा, और हदिम्रात्वतासितों ( समा ) ॥ १७ ॥
शक्र॑ याइचापतिष्ठन्ति बह्माणं याथ यापितः |
सवास््तुम्बुरुणा साथमाहये सपरिच्छदाः ॥ १८ ॥
(! े
हह मेंभगवान्सेमो विधत्तामनमुत्तमम् | ह
भष्ष्यं भेज्यं च चाष्यं च लेश्लं च विविध वहु ॥२०॥.
इनके अतिरिक्त विविध भांति के और वहुत से भक्तय, भेज्य,
चाष्य, लेह्ादि अन्न, भगवान् चखद्देव यहाँ भरा ऋर उत्पन्न
करे ॥ २० ॥
विचित्राणि च माटयानि पादपप्रच्युतानि! च।
सुरादीनि च पेयानि मांसानि विविधानि च ॥ २१ ॥
(वे ) ताजे फूलों की चरित्र विचित्र पुष्प मात्राएँ, खुरा आदि
पीने के पदार्थों के श्र तरह तरह के माँचों के शीघ्र ही प्रस्तुत
कर ॥ २१॥
*चतुरभमसम्वाध शयनासनयानव॒ |
व्ये: स्व॑रसेयुक्तं दिव्यभाजनवद्धवद्' ॥ ३४ ॥
ढ्व्यि ९०७७०. दिव्यभाज
।
दचह० शयाष्याकायडे
जे। फलों के रसों में बवाये गये थे; होंग, लोग, ज्ञीर घादि
छुगंधित मसालों से छोंकी हुई दाल्लों सेऔर श्रत्युत्म प्रकार के
भातों से भरी, सहस्लों ऐसो कढ़ाइयों का, जिनमें शोभा के लिये
फूलों की कंड़ियां लगायो गयी थीं--देख देख कर लोग चकित
दे रहे थे |उस पाँच याजन घेरे में जितने कुएँ थे, वेसब गाढ़ो
गाढ़ी छीर से भरे हुए थे ॥ ई८ ॥ ६६ ॥
१ चुमृता:--झुतृत्ता: । (गो०) ३ निष्ठानवरसं चये:--ब्यक्षनश्रेष्ठममुरै ।
९ गौ० ) न
पएकनवतितमः सर्गः ब
गुह्वार्चन्दनकरकांस्च 'समुद्गेध्यवतिष्ठतः |
दषणान्परिमृष्ठांरच वाससां चापि सश्यान् ॥७६॥
|च 3 हि
घिसा हुआ सफेद चन्दन कदोरों में भरा हुआ रखा था । साफ
दर्षणों और कपड़ों के ढेर लगे थे | ७६ ॥
पादुकेपानहां चेंव युम्मानि च सहस्तश) ।
“आज्ञनीः “कड्डतान्कूर्वाब्शस्राणि च धनूंषि च ॥७७॥
खड़ाऊओं और जूता की हज़ारों जेड़ियां रखी थीं। छरमा-
दानियां, कंधे, त्रुश, छूप, धनुष ॥ ७७॥
क्ल्ल्ञ््ैौएट्एैप॑जज
ज्---+---+-+>.......
( गो० )
ई उदुनकर्कानू--चल्दतप््ल/नू । (गो० ) ४ समुद्ग
--लंघु
ेषटकेप
ुु ।
( गो० ) ५ आक्षनी:--भक्षनयुक्ताभ्करण्डिका: | ( गो० ) ६ छ
टताव--केश-
मार्जनान् । ( गो० )
0
एकनवर्तितमः सगे घ६8
सुखापिता5स्मि भगवन्समग्रवलवाहनः |
तर्पित) स्वकामे३च सामात्ये! 'वलवत्त्या | ५)
हैभगवन् | मेंसेना सहित इस पश्राश्रम में झुख से रहा भोर
हर प्रकार से आपने हम सब के पअतिशय तृप्त किया ॥ ५ ॥
अपेतकृमसन्तापाः सुमिक्षा; सुप्रतिश्रया! ।
अपि प्रेष्याजुपादाय सर्वे स्प्र सुसुखापिता। ॥ ६ ॥
हम सब छोगों ने खुखपूर्वक् रत विताई। भ््छे अच्छे घरों में
बाघ किया, बढ़िया वढ़िया स्वादिए भोजन किये। रास्ते में . मे कष्
धकाचद दुई थी, चह सव हमारी दुर हे गयी ॥ ई ॥
आमन्त्रये5हं भगवन्कामं त्वामृपिसत्तम |
समीप प्रस्थित ब्रातुमेत्रेणेक्षत्र चश्ुपा ॥ ७ ॥
है ऋषिश्रेष्ट |अद में आपसे विदा हे! फर, भाई के पास
ज्ञाना चाहता हूँ। आप प्रुक्केकृपाहष्टि सेदेखिये ॥ ७ ॥
आश्रम तस्य धर्मज्ञ धार्मिकस्य महात्मनः ।
आचह्व कतपे मार्ग: कियानिति च शंस मे ॥ ८ ॥
हैधर्मज !यह वतलाइये कि, उन महात्मा धामिक भरीरामचद्
जी का आश्रम यहाँ सेकितनी दूर है शोर वहाँ जाने के लिये
क्वौनसा मार्ग है। ८ ॥ ३
इति पृष्ठस्तु भरत भ्रादृदशनलालसम् ।
प्रत्युवाच महातेजा भरद्वाजो महातपाः ॥ ९॥
१ बलछवत्तपिंतः--अतीवतपितः। ( गो० )
द्विववतितम। सगे ६०१
भरत जो का ऐसा वचन छुन, धोरामचद्ध जो के दर्शन को
लाबसा रखने बाते भरत से मदातेज्ञली एवं परम तपलो भरदाज
जो बात्ते | $ ॥
भरताधदृतीयेषु येजनेप्वजने बने।
चित्रकूटो गिरिरतत्र रम्थनिदंरकानन। ॥ १० ॥
हैभरत | यहाँ से अढ़ाई योजन के भ्रन्तर पर हटेफूरे पत्थरों
वाले निर्जन बन मेंचित्रकूट नामक एक रम्रणोय पहाड़ है ॥ १० ॥
उत्तर पाश्वमासाथ तस्य मन्दाकिनी नदी !
पुष्पितदुमसंछन्ना रम्पपुष्पितकानना ॥ ११ ॥
इस पर्वत की उत्तर तरफ मन्दाडिनी नदी घहतो है। इस नदी
के उभय तटों पर पुष्पित चृत्त लगे हुए देंभोर चद नदी रमणोव
पुप्पित बन में दा कर बहती है॥ ११॥
अनन्तरं तत्सरितर्चित्रकूटश्च पर्वत! |
तये। पर्णकुटी ताव तत्र वो बसते भुवम ॥ १२॥
हैतात ! उसोसे मिल्ला हुआ चिन्रकू5 पर्वत है |उसी पर्वत पर
पक पर्णकुटों में तुम्र दोनों भाइयों के निश्चय दो घास फरते हुए
पाग्रोंगे ॥ १९॥
दक्षिणेनेव मार्गेण सव्यदक्षिणमेव वा ।
गजवाभिरयाकीण वाहिनी वाहिनीपते ॥ १३ ॥
वाहयस्र महाभाग तते। दरक्ष्यसि राघवस । «»
प्रयाणमिति तच्छुलाराजराजस्य येपितः ॥ १४॥
६०३. श्याध्याकायडे
शो हक ५६
त्रनवदितनः सर्गः
«>_>>40३६---
यही चित्नक्ृद पव॑त के रमणीय शिखर हैं, जे। मेरे पर्वत सद्दश
ऊँचे द्वाथियों द्वारा मर्दित हो रहे हैं। ( ग्र्थाव् साथ के हाथी उस
रमणीयता के नष्ट कर रहेहैं) ॥ ६ ॥
च
मुश्वन्ति कुसुमान्येते नंगा; पवतसानुषु |
नीला इवातपापाये' तोय॑ तेयथरा घना) ॥ १० ॥
यह देखिये, जिस प्रकार वर्षाकाल में सजल श्यामत् ,मेघ-
मण्डल जल वरसाता है, वेसे ही चित्रकूट ऊ#े बुत्त, द्वाथियों की
सूंडों के श्राधात से हिल कर, पव॑त के शिखरों पर फूलों को वर्षा
कर रहे हैं॥ १० ॥ हे
*किन्ननाचरितं देशं#पश्य शत्रुत्त पवेतस् ।
मुगै!समन्तादाकीण मकरेरिव सागरस ॥ ११॥
मकरररिव
स्पन ्द ना ंस ्त ुर गा पे ता न् यू तम ुख ्य ेर धि ष् ठि ता न् ।
एतान्सम्पत तः ' शात ्रं पह ॒य झन् रुन ्न का नन े॥ १६ ॥
है शत्रप्त ! देखा, ये थोड़े सा यय ी सह ित रथ ों क े लि ये हु ए
इस बन मे ं कै सी ते जी से दो ड़ े चल े जा रह े दें ॥ १६ ॥
एत ाख ित ्र ास ित ान ्प श् य वर ्ह िण : प् रि यद शन ान ् |
एतमाविशतः शीघ्रमधिवास पतत्रिण: ॥ १७ ॥|
यह देखा, छुन्द्र और बड ़े पर वा ले मे ।र डर के मा रे दो ड़ क र
इस पर्वत पर अपने निज स्थानों में कैसे जा रहे हैं ॥ १७ ||
अतिमात्रमयं देशा मनाह्ः प्रतिभाति मा |
७ ०
तापसानां निवासेजय॑ व्यक्त स्वगंष्था) यथा ॥१४॥
है रे &
चतुनंवतितमः सगेः
“३0६००
दीष॑कालेपितस्तरिमिनिरों गिरिवनप्रियः |
