Professional Documents
Culture Documents
भारत का दैविक गणतंत्र - निर्मल अरोड़ा
भारत का दैविक गणतंत्र - निर्मल अरोड़ा
निर्मल अरोड़ा
इक्कीसवी सदी ज्ञान की सदी है। भारत का सम्पूर्ण ज्ञान वेदों
उपिनषदों की ज्ञान ऊर्जा पर आधािरत है। तैत्तरीय उपिनषद
से चलते आज सौर मण्डल तक पहुँचने का वैज्ञािनक ज्ञान
वेदों पर िटका है। हमें गर्व है िक इसी ज्ञान से हमारे भारतीय
वैज्ञािनक मंगल गृह और कई उपगृहों पर पहुँचे है और कई
नए �यास और �योग कर रहे हैं। भारत के संिवधान में भी
इसी ज्ञान वैज्ञान और अध्यात्म का ही समन्वय है। इसी ज्ञान
के बल से हमने स्वतंत्रता संग्राम जीता। प्रजातंत्र शासन
प्रणाली की स्थापना हुई। नया ‘संिवधान’ मानतावादी ग्रंथ
की रचना हुई।
भारत का राष्ट्रीय ध्वज तीन रंगों से बना ितरंगा राष्ट्रीय मानवतावादी ज्ञान का प्रतीक
है। सर्वप्रथम १९०४ में स्वामी िववेकानंद की िशष्या भगिनी िनवेिदता द्वारा रिचत
ितरंगा राष्ट्र की पहचान बना।
यह ध्वज ७ अगस्त १९०६ में लाल, पीले, हरे रंग की क्षैतिज पट्टियों में था। बीच की
हरी पट्टी में आठ कमल थे, और नीचे की पट्टी पर वन्दे मातरम᳭ लिखा गया था। २१
अगस्त १९०७ में मैडम भीखाजी कामा ने भारतीय गौरव की पताका को इंटरनेशनल
सोशलिस्ट कॉनफेरेन्स स्टुटगार्ट (जर्मनी) में फहराया था।
यही स्वराज्य ध्वज १९३१ में अाधिकारिक तौर पर कांग्रेस द्वारा अपनाया गया, जिसे
१९४७ में ध्वज के रूप में मान्यता प्राप्त हुई। उस समय स्वदे शी की माँग ज़ोरों पर
थी, इसलिए स्वदे शी का प्रतीक महात्मा गांधी का चरखा मध्य पट्टी में अंकित हुआ
था। आज तीन समान चौड़ाई की क्षैतिज पट्टियों का वहीं ध्वज है पर चरखे के स्थान
पर चक्र हैं।
सबसे ऊपर केसरिया रंग दे श की
ताक़त, साहस, वीरता, आध्यात्मिक
सद्भावना का द्योतक है।
दूसरा चिन्ह सारनाथ स्थित अशोक के सिंह स्तंभ की अनुकृति है। मूल स्तम्भ के शीर्ष
पर चार सिंह हैं जो एक दूसरे की ओर पीठ किए हुए हैं। इसके नीचे घंटे के आकार
में पद्म के ऊपर एक चित्र वल्लरी में एक हाथी, चौकड़ी भरता हुआ एक घोड़ा, एक
सांड और एक सिंह की उभरी हुई मूर्तियाँ हैं।
इन के बीच-बीच में चक्र बने हुए हैं। एक ही पत्थर को काटकर सिंह स्तंभ के ऊपर
धर्मचक्र रखा हुआ है। यह चिन्ह समग्र ख़ुशहाली का प्रतीक है। भारत सरकार ने
इसे २६ जनवरी १९५० को अपनाया। इसके आधार का फलक छोड़ दिया गया
पर फलक के नीचे मुण्डकोपनिष्द के छटे श्लोक को अपनाया। उसका सूत्र वाक्य
‘सत्यमेव जयते’ दे वनागरी लिपि में अंकित है, जिसका अर्थ पूर्णतया स्पष्ट है।
सत्यमेव जयते
~ राष्ट्र गीत ~
वन्दे मात्मम्
गुरूदे व रवीन्द्रनाथ रचित ५२ सेकिंड की अवधि में गाया जाने वाला राष्ट्र ध्वज सम्मान
का गान ‘जन गण मन अधिनायक’ राष्ट्र गान घोषित किया गया। २६ दिसम्बर १९११
में रचित, २७ दिसम्बर को गुरूदे व रविन्द्र नाथ ठाकुर ने कांग्रेस अधिवेशन में (स्वयं
बंगला भाषा में) संस्कृत शब्दों में पाँच पदों का यह गीत गाया था पर स्वतन्त्र भारत
ने केवल प्रथम पद ही अपनाया।
~ राष्ट्र गान ~
जन गण मन अधिनायक जय हे
भारत भाग्यविधाता
पंजाब सिंध गुजरात मराठा
द्राविड़ उत्कल बंग
विंध्य हिमाचल यमुना गंगा
उच्छल जलधि तरंग
तव शुभ नामे जागे
तव शुभ आशिष मागे
गाहे तव जय गाथा
जन गण मंगलदायक भारतभाग्यविधाता
जय हे, जय हे, जय हे जयजयजय हे।
इसी अधिवेशन २६ दिसम्बर १९११ को बंकिम चन्द्र चटर्जी द्वारा रचित राष्ट्र गीत
‘वन्दे मातरम’ को राष्ट्रीय गीत घोषित किया गया।
वंदे मातरम्
सुजलाम, सुफलाम मलयज शीतलाम
शस्य श्यामलाम् मातरम्
शुभ्रज्योत्सनां पुलकितयामिनीम्
फुल्लितकुसुमित द्रुमदलशोभिणिम्
सुमधुर भाषिणिम्सु
खदाम् वरदाम् मातरम्।
इस गीत की धुन श्री भट्टाचार्य ने १८८२ में बनाई और आनन्द मठ में भवानन्द स्वामी
ने गाया। यह गीत स्वतंत्रता संग्राम के लिए ज्वलन्त मशाल बना। इक़बाल रचित गीत
‘सारे जहाँ से अच्छा हिन्दुस्तान हमारा, हम बुल बुले हैं इसकी यह गुलस्तॉ हमारा’
इन गीतों और कई अन्य साहित्यकारों ने स्वतन्त्रता की चिंगारी को जगाया। सब का
प्रेरणा स्रोत दे श का प्राचीन गौरवशाली इतिहास ही था। वेदों पुराणों की वाणी थी,
वीरों की कहानी थी, जवानी की क़ुर्बानी थी।
बंकिम चन्द्र चटर्जी रचित ‘आनन्द मठ’ के गीत ‘वन्दे मातरम् .......’ को राष्ट्र गीत
के रूप में गाया गया। स्वतन्त्रता संग्राम के समय इस गीत ने प्राण डाले, जन जन को
