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. .

_ संचित्र
श्रीमद्वा ल्मीकि-रामायण
[हिन्दीभाषाजुबाद सहित]...
अयोध्याकाण्ड-३
उत्तराहु5१0५] |)
88

मी
अर्मुवारदक
चतुर्वेदी द्वारकाप्रसाद शैमी)/एए७ आए पु//त
के

र् है)
श] |
प्रकाशक १
रामताराथरण 4]
पब्लिशर और बुकसेल्र" ै
इलाहाबाद हु

१९२७
प्रथम संस्करण २००० ] [मूल्य २)
अयोध्याकाण्ड के उत्तरा्
फ़ी
विषय-सूची
चौवनवाँ सगे ५६३-५७३
गड़ा-यपुना के सद्भम-स्थल पर भरद्ाज्ञ के शाश्रम में
श्रोरामचन्धादि का पहुँचना|भरद्वाज को भ्रीरामचन्द्र ज्ञी
का अपने आगमन की सूचना दिलाना | भरद्ाज जी का
» आतिथ्य प्रदण कर, थ्रीरामचन्द्र जीका उनसे रहने के
लिये किसी एकान्त स्थल के विषय मेंप्रश्ष करना । उत्तर
मेंभरदाज़ का चित्रकूटपर्वत पर रहने की सम्मति देना ।
पचपनवाँ सगे . ५७४-५८२
भरद्वाज़ जी के वतलाये हुए मार्य से श्रीरामचद्धादि
का चित्रकूठ की ओर प्रस्थाव। यमुना के दृत्षिणतट
पर वठबृत्त के नीचे स्रीता लक्ष्मण सद्दित ध्रीरामचन्द्र
जो का ठिकनो |
छणनवाँ सर्ग ह ७५८२-५९३
सीता सहित भ्रीरामल्द्मण का चित्रकूठ पहुँचना, वाँ
चात्मीकि मुनि से भेंठ शोर उनसे वार्तालाप। चित्रकूट
पर लक्ष्मण जी का पर्णकुटी बनाना ।
सत्तावनवाँ सगे _ ५९३-६०१
भ्रीरामचन्द्रादि को विदा कर भोर ग़ुद से विदा माँग
समंत्र का श्रयाध्या की ओर प्रयाथ । राजमांगे में पुर-
(३ )
घाहियों का आतंबाद छुबते हुए दृगस्थ-सदत में उनका
दिना उुम्न के आया देख,
प्रदेश | श्रीयमदकू जो के दवा
च्धि
महारात दशस्यथ आर इनकी स्ियों का पर: विकाप |
अद्ववनवाँ सर्ग ६०२-६११
पुर्रों केदनपिवेशा का चृचान्व छुव, महाराव दशरथ
का मात दादा | उद्ददन्ठर छा प्रद्धार सेंड होने पर
प्र्दयव दश्स्थ ही उर्मत्रके साथ वाठचीद |सुसंत्र द्वारा
धंतव्चदध जा का सदेधा पहाराव दृग्य्द के सुवादा

| ६१६-६३३
| महायज्ञ के सामने ओोश्क्या झा विज्ञाप ।
>> >>
वासठ्याँ पर्ग
छः

इ३३-६३८
लंच होते पर महाराज दशरथ का कौड
ज्यावोडे,
« अपने प्रेच् हनी दा स्य
स्ण करद हुए, चाठालाप।
(३)
तिरसववाँ सगे ६३९-६५२
अध-पुन्ि-पुत्रतध सम्बन्धी अपनी पापकथा का
कोशल्या जी से दशरथ जी का निरुपण करना ।
चौसठवाँ सर्ग ६५३-६७२
अन्यमुनि से महाराज दृशप्थ का अपने हाथ से मारे
गये मुनिक्षमार के वध का वृत्तान्त निवेदन करना । अपने
' खुत के मरण का दुस्संवाद सुन ओर दुःखी हो अन्धपुनि
का महाराज दशरथ के शाप देना ।| महाराज दशरथ की
मरणावस्था का वर्णन । मद्दाराज के ज्ञीवन का अन्त |
पैसठ्वाँ सग ६७२-६८०
महाराज के मर जाने पर उनको पतियों का रोनाधेना ।
छयाछठवाँ सर्ग |. ६4८०-८6
कैकेयो की निन्‍दा कर के कोशल्या जी का विल्लाप।
अमात्यों द्वारा महाराज के शव की रक्ता ।
सरसठवाँ सर्ग ६८८-६९९
मार्कपडेयादि द्वारा सार्वजनिक सभा का बुलाया जाना
और उसमें अराजक राज्य के दोषों का वर्णन ।
अढ्सठवाँ सगे ६९९-७०५
वशिष्ठ ज् ञीक ीसम ्म ति से रा जद ूत ों का भर त जी के
बुलाने का भेजा जाना | ;
उनसठवाँ सगे ७०५-७१०
ननिहाल में उदास भरत जी का अपने छुद्ददों से
पि छु ल् ी रा त के दु ःस ्प ्त का वर ्ण न कर ना ।
( 8 )

सत्तर्ताँ सग ७११-७१९
इतने ही में ध्रवाष्या के दृ्तों काभरत जी के सामने
्-

पहुँचना । दूर्तों से भरत जी द्वारा कुणलपन्न पूद्धा


जाना! दूतों छे साथ मस्त शवुन्न का अयोध्या की ओर
प्रद्यान।
इकहत्तरवाँ संग ७१९-७३१
करेझय देश से बड़ी हड़वड़ी में श्रस्थधात कर, सरत ज्ञी का
उदास ग्रयाध्या मेंपहँच वहाँ की शाज्य विरानन्दमयी
द्णा के देखना +
अ ७
पदत्तरतां सर्ग ७३२-७४५
पिता के भवन मेंपिता के दर्शव न पाहूर मरत का
कैकैयी के मवन मेंज्ञाना ओर चह्ों अपनो जननी छे पुल
से अपने पिता की मृत्यु क्वा संवाद एवं अपने के राज्य
दिलाने के लिये, ओरामचद्ध जी के निर्वालन का चृचाम्त
छुतना |
विद्दत्तरवाँ ९
इत्तरवाँ सगे ७४५-७५२५
माता के वचनों के छघुन शेक्रधम्तप्त रद की शोहा-
चस्या का बन ।
चोहत्तरवाँ सर्ग ७9५२-७६२
भरत द्वारा कैद्रेयी का फरकारा ज्ञाना |
पचहत्तरवाँ सगे ७६२-७८ १
विल्लाप ऊरते हुए भरत का ऋण्डखर पहचान, कौशज्या
का सुमित्रा ज्ञी कोमेज कर, भरत के अपने निक्ढ बुल-
( *£ )
बाना | कौशल्या ज्ञी के सामने भरत जी का श्रपने के
निर्दोष सिद्ध करने के किये शपथें खाना । -
छिहत्तरवाँ सगे ७८१-७८७
वशिषठ जो के समझाने बुछ्ाने पर भरत जो का, पिता
ज्ञी के शव का दादकर्म करने के प्रवृत्त शिना )७;
संत्ततरवाँ सगे “००7 छट७-७९३
मद्दाराज दशरथ के शच का प्रंतकक पिता के गुणों का
स्मरण कर, भरत शत्रप्त का विंलाप करना । 30%
अठत्तरवाँ सगे (६ '” ७९३-८२०
पूर्वद्वार पर खड़े हुए प्लौर "शापस में वातचीत- करते;
हुए भरत शत्र॒न्न का कुज्जा को देखंनो!पोरमेरत: बरी,
शथप्न का ध्यान उस शोर श्राकर्पित किया'जानो: तव राप
मेंभर शत्रुप्न का मन्धरा के पैल़ीटना | "
उन्नासीवाँ समे ८००-८०४
राज्कर्मचारियों द्वारा राजगद्दी पर बैठने की प्रार्थना किये
ज्ञाने पर, भरतज्ञी का उसे शभ्रल्लीकार करना थौर
धीरामचन्द्र जी के धन से लाने के लिये चन जाने को इच्छा
प्रकट करना ओर मार्ग ठीक करने के फारोगरों को भेजने की
थ्राज्ञा देना।
अस्सीवाँ सगे ८०५-८११
भूप्रदेश-विशेषज्ञों द्वारा मार्ग कीमरस्मत । है
इक्यासीवाँ सगे ८११-८१५
प्रातः:काल होने पर मागधवन्दीजनों द्वारा अपनी
, स्तुति छुन, भरत जो का उनके वर्जना और स्वग्रं विनाप
करना ।
बज &# अजब,

व्यासीयाँ सगे ८१५-८२४


सभा मेंवेठे दुए मध्यप्यों द्वारा भरत जी से प्रभिषेक
कराने का अनुरोध किया जाना | उनके वचन के अली-
कार कर, भरत का पास वैठे हुए छुम॑त्र सेवन ज्ञाने के
लिये सेना तैयार करने को भाष्षा देता ।
तिरासीवाँ सर्ग ८२५-८११
अपने भरनुयायियों के साथ भरत जी का गद्भातट पर
पहुँचना ।
चौरासीवाँ सगे <३१२-८१६
गड्जातड पर पड़ी हुईभरत की सेना के देख ओर यह
सोच कि भरत, श्रीरामचन्द्र जो को मारने ज्ञाते हैं,गुद
का अपने भ्नुयायियों के एकन्र करना । तद्नन्तर गुह का
भरत जी को फल्न फूलों की भेंट देवा |
पचासीयाँ सगे... ८३६-८४२
भरद्वाजाभरम का मार्ग जानने के लिये भरत का गुद् से
प्रक्ष। भरत ओर गुह का वार्तालाप।
छयासीवाँ सर्ग . ८४३-८४९
भरत के प्रति गृह का ल््मण जी के गुणों का व्गंन .,
करना |
सत्तासोवाँ सर ८४९-८५६
गुद्द की बातें छुन मृछित भरत ज्ञो का कैशल्या जी के
समझ्राना। भरत के गड़ावट पर गुद्द द्वारा धोरम्लक्
मण
के दिकने का स्थान दिखलाया जाना | आ
(४)
अद्वासीवाँ सग ८५६-८६४
४. इेडगुदो चूत्त के नीचे गुद्द कीदिखलायी धोरमचन्ध
जी की साथरी देख, भरत जो का वित्ञाप करता ।
नवासीवाँ सर्ग ८६५-८७१
' सेकर उठने पर भरत का शत्रुन्न जी से ग॒द द्वारा नायें
मेंगवाने के कहना भर गुद का भरत के समीप आता ।
' भरतादि का गड्ढा के पार होना ।
नब्वेबाँ सगे. ८७२-८७८
वशिए्ठ जी के आगे कर भरत का भरद्वाज्ञाश्मम में
प्रवेश। भरत शोर भरदाज ज्ञी का संवाद । भरदाज
द्वारा भरत के भ्रीरामचन्ध जो के वसने का स्थोत वत-
जाया जाना ।
इक्यानवेवाँ सगे ८७८-८९८
अपने तप/्रभाव से भरद्वाज द्वारा भरत और उनके
लश्कर का प्रतिथ्य किये ज्ञाने के चुत्तान्त का वर्णत ।
वानवेवाँ सर्ग <८९९-९०८
भातिथ्य अहण करने के वाद भरत जी का भरदाज़ जी
से विदा माँगना । मुनि का भरत जो को चित्रकूट का मार्ग
वतल्ाना । भरद्वाज जी फर पूंछूनेपरभरत जी का अपनी
माताओं का परिचय देते हुए अपनी जननी फैकेयी की
: बिन्दा करना। तब भरद्वाज़ जो का भीरामचद्ध जी की
बनयात्रा का प्रयोजन वतलाना। भरत जी का वहाँसे
प्रस्थान ।
कु
तिरानवेंवाँ सगे ९०८-५ ५
दूर ही से भरत द्वारा चिचरकूद पर्वत पर श्रीरामचद्ध ज्ञी. .
का देखा जाना ।
चौरानवेंवाँ सर्ग ९१५-९२१
प्रीशप्रचन्द्र जी का सीता के प्रति चित्रक्तढ के वन की
शेभा का वर्णन करना |
पश्चानवेंवाँ सं ९२२-९२७
चिप्रकूद के निकट बहने वालो मन्दाक्षिनी केतद की
शामा का तर्णन ।
छयानवेंवाँ सगे ९१७-९३४
भरत जी के सैन्य-चालन छा शब्द छुन वनवासी पश्ु-
पत्षियों काभयभीत हो इधर उधर भागना | .यह देख
श्रीरामचन्द्र ज्ञी कालक्ष्मण का बुज्ाता | साल के चृत्त पर
चढ़ लक्ष्मण जी क्वा भरत जो की सेना के देखना | सैन्य
भरत के आया हुआ देख, सशड्ित हो लक्यण जी का
भरत के तथ के लिये धोरामचन्ध जो से अन्लरोघ करना ।
सत्तानवेंवाँ सगे ९३५-९४२
श्रीयमचद्ध जी का जत्मण जो के उनको भूल
वतलाना | लक्ष्मण ज्ञी का अपनी भून पर लक्षित
होता । श्रीराप्ताश्षम से दूर मरत जो का अपती सेना को
टदराना ।
अद्वानबेंवाँ से ९४२-९४६
भरीरामाश्नम की प्रौर शहद के साथ मरत ज्ञी का पेदल
प्रस्यान करना |
हा]
है ््ज

निन्यानवेंवाँ सर्ग ९४६-९५७


पर्णुशाज्ञा में भ्रोरामचन्द्र जोके देख भरत जी का
उनके प्रणाम करना |
सौर्वां से ९५७-९७९
भरत के प्रति कुशल प्रश्न पूंछूनेकेमिस भोरामचन्द्र जी
' का राजनीति का उपदेश ।
एक सौ पहलछा सग ९८०-९८२
भरत का धीरामचन्ध जी को महाराज दशरथ के त्वर्ग-
बसी होने का संवादझुनाना !
एक सो दूसरा सगे ९८२-९९४
पिता के मरने का दुरुसंवाद खुन, भ्रीरामचन्द्र जीका
विज्ञाप करना और जलाश्नलि देने के लिये सब भारयों का
मन्दाकिनों के कद पर जाता ।
एक सौ तीसरा सगे ९९४-१००२
चशिए जी के भागे कर, महाराज दशरथ की रानियों
का मन ्द ाक िन ी क तट
े पर जा ना । को शल ्य ा जी का सी ता
शी के धीरज वँधाना ।
एक सौ चौथा सगे - १००३-१००९.
| ओरामचन ्द ्र ज ीक भर
ा त जी से उन के वह ां शझ ान े का
|कारण पूँछना। इस पर वन से लौट कर श्येध्या मेंजञा
| राज्य करने के लि ये भर त जी की श् री यम चर ्र जी
' से प्रार् थना । उत ्त र में श्र ीरा मचन ्द् र जी का पि ता के वच न
५४का गौरव रख ने तथ ा उन के सत ्य की रत् ता कर ने के लि ये
अझयेष्या जाना धंल्लीकार करना |
( १० )
एक सा पाँचवाँ सगे... १००९-१०२१
/ पितृशाक्त का दूर कर तुप्त खय॑ं राज्य करो “--यह
उपदेश भ्रीरामचर्द्र जी फा भरत को देना ।
एक सौ छठवाँ सर्ग १०२१-१०३०
श्रीरमचन्द्र ज्ञी को मैटाने के लिये भरत जी का प्रयञ्ष
करना ।'
एक सो सातवाँ सगे १०३१-१०३६
विरादरी वाल्मों केवीच बैठ कर भ्रीरामचन्ध जी का '
भरत के गुणों की प्रशंसा करना । ।
“एक सो आठवाँ सर्ग १०३७-१०४२
ब्राह्मगेतम ज्ञातालि का वारितिकयाद के सहारे भ्रोरा-
चन्द्र ज्ञो को ल्ोदाने का प्रयास करना |
एक सो नवाँ सम “१०४२-१ ०५४
जाचालि की वातों का श्रीरामचन्द्र जी द्वारा उत्तर |
एक सो दसवाँ स्ग १०५४-१०६२
इस्चाकुकुल मेंज्येछ राजकुमार ही राजगद्दी पर बैठते आये
हैं,यद समझाने के लिये वंशानुचरित फथनपुर्वक बशिष्ठ
जी का भ्रीरामचन्द्र के कुलध्मेपदेश ।
एक सो ग्यारहयाँ स्ग १०६२-१०७१
बशिष्ठ के समझाने पर भी भीरामचन्द्र जी क्षे लौयने
के लिये तैयार न देख, भरत ज्ञो का अ्रनशनत्रत
धारण
करने की तैयारी करना |तब भोरामवन्द्र जीका
भरत के
सान्वना प्रदान करना | पक
(९११ )
एक सो वारहवाँ सर्ग १०७१-१०७९
दशग्रोव-बधेषी मद का भरत जो के समझ्ताना कि,
वे शरामचन्द्र जीका कहना मान लें मोर अयोध्या में;गज े
राज्य करें। इतने बड़े भारो राज्य का.शंएसर्त-करने के.
विचार से भयभीत भरत का /श्रीगग्रासन्ध जो की
पादुकाओशों का उनसेमाँगना। / ४४ न
वि ]
एक सा तेरहवाँ सगे ,१०७९-१०८१
वाँ
|
क्र

पादुका ग्रहण कर भरत जी को पंत, भरदाजाप्रप में. ८


थ्राना |भरद्याज जी का भरत के आज आपको9222
करना | भरत जी काश्यडुपेरपुर मेंपहुँचता. [...
एक से चौदहवाँ सगे $. १०८५-१०९६
3] गीदहयाँ /

भरत के भयेध्या में ज्ञाने पर वहाँ की दुर्देशा देख, भरत


ज्ञी का विलाप क्रना।
बा पन्द्रदवाँ
एक सो पन्द्रदर्वों सगे १०९२-१०९९
पुरोहित, मंत्री ओर पुरवासियों सहित भरत का
नन्दिप्राम में प्रवेश श्ौर वहाँ पर पाठुकाशों का पह्मा-
भिषेक ।
एक सा सेलहवाँ सर... १०९९-११०६
अपने अपने आवासस्यानों को छोड़ फर भागे हुए
ऋषियों का श्रीरामचन्द्र ओ के सामने सर फी दुएता फा
वर्णन करना | ४
एक सौसन्नहवाँसगे ११०६-१११३
श्रीरामचन्द्र जी का महर्षि अत्रि के ध्राश्रम्त में गम्नन।
अल्ुछुया का सीता ज्ञी का प्रणाम करना और धछुणुया जो
का सीता के श्रशीर्चाद देना ।
( ९२-)
एक से अद्वारहवाँ सम १११४-११२६
पातितत्य धर्म के विषय मेंसोता ओर घन्ुत॒या जी का
परस्पर कथेपकथन | अत्रिपत्नी अनुरूुया का सीता को
प्रीतिपुरस्कार |सीता का अनुधूया जो के अपने स्वयंतरर
का समस्त दुतान्त खुनाना ।
एक सौ उन्नीसवाँ सगे ११२६-११३२
रात भर भत्रिय्राश्रम मेंरह कर, दूसरे दिन शोरामादि
का मुनि से विदा माँग, दृश्ठऋवन मेंप्रवेश करना ।
नी

अयोधष्याकागड के उत्तराद्ध की विषय-सूची


समाप्त हुई ।
श ी
श्रोमद्रामायणपारीयगशोपकेसू--
नोीद--पनातधर न ्म) अन्तर्गत मिनर वैदिकतस्पद्ायों'पें:क्रीएड्ासाये ण
का पारायण द्ोता दे, ऊर्दी सम्प्रदाये। के अनुपार उपक्रम भर तम्तापन क्रम
प्रत्येक्न खण्ड के आदि और झस्त में फ्रमशः देंदिये गये हैं । ]
श्रीवेष्णवसम्भदाय:
“आन

कूजन्त राप्त राम्रेति मधुर मधुराक्तरम्‌ ।


गारुद्य कविताशार्खा के वाद्मोकिकोड्ितम ॥ १ |
वाब्मीकिछुनितिदस्प कवितावनचारियः ।
ख्यव रर ाम रु या ना द की न या ति पर ्य गत िम ्‌ ॥ २ ॥
यः पिवन्‍्सततं रामचरितासतसागरम्‌ |
प्रतृप्तस्तं मुनि वन्दे प्राचेतसमकब्मप्म्‌ ॥ ३े ॥
गाष्पदीक्ृतवारीश मशक्रोकृतराक्षतम्‌ |
रामायणशमहा माज्ञ ारत वन्दे ं।निल ाकमजम ्‌ ॥ ४ ॥
अश्जनानन्द न वी र जा नक ्ल ीश ोक ना शन म् ‌ |
कपीशमन्नाहन्तारं वन्दें जह्ाभयडुरम्‌ ॥ *॥
मने।जवं मारुततुल्यवेगं
नितेद्धिय॑ बुद्धिमर्ता वरिष्ठम्‌ ।
वाताक्मर्ज वानर्यूथप्ुखूय॑
भ्रीयमदूतं शिरसा नमामि ॥ ३ ॥|
(२)
उल्ुथ पिन्‍धो: सलिले घल्ोल॑
“ये शोौकवरह्हि जनकातजायाः ।
थ्रादाय तेनेव ददाह लड़ा
'. नमामि तंप्राअलिराजनेयम | ७॥
धासनेयमतिपाठलानन
काञ्चनाद्विकमरनोयविग्रहम्‌ ।
पारिषाततरुमूलवासिन
भावयाम्रि पवमाननन्दनम्‌ ॥ ८५ ॥
यत्र यत्र रधुताथक्रोर्लन
तत्र तन्न झृतमस्तकाश्नत्ििम्‌ ।
वाष्पवारिपरिपृर्णलेचन
मारुति तमत राक्षसान्तकम्‌ | ६ ॥
वेदवेचे परे पुंसि जाते दशस्थात्मजे ।
वेद प्राचेतसादासीत्साज्ञाद्राभायणात्मना ॥ १० ॥
तहुपग्तसमांससन्धियागं
सममघुरोपनतार्थवाक्थवद्धम्‌ ।
खुपरचरितं मुनिप्रणीत॑
द्शशिरसश्च वर्ध निशामयध्वम्‌ ॥ ११॥
धोराधवं दशस्थात्मजमप्रमेय॑
सीतापति रघुकुलान्वयरत्नदोपम्‌ !
थ्राज्ानुवाइमरपिन्दद्लायतात्न
राम निशाचरविनाशकरं नप्मामि ॥ १२॥
वैदेह्दीसहित खुरहुप्रतले हैमे महामगडपे
मध्येपुष्पकमासने मणिमये वीरासने खुस्यितम्‌ ।
(३)
परग्रे धाचयति प्रभच्चनसुते तत्त्व घुनिभ्यः पर॑ ;
व्याख्यात्तं भसतारिमिः परिवृत राम भजे श्यामज्ञम ॥एशु-
*न्‍«« सु०० !

माध्वसस्थदायो //”
पा हर

शुक्गाम्परघर विषय शशिवर्ण चतुमंजम ।


प्रसन्नवद्न॑ ध्यायेत्सवेविष्नोपशान्तये ॥१,॥
लक्त्मीनारायणं वन्दे तद्डक्प्रवर दि यः ।
श्रीमदानन्द्तीर्धास्यों गुरुस्तं च नमाम्यद्म्‌ ॥ २
बेदेरामायण चेव एुराणे भारते तथा ।'
आादावन्ते च मध्ये च विण्ुः सर्वत्र यीयते ॥ ३ ॥
सर्वेविष्नपशमनं सवंसिद्धिकर परम ।
सर्वजीवप्रशेतारं वन्दे विज्यदं हरिम्‌ ॥ ४ ॥
सर्वाभीएपद्‌ राम सर्वारिषनिवारकम्‌ ।
ज्ञानकीजानिमनिशं वन्‍्दे मदुगुरुपन्दितम ॥ ५ ॥
श्रध्षमं भडरदितमजर्ड विमले सदा ।
आनन्दतोथमतुर् भजे तापत्रयापहम ॥ ६ ॥
भवाति यद्उुभावदेडसूक$पि वाग्पी
जडप्ततिरवि जन्तुर्जायते प्राक्षमोत्रि: ।
सकल्नवचनचेतादेवता भारती सा
मम वचसि विधर्ता सलिति मानसे च ॥ ७ ॥
मिय्याधिद्ान्तदुर्धान्तविध्वंध्तविचत्रणः ।
जयतीर्धा ्यतरपिभभ सता नो हद्परे ॥ ५ थी
(ः ४ ३%१े

चिछः पदैश्च गरसीरेवाक्पिमानिस्साणिटतेः ।


गुरुभावं च्यश्यन्ती साति भीजवदीर्यवाकू॥६ ॥
कूजन्ते राम रामेति मधुरं मधुरात्तलम्‌ ।
शारहय कविताशालां दन्दे वाल्मीकिकोकिलम्‌ ॥ १० ॥)
पह्मीकेपुनिसिहस्य कवितावनचारिणः ।
७७ ट4+ (3

शयवन्ामकथाबाद के। न वाति एस गतिप्‌ ॥ २१ ॥


पः पिउन्खतर्त र्नचरितामृतलायरम ।
प्रतृप्तरत प्रुति कब्दें प्राचेतलमक्रत्मपम्त्‌ 3 १२ ॥
गैष्पदीक्षतचारीश मशहोहृतराक़सक
रमायथमदामालारलं वन्देपनिलात्मजन ॥ ३३ ॥
अज्जनानन्दनं वीर॑ जानद्ीशोरुनाशनम्‌ |
कपोशमत्तहस्तार वन्दे लड्ढाभयडुरस | २४ ॥
मताज्ञव॑ प्रावततुल्यवेग
नितेद्धियं दुद्धिमतां वरिष्रम्‌
वादाध्यजं वानस्पृथपुरूय
श्रीयमदूत ंशस्सा मम्रामि ॥ १६ ॥
उहडुय सिन्धो; सलिल सकीक
ये शोरूवहि अनक्ाक्रज्ाबा: |
ग्रादाय तेनेव ददाद लड्ां
नमामि तं प्राशलिरासनेयम्‌ ॥ १६ ॥
भ्राउनेयमतिपाटलानबं
काइनाद्िकामनीवविश्रहम ।
(५),
पारिजाततरुसूलवासिनं
मायाप्रिपरमावनन्द्नम्‌ ॥ १७ ॥|
यत्र यन्ष रघुनाथकीतेन ,
: तन तन्न छुतमस्तकाअलिम्‌ ।
्ण
वाष्पवारिपरिपूरलेचनं
मारुति नमत राक्षसान्तकम्‌॥ १८ ॥
चेबवेथे परे पुंसि ज्ञातेदशरथात्मजे ।
वेद प्राचेतसादासीत्सात्ञाद्रामायणात्मना ॥ १६ ॥
श्रापदामपहर्तारं दातार॑ सर्वसम्पदाम।
लोकामिराम भ्रोराम॑ भूया भूयो नमाम्यदम्‌॥ २० ॥
घदुपगतसमाससन्धिये|गं
सममधुरापनताथवाक्यवद्धम्‌ ।
रघुवसचरितं प्ुनिप्रणीत
दृशशिरस॒श्च वर्ध निशामयध्चम्‌ ॥ २१ ॥
वैदेद्दीसदितं खुरहुमतते हैमे मद्वामगडपे
मध्ये पुष्पकमासनेमणिमये वीरासने सुस्थितम्‌।
झग्ने चाचयति प्रभ्ननखुते तस्वं मुनिभ्यः पर
व्याख्यान्तं भरतादिभिः परिदृतं राम॑ भजे श्यामलम्‌ ॥२२॥
चन्दे वन्य विधिमवमदेन्द्रादिवुन्दासकेन्दरे
व्यक्त व्याप्त लगुणगणतों देशत: कालतश्च' ।
घूतावरयं छुज्नचितिमयेमंडुलैयुंकमड़ेः
सानांध्यं ने! विद्धद्धिक॑ ब्रह्म नारायणाख्यम्‌ ॥२३॥
भूषारतं धुुधनवत्नयस्याखिलाएचर्यरत्न॑
ल्लीलारतनं जलधिदुदितु्देवतामोलिरत्षम्‌ ।
[चन्तारत्नं जगति भन््॒तां सत्सरोनदुरत्न
झौसल्याया लखतु मम्र द्मण्डल्ते पुचर्तषम्‌ ॥ २४ ॥
महाव्याकरणाम्मेविमिस्यमातसमन्दसरत ।
कवयन्तं रामकीत्यां हनुमन्‍्तल्द॒ुपास्मदे ॥ २५ ॥
घुल्यप्राणाय घीमाय नम्े! यस्य चुजान्तरम्‌ ।
नावावीरठुदणोना विकृपाश्मावितं कसे ॥ २६ ॥
स्वान्तस्थानन्तशय्याय पूर्ण॑न्ञानमद्य्णसे
अच्तुद्ञवाक्तरड्राव म्रव्वदुग्धाव्यये नमः ॥ २७ ॥
वाह्मीकेंगीः पुनीयाबों मद्दीघरपदाभया!
वहुदुग्धतुपञ्मीचन्ति ऋवयस्तणेक्ता इव ॥ २८॥
घूछ्तिर्लाकरे रस्पे मुततरामावणाणंवे ।
विहरुता मरदीयांसः प्रीयन्तां छुस्वो मम ॥ २६ ॥
हयप्राच हयग्रीव हवशीचेति ये। चडेत्‌।
तस्प निश्लस्ते वाणी जहुकन्वाग्रवाहवत्‌ ॥ ३० |!
जाजादुदन-++


सातसमस्पदाय;
धल्लारचर्थरं विष्णु शशिवर्ण चतुभेजम।
सब्नवदरन ध्यायेत्सव॑विष्नोपशान्तये ॥ २ ॥|
वायोशाद्या: छमनसः सवोधानामुपत्रमे ।
थे चत्वा छवहझत्याः स्युस्तं ननानि गन्ाननप्त | २॥
दोनियंका चतुमिः स्कविकमणिमवीमत्षमालां दघाना
इस्तेनकेव पह्मा तितनपि च॒ घुद्ठ पुस्तक चापरेण ।
(४७)
भासा कुन्देलुशडुस्फटिकमणिनिता भासमानासमातरा
सा मेंवारदेवतेयं निवसतु वदने सर्वदा सुप्रसन्ना ॥३॥
कूजन्तं राम रामेति मधुर मधुरात्तरम्‌।
घारह्म कविताशाखां वन्दे वाव्मीकिकेकिलम्‌ | ४ ॥
चाद्मोकेप्ुनिसिहस्य कवितावनचरिण
ा ः।
श्यवन्रमकथानादं के न याति परां गतिम्‌ ॥ ५॥
यः पिवन्सततं रामचरितासतसागरम ।
अतृप्तस्तं मुनि बन्दे प्राचेतसमकतल्मपम्‌॥ ६ ॥
गाष्पदीकृृतवारोशं मशक्रीकृर॒राक्षपम्‌ ।
शमायशमदामाल्रारत पन्देषनित्ात्मजम्‌ ॥ ७॥
अज्नानन्दनं वीरं जानकीशोकनाशनम्‌ ।
कपीशमच्तदन्तारं बन्दे लद्|भयकुरम्‌ ॥ ८ ॥
डल्छूय सिन्धोः सल्रित्ं सलील॑
यः शाकवहि ज्ञनकात्मज्ञाया। ।
आदाय तेनेव ददाह लड़ां
नमामि त॑ प्राश्नलिराजनियम्‌ ॥ १॥
घआाञनेयमतिपाठलाननं
काञ्चनाद्विकमनोयविश्रहम्‌ ।
पारिज्ञाततरुमूलवासिनं
भावयामि पवमाननन्दूनम्‌ ॥ १० ॥
यत्र यत्र रघुनाथक्रोतन
तथ्न ततन्न रूतमस्तकाजञ्ज
लिम्‌ ।
नह)
वाध्पवारिपरिपूर्णलेचन
मारुति नमत राक्तसान्तकम्‌ ॥ ११ ॥
मनेजवं मास्ततुल्यवेगं
जितेन्द्रियं बुद्धिमर्ता वरिध्रम ।
' चातात्मर्ज चानस्यूथमुख्य
। श्रीरामदूत शिरसा नमामि ॥ १२ ॥
)
ह।

यः कर्याश्नल्षिसस्पुणेरहरहः सम्पकूपिवत्याद्रात्‌
वाह्मीकेवेद्नारविन्दूगलितं रामायणाख्य॑ मधु ।
जन्मव्याधिजराविपत्तिमरणैरत्यन्तसेपद्रव
संसार स विहाय गच्छूति पुमान्विष्णो: पद शाभ्बतम्‌ ॥११॥
तदुपगतसमाससमन्धियारं
सममधुरोपनता्थंवाक्यवद्धम्‌ ।
रघुधरचरितं घुनिप्रणीर्त
दृशशिर्सश्च वर्ध निशामयघ्वम्‌॥ १४ ॥
है
वाद्मीकिगिरिसम्भूता रामसागरगामिनी |
पुनातु भुचत पुणया रामायशमदानदी ॥ १५॥
श्लोकसारसम्राकी्ण सर्गकल्लोल्सड्ललम्‌ ।
कागड्म्राहमहामीनं वन्‍दे रामायणार्णवम्‌॥ १६॥
चेद्वेधे परे पुंस ज्ञाते दृशस्थाव्मजे । |
बेद्‌ः प्राचेतसादासीत्सात्षाद्रामायणाव्मना ॥ १७ |
चैदेद्दीसदितं सुरहुमतल्े हैमे महामगडपे
मध्येपुष्पकमासने मणिमये चीरासने सुस्थितम्‌
अग्ने चाचयति प्रसज्ञनखुते तत्च॑ मुनिम्यः पर
व्याख्यान्त भरतादिभिः परिदृत राम से श्यामत्म्‌ ॥१८५७॥
( &$ )
वामे भूमिछ॒ता पुरश्च हमुमाग्पश्चात्सुमिनासुतः
शब॒घ्नो भरतश्च पाश्व॑द्लयेवाय्वादिकेणेपु च |
सुप्रीवश्च विभीषणश्च युवराद्‌ ताराखुतो जवान
मध्ये नोलसरोजकेमलरुचि राम भजे श्यामलम्‌ ॥१ १॥
नमे।$स्तु रामाय सलच्मणाय
देव्ये च तस्पे जनकात्मजाये |
नमोस्तु रुद्रेन्द्रयमानिलेश्यो
नमोस्तु चन्द्राकमरुद्गणेभ्यः ॥ २०॥
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आसाय नगरी दिव्


यामनिपिक्ताय सीतय
परकाधिरज्याजाब ा ।
रामनद्राव मंगलम
्‌ ॥
श्रीमद्माल्मीकि
मोयरैंप
रोंे्‌
है

अयोध्याकाण्ड
(उत्तराद्ध )
चतुःपञ्माशः सम:
ला वईेमेँह पैनल

ते तु तस्मिन्महाहृक्ष उपिता रजनी शिवाम ।


विमले5स्युद्ति छूर्येतस्मादेशात्मतसरिथिरे ॥ १ ॥
इस प्रकार वे तीनों उस बड़े वद्युत्त केनीचे रात बिता कर,
प्रातःकाल विमल जर्येद्य दाने पर वहां से रवाना हुए ॥ १॥
यत्र भागीरथीं गड़ां यमुनाअभिप्रवर्तते ।
जम्मुस्तं देशमुद्दिश्य विगाह्म सुमहद्दनम्‌ ॥ २॥
जहाँ पर श्रोगड़ा और भ्रीयघुना का सड़म दाता था, चहाँ अर्थात्‌
उस देश की भोर, उस मदावन मेंदे कर वे चल्ने जाते थे ॥ २॥
ते 'भूमिभागान्विविधान्देशांधापि मनारमान |
अरृष्टपूवान्पश्यन्तस्तत्र तत्र यशखिनः ।! रे ॥
वे यशस्त्री दोनों भाई रास्ते में अनेक बन प्रदेशों और अनेक
पहिल्े न देखे हुए और रमणीक देशों को देखते हुए चक्ते जाते थे ॥३॥
१ भूमिभागानू--वनप्रदेशान्‌ | ( गो "
५६४ | अयेष्याकायडे
यथा. प्षेमेण! गच्छत्स पश्यंश्व विविधान्दुमान ।
निह्तमात्रे दिवसे राम! सोमित्रिमत्रवीत ॥ ४ ॥
इस प्रक्नार खुल्षपर्वेक्त रास्ते में उठते बैठते तथा अनेक प्रकार
के फूक्ते हुए चुत्चों कोशोभा निरखते हुए, जब दिन थाड़ा रह गया
तव श्रीरमचन्ध जी ने लक्ष्मण से कहा ॥ ४॥
प्रयागमभितः पह्य सामित्रे धृममुद्गतमक ।
: अग्नेभंगवतः केत॑ मनन्‍्ये सन्निहिते मुनि ॥ ५ ॥
है लक्ष्मण ! देखो प्रयाग तीर्थ कीओर जे। घुआ उठ रहा है.
वह मानों भगवान्‌ अग्नि देव की पताका फदरा रही है| इससे
ज्ञान पड़ता है कि, भरद्दाज ज्ञी का श्ाश्रम भी यहां कहीं पास ही
है॥४॥ कम
नून॑ प्राप्ताः सत्र सम्मेद॑' गह्ञायमुनयेवंयस्‌ |
तथा हि श्रयते शब्दों वारिणा वारिघद्न/ ॥ ६ ॥ १॥॒

हम लग गड्ा यमुता के सद्ृम के सप्रीप निश्चय हो शा पहुँचे


हैं, क्योंकि देननों नदियों के जलों की दक्कर से उत्पन्न शब्द साफ
छुनाई दे रहा है | | ॥
दारूणि परिभिन्नानि वनजेरुपजीविभिः ।-
भरद्वाजाश्रमे चेते दश्यन्ते विविधा दुमा! ॥ ७ ॥
च्औ ण विवि:

यहाँ के वन में से लकड़ी इत्यादि काद कर बेचने वालों


ने लकडियाँ काडी हैँ। देखो भग्वाजजी के आश्रम
में ये नाना
पसन

् र क ा क
र ेचृ त् त कर
न े दु ए दे
म च पह ुत े ह ैं॥ ७ ॥ न
१ क्षेमेण--उपविस्येत्यायच शर्ेंः शआज्ेः ह्वेच्छानुरोघेन सम्पदयन
सम्पक्यत्‌ । ( रा० ) »े संभ्ेदं--संगमं । ( ग्ोन ) # पाठान्तरे--* घूस- ,
मुन्नतम्र | पाठान्तरे-- वारिघद्दतः ५ ।
चतुभपश्चाशः सर्गः ५६५

पन्विनों तो सुखं गत्वा रम्बमाने दिवाकरे |


गज्ञायमुनये॥ स्लो! प्रापतुर्निल्यं मुने! ॥ ८ ॥
इस अकार शभ्रापस्त में बातचीत करते हुए दोनों धनुर्धारी भाई ;
छू के छिपते क्िपते सकुम पर स्थित भरद्वाज जी के भाश्रम्र में
पहुँचे ॥ ८॥
रामस्त्वाश्रममासाद त्रासयन्मगपक्चिणः ।
गत्वा मुहूर्तमध्वानं भरद्वाजमुपागमत्‌ ॥ ९ ॥
श्राश्नम में दो घनुद्धंरों को श्राते देख, आश्रमवासी पशुपत्ती
भयभीत हुए । इतने ही में भ्रीरामचन्द्र ज्ञीएक, मुह्तं चल कर,
'भरद्वाज़ ज्ञी की ( कुछी के )पास पहुँच गये ॥ ६ ॥

ततस्त्वाश्रममासाथ सनेदंशनकाडप्षिणा ।
सीतया5तुगता वीरो दूरादेवावतस्थतुः ॥ १० ॥
तदनन्तर सीता सद्दित दोनों वीर भरद्वाज ज्ञो फे दर्शन करने '
की प्रभित्नाषा से, कुटी से कुछ दूर रुक गये। ( रुकने का कारण
भूषण टीकाकार ने यह वतलाया है कि सन्ध्या कासमय था। ,
. झतः' उस समय ऋषिप्गर अश्विहांद्न कर रहे-थे। ऋहीं उनके
कार्य में विश्व न पड़े, अतः कुछ देरवेदददर गये, किन्तु जब अनुमति
मिल्न गयी तव) ॥ १०॥
स प्रविश्य महात्मानमृषिं शिष्यगणैटतम्‌ ।
रसंशितत्रतमेकाग्रं तपसा लब्धचक्षुपम्‌ ॥- ११ ॥
३ सन्धौ--सह्नमेवतंमान । २ संशितवतं--त्ीक्षणमत्तं | (गो" )
प््द् अयेध्याकायडे

फिर श्र ीरा म बन् द्र(भा दि ) आश ्र म में गय े। वहा ँ पह ुँ च कर


उन्होंने शिष्यों से घिरे, उम्र वतथारी एवं तपद्वारा भूत, भविष्य,
वतंमान का ज्ञान प्राप्त किये हुए, मरदाज जी के देखा ॥ १२ ॥
हुतामिदत्र देय महाथागं इृताझ्ञलिः |
रामः सामित्रिणा साथ सीतया चाम्यवादयत्‌ ॥११॥
्रते हुए देख, श्रोयमचद्ध जी
महाभाग ऋषि के अप्निद्षेतकर
ने लद्मण और सीता सदित हाथ ज्ञाड कर, प्रणाम किया ॥ १९ ॥
हैप थे |.
न्यवंदयत चात्मान तस्म रक््मगएवंज; ।
पुत्री दशरयस्पावां भगवन्रामलक्ष्मणो ॥ १३ ॥
और यह कद कर श्रीरामचन्द्र जी नेअपना परिचय दिया--
हैसगवन ! हम दोनों श्रीराप और श्रीक्द्मण महाराज दृशस्थ
के पुत्रहैं ॥ १३॥
भायां ममेय॑ वेदेही कर्याणी जनकात्मजा |
मां चाजुयाता विजन तपेवनमनिन्दिता ॥ १४ ॥
और यह करपाणी जानकी मेरी स्री और राजा जनक की
पुत्री हैओर यह अतिन्दिता जानकी प्रेरे साथ विजन तपेवन में
ज्ञाने के लिये थायी है ॥ १४॥
जी पित्रा प्रताज्यमान मां सामित्रिरतुजः प्रिय: |
अयम्रन्वगमदआाता वनमेव हृहब्त) ) १५ ॥
पिता ने मुछे वनवास दिया है और छुमित्रा देदी के पुत्र तथा
“मेरे प्रियदोदे भाई लक्ष्मण दृढ़मत घारण किये हुए, मेरे पीछे हो
लिये हैं ॥ १४ ॥
चतुधपश्चाशः सर्गः ५ई9
पित्रा नियुक्ता भगवन्परवेश्याभस्तपेवनम ।
धर्ममेव चरिष्यामस्तत्र मूलफलाशना; ॥ १६॥
है भगवन ! हम लेग पिता के आदेशानुसार तपेवन में प्रवेश
करेंगे और वहां फलमूल खा कर धर्माचरण करंगे ॥ १६ ॥
तस्य तद्चनं श्रुत्या राजपुत्रस्य पीमतः । न्‍
उपानयत' धममात्मा गामध्यंमुद्क ततः ॥ १७॥
धर्मामा भरद्याज ने धीमान्‌ राजकुमार थीरामचन्द्र जी के ऐसे
चचन छुन कर, उनके मधुपक, अध्य और चरण थोने के जल
रखा ॥ १७॥
[ क्रीरामचर्द जी के राजकुमार फे। विशेषण भादिकवि ने इसलिये दिया
हैहि, भरद्वाज ने उनके मधुप्क दिया था मधुपका देने का विधान स्मृत्यानुप्तार
राजा के भी है |यथा--
गो मधुपर्काहं वेदाध्याय्याचायं ऋत्विकू स्नातकी राजा वा धर्मथुक्तः
इत्ति।]
नानाविधान' बरसान्वन्यमूलफलाश्रयान्‌ |
तेभ्ये। ददो तप्ततपा वास चेवान्यकल्पयत्‌# ॥ १८ ॥
नाना प्रकार के धन के कन्द्मूल, फल अन्न तथा रसीले पदार्थ
उनके भेाजन के लिये दिये और टिकने के लिये ध्यान बतलाया।
( रसीले पदार्थ से अ्भिष्राय शरवत से ज्ञान पड़ता है ) ॥ १८॥
म्रगपक्षिभिरासीने मुनिभिश्र समन्तत; |
राममागतमभ्यच्ये स्वागतेनाह त॑ मुनि! ॥ १९ ॥
१ उपानयत्त--रामपसमीएं प्रापपतत । (शि०) रे अन्नरसावू--रस .
प्रधानान्यदार्थविशेषानिद्यथः । ( गो* ) # पाठास्तरे--चिवास्यकस्पयत्‌ । ??
कु ८ डे
अयवाध्याकह्षायडे
झुग, पत्ती और मुनियों के दीच में वैडे हुए मदर मरद्धाल ने
ध्रीरामचन्द जी का न्वागन किया आर उनसे ऋुणन पूछा ॥ १६ ॥
प्रतियद्य व तामचामुपविष्य से राववम््‌ |
भरद्वानाओवाह्ाकर्य घमवक्तामद तदां ॥ २० ह
तदनन्वर, इस अकवार महद्रि की पूजा अहण कर के, आलसोन
पलौरानचल्द जी से, मरद्वाव हुए ने ये धर्मचुक वचन ऋद्दे ॥ २० ॥
चिरस्व खलु काहुत्स्य पश्यामि लामिदागतम्‌ |
श्रुत॑ तब यया चेंदे विवातनमझारणस ॥ २१ || -
है काकुत्ध्य | बहुत दिनों दाद श्राज में तुन्हें पुतः इस आबन
में थाया दुआ देखता हैं।नने छुना है कवि, तुमई। श्रकारण चन-
चास हुआ हैं| २१ ४
अवकाया विविक्तोअ्य मदहानयों! समागमें ।
पुण्य रमणोवत्र चसलिद भवान्सुख़म | २२ ॥|
अतः इव देनों म्रहमनदियों के सड्ढम पर, इस एक्ान्त, पवित्र
एवं रक्य स्थान पर आप छुत्रपु्ेच्त बात करें ॥ २२ ॥
एवम्रुक्त: स वचन भरदानभेन राघवः |
ट|
4
४ प्रत्यवाच शु वाक्य राम: स्द्िति रत: ॥ २३ ॥|
भरदहात के इन दचनों के तुन, उर्वेहितेषों औरामचन्द्र झी ने
हा को

ये शुन वचन ऊह्े 2 २३ 7


अआवान्नद आमने पारणानपदोा मन! |
सुदगामह मां मय मन मिमतराश्रमम ॥ २४ ॥
१ घुदधे--सुदेनदप्टु घक्ये (६ गो 3)
चतुशआाग्ः सगे: ४६६
. आगमिष्यति बैदेहीं मां चापि प्रेश्षके जन! |
अनेन कारणेनाइमिह वास न रोचये || २५ ॥
हैंभगवन्‌ ! यह बासस्थान पुरवातियों के श्रत्यन्त निकट
पड़ेगा | श्तः मुझे और सीता ज्ञी के देखने के लिये क्लाग यहां
शासानी से चले आया करेंगे। शतः मुझे यहाँ का रहना डचित
त्हीं ज्ञान पड़ता ||२४ ॥ २५ ॥
एकान्ते पहय भगवन्नाश्रमस्थानमुत्तमम्‌ ।
, रमेत यत्र बेदेंही सुखाहां जनकात्मणा ॥ २६ ॥
हैमगवन्‌ | अतः मेरेरहते के लिये हाई ऐसा एड्रान्त ओर
उत्तम स्थान भाश्रम के लिये वतला दोजिये, ज्ददाँ ज्ञानकोी ज्ञी का
मन लगे और (यह ) छुछपूर्तक रह सके ॥ २६ ॥
एतच्छुला शुभ वाक्य भरदाजे माहाओुनिः |
राघवरुय तते! वाक्यमथ्थग्राहक मत्रवीत्‌ ॥ २७ ॥
भोरामचन्द्र जीके इन शुभ चचनों का सुन, मदषि भरद्ाज
उनसे यह धर्थवेधक वचन बाले॥ २७ ॥
दशक्रोश इतस्तात गिरियस्मिल्िवत्स्यसि ॥
* पहर्पिसेवितः पुण्यः सबंत। सुखदशन! ॥ २८ ॥
हे वत्स | यहाँ से दस कास पर तुम्दारे रहने येग्य एक पद्दाड़
है, ले महर्षियों से सेवित दोने के कारण पवित्र हैऔर उसके
चारों ओर नयनामिराम द्वृश्य है ॥ १८ ॥
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कहा १542
चहुःपश्चाशः सर्गः ५७१

चद स्थान विदकुल्त एक्ान्त है| मेरी समस्त में तोआप वहां


आराम से रहेंगे।अथवा हैं राम ! वनवास को श्रवधि पुरी होने
तक आए मेरे साथ मेरे आश्रम हो में रहिये ॥ ३२ ॥
स्‌ राम 'स्वेकामस्तं भरद्वाजः भ्ियातियिस्‌ |
सभाय सह च आना प्रतिजग्राह धर्मवित्‌ )| ३३ ॥
९३ ८.

महपि भरद्वाज जो ने सीता और लक्त्मश सहित भ्रीरामचन्द्र


जी का, तिथि योग्य सत्कार कर, उनके अपने वश में कर
लिया ॥ ३३॥
: तस्य प्रयागे रामर्थ त॑ महर्पिमुपेयुप) ।
प्रपन्ना) रजनी पण्या चित्रा; कथयतः कथा; ॥३४॥
शीरामचन् जी का प्रयागतेत्र मेंमहषि भरद्दाज जी के साथ
समागम्त होने पर अनेक प्रकार की कथा चार्चा होते होते पुएयप्रयी
रात्रि है| गयी ॥ ३४ ॥
रेसीताद्तीय! काकुत्स्थ! परिभ्रान्तः सुखाचितः ।
भरहाजाश्रमे रम्ये तां राजिमवसत्सुखम्‌ ॥ २५ ॥
छुल्न से रहने येग्य श्रीयम चन्द्र , लदम ण ओर तोसर ी सीता
थर्थाव्‌ तीनों मार्ग चलने की थक्रा वद से कातर ही, रमणी क भरदा ज
के आधभ्रम में उस रात खुखपूर्वक वास करते हुए ॥ ३५ ॥
प्रभातायां रजन्यां तुभरद्वाजमुपागमत्‌ ।
उवाच नरशादले मुनि ज्वलिततेजसम्‌ || ३६ ॥
१ सर्वक्षामैः प्रतिजप्राद--अतिथियेग्यसत्करिवंशीकृतवाद | प्रतिपराइ--
उपचार | (गो० ) २ प्रपत्ना +आ्राप्ता | (गो० ) ३ सीतातृतीयायत्यत्तः ।
( शि० )
र्७२ अवाध्याकायडे

ज्ञव रात व्यतीत हुई और सबेरा हुआ, तव श्रीयमचनद्र जी


तपस्या के तेज से जाज्वल्यमान महर्षि भरद्ाज्ञ के पास गये और
यह बोले ॥ ३६ ॥
शबरी भवगन्नद्य सत्यशील तवाभ्रमे ।
उपिता: स्मेह वसतिमनुजानातु' नो भवान्‌ | २७ ॥
हे सत्यशीन भगवन | झाज हपने झापके इस प्राश्रम्त में बस
कर, रात ( बड़े आराम से ) वितायी | श्रव आप कृपा ऋर, दर्मे उस
ज्यान पर, जिसे आपने वत्तलाया है,ज्ञाने को आज्ञा दीजिये ॥ ३७ ॥
रात््यां तु तस्यां व्युप्ठायां भरद्वाजाध्वरवीदिदम |
म्रधुमूलफलेपेत चित्रकूट जजेति है ॥ रे८ ॥
उस रात के वीत जाने पर भरद्वाज़ जी ने यह कहा--भ्रव
शाप मधु, सूल, फलयुक्त चित्रकूट पर्वत पर जाइये ॥ ३८॥
बासमापयिक मन्ये तव राम महावरू |
नानानगगणेपेतः किन्नरोरगसेवितः ॥ ३९ ॥
हैमहावल्ली राम ) मेरी समझ में चित्रकूट ही आपके रहने
येग्य ठीक स्थान है। क्योंकि वहाँ अनेक प्रकार के वृत्त हैं,वहां
किन्नर और नाग बसते हैं ॥ ३६ ॥
प्रयूरनादाभिरुते! गजराजनिपेवितः ।
गम्यतां भवता शैलअित्रकूट। स विश्रुतः || ४० ॥
चहाँ मे।र वाला करते हैं और बड़े बड़े हाथी घूमा करते हैं,
पते झाप उस प्रसिद्ध चित्रकूट पच॑त पर ज्ञाइये ॥ ४० ॥
१ जनुजानातु--भाज्ञापयतु | (ग्रो०)
चतुःपश्चाशः सगे ४७३
पुण्यश्व रमणीयथ्र वहुमूलफलायुतः |
तत्र कुझ्लरयूथानि मृगयूथानि चाभितः ॥ ४१॥
वह स्थान अति पवित्र, रमणीय ओर नाना प्रकार के फूल
फल्नों से परिपूर्ण है। वहाँ छुझ्नरों और सगों के कुण्ड चर करते
' हैं। उन्हें आप वहां देखेंगे ॥ ४१ ॥
विचरन्ति वनास्तेषस्मिस्तानि द्रक्ष्यसि राघव ।
सरित्मस्नवणपरथान्द्रीकन्दरनिदरान्‌ ।
चरतः सीतया साथ नन्दिष्यति मनस्‍्तव || ४२॥
वहां की नदियों, फरनों, पर्वतशिखरों और कन्दराशों के
देखते हुए, विचरण करने पर, तुम्हारा और सीता का मन वहुत
प्रसन्न हीगा ॥ ४२ ॥
प्रहष्कायह्टि! ककेकिल्सनै-
विनादितं त॑ वसुधाधरं शिवम्‌ |
गगेश्व मत्तेवेहुमिश्र कुझ्नरे
सुरम्यमासाथ समावसाश्रमम््‌ ॥ ४३ ॥
इति चतुःपञ्चाशः सर्गः ॥
बस पचित्र पर्दत पर विटिहरी और कोयलें प्रसन्न दो वाला
करती हैं। उस पर अनेक छूग और वहुत से मत्त गज्ञ घूमा करते
हैं। इस प्रकार के उस बड़े रणीक पवेत पर आप ज्ञा करवास
कीजिये ॥ ४३ ॥
अयेष्याकाण्ड का चैयनयाँ सगे समाप्त हुआ |
| ० कट
॥१ कायश्टिकाइ--विहिभका) । ( गो० ) *
पश्लपन्नाशः स्गेः
३ 0 हल

उपित्वा रजनीं तत्र राजपुत्रावरिन्दमों ।


महर्षिमभिवाद्याथ जम्मतुस्त गिरिं प्रति ॥ १॥
शन्रओं के दमन करने वाक्षे श्रीयम और लक्ष्मण प्रयाग में उस
रात रह कर, भातःकाल द्ोते ही मुनि के प्रधाम कर, चित्रकूठ पर्वत
की ओर प्रस्थानित हुए ॥ १॥
तेषां चेव खस्त्ययन महर्षि! स चकार है ।
प्रस्थितांभेष ताम्मेक्ष्य पिता पुत्रानिवान्वगात्‌ ॥२॥
उनके वहाँ से यात्रा करते देख, महषि भरद्वाज ने उसी
प्रकार उनका स्वस्त्ववाचन किया जैसे पिता अपने निज्ञ पुत्र का
करता है। ॥ २ ॥
तत; प्रचक्रमे वक्तुं बचनं स महाप्ुनिः ।
भरद्वाजो महातेजा राम॑ सत्यपराक्रमम्‌ || ३ ॥
तद्नन्तर महातेज्ञस्वी महर्षि भरद्वाज सत्यपराक्ममी श्रीराम-
चन्द्र जी सेकहते लगे ॥ ३॥
गड्भायम्ुनयाः सन्धिमासाद मतुजभौ |
जा
कालिन् दीमनुग च्छेता ं' नदी पथान्य ुखाभ्र ितामू*
लक जामजा अमल मपील अजीज मत शी मिल जप:कीआमशकिलिलिक
॥ ४ ॥
१ अनुगच्छेतां--अनुस्त्यगच्छेतां | (गो०) २ पत्चान्मुखाश्रितामु--
पदिचमामिमुसेैभ्त्व
गच्छाेतां | (गो० )
पश्रपञ्चाशः सर्गः ५७४
है मुजश्रे्ठ !इस गड्जा यप्तु्नां केसड्डम से, पश्चिम की
शोर यप्तुना के किनारे किनारे आप जाइये ॥ ४॥
अधासाथ तु काहिन्दीं शीप्रस्नोत्समापगास्‌ ।
तस्यास्तीय' प्रचरितं* पुराण प्रेकष्य रापवों ॥ ५ ॥
९ / हे

आप क्लाग शीघ्र वहने वाल्ली गल्गा में मित्नने वात्नी यमुना


के किनारे किनारे चल कर, ५क घाट देखेंगे, जे वहुत पुराना दोने
से द्ूटा फूडा है॥ ५ ॥ ,
तत्न यूय॑ं पुव॑ कृत्वा तरतांशुमती नदीग |
तते न्यग्रोधमासाद महान्तं हरितच्छदम्‌ ॥ ६ |
चहाँ पर घरनई वना कर तुम यपुना पार करना। तदनन्तर
उस पार जाने पर एक वड़ा वरगद्‌ का चृत्त मिल्लेगा, जिसके हरे
हरे पत्ते हैं ॥ ६ ॥
बिह॒द्धं वहुभिहवक्षे! श्याम सिद्धोपसेवितस।
, तस्मै सीताअ्ज्ललि कृत्वा अयुज्ञीताशिपः" शिवा! ॥७॥
» वह बढ चुत्त ध्नेक पत्तों के वीच में हैं, उसके पत्तों का रंग
श्यामता लिये हुए द॒रा हैभ्रोर सिद्धों द्वारा वह सेचित है। वहाँ
पहुँच कर, जानकी जी हाथ ज्ञाड़ कर, श्पने शुभ मनोरथों के
सफल दोने के लिये प्रार्थना करें ॥ ७ ॥
समासाद तु,त॑ ह॒क्षं वसेद्वाउतिक्रमेत वा ।
क्रोशमात्र॑ तते। गत्या नील द्रस्‍ष्य्य काननम्‌ ॥ ८ ॥
१ तीथ--भपतरणप्रदैशं | (गो० ) ३ प्रचरितं--गमनायमनाभ्य/म्रति
झुण्णमिव्यर्थः । (गो०) ३ भाशिमतों--अंशुमतः सुयस्यापत्यभूतां। ( गो० )
४ प्रयुझीता--प्राथयेत्‌ | (यो० ) ५ क्राश्षिप:--मनेररथान्‌ । ( गो० )
जाई थ्येष्याकायडे
या तो उस पेड़ के नीचे कुछु देस तक ठहर कर चिश्नाम्त कर
लेना अथवा थागे के चले जाना। वहाँ सेएक कीस था जाने
पर नोलवन देख पड़ेगा ॥ ८५ ॥

पलाशवदरीमिश्रं रम्यं वंशेथ याझुने। ।


स पन्याित्रकूटरय गत; सुबहुशों मया ॥ ९ ॥
उस बन में साल, जामुन और वेरी के श्रनेक वृत्त हें। वदी
मार्ग चित्रकूद के जाता है और उस मार्ग से में कितनी दी वार
चित्रकूठ गया हैँ ॥ ६॥
रस्ये मादवयक्त् वनदावर्विवर्मितः
इति पन्थानमावेध महषि; संन्यवर्तेत || १० ॥|
यह मार्ग रमणोक, केमल ( अर्थात्‌ काँठों कंकड़ों सेरहित
अथवा रेतीला होने से कोमल ) है। उस वन में दावानल का सो
भय नहों है। इस प्रकार ( कुछ दूर साथ ज्ञा कर ) रास्ता वत्तला
महर्षि भरद्ाज लौट आये ॥ १०॥
अभिवाद्य तथेत्यकत्वा रामेण विनिवर्तितः
उपाहत्त गुनो तस्िन्रामे लक्ष्मणमत्रवीत्‌ ॥ ११॥
ओर धीरामचन्द ज्ञो ने भी प्रणाम कर उनके विदा किया ।
जव भरद्वाज लौढ गये, तव॑ श्रोरामचद्ध ज्ञी ने लक्ष्मण जी से
कहां ॥ ११ ॥

कृतपुण्या; सम सामित्रे मुनियन्नोब्लुकम्पते


इति ता पुरुषव्याप्रों मन्त्रयित्ता ममखिनों )| १२॥
पंश्चपश्चाणः सर्ग ५७७

हेलक्ष्मण | वास्तव में दम के बड़े पुएयवान हैं, तभो ते


महपि भरद्वाज़ हमारे ऊपर इतनी कृपा करते हैं, दोनों मनस्ती
पुरुषसिह राजकुमार इस प्रकार वातचीत करते ॥ १९॥
सीतामेबाग्रतः कृत्या कारिन्दीं जम्मतुनेदीम्‌।
अथासाय तु काहिन्दीं शीप्रस्नोतावहां नदीम ॥१३॥
और सीता के आगे कर यपुना की और चल्ने झौर शीघ्र वहने
चाली यप्ुना के पास पहुँचे ॥ १३॥
चिन्तामापेदिरे सर्वे नदीजलतितीपंवः ।
तो काहसह्वाट्मये चक्रतु! सुमहाइव ॥ १४ ॥
वे सव उसके पार करने के लिये चिन्ता करने लगे। उन
दोनों राजकुमारों ने वहुत सी लकड़्याँ एकत्र करएक वह़ा बड़ा
बनाया ॥ १७ ॥
गुष्केवशें) समास्तीणंमुशीरेथ समाधतम्‌ |
तते। वेतसशाखाश्र जम्बृशासाथ' वीय॑वान्‌ ॥ १५॥
चकार रुक्ष्मणश्छित्ता सीताया। छुखमासनम्‌ ।
तन्न श्रियमिवाचिन्लां' रामे दाशरथिः प्रियाम्‌ ॥१६९॥
( वह बेड़ा किस प्रकार वनाया गया--यह वतलाते हैं। )उन
वीयंचान राजकुमारों ने प्रथम तो छूखे वाँसों के पास पास बाँध
कर वेड़ा बनाया | फिर वाँसों की सम्धियां भरने को संघो मेंखस
भरा | तद्‌ननन्‍तर लक्षमण जी ने उस पर बवेत तथा जाप्तन की
डालियां काट कर शोर बिल फर सीता जी के आराम से बैठने के
१ भ्रत्वित्याँ--अदिन्त पौनदयाँ | ( गो० )
बा० रा०--३७
प्द्८ प्येध्याकायुदे

लिये ग्रासन वत ा दि या । तब श् ोर ाम चद ्र जो ने लक् ष्म ी को तर ह


झव्िन्‍्य सोन्दर्यवतो प्यारी सीता का ॥ १५ ॥ २६ ॥
ईपत्संलज्जमानां तामध्यारोपयत पुवस्‌।
पारस्वें च तत्र वेदेशा वसने भूपणानि च ॥ १७॥
ज्ञा (पति के द्वाथ का सदारा पाने से ) कुछ कुछ लज्ायुकत
थीं, हाथ पकड़ कर उस वेड़े पर वैठाया । उनके पास द्वी उनके
गहने कपड़े रख दिये ॥ १७ ॥
पवे कठिनका्ज! च रामथक्रे सहायुषेः ।
आरोप्य प्रथम॑ सीतां सट्गा्ट परिगृद्य तो ॥ १८॥
फिर भ्रोरामचन्द्र जीने काठ के वेट की कुदाली और मझुग-
चर्म से मढ़ा हुआ पिठारा तथा अपने आयुध रखे। प्रथम सीता
के उस पर बिठा दोनों भाइयों ने बेड्ा पकड़ कर चलाया ॥ १८ |
[ ना5--इससे स्पष्ट दैकि, उस बेड़े पर केवल सीता जी बैठी थीं और
खाध का सारा सामान रखा था। श्रीरामचरद्र और लक्ष्मण उस पेड़े के
दोनों जोर से पकड़ कर जल पर तैरते हुए उस पार हुए थे। आगे के इलेक
में ४ प्रतेरतुयुको ” से यह बात समधित है।ती है । ]
ततः
प्रतेरतुयक्तो
परतेरतुय क्ता वीरा दशरथात्मजों |
43; वीरों 3

कालिन्दीमध्यमायाता सीता स्वेनामवन्दत ॥ १९ ॥


तदनन्तर दोनों घीर द्शरथनन्दनों ने उस बेड़े में युक्त शर्थात्‌
लग कर यप्तुना पार की । जब वैड़ा वीचावीच धार में पहुँचा,
व सीता जो ने यप्तुना जी का प्रणाम किया ॥ १६ ॥
! कठिनकाज --क्रठिनक कन्दसूऊजननसाधदं आयसामंदार । भाज॑---
अज्नचसंपिनद्ध पिलक॑) ( गो
पञ्चपश्चाशः सम+ ४७६

खत देवि तरामि तवां 'पारयेम्मे पतिबंतमर ।


यह्ये तवां गोसहस्रेण सुराघटशतेन थे॥ २० ॥
है देवि | हम जाग भाषपके पार जा रहे हैं। यदि मेरे पति
का मत श्र्थात्‌ (वनवास का सडुुह्प ) नि्िन्न पूरा हो गया,
तो झापकों पसन्नता के लियें में पक हज़ार गैएँ दान कर तथा
से घड़े छुरा के नेवेध से श्रापका पूजन कढूँगी ॥ २० ॥
स्वरित प्रत्यागते रामे पुरीमिक््वाकुपालिताम ।
काहिन्दीमथ सीता तु याचमाना कृताज्ञकि। ॥ २१॥
सीता ज्ञी यमुना से हाथ जोड़ कर यह वर माँगती हुईकि,
श्रीरामचन्रज्ी सकुशल इच्याकुपाल्षित- अयोध्या मेंमद भातें ॥२१॥
तीरमेवामि सम्पाप्ता दक्षिण वरवर्णिनी ।
ततः पवेनांशुमर्ती शरीध्रगामूर्मिमालिनीम्‌ )॥ २२॥
शीप्रगापिनो और तरडुचती छूर्यपुत्रो यप्तुना को पार कर,
इसके दत्तिण तंठ पर सीता ज्ञी पहुँची ॥ २१ ॥
तीरजैबहुमि॑श्षे! सम्तेरुयग्ुनां नदीम । ह
ते तीणाः पवमुत्सज़्य प्रस्थाय यध्ननावनात्‌र ॥ २३ ॥
वे यघुना के पार हो, उस बेड़े के त्याग कर, यथुना के तीर-'
चर्ती अनेक कुत्तों से
युक वन में हो कर चल्ले ॥ २३ ॥
श्याम॑ न्यग्रोपगासेदुः श्ीवर्कं हरितच्छद्म ।
न्यग्रोध॑ तमुपागम्य वेदेही वाक्यमत्रवीत्‌ ॥ २४ ॥

( यो ० ) ३ यमुनाववात्‌--यमुनातीरबनांद्‌ । (गो०)
म्रघ० अयाष्याकाणएदे

वे श्याभवर्ण और हरितप्तों से युक्त, गीवल छाया वाज्ले


वरगद वृत्त के नीचे पहुँचे। वठकृत्त के पास पहुँच, जानकी जी ऋहने
लगी ॥ २४ ॥
पारयेन्मे अं
नमस्ते5स्तु महाहक्ष पारयेन्में पतिग्रेतम्‌।
कप

कैसलयां चेंव पश्येयं सुमित्रां चयशस्विनीम ॥२५॥


है महावृक्त | में घरापका प्रणाम करती हैँ। श्याप मेरे पति का
बत पूरा कीजिये, जिससे में अपनो यशस्विनी फैशल्या और
छुमित्रा के फिर दर्शन कर सद्धँ ॥ २४ ॥
, इति सीवाज्चलि कृला पयंगच्छत्‌'वनस्पतिम्‌ |
अवलोाक्य तत; सीतामायाचन्तीमनिन्द्ताम ॥२३६)॥
दयितां च विधेयां च रामे लक्ष्मणमत्रवीत्‌ |
सीतामादाय गंच्छ लवमग्रता भरताग्रजी' ॥ २७॥
यह प्रार्थना कर श्र हाथ जोड़े हुए सीता ज्ञी ने बढ बृत्त
की परिक्रमा को |तव अनिन्दिता, प्राणप्यारी एवं अनुकूलवर्तिनों
जानकी के इस प्रकार वर माँगते देख, धौरामचद् जी ने लक्ष्मण
से कहा, है भरत के दोरे भाई ! तुम सीता के अपने साथ ले आगे
चत्ता ॥ २६ ॥ २७ ॥
पृष्ठता5हं गमिष्यामि सायधों द्विपदांवर ।
यदचत्फलं प्राथयते पुष्पं वाजनकात्मजा | २८ ॥
दे नरेत्तम | में श्र लिये पीछे पोछे झआाता हूँ। सीता ज्ञों
जिस फल और जिस फुल को माँग ॥ २८ ॥
_
5+++
++_
+४-+7ह 55
-+ +
++_ 7 5
5. ..
१ परयंगच्छत्‌ू--प्रदक्षिणं चक्ार। (यो०) २ भरताप्रनैत्िवहुत्रीदिः । (गो०)
पञ्चपञ्चाशः सर्गः प्पर
तत्तत्मदया वेदेल्या यत्रास्या रमते मन! ।
गच्छते(तु त्येमंध्ये# बभों च जनकात्मजा ॥ २९॥
चह फूल और फल जानकी के देदिया करना, जिससे इसका मन
पहला रहे |जानकी जी उन दोनों के वीच में वैसे चलने लगीं ॥२९६॥
मातझ्ञये।मेध्यगता छुभा नागवधूरिव ।
एंकेक पादप॑ गुल्मं लतां वा पुष्पशालिनीम ॥ ३० ॥
अहृष्पपूवा' पश्यन्ती राम प्नच्छ साश्यछा ।
रमणीयाम्वहुविधान्पादपान्कुसुमेत्कटान्‌ ॥ ३१ ॥
सीतावचनसन्ख्ध आंनयामास लक्ष्मण; ।
विचित्रवाजुकनलां इंससारसनादिताम्‌ ।
रेमे जनकराजस्य सुता प्रेक्ष्य तदा नदीम्‌ ॥ ३२॥ -
जैसे हाथियों केवीच दथिनी चल्ले |सीता प्रत्येक बुत्त गुब्म
कभी नहीं देखा था,
और पुष्पित लता के वारे मेंजिन्हें सीता ज्ञी ने
धीरामचद्ध जो से पूछती जाती थी। वहाँ पर तरह तरह के
रमणीय दुक्ध और फूल जगे थे, जिनमें से जिसे सीता जी पसंद
करतों, लद्मण जी उसे ला दिया करते थे ।उस नदी को, जिसका
चाह्ुकामय तट और निर्मल जल था तथा जिसके तठ पर हंस
, सारस मधुर शब् द कर रहे थे, देख कर, सीत ा जो मसन ्न देत ी
जाती थीं ॥ ३० ॥ ३१ ॥ ३२ ॥
क्रोशमात्र॑ तते गत्वा आतरों रामलक्ष्मणों
चहुन्मेष्यान' मगान्हत्वा चेरतु'येग्ननावने ॥ ३३ ॥
१ मेध्यानू--शुचीन्‌ भदे याग िति याद त्‌ । ( यो० ) २ चरेत ुः भक्ष ितपन ्तों ।
घरगतिमक्षणये | ( गो० ) # पाठान्तरे--/ पभूव । !!
प्र अयेष्याकायडे

दोनों भा इय ों न े
एक कै ास चल कर तथ ा यप ुत ा ती खव र् ती वन में
अनेक पविश्न झगों के! मार कर, खाया ॥ ३३ ॥
विह॒त्य ते वर्हिणपूगना दिते
शुभे बने वानरवारणायुतते ।
स्म॒मं रेनदीवप्रसुपेत्य सम्पर्तर
निवासमाजसुरदीनदशनाः ॥ ३४ ॥
इंति पश्चप्चाशः सर्गः ॥
इस प्रकार दोनों वीर भाश्यों नेसीता सहित उस मनेहर
बन में, जहां मारों के कुंड के झुंड वाल रहे थे, तथा हाथी
और बंदर घूम रहे थे; विहार कर, चदीतद पर पुक छुन्दूर
समधथर स्थान पर, जिसे सीता जी ने भी पसंद किया, निर्भय हो,
वास किया ॥ ३४ ॥
अयेध्याकायड का पचपनवां सर्य समाप्त हुआ ।
न्-+ः 5 पस्ि

पट्पन्नाशः से

अथ राज््यां व्यतीतायामवसुप्त मनस्तरस्‌र |


प्रवोधयामास शनेलक्ष्मणं रघुनन्दनः ॥ १ ॥
जनरल । (यो?) २ समंे--भविदन्नोनर्त । (गो०) दे नदीवर्ष--
नदीतीरं | (गो०) ४ प्न्मतं--विवासं सीतामिमतंवासस्थानं । ( गे )
५ भवछुपं--ईपत्‌ सुछ्ठ॑ ।(गो०) ६ अनन्तरम--स्वप्रवाधानस्वरं । ( यो० )
पदपश्चाशः सर्गः परे

जब रात वीत गयी दव श्रीरामचन्ध जी ने खय॑ं जाग कर,


शोँघते हुए लक्ष्मण के घोरे धीरे चैतन्य किया ॥ १॥
सामित्रे भृणु वन्यानां' वर्गुरे व्याहरतां खनम्‌ |
सम्पतिष्ठामहे काल; प्रस्थानस्य परन्तप ॥ २ ॥
(धोरामचन्र जीने कद्दा ) दे लक्मण ! देखो तो ये वन के
वोते, कायल मैंना आदि पत्ती कैसे मधुर स्वर से चहक रहे हैं।
है परूतप | मार्ग चलने के लिये यही समय (अच्छा) है। अतः भव -
हमके यहाँ से चल्न देंना चाहिये ॥ २॥
स सुप्तः समये अ्रात्रा लक्ष्मण) प्रतिवाधित! ।
जहा निद्रां च तन्द्रीं च प्रसक्त॑ च पथि श्रमम्‌ ॥ ३ ॥
जव श्रीरामचन्द्र जी ने ज्ञागने केसमय लक्ष्मण जी को जगाया,
तब वे, निद्रा ज़नित प्रालस्य के त्याग और रास्ता चलने की
थकावठ के दूर कर उठ खड़े हुए ॥ ३ ॥
तत उत्थाय ते सर्वे स्पृष्ठा' नधाः शिव जलम्‌ ।
पन्‍्यान सपिणारदिष्टं चित्रकूटरय त॑ यथु! ॥ ४ ॥
तंदनन्तर सब जनों ने उठ कर पवित्र यपुना जल्न मेंस्तानादि
क्रिया पूरी की | फिर उन सव ने महर्षि भरद्वाज के वतताये हुए
पत्नाशवन में हे कर, चित्रकूट का रास्ता पकड़ा ॥ ४॥
ततः सम्पस्थितः काले रामः सेामित्रिणा सह |
सीता कमलपत्राक्षीमिदं वचनमत्रवीत्‌ ॥ ५ ॥
१ कस्यातां--शुकूप्रि कणश ारि काद ीवा ँ । ( गो ० ) ३ बह् यु- -सु न्द र ।
( गो ० ) ३ हुू एड् वा- -स् पृष ्ठे ल्य ुपल क्ष णंत ्रा तःक ालि कस् नान ादि कृद ्या नां |
(गो०) ४ नदया:--क्राढिन्या। | (गो ०) ५ पत्थानम--परछाशवनरूप॑ । (यो०)
धघ8 अवेाध्याछायदे

लक्ष्मण जी |के साथ ज्ञाते हुए श्रोरामदद्ध थी ऋमषल के


सप्ताम नेव वाली सीता जी से यह वचन वाले ॥ » ॥

आदीप्तानिव वेदेदि सवंतः पुष्पिताननगान्‌ |


से) पुष्प! किशुकान्पश्य मालिन।' शिशिरात्यये ॥को।
बैदेही | घसन्‍त के आगमन से देखो पत्रास झैला फूला है!
पत्नास के ज्ञाक फुलों का देख ऐसा जान पड़ता है, मात्रों पलाश
आग लग गयी हूँ।फूर्लों
के वृत्चों मं सेसव चुत्तों क्री ऐसी
शेत्मा है| रही हे,मानों सब वृत्त पुण्यों की मालाएँ घारण किये
हुए हैं। ॥ ६ ॥
पश्य भद्ठातकान्पुछ् चरेरनुपसेवितान्‌ |
9 फलपत्ररवनतान्न शक्ष्यामि जीविंतुम ॥) ७ ॥
देखो, मिलावे के वृत्त कैसे फूले हैं। अगम्य होने के कारण मनुष्य
की उनमें शुज्ञर नहीं। में तोफल और पे खा ऋर ही अपना
शुज्ञास कर सकता हैं भ्रववा ज्ञीदित रह सकता हैँ ॥ ७ ॥

पह्य झोणप्रमाणानि लम्पमानानि लक्ष्मण |


मधूनिर मधुकारीमिः सम्भुतानि नंगे! नंगे ॥ ८ ॥
है लद्मण ! देखो हरेक दत्त में शहद को मव्खियों के लगाये
शहद से भरे छते लब्क रहेहैं|इसमें ३९ सेर से रम शहद्‌ न
या॥5८))
32 न न 3
रे झ्राडिच:--म्राठावत इचल्थितान (यो०) ! २ ह्ोणे--आइचइय । शो०)
है भधुनिद्ववन्तीति नधुछवः: कमेग्यंग छीयू | ( गो+ ) ४ संमतानि--निर्मि-
वात्रि। ( यो० ) ५ नगे नग्रे-वक्षे दक्के। ( यो )
पदपशथ्चाशः सगे ८४
एप ओरोशति नत्यूहस्त' शिखी प्रतिकृनति ।
रगणीये बनोदेशे' पृष्पसन्स्तोरसडुटे ॥ ९॥
देखो यह जलकावा कैसा वाल रहा है । इसका वाकना छुन
मोर भी शोर करता'है। इस रमणीय वन प्रदेश की भूमि फूलों
से ढक गयी है॥ ६ ॥
मातज यूथानुरुत॑ पक्चिसद्ानुनादितम |
, चिन्रकूटमियं पह्य प्रहद्दशिखर गिरिम्‌ ॥ १० ॥
देखो यह चित्रक्ूठ पर्वत का उद्चशिखर देख पड़ता है,जहाँ
पर द्वाथियों के कुंड घूम रहे हैं और पत्तियों के भुंड वेज
रहेहैं ॥ १० ॥
समभूमितल्ले रम्ये हुमेबंहुमिराहते ।
पुण्ये रंस्यामहे तात चित्रकूटस्य कानने ॥ ११॥
हम जाग इस चित्रकूट के वन में (क्षद्दीं) समतत्र भूमि,
छुन्दर वृज्षों का छुरखुद तथा साफ सुथरा' रमणीफ स्थल्र देख,
रमेंगे ॥ ११॥
ततस्तों पादचारेण गच्छन्तों सह सौतया |
रम्यमासेदतुः शै् चित्रकूट मनारमम्‌॥ १९॥
इस प्रकार सीता का साथ लिये हुए दोनों भाई बातचीत
करते पैदल चत्न कर, मनास्म और रफ्य चित्रकूट पेत पर
पहुँचे ॥ १२ ॥
१ नध्युद:--द्रात्यूद: । (गो०) २ वलादशे--दतमदेशे । (गो० ) ३ 'पुष्प-
संल्तर सहुटे--पृष्पमयास्तरणेननिविडे । (यो० ) ४ मावजुबृूथानुसतं--
गबकुलै; ज्याप | ( थो० ) ५ प्रवुद्धशिखवरं--उत्रतशिखर । ( गो० )
धर; ग्रयेध्याकायडे

त॑ तु पव॑तमासाथ नामापक्षिगणायुतम्‌ ।
वहुमूलफर्ल रम्यं सम्पन्न सरसादकर्म! ॥ १३ ॥
इस पर्वत पर झनेक प्रकार के पत्ती रहते थे, वहुत से फल
ब मूल थे तथा अनेक स्वादिष्ट जलन के कुगड थे॥ ११॥
मनेज्ञोज्यं गिरि! सोम्य नानाहुमलतायुतः ।
बहुमूलफले रम्यः खाजीवः' प्रतिभाति मे | १४ ॥
तव भ्रीरामचन्द्र जीनेलद्मण से कहा--है सोस्य |यह परत
कैसा मनेहर है। यह अनेक प्रकार के चूक्ष, लता श्रौर वहुत से
फल्नों तथा मूल्ों सपरेिपूर्ण होने के कारण केसा र्मशीक देख
पड़ता है । यहाँ वड़ी सरलता से हम लेगों का निर्वाह ही
ज्ञायगा ॥ १५॥
मुनयश्र महात्माने! वसन्त्यस्मिभ्शिलाचये |
अय॑ वासे भवेत्तांवदत् साम्य रमेमहि ॥| १५॥
इस पर्बत पर महात्मा और घुनि लाग भी निवास करते हैं।
अंतएव यही हमारे रहने याण्य हेझोर हम यहीं रहेंगे ॥ १४॥
इति* सीता च राम लक्ष्मणश्र कृताझ्ललि! ।
अभिगम्याश्रमं' सर्वे वात्मीकिमभिवादयन्‌ ॥ १६ ॥
इस प्रकार विश्वय कर, भ्रीरामचदछू, लक्ष्मण और सीता'
(तीनों जन ) वाल्मीक्धि जीके आश्रम में गये और हाथ जाड़
फर, उनके प्रणाम किया ॥ १६ ॥ ह >>++कननल

१ लरसोदकं-स्वादूदकम | ( गो० ) २ स्वान्नीवः--शेमनः जीविका


यत्मिन्‌ । (गो० ) ३ शिक्लेच्चये-पव॑ंते | (गो० ) ४ इति-इतिविशिष्य |
(गो० ) ५ आश्रम्ं-वास्मीकियं । ( गो० )
न पदपश्चाणः स्मेः ५८७

तान्मह्िं: प्रमुदितः पूजयामास पर्मवित्‌ ।


आस्पतामिति चाबाच खागतं तु निवेध्र च ॥१७॥
तब घमात्मा मदधि वात्मांक ने इनके द्प्ं ओर प्रसन्न ही,
इनका पूज्नन किया और बैठने को आसन दे और यद् कह कर कि,
प्रधारिये स्वागत क्रिया ॥ १७ ॥

तते्त्रवीन्मद्वाहुलक्ष्मणं लक्ष्मणाग्रजः |
सन्निषेश 'यथान्यायमात्मानमृपये पथ ॥ १८ ॥
तदनन्तर श्रीरामचन्द्र जो महर्षि के अपना, लक्ष्मण का तथा
सीता का परिचय दे और वनवासादि का फारण वतला--लक्ष्मण
से वाले ॥ १८ ॥
लक्ष्मणानय दारूणि हानि च वराणि च |
कुरुष्वावसथं साम्य वासे मेईमिरतं मन! ॥ १९ ॥
देलक्मण ! प्रच्छी श्र मज़बूत लकद्ियाँ एकत्र कर कुटी
वनाझे | क्योंकि है सौरय | यहाँ 4सने की मेरो इच्छा है॥ १६ ॥
तस्य तद्चन॑ श्रत्वा सामित्रिविविधानलुमान्‌ |
आजहांर ततश्क्रे पणशालामरिन्दम) ॥ २० ॥
यद्द छुन, लद्मगा जी प्रनेक प्रकार के जृत्तों कीदोटो द्वाटी
डालें काठ कर जाये और उनसे पर्णुकुदी बना दी ॥ २० ॥
१ यथान्याय॑-यथाक्रम । ( ग्रे० ) २ आत्मानं ऋहपये सन्निवेध--अमुकस्य
पन्नों भय॑ मद्भाता इत्मादि | ( गे।० ;
भष८ श्याध्याकायडे

तां निष्ठितां' बद्धकर्शः हृष्ठा राप। सुदर्शनाम ।


शुश्रपमाणमेकाग्रमिदं: वचनमत्रवीत्‌ ॥ २१ ॥
उस श्रचल थार किवाड़ेदार ओर देखने में भी झुन्दर कुदी
को देख, धोरामचन््र ज्ञी ने सेवाक्ार्य में निरत लइ्मण जी से
कहा ॥ २१ ॥
ऐणेयं मांसमाहृत्य शा यक्ष्यामहे वयमस्‌ |
कर्तव्यं वास्तुशमनं सामित्रे चिरवासिभिः# | २२ ॥
है लद्मण ! दिरन का माँ ले भाओ, जिससे हमर दोनों पणं-
शाल्राधिष्ठात्री देवता की पूजा करें | क्योंकि यदि वहुत दिनों
(किसी नवीन वने हुए धर में )रहना चाहे, तो उसे वास्तुशान्ति
( ग्रहप्रवेश कम )करनी चाहिये.॥ २२ ॥
[ वह्माण्डपुराण में वास्तुशान्ति छी फ़छल्तुति के सम्बन्ध में यह एक
छोक दिया है:--
५ न्चभ्याघिक्षयं तत्य न च उन्धुज्नक्षय:
जीवेदरपशत॑. स्वर्गंकल्पमेबंवसेन्र: ॥ ”
भ्रधाँद्‌ ना नवीन गृह में वाह्तुशान्ति कर के रहता है उप्तकेा ने तो किप्ती
प्रकार की व्याधि का भय होता और न उसके कलुवान्यों का वंशलषेप
दाता है |उप्त घर का मालिक बहुत दिनों तक इस लेक में जीवित रह कर
मरते पर एक कहप भर ल्वयं में रहता है । ]
मृगं हलवाउप्नय श्षिप्र लक्ष्मणेह शुभेक्षण |
कतव्य! शात्धव्शो हि विधिषमभनुस्मर ||२३ ॥
) निश्ितां--निश्चं। (गो० )३ बदुकर-चदवालह्मवरणा वा | (यो०)
एुकाम्॑लक्मणं । (रा०) ४ झाला--शालपिछ्त्री: तत्तदिग्दासिनीःदेवता: ।
(गौर पम--तदबुझ्छघमंशार्त । (गो०) ६ अजुत्मर--अवधेहि,! (गे०)
# पाठच्तरे- चिर्वीविभि: !
पद्पश्चाशः सर्ग धर८६
. है लक्मण ! तुम शीघ्र एक काला हिस्य मार ऋर क्षेआओ ।
क्योंकि भनत्नी भाँति विचार कर, इस विषय की धर्मशाद्र द्वारा
निर्यीत विधि के यथारीति करना उचित है ॥ २३ ॥
भ्रातुवंचनमाज्ञाय लक्ष्मण! परवीरह |
चकार स यथोक्त॑ च त॑ राम! पुनरतबबीत ॥ २४ ॥
मद्ावजवान ज्र्मण जी भाई को थाज्षा के अनुसार लत्मण
काला संग मार कर ले आये । फिर श्रीरामचच्ध जी के कथनानुसार
कारये कर चुकने पर श्रीरामचन्धज्ी ने पुनः उनसे कद्दा ॥ २४ ॥
ऐणेयं 'श्रपयस्वेतच्छालां यक्ष्यामहे वयम्‌ |
स्वर साम्य मुहृतेज्यं भुवथ दिवसेउप्ययम्‌ ॥२५॥
ह अच्छा अप इस माँस के राधा, जिससे हम हृयन करें। हे
' सौस्य ! शीघ्रता करे | क्योंकि यद् मुहर्त भी स्थिर हैऔर दिन
भी अच्छा है ॥ २५४ ॥
स लक्ष्मण; कृष्णग॒गं इत्वा मेध्यं प्रतापवान्‌ |
अथ चिक्षेपर सामित्रिः समिद्धे” जातवेद्सि। ॥ २६ ॥
तब प्रतापी लक्ष्मण ने मारे हुए यक्ञीय काकझ्े स्ग के अच्छी
तरह जलती हुई आग में डाल कर भूना ॥ रे६ ॥
तं तु पक समाज्ञाय निए॒प्तं छित्रशाणितस्‌ |
लक्ष्मण! पुरुषव्याप्रमय राघवमत्रवीत्‌ | २७ ॥
और ज्ञव वह भुत गया और डसका रुधिर जल गया, तव
लक्ष्मण जो ने पुरुषसिह भ्रीरामचन्द्र जीसेकहा ॥ २७॥
ल्‍॥ अपयत्व--पच । (गे०) २ शरुवः--प्थिरइत्मथें: ।(गे।०) ३ चिक्षेप-
पपाच | (गे।०) ४ समिडे--पम्परदीते |(गे।०) ५ जांतवेदसि--अग्नी । (गो०)
४६० अयेध्याकायडे

अय॑ कृष्ण; समाप्ताडुश खृतः क्रप्णशगों यथा ।


देवतां देवसड्ञाश यजस् कुशल! हासि ॥ २८ |
है देवतुल्य ! मैंने इस सम्पूर्ण अंगॉयुक छभा स्ग के रांध
कर तैयार कर, दिया। आप यश्षकर्म करने में समर्थ हैं,अतः
चास्तुदेवता की प्रसन्नता के लिये यज्ञ कीजिये ॥ २८ ॥
रामः स्नात्वा तु नियते गुणवाज्भप्यकाविद; ।
संग्रदेणा*करोत्सवान्मन्त्रान्सत्रावसानिकानर ॥ २९ ॥
तब अ्रमित तेजथारी, गुणवान रवं जप करने में चतुर श्रीराम-
चल्ध जी ने नियमपूर्वक्न स्नान किये ओर संक्तेप से वास्तुयक्ष
सम्राप्त करने के छिये, समाप्ति के सब मंत्रों के पढ़ा ॥ २६ ॥
इष्ठा देवगणान“सर्वान्विवेश# सदन शुचि |
वभूव च मनाहादे! रामस्यामिततेजसः || ३० ॥
सब वास्तु देवताओं का पूजन कर, श्रीयम्चन्ध ज्ञी नेउस
प्रविन्न घर में प्रवेश किया । उस सम्रय अपरभित तेज्नसम्पन्न
श्रीराम जी पड़े प्रसन्न इए | ३० ॥
वेश्वदेववर्लि कृत्वा रोह वेष्णवमेव च |
"व ास ्त ुस ंश मन ीय ान ि मज
नलनलप मनन >>तन333प-++०+०२२००० न 7०
्छ ान ि$ प् रव तत यन ॥ ३१ ॥

) कुशक्राप्ति-समर्योप्ति ।(गे।०) २ संम्रदेण -संक्षेपण | ३ सत्रा
चलानिकान्ू सत्र बात्तुयागःपैमत्रेरचप्तोयतेपरिसमापयतेतैम्नश्रावसाना: सत्रा-
बलाना एवं सन्नावसानिका: । (यो०) ४ देवशणान--वास्तुदेवता: । (गे।०) ५
चास्तुसंशमनीयानि-गृहारिश्श्ञामकानि | (गे०) ६ मद्ग॒ढानि--मंगलऋराणि-
पुण्यादवाचन शानिजफदरीनि । ( ये० ) + प्राठान्तरे--' सर्वान्विवेशावलर्थ-
झ्ुति: | ”
घदपश्चाशः सगे ४६१
भनन्तर उन्होंने वैश्वदेव के लिये रुद्र और विभा के निमित्त
वल्षिदान किया । फिर उन्होंने गृह के भ्रिशदि दूर करने के लिये,
पुएयाहवाचन, शान्ति, जप ध्ादि किये ॥ ३१॥
जप॑ च न्यायतः कृत्वा स्नात्वा नग्रां यथाविधि |
पापसंशमन रामश्वकार वल्िसुत्तमम्‌ ॥ ३२२॥
फिर यथेचित जप कर तथा यथाविधि फ़िर नदी में स्नान
कर, पाप की शान्ति के लिये उत्तम वलिदान किया ॥ ३२ ॥
वेद्स्थिकविधानानि चैत्यान्याय 'तनानिः च |
आशवमस्यानुरूपाणि स्थापयामास राघव! ॥ ३३ ॥
फिर भ्राठों दिशाप्रों मेंवलिहरणाथ, वेदियाँ शोर गन्धर्षों के
वासस्थानों का तथा विष्णु आदि देवताओं के वासस्थानों का
आश्रम के अनुरूप स्थापन किया ॥ ३३ ॥
. वम्येमास्येंः फलेमूलेः पक्ेमासैैथाविधि ।
_अद्विनपैश् वेदोक्तेदमेंथ ससमित्कुशै) ॥ २४ ॥
तो तपयित्वा भूतानि राघवो सह सीतयां ।
तदा विविशतुः शालूं सुशुभां शुभलक्षणो ॥ ३५ ॥
फिर यथाविधि फूल मालाशों, फलों, मूल्ों ओर रंधे हुए
माँस से, तथा कुश की पत्रित्रियाँ घारण कर, छुंश मिक्के हुए
जल से, वैदिक मंत्रों द्वारा श्रीरामचन्द्र जीने भूवों का ठृप्त कर,
सोता सद्दित उस मनोहर झोर शुभलत्नण वाली ( अर्थात्‌ दवा
! चैद्यानि--गन्धर्धयांगासल्यानानि | (गे!०)२ आायवनानि --विष्ण्वयावास
स्थलानि | ( गे० ) ह
श६२ छझवाध्याकायडे

रोशनी जाने आते केलिये पर्यात साधनों से युक्त) शाला में


प्रवेश करने को इच्छा की ॥ ३४ ॥ ३५ ॥
५ ॥५ + ०
ता इक्षपर्णच्छदनां प्रनान्ी
यथाप्रदेश सुकृतां निवाताम |
वासाय सर्दे विविशुः समेता।
सभा यथा देवगणाः सुधरमाम ॥ ३5 ॥
देवतागण जिस प्रज्ञार सुधर्मा नाम की सभा में प्रवेश फरते
हैं,उसी प्रकार ( श्रीरामचनद्र लद्मण और सीता ) तीनों ज्ञनों ने
एक साथ, उस दक्तों के पत्तों थेछायोी हुई, उचित स्थान में प्रति-
छित, मनेहर एव वायु रहित पर्णंशाला में रहने के लिये, उसमें
प्रवेश किया ॥ ३ ॥
अनेकनानाझगपक्षिसडुछे
विचित्रपत्रस्तवकेदु मेयुते |
थे ७ ९०

वनात्तमे व्याल'प्रगानुनादिते
तदा विजह:सुसुख॑ जितेद्धियाः ॥ ३७ ॥
_धनेक् पशु पत्तियों से पूर्ण,तरह तर के पत्र पुष्पों से
शेमित,
चृत्चों से युक्त उस उत्तम चन में, झिसमें हाथी ग्रौर धन्य जहुली |
जानवर वाज्ला करते थे, जितेखिय धीरामचन्ध जो छुल्मपव॑द्ध चिहार
करने लगे ॥ ३७॥ द
मुसयमासाथ तु चित्रकूद
नदी च तांः माल्यवर्ती लुतीयाभ्* |
डे व्याडा;--पर्पा: पद्म वा | (से ) १ बॉ--प्रंसिदां । (दो० )
३ झुततीपॉस-शे।मदज्दाबतरणप्रदेशां | (गो०)
सप्तपञ्चाशः सर्गः ४६३

ननन्द रामे# मगपक्षिजुष्टा


जही च दुःखं पुरविप्रवासात्‌ ॥ ३८ ॥
इति षद्पश्चाशः सर्गः ॥
इस प्रकार सुन्दर और रमणीय तथा सृग पत्तियों से युक्त
चित्रकूट पव॑त पर, स्वच्छ मीठे जलन वाल्ली प्रसिद्ध माल्यवत्ती नदी
को पा कर, श्रोरामचन्द्र जी प्रसन्न|हुए और अयोध्या त्यागने का
दुख त्याग दिया शर्थात्‌ भूल गये ॥ २८ ॥
[भने5--इप्त सं तक महपिं ने श्रीरामकचरद्र जी की अयोध्या से चित्र-
कूद तक की यात्रा का चर्णन किया | अब आगे फिर क््योध्या का वर्णन आरस्म
ऐैता है | स्मरण रखना चाहिये कि, श्रीरामचर्द्र जो अयोध्या से चित्रकूट पाँच
दिन में आये थे । रास्ते में तीन दिन ते केवछ जल पी कर द्वी रद्द गये थे,
चैथे दिन माँत खाया था और पाँचवे दिन चित्रकूट में नियमित खझूप से
साजन किये थे । ]
अयेधष्याकाण्ड का छुप्पनवाँ सगे समाप्त हुआ ।
नई:

सप्तपन्नाशः सगे
आचब०३-

कथयित्वा सुदु!खातेः सुमन्तरेण चिर॑ सह ।


रामे दक्षिणकूलस्थे जगाम स्वगृहं गुह! ॥ १ ॥
श॒द्द अत्यन्त ढुःखी दी, सुमंत्र केसाथ वहुत देर तक वात-
चोत करता रहा और जब धीरामचन्द्र जी गड्ढा के दत्तिणतट
पर पहुँच गये, तब गुह अपने घर के चला गया | १ ॥
#'पाठान्तरे--* हष्टो |
चा० र|०--३े८
५६४ अयेध्याकायदे

भरद्वाज़ाभिगमनं प्रयागे चसहासनम्‌ ।


आगिरेग॑मन तेपां तत्रस्थैरभिलक्षितम ॥ २॥
छुमंत्र, श्ड़रेखुर के चरों द्वारा श्रीरामचद्ध ज्ञी का प्रयाग में
भरद्दाज्ष जी के भ्राश्रम में ज्ञाना, उनके यहाँ ठहरना, तथा वहाँ
से चित्रकूद पर्वत पर जाने श्रादि का पता ल्षेते रहें ॥ २ ॥
अनजुज्ञातः सुमन्त्रोज्य योजयित्वा हयेत्तमान्‌ ।
अयेध्यामेव नगरीं प्रययों गाहंदुमनाः ॥ ३ ॥
तदनन्तर गुद से विदा हो, छुमंत्र स्थ में उत्तम घोड़े जात
धत्यन्त उदास है अयाष्या को ओर चल दिये ॥ ३ ॥
स वनानि सुगन्धीनि सरितश्व सरांसि च |
पश्यन्नतिययों शीघ्र ग्रामाणि नगराणि च ॥ ४ ॥
खुम्ंत्र जोखुगन्धित पुष्पों सेपूर्ण वनों, नदियों, सरोवरों,
ग्राम्ों और नगरों के देखते हुए वड़ी तेज़ी से चक्ते जाते थे ॥ ४ ॥
ततः सायाहसमयरे तृतीयेडनि सारथि! |
अयेध्यां समजुप्राप्य निरानन्दां ददश ह ॥ ५ ॥
ग्टजवेरपुर से रवाना द्वोने के तीसरे दिन सायड्ाल को
सुमंत्र अयोध्या में पहुँचे ओर पुरो के उदास देखा ॥ ४ ॥
स शुन्यामिव निःशब्दां दृष्ठा परमहुमना! )
सुमन्रश्चिन्तयामास शेकवेगसमाहत; ॥ ६॥
, झनशून्य, जैसी नगरी अयोध्या में सत्यादा छाया हुआ देख,
खुमंत्र बहुत उदा धहुए भोर शाकाकुल हो साचने लगे ॥ ६ ॥
7 सप्तपथ्चाशः सर्गः ५६५

कचिन्त सगजा साश्वा सनना समनाधिपा ।


रामसन्तापदु!खेन दग्धा शोकामिना पुरी ॥ ७॥
कि कहीं यह नगरी हाथियों, धोड़ों, नगरनिवासियों श्रौर
महाराज सहित; भीरामचन्द्र केवियागजन्य सम्ताप एवं दुःख
से उत्पन्न, शोकरूपी आग से भस्म तो नहीं हो गयी ॥ ७ ॥
इति चिन्तापरः खते वाजिभिः शीघ्रयायिति ।
नगरद्वारमासाथ त्वरितः प्रविवेश ह॥ ८ ॥
इस प्रकार सेचते हुए छुमंत्र शीघ्रगामों घोड़ों. के रथ पर
सवार, नगरद्वार पर पहुँच, तुरन्त नगर में प्रवेश करते हुए ॥ ८॥
सुमन्त्रमभियान्तं त॑ शतशे5थ सहस्तश्ञः |
क्य राम इति पृच्छन्तः सूतमभ्यद्रवन्नरा। ॥ ९ ॥
सुमंत्र को नगर में आराया हुआ देख, सैकड़ों हज़ारों पुरी-
वासी जनों ने दोड़ कर, उन्हें घेर लिया झोर यह पू छुनेलगे कि,
श्रीरामचन्द्र जी कहाँ हैं ?॥ ६ ॥
तेषां शशंस गद्भायामहमापृच्छय राघवस्‌ |
अजुज्ञाता निहत्तोन्‍स्मि धार्मिकेण महात्मना ॥ १० ॥
. इन खब को सुमंत्र नेयही उत्तर दिया कि, गड्ला जी के तट
पर पहुँच, धामिक धीरामचन्द्र जीनेजब मुझे लैठने को प्राज्ञा
दी, तब मैंलोढ कर झयां हैं ॥ १० ॥
ते वीर्णा इति विज्ञाय वाष्पपूर्णयुस्रा जनाः ।
अद्दे धिगिति निःश्वस्य हा रामेति च चुक्रुश। ॥११॥
ध६६ आयेध्याकायदे
तब वे पुरवासी श्रीरामचन््ध जी के गड्ा के पार उतरा ज्ञान,
नेत्रों में झ्रांघु भर, मुख से हाय |!
धिकार दे कद, ओर दीर्व श्वास के
5 हा राम ” कद कर चिद्दाने लगे ॥ १२ ॥
शुआाव च वचर्तेपां बृन्दंबून्दं च तिप्ठताम्‌ ।
हताः सत्र ख़लु ये नेह पश्याम इति राववंस्‌ ॥ १२ ॥
उस समय उस जअनसमुदाय से यही छुन पड़ता था कि, ह
हम लोग मारे गये जे! हम राम के नहों देख पाते ॥ १२ ॥
दानयज्विवाहँपु समाजेदु महत्यु च ।
न द्रक्ष्याम: घुनजातु' धार्मिक राममन्तरा' ॥ १३ ॥
हाय | दान, यज्ञ, विवाह, ओर पड़े बड़े समाजों में लेगों
के बीच, मात्रा के सुमेंढ की तरद बैठे हुए श्रीराम के दम अब
कभी तेदेख सकेगे॥ २३॥
कि समये जनस्वास्यं कि प्रियं कि सुखावहम ।
इति रामेण नगर पिठ्वत्परिपालितम॥ १४ ॥
हा! दे ध्ोरामचन्ध जो तो अप्तुकन्नन के लिये क्या दोक है.
क्या अच्छा है शोर फ्या खुजदावी है, इन सब वातों का विचार
कर; पिता को तरह वगरचासियों का पालन करते थे ॥ २४ |
वातायनंग्तानों च लाणामनन्तरापणत ।
रामगाकामितप्तानां शुआव परिदेवनम ॥ १५॥
छुम्नंच् ज्ञाते जाते, सडक के दोनों तरफ झतरोलों में वैटी
ओयम के वियाग से सन्त पुरवारियों के विज्ञाप छुनते थे ॥ १५ ॥
५भाभाानाशाभानाभानााााानांक या आरा लत भीम ली अजनबी लीक

१ पुनःजातु-कद्ाचिदपि । (र०) ३ कन्तरा--अष्येवायकम णिंवदट्तमान


(मो०)
सप्तपथ्चाशः सगे: ४६७

, स राजमागमध्येन सुमन्‍्त्र; पिहिताननः ।


यत्र राजा दशरथस्तदेवापययों गृहम्‌ ॥ १६॥
राजमार्ग मेंइस प्रकार का विज्ञाप छुन, सुमंत्र नेअपना मुख
ढक लिया और बड़ी शीघ्रता से वेमहाराज के देवेपम गृदद की
और गये ॥ १६ ॥
सेवतीरय रथाच्छीघ्रं राजवेश्म प्रविश्य च ।
वाक्ष्या। सप्ताभिचक्राम महाजनसमाकुछा। ॥ १७॥
सुमंत्र नेरथ से उतर बड़ी शोघ्रता- से लेगों की भोड़ से परि-
पूर्णसात फ़ाठकों को पार कर राजभवन में प्रवेश किया ॥ १७ ॥
हम्येंविंभाने! प्रासादेरेक्ष्याथ समागतम्‌ |
हाहाकारक्षता नाये रामादशनकर्शिताः ॥ १८ ॥
छुल्लों, सतबने मकानों की श्दारियों और भवनों मेंबैठी
तथा श्रीराम के चियाग से कर्वित छ्लियाँ (अक्ेले) खुमंत्र को आया
देख, हादाकार करने लगीं ॥ १८ ॥
. आयपैविमसेनेंत्रेरभुवेगपरिप्लुतेः ।
: अन्योन्यम्रभिवीक्षन्ते्व्यक्तमातंतरा; ख्रिय। ॥ १९ ॥
आँघु ढलकती हुई परस्पर देखती '
वे बड़े बड़े विमल नेत्रों से
थीं भर श्रत्यन्त दुःखी हो ऐसे विज्ञाप भरे वचन कद्दती थों, जे।
घस्प्ट थे ॥ १६॥
तते दशरथब्लीणां परासादेभ्यस्ततस्ततः |
रामशेकामितम्वानां मन्दं झुआाव जल्पितम्‌ ॥ २० ॥
प्र्क्द शअवाष्याकायदे

राजमवन के भीतर भी इधर उधर महाराज दश्स्थ की रानियों


का जे। श्रीरामचन्ध के शाक्त से सन्‍्तप्त थीं, घीमा आल्ाए खुन पड़ता
घा॥२०॥
सह रामेण नियाते बिना राममिहागत: |
मृत; कि नाम कासस्यां जानती प्रत्रिक्ष्यति ॥२१॥
वे कहती थीं कि, यह छुमंत्र ओरामचन्ध के ले ऋर गया था,
किन्तु उनके दाड़ फर अकेला लौट ऋर आया है। अब इंजें राठी
हुई ऋाशल्या के किय प्रद्धार यह घोरत बंघाता है ॥ २१ ए
यया च मन्य हर्नोदिमंव ने सुकर श्रवन्त |
आ्चियों पुत्र नियाते कास्तस्या यत्र मीवति ॥१शे]
हम तो यही कहैंगी कि, जीव के। दुःख भेगमे के लिये जीना
जैंधा पसन्द है वैसा छल के लिये नहीं। देको इसोसे तो पपने
पुत्र (श्रीरामचद्ध ) के राज्य का कर वत चले जाते पर नी,
कोशल्या झव तक ज्ञो रही है ॥ २२ ॥
सल्नद॒प॑ तु तद्वाकर्य राज: दीणां निद्ामयन्‌ |
अपदप्तमित शान विवश संदता ग्रद्म | शभ्३्॥ ;
इस प्रकार उन रानियों के ये सत्यचचन छुनते हुए रुमंत्र,
शोक से दृग्ध दे, ग्रचानक महाराज के घर में जा पहुँचा ॥ २३६
से प्रविश्याप्र्मी कक्ष्यां राजान॑ दीनमातुरम
घुत्रताकपरियन मपश्यत्पाण्डरे गह्े ॥|२४ ॥
१ आहेच--राज्य
ल्क | ( धि०? ) +ेरर्चिनं--कीय | ( गो+
# पाठान्तरे-- प्रदीक्षदत् ।*
सप्तपञ्चाशः सगे ५६६
आदवों ब्योढ़ी लांघ उसने महाराज के सफेद रंग के कमरे
में जाकर देंखा कि, महाराज दीन, झातुर और पुत्रशोक से
त्ीण हीरहेहैं॥२४ ॥
अभिगम्य तमासीन नरेन्द्रपभिवाद्य च ।
सुमन्त्रो रामवचन ययेक्तं प्रत्ययेदयत्‌ ॥ २५॥
सुमंत्र नेजा कर बैठे हुए महाराज के प्रणाम किया और जे
बातें श्रीरामचन्द्र क्षी ने
महाराज से कहने के लिये उससे कहां
- थीं--वै वाते ज्यों की त्यों उसने म्रह्दाराज से कहाँ ॥ २४ ॥
स्‌ तृष्णीमेव तच्छुत्वा राजा विश्नान्तचेतनः ।
मूर्छिता न्यपतदभूमा रामशेकामिपीडितः ॥ २६ ॥
' उन बातों के चुपचाप खुन, महाराज की बुद्धि ठोक ठिकाने
न रही। वे श्रीराम के वियागजनित शोक से श्रत्यन्त विकल होने
के कारण, अचेत हे पृथिवी पर गिर पड़े ॥ २६ ॥
ततेन्तःपुरमाविद्ध' मूछिते पृथिवीपता |
- उद्धृत्य वाहू चुक्रोश इृपतो पतिते क्षितों ॥ २७॥
उस समय महाराज के मूछ्ित दो, पृथियो पर पड़ा देख, रन-
वास की सब रानियाँ वड़ी दुःखी हुई और वादे उठा उठा कर
रोने लगों ॥ २७ ॥ |
सुमित्रया तु सहिता कैसल्या पतितं पतिम्‌ |
उत्थापयामास तदा वचन चेदमत्रवीत्‌ ॥ २८ ॥
? भाविद्धं- शेकिनासिद्वितं । ( गो )
६०० अवाध्याकायडे

तब सुमित्रा और कोशल्य ा ने ज़ मी न पर पड ़े हु ए मद ्द ार ाज के
उठाया और कहने लगी ॥ २८ ॥
इम ं तस ्य मह ाभ ाग द ू त दु ष् कर का रि णः ।
वनवासादनुआएं कस्मान्न अतिभापसे ॥ २९ ॥
हे पद्माभांग ! मद्माकठित कार्य करने वाले धोराम्रचन्ध के,
ये दूत वन कर वन से आय े ह ु ए हैं। इन से आ प क् यो ं बा तच ीत
नहीं करते ॥ २६ ॥
अद्येममनयं' कूला व्यपत्रपसि राघव |
उत्तिष्ठ सुक्ृत' तेउ्स्तु शाके न स्पात्सहायता ॥२०॥
हैगधव ! धोरामदरद्ध नी के देशनिकाला देंकर, अव आप
क्यों लज्ञित दी रहे हैं |उठिये उठिये ! श्रवर॒ इस शाक्ष के लिये
क्ाई चार नहीं-अतः अव शाप शेकह्ू मत कीजिये | शर्यात्‌
शव इस शोक के निनत्त करने क लिये काई उपाय शेष नहीं रहा ।
ऐसो दशा में आपके लिये शत शोर करना शोत्ा नहों देता ॥३०॥
देव यस्या भयाद्वाम नानुपृच्छसि सारथिम्‌ |
नेह तिष्ठति केकेयी विद्धव्यः प्रतिभाष्यताम ॥ ३२१ ॥
है देव |जिसके नव से आप छुमंग्र सेवातचोत नहीं करते
घह कैकैयी यहाँ नहीं है । श्राप निश्नेय दे वातचीत कोजिये ॥ ३१ ॥
सा तथेक्ला महाराज कासल्या शोकलाछसा |
धरण्यां निपपाताशु वाप्पविष्कुतभाषिणी ॥ ३१ ॥
_... ) इमसलयूं--पुत्नविवास्तन । ( बो० ) ३ छुछ्त॑--ओलन । (गोल)
३ विज्नष्धं--निःशड्म । ( गो० )
सप्तपथ्चाशः सर्गः है०१
महाराज से ये वचन कहते कहते काशक्या शोक से कातर है!
यर्यों, इनका कणठ गदुगदु दो गया । वे भूमि पर गिर पड़ीं ॥३२ ॥
एवं विलपती हृष्टा कासस्यां पतितां भरुवि |
पर्ति चावेक्ष्य ता! सवा! सुस्वरं रुरु! स्रियः ॥२३॥
इस प्रकार विज्ञाप करतो हुई और भूमि पर पूछ्ितावस्था
को प्राप्त कोशल्या को तथा महाराज्ञ का देख, वहां जे प्त्य
रानियाँ तथा भ्रन्त;पुर की हियाँ थीं-ये उद्चल्लर से रुदन करने
जगीं ॥ ३३ ॥
ततस्तमन्तःपुरनादमुत्पित
समीक्ष्या दृद्धास्तरुणाथ मानवा! ।
ख़ियथ सवा रुरुदु समन्ततः ह
पुर तदासी5ध्युनरेवा सडुलम ॥ २४ ॥
इति सप्तयञ्चाणः सर्गः ॥
रनवास मेंरोने का शब्द उन, श्रयाध्यापुरी में उस समय
जितने बूढ़ेभर जवान पु रु ष थे तथ ा वह ां जि तन ी ख् िय ां थी ं, वे
सव की सब चारों शोर रोने लगीं और सप्तूची श्रयोध्यापुरी में
फिर पक वा र वै सा द्व ी द्व ाद् यका र हु आ, जै सा ध् री रा मच नद ्र के वन
जाते सम्रय हुआ था ॥ ३४ ॥
अ्वाध्याकागड का सत्तावनवोँ सर्ग समाप्त हुआ ।
आीआि---

पो ० ) ३ पु नर ेद सद ुछ म | रा सग सन का ल-
३ समीक्ष्य--ध्रत्वा | (
इवब्याकुलमातीत्‌ | ( गो )
ञ्
अष्टपन्नाशः सगेः
(5

+-३ ० $--

प्रत्याश्वस्ता! यदा राजा मेहाल्त्यागत: पुन! ।


अथाजुदाव त॑ सूतं रामहत्तान्तकारणात्‌ ॥ १ ॥
कुछ देर वाद जब महाराज उपचारद्वारा सचेत हुए, तव भ्रीराम-
चत्ध का बूचान्त सुनने के लिये घूत के पुकार और उनको
झर अपना मुख फैरा ॥ १॥
अथ सूते महाराज कृताझलिस्पस्थितः ।
राममेवानुशेचन्त दुः!खशेकसमन्वितम ) २ ॥
सुमंत्र, मद्दाराज्ञ केसामने होथ जोड़े खड़े थे। उस समय
मद्ाराज दशरथ, भ्ोरामचन्र के वियाग से चिन्तित ओर शोक
से विकल थे ॥ २॥
हृद्धं प्रमसन्तप्ं नवग्रहमित द्विपम्‌ |
विनिःश्वसन्तं ध्यायन्तम“अखस्थमिव कुझ्लरम्‌ ॥३॥
बूढ़ेमहाराज दूगरव, दाल के पकड़े हुए हाथी की तरह परम
सन्‍्तप्त थे ओर उसी तरह उसाँसे के रहे थे, जिस प्रकार एक
व्याधिग्रस्त हाथी उसाँते लेता है ॥ ३ ॥
राजा तु रजसा सतं# ध्वस्ताडु समुपस्थितम्‌ ।
अभुपृर्णयुख॑ दीनमुवाच परमातंबत्‌ ॥ ४ ॥
ऐप » ६

१ प्रत्याखवल्तः--अपचारैद्धोघित: । (ग०) २ प्रत्यायतः--सुतह्पानि-


मुखागत: | (गो० ) ३६ नत्रयहँ --प्ग्मोगुड्रीते ) (गो० ) ४ बअह्वस्थ--
व्याधिम्रक्त । (यो० ) # पराठान्तरै---६ चूत )!
प्रध्पश्चाशः स्गः है०३
मंत्रके सारे शरीर में घूल लगो थी, ग्रांखों सेआँधू वह रहे
थे, देखने से वे प्रत्यनत विक्ल ज्ञान पड़ते थे। ऐसी द्शा का
प्राप्त खुमत्र से,महाराज दशरथ श्रत्यन्त कातर मनुष्य की तरह
बेले।॥ ४॥ .
कु वत्स्यति धर्मात्मा हक्षमृल्मुपाश्रितः ।
सेख्त्यन्तसुखितः खत किमिशिष्यति रापघव! ॥ ५॥
है'सुमंत ! वह धर्मात्मा कहाँ--बृत्त के नोचे वास करता
दोगा घोर जे। हर प्रकार से खुलपूर्वक रहने येध्य है-वह राम
वन मेंक्या खायगा ? ॥ ४ ॥
दु/खस्थालुचिते दुख सुमन्‍्त्र शयनाचितः ।
भूमिपालात्मना भूमों शेते कथमनाथवत्‌ ॥ ६॥
०५ ्डै

है सुमंत्र |हमारा राम दुःख भागने योग्य नहीं--वह ते सेज्न


पर सेने योग्य है। भला एक राजकुमार एक अ्रनाथ की तरह
कैसे भूमि पर से सकता है ? ॥ ६ ॥
य॑ यान्तमनुयान्ति स्मपदातिरथकुल्लरा! |
हु न

स्‌ वत्स्यति कथ्थं राम विजन वनमाश्रित! ॥ ७ ॥


जिस राजकुमार की सवार के पीले अनेक पेद्ल सिपाही,
रथ ओर घोड़े चला करते थे, वह राम जनशुन्य वन में केसेरद्द
सकेगा ॥ 9

व्यालैगगैराचरितं कृष्णसपंनिषेवितम्‌ |
क्॒थ॑ कुमारी वैदेशा साथ वनमुपस्थितों | ८ ॥
६०७ अवेष्याकायदे

जिस वन मेंअनेक अजगर भोर दुए वनजन्तु विचरा करते


हैंऔर जिसमें काले साँप रहा करते हैं, उस वन में सीता सदित
दोनों राजकुमार कैसे रहते होंगे ॥ ८॥ *
सुकुमायां तपस्िन्या सुमस्त्र सह सीतया |
राजपुत्रो क्थ पादेरवरुद्य रथादगता ॥ ९ ॥
दे छुमंत्र !उस उुकुमारी ओए दुःद्चियारों सीता के साथ ले--वे
दोनों राजकुमार किस तरह रथ से उतर कर पैदल चले होगे ॥8॥
सिद्धार्थ: खलु सूत ल॑ येम दृष्टों मगात्मजों ।
पनान्तं प्रविशवन्ती तावश्विनाविव मन्दरस ॥ १० ॥
हेछुमंत्र !तू वड़ा साग्यवानहै,जिसने मेरे दोनों राजकुमारों
के वन में उसी प्रकार जाते देखा, जिम्न प्रकार अश्विनीकुमार
भन्द्राचल पर ज्ञाते हैं ॥ १० ॥
क्िमरवाच बचा राम) किम्रुवाच च लक्ष्मंणः ।
सुमन्त्र वनमासादय किमुवाच च मेयिली ॥ ११॥
दे सुमंत्र !वन में पहुँच, यम ने क्या कद्दा, लह्मण ने क्या
कहा भार सीता नेक्या कहा ? ॥ ११॥
आसितं शयितं मुक्त सूत रामस्य की्तय |
जीविष्याम्यहमेतेन ययातिरिव साधुषु ॥ १२॥
देछृत |तुम राम के उपवेशन, शयन तथा भजन का वृत्तान्त
कद्दो, जिसके सुनने से मेंकुछ देर ओर उस प्रकार ज्ञीवित रह
सकू,जिस प्रकार साथु के चचनों के खुत, राज्ञा ययांति .जीवित
रहे थे ॥ १२॥
अष्पञ्चाशः सर्गः हैं०४

[ नेट--डिख्ा दे, राजा ययाति जब खग में पहुंचे और अपने सुकृततों


का कप जा छत ; तत्र इन्द्र नेउनसे कद्ठा कि, जिद्ठा पर
अग्निदेव का
वा्त दे । तुमने अपने सुझतों का अपने भाप वर्णन कर अपने सुझतों के दग्य
कर डाला, अतः भव तुम स्वर्ग में नहीं रद सकते । हल्युलाक के चढे
जाओ । तब यथाति ने यह प्रार्थना की कि, यदि आप मुझे झत्युलाक में भेजते
हैं, ते वहाँ ऐपी जगद भेजिये जहाँ साधुओं का प्ाथ मिले | ययाति की
यह प्रार्थथा खीकृत हुई और इसका कर यद्व हुआ डि, ययाति को स्वर्ग
पे गिरने का ते। दुःख हुआ था, चद लाधुत्तमागम से दूर दा गया था । ]
इति सते नरेन्द्रेण चादितः सज्जमानया' |
उबाच वाचा राजान॑ स वाष्पपरिरव्धया ॥ १३॥
जव महाराज ने इस प्रकार श्राज्ञा दी, तव सुमंत्र गदुगद
करण्ठ दे, लड़खड़ाती वाणी से कद्दने लगे ॥ १३ ॥
अब्नवीन्मां महाराज धर्ममेबानुपालयन | ।
अज्ञलिं राघव! कृत्वा शिरसामिप्रणम्य च ॥१४॥
सृत मद्चनात्तस्य तातस्य विदितात्मन/* |
शिरसा वन्दनीयस्य वन्दो पादाकपुन! पुन!॥१०॥
हैमहाराज | धर्म केपालन करने वाले श्रीरमचद्ध ने हाथ
जोड़ और मस्तक झुका कर यह कहा कि, मेरी ओर से संसार
मेंधर्मामा कह कर प्रसिद्ध एवं वन्दनीय महाराज पिता के चरणों
के वार वार प्रणाम कर ॥ ९४ ॥ १५ ॥
१ पज्मानया--एछ्लन्त्या | (योर ) २ वाष्पपरिरत्धया--कण्ठगतवाष्प
रंदयेलर्थः । (गो० ) ३ मद्बचनातू--ममग्रतिनिधित्वेन |(रा०) ४ विदि-
तात्मानः छोक्रेधार्मिएत्वेनप्रसिदत्थ | (र०) ५ वन्यौ--वन्दनीयौं । (रा५ )
क पाठान्तरे--“मद्दात्मना |
६०६ प्रयाध्याकायडदे

सर्वमन्त;पुरं वाच्यं छत मदचचनात्तया |


आरोग्यमविशेषेण यथाई चामिवादनम्‌॥ १६॥
भ्रन्तःपुरवासो समस्त स्त्रियों और पुरुषों के भो मेरो झोर
से मेरा कुशलसमाचार कहना और यथायाबग्य प्रणामादि
कहना ॥ *5 ॥
माता च मम कासल्या कुशछ चामिवादनम |
अप्रमाद॑ च वक्तव्या ब्रयाथ्नामिद बच! ॥ १७॥
मेरो माता कैशल्या सेभी मेरा कुशलसमाचार कह ऋर,
पैसे और से प्रणाम कहता और यह भी कह देता कि, अपने
कर्तव्य के पालन मेंप्रमाद न करें अर्थात्‌ तत्पर रहें | १७ ॥
त्या यथाकालमग्न्यगारपरा' भव |
धर्मनित्या

देवि देवस्य पादों च देववत्परिपालूय' ॥ १८ ॥


और ययासप्रय तित्य धर्माइछानादि करती रहे और यज्ञ-
शाला को चैकसी रखें ।फिर यह कहा है कि, हैदेवो ! महाराज
के देवतावत्‌ मान उनकी चरणसेचा करे || १८॥
अभिमान॑ च मान च त्यक्त्वा वर्तख मात्षु ।
अल राजानमायो च कैक्ेयीमम्त कारय* || १९ ॥|
श्र कुलामिमान एवं वड़प्पन का विचार त्याग कर, मेरी
अन्
-“7 य मा ता ओं के _
साथ - ना ।.
व्यवद्वार-कर. ाजाज ै
महार. की विशेष
महार कीविशेष
) ओत्वागारपरा--वागशालारक्षिकामव | (सि० ) २ परिपाव्य--
निषेवत्व | (शि० ) ३ कारय--राजान क्ैडेयोयनुल्य भ
वुवतत ।
६७४
नी

अप्पपथ्ाशः संग
हपापात्र माता केकैयी है। .: उसके प्रति भी बैसा हो व्यवह्दार
फेरना जैसा महारान के साथ ॥ 5, |
हमारेभरते इतिवर्तितव्या च रानव््‌
अथ्येप्ठा हि राजाना राजपर्ममतुस्मर ॥ २० ॥
भर कुमार भरत से राजा जैसा वर्ताव करना--यद्यपि भरत
वय में नहीं, तथापि घन से ज्ये8 देने के कारण, राजधर्माठुसार
उनके प्रति राजा जैसा व्यवह्यर करना ॥ २० ॥
भरतः कुशल वाच्ये। वाच्ये। महचन ेन च ।
सवास्वेव यथान्

याय॑ हत्ति वस्त्

र मातृष
&
ु ॥ २१ ॥
( हेमहाराज ! श् री रा मच द् ध जो ने भर त जी के लि ये यह कह ा
हैकि )भरत ओ से मे रा कु शल बू त् त कह ना श् रौ र यह वा त कह ना
कि, वे सब मा ता ओं के सा थ न् या यप ूर ्व क व् यव दा र कर े ॥ २ १ ॥
वक्तव्यश्र महावाहुरिएवाकुकुलनन्दन; |
पितर यौवराज्यस् थे । रा ज् यस ्थ मन ुप ाल य ॥ २ २ ॥
>2इच्वाकुकुलनच्बन भरत से यद भी कह ना कि , यु वर ाज है । कर
महाराज पिता की श्राज्ञा मेंचलें ॥२२ ॥
अतिक्रान्तवया रा जा या स म न व् यव रो ाश ्ध ः! |
कुमारराज्ये जीव त्व॑ तस्प ेव ाज ्ञ भव तन ात ्‌ ॥ २ ३ ॥ छः

महाराज भव बहुत बूढ़ेहैं, अतपव उन के रा ज् यम ्र श न कर ना


की अप ्र िज ्ञ ाप मत कर ना औ र यु वर ाज पद पा
अर्थात्‌ रा ज् या सन
ज्
ज ़ञेे। क
कह ह
ेंेतसोाक
कर र
नात ा॥ ३३ ॥|
_कर ही सन्तोषकर, महाराज
- - ब ् य प र े द थ ः रा ज् या व् ‌ अ ं श य े श य ः । ( र ा ० )
२ व्य व र े र ु ध ः
६०८ अयेध्याकायदे

ा ँ भ ू व े । म ृ श म श ् र ू ण ि व र ् त व त ् ‌ ।
अव्रवीज्ञापि म ी ॥ २४ ॥
म र म ा त ा त े द ् र ष ल ् य ा प ु त ् र ग र ् ध ि न
मातेव
ा क र म ु क स े यद द भ ी क ह ा
प्रोरामचन्दर जी ने अत्यन्त दुलिय त् तल ा म ा त ा
र त ज ी स े य ह व ा त क ह दे ना क ि . मे री पु त् रव
हैकि, भ
त र ह सम र् के ॥ २ ४ ॥
के अपनो माता की
इस्पेव॑ मां महा र ा ज बु वच ्न ेव म ह ा य श ा ः |
५ ॥

रामे राजीवताम्राक्षो मुशमश् रृ



ण् यव ते यत ्‌ ॥ २
महावाहु, महायशघ्त्ी, पद्मपल ् ल ा श न च न श् री या मच न् ध न े म ु झ स े
थे सन ्‍ ्द ेश े ऋ द े भ ा र व ह ु त रो ये ॥ २ ४ ॥
रुक्ष्मणस्तु सु सं कद ्ध ों न ि ः श ् व स न ् व ा क ् य म त ् र व ी त ू ।
केनाय म प ् र ा ध ै न रा जप ुत ्र ो व ि व ा स ि त ः ॥ २ ६ ॥
तव लक्ष्मण जी ने अत ्य न् त छु षि त हे औ र ऊँ ची सा ंस ले यह
कहा । इन राजक ुम ार ने को नस ा ऐस ा अप रा ध क् रि या था जि सस े
इन्हें देशनिकाला दिया गया है ॥ २६ ॥ ३

राज्ञा तु ख हकै के
कै य्या लघ ु ला भर िय शा सन म् ‌ ।
कृत कायमकाय वा बय॑ येनाभिपीडिता। ॥ २७॥
. महाराज ने कैकेयी को तु च् छ वा त मा न औ र प्र तिज ्ञा कर , का र् य
शरका र् य का कु छ भ ी वि चा र न क् रि या । ( इस का फल ्ल यह हु आ
» कि) इुश्ख दम लोगों के भेगना पढ़ता है॥ २७॥
यदि प्रत्नाजिता रामे! छोभकारणकारितम |
वरदाननिमित वा सवंया दुष्कृत कृतमू ॥२|८ ॥
अष्पश्चाशः सर्गः ६०६

यदि श्लीरामचद जी, फैकैयी के ( श्रुचित ) लालच वश


अथवा वरदान पूरा करने के लिये वन भेजे गये हैं,तो यह कार्य
सर्वथा दुरा है॥ रे८ ॥
इंदं तावधयाकाममीरवररस्‍्प कृते कृत |
रामस्य तु परित्यागे न हेतुमुपलक्षये ॥ २९ ॥
यदि इरश्वर के करने से उन्होंने ऐसा किया है,तो भी धोराम-
चद्ध के निर ्दा सन में $ब र की कृ ति का को ई देत ु या क्ष ारण नही ं
देख पढ़ता है॥ २६ ॥
असमीक्ष्य समारब्धं विरुद्ध बुद्धिलापवात्‌ |
जनयिष्यति संक्रोश! राघवस्य विवासनभ्‌ ॥ २० ॥
महा राज ्ञ ने इस का पर िण ाम न से चा , के वल बुद ्धि कीको ता ई
ही से यद का म किय ा, अत ः शऔी राम चन् द्र जी का यह चन् रवा स
महाराज्ञ के दुःख देगा ॥ ३० ॥ *

अहं तावन्महाराजे पिठत्व॑ नापलक्षये |


भ्राता भर्ता च वन् धुश ्व पि ता च मम रा घव ः ॥ ३१ ॥
मुझे तोमहाराज में पित ृकत ्तव ्य का पा लन कु छ भी नहो ं
देख पड़ता । झतः शव तो मेर े भाई , स्व ामी , वन् छु शे र पि ता
( जे कुछ हैं--से )भ्रीरामचन्धहैं॥२१ ॥
सर्वछेकप्रिय ं त्य क्व ा स् वल ेक हि ते रतस ्‌ |
सर्वलेकि्सुरज्येत क् य त्व ाः् नेन कम णा ॥ ३५ ॥
३ संक्रोशं--दुःखं | रा शो दु ता पद ्त िभ ाव ः | ( ग ो ० )
बा० २०--र६
६१० अयेध्याकायडे
सब लोगो ं के प्र िय शं र सव ले गो ं की भल ाई कर ने में नि रत
धीरामचद्ध जीके जव तु मन े वन वा स द् या -- तब ( तुम ्हा रे इस
कर्म से तुम्हारे ऊपर ) प्रजाजन कैसे प्रसन्न होंगे ॥३२ ॥
सर्वप्रमामिरामं हि राम॑ प्रत्नाज्य धार्मिकम्‌ |
सबलाक विरुद्धयेम॑ कथं राजा भविष्यसि ॥३३१॥
ऐसे धामिक और प्रजाप्रिय धोरामचन्ध के चन में निकालने
के कारण सव प्रजाजनों केविशेधी वव, आप किस प्रकार राजा
कहला सकेंगे ॥ ३३ ॥
जानकी तु महाराज निःश्वसन्ती मनखिनी |
भूतेपद्तचित्तेव विष्ठिता विस्मिता स्थिता ॥ ३४ ॥
हैमहाराज |जानकी जे। बड़े गम्भीर मन को है-भूत लगे
हुए जन के चिच की तरह आश्च्यंचक्रित दे, टकठकी वाँधे खड़ी
की खड़ी ही रह गयी ॥ २४ ॥
अहृष्पूब॑व्यसना राजपुत्री यशखिनी ।
तेन दु!खेन रुदती नेव मां किश्विदत्रवीत्‌ ॥ ३५ |
प्योकि उस यशस्वनी राजढुलारी पर इसके पूर्व कभी हुःख
नहों पड़ा था।अतः इस दुःख में, मुंह सेकुछ भी न कह, फेचल
चह पविललल रही थी ॥ ३४ ॥
उद्यीक्षमाणा भतार मुखेन परिशुष्यता ।
मुमेच सहसा वाष्य॑ मां प्रयान्तमुदीक्ष्य सा'॥३६॥
१ सनल्विनी--गस्नीरमनछ्छा | ( गो० )
परक्षेनपश्ितमः सगेः ६११
और पति के घश्रुपूर्ण पुख के देख, उसका मुश्न खूख गया
था और चह मेरी शो देख सहसा आंधू गिराने लगी थी ॥ ३६ ॥

तथेव रामे।श्रु्रतः कृतान्नतिः


स्थिताञ्मवरलक्ष्मणवाहुपालितः ।
तथेव सीता रुदती तपखिनी
निरीक्षते राजरथ तयेव माम ॥ ३७ ॥
इति अप्पश्चाशः सर्गः ॥
उसो प्रकार श्रीरामचन्द्र जो, जिनकी वाँद पकड़ क्षत्मण खड़े
थे, भ्रथुप्रु दाओर हाथ जोड़े खड़े खड़े, मेरी भ्रोर देख रहे थे।
तपल्चिनी सीता भी उसी तरह रोतो हुई राजरथ का भार मुझको
देख रही थी ॥ २७ ॥ े
अवेष्याकाशड का अठावनवाँ सर्ग समाप्त हुआ ।
औ+

एकोनपंषितमः सगे
>> रे409है

“ मम लश्वा निहततस्य न प्रावतेन्त वरत्मनि।


उष्णमभु परुअन्ता रामे सम्पस्थिते वनम ॥ १॥
( जुमंभ, महाराज दशरथ से कदने छगे ) श्रोशमचच्ध्र जी के
चन फे चक्कर जाने पर जब में जैठने लगा, तव भेरे थक घोड़े
रास्ते में अड़ गये और गरम गरम आँधु गियने लगे ॥ १॥
६१२ अयाध्याकाणडे -

उमाम्यां राजप॒त्रास्यामघ इलाइमज्ललिम्‌ |


प्रस्थिता रथप्रास्थाय तद/खमपि घारयन्‌ ॥ २॥
मैंने दोनों राज़कुमारों के प्रणाम कर रथ मेंवैठ वहाँ से प्रध्यान
किया और उस दुःख के भी किसी प्रकार सहलिया ॥ २ ॥
शुहत साथ तत्व स्थिताउस्मि दिवसान्वहूनू |
आशया यदि मां रामः पुनः शब्दापयेदिति ॥ ३ ॥
कदाचित्‌ भ्रीरामचन्दर जी मुक्केबुला कर, (अपने साथ के चलें)
इस आशा में मेंशुह के साथ वहीं कई दिनों तक ठहरा रहा ॥ ३ ॥
विषये ते महाराज रामव्यसनकर्सिता।
आप हक्षा; परिम्लाना! सपुष्याइरकारका। ॥ ४॥
मैंने लौटते समय देखा कि, आपके राज्य के बृत्त तक दुःखी
हैं। क्योंकि उनके फूल अड्भर और कल्ों ऋुब्दज्ञा गयीं है ॥ ४ ॥
. अपतप्तोदका नयः पत्थछानि सरांसि च |
प्रिशुष्कपछाशानि वनान्युपवनानि च ॥ ५॥
नदियों, त्लेयों और तालावों का जल घूल रहा है। ( और
तादया त्लेयां आर दालावों में जल हम हो जाने कारण ) कन्नों
और उपव्नों के चृत्तों के पत्ते मुस्काये हुए हैं ॥ ४ ॥
न च्‌ सपन्ति! सत्ततानि' व्याला न श्चरन्ति चृ
रामशाकामिभूतं तन्निष्कूननमवदनम | ६ ॥|
१ बठप्रन्दि--नगच्छन्ति । (यो» ) २ सत्वानि--जन्वव$ ! ( गो० )
३ च्याला३--देंद्पशवः सर्द्ातद्यारत्वमावा गयाबा | ( गो> )
एकीानषशितिमः सगे है१३
जीव जन्तुओं ने चलना वंद्‌ कर दिया है और दिल्लयशु घयवा
सदैध घूमने वाले हाथो भी श्रव वनों मेंघूमते हुए नहों देख पड़ते ।
राम के वियेशगज्ञनित शोक से वनों में सन्नादा छाया हुआ है ॥ ६ ॥
लौनपुष्करपत्रा्था नरेन्द्र कलुपेदकाः ।
. सन्तप्प्च्नाः पश्चिन्यों छीनमीनविहज्रुमा। ॥ ७ ॥
हेमदाराज | ताल्लावों का जलन गंदा दी गया है और कमलों
के पत्ते राम-वियेग-जन्य अतिशय रजानि उत्पंत्ष होने के कारण
जल के मोतर डुव गये हैं। कमल के तालावों में कमल घूख रहे
हैं। मछलियों और ( जल ) पत्तियों नेपानी में घूमना फिरना
जड़ दिया है ॥ ७ ॥ *
जलजानि च॒ पुष्पाणि मात्यानि' स्थलजानि च |
नाथ भान्त्यस्पगन्धीनि फछानि च यथाएरम्‌ ॥४|॥
जल में उत्पन्न द्ोने वाले पुष्प और पृथिवी पर उम्रन्न होने
वाले पुष्पों मेंनतापहले जैसी गन्ध हो रद्द गयी और न फल्नों
में पहले जैसा स्वाद ही रह गया ॥ ८ ॥
. अत्नोद्ानानि शून्यानि प्रलीनविहगानि च |
न वामिरामानारामान्पश्यामि मनुजपम ॥ ९ ॥
यहाँ के उपयनों में भी पत्तियों के चुपचाप थोंसलों में बैठे रहने
से सन्नाठा छाया हुआ है। यहां कीवाढिकाएँ भो मुझे शोभाहोन
देख पड़ती हैं॥ ६॥ .
प्रविशन्‍्तमयेध्यां मां नकथ्रिदभिनन्दति | .
नरा राममपश्यन्तों निःइवसन्ति मुहुमेंहुः ॥ १० ॥
हे

4 * ३ छोनएुष्कारपत्नाः-"ाझान्यतिशयेवमडास्तविंलोनय्यत्रा: । ( गरो० )_
२ छीवा:- -सद्चाररद्िता: । ( यो० ) ३ साद्या नि--इष ्पाणि । ( गो० )
६१४ श्रयेध्याकायडे
में जब अयोध ्य ा नें आय ा, ठद में ने कि सी का भी पस त वे पा या
प्रत्युत क्ञाग [ मेरे रथ में )भीरामचद्ध के देख, वार वार लंदी
साँसे लेने लगे ॥ २० ॥
देव राजरथं दृश्टा विना राममिहागतम |
दु/खादभुम्मखः सवे राजमार्गगता जन! || ११ ॥
हे देव | राजरथ में बैठ कर प्रीरामचद जी के शातें त देख
रास्ते में ज्िवने ज्ञाग थे, वे सब दुःखी है रोने लगे ॥ ११॥
इम्येर्दिमाने! प्रासादेरचेक्ष्य रथमागतस |
शहाकारकृता नाये रामादशनकर्शिता॥॥ १२ ॥
पी >3

श्रीसमचन्र जी के न देखने के कारण विक्षल और छल्लों,


सतखने मद्दानों की छतों और भवनों के फरोखों मेंवेठी हुईंस्थियों
ने छुने रथ के आते देख, वड़ा हाहाकार किया ॥ १२ |
आयतावक्‍लनत्ररश्ष॒तंगपरिप्छुत;
अन्यान्यमभिवीक्षन्त व्यक्तमाततराः छ्वियः ॥ १३॥
वे (स्त्रियों) बड़े वड़ें दिमल नेत्रों में आज नर और वहुद कादर
पक इसरे के अच्छी तरह नहीं देखती थों ॥ १३ ॥
| नेह--हेद्ों ऐेवि।प्रछ कहने क्वा नाव यह हैंदि, नेत्रों मेंअंडन वा |
खात्रल ने खियों के ऋद्भार का एक बह दें, चह नहीं छवा था | ]
नामित्राणां न मिन्राणामुदासीनमनस्य च |
अदमावं ए तया था

60 2
किखिलिजेषमुपलक्षये [| १४ |
ऐप

१ अच्यकं--सन्यकू न। ( रा० )
पएकानघश्तिमः सर्गः 8६१४

मुझे ता आज क्या परित्र, क्या शत्च और क्या उदासीन--


किसी भी जन में, सिचाय कातरता के और कोई भी विशेषता नहीं
देख पड़ती ॥ १४ ॥
अपरहृषमनुष्या च दीननागतुरज्ञगा ।
आतंखरपरिण्छाना विनिःशवसितनि।खना | १५ ॥
जितने पनुप्य हैं वेसव दुःखी हैं, जितने हाथी घोड़े हैंवे भी
उदास हैं। सब ही झात॑नाद्‌ करते हुए लंबी जंवी उससे के रहे
हैं॥ १६ ॥ ।
निरानन्दा महाराज रामप्रत्राजनातुरा ।
फैसल्या पुत्रहीनेव अयोध्या प्रतिमाति मा ॥ १६ ॥
है मदाराज | श्रोरामचनच्द्र ज्ञी फे चल्ने जाने से सव त्लेग दुःखी
हैं। अयेषध्यापुरी तो घुझ्े पुत्र से बिछुड़ी हुईं काशल्या की तरह
'. (दीन ) द्खिलाई पड़ रही है ॥ १६ ॥
सतस्य वचन. श्रुत्वा राणा परमदीनया ।
वाष्पेपहतया वाचा त॑ सूतमिदमत्रवीत्‌ | १७ ॥
खुमत्र केवचन खुन महारज्ञ दशरथ शत्यन्त दुःखी हे! गटुगद्‌
करठ से छुमंत्र से
यह वेले ॥ १७॥ , है
कैकेय्या हि नियुक्तेन 'पापाभिजनभावया, |
न मया मन्त्रकुशलेहंडे! सह समर्थितम' ॥ १८ ॥
१ पापासिजवभावया--ऋरकर्म विषयकसंसतिदानजनितपापविशिश्ये जमि-
जनाः भभितः समीर्षविद्यमाना। जनाः मन्यरादयाः तैह्सहभावो
यंत्यितियंस्या: | ( श्षि० ) २ नश्तमथितं--नपिचारितं | ( गो० )
६१६ अयेध्याकाय्े

हैसुमंत्र |ढु ए वुद ्धि वाल ्ी मन ्य रा दि का सद ंव ास कर ने वा ली


कैकेयी के जद मेंवर देने लगा, तव ( शोक हैकि ) न तो परामरश
देने में निपुण घुद्ध जनों के साथ मेंने विचार किया ॥ १८ ॥|
न सुहद्गिन चामात्यैमन्त्रयिल्ा च नेगमेः।
मयाज्यमथ; त्द्वीदेतो! सहसा कृत) ॥ १९ ॥
कि. ा
5. ेत
सम्माहात्द्वीद

और न धपने खुहदों ओर न अपने मंत्रियों ओर न ( राज्-


, थानी के ) महाजन साहुकारों सेसलाह ली | मेंने यह अनर्थ केवल


कैकेयी के लिये मेोहवश सहसा कर डाला ॥ १६ ॥
भवितव्यतया नूनमिदं वा व्यसन महत्‌ ।
फुलस्यास्य विनाशाय प्राप्त सत यहच्छया! ॥ २० ॥
देजुमंत्र |निश्चय ही यद दारुण क४ दोनी के वश, इद्वाकु
कल का सर्चनाश करने के अपने आप श्रथवा देवइच्छा से
उपस्थित हुआ है ॥ २० ॥
सत यथरित ते किखिन्मया तु सुकृर्त' कृतम्‌।
त॑ प्रापयाशु मां राम प्राणा; सन्त्वरयन्ति माम्‌ ॥२१॥
५. है सुमंत्र |यदि मैंने तेस कुछ भी उपकार किया हो, तो तू
मुझे शीघ्र राम के पास पहुँचा । ( क्योंकि ) मेरे प्राण (शरीर से
निकलने के क्षिये )जब्दी कर रहे हैं ॥ २१॥
यद्यधापि ममैयाज्ञा निवरतेयतु राघवम |
न शक्ष्यामि विना राम मुहृतमपि जीवितुम्‌॥ २२॥
५ ९ डे

१३यदच्छया--दैवेच्छया । ( रा० ) २ सुकृतं--उपकारः ( भो० ) ।


एकानपश्तिप्ः से! दश्७
अथवा यदि अब भी श्रोंसम मेरो आज्ञा मान वन से कैट
सके, तो तु द्वी ज्ञा कर उनका लैटा ला। क्योंकि में राम बिना
एक मुद्दत्त भो नहीं ज्ञी झकता ॥ २२॥

अथवा<पि महाबाहुगते। दूर॑ भविष्यति ।


मामेव रथमारोप्य शीघ्रं रामाय दश्शय ॥ २३ ॥
अथवा यदि मद्दावाहु राम पहुत दूर निकल गये हों, तो मुझे
रथ में (ठा शीघ्र ले चल कर, पुझ्े राम के दिखला दे ॥ २३ ॥

हत्तदंप्टो! महेष्वासः कासे लक्ष्मणपूर्वज! ।


यदि जीवामि साथ्वेन॑ पश्येयं सीतया सह ॥ २४ ॥
कुन्दपुप्प्सम दाँतों वाले, मद्दाधलुर्धर और लक्ष्मण के बड़े
भाई राम कहाँ हैं? यदि में ज्ञौता रद्दा तो सीता सद्दित इस
- साधु को अचश्य देखूगा॥ २४ ॥
ना
द लोहिताक्षे महावाहुमामुक्तमणिकुण्डलम्‌ ।
राम यदि न पश्येयं गमिष्यामि यमक्षयम्‌ ॥ २५ ॥
यदि मेंलाल नेत्न वात्ते, महावाहु, रज्नकुगडलधारी राम के
न देखूंगा तो में यमालय का चल्ला जाऊँगा शर्थातं मर
ज्ञाऊगा ॥ २४ ॥

अत नु कि दु/!खतरं ये।ःहमिक्ष्याकुनन्दनम्‌ |
इमामवस्थामाप्ों नेह पश्यामि राघवम ॥ २६ ॥
। पृच्चई॑प्ट्रो--कन्दकुडमछाकारदंट: । गो०)
है १८ अवाध्याकाणईे

हा ! इससे अधिक दुःख को वात क्या दोगो, जे। मेंइस्वाहु-


कुल-तन्दन राम के इस ( मरण ) अ्रवत्धा में नो नहों इज
सकठा ॥ २६ ॥
हा राम रामानुज दा हा वेदेहि तपस्िनी )
न मां जानीत दुःखेन म्रियमाणमनाथद्त्‌ ॥ २७॥
हां राप्त |हा लक्ष्मण ! हा तपल्विती वेदेंदी |मे अनाथ को
दरह कष्ट के साथ मर रहा हूँ,यह तूनहों ज्ञानती ॥ २७ ॥
स तेन राजा दुःखेन भृशमर्पितचेतनः |
अवगाढ/* सुदुष्पारं शाकसागरमबदीत्‌ || २८ ॥
यह कहते कहते मद्दाराज दशरथ का मन वहुत हुग्छी हो
गया। वे अपार शोकूसागर मेंडूव कर कहने लगे | २८ |
[ शाइप्तागर छा रुपक याँघा है ।
रामशाकमहावेग! सीताविरहपारगः ।
श्वसितार्मिमह्ावरता वाप्पफ्रेननछाविल) ॥ २९ ||
वाहुविश्षेपमीनोधे! विक्रन्दितमहास्वन! ।
प्रकी्णकेशशवाल: केक्रेयीवश्वामुखः | ३० ॥
ममाश्ुवेगप्रभवः कुब्जावाक्ष्यमहाग्रह! |
बरवेला चृशंसाया रामप्रत्ाजनायतः ॥ ३१ ||
राम का विरहजन्य शो उस सागर की गहराई या चौड़ाई0]हैं
जिसके कि ना रेहैंसी ता जो का पिद ्वा ह । श्व ास का नि कल ना उस के
भवरहैं,नेजजल उे नामों वह गंदला हो रहा है। हाथों के पढ
६ अर्पित चेतन:--व्याप्रचित्+ । (गो०) २ अदयाइ+-प्रविष्टई । (गो०)
एकेानपष्टितभः सर्ग ६१६

केनामानों मछलियोंहैंऔर आर्त्तवनाद उस महासागर का मानों


गर्जन तर्जन है । विखरे हुए वाल मानों सवार हैं और कैक्रेयी
मानों बड़वानल ( बद शआाग जे। सपुद के तीचे रहती दै।) नेत्रों
का ज्ञज गम्मीरता उत्पन्त करने वाला है,मन्यरा के वाक्य मार्नों
बड़ेवड़े घड़ िया ल है, क्षेफ ेपी केचर, जिस से भ्रीर ामचन् द्र जी वन
गये मानों लंचे लंबे तठ हैं ॥ २६ ॥ ३० ॥ ३११ ॥
यस्मित्वद निमग्रोर्ं केसल्ये राघवं विना |,
दुस ्तर ो जीव ता देव ि ममा ्यं शेक साग रः ॥ ३२२ ॥ .
है क्ैशल्या ! में विन ा राम के इस प्रक ार के अथा द शोक -
खागर में इव रहा हैँ, से जीते जी तो में इसे पार न कर
सकूगा॥ ३१ ॥
अशोमन ये5हमिहाद राधवं
दिरक्षमाणे। न लमे सलक्ष्मणम्‌।
इतीव राजा विलपन्महायशाः
पपात तूणे शयन े स सूर् छित! ॥ रे३ ॥
मैं प्रा लत्रमण सहि त राम को देख ना चाह ता हैं। किग् त
* नहीं देख सकता, यह मे रे क ि स ी म ह ा प ा त क का फ ल है । इस '
अ न े क प् रक ार से वि ज् ञा प कर ते हु ए
प्रकार मदायशस्त्री महाराज
तत्काल दी भ्रचेत द्व पत्न॑ंग पर गिर पड़े ॥ १३ ॥
इति विलपृति पार्थिवे प्रनष्टे'
करुणतर॑ द्विगुणं च रामहेताः |
१ मशेभमे--मममहत्वाप॑ ! (रा ०) २ प्र नष् डे- -छु च्छ िते सीत ा । (रा ०)
३२० अयेध्याक्षायडे

वचनमनुनिशम्य तस्य देवी


भयमामत्पुनरव राममाता ॥ ३४॥
इति एक्रानपशितमः समः ॥
मद्ाराज़ ज्ञव श्रोरामचन्द्र केलिये अत्यन्त करुणपूर्ण विल्लाप -
करते करते मुद्धित दे! गये तब राम्रप्राता मद्दारानी क्लोशल्या
देवी के उनके ऐसे चचन सुन, दुना मय हुआ । ( अर्थात्‌ श्रीयम-
चन्द्र ज्ञी केलिये महाराज का करुणपुण विलाप कर के मूछित
हुआ देख, कैशल्या वहुत डरी कि, कऋ्दी महाराज प्राण नत्याग
दें )॥ ३४ ॥
अ्येध्याकाणगड का उनसठवाँ सर्ग पुरा हुआ ।
नाईओंध:

