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Lamhi July To September 2023 Revised PRESS Small-2
Lamhi July To September 2023 Revised PRESS Small-2
प्रधान संपादक*
विजय राय
संपादक*
ऋत्विक राय
वर्ष: 16, अंक: 1, जुलाई-सितम्बर 2023
संयुक्त संपादक*
ऋतिका UGC Care Listed
वत्सल कक्कड़
इस अंक में
अविराम
1. विनोद कुमार शुक्ल : प्रेम और करुणा के रसायन से बनती उम्मीद की कविता विवेक श्रीवास्तव 85
2. मलय : सघन बीहड़ता का कवि असंगघोष 90
3. नरेश सक्सेना : कविता की भौतिकी, गणित और पर्यावरण संतोष अर्श 93
4. ऋतुराज : ये कला वस्तुएँ नहीं हैं मेरे अंग हैं अच्युतानंद मिश्र 97
महत्तम
1. मनमोहन : तम के द्वार पर दमक की दस्तक अरुण कुमार पाण्डेय 195
2. कौशल किशोर : दहशत के दौर का रचनात्मक संघर्ष उमाशंकर परमार 198
3. नरेंद्र पुण्डरीक : कविता में लोक और स्मृित का उजास श्रीधर मिश्र 202
4. अग्निशेखर : विस्थापन और करुणा की विरल आवाज़ सुशील कुमार 206
5. योगेन्द्र कृष्णा : मनुष्य और मनुष्यता की पुकार उत्कर्ष 213
6. लाल्टू : क्योंकि प्यार मेरा आख़िरी मक़सद है लोकेश मालती प्रकाश 219
7. राम कुमार कृषक : भूगोल की सीमाओं का अतिक्रमण करती ग़ज़लें रहमान मुसव्विर 223
8. देवेन्द्र आर्य : गीतों व कविताओं में िवन्यस्त सामयिकता नवीन सिंह 226
9. मोहन डहेरिया : विकट नैतिकताबोध और आत्मजिरह का कवि श्रीराम निवारिया 229
10. मिथिलेश श्रीवास्तव : हमारा जनतंत्र और कविता का विवेक मनोज कुमार सिंह 234
11. शरद कोकास : काव्यात्मक सरोकारों का जटिल संघर्ष नासिर अहमद सिकन्दर 237
12. शिव कुमार पराग : हिंदी के जनकवि शैलेन्द्र कुमार शुक्ल 241
13. नासिर अहमद सिकंदर : कविता की प्रगतिशील-प्रतिबद्ध दृष्टि बसंत त्रिपाठी 245
आयतन
1. राजेन्द्र कुमार : आस्थावान कवि पी. रवि 309
2. विजय कुमार : चमकदार समय में घने अँधेरे के ख़िलाफ़ खड़ा कवि सतीश पांडेय 313
3. ए. अरविंदाक्षन : कविता का ‘संगीत’ प्रभाकरन हेब्बार इल्लत 316
4. विष्णु नागर : साधारण जीवन के असाधारण कवि अिनता 320
5. अजय सिंह : यह स्मृति को बचाने का वक़्त है उषा राय 324
6. भगवान स्वरूप कटियार : कविता में ‘निश्छलता की कला’ कौशल किशोर 328
7. संजीव बख्शी : जीवन और राग का सांगीतिक तादात्म्य नीलाभ कुमार 332
8. विनोद दास : योगात्मक से वियोगात्मक होने की काव्य-यात्रा शंभु गुप्त 336
9. सुधीर सक्सेना : कविता के अनिर्मित पंथ के पंथी नीरज दइया 340
10. गोबिंद प्रसाद : सागर में जैसे मछली की प्यास मलखान सिंह 344
11. कुलदीप कुमार : कविता संसार में नारी अस्मिता एवं संघर्ष अनिरुद्ध तिवारी 347
12. सुभाष राय : कविताओं के अग्नि-वलय से गुज़रते हुए विंध्याचल यादव 350
13. कृष्ण कल्पित : गद्य में पद्य में समाभ्यस्त... कमलेश वर्मा 354
14. ओम निश्चल : पलकों में स्वप्न बसे हैं, होठों में गीत बसा है आनन्द वर्धन द्विवेदी 359
15. सदानंद शाही : कविता से प्रेम और प्रेम की कविता विभु प्रकाश सिंह 364
16. अनूप सेठी : कविता का रचनात्मक आशय रमेश राजहंस 367
17. निरंजन श्रोत्रिय : ‘नहीं’ कहने के हौसले की कविताएँ जानकी प्रसाद शर्मा 371
18. अनिल त्रिपाठी : कवि-कर्म की समकालीनता अरुण होता 376
असीम
1. महेश वर्मा : धूल से सना इतिहास और सपनों का मिथकीय यथार्थ नीलाभ कुमार 471
2. विवेक चतुर्वेदी : नयी सदी का कवि-सामर्थ्य निशांत कौशिक 475
3. आत्मा रंजन : अपने समय की भूिमका टटोलता कवि आशीष सिंह 478
4. संतोष चतुर्वेदी : मन में खटका न हो, कुछ खटके नहीं तो कविता नहीं बलभद्र 485
5. महेश पुनेठा : विचार के शान पत्थर पर सच की शिनाख़्त करती कविताएँ अनिल अविश्रांत 489
6. बसंत त्रिपाठी : अमूर्त होते गतिशील यथार्थ को मूर्त करती कविताएँ अंजन कुमार 494
7. अरुण देव : कविता का भद्र विवेक संतोष अर्श 500
8. प्रभात : जीवन की पीड़ा का कवि सुशील सुमन 505
9. राकेश रंजन : जन-मन के कवि शैलेन्द्र कुमार शुक्ल 510
10. शिरीष कुमार मौर्य : कविता की करुण पुकार संदीप कुमार 515
विशेष
जम्मू-कश्मीर की कविता
39. मैं ठंडी आबोहवा का कवि हूँ, आग मेरी आवश्यकता है कुमार कृष्ण शर्मा 628
नयी सदी की कविता का एक तुलनात्मक पाठ
40. सुधांशु फ़िरदौस और अदनान कफ़ील दरवेश की कविता प्रदीप्त प्रीत 633
का क्षरण हुआ है। उद्यम’ इस समय की आलोचना में किस स्तर तक है! क्या इन
‘कविता का वर्तमान और वर्तमान की कविता’ पर लेखों में कविता के परिदृश्य को लेकर,उसके वर्तमान स्वरूप
केन्द्रित लमही का यह अंक बीसवीं सदी के अंतिम दौर की को लेकर कुछ नए और सार्थक बिंदु भी उभरे हैं! शिल्प और
कविताओं को आधार बनाकर तैयार किया गया है। मोटे संरचना को लेकर कोई गंभीर बातचीत हुई है!
तौर पर हमने इस अंक में उन कवियों की कविता-दृष्टि को निश्चय ही किसी कवि का मूल्यांकन, उसके समकालीन
समझने की कोशिश है जिनकी पहचान मुख्य रूप से नब्बे के कवियों को छोड़कर नहीं किया जा सकता! यहाँ देखना
दशक में बनी। नयी सदी की कविता में बदलाव की आधार होगा कि ‘कवियों के बीच’ तुलना करने का तरीका कितना
भूमि नब्बे के दशक में ही तैयार होती है। विवेकपूर्ण और रचनात्मक है! दरअसल इस बिंदु पर आकर
इस अंक की योजना बनाते हुए हमने बिलकुल भी नहीं आलोचना अक्सर निर्णयवादी हो जाती है। कवि मूल्यांकन का
सोचा था कि हमारी संख्या 150 के आसपास पहुँच जाएगी; 'अंध पक्ष' यह भी है कि हम कवि विशेष को अन्यों की तुलना
हालाँकि संख्या को उपलब्धि नहीं माना जाना चाहिए, असल में 'सर्वश्रेष्ठ' साबित करने लगते हैं जबकि कई मामलों में वह
उपलब्धि होती है– गुणवत्ता। अन्यों की तुलना में 'कमतर' भी हो सकता है। आलोचना की
लमही का पिछला अंक कविता की प्रवृत्तियों पर केंद्रित नज़र में सिर्फ़ चमकदार पक्ष ही नही, धूमिल पक्ष भी आना
था जिसमें हमारे समय के लगभग बीस से अधिक कवियों/ चाहिए।
आलोचकों से 'कविता के वर्तमान' को लेकर कुछ सवाल हमारा लोकतंत्र कई तरह के दबावों में है। पूंजी का,
पूछे गए थे। उन सवालों के मद्देनज़र कवियों/आलोचकों ने सत्ता का, पद का, वर्चस्व का दबाव लगातार बढ़ा है। इस
कविता की वर्तमान स्थिति को लेकर, कवि की पक्षधरता दबाव का असर कविता पर पड़ना स्वाभाविक है, पर हम
को लेकर, समय और हस्तक्षेप को लेकर- कई संदर्भवान अक्सर इस बिंदु को अनदेखा कर देते हैं। आलोचक को यह
बातें कही हैं। इस अंक में यह देखना दिलचस्प होगा कि उन भी देखना ही चाहिए कि हमारी सभ्यता में क्योंकर हिंसा के
ज़रूरी संदर्भोंं और चिंताओं की नोटिस क्या हमारी आलोचना लिए जगह बढ़ती जा रही है! हमारे लोकतंत्र में असहमति को
लेती है! मसलन 'कवि-मूल्यांकन' की इस कड़ी में ‘कविता बर्दाश्त करने की क्षमता क्यों लगातार घटती जा रही है! क्या
के वर्तमान’ को देखने का उनका नज़रिया क्या है! क्या इन यह केवल लोकतंत्र का संकट है या हमारे नागरिक समाज का
आलोचनात्मक लेखों में कवि और कविता के सम्मुख आज भी संकट है! इसके कारण क्या हो सकते हैं? इसके साथ ही
की प्रमुख चुनौतियों को रेखांकित करने का प्रयत्न किया गया सूचना प्रौद्योगिकी, सोशल मीडिया और वर्चुअल माध्यमों में
है! और अगर किया गया है तो उसके आधार बिंदु क्या हैं! कविता की भाषा,अभिव्यक्ति और शिल्प पर क्या प्रभाव पड़ा
इन लेखों में यह देखना भी लाज़िमी होगा कि बीसवीं सदी के है, इसकी पड़ताल भी आवश्यक है। इन माध्यमों से कविता
अंतिम दशक में उपजी कविता के ‘प्रस्थानों को तलाशने का के प्रसार और प्रभाव में किस तरह के बदलाव आए हैं– इन
विरासत सोमदत्त
विष्णु खरे
वीरेन डंगवाल
मैं जीवित रहूँगा कविताओं में मंगलेश डबराल
मेरे बाद भी बची रहेगी कविता पंकज सिंह
मलखान सिंह
रमाशंकर विद्रोही
सुरेश सेन निशांत
मुकेश मानस
नंद चतुर्वेदी की कवि सक्रियता बहुत विस्तृत है। कविता इससे अलग जीवन के सुंदर और सकारात्मक
उन्होंने उपनिवेशकाल के अंतिम चरण में कविता पक्ष पर एकाग्र है। इसका आशय यह नहीं है कि
के ब्रजभाषा के दौर में लिखना शुरू किया और उनकी कविता में जीवन का कुरूप और नकारात्मकता
इक्कीसवीं सदी की शुरुआत में हिंदी कविता के नहीं है। यह भी उनकी कविता में है, लेकिन यह
प्रौढ़ हो जाने तक लिखते रहे। यह विडंबना है कि जीवन के अभाव की चिंता के रूप में है। पतझर
उनके सभी कविता संकलन– यह समय मामूली उनकी कविता में बसंत के अभाव की चिंता के रूप में
नहीं (1983) ईमानदार दुनिया के लिए (1994), है। अँधेरा उनकी कविता में उजाले के अभाव की
वे सोए तो नहीं होंगे (1997), उत्सव का निर्मम समय (2001), चिंता की तरह है। उनकी एक कविता है ‘हम नयी कविताएँ लिखते
जहाँ एक उजाले की रेखा खिंची है (2006), गा हमारी ज़िंदगी हैं’ में उन्होंने जीवन के प्रति अपने राग के आग्रह को व्यक्त करते
कुछ गा (2011), आशा बलवती है राजन (2016) उनके जीवन हुए लिखा है कि- “हम दु:ख और दरिद्र से धनुषाकार हुई/ देह पर
के उत्तरकाल में प्रकाशित हुए। नंद चतुर्वेदी ने हिंदी के कविता के कविताएँ लिखते हैं/ हम लिखते हैं उन पर जो अँधेरे की घाटियों में
विकास की तमाम उठापटक देखी और उसमें शामिल भी रहे। वे जाते हैं/ सूरज की रोशनी तलाश करने।” यहाँ कवि की चिंता और
सब आंदोलन, प्रवृत्तियाँ और प्रभाव, जो हिंदी कविता में आए-गए, सूरज की रोशनी की तलाश है। अँधेरे की घाटियाँ उनका लक्ष्य नहीं
उनकी पदचाप यहाँ सुनी जा सकती है। है। उनकी कविता में इस तरह का आग्रह बहुत सघन और आद्यंत
हिंदी में ऐसी दुर्घटनाएँ बहुत हुईं कि कवि किसी खूंटे से बँध गए है। उनकी एक ऐसी कविता का अंश, जिसमें जीवन का राग जीवन
और बँधे भी ऐसे कि वहीं ठहर गए। नंद चतुर्वेदी कहीं भी नहीं ठहरे के अभाव की चिंता के रूप में है, उदाहरण के लिए–
और इसलिए कभी नहीं चुके। कहीं-कहीं उनकी कविता में बँध कर कैसा आकाश है
ठहर जाने की शुरुआत तो हुई, लेकिन वे बहुत जल्दी इसको जहाँ उड़ती नहीं है इच्छाओं की पतंगें
तोड़कर आगे चल दिए। तोड़कर आगे चले जाना उनकी कविता जहाँ से चले गए हैं मेघ-छाया के प्रफुल्लित दिन
कई जगह है, लेकिन हिंदी के कई कवियों के यहाँ यह दिखता है सप्त-ऋषि मंडल से बातें करती चंद्रमा की रातें
और कहीं-कहीं तो ऐसे दिखता है कि यह बहुत असहज और परंपरा की स्मृति और निवेश हिंदी कविता में बहुत सघन नहीं
अटपटा लगता है। नंद चतुर्वेदी की कविता में यह तोड़कर आगे है। ख़ास तौर पर नयी कविता के बाद यह निवेश बहुत कम होता
निकल जाना इतना अनायास और सहज है कि कई बार इसकी गया है। हिंदी कविता इसलिए अन्य भारतीय भाषाओं की तुलना में
पहचान मुश्किल हो जाती है। परंपरा विच्छिन्न कविता लगती है। नंद चतुर्वेदी की कविता में
नंद चतुर्वेदी की कविता जीवन के राग कविता है। कहना यह परंपरा की स्मृति और निवेश बहुत गहरा और सघन है। यह
चाहिए कि उनकी कविता जीवन की रसकथा है। ‘रस कथा’-यह पौराणिक और मध्यकालीन मिथकों और चरित्रों के रूप में है और
पद उनकी कविताओं में एकाधिक बार प्रयुक्त हुआ है। उनकी यह बहुत स्वाभाविक निवेश है। यदि मनुष्य एक सांस्कृतिक
कविता जीवन के अभाव की नीरस कविता नहीं है। आम हिंदी अस्तित्व है, तो उसकी स्मृति में इन सबका होना बहुत स्वाभाविक
कविता में जीवन के अभाव से संबंधित विवरणों की भरमार है, और ज़रूरी है। कृष्ण, अर्जुन, महाभारत, इंद्र, बुद्ध आदि उनकी
इसलिए यह नीरस और अख़बारी लगती है। नंद चतुर्वेदी की कविताओं मे बार-बार आते हैं। वे इनके माध्यम से अपने समय
एक दौर था, कविता अपने समय के पूंजीवाद और कल्पना केवल मुक्तिबोध कर सकते थे और ‘अरी ओ
साम्राज्यवाद से लड़ रही थी। इजारेदारों के विरुद्ध करुणा प्रभामय’ की कल्पना केवल अज्ञेय।
राजनीतिक सत्याग्रह सरीखी कविताओं में मुक्तिबोध ऐसे समय अज्ञेय और मुक्तिबोध के उत्तराधिकार
का कोई सानी नहीं है। एक अकेला कवि जिसके का वहन करते हुए जो कवि अगली पीढ़ी में सामने
सामने पूरी मानवता के विरुद्ध सक्रिय शक्तियों की आए उनमें कुंवर नारायण प्रमुख थे। मुक्तिबोध ने उन
पहचान में कोई चूक न हो, उस दौर की मनुष्यता पर कभी कुछ लिखा भी था। मुक्तिबोध के साहित्य-
की नियति को प्रभावित करने वाली ताक़तों के विरुद्ध आलोचना व कविता में कुंवर जी की पैठ व दिलचस्पी
न केवल ‘नया ख़ून’ के संपादकीयों में बल्कि अपनी कविताओं में तो थी पर कभी उन्होंने मुक्तिबोध के नक्शेकदम पर चलने का
भी प्रत्याख्यान कर रहा था। मुक्तिबोध की परंपरा में परिगणित होने प्रयास नहीं किया। इसके बरअक्स वे समाजवादियों के नज़दीक
की लालसा तो तमाम कवियों में रही किन्तु उन जैसा आत्मसंघर्ष ज्यादा रहे तथा कविता की सामाजिक व निजी दोनों भूमिकाओं को
अन्य कवियों में बहुत कम का रहा। आलोचकों में हमारे समय जानते मानते रहे। ऐसा नहीं कि मुक्तिबोध के जमाने वाला पूंजीवाद
की व्याधियों को चिह्नित करने के बजाए अज्ञेय और मुक्तिबोध का व साम्राज्यवाद कुंवर नारायण के जमाने में कहीं तिरोहित हो गया
विवाद खड़ा करने की चेष्टाएँ ज्यादा प्रबल रहीं जिसके चलते अज्ञेय था और पूरी दुनिया सत्य और अपरिग्रह के मार्ग पर चलने लगी
को हाशिए पर डाल कर मुक्तिबोध का महिमामंडन भी ख़ूब किया थी बल्कि मानवीय सभ्यता की उत्तरोत्तर आधुनिकतावादी दृष्टियों
गया जबकि होना यह चाहिए था कि दोनों पर बात हो क्योंकि ये दोनांे के बावज़ूद दुनिया नस्लवाद, मजहबपरस्ती और हिंसा व युद्ध के
ही हिंदी काव्य की अप्रतिम प्रतिभाएँ हैं तथा कविता में एक दूसरे रास्ते पर डटी रही। भौतिक उन्नति का रास्ता आत्मिक उन्नति से
की पूरक हैं और अपनी अपनी अद्वितीयताओं के अपूर्व उदाहरण हैं। कहीं अधिक काम्य था। कुंवर नारायण भौतिकता के हिमायती न
मुक्तिबोध में राजनीतिक आर्थिक व्याधियों और उनकी चुनौतियों से थे। वे आत्मिक उन्नति व आत्मबल के पैरोकार कवि थे। लिहाजा
टकराने की अपूर्व ताक़त थी तो अज्ञेय में हिंदी की ख़ूबसूरती को उन्होंने पूंजीवाद व साम्राज्यवाद पर मुक्तिबोध की तरह प्रहार न कर
कविता व गद्य में सहेजने की अपूर्व लालसा। लिहाजा मुक्तिबोध मनुष्य की नियति, उसके नैतिक आग्रहों, समाज के साथ उसके
की कविता और आलोचना अपने समय के अदब की जड़ताओं पर नैतिक तालमेल, सत्य पर अडिग रहने की गांधीवादी लोहियावादी
प्रहार कर रही थी तथा मनुष्य के भीतर सुषुप्त चेतना जगाने का कोशिशों का साथ दिया। परिवार में निजी मृत्युओं से उनके भीतर
काम कर रही थी तो अज्ञेय का साहित्य मनुष्य के भीतर के अंतर्द्वंद्व, जो नैराश्य और अवसाद जन्मा, जो दार्शनिक सोच पैदा हुई उसका
कल्पनाशीलता, प्रकृति और पुरुष के सनातन साहचर्य और संबंधों प्रतिफलन ‘चक्रव्यूह’ में दिखा। यह हालाँकि पहला ही संग्रह था पर
को एक नए तरीके से व्याख्यायित कर रहे थे। यायावरी ने अज्ञेय उसमें एक अबूझ किस्म की दार्शनिकता थी। अनेक प्रश्नाकुलताएँ
को एक अप्रतिम शब्दशिल्पी में बदल दिया। उनकी कलादृष्टि की थीं जो कविता में उभर कर सामने आईं। चक्रव्यूह, परिवेश, हम
तुलना मुक्तिबोध से संभव ही नहीं है। ‘चाँद का मुँह टेढ़ा है’ जैसी तुम, आत्मजयी और अपने सामने तक उनकी कविता का एक
कविता का लोकतंत्र
आशीष त्रिपाठी
केदारनाथ सिंह की कविताओं में गहरे स्तर पर जो गाँव छोड़कर शहर चला गया है और अपने साथ
पश्चिमी आधुनिकता बोध के साथ एक संघर्ष मिलता गाँव लेता चला गया है। वह रहता तो मुम्बई या दिल्ली
है– क्राफ्ट के स्तर पर भी और संवेदना के स्तर पर में है, लेकिन उसका गाँव नहीं छूटा है। वह महानगरीय
भी। ये कविताएँ औपनिवेशिक आधुनिकता से परे और शहरी नहीं हो पाया है। केदारनाथ सिंह ने गँवई
जाकर देशज संस्कारों की आधुनिकता निर्मित करने और विस्थापित गँवई लोगों के लोक से कविता को
की कोशिश करती हैं। इन कविताओं में अपने समय जोड़ा है। विस्थापित गँवई लोक वह सेतु हैं, जो शहर
और समाज को बहुत संजीदगी से रिस्पॉन्स करने को गाँव से बहुत गहराई से जोड़ देते हैं। बार-बार
का बोध है। इसी बोध के भीतर ये अपनी राजनीति तय करती हैं। उनकी स्मृति गाँव की तरफ जाती रहती है। ‘अकाल में सारस’ संग्रह
गहरे अर्थों में केदार जी की कविताएँ बिना मुखर हुए राजनीतिक की ‘चिट्ठी’ कविता इसकी सटीक बानगी पेश करती है। गाँव का नाम
कविताएँ है। ये कविता विरोध नहीं करती। तेज आवाज़ में, मुखर कवि को संभवतः स्मृति-लोक में ले जाता है और शहरी वर्तमान की
आवाज़ में नहीं बोलती हैं। केदार जी मुखरता और वाग्मिता का विडंबनाएँ मुखर होने लगती हैं। ‘गाँव’ और ‘शहर’ का वर्तमान
प्रायः प्रयोग नहीं करते, बावज़ूद इसके उनकी स्वाभाविक पक्षधरता अंतराल एक भयावह सच्चाई की तरह सामने आता हैः ‘शहर के उस
संघर्षरत साधारणजनों के प्रति है- यह बात सहज ही अनुभव की सबसे व्यस्त चौराहे पर/सबसे छिपाकर/मैं देर तक पढ़ता रहा/उस
जा सकती है। खाली-खाली चिट्ठी को/और सारी चिट्ठी में/गूँजता रहा/चीखता रहा/
केदारनाथ सिंह की विशिष्टता यह है कि उन्होंने इस संरचना को, बस एक ही शब्द/चकिया! चकिया!!/मुझे याद आई/एक और भी
जो आमतौर पर बुर्जुआ या ग़ैर प्रगतिशील कवियों द्वारा इस्तेमाल की चिट्ठी/जो बरसों पहले/मैंने दिल्ली में छोड़ी थी/पर आज तक/पहुँची
जा रही थी, बहुत ही शाइस्तगी और विनम्रता के साथ एक बड़े लोक नहीं चकिया।’ केदारनाथ सिंह गाँव से शहर में विस्थापित और
से जोड़ा। यह लोक किसी भी स्थिति में उस बुर्जुआ खाँचे के भीतर शहरी न हो पाये गँवई जनों की संवेदना के प्रतिनिधि हिंदी कवि हैं।
नहीं आ सकता था। टमाटर बेचने वाली बुढ़िया, कैलाशपति निषाद, उनकी ऐसी कविताओं के कारण परवर्ती पीढ़ी के कवियों को भी इस
शीत लहरी में फँसा बूढ़ा आदमी, गड़रिया, बढ़ई, बूढ़ा चौकीदार, मनोविज्ञान को प्रकट करने का साहस मिला है।
बंसी मल्लाह, लालमोहर, झपसी,जगदीश, रतन हज्जाम (झाँसी का केदारनाथ सिंह की कविता की संरचना पर बात करते हुए सबसे
पुल), रास्ता बनाने की बजाए ढेला फेंकने वाला बूढ़ा (रास्ता), पहले हमारा ध्यान इस तरफ जाता है कि वे मुक्त छन्द के कवि हैं।
थका हुआ बूढ़ा मल्लाह (मैंने गंगा को देखा) झुम्मन मियाँ (बिना केदारनाथ सिंह मुक्त छन्द के जिस शिल्प को उठाते हैं वह शिल्प,
नाम की नदी) ‘धूप में घोड़े पर बहस’ करते तीन जन, पानी में घिरे मूलतः हिंदी की बुर्जुआ कविता द्वारा, जिसे आमतौर पर कलावादी
हुए लोग, ‘जगरनाथ’ दुसाध, नूर मियाँ (सन 47 को याद करते कविता भी कहा जाता है, इस्तेमाल किया जाता रहा है। अज्ञेय,
हुए), सड़क पार करता आदमी (उस आदमी को देखो), अख़बार श्रीकान्त वर्मा और अशोक वाजपेयी -इसके तीन प्रतिनिधि कवि हैं।
वाले, दूधवाले, कुम्हार (सुबह हो रही है मैंने हवा से कहा) माँ, ये ग़ैर-प्रगतिशील कहे जा सकते हैं। जन-विरोधी नहीं। मेरी दृष्टि में
प्रेयसी, तुम बेटी और स्वयं ‘मैं’ इस लोक के हिस्से हैं। यह साधारण मनुष्य-विरोधी और समाज विरोधी कलावादी कविता हिंदी में नहीं
जनों का लोक है। निरंतर काम में लगे लोगों का लोक। इसका है। प्रगतिशीलता विरोधी ये कवि जनता के दु:ख दर्द और संघर्षों
प्राथमिक आधार गँवई समाज है वह जो आज गाँवों में रह रहा है और को कविता में प्रकट करने और जन-संघर्षों और जनांदोलनों में
विजेन्द्र प्रगतिशील लोकधर्मी कविता के अगुवा कविता में प्रकृति के बेहतरीन बिम्ब हैं विजेन्द्र के
कवि थे उन्होंने मार्क्सवादी विचारधारा को न केवल काव्य में प्रकृति की मार्मिक छवियाँ उनके और प्रकृति
कविता में अपितु आलोचना, चित्रकला, जीवनी, के बीच विद्यमान सामाजिक परिवेश का हिस्सा हैं
नाट्यगीतों आदि का भी आधार बनाया। मार्क्सवाद विजेन्द्र जहाँ भी रहे वहाँ की प्रकृति व समाज से
का सौन्दर्यशास्त्र रचा, विजेन्द्र प्रगतिशील जनपदीय कभी पृथक नहीं रहे आत्मसात करके रहे हैं इसलिए
चेतना के बड़े कवि थे उनकी गणना केदारनाथ बनारस से लेकर धामपुर गाँव भरतपुर जयपुर गुड़गाँव
अग्रवाल, त्रिलोचन, नागार्जुन, शील, कुमारेन्द्रपारस सब उनकी कविता में।
नाथ सिंह, मानबहादुर सिंह जैसे कवियों में होती है। विजेन्द्र लय विजेन्द्र निपुण चित्रकार रहे मार्क्सवादी विचारों से अनुप्राणित
और अन्तर्लय का अपनी कविता में सन्निवेश करते हैं और लय को होना एवं सर्वहारा और जन की पक्षधरता ने उनको चित्रकार बना
कविता के लिए बेहद ज़रूरी मानते हैं। जिस तरह त्रिलोचन लय से दिया। दर असल यह रचना प्रक्रिया का मामला है कविता में हम
कभी अवमुक्त नहीं हो सके विजेन्द्र भी कभी लय से मुक्त नहीं रहे। कितनी कोशिश कर लें विचार अमूर्त रूप में सामने आते हैं जब
उनकी कविताओं में त्रिलोचन जैसी ही लय की विविधता है प्रयोग हम घटना और पीड़ाबोध की मूर्त विचारों में व्यख्या करना चाहते
है और पुराने छन्दों का नया संस्कार है इस संदर्भ में वे त्रिलोचन हैं तब कविता की रचनात्मक बाध्यताएँ उसे भाषा के आवरण में ही
का भी अतिक्रमण कर जाते हैं। इसमें कोई शुबहा नहीं कि जब अभिव्यंजित करने की छूट देती है। कविता की अपनी काव्यभाषा
भी आधुनिक कविता में लय की बात होगी विजेन्द्र शीर्ष में रहेंगे। होती है वही भाषा चीज़ों को मूर्त करती है। जब पीड़ाबोध गहरा
विजेन्द्र लोक की संरचनाओं को अपनी कविता की वस्तु बनाते हैं हो कवि के अन्तःकरण में वैचारिक उथल-पुथल चल रही हो तब
उनके कविता संग्रह धरती कामधेनु से प्यारी में संकलित कविताओं भाषा भी अपर्याप्त हो जाती है कवि जो चाहता है वह काव्यभाषा
में मुर्दा सीने वाला, चैत की लाल टहनी में अपने दाम्पत्य व संगी में नहीं अँट पाता लिहाजा विजेन्द्र ने स्पष्ट और सटीक अभिव्यक्ति
साथियों पर, घना के पाँस, ये आकृतियाँ तुम्हारी, बसन्त के पार, के लिए चित्र का सहाय लिया और उन्होंने वे भाव जो भाषा में नहीं
दूब के तिनके, ढल रहा दिन, आँच में तपा कुन्दन, बनते मिटते पाँव व्यक्त हो सके रंग और रेखाओं की आड़ी-तिरछी आकृतियों में
रेत में, जनशक्ति, क्रोंच वध, ऋतु का पहला फूल, बेघर का बना अभिव्यक्त किया। उनके चित्रों का एक संग्रह 'आधी रात के रंग'
देश आदि ऐसे कविता संग्रह हैं जिनमें विजेन्द्र की लोक संरचनाओं प्रकाशित है। इस कृति में चित्र और कविता का संवाद है। चित्र में
को देखा परखा जा सकता है। कवि और चित्रकार के अतिरिक्त जो भावभूमि दर्ज़ है वही भावभूमि कविता में भी दर्ज़ है। विजेन्द्र
विजेन्द्र के व्यक्तित्व का एक पक्ष और है जो बहुत कम लोग के चित्र लोक व सर्वहारा की पक्षधरता का प्रमाण हैं लोक और
जानते हैं। वह स्नेहिल सरल व ईमानदार, आत्मीयता पूर्ण व्यवहार सर्वहारा के जीवन की तमाम कठिनाईयों और संघर्षों व हताशा
के लिए जाने जाते थे उनसे जो मिला है वह उनके व्यक्तित्व के पराजय, सत्ता और समाज में ताक़तवर हो चुकी बुर्जुवा शक्ति के
इस पक्ष परिचित हैं। जिस तरह कविता के लिए रचनात्मक रूप अत्याचार को प्रदर्शित करते चित्र आज़ादी के बाद के हिन्दुस्तानी
से समर्पित रहते थे उसी तरह कवियों लेखकों के लिए आत्मार्पित आवाम का उसकी मनोरचना का सही रेखांकन करते हैं तमाम
रहते थे। विजेन्द्र घुमक्कड़ थे भरतपुर पक्षी विहार बहुत घूमते थे संघर्षों और टकरावों के बावज़ूद भी उम्मीद का रहना उनके हर
प्रकृति के ख़ूबसूरत स्थल उनको पसंद थे। यही कारण है उनकी एक चित्र में हैं। वह कभी चिड़िया के रूप में कभी गहरे लाल रंग
मानबहादुर सिंह आठवें-नौवें दशक के एक ऐसे कवि के अंतर्बोध के विकास के साधन के रूप में दिखाई
हैं, जिनकी चर्चा बहुत कम हुई है। इनकी कविताएँ देते हैं।
जहाँ एक तरफ निराला, त्रिलोचन, मुक्तिबोध और मानबहादुर सिंह की कविताओं में मौज़ूद देशज
धूमिल की परंपरा की वाहक़ हैं वहीं दूसरी ओर कहन परिस्थितयों में तीसरी दुनिया की सारी संवेदनाएँ एक-
और शिल्प दोनों स्तरों पर एक नई परंपरा की निर्मिति दूसरे में गुंथी हैं। इसलिए यह देशीयता भूगोल से परे
करने वाली भी हैं। इनकी कविताओं की ज़मीन देशज एक पूरी की पूरी सभ्यता बन जाती है जिसमें तमाम
है, जो सुल्तानपुर जिले के गाँव बरवारीपुर की माटी संस्कृतियाँ सांस ले रही हैं। इन्हें सिर्फ़ अवध के एक
से निकली और उसी में रची-बसी है, लेकिन यह देशीयता अपनी गाँव या फिर हिंदी प्रदेश या फिर भारत तक ही सीमित नहीं किया
भौगोलिक सीमा का अतिक्रमण करते हुए संवेदना के धरातल से जा सकता है। इन कविताओं का विस्तार ‘मँहगीना की मड़ई’ से
मानव सभ्यता के समक्ष कुछ सार्वभौमिक प्रश्न खड़ा करती है। लेकर ‘बेरुत’ तक है। अपनी कविताओं में इन्होंने उस पूरी प्रक्रिया
सभ्यता के विकास के साथ निरंतर बड़े होते सवालों और उसके को घटित होते हुए दिखाया है जहाँ से एक छद्म का ऐतिहासिक
जवाब की तलाश में मिलने वाला कठोर और निर्मम यथार्थ ही विकास सभ्यताओं की गोद में होता रहा है। जो कभी देश और राष्ट्र
इनकी पूरी रचनात्मकता का परिप्रेक्ष्य बिंदु है। यहाँ से कविता के परदे में छुपा रहता है, कभी धर्म और संस्कृति के। हजारों वर्षों
अपना रास्ता ख़ुद ही चुन लेती है, क्योंकि स्वयं कवि जिस कविता के इतिहास में इसने अलग-अलग रूपों में भिन्न-भिन्न तरीके से
को तलाश रहा है, उसका पक्ष स्पष्ट है– एक ही काम किया है– मनुष्य और मनुष्य के बीच कभी न बुझने
‘नहीं मिली मुझे कविता/ किसी मित्र की तरह अनायास वाली विभाजन की एक ऐसी आग जलाये रखना जिस पर हर तरह
मैं ही गया कविता के पास/ अपने को तलाशता-अपने खिलाफ के स्वार्थ की रोटियाँ सेंकी जा सके। ‘बेरुत’ के बहाने उनका यह
कविता जैसा अपने को पाने!’1 प्रश्न वैश्विक पटल पर आज सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण बनकर उभरा
कविता की इस तलाश में अपने ख़िलाफ़ जाना अनिवार्य शर्त है, है-‘आख़िरी बार तुमसे इतना जानना चाहता हूँ/ कब तक आदमी
इस प्रक्रिया से गुज़रे बिना कविता या कला के सच से साक्षात्कार को देश का भूगोल मान/ उसकी लाशों से अपनी सीमाओं की/
संभव नहीं है। इस अंतर्यात्रा की परिणति में मानबहादुर सिंह की चारदीवारी बनाओगे और नहीं पहचान पाओगे/ कि दो देशों के बीच
कविताएँ वृहत मानवीय संवेदनाओं और सामाजिक सरोकारों को फेंका हुआ युद्ध का मैदान/ चालाक मछुआरों का फेंका हुआ जाल
अपने भीतर समेटे हुए हैं, जिनसे उपजने वाली करुणा जहाँ एक है।’2 इस छद्म के तमाम पहलुओं को इनकी कविताओं की बुनावट
ओर मुक्ति की आकांक्षा में बदल जाती है, वहीं दूसरी ओर वह में देखा जा सकता है जिसकी जड़ गाँवों के ‘बाबू नगीना सिंह’
कटु सामाजिक यथार्थ और सत्ता-संरचना के पैरों तले रौंद दी जाती और ‘गोसाईं प्रधान’ से लेकर न्यूयार्क की सत्ता-संरचना तक फैली
है। इस कठोर जीवन से उपजी व्यथा इनकी कविताओं का स्थायी हुई है। दुनिया के तमाम संसाधनों और समाज के विविध उपादानों
भाव है। गाँव और ग्रामीण जीवन-बोध इनकी कविताओं की आत्मा पर इनका कब्जा है। इस कब्जे को न्यायसंगत ठहराने और उसकी
है, लेकिन इस कारण इन्हें सिर्फ़ गँवई जीवन या परिवेश के कवि निरंतरता को बनाए रखने के लिए ही पूरी व्यवस्था बनाई गई
के सीमित दायरे में नहीं देखा जाना चाहिए। इनकी कविताओं में है। इस शोषणकारी व्यवस्था के प्रति उपजने वाला आक्रोश ही
अभिव्यक्त ठेठ देशज यथार्थ या गँवई भावबोध दरअसल कविता मानबहादुर सिंह की कविताओं का जीवन-रस है। इस व्यवस्था
भगवत रावत मेरे प्रिय कवि हैं और बात जब उनकी से मुझे याद भी है पर जो याद है कि उन्होंने कहा था
कविताओं पर लिखने की हो तो मुझे उनकी एक प्रिय ‘..अगर कभी कविता और अपने बच्चे के लिए दूध
कविता याद आती है, ‘वह जो हर बात पर/ बज उठता के बीच चुनाव करने की बात आई तो मैं कविता की
है/ कांसे की तरह/ बिखर जाता है फूलों की तरह/ जगह बच्चे का दूध चुनूँगा क्योंकि कविता ने मुझे यही
हर खुशी पर/ हर चोट पर जो/ छाती की तरह तन सिखाया है..’ बात ने जितना असर उस समय किया
जाता है/ बिफर कर/ लाल-लाल हो जाता है जो/ हर था, उससे ज्यादा इस बात के मायने जीवन के बाद के
बद-आवाज़ पर/ .. .. अपने अंदर ही अंदर/ चीखते- हिस्से में खुले। जब ख़ुद जीवन में शामिल होते गए,
चीखते/ कब तक जिया जा सकता है/.. ..जबकि/ यह तय हो चुका धंसते गए। बाद के कुछ वो दिन भी जब कविता की जगह बच्चे
है/ कि अपनी शर्तों पर/ कोई भी/ सिर्फ़ मारा जा सकता है।’ हालाँकि का दूध चुनने का रास्ता दिखाने वाले भगवत रावत जी से ज़रा सा
इससे भी पहले, उनकी जिस कविता से पहला प्यार हुआ था वह कुछ क़रीब से मिलने-बतियाने का सुख मिला, जब उन्हें ज़रा क़रीब
थी ‘हमने उनके डर देखे’, चमत्कृत करने वाली छोटी सी कविता। से, लगभग छू कर देख सकने का, महसूस करने का मौक़ा मिला।
उनसे व्यक्तिश: पहला परिचय हुआ, जब उन्हें एक कार्यक्रम में अपनी कविता के समूचे विश्वास को जीवन में जीने वाले जिन बड़े
बोलते हुए सुना। सन 1993 में, तब के रीजनल इंस्टिट्यूट ऑफ़ लोगों को मैंने जाना, भगवत रावत का नाम उनमें सबसे पहले है।
एजुकेशन, भोपाल में ‘कोंपल’ के कार्यक्रम संयोजक के रूप में, कविताएँ, महान कविताएँ और महान कवि बहुत से आपको याद
हिंदी के बड़े और आदरणीय कवि के रूप में। बहुत सारे दिग्गज आएँगे पर अपनी ही कविता के संस्कारों और मनुष्यता के लिए
कवियों को इस आयोजन में सुना, उनका संग-साथ मिला, स्नेह अदम्य भरोसे को अपने जीवन की तरह जी सकने वाले और कठिन
मिला। प्रमोद वर्मा, विनोद कुमार शुक्ल, चन्द्रकांत देवताले, विनय जीवन को अपनी कविता की तरह का बड़प्पन देकर समूचे जीवन
दुबे, नवीन सागर, संजय चतुर्वेदी, पूर्णचंद्र रथ और भगवत रावत को ही कविता की तरह मुक्कमल अपनाइयत और स्नेह से सबको
जैसे बड़े कवि। हम युवाओं के लिए यह कार्यक्रम बहुत बड़ा और भिगो देने वाले, ऐसे बड़े कवि कम ही हुए हैं। कम-अज-कम जिन्हें
बहुत मूल्यवान था। बहुत कुछ मिला, इतना कि बहुत कुछ तो आज मैं जानता हूँ।
भी सहेजने को बाक़ी ही रहा लगता है। एक बार कब और कहां तो याद नहीं, पर पढ़ा था। जिस लेखक
हिंदी की कविता का बीज संस्कार देने वाले इस आत्मीय से आप बहुत प्रभावित हों, जिसका लिखा आपके दिल-दिमाग में
आयोजन के सूत्रधार पुरखे कवि भगवत रावत ने किसी एक सत्र के बसे, चलती हुई भाषा में कहें जिसके आप फैन हों, उसके व्यक्तिगत
दौरान कहा था, जो मैंने उसी दिन बेसाख्ता दिल से लगा लिया था। जीवन में मत झांकिए उससे दूर रहिये। आशय शायद ये रहा होगा
30 बरस पहले की बात है तो इस बीच के जीवन में थोड़ा-बहुत कि दूर रह कर बस पढ़ते-सुनते रहें वरना हो सकता है रूमानियत
कुछ पढ़ा भी, सुना भी पर उनका एक वाक्य, उनकी बातचीत का भरी लेखकीय पहचान से जब वास्तविक जीवन टकराए तो ऐसा
एक टुकड़ा दिल-दिमाग में बस गया। ज़िंदगी में उम्र के इस मुकाम कुछ देखने-सुनने को मिले कि छवि का रूमान जाता रहे। कुछ
पर जब जितना पढ़ा, उसमें से बहुत कुछ लगभग भूलता भी जा रहा मामलों में यह आजमा कर भी देखा। बस जिन इक्का-दुक्का लोगों
हूँ। पर कुछ, जो जस का तस याद रह गया है उसमें से कविता और से मिलने पर इसे गलत सिद्ध होता हुआ देखा, भगवत रावत का
जीवन के बीच के संबंधों पर उनका एक वाक्य है जो ऋषियों के जीवन उसमें से एक था। भगवत रावत बड़े कवि थे और इससे बड़ी
आप्त वचन सा आज भी याद ही नहीं, लगातार याद रहा आता है। बात है कि वो अपनी कविता जितने ही बड़े आदमी भी थे। प्यारे और
पूरे संदर्भ में जाने का न तो यहाँ सही समय है और न बहुत ठीक नेकदिल। सबके लिए जाने क्या-क्या कर देने की उतावली से भरे,
सोमदत्त पहली नज़र में समझ में न आने वाले पहचान सकते हो/रात के अँधेरे में पेड़/आम का/.../
कारणों से हिंदी के उन महत्वपूर्ण कवियों में हैं, जिन क्या जान सकते हो सरसराहट से/पीपल के पेड़ का
पर चर्चा अपेक्षाकृत कम हुई है और हाल के वर्षों में होना आजू-बाजू/.../पुचकार कर डकर-डकर भर कर
तो लगभग न के बराबर (वैसे स्मृतिभ्रंश और लोप के सुर मींड़/क्या तुम बुला सकते हो पड़ोसी के बछड़े को
इस युग में वे भूला सा जा रहा अकेला अहम काव्य अपने पास?/.../दूर ऊपर से उड़तीं नीचे आतीं/पाँखों
या जीवन स्वर नहीं हैं)। 1974 में अशोक वाजपेयी की गति देख कर’कह सकते हो क्या तुम झिझकते-
द्वारा संपादित और प्रकाशित ‘पहचान’ शृंखला में झिझकते ही सही/कि ये तोतों की धौर है/गूलर के पके
उनका पहला संग्रह ‘रेल बोगदे में’ आया। कविता-संग्रह ‘किस्से फल खाकर लौटती हुई चार कोस के गाँव से/.../कैसी रार, कैसी
अरबों हैं’ 1980 में और ‘पुरखों के कोठार से’ 1986 में प्रकाशित जूझ, कैसी मरन मची है/हमारे आजू-बाजू, भीतर-बाहर, ऊपर-
हुए। सोमदत्त विश्व कविता के अपने हिंदी अनुवादों के लिए भी नीचे/अपनी नाड़ी में क्या हम उन्हें पकड़ सकते/बांध सकते हैं क्या
सुपरिचित और सम्मानित थे। ‘नाज़िम हिकमत की कविताएँ’, हम अपने अक्षरों में”। कविता ‘छटपटाता हूँ इसीलिए’ में वे पूछते
‘गाथाएँ सपनों की’ और ‘नन्ही डिबिया: वास्को पोपा की कविताएँ” हैं–“वे कौन सी जुबानें हैं/जो मैं बोलूँ/कि समझें सबके मन/कौन
उनके द्वारा अनूदित कविताओं के संग्रह हैं। उनका अनुवाद का और सी गठानें अपनी/जो मैं खोलूँ/कि खुलें सबके मन/कौन कौन सी वह
भी उल्लेखनीय और चर्चित काम रहा। महज़ 50 साल की उम्र में काया/जिसे धारूँ/कि भेंटें सब तन मन”।
1989 में उनका निधन हो गया। मेरा अपना अनुभव यह रहा है कि सोमदत्त को पढ़ना शुरू करते
1980 के दशक में मध्य प्रदेश में प्रगतिशील लेखक संघ के ही वे जैसे भीतर गूंजने लगते हैं। इस अनुभूति में उनसे रूबरू सुने
एक आयोजन में बोलते हुए सोमदत्त ने कहा था कि हमारे यहाँ उनके काव्यपाठ की ध्वनि-स्मृतियाँ शामिल हो सकती हैं। उनकी
वैद्य का एक नाम कविराज भी होता है। उन्होंने कहा था कि हमारी कई अपेक्षाकृत लंबी कविताओं में एक ज़बर्दस्त प्रवाह है, जैसे कोई
परंपरा में वैद्य जिस ग्राम या अंचल में रहते थे, उसके हवा-पानी, बांध टूटा हो और हरहराते पानी के भीषण वेग में बहुत कुछ बहा
मिट्टी, वनस्पतियों, फ़सलों, पशु-पक्षियों, कीड़ों-मकोड़ों, मनुष्यों, चला जा रहा हो, कभी कुछ दिखता, कभी कुछ, डूबता-उतराता
उनके और उनके परिवारों के शरीर और मन के स्वभाव, उनकी ऊभ-चूभ करता–आफ़तें, उम्मीदें, पस्तियाँ, हौसले, चेतावनियाँ,
हारी-बीमारियों, वहाँ के रीति-रिवाज़ों, लोकोक्तियों और जनश्रुतियों घुमड़ते प्रयाण और विजय गीत, कई जाने-पहचाने, कई चौंकाने-
आदि आदि के सम्यक औरआत्मीय जीवंत ज्ञान की उनसे अपेक्षा की चकराने वाले शब्दों और देशज पदों के नये अर्थ गढ़ते और खोलते
जाती थी, तभी वे अपने कर्तव्यपालन में पूरी तरह निष्णात माने जा युग्म, अनेक बार तो शब्दों और ध्वनियों के, बिंबों के गुच्छे-दर-
सकते थे। उन्हें कविराज कहे जाने का एक निहितार्थ साहित्यकारों गुच्छे, जो कभी बहुत कुछ चमका कर जगमगा देते हैं और कई बार
के लिए यह है कि कवि को भी– जनपक्षधरता सच्चे अर्थों में निभाना बेतरह खिझा भी सकते हैं। मानो एक झड़ी है, जो शुरू होती है,
चाहने वाले कवि को तो विशेष रूप से– अपने जन और परिवेश तो खासी दूरी और देर तक चल सकती है। अक्सर आपको उनके
से ऐसी ही अटूट तथा बहुआयामी संलग्नता के साथ जुड़ा होना साथ जैसे एक बेतहाशा दौड़ लगानी पड़ती है और उसमें आप गति
चाहिए। सोमदत्त अपने कवि कर्म में इस दायित्व को निभाने का के आनंद से विभोर भी हो सकते हैं और आपकी साँस भी फूल
निरंतर और सघन प्रयास करते हुए दिखाई देते हैं। वे जीवन भर सकती है। उनकी कविता में विचारों और अनुभूतियों का दुर्दमनीय
इसके लिए आकुल-व्याकुल रहे, जिसके एक उदाहरण के रूप में ज्वार है, बहुधा शब्द-स्फीति है, सम्प्रेषण के लिए आकुलता है, पर
उनकी कविता ‘विकलता’ की ये पंक्तियाँ दृष्टव्य हैं– “क्या तुम जीवन और जगत की जटिलता की समझ और उसका संधान भी है।
विष्णु खरे ने गद्य रचना में कविता को आविष्कृत वे लगातार छिंदवाड़ा आ रहे थे। मुंबई की आपाधापी
किया और दिखाया कि गद्य की अपनी एक लय होती भरी जिंदगी से दूर अपनी उम्र के अंतिम तीन वर्षों में
है, जो उनकी कविताओं का खास गुण है। उनकी वे छिंदवाड़ा की ठंडी फिजा में रहक़र अध्ययन लेखन
लंबी कविताओं और गद्यात्मक शैली पर हमारी उनके और अनुवाद कार्य कर रहे थे। मैं और प्रगतिशील
साथ तीखी चर्चाएँ होती थी और अंततः कविताओं की लेखक संघ छिंदवाड़ा के मेरे साथी वरिष्ठ कवि मोहन
स्वीकार्यता पर सहमति बन जाती। विवाद उनके साथ कुमार डहेरिया, कवि हेमन्े द्र राय, कथाकार राजेश
जुड़े रहते थे लेकिन यह सच है कि उन्होंने कवियों की झरपुरे और गोवर्धन यादव, कवि श्रीराम निवारिया और
एक पीढ़ी तैयार की। विष्णु खरे ने हिंदी कविता में एक मौलिक और रोहित रूसिया उनके साथ बौद्धिक बैठकों का लाभ लेते रहे हैं।
दूरगामी बदलाव किया, जिसका व्यापक असर हुआ और कविता छिंदवाड़ा में खरे जी अध्ययन, लेखन और अनुवाद कार्य कर रहे थे
गद्यात्मक, निबंध जैसी और अलंकरण-विहीन हुई और बहुत से इसलिए उन्हें स्थानीय स्तर पर आयोजित वैचारिक या काव्य गोष्ठियों
कवि ही उनके इस शिल्प में लिखने लगे। उन्होंने विश्व कविता के में लाना टेढ़ी खीर होता था। मैं चाहता था कि उनकी मेघा और
कई बड़े कवियों की रचनाओं के अनुवाद किया। गोइठे, गुटं र ग्रास, उपस्थिति का लाभ छिंदवाड़ा के लेखकों, कलाकारों और संस्थाओं
अत्तिला योज़ेफ, मिक्लोश राद्नोती, बेर्टोल्ट ब्रेख्त आदि कवियों और को मिले। मैं लोगों को उनसे मिलाने का प्रयास करता था, नतीजतन
एस्टोनिया और फ़िनलैंड के लोक-महाकाव्यों के उनके अनुवाद खरे जी लेखकों की कलम और कलाकारों की अदाकारी के कायल
उल्लखनीय हैं। उन्होंने उन्नीस साल की उम्र में बीए में पढ़ते हुए भी हुए। विष्णु खरे को कहीं भी काम चलाऊपन पसंद नहीं था।
ही अंग्रेजी कवि टी एस एलियट की प्रसिद्ध कविता 'वेस्टलैंड' को दबंगता इतनी कि वे फिसलने की सीमा पर खड़े होकर अपने गिरने
हिंदी में 'मरु प्रदेश और अन्य कविताएँ' नाम से अनूदित किया। की परवाह न करते हुए भी अपनों पर कटाक्ष कर देते थे। विष्णु खरे
हिंदी कविता को अनुवाद के ज़रिए अंग्रेज़ी और जर्मन, डच आदि की मूर्ति भंजक छवि को हमने छिंदवाड़ा में भी महसूस किया। विष्णु
भाषाओँ में पहुँचाया। उन्होंने जर्मन विद्वान प्रोफेसर लोठार लुत्से के खरे ने 19 सितम्बर 2018 को दिल्ली के जे.बी. पंत अस्पताल में दिन
साथ हिंदी कविता के जर्मन अनुवादों का पहला संकलन भी संपादित के साढ़े तीन बजे अपनी आख़िरी साँसे लीं। मुझे चार बजे ख़बर लगी
किया। हिंदी कविता के अंग्रेज़ी और डच अनुवाद भी उनके प्रयत्नों तब मैं डेनियनशल कालेज छिंदवाड़ा के एक कार्यक्रम में अतिथि
से संभव हुए। था। ख़बर सुनने के बाद मैं वहाँ फिर रुक नहीं पाया और अपना
मध्यप्रदेश के छिंदवाड़ा के कुम्हारी मुहल्ले में 9 फरवरी 1940 वक्तव्य दिए बिना ही चला आया था।
को जन्में वरिष्ठ कवि, आलोचक,पत्रकार तथा फिल्म समीक्षक अपने काम के प्रति इतने जिद्दी व्यक्ति मैंने बहुत कम देखे हैं।
स्वर्गीय विष्णु खरे का छिंदवाड़ा प्रेम जग जाहिर है। अपने लेखन में उम्र के इस अवसान पर भी वे प्रतिदिन अख़बार के लिए स्तंभ लिखते
उन्होंने छिंदवाड़ा को अनेकों बार अभिव्यक्त किया और छिंदवाड़ा पर थे और वेबसाइट्स पर अपनी बेबाक टिप्पणी देते थे। विष्णु खरे की
उनकी कविता 'मिट्टी' चर्चित भी हुई। छिंदवाड़ा के वरिष्ठ कथाकार कविताएँ, कविता के रूप में जैसे अनुसंधान की एक पूरी कार्यशाला
हनुमंत मनगटे बताते थे कि विष्णु खरे के पिता स्वर्गीय सुंदरलाल है। वे इतिहास और उसकी मीमांसा को कविता के परिसर में लाती
खरे ने हायर सेकडें री छिंदवाड़ा में शिक्षक थे और उन्होंने मनगटे है। उनके काव्य लेखन में शास्त्रीय संगीत जैसा लंबा और कठोर
जी को पढ़ाया था। 1951 में उनका स्थानांतरण होने पर परिवार रियाज, विषय के प्रति एकाग्रता दिखती है। मिथक उनकी कविता
खंडवा चला गया। खंडवा से विष्णु खरे की जीवन यात्रा इंदौर, के महत्वपूर्ण अंग हैं। वे मिथकों की पूरी दुनिया में प्रवेश करते हैं।
दिल्ली होते हुए मुंबई पहुँची। अपनी मृत्यु के पिछले पन्द्रह- वर्षों से विष्णु खरे जी की भाषा असाधारण थी महाभारत को वह विश्व का
अकविता की अराजकता के बाद जिन कवियों ने “मैं पहाड़ में पैदा हुआ और मैदान में चला आया
हिंदी कविता की वापसी की तारीख़ लिखी उनमें यह कुछ इस तरह हुआ जैसे
मंगलेश डबराल भी हैं। आलोक धन्वा, लीलाधर मेरा दिमाग पहाड़ में छूट गया
जगूड़ी, राजेश जोशी, अरुण कमल, उदय प्रकाश के और शरीर मैदान में चला आया
साथ मंगलेश डबराल ने भी अपनी मजबूत उपस्थिति या इस तरह जैसे
दर्ज़ की। ‘पहाड़ पर लालटेन’(1981) उनकी पहाड़ सिर्फ़ मेरे दिमाग में रह गया
बहुचर्चित रचना है। इस संग्रह से उन्होंने अपने लिए और मैदान मेरे शरीर में बस गया”।1
एक काव्य मानक गढ़ा। एक अलग किस्म की अंतर्वस्तु और तक़रीबन चार दशकों में फैले मंगलेश की कविताओं में पहले
संवेदना के साथ हिंदी कविता में उपस्थित हुए जो सर्वथा नया और संग्रह की पहली कविता से लेकर आख़िरी संग्रह की पहली कविता
अनूठा था। ‘पहाड़ से विस्थापित व्यक्ति’ जो ‘शहर में स्थायित्व तक में पहाड़ और मैदान की टकराहट मौज़ूद है। एक स्वप्न है
और रोजगार’ की तलाश में निकला था; शहर की भीड़ में खो गया। दूसरा यथार्थ। एक अतीत है दूसरा वर्तमान। वसंत कविता में
उसकी पहचान एवं अस्मिता को पूंजीवादी व्यवस्था और शहर ने सूक्ष्मता है। प्रतीकात्मकता। अनुभव अधिक संघनित और ठोस रूप
निगल लिया। धीरे-धीरे वह ‘चेहराविहीन विस्थापित नागरिक’ में में अभिव्यक्त हुआ है। लेकिन बाद में धीरे-धीरे यह कविता के
तब्दील हो गया। आधुनिक पूंजीवादी व्यवस्था के इस क्रूर और स्तर पर स्थूल होता गया है। ‘पहाड़ से मैदान’ कविता पूर्ववर्ती से
भयावह चेहरे के भीतर एक नागरिक के अपनी जड़ों से उखड़ने ज्यादा स्पष्ट और स्थूल है लेकिन वैचारिक स्तर पर कविता उसी
और फिर नहीं बस पाने की त्रासदी को जिस शिद्दत से मंगलेश भाव को उपस्थित करती है। मंगलेश ने अपने एक संवाद में कहा
डबराल ने रचा और उसे हिंदी कविता में लेकर आये, यह बिलकुल भी है– “मेरी कविता अपनी भूमि, अपना समाज छूटने और एक
नयी बात थी। ऐसे समाज में आने के समय संभव हुई जो मेरे लिए अजनबी था।
मंगलेश ने यह जो प्रतिमान रचा वह उनकी पहचान से चिपक यह दुतरफा विस्थापन था।”2 ऐसा नहीं है कि पहाड़ की स्मृतियाँ
गया। उन्होंने ख़ुद भी सप्रयास अपने को इस पहचान से जोड़े सुखद और रोमांचक हैं बल्कि उस समाज की सीमाएँ हैं। उसमें
रखा। वे कभी इससे अलग नहीं हुए। यही कारण है कि ‘पहाड़ कहीं रमणीयता नहीं है। मंगलेश के लिए पहाड़ सैलानीगृह नहीं है।
पर लालटेन’ से लेकर ‘स्मृति एक दूसरा समय है’ (2020) तक वे कैमरे की लेंस से पहाड़ को नहीं देखते हैं। बल्कि उसमें उनका
वे इस त्रासदी को रचते रहे। ऐसा करते हुए उन्होंने वैचारिक रूप अनुभव शामिल है। यह एक विघटित और उजड़ता हुआ समाज है।
से रूढ़ियों का निर्वाह ज़रूर किया लेकिन एक कवि के रूप में केंद्रीकृत विकास के मॉडल ने भारतीय समाजों में जो गहरी खाई
काव्यरूढ़ियों का अंबार नहीं लगाया। वे कविता में निरंतर बदलाव पैदा की है उसी की मौज़ूदगी है। दूर-दराज के इलाकों तक विकास
करते गये। कथ्य की समानता के बाद भी कथन-शैली से उसे की परियोजनाएँ नहीं पहुँची। रोजगार के अवसर धीरे-धीरे क्षीण
बदलते रहे। वे इतनी मानवीय करुणा से भर कर उसे कहते रहे होते गये। नतीजा यह रहा कि लोग उजड़ कर कर शहर और मैदान
कि कविता में हमेशा नयापन और ताजगी बनी रही। इस दृष्टि से की तरफ आने लगे। मंगलेश की काव्य-भूमि में अभिव्यक्त समाज
देखें तो वह हिंदी में अलग और विलक्षण प्रतिभा के कवि लगते हैं। उसी उजाड़ का शिकार है। ‘पहाड़’ उस‘खाई’ का ही मेटाफर है
अंतिम संग्रह 'स्मृति एक दूसरा समय है' की पहली कविता है– जिसे आधुनिक केंद्रीकृत विकासवादी प्रणाली ने पैदा किया है।
रुधिर का तापमान
बजरंग बिहारी तिवारी
ऐसा कोई सर्वेक्षण शायद नहीं हुआ है पर यह कहना उनकी कविताओं को स्वीकार्य बनाती है। ‘औषधीय’
गलत नहीं होगा कि इधर बीच दलित साहित्य के पाठकों गुणों के चलते ही उनकी कड़वी अभिव्यक्तियाँ ग़ैर
की संख्या में पर्याप्त वृद्धि हुई है। इस संख्या वृद्धि दलितों के लिए भी वांछित और सह्य हो जाती हैं।
में दलित समुदाय के पाठकों का मुख्य योगदान है। दलित पाठक वर्ग के निर्माण की पूर्वपीठिका में इस
एक तो जागरूकता में बढ़ोत्तरी, दूसरे विश्वविद्यालयी साहित्य की सामान्य चर्चा से लेकर सभा-संगोष्ठियों,
शिक्षा में दलित विद्यार्थियों का आरक्षण नियमों के विद्यापीठों आदि में मलखान सिंह का अनिवार्य संदर्भ
किंचित कड़ाई से लागू होने के कारण पहले से कहीं इसी परिप्रेक्ष्य में समझा जा सकता है। इससे यह
अधिक प्रवेश, तीसरे मानविकी के तमाम पाठ्यक्रमों में दलित भरोसा भी मजबूत होता है व्यापक पाठक समुदाय वास्तविक और
साहित्य की उपस्थिति, और चौथे इन सब कारणों के सम्मिलित मौसमी प्रतिबद्धता के बीच अंतर करना जानता है। ग्रेशम का नियम
असर से प्रकाशन बाज़ार में दलित लेखन के प्रति चयनित-सीमित साहित्य पर भी लागू होता है। अस्मितावादी लेखन पर विशेष रूप
मगर विशेष झुकाव जाति-वर्ण से ग्रस्त अकादमिक दुनिया में से। मलखान सिंह को नेपथ्य में डालने, विस्मृत करने की कोशिशें
उल्लेखनीय बदलाव ला रहे हैं। इस परिवर्तित माहौल के मद्देनज़र होती रही हैं। मुद्राओं का कारोबार करने वाले कलदार कविताओं
दलित रचनाकारों की पहली पीढ़ी के संघर्ष का कृतज्ञता के साथ को चलन में क्यों रहने देंगे!
स्मरण करना उचित है और ज़रूरी भी। मलखान सिंह उसी पीढ़ी मलखान सिंह संवादी कवि हैं। एकालाप या आत्मालाप में उनका
से ताल्लुक रखते हैं। पिछली शताब्दी के अंतिम दशक में उनकी यक़ीन नहीं। उनकी कविताएँ बातचीत के लिए आमंत्रित करती हैं।
कविताएँ प्रकाशित होनी शुरू हुईं। पहला कविता संग्रह 1997 में बेशक, अपने अंदाज़ में। यह अंदाज़ धमकाने वाला तो नहीं, पर
आया। इस संग्रह ने अपने प्रकाशन के साथ जैसी लोकप्रियता अर्जित चुनौती देने वाला है। उनके संग्रह का शीर्षक ‘सुनो ब्राह्मण’ इसकी
की वैसी किसी अन्य समकालीन कवि या कविता पुस्तक को नहीं ताईद करता है। यह शीर्षक एकबारगी हमें कबीर शैली की याद
मिली। एकबारगी सोचकर आश्चर्य होता है कि अत्यंत चुभने वाली दिलाता है- ‘सुनो भाई साधो’ या ‘सुनो हो संतो’। लेकिन थोड़ा
भाषा, तिलमिला देने वाले तेवर और बेचैन कर देने वाले कथ्य को और ध्यान दें तो पाएँगे यह शैली बुद्ध की है। महात्मा बुद्ध के कई
कैसे स्वीकार कर लिया गया! उपदेश ‘भो ब्राह्मण’–हे ब्राह्मण से प्रारंभ होते है। जो सबका
मलखान सिंह की कविताओं में व्याप्त तल्खी दायित्वबोध से शिक्षक होने का दंभ पाले हुए है उसे समझाना, रास्ता दिखाना और
उपजी है। वे जानते हैं कि उनकी आवाज़ उत्पीड़ित समाज की मार्गदर्शक की भूमिका से उतारकर हमराही या अनुयायी की स्थिति
वाणी है। उनके व्यथापूरित अनुभव निरे वैयक्तिक नहीं हैं। वे में ले आना। मलखान सिंह की संबोधन शैली बुद्ध और कबीर की
दलित समाज की संचित पूँजी हैं। इतिहास के लंबे दौर में हिंसक याद कराकर भी उनसे अलग है। उनके संबोधन में विनम्रता नहीं,
व्यवस्था का ‘प्रदेय’। ‘स्वानुभव’ के प्रति उनकी भिन्न दृष्टि का तंज नहीं, ललकार है। इस ललकार में उठते-उमड़ते, आत्मग़ाैरव
यही कारण है। वे इसके प्रति खासे चौकन्ने हैं कि स्वानुभव का दावा के भाव को रेखांकित करते दलित समुदाय की तेजस्विता है। यह
उनकी वैयक्तिक छवि को चमकाने का ज़रिया न बन जाए। समूचे तेजस्विता वर्णवाद को हतप्रभ करती है, जातिवाद का सत्व सुखाती
उत्पीड़ित समुदाय से ‘स्व’ की अकृत्रिम सम्बद्धता उनके स्वत्व है और अवमानना के भारवाहक़ों को चौंधियाती है। जाति के प्रपंच
का निर्माण करती है। उनका अस्मिताबोध इसीलिए अनुदार और से अवगत कवि ‘देव विधान’ को बेपर्दा करता चलता है- ‘उफ़!