आज़ादी पाने के लिए वीरों को सैनिक बनाया। यह गीत वास्तव में ही प्रेरणा स्रोत है
१८९६ में पहली बार भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के सत्र में यह गीत पहले भी गाया गया
था।
~ बंकिम चन्द्र चटर्जी ~
१८५७ की चिंगारी से आज़ादी का उदय काल शुरू हुआ। १५ अगस्त, १९४७ को
भारत स्वतन्त्र हुआ। नई शक्तियों का भी जन्म हुआ। २६ जनवरी, १९५० सें पूर्ण
आज़ादी पाने के बाद विकास के कई बंद द्वार खुले। ज्ञान विज्ञान की शक्तियों के
कारण नई चेतना ने अंगढ़ायी ली, जिसने सिद्ध कर दिया कि प्रत्येक क्षेत्र में योग्य
भारत विश्व का आध्यात्मिक जगत गुरू है।
इस दे श की संस्कृति की प्राण शक्ति हमारी धर्म भावना है। निष्ठा से जीवन के आचार
व्यवहार में, यहाँ तक कि नित्य की दिनचर्या में संयमित भावों के गुणों को धारण करते
हुए व्यवहार करना ही हमारा धर्म है। यह मानवतावादी अर्थपूर्ण दृष्टिकोण ही हमारे
धर्म का व्यापक भाव है। इसमें किसी प्रकार की सांप्रदायिकता या वैयक्तिक भावना
का लेशमात्र भी बोध नही होता।
आज विज्ञान के युग में भारत की प्रजातन्त्रीय प्रणाली में 'सर्वे सुखना' गुणों
का सम्मिश्रण है जिसे मूल कर्तव्य और अधिकारों की संज्ञा दी गई है।
संयुक्त पूर्ण आज़ादी के बाद राष्ट्रीय मानवतावादी ज्ञान का यह उदयकाल है। संयुक्त
राष्ट्र संघ की स्थापना इसी मूल भाव से की गयी थी और अब भी वही है। यही
मानवतावाद है, यह समाजवाद है, और यही प्रजातंत्र है। और यही प्रजातंत्र ही
ईश्वरीय तंत्र है। जनता का जनता द्वारा जनता के लिए शासन, जिसमें भारत की
उदार भावना व प्राण बसे हैं। इस भावना के अनुसार ही हमारे वेदों में धर्म के
दस लक्षण ही इन्ही भावों को स्पष्ट करते हैं: धृति, क्षमा, दम, अस्तेय, शौच,
इन्द्रियनिग्रह, धी, विद्या, अक्रोध और सत्य।
इन तीन अक्षरों के अर्थ प्रतीकात्मक रूप में सृष्टि के निर्माता, प्रशासक एवं संहारक,
ब्रह्मा, विष्णु और महेश माने जाते हैं।
सत्व, रज एवं तम त्रिगुणों से परिपूर्ण यह संसार है। यही त्रिगुणात्मक प्रकृति के
प्रतीक गुण आधुनिक प्रजातन्त्रीय शासन प्रणाली का मूल लक्षण हैं। इन गुणों का
प्रतीक भाव विष्णु जी की मुद्रा से स्पष्ट होता है।
चतुर्भुजी विष्णु के चारों हाथों में शंख, चक्र, गदा तथा पद्म अर्थात् साम, दाम, दं ड,
भेद पूर्ण नीतियों का गहन ज्ञान छिपा है।
1) शंख जन जागरण की
चेतना के प्रसार का द्योतक है।
विष्णु जी का शंखनाद ज्ञानपूर्ण
जागृति तथा जन चेतना के लिए
अति आवश्यक है। कितनी भी
अशान्ति, कितना भी कोलाहल
मन के बाहर व भीतर हो,
शंखनाद होते ही शान्त हो जाता
है। शंखनाद तनावग्रस्त प्राणी
को भी ध्यानाकर्षण द्वारा
तनावमुक्त कर लेता है। वहीँ
तुरन्त सद्भावना, सहयोगपूर्ण कोमल शान्त वातावरण पैदा हो जाता है। यह नाद
जन जन में मैत्री, करूणा, अहिंसा, आस्था, शारीरिक स्वास्थ्य एवं साँसों की दीर्घ
कालीन क्षमता पैदा करता है।
प्रजातन्त्र में प्रजा शारीरिक रूप से स्वस्थ हो, वातावरण स्वच्छ और शान्त हो,
हर स्थान पूजा स्थल हो तभी दे श का बहुमुखी सामाजिक, मानसिक एवं आत्मिक
विकास सम्भव है। प्रजातन्त्रीय लोकहित के लिए सामाजिक और राजनैतिक
उच्छृंखलता, अनुशासनहीनता, उन्माद इत्यादि को दूर भगाने के लिए इस प्रकार
के नाद से चेतना पैदा करना अति महत्व रखता है। श्वास क्रिया में शंख वैज्ञानिक
चिकित्सीय महत्व सिद्ध करता है। फेफड़ों की शुद्धि के लिए शंख बजाना यौगिक
क्रिया है। मन शरीर और आत्मा का योग है, नाद योग है।
२) विष्णु जी के दूसरे हाथ में चक्र दिखाई दे ता है। यह चक्र जगत की नियमितता की
जीवन्तता का सन्देश दे ता है। चक्र की गति संदेश दे ती है कि समय गतिशील है। जगत
में वही विकास करता है जो निरन्तर गतिशील है। जीवन की कार्यशाला में निरन्तर
काम करता है।
यह चारों प्रतीक इस तथ्य को स्पष्ट करते हैं कि समाज का वही पोषक होगा, विकास
करेगा जिसके पास ज्ञान, कर्म, विधि पालन क्षमता और निष्पक्ष नीति पालन की
सामर्थ्य है। यही प्रधानमंत्री का कर्त्तव्य है।
विष्णु क्षीर सागर पर शयन मुद्रा में भी दे खे जाते हैं। शेषनागों की छाया में निश्चिन्त
मुस्काते हुए अर्द्धसुप्त मुद्रा में शयन कर रहे हैं। इस मुद्रा का अभिप्राय है कि
वह राजनैतिक गतिविधियों के प्रति सदा जागरूक हैं। सागरीय हलचल पूर्ण
गतियों, भीतरी बाहरी स्थितियों से कभी घबराते नहीं। शान्त भाव से प्रत्येक