वेदेशा! भियमाकाइश्षन्खं च चित्त विलोभयन् ॥१॥
अथ दाशरथिशित्रं चित्रकूटमद्शयत् ।
भायाममरसद्भाग! ग्चीमिव पुरूदर। ॥ २॥
उधर भ्रीरामचन्द्र जीको उस पर्वत पर रहते वहुत दिन दी
चुके ये। पे सीता का तथा श्रपना मन वहलाने के लिये, सीता के
चित्रकूट की शोभा दिखला रहे थे |उस सप्रय उन दोनों की वैसी
ही शोभा दे रही थी, जेसी इन्ध भर इच्धाणों की देती है॥ १॥ १॥ .,
न राज्यादभंशन भद्देन सुहृद्गिर्विनाभव! ।
मरने मेंवाधते दृष्ठा समणीयप्रिमं गिरिम | रे ॥
प्रीरामचद्ध जी वेल--हे भद्दे |इस रमशीय पव॑त की शेभा
देखने से, राज्यनाश एवं खुदृदवियोग भन्य दुःख पुझ्के श्रव नहीं
सताता ॥ ३॥
परश्येममचलं भद्ठे नानाद्िजगणायुतम् ।
शिखरे सम्रिवेदिद्धेयांतुमद्विर्तिभूषितम ॥ ४ ॥
8१६ झयेाष्याकायदे
हेभद्दे !नाना प्रकार के पत्तियों से परिपृर्ण, और गगनस्पर्शी
प॒प॑ तरह तरह झ्ली धातुग्रों सेयुक शिखरों ते विभूषित इल परव॑त
की शोभा के देखो ॥ ४ ॥ ह
केचिद्रजतसह्ागा! 'केचित्कतजसब्तिभा: ।
पीतमाझिए्॒वर्णाथ केचिस्मणिवरप्रभा! ॥ ५ ॥ ह
इस पर्वत के कोई केई शएड़ ते चाँदी जैसे सफेद औ्रौर चम-
कीक्षे हैं
और कोई कोई रक्त की तरह लाल वर्ण हैं, कोई कोई
पीले और मजीठ के रंग जैसे देख पड़ते हैं और कोई उत्तम मणियों ,
की प्रभा जैसे प्रभायुक्त देख पढ़ते हैं॥ ५ ॥
पुष्पाक *केतकाभाथ' केचिज्ज्येतीरसप्रभाः |
विराजस्तेश्चलेन्द्रस्य देशा घातुविभूषिता। ॥ ६ ॥
इस पव॑त के धातुओं से विभूषित श्ृड्ठ पुथराग, स्फठिक,
कैतको और पारे के समान रंगवांले और नक्षत्रों क्रो तरह चमकीले
देख पड़ते हैं॥ ६ ॥ गण
नानामगगण*द्वीपितरक्ष्ट*क्षणणैतः।
€अदुष्टेभांत्ययं गैले। वहुपक्षिसमायुतः ॥ ७ ॥
यद्यपि यह पव॑त अनेक प्रकार के दैटे बड़े व्यात्रों और रोदें
से परिपूर्ण है,तथापि तपत्थियों के तपञ्ममाव से इन भयडुर
जन्तुझों ने घ्पना दुए दिसालु-ध्वभाव त्याग दिया है।इस पर्वत
पर तरह तरह के पत्ती अपने अपने घोंसतले वना कर निवास कर
रदेहैं ॥७ ॥
१ क्तब--रुघिर | ( यो० ) २ अक४+--हफरिकः । ( गो० ) ६ केत- ॥
कामा+--ईंपत्माण्डुरा: | (गे०) ४ द्वीपी--मद्ाब्याधः । (गो०) ५ तहक्षु।---
छुड़व्याप्र:। ६ मदुप्छ:--हिंलादिदेपरदितेः | ( गो० )' 5
चतुनंचतितमः सर: 8१७
जलप्रपापैरद्वेदैर्निष्यन्देध कचित्कचित् |
खबद्विभभा त्य यं शै लः सब न् मद इच ठि प| ॥ १३ ॥
स्थान स्थ ान प८ जल के झर ने ओर जम ीन से नि कल े हुए
जल के सेते वह रहे हैं। इनते यह पर्वत मद् चुप्ाने वाले गजेन्र
की तरह शोभायमान दी रहा है ॥ १३॥
गुहासमीरणे गन्धान्नानाएप्पमवास्वहन् ।
प्राणतपंणमश्येत्य क॑ नर न प्रहर्षयेत् ॥ १४ ॥
पर्वत की कररराध्रों सेनिकला हुआ नाना पुष्षों की खुगन्धि
से पुक्त पतन जे नासिक्चा के तृप्त कर रहा है,वह किस के मन के
हर्षित नहीं करेगा ॥ १४ ॥
यदीह शरदे'ब्नेकारतया साधमनिन्दिते ।
लक्ष्मणेन च॒ वृत्स्यामि न मां शोकः प्रधक्ष्यति ॥१५॥
दे भ्रनिन्दिते |यदि तुझार और लक्ष्मण के साथ बहुत वर्षों
तक भी पुझ्के यहां रहना पड़े ते भी हुक्े ज़्स सा सी शोक सन्ताप |
नहीं सतावेगा ॥ १४ ॥
वहुपुष्पफले रम्ये नानादिजगणायुते |
विचित्रशिखरे हस्मिन्रतवानस्मि भामिनि || १६ ॥
हैभद्दे |अनेक प्रकार के पुष्पों ग्रेर फलों सेसम्पन्न, प्रनेक
जञाति के पत्तियों से परिपूर्ण और विचित्र शिखरों से युक्त यह रम-
णीय चित्रकूट मुक्के वड़ा पसब्द है (अर्थात् चित्रकूट में रहने से
कभी मेरा ज्ञी नहीं ऊबैगा )॥ १६ ॥
अनेन वनवासेन मया प्राप्त फलद्वयम ।
पितुआनणता धर्ये भरतरय गिय॑ तथा ॥ १७॥
चतुर्नवतितमः सर्गः 8१६
इस वनवास से पुझ्े दो! फल प्रिक्ते। एक ते था सम्बन्धी
फणन पित्ता के ऋण से उऋण देना और दूसरा फल भरत जो के
प्रसक्ष करना || १७॥
वेदेहि रमसे कचिसित्रकूटे मया सह |
परयन्ती विविधान्भावान्मनावाकायसंयतान ॥ १८ ॥
हेबेदेदी |मेरे साथ इस चित्रकूट पर्वत पर मन, वचन प्रौर
देद का वश मेंकर क्षेने वाले इन विविध साधनों को देख, तेरा
मन प्रसन्न देता हैकि, नहीं ? ॥ १५ ॥
इदमेवापत पराहू राज्षि राजपयः परे |
* वनवास भवायाय प्रेत्य मेप्रपितामह। ॥ १९ ॥
देराक्षि |इस प्रशार नियमपुर्तक वनवाष्त राजाओं के लिये
प्रेत्ञ का साधन कहा जाता है। यही नहीं वर्कि दमारे मन्वादि
पूरवषुरुषों ने देवादि की देह प्राप्ति $ लिये भी, वनवास हो के
उत्कृष्ट साधन माना है॥ १६ ॥
शिल्षा! शैलरय शेभन्ते विशाला! शतशेो5मितः |
बहुला वहुलेवणेनीलपीतंसितारुणैः ||२० ॥|
देखो, इल पर्वत की मैकड़ों विशात्न शिज्नाएँ जे! नीली, पीली,
सफेद आदि विविध रंगों की हैं; चारों श्रोर कैसी शोभा देरही
हैं॥२०॥
निशि भान्यच््ेद्वस्य हुताशनशिखा इव ।
ओपध्यः खप्रभालए्ष्या श्राजमाना। सहस्तश। ॥ २१ ॥
, .! अहतवाहुः--मेक्षपाघन् शराहुः। (रा०) २ प्रेत्मभवार्थाय--देवादि-
देह्ठान्तरपरिमदर्पप्रयेजनाय च भराहु: । (गो ) *
8२० शयेध्याकायदे
कि
क्चिन्मणिनिकाशेदां कचित्युलिनशालिनीम |
कचित्सिदजनाकीणा' पश्य मन्दाकिनीं नदीम ॥ ९ ॥
हैभद्दे ! देखो, कहीं ते मंदाकिनी का जल मणि की तरह
उकतवल है,कहीं कद्दों रेत शोमा दे रहा है, और कहां कहीं सिद्ध
लेगों की भीड़ लगी है॥ ६ ॥|
निधूतान्वायुना पर्य विततान्पुप्पसअ्चयान् ।
पाप्लूयमानानपरान्पर॒य त्व॑ जलमध्यगान् || १० ॥
देभद्ठे ! दायु के कोकों में नदी के तठ पए दिखरे हुए पुर्थों
, के देर का देखों गौर जे! दूसरे फल जल में उड़ कर जा गिरे
दे पानी पर कैसे उतरा रदे हैं, उन्हें भी तुम देखो॥ २० ॥
'तांश्चातिवरगवचसेा' रथाड्राहयना ठिजा।
अधिरोहन्ति कल्याणि विकूजन्तः शुभा मिरः ॥ ११ ॥
हे कप्मराणों |फूलों के ढेरों पर चढ़े हुए चक्रवाक रति के लिये
अपनी माशा्रों के बुज्ञाने केलियेकैसी मधुर वाली बाल रहे
हैं॥ ११॥
दशन चित्रकूटस्य मन्दाकिन्याइच शामने ।
अधिक॑ पुरवासाद्य मन््ये तव च दशनात् ॥ १२ ॥