संकीर्ण नहीं हो सकता। वह ‘अस्मि’ का विस्तार करता चलता है। तुम्हारा न्याय/ महाछल महाघात/ ज्ञात को अज्ञात के/ पेट में
अस्मितावाद में ढल जाने का रास्ता नहीं अपनाता। यह विशेषता ही घुसेड़कर/ रचता महाभाष्य/ ठगता पसीने को/ हमारी फटेहाली
विद्रोही जी की कविता में आदिम स्वर है। वे कविता जैसे कविता के विषय में उनका एक काव्यात्मक
को परिचय-पत्र की तरह सीने पर नहीं टाँगते, बल्कि विचार है:
उनकी कविता उन्हें परिचय की तरह धारण करती कविता क्या है
है। विद्रोही जी की कविता में कवि का दम्भ नहीं है, खेती है
बस एतमाद है निर्भीकता के साथ अपनी बात कहने कवि के बेटा-बेटी हैं,
का और उसके प्रभावोत्पादक होने का। कविताएँ बाप का सूद है, माँ की रोटी है।
बहुत थोड़ी सी प्राप्त होती हैं, क्योंकि छपने आदि में
उनकी कोई रुचि नहीं थी। वाचिक कवि हुए। उन्हें अपनी आवाज़ कविता को बाप के सूद और माँ की रोटी से जोड़ने के पीछे कवि
पर भरोसा था कि यह ज़माने में गूँजती रहेगी और इसमें कही का वर्गीय दृष्टिकोण है। कवि या कलाकार अपने साहित्य में अपने
गयी कविता समय पर लिखी रह जाएगी। वे जानते हैं कि प्रत्येक वर्ग का प्रतिनिधित्व करता है। विद्रोही का वर्ग निम्न मध्यवर्गीय
विद्रोही आवाज़ को दबाने-मारने की कोशिश की जाती रही है। वे किसान-मज़दूर वर्ग है। यह वर्ग वर्चस्व और पूँजी की सत्ताओं
ऐतिहासिक वर्गीय स्थापनाओं और सत्ता-संरचनाओं के जानकार द्वारा शोषित है। न केवल शोषित है बल्कि उसकी आइडेंटिटी भी
हैं। लेकिन वे यह भी जानते हैं कि उन्हें मारा नहीं जा सकता : वैश्विक पूँजीवाद के घटाटोप में धुँधली हो गई है।
इस अकाल में मुझे क्या कम मारा गया है? जनप्रतिबद्धता विद्रोही की कविताओं का बीज भाव है। उनकी
इस कलिकाल में अनेकों बार मुझे मारा गया है तमाम कविताओं में जन अपनी वर्गीय विषमताओं के साथ खड़ा
अनेकों बार घोषित किया गया है होता है। उसे साधारण से विशिष्ट बनाने के लिए कवि भी कविता
राष्ट्रीय अख़बारों में, पत्रिकाओं में में उसके साथ खड़ा होता है। कवि उसके दु:खों का ऐतिहासिक
कथाओं में, कहानियों में कारण उसे बताता है, और उसे सहज करने के प्रयास कविता में
कि विद्रोही मर गया। करता है। जनप्रतिबद्धता विद्रोही की कविताओं में एक संकल्प की
भाँति है:
तो क्या मैं सचमुच मर गया? मेरी पब्लिक ने मुझको हुक्म है दिया
नहीं मैं ज़िन्दा हूँ! कि चाँद तारों को मैं नोंच कर फेंक दूँ
और गा रहा हूँ। या कि जिनके घरों में अगिन ही नहीं
विद्रोही कविता को लाठी की तरह भाँजना और इसे दूसरों के रोटियाँ उनकी सूरज पर मैं सेंक दूँ
हाथ में भी देना चाहते हैं। यह लाठी वर्चस्व की सत्ताओं के विरुद्ध विद्रोही की काव्य-संवेदना में आधुनिकता और उत्तर-
एक रेज़िस्टेंस है जिसे विद्रोही का कवि अपने हाथ में लिए खड़ा आधुनिकता के रंग-ढंग एक साथ मिलते हैं। परन्तु अन्तिम निष्कर्षों
है। यह लाठी कविता है। कविता को लाठी की तरह भाँजने के लिए में वे आधुनिक मूल्यों के कवि हैं। स्वयं पर बनी बायोग्राफिकल
‘भाँजना’ आना चाहिए। भाँजने का एक गूढ़ भाषिक अर्थ है, जो डाक्युमेंट्री फ़िल्म ‘मैं तुम्हारा कवि हूँ’ (निर्देशक नितिन पमनानी)
लट्ठबाजों को ही मालूम है। इसलिए विद्रोही जब अपनी कविताओं में वे एक स्थान पर आधुनिकता की स्वनिर्मित परिभाषा देते हुए
में कहीं कविता की परिभाषा देते हैं तो कविता को अपने व्यक्तित्व पहले आधुनिकता पर रवीन्द्रनाथ टैगोर के विचार को उद्धृत करते
के और भी नज़दीक खींचने की कोशिश करते हैं। यह कोशिश हैं। वे कहते हैं कि ‘टैगोर ने आधुनिकता की परिभाषा दी, True
भी कविता से प्रतिरोध उत्पन्न करने की कोशिश जैसी लगती है। modernism is freedom of thought and indepen-
सुरशे सेन 'निशान्त' का कवि-हृदय पाठक के हृदय अपने पहले कविता संग्रह 'वे जो लकड़हारे नहीं हैं' में
के निकट पहुँचने की एक क्षमता अर्जित करके अपना प्रेम को जीवन की ज़रूरत माना है। क्या यह सच नहीं
लक्ष्य-संधान करता है। उनके लिए कविता मनुष्य- है कि व्यक्ति सिर्फ़ प्यार में जीवित रहता है, इसके
विरोधी शक्तियों से लड़ते हुए अपने समय तक अलावा जो भी कुछ है, वह यदि प्यार के लिए नहीं है
पहुँची हुई मनुष्यता का अन्वेषण करती है। निशान्त, तो मृत्यु के अलावा क्या हो सकता है? कविता जब
दरअसल बौद्धिक बोझिलता के कवि नहीं हैं, उनके से भी लिखी गई, उसके लेखन का प्रयोजन 'प्यार' ही
यहाँ जीवन की रागात्मकता पर विशेष बल रहता है। रहा। हमारे आदिकवि का यह प्यार ही तो था, जो क्रौंच
उनके यहाँ विवेक का भावपूर्ण साहचर्य मिलता है। मिथुन के लिए परिस्थिति के अनुरोध से उमड़ पड़ा था, यद्यपि जो
निशान्त की कविताओं में प्रकृति के छोटे छोटे रूपक और बाहरी तौर पर क्रोध के रूप में नज़र आया। हमारे भीतर की करुणा
बिम्ब खासतौर से इसलिए आकर्षित करते हैं कि उनमें प्रकृति की भी प्यार के बिना उद्दीप्त नहीं होती। यदि करुणा से प्यार का साहचर्य
उपस्थिति, मानवीय क्रियाओं और दुख-दर्दों के साथ है। प्रकृति नहीं है तो वह दिखावटी और बनावटी है। प्यार रहित 'करुणा' का
की चिन्ताओं में आज की उस उत्तर आधुनिक प्रौद्योगिक सभ्यता निवेश सेठ साहूकार और पूंजीपति अपनी करुणाशून्य दुनिया में ख़ूब
के तनाव हैं, जो मनुष्य जीवन को भीतर से रिक्त, खोखला और करते देखे जाते हैं। शोषण उत्पीड़न, छल-कपट और भ्रष्ट तरीकों
अमानवीय बनाने में लगे हुए हैं। उनके यहाँ 'पहाड़ के दर्द' में स्त्री से एकत्र सम्पदा को दया-याचकों में दुनिया भर के पूंजीपति बाँटते
की त्रासदियाँ भी खासतौर से शामिल हैं। इसी वज़ह से पहाड़ी जीवन देखे जा सकते हैं। इसलिये आदि कवि का पहला श्लोक करुणा और
के समानान्तर वे स्त्री-जीवन को खासतौर से अपनी कविता के केन्द्र क्रोध के गर्भ में छिपा हुआ प्रेम ही है जो मनुष्यता का सबसे महान
में रखते हैं। पहाड़ी प्रकृति और स्त्री उनकी कविता के सौंदर्य और मूल्य है। बहरहाल, न यह करुणा है, न दानशीलता की अभिव्यक्ति।
संघर्ष दोनों पक्षों को रचते हैं। पहाड़ का क्रूर और भयावह जीवन- प्यार रहित करुणा, प्रदर्शन का उद्योग खड़ा करती है। इसीलिए कवि
यथार्थ यहाँ टंका हुआ है। यहाँ पहाड़ों का टूटना और धरती का का 'करुणा-भाव' 'सेठ के करुणा-भाव से अलग तरह का होता
धसकना जारी है। इस यथार्थ में स्कूल से बच्चों के सही-सलामत है। उसकी प्रकृति विश्वजनीन होती है। पूंजी की प्रकृति अपेक्षाकृत
लौट पाने को लेकर तरह तरह की आशंकाएँ भी शामिल हैं। यह संकीर्ण एवं निजबद्ध होती है। इसका प्रधान कारण है-पूंजी का बेहद
आकस्मिक नहीं है कि उनकी 'निर्मला' शीर्षक कविता-खण्डों में तटस्थ और निष्करुण होना। कविता तटस्थ नहीं होती, वह हमेशा
पत्थर और मिट्टी से बनने वाले घर में जीवित रहने वाले प्यार की पक्षधर या पक्षपातपूर्ण होती है।
पक्षधरता उस विज़न की तरह आई है, जिसके अभाव में कविता जीवन में यकायक उपलब्ध किसी भी भावात्मक दृश्य के प्रति
संभव नहीं है। यही कारण है कि यह कवि विकास के नाम पर किये सुरशे सेन निशान्त का हृदय वैसे ही उमगने लगता है, जैसे पहाड़ी
जा रहे उन बदलावों के पक्ष में नहीं है, जो ज़मीन को जोतने से झरने भीतर तक पानी से सराबोर होकर उमगने लगते हैं। उनकी
ज्यादा उसे बेच देने में भलाई का ढिंढोरा पीटते हैं। 'तस्वीर में माँ' कविता को पढ़कर इस तथ्य से परिचित हुआ जा
पहाड़ों की सड़कें, राजमार्ग, पगडंडियाँ और पथरीले रास्ते वैसे सकता है। ऐसी कविताओं को पढ़ने से स्पष्ट है कि मनुष्य-भाव के
ही नहीं होते, जैसे मैदानों में हुआ करते हैं। वहाँ की आबोहवा, खेतों, लिए प्रकृति का साहचर्य कितना ज़रूरी होता है। सच यही है कि
भूदृश्यों, सरिताओं, जलप्रवाहों, पेड़ों और उनकी लय का समागम प्रकृति का क्षरण एक तरह से मनुष्यता का ही क्षरण है। प्रकृति,
तथा इनके बीच निर्मित आदमी का स्वभाव वैसा ही नहीं होता, जैसा मनुष्य-जीवन के लिए एक आधारभूत मानवीय सन्देश है। पहाड़ी
मैदानी आदमी का हुआ करता है। निशान्त ने सन 2010 में प्रकाशित जीवन से प्रेरित होकर लिखी जाने वाली कविताओं में यह संयोग मात्र
जिस ‘बहुवस्तुस्पर्शिनी प्रतिभा’ और ‘राग- सरोकार’ नाम से हाल के वर्षों में आई थी। सामयिक
विराग’ के लिए कविवर निराला की इतिहास में पत्रकारिता पर भी उनकी पैनी नज़र थी। उनकी
साहित्येतिहासकार और आलोचक भरपूर प्रशंसा कर एक पुस्तक ‘मीडिया लेखन: सिद्धांत और प्रयोग’,
चुके हैं; उन पर लहा-लोट हो चुके हैं; और जिस स्वराज प्रकाशन, दिल्ली, नाम से आई। यह दिल्ली
“विचार वैविध्य” के लिए बेचारे कवि पंत को ‘बेपेंदी विश्वविद्यालय के विद्यार्थियों के बीच खासी लोकप्रिय
का लोटा’ और उनके अधिकांश लिखे हुए को कूड़ा रही। उनकी कुछ बुकलेट्स ‘सावित्रीबाई फुले: भारत
कहा जा चुका है; उसको किसी कवि रचनाकार की की पहली महिला शिक्षिका’, ‘अम्बेडकर का सपना’,
आलोचना में ‘मूल्य’ ‘मानदंड’ बताने मानने में कितना ख़तरा ‘भगत सिंह और दलित समस्या’ बेहद प्रसिद्ध रहीं। उन्होंने कुछ
है शायद यह कहने कि ज़रूरत नहीं है। मुकश े मानस के संदर्भ बेहद महत्वपूर्ण व ज़रूरी पुस्तकों का अनुवाद भी किया जिनमें
में जानबूझकर मैं यह जोख़िम ले रहा हूँ और मुकश े मानस की ‘व्हाई आई एम नॉट ए हिंदू’ (2003) कांचा इलैया और ‘इंडिया
कविताई में फैले ‘अनंत रंगों की अनंत आभा’ रेखांकित कर रहा इन ट्रांजिशन’ (2005) एम.एन. राय की पुस्तकें उल्लेखनीय
हूँ। मैं यह भी जानता हूँ कि यह बाक़ायदा दलित कविता और हैं। उनके कुछ स्वतंत्र लेख भी बेहद पसंद किए गए जिनमें ‘हिंदी
साहित्य की ‘सेट टोन’ के ख़िलाफ़ है। दरअसल मुकश े मानस कविता की तीसरी धारा’, ‘दुष्यंत कुमार की ग़ज़ल’, ‘अछूत दलित
उस तरह के कवि हैं जो एक ओर अपने ‘विचार वैविध्य’ के ज़रिये जीवन का अंतर्पाठ’, ‘दलित साहित्य आंदोलन के पक्ष में’, ‘हिंदी
दलित कविता की ‘मोनोटनी’ तोड़ने का काम करते हैं तो दूसरी दलित साहित्य आंदोलन: कुछ सवाल, कुछ विचार’, ‘अम्बेडकर
ओर अपनी ‘बहुवस्तुस्पर्शिनी प्रतिभा’ के चलते उसका क्षेत्र विस्तार का सपना, दलित समस्या और भगत सिंह’, ‘मीडिया की जाति’,
करते हैं। कायदे से देखा जाए तो ‘अनंत रंगों की अनंत आभा’ ‘सांस्कृतिक कर्म’, ‘नौजवान का रास्ता: भगत सिंह को क्यों याद
का जो रूप मुकेश मानस की कविताई और रचना कर्म में दिखता करें’, ‘फासीवाद, सांप्रदायिकता और दलितजन’,‘समाजवाद
है वह सम्पूर्णता में दलित कविता और रचनाधर्मिता में पैराडाइम मांगेंगे, पूँजीवाद नहीं’ आदि प्रमुख हैं। ‘मेरी कविता’शीर्षक कविता
शिफ्ट का संकते क है। में अपनी कविता का उद्देश्य बताते हुए उन्होंने लिखा– “ऐसी हो
‘पतंग और चरखड़ी’ उनका पहला कविता संग्रह था; जो 2001 मेरी कविता/इस बुरे वक्त की/तक़लीफ़ें बांट सके/गहराते अंधकार
में छपा था। उनका पहला कहानी संग्रह ‘उन्नीस सौ चौरासी’ को/जितना हो छांट सके।”1(2000)
2005 में आया था। उसके बाद मेरी जानकारी में 2010 में ‘कागज़ मुख्यतः वे दलितों की प्रगतिशील परंपरा के संवाहक़ थे।
एक पेड़ है’, और ‘धूप खिली हुई’ नाम से दो और कविता संग्रह कास्ट, क्लास और जेंडर की तिहरी लड़ाई के समर्थक थे। अपनी
आये। ‘पंडित जी का मंदिर और अन्य कहानियाँ’ नाम से उनका एक कविता ‘सर्वनाम’ में वे उस आदमी और उसकी स्थितियों के
एक और कहानी संग्रह 2012 में आरोही प्रकाशन से प्रकाशित हुआ बारे में बोलते हैं जो उनके लेखन का सर्वकालिक एजेंडा रहा है-
था। ‘उन्नीस सौ चौरासी’, ‘अभिशप्त प्रेम’, ‘समाजवादी जी उर्फ “बाप चमार/ माँ बीमार/ जवान होती बहनें चार/ माटी की चोंतरी/
प्यारेलाल भारतीय’, ‘कल्पतृष्णा’, ‘बड़े होने पर’, ‘सूअरबाड़ा’, कर्ज़़े की कोठरी/ टपकती हुई ओसरी/ भूख़े पेट जागना/ और
‘दुलारी’, ‘औरत’, ‘टूटा हुआ विश्वास’, ‘शराबी का बेटा’ और हिम्मत हारना/ ख़ुद को रोज़ मारना/ जातिगत प्रताड़ना/ ज़िन्दगी
‘पंडित जी का मंदिर’ आदि उनकी प्रसिद्ध कहानियाँ हैं। आलोचना अवमानना/ एक दु:सह यातना/ किसकी व्यथा है ये/ उसका क्या
पुस्तक ‘हिंदी कविता की तीसरी धारा’ 2013, स्वराज प्रकाशन, नाम है/ उसका कोई नाम नहीं/ वह तो सर्वनाम है/ जहाँ भी
दिल्ली के बाद उनकी एक और किताब ‘दलित साहित्य के बुनियादी जाओगे/ नज़र को दौड़ाओगे/ हर सिम्त उसे पाओगे।”2
नंद चतुर्वेदी
(21 अप्रैल 1923 - 25 दिसंबर 2014)
अविराम
दिनेश कुमार शुक्ल
उदय प्रकाश
हरीशचंद्र पाण्डेय
अरुण कमल
मेरे जीवन का नमक है कविता अष्टभुजा शुक्ल
हर शब्द में घुला है इसका स्वाद
मदन कश्यप
असद ज़ैदी
लीलाधर मंडलोई
स्वप्निल श्रीवास्तव
कुमार अम्बुज
देवी प्रसाद मिश्र
दिनेश कुशवाह
आशुतोष दुबे
एकांत श्रीवास्तव
पवन करण
कविता यदि जीने के कर्म को उसकी मानवीयता की सामान्य जीवन में दखलंदाज़ी की हदें ही नहीं बचीं
और गरिमा में शक्तिपूर्वक प्रस्तुत और परिभाषित नहीं और दुर्नीति के स्तर तक पहुँचने से अब उसे कोई
करती तो उसका और कौन-सा कर्तव्य हो सकता है? गुरेज़ भी नहीं रहा। धर्म के तले अनाचार और
यदि संसार के विनाश के विरुद्ध रचनात्मक कर्म ही आक्रामकता को खुला प्रश्रय मिल रहा है, साथ ही
एकमात्र बचाव है (जैसा कि अमरीकी कवि-समीक्षक बहुसंख्यकवाद द्वारा अल्पसंख्यकों को संशयग्रस्त
केनेथ रेक्सरॉथ ने कहा है) तो कवि के लिए सबसे बनाने की अनुदार कार्यावाहियाँ फैलती जा रहीं हैं।
अधिक रचनात्मक क्या यह नहीं हो सकता कि वह सत्ता, पूँजी और अपराध का त्रिकोण प्रकट रूप से
मानव अस्तित्व के अन्तःसलिल हो रहे उत्सों को फिर से प्रकाश में विकट हो चला है। धर्म आधारित राजनीति के बल पर अर्जित सत्ता
लाये; हम ऊबे और थके और उखड़े हुओं को अपने जीने की क्रिया की क्रियाशीलता में ‘मनुष्यत्व’ संकटग्रस्त स्थिति में पहुँच चुका है।
की गहराई और विषदता पर कविता के माध्यम से बल देकर हममें निजी लालचों और भेद के अनेक जालों ने एकांगीपन में भारी
उस कर्म के लिए नया रस, नया महत्त्वबोध उत्पन्न करे ताकि हम इजाफ़ा किया है। सुरुचि, जवाबदेही, सार्वजिनक कर्तव्य,
जीवन में अर्थ, उद्देश्य और मूल्य की खोज और प्रतिष्ठा कर सकें। दीर्घकालिक चिंताएँ, नैतिकताबोध, उदारता, निर्भयता, प्राथमिक
(रघुवीर सहाय की कविता पर अशोक वाजपेयी) स्रोतों को जानने की उत्सुकता आदि छीजते जा रहे हैं। मनुष्य
छः दशकों से अधिक फैले काव्य-संसार में अशोक वाजपेयी ने जीवन से इतर व्यापक उपस्थिति के प्रति दोहक़ रवैया, प्रायोजित
कविता में अपना एक प्रतिसमय रचने की ज़िद भरी और भरोसेपर्ण ू उपक्रमों पर अप्राश्निक समर्पण और अनुकरण, मिथकीय आख्यानों
आस्था को निरन्तर चरितार्थ किया है। आरम्भिक कविताओं से की मनमाफ़िक प्रस्तुतियाँ, इतिहास की दुरव्याख्या, महानायकों पर
लेकर अभी तक की कविताएँ, उनकी काव्य-जिजीविषा के सघन लांछन, फूहड़ता और भोड़े प्रदर्शनों की होड़ आदि अनेक इस दौर
होते चले जाने का एक सतत सिलसिला बनाती हैं। ज़ाहिर है, इस के प्रत्यय हैं जो मनुष्य के मनुष्य होने को संशयग्रस्त बनाते हैं।
अवधि में स्थितियाँ लगातार बदलती रही हैं और पिछले तीसेक विरल होते जा रहे मनुष्यत्व की जीवन में वापसी भले ही
वर्षों में रुग्णताएँ बदलाव की पर्याय बनी हैं। इस समूचे दौर में असंभव हो, कविता ऐसी तमाम असंभवताओं को दरकिनार कर हर
क्रमशः निजी व सार्वजनिक जीवन में नैतिकता का तेज़ी से क्षरण उस भावबोध का पुनर्वास करती है, जिसका मानव जीवन में
हुआ है। संकीर्णता के ओसारे फैले हैं, नफ़रत की जगह ने प्रायोजित अपसरण होता है। कवि को प्रेम, स्मृति, पड़ोस, प्रकृति, भाषा के
रूप से अप्रत्याशित बढ़त बनाई है। सौहार्द लुप्त होता जा रहा है। सौन्दर्यबोध के परिपाक से बहुधा सम्बोधित किया जाता रहा है।
हिंस्र आक्रामकता सामान्य व्यवहार में घटित हो रही है। भेद की ऐसा किया भी जाना चाहिए। जीवन में विपुल उपस्थित या रिक्ति
पारम्परिक वज़हों में कई नई वज़हें मिलकर उसका कुनबा बढ़ा रही पर अनुपस्थिति का ठोस एहसास कराते भाव क्या कविता के लिए
हैं। नागरिकता बोध संशयग्रस्त है। जीने की प्राथमिकतायें अन्यों निषिद्ध होंगे? निजता को, उसके सार्वजनीय अभिप्रायों व उनमें
द्वारा थोपने और उसके स्वीकार भाव का बेहया चलन बहुतायत निहित आकांक्षा को जगह देती कविता में ही सार्वजनिक आशयों
हुआ है। निजी के शक्तिमय होने की बेहूदी आकांक्षा ने, दूसरे के के निजी अर्थों की ध्वनि प्रगाढ़ हो सकती है। ऐसा असंभव है, भले
होने और उनसे साहचर्य की इच्छा को इतना ठेल दिया है कि ही उसे संभव दिखाने के यत्न होते रहते हों, कि वैयक्तिक, निजी,
उसकी वापसी असंभव लगती है। राजनीति और आर्थिकी की एकान्तिक विषय-अनुभूति-अनुराग की सूक्ष्मता को अप्रकट कर,
केन्द्रीयता ने अन्य आयामों को दरकिनार कर दिया है। राजनीति उससे बाहर की दुनिया के सूक्ष्म अभिप्रायों को महसूस किया जा
हैं जहाँ सूचनाएँ सत्य और ज्ञान का अहसास कराने लगती हैं। बच्चों
संपर्क : एसोसिएट प्रोफेसर प्रोफेसर हिंदी
का क्या करें? यह प्रश्न बना हुआ है। सभ्यता के इस क्रम में हम
राजकीय कला महाविद्यालय, कोटा
कहां आ गए कि मेरा पड़ोसी मुझे मेरे नाम से नहीं जानता। और लोग मो. 9414595515
“वरिष्ठ कवि दिनेश कुमार शुक्ल पर हम प्रस्तुत कर रहे हैं हिंदी आलोचना के शिखर
पुरुष नामवर सिंह की लिखत। नामवर जी द्वारा यह भूमिका दिनेश कुमार शुक्ल के
कविता संग्रह ‘कभी तो खुले कपाट’ के लिए 1999 में लिखी गयी थी।”–संपादक
पुरोवाक्
नामवर सिंह
उनको आसपास की दुनियाँ से दूर चली जाती है।
जरा भी नहीं था अनुमान लेकिन कविता का महत्व केवल इतना ही नहीं है
शताब्दियों से उन्हीं के आसपास कि उसमें अग्नि बची रह गई। वह अग्नि किस तरह
भूख़ बनकर रची गई है, कवि-कर्म का यह पक्ष कहीं अधिक
दहक़ रही थी अग्नि महत्वपूर्ण है। अग्निवर्णी कवि आगे भी हो गए हैं और
लाखों उदर कंदराओं में वे अंधाधुंध आग बरसा चुके है। आज शायद वे राख
राजा और दरबारियों के के रूप में ही याद आते है। दिनेश कुमार शुक्ल के
बंद थे कान लिए वह आदिम अग्नि है। उसकी ज़रूरत: राजा की रसोई में भी है
गरजती चली आ रही थी और यजमान के यज्ञकुंड में भी। रसोई से यज्ञकुंड तक दृश्यविधान
उन्हीं को घेरती के साथ यह आदिम अग्नि नाट्यायित की गई है। समस्त क्रिया-
दसों दिशाओं से प्रयोग में एक क्लासिकी कसावट है। अंततः वह अग्नि उदर
कन्दराओं से जिस तरह सहसा प्रकट होती है और दसों दिशाओं से
सचमुच चली आ रही थी अब गरजती हुई आगे बढ़ती है वह इस काव्यनाट्य का उदात्त चरमोत्कर्ष
पतित पावन अग्नि। है। अपनी परिणति में वह है अब 'पतित पावन अग्नि’।
और इस 'अग्नि' ने ही दिनेश कुमार शुक्ल की कविता की ओर आदिम अग्नि के इस नाट्य-विधान के अंतर्गत भाषा की भी
मुझे आकृष्ट किया। आश्वस्त हुआ कि जो अग्नि निराला-नागार्जुन अनेक प्राचीन अनुगूंजे हैं। 'जावत् सामग्री' में पुरोहितों के बोलचाल
से होती हुई मुक्तिबोध और धूमिल में कल तक जल रही थी वह का 'जावत्' यथावत है तो 'पीन पाठीन मीन' और 'भूधराकार' जैसे
आज भी बुझी नहीं है। बीच में थोड़ी शंका होने लगी थी। कविता पदों में तुलसीदास का मानस पुनर्जीवित हो उठता है। अग्नि कविता
पर कला का शौक ऐसा चढ़ा कि कवि के शब्दों में 'सब कुछ था, का रचनाकार एक बार आश्वस्त करता है कि आज भी बैसवाड़े के
बस अग्नि नहीं थी। ' सभी चतुर सुजान हैरान-परेशान कि अग्नि कवि में तुलसीदास की अवधी जीवित है। 'अपत', 'अधिकाई' जैसे
कहां चली गई? अन्वेषण आरंभ हुआ। अग्नि की खोज में कोई पुरानी कविता के शब्दों को ले लेने में भी उन्हें कहीं हिचक नहीं
ज्वालामुखियों में उतरा तो कुछ गुणीजन सूर्यलोक तक उड़े और होती। आज की बहुत सी कविताएँ जहाँ अपनी भाषा में अनुवाद का
कुछ ने तो पटक दिए पर्वत पर पर्वत, लेकिन चिनगारी के बदले स्वाद देती हैं, दिनेश कुमार शुक्ल उन थोड़े से कवियों में है जिनकी
उड़े छींटे ख़ून के। गरज़ कि अग्नि सचमुच जहाँ थी उन 'उदर कविता ठेठ हिंदी की कविता मालूम होती है। कवि की स्मृति में
कंदराओं' की ओर किसी का ध्यान नहीं गया। शायद इसलिए अग्नि के साथ ही 'जल' भी सुरक्षित है और वहां जाने का अर्थ है
कि वह अपने इतने पास है-बस आसपास ही। विडंबना यही है। 'सौ योजन मरुभूमि पार कर रचना के प्रान्तर में जाना'। 'जल'
कविता-जब दूर की कौड़ी लाने के चक्कर में पड़ती है तो अपने कविता का महत्व इसलिए भी है कि इधर लोगों का पानी मर गया
बाढ़ में डूबी नदी के पार आधी रात को आती कोई व्याकुल टेर
दुर्गा प्रसाद गुप्त
“एक आवाज़ है वर्षों पहले की पुकार बचपन की की अनुगूँज देखी और सुनी जा सकती है। जो कवि और
बाढ़ में डूबी नदी के पार आधी रात कोई व्याकुल टेर उसकी कविता को भावात्मक रूप से आंदोलित ही नहीं
फिर जो डूब जाती है धार के भीतर” करती, उनकी स्मृतियों में अनुभूतियों के इस हाहाकार
('मैं यह हूँ,' एक भाषा हुआ करती है, को रचना में रच स्थाई बना देती हैं। इस व्याकुल टेर की
उदय प्रकाश, पृ. 11) विवशता एकतरफा नहीं है। कभी कभी बेबस व्यक्ति
ऐसी अमानवीय परिस्थितियों में घिरा होता है कि उसकी
उस्ताद राशिद ख़ान और हीरा देवी मिश्रा की गाई एक विवशता की आर्त पुकार अनसुनी हो जाती है। यह '
दर्द-भरी ठुमरी के बोल “मोरा सैंया बुलावे आधी रात/ नदिया बैरी आत्म' से नि:सरित होकर पानी की लहरों की तरह अपने किनारों से
भई” की याद आती है। …सावन-भादो की उफनती हुई नदी के पार प्रेमी टकरा टकरा कर बार बार आत्म की ओर लौटती हैं! जिससे निजात
से मिलने के लिए उसकी प्रिया को जाना है पर वह कैसे जाए, नदी संभव नहीं है! इस टेर को मैं उदय के जीवन और सृजन के संदर्भ में
गहरी है,नांव पुरानी है और केवट है कि बात नहीं मानता! (केवट ऐसे रूपक के रूप में देखता हूँ, जो उनके जीवन और सृजनात्मकता
माने नहिं बात/नदिया बैरी भई।) जैसे उसकी अरमान, विरह कातर में आद्यांत उपस्थित है। बचपन की स्मृति में रची-बसी यह टेर जैसे
पुकार उफनती नदी की धार में डूब गई हो! बस ठुमरी अपनी टेर में जीवन और सृजन में रच बस कर सरोकारी अन्य से जुड़कर संतोष
पीछे एक दर्द,एक खलिश छोड़ जाती है। ठीक इस कविता के भाव पाती हो और उनके विविध मानवीय संदर्भोंं और परिप्रेक्ष्यों को रचती
की तरह! बाढ़ में डूबी हुई नदी का दृश्य डरावना और दहशत-भरा हो!
होता है, आधी रात का अँधेरा उसे और भी गहराता है, ऐसे में नदी पार जब वे कहते हैं कि 'मैं यहाँ हूँ ' तो मैं समझना चाहता हूँ कि वे
से आती कोई व्याकुल टेर करुणा ही उपजाती है। उदय की कविता अपनी संवेदना और अनुभूति में कहां और कैसे हैं? और कहां तक
में बचपन के अनुभवों में इस दृश्य के मध्य यह करुण पुकार स्मृति उनकी अनुभूति, स्मृति, दृष्टि और मूल्यों में इसकी व्याप्ति है? एक
के रूप में शेष है। दोनों ही व्याकुल पुकारों का अपना-अपना दुःख बेचैन कर देने वाली व्याकुल वेदना का उनकी रचनाओं में आत्म की
दर्द है जिसे किसी मानवीय सहारे या भरोसे के अभाव में, अंतत: रात केंद्रीयता से लेकर अन्य के तटों के बीच टकराव बराबर बना रहता
के अँधेरे में, नदी की धार में विलीन होना स्वाभाविक है। यह रात है। 'सुनो कारीगर ' कविता का दुःख एक तक सीमित नहीं रह गया
के अँधेरे में बाढ़ में डूबी नदी की धार में निमग्न टेर की मानवीय है– “रोज़ रोज़ की दारुण विपत्तियाँ हैं/ जो आंखें खोल देती हैं
विवशता है, जो संवेदनात्मक रूप से उदय को अभी भी परेशान अचानक/ सुनो बहुत चुपचाप पांवों से/ चला आता है कोई दुःख/
करती है, इसलिए वे गाहें-बेगाहें उस ओर लौटते हैं। आज भी उदय पलकें छूने के लिए/ सीने के भीतर आने वाले/ कुछ अकेले दिनों
प्रकाश के जीवन और सृजनात्मकता में बचपन के इस व्याकुल टेर तक/ पैठ जाने के लिए/… सुनो यहीं था मैं/अपनी थकान, निराशा,
की निरंतरता बनी हुई है और इसकी व्याप्ति जैसे पूरे जीवन और क्रोध/ आंसुओं, अकेलेपन और/ एकाध छोटी-मोटी/खुशियों के
सृजनात्मकता पर छा गई हो! स्मृति के माध्यम से यह अनुभूति टेर के साथ/ यहीं नींद मेरी टूटी थी/ कोई दुःख था शायद/ जो अब सिर्फ़
रूप में अभी भी कवि का पीछा कर रही है। मेरा नहीं था” यह अकेले का दुःख जब दूसरों के दुखों से एकाकार
उदय की कविता और जीवन में इस संवेदना की ख़ास अहमियत होता है, दूसरों के दुखों के साथ होता है, तब सामाजिक स्वरूप ग्रहण
है। उनकी कविता के पूरे भावलोक में इस आदि बिंब और उसके टेर करता है और तब वह अपना-पराया नहीं रह जाता। दुखों को अलग
“अधूरा मकान यह/ आधा सच है, आधा सपना/ आधा अंदाज के कवि नहीं है। न ही हमारे समय के सतह
हँसी है,आधा रोना/ यह ताजा कटे बकरे की छटपटाती के कवि हैं,बल्कि वे सतह के नीचे छिपे जीवन सत्य
देह है/ एक कामना है जो मरते आदमी को मरने नहीं को उजागर करने वाले एक नायाब कवि हैं। सहज ही
देती/ बाहर अपने हरे पन के साथ सूख गई पत्तियों उन्हें हम सामाजिक और राजनीतिक यथार्थ को व्यक्त
का वंदन वार है/ xxxxxxxx मकान के अधूरेपन से करने वाले वर्तमान सीन में जागृत समर्थ कवियों की
एक खुशबू आ रही है/ एक खुरदुरी ऊँचाई को लांघ कोटि में रख सकते हैं। वे समकालीन कविता की भेड़
गई है लौकी की एक बेल/ और छा गई है अधूरे पन चाल के अभ्यस्त कवियों के आगे-पीछे, दौड़ते-भागते
के ऊपर/ हरे सपने की झालर लिए यह मकान/ इस बस्ती का सबसे जमात से अलग जाकर अपनी राह बनाने वाले एक असाधारण
ख़ूबसूरत मकान है/ इस घर का सबसे छोटा बच्चा अपनी कॉपी में/ कवि के रूप में प्रकट होते हैं। काव्य वस्तु के चुनाव से लेकर एक
एक पूरा मकान बना रहा है/ इस मकान में उसने कुछ पंख लगा साधारण लहजे से निर्मित काव्य शिल्प के जरिए वह कविता में
दिए हैं।” (अधूरा मकान:एक बुरुंश कहीं खिलता है : पृष्ठ 18,19) निश्चित तौर पर अपना स्थाई मुकाम हासिल कर चुके हैं, जिस पर
“जहाँ सूर्य/ वहां दिवस/ जहाँ राम वहां अयोध्या/ कितनी बड़ी किसी पूर्ववर्ती या समकालीन समानधर्मा कवि की छाप नहीं है।
अयोध्या सौंप गए थे/ तुलसी हमें/ कितनी छोटी रह गई है अयोध्या/ यह तथ्य उनके हाल ही में प्रकाशित काव्य संग्रह 'कछार कथा' की
मत पेटिका से भी छोटी।” (अयोध्या : वहीं पृष्ठ 63) कविताओं को पढ़ते हुए सहज ही परखा जा सकता है।
बीसवीं शताब्दी के महान कवि मुक्तिबोध ने नई कविता के दौर
“अभी बहुत कुछ बचा है/ किसी औरत को स्कूटर के पीछे बैठी देख/ में एक कवि की मुश्किल का वाज़िब ज़िक्र करते हुए कहा था कि
आप यहाँ से सोचना शुरू नहीं करते/ कि यह पटाई हुई औरत है/ समस्या काव्यवस्तु में विषयों की कमी की नहीं है बल्कि समस्या
किसी बच्चे को आदमी के साथ घूमते देख/ आप यह नहीं सोचते/ काव्य विषयों के चुनाव की है। इस मामले में जो कभी जितना
की यह उसकी रखैल का बेटा है/ अभी बहुत कुछ बचा है/ जिसे सक्षम होगा वह उतना ही अर्थवान और महत्वपूर्ण कवि के रूप में
और बिगड़ने से बचाया जा सकता है।” (अभी बहुत कुछ बचा है : प्रकट होगा। ग़ाैर से विचार किया जाए तो आज समकालीन कविता
भूमिकाएँ खत्म नहीं होती : पृष्ठ 40) के बहुत सारे कवि विषयों के चुनाव के मामले में अवयस्क हैं।
“खड़े हैं पहाड़/ आंगन के सबसे चौड़े पत्थर पर/ जैसे खड़ा हो नंग- उनमें से अधिकांश का ख्याल है कि समाज, राजनीति और जीवन
धड़ंग बच्चा/xxxxxx झुक आए हैं बादल/ बहुत नीचे घाटियों तक/ में जो भी प्रतिपल घट रहा है वह सब कविता का विषय हो सकता
मां घुटने, एड़ियाँ साफ कर रही हो जैसे देर तक/ बालों से टपक रहा है। जबकि यह काव्यवस्तु की सच्चाई नहीं है। कवि को जो घटित
हो टप्प-टप्प पानी/ तौलिया ढूंढ रहे हैं पहाड़।” (पहाड़ : असहमति: हो रहा है उसमें से चुनने की आवश्यकता होती है,अन्यथा आप
पृष्ठ 79) और पत्रकार में क्या फ़र्क रह जाएगा? इस परिप्रेक्ष्य में देखें तो
हरीशचन्द्र पांडे काव्य वस्तु के चुनाव के मामले में शुरू से ही
(एक) अत्यंत सजग और गंभीर मति के कवि रहे हैं। इसलिए इसी काव्य
हरीशचंद्र पांडे समकालीन कविता के भीतर महज समकाल, विवेक के चलते उनकी काव्य यात्रा में काव्य वस्तुओं की विविधता
तात्कालिकता, हड़बड़ी, व्यर्थ की चीख-पुकार और शहीदाना दिखाई देती है। वह उन कवियों में नहीं हैं जो एक ही थीम को
कविता एक ऐसी भावभूमि है, जो मनुष्य को न प्रति अनुराग जगाया। ‘अपनी केवल धार’ संग्रह की
केवल सच्चे अर्थों में मनुष्य होना सिखाती है बल्कि कविताएँ अपनी सहजता, ताजगी, देशजता की मिठास
उसे मनुष्यता के उच्च शिखर तक पहुँचा सकती है, और जीवन के प्रति तीव्र लालसा, ऐन्द्रिकता,
बशर्ते मनुष्य वहाँ पहुँचना चाहे। कविता मानवीय दृश्यात्मकता और काव्य रूढ़ियों को तोड़कर अपने
भावों की अभिव्यक्ति सबसे सरल, सबसे ताक़तवर नये स्वर और कलेवर के कारण सराही गयीं थीं।
और संप्रेषणीय माध्यम तब है, जब वह सच्ची ‘सबूत’ (1989) ‘नये इलाके में पुतली में संसार’
और खरी हो तथा कवि के अन्तर्जगत से नि:सृत (2004) और ‘मैं वो शंख महाशंख’ (2012) के
होकर पाठक के हृदय को तरंगायित करने में समर्थ हो। कवि की बाद हिंदी की अनेक प्रतिष्ठित पत्रिकाओं से होते हुए ‘परिकथा’ के
आंतरिक संवेदना उसकी सूक्ष्म चेतना, उसका भाषिक सामर्थ्य और सौवें अंक में प्रकाशित गद्य कविताओं तक अरुण कमल की
सृजनात्मकता कविता को प्रभावी बनाने वाले कारक हैं। समाज में सृजन-यात्रा अनवरत जारी है जो उनकी रचनात्मकता के सातत्य
कवि और कविता की उपस्थिति प्राचीन काल से मनुष्यता के बचे का प्रमाण हैं।
रहने के सबूत के रूप में रही है। कविता मनुष्य के आत्मजगत अरुण कमल की कविताओं में समाज में सकारात्मक परिवर्तन
के प्रसार से प्रारंभ होकर भावनाओं के उदात्तीकरण की उर्ध्वगामी और मानवीयता को स्थापित करने की दिशा देने की शक्ति है।
यात्रा तय करते हुए उसके सामाजिक और सांस्कृतिक कर्म का उनकी कविताओं में गहरी जीवन दृष्टि के साथ मनुष्य की गरिमा
भी हिस्सा बनती है। कविता मानवीय संवेदना के साथ समाज से उसकी स्वतंत्रता और समानता की बात की गयी है। अरुण कमल
और इंसानियत से गहरे सरोकार बनाती है इसलिये वह सदा से ही मूल्य-चिंता के कवि हैं। अशोक बाजपेयी ने उनकी कविताओं के
प्रासंगिक है और रहेगी। संबंध में लिखा है कि-“अरुण कमल की कविताओं में सूक्ष्म
समकालीन कविता के सर्वाधिक प्रदीप्त और कवि अरुण अंतर्दृष्टि,संयतकला अनुशासन और आत्मीयता है। जाहिर है आज
कमल की कविता मानवीयता से जुड़ी सर्वसाधारण के हित में के विघटित और अवमूल्यित समाज में कवि की चिन्ता आदमी के
लिखी और संघर्ष की चेतना जगाने वाली कविता है। उनकी प्रति प्यार, उसकी गहरी पहचान और संघर्ष शक्ति को संवेदना के
प्रगतिचेता दृष्टि गहरी मानवीय संवेदना से आर्द्र है तथा पीड़ित, स्तर पर भविष्य को नया आकार देने में परिलक्षित होती है।” अरुण
शोषित और वंचित वर्ग के प्रति पक्षधरता और त्रासद समय में कमल धीरे-धीरे शुष्क होती जा रही संवेदनाओं और इंसानियत के
बहुमूल्य को बचा लेने के सार्थक और ईमानदार प्रयत्नों से ही खो से जाने तथा मूल्यों के क्षरण से गहन चिंता में हैं। वे समाज के
उष्मित है। अरुण कमल को अपने पहले कविता संग्रह ‘अपनी लिये ज़रूरी और बहुमूल्य बचाना चाहते हैं-'बचा हूँ अब भी/जल
केवल धार’ (1980) की प्रतिनिधि कविता “अपना क्या है इस कर राख हुआ घर का चौखट/ रौंदा हुआ धान का खेत/ नल लग
जीवन में/ सब तो लिया उधार/ सारा लोहा उन लोगों का अपनी जाने के बाद, त्यागा हुआ घर का कुँआ/बचा है जब अब भी।'
केवल धार से इतनी लोकप्रियता मिली जितनी अनेक कविता कठिन समय में सार्थक को बचा लेने की जो कोशिश है उसी की
संग्रहों के प्रकाशन के बाद भी रचनाकारों को नहीं मिलती। अरुण उर्जा की बदौलत उनकी कविता में ताजगी है-चारों ओर अँधेरा
कमल के इस संग्रह की कविताओं ने हिंदी में एक बड़ा पाठक वर्ग छाया/ मैं उठूँ जला लू बत्ती/जितनी भी है दीप्ति भुवन में/सब मेरी
तैयार किया और कविता के सामान्य पाठक के हृदय में कविता के पुतली में कसती। अरुण कमल की कविताओं में ऐसी चेतना है जो
(1) “साथी! अपना गाँव रखाना/चौकस, इस दुर्दांत और संभावनाओं के व्यापक परिप्रेक्ष्य और क्षितिज
काल का कोई नहीं ठिकाना/पंचसितारों की चकमक उनके लेखन में लगातार सक्रिय हैं।
में घर को भूल न जाना/जब-तब ढोल-मजीरा लेकर याद नहीं पड़ता कि अष्टभुजा जी से मेरी पहली
चैता-फगुआ गाना/…मुँह में राम, बगल में छूरी, मुलाकात कब हुई थी। हाँ, इतना ज़रूर स्मरण है कि
पहने पीयर बाना/जाति-धर्म पर ख़ून-खराबा करते उन्नयन काव्य-पुस्तिका पद-कुपद उन्होंने मुझे 11
उखमज नाना/कुत्ते पूँछ हिलाते चलते, चिक्कन मई 1998 को मेरे घर में भेंट की थी। मैं इसकी
तलुआ चाटें/अष्टभुजा के शब्द ओल-से कानों को कविताओं को पढ़कर बेहद चकित हुआ था। अष्टभुजा
गर काटें।” (पद-कुपद, पृष्ठ-16) जी में मुझे कभी भी बनाव-चुनाव नहीं दिखा। उनमें गजब की
स्वाभाविकता और अपनापा भी है। बेचैनियों के इर्द-गिर्द उनके
(2) “मैदा की लोई जैसी देहों/कच्ची मूंगफली की दालों जैसे लेखन का मुकम्मल दारोमदार है। जाहिर है कि वे लोक-आराधक
दाँतों/तोतली बोलियों/और केले की बतिया जैसी नन्ही अँगुलियों कवि हैं; जिसकी परंपरा को हम भक्ति-आंदोलन से जोड़ सकते हैं।
को/कुछ न हो/ इसके लिए हम प्रार्थना करते हैं/इस बुरे वक्त में।” वे किसी भी सूरत में भक्त और अंध भक्त नहीं हैं; बल्कि तथाकथित
(रस की लाठी, पृष्ठ-36) भक्ति के प्रतिरोध में ही हमेशा खड़े दिखते हैं। मुझे उनमें वही
चिरंतन पुकार दिखाई पड़ती है; जो मध्यकालीन भक्ति-आंदोलन
(3) “किसी धर्मस्थल के विवाद में/पाँच हज़ार गोली से/चार में मिलती है; जिसमें मुक्ति की छटपटाहट की तीव्र आकांक्षा भी है
हज़ार गोले से/पाँच सौ चाकू से/और चार सौ जलाकर मार डाले और एक अजब ढंग की प्यास भी है। पदों से जुड़ा यह आदमी
जाते हैं/तीन सौ महिलाओं को नाली/और दो सौ बच्चों को बकरा विकृतियों, विडंबनाओं, अंतर्विरोधों और पाखंडों का भंडाफोड़
समझा जाता है/धर्म में सहिष्णुता का प्रतिशत ज्ञात कीजिए?” करता हुआ हलचल मचाता-सा दिखता है। उनकी कविताओं में
(गणित के कुछ प्रश्न- चैत के बादल, पृष्ठ-16-17) एक विशेष कि स्म की छटपटाहट आप देख और अनुभव कर
सकते हैं। उनकी रचनात्मक कर्मठता हमारे जीवन से और लोक
लेखक वही सच्चा और मूल्यवान होता है; जो अपने समय, से सहज ही संबद्ध है; जिनमें लोक बोलियों के बहुत संजीदा रूप
समाज, राजनीति के डिगे हुए आत्मविश्वास, हिल रही आस्थाओं और भंगिमाएँ आपको अनुभव होती दिखेंगी। अष्टभुजा के यहाँ
को सुरक्षित बनाने की कोशिश करता है; अपने लेखन या कविता कविता की स्वाभाविकता और सहजता दोनों है; जिसकी ओर जॉन
के द्वारा मानव-मुक्ति की तलाश करता है और अँधेरे इलाकों कीट्स ने इंगित किया है; यानी “अगर कविता उस तरह नैसर्गिक
को आलोकित करने की मुहिम चलाता है; विपरीत-से-विपरीत रूप में नहीं आती है तो बेहतर होता कि वह बिलकुल न आती।”
परिस्थितियों में हमें जीने का हौसला देता है और संभावनाओं से किसी लेखक का लिखा हुआ, उसकी असलियत और वैचारिकी
लबालब भर देता है। अष्टभुजा शुक्ल हमारे डिगे हुए आत्मविश्वास को हम कई-कई रूपों में भी देखते हैं। अपनी फेसबुक वॉल में
को परवान चढ़ाने वाले बेहद संभावनाशील कवि हैं। वे शायद ऐसा अष्टभुजा शुक्ल ने लिखा है– “साहित्य, कला, संस्कृति या विचार
इसलिए कर पाते हैं कि उन्हें लोक और जन आकांक्षाओं से यह को किसी भी राजनीति के प्रतिवाद, प्रतिरोध या विरोध में लगाया
ताक़त बराबर मिलती है। मनुष्यता पर अगाध आस्था, विश्वास जा सकता है; लेकिन किसी भी राजनीति की चाकरी या सेवा में
मदन कश्यप एक बड़े कवि हैं। उल्लेखनीय है कि से उन्हें परहेज है। उनकी जीवन-दृष्टि उदार है।
एक बड़ा कवि, अपनी कविताओं और संकलनों अपनी समकालीनता को भी वे आदिम सभ्यता से और
की बड़ी गिनती से नहीं; रचनात्मक दृष्टिकोण क्षेत्रीयता को वैश्विकता से अविच्छिन्न नहीं मानते।
से होता है। क्योंकि दृष्टिकोण से ही रचनाओं में उल्लेख सुसंगत होगा किक्रान्ति, प्रेम का ही अवयव
विषय-विस्तार और कथ्य-संघनन होता है; शिल्प है, प्रेम के अवरोधों को दूर हटाने के लिए क्रान्तिकी
और सम्प्रेषण प्रभावशाली होता है; मूल्य-बोध दृढ़ जाती है; बेशक वह भौतिक प्रेम हो या नैसर्गिक,
होता है; चेतना उन्नत होती है; जिसके बिना कविता, मनुष्य-प्रेम हो या राष्ट्र-प्रेम। 'स्त्री-पुरुष' ('पनसोखा
कविता नहीं, वक्तव्य हो जाती है। केदारनाथ सिंह और कुँवर है इन्द्रधनुष',पृ. 9, रचनाकाल सन 2015) शीर्षक कविता में
नारायण की बाद वाली पीढ़ी की वृहत्रयी– राजेश जोशी, विनोद मदन कश्यप ने स्वीकार भी किया है कि'हमें प्यार की उतनी ही
कुमार शुक्ल और मदन कश्यप ही हैं। मंगलेश डबराल के रहते मैं ज़रूरत थी/जितनी क्रान्ति की/...क्रान्ति की तरह प्यार पर भी
वृहत्चतुष्ट्य की गणना करता था। अपने समय के ज्वलन्त प्रश्नों हमारा बस नहीं है।' उनकी कविताओं में दर्ज़ क्रान्तिके संकेतों की
का सामना करना हर विशिष्ट कविका धर्म और दायित्व होता है। सिद्धि भी प्रेम के परिपाक से ही होती है। मनुष्य, समाज, मूल्य,
इतिहास, समाज और संस्कृति की सूक्ष्मता जाने बिना किसी की नीति, विवेक, राष्ट्र और विश्व के जिस किसी प्रसंग में जहाँ कहीं
राजनीतिक चेतना साफ नहीं होती, वह सामुदायिक परिवेश की असंगत गतिविधियाँ उन्हें दिखीं, अपनी कविताओं में उन्होंने
सूक्ष्मता जान नहीं पाता। धज्जियाँ उड़ाते हुए व्यंग्य-प्रहार किया है, और हर जगह उनका
मदन कश्यप के अब तक कुल छः कविता-संग्रह– 'लेकिन प्रेम ही प्रकट हुआ।
उदास है पृथ्वी' (सन 1992 एवं 2019), 'नीम रोशनी में' (सन उन्हें अपने आत्म या अपनी भामिनी या अपनी सन्तानों से ही
2000), 'कुरुज' (सन 2006), 'दूर तक चुप्पी' (सन 2014), नहीं, पूरी दुनिया से प्रेम है। उन्हें केवल अपने घर नहीं, दुनिया के
'अपना ही देश' (सन 2016) और 'पनसोखा है इन्द्रधनुष' (सन हर जीव-जन्तु के लिए एक सुरक्षित घर, व्यवस्थित परवरिश और
2019); और आलेखों/टिप्पणियों के तीन संकलन -'मतभेद' सकारात्मक सोच की चिन्ता रहती है। उन्हें केवल अपनी ही माँ
(सन 2002), 'लहूलुहान लोकतन्त्र' (सन 2006), 'राष्ट्रवाद नहीं, दुनिया के हर जीव-जन्तुओं के मातृत्व की रक्षा की चिन्ता
का संकट' (सन 2014), 'कोरोना डायरी' (सन 2023) और रहती है। उनकी कविताओं के अवगाहन से उनकी यही धारणा
'बीजू आदमी' (सन 2023) प्रकाशित हैं। इनके अलावा 'कवि ने स्पष्ट होती है कि मनुष्य प्रेम भर करना सीख ले, तो बाकी सब
कहा' काव्य-शृंखला में उनकी चुनी हुई कविताओं का भी एक कुछ उन्हें प्रेम सिखा देगा। प्रेम मिल जाए, तो मनुष्य को क्रान्तिका
संग्रह प्रकाशित है। इन छहों संग्रहों में कुल 298 कविताएँ संकलित प्रयोजन नहीं होगा; और इससे इतर प्रसंग तो फिर कोश में आएँगे
हैं; जिनमें से आठवें दशक में 17, नौवें दशक में 58, बीसवीं ही नहीं। स्पष्टत: उनका यह 'प्रेम' केवल शरीरी नहीं है। यहाँ
शताब्दी के अन्तिम दशक में 60, इक्कीसवीं शताब्दी के पहले उनके छठे कविता संग्रह 'पनसोखा है इन्द्रधनुष' में संकलित दूसरी
दशक में 80 और दूसरे दशक में 67 कविताएँ है। कुल सोलह कविता 'एक अधूरी प्रेम कविता' का पाठ-विश्लेषण प्रासंगिक
कविताओं का रचनाकाल अज्ञात है। होगा। इस कविता का लेखन-काल संग्रह में उल्लिखित नहीं है, पर
मदन कश्यप प्रेम के कविहैं; घृणा, युद्ध, अहंकार और वर्चस्व लिखे जाने के तत्काल बाद यह श्रेष्ठ कविता अक्टूबर 2015 में
“कुछ होना था जो सत्तर की दशक में नहीं हुआ, हमारे पूर्वज कवि मुक्तिबोध ने 'ब्रह्मराक्षस' कविता में
अस्सी के दशक में चलने लगीं उल्टी-सीधी हवाएँ : 'युग बदला फिर आए कीर्ति व्यवसायी' के रूप में
और नब्बे के दशक में जो नहीं होना था हो ही गया रेखांकित किया है।
इस तरह सदी के ख़त्म होने पहले ही इस भ्रष्ट और कूपमण्डूक रूपवादी नवाचार के प्रति
रुख़सत हो चली एक पूरी सदी जिसकी नोटिस असद काव्य के इस मर्म-स्थल पर खड़े
होकर ले रहे हैं, वे कहते हैं :
और यह सब अध्ययन की वस्तु है...” ये हमसे क्या-क्या पूछ सकेंगे
यह पंक्ति समकालीन हिंदी साहित्य के विशिष्ट कवि असद ज़ैदी के हम इन्हें क्या-क्या बतला सकेंगे
तीसरे कविता संग्रह 'समान की तलाश' से है, जिसका शीर्षक है- अपनी नई पीढ़ी के प्रति ऐसी ममता और इस तरह की ऊँची
'मौखिक इतिहास'। निश्चय ही यह भारतीय राजनीति और सत्ता तंत्र रागात्मकता समाज और कविता के भीतर बहुत कम ही देखने को
से जुड़े हस्तक्षेप की प्रतिनिधि रचनाओं का संकलन है। असद जैदी मिलती है। यह ममता उसी बोध से पैदा हुई कोई चीज़ है जिसे कवि
की कविता यात्रा की बात की जाए तो ‘बहनें और अन्य कविताएँ’ यहाँ बख़ूबी समझ पा रहा है। असद ज़ैदी की आलोचना 'अतिवादी'
(1980) उनका पहला कविता संग्रह था; जिससे उनकी कविता में प्रगतिशील हलकों में जिन वज़हों से अक़्सर होती रहती हैं-परिवार
एक अलग पहचान बनी। उनका दूसरा कविता संग्रह 'कविता का उसका केंद्रीय आधार रहा है और यह आरोप भले कहीं लिखित रूप
जीवन' 1988 में प्रकाशित हुआ और फिर एक लंबी अवधि के बाद में मौज़ूद न रहें, मगर अक़्सर ही बचकाना मर्ज़ के शिकार वामपंथी
तीसरा कविता संग्रह 'समान की तलाश' दूसरे संग्रह के प्रकाशन के लोगों को परिवार संस्था के प्रति रागात्मकता, तटस्थता और न जाने
बीस साल बाद यानी 2008 में आया। तीसरे संग्रह तक आते-आते क्या-क्या... इस तरह के कुपाठ के शिकार होते रहते हैं। लेकिन उलट
इस बात से कोई इनकार नहीं कर सकता कि असद की कविताओं बात यह है असद की कविता में परिवार संस्था की मौज़ूदगी समाज
की बुनियादी भिड़ंत अपनी कविता की सम्पूर्ण अंतर्वस्तु से होती है। की एक ठोस इकाई के रूप में झलकती है। भारतीय संदर्भ में कोई भी
असद ख़ुद की ही छवियों के साथ जूझते दिखाई देते हैं। वह आगे प्रगतिशील कवि जब जब 'राष्ट्र' की सामाजिक प्रवृत्तियों का सघन
कहते मिलते हैं : चित्रण करना चाहेगा तो उस संस्था की मौज़ूदगी अपरिहार्य होगी।
और चूँकि हम बीसवीं शताब्दी के कुछ प्रतिनिधि नमूने हैं अपने पहले कविता संग्रह 'बहनें और अन्य कविताएँ' की पहली
तो गेलैक्सी चैनल की मौखिक इतिहास परियोजना के तहत ही कविता 'विस्मृत आवास' में वह कहते हैं : “कि जहाँ मेरी यादें
एक प्रश्नावली और माईक लेकर आ रहे हैं समाप्त होती होगी, माँ वहीं रहती होंगी!” परिवार संस्था का निर्माण
इक्कीसवीं शताब्दी के शोधकर्ता जिन्हें ज़ाहिरा तौर पर एक ऐतिहासिक परिघटना है और कालक्रमानुसार
इक्कीसवीं का आलिफ़ और सदी का बे पता नहीं... समाज में इसकी भूमिकाएँ और मान्यताएँ भी बदली हैं। कबीलाई
यहाँ इक्कीसवीं शताब्दी के शोधकर्ता को इक्कीसवीं का ‘आलिफ़’ समाज से होते हुए सामन्ती समाज तक और सामंती समाज से होते
और सदी का ‘बे’ से रिक्त बताना नव-उदारवाद की उन संतानों को गए आधुनिक पूँजीवादी समाज तक परिवार के मूल्यों, मान्यताओं में
चिह्नित करना है जो प्रतीकात्मक रूप से ख़ुद को इस युग की क्रमिक बदलाव आए हैं। असद ज़ैदी अपने इस संग्रह में भारतीय
प्रतिध्वनि मानते हैं। असद ज़ैदी कोई आडम्बर नहीं बरतते। कहीं न मध्यवर्गीय परिवारों के भीतर घट रहे द्वंद्वों को बेहद ही आश्चर्यजनक
कहीं ये 'नमूने' 'जो नब्बे के दशक में नहीं होना था हो गया' की ठोस कहन की शैली से उद्घाटित करते हैं। परिवार संस्था की सबसे
सामाजिक-साहित्यिक अभिव्यक्तियों के वीभत्स विकास हैं, जिन्हें रागात्मक प्रतिभागी का संबंध भावुकता से लबरेज़ हिंदी के एक
हम अपने समय के एक ऐसे कवि की बात करने जीवन की किस अनुभूति को, समय के किस दृश्य को
जा रहे हैं जिन्होंने समय और समाज पर इतना लिख या समाज के किस घटित को अपनी कविताओं में दर्ज़
छोड़ा है और अभी भी लिखते जा रहे हैं कि उसका करने से छोड़ दिया है? आख़िर कुछ तो ऐसा मिले
मूल्यांकन करने के लिए पीढ़ियों तक इंतजार करना जिसे लेकर हम कह सकें कि हाँ मंडलोई जी की
पड़ेगा। लीलाधर मंडलोई की कविताओं को पढ़कर प्रारंभिक कविताओं में ऐसे क्षणिक उद्गार थे जो
जो सबसे पहला शब्द मन पर चोट करता है वह है क्रमशः गाढ़े होते हुए अमुक दिशा की ओर अग्रसर
‘अनुभव’। वे अनुभव के कवि हैं। उनकी कविताओं हुए। ऐसा कोई छोर नहीं है। इसके अतिरिक्त कथन
में जीवन का जो चित्रण है वह पांचों कर्मेंन्द्रियों और पांचों ज्ञानेन्द्रियों इतना गाढ़ा और मन पर असर करने वाली है कि मानो कविताएँ
के सन्निवेश से उतरता है। वे जल, जंगल, ज़मीन के बारे में सीधे जीवन से उठाई गई हैं और जीवन दृश्यों को कविताओं के
लिखते हैं या कि महिलाओं, आदिवासियों और दलितों के बारे में माध्यम से उकेरा गया है। मंडलोई जी 1976 के आसपास से सृजन
या फिर पूंजी, शोषण, दमन और सत्ता के बारे में उनकी कविताओं कर रहे हैं और बचपन के उस ईको सिस्टम के छूट जाने की पीड़ा
से पता चलता है कि दसों दिशाओं से अनुभव उसमें अनुस्यूत हुआ मंडलोई जी को तराशती रही तो अंदर ही अंदर तोड़ती भी रही। घर
है जैसे कि– ‘मैं 1991 के अख़बार में/ पढ़ रहा हूँ यह ख़बर/ सिर्फ़ घर नहीं होता बल्कि मनुष्य को निर्मित करने वाली पूरी
एक एकड़ कपास की/लागत 2500 रुपये/ और आज 2010 में/ पारिस्थितिकी होती है जिसमें उसका जीवन धड़कता है। बचपन
यह भयानक ख़बर/कि विदर्भ में/ किसान आत्महत्या को मजबूर/ का वह संसार हमारे अंदर हमेशा जीवित रहता है। उसी की दूरी
कि लागत/ 13500 रुपये प्रति एकड़।’ इन दोनों समयों में कवि कवि को भी हमेशा महसूस होती रही। वह शहरों की हवा में अपने
भला एक साथ कैसे हो सकता है? वह एक साथ इतनी दूर की गांव की हवा ढूंढ़ता रहा और जब गांव भी लौटकर जाता था तो उसे
तिथि का अख़बार भी सिर्फ़ कविता लिखने के लिए नहीं पढ़ रहा वहाँ वही बचपन वाला गांव नहीं मिलता था उसमें कुछ न कुछ
होगा, है न! दरअसल वह उस महामना के साथ है जिसे सामूहिक कमी हो जाती थी। उस कमी को वह बदलती पारिस्थितिकी के
चेतना कहते हैं और जिसपर आरूढ़ होकर व्यक्ति, वैश्विक दृष्टि बदले अपने जीवन और बचपन के संसार से तुलना करके देखता
का वाहक़ बन जाता है। यह वैश्विक चेतना उन्हें विश्व मानव नहीं है कि क्या-क्या घट जाता था। इसीलिए वह कहता है कि, ‘घर
बनाती बल्कि वे अपनी ज़मीन, अपने देश, अपने वतन से उतने जब-जब लौटना हुआ/एक बार पिता न थे/दूसरी बार भाई/तीसरी
ही गहरे से जुड़े रहते हैं और साथ ही उनकी नज़र दुनिया की उन बार...अँधेरा था घना/मैंने खटखटाया अँधेरा जो खुलता गया ओर-
दुरभिसंधियों की ओर लगातार जमी रहती है जो भारत और दूसरे छोर/मैं अपना घर अँधेरे में आज भी खोज रहा हूँ।’ यह संवेदना,
तरीके से मनुष्यता को लूटने में कोई कसर नहीं छोड़ते। तभी तो वे यह भाव हर उस व्यक्ति का है जो वापस अपने बचपन के संसार
कह पाते हैं कि, ‘विश्व बैंक खुश था/ और अन्तरराष्ट्रीय मुद्राकोष में वापस जाना चाहता है। हमारे मन में हमारे गली मुहल्लों की
उत्फुल्ल/एक निरीह लोकतंत्र को वे/ खरीद सकते थे कर्ज़ से/ कि स्मृति यथावत है लेकिन जब हम अपने बच्चों के साथ उन गलियों
वे हुए आधुनिक द्रोणाचार्य।’ में पहुँचते हैं तो हमें लगता है सब कुछ बदल गया है, सब कुछ खो
पिछले कई माह से लीलाधर मंडलोई की कविताओं में डूबा है गया है। वह समाज खो गया है, वे लोग बदल गए हैं, लोगों से
मन। उसे कोई ओर-छोर नहीं मिल रहा कि आख़िर इस कवि ने मिलना जुलना बदल गया है लेकिन सच्चाई इससे इतर यह होती
यह बहुत कम होता है कि किसी कवि की कविता इकाई और मध्यवर्गीय साधारण चीज़ों (विषयों) की
तक पहुँचने का रास्ता उसकी किसी गद्य पुस्तक से स्वीकृति समकालीन हिंदी कविता में होने लगी थी।
खुले, लेकिन कभी-कभी ऐसा होता भी है। स्वप्निल ‘ईश्वर एक लाठी है’ से प्रारम्भ हुई स्वप्निल श्रीवास्तव
श्रीवास्तव की कविताओं को एक अध्येता के रूप में की कविता-यात्रा का प्रारम्भिक हिस्सा लोकजीवन के
लम्बे समय से पढ़ते रहने के बावज़ूद उनकी उपन्यास अनुभवों, गाँव के जीवन की परिस्थितियों और संबंधों से
कही जा रही पुस्तक ‘कवि की अधूरी कविता’ से आच्छादित है। अपने पिता के साथ उनका संबंध वैसा
गुज़रने के बाद मेरे लिए उनकी कविता को समझने का ही था जैसा हर औसत मध्यवर्गीय परिवार में पिता और
रास्ता कुछ अधिक प्रकाशित हुआ। यह मूलतः एक संस्मरणात्मक पुत्र का होता रहा है। उसमें संकोच की एक सख़्त दीवार मौज़ूद थी
या कि कह लें आत्मकथात्मक उपन्यास है, जिसके क़िरदार पहचाने जिसके आर-पार संबंधों का ताप शायद नहीं पहुँच सकता था।
जा सकते हैं और उसमें विन्यस्त जीवन भी। एक कवि के रूप में स्वप्निल श्रीवास्तव के इस संग्रह में शामिल उनकी सबसे चर्चित
स्वप्निल श्रीवास्तव की निर्मिति का पूरा इतिहास यहाँ उपस्थित है। कविता ‘ईश्वर एक लाठी है’ के केन्द्र में भी पिता ही हैं।
उनके कविता-संग्रहों की कविताओं के साथ-साथ इस उपन्यास के ईश्वर एक लाठी है
विवरणों को मिला-जुलाकर ही उनके काव्य-व्यक्तित्व के समस्त जिसके सहारे अब तक
आयामों को उद्भासित किया जा सकता है। चल रहे हैं पिता
स्वप्निल श्रीवास्तव आठवें दशक के कवि हैं, यह वह दौर था मैं जानता हूँ कहाँ-कहाँ
जब हिंदी कविता सातवें दशक में व्याप्त विविध आंदोलनों से मुक्त दरक गयी है उनकी
हो रही थी। नंद किशोर नवल का ‘धूमिल से मुक्ति की कविता’ लेख यह कमज़ोर लाठी
अत्यंत महत्वपूर्ण है, जिसमें वे हिंदी कविता की धूमिल के मुहावरों
से मुक्ति की बात करते हैं। यह लेख लिखते-लिखते वरिष्ठ कवि रात में जब सोते हैं पिता
राजेश जोशी का एक साक्षात्कार देखा, जिसमें वे आठवें दशक में लाठी के अन्दर चलते हैं घुन
चारू मजूमदार की मृत्यु को एक महत्वपूर्ण समय-बिन्दु के रूप में वे उनकी नींद में पहुँच जाते हैं
देखते हुए यह मानते हैं कि इसके बाद आंदोलन कमज़ोर पड़ते गए। मध्यवर्गीय परिवार संस्था में लगभग हर पुत्र-पिता के बीच इस
समकालीन हिंदी कविता पर इसका प्रभाव भी स्पष्ट रूप से दिखाई तरह के संबंधों को उस दौर में देखा जा सकता था। साठ के दशक
देता है कि अकविता आंदोलन से जुड़े कई कवि भी बाद मे यथार्थवादी में तो परिवार और घर से एक तरह की ऊब भी स्पष्ट थी, जिसे
अभिव्यक्तियों की ओर बढ़ते चले गए। उनके इस यथार्थ का संसार ज्ञानरंजन और उनके साथी कथाकारों ने अपनी कहानियों के केन्द्र में
केवल विचारधारा या राजनीति से जुड़े संस्तरों में नहीं मौज़ूद था रखा था। समकालीन कविता के इस दौर में पारिवारिक संबंधों की
बल्कि व्यापक मानवीय संबंधों, निजी सुख-दुख, घर-परिवार आदि वह ऊष्मा लौटती हुई दिखाई देती है, भले ही उसमें दूरियाँ रही हों पर
के वर्णनों में भी विन्यस्त था। इसके कई उदाहरण मिलते हैं मसलन संकोच के साथ गुथं े हुए प्रेम की एक हरारत भी बनी रही। निश्चित
उदयप्रकाश की कविता ‘पिता’, जो संघर्षशील पिता के बारे में है। रूप से इस पीढ़ी के जो पिता थे, वे आज़ादी के दौर में सपनों और
यह उन दिनों की कविता में बहुत साफ़ दिखता है कि पारिवारिक संघर्षों का मिला-जुला दौर देख रहे थे। उनकी मुश्किल थी कि वे
विगत दिनों सोशल मीडिया में काव्यगत एवं आलोचना पर भी बख़ूबी दिखाई पड़ता है और बहुधा
विचारधारागत प्रतिरोध को आधार बनाकर, प्रसिद्द विवादों को भी जन्म देता है।
साहित्यकार और सामाजिक कार्यकर्ता कात्यायनी आधुनिकता के सुबह– शाम बदलते मानदंडों और
की “हत्यारे समय में प्रणय विकल कविताएँ” शीर्षक अंधाधुंध गति से भाग रही इस धैर्यहीन दुनिया में,
कविता ज़ेरे– बहस रही। इस संदर्भ में चर्चित पत्रकार साहित्य का स्वभाव उसी अनुपात में बदल जाए,ऐसा
और साहित्यकार प्रियदर्शन की टिप्पणी के उपरांत, प्रायः संभव नहीं होता और यदि कहीं ऐसा होता भी है
कविता– लेखन में विचारधारात्मक प्रतिबद्धता की तो वह प्रभाव स्थाई न होकर वस्तुतः तात्कालिक होता
मात्रा और कविता के पाठ को लेकर बहुत सारी बातें कहीं गयीं। है। यूं कहें कि वह चेतना को गहराई के उस स्तर पर प्रभावित नहीं
कविता की विषय– वस्तु, कवि की अभिव्यक्ति के तरीकों और करता, जहाँ वह स्मृति का स्थाई हिस्सा हो सके। तब जाहिर है, एक
सामयिक संदर्भों में अर्थ की बहुस्तरीयता को कितना और किस स्तरीय और गंभीर साहित्य, विशेषतः काव्यास्वाद और उसे
रूप में ग्रहण किया जाये, इसे लेकर साहित्य में यह बहस नयी नहीं आत्मसात करने की प्रक्रिया कहीं न कहीं इस जल्दबाजी से दूर
है। हाँ, इधर के वर्षों में साहित्य लेखन पर तकनीक और सोशल किसी भिन्न स्तर पर सम्पन्न होती है और अपने लिए ठोस आधारों
मीडिया के प्रभाव ने जिस गति और संख्या में साहित्य के लेखकों की अपेक्षा रखती है। चूकि ं इस लेख का संबंध मूलतः कवि और
और पाठकों को प्रभावित किया है, उससे यह बहस अपने मूल कविता से है, इसलिए हमें यह समझना होगा कि जिस लेखन में