पष्टितमः सगः
0

न ३0६००

तते भूतापसष्टेव वेपमाना पुनः पुन ।


धरण्यां गतसलेव' कासर्या मृतमतबीद ॥ १ ॥
कैशल्या, जे भुताविष्ठ की तरह भूमि पर नि्ञोंव सी पड़ी
काँप रही थी, छुमंत्र सेवाली ॥ १॥
नय मां यत्र काकुत्सय्य/ सीता यत्र च लक्षण: |
ताख्िना क्षणमप्यत्र जीवित नोत्सहे हम ॥ २॥|
हेछत ! जहाँ राम, लक्ष्मण ज्ञानकी हों, धहीं पुक्के के चत्ना,
क्योंकि विन्ता उनके प्राज्ञ में एक क्षण भी नहीं जी सकती | २ ॥
१ गतल्ललेच--नातप्राणेव । (य[०)
पऐ्टितमः सर्गः * है.
हर कब्ज

निवर्त अं ४
य॑ रथं शीघ्र दृण्डकानय मामपि ।
अथ तान्नानुगच्छामि गमिष्यामि यमक्षयम्‌ ॥ ३ ॥
.. अतः भति शीघ्ररथ फिर लौटाओ और घुक्ते भी दश्इकवन
मेंपहुँचा दो, जे। मैंउनके पास न गयी ते में य्रपुरो कोचल
दूंगी ॥३ ॥
वाष्पवेगेपहतया से वाचा सज्जमानया' ।
इृदमाश्वासयन्देवीं सूतः प्राज्ललिख्िवीत्‌ ॥ ४ ॥
यह सुन सुमंत्र भाँतू वहा, विकल हो, और हाथ जाड़ कर,
महारानी के धीरज वँधाते हुए बाते ॥ ४ ॥
त्यन शोक च मोह च सम्भ्नमं' हु!खजं तथा |
व्यवधूय च सन्तापं वने वत्सयति राघव! ॥ ५ ॥
। दैदेवी-! तुम शोक, माद और दुःख के कारण उत्पन्न विकलता
को त्याग दो । क्योंकि धीरामचन्ध सुख से वन मेंवास करेंगे ॥१॥
लक्ष्मणथ्रापि रामस्य पादों परिचरन्वने ।
आराधयति पधर्मज्ञ! परलेक जितेच्धिय! ॥ ६ ॥ "
लह्मण भी भीरामचद्ध को चरणसेवा कर, धर्मपूर्वक ९वं
जितेद्धिय हो, प्रपना परलेक छुधार रहे दें॥ ६ ॥
विजने5पि बने सीता वास प्राप्य शहेष्विव ।
विस्रम्भ॑* लभते5भीता रामे विन्यस्तमानसा ॥ ७ ॥|
१ एपमावपा-.. विदयया(यो०) रे प्रम्भ्षमं--5याकुछत्व ।(गो०) २ प्र
छेकमाराधर्यात-परढेक लाधयति | (गो०) ४ विल्स्सं--अणयं | (गो०)

हक
है२२ *. थ्याध्याकायडे

विज्ञन वन मे ं भी सी ता रा म मे ं अप ना मन लग ा, घर हो के
सम ान , प् री ति पू र् वक एव ं नि र् मय रह ती है ं ॥ ७॥

नास्या देय कृत किश्वित्सुस्नक्ष्मपि लक्ष्यते ।


डचितेव प्रवासानां बेदेही प्रतिभाति मा ॥ ८ ॥
सीता जी मेंमुझे ज़रा सी भी दीनता नहीं देंख पड़ी। भतः
मुम्हे ते वह प्रवास में रहते के येग्य हो मालूम पड़ती है॥ ८ ॥
नगरेपवर्न गत्वा यथा सम रमते पुरा ।
सै ०५ नि्नेषु ०
तथेव रमते सीता निमनेएु वनेध्वपि || ९ ॥
जिस प्रकार सीता नगर के बाग बगीयों मेंज्ञा कर पहले यहाँ -
विहार किया करती थीं उसी प्रकार वह वहाँ निर्जन वन मेंभी
विहार करती है॥ १ ॥
वालेव रमते सीताध्वाल्चद्धनिभानना |
राम राम हृधीनात्मा विजनेडपि वने सती ॥१०॥
पूर्णिमा के चन्द्रमा की तरह म्रुखवाली सीता निज्ञन वन में
औी प्रसन्नवित्त है कर राम में मव लगा और अधीन हो कड़ा
किया फरती है ॥ १० ॥
तदूगत॑ हृदय हस्यास्तदधीनं च जीवितम।
अयेध्यापि अवेत्तस्या रामहीना तथा बनम्‌ ॥१ १॥
_चयोंकि केवल उसका मन ही सम्पूर्णंतया धीराम के अ्धोन
नहीं है, फ्र्युत उसका जीवन भी उन्होंके ऊपर निर्भर है। अतः
पश्टितमः सर्गः ई्श्रे

घिना श्रीराम के उसके किये यह श्रयाध्या भो बन के सप्तान


है॥ ११॥
पथि पृच्छति वेदेही ग्रामांथ नगराणि चे |
गति रष्ठा नदीनां च पादपान्विविधानपि ॥ १२॥
मार्ग मेंजे गाँव, नगर, नदी और अनेक प्रकार के धृत्त सीता
इंखती, उनके विषय में वह ॥ १२ ॥
राम वा लक्ष्मण वापि पृष्ठा जानाति जानकी )
अयोध्याक्रोशमामे तु विह्रमिव संश्रिता ॥ १३ ॥
राम से और लक्ष्मण से पू छूउन
, का वृत्तान्त ्रथतरा परिचय
जान लेती थी। वद वन ते उपके लिये मानों अयोध्या से एक
कीौस के अन्तर पर उपस्थित विहारध्यज्ञ जैसा दे रहा है॥ १३ ॥
इदमेव स्मराम्यस्या! सहसेवेपजल्पितम्‌ |
केकेयौसंभितं वाक्य नेदानीं प्रतिभाति मा ॥ १४॥
सोता जी के विषय में तो भुझे इन्हीं वातों की याद्‌ है,उसने
कैकेयी केबारे में जे।कहा था--वह पुझे इस सम्रय याद नहीं
है ॥ १७४॥
ध्व॑सयित्वा तु.तद्वाक्य प्रमादात्पयुपस्थितस्‌ ।
हादन वचन छते देव्या मधुरमबवीत्‌ | १५॥
छुमेंत्र नेभूल से कैकेयी कीचर्चा छेड़ दो थी--से। उस चर्चा
के वहीं छाड़, फिर छुमंत्र काशल्या का प्रसन्न करने याले वचन
, कहने छगे ॥ १४ ॥
६२४ थअयाध्याकायडे

अध्वना बातवेगेन सम्प्रभेगातपेन! चे।


'न्‌ विगच्छति' वेदेह्याथन्द्रांशुसदशी पभा ॥ १६॥
है महारानी [ ज्ञानकी के मुख की चद्धमा जैसों प्रभा, मार्ग की
थकावट से; हवा के फ्ोंके से, व्यात्रादि सयद्भुर वन के जीव
जन्‍्तुओं के डर से, अथवा तेज्ञ धूप से फ्ोकी नहीं दोती है॥ १६ ॥
सद्श शतपत्रस्यः पूर्णचन्रोपमअ्रभम्‌ ।
बदन तद्ठदान्याया वेदेशा न विकम्पते ॥ १७॥
अछक्तरसरक्ताभावरक्तरसवर्निता |
अद्यापि चरणों तस्या। पत्नकाशसमप्रभों ॥ १८ ॥
और न कमल एवं पूर्णचन्द्र के तु्य सीता जी का मुख मज्तिन
द्ता है! यद्यापि उसके चरणों में महावर नहीं त्गायी गयी
तथापि शव तक उसके दोनों चरण कमल की तरह लाल लाल
देख पड़तेहैं॥ १७ ॥ १८॥
नुपुरोद्धु्देलेव खेलं* गच्छति भामिनी ।
इृदानीमपि वेदेही तद्गागानन्यस्तभूषणा ॥ १९ ॥
श्रोरामचन्ध जी के प्रति अनुरागवती होने के कारण सीता
ने भ्रव तक आमृषणा नहीं उतारे हैं, वह पैरों क्री पायज़ेतों कीऋन-
हासे हंस आदि के गमन के लजाती हुईवड़े श्रनन्द से चलती
(१६॥
१ सम्प्रमेण--ध्याश्नादिदुशनजन्यव्याकछत्वेव | (यो० ) २ नविगच्छति
--नविकरेति | (गोल ) ६ शत्तपत्रश्य--पत्मप्य । (गोब् ) ४ खेल -- १

घी । ( गो ) है ६
पश्टितमः सर्गः न२५

गज वा वीक्ष्य सिंह वा व्याप्र॑ वा वनमाशिता |


नाहारयति संत्रासं वाहू रामस्य संश्रिता ॥ २० ॥
वन मेंहाथो, लिंह और व्यापध्र के देख-वह डरतो नहीं,
क्‍योंकि श्रीराम्रचद्ध ज्ञी के भुजवल पर विश्वास होने से वह निर्भय
रहती है ॥ २० ॥
न शोच्यास्ते न चात्मान;! शोच्ये। नापि जनाधिपः ।
इदँ) हि चरितं लाके म्रतिष्ठास्यति शाश्वतम्‌ ॥ २१ ॥
ब्रतः दे देगी ! तुम उन तीनों के लिये, अपने लिये और महा-
राज़ के लिये ज़रा भी चिन्ता न करे। |पिता की श्राज्ञा मान कर
वन जाने का धीगम जी का चरित्र आचन्द्राकं इस संसार मेंप्रसिद्ध
ही, प्रतिष्ठा प्राप्त करंगा ॥ २१॥
विधूय शोक॑ परिहृष्टमानसा
महर्पियाते* प्थि सुव्यवस्थिता! |
बने रता वन्यफलाशनाः पितुः
शुभां प्रतिज्ञां परिपालयन्ति ते | २२ ॥
वे ( श्रीरामचन्द्र )शोक के दूर कर, प्रसन्न मन से मदरर्षियों
के चल्ते हुए मार्ग का भली भाँति अनुसरण कर, भर्थात्‌ तपश्लियों
के नियमों के पालन करते हुए वन में रह और कन्दसूल फल
लो पिता की परम पत्चित्र श्राज्ञा का पालन क्र रहेहैं ॥२२॥
३ आत्मन+--वर्य । (गा० ) २ इदंचरितं--पिहवंचनपरिपालनरूपं-
चरित | ( गो० ) ३ मदपिंयाते-मद्वपिंमिः प्राप्ति ।( गो )
चा० रा०---४०
२६
जब
थयेष्याकायडे

तथापि सूतेन सुवुक्तवादिना


निवायमाणा सुतशोककर्मिता ।
न चेव देवी विरराम ऋूजितात्‌
प्रियेति पुत्नेति च राखवेतिच ॥ २३ ॥ *
इति पश्टितमः सर्मः ॥
यचयपि छूत ने कैशल्या का अनेक युक्तियों सेबहुत कुद्ध
सम्रकाया, तथावि कैशल्या पुत्रवियागजन्य शोक से पीड़ित दो,
शेने चिल्ाने से न उक्की और “अरे मेरे लाइले,” अरे भेरे बेटे,”
# झरे राम ! ” वरावर कह कह कर रोतो ही रहीं ॥ २३ ॥
अयाध्याकायड का साठवाँ सगे समाप्त हुआ।
बल [०]5

एकपष्टितर हेसगे:
व लक
वन॑ गते धमपरे रामे रमयतांपरे )
कासल्‍्या रुदती# सातो भतारमिदमत्वीत ॥ १॥
ग़ुणामिराम, धर्मात्मा श्रोरामचन्द्र ज्ञी केवन चले ज्ञाने
पर, फैशव्या विकल दो रुदन करती हुई अपने पति से यह
वाली ॥ १॥
यचपि त्रिषु छाकेषु ग्रथितं ते महययद)
साजुक्रोशों वदान्यथ प्रियवादी च राघव। ॥ २॥
# पाठान्तरे--' खाती | ।१
पकपशितमः सर्गः . हैं३७
हेमहाराज ! यद्यपि तोनों ल्ेकों में ग्रापफ्री यद कोति फेली
हुई देकि, मदाराज बड़े दयाल्ु, उदार, और प्रियवादो हैं ॥ २,॥
कं नरबरशरेष्ठ पुत्रों ते! सह सीतया ।
दुखिता; सुखसंदृद्धां बने दुःख सहिष्यतः ॥ ३॥
तथापि देपुरुषोच्तम ! ( यह तो वतलाइये कि ) सीता सह्दित
आपके वे दोनों पुत्र, जे छुस में पालने पोसे गये हैं, दुश्ली दो,
» किस तरद वन में दुःख सदर सकेंगे ॥ ३॥
सा नून॑ तरुणी' श्यामा' सुकुमारी सुखाचिता | '
कथमुष्णं च शीत च मैथिली प्रसहिष्यते ॥ 9 ॥
- निश्चय दी युवावस्था के प्राप्त युवती एवं सुकुमारी सीता,
जे सुख से रहने येष्य है, किस प्रकार गर्मी सर्दी सह सकेगी ॥ ४॥
भुक्त्वाश्शनं विश्वालाक्षी हपदंशानितंर शुभस्‌ |
वनन्‍्य॑ नेवारमाह्ारं कथं सीतेपभोष्ष्यते ॥ ५ ॥
ज्ञा बड़े बड़े नेत्र वाली, (स्सेइयों के वनाये हुए ) सुन्दर
व्यज्चन खातों थी, वह सीता फ्योंकर वत्र के चाँवलोंका खा
सकेगी ॥ ५ ॥
गीतवादित्रनिधेरष श्रुत्वा शुभम्रनिन्दिता ।
कर क्रव्यादसिहानां शब्द शोष्यत्यशोभनम्‌ ॥ ६ ॥
, । तदणी--आरब्धयौवना । ( गो" ) ३ इयामा--योवतभध्यप््या ।
(यो०) ( शयामातरणी--यौवनमध्यल्या चरुणी | गो०) ३ सूपदश्ान्वितं--
शामनव्यक्षन सद्दितं । (गो०)
दश् भ्रयेध्याकायडे
जा अनिन्दिता सीता गाने और वजाने की (मधुर ) ध्वनि ही ह
छुना करती थी, इस समय चह क्‍यों कर माँसादारी पिंदों का
- भयडुर शब्द छुनेगी ॥ ६ ॥
भहेन्द्रध्यनसड्भाश) के नु शेते महाशुजः ।
भुज॑ परिघसड्भाशमुपधाय असहानुज। ॥ ७॥
जे इन्द्रधयुष के समान वड़ी भरुजाओं वाले और महद्ावत्नी
हैं,वे प्रपनी विशाल भुज्जा तकिये को जगह सिर के नीचे रख
कहाँ शयन करते होंगे ॥ ७॥
पद्मनव्ण सुकेशान्तं पद्मनिःश्वासमुत्तमम्‌ ।
कदा द्रक्ष्यामि रामस्य बदन पुष्करेक्षणम्‌ ॥ ८ ॥
कमल के समान और सुन्दर केशों से युक्त, फमर्न जैसी सुफ्घ
और कम्रतनयन भ्रीरामचन्ध जी के मुखारविन्द के, में कब
"बैखूगी॥ ८॥
वज्सारमयं चून॑ हृदये मे न संशय! ।
अपहयन्त्या न त॑ यहे फलतीदं सहस्तपा ॥ ९ ॥
निश्चय दी मेरा हृदय बज का है--इसमें कुछ भी सन्देह नहीं
है। क्योंकि राम के न देखने से इसके सहस्त टुकड़े नहीं हो
जाते
॥६॥
यत्त्वयाध्करुणं कमे व्यपाह्म मम वान्धवा! ।
निरस्ताः परिधावन्ति सुखाहां! कृपणा बने ॥ १०॥
१ मदेल्वप्वजानाम इन्द्रधनु। |(यो०) # पादान्तरे---४ महावर: |
एकपश्तिसः सर्गः ६२६
महाराज ] आपने मेरे प्रियतनों को राज्य से निकाल कर
बड़ा निदुयतापूर्ण कर्म किया है। जे। सुछ्त से रहने योग्य हैं,हाय
ते दीन दी वन में मारे मारे फिरतें हैं ॥ १० ॥
यदि पश्चद्शे वर्षे राघव! पुनरेष्यति ।
जब्याद्राज्यं च कोश च भरते नेपस्ुज्यते ॥ ११ ॥
यदि चौदद वर्ष वाद श्रोरामचन्द्र लौट भो भावें ( ते भी
मुझे मरोला नहीं कि )भरत उनके राज्य और कोश देदेंगे ॥११॥
, भाजयन्ति किल श्राद्धे केचित्लानेव वान्धवान्‌ |
ततः पश्मात्समीक्षस्ते कृतकार्या द्विजपभान्‌ ॥ १२ ॥
कोई काई भ्राद करने वाले विद्वान ब्राह्मण को निर्मंतरण दे,
पदले गुणदीन भाई वंदों को श्राद में भाजन करवाते हैं। पीछे से
उन निमंत्रित ब्राह्मणों के बुलाते हैं ॥ *३२॥
तत्र ये गुणवन्तश्व विद्वांसश्र द्विनातय ।
न पश्मात्तेजतुमन्यन्ते सुधामपि सुरोपशा। ॥ १३ ॥
तब उन ब्राह्मणों में ना गुणवान एवं विद्वान, दोते हैं, वेआड़
के भदछत तुद्य भाज्य पदार्थों के, मिस के समान (त्थाज्य )
क्या नहीं समक्ते ? ॥ १३ ॥
ब्राह्मणेष्वपि द्ेष पथाद्रोक्ुं द्विषमा।।
नाभ्युपैतुमल पाजाः श्ञच्छेदमिवषमा। ॥ १४ ॥
(यही नहीं वढ्कि) अन्य ब्राह्मणों के माजन से बचे हुए श्रन्न का,
विद्वान आह्यण थ्रद्जीकर करने में वैसा दी अपना अनावर समखते
हैं,जैसा वैज्ञ काअना दर उसक े सींग ों के काट ने से देत ा है ॥ १४ ॥
६३० . अ्रयाध्याकायडे

एवं कनीयसा श्ात्रा झुक राज्य 'विशांपते।


श्राता ज्येध्रो वरिष्ठ किम नावमंस्यते ॥ १५॥
दे प्रजानाथ ! इसी तरह छोटे भाई के भागे हुए राज्य का ज्येष्ठ
और श्रेष्ठ भाई क्यों न अनादर करेगा, श्र्थात्‌ भ्रवश्य भ्रनादर
फरेगा ॥ १५॥ * ह
न परेणाहुत॑ भक्ष्यं व्याप्र; खादितुमिच्छति |
एवमेव नरव्याप्र: परलीद' न मंस्यते ॥ १६ ॥
जिस प्रकार॑ व्याप्र दूसरे की मारो हुई शिकार का खाना पसंद
नहीं करता, वैसे हो पुरुषसिद्द भीराम . भी दूसरे को चढखी हुई
चस्तु कदापि अड्भीकार न करेंगे ॥ १६ ॥ ०
हविराज्यं पुरोडाशः कुशा यूपाथ खादिर!।
नेतानि यातयामानि छुवन्ति पुनरध्वरे ॥ १७॥
जिस प्रकार एक यज्ञ में व्यवहृत हि, थी, पुरोडाण, कुश
और खैर के खंभे दूसरे यज्ञ के काम के नहीं रहते ॥ १७ ॥
तथा ब्ात्तरम्रिदं राज्यं हतसारां सुराभिव |.
नामिमन्तु 'गह॑रामे नप्ठसाममिवाध्वरम्‌ ॥ १८ ॥ ...
उसी भ्रकार भ्रीरामचन्द्र जी इस उपयुक्त राज्य को सार
निकल्ली हुईछुरा और से।मरहित यज्ञ की तरह कभी लेने फी
इच्नछकरा ेंगे ॥१८॥ का हद
हा

।विज्ञविते--हे प्रभानाथ | (गो०) ३ परलीढं--परेणास्वादितं-। (यो९)


पर पा द्रघू7<८

'३ बात्ते--अपभुक्तपूव । ( गो० ) ४ अभिमन्तु--अम


िछपितु' ।(गोण्) (: .
एंकपश्तिमः सगः ६३१२

* ” सैबं| बिधमसत्कारंरे राघवे मर्षयिष्यति |


वलवानिव शादूछों वालधेरभिमशनम्‌ ॥ १९ ॥
जिस प्रकार चलवान्‌ सिंह अपनी पूंछ का मस्डवाना नहीं
सह सकता, उसी प्रकार श्रोराप्त भो इस तरह के असत्कार के न
सह सकेंगे ॥ १६ ॥
नेतस्य सहिता छेका भय कुयुमंहामधे! ।
| अधर्म ल्िह धर्मात्मा छोक॑ धर्मेण येजयेत्‌ ॥ २० ॥
क्या सब जाग यहाँ संग्राम में श्रीरामचन्द्र जीसे नहों डरते
' (अर्थात्‌ सब डरते हैं। झतः वे वड़े वलवानहैं,वे चाहते ते यह
राज्य अपने वाहुबल से ले सकते थे, किन्तु ) पे (केवल खयं ही )
धर्माक्मा, ( नहीं )हैं,प्रत्युत प्रधर्मियों को भी धर्म पर चलने की
शिक्षा देते हैं। वे ही क्‍यों कर अधर्म करें ( श्र्थात बलपूर्वक
शज्यलें )॥ २०॥
नन्‍्वसी काश्वनैवाणिमेहावीयों महाश्रु! ।
0 णेमेहावीये

युगान्त इव भूतानि सागरानपि निर्दहेत्‌ ॥ २१॥


बड़ी भुजाओों वाले प्रैर महापराक्रमी श्रीरामचद्ध जे। अपने
छुनहले रंग के वाणों से प्रलयकाल के समय जैसा, ( केवल ) सब
प्राणियों ही के (नहीं) समुद्र (तक) का भस्म कर सकते हैं ॥२१॥
स ताइशः सिंहवले! हृ१भाक्षों नरपभः ।
स्वयमेव हंतः पित्रा जलणेनात्मजेयथा॥ २२ ॥
एप१ खाढबे-मदाबुद्दे।कै( (गो
गो० ०)
)
६३२ अयाध्याकाणदे
वे सिंद के समान वलशालों, पुरण्ेठ शोराम उसी प्रकार
झपने पिता द्वारा मारे पड़े, विस प्रार मद्लोी के वच्चे ( प्रपने
पिता ) मत्स्य द्वारा नष्ठ ऋर दिये जाते दं ( मत्स्य ग्रपने सन्तान छो
खा डालतेहैं)॥ २२ ॥ ॒
दिनातिचरिता थम! शास्दएः सनातन: |
यदि ते पर्मनिरते लगा पुत्रे विवासिते ॥ २३ ॥
यदि द्राप द्वित्रों द्वारा आवरित, शाल्रार्त सनातन धर्म मानते
होते, तो ऐसे घर्मनिरत पुत्र के देश निकाला ऋभी न देते ॥ २३ ॥
गतिरेका पतिनायां द्वितीया गतिरात्मजः ।
दतीया ज्ञातयो राजंशतुर्थी नेद्र विद्यते ॥ २४ ॥
देमहाराज ! स्त्री के लिये पहला सद्दारा पति का, दूसरा युद
का, तीखा भादँवदां का है। स्री के लिये चौथा सदारा तो कोई
हैहो नद्दी ॥ २४ ॥

तंत्र त्॑ चंद्र मेनांतित रामस्य वनमाथ्रितः ।
अं ० प

न वन गन्तुमिच्छामि सवेया निद्ृता त्ववा ॥२५॥


>> #%०५ 0. ष ७

इनमें से आप तो प्रेरे हैदीं नहीं ( और इमरे सदारे ) रा


का आपने वन भेज ही दिया है। आपका द्ोड़ में वन भा नहीं
जा सऊुती | आपने तो मुझ्के आारहवाद ऋर दिए [ थर्थात्‌ झु्े
कहीं का नद्ों रखा सब तरह से वरवाद ऋर दिया ) | २५ ॥
हत॑ लगा राज्यमिदद सराह्
हतलयाध्थआा सह मन्त्रिमिथ |
हता सपुन्रास्मि हताथ पारा! ।

सुत् भायां थेतब पहु्ठी ॥ २६ ||
..ज
द्विषश्ितमः सर्गेः ६३३
दे महाराज | ( झापने श्रीराम के वन में भेज कर ) श्नेक
छोटे राज्यों सहित इस विशाल राज्य का, मंत्रियों सहित अपने
आपके, पुत्र सहित मुझको और सम्रस्त श्येध्यावाधियों के
बरवाद कर डाला | ( आपके इस कार्य से प्रसन्न केवल दो ही
हैं) आपको भार्या फैकेयी और उसका पुत्र भरत ॥ २६ ॥
इमां गिर दारुणबब्दसंश्रितां
ह निशम्य राजा5पि मुमेह दुःखित) ।
ततः स शोक प्रविवेश पार्थिव!
स्व॒दुष्कृतं चापि पुनस्तदा स्मरन! ॥ २७ ॥
इति इकपष्टितमः सगे ह
.कैशल्या के इस प्रश्वार केकठोर वचन सुन, महाराज दशरथ
, अत्यन्त दुःब्ी दो मूर्तित दो गये और शोकसागर में निमम्न दो
'मदाराज़ इस दुःख का शआादिकारण विवारने लगे ॥ २७ ॥
अ्येाध्याकाएड का इकसठवाँ सर्ग समाप्त हुआ ।
. +कं--
दिषष्टितमः सर्गः
बन्द 0

एवं तु क्रुंद्यया राजा राममात्रा सशोकया ।


श्रावितः परुषं वाक्यं चिन्तयामास दुःखितः ॥ १ ॥
“ए छत त्मजू:-पताव्शबुःखत्यनिदानसूत किंक पूर्व्वझृत॑
क्मपूर
किंर्म छतइतिइति..
स्मरन्‌ | ( गो० ) !
ईैं३४ अयेध्याकायडे

महाराज दशरथ शेक के कारण क्रुद्ध राममाता काशब्या के


ऐसे फठार वचन झुत, दुखी हे सेाचने लगे कि, शभ्रव क्या
कर ॥ १॥ ४
चिन्तयित्वा स च ठेपे मुमाह व्याजुलेन्द्रिय/ |
अथ दीर्षेंण कालेन संज्ञामाप परन्तप) ॥ २॥॥
यंही साचते सेचते महाराज चिक्रल हा मुछित हा गये ओर
बहुत देर बाद वे सचेत हुए ॥ २ ॥
5 चर ० «०
से संज्ञामुपलम्यव दीघंगुष्णं चनिःश्वसन )
कौसल्यां पाववतों दृष्ठा पुनश्चिन्तामुपागमत्‌ ॥ हे ॥
थे सचेत देने पर वड़ी गहरी साँसे लेने लगे। कैशल्या का
पास बैठी देख, वे फिर साथ में पड़ गये 4 ३े ॥
तस्य चिन्तयमानस्य पत्यभात्तम दुष्कृतम |
न ह ( कप
यदनन कृत पूव॑मज्ञानाच्छब्दवधिना ॥ ४ ॥
सेचते साचते उनका अपना दुश्डमे याद पड़ा। (वह था )
पहल्षे किसी समय अनजाने एक तपल्थी का शब्दवेधी वाण से
वध ॥ ४ ॥
विमनास्तेन शोकेन रामशोकेन च प्रजु |
द्वाभ्यामपि पहाराजः गोकाभ्यामन्वतप्यत्त ॥ ५ ॥॥
महाराज एक तो थ्रोरमचच्ध के वियाय से दुःखी थे ही, अव
“डस हुष्कर्माका स्मरण भी उन्‍हें दुःखी करने लगा। इन दोनों के
शोक से महाराज सन्तप्त दो विकल्ल है गये ॥ ४ ॥
दिपप्ितमः सर्यः ६३४

दह्ममानः स शोकाभ्यां कौसल्यामाह भूपतिः ।


वेपमानोअ्झलिं कृत्वा प्रसादार्थभवारुसुखः ॥ ६॥
दोनों शोझों सेदग्च और दुःण्षित महाराज दशरथ ने काँप ,
कर और नोचा सिर कर काशह्या को प्रसन्न करने के उद्देश्य से
हाथ जाड़ कर कहा ॥ ६ ॥
, प्रसादये त्वां कैसल्ये रचिते।अ्यं मयाउल्ललि: |
. कत्सला चानशंसा च त्व॑ हि नित्य॑ परेष्वपि ॥ ७ ॥
है क्षैशब्ये |मेंतेरी विनती करता हैँ और द्वाथ ज्ञाडता हूँ।
” तू तो अपने शन्नश्रों परभी सदा दया दिखाती और उनके प्रति
झकेार व्यचद्वार करती है॥ ७॥
भर्ता तु खलु नारीणां गुणवान्निगुणेजपि वा ।
धर्म विमृशमानानां प्रत्यक्ष॑ देवि देवतम्‌ ॥ ८ ॥
दे देवाँ! (यद भी तू ज्ञानतो ही हैकि, ) धर्म की दृष्टि से,
धर्माचरण करने वाली खत्री केलिये उसका/ पति ही चाहे गुणी
दे अथवा निर्गणी, प्रत्यक्ष देवता है ॥ ८ ॥
सा त्व॑ धमपरा नित्य॑ दृछृकेकपरावरा |
नाहसे विप्रियं वक्‍त दुःखितापि सुदु!खितम्‌ ॥ ९॥
से तूनित्य धर्मांचरण में तत्यर श्र संसार का ऊँच नीच
समझने वाली है| कर भी, तुझे ऐसे श्रप्रिय वचन कहना उचित
१... दष्टछाकपरावशा-इषौलेकिजनेपरावरौ--उत्कर्षापिकंपोंयंयासत-
येक्ता । ( भो० )
ईै३६ अयेध्याकायड़े
नहीं । ( मैंयह जा नत ा हैंकि . व्‌ दु ःख ी दे ने के का रय ा ऐस ा कह
रही है,तो भो ) मुक्त जैसे प्र त्य न्त दु ःख ी से तुक ्के ऐस ा कह ना
उचित नहीं ॥ ६ ॥
तद्वाक्य करुणं राज्ञः श्रुत्वा दीनस्य भाषितम्‌ |
कैसल्या व्यसजद्याप्पं प्रणालीव नवेदकम' ॥१०॥
मद्दाराज्ञ के ऐसे करणापूर्ण चचन छुन, काशब्या के नेत्रों से
थ्रौछुओं को धार इस भांति वद्दी, जिस भाँति नालियों में वर्षों का
जल वहदता है॥ १०॥
सा मूर्ष्नि वद्धा रुदती राह! पद्ममिवाज्ञलिम्‌ |
सम्प्रमादत्रवीत्रस्ता त्वरमाणाक्षरं बच; ॥ ११॥
कैशल्या ने महाराज के दोनों जुड़े हुए कमल सद्ृश हाथों को
अपने सि८ पर रख लिया और सरोतो हुई घबड़ानी सी वह
चात्वी ॥ ११ ॥
प्रसीद शिरसा याचे भूमो' निपतिताओस्मि ते॥
याचितास्मि हता देव हन्तव्याईं न हि खया ॥ १२॥
दे देव ! आप दुःखी न हैं। ; प्रसन्न हो । मेंअपना सिर आपके
चरणों मेंरख प्रापक्रा प्रणाम करनी हूँ।आपका मेरो विनती करना,
मेरे लिये मरने के समान कश्दायो है। अतः थआराप मुझसे ज्ञामा न
माँग कर, मुझे मेरे अनुचित कर्म के लिये दा्ड दे ॥ १२॥
नेषा हि सा स्री भवति श्लापनीयेन धीमता ।
उभयेलेकियेदीर पत्या या सम्पसाचते ॥ १३॥
१ नवादकं--वर्षणल । ( गो० ) ३ मूम्ौनिपत्तितास्मि--प्रणताहमी-
बर्थ: । ( योब्) ह
द्विषश्तिमः सर्गः है३७
चद्द स्त्री कुल्लो न नह ीं कह ला सक ती , जि सक ी दो नो ं ले को ं की
पक मात्र गति ( अर्थात्‌ पति ) विनतो कर प्रसन्न करे॥ १३ ॥
जानामि धर्मधर्मज्ञ तवां जाने सत्यवादिनम्‌ |
पुत्रशाकातया तत्त मया क्रिमपि भाषितशभ॥ १४ ॥
है धर्मज्ञ ! मैंल्ली क्ंच्य को जानती हैंऔर आपके सत्यवादी
मानती हूँ। उस सम य मे रे मु ख से जे थे ड़ ा बह ुत प् रत ुच ित नि कल
गया, वह पुश ्नश ोक् र स े
वि कल दो ने के का रण नि कल गय ा ॥ ९४ ॥
शोको नाश्यते पैये शोक्े नाशयते श्रुतम्‌! ।
शोके नाशयते सर्व नास्ति शोकसमे रिपुः ॥ १५॥
क्योंकि शोक (मठुष ्य का के वल ) थैर ्य औ र शाल ्नक ज्ञ ान ही नष् ट
नहीं करना, प्र्युत सर ्व ंन ाश कर दे ता है । अत ः शो क से बढ ़ कर
(मनुष्य का ) श् षु दू सर ा कई नह ों है ॥ १४ ॥
गक ्य मा पत ित ! सो दू ं प् हा रे रि पु हस ्त त/ । |
सेहुमापतितः शो क! सु श् नृ ्म ेज पे न शक ्य ते ॥१ ६॥
ग्रतप॒व अन्य वैरी के हाथ का प्र दार तो सह भी लि या जा
ुत था ड़ ा सा भी शो क नह ीं सह ा जा
सकता है, किन्तु दठात्प्राप्त बह
सकता ॥ २६ ॥.

बनवासाय रामस ्थ पद ्च रा त् रो ज् य गण ्य ते ।
य; शोए्दतहर्षाया: पश्ववपें पम े। मम ॥ १७ ॥
। ( प्ि ० ) २ आप त् ति व/ --
१ ध्रुतम््‌ _जाक्षक्रवणननित्तनिश्वितथम
इृदातप्रात्तः । (गो? ) ॥'
ईइ५ अयेाष्याकायडे

राम को चनवास गये थ्राज पाँचवी रात हैकिन्तु, मेरे लिये


वा ये पाँच रातें पांच वर्ष के सम्रात दो गयीं ।क्योंकि राम-वियेग-
जनित शोक के कारण हर्ष तो एकदम मुक्से विदा दो गया
है॥ ७).
त॑ हि चिन्तयमानायाः शोके5्यं हृदि वधते ।
हि हक ०५ चर | बधते

नदीनामिव वेगेन समुद्रसलिरं महत्‌ ॥ १८ ॥


श्रीराम की चिन्ता करने से मेरे हृदय मेंउसी प्रकार शोक
बढ़ता है,जिस प्रकार नदी के जल्न के वेग से समुद्र का ज्ञल
बढ़ता है ॥ १८ ॥|
एवं हि कथयन्त्यास्तु कासल्याया। शुभ बच) ।
मन्दरश्िरभूत्ययों रजनी चाम्यवर्तत ॥ १९ ॥
फैशढ्या जी के इस प्रकार विनप्नतापूर्ण वचन कहते कहते, छूर्य
अस्त दे गये और रात हा गयो ॥ १६ ॥
#अथ प्रह्मदिते वाक्येदेव्या कासटयया ठप) |
शोकेन च समाक्रान्तों निद्राया वशमेयिवान्‌ ॥ २० |!
इति द्विपशितमः सर्ग: |
महाराज दशरथ, कैशल्या की यह वातचीत ख़ुन, हर्षित हुए
शोर शोक से उत्पीड़ित दोने के कारण उनके नोंद आ गयी ॥२०॥
थ्रयेध्याकागड का वासठ्वों सर्ग समाप्त हुआ ।
जद -+-$#-....
| पाठ/न्तरे-- तथा प्रधादिता
त्रिषष्टितमः सगे

प्रतिबुद्धों मुहूर्तेन शोकापहतचेतन!


अथ राजा दशरथश्रिन्तामभ्यवपत्रत ॥ १ ॥
एक मुद्ठते सोने के पीछे मद्ाराज फी आंखें खुलीं। प्राँखें
खुलते ही शोक ने उनके आ घेरा और थे चिन्ता करने लगे ॥ १ ॥
रामलक्ष्मणयेश्रेव विवासाद्वासवेपमम्‌ ।
आविषेशोपसग:'त॑ तमः* सूर्यमिवासुरसर ॥ २.॥
श्रीयम शोर लक्ष्मण केवनवास के उपद्रव से बढ़े हुए शोक
ने इन्द्र के
समान महाराज दशरथ के उसी प्रकार आच्छादित कर
. . लिया, जिस प्रकार राहु छूय को आच्छादित कर ल्ञेता है ॥ २॥
. सभायें निर्गते रामे कैौसल्यां केसलेश्वर! | .
विवश्लु'रसितापाडुं स्पृत्वा दुष्कृतमात्मनः ॥ ३ ॥
सस्ब्रीक भोराम जी के वनवासी देने पर महाराज ने प्पने
उस दुष्कृत कर्म की सुधि कर, उसे महारानी काशक्या से कहने
की इच्छा की ॥ ३॥
स राजा रजनी पष्ठी रामे प्रताजिते वनम् )
« अधरात्रे दशरथ; संस्मरन्दुष्क्ृतं कृतम ॥ ४ ॥

६ भासुरं--अथुर संबन्धि | (गो० ).४ विवश्लुः वक्तम्रिव्यु: । (-कि०


६8० अयेध्याकायडे

श्रीयम के वनवास के दिन से छठी रात को श्राधी रात के


समय महायज्ञ ने अपने उस पापकृत्य के स्मरण किया ॥ ४ ॥
स्‌ राजा पुत्रशोकातः स्मृत्वा दुष्कृमात्मनः ।
कैसल्यां पुत्रशोकार्तामिदं बचनमत्रवीत्‌ ॥ ५॥
पुत्र केवियाग के शोक से विकल मद्वाराज ने अपने पापकर्म
के स्मरण कर, पृश्रवियाग से विकल महारानी कोशक्या से
कहा ॥ ४ ॥
यदाचरति कल्याणि शुभ वा यदि वाइ्शुमस्‌ | -
० &.
तदेव लभते भद्े करता कमजमात्मन) ॥ ६ ॥
3 दर

हैकत्याणि ! मनुष्य भत्ना या बुरा-जैसा कर्म करता है, उस


कर्म का फल, कर्ता का अवश्य मिलता है ॥ ६ ॥
गुरुलाघवमर्थाना' मारस्भे कर्मणां फलम्‌ ।
देषं वा ये। न जानाति स वाल इति होच्यते ॥७॥
अतप्व कर्म करने के पूर्वजे मनुष्य कम के 'फल का गुरुत्व
लघुत्व (भलाई बुराई ) श्रथवा उसके दोप (त्रुढि ) के नहीं
जानता, वह ध्रज्ञानो +हज्ञाता है ॥ 9॥
कथिदाम्रव्ण छित्ता पलांशाश्व निपिश्वति |
पुष्प इृष्ठा फले ग्रध्तु; स शोचति फछागमे || ८ ॥
जा आदमी पलाश के लाज लाल फूलों के देख, फल्न पाने
की प्रमिलाया से; थ्राम के पेड़ के काठ कर, पलाश देत्त के
१ अर्थानामु-फ़छानाम्‌ | (गो० ) २ बालः--अज्ञ+ | (गो०)
विषश्तिमः सगे ६४१
सींचता है,फत् लगने का सप्रय आते पर वह अवश्य ही पु
ताता है ॥ ५॥
अविज्ञाय फर्ल ये। हि कमत्वेवातुधावति ।
स शोचेंस्फलवेलायां यथा किंशुझसेचकः ॥ ९ ॥
अत:-ज्े। मनुष्य कर्म का परिणाप्र विवारे बिना हो कर्म करने
लगता है, उसे मो फत यात्ति के समप्र, पञ्राश बुत्त सींचने वाले
( प्क्ञानो )मनुष्य को तरह पदुतावा पड़ता है ॥ ६ ॥
से।हप्राप्रतर्ग छित्या पछाशांश्च न्यपेवयम्‌ ।
राम॑ फलाएे त्यक्त्या परथाच्छोवामि दुमति। ॥१०॥
यी| वैंते मो श्राप कै बुत के काई कर पत्नाशर के तृत्त
के सींच। है। थे। फव तने है स्रर, भीएम़ को त्याग कर
घुझ् हुएपति के भी पछुताना पड़ता है ॥ १० ॥
लग्पशब्रेन' काशस्पे कुमारेण धनुष्मता ।
कुपार; शब्दवेधीति मया पापमिंदं कृतम॥ ११ ॥
है कैशव्ये | मेंने अपनों ऋुमारावध्या में झपने के शब्दवेधी
कदला कर, प्रसिद्ध दोने की श्रमिज्ञापा से धनुष धारण कर, यह
पाप किया ॥ ११॥
तदिदं मेअजुसम्पाप्त॑ 'देवि दु!खं खय॑ कृतम्‌ ।
सम्माहादिह कयास्पेन यथा स्थाद्भप्षित विपम्‌ ॥१२॥ '
१ छम्धताब्देमृ+-मात्तज आातिनामया थद्वालब्धगनतुस्य मुनिपुत्र शब्देन ।
यो० ) # पाठान्तरै--४ बालेन तदा । !!
वा० रा०--४१
६8२ शयेाध्याकायडे

से है देवी ! मेंइस दुःख का कारण खयं ही हैं। जिस प्रकार


वाह्मक झज्ञानवश विष सा के, चैसे ही मेंने भी श्रजञान मेंपाप
कर अपना सर्वनाश अपने आप किया है ॥ १२ ॥
यथाउन्यः पुरुषः कश्रित्पलाशैमेहिते भवेत्‌ ।
एवं मयाप्यविज्ञातं शब्दवेध्यमिदं फलम्‌।॥ १३ ॥
, जैसे कोई आदमी पत्नाशपुष्प के देख, उससे उत्तम फल्न पाने
'की थ्राशा से उसकी सेवा करे, पर उससे उसे उत्तम फल की
प्राप्ति नहीं दाती-पैसे ही मेंने भी शब्दवेधी शिकार के उत्तम
समक्ष विना जाने वूक्के ऐसा किया, उसका मुस्के यह फल प्रा
हुआ है ॥ १३॥
देव्यन्‌हा' त्वमभवे। युवराजो *भवाम्यहम्‌।
, ततः 'आाहडलुप्राप्ता मदकामविवर्धनी ॥ १४॥
दे देवी |!
यह हाल उस समय का है ज्ञिस सम्रय तुस्दारा
विवाह नहीं हुआ था और में युवराज्ञ था। उन्हीं दिनों कलाम के
बैग के उत्तेज्ञित करने वाली वर्षा ऋतु आयी ॥ १४ ॥
“उपास्य हि रसानभोगांस्तप्ता च बजगदंशुभिः ।
'रेताचरितां भीमां: रविराविशते: दिशम्‌ ॥१५॥
३ अनढ़ा--भक्षत्त विवादा । (यो० ) २ भवामि--अप्तवं॑ । (गो० )
३ ग्रावृट-चर्षाकाछः | (गो० ) ४ उपास्य--सुद्दीत्वा। (गो० ) ५ रसान ,
“-जकानि | (गो० ) ६ जगत्‌--भूमिं । ( गो० ) ७ परेताचरितां--प्रेता- -
चरितां । (गो०) ८ भीमदिशिर--दक्षिणामिल्थे: । (गो० ) ५ आविशते
--कआविशतेष्स । ( गो ) _
ब्रिषश्तिमः सगे... ६४३
लुर्यदेव पृथिवी के जल के सेख, और पपनी किरणों से
भूमि के तप्त कर, प्रेतमण सेवित भयदुर दत्तिण दिशा के चले गये
( भ्र्थात्‌ दत्तिणायन हो गये )॥ १४ ॥
: उष्णमन्तदंधे सद्यः स्निग्या' ददशिरे घना; ।
तते जह॒पिरे सर्वे भेकसारड्भवर्हिण; ॥ १६ ॥
गरमो एक दूम दूर दे! गयो। शीतल बादल दिखलाई देने
लगे | उनके देख, मेढ़क, चातक और मथूर हर्षित हे गये ॥ १६ ॥
छिन्नपक्षोच्तरा! स्नाताः कृच्छादिव पतत्रिणः ।
रृष्टिवातावधूताग्रान्पादपानभिपेदिरे ॥ १७॥
वरसाती हवा से दिल्लते हुए पेड़ों पर, उन पत्तियों ने, जिनके
पर जल से भींग जाने के कारण, स्नान किये हुए जैसे ज्ञान
'पड़ते थे, बढ़े कष्ट सेबसेरा लिया ॥ १७ ॥
पतितेनाम्भसाछन्न! पतमानेन चासकृत्‌ |
आवभो 'मत्तसारप्डस्तेयराशिरिवाचल) ॥ १८ ॥
बरसे हुए ओर वरसते हुए जल्न से भ्राव्डादित मत हाथी उस
समय उसो प्रकार ज्ञान पड़ते थे, जिस प्रकार स्थिर महासागर में ,
पंत खड़ा है| ॥ १८॥' ः
पाण्डरारणवर्णानि स्रोतांसि विमलान्यपि ।
सुखुवुर्गिरिधातुभ्य/ सभस्मानि श्ुुजज्ञवत्‌ ॥ १९॥ __
का १_ स्निग्धाः--शीतछाः । (गो?) हे मत्तपारज्ञ+--भसत्ताज। |
( गो ) हि ४ + &६. ००
है3७ अयेष्याकायदे

पर्व॑तों की धातुग्रों सेमिश्रित होने केकारण विमल जल के


सेते भी पीले लाल अयवा राज़ मिजने से काले रंग के जल से
युक्त ही, सांप को तरह ठेढ़ो मेंढ्री चाल से वह निकल्ले ॥ १६ ॥
तस्मिन्नतिसुखे काले #पनुष्मान्कवची रथी |
*व्यायामकृतसझ्ूरप) सरयूमन्वगां नदीम्‌॥ २० ॥
उम्र खुखदायी समय में शिकार खेलने के लिये धदुष वाण
ले श्र रथ में वेठ सरयू नदी के तठ पर पहुँचा ॥ २० ॥
निपाने महिष॑ रात्रों गज वाध्भ्याग्त नदीम |
अन्य वा श्वापद कश्रिज्जिधांसुरजितेन्द्रिय/ ॥२१॥
मेंवश गया, जहाँ रात के सम्रय वनमेंसा, हाथी, तथा
ब्याप्रादि भन्य दुए जन्तु जल पीने ग्राया करते थे। (मेंइस उद्देश्य
से वहाँ गया कि, कोई ज्ञानवर श्ावरे और उसे में मारे )क्‍योंकि
उस समय तक मेरी प्रवृत्ति शिकार खेलने की ओर विशेष थी
( अथवा पुरे शिकार से निद्धत्ति नहों हुई थी ) ॥ २१ ॥
अथान्धकारे लश्रोष॑ जले कुम्भस्य पूयेतः ।
अचल्लुर्विषये घेष॑ वारणस्पेव नदतः ॥ २२ ॥
इसी वीच में अंधेरे में जन भरते हुए घड़े का शब्द छुन, मेंने
समझा कि कोई हाथी चिंघार रहा है। मुक्ते कुछ दिखलाई न पड़ा,
मैंनेकेवल वह शब्द हीछुना ॥ २२ ॥ ह
! ध्यायामझतसइल्य+--रुगयाविद्वारेक्ततसहरह्पः । (गो० ) २ इवापद
>ध्याप्रादिदुष्॒गं | (गो० ) # पाठान्तरै--* धुष्मानिधुमानर्थी।
बत्िपपष्टितमः सगे! ६४४

तते<हं शरमुद्धत्य दीप्रमाशीविपोपमम्‌ |


शब्दं प्रति गजपेप्सुरभिलक्ष्य त्पातयम्‌ ॥ २३ ॥
( मैने तरफस से सर्प के विष से वुस्का श्रर्थात पैना और
चमचमाता वाया निकाल, उस हाथी के वेधने को इच्छा से, शब्द
के लत््य कर द्वाड़ा ॥ २६ |
अमुश्व॑ निशितं वाणमहमाशीबिपोपमम्‌ |
तत्र वागुपसि व्यक्ता प्रादुरासीद्रनाकस!' ॥ २४ ॥
मैंने उ्योंही चह विष का बुला पैना वांण छोड़ा, त्योंहो किसो
वनवासी का शब्द मुझे रुपए खुनाई पड़ा ॥ २४ ॥
हाहेति पततस्तेये वाणाभिहतममंणः |
न ||

तस्मिल्िपतिते वाणे वागभूत्तत्र मानुषी ॥ २५ ॥


' चह ( तपस्वी जिसके वाण लगा था ) हाय हाय फह जलन में
गिर पड़ा-क्थोंकि उस वाण से उस तपस्तरी के भर्मस्थल विध
गये थे । वह वाण की व्यथा से ज्ञव पानो में गिर पड़ा, तब मनुष्य
जैसो वेलोी ( इस प्रकार ) छुन पड़ी ॥ २५ ॥
कयमस्मद्विधे' शस््ं निपतेतु तपस्िनि |
प्रविविक्ता' नदीं 'राजाबुदाहारोब्हमागतः ॥ २६ ॥
(वह बाला ) मेरे जैसे ध्रज्ञातशन्न तपस्ती के क्‍यों इस प्रकार
बाण लगा ।मेंतो रात्रि केलमय, निराक्षे में जल भरने आया
था॥ २६ ॥ हे पर
१ चनौझूपा--तपस्खिनः । ( थो० ) २ अस्मदिधे--अजातशन्नौ । (मो०)
३ प्रविधिक्त--अकर्पेंण निर्जनां |( गो० ) ४ राप्रौ--भपररात्रौ । ( गो० )

ही
थ्याध्याकाणडे

इपुणाइभिहतः कैन कस्य वा कि कृत मया।


ऋषेर्दि न्यस्तदण्डस्थ! बने वन्‍्येन जीवत! ॥ २७ ॥
किसने मुझे वाण से मारा, मेंने किसी का कमा विगाड़ा था!
इस ऋषि के जे! वाणी श्लौर शरीर से किसी ज्ञीव के नहीं
सताता और वन में रह कर जे वन में उत्पन्न कन्दूल कल खां ,
कर जीवन विताता है ॥ २७ ॥
कथ॑ नु शल्लेण वधे! मद्विथस्य विधीयते ।
जटाभारपरस्यैव वल्कछाजिनवाससः ॥ २८ ॥
ऐसे मुक्त जैसे (ऋषि )का वाण मार कर वध क्यों किया
ज्ञाता है। परे में जदामार धारण कर, वक्ष और झूृगचर्म
पहिनता ओढ़ता हूँ ॥ २८ ॥
के वधेल ममार्थी स्थात्कि वास्थापक्ृत गया ।
एवं निष्फलमारव्ध॑ केवडानथंसंहितम्‌ ॥ २९ ॥
, इस दशा मेंरहने पर सी ध्ुक्रेमारने से किसी का क्या अर्थ
साधन हो सकता है, अथवा मेंने किसी का कुछ विगाड़ा था (जा
“,.. इसने मुझे वाण से मारा ) ऐसा निषकल्न कर्म तो केपल गनर्थ
ही का पूल है ॥ २६ ॥
« न कश्षित्साधु मन्येत ययेव गुरुतरपगम्‌।
नाहँ तथानुशाचामि जीवितश्नयमात्मम/ ॥ ३० ॥
जैसे गुर की शब्या पर बैठने वाला साधु नहीं समस्का जाता
( वैसे हो उसके भी कोई मला न कहेंगा जिसने ध्यकारण म्रेरा
) न्यल्तदण्डस्य--उ्परतवाइसन्द
सन न्धिःक
परदिाय
ं घल्य | (गो०)
नरिषष्टितमः सगे | ६४७
चध करना चाहा है। ) मुझे सपने प्रण जाने की उतनो चिन्ता
अथवा शोक नहीं है ॥ ३० ॥
मातरं पितरं चे।भावजुशे।चामि मद्रपे ।
तदेतन्मिथुनं हृद्धं चिरकालभुतं मया ॥ ३१ ॥
ज्ञितनी चिन्ता म्ुक्के अपने मरने पर माता पिता की है। उन
दोनों बुद्धों काअब तक तो मैंने पाजन पोषण किया ॥ ३१ ॥
मयि पश्चत्वमापन्ने कां दृत्ति वतयिष्यति ।
हृद्धों चमातापितरावहं चेकेषुणा हतः || ३२॥
किन्तु मेरे मर ज्ञाने परउनकी क्या दशा द्वोगी, मेरी माता
और मेरे पिता तो बूढ़े हैं और मैं इस प्रकार बराण से मारा
गंया ॥ ३९॥
केन सम निहता; सर्वे सुवालेनाकृतात्मना' |
तां गिर॑ करुणां भुत्वा मम धर्मातुकाइक्षिण: ॥ ३३ ॥
किसो दुवृद्धि मूल्ल ने (एक ही वाण से ) हम सव के मार
डाला। ( हेकाशल्या ! ) इस प्रकार की करुणा भरी वाणी छुन,
सु जैसे पुण्येपार्जन की इच्छा रखने वाले अथवा घर्ममोद ॥३२३॥
कराभ्यां सभ्रं चापं व्ययितस्यापतदओुवि ।
तस्याहं करुणं श्र॒त्था निशि छालपते| वहु ॥ ३४ ॥
सम्भ्रान्तः शेकवेगेन भुशमासं विचेतनः
त॑ देशमहमागम्य दीनसत्व; सुदुमेना; ॥ ३५ ॥
१ अक्ृतात्मन--अनिर्चतवुद्धिता | (गो ) २ घर्माहकाक्षिण:--
अमप्रतीक्षाशीरुष्य | ( शि० )
६४८ ध्रयाध्याकायडे
ऐसा व्यय्ित हष्आा कि मेरे हाथ से धहुप बाण भूमि पर गिर
पढ़े |उस रात में , में तपल
उस ्ली का विज ्ञा प सुन उठि म्म दी और
उत्यनत शाकाकुल दे भ्वेत हा गया | तदनस्तर मेंदुःखी और
उदास दे उस जगह गया ॥ रे४ ॥ २५ ॥
अपश्यमिषुणा तीरे सरय्यास्तापसं इतम्‌ ।
अवकी्जठाभार॑ प्रविद्धकलशेदकम ॥ ३६ ॥
सरयू के तट पर ज्ञा कर देखा कि, एक तपस्वी वाण से घायल
पड़ा है। उसके सिर की ज्टा बिखरी हुईहै श्रार कक्षसा का जक
फैला हुआ हैअ्रथवा पानी का कल्लला भ्रत्नग पड़ा है ॥ ३६ ॥
पांसुशोणितदिग्धाड़ं शयान॑ #शरपीडितम्‌ ।
स मामुद्दीक्ष्य नेत्राभ्यां तस्तमखस्थचेतसम्‌ ॥ २३७ ॥
इत्युवाच |विचः कर दिपक्षत्रित तेजसा ।
, कि तवापकृतं राजन्वने निवसता मया || ३८ ॥
सारे शरीर में खून श्रार घूल लगी हुई है, वह वाण की व्यथा
से ज्ञमीन पर पड़ा तड़फड़ा रहा है। उसने मुझे भयभीत और
विकल जोन अपने दोलों नेत्नों से मेरी ओर ऐसे देखा मानों अपने
नेधायि से मुझे भस्म कर डालेगा। तदननतर वह ये कठोर
घच॑न वाला। दे राजन! मेंने धन में बसते हुए तुझ्दारा क्या
वियाड़ा था ? ॥ ३७ ॥ ३८ ॥
निहीष्रम्‌मेगु्वंथर यदहं ताडितस्खया |
एकेन खलु वाणेन ममेण्यभिहते मयि ॥ ३९ ॥
है प्रदुद्ध-ध्वत्तं। (र० ) ! गुबंध -मातापितृनिमितं । ( भो० )
9 पाठन्तरे--० शब्यप्रीडितम्‌ !! ५ शल्यवेधितं वा ”? | पाठान्तरे--* तत३ ।!१
त्रिवशितमः सर्गः ६४६

जे। माता पिता के ( पीने के )लिये जल भरने आये हुए मुझ


के तुमने मारा |एक ही वाण से तुमने मेरा मर्मेस्यल घायल कर
दिया ॥ ३६ ॥
दावन्धों निहते! ृद्धो माता जनयिता च मे ।
ता कय दुबछावन्यी मल्मतीक्षों पिपासितो ॥ ४० ॥
च्े ॥४ न्पै चर

._ शऔर मेरे माता पिता के भी, जे। दुर्चल तथा अगश्वेहैं एवं
मेरे झाने की प्रतीत्ता करते हुए प्याते बैठे होंगे, मार डाला ॥ ४० ॥
चिरमाशाकझवां तृष्णां #कथ सम्धारयिष्यतः |
न नूनें तपते वा$रित फलयोग! श्रुतर॒य! वा ॥ 9१ ॥
वे मेरे श्राने की वाद-देखते हुए प्यास के कए की कैसे सह
सफेंगे |दा !इससे तो तप का व इतिद्दास पुराणादि के धवण का
कुछ भी सम्बन्ध न ठहरा ॥ ४१॥
पिता यन्मां नजानाति शयान पतितं झुवि ।
जानभ्पि च कि कुयांदशक्तिरपरिक्रम! ॥ ४२॥
जे। पिता जी यह नहीं ज्ञानते कि में इस दशा मेंयहाँ ज़मीन
पर पड़ा हैं और यदि जान भी ज्ञॉय तो कर ही क्या सकते हैं,
क्योंकि उनमें ( शँप्े होते से) चलने की शक्ति नहीं हैअर्थात्‌
वे पड़ हैं ॥४२ ॥
भिदच्रमानमिवाशक्तस्तातुमन्ये। नंगा नगस्‌ |
पितुस्तवमेत मे गत्वा शीप्रमाचह_्ष्व राघव ॥ ४३ ॥
ेवीय। । ( शि० )
फकये
१ श्रुतत्य--मच्छुवणविषयीभुतेतिद्षातपुराणेद
# पाठान्तरे--४ केश | ? ॒
३६० अयेध्याकायूडे

जैसे कठते हुए वृत्त की रक्ता दूसरा बुक्त नहीं कर सकता


(क्योंकि उसम ें चल ने को शक् ति नही ं) उस ी प्र कार मेर े मात ा
पिता भो घँधे और पढ़ देन े के का रण मेर ी रक् ता कर ने में अतम र्थ
है--अतः दे राजन ! मेरे पिता के पास जा कर तुरन्त यह सम्रा-
चार उनसे कहे ॥ ४३ ॥|
न त्वामनुदरेत्कुद्धों बन वहिरिविधितः ।
इयमेकपदी' राजन्यते मे पितुराभम! ॥ ४४.॥
नहीं तो वेऋध में भर तुर्ं वेसे ही(शाप द्वारा ) भस्म
कर डालेंगे, जिस प्रकार आग वन के भस्म कर डालती है ।दे
राजन | यह पगडंडी, जे देख पह तो है, वह ी मेर े पित ा के आश ्र म
तक चली गयो है॥ ४४ ॥
तें प्रसादय गला त्व॑ न ला स कुपितः शपत ।
विशल्य॑ कुरु मां राजन्मम मेंनिश्चित! शर) ॥ ४५ ॥

से तुम्त वहाँ ज्ञा कर उनकी प्रसन्न करे नहीं तो क्ह्दे
चे तुमे शाप दे दंगे । हे राजन !तुम इस वाण के जेमेरेमर्म
' स्वल् मेंघुसा हुआ है, निकाल दो ॥ ४५ ॥
रुणद्धि मदु सेल्सेयं तीरमम्बुर्योर यथा । ६
सशल्यः छिश्यते प्राणर्विशल्ये। विनशिष्यति || ४६ ॥
इति मामविशव्चिन्ता तस्य शब्यापकर्पणे | |
दुःखितस्य च दीनस्य मम शेकातुरस्य च ॥ ४७ ॥ |
३ एकपदी--एकपदन्यासम्ात्रयुक्ता । सरणिरित्यर्थ: | (गो०) २ अम्बुरय:--
“जदीवैग: | ( गो० ) ३ शेकातुरुय--नद्मइत्यामविपष्यतीतिमियाशे।क्षेन
पीडितस्य । ( गो० )
बिषध्रितमः सर्गः 8६५१

क्योंकि यद वाण मेरे कमल पर्मह्य॑ज्ञ के उसी प्रकार काठ


रहा है, जिस प्रकार ऊँचे और वाल्ुकाप्य ऋररे के नदी की घार
का बेग काठता है। हे देवी |उस समय इस वात की चिन्ता
उत्पन्न हुई कि, जब तक यह वाण गड़ा हैतव तक उसे पीड़ा तो
दै;किन्तु ज्ञोता भी तभी तक है। क्योंकि वाण निकालते ही यह
मर जायगा। श्रतः वाण निकालने में मेरे मन में खठकां पैदा दे ,
गया। उसने मुझे दोन दुः्खो और शोकातुर देखा ॥ ४६ ॥ ४७॥
लक्षयामास ह॒दये चिन्तां मुनिश्ुतस्तदा ।
ताम्यमान; स मां कृच्छादुवाच परमातंवत्‌ ॥ ४८॥
तब उस पुनिषुच ने मेरे मन को चिन्ता के लख् 'लिया और
मुझे सम्तप्त देख, अत्यन्त दुःखो दे बड़े कष्ट से कद्दा ॥ ४५ ॥
सीदम ान े वि हृ त् ता ्ञ ो' वे हम ान े गत ः क् षय म् ‌ |
“ संस्तभ्य शो क पै र् ये ण स् थि रच ित ्त ो भव ास ्य हम ्‌ ॥ ४९ ॥
ययपि मेंइससमय वहुत कष्ट में हूँ, धुक्के साफ साफ कुछ
दिखल्ा ई भी नह ीं पड ़ रह ा, पी ड़ ा स छु
े ठप ठा रह ा हैं , औ र मर ा
ही चाहत ा हूँ , वय ाप ि धो सज धर के शो क के वे ग के । र े ह मै ं स् थि र
चित्त दोता हूँ॥ ४६ ॥
ब्रह्महत्याकृतं पा हृदयादपनीयतास |
न द् वि जा ति रह ं रा जन ्म ा भू त् ते मन से व् यथ ा ॥ ५० ॥
है राजन ! आप ब्र द्ग ाहत ्या पा
के प के भय के श् रप ने मन से
निकाल श्रपने मन की व् यथ ा दू र की जि ये । क् यो ंक ि मे ं .आ ह् मण
कनहीींंहूदँै॥ं५०07॥ 00_|छ$|.||
१ विवृ ता जह :- -प रा पु त् तन ्े त् र: । ( रा ० )
६४२ अयेध्याक्ायट

शद्रायामस्मि वेश्येन जाते गनपदाविप |


#इत्येब वृदतः कुच्छाह[णाडिदृतममंग; |
विधूर्णते। विचेष्टस्य वेपमानस्य भूतके ॥ ५१ ॥
देभूषाल ! मेंशूद्रा माता के गर्भ से पक वैश्य द्वारा उसपन्न
इआ हैं । यह कहते कदते दागा से घायल मर्मत्यत्र की पोड़ा से
उसको दीनों झांखें उज्द गयीं, उस्तकी चेष्ठा विगड़ गयी और
चह जमीन पर तड़फड़ाने छगा ॥ ५१॥
तस्य ल्ानम्यगानस्य त॑ वाणमह्मुद्धरम |
स मासुद्दीक्ष्य सन्त्रस्ता जहा आणांस्तप्रेथन: ॥ ५२ ॥
उसकी यह दशा देख, मेने वाण खाँच जिया । वागा सींयते
ही उस मुनिपुत्र ने अत्यन्त भयभीत हे ग्रेरे और देखा और प्राण
हीडू दिये॥ ५२ ॥
जलाद्ंगात्र॑ तु विरूप्य कच्छात्‌
मर्म्रणं सन्ततप्नच्छवसन्तत्‌ !
ततः सरख्यां तमहं शयान
समीक्ष्य भद्रेअस्मि भज्ज विषण्ण! ॥|५३ ॥
इति तिव्टितम: सर्मः॥
हेकैशल्ये !उस तपेधन के, (ज्रा कुछ हो क्ञणों पर्व ) माईँ-
एल में बाण का घाच लगने से अत्यन्त कश्टित हे। बिलाप कर
रहा था और जिसका शरीर (छृठपढाने से )जल से तर दे गया
धा--उस समय सरयू के तड पर, प्राइरद्दित पढ़ा देख, मुक्के
बड़ा ही विपाद दुआ ॥ ४३ ॥
अवेध्याकादड का तिरसव्यां रर्ग समाप्त हुआ ।
७-१6 नमन,
#लत्त नस रन नम तन ननानन+ 3मनन
क पाठन्तरे---* ' इतांव | !
चतुःषश्तिमः सगेः
नग्न मुँह दैनानन

पधमप्रतिरुपं तु महर्षेस्तरय राघव;


विलपन्ेव धर्मात्मा कासस्यां पुनरत्रवीत्‌ ॥ १॥
मुनिपुत्र केअटुचित वध के वर्णन कर और बीच बीच में
पने पुत्र का स्मरण कर के विलाप करते हुए, धर्मात्मा महाराज
दशरथ, काशल्या से फिर बेाले ॥ १॥
तदब्ञानान्महत्पापं कृत्वाहं सह्ुलेब्धियः ।
'एकस्लचिन्तयं बुद्धथा कं तु छुकृवं भवेत्‌ ॥ २ ॥
दे कैशल्या |उस समय, अनज्ञाने उस महापाप के कर,
विकल दे, में भक्रेता सोचते लगा कि, अब भेरा कल्याण क्रिस
तरह है ॥ २॥
ततरूतं प्रव्मादाय पूर्णपरमगरिणा । ु
| आश्रम तमहं प्राष्य ययारूुयातपर्थ गतः ॥ ३ ॥
प्न्‍्त में यह निश्वय कर कि, भव मेरा कदयाण इसीमें है कि,
: मैंपुनि-कुमार के कथनानुघाए उनके पिता को जा कर प्रश्न कूँ।
अतः मेंउत्त घुनिपुत्र केकलसे में ज्ञक्ष भर उसे ज्लेकर, उसके
बतलाये रास्ते से मुनि के आश्रम में गया ॥ ३ ॥ '
तत्राहं दुर्वछावन्धौ बृुद्धावपरिणायकों । |
“अपश्य॑ तस्‍्य पितरा लूनपक्षाविव द्विजो ॥ ४ ॥
१ विछपन्नेब--मध्येस्वपुत्रं विछपद्चेव | (गो० )/ , .,.. .
4५४ अ्रयेध्याकायड़े
वहाँ जा कर देखा कि, पंख रदित पत्तियों को तरह उसके माता
पिता जी चृद्ध, दुर्वल और दोन थे, बैठे हुए थे ॥ ४॥
तन्निमित्ताभिरासीनों कथामिरपरिक्रमों ।
तामाशां मत्कृते हीनावुदासीनावनाथवत्‌ ॥ ५ ॥
वे जल की प्रतीक्षा में बेढे पुत्र ही की चर्चा कर रददे थे ।उनकी
छ्ाशा पर मेंने पानी फेर दिया था। वे ग्रनाथ फी तरह निश्चेष्ट
बैठे हुए थे ॥ ५ ॥
शेकापहतचित्तथ भयसन्त्रस्तचेतनः ।
तम्चाश्रमपद गत्वा भूयः शेाकमह गत! ॥ ६॥ .
उस समय मेंशोक सेविकल ओर भय से श्रस्त तो था हो,
उस आश्षम में पहुँचने पर, ( उन दोनों की दशा देख कर ) मुझे
और भी अधिक दुःख हुआ ॥ ६ ॥
पदब॒च्द तु ये श्रुत्वा मुनिर्वाक्यमभाषत ।
कि चिरायसि मे पुत्र पानीय॑ क्षिप्रमानय ॥ ७ ||
मेरे पाँवों की झ्ाहट पा, उस मुनि ने कहा-है चत्स |क्‍यों
देर कर रहे दे, शीघ्र जन्न लाओ ॥ ७ ॥
किन्निमित्तमिदं तात सलिले क्रीडितं त्वया ।
उत्कण्विता ते मातेय॑ प्रविश प्षिप्रमाअमम्‌ | ८ ॥
तुम इतनी देर तक क्यों जल में खेलते रदे | आश्रम मेंतुरन्त
लाश, तुरदारी माता वड़ी उत्कगिठित दे रही है ॥ ८॥
ययलीक कूृत॑ पुत्रमात्रा ते यदि वा मया |
न तम्मनसि कतंव्यं त्वया तात तपखिना ॥ ९॥
चतुःषश्तिमः सर्गः ६३४

बेटा | यदि मुझसे था तेरी माता से कोई श्रप्रिय कार्य वन


पड़ा हि तो दे तपस्वी !उस पर तूध्यान मत देना ॥ ६ ॥
अगतिस्वमगतीनां च चा्षुस्त्व॑ हीनचक्षुपाम्‌ ।
समासक्तास्त्वयि प्राणा; कि त्व॑ नो नामिभाषसे ॥१०॥
ठुम्दीं हम दोनों प्समर्थों केएकमात्र अबल्ंव हो और हम
भ्रधों की तुस्हीं आँखें दीऔर तुम्दारे हीप्रधीन हमारे दोनों के
प्राण हैं ।तुम जवाब क्‍यों नहीं देते ॥ १० ॥
मुनिमव्यक्तया वाचा तमहं सज्जमानया |
रहीनव्यज्जनया प्रेक्ष्य भीतेञ्भीतरं इवाव्वम ॥ ११ ॥।
मैंने उस घुनि का देख, भत्यन्त डरे हुए मनुष्य की तरह,
लड़खड़ाती ज़वान से अतः अरपष्ठ धक्तारों में, उससे कहा ॥ ११ ॥
मनसः कर्म चेष्टाभिरभिसंस्तभ्य* वाग्वल्स |
आचचकफ्षे त्वहं तस्मे पुत्रव्यसनज भयम्‌ ॥ १२ ॥
बेालने के समय मेंने मन सेओर क्रियात्मक प्रयत्नों से जि्दा
को अपने वश में किया और धोरे से उसके पुत्र काकश्मय
वृत्तान्त उससे कहा ॥ १२ ॥ ४
दशरथेखमनाई
ह् ृतं
प्षत्रिया्यम पुत्| रो महात्म९ नः ५
िद
सज्जनां वमतं दुःखमिर्द प्राप्त खकमंजम्‌। १३ ॥
. १ सज्जमानया--हखलन्धया | (गो९) २ हीनव्यजनव/--अत्पट्टाक्षरया ।:
( यो० ) ३ भीतेभीतः--अव्यन्तमीतः | (गो० ) ४ अभिशंस्म्य--स्ख-
लितां वाचांबछाइहीकृत्पेति । (गो० ) ! सम्जनावमतं--पत्युरुषगद्धितं ।
( गो० ) # पाठ ान् तरे -- त्वं गतिद ्त्व गतीन ाँ ? -«
'६४६ अवाध्याकायदे

है महात्मन ! में दृशस्थ नाम का ज्षतिय हूँ। झ्राप्ता पुत्र नहीं


हैं। मुफसे एक विनय कर्म वन पड़ा है, निसह्ना मुक्ते बड़ा दी
दुश्ल हूं॥ ९३॥
भगवंश्ापहस्तो# सरयूतीरमागतः ।
निषांसु) स्वापदं कश्विलिपाने चागतं गजम | १४ ॥
है मगवन्‌ ! मेंहाथ में धनुष ले सरयू नदी के तद पर इसलिये
आया कि, यदि कोई हाथी या शेर बाघ आदि वनजन्तु पानों पोने
जावे तो उसका शिकार खेलूँ ॥ १४ ॥
तत्र श्रुता मया झब्दे जछे कुम्भस्य पू्यतः |
दिपाध्यम्रिति मत्वायं वाणेनामिदता मया || १५ ॥
इसी दीच में मेंने घड़े में लत भरने का शब्द खुना और यह
समझा कि, हाथी वेल रहा है, अतः मेंने वाण मारा ॥ १२५॥
गत्ता नद्यास्ततस्तीरम्रपश्यम्रियुणा हृदि |
विनिर्धिन्नं गतप्राणं शयानं अुवि तापसम्‌ ॥ १६ ॥
किन्तु जब मेंसरयू के तठ पर पहुँचा तव मेंने देखा कि, छाती
में वाण जमने के कारण रक्त तपजी सतप्राय अवस्था में भूमि पर
पड़ा है॥ १६ ॥
भगवज्यद्दमालक्ष्य मया गजजियांसुना ।
विसुशेव्म्मप्ति ऋनाराचस्तेन तेजभिद्तः सुत) ॥ १७ ॥
हैभगवन्‌ ! दाथी की शिकार के घोखे में, शब्दवेधी वाय
चला कर मैंने जल भरते के लिये गये दुए आपके पुत्र को मार
ढाल्ा है॥ १७ |
# पाठान्तरें--* नाराचल्ततस्ते निहततः छुत्र+ ” ।
चतुःषश्तिमः समेः ६५७
ततस्तस्पेव वचनाहुपेत्य परितप्यतः ।
स मया सहसा वाण उद्धृते# ममंणस्तदा ॥ १८ ॥
(४

तदनन्तर मैंने उसीके कहने से, अत्यन्त कष्दायी बाण सदसा


उसको छाती से खींचा ॥ १८ ॥
स चोद्धुतेन वाणेन तत्रेव खरगमास्यितः ।
भवन्तो पितरो शेचन्नन्धाविति विरप्य च॥ १९ ॥
वाण के खींचते दी वह वहीं स्वर्गचासी दे गया। ( मरने के
पूर्व )उसने झाप दोनों झँघे माता पिता के लिये विल्लाप भार
आप हो के लिये शोक किया ॥ १६ ॥
अन्ञानाद्भवतः पुत्र सहसाअमिहते मया |
शेषमेवं गते यत्स्याचतसीदतु' मे मुनि! ॥ २० ॥
अनजान में अ्रचानक आपके पुत्र के मैंने मारा है। जे द्वोना
था बह ते है| गया | आप पुनि हैं; श्रव श्राप जैसा उचित सम
वैसा करें ( धर्थात्‌ शापानुग्रृह जे। कुछ डचित समर्से से मेरे
प्रति करें ) ॥ २० ॥
स तच्छुता वचः क्र मयेक्तमघशंसिना ।
नाशकत्तीव्रमायासमकत भगवान्युनिः ॥ २१ ॥
मेरे किये हुए पापकर्म का दारुण वृत्तान्त मेरे ही मुख से
छुन कर, वे महात्मा घुनि (जे खब प्रकार का शाप दे सकते थे,
किन्तु )मुक्ते तीव शाप न देसके ॥ २१॥
+ पाठान्तरे-- मर्मतस्तदा |” थू- पाठान्तरे--“ सगवाबधि ”
प्रसीदतु--झ्ापावाउनुम्दाव[सः कर्ते्यल्तंकराखियय । ( गो०
ला० रा०--8४२
ईद श्रयाष्याकायडे
स वाष्प॑पृर्णनयना* निःश्वसज्शेककर्मितः ।
मामुवाच महातेजाः कृताझ्ललिमुपस्थितम्‌ ॥ २२ ॥
किन्तु नेत्रों में आँखभरऔर शोक से व्याकुल दे ठंडो ठंडी
साँसे लेते हुए उन मद्ातेजस्वों मुनि ने हाथ जोड़े खड़े हुए मुझसे
कहा [| २२ ॥ ह
यदेतदशुमं कम न तल मे कथये! खयम ।
फलेनमूधा सम तेराजन्सथ; शतसइस्त॒ा ॥ २३ ॥
है राजन ! भ्रगर तु अपने इस कर्म के स्वयं ही मुक्तसे न
ऋदता, तो मेरे शाप से तेरे सिर के अभी हज़ारों टुकड़े दो
ज्ञाते |२३ ॥
क्षत्रियेण वधे। राजन्वानप्रस्थे विशेषतः) ।
ज्ञानपूर्व कृतः स्थानाच्च्यावयेद्पि वज्िणम्‌ ॥ २४ ॥
है राजन ! जे। ज्त्निय जान वूक्त कर किसी वानप्रस्थ का वध
करे तो वद भक्ते दो इन्द्र ही क्यों न ही, उसे अवश्य स्थानच्युत
होना पड़ता दै॥ २४॥
सप्तवा तु फलेन्मूधां मुनो तपसि तिष्ठति ।
ज्ञानाइिसिनतः शस्त्र तांधशे ब्रह्मगादिनि ॥ २५॥
ज्ञा कोई मेरे पुत्र जैसे तपस्वी एवं ब्रह्मदादी मुनि पर ज्ञान
बूछ कर श्त्र का प्रयोग करता है, तो उसके सिर के सात छुकड़े
हो जाते हैं ॥ २५ ॥
अज्ञानाद्धि कृत॑ यस्मादिदं तेनेव जीवसि |
अपि हाथ कुल न स्यादिक्ष्वाकूणां कुते भवान्‌ ॥२६॥
: # पाठास्तरे--/ वाध्यपूर्णवदने ” । १ फछेतु-विश्ीयेंद्‌ । (गरो० )
चतुःषश्ितमः सर्गः ६४६

तूने अनज्ञाने यद निन्ध कर्म किया है, इसीसे तू श्रव तक


. जोबित (मो) है। नहीं तोअमी (समस्त) रघुकुल ही का नाश
हो ज्ञाता, तेरी तो हस्ती हो क्या है॥ २६ ॥
नय नो ठप त॑ देशमिति मां चाम्यभाषत ।
अद्य त॑ द्रष्टुमिच्छावः पुत्र पश्चिमद्शनम! ॥॥ २७॥
हे कोश्ये ! मुनि ने मुझसे ऋहा, है राजन | अव तू मुझे उस
स्थान पर क्ले चल, जहाँ वह पड़ा है । क्योंकि अपने पुत्र को
अन्तिम दशा देखने की मेरो इच्छा है ॥ २७॥
रुधिरेणावसिक्ताई प्रकीर्णाजिनवाससभ |
शयान॑ थ्रुवि निःसंज्वं धमराजवश गतम्‌ ।॥॥ २८ ॥
हा ! वह काजल के वश और अचेत द्वो भूमि पर पड़ा होगा
उसका सारा शरीर रक्त से सना द्वोगा, किया जे वह शभ्रोढ़े था
चह श्रलग पड़ा द्वोगा ॥ २८ ॥
अथाहमेकरतं देशं नीत्वा तो भुशदुःखिता ।
अस्पशयमरहं पुत्र त॑ मुनि सह भाय॑या ॥ २९॥
दे कौशल्पे ! मेंअक्ले्ा उन अत्यन्त दुःखित मुनि और उनकी
स्त्री की!उस ज्ञगह ले गया । ( अंधे होने के कारण वे देख तो न
सके, किन्तु )द्ाथ से उन्होंने सतपुत्र काशरीर ठदोला ॥ २६ ॥
ते पुत्रमात्मानः स्पृष्टा तमासाथ तपखिनों ।
निपेततुः शरीरेल्स्य पिता चास्येदमत्रवीत्‌ ॥ ३० ॥
! परश्चिमद्शनम-अस्तद्शनघ् |( रा० ),
दं६० अयेध्याकायदे

वे दोनों जन पुत्र केपास ज्ञा और द्वाथ से उसका शरोर


ट्येल्न, दोनों के दोनों पुत्र के म्तशरीर से लिपट गये। उसका
पिता कहने लगा ॥ ३े० ॥
नाभिवादयसे माध्य न च माममिभाषसे |
. किन्नु शेपेध्य भूम्री ल॑ वत्स कि कुपिते छाति ॥२१॥
है बत्स ! तूने ग्राज्ष नतो मुझे प्रणाम किया और न मुझसे
कुछ वातचीद की। तू ज्ञमीन पर क्यों पड़ा दे? क्या तू मुक्से
डठ गया हे ? ॥ ३१ ॥
न त्वईं ते प्रिय! पुत्र मातरं पर्य धार्मिक |
किन्नुनालिड्से पुत्र सुछुमार बचा बंद ॥ ३२ ॥
यदि तूमुझसे रुठा है तो है वत्स !तू अपनी घामिक्त माता
की ओर ता देंख | तू क्यों मुक्से आ कर नहीं लिपठता और क्‍यों
कोमल वचन नहीं वालता ॥ शे२ ॥
कस्य वाधररात्रे्ड श्रोष्यामि हृदयद्भमम ।
अधीयानस्य मधुर शाह्ध वाध््य'द्िगेषतः ॥ ३३ ||
अब मेंपिछली रात में धर्मशाद्ल और पुराणादि पढ़ते समय
किसका मनेाहर एवं मधुर खर लुनूगा॥ ३३ ॥ |
के मां सन्ध्यापुपास्येव स्नाता हुतहुताशनः ।
श्लाधयिष्य त्युपासीनः पुत्रशाकमयार्दितम ॥ ३४ ॥
१ हदयबुम--मधघुरखरं | (गो०) दे अन्याद्वादु्णं--वैश्वाच्छूडयाबात-
न घहुव्जादेंदप्रघह्डोनिक्त- ।(०) ३ हकावविष्यति--वपचरिष्यठि] (बी०)
चतुःपश्तिमः सर्गः ६६१
हैबेटा |अब शोक और भय से कातर हुए प्रातःकाल स्नान
कर, सन्ध्योपासन एवं होम कर मेरे निकट आ कौन सेवा
फरेगा ॥ ३४॥ े
[ नेाड--मुनिषुत्र ते वर्णतहर था अत; उसे सब्ध्यापासन एवं हाम
का शाखरोला अधिकार प्राप्त नहों था ; तब कत्ध्योपापन और होम करने
फी बात यहाँ ज्यों छिघ्ली गयो ; इस शड्ठा का सम्राधान शाघ्षानुवार इस
प्रकार क्षिया गया है ।
४ नमस्कारेणमंत्रेगलयज्ानसमापयेत्‌ ??
इस चचनानुपार पश्मयज्ञां के (इस परधर ) करने का भषिकार
चतुरध वर्ण के भी प्राप्त है। ]

'कन्दमूल'फर्ल हत्वा के मां मियमिवातियिम्‌ ।


भेजयिष्यत्यकर्मण्यमप्ग्रहमनायकस | ३५ ॥
मुफ्त जेसे असमर्थ, थसंग्रही ( वन्य चाँवल आदि जिसके पास
एकत्र नहीं ) श्रार अनाथ के प्रव फोन वन से कन्दसूल फल ला
कर प्यारे भ्रतिथि की तरह भाजन करावेगा ॥ ३४ ॥
'इम्रामन्धां च हृद्धां चमातरं ते तपरिविनीम्‌ ।
कर्थ॑ वत्स भरिष्याम्रि कृपणां पुत्रगर्धिनीस्‌ ॥ ३९ ॥
हे वत्स |इस अंधी, तपल्लिनो एवं हुःश्चिनों पव॑ पुत्रवत्सल्ा
तेरी बूढ़ी माता का भरण पेषण श्रव मेंकेसे करूँगा ॥ ३६ ॥
१ करदं--जलेद्भवानापश्मादीनां ।(गो०) ३ मूछ--हृथछोद्भवानाप्त्‌ ।
( गो ) ३ अम्रमहम--नीवारादि संग्रदरद्ितमू | (गो० ) ४ अवाय हम --
अनाथम | ( गो०,)
85२ अयेष्याकायडे

तिष्ठ मामागम! पुत्र यमस्य सदन प्रति |


इवे। मया सह गन्‍्तासि जनन्या च समेधितः ॥३७॥
हे पुत्र !ठहर ज्ञा ओर आज यपम्रात्यय के मत ज्ञा |कर मेरे
और प्रपत्री माता केखाथ चलना ॥ ३७॥
उभावपि च शेकातांवनाथों कृपणों बने ।
क्षिपमेव ग्िष्यावस्त्वया सह यमक्षयम्‌ || रे८ ॥
तुके छोड़ कर, शोकपीड्ित, श्रवाथ और श्रस॒हाय हम दोनों
इस बन मेंनहीं रह सर्कंग, अतः तेरे साथ ही हम भी शीत यप्ता-
लय के चल्लेंगे ॥३८॥
तता बेवस्वतं हृष्ठा त॑ प्रवक्ष्यामि भारतीम ।
क्षमतां धमेराजों मे !विभुयात्पितरावयम्‌ ॥ ३९ ॥
और चल कर यमराज से मिल उनसे कहैंगे कि, पुत्र-वियेग-
कारी पूर्वजन्म में किये हुए हमारे अपराध के आप ज्ञम्रा करें,
और यह दालक हमारा ( दोनों का )पालन करे ॥ ३६ ॥

दातुमहंति धर्मात्मा छाकपाले महायज्ञाः ।


ईहशस्य ममाक्षय्यामेकामभयदक्षिणाम्‌ ॥ ४० ॥
ऐसी अक्षस्थ और शभय-प्रदायितती दक्तिणा दम जैसों के
दीजिये । क्योंकि आप धर्मात्मा पव॑ मरहायशल्री ज्लाकपाल
हैं॥
४० ॥

३ विभयात्‌ू-पाल्यतु | (रा० )
चतठु।षश्तिमः स्गः ६६३
अपापोधसि यदा पुत्र निहत) पापकर्मणा ।
तेन सत्येन गच्छाशु ये छोका। शस्रयेधिनाम ॥४१॥
है पुत्र |तू निर्देष दाने पर भी इस पापी द्वारा मारा गया
'है । अतः तू अपने सत्य वल्ल से, उस लेक मेंजा, जहां याद्वा
क्षाग जाते हैं ॥४२ ॥
यान्ति शूरा गति यां च संग्रामेष्वनिवर्तिनः ।
हताःस््वमिमुखा; पुत्र गति तां परमां बन ॥ ४२॥
दे क्‍त्स | युद्ध में पीठ न दिखाने वाले धीर लग, शब्न
द्वारा मारे जाने पर, जिस गतिकी प्राप्त होते हैं, तू भीउसी परम
गति के प्राप्त हो ॥ ४२ ॥
यां गति सगरः शैब्ये दिलीपे जनमेजयः ।
नहुषो धुन्धुमारथ भ्राप्नास्तां गच्छ पुत्र॒क ॥ ४३ ॥
हैबेढों |महाराज सगर, शैव्य, दिल्लीप, जनमेजय, नहुष और '
घुन्धमार जिस गति के प्राप्त हुएहैं,उसी गति के तू भी प्राप्त
है। ॥ ४रे॥
या गतिः सर्वसाधूनां स्वाध्यायात्तपसा च या।
भूमिदस्याहिताग्नेरेकपत्नीवतस्य च ॥ ४४ ॥
जे! गति स्वाध्याय और तप में निरत सब महात्मा पुरुषों को
प्राप्त होती है वद्दी गति तुक्के भो प्राप्त दो| जे गति भूमिदान
करने वाले ध्प्निदात्ी और एक-पत्नी-बत-घारो को प्राप्त दोती
है, चदी तुझे भी प्राप्त दो॥४४ ॥'
न शयेष्याकायडे
गेोसहसपरदातणां या या सुरुभताप्रपि
देहन्यासक्ृता' या च तां गत ि गच् छ पुत ्रक ् ॥ ४५ ॥
हेवत्स ! जे! गति सदत्ध गे दान रे वाल े का, गुव शुक ्वा
करने वाल्षे के तथा महाप्र ध्य ान का सहु दप कर (यय ाग में या श्रम ्मि मे)
दात ी है, वह तुझ े भी प्राप ्त दी ॥४५ ॥
शरीर त्याग करने वाले के प्राप्त
हि लस्मत्कुले जा ते गच् छत् यदु शर् लां गति म्‌ ।
सत ु यास ्‍् यति ये न त्व ॑ नि हत ा मम वान ्धव / ॥8 4॥
क्योंकि हमारे तपस ्वि कुल ् में उत्प न्न दो का ई भी बी च गत ि के
प्राप्त नहो ं दु आ | नी च गत ि के तो चह प्राप ्त होग ा जिस ने मेर े पुत् र
तुकूझे मारा है ॥ ४६ ॥
एवं स कृपणं तत्र पयदेवयतासकृत ।
ततेस्म कतुप्ुद्क प्रदत्त सह भायया ॥ ४७॥
इस प्रकार वह ठपरदी वार वार करुणापुर्ण विल्ञाप कर, सञतरी
सहित अपने मतपुत्र के जलाखलि देने नें प्रचृद्ध हुआ ॥ २७ ॥
सतु दिव्येन रुपेण घुनिपुत्र; खकमंमि; ।
खतगमध्यारुदत्तिप शक्रेोण सह घवित्‌॥ ४८ ॥
तब तो बह धर्मात्मा मुनिकुप्तार अपने पुणयक्रमों के वत्,
दिव्य रूप घारण कर, इंच के साथ तुरन्त स्वर्ग के चला
गया ॥ ४८ ॥

१ बुदमवां--गुरुधु धरुपाकारियां ॥ ( यो० ) | देदन्यासकृतां--मदा-


प्रह्थानादिनापरल्ाकार्थेतनुत्मम: । ( हा० ) परछाक्षप्रातिस्नहल्पपूर्वक गया
यमुना संगमादौनऊेगो वाततु सज्यता मिल्यव: | ( यो० ) ३ मम्वान्धवः--
ममपुत्र। (गो० )
चतु/पप्तिमः सगे; ६६४
[नेा5--खर्ग के, इन्द्र केघाथ जांने से, जान पढ़ता हैकि स्वय॑ इन्द्र
उसे हवमें में के जाने के जाये थे । ]
आवभाषे च तो हद्धों शक्रेण सह तापसः ।
आश्वास्य च मुहूते तुपितरों वाक्यमत्रवीद ) ४९ ॥
सुनिकुमार स्वर्ग जाते समय, इन्द्र के सहित, उन दोतों दुद्धों
की एक झुहृतं तक समझता बुरा, पिता से वेज्ा ॥ ४६ ॥
स्थानमर्मि महत्माप्तो भवते! परिचारणाद ।
भवन्तावपि च्‌ प्षिप्रं मम मूलसुपैष्यतः ॥ ५० ॥
मैंने जे! भ्रापफो सेवा कीथी उल्ली पुणय के वल मुझे यद्
उत्तम स्थान मिला । शाप दोनों भी श्राति शीम मेरे पास
आचेंगे॥ ४० ॥
एवप्ुक्त्वा तु दिव्येन विमानेन वुष्णता |
आररोह दिवं क्षिप्तं मुनिषुत्रों मितेन्द्रियः ॥ ५१ ॥
(यह कद, वह जिते न्द् रिय मुनि षुत् ञ अत ि दिव ्य विम ान मेंबैठ , तुर न्त
सरुपर्ग के चला गया ॥ ५१ ॥
स कृत्वायादकं# तृ्णतापसः सह भारयया ।
मासुुवाच महातेजा! कृताझ्नलिसुपरिथतम्‌ ॥ ५२ ॥
महाराज दशरथ कदन े क्गे , दे देव ी ! उस शद् ावे जस् वी तपर ुवी
ने भार ्या सह ित झद पद पुत् र कोज्ञ लाज लि दे, मुझ से, जे वहा ँ
हाथ जोड़े हुए सड़ा था, कहा ॥ ४२ ॥
अयैव जह ि मां राज न्म रणे नास ्ति मे व्य था ।
्र ं मा ं त् वम का र् पीरप
यच्छ8रेणैकपुत न: मनननलनन यम निनिनन न मननुत ्र कम ्‌॥ ५ ३ ॥ न लगे
5
+ पाठान्तरै-- कृप्वावूदुक !! |
६६६ प्रयेध्याकायदे
हैराजन |तुप्र अब मुझे भो मार डाक्े। मुझ्ते मरने में कुछ
भो कष्ट न होगा । क्‍योंकि मेरे यही इकलोता पुत्र था से इसे तुमने
एक ही वाण से मार मुझे विना पुत्र काकर दिया ॥ ४३ ॥
त्वया तुयेदविज्ञानानिहते मे छुतः शुचिः ।
तेन त्वामभिशप्स्पामि सुदु!खमतिदारुणम्‌ ॥ ५४ ॥
दे राज॑न्‌ | तुमने यद्यपि प्रनजान में मेरे धर्मात्मा पुत्र कावध
किया है, तथापि मेंइसके लिये तुम्हे यह प्रति दुरस्‍ुसह दारुण शाप
देता हैँ ॥ ५४ ॥
पुत्रव्यसनजं /दुःसंयदेतन्यम साम्प्तम्‌ |
एवं त्वं उत्रशोकैन राजन्कालं ऋमिष्यसि ॥ ५५ |
देराजन |मुझका इस समय जैसा यह पु्रशोक हुआ है, ऐसे
दी पुत्रशोक से तुम्हारी, भी मृत्यु होगी ॥ ४५ ॥
कक!
अज्ञानात्तु हे युप्ासक्षज्रयेण त्वया मुनि ।
तस्मात्तां नाविशेत्याशु ब्रह्मेहत्या नराधिप ॥ ५६ ॥
तुम ज्त्रिय हो और अनजान में तुमने मुनि की हत्या कर
डाली है। इसीसे हैनरेन्द्र !तुमके त्रह्मह॒त्या नहीं लगी ॥ ४६ ॥
ह॒भ ल्वामप्येताइशों भाव श्षिप्रमेव गमिष्यति ।
जीवितान्तकरो घेरा दातारमिव दक्षिणा | ५७ ॥.
किन्तु जिस प्रकार दाता के दान का फल श्रवश्य प्रिलता
है,उसी प्रकार तुमकी भी घेर दुःख थ्राप्त दागा और उसी दुःख से
>ठुम्हें प्राण भी त्यागने पड़ेंगे ॥ ४७ ॥
ऊँ पाठान्तरै--“ करिष्यस्ि ”
चतुःपश्तिमः सर्गः बंध

एवं शाप मयि न्यस्थ प्रिकप्य करुएं वहु ।


चितामारोप्य देह तन्मिथुनं स्वगरमभ्ययात्‌ ॥ ५८ ॥
(दशरथ जो कैशल्या से कहने लगे ) हेदेवि. |इस प्रकार मुझे
शाप देंऔर बहुत सा तिज्ञाप कर, चिता वना और उस पर बैठ
(भस्म द्वो) वे दोनों स्व के चले गये॥ ४८॥
तदेतबिन्तयानेन स्मृत पापं मया स्वयम्‌ |
तदा वाल्यात्कृतं देवि शब्दवेध्यनुकर्पिणा ॥ ५९ ॥
, है देति ]इस बिन्ता में पढ़ कर, श्राज्ञ मुझे श्रपना वह पापकर्म
स्मरण दो शभ्राया, जे। मेंने सूस्नतावश, शब्दवेधी वाण चला कर
किया था ॥ ५६ ॥
तस्याय॑ कमणा देवि विपाकः समुपस्थितः
अपथ्ये:॥ सह सम्भुक्ते व्याधिमन्नरसो यथा ॥ ६० ॥
दे देवि | जिस प्रकार खाये हुए शपथ्य :अ्रन्न के रस से रोग
उत्पन्न द्विता है, उसी प्रक्रार उस-पापक्षम: का फल स्वरूप यहद्द
कर्मविपाक भा कर उपस्थित हुआ है ॥ ६० ॥
तस्मान्मामागतं भद्र तस्यादा[रस्य तहच |
इत्युक्त्वा स रुदंस्स ्तो भारया माह च भूमिप ः ॥ ६१ ॥
हेभद्दे |उस उदार तपरप्ी के दिये हुए शाप के पूरे द्ोने का
समय झआा गया है। यद कह, रदून कर और (मरण ) भय से
ग्रस्त हो, महाराज दशरथ काशल्या से कददने लगे ॥ ६१॥
यदहं पुत्रशोक्रेन सन्ल्ष्ष्याम्यय्, जीवितम्‌।
चक्षुभ्या त्वां न पश्यामि कैासल्ये साधु मांस्पृश ॥६२॥ :..
# पाठान्तरे--* सम्भुक्तो |!।
ईदं८ अयेध्याकायडे
हेकैशल्ये ! पुत्रणोक के कारण मेरे प्राण श्रव निकलना
चाहते हैं, इसीसे तूअ्रव मुझे नहीं देख पड़तो | अतः तु मेरे शरोर
को छू ॥ ६२ ॥
यमश्षयमजुपाए #द्वक्ष्यन्ति नेहि मानवा) ।
यदि मां संस्पृशेद्राम: सकृदय छभेत वा ॥ ६३ ॥
[धन वा योवराज्यं वा जीवेयमिंति मे मतिः |
न तन्मे सदर्श देवि यन्मया राथवे कृतम्‌ ॥ ६४ ॥
क्योंकि यप्रधाम के जाने वाजे ज्षागों के प्राँखों से नहीं देख
पड़ता | यदि थ्रीरामचन्ध इस घड़ी एक वार भी छुमे छूलेथयवा
योवराज़पद्‌ तथा घन सम्पत्ति ग्रहण करना स्प्रीक्वार कर लें, ते
वाध दोता हैकि, कदाचित्‌ में ज्ञीता बच जाऊं। दे कब्याणी !
मेंने थ्रीयमचन्ध के साथ जैसा व्यवहार क्रिया है, वैसा करना
मेरे लिये उचित नहों था ॥ ६३ ॥ ६४ ॥
सह तत्तु तस्पेव यदनेन कृत मयि |
३ हा लजेदशुवि
दुरेचमपि कः पुत्र॑ ल्यनेद्शुवि विचक्षणः ॥ ६५ ॥
अ्युत धोरामचद्ध का प्ेरे प्रति वह व्यवद्यार सर्वधा डचित
है। इस संसार में कैम ऐसा विचारवान मनुष्य होगा, जे। झपने
दुए भी पुत्र का त्याग दे. ६४ ॥
कथ प्रवाज्यमाना वा नासयेत्पितरं सुतः |
चक्षुपा.लां न पश्यामि स्पतिमंम्र विलुप्यते ॥६६॥ ]
फैन ऐला पुत्र होगा, जे घर से निकाले जाने पर भी
पिता की निस्दा व करे |हे देवि ! आंखों से तु अब मुझे नहीं देख
पड़ती और मेरी स्मरणशक्ति भी नए देती जाती है ॥ है३ ॥
# पाठान्तरे--+ प्राप्ता ! ।
चतुःषप्ितमः सर्गः ६६६
दूता वेवस्व॒तस्येते कासल्ये त्वर्यन्ति मास |
अतस्तु कि दु/!खतरं यदहं जीवितक्षये ॥ ६७॥
हे काशब्ये |यमराज के दूत, चलने फे लिये ज्ब्दी कर रहे हैं ।
श्रतः भव इससे बढ़ कर झन्य दुःख कान सा हो सकृता हैकि, में
मरते सम्रय सी ॥ ६७ ॥
- न हिं पश्यामि धर्मज्न राम सत्यपराक्रमम ।
तस्यादशनजः शोक: सुतस्याप्रतिकमणः' ॥ ६८ ॥
उस सत्यपराक्रमी और धर्मात्मा राम के नहीं देख रहा हूँ।
उस पुत्र के, जिसने कभो भेरा किसी वात में सामना नहीं क्िय/,
न देखने से उत्पन्न शोक ॥ ६८ ॥
उच्छोषयति मे प्राणान्वारि स्तोकमिवातपः |
न ते मजुष्या देवास्ते ये चारुणुभकुण्डलम ॥ १९ ॥
मेरे ध्राणों के उसी प्रकार साख रदा है, जिस प्रकार उष्णवा
जल के थाड़ा थेाड़ा कर छुजाती है। वे मनुष्य नहीं, किन्तु देवता
हैं,जे! छुन्दर कुणडल पदहिने हुए ॥ ६६ 0
मुख द्रक्ष्यन्ति रामस्य वर्ष पश्चदशे पुनः ।
पब्पत्रेक्षणं सुथ्रु सुदंई चारनासिकम्‌ ॥ ७० ॥
कमल नेतन्न वाले, सुन्दर भ्रकुटि वाले सुन्दर दाँतों वाक्षे
और छुन्दर नासिका युक्त श्रीयस के घुप्त का पद्दध॒दवे घर्ष पुन
देखेंगे ॥ ७० ॥
३ भप्रतिक्तेण/--प्रतिक्रियारद्धितत्य । (यो )
६७० अयेध्याकायदे

भन्या द्रप््यन्ति रामस्य ताराधिपनिभ मुखम्‌ |


सदश शारदस्पेन्दे! फुछस्य कमलस्य च ॥ ७१ ॥
सुगन्धि मम्र नाथस्य नया द्रक्ष्यन्ति तन्मुखम |
निहृत्तवनवा्स तमयेध्यां पुनरागतम्‌ ॥ ७२ |
वे लाग धन्य हैं,जे श्रीराम के चन्रमा तुल्य मुख के देखेंगे।
शरद पूर्णिमा के चन्द्रमा केसमान, प्रफुल्ठित कम की छुगन्ध से
युक्त, भ्रीराम का घुख जे लेग उनके दनवास से कैट कर
अयोध्या में थाने पर देखेंगे, वे धन्यहैं॥ ७१ ॥ ७२ ॥
द्रक्ष्यन्ति सुखिने राम॑ शुक्र मार्गगत॑ यथा ।
कासस्ये चित्तमोहेन हृदय! सीदतीब' मे ॥ ७३ ॥
शथवा अपने मार्ग को भाप्त हुए शुक्र की तरह वनवास से
अयोध्या में आये हुए श्रीराम के जे ल्लाग देखेंगे, वे यथार्थ में
जुल्ली होंगे। हे काशब्ये !मन की घबड़ाहट से मेरा हृदय फठा
जाता है ॥ ७३ ॥
येन बेद न संयुक्ताज्शव्दर्पशरसानहम्‌ |
चित्तनाशाहिपबन्तेप्सवाण्येवेन्द्रियाणि मे |७४ ॥
धतपव इन्द्रियों से
सम्बन्ध रखने वाले शब्द, स्पर्श, रसादि्‌
गुण भी मुझे नहों जान पड़ते |क्योंकि चित के नाश होने
पर
ये सव इन्द्रियाँ भो वैसे दी नए दो जाती हैं; ॥ ७४ ॥
* हृदयं--मनसेधिप्ठान । (गो०) २ सोदतीव--व
िशीयंतीव । (गो०)
३ विपधन्ते--परिणतानिभवन्ति ! (शि०) # पाठान्
तरे--« बेदये न च!' ।
चतु/पश्तमः सगेः ६७१

प्लीणस्नेहस्य दीपरय संसक्ता' रश्मये यथा ।


अयमात्ममवः शोके मामनाथमचेतसम्‌# ॥ ७५ ॥
जैसे ते केजल जाने पर दीपक का प्रजाश नए द्वेजाता है ।
यद्द मेरे हृदय में उत्पन्न शोक मु भचेत और अनाथ को, ॥ ७४ ॥
संसादयति वेगेन यथा कूल नदीरय! ।
हो राधव महावाही हा ममायासनाशन' ॥ ७६ ॥
उस्ली प्रकार गिरा रहा है,जिस प्रकार नदी की धार का बैग
नदी के करारे के गिराता है। हा राघव ! हा महावादी ! हा भेरे
दुख के दूर करने वाले | ॥ ७६ ॥
हा पिहृप्रिय मे नाथ हाथ्य कासि गत) सुत ।
हा कासल्ये विनश्यामि! हा सुमित्रे तपरिवनि ।
हां रशंसे ममामित्रे केकेयि कुलपांसनि || ७७ ॥
है! पिता के लाडके, हे मेरे नाथ ! हे मेरे बेदा, तुस कहाँ गये !
दा कैशल्या, हा तपत्विनों छुमित्रा | अ्रव में मश्ता हैं।हा क्रूर
मेरी वेरिन, और कुलनाशिनो कैकेयी | ॥ ७७ ॥
इति रामस्य मातुश्न सुमित्रायाथसब्रिधों ।
राजा दशरथः शोचल्लीवितान्तमुपागमत्‌ ॥ ७८ ॥
इस प्रकार मद्वाराज दशस्थ ने राममाता और सुमित्रा की
सन्निधि में, विज्ञ ाप करते दुए अपने प्राण त्याग दिये ॥ ७८ ॥

१ संप ्तक ्त: --द ीपा विन ाभू ताः । (यो ०) २ आया श्त रना शन- --द ुःख नाश न ।
(गो०) # पाठान्तरे-> अचेतनम”। | पाठन्तरे--४नशिष्यामि ” |
६७२ अ्येष्याकाणडे

तथा # त ु द ी न क थ य न ् न र ा ध ि प ः
प्रियस ्य पु त् नस ्य व ि व ा स न ा त ु र । ।
गतेडधरात्रे भुशदु।|खपीडित;
तदा नही प्राणयुदारदशनः ॥ ७९ ॥
इति चतुःषश्टितमः सगेः ॥
उदार पव॑ दर्शनीय महाराज नेदोत वचन कहते हुए, प्रिय
पुत्र कवेनवास से व् या कु ल हा , थर ाध ी श त बी तन े प र शभ ्र त् यन ्त
दु'खी दे प्राण त्यागे ॥ ७६ ॥
अयेष्याकाणड का चैसउवाँ से समाप्त हुआ |

पञ्नुषष्टितम; सगे:
अथ राज्यां व्यतीतायां प्रातरेबापरेष्हनि ।
वन्दिनः पर्यपातिष्न्पार्थिवस्य निवेशनम्‌ ॥ १ ॥
शत वीतने पर अगले दिन प्रातः!काल के सम्रय, महाराज के
राजद्वार पर वन्दीजन आये ॥ १॥ ,
सता; परमसंस्कारा! मागधाओोत्तमभुता।* |
गायका; स्तुतिशीलाभ निगदन्त; पृथक्पूथक्‌॥२ ॥
१ परमसंत्कारा:--व्याकरणाथुत्तमसंह्कारयुक्ता: । ( भो० ) ३ उत्तम
श्रुता३--बंशपरम्पराश्रवणमेपा ते मायधा। | (र०) # प्राठान्तरे--यदा तु ” ।
पश्चपप्टितप् सर्गः ६७३
ब्याभरणारि शा्रों में चतुर घुत, औए चंशपरम्पत का कीर्तन
करने में निपुण मागध; तान, लग एवं, स्वर के ज्ञाता गवैया राज-
भवन के द्वार पर उपस्थित हो, पृथक पृथक अपनी रीति के झनुसार
प्रदाराज़ के गुण कोर्तन करने लगे ॥ २॥
राजान॑ स्तुव॒तां तेषामुदात्ताभिहिताशिषाम्‌ |
| जा 6
प्रासादाभेगविस्तीण; स्तुतिशब्दे# व्यवधत ॥ ३ ॥
उच्चछर से महाराज की स्तुति करने वाले और श्राशीर्वाद
देने वाले उन क्षे|गों के नाद से सम्पुर्ण राममवन भर गया ॥ ३ ॥
ततस्तु स्तुव॒तां तेपां खूतानां पाणिवादका! ।
'अपदानान्युदाहत्य पाणिवादानवादयन्‌ ॥ ४ ॥
तदनन्तर ताली वज्ञा कर ताल देने में निपुण ( पाणिवाइक )
लग ताली वजा वज्ञा कर महाराज के पदुभ्भुत कर्मो का वर्णन
फरने लगे ॥ ४ ॥
तेन शब्देन विहगा! प्रतिवुद्धा विसस्वतु) ।
शाखास्थाः पश्नर्थाथ ये राजकुलगोचरा। ॥ ५॥
इससे वे पत्ती जे! राजभग्न के वृत्ों की शाघाश्रों पर रहते
थे और जे। पातू हैने केकारण पिजड़ों में रहते थे, ज्ञागे और
बेलने लगे ॥ ५ ॥
व्याहृताः* पुण्यशब्दाश' वीणानां चापि निःस्वना।।
आशीर्गेयं च गायानां* पूरयामास वेश्म तत्‌ ॥ ६ ॥
३ क्षपदानानि-बत्तान्यदुभ्ुतरूर्माणि | (गो०) २ व्याहृता।- म्राह्गैस्का: |
(पो०) ३ पण्यश्दा!--एरुपक्षेत्रती् डीतेनादिख्पा३ | (गो०) ४ गाधाना--
दशरथ विपय प्रबन्ध पुण्य विशेषाणां | (गो०) # पाठान्तरै--" हावतेत ? |
[9 रा०--४३े
६७४ ग्रयाध्याकारएडे
ब्राह्मणों के आशीर्वादात्मक वाज््यों से, पालतू पत्तियों की उन
वेलियों से, जे भगपन्नाम अथवा पवित्र तीथों के नाम ले कर
वाल रहे थे, वीणा की ध्वनि से, आशीर्वाद से तथा मद्दाराज दृशर्ध
सम्बन्धी प्रवन्ध विशेषों के वखान से राजभवन पूरित हो गया ॥4॥ .
ततः शुचिसमाचाराः पर्युपस्थानकेविदा!! ।
धरस्भूयिष्ठा उपतस्थुयथापुरम्‌ ॥ ७ ॥
स्तीवध

तदननतर सदाचार सम्पन्न कालाचित सेवा करने में निपुण


और नपुंसक (खोजा लाग ) प्रतिदिन को प्रथानुसार आ कर
उपस्यित हुए ॥ ७॥
हरिचन्दनसंस्पृक्तमुदक काश्नेर्घटे: ।
आनिन्‍्युः स्नानशिक्षाज्ञा यथाकाहं यथाविधि ।!८॥
6
महाराज्ञ के स्नान करवाने वाले लेग जे। स्नान कराने की
विधि के विशेषज्ञ थे, खुब्ण के कलसों में हरिचन्द्न मिल्रा हुआ
जल भर ऋर ययासम्य और ययाविधान लाये | ८५ ॥
मज्जलालम्भनीयानि प्राशनीयान्युपस्करान |
डपानिन्युस्तथा5प्यन्या; कुमारीशबहुला। द्धियः ॥ ९॥
अनेक कुमारीप्राय खुन्दर स्थियों ने तेल उवठनादि, द्तथावन
तथा कुल्ली करने के लिये जलादि तथा शीशा, कंघा, तालिया
शादि सामग्री ला कर उपस्यित की ॥ & ॥
एह्ूययय हछ&छ एप
१ प्यपत्थानकेविदा+--कारराचितपरिचर्याविचक्षणा: । (यो०) २ म्ी-
्च््तततत--_-नस न

चर्षघरमुयिष्ठा:--अन्तःपुराष्यक्षतरीस्ि: वर्पधरेषप्देश्नसम॒द्धाः । ( गे )
| कुमारोबहुला--कुसारीआया। | ( यो० ) पे
१ पश्चपश्तिमः सर्गः ६७५

सर्वलक्षणसम्पन्न॑ सर्व विधिवद्र्भितम ।


से सुगुणरक्ष्मीवत्तदभूवामिहारिकम्‌ ॥ १० ॥
, इस प्रकार सम्पूर्ण लत्तण युक्त, विधि पूर्पफ सभी हुंई,भतः
सर्वंगुण भर शेमायुक्त, मद्दाराज के लिये प्रात+हृत्य क्रो सब
सामग्रो ला कर एकत्र को गयी ॥ १० ॥ |
तत्तु सूयोदियं यावत्सव परिसमुत्मुकम्‌ |
तस्थावनुपसम्भाप्त किखिदित्युपशड्टितम ॥ ११॥
हर्येद्य पर्यन्त संत क्लाग मद्दाराज्ञ के दर्शनों के लिये
उत्कणिद॒त रहे और आपस में कहते थे कि, कारण फ्या हैमे।
मद्ाराज़ श्राज्ञ अब तक से कर नहीं उठे ॥ ११॥
अथ या; केसलेन्द्रस्य शयन॑' प्रत्यनन्तरा! |
ता ख़ियस्तु समागम्य भ्तारें प्र्वोधयन्‌ ॥ १२॥
काशल्या जी के प्रतिरिक्त और जे। सब ख्रियाँ व्दां महाराज
की सेज् के समीप थीं, मिल कर महाराज के जगाने क्षर्गीं ॥ १२ ॥
तथाप्युवित हत्तास्ताविनयेनों नयेन च।
न हस्य शयन स्पृष्टा किखिद्प्युपलेमिरे ॥ १३ ॥
उस छियों ने बड़े प्यार सेऔर युक्ति से महाराज के शरीर
के स्पर्श कर, जब देखा, तव उनमें जोवित पुरुष जैसी कुछ भी
टा हस ्प र् थ: । (ग ो० ) २ इच िद वृ त् त: --
१ शपनंप्रत्मस्तत--आायनप्तन्रिक्ृष्
स्परशनादिव्य ाप रे चि ता ः । ( गो ० ) ३ वि नय ेन -- प् रय ेण । ( ग ो)
४ नयेत्--युकत्या । ( गो० )
६७ अयेध्याकायंड

चेश न पायी ( थर्थात्‌ साँध का आना ज्ञाना आदि न जान


पड़ा )॥ १३॥
ता; स्रियः 'खप्नशीलजाबेष्टासश्वलनादिपु ।
ता वेषधुपरीताथ राज! प्राणेषु शक्धिता। ॥ १४ ॥
तब वे सव स््रिग, जा महाराज के सोने के सप्रय की हालत
बैश और नाइीसच्चार का भत्नी माँति जानती थीं, महाराज की
यह दशा देख, थप्यरा उठी और मद्दाराज के ज्ञोवित रहने में
इनके सनदेंह उत्पन्न हो गया ॥ १५ ॥
प्रतिस्नोतस्तृणाग्राणां सदर्श सम्बकम्पिरेक ।
अथ संवेपमानानां स्नीणां दृष्टा च पार्थिवम्‌ ॥ १५ ॥
महाराज के जीवित रहने में सनरेह उत्पन्न हो ज्ञाने के कारण,
वेंसव स्तलियाँ उसी प्रकार थरथर काने जगों न्विस प्रकार नदी
के सेत मेंउत्न्न वेत या नरकुल्ल काँपा करता है ॥ १४॥
यत्तदाशब्डितं पापंर तस्य जज्ने विनिरतय) ।
कासल्या च सुमित्रा च पुत्रशोकपराजिते' ॥ १६ ॥
| कक मिते

उन लेगों के महाराज के ज्ञीवित रहने में जे! सल्ेंह या, वह


धव निश्चय में परिणत ही गया-( भ्र्थात्‌ उनका निश्चय दो गया
कि, महागज्ञ ने शरीर त्याग दिया)। तव काशल्या शोर छुम्ित्रा जे।
पुत्रों के
वियागजत्य शोे से ब्प्त हो ॥ १६ ॥
पा

7 7६ ह्वप्नेश्नीलक्षा--स्वापत्वमावज्ञा) | ( गो० ) २ मत्यापं--मरणरूप


माशरितिं । ( गो० ) ३ पदाजित्रे--भाक्तान्ते । (गोन ) # पाठास्तरे--
£४ छंचकारिरे ” |
पश्चपश्टितमः सर्गः ६७७

प्रसुप्ते न प्रबुध्येते ययाकालसमन्विते' ।


निषभा च विवर्णा च सन्ना शोकेन सन्नता ॥ १७॥
स्तक की तरह से रही थीं न ज्ञागों| मारे शोक के काशल्या
निस्तेज्ञ भ्रौर पीजी पड़ गयी था, उनका शरीर पकद॒म छश दे
गया था ॥ १७ ॥
न व्यराजत कासल्या तारेव तिमिराहता |
केासव्यानन्तरं राज) सुमित्रा तदनन्तरम्‌ ॥ १८ ॥
जिस प्रकार वादल के अंग्रेरे में द्िपे नक्तत्र शोमित नहीं देते
चैसे ही महाराज के समोप कैशल्या व सुमित्रा शोकरुपी वादज
से ढक्की देने के कारण शोभा रदित हो रही थीं ॥ १८ ॥

न स्प विभ्वाजते देवी शोकाभ्रुज्ुलितानना |


ते च दृष्ठा तथा सुप्रेउभे देव्यों च त॑ दृपम्‌ ॥ १९ ॥
राजभ वन की प्रन ्य स््ि याँ भीशोक से प्रश ्रुप ात कर ती हुई
शोमित नहीं होती थीं । उन स्त् रियो ं देख
ने ा कि, फाश ब्य ा प्ो र
सुमित्रा से रदी हेंऔर महाराज ॥ १६॥
सुप्रमेवेद्गतप्राणमन्तःपुरमदृश्यत ।
ततः प्रचुक्रुशर्दीना ः सस् व॒र ं ता वरा ज्ज ना; ॥ २० ॥
के निद्रावध्था दी में प्रा ण नि कल े हु ए दे ख वे ध् न् त/ पु रव ास िन ी
स्लियाँ भ् रत ि दी न दो उच ्च घ र से रो ने लग ीं ॥ २० ॥
१ यथाकाहुसमन ्व ित ्े -- सु ते इव प् रस ुत ्त े नप् रह॒ ुध् येत े | (मौ ० )
६८ अयेध्याकायडे

करेणव इवारण्ये स्थानप्रच्युतयूथपाः ।


तासामाक्रन्दशब्देन सहसादूगतचेतने ॥ २१ ॥
जिस प्रकार वेन में ध्पपने समूह से वबिछुदने पर हथनियाँ
चिह्लाती हैं,उसी प्रकार इन सद का बड़े ज्ञोर से रेने का चीरकार
सुन, पकराएकी ज्ञाग कर ॥ २१ ॥
कैासर्या च सुमित्रा च दृष्ठा स्पृष्टा च्‌ पार्थिवम्‌।
हा नायेति परिक्रुश्य पेततुधरणीतल्ले ॥ २२ ॥
फौशल्या और सुमित्रा महाराज के देख वा उनके शरीर पर
हाथ रख (श्र शरीर के ठंडा पा महाराज के मरा हुआ
ज्ञान.) “ हा नाथ!” कद कर चिल्लाती हुई, पृथिदी पर पेछ्लाड़ खा
कर, गिर पड़ों ॥२९ ॥
सा कोसलेन्द्रदृहिता वेहमाना महीतले |
न वन्नान रजेध्वरता तारेव गगनाच्च्युता ॥ २३ ॥|
कैशल्या जी ज़मीन पर लेट रही थीं, धततः उनके सारे शरीर
मेंघुलल लग गयी थी ।उस समय घूलघूसरित थे थ्राकाश से गिरे
हुए तारा को तरह जान पड़ती थों ॥ २३ ॥
जपे शान्तशुणे' जाते कै!सट्यां पतितां शरुवि।
अपश्यंस्ता; स्विय सवा हतां नागवधूमिय ॥ २४ ॥
मदाराज के मरने पर, काशल्या के जमीन पर छोटते हुए उन
सब ल्ियों ने देखा, मानों कोई नागवधू पड़ी हो ॥ २४ ॥
१ शास्तगुगे--शाम्तदेदे।प्णस्पन्दुनादिगुणे । ( गो० )
पश्चणश्तिमः सगे ६७8

तत; सर्वा नरेन्द्रस्य कैक्नेयीप्मुखा! स्लियः ।


रुदन्त्यः शेकसन्तप्ता निपेतुधरणीतले# ॥ २५ ॥
तब महाराज्ञ की कैकेयो श्रादि सव खियोँ रुदन करती हुई,
शोश् से सन्तप्त होने के कारण, सूछित हो, ज्ञमीन पर गिर
पड़ी ॥ २४ ॥
तामि। स बलवान्नाद! क्रोशन्तीमिरनुदुत/' ।
येन स्थिरीकृतं भूयस्तदूग॒हं समनादयत्‌ ॥ २६ ॥
तद्नन्तर ( पूर्य |आयी हुई” स्त्रियों केरोने का तुप्ठुज शब्द
पीछे आयी हुई कैशैयो आदि खज्ियों के रोने के शब्द से मिल,
और भी अधिक है| गया मर उस श्रार्तवाद से सम्पूर्ण राजभवन
पूरित दो गया ॥ २६ ॥
तत्समुत्नस्तसम्भ्नान्तं पर्युत्युकजनाबुलस्‌ |
सर्व॑तस्तुप्रुछाक्न्द परितापातंबान्धवम्‌ ॥ २७॥
सथो निपतितानन्द दीनविक्ृवदशनम ।
वभूव नरदेवस्य सन्न दिष् ला न् तम ीय ुष : ॥ २ ८ ॥ | *
उस समय मद्दाराज़ दशरथ का रा जभ वन भस ्त , वि कज औ र
व्यप्र जनों से भरा, महा ची त् का र से यु क् त औ र पर ित ाप से सम ्त प् त
े ा दुआ आनन्द रह ित औ र दो नत ा से पर िप ूर ्ण हे ।
बस्घुज्ञनों ससर
्द ीन सा दे ख पड ़त ा था ॥ २७ ॥२ ८॥
गया था। वह राजसवन भाग्यद
अतीतमाज्ञाय तु पार्थिवर्षमं
यशखिन सम ्प रि वा य पत ्र या ।
न इनप अद लक कक
के
पालक
पा ठा स् तर
ला
पक एक
े- - नि पे तु गं तच ेत ना
जया 9 |
:
१ झनुह्ृत।--अचुछताभूत्‌ । (गो)
दैंघ० अवाध्याकायड

भुवं र स ् त ् य ; क र ु ण ं स ु द ु ः ख ि त ा ः
प्रग्द व ा ह ू व ् य ल प त ् न न ा थ व त ् ‌ ॥ २ ९ ॥
इति पश्चपश्ितमः सर्ग। ॥
राजाओं में श्रेष्ठ और यशत््वी मद गज्ञदृशस्थ के मरा देख,
उनकी सईद रानियां महा दुःखी हो श्त्यन्त फेणपूर्ण स्वर से रो
शे कर और महाराज् दशरथ की वाह पकड़ अनाथ की तरह
विल्लाप करने लगीं ॥ २६ ॥
अयेष्याक्ाणड का पेंलठर्वीं सर्ग पूरा हुआ ।
जाई

पट्षश्तिमः सर्गः
«०-१ ६ ६०००-«

तमग्रिमिव संज्ञान्तमम्बुहीनमिवा्ंवम्‌ |
हतप्रभमिवादित्यं खगरथ॑ प्रेक्ष्य पार्यिवम्‌ ॥ १ ॥
महाराज दशरथ को बुरी हुई श्राग, अथवा जलदहीन समुद्र
अथवा दतप्रभ धूये को तरह जर्गवरासी हुआ देख ॥ १॥
कैसल्या वाष्पपूर्णाक्षी विविध शेककर्शिता ।
उपगृह्म! शिरो राज! कैकेयीं प्रत्यभापत | २॥
कैशद्या ने महाराज का सिर श्रपनी गोद में रख और
विविध प्रकार के शोकों से उत्पीड़ित देने के कारण सोते शेते -
कैकेयी से कद्दा | २॥
१ राज्षा शिरर्पगृहथ--राज्ञ।शिरभह्टें कृत्वा | (गो० )
“ पट्पएितमः सगे $फ९

सकामा भव कैक्रेयि भुख्क्य राज्यमकप्टकम


त्यक्ल्ा राजानमेक्ाग्रा' दृझ्ंसे दुष्यारिणि ॥ ३ ॥
अरी दुश कमाइन | श्रव पश्रपनी साथ पूरो कर प्रौर
निकरदक राज्य खूब भाग । महारात्र के विदा कर श्रव तू अपने
पुत्र के राज्यछुस में एक्रा्नचित्त हो ॥ ३ ॥ '

विद्यय मां गते रामे। भर्ता च खर्गते मम ।



विपये साथदवीनेव* नाहं जीवितुमुत्सहे ॥|४ ॥
6५५ हु

श्रीराम ते मुझे द्रीड़ चला ही गया था, महाराज भी ध्मव नहीं


रहे । दुर्गप पथ में सदायक साथो छूर हुए पथिक को तरह मुझे
घाव जो ने की साथ नहीं है ॥ ४ ॥
भतारें त॑ परित्यज्य का स्री दैवतमात्मन! |
इच्छेज्नीवितुमन्यत्र केकेय्यास्थक्तपर्मण। ॥ ५ ॥
हाथ | कौन ऐमो ख्रो दोगो, जे। अपने परम देवता स्वामी
का दैड़ कर, जोतित रहना पसन्द करेगी। एक फैकेयी श्रवश्य
जीवेगी, क्योंकि उसने अपना धर्म त्याग दिया (शर्थात्‌ पतिबत
धर्म)॥५॥
न लुब्धे चुध्यते देषानशकरिपाकमिव भक्षयन्‌ ।
छुव्नानिमित्त कैफेय्या रापवाणां कुल इतम् ॥ ६ ॥
हा | जे लालची द्वोता है वह लालच के दुष्परिणाम की और
ध्यान नहीं देता, जेसे भूखा मनुष्य विपम्रिध्रित पदार्थ को छुधा
मन अ आर मदापवीआअशमिलमअशिबाद कि 27228 लेसलअपिकीअल कए मत
३ एकाग्रा--पुत्रराज्यैकाप्रचित्ा । ( रा० ) २ स्रार्थद्रीना--सहायभत
पर्तिकपहुरहितेद्यं! | ( गो० ) ३ किन्पाकं--कुत्प्ितपाक | ( गौ०
ईदर अयेध्याकायर्ड

चश खात े सम य तज् ञनि त दुष ्पर िणा म को और ध्य ान नही ं देत ा


हा |दुउचा के कहने से कैक ैयी ने मह ार ाज रघु के कु ल का ना श
कर डालना ॥ ६ ॥
'अनियो गे नि यु क् ते न रा ज् ञा रा म वि वा सि तम ्‌ ।
सभाय जनकः श्रुत्रा परितप्स्यत्यहं यथा ॥ ७॥
जव राजा जनक छुनंगे कि, कैकैयो के द्वार अ्रजुचित रीति
से प्रेरणा किये ज्ञाने परमहारात्र दशरथ ने धोरामचन के स्ली
सहित वन भेज दिया, तव उनके कैसा सन्ताप होगा ॥ ७ ॥
. स मामनायां विधवां नाथ जानाति धार्मिक: |
राम) कमलयत्राक्षो 'जीवनाशमितार गत ॥ ८ ॥
इस समय कप्रलनयन धर्मामा भीरामचद्र यह ने ज्ञानते
होंगे कि, यहाँ महाराज के मरने से में अतायथ ओर विधवा दे
गयी ॥ 5॥
विदेहराजस्य सुता तथा सीता तपसखिनी* ।
दु।खस्पानुचिता दुःख॑ बने पयुद्धिनिष्यते# ॥ ९॥
राज़ा जनक की पुत्री वायुरी सीता जे दुःख सहने याग नहीं
है,बन में अ्रनेक प्रकार के दुःख पा कर घबड़ातो दोगो ॥६॥
नदतां भीमपाषाणां निशासु मृगपक्षिणाम्‌ ।
निशम्य नून॑ संत्रस्ता राषवं संभ्रयिष्यति ॥ १० ॥
३ जनिये।गें--वरभदान धमये वरल्य विशेपनिरदेशा भावे सति । (गरोण्)
३ जीवनाशंगत:--रार्ाजीवनाशंगतः प्राप्त । (मो?) हे इतः अन्रदेशे |
(गो०) ४ तपल्विनी- शेचनीया । (गो०) # पाठान्तरे--" विजिष्यति ।


घदपश्ितमः सर्गः हद३

सीवाजब कि, रात में घिंद ग्यापादि जस्तुओं का डरावना


वृद्दाइना और पत्त ियों को बेल ्ति याँ छुन ती होग ी, तव मार े डर फे
ओराम के गत्ते में लिपठ जञातो होगी ॥ १९ ॥

हृद्धश्वेवास्पप्युत्रथ' वैदेहीममुचिन्तवन्‌ ।
सा्प शेकसमाविष्टो ननु त्यक्ष्यति जीवितम्‌ ॥१६॥
वे राज ा जन क भो, जो बूढ ़े हैं और जिन के के वल कन् या
सन् तति है, सी ता ज्ञी के करो ं का, स्म रण कर और शो क से
चिकल हो शरीर छोड़ देंगे ॥ ११॥

साह॒ इम थे व 'द िष ्ट ान ्त ं गम िष ्य ाम ि पत ित ्र ता |
इदं शर ीर मा लि द् वय प् रव ेक ष् या मि हु ता शन स् ‌ ॥ १ २ ॥
थ्रतः पतिय्रत धर्म का पा लन कर ती हु ई मै ं श्र ाज् दी प् रा ण
त्यागने के जिये, मह ार ाज के शव से चि पट , अप ्न ि मे ं प् रव ेश कर ूं गी
झर्थात्‌ सती द्वोजाऊँगी ॥ १२ ॥
ताँ तत ) सम ्प रि ष् वज ्य वि लप न् ती तप स् िन ीम ्‌ |
अव्यपनिन ्य ु! सु दु /ख ात ा' कै सल ्य ां व् या वह ार िक ा: '॥ रे ॥
अन्‍्त/पुर के तथ ा रा ज् य के री ति व् यो हा र ( शर ्थ ात ्‌ ज्ञ ाप् ता)
झानने वाक्षे थर्थात मं त् रि यो ं न े
मह ार ाज के शव से भ्र त्य न्त दु ःश िन ी
वापु री कै शब ्य ा के हठ ा ऋर अल ्ल ग कि या ॥ ऐ३ ॥
(म ोर ) २ से ा5 पि -- जन ऊा पि । ( ग ०
ो )
१ अध्पपुत्र:--दुद्वितृमात्रपुन्र+ |
-- मर णं । ( ग ो ) 4 ब् या वद ्ा रि का :- -ण ्य वद ्द ार ेव ाह ्य ास ्व न् तर
३ दिल्लास्तं
। (ग ो० ) मे पा ठा न् तर े- -/ / व् यव नी य ? ।
"पकछराजहत्येनियुक्ताः अमाह्याइस्थें:
हैं८४ प्रयेध्याकायडे

तैलद्रोग्यामथापात्या: संवेश्य जगतीपतिम्‌ |


ण्यनर है
राज: सर्वाण्ययादिष्टथक्र! कमोप्यनस्तरम ॥ १४ ॥
५>

औरउन मंत्रियों ने महाराज के शव के तेल भरे कड़ाह में'


रख दिया जिससे शव बिगड़े नहीं । तदनन्तर वे राजाज्ञानुस्तार सव
कृत्य करने लगे ॥ १४ ॥
नतु असंस्करणं राज्ञों विना पुत्रेण मन्त्रिण। ।
समेज्ञा)! कतुमोपुस्ते तते रक्षन्ति भूमिपम्‌ ॥ १५ ॥
॥च पु पु

समयेाचित कत्तंग्पों के जानने वाल्े मंत्रियों नेविना किसी'


राजकुमार के आये महाराज के शव के अ्रश्निसंस्कारादि कियाकर्त
करना उचित न सम्रक्ता । थ्रतः महाराज के शव ( के तेल से भरो
फढ़ाई में )रखवा दिया ॥ १४ |
तैलद्रोप्पां तुसचिवः शायित त॑ नराधिपम्‌ ।
हा मताज्यमिति ज्ञात्ता ख़ियस्ता! पर्यदेवयन्‌ ॥१ ६
जव मंत्रि लाग महाराज के शव के तेश से भरी कढ़ाई में
लिदाने लगे, तद वे स्लियाँ महाराज का मरना विश्वय ज्ञान, हा
महाराज | मर गये !”-- कह कर बिलाप करने लगीं॥ १६ ॥
वाहूबुद्यम्य कृपणा नेत्रप्रद्धवणेमुंखे!
रुदन्त्यः शोकसन्तप्ताः छूपएं पर्यदेवयन्‌ ॥॥ १७ ||
वे दुर्खनों द्वियाँ अपनी भुजाओं के उठा उठा कर प्रौर
आँज़ों सेधश्चुारा वहा तथा जोक से सन्तप्त है, विल्ञाप करने
लगा ॥ १७ ॥
१ सर्वज्ञाम--सर्वधर्मज्ञाः । (गो० ) # पाठान्तरे-- सट्टलने ” ।
पट्पश्चिमः सगे; ६८५

हा महाराज रामेण सतत प्रियवादिना |


विहीनः# सत्यसन्धेन किम विजहासि न! ॥ १८ ॥

हा महाराज्ञ | हमें सदैव प्रिय वालनने वाले भ्ीराम से रहित


कर, धआाप हमें छोड़ फर फ्टों चल्ने जाते हैं॥ १८ ॥
कैकेय्या दुष्ठभावाया रापवेण वियेजिता! |
कर पतिध्न्या वत्स्यामः समीपे विधवा वयम्‌॥ १९ ॥
शव हम धोरामचद्ध जी से बिकुड़ कर इस्त दुश तथा पति
के मारने वाज्ली केकेयी के साथ, विधवा हा कर कैसे रह
सकेंगो ॥ १६ ॥
से हि नाथ! सदाउत्माक तव च प्रशुरात्मवान |
बन॑ रामे गत; श्रीमान्विहाय टृपतिश्रियम्‌ || २० ॥
क्योंकि धीराम ओो जे दमारे और श्ापके जीवनाधार थे,
राज्यलद्मी के छोड़, चन के चल्ने गये ॥ २० ॥
त्वया तेन च वीरेण विना व्यसनमोहिता ।
कथं वयं निवत्स्यामः केक्रेय्या च विदूषिताः' ॥२१॥
कब हम सब तुम्हारे बिना और श्रोराम के न रहने पर, दुःख
में फैंस, कैडेयो के तिर॒स्कारों को सदन करतो हुई, किस प्रकार
रह सकंगी ॥ २१ ॥
यया तु राजा रामश्र लक्ष्मणश्र महावल) ।
सीतया सह सन्त्यक्ता सा कमन्ये न हास्यति ॥२१॥
१ विदूषिताः--राज्यगर्वातिरत्कृता: । (यो०) # पराठाम्तरे--विद्वीना; /
(८६ थ्रयेध्याकाये
जिसने मदार ाज ्ञ को , श् री रा मच न् र पु व॑ मह ाव त् री । लद ्ष ्म ण तथ ा
सोता के त्याग कर ने में सड ्श ोच न कि या वह भल ा कि सक ो नह ीं
छेड़ सकतो ॥ २२॥ -
ता वाप्पेण च संबीतः शेोकेन विषुलेन च |
व्यवे्चन्त निरानन्दा राघवस्य वरख्रिय/ ॥ २३॥
इस प्रकार महाराज दशरथ की सर्वश्रेष्ठ सानियां नेत्रों से श्राँखू
बह्दाती और महाशेकग् रस ्त दे ने के का रण आन न् द रह ित हो
गयों ॥ २३ ४
निशा चन्द्रविहीनेव स्लीव भर्ृविवर्निता |
पुरी नाराजतायेध्या विना राज्ञा महात्मना ॥२४॥
उस समय प्रयाघध्यापुरी चन्द्र विन याप्िनो और कन्त विन
कामिनी की तरह महाराज दशरथ के त्रिना, शामित नहीं दोतो
थी॥
२४ ॥
वाष्यपर्योकुलजना हाह्मभूतकुलाडना ।
शून्यचत्वरवे श्मान्ता न वश्राज यथापुरम्‌र ॥२५ ॥
क्योंकि जिधर देखे उधर लेग रोते हुए देख पड़ते ये, और
स्तियाँ हाहाकार मचा रही थीं। घर और चौराहों में क्लाह तक
नहीं पड़ी थी। सारांश यह कि अयोध्या की जैसी शेमा पहले थी
पैसी शव नहीं देख पड़ती थी ॥ २४ ॥
गते तु शाकाशत्रिदिवं नराधिपे
परहीतलस्थासु द्रपाइ़नासु च |
! घत्यचत्वरेत्ति--समाजनातुडेपनवस्यादि शल्यचलवरादियुक्तेति यावत्‌
(गो०) रे यथापुरं--यथापूर्त | (गो०) $ शेकात्‌ू--पुत्रशोकात्‌ । (गो०) '
पट्पश्ितमः सगे ईप७
निहत्तचार;! सहसा गये रवि
प्रतत्तचारा' रजनी ह्ुपस्थिता ॥ २६ ॥
पुत्रशाक मेंमद्ाराज दृशरथ के स्वर लिधारने पर, उनकी सब
रानियां ज़मीन पर पड़ी से रही थीं। इतने में दिन हृुव गया और
अंधकार के लिये हुए रात दो आयी ॥ २६ ॥
, केते तु पुन्नाहहनं महीपते!
न रोचयन्ते सुहृद! समागता )
इतीव तस्मिज्शयने न्यवेशयन्‌
श ॥ २७ ॥
विचिन्त्य राजानमचिन्त्यद्नम
राजवंश के जे दितेषों भाईव॑द्‌ वहाँ एकत्र हुए थे, उन के|ों
ने विचार कर यह निश्चय किया कि, विना किसी राजपुष्र के भाये
मद्ाराज् केशव की दाहक्रिया किया जाना ठीक नहीं । श्रतः शव
को तेल के कढ़ा में रखा रहने दिया जाय ॥ २७ ॥
गतप्रभा द्यौरिव भारफरं बिना
|."ई
व्यपेतनक्षत्रगणेव शवरी ।
पुरी वभासे रहिता महात्मना
न चासकण्ठा5कुल्मागचतवरा ॥ २८ ॥
उस समय मदाराज़ के स्वर्ग सिधारने पर श्रयाष्यापुरी को
सड़कें श्र बैारादों पर रोते हुए और वाष्परुद्धकणठ वाले लोगों
१ निवत्तचार:--निवत्त किरणप्रचार: | ( गो० ) २ प्रपेत्तचारा--अ्रवत्त
तमः प्रचारा । ( गो०
दुघद अयेाष्याकायडे ऊ

की भीड़ दी जाने से, धयेध्यापुरी सयहीन आकाश अथवा नक्षत्र


हीन रात्रि की तरद्द प्रभादोन दे गयो ॥ २५ !
नराश्र नायंश्र समेत्य सडशो
विगहमाणा भरतस्य मातरम्‌ ।
तदा नगया' नरदेवसंक्षये
वभूवुरातां न च शम लेमिरे ॥ २९॥ *
इतिपरदषश्तिमः सगे ॥
मदाराज के स्वगंग्पी होने पर, श्रयेष्यापुरीयाती क्या पुरुष,
9 व

क्या स्री सव इकट्ट हो एक स्वर से भरत को पाता कैकेयी के


घिकारने लगे ।उस समय सभो दुःखी थे ; छुखी काई न था ॥२शा।
अयेध्याकाणड का छात्रुठवां सग समाप्त हुआ !
7 आन

सहपष्टितमः सर्ग /
+4०३--

आक्रन्दिवनिरानन्दा साथ्रुकण्टजनाकुछा |
अयेध्यायागवतता' सा व्यतीयाय शबरी ॥ १ ॥|
रोते रोते किमी के भो मन में श्ानन्द नहीं रह गया शा, सव
लग प्रांत गिरते वरावर रो रखे थे |वह दुःख को रात लोगों के
लिये पहाड़ जैसो बड़ी हो गयी थी। क्रिस्तो न करिसो तरह बह
ब्यतोत हुई] १ ॥
१ अवतता--दीर्ा । ( यो० )
सप्तपष्टितमः स्ेः है८ह

व्यतीतायां तु शव॑यामादित्यस्पेदये ततः ।


समेत्य राजकरतारः सभामीयुद्दिभातय। ॥ २॥
ज्ञव रात वीती और छुर्य उदय हुए, तब राजकाज में साहाय्य
देने वाक्षे ग्रधिकारी ब्राह्मण इकट्ठे हे सभा में आये ॥ २॥
माक॑ण्डेयोब्य मौद्गल्ये। वामदेवश् काश्यपः ।
कात्यायने गातमश्र जावालिश महायशा। | हे ॥
उनमें सव से भ्रश्रिक अ्सिद्ध अथवा पुख्य थे मार्कणशडेय,
मोदुगढ्य, वामदेव, काश्यप, कात्यायन, गैतम और जावालि ॥ २॥
एतेद्विजाः सहामात्यें! 'पृथरवाचगुदीरयन) ।
वसिष्ठपेवामिय्युखा! श्रेष्ठ राजपुरोहितम्‌ ॥ ४ ॥
ये ब्राह्मण मंत्रियों सदित भरा कर सर्वश्रेष्ठ राजपुरोदित वशिष्ठ
जी के सा मन े बे ठ, प् रल ग अ्र ल्न ंग अप ना अप ना शश य प्र कढ कर ने
लगे ॥ ४॥
अतीता शर्बरी दुःखं या ने! वर्षशतेपमा ।
अस्मिन्‍्पश्त्वमापन्ने पुत्रशेकेन पार्थिवे ॥ ५ ॥
बीती हुई रान जे । हम ें सो वर ्ष के सम ान ज्ञ ान पड ़त ी थी ,
किसी प्रकार वोती । क् यो ंक ि इस ो रा त मे ं पु त् रश ोक से वि कल
महांराज पञ्चत्व की प्राप्त हुए (मरे ) ॥ ५ ॥ ४

स्व॒गंतथ्॒ महार ान े। ! र ा म ब ा र ण ् य म ा श ् र ि त ; ।
लक्ष्मणश्रापि तेजस ्व ी रा मे णे व ग त ः स ह ॥ $ ॥ .
द ी र य त ू - - भ क प य त ् ‌ । ( ह् ि० )
१ पृथकू--मिन्न | (शि० ) रे इ
वा० रा०--४४
ईै६० अयेध्याकायडे

मद्दाराज्ञ खर्गवासी हुए हैंग्रौर थो रा मच द् र ज ी व न मे ं हैं ।


तेजी लत््मण भ ी श् री रा म के स ा थ व न मे ं है ं॥ ६ ॥
उभ ौ भर तश त् रु न् नी कै कय ेप ु पर न् तप ों ।
पुरे र ा ज ग ह े रम ्य े म ा त ा म ह न ि व े श न े ॥ ७ ॥
परन्‍तप दोनों मस्त औ र शब ्र ुन ्न के कय दे श क ो रा जध ान ी मे ं
झपने नाना के घर में विराजमान हैं ॥ ७ ॥
इृक्ष्वाकूणामिहायेव राजा कथिदिधीयताम ।
अराजक हि नो राष्ट्र नविनाशमवाप्लुयात्‌ | ८ ॥
अतः इक्चाकुवंशीय किसी पुरुष के श्ाज ही राजा बनाना
चाहिये। नहों ते कहीं राजा के बिना दरार राष्ट्र नष्ट नद्ी
जाय ॥ ५॥
नाराजके जनपदे विद्युन्याली महास्वनः ।
अभिवर्षति पजन्ये महीं 'दिव्येन वारिणा ॥ ९ ॥
क्योंकि जहाँ राजा नहीं दाता वहां विज्नली की चमक सहित
अत्यन्त गरजने वाले मेघ दिव्य जल प्रथिवी पर नहीं वरसाते--
घर्थात्‌ ओले वरसाते हैं ॥ ६ ॥ |॒
नारामके जनपदे वीजसुष्टिः प्रकीर्यते ।
नाराजके पितु! पुत्रों भार्या वा बतते वशे ॥ १०॥
घराजक देश में किसान लग खेतों में दीज् नहीं छिठकाते,
और अराज्ञक देश में पुत्र पिता के और स्री श्रपने पति के वश में
नहीं रहती प्रर्थात्‌ लव खतंत्र दो जाते हैं ॥ १० ॥
१ दिव्येनेत्ननेन शिकावर्पंत्तुभविष्यतीतिभावः | ( थो० )
६8१
सपत्तपशितमः स्गः

अराजके धन नास्ति नासिति 'भागांध्प्यराजके ।


इदमत्याहित॑ चान्यत्कुत! सलमराजके ॥ ११ ॥
शराजक देश में धन नहीं रहने पाता (क्योंकि चार डाकू
बरज्ारी छे ज्षेते हैं। )स्रियाँ व्यभिचारिणी हो जातीहैंश्रैर घर
में नहीं रहतों। जब घर की श्री तक का ठिकाना नहीं, तब सत्य
भज्ा फैसे रह सकता है। ( अर्थात्‌ प्राजक दैश में सत्य व्यवदार
भी नहीं रह जाता ) ॥ ११ ॥
नाराजके जनपदे कारयन्ति सभा नराः ।
उद्यानानि च रम्याणि हुए एण्यग्रहणि' चं ॥१२॥
अराज्ञक देश में प्रसन्न दे कर प्रजाजन (अस्वस्थ्य मन रहने के
कारण ) न ते सभा समाज करते, न रमंणीक बाग वगीचा लग-
बाते--[ क्योंकि राजा के दृग्ड का भय न रहने से लेाग पेड़ काढ
डालतेहैं)और न पुण्य बढ़ाने वाले देवालय ( अथवा धर्म-
शाज्षाएँ )आदि वनवाते हैं ॥ १२ ॥
नाराजके जनपदे यज्ञशीला द्विमातय। ।
ससन्नाण्यन्वासते दान्ता ब्राह्मणाः संशितनता३ ॥१३॥
अराजक देश में न तो द्विज्ञाति यज्ञ करते और न फरार मत
धारण करने वाले जितेन्द्रिय श्रह्मण मद्दायज्ञ हो कराते हैं (विश
के भय से )॥ १३ ॥
व ् य त ि च ा र वि रत त् वा त् ‌ ग् रं हे य ति ष् ठत ्त ीय थ) । ( श ि ० )
“7 |श ा ह ् त ि भ ा य ा - -
। ( ग ो ० ) ३ सन ्न ाण ि- -म द् ाय श् ान ्‌ )
२ पुण्यमृद्व ा ण ि - - द े व त ा य त न ा द ी न ि
(ग्रो० )
ध्र
लि
अयेध्याकायड

नाराजके जनपदे महायज्ञेपु यम्बन। |


व्राह्मणा वसुसम्पन्ना विरुजन्त्याप्तदक्षिणा।! ॥ १४७ ॥
अराज़क राज्य में धनसम्पत्न ब्राह्मण भो बढ़े यों मेऋति
ं जंों
के भूरि दक्तिणा नहीं देते ॥ १४ ॥
. नाराजके जनपदे प्रह्ठनव्नतकाः |
0८ ५४
उत्सवाथ' समाजाथ *ैवधन्त राष्ट्रधना। ॥ १५ ॥
अराजक राज्य में नठ ग्रर वेड़िया जाग भी (आज्ोविक्षा के
श्रभाव से ) प्रसन्न नहीं रहते। और न वहाँ देश को वृद्धि करने
वाले देवोत्सव द्वोते हैंऔर न तोयों पर यात्रियों के मेज आदि ही
लगते हैं ॥ १५ ॥
नाराजके जनपदे सिद्धाथां* व्यवहारिणः: |
कयामिरतुरज्यन्ते कवागीलछा: कथाग्रियें: || १६ |
_अयाज्क राज्य में व्यवहार करने वालों में (रपये का लैन द्दैव
फरने वालों में )अथवा ( गाल बेचने खरीदने वालों में ) वियाद
उपस्थित होने पर, किसी का भी प्रयाजननमिद्ध नहीं होता अर्थात्‌
मुकदमा लड़ने वालों का न्याय ( राजा के अभाव से )
नहों दाना ।
( राजा के न रहने से पुरस्कार के अमाव में )कपा वाचने
वाले
प् रच्दी कथा शँच कर कथा छुनते बालों के
सच्तुए्ट नहीं
करते ॥ १६ ॥
१ भाएदलन्निणा+--मूरिद्क्षिणा: । ( गो० ) है हत्य
वा;--देवतेटसवा: ।
(गो०) ३ सम्राज्ाइ--हीर्य॑यात्रा: । (यो० ) ८
प्रिद्वाव+--जन्धप्रपोजना: |
६ गो ) ५ ब्यवद्ारिग:--कमप्यर्यमुद्दिश्यान्येन्य विवदमा
नाः | ( गो० 3
सप्तवट्टितम्ः सर्गः हूश्र

नाराजके जनपदे उद्यानानि समागता; !