हे शोभने ! इस चित्रकूठ प्रेत और मंदाकिनी नदी के देखने
से और तुर्दारे साथ रहने से मुझे अयाध्यापुरी मेंरहने से भी वढ़
कर, यहाँ छुख ज्ञान पड़ता है॥ १२॥ ५
ं । ( ग्ो० ) २ वह्युवचस३--रव्यर्थाह्वावकाकिक-
३ तान-पुष्पसबयान
. रसन्यवचध्: |! गा० )
पश्चनवतितमः सर्गः ९५४
विधूतकलुपः सिद्धेस्तपादमशमान्वितैः |
'नित्यविक्षोभितनल्ां विगादस्प गया सह ॥ १३१ ॥
: हे सीते | भ्रव तुम्र इस मन्दाकिनी नदी में, मिसमें शप्त, दम
शोर तप से युक्त एव' पापरहित सिद्धल्लेग नित्य स्वान किया
करते दें,चल्न कर प्रेरे साथ स्नान करो ॥ १३ ॥
सखीवच विगाइख सीते मन्दाफिनीं नदीर |
*कमलान्यवमज्जन्ती पुष्कराणि* च भामिनि ॥१७॥
देसीते ! तुम जैसे ध्रपनी सख्ियों के साथ निःशहु जलकीड़ा
करती थीं, बेसे हो मेरे साथ भी इस मंदाकिनी मेंज्ञाल सफेद कमल
के फु्कों के डुवाती हुईजलकोड़ा फरो | १४ ॥
[ नोद --छाछ सफेद कमछ ऊ फूछों सेभूषणटीकाकार ने यद्ष जमि-
प्राय बतझाया है--
सनमघनाधातजनित तरीरितिभावः
दिन्तु शिरामणिटोकातर का कयन दे कि, कोड़ा के किये छाक सफ़ेद
रंए $ कमछों से संदाफिनों के ज्क के ढ5 दी। ) *
५ व्याकानू--वतचरान् । ( श्ि० )
र
६२६ अयाध्याकायडे
घपण्णवतितमः सर्गेः
-४ #
तां तथा दरशशयित्वा तु मेयिली गिरिनिम्भगास् |
निपषसाद गिरिप्रस्थे* सीतां मांसिन च्छन्दयन/ ॥१॥
इस प्रकार धोरापचन्द्र जो सोता के मंदाकिती नदी फी शेभा
दिखा कर, पर्वत की पक्र शिला पर वैठ गधे शोर माँस का स्वाद ,
बतल्ा सीता के प्रमन्ष करने लगे ॥ १॥
) इतीव-+एताहश । ( शि० ) २ संगतं--धमीचीन । ( शि० ) ३
तग़नाक्षयप्रभं>>यीजवर्णविशिष्ट । (शि०) ४ णिरिप्र्ये--पर्वतेकक्षिणार्या ।
( ज्लि० ) ५ छदयतू--तथ्रीतिमृत्यादयनू । ( शि० ) ः
ध्श्८ श्रयाध्याकायडे
क्या काई राज्ञा या राज़ा के समान कोई पुरुष वचन में शिकार
छेलने भ्राया है ? अथवा काई मद्दाभयडुर और घातक जन्तु इस
बन मेंआ गया हे? है लक््मण | ज़रा इस वात का पता तो
लगाओ॥ ६ ॥
सुदुश्चरो गिरिश्चायं पक्षिणामपरि लक्ष्मण |
सर्वमेतद्यथातत्त्मचिराज्जञातुमईंसि ॥ १० ॥
मचिराज्जातुमई
पूर्चदिशा की और देखा ॥ ११ ॥
' तदडमुखः प्रेक्षणाणा ददश महती चमृमर |
रथाश्वगजसम्घाधां यत्तेयुक्तां! पदातिमिः ॥ १२॥
फिर उत्तर दिशा की और देखने पर उन्हें उस और एक बड़ी
सेना, जिसमें हाथो घोड़ों, रथों और सजे सज्ञाये पेद्ल घिपाडियों
कही भीड़ देख पड़ी ॥ १२॥
तामश्वगजसम्पूणा रथध्वजविभूषितास् ।
शशंस सेनां रामाय वचन चेदमब्रवीत् ॥ १३॥
द्ाथो घोड़ों से युक्त, स्य की पताकाओं से भूपित, डस सेवा
का तृत्तान्त निवेश्त करते हुए लक्ष्मण ज्ञो नेश्रीरामचद्ध जी से
कहा ॥ १३ ॥
अग्नि संगमयत्वाये: सीता च भजतां गुहाम् |
सज्य कुरुष्प चाप॑ च शरांइच कवच तथा ॥ १४ ॥
थ्राप भ्रश्नि दुक्ता दोजिये, सोता जी से ऋदिये कि वे गुफा के
भीतर जा बैठे ।ग्राप ऋषच पदिन लीजिये और घठुप तथा वाणों
के उन्हालिये ॥ २४ ॥
१ यत्ते:--सबदोः। ( गो० )
पयणवतितमः सर्गः ६३१
ते राम) पुरुषव्याप्रों लक्ष्मणं प्रत्युवाच ह।
अज्ञावेक्षख सामित्रे कस्पेमां मन््यसे चमूम् ॥ १५॥
यह छुन पुरुप्सिह श्रीराभ्चद्ध ज्ञी ने लक्मण जी से का
हैदत्स सोमित्न | ध्यज्ञ चिन्दी के देख यह तो निश्चय करो कि, यह
सेना हैफिसभी ॥ १४ ॥
एवमुक्तस्तु रामेण लक्ष्मण वाक्यमत्रवीत् |
दिधक्षन्रिव तां सेनां रुपितः पावको यथा ॥ १६ ॥
भीरामचन्द ज्ञी के ऐसे वचन सुन, लक्ष्मण जी क्रोध के मारे
प्रश्न के समान दो, उस सेना के मानों भस्म फर डालने के किये
यह बाक्षे ॥ ९६ ॥
सम्पन्न राज्यमिच्छ॑स्तु व्यक्त प्राप्याभिषेचनम |
आां हन्तुंसमभ्येति कैकेय्या भरतः सुत! ॥१७॥
साफ देख पड़ता हैकि, फैफेयो का पुत्र भरत, राज्यामिपेक पा
कर भो प्रकश्टक राज्य करने दी फामना से, दम दोनों का वध
करने # लिये आता हैं ॥ १७ ॥
एप वेसुमहास्श्रीमान्विटपी सम्मकाशते |
विराजत्युद्गतस्कन्धः केविदारध्वजो रये ॥ १८ ॥
देखिये, चद जे। वड़ा और शोमायमान वृत्त देख पड़ता है,
उसके पास जे। रथ दे,उस पर उजली शाखायुक्त फचनार बृत्त के
शाकार की ध्वज्ञा फदरा रही है ॥ १८॥
! भजन्त्येते ययाकाममश्वानास्ख शीघ्रगान् ।
एते अ्राजन्ति संहष्टा गजानारुश सादिन!* ॥ १९ ॥
३ प्क्
“य सजन्तति इस
ि--इस देश पराप्य
म देश ुदत्ती ।
म्राप्लुबल्ती (मो)२२साविन/--यजरिह्ा: | (गो),
।(यो?)
“६३२ अयेाष्याकायदे
छ तेज चलने वाले घोड़ों परचढ़े डुए सवार इधर ही श्र
इ हैं और द्वाथियों के सवार मो हाथियों पर हर्विन दे बैठे हुए
हैं॥ १६ ॥ ॥॒
ग्रहीतथनुषा चावां गिरि वीर अ्यावद ।
अथ वेहव तिष्ठावः सन्नद्धावद्यतायुधों ||२० ॥
श्रव हेवीर ! हम दोनीं घनुप बाण के इस पर्चत पर चढ़ चले
अथवा दोनों जन, कवच पहिन और हृथियार जे यहीं खड़े
॥२०॥
रहें
अपि नो वशमागच्छेत्केविदारण्वजा रणे |
अपि द्रक्ष्यामि भरत यत्कृते व्यसन महत् || २१ ॥
केाविदार ध्वत्रा वाले उन भरत का निश्चय दी दम लोग युद्
में अ्रपने वश में कर लेंगे जिसके कारण यह निर्षात पड़ी दे,आज
हम डसे समझ लेंगे ॥ २२ ॥
लया राधव सम्पराप्तं सीतया च मया तथा।
यत्रिमित्त भवान्राज्याच्च्युतो राघव शाश्वतात् ॥२५॥
हेरघुनन्दन ! जिसके किये ठुम्हें, छुके और सीता के इस
दुर्दशा मेंपड़ना पड़ा है और जिसके कारण तुम सनातन राज्य
से च्यूत किये गये दी ॥ २२ ॥
सम्पाप्तीष्यमरिवीर भरते वध्य एवं में ।
भरतस्य वधे दाष॑ न हि पश्यामि राघव ॥ २३॥
वही मरत शन्नमाव से आया है | श्रतः वह मार डालने योग्य
है। दे राघव | भरत के मार डालने में मुक्ते कुछ भी पाप नहीं
ज्ञान पड़ता ॥ ३ ॥ |
परुणवतितम्ः सर्गः ६३३
पूवरापकारिणां 'ल्यागे न हथमें विधीयते |
पूर्वापकारी भरतसर्त्यक्तथर्मश्न राघव ॥ २४ ॥
५
अध्य्धमिक्ष्वाकुचमूयेजन पर्वतरथ सा ।
पा्श्वें न्यविशदाहल्य गमवाजिरथाकुला ॥ ३० ॥
हाथी घोड़ों से पूर्णबद सेना पहाड़ के चारों ओर छः कोस के.