विभाग के काम पर दृष्टि रखते हैं। कार्यों को कई विभागों में विभाजित किया जाता
है, प्रत्येक विभाग के कार्य को सोते जागते दे खते है। हर विभाग अपना उत्तरदायित्व
निभाता है।
प्रत्येक प्रकार के विकास कार्य के लिए आर्थिक सम्पन्नता चाहिए। अर्द्धसुप्त
विष्णु जी की मुद्रा ज़रा ग़ौर से दे खे तो मानवता की उदात्त झलक में शान्ति और
सेवा का मिश्रण है। सिर पर शेषनागों की छाया है, शान्तभाव से वह एक ही मुद्रा
में स्थिर हैं, ध्यान मग्न है। विष जैसी फुँकार भी विचलित नही कर सकती।
उनके चरणों में लक्ष्मी जी बैठी उनके चरण दबा रही हैं। इसका प्रतीक भाव है
कि दे श की पोषक शक्ति लक्ष्मी यानि धन से ही सामाजिक उत्थान सम्भव होता
है। पैर शरीर का निम्न भाग हैं पर सारा शरीर भार पैरों पर ही टिकता है और
खड़ा होता है। धन का बुद्धि से प्रयोग होना अति आवश्यक है। लक्ष्मी का पैरों
में निवास और बुद्धि का ऊपर सर में निवास इस तथ्य को स्पष्ट करता है।
इसका भाव है कि दे श की प्रगति धन और निस्वार्थ सेवा भावना पर टिकी है।
समाज का सर्वागींण विकास निम्न वर्ग के सुख, सेवा, सुविधा साधनों एवं स्वस्थ
सुशिक्षित सुखी जीवन के बिना असम्भव है। यदि धनदे वी लक्ष्मी की पोषक
शक्ति का प्रयोग दलदलियों की दुष्प्रवृत्तियों में न लगाकर जन कल्याण के
कार्यों में लगाया जाता है तो संसार - सागर के नागों का विष प्रभाव दे श के
विकास को निगल नहीं सकता।
विष्णु जी का वाहन गरुढ़ है। व्योमचारी गरुड़ की दृष्टि का कमाल है कि धरती
पर सृप (धीमी), सुस्त गति की हर दुर्बल शक्ति का वह भक्षण कर लेता है।
सर्प जाल को भी निगल जाता है। यूँ कहा जा सकता है कि विष्णु जी का
वाहन भी तत्परता और तीव्रगामी शक्तियों का समर्थक है। यह सूक्ष्म, पारदर्शी,
दूरदर्शी वाहन ऐसा उद्यमी है तो स्वामी के गुणों का क्या कहना? वैज्ञानिक
साधनों के होते वायु गति से चलने वाले इस युग में अाज आलसी
अकर्मण्य विषाक्त शक्तियों या क्रियाहीनों को जीने का अधिकार नहीं।
विष्णु जी के साथ ही लक्ष्मी जी गरुड़ की सवारी करती हैं। अकेले चलने के लिये
लक्ष्मी जी का वाहन उलूक है। इससे यह स्पष्ट है कि केवल धन सुखी समाज
नहीं बना सकता, जब तक उसका जन सेवा में सद्धबुद्धि से सदुपयोग नहीं
होता, वर्गों का भेद नहीं मिटता, समता नही होती। उल्लू इस तथ्य का प्रतीक है
कि आर्थिक नीतियों का उचित उपयोग हो वरन् ग़लत नीतियों या धन के
दुरुपयोग से, दुष्प्रवृत्तियों और दुष्परिणामों से निशाचरी शक्तियाँ समाज
को पीड़ा दे ती है, जैसे उल्लू रात भर अंधेरे में भटकता है। उसके भाग्य में
रात है, दिन का प्रकाश नही। ऐसे ही अज्ञानी निशाचरी शक्ति फैलाने वाला
दुर्जन भटकता है। दिन में उल्लू को कुछ दिखाई नहीं दे ता, ऐसे में अज्ञानता,
दरिद्रता, दुष्टता, चरित्रहीनता बढ़ती है ज्ञान की उज्ज्वल रोशनी में न स्वयं
आगे बढ़ता है, न समाज को आगे बढ़ने की शक्ति दे ता है। यही कारण है
की भ्रष्टाचार लिप्त दे श में चौमुखी प्रगति नहीं हो रही है। तेजस्विता, स्फू र्ति,
सज्जनता का विनाश करके भोग प्रवत्तियों रूपी रात्रि में भटका रहता है।
उसके भाग्य में अज्ञानता रूपी रात्रि रहती है, दिन की उज्ज्वल गरिमा और
प्रकाश का आन्नद उसे नहीं मिलता। अत: रात्रि की कालिमापूर्ण स्थिति
दे श के वित्तीय विभाग के मार्ग में बाधा बनती है, शोषण करती है। भ्रष्ट
आचरण, भ्रष्ट नीति दूरदर्शी नही होती। अत:दे श का वित्तीय विभाग उल्लू
जैसे वाहन पर न रहे अपितु पोषक शक्ति विष्णु लक्ष्मी गरुढ़ पर ही रहे ताकि
अर्थ व्यवस्था की सम्पन्नता से दे श का चतुर्मुखी विकास तीव्रगति से हो।
~ वित्तीय शक्ति विभाग ~
वित्तीय शक्ति महा शक्ति है। धन बिना किसी प्रकार का कोई भी काम नहीं होता।
घर हो या दे श सब जगह सुख शान्ति के लिए धन का कुशल उपार्जन हो एवमं
अच्छे सुनियोजित ढं ग से ख़र्च करने की क्षमता हो। इसलिए ही कुशल गृहिणी
को लक्ष्मी की उपाधि दी जाती है।
इस कार्य के लिए दशो दिशाओं के ज्ञाता चतुर्मुखी ब्रह्मा है। समदृष्टि से कमल
पर बैठ कर सब दिशाओं को दे खते हैं। कमल की तरह दलगत दुष्प्रवृत्तियों से
ऊपर उठकर कार्य करना निष्पक्ष चतुर्दिशी जीवन विकास का प्रतीक है।
कमल स्वत: ही पक्षपात रहित कल्याण भावना का प्रस्फु टन है। नाभि से
निकली कमल नाल पर विकसित कोमल, स्वच्छ, कमल पर बैठकर चारों
