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प्रधान संपादक*
विजय राय
संपादक*
ऋत्विक राय
वर्ष: 16, अंक: 1, जुलाई-सितम्बर 2023
संयुक्त संपादक*
ऋतिका UGC Care Listed
वत्सल कक्कड़

इस अंक के अतिथि संपादक*


शशिभूषण मिश्र
आवरण और साज-सज्जा
स्वपन कम्युनिéकेशन, गाज़ियाबाद (उ.प्र.)
swapancommunication@gmail.com

रेखांकन : संदीप राशिनकर, मान्या शर्मा,


अन्विति मिश्रा, शुभिता मिश्रा, सोनी पांडेय

संपादकीय एवं व्यवस्थापकीय संपर्क


3/343, विवेक खण्ड, गोमती नगर
लखनऊ-226010 उत्तर प्रदेश
ईमेल : vijairai.lamahi@gmail.com
मो० 9454501011

इस अंक का मूल्य : 100/- रुपये मात्र


लमही का वेब अंक आप
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प्रकाशित रचनाओं में व्यक्त विचार लेखकों के अपने


हैं। इनसे त्रैमासिक पत्रिका 'लमही' और उसके
संपादक मण्डल का सहमत होना अनिवार्य नहीं है।
समस्त विवादों का न्याय क्षेत्र लखनऊ होगा
लमही की स्वत्वाधिकारी, मुद्रक एवं प्रकाशक मंजरी
राय के लिए श्रीमतं शिवम् आर्ट्स, 211 पाँचवीं गली, कविता का वर्तमान
निशातगंज, लखनऊ से मुद्रित तथा 3/343, विवेक
खण्ड, गोमती नगर, लखनऊ-226010 से प्रकाशित। और वर्तमान की कविता
(कवि मूल्यांकन)
*सभी अवैतनिक

yegh जुलाई से सितंबर 2023 n 1


yegh
वर्ष: 16, अंक: 1, जुलाई-सितम्बर 2023

इस अंक में

कविता का वर्तमान और वर्तमान की कविता


(कवि मूल्यांकन)
विरासत
1. नन्द चतुर्वेदी : जीवन के राग का प्रतिश्रुत कवि माधव हाड़ा 13
2. कुंवर नारायण : अरी ओ करुणा प्रभामय! समय की मलिनताओं को निहारता कवि ओम निश्चल 17
3. केदारनाथ सिंह : कविता का लोकतंत्र आशीष त्रिपाठी 24
4. अजित कुमार : मामूली जीवन के स्वीकार और निस्संगता के कवि विभास वर्मा 28
5. विजेंद्र : जनपद जनशक्ति और जनवाद उमाशंकर सिंह परमार 32
6. मान बहादुर सिंह : झूठ के स्वर्ग में मरने के बजाए मुझे सच के नरक में जीने दो दीपशिखा 36
7. भगवत रावत : प्रेम, रिश्तों और ज़िंदगी पर अगाध भरोसा विवेक श्रीवास्तव 41
8. सोमदत्त : खुली हुई आँख है कविता राजीव कुमार शुक्ल 46
9. विष्णु खरे : वैचारिक प्रखरता के योद्धा कवि दिनेश भट्ट 50
10. वीरेन डंगवाल : कविता में विन्यस्त समय विवेक पंकज चतुर्वेदी 53
11. मंगलेश डबराल : स्मृति और यथार्थ के बीच ‘मनुष्यता’ बचाने की कवायद राजकुमार 57
12. पंकज सिंह : कहन और शिल्प की नई पगडंडियाँ कुमार मंगलम 62
13. मलखान सिंह : रुधिर का तापमान बजरंग बिहारी तिवारी 66
14. रमाशंकर विद्रोही : मैं ज़िन्दा हूँ और गा रहा हूँ! संतोष अर्श 69
15. सुरश
े सेन निशांत : जीवन के पक्ष में खड़ी कविता जीवन सिंह 74
16. मुकशे मानस : अनंत रंगों की अनंत आभा सर्वेश कुमार मौर्य 77

अविराम
1. विनोद कुमार शुक्ल : प्रेम और करुणा के रसायन से बनती उम्मीद की कविता विवेक श्रीवास्तव 85
2. मलय : सघन बीहड़ता का कवि असंगघोष 90
3. नरेश सक्सेना : कविता की भौतिकी, गणित और पर्यावरण संतोष अर्श 93
4. ऋतुराज : ये कला वस्तुएँ नहीं हैं मेरे अंग हैं अच्युतानंद मिश्र 97

2 n जुलाई से सितंबर 2023 2 yegh


5. लीलाधर जगूड़ी : अनुभव का सामाजिक अन्वय ओम निश्चल 101
6. अशोक वाजपेयी : औसतपन से मुक्ति का महाभियान मिथलेश शरण चौबे 107
7. राजेश जोशी : खो रहे संसार को बचा लेने की ज़िद है कविता विवेक कुमार मिश्र 111
8. आलोक धन्वा : व्यापक फ़लक की कविताएँ नियति कल्प 116
9. ज्ञानेंद्रपति : कोलाहल के बीच कविता का मंद्र स्वर कुमार मंगलम 121
10. दिनेश कुमार शुक्ल : पुरोवाक् नामवर सिंह 127
11. उदय प्रकाश : बाढ़ में डूबी नदी के पार आधी रात को आती कोई व्याकुल टेर दुर्गा प्रसाद गुप्त 130
12. हरीशचंद्र पाण्डेय : कविता की दुनिया में 'छोटी चीज़ों के देवता' अरविंद त्रिपाठी 134
13. अरुण कमल : मानवीय संवेदनाओं और रागात्मकता के कवि स्मृति शुक्ल 140
14. अष्टभुजा शुक्ल : जीवन के अर्थगर्भी कवि सेवाराम त्रिपाठी 144
15. मदन कश्यप : नीम रोशनी में अपना ही देश देवशंकर नवीन 149
16. असद ज़ैदी : तंत्र से मुठभेड़ करती कविता तनुज 155
17. लीलाधर मंडलोई : ओ कवि! तेरी करुणा का पारावार नहीं अमिय बिन्दु 158
18. स्वप्निल श्रीवास्तव : लोकजीवन, प्रेम और विडंबनाओं की यात्रा विशाल श्रीवास्तव 162
19. कुमार अम्बुज : प्रतिरोध का रचनात्मक रूपांतरण अमित कुमार सिंह 167
20. देवी प्रसाद मिश्र : सभ्यता का छद्म और कविता की भूिमका जीतेन्द्र गुप्ता 172
21. दिनेश कुशवाह : सोई बिमोहा जेहि कबि सुनी निरंजन कुमार यादव 177
22. आशुतोष दुबे : अवलोकन के कवि अम्बर पाण्डेय 181
23. एकांत श्रीवास्तव : शब्द, मिट्टी और लोक के साधक स्नेहा सिंह 184
24. पवन करण : दो सदियों की संधि पर कविता का प्रक्षेप सिद्धार्थ शंकर राय 188

महत्तम
1. मनमोहन : तम के द्वार पर दमक की दस्तक अरुण कुमार पाण्डेय 195
2. कौशल किशोर : दहशत के दौर का रचनात्मक संघर्ष उमाशंकर परमार 198
3. नरेंद्र पुण्डरीक : कविता में लोक और स्मृित का उजास श्रीधर मिश्र 202
4. अग्निशेखर : विस्थापन और करुणा की विरल आवाज़ सुशील कुमार 206
5. योगेन्द्र कृष्णा : मनुष्य और मनुष्यता की पुकार उत्कर्ष 213
6. लाल्टू : क्योंकि प्यार मेरा आख़िरी मक़सद है लोकेश मालती प्रकाश 219
7. राम कुमार कृषक : भूगोल की सीमाओं का अतिक्रमण करती ग़ज़लें रहमान मुसव्विर 223
8. देवेन्द्र आर्य : गीतों व कविताओं में िवन्यस्त सामयिकता नवीन सिंह 226
9. मोहन डहेरिया : विकट नैतिकताबोध और आत्मजिरह का कवि श्रीराम निवारिया 229
10. मिथिलेश श्रीवास्तव : हमारा जनतंत्र और कविता का विवेक मनोज कुमार सिंह 234
11. शरद कोकास : काव्यात्मक सरोकारों का जटिल संघर्ष नासिर अहमद सिकन्दर 237
12. शिव कुमार पराग : हिंदी के जनकवि शैलेन्द्र कुमार शुक्ल 241
13. नासिर अहमद सिकंदर : कविता की प्रगतिशील-प्रतिबद्ध दृष्टि बसंत त्रिपाठी 245

yegh 3 जुलाई से सितंबर 2023 n 3


14. विनोद पदरज : सभ्यता की समझ के महीन कवि स्वर्णलता उपाध्याय 250
15. वसंत सकरगाए : अलभ्य चीज़़ों में प्रार्थना की चीख प्रांजल धर 253
16. यश मालवीय : गीतों का बेलौस जुलाहा मधु शुक्ला 256
17. असंगघोष : संघर्ष, विद्रोह और स्मृति के कवि शचीन्द्र आर्य 259
18. वशिष्ठ अनूप : तुलसी के, जायसी के, रसखान के वारिस हैं बलभद्र 263
19. केशव तिवारी : लोक का द्वंद्व अविनाश मिश्र 268
20. राकेश रेणु : समकालीन बोध के कवि नीरज कुमार मिश्र 273
21. संजय अलंग : दृश्य के भीतर के अदृश्य की कविता शरद कोकास 277
22. संजय मिश्र : उम्मीदें सहेजती हुई मर्मवेधी कविताएँ कीर्ति बंसल 282
23. राकेश मिश्र : समकालीनता को कालातीत बनाने वाले बौद्धिक संवेदना के कवि करुणा शंकर उपाध्याय 285
24. अनिरुद्ध उमट : जा चुके चेहरों की तलाश निशा नाग 289
25. पंकज राग : कविता की इतिहासधर्मिता का मानवीय आलोक सिद्धार्थ शंकर राय 293
26. अनिल करमेले : ठोस प्रतिबद्धता और ऐंद्रिकता से कुसमय का सामना कैलाश बनवासी 297
27. रविशंकर पाण्डेय : लय और अनुभति ू का लोक पक्ष इन्दीवर 301
28. विनय विश्वास : न कोई वा'दा न कोई यक़ीं न कोई उमीद पंकज शर्मा 303

आयतन
1. राजेन्द्र कुमार : आस्थावान कवि पी. रवि 309
2. विजय कुमार : चमकदार समय में घने अँधेरे के ख़िलाफ़ खड़ा कवि सतीश पांडेय 313
3. ए. अरविंदाक्षन : कविता का ‘संगीत’ प्रभाकरन हेब्बार इल्लत 316
4. विष्णु नागर : साधारण जीवन के असाधारण कवि अिनता 320
5. अजय सिंह : यह स्मृति को बचाने का वक़्त है उषा राय 324
6. भगवान स्वरूप कटियार : कविता में ‘निश्छलता की कला’ कौशल किशोर 328
7. संजीव बख्शी : जीवन और राग का सांगीतिक तादात्म्य नीलाभ कुमार 332
8. विनोद दास : योगात्मक से वियोगात्मक होने की काव्य-यात्रा शंभु गुप्त 336
9. सुधीर सक्सेना : कविता के अनिर्मित पंथ के पंथी नीरज दइया 340
10. गोबिंद प्रसाद : सागर में जैसे मछली की प्यास मलखान सिंह 344
11. कुलदीप कुमार : कविता संसार में नारी अस्मिता एवं संघर्ष अनिरुद्ध तिवारी 347
12. सुभाष राय : कविताओं के अग्नि-वलय से गुज़रते हुए विंध्याचल यादव 350
13. कृष्ण कल्पित : गद्य में पद्य में समाभ्यस्त... कमलेश वर्मा 354
14. ओम निश्चल : पलकों में स्वप्न बसे हैं, होठों में गीत बसा है आनन्द वर्धन द्विवेदी 359
15. सदानंद शाही : कविता से प्रेम और प्रेम की कविता विभु प्रकाश सिंह 364
16. अनूप सेठी : कविता का रचनात्मक आशय रमेश राजहंस 367
17. निरंजन श्रोत्रिय : ‘नहीं’ कहने के हौसले की कविताएँ जानकी प्रसाद शर्मा 371
18. अनिल त्रिपाठी : कवि-कर्म की समकालीनता अरुण होता 376

4 n जुलाई से सितंबर 2023 4 yegh


19. सर्वेन्द्र विक्रम : समय का सच बयान करती कविताएँ नलिन रंजन सिंह 379
20. दुर्गा प्रसाद गुप्त : सूफ़ी हृदय का काव्य अरुंधति 382
21. सिद्धेश्वर सिंह : अपनी राह बनाने वाले कवि खेमकरण ‘सोमन’ 386
22. बलभद्र : समय के ताल पर अपने पाँव चलती कविताएँ सुमन कुमार सिंह 390
23. बद्री नारायण : वैचारिकता की समकालीन निर्मिति और कविता समय आशीष त्रिपाठी 393
24. हूबनाथ पाण्डेय : मानवीयता को तलाशता कवि चन्दन कुमार 397
25. शहंशाह आलम : समय की पटकथा लिखता कवि राजकिशोर राजन 400
26. प्रेमशंकर शुक्ल : हरमेश पूरम्पूर बना रहता है मन-बल जहाँ राहुल राजेश 403
27. राजकिशोर राजन : कविता का देशज ठाट निर्मल चक्रवर्ती 408
28. रजत कृष्ण : लोहे से बुनी तरल कामनाओं का कवि पीयूष कुमार 412
29. बोधिसत्व : तानाशाह समय के तनाव के मोर्चाकार भरत प्रसाद 416
30. प्रेम रंजन अनिमेष : मनोभावों के कुशल चितेरे चेतन कश्यप 420
31 हरिओम : शब्दों और सुरों का अनंत आकाश ओम निश्चल 424
32. पंकज चतुर्वेदी : यथार्थ के आईने में कविता का बयान अवनीश मिश्र 428
33. भरत प्रसाद : यथार्थ से टकराती कविता का लोक ज्योतिष जोशी 431
34. आशीष त्रिपाठी : अन्तरंग में ठहरते रंगों की कविता शान्ति नायर 435
35. जितेंद्र श्रीवास्तव : सामाजिक यथार्थ और मानवीय संवेदना की कविता सुरश
े चंद मीणा 443
36. राहुल राजेश : जैसे स्वच्छ नदी की शांत धारा में नौकायन कपिलदेव त्रिपाठी 447
37. प्रमोद कुमार तिवारी : ज़मीन की कविता कुमारी गीतांजलि 451
38. उमाशंकर चौधरी : कवि के बोल खरग हिरवानी... निशान्त 454
39. विमलेश त्रिपाठी : कविता के संघर्षधर्मी होने का आशय मीना बुद्धिराजा 458
40. गौतम चटर्जी : भारतीय चिंतन परंपरा का विस्तार नेहल शाह 461
41 घनश्याम त्रिपाठी : परिवर्तनकारी बेचैनी और संघर्षशील चेतना से उपजी कविता कैलाश बनवासी 464

असीम
1. महेश वर्मा : धूल से सना इतिहास और सपनों का मिथकीय यथार्थ नीलाभ कुमार 471
2. विवेक चतुर्वेदी : नयी सदी का कवि-सामर्थ्य निशांत कौशिक 475
3. आत्मा रंजन : अपने समय की भूिमका टटोलता कवि आशीष सिंह 478
4. संतोष चतुर्वेदी : मन में खटका न हो, कुछ खटके नहीं तो कविता नहीं बलभद्र 485
5. महेश पुनेठा : विचार के शान पत्थर पर सच की शिनाख़्त करती कविताएँ अनिल अविश्रांत 489
6. बसंत त्रिपाठी : अमूर्त होते गतिशील यथार्थ को मूर्त करती कविताएँ अंजन कुमार 494
7. अरुण देव : कविता का भद्र विवेक संतोष अर्श 500
8. प्रभात : जीवन की पीड़ा का कवि सुशील सुमन 505
9. राकेश रंजन : जन-मन के कवि शैलेन्द्र कुमार शुक्ल 510
10. शिरीष कुमार मौर्य : कविता की करुण पुकार संदीप कुमार 515

yegh 5 जुलाई से सितंबर 2023 n 5


11. पीयूष दईया : ‘मार्ग मादरज़ाद’ से गुज़रते हुए एक पाठक का आलाप मदन पाल सिंह 518
12. शिरोमणि महतो : मनुष्यता के निर्माण की कुलबुलाहट आरसी चौहान 522
13. विवेक निराला : कविता की वर्णमाला में परंपरा का नया भाव बोध कुमार मंगलम 525
14. पीयूष कुमार : इस ब्रह्मांड की ऊर्जा तुमसे होकर गुज़रती है भुवाल सिंह 528
15. श्रीप्रकाश शुक्ल : कविता के कुछ बीज शब्द निशान्त 532
16. मिथलेश शरण चौबे : शब्दों से ज्यादा अर्थों से अधिक नीरज खरे 536
17. यतीश कुमार : ‘अन्तस की खुरचन’ से ‘आविर्भाव’ तक अमित शा 539
18. अंजन कुमार : स्वप्न और यथार्थ की रचनात्मक अभिव्यक्ति इंद्र कुमार राठौर 543
19. अजय कुमार पाण्डेय : ‘समकाल की आवाज़’ उठाने वाला कवि अजीत प्रियदर्शी 548
20. गीत चतुर्वेदी : तितलियों की तरह चंचल और परिव्राजक की तरह शांत ओम निश्चल 552
21. निशांत : यथार्थ और स्वप्न का सहमेल बसंत त्रिपाठी 556
22. विशाल श्रीवास्तव : ज़मीन से जुड़ी कविताएँ एकता मंडल 559
23. रोहित कौशिक : कविताओं के संसार में परिवर्तन की पदचापें विपिन शर्मा 563
24. कुमार अनुपम : भीतर की आग से समय को रोशन करती कविता अंकिता तिवारी 567
25. व्योमेश शुक्ल : स्मृति के रास्ते यथार्थ का अन्वेषण मानवेन्द्र प्रताप सिंह 571
26. अच्युतानंद मिश्र : बचने की उम्मीद बाक़ी है अब भी... पुष्पेन्द्र कुमार 575
27. मृत्युंजय : अभिव्यक्ति की बेचैनी और कवि कर्म की सार्थकता कुमार मंगलम 580
28. प्रांजल धर : यह लड़ाई हर तरीके के बौनेपन के ख़िलाफ़ है वंदना मिश्रा 584
29. अरुणाभ सौरभ : यत्न की सार्थकता और कविता का प्रमेय प्रियदर्शिनी 588
30. अविनाश मिश्र : स्थगित पंक्तियों का कवि निशि उपाध्याय 593
31. अनुज लुगुन : गीत लोकतंत्र का आधार है पार्वती तिर्की 597
32. राही डूमरचीर : कविता का विरल संसार जितेंद्र सिंह 601
33. अनिल कार्की : कठिन और उदास समय का कवि राजेन्द्र कैड़ा 604
34. सौरव राय : स्वप्न की कविता में कविता का स्वप्न श्रद्धा श्रीवास्तव 607
35. कुमार कृष्ण : सरहदों पर बैसाखी लिए खड़ा कवि पीयूष कुमार 611
36. गौरव पाण्डेय : मैं अमर कविताओं का कवि नहीं, मिट्टी का कवि हूँ पूर्णिमा देवी 616
37. कुमार मंगलम : विडंबनाओं और संभावनाओं के बीच का कवि पुष्पिता कुमारी 621
38. विहाग वैभव : सपने, राख होती इस दुनिया की आख़िरी उम्मीद हैं चित्रा पवार 625

विशेष
जम्मू-कश्मीर की कविता
39. मैं ठंडी आबोहवा का कवि हूँ, आग मेरी आवश्यकता है कुमार कृष्ण शर्मा 628
नयी सदी की कविता का एक तुलनात्मक पाठ
40. सुधांशु फ़िरदौस और अदनान कफ़ील दरवेश की कविता प्रदीप्त प्रीत 633

6 n जुलाई से सितंबर 2023 6 yegh


वर्ष: 16, अंक: 1, जुलाई-सितम्बर 2023 yegh
संपादकीय
कविता के अब तक के इतिहास में हम देखते आए हैं कि हर विगत और अलक्षित, आगत और सम्भाव्य को क्या हम
समर्थ कवि अपनी दृष्टि और सौंदर्याभिरुचि के अनुसार परंपरा यथार्थ के बाहर रखेंगे! यह सचाई है कि ‘कविता- यथार्थ की
को अर्जित और निरस्त करता आया है। चूकि ं कविता देशकाल प्रस्तुतिकरण नहीं, कल्पित को रचने का सामर्थ्य’ है। यथार्थ
सापेक्ष होती है इसलिए कवि को हर बार परंपरा की रूढ़ियों की पहचान इसी कल्पित (जीवन और संसार) से की जा
को तोड़ना पड़ता है। इस प्रक्रिया में उसे ख़ुद से भी निरंतर सकती है। कविता यथार्थ से अधिक 'आकांक्षा' और 'बेचैनी'
रचनात्मक संघर्ष करना पड़ता है। एक समर्थ कवि रचनात्मक को महत्व देती है। इस तरह से देखें तो कविता अपने समय
संघर्ष से गुज़रते हुए अपने समय की प्रभुत्वशाली संरचनाओं की वास्तविकताओं का विकल्प खोजती है। वह इतिहास और
के विरुद्ध ही नहीं, स्वप्नहीनता के विरुद्ध भी कार्रवाई करता वर्तमान के बद्धमूल बोध का अतिक्रमण करती है। अतिक्रमण
है। इसी कार्रवाई से कवि की समकालीनता का पता चलता है। को संभव करने में आकांक्षा और बेचैनी का बहुत बड़ा हाथ
समर्थ कवि बने बनाए रास्तों पर नहीं चलता, अपनी होता है।
राह ख़ुद बनाता है। दरअसल बने बनाए रास्तों पर चलना नयी सदी में विकसित हो रही आलोचना ‘कविता
बहुत आसान होता है; जो लोग इसके आदी हो गए हैं उनके की नहीं, कवि की वकालत’ पर अधिक ध्यान देती है। इस
जीवन में चुनौतियाँ ही नहीं हैं। लेकिन जो ‘स्थापित’ या आलोचना में ‘आधिपत्य की प्रवृत्ति’ विकसित होती दिखाई
‘क़ाबिज़’ से ‘मुठभेड़’ करता है, नए की प्रस्तावना रखता दे रही है जबकि ‘आधिपत्य’ हमेशा अतिरेक को जन्म देता
है, उसे बहुत सहना-सुनना पड़ता है। ‘क़ाबिज़’ को हटाने है और अतिरेक ‘निष्पक्षता’ का क्षरण करता है। ध्यान
की राह हमेशा से कठिन रही है; फिर चाहे वह कविता की रहे इस तरह की प्रवृत्ति ‘साहित्य की सत्ता’ अर्जित करने
प्रचलित प्रणाली की राह हो या जीवन की राह; ‘स्थापित’ को की महत्वाकांक्षा से उपजी होती है। ऐसे में सबसे अधिक
निरस्त करना हमेशा से चुनौती भरा काम रहा है। अस्तु, समर्थ कोई चीज़ अगर प्रभावित होती है तो वह है– ‘निष्पक्षता’।
कवि शैली और शिल्प का ही साहसपूर्ण विस्तार नहीं करता निष्पक्षता के अभाव में ‘आलोचकीय स्वतंत्रता’ का दुरुपयोग
समय और समाज की स्थापित व्यवस्थाओं और मान्यताओं होने लगता है। मेरा अपना मानना है कि– ‘स्वतंत्रता’ और
का भी विस्तार करता है। ‘सत्ता’ (सिर्फ़ राजनीतिक सत्ता नहीं) के रास्ते सीधे और
कविता और यथार्थ के संबंध पर बहुत बात होती है आसान नहीं हैं। वे अक्सर एक-दूसरे के प्रतिरोधी बनते हैं
किन्तु इस बात को समझते हुए ही हमें ‘कविता के भीतर और एक-दूसरे को काटते हैं। ये रिश्ते कैसे और क्यों परस्पर
यथार्थ की उपस्थिति’ को पहचानना होगा कि-कविता यथार्थ प्रतिरोधी बनते हैं इस पर बहस हो सकती है पर वे एक-दूसरे
का हूबहू प्रत्यायन नहीं करती। इसके साथ यह सवाल भी के पूरक तो नहीं कहे जा सकते, इसलिए आज ‘आलोचक के
जुड़ा है कि क्या यथार्थ कोई स्थिर या जड़ विचार है! क्या स्वाधीनता-बोध’ पर बात ज़रूर होनी चाहिए। यह समझना
यथार्थ, वर्तमान का बोध मात्र है! क्या उपस्थित और प्रत्यक्ष बेहद ज़रूरी है कि हमारा ‘स्वाधीन’ होना किसके पक्ष में है!
ही यथार्थ है! अगर ऐसा है तो अनुपस्थित और अप्रत्यक्ष, वाबस्ता करना चाहूँगा कि यह मात्र आलोचना का संकट नहीं

yegh जुलाई से सितंबर 2023 n 7


है बल्कि ‘सृजन की स्वाधीनता’ का संकट भी है; इसलिए सकते हैं, किंतु–‘संवेदना’ के नहीं। संवेदना-व्यक्ति, परिवेश
सृजनात्मकता का अपने समय से क्या रिश्ता होना चाहिए, इस और काल का अतिक्रमण करती है; वह निर्धारित अर्थ ही
पर भी विचार करने की ज़रूरत है। हदबंदी को ध्वस्त करती है। यही कारण है कि दुनिया की
अपनी कविता के प्रति ‘संशय’ और ‘संकोच’ रखने श्रेष्ठ कविताएँ बदले संदर्भों में भी प्रासंगिक रहती हैं।
वाले, दूसरों को पढ़ने-गुनने वाले ‘कवि’ लगातार कम पड़ते हमारे जीवन में ‘लोहा’ भले ही बहुत कम हो गया है
जा रहे हैं। जिनके लिए कविता 'लेखकीय टैग' अर्जित करने किन्तु कविता में ‘लोहे’ की कमी नज़र नहीं आती। कुछ ‘नए
का माध्यम है या ये कहें कि जिनके लिए कविता कवित्व- तैयार हुए’ कवियों में बहुत लोहा है; उनमें कुछ बहुत ही
पराक्रम दिखाने का अस्त्र मात्र है,ऐसे कवियों में किसी तरह समझदार हैं, उन्हें पता है कि लोहे में जंग लगने का ख़तरा
की बेचैनी, आकुलता और पक्षधरता नहीं दिखती। ऐसे कवि रहता है इसलिए ‘स्टेनलेस स्टील वाली कविताएँ’ बना रहे
व्यवस्था,सत्ता और वर्चस्व की तमाम निर्मितियों के विरोध हैं-फौलादी और मजबूती की गारंटी वाले ट्रेडमार्क के साथ।
में लिखने से बचते हैं। उन्हें पता है कि चुप रहना ही उन्हें वो भूल जाते हैं की रक्त में भी लोहा होता है, जो बिना किसी
बचाएगा! उन्हें शायद पता ही नहीं होगा कि उनका पुरखा ट्रेडमार्क के जीवन के प्रवाह को बनाए रखता है। कविता का
कवि कह गया है कि- ‘जो बचेगा कैसे रचेगा।’ ‘लोहा’ रक्त में घुले लोहे की तरह होना चाहिए ताकि गरमाहट
कविता 'शिनाख्त' और 'मुठभेड़' की चेतना से वर्धमान भी बनी रहे और तरलता भी। उबाल वाली गरमाहट नहीं,
होती है। इसका आशय यह कतई नहीं है कि ‘मुठभेड़’ कविता उसमें उफनाने का डर हमेशा बना रहता है। क्या गरमाहट
की अनिवार्य शर्त है; लेकिन पूछना चाहूँगा कि अगर ‘कवि और तरलता के बिना जीवन की गति संभव है! जब जीवन
अपने समय के बड़े सवालों से ख़ुद को बचा’ भी ले तो क्या की गति ही संभव नहीं; तब कविता कैसे संभव होगी! ऐसे
ख़ुद से मुठभेड़ किए बिना कोई सार्थक सृजन हो सकता है! भी कई कवि हैं िजनके ‘टोन’ में भी बहुत लोहा है-'अयस्क'
क्या अपने अंतर्जगत में उतरे बिना; उसमें पैबस्त अंधकार की वाला लोहा नहीं, 'सरिया' वाला लोहा। ख़ुद से ढला हुआ
शिनाख्त किए बिना प्रकाश के किसी स्रोत को खोजना संभव नहीं, मशीनों से ढाला हुआ। शोर करता हुआ, एक भी कठोर
है! कविता का काम अंधकार की सत्ता से ख़ुद को बरकाना प्रहार होते ही आवाज़ करने लगे, जबकि कविता की आवाज़
नहीं बल्कि उससे टकराकर रोशनी की तलाश करना है। ध्यान द्रवीभूत अयस्क की तरह होती है। जिसमें लोहा भी हो लेकिन
रहे चाहे वह कविता हो या समाज, अगर वह हस्तक्षेपविहीन पिघला हुआ ताकि उसमें शोर न हो और वह सँकरी से सँकरी
है, तो समाज में क्रूरता और अराजकता को बढ़ने से कोई नहीं संध में भी प्रवेश कर सके, सभी दिशाओं में उसका विस्तार हो
रोक सकता। एक डरे हुए समाज को जगाने में कविता की सके और मजबूत से मजबूत अवरोध को भी वह गला सके।
बड़ी भूमिका हो सकती है किन्तु उसके लिए कवि को थोड़ा नयी सदी के इन बीस-बाईस वर्षों में ‘कविता’
रिस्क लेना पड़ेगा! जनजीवन से लगातार दूर होती गयी है। ऐसी स्थिति केवल
हमारे समय की कविताएँ बहुत बोलती हैं जबकि अच्छी हिंदी समाज में ही नहीं है बल्कि अन्य समाजों में भी है किन्तु,
कविता की कसौटी होनी चाहिए-उसका कम बोलना। संकेत हिंदी में यह अधिक है। कविता के प्रति समाज के उदासीन
में कहना। मौन की भाषा को संभव करने की क्षमता जिस होते जाने के क्या कारण हो सकते हैं, इस पर हमें विचार
कवि में जितनी ज्यादा होगी, उसकी कविता उतनी ही अर्थगर्भी करना चाहिए। ध्यातव्य है कि जिस स्तर पर हमारा समाज
और प्रभावी होगी। कविता मौन की साधना है किन्तु मौन कविता-विमुख हुआ है उस स्तर पर कथा-विमुख नहीं हुआ
‘मुखरता’ का विरोधी नहीं होता। अच्छी कविता में ‘शब्दों है। इसके बावज़ूद कविता लिखने वालों की संख्या लगातार
की मुखरता’ के बजाए, अंतर्ध्वनियों की मुखरता होती है। बढ़ रही है। समकालीन साहित्यिक परिदृश्य की सबसे बड़ी
उसकी अंतर्ध्वनियाँ तीक्ष्ण होती हैं। अंतर्ध्वनियों के मुखर होने विडंबना शायद यह है कि पढ़ना लगातार कम हुआ है
का मतलब है: शब्द-निवेश की तुलना में संवेदना-निवेश पर और लिखना लगातार बढ़ा है। छपने और चर्चित होने की
केन्द्रीकरण। शब्द के कुछ निश्चित अर्थ निर्धारित किए जा अप्रत्याशित महत्वाकांक्षा के चलते कविता की सृजनशीलता

8 n जुलाई से सितंबर 2023 yegh


नयी सदी के इन बीस-बाईस वर्षों में ‘कविता’ जनजीवन से लगातार दूर होती
गयी है। ऐसी स्थिति केवल हिंदी समाज में ही नहीं है बल्कि अन्य समाजों की भी
है किन्तु, हिंदी में यह अधिक है। कविता के प्रति समाज के उदासीन होते जाने के
क्या कारण हो सकते हैं, इस पर हमें विचार करना चाहिए। ध्यान रहे जिस स्तर
पर हमारा समाज कविता-विमुख हुआ है उस स्तर पर कथा-विमुख नहीं हुआ है।
इसके बावज़ूद कविता लिखने वालों की संख्या लगातार बढ़ रही है। समकालीन
साहित्यिक परिदृश्य की सबसे बड़ी विडंबना शायद यह है कि पढ़ना लगातार
कम हुआ है और लिखना लगातार बढ़ा है। छपने और चर्चित होने की अप्रत्याशित
महत्वाकांक्षा के चलते कविता की सृजनशीलता का क्षरण हुआ है।

का क्षरण हुआ है। उद्यम’ इस समय की आलोचना में किस स्तर तक है! क्या इन
‘कविता का वर्तमान और वर्तमान की कविता’ पर लेखों में कविता के परिदृश्य को लेकर,उसके वर्तमान स्वरूप
केन्द्रित लमही का यह अंक बीसवीं सदी के अंतिम दौर की को लेकर कुछ नए और सार्थक बिंदु भी उभरे हैं! शिल्प और
कविताओं को आधार बनाकर तैयार किया गया है। मोटे संरचना को लेकर कोई गंभीर बातचीत हुई है!
तौर पर हमने इस अंक में उन कवियों की कविता-दृष्टि को निश्चय ही किसी कवि का मूल्यांकन, उसके समकालीन
समझने की कोशिश है जिनकी पहचान मुख्य रूप से नब्बे के कवियों को छोड़कर नहीं किया जा सकता! यहाँ देखना
दशक में बनी। नयी सदी की कविता में बदलाव की आधार होगा कि ‘कवियों के बीच’ तुलना करने का तरीका कितना
भूमि नब्बे के दशक में ही तैयार होती है। विवेकपूर्ण और रचनात्मक है! दरअसल इस बिंदु पर आकर
इस अंक की योजना बनाते हुए हमने बिलकुल भी नहीं आलोचना अक्सर निर्णयवादी हो जाती है। कवि मूल्यांकन का
सोचा था कि हमारी संख्या 150 के आसपास पहुँच जाएगी; 'अंध पक्ष' यह भी है कि हम कवि विशेष को अन्यों की तुलना
हालाँकि संख्या को उपलब्धि नहीं माना जाना चाहिए, असल में 'सर्वश्रेष्ठ' साबित करने लगते हैं जबकि कई मामलों में वह
उपलब्धि होती है– गुणवत्ता। अन्यों की तुलना में 'कमतर' भी हो सकता है। आलोचना की
लमही का पिछला अंक कविता की प्रवृत्तियों पर केंद्रित नज़र में सिर्फ़ चमकदार पक्ष ही नही, धूमिल पक्ष भी आना
था जिसमें हमारे समय के लगभग बीस से अधिक कवियों/ चाहिए।
आलोचकों से 'कविता के वर्तमान' को लेकर कुछ सवाल हमारा लोकतंत्र कई तरह के दबावों में है। पूंजी का,
पूछे गए थे। उन सवालों के मद्देनज़र कवियों/आलोचकों ने सत्ता का, पद का, वर्चस्व का दबाव लगातार बढ़ा है। इस
कविता की वर्तमान स्थिति को लेकर, कवि की पक्षधरता दबाव का असर कविता पर पड़ना स्वाभाविक है, पर हम
को लेकर, समय और हस्तक्षेप को लेकर- कई संदर्भवान अक्सर इस बिंदु को अनदेखा कर देते हैं। आलोचक को यह
बातें कही हैं। इस अंक में यह देखना दिलचस्प होगा कि उन भी देखना ही चाहिए कि हमारी सभ्यता में क्योंकर हिंसा के
ज़रूरी संदर्भोंं और चिंताओं की नोटिस क्या हमारी आलोचना लिए जगह बढ़ती जा रही है! हमारे लोकतंत्र में असहमति को
लेती है! मसलन 'कवि-मूल्यांकन' की इस कड़ी में ‘कविता बर्दाश्त करने की क्षमता क्यों लगातार घटती जा रही है! क्या
के वर्तमान’ को देखने का उनका नज़रिया क्या है! क्या इन यह केवल लोकतंत्र का संकट है या हमारे नागरिक समाज का
आलोचनात्मक लेखों में कवि और कविता के सम्मुख आज भी संकट है! इसके कारण क्या हो सकते हैं? इसके साथ ही
की प्रमुख चुनौतियों को रेखांकित करने का प्रयत्न किया गया सूचना प्रौद्योगिकी, सोशल मीडिया और वर्चुअल माध्यमों में
है! और अगर किया गया है तो उसके आधार बिंदु क्या हैं! कविता की भाषा,अभिव्यक्ति और शिल्प पर क्या प्रभाव पड़ा
इन लेखों में यह देखना भी लाज़िमी होगा कि बीसवीं सदी के है, इसकी पड़ताल भी आवश्यक है। इन माध्यमों से कविता
अंतिम दशक में उपजी कविता के ‘प्रस्थानों को तलाशने का के प्रसार और प्रभाव में किस तरह के बदलाव आए हैं– इन

yegh जुलाई से सितंबर 2023 n 9


प्रश्नों पर बातचीत होनी चािहए! बहादुर पटेल, शंकरानंद, प्रदीप िजलवाने, मिथिलेश कुमार
इस अंक के लिए हमारी योजना यही रही कि हम नए राय, कुन्दन सिद्धार्थ, कमलजीत चौधरी, वीरू सोनकर, तुषार
और अप्रकाशित लेख ही छापेंगे किंतु ऐसा न हमारा कोई धवल, हरे प्रकाश उपाध्याय, अम्बर पाण्डेय, अंशु मालवीय,
आग्रह रहा और न ही ऐसा कोई दावा है। लमही के ‘कविता वसु गंधर्व, नीलोत्पल, अंचित आदि शामिल थे मगर इन पर
की प्रवृत्तियों और कवियों के मूल्यांकन’ पर आधारित अंकों लेख नहीं मिल सके। हिंदी कविता का भूगोल इतना व्यापक
के संपादन की योजना पर जुलाई 2021 से लगातार काम है कि एक अंक में अधिसंख्य कवियों को समेट पाना और
करते हुए (दो वर्षों में) मेरा ध्यान बराबर हिंदी की पत्रिकाओं उन सब पर लिखवा पाना, हमारे लिए शायद संभव नहीं था!
और ब्लॉग्स में कवियों पर प्रकाशित लेखों और समीक्षाओं पर बहरहाल हमसे जो संभव हुआ हमने किया और जो हमसे नहीं
रहा। इस दौरान कुछ पत्रिकाओं में कवियों पर अच्छी सामग्री हो पाया उसे आगे कोई और ज़रूर करेगा!
पढ़ने को मिली और उनका प्रभाव मन पर बना रहा। लमही के इस अंक में युवाओं की भागीदारी ज़बरदस्त है, ख़ासकर
लिए जब लेख आने शुरू हुए और उन्हें पढ़ने का सिलसिला युवा कवियों की। लेकिन इसमें संभवतः आपको ऐसा एक भी
प्रारंभ हुआ- तब लगा कि सिर्फ़ नए को महत्व देना उपयुक्त लेख नहीं मिलेगा जो एक-दूसरे पर (परस्पर) हो। 'कविता
नहीं है, नए की सार्थकता को परखना भी ज़रूरी है। कुछ नए के देश' के कुछ ऐसे भी नागरिक आपको यहाँ मिलेंगे जिन्होंने
लेख हमारी थीम के अनुरूप नहीं थे, इसलिए उन्हें अंक में आलोचना के लोकतंत्र में अपने मत का पहली बार प्रयोग
लेना संभव नहीं हुआ और कुछ लेख अंत तक इन्तजार करते किया है। इससे समकालीन कविता-आलोचना की कुछ
रहने के बाद भी प्राप्त नहीं हुए। इस कारण से समालोचन में संभावनाएँ निकल पायीं तो यह सुख का विषय होगा! इन
प्रकाशित लेखों (लीलाधर जगूड़ी पर ओम निश्चल, मलखान लेखों के आधार पर आप यह भी देख पाएँगे कि कविता के
सिंह पर बजरंग बिहारी तिवारी, वीरेन डंगवाल पर पंकज भीतर प्रवेश करने की उनकी तैयारी और अध्ययन कितना है!
चतुर्वेदी, नरेश सक्सेना पर संतोष अर्श) को संशोधित करने पाठ को खोलने की उनकी अपनी मौलिक प्रविधियाँ कितनी
के बाद हमने अंक में शामिल किया है। केदार नाथ सिंह और कारगर हैं! आलोचना को संवादी और सृजनात्मक बनाने की
बद्री नारायण पर नए लेख न मिल पाने के कारण हमने आशीष कितनी संभावनाएँ उनमें हैं! निश्चय ही इन संभावनाओं के
त्रिपाठी के पक्षधर में प्रकाशित केदार नाथ सिंह और तद्भव में साथ उनकी सीमाओं को भी देखा जाना महत्वपूर्ण होगा!
प्रकाशित बद्रीनारायण के लेख के संशोधित ड्राफ्ट को शामिल लमही पत्रिका के प्रधान संपादक विजय राय जी का
किया है। इसके साथ ही बया पत्रिका के ऋतुराज विशेषांक में विशेष रूप से आभारी हूँ जिन्होंने यह दायित्व मुझे दिया।
प्रकाशित अच्युतानंद मिश्र के लेख और कथादेश के विनोद उनके जैसी सहजता और निर्मलता अकथ है। अंक का
कुमार शुक्ल विशेषांक में प्रकाशित विवेक श्रीवास्तव के लेख संपादन करते हुए वह एक सच्चे साहित्यिक अभिभावक की
को भी हमने संशोधन के साथ शामिल किया है। इन लेखकों भूमिका में रहे। इस अंक को संभव करने वाले सभी लेखकों के
के साथ इन सभी पत्रिकाओं और उनके संपादकों के प्रति प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करता हूँ। उन्हीं के होने से यह अंक है,
आभार व्यक्त करता हूँ। वही इस अंक की त्वरा हैं। प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से इस
इस अंक में हमने विशेष रूप से नामवर जी द्वारा वरिष्ठ अंक को तैयार करने में जिन व्यक्तियों का अमूल्य मार्गदर्शन
कवि दिनेश कुमार शुक्ल के कविता संग्रह पर लिखी भूमिका और सहयोग मिला उनको नमन करता हूँ। सृजनशील परंपरा
को साभार लिया है ताकि हमारी आलोचना की युवा पीढ़ी यह का ऋण स्वीकारते हुए यह अंक उन हाथों को समर्पित है जो
देख पाए कि कविताओं का पारायण करते हुए उनका पाठ अपने श्रम और कला से इस दुनियाँ को सुंदर बनाते हैं।
कैसे खोला जाता है!
बहुत चाहक़र भी कुछ महत्वपूर्ण कवियों पर हम सामग्री – शशिभूषण मिश्र
नहीं दे पा रहे हैं, इसका हमें अफ़सोस है। हमारी योजना में
ध्रुव शुक्ल, संजय कुंदन, विमल कुमार, मनोज कुमार झा,

10 n जुलाई से सितंबर 2023 yegh


नंद चतुर्वेदी
कुंवर नारायण
केदारनाथ सिंह
अजित कुमार
विजेंद्र
मान बहादुर सिंह
भगवत रावत

विरासत सोमदत्त
विष्णु खरे
वीरेन डंगवाल
मैं जीवित रहूँगा कविताओं में मंगलेश डबराल
मेरे बाद भी बची रहेगी कविता पंकज सिंह
मलखान सिंह
रमाशंकर विद्रोही
सुरेश सेन निशांत
मुकेश मानस

yegh जुलाई से सितंबर 2023 n 11


12 n जुलाई से सितंबर 2023 yegh
n नंद चतुर्वेदी

जीवन के राग का प्रतिश्रुत कवि


माधव हाड़ा

नंद चतुर्वेदी की कवि सक्रियता बहुत विस्तृत है। कविता इससे अलग जीवन के सुंदर और सकारात्मक
उन्होंने उपनिवेशकाल के अंतिम चरण में कविता पक्ष पर एकाग्र है। इसका आशय यह नहीं है कि
के ब्रजभाषा के दौर में लिखना शुरू किया और उनकी कविता में जीवन का कुरूप और नकारात्मकता
इक्कीसवीं सदी की शुरुआत में हिंदी कविता के नहीं है। यह भी उनकी कविता में है, लेकिन यह
प्रौढ़ हो जाने तक लिखते रहे। यह विडंबना है कि जीवन के अभाव की चिंता के रूप में है। पतझर
उनके सभी कविता संकलन– यह समय मामूली उनकी कविता में बसंत के अभाव की चिंता के रूप में
नहीं (1983) ईमानदार दुनिया के लिए (1994), है। अँधेरा उनकी कविता में उजाले के अभाव की
वे सोए तो नहीं होंगे (1997), उत्सव का निर्मम समय (2001), चिंता की तरह है। उनकी एक कविता है ‘हम नयी कविताएँ लिखते
जहाँ एक उजाले की रेखा खिंची है (2006), गा हमारी ज़िंदगी हैं’ में उन्होंने जीवन के प्रति अपने राग के आग्रह को व्यक्त करते
कुछ गा (2011), आशा बलवती है राजन (2016) उनके जीवन हुए लिखा है कि- “हम दु:ख और दरिद्र से धनुषाकार हुई/ देह पर
के उत्तरकाल में प्रकाशित हुए। नंद चतुर्वेदी ने हिंदी के कविता के कविताएँ लिखते हैं/ हम लिखते हैं उन पर जो अँधेरे की घाटियों में
विकास की तमाम उठापटक देखी और उसमें शामिल भी रहे। वे जाते हैं/ सूरज की रोशनी तलाश करने।” यहाँ कवि की चिंता और
सब आंदोलन, प्रवृत्तियाँ और प्रभाव, जो हिंदी कविता में आए-गए, सूरज की रोशनी की तलाश है। अँधेरे की घाटियाँ उनका लक्ष्य नहीं
उनकी पदचाप यहाँ सुनी जा सकती है। है। उनकी कविता में इस तरह का आग्रह बहुत सघन और आद्यंत
हिंदी में ऐसी दुर्घटनाएँ बहुत हुईं कि कवि किसी खूंटे से बँध गए है। उनकी एक ऐसी कविता का अंश, जिसमें जीवन का राग जीवन
और बँधे भी ऐसे कि वहीं ठहर गए। नंद चतुर्वेदी कहीं भी नहीं ठहरे के अभाव की चिंता के रूप में है, उदाहरण के लिए–
और इसलिए कभी नहीं चुके। कहीं-कहीं उनकी कविता में बँध कर कैसा आकाश है
ठहर जाने की शुरुआत तो हुई, लेकिन वे बहुत जल्दी इसको जहाँ उड़ती नहीं है इच्छाओं की पतंगें
तोड़कर आगे चल दिए। तोड़कर आगे चले जाना उनकी कविता जहाँ से चले गए हैं मेघ-छाया के प्रफुल्लित दिन
कई जगह है, लेकिन हिंदी के कई कवियों के यहाँ यह दिखता है सप्त-ऋषि मंडल से बातें करती चंद्रमा की रातें
और कहीं-कहीं तो ऐसे दिखता है कि यह बहुत असहज और परंपरा की स्मृति और निवेश हिंदी कविता में बहुत सघन नहीं
अटपटा लगता है। नंद चतुर्वेदी की कविता में यह तोड़कर आगे है। ख़ास तौर पर नयी कविता के बाद यह निवेश बहुत कम होता
निकल जाना इतना अनायास और सहज है कि कई बार इसकी गया है। हिंदी कविता इसलिए अन्य भारतीय भाषाओं की तुलना में
पहचान मुश्किल हो जाती है। परंपरा विच्छिन्न कविता लगती है। नंद चतुर्वेदी की कविता में
नंद चतुर्वेदी की कविता जीवन के राग कविता है। कहना यह परंपरा की स्मृति और निवेश बहुत गहरा और सघन है। यह
चाहिए कि उनकी कविता जीवन की रसकथा है। ‘रस कथा’-यह पौराणिक और मध्यकालीन मिथकों और चरित्रों के रूप में है और
पद उनकी कविताओं में एकाधिक बार प्रयुक्त हुआ है। उनकी यह बहुत स्वाभाविक निवेश है। यदि मनुष्य एक सांस्कृतिक
कविता जीवन के अभाव की नीरस कविता नहीं है। आम हिंदी अस्तित्व है, तो उसकी स्मृति में इन सबका होना बहुत स्वाभाविक
कविता में जीवन के अभाव से संबंधित विवरणों की भरमार है, और ज़रूरी है। कृष्ण, अर्जुन, महाभारत, इंद्र, बुद्ध आदि उनकी
इसलिए यह नीरस और अख़बारी लगती है। नंद चतुर्वेदी की कविताओं मे बार-बार आते हैं। वे इनके माध्यम से अपने समय

yegh जुलाई से सितंबर 2023 n 13


देह की चिंता का विस्तार अपार्थिव के रूप होता है। नंद चतुर्वेदी
की कविता में देह की चिंता भी है और देह की उपेक्षा का दुःख भी
है। उनकी कविता ‘शरीर’ देह की इस चिंता की कविता है। इस
कविता का आरंभ और अंत इस प्रकार है–
हमारे घर में शरीर की बात कोई नहीं करता था
करता भी था तो उसे पवित्र रखने के लिए
जो साधु बाबा माँगने आता था कभी-कभी या हमेशा
एक ही कड़ी बार-बार सुनाता था
‘क्या तन भाँजणा रे एक दिन माटी में मिल जा’
तब शरीर अकेला अजनबी की तरह रह जाता
अपनी सारी तृष्णाओं की अग्नि के साथ
----
को उलट-पलटकर देखते हैं। ‘यह कैसा समर है कृष्ण?’ में दुनिया जानने के लिए शरीर को ही जानते हैं हम
उन्होंने कृष्ण, अर्जुन और महाभारत के माध्यम से हमारे समय की देहातीत प्रेतात्माओं के लिए नहीं बनी है पृथ्वी।
विडंबना को इस तरह देखा है‌– समय और कविता का संबंध हिंदी के कम कवियों के यहाँ
यह कैसा समर है कृष्ण? सामान्य और सहज है। कविता यदि अपने समय पर ठहर जाए, तो
जहाँ अर्जुन तुमसे नहीं गड़बड़ है और यदि यह समय से बाहर हो तो फिर बहुत गड़बड़
उन तमाम मरने वालों से पूछता हो है। कोई कविता समय में भी हो और समय से आगे भी जाए, तो ही
मृत्यु के बीचोंबीच स्मृति-रूपों के बारे में सही मायने में कविता है। कवि पहले मनुष्य है, इसलिए उसकी
वे सब बताते हों चेतना और बोध में उसके समय की छाप तो होगी। समय बदल
जो इतना नश्वर है, इतना लौकिक जाएगा, लेकिन यह छाप भी बदलेगी इसकी गारंटी नहीं है। कवि
इसी दुनिया का, एक छोटा सा सुख। वह है जो अपनी इस मनुष्यवृत्ति से ऊपर उठ जाए। वह इस तरह
उनकी एक और कविता ‘किला’इतिहास की हमारी समझ को ऊपर उठे कि अपने समय में गहरे डूबकर भी इसकी सीमाओं को
प्रश्नाहत करती है। कविता का अंतिम अंश इस प्रकार है- पहचान सके। नंद चतुर्वेदी की कविता अपने समय में डूबी हुई
शांतिपाठ करने कविता भी है और कुछ हद तक यह उससे ऊपर और आगे भी
आए होंगे ब्राह्मण जाती है। समय उनकी कविताओं का ज़रूरी आयाम है। हिंदी
उन्होंने कहा होगा कविता में अक्सर ऐसा हुआ है कि या तो कवि अपने समय पर
वे फिर यहाँ आएँगी ठहर गए या फिर समय से बाहर या ऊपर चले गए। नंद चतुर्वेदी
पृथ्वी पर की कविता समय में गहरे डूबी कविता है, लेकिन यह समय में
अपना बचा हुआ ठहरी और उससे बँधी कविता नहीं है। यह समय से आगे भी जाती
जीवन जीने के लिए है और बहुत निर्मम होकर अपने समय को समझती-पहचानती है।
इतिहास सिर्फ़ मौत बताता है उनकी कविता में समय बहुत पारदर्शी है। उन्होंने हमारे समय की
बाद की बातें तो ज़िंदगी को ही उठापटक को कई बार उसके संदर्भ, पहचान और नाम संज्ञाओं के
तलाश करनी पड़ती है। साथ अभिव्यक्त किया है। बावज़ूद इसके उनकी ऐसी कविताएँ
यह विडंबना है कि जो देह हमें पृथ्वी पर संभव बनाती है वह अपने समय से बँधी, केवल तात्कालिक कविता की तरह नहीं
हमारे सरोकार और चिंता में सबसे कम है। अपार्थिव की चिंता हम लगतीं। उनकी कविता में समय की निरंतर सार-सँभाल और
सबसे अधिक करते हैं, जो दरअसल है नहीं। दरअसल भक्ति पहचान-परख का सबूत यह है कि उनके एकाधिक काव्य संकलनों
साहित्य अपार्थिव पार्थिव का ही विस्तार है। रवींद्रनाथ ठाकुर ने के नाम में ही ‘समय’ की मौज़ूदगी है। उनकी समय पर एकाग्र
एक जगह लिखा है कि ‘और यह आएगा कहाँ से’। हमारी परंपरा लेकिन समय से बाहर कविता का एक अंश इस प्रकार है–
में भी देह सरोकार की तरह है। यह अलग बात है कि कई जगह आज़ादी की अाधी सदी

14 n जुलाई से सितंबर 2023 yegh


वे मुझसे न पूछें यह
कितना गेहूँ, चावल, शक्कर नंद चतुर्वेदी की ख्याति कवि के रूप में
तुम्हे दें उपहार में है, लेकिन वे इससे पहले एक समाजवादी
भूख़े देश में रहने के लिए कार्यकर्ता भी थे। उनका संपूर्ण जीवन
उनके कवि और समाजवादी कार्यकर्ता के
कितने गज कपड़ा ढकने के लिए लज्जा
बीच आवाज़ाही में निकला। वे समाजवादी
कितान ऊँडा कुआँ, कितनी कृपा विचारक और कार्यकर्ता थे- उन्होंने ग़ैरबराबरी
कृतज्ञ होने के लिए। और अन्याय के विरुद्ध आजीवन संघर्ष
उनकी कविता जब समय से बाहर होती है, तब भी उसमें समय किया। उन्होंने इसके लिए कई आंदोलन किए
की पदचाप सुनी जा सकती है। उनकी ऐसी कविता का एक अंश और कई धरना-प्रदर्शनों का नेतृत्व किया।
उदाहरण के लिए इस प्रकार है- संवाद में भी अक्सर उनकी चिंता का विषय
कभी तुम आए थे इंद्र बनकर ग़ैरबराबरी और अन्याय ही होते थे। लेकिन
रथ पर अनन्य वेग के साथ दुनिया नहीं बदल पाने की लाचारी और रंज
कृष्ण का नगर पूछते हुए भी उनको बार-बार घेरते थे।
व्यंजना के सारे अर्थों को निष्प्रभ करते
कहते ‘हमारा भोग दो हमें यदुवंशियों कार्यकर्ता काे छोड़ता नहीं था। ख़ास बात यह है कि वे आजीवन
कृष्ण तुम्हारा दुर्भाग्य है, क्रूर और निष्करुण’ कवि और कार्यकर्ता, दोनों रहे। उनके कवि ने उनके कार्यकर्ता की
मूसलाधार वृष्टि देखते रहे हम समझ को व्यापक और गहरा किया, तो उनके कार्यकर्ता ने उनके
प्रलय में भी हँसते, गोवर्धन की छतरी तले कवि को भटकने नहीं दिया।
तुम्हारे अहंकार रथ के घोड़े पीछे मुड़ गए रिवाज़ और चलन कुछ ऐसा बना कि हिंदी साहित्य में आरंभ से
भीगने के लिए अब न दिन बचे हैं, न रातें ही अतीत के लिए हिक़ारत का भाव आ गया। कविता हो या कहानी
श्रावण और भाद्रपद उसमें अतीत का आना पिछड़ापन समझा जाने लगा। इस तरह
सूर्य के अकथनीय पराक्रम में झुलस गए हैं नॉस्टेल्जिया साहित्य में एक मानसिक विकृति की तरह प्रचारित हो
हवा पेड़ों के पास से सिर झुकाकर गुज़रती है गया। इसको देश निकाला देने की हड़बड़ी और जल्दबाजी में लोग
अकाल के दिन फिर आ गए हैं यह भूल गए कि यह स्वाभाविक मानवीय प्रवृत्ति है और इसका
नंद चतुर्वेदी की ख्याति कवि के रूप में है, लेकिन वे इससे रचनात्मक उपयोग भी हो सकता है। छायावाद के दौरान
पहले एक समाजवादी कार्यकर्ता भी थे। उनका संपूर्ण जीवन उनके नॉस्टेल्जिया की लानत–मलामत ख़ूब हुई। बाद में लोगों को समझ
कवि और समाजवादी कार्यकर्ता के बीच आवाज़ाही में निकला। वे में आया कि छायावाद में भी नॉस्टेल्जिया की सघनता अकारण नहीं
समाजवादी विचारक और कार्यकर्ता थे– उन्होंने ग़ैरबराबरी और थी– इसके भी कुछ निहितार्थ थे। नंद चतुर्वेदी की कविता में
अन्याय के विरुद्ध आजीवन संघर्ष किया। उन्होंने इसके लिए कई नॉस्टेल्जिया का जैसा रचनात्मक उपयोग हुआ है, वैसा हिंदी के
आंदोलन किए और कई धरना-प्रदर्शनों का नेतृत्व किया। संवाद में दूसरे कवियों के यहाँ कम है। अतीत और वर्तमान की मौज़ूदगी
भी अक्सर उनकी चिंता का विषय ग़ैरबराबरी और अन्याय ही होते उनकी कविता में जुगलबंदी की तरह आती है। वे इस जुगलबंदी
थे। लेकिन दुनिया नहीं बदल पाने की लाचारी और रंज भी उनको का उपयोग यथार्थ की अदृश्य परतें खोलने में करते हैं। वे इससे
बार-बार घेरते थे। ऐसा जब होता था तब वे कविता की तरफ़ मुड़ते ऐसे कई अर्थ-आशयों तक पहुँचते हैं, जहाँ तक सामान्यतः हमारी
थे। उनकी कविता में दुनिया नहीं बदल पाने का रंज, असमंजस निगाह नहीं जाती। यह महज संयोग नहीं है कि अपनी सक्रियता के
और लाचारी इसीलिए बहुत है। वे कार्यकर्ता थे, इसलिए शब्द की अंतिम चरण में उन्होंने अपनी एक रचना का नाम अतीत राग रखा।
ताक़त को लेकर कभी पूरी तरह आश्वस्त नहीं रहे। यह चिंता अतीत राग उनकी कविता में आरंभ से ही है और समय के साथ
उनके विचारात्मक लेखों और संपादकीयों में बार-बार झलकती है। यह अधिक गहरा और व्यापक होता गया है। ख़ास बात यह है कि
शब्द के प्रति अविश्वास का भाव उन्हें कर्म की ओर ले जाता था। उनकी कविता का ‘अतीत राग’ ‘अतीत प्रेम’ से बहुत अलग है।
कवि और कार्यकर्ता के बीच उनकी आवाज़ाही ऐसी है कि उनका उनकी कविता में अतीत प्रेम नहीं है, उनकी कविता में अतीत का
कार्यकर्ता अपने कवि काे भूलता नहीं था और उनका कवि अपने आग्रह नहीं है, अतीत उनके लिए औज़ार या हथियार तरह है।

yegh जुलाई से सितंबर 2023 n 15


ज्यादा ही दूर निकल गई, नंद चतुर्वेदी की कविता उसके आसपास
भाषा और मुहावरे के मामले में नंद चतुर्वेदी ही रही। कविता के बुनियादी गुण-धर्मों का आग्रह उनकी सक्रियता
की कविता में बहुत रद्दोबदल नहीं है। यह के अंतिम चरण में कुछ ज्यादा हो गया था। उनका गीत संकलन
अपने आरंभ से अंत तक कमोबेश एक जैसी 'गा मेरी जिंदगी कुछ गा' इसी दौर में प्रकाशित हुआ।
है। दैनंदिन जीवन की आम बोलचाल की भाषा और मुहावरे के मामले में नंद चतुर्वेदी की कविता में बहुत
भाषा और मुहावरा उन्होंने आजीवन इस्तेमाल
रद्दोबदल नहीं है। यह अपने आरंभ से अंत तक कमोबेश एक जैसी
किया। हिंदी कविता में कई आंदोलन आए-
गए, कई मुहावरे बने-बिगड़े, लेकिन नंद है। दैनंदिन जीवन की आम बोलचाल की भाषा और मुहावरा
चतुर्वेदी ने अपना बुनियादी भाषिक संस्कार उन्होंने आजीवन इस्तेमाल किया। हिंदी कविता में कई आंदोलन
नहीं छोड़ा। उस दौर में भी जब छायावादी- आए-गए, कई मुहावरे बने-बिगड़े, लेकिन नंद चतुर्वेदी ने अपना
उत्तर छायावादी कविता की लोकप्रियता अपने बुनियादी भाषिक संस्कार नहीं छोड़ा। उस दौर में भी जब
चरम पर थी, नंद चतुर्वेदी आम बोलचाल छायावादी-उत्तर छायावादी कविता की लोकप्रियता अपने चरम पर
का मुहावरा इस्तेमाल करते रहे। इस संबंध में थी, नंद चतुर्वेदी आम बोलचाल का मुहावरा इस्तेमाल करते रहे।
उनकी समाजवादी प्रतिबद्धता और संस्कार इस संबंध में उनकी समाजवादी प्रतिबद्धता और संस्कार काम
काम आए। आए। इन्होंने उनको भटकने नहीं दिया। हिंदी में गीत से कविता की
ओर आने वाले कवियों की भाषा और मुहावरे में अंतर है। उनके
गीतों की भाषा अलग और कविता की अलग है, पर नंद चतुर्वेदी
उनकी कविता में अतीत बार-बार आता है। एक उदाहरण इस की कविता में यह फ़र्क नहीं है। उनके गीतों की भाषा भी कमोबेश
प्रकार है‌– वही है, जो उनकी कविता की है। उनके गीतों की भाषा का रूमानी
वहाँ उस गली के मोड़ पर मुहावरा उनकी कविता में भी आता है।
एक वृक्ष था सुगंध का नंद चतुर्वेदी ने गद्य भी लिखा। शब्द संसार की यायावरी(1985),
कभी-कभी जब बिजली चली जाती अतीत राग(2009), यह हमारा समय (2012), जो बचा रहा
पूरे शहर की, अमूमन मैं ठिठक कर खड़ा रहता (2014) में उनकी गद्य रचनाएँ संकलित हैं। गद्य के उनके मुहावरे
तब सुगंध पेड़ ले आता पर उनकी कविता की छाप साफ़ दिखती है। उनकी कुछ गद्य
जिधर था हमारा घर रचनाएँ ऐसी हैं, जिनमें उनके कवि और कार्यकर्ता की चिंताओं और
रुक्मिणी उस वृक्ष के पास जाती सराेकारों का ख़ुलासा होता है। उनकी कुछ रचनाएँ उनके अपने
पूछती उसका नाम, वंश, कुल गोत्र, शील समकालीनों पर एकाग्र हैं। ये रचनाएँ आलोचना में संस्मरण और
पूछती हमारे घर चलोगे संस्मरण में आलोचना जैसी हैं। संस्मरणात्मक होते हुए भी इनमें
वृक्ष कहता ले चलो भुआ उनका लहजा बिना लाग-लपेटवाला, दो टूक और खरा-खरा है।
मुखर वैचारिक रुझान के बावज़ूद नंद चतुर्वेदी की कविता हिंदी उनके साक्षात्कार साहित्य की व्यापक चिंताएँ (2017) नाम से
की प्रतिबद्ध तमगेवाली अधिकांश कविता की तरह रूखी और प्रकाशित हुए।
ऊबड़-खाबड़ नहीं है। यह रसवंती– बहुत सरस, कोमल और कुछ नंद चतुर्वेदी मूलतः कवि थे– उनके सरोकार और चिंताएँ
हद तक रूमानी है। हिंदी में विचार के आग्रह से कविता को फ़ायदा उनकी कविता में ही चरितार्थ हुए। उनकी चिंताएँ गहरे अर्थ में
हुआ, पर इससे कुछ नुक़सान भी हुए। कुछ प्रतिबद्ध कवियों के यहाँ जाकर एक मनीषी संत की आध्यात्मिक चिंताएँ हो जाती हैं। उनका
विचार इतना ज्यादा हो गया कि उनकी कविता पटरी से ही उतर अध्यात्म ऐसे कवि का अध्यात्म है, जिसमें अपने समय की अनुगूँज
गई। वैचारिक प्रतिबद्धता नंद चतुर्वेदी की कविता में है और इसका और पदचाप को भी साफ़-साफ़ सुना जा सकता है। n
जोर-जोर से ढोल बजा कर मुनादी करनेवालों से कुछ ज्यादा ही संपर्क :607, मैट्रिक्स पार्क
गहरी और मजबूत भी है, लेकिन उनकी कविता कभी पटरी से नहीं भुवाणा, उदयपुर (राजस्थान)
उतरी। इसका कारण है– नंद चतुर्वेदी ने शुरुआत गीत से की थी, मो. 91 94143 25302
इसलिए गीत के बुनियादी गुण-धर्म का संस्कार उनकी कविता में
हमेशा रहा। उस दौर में भी जब हिंदी कविता अपनी पटरी से कुछ

16 n जुलाई से सितंबर 2023 yegh


n विरासत : कुंवर नारायण

अरी ओ करुणा प्रभामय!


