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Answers/Solutions to some of the Questions given in the Assignments.

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Assignments. We do not claim 100% accuracy of these sample answers
as these are based on the knowledge and capability of Private
Teacher/Tutor. Sample answers may be seen as the Guide/Help for the
reference to prepare the answers of the Questions given in the
assignment. As these solutions and answers are prepared by the private
Teacher/Tutor so the chances of error or mistake cannot be denied.
Any Omission or Error is highly regretted though every care has been
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should must read and refer the official study material provided by the
university.

1. मध्यकालीन भारत में राज्य और संप्रभत


ु ा की प्रकृतत की चचाा करें

मध्यकालीन भारत में राज्य की प्रकृतत विद्िानों के बीच काफी वििाद का विषय
रही है। डॉ। आरपी अशरफ, डॉ। ईश्िरी प्रसाद, प्रो। एएल श्रीिास्ति, आदद विद्िानों
का मानना है कक मध्यकालीन भारत में मस्ु स्लम राज्य लोकतंत्र था। उदाहरण के
ललए डॉ। आरपी त्रत्रपाठी कहते हैं, "उन सभी संस्थानों को स्िन्हें मस
ु लमानों ने
विकलसत ककया या अपनाया गया था, उनका उद्दे श्य कानन
ू की उप-सेिा करना
था।"

इसी तरह डॉ। ईश्िरी प्रसाद कहते हैं कक अन्य मस्ु स्लम राज्यों की तरह,
मध्यकालीन भारत में राज्य एक लोकतंत्र था। रािा सीज़र और पोप दोनों थे।
लेककन, उनका अधिकार शरीयत के लसद्िांतों द्िारा प्रततबंधित था। उनका शासन
िमम पर आिाररत था और उलेमाओं ने राज्य की भविष्यिाणी की थी।

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हालांकक, डॉ। आईएच कुरै शी िैसे कुछ अन्य लेखकों का मानना है कक, '' शापम के
िचमस्ि '' ने कुछ लोगों को यह सोचकर गम
ु राह ककया है कक सल्तनत एक िममतंत्र
था। एक िममतनरपेक्षता की अतनिायम विशेषता - एक ठहराया पि
ु ारी का शासन -
हालांकक, मस्ु स्लम राज्य के संगठन में गायब है; न्यायविद आम आदमी होते हैं िो
दािा करते हैं कक त्रदु ि से कोई पवित्र प्रततरक्षा नहीं है । धगब्ब को इस्लामी नीतत को
तनरं कुश कहना सही है । यहां तक कक मोहम्मद हबीब कहते हैं, "यह (भारत में
मस्ु स्लम राज्य) शब्द के ककसी भी अथम में एक लोकतांत्रत्रक राज्य नहीं था" और
यह कक "इसकी नींि, कफर भी, गैर-िालममक और िममतनरपेक्ष थी।"

मध्यकालीन भारत में राज्य की प्रकृतत के बारे में विद्िानों द्िारा ददए गए दो
परस्पर विरोिी विचारों के मद्दे निर, इस मद्
ु दे की परू ी तरह से िांच करना
अतनिायम हो िाता है। सबसे पहले, हमें यह पता लगाने की कोलशश करनी चादहए
कक लोकतंत्र का क्या मतलब है । तभी हम मध्यकालीन भारत में राज्य की प्रकृतत
के बारे में ककसी तनष्कषम पर पहुंच पाएंगे।

िममशास्त्र शब्द की उत्पवि ग्रीक शब्द थोस से हुई है, स्िसका अथम है ईश्िर।
इसललए, एक लोकतांत्रत्रक राज्य िह है िो ईश्िर या पवित्र िगम द्िारा शालसत है ।

चैंबर की बीसिीं शताब्दी के शब्दकोश के अनस


ु ार लोकतंत्र को पररभावषत ककया
गया है "उस राज्य का संवििान स्िसमें सिमशस्क्तमान इसे एकमात्र संप्रभु मानते
थे, और मानि अध्यादे शों के बिाय िास्तविक ईश्िरीय आदे शों के कानन
ू -
परु ोदहतिाद िरूरी अदृश्य शासक के अधिकारी बन गए।"

इस पररभाषा के विश्लेषण से पता चलता है कक लोकतंत्र में तीन आिश्यक


विशेषताएं हैं:

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(1) पवित्र िगम या परु ोदहती की उपस्स्थतत,

(२) ईश्िर के तनयम की व्यापकता, और

(३) संप्रभु या शासक िो इस कानन


ू का प्रचार करता है। आइए हम िांच करें कक
मध्यकालीन भारत में ये तत्ि राज्य में ककतनी दरू तक मजिूद थे

पहली िगह में, हम डॉ। कुरै शी से सहमत हो सकते हैं कक मध्यकालीन भारत में
कोई भी अध्यादे श या िंशानग
ु त परु ोदहती नहीं थी िो कक लोकतंत्र की आिश्यक
विशेषता है। न्यायविद आम आदमी थे, स्िन्होंने दािा ककया था कक त्रदु ि से कोई
पवित्र प्रततरक्षा नहीं लमलती है और मोहम्मद त्रबन तग
ु लक के दजरान ददल्ली के
काज़ी के रूप में lbn बतूता िैसे कुछ आम लोगों ने काम ककया।

ये उलेमा रूद़ििादी थे और उन्होंने सल्


ु तान के साथ बहुत प्रभाि डाला। यहां तक
कक डॉ। यस
ू फ
ु हुसन
ै ने गिाही दी है कक ये उलेमा रूद़ििादी थे और उन्हें मदरसों
में लशक्षा दी िाती थी। इस लशक्षा की एक अलग िालममक आिाज़ थी। सल्
ु तानों
और रािाओं के न्यायविदों और सलाहकारों को इन उलेमाओं में से तनयक्
ु त ककया
गया था और उन्होंने शर (इस्लालमक) की व्याख्या की थी।