दिशाओं के ज्ञाता होना ही प्रजातंत्र युग में भविष्य का दूरदृष्टा होना है।
यह कमल उनकी निर्लेप भावना का प्रतीक है। चारों हाथों में चार वेदों (ऋग वेद,
साम वेद, अथर्व वेद, यजुर वेद ) का भाव बोध कराता है कि वह हर विषय का
ज्ञान, भाव, अर्थ की सरस सम्पूर्णता से सम्पन्न हैं।
इस योजना विभाग का कार्य क्षेत्र बहुत विस्तृत है। साहित्य, कला, संगीत, दर्शन,
इतिहास, भूगोल, वाणिज्य, कृषि, इत्यादि विभिन्न क्षेत्रों की योजनाएं विद्या
के बिना भावनात्मक तथा प्रायोगिक रूप से विकसित नहीं हो सकती। अत:
ब्रह्मा के इस कार्य रुप की सम्पूर्णता सरस्वती से है।
सरस्वती माँ के एक हाथ में वेद ग्रंथ सद्भावनाओं और ज्ञान के प्रतीक हैं, वहाँ
दूसरे हाथ में ज्ञानार्जन की एकाग्रता और तन्मयता की प्रतीक माला है। एकाग्रता
और तल्लीनता के ज्ञान से ही कार्य तत्परता से सम्पन्न हो सकते हैं। इसी से ही
विवेक जागृत होता है।
सरस्वती जी के अन्य दो हाथों में झंकृत वीणा मानव मन में कोमल भावनाओं
की प्रेरक है। नागरिक को सम्वेदनशीलता के लिए ललित कलाओं के उत्थान
की ओर जाने का संकेत करती हैं। संगीत शान्त चित्त, बुद्धि, और भावनाओं
की त्रिवेणी है। गायन की सप्तस्वरों की इन्द्रधनुषी लहरें निष्प्राण को प्राणवान
करती हैं। आनन्द में तल्लीन यह ज्ञान क्षीर सागर है जिस पर सूर्य सी दीप्ति रहती
है। विष्णु जी अर्द्धसुप्त मुद्रा में शयन करते हुए भी समस्त जगत का कार्य करते
है। यही विवेक के बिखरे ज्ञान मोती हैं और अज्ञानता के अंधकार को मिटाने
की शक्ति रखते है। यही कला कौशल ही भीतर मन की लौ है जो अंधेरी भीतर
गुफ़ा में उजाला भरती है। जीवन की अच्छी बुरी राह की पहचान कराती है।
इसी विद्या को दे ने वाली हैं सरस्वती माँ। ज्ञान, विवेक और सद् बुद्धि की गरिमा
के प्रतीक हंस और मयूर उनके वाहन हैं। हंस नीर क्षीर का विवेचन कर सकता
है। यह संदेश दे ता है कि सार ग्रहण कर के असार छोड़ दिया जाए।
अज्ञानता एवं कुविचारों को मिटा कर ही नीर क्षीर विवेचक बना जा सकता है।
इसलिए संगीत की दे वी श्वेतवर्णी माँ सरस्वती श्वेत कमल पर आसीन है। समाज में
सद्गुणों का विकास करके कलुषित भावनाओं को मिटाने की क्षमता से भरपूर है।
संवेदनशील मानवीय गुणों को जगा कर राष्ट्र को नया जीवन दे ने की अतुल्य शक्ति है।
शांत, सुन्दर मनमोहक मयूर हमारा राष्ट्रीय पक्षी है। यह धरा गगन पर सरलता
से उड़ान भर सकता है। इसी प्रकार, ज्ञानी कलाकार अपनी कल्पना और वास्त्विक
ज्ञानशक्ति से धरा गगन पे उड़ सकता है। “जहाँ न जाए रवि, वहां जाए कवि”।
सुप्त भावनाओं को कलाकृतियां ही जगा सकती हैं।
स्पष्ट है कि वेदों के विस्तृत अध्ययन से ज्ञान, विज्ञान, कर्म, संगीत, नीति, राजनीति,
बल प्रयोग की कल्याणकारी विधाएं प्रायोगिक रूप से पढ़ पढ़ा कर ही एक
अच्छा नागरिक राष्ट्र हित की योजनाएँ बना सकता है। दे श का विकास कर
सकता है। विश्व गुरू बन सकता है। अतः सरस्वती के हाथों में भाव सम्पन्न वेद
ही हमारी संस्कृति के मुख्य सुदृढ़ स्तंभ है। जैसे गणितज्ञ और ज्योमिती आचार्य
आर्यभट्ट की दे न सारे विश्व के लिए वरदान हैं। विश्व जानता है कि शून्य और
दशमलव की परम्परा ही जगत के लिए समग्रता की भावना वेदों की ही दे न है।
अज्ञानता अभिशाप है, दरिद्रता का मूल कारण हैं। अत: इससे उभरने के लिए
शिक्षा अनिवार्य है। प्रत्येक योजना विभाग की सफलता का उत्तरदायित्व शिक्षा
एवं मानव संसाधन मंत्रालय का है। इस के लिए सुचारू बुद्धिपूर्ण बनाई गयी योजनाएँ
ही दूरदर्शी, कुशल, ज्ञानवान, जागरूक, बलवान, निर्भीक संवेदनशील नागरिक
बनाने में सहायक हो सकती हैं।
भाषा ज्ञान ही मानव मन की शक्तियों की व्याख्या करने में सक्षम होता है। शिक्षा का
माध्यम भाषा होती है। भाषा या भाषाओं के ज्ञान बिना राष्ट्र उत्थान असम्भव होता
है। भाषा राष्ट्र का प्राण होती है। भाषा के बिना राष्ट्र गूँगा होता है। अपने विचारों का
अदान प्रदान नही कर सकता। इसलिये गांधी जी के अनुसार मातृभाषा से बच्चा
या बड़ा हर विषय जल्दी सीखता है।
यहाँ शिक्षा विभाग की योजनाओं को बनाने तथा उन्हें क्रियान्वित करने में कहीं
कमी लक्षित होती है। दे श के बहुमुखी विकास के लिए भाषा ही स्तम्भ है जिसकी
क्षमता शक्ति के सहारे सुदृढ़ कुशल प्रजातन्त्रीय समाज खडा हो सकता है। अपनी
भाषा में अपने मन की बात एक दूसरे को समझा सकता है, सोच बढ़ा सकता