सायाह क्रीडितुं यान्ति कुमायें हेमभूषिता! ॥ १७.॥
घराजक राज्य में सोने के गदने धारण कर कुमतारियाँ साय-
डाल के समय वादिका और उपबन में खेलने नहीं जाती (क्योंकि
राजा के प्रभाव से चे।र दुऐं का मय रहता है )॥ १७ ॥
नाराजके जनपदे बाहने! शीघ्रगामिभि! ।
नरा नि्यान्द्यरण्यानि नारीमि। सह कामिन। ॥१८॥
शराजक राज्य मेंकाप्ती पुरुष तेज़ चलने वाली सवारियों में
बैठ, द्धियों सदित वनविद्वार करने नहीं ज्ञाते ॥ १८॥
नाराजके जनपदे धनवन्तः सुरक्षिता! ।
शेरते विहृतद्वारा; कृषिगेरक्षंजीविन! ॥ १९ ॥
प्रराजक राज्य में धनी छुरक्षित नहीं रद सकते और न किसान
और ग्वाले गड़रिये ही ध्पने घरों केकिवाड़ ख्लोल उंढी दवामें
छुत से से सकतेहैं॥ १६ ॥ हे
नाराजके जनपदे वद्धूघण्टा विषाणिन!' ।
अटन्ति राजमार्गेषु कुज्ल रा। पष्टि हायना ;' ॥ २० ॥
अराज क राज्य में हाथो, जे साठ बरस की उद्नर के दोने पर,
बढ़े वड़े दातों वाले दो जाते हैं,घंढों कोघनघनाते राजमार्गों पर
नहीं चल सकते ( क्‍यों कि गुगड़ े उनके दांतों ही को काट
लें )॥ २० ॥ |
दकादििन/ः-
“ ए१ विपाण शस्तद
ता-पर-अशस् ाः ।।( गो०
स्ता।
तदन्त ायनाश-+--प
पष्टिदायना
गो०))२२पिद् :।
र्षों:ो:।
-प्ठिवहिवष
( गो ) है
६१५ अयेध्याकाणडे
नाराजके जनपदे शंरान्सतन्तम स्यताम्‌ |
श्रूयते तलनिर्षोष इच्बस्नाणामुपासने' ॥ २१ ॥
घराजक देश में वाणविदा का अभ्यास करने वाले धनुद्धरों
फे इस्ततल का शब्द नहीं छुन पड़ता ॥ २१ ॥
नाराजके जनपदे वणिनो दरगामिन ।
गच्छन्ति क्षेममध्वानं वहुपण्यसमाचिता। ॥ २२ ॥
' अआराजक अनपद में दूर देशों मेंसोदागर क्षेग चेचने के लिये
बहुत सा मात ते कर निर्भय दे! ग्रथवा सकुशल यात्रा नहों कर
सकते ॥ २९ ॥
नाराजके जनपदे चरत्पेकचरे वशीर |
भावय बात्मनात्मानं* यत्र सायंग्रहे मुनि | २३ ॥
,. श्रराजक देश में, अकेले घूमने वाले, जितेद्धिय और प्रपने “
,भात्मा से परप्रात्मा का चित्तवन करने वाले ( थर्थात्‌ परत्रह्म का
ध्यान करने वाले ) मुनि, सन्याक्ाल दाने पर किसी के द्वार पर
नहीं दिकते ( क्योंकि कोई उन्हें भेजन नहीं देता )) भ्रथवा प्राजक
देश में जितेद्धिय मुनि लेग, परमेश्वर का पक्नान्त में भज्ञन करते
हुए दिन भर घूप फिर सायड्ल होने पर, किसी के द्वार पर नहीं
डिकते ॥ ३३ ॥
नाराजके जनपदे येपक्षेमः प्रवतते |.
2
न चा
मना
प् यर ाज के से ना शत ्र ून भव िष हत े यु वि ॥ २४ ॥
23300 2:20
) अल्यतां--क्षिपतां | (यो० ) २ उपासनै--अभ्याप्ते । ( गो० )
३ वज्ञी--जित्ेन्द्रियः । (यो० ) ४ भावयनू--चिन्तयत्‌। ( गो० ) ५ आत्म
--परमात्मनं । ( गो* ) ६ विषदते -जयति | ( गो० )
संप्तरछितिमः सर्गः ६8५
अराजक राज्य में न तो भ्रप्राप्त वस्तुग्रों की प्राप्ति और प्राप्त
कस्तुग्रों की रत्ता दो सकती और न विना नायक की सेना रण में
शत्रु को ज्ञोत सऊृतो है ॥ २४ ॥
नाराजके जनपदे हुष्टेः परमबाजिभिः ।
नरा! संयान्ति सहसा रथेश्न परिमण्डिता!! ॥ २५ ॥
पघ्रराज़्क देश में उत्तम पोड़ों' ओर रथों पर बैठ कोई भी
स्वयं सत्नधज्ञ फर वेखटके पुकारकी वाहिए नहीं निकल
सकता ॥ २४ ॥ ; ।
नाराजके जनपदे नरा! शासत्रविशारदा! ।
« संवदन्ताश्वतिष्ठन्ते वनेषु नगरेषु च ॥ २६ ॥
शराज्ञक राज्य में शाक्षक्षानी लेग वन मेंया नगर में बैठ
निर्भोक दो परस्पर शास्त्र सम्बन्धी विचार करते हुए, नहीं रह .
सकते ॥ २६ ॥
नाराजके जनपदे मार्यमेदकदक्षिणाः |
देवताभ्यचनाथ्थाय कर्प्यन्तेर नियतैजने!३ || २७॥
संयमी लेग, ध्यराजक देश में, देवताशों की पूजा के लिये
माला, लडडू, दत्तिणादि कोई भी पूजा को साम्रग्री प्रस्तुत नहों
कर सकते ॥ २७ ॥
नाराजके जनपदे चन्द*नागरुरूपिता। ।
राजपुत्रा विरानन्ते वसन्‍्त इव शाखिन। | २८॥
३ परिसण्डिताः--भपिता: । (गो०) २ कब्प्यन्ते--सम्पाधन्ते । (गो०)
निय
३ तैजनेः--पतचितेजने। ! ( शि० ) ४ रूप िता ः-- किप ्ता : | ( गो० )
।हे(5
कद थयाष्याकायडे
शराजक राज्य में सतकुमार चन्दत और अगर से चद्धित दो
कर ( धर्थाव शरीर में लगा ऋर ) वसन् त ऋतु के पेड़ों की तरद
शेभायमान्‌ नहीं दी सकते ॥ २८॥
यथा बनु दका नद्य ो यथा वाष्प ्यदर् ण वनम् ‌ |
अगापाला यया गावरतथा राष्ट्ररानकम्‌ || २९ |
जैसे बिना जल की नदी, अगवा विना घांव फ़ूस का बन,
थ्धव ा बिता चरवा ई को गोएँ देठी हैं, बेसा दी विना राजा का
राष्ट्र है॥ २६ ॥
ध्वज रथस्य पन्ञान! धूमे ज्ञानं) विभावसा |
तेषां ये ना ब्वजोर राजा स देवल्मिता* गत। ॥३२०॥
जिस प्रकार स्थ का जापक चिन्ह उसकी ध्यजा होती है,जिस
प्रकार अप्नि का ज्ञाक चिन्ह धुग्राँ दाता है, उसी प्रकार दम
त्ागों के प्रकाशक चिन्द त्वदूए जे महाराज थे, वे यहाँ से मर कर
देवयेनि को प्राप्त दे गये है । ( अतः यह देश इस समय
घराजक है) ॥ ३० |]
नाराजके जनपदे खर्क भवति कर्यचित्‌ |
प्रत्य्या इव नरा नित्य भक्षयन्ति परस्परम्‌ ॥ ३१ ॥
शराजक देश में कोई किसी का नहीं हाता, मछलियों की तरह
लग ग्रापस मेंएक दूसरे के मार कर खा जाते है ॥ ३१ ॥
३९ पल्ञादं--तापकं । ( यो० ) २ ज्ञां--लिड् । (गो० ) ३ घबः
“अ्रंकाशकः । (ग्रो० ) ४ इत+--भव्माल्‍्लाडार्ट्ल देवसत्वंगत इत्यरयः
( गो )
सप्तपश्ितमः सर्गः ६६७

ये हि सम्मिन्नमर्यादा: नास्तिकाश्छिन्रसंशया/ ।
तेषपि भावायरे कल्पस्ते” राजदण्डनिपरीडिता। ॥ ३१२ ॥
जे क्ाग वर्णाअप धर्म की मर्यादा को त्याग नास्तिक है जाते
हैं,किन्तु राज दूप ठ के डर से दवे रहत े हैं , वेभीअर ाज क देश में
राजदण्ड के भय से निरभय हो, क्षौगों पर श्रपना प्रभाव डालते
हैंग्रथवा प्रपना प्रभुत प्रकद करते हैं ॥ ३२ ॥
यथा दृष्टि! शरीरस्य नित्यमेव प्रवर्तते ।
तथा नरेन्द्रों राष्ट्रस्य प्रभवः सत्यपर्मया! ॥ ३३ ॥
जिस प्रकार दृष्टि, या भ्राँखें शरीर को भलाई क्षरने और बुराई
दूर करने में सदा ! ही तत् पर रह ती हैं --उ सी अक् वार राज ा भी थ्र पने
राज्य मेंसथ व धर् म का प्र चार कर राष्ट ्र की भल ाई करन े में और
दुशक्षमाओं का शा सन कर बुर ाई दूर करन े में सद ा तत् पर रहत ा
है॥ ३३ ॥
राजा सत्यं च धर् मथ रा जा कुल व्त ा' कुल म्‌ ' |
राजा मा ता पि ता चे व रा जा हि तक रो दृण ाम् ‌ ॥३ ४॥
राजा ही सत्य और धर् म का प्रज् ञा में प्र वर् तक दे, राज ा ही
कुलीनोचित कुलाचार का प्र वत् तक है, राज ा ही प्रज ा फा मा वाप
राज ा ही प्र जाज नों का दि तस ाध न करन े चाल ा अर् थात ्‌
है शो र
षी॥देत॥७
हितेतषीिहै
दि ॥ _ _ . _ . _ . _ . ] ] ] _ ] ] _ / ै ै _
/झ ा् ो ि ि न ् न ् ‍ ् ् ि न ा द ए ा
उबखढख४ऊ#र&ई॒ई्ा्
। सम्मिक्नसर्यादाः--उल्छद्वितस्वस् वज ात िव र् णा अम मर ्य ाद ाः । (ग ो० ) २ छि ल् त-
३ भा वा य- -प त् का वा य, प् रभ ाव ाय त् ा।
संशया/--राजदण्डशहारद्ििताः ।(या०)
्त वै ष् टि कप ीड ास मर ्य ाभ पन ्त ीत ्य थे |. ( गो न )
(यो० ) ४ कहपन्ते--घमल
धव ता ं | (ग ो० ) ६ क ु छ -- छु छा चा रम वत ंक ः । (ग ो० )
५ कु लव र् ता -- क् षे त् रव ीज शु द्
डडककहरबी
डे अयेध्याकायडे

यमे वेश्रवणः शक्रों वरुणथ महावकू। ।


विशेष्यन्ते' नरेन्द्रेणं! हत्तेन महता ततः ॥ ३५ |॥
प्रपने कर्तव्य का भली भाँति पालन करने वाज्ञा पुक राजा
प्र, कुपेर, इच्ध ओर वरुण से भो वड़ा है ॥ ३५ ॥
अह्े तम इवेदं स्यान्न प्रज्ञायेत किश्वन ।
राजा चेन्न भवेक्लोके विभजन्साभसाधुनी ॥ २६॥
शिष्ट ओर अशिप्टों काविभाग कर के प्रजा का पालन करने के
लिये, यरि राजा न द्वो तो सारे राज्य में अन्थेर मच ज्ञाय--काई
क्विसी के न पूंत्े ॥ ३६ ॥
जीवत्यपि महाराजे तवेब वचन वयम्‌।
नातिक्रमामद सर्वे वेरां प्राप्येय सागर; ॥ २७ ॥
हेद्विजप्रेध्च ! (वशिप्ठ जी )जब मद्दाराण जीवित थे तब भी
हम छार्मा ने आपको आज्ञा उसो प्रकार कभी उल्लद्धृत नहीं की
जिस प्रकार सप्रुद्र अपनी सीमा उद्धडून नहीं करता ॥ ३७ ॥
स ना समीक्ष्य द्विनवय हत्तं
तप बिना राज्यमरण्यभूतम्‌ |
कुमारमिक्ष्वाकुसुतं तथान्यं#
: ल्ग्नेव राजानमह्मिविश्व ॥ ३८ ॥
यश
कया इति
न अल सच्तप ्रश्च ितमः सर्गः ॥
१ विशेष्यन्ते--अथः क्रियन्ते | (गा० ) २ नहेन्द्रेण -मद्वतावृत्तेन सर्व
प्रकाररक्षणहपर्चासत्रेण। (यो०) ३ छ३--त्वं । (यो०) ४ ब+--अत्माक ! (गोणे
५ वुत्त--अराजच्लपभुपितंधर्चकृत्यं ।(गो) # पाठान्तरे--' बढ़ान्य । १
अप्टपश्तिप्रः सम: ६६६
हैद्विजभेठ्ठ !हमारे चर्णित भराजऊ राज्य के देपों पर विचार
कर इस राष्ट्र का--जे| राजा के न रहने से जंगल जैमा है। रहा है,
किसी के चादे वद इच्ताकुकुल हे भ्रथवा अन्‍य कोई द्वो--राज्ा
बना दीजिये ॥ ३८ ॥
अयेध्याकागड का सरसठवाँ सर्ग समाप्त हुआ ।

श्रधपश्तिमः सगे
नाथ के 4
तेषां हि वचन श्रुत्वा वसिष्ठ प्रत्यवाच ह ।
!मित्रामात्यगणान्सवोन्ब्राक्मणां
स्तानिदंवच। ॥ १ ॥
उन लेगों के ुख से ऐसी बातें खुन वशिए्ठ जी, दितैदी
सुमंत्रादि मंत्रियों गरर मार्केयडेयादि ब्राह्मणोंसे यह बेल ॥ १॥
यदसे मातुलकुले दत्तराज्य! परंसुखी !
भरते वसत्ति प्रात्रा झन्रुष्नेन समन्वितः ॥ २ ॥
मद्दाराज़, भरत के राज्य देगये हैं। वे भरत अपने भाई शन्रप्न
के साथ मामा के घर परम खुखपूर्वक निवास कर रहे हैं ॥ २॥
तच्छीप्रं जवना+ दूता गच्छन्तु लरितिहये! ।
आनेतुं भ्रातरों वीरो कि समीक्षामहदे वयम्‌ ॥ रे ॥
जल पक जद कम नमक नकल बमनकद ललित
१ सिन्रामालगणानू--मिन्रभूनासात्यगणानूसुमन्त्रादीन |(गी०) २ ब्राह्म-
णानू--मार्कण्डेयादीनू । (गो> ) ३ जवना+--बैंगवन्तः ! ( गो० )
899 अवाष्याकायड

अतः णीत्र चलने याने बाड़ों पर शीघ्रगामों दूत उच्त दोनों


राजकमारों के लिया लाने र लिये जात । इसके श्तिरिक्त और
इस विषय में विद्यार हो कण दा सकझुता है। ( फर्थात्‌ मद्ाराज
भरत के राज्य देगये हैं-अतः सिवा उनके इसरे के राज्य देने
के उम्नन्ध में विदार नहीं हे। सकता )॥ २ ॥
गच्छन्लिति ततः सर्वे वसिष्ठं वाक्यमत्रुवन्‌ |
तेषां तु बचन॑ श्रुल्रा वसिष्ठो वाक््यमत्रवीत्‌ ॥ ४ ॥
तब खब ने ही वणिष्ठ जी सेकहा कि, दुत अभी जाने चादिये ।
उनका यद्द चंचन छुम चशिठ्ठ जो वाल ॥ ४ ॥

एहि सिद्धायं विनय जवन्ताशाकनन्दन ।
6 हु

श्रुयतामितिकर्तव्यं स॒निव ब्रवीमि वः || ५॥


हे खिद्ार्थ ! हे विज्ञय ! हैजयन्त | हे अशोकनन्दन ! तुम सूद
यहाँ श्री और तुप्त लोगों के, जे। इस समय करना चाहिये, वह
में कहता हँ--तुम सब छुनो ! ॥ ५ ॥

पुर राजगृहं गला शीघ्र शीक्षजवेइये: ।


त्यक्तणाकेरिद बाच्य: श्ासनाद्धरतो मय || 5 ॥॥
तुम सदर शोजगामी वाड़ों परसद्ार हो छर, शीक्ष राजबुद
माम्रक पुर के जाओ और शेक् रहित हो, मरत से मेरा यह
अनुशासन ऋदी ॥ $ ॥
- - घुरोहितस्तां कुशल पाद सर्वे च मन्त्रिणः |
लरगाणब नियांहि द्रत्यमात्ययिक्र लया !! ७ ||
खएपश्टितमः स्गः 8०१

फ्ि पुरोद्िित वशिष्ठ ज्ञी नेतथा सब्र मंत्रियों ने तुमसे कुशल


पर कद है और ये कद्दा हैकि, बढ़ा ज्ढूुरे काम देभ्रतः तुम
शाप्र यहाँ भ्राओ ॥ ७ ॥
मा चास्म प्रोपितं राम मा चार पितरं मृतम्‌ |
भवन्तः शंसिपु्गत्था' राधवाणामिमं क्षयम्‌ ॥ ८ ॥
किन्तु सावधान ! रघुवंशियों के तेजक्षय (नामेःखों की वात )
का यह्‌ वृत्तान्त कि, धोरामचद्ध वन गये श्रौर मद्दाराज स्वर्ग
चाघो हुए, वां मत्त कददना ॥ ८५॥
काशेयानि च वस्धाणि भूषणानि वराणि च |
प्षिपमादाय राज्षश्र! भरतस्य च॑ गच्छत ॥ ९ ॥
फेकयराज और भरत के लिये इन रेशमीवस्तोंभर (वहुसूल्य-
पान ) सुन्दर प्राभूषणों के ले कर तुरन्त चले जाओ ॥ ६ ॥
दत्तपथ्यशना दूता जग्यु! स्व॑स्वं निवेशनम |
केकयांस्ते गमिप्यन्तो हयानासद सम्मतानर ॥ १०॥
चशिए जो के ववन खुन ओर मार्ग के लिये भेजन के कर
दूत लग अपने श्पने घर गये श्र फिर तेज ओर बहुत दूर की
यात्रा करने में अभ्यस्त धोड़ों पर चढ़, तुर््त कैकयराज्ष को राज्-
घानी की भोर ज्ञाने के लिये तैयार हुए ॥ (०॥
ततः भास्थानिक* कृत्वा कार्यशेषमनन्तरम्‌५ ।
कि वसिष्ठेनाम्यनुज्ञता दूताः सनन्‍्त्वरिता
008 ॥006५0 /26२2४0 /04404 40-47 कवि ययु; ॥ ११॥ __
१ सा सिपुः--माकथयन्तु | (रा०) २ राइ/-केक्यराजस्थ । (गो०)
१ संमतान--जवन/्वेबाध्यभ्रम पद्श्वेन व संमतान्‌ । ४ प्रात्थानिकं---प्रस्थान
प्रवोमक । ( गो० ) ५ कार्यशेषमनन्तरस-- पाथेयादिकचकृत्वा । ( गोल )
छ०२ श्याध्याकायडे
वैंदत यात्रा की प्रावश्यक सामग्री तथा पाथेय [रास्ते में
खाने के लिये भाजन ) ले, और चशिष्ठ जो से विदा हो वड़ी तेड़ी
से रवाना हुए ॥ ११॥
'न्यन्तेनापरता ररूस्प प्रलूम्ब*स्पेत्तरपति* ।
निषेवमाणास्ते जम्मुनंदीं मध्येन पालिनीम्‌ ॥ १२॥
( क७

अपरतात्न नामक पहाड़ के दुत्तिण और प्रलंद मामक पहाड़ के


उत्तर अर्थात्‌ इन्हीं पहाड़ों की मध्यवर्तिनो मालिनी नदी के किनारे
झिनारे वे पश्चिम की ओर चलते गये ॥ १२ ॥
ते हस्तिनपुरे गड्जां वी प्रत्यकूमुखा ययुः ।
पाश्चालादेशमासाथ मध्येन कुरुजाइलम्‌ | १३ ॥
उन्होंने हस्तिनापुर के सम्रीप पहुँच ग्रद्ढा पार की। फ़िर
पश्चिमामियृख चल्र पञ्ञाव तथा कुरुन्नाँगल्न के बीच में पहुँचे॥ १३ ॥
सरांसि च सुपृ्णानि नदीथ्र विमलादका;
निरीक्षमाणास्ते जम्मुदंताः का्यवशादूदुतम्‌ ॥ १४ ॥
रास्तें में उनलोगों ने चहुत से जल से लत्राज़व भरे तालाब
* तथा निर्मल जल वाली नदियां देखीं। किग्तु काम की त्वस द्वोने
के कारण (वे लोग उन रफ््य सरोचरों अथवा नदियों के तठ पर
ठहरे नहीं ) वे शीघ्र शीघ्र चल्ने जाते थे ॥ १४ ॥
ते प्रसन्नोद'ंदिव्यां नानाविहगसेविताम ।
उपातिजमुर्वेगेन शरदण्डां जनाकुलामू॥ १५॥
१ अपरताठस्य--भपरतालेा नामगरिरिः्तत्य | (गो० ) ३ न्यस्तेन--
नितरा/मन्तेन --चरमप्रदेशेनेत्यथें) । (यो० ) ३ प्रहंवल्य --प्रदम्बाज्यगिरे: |
( गो० ) ४ उत्तरमति--उत्तमाग्यलुद्श्यि । (गो)
आए पश्तिमः से ७०३

तदूनन्तर वे लाग तरह तरह फे जलचर पत्तियों से सेवित,


शोर निर्मत जञ्ञ से पूर्ण शरदगडा नाप्नो नदी के तड पर
पहुँचे ॥ १५ ॥
निकूलर॒क्षमासाथ दिव्य! सत्योपयाचनम्‌ |
अभिगम्यागमिवाय त॑ कुलिड्वां प्राविश्पुरीम ॥१३॥
शर्ण्डा नदी के तोर पर सत्यापयाचन नाम का एक पूज्य
बुत्त या। दुतों नेउत्त वंर्तीय बूत्त क्री परिक्रमा कर कुलिज्ञ
नामक नगरी में प्रवेश क्रिया ॥ १६ ॥
[ इश्त वृक्ष में यद गुण था हि इससे जे! आर्थवा की जाती, उसे यह
पूरी करता था, इसोसे उपका नाम *' सत्येोपयाचन पढ़ गया था । ]

अभिकालं ततः प्राप्य ते वेधिभवनाच्च्युता।* ।


पितपैतामहीं? पुण्यां तेशरिश्षुम्ती नदीम्‌ ॥ १७॥
तदनन्तर उन्हें भभिकाल नामक आप मिला । फिर पे वेधिभवन
नामक पर्च॑त से निक्नली हुईइच्तुमती वामकी उस नदी के पार हुए
जिसके तट के गायों पर कभी महाराज दशरथ के पूर्वजों का
शज्यथा ॥ २७॥
अवेक्ष्याज्ललिपानांश ब्राह्मणान्वेदपाअ रगान्‌ |
ययुमध्येन वाहीकान्तुदामान नमन
0
च्‌ पर्वेतम्‌ ॥ १८ ॥
33मननन--लज+
८ + भिभतशनतत आन सन आन
१ दिप्यं--देवाधिष्टानबत्‌ । ( गो ) रे अभि गम् य-प ्रद क्ष कृत्
िणी य ।
(गे०) ३ अमिव ार्य --सर ्वनम ्रस् कायं । ( यो० ) ४ बेध िमप वात च्य ुता --
तदास्याद्‌ पर्वतात्‌ । ( यो० ) ५ पिल् पैदा मही- -दशर थवंश ्पाज ुभूत ा । तस्त ीर
इद्ष त्रा कृणा मिति भावः । ( गो 2. *
प्रदेशभा मा
०४ अयेष्याऋयदे
के क्र
दवा दे इचु बदा के तब पर अज्ञुल भर जल पी ऋर रहने
वाले, पेदविद्‌ ब्राह्मणों के देखा । वादहीकझ नामह देंश में हो कर
ज्ञाते समय उनके छुद्ामा नामझ पर्चत मित्रा ॥ १८ ॥
विष्णेः पढें प्रश्षमाणा विपाशां चापि चाटमलीम ।
नदीबापीस्तटकानि पलवछानि सरांसि च ॥ १९ ॥
डछ परवेत पर चिधारु मगवान के परदचिन्द के दर्शन कर, उसे,
विपाशा, शादमत्ची आर अनेक नदियां, बावड़ी, तालाब ओर
उरावर निलों ॥ १६ ॥
पश्यन्तो विविधांधाषि सिंहच्याप्रमृगद्धिपान ।
यूदु; पथाइतृमहता शासन भतृरीप्सद। ॥ २० ॥
वे लोग विधिय पका रके सिद्द, ध्यात्र, हाथी आदि वन्य अन्‍्तुग्रों
के देखते हुए घामी की आज्ञा छा पालन ऊरने के वरावर उस
लंबे मार्ग पर चल्ले ज्ञाने थे ॥ २० ॥
ते श्रान्तवाइना दूता विक्वप्टेनः पया ततः |
मिरित्रज एुरवरं शीघ्र मासेद्रक्षसाः | २१॥
बहुत दूर चलने के कारण वे सब दूत ( और उनझे घोड़े )
श्रान्त ( थक्क )हो बये थे। तिस पर भी दे शीत्र गिरिवज्ञ बामऋ
कैशयरात् के श्रे्व पुर में बदत शीघ्र ज्ञा पहुँचे ॥ २१ ॥|
भतृ) प्रियाये झुछरक्षणाय
भतुथ वंशस्य परिग्रहायंम्र
१ विक्प्देन-जतिदृरेप । (गो> ) ३ शीघ्रश्न्दसाद्विध्येद ! ( गो० )
६ ऋजयामानलछत्यरेच्यते | ४ परिप्रदाय--अहिष्वाथ । ( यो० )
एकानसप्ततितमः सर्मः ७०४

अहेव्माना'सवर॒या सम दूता
रात्यां तु ते तत्युरमेव याता; ॥ २२ ॥
इति अध्पष्टितमः सगे! ॥
शपने स्वामी धर्थाव्‌ मद्दारात् दृशरथ का प्रियकार्य (भरत
के ले ज्ञा कर महाराज के शव का दाहादि कर्म) करवाने के,
कुल को रत्ता फे लिये और महाराज दशरथ के वंश को प्रतिष्ठा
के लिये, बड़े भादर के साथ, जक्दों केकारण रात दी मेंउन्र दूतों
ने उस पुर मेंप्रवेश किया ॥ २२॥
शयेध्याकाणद का अरसठवाँ सम समाप्त हुआ |
-“-4०--
एकोनसप्ततितमः सगे

यामेव रात्रि ते दूताः प्रविश्न्ति सम तां पुरीम्‌ ।


भरतेनापि तां रात्िं खम्े दृशेश्यमत्रिय/ ॥ १ ॥
' * जिस रात का वे दुत उस नगर में पहुँचे, उसी रात मेंभरत
ते भी एक अशुभ स्पप्त देख ॥ १॥
, व्यष्टामेव तु तां रात्रि दृष्ठा त॑ स्वम्रममियम |
पुत्रो राजाधिराजस्य सुभूशं पर्यतप्यत ॥ २॥
राजाधिराज के पुत्र ने वह घुरा सख्त, रात्रि के भन्तिम पहर
मेंदेखा था (रात्रि के भ्रन्तिम पहर का देखा हुआ शुभाशुभ स्वष्त
! महैदमाना:--भवादरघकुवांगा/सादराइतियावत्‌ । ( यो० )
बा० शू००-8४
७०६ शयाष्याकायदे
का फल् तुर्त दैता हैं-अतः) भर त जी वह ुत घब ड़ ाए हु ए
थे॥२॥
तप्यमान' समाज्ञाय वे यस ्थ ा। मि यव ाद िन । ।
आयास॑' हि विनेष्यन्त) सभ ाय ां चक ्र िर े कय ा; ॥र े॥
उनके घबड़ाया हुआ अथ वा उद् याल दे ख, उन के सम वय रु क
( हमजैल्ली )अथवा इनके साथ उठ ने बैठ ने वा ले तथ ा प् रि यव चन
वालते दाले मित्र, उनका छेद मि दा ने के लि ये , सभ ा में ता ना
प्रकार की कथाएँ कहते लगे ॥ ३ ॥
वादयन्ति तथा शान्ति *लासयन्त्यपि चापरे |
नाटकान्यपरे प्राहु्ईस्यानि विविधानि च ॥ ४ ॥
उनमें से केई काई भर त जी का छे द मि दा ने छे लि ये वी णा
वज्ञाने लगे कई को ई ठु मु झ ठु मु क ना चन े या यि रक ने लगे । के ई
केई मादुव करने लग े, और को ई हा स् य ऋथ ा कह ने लग े ॥ ४ ॥
स तैमेहात्मा भरतः सखिमिः मियवादिभिः ।
गाष्टीहास्यानि हुपेद्धिनप्राहृष्पत रापव। ॥ ५ ॥
हि हक #* कुवेद्धिन

उत प्रियवचन वेालते वाले मित्रों द्वारा अनेक प्रहार सेभरत


जी के ( छे द दू र ऋर मे के लि ये और ) हँ सा ने के लि ये अन ेक
ब्यज्ञ किये जा ने पर मो , भर त जी का मा नस िक द् ेद दू र न हो
सका ॥ » ॥ 45

ए म्‌
लि सखिभिदेत
तमव्रवीतियसखेए भरतं सखि

मम
६ ॥
रस
दस े ॥
ख्ध
े ना नु मा
पर्यपासीन
सुह ृद् धि! पयपा सीन!
जे कि
22 सख
अर ए स : एम लिअश िन क क
ििबल,...2४ से .. . जल
के
१ भायात्ं--सवशखे द॑ े] (य ो० ) २ छाप ्तव न्त ि-- आध् यंक ुबन ्ति -
डाल्ये--सुछुमालूच | ( गो० ) ३ प्रेयत्ततः--अन्तस्डूचुछद ( गो? )
एकेानसप्ततितमः स्गः ७०७
मित्रों केवीच बैठे भरत जी सेउनके एक पत्थन्त पघन्तरड
मित्र ने कद्दा, है मित्र | हम लोगों फे इतना प्रय्ष फरने पर भी
तुम हर्षित फ्यों नहीं होते ॥ ६ ॥
एवं ब्रुवाणं सुहृदं भरतः प्रत्युवाच तम्‌ ।
भ्रृणु त्व॑ यन्निमित्तं मे देन्यमेतदुपागतम्‌ ॥ ७ ॥
इस प्रकार इस मित्र केकहने पर सरत जो बाल्े-े मिन्न!
मेरे मन के उद्ा छदाने का फारण छुनो ॥ ७ ॥
खप्ने पितरमद्राक्ष॑ मलिनं मुक्तमूपजम्‌ ।
पतन्तमद्रिशिखरात्कलुपे गे।मयेहदे# ॥॥ ८ ॥
मैंने स्वप्न में मैंके कपड़े पदने श्रौर सिर के वाल खोले हुए
झापने पिता के पर्वत की चेटो से बुरे गेवर के गड्ढे मेंगिरते हुए
देखा है ॥ ८॥
पएवमानथ! मे दृष्ठ! स तस्मिन्गामयेहदे ।
पिवन्नज्ञलिना तैल इसन्नपि मुहुमेहः ॥ ९॥
और देखा है कि, वह उस गावर के कुण्ड में मैड़क की तरह
तैरते तैस्ते वारंवार हँस कर घप्रश्नलि भर भर कर तेलपीरहेहैं॥९॥
ततस्तिंडादन शुक्त्वा पुनः पुनरध/शिरा। ।.
तैलेनाभ्यक्तसवाड्रस्तैमेवावगाहत ॥ १० ॥
यह भी देखा हैकि, मद्दाराज तिल मिश्चित भात खा कर वबारंवार
मस्तक नोचे छुका कर, सर्वाड़ में तेल लगाये हुए हैं और तेज हो
में व रहे हैं ॥ १० ॥ कल
य ो ० ) # प ा ठ ा न ् त र े - - ग े म य ह द े ” | “
९ छुवम ा न ः - - म ण ् ड ू क व त ् ‌ | (
ड़ हु
रे
छ्ण्द अवोाध्याक्षायड

खमे5पि सागर छुप्क चन्द्र द पतितं हुवि


उपदुद् धा ं च जग ती ं तम से द स म ा ह त ा म ॥ १ १ ॥
मैं ने दघ रा स्व प्न वह दे खा दे कि , उल ुद ्र लू ख़ गय ा हैं , चन ्द ्र मा
पर अचरा दक्वावा
हक.

हुद्र कर जनों पर (८ प्रज्ञा हैं, खाथ प्ायरा


ह॥ ६१)

ओपवाह्मस्थ नागस्य विषाणं चकल्यद्वतम |


सदता चापि संचान्त ज्वक्तितं मातवइसम्‌ ॥ १२ ॥ी
महागाज भी सवारी के हाथी के दांतों के दुड़े डुकड़ें हो
गये है,ओर प्रज्त्वलित आग सहसा बुर्ध ययो है ॥ २०६ |
अवर्तीणा” च पूथितीं सुष्कांध विविधान्द्रमान्‌ |
परयामि विध्वस्तान्सप्रर्माथापि पतान्‌ ॥ रे॥
पृथिद्दी नीचे घल गयी दे ओर अनेक प्रकार के वृत्त दृल्ल गये
हैं। पने देखा है कि, पर्वतों के टुकड़ेटुछड़े दे! यये है. ओर उनमें
से घुआँ निहुल रहा हैं ॥१३३
पीठे क्ाप्णायसे चेन॑ निपण्णं क्ृष्णयाससम्‌ |
प्रहसन्ति समर राजानं प्रमदः क्रृब्गायेड्रछा) [| १४॥)
मदाराज छाले लाई के पीढ़े परकाले वल्व पहिने हुए वैडे हैं
और काली तथा पीजे रंग हो ल्ियाँ उनका उपहाल ऋर रही
ई॥ १४ ॥
ल्वसमाणश् धर्मात्मा रक्तमाल्यानुलेपनः )
रथेन खरयुक्तेन पयाता दक्षिणामुखः ॥ १५ ॥
६ अवरतीया-लशःरहितां | ( गो )
एकेानसप्ततितमः सर्गः ७०९
हधर्ैमामा मद्ाराज लात चन्दन शरीर में लगाये और लाल ही
फूलों की मात्ना पहिने हुए गधों से र्ाचि जाने चाले रथ में बैठ
शीघ्रता पूवक दत्तिण दिशा को झोर चलते जा रहेहैं ॥ १५ ॥
प्रहसन्तीव राजान॑ प्रमदा रक्तवासिनी ।
प्रकपेनती मया दृष्टा राक्षती विकृतानना ॥ १६॥
एक विकद बद्गा राक्तसी जे लालबद्ा पहिने हुए है,गट्ददास
फरती हुई महाराज के पकड़ कर जबरदप्तो लींच रहो है॥ १६ ॥
एवमेतन्मया दृष्टमिमां रात्रि भयावहाम्‌ ।
अह रामे5थवा राजा लक्ष्मणो वा मरिष्यति ॥१७॥ “
मैंने रात में ऐसे भयानक स्वप्न देखे हैं, इससे यह निश्चय वाध
देता हैकि, में याराम या मद्वाराज भ्रथवा लक्ष्मण की रूत्यु
होंगी ॥ १७॥
, नरो यानेन य! स्वर खरयुक्तेन याति हि।
अचिरात्तस्य धूमाग्रं चितायां सम्पदशयते ॥ १८ ॥
क्योंकि जे। मनुष्य स्पप्त में गये झुते हुए रथ पर सवार दो
यात्रा करता है,उसका थोड़े ही दिनों में चिता में घुआँ निकलता
इुआ देख पड़ता है॥ १८॥
एतन्निमितं दीने॥हं तन्न वि प्रतिपूजये !
शुष्यतीव च मे कण्ठो न स्वस्थमिव मे मनः ।
न पश्यामि भयस्थानं भय॑ चेवोपधारये ॥ १९ ॥
वस मेरे उदास होने का यदी कारण दे और इसीलिये आप
लोगों की बातें मुझे नहीं भातीं | मेस गला छूखा जां रहा हैऔर
१० श्रयाध्याक्षायंड

मेरा मत ठिद्वाने नहीं हैवद्यावि इस खम्व भय छा कोई कार्य


देख वहीं पड़ता, ठयापि मन से जठका दूर नहीं दाता ॥ २६ |
श्रप्टश्च' खरयेागो मे च्छाया चोपहता मम ।
जुगुप्सब्रिव चात्मानं न च पश्यामि कारणम ॥२०।
इसोसे मेरा का्ठस्वर भी विगड़ गया हैअरयाव्‌ आवाज़
मारो पड़ गयी हे, और मेरे शरीर की कान्ति भी जातो रही
है। में ज्ञानता हैकि, यह अचश्यम्भादी विपत्ति हेइससे डरना
बुयी वात है, तो भी मेरे मंत्र में जे खब्हा उत्द हो गया दूँ
बी ० ५, परे ३ भी के

इसके दूर करने का कोई उपाय मुक्ते चढहीं घूक पड़ता ॥ २० ॥


इमां हि दुशस्वमगर्ति #निश्वम्य ता-
म्रनेकरूपामवितर्कितां पुरा ।
भय॑ महचद्भृदयान्न याति में
लय लक €
विचिन्त राजानमचिन्त्यद्शनग ॥ २१ ॥
इंति एक्वेानसप्ततितमः सर्गे: ॥
पहले ऋमी इस पधद्नार के खोरे स्वप्न को तदता भी नहीं हुई
थी, किन्तु अब जब से यह स्वम्त देखा हैठव से मन में यह चिन्ता
० बह
डत्न्न ही गयो है क्लि, ज्ञाने- प्रह्राज के दर्शाव क्षिर हो क्लि नहीं ;
ह 2 2 हाथ न

इसीसे मेरा मन अत्यन्त भयभीत दे गया है ॥ २२ ॥|


अयेध्याकायड का उनहत्तरदाँ सर्ग सम्राप्त हुआ ।
३८,
जा आया

१ च्छया--आन्ति: । (गो०) ३ स्वस्येगर--बुऋच्वरः । ( झिं० )


है अवधिस्यदर्धवर--भवन्नाज्यदश्ननद्‌। (यो5) ह पाठत्दरै-- मिश्वान्या ।
संप्ततितमः सरगेः
+४ ० ३

भरते ब्रुवति खप्नं दूतारते कान्तवाहना ।


प्रविश्यासह्परिखं# रम्यं राज परम ॥ १ ॥।
भरत जो इस प्रकार अपने इष्ट मित्रों केसाथ वातचीत कर
ही रदे थे, क ि थ क े थ क ा य े प् यो ध् या फे दू त रम ्य रा जग ृह पु र मे ं,
जिसके चारों ओर इतनी वड़ी श्र गदरो खाई थी कि, उसे कोई
ल्ांघ नहीं सकता था, पहुँचे ॥ १॥
समागस्य च राज्ञा' च राजपुत्रेण' चार्चिताः ।
ार हः पादे शह्दीत्वा तु तमूचुभरतं बच ॥ २॥

दूतो न े प् रथ म कै कय रा ज् ञ से , तद नन ्त र रा जक ुम ार य ु ध ा ज ि त स े
भेंट क ो । रा जप ुत ्र य ु ध ा ज ि त ने उ न दू वो ं क ा भा द् र सत ्क ार क ि य ा ।
खनन्तर दूतों ने केकयराज की प्रणाम कर, भरत जी से कहा ॥श)
पुरोहितस्त्वां कुशल पराह सर्वे च मन्त्रिणः ।
त् वर ्म ाण थ नि र् या हि ं कृ त् यम ात ्य यि ्क त् वय ा | रे ||
ित
राजपुरोद्द चश िष ्ठ ज ी न े
औ र स व मं त् रि यो ं नआेप स े क ु श ल -
झ्लैम कद्ा हझैोर कद ्द ा क ि , आ प शी घ् र अय ोध ्य ा भा इय े। पर ्य ोक ि
यहाँ एक वि शे ष श् रा वश ्य क का र् य उप स् थि त ह ु आ ह ै ॥ रे ॥
इ म ा न ि च म ह ा ह ा ं ण ि व स ् र ा ण ् य ा म र ण ा न ि च ।
प्रतिगृद्य विशालाक् ष मा तु लस ्य च द ा प य ॥ ४ ॥
ग् रो ० ) हे रा जप ुत ्र ेण -- यु धा ंज ित ा ) (ग ोब ् )
१ राज्ञा--क्रेकयराजेन । (
पाउन्तरे--* परिधं !! ।
9१२ अयेाध्याकाणडे

है विशालात्त ! ये मदापूल्यवान वस्र और भूषण उन ज्ेगों


ने भेजे हैं। इनके के कर आप अपने मामा को दे दोजिये ॥ ४॥
अत्र विंशतिकेव्यस्तु' तृपतेमातुलस्य ते ।
दश कोल्यस्तु सम्पूर्णा'स्तथेव च द्रपात्मन ॥ ५ ॥
इनमें सेलगभग वीस करोड के मुल्य के वखाभूपषण तो आपके
नाना के लिये हैंशेर लगभग दूस करोड के मूल्य के आपके मामा
हैंे
केलिय ॥५॥
प्रतिगृत् तु तत्सव स्नुरक्तः* सुहज्जने* ।
दूतानुवाच मरतः कामे;* सम्पतिपूज्य तान्‌॥ ६॥
भरत जी ने उन सब को के और बड़े प्रनुराग के साथ वे सव '
वरख्राभुषण अपने नाना मामा के दे दिये। तदनन्तर दूतों के
जाजनादि की साम्रत्रो द्वारा उनका सत्कार कर भरत ज्ञी उनसे
वाले ॥ ६ ॥

कचित्सुकुशली राजा पिता दशरथा मम )


कब्चित्वारोगता रामे छक्ष्मणे वा महात्मनि ॥ ७॥
है दूतों! यह तो कद्दो, मेरे पिता महाराज दृशरथ तो
प्रसन्न हैं? प्रहात्मा भ्रोरामचद्ध और लक्त्मण तो आरोग्य
हैं?॥७॥

! विंशतिछेव्य: विंशतिकादि मुल्यानि | (गो०) ३ सम्पुर्णाः--अन्यूता।_


( गो० ) ई सुहज्जने -मातुलादाः । ( गो० ) « ल्वनुरक्तः प्रदाष्येतिशेषः ।
( गो? ) ५ काम: अमीशान्नपावादिमिः | ( गो० )
सप्ततितमः सर्मः * ७१३

आया च पर्मनिरता' धर्मज्ञा धर्मदर्तिनी ।


अरेगा चापि* केसल्या माता रामस्य पीमतः ॥८॥'
धर्मानुछानों के करने में तत्पर, धर्म केतत्व को जानते वाली
और घर्माव्मा ज्षवों के देखने चाली पूज्य एवं ज्येठा धोमान श्री-
रामबन्द्र की माता कैाशल्या तो निधेग है? ॥ ८॥
कचित्सुमित्रा धर्मत़ा जननी लक्ष्मणस्थ या )
शत्रुश्नस्य च वीर॒स्य सश्रोगा चापि मथ्यमा ॥ ९ ॥
धर्म का मर्म समझने वाली बोर लक्ष्मण भौर शत्रुप्त की माता
शौर महाराज की मूली रानी सुमित्रा जी निरेग तो हैं ? ॥ ६ ॥
आत्मकामा' सदा चण्डी कधना प्राजञमानिनी |
अरोगा चापि मेंमाता कैकेयी किमुवाच ह ॥ १० ॥
सदा स्वार्थ में तत्पर, उम्र और क्रोध स्वभाव वाली तथा
पपने के। सव से वढ़ कर बुद्धिमतती समझने थाली मेरी माता
कैकैयी तो कुशल से है? चलती वैर उर्दोंने क्‍या काई संदेसा
भो का है? ॥ १०॥
एयय्ुक्तास्तु ते दूता भरतेन महात्मना" |
ऊजु) सप्रश्नयं वाक्यमिंदं* त॑ मरत॑ तदा ॥ ११॥
१ आर्या--ज्येप्ठा भातृत्वेबणुज्षिता | (यो” ) २ घमनिरता--धम्मो-
मुप्ठानपरा । ( गो*) ३ धर्मदर्शिनो--धर्ममेवजनेतु परयतीतिः धर्मदर्शिनी ।
( गो ) ४ अपि--अरवे । (गो ०) ५ आत् मका मा- -ल् वश् येज ननफ ा । (यो ०)
६ चण्ड ों-- उप्र ा । (गो ० ) ७ मददा ंत्म ना “महा ब्ुद ्धित ा । (ग ो ) ८
समप्रभय--प्रविनयं । ( गो० )
७१७ ' अयेध्याकायड

बड़े बुद्धिमान भरत जो का वचन छुन, दूतों ने विनय पूर्वक


भरत जी से कहा ॥ ११५॥
कुशलास्ते नरव्याप्र येपां कुशलमिच्छसि ।
श्रीज्व ताां हणुते पद्मा युज्यतां चापि ते रथ ॥११॥
हेपुरुपसिंद !आप जिनका कुशल चाहते हैं, वेकुशलपुर्वक
हैं। इस समय छत्ष्मी भ्रापफो वरण करने के लिये उद्यत है,
घतपुव यात्रा फे लिये आप अपना रथ जुतवाइये । (एक दोकाकार
ने इस शोक के उत्तराद्ध की व्याख्या इस प्रकार को है; क्योंकि
आपके मुलादि शारीरिक झ्ोगों में इस समय ऐसी शाभा देख
पड़वी हैकि, जिससे किसी भी अ्रमडुल की शड्भा नहीं होसकती
अतः अव धाप पपना रथ ज्ञुतवाव )॥ १२॥
भरतशथापि तान्दूतानेवमुक्तोउम्यभाषत |
आपच्छेकं महाराज दूताः सन्त्वरयन्ति माम ॥१३)॥
दूतों काचचन छुन भरत वाले--अच्छा, मेंमहाराज से चलने
को ध्राज्ञा मांगता हूँऔर जा कर कहता हूँकि, दृत त्लाग चलने
के लिये वड़ी शीघ्रता कर रहे हैं॥ १३ ॥
एवमुक्ला तु तान्दृतान्भरतः पार्थिवात्मजः ।
दूते! सश्चोदितों वाक्य मातामहमुवाच ह ॥ १४ ॥
राजकुमार भरत दूतों से यह कह कर, दूतों के कथनाछुसार
नाना से जा कर वेल्े, ॥ १४॥
राजन्पितुर्गमिष्यामि सकाशं दृतचेदितः ।
पुनरप्यहमेष्यामि यदा मेत्व॑ स्मरिष्यसि ॥ १५ ॥
सप्ततितमः सगे ७१५
है राजन | भ्रव में प्पने पिता के पास जाऊँगा--कद्योंकि,
दूत लोग मुफ्े के जाने के लिये जद्दीमचा रहे हैं। फिर जब झाप
मुझे याद करेंगे में आ जाऊंगा ॥ १५॥
भरतेनेवमुक्तस्तु पा मातामहरतदा |
तम्रुवाच शुभ वाक्य शिरस्याप्राय राघवम्‌ ॥ १६ ॥
भरत का वचन छुन कफेकयराज, भरत का मस्तक छुँघ यह शुभ
वचन वेाले ॥ १६ ॥
गरुछ तावाजुजाने त्वां कैकेयी सुप्रजासत्वया ।
पातर॑ं कुशल ब्रया। पितरं च परन्तप ॥ १७॥
है भरत |कैक्रेयो तुम जैसे पुत्र का पा कर सुपुभ्रवती हुईहै।
हैशनरुदृदन ! मेंतुर्दें जाने की भ्रनुमति देता हूँ। तुम वहाँ पहुँच
फर पपनी माता और पिता से मेरा कुशल च्ञेम कद देवा ॥ १७ ॥
पुशेहितं च कुश्ूं ये चान्ये द्विनसत्तमा!
ते। च तात महेष्वासों भ्रातरों रामलक्ष्मणो ॥ १८ ॥
पुरोदित चशिछ ज्ञी तथा झन्य भरेष्ठ ब्राह्मणों से तथा मद्दा
धनुद्धंर धोराम शोर लक्ष्मण दानों भाशयों से कुशल क्षेम कह
देना ॥ १८ ॥
तस्म हस्त्यत्तमांश्चित्रान्कम्बलानजिनांनि च |
अभिसत्कृत्य! कैकेये भरताय धन ददों ॥ १९ ॥
यह कह, केकयराज ने भरत जी की ( विदाई में )उत्तम उत्तम
हाथी, कीमती शाल दुशाले और स्गचर्म उनकी वड़ाई कर कर के
दिये॥ १६ ॥
१ अमिसत्कृथ--इछाधापूर्व । (ग्रो० )
कई अयोाष्याकायडि

रुक्‍्मनिष्क सहस्ेहै पोडशाश्वशतानि चे |


सत्कृद्य कैकयीपुत्रं केकये। धनमादिशत्‌' ॥ २० ॥
ह कद कर केकयराज ने सत्कारपूर्वक भग्त जी को (विदाई
में) उत्तम उचम हाथी, वढ़िया शात्र दुशाले तथा घन ( नकदी )
दिया ॥ २० ॥
तथाओ्मात्यानमिप्रेतानविश्वास्यांश्च गुणान्वितान्‌।
ददावरवपति: क्षिप्रं भरतायानुयायिन; ॥ २१ ॥
दो हज्ञार गले में पहने ज्ञाने वाक्ते कंठे, गज, कठुले आदि
श्राभूषण तथा सालह सो घोड़े दिये और बड़े सत्कार के साथ धन
दे कर, वह सव सामान ध्याध्या पहुँचा देने के लिये नोकेरों
को थ्राज्ञा दी |केकयराज ने भरत के साथ शीघ्रता पूर्वक ज्ञाने के
लिये कई एक झपने विश्वासी श्रार गुणवान श्र्थात्‌ बुद्धिमान मंत्री
जादि कर दिये। (ये तो नाना ने विदाई की शव थागे मामा की
विदाई का वर्णन है ) ॥ २१॥
शऐरावतानेन्रशिरान।नागान्व प्रियद्शनान |
खराज्यप्रान्सुसंयुक्तानब्मातुलेध्स्प पन॑ ददों ॥२२॥
भरत जी के युधाजित मामा ने, भरत जो के इरावत नामक
तथा इन्द्रशिख नामक पर्वत पर उत्पछ् और देखने में बड़े सुन्दर
हाथी तथा अपने ज्ञाने हुए शीघ्रगामी झनेक खब्चर भी दिये ॥२२॥
१ निष्का;--वक्षोभूषणानि । ( यो० ) २ क्रादिशत्‌--भादायमिगच्छति
सत्यानाज्ञाययामास | ( यो० ) ३ अभिग्नेताव -सद्ायभतात्‌ । ( गो० )
४ ऐरावतान --इरावत पर्वतनमदान | ( गो० ) ५ ऐन्द्रशिरातू--इन्द्रशिराज्य
परवेंतभवात्‌ | ( गो० ) ६ छुसंयुक्तान--परिचितान्‌ । ( गो० )
सप्ततितमः सर्गः छश्छ
अन्तःपुरेडतिसंदृद्धान्व्याप्रवीयवान्वितान्‌ ।
दंप्ट्रायुधान्महाकायाब्युनश्चेपायन ददों ॥ २३ ॥
युधाजित्‌ मामा ने सरत का, इनके अतिरिक्त रनवास मेंपल्ले
दुए तथा वनचोये मेंव्यात्र के तुल्य गऔर बड़े वड़े द्वांतों वाले तथा
बड़े डील डोल के कुचें मो दिये॥ २३ ॥
से दत्त केकयेनद्रेण धन तन्नाभ्यनन्दत |
भरतः केकयीपुत्रों अगमन॑ त्वस्यंस्तदा ॥ २४ ॥
परन्तु फैकयराज्ष की दो दुई इन वस्तुतं की ओर भरत जी
ने ध्यान नहीं दिया । अनन्तर कैक्रैयोनन्द्न भरत जाने के लिये
शीघ्रता करने लगे ॥ २४ ॥
व्भूव हस्य हृदये चिन्ता सुमहती तदा |
त्वर्या चापि दूतानां खम्नस्य ापि च दशनाव् ‌ ॥२५॥
एक तो भरत ज़ेड स्वप्त देखने चित्तित
से थे दी, विस पर
जब्दी
चलने के लिये दूतों के मचाने से और
वे भी चिन्तित ही
गये ॥ २५ ॥ ः
स खवेश्म व्यतिक्र म्य नरनागा इवसंदत म्‌ |
प्रपेदे सुमहच्छ ीमान्राजमागमलुत्तमम्‌ ॥ २६ ॥
मनुष्य द्वाथो और घोड़ों के लिए हुए भरत जी छापने घर से
निकले और उत्ता एवं बड़े लंबे राजमार्ग में धरा कर उप9्यित
॥ २६॥
हुए
अभ्यतीत्य वतेा5्पश्यदन्त!पुरम॒दारपीः ।
ततस्तद्वरतः भ्रीमान ाविवेशानिवारित: ॥ २७ ॥
# पाठान्तरे--*' गसनत्वरयात॒दा ?! ।
उश्द अयेाध्याकाणडे

झौर उस मार ्म से है| कर उद ार बुद ्धि वा ले भर त ज्ञ ी रन वा स


मेंगये। रनवास में ज्ञाते समय किसो ने उन्हें रोका वहों ॥ २७ ॥
स मातामहमापृच्छय मातुलं च युधानितम्‌।
रथमारुद् भरतः झत्रुघ्नसहिता ययो ॥ २८ ॥
भरत जी ने वहां पहुँच कर, नाना तथा मामा युधाजित्‌ से
विदा मांगी |तद्नन्‍तर शन्रुघ्न सदित रथ में सवार हो वहाँ से वे
चल्न दिये ॥ २८ ॥
रथान्मण्डल्चक्रांश्व येजयित्वा परःशतस्‌ |
उष्ट्रगोश्वखरेभुत्या भरत यान्तमन्वयुः ॥ २९॥
तब अनेक नोकर अनेक रथों मेंघोड़े, अँठ, पेल भोर खब्चर
जात, भरत के रथ के चारो ओर से घेर कर, उनके साथ रवाना
हुए ॥ २६ ॥
बलेन मुप्तो भरते महात्मा'
सहायकस्या त्मसमेरमात्ये/ ।
आदाय भत्रुप्तमपेतशत्रु-
गृहाथ्ययों सिद्इवध े्रलेकात्‌ ॥ ३० ॥
५!

इति सप्ततितमः सर्गः ॥


महावैय॑चान भरत ताना के थ्रात्मसदश विश्वासी मंत्रियों भर
सैनिकों से सुरक्षित दो एवं शत्रुघ्म को साथ ले राजभवन से उसी
१ भद्दात्मा-समहायैयें भरतः | (गो० ) २ भारयंक्य--मातामदइस्य ।
( गो” ) ३ आत्मसमै;--स्प्रभावसदरी: । (यो० ) ४ भ्रपेतशत्रु--
लिष्कण्टका.
सन्‌। ( गो )
पकसप्ततितमः सर्गः ७१६

प्रकार निर्मय हो चल्ने, ज्ञिस प्रकार इच्धल्नोक से सिद्ध चलते


हैं॥३०॥
अ्येध्याकाणड का सत्तरवाँ सर्ग समाप्त हुआ |
; [ नाड--भरत जी राजगृद्द से अयोध्या जिस मार्ग से गये, वह राज
मांग था| दूत जिस मार्ग से राजगृद् गये थे, वह भाग समीप का था,किन्तु
उसमें अनेक नदियाँ और पहाड़ पढ़ते थे|मरत जी के साथ रथ हाथी घोड
़े
तथा अनेक मनुष्य थे अतः वह्द पढाड़ी मार्ग उनके छिये 'उपयुक्त न था अत

वे भाम्न रात्ते से अयोध्या गये ।]
नाई
एकसप्ततितमः सगेः
जल
से भाइममुखे राजग्रहादमिनिर्याय वीर्यवानक ।
तत; सुदामां चुतिमान्सन्तीयावेक्ष्य तां नदीम्‌ ॥१॥
पराक्रमी एवं तेजस्वी भरत राजगृह से रवाना हो फर, पूर्वकी
घोर चले | कुछ दूर पर उनकी खुदामा नाम की नदी देख पड़ी |
वे उस नदी के पार हुए ॥ १॥
हादिनीं द्रपारां च प्रत्यक्स्रोतस्तरज्विणीम'-।
शतद्रमतरच्छीमानदीमिक्ष्वाकुनन्दनः ॥ २॥
अनन्तर बड़े फाँट वाली हादनी नदी मित्रों, तिस पीछे पश्चिम
वाहिनी शतद्र (सतलज्ञ ) मिलों । इन दोनों नदियों के भी
इद्वाकुनन्दन भरत पार हुए ॥ २ ॥
१ अल्क्त्ोतत्तरह्षिणीसू--परिचममवादा वदीम्र्‌ | (रा०) # पाठान्तरे--
+ शाघुवः /।
४२० अवेाध्याकायडे

एलाथाने नदीं तीलां प्राप्प चापरपपंटान! ।


है ७ 8 (५

शिलामा'कुर्वती तीला आउनेयं शल्यकतनम्‌ ॥ रे ॥


फिर वे पल् लाघ ान गाँ व के पा प बदन े वाल ों नद ी के पार ऋर
पर्षपठ ना मक आम में पहु ँचे ।फि र उस नद ो के , जिल में जे। वस् तु
डाल दा वह पत्थर है. ज्ञाय, पार कर और थाप्नेय दिशा की ओर
चल कर, वे शब्यकतन नामक नगर में पहुँचे ॥ ३ ॥
सत्यसन्धः झुचिः श्रीमास्पेक्षगाणः शिलावहाम्‌ |
अल्यात्स मदाशलान्वनं चेत्ररथं प्रति ॥ ४ ॥
उसने आगे सत्यलन्ध एवं घर्मात्ा मस्त ज्ञो ने शि्ाबदा
नदी देखी । फिर बड़े वड़े पहाड़ों के वचाते हुए ये चैत्ररथ नामक
वन की ओर चलने ॥ 5 ॥
सरस्ती च गड्ढां च युग्मेन प्रतिपद्य च ।-
उत्तर वीर मत्स्यानां भारुण्ई प्राविशद्वनम ॥ ५॥
झनन्तंर सरस्वती ओर गड्मा के सद्ुम पर दोते द्ुए, बीर-
मत्यय नामक देशों के उत्तर सागों कला देखते हुए वे भाठंगह बन में
पहुँचे ॥ ५ ॥
वेगिनीं च कुलिज्ाख्यां हादिनीं पर्वताइताम !
यपुनां प्राप्य सन्‍्तीणों वलमाश्वासयत्तदा ॥ ६॥
अनन्तर वेगवतो, हर्ष देने वाली ओर पव॑तों से घिरी हुई
कुलिज्ञ के तथा यमुना के पार कर, उन्होंने सेना को विशधाम
दिया ॥ $ ॥
१ पू्पंणाजपरपपेंटा इचेति आम्रद्यसत्ति । (यो० ) २ शिछासा-
कुवेतों--शिलामासमन्ताव्कुवतों | ( यो० )
पएकसप्ततितमः सर्गः 8२१

..शीतीछृत्य तु गात्राणि छान्तानाइवास्य वाजिन! |


तत्र स्‍्नावा च पीला च प्रायादादाय चोदकम ॥७॥
थके हुए घोड़ों के शरोरों के ठंडा किया श्र्थात्‌ उनके शरीर
को थकावट दूर की |लोगों ने भो स्वान किये और ज्लपान किया
भोर रास्ते मेंपीने के लिये जुल साथ ले, वे आगे बढ़े ॥ ७॥
, [ जछ प्ाथ इप्तलिये लिया था म्रि, आगे वन पढ़ता था, वहाँ जल मिलने
की सुविधा नहीं थी । ]
राणपुत्रो महारण्यमनभीह्ष्णापसेवितस्‌ ।
भद्रो भद्रेण' यानेन मारुतः खमिवात्ययात्‌ ॥ ८ ॥
इसके अनन्तर भरत ज्ञी उस निर्जन मद्वारण्य में पहुँचे श्रोर
भेद्र ज्ञाति के हाथी (इस जाति का हाथी वनों में खूब चलता है)
पर सवार हो, बड़ी तेज्ञी केसाथ उस वन के पार हुए ह ८॥

भागीरणीं दुष्प्रतरामंशुधाने महानदीम्‌ |


उयायाद्राघवस्तू्ण प्राख्यटे विश्वुते पुरे ॥ ९॥
आअशुधान नगर के नीचे गड्जा जी का पार करनी असम्भव था।
भरत: वे वड़ी शीघ्रता से प्रा्वड नामक प्रसिद्ध घाठ पर पहुँचे ॥8॥

स्‌ गह्ढां प्राग्वटे ती त् वा सम ाय ात ्व ुट िक ेष ्ट िक ाम |


सवलरस्ता स तीर् त् वा थ सम ाय ाद ्ध मव र् धन म ॥ १ ० ॥
१ ,भद्देण--महृगजरूपेणयानेन | ( गो” ) रे मारतःखमिवाल्यातु--
भतिपेगेनातिक्रान्तवान्‌ । ( गे।” )
चा० रा०--४६
७५२ , ध्रयाध्याकाणडे

वे प्रावठ घाठ से गड्ग के पार कर, कुव्किप्ठिका नदी पर


पहुँचे ओर सेना सहित उसे भी पार कर, धर्मवढ्ठन नामक आम
में पहुँचे ॥ १० ॥

तेरणं दक्षिणार्धेन जम्बूपस्थम्ुपागमत्‌ ।


वरूथ च ययो रम्यं ग्राम दशरथात्मणः ॥ ११ ॥
फिर तोरण नामक ग्राम के दृक्तिण की ओर जम्वूप्रस्थ ग्राम
में पहुँचे। फिर दशरथनन्दृन भरत जी रमणीक वरूप नामक आराम
में पहुंचे ॥ ११॥
तत्र रम्ये बने वास कृत्वाओ्सा प्राउमुखे ययों ।
उद्यानमुज्जिहानाया! प्रियका' यत्र पादपा! ॥ १२ ॥
फिर वरूथ ग्राम के वन में ठहर वहाँ से पूर्व क्रीओर रवाना
हुए भर उज्ञिहाना नाम को पुरी के उपचन में, जहाँ पर वन्धूक
अथवा कद्म्व के पेड़ लगे थे, पहुंचे.॥ १२ ॥
साहांस्तु प्रियकान्पाप्य शीप्रानास्थाय वाजिनः ।,
अनुज्ञाप्याथ भरते वाहिनी त्वरितो ययों ॥ १३ ॥
उस साल ओर वन्धूक के उपवन में पहुँच, रथ में शीघ्रगामी
घोड़े जात भोर सेना को धीरे धीरे पीछे थाने की शआज्ञा दे, भरत
जी वहाँ से शीघ्रतापूर्षक रवाना हुए ॥ १३॥
[ने5--उज्जिहानापुरी हे आगे केसलराज्य की सौम्ा आरम्भ द्वाती थी
--अतः अपने राज्य में क्विस्ी प्रकार का खटका न समझ, सेना का साथ छोड़,
भरत जी, रथ में बैठ, भीम्रतापूर्वेक्त अयेप्या की भोर प्रस्थानित हुए । ]

१ प्रियक्ा --बन्धूका: कदस्वावासन्ति (गो० ) |


एकसप्तत्तितमः सर्गः - ७२३

वास कृत्वा सबंतीर्ये दीत्वां चात्तानिकां' नदीम्‌ ।


अन्या नदीश्च विविधा! 'सुरज्मे! | १४॥
रे,
पावतीये रज्ञ्मे

( रास्ते मेंभरत ज्ञी ने) स्बतीर्थ नामक आम मेंठहर घोर


उत्तानिका नदी के पार किया । फिर अन्य अनेक नदियों के उन
पद्दाड़ी घोड़ों कीसहायता से पार किया ॥ १४ ॥
हस्तिपृष्ठकमासाथ कुटिकामत्यवतत ।
ततार च नरव्याप्रो छाहित्ये सिकतावतीम# ॥१५॥
तदनन्तर हस्तिपष्ठक नगर के समीप कुटिका नदी पार की |
पुरुषभेष्ठ भरत ने लाहित्य नगर के पास सिकतावती नदी का पार
किया ॥ १५॥
एकसाले स्थाणुमती विनते गोमती नदीम्‌।
कलिड्भनगरे चापि म्राप्य सालवनं तदा ॥ १६ ॥
भरत जी एकसाल नगर में स्थाणुमती नदो का श्रोर विनत
नामक नगर मेंगोमती नदी का पार कर, कल्षिड़ नगर के सालवन
में पहुँचे ॥ १६ ॥
| भरत; क्षिप्रमागच्छत्सुपरिभ्रास्तवाइन! ।
वन च समतीत्याशु श््यामरुणेदये ॥ १७ ॥
भरत जो बड़ो तेज्ञी से यात्रा कर रहे थे। झतः उनके रथ के
घोड़े थक गये थे | सा वेरात भर सालवन में विश्रामार्थ ठहर
गये। जब रात बीती और सबेरा हुआ | १७ ॥
..._१ उत्तानिकां--उत्ततजछत्वेबव॒दास्याँ। (गो> ) २ पायंतीयै।--पवेत--
द्ेशोस्पने। ! + पाठान्तरे---* ले कपीवततीम 7 |

छठे
3२४ अयेव्याकायडे

अयेध्यां मनुना राज्ञा निर्मितां सन्ददश ह।
तां पुरी पुरुषव्याप्र: सप्तरात्रापितः पथि ॥ १८ ॥
तब घहों से रवाना दे भरत मे महाराज म्रत्नु की बसाई
अयेष्यापुरी देखी |राजगृह से अयोध्या तक्ष आने में,रास्ते मेंसरत
के सात रातें (दिन ) लगीं ॥ २५ ॥
अयोध्यामग्रता दृष्टा सारथि वाक्यमत्रवीद |
एपा नातिप्रतीता मे एृण्योधाना यशस्थिनी ॥ १९ ॥
दूर ही से अयोध्या को देख, भरत जी सारदी से “ऋहने लगे
छवि, यह पुरी ते! मु्ते जगतपसिद्ध और उच्छ एवं हरे भरे उच्चातों
से पूर्ण्रयोष्या जेसी दो नहीं ज्ञान पड़ती ॥ २६ ॥
अयेष्या दृश्यते द्रात्सारथे पाण्डमृत्तिका ।
ज्यभिगुणसम्पन्नत्राह्मणबेंदपारों: ॥ २० ॥
यज्यभिगणसम्पनेत्राह्मण
च्छे नें
आचक च्हे

'भूयिष्ठमृद्धेराकीर्णा राजर्पिपरिपालिता ।
अयेध्यायां पुरा शब्दः श्रुवते तुझुला महाव्‌ ॥२श॥।
हे सारथे | दूर से देखने पर ते अवाष्या पीली मिह्ठो का एक ढेर
सा जान पड़ती है। देखो, अत्यन्त उदद्धशालिनी श्र रावरवियों
द्वारा पालित थ्योध्यापुरी में तो पहले वन्चरर्चा, गुण एवंवेद- '
पदों बाह्मयों का बड़ा ठुछल् शब्द छुनाई पड़ता था ॥ २० ॥ २१ !!
समस्तानरनारीणां तमद् न शुणेम्पहम्‌ |
उद्यानानि हिं साथाहे क्रीडिलापरतैनरे) || २२ |]
१ नूधिछ॑--मृक्न । ( यो० )
प्फसपतितमः सर्गः ७१४
और चारो ओर ख्रो पुरुषों का जे वड़ा केलाइल हुआा
करता था, वह तो मुक्के ्राज छुनाई ही नहीं पड़ता । यहाँ के
उपवर्नों में सायड्ञाल के समय खेलों से निवृत्त हो, वहुच से
पुरुष ॥ २२ ॥
प्रमन्ताद्िषरधावद्धि! प्रकाशन्ते ममान्यदा |
तान्यबानुरुदन्तीव परित्यक्तानि कामिमि। ॥ २३॥
इधर उधर दोड़ते हुए पहक्ते देख पड़ते थे, किन्तु भाज तो
वे उपवन मुझे कामो लोगों द्वारा ,प्ररित्यक्त देने के कारण सेते
हुए से ज्ञान पड़ रहे हैं॥ २३ ॥
अरण्यभूतेव पुरी सारथे प्रतिभाति मे |
न ब्न्र यानेदृश्यन्ते नगमैने च वाजिमि! ॥ २४ ॥
नियान्‍्तों वाधभियान्ता वा नरमुझूुया यथापुरम |
उद्यानानि पुरा भान्ति मत्तपमुद्तानि च ॥ २५ ॥
है सारथे | यह अयोष्या नहीं, किन्तु यद्द तो मुझे उजड़ों हुईं
अयेष्या का वन जैसा जान पड़ता है। क्योंकि न तो यहाँ ओई
सवारो और न कोई हाथो अधवा घोड़ों पर चढ़े श्रतिष्ठित पुरवासी
पाते ज्ञात देख पड़ते हैं |धाटिद्राओं में पहले खूब चहल पदल
' बनी रहती थी ॥ २४ ॥ २४५.॥
जनानां रतिसंयेगेष्वस्यन्तगुणवन्ति च्‌।,
तान्येतान्य्य पश्यामि निरानन्दानि सर्वश। ॥ २६ ॥
१ कत्यदा--पूर्व' ।( गो० ) २ रतिस्वंयेगगेपु --रव्यर्थघ्ंयागेषु ।(गो०)

कश अयोध्याकाये

और वाठिकाएँ विहार करने के लिये पकन्न हुए जनों से भरो


रहती थीं और जे। अनेक प्रकार के फूल हुए वृत्तों तथा लत
गृद्ादि सेशाभायमान द्वोती थीं--उन वारटिकाशों में मुझे श्राज
उदासी सी छाई हुईदेख पड़ती है॥ २६ ॥
सस्तपणरनुपयं विक्रोशद्धिरिव हुये ।
नाथापि श्रूयतेशब्दे। मत्तानां शृगपक्षिणाम्‌ ॥ २७॥
संरक्तां मधुरां वाणी कं व्याहरतां वहु ।
चन्दनागस्संपूक्ती धूपसम्मूर्ठिताप्तुलः ॥ २८ ॥
प्रवाति पवन; *श्रीमान्किन्नु नाद्य यथापुरम्‌ ।
भेरीशदड़वीणानां केणसड्ट्टितः पुन! ॥ २९ ॥
सड़कों के श्रगल वगल लगे हुए चृत्त पत्तों से रहित हो मानों
चिह्ठा चिल्ला कर रोते हुए से ज्ञान पड़ते हैं।मद्माते सृगों और
पत्तियों के अनुराग में मरकर, कल्रत करने का शब्द्‌ भी तो घाज |
नहीं छुनाई पड़ती । दे छुत ! इस पुरी मेंसदा चन्दन और श्यगर की
धूप से घूपित धत्यन्त खुगन्धित पवन चला करता था, किन्तु घ्राज
दैला पवन भी तो नहीं चल रहा । पहले भेरी सदड़ और वीणा
थादि गाजों के वजाये जाने का शब्द वार वार हुआ करता था, '
] २१७॥ २८ ॥ २६ ॥
किमध शब्दे! विरतः सदाध्दीनगतिः पुरा ।
अनिष्ठानि च पापानि* पश्यामि विविधानि च ॥३०॥
दि रन नम कल जजअसम मदकमलकमर नकिक लक फल
३ घूपसंहूर्छित:--धृपण्याप्त: । (गो०) रे श्रीमान--रमणीय: । (गो०)
४ परापानि--ऋराणि। ( गो )
एकसप्रतितमः सगेः ७५७

किन्तु थ्राज क्या कारण है,ओ वह पहले जैसा प्रध॒न्न करने


वाला शब्द वंद है ?मुझे तरह तरह के श्रनिष्ठ और क्र शकुन
दिखलाई पड़तेहैं॥ ३० ॥
'निमित्तान्यमनेज्ञानि' तेन सीदति मेमन। ।
सर्वथा कुशल मृत दुलूम॑ मम वन्धुषु ॥ ३१ ॥
देखने ही से दुःख देने वाले इन प्रपशकुनों से मेरा मन दुःखी
है। रहा है।इससे मुझे जान पड़ता हैकि, मेरे वच्धु दान्‍्धवों का
कुशल पूर्वक द्वाना सर्वथा दुललभ दे ॥ ३१ ॥
तथा हसति संमेहें हृदय सीदतीव मे ।
विषण्णः श्रान्तहृदय ख़स्तः संलुलितेन्द्रि/*॥ २३२ ॥
हेसूत | घवड़ाने का कारण न दोने पर भी, मेरा हृदय घड़क
रहा है,मन उदास है और भय के कारण सब वाह इद्धियाँ
छुब्घ है। रहीहैं॥ ३२ ॥'
भरतः प्रविवेश्ञाशु पुरीमिश्वाकुपालितास |
द्वारेण वैजयन्तेन प्राविशच्छान्तवाहनः ॥ रे३ ॥
भरत जो इच्थाकुपालित श्रयेध्यापुरी में, पुरी के वैजञयन्त
नामक पश्चिमद्वार से घुसे |उस समय उनके रथ के घोड़े बहुत
धक गये थे ॥ ३३ ॥ ््््॒ख्ेोेी्ज-++र
____्_््_र्् ्
१ निम्चितानि--अशुभ सू चक ान ि | (ग ो० ) २ अम ने शा नि -- दश नम ात ्र ेण
पम ेइ का रण े | ( गो » ) ४ वि षण ्ण +- -
दुःख कराणि | ( गो० ) ३ संमेहे--
कल ्ु पि तस नस ्क : । ( भो ० ) ६ लु कि -
बुखिताः । ( गो० ) ५ क्रान्तहद्य!--
तैलिटिय+--छुमितवाह्यन्द्रिय: । ( गो* ) *
छश्ष थयेष्याकायदे

' हव ा/ स् वै रु त् था य वि जय पृ ष् ठस ्त े! सह ित ा य य ो ।
से ल्वनेकाग्रहदया' द्वाःस्थं प्रत्यच्य' त॑ जनम ॥रे७)
भरत जी को देख द्वारपात्न उठ खड़े हुए और ( रीत्याठुसार )
विज्ञय प्रश्ष कर उनके साथ दा लिये | उस सम्रय भरत जी का
मन च्यप्न है| रहा था | अतः उन्दोंने उन द्वारपात्रों के छत्कारपूर्वक
ज्ींदा दिया ॥ ३४ ॥
सूतमखपतेः क्ान्तमत्रवीत्तत्र राधवः |
किमह ल॒रयानीत) कारणेन विनाध्नथ ॥ ३५ ॥
केकयराज्न का सारथी जे वहुत. थक गया था उससे भरत जी
नेकहा--है ग्रनध !किस लिये घिना कारण वतलाये शीघ्रता से
मेंयहाँ तुलाया गया हूँ ॥ ३४ ॥
अशुभागह्नि हृदयं शीढं* च पततीव मे |
श्रुता ना यादशाः पूर्व उृपतीनां विनाशने ॥ ३६ ॥
मेरे पन्र में अनेक प्रकार की अशुभ णहुपएँ उत्पन्न द्वो रही हैं
और मन पर दीनता छाती ज्ञाठी है। राजाओं के मरने पर जे
भ्रम्मांडुलिक लक्षण देख पड़ते हैंग्रौर जिन्हें मेने पहले छुन रखे
हैं॥ ३६ ॥
आकारांस्तानहं सर्वानिद पश्यामि सारथे !
संमाजनविहीनानि परुषाप्युपलक्षये ||३७ ॥
के 0नविहीनानि
हक

१ बअनेद्ाग्रद्वदय:--च्याकुछमनाः । ( गो० ) २ भ्रत्च्य--सत्वारप्‌र्वेर्का


निवत्ये। ( थ्ि० ) ३ भवधेति---चिन्तासमर्थताक्तिः । (यो० ) ४ शील॑--
निलंदेन्धरदितलभावः | ( शि० ) ५ पत्ति-अप्तगच्छतीव । ( सिर )
एकसप्ततितमः सर्गः (५६

देसारथे | थाज्ञ वे हीसब कुलनत्ण मुझे यहां देख पड़ रहे


हैं। देखो, गृहस्थरों के घर बिना भाड़े बुह्रे होने के कारण गंदेजान
पड़ते हैं ॥३७ ॥
असंयतकवादनि श्रीविहनानि सर्वदः ।
वेलिकमपिद्दीनानि धूपसम्मेदनेन च ॥ ३८ ॥
बसें के किचाड़ खुले पड़ेहैं, सव घरों की शोभा नष्ट सी हो
गयी है। वे सव बलिफर्म-विहीन, धूपान्ध रहित हैं, ॥ ३८ ॥
अनाशितकुदम्वानि प्रभाहीनजनानि च |
' अलक्ष्मीकानि! पह्यामि कुहुम्बिभवनान्यहम ॥३९॥
तथा भूले और हतश्री जनों से भरे हैं। गृहस्थों केमकान धुफे
विचित्र ध्वज्ञाओं और बंदूनवारों से रहित देख पड़ रहे हैं ॥३९ ॥
« अपेतमास्यशेभान्यप्यसंयृह्ाजिराणि च | ;
देवागाराणि शून्यानि' न चाभान्ति यथापुरम ॥४०॥
किसी भो युहस्थ के द्वार पर पुष्पसालाएँ लटकती नहीं देश
पड़तीं--सद घरों के भ्रांगन बिना झाड़े बुद्वारे पड़ेहैं। देधालयों में
इगारी शादि कोई भो नहीं है,उनको जैसो पहले शोभा थी, वैसी
भव नहीं है॥४० ॥ 0
. . दैवताचां: प्रविद्धाबः यज्ञगेष्ठथस्तथाविधाः |
भाल्यापणेषु राजन्ते नाथ पण्यानि वा तथा ॥४१॥ .
) अलक्ष्मीकानि--विविव्रष्यजतेरणायमावत्‌ । ( र० ) + शूल्यानि--
-अशापरिचारिकादिरद्ितानि । ( गो० ) ३ प्रविद्धाा-छक्ाः । (गो०) ४ यज्ञ"
गोहय;---यज्ञतक्षा । (गो०) *
फेक धरदेच्याहायदे

इब्यल्ते वणिनाउप्यथ ने यवापूर्मत्र ते ।


वध्यानतंविभहृदया नप्आ्यापारवन्बिताः! ॥ ४२ ||
शज रू
पु डर न
छिन्ता के मारे इसका मन पवड़ाया हुआ है। इलझा ब्यापार दढ

देवायतनचेत्येदु दीताः प्रशिगणास्तया ।


सर ि [०

मह़िन॑ दाश्रुपृर्णा्ष दीन ध्यावपर ऋुच्मस ।

ह-8.. कक) कष्क

१ दबल्द्रद्ा:---8इचठाछन्द्र
तु
: (स्वत
कस एकसप्ततितमः सगे: ६३१

तां शून्य 'घूड़ाटकरवेश्मरथ्यां


रजारुणः द्वारकपाट्यन््रास ।
दृष्टा पुरीमिस्द्रपुरप्काशां
दु/खेन सै बभूव ॥ ४५ ॥
पूर्णतरो

इस इन्द्रपुरी केसमान, श्रयेध्यापुरी के चौराहे के घरों भर


गलियों के जनशुन्य, और मकानों के किवाड़ों और किवाड़ों के
कील काँटठों के घूजधूसरित ( भ्रथांत्‌ गया पड़ी हुई) देख,
भरत जी ध्त्यन्त दुःखो हुए ॥ ४५ ॥
बहूनि पश्यन्मनसेप्रियाणि
यान्यन्यदा* नाज्न% पुरे बभूवु) ।
अवाक्शिरा दीनमना नहृष्ठ
पितुमहात्मा प्रविवेश वेश्म ॥ ४६९ ॥
इति एकसप्ततितमः सर्गः ॥
भरत जी ने ऐसी ऐसी अनेक अप्रिय घटनाश्रों का, जे! इसके
पूब उन्होंने कभी नहीं देखी थों, देश कर--नोचा सिर किये हुए,
उदास मन देने के कारण हे रहित दो, अपने महात्मा पिता के
घर में प्रवेश किया ॥ ४६ ॥
अयाष्याकाण्ड का इकहत्तरवाँ सम समाप्त हुआ |
“8

१ शूल्या--जनरहिता; । (यो० ) २ आद्भाटक वेइमरध्या+--चततुष्पय


एद्वोधये|यल्याँ । ( गो० ) ६ रमारुणहारकपाट्यंत्राम--रजे।मिः सक्िनानि-
। हारस्थकपाटानां दाख्बन्धादीनियस्यां । (गो०) ४ अन्यदा--पुर्वेकाछे । (गो०)
के पाठान्तरे--' नाल्य * |
: द्विसततितमः सगे:
+-+३१४०--

अपश्यंस्तु ततस्तत्र पितरं पिंतुरालये ।


जगाम भरतो द्रष्टुमातरं म्रातुरालये ॥ १ ॥
भरत जी पिता के घर में पिता के न देख, माता के दर्शन की
लालसा से अपनी माता के घर में गये | १॥
अनुप्राप्तं तु त॑ दृष्टा केकेयी
/. 0 व. प्रोषित॑
प्रोषितं सुतम।
उत्पात. तदा हुए त्यक्ल्ा सावर्णमासनम | २॥
बहुत दिनों वाद विदेश से लौट ऋर घर आये हुए, अपने प्रिय
पुत्र भरत के देख, केक्रेयो द॒र्षमें मनन दो, सैने क्रो चौकी सेउठ
खड़ी हुई ॥ २॥
स प्रविश्येव धर्मात्मा खगहं श्रीविवर्नितस ।
भरतः प्रतिजग्राह जनन्याथरणों शुभो ॥ ३ ॥
धर्मात्ना भरत जी ने अपने माता के घर में ज्ञा कर देखा
कि, घर की शेत्षा नए दे। गया है। श्रनन्तर भरत ज्ञों ने
अपनी
माता के शुभ दोनों चरण छुए ॥ ३ ॥
रा
सा मूध्नि समुपाधाय परिषज्य यशखिनम ।
अड्डे भरतमारोष्य प्रष्द समुपचक्रमे ॥ ४ ॥
उस सम्रय कैड्ेयो भरत जो का मस्तक छूँध, उनके हृदय से
लगा और गेदी मेंवैठा कर, उनसे पूछने लगी ॥ ४ ॥
द्विसप्ततितम्ः सर्गः ७३३

पकवेश्मन; ।
अथ ते कतिचिद्रात्यश्च्युतस्या
अपि' नाध्षयश्रमः शीघ्र रथेनापततरतव ॥| ५ ॥
हेबरस ! थाज्ञ तुमका नाना के धर से चलने क्रितने दिन दी
गये ? तुप्त रथ पर सवार जद्दी जद्दी आये द्े। सा रास्ते की
घकावट ता तुम्द ऋष्ट नहीं देरदी ॥ ५ ॥
आयंकस्ते सुकुशली युधानिन्मातुलस्तव ।
प्रवासाच सुर्ख पुत्र सब मे वक्‍्तुमईसि ॥ ६॥
दे वत्स | तुस्दारे नाना और मामा युधान्नित तो वहुत श्रच्दी
तरद सेहैं? बेटा ! जब से तुम विदेश गये, तव से रहे'ते अ्रच्द्ी
तरह न ? यद सव मुझे कद्ी ॥ ६ ॥

एवं पृष्टस्तु कैक्रेय्या म्रियं पार्थिवनन्दनः |


आचए्ट भरतः सब मात्रे राजीवलाचन; ॥ ७ |
4 कक ५

कैकेयों के इस प्रकार पूछूनेपर प्रिय राजकुमार कमरजनयन


भरत ने प्रपनी माता से वहां का सारा वृचान्त कद्दा ॥ ७॥
अद्य मे सप्तमी रात्रिश्च्युतस्थायकवेश्मनः |
अम ्य ाय ा; कु शल ी ता ते यु धा जि न् मा तु ल् थ मे ॥ ८ ॥
है अम्मा ! नाना का घर छोड ़े हु ए मु झे रा ज सा त राव ें बी त
चु की | मेर े ना ना और मा मा कुश क्ष से है ं ॥ ८ ॥

३ ्युतस्थ--पिर्गतत्थ । ( गो ० ) रे जा यक ः- -म ात ाम दर ः । ( गो ).
३ अपि:--प्रदने | (योर ) 5
७३४ शयेाष्याकायदे

यम्मे धन च रत्न च ददो राजा परन्तपः |


रिश्रान्तं पथ्यमवत्तता$हं पूवमागतः ॥ ९ ॥
० | अर ए

शत्रओं का दमन ऋरने वाले राजा क्रेकय ने मुझे विदाई में


जे रत्न धन दिये हैं उनसबके में रास्ते ही में होड़ कर भागे
चला झाया हैँ । क्योंकि सवारियों के ज्ञानवर वहुत थक गये
* थे॥६॥
राजवाक्यहरेदतेस्वयंमाणे्हमागतः |
यदह परष्टमिच्छामि तदम्बा वक्‍्तुमह॑ति ॥ १०॥
महाराज का संदेसा ले कर जे। दूत गये थे, उनके जल्दी करने
पर ही मेंइतनी जल्दी आया हँ। दे अम्मा ) अब में जे कुछ पूछूँ
उसका तू उत्तर दे ॥ १० ॥
शून्योध्यं शयनीयस्ते प्यक्षो देमभूषितः ।
न चायमिक्ष्वाकुजनः' प्रहुष्ठः प्रतिभाति मे ॥ ११॥
। तुस्हारा यद खुबण का पत्नंग महाराज विना छुना क्यों है?
महाराज के कोई भी जन मुक्कक्ला प्रसन्न नहीं जान पड़ते ॥ ११ ॥
राजा भवति भूयिष्ठ'मिहाम्वाया निवेशने |
तमहं नाथ पश्याम्ि द्ृष्टमिच्छन्निहागतः ॥ १२ |॥
महाराज अधिक तर तेरे ही घर में रहा करते ये-से। वे आज
नहीं देख पड़ते |में उन्दींके दर्शन करने के यहाँ आया हूँ॥ १९॥ '
पितुग्रहीष्ये चरणा त॑ ममाख्याहि पृच्छतः ह
“ “आहेाखिदम्व ज्येष्ठाय/ केसल्याया निवेशने ॥. १३ || .
#+ययघयघयययययययघययययया+ःफससजफसउफक्‍ शक ये
कक ननन।मफमफ।0ओ४०»--+०े० लक७७७००५५७+कनन५-....+०००५५७७७७०--०.......................

३ इईंवाऊुजबः--दशर्यजनः । (गो०) ३ भुयि८छ--आ्राजुयेंग । (मो०)


द्विसप्ततितमः सर्गः ७३५४
इस समय पिता जो कहाँ हैं? मुर्के यह वतलाग्रे,, क्योंकि में
उनके चरणयुगत्न में प्रणाम फर्ूूँगा। वे क्‍या मेरी माताओं में
सब से वड़ी माता कैशल्या जी के घर मेंहै? ॥ १३ ॥
तें परत्युवाच कैकेयी 'प्रियवद्धोरमप्रियस्‌ |
अजानन्तं) प्रमानन्ती राज्यलेमेन मेहिता ॥ १४ ॥
इन प्रश्नों के उत्तर में, सारा वृत्तान्त जानने वाली फ्रैकेयी राज्य
के ले।भ मेंफेस, महाराज का वृत्तान्त न जानने वाले भरत से, प्रिय
संवाद की तरह, घोर प्रग्रिय वचन वाली ॥ १४ ॥
या गतिः सर्वभूतानां ता गति ते पिता गतः ।
राजा महात्मा तेमखी यायजूकः सतांगति ॥१५॥
हैबेटा |सव प्राणियों की जे गति होती है, उसी गति के
तुर्दारे महात्मा, तेजल्वी और सज्ञनों के आश्रयस्थल पिता महा-
राज़ दशरथ प्राप्त हुएहैं॥ १४ ॥
तच्छुत्वा भरते वाक्य 'घर्माभिजनवाज्शुचिः |
पपात सहस ा भूमो ं पिदश ेकवल ार्द ितः ॥ १६॥
कैक्े यी को यद वात खुनत े दी, धर्मा व्माभ ों के चंश में उत्पन ्न--
निष्कपद भरत, पिठृशोक से विकल हो, सहसा पूथिवी पर गिर
पड़े ॥ १६ ॥
हा हतो&स्मीति कृपण ां दीना ं वाच मुद ीरय न ।
निषपात मह्वव ाहुर् वाहू विक्ष िप्य वीय बान ॥ १७॥ ,
ऋ्कन
चककरकऋ्रमऋ्ामााए

|
यजजाबनाए

ृत ्त ान ्त मज ान न् तं
मतब अल

तं -- रा जप
जल.

अज ान न् ‍्
3 3कल अल

३ ग्रियवत्‌--प्रियमि व | ( गो " ) २
( गो० ) $ घर्माम िज नव ान ू- -ध म् मय ुक ्त वं शव ान ्‌ । ( रा ० )
७३६ अयेष्याकायडे
और गिरते समय, मद्दावाहु एवं महावली भरत ज्ञी दोत़ोंहाथ
पृथिवी पर पठक “ हाय मेंमारा गया ” कह कर, करुणापूर्ण वचन
बाते ॥ १७॥
ततः शाकेन संविम्न।# पितुमरणदु!खितः ।
विलकाप महातेजा प्रान्ता'कुलितचेतनः ॥ १८ ॥
तदननतर महातेज्ञस्वी मरत, पिता के मरने का संवाद झुनने
के कारण, शोक थरर दुःख से विकल हो, घवड़ा गये और विज्ञाप
करने लगे ॥ १८॥
एतत्सुरुचिरं भाति पितुर्मे शयन पुरा |
शशिनेवामर्छ रातों गगन तोयदात्यये ॥ १९॥
बादलों केविदा होने पर प्र्थात्‌ शरकाल में चन्धमा से
आकाश की जैसो शोभा होती है,पहले चैसी ही शामा मेरे पिता
की इस सेज्ञ की थी ॥ १६ ॥
यदिदं न विभालद्य विहीनं तेन धीमता ।
व्येम्रेव शशिना होन॑ विश्ुष्क इव सागरः ॥२०॥
आज़ उन बुद्धिमान पिता जी के विना चन्रहीन आकाश और
जलहीब सागर को तरह यह सेज बुरी मालूम पड़तो है ॥ २० ॥
वाध्पपुत्स॒ज्य कण्ठेन खाते; परमपीहितः |
प्च्छाद्य बदन श्रीमदस्सेण जयतांवर!* ॥ २१ ॥
हैमरणदु/खित:--मरणश्रवणैचसज्षातदु:खः | (गो०) २ आमग्ता--भव-
वस्थिता | (यो०) ३ जयतांवर; भरता । (शि०) # पाठाम्तरे--« संवीतः !।
दिखप्ततितमः सर्गः ७१७

इस प्रकार भरत अपना म्तुव वच्र से ढक प्रांत बहाते, प्रत्यन्त


व्ययित दी गदुगदु करठ से विज्ञाप करने लगे ॥ २१॥
तमाते देवसद्भाशं समीक्ष्य पतितं श्रुवि |
निकृत्तमिव सालर॒य सकन्ध॑ परशुना वने ॥। २१॥
जिस प्रकार वन मेंकुद्दाड़ो सेकठा दुघ्आा शालवूत्त का ग॒द्दा
गिर पड़ता है,उसी प्रकार देवता के समान भरत जो पिता को झृत्यु
से दुःख्षित हो भूमि पर गिर पड़े ॥ २२ ॥
माता मातड्रसड्भाशं चन्द्राकसहशं भुप) ।
उत्थापयित्वा शेकात वचन' चेदमत्रवीत ॥ २३ ॥
यद देख, कैकेयी चद्ध, धुर्य श्रार हाथी के समान तेजस्वी
शाकाकुल्न अ्रपने पुत्र के, पृथिवी से उठा कर उससे गे।ली ॥ २३ ॥
उत्तिष्ठोत्तिष्ठ कि शेषे राजपुत्न महायशञ) ।
लद्दिपा न हिशेचन्ति सन्‍्तः सद्तिप्तम्मता।' ॥१२४७॥
है मद्ायशस्पी राजकुमार ! उठा | उठो !! तुम ज्ञमीच पर फद्यों
पड़े हू ! तुम जैसे सज्लन ओर सभ्य कलेग कभी शोक नहीं
करते ॥ २४॥
दानयज्ञापिकारा हि शील'अ्रुति'वचे|तुगा ।
बुद्धिस्ते” बुद्धिसम्पन्न प्रभेवाकस्य" मन्दिरे ॥ २५ ॥
' १ पघद्तिसमताः--सक्ष्या इत्यर्थः | (गो०) २ शील॑--सहुत्त | (गो० )
३ भ्रुतिवचेविदवाक्य । ( गो० ) ४ बुद्धि! --अग्यवधाय | ( गो० ) ५ अ्क-
पति तथातेबुद्धिनिश्चक्ामा-
स्पप्रभामन्दिरदव-- सुयत्रभायधाध्वस्थानेनिश्वछाभ
त्ीह्र$ | ( गो० )
/र चा० रा०--७७
छ्शप शयाध्याकायडे

हे वुद ्धि मान ्‌ | ज्ञ िस प्र कार छु य की प्र भा अप ने स्थ ान पर


निश्वल दाती है-उपी प्र कार तुम ्दा रा अध ्य दल ाय , जे दा न, यह ,
सदाचरण ओर वेद वाक ्यो ं का अन ुस रण कर ने वा ला है -न िश ्ब ल
है॥२४॥
स रुदित्वा चिरं काल भूमों विपरिहृत्य च |
जननी प्रस्युवाचेदं शेफेबंहुमिराहतः ॥ २६ ॥
इस प्रकार माता के समझक्काने पर भी भरत वहुत देर तक
भूमि पर लेयते और रोते रहे। तद्नन्तर अत्यन्त शेकाकुल है।
माता से वाले ४ २६ ॥

अभिषेष्ष्यति राम नु राजा यज्वं तु यक्ष्यते ।


इत्यहं कृतसड्ूस्पे हो यात्रामयासिपस! ॥ २७ ॥
है ध्म्मा ! मेंने तोयहसमझा था कि, महाराज शोराम के।
राज्य दंगे शोर खय॑ केई यज्ञानुछान करेंगे । इसोलिये मेंप्रसन्न हो।
वहाँ से चला था ॥ २७ ||

तदिदं हन्यथाभूतं च्यवदीण मने मम ।


पितरं ये। न पश्यामि नित्य प्रियहिते रतम ॥| २८ ॥
किन्तु इस समय उसके निपरोत बात देख, मेरा मन फंड
ज्ञाता है | क्‍योंकि अव में अपने सदादितिषों पिता के नहीं
देख पाता ॥ २८ ॥

१ यात्रामयासिपए--यात्रामकार्ष | ( यो० )
द्विलप्ततितमः सर्मः ७३६

अम्ब केनात्यगाद्राजा व्याधिना मख्यनागते ।


धन्या रामादयः सर्वे ये! पिता संस्कृत! स्वयम्‌ ॥२९॥
दे अम्मा ! महाराज के क्या वीमारो हुईं थी कि, मेरे थाने के
पूर्वही उन्होंने शरीर लोड दिश। धन्य है श्रीराम थादि भाई,
जिन्‍्दोंने पिता की ओर्॑देदिक क्रिया को होगो ॥ २६ ॥ '
न नून मां महाराज! प्राप्त नानाति कीत्तिमान्‌ |
उपजिध्रेद्धि मां मूर्षिन तातः सन्नम्य सत्वरम ॥३०॥
निश्चय ही कोतिशाली महाराज को यह नहों मालूम कि, में
यहाँ भ्रा गया हँ--नहीं तो वे अवश्य अ्रपना मस्तक झुका मेरे
सिर के तुरन्त छोघते ॥ ३० ॥

कस पाणिः सुखस्पशनस्तातस्पाछिष्टकमंण; ।
येन मां रजसा ध्वस्तमभीक्ष्णं परिमाजति ॥ ३१॥
हा | महाराज का वह हाथ, जे झंग से स्पर्श करते ही खुल
दिया करता था और मेरे धघूलधूसरित शसेर की धूल वार वार
ऋाड़ता था, कहाँ गया ? ॥ ११॥

ये मे आ्राता पिता वन्धुयेस्थ दासा5स्मि धीमतः


तस्य माँ शीघ्रमाज्याहि रामस्याक्िष्कमंण/ ॥ ३२॥
ख्व जे। मेरे श्वाता, पिता ग्रौर कन्‍धु भी हैं, और जिन बुद्धिमान,
का मेंदास हूँ, उन श्ोरामचन्द्र का पता घुक्ते शीघ्र बतल्ा कि,
. कहाँ है ! ॥ ३२॥
७४० अयेध्याकायडे

पिता हि भवति ज्येषट्टो धर्ममायर॒प! जानत! |


तह्य पादों शहीष्यामि स हौदानीं गतिमम !| ३३ ॥|
डे 4 |

स्योंकि धर्म और विवेकी जब का जेठा भाई पिता के तुल्य


होता है। अतः मेंउनके पैर पक गाक्ष्योंकि अब तो मुस्के उन्हीं
का सहारा है ॥ ३३॥
धर्मविद्धम॑नित्यथ सत्यसन्धे। दछवतः ।
आये; किम्रत्रवीद्राजा पिता मे सत्यविक्रम! ॥ ३४ ॥
हे माता | घर्मद यार धर्म में निशतत रहने वाले, सत्यप्रतिक्ष,
तथा दृढ़बत महाराज मेरे वियय में ज््या थ्राज्ञा कर गये हैंअथवा
मेरे लिये क्या कह गये हैं ||३७ ॥
पश्निमं' साधु सन्देशमिच्छामि श्रोतुमात्मनः ।
इति पृष्ठा यथातत्त्व॑ कैकेयी वाक्यमत्रवीत्‌ ॥ ३५ ||
से मेंअपने विषय में नहाराज्ञ का भ्रन्तिम काल का संदेखा
छुनना चाहता हैँ भरत जी के ऐसा पूछने पर कैकेयी ने जे। ठीक
वात थी वही कही ॥ ३५॥ |
रामेति राजा विलपन्हा सीते लक्ष्मणेति च |
स महात्मा पर छोक॑ गते गतिमतां वर! ॥ ३६ ॥
( कैकेयी वोली मरते उम्य महाराज ने तुम्हारा तो नाम भी '
नहीं लिया ) उत्तम गति को प्राप्त होने वालों में श्रेष्ठ महाराज, ,
१ घर्ममराय स्यजानतः--धर्मनानत. आयस्य श्रेष्ठल्थ विवेडिनः
पुएपत्य | (रा०) २ परिचित घंदेशं--अन्वकालिकत्‌ | ( र[० )
द्विसप्ततितमः सर्गः ७३

दा राम | हा सीता | हा लक्ष्मण ! ऐसा विज्ञाप करते हुए, पर-


क्ाक सिधारे हैं॥३६ ॥
इमां तु पश्चिमां वां व्याजहार पिता तव |
कालधमपरिक्षिप्त:ः पाशरिद महागन! ॥ ३७ ॥
। पाणरिंद

बड़ा हाथी जिस प्रज्नार वंधन में बाधा जाता है, उसी प्रकार
तुस्दारे पिता नेकाल और धर्म के वश हो कर, अन्तिम समय
यह कहा था ॥ ३७ ॥
सिद्धार्थास्ते नरा राममागतं सीतया सह।
लक्ष्मणं च महावाहुं द्रश्यन्ति पुनरागतम्‌ ॥ रे८ ॥
कि, ये नर ही सफल्न मनारथ होंगे, ले! सीता सहित ओराम
और लक््मण के वन से कटा हुआ देखेंगे ॥ ३८ ॥
तच्छुला, विषसादेव द्वितीयाभरियशंसनात्‌ ।
विषण्णवदना भूत्वा भूय। पर्रच्छ मातरम ॥ ३२९ ॥
जब कैकेयी ने यह दूसरी अभिय वात कद्दी, तव भरत जो और
भी अधिक उदास हुए और फिर माता से पूंछुनेलगे ॥ ३३ ॥
क चेदानीं स धर्मात्मा कैसल्यानन्दवधनः ।
लक्ष्मणेन सह श्रात्रा सीतया च सम॑ गतः ॥ ४०,॥
है प्रस्मा | वे धर्मात्मा और फैशल्या के थाननद को बढ़ाने
चाल्ने श्रीराम, इस समय सीता और लक्ष्मण के सहित कहाँ
' हैं?॥४०॥
१ काछुघमंपरिक्षिप।--कालघर्मेम्यः धरीरविकारादिम्यः परितयक्तः । (ज्षि०)
98२ थ्रवेध्याकायहे

तथा पृष्ठा ययातत्त्माख्यातुम्र॒पचक्रमे | . '


प्राताऋऋ्य 'यगपद् दा कय वि भि यं म् रि यश क् लय ा ॥ ४१ ||
इस प्रकार भर त जी के पू ंछ ने पर उन की मा ता केक ्रय ो ने
घयों की वयों समस्त घटना छुनानी आरम्म की | उसने समा कि,
उस दार ुण अग् रिय घढठ ना का बृच ान् त सुन , भर त अव श् य मसन ्न
होंगे॥ ४१॥
स हि राजसुतः पुत्र चीरवासा महावनम्‌ |
दण्डकान्सह वेदज्या लक्ष्मणाहुचरो गत) ॥ ४२ ॥
हेबत्स ! वेराजकुमार चोर का घारण कर, सोठा और
ज्द्मण के साथ दा्डक नामक महावन के चलते गये हैं ॥ ४२ ॥
तच्छुला भरतरूरते भ्रातुआारित्रशइ्या ।
खस्य वंशस्य माहत्म्यात्मष्टं समुपचक्रमे ॥ ४३ |
कैकेयी के मुल से श्राप का वन जाना छुन--भरत जी के
मन में भाई के चरिन के विपय में सन्देह उत्पन्न दुआ और वे
भयभीत हुए । क्योंकि वेअपने वंश की प्रटिमा जानते थे । उद्दोंने
माता से फिर पूछा ॥ ४३ ॥
कचिन्न व्राह्मणघन हतं रामेण कस्यचित्‌ ।
कचित्नाव्यों दरिद्रों वातेनापापो विहिंसितः।| ४४ ॥
देभाता ! क्या धीरामचन्द्र नेकिसी ब्राह्मण का घन छोना
या ? अथवा वित्रा अपराध किसी घनादव या दरिद्वी की हत्या
की थी? ॥ ४४ ॥
१ युगरत्‌ू-राजमरणकथनप्तम्कालमेव । ( गेल)... #..
द्विसप्ततितमः सर्मः ७४३

कंसिन्र परदारान्वा राजपुत्रोड्मिमन्यते ।


'कस्पात्स दण्डकारण्ये 'अूणहेव विवासित) ॥ ४५॥
पधथता किसी परद्ली ही भोर थुरो दृष्टि सेदेखा था!
किस अपराध के कारण वह श्रताध्ययनसम्पत्न श्रीराम धन में
निकाले गये ! ॥ ७४ ॥
अथास्य चपला माता तत्खकर्म यथातयम्‌ ।
तेनेव स्नीखभावेन' व्याहतुमुपचक्रमे ॥ ४६ ॥
तव भरत की चपल मति माता ने अपनी ज्यों की त्यों करनी,
खी-स्वभाव-सुन्म चफ्लता-वश कहनी शारम्म की ॥ ४६ ॥

एवमुक्ता तु कैफेयी भरतेन महात्मना ।


उवाच वचन हष्टा मूढा पण्डितमानिनी ॥ ४७ ॥
जब भरत ने फैक्रेयी से इस प्रकार ऋद्दा, तववह मूर्खा प्रोर
घपने के पणिटता समसने वाली, प्रसन्न हे कर यह बेली ॥४8७॥
न ब्राह्मणघनं किख्द्धृुत॑ रामेण घीमता ।
कथिन्नाब्यों दरिद्रो वा तेनापापो विहिंसितः! ॥8४॥
बैठा [ तुद्धिमान राम ने न तो किसी ब्राह्मण का घन छीना
ओर न विना अपराध किसी धनी अथवा निर्धन का चच ही
किया ॥ ४८ ॥

_? अआण--अुताध्ययन सम्पन्न: । (गो०) ३ ख्रीह्वभावेब--चापक्षेत ।


( ग्ो० ) धर्माधमंद्दितादितेचितानुचितविवेकशत्यतास्येण | ( रा० )
888 अयेष्याकयटे

न राम परदारांध चह्षुभ्यागपि परयति ।


मया तु पुत्र श्रुत्यैव रामस्येवामिपेचनम ॥ ४९ ॥|
धरीरामचद्ध परल्घो के तो भ्रांव उठा कर भी कसी नहीं
देखते । किन्तु दे पुत्र |मेने जब श्रीराम के अभिषेक की वात
छुनी, ॥ ४६ ॥
याचितस्ते पिता राज्यं रामस्य च विवासनम्‌ |
से स्वह्॒त्ति' समास्थाय पिता ते तत्तथाउकरोत्‌ ॥५०॥
तब मैंने तु्दारे पिता से तुम्दारे लिये राज्य ओर श्रीरामचन्र
के लिये वनवास माँगा | भ्रतः भ्रपनी सत्यप्रतिक्षा का पूरी करने ,
के लिये तुम्हारे पिता ने बैसा ही किया ॥ ४० ॥
रामश् सहसेमित्रिः प्रेषित: सह सीतया ।
तमपर्यन्पियं पुत्र॑ महीपाले महायज्ञा। ॥ ५१ ॥
ग उन्होंने श्रीराम्चन्द्र केसीता और लद्मण सहित बन में भेज
दिया श्रोर महायशस्त्री महाराज दशरथ उन्र प्रियपुत्र थ्रोराम के ;
न देखने के कारण ॥ ४१ ॥
पुश्रशेकपरिधुनः पश्चल्वमुपपेदिवान्‌ |
त्वया लिदानी धर्मज् राजत्वमवलम्ब्यताम्‌ ।
लत्कृते हि मया स्वमिदमेवंविध कृतम ॥ ५२ ॥
पुषशोक से पीड़ित हा, पद्मत्व को प्राप्त हुए (मर गये )। ;
हेधमज्ञ |भव तुम राजकाज संभाला, क्योंकि तुम्हारे ही लिये इस
प्रकार ये सव काम मैंने कियेहैं॥ ५२॥ '
१ खवत्ति-छवप्रतिज्ञासुपांवृत्ति । (यो )
तिप्प्ततितमः सर्गः ७४४५

मा शेक मा च सन्‍्तापं पैयमाश्रय पुत्रक ।


तल्वदधीना हि नगरी राज्यं चेतदनायकरम्‌# ॥ ५३ ॥
है वत्स | तुम दुः्खी मत हो श्रोर न सनन्‍्ताप दी करो। तुम
धीरज रफता । क्योकि यद अयेध्यापुरी और बिना राजा का यह
राज्य पश्रव तुझारे दी अ्रधोन है ॥ ५३ ॥
तत्पुत्न शीघ्र विधिना विधिज्ने-
वसिप्ठमुख्यें: सहिता हिजेन्दे! ।
सद्भात्य! राजानमदीनसत्त-
मात्मानपुव्यामभिषेचयर्व ॥ ५४ ॥
इति द्विसप्ततितमः सर्गः ॥
प्रतः तुम इस घड़ी विधि जानने वाल्ले वशिष्ठादि ब्राह्मणों के
साथ शीघ्र यथाविधि मदापराक्रमी अपने पिता को प्रेतकिया
समाप्त कर, राज्यासन ग्रहण करो ओर झपने मन का हिरास
मत करे ॥ ४४ ॥
अयोध्याकायड का वहत्तरवाँ सर्ग पूरा हुआ ।
नाई
त्रिसततिमः सर्गेः
>> ६९) ००००

श्रत्वा तु पितरं दत्त श्रातरो च विवासिता ।


भरते दु।खसन्तप्त इदं वचनमबवीतू ॥ १ ॥
१ पट्टालय--संह्कृत्य | (गो० ) # पाठान्तरे--४अनासय ।
38६ अयाध्याकायडे

पिता का मरण, ओर दोनों भाइयों के वचन में निकाले जाने


का वृत्ताग्त खुब, भरत दुः्ख से सन्तप्त हो, कैकेयों सेयद वचन
देले॥ १॥
किन्ु काय इतस्वेह मम्र राज्येन शेचत: |
विह्देनस्याथ पित्रा व प्राता पिठसमेन चे )) २ ॥
पिता शोर विता के समान भाई से रद्दिन दने के कारण मेरा,
तो सर्वनाश दी गया । ऐसी शाच्य दशा में मेंराज्य लेकर करूँगा
द्वीकक्‍या॥२॥
दु)।खे मे दुःखमकरोत्रेणे क्षारमिवादधाः |
कक खमकरोत्रणध्,े

राजान॑ प्रेतभावस्थं कृत्वा राम॑ च तापसम्‌ ॥ ३ ॥।


तूने महाराज दशस्थ के मार शोर श्रोराम के तपत्वो बना,
पुछ्के दुःख के ऊपर दुःख दिया, मार्वों घाव पर निम्रक छिड़का ॥३॥
कुलस्य त्वमभावाय कालरात्रिरिवागता ।
अद्भारमुपग्द्मक्षत्वां पिता मे नाववुद्धवान ॥ ४ ॥
तू कालराजि के समात इस छुत्त का सत्यानाश करने के यहाँ ,
थाई है। मेरे पिता ने जलते हुए अंगारे की समान अनजाने तुक्के
घर मेंरखा ॥ 3॥
मृत्युमापादिते राजा या मे पापदर्शिनि |
सुख॑ परिहृतं मोदात्कुलेअस्मिन्कुलपांसिनि || ५॥
अरी पापिष्टे ! तूने महाराज के बार डाल्ला। श्री कुल- '
नाशिनी ! तूने मेहवश दे! सदसा हो इस घराने का सारा खछुख ,
नष्ठ कर डाला | £ ॥
के पाठान्वरे-- गृह्नत्म ? ।
बिसपतितमः सर्गः ७४७

तां प्राप्य हि पिता मेघ्य सत्यसन्धे महायज्ञा; ।


तीवदु/खाभिसन्तप्तो हत्तो दशरथे। ठप: ॥ ६॥
सत्यप्रतिज्ष पृ सहायशस्वी मेरे पिता मद्राराज दशरथ ने
तुझे पा कर, बड़ा दुःख और सल्ताप सेगा ॥ ६ ॥
विनाशिते! महाराज; पिता मे धर्मवत्सलः
कस्मात्मत्राणिता राम! कस्मादेव वन गत; ॥ ७ ॥
तूने क्यों उन धर्मवत्सल मेरे पिता महाराज दशरथ को मार
डाला और क्यों भौरामचन्ध को वनवास दिलवाया और वे क्‍यों
कन में चले गये ? ॥ ७ ॥
कैसर्या च सुमित्रा च पुत्रशेकामिपीडिते |
दुष्करं यदि जीवेतां प्राप्य त्वां जननीं मम || ८ ॥
तुक्त जैसी मेरी ज़ननो के साथ रह कर, कोशल्या और सुमित्रा
का पुश्रशोक से पीड़ित हे कर, जोवित रहना बहुत कठिन है॥ ८॥
नजु त्वायोजपि धर्मात्मा त्वयि हृत्ति'मनुत्तमाम ।
बतते गुर्दत्तिज्ञो यथा मातरि बतते ॥ ९ ॥
मेरे ज्येछ और घर्मात्मा भाई भीरामचन्द, जे गुरुजनों की सेवा
करना ज्ञानते हैं, तेरी भी तो वैसी ही सेवा करते थे, जैसी कि वे
छपनी जननी काशल्या की किया करते थे ॥ ६ ॥
तथा ज्येष्ठा हि मे माता कैसल्या दीप॑दर्शिनी' ]
त्वयि धममें समास्थाय भगिन्यामिव बतते ॥ १० ॥
१ पत्ति --शुक्रपां। (यो० ) २ दीघपंदर्शिवी--दूरकारूमाव्यनर्थदर्शिनी |
(६ गो०
जद शयाष्याकायडे

मेरी वड़ी माता कैशत ्य ा जे भा वी वि पत ्त ि को ज् ञा नत ों थी ,


चर्मपूर्वक तेरे सा थ सग ी वि न जै सा व्य वद् दार कर ती थी ॥ १० ॥
तस्या। पुत्र महात्मान॑ चीरवरक्ठबाससम्‌ ।
प्रस्थाप्य वनवा सा य कर ्थ पा पे न े
शे चस ि | ११ ॥
उसीके महात्मा पुत्र को ची र औ र न क ल पह िन ा कर , तू ने
बन में भिज्ञवा दिया | भर ी पा पि त ! ति स पर भी तु झे ढु ःख क् यो ं
नहीं हाता !॥ ११॥
अपापदशन शूरं कृतात्मानं यशस्विनम्‌ ।
प्रताज्य चीरवसन किन्नु पश्यसि कारणम! ॥ ११॥
जिन ्र ोर ाम चन द् र न े
कम ी दु ःख नह ीं दे खा , ऐस े शु र औ र
यशस्वरी श्रीरामचन्र का चीर पहना कर और दन में मिजवा कर,
तूने क्या फल पाया ? ॥ १५॥ '
जुब्धाया विदिते मन्ये न तेहूं राघवं प्रति ।
तथा हानथे राज्याथं तवयारनीते! महानयम्‌ ॥१३॥
मेरी औीरामचन्द्र में'कैसीभक्ति है--पह वात तूने न ज्ञानी ।
इसीसे तूने लालच में फेस, राज्य के लिये यह मदाअनर्थ कर
ढात्ला ॥ १३ ॥
अहँ हि पुरुषव्याप्रावपश्यन्रामल्क्ष्मणों |
केन शक्तिप्रभावेन राज्य रक्लितुमु॒त्सहै ॥ १४ ॥
मेंउन पुरुपसिंह श्रीराम औ्रौर लक्मण के देखे विना, कि
शक्ति के प्रभाव से इस राज्य ह्ञी रत्ता कर सकूगा ॥ १४ ॥
१ कारणघू--फर्ल । ( गो० )
निसप्ततितमः सर्गः उछद
ते हि नित्यं महाराजे! वलपन्तं महावरू; |
अपाश्िते'भूद्मात्मा मेस्मेंबब्न यथा ॥ १५ ॥
प्रेरो तो गिनती दी किसमें है,महाराज दशरथ जो उन्हीं बल-
बान और महापराक्रमी भ्रीरामचन्ध का उसी प्रकार सदा भयेसा
रखते थे जिस प्रकार मेर पर्वत निकठस्थ वन पर भरोसा रखता
है॥ १४॥
से कथमिमं भार महाधुर्यसमुद्धतम्‌ ।
*दम्ये। धुरमिवासाथ पहेयं केन चोजसा ॥ १६॥
अतपव मेंक्यों कर और किसके भरोसे इस बड़े भारी राज्य-
भार के उठा सकूँगा। जिस भार के वड़ा बलवान वैल खींच सकता
है, उसे छोटी उम्र का वक़ूड़ा क्यों कर खींच सकता है? ॥ १६ ॥
अथवा मेध्मवेच्छक्तिः 'योगैयृद्धि बलेनरे वा।
सकामां न करिष्याप्ति त्वामहं पुत्रगर्धिनीम४ ॥१७॥
यदि में सामदानावि उपायों से भथवा बुद्धिवल से इस राज्य-
भार के उठा मी सकूँ, ते भी पुत्र के राज्य की शमिनाषा करने
वाली तेरी यह कुत्सित साथ मैंकभी पूरी न दोने दूँगा ॥ १७॥
न मे विकाडक्षा जायेत लक्तत्वाँ पापनिश्रयासर ।
यदि .रामस्य #नापेक्षा लगि स्पान्मात्वत्सदा ॥१4॥
१ दुम्म+--तरुणवत्सदव । ( गो० ) ३ येगै।--सामादानादुपायें: ।
(ग्रो०. ) ३ हुद्धिछेन--प्रदणधारणाघष्टांडु: युछ्युद्धिकेववा । ( धो )
४ पुत्रगर्धिनीम -पुत्र भ्योजनामिकाषयती | ( गी० )
क पाठान्तरे--** नावेक्षा !! ।
9५० ध्रवेध्याकायदें

यदि श्रीयम को तु मे मा ता के सम ान श्र द्ध ा न हो ती , ते मं


तुफ पापिन का अवश्य त्याग देता ॥ १८ ॥
उत्न्ना तु कर्थ बुद्धिस्तवेयं पापदर्शिनी | ,
साधुचारित्रविश्रष्टे पूर्वेपां ने विगर्हिता ॥ १९ ॥
अरे पापद्शिनो ! हमारे पूर्वजों को प्रथा के कलड्ित करने
वाल्नी यह बुद्धि तुकमें कैसे उत्पन्न हुई ॥ १६॥
अस्मिन्कुले हि पूर्वेपां ज्येष्ठो राज्येडभिषिच्यते ।
'अपरे भ्ातरस्तरिमिन्पवर्तन्ते समाहिता! ॥ २० ॥
े चाल चल्ली प्ाती है
क्योंकि इस राजवंश मेंपोढ़ियों सयह
कि, सब भाइयों में जे। वड़ा देता हैचदी राजगद्दी पर बैठता है
और ( छोटे )सव भाई उसके अधोन रहते हैं ॥ २० ॥
न हि मन्ये तशंसे त्व॑ 'राजधमंमवेक्षसे |
गति वा न विजानासि राजहत्तस्य शाशवतीस ॥२१॥
अरे नृशंसे !तेरी दृश्टरजधर्म की ओर नहीं है शोर नवतू
राज़धर्म सेसनातन विविध प्रकारों ही को ज्ञानती है ॥ २१ ॥
सतत राणहत्ते* हि ज्येष्टी राज्येजभिषिच्यते |
राज्ञामेतत्समं तत्स्यादिक्ष्वाकृर्णां विशेषत) ॥। २२ ॥
राजधर्मानुसार जो ज्येप्त होता है, उसीका राज्यासिषेक होता
है। यही प्रथा सब राज्ञाश्रों में है। तिसमें भो इच्चाकुकुल में तो
इसका विशेष आग्रह है | २२ ॥
१ अपरें---ऊनिष्ठान्रातरः । ( गो० ) २ राजधर्म--राज्षांविदित घ्म । ,
( ग्ो० ) ३गतिं--प्रकारंबा ।४ राजवृत्ते--राजधर्मं । (रा० ;
त्रिसप्ततितमः सगेः ७५१.

तेपां धर्मेशरक्षार्णा कुलचारित्र'शोभिनाम ।


अन्र चारित्रशाण्डिय! त्वां प्राप्य विनिवर्तितम्‌ ॥२३॥
शआज्ञ तुने, धर्म प्रतिपालक एवं भ्रउ्ते चरित्र, से सुशोभित
इच्वाकुवंश का सदाचार सस्वन्धी गर्व घूल मेंमिला दिया ॥१३॥
तवापि सुमहाभागा' जनेन्द्रा।ः कुलपू्षगा।* ।
बुद्धेमांह! कथमयं सम्भूतसरत्वयि गर्हितः || २४ ॥ डै

तेय भो तो एक छुचरित्र कुलीन राजवंश में अन्य हुआ है।


फिर क्यों कर तेरी वुद्धि में ऐसा गहित मे।ह उत्पन्न हुआ--प्र्थात्‌
छैसे तेरी ऐसी दुष्ट वुद्धि दो ययो ॥ २७ ॥
न तु काम करिष्यामि तवाहं पापनिश्रये |
त्वया व्यसनमारब्धं जीवितान्तकरं मम ॥२५॥
हे पापिन |याद रख, चाहे जे। कुछ हे मेंतेरी साथ कभी पूरी
न करूँगा। क्योंकि तूने मेरे प्राण लेने वात्ते प्रपश्च का घुन्रपात किया
है॥ २४ ॥
एप ल्विदानीमेवाहमप्रियाथ तवानघम्‌ |
निवतयिष्यामि वनादआातरं स्वृजनप्रियम्‌ || २९६॥
में तोतुझे खि जा ने के लि ये स् वज नो ं के प्य ारे पव ॑ नि र् दो ष बड ़े
(भाई भीरामचन्द्र के अब वन से लौटा जाताननहैीनं ॥ २६मि॥ला जप
० न नममनननिन नलनि
३ कछघरित ्र -- कु लक ्र मा गत चर ित ्र ं । (य ो० ) ३ चा रि त् रश ौड ीय ं- -
चरित्षगर्वित त्व ं। (ग ो० ) ३ जने न्द ्रा ः-- राज ान। । ( गो ० ) ४ कुछ पूर ्षं गा: ---
कुरुण्येहाः । ( गो० )
9४२ अयाध्याकायडे

निवतेयिलवा राम च तस्याईं दीप्नतेजसः ।


दासभूते। भविष्यामि सुस्थितेनान्तरात्मना ॥ २७॥
मेंश्रीराम जी के केवज वन से ज्लौठा ही न लाऊँगा, प्रत्युद
उनका दास वन कर श्रोर प्रव लगा कर उनको सेवा भी
करूँगा ॥ २७ ॥
इत्येवमुक्त्वा भरते महात्मा
पियेतरे!! वाक्यगणस्तुदंस्ताम्‌ ।
शेकातुरथापि ननाद भूय।
सिंहे यथा पवतगदरस्थः ॥| २८ ॥
(६

इति त्रिसहतितमः सर्गः ॥


इस प्रकार भरत जो अनेक कठोर चचनों से क्ैकेयी का
मर्माइत करते हुए ओर खयं शोक से कातर दो, मन्दरावल की
कन्द्रा में बैठे दुए सिंह को तरह पुनः गरज़ ऋर वाले ॥ २८ ॥
अयेध्याकाणड का तिहत्तरवाँ सर्ग समाप्त हुआ ।
अं पि++

चतुःसप्ततितमः सगेः

तां वथा गहयित्वा तु मावरं भरतरतदा |


रेपषेण महताविष्ठ: पुनरेवराब्वीढच! ॥ १ |)
! प्रियेतरेद ःखड्हे: । (रा० )
चतुःसप्ततितमः सगे ७५३
इस प्रकार भरत जी माता का धिक्कार कर और प्रत्यत कुपित
दा, फिर अपनी माता कैक्ेयी सेकहने लगे ॥ १ ॥
राज्यादभंशस्व कैकेयि त॒शंसे दुष्चारिणि |
परिद्यक्ता च धर्मेण *मामृतं रुदवी भव ॥ २॥
है निष्ठुर हृदये ! हे दुष्टे ! तू राष्यप्रण्ट दो, (धर्थात्‌ तुभी वन
में चल्ली जा) क्‍योंकि तू अधर्मिन है। अव में मरता हैँ, तू मेरे
लिये रो, झथवा तूपतिबताधर्म का जब त्याग ही चुकी ; तब तुस्े
बचित हैकि, तू मतपति के लिये मत से ॥ २॥
किन्नु तेड्टृषयद्राजा रामे। वा भुशधार्मिकः |
येत्युवि वा सभ स्व त्क ृते तुश ्य' माग तों ॥ हे ॥|
भक्षा बता ते कि, मद् दार ाज ने और पर मध ाम िक शोर ामच न्ध
ने तेरा क्या विगाड़ा था जे। तूने एक ही समय मेंमद्ाराज के तो
मार डाला और भ्ोरामचन्द्र को वन में निकाक्न दिया | ३॥
प्रणहत्यामसि प्राप्ता बुल्स्थास्थ विनाशनातू। .,
कैकेयि नर क गच ्छ मा च भत ु! सल ोक ता म् ‌ ॥ ४ ॥
हेक्ैकेयी !इस प्रकार वं श का वा श कर ने से तुक ्के गर् सस् थ '
बालक की मा र डा लन े जै सा पा प जग ा है ( गर् भ गि रा ने जै सा )
धतः तू नरक में गि र | क् यो ंक ि त ूमे रे पि ता के क् ले क में ज्ञ ाने की
अधिकारिणी नहीं है॥ ४॥ ;
ा7प्प् “777
लिश्चि

चना
७०७...
१ साझत॑ रुदती भद--पआणदानिकरकायेक रण ान ्म ास ंम त् वा रो दर ् कु वि -
ज्यथी । यद्वार ्ृत ॑ं भर् तार ं गद िद य रु दत ी व भरा भव पत् तिा यम् राव स्य गतत ्वा दित ि
भावः | (गौ ) २ तुह्य॑--बुगपव्‌ । (गोौ१).. .,
बा० रा०--४५
9४४ घयाध्याकागडे

यत्तया हीदश' पाप छत पेरेण करमेणा ।


सर्वलेकप्रियं हित्वा ममाष्यापादितं भयम्‌ ॥ ५ ॥
क्योंकि तूने घेर कर्म कर ऐसा पाप कम किया है। तूने सर्व-
क्ाक-प्रिय श्रीयमचन्द्र का ध्याय कर, भेरे लिये केवल राज्य संगपा-
दून दी नहीं किया, प्रत्युत भय सो उत्पन्न कर दिया है ॥ ५॥ *
ल्वल्कृते मे पिता इत्तो रामभारण्यमाभरितः |
अयशो जीवढेके च लयाहं प्रतिपादित) ॥ ६ ॥
तेरी द्वी करतूत से मेरे पिता की जान गयी और भाई धीराम
बनवासी हुए और इस संसार मेंपुक्छे बदनाम किया ॥ ६ ॥
मात्रुपे ममामित्रे उृशंसे राज्यकायुके ।
न तेऋमभिभाष्येजरिम दु्ेत्ते पतिधातिनि ॥ ७ ॥
तूबड़े हीकठार हृदय की है; तुझे राज्य का लालच है, तू
मेरी माता नहीं, वदिक माता के ढप में मेरी शन्न है। झरी दुष्ट !
प्रो पतिधातिनि | तु पुझसे बालने ये।्य नहों है अर्थात्‌ पुछसे
मत वाल ॥ ७॥
कैसलया च सुमित्रा च याथान्या मम्र मातरः |
दुःखेन महताविष्टास्त्वां प्राप्य कुलदूषणीम्‌ || ८ ॥
घरे कुल में वद्ा लगाने वाली ! तेरी ही करतूत से, काशल्या,
सुमित्रा तथा मेरों अन्य माताएँ, बढ़े दुःख मेंपड़ी हुईहैं ॥ ८॥
!इद्यां--रामविवासनेभत्‌
मरण रूप । ( गो० )
चतुःसप्ततितमः सर्गः ७५४
न त्वमइ्वपते/! कन्या धर्मराजस्य* घीमतः ।
राक्षसी तत्र जातासि कुछप्रध्यंसिनी पितु! ॥-९ ॥
तू बुद्धिमान प॒व॑ घर्माव्मा महाराज अश्वपतति की कन्या कहलाते
येग्य नहीं है। तू तो मेरे पिता के कुज्न का नाश करने के लिये
प्रभ्वपति के घर में राक्तली पेदा हुई है ॥ ६ ॥
यत्तया धार्मिक रामे! नित्य सत्यपरायण) |
बन॑ प्रस्थापितो दुः/खात्पिता च बत्रिद्वं गत। ॥१०॥
तूने उन धर्मात्मा भ्रोषपचद्र के, जे! सदा सत्य में तत्पर रदते
हैं,वन मेंभिजवा दिया और उनके वियेशजनित शोक से पोड़ित
कर, पिता के परतेाक भेजा ॥ १०॥

यत्रधानासि तत्पापं मयि पित्रा विनाकृते |


आदृभ्यां च परियक्ते सवंलेकरय चापिये ॥ ११ ॥
हि. हि सबले

यह पापकर्म तो तू ने किया और इसका फल्न सुगतता मुक्कके


पड़ा कि,मेंपिताहीन है| गया, दोनों भाइयों से बिछुड़ गया और
सब ल्ागों का तुरा वन गया ॥ ११ ॥
कैसल्यां पर्मसंयुक्तां वियुक्तां? पापनिथ्रये ।
कृत्वा क॑ प्राप्स्ससे लथ छोक॑४ निरयगामिनि ॥१२॥ ,
१ नत्वमइवपतेःकन्या--तत्कुकावितकन्यानभवति । (यो० ) २ धमे-
शाजस्‍्य--धर्ममधानराजस्य । ( यो० ) ३ वियुक्तां--पतिपुत्रवियुक्तां |(रा० )
४ कंकेक--के नरकफैकस्‌ । ( रा० )
छ््ई ' आयाध्याकाणडे

झरी पापिन |थरी नरक मेंजाने चाली, यह ते वतल्ला कि


धर्मचारिणो कौशल्या का पति और पुत्र सेविद्वाह करवा तू प्व
किस नरक में मिरेगी ॥ १२॥
कि नावधुध्यसे क्ररेनियत) वन्धुसंभ्यम्‌# ।
ज्येष्ठं पितृसमं राम कासल्यायात्मसम्भव्‌ || १३ ॥
घरे दुश | कश तुस्ते यह नहों मालुप्त था कि, श्रीराम वन्धु
वान्धर्वों केसदा धआधारभूतहैंतथा ज्येष्ठ श्राता होने के कारण
मेरे लिये पिता फे समानहैंऔर महारानी काशल्या के गर्म से
उत्पन्न हुए हैं ॥ १३ ॥
अड्ञप्रयड्रज; पुत्रो हृदयाचापि* जायते ।
तस्मात्मियतमे मातु) प्रियत्वान्न तु वान्यवः ॥१श॥
यों ते देखा ज्ञाय ते वस्धुवान्धव सभी प्रिय होते हैं, किम्तु
सब से अधिक पुत्र ही माता के प्रिय दोता है--क्योंकि वह माता
के घड़ प्रत्यछु से-ग्रेर हृदय कमल से भी जन्म अहण करता दे
घर्थात्‌ ऐसी परम वस्तु कावियाग एक माता के लिये कितना
दुःखदायी होता है--उसे ते तूने ज्ञरा विचारा होता ॥ १४ ॥
(िक्त इक में “ भ्रज्ञादन्नात्यंभव्ति हृदयादधि जायते । आत्माभैपुत्र
नामाति | /श्रुति का अर्थ ग्ित है ।
अन्यदा* किल धमंज्ञा सुरभि: सुरसम्मताए
बहमानों! ददशाव्यों पुत्रों विगतचेतसोर ॥ १५ ॥
३ नियतं--नितरां । (शि०) २ हृदयातू--हृद्यपुण्डरीकात्‌ । ( गो० )
३ भन्यदा-पूर्वकाले | (गो० ) ४ सुरचंम्नता--देवपूजिता । ५ बहमानों
हछमितिशेषः | ( गो० ) ६ विगतचेतसौ मूछितावित्यर्यः | ( गो०
क पाठान्तरे-- बुद्धिव॑श्नया * | है
चतुःसप्ततितमः सगे ७५७

तावधदिवसे श्रान्ता दष्ठा पुत्री महीतले । .


रुरेद पुत्रशोकेन वाष्पपर्याकुलेक्षणा ॥ १६ ॥
(पुत्र शोक एक माता के लिये क्रितना दुःखदायी दोता हैइसका
इृश्टान्त भरत जी देतेहैं।)यह द्वश्टन्त धर्मज्ञों का कहा हुआ है।
पू्वकात्न में एक द्विस, देवताओं को पृज्या काम्रधेतु ने देखा कि,
उसके दे! पुत्र हल्न खींचते दोपहर के समय, थक जाने के कारण
मूद्ित हो गये हैं। पुत्रों के दुःश्व से दुःखी कामभेनु आँखों से
आंखू गिरती हुईं, रोने लगी ॥ १४॥ १६ ॥
अधपरतादवजतस्तर्या! सुरराज्ञों महात्मन! ।
विन्दव) पतिता गात्रे सूक्ष्या) सुरभितन्धिन। ॥१७॥
उसी समय किसी काम के लिये देवराज इन्द्र भूले में यात्रा
कर रहे थे। उस सप्रय उनके शरीर पर छुगन्धित ओर घृक्तम
कामचेतु के भांछओं की बूद पड़ीं॥ १७ ॥
इन्द्रोप्यश्रुनिपातं त॑ं खगात्रे पुण्यगन्पिनम्‌ ।
सुरभि मन्यते रृष्टा भूय्ती' तां सुरेशवर। ॥ १८ ॥
इन्द्र के शरीर पर काम्रधेनु के जे आँधू गिरे थे; उनमें से
खुगन्धि निकलती देख, इन्द्र नेजान लिया कि, काममेवु खब से
उत्तम है ॥ १८॥
निरीक्षमाणः शक्रस्तां ददश सुरमि स्थिताम्‌ ।
आकाशे विष्ठितां दोनां रुइन्तीं मुशढ।लिताम ॥१९॥
2८ ्ेन्डण

” १ भयसों धेष्ठाम्‌ । ( गो० )


७४८ अयेाध्याकायडे

तब चौंक कर इन्द्र नेऋपर की शोर देखा दो श्राकाश में


एड़ी घोर धत्यन्त दु/झ्त हो रोती हुई विचारी कामधेलु का
पाया ॥ १६ ॥
वां दृष्टा शोकसन्तप्मां वजपाणियशखिनोम्‌ ।
5 ढ (४ रि [

इन्द्र! प्राज्ञलिस्द्वित) सुरशाजाध्त्रदीदनच। ॥ २० ॥


उस यशघ्िनी कामधेनु के शोकसन्तप्त देख वजश्चधारी छुर-
राज इन वहुत घबड़ाये ध्येर हाथ जड़ कर कामधेठु से कहने
लगे ॥ २० ॥
भयं कचितन्न चस्मासु कुतश्रिट्ियते महत्‌ ।
कुतानिमित्तः शेकस्ते ब्रृहिसर्वेहितेषिणि ॥ २१ ॥
दे सब त्लाकों को दितेषिणी ! तू क्‍यों से रही है? क्‍या हम
ल्ागों के ऊपर कोई महा विर्पाति पढ़ने वाली है, जिससे तु इतनी
दुश्सी है| रही है। धपने दुःख का कारण ते वतल्ना ॥ ११॥
एवमुक्ता तु सुरभिः सुरराजेन धीमता | ह
प्रत्युवाच तते। धीरा वाक्य वाक्यविशारदा ॥ २२॥
बुद्धिमान इच्धराज्ञ नेजब ऐसा कहा, तव वात कहने मेंचतुरु
कामधेट्ठ ने धीरज घर कर यह उत्तर दिया ॥ २२॥
शान्तं पापं॑ नेव किद्चित्कुतशिदमराधिप |
अं हु मग्नो शोचामि खपुत्रों विषमे स्थिता ॥२१॥
, है देवराज | नहीं नहीं, तुम लोगों के भय की कोई बात नहीं
*। बेतो अपने इन के पुत्रों का दुःखी देख, दुःख हे रहा
॥ रे ह ः ह॒
चतुःसप्ततितमः सर्गः ७४६

' एता हष्टा कुशो दीनो छयरसिमिप्रतापिता ।


अद्यमानों बलीवदी कपकेण सुराधिप ॥ २७ ॥
(६ कै दा करपकेण

देखे ये दोनों वैल्न कैसे दुवक्ते दो रहे हैं, तिस पर भी सूर्यके


ताप से सन्तप्त हो, ये बेचारे दीन दो रदेदें ।हेसुरराज !किसान ने
इन देनों के मारा पीटा भी है ॥ २७॥
मम 'कायात्यसूतों हि दु!खिता भारपीडिता ।
यो हृष्ठा परितप्येर्ं नास्ति पुत्रसम; प्रिय/ ॥ २५ ॥
ये दे।नों मेरे शरीर से उत्पन्न हुए हैं । ध्यतः उनके दुःखी ओर
हल में जुतने के भार से पोड़ित देख, मुझे वड़ासन्‍्ताप हो रहा है
--क्योंकि माता के लिये पपने पुत्र सेवढ़ कर दूसरों कोई वस्तु
प्रिय नहों है ॥ २५ ॥
यस्या; पुत्रसहसेस्तु कृत्सनं व्याप्तमिदं जगत्‌।
तां हृष्ठा रुदतीं शक्रों न सुतान्मन्यते परम ॥ २६ ॥
जिसके सहस्रों पुत्रों सेयह समस्त ज्ञगत भरा पड़ा है, उसे
घपने दो पुत्रों केलिये रोते हुए देख, इन्द्र नेजाना कि, माँ को
पुत्र सेवढ़ कर ओर केई वस्तु प्यारी नहों है ॥ २६ ॥
सदाअतिमदहत्ताया लेकधारणकाम्यया ।
श्रीमत्या! गुणनित्याया! खमावपरिवेषया ॥ २७॥
यरया! पुत्नसहस्ताणि साधपि शेचचति कामधुक्‌ |
पुनर्या बिना राम कैसल्या वतयिष्यति ॥२८॥
३ श्रीमल्या--सम्रद्धिमत्या: | (गो )
<्ठ8०कहेहि“ अयाध्याक्ायदे

कामपेनु लेकों के ऊपर थतुप्ह करने को इच्छा से सके


साथ एक सा चर्ताव करती हेओर सबके मनारय पूर्ण करने की
सामर्थ्य मी रखती है, उसके अतन्त पुत्र रूते हुए भी, जब चर
कामपेनु मातू-लमाव-सुल्म पुत्रनस्तेह-वश दो पुत्रों के दुःख से
बित हो ययो, वब है कैकैयी ! वतला तो, कोशस्या अपने एकमात्र
पुत्र के बिना क्यों ऋर जोवित रह सक्केगो ॥ २७ | २८॥
एकपुत्रा च साथ्वी च विवित्सेयं लगा कृता ।
तस्मात्त सतत दुःख प्ेत्य चेह च लप्य्यते ॥२९॥
इस स्मय दूते एच पुत्र वाली एवं साध्वी क्षेशज््या से उसके
पुत्र का विदा ऋरा दिया है, भ्रतः तू इस लेक और परक्षाक में
खदा हो दुःज्ञ भेगेगों ॥ २६ |
अह दपचिति! श्रातु) पितुश्च सकलामिमाम ।
वर्धनं यशसश्रापि करिष्यामि न संशय ॥ ३० ॥
में वो अर पिता का ओरद्धदेहिक छृत्य ऋर ओर भाई को सेवा
कर, निस्पन्‍्देंद सम्पूर्ण ढप से उनका सम्मान करूँगा और उनके
यश की बढ़ाऊँगा ॥ ३० ॥
आनाययिता तनय॑ केसल्याया महावक्तम्‌ |
खयमेद प्रतरक्ष्याप्िि वन मुनिनिषेद्ितम ॥ ३१ ॥
में उन महावली क्ाशल्यानन्दन के वन से लै|दा ऋएष लप
* नुनिसेवित वन में जा ऋर रहूँगा ॥३२
ने हेह पापप्डूस पाप पाप लगा कृतम |
शक्ता पारावत पारश्रुकष्द|नरश्वितड ॥ ३२॥
१ बयाचितिं--प्ज़ां ।( गो? )
चतुःसप्ततितमः सगेः छह
क्योंकि दे दुए विचारोंदालों पापिश ! जब पुरवासी मेरी भोर
श्रँलू भरे नेत्रोंसेदेखेंगे, तव मेंतेरे इस पापपूरित छत्य को कैसे
सदन कर सकूगा॥ ३२ ॥
सा त्वमग्नि प्रविश व। स्त्रय॑ वा दृण्डकालिश ।
रज्जुं वधान वा कण्ठे न हि तेझयलरायगप़्‌ ॥३३॥
थ्रव ते तुक्के यदी उचित हैकि, या तो तू श्रत्मि में गिर कर
भर हो जा, या दृष्डफवन में चली जा या गत्ते में फाँधी लगा
क्योंकि घिना मरे तेरे लिये मद कई गति नहीं है ॥ ३३ ॥
अहमप्यवर्नि! प्राप्ते रामे सत्यपराक्रमे ।
कृतकृत्यों भविष्यामि विभवासितकतमवे) ॥ ३४ ॥
पैरे मन की फस क तभ ो मिर ेगो ं भर में अ्र यने के! तप् ी झृत -
ऋत्य मानू ँ
गा ,
जब सत् यपर ाक् रम धो यम रब द् ध लै ।ड आे ंग े ॥२७ ॥

इति नाग इवारण्ये तेमराहुअवे|दितः |


पपात झुवि संक्रुद्धों निःश्रपत्नित पत्रा! ॥ २५ ॥
भरत ज्ञो इस प्रकार विज्ञाप करते करते तीमर और अंकुश
के मारने से उस्तेज्ञित दाथी को तरद, कऋोध में भर, पृथिवी पर
गिर, सर्प की तरद फुफकारने लगे ॥ २४ ॥
संरक्तनेत्र; शिथिलाम्वरस्तथा
विधृतसरवाभरण परन्तप: |
१ अववधि--अवाध्यामूमिं | ( क्षि० )
8 अयोाध्याकायडे

बभूव भूमों पतितों दृपात्मणः


शचीपते! केतुरिवेत्सवक्षये ॥ २६ ॥
इति चतुःसप्ततितमः स्गः ॥
उस समय भरत के (मारे कोय के ) नेत्र लाल हो गये।
शरीर पर जै। वद्ध वे पहिने हुए थे, वे ढीज्ले हा गये। सब गहने
खिसक पढ़े । किस प्रकार उत्सव के अन्त में इत्ध की ध्वज्ञा पूथिदी
पर गिरती है, बेसे ही राजकुमार भरत प्ृथिवी पर गिर पड़े ॥ ३६ ॥
थ्रयेध्याकाणड का चैहत्तरवाँ सर्ग समाप्त हुआ |
"जा
पद्मुसततितमः सगे “
बाण ॥ है बैनन+

दीघेकालात्समुत्याय संज्ञां छब्ध्धा च वीयवान्‌ |


नेत्राभ्यामश्रुपूर्णाग्यां दौनामुद्वीक्ष्य मातरम्‌ ॥ १ ॥
तद्नन्‍्तर पराक्रमी भरत जी ने वहुत देर वाद सचेत द्वो, नेश्रों .
मेंघरांसू भर तथा मात्ता के दीन देख ॥ १॥
सेमात्यमध्ये भरते जननीमभ्यक्षुत्सयत्‌ |
राज्यं न कामये जातु! मन्त्रये नापि मातरम॥ २ ॥ '
और मंत्रियों के वीच वैठ, माता की निन्‍्द्रा की, (इसलिये कि;
मंियों के वतावें कि, उनको माता ने जे कुछ किया उसमें उनकी
_समाति नहीं थी ) ये बाले, मेरी तोकभी यद अभिलाषा नहीं दे
१ जातु--कदादिद॒पि । ( गो० ) ॥
पश्चसप्ततितप्तः सगे: ७६३

कि, मेंराज्य करूँ और न इस विषय में कभी माता से मेंने परामर्श


ही किया (प्थवा दिया ) ॥ २॥
अभिषेक न जानामि येभृद्राज्ञा समीक्षितः है
विभद्ृष्टे हहं देशे बन्प्रस
र हितोज्वसम्‌ ॥ ३ ॥
न मुक्े इसकी कुछ भो खबर थी कि, महाराज ने धीरामचन्ध
का अभिषेक करना विचार था। क्योंकि में तोशन्रन्न सदित यहाँ
से बुत दूर पर था ॥ ३ ॥
वनवार्स ने जानामि रामस्यथाहं महात्मनः |
विवासन वा सामिन्रे! सीतायाथ्व यथाध्भवत््‌ ॥ ४ ॥
अतः मुझे महात्मा भीरामचन्द्र, लक््मण और सीता जी के
वनवास का भी दाल न मिल्रा कि, वह किस प्रकार से हुआ ॥ ४॥
तथैव क्रोशतरतरय भरतस्य महात्मनः |
कैसल्या शब्दमाज्ञाय सुमित्रापिदमत्रवीत्‌ ॥ ५ ॥
इस प्रकार रोते चिलाते दुए भरत ज्ञी का फरठस्वर पदिचान
कर, कैणल्या जी सुप्रित्रा ज्ञी से यद बेल ॥ ५ ॥
आगतः क्ररकार्याया! कैकेय्या भरतः सुतः
तमहं द्रष्टमिच्छामि भरतं दीपदर्शिनम! ॥ ६॥
ज्ञान पड़ता है--निष्ठु र कर ्म कर ने वा ली क्र ैफे यी का पुत ्र भर त
भरा गया है। मैंउस े दे खन ा चा दइ ती हूँ ,क् यो ंक ि वह वड ़ा सम झद ार
है॥६॥
३ दीर्घदर्शिनम--अतिशानवन्तं | ( शि० )
3$७8 अयाष्याकाएड

एवमुक्ला
कप.
सुमित् रां विवण
सा
४३,
ा म ल
महिना
ि न ा क्ृशा |
प्रतस्ये भरतों यत्र वेगमाना विचेतना ॥ ७ ॥
धीराम के विद्ठोद के शोक से अति दुर्वक्षगात, कान्तिद्वीव मुख
बाली कोपब् या धरथर काँपत ी हुई और भ्रचे त सी नस्त जो को
झोर चली ॥ ७ ॥
स तु रामानुजथापि अन्रुम्नसहिदस्तदा |
प्रतस्थे भरता यत्र कासल्याया निवेशनम | ८ ॥
उघर श्रीराम के छोटे भाई भरत ज्ञी भो शत्र॒न्न को साथ के
कशक्षया के भवन की ओर चलते ॥ ८ |
तत; शत्रुश्नभरता कैसल्यां प्रेशष्य दुःखिता |
पर्यघनमेतां दुःखाता' पतितां नप|्नचेतनाम ॥ ९ ॥
छ्लैशब्या को दुः्खो और वहको वहक्नो देख, दोनों माई--मस्त
और शन्नष्त अत्यन्त दुःखित हो कैशल्या से ज्िपठ कर रोते
लगे॥६॥
रुदन्ता रुदती दुःखात्समेत्यायाँ! मनस्विनीम ।
भरत॑ प्रत्युवाचेदं कासल्या भुशहु!|खिता ॥ १० ॥
व्येश्ामाता क्ैशल्या उच समय अत्यन्त दुःखित दो, शोक के
मारे रोते हुए भरत जी के लिपठा कर, कहने लगी ॥ १० ॥
इदं ते राज्यकामस्य राज्य प्राप्ृमकण्टऊम्‌ |
सम्पाप्त वत केकेय्या शीत ऋरेण कमगा ॥ ११॥
भाया--ज्येष्ठां मातर | (यो? ) '
पश्चसप्ततितमः गे 8६५४
तुमने राज्य पाने की कामना की थो से क्र कर्म करने वाली
तुम्दारी माता ने निष्ठुर कर्म फर के, तुम्हें निष्कायटक राज्य दिला
दिया ॥ ११ ॥
प्रस्थाप्य चीरवसन पुत्र॑ मेवनवासिनम्‌ ।
केकेयी क॑ शु् तत्र पश्यति क्ररदर्शिनी ॥ १२ ॥
हकेयी
कैक >

और मेरे पुत्र के चीर पढिना कर श्र बन में भेज्ञ कर,


क्ररदर्शिनी ने वया लाभ उठाया। ( क्योंकि विना ऐसा किये भी तो
बह तुझे राज्य दिक्षा सकती थी )॥ १२ ॥
क्षिप्रं मामपि कैकेयी प्रस्थापयितुमईति ।
१ह्रिण्यनाभे यत्रास्ते सुते मे सुमहायज्ञा। ॥ ११ ॥
कैक्रेयी के। उचित हैकि, जहां मेरे सुवर्ण जेसे शरीर के रंग--
चात्ने महायशस्त्री श्रीराम हैं,चहाँ मुस्ते भी तुरन्त भेज दे ॥ १३ ॥
अथवा स्वयमेवाहं सुम्रित्रानुचरा सुखम |
अभिदेन्र* पुरसकृत्य अस्थास्ये यत्र रापव; ॥ १४ ॥
अथवा मेंखयं ही सुमित्रा का अपने साथ के और पम्निद्षेत्र को
आग के थागे कर, चहाँ चलो जाऊँगी, जहो मेरे श्रोसम हैं ॥ १७ ॥,
[ मद्ाराज दशरथ अम्निहात्र करते थे । महारानी कैग्ाल्या.उनकी अधान
ज्येष्ठा रानी थी । अतः पति के साथ अम्निहात्र करने का अधिकार उन्हींकेा
था | इसीसे कीशल्या ने यह कद्दा कि, जमिद्वात्न कीजाग के ब्राह्मण के ऊपर
रखवा उसके पीछे में चछी जाऊँगी । ]
३ दिरण्यनामा--हिरण्यवल्स्यदणीयवातियुक्तः । नामिम्रहर्ण शरीरल्पप-
कक्षणं । (यो० ) । भमिदत्नं--राजामिदात्र। (गो० ) अभिहन्न॑स्थन्येष्ठा-
आार्याधीनत्वात्‌ दृशरथेन भरतसंत्कार प्रतिपेधादेतिभावः । (गो० )
गनहाकर
नि घअयेष्याक्ायदे

काम वा स्वयमेबाद्य तत्र मां नेतुमहसि ।


यत्रायों पुरुषव्याप्रः पुत्रों मेतप्यते तप/॥ १५ ॥
अथवा तूदी मुक्के वर्दाकर आा, जड़ां पुदपत्िद्द मेरा पुत्र तप
'फरता या दुःख भागता दे ॥ २५ ॥
इदें हिंतव विस्तीण धनधान्यसमाचित्स्‌ |
इस्त्यइवरयसम्पूर्ण राज्यं नियातितं! तया ॥ १६ ॥
हुझे तो केफ्रेयो नेये घनवात्य से ररिप्र्ण तथा हाथों, बोड़ों
और स्थों से भरा पूरा राज्य दिकवा ही दिया दे ॥ २६ ॥
इत्यादि वहुमिवाकयं) ऋर। सम्भर्त्ितेज्नय:
विव्यथे भरतस्तरीतं त्रण तुद्येव मूचिना ॥ १७ ॥
जर क्षैणल्या ने इस पकार के कठार वचनों दे ताने मारे, तव
भरत जी के बसा दी छत हुआ, जैसा कि, धाव में छुई चुमाने से
द्वीता है ॥ १७॥ हि

पपात चरणा तस्यास्तदा सम्भ्रान्तचेतनः |


विलप्य वहुधाअंज्ञों लच्धसंज्स्ततः स्थितः || १८ ॥
कोशल्या जी की वातें छुन भरत जी का मन उद्धिय्न हे गया।
श्तः उचकेा कत्तत्यानपयक्त हात न रदा ! जब उन्हें चत हुआ तंद
बहुत चिल्ञाप ऋर, वे काशदया जी के चरणों में पिर पड़े ॥ रद

एवं विलपमानां तां भरतः प्राक्नछिस्तदा


कीसल्या प्रत्युवाचंद शारकेबेद्ुुभिराहवाम ॥ १९ ॥
3 वियाितं--हापित । ( यो० )
पश्चसप्ततितमः सभेः ७६७
इस प्रकार विल्लाप फरती हुईं तथा महाशाक्रग्रस्त कराशदया
से पे द्वाथ जाड़ फर वाले ॥ १६ ॥
आयें कस्मादजानन्तं गहंसे मामकिल्विषम्‌ ।
विषुलां च मम प्रीति स्थिरां जानासि राघवे ॥ २० ॥
देमाता | तुम जानती हा कि, श्ोयामचन्ध में मेरी कितनी
अधिक दृढ़ प्रीति है। में हस भामक्षे में नितान्त अनभिन्ञ और
भिर्देष हूँ । ऐसा होने पर भी-तुम मेरी निनन्‍्दा क्यों करती
दा ॥ २०॥
कृता शात्तानुगा बुद्धिमां भत्तस्य कदाचन ।
सत्यसन्धः सतां श्रेष्ठोयस्यायेड्छुमते गतः ॥ २१ ॥
सत्यसन्ध और सज्नों में श्रेष्ठ थोरामचद्ध जिसकी सम्मति
से बन भेजे गये हों, वह पढ़े हुए शात्रों को भूल ज्ञाय। इसका
भाव यह है,कि यदि श्रोराम के बन भेजने में मेरी श्रुमति रही
दे, तो मेरा श्रुतिस्मृति सम्बन्धी ज्ञान नए दो ज्ञाय ॥ २१॥
सूये च प्रति मेहतु ।
प्रेष्यं पापी23यरसां$ यातु यस्य ायें[ २
हन्तु पादेन गां सुप्नां ज्लुमते गत) ॥ २२ ॥
अथवा भ्रीरामचन्ध जी जिसकी भ्रतुमति से चन. भेजे गये हों,
चह पापात्मा नोच जाति का सेत्रऋ दो; छू की प्रोर मुख
कर मत्न सूत्र त्याग करने का और सेतो हुई गे। के लात मारने का ,
पाप उसे लगे ॥ २२
[ नोट--इछिद्ससधेदाता हैकिसूर्यकोओर मुख कर मल मुत्त
दिलर्जन न करे और गाय के छात न मारे, जे। ऐसा करते हैंवे पाप के भागी
द्वते हैं। ]
3ई5 धवेब्याकायदे
(अमक3 शत्यमन थक
कारयिता महत्कम भता भुृत्यमनवंकम |
अथर्मो याउत्य सेस्यास्तु यस्‍्वायाउ्तुमत गतः ॥२३॥
झधवा धीरामचाद जी जिसकी श्रहु्मात से वन भेजे गये दीं,
उसे चद पाप बगे, जे। वड़ा दाम कर लेने पर भी नाकर का वेद
न देने केकारण मालिऋ को दवा हे॥ रहे ॥
प्रिपाल्यमानस्य राह्टो भवानि पुत्रवत्‌ ।
बट न
», गा ५
सतते इह्ता पाप यस्यायीप्छुमत गत! ॥ २४ |
छथघवा श्रीरामचन्द्र जीबिसझी ग्रहुमति से वन भेजे गये दें।+
इसे वद पाप हा, जे पुत्र की तरद प्रजञापालन करने वाले राजा
से विद्रोह ऋरते पर होता है ॥ २४ ॥
वृढिपद्भागमुदधूत्व! इपस्वारक्षतः प्रजा; ।
कि व ० ४६ ब्ः बडे
अथमी यास्‍्व साञ्य्यास्तु वस्वावीश्तुमंद गत ॥ श्षा।
अथवा धीरामचाद जी जिसकी अदुमति से बद प्रेजे यये हैं,
उसे वह पाप हो, ज्ञा उस राजा के दोठा है, जा प्रज्ञा सेदुठतोँ अर
ऊर का के ऋर भी, प्रज्ञा की रक्ता नहीं करता ॥ २५ |
संथुत्य च तपस्विभ्यः सत्रे वेयज्दक्षिणाम | !
तां विप्रल्वपां पाप॑ यस्‍्वायाज्जुमते गठः || २६ ॥
ु + ० रि नम