शेख-उल-इस्लाम ने न केिल शैक्षक्षक संस्थानों की दे खरे ख की, बस्ल्क विलभन्न


शैक्षणणक संस्थानों के साथ-साथ लोगों के नैततक विचारों पर भी तनिामररत पस्
ु तकों
के ऊपर एक प्रकार की सेंसरलशप का प्रयोग ककया। शेख-उल-इस्लाम ने मस्ु स्लम
िममशास्स्त्रयों की तनयलमत आपतू तम सतु नस्श्चत करने के ललए मस्ु स्लम विद्िानों के
साथ तनकि संपकम बनाए रखा।

इन उलेमाओं ने शासकों पर बहुत प्रभाि डाला। हे नरी बलोच-मन्न कहते हैं, हालांकक
इस्लाम का कोई राज्य पादरी नहीं है , लेककन हम उलेमाओं में हमारे पदानक्र
ु लमत

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तनकायों का एक प्रततपक्ष खोिते हैं, स्िनके बारे में प्रांतों के सदर, मीर आददल,
मफ्
ु ती और काज़ी तनयक्
ु त ककए गए थे। ददल्ली और आगरा में, विद्िानों के शरीर
में हमेशा कट्िर सस्ु न्नयों का समािेश होता था, िो रािाओं को सीिे रखना अपना
कतमव्य समझते थे।

उनका प्रभाि ककतना महान था, इस तथ्य से दे खा िा सकता है कक सभी


मह
ु म्मदीन सम्रािों में केिल अकबर और शायद अलाउद्दीन णखलिी ही इस घणृ णत
संप्रदाय को धगराने में सफल रहे ।

अबू हनीफा के अनस


ु ार; िास्िया को मजत के विकल्प के रूप में दहंद ू से एकत्र
ककया गया था। यह भारत में पहली बार लसंि के वििेता मह
ु म्मद त्रबन कालसम
द्िारा लगाया गया था क्योंकक िह कुरान के कानन
ू को उन दहंदओ
ु ं पर कडाई से
लागू नहीं कर सकते थे िो बहुत अधिक संख्या में थे। उन्होंने लसंि और मल्
ु तान
के दहंदओ
ु ं के प्रतत िालममक सदहष्णुता की नीतत का पालन ककया।

इस लमसाल का पालन भारत के बाद के तक


ु ी और अफगान शासकों ने ककया। सर
िादन
ु ाथ सरकार का कहना है कक मस्ु स्लम शासकों को स्िहाद पर ले िाना सबसे
बडा कतमव्य माना िाता था, िब तक कक िे इस्लाम के दायरे का दहस्सा नहीं बन
िाते, (दार-उल-हरब) तक "बेिफा िमीन (डार-उल-हरब) के णखलाफ यद्
ु ि छे डना"
इस्लाम), और उनकी आबादी सच्चे विश्िालसयों में बदल िाती है ।

डॉ। पांडे की राय है कक िस्ज़या केिल शहरों में रहने िाले दहंदओ
ु ं से ललया िाता
था, और दे श में रहने िालों को िस्ज़या की प्रास्तत के उद्दे श्य से इसके अिीन नहीं
ककया गया था, परू ी आबादी को तीन श्रेणणयों में विभास्ित ककया गया था: िो
संबंधित थे पहले िगम को 48 ददरहम का भग
ु तान करना पडा, िबकक दस
ू री और

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तीसरी श्रेणी के लोगों को क्रमशः 24 और 12 ददरहम का भग


ु तान करना पडा।
मदहलाओं, बच्चों, लभखाररयों और लंगडे लोगों को िस्ज़या से छूि दी गई थी। यह
कर विशद्
ु ि रूप से एक िालममक कर था और समकालीन शासकों के बाद
भेदभािपण
ू म नीतत का स्पष्ि प्रमाण था।

मध्यकालीन समय के सभी शासक इस्लाम के कानन


ू के अनस
ु ार शासन करने के
ललए बाध्य थे। यद्यवप मस्ु स्लम शासकों को बद्
ु धिमान परु
ु षों के िकील के साथ
पररस्स्थततयों के अनस
ु ार नए कानन
ू ों को लागू करने की अनम
ु तत दी गई थी, लेककन
बहुत कम शासकों ने ऐसे कानन
ू ों को फ्रेम करने की दहम्मत की और शार परू े
सल्तनत काल में सिोच्च बने रहे ।

मध्यकालीन समय के दजरान कई शासक स्िभाि से सदहष्णु थे, लेककन कोई भी


(अकबर को छोडकर) कभी भी कानन
ू बनाने की दहम्मत नहीं कर सका, िो आबादी
के सभी िगों के ललए इस्क्ििी और तनष्पक्ष खेल सतु नस्श्चत कर सके। हम ककसी
भी कानन
ू या वितनयमन को अन्य मध्यकालीन भारतीय शासकों द्िारा इस प्रभाि
के ललए प्रख्यावपत नहीं करते हैं। यह पहली बार था- अकबर, स्िसने लोगों की
भलाई के ललए कई तनयमों को लागू ककया।

सैन्य राज्य:

मध्यकालीन भारत में राज्य की एक और महत्िपण


ू म विशेषता यह थी कक यह
चररत्र में सैन्य था। मस्ु स्लम शासकों ने दे श के भीतर कानन
ू व्यिस्था बनाए रखने
और ककसी भी संभावित आक्रमण से दे श की सरु क्षा के ललए एक मिबत
ू सैन्य बल
बनाए रखा। िास्ति में , राज्य एक पलु लस राज्य था और इसने मख्
ु य रूप से कानन

और व्यिस्था के रखरखाि और रािस्ि संग्रह के कायों का तनिमहन ककया।

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सरकार ने लोगों के कल्याण पर कोई ध्यान नहीं ददया, इसमें कोई संदेह नहीं है,
सरकार ने मस्ु स्लम आबादी की लशक्षा के ललए कुछ व्यिस्था की, लेककन इसने
व्यािहाररक रूप से दहंद ू आबादी की लशक्षा के ललए कुछ नहीं ककया, स्िन्हें अपने
तनिी प्रयासों पर तनभमर रहना पडा। राज्य ककसी भी तरह से कल्याणकारी राज्य
नहीं था।