घेरे मेंठिक रही ॥ ३० ॥
सा चित्रकूटे! भरतेन सेना ५
धंम पुरस्कृत्य विधूय दस |
! विश्नकूढे--चित्रकूंट सभीपे | (गे।* )
ध्हर ग्रयाध्याकाय
प्रसादनाय रघुनन्दनस्य
विराजते नीतिमता प्रणीता! ॥ ३१॥
इठि सप्तनततितमः सगेः ॥
नी ति मा न् भ र त ने धर ्म म् रा र् ग स े
थ् री रा मच न् र ज ी क ो प् रस न् न कर ने
के लिये अ प न ा अह ड् भा र त् या गा औ र चि त् रक ूट पर ्व त के प ा ल से ना
। कर ठद्दरा दी ॥ ३१॥
अ्येज्याकाएड का सचानवैदों सम समाप्त हुआ |
व
अष्टनवतितमः सर्गः
_->॥६ 0 38--
मुभगश्चित्रकूये
धसोंगिरिराजेपमे गिरि! |
यस्मिन्वसति काकुत्त्थः कुबेर इब नन्दने | १२ ॥
दिमाज्षय पर्वत के समाना यह चिंत्रकुट पर्वत भी धन्य है।
फ्योंकि इस पर श्रोरामचन्ध ज्ञी उसी प्रकार वास करते हैं,जिस
प्रकार कुपेर चेधरथ वन में रहते हैं ॥ १२॥
कृतकार्यमिद दुर्गबन व्यालनिपेषितम ।
यदध्यार्ते महातेजा रागः श्धभुतांवरः ॥ १३ ॥
यद्द वन जे सर्पो से सेवित द्वाने केकारण दुर्गम है, छतार्थ
हुआ, जिसमें शस्र चलाने वालों में श्रेष्ठ धोरामचद्र रहते
हैं॥ १३॥
एवमुक्त्वा महातेजा भरतःपुरुषपमः ।
पद्भ्यामेव महावाहु! प्रविवेश महद्वनम ॥ १४ ॥
इस प्रकार कदते कहते, मद्मतेजस्वी पुरुषश्ेष्ठ भरत ने उस
बन मेंपेदत दी प्रवेश किया ॥ १४ ॥
से तानि ट्रमगाहानि जातानि गिरिसालुपु ।
पुणिताग्राणि मध्येन जगाम वदतांवर! ॥ १५॥
बालने वालों मेंध्रे्ठ मद्मत्मा भरत जो पंत के शिखरों पर
कगे हुए फूले फक्षे वृत्तों केसमूहों के वीच में ज्ञा पहुँचे ॥ १५ ॥
स गिरेश्रित्रकूटस्य सालमासाथ पुष्पितम ।
4 ध्ध् ए
रामाभ्मातंस्पामेदंदश ध्वजम्रुच्छितम् )। १६ ॥
ची० रा०--+६०
६४६ अयगाध्याकायद
रततुकृष्णाजिनधरं चीरवस्कलवाससम ।
ददश रामम्रासीनमभितः!! परावकापमम || ॥ २६ ॥
भरत जी ने श्रप्मि की तरद्द ( दुर्दर्श )श्रीरामचन्द्र को ऊपर से
काक्े दिस्न का चांम भोढ़े ओर कमर पर चौर वदकल पहिने हुए,
कुदी के पास ही बैठा देखा ॥ २६ ॥
सिहरकन्ध॑ महावाहु पुण्डरीकनिभेक्षणम् |
पृथिव्या सागरान्ताया भर्तारं धर्मचारिणम् ॥२७॥
उनको भुजञाएँ घुटनों तक लंबी, उनके कंधे सिंद्द के कंधों के
समान ऊँचे श्रोर नेत्र कमल के सम्रान थे । वे ससरागरा प्रथिवों के
स्वामी और धर्मचारी थे ॥ २७॥
उपविष्ट म्रहावाई ब्रह्मागमिव शाइवतम् |
स्थण्डिले दर्भसंरतीं सीतया लक्ष्ममेन च ॥ २८ ॥
उनको भरत ने सीता भौर लक्ष्मण के साथ एक चबूतरे
पर, कुश के श्रासन के ऊपर, शाश्वत ब्रह्म को तरह बैठा हुआा
देखा ॥ १८ ॥
त॑ हृष्टा भरतः श्रीमान्दु!खशेकपरिप्छुतः |
अभ्यधावत धमात्मा भरतः केकयीसुत) ॥ २९ ॥
श्रीरामचन्द्र जी के ( इस प्रकार ) बैठा हुआ देख, फैकेयीनन्दन
घर्माममा भरत, दुःख और मेद से चिकल हे, उनको शोर
दौड़े ॥ २६॥
३ अभित:--सप्तीपे | ( रा० )
६४४ अयेाषध्याकायडे
शततमः सर्गः
अकन््न्न्न है५) कनमना
वह बात पुद्धी 8 5 ॥
कु नु तड्यूत्पिता तात यदरण्य॑ त्वमागतः ।
लि ए
न हि ले जीवतस्तस्थ वनमागन्तुमंसि ॥ ४ ||
है ताठ ! तुर्दारे पिता काहै,जे। ठुम इस बन में आये है ?
( क्षोंकि )उनके ज्ोचित रहते तुम वन में नहीं था सकते थे ॥ ४ ॥
चिरस्य बत पश्यामि दूराद्ररतमागत्् ।
!दुष्पतीकमर ण्येइस्मिन्कि तात वनमागत) ॥ ५ ॥|
बड़े खेद की बात है कि, बुत दिनों बाद शोर बहुत दूर से
चल कर आन के कारण विनणोु सुन्चन एवं छूट भरत का में काठे-
सह से पाहचात पाया। तुम इस बन मे क्रस लय
शाये हो ? ॥ ४ ॥
कन्रिद्धारवते तात राजा यक्त्वम्रिद्यगतः |
कच्चिन्न दीनः सहसा राजा लाझ्वान्तरं गत; ॥ 4 ॥
१ दुष्पदीरं--वैदगर्यादिनादुजयादयवदं | ( मो» )
५
कब्चित्सइसास्मूर्साणामेकमिच्छसि पण्डितस् ।
पण्डितो 'हयकृच्छेषु कुयात्रिश्रेयर्स महत् ॥ २२॥
(९!
! युकयावा--अलुमा ने नद ा । ( गो ) २ अप रि कर ीत ित ा: -- अन ुक ्त ाः
इक्तादयः । (यो ० ) ३ अर थक ृच ्छ े इ- -क ार ्य पइ ठे छु । (यो ० ) ४ सइ त् - -
निःश्रेयर्स महदैश्वय । ( गो० )
६६४ श्रयेष्याकायडे
एकाउप्यमात्य ों मे धा वी 'श ्र ो दक ्ष ों वि चक ्ष ण; ) ।
राजान॑ राजपुत्र# वा प् रा पय ेन ्म हत ीं भ् रि यम ् ॥ २ ४ |
किन्तु यदि एक भी बु द् धि मा न, स् थि रत ुद ्ध ि, वि चा रक ुश ल औ र
नीतिशाब् में अ्रभ्यघ्त मं त् री है , तो रा जा के वा रा जक ुम ार के
बड़ी लह्मी प्राप् त कर ा दे ता है ॥ २४ ॥ ;
कचिन्मुझुया मंहत्स्वेव मध्यमेपु च मध्यमा। ।
जघन्या स् तु जध न् ये षु भु ल् या ः कर ्म सु ये जि ता । ॥२ ५॥
है ता त ! तु म, उत ्त म ज् ञा ति के नौ कर ों का उत ्त म का र् य मे ं,
मध्यम जाति के नो कर ों के मध ्य म का र् य मे ं औ र छो ठी जा ति के
नौकरों के छोदे कामों में लगाते दे न? ॥ २५ ॥
अमरात्यातुपधातीतानपै्पतािमहद ा ब्शुचीन् ।
श्रेष्ठाउ्श्रेष्ठेपु कचित्त्तं नियोजयसि कर्म ॥ २६॥
तुम उन मंत्रियों के, जे। ईमानदार हैं, जे कुलपरंपरा से मंत्री
देते भाते हैं,जे! शुद्ध हृदय भौर श्रेष्ठ खभाव के हैं,श्रेष्ठ कार्यो
में नियुक्त करते है। न ? ॥ २६ ॥
कचिन्नोग्रेण दण्डेन भुशमुद्देजितप्रजम् ।
राष्ट्र तवानुजानन्ति मन्त्रिण/ केकयीसुत ॥ २७॥
है कैकेयीनन्दन ! तुरहारे राज्य में उम्रदणट से उत्तेजित
प्रज्ञा कहीं तुम्हारा या तुम्दारे मंत्रियों काअपमान तो नहों
करती ॥ २७ [' |
१ शरः--ए्मिलुद्धि! । (गो० ) २ दक्षः--विचारप्तमथ: । ( ग्रो० )
३ विचक्षण+--अभ्यज्नीतिश्ास्र: । ४ फिपैतामद्ानू--कुलक्रमागतान् .।
६ गो० ) # पाठात्तरे--४ राजमात्र !। "५
शत्ततमः सर्ग ६६५
नितेन्द्रियेमहेत्साहैतामायें; सहस्तण! ॥ ४१ ॥
बे है
(३ पु
प्रासादेविविधाकारदतां'वैदयननाकुलाम ।
कब्ित्समुदितां) स्फीतामयेध्यां परिरक्षसि ॥ ४२॥
है तात | तुम उस ध्योध्या की तो भल्री भाँति रक्ता करते दो,
जे। हमारे पिता पितामहादि वीर पुरुषों की भेगी हुई, झपने नाम के
चरितार्थ करने वाली, दृढ़ द्वारों चाबी, द्वाथो थेड़े और रथों से