धथवा औरामचद्र जी जिसकी अतुमति से दत भेजे गये दी


उसे वह पाप हो, ले वाप ऋल्ियों के दक्षिण देने की अतिशा
कर, पीछे दिए न देने दाल हे हैता है॥ २६ |
गो )
१ उद्दइझ--भकाइझद | (्‌
पश्चसप्ततितमः सर्गः ७६६
हस्त्यश्वरथसम्बाधे युद्धेशस्समाकुले |
मा रपर कार्पीत्सतां धर्म यस्यायेज्लुमते गतः ॥२७॥
श्रयत्रा थोरामचन्ध जी जिसकी अजुमति से वन में भेजे गये
हों, उसे वह पाप हा, जे। द्वाथी घोड़ों श्रौष् रथों सदित एवं
शब्राहयुक्त युद्धत्षेत्र में सद्वीरों का धर्म न पालने से योद्धाओं के
होता है॥ २७॥ '
उपदिष्टं सुप्नक्ष्माथ शात्ध॑' यत्नेनों पीमतार ।
से नाशयतु दुष्टत्मा यस्यायेज्लुमते गतः || २८ ॥
. भ्रथवा धीरामचन जी जिसकी अनुमति से बन मेंभेजे गये
हों, वह दुशत्मा, प्रच्छे बुद्धिमाद गुर से परकेकसाधक एवं रहरुय-
युक्त उपदिए वेदास्वादि शास्त्रों के भूलज्ञावे ॥ २५ ॥
मा च त॑ ब्यूहवाहंस चस्द्राकसमतेजसम्‌ ।
द्राक्षीद्राज्यस्थमासीन यरयायेज्लुमते गत! ॥ २९ ॥
श्रथवा भ्रीरामचन्द्र जीजिसकी अनुमति से बन मेंभेजे गये
हों, वह उन विशालवादू शोर ऊँचे कंधों वाले तथा चन्द्र छुये के
समान तेजप्वी धीरामचन्ध जी का राज्याभिषेक न देख पावे।
( भर्थात्‌ तव तक वद्द ज्ञीवित न रहै, मर ज्ञाय ) ॥२६॥
पायस॑ कृसर छाग॑ हथा” से5श्चातु निध्ृण! |
गुरुंआाप्यवजानातु" यस्यायेज्तुमते गतः ॥ ३० ॥
है १ शाख्य--वैदान्तादिविशिद्ाथ' । _ (ग्ो* ) २ यत्नेनेपदिष्द--
घुसूक्षमाथं,, परलाकसाधकरइल्यार्थयुक्त । (यो० ) ३ घीमता--गुरुणा
(धो ) ४ बृधाइइवातु--वेबतापित्रतिथिनिवेदनसन्तरेणमुक्तामित्यर्थ: । (गो०)
५ भवजानातु--अ्युत्धानामिवादिनादिकंवकरोलवित्यथें: । ( गो० )
चा० रा०--४६
इ३० अयाध्याकायदे

प्रथवा भीरामचद्ध जी जिसकी अनुमति से वन भेजे गये हों,


उसे वह पाप हो, जे देवता, पितृ, भ्रतिथि का निवेदन किये बिना
खीर, तिल्न, चाँवल, अथवा माँध खाने चाले के ओर गुरु का देख
खड़े न दाने वाले तया गुरु का श्रणाम ने करने वाले को देता
है॥ ३० ॥
[ नाठ--भर्वात्‌ बिना देवता दिंू अतिथि छे निवेदन फ्िये कई वस्तु
खानी नह चादिये । श्रीमद्भगभवद्गीता में दिल्वा है--मुश्नतेतेत्वबंपापं ये
पचचन्यात्मकारणात्‌ ” अ्यात्‌ जो नपने लिये रखे।ई बनाते हैं, वेअन्न नहीं;
किन्तु पाप भक्षण करते हैं । ]

गा स्पृशतु पादेन गुरुन्परिवदेत्स्वयम्‌ ।


मित्रे दृत्ेत साउल्यन्त॑ यस्यायेज्लुम्ते गत? ॥ ३१ ॥
अथवा जिसकी अनुमति से श्रीरमचद्ध जी वन मेंभेजे गये
हों, उसे वह पाप दे, जे! पाप गे। के! पैर से छूने, सुद की निन्‍्दा
करने और मित्र से धत्यन्त द्रोह करने से द्वता है ॥ ३१॥
विश्वासात्कथितं किशित्परियादं मिथः कचित्‌ ।
विहणेतु स दुष्टात्मा यस्याये|्लुमते गतः || ३२ ॥
अथवा जिसकी अनुमति से श्रीरामचन्र जी चन भेजे गये हों,
इसे चह पाप है।, जे उस पुरुष के दोता है, जिसका विश्वास कर
उससे किसी का कोई दोष कद्ठा ज्ञाय (और साथ ही उससे उस
दोष के प्रकट करने का निषेध भी कर दिया ज्ञाय और वह
दुशक्मा निम पर भी उस दोष को प्ररृठ कर दे। ) धर्थात्‌ जे पाय
दिश्वासधाती के द्वता है,वह डसे दे, जिसने श्रोरामचद्ध के वन
मेंभेजने की सलाह दी दे ॥ ३२ ॥
पञ्चसद्तितमः सर्गः ७३१

अकता हक्ृतज्ञथ् त्यक्तात्मा' निरफ्रपा ।


लेके भवतु विद्वेष्यों यस्याये|हुमते गतः ॥ ३३ ॥
अधवा जिसको अ्रतुमति से श्रीशमचन्ध जो वन में भेजे गये -
दों, उसे वह पाप द्वो, जे उपक्वार न करने वाले, सल्लनों से व्यक्त,
निर्लज् और सब से वैर करने वात्ते का होता है ॥ ३३ ॥
पुन्रेदारिश्र भुत्येश्र॒ स्वग्रहे परिवारितः ।
से एको मृहमश्नातु यरयायेजितुमते गत! ॥ ३४ ॥
अथवा जिसकी अनुमति से थ्रीरामचनद्र वन में भेजे गये हों,
उसे दद्द पाप द्वो, जे। उस मनुष्य का द्ोता है, जे। सामने वैडे हुए
नौकर चाकर, स्त्री, पुत्रों के न दे कर, स्वयं अक्रेल्े होमिठाई
खाने वात्ने का होता है) श्रथवा जे पाप स्वयं धच्छे पदार्थ जा कर,
अपने प्राक्षित जनों के कदन खिलाने से द्वाता है॥ ३५७ ॥
अप्राप्य सद्शान*दाराननपत्यः प्रमीयताम्‌ ।
- अनवाष्य क्रियां धम्यार यस्यायेज्लुमतें गत। ॥३५॥
अथवा जिसकी अनुमति से भ्रीरामवन्द्र ज्ञी वन में भेजे गये
दों, वह जन समान कुल की पत्नी व पावे, बह सनन्‍्ततिद्दोन ही,
और शअप्निद्ोत्रादि धाम कमें किये घिना ही मर जाय ॥ ३५ ॥
माउज्मनः सन्तति द्राक्षीत्सवेषु दारेषु दु!खितः ।
'आयुः समग्रमप्राप्य यस्यायेश्जुमते गतः ॥ ३६ ॥
३ त्यक्तात्मा--प्रन्निः परिहत३ | (गो* ) ९ सदशान्‌ू--प्र्नान
कुछानू । ( यो० ) ३ पर्म्याक्रियां--अपिदे्नादिक व | ( गो )
8७२ श्रयाष्याकायडे

अथवा जिसकी अनुमति से श्रीरामचद्ध ज्ञी बन में भेजे गये


हों, वह अपनी स्री के यर्भ से उत्पन्न सन्‍्तति के विना देखे, दुःखी
हो, पूर्णायु न पावे ॥ ३६ ॥
राजख्रीवालहद्धानां वधे यत्पापपुच्यते ।
भृत्यत्यागे च यत्पाप॑ तत्पापं प्रतिपद्यताम ॥ ३७ ॥
जे पाप राजा, स््री. वालक और बूढ़ें का वध ऋरने से होता
है,ध्थवा जे। पाप निरपराघ ( स्वाप्रि-मक्त नौकर की त्यागने से
होता है;वह पाप उस पुरुष का हो, जिसकी सम्मति से श्रीराम्चद्ध
जी बन में भेजे गये हों ॥ ३७ ॥
लाक्षया मधुमांसिन लोहेन च विषेण च।
सदेव विभुयादभुल्यान/ यस्यायेनुष्यतेगत! ॥ रे८ ॥
अथवा जिसकी सम्मति से श्रीरामचन्द्र जीवन में भेजे गये
हों, उसे वह पाप हो, जे! मास शहद अयवा मद, लाख. लेहा और
विष की विक्की को प्रामदनी से अपने प्ाश्चित जनों--धरवालों
तथा नोकर चाफरों का सदा पालन करने वाक्ते का देता है ॥३5॥
[नेाट--मांख, मद्रा, छाख. छोद्दा और विप का व्यापार करना
निषिद्ध हैं |स्व॒तियों में भीछिल्ला है---
* छाक्षा लवण मांतानि वर्जनीयानि विक्रये ”
मर्थात्‌ छाख्, नॉन माँस का बेचना पर्मित है ।
संग्रामे समुपोहे तु #शनुपक्षमयडूरे ।
पलायमाने वध्येत यस्यायेज्लुमते गतः ॥ ३९ ॥
१ भूलानू--भत्तेन्याव्‌ पुत्रादीन्‌ ! (शि०) रे समुपेदि--निकके । (गो०)
प्राप्ते ।(रा० ) # पाठान्तरै-- शतपक्ष ।
पश्चसप्ततितमः सर्गः ७७३
अथवा जिमकी 'ग्रठुमति से ओरामबद्र ज्ञी वन में भेजे गये
हों, वह पुरुष, युद्ध में शत्रु का भयहूर सैन्यदल देख भागता हुआ
मारा जाय। अर्थात्‌ श्रोयमचद्ध जो के वन भेजने की सलाद देने
चाले का चह पाप तगे, ज्ञो युद्धक्षेत्र से
शन्न सेडर फर भागने वाले
का होता है अथवा भागे हुए शत्रु को मारने वाक्ले को देता
है ॥ ३६ ॥
[ युद्ध से उर कर भांगना सो पाप है, भर मांगते हुए, निःशल और
अधोन हुए शत्रु का मारना भी पाप है । ]
कपालपाणि: पृथिवीमटतां चीरसंहतः ।
भिक्षमाणा ययेम्मत्तो यस्यायेज्लुमते गत) ॥ ४० ॥
भयवा जिसकी सम्मति से श्रीरामचद्ध जी वन में भेजे गये
हों, यह चिथड़े लपेरे, पागल को तरह मुर्देको खोपड़ी द्वाथ मेंलिये
द्वार द्वार भोज माँगता डुआ, पृथिवी पर घूमे ॥ ४० ॥
[ नेट--हप छोऊ में शधारियों और क्वापालिकों के निन्‍्य ठदराया है]
अमथे प्रसक्तो भवतु स्रीष्यक्षेपु च निद्यण) ।
कामक्रोधामिभूतस्तु यस्‍्यायेज्जुपते गत! ॥ ४१ ॥
प्रथवा जिसकी अनुमति से धीरामचन्द्र बनवासी हुए हों,
चह् पुरुष सदा मद्य पोने में, ख्रोमेथुन में ओर लुपा खेलने में
अत्यन्त आसक्त दो और काम व ऋोध के कारण उसका सदा
निरादर द्वोता रहे प्रथवा बढ काम्र व क्रोध से सदां सताया
ज्ञाय ॥ ७१॥
या सम धर्मे मने भूयादधम स निषेवताम्‌ |
॥० मल... ॥ ०

अपात्रवर्षी! भवतु यस्याये5लुमते गत। ॥ '४२॥


३ जपान्नरवर्षी--अपात्रें बहुदायों। ( गो० ) # पाठान्तरे-- पाने !! |
७७४ अयेष्याकायडे

थधवा जिसकी सल ाद से थ्र ोयम चन् द्र ज वन


ी वा सी हु ए हो ं-
वह स्वघर्म में मन न क्ष गा कर सद ा अध र् म कार ्य ही कि या कर े
प्र छुपात्र के वह ुत सा दा न दे । अथ वा वि स मनु ष्य क ीसल ाद
से भ्रीराम बन वा सी हु ए हों , उस े वह ी पा प दी , मे । स् धम -त ्ा गी
पर अधर्म अनुरागी एवं कु पा व का वद ुत दा न देन े वा ले के ! हो ता
है॥४र॥ |,
संचितान्यस्य वित्तानि विविधानि सहस्रगः ।
!दस्युमिर्विगलुप्यन्तां यस् ‍्य ाये ।5न ुमत े गत ः ॥ ४३ ॥!
अथवा जिसकी सक्लाह से श्रीरामचन्ध मो वनवासी हुए हों
उसकी याढ़ी कमायो का विपुल घन चेर चुरा ले ज्ञाय ॥ ४३ ॥|
रउ्े सन्ध्ये शयानस्य यत्पापं परिकर्प्यते ।
तब पाएं भवेत्तस्य यस्‍्याये5लुमते गत) ॥ ४४ ॥
अ्रथवा जिसकी श्रवु्मात से श्रीरामचद्ध जी वनवासी हुए
इसे बह पाप लगे ज्ञा साँफ़ सवेरे सोने वाले को लगता
है!
', है॥४8॥
[ प्रातःकत्प्यानयाव बीतने और दिन उगने के समय ; साथ धल्ध्यालन
दिन डूबने और रात्रि दाने केसम्द. सोना निपिद है--क््योंकि पन्ध्याओों
में बाने ले भायुक्ञीय और पृण्यक्षय द्वेते हैं |कहीं कहीं यह भी छिद्ा है--
“ब्राक्नेमुहूरें या विद्ठा ल पुण्वक्षयकारिणी | *' |
यदभिदायके पाएं यत्पादं गुरुतत्पग |
मित्रद्ोहे च यत्पाएँ तत्याप॑ मतिपद्यताम ॥ ४५ ॥
३ दष्युम्रः--तत्करेः । ( यो० ) रे इसे---ठमयेः क़्प्ये8 | ( गो० )
पश्चसप्ततितमः सर्गः ७8४
ग्रथता ज्ञो पाप घर में ध्याग लगाने वाले का, गुरु की ख्री
के साथ संभाग करने वाले के प्रोर मित्र से द्वोह करने वोले के
हता हैं,वह पाप उस मनुष्य के लगे, जिसने श्रीरामचन्ध के घन
में भेजने की सलाह दी दा ॥ ४४ ॥
देवतानां पित॒णां च मातापित्रोस्तथेव च |
मा स्प्र कार्पीत्स झुभुपां यस्याये5लुमते गतः ॥४६॥
अथवा जिसमे श्रीरामचन्ध जी के चनवासी दोने की सम्मति
दी है व देवता, पितू और माता पिता की पूजा, भाद्ध भर
सेवा शुषा से वश्चित है। । ग्रथवा जो पाप--देवपुजन, पितृभ्राद
झौर माता पिना की सेवा न करने वाले के लगता है, वह पाप
श्रीरामचद् जी के वन मेंभेजने को सक्षाह देने वाले के दे ॥४६॥
सतां लेकात्सतां' #कीत्यों! सझ्लुश्टात्कमणर्तथा । '
भ्रश्यतु प्षिप्रमथेव यस्याये5लुमते गतः ॥ ४७ ॥|
अथवा जिसने शोरामचन्द्र जी को वन में भेजने की सलाद
दी हो, वह पुरुष इसी घड़ी सज्ञनों के लेक से, सज्ञनों की कीति
सेऔर सत्क्मोंसेभ्रएदाज्ञाय | श्र्थात्‌ ऐसे पुरुष कानतो
क्षाई ऐसा केक प्राप्त दो, जैसा कि, सत्पुरुषों को मिलता है, न उसे
चह कीति उप-ल्ब्ध हो, जो साधु पुरुषों को मिलती हे( धथवा
उस पुरुष की साधु ज्लाग प्रशंसा न करें )गौर न उसका मन उन
कामों में लगे, जे! साधुओं के लिये भरमुष्ठेय हैं ॥ ४७७ ॥
अपास्य माठ्शुअपामनयथण से।ज्वतिहठताम |
दीर्घबाहुममहावक्षा यस्यायेज्लुमते गतः ॥ ४८ ॥
-- । क्रिवमाणइलाघनात्‌ | ( यो० )
सद्ठि
१ पतांद्ीर््यांतू
तकमं ” |
० पाठान्तरै--''क्ीर्यात्संजुप्टाणछथा
3४६ अयाध्याकायडे

श्रथवा जिसकों सलाद से दीघबादु ओर चोड़ी छाती दाले


श्रीरामचद् जो चनदासी हुए दों--बघद नाता क्री सेवा से बठ्ुख
है, अधर्म कामों मेंलगे | श्र्थाव उते मातु सेवा से विपुक्ष होते
तथा अधाय कार्या में रत होने का पाप हो ॥ ४८ ॥|
बहुपुत्रों दरिद्रध ज्वररागसमन्वित;
से भयात्सतत कशा यस्वायाउलुमत गत: (४९ ॥

जअथपा जिसको सलाह से श्रोरामचनद्ध ज्ञी दंत में गये हों,


बह वहु डलति वाला हो कर दारिद्ध दो, ज्यर राम से पोड़ित दी
और खद्ा झेश पावे ॥ ७६ ॥
[ वेड--बहुत्त प्न्ताव द्वावा भी दकिता छा सूचक दै। सटृतिकाएँ
डे मतानुधघार ध्येठ्ठ पुत्र झेछोड़ शेर सद सम्ताद कानज ई । )

आशामाशंसमानानां' दनावामृश्यंचश्षु पाम्‌ |


अधिनां वितयां कुयोयस्याये5जुमते गतः ॥ ५० ॥
अथवा जिम्नक्नों लाह से श्रीरामचनद् जो चबवासी हुए हों, «
हब
. उसे वही पाप लगे, जा कऋुद्ध प्राप्ति द्वी आशा से श्ाये हुए दो
याचक के काया जवाब देंकर और उसे हताश करने वाले अमि-
प्रानी धनी के लगता है | ४० ॥
सेमायया रमताँ” नित्य पढुष) पिश्चुनाध्शुचिः |
राज भीतस्लघमात्मा यस्‍्वायोअनुमते गत। ॥५१॥
$ आशानाशंधनानानां--च्तुवर्ता । ( गोल ) ३ ऊच्दंचसुपां->उच्चवा-
घनल्वदानुनुत्ननिर्ीक्षक्र्यां । ( गो ) ३ ग्रायया--चद्धन॒या | ( गोरे )
४ रमतठा--प्रकोमबतु । ( गो० )
पश्चसप्ततितमः सर्गः 99७

पयत्रा जिम्को सलाद से शोसम्रचद्द जो वन में गये दा, व


पुरुष फपद-प्रिय, चुगलसोर--( इधर की उधर जगाने बाज़ा )
वेइमान और प्रधर्मी दो। वह सदा राजभय से प्रष्त रहे ॥ ५१ ॥
ऋतुस्नातां सती भायामतुकाला नुराविनीम्‌ |
विवरतेत दुष्टात्मा यस्‍्याये|अतुमते मत। ॥ ५२॥
ञ्ज 6 षात्म मी दा

प्रयवा जिलकी प्रयुगति से श्रीरामचनद्ध जी वन में गये हों,


यह दृशस्मा ऋतुस्नाता (रजस्वजा ख्रो के शुद्ध दोने पर ) तथा
पतिबरता खो के, जा ऋतुस्तानास्तर रतिदान फ्री श्रम्िज्ञापा से
निकट भायो दा, अट्रोकार ने करे। अवया उसे वध पाप लगे जे।
ऋतुस्नाता परतिबता जी हो रगिदान ने देने बाज के दोता
है॥ ५२॥
[ नेद-कतुझती पयों थे थिुय ऊरना पाप है | )
धमदारान्परित्यज्य परदारान्रिपेवताम |
५ ण्ू

त्यक्तथमरतिमृदों यस्याये[आछुमते गत। ॥ ५३ ॥


कण - प क्

प्रश्चवा जिसकी अ्रदुतति से भोरामचन्द्र जी बन मेंगये द्वों,उसे


बद्दी पाप दी, जे! उस मूढ़ के दिता दे,जा धर्मोशुराग का त्याग देता
हैऔर अ्रपनी धर्मपत्नी के छोड़, पराई झ्री से मेधुन करता है।
अर्थात्‌ जे! पाप धर्मविचारशूत्य व्यमिचारी पुरुष के द्वोता
है॥ ५३ ॥
विप्रल्ुप्पनात्तस्य दुष्द्नत ब्राह्मणस्य यम्‌ |
तदेव प्रतिप्येत यस्यायेज्मते गत! ॥ ५४ ॥
पु १ ऋलुकाठानुरोधिनों--ऋतुस्नानदिवप्रेखलंनिद्दितां | (गो० ) २ भत्ति-
परेंत--छीकारनकुर्पात्‌ । (गो०) $ पिप्रलुपत्णातध्य--तटापत्यस्य, सन्‍्तति-
दीवस्पेस्यर्थ: | ( गो० )
७३८ अयेध्याकाणडे

अथवा जिसकी अनुमति से भ्रीरामनद्ध ज्ञो वन में गये हों


उसे वद्द पाप लगे जे उस त्रा ह्मण के लग ता है, जिस के पुत् र मार े
भूखों के मर जाय और वह उनझा पालतत न कर सके ॥ ४४ |
पानीयदपके पापं तयेव विषदायके ।
यत्तदेक!' स लमतां ब्नुमते गत; ॥ ५५ ॥
० है. यय्यायें ऐप

झथवा जिसकी सम्मति से श्रोरामचन्द्र जीवन मेंगये हों,


उसे वही पाप दो, जो पाप पानी में विष आदि घेल कर विगाड़
देने से अयवा किस्ो के चिप दे कर मार डालने से दोता है।
इन दोनों टुष्कमो का पापरुप फल्न उसे ग्राप्त दो ॥ ४४ ॥
"व्राह्मणायादतां पूजा विहन्तु कलुपेन्रिय
वालवत्सां च गां दे|ग्धु यस्यायेज्छुमतें गत! ॥ ५६ ॥
अथवा जिसकी सम्मति से श्रीरामचन्ध जी वन में गये हों,
डसकी सब इन्द्रियां कल्लुषित दो जाये। उसे वही पाप हो, जो उस
महुष्य का होता है,जो किसी ब्राह्मण के होने वाक्के सत्कार का,
उस ब्राह्मण की निन्‍दा कर, रुकवा दे, तथा दोटे बहुड़े वालो गो
का दूध दुदे | ५६ ॥
[नाद-न्राह्मण के छात्र में मांगी मारवा और जब तक चछड़ा छोटा दो,
तब तक गे का दूध दुददना, पाय हैं। ]
ठषाते सति पानीये विप्रलूम्मेन* येजयेत्‌ |
लभेत तस्य यत्पाप॑ यस्यायेज्जुमते गत!-॥ ५७॥
१ यन्रदेका--द्यं एक्रे छम्रतां। (रा०)२ ग्राह्मणये/द्रतापूाविदवन्तु-- |
आह्मणायउचद्यतांझेनचित
गतितां पुजा प्रत्क्ृति विद्वन्तुवाह्मणनिन्दादिनावास्यतुः ।
( शि० ) ३ विप्रडम्भेन--वदल्चनया । ( गो? )
|
पश्चेसप्ततितमः सगेः 388
श्रथवा जिसने श्रीरामचन्द्र को वन में भेजने की सम्मति दी'
है, उसे वही पाप है, जे। जक्ष के रहते भी, प्यासे आदमी के
बहाना कर, टाल देने वाके के। होता है ॥ ४७ ॥
'भक्त्या विवदमानेषु मागमाशित्य पश्यत/ ।
तस्य पापे न युज् येत यस्य ायेज ्छुम ते गत। ॥ ५८ ॥
अधवा जिसने शीरामचन्द्र को वन में भेजने की सलाह दी
हो, उसे बढ पाप दो ज्ञो पाप उस भलुष् य का देता है जो पक
दूसरे के जीतने के उद्देश्य सेशाह्ीय चिचार में प्रदू्त दे विद्वानों *
का मध्यत्य वन, पत्तपांत से प्रेरित दी, अपने प्रियज्ञन का पक्षपात
करता है। अर्थात्‌ जो पाप पत्तपात करने वाले मध्यस्य के द्वोता है।
शप्रामिरामी टोकाकार ते इस खछोक पर यद टीका की हैफि जहाँ
पर परैष्णव श्रौर शैदों में विभु परत् व श्रौर शिवप रत्व के ऊपर विवा द
द्ता हे, उसे शास्त न ऋर, उपे बढ़ाने चात्ते का जो पाप दाता है,
बह पाप उप्चक े लगे, जिसन े धोरा मबन् ध जो के वन में भेजन े की
सकाद दी हो ॥ ५५ ॥
विहीनां पतिपुत्राभ्यां कासल्यां पार्थिवात्मजः ।
एवमाश्वासयन्नेव दु/! खातो ं निषप ात है॥ ५९ ॥
राजपुत्र भरत इस प्रका र पति पुत्र विद्द ीन कोशव ्या का समझ ते
ऋर अपनी सफाई देते हुए, आर्त है, पृधि वी पर गिर पड़े ॥ ५९ ॥)

तथा तु शपयेः कष्ट! शपमानमचेतनप्‌ |


भरत शोकसन्तर ्प कै सट ्य ा वा क् यम त् रव ीत ्‌ ॥ ३० ॥
१ सक्तया--अयेधायमाजिय | ( गो० ) रे पश्यत+--मुंवततललपापेन
युज्येतेतिसब्बन्धः । ( यो? )
85६० अयेध्याकाय्ट
तब भरत से जे इस प्रकार को कठिन अपयें खा कर, शोक
से मन्तप्त दे. ज्ञानशून्य दी गये 4--कोगल्या जी वालीं ॥ 4० ॥
खमदं पुत्र भयः समुपायते |
शपथ; शपमाना हि प्राणातुपरुणत्सि मे ॥ ६१ ||
दें वत्स | तुम जो तरह तरह की शपयथें जा रहे हो, से इससे
ते मुक्त दांखयाएं का दुःख और नो अँविक् दढ़ता है ॥ ६१ |
दिप्य्या! न चलिता *भमादात्मा३ ते सइकद्षमणः ।
वत्स सत्यपतित्ञों मेसतां लाकानवाप्स्यसि ॥ ३२ ॥।
यह सोताग्य की वाठ है कि, तुम्दारा प्रत अपने बड़े भाई ही
आर स्‌ चलायमान नहां हुआ और तुम लद्मण हो वरद सत्य-
आतिज्ञ दी । अ्रत:; तुम उस कक के याध्व क्षेगे सद्भम प्राप्त
करते २॥
इत्यक्ता चाडइमानाय भ्रतं अआरववत्सलम |
परिष्वज्य गहावाहु रुराद भरददुःखिता। ६३ |
यह कह महारानो क्षैशल्या, महावाहु ध्रातृवत्धल भरत के
गादी में लेऔर हृदय से लगा, श्रत्यन्व डुःझित दो, सोते
लर्गी ॥ $३ ॥
एवं विलप्मानस्य दुःखातंस्य महात्मनः ।
प्रोह्मच्न शेकसंरोधाद्रभूव लुलितं मनः ) ६४ |
इस प्रद्मार रात हुए और दुःख से पीड़ित भरत का मन शोक
उम्रइने से उध्यन्न माह के वशवत्ती दो, उद्धिय् हो गया ॥ $४॥
१ दिछधया--नाग्येत | ( बो० ) ३ आत्ना-क््त/क्ार्ण । ( गो»)
ह धमात्‌--अ्येष्टानुबतंबधन्ांत्‌ । (गो )
चड्सप्ततितमः स्येः छपर
लालप्यप्रानस्य विचेतनस्य
प्रणहबुद्धे! पतितस्य भूषों ।
मुहुमेहुर्निःशवसतथ धर्म
सा तस्य शेकेन जगाम रात्ि! ॥ १५॥
इति पश्चसप्ततितमः सर्गः ॥
मद्दारानी कैशल्या द्वारा लाड किये गये, वारंवार विज्ञाप करते
हुए, चेतनाशुन्य, पूथिवी पर पड़े छुठपठाते हुए, बारंबार निश्यास
केते और शोक करते हुए भरत ने चद् रात विताई ॥ है४ ॥
अयेध्याकागड का पचहत्तरवाँ सर्ग समाप्त हुआ ।
>>

पड़ूससतितमः सगे;

तमेव॑ शोकसन्तप् भरत कैकयीसुतम्‌ |


उवाच वर्द्ता श्रेष्ठो वसिष्ठः श्रेष्ठवागषि। ॥ १ ॥
द्वेफेयीतुत भरत जी का इस प्रकार शोकाबुल्न देख, वालने
वाहनों में भेष्ठ ऋषि वशिए ज्ञी उनसे उत्तम वचन बोक्षे ॥ १॥
अल शोकेन भट्ठ तेराजपुत्र महायञ्ञः ।
प्रापकाल्ल नरपतेः कुछ संयानउुत्तमस्‌ ॥ २॥
है परम यशस्व् री राज पुत ्र ! तुम ्दा रा मद ्ु ल दे । बस , वह ुत हु आ,
शव शो क मत कर ो। अव सम य हो चु का ; अत ः भव वि धि वि धा न
से म्रद ार ाज वी अस् येष ्टि क्र िया कर े ॥ २ ॥
ड८२ झयेष्याकाणडे

वसिष्ठस्य वचः श्रुत्वा भरतों थारणां गतः ।


प्रेतक्षायोँणि सवाणि कारयामाप्त धमवित्‌ ॥ ३ ॥
पृथ्ििवों पर पड़े हुए धर्मात्ा भरत ज्ञो ने बणिए्ठ जी के वचन
छुन, मद्दाराज़ के प्रेतकर्मो का प्रारम्भ किया ॥ ३ ॥
उद्धृत तैलसंरोधात्स तु भूमो निवेशितम्‌ |
आपीतवणवदन प्रमुप्तमिव भूपषतिम ॥ ४ ॥
(क्लामों ने)महाराज के शव के तेल के कढ़ाद से निकाल ऊर,
ज़मीन पर लियाया । यद्यपि कई दिनों तक तेल में पड़े रहने से
महाराज का शव पील्ला पड़ गया था, तथापि यही ज्ञान पड़ता था
कि, मानों महाराज से रहे हैं। अर्थात्‌ उनके मुख की चेश बिगड़ी
नथीं॥४॥
संवेश्य शयने चारये नानारब्रपरिप्कृते ।
ततो दशरथं पुत्रों विललाप सुदु!खितः) ॥ ५ ॥
शनन्तर शव का विविध रत्लज्नटित विस्तरे पर लिया कर,
अत्यन्त दुःखो हो भरत जी महाराज के लिये विज्ञाप करने लगे ॥ »॥
कि ते व्यवसितं राजन्योपिते मय्यनागते ।
५ ॥ ५.
विवास्य राम धमज्ञ लक्ष्मणं च महावलम्‌ ॥ ६ ॥
हैँ राजन ] न मालूम आपने जया साथा, ज्ञो मेरे श्राये विना ही
शापने घर्मझ धीौराम ओर महावली लक्मण के वन में भेज
दिया ॥ ६ ॥
क यास्यसि महाराज हिलेमं दुःखितं जनम्‌ ।
हीन' पुरुषसिंदेन रामेणाक्िष्कमंणा || ७ ॥
पडसप्ततितमः खर्गः क्षय
दे महाराज ! अमाहुषिक कर्मरर्ता पुरुषसिह श्रोराम विद्योत
मुफ दुखिया के लोड आप कहां जाते हैं॥ ७ ॥
येपक्षेमं तु ते राजन्काउस्मिन्कर्पयिता पुरे |
' त्वयि प्रयाते 'खर्तात रामे च वनमाश्रिते ॥ ८ ॥
है महाराज |आपकी इस पुरो कली राज्यत्यवरध्या, स्थिरचित्त
से शव क्लोन सेमालेया । क्योंकि भ्राप तो स्वगंवासों और भीराम
चनवासी हैं॥ ८॥
विधवा पृथिव्री राजस्त्वया हीना न राजते |
हीनचन्द्रव रजनी नगरी प्रतिभाति माम# ॥ ९ ॥
है महाराज |आपके बिना यह घिधवा पृथिवी शेभा नहीं
पाती । यह थ्येष्यापुरी ते मुझे चनच्धह्ीन रात्रि जेसी शोमाहीन
जान पड़ती है ॥ ६ ॥
एवं विलपमानं तं भरतं दीनमानसम्‌ ।
अन्नवीदचनं भूये! वसिष्ठस्तु महामुनिः ॥ १० ॥
भरत जी के इस प्रकार दीन मन से विलाप करते देख, महर्षि
चशिष्ठ फिर उनसे बाल्ते ॥ १०॥
प्रेतकार्याणि यान्यस्य कतंव्यानि विशांपतेः |
तान्यव्यग्रं महाबाहा क्रियन्तामविचारितस ॥ ११ ॥|
हैमहावाही | देपृथिवीनाथ ! झव तुम व्यत्नता त्याग कर मदाराज
को अन्येशिकिया के ज्ञो कम करने चाहिये, से! करे। अब सोच
विचार करने का समय नहीं है ॥ ११॥ हक
१ खव: --खरग्ग | ( गा० ) # पाठान्वरे--* मा प्ले” |
के
कप अयेष्याकायडे

तथेति भरतो वाक्य वसिष्ठस्थामिपूज्य तत्‌ |


ऋत्विक्पुरोहिताचायास्त॒रयामास स्वेश! ॥ १२॥।
तब भरत जी ने वशिष्ठ जी कीवात मान ऋत्विज्र, पुरोदित
और घाचायों से महाराज्ञ के प्रेतकर्म करवाने के लिये शीघ्रता
की ॥ १२ ॥
ये लग्नयो नरेच्रस्य चाग्न्यगाराह्हिप्कृता। ।
ऋत्विग्भियाजकैशेव तेहयन्ते# यथाविधि ॥ १३ ॥
महाराज के अग्यागार में जो अशि में स्थापित थी, उन सद
के! वाहिर निकाल कर, ऋत्विज और याचक्क यथाविधि दोम
करने लगे ॥ १३ ॥
शिविकायामथारेप्य राजान॑ गतसेतसम्‌ |
वाष्पकषण्ठा विमनसस्तमूहु! परिचारका; ॥ १४ ॥
तदनन्तर परिचारकगण महाराज के शव के पालऊझी में रख,
झत्यन्त उदास और रोतेहुएपालक्नी उठा कर चल्ले ॥ १४॥
दहिरणयं च सुवर्ण च वासांसि विविधानि च |
॥ रबप
प्रकिरन्‍तो जना माग इृपतेरग्रतों ययु) ॥ १५ |
लेग महाराज की पालकी के शभ्रागे आगे मेहर उपये श्रथवा
सेने चांदी के फूल ओर तरह तरह के वल्मा सड़कों पर वरसाते
हुए चल्ते जाते थे अर्थात्‌ छुठाते हुए चक्ते जाते थे ॥ १५ ॥
' ?चन्दनागरुनियांसान्सरक्क' पद्म तथा |
देवदारूणि चाहृत्य फ्षेपयन्ति तथा परे॥ १६ ॥
१ क्ददागहनियासानू--नियसि/कुम्मुछः । (गो०) २ सररू॑--धृपसरक ।
(गो*) +* पाठान्तरे--'तेडहुयन्द” " आहियन्त ४ । है
पद्सप्ततितमः सर्गः ७९
कुछ जाग चन्दन, श्गर, गुग्युत की धूप ( पालकी के इधर
उधर ) अलाते जाते थे ।(जब॒पानकी सरथूतठ पर पहुँची तब )
देवदार, पदक, चन्दून, प्रगर आदि सुगन्धित झट एकत्र केर चिता
बनायी गयी ॥ १६ ॥
गन्धानुब्यावचांभान्यांस्तत्र गत्वाध्य भूमिपम्‌ ।
ततः संवेशयामासुशि तामध्ये तमृत्विज) ॥ १७ ॥
बिता में और भी अनेक प्रकार के सुगन्धित पदार्थ डाले
गये। तदनन्तर ऋत्विज्ञों नेचिता के (पास पालको क्ेजा कर
तथा उसमें से महाराज के शव के निकाल, )ऊपर शच की लिखा
दिया ॥ १७ ॥
तथा हुताशन दत्त्वा 'जेपुस्तस्थो तमत्विजः |
जगुश् ते यथाशात्ध॑ तत्र सामानि सामगा। ॥ १८ ॥
तदनन्तर ऋत्विज्ञ केग मद्दाराज़ की परमगति के लिये प्रेत्याप्नि
में धाहुति देकर, पैदृमेधिक मंत्र विशेषों का जप करने लगे और
सामगायी ब्राह्मणों ने सामवेद का गान किया ॥ १८॥|

शिविका मि श् र या नै श् व य थ ा ई तस ्य ये षि तः ।
नगराजिययुसतत्र हडे! परिश्तारतदा ॥ १९॥
मद्दाराज की शा कस म् तप ्त सव रा नि या ँ भी वध ाय ेष ्य पा लक ो
रथ आदि सदारियों में बैठ, कृ द् ध रक ्ष को ं क े स ा थनग र क ेवा हि र,
जहाँ मह ार ाज की चि ता बन ाई गय ी थी , पह ुँ ची ं॥ १६ ॥

१ जेपु -प ैत मे थि कर ्म न् रव िश ेष ान ित िश ेष ए | ( गो > ) २. तल ्य - पर म
गद्यय॑मितिशेपः । ( गो 2 -
बा० रा०--६०
ड़
छा अयेाध्याकायदे

प्रसव्यं चापि त॑ चक्रुऋलिगे।उमिचितं तपस्‌ |


सियथ शाकसमन्तप्ताः केसल्याप्रमुखास्तदा ॥ २० ॥
फिर ऋतिज्ञों नेऔर काशल्यादि रानियों नेआवयन्त शोक-
सन्तप्त हो, जलते हुए मद्दाराज के शच की प्रदत्षिणा की ॥ २० ॥
काश्वीनामिव .नारीणां निनादस्तत्र शुभ ।
आतानां करुएं काले क्रोशन्तीनां सदेस्श। ॥ २१ ॥
उस सम्रय करण खर से रोतो हुई और शोक से व्याकुल् दीने
के कारण चिह्नातोी हुई, उन सहक्षों स्लियों काचिल्लानां सुनने से
ऐसा ज्ञान पड़ता था, मानों क्रॉँच पक्षी को मादाएँ चिल्धठा रही
हों ॥ २१॥
ततों रुन्त्यों विवश्ञा विरप्य च पुनः पुनः ।
यानेभ्यः सरयूतीरमवतेरवराज्नाः ॥ २२ )।
तदनन्दर सब रानियाँ सोती ओऔ,्रर विज्ञाप करती हुई, अपनी
प्रपत्ती खवारियां से उत्तर, ससयू नदी के तठ पर पहुँची ॥ २२ ॥
कलादक ते भरतेन साथ
तृपाहुना मन्त्रिपुराहिताथ |
पुर प्रविश्याअपरीतनेत्रा क
भूमा दर्ाईं व्यनयन्त दुःखम || २३ ॥
इति पदसप्ततितमः सर्गः ॥
उन स्त्रियों ने भरत, मंत्री, ओर पुरोद्ितों केसाथ महाराज का
जलाअति दो |तदनन्तर सब जाग आँछू वहाते हुए नगर में आये
सप्तसप्ततितमः स्यगः 3८७
ओर दूध दिन तक भूमि पर लेट कर बड़े दुःख से समय
विताया ॥ २३ ||
श्रयोष्याकागड का छिदत्तरवाँ सर्ग सप्ताप्त हुआ |
"नि
स्ततततितप्ः साः
बन्‍ी0न-+5

ततो दशाहे्शतेगते कृतशाचो तृपात्मज! ।


द्ादशेःनि सम्पाप्ते भाउकर्माण्यकारयत्‌ ॥ १ ॥
दूस दिन वीत जाने पर ११वें दिन भरत जी शुद्ध, हुए ओर
वारहवयें दिन सपिण्डी आदि कर्म किये ॥ १॥
ब्राह्मणेभ्ये। ददो रत्न॑ पनमत्र॑ च पृष्कलम ।
वासांसि च महाहाणि रत्नानि विविधानि च ॥ २ ॥
और बाह्यणों के चहुत सा रक्त, धन झोर श्रत्न तथा बहुभूल्य
वस्ध एवं अन्य विविध उत्तम चस्तुएँ दीं ॥ २ ॥
वास्तिक॑! बहुशुक्ल च गाश्ापि शतशस्तदा ।
दासीदासं च यान॑ च वेश्पानि सुपहान्ति च ॥३॥
ब्राह्मणेभ्ये। ददौ पुत्रों राजस्तस्योध्वदेहिकम्‌ ।
े देहि

ततः प्रभावसमये दिवसेज्थ त्रयेदशे ॥ ४ ॥


|३ वाप्तिकँ--छागानांधमूद्रेचासिक | ( गो+ ) २ बहुश॒ुक--छागविशे-
थर्ण | ( गो० )
उदप भयाष्याकाएडे

भरत ज्ञी ने वह त से सफ ेद बक रे , सै ऋड ़ो ं गा एँ , प् रन ेक
दास दासी , सव ार िय ाँ औ र वड ़े बढ़ े मक ान मह ार ाज फे स् त
कर ्म मे ं ब्र ाह् यणो ं के दा न दि ये । तदन नन् ‍्त र ते रह वे ं दि न प्र ात
॥ल
का ३॥ ४॥
विलछाप महावाहभरत) शोककर्शितः
शब्दापिहितिकण्ट्रतु शोपनाथंगुपागतः ॥ ५॥
चितामूले पितुवाक्यमिदमाह सुदुःखित! ।
वात यस्मिन्रिसष्टो# त्वया भ्रातरि राघवे ॥ ६ ॥
महावादु भरत ज्ञी शाक्र से मूद्तित है, विलाप करने लगे
ओर चिता से अरत्यि वीनने $ लिये चिता के समीप जा
गदगद वाणी से प्रथवन्त दुली हा श्लोर पिता के पुकार कर
कहने लगे-है तात | जिन भाई ध्रोरामचद्ध के भरोसे आपने
हुक्के छोड़ा था॥ ५ ॥ ६ ॥
तसिमिन्वन॑ प्रत्नजिते शुन्ये! ल्क्तोश्स्म्यहं ल्या।
यर्या गतिरनाथायाः पुत्र: प्रताजितों बनम ॥ ७ ॥
उनके बन में भेज, आपने भी मुझे अ्रनाथ की तरह द्याग
दिया । जिन धनाथिनी का पुन्र वन में-निकाल द्यि गया ॥ ७॥

वामम्बाँ तात कासस्यां त्यक्वा त्व॑ कु गतों ठप |


'हृष्टा भस्मारुणं तच दग्धास्थिस्थानमण्डछम्‌ | ८ ॥
१ शल्ये-- स्वजनरदते । £ शि० )
सप्ततप्ततितम्तः संगः 3८६

उन माता काशब्या के देोड़ फर, दे तात | तुम कईं चले गये


भरत जो पिया के शेर को जो हुई श्वेत रंग को रात चिता
स्यात पर देख ॥ ८॥ ;
पितुः शरीरनिवांणं निप्रनन्विपस्ताद से; ।
सतु दृष्ठा रुबन्दीन। पपात घरणीतले ॥ ९ ॥
और पिता क शरोर का नए हुआ देख, निरस्तर रे कर तथा
दीन दो फर, विज्ञाप फरते हुए, भूमि पर गिर पड़े ॥ ६॥
उत्थाप्यमान। शक्रस्य यन्त्रध्वज! इंच च्युत। ।
अभिपेतुस्तत; सर्वे तस्थामात्या; शुचित्रतम्‌ ॥ १० ॥
फिर कारों द्वारा उठाये जाने पर भरत जी उसी प्रसार गिर
पड़े जिस प्रकार डेारो से वंधी इन्द्र की ध्यज्ञा, डोर द्ृढ जाने से
गिर पड़तो है |शुचिवत भरत को गिरा देख, मंत्रियों ने दोड़ फर
उनके उठाया ॥ १० ॥
२अन्तकाले निपतितं ययातिशपये यथा ।
शत्रुध्नध्षापि भरतं दृष्ठा शोकपरिप्लुतम्‌ ॥ ११ ॥
मंत्रियों नेभरत के उसी प्रकार उठाया जिस प्रकार ऋषियों
जे राजा ययाति के पुए्यक्षीण दोने पर स्वर्ग सेगिरते समय उठाया
था । शन्रुध्न जी भी भरत जी की शोक मेंहवा हुआ देख ॥ ११॥
विसंज्ञों न्‍्यपतदूभूमी भूमिषालमतुस्परन्‌ ।
उन्मत्त इंव निश्ेत विलाप सुदु!खित) ॥ १२॥
१ शक्रस्य यंत्रध्वन--एज्जयुक्तो प्वजदव॒पपात | ( गो० ) २ भन्तकाके
---पुण्यक्षयकाले । (गो०)
ड६० * शयेष्याकायदे

राज का स्मरण करते हुए अचेत हो, भूमि पर गिर पढ़ें


घोर घत्यन्त दःखी होने के कारण वेखुध ओर उन्मत्त की तरह
, विलाप करने लगे॥ ११॥
स्मृत्वा पितुगंणाड़ानि तानि तानि तदा तदा |
मन्धराप्रभवरतीवः ककेयोग्राइसड्ुछ; | १३ |
बह पिता के गुणों का एक एक ऋर स्मरण करते जाते थे।
इस समय शत्रप्न जी ऋहने लगे कि, मन्धरा की करतूत से उत्पन्न,
प्रोर कैफ़ैयो रूपी मगर से युक्त ॥ १३ ॥
वरदानमयेक्षोभ्येप्मज्जयच्छोकसागरः )
सुकुमारं च वाल च सततं छाछितं त्या || १४ ॥।
वरदान रूपी ल्यिर महासागर में हम सत्र डूब गये। है
पिता जी! जिस छुकुमार वालक का ज्लाड प्यार आपने सदा
किया, ॥ १४ ॥
क तात भरत हित्वा विलपन्तं गतो भवान्‌ |
ननु भोज्येषु पानेषु वद्चेलाभरणेषु च ॥ १५ ॥
इस विलाप करते हुए भरत को द्राइ, आप कहाँ चल दिये?
भोजन के येष्य पदार्थ वद्ध प्ोर आभूषण ॥ १४ ॥
!प्रवारयसि नः सवास्तन्नः काउन्य! करिष्यति |
अवदारणकाले तु पृथिवी नावदीयते ॥ १६॥
या विददीना लया राज्ञा धर्मज्ेन महात्मना ।
(३ कप ध
पितरि खगभाषन्ने रामे चारण्यमराश्रिते || १७ ॥
१ प्रवारयसि--प्रडषेंण स्वयं ग्राइयक्ति | ( गो? )
संघसप्ततितमः सर्गः छश१्‌
श्राप भ्रात्नह पूर्वक दम लोगों के सयं दिया करते थे--
से|ये सव धस्तुएँ हमें अव कोन देगा ? इस दारुण काक्ष में,घाप
जैसे महात्मा झोर धर्मज्ञ मद्दागत से रहित दोने पर यह पृथिची
फट क्यों नहीं जाती | पिता जो ते स्वर्ग चले गये झोर भीरामचन्ध
वनवासी है| गये ॥ १६ ॥ १७ ॥
किं मे जीवितसामथ्य प्रवेश्यामि हुताशनम्‌ |
हीनो प्रात्रा च पिन्रा च झन्यामिक्ष्वाकुपालिताम्‌ ॥१८॥
थ्वमैंकिस प्रकार प्राण घारण करूँ। में ते ध्रव अप्नि में
कूद पड़गा। भव मेंभाई शोर पिता से द्वीन इस इच्वाकुपालित
घूनी ॥ १८ ॥ स्पा
अयेध्यां न प्रवेक्ष्योमि प्रवेश्यामि तपेवनम्‌ |
तयेव िं लप ित ं श्र ुत् वा व् यस न चा न् वव ेज ्य बत् ‌ ॥ १९ ॥
अयाष्या में न ज्ञा कर , तप ाध न में जा ऊँ गा । इस प्र कार उन
दोनों भाइ यों का विज ्ञा प खुन , ग्र ौर उन का कष् ट दे ख, ॥ १६ ॥
भुग्पा र् तत रा भू यः सर ्व एव ान ुग ाम िन ः ।
ततो विष ण्ण ों #श ोच न् तो
हि.
शत ्र ुध ्न
शोचन्तो
भर ता बु भी ॥ २० ॥
सब नौकर चाकर वह ुत दु ःख ी हुए ! दोन ों भा ई विष ांद युक ्त
एवं हुःखी हा ॥ २० ॥ न
परेण्यां संब्यचेष्टेतां! भम्रश्ृद्भाविवर्षभी ।
तत/*प्रकृतिमान्वैधर पित ुरे षां पु रो हि त: ॥ ११ ॥
? व्यचेट्रेतां--व्यलुण्ठेतां |(यो० ) २ प्र कृत िमा नू- -अश त्त श्व माव ः |
- - ब ै द ा न ् त व ि द ् य ा ध ि ग त प र ा व र त त ् व य ा थ ा त ् य व ि ज ् ञ ा न ः स र ् व त -
( गो० ) ६ व ै ध ;
) # पा ठा न् तर े- -- /' वि श् वा न् तो , ” “ आ न ् त ौ ष ?॥
इतियावत्‌ | ( गो०
98२ झयेध्याकायदे

सोंग झरे दु ए बै ज को तर द, पृ थि त् री पर ति ( कर , बे दय दा ते
लो । उस सम य प्र शात ्त स् वव ाव सर् वक् ष औ र उन के पि ता के
पुरोहित ॥ २१ ॥
वसिट्तों भरत वाक्यपुत्याप्य तमुतराच है ।
त्रयोदशो5्यं दिवस: पितुहत्तरय' ते विभे ॥ २२ ॥
कप हि तप ही [हर

वशिष्ठ ज्ञो, भए्त जो के उठा ऋर कहने लगे। हे विभो!


' श्ापके पिता का भप्निषृंस्कार दुए आज़ तेरद दिन दे चुक्रे॥ २९ ॥
सावशेपारिितिवये क्रिमिह त्व॑ विलम्वसे ।
त्रीणि इन्द्रानि भूनेु प्रहततात्यविशेषत) ॥ २३ ॥
ग्रतः भव भमस्प सदित श्रष्यि मश्चयन करने में क्यों देर करते
हो। प्रत्येक प्राणो मेंतीन इन्द्र ( जोड़े ) रहा करते हैं--अर्थात्‌
(१) भूख प्यास (२) शाक मेह, और (३) जरा (बुढ़ापा )
मरण ॥ २३॥
तेषु चापरिहायेंपु नेव॑ भवितुपहसि ।
सुमन्त्रथापि शन्रुध्नमुत्याप्यामिप्साद च॥ २४ ॥
“£ इन छह का दूर करता सम्भव नहीं । भ्रतएव तुमकी इस प्रत्ञार
दुःखी देना उचित नहीं । ( वणिप्ठ ज्ञी नेभरत को इस प्रकार
समझाया और ) तत्वक्ष छुमस्न्र ने भो शत्रुष्य की उठा कर और :
प्रसन्न कर सब प्राणियों को उत्पत्ति एवं विनाश के ठत्व के
समझाया ॥ २७ ॥

:? चुत्त्य--संस्कृतत्य | (योब ) ,
सप्तसप्ततितमः स्गः 86३३

श्रावयामास तचज्ञ! सवंभूतभवाभवौं ।


उत्यितों च नरव्याप्रो प्रकाशेते यशखितों ।
वर्षातपपरिक्तिन्नों पृथगिद्धध्वजाविव ॥ २५ ॥|
ज्ञव वे दोनों पुरुषतिंद एवं यश वी भाई उठ ऋर खड़े हुए,
तब थे ऐसे ज्ञान पड़े, मानों वर्षा और घाम्र के कारण मल्रिन
भाव धारण किये हुए, दे इद्ध को धाज्ञाएँ अब्रग अजा खड़ी
दो ॥२५॥
अश्रूणि परिए्द्‌गन्‍्ते!! रक्ताश्नों दीनमापिणों
अम्रात्योसत्वस्यन्ति सम तनयों चापरा! क्रिया) ॥२६॥
इति सप्तत्ततितमः सर्गः ॥
मंत्रिगण इस दानों भाइयों से, जिनको श्रॉँल जाल दे! गयो
थीं भार जे भावों के प्रांछुओं के पोंड रहे थे तथा जे! दीन वचन
वेत्न रहे थे, भागे का कृष्प करने के किये, शोधता करने
जगे॥ २६ ॥
जयेध्याकाएड का सतद॒त्तर्ता सा प्ाप्त हुआ ।
++_ ०६---

अ्रष्रसाप्ततितमः समेः

अथ यात्रां समीहन्तं शत्रुध्ना लक्ष्मणातुणा |


भरत शोकसन्तप्तप्रिदं चचनमत्रवीत्‌ ॥ १ ॥
३ परिछृदगन्तौ--सार्जेयन्तो | (गो० )
७६७ . श्रयाध्याकायडे

भरत जी से, जा शोकसन्तप्त दो, भ्रीरामचन्र जी के पास जाने


का चिचार कर रहे थे, लक्ष्मण के-जाटे भाई शत्र॒न्न वाले ॥ १॥
गतिये; सर्वभूतानां दु!खे कि पुनरात्मन! ।
से राम! सत्त्सम्पन्नः द्विया प्रत्राजितों बनम्‌ ॥२॥
भाई ! जे। ध्ोरामचन्द्र दुःख आर सडुढ में प्राणि मात्र के
पक मात्र भ्रवलंव हैंऔर सामरथ्ययुक्त दँ--वे दी जब स्ली सद्दित
चन में निकाल दिये गये, दव हम शपने दुःखों को वात ही
क्या कहे ॥ २॥
बलवान्वीयंसम्पन्नो लक्ष्मण नाम योउप्यसों ।
कि न मोचयते राम॑ कृत्वापि पिठुनिग्रहम ॥ ३॥
( यदि मान लिया जाय कि, श्रीरामचछ ने सद्भोचचश उस
समय कुछ न कहा ता ) वलवान्‌ और दीय॑ सम्पन्न लद्मण ने
पिता के रोक कर, थोरामचन्द्र के क्ष्यों नवचाया ? ॥ ३ ॥
पूर्वमेव तुनिग्राह्म/ समवेक्ष्य नयानयों ।
उत्पर्थ यः समारूहों नाया राजा बच्च॑ गत) ॥ ४ ॥
क्योंकि महाराज जव स्त्री के वशवर्ती हो, श्रथया क्री के गाग्रह
से झत्याय करने का उद्यत हुए थे, तर ही लद्मण के डचित था
कि, नीति झनीति का भज्ती भाँति विचार कर, पद्दिले दी मद्दाराज
के इस कर्म करने सेरोक देते ॥ 8 ॥ ;
इति सम्भाषमाणे तु शत्रुध्ने ्क्ष्मणालुने ।
प्रारदारेडम ह
दारेअभ्त्तदा छुब्ना सवा भरणमूषिता ॥ ५॥
-
अप्ससप्ततितमः सर्गः 5७६४
लक्ष्मण के छोटे भाई शब्रुध्त जोइस प्रकार भरत जी से वात
चीत क्रही रहे थे कि, इतने हो में कुपड़ी मस्थरा सब गहने पहिने
इुए पुत्रद्वार पर देख पड़ी ॥ ५ ॥
हिप्ता चन्दनसारेण! राजबस्धाणि' विश्नती |
विविध विविषेस्तेस्तेर्ूपणेश्व॒ विभूषिता ॥ ६ ॥
इस सम्रय मन्धरा गाढ़े चन्दन से अपना शरीर पेते हुए थीं,
कैकेयी के दिये रानियों केपहनने येग्य वस्ों से सज्ञी हुई थी
और ध्नेक प्रकार के रानियों के पहिनने येष्य प्राभूषण घारण
किये हुए थी ॥ 5 ॥
मेखलादामभिश्चित्रेरन्येश्व शुभभषणः |
। वभासे वहुभिवंद्धा रज्जुबद्धेव वानरी ॥ ७॥
|

उसकी कमर के ऊपर जड़ाऊ करधघनी थी तथा श्रन्य अंगों


पर भी बड़े बढ़िया थौर उुन्दर अनेक जड़ाऊ ग्राभूषण थे। ( यद्यपि
उसने झपने शरोर का शड्वार करने में केई फेर कमर नहीं रखी
थी; तथापि ) बह नेक ग्राभूषणों के धारण किये हुए डोारी से
बंधी हुई वंद्रिया जैसी जान पड़ती थी ॥ ७ ॥
तां समीक्ष्य तदा द्वा/स्था #मुशं पापस्य कारिणीस |
मृहीत्वाप्करुणां कुब्जां अन्रुप्नाय न्यवेदयत्‌ ॥ ८ ॥
डस समय उस महापापिन के देख, दवारपालषों ने उसे निर्दृयता
पुर्वक पकड़, शइघ्नजी के सोच दिया ॥ ८॥
१ उन्दुनसारेण--कादनपहन | (यो०) २ राजवश्चाणि--राजाइंवस्नाणि
कैकेयीदतत्तानि) ( गो० ) # पाठास्तरे--४ छुमूश पापकारिणीम | ”
. 8६ शयाध्याकायडे

बंध्या। के बने रात्रो न्यू तरेहहवे4) पिता ।


सेयं पापा तृशंसा च तस्या; छुरु। यथामति ॥ ९ ॥
ओर शबुध्त से वाले कि, जिसके कहने से भ्रोरामचन्र वनवाली
हुए और आपके पिता के शरीर त्यागना पड़ा, चह यही पापिन
ओर कसाइन हैं। से मैसा तुप्र उचित समस्ते वैसा इसे दगह
दा॥6॥
शत्रुश्नर्व तदाज्ञाय वचन भुशदुःखितः ।
अन्तापुरचरान्सवानित्युवाच धुतत्॒तःः || १० ॥
शबुब्न जो यह वात खुन भ्रत्यन्त ही दुःणित हो तथा कर्चव्य-
कर्म निश्चय कर, सव अन्त/पुरचारियों से यह वेले ॥ १० ॥
तीतमुत्ादितं दुःख भ्रावणां मे तया.पितुः ।
५ 0
यथा सेय॑ तृशंसस्य कमण; फलमश्तुताम्‌ ॥ ११॥ !

जिसने मेरे सब भाइयों और पिता के लिये मदान्‌ दुःख उत्पन्न


किया, यह वही घात करने वाली है--अतः यह अपने किये का
फल भेगे॥ ११५॥
एवमुक्ला तु तेनाशु स्लीजनसमाहता ।
गृहीता वलवल्लुब्ना सा तद्गृहमनादयत्‌ ॥ १२ ॥
यह कह कर, शबुन्न ने सदियों से घिरी हुई प्रम्यरा के तुरन्त
ऐसे ज्ञोर से पकड़ा कि, उसके चोत्कार से खारा भवन भर
गया ॥ १२॥
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१ कुदशिक्षणमितिशेषण ) ( गो० ) २ इतब्रतः--कर्तव्यल्वेबभवदत


नते: | (रा० )
घचण्सप्रतितपः सर्गः ७६७

ततः सुभृशसन्तप्तस्तस्या; सब: सखीजनः ।


क्रुद्धमाज्ञाय शत्रुध्न॑ विपलायत सबंध! ॥ १३ ॥
मन्धरा की यद दशा देख उसके माथ को सम्याँ वहुत सन्तप्त
हुई' शोर शबुष्त के नुद्ध हुआ जान, ये सव इधर उधर भाग
गयीं ॥ १३ ॥ ह
आमन्त्रयत कुत्रनश्र तस्या; सबे। सखीजना ।
यथाय॑ सम्ुपक्रान्तों निःदेपान्ः करिष्यति ॥ १४ ॥
शोर दूर ज्ञा करसव आपस में कहने क्र्गीं कि, इस समय
शत्रुघ्न ने जसा कार्य भारस्म किया है,उससे तो यद ज्ञान पड़ता
हैकि, शतरुप्न हम सव के मार दी डालेंगे॥ १४॥
सालुक्रोशां वदान्यां च धर्मज्ञां चयशखिनीय्‌ ।
कैसस्यां शरणं याम सा हि नेउस्तु धुवा गतिः ॥१५॥
ग्रतपव इस सम्रय हमें उन दयात्भु, परमरेदार, धर्मज्ष एवं
यशख्िनी कैाशढ्या ज्ञी फाआश्रय ग्रहण करना उचित है। क्योंकि
वे दी हमको आश्रय बेंगो ॥ १५ ॥
स च रोषेण ताम्राक्ष। शत्रृध्न! शत्रुतापन! ।
विचकर्ष तदा छुब्जां क्रोशन्ती धरणीतले ॥ १६ ॥
बघर मारे ऋोध के लाल लाल श्राँखें किये हुए, शबरुओरों दे
दूधन फरते वाले शभ्षुप्न ने, चीतव्कार करतो हुईंमन्धरा के, भूमि पर
पठक कर कढ़ारां ॥ १६ ॥ |
तस्या ह्ाह्ृष्यमांणाया मन्यरायास्ततस्वतः ।
चित्र बहुविध भाण्डं' पृथिव्यां तद़यशीयत ॥ १७ ॥
१ भाण्ड--भूपषणं ) ( गो० )
उह८ अयोध्याकायदे

घरसीदा घट्तादी में मन्थरा के सखव गहने तितर पितर हे गये


ओर टुड फ़ूड कर चारों थ्रार विखर गये ॥ १७ ॥
तेन भाण्देन ऋसंरतीण श्रीमद्राजनिपेशनम्‌ ।
अशामत तदा भुयः झारद गगन यथा ॥ १८ ॥
उस समय चद परम छुन्दर राजभवव उन टूटे फूडे विखरे हुए
गहनों से उसो प्रकार शेमित्र हुआ, जिस प्रकार शरदऋतु का
आकराणमगइल तारागण से छुशोमित होता हैं ॥ १८ ॥
स बली वलवत्कोपात! गहीला पुरुषषभः।
कैकेयीमभिनिभत्स्पे वभापे परुषं बच! ॥ १९ ॥
बच ७ के ढ ए रु ७

पुरुषश्े्, बलवान भन्रुघ्न जी मनन्‍्यरा की अत्यन्त ऋुद्ध है,


पकड़े हुए थे । यह देख कैकेयी ने मन्धरा के छुड्ाना चाहा |इस ,
पर शन्रुघ्न जो ने कैक्रेयों के भी अत्यन्त ऋडाची बातें छुवायीं ॥१९॥

तैवाक्ये: परपेडु|से! कैकेयी भुशदुःखिता ।


सत्रुष्नभयसंत्रस्ता पुत्र शरणमागता | २० ॥
शन्रुन्न केउन कड॒वे बचनों से क्ैकेयो भ्रत्यन्त दुःखित हो और
शन्रुघ्न सेभयभोत हो, अपने पुत्र मस्त के शरण गयी ॥ २० ॥
तां परेक्ष्य भरतः क्रुद्धं शत्रुध्नमिदमत्रवीत्‌ |
ह ५ 2 2
अवध्या; स्वभूतानां प्मदा; क्षम्यतामिति | २१ ॥
तब शनरुन्न के कुपित देख, भरत ने उनसे यह कहा, भाई !
प्राणिमात्र के लिये ल्लियाँ अवष्य हे, अतएुव श्रव इसे त्ञमा करना
घाहिये अर्थात्‌ द्वाड़ देना चाहिये | २१ ॥
१ बलवच्कोधन्‌ू--अतीवक्रोघात्‌ ) ( गो० ) # पाठन्वरे--* छड्ीण ?।
अर सततितमः सर्गः ७६६

हन्यामहमिमां पापां कैकेयीं दुषचारिणीम ।


' यदि भां धार्मिके रामे! नास्नयेन्मातघातकम्‌ ॥ २२ ॥
( यदि जस्लियाँ अवष्य न दोतीं और ) यदि धर्मात्मा शोराम-
चद्ध जी छुक्े मातृधाती समझ, मुक्त पर क्रुद्द न दोते, तो मेंते
इस पापिन दुश कैकेयी के (कमी का ) मार डालता ॥ २२ ॥
इमामपि हतां छुब्जां यदि जानाति राघव। |
त्वांचमांच हि परमात्मा नाभिभाषिष्यते भरुवम्‌ ॥२३॥
यदि इस कुष्जा का मारना कहीं धोरामचनद्ध जी जान पाये,
ते वे घर्मात्मा निश्चय दी तुमसे भोर मुझसे वात तक न
करेंगे ॥ २३ ॥
भरतस्थ वबचः भ्रुत्वा शत्रुप्तो लक्ष्मणानुन/ |.
न्यवतंत तते रोषात्तां मुमेच च मन्धराम्‌ ||२४ ॥
इस प्रकार भरत के कहने पर, लद्मण के बषैटे भाई शन्र॒न् का
कोध शान्त हुआ और उन्होंने मन्धरा के छोड़ दिया ॥ २४ ॥
सा पादमूले कैकेय्या प्रन्थरा निषपात ह |
निःश्वसन्ती सुदुःखार्ता कृपणं विछछाप च॥ २५ ॥
तब मन्धरा ज्ञा कर कैकेयों के पैरों पर गिर पड़ी भौर
भ्रत्यग्त दुखी हे श्वाँसे छाड़ती हुई, करुणस्थर से विल्लाप करने
लगी॥ २४५ |
शतरुप्नविक्षेपविमहर्सज्ञां
समीक्ष्य कुब्जां भरतस्य माता ।
य्०० गयेध्याकायडे

शने समाइवासयदातरूपां
क्रोश्चीं विलग्रामिव वीक्षमाणाय ॥ २६ ॥
इति अश्सप्ततितमः सगे ॥
शब्घ्न जी के कढ्ारने सेअचेत और पीड़ित मन्यरा को जाल-
पाश में वंधी श्रोची पक्तिणी की तरह देख, भरतमानता कैकेयी ने .
धीरे धीरे उसे समझाया ॥ २६ ॥
अयेष्याकाणड का शठत्तरवां से समाप्त हुआ |
“है

एकोनाशीतितमः सगे;
७4०६०
तत्ः प्रभातसमये दिवसे च चतुदशे ।
समेत्य राजकर्तारो भरतं वाक्यमत्रुबन्‌ ॥ १॥
»/ चादृहवे दिन प्रातःकाल होने पर राज-कर्मचारी लोग इकट्टे
हुए झोर भरत जी से फहने लगे ॥ १॥
गते। दशरथः खग ये। ने गुरुतरो गुरु ।
राम॑ प्रत्राज्य वेज्येष्ठं रक्ष्मणं च महावलुम्‌॥ २॥
हमारे पूज्यों केभी पृज्य महाराज दशरथ, प्ापने ज्येष्ठ पुत्र
भीरामउन्द्र जीश्रार मद्यावल्वान लक्ष्मण जी के वन भेज्ञ ख्रय॑
सगे पधारे ॥ २॥
त्वमथ भव ने राजा राजपुत्र महायत्ञ) ।
सज्ञत्या नापराध्नाति सज्यमेतदनायकम | ३ ॥
पएकेनाशीतितमः संगेः ्०१
शतणएथ है मद्ययशल्वी राजकुमार | धाव शाप हमारे राजा
हों। फ्योंकि यह राज्य विना राजा का है शेर जब पिता आपके
यह राज देगये हैं,तव श्रापका इसे अरहण करवा न ते अस्त है
ओर न आपके ऐसा करने से कोई दोष ही लग सकता है॥ ३े ॥
अभिषेचनिक॑ सर्वभिदमादाय राघव ।
प्रतीक्षते त्वां खननः! श्रेणयश्र' नृपात्मम ॥ ४ ॥
है रघुवंशसम्भूत राजकुमार | यद फ्थन केवल दम राजकर्म-
चारियों द्वी का नहीं है--वढ्कि ध्रापके मंत्रोगण और पुरवासी
लेग अभिषेक की सामग्री लिये भ्रापको भ्रुमति की प्रतीक्षा कर
रहे हैं ॥ ४॥
राज्यं गृह्ण भरत पित्पैतामहं भ्रुवम्‌।
० €्‌ हर
अभिषेचय चात्मानं पाहि चास्मान्नरपभ ॥ ५॥
देनरश्रे्ठ ग्राप अपने इस पिता ' पितामह के राज्य को
घचए्य ग्रहण करें और ध्मपना अभिषेक फरवा, हम सब का
पालन कर ॥ ५ ॥
[एवमुक्तः शुभ वाक्य बुतिमान्सत्यवाकछुचि; || . ,
आभिषेचनिरक भाण्ड॑ कृत्वा से प्रदक्षिणण ॥ ६॥
इस प्रकार उन सब का यह शुभ वचन खुन तेजस्वी, सत्यवादी
प्॒व॑ पवित्र भरत ने प्रसिषेक की सामग्री से भरे हुए सव पात्नों
की प्रदकत्तिणा की ॥ ६ ॥
भरतरतं जन॑ सब भ्रत्युवाच धुतत्रतः ।
ज्येहस्य राजता निलमुचिता हि कुलस्य न! ॥ ७॥
' ३ खननः--अमाल्यादि । (,गो० ) २ श्रेणय+-मैरा। । ( रा० )
बा० रा०--५१
५०५ गअयेाध्याकायदे

तदनन्तर बतधारी भरत जी उन सव क्षागों से वेले--देखे


हमारे कुल में सदा ज्येछ राजकुमार ही राजसिहासन पर बैठता
थाया है ॥ ७॥ ु |
नैवं भवन्तों मां वक्‍्तुमहन्ति कुशछा जना। |
राम; पूवे हि ना भ्राता भविष्यति महीपतिः ॥ ८ ॥
अहँ लरण्ये वत्स्यामि वर्षांणि नव प॑श्च च।
युज्यतां महृती सेना चतुरइमदावल्ा ॥ ९॥
अतः यह वात ज्ञान कर भो, आप लेग मुझसे ऐसी वात न
फहिये। भ्रोरामचद्ध जो मेरे बड़े भाई हैं, वेही राजा होंगे। में
(उनके वदक्षे )चन मेंजा कर चौदद वर्ष चतवास करूँगा। अतः
चतुरक्षिणी सेना तैयार करो ॥ ८॥ & ॥
आनयिष्याम्यह ज्येष्ठ श्रातरं राघवं वनात्‌ ।
आभिषेचनिक चैद सर्वमेतदुपस्कृतम्‌ ॥ १० ॥
मेंबन में ज्ञा रड भाई श्रीरामचन्ध के यहाँ लिया लाऊँगा।
यह जा अभिषेक के। + ., है ॥ १० ॥
पुरस्कृत गमिष्यामि रामहेतेर्वन॑ प्रति |
तत्रेव त॑ नरव्याप्रमभिषिच्य पुरस्कृतम्‌ ॥ ११॥
उसके साथ ले कर, मेंश्रीरामचन्ध जो का असिषेक करने के
वन मेंजाऊँगा और वहीं उनका प्मिषेक कर, ॥ ११ ॥
आनेष्यामि तु वेराम॑ हृच्यवाहमिवाध्वराद ।
न सकामां करिष्यामि खाम्रिमां मादुगन्धिनीम ॥१२॥
एकोनाशीतितमः सम: घण्रे
ओऔरामचन्द्र जो के यहाँ उसी प्रकार क्षेभराऊँगा, जिस प्रकार
यशशाल्ा में अम्ि लाया जाता है। मेंग्रपनो इस नाममात्र को
माता को साथ पूरो नहीं दोते दूँगा ॥ १२ ॥
बने वत्स्याम्पहं दुर्गेरामे। राजा भविष्यति ।
क्रियतां शिट्पिभि) पन्‍्था। समानि विषभाणि चे ॥१३॥
प्रत्धुत मेंस्वयं दुर्गभ चन में जाकर रहूँगा और ओोरामचन्द्र
राजा होंगे। इस लिये मेंआज्ञा देता हूँ कि, सड़क की मरस्मत
करने वाले कारोगर के ( भागे ज्ञा कर) ऊँचे नीचे रास्ते के
ठीक करें॥ १३॥
रक्षिणश्रालुसंयान्तु पथि दुर्गविचारकाः१]
एवं संभाषमाएं त॑रामहेतेत पात्मजम्‌ |
प्रत्युवाच जन! सब; श्रीमद्राक्यमनुत्तमम्‌ ॥ १४ ॥
उनके पोदे रत्तक और दुर्गभ मार्गों केशोधक भी जायें। इस
प्रकार राज़कुप्रार मरत ने श्रोरमचद्ध के अमिषेक्त के जिये कद्दा,
तब सब क्षय भरत जी से यद मनेहर एवं अति उत्तम वचन
कहने लगे ॥ १४ ॥|
एवं ते भाषमाणस्य पत्मा श्रीरुपतिष्ठताम्‌ |
यरतव॑ ज्येष्ठे तृपसुते पृथिवीं दातुमिच्छसि ॥ १५ ॥
आप इस पूथिवी का राज्य ज्येष्ठ राजकुमार श्रीरामवद्ध जी
के देना चाहते हैँ--आपका यह वचन मनेहर और इत्तमेसम
है। श्रतः आपने समोप सह पशमासना लच्मो देवी निवास
करें ॥ १४ ॥
१ विचारका: -शेधका; | ( शि० )
झण्छ झयेात्याकायडे

अनुत्तम॑ तदचन दृपात्मज-


प्रभाषितं संभ्वणे निशम्ध च |
प्रहर्षमास्तं प्रति वाष्पविन्दवा
निपेतुरायानननेत्रसम्भवा) | १६ ॥
इस समय दर्दां जितने साधुज्नन उपस्थित थे, वेलव भरत
जी के कहे हुए उत्तम दच्न छुन, नेहं से छानन्द के पँस वपकाने
छगे॥ २६ ॥
ऊुस्ते वचनमिद निशम्य हृष्टा
सामाल्या। सपरिपदा वियातशोकाः |
पन्धानं नरवर भक्तिमाझनथ
व्यादिशस्तव वचनाच शिल्पिवग। ॥ १७॥
इति पकेनाशीवितमः सर्गः ॥
यह वात छुन, मंत्रिगण नौकरों चारूरों सदित प्रसन्न दे! और ।

शेक रहित हो कहने छगे, हे नरश्रेंष्ठ !छ्रापके वचन के झबु-


सार शिष्पयों के झाज्ञा देदी गयी है ॥ १७ ॥
अयाध्याकायह का उन्नासीवां सु सम्राप्त हुघ्ला ।
बच
अशीतितमः सर्गः

जय «व

अय प्ूमिपदेशजा! सूजउर्मविश्ञारदा!! ।
रखकर्मामिता। श्र; खनका यलकास्तथार ॥ १ ॥
कर्मान्तिकां) स्थपतय) एुछ्षार यम्रकेविदा। ।
तथा वधकयशथव मार्गिणे। हक्षतक्षक्ना) ॥ २ ॥

कूपकारा: सुधाकारा। वंशकर्मकृतस्तथा ।


ध्ममर्था ये व द्रष्टर/* पुरतस्ते प्रतस्थिरे | ३ ॥
तदनस्तर भरत जो के आा्षानुपार भूत्रि के भेंदों के जानने
चाल्षे, देखते हो यह जान क्षेने वाले कि भपुर भूमि में जल कितनो
दूर पर हैअथवा हैकि नहीं, अपने काम में सदा सावधान रहने '
वाक्षे एवं परिश्रप्ती वेजदूएर तथा जल के वाँध कर रोकने वाले
अथवा पुल्त बनाने वात्ते मजदूर, राजयवई, विरीक्षक, कलपुरनों के
ज्ञानने वाले, वढ़ई, मार्गों फेज्ञाता और चूत्त काठने चाले, कुग्रा
खेोदने वाले, दोवालों पर अध्तर करने वाले, वंबफोड़ा, अन्य
कार्मो के करन े में समर् थ और वे लेग जे! उन मार्ग ों को पढ़ि ले से
देखे हुए थे ; ये सब क्लोग आगे ही चल दिये ॥ १॥ २॥ ३ ॥
१ विज्वारदाई--समर्थों ।(गो०) २ ह्वकर्मामिरता; स्वकर्मतावधानाः ।
(गो० ) ३ यन्यक्ञा--अरमवा द्र ादि यस् ्रण ससर ्था : | (रा ०) ४ पुर ुषा ई-- -
अध्यक्षराजपुरुषा; । (गो० ) ५ सुध ाज् ारा ः-- प्र स्त ादश ्यक क्ष ित् राद िके पनक रा: |
( गो ) ६ स्र्धा:--आार्या न्त रें दुत मर् या: । (गो ०) ७ द्र ष्ठ रः- -पर ्वा वुभ ूत-
सार्मा:--मार्गप्रदशंका: । (गो? )
5०६ थ्येध्याकायडे

स तु हर्षांततमुदेश जनेाधे विपुल) प्रयान्‌ ।


९,
अशेभत महावेग; समुद्र इद पणि ॥ ४॥
इन कोगों के भूड जी प्रसन्न होते इए चल्ले जाते थे, ऐसे
शोभायमान जान पड़ते थे, डँसे पृशभारो के दिन समुद्र शेशभाय-
- मौन देख पड़ता है। धर्थात जैसे सप्ुद्र उमडता है,वैसे ही मनुष्यों
की भीड़ उमड़ी हुई ज्ञारहीथी॥ ४ ॥ |
ते खबारं समास्थाय वत्मेकरमणि क्रोविदाः |
करणैर्विविधेपेतेः पुरस्तात्संप्रतसिथिरे ॥ ५॥
मार्ग बनाने मेंचतुर ज्ञेग अपने दल में प्रिल कर, फायड़े
कुर्दाड़ी इत्यादि बहुत सा उपयोगी सामान साथ के, झागे आगे
चलने ॥ ४॥
लता वह्लीश शुस्मांश स्थाणनश्मन एवं च |
जनास्ते चक्रिरे मार्ग छिन्दन्तों विविधान्दुमान्‌॥ ६ ॥
हिवे लेग रास्ता साफ करने के भमिप्राय से लता, चढ्ली, काइ,
खूँटी, पत्थर और भनेक प्रकार के इत्तों के, जे। रास्ते मेंपंड़ते थे,
काटकफूठ कर, रास्ता बनाते ज्ञाते थे॥ ६ ॥
अह्ृक्षेपु च देशेपकेचिद्इक्षानरोपयन्‌ ।
केचित्वुटारेइडथ् दात्ेरिउन्दन्कचित्तचित्‌ | ७ ॥
जहाँ कहीं वृत्त नहीं लगे थे, वहाँ वृत्त लगाते जाते थे और
जहाँ कहाँ ढक्तों.की घनो डालियां रास्ता रोके हुए थीं, वहाँ उनके
कुष्हाड़ी फरसे आदि से काठ कूड कर एकसा करते जाते थे ॥७ ॥
झशीतितमः सर्गः घ०७.

अपरे !वीरणस्तम्बानवलिनेवलवत्तरा! |
पिधमन्तिः सम दुर्गाणि" स्थलानि च ततस्ततः ॥ ८ ॥
कुछ पल्वान लोगों ने धत्यन्त मज़बूत ढुंों के, जे उखाड़े नहीं
उखड़ सकते थे, जत्ला कर साफ कर दिया शोर जितने ऊँचे नीचे
रास्ते घोर दुर्गभ स्थान थे, उन सव के ठोंक पोट कर तथा मिद्ो से
पाठ कर ठीक कर दिया ॥ ८ ॥
अपरेष्पूरयन्कृपान्पांसुभि! श्वश्रमायतम ।
निम्नभागांस्तत) केचित्समांथक्र), समन्‍्ततः ॥ ९ ॥
कुछ लोग वीच रास्ते में जे कुएँ और गड़दे झाते, उनके मिट्टी
से पाठते और नीची भूमि के पट्टी सेभर वरावर करते चक्के
जाते थे ॥ ६ ॥
ववस्धु"चन्धनीयाँश् *क्षोदनीयांश चुद
विभिदुर्भेदनीयांश तांस्तान्देशान्नरास्तदा ॥ १०॥
वे लोग, रास्ते की दाठी नदियों या नालों पर पुल्न बनाते जाते
थे, जहाँ कहीं गेखरू या कंकड़ी ग्रादि पाते उनके बटर कर फेक
देते थे,जहाँ कहीं जल के भाने मेंरुकावट देखते वहाँ के बांध के
ताड़ कर जल निकाल देते थे ॥ १० ॥
अनिरेणेव कालेन परिवाहान्वहृदकान |
चक्रुवहुविधाकारान्सागरप्रतिमान्वहून्‌ ॥ ११ ॥
वेहवि

१ वीरणखस्घान--वीरणठृणकाण्डान्‌ । (गो०) २ बक्षित:--रूढ़मुकात्‌ |


( गो० ) ३ विधिमन्तिस्म--अद्दनू । (गो०) ४ दुर्गाणि--गन्तुमशक्यानि।
(गो० ) छेत्तमशब्यान ्‌ । (रा०) ५ बन्धनीयानू- -जठप्रदेशान ्‌ | (गो" ) ६
क्षोदनीया न--भकरा सूयिष्ठ प्रदेशान | (गो० ) * पाठान्तरे---' क्षोद्रान्सब्लु
झ्लुलदा'2 |
घण्८ अवाध्याकायडे

बहुत जदद हो उन लोगों ने थोड़े पानी के सेतों का जल


शेकने के लिये वाँध वाँध दिये भर कई एक जगहों के तात्नावों के
खाद कर सागर की तरह भगाध जलयुक्त कर दिया ॥ ११॥
नि्मलेषु च देशेषु खानयामासुरुत्मान्‌ ।
!उदपानानबहुविधान्वेदिकापरिमण्डितान ॥ १२ ॥
और जहां-जल का शअमाव था, वहां अनेक नये कछुएँ ताल्ाव
जोदे और उनके समीप लोगों के विश्राम करने के लिये चबूतरे
बना दिये ॥ १६ ॥
» से सुधाकुट्टिमतल; प्रपुष्पितमहीरुह |
मत्तोडुष्टद्विजगण; पताकामिरलंकृत) ॥ १३ ॥
उन शिश्ष्पयों ने सेना के जाने के रास्ते को चूने को गज्नों से
ठीक कर, सड़क के इधर उधर ऐसे बत्त लगा दिये, जिन. पर पत्ती
बाला करते थे और जगह जगह सड़कों की दोनों ओर पताकाएँ
'छुशामित हे रही थीं ॥ १३ ॥
चन्दनादकसंसिक्तो नानाकुसुमभूषितः ।
वहशेभत। सेनाया; पन्‍्याः सुरप्थोपमः ॥ १४ ॥
चन्दून केजल के छिड़काव और अनेक प्रकार की फूली
हुई ल्ताओं से चह सेना का रास्तादेवमार्ग फी तरह सजा दिया
गया था ॥ १४॥
आज्ञाप्याथ यथाज्ञप्ति) युक्तास्तेईपिकृतार नरा। |
रमणीयेए देशेषु वहुखादुफलेषु च॥ १५॥
१ उद॒पानानू-कूपात्‌ | (गो० ) ३ यथाश्प्ति--यथासति । हे क्षधि-
कृताः--मार्मेशिविरादिकऋरणेनियुक्ता। । ( गोन )
अशीतिवमः सगेः घ०है
जे। लोग पड़ावों पर शिविर आदि वनाने के लिये नियुक्त किये
गये थे, उन लोगों ने, यधाम्ति रमणीय और अत्यन्त खादिध फल
याक्े बृत्तों सेसुक्त जगहों पर ॥ १४ ॥
ये। निवेशस्त्वभिमते#भरतरय महात्मन! ।
भूयरत शे।मयामाछुभूपतमिभूषणे।पपम्‌ ॥ १६ ॥
सेना के उतरने के जिये वैसे ही स्थान वना दिये, जैसे कि
महाक्षा भरत जी चादवते थे। फिर उन स्थानों के अनेक प्रकार की
साम्श्री से सज्ञा भी दिया ॥ १६ ॥
नक्षत्रेषु प्रशस्तेषु मुहूर्तेषु च तद्िद!' ।
रेस्थापयामासुभरतरय महात्मन। || १७ ॥
निवेशान' हे

वास्तुशात्र ( मकान बनाने के शास्त्र के) क्षाताओं ने शुभ


नत्तत्र युक्ष मुह्र्त मेंमहात्मा भरत के लिये शिविर बनाये ॥ १७ ॥
चहुपांसुचया*श्रापि परिखापरिवारिताः |
तवेद्दनीलप्रतिमा; प्रतालीवरशेभिता! ॥ १८ ॥
शिविर, इच्धनील पर्वत की तरह ऊँचे रेतोल्े घुसुतों सेतथा
जलयुक्त खाइयों से घिरवा दिये गये थेभार जगद्द ज्गद गलियाँ
बनाई गयी थीं॥ श्णती .
प्रासादमालावितता) सोध प्रकारसंहताः ।
पताकाशेमिता; सर्वे सुनिर्मितमहापथा। | १९ ॥
१ तद्विद+--वाछ ्ुश ाबश ाः । ( गो ० ) ३ नि वे शा नू -- शि वर ाण ि । (ग ो० )
बहुर्पांसुच॒दा। -- पांचुशब्देवासूक्ष्मिकता उच्पन्ते |(यो) ४ प्रवोली --बीवि! ।
( गो० ) ५ सौ धा -- शज शु द् वा णि वद् धाच ुधा धत् रलि ताः । ( गो )
# पाठान्तरे-- भभिष्रेतों । हि
घर शअ्रयेध्याकायडे

सफेद रंग के वड़े ऊँचे ऊँचे देवग॒दी! केसठदश मकानों की पाँति


कर ।

बनाई गयी थी। जितने रास्ते थे, येसवपताकाओं से छुशीमित


किये गये थे ॥ १६ ॥
विसपद्विरिवाकाशे विव्ड्टाग्रविमानके! ।
३ चर

'समुच्छितेनिवेशासते बहु) शक्रपुरोपमाः || २० ॥


वहाँ पर सात सात झगड़ों के गृद्दों के
ऊपर जे श्रदारियां थीं,
वे फपृतरों के बैठने की छतरी की तरह ऊँची थीं। ऊँचे ऊँचे भवनों
के देखने से ऐसा जान पड़ता था, मानों आ्राकाश में देवताओं दे
झावासस्थान वने हों। उस समय उन पड़ावों की शेभा इन्द्र की
प्रमरावती पुरी की शेमा जैसी हो रही थी ॥ २० ॥
जाहवीं तु समासाध' विविधवुमकाननाम्‌ |
गीवलामलपानीयां प्रहमीनसमाकुछाम्‌ ॥| २१ ॥
भरत जी के लिये, (भयेध्या से लेकर ) निर्मेत् एवं शीतल
जल वाल्ली उस गद्मा तक, जिसमें बड़ी वड़ी मछुलियाँ रहती हैं,
जे मार्ग बताया घया था, उसके अगल पगल तरह तरह के वृत्तों
से युक्त अनेक कानन थे। ध्र्थात्‌ यह मार्ग अडलों मेंहे कर गया
या॥२१॥
सचन्धतारागणमण्दितं यथा
नम; क्षपायाममर्ल विराजते।
नरेन्द्रमागं! स तथा व्यराजत
क्रमेण रम्यः शुभशिरिपनिर्मितः | २२ ॥
इति अशीतिवम्ः सर्गः ॥
३ प्मुच्छिते।-- रचतः | (गो०) २ समासाथ--अवधीकृत । (पो०)
एकाशीतितमः सर्गः पर
* चतुर शिक्षिपयों द्वारा बनाये गये इस रमणीक राजमार्ग की
ऐसी शोभा हो रही थी, जैसी रात में निर्मल आकाश की चन्द्रमा
सहित तारागण से दैती है ॥ २२ ॥
भ्रयेष्याकायड का भ्रस्लीवाँ सर्ग॑ पूरा हुआ ।
नाना
एकाशीतितमः सगेः
>+-६9६---

तते नन्दीमु्खी! रात्रि भरत सूतमागधाः ।


तुष्दुबुवाग्विशेषज्ञा: रतवेमज्लसंहितः ॥ १ ॥
कू ७ 0 हिति

[ भव फिर अयोध्या का वृत्तान्त आदिकवि वर्णन करते दैं। ]


* ज्ञव वह धानन्दूमयी (इसलिये कि भीयमचन्ध जो के लैटाने
का उद्योग भआरस्म हुआ था ) रात थोड़ी वाकी रही, तव मागधों ने
* माडूलिक स्तुतियों सेभरत की स्तुति फरनी भारम्त की ॥ १॥
शसुवर्णकेणामिहतः 'प्राणदद्यामदुन्दुमिः |
द्छु। गहांथ शतशो नादांरचेब्ावचसरान ॥ २॥
पहर भरं रात रहने पर जे नयगाड़े वजाये ज्ञाते थे, वे सोने की
चोवों ( डंडों ) सेवजाये जाने लगे । शह्भुष्वनि होने लगी और
नाना खर युक्त सैकड़ों वाजे बने लगे ॥ २॥
स तूर्यधाषः सुमहान्दिवमाप्रयत्रिव ।
भरत शेकसन्तप्तं भूयः शोफेरवर्धयत्‌# || ३ ॥
३ नान्‍्दीमुज्ों--समानयवा/म्युद्यप्रासभधुक्तां। (गो" ) २ सुबर्णक्रेण:
--सुवर्णदण्डः । (रा० ) ३ आ्राणद्त्‌ु--नद्तिस्य | (गो० ) # पाठान्तरै--
“जोकैरस्घयत्‌ | *
झररर अवेष्याकायडे

उन वाज्रों के वजने का शब्द, आकाश में ब्याप्त दा, शोक से


सम्तप्त भरत जो के शोक का और भी अधिक बढ़ाने लगा ॥ $ ॥
ततः पबुद्धों भरतंरतं थाष॑ सन्रिवत्य च्‌ |
नाहं राजेति चाप्युक्त्वा शन्रुप्नमिदमत्रवीतद ॥ ४ ॥|
भरत ज्ञी उस शब्द के छुन जागे और यह कद ऋर कि, में
शज्ञा नहीं हैँ, उन वाजों का बजना बंद ऋरदाया और शन्रुघ्न से
यह चाले ॥ ४ ॥
पद्य अन्रुत्न कैंकेय्या छेकस्थापक्ृत॑ महत्‌ ।
विछज्य मयि दु)खानि राजा दश्वरथे। गत) ॥ ५ ॥
हे शबुष्त ! देखे, कछैडेयो के ऋहने से इन दूत माग्रथों ने कैसा
अनुचित काम किया है, अथवा है शत्रप्न ! देखो, कैक्रेयी नेइसलोक
का वड़ा अपकार किया है छि, जा प्रह्राल दशस्य पुक्ते दुःख में
ढाल, आप खय॑ स्वर्गंचासों देगये | ५ ॥
तस्वपा घम्ररामस्य वममृल्ा मदातन;
परिशभ्रमाति राजशआनारिवाकाॉणिका जछे | 4 ॥
उन मदात्मा धमराज़ की यद घमतूलक राजलसमों इस समय
नाक्ीद्ीन नाव की तरह सप्ठद्र में इधर उधर मारी नारो फ़िर
रदीहै ॥.६ ॥
ये हि नः सुमहान्नावः साअपि प्रवानिताो वतस ।
अनया पम्ममुत्यज््य मात्रा मेंरापवः सबम ॥आ|
१ झऊैडेब्या हेवुमतवा जआयनावलाकश्य छूतमागधांदिः । (यो )
३ नरहतं--अहुदितं ऊम | ( गो? )
एकाशीतितमः सर्गः फर्व्‌
पिता की चह दशा हुई, विस पर, मेरे जे। बड़े रक्षक श्रीराम-
चन्ध जी थे, उनके भी इसने ( क्ैफेयों ने ) धर्म के त्याग स्वयं:
चन मेंमिज्ञवा दिया ॥ ७॥
इत्येव॑ भरत प्रेश्य विलपन्त॑ विचेतनम्‌ |
कृपणं रुरुदु) सवा; सरवरं येपितरतदा ॥ ८ ॥
इस प्रकार भरत के चेतना रहित प्रलाप करते देख, सब छ्लियाँ
करुणा स्वर से रोने ल्गों ॥ ५ ॥ ।
तथा तस्मिन्विलपति वसिष्ठो राजधर्मवित्‌ |
सभामिष्वाकुनाथरय प्रविवेश महायशा; ॥ ९ ॥
इस प्रकार से विज्लाप हो रद्या था कि, इतने में राजधर्म के श्ञाता
महायशरवी वशिष्ठ पुनि इत्त्वाकुनाथ की सभा में आये ॥ ९॥ . .
शातकुम्भमयी' रम्यां मणिरत्समाकुलाम |
सुधर्मामिव धर्मात्मा सगणः* प्रत्मपध्त ॥ १० ॥
उस सभाभवन मेंसुनदा सुन्दर नक्राशी का काम किया था
और जगह जगह पद्मरागादि मणियाँ जड़ी हुई थीं । जिस प्रकार
छुघर्मा नाम के सभाभवन में इन्द्र अपने भनुयायियों सहित प्रवेश'
करते हैं, वेसे हो इच्वाकुनाथ की समा के भवन में बशिष्ठ जो ने
झपने अनुयायी शिष्यों सदित प्रवेश किया ॥ १० ॥
स काश्वनमय पीठ #पराध्यास्तरणाहतम्‌ |
अध्यास्त सर्ववेदज्ञों दृताननुशशास च ॥ ११॥
१ शातकुस्भमयी--हुवर्णमयीं | ( गो० ) ३ सगणा--सक्षिष्यगणः ।
( गो० ) # पाठान्तरे--४ सुखास्तरणसंचुतम्‌” |
मरे अयेष्याकायदे
और वहां साने के एक मिद्दासन पर, जिस पर स्वस्तिकाकार
अर्थात्‌ गाज आसन पड़ा था, जा वैंठे, और दूर्तों के आाहा
दी ॥११॥
व्राह्मणान्क्षत्रियान्वेश्यानमात्यानाणवह्ठभान! ।
प्षिपमानयताव्यग्राः कृत्यमात्ययिकं हि नः॥ १२॥
कि तुम ज्ञोग ज्ञा कर, वहुत शीघ्र ब्राक्ष्ों, ज्ञत्िियों और मंत्रियों
सेनापतियों के लिया जाओ । क्योंकि एक बड़ा ज्दरी काम
है॥ १२॥
स राजमुत्य॑* शत्रुध्न॑ भरत च यशस्विनम्‌ |
युधाजित॑र सुमन्त्र च ये च तत्र हिता जना। ॥१३े॥
यशस्वी भरठ और शल्रुप्न के उनके निज्ञ फे नोकरों सहित,
थुधाजित उुमंत्र भ्रादि मंत्रियों के, तथा और जे। कई वहां दितू
दों, उनके भी शीघ्र बुला लाओ | १३ ॥
- तते इलहलाशब्द; सुमहान्समपथत |
बे ७७% (७७ प
रथरश्काजथापि जनानामुपगच्छताम ॥ १४ ॥
कुछ ही देर में दूतों के बुत्ाये लाग रयों, घोड़ों, और हाथियों
पर सवार दी कर आने लगे | उनकी सवारियों के आने का एक
प्रकार का भहाशब्द्‌ उत्पन्न हुआ ॥ १४ |

तते भरतमायान्तं शतक्रतुमिवामराः ।


प्रत्यनन्दन्पकृतये। यथा दशरथ तथा ॥ १५॥
१ गणवल्छमान्‌ू-गणाष्यक्षान्‌ | ( यो ) २ सराजमुत्यं--राजान्त
रजमृल छट्दित | ( यो० ) हे युवाबितं--युधानिरितरिविनयाज्यमंत्रिगे।
नामान्तरंसुमंत्रणवधदसाइचर्यात्‌ । ( गो० )
दयशीवितमः सर्गः | रू

। देवता जिस प्रद्भार इन्द्र के देख प्रसन्न होते हैँ, उसी प्रकार
भरत को आते देख मंत्री भ्रादि ऐसे प्रसन्न हुए, मानों वे महाराज
दृशरथ के समाप्रवेश पर प्रसन्नता प्रकठ कर रदे द्वों ॥ १५ ॥
हद इव तिमिनागसंहतः
स्तिमितनले मणिशहुशकर/' |
रे (0

दशरथसुतशोभिता सभा
सदशरथेव वा यथा पुरा ॥ १६॥
इति पकाशीतितमः सगेः ॥
उस समय भरत फी उपध्यिति सेवह राजसभा उसी प्रकार
शोमित हुई, जिस प्रकार सप्तुद्र का स्थिर जल बड़े वड़े मच्छ, नाके,
मणियों, शट्टों, और वालू से छुशोभित द्वोता दे।डस समय पेसा
मालूम पड़ता था, मानों महाराज दशरथ रुवयं सभा में आरा कर
बैठे हो ॥ १६ ॥
श्रयाध्याकाण्ड का इक्यासोर्याँ सर्ग समाप्त हुआ ।
-त++

इचशीतितमः सर्गः
अब # ६०५

- वामायंगणसम्पूणा' भरतः अग्रहाँ) सभाम।


ददश बुद्धिसम्पन्नः पूर्णचन्द्रों निशामिव ॥ १.॥'
९ हृदश्--समुद्रत्मीपल्थः । ( गो० ) २ शर्कराधब्देनाव्रस्थूलवालुका
उच्यते | (यो०) ३ प्रपह्षा--नियमवर्ती | (गो० ) ४ घनापाये--दारदिं ।
( रा० ) ०
८१६ अयेष्याकणडे
वशिष्ठादि श्रेष्ठ पुदषों सेभरी, भरत द्वारा नियंत्रित सक्ना के,
बुद्धि सम्पन्न भरत जी ने देखा कि, बढ़ पूर्णमासी को सत की
तरह शामायमान है ॥ १॥
आसनानि यथान्यायमार्याणां विश्वतां तदा ।
बच्चाड्रागपभया द्योतिता सा सभात्तमा ॥ २॥
यथायाग्य प्मासनों पर बैठे हुए तथा अंगराग लगाये और
चमकीली भड़कीली पेाशार्क पहिने हुए श्रेठ्ठ जनों से, वह श्रेष्ठ
सभा चमक रहो थी। अर्थात्‌ छुशोमित थी ॥ २॥
सा विद्व्जनसम्पूणों सभा सुरुचिरा तदा |
शरवरी
अदृ्व्यत घनापाये पूणचन्द्रेव शवरी | ३ |
0

शरद ऋतु मेंजिस प्रकार पुर्णमासी के चन्द्रमा से रात्रि सुशो-


मित द्वोती है, उसी प्रकार विद्दज्ननों के सम्मिलित हाने से वद सभा
परम शोभायुक्त दिखलाई पड़ती थी ॥ ३ ॥
राहस्तु प्रकृती! सवा; समग्रा; प्रेक्ष्य धर्मवित्‌ ।
इदं पुरोहिते वाक्य भरत॑ मृदु चात्रवीत्‌ ॥ ४ ॥
उस समय धर्मज्ञ पुराहित चशिष्ठ ज्ञी ने, महाराज के सव
मंत्िश्रादि प्रधानों के देख, भरत जी से ये मधुर वचन कहे ॥ ४॥
तात राजा दशरथः स्वगंता पर्ममाचरन्‌ |
घनधान्यवर्ती सफीतां प्रदाय पृथिवीं तव ॥५॥
हे वत्स |इस घन घान्ययुक्त और समृद्धशालिनी पृथिवी का
हक तुम्दें देकर, महाराज्ञ दशरथ धर्माचरणपूर्वक स्व सिधार
गये ॥ ५ |]
हयशीतितमः सर्गः प१७

रामस्तया सत्यधृतिः सता! रघममलुस्मरन्‌ ।


नाजहात्तुरादेश शश्ी ज्योत्स्तामिवादित) || ६ ॥
सत्ययतघारी धरीरामचन्ध ने पितृश्राक्षाकारी सज्लनों के पितृ-
वचन-पात्रन झुपी धर्म का पालन कर, मदाराज की श्राक्ना का
त्याग वैसे ही नहां किया, जैसे चन्द्रमा चाँदनी का त्याग नहीं
करता ॥ ६ ॥
[ ने।<--.ुत्र की पुत्रता नीचे के छोऊ में बतकायी गयी--
४ जीवतोव क्यिकरणाद प्रत्यव्दंभूरिमेजनात्‌ !
गयायां पिण्डदानाच्च त्रिप्तिः पुश्नत्य पुत्रता ॥ *
अर्थात्‌ पुत्रोत्पादन करने कीआवश्यकता यदी है कि, ( ! ) जब तक
पिता नीवित रहे तब तक पुत्र अपने पिता छो भ्ाश्ञा माने (२ ) पिता के
मरने पर प्रतिवर्ष पिता की मरणतिथि के पिंण्डदान कर भक्षनेक आह्मणों के
भोजन कराये और ( ३ ) गया में जा कर पिग्ड दे कर पिता का उद्धार करे
पुत्र के ये दी तीन मुख्य कर्तेब्य दै ।]
पित्रा भ्रात्रा च ते दत्त राज्यं निहतकण्टकम्‌ |
तद्भ्रुदुएव मुद्तामात्य: प्षिप्रमेवाभिषेचय ॥ ७ ||
ग्रतपव पिता भौर प्राता के दिये हुए इस निष्क॒टक राज्य
के तुम भागे। और तुरूत धपना' प्रभिषेक ऋरवां, ध्पने मंत्रियों
की प्रसन्न करी ॥ ७ ॥
उदीच्याश्र पतीच्याश्र दाक्षिणात्याथ केवला!* |
केव्यापरान्ता/* सामुद्रा रत्नज्यभिहरन्तु ते ॥ ८ ॥
! पध्षतां--विहृनिदेशवतिनामर्‌ | (गो०) २ धर्मं--पितृवचनपरिपाछन
हप॑ | ( गो० ) ३ कैवछा;--सिंदासनादिरिछिता इत्पंरान्तादि विशेषणं। ४
अपंरान्ता।--भपरान्त देशवासतिदोयवना। । ( गो० ) >
वा० रा०--४२
झटैझ - अयोाध्याकायडे

उत्तर पश्चिम भ्रोर दक्तिण देशवारी याजा तथा अन्य वेतित्ञक


के ज्मीदार तथा पश्चिमान्‍्त सोमावासी यवनादि, तथा द्वोपों के
राजा लोग तुमकी करोड़ों रत्न मेंठ करेंगे ॥ ८॥
तच्छुला भरता वाक्य शोकेनाभिपरिप्लुतः ।
जगाम मनसा राम॑' घम्ज्ञो) धर्मक्राइक्षया' ॥ ९ ॥
«; मत्ोर

भरत ज्ञो भुठ वशिष्ठ के येवचन सुन, बहुत डुश्खी हुए ! बंश-
परम्ययगत ज्येठ्ठ राजकुमार दी राजा होता है--इस कुल्नधर्म का
जानने वाले, भरत ज्ञो ने वढ़े भाई का अनुगमन करने की आकात्ता
से, श्रीरामचन्द्र जी का स्मरण किया ॥ ६ ॥
स वाष्पकलया वाचा कलइंससरे युवा |
विलछाप सभामध्ये जगहें च पुरोहितम ॥ १० ॥
उस सम्रय कलहंस क्नो तरह स्वर वाले युवा भरत का गन्ना
भर झाया, वे विज्ञाप करने लगे और उन्होंने कुजपुराहित वशिष्ठ ज्ञी
के इस कथन के सर्वया अठुचित वतलाया ॥ १० ॥|
“चरितब्रह्मचयेस्य विद्यास्नातस्य* घीमतः६ |
यम अयतमानस्य को राज्य मद्धिया: हरेत्‌ ॥ ११॥
2."ख ह॥ हर कि

१ रामंमवता जवाइ--संत्मरित्य्थ: । (गो*) २ घर्मश३--कुछक्रमागत


ज्येष्टामिपेचनहपधसंजः । ( गो० ) ३ धर्मेजाइक्षया--ज्ये्ाानुचर्तत रूप घ॒र्मे-
ढिप्पया । ( ग्रो० ) ५ चरितत्रह्मचय॑ध्य--अनुग््तिगुरकुछवासस्य | ( गे०)
५ विद्याल्लाहत्य--निदचिलवेदाप्ययवानन्तरभाविस्नानकर्मदुछस्य । ( गे।० )
4 घीमत:--तदयंज्॒त्य। ( ग्रोे० ) ७ घर्मेंप्यतमानध्य--तद्यनुप्ठान
चततः | ( गे।० ) ८ मद्दि+--शाखवश्येम्ादशः | ( गे।० )
बयशीतितमः स्गः पश्३
भरत जी कहने ल्गे-दे ब्रह्मनू | जे श्रीराभचन्ध जी शुरु-
कुल मेंरह कर, निश्चि साड्नॉपाडु वेदों के पढ़े हुए हैंओर इनका
अर्थ भो भत्ती भांति जानते हैं शोर तदभुसार अवुष्ठान भी करते
रदते हैं, बन श्रीयमचन्द्ध जी का राज्य भत्ना मुझ जैसा शाज्ञ के
मत का ज्ञानने वाला, क्योंकर हरण कर सकता है॥ ११॥:
[नाद--शिरोमणि टीकाक्वार ने घर्मेग्रयतमानस्य झा अथ किया है--
# पितृप्रत्िजा पालने तयतमानस “ ]
कथं दशरथाज्जाते भवेद्राज्यापहारकः |
राज्यं चाहं च रामस्य पर्म वकक्‍तुमिहाहसि ॥ १२॥
महाराज दशरथ से उत्पन्न कोई क्योंकर धर्मातुभेदित दूसरे
के राज्याधिकार का अपहत कर सकता है। फ्रेवल यद खारा राज्य
ही नहीं, वदिक मेंस्वयं भी भीराप्रचद्र का हूँ। दे पुरोहित जी !
भाप जे कुछ कहेँ, से। धर्मानुमेदित दो कहें ॥ १२ ॥
ज्येष्ठः श्रेष्ठत्न धर्मात्मा दिलीपनहुपेपम! ।
रूब्घुमहंति काहुत्स्थो राज्यं दशरथये यथा ॥ १३॥ .
दिल्लीप भोए नहुष को तरह जैसे महाराज दशरथ, इस राज्य
के अधिकारी ये, वैसे दी व्ये ओर श्रेष्ठ धर्माव्मा श्रीरामचन्र ही
इस राज्य का पाते के अधिकारोंहैं॥ १३ ॥
अनायजुष्टपरवग्य कुर्या' पापम्ं यदि ।
इष्वाकूणामह ठेके भवेय॑ कुलपांसन। ॥ १४ ॥
यदि मेंआपके कथनाचुघार इस राज्य के अद्ृण कर, झसाधु
सेविंत और स्वर्गंविशिधी महापाप ऋरूँ, ते! सब लग पुक्े इद्याक-
कुल का नाश करने वाला वतलावेंगे ॥ १४ ॥
प्य२9 अयाध्याकायूदि

यद्धि मात्रा छृत॑ प्रापं नाई तदधि रोचये ।


इृदस्थों बनदुर्गस्थं ममस्यामि कृताझ्ञलिः ॥ १५ ॥
मेरी माता जे। पापकर्म कर बैठी दे--बह भो मुझे पसन्द नहीं
है। में (इस के लिय े )वन में बैठ े हुए श्र ोरा मचद ्ध के दाय जाड ़
कर प्रणाम करता हँ--अर्थात्‌ मावा के अ्रद्नचित कर्म के लिये
त्षमा माँगता हैं॥ १४ ॥
राममेवानुगच्छामि स राजा द्विपदांवर;
त्रयाणामपि लाकानों राज्यमहति रायव! ॥ १६ ॥

और उनका अनुगामी होता हूँ। नरों मेंश्रेष्ठ वेदीराजाहैं।


दे तीनों लेकों का राज्यतासन करने याग्य हैं, उनके लिये इस
पूथिदी का राज्यशासन करना कोन बढ़ी दात है ॥ २६ ॥
तद्रावयं धमतंयक्तं अत्वा स॑ सभासद! |
इषान्मुसुचुरश्षणि रामे निहितचेतसः ॥ १७ ॥|
भरत जी के ऐसे घम्राठुमेदित वचन छुत सव के सब समा-
सखद्‌ जिनका मन श्रीरमचन्द जी में लगा था, आनन्द के शाँदू
गिराने लगे ॥ १७ ॥
यदि त्वायं न शक्ष्यामि पिनियतयितु वनात्‌ |
बने तत्रेव वत्स्यामि यथाये रक्ष्मणर्तथा ॥ १८ ॥
भरत ज्ञी फिर कहने जगे-यदि में श्रोरामचन्द्र जी को वन
से न लाठा सका, ते मेंउसी वन में ओरामचन जी के पास लच्मण
की की दरह रहेगा | १८ ॥
दृथयशीतितमः सर्गः झश्रे

स्वोषार्य च वर्तिष्ये विनिवर्तयितुं वनात्‌# ।


सपक्षमायमिभ्राणां! साधूनां गुणवर्तिनाम ॥ १९ ॥
मेंथीरामचन्द्र जी के घन से जाोटाने के लिये, ( श्राप सब )
समाप्तदों और भच्छे गुण वाले साधु जनों की उपत्यित ही में,सब
प्रकार के उपाय करूंगा । ( दर्थात्‌ घाप लोग मेरे साथ चलें और
देखें कि, मेंध्रीरामचद्र ज्ञो को लोदाने के लिये उपाय ऋरने में काई
फोरक्सर नहीं करता ) ॥ १६ ॥
रैविष्टिक्मान्तिकाः सर्वे मार्गशोधकतक्षका। ।
प्रस्थापिता मया पूर्वयात्राजपे मप्र रोचते ॥ २० ॥
मैंने पढ़िले द्वी वेगारो तथा पारिश्रमिक ले कए काम करने वाले
चतुर मार्गशोघकों और वढ़इयों के, राप्ता ठीक करने के,लिये
भेज दिया है ॥ २० ॥ |
एबमुक्ता तु धर्मात्मा भरते भ्राहवत्सलः ।
समीपस्थप्रुवाचेदं सुम्ख मल्क्षेविदभ्‌॥ २१॥
यद कह प्राठ्व॒त्सल् एवं धर्माता भरत ने सलाह देने में चतुर
और पास बैठेहुए सुमंत्र सेकहा ॥ २१ ॥
तुणमुत्थाय गच्छ त्वें सुमन्त्र मम गासनात्‌ ।
यात्रामाज्ञापय क्षिप्रं बल चेव सपानय ॥| २२ ॥
तुम उठ ऋर शीघ्र ज्ञाओं ग्रैर सेना के यद जना कर कि, मेरी
आंज्वाठुसार उनका यहाँ से प्रस्थान करना देगा; तुरन्त अपने साथ
लिया लाओ ॥ २९२॥
7 जार्यमरिश्राणों -सदुस्पानों ॥। (गे।० ) ३ विष्टिकर्मान्तिकाइति---
विष्टये। भूतिमन्तरेंण जनपरेग्यः समानोताः कर्मकरा) | (सो०) के पादास्तरे--
“ब्रद्यत्‌” | न न्‍
घश्र अयाष्याकायदे

एवमुक्तः सुमन्त्रस्तु भरतेन महात्ममा |.


पह्ठः सेउदिशवत्सव यथासंदिएरमिए्वत्‌ ॥ २३ ॥
महात्मा भरत ज्ञो के येवचन छुन, सुप्ंत्र ने प्रसन्न हो भरत
जी के श्राज्ाइसार सव काम किया ॥ २३ ॥
ता पहुष्ठा; पक्ृतयों वलाध्यक्षा बलस्य व |
श्रुत्वा यात्रां समाज्ञप्तां राघवस्य निवतने ॥ २४ ॥
»ै ९ निवर्तपु

भरत जी की इस थाज्ञा के कि, श्रीरामचन्द्र जी के कौटाने


के लिये चलना होगा, छुन कर भ्रज्ञाजन, तथा सेनापत्ति लोग वहुत
प्रसन्न हुए ॥ २४ ॥
,वते। येधाुनाः सर्वा भतृन्स्वान्प्हे गहे ।
यात्रागमनमाज्ञाय त्व॒स्यन्ति सम हर्पिता! ॥ २५ ॥
घर घर, याद्धाओं की ल्ियाँ, दर्षित दा कर, अपने अपने
पतियों से, श्रोरामचन्द्र के लोठा जाने के लिये वन में ज्ञाने की,
जद्दी मचाने ल््गीं | २५ ॥
ते हयेगेरिये! शीघ्रे) स्यन्दनैशमहाजवै: ।
सह येपवल्राध्यक्षा बल सर्वमचेदयन || २६ ||
884 » थ

सव सेनाध्यत्ों ने थाड़ों वैज्ञों सेखींचे ज्ञाने वाले और


तेज चलने वाक्ते रथों पर सवार है| समस्त सेना का शीत्ष चल्लने
की शाज्ञा दो ॥ २६
सज्जं तु तदलं दृष्टा भरते गुरुसन्रिधों ।
रथ॑ मे त्वस्यस्वेति सुमस्त्र पाइवतेप्तरवीत ॥|२७ ॥
# पाठन्तरे--/ हृष्टस्तदादिशित्सव ?
इयशीतितमः सर्यः, प्र
सेना के यात्रा के लिये तैयार देख, शुरुषशिष्ठ की सन्निधि में
और अपनी वशल् में वैठेहुए सुमंत्र सेकद्दा कि, मेरा रथ तुरन्त
ज्ाओ॥ २७ ॥

भरतस्य तु तस्याज्ञों प्रतिगह्य च हर्षित। ।


रथ॑ शहीत्वा प्रययो युक्त॑ परमवाजिमिः ॥ २८ ॥
जुमंत्र जो “ जे आज्ञा ” कद झोर इनके श्देशासुसार प्रसन्न
होते हुए गये और बड़े अच्छे पेड़े जात कर, एक रध मरत जी के
सामने ला खड़ा किया ॥ २८ ॥
स राघव! सत्यधूतिः! प्रवापवान्‌
ब्रुवन्तुयुक्त' हृठसत्यविक्रमः ।
गुरु महारण्यगत॑ यशख्िन
६;

प्रसादयिष्यन्भरतेथ्त्रवीत्तदा ॥ २९ ॥
वे थैर्यचान, प्रतापो, बढ़प्रतिज्ष और सत्यपराकमी भरत ज्ञी,
मद्दावन मेंगये हुए यशस्वी श्रीरामचन्द्र को प्रसक्ष करलोटा लाने
का विचार कर, छुमंत्र ज्ञी से चात्ते ॥ २६ ॥
तूण समुत्याय सुमन्त्र गच्छ
बलूस्य योगाय वक्प्रधानान्‌ |
आनेतुमिच्छामि हि त॑वनस्थ॑
प्रसाथ राम जगते| हििताय ॥ ३० ॥
१ सत्मशतिः--अमच्युतवैयः । (गो० ) २ छुयुक्ततुवन--पुद पसादयि-
ष्यन्‌ | ( गो० ) |
घ्२४् अयराष्याकायदे

है छुम्ंत्र | तुम तुजत सेवानायक्रादि, छुहदों तथा अन्य


मुख्य मुख्य प्रजाजरों के तैयार देने कीआाज्ञा दी। में जगत के
कव्याण के लिये श्रीरामचन्द्र के वन से ज्ञोदाने के लिये वन जाना
चाहता हूँ३० ॥
से झतपुत्रो भरतेन सम्य-
५. ग़ज्ञापितः सम्परिषृर्णकामः ।
शश्ास सववान्मक्ृतिप्रधाना-
न्वल्स्य मुख्यांथ सुहज्जनं च॥ ३१ ॥
भरत जी के वचन सुन, पूर्णकाम छृत सुमंत्र नेप्रज्ञा के मुलियों,
सेनाघ्यत्तों, तथा खुहद जनों से, भरत जी की प्ाज्षा समक्का कर, "
कह दी ॥ ३१ ॥ हैं
ततः समुत्याय कुछे! कुल ते
राजन्यवैश्या हृपलाथ विषपा। |
अयूयुजनुष्ट्रथान्खरांव
नागान्हयांश्ेव कुछपरमृतान्‌ ॥ ३२.॥
इति दृयशोतितमः सर्गः ॥
अनन्तर धर घर में ब्राह्मण, त्षत्रिय, वैश्य ओर शूद्र अपने
झपने ऊँट, रथ, खच्चर भोर अच्छे ज्ञाति हे हाथो झोर घोड़ों के
तैयार करने लगे ॥ ३२ ॥
अयोध्याकाणड का व्यासीवां सर्य सम्राप्त हुआ |
“+-त--

) कुंडे कुछे--पृद्दे मूह । (गोन ) २ चुषछाः--जूदा: । ( गो )


व्यशीतितमः समेः

तत;ः समुत्यित: काल्यमास्थाय स्पन्दने|त्म् |


प्रययो भरत; शीघ्र रामदशनकाझक्षया ॥ १ ॥
अर ै] (४

तदनन्तर सबेरा होते ही भरत जी उठे श्रोर सुधर रथ पर


सवार हो कर, श्रीरमचन्द्र के दर्शन की कामना किये हुए शीघ्रता
से रवाना हुए ॥ १॥
अग्रतः प्रयय॒ुस्तस्य सर्वे मन्त्रिपुराधस!
अधिरुध् हयेयुक्तान्रथान्सूय रयेपमान्‌ ॥ २ ॥
भरत जी के रथ के आगे आगे सब मंत्रि ओर पुरोहित घोड़ों
के रथों में, ले घुये नारायण के रथ के समान चम्रकौले थे, बैठ
कर चलने ॥ २॥ |
नवनागसहस्राणि करिपतानि यथाविधि |
अन्वयुभरतं यान्तमिए्वाकुकुलनन्दनम्‌ | रे ॥
« अल

और भच्छी तरद् समे हुए ६ इज्ञार हाथी इच्चाकुकुलनन्दन


भरत जी के रच के पीछे चत्ते ॥ ३ ॥
पष्ठी रथसदस्ताणि पन्चिना विविधायधाः
अन्वय भरत यान्त राजपुत्र यशस्विनप्‌ ॥ ४ ॥
के

और साठ दज़ार रथ्था में वैद क र व ि व ि ध अद ्ध धा रो , धन ुद ्ध ॑र


यशस्त्री राजकुमार भरत ज ी क े पो छे च ल े ॥ ४ ॥
दर; अयोध्याकायडे

आतं सहस्राण्यश्वानां समारुदनि रायवम्‌ ।


अन्वयुभरत यान्त॑ सल्यसन्ध॑ नितेन्द्रियम ॥ ५ ॥
और धोड़ों पर चढ़े हुए, एक लाख घुड़लवार जितेन्दिय एवं
स्यप्रतिज्ञ भरत जी के साथ चल्के ॥ ५ ॥
केकेयी च सुमित्रा चकैसटया च यशखिनी ।
रामानयनसंहुष्टा ययुयानेन भाखता ॥ ६॥
कैकेयी, सुमित्रा और यशस्विनी कैशल्या जी, थीएमचन्द्र जी
के लाठा लाने के लिये प्रसन्न दो, परम दोप्तमान्‌ रथों पर चढ़ कर
चल्नीं ॥६ ॥
प्रयाताश्चार्यसज्ञता' राम द्रष्टूंसलक्ष्मणम्‌ |
तस्येव च कथारिचित्राः कुर्वाणा हृष्ममानसा। ॥ ७ ॥
द्विज्ञातियों के छुपड के छुप्ड औरामचन्ध ज्ञो के! देखने के
लिये ( भयाध्या से )रवाना हुए। वे जाग आपस में श्रीरामचद्ध
जी ही का विजिन्र दृत्तान्त कहते छुनते और प्रधक्ष होते हुए चल्षे
, , जाते थे ॥७॥
मेघश्याम महावाहुं स्थिरसत्त्वं दहजतस्‌ |
कंदा द्रक्ष्यामहे राम जगतः शोकनाशनम्‌ ॥ ८ ॥
वे कद्दते थे कि, हम जोग उन म्रे्रश्याम, महावाहु, दृढ़बत,
ल्थिख्यवसायी और ज्ञगत का शोक नाश करने वाले श्रीरामचद
के कब देखेंगे || ५॥

१ क्षायंसंघाता:-- ब्रैवार्गिकसंघा३| ( सो० )
त्यशीतितमः सर्गः २७

हृए् एवं हि न शेकमपनेष्यति राव! |


तम्ः स्ेस्य छेकस्य समुथ्न्रिव भास्कर! ॥ ९ ॥
जैसे छुय॑ उदय होते दी त्रिभुवन के पन्थक्ार के नाश कर
देतेहैं,वेसे ही थोरामचन्ध जो मदाराज ग्रपने दर्शन मात्र से हम
लोगों के शोक के दूर करंगे॥ ६ ॥
इत्येव॑ कथयम्तरते संप्रहष्ठा! कया। झुभा! ।
परिष्वजानाश्न्योन्य॑ ययुनागरिका जना; ॥ १० ॥
उस समय नगर के रहने वात्ते, सत्र लोग श्रापल में इस प्रकार
शुभ कंथा कहते और मारे दर्प के एक्र दूसरे के गले से भेंदते हुए,
चल्े ज्ञाते थे ॥ १० ॥
ये च तत्रापरे सर्वे सम्मता! ये च नेगमाः ।
राम प्रतिययुहुण्टाः सर्वा! अकृतयस्तथा ॥ ११ ॥
छयेध्यावासी जिन प्रतिद्ध वनियों को भरत जी ने चत्नने की
आजा दो थी श्रोर जिनको श्राज्ञा नहीं दो थी, वे भी, वनिये तथा
अन्य सव प्रजाजञन प्रसन्न मन से श्रीरामद्शनाथे चले जाते थे ॥११॥
म्रणिकाराश्र. ये केचित्ुम्भकाराश्य शोभना। |
ब्सूत्रकमकृतश्चैव ये च शस्घोपजीविनः ॥ १२ |
प्रज्ञाजनों में सेकोई चनुर जड़िया थे, कोई चतुर कुर्दार थे,
कोई कपड़ा विनने वाले कारो थे और कोई दृथियार वनाने वाले
कारीगर थे ॥ १२ ॥
१ संसता:--अधिदाः । (२० ) २ म्रकृतव३--श्रेणय। | ( रा० )
दुक्षा।। | यो७ ) ५ सूत्रस्मंकृत+--सन्तुवायादयः ।
३ शोमनाए--छकाय
( गो )
परेप अवाध्याकांगडे

मायूरका: क्राकचिका रोचका' वेधकास्तथा ।


दन्‍्तकारा) सुधाकारास्तथा गन्धेपनीविन! ॥ १३ ॥
केई मे।स्पड्ठी बनाने वाले, कोई आटे से लकड़ी चोरने वाक्षे
और कलाई कजईगर थे, अथवा कोई कांच की शीशी बनाने वाले,
कोई मरणियों और मेातियों के वेधने वाले, कोई हाथी दाँत
का काम बनाने वाल्े, कोई शसतरकरांरो करने वाले, और कोई
गेंधी थे ॥ १३॥
चु
छुवणकार; परस्यातारथा कखलधावका। |
लापकेच्छादकाः बेचा पूपकाः शैग्डिकारतया ॥ १४॥
कोईप्रतिद्ध छुबार थे, केई ऋंवल बनाने वाले या घाने वाले
थे,केईशरीर मेंते उवठन कर गर्म ज्ञल से स्नान कराने वाले
थे, कई पगचप्पोी (पैर दाने वाले ) थे, कोई वैद्य थे, कोई घर में
धूप देंकर धर का वायु शुद्ध करने वाले थे औइई कोई ऋलार
( शराब बेचने वाले )थे ॥ १४ |
रजकास्तुन्नवायाश्व* 'ग्रामधापमहत्तराः ।
शेलपाश्च* सह ख्रीमिय ु! केवतेकास्तथा ॥ १५ ॥
च्ेे बह छ्ीमिहयय च्द

उनमे कोई धादी थे, केई दज्लों थे, कोई गाँवों के पुलिया थे,
कई अहीरों के पुलिया थे, केई बढ पशपनी ल्लियों सहित थे (ये नट
१ रोचका+--आचकृप्यादिकर्तारः इति ऋतकूः । ३ ह्नापकाम--तैछा-
दिश्यनकऋारिण। (यो ) ३ बच्छादका --अड्ढमदेका! । ( गो०
४ तुद्ददाया:--छूच्यातीवनऊर्तार: | ( रा० ) ० आमवे।पमदत्ता।--प्राम्र-
प्रदत्त: वाषमइत्ताश। (यो ) ६ शैदबा:--नुमिकाधारिणः ख्री-
जीविनादा । ( गोब् ) ह
व्यशीतितमः से | धर
ज्रीजीवी दोने के कारंग ही द्ियों स कि गये थे )और ,कई
मह्ाद थे ॥ १४॥ ह]
'समाहिता वेदविदे! व्राह्मणा हत्तसम्भता: का
ओोस्थेररत यास्तमतुजणः सदसग३॥॥१३:॥ -..
सहस्लों सदाचारी वेदपाठों भाह्यगा जिनका मन/्रोराम में लगा
था, छुकड़ों पर वैठ भरत ज्ञो के पीछे हालिये थे ॥ १६ ॥
सुवेषा। शुद्धवसनार्ताम्रगृष्लेपन
ठानुा! |
सर्वे ते विविभेयाने! शनैभरतमन्धयुः || १७ ॥
खब ही सुन्द्स्पेश वनाये, सुन्दर चस्र पदिने भ्ोर लाल
चन्दन लगाये शोर तरह तरह की सवारियों पर सवार, धीरे धीरे
भरत जी केपीछे चले ज्ञाते थ ॥ १७ ॥

पहुंइमुदिता सेना सान्वय ात्केक यीसुतम ्‌ ।


आतुरानयने यान्तं भरतं भ्रावृवत्सलम ॥ १८ ॥
इस प्रकार ज्ञव कैफैयोनन्दन एवं प्रातृवत्सल भरत, श्रीराम-
चन्द्र को लौटा! लाने के जिये चले, तव सैनिक क्लोग भी इर्षित
होते हुए भरत जी के साथ चक्ने जाते थे ॥ १८ ॥
ते गत्वा देरमध्वानं रथयानाश्वजुझरेः ।
समासेदुर्तते! गद्ढां धज्लिवेरपुरं प्ति ॥ १९ ॥
वे ज्लोग, सथों, पाजकियों, छूफड़ों भादि सवारियों तथा घोड़ों
और हाथियों पर सवार हो, बहुत दूर चलने फे वाद, ४ंड्भवेरपुर पें
गडुुप जो के तठ पर पहुँचे ॥ १६ ॥
१ ससादिता +--रामव िशतलित् ता; ! (श्ि०) २ गेरथै;-- शक्कदे/ । ( गो)
घ३े० अयेध्याकायडे

यत्र रामसखे वीरो गुहे ज्ञातिगणेहतः ।


पर [पु बे ल्‍ न री

निवसल्यप्मादेन देश त॑ परिपाकयन्‌ || २० ||


जहां पर श्रोरामचन्द्र जी का पम्रित्र गुदद, अपनी ज्ञाति के लोगों
के साथ, सावधानों के साथ, उस देश कह्वा पालन करता डुश्रा
निवास ऋरता था ॥ २० ॥
उपंत्य तार गज्ञायाश्चक्रताकरलकृतम्‌ |
व्यवातिष्ठत सा सेना भरतस्थानुयायित्री ॥ २१॥
भरत जो छे पीदे चलने वालो वद्द सेना चक्रवाक्नों सेखुशोमित
भागीरथी गड्ा के तद पर पहुँच कर, वर्दी दिक्क रही ॥ २१॥
निरीक्ष्यानुगतां सेनां तां च गड्ढां शिवादकाम ।
भरतः सचिवान्सवानब्रवीद्ाक्य काविद!॥ २२ ॥
प ९ ५ काबिद

चच्चन वालने में चतुर भरत जी अपने साथ चलने वाली


सेना के टिक्ली हुई देख व छुखद गड्ाजल के निहार सदर मंत्रियों
से कहने लगे ॥ २२ ॥
निवेशयत मेंसन्‍्यमभिप्रायेण स्वतः |
विश्रान्ताः प्रतरिष्यामरः इव इदानीमरियां नदी ॥२३॥
मेंचाहता हैंकि, मेरी सेना थाज्ञ यहीं पर अपने लिये अमुकूत
स्थान देख दिके, कल सब इस नदी के पार-उतरंगे ॥ २३ ॥

दांव च तावादच्छांम खमंतस्य मदपत: !


आश्वद्दनिमित्ताथंमव्तीयोदर्क नदीम्‌ ॥ २४ ||
उपरशीतितमः सर्गः प३१

मैंचादता हूँकि, में स्वर्गवासी मद्वाराज् दुशस्थ के, उनकी


ओऔद्धंदेदिक क्रिया के निमित, कल इस नदी के पार करते के समय
बल दूँभ्र्थात्‌ गद्भाज्ञज से तर्पण करूँ ॥ २४ ॥
तसपेव॑ ब्रुवतेध्मात्यास्तयेत्युकववा समाहिताः ।
न्यवेश्यंस्तांश्डन्देन! स्वेनसेन पृथक्रूथक्‌ ॥ २५॥
जव भरत जो ने इस प्रकार कहा, तब मंत्रियों ने " ज्ञा भ्राक्ष ?
कह, बड़ी सावधानी से सब क्षोगों केउनकी इच्छानुसार झल्नग
झलूग दिक्रा दिया ॥ २५ ॥
निवेश्य गड्ढामनु तां महानदीं
चरमविधानेः परिवर्धशेमिनीम ।
उबास रामस्य तदा महात्मने ५
विचिन्तयाने। भरते निवर्तनम ॥ २६ ॥
इति आ्शीतितमः सर्गः ॥
महात्मा भरत जी, मद्ानदी गड्ढा के तठ पर यथाविधान
पात्नौपयुक ( अथवा तंबूं, स्वीमें। में) अपनी सेना की टिका,
श्रीरामचन्द्र ज्ञी केलौठाने की चिन्ता करते हुए, वहाँ निवास करते
हुए ॥ २६ ॥
अयेष्याकाणड का विरासीवाँ सर समाप्त हुआ |
“+औ-+++

दमकल जलन हमकी 7लल लकक म र कक टि जब ल ज प ज ी त 2 ज ज क


१ छत्द ें न- -इ च् छय ा । (ग ो० ) र पर िव द् दश ्ो मि नी ्- -प रि वद ्द ोय ि् रो पय ुक ्त -
पथ्चेइसादुपकरण | ( गो० )
चतुरशीतितप्तः समेः

तते| निविष्ठां ध्वजिनीं' गद्गामस्वाश्रितां नदीय |


निषादराने दृष्टेव ज्ञातीन्सन्तवरिताज्जवीत्‌ ॥ १ ॥
भरत जी क्षी चहुरड्डिनी सेना के गड्ा जी के किनारे दिकी
हुई देख भर सशड्डित दे गृह ने अपनी जाति वाज्नों सेकहा ॥१॥
पहतीध्यमित; सेना सागराभा प्रदश्यते |
#तस्थान्तं नाधिगच्छामि मनसाअपि विचिन्तयत्‌ | २॥
यहाँ पर यह वड़ो सेना सप्ुद्र केसमान पड़ी हुईं देख पड़ती
है। मेंकदपना कर के भी इसका अन्त नहीं पा सक्षता प्र्थोत्‌
गशना नहीं कर सकता ॥ २ ॥

यथा तु खलु दुवृद्धिमरतः खयमागतः |


(९

स एप हि महाकायः कोविदारध्वजे रथे ॥ ३ ॥


मेंसमझता हूँकि, निश्चय ही भगत बुरे विचार से रुचय॑ झाये
हैं,ज्ययोंक्ि इस महाकाय रथ पर, केविदार (कचनाराकार )
इच्वाकुकुल को ध्यजों, फहरा रही है॥ ३ ॥
वन्धयिष्यति वा दाशानय* वाप्स्मान्वधिष्यति |
अथः दाशरथि राम पिन्रा राज्यादिवासितम५ ॥8॥
लक ++-ननननन+ नल 333०० 0
! भ्जिती-सेनाँ। ( गो० ) २ धंस्वरतिः--परसंश्रमः | ( गो० )
रे दाश्ानस्मात्‌ | (गो०) ४ अथ--क्यथवा | (गो० ) ५ विवातित--
बुरघेल | (गो० ) # पाठन्तरे--+' नात्यान्तमधिगच्छासि !! |
चतुरशीतितमः सर्गः मरदेदे
अतः या ते भरत ज्ञी मुझे गिर्कार करेंगे अथवा मेरा वध
करेंगे । प्रथवा पिता के राज्य से निकाले हुए असहाय दुर्वज्ष थी-
रामचन्दर जी का वध करेंगे ॥ ४ ॥
सम्पन्नां भ्रियमन्विच्छेसतस्य राज सुदुलूभाम्‌ ।
भरतः केकयौपुत्रो हन्तुं तमुपगच्छति ॥ ५॥
से क्या कैकेयो के पुत्र भरत यह परमदुलंभ राजभ्री का भत्री
भाँति अपने भ्रधिकर में कर लेने के विचार से, कहीं भ्रीरामचद्ध
जो के मार डालने के लिये ते नहीं ज्ञा रहे ॥ ५ ॥
भर्ता चैव सखा चैव रामे दाशरयिमंम |
तस्यार्थकामा!' सन्नद्धां गड्भानूपे प्रतिष्ठत ॥ ६ ॥
परूतु वह दृशरथनन्दन ध्रीराम, भेरे स्वामी, प्रथवा सखा सभी
कुछ दें,भ्रतएव तुम सब क्लाग भ्रोराम के प्रयाजन के लिये, कवच
पदिन थार हथियार ले, गड्ढा के कार में तैयार रहे ॥ ६ ॥
तिप्ठन्तु सर्वे दाश्माश्र गड्जामन्वाभिता नदीम |
वलयुक्तार नदीरक्षा मांसमूलफलाशना! ॥ ७ ॥
मेरे अधीन के सव नोकर, सेना सदित, फल, मूल पव॑ माँस
खाते हुए, गड़ा जी के पाथ उतारे के घाटों की रक्ता करते रहें ॥»॥
नावां शतानां पश्चानां कैवतानां शर्त शतस्‌ |
सन्नद्धानां तथा यूनां तिप्ठन्त्वित्यभ्यचेदयत्‌ ॥ ८ ॥
३ अरथकासा+--अ्रयेजन सिद्धिविषयक्रेच्छावन्तः । (शि०) ३ पत्रद्धा--
घतकवचा। | ( शि० ) ३ बल्युक्राः--पेनायुक्ताः | ( यो* ) ४ नदीरक्षा
7 नदीतरणमाररक्षन्तः | ( गो )
वा० शा०--४३
परेछे घयोाध्याकायदे

घाटों को रखवाली के लिये गुद्द ने कहा कि, पाँच सो नायवें


रहूँऔर उनमें से प्रत्येक्ष नाव पर सो सो जवाब म्रह्लाह कवच
पदिन और दथियार ले, तेयार रहें ॥ ८॥
यदा तुष्टस्तु भरते रामस्पेह भविष्यति ।
सेयं स्वस्तिमती सेना गद्भामय तरिष्यति ॥ ९ ॥
यदि भरत जी, भ्रीरामचद्ध के विषय में घुझे सन्तुष्ट जान
पड़ेंगे, तो ही उनको सेना, सकुशल्ल यज्ञा के पार कर सकेगी ॥ ६॥
इत्युक्वोपायन गद्य मत्स्थमांसमधूनि च ।
अभिचक्राम भरत निषादाधिपतिंगह। ॥ १० ॥
इस तरह अपने नोकरों और सैनिकों के सावधान कर,
निषादपति गुह म्लियाँ, माँत, और शहद भरत ज्ञी को भेंद
फरने के लिये अपने साथ ते कर, चला ॥ १० |
तमायान्तं तु सम्प्रेक्ष्य सतपुत्र। प्रतापवान्‌ ।
भरतायाचचक्षेष्य विनयज्ञो विनीतवत्‌ ॥ ११॥
प्रतापी और विनोतवान्‌ सुमंत्र नेनिषाद के आते देख, विनीत
भाव से भरत जी से कहा ॥ ११॥
एप ज्ञातिसहस्लेण स्थपतिः' परिवारितः ।
कुशल दण्डकारण्येर व्ृद्धों भ्रातुभअ ते सा ॥ १२॥
यह गु् यहाँ का राजा हैझोर अपने सहस्नों विरादरो के लोगों
को साथ लिये हुए आता है। यद बुद्ध गुद दश्डकारणय का घूमने
१ स्थपतिः-प्रणुः । (यो० ) २ दण्डकारण्येकुशक्क:--तत्रसब्लरण
सम्थइत्मर्थ: | ( गो)
चतुरशोतितमः सगे परे.
फिरने वाला होने के कारण, वहाँ का रतो सतो हाल ज्ञावता है
और तुस्दारे भाई श्रोरामचच्द का मित्र है॥ १२॥
तस्मात्पश्यतु काहुत्स्थ त्वां निषादाधिपा गुह) ।
असंशयं विजानीते यत्र ते रामलक्ष्मणो ॥ १३॥
शत; है फाकुश्य ( तुम निषादों के राजा गुद से भेंठ करो ।
क्योंकि निश्चय ही यह वह स्थान ज्ञानता है, जहाँ वे दोनों श्रीरा्
ओर लक्मण वन में निवास फरते हैं ॥ १३॥
एतत्तु वचन श्रुत्वा सुमस्त्राद्भरतः शुभम्‌ ।
उवाच वचन शीघ्र गुह पश्यतु मामिति॥ १४ ॥
सुमंत्र सेयेशुभ वचन खुन, भरत बाले कि, अच्छा, गुह से तुरूत
जा कर कहे कि, वह घुकसे मिले ॥ १४ ॥
रूब्ध्वाभ्यनुज्ञां संहृश्षे ज्ञातिभिः परिवारितः ।
आगश्य भरतं पहो शुद्दे वचनमत्रवीत्‌ ॥ १५ ॥
भरत को प्ाज्षा पा, गुद अपने ज्ञाति विरादरों के लोगों के
साथ, भरत ज्ञी के पास भा, प्रसन्न होता हुआ बाला ॥ १४ ॥

निष्कुट्श्रेव' देशे्यं वशिताशापि' ते वयम्‌ |


निवेदयामस्ते सर्वे स्वके दासकुले वस ॥ १६ ॥
है प्रभा |यह देश आपके घर की वाटिका ( नजरवाग़ ) के
छुल्य है। आपने अपने झाने. को छुचना हमें नहों दी; ध्मतः हम
३ निष्छुद--ग्रद्धरामभूतः | ( गो० ) २ वल्चिताः--अन् गमनानिवेदनेन
बच्चिता इत्थें। । (गो० ) हे
घरेई श्रयेध्याकायडे
छ्ञाग आपका यधाविधि. स्वागत करने से वश्चित रहे | यद सम्पूर्ण
राज्य आपका हैं ओर हम सद भी थापके हैं| प्रतः *राप ग्रपने
दास के घर में वाघ कीजिये ॥ ९६ ॥
5 थक,

अस्ति मूह फल चेव निषाद समुपाहतम्‌ ।


आदर च मांस शुष्क च वन्‍ये चादाव्च महत्‌ ॥१७॥
निषाद लोगों के लाये हुए फल मूल, ताज्ञा और छुल्ला माँस
तथा बन में उत्पन्न होने वाली अन्य थोड़ी बहुत भक्त्य वस्तुएं
ये उपस्थितहैं॥ १७ ॥
आइंसे' स्वाशिता' सेना वत्स्यतीमां विभावरीम ।
अर्चिते विविध; काम; श्व! ससन्‍यो गमिष्यसि ॥१८॥
इति चतुसशीवितमः सर्गः ॥
मैरी प्रार्थना हैकि, प्राज्ञ सेना मेरे यहाँ अच्छी तरद्द (मेरे
भरपंण किये हुए )भाज्ञन कर, रात भर यहीं रहे ओर दम लोग
यहाँ दर तरह से सेवा कर। तदनन्तर आप सेना सद्दित कल
यात्रा करे ॥ १८॥
धरयेध्याक्षाएह का चारासोवों सर्ग सम्राप्त हुआ ।
आकर

पद्माशीतितमः सर्मः

एवमुक्तस्तु भरते निषादाधिपतिं मुह |


पत्युवाच म्रहप्राज्ञा वाक्य इल्यंसंहितम ॥ १ |॥
हु
१ आह्ते--प्राववात्रि |(यो०) ३ स्वाशिता--छुष्दुमोनिता । (गो*)
पश्चाशीतितमः सर्गः |
दा निषादाधिपति गुह के वचन छुन, मदाप्राक्ष भरत ने अपना
प्राय जनाने के लिये युक्तियुक्त चचन कहे ॥ १॥
ऊर्जितः खलु ते कामः कृत मम गुरो! सखे ।
ये मे त्वमीर्शीं सेनामेकाउभ्यरचितुमिच्छति ॥ २ ॥
हैज्येष्ठ भ्राता के मित्र |तुम जे अकेले ही मेरी इतनो बढ़ी
सेना की पहुनाई करना चादते दो --से यह ते निश्चय हो तुम्हारा
वड़ा भारी मनोरथ है। (अर्थात्‌ तुर्दारे इस भादर से ही दम भपने
के सत्कारित मानते हैं ) ॥ २॥
इत्युक्त्वा तु महातेजा गुह वचनपुत्तमम्‌ ।
अब्रवीद्धरतः श्रीमान्रिषादाधिपत्ति पुनः ॥ ३े ॥
परम तेज्स्वी धीमान्‌ भरत जो गुद से इस प्रकार श्रेष्ठ वचनों
* द्वारा बातचीत कर, फिर वाले ॥ रे ॥
केतरेण! गमिष्यामि भरद्वाजाश्रमं गुह |
गहनोथ्यं भुगं' देशे गद्भानुप्रोेर दुरलय; ॥ ४ ॥
हैनिषादराज़ |भला यद्द तो वतलाओं कि, दम किस मार्ग से
भरद्वाज्ञ के श्राश्रम के जाये। क्‍योंकि दम देखते हैंकि, यद गज
का जलप्रायदेश भत्यन्त दुष्प्रवेश्य प्रथवा दुर्गम् है॥ 8 ॥
' तस्य तद्गचनं श्रुत्ता राजपुत्रस्य पीमतः । .
अन्नवीत्राज्जलिवाक्य गुहे गहनगेचरः ॥ ५ ॥
१ कतरेण --कैनमार्गेग । (यो० ) २ भृशंगदवः--अध्यन्तदुष्पवेश) |
( गो० ) $ अनूपेदेश।--जछप्रायेदिशः । (गो? )
परे८ ग्रयाध्याकाये

घुद्धिमान राजकुमार भरत का यह प्रश्न छुत, सब दुर्ग स्थानों


का रास्ता ज्ञानने वाल्मा गृह, हाथ जाड़ू कर, भरत जी से
वाला ॥ ५ ॥

दाशास्तवाजुगमिष्यन्ति पन्दिन! सुसमाहिता! ।,


अहं त्वाज्ुगमिष्यामि राजपुत्र महायशञ! ॥ ३ ॥
है म्रदायशस्दी राजकुमार |आप इसके किये कुछ भी विन्‍्ता न
करें। जे इस प्रान्त का रत्ती रत्ती हाल जानते हैं, वे
आपको रखवाली
के लिये स बाण ले, वड़ी सावधानता पुर्चंककआपके साथ
बायगे झोर मेंस्वयं भी आपके पीछे पीछे चलनगा॥ ६ ॥
कचित्न दुष्लोत्रजसि रामस्याद्धिएकर्मणः ।
इय॑ ते पहती सेना शड्डो जनयतीव मे ॥ ७ ॥
किन्तु, आपको इस विशात्न सेना के देख, मेरे मत में यह
सन्देद् उत्पन्न दो गया है कि, कहीं श्राप भ्रक्िएकर्मा श्रीराम: के पास
किसी हुए धश्निप्राय से ते नहीं ज्ञा रहे | ७॥
तमेवमभिभापन्तमाकाश इचद निर्मल!
भरत; श्लक्षणया बाचा गुहं दचनमत्रवीत्‌ ॥ ८ ॥
शुद्द के ऐसा कहने पर आकाश की तरह निर्मल खमाव के
भरत ज्ञी निषाद से (ऐसा सम्देंद करने के लिये नायज़ है कर कड़े
वचन नहीं दाल, प्रत्युत )प्रधुर वचन वेज ॥८॥ ।
मा भृत्स काले यत्कष्टं न माँ शड्धितुमईसि |
राघव; स दि मे ध्राता ज्येष्टः पितूसमे। मतः ॥ ९ ॥
पञ्माशीतितमः सर्मेंः पे६
दे गुद |चह बुर समय न आवे, ज्ञव मेरी पेसी दुएबुद्धि हो
जाय। तुमको भी मेरे सम्बन्ध में ऐसा अनुचित सन्देह करना
उचित नहीं। कॉंकि मेंते। श्रपने ज्येष्ठ श्राता श्रीयमचन्द जी के
शपने पिता के तुल्य मानता हूँ ॥ ६ ॥
त॑ निवर्तयितुं यामि काकुत्त्थं वनवासिनम ।
बुद्धिरन्या न ते कार्या गुह सत्य॑ त्रवीमि ते ॥ १० ॥
हैगुहद! में ती वनवासी भीरामचन्द के भोटाने के लिये
जा रहा हूँ। इस सम्बन्ध में तुमको अन्यथा नसम्रकना चाहिये।
मेंयह वात तुमसे सत्य दी सत्य कद्दता हैं ॥ १० ॥
स॒ तु संहृष्टददनः भ्रुत्ा भरतभाषितम्‌ ।
पुनरेवात्रवीद्वाक्यं भरत प्रति हर्षित) ॥ ११ ॥
भरत जी के यद्द वचन छुन, गुद प्रसन्न दी गया शोर प्रसन्न
, कि, पुनःभरत जी से ऋहने लगा ॥ ११ ॥
धन्यस्त्व॑ न त्वया तुल्यं पश्यामि जगतीतले !
अयक्नादागतं राज्यं यस्‍्त ्यवतुमिदेच्छसि ॥ १२॥
दे भरत | भाप धन्य हैं। आपके समान इस धराधाम पर
मुे दुसरा कोई नहीं देख पड़ता। क्योंकि, आप विना प्रयत्ञ'
किये हाथ लगे हुए राज्य का, त्याग करना चाहते हैं॥ १२ ॥
शाश्वती खलु ते कीर्सिलेकानलुचरिष्यति ।
यस्त्व॑ कृच्छुग्त राम प्रत्यानयितुमिच्छसि ॥ १३ ॥
निश्चय ही भापकी यह कोति सदा इस केक में वनी रहेगी ।
क्योंकि ध्राप कए पाते हुए श्रीराम के लोठा लाना चाहते हैं ॥१३॥
एवं सम्भाषमाणर्य गुहरुय भरत तद( ा |
वा नए्प्रभ/ सूयो। रजनी चाम्यवतंत || १४ ॥
इस प्र कार गृ द की भर त से वा तच ीत दो रह ी थी कव ि, इत ने में
घुर्य का प्रकाश नए है| गया ( अर्थात्‌ सूर्य अस्त दे गये ) और
शत दही गई ॥ १७ ॥
सन्निवेश्य स तां सेनां गुहदेन परितोपितः |
शत्रुध्नेन सह श्रीमाज्ययन पुनरागमंत्‌ ॥ १५ ॥
गुदद की वातचीत और ख़ातिरदारी से सन्तुट् है भरत जी,
झपनी सेना के ठिक्ा कर, शनुप्त सहित पुनः लेठने के चलें
गये ॥ १५ ॥
[ शयन पुनरागमत्‌ ” से जान पद्ता है कि, युद्द से भेंठ करने के पूर्व
भी भरत जी छेद हुए आराम कर रहे थे । ]
रामचिन्तामयः शेके भरतरय महात्मनः! ।
उपस्थिते द्वनहस्थ* धर्मप्रेक्षस्यरे ताइशः" ॥ १६ ॥
(5 पु >

परन्तु दुखी न होने के योग्य उन भरत जी के भी, जो पढ़े


वाब्‌ थे, तथा शाकमुल्क्त पाप से शून्य थे, ध्ीरामचन्द्र भी
के चिन्तारुपी अ्रति दुस्सह शाक ने घेर लिया ॥ १६ ॥
अन्तर्दाहिन दहन! सन्तापयति राघवम |
वनदाह्मभिसन्तप्ठं। गूढोअमिरिव पादप ॥ १७ ॥
) महात्मन--मद्राधीरस्थापि । (गो०) २ अनहेंल्य-“वशोकयोग्यल्य |
( क्षि० ) ३ घर्मप्रेश्षल्य--शो#म्ुरुपापशुल्यल्थ । (गो० ) ४ ताइश:--भअति-
दुष्सह; । ( श्वि० ) ५ सउत्तपं--शुप्क | ( यो० ) ६ गूठा5प्रिरिब--कीटराप्रि-
गो )
रवि ||(्‌ प
पश्चागीतितप्ः सर्गः पर
और वह शेकरुपी ग्राग भरत ज्ञी को भोतर ही भीतर उद्ची
प्रकार दुग्ध करने लगो, जिस प्रकार वनात्नि से धूल्ते हुए पेड़ को
उसके ज्लाइर की आग दग्ध करती है ॥ २७॥ ५
प्रस़ृतः सर्वगात्रेभ्यः स्वेदं शोक्रामिसम्भवर्‌ |
यया सूयाशुसन्तप्ती
छे
हिमवान्मझते हिमस ॥ १८ ॥
रू हिमवान्मझते

शोकाम्मि से उत्पन्न पसीना, भरत जो के सारे शरीर से उसी


अकार निकलने क्षगा, जिस प्रकार सूर्य की गर्मी से पिघल कर
दिमालय से वर्फ गिरता है ॥ १८॥
[ भादि कवि ने भरत के शोक की उपमा पर्वत से दी है--वे कहते हैं ]
घ्याननिदरशलेन विनिःश्वसितथातुना ।
बे
देन्‍्यपादपसह्न 'शाकरायासाधिश्ृक्षिणा ॥ १९ ॥
रे

भरत के शेक्र रूपी पर्वत की, श्रोयमवन्ध जी का उत्सुकता


पुर्वेकध्यान हो मानों द्िद्ररदित शिज्षाएँ है,वाखार लिये हुए दीर्घ
श्वास मानों गेरुआदि की धाराएँ हैं, दोनता मानों पेड़ों का समूह
है, और शेाक से उत्पन्न हुई मन कोथकावट, मानों उस पर्वत
के शक ( चाटियां )हैं ॥ १६ ॥
प्रमोहानन्तसत्त्वेन) सन्तापाषधिवेशुना ।
आक्रान्तों दु!खशैलेन महता केकयीसुतः ॥ २० ॥
और धत्यन्त माद दी मानों शमेक वनेते जीव जन्तु हैं,तथा
सस्ताप उस पर ्व त की झौ षध िय ाँ तथ ा वा ँस है ं। ऐस े दु ःख रू पी
के फे यी नस ्द ून भर त दू व
पर्वत केककनीचे ट2264003 20:72 पेघ52फल व 3 गय े ॥ २० ॥ जन

॥ शोकायासाधि--शोकजाचित्तधान्तयः | (०) ३ अनन्तसत्वानि--


वन्यप्राणिनायस्मित्तेन ! (रा? ) *
८8२५ शयाष्याकायडे

. विनिःखसन् भुशदुर्भनास्ततः
प्रमूहसंज! परमापद गतः ।
श्रम न लेगे हृदयज्वरादितेा
नरपभे यूथगता यथपभ) ॥ २१॥
४७ ५

इस प्रकार भरत जी के ऊपर वड़ी भारी विपत्ति आयी--वे


ऊँची साँसे लेने लगे ग्रैर बहुत उदास हो गये। उनका अपने
शरोर की छुघ न रहो । वे मानसिक्र शोकब्बर से श्रत्यन्त पीड़ित
थे। वे, अपनी हेड़ से विछुड़े हुए वैल की तरह, क्लिठ्ठी प्रकार
भी शान्ति न पा सके ॥ २१॥
'मुह्देन साथ भरतः समागते
५ हातुभावः सजनःर समाहित): |
सुदुमनारतं भरत तदा पुनः
गृह समाश्वासयदग्र्ज अति ॥ २२॥
इति पश्चाशीतितमः सर्गः ॥
ग़ुह से आलिंगन किये हुए भरत का, जे। भ्रीरामचन्ध ज्ञी के
वनगमन के कारण वहुत उदास थे, गृह ने अपने साईवंदों सहित
एकाग्रचित ही, पुनः धीरे धीरे समझाया ॥ २२ ॥
प्रयेध्याकाण्ड का पचासीर्चा सगे सम्राप्त हुआ ।
अं पत--

बज हर

१ गुदैनलाये समागतः--गुद्देनआलिइतेये।मरतः | (दि०) ३ सबतः--


सपरिवार: । ( गो० ) ३ ससाद्ित:--एकाम्रचित्: । ( गो० )
घडशीतितमः सगेः
4 8५9

आचचक्षेब्य सद्भावं लक्ष्मणर्य महात्मन! ।


भरतायाप्रभेयाय गुहे गहनगेाचरः ॥ १ ॥
पतत्तर दुर्गम वन में रहने वाले गुद, श्रप्तित गुणशात्री भरत
ज्ञी से, धीरामचन्ध जी के प्रति महाता लक्मण ज्ञी का जे सद्भाव
( प्रीति )था वह ऋद्दने लगे ॥ १॥*
त॑ जाग्रत॑ 'गुणयुक्तं वरचापेपुधारिणम्‌ |
भ्ातुगुप्लयमत्यन्तमहई छक्ष्मणमत्रवम्‌ ॥ २॥
है प्रभा |ज़व भाई की रखवाली के लिये तीर ओर कमान लें
कर, म्रातुभक लक्रदण जाग कर पदरा देरहे थे, तब मेंने उनसे
कद्दा ॥ २॥ ह
इयें तात सुखा शय्या ल्वदर्थमुपकरिपता ।
प्रद्याइयसिहि शेष्वास्यां सुखं राघवनन्दन ॥। ३ ॥
हेतात | आपके सेने के लिये वह सखुत की देने वाली सेज
तैयार दे,हे राधघवनन्दन | भाप छुख से इस पर सेइये ॥ ३॥
उचिते।5यं जन! सर्वे दु/खानां ल॑ सुखेचितः । ,
धर्मात्म॑स्तस्य गुप्ल्यर्थ जागरिष्यामहे वयम्‌ ॥ ४ ॥
आप ते छुपा पाने के याग्य हैं। दुःख ते सहने येग्य हम केग
हैं। से दम लेग भीरामचन्द्र की रखवाली के लिये जञगते रहैंगे ॥४॥
१ गुणैः--न्रातृभक्त्यादिगुगीः | (गो० )
घछ४ थ्रयाध्याकायदे

न हि रामात्ियतरा म्मास्ति शुति कथन |


पेत्मुका5भूववीम्येतदप्यसत्यं तवाग्रठ। ॥ ५॥
( यह मत समझना कि, हम रखवालो करने में श्रतावधानी
फरंगे, फ्योंकि )इस संसार में श्रीरामवद्ध जी से चढ़- ऋर प्रेय
मेरे लिये ओर दूसरा कोई नहीं है। में भ्रापके सामने यह वात
सत्य ही कहता हूँ। आप श्रोरामचद्र को रखवालो के लिये जरा
भी किसी वात की चिन्ता न ऋरे ॥ ५
अस्प प्रसादादाशंस लाकेपस्मिन्सुमद्यर;
धमावाप्नि च विधुछामथावाप्ति च केवछाम! ॥ 5 ॥
धोरामचन् ही की कृपा से में इस लोक में बड़े ग्श की झोर
विपुल धर्म तया काम्ापाजित घन पाने की आशा करता हैँ॥ ६ ॥
से प्रियसखं राम शयानं सह सीतया।
रक्षिष्यामि पनुष्पाणिः सर्वे: स्ैज्ञातिभिः सह ॥७)
अतः है लक्ष्मण ! में पतुप ले छर अपने प्रिय खबा श्ोराम-
ज्ञीद्का, जा जीता सहित सा रदे हैं, अपनी पविरादरो के साथ ,
सत्ता झा ॥७ | ,

हि मेअविदितं किखिदनेउस्मिश्रतः सदा |


चतुरहं द्पि वर्ल प्रसहम्र वर्य युधि ॥ ८ ॥
इस प्रान्त का रती सती हाल मुझे मालूम है। क्योंकि मेंवहाँ
के बन मेंसदा घूमा फ्रिरा ही करता हैं।ऊऋद्गाचितं श्रीसम के
१ बैबलानू--न्यावश्राहामितियादत्‌ । ( यो० )
पद्शीतितमः सगेः पछ५

ऊपर आक्रमण करने के चतुरक्षिनो सेना भी थ्रा ज्ञाय, ते भी मैं


युद्ध में एक वार उसे रोक सकता हैं ॥ ८॥
एवमस्मामिरक्तेन लक्ष्मणेन महात्मना |
अनुनीता वर्य॑ सर्वे धर्ममेवानुपश्यता ॥ ९ ॥
है प्रभा ! मेरी ये बातें छुन, धर्म में निष्ठा रखते हुए महाक्षा
लक्ष्मण जी, हम सव को यह सिखाने लगे ॥ ६ ॥
कथ॑ दाशरथो भूमे शयाने सह सीतया'।
शक्या निद्रा मया रब्धुंजीवित॑ वा सुखानि वा ॥१०॥
जअव द्शरथनन्दन भ्रीरामचन्द्र जी, सोता ज्ञी सहित पृथिवी पर
पड़े से। रहे हैं, तब मेंकिस तरह इस खुखसेज्ञ पर से सकता
हैं। मेंपाणों के कैसे रख सकता हूँ(और प्राणों के खुख देने वाले)
छण्ों.का कैसे भेग सफता हूँ । ॥ १० ॥
ये न देवासुरैः से! शक्यः प्रसहितुं युषि ।
त॑ पश्य गुह संविष्ट तृणेषु सह सीतया ॥ ११ ॥
देखो न जिन श्रीरामचन्ध के सामने युद्ध में क्या देवता झौर
क्या घसुर काई भी नहीं ठदर सकता, वे दी श्रीराम, सीता सहित
घासफूस के विस्तरे पर पड़े हैं॥ ११-॥
महता तपसा लब्धे! विविषैश परिश्रमेः ।
एके दशरयस्येष पुत्र। सहशलक्षणं! ॥ १२ ॥
बड़ी तपस्या करने के वांद श्लौर विविध प्रयत्न करके महाराज
_ दशरथ ने धपने जैसे लक्षणों वाला यह एकमात्र पुत्र पाया
है॥ १२॥
ऋ४६ई अयाष्याकाएंड
१ पु
|
पद
अध्लिन्यवानिते

रा जा ने चि रं वद यि ष् यत ि
विधवा मेंद िन ी चू न॑ प् लि पम ेद मव िष ्य ति ॥ १ ३ ||
प्रतर्व में कद स त ा है ंकि , इत के ा चन मे ंभे ज, मर द् गा रा व बह ुत
दिनों ज्ञीचित न रद सक ें गे ओ र नि श् चय हो यह प् रु थि वो ं शी त
विधवा है। आबगी ॥ १३ ॥
विन मुमहानादं अ्रपेणापरता: खियः ।
निेषिपरतं नममच राजानिवेशनम ॥ १४ ॥
छ्ियाँ उच्चर से राते रोते बद्ध ऋर झव चुप दो ययी होगा
४ 8

झोर अब राजनवन नें सन्नादा छाया होगा ॥ २७ ॥


कासल्या चेव राजा च तयेव मसनी मम्र !
नागंसे वदि जोवयु; सर्वे ते शवरामिमाम ॥ १५ |
० ्_ ७ ५ थ 0 ५ ८6.