मंतव्य में कई नयी चीज़ों को भी जोड़ती है। बीते दस से पंद्रह वर्षों सर्जक के गहन अनुभव और एक की पीड़ा को दूसरों से जोड़ने की
में सोशल मीडिया प्लेटफ़ॉर्म ने नए लेखकों को न केवल तकनीक भावना नहीं होगी, संवेदनात्मक सीमाओं के विस्तार की प्रेरणा नहीं
के हवाले से एक खुली और स्वतंत्र जगह उपलब्ध कराई है, बल्कि होगी, वह लेखन यथार्थ की ठोस ज़मीन पर अपना वज़ूद नहीं बना
पाठकों से सीधे जुड़ने और उन तक पहुँचने की सुविधा भी प्रदान सकेगा। साथ ही,यह भी स्पष्ट होना चाहिए कि न तो किसी कवि
की है। इस माध्यम से एक हद तक दबावमुक्त अभिव्यक्ति और की हर कविता किसी बड़े फलक को समेटने वाली होती है, न ही
प्रचार-प्रसार के टूल्स तक सबकी पहुँच आसान तो हुई ही है, फ़ौरी उससे इस तरह की कोई अपेक्षा की जा सकती है। हाँ, कविता की
किस्म की लोकप्रियता और उससे होने वाले नफ़े– नुक़सान ने रचना– प्रक्रिया के ये बेसिक्स कवि-पाठक के बीच संवेदनात्मक
भी साहित्य जगत के शिल्प में कई रेखांकित किये जाने लायक भरोसे के वे सेतु हैं, जिनसे कोई कविता लोगों के भीतर एक विश्वास
बदलाव भी लाये हैं। हलांकि, यह बात कहते हुए इस तथ्य को भी और भरोसा पैदा करती है, एक अच्छी रचना बन कर उपस्थित होती
ध्यान में रखना होगा कि तकनीक की यह सुविधा और अवसर है।
समान रूप से पुरानी पीढ़ी के कवि– रचनाकारों या पूर्व से ही पिछले कुछ दशकों में, कविता की ज़मीन को इन कमजोरियों से
पर्याप्त प्रसिद्द/ लोकप्रिय लेखकों– रचनाकारों को भी उपलब्ध बचाते हुए जिन कुछ कवियों ने वास्तव में इसे समाज के वंचित
रही है और थोड़े संकोच के बाद अधिकाँश वरिष्ठ लोगों ने भी समूहों और शोषण के पहलुओं से जोड़ा है, इन वर्गों के लिए एक
इसका उपयोग किया है। पूँजी और बाज़ार के गठजोड़ ने जीवन– स्पेस बढ़ाने में कारगर भूमिका निभाई है, उनमें कुमार अंबुज
जगत के सभी हिस्सों में पल– पल परिवर्तन की जो तूफानी लहर निर्विवाद रूप से अगली पंक्ति में शुमार हैं। हिंदी कविता की ज़मीन
पैदा की, तकनीकी संदर्भों में उसका प्रभाव साहित्य लेखन और की मुकम्मल परख करने में जिन कवियों रचनाकारों को हम उम्मीद
मनुष्य अपने भविष्य से बरी हो सकता है, लेकिन भाषा कुछ भी हो सकता है।
उसका अतीत (इतिहास) उससे कभी भी अलग नहीं सरल शब्दों में कहें तो नई सदी के पहले दशक के
हो सकता है। इतिहास महज़ घटनाओं का कुल योग आते-आते मनुष्य समुदाय का नायक-खलनायक के
नहीं होता है, इसके बजाए यह मनुष्य के अनुभवों रूप में स्पष्ट रूप में विभाजन हो चुका है। साहित्य पर
की जटिल बौद्धिक प्रक्रिया होती है। यह बौद्धिक भी इन स्थितियों का प्रभाव बहुत गहरा पड़ा है। ऐसे में
प्रक्रिया ही हमें अनपेक्षित भविष्य से बरी करती है। मनुष्य की पहचानों को विभिन्न संस्तरों को खोजना
लेकिन इसके लिए सबसे अनिवार्य तत्व इतिहास और विभिन्न संस्तरों की पारस्परिक अंतर्क्रिया को
की यथार्थवादी व्याख्या है। हमारे वर्तमान का सबसे नज़दीकी समझना लगभग नामुमकिन सा होता गया है। इस मुश्किल का एक
ऐतिहासिक बिन्दु पिछली सदी के आख़िरी दशक का आरंभिक और कारण सामुदायिक मनोविज्ञान भी है जहाँ भिन्नता (विविधता)
बिन्दु है। समाजवाद की पराजय ने एक ध्रुवीय दुनिया को जन्म खलनायकत्व के पर्याय के रूप में ग्रहण की जाती है। इन स्थितियों
दिया और इस एक ध्रुवीयता ने बौद्धिक स्तर पर यह साबित के प्रत्याख्यान के तौर पर देवी प्रसाद मिश्र की दो कविताएँ
करने का प्रयास किया कि ‘इतिहास का अंत’ हो गया है। लेकिन ‘मुसलमान’ और ‘निजामुद्दीन’ प्रातिनिधिक हैं। ये कविताएँ अपनी
‘वैश्वीकरण’ के महज़ दो दशकों के बाद ही यह बात साबित होती संरचना में बिलकुल भिन्न हैं, लेकिन अपनी प्रकृति में समकालीन
गई कि यह इतिहास का अंत नहीं है, बल्कि इतिहास के दोहराव की इतिहास के दस्तावेज़ीकरण जैसी हैं। भारत की बदलती सामाजिक
पृष्ठभूमि है। पूँजी की अराजकता के प्रतिक्रिया स्वरूप मनुष्य की संरचना इन कविताओं के केंद्र में है।
बाड़ेबंदी करने वाले सभी विचारों को अधिक से अधिक प्रोत्साहन देवी प्रसाद मिश्र के बारे में ‘मुसलमान’ और ‘निजामुद्दीन’ से
मिला है। इस तरह से मनुष्य का अपने इतिहास और संस्कृति से शुरूआत करने का उद्देश्य केवल कवि के इतिहासबोध को रेखांकित
संबंध अधिक से अधिक कमजोर हुआ, वहीं दूसरी ओर अराजक करना है। साहित्य का उपजीव्य (प्रायः) व्यक्ति होता है और इस
पूँजी के शोषण ने वे स्थितियाँ पैदा की जहाँ मनुष्य अपने शोषण व्यक्ति की पहचान की बहुस्तरीयता ही व्यष्टि से समष्टि की ओर
और दुःख का कारण उन समुदायों को मानने लगा जो उसकी ले जाती है। सरल शब्दों में प्रतिनिधिकता के दायरे की ओर ले जाती
बाड़ेबंदी के बाहर थे। यह परिघटना केवल एक समुदाय या क्षेत्र है। लेकिन इसके विपरीत यदि साहित्यिक कृति सामुदायिक पहचान
तक सीमित नहीं रही हैं, बल्कि वैश्विक स्तर पर इसका प्रसार है। पर केंद्रित हो, तो प्रायः आशंका रहती है कि पहचान की बहुस्तरीयता
यूरोप जैसे समृद्ध महाद्वीप में एशियाई या अफ्रीकी मूल के यानि धर्म, जाति, स्थानीयता, भाषा, संस्कृति, आर्थिक स्थिति जैसे
व्यक्ति वहाँ की समस्याओं के मूल कारण के रूप में चिह्नित किए संस्तर नज़रअंदाज हो सकते हैं। लेकिन ध्यान देने की बात है कि
जाते हैं और नस्लीय हिंसा का शिकार होते हैं। उत्तरी अमरीका जैसे अतिवादी राजनीति प्रायः पहचान की बहुस्तरीयता (विविधता) का
आर्थिक रूप से शक्तिशाली महाद्वीप में भी कमोवेश यही स्थितियाँ निषेध करती है। इसका सर्वोच्य रूप दूसरे महायुद्ध में दिखाई देता
हैं। एशिया में भी बहुसंख्यक पहचान से परे या भिन्न लोगों को यहाँ है, जहाँ ‘यहूदी’ को मात्र एक सामुदायिक पहचान में सीमित कर
की समस्याओं का कारण मानने की प्रवृत्ति लगातार बढ़ती गई है। उन्हें जर्मनों के दुःखों के एकमात्र कारण के रूप में चिंह्नित कर
यहाँ ध्यान रखना चाहिए कि स्थानीय परिस्थितियों की विविधता के नस्लीय द्वैष की पृष्ठभूमि निर्मित की गई।
आधार पर बहुसंख्यक पहचान का आधार धर्म, समुदाय, जाति या इस ऐतिहासिक पृष्ठभूमि को ध्यान में रेखें तो भारतीय संदर्भ में
कविता मानव जीवन की गहन अनुभूतियों की है। इन दोनों काव्य संग्रहों के बीच 10 वर्ष का अंतराल
रसात्मक अभिव्यक्ति है। इसके साथ ही कविता है। एक का प्रकाशन वर्ष 2007 है तो दूसरे का
प्रकृति एवं जीवन के सहक़ार का समुच्चय भी है। 2017। यह अंतराल यह दर्शाता है कि कवि को
इसी समुच्चय बोध के कवि हैं- दिनेश कुशवाह। कविता लिखने की कोई हड़बड़ी नहीं है। वह कविता
जैसे जीवन को जानने एवं जीने के कई तरीके होते को बहुत इत्मीनान के साथ समय एवं समाज के
हैं ठीक वैसे ही कविताओं के मूल्यांकन के कई सापेक्ष रचता और गढ़ता है, इसलिए उनकी कविताएँ
मानदंड हो सकते हैं, लेकिन सीधे अर्थों में वही देर से आती हैं लेकिन मुकम्मल एवं दुरुस्त रूप में
कविता श्रेष्ठ एवं बड़ी होती है, जिसमें अनुभूतियों का ताप गहरा आती हैं। जिसको पढ़ते हुए पाठक उसके साथ अपना तादात्म्य
एवं ऊँचा होता है एवं संवेदनाओं के फलक पर अंकित चित्र अपने बिठाता चलता है और उन कविताओं में शब्दों के भीतर छिपी
समाज एवं परिवेश से जीवन सत्व और रस लेते हों। उसमें सामान्य चिंगारी से अपने अंतस के अँधेरे को भी देखने की कोशिश करता
जन जीवन का स्वर पूरे आवेग एवं संवेग के साथ मुखरित होता है। इन दो काव्य संग्रह के अलावा साहित्य भंडार की एक महत्वपूर्ण
हो। साथ ही टभकते दु:ख के साथ एक ऐसे आदमी से मिलने की योजना 'साहित्य के 50 वर्ष' के अंतर्गत इनकी कुछ चुनी हुई
इच्छा हो जिसे देखते ही लगे इसी से तो मिलना था। उस कविता कविताओं का संग्रह 'ईश्वर के पीछे' भी प्रकाशित है। यह कहना कि
में उन लोगों के बारे में चिंता की गई हो जो इतिहास में कहीं नहीं इस चयनित काव्य संग्रह को पढ़कर ही हम दिनेश कुशवाह के कवि
हैं। जिसमें श्रमशील जनता के पसीने की बूंदे कविता में अक्षर के कर्म को जान सकते हैं, यह दावा बिलकुल गलत होगा। यह मानक
रूप में सुशोभित हुए हों। और लोक अपनी राग एवं आग के साथ उनके अन्य समकालीन कवियों के साथ हो सकता है किंतु दिनेश
मौज़ूद हो और जिसकी जनपक्षधरता स्वतः प्रमाणित हो। इस दृष्टि कुशवाह के साथ नहीं। हाँ इतना अवश्य है कि इस चयनित संग्रह
से दिनेश कुशवाह की कविताई खरी उतरती है। इनकी कविता को पढ़कर कवि की भाव भूमि को महसूस जरुर किया जा सकता
एक तरह से बंद दीवारों में मानवीय चेतना एवं मूल्यों की खिड़की है, लेकिन इसी के माध्यम से उसके पूरेपन को नहीं जाना जा
खोलती है-जिसके पार इतिहास के अभागे, भौतिकता की चकाचौंध सकता। पूरेपन के लिए दिनेश जी की कविताओं से होकर गुज़रना
के पीछे बॉलीवुड की नायिकाओं का त्रासद जीवन, खेत-खलिहान पड़ेगा, क्योंकि इनके यहाँ दुहराव नहीं है, कविता का विस्तार बहुत
एवं चौखट के भीतर खटती औरतें, प्रेम में पड़ी हुई लड़कियाँ, भय है। हर कविता अपने कथ्य एवं विषय वस्तु में पिछली कविता से
भूख़ लूट एवं शोषण के अनंत पारंपरिक एवं धार्मिक रूप, जल भिन्न है। संवेदना के स्तर पर इतनी सूक्ष्मता कहीं और नहीं मिलती
जंगल ज़मीन की चिंता और सिसकती मानवता के साथ जीवन राग है। इसलिए इनकी कविता ठहर कर पढ़ने की मांग करती है।
एवं लालसा के अनेक रंगों को महसूस किया जा सकता है। सरसरी तौर पर पढ़ने से बहुत कम हाथ लगेगा। जैसे कबीर कहते
दिनेश कुशवाह हमारे समय के महत्वपूर्ण कवि हैं। वे आर्थिक हैं कि मोती पाने के लिए किनारे नहीं गहरे पानी में उतरना पड़ेगा
उदारीकरण के बाद से आए सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक एवं ठीक उसी तरह से दिनेश जी की कविताओं के मर्म को जानने के
पर्यावरणीय परिवर्तनों को अभिव्यक्त करने की सबसे प्रमाणिक लिए 'इसी काया में मोक्ष' से 'इतिहास में अभागे' की अंतर यात्रा
आवाज़ हैं। अब तक इनके दो काव्य संग्रह 'इसी काया में मोक्ष' करनी ही पड़ेगी। तब जाकर कहीं वह मोती हाथ लगेगा जिसकी हमें
और 'इतिहास में अभागे' राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित हो चुका तलाश हो–
अवलोकन के कवि
अम्बर पाण्डेय
आज की अधिकांश कविताएँ विचार से बनती हैं, तो बाहर ही देखता रहे भीतर विलीन हो जाये और
अधिकतर बुरी कविताएँ विचारधारा से। कविता की यदि भीतर देखे तो बाहर मात्र अँधेरा हो। यह देखना
एक परंपरा है जहाँ कविता मनोस्थिति विशेष को आशुतोष दुबे की कविता में हम देखते है इसलिए वे
पाठक (पढ़े श्रोता) में उत्पन्न करने के लिए रची चीज़़ों को नये सिरे से देखते है।
जाती रही। जापानी कविता हो या रस सिद्ध भारतीय हम उन्हें नए सिरे से देखते हैं
काव्य इसी प्रकार की कविता के उदाहरण रहे आए जिनके बग़ैर जीना हमने सीख लिया था
है और इसे व्यवस्थित रूप से हमने अपने देश में जैसे हम एक खोए हुए वक्त के हाथों
पिछले डेढ़ सौ वर्षों में और छायावाद के अंत के बाद बहुत तेज़ी से अचानक पकड़े जाते हैं
नष्ट किया है। इसके समानांतर हमारे यहाँ वाक्-सिद्ध कविता की
भी सुदीर्घ परंपरा है, अज्ञेय हिंदी के वाक्-सिद्ध कवि है। आशुतोष और ख़ुद को नए सिरे से देखते हैं
दुबे की कविता इस सभी मार्गों से भिन्न है। वे अवलोकन के कवि जल्दी से आईने के सामने से हट जाते हैं
है। अवलोकन की कविता क्या है? सिमोन वै (Simon Weil) अपनी किताब ग्रेविटी एँड ग्रेस में
अवलोकन किसी भी वस्तु, व्यक्ति या घटना को एकाग्रचित्त लिखती है, “कवि अपना ध्यान किसी पर केन्द्रित करता और
देखना है, कवि लम्बे समय तक देखता रहता है। कभी कभी वह सुन्दरता उत्पन्न हो जाती है। प्रेम भी यही है। यह जानना कि यह
केवल लम्बे समय तक ही नहीं दूर तक भी देखता है और इस भूख़ा-प्यासा आदमी वास्तव में उतना ही सच है जितना कि मैं-
देखने को फिर एक दिन वह कविता में बदल देता है। देखते हम इतना ही काफ़ी है, बाकी सब अपने आप आ जाता है।” वै ऐसे
सभी है किन्तु हम देखते हुए बाहर को बस एक उपकरण की तरह दृश्य को देखने के इच्छा करती है जिसमें वह नहीं हो, दृश्य के
बरतते है और उसके मार्फ़त भीतर देखते है। हमारा देखना कभी दोनों ओर नहीं हो। हमारा कवि भी जल्दी से आईने के सामने से
विशुद्ध रूप से देखना नहीं होता। हम सीधे किसी वस्तु का हट जाता है-
साक्षात्कार नहीं कर पाते, हमें देखने के लिए विचार या विचारधारा लौटते हुए समय की उँगली थामकर वे दुनिया में आने
चाहिए होती है जो हमें बताये कि क्या देखना है क्योंकि पूरा देखना से पहले के समय में चले जाना चाहते हैं जहाँ एक
बहुत कठिन होता है। विचार हमें देखी जा रही वस्तु या घटना या कुनकुन अँधेरे में वे भ्रूण की तरह तैर रहे थे, और चमक
व्यक्ति के अवयवों को चुनने में हमारी सहायता करते है। रही थीं उनके आस-पास अदेखी दुनिया की आवाज़़ें।
विचारधारा इसे और भी सरलीकृत कर देती है, वह क्या देखना है यहाँ कवि भी ऐसे ही दृश्य को देखने की आकांक्षा करता है
यह चुनकर हमें दे देती है कि यह यह देखो। इस तरह हम वस्तु जिसके दोनों तरफ़ वह उपस्थित न हो। कवि एकाग्र चित्त किसी
के टुकड़े चुनकर उसे अपने भीतर देखते है। यह खंडित दृष्टि है दृश्य को देखता है, वह उससे किसी झेन भिक्षु की तरह एकाकार
और इस खंडित दृष्टि से देखने के लिए हम मनुष्य अभिशप्त है। हो जाता है। कविता पूर्ण से बनती अवश्य है किन्तु पूर्ण को प्रकट
कविता (अच्छी कविता) इसी खंडित दृष्टि का अतिक्रमण करती करने के लिए वह पूर्ण को दर्ज़ नहीं करती। इस अर्थ में वह गणित
है। उसकी आकांक्षा पूरा देखने की होती है। पूरा वही देख सकता की भाँति होती है। वह सुचिंतित चिह्नों का प्रयोग करती है। आशुतोष
है जो जहाँ देख रहा हो वहाँ बँटा न हो, वह बाहर यदि देखता हो दुबे भी दृश्य से उसके काव्य सत्य चुनते है वे दृश्य से बहुत कुछ
‘शब्द’ के साधक एकांत श्रीवास्तव मिट्टी का गंध, उनमें एक तरफ व्यवस्था का प्रतिकार है तो दूसरी
अंचल की हवा, अन्न की खुशबू, जनपद की धूल तरफ नव-सृजन की प्रतिबद्धता। उनमें आक्रोश है तो
तथा लोक-संस्कृति के राग के साथ समकालीन धैर्य भी। किन्तु सब कुछ बहुत सहजता व शालीनता
हिंदी कविता में अपनी विशेष उपस्थिति दर्ज़ करने के साथ– विसंगतियों को उभारने के बावज़ूद उनमें
वाले महत्वपूर्ण कवि हैं। ‘अन्न है मेरे शब्द’, ‘मिट्टी व्यवस्था के प्रति कहीं तोड़-फोड़ नहीं है बल्कि
से कहूँगा धन्यवाद’, ‘बीज से फूल तक’, ‘धरती परिवर्तन हेतु चेतना की मशाल जलाने की उत्कंठा
अधखिला फूल है’, ‘नागकेसर का देश यह’, उनकी विशेषता है। उनमें जीवन के विविध रंग हैं,
‘कविता का आत्मपक्ष’, ‘मेरे दिन मेरे वर्ष’, ‘बढई, कुम्हार और बिम्ब हैं, लय है, साथ ही जिजीविषा और संभावनाएँ भी। ‘संरक्षण’
कवि’, ‘पानी भीतर फूल’, ‘चल हँसा वा देश’ आदि आपकी उनका स्वभाव है और उनकी कविता की मूल चिंता भी। एकांत जी
विशिष्ट कृतियाँ हैं। की विशेषता है कि जहाँ कहीं भी वे तोड़ने की बात करते हैं वहां
कविता ‘मानस- संस्कार’ का साधन है। यह कवि के रक्त में उनका सृजनधर्मी व्यक्तित्व किसी विशिष्ट मौलिक-संरचना को
सम्मिलित होती है। जीवन को सुन्दर देखने की इच्छा ही रचनाकार आकार देता दिखाई पड़ता है— “मनुष्य ने तोड़ी धरती की बंजरता/
को सृजन के लिए प्रेरित करती है। ‘कविता का आत्मपक्ष’ में कवि मनुष्य ने उगाया अन्न/ मनुष्य ने तोड़ी संसार की बंजरता/ मनुष्य
ने कविता की परिभाषा, स्वरूप, उद्देश्य, अंगों तथा विविध पक्षों पर ने बनाए घर।” (‘धरती अधखिला फूल है’, पृष्ठ-14) कवि
विस्तार से विचार किया है। कवि- कर्म की सैद्धान्तिक विवेचना विस्थापन का दर्द समझता है। ऐतिहासिक घटनाओं को केन्द्रित
करते हुए कविता में निहित इतिहास, परंपरा, यथार्थ व कल्पना के करती उनकी कुछ कविताएँ विभाजन की त्रासदी की परतें उघाड़ती
सामंजस्य में कवि की भूमिका को स्पष्ट करते हुए एकांत श्रीवास्तव हैं तो कुछ ग्रामीण परिवेश की खुशबू भी बिखेरती हैं।
लिखते हैं -“कविता के पांव, यथार्थ, इतिहास व परंपरा की कठोर ‘शब्द’ चेतना से उद्भूत है। यह सभ्यता का ‘बीज’ है जो अपनी
भूमि पर चाहे टिके हो मगर उसके हाथों ने कल फूलने वाली उर्वरता में भविष्य को संरक्षित करने का सामर्थ्य रखती है। ‘शब्द’
डगालिओं को भी थाम रखा है। दरअसल कविता जो है और जो के साधक एकांत श्रीवास्तव के लिए’शब्द’ शाश्वत है, चिरंतन है।
होना चाहिए के बीच, यथार्थ और स्वप्न के बीच एक पुल का काम जहाँ कोई नहीं रहता वहां शब्द रहता है, समय के बीचोबीच और
करती है। ” (‘कविता का आत्मपक्ष’, पृष्ठ- 99) अर्थात कविता समय के पार भी। यह सुदिनों में निर्णय बनकर तथा दुर्दिनों की
में केवल इतिहास और वर्तमान ही नहीं रहता बल्कि भविष्य के अंतः शक्ति के रूप में निरंतर हमारा आलंबन बना रहता है। इस
बीज भी उसमे अंकुरित होते रहते हैं। काव्य-क्षेत्र में इन दिनों ‘शब्द’ के महत्व को उन्होंने बार- बार उकेरा है। यह हमारे अंतस
‘इन्टेलेक्चुअल टफनेस’ की बढ़ती मांग को देखकर एकांत इसका का द्वार खोलता है। समस्त जड़ताओं से मुक्त करते हुए समय व
विरोध करते हैं। वे कहते हैं कि कविता इस्पात नहीं है। यदि है भी समाज को समझने की दृष्टि देता है। जीवन के कुरुक्षेत्र में ये शब्द
तो यह गला हुआ और पिघला हुआ इस्पात है..‘द्रव’ होने में ही ही हमारा मार्गदर्शन करते हैं— “वे सिर्फ़ शब्द ही थे/ जो मुझे उस
उसकी पहचान है। अर्थात् काव्य में संवेदनात्मक- तरलता एक मोड़ पर मिले/ जहाँ मैं तय नहीं कर पा रहा था/ कि मुझे किधर
अनिवार्य तत्व है। जाना है।” (‘बीज से फूल तक’, पृष्ठ-14) कवि का आत्मविश्वास,
एकांत की कविताएँ ‘सृजनात्मक प्रतिरोध’ की कविताएँ हैं। उनकी आत्मशक्ति बेजोड़ है। ‘बीज से फूल तक’ संग्रह की
किसी भी कवि या लेखक के मूल्यांकन का एक अपनी कविताओं के द्वारा आने वाले काव्य-समय की
आधार उसकी साहित्यिक यात्रा चेतना के स्तर पर ओर इंगित भी करते रहे। इस धारणा को समझने के
हुए बदलावों का भी हो सकता है कि वह किन लिए हम विद्यापति, अमीर खुसरो, केशव और
वैचारिक मूल्यों का विकास अपनी लेखनी के द्वारा रीतिकाल के परवर्ती कवियों को देख सकते हैं।
करता है। रचनाकार पहली रचना से लेकर आख़िरी आधुनिक हिंदी कविता में यह बदलाव बहुत तेजी से
रचना तक एक ही भाव-स्थिति में आबद्ध तो नहीं घटित होता है इसलिए एक ही कवि किसी काव्यांदोलन
है। इस प्रवृत्ति को काव्यशास्त्र के मर्मज्ञों से लेकर का प्रणेता बनता है और उसके अवसान की घोषणा
लोकवादी आचार्यों ने पुनरुक्ति दोष माना है। कवि की काव्ययात्रा भी करता है। इक्कीसवीं सदी का आगमन केवल समय-सापेक्षता
में चेतना के क्रमिक विकास का प्रश्न इसलिए भी महत्वपूर्ण हो की दृष्टि से ध्यातव्य नहीं है। यह वही समय है जब उदारीकरण
जाता है कि कविता जनमानस की स्थिति का पता ही नहीं देती है को आत्मसात करने के परिणाम सामने आने लगे। पूँजीवाद के
अपितु वह जनमानस की अग्रगामी चेतना के निर्माण में भी अति मुक्त प्रवाह ने भारतीय सामाजिक ताने-बाने में अनेक परिवर्तनों
महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन करती है। इसलिए ही आलोचकों और को लाने का कार्य किया। इसके प्रभाव में ये परिवर्तन इतने तेजी से
विचारकों द्वारा कविता को जनचेतना का इतिहास कहा गया है। यह घटित हुए कि इनके प्रभाव का समुचित आकलन संभव नहीं हो पा
‘चेतना’ किसी एकनिष्ठ या एकायामी गतिविधि का प्रतिबिंबन नहीं रहा था। उदारीकरण ने बाज़ार को विनियम-केंद्र से आगे बढ़ाकर
करती है। यह समस्त सामाजिक-क्रियाओं के गत्यात्मक स्वरूप एक मनोवृत्ति में बदल दिया।
को चिन्हित करने वाली धारणा है। जिसमें मनुष्य के निजी अनुभवों उदारीकरण ने समाज की गतिकी को परिवर्तित कर दिया या
से लेकर समस्त सामाजिक संबंधों और सिद्धांतों का समेकित रूप फिर उसमें एक विशेष गति भर दी। किसी भी व्यवस्था के आगमन
परिलक्षित होता है। कविता के भीतर निहित ‘चेतना’ कवि कर्म को के अनेक पक्ष होते हैं जो मानव-स्वभाव और इसके क्रिया-कलापों
समझने-बूझने का प्रवेश-द्वार है। इस प्रवेश-द्वार से जाने पर कवि को नियंत्रित करते हैं। पूँजीवादी व्यवस्था अपने वृहत्तर और
की संवेदनाओं के रचाव को आसानी से समझा जा सकता है। इस दीर्घकालीन स्वरूप में मनुष्य के शोषण और मुनाफे की ही
आधार पर देखा जाए तो पवन करण बीसवीं और इक्कीसवीं सदी व्यवस्था है। किंतु, इसके भीतर प्रवाहित होने वाले व्यक्तिवादिता
के संधि-काल पर अपने प्रथम काव्य संग्रह के माध्यम से हिंदी के विशेष गुण ने मनुष्य के भीतर ‘स्वयं’ का भाव पैदा किया।
काव्य-संसार में प्रवेश करते हैं। इनका पहला कविता संग्रह ‘इस जिससे ‘व्यक्ति-स्वातंत्र्य’ भाव अधिक सुदृढ़ हुआ। इसके कारण
तरह मैं’ वर्ष 2000 में प्रकाशित होता है। इसके उपरांत ‘स्त्री मेरे अनेक समूहों, समुदायों और सामाजिक इकाईयों के भीतर ‘अपनी
भीतर’, ‘कहना नहीं आता’, ‘पवन करण के जनगीत’, ‘अस्पताल अस्मिता’ का भाव उदित हुआ। कवि और रचनाकार के लिए यह
के बाहर टेलीफोन’, ‘स्त्री शतक (दो भाग)’, ‘कोट के बाजू पर संधिकाल बहुत कठिन होता है। वह विशेष प्रकार के दायित्व-
बटन’, ‘तुम्हें प्यार करते हुए’ संग्रह प्रकाशित हुए। संशय का शिकार होता है कि वह तत्काल दिख रहे ‘मुक्तिलक्षणों’
वस्तुतः हिंदी साहित्य के इतिहास में संधिकाल के कवियों की की उपासना करे या व्यवस्था के भीतर पल रहे दीर्घकालिक
अति महत्वपूर्ण भूमिका रही है। संधिकाल के कवियों ने स्वयं शोषण-चक्र का प्रतिकार। कवि को इस दायित्व-संशय के संकट
अपनी पिछली पीढ़ी से एक महीन वैचारिक तंतु से बाँधे रखा और से स्वयं ही उबरना होता है। संधिकाल की परिस्थितियाँ काव्यकला
सफल यत्न करते हैं। ‘स्त्री शतक’ की दोनों भागों की कविताएँ पर ला दिया गया है। खेती केवल आजीविका नहीं है वरन् जीवन
उनकी इस काव्यवृत्ति का जीवंत प्रमाण हैं। स्त्री-जीवन और संघर्ष शैली भी है; संस्कृति भी है। अपनी संस्कृति का विनाश करने का
का पुनर्पाठ वस्तुतः स्त्री-समाज के संघर्ष का इतिहास भी है जिसमें यह सुख पूँजीवादी षड्यंत्रों के कारण ही है। ‘खेती का गीत’ में
सभी सामान्य और विशेषीकृत जन-व्यवस्था का रेशा-रेशा दिखने आने वाला ‘बिल्डर’ वस्तुतः ‘डिस्ट्रायर’ है। इस जनगीत में
लगता है। स्त्रियों के विरुद्ध रचे गये सभी शोषण-तंत्रों की ‘बिल्डर’ शब्द विपरीत अर्थ को उद्भासित करता है, “बेचो खेत
ऐतिहासिक प्रक्रिया भी स्पष्ट हो जाती है। पवन करण ने मिथकों बेचो खेत/बिल्डर कह रहे बेचो खेत/खेत खल्हानी बहुत है गई/
को चुनौती के रूप में अंगीकार किया है। वे स्त्री के कष्टों को भुस और सानी बहुत है गई/गाँव किसानी बहुत है गई/काए नहीं
सुलझाने के लिए दैवीय रूपों से भी प्रश्न कर उठते हैं, “ये आपने तुम पैसे लेत/बिल्डर कह रहे बेचो खेत।”10
क्या किया ग़ाैरी/आपने तो करोड़ों स्त्रियों के मन में/कुंठा घोलकर पवन करण इस उदास सदी में जनता की उल्लास-कामना के
रख दी/आश्चर्य है कि शंभु के सामने शक्तिहीन होकर रह गई गायक है। वे व्यवस्था और समाज द्वारा निषिद्ध क्षेत्रों में प्रवेश
शक्ति/ग़ाैर वर्ण प्राप्त करने को उद्यत/आपने एक बार भी/उन करने से बिलकुल भी हिचकते नहीं हैं। इस कारण प्रचलित और
स्त्रियों के बारे में नहीं सोचा/जिनकी त्वचा का रंग काले सर्प सा विमर्शवादी विषयों पर कविता लेखन के बावज़ूद तथ्यों और
डसता रहता है उन्हें”8 पवन करण इस तथ्य से अवगत है कि स्त्री- धारणाओं का पुनर्निर्धारण करने में सफल होते हैं। पवन करण के
जीवन में भी शोषण और संघर्ष के अनेक स्तर हैं। पितृसत्तात्मक स्त्री बाहर की नहीं उनके भीतर की स्त्री है और पवन करण काव्य
व्यवस्था के शोषण के साथ-साथ वर्ग आधारित विभेद भी मौज़ूद मूल्य उपेक्षितों और वंचितों के हक़ में खड़े हैं। n
है जो स्त्री को स्त्री के विरुद्ध खड़ा कर देता है। जाहिर है कि वर्ग
संदर्भ-सूची :
आधारित शोषण के विरुद्ध जन-आधारित गीत लिखने और गाने
1. करण, पवन; इस तरह मैं; राधाकृष्णन प्रकाशन, नयी दिल्ली; पृ.11
पड़ेंगे। पवन करण श्रम की महत्ता के पोषक हैं इसलिए उनकी 2. वही; पृ.12
कविताओं में कामवालियों का दुःख उतरता है। कवि की आवाज़ 3. वही; पृ.46
‘काम कराने वालियों’ के विरुद्ध बुलंद हो उठती है, “बीमार पड़ना 4. करण, पवन; स्त्री मेरे भीतर; राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली; पृ.92
मैडम को है सताएँ/छुट्टी पे हमरा रहना मैडम को नसुहाए/गुस्से में 5. नगर, विष्णु; (भूमिका) स्त्री मेरे भीतर; राजकमल प्रकाशन, नयी
दिल्ली; पृ.8
हमसे कहती कामचोर सालियाँ/हम कामवालियाँ हम कामवालियाँ”9 6. करण, पवन; स्त्री मेरे भीतर; राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली; पृ.32
पवन करण ने अपने जनगीतों में अपनी बोली को अपनाया है। 7. वही; पृ.53
जीवन का सारा विषाद-योग लोक के पास ही है। आज के कठिन 8. करण, पवन; स्त्री शतक; परख : स्त्री शतक (पवन करण: साधना
समय में ‘आगे बढ़ने’ का नारा इतना विस्तारित हो चुका है कि पीछे अग्रवाल (samalochan.blogspot.com)
9. करण पवन; पवन करण के जनगीत; कामवालियों का गीत/पवन करण
रह गये लोगों की चीख-पुकार पर ध्यान देने वालों का अकाल है। -कविता कोश (kavitakosh.org)
यह भाषा-परिवर्तन बहुत सायास है क्योंकि जनता के दुःखों की 10. करण पवन; पवन करण के जनगीत; खेत का गीत/पवन करण-कविता
अभिव्यक्ति उसकी अपनी भाषा में ही हो सकती है। दुःखों का कोश (kavitakosh.org)
रूपांतरण किसी भी प्रकार से संभव नहीं है। किसान जीवन की संपर्क : हिंदी विभाग, हरियाणा केंद्रीय विश्वविद्यालय,
विषमता का अवलोकन खेती-किसानी की भाषा में ही हो सकता महेंद्रगढ़, हरियाणा
है। विकास की तथाकथित आँधी में किसानों को विनाश के कगार मो. 8397061555
हबीब तनवीर
(1 सितम्बर 1923 - 8 जून 2009)
महत्तम
शिव कुमार पराग
नासिर अहमद सिकंदर
विनोद पदरज
वसंत सकरगाए
कविता मेरी नागरिकता है यश मालवीय
और हस्तक्षेप मेरा लोकतंत्र असंगघोष
वशिष्ठ अनूप
केशव तिवारी
राकेश रेणु
संजय मिश्र
संजय अलंग
राकेश मिश्र
अनिरुद्ध उमट
पंकज राग
अनिल करमेले
रविशंकर पाण्डेय
विनय विश्वास
yegh जुलाई से सितंबर 2023 n 193
194 n जुलाई से सितंबर 2023 yegh
n महत्तम : मनमोहन
'जिल्लत की रोटी' काव्य संग्रह को पढ़ते हुए मन दुनिया का यथार्थ चित्रण प्रस्तुत करता है। इस संग्रह
में अनायास कई विचार उमड़ घुमड़ रहे हैं। इस की कुछ एक कविताएँ मृत होती मानवीय संवेदना को
काव्य संग्रह की कविताएँ जिस समय में लिखी गई झकझोरती हैं तो कुछ कविताएँ सवाल खड़ा करती हैं
हैं वह उत्तर आधुनिकता का दौर है और बाज़ारवाद जिसका उत्तर ढूंढना हम सबों का कर्तव्य बनता है।
पूरे विश्व के साथ हमारे देश में भी अपना पैर पसार कवि समाज को आईना दिखाता है और हमारे
रहा था। वास्तविकता से हमें रूबरू कराता है। बदलते जीवन
बाज़ारवाद ने हमारी सोच,हमारी संस्कृति,हमारी मूल्य और सर्वग्रासी संस्कृति के विरुद्ध प्रतिरोध की
व्यवस्था पर अपनी पकड़ पूरी तरह से बना ली है। बाज़ारवादी प्राचीर को मजबूत करने का आह्वान भी है। 'समायोजन' कविता
व्यवस्था से उत्पन्न उपभोक्तावादी संस्कृति के इस दौर में मानव के देश की साझी सांस्कृतिक विरासत को सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के नाम
लिए उपयोगी सुविधाएँ बिकाऊ हो गई हैं जिसके परिणाम स्वरूप पर ध्वस्त करने की जुनून बयाँ करती है। देश दुनिया में विवादों
मनुष्य अपनी महत्वाकांक्षा और अनियंत्रित अभिलाषा का शिकार को खड़ा करने की मुहिम चली है लेकिन विवादों का समाधान
हो रहा है। जिससे समाज में अशुभ प्रतिस्पर्धा का माहौल बना हुआ उद्देश्य नहीं है। विवादों के द्वारा देश में विभाजन करना मुख्य उद्देश्य
है। असम प्रतिस्पर्धा के कारण सामाजिक ढांचा चरमरा रहा है। है। रवींद्रनाथ टैगोर ने हमारे देश को महामानव समुद्र कहा है।
आगे बढ़ने की होड़ में सारे मानवीय संबंध औपचारिक हो गए हैं। भारतीय संस्कृति का निर्माण आर्य और आर्येतर संस्कृतियों के
हर व्यक्ति एक दूसरे को अपने प्रतिद्वंदी के रूप में देख रहा है। समायोजन से ही हुआ है। आज सागर में लहरों को अलग करने
अतृप्त लालसा और भोग करने की प्रवृत्ति ने मानव सभ्यता को की कोशिश की जा रही है। व्यवस्था अपनी अकर्मण्यता, विफलता
सबसे कठिन दौर में लाकर खड़ा कर दिया है। ऐसे समय में इस के कारण साम्राज्यवादी ताक़तों और इजारेदारी मुक्त प्रतिस्पर्धा के
तरह की कविताओं का लिखा जाना निश्चित रूप से साहसी कदम समक्ष समर्पण कर रही है और आमजन की समस्या सुलझाने में
है। आज मनुष्य की सारी संवेदनाएँ समाप्त हो रही हैं। अपने स्वार्थ असमर्थ है। परिणाम स्वरूप विवादों को खड़ा करके सांस्कृतिक
के लिए लोग किसी भी हद तक जाने के लिए तैयार हैं अर्थात आज राष्ट्रवाद के नाम पर विभिन्न संस्कृतियों में विभेद पैदा किया जा
मानवता संकट में है। मनुष्य का कल, आज को नियंत्रित नहीं कर रहा है। इस दौर में भी बकौल मुक्तिबोध “अभिव्यक्ति के सारे ख़तरे
पा रहा है और भविष्य की चिंता उसे आज सुकून नहीं दे पा रही है। उठाने ही होंगे तोड़ने होंगे ही मठ और गढ़ सब”। उनकी कविता
हम अनिश्चित भविष्य की ओर बढ़ रहे हैं। आज का हर मनुष्य अभिव्यक्ति के ख़तरे उठाने का कार्य करती है और वर्चस्ववादी
बेचैन है,हताश और निराश है। हताशा और निराशा के दौर में इस मानसिकता के बीच संपूर्ण मनुष्य के रूप में अपने अस्तित्व को
तरह की कविताएँ कुछ आस जगाती हैं कि मानवीय संवेदना पूरी बचाए रखने का आह्वान करती है। व्यक्ति आत्मकेंद्रित होता जा
तरह से राख नहीं हुई है। राख होती संवेदना में अभी कुछ उष्मा रहा है और अपने परिवार, समाज और परिवेश से अलग-थलग
शेष है। इस राख के ढेर से उष्मा को बचाने की ज़रूरत है ताकि पड़ता जा रहा है। कविताएँ आत्म केंद्रित होते व्यक्ति की व्यथा को
मानवीय संबंधों में ऊष्मा बनी रहे जिससे मानवता और समाज को भी रेखांकित करती हैं कि किस प्रकार व्यक्ति अपने समाज और
बचाया जा सके। परिवेश से कटकर अकेला पड़ गया है। इस भीड़ में भी व्यक्ति
'जिल्लत की रोटी' काव्य संग्रह इस समय के समाज, देश और अकेला हो गया है। उसकी संवेदनाएँ समाप्त हो गई हैं। अपनी
कौशल किशोर हमारे समय के सबसे सक्रिय एवं कविता संग्रह के इस खण्ड की अन्य कविताओं जैसे
चर्चित कवि हैं। इसी वर्ष उनका तीसरा कविता इस वक्त के बाद, कारखाने से लौटने पर, ताला,
संग्रह उम्मीद चिनगारी की तरह रुद्रादित्य प्रकाशन सरकार चाहती है, लिख दूँ एक नारा दीवार पर, आग
इलाहाबाद से प्रकाशित होकर आया है। इससे पूर्व और अन्न में यही मोहभंग का भाव प्रधान है।
उनके दो कविता संग्रह 'वह औरत नहीं महानद इस खण्ड में एक बात और ग़ाैरतलब है कि
थी' और 'नयी शुरुआत' पहले प्रकाशित हो चुके चिड़िया और ग़ाैरैया आदि को लेकर कवि ने कई
हैं। उनके दूसरे और तीसरे कविता संग्रह के मध्य कविताएँ लिखी हैं। इन कविताओं में विविध प्रयोग
अधिक समयान्तराल नहीं है मगर पहला कविता संग्रह बहुत देर देखने में आते हैं। जीवन और जगत के प्रति नकारात्मक
से आया था इसका कारण यही कि वह मूल रूप में एक्टिविस्ट हैं। अवधारणाओं और परिस्थितियों से निरन्तर टकराव देखने को
एक्टिविज्म और संपादन व समकालीन राजनीति, विचारधारा के मिलता है साथ ही सार्थक संघर्षों द्वारा मनुष्य को उस पार ले जाने
सवाल, अस्मिता के सवालात व सरकार की आर्थिक नीतियों के की ईमानदार कोशिश भी दिखाई देती है। सकारात्मकता और
जन सामान्य कृषक मजदूरों के जीवन पर पड़ रहे प्रभावों पर वो जीवन के प्रति एकनिष्ठ समर्पण व लोकमानस से जुड़े रहने का
दशकों से स्वतन्त्र लेखन करते रहे हैं। अख़बारों में स्तम्भकार रहे अटूट जज्बा इन चिड़िया सीरीज की कविताओं में परिलक्षित होता
हैं। पार्टी के विभिन्न जन संगठनों में काम किया, मजदूर आन्दोलन है। उनकी एक कविता है ग़ाैरैया। इस कविता में ग़ाैरैया 'मेहनकश'
से गहरा जुड़ाव भी रहा। तीन चार दशक से जसम लेखक संगठन वर्ग का प्रतीक बन गयी है जहाँ भी ग़ाैरैया या चिड़िया का प्रयोग है
में सक्रिय हैं। एक्टिविस्ट होने के कारण वह संघर्षों और आन्दोलनों वहाँ उसके श्रमशील चरित्र को अवश्य उकेरा गया है। श्रम और
का हिस्सा रहे। जनान्दोलनों के लिए ही लेखन में समर्पित रहे उसका व्यक्तित्व व ग़ाैरैया के मासूम सपने सब आपस में आत्मीय
लिहाजा उन्होंने निजी कविता संग्रह प्रकाशित करने में जल्दबाजी रूप से संबद्ध हैं। साथ ही ग़ाैरैया के ख़िलाफ़ सक्रिय शक्तियों की
नहीं दिखाई। लिख सत्तर के दशक से रहे हैं मगर कविता संग्रह चर्चा उनके चरित्र का वर्णन इन कविताओं को विपर्यय और
2010 के बाद आया। पहला कविता संग्रह लगभग चालीस साल गतिरोध के भयानक दिनों में भी निर्माण के हौसला पूर्ण व साहसी
बाद प्रकाशित होना इस बात का प्रमाण है कि उन्हे कवि होने की संकल्प का मार्ग सुझाती हैं। प्रतीक में वर्गीय चरित्र खोज लेना इन
धुन नहीं रही वह शौकिया मनोरंजक कवि नहीं हैं कि अन्यथा अब कविताओं को अपनी तरह का विलक्षण विस्तार देता है। ग़ाैरैया,
तक तीस चालीस कविता संग्रह प्रकाशित होकर आ गये होते। कवि चिड़िया, चिड़िया और आदमी एक, चिड़िया और आदमी दो, ऐसी
भाषा के करतब की अपेक्षा निष्ठापूर्ण जनपक्षधर अभिव्यक्ति पर ही कविताएँ हैं जो अपने अभिधार्थ से मुक्त होकर वैचारिक
अधिक जोर देता है– 'कहते हो/ सम्पूर्ण हुई अधूरी क्रान्ति/ बदल निर्मितियों के ध्वन्यार्थ का निर्वहन करती हैं।
गया है राज/ बदल रहा सम्पूर्ण समाज/ और मैं देख रहा हूँ/ मेरे कौशल किशोर समय के स्याह पक्ष के प्रतिरोधी कवि हैं उनकी
पडोस के बच्चे/ पेट दबाए सो जाते हैं।' लोकतन्त्र और आज़ादी भाषा में लोक और लोकजीवन का प्रभाव है। जन के अनुभवों को
के विद्रूप चेहरे और अमानवीय चरित्र को उद्घाटित करती इन समझने व सामूहिक पीड़ाओं को अभिव्यक्त करने का जोख़िम है।
कविताओं का मूल्यांकन टकराती हुई साँसों और संघर्ष के लिए प्रतिगामी मूल्यों से टकराने और लड़ने का साहस है। सत्ता और
तत्पर व्यक्ति के मनोवेगों को भाँपकर ही किया जा सकता है। बाज़ारवादी पूँजी द्वारा उत्पन्न नये सांस्कृतिक प्रदूषण के विरुद्ध
बीती सदी एवम वर्तमान सदी के संधिकाल के कवि व्यक्तिगत प्रज्ञा की अपेक्षा उसके परंपराबोध को
नरेंद्र पुण्डरीक, इन दो सदियों के बीच एक पुल अधिक महत्व दिया है।
सरीखे हैं जिनसे दो सदियाँ आपस मे जुड़ती हैं। नरेंद्र पुण्डरीक के पास सहज प्रवाहमान भाषा है।
नरेंद्र पुण्डरीक की कविताएँ ऐसे दौर में नमूदार उनकी कविताएँ किसी न किसी रूप में भाषा की
होती हैं जब (नवें दशक के उत्तरार्ध में) कविता सम्पूर्ण और सफल क्रियाएँ हैं। किसी भी कविता से
से यह अपेक्षा की जा रही थी कि पाठक से सहृदय सच्चा संपर्क तब तक स्थापित नहीं हो सकता जब तक
रागात्मक रिश्ता कायम कर उससे विश्वसनीयता कि पाठक उस तक भाषा की लयात्मक क्रिया के
पैदा की जाए। नरेंद्र पुण्डरीक की कविताओं में सहज रागात्मकता आनन्द के माध्यम के द्वारा न पहुँचे। नरेंद्र पुण्डरीक की भाषा जन
के साथ सहृदय साहचर्य है, जिससे पाठक बड़ी सरलता से उनकी भाषा सी तो है लेकिन उसका एक सांस्कृतिक परिष्कार भी है। यही
कविताओं से जुड़ कर आत्मीय रिश्ता कायम कर लेता है। परिष्कार करते हुए वे जीने के कर्म को, उसकी कष्ट व्यवस्था,
नंगे पांव का रास्ता(1992), सातों आकाशों की लाड़ली क्षुद्रता और महिमा को, और उसकी मौलिक आभा को, प्रशंसनीय
(2000), इन्हें देखने दो इतनी सी दुनिया (2014), इस पृथ्वी कौशल के साथ परिभाषित करते चलते हैं। वह इतिहास व परंपरा
की विराटता में (2015), इन हाथों के बिना (2018), समय का के गहरे तल में प्रवेश कर वहां से अपनी काव्यभाषा की शब्दावली
अकेला चेहरा (2021) उनके प्रकाशित कविता संग्रह हैं जो अत्यंत की तलाश करते हैं साथ ही दैनन्दिन के कार्य व्यवहार की प्रचलित
चर्चित रहे हैं। इन किताबों में हमारे समय के बदलते चेहरे की लोकशब्दावली से भी शब्दों का चयन करते हैं, उनकी वास्तविक
तस्वीर साफ साफ देखी जा सकती है व स्पष्ट सुनी जा सकती है शक्ति उनकी यही समावेशी भाषा है। इसी क्रम में वे अपनी प्रतीक-
उसकी आवाज़, इन अर्थो में इनमें सांस्कृतिक इतिहास दर्ज़ है। व्यवस्था उपलब्ध करते हैं और उनकी भाषा मे एक विशिष्ट
नरेंद्र पुण्डरीक की संवेदना का आयतन वृहत्तर है, वे एक साथ तात्कालिकता, एक निजी लय विधान और गति आ जाती है।
चर-अचर, जड़-जंगम सबके प्रति आत्मीयता रखने वाले एक बुनियादी तौर पर पुण्डरीक की कविता का आर्कषण विचार समुच्चय
प्रकृति प्रेमी कवि हैं, उनकी कविताओं में एक बेहतर दुनिया का या उनकी परंपरा में ही नहीं है, उनकी कविता के पास हम उसकी
नक्शा है, जिसे लेकर वे अपने रचना संसार मे जूझते हुए मिलते हैं। तीखी चमकती समझ के लिए जाते हैं जो निरे विचार से संभव नहीं
समय समाज व रिश्ते उनकी कविताओं के प्रमुख विषय हैं, उनमें है और जिसके लिए एक ऐसी संवेदना की ज़रूरत है जो जीने की
गहन परंपराबोध व गहन जीवनबोध है, वे अपने इसी परंपराबोध से तक़लीफों से जूझती-उलझती है, और उनसे पल्ला नहीं छुड़ाती
गुज़रे हुए वक्त व वर्तमान के बीच एक पुल बनाते हैं, वे परंपरा के बल्कि उन तक़लीफों से घिरे रहक़र एक तरह का यातना पूर्ण
प्रतीकों, मिथकों व विश्वासों से सघन संवाद तो करते ही हैं साथ ही विवेक विकसित करती हुई जीने की इच्छा को अटूट रखती है।
उनका समकालीन संदर्भों में पुनर्पाठ भी करते हैं। अपने गहन भयंकर तनावों और अमानवीयकरण की शक्तियों से उनकी
जीवन बोध व प्रखर आलोचनात्मक चेतना से वे जीवन जगत का समझभरी संवेदना कविता में मुठभेड़ करती है, जय पराजय की
सूक्ष्म अन्वीक्षण करते हैं तथा विसंगतियों, असंगतियों के विरुद्ध शब्दावली में सोचना नरेंद्र पुण्डरीक की कविता की बुनियादी शर्त
प्रतिरोध खड़ा करते हैं। टीएस इलियट ने अपने विश्व प्रसिद्ध के लिए अप्रासंगिक-सा होगा उनकी कविता सर्वग्रासी शक्तियों के
निबन्ध 'ट्रेडिशन एन्ड इंडिविजुअल टैलेंट' में कवि के लिए उसकी बरअक्स अपनी बुनियादी मानवीयता बनाये रखने का आश्वासन
ख़ुश हूँ कि
हमारे सपनों की
ऊँचाई भी बस उतनी
कि थोड़ा उचक कर भी
अपने हाथ से छू लूं आसमान
उम्मीद की बाँह थामे कवि की पगडंडियों पर चलना हमें
शहर के बियाबान से दूर वहाँ लिए जाता है जहाँ कवि अपने
मन को सहृदयता और प्रकृति-प्रेम के अलौकिक दृश्य के निकट
बसाए खड़े हैं। कवि वह जगह खोजने में सफल होते हैं, जहाँ पर
प्रेम अपने आदिम परिपाटी में अब भी अक्षुण्ण है। अपनी कविता
'उम्मीदें' में कवि कहते हैं-
...कि चिड़ियों के चूजों की
लगातार चीं-चीं सुन के बुलाने पर भी नहीं आते थे उनके कभी पास। समय की ऐसी
जब उधर देखता हूँ कि लिखाई और परिस्थितियों का यह ऐसा खेल कवि की इस कविता
अभी अभी कोई चिड़िया में दर्ज़ होता है, जब जीवन बीतने के बाद भी जीवन अपनी ऊष्मा
चोंच में दाना लिए पेड़ पर बिखेर रहा है, पर विडंबना ऐसी कि जब तक जीवन रहता है, हम
हवा में काँपते अपने घोंसले में आदमी को कितना समय दे पाते हैं!
लौट आई है सुरक्षित कवि के यहाँ यादों के ऐसे पैरहन मौज़ूद हैं, जो आमतौर पर
दर्ज़ किए जाने से बरबस ही छूट जाते हैं। जीवन जिन स्मृतियों से
तो मेरा यक़ीन और भी दृढ़ हो जाता है मिलकर बना है, वे स्मृतियाँ अपनी सम्पूर्ण सजीवता में पाठकों
कि कठिन नहीं है गाढ़े समय में भी से संवाद करने में सफल होती हैं। यह कहना भी ज़रूरी जान
प्रेम को बचाए रखना पड़ता है कि कवि के विषय सुदूर नहीं हैं, कवि की कविताई
कि उतना भी उदास नहीं है उनके आसपास घटित होती घटनाओं और समय की चैतन्य व्याख्या
उदासी का कोई भी मौसम संप्रेषित करती है। बिलकुल अपने पास के चित्र और पुरखों की जमा
कवि कहीं-कहीं भावों की ऐसी तीक्ष्ण मार्मिकता बटोरते हैं कि पूंजी। बिलकुल अपने भीतर की छटपटाहट और वेदनाओं के स्वर।
कविता की पंक्तियाँ पूरी होने के बाद भी मन से बीत नहीं पातीं, ये स्वर आजकल बहुतेरे नहीं हैं, सहजता से प्राप्य नहीं हैं और
साथ रहती हैं और परेशान भी करती हैं, समाज के कटु सत्यों को किसी खँडहर की तरह ही परित्यक्त हैं, लेकिन इन कविताओं में
बिलकुल पास जाकर जानते-समझते हुए। यही कविता की वह उन स्वरों की छाप गहरी है। इन कविताओं में आज के युवाओं के
बलवती संभावना भी है कि कविता अपनी छाप इस तरह छोड़े कि लिए ढेर सारा ज़रूरी कहन उपस्थित है, जैसे आधुनिकता की प्रबल
मन का शीशा एकदम से धुल जाए और सत्य सशरीर सदृश हो रोशनी में अपना चेहरा भूल गए लोगों के लिए एक दर्पण की तरह।
उठे। 'श्मशान में पिता' मार्मिकता और समाज के खोखलेपन की हर पल बदल दिए जा रहे नामों और पतों की बात को बहुत गहराई
ऐसी ही आपगोई है। कविता में वह दृश्य, जब जाड़े में जलती चिता से रेखांकित करती उनकी कविता 'किस नाम से पुकारूँ तुम्हें' थोड़े
के आसपास लोग आग तापने जमा होते हैं, वे वही लोग हैं जो पिता व्यंग्य, थोड़ी सहानुभूति और थोड़ी चिंता का सुभग मेल है।
ग़ज़ल ने भाषा और भूगोल की सीमाओं का अतिक्रमण विचार है कि ग़ज़ल केवल ग़ज़ल है। हिंदी ग़ज़ल
किया है। अरबी भाषा के क़सीदे की कोख से जन्मी कहने का कोई औचित्य नहीं है। लेकिन यहाँ एक
ग़ज़ल फ़ारसी की समृद्ध काव्य परंपरा से होते हुए दुविधा यह है कि यदि हिंदी में लिखी/कही जा रही
उर्दू तक पहुँची है। उर्दू ग़ज़ल की लोकप्रियता ने ग़ज़ल को केवल ग़ज़ल कहेंगे तो उसका मुक़ाबला
अन्य भारतीय भाषाओं को भी अपनी ओर आकृष्ट उर्दू ग़ज़ल से होगा। यह भी मान लेना चाहिए कि
किया। ग़ज़ल की लोकप्रियता और स्वीकार्यता का ऐसी स्थिति में हिंदी में लिखी जा रही ग़ज़ल कहीं नहीं
कारण संभवत: यह रहा है कि ग़ज़ल ने अपनी ठहरेगी। वैसे भी जब आकादमिक स्तर या आलोचना
परंपरा का निर्वाह करते हुए आधुनिकबोध को भी उदारता के साथ की दृष्टि से बात की जाती है तो उर्दू में कही जा रही ग़ज़ल को
आत्मसात किया है। यह आधुनिक बोध कथ्य, विचार, भाव, शिल्प ‘उर्दू ग़ज़ल’ कहक़र संबोधित किया जाता है। अत: यह स्वीकारने
और शब्द आदि सभी स्तरों पर रहा है। आज की ग़ज़ल वस्ले-यार में कोई झिझक नहीं होनी चाहिए कि हिंदी ग़ज़ल अपने स्वरूप में
की तमन्ना, महबूब के वियोग का दर्द, इंतिज़ार की तड़प, दोस्त की उर्दू ग़ज़ल से अलग है और इसे हिंदी ग़ज़ल कहना हिंदी ग़ज़ल की
बेवफ़ाई आदि विषयों के बीहड़ से निकल कर सामाजिक विद्रूपता, विशिष्ट पहचान को स्वीकृति देना ही है।
आर्थिक विषमता, मजदूरों के दर्द, किसान की बेचारगी, स्त्री की रामकुमार कृषक हिंदी की उस कविता के सर्व स्वीकृत कवि
अस्मिता और आम आदमी की प्रतिदिन की समस्याओं तक आ हैं जो किसान, मजदूर और शोषित के पक्ष में निर्भीकता के साथ
पहुँची है। डटी है। उन्होंने अपने मूल्यों के साथ न जीवन में समझौता किया
हिंदी कवियों ने भी ग़ज़ल का मुक्त हृदय से स्वागत किया न ही कविता में। मुक्तछंद कविता से नवगीत और ग़ज़ल तक की
है। बहुत से महत्वपूर्ण हिंदी कवियों ने हिंदी ग़ज़लें कही हैं। कुछ उनकी यात्रा इस बात का प्रमाण है कि जीवन और कविता को
विद्वान हिंदी ग़ज़ल की जड़ें अमीर ख़ुसरो और कबीर में खोजते अलग करके नहीं देखा जा सकता है। जब इस भावबोध के साथ
हैं। लेकिन यह केवल दूर की कौड़ी है। हिंदी ग़ज़ल दुष्यंत कुमार रामकुमार कृषक ग़ज़ल की भूमि पर पदार्पण करते हैं तो उनका
के ग़ज़ल संग्रह ‘साए में धूप’(1975) से उड़ान लेती है। यहीं से स्वर कुछ और तीखा और व्यंग्यात्मक हो जाता है। व्यंग्य और
प्रेरणा लेकर हिंदी में अनेक कवियों ने गज़लगोई की दिशा में गंभीर अभिव्यंजना वैसे भी ग़ज़ल की विशेषता है। इसी विशेषता का लाभ
प्रयास किए। हिंदी ग़ज़ल में आरंभ से ही दो धाराएँ स्पष्ट दिखाई उठाते हुए वे बेबाकी से कह उठाते हैं–
देती हैं। एक धारा वह है जो फ़ारसी से आई हुई उर्दू ग़ज़ल परंपरा मस्त रहना है तो पूछिए क्या करें,
का ही निर्वाह करती है। उनकी ग़ज़ल का कथ्य और शब्द चयन पेट ख़ाली रखें रोज़ योगा करें!
भी उर्दू ग़ज़ल से न केवल अनुप्रेरित है बल्कि पदानुगामीहै। अंतर देश आज़ाद है हम भला क्यों कहें,
केवल लिपि-भर का दिखाई देता है। दूसरी धारा वह है जो ग़ज़ल आप ऐसा करें आप वैसा करें!
की शब्दावली और कथ्य का स्रोत हिंदी कविता की सुदीर्घ परंपरा समाज में व्याप्त विडंबना और विसंगति को प्रस्तुत करने में
से ग्रहण करती है। वस्तुत: यह दूसरी धारा ही सही अर्थों में हिंदी व्यंग्य की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। व्यंग्य व्यक्ति और जीवन
ग़ज़ल है। के खोखलेपन और पाखण्ड को उजागर करने का माध्यम है।
हिंदी ग़ज़ल पद के प्रयोग पर कुछ विद्वानों को आपत्ति है। उनका हरिशंकर परसाई ने कहा था कि “व्यंग्य जीवन से साक्षात्कार
वर्तमान में जो कुछ भी घटित होता है उसका अतीत को आज के ज्वलंत सवालों के साथ गुम्फित कर
से कुछ न कुछ संबंध अवश्य होता है। समाज का उनको विस्तार दे देते हैं। ‘आयो घोष बड़ो व्यापारी’
दर्पण यानी साहित्य, समाज में होने वाले परिवर्तन गीत में ज्ञान और प्रेम की तकरार को विस्तार देते हुए
को प्रतिबिंबित करता चलता है। आचार्य शुक्ल के उदारीकरण के बाद मुक्त व्यापार से उत्पन्न हुए संकट
अनुसार, जनता की चित्तवृत्तियों में परिवर्तन के से जोड़ देते हैं, जहाँ संबंधों में अर्थ की महत्ता बढ़ने
साथ-साथ साहित्य में भी परिवर्तन होता चला जाता के साथ-साथ मूल्य-विघटन की समस्या मुँह बाए
है। वर्ष 1991 में भारत की सरकार ने मुक्त बाज़ार खड़ी हो गयी है–
वाली अर्थव्यवस्था को अपनाया जिसे एलपीजी यानी उदारीकरण, कभी जमूरा कभी मदारी
निजीकरण और वैश्वीकरण मॉडल भी कहा गया। इससे भारत में इसको कहते हैं व्यापारी
संचार क्रांति का सूत्रपात हुआ। बाज़ार में वस्तुओं की उपलब्धता अपना उल्लू सीधा हो बस
बढ़ी और एक ही सामान के कई विकल्प सामने आने लगे। वस्तुओं कैसा रिश्ता कैसी यारी। (कविता कोश– प्रतिनिधि गीत)
की उपलब्धता और विकल्पों की प्रचुरता ने लोगों की जीवन-शैली वैश्वीकरण के प्रभाव से मुक्त अपने देशीपन पर भरोसा जताते
में परिवर्तन लाने के साथ ही विचारों को भी प्रभावित किया। पहले हुए कवि अपने तईं सांस्कृतिक संकट से भी उबरने का रास्ता
जो परिवर्तन व प्रभाव समाज में कई दशकों में देखने को मिलता दिखाने की कोशिश करते हुए भी नज़र आता है -
था वह अब कुछ ही वर्षों में तीव्रता के साथ दिखने लगा। रचनाकार दुनिया की सुंदरतम कविता
समाज में होने वाले किसी भी तरह के परिवर्तन को सबसे पहले सोंधी रोटी दाल बघारी। (कविता कोश– प्रतिनिधि गीत)
महसूस करता है। कवि व लेखक हर तरह की चकाचौंध से बचते देवेंद्र आर्य की कहन शैली ऐसी है कि पाठक का मन मोह लेती
हुए समाज को उसके मूल स्वरूप की पहचान कराता है। ऐसे ही है। वे कविता के साथ-साथ गीत-ग़ज़ल भी लिखते हैं। निस्संदेह
समकालीन दौर की संवेदनाओं को स्वर देने वाले कवि हैं देवेंद्र उनकी ग़ज़ल का भी कुछ असर कहीं-कहीं उनकी कविता की
आर्य। देवेंद्र आर्य की कविताओं पर बात करने का मतलब है ऐसी पंक्तियों में अनायास ही दिख जाता है। उनके शब्दों का चयन
जोख़िम भरी यात्रा पर निकल पड़ना जहाँ कई विचलित कर देने उनके भावों को अधिक गहनता के साथ अभिव्यक्ति देने और
वाले दृश्य हमारे समक्ष उपस्थित होते हैं। इसमें एक तरफ तो पाठक को उसे महसूसने का धूप-छाहीं धरातल प्रदान करता है।
मानवीय संवेदनाओं के पत्थर होते जाने की पीड़ा दिखती है, तो सपनों का जमावन, एक अंजुरी भर प्यास, दाल बघारना, अलगनी,
दूसरी तरफ अपने हक़ के लिए आवाज़ उठाने वालों की लाशों पर ऐसे ही कई देशज शब्द, अपने सोंधेपन के साथ पाठक के भीतर
भेड़िओं का नृत्य दिखाई देता है। इनकी कविताओं में कहीं पर्वतों तक समा जाते हैं। अपने भीतर सघन भावों को समेटे हुए जमावन
की कराह है, तो कहीं नदियों का पेट काट के अपने घरौंदे ऊँचे (कवि) कितने ही सुंदर सपनों के साथ भविष्य के समाजोपयोगी
करने वालों के प्रति रोष। इनकी दृष्टि, जहाँ वर्तमान स्थितियों की छाछ और मक्खन के लिए अनुकूल परिस्थितियाँ बनाने में सृजनरत
अतीत के सातत्य के रूप में पहचान करती है; वहीं अतीत को भी है। उनके गीतों, ग़ज़लों व कविताओं में एक संवादधर्मिता दिखाई
वर्तमान संदर्भोंं में व्याख्यायित करती है। कवि सूरदास की काव्य देती है। वह अपने पाठक से सीधे संवाद करती हुई नज़र आती है।
संवेदना को समकालीन भावबोध से जोड़ते हुए गोपी-उद्धव संवाद देवेंद्र आर्य के लिए व्यक्ति से ज़्यादा विचार महत्त्वपूर्ण हैं,
‘लीक से लीकेज’ कविता में कवि पेपर लीक की घटनाओं से संपर्क : सहायक प्रोफेसर, क्षेत्रीय िशक्षा संस्थान,
लाखों छात्रों के भविष्य से होते खिलवाड़ को लेकर आहत हो उठते अजमेर
हैं। नेट, टेट, स्लेट या फिर गेट, हर जगह पेपर लीक हो रहा है। मो. 9763748374
मोहन कुमार डहेरिया हिंदी कविता के नवें दशक में सच्चाइयों, विडंबनाओं को प्रकट करने तथा गहराई
उभरे महत्वपूर्ण कवियों में अपनी एक अलग पहचान देने के लिए कला का इस्तेमाल कर रहा है। कवि
रखते हैं। छिंदवाड़ा जिले के कोयला खदान क्षेत्र से मोहन, अपने अंदर के कवि को भी न बख्शते हुए,
उभरे इस कवि की 'पहल' में 'गूंगा' शीर्षक से एक अपनी एक कविता ' कहाँ रहता है कवि ' में स्वयं से
साथ ग्यारह कविताएँ उसी दौर में छापकर, सबसे और दुनिया भर के अन्य लोगों से कवि के रहने की
पहले उनकी काव्यात्मक क्षमता तथा प्रतिभा को जगह की सख्त तहक़ीकात इस तरह करते हुए नज़र
ज्ञानरंजन जी ने रेखांकित किया था। उसके बाद आते हैं -
उनकी काव्य यात्रा रुकी नहीं। देश की लगभग सभी महत्वपूर्ण 'कहाँ रहता है कवि
पत्रिकाओं में निरंतर उनकी कविताएँ छपती रहीं और अन्य काव्य मछुआरों के लोकगीतों के अंदर
संग्रह भी आते चले गए। मोहन कुमार डहेरिया साधारण विषय को ईश्वर के सिंहासन के नीचे
प्रभावशाली ढंग प्रस्तुत करने की कला के निर्माता हैं। वे जीवन किसी हत्यारे के प्रायश्चित के भीतर
की तलछटों में घुसने की कला में माहिर हैं, जिसके लिए वे अपनी यश के ऊँचे पहाड़ के अभिशप्त शिखर पर
कविता में प्रतीकों, उपमाओं तथा रूपकों के नायाब औज़ारों का ... ... या धूर्तता की
अविष्कार करते हैं। वे इन औज़ारों का इस्तेमाल इस तरह करते हैं किसी कलात्मक सुरंग के अंदर'
कि सीधे मर्म तक पहुँचकर, समाज से चिपटे मर्ज को पकड़ लेते यहाँ इस कवि को ख़ुद से ही नहीं, अन्य कवियों से भी एक
हैं; इसी अर्थ में वे रवि से बढ़कर कवि होने के मुहावरे को सिद्ध स्वाभिमानी अपेक्षा है। उन्हें यह बर्दाश्त नहीं कि कवि और कविता
करते हैं। उनकी यह सफलता, कवि की सफलता से आगे बढ़ के बीच जरा सी भी फांक हो। इसलिए वह कविता को अपने
कर पाठक तथा समाज की सफलता बनकर आनंद, चिंतन तथा समानांतर चलने का आवाहन करते हुए कहते भी हैं -
बदलाव की ज़मीन तैयार करती है। 'मेरे साथ-साथ चलना मेरी कविताओं
मोहन कुमार डहेरिया के एक कविता संग्रह का नाम ' इस घर गणतंत्र दिवस में भाग लेते सैनिकों की तरह
में रहना एक कला है ' है। दुनिया का एक बड़ा हिस्सा कला के एक ही दिशा में तनी हो हमारी गर्दनें
अंतर्गत आएगा। मानव का जब से सभ्य समाज में प्रवेश हुआ है, मैं खांसू जब सीने को पकड़कर
तबसे उसमें कला का दखल माना जाएगा। अर्थात जहाँ-जहाँ भूख़ तुम्हारे मुँह से भी निकले ख़ून सना बलगम'
का भूगोल खत्म हुआ है, मनुष्यों ने नंगेपन से निजात पाई है, उसके वस्तुतः कविता के माध्यम से कवि स्वयं के प्रति ईमानदार,
बाद जो दुनिया शुरू होती है, वह कला की ही दुनिया है। कला के प्रतिबद्ध रहने का पक्का आश्वासन चाहता है और जानना चाहता है
बिना लेखकों, कलाकारों, चित्रकारों का काम नहीं चलता लेकिन कि कविता लिखकर वह कोई बेजा फायदा तो नहीं लेना चाहता है।
कई बार कला का सृजनात्मक पक्ष दूषित होकर धूर्तता, चोरी, झूठ इसलिए कविता के अंत में कहता है 'देखना मेरी कविताओं/कहीं
बोलना, जैसे दुर्गुणों में बदल जाता है। जो कवियों के अंदर भी घुस मैं/शिकार और शिकारी की भूमिका/आपस में बदल तो नहीं लेता'
जाते हैं। इसलिए यह सवाल महत्वपूर्ण हो जाता है कि कौन कवि इस कविता की हर पंक्ति से एक अलग तरह का काव्य सौंदर्य
सिर्फ़ कला के लिए कविता लिख रहा है; और कौन कवि जीवनगत झरता दिखाई देता है, जिससे पाठक पंक्ति दर पंक्ति तरबतर होता
बीसवीं शताब्दी के पहले भारतीय समाज ने इतना वह पता मेरा स्थायी पता कैसे हो सकता है
व्यापक और क्रूर विस्थापन नहीं देखा था। आज़ादी लेकिन हममें से हर एक का
के बाद विस्थापन की गति और तेज हुई है। इसका एक स्थायी पता है जहाँ से हम उजड़े थे...