मस्ु स्लम संप्रभत


ु ा की अििारणा:

सभी मस्ु स्लम शासकों के ललए संप्रभत


ु ा के मस्ु स्लम लसद्िांतों के अनस
ु ार िहां भी
िे रह रहे हों िहां केिल एक मस्ु स्लम रािा हो सकता है और यह मस्ु स्लम शासक
खलीफा (खलीफा) था। डॉ। एबी पांडे के अनस
ु ार स्िस तरह मस्ु स्लम के अनस
ु ार
एक ईश्िर, एक पैगंबर, और उनकी लशक्षाएं एक ककताब में समादहत हैं। इसी प्रकार
इस्लालमक राज्य के ललए केिल एक शासक होना चादहए।

ईश्िर ने अपने आदे श और मह


ु म्मद साहब को ईश्िर के अंततम प्रतततनधि के रूप
में आगे ब़िाने के ललए सभी दे शों में अपने प्रतततनधि भेिे हैं। पैगंबर के आदे शों
को भगिान के आदे शों को परू ा करने के ललए, लेककन यहां तक कक पैगंबर के ललए,
भगिान के आदे शों को परू ा करने के ललए अतनिायम था।

खलीफा की स्स्थतत:

हालााँकक ददल्ली के सल्


ु तान शासकों ने खद
ु को परू ी तरह से स्ितंत्र माना, लेककन
उन्होंने खलीफा की आत्महत्या को स्िीकार ककया। मस्ु स्लम कानन
ू के अनस
ु ार
मस
ु लमानों का केिल एक शासक हो सकता है और ददल्ली सल्
ु तानों ने हमेशा यह
िारणा दी कक िे खलीफा के प्रतततनधि के रूप में काम कर रहे थे।

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उन्होंने अपने लसक्कों और लशलालेखों पर खलीफा का नाम रखा। अला उद दीन


णखलिी पहला शासक था स्िसने नीतत को त्याग ददया और अपनी स्ितंत्रता का
दािा ककया। उन्होंने प्रशासन के मामले में उलेमाओं के हस्तक्षेप को मंिरू ी नहीं दी
क्योंकक उनका मानना था कक राज्य के मामलों में िालममक अधिकाररयों का कोई भी
हस्तक्षेप हातनकारक था।

उन्होंने कहा कक चंकू क खलीफा िालममक मामलों में भगिान का एिेंि था, इसललए
रािा सांसाररक मामलों में भगिान का एिेंि था।

4. राष्ट्रवाद पर बंककम चंद्र चट्टोपाध्याय के ववचारों को ववस्तार से बताएं

बंककमचंद्र ने अपने रािनीततक विचार पर अंग्रेिी उपयोधगतािाद और फ्रांसीसी


प्रत्यक्षिाद के प्रभाि को स्िीकार ककया, लेककन उनकी आलोचना करके अपनी
स्ितंत्रता पर िोर ददया, िहां उनकी राय में , िे इस तरह की आलोचना के पात्र थे।
एक दशमन के रूप में , उपयोधगतािाद ने सभी कायों और नीततयों का न्याय करने
की मांग की, विशेष रूप से सरकारी, इस तरह की नीततयों और कायों की क्षमता या
उपयोधगता के प्रकाश में सबसे बडी संख्या में लोगों की भलाई को ब़िािा दे ने के
ललए। बंककमचंद्र ने तकम ददया कक ऐसा दशमन दो बातों में त्रदु िपण
ू म था। सबसे पहले,
यह नैततक रूप से, एक मख
ू त
म ापण
ू म दशमन नहीं था। भारतीय आदशम, िैसा कक इसके
प्राचीन शास्त्रों में िणणमत है, सभी का भला करना, स्िसे ऋवषयों के तनम्नललणखत
कथन में अलभव्यस्क्त लमली - सिे भिन्तु सणु खनै सिे संतु तनरामय; सिे भद्रै पजयंतु
मा कजलसत दख
ु ाभाक भािेत। सब सख
ु ी रहें ; सभी रोग मक्
ु त हों; िो अच्छा है उसे
सब िान लें ; कोई भी दख
ु के अिीन नहीं हो सकता है - बंककमचंद्र के ललए, िमम
और नैततकता दोनों के संदभम में एक असीम रूप से बेहतर आदशम था, िो कक

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उपयोधगतािाद ने मानि िातत को ददया था। बंककमचंद्र की दस


