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सुल्तानों के राजत्व सिद्धान्त-मध्यकालीन भारत
सुल्तानों के राजत्व सिद्धान्त-मध्यकालीन भारत
विश्वविद्यालय परीक्षा में आने बाले महत्वपूर्ण प्रश्नों के उत्तरो का अनूठा संकलन HOME
B.A-I-History I
प्रश्न 12. सल्तनतकालीन सुल्तानों के राजत्व सिद्धान्तों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर - मध्यकालीन भारत में राज्य के स्वरूप के सम्बन्ध में इतिहासकारों में पर्याप्त मतभेद है। इतिहासकारों का एक वर्ग
राज्य को धर्म प्रधान मानता है, वहीं कु छ अन्य इतिहासकारों का मानना है कि मध्य काल में राज्य का स्वरूप सैनिक था।
परन्तु वास्तव में सुल्तानों ने अपनी परिस्थितियों के अनुसार राजत्व के सिद्धान्त निर्धारित किए थे।
बलबन का राजत्व सिद्धान्त
जिस समय बलबन दिल्ली के सिंहासन पर बैठा, सुल्तान पद की प्रतिष्ठा पूर्ण रूप से नष्ट हो चुकी थी। दीर्घ राजनीतिक
अनुभव ने उसे सिखा दिया था कि तुर्की अमीरों की शक्ति का नाश किए बिना सुल्तान न तो राजशक्ति का उपभोग कर
सकता है और न ही अपनी प्रजा के सम्मान का पात्र बन सकता है। अतः बलबन ने इस दुर्दशा का अन्त तथा ताज की शक्ति
और प्रतिष्टा में वृद्धि करने का संकल्प किया,
जिससे प्रजा के हृदय में आतंक कायम कर सके । बलबन दिल्ली सल्तनत का पहला शासक था जिसने अपने शासन को कु छ
निश्चित सिद्धान्तों तथा आदर्शों पर आधारित किया। राजत्व के सम्बन्ध में बलबन का सिद्धान्त राजा के दैवी अधिकार के
सिद्धान्त के सदृश था। उसने अपने पुत्र बुगरा खाँ के समक्ष इस सिद्धान्त की व्याख्या करते हुए कहा था, "राजा का हृदय
ईश्वरीय कृ पा का विशेष भण्डार होता है और इस दृष्टि से कोई भी व्यक्ति उसकी समानता नहीं कर सकता।"
बलबन का यह भी विश्वास था कि प्रजा से आज्ञापालन करवाने तथा राज्य को सुरक्षित रखने के लिए यह आवश्यक है कि
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सुल्तान पूर्णरूपेण निरं कु श हो। उसने अपने पुत्र बुगरा खाँ से कहा था, "सुल्तान का पद निरं कु शता का सजीव प्रतीक है।"
निरं कु श शासक के रूप में सफलता प्राप्त करने के लिए उसने निजी प्रतिष्ठा में वृद्धि करने का विशेष प्रयत्न किया। उसने खुद
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को पौराणिक तुर्की वीर तूरान के अफ्रासीयाब का वंशज घोषित किया।
बलबन ने सुल्तान के कर्त्तव्यों पर भी बल दिया, जिससे ज्ञात होता है कि वह प्रजा के कल्याण के प्रति सजग था। उसका कहना
था कि ईश्वर एक व्यक्ति को सुल्तान का पद इसलिए प्रदान करता है ताकि वह प्रजा की भलाई के लिए कार्य करे और अपने
कर्त्तव्यों के प्रति सदा. जागरूक रहे। यही नहीं, बलबन अपने अधिकारियों से भी यह आशा करता था कि वे ईमानदार,
न्यायप्रिय तथा धर्मपरायण हों।
इन सबके अतिरिक्त बलबन राजपद की शक्ति और वैभव को प्रकट करना भी आवश्यक समझता था, जिससे उसके दैवी
स्वरूप और निरं कु श शक्ति का बाह्य रूप से प्रदर्शन किया जा सके । बलबन ने एक बड़े सुल्तान के दरबार के अनुरूप नियम
बनाए और उन्हें कठोरता से लागू किया। उसने अपने दरबार की रस्मों को ईरानी आदर्श पर ढालने का प्रयत्न किया। उसने