हुक आया नहीं कि, महाराज, कैशज्या और मेरी माता श्राज


को रात में जीदित बच जाँय 4 १४ |

उम्नव द॑अजुन् ऊ शात्र हा बरदात्ा ऋरता हुई मेसे नाता


ज्ञीतो रहे, परन्तु वीर्रतचितों नाता ऊंेशल्या का इस कुख से
जीवत रहता असन्नच दे॥ २६ ॥

अतिक्रान्तमतिक्वान्तमनवाप्य मनारयप््‌ |
राच्य राममनिश्षिप्य पिता में विनश्षिष्यति॥ १७ ॥
पषदशीतितमः सगे ८७७

मद्वाराज पिता ज्ञी का कितने द्वो दिनों से मनारथ था कि,


ओरामचन्द्र के राज्य सिद्दासन पर बैठावें, किन्तु भव उनका यह
मनेस्थ उनके मन ही मेंचला जायगा ॥ १७॥ हु
सिद्धायो! पितरं 5त्तं तरिमन्काले हुपस्थिते ।
प्रेतकार्येपु सर्वेपु संस्करिष्यन्ति भूमिपम्‌ ॥ १८ ॥
जब मेरे पिता ज्ञी प्राणयाग दंगे, तव जे! उनके शव के दग्ध
फरेंगे, वे झपना जन्म सफल करंगे ॥ १८ ॥
रम्यचत्वरसंस्थानां 'सुविभक्तमहापयाम्‌ |
हम्येप्रासादसम्पन्नां सवरक्विभूषिताम ॥ १९ ॥
ज्ञिस पुरी के चबूतरे और वैठक बड़े सुन्दर बने हैं,जिसमें
मनेहर राजमार्ग हैं श्रौर जिसमें अच्छे प्रच्छे ऊँचे. मकान
सुशोभित हैंभर जे। सर्वप्रकार के रत्नों सेभूषित हैं ॥ १६ ॥ .
। ग़जाश्वरथसम्वाधां तूयेनादविनादिताम्‌ ।
सर्वकल्याणसम्पूणा हृष्टपुष्टजनाकुछाम्‌ ॥ २० ॥ ,
जे। हाथी, घोड़ों और रथों से परिपृर्ण है, जिसमें विविध
भाँति के तुरदही भेरी आदि वाजे वजा करते हैं और जिसमें सब
प्रकार का खुख है भोर जे। दृए पुष्ठ जनों भरी
से है ॥२०॥ '
आरामेद्यानसम्पन्नां समाजेत्सवशाडिनौम्‌ |
सुखिता विचरिष्यन्ति राजधानीं पितुमम ॥ २९ ॥
ज्ञा वाटिकाओं झोर उप वन ों से भू षि त है , सभ ाए ँ झो र उत ्स व
जदाँ सदा दोते दी रह ते है ं- -ऐ सी मे रे पि ता को रा जध ान ो मे ं, जे ।
लोग खुषी दे कर वि चर ेग े, थे ही लो ग घन ्य है ं॥ २१ ॥
दाद अयेध्याकायड

अपि सत्पप्रतिज्ञेन साथ कुशलिना वयम्‌ | *


निदत्ते समये हस्मिन्‍्सुखिता प्रविशेमहि ॥ २२ ॥
हैगद | चाद्हवर्ष वीतने पर इस बत के पात्नन कर, क्या
हम लोग भी सत्यप्रतिज्ञ श्रीयमचन््र के साथ कुशलपुर्वेक प्रयेष्या-
पुरी में सुल्ल से प्रवेश करेंगे ॥ २२ ॥
परिदेवयमानस्य तस्येव॑ सुमहात्मनः ।
तिए्ठते। राजपुत्रस्य शबरी सात्यवर्तत ॥ २३ ॥
गृह ने कहा--हे भरत | राजकुमार और महात्मा लक््मण जी
तोर कमान द्वाथ मेंले, खड़े रदे श्र इस प्रदार विज्ञाप करते दी
फरते व खड़े दी खड़े सबेरा है गया ॥ २३ ॥
प्रभाते विमले सूयें कारयित्वा जग उभौ ।
अस्मिन्‍्भागीरथीतीरे सुख॑ सन्तारिता मया ॥ २४ ॥
प्रातःकाल छू के उदय होने पर दोनों भाइयों मे, इन्हीं
भागीरथी के तर पर, ज्ञटा चनाई । तब मैंते बड़े आराम से उनके
पार इतारा ॥ २४ ॥
जगपरो ते दृमचीरवाससौ
महाव्नों इुझ्रयूथपेपमी ।
वरेषुचापासिधरो परन्तपा
. . व्यवेक्षमाणों सह सीतया. गत ॥ २५ |
इति एकाशोतितमः सगे: | ,
मद्दावली, तेजस्री भर शत्रुओं के .दूमन करने वाले वे दोनों
भाई, सीता के साथ के और मस्तक पर जद्य बनाये, वृत्त के
सप्ताशीतितमः सर्गः घ४६
छिलकों के वस्ध पदिते हुए, तरकस और घन्चुष धारण किये हुए
तथा मेरी भार देखते हुए, गजधज की तरद चलने गये ॥ २४ ॥
अयोध्याकायड का छियासीरां सर्ग पुरा हुआ ।
-+औ--
सप्ताशीतितमः सगेः
0 न

गुहस्य वचन श्रुत्वा भरते भुशमपियम्‌ |


ध्यान॑ जगाम तत्रेव यत्र! तस्छुतमभ्रियम्‌ ॥ १॥
भरत जीने ज्योंही गुद के ऐसे दुःखप्रद वचन सुने त्योंदी, ये
श्रीरामचन्ध जी का ध्यान करने लगे 0 १॥
सुकुमारो महासत्तः सिंहरकन्धो महासुन! ।
एण्डरीकविश्यालाक्षस्तरुण; प्रियदशनः ॥ २ ॥
तदनन्तर सुकुमार, वड़ी भुजाओं वोले, केहरी के समान कंधे
वाले, महाग्रैयवान, कमलनयन, तरुण और मनेहर दर्शन वाले ॥शी
प्रत्याश्वस्य मुहूर्त तुका परमहुमेनाा ।
पपात सहसा 'तोजेब्नतिविद्ध इब द्विपः ॥ हे ॥
६.४” हि )

भरत ज्ञी, जव दे घड़ी बाद सचेत हुए, तब बहुत उदास दो,


हृदय मेंगद्बुश खाये हुए हाथी की तरह पचानक ,मूछित दो, पृथिवी
पर गिर पड़े ॥ ३ ॥
१ यत्रतप्रैव--यत्रक्षणेअ्रियं श्रुतं तत्रैवेर्थः | ( यो० ) २ तेन्ने:--
अदुरे; । ( रा० ) ३ हृदि--हंदयदेशे |(रा० )" हे
चा० रा०--५४
घश० ग्रयाध्याकयडे

तदवस्थं तु भरत॑ शत्रुन्नो5। नन्तरस्थितः ।


परिष्वज्य ररोदेच्चेर्षिसंत) शेककर्शित) ॥ ४ ॥
भरत जी की ऐसी दशा देख, निरन्तर भरत जी के पास रहने
वाले शनुन्न जी भ्रत्यन्त दुखित एवं संज्ञाहीन दी, भरत जी के शरीर
से त्िपठ कर, उच्चल्वर से विज्ञाप कर शेने लगे ॥ ४॥

ततः सवा समापेतुर्मातरो भरतस्य ता; ।


उपवासकृशञा दीना भतुव्यंसनकर्शिताः ॥ ५॥
तब भरत जी ञ्री सब माताएँ, ज्ञे। उपवास फरने के कारण
शरीर से कृश और पति की सृत्यु दोने से शोकातुर दो रहो थीं,
(भरत जी को मूर्लित इुआ छुन ) उनके पास दोड़ी हुईगयीं | ५ ॥
ताश्व त॑ पतितं भूमे रुदन्यः पर्यवारयन्‌।
कैसल्या त्वनुसुत्येनं दुमनाः परिषसने ॥| ६ ॥
और भरत जी के भूमि पर (मूछित ) पड़ा देख, वे उनके
चारों घोर से घेर कर खड़ी दो गयीं। कोशल्या ने भरत जी वे
निकट जा और अधिक विकल हा, भरत जो के उठा कर परे
इदय से लगा लिया ॥ ६ ॥ ह
वत्सला रव॑ यथा *वत्सम्ुपगृद्न तपखिनी ।
परिपप्रच्छ भरत॑ रुदग्ती शेककर्शिता ॥ ७॥
३ जनन्तरंस्थित:--निरन्तर समीपेस्थितः | (शा० ) २ जबुसत--परमी'
प्राष्य |(गे।० ) ३ उपयूद्द-परिष्वज्य | ( गो० )
सप्ताशीतितमः समेः परे
तद्नन्तर पुत्रवस्‍्सल्ष पुव॑ तपस्विनी फैशल्या, अपने निज्ञ गर्भज्ञात
पुत्र केसमान, भरत जो की अपने हृदय से लगा, शोकाकुल ही,
रे से करं उनसे पू छुनेलगों ॥ ७ ॥
पुत्र व्याधिन ते कचिच्छरीरं परिवाधते |
पिन ५

अद्य राजकुलस्पाए्प लद॒धीन हि जीवितम॥ ८ ॥


बेठा ! क्या तुख्दारे शरीर में कोई वीमारो उठ छड़ी हुईहै?
हु अब इस राज़कुल्न का जीना मरना तुम्दारे ही ऊपर निर्भर
5॥
तां दृष्ठा पुत्र जीवामि रामे सभ्रात॒के गते । .
उसे दशरथे राज्षि नाथ एकस्वमथ ना ॥ ९ ॥
दे वत्स |लच्मण जी के साथ के शभ्रीरामचन्द्र तो वन मेंचल्ले
ही गये, अब ते मेंतुस्दारा ही मुख देख कर जी रहो हूँ। अप
महाराज्ञ दशरथ के वाद, एक तुम्हीं दम क्ेगों के रक्तक दी ॥ ६ ॥
कचिनु लक्ष्मणे पुत्र भुतं ते किश्विदभियंगू ।
पुत्रे वा छोेकपुत्नाया। सहभार्यें वन गते ॥ १०.॥
है बेदा !लत्मंण जी के वारे में तो तुमने कोई श्रप्रिय बात
नहीं छुनी ? अथवा मेरे एकमात्र पुत्र, जा ख्री सहित वन मेंगया
है, उसके विषध में तो कोई अमकुल समाचार नहीं खुना ? ॥ १० ॥
स मुहूर्तात्समाश्वस्य# रुद्ेव महायशाः ।
कैसरलयां परिसान्त्वयेदं गुहँ वचनमत्रवीत्‌ ॥ ११ ॥
महायशस्त्री भरत जी दो घड़ी वाद सचेत हुए | तब उन्दोंने
ददन करती हुईं फैशल्या के घोरज वंधाया और गुृद से कददने
-ह्गे ॥ ११॥
. # पाठान्तरे--४ स॒ मुहृत समाभ्यस्य ! ।
घ२ घयेध्याकाणदे

सीता क़च लक्ष्मण; |


भ्राता मे कावसद्रात्रों कु
अखप्त्छयने करिमन्कि भुक्ता गृह शंस मे ॥ १२॥
है गद | भेरे भाई श्रीराम ने रात कहाँ विताई थी, उन्होंने भेजन
कया किया था और किस दिद्वाने पर वे सेये थे ;सीता प्रौर
लह्मण कहां रहे थे ? तुम ये सब वृद्धान्त पुकसे कहो ॥ १९ ॥
सेम्परवीद्धरत हृहो' निषादाधिपतिगुहः ।
यहिध॑* प्रतिपेदे'! च रामे भियहिते्तियों ॥ १३॥
निषादराज गह ने, प्रसन्न हा, ( प्रसन्न इसलिये कि उसे भीराम
जी के गणगान फरने का अवसर प्राप्त हुआ ) श्रीराम जैसे प्रिय
झौर हितेषी ध्रतिथि का जैसा सत्कार किया था--से कहा ॥ १३॥
अन्नमुच्चावचं* भक्षा) फानि विविधानि च
रामायाभ्यवहाराथ वहु चेपहतं मया ॥ १४ ॥
है भरत |मैंने तरह तरह के भ्रक्न, भह्य, और वहुत से फल
मूल्त छा कर भाजन करने के लिये थोराम के घागे रक्षे थे॥ १४
तत्सव 'पत्यनुज्ञासीद्रामः सत्यपराक्रमः ।
न तु तस्तत्यमृहात्स श्षत्रधर्म'मनुस्मरन्‌ ॥ १५॥
१ गुदा हृष्ट--रामवृत्तान्तकीतेनस्थावकाशोलठघद्तिसंजातहपं:सब्‌ |
(गो० ) २ रामे यददिधं--याइद्रामुपचारादिक | (गो० ) ३ प्रतिपेदे--
भफरादिति | (पो०) ४ उद्यावचं--अनेकविधं । ( श्लि० ) ५ प्रत्मनुशासीत्‌ु-:
मदनुपद्राथदरेवछ्मद्रीक्षयपुनमंहमेवदत्तवान्‌ । ( रा० ) ६ क्षत्रधर्म--भांधीः
स्थी तीर तत्रयेधधमः अत्यदीयव्रस्तुमदणानिधृत्तिस्त | ( क्षि० )
सप्ताशीतितमः सर्गः घ्श्र्रे
फिन्तु खत्यपरोक्रप्तों ध्रोरामचद्र ने मुक्त पर अलुगप्रह करने के
लिये सब चीज़ें वचन मात्र से भ्रइए की ग्रोर मुद्दे त्त्रिय धर्म का
झइमरण करा कर (क्लि गह् के तद' पर क्षत्रियों के किसो को दी
हुई वस्तु अहण करना अनुचित है) वे सत्र बल्तुएँ मुछोके लौटा
दीं॥ १४ ॥
[ नेाद--फ़िप्ती किसी टीकाकार का मत हैकि, श्रोरामचन्द्र के उपवात्
करने का छारण तीर्थविधि का पालन था--जथोत्‌ तीथे में जा फ़र प्रथम
दिन उपयाप्र करना चादिये | इश्तो छिये ऊद्दोंने गुह को भेंड ग्रहण नहों को
थी । किन्तु भागे के छो* ते यद भनुमान सिद्ध नहीं दाता । ]

न हास्मामिः प्रतिग्राद्व॑ सखे देयं तुसबंदा ।


इति तेन वयं राजन्नाचुनीता महात्मना ॥ १९ ॥
शोर मुफसे कदा--दे सखे ! दम क्षत्रिय हैं,हमारा धर्म हैकि,
सदा सत्र के सब्र कुद्ठ दिया ते। करें, किन्तु लें कुछ भी नहों |
हैराजन |उन महात्मा भ्रोराम ने हम लेगों से यह कद्ा ॥ १६ ॥
लक्ष्मणेन समानीतं पीत्वा वारि महामना)# |
ऑपवास्य॑ तदा5कार्षीद्राधव/ सह सीतया ॥ १७॥
महामना श्रीराम, लक्ष्मण जी का ज्ञाया हुआ जल, सीता सदित
पो कर, उस रात उपचास करके रह गये ॥ १७ ॥
ततस्तु जलशेषेण लक्ष्मणाध्प्यकरोचदा ।
रबाग्यतास्ते तय सन्ध्यां+ समुपासत संहिता)" ॥१८॥।
१ अनुतीता--प्रगुक्ता |शि० ) २ वाग्यत ः--विय तवाचः । ( शो )
३ सीतायाअविसस्ष्यायाध्यानजपादिकमत्स्येव ! (गो* ) ४ संद्िता।-
समादिता। । ( गो० ) # पाठान्तरै--४सद्दायश३ ? ।

थछ अयेाष्याकायडे

तदननन्‍्तर लक्मण जी ने भी, जे जलन बच रहा था, से पी


छिया | तदननतर दीनों ने मोन और पुकाग्रचित्त हो, सन्ध्यावन्द्न
किया ॥ १८॥
[ नाट--तीनों ने सन्ध्योपासन किया । तीन की संख्या में किली किसी ने
है। श्रीराम, एक्ष्मण और सुमंत्र की गणना की है, और किसी ने श्रीराम, रक्ष्मण
और सीता की। जिस प्रकार सूतजातीय दाने के कारण सुमंत्र के शाद्वतः वैदिक
पन्ध्योपासन करने का निषेध है। सकता है, उत्तो प्रकार खीज्ञाति की हेने के
कारण सीता जी भी वैदिक सन्ध्योपासन करने की अधिकारिणी नहीं है! |अतः
ने। सम्राघान सुमंप्र के लिये है, वही जानकी जी के छिपे भी। धीगे।विन्दराज
नी का मत हैकि, सीता ने जे। सम्ध्योपासन किया उसमें केवल परमात्मा का
ध्यान और उनके नाम का जप किया था| ख्ियों तथा छाद्दों के लिये, परमात्मा
दा ध्यान करने और उनका नाम अपने का निषेध नहीं है | यहाँ पर एक शह्ठा
और घठठी है |वह यह कि, जलूपान के बाद सम्ध्योपासन कैसा? इसका
समाधान भूषणदीका में इस प्रकार किया गया हैकि; गुह ने भरत के इस प्रश्न
के उत्त में कि, श्रीराम ने क्या खाया था, क॒द्दा कि, मेरे लाये हुए फ्लादि को
छौध-ए क्षमण के छापे हुए ज के पी कर, श्रीराम रहे । यह ग्रश्नज्ञालुसार प्रश्न
फा उत्तर है। इससे यह न समझना चाहिये कि, जछ पीने के अब्न्तर श्रीरामचार
ने सन्ध्योपाध्तन किया था । ]

सोमित्रिस्तु ततः पश्मादकरेत्खास्तरं शुभम्‌ |


खयमानीय वहाँपि श्षिप्रं राघघकारणात्‌ ॥ १९ ॥
तदनन्तर महात्मा लद्मण जी ने श्रीरामचन्द्र के सेने के लिये
तुरूत छुश ला कर विछ्ठा दिये॥ १६ |
तस्मिन्समाविशद्राम! खास्तरे सह सीतया |
प्रक्षात्य च तया! पादावपचक्राम लक्ष्मण! || २० ॥
घई अयेष्याकायडे

अतर्दिमिज्ञातिभिरात्तकासु के;
सहेन्द्रकरपं परिपालयंस्तदा ॥ २३ ॥
इति सप्तशीतितमः सगे ॥
मेंभो एक वढ़िया घलुष द्वाथ मेंले, अपनी विराद्री के घतुप-
घारी ले|ों के साथ, उच इन्द्र तुद्य श्रीयप्रचच्ध ज्ञी की रखवाली
करता हुआ लद्मण जी के साथ यहाँ रात भर जायता रहा ॥ २९२॥
अयवेध्याकारड का सत्ताघीयां सर्ग सप्राप्त हुआ ।

अ्रशशीतितमः संगेः
ना ४मे क्‍--
तच्छुत्वा निपु्ण' सब भरतः सह मन्त्रिमिः |
इच्गुदीमूलमागम्य रामशय्यामवेक्ष्य तामू ॥ १ ॥
श॒द्द केचचन सुन भरत जी मंत्रियों सहित, सावधानतापूर्वक
इंगुदी दत्त केनीचे गये और श्रीरामदद्ध ज्ञी की तृणशब्या के
देखने लगे ॥ १॥
अव्रवीज्जननीः सवा इह तेनर महात्मना |
शवेरी शयिता भूमाविदमस्य विमर्दितम्‌॥ २॥
शऔर अपनी माताओं से बाले कि, महात्मा श्ीरामचद्ध ने
उस राव, इसी पर यहाँ शयन किया था यह कुश उन्हींके शरीर
सेमदन किये हुएहैं॥ २ ॥ हे
१ निषुर्ण--धावधाव | ( गो० ) २ देव--रामेग । ( मो? )
शगशीतितमः सर्गः घ५७

महाभागदुढ्रोनेन महाभागेन पीमता |


गाते दशरपेनेव्या ने राम! खजुपहति ॥ ३ ॥
पु [५]

परम भाग्यवान, कुज्ञीन औ्रौर वुद्धिशात्षी महाराज दशरथ से


उम्रन्त दी, श्रीरामचन्ध ते पृथिद्री पर शयन दिया से! यह ग्रत्यस्त
भ्रतुचित हुआ ॥ ३ ॥
अनिनेत्तरसंसीणं वरास्तरणसंदरते# |
ग़यिल्ा पुर्पव्याप्र! कं जेतेमहीते ॥| ४॥
जे। श्रोराम, सदा ही राजाओं के सेने योग्य केले की होल
केबने भ्रति कमल विद्वौने सेयुद्ध सेजों पर सेते रहेहैं,वेभत्ता,
फिस तरह भृमिपर सेते होंगे ॥ ४ ॥
प्रासादाग्रविमानेपु वहभीएु' वे सबंदा ।
हैमराजतभोमेपु धरास्तरणशात्पि ॥ ५॥
धपुणसश्षयचित्रेष्‌ च्दनागरगन्पिएु |
पाछ्राभ्रपकारेपु शुकसहुतेपु च॥ ६॥
प्रासादवरवयेए शीतवत्सु तुगन्धिएु !
उफ्ला मेस्कस्पेएठ कृतकाशनमित्तिषु ॥ ७ ॥
गीतबादिवनिषेषिविराभरणनि/खने! ।
गृदवुभरइब्देश सतत प्रतिवोधित: ॥ ८ ॥
॥ भविन--वदेन प्रदृल्यायमितर विपक्षित | ( योर ) २ बढभीपु--
कृथागारेपु | (गो* ) ३ वरशाल्रणशाहिपु--वित्रउलकाशारिु । ( गो० )
+ पाठान्तो-- पञ्ये।
दश्य अवेष्याकायड

जिस सातखने राजभवन की चेंखणडी की भूमि सेने शोर


चांदी की वनी हुईहैओर जिस पर घच्छे अच्छे रंग विसंगे ऊनी
गलीचे विद्ठे हुए हैं,जिन पर पुष्यों सेचित्र विचित्र रचनाएँ की
ं जे शयनगृह चन्दन और अगर की छुगन्घ से छुवा-
ज्ञातीहैऔर
सित हैं,जे सफेद उजले वादल क्री तरह दीख पड़ता हैं,जहाँ
पर तोता मेंना भ्रादि पत्ती वालते, जे राज्मवनों में सब से श्रेष्ठ
हैं,जहां पुर ध्वश्यक्रतानुसार ठंडक पहुँचायी जा सकती है
( धर्थाद्‌ जब चाहे तव कमरे में ठंडक हा ज्ञाय ) अथवा डिसमें
सदा शीवल ओर छन्धित पवन का सच्चार हुआ करता है,जिसकी
ऊँची दोदालें साने चांदी के काम से खचित होने के कारण भेद
पर्चत जैसी ज्ञान पड़ती हैं--ऐसे उत्तम शयनागार में सोने वाले
ओऔरामचन्द्र जी जे मधुर गाव ओर उत्तम सदड्भादि वाज्ञों के शब्दों
से तथा उुच्दर स्त्रियों डी पायजेव, नुपुर आंद गदनों के छुमछुम
शब्द से अगाये ज्ञाते थे॥ ५ ॥ है॥ ७] 5॥
बन्दिभिवेन्दितः काले! वहुभिः घतमागपः |
गाधाभिरनुरुपामिः स्तुतिमिश्र परन्तपः ॥ ९ ॥॥
झर जागने के वाद, प्रातःकाल शब॒द्यों केदमन करने वाले
झीराम, जिनकी नेक छूत, मागध आर वंदीगण अनेक प्रकार की
छुन्दर ( पूर्वपुरुषों को ) गायाञ्रों ग्रोर स्तुतियाँ से वंदना करते
ये॥६॥
अश्रद्धेयमिद छोके न सत्य प्रतिभाति मेक |
भुशते ख़त मे भावः समोज्यमिति मे पति! || १० ॥
१ छआाछे--शवाक्ाले | ( गो० ) # पाठान्तरे--४ करा |
ध्ष्टाशीतितमः सर्ग बह
वे जम्तोन पर से, प्रोर शगाल एवं वन्य जन्‍्तुण्ों का भयडुर
चीतार छुन जागें--इस वात पर मुझे न ते विश्वास ही होता है
और न यद मुझे सत्य दी जाब पड़ती है। क्योंकि इसकी' कदपना
मात्र से मुझ्के श्रम देते लगता है और स्वप्न सा आन पढ़ता
॥॥
है१०
न नुन॑ देवतं किखित्कालेन! वलवत्तरम्‌।
यत्र दाशरथी रामे भूमावेव शयीत स। ॥ ११॥
निध्यय ही परमात्मा की इच्छा से वह कर कोई देवता नहीं
है। नहीं ते मद्दाराज्ञ दशरथ के पुश्र दो ऋर भो श्रीराम ज्ञमीन पर
क्यों सोते ॥ ११॥
विदेहराजस्य सुता सीता च॒ प्रियदर्शना |
दयिता शयिता भूमों स्तुपा दशरथरय च॥ १२॥
शाज्ञा जनक की पेटी, महाराज दशरथ की वह जे! अति छुन्दरी
हैश्रार जिस पर मद्दाराज दृशरथ की बड़ी कृपा थी, हाय | ज़मीन
पर सेती है!!॥ १२॥
इये शब्या मम श्रातुरिदं हि परिवर्तितस्‌ |
स्थण्डिलेर कठिमे सब गात्रेविगृदित तृंणम्‌॥ १३ ॥
ठिनि ्छे द्तिं #

हैमाता ! देखो मेरे भाई की यद्द सेज्ञ है! देखो, जैसे जैसे
उन्होंने करवर्ट बदली हैं,वैसे दी वेसे कड़ी भूमि पर विछ्ले हुए तृश
उनके शरीर से दव दृव कर कुचल गये हैं ॥ १३ ॥
३ कालेन--काछात्‌ परमाक्तोच्छवा । ( शि० ) 3 ह्थण्डले--भूतके |
(गो? )
5६० अयोाध्याक्ाणडे

पन्‍्ये साभरणा सुप्ता सीतास्मिज्शयनात्तमे |


तत्र तत्र हि दृश्यन्ते सक्ता। कनकविन्दव) ॥ १४ ॥
मुझे ज्ञान पड़ता है,गहने पहिने हुए सीता साई थी। इसीसे
ते जहाँ तहाँ सेन के रोना ( दाने ) पड़े हुए देख पड़ते दें ॥ २७ ॥
उत्तरीयमिहासक्तं सुच्यक्त॑ं सीतया तदा ।
तथा होते प्रकाशन्ते सक्ता! काशेयतन्तव। ॥ १५ ॥
हैमाता ! ज्ञान पड़ता है, यहाँ परखोता की श्रोढ़नी उल्तक
गयी थी -फ़्शेंकि यहां रेशम के धागे उजके हुए है ॥ १४ ॥
मन्ये भतुंःसुखा शब्या येन वाछा तपखिनी |
सुकुमारी सती दु/खं न विजानाति मेयिल्ली ॥ १६ ॥
पति की सेज ( कैसी ही क्यों न हो अर्थात्‌ चाहे वह कोमल
.,. ही चाद कठोर ) ल्षियों के लिये सदा खुखदायिनी दोती है,देखे!
“ ” [इसोीसे तो उस छुक्षमारों तपस्विनी पतिब्रवा बाला सीता को
इस पर सेने से कुछ सो कछ न हुआ ॥ १६ ॥
। हा हतेजस्मि इृशंसेऊं यत्सभायः रूते मर ।
ईंहशीं राघवः शब्यामधिग्ेते द्नाथवत्‌ ॥ १७॥
हा! में ता ज्ञीते ज्ञी ही मर गया। मेंबड़ा निदयी हैँ। मेरे ही “
पीछे तो श्रोरामचछू को अपनी ख्री सहित, अ्रनाथ की तरह, ऐसी
शब्या पर सेना पड़ा ॥ १७ ॥
सावभोमछुले जातः सर्वकेकस्य सम्मतः |
स्वक्लाकम्रियस्त्यवत्वा राज्यं छुखमुत्तमम् ॥ १८ ॥
श्रष्ठाशीतिततः सर्गः १
सम्रादकेहुल मेंजम केकर, सब के छुस देने वाले और
सर्वग्रिय हीकर भी वेउत्तम राज्यधुस सेवश्चित किये गये ॥१८॥
कथमरिददीवरश्यामे रक्ताप) प्रियदेशन! ।
ए शयिता
सुसभागी ने दु/खाह! गयितो भुवि रापद! ॥१९॥
हा |नोल कम केसप्रान श्यागल शरोर वाले तथा रकव्
मेत्र बाते, देखने मेंमनोहर, जिर्होंने सदा छुख्र ही भेगा हैऔर
जे कमी दुःख भेगने येग्य नहींहै-ने भ्रीस्चद्ध किसप्रकरार
जमीन पर सेये॥ १६ ॥
धन्य! सलु गहाभागों छक्षण! बुभलक्षण: |
प्रातरं विपे काले थे राममनुव्तते ॥|२० ॥
इस समय ते शुभ लत्नणों वाले तह्मण जो ही धन्य हैंऔर
करदीके वड़भागी समझता चाहिये कि, जे ऐसे बुरे समय मेंभी
अपने भाई थीरम का साथ देरे हैं॥२० ॥
सिद्धाथों सत्र बेदेहीपति याशुगता वन ।
बय॑ संशपिता।! सर्येहीनास्तेन महात्मना ॥ २१॥
और वैदेही जानकी का भो जन्म सफल हैजे! अपने पति के
साथ बन मेंगयी ।हम लेश थरीरशम्रचद्ध ज्ञी से केवल द्वीन ही
नहींहैं,कि हमेंइस वात का भो समेह हैकि, श्रीराम दम लोगों
करे ॥२१ ॥
की सेवा भ्रद्वीकार करेंया ने
अवणपारा पृथिवी शूर्पेषर प्तिभाति मागू# |
गते दशरथे खग रामे चारप्यगाधिते॥ २२ ॥
! संशपिता--असाप्लेवांरमे/हवीकरि्यतितवैतिसंग्पता: । (गो )
# पाठात्तरेन मा ।
डी ब्कगिफ
न्प अयेाध्याकायडे

महाराज दृशस्थ के खर्गवासी होने सेतथा श्रीरामचद्ध जो के


बनवासी होने से, विना माँक्ी की नाव को तरह, यद्द एथिवी,
मुक्के छुनी दिखलायी पड़ती है ॥ २२ ॥
न च प्राथयते कश्रिन्मनसा5पि वसुन्धराम |
बनेअपि वसतस्तस्य वाहुवायाभिरक्षिताम ॥ २३ |
प्रीरामचन्द्र जीवनवास कर रहे हैंता क्या हुआ, यह पृथियों
उन्हींके भुजवत्न से रक्तित होने के ऋआरण, दूसरा इसे लेने की,
अपने मन में कल्पना भी नहों ऋर सकता ॥ २३ ॥
- शुल्यसंवरणारक्षामयन्बितहयद्विपाम्‌ ।
अपाहतपुरद्वारां राजधानीपरक्षिताम ॥ २४ ॥
यद्यपि इस समय शभ्रयाध्या क्री चह्ाारदीवारी को राक्ता जैसो
देनी चाहिये वैसी नहीं दो रहो, हाथो घोड़े भी जहाँ तहों छूटे हुए
घूम रहे हैं, उन्हें पक्रड़ कर कोई वाँचने वाला नहीं है। पुर के फाक
भी खुले पड़े हैं अतण्य राजधानी अरत्तित है ॥ २४ ॥
अप्रहुष्वर्लां न्यूनां* रविपमस्थामनाइताम* |
शत्रवा नाभिमन्यन्ते भक्षान्विपक्षतानिव ॥ २५ ॥
क्योंकि वहां की सेना उद्यास है,उसे पुरो की रक्ता करने को
छुवि नहीं ह। अतः अयेध्यापुरी इस समय साधनहीच है, दुर्दशा-
पतन्न हुऔर वाहिर से भी उसकी रक्ता का कई डयाय नहीं है;
4 अप्रहशवरूवत्वमरक्षितत्वेदेतु+ | (गो० ) २ न्यूबां--लाधवविद्वीनां ।
( यो० ) ३ विषसस्या--दुदृशापत्रां । (मो० ) ४ बवावदा--वाह्मरक्षक-
रहितां | ( गो० )
अशशोतवितमः से: मई.
तथापि शब्नल्लाग, ध्ोणामचन्ध के प्ताप के कारण, उच्तकी ग्रोर
देखते हुए वेसे हो डरते हैं,जैसे कोई विषेज्षे भोजन के देख कर
डरता है ॥ २४ ॥
अयप्रभृति भूमा तु शयिष्येऊं दृणेपु वा ।
फलमूछाशने नित्यं जटचीराणि धारयन्‌ ॥२३॥
शाज्ञ से मेंभी खालो ज़मीन पर प्रयवा चठाई पर ही सेऊँगा,
और नित्य फल मूज ही खाऊँगा और जदा चीर धारण
करूंगा ॥ २६ ॥
तस्याथमुत्तरं कल निवत्स्पामि सुख बने |
त॑ं प्रतिश्रवमामुच्य नास्य मिथ्या भविष्यति ||२७ ॥
पोरामचन्ध के चन से ज्लौदा कर उनके बदले में वन में
वर्तेँगा-क्योंकि वनवास की जे। अदधि अभी शेष है, इसे में
पूरी करूँगा जिससे बड़े भाई की चौदह वर्ष वनवास करने की
प्रतिज्ञा मिथ्या न देने पावे ॥ २७ ॥
वसन्त॑ भातुस्थाय शत्रश्नो माजुंव्वत्स्यति |
लक्ष्मणेन सह त्वायों हयेध्यां पालयिष्यति ॥२८॥
भाई के बदले वन में तास करने पर शन्मश्न जी भेरे साथ वन
में रहेंगेऔर लत्मण के सहित श्रोरामचन्ड जी प्रयाष्या मेंजा
राज्यशासन करंगे ॥ २५॥
अभिषेष्ष्यन्ति काकुत्स्थमयेध्यायां द्विनातय; ।
8
मे देवता
अप प क
! कुयुर िमं
कप पक
सत्यं मनारथ म्‌ ॥
यम ट
२९ ॥
१ क्रपि--पंभावदायामपिशव्द: । ( गो )
] अयाध्याकायडे

व्रा ह्मण केाग छयेष्य में श्रीरामदन््ध का राज्याभियेक करेंगे ।


देबाएं से मेंठे। यही प्रार्थना करद। हूँकि, वे मेशा मने।र्थ पूरा
करे ॥ २६ ॥
प्रसाधमान! शिरत्ता गया स्वयं!
बहुप्रकारं यदि नाभिपत्त्यतेः ।
सेततोथ्नुपत्स्यामि चिराय राधव॑
् सन्नाइति
बने वसन्नाइंति
पु
मासपेक्षितुम | ३० ॥
इति अष्टाशीतितमः सर्गः ॥
चरणों मेंसीस रखने तथा अनेक प्रकार से मेरे स्वयं मनाने
पर भी, यदि श्रीरामचन्द्र मेरी बात अगीकार न करंगे (और पिता
की आज्ञा का खयं पालन ही करगे | ते मेंभी चिरकाल तक थ्री-
रामचन्द्र जी का सेवक वन उनके साथ वन मेंदास करूँ गा।पर मुस्े
विश्वास हैकि, भीरामचन्द्र जी भक्तवत्सल्ल हैं, ध्रतः वे पने दास
की उपेज्ञा कभी न करेंगे ||३०॥
भयेध्याकाएड का धट्टासीवाँ सर्म॑ समाप्त हुआ ॥

आफ .

१ स्वयंनतुमंत्रिमुखेन। (रा० ) २ नामिपत्यते--लावीकरिप्यति ;


( गो० ) ३ शलुवत्वयामि--तदनुच्रोनवामि । ( यो० )
एकोननवतितमः सगे
>-५०३--
'व्युष्य रात्रि! तु तम्रेवर गड्ाहूले स राघव। |
भरतः 'काल्यमुत्याय शत्रध्ु नमिदमब्वीत्‌ ॥ १ ॥
रघुकुलोत्पन्न भरत जी ने उसी घ्यान पर जरा धीरामचन्द्र जी
सेये थे,रात्रि व्यतीत की और ज्ञव सबेरा हुआ तव उठ कर शब्रुघ्न
से कद्दा ॥ १॥
शत्रुध्नात्तिष्ठ कि शेषे निषादाधिपति गुहम्‌ |
शीघ्रमानय भद्रं तताे रयिष्यति वाहिनी ॥ २ ॥
शन्नुप्न डठो ! सबेरा हे चुका। अप फ्यों पड़े से रहे दो |तुदारा
कब्याण दे | तुम जा कर तुरन्त निषादराज़ गुह के यहाँ बुला
लागो, जिससे वह द॒मारी सेना का पार उतारे ॥ २॥
जागर्मिं नाहँ खपिमि तमेवाय विचिन्तयन्‌ ।
इत्येवमत्रवीदआत्रा शत्रुप्नोजपि प्रचोदित) ॥ ३ ॥
यह छुन शन्नप्न ने भी कद्ा--दै श्राता | मेंसे! नहीं रहा--
ज्ञाग रहा हूँ ग्रेर जिस प्रकार शाप भोरामचन्द्र जीका चिन्तन
करते हैं, वैसे दी मैंभी उन्होंका चिन्तन कर रहा हूँ॥ ३ ॥
इति संवदतेरेबमन्योन्य नरसिंहये! ।
आगम्य प्रान्नक्ि; काले गहे भरतमत्रवीत्‌ ||४ |
ब्युप्य--उपिल्या । (यो० ) २ रात्रिं--रात्रो । (गो ) ३ शतन्रंद
यम्ररामेश्पिष्ठतमैव । (गो? ) ४ काह्यं--अल्यपः । ( गो )
चा० रा०--५४

घ्द जाकर थ्रयाध्याकायडे
इस प्रकार दोनों पुरुषसिद वातचीत कर ही रहे थे कि, इतने
में निषा दराज ़ गुदद ठीक समय पर पहुँच और द्वाथ जोड़ कर भरत
जी से वाला | 3 ॥
कचित्सुखं नदीतीरेश्वात्सीः काहुत्स्थ शवेरीम्‌ | ।
कचित्ते सहसेन्यस्य तावत्सवेमनामयम्‌ ||५ ॥!
कच्ित्ते ए

हैकाकुत्थ्य ! थ्राप नदी के तठ पर रात के छुल्लपूर्वक ते रदे।


श्ापके या आपको सेना में सेकिसी के किसी प्रकार का झेश
ता नहीं हुआ ॥ ५ ॥
गुहस्य तत्तु वचन श्रुत्वा स्नेहादुदीरितम्‌ ।
!रामस्पालुवशो वाक्य भरताथ्पीदमत्रवीत्‌॥ ६ ॥
ग॒द के ऐसे स्नेह-सने वचन छुन, मरत जी ने भी गुद से यह
कहा ॥ 4 ॥ |
सुखा नः शवरी राजस्पूनिताथापि ते वयम्‌ |
५. 0 मिदांशा
नौमिवद्ी 0
गड्ढे तु ४ सन्तारयन्तु न। | ७ ॥
है राजन |यह रात हम सव की खुख से वीती और तुमने
हमारा भत्ती भाँति भाद्र सत्कार भी किया । श्रव तुम अपने
महाहों की भाज्ञा दो कि, वहुत सी नावों द्वारा हम लेगों के उस
पार पहुँचा द्‌| ७ ॥ े0 हे
ततो मुह सन्लरित श्रुवा भरतशासनम्‌ । , -
प्रतिप्रविश्य नगर त॑ं ज्ञातिजनमत्रवीत्‌ ॥ ८ ॥
-# रामध्यअनुवशः--रामस्यभवुचर/ । (शि० ) २ - दाशा--
कैवतिकाः । ( स्ि० ) ४ ०
एकराननवतितमः स्गः मई

भरत जी की ऐसी प्राज्ञा पा कर गुह ने वड़ी शीघ्रता से पुनः


अपने नगर मेंप्रवेश किया शोर चहां ज्ञाकर अपनी जातिवालों
[ मल्ठाहों )से कद्दा-॥ ८ ॥
उत्तिष्ठत भवुध्यध्व॑ भद्रपस्तु च व! सदा । 5
नाव) समनुकपथ्य॑तारयिष्याम वाहिनीम॥ ९॥
0३५

भाश्या | उठे! | ज्ञागो | सदा तुम्दारा मडुल दो। नाथों को


किनारे पर ज्ञा कर, सेना का पार उतारे ॥ ६ ॥
तेतथेक्ता। समुत्याय लवरिता राजशासनात्‌ ।
पश्च .नावां शतान्याशु समानिन्यु। समन्‍्ततः ॥१०॥
गुद्द द्वारा ऐसा के जाने पर माह लेग उ6 खड़े हुए और
अपने राजा के भ्राक् षाचुसा र उन लोगों ने इधर उधर से जोड़
वर कर ४००्न ावें ला ऋर, धाद पर जगा दी ॥ १० ॥
अन्य; स्वस् तिकवि श्ेया महाप ण्टा बरा वरा$ ।
शे।भमाना ! पताक ामिय ुक्त वाता :! सुसंह ता/! ॥११ ॥
इनके अतिरि क्त राजओो ं के चढ़ने येग्य “ खस्त िक ” नामक
कई एक वज्ञरा मायें भो ज्ञायो गयों । इन स्वस् तिक नावों में घर
दंगे हुए थे ।पताकाएँ शेमा यमान थीं। हवा धाने जाने के लिये
लड़कियाँ वनी थीं, और नाव की तली में कीलें आदि ऐसी
सावघानी से जड़ी थीं.क ि, उत्तमें एक बूंद भी जल नाव के भोतर
नहीं आ सकता था॥ ११ ॥
१ युक्तवाता।--फ%ठककुद्यकरणेन मध्ये मध्येग वाक्षन िर्माग ेवत महावा त-
निवारणादुच ितवात ा। । ( गो ) ९ सुसंद् विता+- -राजार ाहणस्थ ानस्वे नायसकी छा
दिविदेदसन्धिवन्थाः । (यो? ) | 2 5052
घद्द झयेष्याकाणडे

तत; स्वस्तिकविज्ञेयां पाण्डकम्बलुसंदताम |


'सनन्दिधाषां *कल्याणीं,गुहे! नावमुपाहरत्‌ ॥१२॥
उन छास्तिक नाम क वजरों में सफेद ऊनी कालीन विले हुए
थे। ज्ञव वे चलायी ज्ञातो थीं, तब उनमें दाटी दोठी घंदियों वजती
थीं, वे देखने में बड़ी छुन्दर ज्ञान पड़ती थीं। ऐसी एक नाव के
शुद्द रूवयं लाया था ॥ १२॥|
वामाररोह भरतः शत्रुश्नथ महायशा;# |
केासल्या च सुमित्रा च याश्रान्या राजयेपितः ॥१ शे॥
इस वजरे पर मह्दायशस्वी भरत, शन्न॒घ्न, कौशल्या, छुमिश्ना,
तथा धन्य जे। रानियाँ थीं, सवार हुईं॥ १३ ॥
पुराहितथ तत्यूब गुरवा ब्राह्मणाश् ये।
अनन्तरं राजदारास्तयेव शकठापणा; ॥ १४॥
भरत आदि के नाव मेंबैठने के पूर्व पुरोहित तथा अन्य गुर-
जन ब्राक्षण पहिले द्वीचढ़ चुके थे |तद्नन्तर कैशल्यादि रानियाँ
नाव मेंवेठो थीं। उनके बैठने के वाद सामान से लदे छुकड़े नावों
पर वेकक्ले गये थे॥ १४ ॥ ॥
३आवासमादीपयतां* तीथ* चाप्यवगाहताम |
*भाण्दानि चाददानानां पाषस्रिदिवमस्पृशत्‌ ॥ १५ ||
१ सनन्दिधोषा--दर्पेजनककिडिण्पादिवोषयुक्ध । (गो०) २ कल्याणी--
शेषतां | (गो> ) ३ आवास--सेवानिवेशं । ( गौ० ) ४ आादोपयतां--
अभिनाज्वक्यतां | ( यो० ) ५ तीयं--भवतरणादेश । (गो०)
६ भाण्डानि--उपछाणानि । ( यों० ) # पाठान्तरे---# मद्ाबक्ः |
पकोननवतितमः को. पहैई

चलते समय छावनी मेंजे! घास फूस था वह जअल्ा दिया


गया। फिर गड्ज जी मेंस्तान करने वालों का कोलादल, तथा नावों
पर सामान बादने वालों फा चीत्कार शब्द्‌ ऐसा हुआ कि, झाकाश
प्रतिध्वनित दो उठा। अर्थात्‌ वहाँ से सेना के कूंच के समय और
नावों में सामान जादते समय बड़ा हो हल्ला हुआ ॥ १४ ॥
पताकिन्यस्तु ता नावः खयं दाशैरधि्ठिता! ।
वहन्लो जनमारुद तदा सम्पेतुराशुगा। ॥ १६॥
दे पानवात्ी नावें, जिन पर भाँक्की क्लोग वेठे हुए रखवाली
कर रहे थे, नावों परसवार लोगों के लिये हुए, बड़े पेग से चलो
जाथीं त॥ी१६॥
नारीणामभिषृर्णास्तु काथ्रित्काश्रिच्च वाजिनाम ।
काश्चिदत्र वहन्ति सम यानयुग्यं! महाधनम्‌' ॥ १७॥
कितनी ही नावों मेंतो द्लियाँ ही स््ियाँ बैठी थीं और कितनी
दी नावों में घोड़े ही घोड़े भरे थे।कई एक नावों पर रथ बैल ककड़े,
घोड़े, खचर--जे। वड़े बड़े मेल के थे भरे थे ॥ १७ ॥
ता; सत्र गत्वा पर तीरमबरोप्य च त॑ जनम्‌ |
निहत्ता। 'काण्डचित्राणि क्रियन्ते दाशवन्धुमिः ॥१८॥
घोरे धीरे ये सव नावें गद्ा केदूसरे पार पर जा लगीं और
थ्रारोहियों के उतारा | लौटते समय, गुद के वन्चु महाद
क्लाग, नोका ले जल मेंविविध प्रकार के खेल करते जाते थे ॥१८॥
! यानयुग्यं--यानानिरधश्कटादीनि युग्यानि--अश्वतरवक्षीवर्दादीमि |
(गो ) २-महाघन--बहुमूत्यं | (यो० ) ६ काण्डे--वारिणि । ( गो )
४ चित्राणि--चित्रगमनानि । ( मो» )
घड० अयेध्याकायदे

सर्वेजयन्तास्तु गजा गजाराइप्रचादिता! ।


५ पु
तरन्त; सम प्रकाशन्ते सब्वजा)! इंद पवेता# ॥ १९ ॥

महावत छाग ध्वज्ञा सहित हाथियों के जलन में पेरा कर पार


उतारते थे |उस समय वे द्वाथी चलते फिरते पर्चतों की तरह
ज्ञान पढ़ते थे ॥ १६॥
नावश्ारुस्हुआान्ये पवेस्तेरुस्तथा परे |
अन्‍्ये हुम्भपर्ेस्तेररन्ये तेस्थ बाहुमिः | २० ॥
कोई काई ते दादी नाथों पर बैठ ऋर पार उतरे, कोई वांस
आदि के बेड़ों के साहरे, कोई घरनई से और केई स्वयं तेर कर
उस पार पहुँचे ॥ २० ॥
सा पुण्या* ध्वजिनी' गड्ां दाशेः सन्‍्तारिता खयम्‌ |
मैत्रे मुहूर्ते प्रययो प्रयागवनयुत्तमम्‌ || २१ ॥
गुह के नोऋर मह्नाहों ने स्वयं गड्ास्तान से प्रिश्न हुईसेना
के पार उतार दिया । वह सेना छ्येदिय से तीसरे मेत्र नामक
छुट्दत में परम मनेदर वन के प्रध्यानित हुई ॥ २१॥
४आश्वासयित्वा च चमं" म्रहात्मार
निवेशयित्वा च यथापनापम्‌*
१ सब्बजा+--सगमना; | ( ग्रों० ) २ पुण्या-«याज्ञास्तानादिनापुता ।
( गो० ) ३ घ्वजिद्री--
पेना | (गो० ) ४ काइवासयिस्ता--पान्तदित्वा |
( गो०.) ५ धर --मदाजनं | ( गो* ) ६ मदह्दत्मा--मद्मामतिः | ( यो० )
७ यथापनापम्‌--यथाघुल । ( गो० )
एकाननवतितमः संग घ७१

दरष्टभरद्ानमृपिप्रवर्य-
'मूलिग्दतः सन्‍्मरतः प्रतस्थे ॥ २२ ॥
प्रयाग मेंपहुँच, महामति भरत ने सव सेना तथा साथियों
को मधुर वचनों से सानवना प्रदान कर, जहाँ जिसका छुविधा
जान पड़ी, वहाँ टिकाया । तद्नन्तर भरत ज्ञी, वशिष्ठादि ऋषियों
को साथ ले, भरद्वाज जी के दर्शव करने के उनके प्राप्षम की
ओर प्रस्यानित हुए ॥२२ ॥
स "ब्राह्मणस्याभ्रममभ्युपेल
रमहात्मने 'देवपुरोहितस्य ।
ददश रम्येटनह॒क्षपण्डं
पहन विप्रवरस्य रम्यम्‌॥ २३ ॥
इति एकाननवतितमतः सर्गः ॥
उन वेद्वित्‌ मद्ाज्ञानी देवपुरोहित ब्ृहस्पतिपुत्र भरद्दाज के
श्राध्रम मेंपहुँच, भरतादि ने भरद्याज जी की रमणीय पर्णशात्रा
और सघन बूत्तों सेसुशोमित बड़े वन के देखा ॥ २३ ॥
भयेध्याफाय॒ड का उनवासीवाँ सर्ग समाप्त हुआ ।
-+कैकीय

३ ऋत्विग्मिः--वशिष्ठादिसि: । (रा०) २ आह्मणत्य--अद्ववेद: तदघीते


ब्राह्मण+ । (गो?) ३ मद्दात्मता--मद्राज्ञानस्य। (ग्रो०) ४ देवपुरोद्तित्य---
, बुदिश्पति पुन्नल्ेचदेवपुरोद्धितः्व॑ + भाष्मावै पुत्र नाम्राति!! इतिन्यायाव्‌ |
६ गो ) 5२
नवतितम्तः सगे
ब्ब्न्लऐहैलन-

भरद्वाजाश्रमं दृष्ठा क्रोशादेव नरपभः ।


व सर्वमवस्थाप्य जगाम सह मन्त्रिभि! ॥ १ ॥
पदभ्यामेव हि धर्मजो न्यस्तशस्रपरिच्छद;
वसाने वाससी क्षामे पुराधाय पुरोधसम्‌ ॥ २॥
धर्मज्ञ पुरुषोत्तम भरत आश्रम से केस भर के प्रन्तर पर सेना
आदि को ठिका कर, मंत्रियों क्षेसाथ ले, अख्न शत्र दोड़
पव॑ राजसी पेशाक उतार, केवल रेशमी वच्ध धारण कर, तथा
पुरोहितों को आगे कर, पेदूज ही, भरद्वाज जी के दर्शन करने को
गये॥ १॥२॥
ततः सन्दर्शने तस्य भरद्वाजस्य राघवः |
मन्त्रिणस्तानवस्थाप्य जगामानुपुरोहितम | ३ ॥
झनन्तर ज़व भरत जी ने दुर से भरद्वाज जी के देखा तव
मंत्रियों के भी पीछे छोड़ आप शअ्रक्रेल्ते ही वशिष्ठ जो के पीछे पीछे
जाने लगे ॥ ३ ॥
वसिष्ठमेथ द॒ष्रेव भरद्वानो महातपाः |
'सश्चचालासनात्तण शिष्यानरध्यमिति' ब्रुवन्‌ ॥ ४ ॥

महातपर्दी भरदहांज ने वशिष्ठ जो का देखते ही शिष्यों के


अध्यादि लाने की आज्ञा दी थार वे त्रनत झासन ठोड़ छड़े हो
गये॥ ४॥
१ संचचाऊल--बद॒तिठत्‌ | (गो०) २ अप्य भानयतेतिशेष। | ( गो )
नवतितमः सगे) प्र

समागम्य वसिष्ठेन भरतेनाभिवादितः ।


अवुध्यत्! महातेजा। सुतं दशरथस्य तम्‌॥ ५॥
और थागे वढ़ वि जी से मिल्ते। भरत जी ने भरद्वाज को
प्रणाम किया । मुनि भरद्वाज ने जान लिया कि, वे मदातेजल्ी
( भरत )दशरथनम्वन हैं॥४॥
ताभ्याप्रष्य च पाध॑ च दत्त्वा पधात्फठानि च॑ |
आजुपृव्या्ध पर्मज्ः पप्रच्छ कुशल कुलें' ॥ ६ ॥
धर्माआा भरद्वाज्ञ ज्ञी नेउनके लिये भी श्रध्यं सामग्रो मेंगवा
कर , उन दोनों के अध्य भर पाद्य दिया। तदनन्तर भेजन के
लिये फल्न दिये । पीछे ऋमपूर्वक्क उनसे उनके घर का कुशलप्रक्ष
पूद्दा॥६॥
अयेध्यायां वले कोशे मित्रेष्वपि च मन्त्रिषु ।
जानन्दशरथं हृतं न राजानमुदाइरत्‌ ॥ ७ ॥
श्रवेध्या में भीसेना, घनागार, मित्रों और मंत्रियों केसम्बन्ध
मेंकुशक्षम्रश्ष पूंछा,तदनन्तर मद्दाराज दशरथ की सृद्यु कासमाचार
मालूम दौने के ऋरण उनका नाम न लिया ॥ ७॥ हे
वसिष्ठो भरतश्रेनं प्नच्छतुरनामयम्‌ !
शरीरेउप्रिषु हक्षेपु शिष्येषर शगपक्षिपु ॥ ८ ॥
तद्नन्तर वशिष्ठ जी और भरत जी ने भी भरद्वाज से उनके
शरीर, ध्रप्मि, शिष्य, सग श्रार पत्तियों के विषय में कुशकप्रश्न
पूँछ्ठा॥८॥
पूबाधप॥_ कक
! अदुष्यतेति वस्तिष्ठलादर्यादितिमाव: । ( गो० ) २ कुछे-ग्रदे।
(गो'् )
६] बअयाष्याकायडे

तथेति तत्मतिज्ञाय भरद्वाजों महातपाः ।


भरतं प्त्युवाचेद॑ राघवरनेइवन्धनात्‌ | ९ ॥
तब महातपस्वी भरद्वाज़ ने अपना सव का कुशल मंदुल
वृत्तान्त बता, धीरामचन्द्र जीके स्नेद केकारण (न कवि भरत
जी के दोष दिखाने के उद्देश्य से)भरत जी से कहा ॥ ६ |
किमिहागमने काय तव राज्यं प्रशासतः ।
एतदाचक्ष्व मे सबे न हि मे शुध्यते! मनः ॥ १० ॥
हैराजक!ुतुममा तारराज्यका शासन कर रहे दा। फिर
यहाँ आने को तुम्हें क्या श्रावश्यकता आ पढ़ी। यद्द सब पुकसे
कही । फ्योंकि इस सम्बन्ध में मुक्ते विश्वास नहीं देता ॥ १० ॥
सुषुवे यममित्रश्नं कासल्या #नन्दवर्धनम्‌ |
श्रात्रा सह सभाये यश्रिरं प्रतराजिते वनम्‌ ।११
नियुक्त: ख्रीनियुक्तेन पित्रा योज्सों महायशा।। _
- बनवासी भवेतीह समा; कि चतुदश ॥ १२॥
कुच्िन्न तस्यापापस्य पार्प कतुमिहेच्छसि |
अकप्ठक भेवतुमना राज्यं तस्यानुजस्थ च॥ १३ ॥
मदायशस्वी कैशल्या के प्ानन्द बढ़ाने वाले जिस औराम
के, झ्ली के कहने से, महाराज दृशरथ ने भार्या सहित चोदद
वर्ष केज्िये पनवास दिया, उस निर्दोष राजकुमार के बारे में
और उसके दोटेभाई के विषय में, निष्कयटक राज्य भाग की
',. ? नशुध्यते-शुद्धि न प्रामोति |नविश्वसीतियावत्‌ । ( यो० )
के पाठानतरे-- नलन्दिवर्धनस्ू 5!

नवतितमः सगेः पे
इच्छा से, क्या आप उन दोनों का कुछ श्रमभल्न तो करना नहीं
चाहते ॥ ११॥ १२॥ १३ ॥
एवमुक्तो भरद्वां भरतः प्रत्युवाच है |
पयंश्रनयना दु।खाद्दाचा संसब्जमानया ॥ १४ ॥
भरदाज़ जी के ऐसा कहने पर, भरत ज्ञी ने दुःखी होने के
कारण श्रांत्रों में श्रांत्‌ भरभोर गदगद कयठ दो कहा ॥ १४ ॥
रहतोरस्मि यदि मामेव॑ भगवानपि! मन्यते |
मत्तो न देशमागड़े नेवं मामनुशाधि हि॥ १५॥
देभगवन्‌ ! सव क॒छ जान कर भी (भूत भविष्य वर्तमान के
ह्ाता दे कर भी ) यदि शाप ऐसा समझ रहे हैं, तो मेरा जीना
बूया दै। मेरा तो इस उपस्थित विपत्ति सेकुछ भी ज्गाव नहीं
है। मेरे मन में तोइसको कभी कहपना भी नहीं थी। भतः श्राप
घुकसे ऐसा कठोर वचन न कहिये ॥ १४ ॥
“न चैतदिष्ठं माता मे यदवेचन्मदन्तरे |
नाहमेतेन तुप्ठथ न तदचनमाददे" ॥ १६ ॥
मेसे माता ने भी जे मेरे बारे में महाराज से कद, वह भी ने
ते मेरा इष था थ्रौर न मेंउससे सन्तुष्ट हैँ ओर न उसका कहना
मुझे स्वीकार ही है॥ १६ ॥
अहं तु ठ॑ नरव्याप्रमुपयातः प्रसादकः ।
प्रतिनेतुमयेध्यां च पादों तस्यामिवन्दितुम्‌ ॥ १७ ॥
,] संपम्नमानवा--हखकन्त्या । (गो? ) २ दतेस्सि--व्यर्थेनरम्राध्मि ।
३ भगवानपि--भूतभविष्यद्ठतंमानशोपीयर्थः। ४ नाददे--नाज्लीक्षतवानस्मि ।
( गोण )
६ 'अयेष्याकायडे

मैं तेउस पुर्यसिद के प्रश्नन्न कर अयोब्या में लोढा जाने


तथा उसके प्रणाम करने के जा रहा हैं॥ २७ ॥

त॑ मामेव॑ गए मत्वा प्रसाद कतुमहंसि |


+ जन ५ डे ९

शंस मे भगवन्राम! क सम्पति महीपति! ॥ १८ ॥


है सगवन | मेरा इस प्रकार का मनोसिव्राय ज्ञान कर, शाप
मुक्त पर प्रखन्न हे और मुझे वतावें कि, दे प्रथ्वीनाथ ओऔराम्चद्
जी इस समय कहां हैं ? ॥ १८ ॥
वसिष्ठादिभिऋत्विग्मियांचिता भगवांसतत) ।
उवाच त॑ भरद्वाजः प्रसादाद़्रतं बच; ॥ १९ ॥
तदनस्तर वशिष्ठादि ऋत्विज्ञों नेभो ससद्धाज से श्रीरामचन
ज्ञी का पता वतलाने को प्रार्थना की, तव भगवान्‌ भरद्दात जी
भरत की वातों से प्रसन्न दि वाले ॥ १६ ॥
त्वय्येतत्पुरुषव्याप्र युक्त राघववंशजे ।
!गुरवत्तिदेमश्ेवर साधूनां चानुयायिता* || २० ॥
हेपुरुषसि !तुस्दारा जन्म सुप्रसिद्ध रघुकुल में हुआ है।
अतः बड़ों के कहने में चलना, इद्धियों का निम्रह और साधुजवों'
का झल्ठगामी होना | ये दीनों वातें तुम में होनी ही चाहिये ॥ २० ॥
जाने चैतन्मन/स्थं ते ददीकरणमस्त्विति ।
अपृच्छ त्वां तथाल्यय कीर्ति समभिवधयन्‌ ॥ २१ ॥
३ झुरुवृत्तिः--ज्येशनुवर्तत (यो" ) २ दम--इल्क्रियनिप्रइः । ( गो? )
३ सापूनांचानुयायिता--सद्धित्तानुवर्तत । ( गो> )
नवतितमः सम: बे

यदि येगद्वारा मेंज्ञानता था कि, तुम्दारा ऐसा मनोगत भाव


है,तथापि कागों के सामने प्रकट द्वेते पर बद प्रौर भी प्रधिक हह
दो जाय ध्रोरइसकेद्वारा तुस्दारी कौति दिगन्तव्यापिनी हो, इस
ध्रमिप्राय से मेंने तुमसे वैसा प्रश्ष किया था ॥ २१ ॥
जाने च राम॑! ध्मजज ससीर्त सहलक्ष्मणम्‌ |
असो बसति ते भ्राता चित्रकूटे महागिरों ॥ २२ ॥
सीता झोर क्द्मण सदित धर्म केजानने वाले श्रीरामचद्ध,
जदां रहते हैं,मुझे मालूम है। वे इस समय चित्रकूट , नामक महा-
पव॑त पर वास फरते हैं ॥ २२ ॥
शवस्तु गन्तापि त॑ देश वसाद्य सह मन्त्रिमि! ।
एत॑ मे कुरु सुप्रा्ञ काम कामार्थफ्ाविदर ॥ २३ ॥
है इख्द्‌ काविद |आप कल पहाँ ज्ञाता । भाज्ञ मंत्रियों के
सद्दित यहाँ ठहरिये । आपकी मेरो यह बात अवश्य माननी
होगी ॥ २३॥
ततस्तयेत्येवमुदारदशनः
धतीतरूपा भरतेउ्त्रवीदव; ।
चकार बुद्धि चतदा तदाभमे
निशानिवासाय नराधिपात्मज। ॥ २४ ॥
इति नवतितमः सर्गः ॥

नम िल
र ा म
्य र्
ं थ: । ( गो ? ) ३ क ा म - -
३ शामंजावे--देशविशेषेत्यिजात
िद :- -क ॉं क् षि यं
ता प् रद ान दक ्ष ेत ्य ये * | ( ग ो )
अभी् । (गो०) ३ कासार्थकाव
४ प्रतीतिरुप:--अधिदुकीतिः | (भो० )
घड८ अयेषध्याकायदे

ज्ञव भरद्वात ने इस प्रकार कहा तव डदारदर्शन एवं प्रसिद


कीवि वाले राजकमार भरत ज्ञी ने ऋषि का कहना मान रात सर
ऋषि के शाश्रम में रहते का विचार प्रकट किया ॥ २४ ॥
अवेध्याक्षाएड का नच्चेवाँ से समाप्त हुआ ।
मिल ५

एकनवतितमः सर्गः

कृतबुद्धि निवासाय तत्रेव स मुनिस्तदा |


भरत केकयीपुत्रमातिथ्येन न्यमनत्रयत्‌ ॥ १ ॥ *
जब कैक्ेयोनन्दन भरत ने वहाँ ठिक्ना निश्चय कर जिया, ठव
2
भरदाज ने उनऊझे आतिथ्य बरहण के लिये निमंत्रण दिया ॥ १ ॥
अव्नबवद्धरतस्तवतन नन्विदं भवता कृतसू |
पाद्यमध्य तथाउशतिथ्यं बने यहुपप्त ॥ २ ॥
दव भरत ज्ञो वेले--आप ते अध्यं, पाध ठया वन के फल
मूलों से मेरा ययोचित आतिथ्य कर ही चुके । में इससे सन्तुष्ट
दहुं॥५॥
अथावाच भरद्वाना भरतं प्रहसलिव |
जाने लां प्रीतिसंयुक्त तुष्येस्तव येनकेनचित्‌ ॥ रे ॥
यह छुन भरद्दाज़ ने मुसक्ष्या कर कहा कि, यह तो मेंज्ञानता
हैंकि, प्रीतिपूर्वक़ दी हुई किसी भी वस्तु से प्राप अलतन्न दो जाते
[

हैं॥३॥
एकनवर्तितमः सर्गः | घ8

सेनायास्तु तवेतस्याः कर्तृमिच्छामि भाजनम |


मम प्ीतियथारूपा त्वमहों मनुजाधिप ॥ ४ ॥
है
गीतिय /

किन्तु देनरनाथ | मैं ते श्रापकी समस्त सेना की पहुनई


करना चाहता हैँ। अतः मुझे जिससे सन्ताष दे, आपके वह करना
उचितहै॥ ४॥
किमथ चापि निश्चिप्य दूरेवलमिहागत) ।
कस्मान्ेदेपयातेउसि सबहू। पुरुषपभ ॥ ५॥
हेपुरुषप्रवर | आ्राप श्रपनी सेना का दूर छोड़, प्रकेक्ते क्यों
मेरे पास प्राये। सेना सहित मेरे श्राश्षम में न श्याने का क्‍या
कारण है !॥ ५॥ ,
भरतः अत्युवाचेदं प्राज्नलिस्तं तपाधनम |
ससैन्‍्यो नापयाते|अर्म भगवन्मगवद्यात्‌ ॥ ६ ॥
यद छुन भरत जी ने हाथ जेड़ कर भयद्वाल जी से कद्ा-हे
भगवन ! आप कहीं कुपित न हों-इसी भय से मैं सेना सहित
नहीं थाया ॥ ६ ॥
राजा च भगवन्नित्य॑ राजपुत्रेण वा सदा |
यत्रतः परिहतंव्या विषयेषु! तपरखिनाम# ॥ ७॥
राजा ही वा राजपुत्र ही, उसे यही उचित हैक्लि, भपने राज्य में
वसने वाक्षे ऋषियों के आध्रमों को यत्षपुर्वक झोड़ दे प्र्धात भ्राभमों
॥ ७॥
से दूर रहे दू
से ५9.४
रद ै॥ . ७॥ कि
१ विपयेपुतप् रलिनां--खव कीयदेशेपुदतमानाऋषयः ।, ( गो० )
# पाठास्तरे-- तपत्विनः / । ४
ञैँ
दघपण घ्याष्याकायडे

वाजिमुझुया मनुष्याथ मत्ताथ वरवारणा। ।


प्रच्छा भगवन्भू्ि महतीमनुयान्ति माम्‌ ॥ ८ ॥
हैभगवन्‌ |मेरे साथ बड़े बड़े घोड़े वहुत से मनुष्य भार मतवाले
द्वाथी हैं,जिनके डिकने के जिये बहुत सी जगह श्रपैन्षित होती
है॥5५॥ ्ि
ते हक्षानुदर्क भूमिमाभ्रमेषृ! टजांसतथा ।
न हिस्युरिति तेनाइमेकएव समागतः ॥ ९ ॥
पे आश्रम के दुक्षों के तालाव प्रथवा कुएंके जल के, प्राभ्रम
भूमि के और पर्यशाला के कहीं नए्ठ नकर डालें, यह विचार
कर मेंयहाँ अकेला ही आया हूँ ॥ ६॥
आनीयतामितः सेनेत्याज्ञप्ृ परमर्षिणा ।
ततस्तु चक्रे भरतः सेनाया; समुपागमम ॥ १० ॥
तब मद॒षि भरद्वाज जी ने कहा--आप अपनी सेना के यहीं
चुला ल्ोजिये। महर्षि को थ्राज्षा पाकर, भरत जी ने श्रपनी सेना
वहीं दुलचा त्ी ॥ १० ॥ प
अभिशालां प्रविश्याथ *पीत्वाउप) परिमृज्यर च |
आतिथ्यस्य क्रियाहेतार्विश्वकर्मांणमाहयत्‌ ॥ ११ ॥
तद्ननतर भरद्वाज जी ने अभिशात्रा में ज्ञा तीन बार श्राचमन
किया और यथाविधि मार्जन कर ( जल् के मंत्र पढ़ते हुए शरोर
पर छिंड़का ) भरत ज्ञो की पहुनाई करने के लिये किवक्मा का
शआावाहन किया ॥ ११ ॥
१ इठजानू--पर्णशारा; । (ग्रो०) २ अप!पीत्या ज्रिरितिशेष: |
(गो० ) ५त्रिराचामेत्‌ ! इतिश्रुते: | ( पो० ) ३ परिशज््य- यधथाविधि
सार्जन॑ इृत्वा | (द्षि० )
दे
एकनवरतितमः सर्गः घर

आहये विश्वकर्माणमहं! ल्वष्टारमेवः च।


आतिथ्यं कतृमिच्छामि तत्र मे संविधीयताम ॥ १२॥
(श्रावाहन करते समय) वे कहने लगे कि, मेंभरत का आातिथ्य
करने के लिये विश्वकर्मा और त्वश का आवाहन करता हूँ। अतः
पे थ्रा कर सेना आदि के लिये घर प्रादि बनाते ॥ ११॥
आहये लेकपालाद्ीन्देवाब्यक्रमुखांसथा |
आतिथ्य॑ कतुमिच्छामि तत्र मे संविधीयताम्‌॥ १३ ॥
मेंध्रत की पहुनाई करना चाहता हूँ। अतः मेंतीनों लोकपाल
यम, वरुण तथा कुबेर पव॑ इन्द्रादि देवताओं का आंवाहन करता
हूँ। वे थ्रा कर पहुनाई की तैयारी करें ॥ १३ |
प्रावस्तोतसश्र या नदय; प्रत्यय्रोत्स एवं च।
पृथिव्यामन्तरि्ते चसमायान्तव सबंश! ॥ १४ ॥
पृथिवी और श्ाकाश मेंपूर्वसे पश्चिम के भौर पश्चिम से पूर्व
के बहने वानी जे! नदियाँ हैं, देसबप्राज्ञ यहाँ भावें ॥ १४ ॥
अन्या! ख़बन्तु मैरेयंसुरामन्याः सुनिष्ठिताम,।
अपराथोदक, शीतमिक्षुकाण्डरसापमम्‌ ॥ १५ ॥
वे नवियाँ धरा कर कोई ते मेरेय नाम की शराब, कोई खुरा
नाम की उत्तम शराब शोर काई शीतल और ऊछ के रख जैसे
मीठे जल्ल के यहाँ वहा कर प्रकठ करे ॥ १५ ॥
: । विश्वकर्मा--सर्वेक्षिष्पकर्तां | ( गो० ) २ व्वष्टातु तक्षणेनगृदादि
निर्माता । ( गो० ) ३ प्रींब्छोकपाछानू--यम्रवरुणकुबैरातू। ( गो० )
बा० रं०--४६
बपर शअयेष्याकायदे

आहये 'देवगन्धवान्विश्वावसुहृहहुहन्‌
हन्‌॥
तथंवाप्सरसा 'देवीगन्धचर्वीबापिः स्वेश! | १६ ||
में विश्वावछ्ध, दाह, हह चामकझ वेवेगन्धर्यो को और देव
ज्ञाति में उत्पन्न मन्धवियों के तथा सब अप्सराशों का मी श्रावादत
करता हूँ॥ २६ ॥
घृताचीमय विश्वा्ची प्रिश्रकेशीमलम्युसाम्‌ |
नागदन्तां च हेमां च हिमामद्रिक्ृतस्थछाम्‌ ॥ १७॥
इनके श्रतिरिछ घ्वताची, विश्वायो. मिश्रक्रेशो, पल्तंत्रुसा,
नागदन्ता, देमा, और हदिम्रात्वतासितों ( समा ) ॥ १७ ॥
शक्र॑ याइचापतिष्ठन्ति बह्माणं याथ यापितः |
सवास्‍्तुम्बुरुणा साथमाहये सपरिच्छदाः ॥ १८ ॥
(! े

आर इन्द्र की सभा तथा ब्रह्मा क्षो सभा में बायने वाली सब


अप्परा्धों के, अच्छे वद्गव धारण किये हुए तुम्चुद के साथ,
झावाहन करता हूँ ॥ #८ ॥

बन॑ झुरुषु यद्विव्यं वासाभूषणपत्रचत्‌ |


दिव्यनाराफल शश्वत्तत्कावरमिदेतु च ॥ १९ ॥
कुबेर का चैत्ररथ नामक, उत्तरकुद चाला दिव्य चन, जिसके
वृक्षों के पत्ते, दृत्य चद्ध और दिन्यनारी रूपए हैं, वहाँ प्रकद
हों ॥ २६ ॥
३ देंदबल्धर्दानू--मनुष्यपन्धरवेनिन्वात्‌ ।(यो>) २ दुंदीः--देवजातीः ।
६ यो ) ३ गर्धर्वोस--गन्धर्वज्मदी ।
पएकनवतितमः सगे घममे

हह मेंभगवान्सेमो विधत्तामनमुत्तमम्‌ | ह
भष्ष्यं भेज्यं च चाष्यं च लेश्लं च विविध वहु ॥२०॥.
इनके अतिरिक्त विविध भांति के और वहुत से भक्तय, भेज्य,
चाष्य, लेह्ादि अन्न, भगवान्‌ चखद्देव यहाँ भरा ऋर उत्पन्न
करे ॥ २० ॥
विचित्राणि च माटयानि पादपप्रच्युतानि! च।
सुरादीनि च पेयानि मांसानि विविधानि च ॥ २१ ॥
(वे ) ताजे फूलों की चरित्र विचित्र पुष्प मात्राएँ, खुरा आदि
पीने के पदार्थों के श्र तरह तरह के माँचों के शीघ्र ही प्रस्तुत
कर ॥ २१॥

एवं समाधिना' '्युक्तस्तेमसाअतिमेन च |


शीक्षाखरसमायुक्तं “तपसा चात्रवीन्युनि; ) २२ ॥
इस प्रकार अनुपात शापानुपद समर्थ भरद्वाज मुनि ने येगवल
से ग्रौर ज्ञानवल से उपयुक्त वर और यथाविधि पर्णोच्चारणपूर्यक
सव का शआावाहन किया ॥ २२ ॥
'भ्नसा ध्यायतस्तस्य* प्राज्मुखस्य कृताझछ;? |
आजमुस्तानि स्वांणि देवतानि पृथक्पूथक ॥२३॥
? पादपत्रच्युतानि - नवानीति भाव; ( गो ) २ सम्राधिवा--येगेद |
( गो ) ३ तेजपा-- अनागमैदण्डनस्तामध्येंच युक्तेन । (गो ) ४ तपता--
ज्ञानेन । ( गो० ) ५ मनसा--अनन्य परेणेत्र्थः । (गो० ) ६ ध्यायव३--
निरन्‍्तरचिन्तवतः | ( गो? ) ५ कृताअद्वे--भाद्वानमुद्दोक्ता: । ( गो? )
घपछे अयेष्याकायदे

भरद्वाज जी के पूर्वको ओर मुख कर बैठ कर श्रावाहन मुद्रा


से, गकाम्नमन दा और कुछ काल तक निरन्तर चिन्तवन करते ही,
वे सब देवता एक पक्र कर भरद्वाज्जी के सामने प्रा उपस्यित
२३ ॥
हु॥ए
मलय॑ दहुरं चेव ततः स्वेद्सुदे+निल) ।
उपस्पृश्य ववों यकक्‍त्या सुप्रियात्मा सुख; शिव/! ॥२४॥
उस समय मल्नय भोर दर्दर पर्धतों के स्पर्श करता हुआ छुजद
पवन, शीतल मंद्‌ और खुगन्धयुक्त दी, गरमी का नाश करता हुआ
चलने जगा ॥ २४ ॥
ततेध्श्यवर्तन्त घना दिव्या: छुसुमहृष्टया |
दिव्यन्दुदुभिधाषथ दिश्लु सबासु शुभुवे ॥ २५ ॥
दिव्य मेघों ने पुष्पों को वर्षा की । देवताओं के नगाड़ों का शब्द
सब दिशाओं में छुनाई पड़ने गा ॥ २५ ॥
प्रववुश्रोत्तमा वाता नत॒तुश्राप्सरागणा; |
प्रजगुर्देवगन्धवों वीणा; प्रगुमुचु। स्वरान ॥ २६ ||
झुखद समीर के कोके आने लगे। अप्यराथ नाचने लगीं।
देव गन्घवों का गाना श्रोर वोणाओं की कनकार छुनाई पढ़ने
जगी ॥ २६ ॥

स गब्दा थां च भूमि च प्राणिनां श्रवणानि च |


विवेशेच्वारितः श्छक्ष्ग/ समे। छयग्ुणान्वितः ॥२७॥
१ शिव+--शीतछः | ( गो० )
एकनवरतितमः सर्ग;.... ८ष४
इस प्रकार से मधुर, सभ, और लय युक्त शब्द से आकाश,
भूमि भार प्राणियों के कान पूर्णदा गये ॥ २७ ॥
तस्मिनुपरते बच्दे दिव्ये श्रोतरसुसे रणाम ।
ददश भारत॑ सेन्यं विधानं विश्वकर्मणः ॥ २८ ॥
छुनने मेंम्रधुर ये शब्द दो हो रदे थे कि. इतने में भरत की
सेना विश्वकर्मा की कारीगरी देखने लगी,॥ २८ ॥
वभूव हि समा भूमि! समन्‍्तात्पक्षयोजना ।
शाइलेवहुमिश्छन्ता नीलवैड्टयसन्रिमे। ॥ २९ ॥
बे पि गील्वेड्यंसन्निच्छै

उन्दोने देखा फि, वहाँ की भूमि चारों ओर पाँच येजन तक


वरावर एकसी और नील बैह्र्य मणि को तरह चमकीलो हरी हरी .
दूबसेढकीहुईहै॥ २९ ॥
तस्मिन्विल्वा। कपित्याथ पनप्तावीजपूरकाः |
आमरलक्यों वभूवुथ चूताथ फलभूषणाः ॥ ३०॥
और जगह जगह बेल, फैथा, कठदर, विजारा, भ्रामला और
शाम के दत्त फल्नों सलद
े े हुए सुशोभित हैं॥ ३० ॥
उत्तरेभ्यः कुरुभ्यथ् वन दिव्योपभेगवत ।
आजगाम नदी दिव्या तीरणेबहुमिहंता ॥ ३१ ॥

स्वस्थ लेगों के उपभेग के येग्य, उत्तर कुरदैश से, घहाँ एक


घन भी उपस्थित दे गया |एक दिव्य नदी भी वहाँ बहने लगी।
इस नदी के उभय तटों. पर वहुत से वृत्त लगे हुए थे ॥ ३१॥
चतु/शालानि शुभ्राणि शालाश्व गजवाजिनाम |
हम्यप्रासादसम्वाधारतोरणानि शुभानि च॥ ३१॥

हि
अयेष्याकायडे

वहीँ पर प्रनेक छुन्दर श्वेतवर्ण घर, इस्तिणालाएँ ओर ग्रश्व


शानाएँ बनी हुई देख पड़ने लगीं। महत्न श्र प्रदारियों से युक्त
महुल रुपो मताहर तोरण देख पड़ने लगे ॥ ३२ ॥|
सितमेधनि्भ चापि राजवेश्म सुतारणम |
दिव्यमास्यक्ृताकारं दिव्यगन्धसमुक्षितम' ॥ रे३ ॥
सफेद बादल जैसी सफेद वंदनवारों से भूषित, सफ़ेद पुष्पों
की माला से छुशामित, खुवासिन जल से छिड्के डुए प्रनेक
राजभवन वहां देंख पड़ने लगे ॥ ३३ ॥

*चतुरभमसम्वाध शयनासनयानव॒ |
व्ये: स्व॑रसेयुक्तं दिव्यभाजनवद्धवद्‌' ॥ ३४ ॥
ढ्व्यि ९०७७०. दिव्यभाज

इन भवनों मेंचौहान ओर सोने, वेठने तथा पालकी आदि


रखने के लिये (अलग शलग ) विशाल कमरे बने हुए ये | कितने"
ही कमरों में शर्कंग भादि रख, उत्तम मिद्दीन चाँवल आदि श्रन्न
शोर मिहोन कपड़े भरे दुए थे ॥ ३४॥
इडपकत्पितसवानन पैतनिर्मेलभाजनम्‌ ।
क्र
लप्तसवासर्न
श्रीमत्खास्तीणशयनेत्तमम्‌ ॥ 3५ ॥|
५ [कप न

डब ऋमरों में पुड़ी, पुआ, कचोड़ी आदि नाना प्रकार के व्यज्ञन


तथा मंजे घुले साफ वरतन रखे हुए थे। य्याध्यान पूजन एवं
१ पमुक्षित्त--फ्िक्क । (यो? ) ह चनुर्ब--चनुष्क्रेणं ।(गो )
ह भपन्वाधघं--विज्ञारं । (गो+ ) ४ दिव्यनेजनानि--पुइ्मश्नाह्यन्दादोनि |
(गो० ) ५ दिव्य वस्याणि--सृक्मदखाणि | ( यो० ) ६ इपकल्पितानि--
सर्वाद्यानि नानादिधा पूपादीदियल्मिल्दत्‌ | ( गोब्)
एकनवतितमः सगे: द८8
करने के लिये श्रासन विद्ले हुए थे। छुन्द्र सेज्ञों पर साफ खुथरे
एवं कामल विस्तरे विल्ले हुए थे ॥ ३४ ॥
प्रविवेश महावाहुरनुज्ञातो महर्षिणा ।
वेश्म तद्ब्सम्पूणे भरतः क्रेकयीसुतः ॥ ३६ ॥
इस प्रकार के वने हुए और उत्तम सामग्री से भरे पूरे घर में,
फैकैयीनन्दन मद्दावाहु भरत जी ने, महषि भरद्ाज को शराज्ञा पा
कर प्रवेश किया ॥ ३६ ॥ !
अनुनखुश्र त॑ सर्वे मन्त्रिण! सपुरोहिता! |
वभूबुश अदा युक्ता दृष्टा त॑ वेश्मसंविधिस ॥३७॥
भरत ज्ञी के पीछे मंत्री तथा पुरोहित उस भवन में जा ओर
उसकी बनावट भोर सजावठ देख, आनन्द मेंमनन दो गये ॥ २७ ॥
तत्र राजासन दिव्यं व्यजन उत्रमेव च ।
भरते मन्त्रिभिः साधमभ्यवर्तत' राजवतूर ॥ १८ ॥
उस घर में राजाओं के बैठने येग्य एक राजसिहासन था,
जिसके समीप दास क्ाग छुत्र भौर उम्र लिये खड़े थे ।
मंत्रियों सहित भरत जी ने उस सिद्दासन को प्रदत्षिणा की ॥ ३८ ॥
आसन पूजयामास राम्रायाभिप्रणम्य च |
वालव्यननमादाय न्यपीदत्सचिवासने ॥ ३९ ॥
( उस राजसिंदासन पर मानों भ्रोरामचन्ध जी विराजमान हैं,
इस कारण से ) भरत जो ने उस राजर्सिदासन के प्रणाम कर
इसका पूजन किया | तदनन्तर पक छोटा पड्मा द्ाथ मेंले भरत जी
१ अभ्यवतेत--रदक्षिणं झृतवान्‌। ( गो० )
झण८ -अयवाध्याकायडे

राजसिंदासन के नीचे मंत्री के बैठने येग्य एक आसन पर वैठ


गय॥े
३६॥
आमुपूर्व्यालिपेदुश्नसर्वे मन्त्रिपुरोहिता! ।
तत। सेनापति।' परबात्मश्ञास्ता' च निपेदतु। ||४० ॥
उनके बैठते ही मंत्री, पुराहित, सेनापति और शिविर-नियन्ता
( छावनी का शासक अर्थात्‌ कैडमेंट मेजिस्ट्र८) ये सब भी यथा-
#. «००००

क्रम अपने अपने स्थानों पर वैठ गये ॥ ४० ॥


ततसतत्र स्मुहर्तेन नद्य! पायसकर्दमाः |
उपातिप्ठन्त भरतं भरद्वाजस्य शासनाद ॥ ४९ ॥
खब लोगों के बैठ चुके के थाडी ही देर बाद भरद्वाज़ मुनि
की प्राज्ञा से गाढ़ी गाढ़ो खीर की नदियाँ वहाँ बद्दने लगीं || ४१ ॥
तासामुभयतःकूल पाण्डुमृत्तिकलेपना; |
रम्याबावसथा दिव्या ब्रह्मणस्तु प्रसादजा! [| 8२ ॥
भरह्ााज्ञ के अठुगप्रह से, उन नदियों के दोनों तटों पर, अनेक
रमणीय एवं भ्रच्छे सफेद चूने से पुते घर देख पड़ने लगे ॥ ४२ ॥
तैनेव च मुहर्तेन दिव्याभरणभूषिताः ।
|
कृवेरपरहिता
आगुविशतिसाहइसाः
7.4
हैताः ख्िय। | ४३ ||
इसी समय चतुर्मृल्त ब्रह्मा की भेजो दुई बढ़िया बढ़िया कपड़े
और यदनों से सज्ो हुई वोस दक्ार स्ियाँ वहाँ आयी ॥ ४३ ॥
3 छ्ेनापतिः--दुण्ड-नायकः । ( गो० ) २ ब्रद्माप्ता--शिविरनियन्ता ।
( गो? ) २ मुह॒र्तेत--भव्पकालेन | ( यो० )
पुकनवतितमः सर्गः घषध

सुषणमणियुक्तेन प्रवालेन च शामितां! ।


आगुवि शतिसाइसा; इवेरप्रहिता; ल्वियः ॥ ४४ ॥
तदनन्तर वीस ही हजार ख्लियाँ, जो सुबर्ण, मणि, मुक्ता भार
मृ्यों सेअपने शरीर के सजाये हुए थीं, भोर जिस्ें कुबेर ने भेजा
था, वहाँ आयी ॥ ४४ ॥ ८
यामिग्रहीत/' पुरुष! सेन्माद इंच रक्ष्यते ।
आगुर्विशतिसाहस्चा नन्दनादप्सरोगणा! ॥ ४५ ॥
नन्दृनवन से श्रायी हुई' बीस हज़ार भ्रप्सराएँ ऐसी छुब्द्री
था कि, जिस पुरुष का वे भालिड्ुन करता, वह पुरुष पायल सा
देख पड़ने लगता था ॥ ४५ ॥
नारदस्तुम्बुरगेपिप्रवरा! सूयव्चस |
एते गन्ध व॑रा जाना भरतस ्याग ्रते । जग ॥ ४६ ॥
नारद , तुखु र और गे।प येसव जे। धुरय के तुल्य तेज स्वहैं

और गन्धर्वराज कहलाते हैं,भरत के सामने जा गाने लगे ॥ ४६ ॥
अहुम्बुसा मिश्रकेशी पुण्डरीकाथ वामना | ,
उपाहृत्यंस्तु भरतं भरद्वाजस्य शासनात्‌ | ४७ ॥
भरद्वाज जी की झाज्ञा से अ्ल्ं वुसा, मिधर केशी , पुरड रीका ओर
चामना नाम की श्रप्सराएँ, भरत के भ्राग े जा कर नाचन े
लगीं ॥ 39 ॥ के
यानि मस्य ानि देवे षु यान ि चैत् ररथे बने ।
,. प्रयागे तान् यह्श ्यन् त भरद् वाजस ्य तेजस ा' ॥ ४८ ॥
उ त/--पक
१ गृही
! “:पू ्क
भालिशिताा।( शो
गो० )
) ३
३ वेजझ ा-अस ावेब ।
। (गो
(गो० ) ).. .


दचह० शयाष्याकायडे

जे फूल देवताओं के व्ीचों मेंऔर चैत्ररथ नामक वन में


सब मद भरद्वाज के प्रभाव से प्रयाग में देख पड़ते
फूलते हैं, वे
ये ॥ ४८ ॥
विल्वा मारड्रिका आंसन्कांस्पग्राह# विभीतकाः ।
अद्व॒त्या नतेकाश्चासन्भरद्वाजस्य शासनाव्‌ ॥ ४९ ॥
महर्षि भरद्वाज्ञ केतपे।वल्ल से वेल् के पेड़ों नेप्ावजियों का,
बहेंड़े के पेड़ों नेमज्जोरा वजञाने वाज्नों का और पोपल के वृत्तों ते
नाचने वालों का रूप घरा ॥ ४६ ॥
ततः 'सरकतालारच तिलका नक्तमालकाः' |
प्रहष्टारतत्र सम्पेतु! कुब्जा भत्वाउ्य वामना। ॥ ५० ॥|
इनके प्रतिरिक्त इवदारु, तान, चुरक, ऋरंज के पेड़ हथित हो,
छुब़े ओर बोने का रूप घर वहाँ उपक्यित हुए ॥ ४० ॥
विशुपामलकीजम्ब्पा याइचान्या। काननपु ता; ।
मालती महिका जातियांस्वान्या! कानने छताः ॥५१॥
_शीशम, श्राँवला, जाप्ुव के पेड़ तथा वत की मालतो, मद्विका
थ्ादि लताएँ, ॥ ५१॥
प्रमदाविग्रह कृल्ा भरदानाभ्रमेज्यसनां ।
सुरा! सुरापा! पिवत पायस च चुशुक्षिता) ॥ ५२ |
द्वियों का रूप घर भरद्वाज के श्राश्रम में ज्ञा बसी ओर पुकार
पुकार कर लोगों से कहने लगीं, हे मद्य पीने वाला !तुम मुद्रा
पिश्ी ! हे मूल के सताये लागे। | तुम खीर खाद्यो ॥ ५२॥
' १ घरछा;:--देवदारविजेपाः । (गो० ) &« पाठान्तरे--४आधा
स्थाग्रादं । | पाठान्तरे--"४ इवदुव ५
एकनवतितमः सगे! बश्१्‌

मांतानि च सुमेध्यानि भश्ष्यन्तां यावदिच्छय |


उच्छाय रनापयन्ति सम नदीतीरेषु वरंगुष्ष ॥ ५३ ॥
अप्येकमेक पुरुष प्रमदा! सप्त चाष्ट च।
संवाहन्त्यः समापेतुर्नायों रुचिरलेचना! ॥ ५४ ॥
छुन्दर और खाने येग्य मांस जितनी जिसको इच्छा हो! उतना
खाशों । पक एक पुरुष के सात सात श्राठ आठ श्षियां मिल कर
तेन्न की मालिश कर मनोहर नदियों ऊ तट पर स्नान करातोीं
थोर ध्नेक बड़े बड़े नेत्र चालो स्त्रियां पुरुषों के शर्रीरों को मलती
थीं॥ ५३ ॥ ५४ ॥
परिमृज्य तथान्यान्यं पाययन्ति वरा्रना! ।
हयानाजास्खराजुष्ट्रांस्थेव सुरभे!! सुतान्‌ ॥ ५५ ॥
ज्ञव वे स्नान कर चुकते, तव कितनी ही छुन्द्र ख्रियाँ मित्र
कर उनके गीले शरीर के पोंछ्ती थीं भ्रौर उनके श्रम्नत तुल्य
शरवत पिल्लाती थीं। घोड़ों, द्वाधियों, खिद्वरों, ऊँटों और वैलों
को ॥ ४५ ॥

अभेाजयन्वाहनपास्तेपां भाज्यं यथाविधि |


इक्ष॑श्च मधुलाजांश्व भेजयन्ति सम वाहनाव ॥५३॥
इक्ष्वाकुबरयेधानां चेदयन्तों महावलाः !
नाइववन्धोज्श्वमाजानान्न गज॑ कुन्लरग्रह! ॥ ५७॥
उनके रख वा ले दा ना चा य यथ ाव िध ि बि क् ा रह े थे ! इनम ें
एइवाकुबं शी य प्र धान येद ्धा प्र ों कीसव ार ी के जो पश् चु थे , उन के
! सुरमेः सुतात्‌ >पुषभाव्‌ । ( गो० )
घर अयेाधष्याकायडे

महावल्ली माल्निकों नेऊँछ की गड़ेरियाँ भर मीठी जीलें उनके


खाने के लिये भेजी थीं, जे उनके खिलायी जा रही थीं। सईस
व चरकट अपने अपने घोड़ों ओर हाथियों के पहचान तक न
सके ॥ ५६ ॥ ५७ ॥|
मत्तप्रमत्तमुदिता चम! सा तत्र संम्बभौ ।
तर्पिताः सर्वकामेस्ते रक्तचन्दनरूपिता; ॥ ५८ ॥
क्योंकि उस समय वह सेना नशा पी कर मनवाल्ी हो झानाद
मेंमन्न दो रही थी। सव लेग इच्छानुसार तृप्ति लाभ कर लाल
चन्दन शरीर में त्याये ॥ ५८ ॥
अप्सरोगणसंयुक्ता;
रे &
सेन्‍्यावाचमुदेरयन्‌ |
सैन्य 3

नेवायेध्यां गमिष्यामे। न गमिष्याम दण्डकान ॥|५९॥


भर भ्रष्सराध्ों से रमण कर मतवाल्ों जैसी वार्तें कहने लगे।
वे कहते श्रव हम न ते यहाँ से अयेष्या हो ज्ञॉयगे और न दृरहक-
चेन ही जाँयगे ॥ ५६ ॥
कुशल भरतस्यास्तु रामस्यास्तु तथा सुखम्‌ |
इति पादातयेधाइय हस्त्यश्वारोहवन्धका: || ६० ॥
भरत जो भी मोज करें ओर श्रीरामचन्ध जी भो छुखपूर्वक
बन में रहें । पैदल सैनिक, चरकरे और सईस ॥ ६० ॥
अनाथास्तं! विधि रूब्ध्वा वाचमेतामुदैरयन्‌ |
संम्पहृष्टा विनेदुस्ते! नरास्तत्र सहस्रशः ॥ ६१ ॥
१ जनाथा;:--खतंक्र इति | (गो० ) २ तंविधिं--पत्कारं । ( गो० )
१ विनेदु:--जंगजु: | (गो० ) ,
पएकनवतितमः सर्गः घर
भरतस्यातुयातार। स्वगो्यमिति चाव्रवन्‌।
तृत्यन्ति सम इसन्ति सम गायन्ति सम व सेनिका। ॥६२॥।
इस प्रकार की पहुनई से, खतंत्र दो, अदपटांग वकने लगे।
भरत जी की सेवा के दज्ञारों ग्रादमी शतिशय हृर्षित है यह कह
कर गर्ज रहे थे कि, वस--यददी स्वर्ग है। सैनिकों में कोई क्षाई ते
नाच रहे थे, कोई गा रदे थे भोर कोई हँस ही रहे थे ॥ ६१॥ ६२॥
समन्तात्परिधावन्ति माल्येपिता। सहस्तश! ।
तते भ्रुक्तवतां तेपां तदन्मममतेपमम ॥ ६३ ॥
हज़ारों सैनिक गल्ले में मालाएँ पहिने हुए, इधर उधर दोड़
रदे थे। ययपि भम्तत समान स्वादिष्ट भाज़न कर वे ल्लाग तृप्त हो
गये थे ॥ ६३ ॥
दिव्यानुद्वीक्ष्य भक्ष्यारतानभवद्भक्षणे पति! |
'प्रेष्याइचेव्यथ' वध्वश्चर वलस्थाइच सहज! ॥९४॥
तथापि उन दिव्य भेज्य पदार्थ को देख उनकी इच्छा पुनः
प्रेज़न करने की होती थी। उस सेना में जे सहस्नों दास दासी
श्रोर सिपाहियों की ख्रियाँ थीं ॥ ६४ ॥
वभूचुस्ते भुश दमा से चाहतवाससः९ |
कुझ्राइच खरोष्ट्राशइच गाश्वाश्च मृगपक्षिण। ॥ ६५ ॥
पे सबको सब नये नये वद्ध धारण कर श्त्यन्त गर्षीली हो
गयी था । हाथी, खब्बर, ऊँठ, वैल, धोड़े, स्ग और पत्ती (सैनिक
लग धपमे पालतू म्ग पत्ती अपने साथ ले गये थे) ॥ ६५ ॥
) प्रेष्पा:--परिचारका। । ( गो० )* चेव्योदाल्यः | (गो० ) ३ व्चा-
येधापइना। | (गो०) ४'अद्द तवास्॒ ्+--चू तनवश्न ाः । ( यो० )
घहे8 अवेाष्याकायडे

वभूवु! 'सुभृतारतत्र नान्यों छन्यमकर्पयत्‌ |


धिते!मछिनेअपि वा ॥१६॥
नाशुक्ववासास्तत्रासीत्खु
सव के सब घुनि के दिये हुए पदाथा से अघाए हुए थे। किसी
के अपनो श्रावश्यक्ता की कोई वस्तु सुपयं झुदानों न पड़ी |उस
समय भरत की सेना में मेले कपड़े पदने अथवा भूखा श्रथवा मेला
कुचेला ॥ ६६ ॥
रजसा ध्वस्तकेशों वा नर करिचद्द्श्यत ।
'मैश्वापि +२ 20. ष्ठानवरसंच ्
ञ्‌ च वाराहनिष्ठानवरसंचयं! || ६७ ||
हिनि

अथवा धूलध्षुसरित केशों वाल्मा एक भी आदमी नहीं देल्ल


पड़ता था। वहां वकरों ओर शुकरों के माँसों दे तथा अन्य भ्स्े
अच्छे व्यज्ञनों के ढेरों से, ॥ $७॥
हसंसि्ध! प्पेगन्धरसान्विते! |
फलनिव्यू सिद्ध
2, धरे

पृष्पध्वजवतीः पूृणाः शुहृस्यान्नस्य चामित) ॥३4॥


दच्शुर्विस्मितारतत्र नरा छाहीः सहस्रशञः |


व्भूवुवनपाश्वेंषु कृपा; पायसकदमा! ॥ ६९ ॥
५ हिजे ४५

जे। फलों के रसों में बवाये गये थे; होंग, लोग, ज्ञीर घादि
छुगंधित मसालों से छोंकी हुई दाल्लों सेऔर श्रत्युत्म प्रकार के
भातों से भरी, सहस्लों ऐसो कढ़ाइयों का, जिनमें शोभा के लिये
फूलों की कंड़ियां लगायो गयी थीं--देख देख कर लोग चकित
दे रहे थे |उस पाँच याजन घेरे में जितने कुएँ थे, वेसब गाढ़ो
गाढ़ी छीर से भरे हुए थे ॥ ई८ ॥ ६६ ॥
१ चुमृता:--झुतृत्ता: । (गो०) ३ निष्ठानवरसं चये:--ब्यक्षनश्रेष्ठममुरै ।
९ गौ० ) न
पएकनवतितमः सर्गः ब

ताश्व कामदुघा गाते हुमाथासन्मधुखुतः ।


वाष्ये मेरेयपूर्णाथ मृष्ठमांसचयहता: ॥॥ ७० ॥
प्रतप्तपिवरेथापि मा्गमायूरकोकुटे: ।
'पात्रीणां चसहस्नाणि स्थालीनां? नियुतानि१ व ॥७१॥
ज्ञितनो गोवें थी, वे कामथेनु के समान जे माँगो से। देतो थीं ।
जितने वृत्त थे, वेसव शहद चुआ रहे थे ।कुगड या वावल्ली मैरेय
नाम की शरातर से भरी हुईथों। दिरन, गैर ओर मुर्गें के भ्रच्छी
तरद पकाये भौर साफ किये हुए माँस के ढेर लगे हुए थे। घन
भरने ऊ लिये दज्ञारों वस्तन थे ओर भेज्य पदार्थ रखने के लिये
लाखों थाल्र थे॥७० ॥ ७१॥
न्यवुंदानि च पत्राणि" शातकुस्भमयानि वे ।
स्थाल्यः छुम्भ्यः करम्भ्यथ दघिपूर्णा: सुसंसक्षता॥७श॥
दूसघ करोड सेने 5 थाल श्रौर कलसे थे तथा थाली, ह्लुदियाँ
दही रखने के कछाई किये वरतन जिनमें दृही भरा हुआ था, वहाँ
मोजूद थे ॥ ७२ ॥ !
*यौवनस्थस्य गारस्य* कपित्यस्य* सुगन्धिनः |
हृदाः पूर्णारसालस्य दध्न! स्वेतस्य चापरे ॥ ७३ ॥
वर्भूवु) पायसस्थान्ये शकरायाश्व स्यया ।
कर्कांश्वूर्णफपायाश्व स्नानानि विविधानि च ॥ ७४॥
ि | ४ पा त् ना णि -- मे ।न तप ात ्र ाण ि । ५ यौ वन -
( गो० ) ३ तियुतानि--लक्षाण
ह्श्य--वातिमूतनस्‍्य नाति षु रा णस ्प ेत ्य थे ं: । ( गो ० ) ६ गौ रस ्य -- शु म् रत ्य ।
( यो० ) ७ कप िस ्य स् य- -त कप ्य | ( २० ) ञ
घ्६६ अयेध्याकाय

बहुतसे वरतनों में कुछ देर का तैयार किया हुआ सफेद


( सादा ) मद्दा भरा हुआ था; वहुतों में ज्ञीस लोंग सोंढ आदि
सुगन्धित मसालों से युक्त मद्ठा भरा हुग्रा था। वहां के अनेक कुणडों
मेंशिखरन, ददी प्रोर दूध मरा हुआ था। चीनी की ढेरियाँ देख .
पड़ती थीं। स्नानोपयेगी विविध प्रकार के घखे मसाले तथा मसाक्षों
के काथ, ॥ 3३ ॥ ७४ ॥
दृद्शुभाजनस्थानि तीयेंपु सरितां नराः |
'शुक्वानंशुमतश्चापि दन्‍्तथावनसभ्वयान्‌ ॥ ७५ ॥
नदियों के घादों पर वरतनों में भरे,हुए क्ेगों ने देखे | (घा्ों
पर ) साफ और क्ूचो वनी हुईदतोंनों के ढेर लगे थे ॥ ७५ ॥

गुह्वार्चन्दनकरकांस्च 'समुद्गेध्यवतिष्ठतः |
दषणान्परिमृष्ठांरच वाससां चापि सश्यान्‌ ॥७६॥
|च 3 हि

घिसा हुआ सफेद चन्दन कदोरों में भरा हुआ रखा था । साफ
दर्षणों और कपड़ों के ढेर लगे थे | ७६ ॥
पादुकेपानहां चेंव युम्मानि च सहस्तश) ।
“आज्ञनीः “कड्डतान्कूर्वाब्शस्राणि च धनूंषि च ॥७७॥
खड़ाऊओं और जूता की हज़ारों जेड़ियां रखी थीं। छरमा-
दानियां, कंधे, त्रुश, छूप, धनुष ॥ ७७॥
क्ल्ल्ञ््ैौएट्एैप॑जज
ज्---+---+-+>.......

) शुद्धान--निर्सछात्‌ । (गो० ) २ भंशुमत:--कूचेबतः ।


.

( गो० )
ई उदुनकर्कानू--चल्दतप््ल/नू । (गो० ) ४ समुद्ग
--लंघु
ेषटकेप
ुु ।
( गो० ) ५ आक्षनी:--भक्षनयुक्ताभ्करण्डिका: | ( गो० ) ६ छ
टताव--केश-
मार्जनान्‌ । ( गो० )
0
एकनवर्तितमः सगे घ६8

भ्म्मत्राणानि चित्राणि शयनान्यासनानि च |


प्रतिपानहदान्यूणान्खरोष्ट्ूगजवाजिनाम ॥ ॥ ७८ ॥
कक्‍च तथा तरह तरह की वैंचे भर स्टूल कुसियाँ यथास्यान
सज्ञा कर रखे हुए थे । खाये हुए भत्न के पचाने के लिये प्रोषधि
रुपी ज्क्त से भरे हुए छुएड भी थे । गधे, ऊँट हाथी ओर
घोड़े ॥ ७८ |
अबगाह्न हुतोयाइच हृदान्सेत्पलपुष्करान्‌ |
आकाशवणप्रतिमान्खवच्छतेयान्सुस
पंवान्‌ ॥ ७९ ॥
जदां सुख सेउतर कर स्वान कर सके प्मथवा जअल्ष पी सके
7 देसे घादों वाले तथा फूल्ते हुए कमल के फूल्लों सेभरे ध्राकाश की
तरह निर्मेल जल से पूर्णअनेक तालाव भी थे ॥ ७६ ॥
नीलवेहयेबणाश्च मुद्न्यवससश्ययान्‌ ।
निवापार्यान्पशनां ते दर्घुस्तत्र सवेश! ॥ ८०॥ |,
नील भ्ोर बेह्य मणियों के रंग जैसे रंग की कोमल घास की
ढेरियाँ लगी थीं भौर जगद ज्गद पशुभों के विश्राम के क्षिये स्यान
देख पड़ते थे ॥ ८० ॥
व्यस्मयन्त मनुष्यास्ते स्वप्तकरपं तददअुतम्‌ |
इृष्टातिध्यं कृत ताहग्भरतस्य महर्षिणा ॥ ८१ ॥
महरयि भरदाज जी ने भरत जो की पहुनाई के लिये ले ये सव
छप्त सदश चमल्कार पूर्णतैयारियाँ की थीं, इनके देख देख, मरत
के साथ-वाक्मे लेग विस्मित हो रदे थे ॥ ५१ ॥ .
१ मर्मन्राणानि->कवचादीनि । (मो० )
चदा० रा॑०---५७
पहैप अ्येध्याकायडे

इत्येव॑ रममाणानां देवानामिव नन्दने |


भरद्ाजाश्रमे रम्ये सा रातरिव्येत्यवर्तते | ८२ ॥
ननन्‍्दूनवन मेंविहार करते दुए देवताश्रों की तरह, रमणीय
भरदाज के आश्रम में विद्ार करतो हुईभरत की सेना ने वह रात
विताई ॥ ८२॥
प्रतिजग्सुश्व॒ ता नद्ो गन्धर्वाश्व यथागतस.।
भरद्ाजमजुज्ञाप्य ताइच सर्वा बराड्रना। ॥ ८३॥
प्रातःकाल होते ही वे सब नदियाँ गन्धर्व और अप्पराएँ मु
से विदा हा, अपने अपने स्यान के चली गयीं ॥ ८३ ॥
तयैव मत्ता मदिरित्कट नरा!
तथेव दिव्यागरुचन्दनाक्षिता! ।
तथेव दिव्या विविधाः समुत्तमाः ._
पृथक्प्रकीणा मनुजे! पर्मर्दिता! ॥ ८४ ॥
इति एकनवतितमः सर्गः ॥
परन्तु भरत जी के अचुगामी थे सब मतवात्ते ज्लाग बैसे ही'
वीक्षे श्रोर मद्मत्त थेओर उसी प्रकार शरीर में चन्दन लगाये
हुए थे। तरद तरह की श्रेष्ठ ओर दिव्य पुष्पमालाएँ झोर पुष्य, जे।
इधर उधर विखरे पड़े थे, क्ेगों के पेरों से.कुचले. ज्ञाने पर भी.
पुर्वेचत्‌'ज्यों के त्यों देख पड़ते थे ॥ ८४ ॥
छयाष्याकायड का एच्ष्यानवेवाँ सम समाप्त हुआ ।
“कै
दर
६०० खऋगयैष्याकायडे

सुखापिता5स्मि भगवन्समग्रवलवाहनः |
तर्पित) स्वकामे३च सामात्ये! 'वलवत्त्या | ५)
हैभगवन्‌ | मेंसेना सहित इस पश्राश्रम में झुख से रहा भोर
हर प्रकार से आपने हम सब के पअतिशय तृप्त किया ॥ ५ ॥
अपेतकृमसन्तापाः सुमिक्षा; सुप्रतिश्रया! ।
अपि प्रेष्याजुपादाय सर्वे स्प्र सुसुखापिता। ॥ ६ ॥
हम सब छोगों ने खुखपूर्वक् रत विताई। भ््छे अच्छे घरों में
बाघ किया, बढ़िया वढ़िया स्वादिए भोजन किये। रास्ते में . मे कष्
धकाचद दुई थी, चह सव हमारी दुर हे गयी ॥ ई ॥
आमन्त्रये5हं भगवन्कामं त्वामृपिसत्तम |
समीप प्रस्थित ब्रातुमेत्रेणेक्षत्र चश्ुपा ॥ ७ ॥
है ऋषिश्रेष्ट |अद में आपसे विदा हे! फर, भाई के पास
ज्ञाना चाहता हूँ। आप प्रुक्केकृपाहष्टि सेदेखिये ॥ ७ ॥
आश्रम तस्य धर्मज्ञ धार्मिकस्य महात्मनः ।
आचह्व कतपे मार्ग: कियानिति च शंस मे ॥ ८ ॥
हैधर्मज !यह वतलाइये कि, उन महात्मा धामिक भरीरामचद्
जी का आश्रम यहाँ सेकितनी दूर है शोर वहाँ जाने के लिये
क्वौनसा मार्ग है। ८ ॥ ३
इति पृष्ठस्तु भरत भ्रादृदशनलालसम्‌ ।
प्रत्युवाच महातेजा भरद्वाजो महातपाः ॥ ९॥
१ बलछवत्तपिंतः--अतीवतपितः। ( गो० )
द्विववतितम। सगे ६०१
भरत जो का ऐसा वचन छुन, धोरामचद्ध जो के दर्शन को
लाबसा रखने बाते भरत से मदातेज्ञली एवं परम तपलो भरदाज
जो बात्ते | $ ॥
भरताधदृतीयेषु येजनेप्वजने बने।
चित्रकूटो गिरिरतत्र रम्थनिदंरकानन। ॥ १० ॥
हैभरत | यहाँ से अढ़ाई योजन के भ्रन्तर पर हटेफूरे पत्थरों
वाले निर्जन बन मेंचित्रकूट नामक एक रम्रणोय पहाड़ है ॥ १० ॥
उत्तर पाश्वमासाथ तस्य मन्दाकिनी नदी !
पुष्पितदुमसंछन्ना रम्पपुष्पितकानना ॥ ११ ॥
इस पर्वत की उत्तर तरफ मन्दाडिनी नदी घहतो है। इस नदी
के उभय तटों पर पुष्पित चृत्त लगे हुए देंभोर चद नदी रमणोव
पुप्पित बन में दा कर बहती है॥ ११॥
अनन्तरं तत्सरितर्चित्रकूटश्च पर्वत! |
तये। पर्णकुटी ताव तत्र वो बसते भुवम ॥ १२॥
हैतात ! उसोसे मिल्ला हुआ चिन्रकू5 पर्वत है |उसी पर्वत पर
पक पर्णकुटों में तुम्र दोनों भाइयों के निश्चय दो घास फरते हुए
पाग्रोंगे ॥ १९॥
दक्षिणेनेव मार्गेण सव्यदक्षिणमेव वा ।
गजवाभिरयाकीण वाहिनी वाहिनीपते ॥ १३ ॥
वाहयस्र महाभाग तते। दरक्ष्यसि राघवस । «»
प्रयाणमिति तच्छुलाराजराजस्य येपितः ॥ १४॥
६०३. श्याध्याकायडे

हेमदाभाग ! दे वाहिनीपते | यपुना के दत्तिण वाले मार्ग से


कुछ दूर ज्ञाने वाल्ले दो मार्ग मिलेंगे । आप दहिनों झोर वाले
मार्ग से हाथी घोड़ों से युक्त अपनी सेना के यदि ले जाओगे ते
तुम्हेंभरामचद्ध जी का दर्शन दो ज्ञायगा । प्रस्थान करने का विचार
छुन महाराज दशस्थ की .रानियों ने॥ १३६॥ २४ ॥ न्‍

हिला यानानि यानाहं ब्राह्मणं पयवारयन |


|. वेपमाना छुशा दीना सह देव्या सुमित्रया ॥ १५॥
कैसल्या तत्र जग्राह कराभ्यां चरणो मुने! ।

असमुद्धेन कामेन सवलेकस्य गर्हिता ॥ १६ ॥
0०

छपनी अपनी सवारियाँ छोड़ दींओर जे। रानियाँ सदा सवारी


पर ही चल्ला करती थीं, वे पैदल चल कर आयी और भरद्वाज्ञ को
: घेर कर खड़ी हो गयों । उनमें सेथरथर काँपती हुई दीन और
दुर्वल महारानी कौशल्या ने छुमिश्ना सहित भरद्वाज् जी के पैर
छुए | तद्नन्तर भ्रसफल मनेरथ और लेकनिन्द्त ॥ १४५॥ १६ ॥
कैकेयी तस्य जग्राह चरणों सव्यपत्रपा! ।
त॑ प्रदक्षिणमागम्य भगवन्तं महाम्ुुनिय ॥ १७॥
कैकेयी ने लज्ञित दे महर्षि केचरण छुए और इन ऐश्वयंचान
महर्षि की परिक्रमा कर ॥ १७॥
अद्राट्भरतस्पेव तस्थे दीनमनास्तदा ।
ततः पप्नच्छ भरत भरद्वाजो हछत्नतः ॥ १८ ॥
१ सम्यपत्रपा- सलज्ा । ( सो० )
६०७ शयाष्याकायदे

कर्णिकारस्य शाखेव शीणपुष्पा वनान्तरे |


एतस्यास्तु सुता देव्या) कुमारों देववर्णिनों ॥ २३ ॥
उभौ लक्ष्मणशन्रुप्तों वीरों सत्यपराक्रमो ।
यस्य॥ छृते नरव्याप्रों जीवनाशमिता गता ॥ २४ ॥
और जे। कनेर छृत्त की पुष्पदीन शाखा की तरह देख पड़ती
हैं, देवताओं के सम्रान दोनों वीर एवं सत्यपराक्रमी राजकुमार
लक्ष्मण भौर शत्रुघ्न की अननो ( छुमित्ना )हैं। हे मुनि ! जिसकी
करतूत से उन दोनों पुरषसिद्दों काजीवन सु में पड़ा इुश्ा
है॥ २३॥ २७॥
राजापुत्रविद्दीनथ खर्ग दशरथे गतः |
क्रोधनामक्ठतप्न्नां दप्तां 'सुभगमानिनीम्‌ ॥ २५ ॥
तथा महाराज दशरथ पुत्रवियाग ज़नित शाक्र के कारण स्पर्ग-
चासी हुए हैं । वह यही क्रोघयुक्त स्वभाव वाली, बुद्धिदीन,
गवींली, अपने के सुभगा मानने वाली ॥ २४ ॥
ऐश्वर्यका्मां कैकेयीमनायांमायरूपिणीम्‌* ।
ममेतां मातरं विद्धि दृशंसां पापनिथयाम्‌ | २६ ॥
ऐश्वर्य प्राप्ति कीचाह रखने वाली भोर श्रसती दो कर भी
अपने के सतो सम्रफ्ममे वालो इस निष्छुणा और पापिन कैकेयी
का शाप मेरो माता समर्षिये ॥ २६ ॥
१ सुभगमानिनोग--सुभगांसुर्दरोमात्मान॑प्रन्यत इति । २ आयोपिणी--
सतीमिव प्रतिभावनमानाँ । ( रा० )
दिनवतितमः सर्गः 8०४

यतेमृछ हि फ़्यामि व्यसन महदात्मत: |


इत्युपला नरशादकू वाषगद्गदया गिरा ॥ २७॥
स निशश्वास्त ताम्राक्षो नागः क्ुद्ध इुव श्वसन्‌ |
भरदाजो महर्पिस्त ब्रुवन्त॑ भरत तथा ॥ २८ ॥
प्रत्युवाच 'महाबुद्धिरिदं वचनम्रथंवत्‌ ॥
न दापेणावगन्तव्या केकेयी भरत लया॥ २९ ॥
इस्तीफे कारण मुक्का इस महादुःख मेंपड़ना पड़ा है। यह कह
पुदपसिद भरत जो गदुगद्‌ वाणी ही औ्रोर लाल नेत्र कर, क्ुद
हुए नाग की तरद ज़ोर से सांसे लेने क्गे। तव महर्षि और
भाषा के जानने वाले भरद्वात ने भरत जी के इस प्रकार कहते
बेख भरत जी से यह प्रर्धयुक्त वचन वाले--दे भरत |तुम फ्ैकैयी
के दापी मत ठदराग्री ॥ २७ ॥ २८ ॥ २६ ॥
रामप्रताजन॑ होतत्सुखेदक*भविष्यति |
देवानां दानवानां च ऋषीणां भावितालनाम ॥३०॥
फ्मोंकि #यमचन्र जी का यह वनवास ग्रागे चल फर छुलत-
कारी हैगा | देखो, देव, दानव श्रोर बड़े बड़े मददर्वियों की ॥ ३० ॥
हितमेव भविष्यद्धि रामप्रत्राजनादिह |
अभिवाद तु संसिद्ध/* कृल्ा चेन॑ प्रदक्षिणम्‌॥३ ॥
शीरामचद के वनगमन से भलाई हो हैगी। यद छुन, भरत
ज्ञी ने भरद्वात जी को प्रशाभ किया तथा उनसे जाशीर्वाद प्राप्त
कर, उनको परिक्रमा की ॥ ३१॥ .
३ मद्राबुद्धिः--माविश्ः | ( गो” ) २ सुछषादर्क-सुखात्तरं | ( मे" )
३ पंतिद्ध/--४5धाशीर्वाद। । (गो )
६०६ अयेष्याकायडे

आमनूया भरतः सेन्‍्य॑ युज्यतामित्यचादयत्‌ |


तते वाजिरथान्यक्ला दिव्यान्हेमपरिप्कृतान्‌ ॥ ३२ ॥
अध्यारोहत्पयाणार्थी वहन्वहविषा जन;
रगजकन्या गजाश्चैव हेमकक्ष्या।ः पताकिन। ॥ ३३ ॥
तदननन्‍्तर भरत जी ने महषि से विदा माँग प्रस्यान के किये
तैयारी करने की सेना को श्राक्षा दी। भरत ज्ञी ग्ाज्षञा पा कर
सव सैनिक धोड़ों पर वथा सुनहले रथों पर सवार हो, यात्रा करने
लगे ।सेने की जंज़ीरों सेकसी हुई अज्ारियों से तथा पताकाधों
युक् हथिनियों और हाथियों पर, वे क्षेग सवार हो कर जा रहे
थे ॥ ३२॥ ३३ ॥
जीमूता इव घर्मान्ते सवेषाः* सम्पतस्थिरे |
विविधान्यपि यानानि महान्ति च छूघूनि च॥ ३४ ॥
प्रययु; सुमहाह्ाणि पादेरेव पदातयः ।
अथ “यानप्रवेकेस्तु कासल्याप्रमुखाः स्िय/॥ १५॥
जिस प्रकार वर्षा के अन्त में बादलों की गड़गड़ाहठ द्वोती है,
इसी प्रकार द्वाथी हथिनियों के चलते समय, उनकी पीद पर
छठकते हुए घंठों का शब्द दाता हुआ चन्ना ज्ञाता था। इनके
अतिरिक्त बड़ी चोटी तथा बहुमूल्य की और भी वहुत सी अनेक
प्रकार की सवारियाँ थीं, ज्ञिन पर सवार है! लेग चक्ते जाते थे !
१ आमध्य--आप्रच्ठय | (गो०) २ गजरू्या;--करेणवः | ( यो० )
है हेमककष्या:--हैमसयवन्घधनर|ज्जवः । ( गो० ) ४ सघापा:--घण्टावेप
युक्ताः । (पो० )५ यान/वेकै:--यादेत्तमैं: । ( गो० )
द्िनवतितमः सर्गेः ६०७

ज्ञे पेदल चला करते थे,पे पैद्ल ही स्वाना दो गये थे ।तद्नन्तर


कोशल्यादि रानियाँ उत्तम उत्तम सवारियों मेंबैठ ॥३४ ॥ ३५ ॥
रामदशनकाहप्षिण्यः प्रययभुदितास्तदा |
चन्द्राकतरुणाभासां नियक्तां शिविकां शुभाग ॥३३॥
आस्थाय प्रययौ भ्रीमान्मरतः सपरिच्छदः
सा प्रयाता महासेना गजवाजिरथाकुला |
दक्षिणां दिशमाहत्य महामेय इवेत्यितः ॥ २७ ॥
भीरामचद्र ज्ञी का देखने की इच्छा से प्रसन्न देतो हुई चली
जाती या | धूर्य अ्यवा चद्धमा के समान प्रमायुक्त पाल्की मेंबैठ
सपस्वार भरत जो चल्ते जाते थे । हाथी धोड़ों से युक्त वह महासेना
' वहीँ से दक्तिण दिशा के प्रेघ कीघटा की तरह ढकती हुई, झागे
चली || ३६ ॥ ३७ ॥

बनानि तु व्यतिक्रम्य जुष्टानि मुगपश्चिमिः


गद्गभाया; परवेलायां गिरिष्वपि नदीधु च॥ ३८ ॥
उस सम्रय वह सेना हिरनों और पत्तियों से भरे हुए वनों के
तथा भागीरधी गडुग के पश्चिम तवर्ती पहाड़ों और नदियों के
मझाती हुई, चलो जातो थी ॥ ३८ ॥
सा सम्पहृष्द्धिपवाजियेधा
वित्रासयन्ती मुगपत्षिसड्वान्‌ |
महद्वनं तत्मतिगाहमाना
रराज सेना भरंतस्य तन्र ॥ २९ ॥
इति द्वितवतितमः सगंः ॥
ष्ण्द
हु
अयेाष्याकायदे

इस सेना के हाथी और थोड़े दहुत प्रसन्न जात पड़ते थे, किन्तु


बनवासी घग पत्नी इस सेना के देख कर, सयनीत दी गये थे।
इस समय मरत जी की वह सेवा वन में श्रदेश कर, बड़ी शानित
हुई॥ २६ ॥ ;ल्‍
थ्रयाध्याकायड का वानवेचां सर्ग समाप्त हुआ |
बहन

शो हक ५६

त्रनवदितनः सर्गः
«>_>>40३६---

तया महत्या यायिन्या खजिन्‍्या वनवासिनः ।


अर्दिता यूथपा मत्ताः सयूथाः सम्पदुदबु) ॥ १॥
जब उस महासेना ने वन्र में है| ऋर, प्रत्यान क्चिया ;तव बत-
वाखो मतवाल्ले यूथपति द्वायी पोड़ित दो, अपने अपने यूरय्यों(स्ुंडों)
के साथ ले, चारों ओर भागने लगे ॥ ६ ॥
ऋता। एपतसइश सखरश्च सम्रन्ततः |
दृश्यन्त वनराजीपु गिरिष्दपि नदीपु च॥ २॥।
नदियों के त्ों पर, पर्वे्तों देशिखयों पर तथा वनों में,राह,
चित्तलन, आदि चनवाती अन्तु विक्ल दा ऋर, इधर उघर सागते डुए
देख पड़े ॥ २॥
से सम्पतस्थे धर्मात्मा प्रीता दचरचात्मजः
हते मदला नादिन्वा सेनया चतुरइया ॥ ३॥।
दृशस्वचन्द्त महात्मा मरठ जी गर्जन करती हुई विशाल
चतुरंगियी ेना के साथ प्रउन्न मन दे। चलने लगे ॥ दे |
प्रिनवतितमः सर्ग 8०६

सागरोघनिभा सेना भरतरप महात्मनः |


महीं संच्छादयामास प्राहपि यामिवाम्खुद: ॥ ७॥ «
जिस प्रकार वर्षाप्तु मेंमेघमणठल आकाश के ढक क्षेता है,
उसी प्रकार मद्रत्मा भरत जी को सागरपमत सेना, ऋहरों की
तरह उम्नड़ती हुईपृथिवी के भ्राच्हादन करती हुई चल्नी ज्ञाती
थी॥४॥ ;
तुरज्ञोधेरवतता वारणैश्च महाजवेः ।
अनाहक्ष्या चिरं काल तस्िन्काले वभूव भू! ॥ ५ ॥
वहाँ की भूमि उन धोड़ों और बड़े बड़े हाथियों सेऐसी ढक
गयी थी कि, वहुत देर तक दिखलाई नहीं पड़ती थी ॥ ५॥
से यात्रा दरमध्वानं सुपरिभ्रान्तवाइन! |
उबाच भरतः श्रीयन्वसिष्ठं मन्त्रिणां बरस ॥ १ ॥
भरत ज्ञी ज्षव वहुत दूर निकल गये, तव वाहनों के थके हुए
देख, वे मंतिश्रे्ठ चशिष्ठ ज्ञी सेकदने लगे ॥ ६ ॥
याद रुक्ष्यते रुप तथा चैव भ्रुतंमया ।
व्यक्त प्राप्ता) स्॒ ते देशं भरदाने यमब्रवीत्‌ ॥ ७॥
इस स्थान का जैसा रुप देख पड़ता है श्र जैसा कि, इसके
विषय में,मेंने छुन रखा है,इससे तो यही ज्ञान पड़ता हैकि, हम
क्ाग उस ध्यान पर पहुँच गये। जे भरद्वाज ज्ञी ने वतत्ाया
था॥७॥ |
* अय॑ गिरिश्चित्रकूट इयं मन्दाकिनी नदी ।
एतलाकाशते द्राचीलमेधनि् वनम्‌ ॥ <॥
६१० थ्रयाध्याकायडे

देखिये वह ते चित्रकूढ पर्वत है और यह मन्दाकिनी नदी है


और यही वन हैजे। दूर से नील मेघ की तरह देख पड़ता है॥ ८॥
४. गिरे सानूनि रम्याणि चित्रकूट्रय सम्पति ।
वारणरवमु्चस्ते' मामकेः पवतापमे: ॥ ९ ॥
पु रे 0०

यही चित्नक्ृद पव॑त के रमणीय शिखर हैं, जे। मेरे पर्वत सद्दश
ऊँचे द्वाथियों द्वारा मर्दित हो रहे हैं। ( ग्र्थाव्‌ साथ के हाथी उस
रमणीयता के नष्ट कर रहेहैं) ॥ ६ ॥

मुश्वन्ति कुसुमान्येते नंगा; पवतसानुषु |
नीला इवातपापाये' तोय॑ तेयथरा घना) ॥ १० ॥
यह देखिये, जिस प्रकार वर्षाकाल में सजल श्यामत् ,मेघ-
मण्डल जल वरसाता है, वेसे ही चित्रकूट ऊ#े बुत्त, द्वाथियों की
सूंडों के श्राधात से हिल कर, पव॑त के शिखरों पर फूलों को वर्षा
कर रहे हैं॥ १० ॥ हे
*किन्ननाचरितं देशं#पश्य शत्रुत्त पवेतस्‌ ।
मुगै!समन्तादाकीण मकरेरिव सागरस ॥ ११॥
मकरररिव

देशत्रप्न |किन्नरों सेसेवित स्थान की तरह इस चित्रकूद


पव॑त के देखो । जिस प्रकार सरुद्र में मगर घूमा फरते हैं,वेसे ही
हीपर्वत पर जिधर देखों उधर म्ग समूह शोभायमान दो रहा
॥ ११॥
एते मुगगणा भान्ति शीघ्रवेगाः प्रचादिता! ।
वायुप्रविद्धा शरदि मेघराजिरिवाम्बरे ॥ १२॥
१ अवरूद्न्ते--भज्यन्ते। (गो०) २ आातपापाये--वर्षाकाले । (गो)
३ किब्तराचरितंदेश--किन्नराचरितदेशरूपं पर्वेते । ( यो० ) # पाठाल्तरे--
$ किन्नरावरितेद्दिशं ? । * रे ४2
६]
. विनवतितमः सर: ११
शरतकाल मेंज्ञिस प्रकार वायु के वेग से प्रेरित मेघसमृह
ग्राह्मश मेंछुशेमित दोता है,उसी प्रकार हमारी सेना से प्रेरित
है, येमृगसमृह शामायमान हो रहा है ॥ ११ ॥
कुवन्ति 'हुतुमापीटान्शिर!सु सुरमीनमीर ।
प्रेषप्रकाणे। फलकैदांप्षिणात्या यथा नरा। ॥ १३॥
जिस प्रकार दृत्तियों क्ञेग अपने मस्तकों के फूल की माजाश्रों
से सजाया करते हैं-उसी प्रकार हमारे सैनिकों ने कुछुम के मुच्छों
से अपने मस्तक सजा लिये दे ॥ १३ ॥
निष्दूजमिव भूलेद वन पेरपदर्शनम्‌ ।
अयोध्येव. जनाकीणा सम्पत्ति प्रतिभाति गा ॥ १४ ॥
हैशत्रुघ्न !देखो यह भयानक वन पहले कैसा साँध साय करता
था, किन्तु इस समय मेरी सेदा की भीड़भाड़ से यह अयोध्या
जैसा देख पड़ता है ॥ १४॥
:.घुरे र् दी रि तो रे णु र् दि व पच च् छा ति ष् ठत ि ।
त॑ वह त् यन िल ; शी र् ध कु वे ज् नि त मम प् रि यम || १ ५ ॥
घेड़ों के छु मो ं औ र वै ्ल ों के खुर ्रो ंसे उड ़ा ई हु ईं घु ल् न ्र ाक ाश
मेंछा जाती है। किस्तु पवन उसे शीघ्र ही दृदा देता है,मानोंग्रेरी
ेमने की
ग्राँस्ों कसा रु का वट दू र कर , ( भी रा मच द् र को पर णु ंश ाल ा
दिखा कर ) मुझे प्र सन् ष कर ना चा हत ा है ॥ १५ ॥
औी ु ी क क
ि ऊकक ु ्र फ ज ज - - - + +
! इसुमपीडाग्‌-के ंस ुम शे खरकब
ातेन
्‌्त ि। (यो ० ) ५ अभ ी- -भ द् य। 4
का पै :- - फछ कै ःके शव न् धव िश ेष ेः | (गो ० ) ;
(गो ) ३ मेघप्र
६१२ श्रयाध्याकायडे

स्पन ्द ना ंस ्त ुर गा पे ता न् यू तम ुख ्य ेर धि ष् ठि ता न् ‌ ।
एतान्सम्पत तः ' शात ्रं पह ॒य झन् रुन ्न का नन े॥ १६ ॥
है शत्रप्त ! देखा, ये थोड़े सा यय ी सह ित रथ ों क े लि ये हु ए
इस बन मे ं कै सी ते जी से दो ड़ े चल े जा रह े दें ॥ १६ ॥

एत ाख ित ्र ास ित ान ्प श् य वर ्ह िण : प् रि यद शन ान ्‌ |
एतमाविशतः शीघ्रमधिवास पतत्रिण: ॥ १७ ॥|
यह देखा, छुन्द्र और बड ़े पर वा ले मे ।र डर के मा रे दो ड़ क र
इस पर्वत पर अपने निज स्थानों में कैसे जा रहे हैं ॥ १७ ||
अतिमात्रमयं देशा मनाह्ः प्रतिभाति मा |
७ ०
तापसानां निवासेजय॑ व्यक्त स्वगंष्था) यथा ॥१४॥
है रे &

है ग्रनध ! ठपस्धियों केरहने का यह उर्ग जेंसा स्थान, मुम्रे


बड़ा मनाहर जान पड़ता है ॥ १८॥
मगा मंगीमि! सद्दिता वहदे। पृषता बने |
मनाज्ञरूपा छक्ष्यन्ते कृछुमरिव्र चित्रिताः ॥ १९ ॥|
वहुत से चित्तीदार नरहिरन अपनो मादाओं के साथ घूमते
इुए कैसे सुन्दर मालूम पहुते हैं,मानें फूलों सेइनकी चित्र विचित्र
रचना की गयी है॥ १६ ॥
३ छन्पततः--पम्यगाच्छतः ! (गो०) २ पत्म्रिणः अश्वस्तपक्षानितिव्दिंवि
प्लेष्णं । (यो? ) ३ खर्गपधायथा--सगमदेश इव | ( गे? ) ४ बुषताः--
बिन्दुछ॒गाः । ( यो ) -
बिनवतितमः सर्गः ११३

'साधुसेन्या! परतिपृन्तां) विचित्वन्तु च कानने |


यथा ते पुरुषव्याप्रों दृश्येते रामलक्ष्मणो ॥ २० ॥
येग्य सैनिक वन में जा कर पता लगावें जिससे ये दोनों
पुरुपसिह श्रीराम लक्ष्मण जिस जगह रहते हों वह स्थान मित्र
ज्ञाय ॥ २०॥
भरतरय व; भ्रुल्रा पुरुषा; गल्नपाणय; |
विविशुस्तद्वनं भूरा धूमाग्रंर दरशुस्ततः ॥ २१॥
भरत जी का ऐसा वचन सुन, अ्रपने अपने शज्न्रों को हाथ में
लिए हुए वीरों ने वन मेंप्रवेश किया भर कुछ ही दूर जा कर एक
स्थान पर उन्होंने धुझआ निकलता हुआ देखा ॥ २१ ॥
तेसमालेक्य धृमाग्रमूचुभरतमागताः ।
नामजुष्ये भवत्यप्िव्यक्तमत्रेव रापवों ॥ २२॥॥
उस धुएंको देख उन लोगों ने लोड कर भरत जी सेकद्दा, इस
स्थान मेंमनुष्य को जोड़ भ्रम्मि कैन जला सकता है। श्रतः ज्ञान
पड़ता है,वे दोनों भाई यहों रहते हैं ॥२२ ॥
अय नात्र नरव्याप्रों राजपुत्रों परन्तपो ।
अन्ये# रापेपमा; सन्ति व्यक्तमत्र तपस्विन। ॥ २३ ॥
यदि शब्र॒द्मनकारी पुरुषसिह धीरामचन्ध तथा वलवान्‌ लह्मण
न भी हो, तो श्रीराम के समान कोई अन्य तपल्ली यहाँ रहते हैं
[भ्र्धात्‌ यदि भीराम न भी हैं।ते वहां चलने से श्रोराम के रहने
के स्थान का पता ते भ्रवृश्य ही चल ज्ञायगा )॥ २३ ॥
१ साधुतैन्याः---उचिता; सैनिका:] (गो०) २ प्रतिएमता--गच्ठग्विल्थः ॥
५ ० ) से धूमामं- धूर्माश्िखां। (गो० ) » पाठान्तरे-- सम्पे !!
वा० रा०--४८
ध्रेठ अयाष्याक्ायदे

तच्छुला भरतस्तेषां वचन साधुसम्मतम्‌ |


संन्यानुवाच सवोस्तानाम्रिव्रवदमदन;।॥ २४ ॥
शब्रथों के चल के मधव ऋरने वाले सरत जो, उब सैनिकों
का यह शिष्ठसम्मठ वचन सुन, उन सं से ऊहने लगे ॥ २७8 ॥
यत्ता! भवन्तस्तिष्ठन्तु नेतों गन्तव्यमग्रतः।
अहमेव गरमिष्याम्रि सुमन्त्रों गुब्रेव च॥ २५॥।
अच्छा ग्रद भ्राप लाग चुपचाप यहीं ठहरे रहिये। यहाँ से आगे
न जाइये। छुमंत्र औरगुठ वशिष्ठ जी के साथ छे, मेंहो आगे
ज्ञाऊँगा ॥ २५ ॥
एवमुक्तास्ततः सर्वे तत्र तस्थुः समन्ततः |
भरते यत्र धृमाय्र तत्र रष्टि समादपेक || २६ |
ज्ञव भरत जी ने उनसे इस प्रकार कहा, तव वे सव उसी स्थाव
पर इधर उबर ठहर गये । सरत जो ने उठ और देखा जिस ओर
घुओ्मों उठता दिखलाई पड़ता था ॥ २६ ॥
व्यवस्थिता या भरतेन सा चमः
निरीक्षणाणारपि च॒ धूमम्ग्रतः ।
वभव हुष्टा नचिरेण जानती ।
प्रयत्य रामस्य सप्रागम तदा || २७ )।
इांत जिनदादतत: सगे |
उस समय भरत जो ऊं कहने से दे लव सैनिक वहीं टिक रहे
और उस घधुएँ के उठते देख, दे ज्ञान गये कि, झत्र परम प्रीति
१ यत्ता:--सिफऋारदा:। (गो०) के पाठप्तरे--समादवी) 3 “घमादबात ६
चतुर्नेवतितमः सर्गः ६१४
भाजन भीरामचद्ध जी के साथ समागम दोने में बहुत विज्लग्ब
नहीं है। यह विचार कर, वेदर्यित हो गये ॥ २७ ॥
प्रयेध्याकागढ़ का तिरानब्रेवी स्य सप्राप्त हुभा ।
रा

चतुनंवतितमः सगेः
“३0६००

दीष॑कालेपितस्तरिमिनिरों गिरिवनप्रियः |
वेदेशा! भियमाकाइश्षन्खं च चित्त विलोभयन्‌ ॥१॥
अथ दाशरथिशित्रं चित्रकूटमद्शयत्‌ ।
भायाममरसद्भाग! ग्चीमिव पुरूदर। ॥ २॥
उधर भ्रीरामचन्द्र जीको उस पर्वत पर रहते वहुत दिन दी
चुके ये। पे सीता का तथा श्रपना मन वहलाने के लिये, सीता के
चित्रकूट की शोभा दिखला रहे थे |उस सप्रय उन दोनों की वैसी
ही शोभा दे रही थी, जेसी इन्ध भर इच्धाणों की देती है॥ १॥ १॥ .,
न राज्यादभंशन भद्देन सुहृद्गिर्विनाभव! ।
मरने मेंवाधते दृष्ठा समणीयप्रिमं गिरिम | रे ॥
प्रीरामचद्ध जी वेल--हे भद्दे |इस रमशीय पव॑त की शेभा
देखने से, राज्यनाश एवं खुदृदवियोग भन्य दुःख पुझ्के श्रव नहीं
सताता ॥ ३॥
परश्येममचलं भद्ठे नानाद्िजगणायुतम्‌ ।
शिखरे सम्रिवेदिद्धेयांतुमद्विर्तिभूषितम ॥ ४ ॥
8१६ झयेाष्याकायदे
हेभद्दे !नाना प्रकार के पत्तियों से परिपृर्ण, और गगनस्पर्शी
प॒प॑ तरह तरह झ्ली धातुग्रों सेयुक शिखरों ते विभूषित इल परव॑त
की शोभा के देखो ॥ ४ ॥ ह
केचिद्रजतसह्ागा! 'केचित्कतजसब्तिभा: ।
पीतमाझिए्॒वर्णाथ केचिस्मणिवरप्रभा! ॥ ५ ॥ ह
इस पर्वत के कोई केई शएड़ ते चाँदी जैसे सफेद औ्रौर चम-
कीक्षे हैं
और कोई कोई रक्त की तरह लाल वर्ण हैं, कोई कोई
पीले और मजीठ के रंग जैसे देख पड़ते हैं और कोई उत्तम मणियों ,
की प्रभा जैसे प्रभायुक्त देख पढ़ते हैं॥ ५ ॥
पुष्पाक *केतकाभाथ' केचिज्ज्येतीरसप्रभाः |
विराजस्तेश्चलेन्द्रस्य देशा घातुविभूषिता। ॥ ६ ॥
इस पव॑त के धातुओं से विभूषित श्ृड्ठ पुथराग, स्फठिक,
कैतको और पारे के समान रंगवांले और नक्षत्रों क्रो तरह चमकीले
देख पड़ते हैं॥ ६ ॥ गण
नानामगगण*द्वीपितरक्ष्ट*क्षणणैतः।
€अदुष्टेभांत्ययं गैले। वहुपक्षिसमायुतः ॥ ७ ॥
यद्यपि यह पव॑त अनेक प्रकार के दैटे बड़े व्यात्रों और रोदें
से परिपूर्ण है,तथापि तपत्थियों के तपञ्ममाव से इन भयडुर
जन्तुझों ने घ्पना दुए दिसालु-ध्वभाव त्याग दिया है।इस पर्वत
पर तरह तरह के पत्ती अपने अपने घोंसतले वना कर निवास कर
रदेहैं ॥७ ॥
१ क्तब--रुघिर | ( यो० ) २ अक४+--हफरिकः । ( गो० ) ६ केत- ॥
कामा+--ईंपत्माण्डुरा: | (गे०) ४ द्वीपी--मद्ाब्याधः । (गो०) ५ तहक्षु।---
छुड़व्याप्र:। ६ मदुप्छ:--हिंलादिदेपरदितेः | ( गो० )' 5
चतुनंचतितमः सर: 8१७

आम्जम्बवसनेलेधः प्रियाले)! पनसेधन) )


अज्लोलेमव्यतिनिशेर्विस्वतिन्दुकवेणुमिः ॥ ८ ॥
काश्मयरिएवरुगमंधृकेस्तिलकैस्तथा |
वदयामलकेनी पेवेंत्रधनयनवीजकै! ॥ ९ ॥
प्रषवद्धि! फलेपितैरछायावद्धिमनारम! |
एवमादिभिराकीण! श्रिय॑ पुष्यत्ययं गिरि! ॥ १० ॥
न चप ड

श्राप्त, जामुन, श्रसना, लाध, चिरोंजी, ऋटहर, हाक,


अकाल, भत्य, तिप्रिश, विद्त, तिन्दुक (तेंदुओ ) वास, काश्मीरी
नीम, सखुओ, महुझआ, तितक, वैर, आंवला, कदृग्ब, बेत, विजारा,
नोबू श्रादि ले कर श्रार भ्रनेक प्रकार के फूल फल्मों वाले और
भरा पूरा यह पर्चंत शाभाय-
छ्षायायुक्त मनेहहर वृत्तों के समूहों से
मानहै॥८५॥६॥ १०॥ मल
' शैलप्रस्थेषु रम्येपु पह्येमार |
किन्नंरान्इन्दशा भद्देरममाणान्ममखिन! ॥ ११॥
हैभट्दे |इस पर्वत के रमणीय शिखरों पर शरीर पुल्नक्षित
करने वाले ध्यानों के! देखो। यहां मनस्वी क्रिन्षर क्ेग अपनी
अपनी फिन्नरियों' के साथ विहार कर रहेहैं ॥ ११॥
शाखावसक्तान्खड्रांथ प्रव॒राण्यम्वराणि चे |
पृश्य विदयाधरख्रीर्णा क्रीदोदेशान्मनारमान्‌ ॥ १२ ॥
इैखो उन्दींकी ये तलवारें गौर उुन्दर रंग विरंगे पहिनते के
कपड़े वृत्तों की डालियों में लटक रहे हैं। इन विद्याधरों की ज्यों
के मनोदर क्रोड्ठास्थत्षों को देखो ॥ १२ ॥
8१८ श्येध्याकायंड