समय की मलिनताओं को निहारता कवि
ओम निश्चल

एक दौर था, कविता अपने समय के पूंजीवाद और कल्पना केवल मुक्तिबोध कर सकते थे और ‘अरी ओ
साम्राज्यवाद से लड़ रही थी। इजारेदारों के विरुद्ध करुणा प्रभामय’ की कल्पना केवल अज्ञेय।
राजनीतिक सत्याग्रह सरीखी कविताओं में मुक्तिबोध ऐसे समय अज्ञेय और मुक्तिबोध के उत्तराधिकार
का कोई सानी नहीं है। एक अकेला कवि जिसके का वहन करते हुए जो कवि अगली पीढ़ी में सामने
सामने पूरी मानवता के विरुद्ध सक्रिय शक्तियों की आए उनमें कुंवर नारायण प्रमुख थे। मुक्तिबोध ने उन
पहचान में कोई चूक न हो, उस दौर की मनुष्यता पर कभी कुछ लिखा भी था। मुक्तिबोध के साहित्य-
की नियति को प्रभावित करने वाली ताक़तों के विरुद्ध आलोचना व कविता में कुंवर जी की पैठ व दिलचस्पी
न केवल ‘नया ख़ून’ के संपादकीयों में बल्कि अपनी कविताओं में तो थी पर कभी उन्होंने मुक्तिबोध के नक्शेकदम पर चलने का
भी प्रत्याख्यान कर रहा था। मुक्तिबोध की परंपरा में परिगणित होने प्रयास नहीं किया। इसके बरअक्स वे समाजवादियों के नज़दीक
की लालसा तो तमाम कवियों में रही किन्तु उन जैसा आत्मसंघर्ष ज्यादा रहे तथा कविता की सामाजिक व निजी दोनों भूमिकाओं को
अन्य कवियों में बहुत कम का रहा। आलोचकों में हमारे समय जानते मानते रहे। ऐसा नहीं कि मुक्तिबोध के जमाने वाला पूंजीवाद
की व्याधियों को चिह्नित करने के बजाए अज्ञेय और मुक्तिबोध का व साम्राज्यवाद कुंवर नारायण के जमाने में कहीं तिरोहित हो गया
विवाद खड़ा करने की चेष्टाएँ ज्यादा प्रबल रहीं जिसके चलते अज्ञेय था और पूरी दुनिया सत्य और अपरिग्रह के मार्ग पर चलने लगी
को हाशिए पर डाल कर मुक्तिबोध का महिमामंडन भी ख़ूब किया थी बल्कि मानवीय सभ्यता की उत्तरोत्तर आधुनिकतावादी दृष्टियों
गया जबकि होना यह चाहिए था कि दोनों पर बात हो क्योंकि ये दोनांे के बावज़ूद दुनिया नस्लवाद, मजहबपरस्ती और हिंसा व युद्ध के
ही हिंदी काव्य की अप्रतिम प्रतिभाएँ हैं तथा कविता में एक दूसरे रास्ते पर डटी रही। भौतिक उन्नति का रास्ता आत्मिक उन्नति से
की पूरक हैं और अपनी अपनी अद्वितीयताओं के अपूर्व उदाहरण हैं। कहीं अधिक काम्य था। कुंवर नारायण भौतिकता के हिमायती न
मुक्तिबोध में राजनीतिक आर्थिक व्याधियों और उनकी चुनौतियों से थे। वे आत्मिक उन्नति व आत्मबल के पैरोकार कवि थे। लिहाजा
टकराने की अपूर्व ताक़त थी तो अज्ञेय में हिंदी की ख़ूबसूरती को उन्होंने पूंजीवाद व साम्राज्यवाद पर मुक्तिबोध की तरह प्रहार न कर
कविता व गद्य में सहेजने की अपूर्व लालसा। लिहाजा मुक्तिबोध मनुष्य की नियति, उसके नैतिक आग्रहों, समाज के साथ उसके
की कविता और आलोचना अपने समय के अदब की जड़ताओं पर नैतिक तालमेल, सत्य पर अडिग रहने की गांधीवादी लोहियावादी
प्रहार कर रही थी तथा मनुष्य के भीतर सुषुप्त चेतना जगाने का कोशिशों का साथ दिया। परिवार में निजी मृत्युओं से उनके भीतर
काम कर रही थी तो अज्ञेय का साहित्य मनुष्य के भीतर के अंतर्द्वंद्व, जो नैराश्य और अवसाद जन्मा, जो दार्शनिक सोच पैदा हुई उसका
कल्पनाशीलता, प्रकृति और पुरुष के सनातन साहचर्य और संबंधों प्रतिफलन ‘चक्रव्यूह’ में दिखा। यह हालाँकि पहला ही संग्रह था पर
को एक नए तरीके से व्याख्यायित कर रहे थे। यायावरी ने अज्ञेय उसमें एक अबूझ किस्म की दार्शनिकता थी। अनेक प्रश्नाकुलताएँ
को एक अप्रतिम शब्दशिल्पी में बदल दिया। उनकी कलादृष्टि की थीं जो कविता में उभर कर सामने आईं। चक्रव्यूह, परिवेश, हम
तुलना मुक्तिबोध से संभव ही नहीं है। ‘चाँद का मुँह टेढ़ा है’ जैसी तुम, आत्मजयी और अपने सामने तक उनकी कविता का एक

yegh जुलाई से सितंबर 2023 n 17


अलग ही दौर है। आत्मजयी ने उन्हें कवि का ग़ाैरव तो दिया किन्तु बन पायी है। यह सच है कि एक समय हिंदू मुस्लिम का मज़हबी
कठोपनिषद के मिथक से टकराने और उन्हें कविता में पुनर्जीवित ताना बाना बहुत अच्छा न था तथा मुगलों के शासनकाल में कहीं न
करने की उनकी चेष्टाओं को आत्मकेंद्रित ही माना गया। जीवन कहीं हिंदू धर्मस्थलों के मुक़ाबिल अपनी इबादतगाहें तैयार करायी
और मृत्यु की जिज्ञासाओं का भला आम आदमी से क्या लेना देना गयीं किन्तु कालांतर में ये चीज़ें विवेकी सरकारों के कारण ध्वंस या
था। यों तो उपनिषद हों या हमारे अन्य आदि ग्रंथ-मिथकों का एक राजनीतिक उबाल का मंच न बन सकीं। लेकिन नब्बे के बाद का
अपना अवास्तविक किस्म का संसार है जिसमें प्रवेश करना एक दौर रथयात्राओं का रहा जिससे कि हिंदुत्ववादी शक्तियों की बासी
साहित्यकार के लिए जोख़िम का काम है। इससे उसे अतीतजीवी कढ़ी में उबाल लाया जा सके और 92 में इसे अंजाम देकर जैसे
कहा जा सकता है जैसे कभी नामवर सिंह ने रामविलास शर्मा को इसे राजनीति में एक नए युग का सूत्रपात माना गया। काशी में हो
वैदिक अध्ययनों के कारण उनके इन प्रयासों को ‘इतिहास की रहे परिवर्तनों को ‘नये हैं सांस्कृतिक विद्युतगर्भ’ कह कर ज्ञानेंद्रपति
शवसाधना’ कह कर खिल्ली उड़ाई थी। यद्यपि तब प्रबंधकाव्यों या सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की बखिया उधेड़ रहे थे। राम की अयोध्या पर
खंड काव्यों का आधार किसी उपजीव्य ग्रंथ का कथानक ही हुआ कुंवर नारायण की कविता ‘अयोध्या 92’ इसका एक साक्ष्य है कि
करता था। फिर भी प्रबंधकाव्यों की कोटि में आत्मजयी को अग्रगण्य कवियों में इसे लेकर कैसी विकलता महसूस की जा रही थी। इस
कृति माना गया, जिसे पढ़कर दिनकर भी डोल उठे थे। आत्मजयी दौर की अप्रत्याशित उथल पुथल को कुंवर नारायण बहुत बेचैनी के
नचिकेता के आत्मसंघर्ष और उसकी निर्भयता की कहानी है किन्तु साथ देख रहे थे। शायद यही कारण है कि उन्हें अपने भीतर कहीं न
मिथकों से समकालीनता का कुछ कुछ रिश्ता वे ‘वाजश्रवा के कहीं उस मनुष्यता का अभाव भी महसूस हो रहा था जिसके अभाव
बहाने’ में जोड़ते हैं। तब यह कृति मिथक को केवल मथती ही नहीं, में ऐसी सांप्रदायिकताएँ सिर उठा रही थीं। उन्होंने लिखा– अबकी
उसे आज के जीवन में किंचित उपजीव्य भी बनाती है। अगर लौटा तो मनुष्यतर लौटूँगा। सबके हिताहित को सोचता पूर्णतर
न केवल इससे भारत जैसे देश का अर्थशास्त्र व वाणिज्य लौटूँगा। (कोई दूसरा नहीं, पृष्ठ 9) यह वही दौर था जो कवि के
प्रभावित हो रहा था बल्कि विश्व का भी। उदारीकरण का लाभ शब्दों में भारत से महाभारत में बदल रहा था। वे लिखते हैं, ‘न
ही सच कहा जाए तो विकासशील देशों के बजट को सकारात्मक धर्मक्षेत्रे न कुरुक्षेत्रे’ सीधे सीधे चुनाव क्षेत्रे’ जीत की प्रबल इच्छा
रूप से प्रभावित करने वाला था। राजनीति में संप्रदायवाद नए सिरे से ‘इकट्ठा हुए महारथियों के ढपोरशंखी नाद से’ युद्ध का श्रीगणेश
से सिर उठा रहा था। इससे पहले देश में कांग्रेसी सरकारों की ‘दलों के दलदल में जूझ रहे’आठ धर्म अट्ठारह भाषाएँ, अट्ठाईस
प्रतिश्रुतियाँ व विफलताएँ हमारे सम्मुख थीं तथा ग़ैरकांग्रेसवाद की प्रदेश। (वही, पृष्ठ 69) यह विश्वास के खोने का दौर था जब उन्हें
मुहिम का समर्थन साहित्यकार भी कर रहे थे। पर उन्हें न पता एक कविता में लिखना पड़ा कि, ‘आज मैं शब्द नहीं’ किसी ऐसे
था कि कांग्रेस के विरोध में आई पार्टियों का गठबंधन भी बहुत आदमी की खोज में हूँ ‘जिसे आदमी में पा सकूँ।’ एक दूसरे अर्थ में
अस्थायी है। कांग्रेस के पराभव के बाद जनता पार्टी का खिचड़ी पूँजी फिर सत्ता में प्रभावी हो रही थी। पूँजी और सत्ता का गठजोड़
विप्लव हम देख चुके थे। एक नए तरह का राष्ट्रवाद राष्ट्रप्रेम के एक नए समीकरण तय कर रहा था जब कवि इस युग को इस तरह
रैपर में उभर रहा था और नब्बे आते आते एक तरफ विश्व व्यापार डिकोड कर रहा था कि ‘अगर तुम मालामाल हो’ तो हर आदमी एक
की खिड़की खोलने की मुहिम शुरू हो चुकी थी दूसरी तरफ देश बिकाऊ माल है ‘आज जबकि हर चीज़ का दाम सिर्फ़ बढ़ने की ओर
में राष्ट्रवाद का उफान जोर मार रहा था जिसे दक्षिणपंथी राजनीति है’ आदमी की कीमत में भारी छूट का शोर है। (वही,पृष्ठ 114)
का पूरा समर्थन था। इस मुहिम में बाबरी मस्जिद ध्वंस व राम जहाँ पूंजी और कारपोरेट घराने तेजी से बढ़ चले जाने और बाज़ार
मंदिर निर्माण की दुरभिसंधि संप्रदायवाद का एक नया मोर्चा खोल पर कब्जा जमाने की फ़िराक में थे, वहीं इस कर्ज़़खोर व्यवस्था को
रही थी। हिंदू वोटों का ध्रुवीकरण ऐसी राजनीति का उद्देश्य था तथा पहले से ही भांपकर कुंवर नारायण लिख रहे थे–
बाबरी मस्जिद का कायम रहना इस काम में बाधा प्रतीत होता था। मैं अस्वीकार करता हूँ
राम का सीधा विरोध न कांग्रेसी करते थे न दीगर पार्टियाँ। उन्हें रियायती दरों पर
भी इससे अपने वोटर गँवाने का अप्रत्यक्ष चिंता थी। लिहाजा 92 आसान किस्तों में
में बाबरी ध्वंस से हिंदू शक्तियों को उभरने का मौका मिल गया। अपना भुगतान। (वही, पृष्ठ 156)
बाबरी के ध्वंस को ही हिंदू राष्ट्रवाद की राह में एक बड़ी सफलता मुझे याद है कि कैसे ‘वाजश्रवा के बहाने’ पर समकालीन
मानने वाले दबे स्वरों में काशी मथुरा बाकी है का नारा भी दे रहे भारतीय साहित्य में छपने वाले लेख की चर्चा उनसे की थी तथा जब
थे, हालाँकि अभी यह इच्छा किसी विध्वंसक मुहिम का हिस्सा नहीं लिख कर सूचित किया कि इसका शीर्षक रखा है– ‘कविता के माथे

18 n जुलाई से सितंबर 2023 yegh


पर तिलक’ तो लगा वे इससे प्रसन्न होंगे लेकिन ऐसा कुछ था जो ही मानती थी। तथापि कुंवर नारायण जिनकी कविता ने कभी लाउड
उन्हें मथता रहा। मैंने सोचा यह उनके काव्य वैशिष्ट्य का उच्चतम होना तथा राजनीतिक प्रत्ययों के इस्तेमाल से राजनीतिक उद्देश्यों के
सूचकांक है, शायद उन्हें पसंद आए। किन्तु अगले दिन सुबह ही लिए खर्च होना कभी स्वीकार नहीं किया इस कविता से वे एक बार
उन्होंने टेलीफोन किया और कहा कि ओम, हो सके तो लेख का हिंदुत्ववादी चिंतकों के निशाने पर भी आए। लेकिन उनके सोचने
शीर्षक बदलवा दो। मुझे बात समझ में आ गयी और मैंने हाँ तो कर और लिखने का अपना नज़रिया था जो अप्रतिहत और अपरिवर्तनीय
दिया पर संपादक को परामर्श देने के बावज़ूद अंक प्रेस में होने के था।
कारण लेख तदनुकूल शुद्ध न हो सका। इस प्रसंग को मैंने 'कृते यदि 2002 में आई उनकी काव्यकृति 'इन दिनों'– शीर्षक से ही जैसे
न सिद्धयति कोत्र दोष' के खाते में डाल कर चुप रह गया तथापि, इन दिनों के हालात के जायज़े का संकेत देती जान पड़ती थी। गो
जब उन पर मेरी पुस्तक 'कुंवर नारायण : कविता की सगुण इकाई' कि उनकी कविता न तो कभी बयानबाजी में खर्च हुई न राजनैतिक
आई तो उसमें लेख का शीर्षक परिवर्तित किया। यह थी उनकी दृष्टि एजेंडे में। लेकिन 90 के बाद के दौर की सांप्रदायिकता, नफ़रत भरी
जो धार्मिक प्रतीकों को भी संशय की दृष्टि से देखती थी। तिलक कारगुजारियाँ, रथयात्राएँ, हिंदुत्ववाद के ध्रुवीकरण, देश के धार्मिक
शब्द उनके लिए ऐसा ही था। वे मज़हबी यक़ीनों की संकीर्णताओं सद्भाव के फैब्रिक को नष्ट करने की कोशिश उनकी निगाहों में थी।
में बँधे लेखक न थे। जिन लोगों के लिए वे धुर कम्युनिस्ट लेखक शायद यही सारी वज़हें थीं कि उन्हें एक अजीब सी मुश्किल जैसी
नहीं है, वे भी यह देखें कि एक ग़ैर कम्युनिस्ट किन्तु अपने समय का कविता लिखनी पड़ी जो कभी प्रेमरोग के नाम से छपी थी। पूरी
विचारक कवि कैसे धार्मिक प्रतीकों को मलिन मान कर उनके प्रयोग कविता शमशेर की कविता का राग की तरह हमारे भीतर ध्वनित
से बचना चाहता है और यह भी चाहता है कि उसके काव्य वैशिष्ट्य होती हुई हमारी प्रेमपूर्ण विरासत से हमें जोड़ती है। किस ख़ूबसूरती
पर ऐसे प्रतीकों का मोर मुकुट न सजाया जाए। से वे एक एक नफ़रत की इकाइयों को हमारे सम्मुख रखते हुए कहते
कुंवर नारायण की पहचान के साथ अयोध्या जुड़ा है जो राम हैं कि मैं भी चाहता कि इनसे नफ़रत करूँ पर क्या करूँ-
की जन्मभूमि कही जाती है तथा उनके अस्तित्व से शायद ही उन्हें आज भी यक़ीन नहीं होता कि वह जीवन द्रोही नहीं
इनकार रहा हो। कम से कम एक कवि-नायक के रूप में तो वे राम एक सच्चा गवाह था जीवन का
को जानते ही थे। तभी बाबरी प्रकरण के दिनों में उनके भीतर एक जिसने जाते जाते कहा था-कहां जाऊँगा छोड़कर
कवि की उद्विग्नता साँस ले रही थी। बाबरी विध्वंस के बाद लिखी इतनी बड़ी दुनिया को जो मेरे ही अंदर बसी है
उनकी कविता अयोध्या, 1992 खासा चर्चित हुई। कितने दुख से हजारों वर्षों से।
यह कविता उन्होंने राम को संबोधित करते हुए रची और लिखा– -यहीं रहूँगा -
इससे बड़ा क्या हो सकता है इसी मिट्टी में मिलूँगा इसी पानी में बहूँगा
हमारा दुर्भाग्य इसी हवा में साँस लूँगा, इसी आग से खेलूँगा
एक विवादित स्थल में सिमट कर इन्हीं क्षितिजों पर होता रहूँगा उदय-अस्त,
रहा गया तुम्हारा साम्राज्य इसी शून्य में दिखूँगा खोजने पर। (इन दिनों, पृष्ठ 18)
अयोध्या इस समय तुम्हारी अयोध्या नहीं 92 के बाद का विश्व भी युद्धोन्माद की ओर उन्मुख हुआ है।
योद्धाओं की लंका है अनेक देशों के बजट का आधा हिस्सा रक्षा मद में जाता है बाकी वे
मानस तुम्हारा चरित नहीं विश्व बैंक के कर्ज़ों पर जीवनयापन करते हैं। ऐसे में युद्ध का जो
चुनाव का डंका है! (कोई दूसरा नहीं, पृष्ठ 70) वातावरण पनपा और विकसित हुआ, परमाणु शक्तियों में होड़ की
उन्होंने इस नेता युग में राम से सविनय निवेदन किया कि प्रभु स्थिति जारी रही उसने तमाम देशों में परमाणु बम बनाने की लिप्सा
लौट जाओ। किसी पुराण–किसी धर्मग्रंथ में सकुशल सपत्नीक... जगाई। युद्ध ने अब धीरे-धीरे एक उद्योग की शक्ल ले ली है। ऐसी
अबके जंगल वो जंगल नहीं, जिनमें घूमा करते थे बाल्मीकि। (कोई स्थिति में कुंवर नारायण की कविता शांति वार्ता शिल्प में नागार्जुन
दूसरा नहीं, पृष्ठ 70) भूमंडलीकरण और धार्मिक उभारों के इस दौर की याद दिलाती हुई सांप्रतिक विश्व की मनोग्रंथि का पूरा हाल बयान
में यह एक बड़े कवि का बड़ा हस्तक्षेप था। हालाँकि इसी प्रसंग को कर देती है। क्या बेहतरीन शुरुआत है इस कविता की–
छूती हुई एक कविता नरेश सक्सेना की भी बहुत लोकप्रिय हुई जो अल्लाहो अकबर बिनती है भगवन
जय श्रीराम के नारे के नाम पर किए जा रहे हिंसक कारनामों का अगर दो तो अणुबम न ये गन न वो गन।
विरोध करती थी तथा बाबरी ध्वंस को सोमनाथ ध्वंस के समतुल्य लड़ाकू विमानम् न अन्नम् न वस्त्रम्

yegh जुलाई से सितंबर 2023 n 19


करें शास्त्र चर्चा मगर होड़ शस्त्रम् अभी भी बची है
अंत में वे लिखते हैं - एक जगमगाती द्वारिका
परमाणु बम बम तुम तुम न हम हम जिसमें रहता है कहीं
मिटाने औ मिटने में हम कम न तुम कम तुम्हारा वह पुराना सखा
न पश्चिम न पूर्वम नकारम भविष्यम् जिसके साथ तुम बचपन में खेला करते थे,
विस्टफोट सफलम् निराकार विश्वम्। और जो केवल एक खिलौना नहीं!
(कोई दूसरा नहीं, पृष्ठ 111) (हाशिए का गवाह, पृष्ठ 106)
यह विश्व में व्याप्त युद्धोन्माद की कविता है जिसका प्रतिबिम्ब कुंवर नारायण की हाल के वर्षों में जो डायरी प्रकाशित हुई है,
आज भी वैश्विक स्तर पर देखा व महसूस किया जा सकता है। बल्कि ‘दिशाओं का खुला आकाश’-इसे देखने पर पता चलता है कि उन्होंने
गत कोरोना विश्व महामारी के दौरान कुछ गुप्त प्रयोगशालाओं से 1987 से लिखे अपने डायरी-अंश इसमें डाले हैं। यानी यह 90 के
जैविक विषाणुओं के प्रसार का संदेह भी जताया गया जिससे पूरी तनिक पहले का ही दौर है लेकिन राजनीति में धर्म और धर्म में
विश्व मानवता हताहत हुई। करोड़ों लोग काल के ग्रास बने। अचरज राजनीति की घुसपैठ का भी यही दौर है जो नब्बे के बाद अपने प्रबल
नहीं कि अनेक ख़तरनाक जैविक विषाणुओं की प्रयोगशालाओं में आवेग में आ जाता है। राजनीति, धर्म, जाति, को अपनी अपनी तरह
आज भी क्या कुछ हो रहा है यह हमें नहीं मालूम, पर गए कोरोना से बांटने का काम करती है। वह वर्ण को उप वर्णों में, जातियों को
दौर में जिस तरह संदेह की सुई चीन जैसे देश और विश्व की उप जातियों में, धर्मों में हिंदू मुस्लिम सिख ईसाई में बांटने का काम
फर्मास्युटिकल कंपनियों पर अँटकी रही, वह अपने आप में भयावह कर रही है। यह विविधताओं का सुख लेना नहीं, उसके बिखराव
है। इस परिप्रेक्ष्य में कुंवर जी कविता सजगता से विश्व के देशों का सुख लेने वाली राजनीति है। राजनीति हर धर्म में एक कट्टरवादी
में बढ़ती परमाणु होड़ का एक खाका प्रस्तुत करती है, जैविक रवैये वाला वर्ग पैदा करने की रुचि दिखाती है जिससे द्वंद्व बढ़े और
विषाणुओं के प्रसार से नरसंहार की मुहिम उसका ही आधुनिकतम राजनीति मतों का अपने पक्ष में ध्रुवीकरण कर सके। कभी मध्ययुग
विस्तार है। में धर्म का बोलबाला और आतंक था, आज राजनीति ने यह स्वरूप
कहना न होगा कि भूमडं लीकरण और उदारीकरण के फलस्वरूप हासिल कर लिया है। (दिशाओं का खुला आकाश, पृष्ठ 13) कुंवर
में पूरी दुनिया में पूंजी पुन: प्रभुत्व ‍में आई है और इस बेलगाम पूंजी नारायण धर्म के उच्चतर मानवीय उद्देश्यों को महत्व देते हैं– आज
के साथ ही अनेक विकृतियाँ भी आईं। परिवारों में विघटन, भाईचारे के कर्मकांडी संकीर्णतावादी बनते जाने धर्म को नहीं। उनकी दृष्टि
में दरार, मैत्री में अलगाव इसी पूंजीवादी व्याधियों की देन है। में जिस देश में चिंतन व दर्शन की इतनी महान परंपराएँ रही हों
'द्वारिका में सुदामा' ऐसी ही उनकी कविता है जो कृष्ण और सुदामा वहां मंदिर मस्जिद गिरजाघरों आदि की क्या ज़रूरत। संत कवियों
की प्राचीन मैत्री के हवाले से आज की द्वारिका में कृष्ण की खोज में को अपने विचारों के प्रसार के लिए किसी मंदिर या मठ की ज़रूरत
आ पहुँचे सुदामा की खोज ख़बर लेती है। कवि पूछता है किस माया न पड़ी। यह काम धर्म को धंधे में बदलने वाली सत्ताओं ने किया।
नगरी में भटक रहे हो सुदामा? यह द्वारिका तो दिल्ली का एक छोटा याद रहे उनसे दो वर्ष छोटे किन्तु समकालीन रघुवीर सहाय
सा मुहल्ला है। यहाँ ऐसा कोई नहीं जो तुम्हें जानता हो। यहाँ एक जिनकी कविता राजनीतिक पृष्ठभूमि वाली रही है ने भी आज़ादी
तरफ बेदिल दिल्ली की बेरुखी का आलम है तो दूसरी तरफ आज के संदर्भ में यह सवाल पूछा था: राष्ट्रगीत में भला कौन वह भारत
के दौर में बदलते संबंधों का जायज़ा भी। कवि कल्पित सुदामा को भाग्य विधाता है। फटा सुथन्ना पहले जिसका गुन हरचरना गाता
देख द्वारपाल ठहाका लगाते हुए कहता है– है? कुंवर नारायण उस तरह से लोकतंत्र को प्रश्नांकित नहीं करते
कैसी बांसुरी? कैसा नाच? कौन गिरधारी? जिस तरह रघुवीर सहाय। कभी कभी ऐसा भी लगता है कि कुंवर
जिस महल को तुम भौचक खड़े देख रहे हो जी राजनीतिक मंतव्य देने से बचना चाहते हैं और तमाम भौतिक
वह तो उसका है राजनीतिक सामाजिक समस्याओं के बिलकुल बगल से होकर गुज़र
जिसकी कमर की लचकों में जाते हैं, कविता में उसकी छाया भी नहीं पड़ने देते। कुंवर जी 1927
हीरों की खान है में जन्मे, रघुवीर सहाय 1929 में, श्रीकांत वर्मा 1931 में लेकिन
बहुत भोले हो सुदामा, नहीं समझोगे इस कौतुक को... तीनों कवियों के मिज़ाज में कितना अंतर है। अकेली 'रामदास की
मत भूलो अपने गाँवों को हत्या होगी'-जैसी कविता कुंवर नारायण के यहाँ नहीं है। उनसे छः
जिनके विश्वासों की धूप-छाँह में कहीं सात साल बाद जन्मे धूमिल और कैलाश वाजपेयी और चार साल

20 n जुलाई से सितंबर 2023 yegh


बाद जन्मे श्रीकांत वर्मा में समकालीनता को लेकर जितना तीखापन अपनी एक कविता शिकायत में कि–
है, आवेग और आग है, वह कुंवर नारायण के यहाँ नहीं है। सिल सी किसी को अपना सही परिचय देकर
गिरी है स्वतंत्रता और पिचक गया है पूरा देश– शायद कुंवर नारायण ख़तरा मत उठाओ
नहीं कह सकते थे, इसे कैलाश वाजपेयी ही कह सकते थे। यहाँ हर जगह अपनी जेब का परिचय दो
तक कि संभव नहीं है कविता वह सब कह पाना जो घटा है बीसवीं अगर तुम मालामाल हो
शताब्दी में मनुष्य के साथ– यह भी केवल श्रीकांत वर्मा कह सकते तो हर आदमी एक बिकाऊ माल है
थे। यहाँ तक कि मोहभंग की जो छाया कविता में साठ के बाद दीख आज जबकि हर चीज़ का दाम सिर्फ़बढ़ने की ओर है
पड़ती है, उस छाया से भी कुंवर नारायण की कविता बहुत हद तक आदमी की कीमत में भारी छूट का शोर है।
अछूती रही है। इसका यह अर्थ है कि या तो वे कविता में किसी (कोई दूसरा नहीं, पृष्ठ 114)
भेड़चाल से बचना चाहते थे जिसका शिकार तब के अनेक कवि कुंवर जी सार्वभौम मानवीय चेतना के कवि थे। बहुपठित एव
थे या वे अपने समय, अपने समय की राजनीतिक वास्तविकताओं बहुश्रुत। किन्तु उनसे लिए गए साक्षात्कारों में शायद ही किसी ने
और भूमंडलीकरण के प्रभावों से दूर रह कर शाश्वत और सनातन भूमंडलीकरण, उदारीकरण एवं बाज़ारवाद के बढ़ते घटाटोप और
किस्म की कविताएँ लिखना चाहते थे। हम देखते हैं कि कुंवर जी उनकी कविता पर पड़े उनके प्रभावों पर सवाल पूछे हों या इसे लेकर
के काव्य काल में तत्कालीन विश्वयुद्ध से आगे का हताहत और किसी ने उनकी कविता को प्रश्नांकित किया हो। अधिकांश सवाल
युद्धोत्तर समय है, जिससे पूरा विश्व प्रभावित रहा है, आपातकाल राजनीतिक सवालों से कन्नी काटते, बाज़ारवाद, भूमडं लीकरण की
गुज़रा, खिचड़ी विप्लव का युग आया और गया, भूमडं लीकरण ने व्याधियों से अलग रास्ता अख्तियार करते नज़र आते हैं तथा बहुत
पांव पसारे, सांप्रदायिकता का बोलबाला बढ़ा, धर्मों, जातियों का निजी व शाश्वत किस्म में सवालों तक ही सीमित रह जाते हैं। ऐसा
राजनीतिक ध्रुवीकरण हुआ। ऐसे में उनकी कविता में जो इंदराज लगता है कि कुंवर जी के प्रति लेखकों में एक अजीब किस्म का
आने चाहिए थे, वे लगभग नहीं दिखते हैं या उनकी बहुत क्षीण डिफेंसिव रुख़ और आदरास्पद भाव काम करता रहा है जबकि अब
छायाएँ पड़ती हैं। ऐसा इसलिए भी हो सकता है कि कविता को समय आ गया है कि राजनीति या बाज़ारवाद या भूमडं लीकरण के
ऐसी तात्कालिकताओं से बचाना चाहते रहे हों। पर चाहे दलगत परिप्रेक्ष्य में कवियों की भूमिका पर चर्चा की जाए। अमरेंद्र नाथ
उपेक्षा के कारण या एक कवि के नाते भी जिस तरह श्रीकांत वर्मा त्रिपाठी द्वारा साहित्य के मूल्यांकन में राजनैतिक दृष्टिकोण की
ने मगध में कहा कि मगध में शासक नहीं रहे या कोसल में विचारों प्रश्नांकित भूमिका पर पूछे गए एक सवाल के उत्तर में कुंवर जी का
की कमी है जो कि शासक पर एक तीखे सवाल की तरह था, ऐसा कहना था कि साहित्य की उत्कृष्टता या श्रेष्ठता का सवाल उसकी
कुंवर नारायण के यहाँ नहीं दीख पड़ता। आपातकाल की छाया राजनीति से नहीं, उसकी साहित्यिक संवेदना और सोच समझ से
अशोक वाजपेयी की कविता पर न पड़े, यह तो समझ में आता है पर तय होगा। (जिये हुए से ज्यादा, कुंवर नारायण के साथ संवाद,
कुंवर जी की कविता पर न पड़े, यह समझ से परे है। कुंवर जी का पृष्ठ 184) यों तो कवि अपने को परिभू स्वयंभू मानता ही है पर
अपनी ही कविता का यह डिफेंसिव मेकेनिज्म कभी कभी असमंजस अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता फिर भी अनेक अवसरों पर बाधित होती
में डालता है। हालाँकि वे विचारधारा को अपनी कविता के लिए रही है। एक वह दौर भी था जब निर्वासन के शिकार जर्मन कवि
कभी ढाल नहीं बनाना चाहते थे, कवि के विचार को वे किसी भी ब्रेख्त को लिखना पड़ा, मैंने जितने ज्यादा जूते नहीं बदले, उससे
विचारधारा से सदैव ऊपर रख कर देखते थे। ज्यादा मुल्क बदले। हमारे देश में आपातकाल के दौरान अभिव्यक्ति
2003 तक आते आते कुंवर नारायण भूमंडलीकरण की पर सेंसर्स कायम किए गए। बाद के दिनों में कुछ कवियों को सच
कारगुजारियों को अपनी डायरी में दर्ज़ करते हैं–“21वीं सदी में बोलने की सजाएँ भी मिलीं– मृत्युदंड भी। कुंवर जी इन स्थितियों
प्रवेश करते करते यह यक़ीन पक्का हो चला था कि हम एक ऐसे से निश्चय ही विचलित होते रहे हैं पर वे कभी दलगत चिंतन के
युग में आ गए हैं जो पूरी तरह व्यावसायिक है। पूरी दुनिया एक वशीभूत होकर आक्रामक मुद्रा में नहीं आए न अपने लेखन में
बहुत बड़े अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में बदल गई है। कमाऊ और बिकाऊ उसकी आवेगधर्मी अभिव्यक्ति की। उसे शालीनता से पचाया तभी
के बीच इतनी कम दूरी बची है कि आदमी और चीज़ों के बीच फ़र्क कुछ कहा। पर कलाकार सीरज सक्सेना के एक सवाल के प्रत्युत्तर
करना मुश्किल हो गया है। दिन ब दिन छोटे होते जाते घर गृहस्थी में, कि चित्रकार एमएफ हुसैन के निर्वासन के बारे में आपकी क्या
और बड़े होते बाज़ार– शायद यही है हमारे समय की एक औसत राय है, उन्होंने कहा था, यह एक दुखद स्थिति है। पर यह भी कहा
तस्वीर।...” (वही, पृष्ठ 82) इससे बहुत पहले वे लिख चुके थे कि अभिव्यक्ति की आज़ादी का कायल हूँ लेकिन इस आज़ादी का

yegh जुलाई से सितंबर 2023 n 21


दुरुपयोग न हो। बोलने और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का दमन सवाल– में लिखा कि रात भर नारे लगते रहे कि आज़ादी मिले/
कभी भी नहीं होना चाहिए। (वही,पृष्ठ 92) संकेतों में उन्होंने कह रात भर मशालें जलती रहीं कि भेडिये भागें, रात भर इश्तहार बँटते
ही दिया कि आज़ादी का दुरुपयोग न हो। तो क्या एम एफ हुसैन रहे कि सुबह क़रीब है/ रात भर जुलूस निकलते रहे कि लोग जागें/
ने इस आज़ादी का दुरुपयोग किया। सवाल तो बनता ही है पर सुबह रात भर के जागे लोग थक कर सड़कों फुटपाथों पर सोये पड़े
तानाशाही इस बिना पर कलाकार का दमन करे यह उनकी दृष्टि में थे/ कैसी विडंबना है कि जब वे जागे/ उन पर गलत जगह गलत
उचित न था। बात अभिव्यक्ति की आज़ादी और सत्ता की निरंकुशता वक्त सोने का इल्जाम लगाया गया और जनता की सुविधा के लिए
पर आती है तो मुझे उनके आख़िरी संग्रह 'सब इतना असमाप्त' में रास्ता साफ कराया गया। अब सोने और जागने का पूरा संदर्भ बदल
संग्रहीत कविता ‘जितना ही खुश रखना चाहता हूँ’ का ध्यान हो चुका था–दीवारें बदल चुकी थीं–इश्तहार बदल चुके थे– (कोई
आता है। यह कविता दाभोलकर,पानसरे और कलबुर्गी की हत्या दूसरा नहीं, पृष्ठ 67)–
के बाद लिखी गयी है और इस आशय का नोट भी दर्ज़ है। पर पूरी यह भी आज़ादी की वेला है। आज़ादी के अमृत महोत्सव की
कविता जैसे एक उदास और हत्यारी धुन के साये में रची गयी हो। वेला है। स्वराज है। लोकतंत्र है। असहमति के उठे हुए हाथ के
नृशंस हत्याओं का रक्त स्वागत का वक्त है। पर कहीं न कहीं शब्दों में हिंसा नज़र आती
जल्दी सूखने से इनकार करता है, पूंजीजन्य विकृतियाँ नज़र आती हैं, सब कुछ एक तंत्र के अधीन
उसकी चिनगारियाँ दूर तक पहुँचतीं जाता हुआ दिखता है। सत्ता पर उंगली उठाने को अन्यथा लिया
हमें आक्रांत करता जाता है। ऐसी ही हताशा के समय कभी श्रीकांत वर्मा ने ‘मगध’ में
एक आदिम अँधेरा प्रत्याख्यान किया। उस दौर को इस रूप में चिह्नित किया कि ‘अनीति
होता जाता है गहरा पर चलते रहें और नीति की चर्चा बनाए रखें।’ कुंवर नारायण जी
और गहरा। (सब इतना असमाप्त, पृष्ठ 26) भी 2017 तक आज़ादी के इतने वर्षों के साक्षी रहे हैं, उस मोहभंग
कुंवर नारायण का प्रबंधकाव्य 'वाजश्रवा के बहाने' न केवल के भी जिससे होकर हमारी हिंदी कविता की परंपरा के अनेक स्वर
मिथक का आधुनिकतावादी प्रत्ययों के आईने में पुनर्वास है बल्कि निकले। फटेहाल लोकतंत्र का सबूत देती रहीं रघुवीर सहाय की
अनेक समकालीन परिदृश्यों में इस मिथकीय परिघटना का क्या कविताएँ तो कथित समाजवाद की धज्जियाँ उड़ाती रही धूमिल की
असर एक कवि पर पड़ता है यह भी इसका प्रमाण है। पीढ़ियों के कविताएँ। नेहरूवियन मॉडल प्रश्नों के घेरे में रहा। रंगभेद विरोधी
अंतराल और अंतर्द्वंद्व को समझने का यह मंच तो है ही, दो पीढ़ियों के अफ्रीकी क्रांतिकारी कवियों को पढ़ कर हिंदी कविताओं ने विरोध
बीच सुलह संजीवनी का प्रस्तावन भी है। प्राणियों के मध्य आत्मीयता का सलीका सीखा। आज परिदृश्य दूसरा है। नेहरू के विरोध का यह
का पुनर्वास भी है, उसकी प्राण प्रतिष्ठा भी है। भूमडं लीकरण और युग है पर सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का यह तथाकथित युग भी गांधारी हो
उदारीकरण के दौर ने न केवल हमारी जीवनदृष्टियाँ बदली हैं बल्कि चला है, अपनी आंखों पर पट्टी बांध न कुछ देखने की नीयत और
संबंधों को देखने के हमारे पुराने नज़रिये को भी छिन्न भिन्न किया तबीयत से मुक्त। ऐसे में क्या दिखेगा शासक को यदि वह आंखों पर
है। वे कह ही चुके हैं कि अगर आप मालामाल हैं तो हर आदमी पट्टी बांध ले और सचिवीय दृष्टि से उदारीकरण के फल को केवल
आपके लिए एक बिकाऊ माल है। ऐसे में उन्होंने जीवन दृष्टि में कुछ लोगों द्वारा खाया जाता हुआ देखे। विज्ञापनों के माध्यम से इस
विनम्र अभिलाषाओं के होने और बर्बर महत्वाकांक्षाओं के न होने देश और किसान मजदूरों की खुशहाली का जायज़ा लेकर रह जाए
की अभिलाषा भी व्यक्त की है और चाहा है कि निकट संबंधों के और बाज़ारवाद की आंधी में सब कुछ बिकाऊ होने के लिए छोड़
माध्यम से बोलता हो पास पड़ोस,और एक सुभाषित, एक श्लोक दे। वे एक टीप में कहते हैं–
की तरह सुगठित और अकाट्य हो जीवन विवेक। (वाजश्रवा के ‘मेरी इतिहास कविताएँ मोटे तौर पर अतीत या अतीत वैभव
बहाने, पृष्ठ 120) की कविताएँ नहीं हैं। कुछ चरित्रों पात्रों के माध्यम से भारत के
कभी धूमिल ने आज़ादी का मतलब पूछा था और ‘पटकथा’ में सांस्कृतिक वैचारिक और साहित्यिक परंपरा के उन जीवित स्पंदनों
इस आज़ादी को चीथड़े होते हुए देखा भी। ऐसी तल्खी कुंवर जी में को छूने की कोशिश हैं, जिन्हें आम तौर पर बड़े शासकों और
कभी नहीं रही। किन्तु वे अपने समकालीनों रघुवीर सहाय, सर्वेश्वर, विजेताओं की वंशावली के हाशिए में रख कर सोचा जाता है।
धर्मवीर भारती, केदारनाथ सिंह, विजय देव नारायण साही के मध्य (दिशाओं का खुला आकाश, पृष्ठ 104) कुंवर जी अपने साहित्य
अपनी अलग लीक खींचने के लिए प्रतिश्रुत रहे। इस आज़ादी को और कविता को राजनीति की व्याधियों से भरसक बचाना चाहते
उन्होंने भी अपनी तरह से अनुभूत किया और एक कविता– पहला थे। वे मिथकों में गए तो शायद इसीलिए कि वर्तमान की आंधी को

22 n जुलाई से सितंबर 2023 yegh


कविता में समेटने की व्याधि से बचे रहें। मिथक एक ऐसा शरण्य नारायण की कविता में ये तत्व झीने-झीने रूप में यत्र-तत्र दिखते हैं
भी है जहाँ होकर आप वर्तमान की थुक्का-फजीहत और सरलीकृत लेकिन उसे कविताओं के बीच में गुँथे कवि के सूक्मष्‍ मंतव्यों से ही
कविता के मलवे से बचे रह सकते हैं। वे क्लास के कवि हैं इसलिए समझा जा सकता है। अंत में पुन: कुंवर नारायण की डायरी का वह
उनके लिए पाठक कभी कोई समस्या नहीं रहा। वे आम पाठक के अंश याद आ रहा है जो कविता के आज के संकट और असमंजस
कवि भी नहीं हैं। इसलिए राजनीति में न वे कभी गहरे धँसे न उनकी को पूरी तौर पर कह देता है–
कविता ने अपने समय का कोई मुकम्मल और साहसिक पाठ संभव “आज की हिंदी कविता का एक प्रमुख स्वर वह संकट भी है,
किया। लोहिया और आचार्य नरेंद्रदेव के सान्निध्य में रह कर भी जिससे भारतीय जीवन गुज़र रहा है। राजनीति और समाज में नीचे
उनके भीतर की वैष्णवता कभी हतप्रभ नहीं हुई। वह अपने भीतर से ऊपर तक व्याप्त चारित्रिक पतन का दस्तावेज़़ है कविता, जो
मानवतावाद का विशद और समावेशी उद्देश्य सहेजे रही। उन्हें देख कभी न्याय तो कभी विडंबना, कभी त्रासदी तो कभी भर्त्स, कभी
कर हम किसी पक्ष विशेष का पैरोकार कवि नहीं कर सकते थे। आक्रोश तो कभी हताशा से देखती है अपने चारो तरफ। फिर भी
हाँ, मनुष्यता के पक्ष में एक नैतिक आग्रहों का कवि मान सकते थे यह सभ्यता, अध्यात्म और संस्कृति का गुणगान करते नहीं थकती।
जो कि वे थे भी। पर वे राजनीतिक आग्रहों के कवि कभी नहीं रहे। कविता को अक्सर लगता है कि आचरण और व्यवहार में आज यह
पर नब्बे के बाद के भारत और विश्व की उथल पुथल को वे अपने इतनी क्षुद्र और चरित्रहीन कैसे हो गयी कि मानो किसी भी नैतिक
अंत:करण से देखते पहचानते रहे किन्तु कविता में इन तत्वों को चुनौती का सामना करने में ही अक्षम हो।” (दिशाओं का खुला
बरतने का उनका अपना तरीका व लहजा था। वे किसी स्मार्टनेस आकाश, पृष्ठ 37)
की प्रत्याशा में न तो प्रश्नों का हड़बड़ी में उत्तर देते थे न अपनी कुंवर जी की कविता अपनी निजता, नैतिकता और शिल्प के
तहरीर को राजनीतिक एजेंडे से परिचालित मानते या बनाते थे। फिर प्रभुत्व को खोए बिना अपने वक्त की उथल पुथल, उदारीकरण,
भी उनकी कविता यह बताती है कि एक कवि की सरहद सीमातीत पूंजीवाद और ग्लोबलाइजेशन के संकटों और चुनौतियों से अपनी
है उसकी संवेदना ट्यूनिशिया के कुंए के जल की तरह हर कुंए के तरह से टकराती रही है जिसे आप अपने वक्त की ठंडी कविता कह
जल से वाबस्ता है, तथापि उसे किस हद तक अपनी हदों से बाहर कर भले मुँह सिकोड़ें किन्तु कुंवर जी के कवित्व, चिंतन और उसकी
राजनीति, धर्म या न्यायपालिका, कार्यपालिका में घुसपैठ की ज़रूरत रचनात्मक फलश्रुति का कवि विवेक ऐसा ही रहा है जो 'कर्कश
है। इस तरह कुंवर नारायण की कविता भूमंडलीकरण, उदारीकरण तर्क वितर्क के घमासान' से बचता हुआ वेदना और करुणा के साथ
कारपोरेट व पूंजी के घटाटोप के युग में भी उस हद तक अप्रभावित अपने युग का क्रिटीक और सुभाषित लिखता रहा है। उनकी कविता
रहती है जिस हद तक आम आदमी की सामान्य जीवनचर्या। लेकिन मध्यवर्गीय शिकायतों की आदत से लाचार कविता की सरणि से
वह जगह ब जगह जहाँ अवसर मिलता है अपनी खुशी नाखुशी बचती और वास्तव में वह पथ अख्तियार करती है जिस पथ पर
जाहिर करती चलती है। इसलिए उनके यहाँ स्त्री विमर्श, दलित कम कवि चलना स्वीकार करते हैं। राजनीति अपनी चाल चलती है,
विमर्श, अस्मिता विमर्श के रंग उतने चटख नहीं दिखते या उत्तर उनकी कविता अपनी चाल। उनका तो कहना ही रहा है कि राजनीति
भूमंडलीकरण की चोटों, व्याधियों या विशिष्टताओं के निशान उतने ने साहित्य के गुण नहीं अपनाएँ पर साहित्य राजनीति की व्याधियों
बड़बोले रूप में नहीं दिखते तो यह कुंवर नारायण की कविता का से दूर न रह सका। इसलिए भी उनकी कविता राजनीति के पीछे
अपना मिज़ाज है जो स्वयं में ही अनुशासित दिखता है और कोई नहीं भागती, उसका तफ्सरा नहीं करती, वह काम आम जनता या
तात्कालिक राय कायम करने के लिए किसी को बाध्य नहीं करता। न्यायिक संस्थाओं का है। कवि का काम वह है जो राजनीति के बूते
लेकिन उदारतावाद और पूंजीवादी विकृतियों और आधुनिकतावादी का भी नहीं। हां राजनीति चाहे तो उनकी कविता के दर्पण में अपना
रहन सहन के प्रभावों ने मनुष्य मनुष्य के बीच का फासला बढ़ा चेहरा निहार सकती है। लेकिन मुझसे कोई कहे कि कुंवर जी की
दिया। उसे सोशल मीडिया के ताने बाने में उलझाया किन्तु वह कविता को एक पद में उपनिबद्ध कर कहूँ तो कहना चाहूँगा– अरी
निजी संबंधों से विरत होता गया। समाज में प्रेम खत्म हो गया, रिश्ते ओ करुणा प्रभामय! n
क्षीण होते गए, दिखावा बढ़ता गया, भारतीयता के प्रति सच्ची समझ संपर्क : जी-1/506 ए, उत्तम नगर, नई दिल्ली
जाती रही, पश्चिम का पिछलगुआपन हमें आक्रांत करता रहा। कुंवर मो. 08447289976

yegh जुलाई से सितंबर 2023 n 23


n विरासत : केदारनाथ सिंह

कविता का लोकतंत्र
आशीष त्रिपाठी

केदारनाथ सिंह की कविताओं में गहरे स्तर पर जो गाँव छोड़कर शहर चला गया है और अपने साथ
पश्चिमी आधुनिकता बोध के साथ एक संघर्ष मिलता गाँव लेता चला गया है। वह रहता तो मुम्बई या दिल्ली
है– क्राफ्ट के स्तर पर भी और संवेदना के स्तर पर में है, लेकिन उसका गाँव नहीं छूटा है। वह महानगरीय
भी। ये कविताएँ औपनिवेशिक आधुनिकता से परे और शहरी नहीं हो पाया है। केदारनाथ सिंह ने गँवई
जाकर देशज संस्कारों की आधुनिकता निर्मित करने और विस्थापित गँवई लोगों के लोक से कविता को
की कोशिश करती हैं। इन कविताओं में अपने समय जोड़ा है। विस्थापित गँवई लोक वह सेतु हैं, जो शहर
और समाज को बहुत संजीदगी से रिस्पॉन्स करने को गाँव से बहुत गहराई से जोड़ देते हैं। बार-बार
का बोध है। इसी बोध के भीतर ये अपनी राजनीति तय करती हैं। उनकी स्मृति गाँव की तरफ जाती रहती है। ‘अकाल में सारस’ संग्रह
गहरे अर्थों में केदार जी की कविताएँ बिना मुखर हुए राजनीतिक की ‘चिट्ठी’ कविता इसकी सटीक बानगी पेश करती है। गाँव का नाम
कविताएँ है। ये कविता विरोध नहीं करती। तेज आवाज़ में, मुखर कवि को संभवतः स्मृति-लोक में ले जाता है और शहरी वर्तमान की
आवाज़ में नहीं बोलती हैं। केदार जी मुखरता और वाग्मिता का विडंबनाएँ मुखर होने लगती हैं। ‘गाँव’ और ‘शहर’ का वर्तमान
प्रायः प्रयोग नहीं करते, बावज़ूद इसके उनकी स्वाभाविक पक्षधरता अंतराल एक भयावह सच्चाई की तरह सामने आता हैः ‘शहर के उस
संघर्षरत साधारणजनों के प्रति है- यह बात सहज ही अनुभव की सबसे व्यस्त चौराहे पर/सबसे छिपाकर/मैं देर तक पढ़ता रहा/उस
जा सकती है। खाली-खाली चिट्ठी को/और सारी चिट्ठी में/गूँजता रहा/चीखता रहा/
केदारनाथ सिंह की विशिष्टता यह है कि उन्होंने इस संरचना को, बस एक ही शब्द/चकिया! चकिया!!/मुझे याद आई/एक और भी
जो आमतौर पर बुर्जुआ या ग़ैर प्रगतिशील कवियों द्वारा इस्तेमाल की चिट्ठी/जो बरसों पहले/मैंने दिल्ली में छोड़ी थी/पर आज तक/पहुँची
जा रही थी, बहुत ही शाइस्तगी और विनम्रता के साथ एक बड़े लोक नहीं चकिया।’ केदारनाथ सिंह गाँव से शहर में विस्थापित और
से जोड़ा। यह लोक किसी भी स्थिति में उस बुर्जुआ खाँचे के भीतर शहरी न हो पाये गँवई जनों की संवेदना के प्रतिनिधि हिंदी कवि हैं।
नहीं आ सकता था। टमाटर बेचने वाली बुढ़िया, कैलाशपति निषाद, उनकी ऐसी कविताओं के कारण परवर्ती पीढ़ी के कवियों को भी इस
शीत लहरी में फँसा बूढ़ा आदमी, गड़रिया, बढ़ई, बूढ़ा चौकीदार, मनोविज्ञान को प्रकट करने का साहस मिला है।
बंसी मल्लाह, लालमोहर, झपसी,जगदीश, रतन हज्जाम (झाँसी का केदारनाथ सिंह की कविता की संरचना पर बात करते हुए सबसे
पुल), रास्ता बनाने की बजाए ढेला फेंकने वाला बूढ़ा (रास्ता), पहले हमारा ध्यान इस तरफ जाता है कि वे मुक्त छन्द के कवि हैं।
थका हुआ बूढ़ा मल्लाह (मैंने गंगा को देखा) झुम्मन मियाँ (बिना केदारनाथ सिंह मुक्त छन्द के जिस शिल्प को उठाते हैं वह शिल्प,
नाम की नदी) ‘धूप में घोड़े पर बहस’ करते तीन जन, पानी में घिरे मूलतः हिंदी की बुर्जुआ कविता द्वारा, जिसे आमतौर पर कलावादी
हुए लोग, ‘जगरनाथ’ दुसाध, नूर मियाँ (सन 47 को याद करते कविता भी कहा जाता है, इस्तेमाल किया जाता रहा है। अज्ञेय,
हुए), सड़क पार करता आदमी (उस आदमी को देखो), अख़बार श्रीकान्त वर्मा और अशोक वाजपेयी -इसके तीन प्रतिनिधि कवि हैं।
वाले, दूधवाले, कुम्हार (सुबह हो रही है मैंने हवा से कहा) माँ, ये ग़ैर-प्रगतिशील कहे जा सकते हैं। जन-विरोधी नहीं। मेरी दृष्टि में
प्रेयसी, तुम बेटी और स्वयं ‘मैं’ इस लोक के हिस्से हैं। यह साधारण मनुष्य-विरोधी और समाज विरोधी कलावादी कविता हिंदी में नहीं
जनों का लोक है। निरंतर काम में लगे लोगों का लोक। इसका है। प्रगतिशीलता विरोधी ये कवि जनता के दु:ख दर्द और संघर्षों
प्राथमिक आधार गँवई समाज है वह जो आज गाँवों में रह रहा है और को कविता में प्रकट करने और जन-संघर्षों और जनांदोलनों में

24 n जुलाई से सितंबर 2023 yegh


शामिल होने को उचित नहीं मानते। ये शासक वर्गों की सांस्कृतिक के कछार-सा/एक सपाट चेहरा’ अनेक रूप धर लेता था- ‘नाचते
अभिरुचियों के ज्यादा निकट हैं और ज्यादातर मामलों में शासक हुए बन जाता था/कभी घोर पियक्कड़/कभी वर की खामोशी/कभी
वर्गों की राजनीति पर कोई टिप्पणी नहीं करते। ये ‘राजनीति’ घोड़े की हिनहिनाहट/कभी पृथ्वी का सबसे सुन्दर मूर्ख।’ ये सारे
को साहित्येतर वस्तु मानते हैं। इन सीमाओं के बावज़ूद ये कवि चेहरे अंततः जीवन को ही प्रकट करते थे। अभिनेता द्वारा धरे गये
निर्णायक मौकों पर लोकतंत्र का समर्थन करते रहे हैं। सांप्रदायिक होने के बावज़ूद ‘ये सारे चेहरे सच थे।’ इनकी सच्चाई का कारण
हिंसा, सांप्रदायिक नरसंहार और राज्य नियंत्रित हिंसा का साथ देने इनके पीछे हुई यातना थी : ‘सारे चेहरे हँसते थें एक गहरी यातना
वाला कोई कलावादी घराना हिंदी में नहीं है। में’। हँसी और गहरी यातना का युग्म बेहद अर्थगर्भी है। सामंतवादी
स्वतंत्रता की आकांक्षा से उपजे सामाजिक संघर्ष को एक शोषण चक्र में पिछले सीमांत किसान, भूमिहीन मजदूर, खेती पर
और कविता बहुत अद्भुत तरीके से व्यक्त करती है। यह कविता निर्भर शिल्पी औपनिवेशिक दासता के युग में पूँजीवादी विकास
है -‘भिखारी ठाकुर’। यह उनके कविता संग्रह ‘उत्तर कबीर और के दौरान औद्योगिक मजदूर के रूप में विस्थापित हुए। ये ‘गहरी
अन्य कविताएँ’ में संकलित है। यदि भारतीय समाज में जनतंत्र की यातना’ में जी रहे थे। यह ‘यातना’ ‘तोड़ती पत्थर’ की मजदूर स्त्री
आकांक्षा का एक रूपक बनारस है तो एक दूसरा रूपक इस कविता की विवशता की वंशज है-‘जो मार खा रोयी नहीं’। भारतीय जनता
में है। भिखारी ठाकुर भोजपुरी के एक बड़े नाटककार, अभिनेता, की जिजीविषा और संघर्षशीलता उसे यातना से लड़ने की शक्ति
संगीतकार और एक थियेटर कंपनी के संचालक थे। अपने नाटकों देती है। भिखारी ठाकुर की कला ‘अपने मुखौटे के खिलाफ’ ‘गहरी
में उन्होंने खास तौर से पूरबिया लोगों के अनेक तरह के दुःखों यातना’ में भी ‘हँसने’ से बनती है। भिखारी ठाकुर औपनिवेशिक
को व्यक्त किया। भिखारी ठाकुर क्रान्तिकारी नहीं थे। समाज को शोषण के विरुद्ध खड़ी भारतीय लोक कला के प्रतिनिधि चेहरे के
आमूल-चूल बदलने की वैज्ञानिक चेतना उनमें नहीं थी। उनके रूप में सामने आते हैं।
नाटक अंततः सामंती सामाजिक आदर्शों का गान करते हैं। बावज़ूद औपनिवेशिक दासता के ख़िलाफ़ खड़े स्वतंत्रता संघर्ष के विशिष्ट
इसके उन्होंने अपने नाटकों के भीतर पूरबिया मजदूरों के जीवन के ऐतिहासिक संदर्भ कविता की अर्थ-भंगिमाओं को विश्वसनीय बनाते
बुनियादी प्रश्नों को उठाया। हमारे समय में भिखारी ठाकुर भारत हैं। बीसवीं सदी के प्रारम्भ में किसानों के संघर्ष स्वतंत्रता आंदोलन
में औपनिवेशिक शोषण को आवाज़ देने वाले नाटककार के रूप को एक नया आयाम दे रहे थे। चम्पारण का किसान आंदोलन
में उभरे हैं। उन्होंने पूँजीवादी विकास के कारण हुए गँवईजनों के इसका प्रतीक है : ‘महात्मा गाँधी आकर/लौट गये थे चम्पारन से/
विस्थापन की मानवीय त्रासदी को ‘करुणा’ के पुरातन मानवीय भाव और चौराचौरी की आँच पर खेतों में पकने लगी थीं/जौ गेहूँ की
में व्यक्त किया है। केदारनाथ सिंह की यह कविता भिखारी ठाकुर बालियाँ/पर क्या आप विश्वास करेंगे/एक रात जबकिसी खलिहान
पर है- आज़ादी के बाद की प्रतिनिधि हिंदी कविताओं में एक। समाज में चल रहा था/भिखारी ठाकुर का नाच/तो दर्शकों की पाँत में एक
की अन्तरात्मा की सामूहिक मुखरता कविता की शांत संरचना में शख्स ऐसा भी बैठा था/जिसकी शक्ल बेहद मिलती थी महात्मा
प्रभावशाली तरीके से व्यक्त हुई है। यह कविता भिखारी ठाकुर के गाँधी से’। यह कविता का जादू है। जो जीवन में नहीं घट सकता
बहाने पुरबिया जनों के औपनिवेशिक शोषण और उपनिवेशवाद- कविता में घट जाता है।
विरोधी स्वातंत्र्य संघर्ष को कलात्मक ढंग से व्यक्त करती है। अनेक बार केदारनाथ सिंह की कविता के बारे में कहा जाता है
इस कविता में केदारनाथ सिंह की कविता की ज्यादातर ख़ूबियाँ कि उनकी कविता में वह वर्गीय दृष्टि नहीं मिलती है जो मुक्तिबोध
एक साथ देखी जा सकती हैं। प्रारम्भ में केदार जी भिखारी ठाकुर और नागार्जुन की कविता में है। इस दृष्टि से ‘बनारस’ कविता को
की कला और उनके अभिनय के बारे में संकते करते हैं– ‘सिर्फ़ वे पढ़ा जाना चाहिए। कविता का एक बड़ा हिस्सा ‘बनारस’ शहर की
नाचते थे और खेलते थे मंच पर वे सारे खेल/जिन्हें हवा खेलती है सांस्कृतिक और सामाजिक विशिष्टता को बेहद काव्यात्मक भंगिमा
पानी से/या जीवन खेलता है/मृत्यु के साथ।' अभिनय अंततः जीवन में प्रकट करता है। धार्मिक जनों और दुनिया भर के पर्यटकों के लिए
की कला है। भारतीय अभिनय में जीवन जगत अपनी सम्पूर्णता में आकर्षण का केन्द्र यह ‘महान पुराना शहर’ कवि के लिए अनंत
खिलता है। भारतीय परंपरा अभिनय में प्रकृतता और वास्तविकता शवयात्रा का शहर है: ‘इसी तरह रोज-रोज एक अनन्त शव/ले
के अनुकरण की यूरोपीय मान्यताओं का अनुगमन नहीं करती। जाते हैं कन्धे/अँधेरी गली से चमकती हुई गंगा की तरफ’। बनारस
यहाँ अभिनय एक खेल है। उसमें नट की कला का भी समावेश है। की संरचना में तेजी और तीखापन नहीं है। यहाँ सब कुछ धीरे-धीरे
नेमिचंद्र जैन ने इसे उचित ही अभिनटन कहा है। केदार जी उचित होता है: ‘इस शहर में धूल धीरे-धीरे उड़ती है/धीरे-धीरे चलते
ही संकते करते हैं कि अभिनय-प्रक्रिया में भिखारी ठाकुर का ‘सरजू हैं लोग/धीरे-धीरे बजते है घंटे/शाम धीरे-धीरे होती है।’ बनारस

yegh जुलाई से सितंबर 2023 n 25


का जीवन इस ‘धीरे-धीरे होना’ से बँधा है-‘धीरे-धीरे होने की से इसी तरह/गंगा के जल में/अपनी एक टांग पर खड़ा है यह शहर/
एक सामूहिक लय दृढ़ता से बाँधे है समूचे शहर को इस तरह कि अपनी दूसरी टांग से/ बिलकुल बेख़बर।’ केदारनाथ सिंह का यह
कुछ भी गिरता नहीं है।’ यह लय जहाँ अतीत की पुरातनता को रूपक केवल बनारस पर लागू नहीं होता। यह समूचे भारत पर लागू
बचाये रखती है, वहीं एक तरह की यथास्थिति को प्रोत्साहित करती होता है। और पूरी दुनिया पर भी। ये दुनिया ‘अपनी एक टांग पर खड़ी
हैः ‘कि हिलता नहीं है कुछ भी/कि जो चीज़ जहाँ थी' वहीं पर है अपनी दूसरी टांग से बिलकुल बेख़बर’। वर्ग-विभाजित समाज में
रखी है/ सैकड़ों बरस से।’ शायद यह लय सामाजिक संरचना में दो वर्ग शरीर में दो टाँगों की तरह हैं। अभावग्रस्त, वंचित, कामगार,
प्रभावशाली सामंतवादी सामाजिक-आर्थिक संरचना की उप-उत्पाद किसान, मजदूर, दलित, स्त्री और आदिवासी-भारतीय समाज की
है। यथास्थितिवादी शक्तियाँ इससे नवजीवन प्राप्त करती हैं। वे ‘दूसरी टाँग’ हैं। भारत में वर्ग-विभाजन सिर्फ़ आर्थिक स्तर पर नहीं
सामाजिक परिवर्तनों को पूरी ताक़त लगाकर रोकती हैं। इसमें सबसे समझा जा सकता। यह ‘वर्ण’ और ‘जाति’ की ताक़तवर सामाजिक-
प्रभावशाली भूमिका धर्म-तंत्र की है। बनारस का सामाजिक जीवन धार्मिक संस्थाओं का सहारा लेकर सामाजिक संरचना की रगों तक
‘धर्म-तंत्र’ से नाभिनाल बद्ध है। केदार-रंग के बिम्बों और प्रतीकों मौज़ूद है। शूद्र वर्ण– वस्तुतः सर्वहारा वर्ग ही है। इसकी अनेक
का इशारा साफ है : ‘कभी सई-साँझ/बिना किसी सूचना के/घुस जातियों को ताक़तवर धर्म-तंत्र के कारण छुआछूत की भयानक
जाओ इस शहर में/कभी आरती के आलोक में/इसे अचानक देखो/ सामाजिक घृणा का सदियों तक सामना करना पड़ा है। आर्थिक
अद्भुत है इसकी बनावट/यह आधा जल में है/आधा मंत्र में/आधा विषमता के शिकार जन तो सभी वर्गों और जातियों में रहे हैं, परंतु
फूल में है/आधा शव में/आधा नींद में है/आधा शंख में/अगर ध्यान आर्थिक, धार्मिक और सामाजिक सभी तरह की असमानता के शिकार
से देखो/तो यह आधा है और आधा नहीं है/जो है वह खड़ा है/ शूद्र ही हुए हैं। भारतीय समाज विशेष रूप से गाँव वर्गीय-यथास्थिति
बिना किसी स्तम्भ के/जो नहीं है उसे थामे हैं/राख और रोशनी के का भयानक आईना हैं। हजारों साल से हमारे गाँवों के भीतर सुख
ऊँचे-ऊँचे स्तम्भ/आग के स्तम्भ/और पानी के स्तम्भ/धुएँ के/खुशबू है, समृद्धि है, ऐश्वर्य है, विलासिता है, भोग है, स्वर्ग है और उसी
के/आदमी के उठे हुए हाथों के स्तम्भ।’ आरती का आलोक, जल, गाँव में एक दक्खिन टोला है जिसे पानी और हवा का भी हक़ नहीं।
मंत्र, फूल, शव, शंख, राख और रोशनी के स्तंभ, आग और पानी प्रेमचन्द की कहानी ‘ठाकुर का कुआँ’ और अंशुल त्रिपाठी की कविता
के स्तंभ, धुआँ, खुशबू और आदमी के उठे हुए हाथों के स्तंभ- इन ‘दक्खिन टोला’ को याद करना उचित होगा। उत्तर भारत में दलितों,
प्रतीकों और बिम्बों का संकेत धर्म-तंत्र और धार्मिक अनुष्ठानों तथा शूद्रों और अछूतों की बस्तियाँ दक्खिन दिशा में बसाई जाती हैं। क्यों?
पंरपराओं की ओर है। केदार जी की यह काव्य-पंक्ति धार्मिक और क्योंकि जितनी हवाएँ बहती हैं, या तो पूरब से बहती हैं या पश्चिम
सामाजिक संरचना की ओर बेहद अर्थगर्भी और मार्मिक संकते करती से। दलितों से अनंत घृणा करने वाला स्वर्ग-वासी समाज उन्हें पूरब
है-‘यह आधा है और आधा नहीं है।’ कविता के प्रारंम्भ में भी इसी या पश्चिम में बसने नहीं देता। इन दिशाओं में बसेंगे तो उनकी बस्ती
ओर एक प्रभावशाली संकते मौज़ूद है-‘जो है वह सुगबुगाता है/जो से होकर आयी हवा गाँव में बहेगी जिसके आधे हिस्से में स्वर्ग है और
नहीं है वह फेंकने लगता है पचखियाँ।’ ‘है’ और ‘नहीं है’ का खेल आधे में रौरव नर्क। आधुनिक विकास, आज़ादी और लोकतंत्र के
एक वर्चस्वशाली धर्मतंत्र द्वारा निर्मित है। ‘जो है वह खड़ा है/ बिना बावज़ूद यह वर्ग-विभाजन आज भी भारतीय समाज की कठोर सच्चाई
किसी स्तंभ के।’ जो है– वह अपनी ताक़त और जीवनी-शक्ति से है। ‘बनारस’ कविता का दो टाँगों का रूपक भारतीय समाज का एक
खड़ा है। ‘जो नहीं है’, उस ‘अनुपस्थित’ को थामने और खड़ा रखने केन्द्रीय रूपक है। ‘बनारस’ कविता सामाजिक जनतंत्र की गहरी
के लिए ‘राख और रोशनी’, ‘आग और पानी’, ‘धुएँ और खुशबू’ आकांक्षा को अभिव्यक्त करती है।
तथा सबसे अधिक ‘आदमी के उठे हुए हाथों के स्तंम्भ’ सदियों से केदारनाथ सिंह की कविताओं से गुज़रते हुए हम सहज ही लक्षित
काम कर रहे हैं। यह ‘अनुपस्थित’ ईश्वर भी है और मृत लौकिक कर सकते हैं कि वे ‘देखने’ के कवि हैं। उनकी कविता में चाक्षुष-
व्यक्ति भी। स्वर्ग भी है और मोक्ष भी। अगले जन्म में सुखमय सौंदर्य की खोज साफ देखी जा सकती है। उनके इन्द्रियबोध में सुनने,
जीवन की आकांक्षा भी। समूची धर्म-सत्ता इस ‘अनुपस्थित’ को सूँघने और छूने की बजाए देखने पर जोर है। उनकी कविताओं में
सबसे शक्तिवान बनाकर उसके व्यापार में लगी है। जबकि ‘जो है’, दृश्य-बिम्बों की अधिकता को उचित ही पाठक और आलोचक
अर्थात जिसकी उपस्थिति प्रत्यक्ष है-प्रकृति और मनुष्य, बिना किसी सहज ही लक्षित करते रहे हैं। केदारनाथ सिंह को यथार्थवाद से
सहयोग के खड़ा है। एक खास तरह का परहेज है, खासतौर पर वह ‘यथार्थवाद’ जो
‘बनारस’ में इस ‘अनुपस्थित’ सत्ता को सदियों से अर्घ्य अर्पित काव्यात्मकता में गहरी दिलचस्पी उन्हें प्रगीत से विरासत में मिली
किया जा रहा है : ‘किसी अलक्षित सूर्य को/देता हुआ अर्घ्य/शताब्दियों है और इसके लिए उन्होंने प्रगीत से एक रचनात्मक संवाद निरंतर

26 n जुलाई से सितंबर 2023 yegh


बनाये रखा है। आधुनिक कविता में ‘प्रगीत’ का महत्व और प्रभाव की आत्मा और देह में ज्यादा विस्तार से फैला हुआ नहीं दीखता,
समय के साथ कम होने के बावज़ूद केदार जी प्रायः ‘प्रगीत’ को वहाँ भी उसकी उपस्थिति निरंतर बनी रहती है। निबंधात्मक कविता-
‘कविता’ में जगह देते रहे हैं। अनेक बार तो आभास होता है कि वाक्य से परहेज करने वाले केदार जी ‘सादृश्य’ जैसी कविता की
मुक्तछंद की संरचना में उन्होंने एक लयहीन प्रगीतात्मकता की खोज सबसे पुरानी प्रविधि को गहरे विश्वास और निज-उपकरण की तरह
की है। उनकी कविता ने प्रगीत के सत्व को सोख लिया है। उनकी प्रयोग में लाते हैं। ये सादृश्य साधारण इतिवृत्तात्मक वर्णन को कविता
कविता की आत्मा में प्रगीत की आत्मा जज्ब है। उनकी 1967 की की आभा से भर देते हैं और कविता भरे थनों वाली गाय की तरह हो
एक कविता ‘तुम आयी’ इसका सटीक उदाहरण है– जाती है। अर्थ, अभिप्राय और इंगित से भरी।
तुम आयीं पके हुए ज्वार के खेत की तरह लगता है
जैसे छीमियों में धीरे धीरे माँझी का पुल
आता है रस ----
जैसे चलते चलते एड़ी में उधर घास में धँसे हुए खुर-सा
काँटा जाए धँस चमक रहा था रास्ता
तुम दिखीं ----
जैसे कोई बच्चा वह रोटी में नमक की तरह प्रवेश करता है
सुन रहा हो कहानी ----
तुम हँसी लाल पत्थर की तरह लग रही थी ज़मीन
जैसे तट पर बजता हो पानी ----
तुम हिलीं उसके सामने घोड़े की पीठ की तरह
जैसे हिलती है पत्ती फैली हुई थी ज़मीन
जैसे लालटेन के शीशे में ज़मीन सिर्फ़ ज़मीन की तरह लग रही थी
काँपती हो बत्ती! जीवन-जगत की वास्तविकताओं को देखे गये दृश्यों और
तुमने छुआ घटनाओं के बराबर मानता हुआ उनके यथातथ्य वर्णन-चित्रण
जैसे धूप में धीरे-धीरे पर एकांतिक जोर देता है। हू-ब-हू वर्णन जहाँ यथार्थवाद का
उड़ता है भुआ एकमात्र और निर्णायक लक्षण हो-ऐसे यथार्थवाद के प्रति उनमें
कोई दिलचस्पी नहीं है। जीवनानुभव हमें जिस तरह मिल जाते
और अन्त में हैं-उन्हें अपने ठोस रूपों में ज्यों का त्यों रख देना केदार जी को
जैसे हवा पकाती है गेहूँ के खेतों को कविता के लिए उचित नहीं लगता। वे ‘अनुभव’ के ‘कविता’ में
तुमने मुझे पकाया रूपांतरण के हामी हैं। यह काव्यांतरण उनके लिए कविता होने
और इस तरह की बुनियादी शर्त है। काव्यांतरण की इस प्रक्रिया में ‘अनुभव’ का
जैसे दाने अलगाये जाते है भूसे से ‘वस्तुगत’ होना जितना महत्वपूर्ण है, उससे ज्यादा महत्वपूर्ण है
तुमने मुझे ख़ुद से अलगाया। उसका काव्यात्मक होना। केदारजी की काव्यात्मकता में गहरी रुचि
‘जो एक स्त्री को जानता है’ में ‘अनुभव’ प्रगीतात्मक संरचना में है। थिर और गहरी। स्वातंत्र्योत्तर काव्य-परिदृश्य में गद्यात्मकता
विन्यस्त है। यह वस्तुतः एक प्रेम कविता है, जिसमें अलगाव की थिर की प्रभावशाली उपस्थिति होने के बावज़ूद। निबंधात्मकता से हीन
उदासी है और स्मृतियों की जबर्दस्त उथल-पुथल भरी ऊष्मा। ‘सूर्य’, कविता-वाक्य रचना उनके लिए कविता-प्रक्रिया का ज़रूरी हिस्सा
‘आत्मचित्र’, ‘बनारस’ जैसी कविताओं में यह प्रगीतात्मकता कविता है। शायद यही वह पहलू है, जिससे उन्होंने मुक्तिबोध के बाद के
का प्राण है, औैर कविता की पूरी देह में फैली है। इसके समानांतर काव्य-परिदृश्य में अपनी विशिष्ट पहचान बनायी है। n
‘ज़मीन’, ‘जल-हँसी’, ‘अपनी छोटी बच्ची के लिए एक नाम’, ‘हम संपर्क : प्रोफेसर, हिंदी विभाग
जो सोचते हैं’आदि कविताओं में ‘प्रगीत’ कम जगह घेरने के बावज़ूद काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी
निर्णायक और प्रभावकारी ढंग से उपस्थित है। ‘प्रगीत’ जहाँ कविता मो. 9450711824

yegh जुलाई से सितंबर 2023 n 27


n विरासत : अजित कुमार

मामूली जीवन के स्वीकार और निस्संगता के कवि


विभास वर्मा

अजित कुमार ने साहित्य में कदम उस समय रखा हम लिखेंगे :


था जब शीतकालीन सांस्कृतिक युद्ध का असर हिंदी चाँदनी उस रुपये-सी है
के काव्य जगत पर पड़ना शुरू हो चुका था और नई कि जिसमें
कविता प्रगति और प्रयोग के नाम से चिह्नित दो ध्रुवों चमक है, पर खनक ग़ायब है।
में बाँटकर देखी जाने लगी थी। कवियों को उनकी हम कहेंगे ज़ोर से :
कविता में अभिव्यक्त विचार से ज्यादा उनकी काव्येतर मुँह घर-अजायब है।
प्रतिबद्धताओं के आधार पर श्रेणीबद्ध और मूल्यांकित (जहाँ पर बेतुके, अनमोल, ज़िन्दा और मुर्दा भाव
किया जाता रहा। ऐसे में जो कवि अपनी काव्येतर प्रतिबद्धताओं रहते हैं।)
को लेकर बहुत अधिक मुखर नहीं थे, अतएव जिनके श्रेणीकरण अजित कुमार के पहले कविता-संग्रह ‘अकेले कण्ठ की पुकार’
में दिक्कतें होती थीं, उनके लिखे पर अधिक तवज्जो नहीं दी गई। के शीर्षक को देखकर ही कई लोग इन्हें व्यक्तिवाद का समर्थक
इस स्थिति का ख़ामियाज़ा जिन कवियों को भुगतना पड़ा है, उनमें समझते रहे जबकि इस कविता में स्पष्ट रूप से कवि स्वीकारता
अजित कुमार भी हैं। है कि “नूतन ज़िन्दगी लाने/नई दुनिया बसाने के लिए/मेरा अकेला
अजित कुमार को हिंदी साहित्य के इतिहास की पुस्तकों में कण्ठ-स्वर काफ़ी नहीं है।” और गुहार लगाता है–“इसलिए तुम
अक्सर प्रयोगवाद या नई कविता के कवियों के रूप में याद किया भूलकर वैषम्य सारे–/ ताल-सुर-लय का नया संबंध जोड़ो/ ओ
जाता है। कवि के रूप में लगातार (1958 में उनका पहला कविता- प्रगतिपन्थी! जरा अपने कदम इस ओर मोड़ो।” नई कविता में
संग्रह आया और आख़िरी 2001 में, इस बीच उनके 5 और संग्रह प्रगतिशील धारा से भिन्न कवियों पर अस्तित्ववाद से प्रेरित होकर
आए) सक्रिय रहने के बावज़ूद उन्हें याद किया गया तो प्राय: उनके निराशा, अनास्था, कुंठा आदि मूल्यों का समर्थक होने की बात कही
गद्य को लेकर ही। मात्र 25 वर्ष की आयु में अपने पहले कविता- जाती रही है। अजित कुमार की कविता में शायद ही जीवन के प्रति
संग्रह ‘अकेले कंठ की पुकार’ से चर्चा में आए अजित कुमार को कहीं निराशा या कुंठा का भाव दृष्टिगोचर होता हो। उनकी कविता
और ज्यादा प्रसिद्धि उनके रचना-संग्रह ‘अंकित होने दो’ के अज्ञेय में प्राय: जीवन के प्रति एक स्वीकृति, एक उत्साह और बहुधा एक
द्वारा संपादित होने पर मिली। अजित कुमार के कवि और गद्यकार शिशुसुलभ कौतूहल का भाव आरंभ से ही मिलता है जिसे अज्ञेय
दोनों रूपों का परिचय इस संकलन से मिला था। अजित कुमार को ने भी ‘अंकित होने दो’ की संपादकीय भूमिका में लक्षित किया
आरंभ में प्रयोगवादी समझा गया और साहित्येतिहास की किताबों में था–“अजित कुमार की रचनाओं का मूल भाव एँग्री यंगमैन का नहीं
अक्सर अज्ञेय की ‘उपमान मैले हो गए हैं’ की धारणा का समर्थन है। बल्कि उसमें एक भोलापन और निश्छलता है जिसे शिशुपाल भी
करती उनके पहले संग्रह की कविता 'कवियों का विद्रोह' के माध्यम कहा जा सकता है। अजित कुमार की सहजता में यही विशेषता है
से पहचाना गया– कि उसका वयस्कता से विरोध नहीं है। … चाहे तो यह भी कह सकते
चाँदनी चंदन सदृश : हैं कि यह भोलापन एकसाथ विनोद और कारुण्य को जगाता है…।”
हम क्यों लिखें? इस टिप्पणी की पृष्ठभूमि कदाचित् ‘मेले में’ जैसी उनकी उस
मुख हमें कमलों-सरीखे कविता से बनी हो जो उनके काव्य-व्यक्तित्व के साथ उसी तरह
क्यों दिखें?