लम्बे तथा भयानक लोगों को अपना अंगरक्षक नियुक्त किया, जो सदैव नंगी तथा चमचमाती तलवारें लिए उसके आसपास
खड़े रहते थे। दरबार में सुल्तान का अभिवादन करने के लिये उसने 'सिजदा' (भूमि पर लेटकर अभिवादन करना) और
'पैबोस' (सिंहासन के निकट आकर सुल्तान के चरणों को चूमना) का नियम जारी किया। दरबार का वैभव बढ़ाने के लिए
उसने प्रतिवर्ष ईरानी त्योहार 'नौरोज' मनाना प्रारम्भ किया।
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उसने दरबारियों तथा सरकारी अधिकारियों के लिए मद्यपान निषिद्ध कर दिया और उन्हें एक विशेष प्रकार की पोशाक
पहनकर ही दरबार में आने की आज्ञा दी गई। उसने दरबार में हँसने तथा मुस्कराने पर भी प्रतिबन्ध लगा दिया। सामान्य लोगों
की तो बात ही क्या, वह निम्न वर्ग के अमीरों से भी मिलना और उनसे बातचीत करना पसन्द नहीं करता था। बलबन स्वयं
सार्वजनिक स्थानों पर इन नियमों का कठोरता से पालन करता था। इसमें कोई सन्देह नहीं कि बलबन के इन प्रयासों से
सुल्तान पद की प्रतिष्ठा पुनः स्थापित हुई और सुल्तान की व्यक्तिगत प्रतिष्ठा में भी वृद्धि हुई।
अलाउद्दीन खिलजी का राजत्व सिद्धान्त
अलाउद्दीन खिलजी ने अपने बाहुबल तथा अपनी सेना की सहायता से एक विशाल साम्राज्य की स्थापना की थी। अत:
उसकी शक्ति का आधार सेना थी। इसी सैनिक शक्ति के द्वारा उसने अपने प्रतिद्वन्द्वियों को पराजित किया तथा अपने
साम्राज्य को संगठित रखने का प्रयत्न किया। अतः प्रारम्भ से ही उसका शासन पूर्ण रूप से स्वेच्छाचारी तथा निरं कु श था। वह
राजा की निरं कु श सत्ता व सर्वोपरिता में विश्वास रखता था। राज्य की समस्त शक्तियाँ सुल्तान के हाथ में थीं
और वह सभी अधिकारों का स्रोत था। राज्य का सारा कार्य उसी की आज्ञा से होता था। वह अपने अफसरों तथा कर्मचारियों
पर कड़ा नियन्त्रण रखता था और उन्हें सुल्तान के आदेश के अनुसार ही कार्य करना पड़ता था।
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अलाउद्दीन ने राजत्व की धारणा के बारे में बलबन के विचारों का अनुसरण किया। वह राजा के दैवी अधिकारों में विश्वास
रखता था और उसे पृथ्वी पर ईश्वर का प्रतिनिधि मानता था। उसका विश्वास था कि राजा सामान्य मनुष्यों से पृथक् , उच्च और
दैवी शक्ति सम्पन्न होता है। अतः राजा की इच्छा ही कानून थी और समस्त प्रजा उसको मानने के लिए बाध्य थी।
दिल्ली के सुल्तानों को प्रभावित करने वाले राज्य में के वल दो वर्ग थेअमीर वर्ग और उलेमा वर्ग। अलाउद्दीन ने अमीरों की
शक्ति को नष्ट कर दिया और उन्हें अपने नियन्त्रण में रखने के लिए कठोर नियम बनाए। अलाउद्दीन ने उलेमा वर्ग को भी
शासन में हस्तक्षेप नहीं करने दिया। उसने उलेमा वर्ग को इतना दुर्बल कर दिया कि वे उसकी नीतियों पर प्रभाव नहीं डाल
सकते थे। उसने कहा कि धर्माधिकारियों की अपेक्षा मैं अधिक अच्छी तरह जानता हूँ कि राज्य की भलाई के लिए क्या
आवश्यक है और क्या लाभप्रद है। इस प्रकार अलाउद्दीन पहला सुल्तान था जिसने राज्य पर धर्म का नियन्त्रण समाप्त कर
दिया।
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अलाउद्दीन ने अपनी सत्ता की जड़ें मजबूत करने के लिए कभी भी खलीफा के नाम का सहारा नहीं लिया। उसने कभी