ू री आपवि अपने
समय के भारत में प्रचललत िमीनी हकीकत में तनदहत थी। उपयोधगतािाद िैसे
अंग्रेिी रािनीततक दशमन का िो भी उपदे श हो, भारत की त्रिदिश सरकार के अपने
प्राथलमक दहत थे - िैसे कक अपने स्ियं के रािकोष को ब़िाना - और एक प्रिा
के लोगों का भला करने में ककसी भी हद तक िाने की उम्मीद नहीं की िा सकती
थी। इसललए, भारतीयों के ललए राष्रीय िागरूकता पैदा करने, संघषम के ललए लोगों
को तैयार करने और इस तरह के संघषम के ललए आिश्यक आत्म-बललदान, और
ब़िािा दे ने के ललए एक एिेंसी के रूप में सरकार पर उनकी तनभमरता को कम
करने के मामले में अपनी ताकत पर भरोसा करने के ललए यह एक बेहतर नीतत
थी। सामान्य कल्याण। रािनीतत की इस तरह की अििारणा से बंककमचंद्र ने
शब्दशः रािनीतत की आलोचना की - त्रबना रचनात्मक कायम के बातचीत - िो कक
उनके समय में भारत में प्रचललत थी। उन्होंने इस तरह की रािनीतत से घण
ृ ा की
और इसे अधिक रचनात्मक अलभविन्यास दे ने की दृस्ष्ि से तनम्नललणखत मामलों में
इसकी आलोचना की: पहला, रािनीतत का प्रचललत िांड शहर-केंदद्रत था, मख्
ु य रूप
से कलकिा िैसे कुछ शहरों तक ही सीलमत था। दस
ू रा, यह समाि के ऊपरी तबके
तक सीलमत था - शहर के नेता और उनके अनय
ु ायी। तीसरा, इसका प्रिचन अंग्रेिी
भाषा में आयोस्ित ककया गया, चाहे िह प्रेस के माध्यम से हो या मंच पर। चजथा,
इसकी गततविधियां अक्सर एकतरफा मामलों में समातत होती थीं, या तो िावषमक
सत्रों में प्रस्ताि पाररत करने में और त्रिदिश सरकार से कुछ पक्ष या अन्य के ललए
भीख मांगने या समाचार पत्रों में लेख ललखने में त्रिदिश प्रशासन को कुछ चक
ू या
कमीशन के ललए हल्के ढं ग से धच़िाने में समातत होती थीं। उनकी ओर से। ऐसी
रािनीतत, लोगों का भला करना तो दरू , िास्ति में उन्हें अलग-थलग कर दे ती थी।

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इसने शहर और दे श के बीच, लशक्षक्षत और अलशक्षक्षत के बीच और अंग्रेिी बोलने


िाले नेताओं और िनता के बीच की खाई को चजडा ककया।

िाकपिुता की रािनीतत के ललए बंककमचंद्र के ततरस्कार को उनके कमलाकांता के


तनम्नललणखत अंश में दे खा िा सकता है : कुछ लोग सोचते हैं कक ड्रोन से िे दे श
को बचाएंगे - लडकों और ब़ि
ू ों को सभाओं में इकट्ठा करके िे उन पर ड्रोन उडाते
हैं। िबोलसिी का विकल्प क्या है - मात्र ड्रोतनंग, िैसा कक बंककमचंद्र कहते हैं?
बंककमचंद्र िो उिर दे ते हैं, िह रािनीतत के प्रचललत िांड के प्रतत उनके रिैये के
साथ-साथ उनकी राष्रिाद की अििारणा को भी प्रकि करता है , स्िसे उन्होंने बाद
में परू ी तरह से व्यक्त ककया। बंककमचंद्र को उद्ित
ृ करने के ललए: मैं आपको सच
बता दं ू कक आप न तो शहद इकट्ठा करना िानते हैं और न ही डंक मारना -
आप केिल ड्रोन कर सकते हैं। इसके साथ िाने के ललए काम का कोई संकेत नहीं
है - केिल ड्रोतनंग, ददन-रात, एक रोती हुई लडकी की तरह। िाणी और लेखन में
अपनी िाचालता को कम करें , और अपना मन ककसी काम में लगाएं - तब आप
समद्
ृ ि होंगे। अपने दे शिालसयों को शहद या डंक इकट्ठा करने की सलाह दे कर,
बंककमचंद्र का कहना था कक गंभीर संकल्प और पररचर संघषम के त्रबना िे िास्ति
में भारत की विदे शी सरकार से कोई ठोस लाभ प्रातत करने की उम्मीद नहीं कर
सकते थे। भारत के लोगों को अपनी रक्षा खद
ु करनी थी। दे श को पन
ु िीवित
करना था और उस ददशा में उन ददनों स्िस तरह की ढीली रािनीतत थी, उसे
राष्रिाद की एक नई भािना और रािनीतत के एक नए िांड के पक्ष में त्यागना
पडा

6.1. सामाजिक पररवतान पर स्वामी वववेकानंद

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भारत के सामास्िक पररितमन में समाि सि


ु ारकों की भलू मका पर विचार करते हुए
स्िामी वििेकानंद उनसे कई अपेक्षाएाँ करते हैं, स्िनके बगैर ककसी भी पररितमन को
सफल नहीं ककया िा सकता है । उनकी दृस्ष्ि में एक सि
ु ारक में गहरी सहानभ
ु तू त
होनी चादहए, तभी िह गरीबी और अज्ञान में डूबे करोडों नर-नाररयों की िेदना का
अनभ
ु ि कर सकेगा। िे सि
ु ारकों में सेिा-भािना अपररहायम मानते हैं, ‘‘यदद कोई
भारत की िनता का िो समद्
ृ धि की कृपा से िंधचत तथा ऐश्ियम से हीन है , स्िनका
वििेक नष्ि हो चक
ु ा है, स्िसकी स्िप्रेरणा नष्ि हो चक
ु ी है, िो पद
दललत, भख
ू ी, झगडालू और ईष्र्यालु है-उस िनता को हृदय से स्नेह करे गा तो यह
दे श पन
ु ः उठ खडा होगा। भारत दोबारा तभी उठ सकेगा, िब सैकडों विशाल हृदय
यि
ु क-यि
ु ततयााँ सख
ु ोपभोग की समस्त कामनाओं को ततलांिलल दे अपने करोडों
दे शिालसयों के, िो िीरे -िीरे दररद्रता और अज्ञान के गहन गत्र्त में धगरते िा रहे
हैं, कल्याण के हे तु अपनी परू ी शस्क्तयााँ लगाने का संकल्प लेगा।’’ िे सि
ु ारकों में
ध्येय के प्रतत पण
ू म समपमण, श्रद्िा एिं िैराग्य भािना को भी आिश्यक मानते हैं।
उनकी दृस्ष्ि में मक्
ु त िही है, स्िसने अपना सब कुछ दस
ू रों के ललए त्याग ददया है ।
िे अतःकरण की शद्
ु िता को इस पथ के ललए बेहद िरूरी लसद्ि करते हैं, ‘‘आि
ु धि की अंतःकरण की तनममलता की। ककंतु िह कैसे
आिश्यकता है धचिशद्
हो ? सबसे पहले उस विराि की पि
ू ा करो िो हमारे चारों ओर विद्यमान है । उसकी
पि
ू ा करो। ये सब हमारे दे िता हैं केिल मनष्ु य ही नहीं, पशु भी हैं। इनमें भी
सबसे पहले पि
ू ा करो अपने दे शिालसयों की।’’ स्पष्ि है स्िामी िी ककसी भी
पररितमन के पहले उन लोगों से स्नेहभाि रखने की अपेक्षा करते हैं, स्िनमें यह
पररितमन लाना है ।