28 n जुलाई से सितंबर 2023 yegh


चस्पाँ है जैसे भवानी प्रसाद मिश्र के काव्य-व्यक्तित्व के साथ रंगों के बदले– फीके, मटमैले धब्बे।
‘गीतफरोश’– वह एक तमाशा था …
“…सम्मुख होकर जो भी आया है, और गया भी है, लेकिन
बांधा है उसने मुझको, वह हर बार नया भी है। उलझी-सुलझी रस्सियाँ,
मैं चकित-भ्रमित हो आँखें फाड़े देखे लेता हूँ, बांस गांठोंवाले …
भीतर का सब उल्लास-लास देता हूँ, देता हूँ… कुम्हलाये हुए फूल-पत्ते…
यह जीवन मुझको हर्षित करता है, सारे का सारा आसपास
मानें : बेहद आकर्षित करता है। जो दिखता है बेहद उदास :
मामूली खेल-तमाशों में खोया रह जाता हूँ, यह भी तो एक तमाशा है।”
कुछ गाता हूँ– रचना-प्रक्रिया की दृष्टि से अजित कुमार नई कविता की उस
टूटे-फूटे स्वर में कुछ गाता हूँ– प्रविधि का अपनी रचनाओं में आद्यंत पालन करते रहे जिसे नामवर
क्या जाने कब की सुनी हुई लय को दुहराता हूँ, सिंह ने ‘कविता के नए प्रतिमान’ में कहा था कि “…छायावादी काव्य-
इस प्रौढ़, परिष्कृत, सभ्य, सुसंस्कृत रचना की प्रक्रिया जहाँ भीतर से बाहर की ओर है, वहाँ नई कविता
जलसे में, संभव है, कच्चा हूँ … की रचना-प्रक्रिया बाहर से भीतर की ओर है। एक में रूप पर भाव
फिर कहता– दुनिया के मेले में केवल बच्चा हूँ का आरोपण है दूसरी में रूप का भाव में रूपांतरण है।” अज्ञेय और
इसलिए बहुत ख़ुश हूँ, साही का हवाला देते हुए उन्होंने साबित किया था कि यह प्रक्रिया
सच मानें : बहुत-बहुत ख़ुश हूँ।” बाह्य वास्तविकता के साथ पुराने पड़ चुके रागात्मक संबंधों के
अजित कुमार की कविताओं या कहना चाहिए उनके पूरे रचना- कारण नए कवि ने ‘रागात्मक संबंधों की प्रणालियों’ को बदलकर
कर्म पर दुनिया के मेले में बच्चे के इस रूपक में बच्चे जैसा होने की वास्तविकता के साथ पुन: संबंध जोड़ने के लिए अपनाई। यह ‘भाव
प्रतीकात्मकता से ज्यादा दुनिया के मेले में होने की प्रतीकात्मकता के रूप-ग्रहण की (छायावादी) चेष्टा’ न होकर “…रूप के भाव-ग्रहण
अधिक खरी उतरती है। उनकी कविताओं में आने वाली दुनिया की चेष्टा है। दूसरे शब्दों में “‘तथ्य’ का सहसा अर्थ से आलोकित
पूरी तरह ‘दुनियावी’ (mundane) है। अधिकांश कविताएँ हो जाना है। जाने हुए का ‘पहचाना’ हुआ हो जाना है।” कुल
चिन्तनपरक होते हुए भी गंभीर दार्शनिकता या आध्यात्मिक मुद्राओं मिलाकर “…नई कविता में जिस प्रकार रूप भाव ग्रहण करता है, तथ्य
से रहित हैं। शिशुवत समझे जाने के पीछे एक कारण यह भी रहा सत्य हो जाता है और अंतत: अनुभूति निर्वैयक्तिक हो जाती है, उससे
हो। दुनिया या जीवन के प्रति उनका आकर्षण अंत तक बना रहा है, स्वयं कविता की ‘संरचना’ में भी गहरा परिवर्तन आ जाता है।”
कई बार इसकी निरर्थकता की पहचान करते हुए भी– अजित कुमार की कविताएँ इसलिए आरंभ से ही अपनी संरचना में
“सारा मेला है उजड़ चुका, ‘नई’ जान पड़ती हैं जबकि उनके अधिकांश समकालीन-समवयसी
बस, एक अकेले हमीं खड़े। कवियों की शुरुआती कविताओं पर छायावादी या उत्तर-छायावादी
जिस जगह बड़ा सा घेरा था, प्रभाव मिलते हैं। अज्ञेय ने लक्षित किया था कि “उनके स्वभाव
केवल कुछ गड्ढे शेष रहे। में आधुनिक संवेदना के तत्त्व हैं जिनके आधार पर उन्हें ‘नया’
सुलगती लकड़ियाँ, राख और कहना संगत जान पड़ता है।” (भूमिका, अंकित होने दो) इस ‘नई’
मैले पन्ने, उतरे छिलके : संवेदना को अजित कुमार की कविताओं के संबंध में थोड़ा और
जो यही पूछते-से लगते- स्पष्ट करने की ज़रूरत है।
‘रे, कौन यहाँ पर आया था? उनकी कविताओं में शिशुवत कौतूहल, जीवन के प्रति सकारात्मक
यह किसका रैन-बसेरा था? भाव और ग़ैर-आध्यात्मिक चिंतनपरकता के बारे में थोड़ी-थोड़ी
यह उजड़ा मेला चर्चा ऊपर की गई है। एक दृश्य या स्थिति या तथ्य को भाव या
उखड़े हुए नशे जैसा, विचार में रूपांतरित कर उससे कवि-सत्य निकालने की भी बात
सारे मोहक़ आकारों के सौ-सौ टुकड़े। उनकी अधिकांश कविताओं में देखी जा सकती है। यह ग़ौरतलब
सब आकर्षक ध्वनियाँ– है कि ये दृश्य, स्थिति या विचार अक्सर जीवन के रोजमर्रेपन से
अब केवल ‘भाँय-भाँय’। लिये गए हैं। इस रोजमर्रेपन में मामूली, लघु और गर्हित की अधिक

yegh जुलाई से सितंबर 2023 n 29


उपस्थिति है। लेकिन ये किस तरह अपनी उपस्थिति में किसी तथ्य पर
को एक दुचित्ते सत्य की ओर उनकी कविता में ले जाते दिखते हैं, फूल वह तितली मय हो चुका था।
‘घोंघे’ संग्रह की ही ‘रूपाकार’ कविता को देखें– झरी पँखुरी एक : तितली।
लुजलुजे होते हैं जो फिर दूसरी भी : तितली।
रच ही लेते हैं वे प्रायः फिर सबकी सब : तितली।
कोई न कोई कवच छूछ
ँ ें वृन्त पर बाक़ी
आत्मरक्षा के लिए। बची ख़ुश्की जो : तितली।
जहाँ-जहाँ जीव है
वहाँ-वहाँ काया, कोमलता
गोकि अंतिम क्षण तक
जहाँ काया यह बताकर ही गई :
वहाँ जीवन भी हो, 'मैं वहाँ भी हूँ,
कोई ज़रूरी नहीं। जहाँ मेरी कोई ज़रूरत नहीं। '
अजित कुमार को एक ‘नये’ कवि कहना इसलिए भी उचित है
मुमकिन है– क्योंकि उनके रचना-संसार में गाँव, पारिवारिकता, मानवीय रिश्ते
वहाँ केवल चूना, कोयला, किसी अलग रूप में न आते हुए भी इनको लेकर कवि की दृष्टि में
पत्थर, गारा हो। एक नयापन नज़र आता है। उनके यहाँ स्त्री-पुरुष संबंधों पर कई
एक घोंघे की नैसर्गिक आत्मरक्षा में निहित जिजीविषा के वर्णन कविताएँ मिलती हैं। इनमें विभिन्न और कई बार परस्पर विरोधी
से शुरू होती यह कविता अपनी परिणति की ओर जाते हुए एक स्थितियों में स्त्री और पुरुष (अक्सर पुरुष ‘मैं’ की भूमिका में रहता
विरोधी विचार प्रस्तुत करते हुए एक उदास निस्सारता की ओर है) के संबंधों का चित्रण और उसमें आधुनिक जीवन-स्थितियों
पर्यवसित होती है। जीवन में निहित यह विरोधी द्वैत उनकी और कई की विडंबनाओं की पहचान की गई है। इस संदर्भ में उनकी ‘आठ
कविताओं में मिलता है– औरतें’, ‘वही आठ औरतें’, तथा ‘फिर से आठ औरतें’ को देखा
मेरे साथ जुड़ी हैं कुछ मेरी ज़रूरतें जा सकता है जो तीन अलग-अलग संग्रहों में मिलती हैं। पारिवारिक
उनमें एक तुम हो। संबंधों में पिता और माँ के लिए मार्मिक कविताएँ उन्होंने लिखीं।
चाहूँ या न चाहूँ : ख़ास तौर पर माँ पर लिखी उनकी यह कविता भारतीय परिवार में
जब ज़रूरत हो तुम, औरत की मन:स्थिति का एक बेटे की निगाह से किया गया ऐसा
तो तुम हो मुझ में तटस्थ किंतु बेहद मार्मिक अंकन है–
और पूरे अन्त तक रहोगी। वे हर मंदिर के पट पर अर्घ्य चढ़ाती थीं
इससे यह सिद्ध कहाँ होता कि तो भी कहती थीं–
मैं भी तुम्हारे लिए 'भगवान एक पर मेरा है। '
उसी तरह ज़रूरी। इतने वर्षों की मेरी उलझन
अभी तक तो सुलझी नहीं कि–
देखो न! था यदि वह कोई तो आख़िर कौन था?
आदमी को हवा चाहिए ज़िन्दा रहने को
पर हवा तो रहस्यवादी अमूर्तन? कि
आदमी की अपेक्षा नहीं करती, छायावादी विडंबना? आत्मगोपन?
वह अपने आप जीवित है। या विरुद्धों के बीच सामंजस्य बिठाने का
यत्न करता एक चतुर कथन?
डाली पर खिला था एक फूल,
छुआ तितली ने, 'प्राण, तुम दूर भी, प्राण तुम पास भी!
रस लेकर उड़ गई। प्राण तुम मुक्ति भी, प्राण तुम पाश भी। '
उस युग के कवियों की
30 n जुलाई से सितंबर 2023 yegh
यही तो परिचित मुद्रा थी से अधिक निस्बत रखती हैं। उनका यह चयन सचेत है। अति-
जिसे बाद की पीढ़ी ने गंभीरता की तरह वे विद्रोही मुद्राओं से भी परहेज़ करते दिखते हैं।
शब्द-जाल भर बता काफ़ी दूर तक उनकी जीवन की अवांछित स्थितियों को नापसंद
ख़ारिज कर दिया...! करते हुए भी वे उसका स्वीकार करते हैं। वे कहते हैं– “ठेकेदारों,
कौन जाने, सूदखोरों, बिचौलियों, एकाधिपतियों, कालेबाज़ारियों, रिश्वतखोरों,
हमारा ध्यान कभी इस ओर भी जाए सत्ताधारियों, नौकरशाहों, मन्त्रियों, दलबदलुओं की विष-बेल ने इस
कुछ सच्चाइयाँ शायद वे भी हो सकती हैं देश का रस चूसकर इसे खोखला बना देने की भरपूर कोशिश की है।
जो ऐसी ही किन्हीं यहाँ तक कि व्यंग्य-आलोचना, विरोध-प्रतिरोध के तमाम हथियार
भूल-भुलइयों में से गुज़रती हुई भोथरे प्रतीत होने लगे हैं। उलटे, इन हथियारों की बची- खुची धार
हमारे दिल-दिमाग पर दस्तक देने बार-बार आएँ। का प्रयोग उन लोगों के ख़िलाफ़ किया जाने लगा है, जो ग़रीब हैं,
मामूलीपन को वे कई बार एक काव्य-मूल्य की तरह बरतते मज़दूर हैं, छोटे किसान हैं, बेसहारा हैं, शासित हैं, भूख़े-नंगे हैं,
हुए नज़र आते हैं। अपने एक कविता-संग्रह की भूमिका में उन्होंने निरक्षर हैं, बेघर-बेज़मीन हैं, कुल मिलाकर एक शब्द में कहें कि
लिखा है– “इन्हें मैंने एक मामूली व्यक्ति की भाँति, मामूली बातों जो ‘देश’ हैं। सत्ता और पूँजी ने देश में व्याप्त उदासीनता, भाग्यवाद,
को मामूली भाषा में व्यक्त करने के लिये लिखा था और मामूली हताशा और भुखमरी का फ़ायदा उठाकर विद्रोह को भी मानो अपने
लोगों के लिए ही इनमें, हो सकता था, तो कोई अर्थ हो सकता था। पक्ष में कर लिया है।
ग़ैर-मामूली लोग– तनाव, संत्रास, सृजनात्मक भाषा, प्रतिबद्धता, फलत: विद्रोह या तो शान्त पड़ जाता है, या समझौता कर लेता
दुरूहता की ऊँची दुनिया में ही सदा रहने वाले ऊँचे-ऊँचे लोग इनमें है या अपने ही पक्ष को दगा देता है।”
शायद कुछ भी न पा सकेंगे।” अति-गंभीरता से वे बचे हैं। वे कहते अक्सर सोचते हैं लोग : आपने, जी हाँ, आपने क्या किया?
हैं– “कविता को लेकर खिलवाड़ मैंने कभी नहीं किया। उसे मैंने पाते हैं गालियाँ।
सदैव एक गंभीर वस्तु समझा और जाना है। यह बात दूसरी है कि वही तो। आपने गालियाँ दीं–जो रचना के सम्भ्रान्त नाम से
उसे किसी बड़ी ऊँची गंभीरता का रूप देने से मैंने बचने की कोशिश चलतीं
की। अति गंभीरता की मुद्रा मेरी रुचि-प्रकृति के अनुकूल न थी। … आगे अपनी स्थिति स्पष्ट करते हुए वे कहते हैं– “प्रश्न किया
बहुत बार अभिव्यक्ति के सीधी-सपाट हो जाने का ख़तरा उठाकर जा सकता है कि यदि विद्रोह स्वीकृत नहीं तो यथास्थिति ही स्वीकृत
भी मैंने इस उद्देश्य को बनाए रखने की कोशिश की है कि जो भी क्यों हो? वस्तुत:, स्वीकार का अर्थ मेरे लिये सबकुछ का स्वीकार
लिखूँ, वह किसी-न-किसी स्तर पर सहजगम्य हो सके।”मामूली है, यथास्थिति मात्र का नहीं, विद्रोह का भी स्वीकार। यह मुद्रा उस
जीवन-स्थितियाँ कई बार जुगुप्सामूलक होकर भी उनके कविता में व्यक्ति की है, जिसने जीवन को उसकी पूर्णता तथा स्फुटता में
एक सकारात्मकता के साथ व्यक्त हुई हैं जिसे ख़ास तौर पर उनके ग्रहण करना और उससे किंचित निस्संग रहना चाहा है।” लेकिन
‘घोंघे’(1996) संग्रह में देखा जा सकता है– ‘वर्षारम्भ की रात में’ तथा ‘औरतें’ जैसी कविताओं में वे एक
घोंघा है कीड़ा एक वंचितों या औरतों के पक्ष में तयशुदा रूप में खड़े दिखते हैं। कहना
गिजगिजा, गंदा, गीला, घिनौना। न होगा कि ऐसी कविताएँ उनके यहाँ विरल ही हैं। उनका अपना
शंख है उसी का घर- क्षेत्र व्यक्तिपरक ही बना रहा।
शुभ्र, सुदृढ़, मंगलमय, पवित्र। हिंदी कविता में अजित कुमार एक विनम्र उपस्थिति के रूप में
सक्रिय रहे। समय बीतने के साथ उनकी गद्य-रचनाओं को अधिक
जीवन वहीं मक़बूलियत हासिल हुई। लेकिन उनकी कविताएँ एक आधुनिक
जहाँ परस्पर विरोध। सकारात्मक मानस की अनुभूतियों और प्रफुल्ल पर जटिल जीवन
सामाजिकता विरोधी न होते हुए भी अजित कुमार की कविताएँ को स्वीकार कर भी उससे निस्संग अभिव्यक्तियों के रूप में अपना
व्यक्तिपरक हैं। दलीय या सत्ता-परिवर्तन की राजनीति वाली स्थान बनाए रखेंगी। n
कविताएँ उनके यहाँ शायद ही मिलेंगी। लेकिन ऐसा नहीं कहा जा संपर्क : – प्रोफेसर, हिंदी विभाग
सकता कि उनकी कविता सरोकार रहित है। हाँ, उनके सरोकार देशबंधु कॉलेज, दिल्ली वि.वि., दिल्ली
समाज में व्यक्ति के आचरण और उसके उपागम के बदलाव मो. 9968281417

yegh जुलाई से सितंबर 2023 n 31


n विरासत : विजेंद्र

जनपद जनशक्ति और जनवाद


उमाशंकर सिंह परमार

विजेन्द्र प्रगतिशील लोकधर्मी कविता के अगुवा कविता में प्रकृति के बेहतरीन बिम्ब हैं विजेन्द्र के
कवि थे उन्होंने मार्क्सवादी विचारधारा को न केवल काव्य में प्रकृति की मार्मिक छवियाँ उनके और प्रकृति
कविता में अपितु आलोचना, चित्रकला, जीवनी, के बीच विद्यमान सामाजिक परिवेश का हिस्सा हैं
नाट्यगीतों आदि का भी आधार बनाया। मार्क्सवाद विजेन्द्र जहाँ भी रहे वहाँ की प्रकृति व समाज से
का सौन्दर्यशास्त्र रचा, विजेन्द्र प्रगतिशील जनपदीय कभी पृथक नहीं रहे आत्मसात करके रहे हैं इसलिए
चेतना के बड़े कवि थे उनकी गणना केदारनाथ बनारस से लेकर धामपुर गाँव भरतपुर जयपुर गुड़गाँव
अग्रवाल, त्रिलोचन, नागार्जुन, शील, कुमारेन्द्रपारस सब उनकी कविता में।
नाथ सिंह, मानबहादुर सिंह जैसे कवियों में होती है। विजेन्द्र लय विजेन्द्र निपुण चित्रकार रहे मार्क्सवादी विचारों से अनुप्राणित
और अन्तर्लय का अपनी कविता में सन्निवेश करते हैं और लय को होना एवं सर्वहारा और जन की पक्षधरता ने उनको चित्रकार बना
कविता के लिए बेहद ज़रूरी मानते हैं। जिस तरह त्रिलोचन लय से दिया। दर असल यह रचना प्रक्रिया का मामला है कविता में हम
कभी अवमुक्त नहीं हो सके विजेन्द्र भी कभी लय से मुक्त नहीं रहे। कितनी कोशिश कर लें विचार अमूर्त रूप में सामने आते हैं जब
उनकी कविताओं में त्रिलोचन जैसी ही लय की विविधता है प्रयोग हम घटना और पीड़ाबोध की मूर्त विचारों में व्यख्या करना चाहते
है और पुराने छन्दों का नया संस्कार है इस संदर्भ में वे त्रिलोचन हैं तब कविता की रचनात्मक बाध्यताएँ उसे भाषा के आवरण में ही
का भी अतिक्रमण कर जाते हैं। इसमें कोई शुबहा नहीं कि जब अभिव्यंजित करने की छूट देती है। कविता की अपनी काव्यभाषा
भी आधुनिक कविता में लय की बात होगी विजेन्द्र शीर्ष में रहेंगे। होती है वही भाषा चीज़ों को मूर्त करती है। जब पीड़ाबोध गहरा
विजेन्द्र लोक की संरचनाओं को अपनी कविता की वस्तु बनाते हैं हो कवि के अन्तःकरण में वैचारिक उथल-पुथल चल रही हो तब
उनके कविता संग्रह धरती कामधेनु से प्यारी में संकलित कविताओं भाषा भी अपर्याप्त हो जाती है कवि जो चाहता है वह काव्यभाषा
में मुर्दा सीने वाला, चैत की लाल टहनी में अपने दाम्पत्य व संगी में नहीं अँट पाता लिहाजा विजेन्द्र ने स्पष्ट और सटीक अभिव्यक्ति
साथियों पर, घना के पाँस, ये आकृतियाँ तुम्हारी, बसन्त के पार, के लिए चित्र का सहाय लिया और उन्होंने वे भाव जो भाषा में नहीं
दूब के तिनके, ढल रहा दिन, आँच में तपा कुन्दन, बनते मिटते पाँव व्यक्त हो सके रंग और रेखाओं की आड़ी-तिरछी आकृतियों में
रेत में, जनशक्ति, क्रोंच वध, ऋतु का पहला फूल, बेघर का बना अभिव्यक्त किया। उनके चित्रों का एक संग्रह 'आधी रात के रंग'
देश आदि ऐसे कविता संग्रह हैं जिनमें विजेन्द्र की लोक संरचनाओं प्रकाशित है। इस कृति में चित्र और कविता का संवाद है। चित्र में
को देखा परखा जा सकता है। कवि और चित्रकार के अतिरिक्त जो भावभूमि दर्ज़ है वही भावभूमि कविता में भी दर्ज़ है। विजेन्द्र
विजेन्द्र के व्यक्तित्व का एक पक्ष और है जो बहुत कम लोग के चित्र लोक व सर्वहारा की पक्षधरता का प्रमाण हैं लोक और
जानते हैं। वह स्नेहिल सरल व ईमानदार, आत्मीयता पूर्ण व्यवहार सर्वहारा के जीवन की तमाम कठिनाईयों और संघर्षों व हताशा
के लिए जाने जाते थे उनसे जो मिला है वह उनके व्यक्तित्व के पराजय, सत्ता और समाज में ताक़तवर हो चुकी बुर्जुवा शक्ति के
इस पक्ष परिचित हैं। जिस तरह कविता के लिए रचनात्मक रूप अत्याचार को प्रदर्शित करते चित्र आज़ादी के बाद के हिन्दुस्तानी
से समर्पित रहते थे उसी तरह कवियों लेखकों के लिए आत्मार्पित आवाम का उसकी मनोरचना का सही रेखांकन करते हैं तमाम
रहते थे। विजेन्द्र घुमक्कड़ थे भरतपुर पक्षी विहार बहुत घूमते थे संघर्षों और टकरावों के बावज़ूद भी उम्मीद का रहना उनके हर
प्रकृति के ख़ूबसूरत स्थल उनको पसंद थे। यही कारण है उनकी एक चित्र में हैं। वह कभी चिड़िया के रूप में कभी गहरे लाल रंग

32 n जुलाई से सितंबर 2023 yegh


कभी पुष्प के रूप में उम्मीद का प्रस्तुतीकरण करते हैं।
विजेन्द्र के लिए काव्य कर्म महज भावाभिव्यक्ति नहीं है यह
सर्वहारा और लोक की चेतना का परिष्कार है इसलिए उन्होंने
लोक को कभी आरामगाह नहीं माना वह संघर्ष भरा रचनात्मक
दायित्व है उनकी कविता है 'कविता का प्रश्न' यह कविता उनके
कविता संग्रह 'ये आकृतियाँ तुम्हारी' में संग्रहीत है। इस कविता में
उन्होंने कविता के दायरे और विस्तार का निर्धारण किया है उन्होंने
लिखा है– 'मैं अब अंगरक्षकों को पहनकर नहीं रह सकता/ नहीं
रह सकता/ यह एक शर्त है/ कविता सबसे पहले यह प्रश्न उठाती
है/ अब आदमी की पहचान मिट रही है/ शत्रु को पहचानो/ रचना
आँख है' इस कविता में शत्रु की पहचान करने के लिए कविता
आँख का काम करती है अर्थात् वर्गों मे विभाजित और प्रभु वर्ग के
द्वारा चौतरफा शोषण से घिरे आम आदमी को वर्ग चेतना से लैस
करना अर्थात शत्रु पहचानने की क्षमता देना कविता का काम है।
मैं समझता हूँ कविता स्वयं क्रान्ति नहीं करती और जो लोग कविता
में ही क्रान्ति करते हैं वह नारेबाजी और पोस्टरबाजी करते हैं।
कविता का काम है जन लोक और सर्वहारा को वर्गचेतन करना।
अपनी लम्बी कविता रुक्मनी में वो लिखते हैं– 'मैं हूँ जनतन्त्र का सर्वहारा की अपरिमित शक्तियों का उनके जीवन का उनके संघर्ष
कवि/ दूर हूँ दरबार से' यह उनके कवित्व का और कविताई का का विस्तार से वर्णन करते हैं इस कविता में लोक को शिक्षित करते
मेनीफेस्टो है। वे जन के कवि हैं इसलिए न तो सत्ता के दरबारी हुए संघर्ष हेतु तैयार रहने की बात कहते हैं। विजेन्द्र ऐसे कवियों
मनोरंजन और सत्ता के विचार सत्ता के शौक और चेतना से उनका का प्रतिरोध भी करते हैं जिन्हे मेहनतकश किसान मजदूरों और
कोई लगाव नहीं है। जन के लिए कविता है। जन के प्रति ऐसी आदिवासियों से नफ़रत है गाँव की धूल मिट्टी से परहेज है। विजेन्द्र
आस्था विजेन्द्र की अनेक कविताओं में देखी जा सकती जन को किसान को ही लोकनायक बना देते हैं 'जो उगाता है खेत को
समर्पित जन आस्था उनको अपने समकालीनों से पृथक पायदान कमाकर/ वही है नायक लोक का। यह लोकनायक कविता उनके
पर खड़ा कर देती है। कविता संग्रह 'बनते मिटते पाँव रेत में' कविता संग्रह में संग्रहीत
विजेन्द्र आदिवासी और किसानों मजदूरों मे अपना नायक है। किसानों के जीवन का विजेन्द्र पर गहरा प्रभाव है वे किसान
खोजते थे। यही है जन आस्था। इस संदर्भ में उनकी लम्बी कविता को जन और लोक का हिस्सा मानते हैं। प्रतिरोध और संघर्ष की
'बिरसा मुण्डा' पढ़ने लायक है यह कविता उनके कविता संग्रह जिस तरह शक्ति वह आदिवासी समुदाय में देखते हैं वही शक्ति
'भीगे डैने वाला गरुड़' में संग्रहीत है। इस कविता में आदिवासी वह किसान में देखते हैं। किसान आन्दोलनों से उन्हें सहानुभूति है
समुदाय के जीवन बिम्ब और उनकी संघर्ष चेतना का गहराई से और आन्दोलन को कुचलने वाली सत्ता शक्ति से उनका विरोध
विवेचन है और साथ ही आज के समय में बिरसा मुण्डा जैसे लड़ाकू है। अपने कविता संग्रह बुझे स्तम्भों की छाया में संग्रहीत अपनी
जननायक की ज़रूरत भी रेखांकित करते हैं 'जलाओ जलाओ वह कविता 'लोकतन्त्र की जड़ें गहरी हो रही हैं' में वो लिखते हैं 'वे
आँच/ जो जलाई थी/ छोटा नागपुर के पठारों पर/ पेड़ों पर पड़ते तुम्हारी लाठियाँ, गोलियाँ, अश्रुगैस के गोले/ कई बार देख सह
कुल्हाड़ों की आवाज़ें/ धड़धड़ाते पहियों की चमक/ चीरती वनों चुके हैं/ तुम्हे डर है ये सारे लोग/ जलती मशालें न बन जायें/
के सन्नाटे को/ नहीं सुनता कोई बिना चीखे/बिना मुट्ठी बाँधे ताक़त हजारों उग्र होते किसानों के हाथ न बन जायें।' किसानों के शोषण,
नहीं आती'। इस कविता में आदिवासी समुदाय की संघर्ष चेतना कर्ज़ और उनके विस्थापन व बेदखली पर विजेन्द्र ने ख़ूब लिखा
का लोमहर्षक वर्णन है। विजेन्द्र की मान्यता है संघर्ष के बग़ैर है। वह भारतीय किसान की हालत और उसके पीछे काम कर रही
समतामूलक समाज की, शोषण विहीन समाज की स्थापना नहीं नीतियों व सत्ता और पूँजी के अनैतिक गठजोड़ पर प्रहार करते हैं।
हो सकती और यह संघर्ष आम जन को करना होगा, सर्वहारा को इस संदर्भ में उनकी लम्बी कविता 'करिया अहिरवार' पढ़ने लायक
करना होगा। विजेन्द्र अपनी लम्बी कविता जनशक्ति में जन और है। यह किसान बुन्देलखण्ड का है यह कविता 2009 की लिखी

yegh जुलाई से सितंबर 2023 n 33


धरती कामधेनु से प्यारी और कठफूला बाँस तो लम्बी कविताओं
वर्ष 2006 में विजेन्द्र के दो काव्य नाटक
प्रकाशित हुए एक अग्नि पुरुष, और द्वितीय का ही संग्रह है और धरती कामधेनु से प्यारी में लम्बी कविताओं
क्रौंच वध दोनो क्रमशः महाभारत और की संख्या काफ़ी है। धरती कामधेनु से प्यारी में तमाम चरित्र हैं
रामायण को उपजीव्य बनाते हैं। अग्नि पुरुष तमाम परिवेश हैं उनके संघर्ष हैं त्रासदी है और पीड़ाबोध के साथ
का प्रसंग महाभारत के खाण्डव वन दहन का साथ संगठित होकर जनशक्ति के संघर्ष का आवाहन है। धरती
है। नायक अग्निपुरुष अर्जुन और कृष्ण से को विजेन्द्र कामधेनु कहक़र मनुष्य की हर एक ज़रूरत का स्रोत
वन दहन की अनुमति लेता है वह कहता है मैं कहते हैं धरती के प्रति और धरती को कमाकर उससे अन्न उपजाने
भूख़ा हूँ। मगर देवराज इन्द्र जल वर्षा करके वाले किसान के प्रति उनका असीम अनुराग परिलक्षित होता है।
मेरी आग बुझा देते हैं। यहाँ विजेन्द्र अग्निपुरुष कठफूला बाँस वास्तविक यथार्थ की सार्थक जनवादी परिणति
को शोषित भूख़े श्रमशील जन के रूप मे है। विजेन्द्र को गाँव और जंगल की प्रकृति आकर्षित करती है
चित्रित किया है जो जिसे देवराज इन्द्र जैसे इस कविता की शुरुआत भी मल्लाहों के गाँव से होती है। गाँव के
नरेश पूँजीपति स्वामी वर्ग पेट का भोजन भी परिदृश्य का ग़रीबी का जीवन का विषमता का अनेक लोगों का
नहीं खाने देते हैं खाण्डव वन दहन सर्वहारा की जैसे गयासी रामफला चौधरी रामधैन का भी नाम आया है उनके
विजय का आख्यान बन जाता है। यह काव्य घर बात जानवर और पशु भी कविता में आ गये हैं भूख़ और ग़रीबी
नाटक अपने संवादों में नितान्त आधुनिक एवं
से पीड़ित जनता के बिम्ब विजेन्द्र की लम्बी कविताओं में भरे पड़े
वैचारिक पक्षधरता से लबालब है।
हैं। ऐसे ग्रामीण बिम्ब त्रिलोचन की नगई महरा कविता में ही देखे
जा सकते हैं– 'यह आये हैं कुँवर सेन हार तैं/ कसकर करब का
है इस दौर में बुन्देलखण्ड में किसान बुरी तरह कर्ज़ और अकाल भरौंटा धरे सिर पे/ अन्दर से उठती है आवाज़/ जिसने जोती धरती/
व तज्जन्य विस्थापन से पलायन कर रहा था आत्महत्या कर रहा वो है उसी की (कठफूला बाँस) उनकी लम्बी कविताएँ अधिकतर
था। करिया अहिरवार भी विस्थापित होकर जयपुर पहुँच गया था। उनके मूल लोक की कविताएँ हैं जहाँ बदायूँ और बृजमण्डल की
इस कविता में विजेन्द्र विस्थापन और बेदखली का बेहद मार्मिक भाषिक आभा के लोक टोन व प्रवाह के दर्शन होते हैं। अपनी
विवरण रचते हैं। लम्बी कविताओं में वे लोक की समूची सांस्कृतिक उपस्थिति दर्ज़
वर्ष 2006 में विजेन्द्र के दो काव्य नाटक प्रकाशित हुए एक करा देते हैं। अभिनव विविधता लाने के लिए वह इतिहास, भूगोल,
अग्नि पुरुष, और द्वितीय क्रौंच वध दोनों क्रमशः महाभारत और समाजशास्त्र, विज्ञान सबकी सहायता लेते हैं। उनकी मैग्मा कविता
रामायण को उपजीव्य बनाते हैं। अग्नि पुरुष का प्रसंग महाभारत एक वैज्ञानिक विषय की कविता है। मैग्मा अर्थात अत्यधिक ताप
के खाण्डव वन दहन का है। नायक अग्निपुरुष अर्जुन और कृष्ण और अत्यधिक दाब से पिघला हुआ द्रव्य जो गर्म होता है भूकम्प या
से वन दहन की अनुमति लेता है वह कहता है मैं भूख़ा हूँ। मगर ज्वालामुखी में धरती पर निकल आता है और सब कुछ जलाकर
देवराज इन्द्र जल वर्षा करके मेरी आग बुझा देते हैं। यहाँ विजेन्द्र राख कर देता है बाद में स्वयं मिट्ठी बनकर वह उपजाऊ खेत
अग्निपुरुष को शोषित भूख़े श्रमशील जन के रूप मे चित्रित किया बनता है। मैग्मा जैसे विषय पर वैचारिक तार्किक लोकधर्मी कविता
है जो जिसे देवराज इन्द्र जैसे नरेश पूँजीपति स्वामी वर्ग पेट का लिख देना द्योतित करता है कि विषयों के प्रति उनका अध्ययन
भोजन भी नहीं खाने देते हैं खाण्डव वन दहन सर्वहारा की विजय कितना गम्भीर था। इसी अध्ययन और ज्ञान के कारण वह विषय
का आख्यान बन जाता है। यह काव्य नाटक अपने संवादों में की विशिष्टता बचाये रखते हुए अपने सरोकारों के अनुरूप उसका
नितान्त आधुनिक एवं वैचारिक पक्षधरता से लबालब है। हालाँकि स्वरूप तय कर देते हैं। 2013 में प्रकाशित उनका कविता संग्रह
मिथकीय सरंचना में कवि के समक्ष सबसे बड़ा ख़तरा आधुनिकता बनते मिटते पाँव रेत में इसमें भी कुछ लम्बी कविताएँ संग्रहीत हैं।
और परंपरा के बीच सामंजस्य का होता है लेकिन विजेन्द्र ने बड़े सुनो प्रिय कविता पत्नी को सम्बोधित है मगर केन्द्रीय समस्या
काव्य कौशल से इस सामंजस्य द्वारा प्रभावी काव्य चरित्र सृजित आज़ादी के पचास साल पूरे होने के बाद भी देश मे समस्यायें जस
किया है। की तस हैं। ग़रीबी और शोषण जारी है। लोग भूले नहीं है भरतपुर
जिस तरह विजेन्द्र ने अपनी कविताओं में और चित्रों व गद्य में के परिवेश पर है मैं चातक हूँ एक स्त्री का एकालाप है जिसमें स्त्री
संघर्षरत जीवन्त लोक को प्राथमिकता दी है उसी तरह वो लम्बी अस्मिता और उसकी सामाजिक उपस्थिति व विस्थापन को उकेरा
कविताओं में भी लोक को प्राथमिकता देते हैं। उनका कविता संग्रह गया है। विजेन्द्र की कविता में हर वह चरित्र है जिसकी प्रस्तावना

34 n जुलाई से सितंबर 2023 yegh


आज के अस्मितामूलक विमर्श करते हैं। दलित हैं पिछड़े हैंं बच्चे
हैं प्रकृति हैं पशु हैं आदिवासी हैं मुस्लिम हैं स्त्री हैं। पागल विक्षिप्त
विजेन्द्र की काव्यभाषा उनके रचनात्मक
चरित्र भी अपनी मूल चेतना के साथ उपस्थित हैं।
आत्मसंघर्ष की काव्यभाषा है। फार्मूलों की
विजेन्द्र की काव्यभाषा उनके रचनात्मक आत्मसंघर्ष की अवहेलना का साहस तथा भाषा में लोक
काव्यभाषा है। फार्मूलों की अवहेलना का साहस तथा भाषा में लोक भाषा का आग्रह उनकी कविताओं को हर
भाषा का आग्रह उनकी कविताओं को हर युग में ताजा रखेगा। इस युग में ताजा रखेगा। इस समय जब अपने
समय जब अपने जीवन और अपने पास पड़ोस तथा अपनी समझ जीवन और अपने पास पड़ोस तथा अपनी
को बतौर फैशन फार्मूलाबद्ध टेक्निक में अभिव्यक्त किया जा रहा समझ को बतौर फैशन फार्मूलाबद्ध टेक्निक
है तब विजेन्द्र के इस कविता संग्रह “जो न कहा कविता में” का में अभिव्यक्त किया जा रहा है तब विजेन्द्र के
आना काफ़ी सुकून देता है। इस कविता संग्रह “जो न कहा कविता में” का
विजेन्द्र की नयी कविताओं में दूसरा आत्मसंघर्ष निजी आना काफ़ी सुकून देता है।
आत्मसंघर्ष है। कवि अपने परिवेश और अपनी ज़मीन से कट
गया है वह अपने उस जीवन से दूर चला गया है जिसका वह संवेदनशील रागात्मकता हो। विजेन्द्र की का यह विस्थापन दुख
आदती था। वह उन संरचनाओं तथा आत्मीय जनों से भी दूर है चरित्र संस्कार में तार्किक वस्तुनिष्ठता का सबसे बड़ा सहायक
जो उसकी कविता के उपादान थे। कवि उनका बार-बार स्मरण बनकर समाविष्ट हुआ है। वह अब आत्मीय स्वजनों परिजनों के
करता है। कवि का यह स्मरण अकारण नहीं है यह विस्थापन और साथ-साथ हाशिए की अस्मिताओं व पेड़-पौधे नदी पहाड़, नगर
अपदस्थ होने का पीड़ाबोध है। जो कवि की अनिच्छा के बावज़ूद तथा अनुभूति जैसी निराकार चीज़ों में भी चारित्रिक पक्ष का सृजन
हुआ। विजेन्द्र जयपुर में रहते थे। बीमार होने पर उनके बेटे उन्हें कर रहे हैं। यह विस्तार इस बहुआयामी वैविध्यता के साथ इस
अपने पास फरीदाबाद ले आए जयपुर का मकान बेचना पड़ा कविता संग्रह की कई कविताओं में अभिव्यक्त हुआ है– जैसे तुम
जयपुर का छूटना उनके जीवन की बड़ी घटना है। इसका उन्हें सुनो, तुम्हारे साथ, दहक़ती भट्टियाँ, नहीं बरसा, देखा उसको, प्यार
बहुत दुख हुआ ये कविताएँ इसी दौर की है। जयपुर की आबोहवा, का उजास आदि की भावभूमि निजी आत्मसंघर्ष की है।
वहाँ की नदी, वहाँ की अरावली पहाड़ी, वहाँ के भवन, वहाँ की कविवर विजेन्द्र व अन्य लोकधर्मी परंपरा के कवि अपनी
कला और संस्कृति सब कुछ छूट गया। जब व्यक्ति अपना घर कविता में कभी मसीहा बनकर नहीं आते हैं। मसीहा बनकर आने
बदलता है तो केवल घर नहीं छूटता। जगह नहीं छूटती। बल्कि वाले कवि दर असल दर्शक और गढ़े हुए कवि होते हैं भोक्ता
उस कवि की सम्पूर्ण सांस्कृतिक पहचान भी छूटती है। विजेन्द्र का कवि नहीं होते हैं। यही कारण है उनकी कविता पाठक के साथ
यह सांस्कृतिक विस्थापन उनकी कविता में एक पीड़ाबोध के रूप आत्मीयता का रिश्ता कायम कर लेती है। यहाँ ऐसा जीवन बोध
में अभिव्यंजित हुआ है। जयपुर और वहाँ की स्मृतियाँ बार बार है जो पाठक को जीवन और समाज के प्रति प्रश्नाकुल करता है।
इन कविताओं में क्षीजती रचनात्मकता व कवि के भीतर जीवित सवालातों को उठाने का साहस देता है। हम बराबर यह अनुभव
उथलपुथल भरे आत्मसंघर्ष को भाषा दे रही हैं। उनकी मेरा शहर करते चलते हैं कि कवि हमारे साथ है वह हमारा हमसफ़र है। चाहे
कविता इस बात का उदाहरण है कि कवि किस कदर अपनी ज़मीन लम्बी कविता हो चाहे प्रेम कविता अथवा वह छोटी कविता अपनी
से मुहब्बत करता था और वह विस्थापन पीड़ा व इस पीड़ा से वैचारिक आभा व जीवन के यथार्थ अनुभव के कारण सब कुछ
रचनात्मक संघर्ष को कैसे जी रहा है “मुझे जयपुर पसन्द था/ मेरे सहज और ख़ुद से जुड़ा हुआ महसूस होता है। विजेन्द्र सामाजिक
हृदय का शहर जिसके लिए छोड़कर आया/ आगरा अपना पैतृक प्रतिबद्धता पक्षधरता के ईमानदार कवि हैं। यहाँ आसमान और
घर बहुत बड़ा/ अब क्या देख पाऊँगा उसे/ सारे धागे छिन्न-भिन्न नक्षत्र लोक की सैर नहीं है ड्राईंगरूम की आरामगाह नहीं है।
हो चुके हैं/ करता हूँ उसे याद/ जैसे किसी प्रेमिका से अलविदा/ ओ यहाँ ज़मीन मे पसीने और श्रम से लथपथ खड़े इंसानी जीवन की
मेरे गुलाबी शहर”। सवाल केवल जयपुर का अथवा विस्थापन का फितरत है उसकी पहचान है जिस पहचान को हम और हमारी पीढ़ी
नहीं है। यह परिघटना बहु आयामी है। विजेन्द्र लोकधर्मी कवि रहे भूलती जा रही है। n
हैं। चरित्रों की उपस्थिति उनकी कविता की बड़ी विशिष्टता है। वह संपर्क : प्रवक्ता हिंदी
लगभग अपने सभी कविता संग्रहों में चरित्र सृजन करते रहे हैं। यह भभुआ, बबेरू, बांदा
नवाचार तभी संभव हो सकता है जब कवि के भीतर आत्मीयता की मो. 9838610776

yegh जुलाई से सितंबर 2023 n 35


n विरासत : मानबहादुर सिंह

झूठ के स्वर्ग में मरने के बजाए मुझे सच के नरक में जीने दो


दीपशिखा

मानबहादुर सिंह आठवें-नौवें दशक के एक ऐसे कवि के अंतर्बोध के विकास के साधन के रूप में दिखाई
हैं, जिनकी चर्चा बहुत कम हुई है। इनकी कविताएँ देते हैं।
जहाँ एक तरफ निराला, त्रिलोचन, मुक्तिबोध और मानबहादुर सिंह की कविताओं में मौज़ूद देशज
धूमिल की परंपरा की वाहक़ हैं वहीं दूसरी ओर कहन परिस्थितयों में तीसरी दुनिया की सारी संवेदनाएँ एक-
और शिल्प दोनों स्तरों पर एक नई परंपरा की निर्मिति दूसरे में गुंथी हैं। इसलिए यह देशीयता भूगोल से परे
करने वाली भी हैं। इनकी कविताओं की ज़मीन देशज एक पूरी की पूरी सभ्यता बन जाती है जिसमें तमाम
है, जो सुल्तानपुर जिले के गाँव बरवारीपुर की माटी संस्कृतियाँ सांस ले रही हैं। इन्हें सिर्फ़ अवध के एक
से निकली और उसी में रची-बसी है, लेकिन यह देशीयता अपनी गाँव या फिर हिंदी प्रदेश या फिर भारत तक ही सीमित नहीं किया
भौगोलिक सीमा का अतिक्रमण करते हुए संवेदना के धरातल से जा सकता है। इन कविताओं का विस्तार ‘मँहगीना की मड़ई’ से
मानव सभ्यता के समक्ष कुछ सार्वभौमिक प्रश्न खड़ा करती है। लेकर ‘बेरुत’ तक है। अपनी कविताओं में इन्होंने उस पूरी प्रक्रिया
सभ्यता के विकास के साथ निरंतर बड़े होते सवालों और उसके को घटित होते हुए दिखाया है जहाँ से एक छद्म का ऐतिहासिक
जवाब की तलाश में मिलने वाला कठोर और निर्मम यथार्थ ही विकास सभ्यताओं की गोद में होता रहा है। जो कभी देश और राष्ट्र
इनकी पूरी रचनात्मकता का परिप्रेक्ष्य बिंदु है। यहाँ से कविता के परदे में छुपा रहता है, कभी धर्म और संस्कृति के। हजारों वर्षों
अपना रास्ता ख़ुद ही चुन लेती है, क्योंकि स्वयं कवि जिस कविता के इतिहास में इसने अलग-अलग रूपों में भिन्न-भिन्न तरीके से
को तलाश रहा है, उसका पक्ष स्पष्ट है– एक ही काम किया है– मनुष्य और मनुष्य के बीच कभी न बुझने
‘नहीं मिली मुझे कविता/ किसी मित्र की तरह अनायास वाली विभाजन की एक ऐसी आग जलाये रखना जिस पर हर तरह
मैं ही गया कविता के पास/ अपने को तलाशता-अपने खिलाफ के स्वार्थ की रोटियाँ सेंकी जा सके। ‘बेरुत’ के बहाने उनका यह
कविता जैसा अपने को पाने!’1 प्रश्न वैश्विक पटल पर आज सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण बनकर उभरा
कविता की इस तलाश में अपने ख़िलाफ़ जाना अनिवार्य शर्त है, है-‘आख़िरी बार तुमसे इतना जानना चाहता हूँ/ कब तक आदमी
इस प्रक्रिया से गुज़रे बिना कविता या कला के सच से साक्षात्कार को देश का भूगोल मान/ उसकी लाशों से अपनी सीमाओं की/
संभव नहीं है। इस अंतर्यात्रा की परिणति में मानबहादुर सिंह की चारदीवारी बनाओगे और नहीं पहचान पाओगे/ कि दो देशों के बीच
कविताएँ वृहत मानवीय संवेदनाओं और सामाजिक सरोकारों को फेंका हुआ युद्ध का मैदान/ चालाक मछुआरों का फेंका हुआ जाल
अपने भीतर समेटे हुए हैं, जिनसे उपजने वाली करुणा जहाँ एक है।’2 इस छद्म के तमाम पहलुओं को इनकी कविताओं की बुनावट
ओर मुक्ति की आकांक्षा में बदल जाती है, वहीं दूसरी ओर वह में देखा जा सकता है जिसकी जड़ गाँवों के ‘बाबू नगीना सिंह’
कटु सामाजिक यथार्थ और सत्ता-संरचना के पैरों तले रौंद दी जाती और ‘गोसाईं प्रधान’ से लेकर न्यूयार्क की सत्ता-संरचना तक फैली
है। इस कठोर जीवन से उपजी व्यथा इनकी कविताओं का स्थायी हुई है। दुनिया के तमाम संसाधनों और समाज के विविध उपादानों
भाव है। गाँव और ग्रामीण जीवन-बोध इनकी कविताओं की आत्मा पर इनका कब्जा है। इस कब्जे को न्यायसंगत ठहराने और उसकी
है, लेकिन इस कारण इन्हें सिर्फ़ गँवई जीवन या परिवेश के कवि निरंतरता को बनाए रखने के लिए ही पूरी व्यवस्था बनाई गई
के सीमित दायरे में नहीं देखा जाना चाहिए। इनकी कविताओं में है। इस शोषणकारी व्यवस्था के प्रति उपजने वाला आक्रोश ही
अभिव्यक्त ठेठ देशज यथार्थ या गँवई भावबोध दरअसल कविता मानबहादुर सिंह की कविताओं का जीवन-रस है। इस व्यवस्था

36 n जुलाई से सितंबर 2023 yegh


को पोषित करने वाले और उससे पोषण पाने वाले चरित्र लगातार कविता के भीतर भी उतना ही श्रम करना पड़ा है। इन कविताओं
इनकी कविताओं में घूमते रहते हैं। इस शोषणतंत्र का एक-एक में जहाँ एक तरफ मुक्तिबोध की तरह जटिल बाह्य यथार्थ के साथ
पहलू इन कविताओं में शब्द-दर-शब्द गुथ ँ ा हुआ है– आंतरिक चुनौतियों को दर्ज़ करने की बेचैनी निरंतर दिखाई देती
‘वे रोतों को गाते हैं/ नंगों को पहिनते हैं है, वहीं दूसरी तरफ इन्हें उद्घाटित करने वाली भाषा और बिंब
भूख़ों को खाते हैं/ वे चाहते हैं-धरती सोना बने पर अकविता और धूमिल का प्रभाव दिखाई देता है। अकविता
जिसे जेब में सिक्के की तरह रख/ हिफाजत करें की अराजकता, निषेध और आक्रोश को जिस तरह धूमिल के
जिसके लिए युद्ध छिड़े-सब लड़ें/उन्हें उकसाते वे वीर-रस बनें यहाँ एक सामाजिक-राजनीतिक आधार मिलता है, उसका विस्तार
तब किसी को धर्म की पताका दें/ किसी को जाति की राष्ट्रीयता मानबहादुर सिंह की कविताओं में हुआ है। इनकी कविताओं में
फिर वे पैगम्बर बन/ मुहब्बत का शांति पाठ करें...’3 आने वाला आक्रोश एक ठोस वैचारिक धरातल पर अभिव्यक्त
मानबहादुर सिंह की कविताओं में प्राचीन सभ्यताओं के उत्कर्ष- हुआ है। हिंदी कविता में अकविता के माध्यम से आने वाली भाषा
पतन से लेकर शीतयुद्ध तक की परिस्थितियों और पूँजीवाद की और बिंब में विचार, सृजन और प्रतिबद्धता के अभाव को भरने का
ओर आगे बढ़ते हुए तीसरी दुनिया के देशों में मुक्त बाज़ार की काम मानबहादुर सिंह की कविताओं ने किया है।
स्वीकृति के साथ निर्मित होने वाली नव साम्राज्यवादी व्यवस्था की गाँव और उसके पूरे परिवेश को लेकर रूमानियत से हिंदी की
अनुगूँज मिलती है। साथ ही इसका प्रतिसंसार रचने की आकांक्षा भी प्रगतिशील कविता भी अछूती नहीं रही है उसका रत्ती भर भी प्रभाव
उतनी ही बलवती है। मानबहादुर सिंह इस प्रतिसंसार की निर्मिति मानबहादुर सिंह की कविताओं में नहीं है। इन कविताओं में ग्रामीण
में सर्वाधिक महत्त्व जन-राजनीति और श्रम-उत्पादन के संगठन जीवन का जो नैरटि े व है वहाँ कवि दो भूमिकाओं में दीखता है,
को देते हैं। इस मायने में ये कविताएँ ठोस राजनीतिक यथार्थ और यह दोनों भूमिकाएँ अपने आप में बहुत कठिन और श्रमसाध्य
की कविताएँ हैं और इनका कवि मूलतः विद्रोही और स्वप्नद्रष्टा। हैं। पहली भूमिका यथार्थ के दृष्टा की है, जो उसी भूगोल में रहते
सीधे तौर पर मार्क्सवादी जनपक्षधरता इनके यहाँ मौज़ूद है लेकिन हुए उसी ऐतिहासिक कालखंड में जीते हुए उससे एक दूरी बनाकर
कविताएँ अपनी बुनावट में एकरस वैचारिकता को ढोने वाली नहीं उसे दर्ज़ कर रहा है। दर्ज़ करने की यह प्रक्रिया भी बहुत सीधी-
हैं, बल्कि उस प्रतिबद्धता से जन्म लेने वाली, उसमें अंखुआने सपाट-एकरेखीय नहीं बल्कि धरती के गर्भ में बीज के अंखुआने
वाली और उसके लिए तनकर खड़ी होने वाली सृजनात्मकता से से लेकर कठोर झंझावातों से जूझकर वृक्ष बनने जितनी लम्बी
लबरेज हैं– और जटिल है। गाँवों की जैसी सजावटी भूमिका शहराती कवियों
‘अच्छी लगती है ऐसी दुनिया/ जिसमें कुछ बोया जाता है के यहाँ है या कुछ समय के लिए ही सही गाँव से दूर रहने वाले
रोपा जाता है– सींचा जाता है../ कवियों की मधुर स्मृतियों में मौज़ूद है, वह मधुरता-कोमलता, वह
यह सब अच्छा लगने वाले मन को इनोसेंस मानबहादुर सिंह की कविताओं में बिलकुल ही नहीं है।
जब कोई उखाड़ता है दबाता है/ मुझे अच्छा लगता है कवि का यह काव्यात्मक अलगाव ही है जो उसे यह साहस देता
उसके ख़िलाफ़ उभरना।’4 है कि मध्यवर्गीय छवियों और बिम्बों से बाहर निकल कर गाँव,
प्रतिबद्धता का यह स्वर उस प्रेम से फूटता है जो कवि की उसकी प्रकृति और उसकी समूची सामाजिक संरचना का निर्मम
समूची रचनात्मकता में अपने लोक से लेकर विश्व नागरिक यथार्थ लिख सके। अपने परिवेश से कवि का संबंध है तो बहुत
के सामाजिक सरोकारों तक फैली हुई है। छद्म वैचारिकता और प्रगाढ़ लेकिन उसके भीतर छुपी अमानवीयता को यह प्रगाढ़ता ढँक
अवसरवादिता के इस दौर में इनकी कविताओं की सबसे बड़ी नहीं पाती है–
विशेषता है कि ये वैचारिकता के किसी भी तरह के विशिष्टताबोध ‘पन्ने पर पन्ने पलटता हुआ/
या फिर अधिकार-बोध के दबाव से मुक्त हैं। और यह तभी संभव हर बेचैन सतर को हल्के से छू रहा हूँ
है जब कवि वास्तव में अपने परिवेश या अपने लोगों से प्रेम करता जो ज़िन्दगी के स्तन को/ अपनी नन्हीं अँगुलियों से कसे है
हो। कविता के ताने-बाने में बहुत सहजता से जो जन-जीवन, पर उस माँ के स्तन/
उससे जुड़ी जैसी शफ़्फ़ाक भाषा और श्रम से उपजा जो सौन्दर्यबोध शोषण की सड़न का जहर उगल रहे हैं।’5
है वह प्रेम से ही उपज सकता है। और यह अनायास ही कविता जन्मजात संबंधों और परिवेश में मिली क्रूरता की विरासत को
में संभव नहीं हुआ है बल्कि इसके लिए ख़ुद रचनाकार को न बदल देने के स्वप्न के साथ ही इनकी दूसरी भूमिका सामने आती है,
सिर्फ़ व्यक्तित्वांतरण की लम्बी प्रक्रिया से गुज़रना पड़ा है बल्कि जो एक कलाकार के साहित्यिक-सांस्कृतिक-सामाजिक हस्तक्षेप

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की है। इसीलिए इन कविताओं का एक बड़ा हिस्सा अपने लोक में अपनी जटिलता के साथ उपस्थित हुआ है। कबीर शास्त्र के साथ
मौज़ूद वर्ग, धर्म, जाति और जेंडर के सवाल से बार-बार टकराता लोक से भी लड़ रहे थे। किसी भी यथार्थ के सृजन के लिए उसके
है। इस हस्तक्षेपकारी भूमिका की वज़ह से ही इन कविताओं की प्रति संवेदनशीलता तो अनिवार्य शर्त है ही लेकिन उसके भीतर
बुनावट बहुत भिन्न किस्म की है। कठोर सामाजिक-संरचना को घटने वाली या गतिशील परिस्थितियों, घटनाओं और प्रक्रियाओं
कोमल काव्यात्मकता में बेलौस सच्चाई के साथ नहीं अभिव्यक्त को उसकी सम्पूर्णता में देखना भी ज़रूरी है। हिंदी की यथार्थवादी
किया जा सकता है। ऐसा करना भी एक तरह की बेईमानी ही कविता में लोकतांत्रिक ढाँचे की सत्ता-संरचना और पूँजीवाद के
होगी। मानबहादुर सिंह इस स्तर पर भी अपनी कविताओं को बचा विस्तार की आलोचना के क्रम में गाँव और उससे सम्बद्ध तमाम
ले गए हैं। इसलिए इनकी अधिकांश कविताएँ ठोस गद्यात्मक हैं। उपादानों को एक तरह से सर्वहारा के प्रतिनिधि के रूप में लिया
अपनी कविताओं में मानबहादुर सिंह ने कथा-तत्त्व, चरित्र, संवाद गया। इसे दूसरी तरह से देखें तो ग्रामीण सामाजिक संरचना से
और परिवेश की जीवंतता के माध्यम से उस अनुभतू सत्य को निकले अधिकांश कवियों ने अपने मध्वर्गीय जीवनानुभवों पर
उद्घाटित किया है जो हिंदी कविता में बहुत हद तक अजाना तो आत्मालोचन का एक रंदा चलाकर उसे ही सर्वहारा का स्थानापन्न
नहीं लेकिन अछूता ज़रूर है। निराला, नागार्जुन, त्रिलोचन के बाद बना दिया। इस कारण लोक के सरलीकृत और अन्तर्विरोधरहित
की हिंदी कविता में कुछ चुनिंदा कवियों को अगर छोड़ दें तो इस स्वरूप का ही अधिक विस्तार हुआ। उसके अंतर्जगत की जटिलता
इलाके में हिंदी कविता की यात्रा बहुत सतही और अपर्याप्त है। को कम जगह दी गई। इसीलिए हिंदी कविता बहुत बार ग्राम्य-
दलित और स्त्री कविताओं ने कुछ हद तक इस यथार्थ को टटोला जीवन के चित्रण में बुर्जुआ सौन्दर्यशास्त्र को नहीं छोड़ पाई है।
है। जबकि हिंदी के अधिकांश कवि जो गाँवों से निकले, उनके मानबहादुर सिंह ने अपनी कविताओं में गाँव को देखने का एक
यहाँ ग्रामीण सामाजिक संरचना का कटु यथार्थ मध्यवर्गीय चेतना अलहदा सौंदर्यशास्त्र गढ़ा है। गाँवों का क्रूर सामंती परिवेश और
और संभवतः परिवेशगत दूरी के कारण कविताओं से बाहर ही शोषण-तंत्र तो इनकी कविताओं का केन्द्रीय पक्ष है ही लेकिन
रहा। ग्राम्य-जीवन के दृश्य रचने और उसकी संरचना में मौज़ूद उससे अधिक महत्त्वपूर्ण है आम जन की उनकी सम्पूर्णता में
कटु यथार्थ से टकराने में ज़मीन-आसमान का फ़र्क है। यही फ़र्क उपस्थिति। गाँवों से जुड़ी यह बड़ी आबादी अपनी वास्तविकता
मानबहादुर सिंह के लोक और हिंदी कविता की मुख्यधारा के में जीती-जागती तमाम तरह के भावों को अपने भीतर समेटे
अधिकांश कवियों के लोक में है। अपनी अच्छाइयों और छुद्रताओं के साथ रहने वाले मनुष्यों की है
कवि ग्राम्य-जीवन और उससे जुड़े लोक के इस छल-छद्म और जिसके अपने गुण-दोष हैं, उनका अपना जीवन-यथार्थ है। लेकिन
क्रूरता को बार-बार अपनी कविताओं में संबोधित कर रहा है और हिंदी कविता में गाँवों के अंतर्जगत का यह पक्ष बहुत कम आया
उसका प्रतिकार भी रच रहा है। सामंती जकड़न और उसकी क्रूरता है। मानबहादुर सिंह की कविता में उनका यह लोक अपने इस
में आकंठ डूबे गाँवों के यथार्थ की अभिव्यक्ति में कविता का शिल्प वास्तविक रूप में आया है जहाँ ‘धूल सने पाँव’ और ‘मैले-कुचैले
बहुत बार कठोर, अनगढ़, खुरदरा और जटिल भी हो जाता है, अँगोछे’ वाले व्यक्ति का कोई एकरेखीय चरित्र नहीं है, वह हमेशा
लेकिन इन कविताओं से गुज़रकर लगता है कि इस कटु यथार्थ को पवित्रता की प्रतिमूर्ति ही नहीं होता बल्कि उसका भी अपना एक
इसी शिल्प में ढाला जा सकता था। इन्हें इस रूप में कवि सायास मनोविज्ञान होता है- ‘धूलि सने थके पाँव– लौटे संध्याओं के/
रच रहा है, क्योंकि उसे कुछ भी छुपाकर नहीं रखना है, बल्कि परदे सूने उदास छाँव-बैठे बतियाते हैं/ अपना गाँव/ कैसे लड़ाया उसे-
के पीछे को ही सामने लाने के लिए यह सब कुछ रचा जा रहा है- कैसे तोड़ी उस लड़की की शादी/करके बदनाम/ मैले अंगौछे से–
‘नेपथ्य में बीड़ी पी रहा है राजा/ नौकर गालियाँ बक रहा है पसीना भींगी नोटें/ वकील को देते क्यों भूल जाते हैं वे- कल के
रानी को/ नेपथ्य में बैठे हुए सब/ पहने हुए हैं फटी बनियान,चीकट लिए नहीं घर में है आंटा दाल/ जरा बढ़के पूँछो भाई/ बित्ता भर मेंड़
तहमद/ नेपथ्य में नहीं हो रहा कोई नाटक/ सब खुजला रहे हैं के लिए/ क्यों गोड़ रहे अपनी तकदीर? -कि उसकी बकरी ने खा
अपनी दाद/ नेपथ्य में नहीं है कोई झूठ/ सब है अपना-अपना लिया था दो पत्तियाँ/ इसके अमोले की-चली थीं लाठियाँ/ झूली
सच! / नेपथ्य ही आए मंच पर/ ऐसा ही सोचता रहता हूँ मैं।’6 थी हथकड़ियाँ/ पुलिस को मिला था मुर्ग मुसल्लम उस रोज।’7
यह तथाकथित सभ्यताओं का ही नेपथ्य नहीं है, बल्कि हिंदी अन्य मानव समुदायों की तरह भारतीय गाँवों की सामाजिक-
कविता का भी नेपथ्य है। अचेतन में ही लेकिन हिंदी कविता में संरचना भी गतिशील है। वहाँ भी अपने हानि-लाभ से ही तमाम
लोक की मनलुभावन और एकरेखीय प्रस्तुति में यह नेपथ्य अछूता सामाजिक-संबंध और संस्थाएँ निर्मित होती हैं। और उसमें वहाँ के
रह गया, जबकि मध्यकालीन कवियों के यहाँ लोक अपेक्षाकृत लोगों की अपनी एक सक्रिय भूमिका होती है, जो अपने परिवेश