भरी हुई, वर्णानुसार धर्म कार्यो में सदा तत्पर रहने वाले आह्य्ों,
. ज्ञत्रियों और बैश्यों से युक्त, जितेद्धिय और मद्वाउत्साही हज़ारों झाय॑
जनों सेखुशोमित, विधिध आकार प्रदार के भवतों से पूर्ण,
विद्व्ननों से भरी हुई और जे। दिन दिन उन्नतावत्या को प्राप्त हो
रही है ॥ ४० ॥ ४१॥ ४२॥
कचिसतेत्यशतैजु४! श्सुनिविष्टननाकुल! ।
देवस्थाने प्रपाभिथ* तटकेशोपशेमितः! ॥ ४३ ॥
'प्रहुष्टनरनारीक! समाजोत्सवशेमितः |
सुकृष्टसीमा पशुमान्दिसाभिरभिवर्जित/६% | ४४ ॥
१ वैथ जनाकुछाँ--विद्वज्जना: तैरावृर्ता । (गो० । २ समुद्िता--सुसन्तु-
श्जना: । / ग्रो० ) ३ सुनिविष्ननाकृका--सुप्रतिष्ठितननन्याप्तः । ( गो )
४ प्रपामिः--पानोयशाह्ामि! । ( गो" ) ५ सुकृष्टतीमा--अक्ृष्टाईपत्क्ाच
मुमिनेतन्नाप्तीतु । (गो० ) ६ हिंधामिः ईतिमिः पड़मिः | ( गो० )
# पाठास्तरै--४ परिवनितः !! ।
६७० अयोाध्याकायडे
इयुत्तरशततमः सगे:
त॑ तु बजमिवेत्सष्टमाहने दानवारिणा ।
वागबञ' भेरतेनोक्तममनेज परन्तपः ॥ २ ॥
जैसे दैत्यों के शत्रु इन्द्र दौयों पर युद्धकाल में वन्च का प्रहार
करते हैं, वैसे दी भरत ज्ञी के वन्नरूपी वचन का प्रहार भ्रीसमचन्ध
पर हुआ ॥ २॥
प्रगह्न वाहू! रामे वेपुष्षिताग्रो यथा दुए। ।
वने परशुना कृत्तसतथा झरवि पपात है ॥ ३ ॥
“श्रोरामचन्ध जी ( पदुतावे से )दोनों द्ााथ मलते हुए, फरसे
से कार हुए पुष्पित चृत्त को तरह पृथिवी पर गिर पड़े ॥ ३ ॥
तथा निपतितं राम॑ जगत्यां जगतीपतिम ।
कूलघातपरिश्रान्तं प्रसुप्मिव कुझरम ॥ ४॥
जगतपति श्रोरामचद्ध जी पृथिवी पर ऐसे मूछित पढ़े थे,
मानों केई मतवाला द्ााथी नदी का तट ढद्वाते ढहाते थक कर पड़ा
हुआ्रा से रहा है| ॥ ४ ॥
अरातरस्ते महेष्वासं स्वेतः शेककर्मितम् ।
रुदन््तः सह वैदेशा सिषिचु! सलिलेन वे॥ ५ ॥
तब भीरामचन्द्र ज्ञी के! मूद्ित दुधा देख सव भाई ज्ञाबकी जो
सहित शोक से विकल दी रोते रोते उन महाधतुष्धारी धोराम-
चन्द्र जी के ऊपर जले छ्िडक उनकी सूर्श भट्ट! करने का प्रयत्न
करने लगे ॥ ५ ॥
१ बाहुअग॒क्ष “पाणिनापाणिनीष्पीह्यवद्घृत्यवा | ( गौ० )
हगहै
॥। बट ग्रयाध्याकायदे
स॒ तु सं ज् ञा ं पु नल ब् ध् वा ने त् रा भ् या मा सम ुत ्ठ जन ् ।
डपाक्रमत# काकुत्त्यः कपणं वहु भापितुस ॥ ३॥
ज्ञर श् री रा मच च् ध जी सच ेत हु ए, तच वे रो ते रो ते बह ुत वि ल् ला प
करने लगे ॥ ६
स रामः खत श्रत्रा पितरं पृथिवीपतिम |
उबाच भरतं वाक्य धमात्मा धमेसंहितस | ७ ॥
घम्ात्मा भीरामचनद्र ज्ञी यह छुन कर कि, पिता जी स्वर्ग
घिधारे हैं,भरत जी धर्मसड्भरत यह चचन वाले ॥७ ॥
कि करिष्याम्ययेध्यायां वादे दिल्लैं गति गते |
कर्ता रानवराद्धीनामयेध्यां पालय्रिष्यति ॥ ८ ॥
जब विता जी ही स्वर्ग चले गये, तब में प्रयाध्या ज्ञा कर ही
क्या करूँगा |उन राजश्रो्ट के बिना श्रयाध्या का शासन कॉन
करेगा | ८ |
क्िन्नु तस्य मया काये दुननतिन महात्मनः |
ये झते मम शेाकिन मया चापि न संस्कृतः ॥ ९ ॥|
मेरा जैसा निरथंक जन्म धारणा करने वाला पुत्र, उन महात्मा
पिता के लिये क्या कर सकता है। भरे नियागजन्य शोक से तो
उनका देदान्त हुआ और में उनका अन्तिम संस्कार सो न कर
पाया ॥ ६ ॥
अह्ढी भरत सिद्धायों येन राजा लयाउनघ |
शत्रुध्नेन च सर्वेषु प्रेतकृत्येषु सत्कृतः ॥ १० ॥
# पाठान्तरै--' उपाश्याप्नत * !
द्युत्तरशततमः सर्मः श्ष+
|
वानरान्वाध्पपूर्णाक्षान्समीए्ष्याथ सुदु/खितान् ।
पर्यध्वजत धर्म! पिदृवन्माठृवच्च स! ॥ ४७॥
उन ज्ञागों के रुदून करते और दुखी देख, धर्मज्ष भीराप जी
इठे श्रोर उनके छाती से लगां, उनसे ऐसे मिक्के, जैसे कोई माता
पिता से मित्रता है ॥७७॥
स तत्र कांश्चित्परिपसजे नरान्
. ' नरादच केचित्तु तमभ्यवादयन् ।
चकार सववान्सवयस्थवान्धवान्...
यथाहगरासाद तदा इृपात्मज; ॥ ४८ ॥
मिलने याग्य मनुष्यों से धीरामचन्र जी गले गले मिक्के ;
किसी किसी ने उनको प्रणाप्र क्रिया।उस समय, राजकुमार
# पाठान्तरे-- अरिल्दृमस् !! !
वा० रा०--६ै३
६६४ अयाध्याकायदे
पुरोहितस्यामिसमस्य मेतदा
बृहस्पतेरिन्द्र इवामराधिप) )
प्रशृ पादों सुसमुद्धतेमस!
सहैव तेमापविवेश राघव! ॥ २८ ॥
इन्द्र जिस प्रकार पझपने गुरु वृदरंपत के चरण ढूतेदें,'उसोी,
, प्रकार धीरामचन्द्र जोभो श्रप्मिसम तेजस्वी पुरोहित वशिष्ठ के
चरण स्पर्श कर, उनके साथ आसन पर बैठ गये | २८ ॥
तते' जपन्य सहिते! समन्त्रिभिः
पुरप्रधानेश सहेव सेनिके! ।
जनेन धर्मज्तमेन धर्मवान्
उपापविष्टो भरतर्तदाअजम् || २९ ॥
तद्नन्तर धर्मात्मा भरन ज्ञी अपने मंत्रियों, प्रजा के पुल्षियों
और सेनापतियों फे साथ धीरामचन्द्र केपास, उनके नोचे श्रासन
परबैठे॥ २६ ॥
उपेपवि्टस्तु तदा स वीयवां-
स्तपस्विवेषेण समीक्ष्य राघव्स् ।
श्रिया ज्वलन्तं भरत क्ृतानलि।
यथा महेन्द्र। पयतः प्रमापतिमू ॥ ३० ॥
पराक्रपी मरत तेजस्वी भ्रीरामचन्द्र जोके समीप बैठ कर,
मुनिवेषधारी ध्रीरामचन्द्र जीकीझोर वैसे ही द्ाथ जेड़ कर
१ ततोअवन्यं--वतिष्ठरामेपवैद्यादनन्तर । ( यो? )
१००२ अयोाध्याकाणडे
देखते ये, जैसे देवराज इन्द्र, प्रज्ञापति ब्रह्मा ज्ञी के पास हाथ जोड़
कर बैठते ओर उनकी ओर देखते हैं ॥ ३० ॥
किमेष वाक्य भरतेज्य राघव॑
प्रणम्य सत्कृत्य च साधु वक्ष्यति |
इतीव तस्यायजनस्य तत्तत्तों
वभूव कांतृदलमुत्तम॑ तदा ॥ ३१ |॥
उस सम्रय वहाँ जितने विशिश्जव उपस्थित थ, थे भ्रपने अपने
मन में यही साच रहे थे और उनके यह जानने के लिये वड़ा कौतुक
हे रहा था कि, देखें भरत जी हाथ जोड़े हुए आद्रपुर्वेक धीराम-
चद्ध ज्ञी से क्या कहते हैं ॥ ३१॥
से राघवः सत्यवृतिश् रक्ष्मणा
पहानुभावे भरतश्व धार्मिक: |
ब्रृताः सुहृद्धिश्व विरेजुरध्वरे
यथा सदस्य सहितान्ञयेञ्ययः ॥३२॥
इति च्युत्तरणततमः से; ॥
उस समय सत्यवादी और घृतिवान श्रोगामच्तछ महातुभाव
लक्ष्मण जी और घमात्मा भरत जी नव छुद्ददों के साथ शेमित