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स्िामी वििेकानंद इस बात से भलीभााँतत पररधचत थे कक सामास्िक


पररितमन बाहर से नहीं, अंदर से होता है। उसे लाने के ललए समाि को बाहर से
नहीं, अंदर से सदृ
ु ़ि करना िरूरी है । िे भारतीय समाि में व्यातत सभी अनथों की
िड में िगीय विषमता को दे खते हैं, ‘‘भारत के सत्यानाश का मख्
ु य कारण यही है
कक दे श की संपण
ू म विद्या-बद्
ु धि, राि-शासन और दम्भ के बल से मट्
ु ठीभर लोगों
के एकाधिकार में रखी गई हैं।’’ इस स्स्थतत को बदलने के ललए िे आमिन के
मध्य विद्या के प्रसार को आिश्यक मानते है , िो नैततक और बजद्धिक दोनों प्रकार
की हो। साथ ही िे समाि के िंधचत िगम को संगदठत कर स्ियं के उद्िार के ललए
तैयार करना भी िरूरी मानते हैं। तभी उनका सशक्तीकरण होगा, महि बाहरी
दयापण
ू म सहायता से नहीं। िे कहते हैं, ‘‘हमारा संघ दीनहीन, दररद्र, तनरक्षर ककसान
तथा श्रलमक समाि के ललए है और उनके ललए सब कुछ करने के बाद िब समय
बचेगा, केिल तब कुलीनों की बारी आयेगी। ‘उद्िरे दात्मनात्मानम ् -अपनी आत्मा का
अपने उद्योग से उद्िार करो।’ यह सब पररस्स्थततयों पर लागू होता है । हम उनकी
सहायता इसललए करते हैं, स्िससे िे स्ियं अपनी सहायता कर सकें।........िनिान
श्रेणी के लोग दया से गरीबों के ललए िो थोडी-सी भलाई करते हैं, िह स्थायी नहीं
होती और अंत में दोनों पक्षों को हातन पहुाँचती है। ककसान और श्रलमक समाि
मरणासन्न अिस्था में हैं, इसीललए स्िस चीि की आिश्यकता है , िह यह है कक
िनिान उन्हें अपनी शस्क्त को पन
ु ः प्रातत करने में सहायता दें और कुछ नहीं।
कफर ककसानों और मिदरू ों को अपनी समस्याओं का सामना और समािान स्ियं
करने दो।’’ (वििेकानंद सादहत्य, खंड-7, प.ृ 412) स्िामीिी, इसी प्रकार आिीिन समाि
के िंधचत िगम की आाँखें खोलने का आह्िान करते रहे , बिाय इसके कक उनकी
सहायता महि बाहरी ही बनी रहे ।

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िे िैचाररक पररितमन को ककसी भी सामास्िक पररितमन के मल


ू ािार के ललए
आिश्यक ठहराते हैं, ‘‘प्रत्येक िातत, प्रत्येक परु
ु ष और प्रत्येक स्त्री को अपना उद्िार
अपने आप ही करना पडेगा। उनमें विचार उत्पन्न कर दो- उन्हें उसी एक सहायता
की िरूरत है। इसके फलस्िरूप बाकी सब कुछ आप ही हो िाएगा। हमें केिल
रासायतनक पदाथों को इकट्ठा भर कर दे ना है ,.........बाँि िाना तो प्राकृततक तनयमों
से ही साधित होगा। हमारा कत्र्तव्य है , उनके ददमागों में विचार भर दे ना, बाकी िे
स्ियं कर लेंगे। भारत में बस यही करना है ।’’ (वििेकानंद सादहत्य, खंड-2, प.ृ 369-
370)

स्िामी वििेकानंद क्रांतत की नई छत्रब को ग़िने िाले विचारक थे। िे


समािोद्िार को आत्मोद्िार से िोडकर दे खते हैं। यही उनकी क्रांतत को एक नया
आयाम दे ता है , ‘‘िीिन में मेरी एकमात्र अलभलाषा यही है कक ऐसे चक्र का प्रितमन
कर दाँ ,ू िो उच्च एिं श्रेष्ठ विचारों को सबके द्िारों तक पहुाँचा दें , और कफर स्त्री-
परु
ु ष अपने भाग्य का तनणमय स्ियं कर लें। हमारे पि
ू ि
म ों तथा अन्य दे शों ने भी
िीिन के महत्त्िपण
ू म प्रश्नों पर क्या विचार ककया है, यह सिमसािारण को िानने दो।
विशेषकर उन्हें यह दे खने दो कक और लोग इस समय क्या कर रहे हैं और तब
उन्हें अपना तनणमय करने दो।’’ (खंड-2, प.ृ 321) स्िामीिी बदलाि के ललए मात्र कुछ
विसंगततयों पर प्रहार कर पररितमन लाना नहीं चाहते हैं। िे कहते हैं,’’ मतू तमयााँ रहें
या न रहें , विििाओं के ललए पततयों की पयामतत संख्या हो या न हो, िातत-प्रथा
दोषपण
ू म है या नहीं, ऐसी बातों से मैं अपने को परे शान नहीं करता।’’ इसके स्थान
पर िे सिमसािारण को लशक्षक्षत करने पर बल दे ते हैं। उनका कथन है, ‘‘रासायतनक
द्रव्य इकट्ठे कर दो और प्रकृतत के तनयमानस
ु ार िे कोई विशेष आकार िारण कर
लेंगे। पररश्रम करो, अिल रहो और भगिान पर श्रद्िा रखा।’’