38 n जुलाई से सितंबर 2023 yegh


को भी प्रभावित करते हैं। लेकिन कुछ कवियों को छोड़ दें तो हिंदी
कविता में यह पक्ष एक तरह से अनुपस्थित सा है। मानबहादुर
सिंह की कविताएँ इस रिक्तता को भरने वाली हैं। अपने मध्यवर्गीय
दायरे में मुख्यधारा के कवियों के यहाँ जैसे-जैसे आम जनमानस
की उपस्थिति एक चेतस और सक्रिय सामाजिक तत्त्व के बदले एक
गुण-दोष रहित निर्दोष और पवित्र तत्त्व की परिकल्पना में बदलती
गई, वैसे-वैसे हिंदी कविता अपने समय-समाज की वास्तविकता
को पकड़ पाने में असफल होती गई। इसीलिए आज हमारी हिंदी
कविता वास्तविक समाज के समानांतर चलने वाली एक अलग
दुनिया का आभास कराती है, जो निश्चित तौर पर वास्तविक समाज
से बेहतर है लेकिन सत्य से बहुत दूर है। या यह कहें कि हमारे
मध्यवर्गीय कवियों को अपने निर्दोष परिकल्पित मनुष्य या लोक
पर इतना अधिक भरोसा है कि वह उसकी बदलती ऐतिहासिक
भूमिका को आज भी स्वीकार नहीं कर रहा है। मानबहादुर सिंह
की कविताओं का गाँव-समाज-परिवेश इस परिकल्पित लोक का
प्रत्याख्यान है। इन कविताओं में एक ओर बिल्लू सिंह प्रधान, बाघ
बहादुर सिंह, नगीना सिंह, गोसाईं प्रधान जैसे चरित्र हैं जिनका
परंपरागत पेशा ही मुलकू, मटरू, करमू, महँगीना, मालिन, पियारी
जैसे लोगों का शोषण करना है। वहीं दूसरी ओर रामफल दास, प्रवृत्तियों के सृजन-अनुभवों को दर्ज़ करने का है। इसी क्रम में इनकी
मिसिर, भेलू गड़ेरिया, माधो बाबू, जगत बाबा, सुंहनी साहु, बड़कू कविताओं में एक और ऐसा पक्ष आया है जिससे मुख्यधारा की हिंदी
उपधिया जैसे तमाम चरित्र हैं जो हिंदी कविता में परिकल्पित ग्रामीण कविता बचकर निकलती रही है। यह है स्त्री को उसके जीवंत रूप में
लोक की एकरेखीयता को भंग करते हैं, जो कवि से संचालित होने उसकी अपनी इच्छाओं-आकांक्षाओं के यथार्थ के साथ समझने की।
वाली कठपुतली नहीं बल्कि हाड़-माँस के जीवित मनुष्य हैं। यह उसे मध्यवर्गीय नैतिकता के चश्मे से बाहर निकलकर देखने की।
एक बड़ी आबादी का प्रतिनिधित्त्व करते हैं, इन्हें स्वीकार किए बग़ैर मानबहादुर सिंह की कविताओं को पढ़ते हुए कहीं भी यह नहीं लगता
कविता में लोक को रचना दरअसल एक तरह का भ्रम रचना है। कि हम पुरुष की बनाई दुनिया की यात्रा पर हैं जहाँ स्त्री भी उसकी
लोक सिर्फ़ एक वर्ग का प्रतिनिधित्त्व नहीं करता बल्कि अपने इच्छाओं और आकांक्षाओं से संचालित होती है। बल्कि इनकी पूरी
अंतर्जगत में कई तरह के तत्त्वों को समेटे रहता है, जिनमें आपसी रचनात्मकता में हर वर्ग-जाति-वय की स्त्रियाँ अपनी स्वाभाविकता
टकराहट भी है और उनका सहअस्तित्व भी। उसमें भी एक तरफ के साथ मौज़ूद हैं। हम यह कहें कि मानबहादुर सिंह की कविताओं
शोषण और दमन की बर्बर प्रवृत्तियाँ मौज़ूद हैं तो दूसरी तरफ का पूरा ताना-बाना ही स्त्री के बाह्य अस्तित्त्व और उसकी आंतरिक
एकजुटता और परस्पर सहयोग भी है। उसकी भी अपनी सत्ता- चेतना पर आधारित है तो यह अतिशयोक्ति नहीं होगी। अपने आस-
संरचना और सामाजिक श्रेणीक्रम है और इससे जुड़ी ताक़तें वर्चस्व पास मौज़ूद स्त्रियों की यथार्थ अनुभूति ही वह ज़मीन है जहाँ कवि
की संस्कृति की ही हिमायती हैं इस सत्य को स्वीकार करना बड़ी सच के झंझावातों से जूझते हुए सृजन के बीज को अंकुरित करना
चुनौती है। इस सत्य के ताप का अनुभव करके ही इसे कविता में रचा चाहता है। यह स्त्रियाँ ‘माँस का ताजमहल’ भी हैं और ‘अँखुआती
जा सकता है। मानबहादुर सिंह की कविताओं में एक ओर तो गाँवों ज़मीन’ भी हैं। जिनकी अपनी भूख़ है प्यास है और उसकी पूर्ति
के परंपरागत ढाँचे में बंधा बाह्य जनजीवन है वहीं दूसरी ओर उसमें करने की खातिर वह ‘उजले तिलिस्म’ को भी तोड़ती हैं और अपने
रहने वाले मानव-मन की अपनी एक अंतर्यात्रा भी है। यह अंतर्यात्रा जाँगर और करम के भरोसे अपना नया रास्ता भी बनाती हैं। स्त्री की
उन गाँठों और तहों को खोलने वाली भी है जिनका साक्षात्कार करने अपनी जैविकता के साथ जितनी बड़ी उपस्थिति मानबहादुर सिंह की
में भी मध्यवर्गीय नैतिकता से आक्रांत कवि घबराता है। इनकी कविताओं में है उतनी मध्यवर्गीय स्त्री-कविता में भी नहीं है। वहाँ
कविताओं का रुख़ ऐतिहासिक यथार्थ से पलायन का या उसे ऊपर अपनी नियति का भार ढोतीं, अपने सुख और दुःख में सुखी और
से सुघड़ बनाने का नहीं बल्कि, उसमें गहरे धँसी उसकी आंतरिक दुखी सेठानियाँ और ठकुराइनें हैं तो परंपरागत तौर पर अपने हाथ

yegh जुलाई से सितंबर 2023 n 39


स्त्री-जीवन की विविध तहों को उलटते हुए इन कविताओं में
स्त्री-मुक्ति और सामाजिक न्याय के साथ ही स्त्री-पुरुष संबंधों की
मुक्ति की भी साफ अवधारणा है। परंपरागत तौर पर आर्थिक रूप
से आत्मनिर्भर स्त्रियाँ ही स्त्री-मुक्ति के साथ सामाजिक-मुक्ति का
भी नेतृत्त्व कर सकती हैं यह बहुत स्पष्ट है मानबहादुर सिंह के
यहाँ। और ये स्त्रियाँ निचले तबके से आने वाली श्रमरत स्त्रियाँ हैं,
मुक्ति का विचार श्रम की ज़मीन पर ही पनप सकता है–
‘तुम सब मर्द की छाँह/ चैन की वंशी बजाती चलती हो
उसके बदले कुछ धौंस भी सहनी पड़ी तो भी ठीक
मगर जो जुए में कंधा डाल/ बराबर गाड़ी खींच रहा
जोड़ीदार की लम्बी पूँछ और सींग की/
पैने जैसी मार सही नहीं जाती।’8
आज भी हिंदी के स्त्री-विमर्श में ये स्त्रियाँ हाशिये पर हैं। दलित
स्त्री-विमर्श भी बहुत आगे तक मध्यवर्गीय जड़ताओं को नहीं तोड़
पा रहा है, ऐसे में ये कविताएँ एक बड़ा हस्तक्षेप हैं। स्त्री-पुरुष का
आदिम जैविक-रागात्मक संबंध भी अपने प्रकृत रूप में इस श्रम
से रोटी कमाने वाली वह स्त्रियाँ हैं जिन्हें नाथने में पूरी कायनात की सामाजिक संरचना में ही विकसित हो सकता है। मानबहादुर
की ताक़तें एकजुट हैं। सामंती ठसक को चोट भी सबसे ज्यादा इन्हीं सिंह की कविताएँ समाज में इस स्वाभाविक प्रेम के विरुद्ध जाने
स्त्रियों से लगती है। ये एक तरफ तो हवेलियों में रहने वाले गिद्धों वाली ताक़तों से जूझने वाली हैं। इस मायने ये कविताएँ यथार्थपरक
का शिकार हैं वहीं दूसरी ओर जिनके साथ कंधे से कंधा मिलाकर भावबोध को शब्द देने वाली और उनकी ऐतिहासिक सृजनात्मक
खटती हैं उनकी भी मार-गाली सहने के लिए अभिशप्त हैं। अपने भूमिका को दर्ज़ करने वाली हैं, जिनके बहुत क़रीब मुख्यधारा की
जीवन में दोहरा मोर्चा संभाले, अपने हाथों पर सबसे ज्यादा भरोसा हिंदी कविता अपनी विविध सीमाओं के चलते नहीं पहुँच पाई है। n
करने वाली इन स्त्रियों के भीतर एक अलग तरह की ताब है। यह
संदर्भ-
ताब ही उन्हें परंपरा-संस्कृति-नैतिकता के छद्म में मरने वाली स्त्रियों
1. भूतग्रस्त, पृ.9, अनामिका प्रकाशन-इलाहबाद, प्रथम संस्करण-1985
से अलग एक जीवित और चेतस मनुष्य बनाता है। 2. लेखपाल तथा अन्य कविताएँ, पृ.67, प्रकाशन संस्थान-नई दिल्ली,
स्त्री-पुरुष संबंधों की एक वास्तविक दुनिया भी इन कविताओं प्रथम संस्करण-1989
में मौज़ूद है, और इन कविताओं में भी बहुस्तरीय स्त्री-जीवन और 3. वही, पृ.63
उनकी इच्छाएँ और जीवन की जटिलताएँ अपने वास्तविक रूप 4. आदमी का दुःख, पृ.123, प्रकाशन संस्थान-नई दिल्ली, प्रथम
संस्करण-2000
में आई हैं। जहाँ एक तरफ अपनी जैविक और आदिम इच्छाओं 5. बीड़ी बुझने के क़रीब, पृ.52, प्रकाशन संस्थान-नई दिल्ली, प्रथम
को नैतिकता के चादर में दाबकर रखने वाली स्त्रियाँ हैं, वहीं संस्करण-1978
दूसरी तरफ विवाह के बाद भी जिससे मन मिल जाए उसके साथ 6. आदमी का दुःख, पृ.105-106, प्रकाशन संस्थान-नई दिल्ली, प्रथम
जीने-मरने वाली लेकिन उसकी क्रूरता को बर्दाश्त न करने वाली संस्करण-2000
7. भूतग्रस्त, पृ.18, अनामिका प्रकाशन-इलाहबाद, प्रथम संस्करण-1985
स्त्रियाँ हैं। वे स्त्रियाँ भी हैं जो गौने से पहले अपने ही पति से
मिलने के कारण चारित्रिक लांछन लगाकर त्याग दी जाती हैं, तो 8. माँ जानती है, पृ.36, अनामिका प्रकाशन-इलाहाबाद, प्रथम
संस्करण-1993
वैसी भी हैं जो परदेश गये पतियों के इंतजार में अपनी आबरू को संपर्क : असिस्टेंट प्रोफेसर-हिंदी विभाग
बचाने के लिए संघर्षरत हैं। इस बहुस्तरीय जीवनानुभवों के साथ अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय, अलीगढ़
ही मानबहादुर सिंह उस सामाजिक ढाँचे का भी यथार्थ अपनी मो. 9457336039
कविताओं में ला रहे हैं जहाँ या तो जवान होती हुई लड़की आम
के टिकोले की तरह समय से पहले ही कूट-पीसकर ‘अमचूर’ बना
दी जाती है या ‘कैबरे की नाच’।

40 n जुलाई से सितंबर 2023 yegh


n विरासत : भगवत रावत

प्रेम, रिश्तों और ज़िंदगी पर अगाध भरोसा


विवेक श्रीवास्तव

भगवत रावत मेरे प्रिय कवि हैं और बात जब उनकी से मुझे याद भी है पर जो याद है कि उन्होंने कहा था
कविताओं पर लिखने की हो तो मुझे उनकी एक प्रिय ‘..अगर कभी कविता और अपने बच्चे के लिए दूध
कविता याद आती है, ‘वह जो हर बात पर/ बज उठता के बीच चुनाव करने की बात आई तो मैं कविता की
है/ कांसे की तरह/ बिखर जाता है फूलों की तरह/ जगह बच्चे का दूध चुनूँगा क्योंकि कविता ने मुझे यही
हर खुशी पर/ हर चोट पर जो/ छाती की तरह तन सिखाया है..’ बात ने जितना असर उस समय किया
जाता है/ बिफर कर/ लाल-लाल हो जाता है जो/ हर था, उससे ज्यादा इस बात के मायने जीवन के बाद के
बद-आवाज़ पर/ .. .. अपने अंदर ही अंदर/ चीखते- हिस्से में खुले। जब ख़ुद जीवन में शामिल होते गए,
चीखते/ कब तक जिया जा सकता है/.. ..जबकि/ यह तय हो चुका धंसते गए। बाद के कुछ वो दिन भी जब कविता की जगह बच्चे
है/ कि अपनी शर्तों पर/ कोई भी/ सिर्फ़ मारा जा सकता है।’ हालाँकि का दूध चुनने का रास्ता दिखाने वाले भगवत रावत जी से ज़रा सा
इससे भी पहले, उनकी जिस कविता से पहला प्यार हुआ था वह कुछ क़रीब से मिलने-बतियाने का सुख मिला, जब उन्हें ज़रा क़रीब
थी ‘हमने उनके डर देखे’, चमत्कृत करने वाली छोटी सी कविता। से, लगभग छू कर देख सकने का, महसूस करने का मौक़ा मिला।
उनसे व्यक्तिश: पहला परिचय हुआ, जब उन्हें एक कार्यक्रम में अपनी कविता के समूचे विश्वास को जीवन में जीने वाले जिन बड़े
बोलते हुए सुना। सन 1993 में, तब के रीजनल इंस्टिट्यूट ऑफ़ लोगों को मैंने जाना, भगवत रावत का नाम उनमें सबसे पहले है।
एजुकेशन, भोपाल में ‘कोंपल’ के कार्यक्रम संयोजक के रूप में, कविताएँ, महान कविताएँ और महान कवि बहुत से आपको याद
हिंदी के बड़े और आदरणीय कवि के रूप में। बहुत सारे दिग्गज आएँगे पर अपनी ही कविता के संस्कारों और मनुष्यता के लिए
कवियों को इस आयोजन में सुना, उनका संग-साथ मिला, स्नेह अदम्य भरोसे को अपने जीवन की तरह जी सकने वाले और कठिन
मिला। प्रमोद वर्मा, विनोद कुमार शुक्ल, चन्द्रकांत देवताले, विनय जीवन को अपनी कविता की तरह का बड़प्पन देकर समूचे जीवन
दुबे, नवीन सागर, संजय चतुर्वेदी, पूर्णचंद्र रथ और भगवत रावत को ही कविता की तरह मुक्कमल अपनाइयत और स्नेह से सबको
जैसे बड़े कवि। हम युवाओं के लिए यह कार्यक्रम बहुत बड़ा और भिगो देने वाले, ऐसे बड़े कवि कम ही हुए हैं। कम-अज-कम जिन्हें
बहुत मूल्यवान था। बहुत कुछ मिला, इतना कि बहुत कुछ तो आज मैं जानता हूँ।
भी सहेजने को बाक़ी ही रहा लगता है। एक बार कब और कहां तो याद नहीं, पर पढ़ा था। जिस लेखक
हिंदी की कविता का बीज संस्कार देने वाले इस आत्मीय से आप बहुत प्रभावित हों, जिसका लिखा आपके दिल-दिमाग में
आयोजन के सूत्रधार पुरखे कवि भगवत रावत ने किसी एक सत्र के बसे, चलती हुई भाषा में कहें जिसके आप फैन हों, उसके व्यक्तिगत
दौरान कहा था, जो मैंने उसी दिन बेसाख्ता दिल से लगा लिया था। जीवन में मत झांकिए उससे दूर रहिये। आशय शायद ये रहा होगा
30 बरस पहले की बात है तो इस बीच के जीवन में थोड़ा-बहुत कि दूर रह कर बस पढ़ते-सुनते रहें वरना हो सकता है रूमानियत
कुछ पढ़ा भी, सुना भी पर उनका एक वाक्य, उनकी बातचीत का भरी लेखकीय पहचान से जब वास्तविक जीवन टकराए तो ऐसा
एक टुकड़ा दिल-दिमाग में बस गया। ज़िंदगी में उम्र के इस मुकाम कुछ देखने-सुनने को मिले कि छवि का रूमान जाता रहे। कुछ
पर जब जितना पढ़ा, उसमें से बहुत कुछ लगभग भूलता भी जा रहा मामलों में यह आजमा कर भी देखा। बस जिन इक्का-दुक्का लोगों
हूँ। पर कुछ, जो जस का तस याद रह गया है उसमें से कविता और से मिलने पर इसे गलत सिद्ध होता हुआ देखा, भगवत रावत का
जीवन के बीच के संबंधों पर उनका एक वाक्य है जो ऋषियों के जीवन उसमें से एक था। भगवत रावत बड़े कवि थे और इससे बड़ी
आप्त वचन सा आज भी याद ही नहीं, लगातार याद रहा आता है। बात है कि वो अपनी कविता जितने ही बड़े आदमी भी थे। प्यारे और
पूरे संदर्भ में जाने का न तो यहाँ सही समय है और न बहुत ठीक नेकदिल। सबके लिए जाने क्या-क्या कर देने की उतावली से भरे,

yegh जुलाई से सितंबर 2023 n 41


सबके लिए प्यार, भरोसे और हद तक कोमलता से और अपनाईयत 1996) ‘...लेकिन हवा और पानी में ज़रूर कुछ ऐसा हुआ है/
से भरे हुए। कि दुनिया में/ करुणा की कमी पड़ गई है/ इतनी कम पड़ गयी
भगवत रावत बड़े और भले आदमी थे क्योंकि वो बड़े कवि थे। है करुणा कि बर्फ पिघल नहीं रही/ नदियाँ बह नहीं रहीं झरने झर
वो हिंदी कविता के ऐसे हस्ताक्षर हैं जिन्होंने हिंदी कविता में अपनी नहीं रहे/ चिड़ियाँ गा नहीं रहीं गायें रम्भा नहीं रहीं/ कहीं पानी का
अभिव्यक्ति से हमें समृद्ध किया और आरम्भ की अपनी मंच की कोई ऐसा टुकड़ा नहीं/ कि आदमी उसमें अपना चेहरा देख सके..
कविता से आगे बढ़ कर भोपाल में मुक्तिबोध से मुलाकात के बाद .दरअसल पानी से होकर देखो/ तभी दुनिया पानीदार रहती है..
अपनी कविता को नया मोड़ दिया। 1977 में उनके पहले संग्रह .पता नहीं/ आने वाले लोगों को दुनिया कैसी चाहिए/ कैसी हवा
‘समुद्र के बारे में’ से लेकर 2009 में कविता संग्रह ‘देश एक राग कैसा पानी चाहिए/ पर इतना तो तय है/ कि इस समय दुनिया
है’ तक उनके 9 कविता संग्रह प्रकाशित हैं। कविता उनके लिए को/ ढेर सारी करुणा चाहिए।’ उनकी अधिसंख्य कविताएँ छोटी
जीवन का पर्याय थी। 2012 में उनकी मृत्यु तक उनका रचना कर्म कविताएँ हैं, जिनकी संवेदना व्यापक है। हालाँकि बीसवें दशक
अनवरत चलता रहा। मैंने ख़ुद उन्हें गंभीर बीमारी से जूझते हुए, की उनकी कविताओं में तेवर और कलेवर दोनों ही दृष्टि से, कुछ
घर पर या अस्पताल में डायलिसिस की कठिन प्रक्रिया से तुरतं हल्का सा बदलाव पढ़ा जा सकता है। उनकी काव्य संवेदना की
बाहर आते भी कविता के बारे में अपना दर्द किनारे कर, चहक़ सघनता में, बात को सिलसिले में कहने के शिल्प के लिहाज़ से
कर बतियाते देखा है, बीमारी के बीच कविता उनके लिए दवा की लम्बी कविताओं या उनकी ही शब्दावली ले कर कहें तो ‘कविता
तरह उनमें प्राण संचार करती रही है। अद्यतन सूचना के अनुसार शृंखला’ ने हिंदी संसार का खासा ध्यान खींचा। ‘अथ रूप कुमार
उनकी कुछ अप्रकाशित कविताओं और कुछ लम्बी कविताओं को कथा’, ‘सुनो हिरामन’ और ‘उत्तर पटकथा बनाम सुराजे हिन्द’ इस
समेटे उनका आख़िरी संग्रह इसी वर्ष प्रकाशित होने की भी उम्मीद दृष्टि से महत्वपूर्ण लम्बी कविताएँ बन पड़ीं। इन कविताओं ने उनके
है। वैसे उनके कविता संग्रहों के अलावा अन्य चयनित संग्रहों और पाठकों को एक नया अनुभव दिया। ‘अथ रूपकुमार कथा’ जैसी
आलोचना पुस्तकों के साथ यूँ तो अब तक उनकी 17 पुस्तकें पहले कविता में उनके यहाँ व्यापक सामाजिक करुणा और व्यंग्यात्मक
ही आ चुकी हैं। ‘लमही’ के इस विशेषांक में 'विरासत खंड' में अभिव्यक्ति का नया आस्वाद मिलता है। आठवें दशक के हमारे
उन्हें याद करने का प्रयोजन है कि वे हमारी पीढ़ी के पुरखे कवि प्रिय कवि की सक्रियता के लगभग 5 दशक के दौरान हमें विभिन्न
हैं। जिनकी काव्य संवेदना ने हमारे कविता संस्कारों को कुछ नया, रूप-रंग और संवेदन की कविताएँ मिलती हैं फिर भी उनकी छोटी-
अनछुआ सा संवेदन दिया। उनकी विशेषता जो मुझे लगती रही छोटी कविताओं से उनकी चिंताओं और संवेदनाओं की सम्यक
है कि उनके भीतर के कवि ने मनुष्यता का वो सिरा पकड़ने की पहचान बनती है। जैसे यहाँ प्रस्तुत कविता ‘करुणा’। करुणा की
कोशिश की है जो मनुष्य को मनुष्य बनाए रखने का आधार है। कमी के ज़िक्र के साथ कवि के इंगित साफ़ पढ़े जा सकते हैं। ज़िंदगी
प्यार, कोमलता, आत्मीयता का पारिवारिक रूप जो हमें समृद्ध कर की सबसे ज़रूरी ज़रूरत की तरह से ‘करुणा’ को पहचानने का
के हर बार अधिक आदमी बनाता है। भगवत रावत अपनेपन और उनका द्रवित कवि मन दुनिया को अपनी तरह से देखता है। जहाँ
पारिवारिक ढंग से सारी दुनिया के लिए आत्मीय चिंताओं को अपनी करुणा ज़िंदगी की आपा-धापी और सफलता के तमाम मानकों के
काव्य संवेदना का आधार बनाते हैं। छोटे बच्चों के लिए, बेटियों को बीच कवि के लिए सबसे ज़रूरी मानक है, जिसका कम होते जाना
संबोधित और बेटियों के लिए बेहतर दुनिया की चिंताओं, परिवार रेखांकित करता कवि ज़िंदगी के लिए अपने नज़रिए को साफ़ करते
के लिए उनकी आत्मीयता और बेहतर दुनिया के सपनों की कविता हुए एक आग्रह ले कर, जोर देकर कहता है कि ‘इतना तो तय है कि
के अनेक उदाहरण उनकी कविताओं से उठाये जा सकते हैं। उनकी इस समय दुनिया को ढेर सारी करुणा चाहिए। ' विस्तृत संवेदन ही
चयनित कविताओं का संग्रह ‘निर्वाचित कविताएँ’ संग्रह तो समर्पित हमें किसी भी अन्य जीव से अधिक मनुष्य बनाता है। अपने आस-
ही है ‘एक पिता की ओर से-दुनिया की सारी बेटियों के लिए’। पास के लिए, अपने संसार में बच्चों की दुनिया के लिए, बच्चियों,
पारिवारिक मूल्यों और संवेदनाओं को उनकी कविता के केंद्र में पढ़ा स्त्रियों और गाँव-गवई की बोली-बानी वाली भोली-भाली सी दुनिया
जाना शायद उनकी कविता को पढ़ने-समझने की कुंजी है। अपने के लिए उनके यहाँ अपार स्नेह और समर्पण है। वे मनुष्यता के
घर-परिवार, दोस्तों और आस-पास से आगे, और आगे दुनिया भर कवि हैं, प्रेम और ज़िंदगी पर भरोसे के कवि हैं। उनके यहाँ लगातार
के हर रिश्ते को कोमलता से महसूसते, सहलाते, दुलराते कवि हैं भोथरी होती संवेदना को कविताओं के केंद्र में रखना उनकी कविता
भगवत रावत। के प्राथमिक उद्देश्य की तरह सामने आता है कि हर कविता के बाद
उनकी एक बहुपठित कविता है, ‘करुणा’ (सच पूछो तो, मनुष्य अपने भीतर झांकते हुए, हर बार थोड़ा और मनुष्य हो जाये।

42 n जुलाई से सितंबर 2023 yegh


‘मनुष्य’ (ऐसी कैसी नींद, 2004) शीर्षक की उनकी एक कविता भगवत जी की एक और कविता देखिये, ‘ऐसे घर में’-‘सब
में वे रोज़मर्रा के हमारे जीवन से एक साधारण सी बात उठा कर चोट कुछ भला-भला/ सब तरफ उजियाला/ कहीं कोई न कोर-कसर/
करते हुए कहते हैं, ‘दीखते रहने के लिए मनुष्य/ हम काटते रहते हैं सब कुछ आला-आला/ सब कुछ सुथरा-साफ़/ सभी कुछ सजा-
अपने नाख़ून.. जूते-चप्पलों पर पालिश करवाना/ कभी नहीं भूलते.. सजा/ बोली बानी मोहक़/ अक्षर-अक्षर सधा-सधा/ सब कुछ
अब किसी आवाज़ पर/ दौड़ नहीं पड़ते अचानक नंगे पाँव/ कमरों सोचा-समझा/ सब पहले से तय/ ऐसे घर में जाने क्यों लगता है
में आराम से बैठे-बैठे देखते रहते हैं नरसंहार..।’ कविता छोटी सी भय।’ (हुआ कुछ इस तरह, 1988) ज़मीन से जुड़ा कवि अपने
ही है, पर हमारी भोथरी होती संवेदनाओं पर चोट करती है कि हम आस-पास बनावट को, उसकी साज-सज्जा के तमाम साजो-सामान
सफलता के आधुनिक समाज के बनाए बैरोमीटर पर ज़रूरत की को उसके पीछे के भद्रलोक की भद्रता के आवरण और आडम्बर
चीज़ बन चुके सजे-धजे ड्राइंग रूम में चमकीले स्क्रीन पर अगर को भेदते हुए कह उठता है, ‘ऐसे घर में जाने क्यों लगता है भय।’
कुछ देख भी रहे हैं तो अपनी ही मनुष्यता को छीजता हुआ देख कर सहज और अनगढ़ जीवन, जो मिट्टी में पलता है, बढ़ता है और मिट्टी
भी शायद बेशर्म टालू रवैये में रोज़ की चूहा दौड़ में बस आगे और से जुड़ा रहता है, तेज उजाले के पीछे के अँधेरे को जल्दी पहचान
आगे भागे जा रहे हैं। पीछे क्या छूट रहा है, हाथों से क्या फिसल रहा जाता है। शहरी जीवन का एक आडम्बर अक्सर जो किसी न किसी
है किसी को परवाह ही क्या? रूप में बहुतों के सामने आया होगा, कुछ अपनी सहजता से, अपनी
मानवीय रिश्तों को लेकर भगवत जी के यहाँ खास सचेत भाव प्रखर मेधा से भेद लेते हैं कुछ जीवन भर ऐसे चमकीले चमत्कारों
है। रिश्तों के लिए उनके आग्रह की एक प्यारी कविता याद आती के संजाल में उलझ कर रह जाते हैं।
है, ‘बच्चों के लिए एक कथा’ (ऐसी कैसी नींद, 2004), कविता भद्रलोक के ‘घर’ की बात की ही बात पर एक कविता और, इसी
में कहन बड़ा सादा सा है, कथन भी बिलकुल सीधा। ‘थोड़ा समय तेवर की उनकी बहुत छोटी सी, पर बहुत चर्चित कविता बेसाख्ता
निकाल कर/ सुना सकें तो बच्चों को यह कहानी/ ज़रूर सुनाएँ/ याद आती है, ‘हमने उनके घर देखे’ (सच पूछो तो, 1996), यहाँ
कुछ दिनों पहले तक कुछ लोग हुआ करते थे/ वे एक दूसरे के दोस्त उसे भी देखते हैं-‘हमने उनके घर देखे/ घर के भीतर घर देखे/
कहलाते थे/ दोस्त उन्हें कहा जाता था/ जो एक ही माँ-बाप की घर के भीतर तलघर देखे/ हमने उनके/ डर देखे।’ मज़ा ये कि
संतान होते हुए भी/ एक ही माँ-बाप की संतानों की तरह रहे आते थे/ जहाँ पहले कवि, ‘ऐसे घर में’ अपनी असहजता (भय) की बात
वे बेरोक-टोक एक दूसरों के घरों में आते-जाते/ धीरे-धीरे एक-दूसरे कर रहा था, वहां इस कविता तक आते-आते कवि बड़े आलीशान
के सपनों में भी/ आने-जाने लग जाते थे.. ..एक दिन उनके बेटे- महल-दुमहलों के नीचे की खोखल को पहचान चुका है। उनकी
बेटियाँ भी/ इसी तरह एक दूसरे के दोस्त हो जाते/ वह कोई सतयुग इस छोटी सी कविता ने बहुत प्रसिद्धि पाई। आसान सी दिखती और
नहीं था..।’ भगवत जी के यहाँ अक्सर ही भावुक और कोमल रिश्तों अपनी अद्भुत लयात्मकता के कारण आसानी से जुबान पर चढ़ जाने
की चर्चा बहुत शिद्दत से आती है। वे छीजती हुई मनुष्यता के हमारे वाली इस कविता की मारक क्षमता बेजोड़ है। कवि अपनी व्यंजना
समय में ज़िदपूर्वक अपने संबंधों के लिए खड़े होने वाले कवि हैं। शक्ति से कविता की चार पंक्तियों में पाठक को ‘उस’ दुनिया के
एक और कविता देखने से बात को समझना शायद आसान हो जाए। खोखलेपन और आडम्बर के सामने खड़ा कर देता है और ख़ुद
कविता है- ‘जब कहीं चोट लगती है, मरहम की तरह/ दूर छूट गए किनारे खड़ा धीरे-धीरे मुस्कराता है। मूंछों पर ताव देते हिटलरी
पुराने दोस्त याद आते हैं.. ..हम उनके पास जाते हैं, वे हमें गले से गुमान को ठेंगा दिखाते बाबा नागार्जुन की ही तरह बेलौस अंदाज़ में
लगा लेते हैं/ हम उनके कंधे पर सिर रख रोना चाहते हैं/ वे हमें रोने भगवत जी की कविता का सुर सधा हुआ है, ‘हमने उनके डर देखे।’
नहीं देते/ और जो रुलाई उन्हें छूट रही होती है/ उसे हम कभी देख वैचारिक धरातल पर भगवत रावत न सिर्फ़ अपने जीवन में
नहीं पाते।’ (जब कहीं चोट लगती है, ऐसी कैसी नींद, 2004) बल्कि कविताओं में भी बहुत स्पष्ट और निर्भीक बने रहे। धर्म और
फिर कहूँगा वे रिश्तों के मोही कवि हैं। 'पल-पल के हिसाब वाले समाज के नाजुक संबंधों को अपने लिए चालाकी से भुनाने वालों
इन दिनों' जैसी कविता में वे मगन मन अपने दोस्त के अचानक पर उनकी तीखी नज़र है, उनकी कविताओं में ऐसे लोगों पर सख्त
सालों बाद बिटिया के ब्याह के मौके पर सपत्नीक आ जाने पर मगन और सीधी टिप्पणियाँ हैं। ऐसे ही आडम्बर पर उनकी तीखी चोट
हैं, इस पुराने रिश्ते को समारोह में सबसे परिचय कराते वे फिदा हैं करती एक कविता इस समय याद आती है, ‘ऐसे लोग’ (ऐसी
कि पल-पल के हिसाब वाले दिनों में दूर कहीं से दोस्त बस उनकी कैसी नींद, 2004) कविता में वे एक बार फिर ख़ास किस्म के
बिटिया के ब्याह के लिए आ गया है! यह बात कविता की शक्ल कुछ लोगों पर उनके कथित ‘शिष्ट’ आचरण पर, उनके आडम्बरी
तभी लेती है जब हमारे जीवन में रिश्तों की इतनी अहमियत होती है। व्यवहार पर टिप्पणी करते हैं। ‘कुछ लोग कहीं हाशिया नहीं छोड़ते/

yegh जुलाई से सितंबर 2023 n 43


शब्दों के बीच छोड़ते नहीं इतनी भी जगह/ कि ज़रूरत पड़े तो शुरू होती कविता सीधे धर्म के नाम पर धर्म द्रोहियों की, मनुष्यता
“शायद” या “हो सकता है”/ जैसे शब्दों को कहीं रखा जा सके// के शत्रुओं की बड़ी स्पष्ट पहचान करते हुए मुखर होती है। ‘दिन
वे इतने व्याकरण सम्मत होते हैं कि उनमें/ सुधार की गुंजाइश नहीं भर की थकान के बाद/ घरों की तरफ लौटते हुए लोग/ भले लगते
होती/ अनुशासन, शिष्टाचार और शालीनता के कठोर कवच में/ हैं/ दिन भर की उड़ान के बाद/ घोसलों की तरफ लौटती चिड़ियाँ/
उनका चेहरा देख पाना मुश्किल होता है/ वे इतने शांतिप्रिय होते सुहानी लगती हैं/ लेकिन जब धर्म की तरफ लौटते हैं लोग/ इतिहास
हैं कि ख़तरनाक हो सकते हैं/ इतने विनम्र होते हैं कि हिंसक हो की तरफ लौटते हैं लोग/ तो वे ही/ धर्म और इतिहास के/ हत्यारे
जाते हैं...।’ कविता में कवि कैसे अपने समय से आगे के समय बन जाते हैं/ ऐसे समय में/ सबसे ज्यादा दुखी और परेशान/ होते हैं
को पहचानता है यहाँ कविता के उत्तरार्ध में देखने योग्य है। ‘...वे सिर्फ़/ घरों की तरफ लौटते हुए लोग/ घोंसलों की तरफ लौटती हुई/
अवसर पाते ही हमारी-आपकी सुख की नींद में/ घोड़ों पर सवार चिड़ियाँ।’ इतनी स्पष्टता से अपने आस-पास की पहचान करना
हो कर आते हैं और हमसे हमारी/ पहचान और पुरखों का पता और कविता में दर्ज़ करना उनकी सामाजिक प्रतिबद्धता और अपने
पूछते हैं/ फिर हमें नींद से बेदखल कर इतिहास की/ अंधी गुफाओं समाज की साफ़ समझ का मुकम्मल उदाहरण है।
में ऐसी जगह ले जाकर छोड़ देते हैं/ जहाँ से वापस आ पाना उनकी एक और कविता के बहाने उनकी कविता में एक और
आसान नहीं..।' 2004 में आये उनके संग्रह ‘ऐसी कैसी नींद’ से ज़रूरी बात पर बात आगे बढ़ाने का लोभ होता है। समकालीन
ली गयी यह कविता क्या आज के हमारे समय पर और हमारे कविता में लय का महत्व भगवत रावत जी ने बख़ूबी समझा भी और
आस-पास के हालात पर एक मुक्कमल बयान नहीं है? इतिहास उसका प्रयोग भी ख़ूब किया है। एक बार की किसी बातचीत का
की गुफाओं में घुस कर अपना भविष्य तलाशने वाली सेना अपनी संदर्भ लूँ तो याद आता है कि बचपन में उनकी मित्रता मैथिलीशरण
तत्सम भाषा और अनुशासन का आतंक किस तरह हमारी पीढ़ियों गुप्त जी के बेटे से थी। ज़ाहिर है, मैथिलीशरण जी से भी पारिवारिक
पर अपनी रणनीतिक चालाकियों के साथ थोप रहा है, सबकी आँखों पृष्ठभूमि का परिचय था। कविता में संवेदना के स्तर पर भगवत
पर पट्टी बाँध कर उन्हें अँधेरे में अपने मुताबिक़ दिशा में धकेलने रावत जी ने अपनी नई और आधुनिक दुनिया के द्वंद्व देखे, महसूस
की आडम्बरी और चालाक कोशिशों में लगा हुआ है यह यहाँ देखने किए और कविता में दकियानूस दुनियावी ढांचे पर बार-बार प्रहार
योग्य है। एक और कविता ‘कलियुग में जब’ (ऐसी कैसी नींद, किया। भाव के स्तर पर कविता के संस्कार नए स्वीकार किये पर
2004) का एक हिस्सा देखना शायद हमें यह भरोसा दिलाने के कविता के शिल्प के लिहाज़ से वे उसकी आदिम लय को हमेशा
लिए ठीक उदाहरण होगा कि कवि अपने समय से आगे चल कर सहेजते रहे। वे अपनी कविता को ख़ुद बड़े अंदाज़ में और प्रभावी
किस तरह आने वाले समय की आहट को पहचानता और पकड़ता ढंग से पढ़ते भी थे। उनकी कविता में 'लय' बड़े महत्वपूर्ण उपकरण
है। देखिये कि, बीस-बाइस बरस पहले लिखी गयी इस कविता के की तरह सामने आती है। उनकी कुछ बड़ी प्रसिद्ध कविताएँ हैं जिनमें
बहाने से हम अपने समय और समाज की तेज़ हलचलों को किस लयात्मकता, तुक-तान के निर्वाह ने कविता का असर बड़ा कर
तरह पहचान सकते हैं। ‘...जब कट्टर और कठोर/ अचानक दिखने दिया है। उनका 'समूह गीत' (हुआ कुछ इस तरह, 1988) इसी
लगें सहृदय-उदार/ मनुष्यता और मानवता के पक्ष में करने लगें/ तरह की ख्यात रचना है जो लगभग जनगीत बन कर कई पीढ़ियों
कुछ ज़्यादा ही तत्सम भाषा का व्यवहार/ तो समझ लेना चाहिए/ की ज़ुबान पर है। 'हमने चलती चक्की देखी/ हमने सब कुछ पिसते
कोई न कोई नया हथियार बनाया जा रहा है...जब राजा दिखाई देने देखा/ हमने चूल्हे बुझते देखे/ हमने सब कुछ जलते देखा/ हमने
लगे/ कुछ अधिक भावुक, गुणग्राहक़, कलावंत/ और घर-घर में/ देखी पीर पराई/ हमने देखी फटी बिवाई/ हमने सब कुछ रखा ताक
होने लगे उसकी उदारता का प्रचार/ तब तो समझ ही जाना चाहिए पर/ हमने ली लंबी जमुहाई/...हमने घोका ज्ञान पुराना/ अपने मन
कि कोई/ जघन्य अपराध है जिसे छिपाया जा रहा है... दोस्तो! चेहरे का कहना माना/ पहले अपनी जेब सम्हाली/ फिर दी सारे जग को
पर मूंछें ही सब कुछ नहीं कहतीं/ चेहरों पर पुती कुटिल शराफत/ गाली/ हमने अपना फर्ज़ निभाया/ राष्ट्र-पर्व पर गाना गाया...।' अगर
और हिंसक मुद्रा से ही/ समझ लेना चाहिए/ कि हिटलर अभी मरा इस कविता में दुनिया भर के चलन पर उनकी तीक्ष्ण और मारक
नहीं ज़िंदा है/ और बाक़ायदा वापस आ रहा है... मैं तो अपने धर्म व्यंग्य दृष्टि को सराहा जाना चाहिए तो साथ-साथ कविता के फॉर्म के
प्राण मित्रों से कहना चाहता हूँ/ कि मैं ही नहीं आप भी गहरे संकट महत्व को भी कमतर करके नहीं देखा जाना चाहिए। ऐसी ही मारक
में हैं/ और वह दिन-ब-दिन गहराता जा रहा है।’ इसी भाव की व्यंग्य दृष्टि और अद्भुत कहन शैली की उनकी एक और कविता
उनकी एक और कविता है ‘लौटना’ (हुआ कुछ इस तरह, 1988) याद आती है, 'हे बाबा तुलसीदास' (हुआ कुछ इस तरह, 1988),
कविता तीखा और सीधा प्रहार करती है। कुछ सम्मोहक़ बिम्ब लेकर कविता क्या है समूची काव्य परंपरा में तुलसी की परंपरा से ख़ुद को

44 n जुलाई से सितंबर 2023 yegh


जोड़ते हुए आधुनिक परिवेश पर मारक बयान है। 'चोर की चोरी/ लोगों के बड़े गुणों के प्रतीक की तरह कविता में आता है और वे
साहूकारी साहूकार की/ दासता दास की/ और अफसर की अफसरी/ हमारे आस-पास के तमाम जाने-पहचाने पर अनाम में 'रूपकुमार'
बेईमानी बेईमान की/ दरिद्रता स्वाभिमानी की/ ग़रीब की ग़रीबी/ और को आरोपित कर हमारे सामने रखते चले जाते हैं। कविता हर खंड
तस्कर की तस्करी/ दिन दूनी रात चौगुनी/ फल फूल रही/ कमाई में एक नया रूप लेती है, हर बार एक नए रूपकुमार के साथ। बहुत
कुकरम की/ और अजगर की अजगरी/ मज़े में हैं यहाँ सब/ हे बाबा महत्वपूर्ण, बस एक टुकड़ा-(आठ)- ‘...जिस मिट्टी से आपने/
तुलसीदास/ कविताई ससुरी अब/ कहाँ जाए का करी। 'यहाँ भगवत उखाड़ फेंकें हों सारे झाड़-झंखाड़/ जिसमें मिलाई हो आपने अपने
रावत जैसे इस कविता में दुनिया भर की विषमताओं और विसंगतियों ख़ून की खाद/ उसमें भी/ उग आते हैं रूपकुमार/ यह न तो कोई
को अपने पुरखे कवि बाबा तुलसीदास के सामने रिपोर्ट करते हुए प्रकृति का चमत्कार है/ न विधि का कोई विधान/ यह है हमारे ही
अपने समय की विवशताओं के साथ बस एक भोला सा सवाल अंदर पल रहे/ रूपकुमारों की परंपरा विकासमान...’
और उछाल कर कविता को और बड़ा बना देते हैं, 'कविताई ससुरी इसी तरह से ‘सुनो हिरामन’ में भोले-भाले हिरामन के भीतर की
अब, कहाँ जाय, का करी?' और मज़ा यह कि कवित्त में बस एक दुनिया की हलचल कैसे बाहरी दुनिया से हिल-मिल कर नई दुनिया
शब्द लोक से उठाते हैं 'ससुरी' और यही एक शब्द कविता को नया के सच में बदलती है यह यहाँ कविता में देखने की बात है। ‘न जाने
आयाम देता है। वक्रोक्ति जो लोक की ताक़त होती है वही हल्का सा कब से/ एक ऐसे आदमी की तलाश थी मुझे जिससे/ जब चाहे अपने
व्यंग्य कई बार भगवत जी की कविता में बहुत बारीकी से पैबस्त होता अकेलेपन में बातें कर सकूँ/ जिसके आगे अपने अकेलेपन की गांठे
है। हर जगह तो नहीं पर कहीं-कहीं वे व्यंग्य की धार से कविता को खोल सकूँ/ ख़ुद को उधेडंू/ उसे भी उधेड़ सकूँ/ एक-दूसरे को उधेड़
तराशते हैं। उनके अंदर एक लोकचेता कवि रूप भी है। 'ईसुरी और कर बुन सकूँ...’ (पूर्व संवाद- सुनो हिरामन) इस पूर्व संवाद का एक
रजऊ के नाम' ठेठ बुंदेली ठाठ में भी वे ख़ूब रम जाते हैं। हिस्सा यहाँ यह बताने के लिए मात्र कि कविता की भूमि क्या है जिस
उनकी अन्य बहुत सी महत्वपूर्ण कविताओं पर चर्चा की जानी पर खड़ा है कवि के मानस में कुलबुलाता हिरामन। कवि का हिरामन
चाहिए जिसमें पचासों और कविताओं को लिया जाना उचित है पर से संवाद यहाँ भी पूर्व संवाद और समापन अंक के अलावा ग्यारह
स्थान और समय की सीमायें हैं। कुछ बहुत महत्वपूर्ण कविताओं खण्डों में है। बस खंड ‘आठ’ का एक छोटा टुकड़ा बानगी की तरह
का जिन पर विस्तृत चर्चा का अवसर भले यहाँ न बन सके पर कि कवि के मन और हिरामन के बीच चल क्या रहा है– ‘हिरामन
ज़िक्र ज़रूरी लगता है, उनमें मेरी कुछ प्रिय कविताएँ हैं। जैसे ‘ऐसी झूठ मत बोलो/ झूठ बोलने के लिए दुनिया में/ और लोग हैं हिरामन/
कैसी नींद, ‘तुतलाने की आवाज़, ‘आत्मा का गीत, ‘बोल मसीहा, तुम झूठ बोलोगे तो सच कहाँ जाएगा/ सच का इसीलिए तो/ सिर्फ़ मुँह
‘अकेले में धन्यवाद, ‘इस पराये शहर में, ‘वह माँ ही थी, ‘सुनती होता है/ झूठ के इसीलिए होते हैं/ हज़ार मुँह हिरामन...।’
हो क्या, ‘कचरा बीनने वाली लड़कियाँ, ‘गहरी थकान में, ‘बिटिया, फिलहाल, बस इतने पर ही बातों के घोड़े को लगाम लगानी ही
‘ऐसी भाषा, ‘यह महज संयोग है, ‘डोंगियाँ नहीं डूबतीं, ‘मानुस गंध, होगी, जैसे ‘अथ रूपकुमार कथा’ में ‘ऐसे-ऐसे एक राजा हते...’
‘दुःख के बाहर-भीतर, ‘सच पूछो तो, ‘न जाने कब से, ‘सभ्यता और राजा की कहानी में सरपट भागते ‘बातन के घोड़ा पै शकरपारे की
संस्कृति, ‘वह भी, 'छाया’ के साथ 'अपशकुन' जैसी कविताओं के लगाम’ भी आख़िर लगानी ही पड़ती है। बस अंत में भगवत जी के
शीर्षक दिमाग में आते हैं। अब जब आलेख का आकार दी गई सीमा ज़िंदगी में, दुनिया भर के लिए भरोसे की कविता का एक छोटा सा
से बाहर जा रहा है तब लग रहा है कि काश ‘डोंगियाँ नहीं डूबतीं’ हिस्सा, और बस– अभी इतना ही। ‘अभी पृथ्वी इतनी छोटी नहीं
पर इत्मीनान से बात करने का भी मौक़ा बन पाता! या ‘ऐसी भाषा’ हुई है कि गेंद की तरह/ उनकी मुट्ठी में आ सके/ और समुद्र इतने
जैसी बड़ी कविता पर तो बात करनी ही थी, पर... यह एक बड़े कवि उथले नहीं हुए कि उनके लिए/ टेनिस का कोर्ट बन सकें...’ तो बस
पर, उसकी कविताओं पर बात करने की चुनौती है, जिसमें शायद भगवत जी की इस कविता के भरोसे पर दुआ में हाथ उठा कर इतना
मैं असफल ही माना जाउंगा, खैर... आरम्भिक योजना में था कि ही कहें कि– आमीन! n
‘अथ रूपकुमार कथा’ और ‘सुनो हिरामन’ पर इत्मीनान से बात हो संपर्क : सहा. क्षेत्रीय निदेशक,
सकेगी पर अब लगता है वो इत्मीनान अगली किसी योजना के लिए इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय, क्षेत्रीय केंद्र, दूसरा
मुल्तवी करना ही ठीक होगा। ‘अथ रूपकुमार कथा’ उनकी लम्बी तल, राजशेखर भवन, रानी दुर्गावती वि.वि. परिसर,
कविता है। पूर्वपीठिका और उपसंहार के अलावा ग्यारह खंडों में जबलपुर (म.प्र.)
विस्तृत। हर खंड में रूपकुमार संज्ञा नहीं, विशेषण की तरह, अपने मो. 9425158899
समय की चालाकियों, धूर्तताओं, मक्कारियों और ऐसे ही तमाम बड़े

yegh जुलाई से सितंबर 2023 n 45


n विरासत : सोमदत्त

खुली हुई आँख है कविता


राजीव कुमार शुक्ल

सोमदत्त पहली नज़र में समझ में न आने वाले पहचान सकते हो/रात के अँधेरे में पेड़/आम का/.../
कारणों से हिंदी के उन महत्वपूर्ण कवियों में हैं, जिन क्या जान सकते हो सरसराहट से/पीपल के पेड़ का
पर चर्चा अपेक्षाकृत कम हुई है और हाल के वर्षों में होना आजू-बाजू/.../पुचकार कर डकर-डकर भर कर
तो लगभग न के बराबर (वैसे स्मृतिभ्रंश और लोप के सुर मींड़/क्या तुम बुला सकते हो पड़ोसी के बछड़े को
इस युग में वे भूला सा जा रहा अकेला अहम काव्य अपने पास?/.../दूर ऊपर से उड़तीं नीचे आतीं/पाँखों
या जीवन स्वर नहीं हैं)। 1974 में अशोक वाजपेयी की गति देख कर’कह सकते हो क्या तुम झिझकते-
द्वारा संपादित और प्रकाशित ‘पहचान’ शृंखला में झिझकते ही सही/कि ये तोतों की धौर है/गूलर के पके
उनका पहला संग्रह ‘रेल बोगदे में’ आया। कविता-संग्रह ‘किस्से फल खाकर लौटती हुई चार कोस के गाँव से/.../कैसी रार, कैसी
अरबों हैं’ 1980 में और ‘पुरखों के कोठार से’ 1986 में प्रकाशित जूझ, कैसी मरन मची है/हमारे आजू-बाजू, भीतर-बाहर, ऊपर-
हुए। सोमदत्त विश्व कविता के अपने हिंदी अनुवादों के लिए भी नीचे/अपनी नाड़ी में क्या हम उन्हें पकड़ सकते/बांध सकते हैं क्या
सुपरिचित और सम्मानित थे। ‘नाज़िम हिकमत की कविताएँ’, हम अपने अक्षरों में”। कविता ‘छटपटाता हूँ इसीलिए’ में वे पूछते
‘गाथाएँ सपनों की’ और ‘नन्ही डिबिया: वास्को पोपा की कविताएँ” हैं–“वे कौन सी जुबानें हैं/जो मैं बोलूँ/कि समझें सबके मन/कौन
उनके द्वारा अनूदित कविताओं के संग्रह हैं। उनका अनुवाद का और सी गठानें अपनी/जो मैं खोलूँ/कि खुलें सबके मन/कौन कौन सी वह
भी उल्लेखनीय और चर्चित काम रहा। महज़ 50 साल की उम्र में काया/जिसे धारूँ/कि भेंटें सब तन मन”।
1989 में उनका निधन हो गया। मेरा अपना अनुभव यह रहा है कि सोमदत्त को पढ़ना शुरू करते
1980 के दशक में मध्य प्रदेश में प्रगतिशील लेखक संघ के ही वे जैसे भीतर गूंजने लगते हैं। इस अनुभूति में उनसे रूबरू सुने
एक आयोजन में बोलते हुए सोमदत्त ने कहा था कि हमारे यहाँ उनके काव्यपाठ की ध्वनि-स्मृतियाँ शामिल हो सकती हैं। उनकी
वैद्य का एक नाम कविराज भी होता है। उन्होंने कहा था कि हमारी कई अपेक्षाकृत लंबी कविताओं में एक ज़बर्दस्त प्रवाह है, जैसे कोई
परंपरा में वैद्य जिस ग्राम या अंचल में रहते थे, उसके हवा-पानी, बांध टूटा हो और हरहराते पानी के भीषण वेग में बहुत कुछ बहा
मिट्टी, वनस्पतियों, फ़सलों, पशु-पक्षियों, कीड़ों-मकोड़ों, मनुष्यों, चला जा रहा हो, कभी कुछ दिखता, कभी कुछ, डूबता-उतराता
उनके और उनके परिवारों के शरीर और मन के स्वभाव, उनकी ऊभ-चूभ करता–आफ़तें, उम्मीदें, पस्तियाँ, हौसले, चेतावनियाँ,
हारी-बीमारियों, वहाँ के रीति-रिवाज़ों, लोकोक्तियों और जनश्रुतियों घुमड़ते प्रयाण और विजय गीत, कई जाने-पहचाने, कई चौंकाने-
आदि आदि के सम्यक औरआत्मीय जीवंत ज्ञान की उनसे अपेक्षा की चकराने वाले शब्दों और देशज पदों के नये अर्थ गढ़ते और खोलते
जाती थी, तभी वे अपने कर्तव्यपालन में पूरी तरह निष्णात माने जा युग्म, अनेक बार तो शब्दों और ध्वनियों के, बिंबों के गुच्छे-दर-
सकते थे। उन्हें कविराज कहे जाने का एक निहितार्थ साहित्यकारों गुच्छे, जो कभी बहुत कुछ चमका कर जगमगा देते हैं और कई बार
के लिए यह है कि कवि को भी– जनपक्षधरता सच्चे अर्थों में निभाना बेतरह खिझा भी सकते हैं। मानो एक झड़ी है, जो शुरू होती है,
चाहने वाले कवि को तो विशेष रूप से– अपने जन और परिवेश तो खासी दूरी और देर तक चल सकती है। अक्सर आपको उनके
से ऐसी ही अटूट तथा बहुआयामी संलग्नता के साथ जुड़ा होना साथ जैसे एक बेतहाशा दौड़ लगानी पड़ती है और उसमें आप गति
चाहिए। सोमदत्त अपने कवि कर्म में इस दायित्व को निभाने का के आनंद से विभोर भी हो सकते हैं और आपकी साँस भी फूल
निरंतर और सघन प्रयास करते हुए दिखाई देते हैं। वे जीवन भर सकती है। उनकी कविता में विचारों और अनुभूतियों का दुर्दमनीय
इसके लिए आकुल-व्याकुल रहे, जिसके एक उदाहरण के रूप में ज्वार है, बहुधा शब्द-स्फीति है, सम्प्रेषण के लिए आकुलता है, पर
उनकी कविता ‘विकलता’ की ये पंक्तियाँ दृष्टव्य हैं– “क्या तुम जीवन और जगत की जटिलता की समझ और उसका संधान भी है।

46 n जुलाई से सितंबर 2023 yegh


‘इकेबानाई गुलदस्ता’ जैसे पदों से व्यक्त व्यंग्य के स्वर भी उनकी पीढ़ियाँ-दर-पीढ़ियाँ उसे बोकर झूठी उम्मीद लगाए रखें।
कविता में आते हैं–“हम लोगों के लिए/नक़्शे हैं लानदार साफ़ सुथरे कुछ कविताएँ गद्य ही नहीं, लगभग निबन्ध शैली में भी लिखी
मकानों के/...उन लोगों के लिए/बस घर हैं ईंट पत्थर संगमर्मर के”। गई हैं और ‘शरीर रचना विज्ञान’ तो नाम से ही नहीं, बर्ताव से भी
वे अपनी कहन में बेतरह प्रयोगधर्मी कवि थे, बहुत बेचैन, ठीक-ठाक लंबाई का एक छोटा निबन्ध जान पड़ती है, जो कि पिता
हमेशा किसी नये रास्ते की तलाश में। उनका प्रमुख परिचित ‘फ़ॉर्म’ का पुत्र को मार्मिक सम्बोधन है, एक तरह का पिता का पत्र बेटे
मुक्त छंद का काव्य है, लेकिन अनेक बार वे उसे लय से भर देते के नाम, जिसमें वह बताता है कि “मेरी साँसें और बोध की चलती
हैं। सोमदत्त की कविताओं में मेरी बहुत प्रिय रचना है ‘माँडने और आरी के नीचे नस नस, रेशा रेशा, गाँठ गाँठ खुलते हुए– समझ का
नारे’। उसकी आरम्भिक पंक्तियाँ देखें–“जब तक आदमी के हाथ खारापन, अनुभव के खारेपन की तरह रक्त से पाया है। “समझ और
और आँखें हैं/आँखों में धरती आकाश फूल पत्ती है/दूध दही नगाड़े सीख की थाती भविष्य को सौंपती यह कविता इन हुतात्मा शब्दों
बेटे बेटी हैं/गाड़ी बैल मोर चिड़ियाँ चाँद तारे हैं/औरतें हैं सपने भरे से समाप्त होती है “मैं भी पकता हूँ– करता हूँ उलझी हुई पिण्डी
हाथों से खिलखिली/मिट्टी गोबर में सनी/बच्चे हैं खिलौनों भरे मन में की एक-एक उलझ अलग, पैनी करता हूँ समझ– लड़ता हूँ ज़िंदा
उभे चुभे/लड़कियाँ हैं पाँखुरियों तितलियों की फरफराहटों में/पगीं/ मरने के ख़िलाफ़, मैं सड़क पर चलता हूँ, तेरे दागे सवालों की दाह
बहुएँ धरती अक्कास फलाँगती/बेसुधियों सुधियों में/दीवारें खाली से छटपटाता, साहस बटोरता कोशिश करता हूँ सब कुछ दाँव पर
नहीं रहेंगी/माँडने माड़े जाएँगे”। उन्हें पढ़ते हुए कभी-कभी धूमिल लगाकर ललकारने की...ताकि...तेरे बेटे के लिए यह सवाल न रह
याद आते हैं, जिन्होंने शुरुआत गीत रचने से की थी और बाद में जाए...।” यह सच है बेटों और बेटियों के लिए सवाल हमेशा रहेंगे,
मुक्त छंद अपना कर भी वे उसमें एक तरह का तुकांत या ध्वन्याँत मौज़ूदा सवाल सुलझेंगे, तो नये सवाल आएँगे, आने ही चाहिए,
समाविष्ट कर देते हैं– “और तभी सुलग उठा पश्चिमी सीमांत/... क्योंकि वही आगे बढ़ने की राह है, लेकिन सोमदत्त की कविता
ध्वस्त...ध्वस्त...ध्वांत...ध्वांत...” या “यह तीसरा आदमी कौन अपने सामने नज़र आती “उलझी हुई पिण्डी की एक-एक उलझ
है?/मेरे देश की संसद मौन है” आदि आदि आदि। ‘राजनेता का अलग” करने का जी-जान से यत्न करती जाती है।
अधसच सपना’ कविता में सोमदत्त जैसे कुण्डलिया छंद जैसे कुछ कहन का एक और निराला प्रयोग गणित के सवाल जैसी आंकड़ों
का सा इस्तेमाल करते लगते हैं (मैं छंदशास्त्र का ज्ञाता नहीं, सो भरी कविता ‘जीवन अँधेरे भरा अंग भंग’ में देखा जा सकता है। एक
विद्वान भूल-चूक माफ़ करें)–“हार थे फूल थे गुलाल चापलूसी के/ अनूठा प्रयोग ‘क– सब कुछ हो सकता है’ कविता में अक्षर की साँस
गुलाल चापलूसी के ख़ूनखोर जानवर/ख़ूनखोर जानवर की नसों में और ध्वनि की महान और उदात्त से लेकर विचित्र विद्रूप तक की
चमत्कार/चमत्कार चींटियों की ढीठ बर्दाश्तियों में/ढीठ बर्दाश्तियों अनंत संभावनाओं को उकेरता हुआ है, जहाँ ‘क’ से क़लम (“हमारे
की कोमल गादी पर/सोया खुर्राटे ले, मैं लौट आमसभा से”। शमशेर, नागार्जुन, त्रिलोचन, मुक्तिबोध की सुलगती क़लम”),
कहीं वे उर्दू-फ़ारसी की नज़्म शैली में स्वयं को रचते प्रतीत कमल (“तालाबों में काई को जगह देता राष्ट्रीय कमल”), क़मर,
होते हैं। यह अलग बात है कि इस नज़्म-शैली में लोक शब्दों और कम्बल, कटोरा, कन्दरा (“आदि मानवों की चित्रकला से सजी
उक्तियों का इस्तेमाल इसका भी एक नया और अनूठा स्वाद सिरज भीमबेटका की कन्दरा” या “दूसरे महायुद्ध में ‘एन फ्रेंक’ को छिपाए
देता है–“चूजा चूजा/और न दूजा मेरा साथी/मेरे हुनर का जाती- साहस की कन्दरा”, कल, कर्म, कवायद (“आदमी हिन्दू मुसलमान
पाँती/’कच्ची’ पारुस से सकुचाता/’पक्की’ हो तो छककर खाता/मैं क्रिस्तान सुलगाती दक्ष: करती कवायद” या “(परसाई के) ‘ठिठुरते
हूँ बिरहमन नहीं बताता/जातिवाद को धता बताता/मैं कमीन कितना, गणतन्त्र’ को दी जाती भव्य लाव-लश्कर की सलामी कवायद”,
इसका क्या/तुम्हें पता, मेरे बिरादरों/चाट-चाट कर थूक बढ़ा हूँ/ कमान (“लातीनी जंगलों में अलख जगाती ‘चे’ के गुरिल्लों की
बोल बोलता बड़े खड़े पर/औकातों से चपरकनाती” (‘नहीं दुहनियाँ कमान” या “हाईकमान”), कसाई– इनमें से कुछ भी हो सकता है
मानेंगे हम’)। उनके दूसरे संग्रह की शीर्षक कविता ‘किस्से अरबों (इस रचना में हर शब्द की अनेकानेक संभावनाओं के दृष्टांत हैं)
हैं’ में भी ऐसे प्रयोग हैं– “कटे पेड़ों का आसपास, नाले हुई नदियों और कनेर, कदम्ब, करौंदा, नज़ीर की ककड़ियाँ, करछुल, कच्छप
के/किस्से सौ सौ उदास, शहरों की बमचक/में फैले नामावर ठस्सों अवतार, कठफोड़वा, कठोपनिषद, कबीर, काफ़्काका ट्रायल (यहाँ
के भितरघात, पिता/के पितरों के पितरों के समय से, बोई जो/गुठली भी एक खासी लंबी और अर्थगर्भित सूची में से कुछ का ही उल्लेख
दिलासा की जस की तस ठस अब/भी, जारी है इंद्रजाल : झंडों की कर पा रहा हूँ), लेकिन सोमदत्त के लिए ‘क’ के विस्तार का मूल
रंगारंग/रंगबदल बतकहास, फिर भी दो कौर रोज़/घर की खपरेल प्रस्थान बिन्दु है उसका “समूची भाषा का ककहरा” हो सकना और
पर”। दिलासों की गुठली तो कभी अंखुआने वाली नहीं, भले ही अंतिम तथा चरम उत्कर्ष है “कविता” हो सकना।

yegh जुलाई से सितंबर 2023 n 47


जीने के लिए हम में से ज़्यादातर लोगों को खटना या काम करना हत्याकांड–2’ और‘गन्दी बस्ती उन्मूलन’ जैसी कविताएँ इसके
होता है। श्रमजीवी वर्ग के साथ एकजुटता रखने वाला कवि कर्म- बिना संभव नहीं होतीं। पशु चिकित्सा के अनुभव सँजोकर उनका
स्पंदनों को सम्मान और लगाव से देखता है। सोमदत्त के काव्य-संसार अद्भुत रूपांतरण करती यादगार कविता है ‘अधूरी कविता के अंतिम
में मज़दूर या किसान का काम जिस तरह आता है, वह उनकी और शब्द से बातचीत’।
सबकी मनुष्यता को शक्ति, सामर्थ्य और धार देता है, समृद्ध करता सोमदत्त की कविता की एक बहुत उल्लेखनीय विशिष्टता यह है
है। ‘कवि’ रचना में “एक एक ईंट उठाता है/.../उछलकूद कर रहे कि वे प्रकृति और परिघटनाओं को एक वैज्ञानिक की रुचि, दृष्टि,
शरारती शब्द की तरह/चपतिया कर किसी को अलग कर देता है/.../ ज्ञान और लगाव के साथ देखने वाले हिंदी के अगर अकेले नहीं,
किसी को हथेलियों लपक/अपूर्व विश्वास से जमाता है धरती पर/ तो बहुत ही कम गिने-चुने कवियों में एक है। उनकी मार्क्सवाद में
गारा देता है कन्नी से/कन्नी में पसीने की आत्मीयता घुली हुई/इसी आस्था थी और अपनी कविता में वे ऐतिहासिक भौतिकवाद और
तरह/वह बुज़र्गु राजगीर/कविता रचता है ईंट ईंट”। कविता ‘इस्पात द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद, दोनों को सार्थक कहन के साथ साधने के
कैसे बनता है आदमी’ में मेहनत की गाथा की ठोस ऊर्ध्वगामी गति लिए बहुत गंभीर और सघन जतन करते चलते हैं और जहाँ रूपांतरण
की परिणति उकेरी गई है–“वह हथौड़ा उठा रहा है/ललछौंहे लोहे के के उछाहक़ी यह गाथा सध जाती है, वहाँ हिंदी की कुछ बिलकुल
टुकड़े पर आँखें साधे/.../उसकी स्त्री कुंदे पर जमे अंगार पर पड़ती अनूठी और अनुपम कविताएँ संभव हो जाती हैं, जैसे ‘पहिया : याने
चोट/झेलेगी अपनी नरम छाती पर/इसी धमक भरी छाती में बनता शामिल होना पेड़ का श्रमिकों की बिरादरी में’ (“धीरे धीरे धीरे लोहे
दूध/ पिएगा उसका बेटा/.../इस्पात कैसे बनता है आदमी/ऐसे हाँ इसी की मदद से/काठ से पहिया बना वह मनुष्य के हाथों/पसीने की बूँदों
सहज विधि से।”यहाँ जनकवि केदारनाथ अग्रवाल की कविता ‘एक से नहाते समय पर/जाना उसने पहली बार/परिश्रम का खारापन/
हथौड़ेवाला घर में और हुआ’ भी याद आती है। उचित ही कहा गया रक्त की उष्णता/कला की आंतरिक लहर/गरिमा ज्ञान की/लाखों
है कि हिंदी कहानी की दुनिया में शेखर जोशी औद्योगिक श्रम-जीवन बरसों की परंपरा आगे बढ़ी सबके जोड़ से”), ‘पेड़ लड़ रहा है’,
के विशिष्ट चितेरे हैं। सोमदत्त की कविता में खेती-किसानी से लेकर ‘मघा’, ‘मनुष्य होने के बावज़ूद’, ‘सारे जहाँ से अच्छा’, ‘खाद’,
मज़दूरी के बहुरंगी बिम्ब और दृश्य मौज़ूद हैं। लेकिन ‘सहज चाकरी’ ‘ख़िलाफ़– गहरी नींद में रत्नों की’ आदि। छोटी सी कविता ‘माता’
वाली कुर्सी को मोहताज कलमघिस्सू नौकरी मनुष्यता का क्षरण और को पूरा उद्धृत किए बिना मैं नहीं रह पा रहा हूँ–“गर्भाशय हो गई/
अवमूल्यन करती है, यह चेतना वे अपनी शुरुआती कविताओं से चट्टान/उड़कर आए बीज को-/पोसती/तरल तापभरी विह्वल जननी/
ही दर्शाने लगे थे- “कुर्सी/जैसे ग़ुलाम मल्लाहों के बाँधने का कुंदा बीज को/अँखुए में/अँखुए को/पौधे में/पौधे को/वृक्ष में/विकसित
हो/या/कोल्हू के बैलों के बांधने का खूँटा/.../पट्टी बांधे बैल की/ करती अपने आरपार/ले जाएगी उसकी जड़/और उसे ब्याहक़र धरती
अकबकाती दुनियाँ/नस्ती बँधे बाबू का/कतरा ब्यौंता/दस से पाँच से/नाती पोतों का इंतज़ार करेगी”। विचार और अनुभूति का, दृष्टि
संसार” (‘रेल बोगदे में’, ‘भीतरी बुनावट’ शृंखला-एक)। और संवेदना का, वैज्ञानिक यथार्थ और लोक तरलता का यह मणि-
यहाँ बाँधना या बंधे होना दोहराया जाता है। बाँधना और बँधना कांचन संयोग ही तो है, जो सोमदत्त की कविता अनेक बार प्रत्यक्ष
का फ़र्क़ भी आप देख सकते हैं। दूसरी क्रिया में एक सहमति या करती है। उनकी इस श्रेणी की सबसे विस्तृत फलक की कविता
कम से कम समर्पण गुथँ ा हुआ है। इसी तारतम्य में जो बँधा है, वह है ‘हमें ब्रह्माण्ड होना चाहिए’, जो आज भी वैज्ञानिक चेतना की
यानी बाबू नस्ती यानी कागज़ों के पुलिंदे से ही बंधा है और शायद काव्यात्मक अभिव्यक्ति के लिए मेरी दृष्टि में हिंदी में एक प्रतिमान
उसकी जकड़ सबसे मारक और मज़बूत है, जो उसे “दो टूक बात है–“हमें ताँबा होना चाहिए और जस्ता/लोहा और अल्मोनियम/.../
करते/अक्खड़/आदमी के बजाय/आँख चोर बबुआ” बनाती जाती मोती भी होना चाहिए या खनिज तेल/.../मिट्टी का तेल तक बनने
है। यह महीन और क़ातिल मार सोमदत्त की कविता महसूसती के लिए/तैयार होना चाहिए/और कोयला भी/.../या पानी का सोता
और दर्ज़ करती है। याद कर सकते हैं कि वे पशु चिकित्सा विज्ञान ऊँचे पर्वत पर/.../हमें तारागण होना चाहिए/.../सूर्य होने की हद
के स्नातक थे और 1962 से मध्य प्रदेश पशु चिकित्सा विभाग में तक हममें से किसी को/धधकना चाहिए अपनी आत्मा में/.../किसी
सेवारत थे (हालाँकि 1983 से उन्होंने मध्य प्रदेश साहित्य परिषद को वनस्पति होना चाहिए/क्योंकि उसमें हैं अमृत की बूँदें परियों के
के सचिव और ‘साक्षात्कार’ पत्रिका के सम्पादक का अतिरिक्त घोंसले/.../हाँ हममें से किसी को सर्प भी होना चाहिए/क्योंकि उसमें
कार्यभार संभाला), सो नौकरशाही की फ़ितरतों और चाकरी से विष है विष को काटने वाला/हममें से किसी को मछली होना चाहिए/
अंजाम पाते अवमूल्यन और अमानवीकरण को उन्होंने बिलकुल फ़ॉस्फ़ोरस के लिए/.../मनुष्य होने के बावज़ूद हम सबको/चौरासी
नज़दीक से देखा और भोगा था। ‘हरिजन हत्याकांड–1’, ‘हरिजन लाख योनियों की ताक़त जोड़कर/समरसता हासिल करनी चाहिए/