हो रहे थे, मानों यज्ञ में समासदों के साथ तीनों अ्म्ति सुशोमित
हों ॥ ३२॥ ह
थ्याध्याकायड का एक्र सो तीसरा सर्म समाप्त हुआ ।
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चतुरुत्तराततमः सगे
अ्मक हुहु)हैसनम
यदब्रवीन्मां नरलेकसत्कृतः
पिता महात्मा वुबुधाधिपापम! ।
तदेव मन्ये परमात्मना हित
न स्वलेकेश्वरभावमप्यहम् ॥ २७॥
इति चतुरुत्तरशततमभः सगः ॥
सब लोगों से पुज्नित महाराज पिता जी ने जे। घुझसे कहा है,
उसीकीा में प्पने लिये परम हितकारी समझता हूँ। पिता की
श्राज्ञा या इच्दा के विरुद्ध सर्वलेकेश्वर का पद् भो मैंधपने लिये
हितकारी नहीं समक्कता ॥ २७ ॥
अ्रयेष्याकाणड का एक सो चौथा सर्ग सम्राप्त हुआ ।
-+-
पप्नोत्तरशततमः सर्गः
हा >-->-१० >>
पदुत्तरशततमः सगे:
सुहृदस्तप्यन्कामेरलमेवात्रानुशाधि मास |
अब्ार्य ्रुदिताः सन्तु सुहृदस्ते॑भिषेचने ॥ २९ ॥
जिस प्रकार अपने शत्रुओं के ज्ञीत, इन्द्र ने मरुदगणों के
सहित छा मेंपवेश किया था, उसो प्रकार आप भी हम ज्लाशों
के साथ श्रयेष्या में प्रवेश कर ।देवऋण ऋषिऋण शऔर पितृ-
ऋण--इन तीनों ऋणों से उऋण हे।, शत्रुओं के भस्म कर छुहदों
की मनेकामना पूर्णकरते हुए, मुझ्के श्रपता सेवक बना, झाक्षा
दिया कोजिये । हेआर्य |झ्राज आपके श्रिषेक से छुद्दद लग
हित हों ॥ २८ ॥ २६ ॥
अथ भीताः पलायन्तां दुहंदरते दिशे दश |
“आक्रोश भर मातुअ प्रमृज्य पुरुष्षभ ॥ ३० ||
और दुष्ट लाग भयभोत दो दसों विशाओं में भाग जायेँ। है
अप्पभ्ष्ठ |आपका वनवास दिलाने का जे। कल्नहु मेरी पाता के
लगा हैउबकेा आप थे! दोजिये | ३० ॥
गये तयभवन्तं च पितर रक्ष किस्विषात् |
शिरसा लाउभियाचे#ं बुरुष्व करुणां मयि |
वान्धदेदु च स्वेषु भूतेष्विव महेश्वर! ॥ ३१ ॥
! दुढेंद:--शजून् । (यो० ) २ आक्रोश--विन्दी । ( पा )
बढ
साथ विवाद पृत्र को कामना दीसे किया था। अतः उनका ऐसी प्रतिशा
करना ठीक ही था |
यदि यहाँ यह कोई कह कि; नत्र महाराज ऋओेफक्रैयी के गर्भ से इन
सन्तांव दी के राज्य देने के लिये मतिशावद्ध हा चुके ये तब श्रोरामचत् का
युवराजपद देने छी तैयारियाँ उन्होंने क्यों को, तो इसका समाधान छतिकारों
के इत्त बचन से दाता हैं--
# रह्ठाइकाके रतिसंत्रयोगे प्राणातये सर्यधनापदारें ।
विप्रत्य चार्येप्यद्तंबदेयुः पश्चानृत्तन्याहुएपातकानि ॥ ?'
इसके अतिरिक्त मद्रारान अपने कुछ की परम्परागत प्रथा के अनुधार
ज्येंठ्ठ राप्रकुमार के राइसिंदासत देने के छिये मी वाब्प थे। यदि वे इस
प्रथा के चिरुढ्ध कार्य करते, ते प्रजा उनके इस अदुचित काय का घार विरोध
करती और उनकी निन््दा करती जैवा कि प्रजा ने श्रीराम के वनवास के समय
क्रिया नी था। ]
देवासुरे च संग्रामे जनस्ये तब पार्थिवः ।
सम्पहुशे ददों राजा वर॒माराधितः प्रथ्ु) || ४ ॥
इसके अतिरिक्त देवाखुर संग्राम में भी तुम्हारो ( माता के
उपकार से रन्तुष्ट है, पिता जी ने उन्हें दो वरदान देने कहे
थे॥४॥
ततः सा सम्पतिश्रान्य तव माता यशखिनी ।
अयाचत नरश्रष्ठे दावरों वरवणिनी ॥ ५॥ -
अतः है नरश्रेष्ठ !यशन्विनी एवं छुन्दर वचन वालने वाली
बुस्दारो माता ने, पिता जो के वचनवद्ध कर उनसे दोनों धर
माँग ॥ ५ ||
तव राज्य नरव्याप्र मम्र परवराजनं तथा । ह
ते च राजा तदा तस्ये नियुक्तः प्रददो बरो ॥ ६ ॥
] करे कर
सप्तोत्तररततमः सर्गः १०३३
हेपुदषश्िह !एक बर से तुर्दारे लिये राज्य और दूसरे से
मेरेलिये वनवास । मद्वाराज ने भी माँगने पर इस क्षेत्रों वरों के
दे अपनी प्रतिज्ञा पूरी की ॥ $ ॥
पेन पिदरापहमप्यत्र नियुक्त: पुरुषपंभ ।
चतुदंश बने वास वर्षाणि वरदानिकम ॥ ७॥
हैनरवर ! उसी वरदान के कारण पिता को प्राज्षा से मैंने
चैदद चर्ष वन मेंवास करना स्वोकार किया ॥ ७ ॥
से वनमिद प्राप्तो निर्मन॑ लक्ष्मणान्वितः |
सीतया 'चाप्रतिदवन्द्र! सत्यवादे स्थित) पिंतु; ॥ ८ ॥
और पिता जी के वचन के सत्य करने के लिये सीता और
लक्ष्मण के साथ के ग्रौर सर्दी गर्मी दुःख छुख की छुछ भी
परवाह न कर मेंइस निर्जन वन मेंचला थाया हूँ॥ ५ ॥
भवानपि तथेत्येव पितरं सलवादिनम |
फतुमहति राजेद्ठ प्षिप्रयेवाभिपेचनात् ॥ ९ ॥
हेराजेद् | तुम भी अपना शीघ्र राज्याभिषेकत करवा कर मेरी
' तरद पिता जी के सत्यवादी बनाओ ॥ 8 ॥
ऋणान्मोचय राजान॑ मत्कृते भरत प्रशमप् |
पितर॑ चापि धर्मज्ञ मातरं चामिनन्दय | १० ॥
हैभरत | मेरी प्रसन्नता के लिये तुम महाराज को इस ऋण
से उम्मूण करे श्रोर उनको रक्ता करो। माता कैक्नेयी को भी,
स्वयं राज्यासन पर बैठ फर, प्रसन्न करो ॥ १० ॥
१ अप्रतिदन्द: -शीतोंप्णादिवाधारहितोईह । ( शि० )
१०३७ श्रयाष्याकायडे
थे औ ३८
आइ्वासयन्तं भरतं जावालिब्राह्मणेत्तम! |
उवाय राम पमृज्न धमरपितमिदं! बच; ॥ १ ॥
& (१५ धमपितमिदंहु
तरह समझना च ा ह ि य े । क् यो ंक ि वि चा रप ूर ्व क द े ख ा ज् ञा य त ा सं च-
मुच कोई भो किसी का नहीं है ॥ ४ ॥
यथा ग् रा मा न् तर ं गच ्छ न् नर ः कथ ित ्क चि हस ेत ् ।
उत्छ ज् य च तम ाव ास ॑ मत िष ्ठ ेत ाप रे डन ि ॥ ५ ॥
मिस प्रकार कोई मदुष्य अपने गाँव से दुसरे गाँव का ज्ञाता
हुआ, कहीं मार्ग में ठहर ज्ञाता हैऔर अगले दिन उस स्थान को
छोड़ चन्न देता है॥ ५ ॥
एवम्रेव मजुष्याणां पिता माता ग्रह बसु ।
आवासमात्र काकुत्स्थ सज्जन्ते नात्र सज्जना। ॥ ६ ॥
इसी प्रकार पिता माता, घर और घनादि सम्पत्ति के साथ
भी महुष्य का थोड़ी देर का टिकाऊ सम्बन्ध है। अतपुव सल्न
कि से का ब्ते
शब
लाग इनमें आसक्त नहीं होते ॥ ६ ॥
पिश्यं राज्यं परित्यज्य स नाईसि नरेत्तम ।
अस्थातुं कापथं दुःख विपम॑ वहुकण्टकस् ॥ ७ ||
अतपव दे नरोत्तम ! श्राप पिता,के राज्य को छोड़, इस कुमार्ग
पर, जे दुःख देने वाला, युवावस्था के अयेाग्य ओर बहुकशंट्कों
से परिपूर्ण है, आरुढ़ देने ये/्य नहीं हैं॥ ७ ॥
समुद्धायामयाध्यायामात्मानमभिषेचय | .