है। भाषा के द्वारा ही विधि पालन, व्यवस्था, सुरक्षा, अनुशासन पालन से दे श के
उत्थान में अपना योगदान दे सकता है। भाषा ही दे श की चेतना का गौरवभाव है।
~ खाद्यान्न अपूर्ति विभाग ~
समाज और शरीर के प्रत्येक अंग के विकास का प्रमुख चरण उत्तम पौष्टिक भोजन
की व्यवस्था है। किसी भी खाद्य विभाग का उत्तर दायित्व है कि धरती की उपजाऊ
शक्ति, उसके कृषि विकास एवं समृद्धि संवर्धन का ज्ञान, विकास के साधनों का
ज्ञान बढ़ाने पर बल दे । धरती की उर्वरा शक्ति, जलवायु की पहचान, खाद्य पदार्थों
के भण्डारण और वितरण व्यवस्था का कुशल व्यावसायिक एवम् व्यावहारिक
ज्ञानवान कुशल व्यक्ति को दिया जाए। इसी विभाग की कुशलता पर मानव
प्राण जीवित रहते हैं। सब जानते है कि कुपोषित भूख से पीड़ित शरीरों से ही
सब रोगों और दोषों का जन्म होता है। हर प्राणी की भूख सदा मिटती रहे तभी
सन्तुष्ट, तृप्त, नैतिक, गुणवान, चरित्रवान स्वस्थ नागरिक दे श का भविष्य उज्ज्वल
कर सकता है। बलवान स्वस्थ नागरिक ही दे श की अमूल्य दौलत होते हैं।
खाद्य शक्ति के लिए कई विभाग मिल कर काम करते हैं। प्रत्येक युग के हर प्राणी
की भूख मिटाना हर राष्ट्र का राजधर्म है। इन्सान का पेट भरा हो तो दे श का संतोष-
धन बढ़ता है। अपराध भावना और दुष्प्रवृत्तियों से हटकर मानव काफ़ी हद तक
दूसरे को कष्ट नहीं दे ता। अत: दे श की पोषक शक्ति से ही, अन्न और धन का
शान्तिपूर्ण विकास है।
खाद्यान्न योजना विभाग की कुशल नीति पर दे श की रक्षा, सुरक्षा, स्वास्थ्य और
शिक्षा निर्भर करती है। किसान के खेतों के लिए अच्छे बीज, उपजाऊ धरती,
बीजों की बुआई, जल व्यवस्था सिंचाई, फ़सलों की दे खभाल, पक्की फ़सलो
के भण्डारण और वितरण की व्यवस्था भी निपुण सरकार का दायित्व है। प्रत्येक
राज्य सरकारों को मिलकर यह कर्त्तव्य निभाना होता है। इस कार्य को सुचारू
रूप से करने के लिए जल एवं सिंचाई, कृषि विज्ञान, मौसम विज्ञान की शिक्षा
के तालमेल का प्रबन्ध भी राज्य सरकारों को करना चाहिए। खाद्यान्नों का ज्ञान
हर किसान को शिक्षित किए बिना नही हो सकता इसलिए कृषि विद्यालयों
का प्रबन्ध भी होना आवश्यक है।
भारत में हर वर्ग की हर पूजा के बाद विभिन्न धर्म में लंगर (भंडारा करना)
यानि मिलकर एक स्थान पर एक सा ही भोजन करना सामूहिक मैत्रीपूर्ण नेक
कर्म माना जाता है। समाजवादी दृष्टि है जिससे निरोग पुष्टिवर्धक समाज का
निर्माण स्वत: होने लगता है। यही दुर्गा शक्ति है जिसका वाहन सिंह है। यह
शौर्य, विजय, दूरदर्शिता और साहस का प्रतीक है और दुष्प्रवृत्तियों पर नियन्त्रण
करने की अटू ट शक्ति है, जैसे जंगल में सिंह की एक दहाड़ ही सब पशु पक्षियों
को सचेत कर दे ती है और उसकी शक्ति को सब स्वीकार करते है। उसके मार्ग
में नहीं आते। अत: मानसिक एवं सामाजिक शक्तियों के विकास के लिए खाद्य
भोज्य पदार्थ ही आधार हैं।
यह कथन सत्य है कि "जैसा करे आहार, वैसे बने विचार, जैसा खाए अन्न वैसा होवे
मन"। ऊर्जावान राष्ट्र बनाना खाद्य विभाग का दायित्व है। खाद्य आपूर्ति के बिना
साहस व स्वदे श प्रेम की भावना बलवती नही होती इसलिए अन्न उत्पत्ति, उसका
संग्रह एवम् स्वच्छ और स्वस्थ खाद्य भण्डारण और संतुलित वितरण प्रणाली को
लागू करना इस मंत्रालय का महत्वपूर्ण कार्य है। इसी से ही दे श की सुदृढ़ नींव तैयार
होती है, विशालकाय भवन खडा हो सकता है।
दुर्भाग्य से नदियों के किनारे दूषित, बहता पानी दूषित, पानी की घर-घर सप्लाई
का तरीक़ा दूषित और निर्दयतापूर्वक उसका प्रयोग भाव दूषित है। इस दूषण
का कारण हमारी दूषित मानसिकता ही है। प्राचीन काल की तरह धर्म भावना
की उदात्त भावना जगाकर वरूण दे वता और नदियों को माता मान कर
चले तो प्रदूषित जल से रोग नहीं बढे गें। स्वार्थ धनोपार्जन की भावना से
बंद बोतलों के पानी से मुक्ति मिलेगी। पक्षी-पशु राहगीर प्यासे नही मरेंगे।
प्रकृति के शुद्ध साधनों से प्राप्त अमृत समान जल पाकर ही समानता पैदा होगी।
दीर्घजीवी स्वस्थ नागरिक ही पेयजल पाकर राष्ट्र हित में काम करेंगे।
नदियों के किनारों पर हरी-भरी, छायादार वृक्षों की कतारें होंगी तो जल
विभाग को आज की तरह अलग जल संरक्षण, सफ़ाई विभाग, बाढ़ नियंत्रण
विभाग बनाने की आवश्यकता ही न पड़ेगी।
~ रक्षा मंत्रालय ~
गृह मंत्रालय और रक्षा मंत्रालय दे श की सबल भुजाएँ है। रक्षा विभाग में दे श की