48 n जुलाई से सितंबर 2023 yegh


पृथ्वी की, वायु की, आकाश-पाताल की/हमें भूख़ंड नहीं/अनन्त बड़ी चीज़ क्या है हम ग़रीबों के पास/सो हमने दे दी भाई मियाँ/
संभावनाओं से भरा ब्रह्माण्ड बनना चाहिए/मिलजुल कर आपस में”। आपके लिए”।
शोषण के विरुद्ध संघर्ष के अंतरराष्ट्रीय स्वरूप को उसकी सोमदत्त की कविताओं पर कोई भी बातचीत ‘क्रागुएवात्स में पूरे
जटिलताओं में देखना-परखना और कहना भी सोमदत्त के काव्य स्कूल के साथ तीसरी क्लास की परीक्षा’ कविता से गुज़रे बिना पूरी
संसार में उनकी खास अपनी शैली में होता है। ईरान की इस्लामी नहीं हो सकती। दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान युगोस्लाविया (जो अब
क्रांति को बूझने की कोशिश करती उनकी कविता है ‘शाह मोरक्को फिर कई देशों में बांटा जा चुका है) के क़स्बे क्रागुएवात्स में 21
में’। सभ्यताओं के हज़ारों वर्षों के नातों को स्वीकार करती इस अक्टूबर, 1941 की सुबह नाज़ी जर्मनी की फ़ासिस्ट सेना ने वहाँ के
कविता में आर्य मेहेर हैं, तो वराह मिहिर भी हैं। इसका यह स्वर प्राथमिक और माध्यमिक स्कूल के 800 बच्चों को उनके शिक्षकों
देखिए–“पारे सा वज़नदार होनेके बावज़ूद/तीर सा उट्ठा, उड़ा परिन्दों के साथ कई समूह बनाकर गोली से उड़ा दिया था। सोमदत्त को
की तरह/मौत की बेफ़िक्री मस्ती से... इन्कलाब/तेल के पाइपों में/ वहाँ जाने और उस बर्बर हत्याकाण्ड के बारे में विस्तार से जानने
खदान की रुह में/रुह के अलाप में...इन्कलाब/.../समुन्दर की का अवसर मिला था, जिसका परिणाम यह कविता हुई। बच्चों की
लहर में/ख़ून की बहर में/ज़िन्दगी के रदीफ़ काफ़िए में इन्कलाब/ ओर से उनके भोलेपन, साहस और मासूमियत के साथ की गई
छन्द में आ गई जुर्रत...”। आगे कविता कहती है–“हुज़ूर ख़ोमैनी अभिव्यक्ति की यह कविता जहाँ निस्तब्ध और अवाक कर देती है,
आदाब/.../याद रक्खें अजान के लिए नहीं जान के लिए क़ुर्बान वहीं युद्ध की अमानुषिकता को खौलते ख़ून की स्याही में पिरोकर
कीं हमने/अपनी जानें/.../गंगा जल यमुना से मिलने के बावज़ूद/ हमें जगाती और सावधान करती है और फ़ासीवाद के दुनिया भर में
नेस्तनाबूत न कर पाया सरसुती को/संगम दो का दिखने के बावज़ूद/ फिर उभार के समकालीन परिप्रेक्ष्य में यह सीख और भी ज़रूरी और
त्रिवेणी कहलाएगा/ख़ून रंग लाएगा लड़कों का/नामुमकिन है अलग अनमोल हो जाती है।
होना हवा का सांसों से/.../बन्दूक/ताऊस को तख़्त से मुक्त किए पृथ्वी और मनुष्यता की चरम पीड़ा और यातना को दर्ज़ करते
बिना/कैसे सो सकती है सच्ची नींद!” हुए भी सोमदत्त की कविता का मूल स्वर संघर्ष और संकल्प का है,
वैश्विक साम्राज्यवाद के सबसे बड़े पुरोधा अंकल सैम (अमेरिका) क्योंकि उनके कवि को, उनके मनुष्य को पता है कि “पराजित/सेना
की महीन चालाकियों औरमोहक़ षड़यंत्र की कारगुज़ारियों के साथ हो सकती है/ज़मीन नहीं”। इसी आस्था से उनकी कविता का यह
उनके हर रंग की चमड़ी के साझीदारों और गुर्गों के पल्ले उघाड़ती हौसला उपजता है– “समूचे ठूँठ के ख़िलाफ़/अकेला/एक कल्ला
है कविता ‘पल्लेदार गुँइयाँ’–“कुतर-कुतर/धरती में सुरंगें बना लीं भारी पड़ता है/जैसे/समूचे अँधेरे के ख़िलाफ़/एक खुली हुई आँख”।
जैसे सीने में/वायु-नलिकाएँ-फेफड़े की शाखें/एक दूसरे की गुथँ ीं/ जीवन की मित्र कविता हर तरह के अँधेरे के ख़िलाफ़ एक ‘खुली हुई
हर गुज़र में गॅंसी कुतरनें/कुतरनें कोषिकाओं में स्पन्दित/प्राणवायु आँख’ ही तो होती है। ‘माँडने और नारे’ कविता का ज़िक्र उसकी
बढ़ते दबावों से चकित/.../शाखें एक दूसरे में सुतीं/सुरंगें गुँइयों की शुरुआती पंक्तियों के उद्धरण के साथ पहले आ चुका है। अँधेरे के
तरह गुँथीं/कुतरनें-बोलियाँ-पढ़ाइयाँ-पनडुब्बियाँ/सभी अल्हड़ मस्त ख़िलाफ़खुली हुई कवि की आँख इस कविता के उत्तरार्द्ध की इन
गुँइयाँ/यमराज जी तुम्हारे व्यापार की/सफ़ेद बादामी श्याम चचा सैम पंक्तियों में हम सबको उम्मीद, हौसले और जद्दोजहद की उजास
के पल्लेदार की”। दिखाती चलती है–“जब तक आदमी के हाथ और आँखें हैं/आँखों
सोमदत्त की काव्य-यात्रा में उसके प्रधान स्वर का उद्विकास कुछ में दूसरों की धरती/दूसरे का आकाश फूल पत्ती हैं/दूसरों के ढोर
इस तरह देख सकते हैं कि शुरू में वे लड़ने-भिड़ने को तैयार और दूध नगाड़े हैं/दूसरों के गाड़ी बिल मोटर हवायान हैं/जब तक अपनी
आमादा कविताएँ होती हैं, जिनमें अपने पसीने और ताप से दूसरों के औरतें हैं टूटी/अपने बच्चे रूखे सूखे बियाबान/जब तक दूसरी औरतें
सुर्ख़रू होने पर गहरा गुस्सा लगातार झलकता है। धीरे-धीरे क्रोध हैं सुर्ख़रू/दिल के भीतर उठती हँसी से ताज़ा बच्चे दूसरों के/जब तक
और आक्रोश के बरअक्स हमारी दुनिया में बढ़ती जा रही भयावह ख़ून है/उबलता हुआ नसों में अपनी/जब तक ख़ून है दौड़ता हुआ
निर्ममता पर विषाद और अवसाद को गाढ़ा होता हम महसूस करते दूसरों की नसों में, हमारे/उबलते ख़ून की ताक़त से/तब तक दीवारें
हैं। ‘डरता रह गया’ में यह पछतावा गड़ा हुआ है–“अपनी मिट्टी को ख़ाली नहीं रहेंगी/नारे लिखे जाएँगे”। n
जगाना था-/पुरखों के कोठार से बीज निकाल कर/उम्मीद का बिरवा संपर्क : फ्लैट नं. 406, जी-ब्लॉक,
उगाना था/जाऊँगा/जाऊँगा करता रह गया/डरता रहा/डरता रहा, दत्त टाउनशिप, तिलहरी,
डरता रह गया”। ‘भोपाल गैस त्रासदी: तीन कविताएँ’ में फुसफुसाती जबलपुर (मध्य प्रदेश) 482021
इस आवाज़ की हूक ताउम्र हमारा पीछा करती है–“हुज़ूर/जान से मो. 9818586684

yegh जुलाई से सितंबर 2023 n 49


n विरासत : विष्णु खरे

वैचारिक प्रखरता के योद्धा कवि


दिनेश भट्ट

विष्णु खरे ने गद्य रचना में कविता को आविष्कृत वे लगातार छिंदवाड़ा आ रहे थे। मुंबई की आपाधापी
किया और दिखाया कि गद्य की अपनी एक लय होती भरी जिंदगी से दूर अपनी उम्र के अंतिम तीन वर्षों में
है, जो उनकी कविताओं का खास गुण है। उनकी वे छिंदवाड़ा की ठंडी फिजा में रहक़र अध्ययन लेखन
लंबी कविताओं और गद्यात्मक शैली पर हमारी उनके और अनुवाद कार्य कर रहे थे। मैं और प्रगतिशील
साथ तीखी चर्चाएँ होती थी और अंततः कविताओं की लेखक संघ छिंदवाड़ा के मेरे साथी वरिष्ठ कवि मोहन
स्वीकार्यता पर सहमति बन जाती। विवाद उनके साथ कुमार डहेरिया, कवि हेमन्े द्र राय, कथाकार राजेश
जुड़े रहते थे लेकिन यह सच है कि उन्होंने कवियों की झरपुरे और गोवर्धन यादव, कवि श्रीराम निवारिया और
एक पीढ़ी तैयार की। विष्णु खरे ने हिंदी कविता में एक मौलिक और रोहित रूसिया उनके साथ बौद्धिक बैठकों का लाभ लेते रहे हैं।
दूरगामी बदलाव किया, जिसका व्यापक असर हुआ और कविता छिंदवाड़ा में खरे जी अध्ययन, लेखन और अनुवाद कार्य कर रहे थे
गद्यात्मक, निबंध जैसी और अलंकरण-विहीन हुई और बहुत से इसलिए उन्हें स्थानीय स्तर पर आयोजित वैचारिक या काव्य गोष्ठियों
कवि ही उनके इस शिल्प में लिखने लगे। उन्होंने विश्व कविता के में लाना टेढ़ी खीर होता था। मैं चाहता था कि उनकी मेघा और
कई बड़े कवियों की रचनाओं के अनुवाद किया। गोइठे, गुटं र ग्रास, उपस्थिति का लाभ छिंदवाड़ा के लेखकों, कलाकारों और संस्थाओं
अत्तिला योज़ेफ, मिक्लोश राद्नोती, बेर्टोल्ट ब्रेख्त आदि कवियों और को मिले। मैं लोगों को उनसे मिलाने का प्रयास करता था, नतीजतन
एस्टोनिया और फ़िनलैंड के लोक-महाकाव्यों के उनके अनुवाद खरे जी लेखकों की कलम और कलाकारों की अदाकारी के कायल
उल्लखनीय हैं। उन्होंने उन्नीस साल की उम्र में बीए में पढ़ते हुए भी हुए। विष्णु खरे को कहीं भी काम चलाऊपन पसंद नहीं था।
ही अंग्रेजी कवि टी एस एलियट की प्रसिद्ध कविता 'वेस्टलैंड' को दबंगता इतनी कि वे फिसलने की सीमा पर खड़े होकर अपने गिरने
हिंदी में 'मरु प्रदेश और अन्य कविताएँ' नाम से अनूदित किया। की परवाह न करते हुए भी अपनों पर कटाक्ष कर देते थे। विष्णु खरे
हिंदी कविता को अनुवाद के ज़रिए अंग्रेज़ी और जर्मन, डच आदि की मूर्ति भंजक छवि को हमने छिंदवाड़ा में भी महसूस किया। विष्णु
भाषाओँ में पहुँचाया। उन्होंने जर्मन विद्वान प्रोफेसर लोठार लुत्से के खरे ने 19 सितम्बर 2018 को दिल्ली के जे.बी. पंत अस्पताल में दिन
साथ हिंदी कविता के जर्मन अनुवादों का पहला संकलन भी संपादित के साढ़े तीन बजे अपनी आख़िरी साँसे लीं। मुझे चार बजे ख़बर लगी
किया। हिंदी कविता के अंग्रेज़ी और डच अनुवाद भी उनके प्रयत्नों तब मैं डेनियनशल कालेज छिंदवाड़ा के एक कार्यक्रम में अतिथि
से संभव हुए। था। ख़बर सुनने के बाद मैं वहाँ फिर रुक नहीं पाया और अपना
मध्यप्रदेश के छिंदवाड़ा के कुम्हारी मुहल्ले में 9 फरवरी 1940 वक्तव्य दिए बिना ही चला आया था।
को जन्में वरिष्ठ कवि, आलोचक,पत्रकार तथा फिल्म समीक्षक अपने काम के प्रति इतने जिद्दी व्यक्ति मैंने बहुत कम देखे हैं।
स्वर्गीय विष्णु खरे का छिंदवाड़ा प्रेम जग जाहिर है। अपने लेखन में उम्र के इस अवसान पर भी वे प्रतिदिन अख़बार के लिए स्तंभ लिखते
उन्होंने छिंदवाड़ा को अनेकों बार अभिव्यक्त किया और छिंदवाड़ा पर थे और वेबसाइट्स पर अपनी बेबाक टिप्पणी देते थे। विष्णु खरे की
उनकी कविता 'मिट्टी' चर्चित भी हुई। छिंदवाड़ा के वरिष्ठ कथाकार कविताएँ, कविता के रूप में जैसे अनुसंधान की एक पूरी कार्यशाला
हनुमंत मनगटे बताते थे कि विष्णु खरे के पिता स्वर्गीय सुंदरलाल है। वे इतिहास और उसकी मीमांसा को कविता के परिसर में लाती
खरे ने हायर सेकडें री छिंदवाड़ा में शिक्षक थे और उन्होंने मनगटे है। उनके काव्य लेखन में शास्त्रीय संगीत जैसा लंबा और कठोर
जी को पढ़ाया था। 1951 में उनका स्थानांतरण होने पर परिवार रियाज, विषय के प्रति एकाग्रता दिखती है। मिथक उनकी कविता
खंडवा चला गया। खंडवा से विष्णु खरे की जीवन यात्रा इंदौर, के महत्वपूर्ण अंग हैं। वे मिथकों की पूरी दुनिया में प्रवेश करते हैं।
दिल्ली होते हुए मुंबई पहुँची। अपनी मृत्यु के पिछले पन्द्रह- वर्षों से विष्णु खरे जी की भाषा असाधारण थी महाभारत को वह विश्व का

50 n जुलाई से सितंबर 2023 yegh


सर्वश्रेष्ठ महाकाव्य मानते थे और अंतिम दिनों में उस पर कुछ काम टेबिल, दोस्त, कार्यकर्ता, मुक़ाबला, देर से आने वाले लोग,
कर रहे थे। कहा जाता है विष्णु खरे महाभारत के प्रसंगों का कविता इकबाल, सिंगल विकेट सीरीज, जिल्लत, होनहार कविताओं में
में अन्वेषण करते हैं। मैं जब उनकी कविताएँ “टेबिल”, “अकेला निबंध सरीखा गद्य शिल्प, सपाटबयानी, ग़ैर-भावुक संवेदना, भाषाई
आदमी”, “लड़की”, “देर से आने वाले लोग”, “लड़कियों के बाप” वस्तुपरकता स्पष्ट नज़र आती है। मध्य वर्ग की मौलिक उद्भावनाओं
या “दूरबीन” पढ़ता हूँ तो उन पर रघुवीर सहाय का यह कथन याद को अपनी कविता में विष्णु जी ने जिस गंभीरता से स्थान दिया है,
आता है– विष्णु खरे की कविता एक संपादित फिल्म की तरह है वह समकालीन कविता संसार को समृद्ध वाली है। बेटी, स्त्री, पिता,
और हम इस निःशब्द के पीछे एक संगीत की कल्पना भी सुन सकते हिंजड़े आदि पर विष्णु खरे की कविता रेखांकित की जाने वाली
हैं। शायद उसने अपने अंदर एक अनुभूति को बाहर दिखने वाली कविता है। पुतले बनाने वालों के व्यापार का एक शानदार प्रतिफल
तमाम चीज़ों के जरिए पहचानने का संस्कार पैदा किया है जो एक है कविता बढ़ती ऊँचाई- “वह जानता है उसे आज फिर अपना मूक
आधुनिक संस्कार है। अभिनय करना है/ पाप पर पुण्य की विजय का/ फिर और यथार्थता
विष्णु खरे की ‘बदली हुई’ कविता का प्रस्थान-बिंदु टेबिल पहली से जल जाना है/ अगले वर्ष फिर अधिक उत्तुग भव्यतर बन कर/
कविता है। यह लम्बी कविता एक सीमान्त है जिसके बाद उनकी लौटने से पहले।” हर बार पहले से ज्यादा ऊॅचे रावण के पुतले
कविता का नया काल आरम्भ हुआ। उन्होंने कविता के पारम्परिकता बनाने की मांग और ख्वाहिश इस व्यापार को जिंदा रखे हुए है और
को बचाते हुए अपनी कविताओं के माध्यम से समकालीन कविता लोगों की कामना में उसकी भव्यता का अपना खाका है। न व्यक्ति
के परिसर को व्यापक किया है। ये कविताएँ मुक्तिबोध, रघुवीर के भीतर के रावण को जलना है न बुराइयों का उपसंहार होना है
सहाय, चंद्रकांत देवताले की परंपरा की कविताएँ हैं। इन कविताओं पर रावण की ऊँचाई बढती रहे, यह लालसा कभी खत्म नहीं होती।
में कस्बाई, शहरी आम जनजीवन के सहज चित्र, उसकी आलोचना विष्णु जी समकालीन राजनीतिक और सामाजिक मुद्दों पर कविता
और मध्यवर्गीय दोमुहेपन की स्पष्ट व्याख्या मौज़ूद है। उनकी लिखने के साथ इतिहास और मिथकों की दुनिया भी गए और उन पर
कविता मे कस्बाई जीवन के बहुतेरे चित्र हैं जो शायद छिंदवाड़ा कविताए लिखी। उनकी एक प्रसिद्ध कविता ‘लापता’, ‘महाभारत’
से उनके जन्मजात रिश्ते के कारण ही हैं। पहले संग्रह ‘ख़ुद के उस प्रसंग पर आधारित है जिसमें कुरुक्षेत्र से लापता हुए सैनिकों
अपनी आंख से’ ही उनके कथ्य और शैली को कविता में कुछ पर कई प्रश्न हैं। नयी कविता और प्रयोगवादी कवियों ने मिथकों को
अनूठे ढंग से देखा पहचाना गया। फिर ‘पिछला बाकी’, ‘सबकी अपना काव्य-विषय बनाया, पर उनका स्वर कहीं न कहीं मिथकों
आवाज़ पर्दे में’, ‘काल और अवधि के दरमियान’, ‘लालटेन के कथा-सूत्र से सहमति का रहा, लेकिन विष्णु खरे मिथकों की
जलाना’ और ‘कवि ने कहा’–आदि इत्यादि कविता संग्रहों में सूक्ष्म आलोचनात्मक दृष्टि के साथ अभिव्यक्ति करते हैं। साम्बवती,
नैरेटिव और गद्य को निरंतर अपने समय की आवाज़ बनने देने के अग्निरथोवाच, वृन्दावन की विधवाएँ, महाभारत युद्ध के बाद लापता
लिए कविता को माँजते सँवारते रहे। हुए 24165 लोग, सत्य, जनमेजय का सर्पसत्र इत्यादि कविताओं में
विष्णु खरे की कविताई में छन्द-मुक्ति के बाद हिंदी कविता यह देखा जा सकता है। ‘द्रौपदी के विषय में कृष्ण’ शीर्षक कविता
ने एक नयी मुक्ति पाई है और जीवन की संश्लिष्ट गद्यात्मकता में महाभारत के मिथक की आलोचनात्मक व्याख्या देखिए– “हर
को पकड़ जीवन की अंतर्लय को पकड़ने की शक्ति अर्जित की बार जब लौटा तो जानता था कि जो कुछ तुमने कहा/ उसे लोग
है। विष्णु खरे की कविता में जीवन के सभी राग-रंग मौज़ूद हैं। ये स्तुति या पुकार कह कर निस्सार कर देंगे/ तुम पाँच योद्धा पतियों की
कविताएँ बहुआयामी हैं, इनका स्वर समकालीनता की तरह विविध साध्वी पत्नी/ मैं सहस्त्र गोपियों तथा पटरानियों का संदिग्ध भोक्ता/
और बहुरंगी हैं। विष्णु खरे की कविता में जीवन के पुनर्वास के रंग राधा के मुग्ध प्रेम की अनेक कथाओं का नायक/ जिसका उल्लेख-
मौज़ूद हैं। सरस्वती का एक विरूप पाठ वे अपनी कविता सरस्वती मात्र मुझे बाद में संकोच और झुंझलाहट से भर देता था।”
वंदना में रखते हैं। वे बताते हैं कि अब न तुम श्वेतवसना रही न अपनी कविताओं में विष्णु खरे स्त्री को उसी दृष्टिकोण से दर्ज़
तुम्हारे स्वर सुगठित– वे विस्वर हो चुके हैं। कमल विगलित हो करते हैं जिस कोण से स्त्रियों को सामाजिक जीवन में देखा जाता
चुका, ग्रंथ जीर्णशीर्ण, तुममे अब किसी की रक्षा की सामर्थ्य नहीं रहा है– यानी एक वस्तु की तरह या देवी की तरह। लड़कों की
कि तुम किसी को जड़ता से उबार सको। वे यजमानों की आसुरी विजय-आकांक्षा का स्वप्न पालने वाले अभिभावकों के समाज में
प्रवृत्तियों की याद दिलाते हुए उन्हें अपने पारंपरिक रूप और कर्तव्य लड़कियों की नौकरी की तलाश में और उसकी फ़िक्र करते पिता
को त्याग कर या देवी सर्वभूतेषु विप्लवरूपेषु तिष्ठिता के रूप में का चित्रण करती कविता है– ‘लड़कियों के बाप’–इस कविता में
अवतरित होने का आह्वान करते हैं। चिंतित बाप और नौकरी की इच्छुक लड़की के संघर्ष को दर्ज़ किया

yegh जुलाई से सितंबर 2023 n 51


गया है। कविता के ब्योरे बहुत बारीक हैं। एकल परिवार के दौर में रहता है। अपनी कलात्मकता के साथ गद्य की सीमा में रहते हुए
कवि एक फ्लैट में अपना पूरा कुनबा विशेषकर औरतों को बसाना बेहद अकथ बिम्ब से अपने सामयिक संवेदना को विष्णु खरे छूते हैं
चाहता है, ताकि वह घर को घर में बदल सके। ‘बेटी’ कविता में, अपनी ‘गुंग महल’ कविता में– “अब बच्चों की आँखें निकल आयी
यहाँ अब वह पिता के साथ नहीं है। उनकी देहयष्टि और आर्थिक थीं/ उनके कँपते बदन ऐंठ रहे थे वे मुँह से झाग निकालने लगे/
विपन्नता को‌ कवि अपनी मध्यवर्गीय चेतना से महसूस करता है : कुछ ने दहशत में पेशाब और पाख़ाना कर दिया/ फिर वे दीवार
‘वह सूखी साँवली लड़की/जिसके पसीने में बहुत पैदल चल के/ के सहारे दुबक गये एक कोने में पिल्लों की तरह/ और उनके मुँह
कई बसें बदलने की बू थी/ जिसके बहुत पहने कपड़ों से धूपहीन से ऐसी आवाज़ें निकलने लगीं/ जो इनसानों ने कभी इनसान की
खोली के सीले गुदड़ों/और आम के अंचार की गंध उठती थी।’ औलाद से सुनी न थीं”।
विष्णु खरे की कविता– ‘हमारी पत्नियाँ’ उस पुरुष-मानसिकता को विष्णु खरे की “डरो” कविता आज कितनी प्रासंगिक जान पड़ती
अनावृत कर रहे हैं, जो अपने पुरुषत्व के तंत्र बनाए-बचाए रखना है जब भय का ऐसा वातावरण बनाया जा रहा है, जहाँ सच बोलने
चाहता है लेकिन उदारता के एक घोषित आवरण के साथ। शहर के और कुछ रचनात्मक करने को चुनौतियाँ मिल रही हैं। असहमति
विद्रूप को रचती कविता ‘हर शहर में एक बदनाम औरत होती है’ की आवाज़ को धमकियाँ मिल रही हैं। तब यह कविता याद आती
ऐसी औरतों को हवाला है जो स्वाभिमानी होती हैं और मध्यवर्गीय है– “लिखो तो डरो कि उसके कई मतलब लग सकते हैं/ ना लिखो
नैतिक मानदंडों से अलग एक स्वायत्त जीवन-शैली अपनाती हैं। तो डरो की नयी इबारत सिखायी जाएगी/ डरो तो डरो की कहेंगे डर
कवितांश– “वह एक ऐसा वृत्तांत ऐसी किंवदंती होती है/ जिसे एक किस बात का है/ ना डरो तो डरो कि हुकुम होगा कि डर”।
समूचा शहर/ गढ़ता और संशोधित-संवर्द्धित करता चलता है।” विष्णु खरे एक सांस्कृतिक योद्धा थे। वैचारिक युद्ध को आख़िर
विष्णु खरे की कविताओं में कहीं–कहीं अतियथार्थता का बोध तक भी लड़ते रहे। हिंदी की बहसों के बीच इसलिए रहते थे क्योंकि
होता है लेकिन कविता के भीतर से उठते निर्वचन से आप मुँह नहीं साहित्य और संस्कृति की असहमतियों पर खुल कर बोलते थे।
मोड़ सकते क्योंकि वे इस बहुरूपिये समाज की स्कैनिंग कर रहे विष्णु खरे की कविताओं में विवरण बहुत ही प्रमुखता से मौज़ूद
होते हैं। यह कवितांश इसकी पुष्टि करता है-“सुअरों के सामने है। वे कविताओं में विवरण को एक रचनात्मक टूल्स के रूप में
उसने बिखेरा सोना/ गर्दभों के आगे परोसे पुरोडाश सहित छप्पन इस्तेमाल करते थे कारण उनकी कुछ कविताओं से कलापक्ष गौण
व्यंजन/ चटाया श्शवानों को हविष्य का दोना/ कौओं उलूकों को भी हुआ है। ऐसी ही एक कविता है- ‘जर्मनी में एक भारतीय कंप्यूटर
वह अपूप देता था अपनी हथेली पर/उसने मधुपर्क-चषक भर-भर विशेषज्ञ की हत्या पर वह वक्तव्य जो वर्तमान भारत सरकार देना
कर/किया शवभक्षियों का रसरंजन/ सभी बहुरूपये थे सो उसने भी चाहती है पर दे नहीं पा रही।’ इसके अंत में बौद्धिकता का जामा
वही किया तय”। पहनकर उसे कविता में बदलने की शैली अपनाई गई है।
विष्णु खरे ने “आलैन” शीर्षक से बहुत मार्मिक कविता लिखी है। ज्ञानरंजन ने उन्हें कठिन और समर्थ कवि कहा है। उनकी
आलेन अपने परिवार के साथ ग्रीस जाने के लिए एक नौका पर सवार कविताओं में अक्सर जाँच-पड़ताल, उधेड़बुन और मनुष्य बने रहने
था कि अपनी मां, भाई और कई लोगों के साथ डूब जाने से उसकी की चरम जद्दोजेहद चलते रहती है। विष्णु खरे अपनी कविता में
मौत हो गई। लहरों के साथ बह कर तट पर पहुँचे आलैन के शव की जोख़िम उठाते हैं और किसी तरह के संकट या प्रभाव से बचना नहीं
तस्वीर ने पूरी दुनिया में हंगामा मचा दिया। इस दुर्घटना में आलेन चाहते। उनकी विद्वता के कई आयाम थे। उन्होंने कविताएँ लिखीं,
के पिता अब्दुल्ला कुर्दी बच गए। जिन्होंने कनाडा का शरण देने का आलोचना लिखी, अनुवाद किये, सिनेमा पर लिखा और इसके
प्रस्ताव ठुकरा दिया था। खरे की इस कविता की आख़िरी पंक्तियाँ अलावा भी विपुल लिखा जिसे हिंदी साहित्य के कई ब्लॉग सहेज
देखें : “आ तेरे जूतों से रेत निकाल दूँ/ चाहे तो देख ले एक बार कर रखेंगे। अभी तो हमें समय लगेगा उनके अवदान को समझने में।
पलट कर इस साहिल उस दूर जाते उफ़क को‌/ जहाँ हम फिर नहीं लेकिन इतना तो अभी भी पता है कि यह बहुत मूल्यवान है, हिंदी
लौटेंगे/ चल हमारा इंतिजार कर रहा है अब इसी खा़क का दामन।” साहित्य की थाती का अभिन्न अंग है। विष्णु खरे मौज़ूद रहेंगे हमारे
समकालीन भारतीय राजनीति की पेचीदगियों के वृतांत आख्यान दिलों में अपने अक्खड़पन और खिलंदड़ेपन के साथ क्योंकि वे हिंदी
रूप में विष्णु खरे की कविताओं में आते हैं सांप्रदायिकता, धार्मिक के एक ऐसे कवि हैं, जो स्वयं में एक परंपरा और एक प्रवृत्ति हैं। n
कट्टरता, फासिस्ट मनोवृतियों से जुड़ी कविताओं से गुज़रते हुए संपर्क : न्यू पहाड़े कॉलोनी, छिंदवाड़ा
किसी खास वैचारिक आग्रह से अधिक मानवीय संवेदना के स्वर मध्यप्रदेश-480001
अधिक मुखर दिखाई देता है। उसमें भी काव्यात्मकता का पुट मौज़ूद मो. 9977638902

52 n जुलाई से सितंबर 2023 yegh


n विरासत : वीरेन डंगवाल

कविता में विन्यस्त समय विवेक


पंकज चतुर्वेदी
अपने समकालीनों में वीरेन शायद सबसे सघन और अपनी कमानियों से ब्रह्माण्ड को जैसे-तैसे थामे
तीखी आत्मालोचना के कवि हैं। यह काम कविता वह भी चिमटा रहेगा मगर’
के अपने पूरे सफ़र में वह लगभग निरन्तर करते इस कविता में आत्मीयता इतनी गहन है कि वह
रहे। आत्म-औचित्य की संतुष्टि, क्रांतिकारी होने के चश्मे जैसी वस्तु को भी एक सजीवता या कहें कि
दर्प, ख़ुशफ़हमी या आत्म-श्लाघा से दूर वह अपनी ‘मानवीयता’ से संवलित करने में सक्षम है, मगर
वंचना, विवशता, बेचैनी, तक़लीफ़ और विफलता उसी समय एक दूसरे स्तर पर यह आधुनिक समय
का एक सहज, पारदर्शी और मार्मिक वृत्तांत रचते में इंसान के अथाह और अप्रत्याशित अकेलेपन की
हैं। किसी भी दूसरे आम इंसान की मानिंद जीवन में क्या नहीं भी कविता है- यों कि उसे लगता है कि उसके अवसान पर ‘सबसे
करना पड़ा– इस विषमताग्रस्त सामंती और उत्तर-औपनिवेशिक ज़्यादा दुख’ किसी परिजन-स्वजन-मित्र-प्रिय सरीखे मनुष्य को
सामाजिक व्यवस्था में हम किस क़दर अपमानित रहने को मजबूर नहीं होगा, बल्कि ‘सिर्फ़ चश्मे को होगा’, क्योंकि वह अपना चेहरा
होते हैं, उसका यह कितना संश्लिष्ट बिम्ब है- खो देगा! उस विकट परिस्थिति में भी- अपने अपरिहार्य प्रेम के
‘कभी म्याऊँ बोले चलते- वह जैसे-तैसे ‘ब्रह्माण्ड’ को थामे रहेगा। एक तो वाह्य
कभी हँसे, दुत्कारी हुई ख़ुशामदी हँसी’ विश्व होता है और दूसरा आभ्यंतरीकृत संवेदना, चिन्तन, सौन्दर्य-
और इस चित्रण का अन्त एक उद्विग्न आत्म-स्वीकार में होता बोध और कल्पना के स्तर पर यह दूसरा विश्व ही–जिसे हम अपनी
है- ‘कैसी निकम्मी ज़िन्दगी जिये।’ ऐसी निर्मम आत्मालोचना के चेतना में धारण करते हैं– हमारा वास्तविक विश्व या ब्रह्माण्ड है।
लिए बहुत निश्छलता और साहस चाहिए। कवि का निकष या इम्तिहान भी यही होता है कि कितने बड़े विश्व
वीरेन अभिजन के नहीं, जन के कवि हैं। सम्भ्रान्त जन तो को वह आत्मसात कर सका है। कविता आगे बढ़ती है और कवि
समृद्ध, सशक्त, सुख-भोग-रत और संतुष्ट हैं ही; लेकिन उनका अपनी ही ज़िन्दगी को प्रश्नांकित करता है। शीर्षक के रूप में भी
यह ऐश्वर्य और आह्लाद मूल्यनिष्ठा से उनकी विमुखता का नतीजा यही प्रश्न है: ‘कैसी ज़िन्दगी जिये!’
है– ‘हवा तो ख़ैर भरी ही है कुलीन केशों की गन्ध से/इस उत्तम वीरेन निराला, नागार्जुन, शमशेर और रघुवीर सहाय जैसे पूर्वज
वसन्त में/ मगर कहाँ जागता है/ एक भी शुभ विचार’। लाज़िम है कवियों के अलावा मुक्तिबोध की परंपरा से बहुत गहरे जुड़े हुए
कि कवि उस निष्क्रियता पर पड़ा परदा उठाता और उस पर चोट कवि हैं और अपने पहले संग्रह की दूसरी कविता में ही ‘अँधेरे में’
करता है, जिसमें हमारे समाज का उच्च-मध्य और मध्यवर्ग लिप्त सरीखी क्लासिक कविता में आनेवाले ‘पागल के आत्मोद्बोधमय
है और थोड़ी-बहुत शर्मिंदगी को ही अपने कर्तव्य-पालन का पर्याय गान’ की याद दिलाते हैं- ‘किसी से कुछ लिया नहीं न किसी को
मानता है। कुछ दिया ऐसा भी जिया जीवन तो क्या जिया?’ यह सवाल है,
‘एक दिन चलते-चलते जो वह ज़िन्दगी भर करते रहे, अपने से और दूसरों से भी और यह
यों ही ढुलक जायेगी गरदन भूल जाने की बात नहीं कि जवाब कमोबेश यही पाते रहे- ‘कुछ
सबसे ज़्यादा दुख भी नहीं किया गया थोड़ा बहुत लज्जित होने के सिवा’। इसलिए
सिर्फ़ चश्मे को होगा, मुक्तिबोध की कविता के इस बेचैन आग्रह को भी यहाँ स्मरण कर
खो जायेगा उसका चेहरा लें, तो सार्थकता का एक चक्र पूरा होता है :

yegh जुलाई से सितंबर 2023 n 53


‘हेडमास्टर जी घबरा गये, गाली देने लगे माली को
लड़कों ने कहा हेडमास्टर को अब सज़ा मिलेगी
देश की बेइज़्ज़ती हुई है’
फिर उम्र बढ़ जाने पर कवि को याद आता है कि उस दौर में
हम ‘काग़ज़ के झण्डे बनाकर घूमते’ इतने उत्साहित और रोमांचित
रहते थे कि– ‘चौदह अगस्त भर पन्द्रह अगस्त होती सोलह अगस्त
भर भी’। लेकिन इतने बरसों के समारोहों की उदास परिणति इस
एहसास में होती है– ‘इतने बड़े हुए मगर छूने को न मिला अभी
तक/ कभी असल झण्डा/ कपड़े का बना, हवा में फड़फड़ करने
वाला/ असल झण्डा। 15 अगस्त जश्न मनाने के लिए नहीं है,
बल्कि जो आज़ादी इस दिन हमारे स्वाधीनता सेनानियों ने अपने
त्याग और बलिदान की बदौलत, अविराम संघर्षों से हासिल की
थी; उसे देश के साधारण जन की सच्ची और संपर्ण ू आज़ादी में
बदलने की हमारी ज़िम्मेदारी को भी हमें याद दिलाने का दिन है।
सबब यह कि आज़ादी का ‘असल झण्डा’ अभी तक भारत के
दबे-कुचले अवाम को छूने तक को नसीब नहीं हो पाया है। सच
तो यह है कि स्वाधीनता का पहला दशक बीतते-न-बीतते सुखी,
‘जितना भी किया गया सुन्दर और शोषण-मुक्त भारत के सपनों का शीराज़ा बिखरने लगा
उससे ज़्यादा कर सकते थे था। भूलना मुनासिब नहीं कि पिकासो की ‘गुएर्निका’ सरीखी, एक
ज़्यादा मर सकते थे’ फ़ासीवादी तंत्र की दहशत को साकार करती, उसकी आहटों को
वीरेन डंगवाल का जन्म भारत को आज़ादी मिलने के दस दिन पहचानती मुक्तिबोध की क्लासिक कविता ‘अँधेरे में’ 1957 से
पहले 5 अगस्त, 1947 को हुआ था। तब से उनकी किशोरावस्था 1962 के पाँच वर्षों के समयान्तराल में रची गई थी। जो विराट
तलक जो दस-पन्द्रह वर्षों का वक़्फा था, उसमें देश स्वाधीनता की मोहभंग था, वह एक भीषण ट्रेजेडी के एहसास में बदल गया।
एक नयी सुनहली आभा में आँखें खोल रहा था। अंग्रेज़ों की विदाई इस समयान्तर की बाबत एक इंटरव्यू में वीरेन डंगवाल मुझसे
से अवाम में नवनिर्माण की आशा, उत्साह, उमंग और सपने जाग कहते हैं– ‘1966-67 में एक मोहभंग पैदा हुआ, जो देश-व्यापी
गए थे। निराला ने रचना में उसी दौर की गवाही दी है– था। सातवें दशक में जगह-जगह किसान-आंदोलन चल रहे थे,
‘कैसी यह हवा चली। तरु-तरु की खिली कली…। पूरा समाज उद्वेलित था। फिर लगा कि आज़ादी नाकाफ़ी है, वह
अपना जीवन आया, गयी परायी छाया, दरअसल मिली नहीं है। वह मुहावरा ज़्यादा है, वास्तविकता कम।
फूटी काया-काया, गूँज उठी गली-गली।’ आज़ादी के नाम पर इस देश की जनता के साथ बहुत बड़ा धोखा,
लाज़िम है कि अपनी एक कविता में वीरेन लड़कपन में जब बहुत बड़ा छल हुआ है।’
स्कूल जाते थे, उन दिनों के 15 अगस्त के जलसों को बहुत बीसवीं सदी के अन्तिम दशक की दहलीज़ पर हमने समाजवादी
ख़ूबसूरती और शिद्दत से याद करते हैं। इस बयान में उनकी अचूक महाआख्यान का टूट-टूटकर बिखरना देखा। उसके अनन्तर
और मार्मिक बिम्बधर्मिता बहुत प्रभावित करती है: ‘झण्डा खुलता भूमंडलीकरण का ज़माना आया, जो बक़ौल वीरेन: ‘भाषाओं,
ठीक 7:45 पर फूल झड़ते जन-गण-मन भर सीना तना रहता संस्कृतियों और कविता का शत्रु है।’ यह यथास्थिति के पोषक,
कबूतर की मानिंद’। अधिनायकवादी और केवल बाज़ार और उपभोग के प्रवक्ता एवं
बच्चे इतने निश्छल, पवित्र और संजीदा होते हैं कि शायद सारथी वैश्विक मनुष्यों को गढ़ता है। यह एकरूपता तथा ग़ुलामी
उनकी ही अवस्था में संवेदनाएँ अपने सबसे सान्द्र, प्रखर और को बढ़ावा देता और वैविध्य एवं प्रयोगधर्मिता को हतोत्साहित
उदात्त रूप में अक्षुण्ण रहती हैं। इसलिए इस उम्र में देश को लेकर करता है। इसके बरअक्स वीरेन बेहद प्रयोगधर्मा कवि थे।
जज़्बे का आलम देखिए कि एक बार जब झँझोड़ने पर भी झण्डा महज़ इत्तिफ़ाक़ नहीं कि वीरेन डंगवाल की काव्य-भाषा में
सही समय पर खुल नहीं पाया, तो– प्रचुर वैविध्य है, उसकी बहुत सारी तहें और एक व्यापक ‘रेंज’

54 n जुलाई से सितंबर 2023 yegh


है-संपर्ण
ू हिंदी क्षेत्र के तमाम अंचलों की वह नुमाइंदगी करती है।
परंपरा, प्रकृति और संस्कृति में उसकी जड़ें गहरे जाती हैं और वीरेन डंगवाल की कविता बेहद सीमित
सबसे बड़ी सिफ़त है कि वह तत्सम के बजाए लगातार तद्भव मध्यवर्गीय या उच्च-मध्यवर्गीय नागरिक
की ओर जाती हुई ज़बान है, जैसे कि स्वयं वीरेन बराबर साहित्य अनुभव की अकादमिक क़िस्म की या
के दायरे के बाहर वृहत्तर ज़िन्दगी की जानिब जाते हुए कवि हैं। आभासी कविता नहीं है, जो अक्सर निरी
इसीलिए वह नाज़िम हिकमत के इस मंतव्य पर इसरार करते हैं बौद्धिक कसरत के बूते लिखी जाती है; बल्कि
कि ‘कविता की भाषा और जीवन की भाषा को अलग-अलग नहीं उसमें आमदनी की निचली और सबसे निचली
होना चाहिए’ और उनके पास आत्मा की गीली मिट्टी पर छाप छोड़ सतहों पर गुज़र-बसर करने वाली मनुष्यता के
सकने वाली बेहद जीवन्त और ज़बरदस्त काव्य-भाषा है। ध्वनियों सुख-दुख, स्वप्न और संघर्ष हैं। वीरेन हमारे
के जितने प्रयोग उन्होंने किए, शायद ही किसी समकालीन कवि ने समय में पूँजी के अभूतपूर्व और अप्रत्याशित
किए हों। उनके अनुभव के आख्यान में एकरसता और एकपक्षीयता प्रभुत्व की वज़ह से संकट में पड़े हुए, बहुधा
नहीं है। वह इस सोच के हामी थे कि कविता में तक़लीफ़ और तबाह हो गए हिंदुस्तान के सामान्य जन-जीवन
के कवि हैं।
जद्दोजहद की बात हो, पर उस जीवन-द्रव्य और जीवन-रस की
बात भी हो, जिसके बग़ैर संघर्ष मुमकिन ही नहीं है। तभी वह
कहते हैं कि ‘रचना के लोक में निष्कलुष प्रसन्नता की भी उतनी प्यार, मार्मिकता, प्रतिबद्धता और कशिश, जिसके साथ वह ख़ुद
ही अपरिहार्य जगह है, जितनी करुणा की’ और गोया कविता में से जुड़े थे और अपने दोस्तों या दुनिया से भी मुख़ातब। इसके
व्यवहार की ज़मीन पर इसे संभव करके दिखा देते हैं। अलावा, उनमें साथी कवियों से बहुत लगाव था और उसी तरह,
वीरेन डंगवाल की कविता बेहद सीमित मध्यवर्गीय या उच्च- पूर्वज या अग्रज कवियों के प्रति अतिशय विनम्रता। तभी शमशेर
मध्यवर्गीय नागरिक अनुभव की अकादमिक क़िस्म की या आभासी की अनूठी कला का दाय स्वीकार करते हुए उन्होंने लिखा–
कविता नहीं है, जो अक्सर निरी बौद्धिक कसरत के बूते लिखी ‘रंग बहुत से हैं मेरे पास
जाती है; बल्कि उसमें आमदनी की निचली और सबसे निचली कहा साल के उस दरख़्त ने
सतहों पर गुज़र-बसर करने वाली मनुष्यता के सुख-दुख, स्वप्न मगर कूचियाँ तमाम ले गये
और संघर्ष हैं। वीरेन हमारे समय में पूँजी के अभूतपूर्व और शमशेर बहादुर सिंह कत्थई गुलाब वाले।’
अप्रत्याशित प्रभुत्व की वज़ह से संकट में पड़े हुए, बहुधा तबाह हो
गए हिंदुस्तान के सामान्य जन-जीवन के कवि हैं। डॉ. नामवर सिंह आज ‘वीरेनियत’ ऐसे बेहतरीन कवि को याद करने और उनसे
ने एक वक्तव्य में वीरेन डंगवाल को ‘पदार्थमयता का कवि’ कहा आत्मीयता महसूस करने वाले समकालीन कवियों और अपने-
था और जब मैंने उनसे यह बात साझा की, तो वह बहुत सहमत अपने अवदान के परिष्कार, समृद्धि और उन्नयन की ख़ातिर उनसे
और प्रसन्न नहीं दिखे। शायद यह बयान जाने-अनजाने इस सचाई प्रेरणा हासिल कर सकने वाले युवा एवं युवतम कवियों के लिए
की अनदेखी करता है कि वस्तु-संसार के ऐन्द्रिय अभिज्ञान से एक रोशनी की एक लकीर की मानिंद है। हिंदी में वीरेन को चाहने वाले
उदात्त विचारशीलता और संवेदना के संश्लेषण के बग़ैर वह कोई साहित्यिकों का संसार उनके रहते ही बड़ा था और ‘वीरेनियत’ इस
कविता नहीं लिखते। इस लिहाज़ से ‘लॉरी बेकर’ शीर्षक पूरी बात का सबूत है कि उनके जाने के बाद यह संसार सिमटा नहीं,
कविता ग़ौरतलब है, जो प्रकृति के पाँच तत्त्वों की ही प्रधानता में बल्कि और बड़ा ही हुआ है। कम कवियों के साथ ऐसी स्थिति बन
सृष्टि का मंगल और सौन्दर्य मानती है; लेकिन इनसे भी ज़्यादा पाती है। दूसरे, साहित्य में सर्वानुमति जैसी कोई ‘ऐब्सलूट’ स्थिति
अहमियत भौतिक ऐश्वर्य के बरअक्स प्रकृति को श्रेयस्कर समझने नहीं होती। न वह संभव है और न ही काम्य, क्योंकि किसी कवि
वाले मानवीय चिन्तन को देती है। की लोकप्रियता के बावज़ूद आलोचना की गुंजाइश हमेशा बनी
हिंदी में अब वीरेन के अंदाज़-ए-बयाँ को ‘वीरेनियत’ के नाम रहनी चाहिए। शायद इसी संभावना को लक्ष्य कर रघुवीर सहाय
से जाना जाने लगा है, जिसका मतलब है, वीरेन डंगवाल की ने कभी ‘मेरा जीवन’ शीर्षक कविता में लिखा था और उनका
विशिष्टता, जो उनका ख़ास मिज़ाज और शैली थी, कविता ही नहीं, यह काव्याँश वीरेन के उत्तर-जीवन के संदर्भ में भी काफ़ी सार्थक
ज़िंदगी में भी। और स्पष्ट करना हो, तो ‘वीरेनियत’ कुछ मूल्यों के साबित होता है:
समुच्चय का नाम है, मसलन साफ़गोई, ज़िंदादिली, नैसर्गिकता, फ़रवरी, 2005 में साहित्य अकादेमी पुरस्कार समारोह में

yegh जुलाई से सितंबर 2023 n 55


उन 38 कविताओं पर–जो ‘असंकलित और नयी कविताएँ’ शीर्षक
से ‘कविता वीरेन’ में संगृहीत हैं–हिंदी में पर्याप्त विमर्श अभी नहीं
हुआ है, जबकि इनमें अनेक रचनाएँ बहुत मार्मिक, दुर्लभ और श्रेष्ठ
हैं। वीरेन डंगवाल और मंगलेश डबराल– दोनों कवियों का निधन
इसलिए और विडंबनापूर्ण है कि वे उस समय बेहतरीन सृजन कर
रहे थे। इस मानी में कवि-मित्र व्योमेश शुक्ल का बयान मर्मस्पर्शी
है कि मानो ये दोनों कवि क़लम हाथ में लिये हुए मर गए! शायद
अतिशयोक्ति न मानी जाए, अगर मैं उनका यह स्तवन करना चाहूँ
कि योद्धाओं की मृत्यु ऐसी ही होती है।
अंग्रेज़ी कवि जॉन कीट्स को भी उस ज़माने में असाध्य तपेदिक़
के कारण अपनी असमय मृत्यु पहले से मालूम थी। कहते हैं कि
मृत्यु से रूबरू होने के चलते सौन्दर्य और प्रेम पर एकाग्र उनकी
कविताओं में अविस्मरणीय आभा और कशिश है। इस रोशनी में
वीरेन की कविता ‘मेट्रो महिमा’ देखी जानी चाहिए, जो आधुनिकतम
टेक्नॉलजी का अभिनन्दन है और आलोचना भी, मगर उसी समय
वह एक नायाब और यादगार प्रेम कविता है। हिंदी में ऐसा कमाल
सिर्फ़ वीरेन डंगवाल कर सकते थे, इस आशय का बयान विष्णु
खरे ने भी जारी किया था। वीरेन ने प्रेम के हासिल होने को चरम
स्वीकृति वक्तव्य देते हुए उन्होंने कहा था कि प्रेम, प्रतिबद्धता सार्थकता माना, तो उसके अभाव को सबसे बड़ी हानि, फिर चाहे
और प्रतिरोध को उन्होंने समवेत रूप से अपने कवि-कर्म की कितने ही राजत्व और वैभव से सम्पन्न जीवन रहा हो :
धुरी बनाकर रखा। बेशक ये तीनों अपरिहार्य हैं, मगर उपर्युक्त ‘और ज़िन्दगी में प्रेम नसीब नहीं हुआ
तीन कविताओं के साक्ष्य से हम कह सकते हैं कि इनमें भी प्रेम शाहजहाँ की ख़ानदानी उन शहज़ादियों को
को वह शायद सबसे बुनियादी प्रेरणा या शक्ति मानते थे। यानी, जो अनब्याही ही दफ़्न कर दी गईं
अगर आपके दिल में प्रेम है, तो विचार और कर्म की दिशा भी संगेमरमर की क़ब्रों में’
सही होगी -
‘हवाएँ रास्ता बतलाएँगी आख़िरी वर्षों में वीरेन डंगवाल की एक प्रमुख चिन्ता सामाजिक
पता देगा अडिग ध्रुव चम-चम-चमचमाता जीवन में विभाजन और विषमता थी और इससे वह बहुत बेचैन
प्रेम अपना रहते थे, मुझसे कहते- “हर जगह, हर स्तर पर इतना ‘डिवाइड’
दिशा देगा पैदा किया जा रहा है, जैसा पहले कभी नहीं था।” ये हालात उन्हें
नहीं होंगे जबकि हम तब भी हमेशा दिशा देगा’ दुखद और डरावने लगते थे। ‘रामदास–दो’ शीर्षक कविता इसी
मनःस्थिति की उपज है। सरकार-अवाम, ग़रीब-अमीर, स्त्री-पुरुष,
स्वाभाविक या असमय–मृत्यु तो सभी की होती है, मगर कैंसर अवर्ण-सवर्ण और हिन्दू-मुसलमान–इनमें फ़ासीवादी सत्ताकामी
के चलते वीरेन डंगवाल को जो यातना सहनी पड़ी, वह भयावह राजनीति ने इतनी चौड़ी और गहरी खाई बना दी है कि इनसानियत
थी। उसमें भी यह और दारुण था कि उन्हें पहले से उनकी मौत गोया एक नामुमकिन-सी शै है! वीरेन ने अपनी बीमारी के दिनों
बता दी गयी थी। ऐसे हालात में कोई सामान्य व्यक्ति रहा होता, में भी इस भेदभाव और वैमनस्य के ऐतिहासिक-सांस्कृतिक अतीत
तो शायद निष्प्रभ और निश्चेष्ट हो जाता, लेकिन उनमें असाधारण की पड़ताल अपनी कविताओं में कर रहे थे। n
जिजीविषा और सिसृक्षा थी; जिसकी बदौलत वह आख़िरी साँस संपर्क : प्रोफेसर हिंदी विभाग
तक निस्तेज नहीं हुए, बल्कि देहावसान के कुछ महीनों पहले वी.एस.एस.डी. कालेज कानपुर
तलक उन्होंने अपनी रचनाशीलता को भी क़ायम रखा। तीन मो. 9425614005
कविता-संग्रहों के बाद और मृत्यु का सामना करते हुए लिखी गयी

56 n जुलाई से सितंबर 2023 yegh


n विरासत : मंगलेश डबराल

स्मृति और यथार्थ के बीच ‘मनुष्यता’ बचाने की कवायद


राजकुमार

अकविता की अराजकता के बाद जिन कवियों ने “मैं पहाड़ में पैदा हुआ और मैदान में चला आया
हिंदी कविता की वापसी की तारीख़ लिखी उनमें यह कुछ इस तरह हुआ जैसे
मंगलेश डबराल भी हैं। आलोक धन्वा, लीलाधर मेरा दिमाग पहाड़ में छूट गया
जगूड़ी, राजेश जोशी, अरुण कमल, उदय प्रकाश के और शरीर मैदान में चला आया
साथ मंगलेश डबराल ने भी अपनी मजबूत उपस्थिति या इस तरह जैसे
दर्ज़ की। ‘पहाड़ पर लालटेन’(1981) उनकी पहाड़ सिर्फ़ मेरे दिमाग में रह गया
बहुचर्चित रचना है। इस संग्रह से उन्होंने अपने लिए और मैदान मेरे शरीर में बस गया”।1
एक काव्य मानक गढ़ा। एक अलग किस्म की अंतर्वस्तु और तक़रीबन चार दशकों में फैले मंगलेश की कविताओं में पहले
संवेदना के साथ हिंदी कविता में उपस्थित हुए जो सर्वथा नया और संग्रह की पहली कविता से लेकर आख़िरी संग्रह की पहली कविता
अनूठा था। ‘पहाड़ से विस्थापित व्यक्ति’ जो ‘शहर में स्थायित्व तक में पहाड़ और मैदान की टकराहट मौज़ूद है। एक स्वप्न है
और रोजगार’ की तलाश में निकला था; शहर की भीड़ में खो गया। दूसरा यथार्थ। एक अतीत है दूसरा वर्तमान। वसंत कविता में
उसकी पहचान एवं अस्मिता को पूंजीवादी व्यवस्था और शहर ने सूक्ष्मता है। प्रतीकात्मकता। अनुभव अधिक संघनित और ठोस रूप
निगल लिया। धीरे-धीरे वह ‘चेहराविहीन विस्थापित नागरिक’ में में अभिव्यक्त हुआ है। लेकिन बाद में धीरे-धीरे यह कविता के
तब्दील हो गया। आधुनिक पूंजीवादी व्यवस्था के इस क्रूर और स्तर पर स्थूल होता गया है। ‘पहाड़ से मैदान’ कविता पूर्ववर्ती से
भयावह चेहरे के भीतर एक नागरिक के अपनी जड़ों से उखड़ने ज्यादा स्पष्ट और स्थूल है लेकिन वैचारिक स्तर पर कविता उसी
और फिर नहीं बस पाने की त्रासदी को जिस शिद्दत से मंगलेश भाव को उपस्थित करती है। मंगलेश ने अपने एक संवाद में कहा
डबराल ने रचा और उसे हिंदी कविता में लेकर आये, यह बिलकुल भी है– “मेरी कविता अपनी भूमि, अपना समाज छूटने और एक
नयी बात थी। ऐसे समाज में आने के समय संभव हुई जो मेरे लिए अजनबी था।
मंगलेश ने यह जो प्रतिमान रचा वह उनकी पहचान से चिपक यह दुतरफा विस्थापन था।”2 ऐसा नहीं है कि पहाड़ की स्मृतियाँ
गया। उन्होंने ख़ुद भी सप्रयास अपने को इस पहचान से जोड़े सुखद और रोमांचक हैं बल्कि उस समाज की सीमाएँ हैं। उसमें
रखा। वे कभी इससे अलग नहीं हुए। यही कारण है कि ‘पहाड़ कहीं रमणीयता नहीं है। मंगलेश के लिए पहाड़ सैलानीगृह नहीं है।
पर लालटेन’ से लेकर ‘स्मृति एक दूसरा समय है’ (2020) तक वे कैमरे की लेंस से पहाड़ को नहीं देखते हैं। बल्कि उसमें उनका
वे इस त्रासदी को रचते रहे। ऐसा करते हुए उन्होंने वैचारिक रूप अनुभव शामिल है। यह एक विघटित और उजड़ता हुआ समाज है।
से रूढ़ियों का निर्वाह ज़रूर किया लेकिन एक कवि के रूप में केंद्रीकृत विकास के मॉडल ने भारतीय समाजों में जो गहरी खाई
काव्यरूढ़ियों का अंबार नहीं लगाया। वे कविता में निरंतर बदलाव पैदा की है उसी की मौज़ूदगी है। दूर-दराज के इलाकों तक विकास
करते गये। कथ्य की समानता के बाद भी कथन-शैली से उसे की परियोजनाएँ नहीं पहुँची। रोजगार के अवसर धीरे-धीरे क्षीण
बदलते रहे। वे इतनी मानवीय करुणा से भर कर उसे कहते रहे होते गये। नतीजा यह रहा कि लोग उजड़ कर कर शहर और मैदान
कि कविता में हमेशा नयापन और ताजगी बनी रही। इस दृष्टि से की तरफ आने लगे। मंगलेश की काव्य-भूमि में अभिव्यक्त समाज
देखें तो वह हिंदी में अलग और विलक्षण प्रतिभा के कवि लगते हैं। उसी उजाड़ का शिकार है। ‘पहाड़’ उस‘खाई’ का ही मेटाफर है
अंतिम संग्रह 'स्मृति एक दूसरा समय है' की पहली कविता है– जिसे आधुनिक केंद्रीकृत विकासवादी प्रणाली ने पैदा किया है।

yegh जुलाई से सितंबर 2023 n 57


संसाधन सहित पहाड़ साधनहीन होते गये। लोग रोजी-रोटी और की तक़लीफें इसके रेशे-रेशे में है। लेकिन इससे निकल जाने का
काम की तलाश में उजड़ ने लगे। उजड़ ते हुए पहाड़ और शहरों- कोई रास्ता नहीं है क्योंकि ‘घर का रास्ता’ कवि बहुत पहले छोड़
मैदानों में दाखिल होते लोगों का जीवन उनके काव्य में विन्यस्त आया है। अब घर सिर्फ़ उसके स्वप्न और स्मृति में है। शहर का
है– “लोग छोड़ कर जाते हैं घर-द्वार/ अनजान दुनिया में भटकते घर वह घर नहीं है जो पहाड़ का घर है– “घर से बहुत दूर आ गये
निरुद्देश्य/ रोटी के बदले में बदल देते अपने नाम और विचार/ मैं हैं हम/ तक़लीफों की एक और ही दुनिया में/ जहाँ लगातार दौड़ते
उनके पीछे चलता हूँ/ सर पर गठरी उठाये हुए/ मैं थामता हूँ गिरते रहना होगा/ दलदल में धंसेंगे पैर/ सूझेगा नहीं रास्ता सन्नाटे में/
गये कपड़ों को/ बचाये रखता हूँ खामोशी को।”3 तब हम पुकारेंगे एक दूसरे को।”5 कवि अपनी पूरी ईमानदारी से
शहर से जो उम्मीद कवि को है वह पूरी होती नहीं दिखती तो आत्मा को निचोड़ कर कहना चाहता है कि– “मैं भूल नहीं जाना
उसके प्रति कुछ सवाल उठता है लेकिन बाद में उसके प्रति एक चाहता था/ अपने घर का रास्ता।”6 लेकिन “रहा होगा भूख़ का
स्वीकृति का भाव ही उभरता है। तक़लीफों को झेलते हुए उसे पहाड़” जिसने उसे घर के रास्ते से अलग कर दिया। यह दर्द ही
अपना लेने का मद्धिम स्वर ही कविता से बाहर आता है। प्रतिरोध मंगलेश की कविता में शुरू से आख़िर तक व्याप्त है।
में उठा हर हाथ अंतत: नीचे आ जाता है। कवि के अंत:करण के मंगलेश के पहले संग्रह से लेकर आख़िरी संग्रह तक में ‘एक
भीतर ही विरोध और समझौते का स्वर मौज़ूद है जो मध्यवर्गीय खोये हुए लड़के’ या ‘लापता लड़के’ या ‘गुमशुदा’ या ‘अकेला
व्यक्ति की यथार्थ स्थिति की झलक देता है– “शहरों दफ्तरों घरों आदमी’ की शिनाख्त की जा सकती है। यह कोई इंडिविजुअल
के दरवाजे/ खटखटाता जाता है यह हाथ/ इसी से करने होते हैं नहीं है। यह भारतीय निम्न वर्ग या निम्न मध्यवर्ग का कोई भी
मुझे सारे काम/ दुनिया के सबसे बड़े झूठों में शुमार यह हाथ/ जो व्यक्ति हो सकता है। यह बेचेहरा लड़का है। अस्मिताविहीन। यह
थकता नहीं निराश नहीं होता कभी/ जब हद हो जाती है/ तब दूसरा ऐसा था नहीं। जब यह घर से बिछड़ कर रोजगार की तलाश में
हाथ कभी-कभी जतलाता है अपना विरोध/ कांपता दर्द करता निकला तो शहर की आपाधापी, तक़लीफें, यातनाएँ, टूटन और
हुआ।”4 ‘घर का रास्ता’ संग्रह में कवि ने पहले संग्रह की चेतना को समय की मार ने उससे उसकी पहचान छीन ली। वह भूख़ से लड़
ही काफ़ी हद तक विस्तार दिया है। महानगरीय जीवन की रोजमर्रा ता हुआ चेहराविहीन हो गया। उसके चेहरे पर तक़लीफों के निशान
पड़ गये हैं। उसकी मां भी उसे तब तक नहीं पहचानती जब तक
उसके चेहरे से समय की खरोंचे उतार नहीं देती :
“फिर उतारे लबादे और मुखौटे
जो मैं पहने हुए था पता नहीं कब से
उसने एक और परत निकालकर फेंकी
जो मेरे चेहरे से मिलती थी
तब दिखा उसे मेरा चेहरा
वह सन्न रह गयी
वहां सिर्फ़ एक खालीपन था
या एक घाव
आड़ी-तिरछी रेखाओं से ढंका हुआ।”4

मंगलेश की कविताओं में ‘अत्याचारी’ शब्द बार-बार आता


है। संभवत: हिंदी कविता में अत्याचारी शब्द का सर्वाधिक प्रयोग
उन्होंने किया है। इसे अलग से पहचानने की ज़रूरत है। यह
अत्याचारी सिर्फ़ सत्ता में बैठा व्यक्ति नहीं है। बल्कि उन तमाम
संस्थानों में बैठा मध्यवर्गीय-उच्च मध्यवर्गीय और उच्चवर्गीय
व्यक्ति है जो अधिनायक की तरह व्यवहार करता है। जो सत्ता
में पहुँच जाना चाहता है या अपने को सत्ता के क़रीब पाकर
अहंकारी, अत्याचारी या हत्यारा हो जाता है। अपने सहक़र्मियों

58 n जुलाई से सितंबर 2023 yegh


और अधीनस्थों का शोषण करता है। वह कहीं से क्रूर नहीं दिखता मंगलेश के प्रतिवाद और विरोध का यही रूप
बल्कि लोगों से मुस्कराकर मिलता है लेकिन उसके अंदर क्रूरता है। उन्होंने यह समझ लिया है कि समाज में
छिपी रहती है। वह अपनी ताक़त की आजमाइश करता रहता है। बदलाव के लिए फिलहाल कोई क्रांति नहीं
अपने लिए एक ताक़त की दुनिया निर्मित करता है। वह शोषकवृत्ति हो रही। क्रांति के लिए अभी कोई स्पेस या
का है। वह लोगों को धकियाकर आगे बढ़ रहा है। वह अंदर से उसके चिह्न मौज़ूद नहीं है तो उन्होंने हत्यारे या
आत्महीन है। ऐसे लोगों ने ही लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं में सर्वाधिक अत्याचारी के प्रति अपनी घृणा को ही प्रतिरोध
स्पेस घेरा है। मगर उसके अत्याचारी होने के कोई प्रमाण नहीं हैं। के रूप में दर्ज़ किया। मंगलेश यह भी महसूस
करते हैं कि जो अत्याचारी है उसके पास
मंगलेश लिखते हैं– “उसके नाख़ून या दांत लंबे नहीं है/ आंखें
तमाम सुविधाएँ हैं। वह ऐशोअराम का सामान
लाल नहीं रहतीं/ बल्कि वह मुस्कराता रहता है/ अक्सर अपने जुटाकर अन्यों से बेहतर जीवन जी रहा है। वह
घर लोगों को आमंत्रित करता है/ और हमारी ओर अपना कोमल सुरुचिसंपन्न है– “अत्याचारी के घर पुरानी
हाथ बढ़ाता है/ उसे घोर आश्चर्य है कि लोग उससे डरते हैं” ... तलवारें और बंदूकें/ सिर्फ़ सजावट के लिए
अत्याचारी इन दिनों ख़ूब लोकप्रिय है/ कई मरे हुए लोग उसके घर रखी हुई हैं।” मंगलेश कहीं न कहीं यह बताने
आते-जाते हैं।”8 कोमल हाथ बढ़ाने वाला अत्याचारी हमारे ही बीच की कोशिश करते हैं कि यह जो अत्याचारी है
का है। यहाँ मंगलेश अपनी काव्य-पंक्तियों से आश्चर्यचकित करते हमारे बेहद क़रीब है और हमारे बीच का है। वह
हैं। कोमलता और अत्याचार के बीच गहरा विरोधाभास है। वे ऐसे समाज के सफल लोगों में है। अपनी सफलता
विरोधी शब्दों के बीच काव्य संभव करते हैं और उन नक़ली लोगों को पाने और सबसे आगे निकल जाने के लिए
के मुखौटे उतारते हैं जो हमारे बीच ही होते हैं लेकिन वे दरअसल वह आततायी और क्रूर हो गया है।
में भीतर से क्रूर और अत्याचारी हैं। ऐसी कई पंक्तियाँ मंगलेश की
अन्य कविताओं में मौज़ूद है। ‘हम जो देखते हैं’- संग्रह तक आते- तत्व लगातार बढ़ते जा रहे हैं। मनुष्यता विरोधी तत्व ताक़तवर
आते मंगलेश बहुत स्पष्ट तरीके से उन मध्यवर्गीय और उच्च वर्गीय होकर उभरे हैं। वे इस लोकतांत्रिक समाज पर हावी होते जा रहे हैं
चरित्रों को पकड़ ने लगे जो स्पष्टतया मनुष्य के भेष में भेड़िये हैं। और मनुष्यता संकट में है। वे उसके प्रति घृणा से भरे हैं। यह घृणा
मंगलेश की काव्य-पंक्तियों को देखें : ही दरअसल उनकी “मनुष्यता” है– “मैंने देखा मैं बचा हुआ हूँ
“हत्यारा एक मासूम के कपड़े पहन कर चला आया है।”9 और सांस/ ले रहा हूँ और मैं क्रूरता नहीं करता/ बल्कि जो निर्भय
*** होकर क्रूरता किये जाते हैं/ उनके विरुद्ध मेरी घृणा बची हुई है यह
“एक प्रसिद्ध अत्याचारी विश्व पुस्तक मेले में काफ़ी है।”14 मंगलेश के प्रतिवाद और विरोध का यही रूप है।
हँसता हुआ घूम रहा था।”10 उन्होंने यह समझ लिया है कि समाज में बदलाव के लिए फिलहाल
*** कोई क्रांति नहीं हो रही। क्रांति के लिए अभी कोई स्पेस या उसके
“अत्याचारी ने हँसते-हँसते वार किया।”11 चिह्न मौज़ूद नहीं है तो उन्होंने हत्यारे या अत्याचारी के प्रति अपनी
*** घृणा को ही प्रतिरोध के रूप में दर्ज़ किया। मंगलेश यह भी महसूस
“अत्याचारी के घर पुरानी तलवारें और बंदूकें करते हैं कि जो अत्याचारी है उसके पास तमाम सुविधाएँ हैं। वह
सिर्फ़ सजावट के लिए रखी हुई हैं।”12 ऐशोअराम का सामान जुटाकर अन्यों से बेहतर जीवन जी रहा
*** है। वह सुरुचिसंपन्न है– “अत्याचारी के घर पुरानी तलवारें और
“अत्याचार करने के बाद बंदूकें/ सिर्फ़ सजावट के लिए रखी हुई हैं।”15 मंगलेश कहीं न कहीं
अत्याचारी निगाह डालते हैं बच्चों पर।”13 यह बताने की कोशिश करते हैं कि यह जो अत्याचारी है हमारे
मंगलेश आख़िरी संग्रह ‘स्मृति एक दूसरा समय है’ तक आते- बेहद क़रीब है और हमारे बीच का है। वह समाज के सफल लोगों
आते हत्यारा, दरिंदे आदि शब्दों का प्रयोग भी करने लगे। उनकी में है। अपनी सफलता को पाने और सबसे आगे निकल जाने के
कविताओं में हत्या की संस्कृति रचने वाले, ताक़त की नुमाइश लिए वह आततायी और क्रूर हो गया है।
करने वाले, क्रूरता को अंजाम देने वाले के प्रति गहरी अवमानना सत्ता एवं ताक़त और उससे जुड़े लोगों के अत्याचार और
का भाव है। वे इस बात को लगातार देख पा रहे थे कि हमारे निजी हिंसात्मक विचारों के बरअक्स मंगलेश डबराल की कविता में
और सार्वजनिक जीवन में समाज को नष्ट करने वाले असामाजिक आत्मग्लानि का बोध भी काफ़ी सजग रूप से मौज़ूद है। उन्हें यह

yegh जुलाई से सितंबर 2023 n 59


याद रखते हैं सिर्फ़ वह पता वह नाम/जहाँ ज्यादा तनख्वाहें हैं/
इसलिए मंगलेश लिखते हैं– “तानाशाह ज्यादा कारें ज्यादा जूते और ज्यादा कपड़े हैं/बाज़ार कहता है याद
मुस्कराते हैं भाषण देते हैं और भरोसा दिलाने मत करो/ अपनी पिछली चीज़ों को पिछले घर को/ पीछे मुड़ कर
की कोशिश करते हैं कि वे मनुष्य हैं लेकिन देखना भूल जाओ।”16
इस कोशिश में उनकी भंगिमाएँ जिन प्राणियों सत्ता, ताक़त और हिंसा की दुनिया रचने वाले के ख़िलाफ़
से मिलती-जुलती हैं वे मनुष्य नहीं होते”। मंगलेश शुरू से कविताएँ लिखते आ रहे हैं। तानाशाही के
कवि आदमखोर आततायियों, बर्बर हुक्मरानों ख़िलाफ़ उनकी कई कविताएँ पूर्ववर्ती संग्रह में है। लेकिन तब
और जालिमों से कहना चाहता है कि तुम उनकी कविताओं में प्रतिरोध के स्वर भी मौज़ूद थे। उस दौर में
“मनुष्य को कभी मिटा नहीं पाओगे” लेकिन कवियों के पास लड़ने हथियार के तौर पर आवाहनपरक कविताएँ,
उसकी विवशता है कि कोई सुनने वाला नहीं परिवर्तनकामी विचारधाराएँ और उसके सामाजिक आन्दोलन भी
है। कवि के स्वर में एक बुदबुदाहट भर रह थे। उन्होंने “मुक्ति” जैसी कविताएँ लिखी जिसमें तमाम चीज़ों
गयी है। कवि महसूस करता है कि अब समाज को हथियार में बदलते देखा था। तमाम खिड़कियों के खुलने की
में भय का साम्राज्य भर दिया गया है। उम्मीद थी। भूख़ एक मुस्तैद पंजे में बदल रही थी। लेकिन अब
यह संभव नहीं है। अब कवि के स्वर में प्रार्थना का भाव है। किसी
तरह बचे रहने का विनय। क्योंकि अब सत्ता का चरित्र दुर्दांत और
घोर अपराधिक है। पहले से कहीं हिंसक और कठोर। झूठा और
मक्कार। यही कारण है उन्होंने ‘हिटलर’ कविता लिखी और इस
बात को याद दिलाने की कोशिश कि वह मरने के बाद भी यहीं
महसूस होता है कि हम अपने आसपास की दुनिया को न बेहतर कहीं हमारे आसपास ही जिंदा है। हिटलर अब एक व्यक्ति नहीं
बना पा रहे न सुन्दर। संभवत: मंगलेश की कविताओं में यह भाव खौफ़़नाक विचारधारा है। ‘मनुष्यता’ के ख़िलाफ़ एक सांस्थानिक
भरने का काम मुक्तिबोध की कविताओं ने किया है। मुक्तिबोध हथियार। यह जितना सहज और मुस्कराता दिखता है उतना ही
का “मैं” ग्लानि से भरा है। उसे लगता है कि समाज का विद्रूप अधिक इसकी क्रूरता खुलती है। इसलिए मंगलेश लिखते हैं–
उसकी वज़ह से है। तमाम बुराइयों की वज़ह वही है। उसे अपनी “तानाशाह मुस्कराते हैं भाषण देते हैं और भरोसा दिलाने की
कमजोरियों से लगाव है इसलिए समाज में बदलाव नहीं हो रहा। कोशिश करते हैं कि वे मनुष्य हैं लेकिन इस कोशिश में उनकी
मंगलेश भी महसूस करते हैं हिन्दुस्तान की बड़ी आबादी निम्नस्तर भंगिमाएँ जिन प्राणियों से मिलती-जुलती हैं वे मनुष्य नहीं होते।”17
का जीवन जी रही है। लोगों के सामने भूख़ की समस्या है। लोग कवि आदमखोर, आततायियों, बर्बर हुक्मरानों और जालिमों से
बदहाल और विवश हैं। कुछ न कर पाने की स्थिति में उनका कहना चाहता है कि तुम “मनुष्य को कभी मिटा नहीं पाओगे।”18
काव्यबोध इस ग्लानि से भरा लगता है। उनकी कविताओं में गहरी लेकिन उसकी विवशता है कि कोई सुनने वाला नहीं है। कवि के
निराशा और अवसाद भी है। यह निराशा और अवसाद आत्महीन स्वर में एक बुदबुदहाट भर रह गयी है। कवि महसूस करता है
होते समाज और राजनीति की पीड़ा से उपजा है। कि अब समाज में भय का साम्राज्य भर दिया गया है। वे लिखते
अपने अंतिम संग्रह तक आते-आते उनमें निराशा के साथ-साथ हैं–“डराने का काम भी बांट दिया गया है समाज में/ भय का एक
भय के रूप भी दिखने लगे। सदी के अंत आते-आते उन्हें लगने लगा लोकतंत्र है/ डर उपजाना एक नया रोजगार/ कुछ बोलने–लिखने
कि यह दुनिया एक ऐसी वैश्विक चपेट में है जहाँ भूमड ं लीकरण, खाने-पीने-पहनने से पहले/ लगता है कोई है जो हमें घूर रहा है”।
बाज़ारवाद, उपभोक्ता-संस्कृति, हत्या और अश्लीलता की संस्कृति मंगलेश लोकतंत्र को भयतंत्र में बदल देने की प्रक्रिया को दृश्य-
एवं सत्ता का विराट अमानवीयकरण धीरे-धीरे सभी मानवीय मूल्यों दर-दृश्य सामने रखते हैं। समाज के ताने-बाने के बिखर जाने को
और संबंधों को निगल जाने वाली है। इसे वे ‘स्मृतिभ्रंश’ के युग शिद्दत से महसूस करते हैं। उन्हें लगता है कि “रोज एक झूठ सच
के रूप में देखते हैं। यह दौर तमाम स्मृतियों को भुला देने के लिए की पोशाक पहन कर/ सामने लाया जाता है।”19 इस तरह समाज
विवश करने वाली है। ‘भूलने का युग’ कविता में लिखते हैं : “यह के सामने एक हिंसक, बर्बर और खौफ़नाक मंजर है। आततायियों
भूलने का युग है जैसा कि कहा जाता है/ नौजवान भूलते हैं अपने और हत्यारों ने समाज से उसकी पूरी “वर्णमाला” ही छीन ली है
माता-पिताओं को/ चले जाते हैं बड़ी-बड़ी गाड़ियों में बैठ कर/ और एक ऐसी हिंसक वर्णमाला समाज को पकड़ा दी है जिसमें न