सबसे बड़ा कारण अंग्रेजी व्यवस्था और आज़ाद एक दिन मुझे लिखना पड़ा कि
भारत की व्यवस्था के शिल्पकारों के विकास मेरा वर्तमान पता ही स्थायी पता है...
संबंधी स्वप्न और दृष्टिकोण का समान होना है।
औद्योगीकरण, नगरीकरण और विकास के केन्द्रीकृत कविता का आख़िरी हिस्सा उजड़े हुए लोगों के
प्रारूप ने विस्थापन को अनिवार्य बना दिया है। श्रम, स्वास्थ्य, दुख को और अधिक मर्मांतक और विडंबनायुक्त बना देता है-
शिक्षा, सुरक्षा और पूँजी निवेश हेतु लोग अपने घर-परिवार, गाँव- ‘पुलिस इस बात से सहमत नहीं हुई
समाज, संबंध-स्मृति, भाषा-संस्कृति सबको पीछे छोड़ महानगरों वर्तमान पता बदल जाने पर वह मुझे कहाँ खोजेगी...
की ओर आने को मजबूर हैं। इस विस्थापन का दुख सबसे पहले लोकतांत्रिक देश की पुलिस
मातृभाषाओं में व्यक्त हुआ है। हिंदी क्षेत्र की मातृभाषाएँ हिंदी की वर्तमान पते पर रहने वालों से
बोलियाँ हैं। हिंदी की बोलियों में विस्थापन का दुख केन्द्र में रहा स्थायी पता माँगती है
है। हिंदी क्षेत्र की बोलियों में रचे हुए लोकगीत इस बात की गवाही जिसका कोई पता नहीं
देते हैं। बोलियों के लोग जब नगरों और महानगरों में मजबूरन या पुलिस उसे संदिग्ध मानती है...'
विकास हेतु आते हैं तो सबसे पहले उन्हें अपनी मातृभाषा छोड़नी यदि विस्थापित लोगों की स्मृतियों में न भरने वाले ज़ख्म हैं तो
पड़ती है। जिन समाजों की भाषा छिन जाती है वो कुछ समय के वर्तमान भय, दशहत और विडंबनायुक्त यह काव्य-सत्य, जीवन-
लिए संदर्भहीन और भावशून्य हो जाते हैं। कुछ मुहलत मिलने सत्य भी है। व्यंजना और अबिधा दोनों एकमएक हैं। विस्थापितों
के बाद वे अपनी जड़ों की ओर मुड़ना चाहते हैं। कोई भी ज़िन्दा की स्थिति अब ऐसी हो गयी है कि वे न लौट सकते हैं न स्थापित
व्यक्ति या समाज स्मृतिविहीन नहीं हो सकता। ये उजड़े हुए लोग हो सकते हैं-
समय-समय पर अपने 'स्थायी पते' को याद करते हैं। मातृभाषा ‘आगे थी एक और लंबी सड़क
से उखड़े हुए लोग नगरों, महानगरों की भाषा में अपना पुनर्वास पीछे वह छोड़ आया था
ढूढ़ते रहते हैं। नगर उन्हें अपनाता नहीं और जहाँ से वे उजड़े हैं एक लंबी सड़क
वहाँ के वे रहे नहीं। अधिकांश का अनुभूत जब अभिव्यक्त होता कोई घर नहीं था
है तो उसकी विश्वसनीयता बढ़ जाती है। विस्थापन के क्रूर और जिधर से वह आ रहा था,
व्यापक प्रभाव को आवाज़ देती हुई इस कविता को पढ़िये और जिधर वह जा रहा था
अपनी स्थिति से मिलान कीजिए- उधर भी कोई घर नहीं था...’
लोग कहते हैं मैं जहाँ रहता नहीं हूँ ऊपर जिन दो काव्यांशों को प्रस्तुत किया गया है उनके रचयिता
जहाँ मेरी चिट्टियाँ आती नहीं हैं हैं मिथिलेश श्रीवास्तव। इधर के कवियों में मिथिलेश श्रीवास्तव
दादा या पिता के नाम से जहाँ मुझे जानते हैं लोग.... की कविताएँ अपनी सादगी और लोगों के दुख को ईमानदार
नवें दशक के कवियों के कविता संग्रह सन 92-93 का प्रयोग अपने मूल अर्थों में नहीं है। शरद कोकास
के आसपास आने शुरू हो गए थे। कुमार अम्बुज,देवी की कविताओं में वस्तुएँ,प्रतीक,प्रकृति तो उपस्थित है
प्रसाद मिश्र, विमल कुमार, एकांत श्रीवास्तव, संजय लेकिन वहाँ उस तरह का सौन्दर्य या रागात्मकता का
चतुर्वेदी, बोधिसत्व, बद्री नारायण आदि कई कवियों भाव नहीं होता जो केदारनाथ सिंह,अरुण कमल या
के कविता संग्रह इसी के आसपास छपे। कवि शरद एकांत श्रीवास्तव की कविताओं में होता है। दरअसल
कोकास का पहला काव्य संग्रह ‘गुनगुनी धूप में वे अपनी कविताओं में वस्तुओं,प्रतीकों या प्रकृति को
बैठकर’ इसी दौर (1993) में प्रकाशित हुआ था। अपनी कविता की अंतर्वस्तु के अनुरूप मनचाहे ढंग
आलोचक कमला प्रसाद जी ने इस संग्रह की भूमिका में लिखा से ट्विस्ट करते हैं, लगभग रूपात्मक शैली में। यही कारण है
है-“शरद कोकास की कविताओं में व्यंग्य का पुट भी है, बार कि उनकी कविताओं में पेड़ों की टहनियों का सौन्दर्य बंदूकों में
बार जिज्ञासाएँ हैं और तरह तरह के प्रश्न हैं, टिप्पणियाँ हैं। एक बदलता है,यहाँ हवा और सूरज को फाँसी दी जाती है। वे इस तरह
प्रगतिशील नागरिक की तरह कवि व्यवस्था की दरारों को देखता का रूपांतरण शायद इसलिये भी करते हैं ताकि अपनी कविता को
है। वह परिवर्तन का हामी है। अनजान जगहों से प्रसंग उठाकर अधिक से अधिक संप्रेषणीय बनाया जा सके। उनकी कविताओं
अनुभूति के घोल में वह अपने अनुकूल मोड़ देता है। मानसिक को पढ़कर यह बात ज़ोर देकर कही भी जा सकती है कि इधर
जद्दोजहद से बनती कविताओं में एक नैतिक आकांक्षा सक्रिय है जितने कवि उनकी समकालीन पीढ़ी के हैं, अपनी कविता के भीतर
जो जनतांत्रिक भी है। इस तरह एक भले मानुष सा स्वभाव इन रूप और संवेदना के प्रभावित होने की हद तक संप्रेषणीयता का
कविताओं से व्यक्त हुआ है। विरोध, चिढ़, घृणा या व्यंग्य इसी जोख़िम उठा रहे हैं। इसका आशय यह कतई नहीं है कि वे रूप
भलेपन के प्रति, दुर्भाव रखने वाली शक्तियों के प्रति है। चौकस के प्रति सतर्क नहीं हैं। वे रूप का इस्तेमाल उतना ही आवश्यक
आदमी की तरह इन कविताओं में कवि होते जाने का संयोग मानते हैं जिससे कविता में मौज़ूद विचारों का अतिक्रमण न हो और
दिखाई पड़ता है।” हालाँकि शरद कोकास का यह पहला काव्य कविता सहज संप्रेषणीय हो जाये। संग्रह की ‘बाढ़’ कविता इसी
संग्रह अलक्षित रह गया। कमला प्रसाद जी की यह मान्यता 'झील रूप और विचार के द्वंद्व की कविता है, जहाँ वे कहते हैं-‘बारिश
से प्यार करते हुए' कविता में बड़ी आसानी से देखी जा सकती अच्छी लगती है/ बस फुहारों तक’ वे कविता के अंत में उन
है। “वेदना सी गहराने लगती है जब/ शाम की परछाइयाँ/ सूरज कला समीक्षकों पर व्यंग्य भी करते हैं जो कविता में सिर्फ़ 'रूप'
खड़ा होता है/ दफ्तर की इमारत के बाहर/ फाइलें दुबक जाती की वकालत करते है। “फोटो ग्राफर कैमरे की आँख से देखकर/
है/ दराज़ों की गोद में/बरामदा नज़र आता है/कर्फ्यू लगे शहर की समीक्षक की भाषा में चिल्लाता है/ पानी एक इंच और बढ़ जाता/
तरह/फाइलों पर जमी उदासी/टपक पड़ती है मेरे चेहरे पर/झील तो क्या ख़ूबसूरत दृश्य होता।”
पूछती है मुझसे/मेरी उदासी का सबब/मै कह नहीं पाता झील से/ यह बाबरी मस्जिद ढहाये जाने के बाद उपजी निराशा और
आज बॉस ने मुझे गाली दी है।” किंकर्तव्यविमूढ़ता का समय था। साहित्य के समीकरणों से अपने
वैसे इस कविता के माध्यम से शरद कोकास की काव्यकला को आप को अलग रख कर इस दौर में शरद कोकास ने इतिहास
भी कुछ हद तक समझा जा सकता है। यहाँ कविता में झील न तो को नकारे जाने और सांप्रदायिक शक्तियों द्वारा संस्कृति की
झील की तरह है न सूरज, सूरज की तरह। यहाँ झील, सूरज आदि एकांगी परिभाषा गढ़े जाने के ख़िलाफ़ एक लम्बी कविता लिखने
हिंदी के जनकवि
शैलेन्द्र कुमार शुक्ल
एक मशहूर ग़ज़ल के मक़बूल शे’र जो अक्सर है। मेरे ख़्याल से हर रचना यह चाहती होगी कि वह
सड़क से संसद तक लोगों की ज़बान से नुमाया कवि से, अपने रचयिता से, अपने सृष्टा से छूट जाए
हुए न जाने किन किन के नाम से या बिना शायर और अपनी ही राह पर कुछ कदम चल सके”।2 शिव
का नाम लिए जनांदोलनों में बड़े जोश के साथ गाये कुमार ‘पराग’ की यह ऐसी ही प्रतिष्ठित रचना है
गए। शायरी की सबसे बड़ी ताक़त यही होती है कि जो अपने सृष्टा की गोद से उतर कर अपनी सृष्टि में
वह जिसके लिए लिखी गई वहाँ तक पहुँच जाये। लोकजयी हुई।
आज हिंदी कविता सिमटती जा रही है तो उसका ऐसी ही अनेक कालजयी रचनाओं के रचनाकार
एक कारण यह भी है कि वह जिसके हमदर्द ख्यालों की परवाह जनकवि शिव कुमार ‘पराग’ का जन्म साहित्य और राजनीति
में दुबली हुई, मोटी जमात की महफिलों में आह बनकर रह गई। की उर्वर भूमि जनपद बलिया के गाँव दिघार में बहुत निम्नवर्गीय
ख़ैर! मैं जिस मशहूर ग़ज़ल की बात कर रहा हूँ वह बनारस के परिवार में हुआ। अपने बचपन के संघर्षोंंं को याद करते हुए वे
जनकवि शिव कुमार ‘पराग’ द्वारा रचित सन 1978 ई. की रचना बताते हैं कि ‘सतुआ, प्याज और जनेरा (मकई) के भात, दाल,
है। एक शे’र याद दिला रहा हूँ- आलू के चोखे ने बड़ा साथ दिया। जाड़े में साग खोंट-खांट के
“गर हो सके तो अब कोई शम्मा जलाइए आ जाता। भात तो काज-परोज में ही नसीब होता था। ग़रीबी का
इस अहले सियासत का अँधेरा मिटाइए”1 आलम न पूछिए! मिट्टी का पुराना घर बरसात में कभी इधर चूता
बनारस शहर के मशहूर संस्कृतिकर्मी व कवि व्योमेश शुक्ल तो कभी उधर। जाड़े में कपड़े से ज्यादा घाम का सहारा। बड़की
इस ‘हिंदी ग़ज़ल की एक कहानी’ सुनाते हैं। यह रचना कमलेश्वर माई गांती बांन्ह-बूंन्ह कर बचाव का जतन करती रहती थीं। रात
के सम्पादन में निकलने वाली हिंदी की प्रतिष्ठित पत्रिका ‘सारिका’ में लेवा-गुदरी जिंदाबाद! बचपन से तुरतं बाद माता-पिता से दूर
में सन 1978 ई. में पहली बार छपी थी। सन 80 के दशक में रहना पड़ा, एक तरह से बनवास झेला।’ इस जीवन की सामाजिक
इस गज़ल को हीरावल समूह ने गाया। उन्हें भी इसके रचयिता का पृष्ठभूमि उनकी कविताओं का आधार है। लेकिन वे इन संघर्षों
नाम नहीं पता था। यह इस रचना की ताक़त है कि देश भर में हो के प्रति व्यैक्तिक नहीं होते। वे हिंदी के उन लेखकों में नहीं हैं जो
रहे तमाम जनांदोलनों में ख़ूब गाई गई और अत्यंत लोकप्रिय होती अपने संघर्षों को हर्र-फिटकरी लगाकर चमकाते फिरते हों। उनकी
गई। फिर आगे 2016-17 में देश के मशहूर बैंड ‘इंडियन ओशेन’ यह ग़रीबी मुक्तिबोध की शब्दावली में कहूँ तो हमारे कोटि-कोटि
के कलाकारों ने इसे बिलकुल अधुनातन संगीत के साथ प्रस्तुत जनों की गरबीली ग़रीबी है। पराग जी की प्रारंभिक शिक्षा गाँव के
किया। मजेदार यह है कि इंडियन ओशेन बैंड को भी यह पता नहीं विद्यालय से संपन्न हुई एवं आगे की पढ़ाई के लिए वे बनारस आ
था कि इस गज़ल का रचनाकार कौन है। व्योमेश फरमाते हैं कि गए जहाँ क्वींस कॉलेज में पढ़ने का उन्हें मौका मिला। उच्च शिक्षा
“यह एक ग़ज़ल है बल्कि और सही होकर कहें तो ग़ज़ल के फॉर्मेट में उन्होंने काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से हिंदी विषय से स्नातकोत्तर
में लिखी गई एक हिंदी रचना है, मानो ग़ज़ल को हिंदी भाषा में किया। साहित्य और संवेदनाओं से बेशुमार प्रेम करने वाले पराग
बचा लेने की एक रचनात्मक कोशिश लेकिन बहुत मशहूर, बहुत जी ने घर-परिवार के भरण-पोषण के निर्मित हिंदी की अकादमिक
मक़बूल, रचनाकार की गोद से उतर कर अपने पैरों पर चलने दुनिया से बहुत दूर बैंक में नौकरी की। ग्रामीण बैक की शाखाओं में
वाली एक ऐसी रचना, जैसा हो जाना हर कविता का स्वप्न होता नौकरी के दौरान उन्होंने लंबे समय तक पूर्वांचल के गांवों में बहुत
समकालीन हिंदी कविता में नासिर अहमद सिकंदर चला गया। बेशक इन्हीं मनःस्थितियों से जुड़कर कुछ
की कविताओं को लेकर पाठकों और आलोचकों की बेहद महत्वपूर्ण कविताएँ भी लिखी गई हैं। ऐसे में
राय कई बार बिलकुल विरोधी जान पड़ती है। नासिर जिद की तरह अपनी कला से जुड़े रहना नासिर को
शहर के श्रमशील जन, मध्यवर्गीय अंतर्विरोधों और संभवतः आत्मिक आनंद देता होगा। बहरहाल, नासिर
उसके प्रण को रखने के साथ-साथ राष्ट्रीय और की कविताओं की ओर लौटें कि क्या जटिल संरचना,
वैश्विक घटनाक्रमों को मार्क्सवादी विचारधारात्मक अमूर्तन और आनंदात्मक अनुभूतियों की कलात्मक
दृष्टि से देखने वाले कवि हैं। समकालीन हिंदी कविता कविता ही कविता का एकमात्र पक्ष है या इसके परे
का एक बड़ा दायरा प्रगतिशील चेतना का है। बावज़ूद इसके, ऐसी की कविता का भी महत्व है। बेशक इसे उलटकर भी पूछा जा
प्रगतिशील-प्रतिबद्ध दृष्टि रखने वाले कवि और पाठक भी उनकी सकता है।
कविताओं के बेलाग प्रशंसक नहीं हैं। कविता के पारखी तो पारखी, नासिर अहमद सिकन्दर के अब तक चार कविता संग्रह
मामूली समझ रखने वाले भी पीठ पीछे कहते हुए दिखाई पड़ते हैं प्रकाशित हैं-जो कुछ भी घट रहा है दुनिया में (1994), इस वक्त
कि नासिर अहमद की कविताएँ साधारण हैं। अपने आरंभिक लेखन मेरा कहा (2001), भूलवश और जानबूझकर (2011), अच्छा
से लेकर अब तक नासिर अहमद जिस तरह की कला के आग्रही आदमी होता है अच्छा (2015)। इसके अलावा सुधीर सक्सेना
हैं और उसी के सहारे कवि-कर्म कर रहे हैं संभवतः उसके कारण द्वारा चयनित और सम्पादित एक संकलन ‘नासिर की कविताएँ’
भी कविता-प्रेमी मानते रहे हों कि देश-दुनिया की गति के अनुरूप (2019) भी है। इसमें उक्त संकलनों से ली गई कविताओं के
उन्होंने अपना समुचित विकास नहीं किया। लेकिन कवि नासिर को अलावा चाँद शृंखला की कुछ कविताएँ भी हैं। नासिर की कविताओं
इससे बहुत फ़र्क नहीं पड़ता। परेशान और आक्रामक होते ज़रूर हैं में ख़बरों की उल्लेखनीय उपस्थिति है। ऐसी ख़बरें जो प्रिंट और
लेकिन अपनी काव्य-कला के बारे में निश्चिंत हैं, संशय-रहित हैं, इलेक्ट्रॉनिक दोनों ही तरह के माध्यमों से प्रकाशित-प्रसारित होती
दृढ़ हैं और तनिक जिद्दी भी। इस जिद के पीछे एक कारण उनके रहती हैं। ऐसी राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय महत्व की ख़बरें वैचारिक
अपने समकालीनों का बहुत कुछ पा लेने की सफलता भी है। बहुत प्रतिबद्धता के साथ उनकी कविता में आती है। नासिर कई बार उन
कुछ यानी पुरस्कार, प्रकाशन, चर्चा, आयोजन और इतर भाषाओं ख़बरों को केवल अपनी काव्य-कला में रूपांतरित कर देते हैं और
में अनुवाद। इसको लेकर वे लगातार आक्रामक भी होते गए हैं कई बार कवि-वक्तव्य देना भी ज़रूरी समझते हैं। ख़बर कविता
और अपने प्रियजनों पर हमला करने से भी परहेज नहीं करते। के लिए कितनी ज़रूरी हैं? क्या इनका संबंध केवल सूचना से है?
यद्यपि नासिर को व्यक्तिगत रूप से जानने वाले इतना तो जानते हैं और केवल सूचना तक ही सीमित है तो इसे अन्य माध्यमों द्वारा
कि ऐसे हमले व्यक्तिगत दुर्भावना से प्रेरित नहीं होते। न ही ईर्ष्या भी पढ़ या जान लिया जाता है। फिर इन्हें अलग से कविता में लाने
इसका कारण है। समाज की लगातार जटिल और दुरूह होती का क्या औचित्य है? नासिर अहमद की इन कविताओं को पढ़ते
व्यवस्था में सहमति और विरोध के अंतःसूत्रों के बीच स्याह-सफेद हुए ऐसे सवालों का उठना स्वाभाविक है। ऐसे सवालों से टकराने
वाला रिश्ता नहीं रह गया है। बल्कि यह धूसर है। यदि यह रिश्ता से पूर्व देखना होगा कि कवि किस तरह की ख़बरों को कविता में
रणनीतिक होता तो फिर भी ठीक था। लेकिन बहुधा यह निहायत ले आने को आतुर है। रियो सम्मेलन, सोवियत विघटन, लेनिनग्राद
व्यक्तिगत लोभ-लाभ, निजी संबंध और स्वार्थवश स्थापित होता का नाम पीटर्सबर्ग कर देना, इराक-अमेरिका युद्ध, परमाणु अप्रसार
देता
हिदायत सख्त
हमारे हाथ
चाबुक भी न हो।
(परमाणु अप्रसार सन्धि पर, इस वक्त मेरा कहा, पृष्ठ 60)
अपने समकालीनों में नासिर संभवतः अकेले ऐसे कवि हैं
जिन्होंने राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय घटनाक्रमों पर एक कवि और एक
सन्धि, दक्षिण अफ्रीका की आज़ादी, मन्दिर-मस्जिद विवाद, संसद नागरिक की ज़िम्मेदारी से इतनी अधिक कविताएँ लिखी हैं। नासिर
में अविश्वास प्रस्ताव पर बहस, समान सिविल कोड, सानिया की कला पर सबसे अंत में बात होगी। लेकिन यहाँ दो-एक बातें।
मिर्ज़ा, मिस युनिवर्स प्रतियोगिता, क्रिकेट, विज्ञापन, गोरक्षा घटनाक्रमों पर लिखी जाने वाली कविताओं का अपना महत्व भी
अभियान आदि-आदि। ग़ाैरतलब है कि ये कविताएँ इन ख़बरों के है लेकिन उनमें से अधिकतर कविताएँ रचनात्मक जद्दोजहद की
असर में नहीं लिखीं गई हैं बल्कि इन्हीं ख़बरों पर हैं। कवि इन किसी सृजनात्मक प्रक्रिया से गुज़रे बग़ैर भी लिखी जाती रही हैं।
ख़बरों को समूचे संसार के परिप्रेक्ष्य में देखता है। मन-मस्तिष्क पर ऐसी कविताओं पर रिपोर्टिंग की शैली हावी होती है। ऐसी कविताओं
पड़ने वाले ऐसी घटनाओं के केवल असर को पकड़ने की अपेक्षा की सबसे बड़ी दिक्कत यह होती है कि कविता में समूची प्रक्रिया
कवि सीधे घटनाओं और उसके राजनीतिक-सामाजिक-आर्थिक की बजाए घटना विशेष पर जोर ज्यादा होता है। वही कविता के
प्रभाव को कविता में रूपांतरित करता है। यदि कोई वक्तव्य देता बहाने सम्प्रेषित भी होती है। समय के लिहाज से तो इनका अपना
भी है तो वह उनके निजी व्यक्तित्व से उभरकर आया वक्तव्य महत्व है। लेकिन ऐसी कविताएँ सस्ती सृजनात्मकता में दफ्न हो
न होकर अपने समय की ओर से आया हुआ वक्तव्य होता है। जाती हैं। नासिर की कविताएँ उनसे अलग हैं। दूसरी बात, कवि
जिसमें प्रगतिवादी दौर की आस्था और पक्षधरता ध्वनित होती है। ऐसी ज़रूरी घटनाओं को रिपोर्टर की तरह नहीं बल्कि अपनी खास
काव्यशास्त्रीय बहसों में औचित्य या वक्रोक्ति के महत्व को स्वीकार तरह की अर्जित और विकसित कला के माध्यम से रखता है। वे
तो किया गया है लेकिन उसके केन्द्रीय स्थान को लेकर हमेशा एक कई बार एक घटना की समाज में उपस्थिति को कई-कई रूपकों
बहस की स्थिति रही है। नासिर अहमद की कविताओं में औचित्य द्वारा अपनी कविता में ले आते हैं। जैसे दक्षिण अफ्रीका पर कविता
और वक्रोक्ति का विशेष महत्व और स्थान है। इसका संबंध उनकी लिखते हुए एक काली लड़की को घर का काम करते और गोरी
वैचारिक पक्षधरता और कला से है। यह एक नागरिक ज़िम्मेदारी मेम को हुकुम चलाते हुए दिखाकर कहते हैं– ‘जैसे घर हो देश
भी है। अंतररष्ट्रीय घटनाक्रमों पर लिखी गई इन दो कविताओं को सरीखा जैसे दक्षिण अफ्रीका’ या दक्षिण अफ्रीका की आज़ादी पर
देखें, जो उनके दो अलग अलग संग्रहों से ली गई हैं : लिखी एक अन्य कविता ‘बरसों बाद’ में काले मेघ, काली मैना,
दक्षेस सम्मेलन जब हो काले चूजे और काले केश की मुक्ति और सुंदरता का ज़िक्र करने
कहा जाए के बाद कैनवास पर बरसों बाद छिटके काले रंग का जश्न मनाते
गुटनिरपेक्ष देशों की बैठक जब हो हैं। समूची कविता में दक्षिण अफ्रीका कहीं नहीं है। लेकिन काले
कहा जाए रंग के स्वागत और विस्तार से उसकी मुक्ति का स्वागत कर जैसे
यू। एन। ओ में कहा जाए-हर राष्ट्र का राष्ट्रीय पक्षी वे एक वैश्विक चेतना-संपन्न नागरिक होने के साथ-साथ अपनी
दुनिया की सारी शासन प्रणालियाँ मनुष्यों, प्राणियों पिता, लोग, दोस्त और अपनेपन की आँच गूँजती है।
और आत्मीयता की रक्षा के लिए गढ़ी और रची गई ‘माँ का स्नान’ नामक कविता में वे अकारण नहीं
हैं, ऐसा ही हम सभी सुनते-समझते आए हैं। अभाव, लिखते हैं कि, “माँ की गहरी साध थी उस नदी में
प्रभाव और दबाव के बीच और बरअक्स जो स्वभाव नहाने की/ वहाँ से जल भर कर लाने की/ वह नदी
है वह कविता में ऐसे तत्त्व हासिल कर ही लेता है जो अब एक रुका हुआ नाला थी।” मरी हुई मछलियों
अलभ्य है, महज़ दुर्लभ भर नहीं। सहित का जो भाव और सड़ते हुए जलपाँखी को देख लेने की कला
है, जिससे साहित्य की रचना होती है वह परिवार, किसी कविहृदय में ही मौज़ूद हो सकती है। जिसे
समाज, गाँव-देहात और देश को सुन्दर ही बनाता है, सहजीवन हम निर्देशित या प्रबन्धित लोकतन्त्र कहते हैं, उसका नज़ारा तो
सिखाता है। ओशो ने सही ही कहा है कि कुछ सत्य ऐसे होते हैं ख़बरिया चैनल दिखाते ही रहते हैं। पर यहाँ मसला कविता का
जो अपनी उम्र से ज्यादा जी चुके होते हैं, इसलिए उनको बदल है और अलहदा है और दुनियावी अज़ाब से जुड़ा हुआ है। बड़े
देना चाहिए। यह बदलाव, यह परिवर्तन हमें निश्चय ही उस दिशा अफ़सुर्दा दिल के साथ यह कहना पड़ता है कि विनोद पदरज
में ले जाता है जहाँ हम एकाकीपन का अहसास नहीं करते, हम की कविता “मैं एक आदमी को याद करता हूँ” की ये पंक्तियाँ
तो पत्थरों और प्राणिमात्र का आदर करने की, उनकी देखभाल सर्वथा स्मरणीय हैं, “मैं एक आदमी को याद करता हूँ/ वह कुएँ
करने की भावना से ही प्रेरित रहे हैं। विनोद पदरज एक ऐसे कवि पर मड़ैया में रहता/ वहीं नहाता धोता खाना कलेवा करता/ वहीं
हैं जिन पर कम चर्चाएँ की गई हैं क्योंकि कभी छायावाद था, कभी सोता चालीस साल से.../बहुत कम बोलता था वह/ केवल काम
प्रयोगवाद था, कभी प्रगतिवाद था, आज फ़ोटोवाद और सेल्फ़ी की बातें क्रिया पदों से भरी/ एक जोड़ा धोती दो कमीज़ें।”इस
लेने का वाद है जिससे पदरज जी बहुत दूर ही रहते हैं। रघुवीर तर्कसंगत चयन ढाँचे में व्यापकता का अकाल आख़िर दिखता क्यों
सहाय जैसे महान लेखक ने ऐसे ही नहीं कहा था कि, “लोकतन्त्र है? दर्शनशास्त्र में पढ़ाया जाता है कि जहाँ-जहाँ आग है, वहाँ-वहाँ
का अन्तिम क्षण है, कहक़र आप हँसे, निर्धन जनता का शोषण धुआँ है। यह धुआँ ‘जगह’ उनवान वाली कविता में दिखता है,
है, कहक़र आप हँसे।” आज जब प्रतिनिधित्व की जगह परामर्श जहाँ विनोद पदरज लिखते हैं कि “बहुत-सी जगहें हैं जहाँ मैं नहीं
को ज़रूरत से ज्यादा महत्त्व दिया जाता है तो विनोद पदरज की रहा/ जिन्हें मैं याद करता हूँ/ जैसे एक छोटा शहर है गंगापुर/ जहाँ
कविताएँ व्यष्टि से समष्टि तक आशा बँधाती हैं। ‘पिता’ नामक मैं कभी नहीं रहा/ माँ से बात करते वक्त नानी/ कई बार कहती
अपनी व्यष्टिमूलक कविता में वे लिखते हैं कि, “बुढ़ापा अपने आप थीं/ तेरे पापा जब गंगापुर थे तब तू पैदा हुई थी।” यह सृष्टि की
में एक बीमारी होता है/ फिर पिता तो बीमार रहने भी लगे थे/ और उपस्थिति का एक व्याकरण है और किसी की अनुपस्थिति की एक
एक बात जाने कैसे बैठ गई थी उनके दिमाग़ में/ कि घर में कोई भी व्याकुलता। लेकी और हेनरी मेन दोनों यह मानते हैं कि प्रजातन्त्र
चीज़ बन्द हो जाएगी तो उनकी मृत्यु हो जाएगी/ विशेषकर घड़ी/ और स्वतन्त्रता एक-दूसरे के विरोधी हैं। निवास करने और निवास
जो उनके बिस्तर के ठीक सामने दीवार पर टँगी थी।” न करने का यह विरोध विनोद पदरज की कविताओं में दिखता है
आज जब चुप रहने को सुरक्षित होना और कलाकार होने का साफ़-साफ़, “मैं तो कभी नहीं रहा गंगापुर या रतलाम/ मेरी तो कोई
एक प्रमाण माना जाता है तो विनोद पदरज का चौथा कविता संग्रह स्मृति नहीं वहाँ की।”
‘आवाज़ अलग-अलग है’ विचारणीय है। यहाँ भाई-बहन, माता- विनोद पदरज समझते हैं कि अबस होने का मतलब क्या होता
कविता हर किसी प्राणी के हृदय में उसी तरह ख़ुदी यहाँ एक सानिहा-ए-ज़ख्म की तरह उदित होती है।
हुई होती है जैसे हड़प्पा, मोहनजोदड़ो या गीज़ा के बाड़ लगाने से बचने वाले कवि वसंत सकरगाए जब
पिरामिड। मरणशीलता और विलोपन का पल्लवन यह लिखते हैं कि “पेड़ का बच्चा पेड़ से सीखता है
और पाठबोधन करते हुए कविता जिस शख्स के (क्रोमोसोम की तरह)” तो वह अदृश्य को देखने की
यहाँ क़लम और स्याही के साथ, न कि की-बोर्ड एक ऐसी कोशिश करते हैं, जहाँ यह कहा जाता हो
और कम्प्यूटर के साथ, उतरती है, उस शख्स का कि वचन नष्ट हो जाते हैं, कोशिशें कामयाब।
नाम है वसंत सकरगाए। नहीं, कविता यहाँ उतरती समय के क्रूर यथार्थ और व्यतिक्रमों को कविता
नहीं है, चढ़ती है। पहाड़ियों की एक चढ़ाई। नहीं, पहाड़ियों की में उतारना एक कला है। नृत्य, संगीत, चित्रकारी, पत्रकारिता और
नहीं, पर्वतों की एक कठिन चढ़ाई। अगर किसी का गाँव-घर ही मूर्तियों की एक कला। मुझे सुभाष राय का नवीनतम कविता संग्रह
डूब गया हो और वह उसका साक्षी नहीं, भोक्ता हो तो उसके भीतर 'मूर्तियों के जंगल में' याद आता है। यह कला वसंत सकरगाए के
की कविता सहजतः एक उच्छलन होगी। कम से कम, वमन तो यहाँ यह एक ऐसी कला है जिसके बारे में यह कहा जा सकता है
नहीं ही होगी। शान्ति के घनघोर क्षणों में एकत्रीभतू होगी। जिस्म कि कलाकार ज्यों-ज्यों बूढ़ा होता है, कला त्यों-त्यों जवान होती है।
से जान जुदा होते समय जो वेदना, सन्त्रास और यन्त्रणा भोगने जब हम पानीदार होने की बात करते हैं तो सवाल विनम्रता, गरिमा,
के लिए प्राणी अभिशप्त है, ये उसी संक्रमणकाल की कविताएँ हैं। शिष्टता, सौम्यता और स्मिति का आता है। वसंत सकरगाए के यहाँ
वसंत सकरगाए की कविताओं पर बात करते हुए ईशमधु तलवार प्रार्थना की एक स्मिति है, अट्टहास नहीं। नकार का एक शीतल
ने मुझसे सटीक बात कही थी कि कविता वही और वहीं है जहाँ आक्रोश है, मर्यादाओं की रक्षा करते हुए। ‘पानी के मुँह पर पानी
कविता डूबकर लिखी गई हो। डूबने के कारण वसंत सकरगाए के नहीं’ नामक कविता में वे लिखते हैं कि, “बहुत दूर से आता है पानी/
यहाँ एक अलभ्य पीड़ा का अव्याख्येय व्याकरण होगा ही। एक आकाश से आता है पानी/ आर्द्रा पुनर्वसु पुष्य अश्लेषा मघा/ पूर्वा
स्मृति होगी ही। प्रार्थना की एक चीख होगी। इस चीख को बेहतर फाल्गुनी उत्तरा फाल्गुनी या हस्त/जिन्हें देखा नहीं कभी उन नक्षत्रों से
ढंग से समझना हो तो रबीन्द्रनाथ टैगोर या जयन्त परमार के लेखन आता है पानी।” सरोकारमूलकता यह है कि यह पानी करता क्या है?
का संदर्भ लिया जा सकता है। क्या करना एक सकर्मक क्रिया है। व्यास सम्मान के लिए चयनित
वसंत सकरगाए बहुत संकोची कवि हैं। संकोची हैं, संकुचित गद्य की एक पुस्तक में ठीक ही लिखा गया था कि ईश्वर ने सृष्टि की
नहीं। यहाँ कवि की आत्मा का क्षेत्रफल नहीं, आयतन बहुत बड़ा रचना की और आख़ीर में यह कहा कि मुझसे जो ग़लतियाँ हो गई हैं,
है और जो कुछ छूट गया है उसे कवि की ही भाषा में कहना उचित उन्हें सुधारने के लिए सृष्टि में कवियों की रचना करूँगा और ये कवि
होगा, “मेरी उँगलियों पर एक तीली तैनात है/ माचिस के रोगन पर/ मेरी त्रुटियों को सुधारेंगे। वसंत सकरगाए के यहाँ न सिर्फ़ ग़लतियों
सिर्फ़ एक रगड़ बाकी है।” सँजोने की प्रार्थनाएँ कवि का मूलभाव की सुधारने की विनम्र कोशिश है बल्कि एक प्रार्थना है कि ‘हमें भी
रहा है और संक्षेपण के साथ यह पाठकों के सामने विपर्ययों के बचा लो’। इस कविता में नैतिक दुविधा, सुविधा और घोर असुविधा
बीच और बरअक्स आता है, “मेरे घर की नींव में यह जो झर-झर को पहचान लिया गया है। कुछ पंक्तियाँ देखिए, “हमारी पहचान का
झर रही है रेत/ ये नदी के अस्थि-कण हैं/ साक्ष्य है नदी की हत्या आवरण धीरे-धीरे खिरज रहा है/ कुछ कहने की ताक़त होती शेष
का/ अब तो तय है नदी का गाद-गाद मरना।” नर्मदे हर! कविता तो वे ज़रूर कहते/ हो सके तो हमें भी बचा लो ज़रूरी क़िताबों की
यश मालवीय के रचना संसार से गुज़रते हुए हम ऐसे उल्लेखनीय अवदान दर्ज़ करा रहा है। उनके अब
कालखण्ड से गुज़रते हैं, जिनमें विगत की स्मृतियाँ तक दो दर्ज़न से अधिक संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं,
और भविष्य की कल्पनाओं का अनूठा संयोजन है। उन्होंने गद्य एवं पद्य की प्रायः सभी विधाओं में लेखन
यश के लिये गीत रचना शांत-एकांत में बैठकर किया है। जिसमें– ‘कहो सदाशिव, उड़ान से पहले,
अनुभूति के विशेष क्षणों में सम्पन्न की जाने वाली एक चिड़िया अलगनी पर एक मन में, बुद्ध मुस्काये,
यौगिक क्रिया नहीं है, वरन उनकी दिनचर्या में नींद कागज की तरह, रोशनी देती बीड़ियाँ, कुछ तो
शामिल सामान्य प्रक्रिया है, जो निरंतर उनके साथ बोलो चिड़िया, एक आदिम आग, समय लकड़हारा,
चलती रहती है। उनके गीतों में विषय विविधता एवं आत्मानुभूति काशी नहीं जुलाहे की, वक्त का मैं लिपिक, हरे पत्तों की गवाही
का व्यापक विस्तार है। अपनी अप्रतिम काव्य प्रतिभा और सतत से’ सभी नवगीत संग्रह। चिंगारी के बीज़-दोहा संग्रह। इंटरनेट पर
साधना से उन्होंने हिंदी गीत में जो मुकाम हसिल किया है, वह लड्डू, कृपया लाइन में आये-व्यंग्य संग्रह रेनी डे, ताक धिनाधिन-
उनके नाम को पूर्णतः सार्थक करता है। कथ्य की नई धार और बालगीत संग्रह। मैं कठपुतली अलबेली-नाटक संग्रह, इसके
तेवर की ताज़गी से उन्होंने गीत में नया प्रतिमान स्थापित किया अतिरिक्त स्तम्भ लेखन एवं दूरदर्शन व आकाशवाणी के विभिन्न
है, जो छायावादी गीत और नवगीत के साँचों और खाँचों से अलग केन्द्रों से रचना का प्रसारण भी वे निरंतर करते रहे।
आज के समय के गीत का मानक है। इनमें जीवन की धड़कने हैं, गीत उनकी साँसों में धड़कनों की तरह घुले-मिले हैं, वे उनके
वक्त का मिज़ाज है और कहने का एक अनूठा अंदाज है। साथ सोते हैं, जगते हैं, हँसते, मुस्कराते हैं, पत्नी की चाय में
यश मालवीय नवगीत की विगत और वर्तमान पीढ़ी के उस मिठास की तरह घुलते हैं, टिफिन में चटनी-अचार के साथ सजते
संक्रान्ति बिन्दु पर स्थित हैं, जहाँ से गीत आधुनिक भावबोध के हैं, बस और ट्रेन में यात्रा करते हैं, फ़ोन में बतियाते हैं, डायरी में
साथ एक नयी करवट लेता है, उनमें परंपरा और आधुनिकता शब्द बनकर उतरते हैं, इनमे थकान है, बुखार है, कच्ची नींद का
का सुंदर समन्वय है। गंगा, यमुना और सरस्वती के पवित्र संगम खुमार है, छुट्टियों की जद्दोजहद है, फुरसत का इतवार है, धर्म के
तट पर बसे उत्तरप्रदेश के प्रसिद्ध शहर प्रयागराज (इलाहाबाद) नाम पर सियासी जंग है, सत्ता का असली रंग है, जटिल ज़िदगी के
की ख्याति जहाँ सदियों से उसकी धार्मिक और सांस्कृतिक छवि दंश हैं, इनमें प्रकृति के रंग और मौसम की उमंग है, गुलमोहर और
के कारण रही, वहीं यह शहर अपनी साहित्यिक पृष्ठभूमि एवं अमलतास हैं, प्रेम और उल्लास है। उनका गीत कभी अलगनी में
राजनीतिक गतिविधियों के कारण भी चर्चा के केन्द्र में रहा। साहित्य बैठी चिड़िया के साथ गाता है कभी आदिम राग बनकर गुफाओं से
की प्रायः सभी धाराओं का सूत्रपात इसी भूमि से हुआ। महादेवी, गूँजता है और कभी वक्त का लिपिक बनकर दफ़्तर की सीढ़ियाँ
पंत, निराला, फ़िराक और बच्चन की इसी नगरी में कैलाश गौतम चढ़ता-उतरता है।
और उमाकांत मालवीय जैसी प्रतिभाएँ भी परवान चढीं। इनमें सूर-तुलसी, कबीर हैं, निराला और नईम हैं, परिवार है,
चार दशकों की सतत सृजन यात्रा में उन्होंने सफ़लता के कई संस्कार हैं, विरासत की थाती है और इलाहाबाद की वो माटी है,
सोपान तय किये हैं, जो कृतियों के रूप में दर्ज़ हैं। उनका समृद्ध जिसकी समृद्ध गीत की परंपरा के साथ वे खड़े दिखाई देते हैं। गीत
सृजन संसार उनकी लेखनी की निर्बाध गति और अक्षुण्ण ऊर्जा उनके जीवन में इस तरह रचा बसा है कि वे उसे स्वयं से अलग
का प्रत्यक्ष प्रमाण है, जो उत्तरोत्तर, वृद्धि के साथ साहित्य में अपना करके नहीं देख पाते हैं, इसलिये वे ज़िंदगी और गीत को एक साथ
असंगघोष कैसे कवि हैं, इससे पहले कइयों के मन यह पद अपने लिए इस्तेमाल नहीं करते। न कोई
में शायद यह सवाल होगा, असंगघोष कौन हैं? यह आलोचना कर्म, उन्हें इस तरह चिह्नित करता है।
किसी बौद्ध भिक्षुक का नाम तो नहीं है, जो कविताएँ बहरहाल,असंगघोष का जन्म 29 अक्तूबर 1962
लिख रहा हो? इस प्रश्न का सबसे सरल सा उत्तर है, को मध्य प्रदेश के एक छोटे क़स्बे जावद में हुआ।
जो खोजने पर मिल जाएगा। आप खोजेंगे तो पाएँगे– उनकी आरंभिक शिक्षा क़स्बे में ही हुई। शिक्षा पूरी
उन्हें हिंदी दलित कविता का एक प्रमुख कवि माना कर आरंभ में बैंक की नौकरी की, फिर प्रशासनिक
जाता है। एक कवि जो कविता करता है, उसकी सेवा से संबद्ध हुए। एक लंबे अंतराल के बाद पीएचडी
कविता को पढ़ने से पहले परिचय में लिखी गयी यह पंक्ति किसी की डिग्री प्राप्त की। अब तक इनके 11 कविता-संग्रह आ चुके हैं।
पाठक की क्या मदद कर सकती है? यह एक पंक्ति क्या किसी जिनमें ‘खामोश नहीं हूँ मैं’ (2001), ‘हम गवाही देंगे’(2007),
कवि के समूचे कृतित्व पर अपनी उपस्थिति दर्ज़ करवा रही है। यह ‘मैं दूँगा माक़ूल जवाब’(2012), ‘समय को इतिहास लिखने
पंक्ति हिंदी आलोचना की उस परंपरा के काम तो आ सकती है, दो’(2015), ‘हम ही हटाएँगे कोहरा’(2016), ‘ईश्वर की मौत’
जो सभी रचनाकारों को अलग-अलग साँचों में रखने की अभ्यस्त (2018), ‘अब मैं साँस ले रहा हूँ’(2018), ‘बंजर धरती के
है। यह अनुशीलन की ऐसी सुविधाजनक धारा है, जो पहचाने जाने बीज’ (2019),‘हत्यारे फिर आएँगे’ (2021) शामिल हैं। इसके
लायक चिह्नों, रूपों, प्रवृत्तियों, विशेषणों, कथ्य, भाषा आदि को अतिरिक्त उनके दो कविता-संचयन भी ‘तुम देखना काल’ (साल)
किसी रचनाकार पर लादती है। और ‘चयनित कविताएँ’ (2022) शीर्षक से प्रकाशित हैं। उन्हें
किसी ऐसे पाठक के लिए जो पहली बार इस या किसी भी कई पुरस्कारों से सम्मानित किया गया है, जिनमें मध्य प्रदेश
कवि की कविता को पढ़ना चाहता है,कोई परिचय किस तरह कोई दलित साहित्य अकादमी पुरस्कार (2002), सृजन गाथा सम्मान
मदद कर सकता है, यह देखा और समझा जाना चाहिए। ऐसी (2013), मंतव्य सम्मान (2019) आदि प्रमुख हैं। वह जबलपुर
आलोचना से यह प्रश्न भी पूछा जाना चाहिए कि जो साहित्यकार से प्रकाशित त्रैमासिक पत्रिका ‘तीसरा पक्ष’ का संपादन कर रहे
‘दलित’ हैं, वे तो ‘दलित साहित्यकार’ कहलाए, उनका साहित्य हैं। उनकी कविताओं का अनुवाद नेपाली, अंग्रेज़ी, मलयालम,
भी ‘दलित साहित्य’ कहलाया। जो साहित्यकार‘ ग़ैर-दलित गुज़राती, मराठी, पंजाबी आदि भाषाओं में हुआ है।
जातियों/समुदायों’से आए वह ‘ग़ैर-दलित साहित्यकार’ या
‘सवर्ण साहित्यकार’ नहीं कहलाए। यहाँ तक कि उनका लिखा (2)
हुआ कुछ भी कभी ‘ग़ैर-दलित साहित्य’ या ‘सवर्ण साहित्य’ नहीं कोई भी कवि संवेदनशील हुए बिना कविता नहीं कह सकता। कोई
कहलाया। यह भी रेखांकित करने योग्य है कि किसी ‘सवर्ण’या ऐसी बात जो सीधे पढ़ने वाले के मर्म स्थल को छू जाये, वह कविता
‘ग़ैर-दलित’साहित्यकार को इन श्रेणियों में देखने की कोशिश कभी होगी। कविता का मूल कथ्य यह जीवन है। जीवन जो उसने जिया
कोई आलोचक या पाठक करता ही नहीं है। क्या इसे इस स्थापना और जिसमें उसका सबकुछ आकार लेता है। यह आदतों से लेकर
से समझा जा सकता है कि दलित साहित्यकार का विशेषण इच्छाएँ, पसंद-नापसंद, स्वाद, दैनिक जीवन की वह बारीकी जो
दलित साहित्यकारों ने स्वयं ‘अर्जित’ किया है और जो ग़ैर-दलित कभी हम नहीं देख पाते हैं, उसे हमारे सामने उद्घाटित करता है।
साहित्यकार हैं, वह ग़ैर-दलित (सवर्ण) साहित्य लिखते हुए भी बचपन की स्मृतियाँ कौन भुला पाता है। असंगघोष की कविताओं
वशिष्ठ अनूप हिंदी के एक सतत सक्रिय गीत- जो कहा है उसका ज़िक्र ऊपर हो चुका है। सचमुच
ग़ज़लकार हैं। वे एक ऐसे रचनाकार हैं जो गीत- ये दोनों हमारे समय के महत्वपूर्ण ग़ज़लकार हैं। दोनों
ग़ज़ल की रवायत से अच्छी तरह वाकिफ हैं। उर्दू- ग़ज़लकार के साथ-साथ गीतकार भी हैं और यह भी
हिंदी ग़ज़ल की आपसदारी और उनके तकनीकी उल्लेखनीय है कि हिंदी के साथ-साथ भोजपुरी में
मामलों के भी जानकार हैं। कहने का तात्पर्य यह दोनों ने गीत भी लिखे हैं। ऐसा महसूस हो रहा है कि
कि उनके गीतों और ग़ज़लों में उनका यह ज्ञान बहुत इन दोनों की हिंदी ग़ज़लें भाषा के स्तर पर भोजपुरी
काम आया है। गीत और ग़ज़ल को लेकर आजकल से बहुत लेन-देन रखती हैं और केवल भाषा के स्तर
यह सवाल प्रमुखता से उठने लगा है कि हिंदी गीत-ग़ज़ल को पर ही नहीं,लोकजीवन और लोकसंस्कृति से सघन-सजीव संवाद
क्यों सम्पूर्ण हिंदी-काव्य परिदृश्य से अलग-थलग समझा जाए। कायम करते हुए संभव होती हैं। हिंदी-ग़ज़ल के पाठ और समझ
क्यों न इनको हिंदी के काव्य-रूप के रूप में लिया जाए? इसको का जो एक अब तक का मिज़ाज है, वो इस 'देसीपन' को ढंग से
लेकर ख़ुद गीत-ग़ज़लकारों के साथ-साथ इन विधाओं पर सोचने- स्वीकार नहीं कर पा रहा है। वशिष्ठ अनूप हिंदी ग़ज़ल के बारे
विचारने और बतौर आलोचक काम करने वाले रचनाकारों का में कहते भी हैं– “निष्कलुष प्यार की भीनी-भीनी महक़,ताजगी
गंभीर रचनात्मक हस्तक्षेप देखने को मिल रहा है। रामकुमार जैसे बच्चों की निश्छल हँसी/ इसमें शामिल है माटी का कुछ
कृषक की पत्रिका 'अलाव' का हाल-फिलहाल प्रकाशित ग़ज़ल सोंधापन, खूँ-पसीने से हमने सँवारी ग़ज़ल।” वे हिंदी ग़ज़ल की
की आलोचना पर केंद्रित अंक इस लिहाज से काफ़ी महत्व का वैचारिकी और संवेदना को हिंदी कविता की वैचारिकी और संवेदना
है। इस अंक में पंकज गौतम का एक बढ़िया आलेख है जिसका से जोड़कर देखते हैं– “प्यार मीरा घनानंद रसखान का,पीर इसमें
शीर्षक है 'आलोचना की समस्याएँ और कुछ ग़ज़लकार'। इस कबीरा निराला की है।” साथ ही, हिंदी-ग़ज़ल की उत्तरोतर समृद्ध
आलेख में कुछ प्रमुख ग़ज़लकारों की ग़ज़लों की विषय-वस्तुओं होती स्थिति की ओर भी संकेत करते हैं– “आज है अपनी कुटिया
के साथ-साथ अन्य कई महत्वपूर्ण पहलुओं पर बातें हुई हैं। इसमें की रानी बनी..।” ध्यान देने की बात है कि यहाँ 'कुटिया की रानी'
शिवकुमार पराग और वशिष्ठ अनूप की ग़ज़लों पर भी बातें हुई हैं। कहा गया है। यहाँ हिंदी-ग़ज़ल की विषयवस्तु के साथ ही उसकी
शिवकुमार पराग के बारे में लिखते हैं– “शिवकुमार पराग संभवतः वर्तमान स्थिति की ओर संकते है। उपर्युक्त पंक्ति के आधे के बाद
अकेले ग़ज़लकार हैं,जो हिंदी-उर्दू की भाषिक संरचना और रवायत है– “कल भिखारिन-सी थी दसदुआरी ग़ज़ल।” यहाँ मेरा ध्यान
के झंझट में नहीं पड़ते। अपने कथ्य के अनुरूप शिल्प-निर्माण की 'दसदुआरी' पर गए बिना नहीं रहा। रेणु की एक प्रसिद्ध कहानी है
उनमें आत्मविश्वास भरी सलाहियत है।” पराग के बाद वे वशिष्ठ 'रसप्रिया'। उसमें इस 'दसदुआरी' का प्रयोग हुआ है 'मिरदंगिया'
अनूप के बारे में लिखते हैं– “परंपरा की गहरी समझ और उसे जैसे एक लोक कलाकार के लिए जिसकी हालत भिखारी जैसी हो
आत्मसात कर ग़ज़ल के रचना-संसार में प्रवेश करने वालों में गई है। एक लोक कलाकार की हालत कई वज़हों से दसदुआरी
वशिष्ठ अनूप का नाम महत्वपूर्ण है,पर पराग जैसी विडंबना के वे जैसी हो जाती है। विषयवस्तु और भाषा-शिल्प के मामले में जो
भी प्रायः शिकार हैं।” पंकज गौतम ने शिवकुमार पराग के संबंध में वैविध्य दिख रहा है, वो ग़ज़ल की उत्तरोत्तर समृद्धि का सूचक है।
लिखा है कि उनको जिस तरह पढ़ा-समझा जाना चाहिए, वह नहीं साहित्य की एक विधा लोकजीवन और लोकसंवेदना से जुड़कर
हो रहा है और वशिष्ठ अनूप के संबंध में पराग का ज़िक्र करते हुए कई चुनौतियों के बावज़ूद सम्पन्नता की ओर अग्रसर है। वशिष्ठ
लोक का द्वंद्व
अविनाश मिश्र
केशव तिवारी के कविता-लोक पर आलोचनात्मक कभी मुसव्विर, कभी मुजाहिद, कभी शहीद होने की
होने की प्रक्रिया में यह सत्य सहज ही प्रकट होता है सदिच्छा और तड़प नज़र आती है। इस भूमिका में वह
कि वह लोक-द्वंद्वात्मकता के कवि हैं। हिंदी साहित्य उन आधुनिक मोड़ों पर मुड़े नहीं हैं जो उन्हें उनके
संसार में लोक का स्थापत्य1 और उसकी उपस्थिति2 पर्यावरण, इतिहास, राग, उजाड़ और वैफल्य से दूर
आधुनिकता के प्रवेश के बाद से ही विमर्श का अंग ले जा सकते थे। कवि ने इस सब कुछ की स्मृतियों
रही है। केशव तिवारी की कविताओं को इस लोक- के साथ नहीं, इस सब कुछ के साथ रहना चुना है—
विमर्श के साथ ही पढ़ा गया है; जबकि वह अपने कविता और जीवन दोनों में ही। कविता यहाँ जीवन
कविता-लोक में जिस लोक को अभिव्यक्त करते हैं, वह बहुधा से पहले इसलिए है, क्योंकि उसे जीवन में सब कुछ से पहले रखा
लोक के उन स्थापित आशयों के पार चला जाता है जिनकी तरफ़ गया है। इस प्रकार कवि-व्यक्तित्व निर्मित होता है और जीवन में
पाद टिप्पणियों में नंदकिशोर आचार्य और जीवन सिंह के कथ्य आता हुआ सब कुछ, कविता के लिए ही आता हुआ नज़र आता है :
संकेत करते हैं। ख़ाली जेब उससे मिलते और
केशव तिवारी के लोक-नागरिक में कभी सहाफ़ी, कभी तबीब, भरे मन वापस लौट आते।
[बेरोज़गारी में इश्क़]
1 लोक-संस्कृति का अर्थ है मानवीय सर्जनात्मकता की स्थानीय परिवेश
से प्रतिविशिष्ट अभिव्यक्ति। इसलिए लोक को कभी-कभी शास्त्र से फ़र्क़
केशव तिवारी हिंदी के उन चंद कवियों में से एक हैं जो अपने
बात समझ लिया जाता है—जबकि शास्त्र लोक के रचनात्मक अनुभवों काव्य-विषयों के सर्वाधिक निकट हैं। उनके यहाँ पास को दूर
का तत्त्वान्वेषण और सहिंताकरण ही तो है। — नंदकिशोर आचार्य, लोक से देखकर निकल जाने की ‘विशेषता’ का अभाव है। यहाँ कवि
(प्रथम संस्करण : 2002) संपादक : पीयूष दईया अपनी कविता से बाहर अपनी कविता के साक्ष्य की तरह उपस्थित
2 स्वाधीनता-प्राप्ति के बाद हिंदी में एक ऐसा कवि-समूह ‘प्रसिद्धि’ पा गया
था, जो अपनी दृष्टि और संवेदना में आकाशविहारी था। इस समूह ने
है और कविता के भीतर के काव्य-नायक से बहुत मिलता-जुलता
कविता से धरती का संबंध-विच्छेद किया। कविता में आकाश और धरती है। यह साम्य जीवन में लोक की केंचुल उतारकर, कविता में लोक
का यह संघर्ष सतत चलता रहा है। मुक्तिबोध, नागार्जुन, केदारनाथ की खाल ओढ़कर घुसने वाले कवियों की कविताओं में नज़र नहीं
अग्रवाल, त्रिलोचन ने इस संघर्ष में आगे आकर तथा अंतर्वस्तु के साथ आएगा। इस वज़ह से ही ‘तो काहे का मैं’3 कहने वाले कवि को
कविता के रूप-पक्ष को तरजीह देकर हिंदी में धरती की लोक-कविता
लिखने में सफलता अर्जित की है तथा कविता को आकाशविहारी होने 3. किसी बेईमान की आँखों में
से बचाया है। कविता की अगली पीढ़ियों में भी यह संघर्ष साफ़ तौर पर न खटकूँ तो काहे का मैं
दिखाई दे रहा है। इस संघर्ष का एक निष्कर्ष बहुत स्पष्ट है कि केवल
मध्यवर्गीय अनुभव, ज्ञान, संवदेना, बोध और दृष्टि के आधार पर आज मित्रों को गाढ़े में याद न आऊँ
की वह कविता नहीं लिखी जा सकती; जिसमें प्रत्येक मानव-स्थिति को तो काहे का मैं
सृजित किया जा सके। यह संभव है कि मनुष्य की कुरूपता के अनेक कोई मोहब्बत से देखे और मैं उसके
प्रसंग उसे इन अनुभवों में मिलें, कुछ सुंदर प्रसंग भी मिल सकते हैं; सीने में सीधे न उतर जाऊँ
लेकिन श्रम की नींव पर टिके सहज सौदंर्य की तलाश के लिए आज के तो काहे का मैं
कवि को उन खेतों-खलिहानों, मैदानों-पटपरों, गाँवों-ढ़ाणियों, नगरों- अगर यह सब कविता में तुम्हें
महानगरों में बसी मज़दूर-बस्तियों, जंगल में रहने वाले आदिवासियों, सिर्फ़ सुनाने के लिए सुनाऊँ
छोटे-छोटे शिल्पियों, कारीगरों की ऊबड़खाबड़ और असुविधाजनक तो फिर काहे का मैं।
दुनिया में जाना ही पड़ेगा; जिसे किसी अन्य सटीक शब्द के अभाव — केशव तिवारी, तो काहे का मैं (पृष्ठ : 48), साहित्य भंडार, प्रथम
में हम आज भी ‘लोक’ का नाम देते हैं। — जीवन सिंह, कविता और संस्करण : 2014
कवि-कर्म (पृष्ठ : 20), बोधि प्रकाशन, प्रथम संस्करण : 1999
1990 के आसपास का दौर भारतीय राजनैतिक, चरम तनाव से गुज़रना है। बड़ा कवि उसी चरम
सांस्कृतिक, धार्मिक और सामाजिक परिवर्तन का तनाव से गुज़रकर अपनी रचना-प्रक्रिया को साधता
दौर था। उस दौर में हो रहे बदलाओं की झलक उस है। रोजनामचा संग्रह की भूमिका में कवि ने कविता
समय के साहित्य में देखी जा सकती है। उस समय की स्वतंत्र चेतना को रेखांकित किया है– “कविता
का साहित्य इन परिवर्तनों के बीच नयी साहित्यिक की अपनी एक नैतिक चेतना होती है जो उसकी
चेतनाओं और चेष्टाओं का विकास करता दिखता है। रचना प्रक्रिया से उपजती है और इसलिए वह कोई
यह दौर प्रतिरोध की नई ज़मीन तैयार करने का दौर साहित्येतर या आरोपित नैतिकता नहीं होती है। इस
है। इस प्रतिरोध की ज़मीन को कविता से अच्छा कौन तैयार कर तरह कविता एक गहरे और बुनियादी अर्थ में अपनी प्रक्रिया में ही
सकता है। क्योंकि सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनैतिक, धार्मिक एक नैतिक कर्म हो जाती है। इस नैतिकता की नींव कविता की
और साहित्यिक परिवर्तनों को एक सच्चा कवि मन बहुत सूक्ष्मता बुनियादी प्रतिज्ञा है और वह है एक सृजनात्मक स्वतंत्र चेतना द्वारा
से परखता है। आज समकालीन हिंदी कविता समाज के हर संप्रेषण की उत्कट इच्छा। अपने घोषित उद्देश्यों और लक्ष्यों में
नकारात्मक मोर्चे पर प्रतिपक्ष के रूप में खड़ी है। आज बाज़ारवाद अलगाव के बावज़ूद सभी कवियों और साहित्यकारों बल्कि संपूर्ण
ने हमारे सामाजिक और आर्थिक परिदृश्य को बदल दिया है। इस कलाकर्म में यह प्रतिज्ञा एक समान होती है।”
परिदृश्य ने हमारे आपसी संबंधों की मिठास को लगभग सोख रोजनामचा संग्रह की कविताएँ स्याह होते सामाजिक अँधेरे में
लिया है। सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनैतिक बदलावों को उस लालटेन की तरह हैं, जो अन्याय और अत्याचार के ख़िलाफ़
समकालीन हिंदी कविता ने महसूस ही नहीं किया, बल्कि उसे दीप दीप जल रही है। आज के इस दौर में जिस तरह राजनीति ने
अपनी ऐतिहासिक ज़िम्मेदारी के साथ रेखांकित भी किया है। अपने चरित्र को बदला है, उससे बहुत सी बातें सपनों में ही साकार
राकेश रेणु के अब तक तीन कविता संग्रह- “रोजनामचा” होती दिखती हैं। इस बात को यह कवि अच्छे से जानता है, तभी
(1994), “इसी से बचा जीवन” (2019) और “मगध” वह सपने कविता के माध्यम से सपने में ही सामाजिक समानता
(2022) प्रकाशित हो चुके हैं। इस लेख में इन तीनों संग्रहों में और समरसता को स्थापित देखना चाहता है– “प्यार करने के
संकलित कविताओं के आधार पर इनकी कविताओं की विकास लिए/ ख़त्म हो गई योग्यता अब जाति की/ गले मिलने के लिए/
यात्रा में आई काव्यगतनुभूति को समझने की यह कोशिश की ज़रूरी नहीं रहा धर्म। उच्च और नीच/ अमीर ग़रीब जिंदा हैं नानी
गई है। राकेश रेणु की कविताएँ उसी समष्टि की अभिव्यक्ति से दादी की कहानियों में/ आदमी से आदमी/ मिलकर गा रहा है/
जुड़ती हैं। इस कवि ने सभी क्षेत्रों में होने वाले परिवर्तनों को बहुत पैसा, मुँह छुपा रहा है।”
शिद्दत से महसूस करके, उसे समष्टिगत अभिव्यक्ति में ढालकर कवि अपने हृदय पर नित्य प्रभाव डालने वाले रूप-व्यापारों
कविता की ऐसी ज़मीन तैयार की है, जिससे उसका संबंध समाज को भावना की भावभूमि में लाकर वाह्य प्रकृति के साथ मनुष्य की
से जुड़ता दिखाई देता है। इस जुड़ाव के बाद कवि की अपनी अंत:प्रकृति का सामंजस्य स्थापित करके कविता की भूमि तैयार
कोई सत्ता नहीं रह जाती। अपने समकाल की गति के साथ वही करता है। यही वज़ह है कि कविता केवल वस्तुओं के रंग-रूप में
कवि चल सकता है तो अपने समय की नब्ज़ को बहुत अच्छे से सौंदर्य की छटा नहीं दिखाती, श्रम और कर्म की मनोवृत्ति के अत्यंत
जानता और समझता हो क्योंकि अपने समकाल के साथ चलना मार्मिक दृश्य सामने रखती है। यानि जीवन के अनुभव ही कवि की
किसी साधारण मनुष्य की अभिव्यक्ति में उसकी है। चाक्षुस अनुभव अनुभूति के रूप में अवचेतन में
आवश्यकताएँ, आसपास की वस्तुओं पर उसकी दर्ज़ होते हैं जिन्हें एक शिल्प के साथ शब्द देना ही
प्रतिक्रिया, जन जीवन और व्यवस्था को लेकर पर्याप्त होता है। इस प्रविष्टि के अंतर्गत इस संकलन
उसकी समझ तथा दृष्टिकोण निहित होता है किन्तु में ‘कस्बे की तैराक लड़की’ और ‘सुपारीलाल की
एक कवि से हम उसकी कविता में न केवल उस रामलीला’ जैसी कविताएँ जन्म लेती हैं। संवेदना के
के व्यवहार, समय समाज के प्रति उसकी समझ केन्द्रीय भाव के साथ इन कविताओं में स्त्री विमर्श के
अपितु उसके विश्व दृष्टिकोण की अपेक्षा भी करते प्रचलित मुहावरे से अलग कुछ तीखे सवाल भी आते
हैं। जीवनानुभूति को रचनानुभूति में परिवर्तित करने की प्रक्रिया हैं। उनकी कविता ‘वेश्या’ की पंक्तियाँ हैं-
में हम जानना चाहते हैं कि वह विश्व की उत्पति व संरचना, वह चुपचाप लेटकर
मानवता,सामाजिक असंतुलन, वैश्विक राजनीति तथा मनुष्य तुम्हारा नंगापन देख
जीवन के मूल रागों के प्रति क्या समझ रखता है। समस्याओं के आँखें मीच रही है
निराकरण हेतु उसकी क्या कार्य विधि है तथा मानव जीवन के तुम कंडोम में समा रहे हो
लक्ष्यों और अर्थ को समझने की कितनी सुस्पष्ट समझ उसकी उतारकर फेंके जाने के लिए
वैचारिकी में है। एक पाठक के लिए इन कविताओं में शब्दों के अर्थ से परे
कवि संजय अलंग अपने प्रथम कविता संकलन ‘शव’ की जाकर देखना आवश्यक है जो केवल राजनीतिक समझ के चलते
कविताओं में कमोबेश इन्हीं प्रश्नों से जूझते दिखाई देते हैं। किसी ही संभव हो सकता है। समय के समानांतर चलती राजनीतिक
कवि के पहले कविता संकलन की भांति उनकी भी शुरुआत चेतना के अंतर्गत वे ‘राष्ट्र’, ‘अधिपति’ जैसी कविताएँ लिखते हैं
स्मृतियों के देशज बिम्बों से होती है जिसमे ‘कक्षा में कोने वाला जिनमें वे राजतन्त्र पर सवाल करते हैं और व्यवस्था को कटघरे
लड़का’ हाथों में ‘गुलेल’ लिए पूछता है ‘बचपन कहाँ है तू’। में खड़ा करते हैं। सामान्यतः पहले संकलन में काव्य भाषा तथा
लेकिन परिपक्व होती समझ में उस गुलेल के निशाने पर कोई फल शिल्प को लेकर कवि इस तरह सतर्क नहीं होते जिस तरह कवि
या पक्षी अनुपस्थित है। यहाँ वह पक्षी शांति के प्रतीक उस सफ़ेद संजय अलंग अपनी कविताओं में दिखाई देते हैं। यद्यपि इस
कबूतर में परिवर्तित हो गया है जिसके लिए उनके भीतर सवालों संकलन में विगत सदी का प्रचलित शिल्प है, कुछ शब्दों की
के साथ एक द्वंद्व उपजता है, जहाँ ‘उड़ते सफ़ेद कबूतर बंदूकों आवश्यक पुनरावृत्ति है तथा काव्यबोध में उनका निज आत्मबोध
और सुरंगों के बीच फडफडाते हैं’ (कविता- सलवा जुडूम के भी शामिल है लेकिन कविता अपने भाव, लय तथा विचार के साथ
दरवाज़े से)। यहीं उनका विश्व दृष्टिकोण विस्तार लेता है जब वे यहाँ उपस्थित है। कवि होने की इस विशिष्ट क्रियात्मक प्रविधि
कविता ‘पश्चिमी रात्रि’ में वर्तमान ईराक के निवासियों का आह्वान में वे बुद्ध को भी कवि घोषित करते हैं। उनके प्रथम संकलन में
करते हुए कहते हैं, ‘आओ मेसोपोटामियाइयों’। वहीं वे तंज़ानिया ‘सिंधियों के लिए’ और पेट में होने वाले ‘कृमि’ जैसे अछूते विषयों
अफ्रीका के एक गाँव में ग़रीबी उन्मूलन कार्यक्रम देखकर ‘प्यास’ को लेकर लिखी गई कविताएँ भी शामिल हैं जिनमे निश्चित ही
जैसी कविता लिखते हैं। कवि की दृष्टि का विस्तार है। इसमें ‘गर्मी पड़ती बेशुमार’ जैसी
एक कवि के लिए स्थानीयता कविता का प्रथम आलंबन होता रोचक कविताएँ भी हैं जो उनके ब्योरों को कविता में परिवर्तित
कविता जब द्वन्द्व से गुज़रती है और उम्मीद बँधाती पहले/ जब भी जाता था गाँव,/ गाँव को जागता हुआ
है तो वह जिजीविषा का ही प्रतीक होता है। दैनंदिन ही पाया,/मगर इस बार गाँव,/ सो नहीं पा रहा था।”
जीवन के संघर्षों से लेकर लगभग हर मोर्चे पर आम जागने में और सो न पाने में जो अन्तर होता है, वह
आदमी संघर्षरत है, परेशान है और उलझा हुआ है। बहुत बारीक होता है और इन्हीं बारीकियों से संजय
कविता संघर्ष के लिए आम इंसान को आवश्यक मिश्र की कविताओं का जन्म होता है।
बल प्रदान करती है, अँधेरों को चीरने का जज्बा पैदा फुरसत के क्षणों में संकुचन होने के कारण जीवन
करती है। ‘उम्मीद की तरह एक विचार’, ‘रोशनी से में संगति का अभाव होता चला गया है, और घटनाओं
सुराग़ तक’ तथा ‘आईने और असली कद’ जैसे महत्त्वपूर्ण कविता में तारतम्य बैठाने में हम प्रायः असफल होते चले जा रहे हैं। कवि
संग्रह रचने वाले चर्चित कवि संजय मिश्र अपनी कविताओं में को विश्वास है कि आकाश में ही मिलेगा पूरा चाँद, भले ही बच्चों
जिजीविषा के लिए जाने जाते हैं। उनकी कविताएँ हमारे समय के ने सप्तर्षि मण्डल और चाँद के रोज़-रोज़ घटने-बढ़ने के बारे में
विद्रूप यथार्थ को पाठकों के सामने नए तरीकों और सहज किन्तु ख़ूब पढ़ा हो। बच्चे भले ही पूरे चाँद की रात में ताजमहल को या
बेहद प्रभावशाली शिल्प के साथ प्रस्तुत करती हैं। इस कॉरपोरेट जैसलमेर की रेत को देखने के आकांक्षी हों लेकिन कवि को तो
समय की तेज़रफ्तार ज़िन्दगी में मार्मिकता और प्रेम किस तरह पूरा चाँद अपने गाँव के निरभ्र और प्रदूषणरहित आकाश में ही
गायब हो रहे हैं, मूल्य और मानक किस तरह खण्डित हो रहे हैं दिखता है। यह दिखना केवल दिखना नामक क्रिया भर नहीं है,
इन सबका जायज़ा लेते हुए‘सब कुछ खत्म नहीं होगा’ नामक जीवन-दर्शन को महसूसना है। यहाँ एक अन्विति, समन्वय और
कविता में संजय मिश्र लिखते हैं–“कभी ऐसा भी दिन आएगा/ सहजीवन है, कोई टकराव नहीं। ‘टक्कर के बाद’ नामक कविता
कि शायद धरती पर तो थोड़ा बहुत बचा रहे/ पर आँख में नहीं में कवि का प्रेक्षण है कि “आज/ सड़क पर मैं/ एक आदमी से
होगा पानी/ चीज़़ें और भी कम होती जाएँगी/ जैसे/ आदमी में टकरा गया/ उस आदमी ने/ मुझे दिल खोलकर गालियाँ दीं/ और
इंसान/ ग़रीब की थाली में रोटी/ बरसात में रूमानियत/ सिनेमा मैं/ देर तक/ उस बेचारे का चेहरा देखता रहा/ शायद/ उसकी
में शालीनता/ होंठों पर हँसी/ बच्चों में मासूमियत/ और बातों में बीवी ने आज उससे/ किसी महँगी चीज़ की फ़रमाइश की है/ या/
मिठास/ प्रेम में रहस्य/ जीवन में आनन्द।” असल में उदारीकरण उसके बॉस ने अपनी खीझ/ आज उसी पर उतारी है...।”टक्कर
और भूमड ं लीकरण के बाद जहाँ विकास के टापुओं यानी शहरों तो किसी के साथ भी हो सकती है, चाहे भीड़ हो या न हो, लेकिन
और महानगरों में मुनाफे के लिए होड़ और आपाधापी बढ़ी है, वहीं इतनी सामान्य घटना पर इतनी सारी संभावनाओं और आशंकाओं
गाँवों और ग़रीबों की दशा में कोई उल्लेखनीय सुधार नहीं हुआ के कयास लगाने से कवि की कल्पनाशीलता और आम आदमी
है। आर्थिकी और समाजशास्त्र के सारे सिद्धान्त बौने नज़र आते हैं, के जीवन के अनुमानित संघर्षों के प्रति कवि की संलग्नता और
जब हम समाज में व्याप्त असमानता और शोषण के दुष्चक्रों को सहलग्नता साफ जाहिर होती है। असलियत यही है कि समय की
देखते हैं। संजय मिश्र समय को समग्रता में देखने वाले कवि हैं बढ़ती जटिलता के कारण कयासबाजियों और किन्तुओं-परन्तुओं
और उनकी कविताओं में उम्मीद प्रायः अपनी सम्पूर्ण वैचारिकी में की भरमार-सी होती चली गई है और सामाजिक रिश्ते निश्चितता,
उपस्थित होती है। ‘गाँव की आँख’ नामक कविता में उन्होंने अपने निश्चिन्तता और विश्वसनीयता से हीन होते गए हैं। संबंधों की
भीतर के कवि के भोक्ता का यथार्थ रचा है :“पच्चीस तीस बरस लय भले ही बिगड़ती चली जा रही हो, लेकिन अभी भी ऐसे लोग
कविता मनुष्य की आदिम उपलब्धियों में गिनी जाती सूक्ष्म-दृष्टि है जो इनके संवेदनात्मक सरोकारों को
है। वह अपने प्रशस्त रूप में जीवन और जगत का बिंबात्मक रूप में मूर्तिमान करती है। इन कविताओं
पुनःसृजन है। वह मानवीय मनोविकार के परिमार्जन का सबसे बड़ा वैशिष्ट्य यह है कि यहाँ कवि की
का सबसे बड़ा साधन है। कविता मानवीय चेतना का जीवनानुभूति ही काव्यानुभूति बन गई है। कवि ने
उन्नयन करके उसे लोकमन अथवा जनसामान्य से बड़ी सहजता से अपने जीवन में जो कुछ देखा,
जोड़ती है। कवि अपने जीवनानुभवों को काव्यानुभव समझा, महसूस किया उसे सुसंगत काव्य पंक्तियों
में रूपायित करके स्वयं को जीवन और जगत के में रूपांतरित कर दिया। इन कविताओं में कवि अपने
वृहत्तर संदर्भोंं से जोड़ता है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने अपने विश्व व्यापक सरोकारों के साथ प्रकट हुआ है। इसमें समाज के प्रत्यक्ष,
प्रसिद्ध निबंध 'कविता क्या है?' में ठीक ही लिखा है कि, “सभ्यता यथार्थ और आदर्श तीनों ही रूप विद्यमान हैं-
की वृद्धि के साथ -साथ ज्यों-ज्यों मनुष्यों के व्यापार बहुरूपी और बहुत ज्यादा कीट हैं
जटिल होते गए त्यों-त्यों उसके मूल रूप आच्छन्न होते गए। भावों धरती पर
के आदिम और सीधे लक्ष्यों के अतिरिक्त और लक्ष्यों की स्थापना कीटनाशकों से भी ज्यादा
होती गई, वासनाजन्य मूल व्यापारों के सिवा बुद्धि द्वारा निश्चित दुनिया को कीटों से मुक्त होना है...’