धड़कन बसती है। यह मंत्रालय केवल दे श की सीमाओं की रक्षा सुरक्षा ही नहीं
करता है, अपितु दे श के भीतर भी रक्षा व्यवस्था, क़ानून पालन, बाढ़, अग्नि, दुर्घटना
की भयंकर स्थितियों में जीवन रक्षा का काम भी यह विभाग करता है। जल,
थल, नभ तीनों स्थलों की सेनाएँ जान हथेली पर रखकर अपना कर्तव्य पूरा करती
हैं। आसुरी प्रवृत्तियों का विनाश करना इसका परम उद्दे श्य है।
पौराणिक काल से आसुरी शक्तियों का विनाश करने वाली महाशक्ति रक्षक माँ
दुर्गा है। रक्षा मंत्रालय की नवदुर्गा की शक्तियाँ भी नौ दे वियाँ हैं, जिनका सदा पूजन
शक्ति रूप में ही किया जाता है। यह शक्तियाँ विभिन्न नामों से जानी जाती हैं। हर
शक्ति के कई हाथ और असंख्य रूप हैं। वास्तव में यह जनशक्ति का प्रतीक हैं।
विभिन्न शक्तियाँ ही आसुरी प्रवृत्तियों का नाश कर सकती हैं – जिन्हें कई नाम
और विभागों में बाँटा गया है।
माँ दुर्गा मुख्य शक्ति का वाहन सिंह है और यही चौमुखी सिंह चिह्न ही भारत का
शक्ति चिह्न हैं। शेर पर सवार अष्टभुजाधारी दुर्गा और नौ मूर्तियाँ विभिन्न वाहनाे
और नाना प्रकार के आयुध, अस्त्र शस्त्रों से सुसज्जित हैं।
हम अहिंसावादी शान्तिप्रिय हैं, परन्तु विश्व में अपनी सुरक्षा में हम पीछे नही हैं।
नए ढं ग के आधुनिक अस्त्र-शस्त्रों का प्रयोग भी हम कर सकते हैं। जैसे पुराने
समय का ब्रहमास्त्र आज बहमोसा है। अणु परमाणु का प्रयोग और उल्लेख हमारे
वेदों में भी मिलता है। इन्हीं के आधार पर ही पनडु ब्बी, जल पोत बनाए जा रहे
है। वायुयान, मिसाइल, जल थल गगन में नए वैज्ञानिक आयुधों से सुसज्जित
कुशल सेनाएं निरन्तर क्रियाशील रहती हैं। वैज्ञानिक राष्ट्रपति अब्दुल कलाम
आज़ाद ने अपनी पुस्तकों में कई ऐसे उद्धरण दिए हैं, जिससे स्पष्ट होता है की
वेदों में वर्णित विज्ञान ही आज के विज्ञान का मूलाधार है।
~ न्याय एवं कानून मंत्रालय ~
भारत शान्तिप्रिय दे श है। प्रजातन्त्र जनता का, जनता के लिए, जनता का तंत्र,
है अधिकार और कर्त्तव्य की सुन्दर शासन प्रक्रिया है, फिर भी यहाँ प्रजा प्रजातन्त्र
का दुरुपयोग करती है। अपराध बढते ही रहते है। साम दाम दण्ड भेद की
नीतियों से भलीभाँति परिचित करा कर न्याय करने की कोशिश की जाती है।
इस के लिए न्यायविभाग की स्थापना की जाती है। जीवन धारणा की भावना जब
स्वस्थ और उदार नही होती तो न्यायालय का मुँह ताकना पड़ता है।
धर्म ग्रन्थों के अनुसार नियम पालन ना करने पर यम पकड़ लेता है उस समय शिव
का तीसरा नेत्र खुलता है, ऐसे ही आज नियम उल्लंघन के कारण न्यायालय
का दरवाज़ा खटकाया जाता है। पंचायते,
सुप्रीम कोर्ट, हाई कोर्ट अपराधी के पक्षविपक्ष
की दलीलों को सुन कर फ़ैसला सुनाती हैं।
विश्कर्मा के दूसरे हाथ में धनुष है। औद्योगिक विकास के लिए दूरदर्शी योजना,
शौर्यपूर्ण चरित्र, प्रतिरक्षक भावना एवं उत्पादन क्षमता का होना अत्यावश्यक है।
विश्वकर्मा का तीसरा हाथ हथौड़ा थामे हुए है। विशालकाय उद्योगों के लिए
शारीरिक शक्ति की जरूरत होती है। इसीलिए शेर पर अंकित मेक
इन इंडिया (भारत में निर्मित) का चिन्ह, इन्ही चारों हाथों की शक्तियों
का प्रतिबिम्ब है। कौशल शक्तियों को जगाने के लिए युवाओं में
विभिन्न कलाओं का विकास किया जा रहा है, जिसकी पूर्ति के लिए
नारा दिया गया है “कौशल भारत, कुशल भारत’।
इसके द्वारा कलात्मक, औद्योगिक, तकनीकी शिक्षा का भी विकास हो रहा है।
इनके चौथे हाथ में परसा है जिसका अभिप्राय है कि काष्ठ कला, ललित
कला, लघु घरेलू उद्याेगो के लिए भारी औज़ारों की जरूरत नही।
धरती और कृषि से प्राप्त सब साधनों से छोटे उद्योग आसानी से थोड़ी धन
लागत पर सब हाथों से चलाए जा सकते हैं।
हमारा दे श विशाल है, महान है, जन जन के सहयोग से ही आगे बढ़ रहा है।
जनता द्वारा चुने हुए प्रतिनिधियों के सहयोगपूर्ण कार्यों से उन्नति कर रहा है।
सरकार और जनता के विचारों, कार्यों और गतिविधि विधानों, नियमों को
एक दूसरे से जोड़ने का कार्य एक विशेष विभाग करता है। सरकार और जनता
में एक श्रृंखला का काम करता है। यह सूचना एवं प्रसारण विभाग जो आज बेतार
यंत्र प्रणाली के द्वारा हर दे श हर समाज, हर नागरिक को विश्व में एक दूसरे
के निकट ला खडा करता है। इस विभाग ने समय, काल, धरती की दूरियों
को मिटा दिया है, यह मंत्रालय दे श की आवाज़ है। वसुधैव कुटु म्ब की हमारी भावना
को साकार करता है।