60 n जुलाई से सितंबर 2023 yegh


तो रचनात्मकता के लिए जगह बची है न करुणा के लिए। अब मंगलेश बार-बार अपनी कविताओं के माध्यम से “मनुष्यता”
‘क’ से करुणा नहीं क्रूरता सिखायी जा रही और ‘ह’ से हल नहीं को बचाने की ही कवायद करते हैं। अपने लिए कविताओं के भीतर
बल्कि हत्या। किसी समाज के लिए इससे भयावह दौर नहीं हो एक ‘नैतिक स्पेश’ क्रिएट करते हुए मनुष्यता, प्रेम और शांति को
सकता जब भय, हिंसा और अत्याचार ही समाज का वातावरण बन बचाने की कोशिश करते हैं क्योंकि पूंजी, बाज़ार और ताक़त की
जाए। मंगलेश ने समाज में फैले इस भय की व्याप्ति को महसूस दुनिया में यही नष्ट हो रहा है–
किया अपने शब्दों में उतारा। एक सरल वाक्य बचाना मेरा उद्देश्य है
मंगलेश की कविताओं में मां, पिता और दादा की तस्वीर बार- मसलन यह कि हम इंसान हैं
बार उभरती है। एक तरफ वे उन संबंधों को गहरे लगाव के साथ मैं चाहता हूँ इस वाक्य की सचाई बची रहे”।23 n
याद करते हैं तो दूसरी तरफ उस पीढ़ी के लोगों की अच्छाइयों की
संदर्भ :
तरफ भी इशारा करते हैं। उनके अंदर की सरलता, सहजता और
1. डबराल, मंगलेश “पहाड़ पर लालटेन”, (पहाङ से मैदान कविता) सेतु
मानवीय गुणों को उभारते हैं। यह मानवीय गुण और सहजता अब प्रकाशन प्रा.लि., पटपङगंज, दिल्ली, प्र.सं.–2020, पृ.–9
इस बाज़ारवादी और उपभोक्तावादी दुनिया में लगातार क्षीणतर हो 2. डबराल, मंगलेश “उपकथन”, आधार प्रकाशन प्रा.लि., पंचकूला, प्र.
रही है। पीढ़ी-दर-पीढ़ी मूल्यों में हो रही गिरावट और क्षरण को सं.– 2014, पृ.– 10
मंगलेश ने इन संबंधों के माध्यम से कहने की कोशिश की है। 3. डबराल, मंगलेश “आवाज़ भी एक जगह है” (दुख कविता) वाणी
प्रकाशन, नयी दिल्ली, प्र.सं.– 2000, पृ.– 50
मंगलेश ने क्लासिकल, सेमीक्लासिकल और फोक संगीतकारों 4. डबराल, मंगलेश “घर का रास्ता”, (दूसरा हाथ), राधाकृष्ण प्रकाशन प्रा.
पर भी काफ़ी सारी कविताएँ लिखी है। संभवत: मंगलेश अकेले लि., नई दिल्ली, प्र.सं.– 1988, पृ.– 21
ऐसे कवि हैं जिन्होंने संगीतकारों-कलाकारों को काव्य का विषय 5. वही, पृ.– 29
बनाया है। अमीर खां, केशव अनुरागी, गुणानंद पथिक, संगतकार, 6. वही, 75
7. डबराल, मंगलेश “हम जो देखते हैं”, राधाकृष्ण प्रकाशन प्रा. लि., नई
गाता हुआ लड़का आदि कविताएँ संगीतकारों-कलाकारों आदि से दिल्ली, प्र.सं.– 1995, पृ.-55
जुड़ी हैं। हाशिए पर ढकेले जा रहे कलाकारों और उनकी कलाओं 8. वही, पृ- 82
को मंगलेश ने स्वर दिया है और उसके माध्यम से उन मूल्यों को 9. वही, 14
बचाने की कोशिश की है जिसका आज के शोर में गुम हो जाने का 10. वही, 45
11. वही, 77
ख़तरा है। ये कविताएँ एक नया सबाल्टर्न विमर्श खड़ा करती हैं। 12. वही, 82
केशव अनुरागी के जैसे लोक कलाकारों के इतिहास में दफ्न हो 13. डबराल, मंगलेश “पहाङ पर लालटेन”, राधाकृष्ण प्रकाशन प्रा. लि., नई
जाने से बचाने की कवायद है यह कविता। महान कलाकार केशव दिल्ली, प्र.सं.– 1981, पृ.– 66
अनुरागी की परंपरा इसलिए आगे नहीं बढ़ी क्योंकि वह अछूत 14. वही, 12
15. वही, 82
था– “बिना शिष्य के गुरु केशव अनुरागी/ नशे में धुत सुनाता 16. डबराल, मंगलेश “स्मृति एक दूसरा समय है”, सेतु प्रकाशन प्रा. लि.,
था एक भविष्यहीन ढोल के बोल/ किसी ने अपनायी नहीं उसकी पटपङगंज, दिल्ली, प्र.सं.– 2020, पृ.– 22-23
कला।”20 गुणानंद पथिक को पता ही नहीं चला कि उनकी कला 17. वही, 65
और संगीत को व्यवसायिक संगीत ने कब निगल लिया। पहाड़ के 18. वही, 71
19. वही, 97
लोकगीतों को कब सरकारी परियोजनाओं, बांधों और विकास के 20. डबराल, मंगलेश “आवाज़ भी एक जगह है”, वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली,
आधुनिक यंत्रों के शोर ने हाशिए पर ढकेल दिया। संगतकार हमेशा प्र.सं.– 2000, पृ.– 29
थामे रहता है उस स्वर को जो स्वर टूट रहा होता है मुख्य गायक 21. वही, पृष्ठ– 14-15
से। “संगतकार ही स्थायी को संभाले रहता है।”21 मुख्य गायक को 22. वही, पृष्ठ–15
23. डबराल, मंगलेश “हम जो देखते हैं”, राधाकृष्ण प्रकाशन प्रा. लि., नई
याद दिलाता है कि वह अकेला नहीं है। मंगलेश प्रतीकात्मक रूप दिल्ली, प्र.सं.– 1995, पृ.-84-85
से भारतीय सामाजिक व्यवस्था के मजबूती से थामे रहने के एक
अर्थ को अभिव्यंजित करते हैं। जो हाशिए पर है उसकी भूमिका भी संपर्क :एसोसिएट प्रोफेसर
उतनी ही महत्वपूर्ण है जितनी मुख्य भूमिका वाले की। हाशिए के हिंदी विभाग,श्यामलाल कॉलेज, दि.वि.वि.
अपने स्वर को ऊँचा न उठा पाने को उसकी विफलता नहीं “उसकी दिल्ली-110032
मनुष्यता समझा जाना चाहिए”।22 मो. 9868326848

yegh जुलाई से सितंबर 2023 n 61


n विरासत : पंकज सिंह

कहन और शिल्प की नई पगडंडियाँ


कुमार मंगलम

(I saw the best minds of my gener- ओर संविधान-प्रदत्त अधिकार और एक तरह शहरों


ation destroyed by madness, starving के विकास से निर्मित नयी आर्थिक व्यवस्था समाज
hysterical naked, dragging themselves में समानता ले आयेगी। नेहरू का मानना थोड़ा अलग
through the negro streets at dawn था। वे गाँव को औद्योगिक आपूर्ति का साधन मानते
looking for an angry fix, angelheaded थे। उन्होंने भारत के विकास के लिए औद्योगिकीकरण
hipsters burning for the ancient heav- और शहरीकरण का रास्ता चुना। पंकज सिंह अपने
enly connection to the starry dynamo आलेख गांधी का उत्तराधिकार और नेहरूवादी भारत-
in the machinery of night… Allen Ginsberg)1 2 में इस ओर इशारा करते हैं,“जवाहर लाल नेहरू के मन में
कला, संस्कृति और साहित्य की अविभाज्यता सामाजिक जीवन स्वाधीन भारत के आर्थिक विकास के संदर्भ में व्यापक स्तर पर
के यथार्थ से अपनी नििर्मति पाता है। समाज में बदलाव चाहे भारी उद्योगों और विकेन्द्रित लघुस्तरीय उद्योगों के दो विकल्पों को
सांस्कृतिक, आर्थिक, राजनीतिक हो एक सफल रचनाकार उन लेकर किसी तरह का उहापोह नहीं था। लघु स्तर के उद्योग-धंधों
बदलावों को तत्कालीन यथार्थ और उससे उत्पन्न तनावों को और स्वावलंबी गाँवों की रचना वाली गांधी की दृष्टि को नेहरू’47
अपनी रचनाओं में अभिव्यक्त करता है। यथार्थ का अपना एक से पहले ही ख़ारिज कर चुके थे। नेहरू के अनुसार ‘लघु स्तर
अन्दरूनी अंतर्विरोध होता है, और समाज का ताक़तवर वर्ग उसे और बड़े स्तर वाले उद्योग की सापेक्ष गुणवत्ता से संबधितं कोई भी
अपने हिसाब से बदलता-बनाता है। यथार्थ को दर्ज़ करनेवाला बहस आज अजीब ढंग से अप्रासंगिक जान पड़ती है, जबकि विश्व
रचनाकार इन अंतर्विरोधों से लड़ता हुआ जनपक्षीय होता है और और इसके सम्मुख मौज़ूद स्थिति के प्रभावी तथ्य बाद वाले (बड़े
जनविरोधी चेतना का निर्माण करता है। आज़ादी के बाद भारतीय स्तर के उद्योग) के पक्ष में फैसला दे चुके हैं।’...उन्होंने पश्चिमी
स्थितियाँ वैसी नहीं रह गयी जैसी आज़ादी के शिल्पी नायकों ने आधुनिकता के धुर भौतिकवादी रास्ते को विकल्प के तौर पर चुना।
देखी थी। आजाद भारत के तीन प्रमुख नायकों को देखें तो गांधी, औपनिवेशिक भारत के संदर्भ नेहरू को यह बात कचोटती रहती
नेहरू और अम्बेडकर तीनों ने अलग-अलग भारत का स्वप्न थी कि पश्चिम की औद्योगिक क्रांति के बाद हुए वैश्विक विकास
देखा। गांधी की भारतीयता की अवधारणा आध्यात्मिक, नैतिक से भारत वंचित रह गया, क्योंकि वह गुलाम था। (नेहरू 1917
एवं क्रमिक विकास के रास्ते एक ऐसे भारत के निर्माण का था, की अक्टूबर क्रांति के बाद सोवियत संघ के विकास और अमेरिकी
जहाँ उपभोग की लक्ष्मण रेखा को समझे जाने का अवकाश हो, औद्योगिक विकास को औद्योगिक क्रांति के प्रतिफलन के दो रूपों
जहाँ मनुष्यता का विकास एक नैतिक अवधारणा हो और समाज के तौर पर देखते थे) नतीजतन’47 के बाद भारत के पुनर्निर्माण
में व्याप्त कुरीतियों को गांधी द्वारा प्रदत्त अष्टांग योग से धीरे-धीरे के लिए उन्हें उद्योगीकरण और वैज्ञानिकता के सत्र उपयोगी लगे।
समाप्त किया जा सके। यह बहुत हद तक उनके ग्राम-स्वराज और उन्हें विश्वास था कि इनके सहारे जो विकास होगा वही विकास और
सत्ता के विकेंद्रीकरण के रास्ते पाया जा सकता था। अम्बेडकर उसका लाभ भारत के शोषित निर्धनों की, मजदूरों व किसानों की
का रास्ता सामाजिक सुधार और समाज में ग़ैर-बराबरी को ख़त्म मुक्ति की राह प्रशस्त करेगा।”2 नेहरू के जीते जी ही नेहरू मॉडल
कर एक संवैधानिक बराबरी का राज्य निर्माण था। अम्बेडकर इसे असफल होने लगा। नेहरू के होते ही विकास की इन सरणियों
संवैधानिक अधिकारों के तहत पाना चाहते थे। वे चाहते थे कि एक में बिचौलियों का प्रभुत्व इतना अधिक बढ़ गया था कि भारत की

62 n जुलाई से सितंबर 2023 yegh


आर्थिक स्थिति अनस्थिर होने लगी थी। इन आर्थिक स्थितियों ने
शहरों की जैसी स्थिति की, उसे तो रहने ही दिया जाए किन्तु गाँवों
की स्थिति काफ़ी बदतर हो गयी थी। भारत के गाँवों में आर्थिक
असमानता सामाजिक असामनता के साथ मिल कर कोढ़ में खाज
जैसी स्थिति पैदा करने लगी थी। “नेहरू का आधुनिकतावादी विवेक
पश्चिमी शैलियों के अनुकरण में ऐसी मिश्रित अर्थव्यवस्था को लेकर
आया जो एक प्रकार के अर्द्ध विकसित पूँजीवाद की गुलाम होकर रह
गयी। न तो उत्पादन के साधनों का नवीनीकरण हुआ न ही उत्पादन
संबंधों में अपेक्षित बदलाव आ पाया। विधायिका के माध्यम से
सामन्तवाद से लड़ने की नेहरू की कोशिश विफल होकर रह गई,
क्योंकि उसके साथ बड़े पैमाने पर जिस जन चेतना के निर्माण
की ज़रूरत थी उसके लिए नेहरू के पास न तो औज़ार थे न ही
गांधी जैसी प्रबल नैतिकता का आग्रह। एक नियंत्रित अर्थव्यवस्था में
नौकरशाही, राजनीति, सामंतवाद और दलाल मध्यवर्ग ने मिलजुल
कर लूट खसोट की जिस भ्रष्ट व्यवस्था को विकसित किया, वही
प्रभुत्वशील संस्कृति बनती चली गयी।”3 में नक्सलबाड़ी संघर्ष और अकविता के राजनीतिक प्रतीकवाद से
आज़ादी के पश्चात् आर्थिक संकट और राजनीतिक अस्थिरता मुक्ति का प्रयास साफ़ लक्षित किया जा सकता है। एक कविता है
के फलस्वरूप 1967 में नक्सलबाड़ी के सशस्त्र किसान संघर्ष पश्चात् सच—
ने स्थानीय भू-स्वामियों के ख़िलाफ़ हथियारबंद किसानों का “धब्बों भरी एक चीख़/अटकी मिली/मृतक के स्वरयंत्र में/टूटे
आन्दोलन समाज में एक व्यापक बदलाव की पीठिका तैयार की। हुए/ शब्दों/में/लिपटी/जो जकड़ा था इर्द-गिर्द उसके श्लेष्मा की
इस आन्दोलन से साहित्य भी अछूता नहीं रह सका। साठ के दशक तरह/वह किस्तों में निगला/ भय था लगभग प्रस्तरीभूत/जिसने
में ‘किसिम-किसिम की कविता’ का स्वर हिंदी में सुनाई देने लगा उसके सारे कहे को/नागरिक बनाया था जीवन भर/उसके विराट
था। बंगाल के शक्ति चट्टोपाध्याय, मलय रॉय चौधुरी, समीर रॉय और/ महान/लोकतंत्र की सेवा में।”4 ‘पश्चात् सच’ न सिर्फ़
चौधुरी समर्थित भूख़ी पीढ़ी कविता आन्दोलन का असर हिंदी में भी लोकतंत्र की कलई खोलता है बल्कि मृतक के भीतर दबी चीख़
होने लगा था। राजकमल चौधरी हिंदी में इसके समर्थक थे। हिंदी और प्रस्तरीभूत भय में निहित अर्थ बहुत हद तक लोकतंत्र में एक
में गिन्सबर्ग और स्पेंगलर की चर्चा के केंद्र में थी। नख-दन्त-शिख विहीन ऐसे नागरिक के निर्मिति को भी अभिव्यक्ति
पंकज सिंह उन दिनों मुजफ्फरपुर में थे, और राजकमल चौधरी, देता है, जिसे राजकमल चौधरी अपनी कविता मृत्यु प्रसंग के
गिन्सबर्ग आदि से उनकी मुलाकातें भी थीं। पत्र-पत्रिकाओं में इनकी आख़िरी हिस्से में इंगित करते हैं— “आदमी को तोड़ती नहीं हैं
चर्चा थी। इनके प्रभाव में रहते हुए न केवल उनका काव्य-विवेक लोकतान्त्रिक पद्धतियाँ केवल पेट के बल/उसे झुका देती हैं धीरे-
निर्मित होता है, बल्कि उनके समझ का दायरा भी विस्तृत होता है। धीरे अपाहिज/ धीरे-धीरे नपुंसक बना लेने के लिए उसे शिष्ट
पंकज सिंह का पहला संग्रह ‘आहटें आसपास’ 1981 में प्रकाशित राजभक्त देशद्रोही नागरिक/बना लेती हैं।”5
होता है। अकविता, किसिम किसिम की कविता, भूख़ी पीढ़ी और नेहरू की मृत्यु के पश्चात भारतीय लोकतंत्र के बड़े दावे धीरे-धीरे
नक्सलबाड़ी आन्दोलन की पृष्ठभूमि पंकज सिंह की कविता की खोखले साबित होने लगे थे, विज्ञान की प्रगति ने जिस आधुनिकता
पृष्ठभूमि बनती है। आहटें आसपास भले ही 1981 में प्रकाशित को जन्म दिया था, वह विनाशक की भूमिका अख्तियार कर चुका
होता है किन्तु इसमें उनकी 1966 के आसपास की भी कविता था। विज्ञान से प्रगति और समृद्धि की उम्मीद के बजाये विनाश
है। एक ओर नक्सलबाड़ी संघर्ष, अकविता इत्यादि की पृष्ठभूमि का दर्शन सामने आ रहा था। जिससे वैज्ञानिकता, आधुनिकता,
और दूसरी ओर इस हो-हल्ले से निकल संयत और सान्द्र कविता- बुद्धिवाद, लोकतंत्र इत्यादि से मोहभंग मूल्यहीन वर्तमान के
अभिव्यक्ति की बेचैनी इस पीढ़ी के कवियों के यहाँ दबाव के तौर फिसलनपट्टी के ज़द में समाता जा रहा था। अमेरिका-सोवियत
पर काम कर रहा था। इस पीढ़ी के सभी कवि इनसे मुक्ति पाने रूस के बीच शीतयुद्ध, शीतयुद्ध की समाप्ति और सोवियत रूस का
के लिए संघर्षरत थे। पंकज सिंह इसमें से एक थे। इन कविताओं विघटन, पूँजी, बाज़ार एवं विज्ञापन का भारत में आगमन इत्यादि

yegh जुलाई से सितंबर 2023 n 63


के थक्कों पर तिलचट्टे और चींटियों का आदिम नृत्य/ फ़िलहाल
पंकज सिंह की कविताओं का राजनीतिक
कितनी सावधानियों का सिलसिला है यह जीवन भी।”7
मुहावरा न सिर्फ़ संयत हुआ है बल्कि इन
कविताओं में राजनीतिक प्रतीकवाद से जैसे पवन पानी की कविताओं में पंकज सिंह की कविताओं का
मुक्ति के साथ-साथ बिम्बों का सहज और राजनीतिक मुहावरा न सिर्फ़ संयत हुआ है बल्कि इन कविताओं में
चित्ताकर्षक प्रयोग कविताओं के शिल्प में राजनीतिक प्रतीकवाद से मुक्ति के साथ-साथ बिम्बों का सहज और
नयापन भी लाता है। वो चाहे संख्याएँ कविता चित्ताकर्षक प्रयोग कविताओं के शिल्प में नयापन भी लाता है। वो
हो, जैसे पवन पानी कविता हो या इस संग्रह चाहे संख्याएँ कविता हो, जैसे पवन पानी कविता हो या इस संग्रह
की अन्य कई कविताएँ। की अन्य कई कविताएँ। इस संग्रह में एक कविता है— ‘कठिन
आग’ यह कविता 1992 के आसपास की कविता है। इस समय
की स्थितियाँ भारत में सांप्रदायिक दंगे और सामाजिक अस्थिरता
मानवीय मूल्यों में ह्रास की स्थिति पैदा की। चरम भौतिक लक्ष्यों की है। इस कविता में प्रयुक्त बिम्ब सांप्रदायिक अस्थिरता के मूल
की प्राप्ति की जैसी भागदौड़ आज हमें देखने को मिल रही है में निहित ग़ाैरव-बोध की जैसी शिनाख्त करती है, वह समकालीन
इसकी शुरुआत आठवें दशक में हो रही थी। नक्सलबाड़ी संघर्ष, कविता में अति दुर्लभ है- “इतने हत्याकांडों के बाद भी कोई अंतर
इंदिरा गांधी द्वारा लगाये गये आपातकाल के फलस्वरूप उत्पन्न नहीं पड़ता/ नहीं व्यापता हठी हृदयों में भय/ थोड़ी भी मंद नहीं
हुए राजनीतिक दमन, अस्थिरता, विद्रोह पंकज सिंह की कविताओं पड़ती कोई कामना/दासता का सबक़ सिखाये जाने के बाद भी/
में अभिव्यक्त हुआ है। इन सभी स्थितियों के केंद्र में लोकतान्त्रिक बुझती नहीं आत्मा की कठिन आग/ दिपदिपाती मुस्काती तनी हुई
ढांचों का विघटन और उससे उपजा क्षोभ पंकज सिंह की इन मुट्ठियों पर नाचती हुई/ज्यों पके जामुन पर चमकती ओस की बूँदों
कविताओं का मूल स्वर बनता है– “दहक़ती हुई चीज़ों के आर में/चमकता हो गर्वीला सूरज।”8
पार/ तेंदुए की तरह गुर्राता छलांगें मारता/ गुज़रता है समय.../ इस 1992 की सांप्रदायिक अस्थिरता एक सामाजिक एवं सामूहिक
युद्ध में अब तक कोई नहीं लड़ा है अपने गूँगे शब्दों से खेलता/अब कृत्य थी। व्यक्तिगत कृत्य अनगिनत आयामों वाला होता है यह
तक किसी ने परछाईं भर की दूरी में थरथराती/ उस चीज़ को कोई जीवन की विविधता के साथ अपना रूप और गुण बदलता है
नाम नहीं दिया/ वह महज मृत्यु है– एक जैविक परिणति भर.../ जबकि सामाजिक कृत्य एकायामी होता है जो जड़ स्थिति में होता
तुम्हारी लड़ाई/उस निर्मम जंगल के ख़िलाफ़ गुस्सैल लकड़हारों है। इसकी क्रियाशीलता जड़ समाज में ही संभव है। उत्पीड़न
की/लम्बी लड़ाई है/जिस जंगल में सिर्फ़ आदमख़ोर रहते हैं/ -देखो सामाजिक रूप और संरचनाओं से निर्मित होता है। अतः उत्पीड़न
कैसा चमकता है अँधेरा/ काई की गाढ़ी परत सा/ एक निर्मम जो कि सामाजिक निर्मिति है वह अपने भयावह संदर्भ में व्यक्तिगत
फ़ासीवादी चरित्र पर/ देखो लोकतंत्र का अलौकिक लेप।”6 गर्व में रूपांतरित होता है। स्वाद कविता में पंकज सिंह दमन की
आहटें आसपास की कविताओं में एक क्रान्तिकारी रोमान और इस सामूहिक निर्मिति के केंद्र में निहित वैयक्तिकता की शिनाख्त
परिवर्तन की उद्दाम आकांक्षा लिए हुए एक ऐसे युवा का स्वप्न करते हैं। हत्यारे हमारे बीच से ही आते हैं। समाज में उनकी
संसार है, जिसमें संघर्ष है और प्यार है। माँ से संबंधित कविता स्वीकृति भी हमीं देते हैं। उनके रंगा-सियार होने को हम सभी
अथवा श्वेताभ के जन्म पर तीन कविता एक क्रांतिधर्मा चेतस जानते हैं पर यह हमीं हैं कि हम चुप रहते हैं। यह एक मध्यवर्गीय
मनुष्य की भीतरी ताक़त की अक्षय उर्जा-स्रोत की पहचान की मानसिकता है। पंकज सिंह जिस अभिनेता को आठवें दशक में
कविता है। जैसे पवन पानी की कविताओं में आहटें आसपास जैसी लक्षित कर रहे हैं चौदह आते-आते वह अभिनेता हमारे सामने
क्रांतिकारी आवेग के स्थान पर यथार्थ से जन्मा अवसाद है। ये अपने सारे साजो-सामान लेकर उपस्थित है और हमने अपने
कविताएँ अपने समय के यथार्थ का अधिक सघन और संश्लिष्ट हरबे हथियार रख दिए हैं। अब हत्यारे छुप कर नहीं आते। यह
विवरण हैं। जहाँ कवि का निज भी विवेक के खराद पर सार्वजनिक मुक्तिबोध का समय नहीं है, पंकज सिंह का समय है, यह हमारा
युक्तियों की जैविक अभिव्यक्ति बन जाती है। राजनीतिक सुस्पष्टता समय है। “निस्तब्ध नगर के मध्य-रात्रि-अँधेरे में सुनसान”9 में
आक्रोश को संयत कर प्रतिरोध को अधिक तीक्ष्ण बना देता है। नहीं हत्यारे पूरे शान से दूरदर्शन पर आते हैं– “बहुत शालीन
उसकी व्याप्ति स्वप्न के परिवर्तन के महास्वप्न से जोड़ने लगती दीखते हैं आदमखोर चेहरे शहरों की चहल-पहल में/ जयंतियों
हैं। “ग़ाैर से सुनो रुक-रुककर सुनाई देगी हथियारों की टकराहट/ और समारोहों में लक़दक़ चेहरे/अख़बारों में हर रोज़ थोड़े और
और चीख़ें/महसूस होगी रह-रहक़र जलने की गंध/दिखाई देगा ख़ून चिकने और शालीन होते हुए/फ़ोटो खिंचाते हुए बहुत सौम्य दिखते

64 n जुलाई से सितंबर 2023 yegh


हैं तेंदुए भेड़िये चेहरे/ हमीं में से जाते हैं दर्शक/हमीं में हैं कलाकार हुआ चन्द्रमा।”14 पंकज सिंह की नहीं की कविताएँ जीवन में अगाध
जो तरह-तरह के वाद्ययंत्र लिये जाते हैं.../ बहुत संयत और लगभग विश्वास की कविताएँ हैं जहाँ ‘दहाड़ता खोखलापन’, ‘एक साथ
महान दिखते हैं आदमख़ोर चेहरे/दूरदर्शन पर नेपथ्य में बजता है शोक और उम्मीद के निशान’ के साथ संयत होता है। ये कविताएँ
उम्दा संगीत/वे गुर्राते नहीं/ थम-थमकर बोलते हैं/ साँझ में जब अपने ‘होने की निशानियों’ को जीवन के विचलन में संयमित और
हम ज़मीन पर डाल चुकते हैं हरबे हथियार/ जगता है आदमी शांत होकर उम्मीद का दामन कसकर पकडती हैं। नििर्मति
का स्वाद उनके जीभ पर।”10 जैसे पवन पानी में पंकज सिंह का पंकज सिंह की कविताएँ राजनीतिक प्रतिबद्धता और सुस्पष्टता,
प्रेम का पक्ष भी उदात्त है। वह सिर्फ़ प्रेम की सुंदरताओं पर ही नहीं करुणा, प्रेम, जीवन-संघर्ष और उम्मीद से अपनी नििर्मति पाती हैं
अपने अहंकार, क्षोभ, आडम्बर, विडंबना और ग्लानि को प्रेम की जहाँ भाषिक सौन्दर्य भी है और जीवन का स्याह-सुफेद रंग भी।
शर्त पर शिनाख्त करते हैं। यहाँ प्रेम की सुन्दरताओं को बचाने का पंकज सिंह की कविताओं में जीवन का वह ताप है जिससे जीवन
भाव से कहीं अधिक ‘आत्मा की मलिनता’ को ‘निथारने’ का भाव उम्मीद से भरा, शांत और संयत हो सकता है। ये कविताएँ मनुष्यता
अधिक है। पंकज सिंह के लिए प्रेम ‘उचाट आँखों में उत्सुकता की की सहचर हैं और जीवन की भी। बस थोड़ा समय इन कविताओं
चमक’ भरने के साथ-साथ ‘अभिमान के परखचे उड़ाता’ हुआ को दीजिए और सुनिए। जैसा कि सविता सिंह भी कहती हैं कि इन
‘पृथ्वी को निश्शंक’11 करने की ताक़त रखता है। यह प्रेम ही है कविताओं की परिणति सुने जाने में है। “समय की खाई में गुमराह/
जो सभी भयावह, क्रूर और प्रतिकूल समय में मनुष्यता का सहचर किसी तरह से बची रही यह बात/ एक आवाज़ खोजती अपनी
है- “हमारा सबकुछ ख़र्च हुआ ज़र्द सी एक बेहद पुरानी कहानी में/ परिणति/ जो सुने जाने में ही है आह!”15 n
हमेशा जिसका हासिल होता है एक ख़ालीपन/बचती है दरारों भरी
संदर्भ-
आत्मा क्षत-विक्षत देह.../एक बार फिर शुरू होते हैं रोज़मर्रा के
1. https://www.poetryfoundation.org/poems/49303/
खेल/उन्हीं में मिलते हैं रंगीन धागे नाटकों की पोशाकें/किसी ढूह में howl
मरी हुई चीज़ों में सोया/ कोई नया अपार्थिव विश्वास भी।”12 2. सृजन समीक्षा, जनवरी-जून, 2023, पृ. 40
‘नहीं’ अपने समय के द्वन्द्वात्मक यथार्थ से मुठभेड़ करने 3. सृजन समीक्षा, जनवरी-जून, 2023, पृ. 40
वाला काव्य-संग्रह है। नहीं अपने आप में नकार का बोधक है। 4. पंकज सिंह, आहटें आसपास, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, 2014, पृ.12
5. राजकमल चौधरी,ऑडिट-रिपोर्ट, वाणी प्रकाशन, दिल्ली, 2006,
किसका नकार? अपने समय की विसंगतियों का जिसमें सबसे पृ.277
अधिक प्रभावित मनुष्यता है। नकार में भी कवि की संवेदना हत्यारी 6. पंकज सिंह, आहटें आसपास, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, 2014,
अथवा हिंसक नहीं हो सकती। यहाँ अस्वीकार्य का भाव भी बहुत पृ.27
संवेदनाजन्य है। इस संग्रह में नकार का भाव जीवन के विविध 7. पंकज सिंह, जैसे पवन पानी, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, 2001, पृ.09
8. पंकज सिंह, जैसे पवन पानी, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, 2001, पृ.48
अनुभवों से जन्य है जो कहीं सामाजिक है और कहीं एकान्तिक भी 9. गजानन माधव मुक्तिबोध, चाँद का मुँह टेढ़ा है, भारतीय ज्ञानपीठ, नई
है। पंकज सिंह के इस नकार भाव में भी जीवन की अक्षय-उर्जा दिल्ली, 2015, पृ. 257
की तलाश, संघात भाव अक्षुण्ण है। यह इतनी संवेदनशील है कि 10. पंकज सिंह, जैसे पवन पानी, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, 2001, पृ49
‘तलवार की धार पर धावनो है’ और इतना गझिन कि न सिर्फ़ 11. पंकज सिंह, जैसे पवन पानी, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, 2001, पृ. 81
12. पंकज सिंह, जैसे पवन पानी, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, 2001,
अवसाद नहीं बल्कि अपने समय का स्याह भी बहुत गहराई से इन पृ.112
कविताओं में बुना हुआ है। नहीं में पंकज सिंह का कवि अनुभवों 13. पंकज सिंह, नहीं, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, 2009, पृ.46
का ऐसा संलयन तैयार करता है जो अदेखा और अनचीन्हा तो नहीं 14. पंकज सिंह, नहीं, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, 2009, पृ.47
पर अनकहा ज़रूर है। 15. सविता सिंह, खोई चीज़ों का शोक, राधाकृष्ण प्रकाशन, दिल्ली, 2023,
पृ.25
“हथेलियों में थामकर कोहरे में डूबा उसका चेहरा/हथेलियों से
संपर्क : सहायक प्राध्यापक हिंदी
घेरकर उसके कँपकँपाते उरोज/देह से आच्छादित कर उसकी देह उत्तराखंड मुक्त वि.वि. हल्द्वानी
की धरती/कहता है प्रेमी, देता हूँ तुम्हें निवास/करता है प्रयत्न अंत मो. 8840649310
तक कुछ-कुछ प्रेम सा ही दिखे विलास।”13 अथवा “दिखाई देती
हैं सुबह से ही उसकी थिराई उदासियाँ/नहीं कहीं सघन होती हिंसा
उसके ऊबे क्रिया-कलाप में/ जो उसी को खाती है हर रोज खाती
है खाती है/तिर्यक धँसा रहता है उसकी छाती में अहर्निश/एक बुझा

yegh जुलाई से सितंबर 2023 n 65


n विरासत : मलखान सिंह

रुधिर का तापमान
बजरंग बिहारी तिवारी

ऐसा कोई सर्वेक्षण शायद नहीं हुआ है पर यह कहना उनकी कविताओं को स्वीकार्य बनाती है। ‘औषधीय’
गलत नहीं होगा कि इधर बीच दलित साहित्य के पाठकों गुणों के चलते ही उनकी कड़वी अभिव्यक्तियाँ ग़ैर
की संख्या में पर्याप्त वृद्धि हुई है। इस संख्या वृद्धि दलितों के लिए भी वांछित और सह्य हो जाती हैं।
में दलित समुदाय के पाठकों का मुख्य योगदान है। दलित पाठक वर्ग के निर्माण की पूर्वपीठिका में इस
एक तो जागरूकता में बढ़ोत्तरी, दूसरे विश्वविद्यालयी साहित्य की सामान्य चर्चा से लेकर सभा-संगोष्ठियों,
शिक्षा में दलित विद्यार्थियों का आरक्षण नियमों के विद्यापीठों आदि में मलखान सिंह का अनिवार्य संदर्भ
किंचित कड़ाई से लागू होने के कारण पहले से कहीं इसी परिप्रेक्ष्य में समझा जा सकता है। इससे यह
अधिक प्रवेश, तीसरे मानविकी के तमाम पाठ्यक्रमों में दलित भरोसा भी मजबूत होता है व्यापक पाठक समुदाय वास्तविक और
साहित्य की उपस्थिति, और चौथे इन सब कारणों के सम्मिलित मौसमी प्रतिबद्धता के बीच अंतर करना जानता है। ग्रेशम का नियम
असर से प्रकाशन बाज़ार में दलित लेखन के प्रति चयनित-सीमित साहित्य पर भी लागू होता है। अस्मितावादी लेखन पर विशेष रूप
मगर विशेष झुकाव जाति-वर्ण से ग्रस्त अकादमिक दुनिया में से। मलखान सिंह को नेपथ्य में डालने, विस्मृत करने की कोशिशें
उल्लेखनीय बदलाव ला रहे हैं। इस परिवर्तित माहौल के मद्देनज़र होती रही हैं। मुद्राओं का कारोबार करने वाले कलदार कविताओं
दलित रचनाकारों की पहली पीढ़ी के संघर्ष का कृतज्ञता के साथ को चलन में क्यों रहने देंगे!
स्मरण करना उचित है और ज़रूरी भी। मलखान सिंह उसी पीढ़ी मलखान सिंह संवादी कवि हैं। एकालाप या आत्मालाप में उनका
से ताल्लुक रखते हैं। पिछली शताब्दी के अंतिम दशक में उनकी यक़ीन नहीं। उनकी कविताएँ बातचीत के लिए आमंत्रित करती हैं।
कविताएँ प्रकाशित होनी शुरू हुईं। पहला कविता संग्रह 1997 में बेशक, अपने अंदाज़ में। यह अंदाज़ धमकाने वाला तो नहीं, पर
आया। इस संग्रह ने अपने प्रकाशन के साथ जैसी लोकप्रियता अर्जित चुनौती देने वाला है। उनके संग्रह का शीर्षक ‘सुनो ब्राह्मण’ इसकी
की वैसी किसी अन्य समकालीन कवि या कविता पुस्तक को नहीं ताईद करता है। यह शीर्षक एकबारगी हमें कबीर शैली की याद
मिली। एकबारगी सोचकर आश्चर्य होता है कि अत्यंत चुभने वाली दिलाता है- ‘सुनो भाई साधो’ या ‘सुनो हो संतो’। लेकिन थोड़ा
भाषा, तिलमिला देने वाले तेवर और बेचैन कर देने वाले कथ्य को और ध्यान दें तो पाएँगे यह शैली बुद्ध की है। महात्मा बुद्ध के कई
कैसे स्वीकार कर लिया गया! उपदेश ‘भो ब्राह्मण’–हे ब्राह्मण से प्रारंभ होते है। जो सबका
मलखान सिंह की कविताओं में व्याप्त तल्खी दायित्वबोध से शिक्षक होने का दंभ पाले हुए है उसे समझाना, रास्ता दिखाना और
उपजी है। वे जानते हैं कि उनकी आवाज़ उत्पीड़ित समाज की मार्गदर्शक की भूमिका से उतारकर हमराही या अनुयायी की स्थिति
वाणी है। उनके व्यथापूरित अनुभव निरे वैयक्तिक नहीं हैं। वे में ले आना। मलखान सिंह की संबोधन शैली बुद्ध और कबीर की
दलित समाज की संचित पूँजी हैं। इतिहास के लंबे दौर में हिंसक याद कराकर भी उनसे अलग है। उनके संबोधन में विनम्रता नहीं,
व्यवस्था का ‘प्रदेय’। ‘स्वानुभव’ के प्रति उनकी भिन्न दृष्टि का तंज नहीं, ललकार है। इस ललकार में उठते-उमड़ते, आत्मग़ाैरव
यही कारण है। वे इसके प्रति खासे चौकन्ने हैं कि स्वानुभव का दावा के भाव को रेखांकित करते दलित समुदाय की तेजस्विता है। यह
उनकी वैयक्तिक छवि को चमकाने का ज़रिया न बन जाए। समूचे तेजस्विता वर्णवाद को हतप्रभ करती है, जातिवाद का सत्व सुखाती
उत्पीड़ित समुदाय से ‘स्व’ की अकृत्रिम सम्बद्धता उनके स्वत्व है और अवमानना के भारवाहक़ों को चौंधियाती है। जाति के प्रपंच
का निर्माण करती है। उनका अस्मिताबोध इसीलिए अनुदार और से अवगत कवि ‘देव विधान’ को बेपर्दा करता चलता है- ‘उफ़!
संकीर्ण नहीं हो सकता। वह ‘अस्मि’ का विस्तार करता चलता है। तुम्हारा न्याय/ महाछल महाघात/ ज्ञात को अज्ञात के/ पेट में
अस्मितावाद में ढल जाने का रास्ता नहीं अपनाता। यह विशेषता ही घुसेड़कर/ रचता महाभाष्य/ ठगता पसीने को/ हमारी फटेहाली

66 n जुलाई से सितंबर 2023 yegh


को नियति ठहराता है।’ जाहिर है कि मलखान सिंह के संबोधन में
उद्बोधन मुख्य है। यह उद्बोधन उनके लिए है जो अज्ञात और नियति
के व्यूह से बाहर आना चाहते हैं। व्यूह के निर्माताओं को कवि
पहचानता है। वह चाहता है कि बाकी लोग भी इसे पहचानें। यह
बोधन ही उद्बोधन का आधार है। संबोधन की प्रक्रिया भिन्न धरातल
पर घटित होती है। जिसे संबोधित किया जा रहा है वह तल के उस
बिंदु पर अवस्थित है जहाँ से दासता का सोता फूटता है। स्रोत को
निःशेष करना कवि का अभीष्ट है- ‘इस विष वृक्ष को/ जड़ से
उखाड़ फेंकने में/ हमारी आज़ादी है।’ जाति एक शृंखला है। इस
शृंखला से सब आबद्ध हैं। समान रूप से। कोई एक जाति समूह
अलग से मुक्त नहीं हो सकता। सबकी मुक्ति साथ-साथ होनी है।
कवि इसमें एक पूर्वापर संबंध बनाता है। दलितत्व के विलोप की
पूर्वशर्त है ब्राह्मणत्व का विलय। ब्राह्मण का अंत ही दलितपन का
समापन संभव करेगा। यह बात कहने-सुनने में भले ही क्रूर लगती
हो लेकिन है सौ फीसद सच- ‘सुनो ब्राह्मण!/ हमारी दासता का
सफ़र/ तुम्हारे जन्म से शुरू होता है/ और इसका अंत भी/ तुम्हारे
अंत के साथ होगा।’
दलित कवि कथाकाव्य रचने में बहुत कम रुचि लेते हैं। उनकी
कविता में कथातत्व मुख्यतः आत्मकथा के संदर्भोंं से आता है। हो
सकता है अनुभव की प्रामाणिकता के अतिरिक्त आग्रह से ऐसा
होता हो। मलखान सिंह ने भी कथा-कविता में प्रयोग लगभग नहीं दलित कवि कथाकाव्य रचने में बहुत कम
किए हैं। हाँ, उनकी ‘यह कैसा महा आख्यान’ कविता कथाकाव्य रुचि लेते हैं। उनकी कविता में कथातत्व
के उदाहरण के रूप में देखी जा सकती है। इस कविता में झीना- मुख्यतः आत्मकथा के संदर्भोंं से आता है।
सा कथा तत्व है। सर्दी की एक सुबह के दृश्य को प्लाट के तौर हो सकता है अनुभव की प्रामाणिकता के
पर रखा गया है। यहाँ ठंड समाज-निरपेक्ष प्राकृतिक अवस्था नहीं अतिरिक्त आग्रह से ऐसा होता हो। मलखान
है। वह जाति और वर्ग के आधार पर असर करती है। खेत में सिंह ने भी कथा-कविता में प्रयोग लगभग नहीं
किए हैं। हाँ, उनकी ‘यह कैसा महा आख्यान’
अलसुबह ‘कमीन कौम’ से काम कराती ‘ठकुराइसी मूंछें’ ठंड की
कविता कथाकाव्य के उदाहरण के रूप में देखी
पहुँच से बाहर हैं, वहीं फावड़ा चलाता दलित पात्र पहले अपनी जा सकती है। इस कविता में झीना-सा कथा
अन्यमनस्कता से और फिर दूर नीले आकाश में लहराते झंडे में तत्व है। सर्दी की एक सुबह के दृश्य को प्लाट
बने धम्मचक्र से हाड़-तोड़ ठंड का मुक़ाबला करता है। कविता के तौर पर रखा गया है। यहाँ ठंड समाज-
में आया दलित बस्ती का ब्योरा सर्दी के समाजशास्त्रीय भाष्य की निरपेक्ष प्राकृतिक अवस्था नहीं है। वह जाति
ज़मीन तैयार करता है। मंदिर से उठती आवाज़ प्रकृति पर धर्म- और वर्ग के आधार पर असर करती है।
संस्कृति की पकड़ का प्रमाण प्रस्तुत करती है। मनुष्य की आद्य
स्मृतियों में से एक है शीत की स्मृति। मलखान सिंह उसके आधार
पर कथातत्व बुनते हैं। कविता की अपील इस तरह सार्वजनीन होती मलखान सिंह की कविता- ‘हमारे गाँव में’ अपने आकार और
है। मौसम उनकी कविताओं को बार-बार रूपाकार देता दिखता है। कथ्य दोनों को देखते हुए लंबी कविता की श्रेणी में रखी जा सकती
इसी स्रोत से उन्होंने कुछ आद्य बिंबों का चयन किया है। ‘अंधड़’ है। कुल 5 पृष्ठों, 9 अंतरों और 121 पंक्तियों में पूरी हुई यह
उनमें से एक है। यह आद्य स्मृति है और आद्य बिंब भी। एक घोर कविता अद्भुत प्रवाह लिए हुए है। प्रवाहपूर्ण होने का एक कारण
नास्तिक कवि का ईश्वर के विभिन्न संबोधनों/नामों का सार्थक यह है कि मलखान सिंह ने इसे अब्दुल बिस्मिल्लाह की इसी नाम
विनियोग रचना कौशल का उत्कृष्ट नमूना पेश करता है। से प्रकाशित कविता के प्रत्युत्तर के रूप में लिखा था। गाँव को

yegh जुलाई से सितंबर 2023 n 67


रख दे “तो कुएँ का पानी/ मूत में बदल जाता है।” हरि और जन
के कामों का दुर्लंघ्य बँटवारा है। जन के जिम्मे जूता बनाने, कपड़ा
बुनने और मैला उठाने का काम है तो हरि के पास जूता पहनने,
शास्त्र बाँचने और दुर्गंध पोंकने का काम। हरि की हवेली, हरि के
खेत और हरि का बगीचा जन के हाथों सेवा पाकर चमकते-दमकते
रहते हैं। हवेली धन-धान्य से भरी रहती है। जन को मिलता क्या
है- फूस की झोपड़ी, नंगा पाँव, खाली पेट। जन अपनी विनम्रता
से जाने जाते हैं और हरि उद्दण्डता से। जिसने अभी ठीक से अपना
नाड़ा खोलना नहीं जाना है, हरि का वह ‘लौंडा’ किसी बुजुर्ग जन
का सरेआम अपमान कर सकता है और जन को यह अपमान घूटँ
जाना पड़ता है। अपमान की प्रतिक्रिया में उपजी प्रतिहिंसा कोई जन
ही झेलता है–
“लेकिन अफ़सोस! यह गुस्सा
साँपिन बन अपनों को ही खाता है।”
सवाल है कि तब इस निचोड़ते रहते गाँव से जन दूर क्यों नहीं
हो जाता? काश कि इसका कोई आसान–सा जवाब होता! जैसे
पृथ्वी की धुरी की कल्पना है कुछ वैसे मलखान सिंह उस खूटेँ
की कल्पना करते हैं जिससे जन बँधा है। इस खूटेँ का “एक पाँव/
शैतान की आँत में/ दूसरा पाँव/ धरती की काँख में धँसा है।”
यह व्यवस्था एक जंगल है और खूटँ ा वनराज। खेत, खलिहान,
बाज़ार से लेकर पंचायत, संसद और न्यायालय सर्वत्र इसी खूँटे
की सत्ता है।
मलखान सिंह अपने सरोकारों की व्यापकता के लिए ख्यात हैं।
शुद्ध अस्मितावादी धारा बेहद चयनधर्मी है। वह मुद्दों को फ़ैलाने
से बचती है। मसलन अगर दलित मुक्ति का आशय वर्ण-जाति से
निजात पाना है तो आर्थिक प्रश्नों पर ध्यान देना ग़ैर ज़रूरी माना
लेकर दो दृष्टियों की टकराहट मलखान सिंह की कविता में दिखाई जाता है। इसी मुद्दे पर दलित पैंथर में फूट पड़ी थी। उस उलटबांसी
देती है। एक ग़ैरदलित कवि के लिए गाँव की बसावट का विवरण को वे अपनी कविता का विषय बनाते हैं जहाँ एक तरफ श्वेत
देते हुए ‘हरिजन टोला’ का उल्लेख सामान्य सूचना भर है लेकिन कपोत उड़ाया जा रहा होता है दूसरी तरफ हथियारों की खेप भेजी
दलित कवि के सारे प्रश्न यहीं से पैदा होते हैं। गाँव की ज़िंदगी में या मंगाई जाती है। हिंसक निर्ममीकरण की शक्तियाँ ख़ुद को
दलित-ग़ैरदलित का जो अंतर है उसे मलखान सिंह ने ‘हरि’ और उदारीकरण के पैरोकार के रूप में सफलतापूर्वक प्रचारित कर
‘जन’ के कंट्रास्ट में प्रस्तुत किया है। देती हैं। सारतः कहा जा सकता है कि मलखान सिंह दलितों की
जवाबी कार्रवाई के तौर पर लिखित यह कविता ‘अपने गाँव की सांस्कृतिक गुलामी को आर्थिक पराधीनता या शोषण से अलग नहीं
हक़़ीकत’ बताती है। एक ग़ैरदलित कवि की निगाह से पेश गाँव में करते। समकालीन राष्ट्रवाद की छानबीन करते हुए वे वैश्वीकरण
‘हरिजन’ होते हैं लेकिन एक दलित कवि के गाँव में यह पदबंध की जकड़न तक पहुँचते हैं। n
टूट जाता है। यहाँ ‘हरि’ अलग रहते हैं और ‘जन’ अलग। यह संपर्क : प्रोफेसर, हिंदी विभाग
अलगाव इतना विकट है कि हरि जन के साथ उठने-बैठने, खाने- देशबंधु कालेज,
पीने और यहाँ तक कि परछाई से भी परहेज़ करते हैं। गाँव की दिल्ली वि.वि. दिल्ली
बहुकथित आत्मीय सामूहिकता, सामुदायिकता यहाँ नहीं दिखती। मो. 9818575440
मजबूरी या भूल से यदि कोई जन किसी हरि-कुएँ की जगत पर पाँव

68 n जुलाई से सितंबर 2023 yegh


n विरासत : रमाशंकर यादव ‘विद्रोही’

मैं ज़िन्दा हूँ और गा रहा हूँ!


संतोष अर्श

विद्रोही जी की कविता में आदिम स्वर है। वे कविता जैसे कविता के विषय में उनका एक काव्यात्मक
को परिचय-पत्र की तरह सीने पर नहीं टाँगते, बल्कि विचार है:
उनकी कविता उन्हें परिचय की तरह धारण करती कविता क्या है
है। विद्रोही जी की कविता में कवि का दम्भ नहीं है, खेती है
बस एतमाद है निर्भीकता के साथ अपनी बात कहने कवि के बेटा-बेटी हैं,
का और उसके प्रभावोत्पादक होने का। कविताएँ बाप का सूद है, माँ की रोटी है।
बहुत थोड़ी सी प्राप्त होती हैं, क्योंकि छपने आदि में
उनकी कोई रुचि नहीं थी। वाचिक कवि हुए। उन्हें अपनी आवाज़ कविता को बाप के सूद और माँ की रोटी से जोड़ने के पीछे कवि
पर भरोसा था कि यह ज़माने में गूँजती रहेगी और इसमें कही का वर्गीय दृष्टिकोण है। कवि या कलाकार अपने साहित्य में अपने
गयी कविता समय पर लिखी रह जाएगी। वे जानते हैं कि प्रत्येक वर्ग का प्रतिनिधित्व करता है। विद्रोही का वर्ग निम्न मध्यवर्गीय
विद्रोही आवाज़ को दबाने-मारने की कोशिश की जाती रही है। वे किसान-मज़दूर वर्ग है। यह वर्ग वर्चस्व और पूँजी की सत्ताओं
ऐतिहासिक वर्गीय स्थापनाओं और सत्ता-संरचनाओं के जानकार द्वारा शोषित है। न केवल शोषित है बल्कि उसकी आइडेंटिटी भी
हैं। लेकिन वे यह भी जानते हैं कि उन्हें मारा नहीं जा सकता : वैश्विक पूँजीवाद के घटाटोप में धुँधली हो गई है।
इस अकाल में मुझे क्या कम मारा गया है? जनप्रतिबद्धता विद्रोही की कविताओं का बीज भाव है। उनकी
इस कलिकाल में अनेकों बार मुझे मारा गया है तमाम कविताओं में जन अपनी वर्गीय विषमताओं के साथ खड़ा
अनेकों बार घोषित किया गया है होता है। उसे साधारण से विशिष्ट बनाने के लिए कवि भी कविता
राष्ट्रीय अख़बारों में, पत्रिकाओं में में उसके साथ खड़ा होता है। कवि उसके दु:खों का ऐतिहासिक
कथाओं में, कहानियों में कारण उसे बताता है, और उसे सहज करने के प्रयास कविता में
कि विद्रोही मर गया। करता है। जनप्रतिबद्धता विद्रोही की कविताओं में एक संकल्प की
भाँति है:
तो क्या मैं सचमुच मर गया? मेरी पब्लिक ने मुझको हुक्म है दिया
नहीं मैं ज़िन्दा हूँ! कि चाँद तारों को मैं नोंच कर फेंक दूँ
और गा रहा हूँ। या कि जिनके घरों में अगिन ही नहीं
विद्रोही कविता को लाठी की तरह भाँजना और इसे दूसरों के रोटियाँ उनकी सूरज पर मैं सेंक दूँ
हाथ में भी देना चाहते हैं। यह लाठी वर्चस्व की सत्ताओं के विरुद्ध विद्रोही की काव्य-संवेदना में आधुनिकता और उत्तर-
एक रेज़िस्टेंस है जिसे विद्रोही का कवि अपने हाथ में लिए खड़ा आधुनिकता के रंग-ढंग एक साथ मिलते हैं। परन्तु अन्तिम निष्कर्षों
है। यह लाठी कविता है। कविता को लाठी की तरह भाँजने के लिए में वे आधुनिक मूल्यों के कवि हैं। स्वयं पर बनी बायोग्राफिकल
‘भाँजना’ आना चाहिए। भाँजने का एक गूढ़ भाषिक अर्थ है, जो डाक्युमेंट्री फ़िल्म ‘मैं तुम्हारा कवि हूँ’ (निर्देशक नितिन पमनानी)
लट्ठबाजों को ही मालूम है। इसलिए विद्रोही जब अपनी कविताओं में वे एक स्थान पर आधुनिकता की स्वनिर्मित परिभाषा देते हुए
में कहीं कविता की परिभाषा देते हैं तो कविता को अपने व्यक्तित्व पहले आधुनिकता पर रवीन्द्रनाथ टैगोर के विचार को उद्धृत करते
के और भी नज़दीक खींचने की कोशिश करते हैं। यह कोशिश हैं। वे कहते हैं कि ‘टैगोर ने आधुनिकता की परिभाषा दी, True
भी कविता से प्रतिरोध उत्पन्न करने की कोशिश जैसी लगती है। modernism is freedom of thought and indepen-

yegh जुलाई से सितंबर 2023 n 69


dence of mind (सच्ची आधुनिकता विचार की स्वतन्त्रता और तो लकड़ियाँ होती हैं/ जो बड़ी होने पर चूल्हे में लगा दी जाती हैं।
मस्तिष्क की स्वाधीनता है), लेकिन इसे मैं इस प्रकार कहता हूँ भारतीय समाज में पितृसत्ता की खोज के लिए विद्रोही प्रचलित
कि, true modernity is fearlessness of conscious- दंतकथाओं और मिथकों में भी सेंध लगाते हैं। उनमें पितृसत्ता के
ness (सच्ची आधुनिकता चेतना की भयमुक्तता है)।’ भारतीय प्रारम्भ और उसकी स्थापना को ढूँढने की जो बेचैनी है, वह स्त्रीवाद
समाज की वर्गीय और जातीय विषमता इस प्रकार की है कि उसके की ओर से, या स्त्री-अस्मिता के साथ निष्ठा से खड़े होने के उद्देश्य
सत्य को कविताओं से प्रकट करने के लिए विद्रोही कहीं आधुनिक के लिए है। वे पितृसत्ता की स्थापना को ढूँढ भी लेते हैं:
हैं और कहीं उत्तर आधुनिक हैं। अपनी एक कविता में वे स्वयं कह इतिहास में पहली स्त्री की हत्या/ उसके बेटे ने उसके बाप के
रहे हैं कि वे उत्तर आधुनिक हैं: कहने पर की/ जमदग्नि ने कहा कि ओ परशुराम/ मैं तुमसे कहता
मैं फैंटास्टिक होने लगता हूँ/ और सारा भूगोल/ उस भूगोल हूँ कि अपनी माँ का वध कर दो/ और परशुराम ने कर दिया/ इस
का ग्लोब/ मेरी हथेलियों पर नाचने लगता है। / और मैं महसूसने तरह से पुत्र पिता का हुआ/ और पितृसत्ता आई।
लगता हूँ/ कि मैं ख़ुद में एक प्रोफाउंड/ उत्तर आधुनिक पुरुष विद्रोही का स्त्रीवाद भारतीय समाज की अंतिम स्त्री तक पहुँचता
पुरातन हूँ। / मैं कृष्ण भगवान हूँ/ अंतर सिर्फ़ यह है कि/ मेरे है। वह केवल उस स्त्री तक सीमित नहीं है, जिसके समक्ष केवल
हाथों में चक्र की जगह/ भूगोल है, उसका ग्लोब है। / मेरे विचार देह और आर्थिक असमानता के प्रश्न हैं। विद्रोही का स्त्रीवाद
सचमुच में उत्तर आधुनिक हैं। / मैं सोचता हूँ कि इतिहास को/ गाँव-कस्बों की औरतों तक पहुँचता है। अपने समाज में स्त्रियों की
भूगोल के माध्यम से, एक कदम आगे ले जाऊँ/ कि भूगोल की स्थिति पर वे सिर्फ़ कारुणिक सहानुभूति प्रकट नहीं करते, बल्कि
जगह/ खगोल लिख दूँ। उसके साथ खड़े हो कर, उसके लिए संघर्ष करने के लिए तैयार हैं।
हाशिए की अस्मिताओं की ओर से विद्रोही की कविताओं में इस संदर्भ में विद्रोही की ‘औरतें’ नाम की लंबी कविता समकालीन
जो प्रतिरोध है, निश्चय ही वह उत्तर-आधुनिक प्रभाव है। विद्रोही हिंदी कविता में विशेष आलोच्य है:
अपनी कविताओं में पुरुष नारीवादी हैं। इस नारीवाद को शार्प करने कुछ औरतों ने/ अपनी इच्छा से/ कुएँ में कूद कर जान दी थी/
के लिए उन्होंने जो भाषा-शैली अपनाई है वह उनके समकाल के ऐसा पुलिस के रिकार्डों में दर्ज़ है। / और कुछ औरतें/ चिता में
कवियों से भिन्न और उत्तर-आधुनिक प्रभावों वाली है। स्त्री को जल कर मरी थीं/ ऐसा धर्म की किताबों में लिखा है/....मैं एक दिन
लेकर विद्रोही ने सुंदर कविताएँ रची हैं, जो रचनात्मक, कलात्मक पुलिस और पुरोहित/ दोनों को एक ही साथ/ औरतों की अदालत में
स्त्रीवाद का एक रूप हैं। वे स्त्री अस्मिता की तलाश में मोहनजोदड़ो तलब कर दूँगा/ और बीच की सारी अदालतों को/ मंसूख कर दूँगा।
के तालाब की अंतिम सीढ़ी तक जाते हैं, जहाँ एक औरत की जली विद्रोही अपनी कविता में स्त्री के वक़ील बन जाते हैं और पीड़ित
हुई लाश पड़ी है: स्त्रियों की वकालत करते हैं। इस एडवोकेसी में उनके पास सही
मैं वहाँ से बोल रहा हूँ/ जहाँ मोहनजोदड़ो के तालाब की दलीलें और मजबूत साक्ष्य हैं, तर्क हैं। उनके पास स्त्री पर हुए
आख़िरी सीढ़ी है/ जिस पर एक औरत की जली हुई लाश पड़ी है/ ऐतिहासिक अत्याचारों के पुलिंदे हैं। वे दस्तावेज़ हैं जो पितृसत्ता
और तालाब में इंसानों की हड्डियाँ बिखरी पड़ी हैं/ इसी तरह एक को स्त्रियों के लिए बर्बर और अमानवीय सिद्ध करते हैं। विद्रोही
औरत की जली हुई लाश/ आपको बेबीलोनिया में भी मिल जाएगी ने स्त्री की वर्गीय स्थितियों को बड़े धैर्य से निहारा है। इस निहारने
विद्रोही के स्त्रीवाद में भावुक सरलता है। उसमें उलझाव और में स्नेह और करुणा की बीनाई इस्तेमाल होती है जो कविता की
जटिलता नहीं है। विद्रोही के सत्य को सरलीकृत करने के मासूम आँख में प्रस्फुटित होती है। इस निग़ाह से कवि स्त्री को सही तरह
प्रयास उनकी स्त्रीवादी कविताओं में और भी स्पष्ट दिखाई देते हैं: से जानने का दावा करता है:
एक औरत जो माँ हो सकती है/ बहिन हो सकती है/ बेटी मैं उन औरतों को/ जो कुएँ में कूदकर या चिता में जल कर
हो सकती है/ मैं कहता हूँ/ हट जाओ मेरे सामने से/ मेरा ख़ून मरी हैं/ फिर से जिंदा करूँगा/ और उनके बयानात को/ दुबारा
कलकला रहा है/ मेरा कलेजा सुलग रहा है/ मेरी देह जल रही है/ कलमबंद करूँगा/ कि कहीं कुछ छूट तो नहीं गया/ कि कहीं कुछ
मेरी माँ को, मेरी बहिन को, मेरी बीवी को/ मेरी बेटी को मारा गया बाक़ी तो नहीं रह गया/ कि कहीं कोई भूल तो नहीं हुई/ क्योंकि
है/ मेरी पुरखिनें आसमान में आर्तनाद कर रही हैं। / मैं इस औरत मैं उस औरत के बारे में जानता हूँ/ जो अपने एक बित्ते के आँगन
की जली हुई लाश पर/ सिर पटक कर जान दे देता/ अगर मेरी एक में/ अपनी सात बित्ते की देह को ता-ज़िंदगी समोए रही और/ कभी
बेटी न होती तो.../ और बेटी है कि कहती है/ कि पापा तुम बेवज़ह भूलकर बाहर की तरफ झाँका भी नहीं।
ही/ हम लड़कियों के बारे में इतने भावुक होते हो!/ हम लड़कियाँ विद्रोही की कविताओं की स्त्री-संवेदना न केवल पितृसत्ता और