व्यापारों का विधान बढ़ता गया।” कहने का आशय यह है कि राकेश मिश्र वैज्ञानिक चेतना से अनुप्राणित सर्जक हैं। विज्ञान
मनुष्य ने सभ्यता के विकास में जो उपलब्धियाँ अर्जित की हैं उनसे का संबंध जिस वास्तविकता की प्रस्तुति, उसको समझाने एवं
उसके मूलभूत मनोभावों पर आवरण पड़ता गया है। विश्लेषित करने की समझ से है, वह इन कविताओं में एक भिन्न
कविता के समकालीन परिदृश्य में राकेश मिश्र की उपस्थति स्वरूप में आती है। राकेश मिश्र की कविताएँ समसामयिक जीवन
अपने गहन सामाजिक-सांस्कृतिक सरोकारों के कारण महत्वपूर्ण के कठिन, बहुस्तरीय और अमानवीय होती स्थितियों के बीच बहुत
बन गई है। राकेश मिश्र का कवि नए ढंग से सोचने का उद्यम ही कुछ बचा लेने की चाह से उपजी हैं। इनमें मनुष्य को मनुष्य बनाए
नहीं करता, नए की सार्थकता की तलाश भी करता है | नए की रखने की गहरी चिंता है। जीवन और जगत को उसके वैविध्यपूर्ण
सार्थकता तभी है, जब उसमें बद्धमूल विचार-प्रणाली के बरअक्स स्वरूप में समझने की ललक है। आप सही मायने में जीवन धर्मी
वैकल्पिकता की तलाश हो; जीवनगत अवरोधों के प्रतिपक्ष में कवि हैं। आपके सृजन का सबसे महत्वपूर्ण बिन्दु और जीवन के
आवाज़ उठाने का साहस हो और अपने जीवन के आर पार निहारने प्रति स्वीकृति का भाव है। 'चलते रहे रात भर' में भी कवि का यही
की विकलता हो। विकलता से उपजी इस यात्रा में अब तक कुल दृष्टिकोण अभिव्यक्त हुआ है–
उनके पांच काव्य-संग्रह, जिनमें– ‘शब्दगात’, ‘जिंदगी एक “रात भर चलते रहे हल
कण है’, ‘चलते रहे रात भर’, ‘अटक गई नींद’ तथा 'शब्दों का स्याह बंजरों में
देश’-आ चुके हैं। ‘शब्दगात’ संग्रह 2002 में प्रकाशित हुआ था मन के/ बैलों की पैजनियाँ
उसके बाद 2019 में ‘चलते रहे रात भर’ आया। 'चलते रहे रात खनकती रहीं/ खन्-खन्/ झन्-झन्
भर' में कुल 191 कविताओं का समावेश हुआ है। राकेश मिश्र के रात भर उगा/ बहुत कुछ
पास अंत:प्रकृति और बाह्य प्रकृति का संधान करने वाली पारगामी भूरी मिट्टी मन की/ चिपक ली
वर्तमान में जबकि अधिकांश कविता सीधे शब्दों तुम्हारे/ द्वार पर मेरी छाया/ताज़ा टूटे/पत्ते-सी”2
बयान है या मिथक और प्रतीकों को लेकर अपने आईना अनेक कवियों का प्रिय बिम्ब रहा है यहाँ
समय को व्याख्यायित करने का प्रयत्न है, अनिरुद्ध इस कविता को पढते हुए अनायास ही शमशेर की
उमट की कविताएँ एक नया तेवर लेकर सामने कविता एक ‘नीला आईना बेठोस’ याद आ जाती है
आती हैं। अभी तक उनके कुल जमा तीन काव्य- जहाँ वह कहते हैं-
संग्रह प्रकाशित हुए हैं। ‘कह गया जो आता हूँ अभी’ “एक नीला आईना/ बेठोस-सी यह चाँदनी/और
(2005), ‘तस्वीरों से जा चुके चेहरे’, (2015) अन्दर चल रहा हूँ मैं/उसी के महा तल के मौन में /
तथा सद्य: प्रकाशित ‘संलाप’-इन तीनों काव्य-संग्रहों की कविताओं मौन मैं इतिहास का/ कन किरन जीवित एक बस”3
को परखते हुए महसूस होता है कि सरलता के एक-रस शिल्प से हालाँकि अर्थधर्मिता में परस्पर दोनों के बिम्ब अलग हैं।
निकल कर कविता यथार्थ और फंतासी की नई निर्मिति करके अस्तित्व और अनस्तित्व के इस युद्ध में झील और चट्टान का
सार्थक पाठ बनती है। परस्पर विरोधाभास काव्य व्यक्तित्व को भिन्न आयाम देता है।
आज के समय में अधिकांश कविता समसामयिकता की परिधि झील का मौन यानी उसका बिना लहरों का व्यक्तित्व फिर भी
में बंधकर आँखिन देखी समस्याओं अथवा रूढ़ विषयों को लेकर पिघल जाता है किंतु ठोस चट्टान वैसी ही रहती है उसे समझने
लिखी जा रही है, प्रेम के क्षेत्र में भी कविता अधिकतर देह-राग वाला कोई चाहिए। किंतु उस ठोस चट्टान के भीतर भी कभी जीवन
बनकर रह गई है ऐसे में अनिरुद्ध की कविताएँ इस अर्थ में भिन्न था यह उसके भीतर स्थित जीवाश्म ही बताता है इसी तरह कवि
हैं कि वे विषयाधारित नहीं,वस्तु आधारित हैं। कविता के नेपथ्य व्यक्तित्व के भीतर छिपा प्रेम या राग भाव है। ‘एक तरह का ठोस
में अनेक अर्थध्वनियाँ होती हैं। पहले ही काव्य संग्रह ‘कह गया आलोक मंडल– जो चीज़ों की गहराई और पार्थिकता को बरकरार
जो आता हूँ अभी’ की पहली ही कविता इसका प्रमाण है-‘जहाँ रखता है और उन्हें स्वत: शब्द में बदल देता है।4 ‘टूटा पत्ता’ जीवन
पक्षियों की उड़ान में ‘सागर का पानी, हवा की तीव्रता और अग्नि और मृत्यु के मध्य स्थित भाव है जिसके विषय में निर्मल वर्मा का
की आकुलता का विराट बिम्ब ‘पृथ्वी की उस स्थिति से जुड़ता है कहना था–“हर पेड़ के नीचे छोटा सा तालाब है मरे हुए पत्तों का
यहाँ “पृथ्वी किसी गीले कागज़ सी/ थरथरा रही थी/जब उस पर जब हवा चलती है वे घास पर उड़ते हैं जैसे मृत्यु के बाद दोबारा
निरीह प्राणियों की हत्या का लगा/ अभियोग।”1 मर रहे हों।”5 किंतु अनिरुद्ध की कविता में यह वस्तु-भाषा की
यह पक्षी क्या मनुष्य की अदम्य महत्वाकांक्षा के प्रतीक नहीं जो सूक्ष्म बनावट में गुंथे हुए सुनहरी तारों सी झिलमिलाती है।
पर्यावरण को भेद कर अब इस स्थिति में पहुँच गया है कि पृथ्वी पर अनिरुद्ध की कविता का मूल-स्वर स्मृति में निहित है।
न जाने कितने निरीह प्राणियों का अस्तित्व ख़तरे में है अथवा प्रेम अखिलेश का कहना है- “स्मृतियाँ काल के घमंड को तोड़ती
की उस स्थिति का जब प्रेम का प्रत्युत्तर सिर्फ़ अभियोग रह जाता हैं।”6 निर्मल वर्मा ‘सुलगती टहनी’ के अंत में कहते हैं–“शायद
है। उमट की कविताएँ यह सिद्ध करती हैं कि रचनाकार की कविता अंत में स्मृति के ये अंक बचे रह जाते हैं, न इस धरती के न ईश्वर
की दृष्टि और दृष्टिकोण बहुविध होते हैं। के–किंतु दोनों को एक एपिक गाथा में बाँधते हुए” है। अनिरुद्ध के
“आईने को देखता/देखता हूँ/उससे लिपट गया/मेरा मौन/ झील संवेदनात्मक सरोकारों का महत्वपूर्ण बिन्दु है ‘मृत्यु बोध’ परंतु यह
सा नहीं/चट्टान-सा/ हो/ जिसमें/ जीवाश्म-सा/ पाया जाऊँ/अभी मृत्यु का एहसास वह नहीं है जो सत्तरोतरी कविता में पाया जाता था
इक्कीसवीं सदी के पहले दशक में पंकज राग ने होते हैं। अगर जनता के कोण से इतिहास को लिखा
अपनी कविताओं की बनावट और बुनावट से सबका जाए, तब मानव सभ्यता के विकास का क्रम कैसा
ध्यान अपनी ओर खींचा। उनका काव्य-संग्रह यह होगा या मानवीयता की शक्ल कैसी दिखायी देगी?
‘यह भूमड ं ल की रात है’ की छियालीस कविताएँ पंकज राग 'हिस्टीरियोग्राफी' के इसी नए कोण से बात
भिन्न-भिन्न ज़मीन और आस्वाद के बावज़ूद एक- शुरू करते हैं-
दूसरे पर अंतरावलंबित हैं। अपनी चेतना और “पूछें कि 1857 क्या था
निर्मिति के धरातल पर इन कविताओं में इतिहास क्या वह एक सिपाही विद्रोह था,
और मानवीय संवेदना की निरंतरता मिलेगी। इसमें संकलित दो क्या वह धर्म को लेकर लड़ा गया था?
लम्बी कविताएँ, ‘दिल्ली : शहर दर शहर’ और ‘1857 के डेढ़ क्या वह जन साधारण की लड़ाई थी
सौवें वर्ष में’ बहस के लिए आमंत्रित करती हैं। ये दोनों कविताएँ या वह राजसत्ता की वापसी का युद्ध था?
अलग-अलग होने के बावज़ूद एक साथ पाठ की माँग करती हैं। और आपको इनमें से सिर्फ़ एक चुनना हो तो
पंकज राग मिथकों, आख्यानों और पौराणिक चरित्रों व कथाओं आप क्या करेंगे?
को समकालीन बनाकर समस्या पर बात नहीं करते, वे ‘इतिहास’ क्या आप इतिहास की अनिवार्यता पर
और ‘ऐतिहासिक प्रक्रिया के द्वन्द्व’ में अपना पक्ष रखते हैं। पंकज ऊँगली उठाते हुए चारों को चुनेंगे
राग की कविताएँ बारम्बार इंगित करती हैं कि ‘हिस्टीरियोग्राफी’ या फिर प्रतियोगिता में सफलता के लिए
के निर्धारित मानदण्डों के आधार पर सिर्फ़ सत्ता और शासकों इतिहास को तिलांजलि देकर
का इतिहास लिखा जा सकता है। अब तक हम जिस इतिहास से किसी एक प्रश्न पर निशान लगाएँगे?”1
दो-चार होते हैं, वह अधिकांशतः सत्ता का इतिहास है। कविता पंकज राग जिस 'इतिहास' और ऐतिहासिक प्रक्रिया के द्वन्द्व
अपनी निर्मिित में जन-इतिहास का दस्तावेज़ होती है। कवि ने दोनों के हिमायती हैं, उसका रास्ता मेगस्थनीज की ‘इण्डिका’, ह्वेनसांग
कविताओं, ‘दिल्ली : शहर दर शहर’और ‘1857 के डेढ़ सौवें के यात्रा-वृत्तान्तों, इब्नबतूता की भारत-यात्रा, अबुल फजल के
वर्ष में’ को जनता के इतिहास के बतौर लिखा है। एक कविता में ‘आइने अकबरी’ फिरदौस के ‘शाहनामा’ और विलियम जोन्स के
जनता के शोषण और सत्ता को बनाए रखने की कवायद का ब्यौरा इतिहास-ग्रन्थों से नहीं समझा और समझाया जा सकता है। अट्ठारह
है, तो दूसरी में इस शोषण से ऊब चुकी जनता का महाविद्रोह। सौ सत्तावन पर केंद्रित कविता में उठे सवालों के जवाब ‘दिल्ली:
अट्ठारह सौ सत्तावन भारतीय इतिहास का बहुत ही मौजूं विषय है। शहर दर शहर’ कविता में मिलते हैं-
इस विषय पर भारतीय और विदेशी इतिहासकारों की अलग-अलग “जहाँ आक्टरलोनी को लूनी अख्तर कह कर
धारणाएँ हैं। पंकज राग ने इतिहास-दर्शन की एक भिन्न भूमिका को दिल्लीपन की इंतहा मानी जा सकती थी
ग्रहण किया है, जो कवि का इतिहास को देखने का नज़रिया है। इस जहाँ विलियम फ्रेजर के हरम को अपनी
इतिहास दर्शन की केंद्रीय धारणा में जनता का पक्ष है। तहजीब की अगली कड़ी समझा जा सकता था
दरअसल, सत्ता द्वारा पूछे गए सवाल विश्वसनीयों के चुनाव जहाँ गदर के सिपाहियों को सामंती तहज़ीब के पैमाने से
होते हैं और उनके रटे-रटाये उत्तर सत्ता के क़रीब जाने के साधन कुछ लुच्चे उत्पातियों की शक्ल दी जा सकती थी।”2
अनिल करमेले नियमित और लगातार लिखने वाले नागरिक की पीड़ा है जो देख रहा है– लोकतंत्र का
कवि नहीं हैं। उनके अभी तक दो संग्रह ही प्रकाशित लगातार भ्रष्ट-तंत्र में बदलते चले जाना, और आगे
हुए हैं। उसमें भी पहला संग्रह ‘ईश्वर के नाम पर’ चलकर ऐसे भ्रष्टाचारियों या दोगले चरित्रों का इस
1996 में छपा था। उसके बाद दूसरा संग्रह ‘बाकी व्यवस्था में बहुत बेशर्मी से नए मान्य विकास पुरुष
बचे कुछ लोग’ 23 बरस के बड़े अंतराल के बाद बन जाना। इसीलिए इस कविता की अगली कड़ी के
2020 में छपकर आया। और एक तरह से कहा रूप में अनिल की एक अन्य कविता ‘कामयाब लोग’
जाए,अनिल करमेले के कवि को मजबूती से स्थापित को देखा जा सकता है,जहाँ वे मूल्य पूरी तरह से
करने वाला यही संग्रह है जो काफ़ी चर्चित-प्रशंसित हुआ। उनके गायब हो चुके हैं और बाज़ार चतुर लोग हमारे समय के नए नायक
कवि कर्म के मूल में देश के पिछड़े इलाके में रहनेवाले वे जन- बन चुके हैं- ‘ वे सब अपने-अपने काम में माहिर थे/ लम्बे तज़ुर्बों
साधारण हैं,जो विकास की चर्चा सुनते आये हैं, जो कभी उनके से इनमें से कुछ विशेषज्ञ हो गए थे/ वे कभी चूके नहीं थे इसलिए
दरवाजे तक पहुँचा नहीं। इस जन की खासियत यह है कि विकास ज़िन्दा थे/ दरअसल बहुत सारे लोगों और चीज़ों की मृत्यु पर ही/
की चकाचौंध से वंचित रहने के कारण ये कुटिलताओं,चालाकियों, टिका था उनका जीवन/ सियार की तरह चालाक और लकड़बग्घे
छल-क्षद्म से वैसे प्रदूषित नहीं हुए हैं जैसे कि बड़े शहर के लोग। की तरह धूर्त/ और गिरगिट की तरह बदलते/ वे सब शहर में थे/
अनिल दरअसल कस्बाई संवेदना के कवि हैं,जो महानगरीय उनके पास कविता से लेकर पिस्तौल बेचने की कला थी/वे हर
विकास के चलते छल और व्यापार को भली-भाँति जानते हैं। तरह के जश्न के आयोजक थे/अप्रासंगिक को प्रासंगिक बनाने में
तभी अपनी कविता एक ’सुखी आदमी के बारे में’ में वह कहते कुशल वे इवेंट मैनेजर थे’।
हैं- ‘फिर यकायक कुछ यूं हुआ कि वह/ जीवन में समेटी हुई हम सब इस विकृत, कुत्सित, झूठे, कृत्रिम विकास के गवाह
चालाकियों से/एक बेहद सुखी इन्सान बन गया/ अब यह पता नहीं हैं। कथाकार ज्ञानरंजन ने अपनी पुस्तक ‘कबाड़खाना’ के एक
वह कितना सुखी है।’ निबंध ‘समय, समाज और कहानी’ में इस छलिया विकास की
यहाँ सुखी होने के दो ‘परसेप्शन’ हैं। दोनों ही परस्पर विरोधी। सूक्ष्म पड़ताल करते हुए लिखा है– ‘यथार्थ ठोस नहीं रहा,वह
एक जिसे दुनिया सुखी मानती है, और दूसरा जिसे कवि सुखी हर दिन बदल रहा है। वह ज्यादा अप्रत्यक्ष,अमूर्त और सूक्ष्मता
मानता है। जीवन में समेटी गयी चालाकियों से सुखी बनने का में क़ैद होने के साथ,उतना ही जटिल लुका-छिपा है। उसमें गहरी
यहाँ तीखा व्यंग्यात्मक विरोध है। किसी छोटे शहर से निकले एक समरस मिलावट हो गयी है। उसका फोटोग्राफ आसानी से नहीं
निम्नवर्गीय व्यक्ति के लिए यही सबसे बड़ा अचम्भा होता है कि बन सकता। उसमें परदेस आ गए हैं और दीर्घकालिक संधियाँ।
अपनी सफलता के लिए लोग उन सारे आदर्शों को कितनी आसानी उनमें विश्वप्रसिद्ध वित्तीय संस्थान आ गए हैं, उनमें कूट, अप्रतिम
से छोड़ते चले जा रहे हैं जो कभी उनके स्थायी और सारवान प्रभावशाली और फुर्ती से भरे हुए दलाल आ गए हैं, उन्हें दलाल
जीवन-मूल्य रहे हैं। इस औसत-सी कविता का ज़िक्र इसलिए शब्द देना भी झूठ और हिम्मत का काम लगता है। क्योंकि वे बेहद
क्योंकि यहीं से अनिल करमेले की कविता को समझने के कुछ ख़ूबसूरत, संपन्न और स्वीकृत हैं।’
सूत्र हाथ लगते हैं। कि किसी भी तरह की चालाकी से सुखी होने देश ने अपने लिए विकास का जो रास्ता चुना– व्हाया
के प्रति बुनियादी विरोध है कवि का। यह दरअसल उस सरल सच्चे भूमंडलीकरण, उसमें यही होना था। वे तमाम संस्थाएँ जो कभी
विनय विश्वास का पहला कविता संग्रह 'पत्थरों का कविता को रेगिस्तान समझा जाए तो यहाँ ऊँट ही
क्या है' शीर्षक से सन 2004 में प्रकाशित हुआ और ऊँट नज़र आते हैं। बनारस के जितने भी प्रतीक हैं,
दूसरा संकलन, 'धूप तिजोरी में नहीं रहती' शीर्षक से अपनी पूरी सज-धज के साथ मौज़ूद हैं– जल, नाव,
सन 2019 में। इन दोनों संग्रह के प्रकाशित होने के घाट, शेख, गंगा, शव, खाली, कटोरा, सूर्य, अर्ध्य,
बीच पंद्रह वर्ष का लंबा फासला रहा है। इस फासले महुआडीह इत्यादि। केदार जी इस कविता में आज
से दो बातें बिलकुल स्पष्ट हैं-पहली यह कि कविता के बनारस को नहीं, बल्कि कालातीत बनारस की
संकलन का ढेर लगाने में कवि यक़ीन नहीं रखते हैं। खोज करते हैं। ' सचमुच कृष्ण कल्पित अपने अचूक
दूसरा, कविता के प्रति वे किसी तरह की आपाधापी नहीं मचाते निशाने से अभेद्य किले को भी भेद देते हैं। उनमें वह साहस है और
हैं। [अकसर देखा गया कि ऐसी आपाधापी मचाकर कई कवियों ने दृष्टि भी।
अपनी कविता और कवि की हत्या कर दी है।] यहाँ कवि केदार की तुलना विनय विश्वास से करने की धृष्टता
विनय के पहले काव्य संकलन की अधिकांश कविताएँ का प्रयास बिलकुल न समझा जाए। हर कवि अपने-अपने समय
मध्यवर्गीय शहरी जीवन के जटिल बोध की कविताएँ हैं। मां-बाप, का प्रवक्ता होता है। इसलिए एक युग के कवि से दूसरे युग के
रिश्ते-नाते, परिवार, मित्र, पड़ोसी, बेरोजगारी, सन्नाटा, प्रेम और कवि की तुलना ही बेमानी है। विनय विश्वास की कविता का
भूख़ कवि की कविताओं में बीज शब्द की तरह शामिल हुए हैं। अपना रंग है। [चकाचौंध नहीं] अपना स्वर है। [मैं नहीं!] शहरी
इन कविताओं में संवेदना का रूपांतरण अपने वास्तविक बोध के जीवन को समझने वाले जन को विश्वास की कविताएँ विश्वसनीय
साथ हो पाया है, क्योंकि विनय विश्वास के जीवन का अधिकांश प्रतीत होंगी।
हिस्सा शहर में तपा है। उनकी कविताओं में शहरी जीवन का सच विनय विश्वास की कविताओं से विश्वास इसलिए भी जगता है
दिखता है। आमतौर पर दिक्कत तब ज्यादा आती है, जब कोई कि वे किसी व्यक्ति विशेष को अपनी कविता में जगह नहीं देते हैं।
कवि ग्रामीण इलाके से पलायन कर शहर में आकर बस जाता है। उनकी समूची कविताई के केंद्र में 'शहरी संस्कृति' है। इसी शहरी
शहर में ठीक से बस भी नहीं पाता है और शहरी बोध की कविताएँ संस्कृति से उनकी जोराजोरी होती है। खासकर ऐसी संस्कृति से,
रचने का उपक्रम करने लगता है। वैसे कवियों की कविता में गांव जिसने 'सुंदर' को खदेड़ दिया है। 'अच्छा' हाशिये पर खिसककर
नाॅस्टेल्जिया की तरह उभरता है और शहर कृत्रिम रोशनी की तरह। चला गया है। 'उपयोगी' की उपेक्षा कर दी गई है। 'शुभ' का
यहाँ सवाल उठना स्वाभाविक है कि कवि तो कवि होता है, बहिष्कार कर दिया गया है। 'नेक' को रौंद दिया है। दरअसल,
शहरी और ग्रामीण सांचे में बांटने का औचित्य क्या? औचित्य भले विनय विश्वास की कविताएँ उप-संस्कृति से उपजे कठिन जीवन
न हो लेकिन असली और नकली कविता में फ़र्क करने के लिए का आख्यान हैं।
एकाध मर्तबा ऐसा कर भी लें तो बिगड़ ही क्या जाएगा! 'जाली विनय विश्वास के पहले संकलन 'पत्थरों का क्या है?' संग्रह
किताब' के लेखक कृष्ण कल्पित ने केदारनाथ सिंह की कविता में कुल 64 कविताएँ संकलित हैं और यह 96 पृष्ठों में सिमटा है।
'बनारस' पर टिप्पणी करते हुए लिखा है-'फारसी महाकवि हाफिज कविता का रचनाक्रम दर्ज़ है : 1984 से 2004 तक। इन बीस
का कहना था कि जब भी रेगिस्तान पर कविता लिखो तो इस बात वर्षों की जीवनानुभूति को कवि ने बेहद ख़ूबसूरती के साथ गूंथा है।
का ध्यान रहे कि उसमें ऊँट न आए। अगर केदार जी की 'बनारस' आलोच्य संग्रह में एक कविता 'शहर' शीर्षक से है। कविता कुछ
आयतन
संजीव बख्शी रजत कृष्ण
विनोद दास बोधिसत्व
सुधीर सक्सेना प्रेम रंजन अनिमेष
गोविन्द प्रसाद हरिओम
मेरी परिधि मेरा आयतन है कविता कुलदीप कुमार पंकज चतुर्वेदी
मेरे सृजन का गुरुत्वाकर्षण है कविता सुभाष राय भरत प्रसाद
कृष्ण कल्पित आशीष त्रिपाठी
ओम निश्चल जितेंद्र श्रीवास्तव
सदानंद शाही राहुल राजेश
अनूप सेठी प्रमोद कुमार तिवारी
निरंजन श्रोत्रिय उमाशंकर चौधरी
अनिल त्रिपाठी विमलेश त्रिपाठी
सर्वेन्द्र विक्रम गौतम चटर्जी
दुर्गा प्रसाद गुप्त घनश्याम ित्रपाठी
सिद्धेश्वर सिंह
आस्थावान कवि
पी. रवि
समकालीन कवियों में विजय कुमार कुछ गिने-चुने गफ़लत नहीं रही है। वे धूमिल की तरह बख़ूबी
कवियों में से एक रहे हैं, जिन्होंने न सिर्फ़ महत्वपूर्ण जानते हैं कि ‘यह कविता/ पुलिस थाने में इंसाफ
कविताएँ लिखी हैं बल्कि समकालीन कविता के की दुहाई नहीं/ न इसमें दिनचर्या/ न धधकती आग/
मूल्यांकन द्वारा समीक्षा के मानदंड भी स्थापित न पोटलियों में बँधे विवरण/ और न इस्तीफा है/
किए हैं। एक समर्थ कवि, एक बेबाक समीक्षक, यह बीच चौराहे पर गोलियों से भून दिए गए आदमी
एक गंभीर विचारक तथा विश्व-कविता के वर्तमान की/ ख़ून से लिथड़ी कमीज भी नहीं।’ इसके बावज़ूद
से परिचित कराने वाला श्रेष्ठ अनुवादक और इन जिस तरह धूमिल कविता को ‘भाषा में आदमी होने
सबके बावज़ूद मित्रों के लिए कुछ भी कर गुज़रने वाला एक सहज की तमीज़’ मानते हैं, उसी तरह विजय कुमार का भी मानना है
संवेदनशील सहृदय व्यक्ति एक साथ मिलना शायद ही संभव हो कि दुनिया के तमाम कवि रोज असंख्य कविताएँ लिख रहे हैं, एक
लेकिन विजय कुमार को नज़दीक से जानने वाले उनके व्यक्तित्व विश्वास के साथ लिख रहे हैं कि आज के कठिन समय में कविता
की इन सच्चाइयों से भली-भाँति परिचित हैं। समकालीन कविता ही मानवीय संवेदनाओं को बचाए रख सकती है। उनको भी पता
में विजय कुमार की अपनी अलग पहचान रही है लेकिन उनके है कि इन्हें पढ़ कर कैंसर के किसी मरीज का दुख कम नहीं होता
साहित्यिक अवदान को सही ढंग से पहचाना नहीं गया है। उनका और न ही बंदूक से निकली गोली वापस लौटती है लेकिन ‘घेराव
कवि उनके समीक्षक-विचारक रूप की ओट में छिपा रह गया या में किसी बौखलाए हुए आदमी के संक्षिप्त एकालाप’ की तरह आज
यों कहें कि उसे महत्व नहीं दिया गया। के कठिन समय में विषम स्थितियों से लड़ने का और कोई रास्ता
‘अदृश्य हो जाएँगी सूखी पत्तियाँ’ (1981) से प्रारंभ हुई उनकी भी शेष नहीं है। वे कविताओं में ही वह संभावना तलाशते हैं, जहाँ
काव्य-यात्रा में अब तक कुल चार कविता संग्रह आ चुके हैं। आत्मा पर लगे घावों का निशान लिए इंसान की परछाइयाँ बैठी
पहले संग्रह के बाद चाहे जिस शक्ल से’ (1995), ‘रात-पाली’ हैं—तो क्या ये तमाम कविताएँ/ चाबियाँ हैं किन्हीं ओझल दरवाजों
(2006) और ‘मेरी प्रिय कविताएँ’ (2014) नामक संग्रह आ की / जो समय के बाहर खुलते हैं? / आत्मा के किन घावों का
चुके हैं। इसके बाद भी तमाम कविताएँ विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में निशान लिए / इंसानों की परछाइयाँ बैठी हुई हैं भाषा में?’
लगातार छपती रही हैं। इसके साथ ही इन्होंने सृजनात्मक और विजय कुमार उन समकालीन कवियों में से हैं, जिनकी
वैचारिक आलोचना के साथ अनुवाद-कार्य भी किया है। इनकी अधिकांश कविताएँ महानगरीय परिवेश की उपज हैं लेकिन इन
आलोचनात्मक पुस्तकें हैं-साठोत्तरी हिंदी कविता की परिवर्तित कविताओं को गाँव-नगर या महानगर जैसा सरल विभाजन करके
दिशाएँ (1986), कविता की संगत (1996), कवि-आलोचक नहीं समझा जा सकता। अच्युतानन्द मिश्र इनकी कविताओं में
मलयज के कृतित्व पर साहित्य अकादमी द्वारा प्रकाशित मोनोग्राफ़ एक त्रिकोण आकार लेते हुए देखते हैं जो शहर, मनुष्य और
(2006), कविता के पते-ठिकाने (2014)। इन्होंने बीसवीं सदी समय से मिलकर बना है लेकिन वे सब एक दूसरे की संगत में
के युद्धोत्तर यूरोपीय विचारकों पर ‘अँधेरे समय में विचार’(2006) ही अपना रूपाकार ग्रहण करते हैं। इन तीनों का योग ही एक
तथा विश्व के 18 प्रमुख कवियों पर समीक्षात्मक निबन्धों की गतिशील दृश्य बनाता है–‘सड़कें गीली थीं/ और रोशनियाँ धुली
महत्वपूर्ण कृति ‘खिड़की के पास कवि’ (2012) लिखा है। हुईं/ एक सलेटी अँधेरा घेरता था/ शर्म लानतों और विस्मृतियों
विजय कुमार को अपनी कविता की शक्ति के बारे में कोई से गुज़रते हुए/ इन्हीं सब के बीच इच्छाओं पर तैरता चला आया
कविता का ‘संगीत’
प्रभाकरन हेब्बार इल्लत
कविता के शब्द मानव के जीवन में संगीत और इच्छानुसार रचता भी है। इसके बल पर वह आत्मगत
सौंदर्य ले आते हैं और वे जीवन में रंजकता, माधुर्य सौंदर्य को वस्तुगत रूप दे सकता है, उसको लयात्मक
आदि भर देते हैं। कविता अपने इस साध्य को संभव अभिव्यक्ति भी दे पाता है। प्रकृति के समानांतर मानव
बनाने के लिए प्रेम-पंथ का अनुसरण हमेशा करती विशिष्ट प्रकार का अनुसृजन करता हुआ अंतस्थ के
है, और इसलिए स्वाभाविक रूप से हिंसा का प्रतिरोध बिंबात्मक-प्रतीकात्मक अनुभूति को आकार देता है।
भी। हिंसा प्रत्यक्ष हो या अप्रत्यक्ष,वह जीवन की अनुभूति कोई भी हो, वह सामाजिक-संबद्धता की
संगीतात्मकता तथा सौंदर्यमयता को ख़ारिज कर देने कल्पनात्मक छवि है। श्रम-भाषा-सामाजिकता द्वारा
वाली होती है। यहाँ भूतल में अतिजीवन को संभव बनाने हेतु मानव निर्मित संसार में मनुष्य जीता है, तभी संगीत-सौंदर्य के साथ का
द्वारा की जाने वाली न्यूनतम हिंसा की बात नहीं की जा रही है, ‘प्रत्यभिज्ञान’ उसका हो जाता है। इस सौंदर्य में संतुलन, संगति,
पर यह वह हिंसा की बात है जो मानव योजनाबद्ध तरीके से लागू सत्ययता, नैतिकता, परिज्ञान आदि की जुगलबंदी है, संगीत का
करता है। इससे जीवन में बदरंग और बेसुर भर जाते हैं। ऐसे समय साध्वनियों का क्रमगत, सार्थक-भावात्मक विन्यास-आलाप है,
में कविता का जैविक-धर्म जीवन के सौंदर्य-संगीत की समृद्धि को लय-विलय है। यह सूक्ष्म रूप में मानवीय अनुभूति का सुंदरतम
सुनिश्चित करना होता है। यही समृद्धि संस्कृति की समृद्धि कही जा आख्यान है। कविता एवं संगीत मन की संस्कारित ध्वनि-शब्द
सकती है। कविता का अंतर्लोक सदैव यह कहता है कि वर्चस्व, साधना है। इस साधना से मानव आत्मलीन हो जाता है, अपने और
प्रतिकार-दुश्मनी-युद्ध, नस्ल-सांप्रदायिकता-भ्रूण-स्त्री-शिशु हत्या, परिवेश को समृद्ध करता है। संगीत-कविता दोनों का आधार प्रकृति
नर-पशु बलि, नशा, पीड़ा-कामुकता, निर्वनीकरण, गाली-गलौज़, और मानव का सक्रिय चैतन्य है और वह आपसी अविरल संवाद
प्रदूषण आदि मात्र नहीं, अंध विचारधारात्मक कट्टरता, स्वतंत्रता- से उन्नत होता रहता है। कवि-आलोचक अरविंदाक्षन की कविता
समानता-बंधुता का निरास, कारावास, सैनिकीकरण, धमकी, इस संवाद-साधना की परिणति है। इस साधना के बल पर वे
तन-मन शोषण, देह-व्यापार, बहिष्कार-तिरस्कार आदि भी हिंस- दिखाते हैं कि चिरैयों का गाना संपर्णू आकाश में किस प्रकार राग-
दैत्य के विविध हाथ हैं। इसलिए कविता अनंत करुणा, आत्म- रंग भर देता है। यहाँ तक कि लोदी गार्डन के पेड़ों की धुन गिलहरी
परिष्करण, धार्मिकता-नैतिकता, तर्क-तार्किकता आदि के बल पर तक को कैसे लुभा देती है। वर्तमान जीवन के परिसर में बहुविध
यह सिखाती है कि एक बूंद भर आंसू या करुणा के अमृत प्रसार हिंसात्मक विकलताओं की वज़ह से प्रकृति के जैविक संजाल में
से मन में हिम-धवलता का संचरण होता है। दूसरों के साथ खुशी दरारें पड़ने लगी हैं, प्रकृति का संगीत विलुप्ति के कगार पर है।
की साझेदारी करते समय हृदय-मंडल में निर्मल चाँदनी फूट पड़ती ऐसे में अरविंदाक्षन की कविता प्रकृति-जीवन के संगीत की वापसी
है। इस तरह सौंदर्य का विकीर्ण होना मानव की श्रम (सर्जना) की मांग करती है। ‘बांस का टुकड़ा’, ‘घोड़ा’, ‘आसपास’, ‘सपने
शक्ति की उदात्तता का मिसाल है, जो प्रकृति के साथ के द्वंद्वात्मक सच होते हैं’, ‘राग लीलावती’, ‘असंख्य ध्वनियों के बीच’, ‘भरा-
संबंधों के बल पर विकसित होती है। इन संबंधों के ऐतिहासिक पूरा घर’, ‘पतझड़ का इतिहास’, ‘राम की यात्रा’, ‘जंगल नज़दीक
घात-प्रतिघात से ही मानव की इंद्रियों का विकास हुआ है। इसलिए आ रहा है’, ‘समुद्र से संवाद’, ‘खंडहरों के बीच’, ‘नीलांबर’,
मानव अपने जीवन में अन्य प्राणियों की तरह प्राकृतिक साधनों- ‘वट के पत्ते पर’,‘लीलारविंद की तरह’, ‘साक्षी है धरती साक्षी है
संसाधनों का इस्तेमाल मात्र नहीं करता है, वह उनको अपनी आकाश’, ‘प्रार्थना एक नदी है’ आदि दशाधिक काव्य-संकलन
समकालीन हिंदी कविता में विष्णु नागर की मनोभूमि के प्रति एक सजग कवि हैं। यही कारण है कि उनकी
का निर्माण जेपी आंदोलन और आपातकाल के बीच कविता आत्मीय लहजे में पाठक को निजी एवं वर्गीय
हुआ। यह समय ताक़त के आतंक, निराशा और अनुभवों से सहज ही जोड़ देती है। व्यंग्य-विनोद,
राजनीतिक उतार-चढ़ाव का था। कवि विष्णु नागर क्रीड़ा भाव, आत्मविडंबना जैसी कई युक्तियाँ है जो
का काव्य संग्रह ‘मैं फिर कहता हूँ चिड़िया’ उसी दौर कवि विष्णु नागर की कविता की मुख्य विशिष्टता के
में प्रकाशित हुआ था। ठीक इसी समय आपातकाल रूप में नज़र आती है। गंभीर मुद्राओं के बीच में इन
का माहौल बनने लगा था। गुज़रात में जनवरी 1974 की उपस्थिति कविता के प्रभाव को बढ़ा देती है-
रसोई गैस, तेल,अनाज आदि ज़रूरी चीज़ों की कीमतों में भयंकर ‘एक अकेला पंछी
वृद्धि के विरोध में जनाक्रोश ने छात्र आंदोलन का रूप ले लिया जब आधी रात को चहचहाता है
था। इसके बाद मार्च में बिहार में भी इसी प्रकार का आंदोलन शुरू तो इसके मायने क्या हैं?
हुआ। जयप्रकाश नारायण ने राजनीतिक संन्यास को त्याग कर इस क्या सिर्फ़ यह कि उसकी नींद
आंदोलन का नेतृत्व किया और इसे संपर्ण ू क्रांति का नारा दिया। समय से पहले खुल गयी है
भयंकर उथल-पुथल के बीच क्रांति की संभावना का माहौल बन और उसका समय बोध गड़बड़ा गाया है...
गया था पर इतने बड़े आंदोलन के राजनीतिक चरित्र में भी फांक वह दूसरों से कह रहा है
आई। विष्णु नागर संपर्ण ू क्रांति के इस आंदोलन को देख रहे थे कि भई तुम भी चहचहाओ
और उसकी परिणिति को भी उन्होंने देखा था। जागो जागो मैं बार बार कहता हूँ
विष्णु नागर की रचनाशीलता का पाट बहुत चौड़ा है किन्तु कि अब जागो भोर भई।’
इस लेख का उद्देश्य एक कवि के रूप में उनकी कविताई को (हँसने की तरह रोना)
देखने-समझने की कोशिश है विशेष तौर से उनके नब्बे के बाद क्रूरता और अवसरवादी समय में संवेदनशीलता का क्षरण तेजी
प्रकाशित संग्रहों को केंद्र में रखकर। नयी सदी की शुरुआत में ही से हो रहा है। संवेदनविहीन समय में परपीड़न की प्रवृत्ति बढ़ रही
उनका कविता संग्रह ‘चीज़ें कभी नहीं खोयीं (2001) प्रकाशित है। समाज-विरोधी मनुष्य इतना आत्मकेंद्रित है कि वह मृत्यु जैसी
हुआ। इसके बाद 2006 में– ‘हँसने की तरह रोना’ और 2010 कारुणिक स्थिति में भी सुख तलाशता है। मृत्यु के साथ मानवीयता
में ‘घर के बाहर घर’। इसके बाद 2014 में ‘जीवन भी कविता भी मर रही है, उसकी जगह समाज में क्रूरता अपनी जगह बना
हो सकता है’ कविता संग्रह ने विष्णु नागर की कविताओं को रहीं हैं। कवि विष्णु नागर इस प्रवृत्ति को बेबाकी से बयान करते
एक नयी उंचाई दी हालाकि इससे पहले ‘कवि ने कहा’ चयनित हैं। विष्णु नागर अपने समय की नब्ज को पहचान रहे हैं। किस
कविताओं का संकलन प्रकाशित हो चुका था। उनका कवि आज तरह फासिस्टवादी ताक़तें निरंतर नागरिकों को उनके जनतांत्रिक
भी उसी मुस्तैदी के साथ डटा हुआ है जीवन भूमि में। विष्णु नागर अधिकारों से बेदखल कर, प्रतिरोध के हर संभव प्रयास को
की कविताएँ लगातार पैनी और व्यंग्य गर्भी होती गयी हैं। उनकी नेस्तनाबूद कर रही हैं। सत्ता की बढ़ती निरंकुशता और दमनकारी
कविताओं में रोजमर्रा की विसंगतियों की गहरी पहचान है जिसे नीतियों ने आम नागरिक को दोपाये में तब्दील कर दिया है। सत्ता
वह वर्ग-बोध के साथ व्यक्त करते हैं। वह अपनी रचना-प्रक्रिया हर हाल में यही चाहती है कि जनता उनका गुणगान करें। राजा को
भगवान स्वरूप कटियार हिंदी कविता के क्षेत्र में कविताएँ लिखीं जो इस संग्रह में शामिल हैं। ये
1970 के दशक के पूर्वार्ध में प्रवेश करते हैं। यह दौर शुरुआती कविताएँ हैं जिनके माध्यम से सत्तर के
है जब ‘आज़ादी से मोहभंग’ और ‘व्यवस्था विरोध’ दशक के युवा आक्रोश तथा बदलाव और विद्रोह की
कविता का मुख्य स्वर था। इनकी कविताओं में यह भावना सामने आती है। यह 1970 का दशक यानी
युवा आक्रोश और विद्रोह के रूप में व्यक्त होता है। जेपी आन्दोलन का दौर है।
उनका पहला संग्रह ‘विद्रोही गीत’ नाम से आया। इस तरह भगवान स्वरूप कटियार ने पांच दशक
अपने कवि के नाम के साथ ‘विद्रोही’ उपनाम का से अधिक की काव्य यात्रा की है। इस दौरान कविता
जोड़ना इसी आक्रामक तेवर की अभिव्यक्ति है। संग्रह की भूमिका राजनीतिक होने के साथ-साथ सामाजिक और सांस्कृतिक हुई
भी प्रसिद्ध क्रांतिकारी रामकृष्ण खत्री ने लिखी है तथा यह यशपाल है। कवि के अनुभव संसार का विस्तार हुआ है और कविता में
जी को समर्पित है। अपनी कविताओं में ‘आज़ादी’ और ‘लोकतंत्र’ कलात्मकता, वैचारिक गहराई और संवेदनात्मक सघनता आई
पर सवाल उठाते हुए वे कहते हैं - है। ‘विद्रोही गीत’ मिलाकर भगवान स्वरूप कटियार के अब
‘प्रसव की पीड़ा को सहते हुए तक छ कविता संग्रह आ चुके हैं। ये हैं ‘जिंदा कामों के नाम’
भारत माँ ने जन्म दिया (1998), हवा का रुख़ टेढ़ा है (2004), ‘मनुष्य विरोधी समय
आज़ादी को।... में’ (2013), ‘अपने-अपने उपनिवेश’ (2017) और समय का
आज़ादी का नवजात शिशु कैद हो गया चेहरा (चयनित कविताओं का संग्रह, 2019)। संप्रत्ति, उनका
मंत्रालयों और सचिवालयों की फाइलों में। लिखना निरंतर जारी है और वर्तमान की दरपेश चुनौतियों से जूझते
हमारी झोपड़ी का द्वार खुला है हुए ‘लिखने को बदलना होगा लड़ाई में’ जैसे भाव-विचार के साथ
आज़ादी की प्रतीक्षा में। वे नए संग्रह की तैयारी में जुटे हैं।
उसके अभिनंदन के लिए हम आतुर हैं भारतीय आज़ादी ने संविधान दिया। संविधान से लोकतंत्र
आज़ादी आएगी/मगर कब?’ आया। प्रजा से लोग नागरिक बने। उन्हें अधिकार मिला। लेकिन
और : संसद और राजनीति के पतन पर कवि की निग़ाह है। उसकी नज़र
‘लोकतंत्र? में यह लोकशाही नहीं तानाशाही है। उल्लेखनीय है कि कटियार
एक पद्धति या व्यवस्था? जी जिस यथार्थ को आठवें और नौवें दशक में ले आते हैं, वह
या कुर्सी का पर्याय? वर्तमान की क्रूर सच्चाई के रूप में हमारे सामने है। इस दौर की
या लूट की छूट?... अनेक कविताओं में यह यथार्थ व्यक्त हुआ है। उसके चंद नमूने
आख़िर क्या है आपका लोकतंत्र?’ हम देखें। वह कहते हैं-
गांधीवाद को लेकर कटियार जी का कहना है ‘अहिंसा के ‘आज़ादी
पुजारी तुम्हारे देश में अहिंसा रो रही है/तुम्हारे मरते ही तुम्हारा उनके लिए लूट
सत्य भी मर गया’। कटियार जी को अब गांधीवाद से नहीं लेनिन और अराजकता का महोत्सव है
और भगत सिंह की विचारधारा से उम्मीद है। इसे लेकर उन्होंने जनतंत्र में जन मर गया है
संजीव बख्शी की कविताओं को पढ़ते समय सायास किए जाने वाले प्रयत्न को जगह दी जाती है। कैसे
विनोद कुमार शुक्ल की कविताओं की याद हो आती गाँव को हड़पना है कि गाँव को यह आभास भी न
है। कहीं ऐसा प्रतीत होता है कि संजीव बख्शी की हो कि उसका अंत किया जा रहा है। गाँव को हड़पा
कविताएँ उनकी छाया हैं, तो कहीं ऐसा भी महसूस जाए, लेकिन उसे महसूस यह करवाया जाए कि इसमे
किए जाने के लिए उत्प्रेरित करती हैं ये कविताएँ उसका ‘विकास’ निहित है। विकास के इस भंवरजाल
अलहदा हैं, इन्हें विनोद कुमार शुक्ल की परंपरा में में वह आसानी से फंस सके इसके लिए चहुंदिश
में रखकर देखा जा सकता है। एकबारगी कविता- कार्य योजना निर्मित की जा रही है। इसी कार्य योजना
संग्रह के नामों को देखने से यह बात और दृढ़तर होती चली जाती का हिस्सा मनुष्य को ‘कमोडिटी’ बन जाने तक की प्रक्रिया में इस
है कि चाहे विनोद कुमार शुक्ल की छाया हो या उस परंपरा को कदर निमग्न किए जाने की साजिश रची जा रही है कि वह अपने
आगे बढ़ाने वाली कविताएँ हों, उनका असर तो संजीव बख्शी की असल रंग से महरूम होता चला जा रहा है। नदियों, पर्वतों-पठारों,
कविताओं पर है। संजीव बख्शी का चौथा काव्य-संग्रह ‘सफ़ेद से झीलों-तालाबों का रंग भी ‘कमोडिटी’ की इसी प्रक्रिया में छीजता
कुछ ही दूरी पर पीला रहता था’ विनोद कुमार शुक्ल का काव्य- चला जा रहा है। आसमान नीला होने से डर रहा है, मनुष्य अपनी
संग्रह ‘वह आदमी चला गया नया गरम कोट पहनकर विचार की मनुष्यता के रंग से हिगराता चला जा रहा है। हरेक रंग के खरीददार
तरह’ की याद करा जाता है। कीमत लिए सामने खड़ा दिखाई दे रहा है। सारी चीज़ें कीमत से
2023 में संजीव बख्शी का पाँचवाँ काव्य-संग्रह ‘उनके मापी जा रही हैं। कीमत के रंग में लिपटा हरेक मूल्य अपने असल
अंधकार में उजास है’, अंतिका प्रकाशन से प्रकाशित हुआ है। इस को छोड़कर चला जा रहा है। कहाँ जा रहा है, किधर जा रहा है-
संग्रह की कविताओं को पढ़ने के बाद ऐसा समझ में आता है कि इसकी भनक यदि इन वर्चस्वशाली शक्तियों को है भी तो वह दूसरे
उनकी कविताओं के ‘शेड्स’ में कई तरह के रंगों को उकेरे जाने को इसका एहसास तक नहीं होने देना चाह रही है। उपभोक्ताओं
के लिए कई कूचियों का भी इस्तेमाल किया गया है। जिन रंगों को को कमोडिटी बनते जाने की प्रक्रिया में इतना तो उपभोक्ताओं के
उकेरे जाने के लिए जिस कूची की ज़रूरत कवि को महसूस होती लिए आवश्यक जान ही पड़ता है कि उसे बाज़ार के रंग से परिचित
है, उसका वे इस्तेमाल कर लेते हैं। पूंजीवादी शक्तियों की हड़प होने की आवश्यकता है। बाज़ार के छद्म की भाषा को समझने
नीति को व्याख्यायित करने के लिए वे अपनी कविता ‘खसरा की ज़रूरत है। हमें यदि एक की ही ज़रूरत है, तो हम एक से
पाँचसाला’ के ग्यारहवें अध्याय में बड़ी संजीदगी और सहजता से अधिक न चाहते हुए भी क्यों खरीद लाएँ? यह तो बाज़ार का छद्म
अपनी काव्य भाषा को उकेरते दिखाई देते हैं। वे लिखते हैं- “बाहरी है, जो अपने लाभ-लोभ की चाशनी में इस कदर डुबो रखा है कि
आदमी गाँव आता है/ सागौन की लकड़ी चाहिए/ कोई खदान लेना उपभोक्ता वर्ग उस चाशनी में बिना डूबे निकल न पाये। बाज़ार
चाहता है/ या उद्योग लगाना है/ कोई ज़मीन की दलाली में है/ अपनी इस नीति को लागू करने में बहुत हद तक सफल भी होता
खैरियत पूछने कम ही आता है कोई।” पूंजीवादी शक्तियों की हड़प दीख रहा है। बाज़ार के रंग बहुविध, बहुवर्णी किस्म का होता है।
नीति में खैरियत को जगह नहीं है, न ही उनके पास इतना समय यदि बाज़ार के इन बहुविध रंगों के बारे में जानकारी नहीं होगी,
है कि वे खैरियत को जगह दे सकें। वहाँ तो गाँव को हड़प जाने तो पता भी नहीं चल पाएगा कि दरअसल बाज़ार का असल रंग
की पूरी योजना को मूर्त रूप प्रदान करने के लिए दिन-रात एक क्या है? इस स्थिति में यह तय कर पाना भी मुश्किल हो जाएगा
विनोद दास के तीन कविता-संग्रह प्रकाशित हैं- जन-सम्बद्ध प्रतिबद्धता इन तीनों के संश्लेष में ही
‘ख़िलाफ़ हवा से गुज़रते हुए’,‘वर्णमाला से बाहर’ पुख्ता होती देखी जा सकती है। यह कहा जाना क़तई
और ‘कुजात’। इन संग्रहों में उनकी कुल एक सौ अतिकथन नहीं होगा कि विनोद दास अपनी काव्य-
पंद्रह कविताएँ संकलित हैं। विनोद दास एक धैर्यवान यात्रा के प्रारम्भ से ही इन तीनों कसौटियों को अपने
और जेन्युइन खाँटी कवि हैं। इस धैर्य और खांटीपन लिए एक चुनौती की तरह लेते देखे जाते हैं और इन्हें
का वैचारिक मूलाधार उनका अपने मूलभूत जीवन- इनके संश्लिष्ट स्वरूप में ही काव्य-बद्ध करते चले
स्रोतों, अर्जित चिंता-धारा, भौगोलिक-राजनीतिक- हैं। उनके तीनों संग्रहों में लिखी गई अनेक कविता-
सामाजिक संदर्भोंं तथा इन सबके संश्लेषण से विनिर्मित कवि- शृंखलाएँ इस तथ्य की गवाही देती हैं। इन कविता-शृंखलाओं
दृष्टि, विज़न व काव्य-न्याय रहा है। वीरेन्द्र यादव ने ‘चिंतनदिशा’ में इन तीनों ही मोर्चों पर एक सिपाही की तरह सन्नद्ध हैं और
पत्रिका में छपे अपने संस्मरणात्मक लेख ‘ख़िलाफ़ हवा से गुज़रते उनके सरोकार खुलकर सामने आते हैं। इन कविता-शृंखलाओं में
हुए’ में लिखा है कि- “मुझे लगता है कि विनोद दास अपनी मूल ‘साँस रोककर याद करो भोपाल’, ‘आदिवासियों का गीत : तीन
प्रकृति में अपने गाँव, कस्बे के जीवन और उसकी सामाजिक कविताएँ’,‘गाँव : छः कविताएँ’,‘गृहिणी : कुछ कविताएँ’ (ख़िलाफ़
संरचना से मुक्त होकर कभी महानगरीय चेतना में विलीन नहीं हवा से गुज़रते हुए),‘अयोध्या : सात कविताएँ’,‘अयोध्या : कुछ
हो पाए। बल्कि उसके उलट उसकी रचनात्मकता के लिए उसने और कविताएँ’ (वर्णमाला से बाहर) आदि शामिल हैं। ‘कुजात’
खाद पानी का काम किया।” अपनी सचमुच की ज़मीन और जड़ों संग्रह में ऐसी सीरीज़ नहीं हैं; संभवतः इसका कारण यह है कि वहाँ
से नाभिनालबद्ध रहे आने से उनमें अटूट धैर्य और खांटीपन पैदा अनेक कविताओं का आकार अपेक्षाकृत बड़ा है और उसमें काव्य-
हुआ जिसका संबंध निर्गुण संत संप्रदाय से उनके आनुवांशिक वस्तु के अनेकानेक आयाम/वेरिएबल्स एक ही कविता में समाहित
सांस्कारिक स्वभाव से भी जुड़ता है; जिसके अंतर्गत एक निरंतर व समेकित कर दिये गये हैं। ‘देश’,‘ख़ुदकुशी’,‘सिपाही’,‘बलात
डि-कास्ट होने की असमाप्त प्रक्रिया में वे रहे आते दिखाई देते हैं। कृता का हलफनामा’,‘प्रेम के शुक्राणु’,‘सड़क पर मोर्चा’,‘ईश्वर
जैसा कि हम देखते हैं, आगे अपने व्यक्तित्व व लेखन में ठोस रूप के दलाल’,‘झूठ’,‘कुजात’,‘जोड़ों का दर्द’,‘बांग्लादेशी गीता
से उन्होंने प्रगतिशील जीवन मूल्यों का विस्तार किया है। ‘ख़िलाफ़ बाई’,‘चालीस साल’ आदि लगभग ऐसी ही बहुआयामी व विस्तृत
हवा से गुज़रते हुए’ से लेकर‘कुजात’ तक की अनेकानेक कविताएँ कविताएँ हैं। विनोद दास के सरोकार लगातार पुख्ता हुए हैं।
इसकी तस्दीक़ करती हैं। विचलन/विपथन लगभग नगण्य है। कवि जैसे शुरू से अब तक
एक तरह से देखा जाए तो कवि विनोद दास अपनी लंबी काव्य- अपनी नाक की सीध में अपनी पूरी इयत्ता और अस्मिता के साथ
यात्रा में डि-कास्ट,डि-क्लास और डि-जेंडर तीनों ही प्रक्रियाओं सक्रिय होता आया है। निश्चय ही उसकी यह सक्रियता पर्याप्त
से एक साथ और समानान्तर रूप से गुज़रते और इनमें दीक्षित आत्मविश्वास से लबरेज़ है।
होते चलते प्रतीत होते हैं। ऐसा कोई विरला ही कवि होता है, जो विनोद दास अपनी कविता में समय के सरोकारों से गहरे
इन तीनों स्तरों पर समान व समेकित रूप से खरा उतरता हो। वाबस्ता दिखायी देते रहे हैं। जैसे कि ‘गाँव’ सीरीज़ की कविताओं
कास्ट-क्लास-जेंडर; ये तीनों एक साथ संरचना में लाए जाएँ, तभी में समय के उस अंतराल में तरह-तरह की राजनीति के अखाड़े के
सर्वोत्तम रेशनल जीवन-दृष्टि आयत्त होती है। एक कवि की असल रूप में गाँव उभरते दिखायी देते हैं। सीरीज़ की पाँचवीं कविता में
आधुनिक हिंदी कविता के परिदृश्य में वरिष्ठ कवि खोला है वहीं आश्चर्यचकित और हैरतअंगेज तथ्यों
सुधीर सक्सेना की कविता-यात्रा पर विचार करते से हमारा साक्षात्कार कराया है। विज्ञान विषयक
हुए मैं सर्वप्रथम कवि सर्वेश्वरदयाल सक्सेना की कविताएँ हिंदी में ही नहीं भारतीय भाषाओं में और
पंक्तियों का स्मरण करना चाहूँगा- ‘लीक पर वे अन्यत्र भी इतनी देखने को नहीं मिलतीं जितनी सुधीर
चलें जिनके/ चरण दुर्बल और हारे हैं / हमें तो जो सक्सेना के यहाँ हैं। जैसे वे इस धारा का सूत्रपात
हमारी यात्रा से बने/ ऐसे अनिर्मित पंथ प्यारे हैं।’ कर रहे हैं। ऐसा नहीं है कि यह संग्रह अचानक और
कवि सुधीर सक्सेना की कविताएँ किसी परंपरागत एकाएक प्रकट हो गया है। इस संग्रह में संकलित
लीक पर चलने वाली सहज, सामान्य अथवा साधारण कविताएँ कुछ कविताएँ उनके पूर्ववर्ती संग्रह में देखी जा सकती है। अपने
नहीं है। वे असहजता को सहजता से स्वीकार करते हुए अपने समय के साथ और परंपरा को खंगालते हुए कवि ने अपनी कविता
विशिष्ट विन्यास में सामान्य से अलग प्रतीत होती हैं। उनके यहाँ यात्रा में अनेक ऐसे स्थल निर्मित किए हैं जिनके उल्लेख के बिना
असाधारण चीज़ों को साधारण बनाने का सतत उपक्रम कविता आधुनिक हिंदी कविता का इतिहास पूरा नहीं हो सकेगा।
में होता रहा है। सुधीर सक्सेना अपनी लीक सदैव स्वयं निर्मित सुधीर सक्सेना की कविता यात्रा के उद्गम से आरंभ करें तो
करते रहे हैं। अपने प्रत्येक कविता संग्रह में उन्होंने निरंतर स्वयं आपके पहले कविता ‘बहुत दिनों के बाद’ की एक कविता ‘शर्त’
को जटिलताओं अथवा कहें अतिसंवेदनशीलताओं में गाहे-बगाहे का यहाँ उल्लेख ज़रूरी लगता है-
डालते हुए हर बार मजूबत-दृढ़ कदमों के साथ आगे बढ़ते हुए “ममाखियों के घरौंदे में/ हाथ डाल
मनुष्यता की जीत का अहसास कराया है। आपको किसी धारा या और जान ज़ोख़िम में
वाद में आबद्ध नहीं किया जा सकता है। कहना होगा कि उन्होंने लाया हूँ/ ढेर सारा शहद
अपनी कविता यात्रा द्वारा हिंदी कविता के प्रांगण में अनेक अनिर्मित पर एक शर्त है/ शहद के बदले में
पंथ सृजित करते हुए अपने एक अलबेले पंथी होने का साक्ष्य तुम्हें देना होगा/ अपना सारा नमक।”
छोड़ा है। आज आवश्यकता यह है कि हम इन साक्ष्यों के आलोक अपने पहले ही संग्रह से कवि सुधीर सक्सेना ने एक व्यवस्थित
में अनिर्मित पंथ के पंथी मुक्त और स्वछंद विचरने वाले सुधीर कवि होने का अहसास कराते हुए अनेक उल्लेखनीय कविताएँ दी
सक्सेना की कविता-यात्रा को देख-परखकर उनका उचित स्थान हैं। इन कविताओं में उनका अपना समय-समाज और इतिहास-
निर्धारित करें। बोध अपने गहरे रंगों में अंकित हुआ है।
परिमल प्रकाशन से ‘बहुत दिनों के बाद’ (1990)आपका अगले संग्रह ‘समरकंद में बाबर’ (1997)पर आपको रूस
पहला कविता संग्रह आया जिसे मध्य प्रदेश हिंदी साहित्य सम्मेलन के प्रतिष्ठित ‘पुश्किन पुरस्कार’ से सम्मानित किया गया। यह
द्वारा वागीश्वरी पुरस्कार से सम्मानित किया गया। उनके लेखन संग्रह अपनी सहजता, संप्रेषणीयता, सृजनात्मकता और विषयगत
का सिलसिला विद्यार्थी काल से ही उल्लेखनीय रहा है जिसका विविधता के कारण एक संग्रहणीय है। अपने समय की अनिश्चितता
अनुमान हम आपके सद्य: प्रकाशित कविता संग्रह ‘सलाम लुई को कवि ने इन शब्दों द्वारा जैसे परिभाषित किया- “कुछ भी/
पाश्चर’ (2022) कविता संग्रह की लंबी भूमिका से हो सकता ऐतबार के काबिल नहीं रहा/ न कहा गया/ न सुना गया/ और न
है जिसमें कवि ने जहाँ वर्ष 1970 से अपनी स्मृतियों का गुल्लक लिखा गया/ कुछ भी नहीं/ जहाँ भरोसा कोहनी टिका सके/ कोई
कई बार सार्थक रचने वाले रचनाकार अलक्षित रह जिसमें इस हत्यारी संस्कृति की समाई हो नहीं सकी।”2
जाते हैं परन्तु उनकी अहर्निश रचनात्मक साधना गोबिंद प्रसाद अपने समय की सही और खरी पहचान
ही उनकी पहचान बन जाती है। सूफी अदब और करने वाले कवि हैं। वे पूंजी और बाज़ार की दम
शायराना मिज़ाज वाले गोबिंद प्रसाद को कला और घोटू व्यवस्था में चुपचाप मर रहे लोगों की आवाज़
संगीत की बारीक़ परख है, इसलिए वे ‘जीवन में बनकर उभरते हैं। अपने वज़ूद को टटोलना,जगाना
लय’ की खोज करने वाले कवि हैं। वे जीवन अनुभव और प्रतिरोध करना दरअसल मनुष्यता के पक्ष में
के रंगों को कैनवास की तरह कविता में उतारकर खड़े होना है। “हर ज़माने में शास्त्र,सत्ता और बाज़ार
समकालीन हिंदी कविता के फ़लक को और अधिक व्यापक बनाते के मायावी प्रलोभन रहे हैं और वर्जनाएँ रही हैं। कविता इन घेरों-
हैं। गोबिंद जी मूलतः हिंदी साहित्य के व्यक्ति हैं लेकिन उनकी बंदिशों से हमेशा बाहर निकली, तभी वह मनुष्यता की मातृभाषा
आवाज़ाही हिंदी-उर्दू-फ़ारसी में समान रूप से है। हिंदी में उनके बन सकी।”3 वह पूंजी, बाज़ार, मीडिया और सत्ता के गठजोड़
अब तक चार कविता संग्रह ‘कोई ऐसा शब्द दो’ (1996) ‘मैं नहीं के प्रति आगाह करने वाले स्वतंत्रचेता कवि हैं– “जब मैं बोलता
था लिखते समय’(2007), ‘वर्तमान की धूल’, (2014) ‘यह हूँ.../ तो दरअस्ल बोलता कहाँ हूँ-/ भीतर-ही-भीतर / कहीं अपने
तीसरा पहर है’ (2018) प्रकाशित हो चुके हैं। में घोलता हूँ / जहर में बुझा वह समय / जिसकी नाव पूंजी और
गोबिंद प्रसाद समकालीन हिंदी कविता के परिदृश्य में नए बाज़ार के / चप्पूओं के गठजोड़ पर चल रही है।” 4
जीवन बोध के साथ उभरते हैं। यह नया जीवन बोध दरअसल गोबिंद प्रसाद अपने समय के सवालों से सीधे टकराने वाले
समाज के परिवर्तित ताप और तेवर के साथ निजी अनुभव की भट्टी कवि हैं। एक तरफ ग़रीबों की अभिशप्त दुनिया दूसरी तरफ रईसों
में पके हुए शब्दों में ढलकर व्यक्त होता है। इसलिए उनकी कविता के चोंचले। एक तरफ श्रम संस्कृति दूसरी तरफ ठग संस्कृति। ऐसे
में अपने समय और समाज के प्रति आलोचनात्मक साहस और में ग़रीबों की वीरान आँखें आज भी मानव संस्कृति के समक्ष एक
सजगता दिखाई देती है। वे समकालीन हिंदी कविता को ‘चिलम में चुनौतीपूर्ण प्रश्न हैं। इसलिए खौफ़जदा करने वाले अमीरों को कवि
आंच’ की तरह धीरे- धीरे सुलगने वाली आग मानते हैं–“कविताएँ अपने लेखन द्वारा चुनौती देता है– अपनी अमीरी का ख़ौफ़ दिखाते
/ ऐसे नहीं आती हैं जैसे चिलम में आँच /वे सुलगती रहती हैं दिनों हो मुझे, मेरी ग़रीबी चुराकर दिखाओ6। ग़रीबों को सहानुभूति नहीं,
दिन चुपचाप।”1 सहयोग की ज़रूरत है। कवि सिर्फ़ अमीरों को ग़रीबों के पक्ष में
एक ऐसे समय में जब सब कुछ बिकाऊ हो,सत्य कई पर्दे खड़े होने के लिए ही नहीं ललकारता अपितु अपने आत्म को
के पीछे छिपा हो, ढोंग और आडम्बर को जीवन मूल्य की तरह भी िझंझोड़ता है। जब समय इतना कठिन हो कि आत्माभिव्यक्ति
परोसा जा रहा हो,अभिव्यक्ति के ख़तरे उठाने को कोई तैयार न के लिए कोई जगह न बचे तो ऐसे जहरीले समय में कवि अपने
हो,चारो तरफ ऊब,उदासी और भय का आलम हो, ऐसे वातावरण भीतर के सोये हुए मनुष्य को जगाता है और तार तार होकर भी
में आवाज़ बुलंद करना दरअसल अपने भीतर की बेचैनी को उस अभिव्यक्ति के ख़तरे उठाता है– “जब मैं बोलता हूँ / तो बोलता
भाषा में प्रकट करना है जिसे कविता कहते हैं-“जब मैं बोलता हूँ…/ कहाँ हूँ / तार-तार कर अपने को / बस अपने को / अपने में सोये
तो दरअस्ल बोलता कहाँ हूँ / अन्दर-ही-अन्दर खौलता हूँ / रह- हुए को / िझंझोड़ता हूँ / जब-जब मैं बोलता हूँ।” 7
रहक़र कहीं अपने को टटोलता हूँ/ भीतर-ही-भीतर/उस भाषा में/ कवि का सृजन उसी भाषा का अनुगामी होता है जो कवि को
सुभाष राय की कविताओं का सोता संत कवियों प्रधान संपादक के रुप में लखनऊ में काम करते हुए
की अक्खड़ता और छायावाद की स्वच्छंदता की उन्होंने कविताएँ लिखनी शुरू कीं। उन्होंने एक साल
अंत:सलिला परंपरा में धँसा हुआ है। अपने समय तक मासिक साहित्यिक पत्रिका 'समकालीन सरोकार'
की तमाम सत्ताओं की वर्जनाओं, दमन और दबाव का संपादन भी किया। उनका पहला और चर्चित
के विरुद्ध जीवन,आज़ादी,मनुष्यता और सच के पक्ष कविता संग्रह 'सलीब पर सच' बोधि प्रकाशन,जयपुर
में सुभाष राय शब्दार्थ की बारूद बिछा देते हैं जिसकी से 2018 प्रकाशित हुआ। उनका दूसरा काव्य-संग्रह
गंध उनकी कविताओं के तेवर में सूंघी जा सकती 'मूर्तियों के जंगल में' (2022)तथा तीसरा संग्रह न्यू
है। उनकी कविताओं में एक खास तरह की बेचैनी,ललक और वर्ल्ड पब्लिकेशन, नई दिल्ली से समकाल की आवाज़ शृंखला के
ललकार है। लगभग दो शताब्दी पहले 1936 में उसी लखनऊ अंतर्गत 'चयनित कविताएँ'(2023) शीर्षक से प्रकाशित है।
में प्रेमचंद ने कहा था कि अब हमें ऐसे साहित्य की ज़रूरत है जो सुभाष जी की कविताओं के संदर्भ तीन स्तरों पर खुलते हैं।
हममें गति और बेचैनी पैदा करे, हमें सुलाए नहीं,क्योंकि अब और पूंजीवाद, महामारी और सत्ता का प्रतिरोध। प्रतिरोध के साथ प्रकृति
ज्यादा सोना मृत्यु का लक्षण है। सुभाष जी अपनी कविताओं में इस से मनुष्य के बेहद आत्मीय रिश्ते की अनगिनत छवियाँ उनकी
बेमौत मृत्यु के ख़िलाफ़ बड़ी तल्ख जिंदादिली के साथ खड़े हैं- कविताओं में जगह जगह उभरती हैं। 'बादल आये' की इन पंक्तियों
मेरा परिचय उन सब का परिचय है को देखें,तो प्रकृति से मनुष्य के लास्य और ललित रिश्तों की ऐसी
जो सोए नहीं हैं जनम के बाद महक़ उठेगी कि नागार्जुन की कविता 'बहुत दिनों के बाद' में कवि
उनसे मुझे कुछ नहीं कहना का अरसे बाद गन्ना चूसना,तालमखान खाना और धान कूटती
जो दीवारों में चुने जाने से खुश हैं किशोरियों की कोकिल कंठी तान सुनना सब याद हो आता है:
जो मुर्दों की मानिंद घर से निकलते हैं बादल प्यारे कल भी आना
बाज़ार में खरीद दारी करते हैं भींगे मुझको हुआ जमाना। (चयनित कविताएँ)
और ख़ुद खरीदे हुए सामान में बदल जाते हैं बादल के साथ मनुष्य का अपनापा और बादल की मनुहार
जो सिक्कों की खनक पर बिक जाते हैं दिलचस्प है। यह कहा जा सकता है कि इतना प्रीतिकर संबंध तो
ऐसे मुर्दों पर गंवाने के लिए वक्त नहीं है मेरे पास किसानों का ही बादल और प्रकृति से होता है। इसमें सुभाष जी का
मैं अपने जैसे गिने-चुने लोगों को ढंढू रहा हूँ गांव बोलता है। उनका किसान बोलता है। कवि को अपने गांव के
मुझे आग बोनी है और अंगारे उगाने हैं दिन और बचपन की याद आती है, जब वह बारिश में भींगने का
(सलीब पर सच) लुत्फ लेता था। 'हुआ जमाना' कहने में ही आज मशीनों से घिरे
सुभाष राय का कविता कर्म 21वीं सदी के पहले दो दशकों मनुष्य की यांत्रिक जिंदगी की टीस और कृत्रिमता व्यक्त हो गई है।
में आता है,हालाँकि वे वरिष्ठ हैं और चार दशकों की लंबी और यह बाल कविता की शैली में लिखी गई कविता है लेकिन इसमें
प्रतिष्ठित पत्रकारिता के कैरियर के बाद कविता लेखन में मुखर होते नव-औपनिवेशिक समय में अपनी परंपरा, गँवई संस्कृति के स्पेस
हैं। अमृत प्रभात,आज,अमर उजाला,डीएलए, डीएनए जैसे समाचार व उल्लास तथा रिश्तों के माधुर्य को गँवाकर एक आपाधापी से भरी
फोरमों में शीर्ष जिम्मेदारियाँ निभाने के बाद जनसंदेश टाइम्स में रूखी कृत्रिम जिंदगी की घुटन है। इस विषैली घुटन से निकलने
कृष्ण कल्पित की चार पुस्तकों के आधार पर उनके जवाब में मंटो ने कहा था कि
कवि-व्यक्तित्व के बारे में कुछ बातें कहना चाहता ‘शरीफ औरत का कोई अफ़साना नहीं होता!’