खलीफा से अधिकार-पत्र की प्रार्थना नहीं की। यद्यपि अलाउद्दीन ने 'यामीन-अल-खिलाफत नासिरी अमीर-उलमुमनिन'
(खलीफा का नायब) की उपाधि ग्रहण की थी, किन्तु ऐसा करने में उसका उद्देश्य सैद्धान्तिक दृष्टि से खलीफा की परम्परा को
जीवित रखना था।
इस प्रकार अलाउद्दीन के शासनकाल में निरं कु शता अपनी चरम सीमा पर पहुँच गई थी। डॉ. ईश्वरी प्रसाद के शब्दों में,
"अलाउद्दीन का शासनकाल मुस्लिम निरं कु शता के चूड़ान्त विकास का द्योतक है।"
मुहम्मद-बिन-तुगलक का राजत्व सिद्धान्त
मुहम्मद-बिन-तुगलक का राजत्व सिद्धान्त दैवी सिद्धान्त की भाँति था। उसका विश्वास था कि सुल्तान बनना ईश्वर की इच्छा
है। उसने अपने सिक्कों पर 'अल सुल्तान जिल्ली अल्लाह' (सुल्तान ईश्वर की छाया है) अंकित करवाया। उसका विश्वास
सम्पूर्ण प्रभुत्वसम्पन्न सुल्तान में था।
उस युग में अन्य शासकों की भाँति मुहम्मद तुगलक का शासन भी स्वेच्छाचारी तथा निरं कु श था। साम्राज्य की सम्पूर्ण शक्ति
सुल्तान के हाथ में थी और वह ही समस्त अधिकारों का स्रोत समझा जाता था। यद्यपि सुल्तान राज्य का सर्वेसर्वा था, परन्तु वह
शासन के महत्त्वपूर्ण मामलों में अपने प्रमुख अमीरों तथा अधिकारियों से परामर्श लिया करता था। किन्तु वह उनके परामर्श
को तभी स्वीकार करता था जब वह बुद्धिसंगत तथा अवसर विशेष के अनुकू ल होता था। इसी प्रकार उसने उलेमा वर्ग को भी
अपने शासन में हस्तक्षेप नहीं करने दिया। न्याय विभाग पर उलेमा वर्ग का एकाधिकार था, सुल्तान ने उसे समाप्त कर दिया।
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उसने उलेमा के अतिरिक्त अन्य लोगों को भी न्याय सम्बन्धी पदों पर नियुक्त किया। उसने अपने आरम्भिक काल में सुल्तान
के पद के लिए न तो खलीफा से स्वीकृ ति ली और न ही अपने सिक्कों पर किसी खलीफा का नाम अंकित करवाया।
इब्राहीम ने सिंहासन पर अपनी स्थिति सुरक्षित करने के बाद तुर्क सुल्तानों के समान पूर्ण निरं कु शता की नीति अपनाने का
निश्चय किया। तुर्की प्रभुत्व सिद्धान्त से अनुप्राणित होकर उसने मूर्खतापूर्ण घोषणा की कि सुल्तान का कोई सम्बन्धी नहीं होता,
सभी सुल्तान के अधीनस्थ सामन्त अथवा प्रजा होते हैं। इब्राहीम अपनी निरं कु श सत्ता को व्यावहारिक रूप में प्रकट करने के
लिए दरबार में उच्च सिंहासन पर बैठता था। उसका आदेश था कि जब तक सुल्तान दरबार में उपस्थित हो, कोई भी अमीर
बैठ नहीं सकता था। उन्हें नम्र भाव से हाथ बाँधे खड़े रहना पड़ता था। सुल्तान के इस व्यवहार से अमीरों में रोष बढ़ता गया
और उनमें विद्रोह की भावना पनपने लगी। सुल्तान तथा अमीरों के मध्य संघर्ष अवश्यम्भावी हो गया, जो सन्देह तथा अविश्वास
के कारण अत्यन्त कटु हो गया। उसने पुराने अमीरों को समाप्त करके एक नवीन आज्ञाकारी अमीर वर्ग बनाने का प्रयास
किया। उसकी इस नीति से पुराना अमीर वर्ग भयभीत हो गया और उन्होंने सुल्तान के विरुद्ध विद्रोह कर दिया, जिसका
अन्ततः परिणाम लोदी साम्राज्य का पतन था।
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2.
Anonymous March 14, 2023 at 4:58 PM
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JEN Singa
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