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(खण्ड72, प.ृ 321) िादहर है वििेकानंद पररितमन की धचन्गारी अंदर से पैदा करने में
विश्िासी हैं, बाहर से नहीं।

स्िामीिी सामास्िक पररितमन की गतत को तीव्र कर भारत में व्यापक


बदलाि लाना चाहते हैं। इसमें िे शरीर, मस्स्तष्क और आत्मा-तीनों की भलू मका पर
विचार करते हैं, ककंतु उन्हें सबसे ज्यादा भरोसा ‘आत्मा’ पर ही है , िो उनकी क्रांतत-
दृस्ष्ि को दृ़ि भारतीय िमीन दे ती है । यह विश्ि में अन्यत्र संभि नहीं है । िे कहते
हैं, ‘‘इसमें कोई शक नहीं कक शारीररक शस्क्त द्िारा अनेक महान कायम सम्पन्न
होते है और इसी प्रकार मस्स्तष्क की अलभव्यस्क्त भी अद्भत
ु हैं, स्िससे विज्ञान के
सहारे तरह-तरह के यंत्रों तथा मशीनों का तनमामण होता हैं, कफर भी स्ितना
िबदरस्त प्रभाि आत्मा का विश्ि पर पडता है, उतना ककसी का नहीं। (खण्ड-
5, प.ृ 35) इस दृस्ष्ि से िे विश्ि को नेतत्ृ ि दे ने के ललए भारतीय सामास्िक
पररितमन को बेहद िरूरी मानते हैं, िहीं पस्श्चम से भी आिश्यक तत्त्िों को ग्रहण
करने पर बल दे ते हैं। उनकी स्पष्ि मान्यता है, िब कभी आध्यास्त्मक सामंिस्य
की आिश्यकता होती है , तो उसका आरं भ प्राच्य से ही होता है। साथ ही साथ यह
भी ठीक है कक िब कभी प्राच्य को मशीन बनाने के संबंि में सीखना हो तो
पाश्चात्य के पास बैठकर सीखे। परं तु यदद पाश्चात्य ईश्िर, आत्मा तथा विश्ि के
रहस्य संबंिी बातों को िानना चाहे तो उसे प्राच्य के चरणों के समीप ही आना
चादहए। (खण्ड-7, प.ृ 237) स्पष्ि है स्िामी वििेकानंद प्राच्य और पाश्चात्य उभय
पक्षों के िैलशष्ट्य को िानकर उनके बीच आपसी सामंिस्य के त्रबंद ु की तलाश
करते हैं, स्िसे िाने बगैर दोनों का पररितमन एकांगी रहे गा।

6.2 सववनय अवज्ञा पर श्री अरववंदो

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श्री अरत्रबंदो ने यह दािा करते हुए तनस्ष्क्रय प्रततरोि की आिश्यकता को स्िीकार


ककया कक 'िास्तविक सशस्त्र विद्रोह को छोडकर, एकमात्र प्रभािी सािन है , स्िसके
द्िारा राष्र की संगदठत शस्क्त, एक शस्क्तशाली केंद्रीय सिा में एकत्रत्रत होती है
और आत्म-विकास और आत्म के लसद्िांत द्िारा तनदे लशत होती है । - मदद, एक
विदे शी नजकरशाही की पकड से हमारे राष्रीय िीिन का तनयंत्रण छीन सकती है ,
और इस प्रकार, एक स्ितंत्र लोकवप्रय सरकार के रूप में विकलसत होकर, स्िाभाविक
रूप से उस नजकरशाही को प्रततस्थावपत कर सकती है , िब तक कक प्रकक्रया एक
स्ि-शालसत भारत में समातत नहीं हो िाती, िो विदे शी से मक्
ु त हो िाती है।
तनयंत्रण'। भले ही तनस्ष्क्रय और सकक्रय दोनों तरह के प्रततरोिों का उद्दे श्य राष्रीय
स्ितंत्रता है, लेककन उनकी प्रकृतत में एक आंतररक अंतर है । सकक्रय प्रततरोिी
दहंसक तरीकों से सरकार को कुछ स्थायी नक
ु सान पहुंचाने की कोलशश करता है ;
िबकक तनस्ष्क्रय प्रततरोिी िास्ति में खुद को सिािारी सरकार की कोई मदद करने
से रोकता है और इस तरह अंत में उसे नक
ु सान भी पहुंचाता है । िास्ति में ,
तनस्ष्क्रय प्रततरोि, श्री अरत्रबंदो के विचार में, अधिक लागू होगा िहां प्रशासन िनता
के नैततक समथमन पर तनभमर करता है ; लेककन भारत िैसे दे श में िहां त्रिदिश
प्रशासन अपने दे शिालसयों की आिाि को दहंसक यातनाओं से रोकने की दहम्मत
तक नहीं करता, िहां तनस्ष्क्रय प्रततरोि प्रकृतत में बहुत प्रभािी नहीं लगता है ।
इसललए कई चरम रािनीततक चरणों में सकक्रय प्रततरोि का उपयोग अतनिायम लग
सकता है। हालााँकक, श्री अरत्रबंदो ने यह स्िीकार नहीं ककया कक भारतीय रािनीतत
के क्षेत्र में प्रततरोि लसद्िांत के सकक्रय रूप का त्रबल्कुल भी उपयोग ककया िाता
है । अन्य दे शों में तनस्ष्क्रय प्रततरोिी दमनकारी सरकारी कानन
ू ों को तोड सकता है
और इसकी रोकथाम के ललए आिश्यक कदम उठा सकता है , उदा। इंग्लैंड में गैर-
अनरू
ु पतािाददयों ने लशक्षा कर का भग
ु तान करने से इनकार कर ददया या िैसा कक