र२एकवेणीपरा हि त्वां नगरी* सम्परतीक्षते || ८ ॥
३ विपमं--धौवनानुलितं । ( यो० ) २ एकत्रेणीधरा--वतपरायगेलव:
( गो ) ३ नगरी--तदधिदेवता । ( गो० )
प्रशेत्तरशततमः सर्गः १०३६
+ भाप ते! चल कर श्रव धन धान्ययुक ग्रयेष्या मेंअपना
अभिषेक फरवाइये |क्योंकि श्रयेध्या की श्रधिव्षात्री देवी पति-
वेतघारण कर आपके भ्रागपन की वाद जेह रही है ॥ ८ ॥
राजभागाननुभवन्महाहान्पार्थिवात्मन ।
बिहर लमयोध्यायां यया शन्रद्चिविष्ठप ॥ ९॥
हैराजकुपर ! आप बढ़िया वढ़िया राजाओं के भेगने योग्य
भागों का उपभाग करे और अयोध्या में उ्ती प्रकार विहार करें
जिस प्रकार इच्ध श्रमरावती मेंविद्ार करते हैं ॥ ६ ॥
न ते कथ्िहशरथरत्वं च तस्य न कश्चन |
अन्यों राजा लगन्य! स तस्मात्कुरु यदुच्यते ॥१०॥
न ते अव दृशरथ भ्रापके कोई हैंऔर न श्राप दशरथ के कोई
पैं। राजा कोई और हैऔर आप कई शोर हैं। इसलिये मेंजे!
कहता हूँउसे आप कीजिये ॥ १० ॥
वीजमात्रं पिता जन््तों। शुद्ध रुपिरमेव च !
संयुक्तमृतुमन्मात्रा पुरुपस्येह जन्म तत् ॥ ११॥
प्राणी के जर्म में पिता तो बोय का पक कारण मात्रह्ढै।
फ्योंकि ऋतुमती माता के गर्म मेंएकन्न ही मिल्ला हुआ वीय॑ और
रज्ञ ही जीव के जन्म का देतुहै॥ ११॥
गत! से हृपतिस्तत्र गन्तव्यं यत्र तेन वे|
'प्रहत्तिरेपा मत्यानां* त्व॑ तुर मिथ्या विहन्यसे ॥११॥
०8 प्रवत्ति;-..स्वभाव इब्वे:। ( गो* ) २ मर्लानां-मरणक्ीकछानां !
( गो ) हेव्व॑ तु मिथ्याविदयपे--मिध्यामूतेन संवन्धेव पीड्यसे । (यो)
१०४० श्रयाध्याकायडे
५ + 4ति
चानुपरयन् 4७, ऐ।
22:7० ७७७
शीघगरय मर: पुत्रों मरोः पुत्र: प्रशुभुक! ।
प्रशभुकस्य पुत्रोध्यृदखरीषे! महाबूति! ॥ ३१ ॥
शीघ्रग के पुत्र मर और मर के पुत्र प्रझुश्रुक्व हुए । प्रशुभ्रक के
पुत्र महादुतिमान अम्बरोष हुए ॥ ११ ॥ कि
: अम्बरीपर्य पुत्रो3भून्नहुप! सत्यविक्रम! ।
नहुपस्य च नाभागः पुत्रः परमथार्मिक! ॥ ३२ ॥
अख्वरीष के पुत्र सत्यपराक्रमों नहुष हुए । नहुष क्षे पुत्र
नासाग जी बड़ेधर्मात्मा थे॥३२ ॥
अजश्च सुत्रतश्तैव नाभागरय छुतावुभौ !
अजरय चैव धर्मात्मा राजा दशरथ सुत। ॥ ३३ ॥
नाभाग के प्रञ्ञ भ्रौर सुत्रत वाप्त हे दो पुत्र हुए ! इतमें से ग्रजञ
के पुत्र धर्माम्ा मद्ाराज दशरथ हुए ॥ २३ ॥
[ये। जित्वा वसुधां इत्स्तां दिवं शासति स प्रशु। । ]
तस्य ज्येह्ोडसि दायादा! राम इत्यमिविभुतः ॥३४॥
जिन मद्दाराज दृशरथ ने सम्पूर्ण पुथिवी जीत कर, स्वयं तक
का शासव किया--उन्हीं मदाराज दृशरथ के विश्वचिख्यात ज्येध्ष
पुत्र तुम हा । (अतपध हेराजन | तुम अपने पिता का राज्य ग्रहण
कर संसार का पालन-करयों )॥ रे8 थी .
२ दावाद;--सुतः । ( गो० )
१०दव२ भ्रयेाष्याकायडे
एकादशोत्तरशततमः सगेः
“77१ तै-
३.- त्व
.त् त्स
वत् सस्
म्ब वन्
न्ध धिन
ित! : ।
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( गो
यो ० ०
)) ९
4 पर िप दु ः- -आ हण सम ुह ्ा र।
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(ग ो०
ो० ) )।
३ श्रेणय/--पैरजवाः । (गो० ) ४ द्विजा।--क्षत्रिया वेश्याइच ! ( गो? )
१०६४ अयाध्याकायडे ,
ज्ञतयश्र हि य े व ा थ म ि त ् र ा ण ि स ु द ृ द भ न ा
सामेव प्रतिकाइशक्ष न् ते प र न ् य म ि व क प े क ा । ॥ १ १ ॥
ज्ञाति विरादरोी वाले, सैनिक, इंष्ट प्रिथ्र-सव के सब,
बस्साने वाले मेघ रो आशा करने वाले उत्दुद्ध किसान की तरह,
एकमात्र श्राप हो के रा ज् यश ास त की प्र तीक ्षा कर रह े है ं ॥ १२ ॥
इंद॑ राज्यं मद्ाप्रान्न स्थाएय 'प्रतिपध हि )
शक्तिमान सि का कु त् स् य छे कर ्य पर िप ्र ाल ने ॥ १३ ॥
अतपव दे वुद्धिमान् ! आप इस राज्य के ग्रहण कौजिये और
जिसका चाहिये उसे राज्मिंहासन पर विठा दोजिये। क्योंकि
रा्यशासन करने के, हेकार्य |आप ही समर्थ हैं॥ १३ ॥
इत्यक्त्वा न्यपतदश्नातु) पादवाभरतरतदा ।
भय सम्पाथयामास रामम्रेव प्रियंदद। ॥ १४ ॥
कह कर भरत ज्ञों अपने भाई ओरामचन्द्र केचरणों में
मिर पड़े भार हे राप | है राम (इस प्रकार सम्बोधित ऋर वार
बार पराथना करने कगे ) १४ ॥
तमडू भ्रातर कृत रामा वचनम्रत्नवीत |
श्याम नलिनपत्राक्षं मत्ततंससवरं खयम | १५॥
भरत के चरणों मेंपक्ष देख, श्रोराम्रचद जो ने मतवाले हंस
की तरद मनोहर कंणठ वाले, कम्रतदल समप्रान नेन्नवाज्े और
श्यामवर्ण भरत के उठा कर अपनों गेाद में ठिठाया और इनसे
बाले ] १४ ॥
? अ्ठियध्च--पछोक्ृय, ऋषस्मिरिच्वस्यापयदि | ( स० )
द्वादशेत्तरशततमः सर्गः १०७५
आगता ल्ामियं! बुद्धि! सजा! वैनयिकी च या।
भृगमुत्सहसे तात रक्षितुं पृथिवीमपि ॥ १६ ॥
. मेरे घनवास के विरुद और राव्यशासन स्वीकार
का राजलिदासन पर विठा देने की वात क्षा। तुमने क र क ि स ी
कही, वह
स्वाभाविक और गुर द्वारा शित्ता प्राप्त होने का फल स्वरुप
है।
अतः (इससे रुपए हैकि )तुम भवो भांति राज्यशासन कर सकत
े .
दो। ( भर्थात् तुम्दारो ऐसी सुन्दर बुद्धि का होना दी तुम्में
छुशासन को येखयता के देने का प्रमाण है )॥ १६ ॥
अमात्येश्रः सुहृद्गिथ बुद्धिमद्धिस्व मन्त्रिभि:४ |
सयेकायांणि सम्मख्य सुमहान्यपि कारय ॥ १७॥
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त्रयोवशोत्तरशततमः सगे:
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७००_>)
! निराकाहा--निर्गतशे/मनाकारा | ( गो" )
चतुदशोत्तशततमः सगे:
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पद्मुवशोत्तरशततमः सर्गः
-६ & ४--
तते निश्चिप्यः प्रात) स अयोध्यायां दृाखतः-।
भरता शीकसनन््ततपा गुरुनिदमयात्रवीद ९॥ े
इढ़ब्तधारी भरत जी ने माताओं के अयेष्या में पहुँचा दिया $
तद्नन्तर वे शाक्त से पीड़ित ही, वशिष्ठादि गुरुजनों से वाले ॥ १॥
नन्दिय्ाम॑ गमिष्यामि सवानामन्त्रयेज्य व!। ..#_..