70 n जुलाई से सितंबर 2023 yegh


स्त्री को उत्पीड़ित करने वाली सत्ताओं के विरुद्ध खड़ी होती है,
वरन हमें मर्माहत करके भीतर तक झकझोर देती है। इन कविताओं सांप्रदायिक राजनीति में पूँजीवाद के हित
में स्त्री का सामाजिक रूप चित्रित हुआ है। वह कहीं भी सौंदर्य के निहित होते हैं। सांप्रदायिकता को हवा देकर
मांसल रूप में नहीं है, वह बहन, बेटी और दादी-नानी के रूप में पूँजी अपने साम्राज्य का विस्तार करती है।
है। मेहनतकश के रूप में है, वह वर्गीय स्थितियों के साथ है और फ़ासीवाद हमेशा पूँजी के रथ पर सवार हो
कर आता है। विद्रोही की कविताएँ इस उत्तर
विद्रोही का पुरुष उसके साथ है। स्त्री-श्रम का ऐसा सुन्दर वर्णन
आधुनिक नव-साम्राज्यवाद को चिह्नित करती
कविता में विद्रोही जी करते हैं कि ग्रामीण स्त्रियों का श्रम-सौंदर्य हैं। वे अत्याधुनिक साम्राज्यवाद की पहचान
साकार हो उठता है। स्त्रियों पर लिखी गयी विद्रोही की कविताओं करने की दृष्टि देती हैं। विद्रोही साम्राज्यवाद के
का हिंदी में कोई तोड़ नहीं है। 'औरतें' उनके द्वारा रची गयी हिंदी ऐतिहासिक लक्षणों को अपनी कविता में उद्धृत
में अपने रूप की अकेली कविता है जिसकी व्यंजना इतिहास की करते हैं और उसे अपने समय के साम्राज्यवाद
छाती पर कील की भाँति धँसती है। से जोड़ते हैं। विद्रोही का यह इतिहासबोध
सांप्रदायिक राजनीति में पूँजीवाद के हित निहित होते हैं। उनके पाठक को उसके समय को जानने का
सांप्रदायिकता को हवा देकर पूँजी अपने साम्राज्य का विस्तार करती अवकाश देता है।
है। फ़ासीवाद हमेशा पूँजी के रथ पर सवार हो कर आता है। विद्रोही
की कविताएँ इस उत्तर आधुनिक नव-साम्राज्यवाद को चिह्नित
विद्रोही की कविताओं का शिल्प क़ाबिले-ग़ाैर है। इसमें कुछ
करती हैं। वे अत्याधुनिक साम्राज्यवाद की पहचान करने की दृष्टि
बातें हिंदी की समकालिक कविता से बेहद ज़ुदा हैं। कुछ लंबी
देती हैं। विद्रोही साम्राज्यवाद के ऐतिहासिक लक्षणों को अपनी
कविताएँ हैं जिनमें पंक्तियों का दोहराव है और जिन्हें विद्रोही
कविता में उद्धृत करते हैं और उसे अपने समय के साम्राज्यवाद
साँसों के उतार-चढ़ाव के साथ पढ़ते थे। जिन्हें ये कविताएँ उनकी
से जोड़ते हैं। विद्रोही का यह इतिहासबोध उनके पाठक को उसके
आवाज़ में सुनने को मिली हैं वे इस दोहराव का मूल्य समझ सकते
समय को जानने का अवकाश देता है। यह अवकाश प्रतिरोध की
हैं। यह लोक परंपरा का दोहराव है। इसमें अंत्यानुप्रासिक शब्द
संवेदना को मुखर करता है:
प्रयोग के साथ वाक्य का दोहराव भी है। जैसे कि एक कविता में-
साम्राज्य आख़िर साम्राज्य ही होता है/ चाहे वो रोमन साम्राज्य
राजा लड़ाई में मर गया
हो/ चाहे वो ब्रिटिश साम्राज्य हो/ या अतिआधुनिक अमरीकी
रानी कढ़ाई में मर गयी
साम्राज्य। / जिसका एक ही काम है कि/ पहाड़ों पर/ पठारों पर/
और बेटा, कहते हैं कि
नदी किनारे/ सागर तीरे/ मैदानों में इन्सानों की हड्डियाँ बिखेर देना।
पढ़ाई में मर गया।
/ जो इतिहास को तीन वाक्यों में/ पूरा करने का दावा पेश करता
लड़ाई, कढ़ाई और पढ़ाई के काफ़िए से कविता में नाटकीयता
है/ कि हमने धरती पर शोले भड़का दिए/ कि हमने धरती में शरारे
पैदा होती है और वाचक के श्रोता को बाँधती है। इसी प्रकार यह
भर दिए/ कि हमने धरती पर इन्सानों की हड्डियाँ बिखेर दीं।
प्रयोग हम ‘औरतें’ कविता में भी देखते हैं। यह नाटकीयता पैदा
विद्रोही की कविताएँ ऐतिहासिक और कालिक साम्राज्यों के
करने में सफल प्रयोग है:
विरोध में हैं। ये साम्राज्यवादी नीतियों के सामने एक एक्टिविस्ट
औरतें रोती जाती हैं
की भाँति खड़ी होने की व्यंजना से भरी हुई हैं। विद्रोही की काव्य-
मरद मारते जाते हैं
संवेदना भाषिक और ध्वन्यात्मक विन्यास से प्रतिरोध रचती है।
औरतें और ज़ोर से रोती हैं
‘नयी खेती’ संग्रह की लंबी कविताएँ इस प्रतिरोधात्मक सम्प्रेषण
मरद और ज़ोर से मारते हैं
को धारण किए हुए हैं। लंबी कविता के रचाव में जो तनाव होता
व्यंग्य पैदा करने में ऐसे प्रयोग ख़ूब सफल हुए हैं। ‘डार्विन सूत्र’
है, वह विद्रोही की लंबी कविताओं में अभिव्यक्त हुआ है। यह
कविता एक ऐसी कविता है जिसमें मनुष्य मनुष्य की समानता को
तनाव प्रतिरोध का तनाव है। वाचक कवि जन-संवाद करने के
बताने के लिए ऐसा ही प्रयोग किया गया है:
लिए जिस जनभाषा का प्रयोग करते हैं विद्रोही की कविताएँ उसी
लेकिन मैं कहता हूँ कि
जन-भाषा से रची गयी हैं। विद्रोही इक्कीसवीं सदी की विसंगतियों
यही मज़ाक किसी दिन सुज़ाक हो जाएगा
के प्रतिरोधी कवि हैं। विद्रोही की कविताएँ सांस्कृतिक अवबोध की
क्योंकि जनता बहुत कज़्ज़ाक है।
प्रतिरोधी कविताएँ हैं।

yegh जुलाई से सितंबर 2023 n 71


शिल्प में स्मृति और भौगोलिकता का प्रयोग भी अत्यंत बहाव ये उपमाएँ लोकजीवन के अनुपम सौंदर्य को धारण किए हुए हैं
के साथ लंबी कविताओं में देखा जा सकता है। स्मृति में दादी- जो कवि के लोकजीवी मन की रसना उसकी कविताओं में घोल
नानी हैं। ‘नानी’ कविता इस संदर्भ में महत्वपूर्ण है। नानी की स्मृति देता है। ‘हँसुली’ एक आभूषण है जो चंद्रमा की भाँति दिखता था
को भौगोलिकता और ऐतिहासिक आर्किटेक्चर से उपमा देकर उदात्त और चाँदी का ही बनता था। लेकिन विद्रोही की नानी का गला ही
बनाने के प्रयास इस कविता में दीखते हैं। यह स्मृति को भौगोलिकता द्वितीया के चंद्रमा जैसा है। अर्थालंकारों का अतिक्रमण करने के
के विस्तार और वास्तु के अनूठेपन से प्रगाढ़ कर देती है। लिए विद्रोही ने एक सचमुच के अलंकार का प्रयोग किया है इस
और मेरी नानी की नाक, नाक नहीं पीसा की मीनार थी…/ और कविता में। लोकजीवन का प्रमुख भाग उसमें प्रचलित मुहावरे और
मेरी नानी की देह, देह नहीं आर्मीनिया की गाँठ थी/ पमीर के पठार वे दंतकथाएँ और किंवदंतियाँ भी हैं जिनमें लोक उलझता सुलझता
की तरह समतल पीठ वाली मेरी नानी/ जब कोई चीज़ उठाने के रहता है। विद्रोही ने अपनी कविताओं में इन दंतकथाओं के पात्रों
लिए ज़मीन पर झुकती थी/ तो लगता था/ जैसे बाल्कन झील में और घटनाक्रमों का काव्यात्मक प्रयोग किया है। इनसे जो व्यंग्य
काकेसस की पहाड़ी झुक गयी हो/ बिलकुल एस्किमो बालक की ध्वनित हुआ है उससे कविताओं को अर्थविस्तार की प्राप्ति हुई है।
तरह लगती थी मेरी नानी/ और जब घर से निकलती थीं/ तो लगता दंतकथाओं के पात्रों के नाम और उनके उद्धरण से कवि अपनी
था जैसे, हिमालय से गंगा निकल रही हो... बात कहता है क्योंकि वह लोक की रुचियों से परिचित है। ‘मर्यादा
कहीं-कहीं उपमाएँ देने के इस प्रयोग में उत्प्रेक्षा का फलन है। पुरुषोत्तमों के वंशज, उजाड़ कर फेंक देते हैं शंबूकों का गाँव’, ‘तू
और इन उपमाओं में त्वरा के साथ नयापन भी है। ऐसे बहुत प्रयोग तो है सुकन्या, और तेरा नूर मियाँ है च्यवन ऋषि’, ‘हे राजा दक्ष की
हैं, जिनमें से कुछ देखने चाहिए: प्रजाओं! अब तुम मुझ व्यास से सुनो वह कथा’, ‘और इधर साधू
और जब चीख कर डाँटती थी/ तो ज़मीन इंजन की तरह हाँफने बनिया का जहाज, लतापत्र हो चुका है, कन्या कलावती हठधर्मिता
लगती थी.../ और गला, द्वितीया के चंद्रमा की तरह/ मेरी नानी का कर रही है’ जैसे लोकजीवन की कथाओं के उद्धरण और पात्रों के
गला पता ही नहीं चलता था/ कि हँसुली गले में फँसी है या गला नामों को काव्य पंक्तियों में प्रयोग कर विद्रोही उन्हें डिकोड करते हैं।
हँसुली में फँसा है... यह उनकी कविताओं के शिल्प का ही एक भाग है।
विद्रोही की भाषा पूर्वी अवधी की मिठास है जिस पर भोजपुरी
का पतला वरक़ सा चमकता है। ग़ज़ल और शेर कहने के मश्क में
उर्दू-अरबी की इज़ाफ़त भी उनकी भाषा तक पहुँची है। ग़ज़लों और
नज़्मों में शहरे-मदीना, नूरे-ख़ुदा, सज़्दा-ए-नमाज़ी, दीदे-ग़म जैसी
सामान्य इज़ाफ़त और नस्ल, वस्ल, महज़बीं, शमशीर जैसे शब्द हैं।
अवधी गीतों में अवधी का निखरा हुआ रंग है तो खड़ी बोली की
कविताओं में भी अवधी के ‘आंजन’ जैसे बेहद पुराने शब्द मिलते
हैं। अवधी के गीत अवध के किसान जीवन की श्रमसिक्त भाषा की
मिट्टी से रचे गए हैं-
अमवा इमिलिया महुअवा की छइयाँ
जेठ बइसखवा बिरमइ दुपहरिया
धान कइ कटोरा मोरि अवध कइ जमिनिया
धरती अगोरइ मोरि बरख बदरिया
विद्रोही ने हिंदी को एक अनमोल कविता ‘नूर मियाँ’ दी है।
विद्रोही की इस कविता में एक कथानक है, जिसमें कवि की दादी
को नूर मियाँ का सुरमा बेहद पसंद है। कवि की दादी नूर मियाँ
का एक सींक सुरमा डालती है तो आँखें गंगा-जमुना की तरह भर्रा
जाती हैं। भारत के बँटवारे में नूर मियाँ पाकिस्तान चले गए और
कवि की दादी का देहांत हो गया। लेकिन इस कविता में उदात्त
गंगा-जमुनी तहज़ीब का जो चित्र उभरा है, ऐसा हिंदी कविता की

72 n जुलाई से सितंबर 2023 yegh


दुनिया में दुर्लभ है। बिना किसी अतिशयोक्ति और संदेह के विद्रोही
च्यवनप्राश के संग सिन्नी-मलीदा भारत की
की ‘नूर मियाँ’ हिंदी में विभाजन पर रची गई सर्वश्रेष्ठ रचना है। गंगा-जमुनी तहज़ीब के इतने बड़े प्रतीक हैं
इस कविता का अंतिम पैरा बड़ा मार्मिक है। इतना कि पाठक-श्रोता कि विद्रोही की यह कविता विभाजन पर हिंदी
को भिगो जाए। जिस नूर मियाँ का सुरमा आँखों में डाल कर कवि पट्टी की चुप्पी की भरपाई अकेले कर देती
की दादी ‘बिटौनी बनी फिरती’ थीं और बुढ़ापे में भी सुई में डोरा है। विभाजन पर जो भी साहित्य लिखा गया,
डाल लेती थीं, वे नूर मियाँ विभाजन में पाकिस्तान चले गए। कवि हिंदी पट्टी के बाहर के लेखकों द्वारा लिखा
कहता है: गया। इस पर हिंदी पट्टी बहुत बुरी तरह से
और मेरा जी करे कहूँ/ कि ओ रे बुढ़िया/ तू तो है सुकन्या/ और चुप रही थी। विद्रोही की इस कविता का अंत
नूर मियाँ है तेरा च्यवन ऋषि/ नूर मियाँ का सुरमा तेरी आँखों का किसी महाआख्यान के अंत जैसा है। नूर मियाँ
च्यवनप्राश है का बनाया हुआ, गाय के असली घी का सुरमा
विद्रोही के नूर मियाँ का जाना हृदय में टीस पैदा करता है। वे लगाने वाली दादी के अंतिम संस्कार के समय
केवल उनके ही नूर मियाँ नहीं थे बल्कि उनकी सुकन्या दादी के कवि नूर मियाँ को याद करता है, वे नूर मियाँ
च्यवन ऋषि भी थे। उनका जाना भारतीय लोकजीवन की तहज़ीबी जो पाकिस्तान चले गए।
रवायतों का मर जाना है:
और वही नूर मियाँ पाकिस्तान चले गए/ क्यों चले गए विद्रोही ने इस कविता में रचा है वह शब्दों की सृजनात्मक
पाकिस्तान नूर मियाँ?/ कहते हैं कि नूर मियाँ के कोई था नहीं/ संभावनाओं को निचोड़ लेने की कविता की प्रवृत्ति से अवगत करा
तब क्या हम कोई नहीं होते थे नूर मियाँ के?/ नूर मियाँ क्यों चले देता है। विद्रोही की काव्य प्रवृत्तियाँ कविता में सामान्य जन को
गए पाकिस्तान?/ बिना हमको बताए?/ बिना हमारी दादी को रिझा लेने के रस से डब-डब भरी हुई हैं। विद्रोही कहीं ऐसे किसान
बताए हुए/ नूर मियाँ क्यों चले गए पाकिस्तान? हैं जो ईश्वर को धरती से उखाड़ने के लिए आसमान में धान बो
तब क्या हम कोई नहीं होते थे नूर मियाँ के? यह प्रश्न जिस रहे हैं और कहीं ऐसे ‘अहीर’ हैं जो इस दुनिया को अपनी भैंस
अदालत में खड़ा किया गया है उसमें विभाजन की त्रासदी का समझ कर दुहना चाहता है। यह किसान और पशुपालक अपनी
सन्नाटा पसरा हुआ है। नूर मियाँ का सुरमा च्यवनप्राश ही नहीं कविता में ज़माने से ऊँची आवाज़ में पूछ लेता है कि चरवाहों और
सिन्नी और मलीदा भी था। च्यवनप्राश के संग सिन्नी-मलीदा घसियारिनों के ख़ून में कितना ख़ून होता है और कितना पानी।
भारत की गंगा-जमुनी तहज़ीब के इतने बड़े प्रतीक हैं कि विद्रोही विद्रोही की कविता में श्रमशील जनता की मुक्ति की जो आस
की यह कविता विभाजन पर हिंदी पट्टी की चुप्पी की भरपाई अकेले है, वह अपनी भी मुक्ति के साथ है। कविता की दुनिया में उत्तर-
कर देती है। विभाजन पर जो भी साहित्य लिखा गया, हिंदी पट्टी जीविता कविता के प्राणों पर निर्भर है। यदि कविता निष्प्राण है तो
के बाहर के लेखकों द्वारा लिखा गया। इस पर हिंदी पट्टी बहुत कवि काल से कहाँ जीत पाएगा? विद्रोही जी काल से होड़ करते
बुरी तरह से चुप रही थी। विद्रोही की इस कविता का अंत किसी हैं। बहुत मारे जाने के बावज़ूद वे नहीं मरते तो इसमें ज़रूर कोई
महाआख्यान के अंत जैसा है। नूर मियाँ का बनाया हुआ, गाय ऐसी बात है, जो मामूली नहीं है। कविता की दुनिया में विद्रोही जी
के असली घी का सुरमा लगाने वाली दादी के अंतिम संस्कार के का बच जाना कवि का संजीवन है। काव्य-अभिप्रेरणा की एक
समय कवि नूर मियाँ को याद करता है, वे नूर मियाँ जो पाकिस्तान मिसाल है। उपेक्षा का रोना रोने वाले आत्मदयाग्रस्त रचनाकारों के
चले गए: लिए विद्रोही जी का जीवन और कविता कितना भारी व्यंग्य है। वह
और अब न वे सुरमे रहे और न वो आँखें/ मेरी दादी जिस घाट कवि जिसने हिंदी की साहित्यिक दुनिया से कभी कुछ नहीं चाहा,
से आई थीं/ उसी घाट गईं। / नदी पार से ब्याह कर आई थीं मेरी कुछ मिला भी नहीं। दिल्ली के बीचोबीच रहक़र भी हिंदी कविता
दादी/ और नदी पार ही जाकर जलीं। / और जब मैं उनकी राख के पृष्ठ के हाशिए पर पड़ा रहा और मारे हज़ारहा मारने से मरा
को/ नदी में फेंक रहा था तो/ मुझे लगा ये नदी, नदी नहीं/ मेरी नहीं। n
दादी की आँखें हैं/ और ये राख, राख नहीं/ नूर मियाँ का सुरमा है/
जो मेरी दादी की आँखों में पड़ रहा है। / इस तरह मैंने अंतिम बार/ संपर्क : सहायक प्रोफेसर- हिंदी
अपनी दादी की आँखों में/ नूर मियाँ का सुरमा लगाया। डी.ए.वी. कालेज, बुलंदशहर (उ.प्र.)
दादी और नूर मियाँ की पात्रता में विभाजन का जो आख्यान मो. 9919988123

yegh जुलाई से सितंबर 2023 n 73


n विरासत : सुरेश सेन 'निशान्त'

जीवन के पक्ष में खड़ी कविता


जीवन सिंह

सुरशे सेन 'निशान्त' का कवि-हृदय पाठक के हृदय अपने पहले कविता संग्रह 'वे जो लकड़हारे नहीं हैं' में
के निकट पहुँचने की एक क्षमता अर्जित करके अपना प्रेम को जीवन की ज़रूरत माना है। क्या यह सच नहीं
लक्ष्य-संधान करता है। उनके लिए कविता मनुष्य- है कि व्यक्ति सिर्फ़ प्यार में जीवित रहता है, इसके
विरोधी शक्तियों से लड़ते हुए अपने समय तक अलावा जो भी कुछ है, वह यदि प्यार के लिए नहीं है
पहुँची हुई मनुष्यता का अन्वेषण करती है। निशान्त, तो मृत्यु के अलावा क्या हो सकता है? कविता जब
दरअसल बौद्धिक बोझिलता के कवि नहीं हैं, उनके से भी लिखी गई, उसके लेखन का प्रयोजन 'प्यार' ही
यहाँ जीवन की रागात्मकता पर विशेष बल रहता है। रहा। हमारे आदिकवि का यह प्यार ही तो था, जो क्रौंच
उनके यहाँ विवेक का भावपूर्ण साहचर्य मिलता है। मिथुन के लिए परिस्थिति के अनुरोध से उमड़ पड़ा था, यद्यपि जो
निशान्त की कविताओं में प्रकृति के छोटे छोटे रूपक और बाहरी तौर पर क्रोध के रूप में नज़र आया। हमारे भीतर की करुणा
बिम्ब खासतौर से इसलिए आकर्षित करते हैं कि उनमें प्रकृति की भी प्यार के बिना उद्दीप्त नहीं होती। यदि करुणा से प्यार का साहचर्य
उपस्थिति, मानवीय क्रियाओं और दुख-दर्दों के साथ है। प्रकृति नहीं है तो वह दिखावटी और बनावटी है। प्यार रहित 'करुणा' का
की चिन्ताओं में आज की उस उत्तर आधुनिक प्रौद्योगिक सभ्यता निवेश सेठ साहूकार और पूंजीपति अपनी करुणाशून्य दुनिया में ख़ूब
के तनाव हैं, जो मनुष्य जीवन को भीतर से रिक्त, खोखला और करते देखे जाते हैं। शोषण उत्पीड़न, छल-कपट और भ्रष्ट तरीकों
अमानवीय बनाने में लगे हुए हैं। उनके यहाँ 'पहाड़ के दर्द' में स्त्री से एकत्र सम्पदा को दया-याचकों में दुनिया भर के पूंजीपति बाँटते
की त्रासदियाँ भी खासतौर से शामिल हैं। इसी वज़ह से पहाड़ी जीवन देखे जा सकते हैं। इसलिये आदि कवि का पहला श्लोक करुणा और
के समानान्तर वे स्त्री-जीवन को खासतौर से अपनी कविता के केन्द्र क्रोध के गर्भ में छिपा हुआ प्रेम ही है जो मनुष्यता का सबसे महान
में रखते हैं। पहाड़ी प्रकृति और स्त्री उनकी कविता के सौंदर्य और मूल्य है। बहरहाल, न यह करुणा है, न दानशीलता की अभिव्यक्ति।
संघर्ष दोनों पक्षों को रचते हैं। पहाड़ का क्रूर और भयावह जीवन- प्यार रहित करुणा, प्रदर्शन का उद्योग खड़ा करती है। इसीलिए कवि
यथार्थ यहाँ टंका हुआ है। यहाँ पहाड़ों का टूटना और धरती का का 'करुणा-भाव' 'सेठ के करुणा-भाव से अलग तरह का होता
धसकना जारी है। इस यथार्थ में स्कूल से बच्चों के सही-सलामत है। उसकी प्रकृति विश्वजनीन होती है। पूंजी की प्रकृति अपेक्षाकृत
लौट पाने को लेकर तरह तरह की आशंकाएँ भी शामिल हैं। यह संकीर्ण एवं निजबद्ध होती है। इसका प्रधान कारण है-पूंजी का बेहद
आकस्मिक नहीं है कि उनकी 'निर्मला' शीर्षक कविता-खण्डों में तटस्थ और निष्करुण होना। कविता तटस्थ नहीं होती, वह हमेशा
पत्थर और मिट्टी से बनने वाले घर में जीवित रहने वाले प्यार की पक्षधर या पक्षपातपूर्ण होती है।
पक्षधरता उस विज़न की तरह आई है, जिसके अभाव में कविता जीवन में यकायक उपलब्ध किसी भी भावात्मक दृश्य के प्रति
संभव नहीं है। यही कारण है कि यह कवि विकास के नाम पर किये सुरशे सेन निशान्त का हृदय वैसे ही उमगने लगता है, जैसे पहाड़ी
जा रहे उन बदलावों के पक्ष में नहीं है, जो ज़मीन को जोतने से झरने भीतर तक पानी से सराबोर होकर उमगने लगते हैं। उनकी
ज्यादा उसे बेच देने में भलाई का ढिंढोरा पीटते हैं। 'तस्वीर में माँ' कविता को पढ़कर इस तथ्य से परिचित हुआ जा
पहाड़ों की सड़कें, राजमार्ग, पगडंडियाँ और पथरीले रास्ते वैसे सकता है। ऐसी कविताओं को पढ़ने से स्पष्ट है कि मनुष्य-भाव के
ही नहीं होते, जैसे मैदानों में हुआ करते हैं। वहाँ की आबोहवा, खेतों, लिए प्रकृति का साहचर्य कितना ज़रूरी होता है। सच यही है कि
भूदृश्यों, सरिताओं, जलप्रवाहों, पेड़ों और उनकी लय का समागम प्रकृति का क्षरण एक तरह से मनुष्यता का ही क्षरण है। प्रकृति,
तथा इनके बीच निर्मित आदमी का स्वभाव वैसा ही नहीं होता, जैसा मनुष्य-जीवन के लिए एक आधारभूत मानवीय सन्देश है। पहाड़ी
मैदानी आदमी का हुआ करता है। निशान्त ने सन 2010 में प्रकाशित जीवन से प्रेरित होकर लिखी जाने वाली कविताओं में यह संयोग मात्र

74 n जुलाई से सितंबर 2023 yegh


नहीं है कि यहाँ प्रकृति एक मित्र जैसी लगती है। कदाचित, इसीलिए चूंकि कवि के बचपन और यौवन का आपसी रिश्ता बेहद
पहाड़ में गेहूँ उगता नहीं', 'उगती है'। निशान्त की 'गेहूँ' कविता में असंतुलित और भयावहता से असुरक्षित हो गया है इसलिए वह
गेहूँ उगती है, जबकि हम मैदानी लोगों के यहाँ गेहूँ, जौ, चना, बाजरा, बचपन की स्मृतियों का बखान करके एक संतुलन लाने की कोशिश
मटर आदि पुल्लिंग में व्यवहृत होते हैं। निशान्त की कविता की एक करता है और दिखलाना चाहता है कि जो सभ्यता आज बन रही
और विशेषता है कि उनके यहाँ गहरा परिवार-बोध है। पारिवारिकता है, उसमें जैसा 'विकास' किया जा रहा है, वही इन्सानियत के लिए
उनकी कविता का सहज अंग बनकर निखरी है। उनके यहाँ माँ, भाई, बहुत बड़ा ख़तरा भी है। निशान्त की ख़ूबी है कि वे कविता को गढ़ते
पिता, बहिन के रिश्ते, केवल पारिवारिक रिश्ते भर नहीं हैं, वरन् वे नहीं और न ही किसी तरह की वक्रता और विदग्धता के चमत्कार
विभिन्न तरह की व्यंजनाओं में पिरोये हुए वे सूत्र हैं, जो टूटते हृदयों से काम लेते हैं। वे सहजता और सहृदयता के मार्ग से कविता का
को जोड़ने का काम करते हैं। यह आकस्मिक नहीं है कि गेहूँ के चुपचाप सृजन कर जाते हैं, जो सीधे-सीधे पाठक की चेतना में सुबह
उगने पर पिता को पुरखों से सुने हुए गीत याद आने लगते हैं और की हवा के समान हलचल पैदा कर देता है। यह आकस्मिक नहीं
माँ को बादलों और सूरज में ईश्वर दिखाई देने लगता है। इस तरह है कि उनके काव्य-संसार में बचपन, पेड़, फूल, माँ, औरत, पत्ते,
मानवीय संबंध और उसकी क्रियाएँ हमारे जीवन को स्वतःस्फूर्त तौर हवाओं की सरसराहट, चिड़ियों की चहचहाहट, हृदय की धड़कन,
पर काव्यमय बना देते हैं– हजारों पेड़ों का हरापन, अनन्त झरनों का पानी और सैकड़ों फूलों
गेहूँ की बालियों में की खुशबू अपने पाठक को एक ऐसे मुकाम पर बनाए रखती है,
भरने लगेगा जब रस जहाँ दुनिया भर की दुष्टताओं और क्रूरताओं से अलग ज़िन्दगी का
बहिन का बढ़ता कद उत्सव अलग तरह से चल रहा होता है। अभी हमारे जनपदों और
बुरा नहीं लगेगा मां को खासकर पहाड़ी स्थानीयताओं में फूलों की खुशबू की तरह बहुत
तन कर खड़े हो जाएँगे कुछ बचा हुआ है।
पिता लेनदारों के सामने निशान्त का काव्य-विवेक अनुभवों की खेती में फसल की तरह
भाई की लाठी में पैदा होता है अपने आसपास के जीवनानुभवों से वे एक जुलाहे की
लौट आएगी ताक़त तरह काव्य-पट बुनते हैं। कविता के लिए वे बहुत दूर जाने की
गेहूँ की बालियों में धमाचौकड़ी नहीं मचाते। वे अपनी बातें करते हैं, अपने आसपास
भरने लगेगा रस की जीवन-कथाओं को फसल की तरह समेटते हैं, किन्तु उनके
यह निशान्त ही हैं, जिनके यहाँ खेतों में सूत कातते हुए भुट्टों को क्रियान्वयन का नज़रिया वैश्विक होता है। विश्व-बोध का खुलापन
निहारा जा सकता है और इस प्रक्रिया में झुलसे हुए रिश्तों के चेहरों इतना है कि इस कविता का पाठक दुनिया के किसी भी कोने में हो
की इबारत भी आसानी से पढ़ी जा सकती है। उनकी कविता का सकता है। एक भाषा में होते हुए भी यहाँ किसी तरह की भाषिक और
शीर्षक 'छोटे मुहम्मद' इस समय और हमारे आपसी रिश्तों की गंभीर जातीय संकीर्णता की हवा तक नहीं आती। कविता का सबसे बड़ा
विडंबनापूर्ण व्यंजना करता है। सबसे गंभीर विडंबना यह है कि आज गुण है व्यक्ति के उदार स्वरूप को व्यापक बनाना, जो काम यह
के समय में व्यक्ति के बचपन की स्मृतियों और यौवन की जिंदगी में आसानी से करती है। कवि यहाँ ऐसे चरित्रों को खोजकर लाता है, जो
कोई तरतीब दिखाई नहीं देती और न वैसी सहज दोस्ती, जो कवि के हमारे सामने प्रमाण की तरह उपस्थित हों और जो गढ़े हुए नहीं, वरन
साथ कभी छोटे मुहम्मद की रही थी। यहाँ छोटे मुहम्मद सिर्फ़ नाम वास्तविक भी हों। हम जानते हैं कि दीर्घकाल से भारतीय समाज के दो
भर नहीं है, बल्कि इन्सान की आपसदारी में आ रही गिरावट की ऐसी अलग-अलग जीवनस्तर रहे हैं, जिन्हें आज की भाषा में 'वर्ग' कहते
ख़बर हैं, जो न केवल डराती है बल्कि सोचने को मजबूर करती है- हैं। इनमें उच्च वर्ग की संख्या बहुत कम होने के बावज़ूद समाज का
छोटे मुहम्मद! शासक और बौद्धिक वर्ग इसी समुदाय में से रहा है। जबकि शासित
आओ सोचें कुछ और मेहनतकश वर्ग की तादाद बहुत अधिक रही है।
बीता जा रहा है मौसम कहना न होगा कि इन्हीं कारको और तत्वों की संश्लेषण प्रक्रिया
बच्चे हो रहे हैं बड़े और टकराहटों-सामंजस्यों से आज का हमारा समाज और उसका
कहीं वे भी न झुलसें समय बना है। यह इतना विविध एवं जटिल है कि इसके पूरे ताने-
हमारी तुम्हारी तरह बाने से गुज़र पाना किसी एक कवि के बस का नहीं, फिर भी इसके
इस नफ़रत की भयावह आग में। मूल कारकों तक पहुँचकर मनुष्यता की बची हुई आँच को तलाशना

yegh जुलाई से सितंबर 2023 n 75


एक कवि का ज़रूरी काम होता है। हमारे लिए यह खुशी की बात में भी न्याय के लिए ही लड़ते हैं।
है कि निशान्त एक संकल्प के साथ श्रमपूर्वक उस काम को करते कवि की कल्पना यहाँ हमारी मानसिकता को लगातार द्रवणशील
हैं। उनकी कविताएँ बतलाती हैं कि आज के घनघोर मानवताविरोधी बनाती है। द्रवणता, निशान्त की कवि-प्रकृति का सहज हिस्सा है, जो
पूंजी के वर्चस्व वाले समय में भी मनुष्यता की फसल के दिगन्त पहाड़ी जीवन की त्रासदियों और क्रूरताओं से ही नहीं, वरन् उसकी
बचे हुए हैं। वहाँ क्षितिज पर एक ऐसा सूर्योदय होता है, जो कर्मरत मधुरताओं और सरसताओं की द्वन्द्वात्मकता से रचित है। ग़ाैरतलब
लोगों के दिलों में चमकता है। ऐसे लोग ही सवाल उठाते हैं और है कि उनकी कविताओं के अधिकतम रूपक धरती, पहाड़, नदी,
अपने समय से रिश्तों के बारे में चिन्तित रहते हैं। मसलन, दिल्ली पेड़, बीज और पहाड़ी औरत के उन संघर्षों और सामंजस्यों से बने
का जीवन एक जैसा नहीं है, फिर भी उसका केन्द्रीय बिम्ब एक हैं, जहाँ व्यक्ति एक पहाड़ी रूपक में बदल जाता है और पहाड़ स्वयं
सत्ता-नगरी का बनता है। देश में व्यक्ति की आकांक्षाएँ, सपने और एक पूरे व्यक्ति का जीवन जीने लगता है। मैं कह सकता हूँ कि यदि
सोच वहीं से बनता-बिगड़ता रहा है। अनपढ़ और पढ़े हुए सभी तरह इन कविताओं के भीतर से पहाड़ी जीवन का संघर्षमय संगीत निकाल
के लोग दिल्ली की ओर देखते हैं और अपनी जड़ों से उखड़कर इस दिया जाए तो ये कविताएँ निष्प्राण होकर केवल शब्दों का ढेर बनकर
सत्ता-नगरी में अपने सपनों की नगरी सजाते हैं। यह अलग बात रह जाएँगी। इन कविताओं के रूपक-बिम्ब और प्रतीक-व्यवस्था
है कि इसकी भूलभुलइयों में वे भी अपनी निजता को खोकर उसी तथा संरचना-शिल्प के भीतर पहाड़ और पहाड़ी जीवन धागे की
दिल्ली के हो जाते हैं, जो व्यक्तित्व-क्षरण की बारीक चालें चलती तरह पिरोया हुआ है और उसके रंग हिंदी भाषा की तैयारी में अलग से
है। इस बात को निशान्त ने अपनी अपेक्षाकृत मध्यम आकार की दिखाई पड़ते हैं। निशान्त की काव्यभाषा का आवेग उनके उन शब्दों
कविता को एक कथानक में पिरोकर रचा है और शीर्षक दिया है– की गठान से और बढ़ जाता है, जिसे वे उन औरतों के जीवन से लाते
“डूबी हुई दिल्ली के बारे में।” इसे ज़रूर पढ़ा जाना चाहिए। हैं, जो पानी ढोती, उपले पाथती, वन को जाती हुई, अक्सर दिखाई दे
निशान्त की एक अपेक्षाकृत लम्बी कविता है 'वे जो लकड़हारे जाती हैं। क्या यह संयोग मात्र है या हमारे सामन्ती रिश्तों की देन है
नहीं हैं। ' कवि यहाँ अपने पाठक को उस मर्म से परिचित कराना कि आज भी पहाड़ में मर्द के मुक़ाबले में औरत कविता का मार्मिक
चाहता है, जो अक्सर कानूनी रूप-विधान के आवरण में भुला दिया विषय ज्यादा बनती है? सच तो यह है कि पहाड़ी औरत की भूमिका
जाता है और जिससे असली अपराधी हमेशा बच जाता है। ये कविताएँ मर्द के मुक़ाबले अधिक रचनात्मक एवं साहसिक रही है। वह उन
इसलिए भी विशिष्ट कही जा सकती हैं कि ये हमको असली अपराधी औरतों के किस्से सुनना चाहता है-
के घर तक पहुँचाने का काम करती हैं, जहाँ न पुलिस पहुँचती है, उन औरतों के सच्चे किस्से सुनाओ
न अदालत, न अख़बार, न मीडिया और न ही कोई खरीदा हुआ जो आज भी तीन कोस दूर से
मुखबिर कहना न होगा कि बड़ी कविता ने हमेशा से यही काम ढोती हैं पानी
किया है कि वह हमको सच के रू-ब-रू कराए और उसके नज़दीक सजाती हैं प्याऊ।
ले जाए। कबीर ने इसीलिए आज से छः सौ साल पहले संतों को सुरश
े सेन निशान्त की कविता में साधारणता और श्रम का गहरा
बतलाया था कि यह संसार तो पगला गया है। यदि मैं इसे साँच एवं अटूट रिश्ता है, जो उनके जीवन-दर्शन की एक शक्ल निर्मित
बतलाता हूँ तो यह मुझे ही मारने दौड़ता है और झूठ बनाकर कहता करता है। वे साधारण की पक्षधरता के कवि हैं और उसकी सौंदर्य
हूँ तो यह उस पर विश्वास करता है। सचमुच, आज भी जग का यही छवियों का चित्रण इस सलीकेदार संप्रेषणीयता के संग करते हैं कि
हाल है। इसका पता चलता है निशान्त की इस कविता को पढ़कर। कविता अपने पाठक को इशारों से बुलाकर पास बिठा लेती है। ऐसे
क्या यह सच नहीं है कि आज सबसे अधिक झूठ बोला जा रहा है बेहद संभावनाशील कवि का जाना साहित्य की बड़ी क्षति है। जिसे
और उसी पर विश्वास भी किया जा रहा है। कविता का महत्व हमारे अभी कोसों और मीलों चलना था, वह हमेशा के लिए ठहर गया है।
लिए इसी रूप में है कि वह प्रत्यक्षतः या फिर स्मृति रूप में इनको पर ध्यान रहे व्यक्ति मर सकता है उसका सृजन नहीं, वह जीवित
सच के समीप पहुँचाने का काम करती है। यह अलग बात है कि हम रहता है– सदा एक उम्मीद बनकर। अपनी कविताओं के माध्यम से
उस सत्य के तेज को बर्दाश्त न कर सकें। कहना न होगा कि कविता वो सदैव हमारे साथ रहेंगे। n
की न्याय-प्रक्रिया अपनी तरह से अलग से चलती है। यहाँ यह संयोग संपर्क : अलवर, राजस्थान
मात्र नहीं है कि आज का यह कवि सदियों बाद भी अपना सूत्र कबीर मो. 7976793541
से जोड़ लेता है। वह जानता है कि न्याय के सबसे बड़े दो ही कवि
हैं-एक कबीर और दूसरी मीरां जो अपनी कविता में ही नहीं, जीवन

76 n जुलाई से सितंबर 2023 yegh


n विरासत : मुकेश मानस

अनंत रंगों की अनंत आभा


सर्वेश कुमार मौर्य

जिस ‘बहुवस्तुस्पर्शिनी प्रतिभा’ और ‘राग- सरोकार’ नाम से हाल के वर्षों में आई थी। सामयिक
विराग’ के लिए कविवर निराला की इतिहास में पत्रकारिता पर भी उनकी पैनी नज़र थी। उनकी
साहित्येतिहासकार और आलोचक भरपूर प्रशंसा कर एक पुस्तक ‘मीडिया लेखन: सिद्धांत और प्रयोग’,
चुके हैं; उन पर लहा-लोट हो चुके हैं; और जिस स्वराज प्रकाशन, दिल्ली, नाम से आई। यह दिल्ली
“विचार वैविध्य” के लिए बेचारे कवि पंत को ‘बेपेंदी विश्वविद्यालय के विद्यार्थियों के बीच खासी लोकप्रिय
का लोटा’ और उनके अधिकांश लिखे हुए को कूड़ा रही। उनकी कुछ बुकलेट्स ‘सावित्रीबाई फुले: भारत
कहा जा चुका है; उसको किसी कवि रचनाकार की की पहली महिला शिक्षिका’, ‘अम्बेडकर का सपना’,
आलोचना में ‘मूल्य’ ‘मानदंड’ बताने मानने में कितना ख़तरा ‘भगत सिंह और दलित समस्या’ बेहद प्रसिद्ध रहीं। उन्होंने कुछ
है शायद यह कहने कि ज़रूरत नहीं है। मुकश े मानस के संदर्भ बेहद महत्वपूर्ण व ज़रूरी पुस्तकों का अनुवाद भी किया जिनमें
में जानबूझकर मैं यह जोख़िम ले रहा हूँ और मुकश े मानस की ‘व्हाई आई एम नॉट ए हिंदू’ (2003) कांचा इलैया और ‘इंडिया
कविताई में फैले ‘अनंत रंगों की अनंत आभा’ रेखांकित कर रहा इन ट्रांजिशन’ (2005) एम.एन. राय की पुस्तकें उल्लेखनीय
हूँ। मैं यह भी जानता हूँ कि यह बाक़ायदा दलित कविता और हैं। उनके कुछ स्वतंत्र लेख भी बेहद पसंद किए गए जिनमें ‘हिंदी
साहित्य की ‘सेट टोन’ के ख़िलाफ़ है। दरअसल मुकश े मानस कविता की तीसरी धारा’, ‘दुष्यंत कुमार की ग़ज़ल’, ‘अछूत दलित
उस तरह के कवि हैं जो एक ओर अपने ‘विचार वैविध्य’ के ज़रिये जीवन का अंतर्पाठ’, ‘दलित साहित्य आंदोलन के पक्ष में’, ‘हिंदी
दलित कविता की ‘मोनोटनी’ तोड़ने का काम करते हैं तो दूसरी दलित साहित्य आंदोलन: कुछ सवाल, कुछ विचार’, ‘अम्बेडकर
ओर अपनी ‘बहुवस्तुस्पर्शिनी प्रतिभा’ के चलते उसका क्षेत्र विस्तार का सपना, दलित समस्या और भगत सिंह’, ‘मीडिया की जाति’,
करते हैं। कायदे से देखा जाए तो ‘अनंत रंगों की अनंत आभा’ ‘सांस्कृतिक कर्म’, ‘नौजवान का रास्ता: भगत सिंह को क्यों याद
का जो रूप मुकेश मानस की कविताई और रचना कर्म में दिखता करें’, ‘फासीवाद, सांप्रदायिकता और दलितजन’,‘समाजवाद
है वह सम्पूर्णता में दलित कविता और रचनाधर्मिता में पैराडाइम मांगेंगे, पूँजीवाद नहीं’ आदि प्रमुख हैं। ‘मेरी कविता’शीर्षक कविता
शिफ्ट का संकते क है। में अपनी कविता का उद्देश्य बताते हुए उन्होंने लिखा– “ऐसी हो
‘पतंग और चरखड़ी’ उनका पहला कविता संग्रह था; जो 2001 मेरी कविता/इस बुरे वक्त की/तक़लीफ़ें बांट सके/गहराते अंधकार
में छपा था। उनका पहला कहानी संग्रह ‘उन्नीस सौ चौरासी’ को/जितना हो छांट सके।”1(2000)
2005 में आया था। उसके बाद मेरी जानकारी में 2010 में ‘कागज़ मुख्यतः वे दलितों की प्रगतिशील परंपरा के संवाहक़ थे।
एक पेड़ है’, और ‘धूप खिली हुई’ नाम से दो और कविता संग्रह कास्ट, क्लास और जेंडर की तिहरी लड़ाई के समर्थक थे। अपनी
आये। ‘पंडित जी का मंदिर और अन्य कहानियाँ’ नाम से उनका एक कविता ‘सर्वनाम’ में वे उस आदमी और उसकी स्थितियों के
एक और कहानी संग्रह 2012 में आरोही प्रकाशन से प्रकाशित हुआ बारे में बोलते हैं जो उनके लेखन का सर्वकालिक एजेंडा रहा है-
था। ‘उन्नीस सौ चौरासी’, ‘अभिशप्त प्रेम’, ‘समाजवादी जी उर्फ “बाप चमार/ माँ बीमार/ जवान होती बहनें चार/ माटी की चोंतरी/
प्यारेलाल भारतीय’, ‘कल्पतृष्णा’, ‘बड़े होने पर’, ‘सूअरबाड़ा’, कर्ज़़े की कोठरी/ टपकती हुई ओसरी/ भूख़े पेट जागना/ और
‘दुलारी’, ‘औरत’, ‘टूटा हुआ विश्वास’, ‘शराबी का बेटा’ और हिम्मत हारना/ ख़ुद को रोज़ मारना/ जातिगत प्रताड़ना/ ज़िन्दगी
‘पंडित जी का मंदिर’ आदि उनकी प्रसिद्ध कहानियाँ हैं। आलोचना अवमानना/ एक दु:सह यातना/ किसकी व्यथा है ये/ उसका क्या
पुस्तक ‘हिंदी कविता की तीसरी धारा’ 2013, स्वराज प्रकाशन, नाम है/ उसका कोई नाम नहीं/ वह तो सर्वनाम है/ जहाँ भी
दिल्ली के बाद उनकी एक और किताब ‘दलित साहित्य के बुनियादी जाओगे/ नज़र को दौड़ाओगे/ हर सिम्त उसे पाओगे।”2

yegh जुलाई से सितंबर 2023 n 77


वे ठीक समझते थे कि हमारा समकाल मनुष्य विरोधी है विरोध में खड़ा करने की कोशिश कर रहे हैं। इसमें कुछ योगदान
इसीलिए साहित्य विरोधी भी है। इसीलिए वे कवि के लिए इस उन तथाकथित वामपंथियों का भी है जो न मार्क्सवाद को भारतीय
समय को बेहद कठिन बताते हैं। अपनी एक कविता ‘कवि के संदर्भ में ढाल पाते हैं और न उसे व्यवहार में उतार पाते हैं। यह
लिए कठिन समय’ में वे लिखते हैं- “हो सकता है/ कि बाज़ार में दुर्भाग्यपूर्ण ही है कि अब तक वामपंथ उन ऊँची जात वालों का
भाजी-तरकारी खरीदता हुआ कवि/ आपको कवि जैसा ना लगे/ खिलौना बनता रहा है जो न मार्क्सवाद को ठीक से जीवन में उतार
ये हो सकता/ कि कविता के अलावा कवि जो कुछ भी लिखे/ पाए और न अपनी जातीय स्थिति का त्याग कर पाए। यह उन्हीं की
उसमे आपको कोई गहराई ना दिखे/ ये हो सकता है/ कि कविता दोहरी भूमिका का नतीजा है कि वामपंथ आज छद्म वामपंथ बन
के अलावा कवि जो कुछ भी करे/ वह आपको एकदम साधारण गया है। लेकिन खाली छद्म वामपंथ का विरोध करने भर से काम
लगे/ बड़ा ही कठिन समय है साथी/ कि अपनी तमाम कोशिशों के नहीं चलने वाला है। दलितों को चाहिए कि वे न सिर्फ़ वामपंथी
बावज़ूद/ कवि हर वक्त/ कवि नहीं रह पा रहा है।”3 विचारधारा बल्कि अन्य वैज्ञानिक विचारधाराओं का भी गहन
दलित आन्दोलन में विचारधारा के सवाल पर मुकेश मानस अध्ययन करें और उसे अंबेडकरवादी विचारधारा के विकास का
अपने एक लेख ‘हिंदी दलित साहित्य आंदोलन: कुछ सवाल, माध्यम बनाएँ। इससे उन्हें न सिर्फ़ छद्म वामपंथ से मुक्ति मिलेगी
कुछ विचार’ में विस्तार से विचार करते हैं। यह एक ऐसा प्रश्न है बल्कि वैचारिक स्तर पर दलित आंदोलन की व्यापकता बढ़ेगी।”5
जिसकी जटिलता और उलझाव मध्यवर्गीय सुविधावाद के चलते लेखन के शुरुआती दिनों की अपनी एक कविता ‘फासिस्ट’
कई बार बढ़ जाते हैं पर यहाँ भी मुकेश मानस अन्यों के मुक़ाबले (रचनाकाल:1992) में इसी फासीवादी प्रवृत्ति पर चोट करते हुए
बेहद साफ समझ रखते हैं। वे लिखते हैं, “विचारधारा के सवाल वे लिखते हैं- “मैंने कहा/ गंगा गंगोत्री से निकलती है/ उसे अपने
पर अधिकतर दलित चिंतक ये बयान देते हैं कि उनका जुड़ाव इतिहास पर ख़तरा लगा/ उसने मुझे मार दिया/ मैंने कहा/ श्रीराम
केवल अम्बेडकरवादी विचारधारा से ही हो सकता है किसी अन्य दिल्ली में रिक्शा चलाते हैं/ उसे अपने धरम पर ख़तरा लगा/ उसने
विचारधारा से नहीं। ऐसा करते वक्त वे अम्बेडकरवादी विचारधारा मुझे मार दिया/ मैंने कहा/ ईश्वर आदमी का दुश्मन है/ उसे अपनी
की सीमाओं की चर्चा नहीं करते हैं। अम्बेडकर ने अपने अथक शिक्षा पर ख़तरा लगा/ उसने मुझे मार दिया/ मैंने कहा/ हिन्दू
प्रयासों से दलितों में सामाजिक सम्मान का आंदोलन खड़ा किया मुस्लिम भाई-भाई हैं/ उसे अपनी नीति पर ख़तरा लगा/ उसने मुझे
किन्तु 1951 तक आते-आते उन्हें इस बात का अहसास हो चला मार दिया/ उसने मुझे बार-बार मारा है/ मैंने बार-बार उसका चेहरा
था कि केवल जाति व्यवस्था के खात्मे से दलितों के दुखों का उघाड़ा है/ दरअसल वो हत्यारा है।”6
खात्मा नहीं होगा बल्कि आर्थिक विषमता के दुर्ग को भी तोड़ना उनका मानना था कि फासीवाद का मुकम्मल जवाब दलितों के
होगा। इसलिए उन्होंने आर्थिक समाजवाद का सपना देखना शुरू पास ही है क्योंकि वह वंचित तबका है और यह भी कि इससे युद्ध
किया। इस दिशा में वे चिंतन-मनन कर ही रहे थे कि उनकी मृत्यु में उसे ही नेतृत्वकारी भूमिका निभानी है। वे आगाह करते हुए कहते
हो गई। रिपब्लिकन पार्टी आफ इंडिया की स्थापना को इसी अर्थ हैं कि धार्मिक सांस्कृतिक शोषण का जवाब धर्मांतरण कतई नहीं
में देखा जाना चाहिए। किंतु बाद में आर.पी.आई. उनके आर्थिक हो सकता है। अपने ‘फासीवाद, सांप्रदायिकता और दलितजन’
समाजवाद को साकार करने के रास्ते पर नहीं बढ़ी। बसपा आदि वाले लेख में ही वे लिखते हैं कि ‘हिन्दू धर्म और राजसत्ता के
दलितवादी पार्टियों के एजेंडे पर भी आर्थिक समाजवाद लाने का फासीवादी रूप की मार दलितों को ही ज्यादा झेलनी पड़ रही है या
सपना नहीं है। बसपा भी आज सत्ता के जिस खेल में शामिल उन्हें ही ज्यादा झेलनी है। इसलिए इससे मुक्ति की राह भी उन्हीं
हो चुकी है वहां उसके लिए अम्बेडकरवादी विचारधारा केवल को निकालनी है। सांप्रदायिकता और फासीवाद से मुक्ति की राह
दिखावा है। आजाद भारत में अम्बेडकर न सिर्फ़ कांग्रेसी नीतियों में धर्म परिवर्तन अब दलित आंदोलन को पीछे ले जाने वाला कदम
की आलोचना करते रहे बल्कि तत्कालीन कम्युनिस्ट पार्टी और है। आजकल सारे धर्म इतने विकृत हो चुके हैं कि उनसे दलितों
उसके व्यवहार को दलित आंदोलन की मजबूती का आधार नहीं का कोई भला नहीं होने वाला है। इसका यह मतलब नहीं है कि
माना। इससे यह सिद्ध नहीं होता कि वे वामपंथी विचारों के विरोधी दलित लोग कोई नया धर्म बना लें।’7 यहाँ ठहरकर याद करें दलित
थे बल्कि उनकी चर्चित पुस्तक 'स्टेट एंड माइनोरिटी पर वामपंथी धर्म की खोज करने वालों और उनकी खोज पर लहालोट होने
विचारों की छाप मिलती है।”4 वाले लगुओं-भगुओं को; तब सही मायने में इस बात का महत्व
आगे वे लिखते और सुझाते हैं कि “आज ऐसे दलित चिंतकों की समझ में आएगा; जिसे मुकश े मानस यहाँ बिचारते हैं। दलित व
कमी नहीं है जो अम्बेडकर को लगातार वामपंथी विचारधारा के प्रगतिशील और जनवादी ताक़तों के बीच इत्तेहाद सांप्रदायिकता

78 n जुलाई से सितंबर 2023 yegh


और फासीवाद से लड़ने में कितना ज़रूरी है वे इसे समझते हैं स्वतंत्रता के हामी मुकेश मानस की नज़र में प्रेम एक बड़ा मानवीय
जोर देकर कहते हैं कि ‘दलितों को अब इससे आगे का कदम मूल्य था। उन्हें लगता था कि प्रेम एक प्रगतिशील शक्ति है जो
सोचना पड़ेगा। यह कदम क्या होगा जो उन्हें उनकी संपर्ण ू मुक्ति हमें जनवादी और लोकतांत्रिक बनाती है। वह व्यक्ति का ही नहीं;
की ओर ले जा सके। इस सवाल का जवाब अभी भविष्य की गोद परिवार, समाज, देश और विश्व का भी जनवादीकरण करती है।
में ही है। मगर यह तय बात है कि सांप्रदायिकता और फासीवाद इतिहास गवाह है कि हर समय समाज में प्रेम ने सकारात्मक
का मुँहतोड़ और मुकम्मल जवाब दलितों के पास ही है। इस काम भूमिकायें निभाई हैं। उसने हमेशा मानवता के इतिहास को ख़ूबसूरत
में उन्हें ही लगना है। इस काम को वे समाज में मौज़ूद प्रगतिशील बनाया है। शायद यही कारण है कि वे बहुत सारी कविताएँ तन्हाई
और जनवादी ताक़तों के साथ मिलकर ही पूरा कर पाएँगे। मगर बेचैनी, उलझन और उसमें दबी प्रेम की चाह पर लिखी गई हैं;
फासीवाद और सांप्रदायिकता विरोधी संघर्ष में नेतृत्वकारी भूमिका ‘तन्हाई और सन्नाटे में’, ‘चाह’, ‘फिर’, ‘मुश्किल’, ‘अँधेरा’,
उन्हें ही निभानी होगी।’8 ‘परिंदे’ उनकी इसी तरह की भावनाओं की अभिव्यक्ति हैं। सदी
यह जो नेतृत्वकारी भूमिका दलितों को निभानी है उसके लिए के अंत पर यह कवि जो चाहता है उससे उसकी समझ की ख़ोज-
उन्हें सामाजिक-सांस्कृतिक संगठन बनाने होंगे क्योंकि सत्ता के ख़बर मिलती है। वे लिखते हैं– “जी में आता है/कि लड़कियों को
संगठनों से वो लड़ाई लड़ी और जीती नहीं जा सकती। इस बात चहचहाते हुए/और लड़कों को नाचते हुए देखूं/जो भी मेरे क़रीब से
को मुकेश मानस बख़ूबी समझते थे। उनके लिए राजनीति और गुज़रे/उसे प्यार भरा सलाम/कहूँ/ जी में आता है/कि कहीं खुले में
संस्कृति अलग-अलग चीज़ें नहीं थीं। अपने एक लेख ‘सांस्कृतिक खड़े होकर/हवा की पावन थपकियों को महसूस करूँ/और उसकी
कर्म’ में वे लिखते हैं कि, ‘आज ऐसे संगठनों की कमी नहीं है जो मन भावन तान/शब्दों की गहराइयों में ले आऊँ/जी में आता है/
राजनीति और संस्कृति को अलग-अलग चीज़ें मानते हैं। इनके कि ठूंठ बनते जा रहे पेड़ों से/लिपट-लिपट कर रोऊँ/और ज़मीन
लिए राजनीतिक कर्म एक बात है तो सांस्कृतिक कर्म दूसरी; दोनों पर गिरे पत्तों को/चूम-चूमकर/अपने दिल में सजा लूं/जी में आता
में कहीं मेल मिलाप नहीं। इस तरह के संगठनों में से अधिकतर है/कि पहाड़ों को देखने निकल जाऊँ/उनसे बेझिझक बातें करूँ/
सरकारी संगठन है। इनके पास अकूत आर्थिक स्रोत सुविधाएँ उनकी अथाह घाटियों में/मोहब्बत की ऊँचाई का पैगाम/बिखरा दूं/
है। इसके बावज़ूद इनका कर्मक्षेत्र एकदम सीमित और संकुचित जी में आता है/कि बाज़ार बनती जा रही दुनिया में/खरीदारी पर
है। इस तरह के संगठन अपने कामों के जरिए लोगों की रूढ़ियों निकले आदमी के लिए/उन चीज़ों की सूची बनाऊँ/जिनकी खरीद-
को और बढ़ाने व उनकी समझ को और भोथरी करने का ही फ़रोख्त हो नहीं सकती/जैसे देश और मां और प्यार/जी में आता है/
काम करते हैं। दरअसल इस तरह के सांस्कृतिक संगठन सरकार कि काम से लौटे घोड़ों के पास जाऊँ/उनके घावों को सहलाऊँ/दर्द
और सरकारी मशीन के पुछल्ले होते हैं। वे सांस्कृतिक कर्म को भरा कोई गीत/उनके साथ मिलकर गाऊँ/और उनके दिल के किसी
सरकार की नीतियों और कार्यों की प्रशंसात्मक, काव्यात्मक और कोने में/आशा की किरण बन जाऊँ।”10(1999)
कलात्मक अभिव्यक्ति मानते हैं। जिस प्रकार की विचारधारा और इसीलिए वे प्रेम के प्रबल हिमायती हैं। स्वतंत्रता के चहेते हैं।
राजनीति की सरकार देश की गद्दी पर बैठती है वे उसी प्रकार की बंदिशों वाले समाज, संस्कृति और विचार के घनघोर विरोधी। प्रेम
मानसिकता से संस्कृति प्रचार करने लगते हैं। इनको जनता की उन की बातों को वे मुख्यतः छः बिंदुओं में व्याख्यायित करते हैं– उनके
मुसीबतों से कोई मतलब नहीं होता जो अंततः सरकार की गलत लेखे पहला– प्रेम को प्रायः स्त्री-पुरुष के बीच बनने वाले संबंध
नीतियों के परिणामस्वरूप उन्हें झेलनी पड़ती है। ये संगठन अंततः के रूप में ही देखा समझा जाता है। आज भी बहुतों के लिए प्रेम
जनविरोधी ही साबित होते हैं।’9 इसलिए वे दलितों वंचितों के का एक ही अर्थ है– स्त्री-पुरुष का प्रेम। और स्त्री-पुरुष के बीच
लिए उनके अपने सांस्कृतिक संगठनों के हिमायती रहे और इसकी होने वाले प्रेम के रास्ते में भी प्राय: बहुत सी चीज़ें रुकावट बनती
कोशिश आजीवन करते रहे। हैं जैसे जात-पात, अमीरी-ग़रीबी, रूप-रंग। लेकिन प्रेम इन सभी
भारतीय समाज में प्रेम की जितनी उपेक्षा मिलती है और चीज़ों को नकारता है, इनका विरोध करता है। इस मायने में प्रेम
जितना उसका अवमूल्यन दिखता है वह शायद ही दुनिया के के आधार पर बनने वाला संबंध एक प्रगतिशील संबंध होता है।
किसी और समाज में हो। इसके कारणों की जड़ें काफ़ी गहरी हैं। यानी प्रेम एक प्रगतिशील शक्ति है जो सभी नकारात्मक विचारों
अलोकतांत्रिकता, असमानता और भेदवाद को बनाये रखने के और तत्वों का विरोध करता है।
लिए प्रेम की उपेक्षा और अवमूल्यन ज़रूरी है। इससे इन्हें बनाये दूसरा– प्रेम व्यक्ति का जनवादीकरण, लोकतांत्रीकरण करता
रखने में मदद मिलती है। इसीलिए लोकतांत्रिकता, समानता और है। जिस क्षण आप में अपने से अलग किसी दूसरी वस्तु, व्यक्ति

yegh जुलाई से सितंबर 2023 n 79


से प्रेम की भावना जाग्रत होती है उसी क्षण आपका जनवादीकरण समाज में नहीं रहेंगी तब प्रेम का न तो विरोध ही होगा और न
होना शुरू हो जाता है। जैसे प्रकृति से मनुष्य का एक नैसर्गिक वह हमें चौकाएगा ही। तब वह एक बेहद सरल और स्वाभाविक
लगाव होता है लेकिन जैसे ही मनुष्य के भीतर प्रकृति के प्रति मानवीय स्वाभाव बन जाएगा। लेकिन आज तो ये तमाम बेड़ियाँ
प्रेम जाग्रत होता है वैसे ही वह ख़ुद को प्रकृति का और प्रकृति ही हमारे समाज की सच्चाईयाँ है इसीलिए प्रेम इन बेड़ियों का
को ख़ुद का हिस्सा समझने लगता है। तीसरा- प्रेम व्यक्ति का ही विरोध करता है। कुल मिलाकर ये कहा जा सकता है कि मानवीय
नहीं परिवार, समाज, देश और विश्व का भी जनवादीकरण करता परिष्कार और मानवीयता को बचाए रखने की राह में प्रेम एक
है। पश्चिम के तथाकथित उन्नत समाजों में परिवारों में काफ़ी अनिवार्य शर्त है। प्रेम ही वो चीज़ है जो मनुष्य को ज्यादा मानवीय
हद तक जनवाद है। वहां के परिवारों में यहाँ की तरह की सामंती और प्रगतिशील बनाता है।11
जकड़न नहीं है। एक-दूसरे के प्रति प्रेम के कारण ही पति पत्नी, सच ये है कि फासीवाद, सांप्रदायिकता, जाति, जनतंत्र,
माता-पिता, बेटा-बेटी को अलग-अलग समयों और स्थितियों में राजनीति, संस्कृति, विचारधारा, विमर्श व पूंजीवादी सत्ता मुकश े
अपने वर्चस्व का त्याग करना पड़ता है। एक-दूसरे से प्रेम ना होने मानस की चिंताओं के केंद्र में थी। उनकी चिंताएँ कई बार इस
पर पारिवारिक रिश्ते सामंती जकड़न और तानाशाही के शिकार हो परिधि को भी लाँघ कर बृहत्तर हो जाती थीं। मानवता, प्रकृति, प्रेम
जाते हैं। हैं। और इकोलॉजी के बारे में भी वे सोचते थे जैसे ‘कोयलगान’ नामक
चौथा– प्रेम हर समय और हर समाज में एक प्रगतिशील मूल्य अपनी एक कविता में कहते हैं कि- “कहाँ गए सब जंगल?/ कहाँ
है। प्रेम का वास्तविक आधार है- समानता। यानी दूसरे को अपने गए सब बाग-बगीचे?/ कहाँ गए सब ख़ूबसूरत फूल?/ जो ये
बराबर समझना। दो असमान स्थितियों वाले व्यक्तियों के बीच कोयल गा रही है/ दिल्ली जैसे महानगर में रहने वाले/ मेरे जैसे
प्रेम के कुछ बिंदु हो सकते हैं परन्तु प्रेम नहीं हो सकता है। प्रेम तो एक कवि के घर में।”12 इसी तरह अपनी एक और छोटी कविता
सदैव बराबरी के धरातल पर ही फलता-फूलता है। प्रेम इसीलिए ‘परिंदे’ में वे कहते हैं कि “उड़ो/ कि तुम परिन्दे हो/ उड़ो/ कि
एक प्रगतिशील मूल्य है क्योंकि प्रेम जाति, धर्म, आयु। रूप-रंग, उड़ना तुम्हारा धर्म है/ उड़ो/ कि सारा आकाश तुम्हारा है।”13
आर्थिक हैसियत कुछ नहीं देखता। प्रेम एक ऐसे समाज का यूटोपिया और देखिये आज वह कर्मठ परिंदा उड़ गया है। क्योंकि उड़ना
रचता है जिसमें कोई छोटा-बड़ा, ऊँचा-नीचा या अमीर-ग़रीब नहीं ही उसका धर्म था, सत्य था। ऐसे समय में जब फासीवादी ताक़तें
होता। जिसमें व्यक्ति व्यक्तिवाद और व्यक्तिवादी महत्वाकांक्षाओं मजबूत हो रही हैं मुकेश मानस जैसे जनपरस्त प्रगतिशील योद्धा
का शिकार होकर दूसरों का शोषण नहीं करता। पाचवां– अगर का जाना दलितों की प्रगतिशील धारा के लिए एक बड़ी क्षति है। n
हम हिन्दुस्तानी समाज पर नज़र डालें तो पता चलता है कि यह
संदर्भ
मूलत: जातियों के आधार पर मनुष्यों को विभाजित करके रखने
1. मेरी कविता- मुकश
े मानस, पतंग और चरखड़ी, कविताकोश,विस्तार
वाला समाज है। जाति के आधार पर मनुष्यों का विभाजन इस के लिए देखें- http://kavitakosh.org/kk/%E0%A4%A
समाज की सबसे कड़वी सच्चाई है। डा. अम्बेडकर ने कहा था कि E%E0%A5%87%E0%A4%B0%E0%A5%80_%E0%A
जाति व्यवस्था श्रम का ही विभाजन नहीं करती है, यह श्रमिकों का 4%95%E0%A4%B5%E0%A4%BF%E0%A4%A4%E
विभाजन भी करती है। हिन्दुस्तानी समाज में जाति एक ऐसी चीज़ है 0%A4%BE_/_%E0%A4%AE%E0%A5%81%E0%A4
%95%E0%A5%87%E0%A4%B6_%E0%A4%AE%E-
जो हर स्तर पर दो प्रेम करने वालों के रास्ते में रुकावट डालती हैं। 0%A4%BE%E0%A4%A8%E0%A4%B8
दो भिन्न जातियों के लड़के लड़कियों के बीच पैदा होने वाला प्रेम ‘सर्वनाम’-मुकेश मानस, कविता, कविताकोश, 1991,
यहाँ अक्सर हिंसा, हत्या आदि का शिकार होता है। भिन्न जातियों विस्तार के लिए देखें- http://kavitakosh.org/kk/%E0%
के दो प्रेम करने वालों के रास्ते में सामंती मानसिकता तमाम रोड़े A4%B8%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%B5
अटकाकर उसे समाप्त करने की कोशिश करती है। %E0%A4%A8%E0%A4%BE%E0%A4%AE_/_%E
छठा– आज समाज इन सामंती और पूंजीवादी मानसिकताओं 0%A4%AE%E0%A5%81%E0%A4%95%E0%A5%
का शिकार है। जाति, धर्म और आर्थिक हैसियत से उत्पन्न ये 87%E0%A4%B6_%E0%A4%AE%E0%A4%BE%E
सामंती और पूंजीवादी मानसिकताएँ प्रेम के रास्ते में रुकावटे पैदा 0%A4%A8%E0%A4%B8
करती हैं। प्रेम इन तमाम चीज़ों का विरोध करने के कारण ही एक कवि के लिए कठिन समय-मुकश े मानस, कविता,
प्रगतिशील मूल्य है। आज के इस समाज में प्रेम हमें चौंकाता है। कविताकोश, 2010, विस्तार के लिए देखें-
वह एक अपवाद की तरह सामने आता है किन्तु कल जब ये चीज़ें h t t p : / / k a v i t a k o s h . o r g /
80 n जुलाई से सितंबर 2023 yegh
1. मेरी कविता- मुकेश मानस, पतंग और चरखड़ी, कविताकोश,विस्तार के लिए देखें- http://kavitakosh.org/kk/%E0%A4%AE%E0%A5%
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2. ‘सर्वनाम’-मुकेश मानस, कविता, कविताकोश, 1991, विस्तार के लिए देखें- http://kavitakosh.org/kk/%E0%A4%B8%E0%A4%B0%
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3. कवि के लिए कठिन समय- मुकेश मानस, कविता, कविताकोश, 2010, विस्तार के लिए देखें- http://kavitakosh.org/
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4. ‘हिंदी दलित साहित्य आंदोलन: कुछ सवाल, कुछ विचार’-मुकश े मानस, लेख, गद्यकोश, वर्तमान साहित्य पत्रिका के अगस्त 1999 के अंक में सर्वप्रथम
प्रकाशित, विस्तार के लिए देखें- http://gadyakosh.org/gk/%E0%A4%B9%E0%A4%BF%E0%A4%A8%E0%A5%8D%E0%A4
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5. वही
5. ‘फासिस्ट’- मुकश े मानस, कविताकोश,1992, विस्तार के लिए देखें- http://kavitakosh.org/kk/%E0%A4%AB%E0%A4%BE%E0%
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7. वही, ‘फासीवाद, सांप्रदायिकता और दलितजन’- मुकश े मानस, लेख ‘फिलहाल’ पत्रिका, मार्च, 2003
8. वही
9. ‘सांस्कृतिक कर्म-मुकश े मानस, लेख, गद्यकोश, 2000, विस्तार के लिए देखें- http://gadyakosh.org/gk/%E0%A4%B8%E0%A4%BE%E-
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10. ‘इस सदी के अंत पर’- मुकेश मानस, कविता संग्रह ‘पतंग और चरखड़ी’, कविताकोश, विस्तार के लिए देखें- http://kavitakosh.org/kk/%E
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11. ‘प्रेम’- मुकशे मानस, लेख, गद्यकोश 2006, विस्तार के लिए देखें- http://gadyakosh.org/gk/%E0%A4%AA%E0%A5%8D%E0%A
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12. ‘कोयलगान’- मुकश े मानस, कविता, कविताकोश 2004, विस्तार के लिए देखें- http://kavitakosh.org/kk/%E0%A4%95%E0%A5%8B
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13. ‘परिंदे’-मुकशे मानस, कविता, कविताकोश 1992, विस्तार के लिए देखें http://kavitakosh.org/
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संपर्क : असिस्टेंट प्रोफेसर– समाज विज्ञान और मानविकी विभाग


क्षेत्रीय शिक्षा संस्थान, NCERT मानस गंगोत्री, मैसूर
मो. 9999508476

yegh जुलाई से सितंबर 2023 n 81


SataabdI smarNa

नंद चतुर्वेदी
(21 अप्रैल 1923 - 25 दिसंबर 2014)

82 n जुलाई से सितंबर 2023 yegh


विनोद कुमार शुक्ल
मलय
नरेश सक्सेना
ऋतुराज
लीलाधर जगूड़ी
अशोक वाजपेयी
राजेश जोशी
आलोक धन्वा
ज्ञानेंद्रपति