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अमेररककयों ने प्रलसद्ि बोस्िन डॉकयाडम में चाय को डुबो कर ककया था। xiv भारत
में त्रिदिश अधिकाररयों ने कभी भी अपने भारतीय अिीनस्थों के िीिन को
त्रबल्कुल भी मल्
ू यिान नहीं माना। हमारे विदे शी प्रशासकों के अनस
ु ार, आम भारतीय
अत्यधिक गरीबी और कुदिलता की सीमा के भीतर अपना िीिन व्यतीत कर रहे
थे और इस प्रकार त्रिदिश सरकार के भरण-पोषण के ललए िब भी आिश्यक हो,
ककसी भी समय उनका िि ककया िा सकता था। इसललए िब विदे शी नजकरशाही
की उन्हीं भारतीय प्रिा ने अपनी सारी ताकतों को एक साथ इकट्ठा करने और
विरोि में धचल्लाने की बहुत कोलशश की, तो भारत पर शासन करने िाले राििंश
ने इसे कभी भी खुले ददमाग से नहीं ललया। उन्होंने िास्ति में इसे भारत में अपने
त्रिदिश राििंश की घंिी को समातत करने के संकेत के रूप में महसस
ू ककया। इस
तथ्य से डरे हुए, उन्होंने भारतीय रािनीततक क्षेत्र में तनस्ष्क्रय प्रततरोि के उपयोग
को िानबझ
ू कर स्िीकार ककया, लेककन इसके सकक्रय भाग का उपयोग करने के
ककसी भी परीक्षण को नहीं बख्शा। श्री अरत्रबंदो भी राष्रिादी प्रचार में एक
महत्िपण
ू म रािनीततक लसद्िांत के रूप में तनस्ष्क्रय प्रततरोि का उपयोग करने के
पक्ष में थे। उन्होंने इसकी तीन आिश्यकताओं या लसद्िांतों की पहचान की। पहली
आिश्यकता यह है कक, तनस्ष्क्रय प्रततरोि का उद्दे श्य सामान्य और संगदठत अिज्ञा
द्िारा एक सरकारी कानन
ू को अव्यिहाररक बनाना है। आक्रामक प्रकार का
प्रततरोि, इसके बिाय, दहंसक हधथयारों, िैसे बम, हथगोले आदद का उपयोग करके
विदे शी प्रशासतनक कानन
ू ों को नष्ि करने पर अपनी परू ी ताकत दे ता है । इसललए
तनस्ष्क्रय प्रततरोि का पहला लसद्िांत यह है कक इसका उद्दे श्य अन्यायपण
ू म
िबरदस्त कानन
ू ों को ददखाकर तोडना है शांततपण
ू म प्रदशमन।xvi तनस्ष्क्रय प्रततरोि की
दस
ू री आिश्यकता उग्रिाददयों और नरमपंधथयों दोनों को स्िीकायम है कक अन्यायपण
ू म
दमनकारी कानन
ू ों का विरोि करना प्रकृतत में उधचत नहीं है, बस्ल्क हमारी मातभ
ृ लू म

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के प्रतत कतमव्य की भािना है। इस प्रकार अपने दस


ू रे लसद्िांत में तनस्ष्क्रय प्रततरोि
की आंतररक भािना एक प्रदशमन के रूप में नहीं, बस्ल्क राष्र के ललए एक
आिश्यक कतमव्य के रूप में है । तीसरी आिश्यकता श्री अरत्रबदं ो के लसद्िांत के
साथ-साथ भारतीय रािनीततक संदभम में प्रकृतत में अत्यंत महत्िपण
ू म है । यहााँ श्री
अरत्रबंदो ने इस संबंि में सामास्िक बदहष्कार की उपयोधगता को समझाया।
तनस्ष्क्रय प्रततरोि आंदोलन की तत्काल सफलता के ललए हमें न केिल विदे शी
िस्तुओं का, बस्ल्क विदे शी िस्तओ
ु ं का उपयोग करने िाले व्यस्क्तयों का भी
बदहष्कार करना होगा। केिल विदे शी िस्तुओं पर प्रततबंि लगाकर हम इसके
उपयोग को नहीं रोक सकते। इसके इस्तेमाल को रोकने के ललए हमें उन लोगों को
रोकना होगा िो इसके इस्तेमाल के पक्ष में हैं। यदद हम भारत में विदे शी िस्तओ
ु ं
के उपयोग पर प्रततबंि लगाते हैं, तो िे इन सामानों को विदे शों से तनयामत करें गे।
इसललए विदे शी िस्तओ
ु ं के उपयोग को परू ी तरह से रोकने के ललए, हमें ककसी भी
सामास्िक समारोह, अनष्ु ठानों और बैठकों में विदे शी िस्तओ
ु ं के उपयोग का समथमन
करने िाले इन दोषी और िनी व्यस्क्तयों का सामास्िक बदहष्कार करना होगा।
उनके साथ ककसी भी तरह की सभा या बंिन पर सख्ती से रोक लगानी चादहए।
यहां तक कक दक
ु ानदारों को भी उन्हें दै तनक आिास की आपतू तम करने से इनकार
करना पडता है। इस संबंि में हम पाते हैं कक, श्री अरत्रबंदो ने यहां बदहष्कार की
सख्त भािना को लागू करने की कोलशश की। इसललए तनस्ष्क्रय प्रततरोि का तीसरा
लसद्िांत दस
ू रों के बीच सबसे महत्िपण
ू म लगता है।

7.1 ह द
ं ू राष्ट्र और भारतीय स्तर पर वी डी सावरकर

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सािरकर दहंद ू को एक िातीय, सांस्कृततक और रािनीततक पहचान के रूप में


मानते है। उन्होंने भारतीय उपमहाद्िीप या “अखंड भारत”, िो दहमालय और दहंद ू
कुश के दक्षक्षण का भजगोललक क्षेत्र है, को दहन्दओ
ु ं की मातभ
ृ लू म के रूप में माना।