हूँ– ‘बाग़-ए-बेदिल’ (2013), ‘कविता-रहस्य’
(2015), ‘हिन्दनामा’ (2019) और ‘रेख्ते के इसी तरह श्लोक शैतान ही लिख सकता है, पार्थ!
बीज और अन्य कविताएँ’ (2022)। वे एक समर्थ सृष्टि का प्रथम श्लोक भी
कवि के दायरे का विस्तार करते हैं। कृष्ण कल्पित एक दस्यु ने लिखा था, सार्त्र! (पृ.-57)
हिंदी कविता की एक दुर्लभ आवाज़ हैं। वे किसी कल्पित की शैली दुश्मन पैदा करती है। उनकी
क्लासिकल कवि की तरह भाषा रचते हैं। उनकी कथन-भंगिमाओं रचनाओं से नाराज़ होनेवालों की संख्या पर्याप्त होगी! कल्पित
को ठीक से पहचाना जाए तो मानना पड़ेगा कि वक्रोक्ति ही काव्य अपनी कविताओं में बहुतों की ख़बर लेते हैं, मगर ऐसा नहीं है
की आत्मा है। उनकी कविताओं की विषय-वस्तु एक सजग कि वे मुग्ध नहीं होते! मीर और नामवर उन्हें बहुत प्रिय हैं।
साहित्य-बौद्धिक की मानसिक दुनिया है। ‘हिन्दनामा’ की कविताएँ व्योमेश शुक्ल और काशी के लिए उनके दिल में प्यारी-सी जगह
नए ढंग की ‘डिस्कवरी ऑफ़ इंडिया’ हैं। भारत की न जाने कितनी है, “नदेसर पर ठंडई छानकर/आप काशी के कवि व्योमेश शुक्ल
छवियाँ इसके पन्नों पर अंकित की गयी हैं। ‘बाग़-ए-बेदिल’ का की...” (पृ.-32)
वातावरण प्रायः साहित्य से जुड़ा है। संस्कृत, फ़ारसी और देशज कल्पित की कविताओं में स्त्रियों के बारे में जिस तरह की
स्रोतों का इस्तेमाल करते हुए कल्पित एक नयी बात कहने का बातें कही गयी हैं, वे प्रचलित स्त्री-विमर्श से अलग ढंग की हैं।
हुनर ख़ूब विकसित किए हुए हैं। ‘कविता-रहस्य’ कविता से जुड़ी वे संस्कृत के संदर्भ लेकर या स्वतःसंज्ञान लेते हुए स्त्रियों के बारे
मान्यताओं, सिद्धांतों और कवि के रचना-अनुभव पर विचार करने में जो कुछ कहते हैं उन पर परंपरागत क्लासिकल पोएट्री की
वाली किताब है। ‘रेख्ते के बीज और अन्य कविताएँ’ की कविताओं छाप है, जल्दबाजी में इन्हें ‘अश्लील’ भी समझा जा सकता है,
में कृष्ण कल्पित के कवि के विकास को रेखांकित किया जा सकता “इस कवयित्री ने कमाल कर दिया– सामूहिक-नग्न-नृत्य का/
है। यह कार्यक्रम/चतुर्भुज स्थान से/रामलीला मैदान तक/बदस्तूर जारी
कल्पित की कविताएँ कविता में लिखी गयी आलोचना हैं। है, सार्त्र!” (पृ.59)
वे इतिहास, राजनीति और साहित्य की आलोचना करते हैं। वे विमर्शों के परिवेश में कल्पित की कविताएँ इस बात को
कविता में बेबाकी के उस दर्ज़े तक जाकर मुखरित होते हैं, जहाँ प्रमाणित करती हैं कि कविता केवल ‘जगतबोध’ से नहीं लिखी
व्यक्तिगत रूप से गलत समझे जाने के ख़तरे मौज़ूद होते हैं। जाती है। उसकी प्राणशक्ति ‘जगतबोध’ के साथ ‘आत्मबोध’ से
आत्मविश्वास और अहंकार के सुंदर मिलन-बिंदु पर पहुँची हुई जुड़ी हुई है। जगतबोध को तरजीह देनेवाले होशियार होते हैं और
काव्य-भाषा कल्पित की पहचान हो सकती है। उनकी अभिव्यक्ति आत्मबोध को तरजीह देनेवाले समझदार! कविता की दुनिया इन
में अहंकार पर एतराज किया जा सकता है, उनके आत्मविश्वास दोनों से बनती है। कल्पित ‘जगतबोध’ और ‘आत्मबोध’ के बीच
को नकारात्मक बताया जा सकता है। मगर जिस संत-सात्विकी से कोई समझौता नहीं करते। वे दोनों को उनकी जगह के अनुसार
बेपरवाह होकर वे अपने को जोख़िम में डालते हैं, वह नायाब है- महत्त्व देते हैं। उनका ‘आत्मबोध’ प्रचलित जगतबोध के ख़िलाफ़
‘आप बुरी औरतों के अफ़साने ही क्यों लिखते हैं?’ भी खड़ा हो जाता है। ऐसे प्रसंगों को सतही तरीके से समझने से
गए दो तीन दशकों में हिंदी कविता के विवेचन प्रचुर गद्य लेखन का साक्ष्य हैं। साठोत्तर कविता के
मूल्यांकन को ग़ाैर से देखा जाए तो इस क्षेत्र में एक वैचारिक पहलुओं पर शोध करने वाले ओम निश्चल
शख्स पूरे मन और समर्पण से संलग्न रहा है। उसकी ने साठ से अब तक के अनेक कवियों पर नीर-क्षीर
आलोचनाएँ समीक्षाएँ कविताएँ गीत सब उसकी विवेक के साथ लिखा है।
शख्सियत के विधायक तत्व हैं। इस शख्स ने हिंदी ओम निश्चल की साहित्यिक शख्सियत के अनेक
समीक्षा-आलोचना को एक प्रांजल और समावेशी पहलू हैं। वे मूलत: कवि-गीतकार थे तथा गौणत:
भाषा दी है। साथ ही भाषा को आम आदमी तक एक आलोचक लेकिन संयोगवश वे धीरे धीरे मुख्यत:
ले जाने के अपने प्रयासों को मूर्त रूप दिया है। पिछले दिनों एक आलोचक ही होते गए और गौणत: कवि। भाषा से उनका रिश्ता
पुस्तक भाषा को लेकर चर्चित रही है वह थी :भाषा की खादी। व्यावसायिक रहा है। हिंदी गीत रचना में जैसा पद-लालित्य उनके
भाषा का आम आदमी से वही रिश्ता है जो हिंदी का हिंदुस्तानी गीतों में देखा जाता है, वैसा अन्य गीतकार-कवियों में कम। उनकी
से। भाषा की खादी जैसी अवधारणा पर पहली बार किसी ने इतनी आलोचना पर बात होती रही है। उसका वितान बहुत विस्तृत है।
सक्षमता से कलम चलाई तथा हिंदी-हिंदुस्तानी, भाषा, राजभाषा गए पांच छः दशकों की हिंदी कविता का ऐसा क्लोज रीडर और
तथा हिंदी के प्रचार प्रसार में आने वाली कठिनाइयों का समाधान उस पर टीका लिखने वाला दूसरा कोई आलोचक न होगा। लेकिन
देती व भाषा व संस्कृति के ताने बाने को ख़ूबसूरती से सहेजती आज चर्चा उनके गीत पक्ष पर होनी है। जैसा कि विदित है कविता
ऐसी पुस्तक केवल वही शख्स लिख सकता था जिसका भाषा से में उनकी उपस्थिति का साक्ष्य उनका संग्रह 'शब्द सक्रिय हैं' है,
सघन रिश्ता हो। जो 1987 में प्रकाशित हुआ। कहना न होगा कि वे नवगीत के
बीते चार दशकों से काव्य, आलोचना और भाषा-चिंतन के बेहतरीन रचनाकारों में शुमार किए जाते हैं। इसकी वज़ह शायद
क्षेत्र में कार्यरत ओम निश्चल की अनेक ख़ूबियाँ हैं। आलोचना के यह कि उन्होंने ठाकुरप्रसाद सिंह, शंभुनाथ सिंह सरीखे कवियों के
क्षेत्र में नंद किशोर नवल, परमानंद श्रीवास्तव, विश्वनाथ प्रसाद संपर्क में रह कर गीत की संरचना एवं पदलालित्य की सीख ली
तिवारी तथा विजय कुमार की अगली पीढ़ी के जिन कुछ लेखकों है। कोरोना समय में भी ओम जी ने अनेक कविताएँ पत्र पत्रिकाओं
और सहृदय आलोचकों की समावेशी आलोचना पर निगाह जाती एवं महत्वपूर्ण वेब पत्रिकाओं के लिए लिखीं जिनमें मजदूरों, और
है उनमें एक नाम ओम निश्चल का भी है। उन्होंने कविताओं आम आदमियों को कोरोना विस्थापन से जो कष्ट हुआ उसे बहुत
और गीत लेखन से शुरुआत की किन्तु धीरे धीरे आलोचना में ही मार्मिक ढंग से अपनी कविताओं में उकेरा है।
उनका पथ प्रशस्त होता गया और मुख्यत: आलोचक के रूप इधर कोरोना जैसे उनकी रचनात्मकता का एक डिवाइडर
में प्रतिष्ठित होते गए। हाल के वर्षों में उनकी लिखी कृतियाँ: प्वाइंट भी है। कोरोना में उनके एक से एक मुखर गीत पढ़ने को
शब्द सक्रिय हैं, कविता के वरिष्ठ नागरिक तथा समकालीन हिंदी मिले। आजतक वेबसाइट पर उन्होंने लगातार लिख कर कविता
कविता: ऐतिहासिक परिदृश्य और हाल ही प्रकाशित कवि विवेक में अपने समय की त्रासदी को पिरोने की पहल की। ''देश बचा
जीवन विवेक : कविता का वैचारिक हस्तक्षेप, निबंधों की पुस्तक लो जान बचा लो/ भारत का सम्मान बचा लो/ पार्थ चलाओ वाण
: हिंदी का समाज, समाज की संस्कृति एवं संस्मरणों की पुस्तक कि पूरा देश सुलगता है/ सांस का पंछी पिंजरे में ही पड़ा तड़पता
खुली हथेली और तुलसीगंध– उनकी आलोचकीय सक्रियता एवं है।'' तथा ऐसे ही बहुत मार्मिक गीत लिख कर उन्होंने कोरोना की
'चौबारे पर एकालाप' अनूप सेठी जी का दूसरा काव्य का सामना करना पड़ता है, ये कविताएँ कुछ-कुछ
संग्रह है। पहला काव्य संग्रह 'जगत में मेला' 2002 उसी का बयान करती हैं। 'कवि लीलाधर जगूड़ी जी
में आया था। यह दूसरा संग्रह 16 वर्ष बाद आया आये थे' कविता की ये पंक्तियाँ देखी जाएँ -
है। मन ही मन मुस्कराया-जगत के मेले से अनूप मिल तो तब भी रहा होता है कवि
जी निकल कर ये चौबारे पर एकालाप क्यों करने जब पाठक पढ़ रहा होता है
लगे भई! उत्तर भी अपने आप उभरा-ये तो संग्रह की अकेले में उसे अपने आप
कविताएँ ही बताएँगी। 16 वर्षों में चयनित कविताओं
का दो ही संग्रह आना इस बात का संकेत देता है कि वे अपनी कवि से मिलना कविता के बाहर फिर भी
सृजन प्रक्रिया के सचेतन कवि हैं। उनके अनुभवों-अनुभूतियों का बड़ा ज़रूरी लगता था
अपना गर्भाधान काल है। गद्य-कविता के अन्य फौरी कवियों के रह गये जैसे जीवन में बहुत ज़रूरी बहुत काम
क्षिप्र गल्पावेग से उनकी कोई प्रतियोगिता या स्पर्धा नहीं दिखती। रह गया यह भी आधे धाम
कविवर अनूप सेठी जी की 55 कविताओं के इस संग्रह की ऊपर से साधारण दिखती ये पंक्तियाँ विद्यमान साहित्यिक
अधिकांश कविताएँ 2001 से 2014 के दौरान लिखी गयी बतायी परिवेश की गतिविधियों की सांकेतिकता से अथाह अर्थ भरी हैं।
गयी हैं। इसमें दो लम्बी कविताएँ 'मेरे भीतर का शहर' 1988 जब कभी कविता का गंभीर पाठक किसी कवि के कविता संग्रह को
और 'चौबारे पर एकालाप' 1989 में लिखी गयी हैं। अनूप जी ने ज़रूरी पढ़ना समझ कर पढ़ता है, तो उस कवि से उसकी आंतरिक
कविताओं का रचनाकाल देकर पाठकों और खासकर आलोचकों मित्रता होने लगती है। उनमें उन्हें कुछ-कुछ अपनापन मिलता है।
को अपने आंतरिक व्यक्तित्व और रचना प्रक्रिया को समझने का यह अपनापन कितने दिनों तक टिकता है या विकसित होता है, यह
सुलभ अवसर प्रदान किया है पर इन कविताओं के लेखन और दोनों के आंतरिक व्यक्तित्व की विकास-प्रक्रिया पर निर्भर करता
चयन के बारे में स्वयं कुछ नहीं लिखा है। अगर वे भूमिका या है। उद्धृत पंक्तियों का मर्म यह है कि एक कवि अपने सीनियर
प्रस्तावना के रूप में कुछ लिखते तो वह इन कविताओं के सूक्ष्म कवि से, जिससे उसका संबंध कविता के माध्यम से श्रद्धामूलक
संदर्भ का काम करतीं। हाँ, संग्रह के फ्लैप पर आगे-पीछे विजय बना हुआ है, मिलना तीर्थ (धाम) जैसा ज़रूरी समझता है पर
कुमार जी की एक छोटी टिप्पणी ज़रूर है पर यह तय मैं नहीं साहित्य के स्थानीय पंडे (या सूबेदार) उस कवि को अपनी ही
कर पाया कि उस टिप्पणी का प्रयोजन क्या है? क्या उसे पुस्तक दुनिया में उड़ा ले जाते हैं। वह अपहरण कर्ता कवि अपहरित कवि
खरीदने या पढ़ने के लिए दृष्टिबन्ध और सिफारिश माना जाये? को अन्य स्थानीय कवियों से नहीं मिलने देना चाहता कि कहीं
आजकल के कविता संग्रह में ऐसे अमूर्त फ्लैप लेखन का चलन सबसे मिलकर उस सीनियर कवि को उसकी असलियत का पता
ख़ूब दिखता है। मुझे नहीं मालूम यह अनूप जी ने लिखवाया है या न चल जाये और अन्य समर्थ कवियों से उनका नाता जुड़ जाये।
ज्ञानपीठ के प्रकाशक-संपादक ने? यह कविता इसी प्रवृत्ति को उजागर करती है।
साहित्य का सुधी और गम्भीर पाठक जब संस्कारित होकर 'छोटी सी साहित्य सभा', 'कवि की दुनिया, 'कवि को देश
रचना के क्षेत्र में उतरता है और अपनी संभावना को जानने-समझने निकाला', 'स्थानक कवि', 'स्थानीय कवि' आदि कविताएँ आज
के लिए हाथ-पैर मारता है तो उसे कैसे-कैसे माहौल और स्थितियों के हिंदी साहित्य के पतनशील संपर्कवादी माहौल पर बड़ी मार्मिक
पिछली सदी के अंतिम दशक में जिन कवियों का इस संदर्भ की वज़ह से बड़ी नहीं है, बल्कि मनुष्यता
रचनात्मक सफ़र शुरू होता है, निरंजन श्रोत्रिय का में अटूट भरोसा इसे एक बड़ी कविता बनाता है जो
उनमें एक अहम मक़ाम है। समकालीन कविता की कि इसकी केन्द्रीय वस्तु है। कवि को भरोसा है कि
पूर्वागत विभिन्न सरणियों की गहरी समझ के साथ जहाँ मनुष्यता के साथ लय, ताल, प्रेम और आनंद
वे अपनी सर्जना के लिए एक अलग राह निकालते में सराबोर जुगलबंदी की ताक़त है, वहाँ ‘जगह कहाँ
नज़र आते हैं। पहले संग्रह ‘जहाँ से जन्म लेते हैं किसी लपट की!’ यानी घृणा की लपटों की क्या
पंख’ (2002) की कविताओं से ही इस राह के बिसात! मनुष्यता अपराजेय है।
संकेत मिलने लगते हैं। यानी सामयिक सच्चाईयों का अपने प्रत्यक्ष यह कविता महान संतूर वादक पंडित शिवकुमार शर्मा और
अनुभवों के आलोक में निरीक्षण और साथ ही ज़मीनी भाषा से युक्त तबला नवाज़ उस्ताद शफ़ाअत अहमद ख़ाँ की जुगलबंदी से प्रेरित
नर्म लहजे की प्रभविष्णुता पर भरोसा। दूसरे संग्रह ‘जुगलबंदी’ है। ‘यह एक काफ़िर और एक म्लेच्छ की जुगलबंदी थी/ जो
(2008) में इस लहजे की आबो-ताब में और इज़ाफ़ा होता है। दुनिया को एक लय में बाँध लेना चाहती थी।’ यह कविता तथ्य
संग्रह की बतौरे-ख़ास एक अलग शिल्प में लिखी गई शीर्षक रचना और कल्पना के सायुज्य से एक ऐसे यथार्थ को रचती है जो हमारी
समकालीन काव्य परिदृश्य के बीच उन्हें एक प्रतिबद्ध कवि की श्रेष्ठ सौन्दर्यवृत्तियों को सुकून देने के साथ-साथ एक सकारात्मक
विशिष्ट पहचान देती है। तीसरे और फ़िलहाल के अंतिम संग्रह दिशा में हमें भीतर से बदलता भी है। स्वर, थाप और शब्द की
‘न्यूटन भौंचक्का था’ (2022) में हम कविता की कुछ नई सांगीतिक बंदिशें कविता में इस तरह संयोजित है कि एक अनूठे
ज़मीनों से रूबरू होते हैं। इन तीनों संग्रहों से गुज़रते हुए इस बात शिल्प ने आकार ले लिया है। साबरमती एक्सप्रेस के एस-6 कोच
की साफ़ तौर पर निशानदेही की जा सकती है कि निजी मुहावरा के अंदर की मंज़रकशी और जुगलबंदी के स्वरविधान व मात्राओं
अर्जित करने की प्रक्रिया में वे समकालीन कविता की प्रतिरोध की आदि के प्रामाणिक ब्योरे कवि के सूक्ष्म निरीक्षण और असाधारण
धारा से अपनी वाबस्तगी बदस्तूर क़ायम रखते हैं। कलात्मक सामर्थ्य की निशानदेही करते हैं। यह कहना ग़लत
‘जुगलबंदी’ उनकी शाहक़ार रचना है। यह झूठ, घृणा और न होगा कि यह रचना ललित कलाओं विशेषतया संगीत और
हिंसा द्वारा पोषित फ़ासीवादी सांप्रदायिकता को बेनक़ाब करते हुए कविता के अंतस्संबंधों को समझने के लिए एक विश्वसनीय पाठ
बहुलवादी संस्कृति की हिमायत में उठाई गई पुरज़ोर आवाज़ है। उपलब्ध कराती है। ‘जुगलबंदी’ कविता के बीज उनके पहले
कविता के रूप में यह हमारे समय के एक बड़े सवाल का माक़ूल संग्रह की ‘फ़न्ने ख़ाँ गाइड’ कविता में देखे जा सकते हैं। फ़तेहपुर
जवाब है। जैसा कि कविता में कहा गया है- ‘नासमझो, यह सीकरी के स्थापत्य में फ़ारसी कल्पना और हिन्दू कारीगरी की
जुगलबंदी का देश है!’ सौहार्द्र की इस जुगलबंदी के पीछे हमारी अद्भुत जुगलबंदी है। फ़न्ने ख़ाँ की शुभेच्छा हैः “रखें मेहफ़ूज़ गंगा-
सदियों की विरासत रही है। इस मिज़ाज की रचनाओं को कैसे पढ़ा जमनी फ़िज़ा की इस याद को जियें जब तक।” अपने सारतत्त्व में
जाए? मेरा पाठकीय अनुभव बताता है कि कविता का एक विशेष ‘जुगलबंदी’ कविता इसी शुभेच्छा का शानदार विस्तार है।
संदर्भ समूची रचना के अर्थों को अपने इर्द-गिर्द सीमित कर देता एक व्यापक सरोकारों वाले कवि से हमारी जो अपेक्षाएँ हो
है। ‘जुगलबंदी’ में संदर्भ गोधरा 2002 का है। इस तारीख़ का सकती हैं, उन्हें लेकर निरंजन श्रोत्रिय बहुत संजीदा हैं। उनकी
स्मरण मात्र रूह को झकझोर कर रख देता है। यह रचना सिर्फ़ कविता निजी रागात्मक संवेदनों, घर-गिरस्ती के सुख-दुखों,
एक फ़ार्मूला लो और
प्रजा ही बने रहो
कवि-कर्म की समकालीनता
अरुण होता
दूसरी सहस्राब्दी के अंतिम दशक में हिंदी कविता ठहर कर कम लिखने में विश्वास करते हैं। शब्दों के
में महत्वपूर्ण उपस्थिति दर्ज़ करने वाले कवियों में मितव्ययी तो हैं ही। उनके प्रथम कविता संग्रह के दस
अनिल त्रिपाठी एक परिचित नाम है। उनकी पहली साल बाद यानि 2014 में ‘ अचानक कुछ नहीं होता’
कविता 1992-93 ई. के आस-पास प्रकाशित होती शीर्षक दूसरा कविता संग्रह प्रकाशित होना उपर्युक्त
है। इसके बाद हिंदी की तमाम महत्वपूर्ण साहित्यिक विचार को स्पष्ट करता है। एक बात और भी है,
पत्रिकाओं में अपनी कविताओं से इस कवि ने अनिल त्रिपाठी की कविताओं में हिंदी काव्य परंपरा
पाठकों का ध्यान आकर्षित किया। नब्बे के दशक विशेषतः त्रिलोचन और केदारनाथ सिंह का निर्वहन
ने हिंदी कविता का नया वितान रचा। भूमंडलीकरण, उदारीकरण, हुआ है। कवि ने इन कवियों के सान्निध्य से प्राप्त अनुभवों को यूं
निजीकरण, विश्व बाज़ार आदि के चलते सामाजिक, राजनीतिक, कहा जाए कि ‘कवि शिक्षा’ को अपने ढंग से विकसित किया है।
आर्थिक और सांस्कृतिक क्षेत्रों में भयानक बदलाव परिलक्षित हुए। अनिल ‘यक़ीन’ के कवि हैं। किसी भी कवि के लिए विश्वास,
बहुत कुछ हमसे छूटता जा रहा था और हमारे तमाम मूल्य बदल आत्मविश्वास उसके कविपन के लिए ही नहीं, उसकी कवि दृष्टि
रहे थे। खुशी की बात है कि युवा पीढ़ी के रचनाकारों ने परिवर्तित से परिचित होने के लिए अत्यंत आवश्यक होता है। उसे अपनी
स्थितियों को अपनी अपनी विधाओं में अंकित करने का प्रयास किया रचनाशीलता पर विश्वास है तो अपने ‘डटे रहने ‘ पर भरोसा है।
है। अनिल त्रिपाठी भी उन युवा कवियों में एक उल्लेखनीय नाम वह संभावनाओं की खोज करता है। संभावनाओं की तलाश में
है। इनकी कविताओं में भूमंडलीकरण की बदलती परिस्थितियाँ हैं निकला कवि को जल्दबाज़ी पसंद नहीं है। अपनी प्रारम्भिक दिनों
तो उन विकट स्थितियों से जूझने का साहस भी मौज़ूद है। पूंजी, की कविता में कवि ने स्पष्टतया लिखा भी है–
बाज़ार, सत्ता की साँठ-गांठ को उनकी कविताएँ पर्दाफाश करती हैं “मुझे यक़ीन है
तो जीवन मूल्य और पर्यावरण के समक्ष उत्पन्न संकटों से परिचित अगर भाषा की शिनाख्त नहीं हुई
कराती हैं। यद्यपि अनिल ने अन्य विधाओं खास कर आलोचना तो भी मैं चलूँगाअलक्षित कला को खोजने
में लेखन जारी रखा, फिर भी वे मूलतया कवि हैं। स्मरण है कवि विलंबित ख़यालों की पगडंडियाँ पकड़े”
का प्रथम कविता- संग्रह ‘एक स्त्री का रोजनामचा’ (2004) के बाज़ार और उपभोक्तावादी समय में एक बेलगाम प्रतियोगिता
प्रकाशन ने कविता के पाठकों को बहुत लुभाया था। इस संग्रह को जारी है। सभी भागे जा रहे हैं किसी अनिश्चित लक्ष्य की ओर।
पाठकों ने बहुत सराहा भी। अनुभव और स्मृति को कविता के साँचे अनिल त्रिपाठी की कविता में अपनी जड़ से जुड़ने का एक प्रबल
में सफलता पूर्वक ढालने का काम कवि ने किया है। सादगी इस आग्रह दिखाई पड़ता है। यह इसलिए कि मनुष्य अपनी जड़ से
कवि की शक्ति है और इसका साक्षात्कार इसकी कविताओं की उखड़ते जा रहा है। यह जितना मानव निर्मित है उससे कहीं अधिक
अंतर्वस्तु और शिल्प में होता है। कवि का नाभि-नाल संबंध अवध बाज़ारवादी अर्थ-व्यवस्था की चालाकियाँ हैं। खुशी की बात है कि
प्रांत से रहा है, इसलिए उसकी कविताओं में अवध का लोक बार- भूमंडलीकरण की आँधी जो सब कुछ लील लेना चाहती है, कवि
बार झाँकता नज़र आता है। समकालीन कविता में लोक की झांकी उसकी काट तैयार करता है। अपनी जड़, ज़मीन बची रहेगी तो
दरअसल कविता को समृद्ध करने की दिशा में अग्रसर करती है। कोई भी चक्रवात आए, कुछ बिगाड़ न सकेगा। कवि की अब तक
अनिल हड़बड़ी के कवि नहीं हैं। बहुतायात के कवि नहीं हैं। वे प्रकाशित कविताओं में उसका लोक बड़ी संजीदगी के साथ जीवित
हमारे समय के महत्वपूर्ण कवि सर्वेन्द्र विक्रम के उस समय से परे निकल गई है। जो उस समय में
दो कविता संग्रह प्रकाशित हैं। उनका पहला कविता अब भी फँसे हुए हैं, दरअसल वे पिछड़े हुए हैं। इस
संग्रह 'एक दिन दिल्ली में समय' वाणी प्रकाशन से बात ने व्यक्ति को जबरदस्त एलियेशन दिया है। एक
2002 में आया था। दूसरा संग्रह 'दुख की बन्दिशें' अजनबीपन दिया है। जो भी अपने समय को लेकर
राजकमल प्रकाशन से 2014 में प्रकाशित हुआ था। कॉन्शस है, वह भागती दिल्ली में हाशिए पर छूट
दोनों कविता संग्रहों की कविताएँ अपने समय का गया है। सर्वेन्द्र विक्रम हाशिए पर छूट गए आदमी के
दस्तावेज़ हैं। सर्वेन्द्र विक्रम समय को लेकर बेहद साथ हैं और अपनी पूरी कविता में उसी की दास्तान
सजग कवि हैं। समय उनकी कविताओं में बार-बार आता है सुनाते हुए प्रतीत होते हैं। उनके तमाम बिंब-प्रतीक उसी के हक़
और वे उसका विमर्श बेहद ख़ूबसूरती से रचते हैं। उनका पहला में गढ़े गए हैं। उनके यहाँ अतीत की स्मृतियाँ हैं जो उनकी कविता
कविता संग्रह 'एक दिन दिल्ली में समय' बहुत सारी स्मृतियों को में जगह पाती हैं। उनके पास किस्सागोई है और उस किस्सागोई
जगह देता है। 'दिल्ली में टाइम' शीर्षक से उनकी तीन कविताएँ के इस्तेमाल की समझ भी है। अतीत के इस्तेमाल से किस तरह
हैं। तीनों कविताएँ बीसवीं शताब्दी के आख़िरी दशक में बेहद हम वर्तमान को ढक देते हैं, उसको बयान करती कई कविताएँ
जगरमगर समय में भागते हुए महानगर की कविताएँ हैं। महानगरों इन संग्रहों में मिल जाएँगी। हर जगह ऐसे लोग खड़े हैं जो बीच के
की विशेषता कुछ इस तरह से बनती है कि उनकी चमक-दमक के लोग हैं। देवता और व्यक्ति के बीच में पुजारी खड़े हैं, व्यवस्था
नीचे बहुत कुछ दबा रह जाता है, छुपा रह जाता है। वे लिखते हैं– और व्यक्ति के बीच में नेता खड़े हैं। सर्वेन्द्र विक्रम के यहाँ जिस
'खिड़की के बाहर बहुत कुछ है सहजता से व्यंग्य आता है, वह अद्भुत है। 'महामहिम सो रहे
जगरमगर दुकानें, भागते लोग राजनीतिक मसखरापन हैं' जैसी कविताएँ उनके चुटीले व्यंग्य का उदाहरण हैं। किसी
सिटी बस में पूछ रहा है, टाइम क्या है? भी लेखक के लिए उसकी पर्यवक्ष े ण शक्ति बहुत मायने रखती
हँसता है कण्डक्टर, लोग भी है। आप चीज़ों को किस तरह से देखते हैं और अपनी कविता में
देखो-देखो उसका किस तरह से इस्तेमाल करते हैं, यह एक बेहतर कवि होने
दिल्ली में टाइम पूछ रहा है' के लिए ज़रूरी है।
राजधानी इस स्थिति में आ गई है कि वहाँ समय ठहरता ही सर्वेन्द्र विक्रम के प्रेम का फलक बहुत बड़ा है। किसी भी कवि
नहीं। दिन-रात का पता ही नहीं। लोग इतने मसरूफ हैं कि उन्हें का पहला संग्रह आए और उसमें प्रेम कविताएँ न हों अक्सर ऐसा
अपनी मसरूफियत में समय का कोई इल्म ही नहीं। उन्हें समय संभव नहीं होता है। सर्वेंद्र विक्रम भी इससे अछूते नहीं हैं। 'सिर
क्या चल रहा है, इससे कोई लेना-देना नहीं। जबकि समय है कि झुकाए बैठी रहती हैं कुर्सियाँ' कविता में जब वे लिखते हैं– 'धान
बहुत सारी चीज़ों को बदल रहा है। बहुत सारे जीवन संदर्भ बदल की पकती बालियों सी नतमुख' तो सहसा फणीश्वरनाथ रेणु की
रहे हैं। लेकिन दिल्ली है कि अपनी रफ्तार में भागी जा रही है। कहानी 'लाल पान की बेगम' याद आ जाती है। सर्वेंद्र विक्रम
दिल्ली जो देश की राजधानी है, दिल्ली जहाँ से सारे बदलाव हो के यहाँ आँखें भी 'कुम्हलाए पौधे' सी हैं। जाहिर सी बात है कि
रहे हैं, जहाँ से देश को बदलने के निर्णय लिए जा रहे हैं, वहाँ कवि अपनी देशज संवेदना से मुक्त नहीं है। महानगरीय बोध की
टाइम पूछना एक मजाक की तरह लिया जा रहा है। क्योंकि दिल्ली कविताएँ लिखते हुए भी उसकी स्मृति में उसका अंचल बैठा हुआ
काव्य सृजनधर्मिता रचनाकाल के अनन्तर बनते नये संवाद की भाषा को तलाशते हुए उसमें सपाटबयानी
समीकरणों के मध्य उर्जस्वित उस सोते की भांति है के तत्व दिखाई देने लगते हैं।
जो तमाम अंतर्विरोधों से लड़ते हुए अपने प्रवाह का दुर्गा प्रसाद गुप्त के दो काव्य संग्रह प्रकाशित हुए
रास्ता ढूँढ लेता है। समकालीन कविता के उत्तर काल हैं पहला है ‘जहाँ धूप आकार लेती है’ तथा दूसरा
में कई ऐसे परिवर्तन काव्य संवेदना और अभिव्यक्ति ‘अकेलेपन में भी इश्क सूफी’ है। दोनों काव्य संग्रहों
के धरातल पर देखने को मिलते हैं जो समकालीन के प्रकाशन काल में लगभग एक दशक का अंतर है
कविता की पिछली एक पीढ़ी से बिलकुल अलग एवं बावज़ूद इसके दोनों काव्य संग्रहों में एक तारतम्यता
अलहदा प्रतीत होते हैं। समकालीन कविता के उत्तर काल में विशेष है, और दोनों काव्य संग्रह को एक साथ पढ़ने पर कई कविताओं
तौर पर सन 2000 के बाद जो कविताएँ लिखी गईं उनमें सभ्यता में आपसी सूत्र बनते हुए दिखाई देते हैं। महत्वपूर्ण है कि कवि इन
की नई पहचान दिखाई देती है। समकालीन कविता के कवियों ने कविताओं में अपनी ज़मीन से न सिर्फ़ जुड़ा हुआ है बल्कि अपनी
सभ्यता विमर्श को नए सिरे से अपनी कविता में अभिव्यक्त किया माटी की महक़ को वह इस तरह से अपनी कविताओं में व्यक्त करता
है, सभ्यता के निरंतर नए अंतर्विरोधों को समझने के लिए दार्शनिक है कि उसकी सोंधी महक़ पाठक के अंतर्मन में भी उसी ‘नॉस्टेल्जिया’
सूत्र भी उतने ही गूढ़ होते जा रहे हैं। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने अपने को बना पाने में सफल हो जाता है। दुर्गा प्रसाद गुप्त भारतीय ग्रामीण
निबंध ‘कविता क्या है’ में एक महत्वपूर्ण कथन उद्धृत किया है, जीवन की अद्भुत छवि तो रचते ही हैं किंतु उससे महत्वपूर्ण यह है
“मनुष्य के हृदय की वृत्तियों से सीधा संबंध रखनेवाले रूपों और कि इस ग्राम्य अनुभव में वास्तविकता और अंतर्विरोध कहीं नहीं
व्यापारों को प्रत्यक्ष करने के लिए उसे बहुत से पर्दों को हटाना छूटे हैं। दुर्गा प्रसाद की कविताओं में जीवनानुभव की कई तस्वीरें
पड़ेगा। इससे यह स्पष्ट है कि ज्यो-ज्यों हमारी वृत्तियों पर सभ्यता मौज़ूद हैं, जीवन का हर रंग प्रस्तुत है, संघर्षों में जूझता मध्यमवर्ग
के नए-नए आवरण चढ़ते जायँगे त्यों-त्यो एक ओर तो कविता भी है, महानगरीय त्रासदी भी है, काल के गर्त में गायब होते बच्चे
की आवश्यकता बढ़ती जायगी, दूसरी ओर कवि कर्म कठिन होता भी हैं, असाध्य बीमारी का दंश झेलती माई भी हैं, और बेटियाँ-बहन
जायेगा।” (कविता क्या है, चिंतामणि, भाग-1) हम समझ सकते हैं के तरल संबंध भी, प्रेम की पीड़ा भी है, मिलन की आकांक्षा भी है,
कि कविता और सभ्यता के सूत्र आपस में अंतर्गुम्फित हैं, सभ्यता के वक्त की गर्दिश में खोये कलाकार भी हैं, तो कालिदास और हिमालय
परिवर्तन संदर्भोंं को समझे बिना कविता के परिवर्तन बिंदु, उसकी भी। दुर्गा प्रसाद गुप्त के काव्य संसार की विविधता ही उनकी काव्य
काव्य संवेदना में आ रहे परिवर्तन, शिल्प एवं भाषा की नई स्थितियाँ अभिव्यक्ति की विशिष्टता का प्रमाण है, कवि की मर्मस्पर्शी दृष्टि में
नहीं समझी जा सकतीं। समकालीन कविता के इस उत्तर काल में मानवीय अनुभव का विस्तृत और अनंत आकाश है किन्तु वह सरल
अभिव्यक्ति की बनावट और हिंदी कविता की भाषा पर बार-बार और निष्पाप, हृदय को छू लेने वाला है।
चर्चा की जा रही है। इस विमर्श एवं चर्चा में सपाटबयानी की एक कविता की बात करते हुए आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने लोकमंगल
नई लीक बनती हुई दिखाई दे रही है, यह सपाटबयानी उस तरह की बात की है, इसी क्रम में बाद में मुक्तिबोध ने कविता और
की नहीं है जिस तरह से हमें अस्सी के दशक की कविता में दिखाई सामाजिकता के गहरे अंत:सूत्रीय संबंध को उद्घाटित किया। कविता
देती है, उस समय सपाटबयानी कविता में मुखरता से केंद्र में आ की संवेदना पर बात करते हुए हुए हमारे समय के महत्वपूर्ण कवि
गयी थी। वर्तमान की कविता संवाद के लिए प्रस्तुत होती है और राजेश जोशी ने लिखा है कि “कविता को ऐसी विराट फंतासी रचना
मुझे चुपचाप अपना काम करना है/इतना चुपचाप आज बाल दिवस है/बच्चों का एक दिन
कि सन्नाटे में भी सुनाई न दे अपनी ही पदचाप मैं खोज रहा हूँ कोई नई भाषा/
(काम, पृष्ठ 10, कर्मनाशा) गढ़ रहा हूँ किसी नई लिपि के प्रतीक
जानता हूँ इस काम में मदद करेंगे बच्चे ही
सिद्धेश्वर सिंह अपने कार्य में चुपचाप और सतत बच्चे ही साफ करेंगे सारा कूड़ा-कबाड़।
संलग्न रहने वाले कवि हैं। उनको पढ़ते हुए महसूस (बाल दिवस, पृष्ठ 76, कर्मनाशा)
होता है कि हृदय पटल पर उनकी कविताओं का यद्यपि सिद्धेश्वर सिंह बख़ूबी जानते हैं कि दुनिया
प्रभाव बहुत धीरे-धीरे पड़ रहा हैं। उनकी कविताएँ जल्दीबाजी बदलने के नाम पर या तो भाषा ठीक प्रकार से कार्य नहीं कर पा
के जाल में फंसकर हाय तौबा नहीं मचाती, बल्कि हाय तौबा रही या भाषा के पीठ पर सवार मनुष्य। तथापि वह भाषा और
या शोर शराबा का दामन थामकर जीने वालों का कच्चा चिट्ठा, स्वयं को सही मनुष्य होने की प्रामाणिकता कुछ इस तरह प्रस्तुत
और माथे पर समझदारी का तिलक लगाकर अपने सामाजिक करते हैं-
उत्तरदायित्वों से दूर रहने भागने वाले लोगों की मानसिकता का यह रात है/इसी में दिखता है/अभी आधा
भव्य चलचित्र हैं। चूंकि कवि और कर्मभूमि के रूप में उनका गहरा कभी पूरा/और कभी अदृश्य होता हुआ चाँद
संबंध उत्तराखण्ड से है, अतः उनकी कविताओं में पहाड़ी संस्कृति,
सुख-दुःख और समावेशी संस्कृति की स्वाभाविक हलचलों को यह रात है/इसी में डूबकर कह उठता हूँ:
देखकर हिंदी साहित्य संसार उन्हें प्रायः पहाड़ का सुपरिचित कवि मुझे चाँद चाहिए/और सहसा
कह -लिखकर सुख पा लेता है परन्तु मैं उन्हें पहाड़ के कवि क्षितिज पर उदित हो आता है/तुम्हारा चेहरा।
की अपेक्षा मुख्यधारा के कवि-आलोचक और अनुवादक के रूप (एक रातः तीन बात, पृष्ठ 121, कर्मनाशा)
में अधिक जानता-समझता हूँ। वह अपनी कविताओं के माध्यम उपरोक्त विचार कवि के रूप में सिद्धेश्वर सिंह के हैं अतः
से सदैव उन चीज़ों को पढ़ने-गढ़ने, समझने और समझाने की संभव है कि अधिकांश सहृदय-पाठक, उनके इस उद्गार-भावना
ईमानदार कोशिश करते रहे हैं जिन्हें न कभी ताक़तवर आदमी का प्रथम पाठ प्रेम, प्रेमिका या प्रेयसी से जोड़कर देखें और इस
लिख-पढ़ पाता है, और न ही कभी सत्ता-सरकार या समूह। ऐसा कविता को इसी संदर्भ में अपने मन के कोने की कोमल कुर्सी पर
नहीं कि ताक़तवर आदमी, सत्ता, सरकार या समूह की आँखें बिठाकर चले जाएँ! किन्तु इन पंक्तियों को मैं ताक़तवर आदमी,
खराब हैं या पढ़ना नहीं जानते, बल्कि वास्तविकता है कि वे सत्ता और सरकार की ओर से किसी के अस्तित्व या चेहरे को
पढ़ना ही नहीं चाहते। किसी को पढ़ने-समझने का अर्थ ही है कि देखने की दृष्टि से समझ पा रहा हूँ कि यह कविता तो एक अरब
मनुष्यता के स्तर पर उसके अस्तित्व को स्वीकार करने का कार्य चालीस करोड़ जनता के चेहरे, अस्तित्व और उनसे प्रेम की बातें
प्रारम्भ। सिद्धेश्वर सिंह की कविताओं से गुज़रते हुए प्रतीत होता करने की बातें करती है और जिस दिन सत्ता और सरकार, इस
है कि विचार, व्यवहार और सार में वह बहुत ज़मीनी व्यक्तित्व कवि और कविता की तरह प्रेम की भाषा बोलने लगेगी, दुनिया को
हैं। उनकी दृष्टि चहुँदिशा है। भरोसे की बात करें तो उन्हें बड़ों की बदलने-सुधरने में अधिक समय नहीं लगेगा। आश्चर्य की बात
अपेक्षा बच्चों पर अधिक भरोसा है- है कि जब सत्ता-सरकार और ताक़तवर आदमी दिन में किसी का
समकालीन हिंदी कविता में बलभद्र एक सुपरिचित / होठों पर बाँसुरी रख / किसन-कन्हइया के तुम
नाम है। यद्यपि कि उनका 'समय की ठनक' नामक भी गाओ गीत / कदम्ब की डालियों पर /गोपियों के
पहला हिंदी काव्य संकलन 2018 में और दूसरा चीर के / अपनी बोल, अपने सोहर, अपनी लोरियों
न्यू वर्ल्ड पब्लिकेशन द्वारा समकाल की आवाज़ को / खड़ा कर सको तो / खड़ा करो बीच बाज़ार /
शृंखला के तहत 'चयनित कविताएँ 2023 में उनकी ...पर, कर भी पाओगी भला!” (जिसे समझते हुए)
कवि ख्याति के बहुत बाद प्रकाशित हुआ है। इससे हमारे गाँव-नगर और वहाँ का जन-जीवन जिस गति
पहले 'कब कहलीं हम' नाम से एक भोजपुरी काव्य से बदल रहे हैं, जिन शर्तों पर बदल रहे हैं, वो गति
संकलन भी प्रकाशित हो चुका है। इस सबके पूर्व से ही यह कवि व शर्तें अधिकतम बाज़ार की हैं। आधुनिकता की चकाचौंध और
एक अनाम स्वर की तरह एक लंबी कालावधि में व्याप्त है। कवि उसके भीतर की संवेदनहीनता ने किसी को नहीं बख्शा है। जीवन
को अपनी कविता और उसकी पहचान को लेकर कोई हड़बड़ी की शुचिता पर गहराते संकट का हल भी संकट में ढूँढना पड़
नहीं है। उसके पास कविता से अधिक कविता की ज़मीन है। यह रहा है, इसलिए साझे संघर्षों की राह भी दुर्गम हुई है। इस कारण
ज़मीन सामान्य जन की ज़मीन है, जिसका लोक गाँव से नगर तक रिश्ते-नाते, सुख-दुख,लाभ-हानि सब दुष्प्रभावित हुए हैं। बलभद्र
रागात्मक अनुभूतियों व अहसासों से ओतप्रोत है। अपने गाँव जवार की कविताई की अंतर्धारा इससे विलग होकर नहीं गुज़रती।
और वहाँ के लोगों से कवि की गहरी आत्मीयता सहज ही दिख बलभद्र जिस ग्रामीण जीवन से सन्नद्ध नज़र आते हैं, वह
जाती है। उसकी अपने गाँव से शहर तक की जो आवाज़ाही है, सदा से दुखों-अभावों का एक बड़ा परिसीमन रहा है। आर्थिक,
वह राह उसके अकेले की नहीं है बल्कि साथ- साथ उसके लोगों सामाजिक व राजनीतिक रूप से इस परिसीमन की तमाम भिन्नताओं
की भी है, जहाँ बाज़ार का व्यूह है, सत्ता की मार है, घुटन है, टूट के बावज़ूद यहाँ जीवन के लिए बहुत कुछ सहज-सरल बचा हुआ
है और इस सब के ख़िलाफ़ बार-बार जुटता-बिखरता उम्मीदों भरा है। कवि इस बचे हुए को बचा लेने के संघर्ष में उतरा हुआ प्रतीत
संघर्ष है। होता है। अपने इस परिसीमन के भीतर की विषमताओं की कोख
खेती-किसानी में रचे-बसे मन के कवि का अपनी कविता के से जन्मी जटिलताओं को चुनौती देता दिखता है- “पता नहीं क्यों
प्रति विनत स्वर कि “अभी तुम रहो यहीं पर / खेतों में ही / रहो / मैं इस व्यवस्था की सूरत का मन ही मन/ माँ से मिलान करता
किसानों के संग / जीवन अभी भी / इन्हीं के बल है टिका हुआ।” हूँ अक्सर /और गिरने-पड़ने पर धूल झाड़ते / भूख़-प्यास का
(कविता मेरी) बलभद्र भारतीय जन-मन का आर्त व आर्द्र स्वर हैं। हिसाब रखते न पाकर / न पाकर माँ की तरह जिम्मेवार/ आहत
तभी तो वह गँवई चट्टी-बाज़ार में एक जगह बैठी कदम्ब बेंचने वाली और आक्रोशित होता हूँ हर बार विषमताओं की कोख से जन्मी/
बूढ़ी माई की विवशताओं को जानते हुए, उसे इस विज्ञापनी संस्कृति जटिलताओं की धूप-छाँही में पली-बढ़ी / ओ मेरी उद्दंडताओं / तुझे
की सूचना देता है, साथ ही ऐसे विद्रूप बाज़ारू बदलाव पर तंज भी उछालना चाहता हूँ आकाश की ओर।” (ओ मेरी उद्दंडताओं!)