तत्र॑ दु!खमिदं सब सहिष्ये राथवं बिना ॥ २ ॥
१ निक्षिप्प--संस्थाप्य । ( झ्ि० )
पश्चरशेत्त रणततमः सर्गः १०६३
हैमेंनिम्राम जाऊँगा, इसके लिये में आपको आज्ञा चाहता
हैं। वहां रद कर जैसे होगा बैसे भोरामचन्द्र जी के वियाग के
समस्त दुःख सहूँगा ॥ २॥
गत हि दिव॑ राजा वनस्थश्र गुरुमम |
राम प्रतीक्षे राज्याय स हि राजा महायज्ञा। ॥ ३॥
पेमहाराज ते लगे पधारे, और बड़े भाई वन में ज्ञा बैठे |प्रतः
मेंराज्यशासन के लिये थ्रोरामचन्ध जो को प्रतीज्ञा करूँगा। फ्योंकि
महायशप्वो श्रोरामचद्र ही अयोध्या के राजा! हैं ॥ ३ ॥
एतच्छुत्वा शुर्भ वाक््यं भरतस्य महात्मन! |
अव्रुवन्मन्त्रिणः सर्वे वरिष्ठ पुरोहित! ॥ ४ ॥
मद्गात्मा भरत जो के ऐसे शुभ वचन छुन, समस्त मंत्री और
पुरादित वशिप्ठ जो उनसे बेल ॥ 9 ॥
सुभुश इलापनीय॑ च यदुक्त॑ भरत लया।
वचन प्रादवात्सल्यादनुरूपं तवैव तत् ॥ ५॥
देभरत | तुमने श्राता के स्नेदवश जे। कुड कद्दा,वह अत्यन्त
गहाधनीय है । क्मों न हों, येवचन तुम्दारे ही तु से निकलने
ग्राग्य हैं॥ ५ ॥
निर्त्य॑ तेवस्धुलुब्धरय तिह्ठते। शरातुसैहदे ।
आर्यमार्ग मपनस्य नोठुमन्येव क! एुमान ॥ ६ ॥
जब तुम अपने भाई में प्रोतिवान है। और उनका सोहाई
“ सम्पादन फर प्रत्यच्द श्रेष्ठ मार्ग मेंपहुँचे हुए हो, तव भत्ता कोने
पुदष तुम्दारी वात न मानेगा ॥ ६ ॥
१०६४ ह अयेध्याकायडे
मन्त्रिणां बचन॑ श्रुत्रा यथाअभिलपितं प्रियम्र् |
, अन्नवीत्सारथि वाक्य रथे मे युज्यतामिति | ७ ॥
अपनी अभिलाषा के अचुसार मंत्रियों के मुल्न से प्रिय वचन
सुन भरत जी ने सुमंत्र सेकहा कि, मेरा रथ तैयार करे ॥ ७॥
प्रह्वदनः सर्वा मातृ! समभिवाद्य सः ।
आररोह रथं श्रीमा्यत्रुप्नेन समन्वितः ॥ ८ ॥
जब रथ था गया, तव भगत जी प्रसक्ष हि! कर सव माताओं
से अच्छी तरद चार्तााप कर और उनसे श्राक्षा ले, शत्रुघ्न जोसहित
रथ पर सवार हुए ॥ ५॥ ।
आर्य च रथ शीघ्र शत्रुप्रभरताबुभो |
ययतुः परमपरीतों हते मन्त्रिपुराहिते) ॥ ९ ॥
इस रथ पर शीत्र सवार हो, मंत्रियों ग्रार पुराद्दितों केसाथ
ले दोनों भाई भरत और शब्रुघ्न परम प्रसन्न दोते हुए वहाँ से
चले ॥ ६ ॥
अग्नतों गुरवस्तन्न वसिष्ठप्मुखा दिजा। ।
प्रययु; प्राउजुख॥३ सर्वे नन्दिय्रामो यताध्भवत् ॥१०॥
5
वशिध्वादि पृथ्य ब्राह्मण भरत के रथ के आगे पुर्वको मुख
कर सब के साथ लिये हुए म>्दिय्राम को शोर चक्मे ॥ १०॥
व्ल॑ च तदनाहूतं गजारवरथसझुछम् |
प्रययो भरते याते सर्चेच पुरवासिनः ॥ ११॥
भरत जी के वहाँ से रदाने होते ही इनकी सेना भी हाथो
घोड़ों रथों कसह
े ित बिना घुलाये ही उनके पीछे होली तथा सब'
पुरवासी भी उनके साथ दे लिये ॥ ११॥
पश्नदशेत्तररातत॥ सर्गः १०९४
राषव॑ हि 'सततमनुगता-
स्तापसाइचर्पिचरितधुतगरुणा; ॥ २६ ॥
इति षेडशात्तरशततमः सर्गः ॥
उस ऋषिहीन श्राश्रम के क्षण भर के लिये
श्रीरामचनद्र ज्ञी
भी सुना नहीं छोड़ते ये। उनमें से कुछ ऋषि ऐसे थे जे श्रीराम-
चन्द्र जीका तपल्लियों जेसा आचरण देख, उनके अपना मत
समर्पित कर चुके थे । अ्रतः वे ऋषि ध्रीरामचन्द्र जी के अपने मन
में सदा स्मरण किया करते थे ॥ २६ ॥ ु
[ छोक २५, २६ का वत्त भूषणकार ने चिन्यय वत्तछावा है |]
श्येध्याकाएड का पक सो सेलहतां सर्ग समाप्त हुआ ।
--+#६--
सप्तदशोत्तरशततमः सगेः
#.. **
| २ | ना
“०१६७
१ सर्वत्रयेश्यं--सर्वावस्थासुरसणसमर्थ । ( यो० )
रे सप्तदरशात्तरशवतम्ः सगेः १११३
हेवैदेही !काम्रासक, पतियों को स्वामिनों ढुश ल्लियां, भज्नाई
बुराई का विचार नहीं करती ॥ १४६ ॥
पाप्छुवन्ययग्थ्व पर्स च पधिलि ।
अकायबगमापन्ना! स्रिये। या। सल्ु तहिपा! ॥२७॥
देमेधित्री |ऐसी स्लियां निश्चय ही श्रनकरने क्षामों मेंफेस,
अपनी निन््द्ा करवातो और पमश्नण्ट भी दोतो हैं ॥ २७ ॥
लद्धिपास्तु गणेयक्ता दृष्लोकपरावराः |
स्लिय! सगे चरिष्यन्ति यथा प्मृक्ृतस्तथा ॥ २८ ॥
किन्तु तुम्दारी तरह जिन गुणवतों स्त्रियों ने संसार के
अच्छे बुरे कर्मा को ज्ञान लिया है, थे, पुणयकर्मा पुरुषों को तरह
स्वगप्राप्त करती हैं ॥ २८॥
तदेवमेनं त्वमनुत्र॒ता सती
प्रखिवतानां समयानुवर्तिनी |
भव स्वभते! सह पमंचारिणी
शत्र धर्म च ततः समाष्य्यसि ॥ २९ ॥
इति सत्तदशोत्तरशततमः सगे ॥
है सती ! इसी प्रकार तुम पति के कहने में चल और पति-
बताओं के आचरण करती हुईं,श्रपते पति की सहधर्मियी दो।
ऐसा करने से तुम्हें यणऔर पुणय दोनों मिल्लेंगे ॥ २६ ॥
अ्रयेध्याकायडट का एक्र से सभह्वाँ सर्ग पूरा हुआ |
नाई
भ्रष्टावशोत्तरशततमः सगे:
>+->३0६०७-
. इतना ही नह ीं -क िन ्त ु, मह ार ाज दृ शस ्थ ने जि न द् िप ों की
ओर एक वार भो प्राँज् उठा कर देख लिया श्र्याव भपनी स्री
पान कर देखा, उन स्त ्रि यों को भी मह ार ाज के प्य ारे वी रव र धर ्म श
भीरामचन्ध मातूबद सम्मान की दुष्ट से देखते हैं॥ ६.॥
आगच्छन्त ्य ाश ्न व ि ज न बन मे व॑ मय ाव हस ् ।
त
समाहि व े ख श ् र व ा च हृ दय े तद ्भ ुत मह ॒त ् ॥ ७ ॥ , ,
मेंज्ञव इस भयानक नि र् मम ब न क ा भा ने लग ी; त ब सा स”
कीशल्या जी न े भ ा प क ी त र ह मु क् के ज ो उप दे श दि या थ ा , व ह प् रे रे
हदय मेंहैअर्थात ् मे रे ह द ॒ य प ठ ल पर अद ्ल ित है ॥ ७ ॥
पाणि ष ् द ा न क ा ल े च यत ्य ुर ा लव मर िस ल् रि यो |
अज ुश िष ्ट ा जन न् या र् मि वा क् य त द प ि म ेपु तम ् ॥ ८ ॥
२११६ अंयाध्याकायडे
एकोनविशत्युत्तरशततमः सगेः
रमन *००३
€ै)००७०...
१ बच्छिष्ं--अशु्चि, | (रा? )
११३२ प्रयेध्याकायडे
हैरा घव ! इस रास ्ते से तप स् वी का ग वन में फल लेन े जा ते
हैं, श्रतः इस ो रास ्ते से प्र ापक ा भी इस दुर ्ग वन में ज्ञ ाना
डढीक है ॥ २१॥
इतीव ते; प्राज्ञकिमिस्तपस्विभि:
हिने। कृतस्वस्त्ययन! परन्तपश
बर्न सभाय॑। प्रविवेश राघव!
सलक्ष्मणः स्य इवाश्रमण्डलम॥ २२॥
इति पकानविशव्युत्तरराततमः से! ॥
जब तपर्वियों ने हाथ जेड भड्डज आशीर्वाद देकर इस
प्रकार कद्दा, तव श॒त्रश्नों के तपाने वाले श्रीराम और लत्मण ने
सीता जी सद्दित, उस दुर्गंम वत में, उसी प्रकार प्रवेश क्रिया,
ज्ञिस प्रकार छुयदेव मेघमणडल में प्रवेश करते है ॥ २२ ॥
अयेष्याकाय्ड का एक से उन्नीसवाँ सर्ग समाद्त हुआ ।
॥ भ्रयोष्याकागड समाप्त हुआ ॥
इल्प श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीय आदिकाब्ये
चतुविशञतिसद्तिकायां संदितायाम
भ्रयेध्याकागडः समाप्तः ॥
“+#४--
ज्गगिेगरहा रा:
गंभध्वे 07 ॥4अ9॥अ 807 पप्र॥5 ४६ ४0 हेधा०ग एक, उापाफंपत:
उप द्राप्रतज-+ऊ फ्+5ऊरु:रबनद-5८
॥ श्री ॥
श्रीमद्रामायण॒पारायणतमापनक्रमः
श्रीवेष्णवसम्पदाय!
जि ल--+