िो लोग भारत को अपनी वपतभ


ृ लू म और पण्
ु यभलू म भी मानते हैँ, सािरकर उन्हेँ
दहन्द ु मानते हैं। उन्होंने इसके ललए एक संस्कृत दोहे का उपयोग ककया:

आ लसंि-ु लसंिु पयमन्ता, भारत भलू मका यस्य


वपतभ
ृ -ू पण्
ु यभू भश्ु चेि सा िै दहंद ू रीती स्मत
ृ ः

सािरकर ये भी बहुत िोर दे कर कहा है कक गैर भारतीय िमों के लोगों को कभी


भी “दहंदओ
ु ”ं के रूप में नहीं पहचाना िा सकता है

यही कारण है कक हमारे मस


ु लमान या ईसाई दे शिालसयों,स्िन्हें मल
ू रूप से िबरन
एक गैर दहन्द ू िमम में पररिततमत कर ददया गया था और इसके पररणामस्िरूप
स्िन्हें एक ही िन्मभलू म और एक ही संस्कृतत का एक बडा दहस्सा -भाषा,
कानन
ू ,रस्में , लोकगीत और इततहास – दहंदओ
ु ं के साथ विरासत में लमला है, िो
दहन्द ू नहीं हैं और उन्हें दहंदओ
ु ं के रूप में मान्यता नहीं दी िा सकती।

हालांकक ककसी अन्य दहन्द ू की तरह उनके ललए भी दहंदस्


ु तान िन्मभलू म है , अभी
तक यह उनके ललए एक पण्
ु यभलू म नहीं है । उनके पण्
ु यभलू म दरू अरब या कफललस्तीन
में है ।

खुद सािरकर के अनस


ु ार, दहंदत्ु ि, दहंद ू िमम से अलग है । उन्होंने दहंदत्ु ि शब्द का
उपयोग सभी भारतीय चीिों के ललये एक सांस्कृततक रूप में ककया है । उसने
कहा:

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दहंदत्ु ि लसफम एक शब्द नहीं बस्ल्क एक इततहास है । लसफम हमारे लोगों की


आध्यास्त्मक या िालममक इततहास ही नहीं, कई बार यह अन्य सिातीय शब्द दहंद ू
िमम के साथ गलती से लमला ददया िाता है , लेककन पण
ू म में एक इततहास। दहंद ू िमम
केिल दहंदत्ु ि का एक व्यत्ु पन्न, एक अंश, एक दहस्सा है। दहंदत्ु ि हमारे दहन्द ू िातत
के परू ी सोच और गततविधि के सभी विभागों को गले लगाती है

पैम्फलेि समान रक्त,समान संस्कृतत,समान कानन


ू ों और संस्कार के संदभम में
दहंदत्ु ि को पररभावषत करता है।

दहंदत्ु ि की पहली अतनिायमता भजगोललक होनी चादहए। एक दहंद ू मख्


ु य रूप से खुद में
या अपने पि
ू ि
म ों के माध्यम से ‘दहंदस्
ु तान’ का नागररक है और उसकी भलू म को
अपनी मातभ
ृ लू म होने का दािा करता है ।

दहंदत्ु ि की दस
ू री सबसे महत्िपण
ू म िरूरी है कक एक दहंद ू एक दहन्द ू माता-वपता का
िंशि है , उसकी रगों में प्राचीन लसंिु का रक्त दजड रहा है ।

इस प्रकार दहंदत्ु ि के इस तीसरे अतनिायमता की उपस्स्थतत िो हर दहंद ू मे


अपनी िातीय संस्कृतत के ललये एक असामान्य और तयार ि मोह की आिश्यकता
है , हमें परू ी तरह से दहंदत्ु ि की प्रकृतत का तनिामरण करने के ललये सक्षम करता है

सािरकर ने अपने पैम्फलेि में स्पष्ि ककया कक दहंद ू िमम केिल “दहंदओ
ु ं” के बहुमत
का िमम है, मल
ू रूप से, “दहन्द”ू की इस पररभाषा मेँ लसख, बजद्ि या िैन के रूप में
अन्य भारतीय िमों के अनय
ु ायी भी शालमल हैँ ।

दहंद ू िमम का अथम है दहन्द ू लोगों के बीच आम तजर पर पाये िाने िालल िालममक
विश्िासों की प्रणाली।िादहर तजर पर

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दहंद ू िमम का मतलब िो िमम या िमों का होना चादहए िो इस दे श और इन लोगों


के अपने और विशेष होँ

संक्षेप में ,

सािरकर की दहंदत्ु ि विचारिारा राष्रीयता कोिमम , संस्कृतत और नस्ल के आिार पर


पररभावषत करती है ।

सािरकर अन्य भारतीय िमों को दहंद ू िमम के बराबर समझता है, और उनके
अनय
ु ातययों के साथ दहंद ू के सामन रूप में व्यिहार करता है ।

यह गैर-भारतीय िमों के अनय


ु ातययों के ललए अखंड भारत के दहंद ू राष्र की
नागररकता पर एक समान दािा होने के रूप में नहीं स्िीकार करता

दहंदत्ु ि का विचार विलभन्न िमों और संस्कृततयों के मेल से बानी एक सांझी लमली-


िुली विरासत और पैदा हुए भारतीय पहचान की िारणा को नहीं मानता है ।

सािरकर के दहंदत्ु ि के आिार पर बना एक दहंद ू राष्र, दहन्द ू प्रभत्ु ि और दबदबे की


बात करता है, एक िहााँ गैर भारतीय िमम के अल्पसंख्यकों को दस
ू री श्रेणी के
नागररक के तजर पर दे खा िाता है ।

7.2 सामाजिक संगठन ई करण पर एम एस गोलवरकर

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10.1 कारण और अधिकारों पर डॉक्टर भीमराव अंबेडकर

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10.2रविंद्र नाथ िै गोर के गांिी से मतभेद

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