नारद जी के एक हाथ में वीणा और दूसरे हाथ में करताल है। इन्हीं की मधुर
ध्वनि प्रासारित होते ही इनका समाज के साथ सम्बन्ध जुड़ जाता है। खुद
पलभर में समाज के सामने हाज़िर हो जाते है। इनके सिर पर बड़ी चोटी, आज
के एरियल का प्रतीक है यानि ध्वनिग्राही यंत्र है जो सब दूरियाँ मिटाता है, पलभर
में वायुगति से ध्वनि प्रासारित करता है।
आज भी यह विभाग नए यान्त्रिक साधनों द्वारा यही काम करता है। समाज सरकार
और व्यक्ति केभावो की गहराई तक पहुँचने की कोशिश करता है।
नारदमुनि कामदे व से दूर रहते हैं जिसका अभिप्राय गुप्तचरों प्रलोभनों और
अनर्गल प्रकाशनों से दूर रहना और जन जागरण का काम करना है। कामदे व के
पाँचो वशीकरण बाणों से बचकर रहना आवश्यक है। आज लोकतंत्र में इन नियमों
का पालन अनिवार्य है
१) सम्मोहन
२) उन्माद
३) शोषण
४) तापन यानि पीड़ा
५) प्रलोभन
इसी तरह सूचना एवं प्रसारण विभाग है। अत: यह विभाग इस प्रकार असावधानी
से कार्य करता है, या जनहित छोड़ अपना कर्तव्य भूल जाता है, तो जनास्था
बिगड़ जाती है। सुर, सुरा, सुन्दरी, धन, पद, प्रलोभन में फँसकर प्रजातन्त्र के
लिए वह अहितकर कर्म करता है और कर्तव्यविमुख हो कर गणराज्य का गला
घोट दे ता है। यह जघन्य अपराध है। इससे दे श की आज़ादी को ख़तरा पैदा होता
है। दे श के भीतर पलने वाले ख़तरों से छु टकारा पाना कठिन होता है। अत: इस विभाग
का उत्तरदायित्व निष्पक्ष, जागरूक, सत्यनिष्ठ, निर्भीक लेखनी का धनी नागरिक
ही वहन कर सकता है।
सारे जगत को ऊर्जा एवं प्रकाश बाँटने का कार्य सूर्य करता है। सौर मण्डल का महा
नक्षत्र सूर्य को भगवान मान कर पूजा जाता है। परम पिता की तरह वह सारे जग के
लिए जीवन, शक्तियाँ पैदा करता है, सब को बराबर प्रकाश बाँटता है। उसकी वितरण
शैली का कोई सानी नही। वह कही थमता नही। अनुशासित चेतना का प्रतीक है।
उसकी ऊर्जा शक्ति की वितरण शक्ति सात घोड़ों पर, सदा गतिशील रहती है।
यही अश्वशक्ति ही आज की नई परिभाषा में ऊर्जा की हार्सपावर है जो ऊर्जा
का मापदण्ड है। किसी आधार के बिना ही सूर्य ऊर्जा चलती रहती है यानि वायुमण्डल
में ऊर्जा की तरंगें बेतार काम करती है। इसी से ही जीवधारियों और वनस्पतियों
को जीवन मिलता है। आणविक ऊर्जा किरणों के रूप में अपना सप्तवर्णी रूप
प्रसारित करती है। अत: सूर्य एक दिव्य शक्ति स्रोत है, इसी कारण आज भारत
सरकार के अपारम्परिक ऊर्जा स्रोत मन्त्रालय के सहयोग से दे श के कई भागो
में आदित्य सौर कार्यशालाएँ स्थापित की जा रही हैं। इस विधि से सूर्य से सीधी
बिजली ली जा सकती है, और इस क्षेत्र में सराहनीय कार्य भी हो रहा है।
सूर्य सदा शान्त, पर्यावरण सुखद, सुहृद मित्र है। इसी प्रकृति के कारण
नवीनीकरणीय सौरऊर्जा को लोगों ने अपनी संस्कृति व जीवन के तरीक़ों को
सम रूप पाया है। विज्ञान और अध्यात्मिक संस्कृति के एकीकरण तथा सांस्कृतिक
प्रौद्योगिकी के प्रयोग द्वारा सूर्य ऊर्जा भविष्य के लिए अक्षय ऊर्जा का स्रोत
साबित होने वाली है। आज के स्मार्ट डिजीटल प्रगति प्रयोग के लिए जल कोयला
या अन्य साधनों से पैदा होने वाली बिजली से ऊर्जा शक्ति की ज़रूरतें पूरी
नही होगी। तीव्र गति तत्पर परिणामों के लिए अधिक ऊर्जा की आवश्यकता है।
वास्तव में भारत कृषि प्रधान दे श है। आधा भारत गाँवों में ही बसता है इसलिए ग्राम
विकास में हर नागरिक का योगदान भी अनिवार्य धर्म है। भारत दे श प्रगतिशील है।
सत्यमेव जयते भावों का वाहक है।
शिव भाव सत्य से पोषित है। सत्ता लोभ से मुक्त सदा कल्याणकारी है। यही शिव
भाव ही महादे वादिदे व शिव सदा त्यागी है। ऐसे ही भारत का राष्ट्रपति बहुजन
हिताय, बहुजन सुखाय होता है। बिना ताज का प्रजातन्त्र का बादशाह है। राष्ट्र
शक्ति है, पिता है। वह कैलाशवासी शिव की तरह अमृत बांटता है और प्रजा
हित के लिए विषपान करता है, इसीलिए वह नीलकंठ है। पौराणिक सागर मंथन
की कथा से यह स्पष्ट होता है कि शिव आसुरी और सुरी भावनाओं का निर्णायक
है। उसमें कटु ता और कोमलता का समान भाव है। जन जन की सब शक्तियों की
एकता में उसकी आस्था है। वह अपरम्पार शक्तियों का संचालक है। संहार एवं
निर्माण की शक्ति भी उसके हाथ है। उनका तांडव नृत्य और बालों की जटाओं
में गंगा धारण करना उनकी निर्माण शक्ति और बहुजन सुखाये की भावना है।
अपने सिर पर सब कष्ट लेकर भी वह प्रसन्न रहता है। शिव ने जन हित के लिए
अपनी जटाओं में गंगा को धारण किया था क्योंकि भागीरथी का प्रवाह धरती