करता है। यहाँ नए बाज़ार मूल्यों पर तंज के साथ-साथ कचोट भरे संघर्षों का यह साहचर्य गाँव से बाहर निकलते, नगरों में काम-धाम
शब्दों में सलाह भी है-“जड़ी-बूटियों, जंगलों, पहाड़ों और/ जटाजूट करते और गाँव से नगर तक सबसे जुड़े रहने, सबके लिए खड़े
ऋषियों की / योग मुद्राओं से जोड़कर / अपने उत्पादों की / बड़े- रहने में काम आता है। यहाँ माँ व प्रकृति के सान्निध्य का बल है।
बड़े लोग और बड़ी-बड़ी कंपनियाँ / जैसे सिद्ध करते हैं श्रेष्ठताएँ इसमें बाबूजी की सामाजिक-राजनीतिक चेतना की विरासत का
पिछले छः दशकों की हिंदी कविता में, विशेष रूप होता है। ‘तुमड़ी में शब्द’ इसी यात्रा के अगले चरण
से मुक्तिबोध की कविता के केन्द्रीय स्थान हासिल की बानगी देता है। जन इतिहास, लोक-इतिहास,
करने के बाद, कविता में वैचारिकता और बौद्धिकता मौखिक इतिहास और उपाश्रयी इतिहास से होते हुए
की जगह बढ़ी है। बद्रीनारायण की कविताओं में कवि कबीर व रैदास जैसे निर्गुण क्रान्तिकारियों तक
बौद्धिकता और वैचारिकता की इस बढ़त को देखा पहुँचा है। इस संग्रह की अनेक कविताओं में उनकी
जा सकता है। वैचारिक सरोंकारों वाले बड़े कविता- व्याप्ति से ही इस संग्रह के केन्द्रीय स्वर की रचना
परिसर में यह सिर्फ़ रुचियों का द्वंद्व नहीं है, इसमें एक होती है। निर्गुण परंपरा में बौद्धों, नाथों और सिद्धों के
सत्ता- संघर्ष भी शामिल है, जिसने पहले दो दशकों में कविता- प्रभाव समाये हुए हैं। बुद्ध की एक स्वतंत्र उपस्थिति इस संग्रह में
परिदृश्य में अपनी स्पष्ट छाप छोड़ी है। चूकि ँ यह सारी प्रक्रिया यत्र-तत्र देखी जा सकती है। निर्गुण भक्तों की वैचारिकी के प्रभाव में
आलोचना में बहस किये बिना,रुचि-बोध को परिवर्तित करने की कवि सामाजिक संरचना, जनतंत्र, भूमंडलीकरण, शक्ति-आकांक्षा,
रणनीति के साथ की जा रही है, इसलिए इसका एक दबाव तो संचय और पूँजीवादी जीवन-चर्चा की आलोचना करता है। इस
है परंतु उससे बहस कर पाने की जगह नहीं है। कहना न होगा आलोचना को आत्मालोचना की तरह भी देखा जा सकता है और
कि इसमें कविता के कुछ खास प्रारूपों को श्रेष्ठ मानने और उसे वर्गीय आलोचना की तरह भी। ‘तुम क्यों नहीं समझते’ कविता में
परिदृश्य में लोकप्रियता और महत्ता दिलाने की मंशा शामिल है। लगभग निबंधात्मक होकर वे कबीर की ज़रूरत का बखान करते
इन प्रारूपों में कविता सपाट, एकार्थी और बिम्ब-हीन है, जिसे हैं-‘तुम समझते क्यों नहीं / कि इस सभ्यता को / कबीर की एक
प्रायः गद्यात्मक कहा गया है, परन्तु वस्तुतः जो निबंधात्मक है, और बार फिर आ पड़ी है ज़रूरत /कि एक बार फिर पुराने डिक्शन में
वैचारिक सरोकारों को सूक्तियों और बयानों में व्यक्त करती है। नई बात /कहने की बड़ी आवश्यकता है।’
बद्रीनारायण एक पारंगत समाजविज्ञानी हैं। प्रारंभ में उन्होंने आधुनिक युग में स्थानांतरण, प्रवास और विस्थापन मानवीय
जन-इतिहास और लोक इतिहास के क्षेत्र में कार्य किया है। गँवई जीवन में सामान्य परिघटनाएँ हैं। इसलिए जगहों, लोगों और पेशों
और किसानी परिवेश में अनुकूलित, संस्कारित और निर्मित व्यक्ति को छोड़ना और छोड़कर आगे बढ़ जाना पेशेवर व्यक्ति के लिए
के लिए यह उसके ‘स्वभाव’ के निकट जाने का ही एक मार्ग था। ज़रूरी माना जाता है। अनेक पेशों में लगातार कंपनियाँ बदलना
ऐसे में उनके कवि को उनके समाजविज्ञानी से एक सकारात्मक सफलता का सूचक माना जाता है। ऐसे में क्या यह एक पुरातन मन
मदद मिली है, जिसके परिणाम उनके प्रारंभिक दो संग्रहों ‘सच सुने की अभिव्यक्तियाँ हैं? क्या ये सामंतवादी युग में मौज़ूद स्थिरता से
कई दिन हुए’ और ‘शब्दपदीयम’ की कविताओ में देखे जा सकते उपजा मूल्य बोध है? क्या इसे अनाधुनिक माना जाना चाहिए? क्या
हैं। आगे चलकर बद्रीनारायण ने हिंदी क्षेत्र की दलित राजनीति इसे एशियाई किसान समाजों की विशिष्टता की तरह देखना चाहिए,
की व्याप्ति और निर्मितियों पर काम किया। इस काम ने उनकी जो आधुनिक होने के बावज़ूद उस मनुष्यता को छोड़ना नहीं चाहते
पूर्ववर्ती सामाजिक समझ को विशेषीकृत किया। ‘ख़ुदाई में हिंसा’ जो मूलतः सामंतवाद में उपजी गँवई किसान-शिल्पी संस्कृति का
का कवि एक ओर भूमड ं लीकरण युगीन नवपूँजीवादी संस्कृति हिस्सा है। भावुकता का यह रूप भी उसी मनुष्यता से यवायविक
से मुठभेड़ करता है, तो दूसरी ओर हमारे सामाजिक जीवन में रूप से जुड़ा है-
दलितों की विडंबनामय करुण-कथा से भावुक और आक्रोशित “आज जब छोड़ देना और
समकालीन कवियों में हूबनाथ पाण्डेय एक महत्वपूर्ण दिखाती हैं, जगाती हैं। भौतिकतावाद में डूबती जा रही
हस्ताक्षर हैं उनकी कविताएँ आश्वस्त कर रही हैं, दुनियाँ को आध्यात्मिकता का महत्व समझाती हैं।
सत्ता के हम्बग और विडंबनाओं को लगातार दर्ज़ कर वे सिकंदर, अशोक, नेपोलियन, अकबर, रामकृष्ण,
रहीं हैं। उनके काव्य संग्रह हैं-‘कौए’, ‘लोअर परेल’, गौतम, यीशु, पैगंबर का उदाहरण देते हुए कहते हैं-
‘मिट्टी’। इसके अतिरिक्त ‘सिनेमा समाज साहित्य’, ‘जो भी धरता है देह
‘कथा पटकथा संवाद’ जैसी सार्थक कृतियाँ भी वह कहीं जाता नहीं
उनकी कलम से निकली हैं। ‘मातृदेवो भव’, रहता है इसी धरा पर
‘समांतर सिनेमा में नारी’ जैसी आलोचनात्मक पुस्तकों से उन्होंने उसे धारती है धरती
स्त्री विमर्श में नए आयाम जोड़े हैं। ‘मिट्टी’ काव्य संग्रह में उन्होंने आओ हम सब ढूंढें अपने-अपने पुरखों को
सहज भाषा, नवीन विषय वस्तु व कथ्य, वैविध्यपूर्ण संवेदनाओ जिन्हें मिट्टी ने
से हिंदी साहित्य को समृद्ध किया है। ‘मिट्टी’ काव्य संग्रह जीवन मिट्टी में मिला दिया हैं।’ (मिट्टी-11)
की व्यापकता, भूमड ं लीकरण, बाज़ारवाद, उत्तर उपनिवेशवाद में इक्कीसवीं सदी के दूसरे दशक में पर्यावरण-विमर्श पर आधारित
शोषणकारी दुष्चक्रों की पहचान, पर्यावरण विमर्श, लोकतंत्र को साहित्य सृजन एक मुख्य प्रवृत्ति के रूप में उभर रहा है। कोरोना
भेड़तंत्र में बदलते जाने की पड़ताल,चुनावी ढकोसला, शहरीकरण महामारी की त्रासदी ने पर्यावरणीय चिंतन के लिए दुनियाँ को एक
विकास के नाम पर विकसित ठगतंत्र, मानवीय संवेदनाओं में मंच पर ला खड़ा किया है। ऐसे परिदृश्य में जब संयुक्त राष्ट्र संघ
सहजता, कोमलता की तलाश, आक्रोश और प्रतिरोध का स्वर जैसे वैश्विक मंचों से विलुप्तप्राय प्रजातियों को अभयारण्यों, राष्ट्रीय
वैचारिक प्रतिबद्धता को समेटे हुए हैं। पार्कों में सुरक्षित रखने के समझौते हो रहे हैं। ओजोन परत क्षरण,
अनुभव सत्य और मानुष सत्य हूबनाथ की कविताओं के भी वैश्विक ताप में वृद्धि, जलवायु परिवर्तन, जैव विविधता पर मंडरा रहे
केंद्र में है। मनुष्य और उसकी संवेदनाएँ कवि की कविताओं का संकट पर दुनिया भर के देशों में अनवरत बैठकें हो रही हैं। बावज़ूद
लक्ष्य रही हैं। उस लक्ष्य को पाने के लिए मानवीय भाव और इसके बाढ़-सूखे में वृद्धि, समुद्री जल स्तर में वृद्धि,शहरीकरण,
मनोविकार की तराश व तलाश जारी रही है। ‘मिट्टी’, ‘देह’, वनों के कटान में वृद्धि सतत विकास की अवधारणा को खंडित कर
‘राजा’, ‘आशीष’, ‘इमानदारी’, ‘ईमान’, ‘झूठ-सच’, ‘प्यार’, रहे हैं। ‘मिट्टी’ काव्य संग्रह में संकलित कविताएँ इस त्रासदी पर
‘इज्जत’, ‘नफ़रत’, ‘कायरता’, ‘क्रोध’, जैसी कविताओं में कवि सवाल खड़ा करती हैं। ‘पर्यावरण अध्ययन’ कविता सरकारी शिक्षा
यथार्थ की शिनाख्त करते हुए आदर्श का निर्माण करता है। हूबनाथ नीति और सरकारी झूठे इरादे का पर्दाफाश करती है-
की कविताएँ भौतिक जीवन में बढ़ती जा रही इंसानी भूख़ का ‘सरकार ने अनिवार्य कर दिया
समाधान बताती है। भटकी हुई इंसानियत को राह दिखाती है जो पर्यावरण अध्ययन सभी के लिए
नगरीय जीवन या दिखावे की ओढ़ी हुई बाज़ारवादी, भूमंडलीकृत शिक्षा विभाग ने नहीं नियुक्त किया
संस्कृतियों द्वारा थोपी जा रही है। विज्ञापनों की भयावह दुनिया के एक भी शिक्षक
मकड़जाल में पूँजीवाद नवउपनिवेशवाद की साजिशें रची जा रही जो जानता हो पर्यावरण का ‘प’
हैं तब हूबनाथ की कविताएँ सचेत करती हैं, ‘अँधेरे में’ मशाल पर्यावरणविदों ने जो पाठ्यक्रम बनाए उसे पढ़ाने के लिए शिक्षक
हम ऐसे समय में जी रहे हैं जब धीरे धीरे साहित्य भी कवि हमारे समय की भयावह सच्चाई से सिर्फ़ रूबरू
बाज़ारवाद के ढांचे में समाहित हो रहा है। ख़रीद और ही नहीं होता बल्कि उससे मुठभेड़ करता है और
बिक्री के अलावा सब कुछ परिदृश्य से बाहर होता जा प्रकारांतर से कहता है कि इस बुरे दौर में प्रतिरोध
रहा है। सरकारें विदूषक से अधिक की हैसियत नहीं सिर्फ़ कागज़ी नहीं होना चाहिए। अब वक्त आ गया
रखतीं। प्रतिरोध के स्वर मायावी अधिक वास्तविक है कि हम अपनी चौखट से बाहर निकलें और हत्यारे
कम हैं और जो वास्तविक हैं वे नेपथ्य में फेंके समय के ख़िलाफ़ अपनी पूरी ताक़त से खड़े हों-
जा रहे हैं। ऐसा किसने सोचा था कि इस सदी में मालूम नहीं किधर से चाकू आया
सत्य कहना असामाजिक हो जाना होगा। वैसे में एक कविता और कैसे घुसा उसके पेट में
ही है जो सबसे ज्यादा बेचैन है, चूँकि उसका सपना संसार को कोई अँधेरे झुरमुट में जा छिपा
सुन्दर,कलात्मक,भय-भूख़ और शोषण से मुक्त करना है। सूंघ लेता है हत्यारा मुझे भी शायद
आज हिंदी कविता का वितान निरंतर विस्तृत और समृद्ध हो चश्मदीद गवाह समझकर
रहा है,वह सीना तान कर इस मनुष्य विरोधी समय के बरअक्स हत्या और मृत्यु के इस समय में
खड़ी है। शहंशाह आलम की कविताएँ इस कविता विरोधी समय मैं चाहता हूँ खींच निकालूँ
में दृढ़ता के साथ खड़ी होती हैं। इनकी कविताएँ भले कोरे कागज़ हत्यारे को झाड़ी के पीछे से।
पर आकार लेती हैं लेकिन उन्हें किताबों में जीना मंजूर नहीं, यह झाड़ी जो पहले से ही ख़तरनाक थी अब राजपथ पर भी
उनकी इच्छा मजदूर, किसान और आमजन के साथ जीने की है। फ़ैल गयी है। आज पता नहीं झाड़ियों का विस्तार दिन- रात कितनी
तेजी से फ़ैल रहा है और एक दिन हम भी उन झाड़ियों में घिरा हुआ
शहंशाह आलम की कविताएँ इस बेबस,लाचार आएँगे। 'हमारे लोकतंत्र में' उस ख़तरे की आवाज़
कविताविरोधी समय में दृढ़ता के साथ खड़ी बहुत तेज़-तेज़ सुनाई देती है जब लोकतंत्र से लोक का उत्सव
होती हैं। इनकी कविताएँ भले कोरे कागज़ पर विदा ले चुका होता है और दसों दिशाओं से विलाप का समवेत
आकार लेती हैं लेकिन उन्हें किताबों में जीना स्वर फूटने लगा है-
मंजूर नहीं, उनकी इच्छा मजदूर, किसान और हमारे लोकतंत्र में वे
आमजन के साथ बीच जीने की है। कवि हमारे दसों दिशाओं से वे आए
समय की भयावह सच्चाई से सिर्फ़ रूबरू इस सभ्य सभ्यता में
ही नहीं होता बल्कि उससे मुठभेड़ करता है मारे गए लोगों की
और प्रकारांतर से कहता है कि इस बुरे दौर में विधवाओं का विलाप सुनने
प्रतिरोध सिर्फ़ कागज़ी नहीं होना चाहिए,अब
जबकि समाप्त हुआ
वक्त आ गया है कि हम अपनी चौखट से
बाहर निकलें और हत्यारे समय के ख़िलाफ़ लोकतंत्र का उत्सव
अपनी पूरी ताक़त से खड़े हों। इस लोक से कब का
आज का अँधेरा, मुक्तिबोध के अँधेरे से और सघन और
प्रेमशंकर शुक्ल हमारे समय के एक ऐसे महत्वपूर्ण पराजित नहीं होगा, जब तक इस पृथ्वी पर कलियाँ
कवि हैं जिनकी कविताओं में जीवन की साँसें फूट रही हैं, कलाएँ सिरज रही हैं जीवन की बगिया में,
महक़ती हैं,श्रम का स्वेद चमकता है और प्रेम का जीवन के आंगन में, जीवन के रंगमंच पर।
राग बजता है। एक वाक्य में यदि अपनी बात कहनी प्रेमशंकर शुक्ल की कविताएँ वैसे तो प्रकट रूप
हो तो कहूँगा कि प्रेमशंकर शुक्ल की कविताओं में में कला अनुशासनों पर केंद्रित कविताएँ हैं। पर थोड़े
जीवन का, इस महाजीवन का महाराग बजता है। और व्यापक फलक पर, थोड़ी और सूक्ष्म दृष्टि से
प्रेमशंकर शुक्ल के कविता-संग्रह 'जन्म से ही जीवित देखें तो ये कविताएँ वस्तुत: महाजीवन की कविताएँ
है पृथ्वी' से अपनी बात शुरू करता हूँ और इसी संग्रह के साथ आगे हैं। महाजीवन के महाराग की कविताएँ हैं। महाजीवन के महारास
बढ़ते हुए अपनी बात रखने की कोशिश करता हूँ। की कविताएँ हैं और मनुष्य के इस महाजीवन में, पृथ्वी के इस
हाँ, सचमुच जन्म से ही जीवित है पृथ्वी। जन्म से अर्थात् जन्मने महाजीवन में, धरती के रोम-रोम के महाजीवन में या फिर बारिश
से। जन्मने से पल्लवों के, शिशुओं के, कलाओं के, सुंदरताओं के। की बूंदों के महाजीवन में या फिर कोयल की कूक के महाजीवन में
जन्म रही हैं सुंदरताएँ फूहड़ता और फरेब के बरअक्स। जन्म रही हैं यह महाराग और महारास कलाएँ ही तो रचती हैं। हाँ, वही कलाएँ
नित नई कलाएँ- नई ऊर्जा और नई आभा के साथ, मनुष्य का मन- जो पृथ्वी के जन्म से ही, मनुष्य के जन्म से ही, शिशु की प्रथम
बल बढ़ातीं। पृथ्वी का मन-बल बढ़ातीं कि- “कलाओं की कोख किलकारी से ही इस महाजीवन का साथ निभाती आ रही हैं। हाँ,
कभी अपनी पृथ्वी को मरने नहीं देती।” हाँ, यह जन्म सनातन सत्य वही कलाएँ जो आदिकाल से ही, अनंत काल से ही पृथ्वी को,
है। शाश्वत सत्य है और यह सत्य, निरंतर जन्म का यह सबसे सुंदर मनुष्य को, जीवन को लय-ताल, सुर और स्वर देती आ रही हैं।
सत्य मृत्यु के विरुद्ध सबसे मुकम्मल, सबसे मजबूत बयान है। हाँ, वही कलाएँ जो जीवन के आरंभ से ही जीवन को संगत देती
इसलिए तो पृथ्वी कभी मृत्यु के चिर तिमिर में एक क्षण के लिए भी आ रही हैं।
विलीन नहीं हो पाती। क्षणांश के लिए भी दृष्टि से, सृष्टि से ओझल यह अनायास नहीं है कि बारिश की बूंदों के जन्म से जन्म लेता
नहीं हो पाती। कि नित, हर क्षण जन्म घटित होता रहता है, जो मृत्यु है टप-टप का मधुर संगीत। दरअसल यह बारिश की बूंदों के जन्म
को पराजित करता रहता है। जिसकी नव-प्रस्फुटित रोशनी मृत्यु के पर धरती के कंठ से स्वत: फूट पड़ने वाला मीठा आदिम लोकगीत
अंधकार को हमेशा हरती रहती है। इसलिए जन्म से ही यानी जन्म है। यह अनायास नहीं है कि कोयल की कूक सुनकर पृथ्वी पर
के कारण ही नित्य निरंतर जीवित रहती है पृथ्वी। और इसी जन्म बरबस उतर आता है बसंत। दरअसल कोयल की कूक विरह का
के बूते हमेशा पूरम्पूर बना रहता है मनुष्य का मन-बल। पृथ्वी का विदारक गीत है, जिसे सुनकर पृथ्वी के पोर-पोर से करुणा फूट
मन-बल भी बना रहता है इसी जन्म से ही। इस संग्रह को पढ़ते- पड़ती है। इसी करुणा के जल से पूरी पृथ्वी एक बार फिर हरी हो
महसूसते, ठहर-ठहरकर इनकी कविताओं को अपने अंतरतम में जाती है। सच कहें तो बसंत पृथ्वी पर विरह और प्रेम की अद्भुत
जज्ब करते कुछ ऐसा ही अंतर्बोध हुआ मुझे। और यह अंतर्बोध ही चित्रकारी है। और यह चित्रकारी केवल प्रकृति तक ही सीमित नहीं
इन कविताओं का असली सामर्थ्य है, जो बिलकुल सूक्ष्म तरीके से रहती। हाँ, बसंत केवल पेड़ पर ही नहीं उतरता। वह महावर की
और सलीके से मनुष्य को यह विश्वास दिलाता है कि यह पृथ्वी, शक्ल में स्त्री के पाँव तक उतर आता है। तभी तो कवि 'पाँव-
यह जीवन तब तक दुखों, विपदाओं, आपदाओं या कि मृत्यु से महावर' शीर्षक कविता में कहता है कि "महावर पाँव पर बसंत है।
(छः)
लेकिन कविता और आलोचना के आकाश में प्रेमशंकर शुक्ल
की कविताएँ उन्हें बस बिंदी-बिंदी भर जगह पाने की नहीं, बल्कि
पंक्ति-दर-पंक्ति जगह पाने की हक़दार बनाती हैं। ज़मीन से जुड़ा
कवि ही भाषा को मांज पाता है और कविता में सत्य का सामर्थ्य भर
पाता है। सच कहें तो सच्चा आदमी ही सच्चा कवि हो पाता है और
सच्चे कवि की कविता में ही 'सत्यम् शिवम् सुंदरम्' का एक साथ
समावेश हो पाता है। प्रेमशंकर शुक्ल अपनी कविताओं में केवल
सुंदर पंक्तियाँ और सुंदर सत्य ही नहीं रचते, वह सुंदर शब्द और
पद भी रचते हैं। और उनसे यह इसलिए संभव हो पाता है क्योंकि
उनकी कल्पनाशीलता और रचनाशीलता में उनकी मिट्टी की नमी रतिसुख अधिक
भरपूर बनी हुई है। इसलिए तो उनकी भाषा इतनी उर्वर है और
उनकी कविता की फसल में पंक्तियाँ इतनी पुष्ठ। और पंक्तियों अमर
की बालियों में सिर्फ़ अर्थ और अभिप्राय का मीठा दूध ही नहीं भरा रतिताप से
हुआ है, भाषा की खनक भी भरी हुई है। तभी तो वे वह मीरा-मन, पत्थर।
खुशमन, मेहनत-मन, पंक्ति-मन, पूरम्पूर, मन-बल, पुरखुश, मनोभावों का काव्यात्मक विस्तार प्रेमशंकर शुक्ल के अगले
राधा-पाँव, नृत्यलिपि, राग-मुख, हरहमेश, बात-नदी आदि जैसे संग्रह ‘शहद लिपि’ में हुआ है, जो उनकी प्रेम कविताओं का
ढेरों शब्द नए ध्वन्यार्थ के साथ गढ़ देते हैं। और जब कभी उनकी एक विशिष्ट संकलन है। देखिये, इस संग्रह की कविता ‘प्यार
अभिव्यक्ति एकदम घनीभूत हो जाती है तो वह सिर्फ़ सहायक अपरम्पार’ की अंतिम कुछ पंक्तियों में प्रेम का सत्व कितनी
क्रियाओं से ही नहीं, पंक्तियों से भी मुक्त हो जाते हैं। खजुराहो संचेतना से अभिव्यक्त हुआ है-
पर रची गई उनकी इक्कीस कविताएँ इसका अप्रतिम उदाहरण ‘प्यार झुकने की तमीज है
हैं। ये कविताएँ अपनी लघु काया में इतनी सुगठित, सौंदर्यवती और उठने का साहस
और विराट हैं कि इनके शब्द-संयोजन में भी एक लय और वलय प्यार ग्यारह का पहाड़ा नहीं है।’
दिखता है। मानो इन कविताओं में भी पत्थरों को तराशकर खजुराहो और, जिस कविता से इस संग्रह ने अपना सुंदर शीर्षक पाया
की मूर्तियाँ ही उकेरी गई हैं। मेरी दृष्टि में खजुराहो पर रची गई है, उस कविता यानी ‘शहद लिपि’ की अंतिम पंक्तियों के साथ मैं
ये इक्कीस कविताएँ इस संग्रह की सबसे सुंदर कविताएँ हैं और आपसे विदा लेता हूँ; जो जीवन में ही नहीं, वरन् भाषा में भी प्रेम
मेरी सबसे पसंदीदा कविताएँ भी। पहली ही कविता 'रतिप्रिया' की चिर उपस्थिति का विनम्र आह्वान करती है-
का शिल्प देखिए- मूर्तियों में/खजुराहो की/रचा/मनुष्य का मन/ ‘भाषा में पढ़त के लिए शहद लिपि रहे
गहन/रतिस्पर्श से मिला/बहुत मान/मंदिर को। तीसरी कविता मौन की भी रहे मीठी लिपि
'आलोकित' का यह आलोक भी गहिए- और कभी कोई भाषा
रति शिल्प निहारतीं किसी की हत्या नहीं करे।’ n
लजातीं
दसों दिशाएँ संपर्क : जे-2/406, रिज़र्व बैंक अधिकारी आवास,
गोकुलधाम, गोरेगाँव (पूर्व), मुंबई-400063
लाज से खुलता मो. 9429608159
समीक्षा कर्म बहुत सहज भी है और बेहद दुरूह भी। इस कवि के अब तक पाँच कविता संग्रह
समीक्षकों के बारे में एक बहुप्रचलित धारणा यह है प्रकाशित हैं उनमें से एक संग्रह सम्यक संबुद्ध बुद्ध
कि उन्हें महापंडित होना चाहिए और समीक्षा की की महायात्रा पर केंद्रित चर्चित कविता संग्रह भी है
भाषा गुरु गंभीर होनी चाहिए। यह स्थापना आचार्य जिसका नाम “कुशीनारा से गुज़रते” है। “जीवन जिस
रामचंद्र शुक्ल के उत्तरवर्ती ज्ञानी समीक्षकों की धरती का” नवीनतम कविता संग्रह है जिसने कविता
समीक्षा पुस्तकों में प्रतिपादित हुई है। लेकिन डॉ. संग्रहों की भीड़ में अपनी विशिष्ट पहचान बनाई।
रामविलास शर्मा, नामवर सिंह, नन्दकिशोर नवल इस कवि की कविताओं पर इस नवीनतम संग्रह की
जैसे आलोचकों ने उस परंपरा को तोड़ दिया। सहज, सरल कुछ कविताओं को आधार बना कर बात की जा सकती है क्योंकि
भाषा, रचना की हर दृष्टिकोण से ऐसी व्याख्या, जो रचना और यही बात अधिक तर्कसंगत प्रतीत होती है बनिस्बत की हवा में
रचनाकार को पाठकों के मर्म तक पहुँचा दे, यह दायित्व उन्होंने फ़तवेबाजी की जाए जैसे की इन दिनों का चलन है–खाता न बही
बख़ूबी निभाया। यह भ्रांति भी दूर हुई कि समीक्षा साहित्य ज्ञानी जो आलोचक जी कहें वही सही।
लोगों के लिए होता है और इस दुनिया में सामान्य काव्यप्रेमी या इस कवि ने शब्दों की मितव्ययिता पर आद्योपान्त ध्यान दिया
साहित्यनुरागियों की गुंजाइश नहीं। ख़ुद मैंने समीक्षा साहित्य पढ़ने है। इस संग्रह से एक कविता को लें। कविता है “उस भुवनमोहिनी
से तौबा कर ली थी। विदेशी विद्वानों के उद्धरणों से अटे पड़े पृष्ठ। को लिखना चाहता हूँ प्रेमपत्र”, शीर्षक से। प्रथम दृष्टया इसके
एक-एक पैराग्राफ का एक-एक पृष्ठ। पचाना मुश्किल था। मगर शुद्ध रूमानी कविता होने का भ्रम होता है। लेकिन ऐसा है नहीं।
उपर्युक्त समीक्षकों की कृतियाँ पढ़ने पर रुचि इस ओर लौटी। मेरी जीवन के कड़वे,कसैले, रूखे यथार्थ से इसकी पंक्तियाँ यह भ्रम
मान्यता अथवा समझदारी यह है कि समीक्षक होने की पहली शर्त तोड़ देती हैं। वस्तुतः इस निर्मम आर्थिक सामाजिक व्यवस्था में
है– कवि चित्त होना। सिर्फ़ पंडिताई और कुछ मानकों के अलावा शुद्ध रूमानियत,प्रेम के लिए कोई जगह नहीं। यह रचना रोमांस
विदेशी विद्वानों के सहारे किया गया समीक्षाकर्म सुपाच्य नहीं हो की चालू अवधारणा को तार-तार कर एक नई पटकथा लिखती है।
सकता। ऊपर से अगर निजी पूर्वाग्रह हों तो रचना एवं रचनाकार ‘विलाप” कविता में ठोस यथार्थ है, समकालीन सत्य है। लेकिन
के साथ अन्याय ही होता है। बात बिलकुल सीधे ढंग से रखी गयी है। “हत्यारे की चीख” में आम
मैं पांडित्य-शून्य कविता प्रेमी हूँ। शुरू से अंत तक विज्ञान आदमी और ईमानदार बुद्धिजीवी का नपुंसक आक्रोश झलकता है
का विद्यार्थी रहा हूँ परंतु उन्माद की सीमा तक साहित्य प्रेमी रहा पर रचना थोड़ी स्थूल हो गयी है। ‘भगदड़ में छूटी चप्पलें” बेहद
हूँ और अपनी इसी कविचित्त मानसिकता के आधार पर एक सशक्त रचना है, शिल्प और कथ्य दोनों के स्तर पर। “पक रही
महत्वपूर्ण समकालीन कवि की कविताएँ तथा उसकी काव्ययात्रा है कविता” संभवतः संकलन की सबसे दीर्घतम रचना है। ग्राम्य
पर टिप्पणी करने बैठा हूँ। हो सकता है कुछ गलती छूट जाए जीवन से लिए गए बिंबों के सहारे लिखी गयी एक उदासी भरी
या भाषा परिमार्जित न हो लेकिन तटस्थ काव्यरसिक पाठक की कविता है यह। मगर कवि आस छोड़ते नहीं दिखता। “बसमतिया
हैसियत से मैं विचार करूँगा। दरअसल समीक्षा के नियत मानदंड बोली” छोटी सी, मीठी सी रचना है त्रिलोचन की याद दिलाती हुई।
होते हैं और उसका क्षितिज भी सीमित होता है जबकि कविता का मगर इसमें एक चेतावनी भी छिपी है सृजनशील कवियों के लिए।
विश्व असीम है। एक सत्य कि कविता जनसामान्य से दूर होती जा रही है। वह
26 अगस्त को जन्मे रजत तो आम बच्चों से ही थे कविता ‘छत्तीस जनों वाला घर’ में वे कहते हैं -
किन्तु 14 साल की उम्र में मस्कुलर डिस्ट्रोफी नामक छत्तीसगढ के
बीमारी का शिकार हो गए जिसका इलाज आज भी एक छोटे से जनपद बागबाहरा में
संभव नहीं है। शरीर की मांसपेशियों ने साथ ही छोड़ छत्तीस जनों वाला एक घर है
दिया! इलाज की हर संभव कोशिशों से भी निराशा जहाँ से मैं आता हूँ कविता के इस देश में
ही हाथ लगी। हाँ, पता ज़रूर चला कि अब रजत
की आयु सिर्फ़ 30 बरस तक की है। इस आघात को यहाँ आने जाने को एक नहीं,
वे और उनका परिवार कैसे सह सका, वही जानते हैं। इस अत्यंत दो नहीं तीन नहीं चार दरवाजे हैं
निराशाजनक स्थितियों में रजत ने अपनी जिजीविषा को प्रबल और घर का एक छोर एक रास्ते पर
किया और अपने कठिनतम जीवन से संघर्ष किया। 14 साल बाद तो दूसरा दूसरे रास्ते पर खुलता है
छूटी पढ़ाई पूरी की। एम.ए. हिंदी प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की। उच्च रजत कृष्ण की लोक दृष्टि का आधार है उनकी कृषक पृष्ठभूमि।
शिक्षा में अनिवार्य राज्य स्तरीय SET परीक्षा पास की। 2009 में समकालीन या कहें हिंदी कविता में किसानों पर कविताओं का
अपनी पीएचडी पूरी की और आज सहायक प्राध्यापक के रूप में अकाल उतना ही है जितना किसान के जीवन में होता आया है।
शिक्षा के क्षेत्र में सेवा दे रहे हैं। किसानों पर कविता के इस अकाल में जो कुछ भी हरियर दिखता
मानवीय अस्मिता और उसके संघर्ष को आंचलिक भावों और है, उनमें रजत कृष्ण की कविताएँ भी हैं। रजत कृष्ण की किसानों
शब्दों से अपनी कविताओं में लाने वाले रजत कृष्ण तीन दशकों से पर पच्चीस से अधिक कविताएँ हैं जो उनकी पृष्ठभूमि के कारण
कविता और साहित्य में सक्रिय हैं। प्रतिष्ठित पत्रिका 'सर्वनाम' के जीवंत, वास्तविक, सरल और सहजता से पेश हुई हैं। उनका
संपादक रजत कृष्ण ने विभिन्न लेखों और समीक्षाओं से साहित्य किसान मेहनतकश तो है ही, दुख तक़लीफ वाला भी है। ‘खेत और
जगत को समृद्ध किया है। विभिन्न साहित्यिक सम्मानों से सम्मानित किसान’ कविता में वह लिखते हैं-
कवि रजत कृष्ण के अब तक दो कविता संग्रह 'छत्तीस जनों वाला हम कहते थे खेत और महक़ उठती थी
घर' (2011) और 'तुम्हारी बुनी हुई प्रार्थना' (2020) प्रकाशित पुरखों के ख़ून पसीने से सीझी भीजी माटी
हो चुके हैं।
रजत कृष्ण की कविताओं में अनुभूति की प्रामाणिकता सिर्फ़ हम कहते हैं खेत
कविता में ही नही, वरन जीवन में भी है। उनके पात्र अपने घर, और झूल आते हैं
पारा-पड़ोस के और देखे-भाले लोग हैं इसलिए उन्हें अपनी कविता अब तो आंखों में
में अप्रस्तुत विधान की आवश्यकता नहीं पड़ती या कम पड़ती है। अपने ही घर की मियार में फांसी पर झूलते किसान
अपनी कविताओं को रजत जिस रागात्मक आवरण और उदात्त तत्वों कीटनाशक पीते बेटे उसके जवान
के माध्यम से जाहिर करते हैं, वह सार्वभौमिक और सर्वकालिक किसान जीवन से रजत कृष्ण की यह आत्मीयता उनके अपने
हैं। अपने कठिनतम जीवन के अँधेरों से गुजर कर निकला उनकी घर से शुरू होती है। उनकी मां, पिता, भाई सबका ताज खेत और
जिजीविषा का प्रकाश पाठक के मन में प्रेरणा भरता है। उनकी खलिहान से जुड़ा है। उनकी एक कविता है, ‘कमइलीन की बेटी’।
समकालीन हिंदी कविता जो कि पिछले पांच दशकों होगा, आख़िर किस करवट बैठेगा, यह बहुत स्पष्ट
की यात्रा है,यक़ीनन अपनी अधिकतम महत्ता हासिल और घोषित न था,किन्तु कविता में बदलाव साफ
कर चुकी है। इन पांच दशकों में शताधिक महत्वपूर्ण सुना जा सकता था।
कवियों की पीढ़ी निर्मित हु्ई। दशकों में विभाजित नब्बे के दशक में उस अनिवार्य बदलाहट की एक
करके सृजन को परखना वैज्ञानिक दृष्टि नहीं, बल्कि आवाज़ बने बोधिसत्व, जिन्हें उस दशक के एक ज़रूरी
सुविधावादी नज़रिया है। साहित्य के क्षेत्र में विभाजन कवि के तौर पर याद किया जाता है। हम जो नदियों
का आधार दशक नहीं, बल्कि निर्णायक प्रवृत्तियाँ, का संगम हैं (2002), दुखतंत्र(2004),बोधिसत्व
परिवर्तनकामी विचार या युगारंम्भकारी काव्यभाषा एवं नवोन्मेषी के बिलकुल प्रारंभिक काव्य संग्रह हैं। प्रारंभिक यात्रा से लेकर
शिल्प होता है। कई बार अचानक ऐसा नैसर्गिक युग प्रवर्तक आ आजतक बोधिसत्व में जो प्रवृत्ति कायम रही, वह है-राजनीतिक
खड़ा होता है बहती काव्यधारा के बीच,कि अकेले वही अपनी सजगता की धार। जाहिर है-यह बग़ैर वैचारिक पक्षधरता के
दुर्लभ कलम के दम पर नये युग की शुरुआत कर देता है। इस संभव नहीं। और स्पष्ट कहें, तो जो प्रगतिशील नहीं, जनपक्षधर
कसौटी पर समकालीन हिंदी कविता को परखें,तो उसका जन्म नहीं, यथार्थवादी और तर्कप्रिय नहीं वह राजनीति चेतना सम्पन्न
किसी कवि विशेष के हाथों न होकर युगीन सामाजिक, राजनीतिक रचनाकार हो नहीं सकता। क्योंकि राजनीतिक सजगता आती ही
और आर्थिक प्रवृत्तियों के कारण हुआ। बल्कि इस दौर का आरंभ है- देश की दशा पर आकंठ बेचैनी उत्पन्न होने से। कवि की
करने में मनुष्यगत प्रवृत्तियों ने भी निर्णायक भूमिका नहीं निभाई, एक कविता है- ‘सुख सूचक शिलालेख’,जो कि समय के दोहरे,
जो कि रचना के क्षेत्र में बदलाहट का प्रमुख कारण बनती हैं। बहुपरतीय और जटिल राजनीति चरित्र पर मिर्चहा व्यंग्य है। वह भी
समकालीन हिंदी कविता में नब्बे का दशक वह समय है,जब बिलकुल ताजा राजनीतिक चरित्र पर। इसे चरित्र के बजाए व्यापक
साहित्येतर दुनिया में व्यापक बदलाव की ध्वनियाँ स्पष्ट सुनाई भारतीय राजनीति का असली चेहरा कहें, तो अधिक सटीक बैठेगा।
देने लगी थीं। खासकर भूमड ं लीकरण, बाज़ारवाद, उपभोक्तावाद देखिए तीन पंक्तियों को :
और उत्तर पूंजीवाद की आहट। सूचनाक्रांति 20वीं सदी के अंतिम सूचित किया जाता है कि
दशक में एक आकर्षक सनसनी की तरह विश्वप्रिय हो चला प्रजा के दुख से दुखी रहते हैं राजा
था। इसका असर साहित्य की हर प्रमुख विधा पर पड़ना ही था। तो राजा को सुख देने के लिए
सक्रिय कवियों ने कलम संभाली और इस बदलाव की ख़बर प्रजा भूल जाए सब दुख।
अपनी फौरी-आजकल जीवी कविताओं के माध्यम से देने लगे। जो समय की असलियत समझते हैं, जो राजनीति का खेल बूझते
तत्कालीन कवियों की भाषा स्पष्ट: वह न रह गयी,जो धूमिल, हैं, जो नेताओं की हक़़ीकत जानते हैं, उन्हें बताने की ज़रूरत नहीं, कि
कुमार विकल,वेणुगोपाल, कुंवर नारायण और केदारनाथ सिंह की यहाँ राजा कौन है और प्रजा कौन। एक कट्टा, कोहली स्टूडियो, नया
हुआ करती थी। सबसे अप्रत्याशित बदलाव कवियों की भाषा और खेल,खोना चाहता हूँ और त्रिलोचन नये आस्वाद, रंग और रुख़ की
शिल्प में दिखाई देता है। नब्बे का दशक निश्चय ही एक पहचान कविताएँ हैं। इन कविताओं का तेवर अलग, भाव भंगिमा अलहदा
रखने वाला दशक है,जहाँ समकालीन कविता का पुरानापन टूट और शब्द-कौशल सधा हुआ। ‘एक कट्टर’ प्रेम का साहसिक
रहा था,और कुछ नया सा बनता महसूस होता था। वह नया क्या इजहार है। जरा छिपकर, संकोच के साथ,शर्म सहित। इसमें मांसल
अपनी ग़ज़ल और गायकी दोनों के असर से शब्दों मिलती है। हिंदी लिपि में छपी हुई ये ग़ज़लें हिंदी
में प्राण फूँक देने वाले शायर बहुत कम होते हैं। डॉ. की कही जा सकती हैं– संस्कार इन रचनाओं का
हरिओम ऐसे ही अनूठे ग़ज़लकार हैं जिन्हें सुन कर उर्दू का है। हिंदी-उर्दू की लड़ाई में यह संकलन सेतु
एक बार फिर एजरा पाउंड के इस कथन का कायल का काम करेगा। त्रिलोचन छंदों के साधक थे। बरवै
हुआ कि कविता जब संगीत से दूर निकल जाती है से लेकर अवधी तक में काव्य रचना करने वाले
तो दम तोड़ देती है। उनके सुरों में समां बाँध देने की त्रिलोचन ‘धरती के कवि’ रहे हैं। ग़ज़लें भी उन्होंने
वह कला है जो किसी भी ऊबे हुए चित्त को संसारी बख़ूबी लिखीं। सानेट को भारतीय माटी का छंद
बना दे, दुनिया के जंजाल में डूबे हुए चित्त को रूहानी बना दे। बनाकर अपनाया कि पढ़ते हुए यह कतई न लगे कि यह अंग्रेजी
कहना होगा कि जो सुख और सुकून हरिओम को ग़ज़ल लिखने का कोई विजातीय छंद है। हिंदी के जाने-माने आलोचक परमानंद
और ग़ज़ल गायकी से मिलता है शायद वह सुकून उन्हें और श्रीवास्तव ने उनकी ग़ज़लों को ध्यान में रखते हुए लिखा था कि
कहीं मिलता हो! वे अपनी ग़ज़लें जब से मंच पर और संगीत की हरिओम ने उर्दू की बहरों का इस्तेमाल ज़रूर किया है पर हिंदी
महफ़िलों में परफॉर्म करने लगे हैं, उनकी ग़ज़ल गायकी के दीवानों की प्रकृति उनकी अपनी पहचान है। यह ग़ालिब, मीर और वली
की संख्या में उत्तरोत्तर इज़ाफ़ा हो रहा है। दक्खिनी तक से प्रेरणा लेने के बल पर संभव हुआ है। उनके एक
कविता या शायरी का कोई स्कूल नहीं होता। यह प्रकृत उपहार शेर को परमानंद जी ने उद्धृत किया है :
है। प्रकृति का उपहार है। यह कला सिखाई नहीं जा सकती। यह पुरनवा हो उठेंगे सन्नाटे
ख़ुद ब ख़ुद विकसित होती है और परवान चढ़ती है। भीतर कविता शर्त ये है कोई सदा निकले।
उमगने लगे तो यह अध्ययन की एकाग्रता भंग कर देती है क्योंकि डॉ. हरिओम की ग़ज़लें ज़िन्दगी के अनेक भावों, अनुभावों से
शायरी या कविता को खिलने के लिए पूरा वातावरण चाहिए। भरी हैं। वे एक साथ अपने समय से रूबरू हैं तो उसकी विडंबनाओं
सोते जागते कविता के बिम्ब मन में आकार लेने लगते हैं तो बिना पर तंज भी कसते हैं। जीवन से रोमांस वाली संवेदना भी उनके
लिखे नहीं रहा जाता। आज पिछले दो तीन दशकों से जिस तरह यहाँ है तो यथार्थ की वेदना को शब्द देने की कला भी उनमें ख़ूब
समाज में ग़ज़लों के प्रति रुचि बढ़ी है। महफ़िलों में क़द्रदान बढ़े है। गांव के पूरे समाजशास्त्र, अर्थशास्त्र और बात-बतकही को
हैं, इसके पीछे ग़ज़ल का यथार्थवादी होते जाना और मीटर और पूरी तरह अपनी रचनाओं में उन्होंने आत्मसात किया है तभी तो वे
लय के अनुशासन को निभाते हुए यह एक बड़ी वज़ह है। कवि मुँहनोचवा, लबड्डा, भैयाराम, जगधर की प्रेमकथा, मियाँ का रास्ता
होकर ज्यादा दूर समाज में नहीं पहुँचा जा सकता जितना गीतों और किधर है, राजराज की बग्धी, परछाईयाँ, भूसा जैसी कहानियाँ लिख
ग़जलों से। वे अपनी ग़ज़ल समाज में पहुँचा रहे हैं यानी समाज सके हैं। बाज़ार और आज की राजनीति ने किस कदर गांवों को
को दुनिया को और बेहतर बनाने में वे अपने कवि के कार्यभार को बदला है, किस तरह विकास की नकली पटकथाएँ लिखी गयी हैं,
बख़ूबी निभा रहे हैं। पंचवर्षीय योजनाओं का जो हश्र हुआ है, उस सबकी एक घनी
उन्हें अपनी परंपरा का भान है इसलिए ग़ज़लें लिखीं तो अपने दृश्यानुभूति आपको उनकी कहानियों में मिलेगी। डॉ. हरिओम ने
बड़ों की राय की क़द्र भी की। त्रिलोचन ने उनकी ग़ज़लें देख कर बचपन से अपने गांव, देहात को देखा और महसूस किया है और
कहा कि इन रचनाओं में वही भाषा है जिसमें रहीम की झलक
अपनी ग़जलों में पिरोया है। जिस तरह के नरम सख्त लफ्ज़ चाहिए सकें। सरस्वती की ऐसी इबादत करने वाले दम्पति कम होंगे जो
ग़ज़लों के कथ्य के मुताबिक उन्होंने भरपूर चेष्टा की है कि शब्द अपने अदब के लोकतंत्र में बैठ कर उन्हें वाक् और अर्थ का अर्घ्य
ग़ज़लों के बोल-बनाव पर भारी न पड़ें। जिस भाव को कितनी ही अर्पित करते हों। मुझे यह कहने में संकोच नहीं कि दो कलाकारों
बार कहा जा चुका होता है उसी या उन्हीं भावों को हरिओम लिख की ऐसी जोड़ी दुर्लभ है जिनके भीतर कला संगीत को लेकर इतना
कर गाकर अपनी ग़ज़लों में एक ताज़गी पैदा कर देते हैं। आप गहरा अनुराग हो। आज देश विदेश में हरिओम जी का आना जाना
मुहब्बत की कितनी ही ग़ज़लें पढ़ या सुन चुके हों, हरिओम को होता है, उनकी गायकी तो नेट के जरिए दुनिया भर में पहुँच ही
सुनते ही सुरों और अल्फाज़ के नये दरीचे खुल जाते हैं। चुकी है, मालविका जी का ख़ुद का जीवन गृहस्थी के साथ-साथ
अब तक उनकी गाई ग़ज़लों के कई अलबम जारी हो चुके लेखन व गायकी को समर्पित है।
हैं– रंग पैराहन, इंतिसाब, रोशनी के पंख, रंग का दरिया और हाल कहना न होगा कि हरिओम हिंदी की पारंपरिक दुनिया के
में ही आया ग़ज़ल और कथक की जुगलबंदी को मुमकिन बनाने बेहतरीन कवियों में से एक हैं जिनका कविता संग्रह ‘कपास के
वाला अल्बम ‘खनकते ख़्वाब’ इन दिनों खासा चर्चा में है। आवाज़ अगले मौसम में’ उनकी कविता को एक नई ऊँचाई देता है। वे
में जगजीत सिंह के बाद लगभग वैसी ही मुलायमियत और वैसी चाहते तो कविता में रम सकते थे, कहानियों से बनी हुई अपनी
ही कशिश पैदा करता चुंबकीय आकर्षण शब्दों के अयस्क में जैसे पहचान को और ऊँचाइयाँ दे सकते थे पर अपने भीतर की गायकी
एक अपूर्व चमक भर देता है। एक धात्विक खनक सी उठती हुई की कला को उन्होंने इस संकोच से नेपथ्य में नहीं रहने दिया कि
उनकी आवाज़ दूर से जैसे पुकारती हुई लगती है। अपने अशआर सार्वजनिक तौर पर गाते बजाते हुए देख कर एक आला ओहदे पर
के सम्मोहन में बांध लेने वाले हरिओम जीवन के एक-एक लम्हे तैनात अधिकारी के बारे में लोग क्या कहेंगे। उन्होंने यह मूलमंत्र
को पूरी तृप्ति के साथ जीते हैं। लोग आते हैं जाते हैं पुस्तकें आती हैं पहले ही सीख लिया था कि समाज में कुछ बनना है, कुछ बदलना
जाती हैं और कहीं गुमनामी में खो जाती हैं पर एक सधे हुए लेखक है, कुछ नया रचना है तो वह केवल प्रशासनिक ओहदे की सीमाओं
कवि ग़ज़लगो की आवाज़ कभी फीकी नहीं पड़ती। उसकी तहरीर में क़ैद होने से नहीं होने वाला, उसके लिए गीत-संगीत-कला व
कभी धुंधली नहीं पड़ती। अपने पूर्वजों का एक ऐसा संस्रकरण बन अदब की धारा में ख़ुद उतरना और बहना होगा। वे गीत-संगीत की
जाता है जिसके आईने में कुलशीलता का पूरा इतिहास पढ़ा जा अजस्र धारा में पहले ही उतर चुके हैं और अब वे उस प्रवाह का
सकता है। हरिओम ने अपने भीतर और इर्द-गिर्द अदब व मौसिकी हिस्सा बन गए हैं जिस प्रवाह की अबाध कड़ी में अहमद फराज़,
की दुनिया केवल अपने लिए नहीं एक और शख्स के लिए बसाई बशीर बद्र, वसीम बरेलवी और निदा फ़ाज़ली जैसे शायर, मेहदी
है और वह हैं मालविका। उनकी पत्नी, लेखिका व गायिका भी। हसन, ग़ुलाम अली और जगजीत सिंह जैसे गायक शुमार किए
अपनी धुन में खोयी खोयी सी रहने वाली मालविका भी कला का जाते हैं। 'उनकी ग़ज़लों को पढ़ कर ही उनके भीतर के कलाकार
मोल जानती हैं तभी तो उन्होंने अपने जीवन के लिए हरिओम जैसे को ठीक-ठीक पहचाना जा सकता है। n
आज़ाद ख़याल शायर का वरण किया कि घर घर भी रहे और कभी संपर्क : जी-1/506 ए, उत्तम नगर, नई दिल्ली
कभार महफ़िल भी हो जाया करे जहाँ बैठ कर दोनों रियाज़ कर मो. 08447289976
किसी कवि की नयी रचनाओं को पढ़ने से पाठक के साथ’ अभी पुस्तकाकार प्रकाशन की प्रक्रिया में है।
का अनुभव-संसार कुछ और समृद्ध होता है, उसकी ‘कोई नया समाचार’ जहाँ सृष्टि के नवागतों, यानी
समझदारी थोड़ी और बढ़ती है। बल्कि एक ही बच्चों को केंद्र में रखकर लिखी गयी कविताओं का
कविता को बार-बार पढ़ने पर उसमें नये अर्थ दिख संग्रह है तो ‘संगत’ पिता के अंतिम दिनों के सानिध्य
जाते हैं। कुछ अरसा पहले प्रेम रंजन अनिमेष की का सृजनात्मक अभिलेख। ‘माँ के साथ’ के केंद्र में
प्रकाशित पुस्तकों को पढ़ने का मौक़ा मिला और तो माँ है ही, जिसके विषय में कवयित्री अनामिका
उनकी कविताओं की रागात्मकता और आत्मीयता कहती हैं -“हर किसी को इस पुस्तक को अवश्य
ने बाँध लिया। उसके बाद सुयोग जुटा और उनके अप्रकाशित पढ़ना चाहिए, क्योंकि इसके प्रत्येक पृष्ठ से गुज़रना गहन अनुभव
कविता संग्रहों को भी पढ़ने का अवसर मिला। साथ ही साथ और संवेदनाओं से संपृक्त समृद्ध होना है और पहले से कहीं अधिक
उनके पूर्व-प्रकाशित संग्रहों को दोबारा देखने का भी संयोग बना। मानवीय!” ये तीनों संग्रह संबंधों की आत्मीयता और उष्णता को
दरअसल उनकी जितनी कविताएँ पुस्तकों के रूप में प्रकाशित हैं, बहुत शिद्दत के साथ महसूस कराते हैं। भले ही ‘कोई नया समाचार’
उससे कम-से-कम दोगुनी अभी प्रकाशित होनी हैं। इससे उनकी और ‘संगत’ के केंद्र में ‘माँ’ नहीं है, उसकी मौज़ूदगी दोनों संग्रहों
सक्रिय रचनाशीलता का अंदाज़ा लगाया जा सकता है। उनके में भी बहुत प्रमुखता के साथ है। माँ की उपस्थिति को समझने के
पहले ही काव्य-संग्रह ‘मिट्टी के फल’ के ब्लर्ब पर सुप्रसिद्ध कवि लिए ‘संगत’ की ' विषयांतर' शीर्षक कविता द्रष्टव्य है–
केदारनाथ सिंह ने लिखा है– “उनका काव्य मानस ऐसे चकित- पिता पर लिखता
विस्मित करने वाले दैनंदिन बदलावों को चुपचाप दर्ज़ करके चलने और लिखते-लिखते
वाला एक ऐसा संवेदनशील यंत्र है, जिससे मामूली से मामूली अंतत: हो जाती वह
हरकत भी नहीं छूटने पाती।” निश्चित तौर पर कहा जा सकता है माँ की कविता
कि यह ‘यंत्र’ आज तक एकदम सुचारू रूप से काम कर रहा है। इन तीन संग्रहों के अलावा कवि के आने वाले दो संग्रह ‘स्त्री
कवि अनिमेष की कविताओं से गुज़रते हुए सहज ही यह सूक्त’ और ‘नींद में नाच’ भी स्त्री जीवन पर आधारित हैं। 2018
लक्षित किया जा सकता है कि उनकी कविताओं में मनुष्य ही में प्रकाशित बच्चों के लिए कविता संग्रह ‘माँ का जन्मदिन' में भी
नहीं, मानवेतर प्राणियों और वस्तुओं को भी बहुत ही आत्मीयता के माँ उपस्थित है। ‘स्त्री सूक्त’ में स्त्री का विवाहोपरांत जीवन है तो
साथ स्थान दिया गया है। अनिमेष जीवन जगत की हर धड़कन ‘नींद में नाच’ की कविताएँ मुख्यतः उसके विवाह के पूर्व के जीवन
को अपनी कविता में दर्ज़ कर लेना चाहते हैं। दैनंदिन व्यवहार की से संबंधित हैं। स्त्री-जीवन को इतने विस्तार से अपनी रचनाओं
इतनी सारी बातों पर कविताएँ तभी संभव हुई हैं। स्त्री की उपस्थिति में जगह देने वाले कवि कम ही होंगे। उसके विविध रूपों और
उनकी कविताओं का मुख्य स्वर है, यह आसानी से कहा जा सकता विशेषकर उसके मातृस्वरूप की अनेकानेक हृदयस्पर्शी छवियाँ हैं
है। ग़ौरतलब है कि उन्हें प्रतिष्ठित भारतभूषण अग्रवाल पुरस्कार भी अनिमेष की कविताओं में। ‘माँ के साथ’ संग्रह की एक बहुत छोटी-
उनकी कविता ‘इक्कीसवीं सदी की सुबह झाड़ू देती स्त्री’ के लिए सी कविता ‘उपस्थिति’ ध्यातव्य है–
मिला। अनिमेष अपने तीन संग्रहों-'कोई नया समाचार', 'संगत' गेंदड़े में खुँसी है सूई
और 'माँ के साथ' -को ‘आत्मीयता की 'वृहद्-त्रयी’ कहते हैं। ‘माँ माँ होगी
कहीं
पूर्णविराम
नहीं
न कोई
आख़िर आखर
वह ओस कण उस समय तक का
सबसे नया सबसे टटका
उसके आगे हमेशा
रख देना
कुछ और बूँदों की बिंदियाँ...
कवि अनिमेष जिन संग्रहों को ‘आत्मीयता की वृहद्-त्रयी’ कहते
हैं, उनकी कविताओं में प्रेम की इतनी सघनता है कि कई बार वे
प्रार्थना का रूप लेती हुई लगती हैं। उदाहरण-स्वरूप ‘संगत’ की
एक और कविता ‘आश्रय’ देखी जा सकती है–
जब तक प्राण है
तब तक पुकार
इसमें शक नहीं है कि आज बहुत बड़ी संख्या में कविताएँ छप
जब तक पुकार रही हैं, लेकिन इसका यह अर्थ नहीं है कि उसके पाठक भी बढ़ रहे
तब तक प्राण... हैं। फिर भी रचनाकार और पाठक, दोनों का भरोसा तो क़ायम रहना
अनिमेष की दृष्टि जीवन के हर पहलू पर जाती है। वे हर बात ही चाहिए। ‘वागर्थ’ के संपादक शंभुनाथ ने अपने एक संपादकीय
को कई-कई कोणों से देखने में सक्षम हैं। उनकी सजग और सक्रिय में लिखा है- “फिर भी पाठक ज़िंदा है तो लेखक भी; और पाठक
रचनाशीलता जीवन के हर व्यवहार-व्यापार को काव्य-विषय बना कभी नहीं मरेगा।” इसी विश्वास की तो ज़रूरत है कि पाठक
लेती है। इस सतत और समर्पित सृजनशीलता को उनकी ही कविता कविता को धैर्य के साथ पढ़ेगा और बार-बार पढ़ेगा। अनिमेष का
‘काम’ की इन पंक्तियों से व्याख्यायित किया जा सकता है– रचना-संसार काफ़ी विस्तृत है और वे सतत रचनाशील भी हैं–इस
कवि नहीं मैं जीवन-मात्र के प्रति और अपनी रचनाशीलता के प्रति सचेत और
करता हूँ कविता का काम जागरूक रहते हुए। पाठकों को भी उनकी कविता धैर्य के साथ और
बार-बार पढ़नी चाहिए।
लेकिन कवि की चिंता क्या है? उसके सरोकार क्या हैं? उसकी अनिमेष हमेशा कविता में विषय और शिल्प, दोनों स्तरों पर
संवेदनशीलता उसकी कविता से क्या चाहती है? इसका उत्तर नये का संधान करने के आग्रही हैं। इस सिलसिले में ‘भारतभूषण
‘हामिद का चिमटा’ कविता में कवि यूँ देता है– अग्रवाल’ पुरस्कार प्राप्त करने के अवसर पर उनके दिये वक्तव्य के
कविता मेरे लिए इस अंश को याद करना सर्वथा समीचीन होगा– “कविता में नया
तीन पैसे का चिमटा है लिखना नया करना ही होता है। और इस अर्थ में ‘नया कवि’होना
जिसे बचपन के मेले में ग़ाैरव की बात होती है। कोशिश यही है कि सही अर्थों में ‘नया
मोल लिया था मैंने कवि’ बन सकूँ।” निश्चित तौर पर मानस की यही बुनावट प्रेम
रंजन अनिमेष की रचनात्मकता को जीवंतता प्रदान करती है। n
कि जलें नहीं रोटियाँ सेंकने वाले हाथ संपर्क : रांची, झारखंड
कि दूसरों को दे सकूँ अपने चूल्हे की आग! मो. 9386897809
मानव सभ्यता के विकासक्रम को हम ध्यान से देखें से समय के सरोकारों के साथ अभिव्यक्त करने की
तो पाते हैं कि चाहे कोई भी समाज हो, चाहे उसकी कोशिश की है। इसी जटिल समय को अपने लेखनी
सामाजिक, राजनैतिक या आर्थिक पहचान भले न से कविता के रूप में साधने वाले विलक्षण कवि हैं
हो परन्तु कविता और कहानी किसी न किसी रूप -पंकज चतुर्वेदी। यह विलक्षणता इसलिए कि अपनी
में अवश्य विद्यमान रही है। जिससे उस समाज की कविताओं में वे बराबर नागरिक दायित्व, मानुष- प्रेम
गत्यात्मकता को भलीभाँति समझा जा सकता है। और सामाजिक-संघर्ष को बचाये रखना चाहते हैं।
कविताएँ संघर्षशील समाज की जीवन्तता और उसकी पंकज चतुर्वेदी एक ख्याति प्राप्त कवि और
आदिम आकांक्षाओं, जिजीविषा का जिंदा प्रमाण रही हैं। सभ्यता आलोचक हैं। वे बराबर संवेदनशील संसार में उठने वाली हलचलों
के विकास के साथ ही कविता में से संवेदनाएँ लगातार गायब हुई और जनाकांक्षाओं पर सार्थक हस्तक्षेप करते हैं। सत्तापक्ष का
हैं। इसी चिंता को केन्द्र में रखकर शायद आचार्य रामचंद्र शुक्ल पटाक्षेप और आम जनता के अधिकार उनकी कविता के मुख्य
अपने निबंध 'कविता क्या है' में लिखते हैं कि ‘ज्यो-ज्यों हमारी प्रतिपाद्य रहे हैं। नब्बे के दशक में जब वे लेखन में प्रवृत्त होते हैं,
वृत्तियों पर सभ्यता के नए-नए आवरण चढ़ते जायँगे त्यों-त्यो एक वह समय बड़े उतार चढ़ाव व परिवर्तन का रहा है। देश आपातकाल
ओर तो कविता की आवश्यकता बढ़ती जायगी, दूसरी ओर कवि के बाद धीरे धीरे उबर रहा था, आर्थिक उदारीकरण, भूमड ं लीकरण,
कर्म कठिन होता जायगा।’ एक तरफ वे कहते हैं कि कविता बाबरी मस्जिद विध्वंस और भारत का द्वार वैश्विक बाज़ार के निमित्त
की आवश्यकता और बढ़ती जायेगी, वहीं दूसरी ओर कवियों को बहुराष्ट्रीय कंपनियों के लिए खुलता है। टेलीविज़न, कम्प्यूटर,
कविता की ज़िम्मेदारी के प्रति आगाह भी करते हैं। यानि सभ्यता के मोबाइल और इंटरनेट का प्रसार बढ़ने से लोगों के जीवन शैली
स्थूल प्रसार के साथ साथ उसके भावमूलक संसार को बचाये रखने में बदलाव का यह महत्वपूर्ण दौर रहा है। भारतीय समाज और
का कार्य कवियों और रचनाकारों का है। हिंदी साहित्य में कविता आम जनता पर इसका व्यापक रूप से प्रभाव पड़ा। इसने लोगों के
की लगभग एक हजार साल की लम्बी परंपरा रही है, विभिन्न जीवन-दर्शन और दिनचर्या को बहुत कुछ बदल दिया। हालाँकि
प्रवृत्तियों और वादों के साथ अनेक कालखंडों से होती हुई हिंदी आम जनता की हालत में बहुत बदलाव नहीं आया।
कविता ने एक प्रदीर्घतर यात्रा की है। इसमें देश, काल और मनुष्य एक कठिन समय की संवेदना को कविता में रूपायित करने
की चित्तवृत्तियों में परिवर्तन के साथ साथ ही कविता के कहन, वाले पंकज चतुर्वेदी बहुत ही ज़हीन और संज़ीदा कवियों में से एक
उसके आस्वाद और शिल्प में भी अवश्यंभावी परिवर्तन घटित हुए हैं। उनके अब तक कविता के पांच संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। ‘एक
हैं। आधुनिकता के प्रवेश के साथ ही मनुष्य और मनुष्य के बीच में संपर्णत
ू ा के लिए’, ‘एक ही चेहरा’, ‘रक्तचाप और अन्य कविताएँ’,
दूरियाँ कम हुई हैं लेकिन उसके साथ ही हृदय की भावशून्यता बढ़ी ‘आकाश में अर्द्धचंद्र’, ‘काजू की रोटी’ (कविता-संग्रह) उनकी
है। संचार, चकाचौंध, यातायात के साधन, मीडिया,ग्लैमर और प्रकाशित कृतियाँ हैं। इन संग्रहों में शामिल कविताओं के मार्फत
भौतिक सुख सुविधाओं ने मनुष्य को व्यक्ति केन्द्रित जकड़बंदियों पंकज चतुर्वेदी का व्यक्तित्व एक जन सरोकारधर्मी व नागरबोध
में कैद कर दिया है, संवेदनाएँ लगातार कमतर हुईं हैं। जिससे संपन्न कवि का दिखाई देता है। जो बराबर जनता के पक्ष में
कवियों का काम और जटिल व बौद्धिक होता गया है। आधुनिक सत्तातंत्र के विरूद्ध मनुष्यता का बयान करता है। पंकज चतुर्वेदी की
व समकालीन कविता की कई पीढ़ियों ने इसे अपने-अपने ढंग कविताएँ अपने कहन में बेहद मुखर और सत्ता तंत्र की मुखालिफत
युवा कवि, कहानीकार और आलोचक भरत प्रसाद प्रसाद की कविताएँ, सभी संग्रहों की कविताएँ एक
को मैं दशकों से जानता हूँ और उनके बनने की विमर्श रचने का प्रयत्न करती हैं। विमर्श अव्यवस्था
प्रक्रिया का गवाह भी रहा हूँ। भरत प्रसाद में अपने के प्रति प्रतिरोध का तो है ही, सत्ता संरचना के विरुद्ध
छात्र जीवन से ही आक्रोश रहा है और वे बराबर भी है, जिसमें कवि के छल और वंचना के अतिरिक्त
बद्धमूल सामाजिक ढांचे से लेकर अभिजात्यवादी कुछ देखा ही नहीं है। एक सुंदर स्वप्न के टूट जाने,
संरचनाओं को प्रश्नांकित करते रहे हैं। कहानियों उम्मीदों पर नज़र गड़ाए पथराई आँखों से बिसूरते
और अपनी आलोचनात्मक टिप्पणियों में भी उनका लोगों और समाज में फैली दहशत पर चीत्कार करती
आक्रोश जब-तब प्रकट होता रहा और वे ग़ैर बराबरी पर आधारित भरत प्रसाद की कविताएँ यथार्थ और विडंबना-बोध के मध्य उन
प्रायः हर तरह की व्यवस्था को लक्ष्य करते रहे हैं। सुदूर उत्तर-पूर्व बेशर्म चालाकियों को पहचानती हैं जिनके कारण भोले-नासमझ
में रहक़र भी लगातार काम करना, साहित्य के केन्द्रीय विमर्शों लोग अब भी उम्मीद की गठरी अपनी पीठ पर लादे प्रतीक्षा कर
में हिस्सेदारी करना और एक सार्थक जगह बना लेना आसान रहे हैं और कवि अपनी पहरेदारी की मुनादी करता हुआ कहता है-
काम नहीं है। यह सचमुच हैरान करने वाली बात है कि भरत ‘मेरे शब्द चौकीदार की तरह
प्रसाद ने अपने क्षेत्र में, चाहे वह कहानी हो या आलोचना हो तुम्हारे चरित्र पर रात दिन पहरा देते हैं
या कविता का क्षेत्र हो-निरंतर असुविधाजनक प्रश्नों से टकराने तुम्हारी करतूतों के पीछे घात लगाये बैठे हैं वे
की कोशिश की है और अपने दायित्व को गंभीरता से निभाया है। तुम तो क्या, तुम्हारी ऊँची से ऊँची
ये प्रश्न सत्ता-संरचना के तो हैं ही, सामाजिक विषमता, हिंसा, धोखेबाज कल्पना भी
प्रजातांत्रिक दुःस्वप्न और छीजती मनुष्यता के भी हैं। अपने चारों उनकी पकड़ से बच नहीं पायेगी
तरफ पसरे दुःख और उदासी के बीच भरत प्रसाद का सर्जक व्यर्थ परत-दर-परत एक दिन खोल-खोलकर
की खुशफहमी नहीं पालता, उसे बेमतलब का कोई भ्रम भी नहीं है तुम्हें नंगा कर देंगे मेरे शब्द।’
जैसा कि अनेक युवा रचनाकारों का शगल बन गया है। एक तरफ प्रतीक्षातुर पथराई आँखों वाले लोग, तो दूसरी तरफ
भरत प्रसाद साहित्य-कर्म को एक जिम्मेदार नागरिक धर्म की धोखेबाज कल्पना’ और बहक़ावे के साथ धूर्तता का खेल खेलती
तरह निभाते हैं और यहीं से उन पर चर्चा की शुरुआत की जा व्यवस्था, दोनों के बारीक फ़र्क से भरत प्रसाद कविता का गवाह
सकती है। कहानियों, लेखों, आलोचनात्मक कार्यों और विचारपरक बनाकर प्रस्तुत करते हैं और जनता को ख़बरदार करने वाले ख़ुद
आलेखों की कई पुस्तकों के अलावा भरत प्रसाद के तीन कविता
संग्रह हैं-‘एक पेड़ की आत्मकथा, ‘बूँद-बूँद रोती नदी’ और भरत प्रसाद की कविताएँ यथार्थ और
‘पुकारता हूँ कबीर’। इन तीनों ही संग्रहों में भरत प्रसाद का कवि विडंबना-बोध के मध्य उन बेशर्म चालाकियों
प्रतिरोध की अपनी ज़मीन पर खड़ा है और जनधर्मी सरोकारों को पहचानती हैं जिनके कारण भोले-नासमझ
से आबद्ध है। कविता कवि की लाचारी नहीं, उसका संघर्ष और लोग अब भी उम्मीद की गठरी अपनी पीठ पर
लादे प्रतीक्षा कर रहे हैं।
दायित्वबोध है इसलिए वह जब कलम उठाता है तो प्रश्नाकुल
करता जाता है, पाठकों के मन की दुविधा को मिटाता है। भरत
इक्कीसवीं सदी में प्रकाश में आये हिंदी के युवा वाली निरलंकृत भाषा के कवि हैं। भव्यता की जगह
कवियों में राहुल राजेश सर्वथा नयी ऊष्मा से संपन्न सौम्यता और शोर की जगह शांति का वातावरण
एक प्रतिभाशाली कवि हैं। बीते आठ सालों में उनके रचना ही उनकी कविता का प्रेय है। इसके लिए वे
तीन संग्रह आ चुके हैं। पहला, ‘सिर्फ़ घास नहीं’ सन जिन काव्य-तत्वों का उपयोग करते हैं, उसे उनकी
2013 में साहित्य अकादेमी से प्रकाशित हुआ था। एक कविता की इन पंक्तियों से समझा जा सकता है-
‘क्या हुआ जो’ और ‘मुस्कान क्षणभर’ क्रमशः 2016 “निश्छल हृदय में संचित
ओैर 2021 में, ज्योतिपर्व प्रकाशन, गाजियाबाद और थोड़ी-सी प्रेमराशि
सूर्य प्रकाशन मंदिर, बीकानेर से प्रकाशित हुए हैं। थोड़ा-सा नमक
राहुल राजेश के संग्रहों को पढ़ने का अपना अलग ही आनंद थोड़ी-सी मिठास
है। विमर्शवादी कविताओं के कोलाहल से भरे आज के समय में थोड़ा-सा पानी
इन्हें पढ़ते हुए,किसी स्वच्छ नदी की शांत धारा में नौकायन करने थोड़ी-सी आग”
जैसा अनुभव होता है। यह भी समझ में आता है कि कविता लिखने (‘सिर्फ़ घास नहीं’ संग्रह से, पृष्ठ 15)
के लिए, किसी उपकरण की नहीं, सिर्फ़ अपनी अंतःप्रकृति को देखना दिलचस्प है कि राहुल राजेश की कविता जिन तत्वों
उपलब्ध कर लेने की ज़रूरत होती है। कविता की दिव्यता और (प्रेम,मिठास,नमक,पानी और आग) से निर्मित है,वे बहुत
भव्यता असल में तो निरलंकतृ और साधारण होने में है। कवि साधारण, प्राकृतिक और न्यूनतम हैं। पंच तत्वों से निर्मित संसार
कोई कीमियागर या जादूगर नहीं, वह भी साधारण जीव होता है का अस्तित्व जिस तरह परमात्मन् के बिना संभव नहीं, उसी
और कविता के पास उसे साधारण जीव की तरह ही जाना चाहिए। तरह निश्छल हृदय के बिना कविता का होना भी असंभव है।
कितना अजीब है कि तमाम कवि ‘जहाँ न जाए रवि,वहाँ जाए काव्य-सृजन के संदर्भ में निश्छल हृदय परमात्मन् का ही दूसरा
कवि’वाली रीतिकालीन उक्ति को आज भी अपना आदर्श मानते नाम है। निश्छलता के अभाव में कविता, कविता न होकर भाषा-
हैं और अपनी कविताओं में पाठकों को कला के नाम पर मायावी विलास का माध्यम बन कर रह जाती है। हम सब जानते ही हैं कि
लोक की निरर्थक यात्रायें कराते रहते हैं। ऐसे मायावी कवियों से हार्दिक-निश्छलता का स्वाभाविक वास परिवार और पारिवारिकता
चिढ़कर ही चिली के प्रसिद्ध कवि निकानोर पार्रा ने कहा होगा- का अवबोध कराने वाले विषय-प्रसंगों में सबसे ज्यादा होता है।
“परियों और समुद्री देवों में हमें यक़ीन नहीं परिवार ही वह जगह है जहाँ मनुष्य अपनी जड़ों,अपने अनुभवों,
कविता ऐसी होनी चाहिए- अपनी माटी और अपनी भाषा के साथ सर्वाधिक स्वाभाविक संबंध
जैसे गेहूँ के खेत में खड़ी एक लड़की में जी रहा होता है। कविता में सहजता और स्वाभाविकता बनाए
वर्ना कुछ भी नहीं।” रखने के लिए कवि को अपने पारिवारिक अनुभवों से सजीव रूप से
(निकानोरपार्रा की कविता‘घोषणा पत्र’, अनुवादःउज्ज्वल जुड़े रहना होता है। यह सजीवता बनी रहे, इसके लिए राहुल राजेश
भट्टाचार्य) का कवि वैदिक ऋचाओं जैसे शिल्प में कामना करता है कि-
थोड़े में कहें तो, राहुल राजेश ‘गेहूँ के खेत में खड़ी लड़की’ “लौटें हम अपनी जड़ों की ओर
जितनी ही साधारण और नितांत आसपास के जीवन में बरती जाने तलाशें बिसराए संबंध
ज़मीन की कविता
कुमारी गीतांजलि
विगत् दो दशकों में प्रमोद कुमार तिवारी की है, जिसमें मनुष्य मात्र ही नहीं अपितु वनस्पतियों
कविताओं ने अपनी विशिष्ट उपस्थिति दर्ज़ की है। से लेकर कीड़े-मकोड़ों तक और जानवरों से लेकर
लोक संदर्भोंं की नवीन प्रस्तुतियों ने उन्हें प्रयोगधर्मी धामिन सांप तक शामिल है, जिसे किसानों के लिए
कवि के रूप में स्थापित किया है। उनकी कविताओं धन और ऐश्वर्य का प्रतीक माना जाता है। एक संपूर्ण
का संग्रह ‘सितुही भर समय’ नाम से प्रकाशित है। घर, जिसके छप्पर तले सब साथ रहते थे। तभी तो
इधर विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में उनकी ‘सड़क’ वह लिखते हैं:
संबंधी कुछ कविताएँ प्रकाशित हुई हैं, जिसने उनकी ‘वह घर था
प्रयोगधर्मिता और संदर्भग्राह्यता को और भी अधिक पुष्ट किया घर
है। ‘सितुही भर समय’ गाँव से दूर हो चुके लोगों के स्मृतियों का जिसमें
जीवंत संयोजन है। इन कविताओं में जहाँ ग्रामीण संस्कृति के प्रति सभी सदस्यों के लिए होती थी पर्याप्त जगह
एक तीव्र आसक्ति दिखाई पड़ती है, वहीं दूषित प्रथाओं के प्रति कुत्ते, बकरी, बिस्तुइया से लेकर
एक गहरा विषाद भी मौज़ूद है। इन दो दशकों में ग्रामीण संस्कृति आन गाँव से आने वाले
एवं लोक जीवन केन्द्रित कई संग्रह प्रकाशित हुए हैं, परन्तु प्रमोद सारंगी बजाते बाबा तक के लिए
की कविताएँ अलहदा हैं। कुछ ऐसी परिस्थितियाँ, कुछ ऐसे दृश्य, ग़रीबी थी
कुछ ऐसे पात्र और कुछ ऐसे प्रसंग जो नितांत सामान्य होते हुए अभाव न था’1
भी अनछुए रह गए थे और तब जिसे एक बालक ने बड़े ग़ाैर से भावों से लबालब भरा रहने वाला घर। लेकिन वह भाव, वह
निहारा था, आज इस युवा रचनाकार की कविताओं की सबसे बड़ी प्रेम, वह मिट्टी की सुगंध कहीं पीछे छूटती जा रही है। संपन्न
उपलब्धि बन पड़े हैं। सामाजिक संरचना से विपन्नता की ओर जा रही यह ग्रामीण
संग्रह में सहेजी गई अधिकांश कविताएँ बालमन की स्मृति से संस्कृति ही कवि की चिंता का मुख्य कारण है। प्रमोद वही हैं, जो
सृजित हैं, कुछ-कुछ जिज्ञासु जो जाने हुए को समझना चाहता है। उनका गोंइया ठेलुआ है। यही कारण है कि एक शांत, स्थिर स्वर में
ऐसा जान पड़ता है कि इस बौद्धिक युवा कवि ने अभी भी अपने वह सब कह जाते हैं जो इस गाँव को गाँव होने से रोकता है। जहाँ
भीतर कहीं उस छुटपन को बचाए रखा है। कभी तो वह ग्रामीण जमींदारीप्रथा ख़त्म होने का नाम ही नहीं लेती, भेदभाव-छुआछूत
परिवेश को निहारता रहता है तो कभी आम के बौराए मोजरों में खो दिनों-दिन बढ़ती ही चली जा रही है, जहाँ स्त्रियों को आज भी
जाता है और जब जागता है तो मानवीय रिश्तों को बचाए रखने के प्रताड़ित किया जाता है।
लिए गजब का प्रतिवाद करता है। कवि का गोंइया (खेल में अपने इन कविताओं का ट्रीटमेंट भी बड़ा रोचक है। एक कविता है
दल का साथी) ‘ठेलुआ’,आँगन में बोलता‘कौवा’, विमर्शों पर ‘कमरू चाचा बनाम कमरुआ’। जाति का हज्जाम और धर्म से
भारी पड़ती ‘माँ’, अपनी छुरी-कैंची से आदमी बनाने वाले ‘कमरू मुसलमान इस पात्र में प्रमोद विमर्श नहीं ढूँढते, न ही जातिगत
चाचा’, टूटे टीन-बर्तनों और अनाज के बदले सामान देने वाले अथवा धार्मिक भेदभाव को दुत्कारते अथवा पुचकारते ही हैं। वह
‘फेरीवाले’,‘दइतरा बाबा’ सभी उसके जीवन के महत्त्वपूर्ण अंग बस आपसी रिश्तों की गर्माहट महसूस करा जाते हैं। कहते हैं खिंची
हैं। एक भरा-पूरा संपन्न जीवन। प्रमोद के लिए पूरा गाँव ही कुटुंब हुई रेखा बिना मिटाए छोटी करनी हो तो उसके बगल में एक बड़ी
कविता की स्वाधीनता की ज़रूरत प्रत्येक युग और कविता के वर्तमान फलक पर निरंतर उपस्थित
समय में रहती है और समकालीन परिदृश्य के निर्मम, रहते हुए जो सार्थक हस्तक्षेप उन्होनें किया है वह
संवेदनशून्य और जटिल परिवेश में भी कविता में एक नये तरह की आंदोलंनधर्मिता का प्रखर स्वर बन
अंतर्निहित यह स्वाधीनता उतनी ही ज्यादा अनिवार्य कर उभरा है जो यथार्थ की धीमी आँच में पकती इन
और प्रासंगिक है। इस दौर की कविताओं में जो संघर्ष कविताओं के ताप में महसूस भी किया जा सकता है।
व्यक्त हो रहा है वह व्यक्ति विशेष से सामान्य जन इनमें साधारण से लगने वाले जीवन के अनुभव बड़े
की तरफ निरंतर बढ़ा है। लोकतांत्रिक व्यवस्था की मुद्दों से जुड़े हैं और व्यक्तिगत पीड़ाओं के माध्यम से
विसंगतियों में साधारण मनुष्य की घोर निराशा, हताशा, तनाव और इस समय की सामाजिक और राजनीतिक यातनाएँ सामने आती
पीड़ा की आत्मघाती स्थितियों से बचने के लिये आज की कविता हैं–
जिस विश्वसनीय विकल्प को स्थापित कर रही है वह आत्मसंघर्ष कविताओं से बहुत लम्बी है उदासी
के धरातल से आगे बढ़कर सामाजिक और राजनीतिक धरातलों यह समय की सबसे बड़ी उदासी है
पर प्रतिफलित होता है। जो मेरे चेहरे पर कहीँ से उड़ती हुई चली आयी है
इस सदी के आरंभ में जिन प्रमुख कवियों ने कविता की जन मैं समय का सबसे कम जादुई कवि हूँ
प्रतिबद्धता के इस अलग मुहावरे को पहचानकर उसकी बौद्धिक कविता का सबसे पहला दायित्व है कि वह मुक्ति के लिए
भंगिमा और प्रतिरोध की चेतना को एक नया स्वर दिया उनमें एक विकल्प देती है और मनुष्य के पक्ष में खडे होकर निरंतर प्रश्न
सशक्त और सार्थक उम्मीद के रूप में युवा कवि विमलेश त्रिपाठी करती है क्योंकि वह सिर्फ़ क्रूर भयावह समय की सूचनाएँ भर
एक जाना-पहचाना नाम हैं जिनकी कविताओं में विद्रोह और देकर विलीन नहीं हो सकती। समकालीन कविता की यह बुनियादी
संघर्ष महज़ एक शब्द या आवेग नहीं। यह संवेदना और विचार प्रवृत्ति है कि भौतिक उपभोग और बाज़ारवाद पर टिके विकास
के समन्वय में उनकी संपर्णू काव्यात्मक–रचनात्मक प्रक्रिया की की चकाचौंध और तेजी से हुए बाहरी बदलावों में भी उसकी
मानसिकता का हिस्सा बनकर कविता को लगातार और बार- बार तह में छुपे नेपथ्य के अँधेरे को देख पहचानकर उस यथार्थ को
घेरता है। उनके प्रकाशित कविता-संग्रहों में हम बचे रहेंगें, एक देश दृश्यगत करती है जो औसत नागरिक के सामने शोषण, ग़रीबी,
और मरे हुए लोग, उजली मुस्कराहटों के बीच, कन्धे पर कविता, अभाव, विस्थापन पहाड़ जैसी चुनौतियों की तरह समाज और
एक पागल आदमी की चिट्ठी, यह मेरा दूसरा जन्म है, लौटना है व्यवस्था की विसंगतियों में आज भी समाहित है। यह कविता का
एक दिन जैसी महत्वपूर्ण और चर्चित कृतियाँ इस बात का प्रमाण भी संकट और चुनौती है जिससे निरंतर संघर्ष करते हुए विमलेश
हैं कि कविता के लिए एक विशिष्ट आंतरिक परिपक्वता उनकी त्रिपाठी जी की कविताएँ व्यक्ति और परिवेश के इस अंतर्विरोध को
रचनाशीलता में आरंभ से ही मौज़ूद रही है। एक संवेदनशील और गहराई से देखती हैं। प्रतिरोध के स्वर के लिए इन कविताओं की
आत्मसजग युवा कवि के रूप में विमलेश जी में अपने समय के आस्था हमेशा स्पंदित रहती है जिसमें जीने की शर्त और मानवीय
यथार्थ को कविताओं में दर्ज़ करते हुए जहाँ उनमें मनुष्य और सार्थकता के प्रश्नों नें अस्तित्व की खौलती हुई स्थितियों से कविता
समाज के दर्द की अनूभूति है तो परंपराओं को तोड़ने का साहस भी में इनका सामना होने पर बचा नहीं जा सकता-
है जो उन्हें कविता में अलग और मौलिक पहचान देता है। वह पिघलता है
“मुझे सत्ता नहीं रोटी चाहिए/ हिक़ारत और एहसान द्वेष, नफ़रत और युद्ध का कारण बनता है। घनश्याम
के दर्प में लिपटी नहीं/ हक़ और आत्मीयता के ताप अपनी कविता ‘मेरा राष्ट्रप्रेम’ में इधर दिनोदिन देश में
में पकी हुई / और इस रोटी के लिए सत्ता चाहिए/ बढ़ रहे अंध और संकीर्ण राष्ट्रवाद तथा बढ़ते नफ़रत
जिसमें सबके हिस्से की अपनी रोटी हो” के खेल को लक्ष्य कर प्रतिवाद में बहुत मुखर होकर
इन पंक्तियों के कवि घनश्याम त्रिपाठी हिंदी के दो टूक कहते हैं– “देश मेरे लिए/ कोई मनोवांछित
कवि-बाहुल्य संसार में कम लिखने वाले और बहुत तैलचित्र या मूर्ति नहीं है/ और न देशप्रेम/ उस तस्वीर
लो-प्रोफाइल में रहने वाले हैं। उनके अब तक दो या मूर्ति की वंदना या/झुककर धूप-दीप दिखाना है
संग्रह प्रकाशित हैं- ‘समुद्र को बंधना अभी शेष है’ (2014) मात्र/ भारत मेरे लिए/ उर्वर मैदानों जीवनदायिनी नदियों/ दृढ उदार
और ‘जो रास्ता संघर्षमय होता है’(2022)। उनके दोनों संग्रहों पर्वतों/ जंगल खनिज विपुल संपदा से निर्मित / एक समृद्ध भू-भाग
को पढ़ने के बाद यह देखा जा सकता है कि घनश्याम इधर कहीं है/जिसमें समस्त देशवासियों की रोजी-रोटी/ जीवन की गरिमा व
अधिक मुखर और प्रखर हैं- आज की तक़रीबन हर समस्या या सुरक्षा/ समाहित है...” इसी बात की एक अन्य कविता में जैसे वह
विषय पर पैनी दृष्टि रखते वाले। ये एक साधारण नागरिक की घोषणा कर रहे हैं– यह दुनिया जितनी एक की है उससे एक भी
गहन विकलता,संवेदनशीलता और नैतिक दायित्वों से लैस हैं, कम नहीं हो सकती अन्य की। देखा जा सकता है ये पंक्तियाँ एक
जिनका विषयगत फैलाव भूमड ं लीकरण, नयी आर्थिक नीतियों- वृहद मानवीय, उदार और वैश्विक लोकतांत्रिक दृष्टिकोण से कही
उदारीकरण और निजीकरण से लेकर क्षद्म राष्ट्रवाद,धर्म और जा रही हैं। यहाँ यह भी विचारणीय है, ऐसे वक्तव्य या कथन देश
जाति के वर्तमान स्वरूप के ज्वलंत प्रश्न, किसान आन्दोलन, छात्र की आज़ादी के बाद के दिनों में कवियों द्वारा देश-ग़ाैरव के लिए
आन्दोलन से लेकर कोरोना महामारी के कष्टों तक है। उनकी ख़ूब कहे गए हैं, जो बेशक़ नये भी नहीं हैं, किन्तु प्रश्न है, कवि को
कविताओं में नाटकीयता, प्रदर्शनप्रियता, वाचालता या अगम्भीरता आज फिर इन्हें ख़ास जोर देकर कहने की ज़रूरत क्यों आन पड़ी?