जलप्रपापैरद्वेदैर्निष्यन्देध कचित्कचित्‌ |
खबद्विभभा त्य यं शै लः सब न् मद इच ठि प| ॥ १३ ॥
स्थान स्थ ान प८ जल के झर ने ओर जम ीन से नि कल े हुए
जल के सेते वह रहे हैं। इनते यह पर्वत मद्‌ चुप्ाने वाले गजेन्र
की तरह शोभायमान दी रहा है ॥ १३॥
गुहासमीरणे गन्धान्नानाएप्पमवास्वहन्‌ ।
प्राणतपंणमश्येत्य क॑ नर न प्रहर्षयेत्‌ ॥ १४ ॥
पर्वत की कररराध्रों सेनिकला हुआ नाना पुष्षों की खुगन्धि
से पुक्त पतन जे नासिक्चा के तृप्त कर रहा है,वह किस के मन के
हर्षित नहीं करेगा ॥ १४ ॥
यदीह शरदे'ब्नेकारतया साधमनिन्दिते ।
लक्ष्मणेन च॒ वृत्स्यामि न मां शोकः प्रधक्ष्यति ॥१५॥
दे भ्रनिन्दिते |यदि तुझार और लक्ष्मण के साथ बहुत वर्षों
तक भी पुझ्के यहां रहना पड़े ते भी हुक्े ज़्स सा सी शोक सन्ताप |
नहीं सतावेगा ॥ १४ ॥
वहुपुष्पफले रम्ये नानादिजगणायुते |
विचित्रशिखरे हस्मिन्रतवानस्मि भामिनि || १६ ॥
हैभद्दे |अनेक प्रकार के पुष्पों ग्रेर फलों सेसम्पन्न, प्रनेक
जञाति के पत्तियों से परिपूर्ण और विचित्र शिखरों से युक्त यह रम-
णीय चित्रकूट मुक्के वड़ा पसब्द है (अर्थात्‌ चित्रकूट में रहने से
कभी मेरा ज्ञी नहीं ऊबैगा )॥ १६ ॥
अनेन वनवासेन मया प्राप्त फलद्वयम ।
पितुआनणता धर्ये भरतरय गिय॑ तथा ॥ १७॥
चतुर्नवतितमः सर्गः 8१६
इस वनवास से पुझ्े दो! फल प्रिक्ते। एक ते था सम्बन्धी
फणन पित्ता के ऋण से उऋण देना और दूसरा फल भरत जो के
प्रसक्ष करना || १७॥
वेदेहि रमसे कचिसित्रकूटे मया सह |
परयन्ती विविधान्भावान्मनावाकायसंयतान ॥ १८ ॥
हेबेदेदी |मेरे साथ इस चित्रकूट पर्वत पर मन, वचन प्रौर
देद का वश मेंकर क्षेने वाले इन विविध साधनों को देख, तेरा
मन प्रसन्न देता हैकि, नहीं ? ॥ १५ ॥
इदमेवापत पराहू राज्षि राजपयः परे |
* वनवास भवायाय प्रेत्य मेप्रपितामह। ॥ १९ ॥
देराक्षि |इस प्रशार नियमपुर्तक वनवाष्त राजाओं के लिये
प्रेत्ञ का साधन कहा जाता है। यही नहीं वर्कि दमारे मन्वादि
पूरवषुरुषों ने देवादि की देह प्राप्ति $ लिये भी, वनवास हो के
उत्कृष्ट साधन माना है॥ १६ ॥
शिल्षा! शैलरय शेभन्ते विशाला! शतशेो5मितः |
बहुला वहुलेवणेनीलपीतंसितारुणैः ||२० ॥|
देखो, इल पर्वत की मैकड़ों विशात्न शिज्नाएँ जे! नीली, पीली,
सफेद आदि विविध रंगों की हैं; चारों श्रोर कैसी शोभा देरही
हैं॥२०॥
निशि भान्यच््ेद्वस्य हुताशनशिखा इव ।
ओपध्यः खप्रभालए्ष्या श्राजमाना। सहस्तश। ॥ २१ ॥
, .! अहतवाहुः--मेक्षपाघन् शराहुः। (रा०) २ प्रेत्मभवार्थाय--देवादि-
देह्ठान्तरपरिमदर्पप्रयेजनाय च भराहु: । (गो ) *
8२० शयेध्याकायदे

रात के समय इस पर ्व त पर उल् यन् न हज़ ारो ं जड ़ी वूट िया ँ, प् मप नी


प्रभा से दी दो, अमभि शि खर की तर ह प् रक ाश कर शे न् ाय मा तर ,
होतीहैं॥ २१॥
केचित्क्षयनिभा देशाः केचिदुद्यानसबन्निभा! ।
भान्ति पर्व॑तस्थास्य भामिनि ॥ २२ ॥
चदेकशिला 5 पु
दे
के

है भामिनी ! देखे इस पर्वत पर केई स्थान तो घर जैसा, कोई '


फुलवाड़ी जेसा ओर कोई स्थान पक् ही शिला का दिखलाई
पड़ता है। ये सभी इस पर्वत की शोभा बढ़ाने वाले हैं ॥ २२ ॥
भिर्वेव वसुधां भाति चित्रकूट! सुमृत्यितः
चित्रकूटस्य कूटोप्सा दृश्यते स्वतः शुभ! ॥ २३ ॥
ऐसा ज्ञान पड़ता हैमानों यह चित्रकूट पर्चत पृथिवी के फोड़
कर निकला हो । इस पर्वत का अशग्नभाग चारों ओर से कैसा छुद्ा-
चना देख पड़ता है ॥ २३ ॥
कुषपु्नागस्थगरभजपत्रोत्तरच्छदान्‌ ।
कामिनां 'खास्तरान्प्यं कुश्नेशयदलायुतान्‌ ॥२४॥
हैभद्रे |कामी लेगों के इन विद्वानों के! ते देखो। इनके
नोचे ता कम्ल्रों के पत्ते विद हैंश्रोर पत्तों केऊपर कूठ, पुत्रजीवक
और भाजपत्र को छात्रें विद्धी हुई दे ॥ २४ ॥
ग्रदिताइचापविद्धाश्व दृश्यन्ते कमछत्तज! |
कामिभिवनिते पश्य फलानि विविधानि च॥ २५ ॥|
३ ह्वाल्तरादु--शवानानोत्यथं: | ( गो
चतु्नेवतितमः सर्गः श्र
यह देखो काम्मी जनों की पहनो हुई कुछलाई श्र त्यागी हुई
कमल के फूलों की मालाएँ इधर उधर पड़ीहैं और उन ज्षोगों के
खाये हुए प्नेक प्रकार के फल पड़ेहैं॥२४ ॥
वस्वाकसारां नलिनीम!त्येतीवात्तरानकुरुन्‌
पवेतश्चित्रकूटोध्सी वहुमूलफलेदकः ॥ २६ ॥
विविध प्रकार के मु, फत श्रौर स्वच्छ जज सम्पन्न चित्रकूट
पर्वत ने,कुवेर की श्लकापुरी, इन्द्र को श्रमरावती और उत्तर
कुरुद्ेश के रमणीयता मेंमात कर दिया है॥ २६ ॥

इम्रंतु काल वनिते विजद्विवां-*


सवया च सीते सह लक्ष्मणेन व ।
'र॒तिं प्रपत्स्पे 'कुलधर्मनधनी”
सता पथि स्वेर्नियमे! परे! स्थित! ॥ २७॥
इति चतुर्नचतितमः स्गः ॥
हैसौते |यदि मेंसज्ञनों के मार्ग पर स्थित दो अपने श्रेष्ठनियमों
का पालन करता हुआ तुम्दारे आर लक््मण जी के साथ, चोदह
वर्ष तक यहाँ रद पाया ते पीछे प्रज्ञापालन झुपी धर्म को बढ़ाने
वाला गज्यदुख मुझे अवश्य भ्राप्त दोगा ॥ २७॥
ग्रयेष्याकायढ का चैरानबवां सर्ग समाप्त हुआ ॥
शा

१ अ्ये्रोव-- रमणी यत य/ भत िक ्र ाम ्त ती द |(ग ो) * वि जद िव ान ू- -व िह त-


चागू ।( गो? ) ३ रतिं--शाज्यतु् । ४ कुछधर्म/--प्रजापाफ्॑ । (भौ« )
पशञ्चननवतितमः सगे; पे

कि

अथ शैलादिनिष्क्म्य मेथिलीं कोसलेश्वरः ।


अदशयच्छुभजर्ां रम्यां मन्दाकिनी नदीम्‌ ॥ १ ॥|
तदनन्तर काशलपति श्रीरामचन्द्र ज्ञो पर्वत की शोभों दिखाने
से निश्रुच है! और पर्वत से निकल निर्मेल जल वाली रमणीय
मन्दाकिनी नदी दिखाने लगे ॥ १ ॥
अब्वीच वरारोहां चारुचन्धनिभाननाम्‌ ।
विदेहराजस्य छुतां रामे राजीवछाचनः ॥ २ ॥
कमलनयन भ्रीरामचन्र चन्बरमा के समान छुन्द्र मुजवाली,
श्तियों मेंभ्रेछ्ठ जनकननया से बाल्ते ॥ २ ॥
विचित्रपुलिनां रम्यां हंससारससेविताम््‌ ।
कमलेरुपसम्पन्नां पश्य मन्दाकिनीं नदीम्‌॥ रे ॥
हेवेदेही |इस विचित्र तद बाती, रमणीय हंस सारसादि
पत्तियों सेसवित मन्दाकिनी नदी के देखो ॥ ३ ॥
नानाविषैस्तीररुदैहतां पृष्पफलदुपः ।
राजन्तीं 'राजराजस्य *नलिनीमिव सवेत! ॥ 9 ॥
इस नदी के उभय तठ फल फूल वाले भ्रनेक जाति के वृक्षों
से परिपूर्ण हैं। उनसे इस नदी की शोमा वैसी दो द्वो रही हैजैसी
कि कुपेर की सोगन्धिका नास्ती नदी की | ४ ॥
) राजराजहथ--हुवेरत्य । (यो०) ३ नलिनों--पौगन्धिक सरसों । (गो०)
पश्चनवतितम्ः से: ६२३

मृगयूथनिपीतानि कलुपाम्भांसि साम्पतम |


तीथानि रमणीयानि रतिं! संजनयन्ति मे ॥ ५॥
९ |

इस नदी के मव घाट बड़ें रमगीय हैं। प्रतः वहाँ जा कर रनान


करने की मेरी इच्छा दो रदो है। अभी स्गों के झुयह इन घांठों
पर अक्ष पी कर गये हैं। झतः वां का जज गँदला दी रहा है॥॥
जदाजिनधरा: काले! वत्कलत्तरवाससः |
ऋषयरतववगाहन्तेः नदी मन्दाकिनीं प्रिये ॥ ६॥
देप्रिये |देखो, ज्ट भार मुगचर्म घारण किये भोर धृत्तों की
छाल पहिने हुए ऋषि क्षेग इस नदी में यथासमय रनान करते ,
हैं॥ ६ ॥ ५
आदित्पप्ुपत्िपतन्ते नियमाद्ष्यबाहव; ।
एते परे विशालाक्षि मुनय! संशिततव॒ताः' ॥ ७ ॥
है विशाज्लाज्षि !इस औ्रेर येसव तीकज्णा नियमों का पालन
करने वाल्ते मुनिगण नियमानुसार ऊपर के वाँद कर, घुर्य भगवान
का उपस्यान कर रहे हैं ॥७ ॥
'मासतेद्धतशिसरे! प्रदत्त इच पवेतः ।
पादप: पत्रपुष्पारि सुजदूमिरभिते नदीमू ॥ < ॥-
दिलने से यह पर्वत नाचता
देखो पवन से कम्पित इन वृत्तों के
हुआ सा मालूम पहता हैघोर पत्तों केदिलने से उनके जोपुष्प
गिरते हैंसे चिश्रकूट पर्चत मानों नदी के पृष्पाशलि देरहा है|
| रत्तिः--अवगाददबिपयां प्रीति । ( गो० ) ३ काछे--हमेनियसे-
चित काले | ( गो० ) ३ भवगादस्ते--मजन्ति | (गो०) ४ वंशितब्रताः--
तीक्षणनियमाः ! (गो०) ५ मारतेदत शिखरैः-- वायुकम्प ितशालः | (गो९।
शश्४ अयाध्याकायहे. -

क्चिन्मणिनिकाशेदां कचित्युलिनशालिनीम |
कचित्सिदजनाकीणा' पश्य मन्दाकिनीं नदीम ॥ ९ ॥
हैभद्दे ! देखो, कहीं ते मंदाकिनी का जल मणि की तरह
उकतवल है,कहीं कद्दों रेत शोमा दे रहा है, और कहां कहीं सिद्ध
लेगों की भीड़ लगी है॥ ६ ॥|
निधूतान्वायुना पर्य विततान्पुप्पसअ्चयान्‌ ।
पाप्लूयमानानपरान्पर॒य त्व॑ जलमध्यगान्‌ || १० ॥
देभद्ठे ! दायु के कोकों में नदी के तठ पए दिखरे हुए पुर्थों
, के देर का देखों गौर जे! दूसरे फल जल में उड़ कर जा गिरे
दे पानी पर कैसे उतरा रदे हैं, उन्हें भी तुम देखो॥ २० ॥
'तांश्चातिवरगवचसेा' रथाड्राहयना ठिजा।
अधिरोहन्ति कल्याणि विकूजन्तः शुभा मिरः ॥ ११ ॥
हे कप्मराणों |फूलों के ढेरों पर चढ़े हुए चक्रवाक रति के लिये
अपनी माशा्रों के बुज्ञाने केलियेकैसी मधुर वाली बाल रहे
हैं॥ ११॥
दशन चित्रकूटस्य मन्दाकिन्याइच शामने ।
अधिक॑ पुरवासाद्य मन्‍्ये तव च दशनात्‌ ॥ १२ ॥
हे शोभने ! इस चित्रकूठ प्रेत और मंदाकिनी नदी के देखने
से और तुर्दारे साथ रहने से मुझे अयाध्यापुरी मेंरहने से भी वढ़
कर, यहाँ छुख ज्ञान पड़ता है॥ १२॥ ५
ं । ( ग्ो० ) २ वह्युवचस३--रव्यर्थाह्वावकाकिक-
३ तान-पुष्पसबयान
. रसन्यवचध्: |! गा० )
पश्चनवतितमः सर्गः ९५४
विधूतकलुपः सिद्धेस्तपादमशमान्वितैः |
'नित्यविक्षोभितनल्ां विगादस्प गया सह ॥ १३१ ॥
: हे सीते | भ्रव तुम्र इस मन्दाकिनी नदी में, मिसमें शप्त, दम
शोर तप से युक्त एव' पापरहित सिद्धल्लेग नित्य स्वान किया
करते दें,चल्न कर प्रेरे साथ स्नान करो ॥ १३ ॥
सखीवच विगाइख सीते मन्दाफिनीं नदीर |
*कमलान्यवमज्जन्ती पुष्कराणि* च भामिनि ॥१७॥
देसीते ! तुम जैसे ध्रपनी सख्ियों के साथ निःशहु जलकीड़ा
करती थीं, बेसे हो मेरे साथ भी इस मंदाकिनी मेंज्ञाल सफेद कमल
के फु्कों के डुवाती हुईजलकोड़ा फरो | १४ ॥
[ नोद --छाछ सफेद कमछ ऊ फूछों सेभूषणटीकाकार ने यद्ष जमि-
प्राय बतझाया है--
सनमघनाधातजनित तरीरितिभावः
दिन्तु शिरामणिटोकातर का कयन दे कि, कोड़ा के किये छाक सफ़ेद
रंए $ कमछों से संदाफिनों के ज्क के ढ5 दी। ) *

त्व॑ पैरमनवद"दयाढानयेध्यामिव पर्वतम्‌ |


प्रन्यख वनिते नित्यं सरयूवदिमां नदीस्‌ ॥ १५॥
! नित्यविक्षोमितमछा--सदातवस्नानेनतलादरेणुधन्यमिन्दाकियीं । (गो०)'
हर ३$ घल्तीवच-- सल्यायथास किदमवगाइस े तथा मया सह विगादस्व
कम्रढानि--रफाव्जानि । [मोण०्) ४ पुष्कराणि--पितास्मे।ज्ञानि | (गोब्)
। (गोब

५ व्याकानू--वतचरान्‌ । ( श्ि० )

६२६ अयाध्याकायडे

है ग्रिये !तुम यहाँ के वनवासियों के भ्रयेध्यायासियों की तरह,


इस पव॑त को अयेष्या को तरद् शोर मंदाकिनों के सरयू की तरद
समझा ॥ १५॥ ग पत्िदेशे
लक्ष्मणश्चापि धमात्मा मन्निदेश व्यवस्थित) ।
त्व॑ चानुकूला वेदेहि भ्रीति जनयता मम ॥ १६ ॥
वे चैदेही |यह धर्मात्मा लक्ष्मण मेरे आज्ञाकारी हैंऔर तुम
भी सदा मेरी आजा के ग्रनुसार काम क्रिया करतो दहो। इससे
मुझे बड़ी प्रसन्नता दाती है ॥ १६ ॥
_*उपस्पृशल्विषवर्ण मधुमूठफलाशनः |
नायोध्याये न राज्याय स्पृहयेज्य या सह ॥१७॥
निकाल स्नान, प्रौरतुम्हारे साथ मधु घूल और फ़ल्नका
साजन करता हुआ, में, थयेध्या के दास की और राज्य की
आर्कात्ञा नहीं ऋरता ॥ २७ ॥ -
इम्मां हि रम्यां मृगयुथशालिनीं
निपीततेयां गजसिहवानरे ।
सुपुष्पिते! पुष्पधररलंकृतां .
न साअस्ति यः स्यादगतकृमः सुखी ॥१८॥
जे गजों के यूथों सेयुक हैऔर जिसका जज हाथो, सिंद
ओर वन्दर पिया करते हैं, उसरमणीय ५वं सुन्दर पुष्पों से यु
'चुज्नों द्वारा शोमित मंदाकिनी नदी का सेचन कर, वह कील पुरुष
हे जे दुःलों से छूट, सुखी न हो || १८ ॥
१ इपह्यूश्न-ह्नानं कुबंत_। ( यो० ) ३ व्िपवर्ण--व्रिसस्थ्यों ।
(योष्)
पयशवतितमः सगे ९६२३

।इतीव रामे वहुसंग्त' वच।


प्रियासहायः सरितं प्रति झुबन्‌ |
चचार रम्यं *नयनाझनप्रभ॑
स चित्रकूट रघुवंशवधन! ॥ १९ ॥
हि
श्ति पश्चनवतितमः सर्गः ॥|
रघुदंशवर्धन धरीरामचद्ध ने सीता ज्ञो से मंदाकिनी नदी के
सम्बन्ध में इस प्रझार की वहुत सो उत्तम बातें कहीं । तद्सन्तर
उस रमणीय ओर नील वर्ण चित्रकूट पर्वत पर सीता के साथ
लिये हुए विचरने लगे ॥ १६ ||
श्रयोध्याकाण्ड का पश्चानवैवरों सर्य सम्राप्त हुप्ना |
“--औ+-+

घपण्णवतितमः सर्गेः
-४ #
तां तथा दरशशयित्वा तु मेयिली गिरिनिम्भगास्‌ |
निपषसाद गिरिप्रस्थे* सीतां मांसिन च्छन्दयन/ ॥१॥
इस प्रकार धोरापचन्द्र जो सोता के मंदाकिती नदी फी शेभा
दिखा कर, पर्वत की पक्र शिला पर वैठ गधे शोर माँस का स्वाद ,
बतल्ा सीता के प्रमन्ष करने लगे ॥ १॥
) इतीव-+एताहश । ( शि० ) २ संगतं--धमीचीन । ( शि० ) ३
तग़नाक्षयप्रभं>>यीजवर्णविशिष्ट । (शि०) ४ णिरिप्र्ये--पर्वतेकक्षिणार्या ।
( ज्लि० ) ५ छदयतू--तथ्रीतिमृत्यादयनू । ( शि० ) ः
ध्श्८ श्रयाध्याकायडे

इद मेध्यमिदं स्वादु निश्प्तमिदमग्रिना ।


एवमास्ते स धर्मात्मा सीतया सह राघव; ॥ २॥
भ्रीयामचद्ध जी ने सीता सेकहा--रेखा, यह माँस पत्रित्न है।
ओर धयप्मि में मूजने से यह स्वादिष्ट हे गया है। इस प्रकार श्रीराम-
चन्द्र ज्ञीसीता धद्दित वां बैठे हुए थे कि ॥ २॥
तथा तत्रासतस्तस्य गरतस्पापयायिन) |
सेन्यरेणुश्व शब्दश् प्रादुरास्तां नम/खूशों ॥ ३ ॥
इतने में उनके पास भाती हुईभरत जो को सेना के चंत्नने से
'डड़ी हुईधूल भौर सैनिकों का कालाहल आकाश के दूते हुए
प्रकट हुए ॥ 3 ॥
एतस्मिनन्तरे तस्ताः शब्देन महता ततः ।
अर्दिता यूथपा मत्ताः सयूथा दुदुवुर्दिश! ॥ ४ ॥
उस महाकालाहल से तष्त दे बड़े बड़े यूथपति गजेस विकल
ही श्रथने अपने यूथोंके ले इधर उघर भागने लगे | ४॥
स त॑ सेन्यसमुद्भूत॑ शब्दं शुआ्ाव राघव! ।
तार विपदुतान्सवान्यूथपानन्ववैक्षत ॥ ५॥
भोरामचन्द्र ज्ञी नेउस सेना के कालाहल के सुना प्रोर
हाथियों का भागते हुए देखा ॥ ५ ॥ '
. वांद्च विद्रवते। हटा त॑ च श्रुत्वा च निःखनम ।
डबाच राप्ः सोपित्रि लक्ष्मण दीघ्षेजसम्‌ ॥ ६ ॥
उन हाथियों के भागते देख भर सेना का केोलाइल छुन,
भोरामचद जो ने तेजस्वी लक््मण ज्ञी सेकहा ॥. ॥ै॥
पगणवर्तितमः सर्मः ६२६

हन्त लक्ष्मण पश्येह सुमित्रा सुप्रजास्तवया ।


भीमस्तनितगम्भीरस्तुमुल/ श्रयते खनः ॥ ७॥
देलक्मण | तुमसे पुत्र कोपाकर खुमिन्ना देंवी सुपुन्नवतो
है। देखो ता यह भयडुर वादल की गदगड़ाहट जैसा गंभीर तुमुल
शब्द कहीं छुन पड़ता है॥७॥
गजयूथानि वाररण्ये महिपा वा महावने ।
वित्रासिता मृगा; सिंह) सहसा परदुता दिश! ॥ ८ ॥
जिसकी सुन, सघन वनवासी द्वाथियों के कुण्ड, जंगली भेंसे
और मगों के कुयह सि्दों सद्ित भयभीत दे वड़ी तेज़ी से इधर
उधर भाग रहेंहं॥ ५॥
राजा वा राजमात्रों' वा मृगयामटते बने |
अन्यद्वा श्वापद किखित्सोमित्रे ज्ञातुमइपि ॥ ९॥
« कह
मित्र ९

क्या काई राज्ञा या राज़ा के समान कोई पुरुष वचन में शिकार
छेलने भ्राया है ? अथवा काई मद्दाभयडुर और घातक जन्तु इस
बन मेंआ गया हे? है लक््मण | ज़रा इस वात का पता तो
लगाओ॥ ६ ॥
सुदुश्चरो गिरिश्चायं पक्षिणामपरि लक्ष्मण |
सर्वमेतद्यथातत्त्मचिराज्जञातुमईंसि ॥ १० ॥
मचिराज्जातुमई

देलइ्मण | इस पर्वत पर श्रव पत्ती भी ते भक्ती भाँति नहीं


घूम सकते | ग्रतएव तुम शीघ्र इस वात का डीक ठीक पता
लगाशे ॥ १० ॥
१ राजसान्र+--राज्यतुल्य । ( गो० )
चा० २०-५६
8३० शयेाध्याकायदे

स लक्ष्मण: सन्तरितः सालमार्य पुष्पितम ।


प्रेक्षमाणा दिद्वः सवा; पूरा दिश्मुदेक्षत ॥ ११ ॥
श्ीरामचन्ध जो का ऐसा वचन छुन, लच्ठमण न्री तुस्त एक
फूले हुए साल बृत्त पर चढ़ गये थार चारों ओर देखत हुए उन्होंने
हल

पूर्चदिशा की और देखा ॥ ११ ॥
' तदडमुखः प्रेक्षणाणा ददश महती चमृमर |
रथाश्वगजसम्घाधां यत्तेयुक्तां! पदातिमिः ॥ १२॥
फिर उत्तर दिशा की और देखने पर उन्हें उस और एक बड़ी
सेना, जिसमें हाथो घोड़ों, रथों और सजे सज्ञाये पेद्ल घिपाडियों
कही भीड़ देख पड़ी ॥ १२॥

तामश्वगजसम्पूणा रथध्वजविभूषितास्‌ ।
शशंस सेनां रामाय वचन चेदमब्रवीत्‌ ॥ १३॥
द्ाथो घोड़ों से युक्त, स्य की पताकाओं से भूपित, डस सेवा
का तृत्तान्त निवेश्त करते हुए लक्ष्मण ज्ञो नेश्रीरामचद्ध जी से
कहा ॥ १३ ॥
अग्नि संगमयत्वाये: सीता च भजतां गुहाम्‌ |
सज्य कुरुष्प चाप॑ च शरांइच कवच तथा ॥ १४ ॥
थ्राप भ्रश्नि दुक्ता दोजिये, सोता जी से ऋदिये कि वे गुफा के
भीतर जा बैठे ।ग्राप ऋषच पदिन लीजिये और घठुप तथा वाणों
के उन्हालिये ॥ २४ ॥
१ यत्ते:--सबदोः। ( गो० )
पयणवतितमः सर्गः ६३१
ते राम) पुरुषव्याप्रों लक्ष्मणं प्रत्युवाच ह।
अज्ञावेक्षख सामित्रे कस्पेमां मन्‍्यसे चमूम्‌ ॥ १५॥
यह छुन पुरुप्सिह श्रीराभ्चद्ध ज्ञी ने लक्मण जी से का
हैदत्स सोमित्न | ध्यज्ञ चिन्दी के देख यह तो निश्चय करो कि, यह
सेना हैफिसभी ॥ १४ ॥
एवमुक्तस्तु रामेण लक्ष्मण वाक्यमत्रवीत्‌ |
दिधक्षन्रिव तां सेनां रुपितः पावको यथा ॥ १६ ॥
भीरामचन्द ज्ञी के ऐसे वचन सुन, लक्ष्मण जी क्रोध के मारे
प्रश्न के समान दो, उस सेना के मानों भस्म फर डालने के किये
यह बाक्षे ॥ ९६ ॥
सम्पन्न राज्यमिच्छ॑स्तु व्यक्त प्राप्याभिषेचनम |
आां हन्तुंसमभ्येति कैकेय्या भरतः सुत! ॥१७॥
साफ देख पड़ता हैकि, फैफेयो का पुत्र भरत, राज्यामिपेक पा
कर भो प्रकश्टक राज्य करने दी फामना से, दम दोनों का वध
करने # लिये आता हैं ॥ १७ ॥
एप वेसुमहास्श्रीमान्विटपी सम्मकाशते |
विराजत्युद्गतस्कन्धः केविदारध्वजो रये ॥ १८ ॥
देखिये, चद जे। वड़ा और शोमायमान वृत्त देख पड़ता है,
उसके पास जे। रथ दे,उस पर उजली शाखायुक्त फचनार बृत्त के
शाकार की ध्वज्ञा फदरा रही है ॥ १८॥
! भजन्त्येते ययाकाममश्वानास्ख शीघ्रगान्‌ ।
एते अ्राजन्ति संहष्टा गजानारुश सादिन!* ॥ १९ ॥
३ प्क्
“य सजन्तति इस
ि--इस देश पराप्य
म देश ुदत्ती ।
म्राप्लुबल्ती (मो)२२साविन/--यजरिह्ा: | (गो),
।(यो?)
“६३२ अयेाष्याकायदे
छ तेज चलने वाले घोड़ों परचढ़े डुए सवार इधर ही श्र
इ हैं और द्वाथियों के सवार मो हाथियों पर हर्विन दे बैठे हुए
हैं॥ १६ ॥ ॥॒
ग्रहीतथनुषा चावां गिरि वीर अ्यावद ।
अथ वेहव तिष्ठावः सन्नद्धावद्यतायुधों ||२० ॥
श्रव हेवीर ! हम दोनीं घनुप बाण के इस पर्चत पर चढ़ चले
अथवा दोनों जन, कवच पहिन और हृथियार जे यहीं खड़े
॥२०॥
रहें
अपि नो वशमागच्छेत्केविदारण्वजा रणे |
अपि द्रक्ष्यामि भरत यत्कृते व्यसन महत्‌ || २१ ॥
केाविदार ध्वत्रा वाले उन भरत का निश्चय दी दम लोग युद्
में अ्रपने वश में कर लेंगे जिसके कारण यह निर्षात पड़ी दे,आज
हम डसे समझ लेंगे ॥ २२ ॥
लया राधव सम्पराप्तं सीतया च मया तथा।
यत्रिमित्त भवान्राज्याच्च्युतो राघव शाश्वतात्‌ ॥२५॥
हेरघुनन्दन ! जिसके किये ठुम्हें, छुके और सीता के इस
दुर्दशा मेंपड़ना पड़ा है और जिसके कारण तुम सनातन राज्य
से च्यूत किये गये दी ॥ २२ ॥
सम्पाप्तीष्यमरिवीर भरते वध्य एवं में ।
भरतस्य वधे दाष॑ न हि पश्यामि राघव ॥ २३॥
वही मरत शन्नमाव से आया है | श्रतः वह मार डालने योग्य
है। दे राघव | भरत के मार डालने में मुक्ते कुछ भी पाप नहीं
ज्ञान पड़ता ॥ ३ ॥ |
परुणवतितम्ः सर्गः ६३३
पूवरापकारिणां 'ल्यागे न हथमें विधीयते |
पूर्वापकारी भरतसर्त्यक्तथर्मश्न राघव ॥ २४ ॥

क्योंकि पूर्वअपकारी का मार डालने में कुछ भो पाप नहीं


लगता |है राघव ! यह भरत पूर्चमें प्रपकार कर चुका हैभ्रतः
इसके मार डालने ही मेंपुएय दे ॥ २७॥
एतस्सिनिहते कृत्स्नामनुशाधि वसुन्धराम ।
अच्य पुत्र हृद॑ संख्ये* केकेयी राज्यकामुका ॥ २५ ॥
इसकी मार कर श्राप सम्पूर्ण पृथिवी का राज्य भाग कीजिये |
' थ्राज्ञ वह क्ैकेयी जे। राज्य पाने की कामना किये हुए है,धपने पुत्र
का युद्ध मेंमरा हुआ देखेगी ॥ २४ ॥ .
प्रया पश्येत्सुदु!खाता हस्तिभप्रमिव दुमम्‌ ।
कैफेयी च वधिष्यामि सानुवन्धां* सवान्धवाम ॥२३॥
हाथी के तोड़े हुए चृत्त कीतरह, मेरे हाथ से भरत की मरा
हुणा देख, फेफैयों अत्यन्त दुःखित द्वोगी | मेंइस कैकेयी का भी
उसके भाईवन्दों और मंथरादि सदित मार डालूँगा॥ २६
कलुपेणाद महता मेदिनी परिमुच्यताम्‌ |
अद्येम॑ संयत* क्रोधमसत्कारं। च मानद | २७॥
जिससे कि यह पुथिवी उस फैकेयी रुपी मद्दापाप से छुठकारा
पा ज्ञाय | हेमान के देने वात्ले |आज वहुत दिनों के रोके हुए
क्रोध के और कफैकैयी के किये दुए तिररुकर के ॥ २७-॥
! ह्ागे--वधे । ( गो” ) २ पंस्ये--युदद । (गो० । ३ धाहुकधां--
मंपराधबुबंधप्तद्विता | ( गोण ) ४ संयतत --स्त म्मित ं । ( गो० )
५ अप्तत्काई --तिरष्कारं | (गो० )
९३४ अयेध्याकायडे

' प्रेक्ष्याप्रि अत्रुसेन्येपु 'कक्षेष्विव हुताशनम ।


अद्यतब्ित्रकूटर्य कानन निशिते) शरः ॥ २८ ॥
शत्रु की सेना के ऊपर वेसे दी छोड गा जैसे छल्ले तृर्णों के ढेर
बा ०

पर थाम छेड़ी जाती है । श्राज्ञ हो मेंचित्रकूट के वन के श्रपने


तीछे वाणों से ॥ र८
भिन्दज्यन्रुशरीराणि करिष्ये शेणितेक्षितम्‌ |
शरनिर्भिननहदयान्कुज्नरांस्तुरगांस्तथा |
रवापद: परिकन्तु नरांश निहतान्मया ॥ २९ ॥
शन्ओं के शरोरों के काट काठ कर उनके शरीर से निकले हुए
रछ से सोचू गा। वाणों से चीरे हुए हृदय धाके द्वाथी धोड़ों का
तथा प्रेरे मारे हुए मनुष्यों के जंगलतो जानवर घसीदेंगे ॥ २६ ॥
शराणों पनुषधाहमदणा$स्मि महामृधे ।
ससन्य भरतं इत्वा भविष्यामि न संशय ॥ ३० ॥
इति परणचतितमः सर्गः ॥
आज्ञ में इस महासंग्राम में सेना सहित भ्वरत का वध कर
धपने घलुप और वाणों केऋण से उच्चण हो ज्ञाऊँगा--इस
में
सन्दंह नहां हैं|| ३० ॥
अवोष्याकाणड का द्विवानवेवाँ सर्ग पुरा हुआ |
जा४#--

) उक्षेद्‌ -शप्ब्युक्मेदु , (बो० )


सप्तनवतितमः सर्गः
>> १60 ००७०

सुसंरब्ध तु सोमित्रि लक्ष्मणं ्रोधमूर्छितम ।


रामस्तु परिसान्त्याय वचन चेदमत्रवीत्‌ | १ ॥
इस प्रकार फुपित भोर लड़ने के ज्िये उच्चत लच्मण को देख,
उन्हें शान्त करने के क्षिये भीरापचन्द्र जीकहने लगे ॥ १॥
क्रिमत्र पनुपा कार्यमसिना वा सचर्मणा |
मह्ेप्वासे महाप्राज़्े भरते खयमागते ॥ २ ॥
हैकक्मण ! वड़ा धतुष धारण करने वाले और बड़े पणिडत
भरत जी जव खबं श्राये है, तव उनके सामने तुम्हारे घठुष ओर
ढाल तलवार की ज़रूरत ही फ्या है (अर्थात्‌ उनसे तुम जीत नहीं
सकते )॥ २॥
पितुः सत्य प्रतिश्रुत्य हत्वा भरतमागतम्‌ ।
कि करिष्यामि राज्येन सापवादेन लक्ष्मण ॥ ३ ॥
मेंपिता को उस सत्यवाणी के मान कर भी यदि भरत जी का
वध कर मेंराज्य प्राप्त करूं भी ते पेसे अ्पवाद युक शज्य को के
मेंकरूँगा ही क्या ? ॥ ३ ॥
यदूद्॒व्यं वान्धवानां वा मित्राणां वा क्षये भवेत्‌ ।
नाई तत्मतिगरहीयां भक्षान्विषक्ृतानिव ॥ 8७॥
जे घन, वन्धु वान्धवों ओर इश प्रित्रों कावध करने से प्राप्त
ही, उस मेंते प्रदण नहीं कर सकता | क्योंकि में तो उसे विष
मिल्ले हुए भाजन की तरद त्याज्य समक्तता हैँ ॥ ४॥
8३६ थ्रयेध्याकायडे

धर्ममर्थ च कार्य च पृथिवीं चापि लक्ष्मण ।


इच्छामि भवतामर्थ एतत्रतिब्रणामि ते ॥ ५॥
हे लक्धमण ! मेंतुमसे यह वात दावे के साथ कहता हूँकि, में
ते केबल अपने भाइयों ही के लिये धर्म, अर्थ, काम श्रथवा पृथिवी
का राज्य चाहता हैं ॥ ५ ॥
श्राव॒णां संग्रहाय च सुखार्थ चापि लक्ष्मण |
राज्यमप्यहमिच्छामि सत्येनायुधमालभे || ६ ॥
देलक्ष्मण । में सत्य साथ अपने हथियारों को छू कर तुमसे
कहता हैँकि, में जे राज्य की क्रामना करता से अपने भाईयों के
पान प्रोर खुख के लिये हो करता हूँ॥ $ ॥
नेयं मम मही साम्य दुलभा सागराम्बरा ।
न दीच्छेयमघर्मेण शक्रलमपि लक्ष्मण ॥ ७॥
है सोम्प !समागरा पृथित्री का राज्य हस्तगत करना मेरे लिये
दुलभ नहीं, किन्तु पृथिवी तो हैही क्या, में अधर्मपृर्वक इन्द्रपद
के भी लेना नहीं चाहता ॥ ७ |
यहिना भरत॑ तां च शत्र॒न्नं चापि मानद |
भवेन्मम सु्ख किश्विद्धस्म तत्कुरुतां शिखी ॥ ८ ॥
है मान देने वाले ! तुम्हारे विना, भरत के विना और शज्रप्न
के बिना मुस्ते ज्ञित झिसो वस्तु से लुच मित्नता दो, उसे: प्रम्मिदेव
भस्प कर डाले ॥ 5५॥
मन्येझमागतेण्येध्यां भरते अ्राठवत्सल! |
मर प्राणात्रियतर! कुछपममनुस्मरन्‌ ॥ ९ ॥
सप्तनवतितमः सगे)... ह३७३
श्रुत्या प्रत्राजितं मां हिजदगावस्कलथारिणंम |
जानक्या सहितं वीर लया च पुरुषपश ॥ १० ॥
स्नेहेनाक्रान्तहृदय! शाकेनाकुलितेन्द्रिय/
द्रष्मभ्यागते होप भरते नान्यथाड्गत ॥ ११॥
मुझे तायह ज्ञान पड़ता हैकि, मेरा प्राणप्रिय
और प्रात,
चत्सल भाई जब ननिद्दाल से धयाष्या में थ्राया ओर हम तौनों का
ज्ञटा चहकल घारण कर चन में आना छुना, तब रमेह से पृर्ण
हंदय और शोक से विकल दी तथा इस कुलधर्म को (कि बढ़े
का राज्याभिषेक इस कुल मेंसदा से द्वोता थाया है) स्मरण कर,
हम लोगों से मिल्नने भाया है। उसके यहाँ थाने का प्रत्य कई
श्रभिष्राय तो नहींज्ञान पड़ता ॥ ६९॥ १० ॥ ११ ॥
अम्बां च केकयीं रुष्य परुषं चापियं बदन |
' असाथ पितरं भ्रीमान्राज्यं मे दातुमागत। ॥ १२॥
(बहुत सम्मव है कि ) भ्रम्मा कैकेयी केऊपर क्रुद्द हे और
उसके कुल कठोर वचन कह तथा पिता के मना कर, मुझे मनाने
को आया है ॥ १२॥
'प्राप्तकाढं यदेपे5स्मान्भरते द्रष्ट्रमिच्छति |
अस्मासु मनसाथप्येप नाप्रियं किश्विदाचरेद्‌ ॥ १३ ॥
यह उच ित ही हैहि , भर त था कर हमस े मिल ें, पर् तु ऐस ा
कभी नहीं है! सकता कि, हमारे श्रनिए को मन मेंकभी
कदपना भी करे ॥ १३ ॥
॥ शप्कालं--उचितं । ( रा० )
8३८ खयेध्याकायडे

विप्रियं कृतपूर्व तेभरतेन कदा लु किम ।


ईहशं वा भयं तेज्य भरत याज्य शड्ूसे ॥ १४ ॥
क्या भरत ने इससे पूर्वकभी तुम्दारा कुछ भ्रहित किया था
जे तुम उसकी घोर से भय की शट्डा कर रहे है। ॥ १४ ॥
नहिंते निष्ठुरं वाच्ये भरता नाप्रियं बच; ।
अहं हप्रियमुक्तः स्यां भरतस्याप्रिये छृते ॥ १५॥
भरत के विषय में ऐसे कठोर और अ्रप्रिय वचन तुम्हेत
कहने चाहिये। क्योंकि भरत क वारे में जे। कुछ तुम खरो जोदी
वातें कहेंगे याउसका कुछ श्रदित करेंगे ते मानों वह तुम
हुफ्ीसे कठोर वचन कहे और मेरा हो अद्ित किया ॥ १५ ॥
कथं नु पुत्राः पितरं हन्युः कस्यांचिदापदि ।
श्राता वा आातरं हन्यात्सोमित्रे प्राणमात्मन। ॥१५॥
हेलक्ष्मण ! ज़रा सेचे तो। चादें कैसो भारी विपत्ति क्यों
न श्रान पड़े, पिता क्विसो भी दशा मेंअपने पुत्र का या भाई प्राय
के समान प्रपने भाई का बच नहीं कर सकता ॥ २६4 ॥
यदि राज्यस्य हेतारत्वमिगां वाच॑ प्रभाषसे |
वक्ष्यामि भरत॑ दृष्ठा राज्यमस्म प्रदीयताम ॥ १७॥
और यदि तुमने ये सब वातें राज्यप्राप्ति केलिये ही कहीं हों
ते मैंभरत से कह कर राज्य तुमझे दिल्वा दूँगा ॥ १७ ॥
उच्यग्रानाअपि भरतो मया लक्ष्मण तक्तततः |
राज्यमस्प पयच्छेति वाढमित्येव वक्ष्यति | १८ ॥
सप्तनवतितमः सगे 8३६

देलइ्मण !मेंसत्य कहता हूँकि, मेरे यद ऋदते हीकि / राज्य


इसे देदो ” भरत सिवाय “बहुत अच्छा ” कहने के ना तो कभी
कहेगा हो नहीं ॥ १८ ॥
तयेक्तो धर्मशीलेन भ्राता तस्य हिते रतः ।
लक्ष्मण! प्रविवेशेव खानि गात्राणि रज्जया ॥ १९ ॥
जब धर्मात्मा भ्रीरामचद्ध ने ऐसा कहा, तव उनके दिविषी
ज्दमण जी बहुत ललित हुए और सकुड कर पेसे दो गये, मानों
शरीर के शँगों में घुसे जाते है ॥ १६ ॥
तद्वाक्यं लक्ष्मण श्रत्वा त्रीडितः प्रत्यवाच है |
तां मन्ये द्रष्दुमायात) पिता दशरथ; खयम्‌ || २० ॥
घनन्तर ल्च्मण जी ने लज्ञित हे! यद्द उत्तर दिया कि, मुझे
ते यह ज्ञान पड़ता हैकि, महाराज दशरथ खयं हो. तुमको देखने
श्ाये हैं ॥२० ॥
ब्रीढितं लक्ष्मणं दृष्ठा राधवः प्रत्युवाच ह।
एप मन्ये महावाहुरिहस्मान्ष्टुमागत/ ॥ २१ ॥
लदमण के लज्ञित देख (उनकी वात के पुष्ठ करते हुए )
शीरामचन्ध जी ने कद्दा--में भी यही समझता हूँकि, मेरे पिता ही
छुके देखने के यहाँ अयेहैं॥२१ ॥
अथवा नौ भव मन्ये मन्यमानः सुलेचिता |
वनवासमनुध्याय- ग्रहाय पतिनेष्यति | २२ ॥
श्रथवा हम दोनों के खुख मेंरहने योग्य मान, ग्रौर वनवास
के ढुःखों को स्मरण कर, निश्चय द्वीहमें घर लौटा ले जाँयगे ॥२९॥ ,
६8० अवेध्याकायडे

इम्रां वाउप्येष वेदेहीमल्यन्तसुखसेविनीम |


पिता मेंराखवः श्रीमान्चनादादाय यास्वति ॥ २३ ॥
अथवा यह भी दे सकता हैकि, इन सीता का, जा अत्यन्त
छू पा ने के वाग ्य है. मेर े वि ता मह ार ाज दश रथ चन से ला ठा कर
इसे ग्रपने साथ ले जाँच ॥ रहे ॥

एता ते सम्पकाशेत गात्रवस्तों! मनारमा ।


वायुवेगसमो वीर जबनों तुरगात्तमों ॥ २४ ॥
यह देखो श्रेष्ठकुल्न में उप्न्न हुए छुल्दर वायु के समात शीत्र-
गांधी, उनके दोनों शेर उत्तम घोड़े श्रव साफ साफ देख पढ़ते
हैं॥ २४॥ |
से एप सुमहाकाया। कम्पत वाहिइैे स |
मुुसे
नानीम
नागः भन्ृज्ञया नाम हुद्धस्तावस्य पीमत) || २५ ||

दुखी, बुद्धिमान पिता ज्ञी केचढ़ने का चद बड़े डीलडोल


वाला ओर ऊँचा शजुद्धर नामक हायी सी, सेता के श्रासे श्रागे
ऋुमता दशा चलना गाता है ॥ २५ ॥
न तु पश्याम्रि तच्छत्र पाण्डुरं *छाकसत्कृतम्‌ |
पितुर्दिव्यं महावाही संदये भवतीह में ॥ २६ |॥
किन्तु दे महावाही | पिता ज्ञो का लाक्षात्तर, दिव्य पर श्वेत
दछुप्त न देखने से मेरे प्रन में सन्देंद होता है] २६ ॥
१ वोनवन्तो--अशल्तवानाती | यद्ाप्नन्नस्वच्डरखूतौ ! (गो०)हे वृद्ध
इच्चत+ ) € गे? ) ३ छाइवत्कतं--लाचछेत्तरं | (यो)
सप्ततवतितमः सगे; 8४१

इक्षाग्रादवराह त्व॑ कुरु लक्ष्मण मच! ।


इतीवरामे धर्मात्मा सामित्रिं तमुवाच ह || २७॥ “
देलद्मण ! प्रव तुम पेश कहा मान वृक्ष से उत्तर झआशो।
जब धर्मात्ा श्रीरामचन्ध जी ने लद्मण से इस प्रकार कहा ॥ २७ ॥
अवतीय तु साहाग्रात्तस्मात्स समितिज्नयः ।
लक प्राज्नलिय तस्थै 0
गण; ला तस्थे। रामस्य पाश्वत! ॥२८॥
तब युद्ध में ज्ञीतने वाल्ले लक्मण जो उस शाल्न के पेड़ से
उतर हाथ जाड़ कर धीरामचद्र जी के पास था खड़े हुए ॥ २८ ॥
भरतेनापि संदिष्ठा संगदें। न भवेदिति ।
समन्तात्तरय शैलस्य सेना वासमकर्पयत्‌ ! २९ ॥
उधर भरत जो ने सेना वालों के यह श्राज्ञा दी कि यहाँ
श्रीरामाश्रम में किसी प्रकार की गड़बड़ या भीड़भाड़ न होने पावे ।
यह कद्द उन्होंने उस पर्व॑त के चारों झोर सेना ठिका दी ॥ २६ ॥

अध्य्धमिक्ष्वाकुचमूयेजन पर्वतरथ सा ।
पा्श्वें न्यविशदाहल्य गमवाजिरथाकुला ॥ ३० ॥
हाथी घोड़ों से पूर्णबद सेना पहाड़ के चारों ओर छः कोस के.
घेरे मेंठिक रही ॥ ३० ॥
सा चित्रकूटे! भरतेन सेना ५
धंम पुरस्कृत्य विधूय दस |
! विश्नकूढे--चित्रकूंट सभीपे | (गे।* )
ध्हर ग्रयाध्याकाय

प्रसादनाय रघुनन्दनस्य
विराजते नीतिमता प्रणीता! ॥ ३१॥
इठि सप्तनततितमः सगेः ॥
नी ति मा न् ‌ भ र त ने धर ्म म् रा र् ग स े
थ् री रा मच न् र ज ी क ो प् रस न् न कर ने
के लिये अ प न ा अह ड् भा र त् या गा औ र चि त् रक ूट पर ्व त के प ा ल से ना
। कर ठद्दरा दी ॥ ३१॥
अ्येज्याकाएड का सचानवैदों सम समाप्त हुआ |

अष्टनवतितमः सर्गः
_->॥६ 0 38--

निवेश्य सेनां तु विश्वुः पद़चां पादवततां' वर! |


अभिगन्तुं स काकृत्त्थमियेष गुस्वर्तिनय# || १॥
प्राणघारियों में श्रे्ठ और गुर क्री श॒श्रपा करने वाल्ते मरत
जी सेना छे इस भाँति सेदिक्ना कर श्रीरामचन्द्र जी से मिलते
के लिये स्व पेदल दी चत्ते ॥ २ ॥
निविष्ठमात्रे सन्‍्ये तु यथाईशं विनीतवत्‌।
भरते प्रातरं वाक्य भ्रत्रुम्नमिदमब्बीत्‌ ॥ २ ॥
नरत जी हरी आज्ञाजुवारजब सेना ठहर गयी, तब भरत जी नें
शजुब्न से कहा / २॥
१ अगीता--आनीतदा । (ये०)२ पाददतांवर:--चस्याजिवांश्रेष्ठ, । ( रा० )
३ गुल्दतितं--मुदशु ऋ्रपापरत्‌ (र०) # पाठान्तरे---* गुछ्वतंछुछ । ?
न्‍
अपनवतितमः सर्गः ,. 8४३
छिप्रं बनमिद सोम्य नरसह समन्‍्ततः ।
बुग्पेश! सहितिरेमिस्वमन्वेषितुमहंसि ॥ ३ ॥
हैसोम्य |तुम शीघ्र इन सब क्षागों के और इन वहेलियों
के साथ ले इस चन मेंचारों भरे घूम फिर कर धीरामचन्र जी
के भ्राश्रम का पता लगाग्रो ॥ ३॥
गुहो ज्ञातिसहस्तेण शरचापासिधारिणा |
समन्वेपतु काकुत्स्थावस्मिन्परिहत! खयम्‌ ॥ ४ ॥
गुद भी पपने सहल्नों जाति वाले के साथ के भार तीर कप्तान
एवं तलवार धारण कर ( बन के जानवरों से प्रात्मरत्ताथ ) स्वयं
उन दोनों के खोजे ॥ ४ ॥
अमात्ये! सह पारेश गुरुभिश्र द्विजातिमि! ।
वन सब चरिष्यामि पद्भ्यां परिहतः खयम ॥ ५ ॥
मैंस्वयं भी इन मंभरियों, पुरवासियों गुरुओं और ब्राक्षणों के
साथ ले पैदल ही इस सारे चन का मस्काऊँगा ॥ ४ ॥
यावत्र राम॑ द्रए््यामि लक्ष्मणं वा महावल्म्‌ ।
बैदेहीं वा महाभागां न मेंशान्तिमविष्यति ॥ ६ ॥
जब तक मेंश्रोगम्चद्ध ज्ञी के, महावलो लक््मण के और
मद्ामाब्यवती सीता के न देख छूँगा, तव तक मुझे चैन न
पड़ेगा ॥ ६ ॥
यावन्न चन्द्रसड्ावं द्रक्ष्यामि सुभमाननमूकः ।
श्रातु। पश्नपलाशांक्षं न मेंशान्तिभविष्यति ॥ ७ ॥
३ छुग्बैः--व्यावे । (गा" ) ० पाठान्तरे-- यावत्न राम ब्रक्ष्याति
रष्ष्मणं वा मदावकबं ।

६४४ झयेष्याकायदे

जइ तक में चद्धमा के समान और कमत्ननयत बढ़ेमाई


श्रीरामचन्दर के प्रसक्षणुख्ध के दर्शन न कर लू ता, तर तक पु चैन
ते पड़ेगा ॥ 9 ॥
यावत्न चरणों प्रातुः पार्यिवव्यश्ञनालितों |
शिरतसा पघारयिष्यामि न मे गान्तिभदिष्यति | ८ ॥
ही क |#.-3 |चै
क हर

जब तक मेंश्रीरामचद्ध जी के रामचिन्दों सेयुद चरणयुगल


थ्रपने मस्तक पर घायणु न कर लूंगा तव तक मेरा मन शान्त नें
होगा ॥ ८ ॥
यावन्न राज्ये राज्याई! पितपतामद स्थितः |

अभिषेकजलकितो न मे शान्तिभविष्यति ॥ ९ ॥
ब ७ हु _.मिकी य .प ०

जब तक राज्य करने यान्य श्रीयमचद्ध जी डउत्त पितृपितामह


के राज्य पर भभिपेऊ द्वारा शमिपेद्ध छे जल से थ्राद् (भागे )न
होंगे, ठव तक मेरा जी डिक्काने न होगा ॥ ६ ॥
सिद्धायं: खलु सामित्रियेबद्धविमरपप्रम |
पु क >> जज]

मुर्ख पदयदि रामस्य राजीवाश्त महायुति ॥१०॥


घन्य हैलक्षण, जे धीरामचन्ध $ उस हिमेज्ञ चद्धोपम मद्गा-
चुत युक्त एवं कमक्न सइग नेत्र वाले मुत्न के दंखा करते हैं ॥१०!
ऋतकला परहाभागा बैदेही जनकात्मजा ! ह
भवार सागरान्वाया: पृथिव्या याज्जुगच्छति ॥१ श।]

वे महमाम्राम्यवती जानी ज्ञो घन्य हैं, जे ससायरा पृथिददी के


खाती भीरामचल जो की अबुवानिनीहैं॥ ११ ॥
प्रप्नवतितनः सर्गः ६४४

मुभगश्चित्रकूये
धसोंगिरिराजेपमे गिरि! |
यस्मिन्वसति काकुत्त्थः कुबेर इब नन्दने | १२ ॥
दिमाज्षय पर्वत के समाना यह चिंत्रकुट पर्वत भी धन्य है।
फ्योंकि इस पर श्रोरामचन्ध ज्ञी उसी प्रकार वास करते हैं,जिस
प्रकार कुपेर चेधरथ वन में रहते हैं ॥ १२॥
कृतकार्यमिद दुर्गबन व्यालनिपेषितम ।
यदध्यार्ते महातेजा रागः श्धभुतांवरः ॥ १३ ॥
यद्द वन जे सर्पो से सेवित द्वाने केकारण दुर्गम है, छतार्थ
हुआ, जिसमें शस्र चलाने वालों में श्रेष्ठ धोरामचद्र रहते
हैं॥ १३॥
एवमुक्त्वा महातेजा भरतःपुरुषपमः ।
पद्भ्यामेव महावाहु! प्रविवेश महद्वनम ॥ १४ ॥
इस प्रकार कदते कहते, मद्मतेजस्वी पुरुषश्ेष्ठ भरत ने उस
बन मेंपेदत दी प्रवेश किया ॥ १४ ॥
से तानि ट्रमगाहानि जातानि गिरिसालुपु ।
पुणिताग्राणि मध्येन जगाम वदतांवर! ॥ १५॥
बालने वालों मेंध्रे्ठ मद्मत्मा भरत जो पंत के शिखरों पर
कगे हुए फूले फक्षे वृत्तों केसमूहों के वीच में ज्ञा पहुँचे ॥ १५ ॥
स गिरेश्रित्रकूटस्य सालमासाथ पुष्पितम ।
4 ध्ध् ए
रामाभ्मातंस्पामेदंदश ध्वजम्रुच्छितम्‌ )। १६ ॥
ची० रा०--+६०
६४६ अयगाध्याकायद

वहाँ एक सा खू के बूत ्ष $ ऊप र चढ ़ फेर , श्र ीरा मचन ्द् र के


गश्रम में ज्ञती हु ई भ्र म्म ि का बह ुत ऊँ चा उठ ता दु आ घु आा
देखा ॥ १६ ॥
त॑ दृष्ठा भरतः श्रीमान्युमेद# सहवान्धव! ।
अन्र राम इति ज्ञात्ता गतः पारमिवाम्मसः ॥ १७॥।
तब ता भरत ज्ञी अपने वान्धवों सहित दृषित हुए श्र यहीं
भ्रीरामचन्द्र जी रहते हैं--यह निम्वव कर, मानों समुद्र के पार
हु॥ए १७॥
स चित्रकूटे तु गिरा निशम्य
रामाश्रमं पुण्यजनापपत्नम्‌ ।
गुह्देन साथ त्वरितो जगाम
पुनर्निवेश्येव चमूँमहात्मा ॥ १८ ॥
इति अधश्टनवतितमः सर्गः ॥
इस प्रकार उस गिरिराज चित्रकूट पर तपल्ियों से सेवित, थ्री-
रामाप्मम के पा कर, महात्मा भरत जो, गुह के साथ के और सेना
के यथास्थान फिर ठहरा शीत्रता से आश्रम की शोर गये ॥ १८ ॥
अयाध्याकायह का अद्ठानवेवाँ सम॑ समाप्त हुआ ।
--#६--
एकोनशततमः सगगेः
>+१०३--
निविष्ठार्या तु सेनायामुत्सुका भरतस्वदा ।
जगाम भ्रात द्रष्टुं शत्रुप्नमनुदशेयन्‌ ॥ १ ॥
# पाठाल्तरे-- मुमेह ” ।
एकेानशततमभ्ः संग: 8६४७
सेना फे टिक जाने पर, भरत जी उत्सुक हे, शन्रप्न जो के
ओरामचन्द ज्ी के ग्राश्रम के चिन्दादि दिखाते हुए, भाई के दर्शन
की कामना से, चक्षे ॥ १ ॥
ऋषि वसिष्ठं सन्दिश्य मातमें शीप्रमानय |
इति त्वरितमग्रे सजगाम गरुवत्सल) ॥ २॥
भरत ने वरिष्ठ ज्ञी सेकहा कि, आप मेरी मातात्रों का शीघ्र
ले झ्राइये, ( मेंभागे चलता हूँ )यह कद गुरुवत्सल भरत शीघ्रता
से भागे चल्ने )|२॥
सुमन्वरलपि शत्रुध्नमद्रादन्‍्वपथत ।
रामदशनजस्तपो भरतस्येव तस्य च॥ ३ ))
इतने मेंखुमंत्र भीशत्रुघ्न के भरत के पीछे ज्ञाते देख, स्वयं
शन्रुध्न के पीछे दो लिये ) फ्योंकि भरत की तरद सुमंत्र को भी
श्रीरामचन्र ज्ञी के द्शन की उत्क॑ठा है| रही थी ॥ ३ ॥
गच्छन्नेवायथ भरतरतापसालयसंस्थिताम |
श्रातु) पर्णकु्टी श्रीमानुटण॑ च ददश ह॥ ४॥
भरत जो ने ज्ञाते जाते देखा कि, तपत्ियों केआश्रम के बीच
ण ीवनी हुई है॥ ४ ॥
मेंभाई को पर्कुट
शालायास्लग्रतस्तस्या ददर्श भरतस्तदा।
!काष्ठानि चावभग्मानि १पृष्पाण्यपचितानि च्‌ ॥| ५ ॥
३ काष्टानि--सात्रौप्रकाशायज्वडनीयानि । (गो०) २ पुष्पाणि पूजार्थानि ।
( गो० )
६४५ अयेाध्याकायड

भरत जी ने यह भो देखा कि; उस पर्णणाला के सामने ही (रात


मेंप्रकाश करने के लिये ) दरों लकड़ियाँ श्रौर पूजन के लिये फूल
घुन चुन कर रखे हुए हैं ॥ ५ ॥
सलक्ष्मणस्य रामस्य ददशाश्रममीयुषः ।
कृत इक्षेपरभि्ञानं कुशचीरे। कचित्कचित्‌ । ६॥
और थाश्रम की पहिचान के लिये ध्राथमवाप्ती थीयम ल्क्मण
ने कहों कहीं दुत्तों मेंकुकऔर चीर बाँध कर चिन्द्र कर दिये
है॥६॥

ददश च्‌ बने तस्मिन्महतः सथयान्कृतान्‌ ।
3

मगाणां महिषाणां च करीपें! शीतकारणात्‌ ॥ ७ ॥


भरत जो ने देखा कि, शीत से वचने के लिये अथवा तापने
के लिये, मगों और मेंसों केकेगाषर के दूल्े कंडों के ठेर लगे
हं॥७॥ ,
गच्छन्नेव महावाहुधरतिमान्थरतस्तदा ।
शबरुध्न॑ चात्रवीदूएस्तानमाल्ांथ सर्वशः ॥ ८ ॥
मन्ये श्राप्ताः स्् ते देश भरद्वाजा यमत्रवीत्‌ |
नातिदरे हि मन्ये5हं नदीं मन्दाकिनीमितः ॥ ९ ॥
महावाइ घृतिवान्‌भरत जी ने चलते चक्षते प्रसन्न हो अपने
सव मंत्रियों और शत्रुघ्न सेऊद्ा-ज्ञान पड़ता है, हम ताग उस
स्थान पर पहुँच गये जिसे भरद्वाज़ जो ने वृतत्वाया था। मेंसम-
कता हूँकि, यहाँ से मन्दाकिनी नदी कहीं समीप ही हे ॥ ८ ॥ ६ ॥
एकानशततमः सगे 8४६

उद्चैबंद्धानि चीराणि लक्ष्मणेन भवेदयम्‌ |


अभिनानकृतः पन्‍्या 'विकाले गन्तुमिच्छता ॥ १०॥
यहाँ इतनो ऊँचाई पर लक्ष्मग ने चीरों के बाँधा है। यह इस
लिये कि, रातविरात में जग लक्ष्मण के पानी लाने के लिये ज्ञाना
पड़ता दंगा, तब इन चीरचिन्दों के देख, वे झाश्रमत मेंभरा जाते
होंगे ॥ १० ॥
हद चादारद्न्तानां बुझ्नराणां तरस्विनाम' |
शैलपार्श्वे परिक्रास्तमन्येन्यममिग्ताम्‌ ॥ ११ ॥
वेगवान पथ बड़े बढ़े दाँतों वाले हाथी जे बड़ा नादू किया
करतेहैं,पर्वत के पास यह उन्होंके आने ज्ञाने का रास्ता ज्ञान
पढ़ता है॥ ११॥
यमेवाधातुमिच्छन्ति तापसाः सतत बने | ु
तस्यासों हृश्यते धूम! सहूलः कष्णवर्त्मनः ॥ १२॥
तपस्वी लेग सायंप्रातः हम करने के जिये सदा जिस भ्रप्मि
के! स्थापित रखा उसीका
हैं,
करते यह काला काला धुध्नाँ देख
पड़ता है ॥ ११॥
अन्नाहं पुरुषव्याप्र॑ *गुरुसंस्कारकारिणस्‌ |
आय द्रक्ष्यामि संहृष्टो महर्पिमिव राघवम्‌ ॥ १३ ॥
झतः इसी स्थान पर उस पुरुषस िद पव॑ श्रेष्ठ संस्कार करने
वाले श्रीराम को, हर्ष युक्त महर्षि के समान बैठा हुआ में
देखूगा॥ १३॥
“7 २
पद्बिदाले-
म - पाक
भकाले सायक्रा
सायंकाछ छादी
ादौ |
| (( गो०
गो० )
) २
रे तरहिविन ां--वेग वर्ता |
( शो० ! ३ गुदसंस् कारकारि णबु--गु रसंस्थर ः श्रेष्ठ्स् कारः मन्‍्त्रोप देशादिः
तत्कारिणं | ( गो / |
६४० अयाध्याकायदे

अथ गला झुद्दत तु चित्रकूट सरायव |


मन्दाकिनीमलुपाप्तस्तं जन चेदमत्रवीद | १४ ॥
तदनन्तर भरत जो कुछ सम्रय तक आगे चल, मन्दा किनी नदी
के सप्रीप चित्रकूट पर्वत पर जा पहुँच श्रार शन्र॒न्नादि अपने
साथियों से कहने लगे ॥ १४ ॥
इजगत्यां पुरुषव्याप्र आस्ते वीरासने रतः |
जनेन्दी मिर्नन॑ प्राप्य विछमे जन्‍्य सजीवितम्‌ ॥१५॥
देखो वह पुदयतिद ओर नरेन्द्र दे! कर प्रृथिवी पर वीरासन
से बैठेहैंऔर इस निर्मनध्यान में रहते हैं। हा ! मेरे आवन और
जन्म के घिकार है ॥ १६४ ॥
प्रत्कृत व्यप्तन प्रा्ता ठाकनाथा! मदाद।ततः |
स्वान्करामान्परित्यज्य वन दसति राधवः ॥ १६ ॥
हा |भेरे ही पीडे, सर के साप्ती ओर महाचतिमान श्रीरामचन्दर
जी, दाद्ण दुखस्था में पड़ें हैं थोर सद प्रद्धार के सखभागों से
वर्चित दे, वन में वाल करते हैं ॥ १६ ॥
इति छाकसमाक्रढझ; परदेजय प्रसादयन्‌ |
राम्रस्य निपत्तिष्यामि सीतायाथ पुन! पुन।# ॥ १७ ||
इससे मेरी सर में वड़ी बदवामी हुई है (शत: उस वदनामी
को दूर करने के लिए ) मे वार बार शीरामचद्र ऑर सीता के
चरणों पर विर, उनके प्रसन्न करूँगा ॥ 7७ ॥
हि कर

) तेंदब--पद्गागत अव्ुन्लादिकय । (यो०) दे जगस्था--मुल | (गोण्)


पर ० हे ०

9 पाठान्वरें--** बीठाया। लद्मणस्य । ४


एकानशततम सर्गः ६४१

एवं स॒ विरूपंस्तस्मिनने दशरयात्मणः । |


कर
दंदश महती पृण्या परशुशार्तों मनारपाम ॥ १८ ॥ ५
इस प्रकार वन में वि्ञाप करते हुए भरत ज्ञो ने उस विशाल: ,
पविश् एवं मनोहर (उस ) परण्णकुटों के देखा, ॥ १८॥ «७,
साहतालाश्वकर्णानां पर्णवहुमिराहतामू ।
बिशालां मृदुभिरतीर्णा' कुशैबदिमिवाध्वरे ॥ १९ ॥
जे साखू, ताल शरीर अश्वकर्ण नाम के बृत्तों के बहुत से पत्तों
में छायो गयी थी शोर खूब लंबी चोड़ी और कोमल थी, वेखने
पर वह ऐसी जान पढ़ती, मानों यक्षवेदी छुझों से ढकी हुईहै ॥१६॥
शक्रायुधनिकाशेशथ कामुकेभारसाधने:' ।
रुकमपृष्ठेमंहासारं; शेमितां शत्रुवाथके! ॥ २० ॥
उसमें जहां तहाँ, इन्द्र केवच्च केसमान, युद्ध में बड़े बढ़े काम
करने वाके और तुत्र्णरचित पीठ चाक्ते, बड़े भारी भारी तथा
श्र के बाधा देने वाके प्रत्ुप, टेंगे हुए शोभायमान दो रहे
थे ॥ २० ॥
अक रश्मिप्रतीकाश पेरिस्तृणीगतेः शरे |
शामितां दीप्रवदने) सर्पेभेगवर्तीमिव ॥ २१ ॥
उनके पास ही तरकसों में भरे पुर की किरणों के समान
चम्रकोले एवं भयडुर बाण शेभा दे रहे थे । मानों प्रदीक्त मु
सपा से भागवती नासो नगरी छुशोमित हे ॥ २१॥
१ सारक ्ष ाथ नि -- गु द् तर ता
रण धन
का मत
र् येः | ( गो )
६8४२ अयेध्याकायदे

'मद्ारजतवासे म्यामसिभ्यां च विरामिताम्‌ |


रुकाविन्दुविचित्राभ्यां चर्मभ्यां चापि शेमिताम ॥२१॥
वहाँ पर दी तलवारें भी रखी थीं, जिनको सेनने की स्यानें थीं
शोर उनके पाप ही दे ढालें भो रखी थीं, जिन पर सोते के
फूल वन बुए ये ॥ २२ ॥
गाधाटठग लित्ररासक्तेरिचत्रे! क्राश्वनभूषितः
अरिसिह्वरनाश्ृष्यां गृगें! 'सिहगुहामिव ॥ २३ ॥
वहाँ कितने दी गेवा के चाम के और काथनमूपित तरद तरह
के अंगुलिकाग ( दस्ताने )भी शोभित दो रहे थे | जिस पर्णशाला
में इस प्रकार के शल्म रखे ये, वद शत्र॒त्रों द्वारा उस्री प्रकार
श्रभ्रे्य थी. जिस प्रकार मिंद की शुफा, हिरनों के कुय्डों के लिये
श्रभेय दाती है ॥ २३ ॥
प्रागुदक्सवर्णां वेदिं विशार्ं दीक्षपावक्राम ।
दृदश भरतस्तत्र पृण्यां रामचवशन ॥ २७ ॥
तदननतर भरत ज्ञों ने श्रीरामचन्र जो के वासस्यान में
प्रजत्बलित भ्रप्मियुक इशानक्राग में अति विशाल एवं परचित्र वेदों
देखी ॥ २४ ॥
निरीक्ष्य स मुहूर्त तुददश भरतो गुरुम्‌ |
व छः ९ ञ्

डटने राममासीन मठामण्डलथारिणम्र्‌ | २५ ॥


भरत ज्ञी एक मुहृते तक तो परशंशाला की वनावद आर
सज्ञाचठ देखते रदे, तदनन्तर उन्होंने पर्णशाल्ता में वैठे हुए भौर जठा
जूढ धारण किये दृए वड़े भाई श्रीरामचच्ध जी को देखा ॥ २५ ॥
१ मदारजतवातेम्यां -लर्णमयक्ेशाल्यां ।(गो० ) २ सिंदगुद्ममिवयर्ण-
शालाददरशेंट्स्वयः । ( रा० )
एकानशततमः सर्गः 8४३

रततुकृष्णाजिनधरं चीरवस्कलवाससम ।
ददश रामम्रासीनमभितः!! परावकापमम || ॥ २६ ॥
भरत जी ने श्रप्मि की तरद्द ( दुर्दर्श )श्रीरामचन्द्र को ऊपर से
काक्े दिस्न का चांम भोढ़े ओर कमर पर चौर वदकल पहिने हुए,
कुदी के पास ही बैठा देखा ॥ २६ ॥
सिहरकन्ध॑ महावाहु पुण्डरीकनिभेक्षणम्‌ |
पृथिव्या सागरान्ताया भर्तारं धर्मचारिणम्‌ ॥२७॥
उनको भुजञाएँ घुटनों तक लंबी, उनके कंधे सिंद्द के कंधों के
समान ऊँचे श्रोर नेत्र कमल के सम्रान थे । वे ससरागरा प्रथिवों के
स्वामी और धर्मचारी थे ॥ २७॥
उपविष्ट म्रहावाई ब्रह्मागमिव शाइवतम्‌ |
स्थण्डिले दर्भसंरतीं सीतया लक्ष्ममेन च ॥ २८ ॥
उनको भरत ने सीता भौर लक्ष्मण के साथ एक चबूतरे
पर, कुश के श्रासन के ऊपर, शाश्वत ब्रह्म को तरह बैठा हुआा
देखा ॥ १८ ॥
त॑ हृष्टा भरतः श्रीमान्दु!खशेकपरिप्छुतः |
अभ्यधावत धमात्मा भरतः केकयीसुत) ॥ २९ ॥
श्रीरामचन्द्र जी के ( इस प्रकार ) बैठा हुआ देख, फैकेयीनन्दन
घर्माममा भरत, दुःख और मेद से चिकल हे, उनको शोर
दौड़े ॥ २६॥
३ अभित:--सप्तीपे | ( रा० )
६४४ अयेाषध्याकायडे

” हट्टैद विललापातो वाप्पसन्दिग्भया गिरा ।


अशक्लुवन्धारयितुं पेयाद्नचनमत्रवीत्‌ ॥ ३० ॥
भीरामचन्द के देखते हो भरत जी का कशणठ शभ्रति दुशखित
हामे के कार ण गदग द हा गया शोर वे वित् लाप करन े लगे । उस
दुःख के वेग को रोकना यद्यपि उनके लिये कठिन था, तथापि
किसी प्रकार प्रेय धारण कर. वे यह वेले ॥ ३० ॥
यः 'संसदि प्रकृतिभिभवेद्ुक्त' उपासितुस्‌ |
वन्येमगेस्पासीन! साउयमास्ते ममाग्रजः ॥ २१ ॥
हाय | जे राजसभा मेंबैठ मंत्रियों द्वारा उपासना किये जाने
योग्यहैं,वे मेरे वड़े भाई प्ाज्ञ उन्‍्यम्र॒गों द्वारा उपासित द्वो, बेटे
हैं। ध्र्यांत्‌ जा धथोरामचद्ध राजसमा मेंमंत्रियों केबीच बैठने याग्य'
हैं, वेवनजन्तुओ्ं के बीच वेठेहैं ॥३१ ॥
वासाभवेहसाहसंयार महात्मा पुराचत;
मृगाजिन सेध्यमिह प्रवस्ते धमंमाचरन्‌।) ३२ ॥
ज्ञा कितने ही हज़ारों के मूल्य चाले चद्ध धारण करने योग्य है,
वे महात्मा मेरे ज्येठ्ठ श्राता घर्माचरण के लिये द्विरन का चाम थोड़े
हुए ( यहाँ ) बसे हुए हे॥ ३९ ॥
अधारयद्यों विविधाश्रित्राः सुमनसस्तदा !
ला5यं जठाभारमिमं सहते राघव। कथम्‌ ॥ ३३ ॥
१ संसदि--सभायां ) (यो० ) ३ युक्ता--महें। । (गो० ) ३ बहु-
साइेले--वहुसइत्नमुल्य: । ( गोप्)
एकानशततमः समेः ६५४

जा सदा तरद तरद के चित्र विचित्र पुण्यां की मात्ना घारण


करते थे, वही भ्रीरामचद्ध श्राज इस जदाभार के! किस प्रकार
सदन कर रहेहैं ॥ ३३ ॥
यरय यज्गेययेदिष्टेयुक्तो पमरय सश्ययः ।
ब्हे है ।झ

शरीरकेशसंभूत॑ स धरम परिमार्गते ॥ २४ ॥


6. पे रु पु ९ बिक

लिनकेा ऋषि के द्वारा यथात्रिधि किये गये यज्ञों से पुणय-


ससञ्ञय करना उचित था, वे श्रीरामचन्ध अपने हो शंरीर के कष्ट
देंकर पुएयसभझय कर रहें हैं ॥ ३४ ॥
चन्दनेन महाहेंण यस्याज्मुपसेवितम्‌ |
क ० रे े ५
मेन तस्याड्रमिद कथमायस्थ सेव्यते॥ ३५ ॥
जिनके शरीर में मूल्ययान चन्दृत का लेप किया जाता था,
इन मेरे ज्येप्ठ ध्राता का शरीर देखो ते कैसा मेला दे रहा है॥२४॥
मत्रिमित्तमिद दुःख, प्राप्ती राम! सुखाचितः |
धिगजीवितं दृशंसस्य मय छोकविगर्हितम्‌ ॥ ३६ ॥
हा ! मेरे दो पीछे, इन छुल्मों काउपभाग करने वाले ओराम-
चन्र यह कष्ट भाग रहे हैं ।दा ! मुझ तृ्शंस भैर लेकनिन्वित के
इस ज्षीचन के धिक्कार है ॥ ३६ ॥
इत्पेव॑ विलपन्दीन! प्रसखिन्नमुखपह्जः ।
पादावप्ाष्य रामस्य पपात भरते रुदन्‌ ॥ ३७॥
इस प्रकार विलाप करते हुए भरत, दुः्खी थे। उनका घुल-
कमल पसीने से तर था । उन्होंने चाहा कि, दोड़ कर भीरामचन्द्र
8५६ झयाध्याकायदे

के बरणों में गिर, किन्तु वहा ं तक न पहु ँच, थे रे। कर वी च ही मन


मूदधित हे गिर पढ़ें ॥ ३७ ॥
दुःखाभितम्ती भरते राजपुत॥>2्रों महाव2 लूआन |
[न
० 2
उक्लाार्येडति सक्ृद्दीन॑ एननावाच किश्वन ॥ रे८ ॥
उस सम य 5ः ख सन ्त म और का तर होन े के का रण मद ाव त् ी
राजकुमार भरत केवल पक्र वार झाय ” शब्द का उच्चारण कर
फिर और कुछ न वाल सके ॥ ३
वाष्पापिहितकष्ठश्व प्रेक्षय राम॑ यशस्विनस्‌ ।
आयेत्येबाय संक्रश्य व्याइत' नाहझकत्तत/ऋ ॥ ३९ ॥
क्योंकि यशस्तवी श्रीरामवद्र का देख कर, भरत जी का करठ
रुद्ध हो गया था। हे फैवल * श्रर्य ” कह कर वाकशक्ति-रद्दित
से दी गये ॥ ३६ ॥
शत्रन्नधापि रामस्य ववन्दे चरणों रुदन |
तावुभा से समालिद्ञय रामब्राश्रण्यवर्तंबत्‌ ॥ ४० ॥
रेते हुए शन्रुघ्न ने श्रीरामचल् जो के चरणों के प्रणाम किया ।
तब आररामचन्द्र जो इन द्वानों भाइयों के! छाती से जगा स्वयं रोते
लगे ॥ 3० ॥
ततः सुमन्त्रेण गुहदेन चेव
समीयतू राजसुतावरण्ये ।
दिवाकरथेव निशाकरथ |
यथाघ्घरे शुक्रवृदस्पतिभ्याम्‌ ॥ ४१ ॥
+ पाठास्तरे- त्तदा १९ |
ग़ततप्रः सर्म: ६४७

तदनन्तर सुमंत्र और गुद भो धीरामचलड जो श्र लत्मण


जो से पिक्ने। मानों थ्राक्राश मेंघूयं और चल्ध, शुक्र घोर वृहस्पति
से प्रित्ल रहे हैं। ॥ ४१ ॥
तान्पार्थिवास्वारणयूयपाभान्‌
समागतांस्तत्र महत्यरण्ये ।
बनाकसस्तेषपि समीक्ष्य सर्वे-
भ्यक्षृण्यमुअन्परपिह्वाय हृपस्‌ ॥ ४२॥
6

इति एकानशततमः सर्गः ॥


उस समय द्वाथियों पर सवारी फरने याग्य इत राजकुआरों
( भोरामचन्द्र लक्ष्मण, भरत ओर शब्र॒न्न )के उस महावन में
- पैदल श्राये हुए देख, वहां के चनवासी भो दुः्खी हो, रोने
लगे ॥ ४२ ॥
अ्रयेष्याकायड का निन्‍यानवेचाँ सर समाप्त हुआ |
्चखजज-+

शततमः सर्गः
अकन्‍्न्‍न्‍न है५) कनमना

जटिल चीरवसन प्राज्लकि पतितं भरुवि ।


ददश रामे दुदंश युगास्ते भास्करं यथा ॥ १॥
पृ (७९ लि

जटाजूट धारण किये शोर चीर पहिने भीरामचन्ध ने भरत


जी के हाथ जेाड़, पूृथिवी पर पड़ा हुग्रा देखा। प्रानों प्रलय
कालीन दुर्द्श घू्य तेजदीन दो पृथियी पर पड़ा हे ॥ १॥
5८ खवाष्याकायद

कथश्विद्भिविज्ञाय विवर्णवदन कृशम्‌ |


श्रातरं भरत राम्ः परिजग्राद बाहुना ॥ २ ॥
बड़ी कठिनाई से विवएए मुख्त ओर अत्यन्त इुबते पतले भाई शक
मरत का पाहयान, श्रीराम नन्द जा ने उन्द दाता हाथा से प|
इऋर उठाया ॥ २
आप्राय रामरतं मूर्विनि परिप्वज्य च रायवः ।
अड्ड मरतपारोप्य पयपृच्छत्समाहितः ॥| ३ ॥
अनन्तर श्रीरमचद्ध ज्ञो नेउनके मस्तक के तू थे,उनके। दांतों

वह बात पुद्धी 8 5 ॥
कु नु तड्यूत्पिता तात यदरण्य॑ त्वमागतः ।
लि ए
न हि ले जीवतस्तस्थ वनमागन्तुमंसि ॥ ४ ||
है ताठ ! तुर्दारे पिता काहै,जे। ठुम इस बन में आये है ?
( क्षोंकि )उनके ज्ोचित रहते तुम वन में नहीं था सकते थे ॥ ४ ॥
चिरस्य बत पश्यामि दूराद्ररतमागत््‌ ।
!दुष्पतीकमर ण्येइस्मिन्कि तात वनमागत) ॥ ५ ॥|
बड़े खेद की बात है कि, बुत दिनों बाद शोर बहुत दूर से
चल कर आन के कारण विनणोु सुन्चन एवं छूट भरत का में काठे-
सह से पाहचात पाया। तुम इस बन मे क्रस लय
शाये हो ? ॥ ४ ॥
कन्रिद्धारवते तात राजा यक्त्वम्रिद्यगतः |
कच्चिन्न दीनः सहसा राजा लाझ्वान्तरं गत; ॥ 4 ॥
१ दुष्पदीरं--वैदगर्यादिनादुजयादयवदं | ( मो» )

_. हैभाई |तुम जो यहांभ्रायेहै| से यह ते कद्ी कि, पिता जी


ते मज़े में हैं ! कहों शोक से वरिकल है। मद्वाराज श्रचानक लेका-
म्तरित ते नहीं हुए ॥ 5 ॥
कचित्साम्य न ते राज्यं भ्रष्ट वालूरय शाश्वतम |
कबिच्छुमपसे तात पितर॑ सत्यविक्रमम्‌ ॥ ७ ॥
दे सोम्य !तुम ग्रम्ों वालक दे, सा कहीं उस सनातन राज्य
मेंतो कुछ गड़बड़ी नहां हुई ? देसत्यविक्रम | तुम पिता की सेवा
ते भक्ती भांति करते है ? ॥ ७ ॥
कशिदशरथा राजा कुशली' सत्यत्तद्रः |
प (९ ९
राजमूयाश्वमेबानामाहता धरनिभय; ॥ ८ ॥
राजधूय शोर अध्वपेध यक्ञों केकरने वाक्ते, धर्म में निश्चित '
बुद्धि रखने वाले, एवं सत्यप्रतिक्ष मद्ााज्ञ ते खर्थ्य हैं ? ॥ ८॥
से कबिदव्राह्मणा विद्वान्धमनित्यो महाद्युतिः |
इक्ष्वाकूणामुपाध्याये। यथावत्तात पूज्यते ॥ ९॥
कया उस्र विद्वान एवं मद्रातेज्स्वी ब्राह्मण का, जे। नित्य घर्म-
कार्यों मेंतत्पर रहता हैओर इच्वाकुकुल का उपाध्याय है।बथा-
बत्‌ सत्कार किया जाता है ? ॥ ६ ॥
सा तात कचित्कासल्या सुमित्रा च प्रजावती |
सुखिनी कचिदार्या च देवी नन्‍्दति कैकयी ॥ १० ॥
दे तात |माता कौशब्या ओर छुपुञ्नवती माता सुप्रिन्ना ते
पसन्न हैं ?और परमश्रेष्ठा देवी कैकैयो तो आनन्द से हैं ? ॥ १० ॥
३ कुशक्षी--अनाम्यः । ( गो? )
६६० अयाध्याकायड

कचिदिनयसम्पन्नः कुलपुत्रो! वहुशरुतः |


अनप्युरनुद्रश' सत्कृतस्तेर पुरोहित!" | ११ ॥
हैँतात ] पिनत्र, अनुभवी, सत्कुज्ात्पन्न एवं अपुयारहित
ओर समस्त सत्कर्मोनुछानों में निषुण, हमजाली और पुरोहित
चशिए्ट जी के पुत्र का सत्कार तो तुम करते हे न ? ॥ ११॥
कब्चिदगिषु ते युक्तो विधिज्ञों मतिमावजुः ।
हुत॑ च हष्यमाणं च काछे वेदयते" सदा ॥ १२॥
अपिद्वेत्र के कार्य में नियुक्त हवन की विधियों को साह्लेपाड
जानने वाला, मतिमान शोर सरल स्वभाव पुरोहित, हवनकाल
उपस्यित हाने पर, तुमका सदा छुचना देता रहता है कि,
' नहीं? ॥ १२॥ ॥
कबचिदेवान्पितृन्मातगुरून्पितृसमानपि |
दृद्धांध तात वेदांथ ब्राह्मणांथामिमन्यसे || १३ ॥
देतात ! देवता, पिता, माता, गुद और पिता के समान पूज्य,
बढ़े बृढ़ों, वैद्यों और ब्राह्मणों के सव तरदद से तुम मानते हो
नर॥ १३॥ -
' 'ृष्वद्र*वरसम्पत्नम“यशास्रविश्ञारदम्‌ |
सुधन्वानमुपाध्याय कच्ित्त तात मन्यसे | १४ ॥
! छुछपुन्र:--पत्कुछप्रखूत: | ( गो० ) ९ भनुद्ृष्टा--सकछ घत्कर्म
निषुण: । (शि०) ३ ते दव सवयस्कः । ( शि० ) ४ पुरोद्धित:--वसि्ठपुत्रः ।
( क्षिं० ) ५ चेदयते--तुम्यंशापयति क्रचित्‌ । (गो२) ६ इपवः--अमंत्रक्ना-
वाणा+। ( गरो० ) ७ बस्बाणि[--समंत्रकः । ८ अर्धशा्॑ं--चीतिनशादं ।
( गो ) ५ व्पाध्यायं--धनुर्वेंदाचाय | ( यो० )
शततमः से: ६६१
पके

हैतात ! अद्ञ | जे! मंत्रवल से चलाये जाँय )शश्ष (जे बिना


मंत्र केचलाये ज्ञांय ) से सम्पन्न, नोति-शास्र-विशारद, सुधन्या
नाम के धनुवेंदाचार्य का ते यथे।चित मान तुम करते हे! ॥ १४ ॥
कनचिदात्मसमा' शुरा/* भ्रुतपन्तार मितेद्धिया।"।
५'कुलीनाअज्वितवाश्॒ कृतारते तात मन््रिणः ॥ १५॥
दे तात | विश्वसनीय, धोर, नीतिशास्जज्ञ, लालच मेंन फँसने
चाल्े भौर प्रामाणिक कुलेसपन्न क्षायों के तुमने झपना मंत्री वनाया
कि नहीं ! ॥ १४ ॥
मल्त्रों विजयमूलं हि राज्ां भवति राधव |
६सुसंदते! मल्त्रधरेरमात्ये: "्शार्केविदे! ॥ १६ ॥
क्योंकि हैराघव !नोतिशाख्ननिपुण एक्रान्त भेद को सलाद
करने योग्य मंत्रियों द्वारा रत्षित, गुप्त परामश हो, राजाओं के लिये
विज्ञय का पूल है। ( अर्थात्‌ जिन राज्ञाओं के मंत्रों परामशों को
गुप्त रखने वाले होते हेंया ज्ञिन राजाशधों के परामर्श गुप्त रहते हैं
उन्हीं राजाओं की जीव होतो है )॥ ६ ॥
कब्िनिद्रावशं नेषीः कित्काले प्रवुध्यसे ।
कचिचापररात्रेष चिन्तयस्पर्थनेषुणमू८ ॥ १७॥
१ आत्मपमा:+ -विश्वसनोया इति । ( गरोण् ) २ शरा:--घीर४ |
( पो० ) ३ अ्रुतवस्त:--सीतिशाखशाः । ४ नितेखियाः--पररकषेमवीया
इंति। ( गो० ) ५ झुलीवा: --प्रामाणिककुछेलद्ा: । ( गो० ) $ सुध्तंवृतः
सर्वियुणै: । (गोण ) ८
--पुतरांपुप्त । (गो० ) « शाखक्षैविदेः--वोतिशा
भर्धनपुणम्‌-- अर्यसम्पादन रीतिम । ( शि० )
बा० रा०--ह १
६६२ अयेध्याकायडे
तुम निद्वा के वश में तो नह ीं रह ते ! यथ ा सम य जा ग तो जा ते
हो? तुम पिछली रा त में अर ्थ की प्र ाप् ति क ेउप ाय ता दि चा रा
करते ही ! ॥ १७ ॥
कब्रित्मन्त्रयसे नेकः कचित्न वहुमिः सह ।
कचित्ते मन्त्रिता मन्त्र राष्ट्र न परिधावति ॥ १८ ॥
श्रकेले ता किसी विषय पर विचार नहीं करते अथवा वहुत
से लेागों के वीच वैठ कर तो सलाह नहीं करते ? तुम्दारा विचार
कार्य ढ़ुप में परिणव हाने के पूर्व दूसरे राजाश्ों का विदित तो
नहां दो ज्ञाता ॥ १८ |
[ नेद--राजा के अकेले भ्व्ा बहुत ते छोगों में बेठ कोई सलाद ने
करनी चाहिये और न उसके दिचार इपयुक्त समय के पूर्व अकद़ दी होने
चाहिये । |

कचिदय! विनिशित्य रघुमूल महेदयम्‌र


क्षिप्रमारभसे कतें न दीबंयसि राघव ॥ १९ ॥
््ः

#ई
गा
भ्रत्प प्रयास से सिद्ध होने वाले और वड़ा फल देने वाले
$ हे
पड कार्य का करने का निश्चय कर, उसका करना तुम तुरन्त आखसूम
कर देते दा कि नहीं? उसे पूरा करने में देर तो नहीं लगाते ? ॥१०॥
कब्चित्त सुकृतान्येव ऋृतरूपाणि वा पुनः
विहुस्ते सबंकायाणि ने कतव्यानि पार्चिवा:ः || २० ॥|
नाप... |

१ अथ--कार्य | ( यो० ) ३ मद्देदयं-महाफल । ( गो


३ पाथिवाः--प्लाम्न॑ततपा३ । ( सो« )
शततमः से ६६३
तुस्दारे निश्चित किये हुए सव कार्य भली भाँति पूरेहो जाने
पर अथया पुरेदेने ही पर कटे राजा ज्ञान पाते हैंन? कार्य पूरे
दोने के पूर्वतो उनके वे कहीं नहीं ज्ञान लेते ?॥ २० ॥
कचिन्न तकैंयुक्‍त्या' वा ये चाप्यपरिकीर्तिता* |
त्वया वा तब वाज्मत्येवुध्यते वा मन्त्रितम ॥ २१ ॥
मंत्रियों के साथ की हुईतुस्दारों अप्रकाशित सलाह को, दूसरे
लेग, तक॑ से भ्रथवा प्रनुमान से तो कहाँ नहीं ताड़ लेते ॥ २१ ॥

कब्चित्सइसास्मूर्साणामेकमिच्छसि पण्डितस्‌ ।
पण्डितो 'हयकृच्छेषु कुयात्रिश्रेयर्स महत्‌ ॥ २२॥
(९!

तुम इज्ञार मुखों के त्याग कर एक पणिडित (सलाहकार ) का


झाश्चय भ्रहण करते हो न ? क्योंकि यदि सकुट के समय एक भी
पगिदत पास हो, तो बड़े ऐश्वय को प्राप्ति होती है । श्रर्यात्‌ बड़ा
ल्ञाभ दावा दे ॥ २१॥
सहस्राण्यपि मूर्खाणां यद्युपास्ते महीपतिः।
अथवाण्प्ययुतास्येव नास्ति तेषु सहायता ॥ २३ ॥
राजा भल्ते ही हज़ार या दस हज़ार मूखों का धपने पास रखे,
परन्तु उन मूखों सेउस राजा का कुछ भो साहाय्य नहीं मिल
खकता ॥ रेरे ॥

! युकयावा--अलुमा ने नद ा । ( गो ) २ अप रि कर ीत ित ा: -- अन ुक ्त ाः
इक्तादयः । (यो ० ) ३ अर थक ृच ्छ े इ- -क ार ्य पइ ठे छु । (यो ० ) ४ सइ त् ‌- -
निःश्रेयर्स महदैश्वय । ( गो० )
६६४ श्रयेष्याकायडे
एकाउप्यमात्य ों मे धा वी 'श ्र ो दक ्ष ों वि चक ्ष ण; ) ।
राजान॑ राजपुत्र# वा प् रा पय ेन ्म हत ीं भ् रि यम ्‌ ॥ २ ४ |
किन्तु यदि एक भी बु द् धि मा न, स् थि रत ुद ्ध ि, वि चा रक ुश ल औ र
नीतिशाब् में अ्रभ्यघ्त मं त् री है , तो रा जा के वा रा जक ुम ार के
बड़ी लह्मी प्राप् त कर ा दे ता है ॥ २४ ॥ ;
कचिन्मुझुया मंहत्स्वेव मध्यमेपु च मध्यमा। ।
जघन्या स् तु जध न् ये षु भु ल् या ः कर ्म सु ये जि ता । ॥२ ५॥
है ता त ! तु म, उत ्त म ज् ञा ति के नौ कर ों का उत ्त म का र् य मे ं,
मध्यम जाति के नो कर ों के मध ्य म का र् य मे ं औ र छो ठी जा ति के
नौकरों के छोदे कामों में लगाते दे न? ॥ २५ ॥
अमरात्यातुपधातीतानपै्पतािमहद ा ब्शुचीन्‌ ।
श्रेष्ठाउ्श्रेष्ठेपु कचित्त्तं नियोजयसि कर्म ॥ २६॥
तुम उन मंत्रियों के, जे। ईमानदार हैं, जे कुलपरंपरा से मंत्री
देते भाते हैं,जे! शुद्ध हृदय भौर श्रेष्ठ खभाव के हैं,श्रेष्ठ कार्यो
में नियुक्त करते है। न ? ॥ २६ ॥
कचिन्नोग्रेण दण्डेन भुशमुद्देजितप्रजम्‌ ।
राष्ट्र तवानुजानन्ति मन्त्रिण/ केकयीसुत ॥ २७॥
है कैकेयीनन्दन ! तुरहारे राज्य में उम्रदणट से उत्तेजित
प्रज्ञा कहीं तुम्हारा या तुम्दारे मंत्रियों काअपमान तो नहों
करती ॥ २७ [' |
१ शरः--ए्मिलुद्धि! । (गो० ) २ दक्षः--विचारप्तमथ: । ( ग्रो० )
३ विचक्षण+--अभ्यज्नीतिश्ास्र: । ४ फिपैतामद्ानू--कुलक्रमागतान्‌ .।
६ गो० ) # पाठात्तरे--४ राजमात्र !। "५
शत्ततमः सर्ग ६६५

कचित्तां नावजानन्ति याजका! पतित यथा |


उम्रप्रतिग्रहीतारं कामयानमिव स्लिय/ ॥ २८॥
जिस प्रद्मार स्तरियां परक्लोगमन करने वाल्ले पुरुष को पतित
सम्रक्त उतका अ्रवादर करतो हैं,या जिस प्रकार यश्व करने वाले यश्ष-
कर्म से पतित का ध्नाव्र करते हैं,उस प्रकार कहाँ भ्रधिक कर
केने से प्रज्ञ तुरदारा अनादर तो नहीं करती ॥ २८॥
उपायकुशलं वेचं' मत्यसंदूषणे रतसू |
स्रमेइवयकाम च ये। न हन्ति स वध्यते* ॥२९॥
जे राजा, विशेष घन के लालच मेंफँस, कुटिल नीति विशारद
पुरुष का, सज्ञनों में दोप लगाने वाले नौकर को और राजा तक
के मार डालने में भय न करने वाले पुरुष के नहीं मारता,
स्वयं मारा ज्ञाता है। से हे भाई ! तुम कहों ऐसे लागों के तो
अपने पास नहीं रखते ? ॥ २६ ॥
कचिदुशथ शरथ मतिमान्धुतिमाब्युचि
कुलीनथानुरक्तथ् दक्ष; सेनापति। कृत: ॥| ३० ॥
हैभरत | तुमने क्रिसी ऐसे पुरुष को, जे! व्यवहार मेंचतुर,
शत्रु कोजीतने वाला, सैनिक कार्यों में (व्यूदादि रचना में)
चतुर, विषति के समय थेये धारण करने वाला, स्वामी का
विश्वासपात्र, सकुततेद्भव, साामिमक, श्र कायकुशल दो, अपना
सेनापति बनाया हैकि नहीं ? ॥ ३० [|
१ परितं--पटष्ट कामंपतित । ( मोर ) ३ पैध॑--कर्णिकाक्तकृटिल
वीतिविद्याविदं । (या> ) ३ श्र -राजहिं समेपिनिभय । ( मो० )
४ वध्यते -राज्याक्नष्टो भवति | ( गो
8६६ श्रयाष्याकायडे

वलवन्तथ्॒ कचिते मुख्या युद्धविशारदाः |


दृष्मापदाना' विक्रान्तास्त्वया सत्कृत्य मानिता। ॥३ १॥
शत्यन्त बलवान, प्रसिद्ध, युद्धविद्या में निपुण और जिसके
बल की परीत्षा ली ज्ञा चुकी हैऔर जे पराक्रमी है. ऐसे पुरुषों
को पुरस्क्तत कर तुमने उत्साहित किया हैकि नहीं ? ॥ ३१॥ -
कचिद्वलस्य भक्त च वेतनं च यथेचितम्‌ |
सम्पाप्तकालं दातव्यं ददासि न विलम्बसे ॥ २१ ॥
तुम सेना वालों के कार्यानुरूप भाजन और वेतन यथासमय
दे मेंविलम्व तो नहीं करते ॥ ३१॥
कालातिक्रमणाब्ैव भक्तवेतनयेुताः ।
भतु छुप्यन्ति दुष्यन्ति साउन ; सुमहान्स्ृतः ॥३३॥
|

क्योंकि भोजन और वेतन सप्तय पर न मिलने से, नौकर तेग


कुपित दोतें हैं ओर मालिक की निन्‍्दा करते हैं। नोकरों का
ऐसा करना, एक वड़े भारी अनर्थ की बात है ॥ ३३ ॥
कचित्सवेप्तुरक्तास्तां कुलपुत्रा:* प्रधानत/* )
कचित्पाणांस्तवार्थेषु सन्त्यजन्ति समाहिता; ॥ ३४ ॥
भत्रा सव राजपूत श्र सरदार ते तुम्हारे अपर श्द्ु॒राग
रखते हैं ?ओर क्या समय पर वे तुम्दारे लिये सावधानता पूर्वक
प्रपने प्राण देढालने का तैयार दा सकते हैं ? ॥ ३४ ॥
१ इष्ापदाना--अक्षजुभूत पैरुपं । (रा० ) २ भक्तं--अश्व वेतन । (रा०)
३ कुछपुन्ना:--क्षत्रियकुलुप्रवुताः | (गो० ) ४ प्रधावतः--अधानाः । (गौ) «
शततम्न; सर्गः है६७

कबिज्जानपदो ! विद्वान्द्क्षिण/९ प्रतिभानवान्‌ |


ययेक्तवादी दूतस्ते कृतो भरत पण्डितः ॥ ३५॥
श्रपने ही राज्य के रहने वाले, दूसरे के प्रसित्राय के जानने
वाले, समर्थ, दाज़िर्जवाब,' (प्रत्युत्पन्नमति ),यथाक्रवादी ओर
दूसरे की कही वातों को तके से खण्डन करने वाले पुरुष को,
तुमने ध्यपना दूत बनाया हैकि, नहीं ? ॥ ३५ ॥
कचिदष्टादशान्येपु स्वपश्े दश पश्च च |
त्रिभिश्रिभिरविज्ञातिवेंत्सि तीयानि चारके। ॥। ३६ ॥
भ्रन्‍्य राज्यों के भ्रठारद पदाधिकारी और अपने राज्य के तीन
(मंत्री, पुरादित, युवराज ) छोड़ शैष, पत्र राज्याधिकारियों का,
दाल जानने के लिये प्रत्येक केपाप तीन तीन ऐसे भेदिया जे!
शरपस में एक दूसरे के न ज्ञानते हो, नियुक्त कर, इन सव की
फारवाइयों का हात् तुम जानते रहते।हे न ? ॥ २६ ॥
[ मेद--अठारद पदाधिकारी ये हैं--
१ मंत्री, २ पुरोहित, ३ युवराज, ५ सेनापति, ५ द्वारपाल, ६ भन्‍्तः
पुराधिकारी ७ बंधनग्रद्दाधिकारी (दरोगा जैल ) ८ घवाध्यक्ष, ५ राजा की
भशानुप्तार नौकरों को आज्ञा देने वाका, १९० प्राइविवाक ( वकील ) ११
घर्माष्यक्ष, १२ तेना को वेतन बाटने वाका, १६ ठेकेदार, १४ नगराध्यक्ष
(कोतवाल ), १५ राष्ट्रन्तपाल ( सीमान्त का अफर ) १६ दुएों के दण्ड
देने वा ( मजिस्ट्रेट ) !७ जछ, पर्वत, वन का रक्षक और १८ दुगा का
रक्षक । ]
* ३ विद्वानू--परामि्रायज्ञ: । (गो०्) २ दृक्षिण/--समयः ।
(गो? )
8६८ *. श्रयाध्याकायणडे

सिद्रयपास्तान ह्वितान्गतियातांश सबंदा |


दुबछाननवज्ञाय वतसे रिपुस्तदन ॥ २७ ॥
दे रिपुछृदून |उन शत्रुओं के जिनके तुमने अपने राज्य से
निकाल दिया था और फिर किसी तरह लोढ कर श्ा गये हैं,
उनकी दुर्वल समझ, उनकी ओोर से तुम ऊद्दीं श्रलावधान ते नहीं
रहते १ ॥ २७ ॥
कचिन्न छाकायतिकान्त्राह्मणांस्तात सेवसे ।
सअनर्थकुशला होते वाला! पण्डितमानिन) ॥ रै८ ॥
तुम कहों बास्ठिक ब्राह्मणों के! तो अपने पास नहों रखते ?
क्योंकि ये जाग अपने के बड़ा पणि्त लगाते दे, परन्तु वास्तव
में मर्ज होने के कारण वे यथावत्‌ ज्ञानवन्त नहीं दोते अ्रथवा
शाद्ष के तत्व के न जानने के कारण घर्मानुछान से ले।गों का चित्त
हटा कर, केर्गों के नरक भेजने में वड़े कुशल द्वोतेहैं॥ ३८॥
घमशाद्धेषु मुख्येष विद्यमानेषु दुवधाः* |
"बुद्धिमान्वीक्षिकीं प्राप्य निरथे प्रवददन्ति ते || ३९ ॥
प्रुख्य मुख्य प्रामाणिक धमेशाज्ं के विद्यमान रहते भी, उनकी
चुद्धि सदा वेद्विरुद्ध तकों ही की शोर दोड़ा करतीहैंओर शुष्क
तके वितक करने की आदत पड़ ज्ञाने से वे सदा झनर्थकारी वचन
ही बाला करतेहैं॥ ३६ ॥
[नेाद--अतः ऐसे नाखिऊ दु्वद्धियों येपदा दूर रहदा दी उचित है ।]
) व्यवाघ्तान्‌-निष्कासितानू । ( गो० ) २ प्रतियातानू--पुनरागतान्‌ ।
( गो ) ३ अवर्थेकुशछा--यर्वावड्ज्ञानवन्तःततेनमवन्तीयनथकुशछाः । (गो०)
४ दुबु धा:--वेदमागडिपरीतवुद्धयः । (गो० )५ आन्विक्षिकीयुद्धि प्राप्प---
शुष्प्रतकविषयांबु छ्िमात्थाय । ( गो
शततमः सर्यः १६६

वीररध्युपितां पू्वमस्माक तात पूर्वकैः |


सत्यनामां छद्दारां हरत्यम्वरयसड्डूलाम ॥ ४० ॥
ब्राह्मण प्षत्रियवेश्यें: खक्मानिरतेः सदा ।
कै ७2

नितेन्द्रियेमहेत्साहैतामायें; सहस्तण! ॥ ४१ ॥
बे है
(३ पु

प्रासादेविविधाकारदतां'वैदयननाकुलाम ।
कब्ित्समुदितां) स्फीतामयेध्यां परिरक्षसि ॥ ४२॥
है तात | तुम उस ध्योध्या की तो भल्री भाँति रक्ता करते दो,
जे। हमारे पिता पितामहादि वीर पुरुषों की भेगी हुई, झपने नाम के
चरितार्थ करने वाली, दृढ़ द्वारों चाबी, द्वाथो थेड़े और रथों से
भरी हुई, वर्णानुसार धर्म कार्यो में सदा तत्पर रहने वाले आह्य्ों,
. ज्ञत्रियों और बैश्यों से युक्त, जितेद्धिय और मद्वाउत्साही हज़ारों झाय॑
जनों सेखुशोमित, विधिध आकार प्रदार के भवतों से पूर्ण,
विद्व्ननों से भरी हुई और जे। दिन दिन उन्नतावत्या को प्राप्त हो
रही है ॥ ४० ॥ ४१॥ ४२॥
कचिसतेत्यशतैजु४! श्सुनिविष्टननाकुल! ।
देवस्थाने प्रपाभिथ* तटकेशोपशेमितः! ॥ ४३ ॥
'प्रहुष्टनरनारीक! समाजोत्सवशेमितः |
सुकृष्टसीमा पशुमान्दिसाभिरभिवर्जित/६% | ४४ ॥
१ वैथ जनाकुछाँ--विद्वज्जना: तैरावृर्ता । (गो० । २ समुद्िता--सुसन्तु-
श्जना: । / ग्रो० ) ३ सुनिविष्ननाकृका--सुप्रतिष्ठितननन्याप्तः । ( गो )
४ प्रपामिः--पानोयशाह्ामि! । ( गो" ) ५ सुकृष्टतीमा--अक्ृष्टाईपत्क्ाच
मुमिनेतन्नाप्तीतु । (गो० ) ६ हिंधामिः ईतिमिः पड़मिः | ( गो० )
# पाठास्तरै--४ परिवनितः !! ।
६७० अयोाध्याकायडे

अदेवमात्का रम्यः श्वापदे! परिवर्जितः ।


प्रित्यक्तों भय! स्दें! खनिभिश्ोपशोमितः || ४५ ॥
विवर्जिते रे; पापेमम पूर्व:सुरक्षित) !
कच्चिज्जनपदः सफीतः सुख वस्तति राघव ॥ ४६ ॥
हैराधव ! जिस देश में अनेक यज्ञानुष्ठान दे चुके है, जहाँ
छुप्रतिष्ठित लाग रहते हैं,जे प्रनेक देवालयों पॉसलों श्रार तड़ागों
से शामित है,जे। दर्षित ख्री पुरुषों से ओर सामाजिक उत्सवों से
शेमायमान है, जहाँ पर तिल वराइर भी जुप्रीन विना जुती नहीं
है, जद्दां पर हाथी, घोड़े, गाय, वैल आदि पशु भरे पढ़ेहैं, जहाँ
१ ईति का कभी भय नहीं होता, ज्हों के क्षेय मेघजल हो के ऊपर
निर्भर नहीं है, ( भ्र्थात्‌ सरयू का तद्वर्ती देश होने के कारण लेतों
को सिंचाई के लिये चर्धाजल पर ही किसान निर्भर नहीं हैं),
जे रमणीक है, जे हिंसक पशुओं से रहित हैं, जे! चारी आदि
सब भयों से रहित हैं, जे! नाना खानों सेशोमित है, जहाँ पापीजन
्क
एक भी नहीं है, ले उत्तरोत्तर उन्नति प्राप्त हैं तथा जे मेरे पूर्व-
जब .” पुरुषों से छुरक्षित है,वह देश तो सुखी है? ॥83॥ ४४॥ ४५ ॥४६ ॥
ओष्य
शल्‍ 9

[ १ ईंति--अतिव श्िरनावश्टितरूंपिकरा:शछ्भा: खगाः |


नत्यासब्राश्चवराजावः परेताईतयः छ्टृता: | (गो०) ]
कचिते दयिता:! सर्दे क्षिगारक्षमजीविन!* |
वात्तायां संश्रितस्तात छाोका हि सुखमेथते ॥ ४७ ॥
(४ ५ .,/८७ ० हैप

हैतात | जा क्लाग खैती कर और पशुओं के पाज्न, अपना


गुज़ारा करत हैं,उन पर तुम प्रसन्न तो रहते दो ? क्योंकि ये लेग
लै न
अपनी दे न के का र् य में नि यु क् त रह
पल - पक 222 इक युक6हो68 कर घन धा न् य ते है% 2ं ॥20
४७॥॥0: 8
! दृयिता:--प्रिया:। (स्लि०) २ कृपियेरक्षजीविदः--वैदयाः » (यो०)
शततमः सर्गः १७१

तेषां 'गुप्तिपरीहरे कचितते भरणं कृतम्‌ |


रक्ष्या हि राज्ञा धर्मेण सर्वे विषयवासिन! ॥ ४८ ॥
तुम उन ज्षाों का उनकी इए वस्तु दे तथा उनका थ्रिष् दर
कर उनका भरगा पोष्श तो ऋरते दो ? क्योंकि राजा के उचित
हैकि, वद प्रपने राज्य मेंवसने वालों की घर्म से (ईमानदारी से )
रक्षा करे ॥ ४८ ॥
कच्ित्प्रिय; सान्तवयसि' कब्चित्ताश् सुरक्षिता) ।
फेचिन भ्रदधास्यासां कचिदगुब्मं न भापसे ॥ ४९ |
क्या तुप्त क्षियों के प्रसन्न रखते दे ? उनकी भक्तों भाँति रक्ता
करते है| कि नहीं ! उनका विश्वास तो नहीं ऋर क्षेते? कभी
स्त्रियों की अपना मुप्त भेद तो नहीं वतला देते ? ॥ ४६ ॥
कचिन्नागवर् गुप्तंकच्िते सन्ति पेनुका/* ।
कश्िन गणिकाश्वानां* कुञ्नराणां विभूषितम# ॥५०॥
भजी भाँति रबाये तो आते हैं? जे।
जिन चनों में हाथी हैं वे
दधिनियां, द्वाथियों को पकड़वाती हैं, इनका पालन पोषण तो ठीक
दोक द्वोता है ” तुम्र दाथी दयिनियों श्रौर धाड़ों केलाभ से तृत्त
तो नहीं दाते ? ॥ ४० ॥
कबिदर्शयसे नित्य॑ मनुष्यांणां विभूषितम्‌ |
उत्थायोत्याय पू्वाह्दे राजपुत्र महापये/ | ५१ ॥
१ भुप्तपरीदारि--दृष्टप्रापणानिष्टनिवारणेः । ( यो? ) २ साम्वय्ति--
» अलुकूकतयावतंते | (योन ) ३ घेनुकाः--गजमदण साधनभूताः करिण्य; ।
६ गो० ) ४ गणिका:--करिण्यः | ( गो ) ५ मद्रापये --सभायां | ( गोण् )
# पाठत्तरे-- चतुप्यस्ति " |.
828२ अयेष्याकायडे
हैराजपुत्र | तुप्र श्पने के सर्व प्रदार से भूषित कर दोपहर
से पह्दिले हो, सभा में जा, प्रजाजनों से मिलते दो कि नहीं ॥ ४१॥
कचित्न सबवे कर्मान्ता। पल्यक्षास्तेधविशज्टया ।
से वा पुनरुत्छष्टा मध्यमेवात्र कारणम्‌ ॥ ५२ ॥
तुम्हारे यहाँ जे! काम करने वाले केग हैं, वेनि्य हों तुश्दारे
निकट तो सदा नहीं चले आया करते या मारे डर के तुमसे अति
दूर तो नहीं रहते। क्योंकि ये दोनों ही बातें लाभप्रद्‌ नहीं हैं।
अतः काम करने वाले के साथ मध्यम्र व्यवहार करना उचित है
(धर्थात्‌ इनका कमी कभी तो तुर्दारे पास आना और कभी कभी
दूर रहना ही वाज्छुनीय है ) ॥ ५२ ॥ +
कब्चित्सवांणि दुर्गाणि धनवान्यायभेदकेः
यन्त्रेथ परिपृणोनि तथा शिव्पिधलुघर)) ॥ १३ ॥
तुम्दारे सव किक्ले तोघन, घान्य, हथियार, जल, कल, क्रिया
कुशल तीर चल्नाने वाले याद्धाश्ं से परिपूर्ण हैंकि नहीं ? ॥ ५३ ॥
आयस्ते विपुरः कचित्कचिंदरपतरे व्यय! |
*अपात्रेषु न ते कब्ित्काशे! गच्छति राघव ॥ ५४ ॥
हैं राधव | तुउ्हारे केश में ग्रामदनो अधिक श्र आमदनी से
फेम व्यय है के नहा, तुरदारे कोण का धन कहीं नाचने गाने वालों
का तो नहीं लुटाया ज्ञाता ? | ४४ ॥
देवतायें च पिन्र्थे ब्राह्मणाभ्यागतेषु च |
योधेषु मित्रवर्ेंपु कच्चिदृगच्छति तेव्ययः || ५५॥
१ शिक्पिधनुर्धर:--करियाकृशल्धनुद्धारिभिः । ( स्वि० ) २ अपाशेधु--
नवविद्वायक्रपु । ( यो० )
शततमः सर्गः १३३
देवता, पितर, ब्राह्मण, भ्रभ्यागत, येद्धा और मित्रगण--इन'
सव के लिये तुम्हारे केश का धन्र ध्यय क्रिया जाता हैक्ि,
नहीं ? ॥ ५४ ॥
कबिदाये! विशुद्धात्माउपक्षारितथीरकर्मणा ।
अपूष्ठ शा्रकुशलेन लछेममादध्यते गुचिः | ५६ ॥
जअव भ्रच्छे चरित्र वाछे साधु लग, जे फूठे चेरो शादि भ्प-
बादों से दूषित हो, विचारार्थ, न्यायालय मेंउपध्यित किये जाते हैं,
तुम्दारे नोतिशास्रकुशल लेग उनसे ज्ञिरदद कर सत्यासत्य का
विशय किये विना ही, लालच मेंफल, उनके कहीँ दृगड़ तो नहीं:
देदेते ?॥ ४६ ॥
शहीतथेव पृष्ठण काले दृष्! सकारण! ।
कबिन्न मुच्यते चारो धनलेभान्रपंभ॥ ५७ ॥
हेपुरुष्रे्ठ |जे चे।र चेररी करते समय पकड़ा गया शोर
जिरह से जिसका चे।री करना सिद्ध दे चुका, बह चे।र, कहीं घूस
के क्षालब से शेड तो नहीं दिया ज्ञाता ) ४७ ॥|
व्यसने कबथिदाव्यस्य दुर्गटस्य च राघव |
अर्थ बिरागाः पश्यन्ति तवामात्या वहुश्रुता! ॥ ५८ ॥
घी और गशरोव का ऋगड़ा होने पर तुम्दारे वहुभुत (अछुभवी)
सचिव, लेमरादित दो, दोनों का मुकदमा, त्यायपूर्वंक फैसल
ऋरतेहैंकि.नहीं !॥ ४५ ॥.
यानि मिथ्यामिशस्तानां पतन्त्यस्नाणि राघव।
तानि पुत्रपशत््नन्ति पीत्यर्थमनुशासतः ॥ ५९ ॥
६88 भयाध्याकायदे

क्योंक ि देरा घव ! झू ठे दो पा रा पण के लि ये दण िद ित ज्ल ागो ं के


नेत्रों सेगिरे हुए आंधु उस राजा के, जे फेवल भ्पने शारीरिक
छुछ ( ऐश धार ाम् र ) के लि ये राज ्य कर ता है और न्य ाय की झो र
ध्यान नहीं देता, पुत्रोंऔर पश्ञमों का नाश कर डालते हैं ॥ ५६ ॥
कच्निदृह॒द्धांइच वालांश वेद्रमुख्यांथ रायव |
'दानेन मनसा' बाचाः त्रिभिरेतेव भूपसे ॥ ६० ॥
के तेव
ब्रिभिरेभी

हैराधव ! तुम वृद्धों, वालकों, वै्यों और मुखिया ल्लेगों के,


(१) उनकी अभीष्ट वस्तु प्रदान करके, (२) उनके साथ रुनेहपूर्वक
व्यवहार करके भर (३) उनसे भ्राश्वासन छूचक तचन कह--(इन)
तीन तरह से राज़ी तो रखते द्वो ? ॥ ६० ॥
कब्चिदगुरूंश्च हृद्धांरच तापसान्देववातिथीन्‌ ।
चेत्यांश्च* स्वान्सिद्धायन्वाह्मणांथ नमर्यसि ॥६१॥
तुम गुरु, वृद्ध, तपत्वि, देवता, भ्रतिथि, चौरादे के बड़े वृक्तों
और विद्या-तपानिष्ठि ब्राह्मणों के दो श्रद्धापूर्षक प्रथाम करते
हा 7॥ ६१ ॥
कच्चिदर्थेन वा पर्ममथ धर्मेण वा पुन! ।
उभो वा प्रीतिछोभेन कामेन च न वाधसे ॥ ६२ ॥
कहीं धर्मातुप्ठान के समय के अर्थेपाजन में श्रथवा अ्रधेपार्जन
के समय के धर्मानुठ्ठान में तोन४्ट नहीं कर देते ? श्रथवा छुखा-
भिल्राप के लिये विषयवासना मेंफस, अर्थेपार्जन और धर्मानुछान
दोनों का समय तो नहीं गंवा देते ? ॥ ६२ ॥
) दनेन--अभिमतवस्तुप्रदानेन |(गो०) २ मनता--ल्नेदेंन | (गो० )
३ वाचा--सान्त्ववचदेन | (गो? ) ४ चैत्यानू--देवतावासमृतचतुष्पधस्य ह
सहापक्षान्‌ । ( गो० )
शततमः सर्गः 88५

क्चिदथ च धममं व काम च जयतांवर ।


पिभज्य काले कालज्ञ सर्वान्भरत सेवसे ॥ ६३ ॥
दे ज्ञीतने वालों मेंश्रेष्ठ !दे कालक्ष भरत |धर्म प्र्थ और काम
इन तीनों के समय विभाग कर किया करते है|कि नहीं ? (प्रातःकाल
दाना[दिधिर्म में,तद्नन्तर राजकाज में,और रात--काम के लिये )
थर्थात्‌ कईह्ठी एक दी काम में तों सारा समय नहीं विता देते॥ ६३ ॥
कबच्िते ब्राह्मणा! शर्म! स्वशाद्राथकाविदा! ।
२आशंसन्ते महाप्रात् पारजानपदे। सह ॥ ६४ ॥
देमद्ाप्राज्ष |पुरजन, ज्ञनपद्वासी श्र धर्मशात्र के सम्पूर्ण
श्रधां के जानने वाले पण्हित तुम्हारे खुख के लिये प्रा्थवा तो
किया करते हैं ॥ ६४ ॥ ु
नास्तिक्यमतृतं क्रोध प्माद॑ दीर्षसत्नवाम्‌ |
अदशन ज्ञानवतामालस्यं 'पं्रहृत्तिताम्‌॥ ३५ ॥
एकचिन्तनमर्थानामनर्थज्षेश्र मन्त्रणम ।
निशितानामनारस्म॑ मन्तस्यापरिरक्षणम्‌ ॥ ६६ ॥
मडुलस्याप्रयोगं च अत्युत्थानं" व स्वत; |
व्चत्त्वं वजयस्येतान्राजदेप्रांथतुदंश ॥ ६७ ॥
कच्चित्त्व॑ | जदेपां

हैभरत | १ नास्तिकपना, २ श्रस्त्यमाषण, ३ क्रोध, ४ प्रवव-


घानता, ५ दीघधुत्नता, ई ज्ञानियों सेन मिल्तना, ७ भ्रान्नस्य, ८
! धर्म--सुझं ।(गो" ) २ आशंसन्ते--आरथंयन्ते ३ प्॑मदृत्तिताम--पद्षे-
न्वियपरवशतां | (गो० ) ४ प्रत्युवयानंचसर्वत+--नीचप्पानीघस्पाप्यागनने
प्रत्युत्थावमिल्र्थ: । ( यो० )
४७६ थ्येध्याकायडे

इच्धियों की परवशता, ६ मंत्रियों की अ्रवद्देत्ता ऋर न्यय॑ भ्रकेतेद्दी


शज्य सम्बन्धी बातों पर विचार करना, २० अशुभ चिन्तको-अयवा
इद्दी वात छुक्काने वालों सेसलाद करना, १६ निश्चित किये हुए
कामों की आरम्भ न करना, १२ सलाह के न छिपाना, १३ मडुल
कृत्योंकापरित्याग, और १४ नोच ऊँच सव के देख उठ खड़ा
देना या सव के अम्युत्यान देना श्रथवा चारों श्रार युद्ध करते
फिरता--इन चोदद दाज़दोपों के ता तुमने त्याथ दिया दे?
॥ ६४ ॥ है ॥ ६७॥
दश पश्च चतुवगान्सप्तवर्ग च तत्त्वतः ।
अष्टवर्ग त्रिवग च विद्यास्तिस्थ्व राघव || ६८ ॥
हैभरत ! १शिकार, २ जुआ, ३ दिन का सेना, ४ निन्दा
करना, ५ स्री, ईमद, ७ नृत्य, -८ गीत, ६ वाद्य और १० बूथा
इधर उधर घूम्नना (ये दश काम्रज दाप दे )--इनकेा ; १ जल
सम्बन्धी २ पर्वत सम्बन्धी २ बृत्त सस्वन्धो ४ ऊसर सम्बन्धी श्रार
५ निर्जल वेश सम्बन्धी, इन पाँच प्रकार के दुर्गा का ; १ खाम २
दामरे दृश्ठ और ४ भेद--इन चार नोतियों को ; २ स्वामी २ मंत्री
३ राष्ट्र ४ दुर्ग, ५ काश द सेना ७ मिन्नराज्य, इन सात शगों को
-तुप्र भल्ती, भाँति जानते ओर इन पर विचार किया ऋरते दी
कि नहीं ? १ चुशुलपन, २ दुःसाहस, ३ द्वोह. ४ डाह ॥ ६८ ॥
इन्द्रियाणां जय॑ बुद्धा पाद्गुण्यं देवगासुपस्‌ ।
इृत्य॑ विंशतिवर्ग च तथा प्रकृतिमण्डलम ॥ ६९ ॥
४ गुण में दोष देखना, ५ अथ में दोष लगाना, 3 कठोरवचन,
८ तीदंणदुयड देना, (ये क्रोधज आठ द्वाप हैं)--इनका ; १ धर्म
२ ध्र्थ ओर ३ काम-इन तीनों के ; तीन प्रकार की विद्याप्रों
शतत्तमः सगेः &डछ

ह। ( तोनों वेदों का पढ़ता ); १ सन्ि, २ पिग्रद, ३ चढ़ाई, ४


समय को प्रतांन्षा करते रहना, ४ श्ञाभ्श्नों में फूड फेजाना, भौर
+ किसी उत्ती हो अपना सहायक बनाया उन छुष्म्रो के ; ९ श्र
ये जन, २व्याधि ४ बुभित्त श्रोर महामारी इन पांच तरह की दैविक
विपत्तियों का तुम भतों भोति ज्ञानते तो दो ? अधिकारियों से
चारों से, शन्यों से, राजा ह कृपापात्नों से ग्रेर राजा के लालच से
उत्पन्त 5६ पिपत्तियों के तुम भत्री आति जानते क्र उन पर ध्यान
तो इंते है १ बालक : बुद्ध ३ दीथे शेगी ४ जातिवहिप्कृत,
४ हापोंक, ६ दूसरों के इस्पाने वाज़ा, 5 कलासो ५ केमी का
संक्यी, ६ प्रज्ञा जिससे विरक्त दे, १० इस्धियासक, ११ बहुत
ज्षोगों केसाथ परामर्श ऋरने वाला १६ देव-आश्मण-निन्वक १३
भाम्यदीन १४ भाग्य पर नि्मर रदने वाला १४ अ्रकाल का मारा,
२६ विदेश में माया मारा फ़रने बाज्ा, १७ बहुत शात्रथों वाला
२८ ययासमय काम ने करने साला ६ सत्य धम्र में जे तत्पर
नहीं २० पार सेना फा सताया दुच्ा या बड़ा पदलचान--इन वीसों
के। ; राज्य, क्री, स्वान, देश, जाति और घन जिनके हीन लिये
गये ही ( यह प्रकृति मगृठल्न है )-इनकफ्रा: शत्र, मित्र, शप्षका
भत्नी मांति का शत्र और परममित्र ये राममणढल्त एँ--इनकी ; तुम
मित्र, मित्र जानते और इन पर ध्यान देते दो | ॥ 48 ॥

यात्रादण्दविधानी च दियानी' सन्विविग्रहो |


कच्चिदेतान्मद्ाप्राज्ञ यथावदनुमन्यसे ॥ ७० |
१ याज्रादग्ट विधानं-नयाप्रा याने दण्डस्यसैन्यत्यविधानं पपिधान॑
च्यूदभेद विधानं | | गो० ) ३ दियेनी--संपिविप्रदयानासनद् धीमावसमा-
श्षपौ संधेहप । ( गो )
चा० रा०--६२
दैडद अयाध्याकायंद .

हैमहापाक्ष ! यात्राविधान, दगृडविधान, सन्धि, विश्रद, करते


न करने वालों के परख लेना-इन जातों को तुम मक्ती भांति
जानते दा कि नहों ? ७० ॥
मन्त्रिभिस्ल यथादिष्टे्षतुर्मिद्धिभिरेतर वा ।
कच्चित्समस्तेव्यस्तेश्व म॒न्त्रं मन्त्रयसे मिय/! ॥ ७१ ॥
हैमतिमान्‌ ! तुम नीतिशास्न के अनुसार तीन या चार मंत्रियों
के एकत्र कर एक सांथ, ध्थवा उनसे अलग श्रलग गुप्त परामर्श
करते दा ? ॥ 9१ ॥
कच्चित्ते सफला वेदा; कच्चित्त सफला; क्रिया; )
कच्चिते सफला दारा! कच्चिते सफर श्रुतम्‌॥७२॥
क्या तुम अद्निदोत्नादि प्रमुठान करके वेदाध्ययनन के सफल
करतें दो ? दान और भाग में लगा कर क्या तुम अपने धन के
सफल्न करते दा ? यथाविधि सस्तानोत्यति कऋर स्त्रियों को तुम
सफल करते हो? तुमने जे शात्र श्रवण किया है उसके प्रदुसार
आचरण कर तुम णाद्रश्चग के चरितार्थ करते हो ॥ ७२ ॥
[ मद्गाभारत में लिखा है.
भ्षम्मि्ेत्रफलाबेदा:, दत्तमुन्दफर्ल धर ।
रतिवुन्नछ्कादाराः ग्रीलबृत्तफ़् श्रूर्त ॥
०२वें छोक का माश्चय इस छोड़ में स्पष्ट कर दिया गया है । ]
स्विदेपेव
बे
कच्चिदेषव
०३ बुद्धियेयाक्ता
हक
ते बुद्धियेयाक्ता मम्र राघव ।
0 ९
धर्मकामार्यसंहिता

आयुष्या
च यशस्या च ६ ॥छरे॥
१ मियः--रह्प्ति मंत्र मंत्रयसेकचित्‌ ! (गो० )
शततमः सगे: ६७६
धर्म, अथ तथा काम के सम्््ध मेंजे। वातें मेंने तुमसे अभी
फह्दीहैंप्रोर जिनके घनुसार चलने से यश भोर श्ायु बढ़ती है,
वे तुर्दें पसंद देकि नहीं ? ॥ ७३ ॥
याँ दृत्ति वर्तते ताते यां च न; प्रपितामहाः
तां हृत्ति वतसे कच्चिद्या च सत्पतथगा शुभा ॥७४॥
सम्मार्गानुमारिणो भर भ्रनिन्‍्दता, जिससे हमारे पूर्वज पिता
पितामहादि चल्नते थे, उसी वृत्ति को श्वलंवन कर तुप्त भी चलते
दी न? ॥ ७४ ॥|
कच्चित्घादुकृतं भाज्यमेके नाइनासि राघव ।
कच्चिदाशंसमाने भ्ये।मित्रेभ्य/ सम्प्रयच्छसि ॥ ७५ ॥
हैभरत | तुप्त स्वादिए भाजन भक्ेत्ते ही तो नहीं खरा लेते ? जे।
मित्र जाते समय उपच्थित हो उनके देकर खाते है। न / ॥ ७४ ॥
राजा तु धर्मेण हिं पालयित्वा
0
महामतिदण्डधरः प्रजानाम्‌ |
अवाष्य कृत्त्नां बसुधां यथाव-
दितइच्युतः' खर्गमुपैति विद्वान ॥ ७६॥
इति शततमः सर्गेः ॥
! ज्ञा नीतिज्ष और शासनवणडधारों राजा धर्माचुसार
प्रज्ञा का पान्नन करता है-वह क्षानी याज्ञा पूर्वराजाओं की तरह
सम्पूर्ण पृथिवी का स्वामी है, मरने पर स्व में जाचास करता
है॥ ७४६ ॥
प्रयाध्याकागड का सौवां सर्ग समाप्त हुआआा।
“पं
३ ध्युव:--आरू्ध फर्मावसानेरृतइत्यथेंः | (गो० )
एकोत्तरशततमः सर्गः
40 न

रामस्य वचन श्रुत्वा भरतः प्रत्युवाच ह।


कि में !पर्मादिद्ीनस्प राजधर्मः करिष्यति ॥ १ ॥
धरीरामचन्द्र लीके वचन खुन भरत जो वाले कि, में तो
खकुज्लाचित रीति से रहित हूँ--घतः राजधर्म का उपदेश
मेशै लिये क्रिल काम का ॥ १ ॥
शाइवते/्यं सदा पर: स्थिताउस्मासु नरपभ | है]

ज्येप्ठपुत्रे स्थिते राजन्न कनीयानपा भवेत्‌ ||२ ॥


है पुव्पश्रेष्ठ !हमारे कुल में तो सदा से यद्द रीति चली आती
हैकि, दड़े पुत्र के सामने द्वाठा पुत्र राजा नहीं ही। सकता ॥ २॥
स समृद्धां गया साधमयेध्यां गच्छ राघव ।
अभिषेचय चात्मानं कुलुस्यास्थ भवायः नः ॥ ३ ॥
अठःहैसबब । आप ग्रेरे साथ घनधान्यपुर्ण अयोध्यापुरों में
चल्िवे आर अपना राज्याभिषेक करवा कर, हमारे कुल का
कर्पाय कीजिये ॥ २ ॥
राजान माजुप याहु्देवत्वे सम्मता मम ।
अस्य वमायंसद्दित हत्तमाहुरमानुषम ) ४ )|
१ घर्मत्रिदीवलत्य--खछुलेलित्रीतेःविद्वीवत्य । ( धि० ) २ भवाव--
सद्वाय । ६ गी० !
एकेात्तरशततमः सगे 8५३
लग राजा को भले ही मनुष्य कहा करें, किन्तु में तो राजा
के देवता समचता हूँ। फ्योंकि उसके धर्म और थर्थ से धनुमे।दित
चरिष्र क्लेकात्तर द्वेतेहैं| अर्थात्‌ माधारण मनुष्य से भिन्न दोते
हैं॥५॥
केकयरथे थेमयि तु लगि चारण्यमाशिते |
दिवमायें गतो राजा यायजूकः सततां मत! ॥ ५ ॥
जब मेंअ्रपत्रो ननिद्दाल केक्रयराज्य में थाऔर धयाप वन चक्षे
थ्ाये थे, तव शनेक यज्ञ करने वाले तथा साधु सन ज्यों से
प्रशंसित मद्दाराज दृशरथ स्वर्ग के सिधारे ॥ ५ ॥
निष्क्रान्तमात्रे भवति सहसीते सलक्ष्मणे |
दु।खशेकामिभूतस्तु राजा त्रिदिवमभ्यगात्‌ | $ ॥
सीता और जत््मण के साथ आपके श्याध्या द्ाड़ते ही महा-
राज दु।व और शेक से ऐसे विकल हुए कि, वे स्वर्ग को चक्षे
गये ॥ $ ॥
उत्तिष्ठ पुरुषव्याप्र क्रियतामुदक पितु! ।
अहं चाय॑ च श्त्रृप्नः पूषमेद कतोदकों ॥ ७ ॥
है पुरुषलिह | झ्व श्राप इस सम्रय उठिये भार पिता जी के
, अलज्ोश्न॒त्रि दीजिये | शत्रुघ्न श्रार में तो पढिले ही जलाञलि दे
चुका हैं॥७ ॥
प्रियेण खलु दत्तं हिपिहलेकेषु राघव ।
अक्षय्य॑ भवतीत्याहुभवांश्चेव पितु! प्रिय! ॥ ८ ॥
ह्प२ श्रयाध्याकायंड

हैराघव | क्ेग कह ा कर ते है ं कि , प्य ारे पुत ्र का दि या हु आा


पिय् और जल पि दृ त् ते र मे ं भ्र त्त व्य दो कर वन ा रद ता है , से
आप ही पिता जी के प्रिय पुत्है र ं॥ ८॥
लामेब शेच॑स्तव दशनेप्सु-
स्वय्येव सक्तामनिवत्य बुद्धिम्‌ ।
लयाविहीनस्तव शेकरुणः! ।
तां संस्मसन्‍्स्गंमवाप# राजा ॥ ९ ॥
इति एकेत्तरशततमः सगः ॥
क्योंकि आप दी के सेचते, भाप दी के दर्शन की इच्छा करते,
'आपही के स्मरण करते, थाप ही के वियागजनित ढुःख से पिफेश्
और घ्राप ही का नाप लेते पिता जो स्वर्ग पधारे हैं ॥ ६ ॥
ध्रयेष्याकायड का एकसे एकवी सगे समाह्त हुआ ।
>->औ++

इयुत्तरशततमः सगे:

तां श्रुत्वा करुणां* वा पितु्मरणसंहिताम !


राघवो भरतेनाक्तां वभूव गतचेतन! ॥ १ ॥
श्रोरामचच्ध जी ने भरत ज्ञी के मुख से पिता के मरने की'
जब शाक्षप्रद वात घुनी, तव वे भचेत हो गये ॥ १॥
! हुप्णा--पोडितुइतियावतू | (गो०) रे करुणां--शेक्ावहां । (बोल)
क# पृ/ठन्तरै---+ पत्मक्षस्तमितः * सत्मरत्नेवगतः !) ।
बय॒त्तररततमः सगे! ह्परे

त॑ तु बजमिवेत्सष्टमाहने दानवारिणा ।
वागबञ' भेरतेनोक्तममनेज परन्तपः ॥ २ ॥
जैसे दैत्यों के शत्रु इन्द्र दौयों पर युद्धकाल में वन्च का प्रहार
करते हैं, वैसे दी भरत ज्ञी के वन्नरूपी वचन का प्रहार भ्रीसमचन्ध
पर हुआ ॥ २॥
प्रगह्न वाहू! रामे वेपुष्षिताग्रो यथा दुए। ।
वने परशुना कृत्तसतथा झरवि पपात है ॥ ३ ॥
“श्रोरामचन्ध जी ( पदुतावे से )दोनों द्ााथ मलते हुए, फरसे
से कार हुए पुष्पित चृत्त को तरह पृथिवी पर गिर पड़े ॥ ३ ॥
तथा निपतितं राम॑ जगत्यां जगतीपतिम ।
कूलघातपरिश्रान्तं प्रसुप्मिव कुझरम ॥ ४॥
जगतपति श्रोरामचद्ध जी पृथिवी पर ऐसे मूछित पढ़े थे,
मानों केई मतवाला द्ााथी नदी का तट ढद्वाते ढहाते थक कर पड़ा
हुआ्रा से रहा है| ॥ ४ ॥
अरातरस्ते महेष्वासं स्वेतः शेककर्मितम्‌ ।
रुदन्‍्तः सह वैदेशा सिषिचु! सलिलेन वे॥ ५ ॥
तब भीरामचन्द्र ज्ञी के! मूद्ित दुधा देख सव भाई ज्ञाबकी जो
सहित शोक से विकल दी रोते रोते उन महाधतुष्धारी धोराम-
चन्द्र जी के ऊपर जले छ्िडक उनकी सूर्श भट्ट! करने का प्रयत्न
करने लगे ॥ ५ ॥
१ बाहुअग॒क्ष “पाणिनापाणिनीष्पीह्यवद्घृत्यवा | ( गौ० )
हगहै
॥। बट ग्रयाध्याकायदे

स॒ तु सं ज् ञा ं पु नल ब् ध् वा ने त् रा भ् या मा सम ुत ्ठ जन ्‌ ।
डपाक्रमत# काकुत्त्यः कपणं वहु भापितुस ॥ ३॥
ज्ञर श् री रा मच च् ध जी सच ेत हु ए, तच वे रो ते रो ते बह ुत वि ल् ला प
करने लगे ॥ ६
स रामः खत श्रत्रा पितरं पृथिवीपतिम |
उबाच भरतं वाक्य धमात्मा धमेसंहितस | ७ ॥
घम्ात्मा भीरामचनद्र ज्ञी यह छुन कर कि, पिता जी स्वर्ग
घिधारे हैं,भरत जी धर्मसड्भरत यह चचन वाले ॥७ ॥
कि करिष्याम्ययेध्यायां वादे दिल्लैं गति गते |
कर्ता रानवराद्धीनामयेध्यां पालय्रिष्यति ॥ ८ ॥
जब विता जी ही स्वर्ग चले गये, तब में प्रयाध्या ज्ञा कर ही
क्या करूँगा |उन राजश्रो्ट के बिना श्रयाध्या का शासन कॉन
करेगा | ८ |
क्िन्नु तस्य मया काये दुननतिन महात्मनः |
ये झते मम शेाकिन मया चापि न संस्कृतः ॥ ९ ॥|
मेरा जैसा निरथंक जन्म धारणा करने वाला पुत्र, उन महात्मा
पिता के लिये क्या कर सकता है। भरे नियागजन्य शोक से तो
उनका देदान्त हुआ और में उनका अन्तिम संस्कार सो न कर
पाया ॥ ६ ॥
अह्ढी भरत सिद्धायों येन राजा लयाउनघ |
शत्रुध्नेन च सर्वेषु प्रेतकृत्येषु सत्कृतः ॥ १० ॥
# पाठान्तरै--' उपाश्याप्नत * !
द्युत्तरशततमः सर्मः श्ष+
|

हैतिष्पाप भरत ! तुर्दीं अच्छे रहे कि, तुमने श्र शत्रु ने


पिता जी के सम्पुर्ण प्रन्येश्किमं तो कर लिये ॥ १० ॥
नियपानामनेकाग्रां! नरेन्द्रेण विनाकृताम |
निहत्तवनवासाअपि नायेध्यां गन्तुमुत्सहे ॥ ११ ॥
' झभी ,भ्या, मेंते वनवास से लौट कर भी उन प्रधान,
पुरुषददीन स्वास्थ्यवर्जित शयाध्या मेंजाना नहीं चाहता ॥ ११ ॥

सम्राप्तवनवासं मामयेध्यायां प्रन्तप ।


कोओ्तु शासिष्यति* पुनस्‍्ताते लाकान्तरं गते ॥१२॥
क्योंकि हे परन्तप | में चनवास की श्रवधि पूरी कर यदि
ध्योाध्या जाओ भो तो वहाँ श्रव मुझे द्िताहित का उपदेश देने वाला
हैही कोन ॥ १२॥
पुरा प्रेशय सुहत्त मां पिता यान्याह सान्त्वयन्‌ |
वाक्यानि तानि श्रोध्यामि कुठ। कणसुखान्यहम ॥११॥
हि 0

मेरे मद आचरणों को देख, पिता ज्ञी मुझ्के स्नेहपूर्वक जे।


उपदेश देते थे, ग्रव उनकर्णछुलदायी उपदेशों के मेंवहां किससे
सुनूंगा ! ॥ १३॥
एवमुकक्‍्ता से भरत॑ भायमिश्येत्य राघव! |
उवाच शेकसन्तप्त: पूणचद्धनिभाननाम ॥ १४ ॥
० पूर्णयद्धनिभाननाम्‌

३ अनेकाप्रां--स्वाध््यरद्वितां। ( शि* ) २ अनश्ञासिष्यति--हदितादित


विफय अवृति नियृत्तिकारविष्यति | (रा )
हद घग्रेध्याकाणडे

शोकसन्तप्त श्रीरामचन्र ज्री भरत ज्ञी सेयर कह कर सीता


की शोर मुख कर उन पूर्णमासी के चन्द्रमा सरश म्रुख बालो
जानकी ज्ञी से वाले ॥ १७ ॥
सीते मृतस्ते श्वशुरः पित्रा दीनाउसि लक्ष्मण ।
भरते दुःखमाचष्टे खगत॑ पृथिवीपतिम ॥ १५ ॥

है सीते | तुस्दारे सहुर स्वर्ग सिधारे | है लक्मण ! तुम पिता-


दीन है गये | क्योंकि महाराज के स्वर्गवाश्त का यद्द दुःखदायी
संवाद मु्े भरत ज्ञो सेअवगत हुआ है ॥ १५ ॥
तते वहुगुर तेषां वाष्पे# नेत्रेष्वजायत ।
तथा ब्रुवति काकुत्स्थे कुमाराणां यशखिनाम्‌ ॥ १६ ॥
शओीरामचन्द्र जी के ऐसा कहने पर, सब वहुगुणी एवं यशरुवी
राजकुप्रार शेने लगे ॥ १६ ॥
ततस्ते आतरः सर्वे भुशमारवास्य राघवम्‌ ।
अन्नुवज्नगतीभर्ु! क्रियतामुद्क पितु! ॥ १७ ॥
तद्नन्तर उन सव भाईयों ने शोर सेनिकल श्रोरामचन्द्र के
वहुत समक्ताया बुस्नाया और कहा श्रव आप महाराज के जल्ला-
श्रत्रि दीजिये ॥ १७ ||
सा सीता ख़बर भ्रुता खगलेकग्त तृपम्‌ ।
नेत्राभ्यामभुपूर्णाम्यामशकन्नेक्षितुं पतिम॥ १८ ॥
सीता जो क्षे नेत्रों में, सलुर के देहान्तरित होने का संवाद
छुनने से, इतने श्रांछु भर गये कि, वे श्रपने पति के न द
ेख
' सकी ॥ (८ ॥
# पाठान्तरे-- बादपं । ४
वुत्तरशततमः सर्गः हद

सान्वयित्वा तु वां रामे रुदन्तीं जनकात्मजाम |


उवाच रक्ष्मणं तत्र दुःखिते दु/खितं बच! ॥ १९ ॥
तव ददन करती हुई जानकी जी की श्रीरामचद्ष प्री ने समझा
बुझा कर धीरज वंधाया |फिर शोर से विकल हो, श्रीरामचन्द्र
दुष्चित लद्मण जी से कहा ॥ १६ ॥
आनयेहगुदिपिण्याक॑ चीरमाहर चात्तरम्‌ |
जलक्रियाथ तातरय गमिष्यामि महात्मन! ॥ २० ॥
है लक्त्मण ! तुम इस समय इंशुदी के बीजों (हिंगाट ) का
पीस कर के प्राश्नो ओर एक नया चोर मेरे पदिनने के लिये ले
शआग्यो | शव मेंपिता जो का जलाश्रलि देने के चलत्नता हूँ ॥ २० ॥
सीता पुरस्तादव॒जतु त्वमेनामभिते व्रण ।
अहं पथ्मादगमिष्याम्रि गतिश्वेपा सुदारुणा ॥ २१ ॥
सीता थ्ागे आगे चक्ते और तुम इनके पीछे चक्के और मेंसव
के पीछे चलू गा क्योंकि इस दारुण सम्रय मेंचलने का यही
विधान है ॥ २१ ॥
[ नाट--ऐसे समय में चलने के लिये धर्मसूत्र कायह प्रमाण है--
५ सर्वेकनिष्ठमथमाभनु
पूर्वइतरेजियोग्रे । ” )

तवो नित्यानुगरतेपां विदितात्मा महामतिः ।


मदु्दोन्‍्तथ शान्तश्व रामे च हभक्तिमान्‌ ॥ २२ ॥
सुमन्त्रस्तैनपसुतैःसाथमाश्वास्य राषवम्‌ ।
अबातारयदालम्ब्य नदीं मन्दाकिनीं शिवाम ॥ २३ ॥
श्द८ अयाध्याकायडे

तदनन्तर इद्ंचाक राजघराने के पुराने अनुचर, ज्ञानी, महामति,


कैमलहदग, जितेम्रिय, शान्तप्वमाव ओर श्रीराम में हुढ़े भक्ति
रखने वाले छुमंत्र, उनराजकुमारों के अनेक प्रकार से समझा
कर, उन्हें निमल जलतालो अथवा पुएयपतलिला मंदादिनी नदी
पर ले गये ॥ २२ ॥ २३ ॥
ते सुतीर्या' ततः कृच्छादुपागम्य यशखिनः ।
नदीं मन्दाकिनीं रम्यां सदा पुष्पितकाननाम्‌ ॥२४॥
रमणीय और सदा फूकते दुए वन में हेकर वहने बाली मंदा-
कितो के सुन्दर घाट पर, वे ज्ञाग आंत कष्ट से गिरते पड़ते
पहुँचे ॥ २४ ॥
शीप्रश्ोत्समासाथ तीर 'शिवमकर्द मर |
सिपिलुस्तूदक राजे तत्रेततेर भवत्विति ॥|२५ ॥
तदननतर उस कोचडू रदित और शो बहने बाली तथा
कल्याणप्रद्‌ मंदाकिनी नदी के घाठ पर पहुँच श्रौर " एतद्भवतु ”
( यह जल शआापकीा प्रिल्ले)कह कर महाराज वृशरथ के जल्ञाजजि
देने लगे ॥ २५ ॥
प्रयत्न च महीपाले! जलपूरितमझलिय ।
दि याम्यामभिमुखेरुदन्‍्वचनमत्रवीत्‌ | २६ ॥
उस समय मद्दाराज़ प्रीयमचन्द्र जो अजली में जल भर शोर
दत्तिण की शेर मुख कर रुदन करते हुए वेले ॥ २६ ॥
१ शिव--कल्याणप्रदं | (शि० ) २ तम्रैतत्ते--है तात एतजलंभचतु
त्वसन्निधौति्ठतु | (शि० )
ब्दयुत्तराततमः सर्गः ह्ष६

एतते राजश्ञार्दूछ विमल तेयमशक्षयम्‌ |


पिठुलाकगतस्पाथ मदत्तमुपतिप्ठतु ॥ २७ ॥
हैराजशादूल | प्राज यह मेरा दिया हुआ जल, पितुल्लेक में
झापका ध्रत्तय्य हा कर मिछे ॥ २७ ॥
ततो मन्दाकिनीवीरात्त्युतीय स राघव! ।
पितुथकार तेजखी निवाप॑# प्रादृभिः सह ॥ २८ ॥
तद्नन्तर तेजस्वी श्रीयमचन्ध जी ने भाइयों लहित मंदाफिती
के तठ से ऊपर थ्रा कर, महाराज का पियद दिये ॥ २५ ॥
ऐडगुदं वदरीमिर्थ पिप्याक दर्भसंस्तरे |
न्यस्य राम! सुदु/खातें रुदन्‍्वचनमत्रवीत्‌ ॥ २९ ॥
धभीरामचद्ध क्षी ने वेर फल्ों को इंगुदी के श्राटे मेंमिज्रा पिएड
बनाये श्रार कुश पिछला कर उन पिणडों के उन कुशों पर रख, दुःखी'
द्वीरोते हुए यद्द कहा ॥ २६॥
इद भुडव महाराज प्रीतो यदशना वयम्‌ |
यदन्नः पुरुषों भवति तदब्नास्तस्य देवता। ॥ ३० ॥
है महाराज्ञ | श्राज कल हम जाग जो जाते हैं, चद्दी इस समय
थ्रोप भाजन क्रीजिये। क्योंकि मनुष्य जे। स्वयं खाता है, उसीसे
बह अपने देवतों के! भी सन्तुए्ठ करता है ॥ ३० ॥
ततस्तेनेव मार्मेण पत्युत्तीय नदीतदात्‌ |
आरुरोह नरव्याप्रो रम्यसानुं महीपरम्‌ ॥ ३१ ॥
१ निवापं--पिण्डप्रदान | (गो० ) # पाठान्तरे--* निवा् ? |
६० अयाष्याकायडे

फिर नरश्ेएठ श्रीरामचद्ध ज्ञी जिस मार्ग से नदी के किनारे


पर उतर कर थाये थे, उस्तो मार्ग से नदी के तद के छोड, उस
मनेाहर शिखर वाले पर्वत पर चढ़ गये ॥ ३१॥
ततः पर्णकुटीद्वारमासाथ जगतीपतिः
परिणग्राह वाहमभ्यामु्भों मरतरृक्ष्मणी ॥ ३२ ॥
चहां दे श्रपनी पणकुदी के द्वार पर पहुँच भरत और लक्ष्मण
को दोनों भुज्ञाओं से थाम शेने लगे ॥ ३२॥
तेपां तु रुदतां शब्दात्तिश्र॒त्काअमबद्विरों
श्रातणां सह वदेद्या सिहनामिव नदताम || ३३ ॥
उस समय चारों राजकुमारों और स्रीता ज्ञी के, गजते
सिंहों का दहाड़ जैसे रोने के शब्द सेपर्चत गु ज उठा ॥ 3३ ॥
महावलानां रुदतां कुवतामुदक पितु! ।
» विज्ञाय तुमुरं शब्दं त्रस्ता भरतसनिका! ॥ ३४ ॥
पिता जो के जलदान कर चारों भारयों के सेने का शब्द छुत,
, भरत की सेना के भाग डर गये ॥ ३४ ॥
अवरुवंश्रापि रामेण भरतः सद्भता भुव्रम्‌ |
तेषामेव महाज्शब्दः शाचतां पितरं मतम ॥ ३५ |
वे श्रापस में कहने लगे कि श्रीरामचन्द्र सेभरत की भेंट
धवश्य दो गयो | क्योंकि पिता के मरने से वे अत्यन्त शाक्राकुल
हो विल्लाप कर रहे हैं ॥ ३४ ॥
अथ वासाम्परित्ज्य तं सर्वेंबभिमुखा। खनस्‌ |
अप्येकमनसा! जम्मुयेथास्थानं प्रधाविता) ॥| ३६ ॥
१ एकमनसः-सम्ानहृदया । ( शि० )
द्रचुत्तरराततमः सर्गः ६8१

पे सव सैनिक अपने हेरों का छोड़ जिस और से शेने का


शब्द खुन पड़ता था, उस भ्रोर मुख कर ग्रार एक म्रव हो दौड़
पड़े ॥ ३६ ॥

हयेरन्ये गजेरन्ये रयेरन्ये खलंकृते! ।


सुकुमारास्तयवान्ये पद्धिरेव नरा यथु। ॥ ३७ ॥
उनमें से बहुत मे क्षाग जे। छुकुमार थे वे थोड़े, हाथी और
अच्छे प्रच्छे एवं सजे हुए रथों पर सवार है! और कितने दी पेदूल
ही उस शब्द की और बढ़े ॥ २७ ॥
अचिरप्रोपितं राम॑ चिरविश्रोषितं यथा ।

द्ृष्टुकामों जन। सवे! जगाम सहसा>थ्रमम | रे८ ॥
यद्यपि श्रोगमचद्ध जो को पधयोध्या द्रोड़े श्रभों बहुत दिन
नहीं हुए थे। तथापि उन सव के ऐसा ज्ञान पड़ता था कि, मानों
श्रीराम की प्योध्या दोड़े वहुत दिन वोत गये हैं। ग्रतपव श्रीराम बच्ध ,
जी की देखने की उत्कयठा से वे सव उनके झाश्रमत में पहुँचे ॥३८॥
श्रातणां त्वरितास्तत्र द्ष्ट्क्रमा) समागमम्र्‌ |
ययुवहुविधयान: खुरनेमिसनाकुल। ॥ ३९ ॥
चारो भारयों का समागम देखने के लिये ले।यग अनेक प्रहार
के वाहनों पर सवार दी कर गये । उत वाहनों के पशुओं खुरों और
प्रहिियों से वड़ा शब्द हुआ ॥ ३६ ॥
सा भूमिवहुमियानिः खुरनेमिसमाहता |
मुमेच तुमुल शब्दं धोरिवाप्रसमागमे ॥ ४०.॥
६६५ अयाष्याकायदे

उस समय उस बाहनों के पशुओं खुरों और पदियों को आरादद


से वह स्थान उस्रो प्रकार शब्दायमान दुआ, जिस प्रकार मेत्रों के
सम्रागम में, ग्राकाश णव्दायमान दाता है ॥ ४० ॥
तेन वित्रासिता नागा; करेणुपरिवारिता) । -
आवासयन्तों गन्धेन जम्मुरन्यद्॒नं तत! ॥ ४१ ॥
उस शब्द से डरकर दृथिनियों सहित हाथी अपने मद को
गन्धि से वन को सुवासित ऋरते, वह वन दीड़ दूसरे बन में चलते
गये ॥ ४१ ॥

वराहहकसड्ञा महिषा; सपंवानरा। |
वित्रे ने
व्याप्रगाकर्णयवया विश्रेशु। पृषते! सह ॥ ४२ |॥
० (९

शूकर और भेड्डियों के कुंड, भेंसा, सर्प, च्यान्न, गाकर्णा


नोलगाय ओर पृषत ज्ञाति के द्रित वहुत डर गये || ४२ ॥

रथाड्तादा नत्यृहा हंसा; कारण्डवा; छा; |


तथा पुंस्केकिलाः क्रोश्वा विसंज्ञा भेजिरे दि! ॥४३॥
चक्रचाक्र, जलपमुर्ग, हंस, कारगइव, छुव नामक जलपक्ती,
केकिल, ऋोंच ये खर पत्ती उस शब्द से, मृल्धित से दा इधर उधर
भाग गये ॥ ४३ ॥
तेन शब्देन विन्रस्तेराकाश पश्चिमिइतस ।
मनुष्येराहता भूमिरुमयं प्रवों तदा ॥ ४४ ॥
उस शब्द से अस्त पत्तियों सेढका इश्चा श्राकाश ओर मह॒ष्यों
से अच्छादित पृथ्वी दोनों ही अत्यन्त शाभायमान हुए ॥ ४४ ॥
हयुत्तरशततमः सर्ग ६६रे
ततस्तं पुरुषव्याप्रं यशस्विनमकस्मपस+ ।.
आसीन स्थण्डिले राम॑ ददश सहसा जन! ॥ ४५ ॥
तदनन्तर उन सब लोगों ने सहसा जा कर, वहाँ देखा कि,
यशस्वो, देोषरहित और पुरुषसिह भ्रीरामचन्द्र चबूतरे पर बैठे
४४॥
हैं॥
पिगहंमाणः केकेयीं सहितो मन्थरामपि ।
अभिगम्य जने राम॑ वाष्पपूर्णयुख्रेभवत्‌ ॥ ४६॥
उनके उस दशा में वैठा देख, सव क्लाग कैकेयी व मन्धरा की
निन्‍्दा करने लगे और भ्रीरामचन्ध के निकट जा, वे सव के सब शेमे
लगे | ४६ ॥

वानरान्वाध्पपूर्णाक्षान्समीए्ष्याथ सुदु/खितान्‌ ।
पर्यध्वजत धर्म! पिदृवन्माठृवच्च स! ॥ ४७॥
उन ज्ञागों के रुदून करते और दुखी देख, धर्मज्ष भीराप जी
इठे श्रोर उनके छाती से लगां, उनसे ऐसे मिक्के, जैसे कोई माता
पिता से मित्रता है ॥७७॥
स तत्र कांश्चित्परिपसजे नरान्‌
. ' नरादच केचित्तु तमभ्यवादयन्‌ ।
चकार सववान्सवयस्थवान्धवान्‌...
यथाहगरासाद तदा इृपात्मज; ॥ ४८ ॥
मिलने याग्य मनुष्यों से धीरामचन्र जी गले गले मिक्के ;
किसी किसी ने उनको प्रणाप्र क्रिया।उस समय, राजकुमार
# पाठान्तरे-- अरिल्दृमस्‌ !! !
वा० रा०--६ै३
६६४ अयाध्याकायदे

श्रीरामचद्ध ने अप नी वर ाव र की उम र वा ले श्र ोर भाई वंद ों से


यथायेग्य व्यवहार किया ॥ ४८ ॥
स तन्र तेपां रुदतां महात्मनां
भ्रुव॑ च ख॑ चानुनिनादयन्धनः |
गुहा गिरीणां च दिशश्च सन्त
मुदज्धघेपप्रतिम! प्रशशुवे | ४९ ॥
इति दुत्तरशततमः सर्गः ॥
मिलने के समय उन लेगों के रोने के शब्द से पृथिवी व
झाकाश शब्दायमान है गया। पर्वत की कन्द्राश्नों तथा सब
दिशाओं मेंचद रोने का शब्द, रूदड़ के शब्द्‌ की तरह छुनाई पड़ने
लगा ॥ ४६ ॥
अ्येष्याकागड का एक सै दुसरा सर्ग पूरा हुआ |
-+#$--
त्युत्तरशततमः स्गेः
वसिष्ठ; पुरतः ढृत्वा दारानद्शरथस्य च ।
अभिचक्राम त॑ देशं १रामदशनतर्पितः ॥ १ ॥
,. . शीरामचन् केदर्शन करने की भ्रमित्ञापा से वशिष्ठ मुनि
महाराज दशरथ की रानियों के श्यागे कर, भीरामचन्द्र जी के
शाश्रम को ओर गये ॥ १ ॥
१ रामदर्शनतर्षित+-- रामदर्शनेतज्ञातामिछाषः । ( गो० ) «
व्युत्तरशततमः सर्गः ६६५

राजपत््यश्च गचउन्त्ो मन्दं मन्दाकिनों पति ।



ददृशुरतत्र तत्ती्थ रामलक्ष्मगसेवितम्‌ ॥ २॥
मन्द[|किनों नरो को शोर मंद मंद्र चाल्न से चल्नतों हुईं,
कोशल्यादि रानियों ने श्रीराम बद्धओर लक्षण के स्वान करने
का घाट देखा ॥ २॥

कैसल्या वाध्पपूर्णेन मुखेन परिशुष्यता !