सहन नहीं कर पा रही थी। सृष्टि जल प्रवाह न हो जाए, उसे जल संकट से बचाने के
लिए शिव ने गंगा को अपनी जटाओं में बाँधकर धारा रूप दिया। वही गंगा धरती पर
आज राष्ट्रीय नदी के रूप में प्रवाहित होती है।
शिव के बालों में द्वितीया का चढ़ता चाँद इस बात का द्योतक है कि परहित के लिए
शीतलता और विकास का समन्वय आवश्यक है। यही शान्तिप्रिय दे श चाहता है।
समाधि अवस्था में शिव राष्ट्रपति विकास उत्पाद के लिए ध्यानमग्न होकर सूझबूझ
से विचार प्रस्तुत करते है।
शिव के तीन नेत्र है। समाज, संस्कृति और राजनीति में जब उदण्डता बढती है,
आपराधिक तन्त्र बढ़ कर समाज को पीड़ित करता ,है तो तीसरे नेत्र से निकली
क्रोध ज्वाला अपराधों को भस्म कर दे ती है। तांडव नृत्य के समय एक हाथ में त्रिशूल
और दूसरे हाथ में डमरू की ध्वनि समाज को प्रलय की सूचना दे ती है कि जागरूक
सत्पुरुष बनकर जीने से ही धरती विनाश से बच सकती है।
त्रिशूल तपस्वी शिव का शिव भाव है जिसका शरीर अपने बस में है, जिसकी
इन्द्रियाँ वश में हैं, जिसके प्राण वश में हैं, उनकी मन और बुद्धि स्थिर रहती हैं,
वह ही समाज को राह दिखा सकता है। इन्ही गुणों को धारण करके ही अनुशासित
शांति प्रिय दे श प्रगति कर सकता है। उसकी समाधि अडिग रहती है। वह समाधि
मुद्रा में भी जग का नाश नही होने दे ता। ठीक ऐसे ही राष्ट्रपति तपस्वी भाव में
रहते हुए ही जग हित में जागरूक रहता है। वह किसी भी दलगत नीति में फंसता
नहीं, किसी का पक्षपात नहीं करता। दे श का हित सर्वोपरि होता है।
शिव का वाहन नंदी बैल है, वह समाज ही उनके गण है। जन के लिए हर गण यानि
जनता महत्वपूर्ण है। इसी जन गण का शिवत्व हमारे दे श का राष्ट्रपति ही धारण करता
है। सम्पूर्ण प्रजातन्त्र प्रणाली का रखवाला राष्ट्रपति होता है। विभूति से विभूत शरीर
उनके फ़क़ीरी भाव अर्थात बाहरी नही आन्तरिक सुन्दरता ही पूज्य होती है यह शिव
प्रतीक स्पष्ट करता है कि शिव और सत्य ही मिलकर सुन्दर की स्थापना कर सकते
है। वही संसद को मन्दिर की सी पवित्र भावना से प्रकाशित कर सकता है। प्रथम
नागरिक जन राष्ट्रपति और उसके गण ही भारत के अधिनायक है, स्वामी है। दे श
के गौरव की रक्षा करना भारतवासियों का प्रमुख धर्म है। यही सनातन भावना ही
शाश्वत धर्म है। मानव का मानव के प्रति सद्भाव ही मानवतावादी प्रजातन्त्र है। केवल
ज्ञान ही नही उसका समाज में पालन करना करवाना बहुत आवश्यक है
इसी से जीवन गति है। गति सृष्टि है, ऐसे ही दे श की संचालक शक्ति है, तभी हम उसे
भारतवासी दे श का सर्वोच्च नागरिक राष्ट्रपति कहते है।
पौराणिक मतानुसार ब्रह्मा ही सम्पूर्ण विभागों के संचालक हैं। विष्णु प्रधान मंत्री
पोषित शक्ति हैं और शिव राष्ट्रपति। शिव के गण ही जनता है। इन तीनों रूपों के
कार्य से ही कर्मशील शक्तियां समान भाव से सदा कर्मशील है - प्रकृति और पुरुष
हैं, जिससे संसार का रूप चलता है। सत्यमेव जयते, श्रमेव जयते।
भारत शब्द में हिन्दुस्तान की संस्कृति का गौरव छिपा है। शिवगण ही जन है। जन
गण ही भारत का अधिनायक है, स्वामी है। प्रजातन्त्र ही जनतंत्र गणतंत्र सनातन
शाश्वत धर्म है। यह भाव हमारा राष्ट्र गान भी सार्थक करता है। सच में मानवतावादी
भाव पूर्ण ज्ञान ही गान है।
हमारे हर कर्म भाव में दे वत्व भाव समाहित है। 'जन गण मन अधिनायक जय हे'
गुरूदे व रविन्द्र नाथ टै गोर ने 'दी मॉर्निंग सॉन्ग ऑफ़ इंडिया' शीर्षक से लिखित
गीत को २७ दिसम्बर १९११ को कांग्रेस अधिवेशन के दूसरे दिन पहली बार
सार्वजनिक रूप से गाया था। इस गीत के चारों पदों से भारत की सांस्कृतिक
झलक स्पष्ट है, इसी गीत का प्रथम पद आज गाया जाता है।
जन गण मन अधिनायक जय हे
भारत भाग्य विधाता
पंजाब सिं ध गुजरात मराठा
द्रविड़ उत्कल बंग
विं ध्य हिमाचल यमुना गंगा
उच्छल जलधि तरं ग
तव शुभ नामे जागे
बंकिम चंद्र चैटर्जी की रचना आनंदमठ से ली गयी, इसके सम्पूर्ण संस्कृत विभागों को
छोड़ दिया गया और प्रथम पद को अपना लिया।
इन संस्कृत गीतों के विवाद से प्रश्न उठा भारत भाग्य विधाता कौन? कई विवाद
हुए पर नेता जी के कहने पर जन गण मन गीत का ही सरल भाषा में अनुवाद
हुआ। सर्वमान्य रूप से यह विवाद ख़त्म हुआ। आज़ाद हिन्द फ़ौज ने हिन्दी क़ौमी
तराना 'वनदे मातरम' गाया। इस गीत की धुन कैप्टन रामसिंह ने तैयार की।
भारतीयों ने इस गीत से नई चेतना जगाई।