नहीं है, बल्कि इसके उलट, अपनी संजीदगी, सादगी और साफ़गोई वह इसलिए कि आज बेतहाशा फ़ैल चुके कृत्रिम, आडम्बरी, उग्र
है जिसके कारण ये अधिक इनका प्रभावशाली हो जाती हैं। और हिंसक देशभक्ति के बरअक्स वास्तविक और सच्चे देशप्रेम
घनश्याम अपनी लोकतांत्रिक वैचारिकी में हर एक नागरिक की के लोकव्यापी विचारों को आज फिर नए सिरे से स्थापित करने की
स्वतंत्रता और भिन्नता को सम्मान देते हैं, यह कहते हुए कि व्यक्ति बड़ी ज़रूरत और ज़िम्मेदारी सामने आ खड़ी हुई है।
की भिन्नता से बना है यह संसार। बिना किसी जोशीले नारे के कवि
विश्व-बंधुत्व की बात कर रहा है। लेकिन अपनी बड़ी उदारता के 0000
बावज़ूद इस बात के लिए बेहद सजग है कि— “चाहिए दिमाग के पिछली सदी के अंतिम दशक से दुनिया के कई देशों में भूमंडलीकरण
गर्भ में एक चीरफाड़ घर/ जहाँ बारीक और निष्पक्ष पड़ताल की जा की आड़ में जो नवउदारवादी आर्थिक नीतियाँ थोपी गयीं,तब से ही
सके/ वहीं किसी कोने में चाहिए एक सुरक्षित जगह/ जहाँ भीतर निजीकरण और अधिग्रहण के दरवाजे उद्योगपतियों के लिए खोल
लगे कचरे के ढेर को/ दफ़नाया जा सके जलाया जा सके। कवि की दिए गए हैं। और देश के विपुल संसाधनों—जल,जंगल,ज़मीन
नज़र में कचरे का ढेर क्या है?” व्यक्तिवाद, अहम्, श्रेष्ठतावाद, की बेहिसाब लूट प्रभुत्वशाली उद्योगपतियों द्वारा लगातर जारी है।
वर्चस्ववाद इत्यादि, जो पड़ोस के घर से लेकर पड़ोसी देश तक इसी के मद्देनज़र इक्कीसवीं सदी के तीसरे दशक में सार्वजानिक
हरिशंकर परसाई
(22 अगस्त 1924 - 10 अगस्त 1995)
असीम
प्रभात मृत्युंजय
राकेश रंजन प्रांजल धर
शिरीष कुमार मौर्य अरुणाभ सौरभ
पीयूष दईया अविनाश मिश्र
मेरे जीवित हाेने की गवाही है कविता शिरोमणि महतो अनुज लुगुन
इसकी हर इबारत में जज़्ब है मेरी पहचान विवेक निराला राही डूमरचीर
पीयूष कुमार अनिल कार्की
श्रीप्रकाश शुक्ल सौरव राय
मिथलेश शरण चौबे कुमार कृष्ण
यतीश कुमार ग़ाैरव पाण्डेय
अंजन कुमार कुमार मंगलम
अजय कुमार पाण्डेय विहाग वैभव
विशेष
जम्मू कश्मीर की कविता
नयी सदी की कविता : दो स्वरों का तुलनात्मक-पाठ
महेश वर्मा की कविताएँ हमें उन बंद गुफाओं की सैर और वर्तमान स्थितियों में मनुष्य के आवाज़ाही और
करवाना चाहती हैं, जिनके दरवाजे और खिड़कियाँ उसके संकल्पों-विकल्पों की गुत्थमगुत्था से वाबस्ता
दिखाई नहीं देते, पर गुफा के भीतर रोशनी की झलक होता जान पड़ता है। ये ऐसे रूपक हैं जिनका मनुष्य
होती है। ऐसे में मन में यह सवाल उठना लाजिमी है चिरंतन से सामना करता आया है। आज भी कर रहा
कि यह प्रकाश कहाँ से अपनी छटा बिखेर रहा है? है और संभव है भविष्य की दिखाई देने वाली आहटों
कोई रोशनदान तो नहीं है जिससे गुफा में रोशनी का में भी इसकी अनुगूंज सुनायी देती ही रहेगी।
प्रवेश हो रहा है? यदि हम उन रोशनदानों को खोजने जल की होती जा रही अनुपलब्धता पूरे वातावरण
का प्रयास करेंगे तो वे भी हमें नहीं मिल पाएँगे। अब यह संशय और के लिए चिंता का कारण बनती जा रही है। मनुष्य तो मनुष्य, पशु-
भी अधिक बढ़ जाता है कि न खिड़की, न दरवाजे, न रोशनदान, पक्षी, पेड़-पौधे और जीव-जगत के सभी गोचर-अगोचर सजीव
बंद गुफा, फिर भी रोशनी की झलक कैसे दीख पड़ रही है? एक प्राणी जल की अनुपलब्धता होते देख घबड़ाने को मजबूर हैं।
रहस्य सरीखा, जिसकी खोज महेश वर्मा की कविताएँ करती जान सवाल है- आगे क्या होगा? और दूसरा कि इसका उपाय क्या है?
पड़ती हैं। इस खोज में उपमा, रूपक, बिंब, प्रतीक की भरमार है। तीसरा कि जल की अनुपलब्धता से निजात कैसे पाया जा सकता
कहीं-कहीं तो ऐसा लगता है कि ये शिल्प कविताओं को कमजोर है? ये सारे सवाल हमारे जीव-जगत में सबसे होशियार समझे
भले न बनाते हो, पर दुरूह और असंप्रेषणीय तो ज़रूर बनाता है। जाने वाले मनुष्यों को हर हमेशा, दिन-रात, चौक-चौराहे मथता
महेश वर्मा की इन कविताओं की दुरूहता हमें उस गुफा में डुबकी जा रहा है, सोचने को मजबूर किए जा रहा है। यदि हम आगे नहीं
लगाने के लिए मजबूर करती हैं जहाँ रोशनदान की कोई भी झलक चेतते हैं, हममें समझ का लेशमात्र भी विकास नहीं हो पाता है, तो
न हो, पर रोशनी दिखाई दे रही हो। महेश वर्मा की कविताओं की हम इतिहास में होती रही गलतियों को दुहराते जाने के लिए बाध्य
यही ख़ूबसूरती भी है और यही यही उसका दुरूहताबोध सामान्य होते रहेंगे और सुराहियाँ हमें ज़ोर-ज़ोर से आवाज़ देकर अपने पास
पाठक से कविता को दूर भी करता है। बुलाती रहेंगी कि हमारे भी सूखे अतड़ियों में थोड़ा पानी डाल दो।
महेश वर्मा की प्रायः कविताएँ इस बात का एहसास कराती सुराहियों की आवाज़ हमें मथती रहेंगी और हम विवश और व्यथित
हैं कि इसके आगे भी लिखा जाना शेष है क्या? इस एहसास में हो इतिहास के गलतियों को दुहराते रहने के लिए बाध्य होते रहेंगे;
पाठक को किसी प्रकार की थकान महसूस होती हो या न होती यदि हमने इतिहास से सबक लेकर आगे की राह को दुरुस्त करने
हो, पर उसका एहसास यह प्रतिकार करने के लिए हमेशा तैयार की कोशिश नहीं की तो! “वे भी इसमें पानी ही रखेंगे और विकल
रहता है कि इसके आगे भी कुछ कहना शेष है क्या? यह ‘शेष’ रहेंगे,/ गलती दुरुस्त नहीं हुई है इतिहास की।” (कविता ‘चँदिया
सब कुछ न कह पाने की तड़प के रूप में कविताओं में व्यक्त स्टेशन की सुराहियाँ प्रसिद्ध हैं’)
हुआ जान पड़ता है। समाज, राजनीति, अर्थ, संस्कृति आदि से चिड़ियों की प्रजातियों का लुप्त होते जाना, साथ ही वृक्षों की
लबरेज़ ये कविताएँ कहना बहुत कुछ चाहती हैं। रूपकों का गढ़न कमी होते जाने का बदस्तूर जारी रहना- इस बात की ताकीद
भी करती हैं, पर ये गढ़े गए रूपक कितने प्रभावशाली हैं- यह बता करती चलती है कि यदि हमारी स्थिति ऐसी बनी रही तो हम
पाना बड़ा कठिन है। सूर्य, पर्वत, राख, धूल, कुहासों आदि का जो अपने ‘भविष्य’ के लिए कितना अच्छा ‘कल’छोड़ पायेंगे? “और
रूपक गढ़ा गया है कविताओं में, उन रूपकों के सहारे तत्कालीन कूट संकेत बताने वाली चिड़िया की आवाज़/ सूख गई है अनाम
किसी कवि की कविता को हम कैसे देखें और कहां नाथ अग्रवाल, वेणु गोपाल, विजेंद्र, आदि तमाम कवि
से देखें। एक सहृदय पाठक के सामने यह सवाल जन जीवन की छवियों और उथलपुथल को अपने
तमाम बार तमाम तरह से आता रहा है। यह 'कहां' आत्मिक संवाद के जरिए काव्य जगत में पुनर्जीवित
और 'कैसे' कवि, कविता और सहृदय के बीच करते दिखते हैं। ये कवि अपने समय के सवालों को
उपस्थित भाव दीप्ति को देखने-परखने का बार-बार पराया व्यक्ति बनकर नहीं बल्कि 'जन संग' गहरे
मौका भी देती है। इसी से गहरे तौर पर जुड़ा एक सरोकारों के साथ प्रकट कर रहे होते हैं। आज प्रचार
और सवाल पीछे से झांकता मिलता है कि– क्या और विज्ञापनी सभ्यता के आवरण में मोहांध तमाम
कविता में कवि का व्यक्तित्व आसवित होकर तैरता मिलता है? या कवि महज बहिरंग का वर्णन और शाब्दिक बयान को ही अपनी
कल्पित सृष्टि सर्जक के व्यक्तित्व से मुक्त होकर स्वतंत्र अस्तित्व प्रतिबद्धता की सीमा रेखा समझते हैं। यहाँ आत्मसंवाद, आत्मगत
लिए कविता की शक्ल में आ विराजती हैं। शायद इसीलिए सहृदय सवालों की आवाज़ाही बहुत कम, अपनी उपस्थिति दर्ज़ करा
के लिए अपना अर्थ,अपनी छवि लिए मिलती है। लेने की होड़ ज्यादा दीखती है वहीं कवि-व्यक्तित्व बेहद क्षीण
हम अक्सर देखते हैं कि एक कवि अपने समय को तो कटघरे अनुभवजन्य और यथास्थितिवादी। भले ही वे कविता में बतौर
में खड़ा करता है जबकि स्वयं व्यक्ति के तौर पर उसकी भूमिका प्रचलन 'लोक' की बात करें या जनता की आवाज़ को उठाने
दर्शक की या नैरेटर की बनी रह जाती है। क्या वह कवि यहीं का उपक्रम करते मिलें। वह महज नामानुक्रमणिका में नाम दर्ज़
से बतौर रचनाकार अपनी सामाजिक जवाबदेही की भूमिका से कराने तक सीमित लगता है। ऐसे 'तेजवंत' कवि व्यक्तित्वों से
'अन्तरगत ही भावै' की ओर प्रस्थान करने लगता है। आज के कवि आप ईमानदार कविता की उम्मीद भी भला क्यों कर करें? हाँ! इन
का व्यक्तित्व क्योंकर बहुत धुंधला, ज्यादातर 'नाम रूप गुण' में भलेमानुष कवियों की कविता बोलती ज्यादा है। बयानों, वर्णनों
किसी और की ओर से देखता-दिखाता मिलता है। जबकि हमारे की पीठ की सवारी करते हुए अपना समस्त ज्ञान काव्यमय रूप में
निकट अतीत के जन कवियों का व्यक्तित्व उनकी कविता की नशों ढकेल रहे होते है या कुछ मूर्त छवि चित्रों की महज इन्दराजी। इस
में सतत प्रवहमान मिलता है। बीच हम आज के एक कवि आत्मारंजन की अधिकांश कविताओं
हम पाते हैं कि निराला और मुक्तिबोध प्रभृति तमाम कवियों की में कवि व्यक्तित्व की छाप देखते हैं। यही वह चीज़ है जो अन्तर्धारा
कविता में उनका व्यक्तित्व उभरता मिलता है। अपने आप से सवाल के तौर पर अपने पूर्वज कवियों की काव्य परंपरा का स्मरण कराती
जबाब करती कविता के कवि हैं ये। अपने समय में अपनी भूमिका मिलती है। कविता में कवि की उपस्थिति,उसका सहज व्यवहार
टटोलते कवि हैं ये। इन कवियों की कविता की आत्मगतता अपने और आगे की ओर देखती निगाह साफ-साफ पढ़ने को मिल जाती
वर्गमूल के अन्तर्विरोधों की छाया लिये मिलती है। अपने वर्गीय है। इसी मायने में यह कवि कई युवा कवियों की तरह ज्यादा भरोसे
सीमाओं और अन्तर्विरोधों, दुविधाओं की ईमानदार अभिव्यक्ति ही का कवि लगता है–
उनकी कविता को प्राणवान बनाती है। वहीं अन्तर्विरोधों की धार जब बहुत ज़रूरी होता है
गोठिल होने लगती तब यही वैयक्तिकता अपने चरम व्यक्तिवाद असहायता की स्थिति से
में परिणत होते हुए कई कवियों में आत्मग्रस्तता तक पसरी मिलती उबारने को आतुर हाथों की
है। जिसका प्रतिकार करते हुए नागार्जुन, त्रिलोचन, शील, केदार मंशा समझ लेना
संतोष कुमार चतुर्वेदी का पहला काव्य-संग्रह है लोकमान्यताओं की छानबीन करते हैं। उसमें भी
'पहली बार'। यह संग्रह 2009 में प्रकाशित हुआ खासकर दक्खिन को लेकर। ध्यान देना होगा, कविता
था। इस शीर्षक पर प्रसिद्ध कथाकार मार्कण्डेय जी में 'दक्षिण' नहीं, 'दक्खिन' है। दक्खिन को लेकर
के प्रथम कहानी संग्रह 'पान फूल' का प्रभाव है। लोक में अनेक धारणाएँ, अनेक मुहावरे और कहावतें
यह इसलिए भी कह रहा हूँ कि मार्कण्डेय जी की प्रचलित हैं। बात-बात में लोग नष्ट हो जाने के अर्थ
पत्रिका 'कथा' के संपादन से संतोष का लंबे समय में 'दक्खिन लग जाने' का प्रयोग करते हैं। काशीनाथ
तक गहरा जुड़ाव था। मार्कण्डेय जी के बहुत क़रीब सिंह के 'काशी का अस्सी' में भी इसका प्रयोग है।
होने का सौभाग्य भी इनको प्राप्त रहा है। मार्कण्डेय जी का यह 'दखिनहीं हवा' भी कभी-कभी चलती है। लोकमान्यताओं के
संग्रह जब प्रकाशित हुआ था तब उसका जबरदस्त स्वागत हुआ अनुसार यह हवा स्वास्थ्य और अन्य चीज़ों के लिए अच्छी नहीं
था। आलोचकों और विचारकों ने विषय वस्तु और भाषा की ताजगी होती। लोकमान्यताओं के अनुसार सोते समय दक्खिन दिशा में
को देखते हुए उनके इस पहले कहानी-संग्रह को हिंदी कहानी का पांव नहीं होने चाहिए। दक्खिन मुँह भोजन नहीं करना चाहिए।
'पान फूल' कहा था। संतोष इससे बेहद प्रभावित थे। मार्कण्डेय जी दक्खिन मुँह दातुन नहीं करना चाहिए। घर का निकास दक्खिन
के उक्त संग्रह 'पान फूल' में इस शीर्षक की एक कहानी भी है। मुँह नहीं होना चाहिए। श्राद्ध के अनेक टोटके दक्खिन मुँह किए
कहानी, हालाँकि दुखांत है। संतोष से इस प्रसंग में तब बातचीत जाते हैं। ब्राह्मणवादी लोकमान्यताओं के अनुसार यह दिशा अशुभ
भी हुई थी। इस तरह यह 'पहली बार' संतोष चतुर्वेदी की तरफ से है। इत्यादि, इत्यादि। संतोष अपनी कविता में इन बातों को लेकर
हिंदी कविता का 'पान फूल' है। संतोष के संग्रह में भी 'पहली बार' सवाल करते हैं और दक्खिन के एक बड़े जटिल सामाजिक-
शीर्षक एक कविता है। इस संग्रह के प्रकाशन के समय मार्कण्डेय सांस्कृतिक संदर्भ से कविता को जोड़ते हैं। वह दलित जातियों की
जी जीवित थे और कुछ सुझाव उनके भी रहे होंगे। उल्लेखनीय बसाहट को लेकर है। दलित जातियों की बसाहट ग्रामीण बस्तियों
है कि यह संग्रह मार्कण्डेय जी को ही समर्पित है। उक्त संग्रह के में प्रायः दक्खिन दिशा में ही पाई जाती है। आख़िर इस दक्खिन
पहले संतोष की कई कविताएँ अनेक पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित में बसाहट का क्या अर्थ हो सकता है? संतोष इस कविता में इस
हो चुकी थीं। संदर्भ को भी ले आते हैं और दक्खिन से जुड़े कई मामलों को
दूसरा संग्रह आया 2014 में तो इस शीर्षक पर भी सोचा। वह क्रमवार ले आते हुए अंत में इसको ले आते हैं। दलित जातियों
शीर्षक है 'दक्खिन का भी अपना पूरब' होता है। शीर्षक बड़ा के साथ हुए इस भेदभाव और अन्याय को प्रकाश में ले आते हैं।
सांकेतिक और अर्थपूर्ण है। दक्खिन तो ख़ुद एक दिशा है तो इसके कविता में इसे 'पुराने जमाने के ऊँचे तबके के लोगों का षड्यंत्र'1¹
पूरब का क्या तात्पर्य? कोई पूरब चलता चले, चलता चले, दाएँ कहा गया है जो बिलकुल वाज़िब है।
हाथ दक्खिन भी रहेगा हर कदम पर। कोई दक्खिन चले तो बाएँ संतोष इस कविता में एक अर्थपूर्ण संकेत करते हैं जो काफ़ी
हाथ पूरब का होना भी तय है। सारी दिशाओं की मौज़ूदगी हर रोचक भी है और सहज रूप में चिंतन और प्रगति के अनेक
कदम पर रहती ही रहती है। तो आख़िर संतोष कहना क्या चाहते दरवाजों के खुलने के अर्थ को लिए हुए है। वह पूरब है। जैसे
हैं इस शीर्षक की एक कविता रचकर, इसी कविता को संग्रह सबका पूरब है, वैसे ही दक्खिन का भी। हाशिए के समाजों का
का नाम देकर? इसके लिए संतोष दिशाओं को लेकर प्रचलित भी, दलित बस्तियों का भी। यह कविता शुभाशुभ की फिजूल की
समकालीन हिंदी कविता में महेश पुनेठा जी ने इसे रचने से अधिक जीने का विषय मानते हैं-
महत्वपूर्ण उपस्थिति दर्ज़ कराई है। वह अनुपस्थित पर मैं न जी पाऊँ कविता
आवाज़ों के हक़ में लिखने वाले कवि हैं। 'भय अतल दुनिया में अँधेरा कुछ और बढ़ जायेगा।
में, 'पंछी बनती मुक्ति की चाह' और 'अब पहुँची हो यह अकारण नहीं है कि महेश पुनेठा की कविताएँ
तुम' शीर्षक काव्य संग्रहों ने काव्य जगत में अपनी दुनियाँ में अँधेरे के ख़िलाफ़ न केवल खड़ी होती
अलग पहचान बनाई है। अपनी एक कविता में महेश हैं बल्कि लड़ती भी हैं पर यह लड़ाई बाहरी और
पुनेठा जी कविताओं की तुलना उस 'दांती अखरोट' आरोपित न होकर जीवन में धँसकर की गई है।
से करते हैं जो ऊपर से भले ही थोड़ा कठोर दिखे लेकिन उसके उनकी पहली कोशिश है कि भीतर की कविता मरने न पाये।
भीतर मधुर व कोमल 'गिरी' बजती रहती है। धैर्य से ऊपरी कवच महेश पुनेठा जी की एक और छोटी-सी कविता है-'फुंसी'। एक
हटाकर उसे पाया जा सकता है। महेश पुनेठा जी की कविताएँ वैसे छोटी-सी फुंसी के माध्यम से कवि सत्ता के दमनकारी चरित्र को
ही धैर्य की मांग करती हैं। उन्हें पढ़ते हुए हम धीरे-धीरे शब्दों के न केवल उजागर करता है बल्कि उत्पीड़ित के आक्रोश को भी दर्ज़
भीतर प्रवेश करते हैं और 'अर्थ' के एक नव्य संसार के नागरिक करता है। यह कविता की ऐतिहासिक भूमिका है कि वह दमन और
बन जाते हैं। 'जनपक्षधर विचार' ही इस दुनिया के प्रवेशपत्र हैं। उत्पीड़न के ख़िलाफ़ जनता का पक्ष मजबूती से रखे। जैसे कभी
कविता में तमाम प्रचलित संदर्भ, कथाएँ और विचार प्रतिद्धता के केदारबाबू ने कहा था-'जनता नहीं मरा करती है'। महेश पुनेठा
प्रिज्म से गुज़रते हुए उस कोण से हमारे सामने पुनर्प्रस्तुत होते है भी लिखते हैं-
जिसमें अनदेखा सच साफ-साफ झिलमिला उठता है। सच ही जिसे उभरते देख
कला की अमरता का निकष है, शेष रस-छंद-अंलकार-बिम्ब- मसल कर
प्रतीक बाहरी बनाव-सिंगार हैं जिन्हें एक दिन मलिन होना ही है। खत्म कर देना चाहते हो तुम
स्वाभाविक है कि अपनी कविता के सहारे महेश पुनेठा जी उसी वही और अधिक विषा जाती है
सच के हक़ की लड़ाई लड़ते हैं, व्यवस्था से प्रश्न-प्रतिप्रश्न करते तुम्हारी गलती
हैं क्योंकि प्रश्न करना जिंदा होने का आदिम सबूत है। 'नचिकेता' छोटी सी फुंसी को
शीर्षक कविता में वह कहते हैं- दर्दनाक फोड़े में बदल देती है।
इसलिए तुम आज देश में कई जगह आक्रोश पनप रहा है। नक्सल समस्या
हजारों साल बाद भी से लेकर विश्वविद्यालय परिसरों में पैदा हो रहे छात्र तनाव के पीछे
ज़िन्दा हो सत्ता का यही अनदेखापन है और इसके कारण उसकी दमनकारी
जब तक प्रश्न रहेगें नीतियों में ही खोजा जा सकता है। महेश जी की कविताएँ दुख
तब तक तुम भी रहोगे। की तासीर समझती हैं। वे संघर्षों का एक नया व्याकरण रचती
उनके पास कुछ छोटी कविताएँ हैं जो अपने रूपाकार में भले ही हैं। उनमें निहित आत्मीयता इतनी सहज है कि वह शिकायतों से
छोटी हों लेकिन प्रभावशीलता में बहुत असरदार हैं। इसका कारण म्लान नहीं होती बल्कि बहुत दिनों तक कोई शिकायत न मिलने
यह है कि कवि को कविता में अखण्ड विश्वास है। हालाँकि वह पर कवि स्वयं को टटोलने लगता है कि उसी से कोई गलती न हुई
बसंत त्रिपाठी बीसवीं सदी के अंतिम दशक के संचालित करने की एक व्यवस्था को निर्मित कर चुका
महत्वपूर्ण कवि हैं। उनकी काव्ययात्रा एक ऐसे दौर है और जिसे बनाये और बचाये रखने के लिए वह
से प्रारंभ होती है, जहाँ से अंतर्राष्ट्रीय और राष्ट्रीय लगातार अपने रूप को परिवर्तित करता चलता है
स्तर पर व्यापक बदलावों की शुरुआत होती है। ताकि लोगों की मानसिकता उसके अनुकूल बनी रहे।
सोवियत संघ में समाजवादी व्यवस्था का विघटन बसंत त्रिपाठी की कविताएँ इसी लगातार बदलते हुए
होता है। शीतयुद्ध की समाप्ति के बाद समाजवाद का गतिशील यथार्थ के बीच उन जटिलताओं से उत्पन्न
महास्वप्न बिखरकर रह जाता है। नवसाम्राज्यवाद अवरोधों से जीवन और समाज पर पड़ रहे व्यापक
का उदारवादी नीतियों और बाज़ारीकरण के द्वारा और अधिक प्रभावों को विश्लेषित करती चलती हैं। जिसमें अपने समकालीन
विस्तार प्रारंभ होता है। सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक और समय की गहरी चिंता, पीड़ा और यथार्थ को उजागर करने के
सांस्कृतिक स्तरों पर व्यापक परिवर्तन तेजी से शुरू होते हैं। 1990 साथ अभिव्यक्ति की रचनात्मक बेचैनी भी दिखाई देती है। उनके
में भूमंडलीकरण आने के तुरतं बाद 1992 में 6 दिसंबर को बाबरी इन चारों काव्य संग्रह की कविताओं से गुज़रते हुए नई सदी के
मस्जिद ढहा दी जाती है। देश में एक के बाद एक दंगे भड़क उठते विकास के साथ कवि के रचनात्मक विकास को भी महसूस किया
हैं। कई जगहों पर बम ब्लास्ट होते हैं। जिसमें सैकड़ों लोग मारे जा सकता है। जिसमें समकालीन हिंदी कविता की परंपरा और
जाते हैं। देश की आबोहवा सांप्रदायिक नफ़रत के ज़हर से भर दी परिवर्तन के मूर्त और अमूर्त साक्ष्य मौज़ूद हैं।
जाती है। भूंडलीकरण के बाद बाबरी मस्जिद का ढहा दिया जाना बसंत की कविताएँ अतिरिक्त भावुकता से परे गहरे रूप में
अनायास ही नहीं था। बल्कि यहीं से वैश्विक और राष्ट्रीय स्तर पर मानवीय व सामाजिक सरोकारों से जुड़कर आती हैं। ‘अपने-अपने
लूट की हिंसा से भरी एक नई वैश्विक राजनीति की शुरुआत होती दायरे, ‘एक शहर तुम्हारी यादों का’, ‘तुम्हारी आंखों में’, ‘सन्नाटे
है। ऐसे ही व्यापक बदलाव और हिंसात्मक राजनीति के दौर में का स्वेटर’, ‘तुम्हारे बिना’, ‘जिंदगी की एक उदास रात’, ‘बीसवी
अपने समय की चुनौतियों, विसंगतियों और अंतर्विरोधों से चिंतित सदी के अंतिम वर्षों में प्रेम’ आदि प्रमुख कविताएँ है। बसंत के यहाँ
कवि बसंत त्रिपाठी का रचनात्मक संघर्ष प्रारंभ होता है। वह प्रारंभ प्रेम वायवी नहीं बल्कि ज़मीनी है। जिसे ‘यादों के घने बादल-सी’
से ही वैश्विक चिंताओं के साथ हिंदी कविता में आते हैं। शीर्षक कविता की इन पंक्तियों से महसूस किया जा सकता -
बसंत त्रिपाठी के अब तक चार संग्रह आ चुके हैं। ‘मौज़ूदा ‘वह मेरे सपनों की दुनिया को
हालात को देखते हुए’ (1993), ‘सहसा कुछ नहीं होता’ ज़मीन से जोड़ती है
(2004), ‘उत्सव की समाप्ति के बाद’(2012), ‘नागरिक
समाज’ (2022)। इन संग्रहों की कविताएँ नब्बे के बाद नव उसके क़रीब होने के एहसास से
पूँजीवादी व्यवस्था ने जिस तेजी से सामुदायिकता, सामाजिकता मैं ज़िन्दगी में प्रवेश करता हूँ
और सहक़ारिता की भावना को नष्ट कर वस्तुजगत के साथ दुनिया के दुखों को पहचानता हूँ’1
मनुष्य के आंतरिक मनोजगत को प्रभावित किया है। मनुष्य और
समाज को खंडित कर जीवन की रागात्मकता को बाधित किया बसंत ने स्त्रियों पर केन्द्रित कई महत्वपूर्ण कविताएँ लिखी हैं,
है। नवपूँजीवाद अपने विकराल रूप में जीवन को अपने ढंग से जिनमें स्त्री के जीवन को प्रेम, संवेदना और अनुभूति के साथ
हिंदी कविता की इक्कीसवीं सदी का परिप्रेक्ष्य बहुरंगी है। ' इसी प्रकार बार-बार इतिहास से ग़ायब हो जाने
है। इसमें कोलाहल है। सूचना तकनीक के संजाल का वाले पन्ने देश की व्यथा में डूबे शानदार पोलिश
उलझाव है। तात्कालिकता और शीघ्रता है। युवाओं कवियों ने कविता की निरर्थकता को स्वीकार कर
की भीड़ है। गुटबाज़ी है। शिथिलताएँ, सनसनी और लिया। कविता से समाज और दुनिया को बचाने का
प्रयोजनवाद है। इन सब के साथ प्रत्येक वय के कवि उनका रोमानी स्वप्न छिन्न-भिन्न हो चुका था। रचने
हैं, जिनके अनुभव और सत्य पीढ़ी के अनुरूप भिन्न की एक उदासीन इच्छा बची रही बस। जिसे हिंदी-
हैं। इनमें एक पीढ़ी ऐसी भी है जिसके पास साठोत्तरी कवि केदारनाथ सिंह ने भी स्वीकार किया- 'लिखने
कविता का संस्कार और अस्सी-नब्बे के दशक की कविता का से कुछ नहीं होगा, लेकिन मैं लिखना चाहता हूँ। '
संयत स्वर है। अरुण देव प्रभृति कवियों को उस विशिष्ट और भिन्न अरुण देव 'समालोचन' जैसी लोकप्रिय और पठनीय ई-पत्रिका
ख़ाने में रखा जा सकता है। के संपादक के रूप में इतने ख्यात हो गये हैं कि उनके कवि को
इक्कीसवीं सदी की हिंदी कविता का व्यापक परिक्षेत्र होते हुए इस अवतार ने पछाड़ दिया है। उनका पहला संग्रह 'क्या तो समय'
भी उसमें एक विशेष प्रकार की संकुचनशीलता बढ़ती गयी है। भारतीय ज्ञानपीठ से (2004) छप कर आया था। यह उनकी
विषयों की अधिकता और उनके चुनाव में बरती गई अविलंबितापूर्ण कविताओं की तरुणावस्था थी, जिस पर केदारनाथ सिंह का कहना
नादानी इस सदी की कविता में धुन्ध की तरह व्याप्त है। बढ़ती था कि, 'एक ख़ास बात यह है कि इन तरुण कविताओं में वयस्क
हुई गद्यात्मकता ने काव्य-चेष्टाओं को शुष्कता का पैरहन पहनाया कला की एक कसावट दिखायी पड़ती है।' पिछली सदी के अंत
है। भाषा के मध्यवर्गीय आग्रह ने सम्प्रेषण का परिसीमन किया है, और नई के प्रारम्भ तक जेएनयू से शिक्षा-प्राप्त करके निकले
इस तरह कि एक वर्ग-विशेष से आगे हिंदी कविता की व्यंजनाएँ अकादमिक जगत के कवियों पर केदारनाथ सिंह का प्रभाव स्पष्ट
उस चहारदीवारी को पार न कर पाएँ जिससे साहित्य का विस्तार दिखायी देता है। अरुण देव के शुरुआती दो संग्रहों में यह प्रभाव
संभव होता है। कमज़ोर कविता को लचर आलोचकीय तर्कों से बिना किसी ख़ास चश्मे के देखा जा सकता है। ख़ास बात यह है
बचाने की कोशिश और अज्ञानतापूर्ण आलोचना से अच्छी कविता कि अरुण देव ने उस लोक-संवेदना को जाने दिया जो पिछली
की उपेक्षा करने की साज़िश इन रचनात्मक विफलताओं को और सदी के अन्तिम दो दशकों की कविता में अपने उत्कर्ष पर थी
भी हास्यास्पद बना देती है। लिहाज़ा कविता का पिछली सदी में और आलोचकीय प्रभाव में भी उसने केंद्रीय स्थान हासिल किया
निर्मित किया गया भरोसा अब टूट रहा है। यदि कुछ शेष रह गया था। इस तरह अरुण देव नागर-संवेदना के कवि हैं। इस नागर-
है तो वह है रचनात्मक प्रतिबद्धता। यह भी सत्य है कि, केवल संवेदना में जो अतिविशिष्ट बात है वह यह कि उनकी कविताओं
रचनात्मक प्रतिबद्धता से भी इन काव्यात्मक विडंबनाओं से पार में एक विनीत अवबोध है जो एक बड़ी हानि के रूप में इस सदी
नहीं पाया जा सकता। कविता को कुछ तो करना ही चाहिए! चाहे की नागरता से छूट गया है। संयत-भाव, कृत्रिमता से दूर अनुभूति,
वह एक चिढ़ पैदा करे, मुँह बिराये, चिकोटी काटे, सहलाये या आडम्बर-रहित, सुव्यवस्थित भाषा और बिम्बों की कोमलता
चींटी की तरह काव्य-चेतस् मन की दीवार पर रेंग जाये। जर्मनी में उनकी कविता की संरचना है। सलीक़े और आराम से अपनी बात
आश्वित्ज़ होलोकॉस्ट की क्रूरताओं को देखकर दार्शनिक थियोडोर कहने का बाहरी शिल्प उनकी कविता में दूर से चमकता है। इन
अडोर्नो ने कह दिया था कि 'अब कविता लिखना एक बर्बर काम काव्य-प्रवृत्तियों के आधार पर उन्हें 'नागर-सज्जनता का कवि'
जीवन को ठहरकर देखने वाले और उसी ठहराव के के मूल में है। संवेदना की इस पुरनम ज़मीन से ही
साथ काव्य-सृजन करने वाले प्रभात, समकालीन उस कविता का जन्म होता है जो एक सहृदय के
हिंदी कविता के सर्वाधिक महत्वपूर्ण कवियों में से भीतर सहजता से उतर जाती है और उसके अंतःकरण
एक हैं। विगत तीस वर्षों से कविता लिख रहे प्रभात का विस्तार करती है। प्रभात की कविताएँ हमारी उन
के अबतक केवल दो कविता संग्रह प्रकाशित हुए संवेदनाओं को फिर से जगाती हैं, जिन्हें स्वार्थ से
हैं। उनका पहला कविता-संग्रह ‘अपनों में नहीं रह संकुचित जीवन-दृष्टि ने तथा अपार लालच और
पाने का गीत’ सन २०१४ में और दूसरा ‘जीवन के पाखंड से आच्छादित हमारी जीवन-शैली ने सुषुप्त
दिन’ सन २०२० में प्रकाशित हुआ। इन दोनों कविता-संग्रहों की कर दिया है। उनकी कविताएँ इतनी सहजता और आत्मीयता के
कविताओं को पढ़ते हुए, ग्रामीण और कस्बाई जीवन की बहुत साथ आमजन के जीवन को हमारे सामने प्रस्तुत करती हैं कि
यथार्थपरक और वस्तुनिष्ठ तस्वीर देखने को मिलती है। गाँवों- उनको पढ़ते हुए पाठक बहुत स्वाभाविक रूप से उस जीवन से जुड़
क़स्बों में रहने वाले साधारण लोगों के जीवन से जैसा संवेदनशील जाता है। उनकी कविताओं को पढ़ते हुए यह आभास होता है कि
लगाव और उस जीवन के उज्ज्वल-धूसर हर तरह के रंगों को बतौर कवि उनके भीतर किसी प्रकार की विशेष महत्त्वाकांक्षा नहीं
कविता में अभिव्यक्त करने की जैसी क्षमता प्रभात के पास है, वैसी है। प्रभात के आस-पास लोग-बाग़ जैसे हैं, जिन हालात में हैं, जिन
क्षमता आज के बहुत कम कवियों में दिखाई देती है। प्रभात अपनी अच्छाइयों-बुराइयों से घिरे हैं, वे उनको उसी रूप में दर्ज़ करने की
कविताओं में अपने काव्य-विषय की अभिव्यक्ति के लिए किसी कोशिश करते हैं। और प्रभात के यहाँ ये चीज़़ें संभव होती हैं, उनकी
तरह की अतिरिक्त कोशिश करते हुए नहीं दिखाई देते। प्रभात को गहरी एम्पथी से। उनके भीतर साधारण लोगों से जुड़ने और उनके
पढ़ते हुए इस बात को आसानी से महसूस किया जा सकता है कि सुख- दुःख को महसूस करने की अद्भुत क्षमता है। प्रभात को पढ़ते
कवि जिन लोगों के जीवन को अपनी कविताओं में दर्ज़ कर रहा है, हुए वॉल्ट विट््टमैन की एक मशहूर काव्य पंक्ति की याद आती है
उनके जीवन से वह ख़ुद गहराई के साथ जुड़ा हुआ है। कवि उस “I do not ask the wounded person how he feels,
जन जीवन से दूर रहक़र नहीं, बल्कि उनके बीच रहकर कविता I myself become the wounded person.”
लिख रहा है। यही कारण है कि उनकी ख़ुशियाँ, उसकी अपनी सच्ची कविता लिखने के लिए यह एक अनिवार्य शर्त है। जब
ख़ुशी बन जाती है। उनकी पीड़ा, उसकी अपनी पीड़ा बन जाती तक किसी कवि में इस स्तर की Empathy नहीं होगी, तब
है। इस संदर्भ में प्रभात की एक छोटी सी कविता ‘लोग’ देखी जा तक इस जीवन-जगत के सुख-दुःख या राग-विराग को कविता
सकती है- में ठीक ढंग से उतारना संभव नहीं होगा। यह न केवल पीड़ा की
मुझे तपा देता है लोगों का ख़याल अभिव्यक्ति के मामले में सही है, बल्कि सौंदर्य या प्रेम किसी
मुझे चढ़ने लगती है जुरान भी विषय पर लिखी गई कविता में यह गहरी अनुभूति और उस
मुझे तरावट से भर देता है लोगों का ख़याल अनुभूति को व्यक्त कर पाने की कवि की क्षमता ही एक सार्थक
मेरे निकल आते हैं पंख और सफल कविता को जन्म देती है। बहुत सारी कविताओं को
छूने लगता हूँ आसमान पढ़ते हुए जब एक सहृदय यह महसूस करता है कि कविता उसे
यह काव्य-संवेदना प्रभात की तमाम कविताओं की निर्मिति नहीं छू रही है, तो अनुभूति की विपन्नता उसका एक बड़ा कारण
जन-मन के कवि
शैलेन्द्र कुमार शुक्ल
राकेश रंजन हिंदी कविता के कुशल जनवादी मूल्यों कवि’ पर महत्वपूर्ण वक्तव्य दिया। यह वक्तव प्रो.
को निहायत तरजीह देने वाले प्रतिबद्ध प्रगतिशील आशीष त्रिपाठी द्वारा संपादित पुस्तक ‘किताबनामा’ में
कवि हैं। प्राचीन सांस्कृतिक नगरी वैशाली में जन्मे संकलित है। नामवर सिंह कहते हैं कि “हर कवि की
राकेश रंजन अपनी कविताओं के वास्ते केदारनाथ पहचान उसकी भाषा से होती है। राकेश रंजन के पास
अग्रवाल, नागार्जुन, त्रिलोचन और मुक्तिबोध की अपनी भाषा है- नितांत मौलिक और औरों से अलग।
परंपरा में दिखाई देते हैं। उनेक दो कविता संग्रह आप नहीं कह सकते कि यह पूर्ववर्ती कवियों, जैसे
‘अभी अभी जनमा है कवि’ और ‘चाँद में अटकी कि रघुवीर सहाय, श्रीकांत वर्मा अथवा केदारनाथ
पतंग’ इससे पूर्व प्रकाशित हो चुके हैं। उनकी कविताओं ने लगातार सिंह की परंपरा का कवि है। ऐसा नहीं कि यह हिंदी परंपरा से
हिंदी पाठकों का ध्यान आकृष्ट किया है तथा महत्वपूर्ण कवियों परिचित नहीं है, लेकिन इसने अपनी भाषा अर्जित की है, जिससे
एवं आलोचकों ने उनकी कविताओं को ख़ूब मन से सराहा है। इसकी एक अलग पहचान बनती है। इस पहचान के साथ-साथ
राकेश जी की कविताओं की सबसे बड़ी ख़ासियत सजगता का एक गज़ब का आत्मविश्वास भी इसमें है।”1
सहज उदात्त तत्व ही है। वह भाव को कविता में व्यक्त करने के इस संग्रह की अनेक कविताएँ ‘गुरुबानी’, ‘गुरु कौ बचन’,
मामले में उत्तर कबीर हैं। लेकिन शब्द चयन की परख तुलसी का ‘राम कहो बाबा’, ‘बरसा जलधर’, ‘हल्लो राजा’, ‘महानगर में
अनुगमन करती दिखती है। राकेश जी की कविताओं का मूल ध्येय बकरी’, ‘बात कहूँ पर कही न जाय’, ‘चल रंजनवाँ महानगर’,
मुक्त मनुष्यता पर विकृति की गुलामी का क्षरण करना है। उन्होंने ‘आ चल चोटी गूँथ दूँ’, ‘राजा अइलिन’ इत्यादि काव्य प्रेमियों के
अपने समय की विकृतियों और विडंबनाओं को बड़ी संजीदगी से मन-मिज़ाज में घर कर गईं। आधुनिक हिंदी कविता की मूलधारा
कविता में पहचाना है। कविता में उन्होंने सहज जनभाषा का प्रयोग में राकेश रंजन उन अंगलि ु यों पर गिने जाने वाले कवि हैं जिनकी
लोक लय के साथ बड़ी कुशलता से किया है। यह सबसे बड़ी कविताएँ लोगों को जबानी याद हैं। राकेश रंजन अपने युग की
ताक़त उनके पास है कि आज नहीं तो कल उनकी कविताएँ लोक कविता को एक बार लम्बे अंतराल के बाद लोक जीवन के बहुत
में जन-जन तक अवश्य पहुँचेंगी। निकट ले गए हैं। और यह ले जाना समर्थ और सार्थक सिद्ध
हुआ। यह संग्रह लोक-मन से दूर होती समकालीन हिंदी का नया
(1) ‘लिरिकल बैलड्स े ’ है जिसने हिंदी कविता का मयार बदल दिया।
राकेश रंजन का पहला कविता संग्रह ‘अभी-अभी जनमा है इस किताब में एक कविता है ‘अभी-अभी’ जिससे इस कृति का
कवि’ 2007 में प्रकाशित हुआ जिसने हिंदी कविता की दुनिया नामकरण हुआ है। यह कविता जिस भूमिका में है उसे सर्जक का
में अपनी जोरदार उपस्थिति दर्ज़ कराई। उनकी काव्य भाषा में घोषणा पत्र कहा जा सकता है- “अभी-अभी जनमा है रवि/ पूरे
अद्भुत सम्मोहन है और उनके ललित छंद बड़ी सहजता से जन- ब्रह्मांड में पसर रही है /शिशु की सुनहरी किलकारी/ पहाड़ों के
मन के कंठहार बन गए। इस नवोदित स्वर ने अपने समय के सीने में हो रही है गुदगुदी/ पिघल रही है /जमी हुई बर्फ...”2
दिग्गज कवि आलोचकों को भी ख़ूब आकर्षित किया। सुप्रसिद्ध यह ब्रह्मांड कवि और कविता की दुनिया का रूप प्रसार है
आलोचक नामवर सिंह ने दूरदर्शन से प्रसारित कार्यक्रम ‘सुबह जहाँ संवेदनाएँ विचरती हैं। ‘शिशु की सुनहरी किलकारी’ कवि
सबेरे’ में राकेश रंजन के काव्य संग्रह ‘अभी-अभी जनमा है ध्वनि के रंग को बड़ी संजीदगी से पहचानने की पहल करता है।
समकालीन हिंदी कविता में शिरीष कुमार मौर्य एक में आता हो लेकिन अपनी जन्मभूमि और पुरखों की
महत्वपूर्ण कवि हैं। उनकी कविताओं का फलक बहुत जगह को भी वह बहुत शिद्दत के साथ याद करते हैं।
विशाल है। आम-जनमानस की रोजमर्रा की जद्दोजहद यह अलग बात है कि बदलाओं के इस दौर में छोटी-
और उसके संघर्षोंं, सपनों को उनकी कविताएँ एक छोटी जगहें इस कदर बदल गई हैं कि हम वर्षों बाद
नया स्वर और रूप प्रदान करती हैं। उनके पास अगर ऐसी किसी जगह पर जाते हैं तो उसे पहचान
अभिव्यक्ति के लिए एक समृद्ध काव्यभाषा है। वह नहीं पाते। हम जिन जगहों को जिस तरह छोड़ कर
अपने कविता संग्रहों ‘पहला कदम’, ‘पृथ्वी पर एक गए होते हैं उसे उसी तरह पाना चाहते हैं, यह जानते
जगह’, ‘दंतकथा और अन्य कविताएँ’, ‘मुश्किल दिन की बात’, हुए कि यह एक असंभव सी इच्छा है। फिर भी। इसलिए वह अपनी
‘खांटी कठिन कठोर अति’, ‘आत्मकथा कविता शृंखला’, ‘रितुरैण’ एक कविता में इस बेचैनी को इस तरह दर्ज़ करते हैं। ‘मैं पिपरिया
आदि में जीवन की उदासियों और सपनों के शानदार बिम्ब रचते नहीं जाता/ कभी-कभी बरसों पहले गुज़र गई दादी के घर जाता
हैं। इधर कुछ वर्षों से उन्होंने शृंलाबद्ध और विषय केन्द्रित कविताएँ हूँ/ मुझे वो घर नहीं मिलता/ एक बहुत छोटा शहर मिलता है’।
लिखी हैं, जो पत्रिकाओं में अपने प्रकाशन के साथ ही काफ़ी चर्चित उनकी कविताओं में सड़क किनारे काम करने वालों का जीवन,
हुईं। यह विषय केन्द्रित कविताएँ उनकी काव्य यात्रा का एक अलग उनका संघर्ष, उनकी पीड़ा, उनके दुःख सब बराबर आते हैं। कई
पड़ाव हैं। इन कविताओं में हमें अद्भुत कल्पनाशीलता और विराट बार यह दुःख किसी दृश्य के साथ उपस्थित होते हैं जो मन में
रचनात्मकता के दर्शन होते हैं। इन कविताओं से गुज़रते हुए जीवन एक करुणा सी पैदा करते हैं, कभी यह किसी कथात्मक शिल्प
की विविध छवियाँ अपने विविध रूपों और अर्थों में हमारे सामने में आते हैं जो हर पढ़ने वालों में एक बेचैनी भर देते हैं। जब भी
होती हैं। मैं कोई ऐसा दृश्य देखता हूँ, मुझे उनकी कई कविताएँ अचानक
पहाड़ और उसकी जीवटता के अनेक दृश्य उनकी कविताओं से याद आती हैं। मुझे उनकी एक कविता का स्मरण बार-बार हो
में बार-बार आते हैं। उस समाज, जीवन और वहां के संघर्ष को, जाता है। उस कविता का शीर्षक है– ‘किसी ने कल से खाना नहीं
उन आम मेहनतकश लोगों की बेचैनियों को बहुत संवेदनात्मकता खाया है’। यह एक ऐसी कविता है जिसमें एक कसक सी है, एक
से अपनी कविताओं में वे ले आते हैं, जिन्हें अधिसंख्य लोग कीड़े- छटपटाहट। एक कवि, एक रचनाकार, एक संवेदनशील मनुष्य
मकोड़े से अधिक कुछ नहीं समझते। जैसा वह अपनी कविताओं की छटपटाहट। “रात मेरे कंठ में अटक रहे हैं कौर/ मुझे खाने का
में कहते भी हैं कि ‘कुछ बिम्ब बहुत रोशनी में/ अपनी चमक खो मन नहीं है/ थाली सरका देता हूँ तो पत्नी सोचती है नाराज़ हूँ या
देते हैं’। वह चमक-दमक से दूर खड़े होकर देखने के हिमायती खाना मन का नहीं है।” यह अभावों को देख विचलित कर देने
हैं। इस तरह की भाषा और संवेदना उनकी कविताओं में हमें बार- वाली मनःस्थिति है जिससे कवि उबर नहीं पा रहा है और सामने
बार दिखती हैं। जब वह कहते हैं कि ‘घुप्प अँधेरे में/ माचिस की एक अच्छा भोजन होते हुए भी खाने की इच्छा मर सी गई है। एक
तीली जला/ वह कागज़ पर कुछ शब्द लिखता है’ तब यह अपने संवेदनशील मनुष्य के कान में इस तरह की आवाज़ अगर आएगी,
लिए ही कह रहे होते हैं। तो उस आवाज़ की गूँज कई दिनों तक कानों में रहेगी, उन आँखों
हर कवि का एक भूगोल होता है। उससे कोई बच नहीं सकता। को भूलना इतना आसान भी नहीं होगा। यह बेचैनी ही इतनी करुण
शिरीष मौर्य की कविताओं में पहाड़ का भूगोल भले ही अधिकता अभिव्यक्ति संभव कर सकती है। “बेटा, कल से बस ये भुट्टे ही
वस्तुओं के चित्र मत बनाओ, इसके बनिस्बत उस धारिता, उसकी ग्राह्यता, उसके वाहक़ होने का दाय
प्रभाव को उकेरो जो इन वस्तुओं से उत्पन्न हुआ है। स्फुरित होने लगता है। ऐसी स्थिति में भाषा पर विचार-
-मालार्मे घटना और इनकी सयुक्त आवाज़, क्रंदन की हद तक
(Lettres à Henri Cazalis / Correspondance) हावी हो जाती है। खैर यह भी भाषा को बरतने का
एक तरीका है। इसे त्याज्य कैसे कहा जा सकता है!
हिंदी कविता की सहक़ारी समिति के मयखाने में, इससे इतर नाना प्रकार के कवि-कुल भी उपस्थित हैं,
भरत मुनि के वरिष्ठ, कनिष्ठ, बलिष्ठ, गरिष्ठ… जैसे जिनका ज़िक्र यहाँ नहीं करा जा रहा है। अंतिम छोर पर
विविध मानस पुत्रों द्वारा कलावादी और लोक के वर्चस्व को लेकर, कुछ मसृण साधक हैं। ये संख्या में कम है। ये बुदबुदाते हैं। इनके
न जाने कितने जाम तोड़े जाते रहे हैं। चखना के झूठे दोने उछाले हाथ में तमाम तरह के दुनियावी काम की तस्बीह होती है। ये भी
जाते रहे हैं। बता पाना मुश्किल है। उत्प्लावन और उत्क्लेदन से अछूते नहीं है। हालाँकि दूसरे लोगों की
यहाँ एक तरफ तेल चुपड़ने से दपदपाते कांतिमान माथे पसीने तरह ये भी अपनी आँखों को गोल करके दुनियाँ देखते हैं, लेकिन
और मिटटी की सौंधी खुशबू, घूँसा मारकर तोड़ी गयी प्याज, इनकी कविता अलग है। ये अलग तरह की कविता रचते हैं। भले
अब्दुल काका, रफीक़ मियाँ, गफूरन काकी, लाल झंडा, मंदिर- ही ये मोटा काटें, लेकिन कातते बारीक हैं। इस ध्रुव पर रहने वाले
मस्जिद, गंगा-जमुनी तहज़ीब, हक़-हुकूक, सलाम-नमस्ते, लम्पट, कवियों को, हर तरह के रचनाकारों की तरह समझना आसान है,
शहर, शर्म, समझौता, साहस, फासीवाद, उत्तर-दक्षिण, टूल्स और लेकिन उनकी रचनाओं को नहीं।
बुलडोजर…इत्यादि की बात कर रहे हैं। वहीं लोकल के गिलास में यहाँ एक प्रसंग याद आ रहा है और इस लेख में इस घटना का
कुछ सज्जन बड़ी ही नरमदिली से ग्लोबल ब्रांड का नीबू निचोड़ रहे संज्ञान लिया जाना आवश्यक प्रतीत होता है। एक बार युवा प्रूस्त
हैं। एक तरफ़ कुछ ऐसे अवतारी हैं जो ग्लोबल से लोकल की ओर और मालार्मे का वैचारिक विवाद हुआ था। इसमें प्रूस्त ने मालार्मे के
लौटकर सत्तू के फायदे गिना रहे हैं। गहमा-गहमी के इसी माहौल लेखन को अस्पष्ट और भ्रांतचित का दिग्दर्शन करने वाला बताया
में, हर पंक्ति में सूक्त सम्मत महाकाव्य समेटे कुछ कवि विभिन्न था। मालार्मे ने भी 'शब्दों में अन्तर्निहित रहस्य' नामक अपने लेख
शक्तिपीठों को लेकर भौचक्क दीखते हैं। कविता के इस लोकतंत्र में में, समकालीन लेखकों पर व्यंग्य प्रकट करते हुए मत प्रकट किया
मेनिफेस्टो, बैलेट पेपर,और चुनाव चिन्ह का बिल्ला इधर से उधर कि उन्हें गंभीर लेखन पढ़ना नहीं आता। उनकी बुद्धि का स्तर मात्र
सरकाये जाने के दौरान, कुछ उत्साही कनखियों से देखते हुए अपनी अख़बार की सामग्री बाँचने के लिए उपयुक्त है।
अँगुलियाँ साफ़ कर रहें है, जो वमन के पित्त और एक दूसरे का लब्बोलुआब यह कि पियूष का शब्द-संयोजन भाषा के गोपन
इज़ारबन्द तोड़ने के कारण खटमदरी बदबू में गर्क हुईं थीं। गुण से अभिप्रेरित हैं। अब उनमें जन-मन-गण और लोक खोजने
चलिए, कल्पना करते हैं कि भाषा फुसफुसा रही है। वह कुछ वालों को यथेष्ठ सामग्री मिले या नहीं लेकिन इस बात से इनकार
कवियों से कहती है कि मुझे बरतने का सार जानो। कुछ गुणग्राही, नहीं किया जा सकता कि यह भी भाषा को बरतने का एक तरीका
संवेदनशील कवि तुरतं दुःख से भरने लगते हैं। उनका कविमन है। पियूष इसी कुल के होनहार कवि हैं।
इतनी पारदर्शी होता है कि चीत्कार सुनी जा सकती हैं। वे प्राक्कथन अब आते हैं उनकी कविताई पर। पियूष की कविताई से मेरा
और विगम का अंतर मिटा देते हैं। उनकी सक्रियता द्वारा भाषा की परिचय पुराना है। लेकिन जिस दौरान मैं मालार्मे का अनुवाद कर
n लमही का कहानी विशेषांक अब पुस्तक रूप में अनन्य प्रकाशन, दिल्ली से प्रकािशत
युवा कवि शिरोमणि महतो वन और खनिज संपदा पहला कविता संग्रह-‘धूल में फूल‘ (बाल कविता
से परिपूर्ण राज्य झारखण्ड के ग्रामीण परिवेश से संग्रह) 1993 के अलावा ‘पतझड़ का फूल‘ (काव्य
आते हैं। इनकी रचनाओं में वहां की खुशबू भीतर पुस्तिका) 1996, ‘कभी अकेले नहीं ‘(कविता
तक समाहित है। अपनी भाषा के प्रति यही प्रेम इन्हें संग्रह) 2007, ‘भात का भूगोल ‘(कविता संग्रह)
अपने समकालीनों की भीड़ में पहचान छुपाने में 2012,‘चाँद से पानी‘ (कविता संग्रह) 2018 और
कारगर साबित नहीं हुई और फिर कहीं भी ये अलग सभ्यता के गुणसूत्र (कविता संग्रह) 2023 के माध्यम
से पहचान लिए जाते रहे हैं। यही वज़ह है कि इनकी से हिंदी साहित्याकाश में एक नया आयाम स्थापित
कविताओं में मनुष्यता के निर्माण की कुलबुलाहट को बख़ूबी किया है। ‘चाँद का कटोरा‘ में पानी के रूप में जीवन की खोज
महसूस किया जा सकता है। शिरोमणि महतो अपने सामाजिक करना एवं खनिज भण्डार के रूप में चाँद को देखना कवि कल्पना
परिवेश को कभी दरकिनार नहीं करते हैं। जिस परिवेश में वे जी रहे की लम्बी उड़ान भरता है- ‘तब कटोरे के पानी में/चाँद को देखता
होते हैं अपनी कविताओं में उसको बख़ूबी आत्मसात भी करते हैं। था/अब चाँद के कटोरा में/पानी देखना चाहता हूँ।’(पृष्ठ 12) यहाँ
शिरोमणि महतो अपने सामाजिक परिवेश के उन तमाम थके-हारे, कवि बचपन की स्मृतियों को साकार कर बिम्बों का विलोम रचकर
भूले-भटके लोगों को अपने काव्य का नायक नियुक्त करने में कोई चमत्कृत करता है।
संकोच नहीं करते जिनसे अक्सर आमना सामना होता रहता है। इनकी कविताओं में श्रम को सम्मान दिलाने की पुरजोर कोशिश
वह सही अर्थों में लोक के कवि हैं। वह अपनी छोटी-छोटी चीज़ों भी है। दुनिया को ख़ूबसूरत बनाने में तमाम ऐसे लोगों की भूमिका
से बनी संवेदनाओं की वृहत्तर संसार रचते हैं। होती है जो परदे के पीछे रहक़र काम करने के आदी होते हैं। ऐसे
पत्र पत्रिकाओं के माध्यम से इनसे मेरी मुलाकात तक़रीबन दो लोग विरक्ति की हद तक अपने नाम को उजागर करने से बचते हैं।
दशक पहले हुई किन्तु भौतिक रूप से जनवादी लेखक संघ के एक आदिकाल से वर्तमान तक स्थापत्य कलाओं का जो इतिहास है उसमें
कार्यक्रम के सिलसिले में 2019 में आजमगढ़ में हुई। सौम्य और वास्तुकारों का नाम है भी तो नगण्यता की हद तक। ‘अनुवादक‘
शांत प्रवृति के शिरोमणि ने पहचान न केवल एक कवि/लेखक कविता में कवि ने एक श्रमसाध्य कार्य का उचित महत्व प्रतिपादित
बल्कि शिक्षक के साथ-साथ अभिनेता और सामाजिक कार्यकर्ता किया है- “कहीं किसी शब्द को/ खरोंच न लग जाए/या किसी
के रूप में भी बनायी है। बकौल श्रीरंग-“80 के बाद के कवियों में अनुच्छेद का / रस न निचुड़ जाए / इतना सतर्क और सचेत/ रहता
शिरोमणि महतो अपने खास मिज़ाज और नज़रिये के कारण अपना है हरदम-अनुवादक।” (पृ.13) इसकी अगली कड़ी में ‘चीटियाँ’
अलग स्थान रखते हैं। इन्होंने अब के समय के केन्द्रीय कवियों के श्रमशील के साथ प्रतिरोध भी करना जानती हैं। शिरोमणि महतो
सामानान्तर कवि कर्म किया और प्रतिरोध की निजी शैली विकसित अपनी कविताओं में श्रमिक वर्ग का प्रतिनिधित्व करते दिखाई देते
अर्जित की। इन्हें समानान्तर हिंदी कविता की पहली पीढ़ी का प्रमुख हैं। यही वज़ह है कि ‘धरती के इन्द्रधनुष में’ एम. एफ. हुसैन की
हस्ताक्षर माना जाना चाहिए। “ स्मृति में लिखी कविता देश में व्याप्त असहिष्णुता को रेखांकित
शिरोमणि महतो की कविताएँ बनावटी और क्लिष्ट भाषा से दूर करने की कोशिश करते दिखते हैं- “तुम आजीवन चले/नंगे पांव/
सहज और ग्राह्यता की वज़ह से अलग से पहचानी जा सकती हैं। जुड़े रहे ज़मीन से/और तुम्हारी कल्पनाएँ/रंग भरती रही आकाश
अब तक इनके गद्य और पद्य में कई संग्रह आ चुके हैं। इनका की उंचाईयों को /तुम चले गये/छोड़कर-/अपना देश/अपना वतन/
“कविता नए मनुष्य का स्वागत करती है। उसे देखने गई कविताएँ पुरानी लीक से दो कारणों से विशेष
के लिए अंतर्नेत्र खोलती है। ... देखे हुए में भी कुछ है! पहला ये कविताएँ जीवन की प्रकृति साधारण
नया देखने का अवसर देती है। कविता के सक्रिय जीवन में देखती है! कुछ भी भव्य नहीं। दूसरा भव्य
होने का अर्थ जीवन की साधारण स्थितियों को अगर कुछ है तो पहाड़, झरने, पेड़, जंगल, ऋतुएँ,
असाधारण अर्थ से दीप्त कर देना है। समकालीन चिड़ियाँ, खेत और साधारण जन! भव्य का निषेध
कविता ने इसे साधारण व्यक्ति, साधारण बोलचाल, और असल भव्य का दर्शन पीयूष की कविताओं की
साधारण शब्द और साधारण स्थितियाँ जीते हुए बार ताक़त है! कवि के लिए भव्य प्रकृति के साथ जीवन
-बार साबित किया है। यह मीडिया की बहुरंगी और असाधारण का रिश्ता है–
होने के लिए मरी जा रही दुनिया का प्रतिपक्ष है।” (आज की “खेतों की मेड़ों पर खिले/कॉसमॉस के नारंगी फूल/हँस कर
कविता -विनय विश्वास) बात कर रहे पक रही फसल से/पास ही खपरैल वाले मिट्टी के घर
पीयूष कुमार यात्रा के कवि हैं। यात्रा अपने आशय में विस्तृत में/बागर साय का छोटा सा लड़का/आँगन की धूप में लिख रहा है
दुनिया की तलाश है। यह तलाश अपनी माटी और बानी में रच पग वर्णमाला/जिसे सुबह देर तक निहार रही है लाड़ से।”
कर सबको निहारने के अवकाश से भरा है! सबको निहारते हुए यह कविता में कथा रचने के हुनर से भरपूर ये पंक्तियाँ भोर की है।
गति अपने लोक को समृद्ध करता है! यात्रा जीवी रचनाकार सभी ये सुबह सेमरसोत की है। जहाँ बागर साय के छोटा लड़का जो
में होकर रचना में लय रहता है! रचना में लय होकर सब प्रकार के वर्णमाला लिख रहा है। उस वर्णमाला को सुबह देर तक लाड़ से
अतिरेक का निषेध करता है। यह जीवन विस्तार का भी परिचायक निहार रही है। कवि के लिए भोर का आशय है बचपन की उम्मीद
है। यात्रा अनुभव सत्य का इंकलाब है। यह इंकलाब नारे बाजी से से है। बचपन को शिक्षा के ज्योतिर्मय झरने से जोड़ने से। भोर का
दूर सक्रिय सर्जनात्मक प्रतिरोध का पर्याय है! यात्रा हमें अनुभव मानवीकरण वात्सल्य के रूप में परिवर्तित हो जाता है।
सत्य के अंतःस्पदन से जोड़ती है! विनम्र होकर संवादधर्मी होने का स्त्री प्रताड़नाओं के स्वर्ग इस नव महादेश में:
विरल भाव है यात्रा! पीयूष की कविताएँ परंपरा की दुहाई और पूजा भाव से दूर
पीयूष की कविताओं में यात्रा स्थायी भाव बनकर चलती है!जो आलोचनात्मक विवेक की विरल बानगी है। परंपरा के नाम पर
पीयूष के जीवन संदर्भ का भी पता देती है। पीयूष का जीवन और अपने समय से संवाद न करने वाली रचनाधर्मिता इतिहास की
रचना अबूझमाड़ [बस्तर] की प्रकृति और संस्कृति के समूहभाव शवसाधना है। कवि अपाला, गार्गी, लोपामुद्रा पर लिखते हुए
से शुरू होता है! यह यात्रा छत्तीसगढ़ के मैदान से गुज़रती हुई वैदिक इतिहास में व्यक्त स्त्री की प्रशंसनीय स्थिति तक सीमित
सेमरसोत [सरगुजा ] तक पहुँचती है! यह सुखद संयोग है पीयूष की नहीं होते! वैदिक विदुषी अपाला, गार्गी, लोपामुद्रा की कथा कविता
पहली कविता संग्रह का नाम -'सेमरसोत में सांझ 'है! की शुरुआत में बताकर कवि सीधे 'नवीन आर्यावर्त'में वृहदाराजक
सांझ लाज से सिंदूरी हो जाती है: उपनिषद लिख रहे याज्ञवल्क्य से तेजस्वी प्रश्न करते हैं-
पीयूष सेमरसोत के भोर, बारिश और साँझ को जनजीवन के मध्य गार्गी
अनुभव करते हैं। प्रकृति और मनुष्य का संवाद हिंदी कविता की आज आमसभा सभा में
पुरानी परिपाटी है! पीयूष की समकालीन कविता काल में लिखी प्रश्न करके देखो