सुमित्रामब्रवीदीना याश्चान्या राजयेषित) ॥ ३ ॥
उस घाट को देख कर देवी कोशत््या का म्रुख, मारे शोक के
सूख गया । वे रे कर सुप्रित्रा तथा प्रत्य रानियों से कहने
लगीं ॥ ३॥ ;
इदं तेषांमनाथानां छिष्ठमक्तिष्कर्मणास । '
बने प्रावक्रेवल! तीय॑ ये ते निर्विषयीकृता: ॥ ४ ॥
देखो, दभारे अ्रवाथ, लेकेत्तर कर्म करने वाले तथा (कैकेयो
द्वारा ) राज्य से च्युत श्रीराम, ज्मण शोर जानकी के स्नावादि
करने का यद धाद है ॥ ४ ॥
इतः सुमित्रे पुत्रर्ते सदा जलमतर्द्रित। ।
स्वयं हरति सौमित्रिमम पुत्रस्य कारणात्‌ ॥ ५॥
दे छुमित्रा |ज्ञान पड़ता है,इसी घाट से मेरे पृत्र के लिये,
तुम्हारा पृश्र लद्मण, निरालस्प दो. स्वयं जल भर कर ले जाता
है॥५॥
१ फैवछ--निश्चितं | (गो० )
ध्ध्ई झयेाध्याकायडे

जपघन्यमपि ते पुत्र) ऋतवान्न तु गर्दितः ।


भ्रातुर्यदर्थ सहित सब तद्विहितं गुणे! ॥ ६ ॥
यद्यपि पानी भरना छैढा काम है, तथापि इस काम को करने
से वह निन्‍्य नहीं है। क्योंकि अपने वड़े भाई की सेवा करना
प्रशंसा करने याग्य कार्य है॥ $ |
अद्यायमपि ते पुत्र: कशानामतथेचितः ।
नीचानथंसपाचार॑ सज्जं कर्म पिमुख्चतु! ॥ ७॥
तन ५ |

शव ( भरत के प्रशुराध से ) श्रीरामचन्द्र के भ्वेध्या लौट


चलने पर, सदा खुल भाग ने याग्य ग्रथवा क2 सहने के अयोग्य
तुम्हारे पुत्र लद्मण की, ये सव हीन पुरुषों के करने याग्य कश्दायी
कार्य नहीं ऋरने पड़ेंगे ॥ ७ ॥
दक्षिणाग्रेु दर्भेपु साददश महीतले |
पितुरिद्गुदिषिष्याक॑ न्यस्तमायतलचना || ८ ॥
तदनन्तर वड़े बड़े नेत्रवाली देवी कोशल्या ज्ञी ने दत्तिणांत्र
कुशों पर रखा हुआ झोर पिता के छिये दिया हुआ इंगुदी का
पियड देखा ॥ ८ ॥
त॑ भूमों पितुरा्तेन न्यस्तं रामेण वीक्ष्य सा ।
उबाच देवी कासल्या सर्वा दशरथद्विय; ॥ ९ ॥
३ चर,

जब कोशल्या ज्ञो ने देखा कि, श्रीरामचन्द्र ने घार्त है कर पिता


, के लिये भूमि में दह पिण॒ड रप़ा है, तव वे श्रन्य सव रानियों से
, बोली ॥ ६॥
इंदमिश्वाहुनावस्य राषवस्य महात्मन! ।
राघवेण पितुदंत्त परयतेतदथाविधि ॥ १० ॥
इ्युत्तरशततमः सर्गः ६६७
इद्याकुनाथ महाराज दशरथ के लिये, श्रीरामचद्ध ने यथा-
विधि जे। यह पिण्ड दिया है,इसे देखो ॥ १० ॥
तस्य देवसमानस्य पार्थिवस्य महात्मन; ।
नेतदीपयिक मन्ये भ्ुक्तमेगरय भेजनम | ११ ॥
में तो धप्रकृती हैँकि, देवताग्रों केसमान भेग भेगने वाले
मद्राता दृशस्थ जो के योग्य यह भोजन नहीं है॥ ११॥
चतुरन्तां महीं शुक्ला महेन्द्रसहशों विश ।
कथमिझगुदिपिप्याक स झुड्क्ते वसुधाधिपः ॥| १२॥
चारों सपुद्रों तक सारो वह्ुधा को इन्ध केसम्रान भे|ग करने
चाक्ते महाराज, किस तरह यह इंगुदी का पियड खाँथगे ॥ १६ ॥
अतो दु/खतरं लेके न क्रिशिल्ञतिमाति मा ।
यत्र रामः पितुदंबादिरूगुदीक्षोद मुद्धिमान्‌ ॥ १३ ॥
है रानियों | मुझे तो इससे वह कर और कोई दुःख नहीं आन
पड़ता जि, बुद्धिमान धोराम ने प्रपने पिता के लिये ईंगुदो की पिट्ठी
का पियठ दिया ॥ १३॥ ;
रामेणेड्गुदिपिण्याक॑ पितुदंत समीक्ष्य मे |
कथ॑ दु।खेन हृदयं न स्फोदति सहस्रधा ॥ १४ ॥
धीरामचन्द ज्ञी के दिये हुए इप्त ईंगुदो की पिट्टी के पियड
को देख, मेय हृदय क्यों नहीं हजार खण्ड दा कर फठ जाता ॥ १७॥
श्रुतिस्तु खल्वियं सत्या ले।किकी प्रतिभाति मा ।
यदन्नः पुरुषों भवति तदब्ास्तस्य देवता/' ॥ १५ ॥
१ क्षोद--पिधम्‌ | ( रा० ) २ देशताः इतिअ्रुतिः प्येय्स्वय/ ( गो० )
श्ध्प ' शयाध्याकायडे
लोग यह कहावत ठीक ही कद्दा करते हैंकि, मनुष्य जा कुल
स्वयं खाता है,वही वह प्रपने देव मोर पितरों के प्रपण करता
है॥ १४॥
एवमाता सपल्यस्ता जम्मुराश्वास्य तां तदा ।
दह्शुआाभ्रमे राम॑ स्वगंच्युतमिवामरम ॥ १६ ॥
इस प्रक्षार केकोशल्या जी के वचन छुन वे रानियाँ महारानी
कौश्या के धीरज वँधाती, श्रीरामाश्रम में पहुँचीं प्रोर वहां
भीरामचन्ध जो के स्व से नीचे आये हुए देवता की तरह, बैठा
देखा ॥ १६
सबभेगेः परित्यक्तं राम सम्मेक्ष्य मातर! ।
आता मुमुचुरभ्रूणि सर्वर शेककर्शिता। ॥ १७ ॥
उन्होंने, देखा कि, भ्रीरामचन्द्र जी सव सखुखोपयेगी भाग्य
पदार्थों को त्यागे बैठे हुए हैं। तव तो वे खब की सव अत्यन्त दुःखी
है| कर, उच्चसवर से रोने लगीं॥ १७ ॥
तासां राम समुत्याय जग्राह चरणाव्शुभान्‌ |
मात॒णां मनुजव्याप्रः सर्वासां सत्यसज्वर। ॥ १८ ॥
सत्यप्रतिक्ष ओर पुरुषसिंद श्रीरामचन्द्र जो ने माताश्रों के देखते
ही उठ कर, उन सव के चरण छुए ॥ (८ ॥
ता; पाणिमि! सुखस्परेम इड्गलितले! शुभ
प्रभमाजू रज; पृष्ठाद्रामस्यायतलाचना; ॥ १९ ॥
तब बड़े बड़े नेन्नों वाली सब रानियों ने श्रपनी कोमल श्रतरव
छूने पर खुल देने वाली हथेलियों से श्रीरामचन्द्र जो की पीठ की
धूल पोंढी ॥ १६ ॥
ब्ुत्तरशततमः सर्गः 8६६

सोमित्रिरपि ताः सर्वा मातृ सम्पेक्ष्य दु!खितः


अभ्यवादयतासक्त' शने रामादनन्तरम्‌ ॥ २० ॥
तदननतर लक्ष्मण जी भो माताओं को देख, भ्रत्यन्त दुःखी
हुए और उन्होंने थीरामचद्ध जो के बाद धोरे धीरे प्विरत सब
माताओ्रों का प्रणाम किया ॥ २० ॥
यथा रामे तथा तरिमिन्सवां वहतिरे स्लिय! ।
हत्ति दशरथाज्जाते लक्ष्मणे शुभलक्षणे ॥ २१ ॥
जिस प्रकार उन रानियों ने श्रीरामचन्ध की पीठ की धूल पॉछी
थी, उसी प्रकार उन सब ने शभजत्ञण वात्ते लक्ष्मण जी की पीठ
की भी धूल पोंडी, कॉंकि लह्मण जी भी'तो महाराज दशरथ ही
के पुत्र थे॥ २१॥
सीतापि चरणांस्तासामुपसंगह्य दु!खिता ।
शश्रृणामश्रुपूणाक्षी सा व्भूवाग्रतः स्थिता॥ २२॥
तदनन्तर सीता जी ने भी दुक्षित हो, शभाँखों में प्रात भर
साँसों के पैर पकड़े और उनके सामने वे जा खड़ो हुई ॥ २२ ॥
ता परिष्वज्य दु!खाता माता हुह्ठितरं यथा ।
वनवासकृश्ां दीनां कौसल्या वाक्यमत्रवीत्‌ ॥२३ ॥
दुःख से पीड़ित-और वनवास के कष्टों के
कारण कृश एवं दीन
सीता जी के, देवी कोशल्या ने अ्रपने हृदय से उसी प्रकार लगाया
जिस प्रकार माता श्रपत्री वेटो के हृदय से लगाती है। छाती से
जगा कर, काशल्या जो यद्द वात कहने लगी ॥ २३ ॥
१ आम्तक्तं--अविरत | ( गो ) कं
१००० प्रयेष्याकायडे

विदेहराजस्य सुता सतुपा दशरथस्य च ।


रामपत्नी कर्थ दुःख सम्प्राप्ता निमने बने ॥ २४ ॥
हा ! विदेदशाज की बेटी, महाराज दशरध की वह और भरीराम-
चन्द्र क्री धर्मपल्री सोता--इस निर्जन वन में कैसे केसे कट फ्लेल
रही है ॥ २8 ॥
पत्ममातपसन्तप्त॑ परिक्िप्टमिवेत्पलम्‌ ।
काञ्वन रजसा ध्वर्तं छिप्टं चन्रमिवाम्बुदें! ॥२५॥
हैज्ञानकी ! धूप से मुर्ाये दुए कमल को तरद व मीज़े हुए
लाल कम्र॒त्त की तरह, अथवा घूनघूसरित खुबर्णश की तरह अयवा
बदली मेंछिपे चन्द्रमा की तरह ॥ २५ ॥
मुख॑ ते प्रेक्ष्य मां शोका दहृत्याभिरिताअयम्र! ।
भुशं मनसि वेदेहि व्यसनारणिसम्भवः ॥ २६ ॥
तेरे मुख का देश, शोक्राम्नि मुझे ज्ञलाये डालता है। जिश्
प्रकार काए को श्रप्मि दः्ध करता है,उस्ो प्रकार दुःख रूपी भरणि
से उत्पन्न श्रग्मि मेरे मन के! विदकुल्न भस्म डिये डालता है॥ २६ ॥
ब्रवन्त्यामेवमातायां जनन्यां भरताग्रजः । '
पादावासाथ जग्राह वसिष्ठरय च राघव। ॥ २७॥
मद्दारानो फाशल्या दुशक्षित हे इस प्रकार कद रही थीं कि,
भरत जो के बड़े भाई ओरमचन््ध ने वशिध्ठ जी के पास जा, उनके
चरणकमल्न स्पर्श किये॥ २७ ॥
१ आश्रय॑>-आश्रयमतंकाष्ठादिक | ( गो० )
व्युत्तरशततमः सर्यः १००१

पुरोहितस्यामिसमस्य मेतदा
बृहस्पतेरिन्द्र इवामराधिप) )
प्रशृ पादों सुसमुद्धतेमस!
सहैव तेमापविवेश राघव! ॥ २८ ॥
इन्द्र जिस प्रकार पझपने गुरु वृदरंपत के चरण ढूतेदें,'उसोी,
, प्रकार धीरामचन्द्र जोभो श्रप्मिसम तेजस्वी पुरोहित वशिष्ठ के
चरण स्पर्श कर, उनके साथ आसन पर बैठ गये | २८ ॥
तते' जपन्य सहिते! समन्त्रिभिः
पुरप्रधानेश सहेव सेनिके! ।
जनेन धर्मज्तमेन धर्मवान्‌
उपापविष्टो भरतर्तदाअजम्‌ || २९ ॥
तद्नन्तर धर्मात्मा भरन ज्ञी अपने मंत्रियों, प्रजा के पुल्षियों
और सेनापतियों फे साथ धीरामचन्द्र केपास, उनके नोचे श्रासन
परबैठे॥ २६ ॥
उपेपवि्टस्तु तदा स वीयवां-
स्तपस्विवेषेण समीक्ष्य राघव्स्‌ ।
श्रिया ज्वलन्तं भरत क्ृतानलि।
यथा महेन्द्र। पयतः प्रमापतिमू ॥ ३० ॥
पराक्रपी मरत तेजस्वी भ्रीरामचन्द्र जोके समीप बैठ कर,
मुनिवेषधारी ध्रीरामचन्द्र जीकीझोर वैसे ही द्ाथ जेड़ कर
१ ततोअवन्यं--वतिष्ठरामेपवैद्यादनन्तर । ( यो? )
१००२ अयोाध्याकाणडे

देखते ये, जैसे देवराज इन्द्र, प्रज्ञापति ब्रह्मा ज्ञी के पास हाथ जोड़
कर बैठते ओर उनकी ओर देखते हैं ॥ ३० ॥
किमेष वाक्य भरतेज्य राघव॑
प्रणम्य सत्कृत्य च साधु वक्ष्यति |
इतीव तस्यायजनस्य तत्तत्तों
वभूव कांतृदलमुत्तम॑ तदा ॥ ३१ |॥
उस सम्रय वहाँ जितने विशिश्जव उपस्थित थ, थे भ्रपने अपने
मन में यही साच रहे थे और उनके यह जानने के लिये वड़ा कौतुक
हे रहा था कि, देखें भरत जी हाथ जोड़े हुए आद्रपुर्वेक धीराम-
चद्ध ज्ञी से क्या कहते हैं ॥ ३१॥
से राघवः सत्यवृतिश् रक्ष्मणा
पहानुभावे भरतश्व धार्मिक: |
ब्रृताः सुहृद्धिश्व विरेजुरध्वरे
यथा सदस्य सहितान्ञयेञ्ययः ॥३२॥
इति च्युत्तरणततमः से; ॥
उस समय सत्यवादी और घृतिवान श्रोगामच्तछ महातुभाव
लक्ष्मण जी और घमात्मा भरत जी नव छुद्ददों के साथ शेमित
हो रहे थे, मानों यज्ञ में समासदों के साथ तीनों अ्म्ति सुशोमित
हों ॥ ३२॥ ह
थ्याध्याकायड का एक्र सो तीसरा सर्म समाप्त हुआ ।
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चतुरुत्तराततमः सगे
अ्मक हुहु)हैसनम

ते तु राम; समाज्ञाया आतरं गुरत्सलम |


लक्ष्मणेन सह प्रात्रा प्रष्टं समुपचक्रमे ॥ १ ॥
ध्रीराभचन्द्र जो भरत जी को अपने मेंभक्तिमान जान, लक्ष्मण
के साथ, भरत ज्ञी से पूछने लगे ॥ ? ॥
फरिमेतदिच्छेयमहं श्रोतुंप्रव्याहृतं त्वया |
यस्मात्वमागते देशमिमं चीरणटाजिनी ॥ २॥
हैभरत | तुम चौर जा पग्रौर सुगचर्म धारण कर, इस
वन में आये दे, सा इसका जे। कारण द्वी वद मुझे सुनागी ॥ २॥
अ#यज्रिमिचमिम्र देश कृष्णजिनजटाधरः ।
हिल्वा राज्य प्रविष्स्तं तत्सवे वकतुभईसि ॥ ३॥
तुम राज्य दोड़, काले मूंग का चर्म श्रोढ़् और जा धारण
कर जिस लिये यहाँ श्राये दा--से सब्र मुप्ते वतत्ात्रो ॥ ३॥
इत्युक्तः केकयीएंत्रः काकुत्स्थेन महात्मना ।
प्रयृद्व वलवद्भूय। प्राज्नलिवक्यिमतब्रवीत ॥ ४ ॥
महात्मा श्रीयम ने जब भरत से इस प्रकार पूँछा, तव भरत ज्ी
थ्रतिकष्ट से शोक के वेग के रोक, हाथ जेड़ कर वाके ॥ ४॥
आये तातः परित्यज्य कृत्वा कर्म सुदुष्करम ।
गठ; खगे महाबाहुः पुत्रशोकाभिपीडितः ॥ ५ ॥
. । तमाशाय--ज्ात्वा | (गो०) २ गुद्बत्सलं +-पुरौत्व॑स्मिन्‌ भक्त | (गो०)
+ पॉठान्तरे--- किश्षिमित्तमिस |
१००४ अवेाष्याकायडे

हे भ्रार्य ! मद्दाराज़ पिता जी मेसे माता केक्रैयी के कहने में झा,


दुष्कर कर्म कर और पुत्रशाक् से विकल् हो, ख्वरंचासी हुए ॥ ५ ॥
द्धिया नियुक्तः केक्रेय्या मम मात्रा परन्तप |
चकार चुमहत्पापाम्रदगात्मयशाहरसरस
्‌ ॥ ६ ॥
है परन्‍्तप ! मेरी माता फेकेयी ने अपने यश के नाश करदे
चाला यह महापाप कर डाला है ॥ $ ॥
सा राज्यफलमप्राप्य विधवा शोककर्शिता ।
पतिष्यति पहाथारे निरये जननी मगर | ७॥
सा वह मेरी माता राज्यहपों फल के न पाने के ऋए्ण शोक्ना-
कुल आर विधवा हो, घेर नरक्ष में गिरेगी ॥ ७ ॥
तत्य में दासभूतरव प्रसाद कतमहंसि ।
अभिषिश्वस्व॒ चाधेव राज्येन मधवानिव ॥ ८ |
यथपि में कैकेयी का पुत्र हूँ,तथापि हैंआपका दास | से आ्राप
घुक्त पर प्रसन्न दे कर आज ही अपना राज्याभिषेक करावें और
/ इन्द्र को तरह राजसिदासन पर रिसाज्ें || ८॥
इम्ाः प्रकृतय; सर्वा विधवा मातरशथ् या; |
खत्सकाभमनुग्राप्ता! पसादं कर्तमहांस ॥ ९॥
दखिय, ये प्रज्ञाजन ओर ये सब विधवा माताएँ आपके पास
थ्रायी हुईहैं, अतण्व आय प्रसन्न हों ( अथवा कहता मान
ज्ञे)॥६॥
तदाजुपृन्या? युक्त च युक्त चात्मनि मानद |
राज्य प्राप्तुहि धर्मेण सकामान्मुहृदः कुक) १० ||
१ आनुफु्योयुक्त--ज्वेष्डानुकमेणसंग्त । (गो० )
चतुरुतरशततम्ः सर्गः १००४ '

हेमानद्‌ !आप अ्येप्ठ होने के कारण राज्य पाने के ग्रधिकारों


हैंऔर शाप ही को राजगद्दो पर वैदनां उचित भी है। प्रतण्व
धर्माइसार राज्यभार भ्रदण कर सखुदृदजनों की कामना पूरो
कीजिये ॥ १० ॥ ।
भवत्वविधवा भूमि! समग्रा पतिना लया |
शशिना विमलेनेव शारदी रणनी यथा ॥ ११ ॥
ज्ञिस प्रकार शरदऋतु की रात विमल चद्धमा के द्वारा सघवा
£,.ह्ती है,उसी प्रकार यह ससागरा पृथिवी झापके झपना पति वरण
कर सधवा द्वो जायगी ॥ ११॥
एमिश्च सचिव! साथ शिरसा याचिते मया |
श्रातु! शिष्यस्य दासस्य प्रसाद कतुमहसि ॥ १२॥
& ९00

मैंश्रापका केवल भाई ही नहीं हूँ,प्रत्युत शिष्य भौर'दास भी


हूँ। से मेंइन मंत्रियों सहित आपके प्रणाम कर श्रापसे यह भिन्ता
माँगता हूँया प्रार्थना करता हूँ। अ्रतः आप इनकी प्रार्थना पर
घ्यान दें | १२॥
तदिदं शाइवतं पित्यं स्व प्रतिमण्डल, |
पूजितं पुरुषव्याप्र नातिक्रमितुमहेसि ॥ १३ ॥
हैपुरुषश्रेष्ठ !परम्परा से मंत्रिपद प्राप्त एवं प्रतिष्ठा पॉने योग्य
इन सथ मंत्रियों को प्रार्थना आ्राप प्रस्लीकृत न कीजिये ॥ १३ ॥
'एवमुक्‍्त्वा महावाहु) सवाष्प! कैकयौसुतः ।
'रामस्य शिरसा पादौ जग्राह विधिवत्युन। || १४ ॥
““ “६
।7 ककसखि-॑3ननननीकन--न-क--.077“7““
सनननगननगननननननन-नन-म-म-मनीीयणएीएए।
१ प्रकृतिनां--मंत्रिमभतीनां ।( गो० ) २ सण्डलं--समरुह । ( यो० )
|
१००६ भ्रयेध्याकायडे ह

यह कद महावाहु फ् ेय ोन न् दन भर त जी ने नेत ्रो ं मे ं आँ धु मर


कर श्रोरामच द् ध जो के चर णो ं मे ं पु नः वि धि चत ्‌ अप ना सि र रख
पिया ॥ १४ ॥ ट
त॑ मत्तमिव मातझ़ निःश्वसन्तं पुन) पुन |
आ्रातरं भरत राम। परिषम्येदमत्रवीत्‌ ॥ १५॥
े त का, जे! वार वार मत हाथी की
तव श्रीराप्रबन्द ज्ञी नभर
तरह साँस ते रहे थे, हृदय से लगा कर यद्‌ वात कही ॥ १५॥
कुलीन! 'सत्तसम्पत्नस्तेजरवी चरितत्रतः |
, राज्यहेते। कथं पापमाचरेल्वद्विधा जन। ॥ १६ ॥
हेभरत | ठुम जमा कुलवान, सतोगुणी ब्तथारी पुदप राज्य
के लिये क्यों अपने वड़े भाई के प्रतिकुल शआ्राचरण कर, पाप का
भागी वनना पसंद कर सझृता ॥ १६ ॥
न दाप॑ त्वयि पर्यामि सृह्षममप्यरिश्वृदन ।
न चापि बननीं वाल्यात्व॑ विगर्हितुमहंसि ॥ १७॥
है भ्रिसृदन | पुझे ते तुमे ज़रासा भी दोष नहों देख
पड़ता | तुमका चिना समझे वूक्के अपनी माता की भो निन्‍्दा न
करनी चाहिये॥ १७ ॥
कामकारो* महाप्राज् गुरुणां सवेदाप्नध ।
उपपन्नेषु" दारेषु पुत्रेपु च विधीयते || १८ ॥
१ पत्तत्मम्पन्न--सत्वगुण समपन। | ( ग्ो० ) २ बाल्यातु--अंज्ञानात्‌ |
( गो० ) ३ काम्रकाउ--खच्छनदुकरण । ( यो? ) ४ झपपन्नेपु--शिप्य-
दापतादिपु । (यो० ) ह॒
हे
चतुरुत्तरशततमः सर्गः १००७
हैपापरहित !.है महाप्राक्ष !पिता इत्यादि गुरुजन अपने अनुगत
शिष्य दास और स्री के साथ सदा इच्छानुलार व्यवहार कर
सकते हैं॥ १८ ॥]
वयमर्य यथा छोके संख्यावाः समय साधुमिः ।
5 ५
भायां पुत्राश्च शिष्याशच त्वमनुज्ञातुमहेसि ॥ १९॥
संसार मेंसाधु लेग जी पुत्र भोर शिष्यों का जिस प्रकार
|
श्ाक्षाकारी कद कर मानते हैं, वस वेसे दो, पिता के लेखे दम भी
हैं। यद वात तुर्ँ जान लेनी चाहिये ॥ १६ ॥
बने वा चौरवसन साम्य कृष्णानिनाम्धरम |
राज्ये वाधपि महाराजो मां वासयितुमीश्वर;! ॥ २० ॥
हैसोम्य |मदाराज दम ले।गों के नियन्ता हैं,वे चाहँ हमें चीर
वसन कौर सगचर्म धारण करा, वन “में रखें अ्रथवा शाब्य में
रखें ॥ २० ॥
यावत्पितरि धमत्षे गेरवं ले।कसत्कृतम ।
तावद्धम॑भुतांभेष्ठ जनन्‍्यामपि गैरवम्‌ ॥ २१ ॥
हैंधर्मज्षों में श्रेठ /जितना गारव ज्लाकपूजित पिता का है,
उतना ही माता का भी हैअर्थात्‌ जितना आदर सस्मान पिता का
करना चाहिये उतना ही भआादर भोर सम्मान माता का भी करना
चाहिये ॥ २१ ॥
+-रख;
अकहे>०७
कफ
एताम्यां धर्मशीलाभ्यां वन॑ गच्छेति राघव ।
मातापिद भ्यामुक्तो 5 कथमन्यत्समाचरे ॥ २२ ॥
१ ईइबर+--नियल्ता । ( गो? )
१००८ अयेष्याकायडे

देभरत ! ज्ञव इन दोनों घर्मात्मा माता और पिता ने मुझसे


कहा कि, चन जाओ, तव भत्ना में किस प्रक्वार उनकी आज का
इलंघन कर अन्यथा कर सकता हूँ ॥ २२॥
त्वया राज्यमयेध्यायां प्राप्तव्यं छोकसत्कृतम्‌ ।
वर्तव्यं दण्डकारण्ये मया वल्कछवाससा ॥ २३ ॥
थ्रतः दे भरत ! तुम अयाय्या में जाकर कामों की सम्मति से
राजसिद्दासन पर वैठे ओर मैं वदकल धारण कर दृगडकवन में
वास करूंगा ॥ २३ ॥

एवं कृत्ा महाराजा विभाग छोकसब्रियों |


व्यादिश्य च महातेजा दिव॑ दशरथा गतः ॥ २४ ॥
क्योंकि इसी प्रकार से महाराज, लोगों के सामने तुम्हास
श्रौर मेरा वदवारा कर स्वर्गवासी हुए हैं ॥ २४७ ॥ *
स॒ च प्रमाण धर्मात्मा राजा लेकगुरुतव |
पित्रा दत्त यथा भागमुपभेकतुं त्वमहंसि ॥ २५ ॥
इस समय देधर्मात्मा महाराज लोकों कै और तुझ्दारे भी गुरु '
हैंऔर उनके ऐसा करने का अधिकार है। झतः है भरत !तुम
पिता के दिये हुए राज्य का उपभेग ऋरो ॥ २५॥ *
पे 5]
चतुदश समा; साम्य दृण्डकारण्यमाश्रितः |
उपभोष्ये तह दत्त भागं पिन्रा महात्मना ॥| २६ ॥
.. दे सौस्य! में भी चैद्ह वर्ष दरइकबन मेंवास कर, महात्मा
पि
ता जी का दिया इुष्मा दिस्सा उपभाग करूँगा
॥ २६ ॥
पश्चोत्तरशततमः सर्गः १००६

यदब्रवीन्मां नरलेकसत्कृतः
पिता महात्मा वुबुधाधिपापम! ।
तदेव मन्ये परमात्मना हित
न स्वलेकेश्वरभावमप्यहम्‌ ॥ २७॥
इति चतुरुत्तरशततमभः सगः ॥
सब लोगों से पुज्नित महाराज पिता जी ने जे। घुझसे कहा है,
उसीकीा में प्पने लिये परम हितकारी समझता हूँ। पिता की
श्राज्ञा या इच्दा के विरुद्ध सर्वलेकेश्वर का पद्‌ भो मैंधपने लिये
हितकारी नहीं समक्कता ॥ २७ ॥
अ्रयेष्याकाणड का एक सो चौथा सर्ग सम्राप्त हुआ ।
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पप्नोत्तरशततमः सर्गः
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ततः पुरुपसिंहानां हतानां ते! सुहृदगणेः ।


शेचतामेव रजनी दु!खेन व्यत्यवतंत ॥ १॥
इस प्रकार वन्धु वान्धव शोर मित्रों केसाथ उन राजकुमारों
की--जे धत्यन्त दुःखित थे, रात सेव द्वी सोच में वीती ॥ १॥
रजन्यां सुप्रभातायां अ्रातरस्ते सुहृदहताः ।
मन्दाकिन्यां हुत॑ जप्यं क्ृत्वा रामम्ुपागमन्‌ || २॥
जव सबेरा हुआ, तव उन भाषयों ने वंधुवान्धवों केसाथ
मन्दाकिनी नदी पर ज्ञा ज्ञप दवेम किया | तदनन्तर वे सब के सव
श्रीरामचन्द्र जी के आश्रम में उपस्यित हुए ॥ २॥
वा० रा०-६ ४
१०१० अयेध्याकायड

तृष्णी ते समुपास्तीना न कथिल्िखिंदत्रबीद |


भरतस्तु सुहन्मध्ये राम वचनमत्रवीत्‌ ॥ ३ ॥
सब के सव चुपचाप श्ोरामचद् ज्ञो के पास वैंढे थे, कराई
क्रम्ती सावातचात नदी ऋूरता था। सनम्नादा सा द्वाया हुओ था
के, इतते में छुदंदां केवांच में भरत ज्ञा ने आरममचन्द्र जा सं
कहा ॥ ३ |
सान्तिता मामिका माता दत्त राज्यमिदं मम ।
तददामि तबाह शुझुष्व राज्यमकण्टक्म्‌ ॥ ४ ॥
दे नाई |बस्दान द्वारा महाराज ने झे राज्य मेरी माता के
दे, उसे शान्त किया था, वह राज्य माता ने मुम्ते दे डाला दहै।
अद में वही राज्य आपके अ्रपंण ऋरता हूँ । अ्द श्राप इस
। आ.
तपकयदक राज्य का उपभाग की जिये ॥ ४ ॥

महतेवाम्वुवेगेन भिन्नः सेतुजछागमे ।


दुरावारं लदन्येन राज्यस्ण्डमिदं महत्‌ ॥ ५॥
चशाकाल में जल का थपड़ी से ज्ञव वोंच दृढ़ ज्ञाता हूं, लव
( सिवाय इस दाँध के ) शोर केई उस पानों के नहीं शेक सकता
इसी प्रकार आपके पवाय इस बड़े राज्य की रक्ता करने की शक्ति
अन्य किसी मेंनहीं है॥ ४ ॥ ४
गति खर इवाश्वस्य ताक्ष्यस्वेद परतव्रिण! |
अजुगन्तुं न शक्तिमें गति तव बहीपते ॥ ६ ||
दूँ म्राहपाल ! जिस पनक्नार गया थाड़ का शअ्रथवा अन्य दत्ती
गदड़ की चाल के नहों पा सकते, उसा प्
रकार मं भी आपके
पश्चोत्तरततमः सर्ग १०११

राज्यपालन की सामरथ्यं नहीं पा सदझ्जता। भ्र्थात्‌ जैसी येग्यता


राज्यशासन की भ्रापमें है,बेसो घुक्में नहों है॥ ६ ॥
सुजीव॑ नित्यशस्तस्य यः परेस्पजीव्यते |
राम तेन तु दुर्जीवं यः परानुपजीवति ॥ ७ ॥
दैराम |जिस राजा की सेवा अन्य क्ाग करते हैं,जोना उसी
का भ्रच्छा है; किन्तु जे राजा भौरों को सेवा कर के ज्ञीता है
उसका जीवन दुशवप्तय दे। ध्थवा जिसके पीछे अनेक कषेग जीते
हैंउम्री पुरुष का ज्ञीना, जीना है ध्ोर जा दूसरों के सहारे ज्ञोता
है, उसका ज्ञीना न जोना वरावर है॥ 9 ॥
यथा तु रोपितो हक्ष; पुरुषेण विवर्धित: |
इखकेन दुरारेहि रूरकन्पो महाहुए। ॥ ८ ॥
स॒ यथा पुष्पिता भूल्वा फछानि न निदर्शयेत्‌+ |
स॒तां नानुभवेत्मीति यरय हेते!! परोषितः ॥ ९ ॥
जैसे, किसी आदमी ने वृत्त लगाया ओर उसे «जल से सॉंच
और पढ़ा किया | वद्द धृत्त अपनी द्वारों नर शात्राप्रों के फैला
कर ऐस। महाचृत्त दा गया कि, उस पर छोटे डीलडौल का.
आदमी नहीं चढ़ सकता । वही वृत्त जव पुष्वित तो हो, किन्तु
फल्न व दे, ता जि। भादमी ने चह पेड़ लगाया था, वह फ्थोंकर
सत्तुए रह सकता है? ॥ ५॥ ६ ॥ हे
एपेपमा महावाहो तमथ वेत्तुमहेसि |
यदि समस्मान्दपभे! भतां मल्यात्र शापि हि ॥१०॥
_ बुपभा--्ेछः । ( श्ि० ) # पाठान्तरे-- विदेशेयेत्‌ । ”?
१०१३ अयेष्याकाएदे
हे महावाहा !यह प क उप मा है । इ स क ा अर ्थ श् रा प सम के
सकते हैं । ग्रत+ यदि सर ्व श् रे ष् ठ स् था मी द ो क र धा प ह म भु त् ्य ों का
शासन नहीं कर ते ( तो द म ल् ले गो ं को , उ स पु रु ष क ी त र द जि सन े
े ये वह
फल ग्राप्ति कलि मह ाव ृत ्ष लग ाय ा था , फ ल न पा ने से , ह त ा श
द्वोना पड़ेगा )॥ १० ॥
श्रेणयस्त्वां प्रदराज पर्यन्त्वग्याथ सबंध) ।
प्रतपन्तमिवादित्यं राज्ये स्थितमरिन्दमम्‌ ॥ ११ ॥
तवाध्जुयाने काकुत्य्य मत्ता न्वन्तु कुझ्लरा।
अन्त;पुरगता नाये नन्दन्तु सुसमाहिताः ॥ १२ ॥
हैमद्ाराज्ञ | ऐसा कीजिये जिससे ये अजा के काग शब्ओं
के नाश करने वाले ग्रापके, राज्यासन पर तपते हुए छुये की तरद
बैठा हुआ देखें तथा ये मत्त हाथी चिंघारते हुए आपके पीले पीछे
च्षें श्रौर रनवास में सब खस्थियाँ शान्ति पा कर दर्षप्वनि
करें | ११॥ १२॥ हे
' तस्य साथ्चित्यमन्यन्त नागरा विविधा जनाः ।
भरतस्य बच: श्रुत्वा राम प्रत्यनुयाचतः ॥ १३॥
श्रोरामचच्ध जी से भरत जी की की हुई प्रार्थना छुन, सद
नगरवासो साधु साधु कद्दने लगे ॥ १३॥
तमेवं दुःखितं प्रेक्ष्य विल़पन्त॑ यशखिनम्‌ ।
राम; कृतात्मा! भरतं समाश्वासयदात्मवान्‌ ॥ १४७ ॥
उन यशस्त्री भरत के, दुःझी और विज्ञाप करते हुए देख,
चैयेबान्‌ श्रीरामचरद्र, समझा कर कहने लगे ॥ २४ ॥
१ झतात्म:--छुशिक्षितजुद्धिः वैयवान्दा । ( गो० )
पश्चोत्तरशततमः सगे १०१३
'नात्मनः *कामकारोउरित पुरुषोध्यमनोश्वर;* ।
् ब्ऐै ०
इतथेतरव्नं कृतान्त; परिकपति ॥ १५ ॥
8.

हैभरत ! मलुध्य का कुत वश नहों है। क्योंकि यद परतंत्र


है। काल (मृत्यु )इसके इधर से उधर और उधर से इधर
खींचा करता है। धर्थात्‌ नाच नचाया करता है॥ १५ ॥
सर्वे क्षयान्ता निचया; पतनान्ताः सममुच्छया!
संयेगा विश्रयेगान्ता मरणान्तं च जोवितम्‌ ॥ १६ ॥
यावत्‌ सश्ित पदार्थ वाशवान्‌हैं,जितने उच्चस्यित ज्ञोव हैं
वे (पुएयत्ताय दोने प९ ) नोचे गिरने वाले हैं,पुत्र, मित्र, कल्नम्ादि
जिनसे संयाग दोता है, अन्त में उनसे वियेग भो होता है,और
जितने ज्ोबधारों हैं, येसब मरणशोल्ल हैं। अथवा संप्रद श्र
क्षय, उन्नति और अवनति, संयोग और वियोग ०वं जन्म और
मरण का अट्टूट सम्वन्ध है॥ १६ ॥
यथा फलानां पढक्कानां नान्यत्र पतनाद्भयम्‌ |
एवं नरस्य जातस्य नान्यत्र मरणाद्धयम्‌ ॥ १७॥
जिस प्रकार पके हुए फल को गिरने से डरना न चाहिये, उसी
प्रकार उत्पन्न हुए नर को मरण से डरना न चाहिये | थर्थात पका
. हुआ फल गिरता ही है शोर जे। पैदा हुआ है वह मरता ही
है॥ १७॥
यथाशारं हतस्थृणं जोण भूत्वाअ्सोदति |
तयेव सीदन्ति नरा जराषत्युवशंगताः ॥ १८ ॥
१ आत्मन:--पुद्पत्य । ( या० ) २ कामकार ऐज्छिक ज्यापारोत्ति |
(गो० ) ३ अनोभ्वर:--अखतन्त्र इस्मथें; । (गो? )
१०१४ अयाध्याकायड
जिस प्रकार मज़बूत खंभों पर श्रवलंवित घर पुराना दोने पर
गिर ज्ञाता है,उसी प्रकार मनुष्य भी बुढ़ापे ओर मृत्यु के वश में
हो, नष्ट हो जञाता है॥ १८ ॥
अत्येति रजनी या तु सा न भ्रतिनिवतते ।
यात्येव यय्रुना पूर्णासमुद्रमुदकाकुलम ॥ १९ ॥
हैभरत |!जे। रात वीत गयी वह फिर नहीं लैाठती। यप्ना
का जलन जे एक बार समुद्र में मिल गया, वह फ़िर लौट कर
ज्ञमुना में नहीं आता ॥ १६ ॥
अहरात्राणि गच्छन्ति सर्वेपां प्राणिनामिह ।
आयूर्षि क्षपयन्त्याओ ग्रीप्मे जछमिवाशवः ॥ २० ॥
देखो | ये दिन ओर रात ज्ञे वीतते चन्ने जाते हैं, से
प्राणियों को आयु की भ्रवधि का शीत्र शीघ्र कम करते जाते
हैं। जैसे ्रीष्म फाल में ह॒र्य की किरनें, जल के सुखा कर कम
. कर देतीहैं॥ «० ॥
आत्मानमनुशाच ल॑ किमन्यमनुशाचसि ।
43.
आयुरुते हीयते यस्‍्य स्थितस्य च गतरय च ॥२१॥
अ्रतः दे भ्वरत | तुम अपने लिये ( श्र्थात्‌ अपने आत्मा के
उद्धार के लिये )सेचे।, ते सेचचे।, दूपरों के लिये सेच्र क्यों करते
दी ! थ्रायु तो सभी की खातों है, चाहे केई बैठा रहे, चा3 चला
फिर करे ॥ २१ ॥ '
सहेव सृत्युतरजति सह उस्पुर्निपीदति
गला सुदीधमध्वानं सह यृत्युनिवतते ।! २२ ॥

्त पु] |
पश्चोत्तरशततमः सभः १०१४

गीत मनुष्य के साथ ही चल्नतों है, साथ दी बैठती हैऔर दूर


जाने पर भो साथ नहीं छाइती और साथ जा कर साथ ही लौट
भी शआावी है ॥ २२ ॥
गात्रेपु बलयः प्राप्ताः खेताथेव शिरोरहा। ।
जरया पुरुषों जी! कि! हि कइत्वा प्रभावयेत्‌ ॥२३॥
जब शरीर में क्ुरियाँ पड़ गयीं, सिर के केश सफेद हो गये
श्रौर शरीर जरा से जर्जरित दो गया, तब मलुष्य कर हो क्या
सकता हैप्रथवा तव उसके रक्त मौत कैसे रूफ सकती है अथवा
वह किस बल चूते पर दुसरों पर अपना प्रभाव डाल सकता है॥२३॥
नन्दन्त्युद्त आदित्ये नन्दन्त्यस्तमिते रबी ।
आत्मना नाववुध्यन्ते मनुष्या जीवितक्षयम्र्‌ ॥ २४ ॥
मनुष्य छूय के उदय दोने पर और श्रप्त होने पर नित्य ही
प्रसन्न होते हैं,किन्तु इससे उनकी थ्ायु घटती है--इल्ल वात का
वे नहीं समझते ॥ २४ ॥
४ वि | आकर
3०27४ तुमुख दृष्ठा नव॑ नवमिहागतम्‌ | £7/5७
पुर
|

ऋतुनां परिवर्तेन प्राणिनां प्राणसंक्षय/। ॥ २५ ॥


इसी प्रकार चसनन्‍्तादि नयी नयी आतुश्रों को देख, मनुष्य
प्रसन्न वात हैं, किन्तु ऋतुओं की इस अदल वदल से उनको उम्र
घटती है--यह वे नहीं जानते ॥ २४ ॥
यथा काए्ठ च काष्ठं च सम्ेयातां महाणवे। . *+
' सम्रेल्य च व्यपेयातां कालमासाथ कश्वन ॥ २६॥
३ कि दि कृत्वा प्रभाववेत्‌--किं इत्वासृत्युनिवतने समभेमिवेत्‌ । (शि०)
१०९१६ अयेष्याकायड
4 6 ज्ञातयश्र
एवं भायाथ्व पुत्राथ हातयंथ् धनानि च ।
समेत्य व्यवधावन्ति भ्रुवोंहोपां विनाभव:! ॥रणां
जिस प्रकार मद्द ाख ाग र में अन ्य स्थ ानो ं से वह कर श् ाय ी हु ई
दो लकड़ियाँ एक स्थान पर पहुँच कर मिल ज्ञातों हैं और फिर
काल पा कर पृथक दो इधर उधर वद्ती चली ज्ञातो ज्ञाती हैं, इसी
प्रकार भार्या, पुत्र, भाव ओर घन सम्पत्ति जे! शा कर प्रपने
के मिलते हैं, इन सर का कालान्तर में वियाग दाना भी निश्चय
ही है ॥ २६ ॥ २७ ॥
नात्र कथ्ियथाभाव॑? प्राणी समभिवतते ।
तेन तस्मिन्न सामथ्य प्रेतस्यास््यनुशाचतः ॥ २८ ॥
हैभरत | इस संसार भें काई भा प्राणी वयाभिल्नाव अपने
भाई चंन्दों के
साथ सदा नहीं रद्द सक्षता, प्रतः स्लुतपुरुष के लिये,
उसकी मोत के रोकने की साम्रथ्य किसके है जा मरे हुए के .
लिये शेक किया ज्ञाय | श्रथांत्‌ मत पर किसो का वश नहों।
अतः मरे हुए के निये शोक करना व्यर्थ है॥ २८॥)
यथा हिं साथ॑ गच्छन्तं* ब्रयात्कश्चित्पथि स्थित ।
अहमष्यागमिष्यामि पृष्ठ भवतामिति ॥ २९ ॥
ज्ञिस प्रकार यात्रियों का दल रास्ते पर चला ज्ञाता हो और
रह मेदी हुआ कीाई मनुध्य कदे कि तुम्हारे पोले पीछे हम भी
॥ २६ ॥|
१ विद्यानव:--वियाग; । (ग्रो० ) २ यथामाद॑--व समभिवर्तते ।
ययानिकाएं बन्धुभिः सह्ट न बतते | (गोन् ) ३ गच्ठन्त स्ार्थ--पथिक-
खत | (गो० )
पथ्चोत्तरशततमः सगे: १०१७
|

एवं पूर्वेगेती मांग! पितपेतामहों भ्रुवः ।


५ 65 ( पिवपेतामही

तमापन्न) कथं शेचेचस्य नारित व्यतिक्रमः ॥३०॥


इसो प्रकार वाप दवाई परदादों के चत्न हुए मार्ग पर झारुढ़ पुरुष
के क्यों सोच करना चाहिये। क्योंकि उस मार्ग पर चलने के
अतिरिक्त और ते कोई गति हो नहों है॥ ३० ॥
वयस; पतमानस्य स्लोतसे वारनिवर्तिन! |
आत्मा सुखे नियोक्तव्यः सुखभाजः प्रजा; स्मृता ॥३ १॥
जिस प्रकार नदी की धार भागे हो बढ़ती ज्ञाती है,पीले नहीं
लोटती, उसो प्रकार थ्रायु केवल जातो हो .है श्र्थात्‌ घढतो ही
है,भार भातो नहीं भ्र्थात्‌ वढ़ती नहों | प्रतः यह देंख कर झात्मा
के सुल्ल केसाधनभूत घर्मकृत्यों मेंलगाना उचित है। क्योंकि
यद प्रजा सुखभेागो ही कहो गयो है भर्थात्‌ मनुष्यजम्म धर्महत्य
करते हुए सुल्ल भागने के लिये हो फह्ा गया है अथवा मह॒ुष्यजन्म
खुख भेगने हो के द्वोता है ॥ ३१ ॥
धर्मात्मा सशुभेः कृत्सने! ऋतुमिश्राप्तदक्षिणेः ।
भूतपापे। गतः खगे पिता नः पृथिवीपतिः ॥ ३२ ॥
हमारे महाराज पिता जी तो थच्छे' मड़लरूपी ओर देततिणा-
युक्त यक्षों फो कर निष्पाप दे स्वर्ग सिधारे हैं ॥ ३२॥
भुत्यानां भरणात्सम्यक्पजानां परिषालनात्‌ |
अयांदानाञ पर्मेण* पिता नद्निदिवं गतः ॥ ३३ ॥
१ धर्मेण कर्थादानात्‌:--धर्मेणकरादिप्रदणात्‌ । ( ग्रो० )
(०१८ अगध्याकायडे
भत्यों का मली भाँति भरण पायण कर, प्रत्ा का भत्री भांति
पालन कर ओर उनसे धर्मपूर्वंछ कर के कर, हमारे पिता सवंगं |
सिधारे हैं ॥ ३३ ॥
कमभिस्तु शभरिष्ट!! कऋतुभिश्नाप्तदक्षिण!
खगे दशरथ: प्राप्टः पिता न! पृथिवीपति! ॥ ३४ ॥
चौराहों पर तालाव वावड़ों श्रादि वनवा, प्रजञाननों के श्रभीर
पूरे कर, तथा विपुल दक्षिणा चाल्ते यज्ञ कर हमारे पिता मद्दारात्र
दशरथ स्वग सिधारे हैं ॥ ३४ ॥
इंष्टा बहुविधयज्ञभागांथावाप्य पुष्कलान्‌ |
उत्तम चायुरासादय खगतः पृथिवीपतिः ॥ ३५ ॥
परनेक अकार झ यज्ञ कर, दर तरद के बहुत से भोग भाग कर
श्रोए श्रच्छी आयु भाग ऋर. महाराज स्वर्ग समिबारे हैं॥ ३४ ॥
आयुक्तममासाद भागानपि च राधव: |
से नगाच्यः पिता तात; स्वतः सत्कृतः सताय ॥३६॥
दे तात |प्रच्छी आगुपा कर अच्छे भागा का भाग कर
ओर सज्नों से सर्प्नान पा कर महाराज्ञ स्वर्ग सिधारेहैंअत
,ः
उनके लिये शीक् ऋरना उचित नहीं | ३५ ॥
से जीण माजुष॑ देह परित्यन्य पिता हि
देवोमाद्िमजुप्राप्ता व्ह्मलाकबिद्यरिणीग्र्‌ | ३७ ॥
हमारे पिता ज्ञीग शरी। के त्याग कर, ब्रह्मल्रोक्त में
छस्र
भागने वाल देवताओं के शरीर के प्राप्त हुए होंगे ॥ ३७

इ2४--जनानां खवस्यचामिम्त: | ( गो । २ शुद्धेकर्ममि:--महा-
पथ्पुतदाकनिर्माणादिमि: । ( शो० ) :
पश्चोत्तरशततमः सर्गः १०१६

तं तु नेबंविध! कब्रित्माज्) शेतचितुमहति ।


तद्विषो यद्दिपभ्रासिक श्रुतवान्वुद्धिमत्तरः ॥ २८ ॥
प्रतपव उन पिता जो के लिये शोक करना तुम जैसे बुद्धिमान
शाखवेत्ता शोर ज्ञानों पुरुष के लिये उचित नहीं ॥ ३८॥
एते वहुविधा! शाका विलापरुदिते तथा ।
बजनीया हि धीरेण सर्वावस्थासु धीमता ॥ ३९॥
(४ धीरे

तुम बुद्धिमान, तथा घैयवान हो, श्तः तुमक्ा इस प्रकार


शोकान्वित दो, विलाप करना दर हालत में त्यागना चाहिये ॥३६॥
से स्वस्थे। भव मा शका यात्वा चावस तां पुरीम |
तथा पिन्रा नियुक्तोईसि बशिना! वदतांवर | ४० ॥
तुम स्वन्ध ही और शोक के त्याग कर, अ्येध्यापुरी मेंजा
कर वास करो । हेवाग्मिवर ! पिता ज्ञो तुमको श्रयेध्यापुरी में
स्वतंत्रतापूर्वक रहने को श्राज्ञा दे गये हैं ॥ ४० ॥
यत्राइमपि तेनेव नियुक्तः पुण्यकमणा ।
(

तत्रेवाह करिष्यामि पितुरायरुय शासनम ॥ 9१ ॥


वह पुण्य कर्मों के करने वाल्ने पूज्य पिता मुझको जैसी भाक्षा'
दे गये हें,तदूनुसार मेंभी वेसा हो करूँगा ॥ ४१ ॥ '
न मया शासन तस्य त्यकतु न्‍्याय्यमरिन्द्म |
तत्त्वयाउपि सदा मान्य स वेवन्धु। स न! पिता ॥9२॥
१ वछ्षिवा--हचतंत्रेण । (श्ि० * # पाठान्तरे--" अपि ” । | पाठान्तरे,
-- *शोचीयात्वा । "'
१०२० थयेध्याकायरे
दे शत्रओओं के दमन करने वाले ! मुझको उनको श्राज्ञा का उल्ल
घन करन ा उचि त नहों । क्यो ंकि दमार े पिता , वरचु और शा पनक र्त ा
होने के कारण वे हमारे, तुम्हारे द्वानों केलिये सदा मान्य हैं ॥४२॥
तद्॒च; पितुरेबाई सम्मतं धमंचारिण: ।
ह, हे 0

कर्मंणा पालयिष्यामि वनवासेन रायब ॥ ४३ ॥


प्रतपव में ता विता जो को उसी श्राक्षा का, जे धर्माचप्य
करने वाल्नों के सम्मत है,वन में वास कर पालन करूँगा ॥ ४२॥
धार्मिकेणाद शंसेन नरेण भुरुवर्तिना ।
भवितर्व्यं नरव्याप्र परछाक भिगीपता ॥ ४४ ॥
हैपुरुषमिद्द |जे मनुष्य थामिक एवं दयात्लु हैं. तथा अपना
परक्षाक बनाने के अमिल्ापों हैं, उनके बड़े कोरी का श्राक्षाकारी
दाना चाहिये ॥ ४८ ॥
आत्मानममुतिष्ठ त्व॑ स्वभावेन नरपभ |
निशाम्य तु शुर्भ हत्त पितुदशरथस्य न। ॥ ४५ ॥
हैँनरभ्रे्ठ |तुम पिता जो की सत्यप्रतिक्षा के स्मरण कर,
अपने मन मेंभव राजधर्म का स्थापित करे श्रर्थात्‌ पिता ज्ञी की
सत्यप्रतिज्ञ का पूर्ण करने के लिये भ्रयाष्या जा कर राज्य करे
(शिशमणिदीकानुसार ) ॥ ४४ ॥
इत्येवम्ुुक्ता वचन महात्मा
पितुर्निंदेश्प्रतिपालनारम्‌ |
यवीयस प्रातरमर्थवन्च
प्रशुमुहरतादिर्शाम राम: ॥ ४६ ॥
इंति पश्चोचरशततमः सर्गः ॥
पतुत्तरशततमः संग १०२१

महात्मा श्रोरामचन्ध, पिता की ग्रात्ा कापालन करने के लिये


अपने जदे भाई भरत से इस प्रकार के ग्र्थ गर्वित वचन कह कर
मुद्रत भर तक चुप रहे ॥ ४४ ॥
ग्रयोध्याकागड का एक सी पाँचवों सर्ग समाप्त हुआ ।
“औ--

पदुत्तरशततमः सगे:

एवं मुक्ला तु विरते रामे वचनमथपत्‌ |


तते मन्दाकिनीतीरे राम प्रक्ृतिवत्सछम || १ ॥
उबाच भरतरिचत्र! धार्मिक धार्मिकं वचः ।
के हि स्यादीदशों छोके याद्शस्त्वमरिन्दम ॥ २ ||
प्रजावत्सत्न श्रीराम, मंद किनोके तट पर जब इस प्रकार के
सार्थक वचन कह कर प्रोन दी रहे, तव धर्मात्मा भरत जी भ्रीराम
जो से, प्रनेक प्रकार की युक्तियों से युक्त एवं घर्मगुक्त वचन
बाले। भरत ज्ञी ने कद्दा-दे शत्रुनाशन !पश्रापके तुल्य इस क्लाक,
में दूसरा कोन होगा ॥ १॥ २॥
न त्ां प्रव्यययेहु:सं प्रीतियां न प्ररषयेत्‌
सम्पतश्चासि हृद्धानां तांश्व पृच्छसि संशयान ॥ ३ ॥
न ते आपके दःख दुःखों करसकता है और न हुं हर्षित
कर सकता है। स्व बढ़े बूढ़ेश्रापक्रे मानते हैं,तथापि धर्म केविषय
ह दौने पर आप उन कणों से पू छा करते हैं ॥ ३ ॥
_._] दित्रं--अनेक विधयुक्तिवेध्िष्ट वचः | (शि० )
१०२२ अयेाष्याकायड

यथा मृतस्तथा जीवन्यथाञ्सति तथा सति |


यस्येष बुद्धिठाभ: स्यात्यरितप्येत केन सा ॥ ४ ॥
जिसके ल्षेघे जैसा मरा हुआ शादमी वैसा हो जोता
श्रादमी हे या जा यह समझ रहा ही कि, यह पदार्थ मेरे पास रहा
ता क्या और न रद्दा तो क्या, ऐसो बुद्धि वाले मनुष्य का मजा
क्यों किसी वस्तु के लिये सन्‍ताप दोने लगा ? ॥ 2॥
!परावरज्ञों यश्र स्यात्तया त्वं मनुनाधिप ।
स॒ एवं व्यसन प्राप्य न विपीदितुमहति ॥ ५ ॥
हदनराधिप | भ्राप सरीणा नक्ताज्ज्ञ भ्रथवा आवातमा परमा-
. एमा का ढछुप ज्ञानन चाल्ना पुरुष, दुःख पड़न पर भी विपांद का
प्राप्त नहीं देता ॥
अमरोपमसत्त्वस्त्व॑ महात्मा सत्यसड्वरः ।
५५ 6
सबज्ः सवंदर्शी च वुद्धिमांश्वासि राघव ॥ ६॥
पी]

है राघव | आप देवताश्ों की तरह सतोगुणी, महाधैय॑वान्‌


दान के कारण खत्यप्रातज्ञ हा, आप सव जानने चाल, सब कुछ
देखने वाले ओर बुद्धिमान दा ॥ ६ ॥
न लामेवं गुणयुक्त 'प्रभवाभवक्ाविदम ।
अविषक्वतमं* दुःसमासा[दयितुमरईति ॥ ७ ॥
१ परावरशः--त्रिक्रालजः परमात्मजोदात्मस्वरूपज्ञोवा | ( गोन )
३ प्रभवाभवकवत्ि
तिनिदवत््तिस
कारण-तत-
्वश्भञा्
ननिषरुणवर्‌ ।(शि०) ३ अवि-
पह्चतमं--लन्यैरसह्ामपि | ( श्षि० )
पडुत्तरशततमः सर्गः १०२३
ऐसे गुणों से युक्त दोने के फारण थाप जीचों, की प्रवृत्ति और
निवृत्ति के कारणों के भत्री भाँति जानने वाले हैं। श्रतः भापको
हु

वे दुःख भी, जे! धन्य ल्ागों को असहा हैं,नहीं सता सकते ॥ ७ ॥


[एवमुक्त्वा तु भरते राम॑ पुनरथाव्रवीत | ]
प्रोपिते मयि यत्पापं मात्रा सत्कारणात्कृतम ॥ ८ ॥
क्षुद्रया तदनिष्टं मे प्रसीदतु भवान्मय ।
पे ५ जज
धमवन्धेन वद्धोस्मि तेनेमां नेह मातरम | ९ ॥
यह कद कर भरत जो ने श्रोरामचन्द्र जोसे फिर यह कहां
कि मेरे विदेश में रहते सम्रय मेरी इस नोच माता ने ज्ञा पाप मेरे
लिये किया है,वद्द मेरे लिये श्रनिश्कारक है, अथवा मुझे इए
नहीं है,भ्रतः मेरे ऊपर आप पसन्न दो | क्या करूँ में धर्मवन्‍्धन
से वंधा हूंनहीं ते मेंइस माता का, ॥ ८ ॥ ६ ॥
हन्मि तीजेण दण्डेन दण्डाहाँ' पापकारिणीम्‌ |
कथ॑ दशरथाज्जातः शुद्धामिजनकर्मणः ॥१०॥
जानन्धमंमरधर्मिष्ठं कुर्या' कम जुगुप्सितस्‌। |,
गुर 'क्रियावान्दद्धश्च राजा प्रेतः पितेति च ॥११॥
ज्ञा पाप करने वाली होने के करण दराड पाने योग्य हैकठोर
दूपड दे मार डालता । मेंऐसे कुलीन पव॑ घर्मनिष्ठ मद्दाराज दशरथ
के शरस से उत्पन्न हूँ |क्‍या धर्म हैओर क्‍या अ्रधम, यह जान
कर घुसे यह निन्दित कर्म करते नहों वन पड़ता। खब यक्षों
की क्रियाओं के करने वाले, पूज्य और बुद्ध मद्दाराज पिता जो
परनेकवासी हुए ॥ १० ॥ ११॥
+ क्रियाबात--यश्ादिक्रियावान्‌ | ( गो )
१०२५७ अयोष्याकायदे

तात॑ न परिगहेंय॑ देवत॑ चेति संसदि ।


के हि घमाथयादीनमीस्शं कम॑ किल्विपम्‌ ॥ १२ ॥
ध्ातः सव के सामने सप्षा में उनद्ी निन्‍दा करना उबित
नहीं, किन्तु कोन ऐसा पुरुष होगा मे धर्म और श्र्थ से रहित
ऐसा पाप कर्म, ॥ २५॥
ख्िया; प्रियं चिकीषु: सन्कुयांद्धमं् धर्मवित्‌
*२अन्तकाले हि भूतानि युद्चन्तीतिर पुराभ्रुतिः ॥६३॥
घममझों के धर्म के ज्ञान ऋर मो, त्रो की प्रीति को कामना
से करेगा। दे धर्मज्ञ !यह एक पुरानो कड्ाबत है कि, मरने वाले
की बुद्धि विगड़ जातो है ॥ १३ ॥
राज्वं छुबता छोके प्रलक्षं सा श्रुति! क्ृता ।
साध्ययममिसन्धाय क्रोधान्योद्ान साइसाद ॥१४॥
'तातस्य यदतिक्रान्त पित्याहरतु तद्भवान
पितु्िऋ समतिक्रास्त पुत्रो यःसाधु मन्यते ॥ १५ ॥
से महाराज्ञ ने यह कर्म कर यह कहावत चरितार्थ करके
ल्ञार्यों के प्त्यत्त दिखला दी । महाराज ने भछे ही कैकेयो क
कुपित दो कर विष खाकर मर जाने के सय से, अथवा अपने
चित्त के विद्ञेप से, अथवा लोगों से विना परदे ही, यह कर्म किया
अनन्त नसमन मनन नम मम अल,
९ अन्तक्नले--विदाशकले । : गो० ) ३ मुझ्न्ति-- विपरोत बुद्धि
सहचन्ति। (वो० / ३ साब्वयनमे्घाय:--समीचीनामछतला ।
( गो
४ ततध््य यदिविक्लान्त यद्मातिक्रमणं । ( गो> ) ५तद्धवान अल्
याइरतु--
निवतयतु | ( दो० ) # पाठान्तरे--.* यदितिकतन्तं १ |
पदुचरशततमः सम १०२४
ही, परूठु ध्रव श्राप उनके इस कर्म का ठीक समस्त, अन्यथा
विचार न कीजिये । क्योंकि जे पुत्र पिता की भूलचूक के भी
ठीक मान लेता है ॥ १४ ॥ १६ ॥
तदपत्य॑ परत छोके विपरीतमतोथ्न्यया |
तदपत्यं भवानस्तु मा भवान्दुष्कृतं पितु। ॥ १६॥
लेक में वही एन, पुत्र माना जाता है |इसके विपरीत करने
चाला पुत्र, पुत्र नहीं माना जाता |आप उनके पुत्र दे भ्रतः उनकी
भूलयूक पर घ्यान न दें॥ १६ ॥
अभिषत्ता कृत॑ कर्म छोके धीरविगर्दितम्‌ ।
कैकेयीं मां च तात॑ च सुहदे। वान्धवांथ न। ॥ १७॥
और उनके उस लेकनिन्दित कम का छिपाइये। कैक्रेयी को,
छुककी, पिता के, खुहदों का तथा हमारे भाईव॑दों को ॥ १७॥
पैरजानपदान्सवीख्ातु सर्वमिदं भवान्‌।
जठा। कुच पालनम्‌ ॥१८॥
क चारण्यं क्ष च क्षात्रं कु
तथा पुरजन आदि सब की झाप इस अपवाद से वचा
लीजिये। हैभाई | कहाँ ते ज्ञानरर्म ओर रहां यह ज्नशून्य वन-
घास । कदाँ जदाघारण और कहां प्रजापालन !॥ १८ ॥
रह 'व्याइतं कर्म न भवन्‍्कतुमहति !

एप हि प्रथमे धम क्षत्रियस्याभिषेचनम्‌ ॥ १९ ॥
झतः आप इन परस्परविरोधी कार्यो को न कोजिये। क्योंकि
प्षत्रिय का सर्वप्रथम कत्तेव्य कर्म यही हेकि, चह अपना भ्रभिषेक
फरावे ॥ १६ ॥ मिल
१ ज्याइतं--विरुद्ध । ( शि* )
चा० र०--६५४
१०२६ अयोाध्याह्यायडे
[ क्षत्रिय के लिये वानशह्थघनंपालन का नियेष नहों, तब भरत जी ते
वनवास का मिपेध क्यों झिया ? इसका समाधान मत्त जी ने ल्वयं दी यह
ऋटए किय ा हैं कि, वान ग्त ्य हने के पूव क्षत ्रिय हा पता पाट त करन ा घाह िय।
साप्रमधनंपालन में दगंधम को अवहंला नहां होनी चादिय । है

येन शक्य॑ मदप्राज्ञ प्रजानां परिपालनम्‌ |


कथ पत्यक्षम॒त्सज्य !संशयस्थमकक्षणम््‌र ।| २० ॥
जिससे वह प्रज्ञा का पालन कर सक्के-। भज्ना वतलाइये तो
इस प्रकार के प्रत्यक्ष फल देने वाले धर्म का दाड़ू, प्रश्नत्यक्ष ओर
छर्बों सेरहित ॥ २० ॥
*आयतिस्थं चरेद्धम प्त्रवन्ध
डेआयति र
25. 22

कक पभत्रवन:धुरनिश्चितम्‌

अथ छुंशनमेव तव धर्म चरितुमिच्छसि ॥ २१ ॥|


एवं कालानर में फल देने वाले, अनिश्चित धर्म हा
करना कोन चरत्रिद स्वीकार करेगा ? अथवा यदि आप इस प्रकार
शरीर का कर देने वाला धर्माचरण करना चाहते हैं ॥ २१ ॥
धर्मेग चतुरों वणान्पालयन्छेशमाप्लुदि
चतुयामाश्मा्णो ह बहत्थ्य अ्रष्ठाश्रमम | २२ |
पाहधमंज्ञ पमज्ञास्त कथ त्यक्तुमईसि |
“श्रुवन वार; स्थाननः जन्मना भवतो बहस ॥२३॥
ते धर्मांउुसार ब्राह्ययादि चारों वर्ण के फजन करने का कष्ट
आप छीऊकार कोजिये । क्योंकि हे धर्मझ ! चारो शाश्र्ों में
( ब्ह्मचर्य, गृहस्य. वानप्रध्थ ओर संन्यच्त--वे चार आश्रम हैं)
१ पशयह्य--भउलद्ध । ( या० ) रे अछक्षणं--छक्षगरशितिं | (बो०)
३ आयतित्यं--ह्छान्वर-माविदक । (यो०) अनिरेच्त । ( शि० ) ४ श्रुेन
+-विद्यवा | ( गों०) ६ स्थानेद--परेंद । ( गो> )
पडुत्तरशततमः सर्गः ' १०२१७
गृहत्थ ग्राथ्रम ही को, धर्मज् लोग सर्वोत्तम बतलाते हैं। तब इस
ग्राथम को आप क्यों छोड़ना चाहते दें ? देखिये, क्या विद्या में,
क्या पर में और क्या वय में, में श्रापके सामने वालक
हैं॥२९॥ २३ ॥
.स कथ॑ पालयिष्यामि भूमि भवति तिप्ठतति ।
हीनवुद्धिगुणे' वाढो हीना स्थानेन चाप्यहस्‌ ॥२४॥
से मैं,आपके रहते, किस तरद पृथियी का पालन कर
सकता हैं? में वुद्धदीन और सदृगुण दीन हैं और आपसे मेंपद
मेंभी नीचा हैंऔर वालक हैं ॥ २४ ॥
भवता च विनाभूते। न व्तयितुयनुत्सहै' ।
इदं निखिलमव्यग्न॑ राज्यं पित्यमकण्टकम्‌॥ १५॥
झंतः मेंआपके विधा रह भो नहीं सकता फिर राज्य करने.
की बात तो जाने ही दिजिये श्रथत्रा में प्रापक्े बिना जी भी नहा
सकता, राज्यपालन करवा तो दूर है |धरतः पिता के इस सम्पूर्ण,
उत्तम एवं निष्कयठक राज्य का ॥ २५ ॥
अलुशाधि स्वधर्मेण धर्मज्ञ सह वान्धवेः |
इहव त्वाभिषिश्वन्तु स्वाः प्रकृतयः सह ॥ २६ ॥
ऋत्विज! सवसिष्ठाथ मन्ववन्मन्त्रकेविदाः ।
अभिषिक्तस्लमस्माभिरयेध्यां पालने त्रण ॥ २७ ॥
है धर्मज्ञ! श्राप ही वंधु वान्धवों सदित धर्म से पालन
कीजिये। यहां पर, देमंत्र केजानने वाले |प्रमाजन, वशिए ओर
“7१ द्वीनवुद्धिपुणः--स्रदूधुणबद्धिरद्िताः
क्ततकिणुण--सदणलक्िदितः ।
।.(गो
(गो०)
) २
२ पर्बिदु--
स्थाहु । ( गो )
१०५८ थ्रयेष्याकाणडे
मंत्रिगण साहत चैदिक मंत्रों के ज्ञाता ऋत्विक आपका अभिषेक कर
देंऔर भाप अभिषिक्त दो कर, हम क्लागों केसाथ अयोष्या में
राज्य करने के चलन ॥ २६ ॥ २७ ॥
विजिद्य तरसा लोकान्मरुद्विरिव वासवः |
ऋणानि त्रीष्यपाइवेन्दुहृंद।! साधु निदहम ॥ २८ ॥
| ९ ए

सुहृदस्तप्यन्कामेरलमेवात्रानुशाधि मास |
अब्ार्य ्रुदिताः सन्तु सुहृदस्ते॑भिषेचने ॥ २९ ॥
जिस प्रकार अपने शत्रुओं के ज्ञीत, इन्द्र ने मरुदगणों के
सहित छा मेंपवेश किया था, उसो प्रकार आप भी हम ज्लाशों
के साथ श्रयेष्या में प्रवेश कर ।देवऋण ऋषिऋण शऔर पितृ-
ऋण--इन तीनों ऋणों से उऋण हे।, शत्रुओं के भस्म कर छुहदों
की मनेकामना पूर्णकरते हुए, मुझ्के श्रपता सेवक बना, झाक्षा
दिया कोजिये । हेआर्य |झ्राज आपके श्रिषेक से छुद्दद लग
हित हों ॥ २८ ॥ २६ ॥
अथ भीताः पलायन्तां दुहंदरते दिशे दश |
“आक्रोश भर मातुअ प्रमृज्य पुरुष्षभ ॥ ३० ||
और दुष्ट लाग भयभोत दो दसों विशाओं में भाग जायेँ। है
अप्पभ्ष्ठ |आपका वनवास दिलाने का जे। कल्नहु मेरी पाता के
लगा हैउबकेा आप थे! दोजिये | ३० ॥
गये तयभवन्तं च पितर रक्ष किस्विषात्‌ |
शिरसा लाउभियाचे#ं बुरुष्व करुणां मयि |
वान्धदेदु च स्वेषु भूतेष्विव महेश्वर! ॥ ३१ ॥
! दुढेंद:--शजून्‌ । (यो० ) २ आक्रोश--विन्दी । ( पा )
बढ

पदुत्तशततमः सगे १०२९


श्र पूज्य पिता ज्ञी को भी पाप से वचाइये । देखिये | में
अपना मस्तक नवा आपसे यह याचना कर रहा हूँ, जिस प्रकार
महेवर#--विभार सब प्राणियों पर दया करते हैं,उसी प्रद्धार आए
भी मेरे और सा भाई वंद्रों केऊपर दया कीजिये ॥ ३१ ॥
[ने।द--बहेंदादौल्वरः प्रोक्ोवेदान्तेच प्रतिष्ठित: *
तह्यप्रकृत्तिक्तीनरय य: पर: से महेभ्वर: ॥
भूषणडोफाकार मे “महेभ्व₹,, का भर्थ श्रुति-इतिदाल अमार्णों से
विष्णु अतिपादित किया ह--इतर शेकाकारों ने महेध्वर का. भर्ध तृपभध्वज
शिव या भद्ादेव किया है ।]
अग्रतरृछ्ठुत। कृत्वा पनमेष भवानितः।
गमिष्यति गमिष्यामि भवता साधमप्यहम ॥ ३२ ॥
यदि मेरी इस प्रार्थना के श्रत्योद्वार कर, यहाँ से श्राप दूधरे
वन के चक्ते जाँगगे तो में भीआपके साथ ही साथ चलूँगा ॥३२॥
तथा हि राग भरतेन ताम्यता
प्रसायमानः शिरता महीपति। ।
न चैव चक्रे गमनाय सत्तवान्‌ ह
मर्ति पितुस्तदचने व्यवस्थित! ॥ 3३॥
यद्यपि भरत जी इस प्रकार गिड्गिज़ श्रोर चरणों पर श्रपना .
सिर रख कर श्रीराम चन्द्रजो को मना रहे थे, तथापि श्रीराप्रचन्ध
ज्ञी पिता के वचन पर ऐसे दृढ़ थे कि, वे ज़रा भी उससे विचलित
न हुए श्रायवा किसो प्रकार भी ग्रवेध्या मोौद जाना उत्होंने
छ्ीकार न किया ॥ ३३ ॥|
१०३० अयाध्याकाणएंड

तददूखुत॑ स्थैयमवेक्ष्य राघवे


सम॑ जना हृपमवाप दुःखितः ।
न यात्ययेध्यामिति दुःखिता$मवत्‌
स्थिर तित्ञत्वम्रेक्ष्य दर्षितः ॥ ३४ ॥
जे लाग वहाँ उचसमय उपध्यित थे थे शरीरामचद्र जो के
विच्यर की दुढ़ता का देख, दर्ष विष्द में एफ साथ मन्न दे गये।
बे दुज्रिव ताइस लिये थे कि श्रीरामचद् जी अयाब्या जाता
स्वीकार नहीं करते थे, साथ ही दप उनके इस्र वात का था कि,
ओरामचन्द्र जी हृढ़बुद्धि वाले दे ॥ २४ ॥
तमृत्विजो नेगमयूथवह्धभा:
तथा विसंज्ञाशुकछाश्च मातरः ।
तथा# ब्रुवार्ण भरतं प्रतुप्डुबुः
प्रणम्य राम च ययाचिरे सह ॥ ३५ ॥
इति पडुत्तरणततमः सगे ॥
बा
व्यापारियों के पुलिया, वेद्पाठो ब्राह्मण, अथवा ऋतिज्ञ लेग
लेत है| गये तथा रुदन करती हुई माताएँ भरत जी की
प्रशंधा करने क्षणीं आर हाथ जाड़ कर भरत ज्ञी की ग्रोर से
भऔीरामचन जी की प्रार्थना करने लगी ॥ ३४ ॥
अयेष्याकायड का एक सी छठ्वां सर्ग समाप्त हुआ |
बेधिएणाण
$ 0८2६

# पाठान्तरे-- तदा '! ।


सप्तोत्तरततमः सगे
>>च०

पुनरेव॑ ब्रुवाणं व॑ भरत लक्ष्मणाग्रज। ।


प्रत्यवाच ततः श्रीमाञ्ज्ञातिमध्येडमिसत्कृत।! ॥ १ ॥
जब भरत क्षी नेफिर कुछ ऋदना चाहा, तव भरत जो से
स्तुति द्वारा भत्नी भौति सकार किये गये श्रीराप्रचद्ध जो, श्रपती
ज्ञाति के क्षायों के तामने कहने लगे ॥ १ ॥
उपपन्नमिद वाक्य यत्त्ममेवमभाषथाः |
जात पुत्रो दशरथात्कैकेय्यां रामसत्तमात्‌ ॥ २ ॥
हैभरत ! तुम नृपात्तम मदाराज दशरथ जो से, कैकेयी के गसे
से इत्पन्न हुए दा, भ्रतः जे तुम कहते दी से सव ठीक है॥ २॥
पुरा भ्रातः पितानः स भातरं ते समुदृइन्‌ |
मातामहे समाभोपीद्राज्यशुल्कमनुत्तमस ॥ ३ ॥
पूर्वकाल् में जब हमारे पिता दशरथ जो तुस्दारी माता
कैफेयी से विवाद करने गये थे, तव तुर्हारे नाना से उन्होंने यह '
प्रतिज्ञा कीथी कि, तुर्द्दारी बेटी के गे से जे। पुत्र उत्पन्न हिगा
चही मेरे राज्यलिदासन पर वैठेगा ॥ २ ॥
लनिद--महाराज दशरथ. का ऐसी प्रतिशा करना अबुचित ने था । क्योंकि
कैकेयी ऐे पछाथ उनका विवाद हनी उमर में हुआ था। भन्य रानियों के
प्ताय बहुत दिवो' रद्द कर, वे पुन्रोष्रत्य दाने से निराश हे। चुके थे ! कैडयी के
१ अभिसत्कृत:--भरतेनसोत्रादिना घम्यगसमिपूजित: | ( थो* )
१०३२५ भ्येध्याकायडे

साथ विवाद पृत्र को कामना दीसे किया था। अतः उनका ऐसी प्रतिशा
करना ठीक ही था |
यदि यहाँ यह कोई कह कि; नत्र महाराज ऋओेफक्रैयी के गर्भ से इन
सन्तांव दी के राज्य देने के लिये मतिशावद्ध हा चुके ये तब श्रोरामचत् का
युवराजपद देने छी तैयारियाँ उन्होंने क्यों को, तो इसका समाधान छतिकारों
के इत्त बचन से दाता हैं--
# रह्ठाइकाके रतिसंत्रयोगे प्राणातये सर्यधनापदारें ।
विप्रत्य चार्येप्यद्तंबदेयुः पश्चानृत्तन्याहुएपातकानि ॥ ?'
इसके अतिरिक्त मद्रारान अपने कुछ की परम्परागत प्रथा के अनुधार
ज्येंठ्ठ राप्रकुमार के राइसिंदासत देने के छिये मी वाब्प थे। यदि वे इस
प्रथा के चिरुढ्ध कार्य करते, ते प्रजा उनके इस अदुचित काय का घार विरोध
करती और उनकी निन्‍्दा करती जैवा कि प्रजा ने श्रीराम के वनवास के समय
क्रिया नी था। ]
देवासुरे च संग्रामे जनस्ये तब पार्थिवः ।
सम्पहुशे ददों राजा वर॒माराधितः प्रथ्ु) || ४ ॥
इसके अतिरिक्त देवाखुर संग्राम में भी तुम्हारो ( माता के
उपकार से रन्तुष्ट है, पिता जी ने उन्हें दो वरदान देने कहे
थे॥४॥
ततः सा सम्पतिश्रान्य तव माता यशखिनी ।
अयाचत नरश्रष्ठे दावरों वरवणिनी ॥ ५॥ -
अतः है नरश्रेष्ठ !यशन्विनी एवं छुन्दर वचन वालने वाली
बुस्दारो माता ने, पिता जो के वचनवद्ध कर उनसे दोनों धर
माँग ॥ ५ ||
तव राज्य नरव्याप्र मम्र परवराजनं तथा । ह
ते च राजा तदा तस्ये नियुक्तः प्रददो बरो ॥ ६ ॥
] करे कर
सप्तोत्तररततमः सर्गः १०३३
हेपुदषश्िह !एक बर से तुर्दारे लिये राज्य और दूसरे से
मेरेलिये वनवास । मद्वाराज ने भी माँगने पर इस क्षेत्रों वरों के
दे अपनी प्रतिज्ञा पूरी की ॥ $ ॥
पेन पिदरापहमप्यत्र नियुक्त: पुरुषपंभ ।
चतुदंश बने वास वर्षाणि वरदानिकम ॥ ७॥
हैनरवर ! उसी वरदान के कारण पिता को प्राज्षा से मैंने
चैदद चर्ष वन मेंवास करना स्वोकार किया ॥ ७ ॥
से वनमिद प्राप्तो निर्मन॑ लक्ष्मणान्वितः |
सीतया 'चाप्रतिदवन्द्र! सत्यवादे स्थित) पिंतु; ॥ ८ ॥
और पिता जी के वचन के सत्य करने के लिये सीता और
लक्ष्मण के साथ के ग्रौर सर्दी गर्मी दुःख छुख की छुछ भी
परवाह न कर मेंइस निर्जन वन मेंचला थाया हूँ॥ ५ ॥
भवानपि तथेत्येव पितरं सलवादिनम |
फतुमहति राजेद्ठ प्षिप्रयेवाभिपेचनात्‌ ॥ ९ ॥
हेराजेद् | तुम भी अपना शीघ्र राज्याभिषेकत करवा कर मेरी
' तरद पिता जी के सत्यवादी बनाओ ॥ 8 ॥
ऋणान्मोचय राजान॑ मत्कृते भरत प्रशमप्‌ |
पितर॑ चापि धर्मज्ञ मातरं चामिनन्दय | १० ॥
हैभरत | मेरी प्रसन्नता के लिये तुम महाराज को इस ऋण
से उम्मूण करे श्रोर उनको रक्ता करो। माता कैक्नेयी को भी,
स्वयं राज्यासन पर बैठ फर, प्रसन्न करो ॥ १० ॥
१ अप्रतिदन्द: -शीतोंप्णादिवाधारहितोईह । ( शि० )
१०३७ श्रयाष्याकायडे

श्रयते हि पुरा तात श्रतिगीतवा यशखिना ।


गयेन यज्मानेन गयेष्येव पितन्यति ॥ ११ ॥
है तात ! छुना हेकि, पृचकाल ने गय साथ के एकऋ यशस्वी
राज्ञा गया प्रदेश में यज्ञ ऋरते थे। उन्होंने पितरों से यह वाश्य
हा था कि, ॥ ११॥
पत्नाम्ना नरकायस्मात्पितरं व्रायते सुतः
तस्मात्युत्न इति पोक्तः 'पितन्यत्पाति वा सुहा ॥१शा
पुत्र पिता को पुन्नाम नरक से उद्धार करता है ओर पिठरों
के उद्देश्य से इ० पूत कार्यो के कर पितरों के स्व में भेज्ञ सद
पकार से पितरीं की सत्ता करता रहता दे । इसीसे उसके पुत्र
कहतेहैं॥ १५॥
[ चा5--इापर्त का विवरण ह्टतियाँ में यह छिल्ला है---
पूतं--वापीकृपतडायादिदेवतायतताबि च !
क्षब्रप्रदावसारामा: पृतनर्व्याँ प्रचक्षतें प
इष्ट--शढ्ाप्नि करने इबन द्रेतायां यच्च हुयते ।
इन्तवेद्यां च यह्ननिष्ट चदनिधीयते ॥--५. ६. >.7४8. |
ए४-्या वहवः पुत्रा गुणवन्तों वहश्रता! ।
तय वे समवतानामपि कथ्िदृगयां जद ॥ १३ ॥
_इसीसे जाग पिद्यान आर गुरादवान बहुत से पुत्रों की चाहना
क्षि, उनमें से दवाई पुत्र तो गया ज्ञा कर थाद्वादि द्वारा
पिठरों का उद्धार करेगा ॥ १३ ॥
१ दिंून पाति--उद्देशद्तेशपूर्यादिया ह्वलेक्ि अपव्यरक्षदोलव: !
(यो )
सप्तोत्तराततमः सर्गः १०३५

एवं राजपेयः सर्वे प्रतीता राजनन्दन |


तस्माव्नाहि नरश्रेष्ठ पितरं नरकात्भा ॥ १४७॥
हैराजनन्दन ! सव राजर्पियों का इस वात पर विश्वास है।
धतः देनरश्रेष्ठ |हुम पिता जी झा नरक से उद्धार करो ॥ १४॥
अयेध्यां गच्छ भरत प्रक्ुतीरतुरक्षय |
शंनुप्नसहिते वीर सह सर्वेर्दिनातिमि! ॥ १५॥
हैभरत ! तुम शत्रुघ्न कोतथा खब ब्राह्मणादि प्रजा को साथ
के कर, प्रये ध्या में जा कर प्रज ाशं का पानन ्दित करो ॥ १३१ ॥
प्रवेक्ष्ये दण्डकारण्यमहमप्यविलम्बयन्‌ |
आभ्यां तु सहिते राजन्वेदेशा लक्ष्मणेन च ॥१३॥
हेराज न ! में भी सीत ा पर लद् मण का साथ के शीघ् र
दगहकारणय में प्रवेश करूंगा ॥ १३ ॥
ल॑ राजा भरते भव खयं नाराणां
वनन्‍्यानामहमपि राजराष्मगाणास्‌ ।
गच्छ त्व॑ पुरवरमथ संप्रहुष्ठ
संहृ षस्त वश्म पि दण्ड कास् पवेश ्ये ॥ १७ ॥
हैभरत |तुप्त महष्यों के राजा दो और में वनसूर ्गों के
शजा काओ ाहैंगा|
राजं तुमप्रसन ्न दो अव श्रेष् ट नगरी धयाष ्या
क्षा गमन करो श्र में भी प्ान न्दप ूवंक दगड कंव न में प्रवे श
कहें ॥१७ ॥
१०३६ श्रयेध्याकायडे
छायां ते दिनकरभाः प्रवाधमार्न
श्वर्षत्रं भरत करोतु मूर्धिन शीताम्‌ ।
एतेषामहमपि काननहुमाणां
छाया तामतिशयिनीं सुखी अ्यिष्ये ॥१८॥
हुये के आतप के रोकने वाक्षे राजन्त् तुम्हारे मस्तक पर
शीतल छाया करें भर मेंअड़ुज के इन पेड़ों की सघन छाया
का भआाश्चय ग्रहण करू ॥ १८॥
शत्रप्न। कुशलमतिस्त ते सहाय
सोमित्रिमंम विदित! प्रधानमित्रम |
चत्वारस्तनयवरा वर्य॑ नरेन्द्र
सत्यर्थं भरत चराम मा विषादय ॥१९
इतिलप्तोत्तरशततमः सगेः ॥
है भरत ! यह अमितवुद्धि दाल शबत्रन्न तुम्हारे सहायक रहैंगे
और सर्वक्षाकों में प्रसिद्ध यह लद्मण मेरी सहायता करेंगे।इस
प्रकार नृपश्रेश्ष मद्दाराज दशरथ के दम चारों पुत्र ्रहाराज़ दशरथ
के संत्यवादी करें। अतः अब तुम विपादथुक मत दो ॥ १६ ॥
[ ने|ट---इस अक्षर जब श्रीरामचन्द्र जीने भरत जी के मिरत्तरित कर.
दिया, तब भरत जी को चुप देख, दित्तपरता के कारण, जावालि जी ने चार्वाक
मत का सद्दारा छे श्रीरामचाद् ज्ञी का जे उत्त दिया था वह १०८ दें
धध्याथ में लिखा गया है। )
ग्येध्याकाणड का एक सो सातवां सर्ग समाप्त हुआ। *
-+-+औ-- ह

३ वर्षत्रं--छत्न । (गो० ) २ चराम--करवामैल्यर्थः । ( गौ० )


ग्रश्त्तरशततमः सर्ग;
82 |

थे औ ३८
आइ्वासयन्तं भरतं जावालिब्राह्मणेत्तम! |
उवाय राम पमृज्न धमरपितमिदं! बच; ॥ १ ॥
& (१५ धमपितमिदंहु

इस प्रकार भरत जी का समभाते हुए श्रोशमचद्ध जी से


जावाति माप्र के पक श्रेष्ठ बराद्मण ने ये धर्मविरुद्ध वचन कहे ॥१॥
साधु रायव मा भ्ूत्तेबुद्धिरेवं निरर्थिकार |
प्राकृतस्य नरस्येव श्वायबुद्धंमनस्थिन! ॥ २ ॥

चाह मदाराज़् वाह ! ग्रापकी तो पामरजनों जैसी निरर्थंक


बुद्धि न होनी चाहिये। क्योंकि आप केवल श्रेष्ठ इद्धिवाल्े हो नहीं,
किन्तु मनस्त्री भी है ॥ २ ॥
कु! कस्य पुरुषों वन्धु। किमाप्यं कस्य केनचित्‌ ।
यदेका जायते जन्तुरेक एवं विनश्यति ॥ ३ ॥
भला ज़रा सोचिये तो, करन क्रिसका वर्धु है और फोन
किसका दना विगाड़ सकता है। यह प्राणी भ्रकेत्ञा ही जन्म लेता
हैऔर फिर प्रकेल्ा द्वीनए भी होता है ॥ ३ ॥
तस्मान्याता पिता चेति राम सज्जेत ये। नर! !
उत्मत्त इव से जेये। नारित कथ्रिद्धि कस्यचित्‌ ॥१॥
श्रतः यह मेरों माता है,यह मेरा पिता है--ऐसा सम्बन्ध माल
कर जे पुरुष इन सम्बन्धों मेंआासक्त होता है, उसे पागल की
२ धमपितं--धर्ममार्गविरद्ध । ( ० ) २ निरथिका--परमार्थ
रदिता | ( शि* )
१०६८ अयाष्याकायडे

तरह समझना च ा ह ि य े । क् यो ंक ि वि चा रप ूर ्व क द े ख ा ज् ञा य त ा सं च-
मुच कोई भो किसी का नहीं है ॥ ४ ॥
यथा ग् रा मा न् तर ं गच ्छ न् नर ः कथ ित ्क चि हस ेत ्‌ ।
उत्छ ज् य च तम ाव ास ॑ मत िष ्ठ ेत ाप रे डन ि ॥ ५ ॥
मिस प्रकार कोई मदुष्य अपने गाँव से दुसरे गाँव का ज्ञाता
हुआ, कहीं मार्ग में ठहर ज्ञाता हैऔर अगले दिन उस स्थान को
छोड़ चन्न देता है॥ ५ ॥
एवम्रेव मजुष्याणां पिता माता ग्रह बसु ।
आवासमात्र काकुत्स्थ सज्जन्ते नात्र सज्जना। ॥ ६ ॥
इसी प्रकार पिता माता, घर और घनादि सम्पत्ति के साथ
भी महुष्य का थोड़ी देर का टिकाऊ सम्बन्ध है। अतपुव सल्न
कि से का ब्ते

शब
लाग इनमें आसक्त नहीं होते ॥ ६ ॥
पिश्यं राज्यं परित्यज्य स नाईसि नरेत्तम ।
अस्थातुं कापथं दुःख विपम॑ वहुकण्टकस्‌ ॥ ७ ||
अतपव दे नरोत्तम ! श्राप पिता,के राज्य को छोड़, इस कुमार्ग
पर, जे दुःख देने वाला, युवावस्था के अयेाग्य ओर बहुकशंट्कों
से परिपूर्ण है, आरुढ़ देने ये/्य नहीं हैं॥ ७ ॥
समुद्धायामयाध्यायामात्मानमभिषेचय | .
र२एकवेणीपरा हि त्वां नगरी* सम्परतीक्षते || ८ ॥
३ विपमं--धौवनानुलितं । ( यो० ) २ एकत्रेणीधरा--वतपरायगेलव:
( गो ) ३ नगरी--तदधिदेवता । ( गो० )
प्रशेत्तरशततमः सर्गः १०३६
+ भाप ते! चल कर श्रव धन धान्ययुक ग्रयेष्या मेंअपना
अभिषेक फरवाइये |क्योंकि श्रयेध्या की श्रधिव्षात्री देवी पति-
वेतघारण कर आपके भ्रागपन की वाद जेह रही है ॥ ८ ॥
राजभागाननुभवन्महाहान्पार्थिवात्मन ।
बिहर लमयोध्यायां यया शन्रद्चिविष्ठप ॥ ९॥
हैराजकुपर ! आप बढ़िया वढ़िया राजाओं के भेगने योग्य
भागों का उपभाग करे और अयोध्या में उ्ती प्रकार विहार करें
जिस प्रकार इच्ध श्रमरावती मेंविद्ार करते हैं ॥ ६ ॥
न ते कथ्िहशरथरत्वं च तस्य न कश्चन |
अन्यों राजा लगन्य! स तस्मात्कुरु यदुच्यते ॥१०॥
न ते अव दृशरथ भ्रापके कोई हैंऔर न श्राप दशरथ के कोई
पैं। राजा कोई और हैऔर आप कई शोर हैं। इसलिये मेंजे!
कहता हूँउसे आप कीजिये ॥ १० ॥
वीजमात्रं पिता जन्‍्तों। शुद्ध रुपिरमेव च !
संयुक्तमृतुमन्मात्रा पुरुपस्येह जन्म तत्‌ ॥ ११॥
प्राणी के जर्म में पिता तो बोय का पक कारण मात्रह्ढै।
फ्योंकि ऋतुमती माता के गर्म मेंएकन्न ही मिल्ला हुआ वीय॑ और
रज्ञ ही जीव के जन्म का देतुहै॥ ११॥
गत! से हृपतिस्तत्र गन्तव्यं यत्र तेन वे|
'प्रहत्तिरेपा मत्यानां* त्व॑ तुर मिथ्या विहन्यसे ॥११॥
०8 प्रवत्ति;-..स्वभाव इब्वे:। ( गो* ) २ मर्लानां-मरणक्ीकछानां !
( गो ) हेव्व॑ तु मिथ्याविदयपे--मिध्यामूतेन संवन्धेव पीड्यसे । (यो)
१०४० श्रयाध्याकायडे

वे महाराज तो जहाँ उनके जाना या वहाँ गये | क्योंकि मण्ण-


शील प्राणियों का स्वभाव दी यद्द है। तुम दूथा ही इस कूठे
सम्बन्ध के ले, पीड़ित होते हो ॥ १२ ॥
२अर्थधर्मपरा ये ये तांस्ताब्शे।चामि नेतरान्‌ ।
ते हि दुःखमिह प्राप्य विनाओं प्रेत्य भेजिरे ॥ १३ ॥
जे। के प्रत्यक्ष मिलते हुए छुख्ध को त्याग कर हकछुप्
मिलने की आशा से कष्ट भोग कर धर्मेपाजन करते हैं, ओर ऐसा
करते करते नए द्वो जाते हैं, मुक्ते उन्हीं ले!ों के लिये हुःख है
, शरों के लिये नहीं, श्रथवां मुझ्े उन लोगों के लिये शोक हूँ जे।
प्रययक्ष सिद्ध अर्थ के त्याग, अप्रत्यक्ष कर्म सम्पादन में तत्पर रह
कर, इसल्लाऊ में ते दुःख भागते ही हैंकिन्तु वेनष्ट दोने पर भी
इुग्ख भागते हैं। थौरों के ज्षिये नहीं ॥ १३ ॥
अह्का पिदृदेवल्यवित्यय॑ मसुते जनः ।
अन्नस्यापद्र॒वं* पश्य मते। हि किमशिष्यति ॥ १४ ॥
देजिये, लेग जे! भ्रएफादि धाद्धक्म पितरों के उद्देश्य से,
प्रतिवर्ष किया करते हैं, उससे लोग श्रत्च का कैसा नाश करते हैं।
भक्ना कहीं काई मरा हुआ भी कभी भेजन करता है ! ॥ १४॥
३ ७

यदि भुक्तमिहान्येन देहमन्यस्य गच्छति |


दर्यात्मवसतः श्राढ्ध न तत्पथ्यशन भवेत्‌ ॥ १५ ॥
यदि पक का खाया हुआ श्रन्न दूसरे के शरीर में पहुँच ज्ञाता
तो वही के। रास्ते मेंभाज़नन करने के लिये, भाज्य पदार्थ अपने
२ अधधर्सपराः--प्रलक्षतैल्य विद्याय क्रेचकार्थसस्पादनपरा£ । ( गो? )
३ उपद्रबं--क्षय । ( गो )
अशेत्तरशततमः सर्गः १०४१
साथ लेने की ज़रूरत ही क्या है! क्योंकि उसके सम्बन्धी उसके
नाम पर घर पर ही भाद्ध कर दिया करते और वही उस वही
के लिये, प्राय को भाजत का काम देता और कोहो वेक् होने
से बच जाता ॥ १४ ॥
'दानसंवनना झ्ते ग्रन्थामेघापिमिः* कृता! |
यजख देहि दीक्षख तपर्तप्यख सन्त्यज ॥ १६ ॥
देभीरामचद्ध ! अन्य उपायों से धनोपाजंन में केश देख,
दूसरों का धन हरने में चतुर ले।गों ने दान द्वारा ज्ञागों के वश
मेंकरने के लिये, धर्मग्रन्थों में लिश्च रखा है कि, यज्ञ करो, दान
दो, दीक्षा के।, तप करो, संम्यास के श्र्थाव्‌ ज्षोगों को धोखा
देकर उनका धन हरण करना हो दूत धर्मा्नन्थों की रचना का
मुख्य उद्देश्यहै॥ १६ ॥
स नारित परमित्येव कुरु बुद्धि महामते |
प्रलक्षे यत्तदातिष्ठ परोक्ष पृष्ठठ! कुर ॥ १७॥
है महामते | वास्तव में इस क्ाक के श्रतिरिक्त परक्ाक
घादि कुछ भी नहीं हैं। इसे आप भल्री भाँति समझ लीजिये।
थ्रतः जे सामने है,उसे अहृण कोजिये ग्रोर जे परोत्त, भर्थात्‌
प्रययज्ञ नहीं है उसे पीठ पोछे कीजिये। श्रर्थात्‌ प्रथन्ष में
खुखदायक राज्य का प्रदश कीजिये और परोक्ष की वात (कि
पिता के सत्यप्रतिक्ष करने से बढ़ा पुण्य होगा; ) को भुला
दीजिये ॥ १७ ॥
! दानसंवदवाः--दागावत्रगोकणापाया: । (ग्रो" ) हे मेथा-
विभिः-परह्नन्यग्रदणकुरालयुद्धिमि: । ( गो० ) *
वा० रा०--६६
१०४२ अयेध्याकायदे

सत्ता बुद्धि पुरस्कृय सर्वल्ोकनिदर्शिनीम! ।


राज्य त्व॑ भतिगृहीष्व भरतेन प्रसादितः ॥ १८ ॥
इति पश्चोत्तरशततमः सर्गः ॥
देखिये भरत ज्ञो झापसे प्रार्थना करते हैं, अतः सर्व जनानु-
भेदित सज्भनों के मत का स्वीकार कर, राज्य अ्रदण कीजिये ॥१५॥
अवेध्याकागड का एक सी आंठवाँ सर्य सम्राप्त हुआ |
जा आय
0] है...
नवात्तरशाततमः सम;
++ 87%
जावाहेस्तु वचः भ्रुत्वा राम! 'सत्यात्मनां वर! |
उवाच परया भकत्या खब॒ुद्धया चाविपन्नया' ॥ १ ॥
जावाज्ि की वातें छुन, सत्यभाव वालों में श्रेष्ठ ' श्रीरामचन्द्र
ज्ञी प्रपती अधिचल बुद्धि से विचारे हुए, बेदिक धर्म मेंभद्धा
उत्पन्न करने वाले वचन वाले ॥ १॥
भवान्मे प्रियकामारथ वचन यदिदेक्तवान्‌ |
आकाय कार्यसह्लाशमपथ्यं पथ्यसम्मितस् | २ ॥
आपने पुझ्के प्रसन्न करने के लिये ज्ञा बातें कहीं, वे कार्य रूप
मेंप्रिणत करने के लिये अनुपयुक्त और न्यायम्रार्ग के विरुद्ध
) सर्वेल्वाकनिदर्शिनोम--सर्वेजनसंमतामित्यर्ध: । (गो०) १ सत्यात्मनाँ-
चरः--सलल्वताबानां श्रेष्ठ । (रा० ) सत्यात्मनां भक्त्या--वैदिकघम-
अदया | ( गो० ) ३ अविपंद्रवाः--क्षचल्िदया । ( ग्रो० )
नवेतत्तरशततम्ः सर्गः १०४३
दने पर भी, ताधारण हुष्टि सेदेखने पर, न्यायानुप्नेदित और
करने येग्य ज्ञान पढ़ती दें शर्थात्‌ आपकी सब बातें बनावठी
हैं॥२॥ ४
निर्मयादस्तु पुरुष; पापाचारसमन्धितः | हरे

मान ने लगते सत्सु भिन्नवारित्रदशन। ॥ ३ ॥
हल

मर्यादा रहित, पापाचरण से युक्व, चरित्रदहोन और साधु


सम्मत शात्रों केविरद धाचरण वाले पुरुष का सज्ञनों के
सम्रान् मेंआदर नहीं होता ॥ ३ ॥
कुलीनमकुलीन वा वीर पुरुपभानिनम्‌ ।
चारिमेव व्याख्याति शुचि वा यदि वाध्छुचिम ॥9॥
चरित्र हो अकुलीन के कुल्ीन, भीर के चोर और अ्पावत्र
के पावन प्रसिद्ध करता है ॥ ४॥
अनार्यस्वार्यसड्ञाग! गेचाद्धीनसथा शुचि! |
तक्षण्यवदलक्षण्ये। दुःशीछ। शीलवानिव ॥ ५ ॥
अधथर्म धर्मवेपेण यदीम 'ठेकसड्ूरस्‌ |
अभिषत्स्ये शुभ हिल्वा क्रियाविधिविवर्णितरर ॥९॥
कश्रेवयानः* पुरुष) कार्याकार्यविचक्षण: |
बहुमंस्यति मां छोके दुइ्॑त छेकदृपणय्‌॥ ७ ॥
१ केवर्सकरमु--छाकघहटरकारका्‌ । (गो ) १ छुमं--शुभसापनत
पैदिकधरमंस्‌ ) ( गो” ) हे क्रिया वि धि वि तर जन ित म् ‌- -प ैद िक क् रि यय ाप ेद वि धि ना
चबर्गितं इमंल्वदुकमधर्म | ( मो प ) ४ चे तव ाव /- -श ाम वा न् ‌ | ( ग ो )
१०४७ अयेान्याकाएडे

यदि में श्रे ष्ठ दुर ुषो ं की मर् याद ा में रद कर , अन ाय ों की तर ह ।


पच्चित्न हि कर, शोचद्वीन को तरद ओर शोलवान दी कर, दुःशील ,
क्षी तर ह धर ्म के वे ष से वै दि क धर ्म को बा ड़ , छे गो ं में सह डु रत ा
बढ़ाने वाले, वैदिक विधि और बेद्क क्रिया से रहित आपके
वतलाये हुए घर्म के! अहण करूँ, तो कार्य अछाय के जानने
वाला कौन ज्ञानवान पुरुष, मुठ दुयचारी और ज्लाकनिन्दित का
सम्मान करेगा ॥ ५ ॥ ६ ॥ ७॥
कस्य धास्याम्यहं हत्तं केन वा खगमाप्जुयाम |
घ ० ५ ९

अनया वर्तमाना हि हृत्त्या हीनप्रतिज्ञया ॥ ८,॥


यदि आपके उपदेशासुसार में इस सत्य-्पतिक्ष-यालन-होन
धुत्ति को अवत्लंवन कर लूँ तो, मेंकिस कर्म के द्वारा खबर प्राप्त
करूँगा ॥ ८ ॥ ,
कामहचस्त्वयं छेोक! कृत्सन! समुपवर्तते |
यदढ्त्ता। सन्ति राजानस्तदृह॒त्ता! सन्ति हि प्रजा) ॥९॥
जब में (ही) ययेच्चाचारी हा गया, तंव (अन्य) सव लेग
छझाणप्ना मनमाना काम करते लगेंगे। क्योंकि राजा का जैसा प्राच-
“ रण द्वोता है, वैसा ही आचरण प्रज्ञा का भी हो ज्ञाता है। ( यथा
.. शजा तथा प्रजाप्रसिद्ध
हीहै)॥ ६॥
सत्यम्रेवाव गंसं)च राजहत्तं सनातन ।
तस्मात्सह्यात्मक॑ राज्यं सत्ये छाक! प्रतिष्ठित! ॥१०॥
भृतानुकम्पा प्रधान और सनादन राज्वर्त सत्यद॒प है,ग्रतः
राज्य सत्यहप हेऔर सत्य ही से यह लेक टिका हुआ है ॥ १० ॥
। अनृ श्ं सं- -मू तान ुफस ्था मधा व॑ सत् यतन ंच राज व्त सल् यसप मेत र । (गो ०, )
नवे।त्तरशततमः सर्गः १०४४
[ नेद--अर्ाद्‌ राजा का धर्त हैकि बद प्राणि मात्र पर दयायुक्त
न्यवद्वार करें और अपने ज्यवद्वार में अपत्य के स्थान ने दे । राजधर्म में
झूठ पैछना निपिद्ध है । भूतादुकाथआाधान एवं सत्यहप ताजधर्म अवादितिद्‌
दे । सत्मब्परद्दार यदि छोप दे जाय ते। दृध छा में. एक क्षण भी रदना
कठिन है। जाय ।
ऋषयश्व देवाथ सलमेव हि मेनिरे! ।
हो हो

सत्पवादी हि ले।केस्मिन्परमं गच्छति क्षयम्‌ ॥११॥


देखे ऋषि लाग और देवता लोग सत्य के उत्हाए [मानते हैं;
क्योंकि सत्यवादी पुरुष के भ्रन्ञग्य त््वज्नेक प्राप्त देता है ॥ ११॥
उठ्विजन्ते* यथा सर्पानरादर तवादिनः |
धमः सत्य॑ परो लेके मूल खगरय चोच्यते ॥ १२॥
५ ७ ५ (5 कक

मिथ्यावादी पुरुष से लेग वैसे ही डरते हैंजैसे सांप से | सत्य


से युक्त धर्म केवल समस्त लोकिक व्यवद्वारों हीका मूत्न नहीं है,
किन्तु खर्गप्राप्ति काभी सूल साधक है॥ १२॥
सत्यमेषेशवरो लेके सत्य पता श्रिता सदा |
सत्यमूछानि सर्वाणि सत्यान्ासिति पर॑ पदम। ॥१३॥
सत्य ही से झैवर को प्राप्ति होती है, सत्य हो से लद्मी-धत
धान्य मिक्षता है। सथ ही सब छुल्लों का मूल है, सत्य से वह कर
और कोई वस्तु नहीं है.जिसका झाधय जिया ज्ञाय ॥ १३॥
दत्तमिष्टं हुत॑ चेव तप्तानि च तपांसिच |
वेदा! सत्यग्रतिष्ठानाध्तस्पात्पत्यपरी मवेत्‌ ॥ १४ ॥
! मेनिरे--अक्ृष्टमितिग्रेष' । ( गो? ) २ परसंक्षय३_--परमधान ।
(यो०) ३ उद्विगस्ते--जनाइतिगेप: । (गो०) ४ पद्म--आश्रय । (सि०)
१०४६ अयेव्याक्षायदे
दाम, यज्ञ, तप और बेद--ये सद सत्य हैं, अतएव सब के
सदा सत्य पालन के लिये तैयार रहना चाहिये ! १४ ॥
एक; परालयते छाकमेक! पालयते कुलम |
प्रज्नत्येका हि निरय एक! खर्ग महीयते ॥ १५ ॥
कोई ठी अपने कमा के फल से शपने कुल का श्रकई
लेक मर का पालन करता है! क्ाई नरक में इबता है और केई
खर्म में पूज्ित दाता है ॥ १५४॥
साऊ पितुर्नियागं तु किमये नानुपाछये ।
9०] ह] पितुर्नियागं
० ॥4 हक.

सत्पप्रतिश्रव; सत्य सत्पेन समयीकृत: ॥ १६॥


अतएव ने ( कमफ़ल के! ज्ञानता हुआ शोर ) सत्य का पालन
«.. करते की प्रतित्ञा फरक, चत्वप्रांतज्ष ओर सदाचारोी पिता ऋ
सत्य हुए उस आज्ञा का, जिसकी प्रतिज्ञा सत्यवापर्चक की गयी
पालन क्यों न कह ॥ १३ ॥
नेष लाभान्न मोहाद्वा न छज्ञानात्तमोन्वितः
सेतुसत्यस्य भेत्त्वापि गराः सत्यप्रतिशवः || १७ ||
अतपरम नता राज्य पाने के लाभ से. न ज्ेगों के भुलावे
में आ शोर न अज्ञात से करेय के वशवर्ती है, पिता की सत्यदपी
मादा का तोड़ वा, क्योंकि में स्वयं सत्यप्रतिज्ञ हैं॥ १७ ॥
असत्यसन्धस्व सतथलस्पास्थिस्वेतस: ।
नेत्र देवा न पितरः पतीच्छन्तीति नः श्रुतम ॥ १८ ॥
३ हेतु--मयांद । ( थो० , २ गरोः--पिंतुः
। ( श्ि० ) |
नवेतत्तरशततमः सर्गः १०४७
मैंने खुना हैकि, जे। लत्यप्रतिज्ञा के भकु करने वाला, चश्चल
स्वभाव झोर भध्यिर चित्त है,उसका दिया हुआ दृत्य भौर कव्य
देवता ओर पितर अ्रदश नहीं करते ॥ १५॥
प्त्यगात्ममिम धर्म सत्यं पश्याम्यह खयम ।
भार! 'सत्युरुपाचीणस्तदर्थमभिमन्यते' ॥ १९ ॥
(४

मेरो समझ मेंप्रत्येक जोचधारी के लिये सत्यपालन पी धर्म


सब धर्मों की थपेत्ञा प्रधान धर्म है। जिस सत्यपालन रूपी धर्म-
भार या वनवास ढपी धर्मसार के पूर्वकाल् के सब्धुरुष उठा चुके
हैं, उस भार के, आदर देना में पसंद करता हैँ॥ १६ ॥
क्षात्रं धममह त्यक्ष्ये शर्म पर्मसंहितस्‌" ।
शंसैलब्पैश्व सेवित पापकर्ममिः ॥ २० ॥
न सैल
घुद्रेशभं वितं ९

ग्रापके वतलाए हुए ज्ञाव धर्म का, जिसमें धर्म तो वाममात्र


का हैझोर अधर्म प्रयुर परिमाण में है में त्याज्य समझता हैं;
क्योंकि ऐसे ध्रधर्म झुपी धर्म कासेवन तो--भीच, निष्ठुर, ले।भी
झौर पापी ज्लाग ही किया करते हैं ॥ २० ॥
कायेन कुछते पापं मनसा संप्रधाये च |
कृमे पातकम ॥ २१ ॥
त्रेविध॑ हे
अन्त भिहया चाह त्रिविध
हि

आपके वतलाये त्ञानवर्म का पालन करने में,तीनों प्रकार के '


पापों की प्रवृत्ति होती है । पे तीन प्रकार के पाप हैं क्रायिक,
मानसिक भर वाधचिक | (कायिक वे जे! शरीर से किये जाँय,
! साथपुरुषाचीर्ण:--सत्पुस्यैशचरितः । (गो० ) २ अभिमन्‍्यते--
अमिमते। सवति | ( गो० ) ३ अधरस--अधमंत्रचु रं। ( गो० ) ४ घर्मे-
संद्ितम---धम्मलेशसदित । ( गो* )
१०४८ थयाष्याक्षायदे

मानसिक वे जे! मन में साथे ज्ञाय शोर वाचिक थे जे निद्ठा


द्वारा किये ज्ञाय, अर्थात्‌ कृठ वाजना, कोच ऋरता, परनिन्दां
करना, श्गणब्द कहना थादि |)इन तीनों प्रकार के पापों का
परस्पर सम्बन्ध है । पहले तो पाप का मन में सझुछप उदय दोता
है, फिर वाणी द्वारा वह प्रर्रृट किया ज्ञाता हैओर फिर वह
शरीर ने दिया ज्ञाता हैं॥ २१ | ४
भूमि! कीर्तियशा लक्ष्मी: पुरुष श्राथयन्ति हि |
से कण [त *ं
पुरुष॑ हि

५ + 4ति
चानुपरयन् 4७, ऐ।

समगसवे सयन्ति सत्यमंत्र भजत तत्‌ ॥ २२ ॥


ज्ञा क्लाग सवव्तधारी हैं, उन्हें कंचल राज्य, कीति, यश और
धन ही नहीं मिलता, किन्तु मरने पर उन्हें स्वर्ग श्री प्राप्त दोता
है। इसीसे लागों का सत्य वालना श्रोर सत्य व्यवहार करना
उचित है॥ २५ ॥
पे [4 (७ हु

श्रष्ट हनायमंव स्थाचड वानवधाये मस्त ।


आह चुक्तिकरवाक्यरिंद) भद्धं झुरुष्प है ॥ २३ ॥।
को (५ ४2७३७. »॒

आपने अपने मन्र में नि्यव कर जिसे डचित समक्त रखा है


आर जिसकी करने के लिये आप मुद्ठसे युछ्ियुक्त वचन कद कर
अनरेय करते हैं, वह कार्य सर्चया अचुचितर है ॥ २३ ॥
कं हाय॑ ग्तिज्ञाय वनवासमित्र गुरो )
कप के ३ ध है
मरतर्व कारध्यामर दवा हिला गुरावंच। ॥ २४ ॥
भत्रा बतलाइये तो, में अर पिता से वनवास की प्रतिज्ञा कर
चुका हूँ, तव अब क्योंकर में उस यतिज्ञा के भड् कर, भरत का
कहना मान ॥ २४ ॥ न्‍
१ श्रेष्ठ मिद्ययधाय विश्चियय | ( गो० 2. ३ इटू मह्ंकुदप्वेति मवान्युक्त
करेबांक्येंः यदाह तद॒नायमेवल्यात्‌ | ( गो० )
नवेत्तरशततम!ः सर्ग: १०४६
स्थिरा मया प्रतिज्ञाता प्रतिज्ञा गुर्सलिधौ ।
प्रहृष्यमाणा सा देवी केकेयी चाभवत्तदा ॥ २५ ||
जब कि मैंने पिता के सामने यद्द दृढ़ प्रतिज्ञा को थी, तब देवी
फैक्रेयो प्रद्यन्त प्रसन्न हुईथीं। (से! भ्रव मेंशपन्री उस हुढ़ प्रतिज्ञा
के तोड़ क्ैकेयो का क्यों कर ढुःखी कहूँ )॥ २४॥
वनवास वसन्नेव शुचिरनियतभोजन: |
मूल पुष्पेः फले; एुण्येः पितन्देवांथ तर्पथन्‌ ॥२६॥
ध््ै नह |

अतपच मेंपविश्न मूत्र फत्न फूलों से देवता भ्रौर पितयों के


तृप्त कर थ्रोर बचे हुओं के स्वयं भाज्न कर, शुद्ध हृदय श्रौर
' सतुए दा कर वन मेंवास करूँगा ॥ २६ ॥
[ नाठ--जे। पदार्थ देवता पित्तरों के अर्पंग कर खाये जाते हैंउनके
खाने से हृदय शुद्ध द्वाता है--जा ऐसा नहीं करते वे पाप करते हैं--गीता
में मगबार्‌ श्रीकृष्ण ने कटा है ४ अुझ्नते ते लघ॑ पाप ये' पचत्यात्मक्षारणात्‌ ”
भर्यात्‌ जे। अपने खाने के लिये रपाई बनाते हैं, वे भन्त नहीं अत्युत्त पाप
बाते है । ]
न्तु 0 कःयात्रां
१२ ये
१ सन्तुप्टपश्चव्गा5३ ला प्रवत्थ |
रअकुहृ! श्रदधान! सनन्‍्कायाकाय विचक्षण: ॥ २७ ॥
न्कायाकाय

मेंछुल्न दिद्र त्याग कर, कत्तंव्याकर्तव्य का विचार कर, बेदिक


' क्रियाकल्लाप में भ्रक्ृत्रिम अद्धा रख कर, तथा पाँचों इद्धियों को
सम्तुए्ट रख कर, पिता की वचनपात्नन रूपी लेकियात्रा का निर्वाह
64 करूँगा ॥ १७॥
! पन्तुष्पश्ववर्ग/--परितुष्ाओ्ल्ट्रियवंग। । ( गो" ) ३ छेकवान्ना--
पितृवचनपरिपाटमझूपलेफऊवर्तत । ( ग्रो० ) अक्ुद/--अक्षत्रिता । ( गो?)
१०५० झयावष्याक्ायदे

करमभरूमिमियां प्राप्य कृतव्य॑ कम यच्छुभस्‌ |


2. प्रियां # (६

अम्निवायुश् सामथ कमंणां फडभागिन: ॥ २८ ॥


कप पे 6 बच

इस क्रमभूमि में थ्रा कर शुमकर्माठ॒ठान करना उचित हूँ ।


क्योंकि को के फल के भागों श्रत्चि, वायु ओर चन्धमा हैं । अर्थात्‌
मलुध्यों के ऋमाउुसार अग्निलाक, चायुलेछ और चनच्धक्ञाक की
प्राप्ति होती दे। भ्रथवा शुनक्र्मों द्वारा हीजीव अन्रि वायु शोर
चद्धप्रा होते हैं ॥ २८ ॥

शत ऋतूनामाहत्य देवराद त्रिद्विवं गतः |


तपांस्थग्राणि चास्थाय दिवं याता महपेय! || २९ ॥|
(घुभकर्मानुठ्ठान का प्रभाव दिखा कर श्रीयामचद्ध जी कहते हैं
कि] सायजन्न करने से इन्त देशराज़ हो ऋर स्वर्ग मेंगये ओर
महतरि लेग नी तप करके स्वर की प्राप्ति करते हैं ॥ २६ ॥
अमृष्यमाणः पुनव्यतेजा
निशम्य नन्नास्तिकहतुवाक्यम्‌ |
अयात्रवीच इपतेस्तनूजो
विगहमाणा
हमाणे वचदानि तस्य || ३० ||

उम्र तेज वाले नृपनन्‍दृन शऔीरामचन् जावालि के नास्तिकता


से भरे चचत छुत, उनके सहन ने ऋर सद्े ओर उन वचनों को
निन्‍्दा करते हुए उनसे फ़िर दे ॥ ३० ॥
सत्यंच धर्म च पराक्रम च
भूतानुकस्पां प्रियवादितां च |
नवेत्तरशततमः सर्गः १०४१
दिजातिदेवातिथिपूजनं च
पन्धानमाहुब्रिद्विस्य सन्‍तः ॥ ३१ ॥
है जावालि | सत्य वालना, अपने अपने वर्ण और प्राध्रम
के धर्म का पालन करवा, सम्रय पर पराक्रम दिखाना, भूवदया,
प्रियवचन वेल्ना, ब्राह्मण, देवता और श्रतिथियों का पूजन करना
-“इन कर्मो के करने से, साधुजन स्वर्ग को प्राप्ति वतल्ाते
हैं॥३१॥
तेनेवमाज्ञाय यथावदर्थ-
'मेकादयं संप्रतिपद्यविषा! |
धर्म चरन्तः सके यथावत्‌
काइप्न्ति छोकागममप्रमत्ताः ॥ ३२ ॥
इसी लिये ब्राह्मण क्ाग, इसका यथावत्‌ प्र्थ समझ, सावधान
है। कर, वर्शाअमोत्रित समस्त धर्मो का पाहन्नन करते हुए,
प्रह्क्लाकादि की धारऊत्ञि करते हैं ॥ ३२ ॥
रनिन्दाम्यह कम पितुः कृत त-
चस्त्वामगृह्ाद्विपमस्पवुद्धिय्‌ |
बुद्ध्याउनयेवंविधया चरन्त॑
सुनास्तिक पर्मपथादपेतम्‌ ॥ ३३ ॥
हैजावालि ! मेंश्रपने पिता के इध कार्य की निन्‍दा करता
(कि उद्दोंने तुम्हारे जेसे वेदमार्ग से श्रए बुद्धि वाक्षे धर्मच्युत
१ एकरेदय सरप्रतिपथ--ऐश्रकण्ट्यं प्राप्य | (गो०) २ निन्दान्यहैं--
दिककर्मस्योबद्धिष्कोमि । (गो० ) ३ विपमहपहुद्धि--अवैदिश्सार्ग
ष्णावबुद्धिं ।[ थो० )
१०४२ अयोध्याकायडे
नास्तिक के अपने यहाँ रखा |क्योंकि चार्वाकादि नास्तिक प्रत
का जे दूसरों के उपदेश देते हुए घूमा फिरा करते दे, वे केचल
घेर नास्तिक ही नहों, प्रत्युत धर्ममार्ग से च्युत भो हैं ॥ २३ ॥
यथा हि चार; स तथा दि बुद्ध
स्तथागतं नास्तिकमत्र विद्धि |
तस्माद्धि यः शइ्यतमः प्रजानां
न नास्तिकेनामिमुखा बुधः स्थात्‌ ॥ ३४ ॥|
राजा के चाहिये कि भज्ञा को भत्राई के लिये ऐसे मनुष्य का
चही दण्ड देजे चार के दिया जाता है।और जे इनके दर
देने में असमर्थ हो, उन समरझदारों या विद्वानों को ऐसे तास्तिकों
से वात चीव भी न करनी चाहिये ॥ ३४ ॥
#तत्तो जना; पूवतरेबराथां
ऐप पूब॑तरेव ४

शुभानि कर्माणि वहूनि चक्कु! ।


मिल्रा सदेम च परं व छाक॑
तस्मादद्विजा: खस्ति हुत॑ कृत च ॥३५॥
दे ज्ञावालि | तुमसे पहले के ज्ञान में श्रेष्ठ जतों नेअनेक '
घुभ कर्मकिये और उन शुभ कर्मा के प्रभाव से उन ज्षागों ने इंहि
लाक और परलेक जीते । इसीसे ब्राह्मणों ने अहिंसा सत्यादि,
. तपेदान परोापकारादि तथा यज्ञादि कर्मो के किया ॥ ॥ ३५ ॥
१ त्वत्त--पूर्वत्तरेपुशातनाइच, वद्यइच ज्ानतः श्रेष्ठाइचजना। | ( गो? )
क# पाठान्तरै--+ तत्तो जना।, ! * सत्तोवरः ” | | पाठास्तरै--- -
# जबाब ॥ ४दिजाश ]
नवेत्तरशततमः सर्गः ' एन
धर्म रता। सत्पुरुषे! समेता!
तेजसिनों दानगुणप्रधाना! |
अहिसका वीतमलाथ लेके
भवन्ति पूज्या मुनय। प्रधाना। ॥ ३६ ॥
हि ञाधमातुछान में सदा तत्पर रहते हैं, तेजस्वी हैं,जो दान
देने में प्रधान हैं, जे! हिंसा नहीं करते, मे सत्सड्ली हैंऐसे
वशिष्ठादि प्रधान प्रधान मुनि ही संसार में पपरहित हो और
तेज्ञ धारण कर सब के पृथ्य दाते हैं.(न कि थ्राप जैसे तास्तिक
लोग )॥ २६ ॥ हु
इति ब्रुवन्त वचन सरोपं
राम॑ महात्मानमदीनसत्तम! |
उवाच तथ्य पुनरास्तिकं व
सत्य॑ बच! सानुनयं च विष्र। ॥ ३७ ॥
जब दीनताशून्य भ्रीयमतरद्ध जी ने क्रोध में भर आावालि
से ऐसे वचन कहे, तव जावालि जी विनय युक्त दो यथाथे, सत्य
सम्मनत और आह्तिक वचन वौक्ते॥ २७ ॥
ने नास्तिकानां वचन व्रवीस्‍्यह
न नास्तिकोझं न व नास्ति किश्वन |
समीक्ष्य काल पुनरास्तिकोञ्थवं
भवेय काले पुनरेव नास्तिकः ॥ २८ ॥
है औरामचद्द ! मैंनास्तिकों जैसी वातें नहीं कहता और न में
स्वयं नास्तिक हैं। मेरे कहने का न यह श्रमिप्राय ही हैकि पर-
! अदीमसलम--दैन्यसंस्श्न्यम्‌ । ( श्लि० )
१०४४७. श्याघध्याकायडे
ल्ाकादि कुछ भी नहीं दें। परन्तु समय के प्रभाव में पड़ प्रधवा
समय की आवश्यकतानुसार में आस्तिक अथवा नास्तिक दो
जाता हूँ॥ ३८॥
स चापि काछाज्यमुपागत) शने!
यथा गया नास्तिकवागुदीरिता ।
निवर्तनाथ तव राम कारणात्‌
प्रसादनाथ च मयेतदीरितम॥ ३९॥
इति नवात्तरशततमः सगः ॥
देराम | यह समय ऐसा हो था कि, मुछ्ते नास्तिकों जैसे वचन
कहने पड़े । मेंते यह वचन आपके प्रसन्ष करने तथा आपके वन
से लोठाने के लिये हो कहे थे ॥ ३६ ॥
थ्रयेध्याकायड का एक सो नवाँ सर्ग समाप्त हुआ |
-ई
दशोत्तह रश
-- 0
बशात्तरराततमः सर;
+--4०३--
[ नाड--१ १०वें पर् में श्रोराम जी के जावाडि पर क्रुद्ध देख वरिष्ठ
जी नावालि $ कथन का सहदेशय समझाने के छिये यह युक्ति देते हैंहि
रघुबंश मैं सदा ज्येष राजकुमार ही छे। राजलिंदालन मिलता आया है।
इस युक्ति फी पुष्टि मेंवशिष्ठ जी इंबाकुबंश की संक्षिप वंशावछों की
निहूपण कर, श्रीराम का ध्यान चंदा कर उनका छोध शाम्त करते हैं। ]
क्रुद्धमाज्ञाय राम तु वसिष्ठ प्रत्युवाच है ।
लत जा वा लि रप
ननि जा नी ते छे कस ्य ास ्थ ! गत ाम ति म# ॥१ ॥
5
! छाडस्य--जनस्य | ( गो० ) # पाठात्तरे-- गतागत ? ।
इशेत्तरशततम्रः सर्गः १०४४
चशिष्ठ जो ने जब देखा कि धोरमचत्र जो जावालि की वातों
से क्रुद्ध दा गये हैं, तव वे थरीराम जी से यह बैक्ले--जञावालि जी
प्राणियों के आवागमन के प्रानते हैं ॥ १॥
निवर्तयितुकामस्तु त्वामेतद्वाक्यमत्रवीत्‌# ।
इमां लेकसमुत्तत्ति लोइनाथ निवोध मे ॥ २॥
तुमका लौटने के जिये ही उन्होंने, ऐसी बातें तुमसे कही
थीं। देलाकनाय | इस लेक की उत्पत्ि का वर्णन तुम मुझसे
छुने ॥ २॥ !
सर्व सलिलमेवासीत्यूयिवी यत्र निर्मिता ।
ततः समभवद्बह्ा स्वयंभूदेंवते! सह ॥ ३ ॥
गरम में जल दी जल था | उसी जल के भीतर पृथिवी
वनी । तद्नन्तर देवतायों के ताथ ब्रह्मा जी उत्पन्न हुए ॥ ३॥
स वराहस्तते भूला प्रोज्जहार वसुन्धराम |
अछनच जगत्सव सह पुत्र! झतात्ममिः ॥ ४ ॥
तदनन्तर उन्दोंने वराह रूप धारण कर जल से पृथिवी
निकाली और अपने पुत्रोंसहित इस सम्पूर्ण जगत के बनाया ॥४॥
आकागप्रभवा बह्मा शाइवते नित्य अव्यय। ।
तरमान्मरीचिः संजज़े मरीचे! काश्यप: सुत!) ॥ ५ ॥
समावन, नित्य भोर अत्ताय्ये ब्रह्मा आकाश से उत्पन्न हुए भौर
उनसे मरीचि, मरोधि से कश्यप हुए ॥ ४ ॥
विवखान्काश्यपाज्जज्े मनुर्वेवरवतः सुतः |
स॒ तु ममापतिः पूवरमिश्ष्याकुस्तु मने! सुतः ॥ ६ ॥
# पाठान्तरे--- उक्तवानू !! ।
१०५६ - श्रयाच्याकायडे

कश्यप जी से वि वस ्व ान घूय ं, वि वस ्व ान छू थ से मन ु भे जन् म


लिया | वैवस्व॒त मनु दो प्रजापतियों में प्रधम प्रज्ञापति हुए और
इन्हींके पुत्र इच्चाकु थे ॥ 4 ॥
यस्येय॑ प्रथमं दा समृद्धा मनुना मही ।
तमिक्ष्वाकुमयेधध्यायां राजानं विद्धि पूकय ॥ ७ ॥
कप ५ न (९

इन इद्धाकु का महाराज मनु ने समृद्ध पृथिवी दी थो। इन्हीं


इक्त्याकु के हे राम ! तुम अयोष्या का प्रथम राजा जाना ॥ ७ ॥
इश्ष्वाकारतु सुतः श्रीमान्कृश्षिरित्येव# विश्ुतः |
कुफ्षेरथात्मजो वीरो विकुक्षिर्पत || ८ ॥
देवीर ! इक्तचाकु के पुत्र श्रोमान्‌ कुत्षि नाम से प्रसिद्ध हुए
2.

अर कुज्नि से विक्रज्ति की उत्पति हुई॥ ८५॥


विकुक्षेस्तु महातेजा वाण; पुत्र; प्रतापवान्‌ |
वाणस्य तु महावाहुरनरण्पे! महायश्ञा। ॥ ९ ॥
विकुत्ति के पुत्र मद्मतेजस्यी ओर प्रतापो बाण हुए | वाण के
पुत्र महावाहु ओर महायशरवी अनरण्य हुए ॥ ६ ॥
नानाहशिवेमूवास्मि्न दुभिक्षें सता बरे ।
अनरण्ये महाराजे तस्करा नापि कर्चन || १० ॥
सज्नना में श्रष्ठ म्दाराज्ञ अश्रचस्णप ऊ राज्यत्व कांत मे न ता
केसा दूखा पड़ा आर न कंनत्ची अक्ांज । उनके राज्य में कोड चार
सातया॥२०॥
अनरण्यान्महावाहु। पृथू राजा वभव ह ।
तस्मातृथामहाराजस्विगड्रूदपद्रत | ११ ॥
कपाठान्तरे--* एवेत गर
दशेत्तरशततमः सर्गः १०४७
देमद्रावाही | प्रमरणय से प्ृथुजी ने जर
परम तेजस्वी त्रिशदुउत्पन्नके१२१॥ ५७७॥/७०४
. से सल्वचनाद्ीर! सशरीरो दिव॑ गत |
निशक्ञोरभवत्सूनुधुन्धुमारो महायश्ञा: ॥ १२॥
हैवीर ! यह त्रिशुऐसे सत्यवादी थे कि, सशरीर स्वर्ग में
गये थे | त्िशडू के पुर परम यशस्वी धुन्धमार हुए ॥ १२॥
पुन्धुमारोन्महातेजा युवनाश्वो व्यनायत |
युवनाश्वसुत) श्रीमान्पान्धाता समपधत ॥ १३॥
धुन्धमार से मदातेजस्वी युवनाभ्व हुए। युवताभ्व करे पुत्र
श्रीमान्‌ मान्धाता हुए ॥ १३ ॥ ,
मान्यातुस्तु महातेजा! छुसन्धिरुदपध्त |
सुसंन्धेरपि पुत्रोंदो भुवसन्धि! प्रसेनणित्‌ ॥ १४ ॥
मारधांता से परमतेजत्वी खुसस्धि जन्मे। सुसन्धि से धुव-
सन्धि श्रोर प्रसेनज्ित्‌ नाम के दो पुत्र हुए ॥ १४ ॥
यशस्व्री भुवसन्धेस्तु भरते रिपुश्ददन! |
भरतात्तु महावाहारसिता नामतो्भवव्‌॥॥ १५ ॥
धुवसन्धि के पुत्र रिपुदुद्व भोर वशस्त्री भरत हुए। महावाहु
भरत से अस्त का जस्म हुआ ॥ १६ ॥
यसयेते प्रतिराजान उद्पथचन्त शत्रव! ।
हेहयास्तालजहाथ शूराथ शसजिविन्दवः ॥ १६॥
हैहय, तालजंघ, शशिविन्द और शूर ने असित से शन्ता
की ॥ १६ ॥
# पाठात्तरे-- नाम जायत / ।
बा० रा०--ई६७
१०४५८ थ्येष्याकायडे

तांस्तु सवान्तिव्यूद्य युद्धे राजा प्रवासित: ।


सच शैलवरे रम्ये वभवाभिरते मुनि! ॥ १७॥
युद्ध केसमय असित ने इन स्व के विरुद्ध सैन्यव्यूह वना
कर इनके घेरा, किन्तु इनके पराजित करना कठिन ज्ञाना और
अपना राज्य छोड़ पे तप करने के लिये परम रमणीक हिमालय
पर्वत पर चलने गये ॥ १७ ॥
है चास्य भायें गर्भिण्यों वभवतुरिति श्रृतिः
एका गर्भविनाशाय सपये सगरं ददों ॥ १८ ॥
_छुना ज्ञाता हैकवि, उनकी दो रानियाँ उस समय गर्भवती थीं ।
उनमें से एक ने अपनी सोत का गर्स नाश करने के लिये उसे
ज्ञहर विया ॥ १८॥
(६ ५ पे
भागवरच्यवना नाम हिमवन्तमुपाशितः |
तमूर्षि समुपागम्य कालिन्दी लवम्यवादयत्‌ ॥ १९ ॥
भुगुनन्दत चयवन जी उस समय दिमालय पर्वत पर रहते
थे | कालिन्दी नाम की रानी नेउन ऋषि के पास ज्ञा कर उनके
प्रणाम किया ॥ १६॥
स तामभ्यवदद्विपों वरेप्सुं पुत्रजन्मनि |
पुत्रस्ते भविता देवि महात्मा छोकविश्रुतः ॥ २० ॥
मदरि व्यवन ने जाना कि, इसे पुत्रप्राप्ति की इच्छा है, अतः
प्रसन्न है कर उप्त एुत्र की कामना रखते वालो रानो से कहा कि,
हेदेवि | तुम्दारे गर्भ से वड़ा महात्मा, लेकविख्यात पुत्र उत्पन्न
द्वैगा ॥ २० ॥
दरशात्तरशततम सर्ग+ १०४६

धार्मिक सुश्ील्थ वंशकर्तारिसृदन! ।


कला प्रदक्षिणं॥ सा तु धुर्निं तमनुमान्य च॥ २१॥
यह धर्मात्मा, छुशील, वंश बढ़ाने वाला भर शत्रुओं को संद्दर
फरेगा |यह वात छुन रातों ने वड़े आदर भाद से मुनिक्री
प्रदत्षिणा की ॥ २१ ॥
पद्मपत्रसमानाक्षे पद्मगर्भसमप्रभय्‌ |
ततः सा गृहमागम्य देवी पुत्र व्यजायत ॥ २१ ॥
और श्रपने घर जोट उच्च रानो नेकम्रलनयन भौर कमलगर्स
संद्ृश कान्तियुक पुश्न जवा ॥ २२ ॥
सपत्नया तु गरस्तस्थे दत्तो गर्भनियांसया ।
गरेण सह तेमैव जात; से सगरोध्मब्‌ ॥ २३ ॥
इस पुत्र के उसन्न देने के पूर्ष सोतिया डाद से कालिन्दी का
उसकी सोत ने जे! वि ष दि या था, उस ी गर भर् थात ्‌ ज़द दर के सा थ
उस वालक का नाम सगर हुआ ॥ २३॥
पुत्र का जस्म होने से
स राजा सगरो नाम ये! समुद्रभखानयत्‌ ।
हटा पर्वणि वेग ेन आस यस ्त मि मा ! मज ा! ॥ २४ ॥
उसमे पर् व के सम य यह् ददी त्ा ले था र फाद ने से इस प्रज् ञा को
शर्त कर समुद्र खुदवाथा ॥ २४॥
असमज्जस्तु पुत ्रो ग्भ ससग रस्येति न श त ।
मीवन्नेव स पित्रा तु निर स्त ः पाप कर् मझृ त्‌ ॥ २५ ॥
थे
लो:

प्र
न्
प्
॥।
सा
ररद
# पाठन ्त रे “- - दे श मु ति ं तम नु
(०६० भ्रयेष्याकायडे
छुना जाता हैकि, इन सगर के श्रसमज्ञस नाम का' एक चीर्य-
वान पुत्र हुआ । वह प्रज्ञा कोसताता था अतः उसके पापकर्मो
के देख पिता ने उसे निकाल्न दिया था ॥ २४ ॥
#अंशुभानिति पुत्रोब्मृदसमझस्य वीयबान ।
दिलीपोंशुमतः पुत्रों दिलीपस्य भगीरथः ॥ २६॥ ,
धसमश्स के पुत्र वीयबान अशुमान हुए | अंशुमान के पुत्र
दिलीप हुए और दिलीप के पुत्र भगोरथ हुए ॥ २६ ॥
, भगीरथात्ककुत्थस्तु काकुत्स्था येन विश्रुताः ।
ककुरत्स्थस्य च पुन्रोअभुद्रघुर्येंन तु
रापवा। | २७॥
भगीरथ जी के पुत्र ककुत्स्य, ककुत््य के पुत्र रघु हुए। इन्दीं
ककुत्स्य ज्ञी और रघु ज्ञी से काकुत््थ और राधव नाम की वंश
परम्पराएँ च्नीं ॥ २७ ॥ |
रघेस्तु पुत्रस्तेजरवी प्रदृद्ध/ पुरुषादकः ।
कव्माषपादः सैदास इत्येव॑ प्रथितो शुवि ॥ २८ ॥
रघु के पक तेजस्वी पुत्र हुआ जे प्रवुद्ध, पुरुषादक, कद्माष-
पाद और सोदास के नाम से संसार में प्रसिद्ध हुआ ॥ २८ ॥
कव्माषपादपुत्रोध्भूच्छल्नणस्त्विति विश्रुतः |
यस्‍्तु तद्दीयमासाध। सहसेने व्यनीनशत्‌ ॥ २९ ॥
कद्माषपाद से शब्बुण उत्पन्न हुआ । यह ज्लाकप्रसिद्ध चीर्य
को प्राप्त कर सेना सहित भ्रेरे शाप से नाश को प्राप्त दुझ्मा ॥ २६ ॥
शहणरंय च पुत्रोध्भुच्छूर! श्रीमान्मुदशनः |
सुदर्शनस्याप्निवर्ण अभ्निवर्णस्य शीघ्रगः ॥ ३० ॥
...७पाठासतरे--/ अंशुमानपि "| |पाठास्वरे-० सलैल्था 2 ।....
दृशेत्तरशततमः सर्गः १०६१

22:7० ७७७
शीघगरय मर: पुत्रों मरोः पुत्र: प्रशुभुक! ।
प्रशभुकस्य पुत्रोध्यृदखरीषे! महाबूति! ॥ ३१ ॥
शीघ्रग के पुत्र मर और मर के पुत्र प्रझुश्रुक्व हुए । प्रशुभ्रक के
पुत्र महादुतिमान अम्बरोष हुए ॥ ११ ॥ कि
: अम्बरीपर्य पुत्रो3भून्नहुप! सत्यविक्रम! ।
नहुपस्य च नाभागः पुत्रः परमथार्मिक! ॥ ३२ ॥
अख्वरीष के पुत्र सत्यपराक्रमों नहुष हुए । नहुष क्षे पुत्र
नासाग जी बड़ेधर्मात्मा थे॥३२ ॥
अजश्च सुत्रतश्तैव नाभागरय छुतावुभौ !
अजरय चैव धर्मात्मा राजा दशरथ सुत। ॥ ३३ ॥
नाभाग के प्रञ्ञ भ्रौर सुत्रत वाप्त हे दो पुत्र हुए ! इतमें से ग्रजञ
के पुत्र धर्माम्ा मद्ाराज दशरथ हुए ॥ २३ ॥
[ये। जित्वा वसुधां इत्स्तां दिवं शासति स प्रशु। । ]
तस्य ज्येह्ोडसि दायादा! राम इत्यमिविभुतः ॥३४॥
जिन मद्दाराज दृशरथ ने सम्पूर्ण पुथिवी जीत कर, स्वयं तक
का शासव किया--उन्हीं मदाराज दृशरथ के विश्वचिख्यात ज्येध्ष
पुत्र तुम हा । (अतपध हेराजन | तुम अपने पिता का राज्य ग्रहण
कर संसार का पालन-करयों )॥ रे8 थी .
२ दावाद;--सुतः । ( गो० )
१०दव२ भ्रयेाष्याकायडे

तदगृहाण स्वर्क राज्यमवेक्षरत जन॑ तप ।


इष्वाकूणां हि सर्वेपां राजा भवति पूर्वेजः ।
पूर्वने नावरः पुत्रों ज्येप्ठो राज्येशभिपिच्यते || रे५ ॥
इच्चवाकु के वंश में ज्येठ राजकुमार दी राजा दीता चला शाया
है। ब्येछ राजकुमार के विद्यमान रहते लेटे के राजगद्दी नहीं मित्र
सकती ॥ ॥ ३५ ॥
स राषवाणां कुलधममात्मनः
सनातन नाथ विहन्तुमईसि |
प्रभूतरवामनुशाधि मेदिनीं
प्रभृतराष्ट्रों पिववन्महायशञ। ॥ ३६ ॥
इति वशेत्रणततमः सर्गः ॥ ,
थ्रतः तुप्त रघुवंशियों केइस सनातन कुल्रधर्म को लेप मत
करे और अपने पिता की तरह यशस्त्री दा कर, इस वहुरक्षों से
“ पूर्ण और ध्रनेक राज्यों से युक्त पृथिवी का शासन करे। ॥ ३६ ॥
अयेष्याकाण्ड का एक सो द्सचौ सर्ग सप्राप्त हुआ ।
+-++तत+

एकादशोत्तरशततमः सगेः

वसिष्ठस्तु तदा राममुक्ता राजपुरोहितः ।


अब्रवीदमसंयुक्त पुनरेवापरं बचः ॥ १ ॥ '
राजपुरोदित वशिष्ठ जीधोराम जी से यह कह, फिर घर्म-
सम्मति बचन और भी बोले ॥ १॥
एकादशीत्तरशततमः सगे! १०६३
पुरुषस्पेह जातस्य भवन्ति गुरुवस्धय!
आचायबब काकुत्म्थ पिता माता च राधव ॥ २॥
हे काकुत्स्थ | दे राम ! पुरुष जब जनता है, तव उसके तीन
गुर देते है । पिता, माता शोर प्राचाय ॥ २॥
पिता धेनं जनयति पुरुष पुरुष्भ |
प्रज्ञां ददाति चाचायस्तस्मात्स गुरुू्यते ॥ ३॥
हैपुरुषश्रेष्ठ (पिता माता तो केवल शरीर को अक्ष देतेहैं,
झोर आचाय॑ बुद्धि देता है। श्रतः वह गुर कदृल्लाता है ॥ ३ ॥
से ते पितुराचायस्तव चैव परन्तप ।
पत्र तव॑ वचन उुर्वन्नातिपतें! सततां गतिम ॥ ४ ॥
है परन्तप ! मेंतुम्हारे पिता का भोर तुम्हारा भी धाचाये हूँ।
भ्रतः मेंजे कहता हैंउसे तुम मानो भोर सज्नों के मार्ग का
उल्लंघन मत करो ॥ ४ ॥
इमा हि ते! परिषद! श्रेणयथ्ररे द्विजास्तथा' ।
एपु तात चरन्धर्म नातिवतें! सतां गतिय ॥ ५॥
है वात | देखा, ये सब तुस्दारे सम्बन्धी हैं, ये ब्राह्मण समूह
हैं,थे प्रवासी हैं झोर येसव ज्त्रिय वैश्य हैं। इनके प्रति निञ्र
कर्चत्य का पालन करो और सल्ञनों की वाँधी मर्यादा का उलंधन
मत करो ॥ ४ ॥

“77१ तै-
३.- त्व
.त् त्स
वत् सस्
म्ब वन्
न्ध धिन
ित! : ।
। (
( गो
यो ० ०
)) ९
4 पर िप दु ः- -आ हण सम ुह ्ा र।
। (ग
(ग ो०
ो० ) )।
३ श्रेणय/--पैरजवाः । (गो० ) ४ द्विजा।--क्षत्रिया वेश्याइच ! ( गो? )
१०६४ अयाध्याकायडे ,

हृद्धाया धर्मशीलाया मातुननाहस्थवर्तितुम्‌।


अस्पास्तु वचन कुब॑न्नातिवर्तें: सतां गतिम्‌ ॥ ६ ॥
देखा, यह वेचारी बूढ़ी और धर्मशीजा तुम्हारी माता जे।
कहती है,उसका उल्लंघन करना तुमका उचित नदीं--क्योंकि जे
पुरुष माता का कहना मानता है,चद सम्मागों कदलाता है| $ ॥
भरतस्य वचः कुवन्याचमानस्य राघव । .
आत्मान नातिवर्तेस्ब॑ सलधर्मपराक्रम || ७॥
है सत्यधर्म पराकमी राघव ! देखा, यह भरत श्रापसे याचना
कर रहेहैं,सा इनकी वात मानने से भो तुम सदृगति से प्रश्न
: होंगे ॥ ७॥ ' :
एवं मधुरसुक्तरतु गुरुणा राघव) स्वयम्‌ । *
प्रत्यवाच समासीन वसिष्ठं पुरुपपेभः ॥ ८ ॥
सीन॑ वसिष्ठं छः

जव भुरु वशिए जी इध प्रकार मधुरवाणी से कद कर श्रासन


पर बैठे हुए थे, तव वशिषठ जो को पुरुषश्ेष्ठ भ्रीरामचन्द्र जी नेउत्तर
' दिया॥5॥
यन्मातापितरी हचं! तनये कुरुतः सदा |
न सुप्रतिकरं तचु मात्रा पित्रा च यत्कृतस ॥ ९ ॥
माता पिता, अपने पुत्र की जे। सेवा या उपकार करते हैं, .
: उसके बदले में प्रत्युपकार करना सद्ज्ञ नहीं है॥ ६॥
यथाशक्ति प्रदानेन स्नापनेच्छादनेन च।
__ नित्य॑ चप्रियन्रादेन तथा संवर्धन च॥ १०॥ . _
१ चुत्तं--उपकार । ( हा० )
पकादशेत्तरशततम्रः सम ०. १०६४
. क्योंकि वे अपनी साम्रथ्य से अधिक पुत्र के उत्तम उत्तम,
भाजन चल्ञादि देतेहैं,शि्ष भचष्या में;सुल्ते है,भौर तेत्र आदि:
से उवदन करते हैं,मधुर से मधुर वचने-कह फर लाइ प्यार करते
झोर पुत्र को इृद्धि व
जीवित रहने के लिये अनेक उपाय करते
हैं॥१०॥ अर हि
स हि राजा जनयिता पिता दशरथे मम !
आज्ञातं यन्मया तस्य ने तन्मिथ्या भविष्यति ॥ ११॥
से वे महाराज दृशरथ जो घुझ्ते जम देने वाले मेरे पिता थे ।
उन्होंने मुझे जे। प्राज्ञा दी है,बद मिथ्या नहीं देगी ॥ ११ ॥
एव्म्क्तसतु रामेण भरतः प्रत्यनन्तरण! ।
उवाच परमेदारः सूर्त परमहुमना! ॥ १२ ॥
प्रीरामचन्् जी का यह वचन सुन, परम उदार भरत जी,
समीप बैठेहुए सुमंत्र सेउदास हो बेले ॥ १२ ॥
हह मेंस्थण्डिले शीघ्र कुशानास्तर सारये |
आये भत्युपवेक्ष्यामि यावस्मे न प्रसौदृति ॥ १३ ॥
हैसारधे |इप चबूतरे पर तुम शीघ्र कुशों का विद्ठा दो, जब
तक मेरे ज्येष्ठ भ्राता ध्रीरप्चन्द्र जोमेरे ऊपर प्रसन्न न होंगे, तव
तक मैंइन्हीं कुशों पर धन्ना देकर वैठा रहूँगा ॥ १३॥
अनाहारो निराछोको' धनहीने* यथा द्विज! |
शेष्ये पुरस्ताच्छालाया यावन्न प्रतियास्यति ॥ १४ ॥
१ परह्वस्तर--समीपल्यथ । ( यो० ) २प्रत्युपवेदयामि--मत्युपवेशन कम
करिष्य इत्ये। | (रा० ) ३ वियछाक्ा--भवक्ुण्दतावनः । ( गो? ) ४ घन
क्षीवः--पुद्धधर्य शृणप्रदानाप्रिधतः । गो० )
]
१०६६ श्याष्याकायदे
जब तक श्रीरामचन्र जी लोद ऋर अवेध्या न चलेंगे, तब वक
मेंएक धनदीन ब्राह्मण क्री तरह, भाजन त्याग, मुँद ढक इसी
कुडी के द्वार पर पड़ा रहेँगा ॥ १४ ॥
लिद-.../ घनदीन * ब्राह्मण से ज्रादिकात्यक्रार छा अभिप्राय उस्
ग्राह्मण से है, मिम्रने अपने पास छी पूजी छिप्ती बनिये नहावन के पास
अमानतन. व्याज हे काम पे जमा कटा दी है। भर वह बनिया-मद्ामन बेई-
मानी कर उस्तद्दी पूँजी के। हदप ऋर जाय। तब उप्त घनेदीन म्राद्मण के डिये
सिदाय धरना देने छे और फाई उपाय नहीं रद जाता] |
स तु रामसवेक्षस्तं सुमस्त्र प्रेक्ष्य दुर्मना
कुगात्तरमुपसथाप्य ममाववास्तरत्खयम्‌ ॥ १५ |
छुन छुमंत्र ओराम के नुल् की आर ( उनझी अन्ुप्रति के
लिये ) देखने लगे | तव भरत ज्ञी उद्यास के, खबं हो कुश
विद्दा कर श्रीराम के सामने चरवा दे कर दैद गये ॥ २४ ॥
तमुवाच पहातेजा राम राजर्पिसत्तमः |
कि मां भरत कुबांण तात मत्युपवेक्षयसि ॥ १६ ॥
भरत ज्ञो के इस प्रद्धार घरता दिये हुए बेंडे देख, राजर्पियों
मेंश्रेंठ प्रहातेजली श्रोगमदद् जी भरत ज्ञी से वोज्े। दे भरत
जैया ! मेने क्या अपकार किया हैजे तुम मेरे ऊपर धरना देते
हा? ] *६ ॥
वाह्मणो ब्रकपाश्वेन नरान्गद्ध पिददेति |
न तु मतरानिषिक्तानों विवि पत्युपवेशन ॥ १७॥
यह काम ते ब्राह्मण का है, जे एक करवठ पड़ा दुआ घरना
देंकर, अपने दुःखदाता का रेघ् करता हैं ) किन्तु तिल्रकघारी
जझज्रिय के लिये यह धरना देना डचित नहीं ॥ १७ ॥
पएकादशेत्तरशततमः सर्गः १०६७
उत्तिष्ठनरदादूठ हिल्वैतदारणं वतम्‌ ।
पुरवयामितः प्षिप्रमयेध्यां याहि राघव ॥ १८ ॥
हु

हैनरव्याप्र |तुम इस कठोर ज्त के त्याग कर उठ खड़े हो


और शीघ्र ही यहां से थेष्ठ पुरी अ्याध्या को गमन करे ॥ १६॥
आसीनरत्वेव भरत! पारजानपर्द जनम्‌ |
उबाच स्वतः प्रेक्ष्य किमाय नालुशासथ ॥ १९ ॥
तब भरत जी उसी प्रकार धरवा रिये बैठे रहे ग्रौर चारों ओर
बैठे हुए पुरवासी श्रौर जतपदवासियों की भोर देख कर वोले
तुम सब लेग ओोरामचन्द जी से क्यों छुछ नहीं कहते ? ॥ १६ ॥

ते तमूचुमहात्मानं पैरजानपदा जनाः |


काकुत््थमभ िन ान ीम ः सम ्प बद ति रा घव ! ॥ १० ॥!
तब वे पुरधासी और ज् ञन पद वा सी श् रो रा मच द् ध जी से कह ने
लगे--है महात्मा | हम का ग जा नत े है ंकि , भर त जी का कह ना
बह ुत ठी क है॥ २० ॥ ५
एपा5पि हि मह ाभ ाग पि ठु बं सि ति ष् ठत ि |
अतएव न शक ्त ा! सम ! व् या वव यि तु मझ सा ' ॥२ १॥
किए वे भरत जी से वेले -प रन ्त ु धी रा मच द् ध भी से हम क् ेग
ाभ ाग श् रो रा मच ल् ध, पत ि की
आग्रह नहीं कर सकते, कयोंकि मद
थ्राज्षा पालन करने का हृ ढ़ सड ुत ्य कि ये हु ए है ं। ग् रत ः हम लो गो ं
र् त लो ड चल ने की क ह ॥ २१ ॥
मेंयह सामर्थ्य नहीं कि, इनके तु
१ अक्षत्ा-भीघ्र | ( गो? )
१०६ ८ अयाध्याकायडे

तेपायाज्ञाय वचन रामे वचनमत्रवीत्‌ ।


एवं निवाध वचन सुहृदां पर्मचन्लुपाम! ॥ २२॥
उन सब ज्ञागों केइन वचनों का छुन कर, दम आहत
वाले हैभरत | इन धर्मदर्शी अपने सुहदों के वचन छुने।,
विचार, पे क्या कद रहे हैं ॥ २२ ॥
एतल्ेबेभयं भ्रुत्रा सम्यक्सम्पश्य राघव ।
उत्तिष्ठ त॑ महावाहो मां) व सृश तथादकम्‌र ॥२३॥)
दे रधुनन्दन ! इन दोनों वातों के खुन कर इन पर मल्नी भाँति
विचार कर उठ बैठे! और त्त्रिय के अयेग्य धन्ना देने के काये
का प्रायश्चित्त करने के लिये आचमन कर मुझे स्पर्श करे। ॥ २३॥
अथात्याय जल स्पृष्ठा भरते वाक्यमत्रवीत्‌ ।
भरष्वन्तु मे परिषदे! मन्त्रिण/ श्रेणयस्तथा ॥२४॥ हि

यह वाद छुन भरन ज्ञो उद वेंठे और शआचमत कर यद दचन


वाज्षे, दे ब्राह्मणों ! दे पुरतनों ! हे ज्ञत्रिय वेश्यों! मेरी वात
छुने ॥ २४ ॥
न्या
‌ चे"पितरं राज्य नाुशासामि" मातरम ।-
आये परमधमंजं नानुजानामि* राघवम्‌॥ २५ ॥
१ घर्मेचक्षपाम-धर्वदर्शिनां। (हा० ) २रमाँ च॑ ह्यृश्--क्षत्रिया
विद्वित प्रत्युपवेशन प्रायश्चित्तामित्यवें) । / गो० ) ३ उद॒के ह्टृद्या--उदृक
लर्घ आचमतनाथ: । (र० ) ४ न बाचे-तयाचित्रवान्‌ । (गो० )
५ नानुशाप्राध्रि--नवाजुशास्मि एचंकुवितिनानुशिष्वानसमीत्यर्थ: | (यगो०)
६ नाबुजानामि--वनवासायनानुज्ञातवान | ( गो० )
एकादशेचरशततमः सर्गः १०६६
न ते मैंने पिता से राज्य माँगा भर न मैंने श्रपनो माता की
कुछ सिखाया पढ़ाया और न मुझे भ्रोरामचन््र जी के वनवास ही
का कुछ द्वाल मालूम था ॥ २५ ॥
यदि ल्वबर्यं वर्तव्यं क्तव्यं च पितुबंच! |
अहमेव निवत्स्यामि चतुदंश समा बने | २६ ॥
यदि पिता के भाज्ञानुसार पचास करना श्रावश्यक ही हैतो
मैंश्रोरामचन्ध ज्ञी का प्रतिनिधि वन १४ वर्ष वन मेंवास करूँगा ।
( और श्रीरामचन्ध मेरे प्रतिदिधि वन श्योध्या में ज्ञा राज्य
करें )॥ २६ ॥
पर्मात्मा तस्य तथ्येन भ्रातुरवाक्येन विस्मितः |
उवाच राम! सम्पेक्ष्य पेरजानपर्द जनस्‌ ॥ २७ ॥
धर्मात्मा धोरामचन्र जी भरत जी के इन सत्य बचनों से
विस्मित ही पुरञ्ञन और जनपदवासियों क्री ओर देख कर
वाले ॥ २७ ॥
।. पिक्रीवमाहित क्रीत॑ यत्ित्रा जीवता मम ।
न वह्लोपयितुं शक्य मया वा भरतेन वा ॥ २८ ॥
हमारे पिता मद्दाराज दृशरथ ने अपने जीते जी यदि कोई वस्तु
बेच डाली, या मेल ली या किसी के यहां कोई बंस्तु धरोहर
घर दी, तो यह वात मेरे थोर भरत के अधिकार से बाहिर हैडि,
इनके किये को मेंठ दें। धर्थात्‌ बेची हुईं चोज़ फेर क्षेया ख़रीदी
» हुई चीज्ञ लौटा देयाग्घराहरों चीज वापिस के ले ॥ २८॥
!उपधिन मया कार्यों वनवासे जुगुप्सितः ।
ः युक्तमुक्त॑ च कैक्ेय्या पित्रा मे सुकृतं कृतम | २९ ॥
३ इपाधि+--्मविनिधिः | ( गो० )
१०४० अयोध्याकायदे

अतः में सज्ञन जनों से मिन्दा कयने के लिये यह दुष्कर्म न


कछुँगा कि। अपना प्रतिनिधि वना भरत के बन भेजूँ। कैकेयी ने
मद् दार ाज से जे कु छ कद् दा या माँ गा से ठी क ही कहा ं या माँ गा
ओर पित ा ओी ने जे कुछ कि या या दि या से भी उन् हों ने अच् छा
हो किया ॥ २६॥
जानामि भरत॑ क्षान्तं गुस्सत्कारकारिणम्‌ |
सर्वमेवात्र कस्याएं सत्यसन्धे महात्मनि ॥ ३० ॥
मेंयह ज्ञानवा हूँकि, भरत बड़े ज्ममाणील ओर पृथ्य बड़ों की
मान मर्यादा रखने वाले हैं। इन सत्यसन्ध महात्मा में सब बाते
भल्री ही भत्री हैं । ( श्रतदव इनके द्वारा राज्यशासन देने से किसी
प्रकार की त्ञति नहीं है सकती )॥ ३० ॥
अनेन धमंशीलेन वनात्मत्यागत) पुनः |
श्रात्रा सह भविष्यामि पृथिव्या। पतिरुत्तम! ॥३१॥
मेंयह भी कहता हूँकि, अब मेंवन से क्ौद कर आऊँगा, तव
मेंअपने इन धर्मशीज भाई भरत के साथ राज्य का शासनभार
अदण करूगा ॥ ३१ ॥
]

हतो राजा हि कैकेय्या गया तदचन कृतस्‌ |


अनृतान्मेचयानेन पितरं त॑ं महीपतिम्‌ ॥ ३२ ॥
'इति एकाद्शोत्तरशततमः सगे ॥
देभरत ! मदाराज सेमाता कैक्रैयो नेजे! वर माँगा था, मेंने
उस वर के अवुसार कार्य किया और मद्दाराज़ पिता जी के मिथ्या
भाषण से मुक्त किया, तुम्रभीकैडेयी को दिये हुए :दूसरे वर के
द्ादशोत्तरणततमः सर्गः १०७१
प्रतुसार, राज्य ग्रदृश कर महाराज के मिथ्याभाषण के दोष से.
मुक्त करे। ॥३२॥
अयेष्याकाएड का एक सी यारहरी सर्ग पूरा हुआ ।
-ह-
दादशोत्तरशततसः सगे
>+404««

तमप्रतिमतेने|भ्यां आ्ादुभ्यां रोमहपंणम्‌ |


विस्मिताः सम परेक्ष्यसमवेता महपेय!॥ १॥
उस समय यहां जे ऋषि भागे हुए थे,वे श्रतुल् तेजी दोनों
श्रात्ाप्रं का यद रेमहपएकरारी समायम दंख, विस्मित हुए ॥ १॥
'अन्तर्ितास्टूपिगणा।' सिद्धाश्न प्रमपेय! |
तै।आतरी महात्मानौं काकुत््थों प्रशशंसिरे ॥ २॥
पहले मे। राजपिंगण, तिद्वगण श्रोर देवपिंगण प्त्तर्धान थे,
वे इन दोनों भाइयों की प्रशंसा कर कहने लगे ॥ २ ॥
से पन्‍्यो यर्य पुत्रोंहो पर्मत्ों पर्मविक्रमो' ।
भुला वरय हि संभाषाधुभये। सपृहयामहे' ॥ ३ ॥
येक्षनों धर्म और धर्मगीर राजकुमार जिन महाराज दृशरध
के पुत्रहैं,दे घन्हैय ं|इन दोनों की बातचीत छुन, हम ल्लोगों को
) अन्तद्िता:--पूर ्पम ेवा स्त र्ध ानं मह ्ठ ा। । ( यो र ) २ ऋष िं गण ा। -«
राजप िं गण ाः ।, (गो ) ३ पर मप ंय /- दे वप ेय ः । (गो ० ) ४ पर ्व िक ्ौ --
धर्मगनरों | ५ स्वृक्षयामह्दे पुन! पुतर/ओोतु वॉठिमः । ( स्ि० )
१०७२ अयेध्याकायडे

यह इच्छा ही रही देकि, इन दोनों की वार्तालाप हम वार वॉर


छुना कर ॥ ३ ॥
ततस्ल्ूपिंगणा; क्षित्रं दशगीववर्धपिण: ।
भरत राजशादलमित्पूचु! सड़्ता' वच) ॥ ४ ॥
तदनन्तर वे ऋषिगण, जा रावश का वध शीघ्र करवाना
चाहते थे, पुरुषलिद्द भरत के पास गये और एक खबर से यदद
बैले॥ ४ ॥
कुलेजात महाप्राज्ञ महादृत्त महायशः ।
ग्राह्म॑ रामस्य वाक्य ते ?पितरं यद्यवेक्षसे ॥ ५ ॥।
दे अ्रटत्न पतिज्ञा वाले ! दे शुम चरिन्रयुक्त मद्ायशल्ली भरत !
तुमने कुलीनऊुल में जन्म लिया दे। यदि तुम अपने पिता की
सुखी करना चादते हों, ते तुम्हें चही-करना उचित है,जे श्रीराम-
चल ज्ञो तुमसे कहतेहैं॥ ४ ॥
सदाद्णमिम् राम वयमिच्छामहे पितु! |
अनृणल्ाब कैकेव्या। खग दशरथे गतः ॥ ६ ॥
दम सव यददी चाहते हैं कि, थी रामचनद्ध ज्ञी अपने पिता के
ऋण से उक्रण हों । ( क्योंकि ) कैंकेयी के ऋण से उच्कण दोने से
मदारुज दशरघ खर्गवासी हुए हैं॥ ६ ॥
एतावदुक्त्वा वचन गन्धर्वाः समहर्षयः ।
राजपंयर्चव तदा सर्वे खां खां गति गताः ॥ ७ ॥
९ ञ है. हि.

१ संगता:-ऐछकपण्स्यंत्रात्ता: । (यो>० ) २ पितरे यद्यवेक्षते--


पिंतु; हुल॑ यदीच्छसि । ( रा० )
दादशेत्तरशततमः सगे १०७३

यद कह फर गर्धव, रात्रि तथा देवर्षि सव श्रपने अपने


स्थानों को चत्ने गये ॥ ७ ॥
हादिस्तेन वाक्येन गरुभेन झुभदशन! |
राम! संहृष्वदनस्ताट पीनभ्यएजयत्‌! ॥ < ॥
शुभव्र्शन थ्रोराप्तचन्ध जी ने उन ऋषियों के इस कबन मे हर्पित
दे, उनसे कहा कि, आपने भत्रो भाँति मेरा धर्म वाया ॥ ८ ॥
त्रस्तगात्ररतु भरत; से वाचा सज्जमानया |
कृताझलिरिंदं वाक्य राधवं पुनरत्रवीत्‌ ॥ ९ ॥
उस समय भरत जी 3र कर गद्गदवाणी से हाथ जोड़ कर
प्रीरमचद्ध जी से फि९ वाले ॥ ६ ॥
राजपमंमनुप्रेक्ष्य कुलपमानुसन्ततिम |
५ पु 3

कतुमहसि काकुत्त्थ ममः मातुश् याचनामू॥ १०॥


6

हैश्रीरामचद्ध ! राज्यपरिपालन धर्म और उ्येप्ठ दी के अधि-


कार प्राप्त दाता थ्राया दे--रस कुलप्रथा पर सल्नी भाँति विचार
, कर, आपकी मेरी म्राता काशल्या को भारथता पूरी करनी
चादिये ॥ १० ॥
रक्षितुं सुमहद्राज्यमहमेकस्तु नेत्सहे |
पारजानपदांभापि रक्तारञ्ञयितुं वया ॥ ११॥
इस बढ़े राज्य की धरक्रेक्ते रत्ता करने का और आपमें शत
राग रखने. बाते इन प्ररवासियों तथा जनपदयासियों का प्रसे-
रन करने का मुझे सादस महों दाता ॥ ११ ॥
/ अभ्यपूजयतु-सम्पडमाधमतेरज्ितवन्त । ( ० ) ३ मप्नमातु+--
कीशब्याया । (रा० ) ३ रक्तान-त्वद्विपयकाबुरामविशिष्ठान्‌ । (श्षि०)
घा० रा०--६५
१५७४ अयेध्याकायदें

ज्ञतयश्र हि य े व ा थ म ि त ् र ा ण ि स ु द ृ द भ न ा
सामेव प्रतिकाइशक्ष न् ते प र न ् य म ि व क प े क ा । ॥ १ १ ॥
ज्ञाति विरादरोी वाले, सैनिक, इंष्ट प्रिथ्र-सव के सब,
बस्साने वाले मेघ रो आशा करने वाले उत्दुद्ध किसान की तरह,
एकमात्र श्राप हो के रा ज् यश ास त की प्र तीक ्षा कर रह े है ं ॥ १२ ॥
इंद॑ राज्यं मद्ाप्रान्न स्थाएय 'प्रतिपध हि )
शक्तिमान सि का कु त् स् य छे कर ्य पर िप ्र ाल ने ॥ १३ ॥
अतपव दे वुद्धिमान्‌ ! आप इस राज्य के ग्रहण कौजिये और
जिसका चाहिये उसे राज्मिंहासन पर विठा दोजिये। क्योंकि
रा्यशासन करने के, हेकार्य |आप ही समर्थ हैं॥ १३ ॥
इत्यक्त्वा न्यपतदश्नातु) पादवाभरतरतदा ।
भय सम्पाथयामास रामम्रेव प्रियंदद। ॥ १४ ॥
कह कर भरत ज्ञों अपने भाई ओरामचन्द्र केचरणों में
मिर पड़े भार हे राप | है राम (इस प्रकार सम्बोधित ऋर वार
बार पराथना करने कगे ) १४ ॥
तमडू भ्रातर कृत रामा वचनम्रत्नवीत |
श्याम नलिनपत्राक्षं मत्ततंससवरं खयम | १५॥
भरत के चरणों मेंपक्ष देख, श्रोराम्रचद जो ने मतवाले हंस
की तरद मनोहर कंणठ वाले, कम्रतदल समप्रान नेन्नवाज्े और
श्यामवर्ण भरत के उठा कर अपनों गेाद में ठिठाया और इनसे
बाले ] १४ ॥
? अ्ठियध्च--पछोक्ृय, ऋषस्मिरिच्वस्यापयदि | ( स० )
द्वादशेत्तरशततमः सर्गः १०७५
आगता ल्ामियं! बुद्धि! सजा! वैनयिकी च या।
भृगमुत्सहसे तात रक्षितुं पृथिवीमपि ॥ १६ ॥
. मेरे घनवास के विरुद और राव्यशासन स्वीकार
का राजलिदासन पर विठा देने की वात क्षा। तुमने क र क ि स ी
कही, वह
स्वाभाविक और गुर द्वारा शित्ता प्राप्त होने का फल स्वरुप
है।
अतः (इससे रुपए हैकि )तुम भवो भांति राज्यशासन कर सकत
े .
दो। ( भर्थात्‌ तुम्दारो ऐसी सुन्दर बुद्धि का होना दी तुम्में
छुशासन को येखयता के देने का प्रमाण है )॥ १६ ॥
अमात्येश्रः सुहृद्गिथ बुद्धिमद्धिस्व मन्त्रिभि:४ |
सयेकायांणि सम्मख्य सुमहान्यपि कारय ॥ १७॥
(0

झर तुप्र प्रधान सचिव, सुहृद, बुद्धिमानों और उपमंत्रियों के


साथ समस्त बड़े बड़े कार्यो केसमरन्ध में परापर्श ले राज्य को
छुम्यवस्था करो ॥ १७॥ | ्
लक्ष्मीथन्द्रादपेयाद्या हिमवान्वा हि लगे ।
अतीयात्सागरो वेहां न प्रतिज्ञामह पितु। ॥ १८ ॥
घद्धमा फी शोभा चदच्धमा के भत्ते ही छोड़ दे, दिमालय भक्ते
दी हिम को कैड़ दे । भल्ते ही सप्तुद्र घपनी सीमा के नाँध जाय,
किन्तु मेंपिता की प्रतिज्ञा को नहीं छोड़ सकता ॥ १८ ॥
कामाद्दा तात छोभादा मात्रा तुम्यमिदं कृतम |
न तन्मनसि कततव्यं वर्तितव्यं चमातृबत्‌ ॥ १९॥
._
इयं]बद्धि-मददनवाप्तविराधिनी स्वोयल्वेनागीहल्यस्यापतदिषया
(३० ) २ खबा-सल्वाभाषिकी | (रा० ) ३ भमाये।--प्रधानतचितरे: ।
(गो० ) ४ मंव्रिधि--उपसंत्रिलिः | (गो० )
१०३६ घयेाष्याकायदे

हैताठ |तुख्ारी म्राता ने मल्ते ही तुम्दारे स्नेह अथवा ठुमका


राज्य दिलाने दे लाभ के वशचर्ती हे, वद काम्र छ्विया हो, परन्तु
ठुम इन बातों के अपने मत में नरखना ओर चद्ा उसके साथ
सादा के सप्रान व्यवहार करना ॥ १६ ||
एवं ब्रवाणं भरतः कासल्यासुतमत्रवीद |
तेजसा5अदित्यसड्भाबं प्रतिपचन्द॒दर्शनम ॥| २० ||
जब श्ीरामचन जी ने ऐसा कहा. तव तेज में दर्व केसमान
अथवा प्रतिपदा के चना को तरह प्रियदर्शन, ओऑशल्यानन्दन से
भरत ज्ञी कहने कगे ॥ २० ||
अधिरोहायय पादाभ्यां पाहुके हेमभूपिते |
एवं हि सवेद्धाकस्य येणक्षेत्रं विधास्यत) ॥ २१ ॥
$ इन छुवर्णमपित पादुकाओं पर शाप झपने चरण
पु
वा ये दा दाना बड़ाडऊ सब के यागतसेप का निर्याह

| नोइ-श्याप्-बल की गति वे भौर पाप्न-चलु की
८ ढक्षा श्षेत्र )|
सेपिरुद नरव्याप्रः पाठुके दवलछा च |
आवच्छत्सुपदातेजा भरताय भहत्मन | २
भरत के व दचम सुन, घोराप्रचत्ध हे थे खडाऊ अपने पैरों
पहन ला आर फिर उन्तद्षे उदार कर प्रहत्मा भर
त केन्फ
जया
दाी॥ २२ ॥

से पाइक सम्प्रणस्य दाम वेचनमबवा


द [
चतुदेच्न हि वषोणि जगचीरपरो ब्रह्म || २३ ॥
दादशे।तरशततमः सर्गः १०७३
फलमूलाजने| वीर भवेय॑ रघुनन्दन |
तवागमनमभाकाइक्षखसन्ध नगराद्नहि! ॥ २४ |
तब भरत जी ने भक्ति सहित उन दोनों खड़ाउथों को प्रणाम
कर, श्रीरामचन्द जो से कहा कि, आज से के कर चोद वर्ष तक
बढ़ा चीर घारण कर और कंदछूल फल खा कर, तुस्दारे आगमन
की बाद जहता हुवा, हेरघुनदन ! में नगर के धाहिर रूँगा
॥ २३ ॥ २७ ॥
तब पादुकयेन्येस्प॥ राज्यतन्त्रं परन्तप |
चतुदशे हि सम्पूर्ण वर्ष७नि रघूत्तम ॥ २५ ॥
चतुदशे ० 0 >]

ने द्रक्ष्यामि यदि लां तु परवेक्ष्यामि हुताशनम |


तयेति च प्रतिज्ञाय त॑ परिष्वज्य सादरम्‌ ॥ २६॥
हैपरन्तप |सव राजकाय आपन्नो खड़ाउश्रों को भपेण कर,
(मेंराज्य का प्रवध करता रहूँगा परन्तु )जिस दिन चोद्दवाँ वर्ष
पूरा दंगा उस दिन भी यदि आपके ० मैंने अयोध्या मेंने देखा ते!
मैंभ्रम्मि मेंगिरकर भर्म हे! जाऊँगा। भरत की इस बात के
छुन श्रीरामचन्र जो ने “ तथास्तु ” (ऐसा दी देगा ) पद कर
( चौद्‌दवां वर्ष पूर्ण होते ही लोद कर था जाने की ) प्रतिज्ञा की
और भरत की भ्राद्‌र पूर्वक हृदय से लगाया ॥ २५ ॥ २६ ॥
जत्रुध्न॑ च परिध्वज्य भरते चेदमत्रवीत्‌ ।
मातर॑ रक्ष कैकेयीं मा रोष॑ कुरु तां प्रति ॥ २७ ॥
फिर भरव और शत्रप्न को हृदथ से लगा कर शीराम जी ने
भरत ज्ञो सेयह कहां कि, देक्ो माता क्रैक्रेयी की रक्ता करना।
खबरदार उस पर क्रोध मत करना ॥ २७ ॥
9 पाठान्तरे--+ न्यक्ष ! | | पाठास्तरे-* रानतान्र: ? |
१०७५ अयेध्याकायडे

मया च सींतया चेव शप्तोषसि रघुसत्तम |


९ |
रत्युक्वाअश्रुपरीताक्षो श्रातरं विससज है ॥ २८ ॥

इसके लिये तुम्हें मेरी और सीता की शपथ है। यह कह नेश्रों


में आँख भर भ्रीरामचन्द्र ज्ञी ने दोनों साइंगों के विदा किया ॥२८॥
स पाहुके ते भरतः प्रतापवान्‌
स्वलंकृते सम्परिपूज्य धमेवित्‌ ।
प्रदक्षिणं चेच चकार राघवं
चकार चैवेत्तमनागमूधनि ॥ २९॥
तब धर्मात्मा भरत जी ने उन श्रत्न॑ंक्त शोर प्रति उच्ज्वल
- खड़ाउश्चों का भी भाँति पुजन किया। तदनन्तर श्रीराम जी की
परिक्रमा कर उन खड़ाउश्रों के (उस ) उत्तम हाथी के मस्तक पर
रखा, ( जिस पर महाराज दशरथ सवार इुआ करते थे ) ॥ २६ ॥
अथाजुपृव्यात्मतिनन्ध तं जन॑
गुरुंथ मन्त्रिप्कतीरतथाओ्लुजों
व्यसजयद्राधववंशवधनः
स्थिर; स्वथर्में हिमवानिवाचलः ॥ ३० ॥
तदनन्तर दिमालय को तरद अपने धर्मपालन में. भ्रठल
अचल, रघुवंश के वढ़ाने वाले श्रीगमचनद्र जीने यथाक्रम गुरु,
मंत्री, प्रज्ञा ओर दोनों दौठे भाइयों कासत्कार कर, उन सव को
विदा किया ॥ ३० ॥
त॑ मातरे वाष्पग्रहीतकण्य्यो
.दुःखेन नामन्त्रयि तुंहि शेकु! ।
श्रयादशात्तरशातमः सर्गः . १०७६

स ल्ेब मांत्रमिवाद्य सर्वा


रुदनु्टी सवां प्रविवेश राम ॥ ३१ ॥
धति दादशेात्तरशततमः सर्गः ॥
गदृगदकरठ ओर शोक से विक्ज्ञ दाने के कारण माताश्रों
में सेकिसी भी माता के मुख से थ्ोरामचद्ध जी के प्रति एक
वात भी ने निकल सकी । भोरामचच्ध जी भीसव मताओों के
प्रधाम कर, रोते विज्ञवते कुटी के भीतर चलते गये ॥ ३१ ॥
ध्रयाध्याकाणड का एक सो वारदवां सम समाप्त हुआ |

त्रयोवशोत्तरशततमः सगे:
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७००_>)

ततः शिरसि कुत्वा तु पाहुके भरतस्तदा |


आररोह र॒थ॑ हुए; अनुध्नेन समन्वित/ ॥ १ ॥
तदनन्तर भरत जो ने हाथी के मस्तक से खड़ाऊ उतार प्रपने
मस्तक पर रखीं भो र दर ्ष ित दे ते हु ए भो र शत् र॒क ्त के ! अप ने सा थ
के, रथ पर सवार हुए ॥ १॥
वसिशीवामदेवथ मावालिथ हत्तः |
अग्रतः प्रययु) सर्वे मन्त्रिणो मन्त्रपूणिता। ॥ २॥ ..
,. बरशिए्ठ, वामदेव, इृढ ़बत जाव ाज् ि तथा विच ास् चतु र प्रन्‍ ्य
सब मंत्री ञ्ञागे क्रागे चले ॥ २ ॥
१्०्घ० भयेध्याकायडे

मन्दांकिनीं नदी पुण्यां प्राह्मुखास्ते ययुस्तदा |


प्रदक्षिणं च कुवांणाथित्रकूदं महागिरिस्‌ ॥ हे ॥
सग लोग भमद्दागिरि चित्रकूढ की परिक्रमा कर रमणीय मंदा-
किनी के सामने पूर्वकी ओर जाने लगे॥ ३ ॥
पश्यन्धातुसहस्नाणि रम्याणि विविधानि च |
प्रययौ तस्य पारश्वेन ससेन्‍्यों भरतरतदा ॥ ४ ॥| .
भरत जी शपनी सेना के साथ नाना प्रकार की मनोहर धातुग्ों -
के देखते रेखते चित्रकूड के उतर चले जाते थे ॥ ४ ॥
अद्राबित्रकूटस्य दद्श थरतरतदा |
आश्रम यत्र स मुनिर्भरद्वाजः कृताछ॒यः ॥ ५ ॥
भरत जी ने चित्रकूट से थीड़ी ही दूर पर एक श्राश्नम देखा,
जिसमें ऋषियों सहित भरद्वाज मुनि रहते थे ॥ ५ ॥
से तमाश्रममागम्य भरदाजस्य वुद्धिमान्‌ | ,
अबतीये रथात्पादी ववन्दे कुलनन्दन! || ६ ॥
बुद्धिमान मरद्वाज्न ज्ञी के धाध्रम में पहुँच, भरत जो रथ से
उतर पड़े और मुनि ज्ञी को प्रशाम किया ॥ ६ ॥
ततो हु भरद्वानो भरत वाक्यमत्रवीद्‌,।
अपि कृत्य॑ कृत तात रामेण च समागतम्‌ [७॥
तब भरद्वाज जो ने प्रसन्नहा,भरत से कहा-है तात ! हया
तुस्दारी श्रीयमचद्ध से भेंठ हुई! क्‍या तुम्दारा मनोरष सिद्ध
हुआ १ ॥ ७॥
क पाठान्तरे---+ रम्यां । ( पाठास्तरे-- मरतत्तदा ।7 -
अयेद्गीत्तरशततमः सर्गः १०८!
एबमुक्तः स तु ततो भरद्वामेन पीमता ।
प्रत्युवाच भरद्वाजं भरतों आतुवत्सल! ॥ ८ ॥
जप बुद्धिमान भरदाज जो ने इस प्रकार पुदा, तब भ्रातृवत्सलत
भरत जो ने भरद्वाज्ञ जो के उत्तर देतेहुए कहा ॥ ८५॥

से याच्यमाना गुरुणां मया च हृहविक्रम!


राघवः परमप्रीतों वसिछ॑ वाक्यमत्रवीत्‌ ॥ ९ ॥
हैभगवन्‌ !मैंने अर गुर वर्शिप्त ज्ञो नेजब धीराम्चद्ध जी
से लौदने के लिये प्राथंना को, तव थरौरामचद्ध जी ने परम प्रसन्न
है पशिए ज्ञी से कहा ॥ ६ ॥
पितुः प्रतिज्ञां तामेव पाछपिप्यामि तत्ततः |
चतुदंश हि वर्षाणि या पतिज्ञा पितु्मम | १० ॥
पिता जो ने मुझे चोदृद वर्ष वन में रखने की जे। प्रतिज्ञा की
है,में उनकी इस प्रतिन्षा का यथावत्‌ पालन करूँगा | १० ॥|
एवमुक्तों महाग्राज्ों बसिष्ठः प्त्युवाच है ।
वाक्यज्ों वाक्यकुशल राधव॑ वचन महत्‌ ॥ ११ ॥
इस प्रकार कहे जाने पर, वचन वालने वालों मेंचतुर और
बढ़े विद्वान वशिष्ठ जी नेउन वाक्यविशारद्‌ भीरामचद से यह
प्रदत्व की वात कही ॥ ११ ॥

एते प्रयच्छ संहृष् पाहुके हेमभूपिते ।


अयोध्यायां महाम्र ाज्ञ येगक् षेमकर े तव ॥ ११ ॥
१०८5५ शयाष्याकायदे

हे महाय्राक्ष |तव इस समय तुम्र हित ही अ्तिनिधि के समान


अपनी इन छुवर्णभूषित खड़ाउथरों के दें दो और अयेषध्या के
येत क्षेम में तत्पर वने रहे ॥ १२॥
एबमुक्तों वसिष्ठेन राघवः प्राउयुसः स्थित
पादुके अधिरुद्ेते ममर राज्याय वे ढढ़ों ॥ १३ ॥
है भरद्ाज्ञ ज्ञी !चशिष्ठ जी के ये वचन छुन शरीरामचद्ध जी
मे पूर्वकी ओर मुख कर, इन खड़ाउश्नों के पहिना और राज्य के
पालन की सामर्थ्य रखने वात्नी ये खड़ाऊ मुझे दें दी ॥ १२॥
निहत्तोह्मजुज्ञातों रामेण सुमहात्मना |
अयोष्यामेव गच्छामि ग्रहीला पादुके शुभ ॥ १४ ॥
उन मदाक्षा श्रीरामचद्र जो को श्राज्ञा सेउनके लोठा लाने
उद्देश्य से निवृत्त दो कर, मेंइन शुभ खड़ाऊथों के ले अयेष्या
के लोढा ज्ञा रहा हूँ ॥ १४ ॥
एतच्छुल्ा शुभ वाक्य भरतरय महात्मन;
भरद्वानः शभतरं झुनिवाक्यम्ुवाच तम ॥ १५ ॥ .
महात्मा भरत जो के ये शुभ वचन छुत, महयि भेरद्वाज जो
उनसे शुभवचतनर
वाले ॥ २१४ ॥ !
नेतबित्र नरव्याप्र शील्हत्तवतां वर |
यदाय त्वयि तिष्ठेच निम्ने! 'सष्टमिवादकम !॥१६॥
दे छुशीन और चरिष्रवान्‌ पुरषसिद ! यद कोई आश्चर्य की
वात नहीं कवि, तुम ऐसी छुजनता है। क्योंकि पानी वह ऋर तो
तालाव या गढ़ ही में जमा देता दे ॥ १६ ॥
१ किने--तटाकादी | ( यो ) २ छटट--हतं. ( गे।० )
; नये।द्शेत्तरशततमः सगे १०५३
अमृत; से महावाहु! पिता देशरयर्तव |
यर्य लमीरश; पुत्रों पमज्ो पर्मवत्सछः ॥ १७॥
| ध्तो

जिनके तु जैसे धर्मात्मा शोर धाचिश्सल पुष् हैंवे महावाहु


महाराज दशरथ प्रज्र प्रमर हैं ॥ १७॥
तमूर्षि तु महात्मानप्रक्तवाक्यं कृताञ्लिः
आमन्त्रयितुमारेभे चरणाबुप्रगृद्न च ॥ १८ ||
ततः प्रद्षिणं कृत्वा भरद्वाजं पुन पुन ।
भरतस्तु ययो भ्रीमानयेध्यां सह मन्त्रिमि! ॥ १९ ॥
इस प्रकार पुनि का वचन खुन, भरत हाथ जड़ और उनके
चरण छू शोर वार वार परिक्रमा कर, उनसे विदा हो, मंत्रियों
सहित भ्रयाध्या के प्रध्यानित हुए ॥ १८॥ १६॥
यानेश्र सकरग्ैव हयेनागिश्व सा चरम! |
पुनर्निहत्ता विस्ती्णा भरतस्थानुयायिनी ॥ २० ॥
' भरत जी के साथ जे! सेना थी नह भी उनके पोछे दो ली।
इस सेना के क्मों में सेकोई रथों कोई छुकड़ों कोई हाथियों भौर
केई पेड़ों परसवार थे ॥ २० ॥ ५
ततस्ते यप्रुनां दिव्यां नदीं तील्वोमिमालिनीम |
दहगुस्‍्तां पुनः सर्वे गज्गां शुभणलां नदीमू॥ २१ ॥
हद्नन्तर वे सव लेग, लद्॒रों सेलद॒यती यहुता के पार कर
फिर पविभताया गडा के तठ पर पहुँचे ॥ २१ ॥
तां# पुण्यनलसम्पूणा' सन्‍्तीय सहवान्धव! ।
: श्ृद्लिवेरपुर रम्यं प्रविवेश ससेनिक/ || २२॥
“५ पाठान्तरे-- रूय” |
१०५७ घयेाष्याकारदे
भरत ज्ञी सेना तथा भाई वंदों के साथ पवित्र ज्ञ्ञ से पूर्ण
गड्जा के पार करे श्टड्भवेरपुर में पहुँचे ॥ २१ ॥
भ्रूज्विवेरपुरादभूयस्तयेधध्यां सन्‍्ददर्श है |
अयोध्यां च ततो दृष्ठा पित्रा क्षात्रा विवर्जिताम ॥२३॥
श्टड्वेरपुर से, चल कर भरत उस श्योष्यापुरी में पहुँचे, जे
कि, उनके पिता महाराज दशरथ से और भाई श्रीरामचन्र से दीन
थी॥ २३ ॥ के
भरतो दु/खसन्तप्! सारथि चेदमत्रवीतू ।
सारथे पर्य पिध्वस्ता साथ्योध्या न प्रकाशते |
निराकारा' निरानन्दा दीना प्रतिहतखरा ॥ २४ ॥
इति धयादशोत्तरशतर्तम/ सं |.
ऐसी उदास प्रयाध्यापुरी के देख भरत जी दुःख से सन्तप्त
हो सारथी से वाल कि, है सारथे ! देखे, यद श्रयाष्या कैसी प्वप्त
दा रही है ।यह प्व पहले जैसी शेभायुक्त श्रयेष्या नहीं रही।
क्योंकि इसमें न तो कहीं सज्ञावट है, भर न कहीं श्यानन्दोत्सव
दी देख पड़ते दें ।यद वड़ी दीन दिखलाई पड़ती है। देखो, नगर
भर मेंकैसा सन्नाटा छाया हुआ्रा है ॥ २४ ॥
श्रयेध्याकाण्ड का एक सै तेरहवों सर्ग समाप्त हुआ ।
इज

! निराकाहा--निर्गतशे/मनाकारा | ( गो" )
चतुदशोत्तशततमः सगे:

स्निग्धगम्भी रधापेण सयन्दनेनेपयान्यभु! |


अयेश्यां भरतः प्लिप्रं प्रतिवेश महायशञा। ॥ १ ॥
इस प्रकार मदायगछा भरत ज्ञी ने, चलते समय गंभोर ध्वनि
करने वाले रथ में इठ, शीघ्र दी ग्रयेध्या मेंप्रतेश किया ॥ १॥
विद्वलेलूकचरितामालीननरवारणाम्‌ ।
तिमिराभ्याहतां कालीपग्रप्रकाशां निशामिव ॥ २ ॥
नगरी मेंजञा कर कप ने देखा कि, अयेधा मेंजिधर
देशो उधर ही पिलियां भर उल्नूक विशक्षाई पढ़ते हैं। घरों के
द्वार वंद हैं।चारों शोर वैसे ही श्रेथकार छा रहा दे मैसे क्ष्णपत्त
की रात मेंश्रंधकार दी भ्ंधकार देख पड़ता है॥ ९॥
राहुशत्रो: प्रियां पी श्रिया अज्वलितप्भाम |
ग्रहेणाभ्युत्वितेनेकां रोहिणीमिव पीडिताम्‌ ॥ ३ ॥
अथवा जिस प्रकार चद्धगा क राहु द्वारा ग्रसे ज्ञाने पर
रोदिणी की शोभा बढ़ सी देख पड़तो है,उसी प्रकार प्रयेध्या की
दशा हे रही है ॥ ३ ॥ को
, #शअव्पाष्ण्षुव्धसलिलां पमेत्तत्तविह्ञमाम्‌ |
लीनमीनकपग्राहां कृंशां गिरिनदीमिव ॥ ४ ॥
ग्रथवा गरमी के घोसम मेंजिस समय पद्दाड़ी नदियों का जलन
धुय॑ की गर्मी सेगरम थोर मैक्ा हे जाता है शोर वहां के जल्न-
पत्ती गर्मी के कारण वहां से उड़ कर, भ्न्यत्र चक्षे 'जाते हैंओर
# पाठाम्तरे-- मनिकोत्लुव्ध ” ।
१०८६ ग्येध्याकायड
महलजियाँ मर जाती हैं,तथा अन्य उन्तु भी वहाँ नहीं रहते, एवं डस
बंदी की ने! शाच्य दशा दातो है वही शे/च्य दशा धअयात्या की
है॥४॥
विधृमामिव हेमाभामध्वरामेः समुत्यिताम ।
हविरम्यक्षितां पथ्राच्छिखां प्रविलयं गताम्‌ ॥ ५॥
अथवा, जिस प्रद्वार घो को ग्राइति से श्रम्मि की शिखा पहल्के
ते सेने के समान उज्ज्चत्न ज्योति का प्रकाश ऋरतो है, पीछे
उसमें किसी गीली वस्तु के गिरते सेददह सहता मन्द पड़ ज्ञाती
हैऔर अच्छी नहीं क्षणती, उसी प्रकार श्रीरामचन््ध जो के पिरह
में अयेध्या देख पड़वी है ॥ ४ ॥
विध्वस्तकवर्चां रूणगजवाजिरथप्वजाम ।
हतप्रवीरामापन्नां चमूमिव महाहवे || ६॥ .,
जधवा वह स्येध्या ऐसी जान पड़ती है, जैसी बह सेना
जिसके (वीरों के) कवच, हाथो, पेड़े रथ ओर ध्यज्ञा किसो महा-
युद्ध में दिक्ष भिन्न दे ज्ञाने तथा वोर याद्धामों के मारे जाने के
कारण, विपक्ष दशा के प्राप्त हुई हे ॥
अ#सफेनां सखनां भूत्वा सागरस्य समुत्विताम ।
प्रशान्तमारतोद्धुतां जलेमिमिव निःखनाम्‌ ॥ ७ ॥
अथवा, प्रवत्न वाबु के वेग से समुद्र की लहर जिस प्रकार
भागों सहित गरजती हुईं उठतहैं, ी भ्ोर पोछे मंद पवन के चलने
से शब्द्रदित दो जाती हैं, उसो प्रकार अयेध्यापुरो है रही है ॥७ ॥
लक्तां यज्ञायपै) सर्वेरभिरुूपेथ याजके। ।
!सुत्याकाले विनिव्वत्तेवेंद गतरवामिव ॥ ८ ॥
१ सुद्याकाछे--समाप्तें ।(शि० ) # परॉठान्तरे--४ घफेना सख्बना ” |
प्रयवा जि प्रकार यह्षको सम्राप्ति हो चुकने पर योग्य
यानक्रों से रहित हो, यश्षशाला सुनसान दे जाती है,इसी प्रकार
ग्रयोध्या सुनसान देख पहुती है ॥ ५॥
गेह्मरध्ये स्थितामातामचरन्ती हुणं नव ।
गेहपेण परिलक्तां गयां प्ौमिवेत्सुकार ॥ ९ ॥|
थयवा जिस प्रकार साडु के वियेग मेंतरुण गाय, उत्करिठ्त
ही ताज़ी हरी घास न खरा कर, उदास है। गाशाज्ा मेंखड़ी रहती
है--उसो प्रकार भ्रयेध्या भी उदास देख पड़ती है॥ ६॥
'्रभाकराधे सस्निग्पप्रज्वलद्विरिवोत्तर! ।
वियुक्तां मणिभिनात्पिनवां भुक्तावहीमिव ॥ १० ॥
अथवा जैसे चमकीली भोर सुर्दर मर्णियों से हीन, म्रेतियों
का नया द्वार शोभारहित हो जाता है,वैसे दी श्रयोध्या शोभादीन
दही रही है॥ १० ॥
सहसा चढितां स्थानान्महीं परष्यक्षयादसताम |
संहुतयुतविस्तारां तारामिव दिवश्च्युताम्‌ ॥ १६ ॥
धथवा, जिस प्रकार पुए्यत्तय दोने पर, ग्रपने स्थान से
चक्षायमान ही आकाश से दिन मेंगिरने से, तारा प्रभाहीन हो जाता
है,उसी प्रकार ध्येध्या भो प्रभादीन ही रही है ॥ ११॥
पुष्पनद्धां बसन्तान्ते मत्तभ्रमरनादितास ।
हुतदावामिविष्जुष्टां कान्तांधनछतामिव ॥ १२ ॥
! प्रभाकरायैं-- प द ् न र ा ं ग ा य े : । ( ग ो " )
१०८८ श्रयेष्याकागदि

ग्रथवा, वसन्‍्तऋतु के झ्न्त में जैते मतवाल्ने भोरों से गुज्जारित


किक्ते दुए फूल ों वाल ी चनल जता , वच्र की श्रा ग से छु लस जात ी
है, वैसे ही अवाष्या मी छतरसी हुई सो देंच पड़तो हैं ॥ १९ ॥
!संमूहनिगममां स्तव्यां संक्षिप्तविषणायणाम्र्‌ |
प्रच्छन्रशशिनक्षत्रां द्रामिवाम्वधरहताम ॥ १३ ॥
शयेध्या के राजमार्ग सुनसान पड़े हैं |वाज़ार नव बंद हैं न ते
कई दुकान ही खुली हैऔर न कहीं काई चोज्ञ दी विक्र रहो दे।
जैव वर्षाक्नाल में म्ेघों सेआक्राण व्याप्त हैने के कारण, चलमा
ओर बत्तत्ों सेहीन रान उरायनों जान पड़ती है, पेंसे ही श्रयाष्या
भो डरावनों दोख पड़तो है ॥ १३ ॥
७: 5त्तोओ है.
श्रीणपाना ब्रः भिसंदरताम्‌
क्षीणपानात्तममिल्े! शरावेर भिसंदरताम |
इतगाण्डामिवाकाशे* पीनभूमिमसंस्कृताम || १४ ॥
श्रथवा ग्येध्यापुरी ऐेसो ज्ञान पड़ती है, मानों मद पीने वालों
के मारे जाने से मर से रहित, टूरे फूटे पात्रों सेभरो, घिना सहाड़ी
बु्वारो, मेद्रान में,मचपानणाला है ॥ १४॥
ेुक्णभूपितरक्ां निम्नां इक्णपात्रं! समाहताम |
अपयुक्तोदका* अम्मा पी निपत्तितामिब ॥ १५ ॥
ग्रयवा अवाब्यापुरों उस पाशाला ज्री तरह ईसा पड़ती है
लिसको भूमि विद्वीण देने के कारण ध्यक्त दे गयी दे और
१ संघृदविगां--वनसज्चासदितमार्ग | (गो० ) २ आकाशे--
नतावतदेशे । (यो० । ३ वजामम्ितठां--विद्वीण॑मृत्रितरां | (गो० )
४ इपयुक्ोइका--5म्रात्तछिरां | (भश्ि० 3 ४ निपत्तितां--- विवाश्ताय विप-
ठिवजवयां । (द्ञि० )
चतुरंशे।ततरणततमः सगः १०८९

जिस टूरेफूरेवरतन भरे पढ़ेहों,भोर जहाँ पाती धुक जाते के


कारण पाते लोग पड़े हों ॥ १५॥
विपुां विततां चेव यक्तपादां वरखिनाय! ।
भष्ोवा्णविनिफृत्तां पतितां ज्यामियुधार' ॥१३॥
अथवा प्रशेष्या वेसती ही शोमादीन देख पढ़ती है, जैसी
की किसी बड़ेधतुप पर चढ़ो हुई प्रयधा (डोरी) बलवान करों
के बाणों सेकट कर घट्रुव से गिर पूथिवीं पर पड़ी शोभाहीन
'दती है॥ १६ ॥
तहसा युद्धशाण्टेन' हयारोहेण वाहितार ।
अनिष्चितभाष्डमुत्टश* (फिशोरीमिव दुवछाम्‌॥१७॥
'ग्रयवा जैसे युद्धधतुर महुष्य सेहठात सवारी की गयी दुरवल
घोड़ी, जे शबुस ैदय मार
से कर गिरा दो गयी दो, शोसा हीन देख “
पड़ती है॥ १७ ॥
भरतस ्तु रथ ! सम् भीम ानद गरथ ालन ः |
वाहयस्त॑ रथश्र ेष्ठं सा र वाक् यमत् रवीत ू ॥ १८ ॥
रथ पर कैठेहुए धोमा नद दृश रथन वत भरत जी उन सुमंत ्र से
पते, गा उस उत्त म रथ को दा रदे ये ॥ १६॥
*. ०क तु सलध मम्भ ीरों मूरठ ितो न निशम ्पते ।
ययापुरमयेध्यायां गीवबादितिनिखन! ॥| १९ ॥
! तरक्त िनाँ- बीतर् णा । (गो? ) * आयुध ाए-प ुप: | ( गोल )
३ युदष्देत--आइवसम्ेब्र |( गो० ) ४ निशिक्षमाण्याइ-अरोपित'”
अबय पं। (गो ) १ वत्व शा-- बाहव ावहा । ( गो? ). ६ क्रिश ेही-- "
बाह्यडयां | (गो ) ० किंुसलु- -भदा रथट बातमि द्यये ः। ( गो० )
वा० रा०-ईह
१०६० थयेध्याकायडे
द्वाय ! कैसे दुःख की बात हैकि, इस पुरी मेंजैसे पदले' गाना
वज्ञाना हुआ करता था, वैता आज कहीं नहीं छुनाई पड़ता ॥१६॥
ध्वारुणीमदगन्धथ् मात्यगन्धथ्र मूछितः
धृपितागुरुगन्यथ् न प्रवाति समन्‍्ततः ॥| २० ॥
फूल माताओं की मस्त करने वालो एवं चन्दृत प्गर की घूप
की सुगन्धि पहले की तरह चारो ओर फैली हुई नहीं ज्ञान पड़ती ।
भथवा जैसा पहले पुष्प चन्दन और अगर का गन्ध चारो और
फैला रहता था वेवा प्राज्ञ नहीं फैल रहा ॥ २० ॥
यानप्रवरधेपश्च र्निग्धश्च हयनिःस्वन!
प्रमत्गजवादश्च महांरच रथनिस्खघन। ॥ २१ ॥
नेदानीं श्रयते पुर्यामस्यां राम विवासितें ।
चन्दनागरान्धोश्च प्रहशश्च
हाहश्च नवसज। | २२ ॥
गते हि रामे तरुणाः सन्तप्ता नापभ्ुझ्धते ।
वहियात्रां न गच्छन्ति चित्रमास्यधरा नरा! ॥ २३ ॥
हैछुमत्र !जैसा कि, पूर्वकाल में रथ आदि सवारियां के चलने
का शब्द, थाड़ों के हिनदिनाने और हाथियों के चिंघाड़ने का
शब्द्‌ खुन पड़ता था, बैसा राज़ इस पुरी में श्रीराम जो के वन में-
चक्षे जाने के कारण नहीं छुन पड़ता । द्वाय !चन्दन और बड़े प्रूल्य
वाब्‌ ताजे पुष्पहारों के भीरामचद्ध जो के वियाग में सन्तप्त दो
थयेध्यादासों तदणों नेधारण करना त्याग दिया है। शव लेग
चित्रविचित्न पुष्प मालाएं धारण कर वाहिर नहीं निकलते
']-२ २२१॥
॥ २३ ॥
१ बादणीमद्गन्धश्च--मरदोत्पादकोंगन्घ इत्यथें: | ( गो )
चतुदंशात्तरशततमः सर्गः १०६१
नेत्सवा! सम्मवर्तन्ते रामशेकार्दिते पुरे ।
सह जून मर श्रात्रा पुरस्पास्य बुतिगंता ॥ २४॥
धोरामचद्र जो के शोक से सब नगरवासी ऐसे विकल्न हैं
फि, उत्सव का नाम तक सुनाई नहीं पढ़ता, मान्रों इस नगरी की
शोभा मेरे भाई के साथ चली गयी ॥ २४ ॥
न हि राजत्ययेध्येयं 'सासारेवाजुनी' क्षपार |
कदा नु खलु मे भ्राता महोत्सव इवागतः |
जनयिष्यत्ययेध्यायां हष ग्रीष्म इवास्वुद! ॥ २५ ॥
हा! यह श्रयेध्या ते मूसल्लघार वर्षा से युक्त शुक्षपक्त की
रात्रि को तरद प्रकाशहीन दो गयी है। ( प्र्थात्‌ शुकृपत्त की रात
बड़ी सुद्दायनो दीती है, किन्तु बदली दा जाने के कारण उसका
सुद्दावनापत नष्ट ही जाता है। ) से। कब मेरे भाई ओीरामचन्द्
उत्सव की तरद यही थ्रा कर, श्रीक्षकान्नीन मेघ की तरह अयेध्या
में ध्राननद की वर्षा करंगे ॥ २५ ॥ है
तरुणैरचास्वेपेश्व नरेरुत्नतगामिमिः" |
सम्पद्विरयेध्यायां नामिमान्ति महापथा। ॥ २६ ॥
जैसे पदिके छुद्दर पेष धारण कर और अ्रक्ड़ कर चलने
चाक्े जवानों से राजमार्ग की शोमा दोती थो, बेसी शोभा प्वेध्या
के राजभागों को भव नहीं देख पड़ती ॥ २६ ॥
एवं वहुविय जत्पत्विवेश वसर्ति पितुः |
तेन हीनां नरेन्द्रेण सिंहहीनां गुहामिव ॥ २७ ॥
! साहारा--मैगवद्वृष्टि स्ठिता ।( गो" ) ३ भजुनी--आु्ठपक्ष
सम्बन्धनों | ( गो ) ३ क्षपा--वात्रि । ( रा० ) ४ उम्बतगामरिसि--संगब-
अमने: । ( गे।० )
१०६२ अयेाध्याकायडे

इस प्रकार शाक् सन्ताप करते हुए भरत जी ने, अपने फ्ता


के निवासस्थान में, जे महाराज के विना सिहरहित गुफा की
तरह जान पड़ता था, प्रवेश किया ॥ २७॥
तदा तदन्त! पुरमुज्कितपर्म॑
सुररित्सट्रमभास्कर दिनय |
निरीक्ष्य सब तु विविक्तमात्मवान्‌
मुमाच वाष्यं भरत: सुदु।खितः ॥ २८ ॥
इति चतुदंशात्तरशततमः सगेः ॥
उस समय शेमाहांत निजञ्ञंत रनवास के देख, भरत रोने लगे
आर उसी प्रकार अत्यत्त दुःखी हुए, ज्ञिस पकार देवाघुर संग्राम
में हयरहित दिन के देख, देवता लग दुल्ली हुए थे ॥ २८॥
अयेाष्याकायड का एक सो चौदहवां सर्ग समाप्त हुआ |
---ै----

पद्मुवशोत्तरशततमः सर्गः
-६ & ४--
तते निश्चिप्यः प्रात) स अयोध्यायां दृाखतः-।
भरता शीकसनन्‍्ततपा गुरुनिदमयात्रवीद ९॥ े
इढ़ब्तधारी भरत जी ने माताओं के अयेष्या में पहुँचा दिया $
तद्नन्तर वे शाक्त से पीड़ित ही, वशिष्ठादि गुरुजनों से वाले ॥ १॥
नन्दिय्ाम॑ गमिष्यामि सवानामन्त्रयेज्य व!। ..#_..
तत्र॑ दु!खमिदं सब सहिष्ये राथवं बिना ॥ २ ॥
१ निक्षिप्प--संस्थाप्य । ( झ्ि० )
पश्चरशेत्त रणततमः सर्गः १०६३
हैमेंनिम्राम जाऊँगा, इसके लिये में आपको आज्ञा चाहता
हैं। वहां रद कर जैसे होगा बैसे भोरामचन्द्र जी के वियाग के
समस्त दुःख सहूँगा ॥ २॥
गत हि दिव॑ राजा वनस्थश्र गुरुमम |
राम प्रतीक्षे राज्याय स हि राजा महायज्ञा। ॥ ३॥
पेमहाराज ते लगे पधारे, और बड़े भाई वन में ज्ञा बैठे |प्रतः
मेंराज्यशासन के लिये थ्रोरामचन्ध जो को प्रतीज्ञा करूँगा। फ्योंकि
महायशप्वो श्रोरामचद्र ही अयोध्या के राजा! हैं ॥ ३ ॥
एतच्छुत्वा शुर्भ वाक्‍्यं भरतस्य महात्मन! |
अव्रुवन्मन्त्रिणः सर्वे वरिष्ठ पुरोहित! ॥ ४ ॥
मद्गात्मा भरत जो के ऐसे शुभ वचन छुन, समस्त मंत्री और
पुरादित वशिप्ठ जो उनसे बेल ॥ 9 ॥
सुभुश इलापनीय॑ च यदुक्त॑ भरत लया।
वचन प्रादवात्सल्यादनुरूपं तवैव तत्‌ ॥ ५॥
देभरत | तुमने श्राता के स्नेदवश जे। कुड कद्दा,वह अत्यन्त
गहाधनीय है । क्मों न हों, येवचन तुम्दारे ही तु से निकलने
ग्राग्य हैं॥ ५ ॥
निर्त्य॑ तेवस्धुलुब्धरय तिह्ठते। शरातुसैहदे ।
आर्यमार्ग मपनस्य नोठुमन्येव क! एुमान ॥ ६ ॥
जब तुम अपने भाई में प्रोतिवान है। और उनका सोहाई
“ सम्पादन फर प्रत्यच्द श्रेष्ठ मार्ग मेंपहुँचे हुए हो, तव भत्ता कोने
पुदष तुम्दारी वात न मानेगा ॥ ६ ॥
१०६४ ह अयेध्याकायडे
मन्त्रिणां बचन॑ श्रुत्रा यथाअभिलपितं प्रियम्र्‌ |
, अन्नवीत्सारथि वाक्य रथे मे युज्यतामिति | ७ ॥
अपनी अभिलाषा के अचुसार मंत्रियों के मुल्न से प्रिय वचन
सुन भरत जी ने सुमंत्र सेकहा कि, मेरा रथ तैयार करे ॥ ७॥
प्रह्वदनः सर्वा मातृ! समभिवाद्य सः ।
आररोह रथं श्रीमा्यत्रुप्नेन समन्वितः ॥ ८ ॥
जब रथ था गया, तव भगत जी प्रसक्ष हि! कर सव माताओं
से अच्छी तरद चार्तााप कर और उनसे श्राक्षा ले, शत्रुघ्न जोसहित
रथ पर सवार हुए ॥ ५॥ ।
आर्य च रथ शीघ्र शत्रुप्रभरताबुभो |
ययतुः परमपरीतों हते मन्त्रिपुराहिते) ॥ ९ ॥
इस रथ पर शीत्र सवार हो, मंत्रियों ग्रार पुराद्दितों केसाथ
ले दोनों भाई भरत और शब्रुघ्न परम प्रसन्न दोते हुए वहाँ से
चले ॥ ६ ॥
अग्नतों गुरवस्तन्न वसिष्ठप्मुखा दिजा। ।
प्रययु; प्राउजुख॥३ सर्वे नन्दिय्रामो यताध्भवत्‌ ॥१०॥
5
वशिध्वादि पृथ्य ब्राह्मण भरत के रथ के आगे पुर्वको मुख
कर सब के साथ लिये हुए म>्दिय्राम को शोर चक्मे ॥ १०॥
व्ल॑ च तदनाहूतं गजारवरथसझुछम्‌ |
प्रययो भरते याते सर्चेच पुरवासिनः ॥ ११॥
भरत जी के वहाँ से रदाने होते ही इनकी सेना भी हाथो
घोड़ों रथों कसह
े ित बिना घुलाये ही उनके पीछे होली तथा सब'
पुरवासी भी उनके साथ दे लिये ॥ ११॥
पश्नदशेत्तररातत॥ सर्गः १०९४

रथस्पः से हि पर्यात्मा भरतो आ्रातवत्सल! |


नन्दिय्यामं ययो तूण शिरस्याधाय पादुके ॥|१२ ॥
धर्मात्मा एवं प्रातृवत्सज्ष भरत प्रपने माथे पर भाई को
खड़ाअप्नों के रफ्ते हुए, रथ पर सवार दे! बहुत शौद्र नन्दियात्म में
पहुँचे ॥ १॥
ततस्तु भरतः प्िम्र॑ नन्दिग्राम॑ प्रविश्य सा
अबतीय रयात्तण गुरुनिदयवाच ६॥ १३ ॥
तदनन्तर भरत भी तुरन्त दी नन्दिम्राम में प्रवेश कर और
छतुरत रथ से उतर गुदथों से यह बेक्ी ॥ १३ |
एहद्गाज्यं प्र श्रात्रा द्ं सन्‍न्यासवत्खयंम्‌ |
योगक्षेमवह्े चेगे पाठुके हेमभूपिते ॥ १४ ॥
भाई थीरामचद्ध नेयद थेष्ठराज्य मुझे धरोहर फी तरह सौंपा
है,से उनकी ये खुबर्ण भूषित पाहुका हो इसके योग क्षेम का
निर्वाद करेंगी ॥ १४॥
भरत; शिरसा क्त्वा सन्न्यासं! पाहुके दतः
अव्वीरःखसनाह! सब प्रकृतिमण्ठल्म' ॥ १५॥
नभ्तर भीराम की दी हुई प्रतिनिधि झूपी उन पाहुकाशों के
झपने सीस पर लगा, दुःख सन्‍्तप्त दो भरत ज्ञी सब प्रजाजनों से
वाले ॥ १४ ॥ हम
छत्न धारयत पल मत ।
आभ्यां राज्ये स्थिते पे! परादुकाम्यां गुरोमेम ॥१॥॥
१ सल्त्यास पादुक--खम्रतिनिधिष्वेनन्यक्षेपादुके । (यो? ) रे प्रकृति-
मण्ठक्षम--परजाप्तमुददं । ( क्षि० )
१०६६ शयोध्याकायडे
इन पादुझाथों के वात्नात्‌ श्रीयमचद्ध जी के चरण सम्रस्क,
इनके ऊपर शोध उच्र तानों , चँवर इला ओ, क्यों कि ये मेरे पस्म
गुरु की पादुछाएँ हैंओर इनसे राज्य में मानों घम्म स्थापित
हुआ है ॥ १६ ॥
[ नाद-- परादुआाओं से दाज्य में धर्म का स्थापित होता “अर्थात्‌
बड़े के रहते छाठे का राजसिदासन पर कैठवा लधने था। अतः ज्येष्ठ राव-
कुमार श्रीशनचत्द्र जी को प्रतिनिधि रूप पादुकाओं के जद रावसिंदाउत
पर छ्वातित देने ले, जधर् दर हुआ है और प्र्म त्याप्रित हुत्ा है । ]
श्रात्रा हि मयि सन्‍न्‍्यासेा निश्चिप्ट) साहदादयग |
तम्रिम !पालयिप्यामि राखवागमं प्रति ॥ १७ |॥
शीरामचद्ध जीने प्रेमपूर्वक जे! यह घरोहर मुम्हे सॉँपी है.
पे

सा इसकी में उनके लोठ कर थाने तक रक्ता ऋछूँगा ॥ १७॥


क्षिप्रं संयानयित्वा तु रापवस्य पुन! खयम |
बट अर कप ५
चरणा ता तु रामसय द्रक्ष्याम्र सहपाहुका ॥ १८ ॥|
फिर जब कि, ये अवाच्या ज्ञो में आ जाँयगे, तव नेंप्रपने
हाथों उनके चरणों में ये पादुका पदिना, पादुका सहित उनके चरणों
के दर्शन करूँगा ॥ २5॥
तते निश्निव्नभारोहं राववेण समागतः |
निवेध गुरवे राज्यं भजिय्वे गुरुहचितामर ॥ १९ ॥
१ पाछदिष्याद्षि-रक्षियेध्पानि । ( गो+ ) २ गुद्व॒त्तितार मद्तिन्ये--
पिदरेवश्ुश्नयाकरिप्यानि । ( गौर ) # पराहास्वरे --४ बाहदादतौन । *
प्रश्भशात्तशाततमः संगः १०९१७

तदनत्तर धोराम्रचद्ध वी से मित्र शोर उनका राज्य उनके


सोप पिता की जंसी सेवा पुत्र कोकरनी चाहिये, वैसी में उनकी
सेवा फुँगा ॥ १६॥
राषबाय च सन्‍्न्‍्यासं दच्त्वेमे वरपादुके ।
। गाज्यं चेदमयथ्यां च धृतपापा) भवामि चे॥ २० ॥
इस प्रकार श्रीरामचद्र को इस 'घरोहर ढपी प्राइकाशों की,
इस राज्य के और इस राजवधानों प्रयेध्या के सांप, अपनी माता
के फारण प्पने ऊपर जगे दुए प्रषयग के में थे डालू गा ॥ २० ॥
अभिषिक्त तु काकुत्त्थे पहषयुद्िते जने ।
प्रीतिमम्र यशश्षेब भवेद्राज्याइतुगुणम्‌ ॥ २१ ॥
[| कं रे हे

धोरामचद जी का राज्यामिपेक होने पर प्रजाजन, दर्षित


और ग्रानन्दित दोंगे ।उस समय इस राज्य का श्रीराम्रचच्ध जी के
शर्पण करने से लेगों को मेरे प्रति चौगुनो प्रीति द्वीनहीं दोगी,
बिक मुझे यश भी मिक्नेगा । ( भ्र्थात्‌ थव जे भ्रपथश मिला है
वद्द दुर हि कर मुर्छे यश की आरप्ति दागी) ॥ २१ ॥ !
एवं तु विलपन्दीना मरतः स मदायशा। |
नन्दिग्रामेष्करोद्राज्यं दु!खिता मन्त्रिमि! सह ॥ २२ ॥
मद्ायशत्वों चीर भरत इस प्रतार विज्ञाप कर और दीन दुध्खी
हो, मंत्रियों की सद्दायता से नन्विव्राम में रद, राज्य करने
कगे ॥ २३ ॥
स वद्कलजठाधारी झुनिवेषधरः प्रशु/
नन्दिग्रामे्वसद्यौर! ससेत्ये। भरतस्तदा ॥ २३॥
! घूतपाप--इत्मत्रपापश्षा्वेनफीयीनिमित्तमयशब्ब्यते | ( यो० )
१०है८ अयेाध्याकायडे

घीर भरत चीर वसन और जठाजूड घारण कर, मुरतियों का


वेष बना मप्रस्त सेना सहिद नन्दिग्राम में रहने लगे ॥ २३ ॥
रामागमनम
५ ाकाउ श्षन ्धरत ों भ्रात
] ॒वत्स लछ) ।
श्रातुवंचनकारी च प्रतिज्ञापारगरतथा ॥ २४ |!
पाहुके त्वभिषिच्याय नन्दिग्रामेष्वसत्तदा | ४
सवाल्व्यजर्न छत्र॑ घारयामास से खयम ॥
भरतः शासन स्व पाहुकास्यां न्‍्यवेदयत्‌ ॥ २५ ॥
4 (९

प्रातवत्सल, श्रीरामचद्ध जी के पाने की श्रार्कोँत्ता रखने


वाले, ओरामचद् जो के आज्ञाकारो और आयनो प्रतिज्ञा के पूर्ण
करने वाले भरत जी राजसिदासन पर धीरामचन्ध जी की पाहुकाग्रों
दे ग्रभिषिक्त कर नन्द्ग्राम में रहने लगे। उन्होंने स्वयं उन पाठु-
कारों परछुत्न तान और चँवर डुला, समस्त राज्य का शांसन
उन पादुकाओशों के। निवेदन किया ॥ २४ ॥ २४ ॥
ततस्तु भरत! श्रीमानभिषिच्यायपाहुके |
तदधीनस्दा राज्य कारयामास सबंदा ॥ २६ ॥
तव श्रीमाद भरत जो इस प्रक्वार पादृकाओं का साज्या-
मिपेक कर उनके शअ्धोत दो, राज्यशासन करने लगे ॥ २६ ॥
तदा हि यत्कायमुपेति किश्ि-
दुपायन चेपहतं महाहेम |
स पादुकाम्यां प्रथम निवेद्
चकार पश्चाद्धरता यथावत्‌ ॥ २७॥
इति पश्चदशात्तरशततमः सगे ॥
पाइशेत्तरशवतमः सगे: १०६६
९: उस समय राज्यशायन सम्बन्धी जे कुछ करना होता, वह
[. पादुक़ाश्नों का अना कर किया जाता प्रथवा कोई वड़ी सृल्यवान
| मठ आती ते बद पहिले पादुछाओं के सामने रखी जातो थी
पीछे उत्तका यथाविधि व्यवहार किया ज्ञाता था ॥ २७ ॥
अ्रवेष्याकायड का एक से पत्रहयाँ सर्ग समाप्त हुआ।
3). . अआआईडगणण
पोडशोत्तराततमः सर्गः
विन *ै,|
बन

प्रतिप्रयाते भरते वसन्रोमस्तपावने |


लक्षयामास 'सेद्देगमयात्सुक्य! तपखिनाम्‌॥ १ ॥
भर त जो जब प्य ोध् या में लो ड आय े तव ध्र ीरा मचन ्द् र जी ने
देखा कि, चित्रकूट पर् व॑त तां सी तप स् वि गण डरे हुए हैं और वे
स्थानान्तर में क्षाने के उत्छुक ही रहे हैं ॥ १॥
ये तब चित ्रक ूटस ्य पुर स्त ाचा पसा भ्र मे |
राममाशित्य +निरता स्त ानल क्ष यदु त्स ुका न्‌ ॥ १॥
ज्ञे। तपल्ली पहले चित्रकूट के सम ीप ताप साभ ्रम ्त में ओर ाम के
सहारे रहा करते थे, उन् हें भोउस स्थ ान को बो ड़ अन् यत् ज् ञा न
के लिये, श्र ीरा मचर द्ग ं नी ने उत् छुक दे खा ॥ ९ ॥
नयमैभुकुदीमि थ रा म॑ निर ्दि श्य शह ्ि ता । |
अन्योन्य यु पम रप न् तः झन ेथ कु र् मि थ/ ४ कय ा: ॥ ३ ॥
१ सैहदेंगं- -सभ र्य । ( गा ) ३ मत् सुक ्य- -.भ ाश् रवा त्त रयम चरा मिक ाप ।
(गो) १३ विरताह्तागू--इत्घुकानपमनत्सुकानू । भेशक्षयवराम:
इत्मनुपड्ु: । ( गो० ) ४ मिथ/--रहस्यें । (भो० )
११००... अयोाध्याकायडे

क्योंकि वे नेत्रों और भकुटियों के सझ्लेतों से,श्रीराम का दिखा


दिखा, सन्देह युक्त है, ग्रापम में वातचीत और धीरे धीरे कुछ
शुत्त परामश डिया करते थे ॥ ३॥
तेषामात्सुक्यमालक्ष्य रामस्ववात्मनि! शक्डितः ।
कृताझलिस्वाचेदमर्षि कुलपति तत) ॥ ४ ॥
भ्रीरामचन्द जी ने उनके उत्सुक देख और अपने विषय में
उनकी सशह्लित देश, उतके प्रध्यत्त ऋषि से हाथ जोड़ कर
कहा ॥ ४ ॥
न कबच्िद्वगवन्किश्वित्ूवेहत्तमिद मयि ।
हृश्यते विक्वृ्त येन विक्रियन्ते तपखिन। ॥ ५ ॥
हैभगवन | क्या पूर्धकालीन मेरे आचरण में किसी प्रकार
की त्रढि भाप कागों के देख पड़ी, जिससे तपल्लि क्षागों के मन में
विकार पैदा दे गया है ॥ ५ ॥
प्रमादाचरितं किचित्किश्वित्नावरजस्प मे।
लक्ष्मणस्पर्षिभिहे्ट +नानुरूपमिवात्मनः ॥ ६ ॥
अथवा फ्या ऋषि लोगों ने मेरे छोटे भाई ,महानुभाव लक्मण
जी के ध्रववधानतादश कोई अन्यायाचरण करते देखा है॥ ६ ॥
कच्चिछुश्रपमाणा व; शुअ्रपणपरा मयि |
प्रमदाभ्यचितां हृचि सीता यक्त न बर्तते ॥ ७॥
३ बातचि शहितः--स्वस्मिन्‌ संजातशड३ । हे अवरजत्य--छट्ट्मणल्य ।
( ग्रो० ) ३ चानुरुप॑--भअनुचितं | (रा० )
पे।डशेत्तरशततमः सम ११०१
या आप लोगों की सेवा करती हुई शोर मेरी छुश्नषा में
निरत सीता जो ने ते श्रनवधानतावश कीई ऐसा कार्य नह्दों
किया, जे खयों के लिये प्रनुचित हो ॥ ७ ॥
अथर्पिनरया हृद्धस्तपसा च जरां गतः ।
वेपमान इवाबाच राम भूतदयापरस ॥ ८ ॥
श्रौरामचद्ध जी का पेसा वचन छुन, एक बूढ़ेमहर्षि, जिनका
शरीर वहुत दिनों तक तप करने करते जीण दो गया था, काँपरती
हुए, सब- प्राणियों पर दया करने वाले श्रीरामचद्ध जो सेवोल्े ॥५॥
कुत) क्याणसत्तयाया!' कस्याणामिरतेस्तथा |
चलन तात वैदेशारतपसिएु विशेषतः ॥ ९ ॥
हैतात | कल् याण खमा व वाल ी और आशि यों का कल् याण
करते मेंतत्पर सीता जी क्या कमी किसी के साथ--से भी विशेष
कर ऋषियों के साथ, किसी प्रकार का युक्तिपिरद्ध व्यवद्वार कर
सकती है !॥ ६ ॥
त्वन्रिमित्तमिदं ताव त्त ापस ासत ि वर्त ते ।
रक्षेभ्यस्तेन संव िधा ! कथय स्त ि मिथ / कथ ा ॥१ ०॥
द कि, आपके कारण, आष्िों के अपर
आरभ ्म कार दिय ा है। इसी लिय े
कम मास
ऋषिगण भयभीत दे पप स में अपन े वचा व के जिय े गुप्त पराम र्श
करतेेह
किकियवाा कस ॥ ९००॥॥
हैंं॥
। ( यो० ) ३ मिथ ३--
! कब्याणसत्वाया:--कैस्याणह्वभावायाः
रहप्ति। (गो) * ह
११०४५ अयेध्याकायडे

रावणावरजः कथित्खरों नामेह राक्षस! |


'उत्पाव्य तापसान्सवाचनस्थाननिकेतनान || ११॥
रावण का क्ैेठा भाई खर नाम का राक्तस है,जे जनस्थान-
चासी सब वपत्ियों के उनके जनस्थाव के श्राश्रमों सेनिकाल
वाहर भर रहा है ॥ ११ ॥
पृष्ठथ जितकाशी' च दृशंसः पुरुषादकः ।
अविध्तथ पापश्च तवां च वात न मृष्यते ॥ १२ ॥
देतात |वह वड़ा ढोठ और जयोी हैतया ऐसा निष्ठुर हैकि,
मनुष्यों को मार मार कर जाया करता है। अतः चह महापातकी है
और थ्रापका यहां रदना उसझे सहा नहीं है ॥ ११॥
त॑ यदाप्रभृति हस्मिन्नाशमे वात वर्तसे |
तदाप्रभुति रक्षांसि विपक्षुव॑न्ति तापसान्‌ ॥ १३ ॥
हदतात | जब से तुम इस भाश्रम, में आ कर रहने लगे हो,
ऊ से राक्षत ल्लाग और भो अधिक तपस्तियों के सताने लगे
॥ १३॥
दूशायन्तिहिवीभत्स!* “ऋरेभीपणकैरपि ।
“नानारुपविरुपश्च* *रुपबिकृतदर्शने। ८॥ १४ ॥
५ भी... रा “रुरपेविक्वतदश ने

वे लोग धनेक आकार के जझुगुष्लित, भयकुर, भोषण, और


विलत्षण विकट शक्ल वना तपस्ियों के डराया करते हैं ॥ १४॥
* उल्माव्य--निष्कास्थेति । (यो) २ जितकाशी--
मिताइवः | (गो०)
२ वीमह्म:--जुयुप्पितै: । (गो०) ४ क्रैः--मपहरी। । (यो
०) ५ वावारयेः
“अनेक प्रदारै: । (यो० ) ६ विरुषैः--छे!कविकक्षण संस्था
न: | ( गो० )
७ रुपैश--दारीरै; । (यो०) ८ विक्वत दर्शनेः--विज्व
नद॒टिमिः | ( गो० )
पेडशेतत्तरशततमः से ११०३
!अप्रशस्तैरशुचिपि: सम्पयेज्य च तापसान्‌ |
प्रतिप्नन््यपरान्श्तिपमनाया: पुरत! स्थिता। ॥ १५॥
वेधद्युभऔर अपवित्र वस्तुएं तपस्ियों के श्राश्रमों मेंडाल
' ऋषियों के तंग करते हैं |भ्रधिकतर तो वे सीधे सादे तपसयों
के देखते दो मार डालते हैं ॥ १४ ॥
तेषु तेप्वाथमस्थानेघ्वबुद्धमवल्लीय च |
रमन्ते तापसांसतत्र नाशयन्तो&पवेतस!२ ॥ १६ ॥
वे छुद्र बुद्धि वाले रात्तस लिप छिप कर सर्वत्र धूमा करते हैं,
और जदां कहीं किसी तपत्वी को श्रचेत पाते हैं, तो तत्तण दी
मार डालते हैं॥ १६ ॥
अपक्षिपन्ति खुग्माण्डानग्रीन्सिश्न्ति वारिणा ।
कलशांध प्रमद्गन्ति हवने समुपर्थिते ॥ १७ ॥
जव तपस्वि लोग दचन करने वेठते हैं,तव राक्षस था कर,
े र पानो डाल बुक्ा
श्रुवों भौर यश्षपात्रों को फेक कर, भ्रश्मि कऊप
, देतेहैंऔर कक्षसों का फोड़ बालते हैं ॥ १७॥
तैदुंरात्मभिरायुष्टानाश्रमाव्ममिद्ासलः:
गमनायान्यदेशस्य चोादयन्त्युपयोाज्य माम ॥ १८ ॥
हैश्रीयमचद्ध | उन हुशें फे उपद्रयों से तंग भा कर तपत्ति
इन शाश्रमों का त्याग फर दूसरे आाक्रमों में चलने के लिये मुझे
प्रेरणा कर रहेहैं॥१८ ॥
) [अ प् रश त् ते :- -अ शु मै ः । ( गो ० ) ३ अब ुद द- -भ वि दि त । ( गो ० ):
हे भक्मचेतलः--झुदतुद्धघः ( गो० )
4
११०४ आअयेष्याकायडे
तत्युरा राम 'जारीरामुपहिंसां तपखिएु ।
दर्शयान्त हि दुष्स्त लध्ष्याम इम्मराश्रमम | १९ ॥
हे श्रीराम ! दे हुए रात्चस इस वन'के तपल्लियों के मार डालने
की धमकियाँ दिया करते है, अतः हम लाग इस आश्रम की त्यागे
देंतेहैं ॥ १६ ॥
बहुमूलफल चित्रमविद्रादितों वनम्‌ |
पुराणाअमम्ेबाई अ्विष्ये सगणः पुन! ॥ २० ॥
यहां से थाड़ी ही दुर पर, महि अश्य का, बहुत से कच्दमूल
फर्जों से युक्त विचित्र तपावन है । हम सव घुनियों के साथ ले,
वहीं ज्ञा वलेंगे ॥ २० ॥
..] ५ ९ कप
खरस्वव्या[प चायुक्ते पुरा वात य्वर्तत ।
सहस्माभिरिते गच्छ यदि बुद्धि! पवर्तते ॥ २१ ॥
है वात ! अगर तुपकीा ठीक़ जान पढ़े तो तुम भी हम लोगों
के साथ वहीं चल्ते!। क्योंकि वह खर याक्ञस तुमके भी तंग
करेगा ॥ २१॥
सकलतब्रस्य सन्देहे नित्यं यच्त्य राधव ) |
समथस्यापि हि सतों वाज़े हुःखमिहाद्र ते॥२२)॥
है राधव | यद्यपि तुम उससे अपनी रक्ता करने में समर्थ दो,
वधाप जी का खाथ ज्ञ कर यहाँ रहना सदा खबदके से खाली न
देने के कारण, तुम्दारे लिये छेशदायो देगा ॥ २२ ॥
इत्युक्तनन्तं रामस्तं राजपुत्॒स्तपखिनम्‌ ।
शशाकेत्तरवाक्य्‌रवरोडू समुत्युकम# ॥ २३ ॥
३ शरीरसबन्धिवोस--हिंखां तवल्ियुदर्शयन्ति । ( स्लि० ) » पाठान्तरे
घपम्तज़रऊ: ॥
पेडशेत्तरशततमः सर्गः ११०४
. इलपति का ऐसा वचन छुब और जाने के लिये उनके
अत्यन्त उत्छुक देख, राजकुमार श्रीराप्चद्र किसो प्रकार भो
समझा बुक्धा फर, वद स्थान त्यागने से उर्दें न रोक सके ॥ २३ ॥
अभिनन्ध समरापृच्छय समाधाय च राघवम |
से जगामाश्रमं त्यक्त्वा कुठे! कुछपति! सह ॥२४॥
तदूनन्तर कुलपति, ओरामचन््र ज्ञी को प्रशंशा' कर, उनके
समझा बुझा और उनसे विदा हो तथा सव तपल्नियों को साथ के,
उस शआधम के त्याग कर, चत्न दिये ॥ २४ ॥
रापः 'संसाध्य त्वपिगणमनुगमनादू
दैशात्तस्मात्ुछपतिमभिवाध ऋषिय ।
सम्यकाीपैस्तैरतुमत उपदिष्टायः
पुण्य वासाय खनिलयमभिसंपेदे ॥ २५ ॥
इस प्रकार ज्ञव उन जकोभों की प्रध्याव करने की तैयारी हुई,
तब शरीरामचद्ध जी भी कुल दूर तक उनके पहुँचाने गये। तदन-
न्तर मीरामचन्द्र जी कुलपति की भ्रदुमति के श्र इनके प्रणाम
कर, झपनी पवचित पर्णशाला में लोठ आये ।जब भीरामचद जी
जौदने लगे, तव ऋषियों ने प्रीतिपृर्वक येप्य कर्तंव्यकर्म का भक्नी
भाँति उनके उपदेश दे, उनके विदा किया ॥ ९४ ॥
आश्रम त्वृषिविरहित॑ पशु!
प्रणमपि न विजहैी! स राघव। ।
) संसाध-त्याप्प | ( गो )
सा० शूध-०-३० ,
११०६ प्रयेध्याकायडे

राषव॑ हि 'सततमनुगता-
स्तापसाइचर्पिचरितधुतगरुणा; ॥ २६ ॥
इति षेडशात्तरशततमः सर्गः ॥
उस ऋषिहीन श्राश्रम के क्षण भर के लिये
श्रीरामचनद्र ज्ञी
भी सुना नहीं छोड़ते ये। उनमें से कुछ ऋषि ऐसे थे जे श्रीराम-
चन्द्र जीका तपल्लियों जेसा आचरण देख, उनके अपना मत
समर्पित कर चुके थे । अ्रतः वे ऋषि ध्रीरामचन्द्र जी के अपने मन
में सदा स्मरण किया करते थे ॥ २६ ॥ ु
[ छोक २५, २६ का वत्त भूषणकार ने चिन्यय वत्तछावा है |]
श्येध्याकाएड का पक सो सेलहतां सर्ग समाप्त हुआ ।
--+#६--
सप्तदशोत्तरशततमः सगेः
#.. **
| २ | ना
“०१६७

राघवस्त्वथ यातेषु तपस्विपु विचिन्तयन्‌ |


न्‍
न तत्रारोचयद्वासं कारणेवहुमिस्तदा ॥ १ ॥
के

ऋषियों के उस आश्रम का त्याग कर चक्के जाने पर, श्रीराम-


चच्द जी ने अनेक वातों के सोच विचाए कर, वहाँ रहना ठोक न
समझता ॥ १॥
हह मे भरतों दो मातरश्च सनागरा। ।
सा च मे स्मृत्रिन्वेति तां नित्येमनुशाचतः ॥ २॥
१ ऋषिचरितेरामेध तगुणाः--समपि त मच्सः तापसा; राघवं सतत"
मनुयताः मना आता; । ( शिर )
सप्तदशोत्तरशतृतमः सर्गः १३०३
भीरामचन्र ने विचारा कि, इस स्थान पर नगरवास्ियों से,
भाई भरत से और माताशों से मेरी भेंट हुई थी, से। यहाँ रहने
से मेरे वित्तवृत्ति सदा उन्होंड्री श्रोर क्रगी रहती है,और वह
मुझे शोकाकुल किया करती है ॥ २॥ ु
समन्‍्धावारनिवेशेन-तेन तस्य महात्मनः |
, हयहस्तिकरीपेश्च उपमर्दः कृतो भृशम्‌ ॥ ३ ॥
, विशेष कर यहाँ महात्मा भरत की सेना के टिकने से, हाथो
घोड़ों ने (जे ल्ीद और मरत्॒ त्याग क्रिया था श्रथवा) ज्े।
रोंदा था, इससे यहाँ की भूमि अत्यन्त गन्दी है गयी है ॥ ३ ॥
तस्मादन्यत्र गच्छाम इति सबिन्त राघवः ।
'प्रातिष्ठत स वेदेशा लक्ष्मणेन च सद्भुतः ॥ ४॥
' शतः इस आश्रम का त्याग दूसरों अगह चल्नना ठोक है।
इस प्रक्तार साच विचार कर, धरीरामचन्द्र जीअपने साथ सीता ज्ञी
और लक्मण के के, वहाँ सेचल दिये ॥ ४ ॥
साअ्मेराभममासाथ त॑ ववन्दे महायता। |
ते चापि भगवानत्रि। पृत्रवत्मत्यप्यत ॥ ५ ॥
मरद्ायश/वी श्रीयमचन्द्र जी ने वहाँ से प्रध्याव कर, श्रत्रि
मुनिके आश्रम में पहुँच, मुनि को प्रणाम कफिया। अत्रि छुनि ने
भी उनके पुत्रभाव से देखा ॥ ४ ॥
स्वयमातिथ्य'मादिश्य सर्वमस्य सुसत्कृतम्‌ ।
. सोमित्रि व महाभागां सीतां च समसान्त्वयत्‌र ॥६॥
7 १ आतिछ्वहत त्यिथितः
त--अ-पत् आतिध्यमा
(गो)०) २२ आतिथ
तः ।। (गो० य--आतिध्
दिश्य--आ
्यमादिश् छुखा।
तिश्यंय इत्व ा|]
| गो? ) ६ सम्रसासलयत्‌--प्रीतियुक्तेनचश्ुपापश्यत । (रा० )
११०८ अ्रयाध्याकायडे

अति ब्यूपि ने स्वयं श्रोरामचन्द्र ज्ञी का यथाविधि अ्रतिधि


खत्कार कर, महाभाग लक्ष्मण शेर सीता जो के स्नेह की दृष्टि
से देखा ॥ ६ ॥
पत्नीं च समनुप्राप्तां हृद्धामामल्य सत्कृताम ।
शः 6 वद्िते
स्वभू

सान्वयामांस पमज्: हेते रतः || ७॥


सब प्राणियों के हित में रत, धर्मध्ष प्रत्रि प्रुन्रि ने वहाँ पर
उपच्थित, उपनी वृद्धा वपस्विती पत्नी श्न्‍ुपुया जी को बुला कर,
उनके श्ाद्रपूर्वक विठा ऋर समस्याया ॥ ७॥
अनव्यां महाभागां तापसी थरमचारिणीम |
प्रतियृह्वीष्य वेदेहीमत्रशीदपिस्ततम! ॥ ८ ||
तदस्तर ऋषिश्रेण अति ज्ञी नेउन महाभाभ्यवती, तपखिनों
और धरम मेंनिरत झतुदुबा जी से कदा क्लि; जानकी ज्ञी हमारे
आश्रय में धायो दे, सा इनके अपने साथ ते जा कर, इनका
खझादर सत्कार करा॥ ८ 9

रामाय चाचचक्ते तां तापसी पमंचारिणीर।


दश वषोण्यनाहएथा दब्धे छोके निरन्तरम ॥ ९ ॥
यया मूलफले छप्ठे जहूवी च प्रशर्तिता |
उग्रेण तपसा युक्ता नियमश्राप्यलंकृता ॥ १० ॥ '
साणिाणियया तह मइचप!
दशु वषसहदत्व |.
- अन्ययाव्रतः सनात्वा प्त्युहाथ निवर्तिताः ॥ ११ ॥
' धदनन्तर झत्रि ज्ञी नेश्लीपप्रवद्ध जी से तपलिनी एवं धर्म
चारिणी चनुध॒या का चद सब चूचास्त कहा कि, दूख वर्ष तक
हैअ हि ु [&. "४
सप्तादशात्तरशततमः सर्गः ११०४
परावर जल की चूध्धि न हीने सजेब संसार भस्
म होने लगा था,
तब झन्तुतुया जी ने किस प्रकार अपनी उम्र तपस्या
से ऋषियों के
लिये फल्रमूल उत्पन्न किये और स्नान करते के गछ्ा
नदी वहाँ
पेदायी थौर क्रिस प्रकार दज्ार वर्ष तक उम्र तथस्या कर औ

तपस्या के प्रभाव से, सब ऋषियों के तप के तिन्च नए किये॥ ३

॥१०॥ ११॥
देवकार्यनिमित्तं चयया सन्तवरमाणया।
दशरात्र कृता रात्रि! सेयं मातेब तेप्नय ॥ १२ ॥
ध्रश्नि ज्ञो ने ध्रीराम जी से कद्ा--हे धवध ! यह चही घ्ुतूया
हैं,किन्दोंने देवताओों का काम वनाने के लिये, तुरन्त ही इस रात
की एक रात कर दो थी ॥ ११ ॥
तामियां सर्वभूतानां नमस्कायोंयश्वस्विनीम ।
अभिगच्छतु वेदेही हृद्धामक्रोधनां सदा ॥ १३॥
प्रतः इन्हीं सत्रकारणों से यह यशल्विनी सब प्राणियों से
नमस्कार किये जाने येशय प्र्थात्‌ सब की पृष्या हैं। इन बूढ़ी
बड़ी तथा सदा क्षोध रहित मनवाली प्रनुत्ुया जी के
साथ जानकी
जी जाँय ॥ १३.॥
अनप्तयेति या छोके कर्ममिः रुयातिमागता ।
तां शीप्रमभिगच्छ त्वमभिगम्याँ तपखिनीम ॥१४॥
जे। झपने उत्क४ कर्मो के कारण जेक़ों मेंझनुछया के नाम से
प्रसिद्ध हैं,उत्त तपत्विनी: एवं साथ जाने के येक्य भ्रशुल॒या के
पास जानकी 'जीशीघ्र जाँय ॥ १४ ॥
१११० ध्रयाध्याकाणडे

एवं ब्रवाणं तम्षि तथत्युकत्वा स राव; ।


सीतामुवाच पमज्ञामिदं वचनमुत्तमम ॥ १५ ॥
अभिजी के ये वच्चन छुन, भोरामचल््‌ जी ने उनसे कहां
५ तथास्तु "-( बहुत श्रच्दा सीता भनुध्‌या जो केसाथ जायगी.)
तदनन्तर धममन् श्रीयमंचद्ध जी ने सीता ज्ञी से यह चेचन
कहा ॥ १४ ॥
राजपुत्रि श्रर्त ल्वेतन्युनेरस्प समीरितम्‌ |
श्रेयायमात्मन! शीघ्रमभिगच्छ तपखिनीम्‌ ॥ १६ ॥।
है राजपुत्रि | मुनि ज्ी ने जे कहा सा ते तुमने छुन दी लिया!
अतः अब तुम अपने कल्याण केलिये शीत्र इन तपस्िती जी के
साथ गम्मनन करो ॥ २६ ॥ ह
सीता ल्वेतदचः श्रुला राघवरंय हिवेषिणः |
तामत्रिपती धर्मज्ामभिचक्राम मेयिल्ी ॥ १७ ॥
हितैपो श्रीरामचन्र जी के ये वचन खुन, सीता जी, पति
नत धर्म की जानमे वाली .श्रत्रिप्लीो-अरदुदया- के “साथ
गयीं ॥ १७॥ '
शियिलां बलितां इद्धां जरापाण्डरमूपभाम ।
कं

सतत॑ वेषमानाजीं प्रवाते कदछी यथा | १८ ||


अनुदवा ज्ञी का शरीर, बुढ़ापे "के कारण शिथिल्त “हो गया
था, सव॒ शरीर की बाल सिकुड्द गद्नी थीऔर सिर के वाल सफीद्‌
ही गये थे । हवा के वेग से काँपते हुए केलेकेपेड़ को तरह, उनका
शरोर सदा काँपा करता था ॥ १८ ॥
संप्तदशोत्तरशततमः सर्गः ११११

वां तु सीता महाभागामनत्ष्यां पतितरतार ।


अभ्यवादयदत्यग्रा सव॑ नाम समुदाहरत! ॥ १९ ॥
उन प्रहममाष्यवतों और पतिवता भ्रतुद्यया जी का, सीवा जी
ने अपना नाम ले कर प्रणाम किया ॥ १६ ॥
[ ने|ह--धम शास्त्रमें जद्दाँ ॥रणात फरने फी विधि लिखी है, वहाँ
प्रयास करने वालों के वामोच्ारण पुर्वेक प्रणाम करने की पिधि निर्दिष्ट है ।
यथा--४ अम्लुक योत्रोलब्रो5ह अमुक शर्माझह जभिवादयामरि |? ]
अभिवाद् च पैदेही तापसीं तामनिन्दिताम !
बद्घाज्नलिपुटा हुए! पर्यपृच्छदनामयम्‌ || २० ॥
है उतर भ्रनिन्दिता तपस्थिनी जो के वेदेही ने प्रणाम करके,
तदुपरान्त द्वाथ जे!ड़ और असक्ष दो उनसे कुशल प्रश्न दिया ॥१०॥
ततः सीतां महाभागां दृष्टा तां प्मचारिणीम ।
सान्वयन्लब्रवीडुद्मा दिश्या' पममवेक्षसे! ॥ २१ ॥.
घर्मचारिणी और महासाग्यवती सीता जी को प्रणाम करते
और कुशलप्रश्न पूछते देख, अब्ुुद्पा जी ने धीरज बँधाने के"
लिये सीता जी से कद्दा -दे सीते |यह बड़े सोभाग्य की बात है
कि; तुम पतिब्रतधर्म की भोर भत्री भाँति ध्यान वैती दा ॥ २१॥
त्यक्ता ज्ञातिजनं सीते “ानभृद्धि च मानिनि+# |
"अवरुद्ध बने राम॑ दिश्या* त्वमुनुगच्छति || २२ ॥
) समुदाइरत्‌-प्रणाम विधिविवेज्ञास्यासास | ( क्षि० ) रे विश्या--
भास्येन । ( गो० ) ३ घसंसचेक्षते--पातिति्य धमंम्रवधानेत समीक्षते ।
( गो० ) ४ मानं--अहंकार | (गो०) ५ धवस्द--नियुक्ते |( श्षि० )
६ दिद्या--भाग्यमेतत्‌ । ( श्लि० ) # पाठान्तरे-- साम्रिति ? |
श्र अयेष्याकायडे
हैमानिनों !तुस्दारे लिये यद बड़े ही सोभाग्य को वात हैं
कि, तुम अपनी ज्ञाति वालों का, राजकुमारी दोने के अद्ृ्भार का
मऔर घन सम्प्ि के ध्याग कर, वनवासी श्रोसम की भ्रद्युगामिनी
हुईहो॥ २२ ॥|
नगरस्थों वनस्थे! वा पापों वा यदि वा शुभः । ्भि
यात्तां द्वीणां प्रिया मता तासां छाक्ा महोदया; ॥२३॥|
० ० 6 ८ 6 ७ हम

पति बन मेंरहे अथवा नगर में रहे, पति पापी हे अथवा


पुण्यात्मा दी ; जे लो अपने पति से प्रीति रखतो है, वह उत्तम
सम लोकों को प्राप्त दोती दे ॥ २३ ॥
हुशीलः कामहतता वा पनेवा |
& ०] चर परिवर्जित

द्वीणामायस्व॒भावानां परम देवत पति! ॥ २४७ ॥


भक्ते हो पति छूर खमाव का दो, कामी हा, धनद्वीन दा, किन्तु
श्रेष्ठ स्वभाव वाली ल्ियों के लिये उनका पति देवता के ठुल्य है
झयवा पति ही उनका परम देवता है ॥ २७ ॥
नाते विशिष्ट पह्याप्रि वान्धर्व विमृशन्त्यहम ।
'सबत्र योग्य वदेंहि तप कृतमिवान्ययम्‌ ॥ २५ |)
ए योग्य बी

है बैंदेही ! मेंने भली भाँति विचार कर देला, परन्तु पति से


अधिक ज्यों का वन्धु कोई नहीं पाया। क्योंकि पति सद अव-
स्थाओं में,अक्यय ठप को तरह, पत्नी कऋ रा करने में समर्थ
है॥ २५ ॥
न ल्ेवमबगच्छन्ति गुणदापमसत््रिय; ।
(३
कामरवक्तव्यहृदया भठनावाइचरन्ति याः ॥ २६ ॥
पु

१ सर्वत्रयेश्यं--सर्वावस्थासुरसणसमर्थ । ( यो० )
रे सप्तदरशात्तरशवतम्ः सगेः १११३
हेवैदेही !काम्रासक, पतियों को स्वामिनों ढुश ल्लियां, भज्नाई
बुराई का विचार नहीं करती ॥ १४६ ॥
पाप्छुवन्ययग्थ्व पर्स च पधिलि ।
अकायबगमापन्ना! स्रिये। या। सल्ु तहिपा! ॥२७॥
देमेधित्री |ऐसी स्लियां निश्चय ही श्रनकरने क्षामों मेंफेस,
अपनी निन्‍्द्ा करवातो और पमश्नण्ट भी दोतो हैं ॥ २७ ॥
लद्धिपास्तु गणेयक्ता दृष्लोकपरावराः |
स्लिय! सगे चरिष्यन्ति यथा प्मृक्ृतस्तथा ॥ २८ ॥
किन्तु तुम्दारी तरह जिन गुणवतों स्त्रियों ने संसार के
अच्छे बुरे कर्मा को ज्ञान लिया है, थे, पुणयकर्मा पुरुषों को तरह
स्वगप्राप्त करती हैं ॥ २८॥
तदेवमेनं त्वमनुत्र॒ता सती
प्रखिवतानां समयानुवर्तिनी |
भव स्वभते! सह पमंचारिणी
शत्र धर्म च ततः समाष्य्यसि ॥ २९ ॥
इति सत्तदशोत्तरशततमः सगे ॥
है सती ! इसी प्रकार तुम पति के कहने में चल और पति-
बताओं के आचरण करती हुईं,श्रपते पति की सहधर्मियी दो।
ऐसा करने से तुम्हें यणऔर पुणय दोनों मिल्लेंगे ॥ २६ ॥
अ्रयेध्याकायडट का एक्र से सभह्वाँ सर्ग पूरा हुआ |
नाई
भ्रष्टावशोत्तरशततमः सगे:
>+->३0६०७-

सा ल्वेबमुक्ता वेदेही त्वनसूयानसूयया |


प्रतिपृज्य बचे मन्द प्रवक्‍तुम्रुपचक्रमे ॥ १ ।॥
जब निन्दारदित अन्ुघुया ने इस प्रकार कहा, तब सीता जी
उनके कथन का अनुमेद्न कर धीरे से वाली ॥ १॥
नैतदाश्चयमायाया यन्मां त्वमनुभाषसे ।
विदितं तु मयाप्येतद्यया नाया पतिगुरू ॥ २॥
हे भ्रायें !आपका मुझे इस 'प्रकार का उपदेश देना--काई
ग्राश्व॑र्य की वात नहीं है। परन्तु में भोयद जानती हूँकि, बारी का
पति ही गुरु दाता है॥ २॥ ४
यद्यप्येष भवेद्धतां ममायें हेत्तवर्जितः ।
!अद्ेधमुपचर्तव्यस्तथाप्येष मया भवेत्‌ ॥ ३ ॥
यद्यपि पति अच्छी वृत्ति सेहीन और दरिद्र ही क्यों न दो,
तथापि मु जैसी स्वियों के उसके प्रति द्वेघी भाव न रखना
चाहिये अर्थात्‌ पति के साथ प्रोतिपूर्वक वर्ताव करना चाहिये ॥३॥
कि पुनये गुणरइल्लाध्यः साजुक्रोशे जितेन्द्रियः ।
स्थिरातुरागा धममोत्मा 'मात्वत्पितुवत्मियः ॥ ४ ॥
) धहोध--द्वेधोभावरदित (गो०)
। २मातृवठपितृवश्िय:--अच्यन्तद्दित
परत्वेन | (गो० )
ग्रशद्शेत्तरशततमः तर्गः १११४
«.. फिर जे पति गुणवान होने के कारण सराहनोय है,दयावान्‌,
हित घिरानरागो, घर्मज्ञ ग्रौर माता पिता की तरह प्रत्यन्त
देते तत्पर है, उसका ते कहना ही क्या है॥ 9७ ॥
यां हत्ति ब्तते राम! कै!सल्यायां महावरू: ।
तामेव टृपनारीणामन्यासामप्रि वर्तते | ५ ॥
.ढ. , पैखिये, भ्रीरामचन्ध जी को जे। भावना अपनी जननी कौशल्या
मेहै ं ,उनकी वही भावना मद्गाराज़ की श्रन्य सब रानियों मेंभी है?
अथत्त उनके भो शोराम निञ्ञ मातृबत्‌ समझ उनके साथ माता
| व्यवदार करते हैं ॥ ५ ॥ *
पकद्व्ष्टास्वापि स्रोप दपेण पवत्सल/ |
पातृबद्वतते वीरो मानमुत्हज्य पमवित्‌ ॥ ६ ॥
(0

. इतना ही नह ीं -क िन ्त ु, मह ार ाज दृ शस ्थ ने जि न द् िप ों की
ओर एक वार भो प्राँज् उठा कर देख लिया श्र्याव भपनी स्री
पान कर देखा, उन स्त ्रि यों को भी मह ार ाज के प्य ारे वी रव र धर ्म श
भीरामचन्ध मातूबद सम्मान की दुष्ट से देखते हैं॥ ६.॥
आगच्छन्त ्य ाश ्न व ि ज न बन मे व॑ मय ाव हस ्‌ ।

समाहि व े ख श ् र व ा च हृ दय े तद ्भ ुत मह ॒त ्‌ ॥ ७ ॥ , ,
मेंज्ञव इस भयानक नि र् मम ब न क ा भा ने लग ी; त ब सा स”
कीशल्या जी न े भ ा प क ी त र ह मु क् के ज ो उप दे श दि या थ ा , व ह प् रे रे
हदय मेंहैअर्थात ्‌ मे रे ह द ॒ य प ठ ल पर अद ्ल ित है ॥ ७ ॥
पाणि ष ् द ा न क ा ल े च यत ्य ुर ा लव मर िस ल् रि यो |
अज ुश िष ्ट ा जन न् या र् मि वा क् य त द प ि म ेपु तम ्‌ ॥ ८ ॥
२११६ अंयाध्याकायडे

विवाह के समव घम्लनिन्‍्क्रे सामने मेरी माता ने तुक्के जे उपदेश


दिया था, चह भी छुक्ते वाद दे ॥ ८ है
नवीक्ृतं च तत्सवे वाक़्येस्ते ध्मचारिणि !
पतिशुअपणान्नायास्तपा नान्‍्यद्विधीयते ॥ ९ ॥
है धर्मचारिणी ! पतिसेया हो देड़ ली के लिये इसरो तपस्या
नहीं ह--इत्यादि उपदेश जा मेरे उन्छुवान्धर्यों नेमुझे दिये थ,
इनका आपने पुतः (झाज़ ) मेरों रुप्ृति में ताजे (नवीन ) कर
दये॥ ६१

सावित्री पतिशुश्॒पां कला स्वगें महीयते |


तथाइत्तिथ याता त्व॑ पतिझुथ्रपया दिवम्‌ ॥ १० ॥
इंखिये, सावित्री अपने पति की सेवा कर के ही, रवर्ग में, झ्लादर
ग्राप्त कर निवास्त करती हैं। इसी प्रकार ग्राप भी पतिलेवा
स्वर्ग पावेंगी ॥ १० |
वरिष्ठा सबनारीणामेषा च दिवि देवता |
रोहिणी न बिना चन्ध मुहृतमपि दृश्यते || ११ ॥
सद द्िों में श्रेष्ठ और स्वर्ग को देवों रोहिणों भी, चन्द्रमा डे
दिना एक क्षण भी नहीं देख पड़ती ॥ ११ ॥
एवंविधाब प्रव॒राः स्वियो मतरदबताः ।
देवछाके महीयस्ते पृण्येन स्वेन कमंणा ॥ १२ ॥
इसों प्रकार की और भी अनेक उत्तम द्धियां, जा दृढबत घर्म
धारण करने वालो हैं, वे भ्रपते पुययक्रमों के प्रमाव से रुप में
जाता
हैं॥ १२॥
भ्रशद्शीत्रशततमः सगेः १११७

ततेश्नत्या संहृष्ठा भुलाक्त॑ सीवया वच! ।


शिरस्पाप्ताय चोवाच मेयिल्ों दषयन्त्युत ॥ १३॥
सोता ज्ञो की ये बातें छुन, जनुलुया जी दृषित हुईं और सीता
ज्ञी का मस्तक घूघ उनके दृ्षित कर, कहने लगीं ॥ १३ ॥
नियमर्विविषेराप्त तपे हि महदरित मे ।
तत्संश्रित्य व सीतेच्छनदये ला शुचिस्मिते ॥ १४ ॥
हैसीते | मेने अनेक प्रकार के बतनियम्र जादि का पालन कर,
जा तपःफल सश्चित हिया हैं;वढ़ याड़ा नहीं वहुत अवि# है।
ध्रतः हैशुचिस्तिते !उस तपपफज के वल्त मैंतुझे बर देना चादती
हैंसा तू वर माँग ॥ १४ ॥
उपपन्न मनेजं च वचन तव मेथिललि |
प्रीता चास्म्युचितं कि ते करवाण ि अवीहि मे ॥ १५ ॥
फर्योंकि देमैथिली ! तूने जो उद्चित पं मनोहर वचन कहे
हूँ,उनसे मेंहरे ऊपर बहुत प्रसक्ष हैं। श्रव तू बतल्ा कि, में तेरा
क्या प्रियकारय के ॥ १४ ॥ |
तस्यास्तदचन भ्रुत्वा विस्मि ता मन्दवि स्मया ।
* कृतमिल्मब्रवीत्सीता तपोवल् समन्वि ताम्‌ ॥ ६६ ॥
पतिवतधर्म की जानने वाली तपेवल से युक्त अनुदूध ा जी
के यंद वचन छुन, सीता जी ने विस्मि त हो तथा मुसक्य ा कर,
कट्दा कि, आपके धहुप्रह ही से मेरी सव कामनाए ँ पुर होंगी ॥१६॥
सा लेबपुक्ता पर्मज्ा वया प्रीवत राज्मव व्‌ | .
सफर च पह ते हस्त सीते करेम्य हम्‌ ॥ (७॥
१११८ छ्रये्याकाणडे
पतिब्रतथम की ज्ञानने वाली प्रनुख्या जी सीता ज्ञो के यह
वचन खुन, उन पर और सी अधिक प्रसन्न हुई और वेल्ीं--हे
सीते ! तुझे देख कर मुझे जे हर्ष हुआ है, उसके अनुरूप उसे
मेंप्रचश्य सफल करूँगी ॥ ९७॥ -
इदं दिव्य॑ बरं माल्यं वस्तमाभरणानि च।
अड्गरागं च वेदेहि महाई चानुलेपनम्‌ | १८ ॥
यह उत्तम दिव्य माला, बस, भूषगा, श्रड्राग तथा मूल्यवान्‌
उधटठन, जे मेंदेतो है, इनसे तेरे झेग छुशोमित होंगे ॥ १८ ॥
मया दत्तमिंदं सीते तव गात्राणि शेभभयेत्‌ ।
!अनुरुपमसंक्िष्ट॑ नित्यमेव भविष्यति ॥ १९ ॥
अड्गरागेण दिव्येन लिप्ताजजी जनकात्मजे |
शेभयिष्यति भर्तारं यथा श्रीर्विष्णुमव्ययम्‌ ॥२०॥
है जनकनन्दिनी ! इस वस्तुओं का नित्य व्यवहार करने से भी
ये कभो मैली नहीं होगों और तेरे शरोर के लिये ठीक होंगीं ओर
तेरे अंगों कोशोभा बढ़ावेंगी | मेरे दिये हुए इस दिव्य अगराग के
आपने अंगों में लगाने सेतुम अपने पति के उसी प्रकार शामित'
करोगो जैसे लक्ष्मोदेवी नाशरहित भगवान श्रीविधो] के शोमित
करती हैं॥ १६ ॥ २० ॥ |
सा वद्धमड़रागं च भूषणानि सजरतथों ।
मैथिली प्रतिनग्राह प्रीतिदानमनुत्तमप ॥ २१ ॥
५ गानकी जी, ने भनुदुता जी के दिये हुए उत्तम प्रेमापहार वल्ल,
अंगराग, आभूषण और मालाशभ्रादि को ग्रहण किया ॥ २१॥
१ अनुरूप---तद॒यान्नानुरुप । (गो० ) २ क्षसंक्षिष्ट--अवाधिवशोम-
मित्यय: । ( ग्रो० *
अद्शात्तरशततमः सर्गः १११६
प्रतिग्ह् च तत्सीता प्रीतिदानं यशरिविनी ।
शिक्षष्टठाज्लिपुटा तत्र समुपास्त तपोधनाम ॥ २२ ॥
यशखिनों सीता ने भनुछुया जो फे दिये हुए, उच्त प्रमापहार
का अहण किया और हाथ जोड़ कर तपत्विनी प्रद्॒दु॒या के पास
बैठी ॥ २९ ॥
तथा सौतामुपासीनामनसूया रहवता ।
वचन प्रष्ठुमारेभे कयां कांचिदनुपियाम# ॥ २३ ॥
जानकी जी को पास बैठी देख, दृढ़ब्त धारण करने वाली
झनुषुया जी सीता जी से फोई मनेरञ्षन वात छुनने को इच्छा से
पूछने लगीं ॥ २३ ॥
स्वयंपरे किल प्राप्ता त्ममनेन यशस्विना ।
राषवेणेति मेसीते कथा श्रुतिम॒पागता ॥ २४ ॥
हैआनकी |इन यशरुत्री औरामचनद्र ने तुमको स्वयंवर में
पाया यह कथा मेंसंत्तेप से तो छुन चुकी हैं ॥ २४ ॥
तां कथां श्रोतुमिच्छामि विस्तरेण च मैथिल्ि ।
यथाज्जुभूतं कारत्स्येन तन्‍मे त॑ वक्‍तुमहसि ॥ २५ ॥
किन्तु हैमेथिली ! इस बृत्तान्‍्त को में विस्तार पूर्वक खुनता
चाहती हैं। से जे कुछ इआ वह सम्रध्त मुझे छुनाओ ॥ २४ ॥
एयमुक्ता तु सा सीता तां ततो धर्मचारिणीश।
श्रयतामिति चोक्‍्ता वेकथयामास ता कयाम्‌ ॥२३॥
सीता जी ने, अजुघूया ज्ञी केये वचन छुन, धर्मचारिणी
तपरिवनी भ्रनुद्यया जी से यह कद्दा कि, खुनिये वह धुचान्त
छुनांती हैँ ॥ २६॥
# पाठान्तरे-- कांबित्ययकधासनु *!
११२० धयेध्याकायडे

मिथिल्‍ाधिपतिवीरो जनके नाम धर्मग्रित्‌


प्षत्रधर्मे गिरते न्‍्यायतः शास्ति मेदिनीम ॥ २७ ॥
सीता जी वालॉ--मिथला के अधिपति, वीर और घरमढ
मद्दारात जनक, त्ात्रकर्तव्य पालन में सदा तत्वर रहते हैं, ओर
न्यायपूर्यक राज्य का शासन $रते हैं ॥ २७ ॥
तस्य छाड्लदस्तस्य कपत; क्षेत्रमण्डलम ।
अहं किलेात्यिता भित्त्वा जगतीं पते! सुता ॥२४८॥
यक्ष के लिये यक्षभूमि का संस्कार करने को जब दल हाथ
में के वे केत्र जातने जग, तव मेंएथितों का भेद कर, उनको पुत्री
के रूप में निकल ध्रायो ॥ झट 4]
स॒ मां दृष्टा नरपतिमरुष्टिविश्षेपतत्पर) ।
पांछुकुष्ठितसवाज्ञी जनके विस्मितो3भवत्‌ ॥ २९॥
उप्त समय राजा जन जे मंत्रपाठपूर्वक मुट्ठी में लेओषधि
के बीत थाने में तत्पर थे, भेरे सारे शरीर में धूल लगी देख,
विस्मित हुए ॥ २६ ॥
!अनपत्येन च सनेहादड्ूमारोप्य च स्वयम्‌ |
म्ेयं तनयेत्युकत्वा# स्नेही मयि निषातित! ॥ ३० ॥
सन्तानहीन होने के कारण, उन्होंने स्नेह से स्वयं मुर्ती|उठा
अपनी गेदो में लिया और वह कहा कि, यह मेरी बैदी है-मेरे
अपर बड़ा स्नेह करने लगे ॥ ३० ॥
अन्तरिक्षे च वातुक्ताप्रतिमामाजुषी किछ |
एपमेतन्नरपते घर्मेंण तनया तव ॥ ३१॥
३ अनपत्येनचतेन--हनेद्ान8्मा भारैष्
स प। (गरो०
# पाठान्तरे-- तनयेलक्ता * ।
भ्रष्टदशीत्तरशततमः सगे: ११२१
उस सम्रय ब्राकाश से मनुष्य जैसो वेली में यह वचन छुन
पड़े कि--दे राजन ! निश्चय हो यह तुम्दारी घर्मगुनी है॥ ३१॥
ततः प्रहष्टो धर्मात्मा पिता मेमिथिलाधिपः ।
!अवाप्तो विपुलाशृद्धि मामवाप्य नराधिष ॥ ३२ ॥
तब ते मेरे धर्मात्मा पिता पम्रिथि्ञाधीश बहुत प्रसन्न हुए
भर मेरे मिलने से बरेत्र कीबड़ो समृद्धिपा हुई॥)३१॥
दत्ता चास्मीश्वदेग्ये ज्येह्षाये पृण्यकर्मणार |
तया संभाविंता" चास्मि स्निग्यया मात्सौहदाद ॥३१॥
सदा यक्षातुठ्टान करने वाले महाराज जनक ने मुझे श्रपतरी
पटरानी के जे। सन्‍्तान की इच्छा रखती थीं, ईप्सित-पस्तु की तरह
सॉप दिया। वे आदर और स्नेह सेमाता जैसे श्रतुराग से मेरा
जालन पालन करते क्वर्गी ॥ रे३े ॥
'पतिसंयेगसुलभ वये दृष्टा तु मेपिता ।
चिन्तामभ्यगमहीने! वित्तनाशादिवाधनः ॥ ३४॥
छुके वियाह करने के येग्य उम्र मेंपहुँची देख, विता जी उसी
प्रकार चिन्ताग्स्त श्रार त्रिकत हुए, जिस प्रकार धन के नाश से
निधन महुष्य विकत श्र चित्ताग्रस्त देता है ॥३४॥
सदशाधापकृष्टाच लेके कन्यापिता जनातू |
अधर्षणामवामोति शक्रेणापि समे भुवि ॥ ३५॥
१ मह्ामातरं तस्य मद्दती सम्ृद्विजातिति भाषः ! (२०) २ इृष्टदेग्यै---
--ज्ावल्े देग्ये | (यो० ) यद्वा सन्वानेच्छावती देग्ये । (रण ) ३ पुण्य-
कमा“ मनवरतयज्ञादिकमंयुक्तेतजनकन। ( गो० ) ४ समाविता--
संबर्धितेशर्थः | (यो० ) ५ प्रतिसंबाश सुखमं--पागिप्रदणादितं । (रा० )
६ प्रभपंगां--तिरस्कियां । (यो? )
चा० रा०--७१
११२२ श्रवाष्याकायदे
क्योंकि, ऋन्‍्या का पिता चाहे इन्द्र केसम्रान ही क्‍यों न होः
और वर के पत्त के लाग वरावर या द्वीन दर्जे ही के क्‍यों न हों,
किन्तु कन्या के पिता का, नोचा द्वी देखना पड़ता है॥ ३५ ॥
ता पषणामद्रस्थां दृष्ठा चात्मनि पार्थिव! ।
चिन्ताणवगतः पारं नाससादापवे यथा ॥ ३६ ॥
अतः मेरे पिता उस तिरस्कार के होने में कुछ भी घिलस्व न
देख, चिन्तासागर में निम्न्न दो गये थ्रोर नोकादी न जन की तरह
वे उस चिन्तासागर के पांर न जा सके ॥ ३६ ॥
अयोानिजां हि मां ज्ञाल्रा नाध्यगच्छद्धिचिन्तयन्‌ ।
सदृशं चानुरूपं च महीपालः पर्ति मम ||३७ ॥
पिता जी, मुझे अयेनिजञा ज्ञान मेरे सद्ृश और मेरे येग्य
चर, बहुत हृढ़ने पर भी न पा सके। झतः उनके इस वात क॑
सदा चिन्ता वनी रहती थी ॥ ३७ ॥
तस्य बुद्धिरियं जाता चिस्तयानर्य सन्ततम्‌ |
स्वयंवरं तनूजायाः करिष्यामीति घीमत+॥ रे८ ॥
निरन्तर साचते साचते मेरे बुद्धिमान पिता ने यह विचार!
कि, इस पुत्री के विवाद के लिये स्वयंवर की याज्ञना करना उचित
हैं॥ ३८॥ ट
मह।यज्ञे तदा तस्य वरुणेन महात्मना |
हढ 0. बा
दत्त पनुवरं प्रीत्या तृणी चाक्षयसायकों ॥ ३२९ ॥ ..
पूर्वकाल मेंकिसी समय किसो मद्दायज्ञ में मेरे पिता ज्ञी के
किसी पूरे के, वरुण जी ने प्रीतिपूर्वक एक श्रेष्ठ धतुप, और
अत्तय वाणों से पूर्ण दो तरकस दिये थे ॥ ३६ ॥ - कं
अष्टादशोत्तरततमः सम... ११२३
असंचास्य॑ मनुष्येश् यत्नेनापि च गैरवात्‌ |
तन्र शक्ता नमयितु स्वप्लेष्यपि नराधिषा! ॥ ४० ॥
यद घनरुष इतना भारी था कि, अ्रनेक मनध्य मिल कर बढ़ा
प्रयत्न करने पर भी उसे सरका भो नहीं सकते थे, और राजा
क्षेग स्वप्न में भीउसके नहीं लचा सकते थे || ४० ॥
तद्धूनु) ग्राप्य थेपिच्रा व्याहृतं सत्यवादिना |
समवाये नरेद्धाणां पृ्वमामख्य परर्यिवान्‌ ॥ ४१॥
मेरे सत्यवादी पिता मद्ाराज जनक ने पुरुषानुकम से वह धनुष
पाया था | से उद्धोति राजाशं के निमंत्रण दे एकश्न किया श्रोर
फिर उन सब के सामने वेले ॥ ४१ ॥
इंद च धनुरुध्रम्य सज्यं यः छुरुते नर! |.
तस्य मे दुहिता भार भविष्यति ने संशयः ॥४२॥
है राजा क्षायों |आप ज्ोगों में सेजे! पुरुष इस धनुष के
उठा कर, इस पर रोदा चढ़ा देगा, मेंश्रपनी पुत्री उसीके व्याद
दूँगा। इसमें कुछ भी सब्देद नहीं दे ॥ ४२ ॥
तब दृष्टा धनु।भ्रेष्ठ गौरवादूगिरिसब्रिभग ।
अभिवाद्य र॒पा जशुरभक्तास्तरय तोलने ॥ ४३ ॥
राजा कांग पदाड़ कीतरह भारी उस धनपषश्रेष्ठ को देख,
धौर उसे उठाने को प्रपने में शक्ति न पा कर, घनुष को प्रणाम
कर के चक्ते गये ॥४३ ॥
सुदीधस्य तु कालस्य रामवेश्यं महाद्रुतिः |
'विश्वामित्रेण सहित यह्व दरष्टंसमागत! ॥ ४४ ॥
११२७ अयेधष्याकायडदे

स्वयंवर होने के वहुत दिनों वाद यह महाद्युतिमान्‌ श्रीरामचद्ध


जी विभ्वामित्र ज्ञी केसाथ, पिता जी का यक्ष देखने प्राये॥ ५४ ॥
लक्ष्मणेन सह भ्रात्रा राम; सत्यपराक्रम; ।
विश्वामित्रस्तु धर्मात्मा मम पित्रा सुपृजितः ॥ ४५॥
मेरे पिता जी ने भाई लक्ष्मण के साथ आये हुए सत्यपराक्रमी
शरीरामचन्र जी और धर्मात्मा विश्वामित्र ज्ञी का भली भाँति भाद्र
सत्कोर किया ॥ ४५ ॥ ;
. प्ोवाच पितरं तत्र भ्रावरों रामहक्ष्मणों |
स॒तो दशरथस्येमा पनुद्शनकाइफ्षिणो ॥ ४६॥
तदूनन्तर विश्वाप्रित्र जी ने मेरे पिता से कहा कि, ये मद्दाराज
दशरथ के दोनों पुत्र भीराम भोर लद्टमण हैंभर यह श्रापका घनुष
देखना चादते हैं॥ ४६ ॥
धनुदंशय रामाय राजपुत्राय देविक्म |
इत्युक्तस्तेन विभेण तद्धुलु। समुपानयत्‌ ॥ ४७ ॥
अतः आप भीरामचद्ध जी के वरुण का दिया इआ वह धनुष
दिखला दीजिये। विश्वाप्रिश्त जीकेयद कहने पर, ज्ञनक जी ने
चह धनुष मंगवा दिया ॥ ४७७ ॥
निमेषान्तरमात्रेण तदानम्य महावकतः ।'
ज्यां समारोप्य झटिति पूरयामास वीयवान्‌ ॥ ४८ ॥
और पराक्रमी भीरामचन्द जी ने पत्रक मारते उस धनष को
नवा, उस पर ऋठ रोदा चढ़ा दिया और उसे ८टेरा ॥ ४८ |
१ दैवक--देवदत | ( रो०
अणदशेत्तररततमः सर्गः ११९६

तेन पूरयता वेगान्मध्ये भ्म॑ द्विपा पु) ।


तस्य गब्दोध्मवद्धीम। परत्ितस्याशनेरिव ॥ ४९ ॥
स्कार देने के लिये जोर सेडारी खीँचने के कारण बीच से
इसके दो टुकड़े दो गये। उसके टूटने से ऐसा भवद्भर शब्द हुआ
मातरों कहीं वज्ध गिरा दो ॥ ४६ ॥
'तते।ऋं तत्र रामाय पित्रा सल्याभिसन्धिना |
निश्रिता दातुमुध्म्य जलभाजनमत्तमम ॥ ५० ॥
तदूनात्तर मेरेसत्यसन्ध पिता ने मेरा दान करने के लिये
उत्तम जलपात्र मेंगवाया झोर श्रीरामचद्ध को मुझे देने को वे
उद्यत हुए ॥ ४० ॥
दीयमानां न तु तदा प्रतिजआह राषवः ।
अविज्ञाय पितुश्छन्दमयोध्याधिपते! प्रभोः ॥ ५१ ॥
किन्तु ऐेने के लिये उच्चत द्वोने पर भी, ध्रयेध्याधिपति पपने
पिता का प्रमिय्राय जाने विना, भ्रीरामचन्द्र जीने मुझे श्रहण
करना रुवीकार न किया ॥ ५१ ॥
तत! इवशुरमामल्य हद्ध॑ं दशरथ शपय ।
मम पित्रा त्वई दत्ता रामाय विदितात्मने ॥ ५२ ॥
तब मेरे पिता ने मे रे वृ द् ध सु र मह ार ाज दश रथ जी की
निर्मेत्रण भेज बुलवाया भ र उन की अन ुम ति से जग त् ‌ मे ं प् रख िद
( अथवा धात्वेता )ओ य म च द ् जी के पक े सो ंप दि या धर ्थ ात ्‌
उनके साथ मेरा विवाद कर दिया ॥ ५२॥ >
१ छा्द--अमिग्रायं । ( थो० )
११२६ शवाध्याकाएडे

मम चैवानुजा साथ्वी ऊर्मिछा प्रियदशना |


भायायें छक्ष्मणस्पापि दत्ता पित्रा मम खयम्र ॥ ५३ ॥
प्रैयी छोटी, सीथी सादी आर छुन्दर वद्दिन उम्मिल्ा को, मेरे
विवा ने खय॑ लद्मण की भार्या रुप में दिया। अर्थात्‌ लक्मण के
साथ उसका भी विवाद कर दिया ॥ ५३ ॥
एवं दत्तास्मि रामाय तदा तस्मिन्खयंबरे ।
अनुरक्तास्मि धर्मेण पति वीयबतां वरम्‌ ॥ ५४ ॥
इति अशदशेतचरशततमः सगे: |
हेतपाधने | मेंउस स्वयंवर में इस प्रकार श्रीरामचद्र जी
के दी गयी। तव से में धर्मानुसार पराक्रमवा्नों में श्रेष्ठ अपने
पति श्रीयमचन्द्र जी की सेवा करने मेंअनुरागिनी हैँ ॥ ५४ ॥
भ्रयाध्याकायड का एक सो अठारहवां सर्गसम्राप्त हुआ ।
न-+- मं है

एकोनविशत्युत्तरशततमः सगेः
रमन *००३
€ै)००७०...

अनम्रया तु थमा श्रुला वां महतीं कयाम्‌ ।


पयध्यमत वाहुम्यां शिरस्पाप्राय मेथिदीम्‌ || १ ॥
पतित्रताधर्म को ज्ञानने वाली अनछुया ज्ञी नेसीता के विवाह
का सविस्तर वृत्तान्त छुन, जानकी जी का मस्तक घंधा शौर
दोनों द्वार्थों सपकड़, उनके अपने दृदय से जगा कर, कहा ॥ २॥
पएकानचिशत्युत्तरशततमः सर्गः ११३७.

व्यक्ताक्षरपर्द चित्र! भाषित॑ मधुर तयां।


यथा खयबरं ह॒त्त॑ तत्सवे हि भ्रुव॑गया ॥ २ ॥
दू ने खयंवर का जे समस्त वृत्तान्त, साफ़ साफ, मनोहर
और विचित्र रीति से कद्दा, से मेंने सव छुना ॥ २॥
रमेफं कथया ते तु हहं मधुरभाषिणि |
रविरर्तं गतः भ्रीमानुपेह्न रजनीं शिवाय ॥ ३ ॥
हैमधुरभाविणी | यद्यपि तेरी इस कथा के छुनने मेंमेरा मत
वहुत लगता है,तथापि भव से भगवान्‌ भ्रस्ताचलगामी हो चुके
और खुन्दर रात दोना चाहती है॥ ३ ॥
दिवस प्रतिकीर्णानामाहारा्थ पतत्रिगाम्‌ ।
सन्ध्याकाले निलीनानां निद्रार्थ श्रयते ध्वनि! ॥ ४ ॥|
कि
देखे न ! दिन भरभेजन को खोज मेंइधर उधर उद्ते हुए
पत्ती, सन्ध्या हुईदेख बसेरा क्ेने केलिये अपने अपने धोंसलों में
आ गये हैं। यद उन्हींका शब्द खुन पड़ता है॥ ४॥
एते चाप्यविषेकादा मुनय! कलशेयता। |
सहिता उपवर्तन्ते सलिलाप्खुतवस्कला:॥ ५॥
थे मुनि क्लोग स्नान कर भोंगे हुए वद्कल वद्ध तथा जल के
कलसे लिये हुए,,साथ साथ था रहे हैं॥ ५ ॥
कषीणाममिहेत्रेषष हुतेषु विधिपूर्वकम ।
कपेताज्ारुणा धूमो दृश्यते पवनेद्धृतः ॥ ६ ॥
! चित्रं--बह ुव िध न् यक ्ष वा वि श् वि प् ठम ्‌ | (श ि० ) २ मध ुर ं- -म ने हर । (क ि० )
११२८ ग्येष्याकायदे
ऋषियों के विधि विधान से किये हुए ध्प्निदीत्र का घुआ, जे
कपूतर की गरदन के रंग के सम्रान लात (घुमेलें लाल) वर्ण का दें,
वायु के वेग से आकाश की शोर उठता हुआ देख पड़ता है ॥ ६ ॥
अल्पपणा हि तरवे घनीभूता) समन्ततः ।
विपकृष्टेजपि देशेअस्मिन्न प्रकाशन्ति वे दिश! ॥ ७ ॥
ये सब अहप पत्तों वाले पेड़, जे यहाँ से दूर होने के कारण
साफ नहीं दिखलायी पड़ते, चारों ओर से अन्यकार के कारण
संघत ज्ञान पड़ते हैं ।दशाएं भी ऋषकार छा ज्ञान से प्रकाश
रहित हो गयी हैं। झथवा अंधेरा दवा ज्ञाने केकारण चारों श्रोर
दूर दूर जड़े हुए थोड़े पत्ते वाक्षे पेड सो सघन जान पड़ते हैं।
भ्रव किलो दिशा में भी उजियाला नहीं देख पड़ता ॥ ७ ॥]
'रजनीचरसत्त्वानि प्रचरन्ति समन्‍्ततः ।
तपावनगृगा देते रवेद्तीयेंचु शेरते ॥ ८ ॥
देखे! निशाचर चारों ओर घूमने लगे है. और तपेवन के झुग
अभ्निहात्र की बेदी के पवित्र स्थानों में पड़े से रहे है ॥ ८ ॥
संप्रहत्ता निशा सीते नश्षत्रसमलंकृता |
ज्योत्स्नापावरणअन्द्रों दश्यतेष््युदितेज्वरे | ९ ॥
देसीते ! देखे रात भी तारागयणों से भूषित दो थ्रा पहुँची ओर
चन्धमा भी चाँदनी फेलाता हुआ आकाश में उद्य हो रहा है॥ का
गम्यतामनुजानामि रामस्वानुचरी भव !
कि कयय
2 लकन्त ्वा हि मधु रं ल्य ाऊई
20/0केहकटेककी परि तोष िता ॥ १० ॥
3 27007आज
१ रमतीतरप्तत्वा--विशाचरा: । (शि० ) २ वेदितीयेंतु--पावन-
वेंदिपु | ( जिर )
पएकानविशत्युत्तरशततमः सर्गः ११५६
धव मेरी प्रभुप्रति से तुम्र ज्ञा कर भीरामचद्ध जी की सेवा
करो । तुस्दारों मनोहर कथावार्ता खुन मुझे बहुत ही सन्तोष
इुआ ॥ १० ॥
अलेंकुरु च तावत्व॑ प्रत्यक्ष मम्र मेयिलि |
प्रीति जनय मेव्त्सेदिव्यालड्रारशोमिता ॥ ११ ॥
देमैथिली !तुम इन ठिव्य प्रलंकारों के मेरे सामने ही धारण
फरे श्रौर इनसे भूषित दो, मेरी प्रसन्नता वढ़ाश्रा । भ्र्थात्‌ पुरे
प्रसन्न फशि ॥ ११॥

सा तथा समलंकृत्य सीता सुरसुतेपमा ।


प्रणम्य शिरसा तस्ये राम॑ ववभि्नत्ता ययो ॥ ११॥
तव देवकन्यां के तुल्य सीता जी उन धत्नड्ारों से धपने शरोर
के सजा कर और शजुसूया जी के चरणों में ध्रपता सीस रख,
( प्र्यात्‌ प्रशाम कर ) भीरामचद्ध जी के पास गयीं ॥ १२॥
तथा तु भूपितां सौतां ददश वदतांवरः ।
राघवः भ्र ीति दान ेन तपस ्वि न्य ा जह पे च॥ १३ ॥
वचन वालने वाल ों में श्रे ठ्ट भी रा मच द् जी सी ता जी को
भूषित देख, ध्र ुसू या जी के दिय े हुए प्रे म्ने पहार से बहु त प्रस न्न
हुए ॥ १३ ॥
न्य वेद यत् ततः सर् व सी ता रा मा य मेय िली ।
प्रीतिदान॑ तपरिवन ्या वस ना भर णस ्र जम ॥ १४ ॥
तदूनन्तर प्रुसूथा जी के दि ये हु ए प् रे मे एद ्द ार धर ्थ ात ्‌ बल ्र ,
श्रामूषण, माला आ द ि के मि लन े का वृ त् ता न् त सी ता ज ी ने शी रा म-
ह ११३० अयेध्याकाणडे
चन्द जी से कद्दा श्रथवा प्रेमेपद्वार की वस्तुएँ सीता जी ने श्रीराम-
चन्द्र ज्ञी कोदिखलाई ॥ १४ ॥ ह
प्रहएस््वमवद्रामो लक्ष्मणव महारय। ।
थेल्याः सत्कियां दृष्ठ मानुपेषु सुदुछ़भाग ॥ १५॥
मैशि सल्क्रियां ९

मनुष्यों के लिये अलभ्य, अनुसया जी के किये हुए जानकी जी


के सत्कार जी देख, भ्रोरामचद्ध थोर मदारथों लक्ष्मण वहुत प्रसन्न
हुए | अथवा अनुसूया जी ने जानकी जी का जे सत्कार किया,
वह मनुष्यों के लिये दुर्लभ है, श्रतः उसे देख धीरामचनद्ध ओ्रर
महावलवान्‌ लक्ष्मण वहुत प्रसन्न हुए । भ्रथवा मनुष्यों का दुर्लभ
जे वस्ाभूषण प्रेमेपद्वार में श्रमुसूया जी ने जानकी जी के! दिये
थे, उन्हें देख श्रीरामचन्द्र और मद्दावलवान लह्मण भ्रत्य्त प्रसन्न
हुए ॥ १५ ॥
ततस्तां श्री पीतः पुण्यां! शशिनिभानन! ।
अर्चितस्तापसे: सिद्धेर्वास रघुनन्दनः ॥ १६ ॥
तदनन्तर श्रीरामचन्ध जी ने तपत्वियों थोर सिद्धों सेसत्ता- |
रित हे, और प्रमुसया जी के दिये हुए वल्घाभरणों से भूषित '
चन्द्रमुत्ी सोता जो का देख, बह रात वहीं रह कर विताई ॥ १६ ॥
तस्यां राज्यों व्यतीवायामभिषिच्यर हुतामिकान्‌ ।
आपृर्छेतां नरव्याप्रों तापसान्वनगाचरान्‌॥ १७ ॥
जब रात वीती, और सबेरा दुआ, तथ दोनों पुरुषसिहों
ने स्नान और ,सल्ध्योपासन अग्निक्षेत्राद कर्मो से निश्चिन्त
? धुष्यां--अनुस्ूययापुण्ययकार
ालंांधीतां इृष्ट्चा |(रा५) २ अभिषिच्य
हुदाप्षिकानू-स्तात्वाकृतद्ैमान्‌ ।.( गो ) *
एकानविशद्युत्तरशततमः सर्गः ११३१
हैं, चनवाली तवस्थियों से प्रागे वन में जाने के लिये विदा
माँगी ॥ १७॥
तावूचुसते वनचरास्तापसा धर्मचारिण! ।
वनर्य तस्य सश्ारं राक्षस! समभिष्लुतम ॥ १८ ॥
तब धर्मचारी भर वनवासो तपस्वियों ने श्रीसमचन्द्र जी.से
कद्दा--दे राधव | इस बन मेंमलुध्यों को धूमना फिखा, स्तरों के
कारण बड़ा भयावह है। भ्रथवा राक्तसों के उपद्रव से यह धन
प्रदेश बढ़ी जेखों का स्थान दो रहा है ॥ १८ ॥
रक्षांसि एरुपादानि नानारुपाणि राधव |
बसम्त्यस्मिन्महारण्ये व्याह्ाथ रुधिराशना। ॥ १९ ॥
हैश्रीरामबन्ध !इस वन मेंनाना रुपधारी एवं नरमांसभेजो
रात्तस और रक्त पीने वाक्े हिसपशु रहते हैं ॥ १६ ॥
'उच्छिष्टं वा प्रमतत वातापस पर्मचारिणम्‌ |
अदन्लस्मिन्महारण्ये ताब्रिवारय राधव ॥ २० ॥
वे रात्तत और जंगली दिल्लपशु इस वन में किसी धर्मचारी
तपसी के कसी श्रपवित्र दशा में याग्रसावधान पाते हैंतो मार
कर का जाते हैं। धतः है रायव | आप इन दुों के मारें।
( राक्षस ध्रपविश्न दशा में रदने वाले तपरिषयों को ओर वन्य
जन्तु सिंह व्याधादि असावधान तपरिवियों के )॥ २० ॥
एप पन्‍्या महपीणां फलान्यहरता बने ।
2...
अनेन तु वन ढुगेगनतुं राघव तेक्षमम्‌
नाना
॥ २१॥
िूघवययय१

१ बच्छिष्ं--अशु्चि, | (रा? )
११३२ प्रयेध्याकायडे
हैरा घव ! इस रास ्ते से तप स् वी का ग वन में फल लेन े जा ते
हैं, श्रतः इस ो रास ्ते से प्र ापक ा भी इस दुर ्ग वन में ज्ञ ाना
डढीक है ॥ २१॥
इतीव ते; प्राज्ञकिमिस्तपस्विभि:
हिने। कृतस्वस्त्ययन! परन्तपश
बर्न सभाय॑। प्रविवेश राघव!
सलक्ष्मणः स्य इवाश्रमण्डलम॥ २२॥
इति पकानविशव्युत्तरराततमः से! ॥
जब तपर्वियों ने हाथ जेड भड्डज आशीर्वाद देकर इस
प्रकार कद्दा, तव श॒त्रश्नों के तपाने वाले श्रीराम और लत्मण ने
सीता जी सद्दित, उस दुर्गंम वत में, उसी प्रकार प्रवेश क्रिया,
ज्ञिस प्रकार छुयदेव मेघमणडल में प्रवेश करते है ॥ २२ ॥
अयेष्याकाय्‌ड का एक से उन्नीसवाँ सर्ग समाद्त हुआ ।
॥ भ्रयोष्याकागड समाप्त हुआ ॥
इल्प श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीय आदिकाब्ये
चतुविशञतिसद्तिकायां संदितायाम
भ्रयेध्याकागडः समाप्तः ॥

“+#४--

ज्गगिेगरहा रा:
गंभध्वे 07 ॥4अ9॥अ 807 पप्र॥5 ४६ ४0 हेधा०ग एक, उापाफंपत:
उप द्राप्रतज-+ऊ फ्+5ऊरु:रबनद-5८
॥ श्री ॥

श्रीमद्रामायण॒पारायणतमापनक्रमः
श्रीवेष्णवसम्पदाय!
जि ल--+

पवमेतल्ुरावू त्तमाख्यानं भद्रमर्तु व१ ।


प्रय्याइरत विश्वग्ध॑ व्न॑ विध्णे! प्रवर्धवाम्‌ ॥ १॥
ल्ाभस्तेषां जयस्तेषां कुतस्तेषां पराभ्षव:
गैषामिन्दीवरएयामे हृदयें सुप्रतिष्ठितः ॥ ३ ॥
काले वर्षतु पर्जन्यः पुथिवी सस्यशालिनी ।
देशा5यं ज्ञाभरदिता आह्मणाः सन्तु विमेयाः ॥ ३ ॥
कावरी वर्धतां काले काले वर्ष वासवः ।
भीरडुनाये। जयदु श्रीरज्ठभोश्र पर्धताम्‌ ॥ ४ ॥
स्वस्ति प्रजाभ्यः परिपालयत्तां
व्याय्येव मार्गेण मद्दीं महीशाः ।
गेल्राह्मणेभ्यः शुभमस्तु नित्य
ल्ेका। समस्ताः खुखिना भवन्तु ॥ १ ॥
महल का यल ेद ्ा य मह नो यग ुय ब् घय े ।
चक्रवर्तितनूजाय सा र् वम ौम ाय मज जु लम ्‌ ॥ ६ ॥
वैद्वेदान्तवेध ाय मर ैध श् या मअ मू तय े |
पुंसां मेहनकपाय पु एय श् लो का ब म ज ू ल म ॥ ७ ॥
( ३.)
विश्वामित्रान्तरद्गय मियिल्ान गरोपतेः |
भाग्याता परिपाकाय सव्यह्पाय मडुलम्‌ ॥ ८१
पितुमकाय सतत ध्रातृतिः सह सीतया ।
नन्दिताशिललोकाय रामभद्वाय मडुलम ॥ ६ ॥|
व्यक्साकेववासाय चित्रकूटविहारिणे ।
सेच्याय सर्वयम्रिनां धीरोदाराय मड़लम॥ १०॥
सोमित्रिणा च जानफ्या चापवाणासिधारिणे ।
संसेव्याय सदा भकता स्वामिने मम महुलम ॥ ११ १
दृशइकारण्यवासाय खगिव्तामरशन्रवे ।
ग्ृप्नराज्ञाव भक्ताय मुक्तिदायरतु मडुलम्‌ ॥ १२॥
सादरं शवरीदत्तफलमूलामिलाबिणे ।
सोल्म्यपरिपूर्णाय सचोद्रिकाय मड़लम ॥ १३ ॥
हसुमत्समवेताय हरीशाभीण्दायिने ।
चाल्िप्रमधानायास्तु महाघीयाय मडुह॒म्‌ | १४ ॥
श्रोमते रघुवीराय सेतूह्ड्डितसिन्धवे ।
जितराज्षघराजाय रणधीराय मड्रलम्‌ ॥ १४ ॥
थ्रासाद नगरी दिव्याममिषिक्ताव सोतया ।
राजाधिराजराज्ाब रामभद्राय मडुलम्‌ ॥ १६ ॥
महुलाशासनपरै॑दाचार्य पुरेगमैः |
सं्वेश्च पूर्वेराचायें: सत्कतायास्तु मड़लम्‌ ॥ १७ ॥
5
६)
साध्यस सदाय;
खस्त प्रजाभ्यः परिषात्नयत्ता .
स्याय्येन मार्गेण महीं महीशाः ।
गेब्राह्मणेन्यः शुभमस्तु नित्य
लेकाः समस्ताः खुखिने भवन्तु ॥ १॥
काके वर्षतु पर्जन्यः पुथियों सस्यशालिनो ।,
देशेयं क्षोभरदिता आरह्मणाः सन्तु निर्भया! ॥ २॥
लाभस्तेषा जयसतेषां कुतस्तेषां पराभवः !
यैषामिन्दीपरश्यामा हृदये सुपतिठितः ॥ ३ ॥
मल केसक्षेद्राय महनोयगुणाव्धये ।
चक्रवतितनूजाय साव॑मैमाय मडुलम्‌ ॥ ४ ॥
कायेन बाचा प्रनसेन्द्रियर्सा
बुदुध्याक्षना वा प्रकृतेः खमावातू।
फरोमि यद्य्सकल प
, , गारायणायेति समर्पयामरि ॥ ४ ॥
स्मातंसम्पदाय!
ल्त्ति प्रजञाभ्यः परिपालयन्तां
, स्याय्येन मार्गेण महीं महीशा! ।
गात् रा ह् मण ेभ ्य ः शु भम स् तु नि त् य ॥
लोकाः समस्ताः छुखिना भवन्तु ॥ १ ॥
काले चर्षतु पर्जन्यः पृथिवी संस्यशाक्षिनी ।.
देशा 5य ं ज् ञो भर दि तो आह ्य णा ः सन् तु वि भय ाः ॥ २।
श्रपुताः पुनिणः सन्तु पुनिणः उत्तु पोजिणः !
झध ना ः सध ना ः सन् तु जी वन ्त ु शर दा ं शत म् ‌ ॥ ३ ॥
(४)
चरित॑ रघुनाथरव शतकाडिप्रविस्तरप ।
एकैकमत्तरं धो महापातकनाशनम्‌ ॥ ४ ॥
श्गवन्रामायणं भक्‍त्या यः पादं पदमेव वा ।
सयाति बऋद्मणः स्थान॑ ब्रह्मणा पूज्यते सदा ॥ ५ ॥
रामाय रामभद्वराय यम्रचद्धाय वेधसे । ।
रघुनाथाय नाथाय सीतायाः पतये नमः ॥ ६ ॥
यन्मडुल सहस्ात्ते सर्वदेवनमस्छते ।
चृधनाशे समभचत्तत्ते भचतु मड्लम्‌ ॥ ७ ॥
मड़ल केासल्षेन्द्राय भदनीयगुणात्मने |
चक्रवर्तितनूजाय सावमैमाय मड़ूलम ॥ ८.॥
यन्मडुल सुपर्णंस्थ विनताऋब्पयत्युरा ।
अस्त प्राथयानस्य तते सवतु मजुलम्‌ ॥ ३ ॥
घम्ततेत्पादने दैत्यान्यता चन््धरस्य यत्‌ | न

थ्रद्तिमंडुल प्रादातत्ते भवतु मडुलम्‌ ॥ १० ॥


प्रीन्विकमास्पक्रमते विष्णयोरमिततेजसः ।
यदासीन्मडुल्ने राम ते भवतु मड़लम ॥ ११ ॥
आऋतवः सागरा द्वोपा वेदा लोका दिशश्च ते।
मडुलानि महावाहो दिशन्तु तव स्वंदा ॥ १२॥
फायिन वाचा मनसेद्दिये्वां
बुदध्यात्नवा वा पढत॑; समावात्‌।
करेमि यद्॒त्सकलं परस्मे
* बारायणायेति समर्पयात्रि॥ १३॥
5.

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