अविराम
दिनेश कुमार शुक्ल
उदय प्रकाश
हरीशचंद्र पाण्डेय
अरुण कमल
मेरे जीवन का नमक है कविता अष्टभुजा शुक्ल
हर शब्द में घुला है इसका स्वाद
मदन कश्यप
असद ज़ैदी
लीलाधर मंडलोई
स्वप्निल श्रीवास्तव
कुमार अम्बुज
देवी प्रसाद मिश्र
दिनेश कुशवाह
आशुतोष दुबे
एकांत श्रीवास्तव
पवन करण

yegh जुलाई से सितंबर 2023 n 83


84 n जुलाई से सितंबर 2023 yegh
n अविराम : विनोद कुमार शुक्ल

प्रेम और करुणा के रसायन से बनती उम्मीद की कविता


विवेक श्रीवास्तव
विनोद कुमार शुक्ल जी कविताओं से मेरे परिचय के पास अद्भुत कल्पना शक्ति के साथ अपने आस-पास
पहले कभी उनके उपन्यासों से परिचय हुआ, यह अपनी को बारीक़ी से देखने-पकड़ने वाले अंदर और बाहर के
तरह से एकदम नया और आह्लादकारी अनुभव था। दृश्य और अदृश्य संसार को बहुत भीतर तक बरसों-
कविता और कथा के सम्मिश्रित भाव और भाषा से रचा- बरस तक सहेज कर रख सकने की अद्भुत क्षमता है।
पगा गद्य संसार। यथार्थ की अंदरूनी तह तक बारीक बहरहाल, यहाँ बात कविता पर, उपन्यासों के बाद
पकड़ और आस-पास की चालाकियों को पकड़ने की ही पहले-पहल जब विनोद जी की कविताओं से परिचय
नज़र, उनकी काव्यात्मक शैली। कविता के ‘टूल्स’ के हुआ तो वे कुछ बेहद आत्मीय प्रेम कविताएँ थीं,जिसमें
साथ रचा गया कोमल गद्य भीतर तक भिगोता था। करुणा और उन्होंने गृहस्थी के भीतर से प्रेम के कुछ शानदार बिम्ब हमारे सामने
प्रतिरोध को मिश्रित कर के बहुत सान्द्र सांकेतिक अभिव्यक्ति रूप रखे हैं।
उनके उपन्यास, उनसे पहला परिचय बने। शुरुआत में ये सारी उनकी एक कविता जिसने मुझे उन दिनों में रोमांचित किया उसे
समझ उनके अद्भुत उपन्यास ‘नौकर की कमीज़' से बनी। बाद याद करता हूँ, ‘मंदिर को उसने/ घर में इकट्ठा कर लिया था/ देवता
में ‘दीवार में एक खिड़की रहती थी’ ने तो एक बिलकुल ही नई को मुझमें/ तब वह मूर्ति सदृश/ प्रतिदिन की सूखी पत्तियों को/
दुनिया से, नये और अपने से आसमान से परिचय कराया। विनोद बुहार रही थी/ मेरे आने को शताब्दियों बाद प्रगट हुआ सा देखा
जी का काव्यात्मक गद्य ही फिर विनोद जी की कविताओं के लिए उसने/… चटनी के लिए उसने इमली/ बीज निकाल कर इकट्ठा
आकर्षण बना। विनोद जी की कविताओं के संसार में पहुँच कर किया/ उसी तरह बिजलियों को कड़क ध्वनि निकाल कर/ जमा
महसूस किया कि उनके कविता और उपन्यास भाव और भाषा के किया था-/ बीती रातों से बिजली की झालरों को निकाल कर/ इस
स्तर पर बिलकुल क़रीब ही हैं जितनी कलात्मक शैली में संकोच रात को सजाया/ सूपे में महुआ के फूलों के साथ/ झरे हुए इकट्ठा
से भरी भाव की गहराई विनोद जी के यहाँ उपन्यासों में मिलती तारों को, पछोर कर/ चाँदनी का आकाश कर दिया’ विनोद जी की
है लगभग वैसा ही बर्ताव उनकी कविताओं में भी है। ‘नौकर की इस कविता में उनके अंदाज़-ए-बयाँ ने, गृहस्थी के प्रेम के दृश्यों
कमीज़’ के आस-पास ही ‘दीवार में एक खिड़की रहती थी’ को को महसूस करने और दर्ज़ करने के लिए इस तरह के टटके बिम्बों
पढ़ने का मौक़ा जब मिला तो पाया वहां एक लम्बी प्रेम कविता का के आत्मीय प्रयोग ने चकित किया। बहुत-सी घोषणाओं और
वितान था। अद्भुत सधाव। यह लम्बा काव्यात्मक सधाव, गद्य में प्रगल्भताओं से भरी-पूरी हिंदी कविता के प्रेम संसार के बीच दैनिक
भी काव्यात्मकता का एक सुखद संस्पर्श विनोद जी के यहाँ कहां जीवन की इस अपूर्व आत्मीयता ने प्रेम की समझ को और अधिक
से आता होगा यह अनुमान कुछ आगे जा कर खुला, जब रायपुर रोमांचक और साथ में क़ीमती भी बनाया। ज़िंदगी में हर अच्छी
में, उनके ही घर पर दो दिनों तक उनसे मिलने-बतियाने का मौका कविता-कहानी पढ़ना आप को लगातार समृद्ध करता है, यह
मिला। बेहद कम बोलने वाले, अपनी ऊर्जा को सँजोकर रखने मान्यता या सिद्धांत तब तक मन में दृढ़ हो रहा था पर विनोद जी
और इसे सही समय और तरीके से बरतने वाले विनोद जी के को पढ़ने के बाद समृद्धि से लबालब हो जाने का एक अनूठा

yegh जुलाई से सितंबर 2023 n 85


अहसास भी उसी दौर में हुआ। चमत्कार भाव से बाहर आने के अब इस पूरी कविता में एक-दूसरे के लिए जो समर्पण है, जो
लिए उन्हें फिर-फिर पढ़ा। रुक कर, ठहर कर पढ़ा। जितना भी भरोसा है और इस सब के साथ सारी दुनिया से दूर अपने में मगन-
कम-ज़्यादा जान पाया, उन्हें ज़िंदगी के राग भाव से भरा पाया। प्रेम मन जीवन है उसके ये दृश्य एक ख़ास तरह की आत्मीयता और
उनके यहाँ शाश्वत है। अद्वितीय और जादू जगाती सर्जनात्मक अछूती संवेदना का अहसास सामने रखते हैं। ज़िंदगी को पूजा की
भाषा के साथ वे ज़िंदगी में भरोसे के कवि दिखे। तरह एक-दूसरे के भरोसे पर जी लेने का भरोसा यहाँ कविता में
गृहस्थी के सौन्दर्य और भाषा के वैभव से भरी-पूरी इस कविता बड़ा भरोसा दिखता है। चौरासी करोड़ देवी-देवताओं की दुनिया से
में ही ‘इमली से बीज निकाल कर’ इकट्ठा करने की तरह ‘बिजलियों निर्जन में, उनसे अलग आपसी भरोसे का जीवन। कविता में उनके
को कड़क ध्वनि निकाल कर जमा करने’ का यह ख़ूबसूरत बिम्ब कहन की इस ताजगी के साथ कविता से कुछ अधिक क़रीब का,
हमेशा यूँ ताज़ा लगता है कि ज़िंदगी पर भरोसा हर बार थोड़ा और अपनापे का, कुछ घरू सा रिश्ता भी बनता है। कविता अपने भरोसे
बढ़ जाता है। ज़िंदगी का कितना सीधा सा और बड़ा सादा सा की होकर अपनी सी कविता लगती है।
फ़लसफ़ा है- ‘बीती रातों से बिजली की झालरों को निकाल कर/इस विनोद जी की काव्य संवेदना का दायरा बहुत व्यापक है। घर,
रात को सजाया’। आज अगर पूनम न भी सही, तो भी बीती रातों की परिवार और प्रेम का उनका विस्तार बहुत दूर तक है। मनुष्य से
बिजली से उसे रोशन करके और ‘झरे हुए इकट्ठा तारों को पछोर कर मनुष्य का प्रेम और एक-दूसरे के लिए भरोसा उनके यहाँ समूची
चाँदनी का आकाश’ कर देने का व्यवहार-कौशल जो किसी भी मनुष्यता के लिए एक मूल्य है। उनकी कविता में दुनिया भर को
गृहस्थी का आधार होता है, उसे यूँ इतनी सादगी से कविता में निरंतर समेटे हुए एक सचेत समानान्तर पक्ष है। निराशा और हताशा हर
आत्मीयता और संवेदनात्मकता के साथ दर्ज़ करने का कविता- किसी के जीवन के वो पक्ष हैं जिन से कभी न कभी हर किसी का
कौशल विनोद जी की कविता को बड़ी कविता बनाता है और इसका सामना होना ही है। इस हताशा को पहचान लेना और उससे आगे
असर लम्बा होता जाता है। कवि आप को पछोरे हुए तारों और बिना बढ़ कर एक-दूसरे का हाथ थाम लेने की जो बड़ी चेष्टा हो सकती
कड़क बिजली के जो बीज देता है उन्हें अपनी ज़िन्दगी में बोने के है, जो भरोसा एक से दूसरे में और दूसरे से तीसरे के क्रम में समूची
बाद उनकी नयी-नयी लतायें फ़ैलती जाती हैं और ज़िन्दगी में मनुष्यता में संचरित होता है, उस विश्वास की बड़ी और बहुत
हरियाली फैलाती हैं। वे गहरी मानवीय संवेदना के साथ आत्मीयता चर्चित कविता है-‘हताशा से एक व्यक्ति बैठ गया था’- ‘मैंने हाथ
के, प्रेम के कवि हैं। संबंधों की यह ऊष्मा उनकी कविताओं और बढ़ाया/ मेरा हाथ पकड़ कर वह खड़ा हुआ/ मुझे वह नहीं जानता
उपन्यासों में एक सी सघनता के साथ आती है। घर-गृहस्थी के भीतर था/ दोनों एक दूसरे को नहीं जानते थे/ साथ चलने को जानते थे’।
दो के प्रेम के अनंत दृश्य कविता में समेट कर उन्हें कविता में, साथ चलने को जान लेना मात्र ही एक बहुत बड़ी संवेदना है जो
उपन्यासों में कीमती दृश्य की तरह अनूठी काव्य भाषा और काव्य कविता को न सिर्फ़ कविता बनाती है बल्कि मनुष्यता में, एक-दूसरे
संरचना और शैली में हमारे लिए प्रस्तुत करने का जो कौशल उनके के बीच नेह के नाज़ुक रिश्ते में भरोसा बनाने की कविता का संसार
पास है, वो सिर्फ़ उनका ही है। संभवतः इन्हीं सारे संदर्भों को सामने रचती है। इसी तरह की, बड़े काव्य औदात्य की उनकी एक और
रखते हुए विष्णु खरे लिखते हैं कि ‘विनोद कुमार शुक्ल अपनी बहुत महत्त्वपूर्ण और चर्चित कविता है-‘जो मेरे घर कभी नहीं
सृजनशीलता से हमें अवाक और हतप्रभ करते हैं।’ आयेंगे’। ‘जो मेरे घर कभी नहीं आयेंगे/मैं उनसे मिलने/ उनके
लगभग हर गृहस्थी में पूजा, घर का पवित्र एकांत रचती है, कुछ पास चला जाऊँगा। । नदी जैसे लोगों से मिलने/ नदी किनारे
आस्थाओं और कुछ अनिवार्यताओं की परंपरा में गुँथकर। पूजा की जाऊँगा/ कुछ तैरूँगा और डूब जाऊँगा/… जो लगातार काम में लगे
पवित्रता के भाव के साथ ही वे कविता में बड़ी तन्मयता से दर्ज़ हैं/मैं फुर्सत से नहीं/ उनसे एक ज़रूरी काम की तरह/ मिलता
करते हैं- ‘वे दोनों एक दूसरे के भक्त/ और कोई देवी-देवता नहीं/ रहूँगा-’ कवि इसे अपनी अकेली आख़िरी और पहली इच्छा की
चौरासी करोड़ देवताओं से/ निर्जन प्रदेश का एकांत/ वहीं घर/ तरह दर्ज़ करता है। अपने आस-पास और समाज के लिए
पूजा की कोठरी सा/ छोटी सी गृहस्थी के कर्मकांड का ब्रह्मांड/ आत्मीयता के ऋण का स्वीकार है यह कविता। समूची सृष्टि के
जैसे झाड़ू लगाने से/ रात का बचा अँधेरा दूर होता/ और कालिख प्रति विनम्र साहचर्य का भाव कविता को बहुत बड़े फलक पर ले
लगे बर्तनों को मांजने में/ सूर्य उगते हुए उदित होता’। चौरासी जाता है। छोटी सी इस कविता में कहीं कोई बड़बोलापन नहीं है।
करोड़ देवी-देवताओं से निर्जन प्रदेश के एकांत में जहाँ कोई और बहुत शांत और स्थिर भाव के साथ कविता बिना कुछ ज्यादा कहे
देवी-देवता नहीं वहां, एक-दूसरे के भक्त ‘वे दोनों’, कालिख साफ़ अपने आस-पास के लिए, अपने से दूर दीखते पर अपनों के लिए,
होते बर्तनों में उगता हुआ सूर्य। । गृहस्थी के कर्मकांड का ब्रह्मांड। अपनी समूची दुनिया के लिए, अपनी मनुष्यता, अपनी धरती के

86 n जुलाई से सितंबर 2023 yegh


लिए समर्पित प्रेम भाव से भरी हुई। कविता पढ़ते हुए अपना समूचा लड़की को/ घने जंगल जाते हुए डर नहीं लगता/ पर महुआ ले कर
आस-पास कितना आत्मीय हो उठता है! अपने आस-पास के गीदम बाज़ार जाने से/ डर लगता है’। कविता में मुखरता और
बड़प्पन के अहसास के साथ बड़ी बात कि हमें छोटे होने का कोई वाचालता के फ़र्क़ को बड़े सलीक़े से यहाँ रेखांकित करते हुए देखा
अहसास नहीं कराती कविता। यद्यपि कवि बहुत बड़ी दुनिया में जा सकता है कि कवि की चिंताओं का विस्तार कहां तक है। दृष्टि
बड़ों की सरपरस्ती, उनकी छाँव का ऋण तो स्वीकार करता है। कितनी साफ़ है। जंगल में बाघ, शेर, सांप, भालू, लोमड़ लड़की
कविता पढ़ते हुए अपने आस-पास के लिए अपने ऋण भाव से हम को नहीं डराते। बाज़ार डराता है। बाज़ार पर इस तरह की तीखी
समृद्ध होते हैं कि वे हैं तो हम हैं। इसके साथ ही खेत-खलिहानों, टिप्पणी के साथ बाज़ार के चरित्र पर कवि की समझ और उसके
गाँव-गलियों में लगातार काम में लगे लोगों के लिए उनके प्रति पक्षधरता को यहाँ बहुत साफ़ ढंग से देखा और पहचाना जा सकता
कृतज्ञ भाव से अपने होने को, सबके होने से जोड़ कर अपनी है। कविता में जिस बाज़ार से डर है, वो बाज़ार हमारे सभ्य नागर
कविता को स्वाभाविक स्वीकार की सहज कविता की तरह वे हमारे समाज का धूर्त आविष्कार है। वो बाज़ार जो अपनी पूरी चालाकियों
सामने रखते हैं। कविता में यह ‘सहभाव’ का स्वीकार कविता को के साथ हमें घेरे हुए है वो दुनिया बहुत अलग है उस लड़की के
बड़ा बनाता है और कवि के रूप में विनोद कुमार शुक्ल को। हिंदी जीवन से। कविता में अपनी दुनिया से बिलकुल अलग दुनिया में
कविता में विनोद कुमार शुक्ल का महत्व रेखांकित करते हुए विष्णु प्रवेश करती लड़की का डर है। उसका डर बाज़ार की चालाकियाँ
खरे कहते हैं ‘स्मरण रहे कि विनोद कुमार शुक्ल शमशेर बहादुर हैं, जिनसे निपटना जंगल के सीधे-साधे आदिवासी के लिए कठिन
सिंह के साथ हिंदी के सबसे बड़े प्रयोगधर्मी कवि हैं।’ है। बाज़ार के लिए अजनबीयत और डर के भरोसे ही बाज़ार और
एक मध्यमवर्गीय जीवन के तमाम चित्र विनोद जी के यहाँ फलता-फूलता है। आदिवासियों की जीवनचर्या की सहजता के
मिलते हैं जिनमें वे छोटी-छोटी खुशियों की कविता बुनते हैं। इन्ही विरुद्ध उनके जीवन को आतंकित करता है। यहाँ कविता कम
छोटी-छोटी खुशियों से जीवन सुंदर और खुशनुमा बन उठता है। बोलती दिखती है पर उसके अर्थ-विस्तार का दायरा बहुत बड़ा
यहाँ सुख हैं, दुःख हैं, प्यार, विश्वास और उसका स्वीकार है पर बनता है। उनकी कविता के इसी गुण को जयप्रकाश 'यथार्थ के
यहीं जीवन का एक दूसरा पहलू, दुनिया का एक और सच जिसमें मितकथनों की भाषा’ या ‘मितबोला यथार्थ’ कहते हैं।
सब कुछ भला-भला सा नहीं है, दुनिया में कुछ लोगों की कुछ इसी तरह की, इसी भाव-बोध की एक और कविता में वे बहुत
चालाकियों और धूर्तताओं पर भी कवि की नज़र है। विसंगतियों तीखे और स्पष्ट ढंग से सामने आते हैं। उनकी कहन शैली का अमूर्त
पर, मनुष्य के संघर्षों पर न सिर्फ़ नज़र है, तीखी समझ और चेतन विधान, जो उनकी कलात्मकता के साथ हिंदी कविता में उनकी
टिप्पणी भी है। टिप्पणी मुखर है, उसमें चेतना है पर कोई उग्रता, पहचान बना, उस बिम्बात्मक और जादुई भाषा का संसार बुनने की
कोई आवेग नहीं है। उनकी एक बहुचर्चित छोटी कविता का बजाए यहाँ वे बहुत स्पष्ट और तीखे ढंग से कह उठते हैं- ‘जितने
उदाहरण लिया जा सकता है-‘न मैं कौआ हूँ/ न मेरी चोंच है-/ न सभ्य होते हैं/ उतने अस्वाभाविक। / आदिवासी जो स्वाभाविक हैं/
जाने किस नाक-नक्श का आदमी हूँ/ जो अपना हिस्सा छीन नहीं उन्हें हमारी तरह सभ्य होना है/ हमारी तरह अस्वाभाविक। / जंगल
पाता!’ शांत पर स्पष्ट ढंग से मनुष्य के ‘होने’ को चुनौती सी देती का चंद्रमा/ असभ्य चंद्रमा है/ इस बार पूर्णिमा के उजाले में/
यह कविता समता के लिए दिए जाने वाले कितने-कितने भाषणों आदिवासी खुले में इकट्ठे होने से/ डरे हुए हैं/ और पेड़ों के अँधेरे में
और नारों का निचोड़ है। चार लाइनों में हमारे सामने एक बड़ी दुबके/ विलाप कर रहे हैं/ क्योंकि एक हत्यारा शहर/ बिजली की
चुनौती रख कर शाइस्तगी से किनारे खड़ा हो जाता है कवि। रोशनी से/ जगमगाता हुआ/ सभ्यता के मंच पर बसा हुआ है’ नागर
कविता में कोई बड़ी घोषणा, कोई बड़बोलापन ही अगर बड़ी सभ्यता की अस्वाभाविकता पर, जंगल में पूर्णिमा के उजाले के
कविता की पहचान मानी जाती हो तो यह कविता उदाहरण है कि विरुद्ध बिजली की रोशनी से जगमगाती सभ्यता को यूँ बिलकुल
इनके बिना भी कविता मुकम्मल हो सकती है। छोटी सी कविता में आमने-सामने रख देने की शैली की कविताएँ विनोद जी के यहाँ
सीधी सी बात और बड़ी चुनौती। विक्षोभ और विडंबना को समझाने कम ही दिखाई देती हैं। भाव और पक्षधरता तो विनोद जी के यहाँ
के लिए कोई बड़ी दृश्य योजना नहीं, कोई बड़ी बिम्ब योजना नहीं, हमेशा ही बहुत स्पष्ट है पर इस किस्म की आर-पार वाली बात और
रोज की ज़िंदगी से लिया एक दृश्य, बड़ी संवेदना और अपनी बात इतना खुल कर बोलने की शैली की चुनिंदा कविताओं में से एक है
कहने का ख़ास लहजा और इस सबसे बनती एक मुकम्मल यह कविता। इस कविता को पढ़ते हुए ही यूँ ही अनायास, बाद के
कविता। इसी भाव-बोध की एक और ज़रूरी कविता जिसे विनोद दिनों में विकसित उनकी छोटी कविताओं की स्थापित शैली के
जी की ज़रूरी चिंताओं की तरह से पढ़ा जाना चाहिए। ‘एक अकेली विपरीत उनकी लम्बी कविता ‘लगभग जयहिंद’ याद आती है।

yegh जुलाई से सितंबर 2023 n 87


उनकी आरंभिक कविता ‘लगभग जयहिंद’ में जहाँ ‘रोबदार आदमी’ साफ़, सजग और सतर्क है। धर्म हमारे जीवन का एक ऐसा ही
‘दो सोने के दांतों की जम्भाई’ लेता है और ‘टिपरिया होटल’ में विषय क्षेत्र है जिसके असंतुलन और अति से समाज में तमाम-
‘तश्तरी-प्याले धोते हुए छोटे भाई’ और ‘ब्राह्मण पारा की गंभीर तमाम भेद, संघर्ष और अविवेक विकसित होते हैं। अविवेक और
मोटी दीवाल’ से सट कर जहाँ ‘मैं’ ‘खड़े-खड़े घसीटा गया’ और असमानता के बीच नशे की तरह जब हर दिमाग में तर्कातीत ईश्वर
जहाँ ‘थक कर नीचे बैठते ही दीवाल और ऊँची हो जाती थी’ जहाँ को बिठाया जाने लगा है तब ऐसी ही स्थिति और परिवेश पर एक
‘मेरे छोटे भाई की शक्ल मुझसे मिलती-जुलती थी, कार्बन कागज़ मुकम्मल टिप्पणी सी उनकी एक कविता है, ‘ईश्वर अब अधिक
से रोबदार आदमी का लड़का, हुबहू रोबदार आदमी हो’ जाता है। है’। आज हमारे चारों ओर आस्था और भक्ति के सड़क पर प्रदर्शन
यहाँ यह कार्बन कागज़ वो क्या चीज़ है जो रोबदार आदमी के बेटे की होड़ लगी हुई है। समाज में मनुष्य की गरिमा का मान लगातार
में रोब और मेरे भाई की शकल में मेरी नकल बन जाती है। ये कैसा गिरा है और हर कोई अपने-अपने अहम् और उसकी तुष्टि के लिए
कार्बन कागज़ है जो हमारे समाज में रोबदार को रोब मिलता है और किसी नाम से, किसी बहाने से धर्म-ध्वजा उठाये घूम रहा है। हर
बेचारे को विरासत में शक्ल पर टपकती हुई बेचारगी- ‘.. मेरी पूरी कोई एक ख़ास तरह के अतिवाद के आगोश में बेहोश है। आज हर
बांह की कमीज़ उस दीवाल पर फैली थी/ कमीज़ की दोनों कलाई किसी के पास अपने आस-पास से नफ़रत और नाराज़गी के
पर कीलें ठुकी थीं... मैं जिस कील में कपड़े टांगता था/ वह भविष्य अकाट्य तर्क और असमाप्त कारण हैं। विनोद जी बहुत पहले ही
नहीं था/निश्चय ही हमारा भविष्य नमस्कार हो गया था/ जाते वक्त इस नीम-बेहोशी के आलम को अपनी कविता में बेचैनी से दर्ज़ कर
जयहिंद था/ लगभग जयहिंद/ सरासर जयहिंद।’ पूरी कविता एक चुके हैं- ‘ईश्वर अब अधिक है/ सर्वत्र अधिक है/ निराकार साकार
क़स्बाई परिवेश के सामने ‘नागरिक’ होने की वो उलझन है जिसमें अधिक/ हरेक आदमी के पास बहुत अधिक है!/ बहुत बंटने के
उसका सारा जीवन खप रहा है। जीवन भर के लिए उस के पास बस बाद/ बचा हुआ अधिक है/.. इस अधिकता में/ मैं अपने खाली
एक ही नारा है जो हर मोड़ पर उस की हर समस्या के समाधान की झोले को/ और खाली करने के लिए/ भय से झटकारता हूँ/ जैसे
तरह सामने रख दिया जाता है। ‘लगभग जय हिंद’ विनोद जी की कुछ निराकार झर जाता है!’ वे कविता में बहुत हल्के तंज के स्वर
पहचान बनने वाली आरंभिक कविताओं में से एक है, बाद में कविता में अतिवादी प्रदर्शन और चिल्लाहट पर बहुत बारीक़ी से अपना मत,
में उनका मुहावरा कुछ बदलता भी है पर उनकी इस कविता को अपना पक्ष रखते हैं। इस कविता का सबसे ख़ूबसूरत पहलू है कि
पढ़ते हुए धूमिल और मुक्तिबोध का अनायास याद आ जाना बहुत बिना किसी का नाम लिए, वे बस अपने ‘ख़ाली झोले’ को ‘भय’ से
अस्वाभाविक नहीं। अपनी हताशा और गुस्से को भले ही वे धूमिल झटकारते हैं। अर्थ और पक्ष स्पष्ट है। झोला पहले ही ख़ाली है फिर
की आक्रोश की शैली और भाषा के क़रीब ले जाने से बचते हैं या भी इतने अधिक ईश्वर होने के माहौल का दबाव चारों ओर है और
मुक्तिबोध की लंबी कविताओं के अंदाज़ से अलग, अपने संसार को, कवि भय में हैं कि कहीं कुछ ‘ईश्वर’ उनके हिस्से भी न आ गया
सामाजिक-मानसिक यातनाओं को, मजबूरियों को अपने 'मितबोले हो। आज के माहौल में तो अब अपना झोला और अपना दिमाग़,
यथार्थ' की तरह सामने रखते हों पर उनकी इस कविता में अपनी अपने आप को इतने अधिक ईश्वर से बचा पाना और भी अधिक
पूर्ववर्ती काव्यधारा के साथ विकसित होती काव्य चेतना को पढ़ना चुनौती है। आह! अधिक भय का हमारा आक्रांत समय, जहाँ
कठिन नहीं। आदमी से ज़्यादा ईश्वर ने सारी जगह भर दी है और घेर ली है। इसी
विनोद जी की कविता की दुनिया में हर बड़े कवि की ही तरह जगह उनकी एक और कविता ‘अतिरिक्त नहीं’ याद आती है। जहाँ
अपने आस-पास के, अपने चारों ओर के विद्रूप की गहरी समझ वे ‘ईश्वर अब अधिक है' कविता में अपने आस-पास की दुनिया में
और उस पर विदग्ध टिप्पणियाँ मिलती हैं। इन कविताओं को यहाँ ‘अधिक’ ईश्वर के आतंक में हैं वहीं ‘अतिरिक्त नहीं’ में वे बहुत
सामने रखने का भी एक ख़ास मंतव्य है कि जब हम उनकी उन विनम्रता के साथ अपनी समूची सृष्टि में, हरेक के होने को स्वीकार
कविताओं की चर्चा करते हैं जिनमें सहजता है, प्रेम है, उदारता है, करते हैं। हर-एक के अस्तित्व के लिए बेहद विनम्र सहभाव उनकी
जीवन के तमाम छोटे-छोटे सुख हैं, ज़िंदगी की चमक है तो उसके कविता का मूल स्वर है। अपने आस-पास के लिए, समूची सृष्टि
साथ ही एक नज़र अपनी दुनिया की उन तमाम विसंगतियों, के लिए पूरी ज़िम्मेदारी से, सचेत ढंग से अपने आस-पास के लिए
मूढ़ताओं, जीवन के संघर्षों और विभीषिकाओं पर भी है। उनकी ऋण भाव उनकी कविताओं में रह-रह कर आता है। उनका यह
कविताओं में कुछ प्रत्यक्ष और कुछ अप्रत्यक्ष ढंग से ऐसी कविताओं बड़प्पन कविता में उन्हें और बड़ा बनाता है जब वे लिखते हैं-
की बड़ी संख्या है जो जीवन की विषमता और विसंगतियों की ‘कितना बहुत है/ परन्तु अतिरिक्त एक भी नहीं/ एक पेड़ में भी
कविताएँ है। बेशक वे ‘लाउड’ नहीं होते पर उनका नज़रिया बहुत कितनी सारी पत्तियाँ/ अतिरिक्त एक पत्ती नहीं/ एक कोंपल भी नहीं

88 n जुलाई से सितंबर 2023 yegh


अतिरिक्त’। इन दो अलग-अलग भाव स्थितियों की कविताओं में उठता है। उनकी कविता, जैसा कि नरेश सक्सेना एक स्थान पर
उनके भीतर की वैचारिक स्पष्टता और विनम्रता को एक साथ यहाँ कहते हैं ‘ विनोद कुमार जी की कविता शब्दों को ध्वजा की तरह
उनके काव्य औदात्य के उदाहरण की तरह देखा जा सकता है। फहराने वाली कविता नहीं है।’ पर पाठकीय चेतना में भीतर तक
शायद बहुत चर्चित नहीं पर उनकी एक और मूल्यवान कविता धंस जाने वाली ज़रूर है।
है जिसकी चर्चा और उसे सबसे बांटने का लोभ होता है, मुझे यह उनकी कविताओं में, उनकी संवेदना और काव्य सौन्दर्य के केंद्र
कविता अपनी दुनिया में भागमभाग विकास की अधकचरी में मनुष्य है, मनुष्य के चारों ओर प्रकृति है। मनुष्य के सपने हैं।
अवधारणा और पीढ़ियों के अंतर को समझने का सूत्र लगती है। वे इच्छाएँ हैं, भावनाएँ हैं। प्रार्थनाएँ हैं। सबसे कोमल कोमलताएँ हैं।
गाँव से शहर की ओर को पलायन करते हुए एक समूह के पीछे कुछ जुनून भी हैं, पृथ्वी को पृथ्वी और मनुष्य को मनुष्य बचाए
गाँव में पीछे छूटी एक पीढ़ी के प्रतीक जैसे बन कर कविता में आते रखने का जुनून। ज़िद है, बच्चे को बच्चे की तरह और चिड़िया को
गाँव के ‘कुएँ’ के बहाने एक पीढ़ी की असहायता और हताशा को, चिड़िया की तरह बचाने की। मनुष्य में उनका विश्वास, उसे जान
उसके विक्षोभ को दर्ज़ करते हैं- ‘सूखा कुआँ तो मृत है’। इसे अपने कर दुनिया भर को जान लेने का भरोसा बहुत विरल है। उनकी
आस-पास के लिए उनकी संवेदना की प्रतिनिधि कविता की तरह कविताएँ मनुष्य और मनुष्यता में उनके भरोसे का वक्तव्य हैं।
पढ़ा जा सकता है ‘बहुत मरा हुआ/ कि आत्महत्या करता है/ नामहीन, संज्ञावाची ‘मनुष्य’ उनकी कविता का नायक है, अपने
अपनी टूटती मुंडेर से/ अपनी गहराई भरता हुआ..’ किसी भी मनुष्य होने की सुन्दरता में, लाचारी और विवशता में, चालाक
नागरिक उलझन की मुखर कविता के समानांतर भाव वहन करने समय के पहिये के साथ उलझते हुए। यथार्थ उनकी कविता के मूल
वाली अर्थ संघनित पंक्तियाँ। उजड़े हुए गाँव के बाद आख़िरी में है भले पहली तह पर वो आपको सहजता से दिखे या न दिखे।
उम्मीद की तरह ठहरा हुआ कुआँ। कुएँ को वहीं छोड़ कर आगे मनुष्य जीवन के यथार्थ को वे अपने शिल्प और शैली की ऊपरी
बढ़ गया गाँव। कहीं शहर में जा बसा गाँव। ज़मीन में गड़ा कुआँ सतह से नीचे सहेज कर रखते हैं। अशोक वाजपेयी उनके यहाँ
कहीं नहीं जा सकता तो अपने ही पत्थरों से, अपने अतीत से, यथार्थ की अवधारणा को समझाते हुए कहते हैं- ‘विनोद कुमार
अपनी स्मृतियों से भरता हुआ, आत्महत्या करता हुआ कुआँ। पहले शुक्ल की कविता अब उसकी बनी-बनाई और आज की कविता में
जिसके होने से गाँव होता होगा, अब अकेले-अँधेरे में आत्महत्या चालू अवधारणाओं से समझ आने वाली नहीं है। उसकी विडंबना
करता है वही कुआँ। इसके बाद भी कवि अपनी दुनिया के लिए अधिक गहरी और कठिन है-उसने अब वाक्य विन्यास भंग करने
उम्मीद से भरा हुआ है। बहुत शांत और स्थिर भाव के साथ अपनी वाली युक्ति ही तज दी है। वह निरलंकार है, पर उसकी त्वचा की
दुनिया पर अपना भरोसा लिखता है-‘दुनिया में अच्छे लोगों की कई तहें हैं- उसकी प्रगट आभा के नीचे एक और दीप्ति है। विनोद
कमी नहीं है/ कह कर अपने घर से मैं चला/...जगह-जगह मैंने कुमार शुक्ल की कविता के अतिरिक्त आज हमें और कौन जताता
यही कहा/ और यहाँ कहता हूँ/ कि दुनिया में अच्छे लोगों की कोई है कि जहाँ हम रहते हैं वहीं तिलिस्म है।’ विनोद जी को शुरू से
कमी नहीं है… बार-बार यही कह रहा हूँ/ लौट कर मैं घर नहीं/ घर- आखीर तक पढ़ जाइए, उनकी कविताओं को, उपन्यासों को।
घर पहुँचना चाहता हूँ’ इस भाव के साथ विनोद कुमार शुक्ल को ज़िंदगी के कसैलेपन के विरुद्ध उम्मीद से भरे हुए हैं विनोद जी।
देखिये, उनकी बड़ी कविता को देखिये। उनकी उम्मीद को देखिये एक बातचीत के दौरान वे ख़ुद कहते भी यही हैं- “ज़िन्दगी में बहुत
कि वे ‘घर’ नहीं, ‘घर-घर’ पहुँचना चाहते हैं। उनकी कविताओं अँधेरा है पर फिर भी अगर कहीं ढिबरी का बारीक सा उजाला भी
में ऐसी ही बहुत सी सहज और आत्मीय चिंताएँ हैं जो अगर आप है तो क्यों न उस उजाले की बात की जाए, ज़िंदगी में उम्मीद की
को सतह पर न भी दिखें तो आपको सतह के नीचे उतरना होगा। बात की जाए’। मुझे लगता है अगर उनकी कविताओं को कुछ
शाइस्तगी से। अगर आप ने डुबकी थोड़ी हड़बड़ी में लगाई तो बेहद सीमित शब्दों में समेटना हो तो जो दो-चार शब्द अंजुरि में
कविता की संवेदना सतर्क और चपल मछली की तरह बिछल छन कर शंख और सीपी की तरह बच जाएँगे, उनमें प्रेम, करुणा,
जायेगी और आपको पता भी नहीं चलेगा। विनोद जी की कविता के प्रतिरोध और उम्मीद जैसे शब्द ज़रूर होंगे। प्रेम के औदात्य और
पास जाने के लिए, उसमें डूबने के लिए, उसके साथ बहने के लिए ज़िंदगी के लिए उम्मीद से मिलकर जो बनता है वो विनोद कुमार
बड़ा समर्पण और धैर्य चाहिए। उनकी कविता को पास से पकड़ने शुक्ल की कविता है। n
के लिए, क़रीब से महसूस करने के लिए बड़ी पाठकीय युक्ति की संपर्क : सहायक क्षेत्रीय निदेशक
ज़रूरत होती है। वे बोलते कम हैं और उनकी कविताएँ भी उनकी इग्नू-क्षेत्रीय केंद्र जबलपुर
ही तरह कम बोलती हैं पर उनका अर्थ संभार बहुत विस्तृत बन मो. 9425158899

yegh जुलाई से सितंबर 2023 n 89


n अविराम : मलय

सघन बीहड़ता के कवि


असंगघोष
मलय हमारे समय के महत्वपूर्ण और विरल कवि हैं। प्रगतिशील दिशागामी प्रभाव से युक्त उद्देश्यों में
उन्हें कविता एवं साहित्य की अन्य विधाओं में रचना अभि‍व्यक्ति‍ को आंतरिक संसार की संवेदनात्मक
कर्म करते हुए सात दशक से अधिक समय हो चुका संकल्पनाओं में उभरे मनोभावों को अपनी रचना में
है। यह भी उन्होंने तक़लीफदेह और असहाय-सी लाकर उसे सार्थक करते हुए भी अपनी इस रचनात्मकता
परिस्थितियों में प्रारंभ किया। अपने जीवन में ही नहीं प्रक्रिया में समकालीन बने रहे। वास्तव में कवि का
बल्कि अपनी कविताओं में भी वो सरल स्वभाव, ज्यादा जीवन संघर्ष उनकी जीवन की एक सच्चाई है और यही
आत्मीय और निश्चल रहे हैं। यही उनकी कविता और उनका रचना संघर्ष है जिसे उनके भीतर-बाहर का
कवि-व्यक्तित्व की विश्वसनीयता है। आलोचकों द्वारा उन्हें रचना संघर्ष कहा जाना चाहिए जो उनकी रचनाशीलता में
मुक्तिबोध की परंपरा का लेखक माना जाता रहा है, जबकि उनकी स्वाभाविक रूप से क्रमबद्ध होकर चला आता है। दरअसल कवि
कविता की अपनी अलग ही नई शैली है जिससे उनका लेखन का विज़न ही उसे अपने समय की सारी चीज़ों को बिना किसी
अलग से पहचाना जाता है। उनके हर संग्रह में कविताओं की भाषा बाहरी दबाव के एक प्रवाह के साथ रास्ता बनाते हुए इन सारी
एवं शिल्प अलग है। उनकी कविताएँ अपनी पहचान के साथ चीज़ों को जोड़ता हुआ कविता में ढालता जाता है, हमें यही सब
अपना अलग ही रास्ता तय करती हैं। एक ऐसा रास्ता जो सीधा घटित होता हुआ इनकी कविताओं की रचना प्रक्रिया में व्याप्त
नहीं है, अनगढ़ उतार-चढ़ाव से भरा हुआ और थोड़ा लंबा है। गहरी संवेदनाओं की अभिव्यक्ति के साथ गुज़रता हुआ दिखाई देता
उनकी प्रारंभिक कविताएँ छंदबद्ध हैं। उन्होंने गीत भी लिखे। अब है जो अपने संप्रेषण में पाठक के मन में घर बनाने में सक्षम है।
भी उनकी कई कविताएँ अप्रकाशित हैं जिन्हें हम रचनावली में भी मलय की कविताओं में छोटे गाँव/ कस्बों,शहरों और किसान/
शामिल नहीं कर पाए हैं। मेहनतकश समाज के दैनंदिन जीवन के गम्भीर किन्तु संवेदनशील
उनकी कविता में हिन्दुस्तानी निम्न मध्यवर्ग की आत्मकथा के जीवन दृश्य मौज़ूद हैं और इसका कारण उनकी जड़े अपने ग्रामीण
टुकड़े बिखरे हैं। वे श्रीकांत वर्मा को दोहराते हुए कहते भी हैं कि जीवन में जमीं होना है, इसी कारण प्रकृति-नदी, पहाड़, जंगल,खेत
मैं निम्नमध्यवर्ग का कवि हूँ। मलय ग्रामीण पृष्ठभूमि से आते हैं। आदि बार-बार मलय की कविताओं में आते हैं जिनके माध्यम से
उनकी कविता में ग्रामीण जीवन के बिम्ब और विवरण है लेकिन वे इन्हें प्रतीक बनाकर मनुष्य के चारित्रिक रंगों को अपने पाठकों
कविताएँ ग्राम्य जीवन जैसी सरल भी नहीं है जबकि मुक्तिबोध की के समक्ष लाने में पूरी तरह सफल हुए हैं। हॉं, यह अवश्य है कि
कविता मध्यवर्ग के साथ होकर चलती है। उन्हें मुक्तिबोध एवं श्री इन प्रतीकों का सहारा लेकर भी वे उनके सौन्दर्य से प्रभावित होते
परसाई के सान्निध्य में रहने का अवसर मिला है अत: इन दोनों से हुए दिखाई नहीं देते वरन् उनमें व्याप्त बीहड़ता, सघनता और पसरे
वे व्यक्तिश: प्रभावित अवश्य ही रहे हैं, उन्होंने इन दोनों के लेखन सन्नाटों के भीतर तक धँस कर कुछ नया ही खोजते हैं। अपनी
को आत्मसात भी किया है लेकिन इन दोनों से प्रभावित होने के कविताओं में वे पूंजीवादी बाज़ार-संस्कृति की चपेट में कतई नहीं
बावज़ूद मैं उनके लेखन को मुक्तिबोध से अलग ही पाता हूँ। वे आते बल्कि इस पूंजीवादी बाज़ार संस्कृति के पैदा किए हुए तमाम

90 n जुलाई से सितंबर 2023 yegh


प्रपंचों, हथकंडों और उससे उत्पन्न हो रहे लाभ-लोभ की चमकीली प्रकृति, उसका परिवेश, परिस्थितियों से संघर्ष आदि समाहित हुआ
व्यवस्थाओं को जो कि एक आम मनुष्य को उसकी मानवीयता से है। इनमें उनका अपने जीवन में फैले अँधेरों से संघर्ष कर पाए हुए
अमानवीयता की ओर बरबस खींचकर ले जाती हैं, कवि इनकी उजाले में अपना रास्ता तलाश कर उस पर अपनी वैचारिकी के
बुराईयों की स्पष्ट पहचान कर हर संभव सावधानी बरतते हुए साथ चलते हुए दिखता है, इसी तरह उनकी कविता अपने
उसमें बह जाने से, ख़ुद को बचा कर अपनी ग्रामीण एवं निम्न विषयवस्तु की दृष्टि से उस पर हलराती हुई चलती है, इन लम्बी
मध्यमवर्गीय सामाजिक जड़ों से सतत एवं गहरे जुड़े रहक़र जिसे कविताओं की यह विशेषता है कि इनमें एक आख्यान में से दूसरा
ख़ुद कवि मलय रचनात्मकता के लिए पर्याप्त होना नहीं मानते हैं, और दूसरे में से तीसरा निकलता है और कहीं-कहीं चौथा भी
वे बाज़ार संस्कृति की विरूपताओं से टकराहट लेने की क्षमता भी अनायास ही चला आता है और अपने प्रवाह में आगे जाकर सभी
उत्पन्न करना आवश्यक समझते है और इसी समझ से अपना आख्यान के सूत्र कविता में वे इस तरह गूंथते है कि सारे सूत्र फिर
अलग रास्ता बनाते हुए लम्बे समय से कविता सृजन कर्म करते रहे आपस में जुड़ जाते हैं और यह अनायास नहीं होता है एक लय,
हैं। उनकी कविताओं में ऐसी विरूपताओं से निपटने का स्वयं भले प्रवाह, आवेग और तन्मयता के साथ यह होते हुए चलता है इसमें
ही कोई औज़ार न दिखायी देता हो लेकिन उनकी कविताएँ इस कोई तयशुदा क्रम नहीं है। उनकी कविता फैंटसी में प्रवेश कर
बाज़ार संस्कृति की अपने परिवेश में उपस्थित जटिलताओं को उससे बाहर निकलना भी बख़ूबी जानती है, वह अपनी संवेदना की
अपने पूरे सामर्थ्य से परिचित कराते हुए उससे निपटने की चेतना अभिव्यक्ति में किसी भूल-भूलैया का शिकार नहीं होती। लंबी
तो उत्पन्न करती ही है। बाज़ारवाद के प्रभाव में, बाज़ार की हड़बड़ी कविता लिखते समय इस कवि की संवेदनाओं के बीच उसकी
उनकी कविताओं में नहीं आती। यह शायद उनके अर्बन बोध के अपनी आंतरिक चेतना भी अपनी क्षमता की परिधि में आकर कवि
कारण भी हुआ होगा, हां यह बात ज़रूर है कि इनकी रचनाओं में के कथन अथवा यो कहूँ उसके कहन का महत्वपूर्ण काम पूरा
ग्रामीण और अर्बन बोध का विरोधाभास दिखाई नहीं देता। इनकी करती है, यह भी कवि‍ के जीवन संघर्ष के कारण ही संभव हुआ
रचनाधर्मिता समकालीन राजनीतिक स्थितियों से अवश्य ही है। यह कविताएँ अपनी बढ़ती प्रतिबद्धता के साथ अपनी काव्य
प्रभावित हुई है और उन्होंने इनसे गुज़रते हुए अपनी कविता में इन भाषा, काव्य के रूप और अपने रचनात्मक व्यवहार में मुक्तिबोध
घटनाओं के विरुद्ध लिखा भी है, ये राजनीतिक कविताएँ से बहुत अन्तर रखती हैं और विकसित होते रूपों में पहचान और
संवेदनात्मक जिम्मेदारियों को निभाते हुए रची गई हैं। गतिशीलता के निजी स्वभाव और आचरण में भी अपनी पहचान
मलय अपनी वैचारिकी के प्रति सदैव निष्ठावान रहे हैं, वे अपने बनाती हैं। फैंटेसी के मामले में उन्होंने अपनी कविताओं में
पथ से कभी विचलित अथवा विपथित नहीं हुए, यह उनकी मुक्तिबोध जैसी फैंटेसी को अपनाया ज़रूर है फिर भी उनकी
वैचारिक लड़ाई की शक्ति का ‘प्रकाश’ ही है जिसे कोई कैद नहीं कविता अपने मौलिक आधार पर उनकी अपनी ही अर्जित भाषा में
कर सकता। उनकी कविताओं में दलितों या स्त्री जीवन की आकर विकसित हुई है, इन कविताओं में अपनी प्रतिबद्धता और
उपस्थिति उतनी प्रखर नहीं है किन्तु उनकी निम्न मध्यमवर्गीय संवेदना के साथ मलय को अपने हर संग्रह में शामिल कविताओं
चेतना से उपजी कई कविताएँ शोषण और सामाजिक अन्याय के की बदलती भाषा में भी देखा और परखा जा सकता है। नि:संदेह
प्रतिरोध में एक जि‍जीविषा के साथ हर जगह मुस्तैदी के साथ ऐसी फैंटेसी की कविता लिखना कवि का चयन कभी नहीं हो
मौज़ूद रहती हैं और यह प्रतिरोध की उनकी अभिव्यक्ति भी सकता भले ही शैली और भाषा अलग हो ल‍ेकिन यह अपने
स्वाभाविक तौर से आयी है इसमे कोई बनावटीपन नहीं है बल्कि समकालीन कवियों का स्वाभाविक प्रभाव कविताओं में होना तो
इसमें कवि की अपनी वैचारिकी के साथ उपजी बेहद संवेदनशीलता दर्शाता ही है, इससे कैसे इनकार किया जा सकता है। लंबी
ही परिलक्षित होती है जो उनके हर समय में मौज़ूद है। परसाई से कविताओं से इतर अन्य कविताएँ अपनी संलिष्टता अथवा अंर्तवस्तु
प्रभावित होने और व्यंग्य का सौंदर्यशास्त्र जैसी महत्वपूर्ण पुस्तक की व्यापकता में इन लंबी कविताओं से किसी तरह कम नहीं है
लिखने के बावज़ूद उनकी कविता में व्यंग्य की वैसी धार दिखाई इनमें भी एक संघर्षरत आदमी का जीवन संघर्ष परिलक्षित होता है।
नहीं देती। मुक्तिबोध की कविता से जो मलय का रिश्ता है वह निरन्तरता
अन्य समकालीन कवियों एवं मुक्तिबोध की भांति उन्होंने लंबी और परिवर्तन जैसे तत्वों के द्वंद्वों से निर्मित होता दिखता है। मलय
कविताएँ रची हैं लेकिन उनकी लंबी कविताओं की अन्तर्वस्तु, की कविताओं पर कभी मुक्तिबोध ने टिप्पणी की थी– “चक्करदार
उसका स्वभाव, आन्तरिक प्रसंगों सहित उनका मनोभावी रूप भी गलियों में चलने वाले... श्रेष्ठ संभावनाओं की द्योतक है किन्तु
भिन्न है जो उनकी रचनात्मकता का आधार है, इनमें मनुष्य की शिल्प असावधान है।” शायद इस पत्र के बाद से ही कवि ने लंबी

yegh जुलाई से सितंबर 2023 n 91


अधिकाधिक समय को समेट लेना चाहती है जिसमें कवि की निजी
अपने जीवन और कविता की रचनाधर्मिता स्मृतियाँ और उनके वर्तमान समय का द्वंद्व स्पष्ट परिलक्षित होता
में कवि ने अपने सिद्धांतो एवं विचारधारा के
है। कविताएँ लगभग सहज तरीके और बेहद स्पष्टवादिता से अपना
साथ कभी कोई समझौता नहीं किया बल्कि
इस कारण अपनी बेपनाह उपेक्षा तक झेली एक नया शिल्प, कहन का नया तरीका विकसित करती हैं। वे
है। यहाँ तक हुआ कि मुक्तिबोध द्वारा उनको अपनी कविताई में अपने समय और रचना के हिसाब से बेहद
लिखे पत्र का मुक्तिबोध रचनावली में शामिल महत्वपूर्ण एवं सघन बीहड़ता के कवि हैं–
करते समय असावधानी से ‘आज की कविता’ दौड़ती हुई सड़क
को ‘आप की कविता’ छाप दिया गया जिसने नदी में गिर पड़ी;
जिसने उस पत्र की भावनाओं को ही पूरी डूब गई
तरह बदल दिया इस पर क्या ही कहा जाए, किन्तु गति-
हालाँकि रचनावली के बाद के संस्करण में उसे (जिसने उसे
दूर किया गया। इस किनारे से ढकेला था
उस किनारे खड़ी थी)
कविताएँ लिखना सीखा और अपने कवि को विकसित किया हो। नदी में उतरी
देखा जाए तो कवि इन लंबी कविताओं में तीव्र आवेग को समग्रता और-
एवं अलग-अलग डाईमेंशन के साथ गहन ऐंद्रिक संवेदना में उतार झुकी कमर सड़क को
पाने में सफल हैं। मलय की इन कविताओं की अंतर्धारा सहज और अँगुली पकड़ाकर
सरल है जो किसी दृष्टिकोण से मुक्तिबोध की शैली और भाषा से ले गई उस पार।
मेल नहीं खाती। समकालीन नामचीन आलोचकों ने किस कारण कविता को पाने के लिए कवि की निरन्तरता या निरन्तर
के चलते इनके लिखे, इनकी कविताओं पर ज्यादा बात नहीं की? सक्रियता, इससे उपजे परिवर्तन का सवाल हर एक कवि के लिए
यह तथ्य विचारणीय है। अपने जीवन और कविता की रचनाधर्मिता महत्वपूर्ण और जायज़ रहता है। मलय का कवि भी अपनी सक्रियता
में कवि ने अपने सिद्धांतों एवं विचारधारा के साथ कभी कोई में निरन्तर अपनी जिम्मेदारियों के साथ कविता को पाने के इसी
समझौता नहीं किया बल्कि इस कारण अपनी बेपनाह उपेक्षा तक द्वन्द्व से गुज़रकर चलता है। मलय ने कविता में अपने ही परिवेश,
झेली है। यहाँ तक हुआ कि मुक्तिबोध द्वारा उनको लिखे पत्र का आधारभूमि, अपने आत्मताप से स्वयं की सामाजिक-सांस्कृतिक
मुक्तिबोध रचनावली में शामिल करते समय असावधानी से ‘आज दिशा अर्जित की है जिसके कारण वे अपने रचना कर्म में अपने
की कविता’ को ‘आप की कविता’ छाप दिया गया जिसने उस पत्र समकालीन कवियों में सभी अपनी कविता की संरचना में बिलकुल
की भावनाओं को ही पूरी तरह बदल दिया इस पर क्या ही कहा अलग तरह से उपस्थित हैं और एक दूसरे से प्रभावित नहीं है।
जाए, हालाँकि रचनावली के बाद के संस्करण में उसे दूर किया उनकी कविता वस्तु अपनी अन्तर्निहित गतिशीलता को स्वाभाविकता
गया लेकिन मलय की कविता के मूल्यांकन पर जो नुक़सान होना के साथ खोज लेती है और अपनी रचना प्रक्रिया में साथ-साथ
था वह हो ही चुका था। संकल्पशीलता, प्रवाहशीलता एकमेव होकर अपनी दिशा तय
मलय विज्ञान के विद्यार्थी कभी नहीं रहे लेकिन उनकी विज्ञान करती है, यह गतिशीलता ही उनकी कविता की एक बड़ी पहचान
के प्रति रुचि ही उनकी कविताओं में वैज्ञानिक दृष्टि का विकास है। वे समय के साथ बदलते हुए जीवन के यथार्थ की अभिव्यक्ति
करती हैं और सन 2012 मे लिखी एक कविता “सोचता है उसे भी अपने विज़न के साथ अपनी कविताओं में करते है यदि वे ऐसा
दिखता है” जो मेरा मानना है मनुष्य की वैज्ञानिक जय-यात्रा का नहीं करते तो शायद पिछड़ गए होते इसलिए उनकी कविता में
विशद् वर्णन ही है। ऐसी कविताओं की रचना भी कवि की सतत अभिव्यक्त संवेदनाएँ, सत्ता, छल, समाज संस्कृति के दबाव से
अध्ययनशीलता का ही परिचायक है कि वह विषयवस्तु को पूरी मुक्त रहक़र बदलते हुए समय की गति के साथ निरंतर मुठभेड़
तरह समझकर उसके यथार्थ के साथ कविता में रचनात्मक रूप में करती हुई दिखाई देती है। n
प्रस्तुत करता है। संपर्क : जबलपुर, मध्यप्रदेश
मलय की कविताओं को पढ़ते समय यह महसूस होता है कि मो. 8224082240
इनमें गहरी बेचैनी और आत्मीयता है। एक ऐसी कविता जो ख़ुद में

92 n जुलाई से सितंबर 2023 yegh


n अविराम : नरेश सक्सेना

कविता की भौतिकी, गणित और पर्यावरण


संतोष अर्श
नरेश सक्सेना ने कविता कम रची। लेकिन जितनी रची लेकिन उसमें कुछ लोहा भी है
है उसमें काव्य की जो आभा है वह उनकी कविता का जो बच रहेगा...
पाठ करते समय ज्यामितीय अनुपात में बढ़ती जाती ...दुनिया के नमक और लोहे में हमारा भी हिस्सा
है और बढ़ जाता है कविता पर भरोसा। साहित्य जिस है
समय उपेक्षा और वैश्वीकरण से उपजे निरादर से जूझ तो फिर दुनिया भर में बहते हुए ख़ून और पसीने में
रहा है उस समय यह कविता आशा का दामन थामे हमारा भी हिस्सा होना चाहिए
रखने की बात कानों में खुसफुसाती है। ये तरल और
सरल कविताएँ संवेदनात्मक झनझनाहट पैदा करती हैं। ये उस उनके दोनों कविता संग्रहों, ‘समुद्र पर हो रही है बारिश’(2001)
जनसंस्कृति का आईना हैं जिसमें मनुष्यता की जीत की पूरी-पूरी और ‘सुनो चारुशीला’(2012) की कविताएँ वैज्ञानिक दृष्टिकोण
संभावनाओं के साथ इस दुनिया की सलामती की प्रार्थना है। इसमें से ओत-प्रोत हैं। इसके पीछे उनका अभियाँत्रिकी का पेशा रहा
संदेह नहीं कि अपने सौंदर्यबोध और अनुभूतियों के स्तर पर नरेश हो सकता है। उनकी कविताओं में बोली की लय है। पानी, पेड़,
सक्सेना जन के निकट हैं। पुल, ईंट, पत्ते, बालू, मिट्टी, गिट्टी वाली इन कविताओं में नरेश
उनकी कविता में मानवीयता को बचाने की जो चिंता है वह सक्सेना की वैज्ञानिक दृष्टि का लिरिकल विस्तार है। और साथ में
कविता की प्रत्येक पंक्ति, प्रत्येक शब्द में इस तरह व्याप्त है कि है गणित। ऐसी गणित जो चीज़ों को लय में सजाने के लिए काम
जन-आस्था मानवीयता में सहृदय की प्रतिबद्धता को और भी प्रगाढ़ आती है। जिससे बनते हैं लघुमानव के घरौंदे और जीवनयापन
कर देती है। प्राकृतिक प्रतीकों के माध्यम से उन्होंने मनुष्य की की आधारभूत संरचना। गैलीलियो को यह कुदरत एक पुस्तक की
जीवनधारा के बिम्ब सिरजे हैं। उनके यहाँ वस्तुएँ भी मनुष्य जैसा भाँति नज़र आती थी। और वह महान वैज्ञानिक कहा करता था
व्यवहार करती हैं। ईंट, गारा, सरिया, सीमेंट, पुल, गिट्टी, मज़दूर कि यह प्रकृति एक पुस्तक है जो गणित की भाषा में लिखी हुई है।
उनकी कविता के सहचर हैं। उनकी कविताओं में निर्जीव वस्तुओं नरेश सक्सेना की कविताओं में वही गणित की सी लय है। नपी-
में भी प्राण हैं। यह जो वस्तुओं के प्रति कवि की सूक्ष्म दृष्टि है, यह तुली पंक्तियाँ, क़रीने से सजी हुईं, मितव्ययी, किफ़ायती कविताई:
उसका सौंदर्यबोध भी है और जनोन्मुख चेतना भी है,क्योंकि वस्तुएँ ओ गिट्टी-लदे ट्रक पर सोये हुए आदमी
मनुष्य से उसी प्रकार जुड़ी हुई हैं जिस प्रकार उसका जीवन। पाठ तुम नींद में हो या बेहोशी में
‘हिस्सा’ कविता से शुरू करते हैं- गिट्टी-लदा ट्रक और तलवों पर पिघलता हुआ कोलतार
बह रहे पसीने में जो पानी है वह सूख जायेगा ऐसे में क्या नींद आती है?
लेकिन उसमें कुछ नमक भी है दिन भर तुमने गिट्टियाँ नहीं अपनी हड्डियाँ तोड़ी हैं
जो बच रहेगा और हिसाब गिट्टियों का भी नहीं पाया
टपक रहे ख़ून में जो पानी है वह सूख जायेगा हिसाब गणित का पुराना नाम और हिसाब-क़िताब है। मज़दूर

yegh जुलाई से सितंबर 2023 n 93


का हिसाब-किताब करने के लिए पत्थर तोड़ कर बनाई गयी गिट्टियों प्रतिस्पर्धा रही है। जनवाद मानवता को बचाने की एक मुहिम भी
को गिनना पड़ेगा। मज़दूर सारी मेहनत अपनी हड्डियों या अपने है। जन के साथ उसका पर्यावरण भी है। पूरी पृथ्वी ही जन की है।
शारीरिक श्रम से ही करता है। उसके श्रम के बदले में उसे गिट्टियों प्रकृति और पर्यावरण नरेश सक्सेना की प्रत्येक कविता में किसी
के बराबर पारिश्रमिक भी नहीं मिलता है। यहाँ भाषा के मुहावरे न किसी रूप में मौज़ूद है। किसी प्राकृतिक बिम्ब के बिना उनकी
(हाँड़ तोड़) का विशिष्ट प्रयोग है। किंतु शारीरिक श्रम करने वाले कविता मुश्किल से ही पूरी हो पाती है। पारिस्थितिकीय-चिंतन के
मज़दूर की नींद की चिंता कवि की जनवादी चेतना का ही परिष्कृत क्रम में ‘नक्शे’ कविता की कुछ पंक्तियाँ देखते हैं- नक्शे में जंगल
संवेदनात्मक, कवित्वमय रूप है। यह मानववादी दृष्टिकोण हैं पेड़ नहीं/ नक्शे में नदियाँ हैं पानी नहीं/नक्शे में पहाड़ हैं पत्थर
वैज्ञानिक भौतिकवाद से संपृक्त है। कविताओं में काँक्रीट, पुल, नहीं/नक्शे में देश हैं लोग नहीं/समझ ही गए होंगे आप कि हम
ईंट, सीमेंट, गारा, सरिया, बालू आदि के आने के पार्श्व में एक तथ्य सब/एक नक्शे में रहते हैं...
यह भी छुपा है कि यह सभी वस्तुएँ मनुष्य की बुनियादी भौतिक ‘नक्शे’ (कुछ) लंबी कविता है और इसमें इक्कीसवीं सदी
आवश्यकताओं से जुड़ी हुई हैं। रोटी-कपड़ा-छत मनुष्य की अगुआ का भयावह सच मुखर हुआ है। विश्व की प्रतिस्पर्धी शक्तियों पर
ज़रूरतें हैं, इसलिए इस ज़रूरत के आधार पर वह इन सभी वस्तुओं कटाक्ष करती इस कविता की शुरुआती पंक्तियों से निर्मित बिम्ब
से गहरे जुड़ा हुआ है। इन्हीं वस्तुओं के क्रम में ‘ईंट’ कविता का ही पर्यावरण की फ़िक्र के साथ आया है। केवल दो पंक्तियाँ-
उल्लेख करना विषयानुकूल होगा- घर एक ईंटों भरी अवधारणा है/ ‘नक्शे में जंगल हैं पेड़ नहीं, नक्शे में नदियाँ हैं पानी नहीं’ इस
जी बिलकुल ठीक सुना आपने/ मकान नहीं घर...ईंटों के चट्टे की भूमंडलीकृत नव-साम्राज्यवादी समय का कुरूप और सड़ांध भरा
छाया में/ तीन ईंटें थीं एक मज़दूरनी का चूल्हा/दो उसके बच्चे की चेहरा खींच कर उभार देती हैं। नरेश सक्सेना की कविताओं में
खुड्डी बनी थीं/एक उसके थके हुए सिर के नीचे लगी थी... प्रतिबद्ध पारिस्थितिकीय संवेदना को देखते हुए उन्हें हरित कवि
जिन मसलों को उठाने की सबसे अधिक आवश्यकता इन दिनों (Eco-Poet) की उपाधि दी जा सकती है। इस इकोलॉजिकल
की कविता को रही उनमें पर्यावरण अवनयन प्रमुख है। एक सच्चे संवेदन में एक विश्व-दृष्टि भी है। यानी कवि सम्पूर्ण पृथ्वी के लिए
कवि या मनुष्य को सबसे पहले अवनयित, प्रदूषित पर्यावरण से चिंतित है। यह बात दोनों संग्रहों में है। इनमें स्पष्ट पर्यावरणबोध
आतंकित होना चाहिए। विशेष कर तब जब वह स्वयं उसे न नष्ट की कविताएँ हैं। ‘समुद्र पर हो रही है बारिश’ संग्रह में ‘एक वृक्ष
कर रहा हो। पूँजी के स्वामित्व वाले अंध-विकासवाद ने प्रकृति भी बचा रहे’, ‘उसे ले गए’ कविताएँ वृक्षों को आधार बना कर रची
और पर्यावरण की जो दशा की है, उससे सम्पूर्ण मानवता को गई हैं। प्रथम कविता में कवि लिखता है-
भयावह ख़तरा उत्पन्न हुआ है। यह जलता हुआ सत्य है कि इसका लिखता हूँ अंतिम इच्छाओं में
कारण भी दानवी पूँजीवादी, उपभोगवादी, भूमंडलीकृत मुनाफ़ाखोर कि बिजली के दाहघर में हो मेरा संस्कार
ताकि मेरे बाद
एक बेटे और एक बेटी के साथ
एक वृक्ष भी बचा रहे संसार में
‘उसे ले गए’ कविता में कवि इकोफेमिनिज़्म की सैद्धांतिकी तक
पहुँचता है। कविता में आँगन का नीम कट रहा है और इस कटने का
वृत्तान्त एक स्त्री (कविता में बेटे, बाबा, सखियों, झूलना, पालना,
मनौती के आधार पर) सुना रही है। इकोफेमिनिस्ट पर्यावरण और
प्रकृति के विषय पर स्त्री-पुरुष के विचार को भिन्न मानते हैं। उनका
कहना है कि प्रकृति के प्रति स्त्री पुरुष से अधिक संवेदनशील और
फ़िक्रमंद है, क्योंकि स्त्री की प्रकृति भी प्रकृति जैसी है।
नरेश सक्सेना की कविताओं का पर्यावरणबोध- पर्यावरणवाद
के लिए ही है। उसमें किसी तरह की विच्छिन्नता नहीं है। इस प्रकार
कविता में जो पर्यावरणबोध आता है वह श्लेष न होकर केंद्रीय
विषय के रूप में आता है। और यह पर्यावरणवाद की केन्द्रीयता
इस प्रकार की है कि उनकी कविता हरित कविता (Green Po-

94 n जुलाई से सितंबर 2023 yegh


etry) बन जाती है। सबसे अहम है कि यह पारिस्थितिकीवाद सबसे अहम है कि यह पारिस्थितिकीवाद
वैज्ञानिक है। इसमें तंत्र-मंत्र, वेद-पुराण, मिथक आदि नहीं हैं। वैज्ञानिक है। इसमें तंत्र-मंत्र, वेद-पुराण,
नरेश सक्सेना की कविता के इस पर्यावरणवाद पर कवि एकांत मिथक आदि नहीं हैं। नरेश सक्सेना की
श्रीवास्तव की टिप्पणी सर्वथा उचित लगती है कि- प्रकृति का वे कविता के इस पर्यावरणवाद पर कवि एकांत
भरपूर रचनात्मक उपयोग अपनी कविता में करते हैं। और इस तरह श्रीवास्तव की टिप्पणी सर्वथा उचित लगती है
वे अपनी कविता के संसार को सूखाग्रस्त नहीं होने देते। बल्कि कि- प्रकृति का वे भरपूर रचनात्मक उपयोग
कहना चाहिए कि प्रकृति और पर्यावरण सजगता जैसी उनके यहाँ अपनी कविता में करते हैं और इस तरह वे
दिखाई देती है, अन्यत्र प्रायः विरल ही दिखती है। अपनी कविता के संसार को सूखाग्रस्त नहीं
कलावादी हुए बिना भी जीवन के उत्स को कविता में जीना होने देते। बल्कि कहना चाहिए कि प्रकृति और
मुश्किल कार्य है। जनवादी-प्रगतिवादी कवियों पर हमेशा यह पर्यावरण सजगता जैसी उनके यहाँ दिखाई
आरोप लगता रहा है कि उनकी कविताओं में कलापक्ष पर कोई देती है, अन्यत्र प्रायः विरल ही दिखती है।
विशेष ध्यान नहीं दिया जाता या कविता का वह हिस्सा शिथिल
रहता है। नरेश सक्सेना की कविताएँ इस बात का अपवाद ही हैं। भी) किसी के लिए कुछ न कुछ कर रही है। पदार्थ और वस्तुओं
कविताओं में कलात्मक अभिव्यक्ति के संग जीवन का उत्स भी है। के परमार्थ को प्रमाण के रूप में रख कर मनुष्य की स्वार्थपरता को
जीवन का उत्स अपने पूरे आवेग और उल्लास के साथ है। पत्नी के आईना दिखाने के लिए उनकी कविताएँ शब्द-शब्द तत्पर हैं। बर्टेंड
दिवंगत होने के बाद भी उसके प्रेम का उल्लास उनके भीतर हिलोरें रसेल की पदार्थवाद की अवधारणा स्मरण होती है। मुक्तिबोध के
मारता है। यह जिए हुए साथ और किए हुए प्रेम का करुणा मिश्रित उपरोक्त कथन में भी पदार्थवादी प्रभाव है। कवि में बेचैनी है अपने
अविस्मरणीय आनंद है। ‘सुनो चारुशीला’ कविता जिसके शीर्षक इंद्रियप्रदत्त सत्य को और सरलीकृत कर के बताने की। कवि की
पर कविता संग्रह का नाम भी है, ऐसी ही कविता है- इस टिप्पणी में भी पदार्थवादी दर्शन का अवबोध है:
सुनो चारुशीला! पानी कितना रहस्यमय होता है! वस्तुएँ ठंडी होकर सिकुड़ती
एक रंग और एक रंग मिलकर एक ही रंग होता है हैं और सघन होती हैं, लेकिन नदियों, झीलों और समुद्रों का पानी
एक बादल और एक बादल मिलकर एक ही बादल होता है ठंड में सिकुड़ता और भारी होता हुआ जैसे ही चार डिग्री सेल्सियस
एक नदी और एक नदी मिलकर एक ही नदी होती है पर पहुँचता है कि अचानक अपना व्यवहार उलट देता है। इससे
नदी नहीं होंगे हम ज़्यादा ठंडा होते ही वह भारी होकर नीचे बैठने की जगह, हल्का
बादल नहीं होंगे हम होकर ऊपर ही बना रहता है, अगर ऐसा न करे तो सारी मछलियाँ
रंग नहीं होंगे हम तो फिर क्या होंगे मर जाएँ। क्या पानी जानता है यह बात? क्या वह मछलियों को
अच्छा जरा सोचकर बताओ बचाने के लिए ही ऐसा करता है।
कि एक मैं और तुम मिलकर कितने हुए ‘पानी क्या कर रहा है’ कविता के अंत में, कवि समाज में उस
‘रोशनी’, ‘सेतु’, ‘लोहे की रेलिंग’, ‘पानी’ आदि कविताओं में स्थिति का बड़ा मार्मिक चित्रण करता है जहाँ कोई किसी को बचा
जो विज्ञान आया है यह बहुत जटिल या कविता की पठनीयता को नहीं पा रहा है या बचाना नहीं चाहता, या हर कोई इतना लाचार
प्रभावित करने वाला नहीं है। यह जनसुलभ विज्ञान है। ऐसा प्रतीत हो चुका है कि कुछ बचा नहीं सकता। जिन हालातों में कोई किसी
होता है कि यह विज्ञान की रोशनी से महरूम जनता का विज्ञान है, को नहीं बचा पा रहा है, या बचाना नहीं चाहता उस समय भी
जिसे सत्य का जामा पहना कर, सरलीकृत करके कवि वहाँ तक प्रकृति अपनी परमार्थ की अद्भुत शक्ति और मनुष्य के साथ-साथ
पहुँचाना चाहता है। कविता ‘पानी क्या कर रहा है’ की कुछ पंक्तियाँ पृथ्वी के प्रत्येक जीव-जन्तु के साथ समान व्यवहार कर रही होती
लेते हैं- यह चार डिग्री वह तापक्रम है दोस्तों/जिसके नीचे मछलियों है। प्रकृति के समाजवाद से मनुष्य के समाजवाद की तुलना करने
का मरना शुरू हो जाता है/पता नहीं पानी यह कैसे जान लेता है/कि वाली यह पंक्तियाँ इस प्रकार हैं-
अगर वह और ठंडा हुआ/ तो मछलियाँ बच नहीं पाएँगी... पानी के प्राण मछलियों में बसते हैं
यह ऐसी कविता है जिसमें जीवन में दूसरों के लिए कुछ करते आदमी के प्राण कहाँ बसते हैं दोस्तों
रहने की प्रेरणा का अकिंचन भाव है। नरेश सक्सेना की कविताओं इस वक़्त
की एक विशेष बात यह भी है कि उसमें हर वस्तु (निर्जीव वस्तुएँ कोई कुछ बचा नहीं पा रहा

yegh जुलाई से सितंबर 2023 n 95


नरेश सक्सेना की कविताएँ सच्ची जनवादी आपस में चाहे जितना सटें
कविताएँ हैं। इनमें जनगीतों सा प्रभाव है। अपने बीच अपने बराबर जगह
भाषा की लय के साथ बिंब भी लयात्मक ख़ाली छोड़ देती हैं
हैं। दृश्य क्रमबद्ध हैं। कहीं-कहीं कवि भाषा जिसमें भरी जाती है रेत...
में और कभी-कभी दृश्यों में सोचता है। यह सीमेंट कितनी महीन
प्रकृति को देखने की उसकी विज्ञानवादी दृष्टि और आपस में कितनी सटी हुई
का सुफल है। ब्रेख्तियन लहजे के कवि से लेकिन उसमें भी होती हैं ख़ाली जगहें
इतर उनकी कविता में संचित-बिंबित-चित्रित जिनमें समाता है पानी
प्रकृति से गुज़रते हुए हुए कई बार नेरुदा की और पानी में भी, ख़ैर छोड़िए
याद आती है। काँक्रीट की कथा यह बताती है कि रिश्तों की ताक़त बनी रहे
इसलिए ज़रूरी है कि आप अपने बीच में थोड़ा सा रिक्त स्थान
किसान बचा नहीं पा रहा अन्न को अवश्य रखें। स्पेस छोड़ने की यह बात कुँवर नारायण की भी किसी
अपने हाथों से फसल को आग लगाए दे रहा है... कविता में है। एक विशेष खाली स्थान प्रत्येक पदार्थ में है। यह
यह सहजता जनोन्मुख प्रतिबद्धता का प्रमाण है। रिक्त इस सृष्टि का डायनामिक्स है। और यही इस कविता का
आभिजात्यवाद का नकार नरेश सक्सेना की कविताओं में कड़े मूल-कथ्य है कि प्रगाढ़ता के लिए कुछ रिक्त स्थान होना वैज्ञानिक
शब्दों में है। हालाँकि उनकी कविता का व्यंग्य बहुत शालीन और रूप से अपरिहार्य है।
प्रगतिवादियों से भिन्न है। व्यंग्य भी वे बड़े शांत ढंग से करती हैं, नरेश सक्सेना की कविताएँ सच्ची जनवादी कविताएँ हैं। इनमें
जैसे विनम्रता से कोई तीखी बात कहे, उर्दू कवियों के वासोख्त सी! जनगीतों सा प्रभाव है। भाषा की लय के साथ बिंब भी लयात्मक हैं।
लेकिन टीस चुभने वाली होती है। ‘ज़िंदा लोग’ शीर्षक कविता इस दृश्य क्रमबद्ध हैं। कहीं-कहीं कवि भाषा में और कभी-कभी दृश्यों
संदर्भ में द्रष्टव्य है- में सोचता है। यह प्रकृति को देखने की उसकी विज्ञानवादी दृष्टि
लाशों को हमसे ज़्यादा हवा चाहिए का सुफल है। ब्रेख्तियन लहजे के कवि से इतर उनकी कविता में
उन्हें हमसे ज़्यादा पानी चाहिए संचित-बिंबित-चित्रित प्रकृति से गुज़रते हुए कई बार नेरुदा की
उन्हें हमसे ज़्यादा बर्फ़ चाहिए याद आती है। ‘समुद्र पर हो रही है बारिश’ का महाबिंब नेरुदा
उन्हें हमसे ज़्यादा आग चाहिए के समंदरों का स्मरण कराता है। कवि ने स्थूल और सूक्ष्म का जो
उन्हें चाहिए इतिहास में हमसे ज़्यादा जगह... संतुलन साधा है, उससे स्थूल के प्रति सूक्ष्म की विनम्रता जैसा
यह परिवर्तन करने की पुकार की कविता है। जिसमें दो अर्थ बोध होता है।
व्यंजित होते हैं। एक तो अभिजात लोगों के मुर्दा होने का और दूसरा पुल पार करने से
यह प्रकट करने के लिए कि जीवित लोग जो श्रमशील और जीवन पुल पार होता है
की प्यास से भरे हुए हैं उन्हें परिवर्तन करने के लिए अधिक प्रतीक्षा नदी पार नहीं होती
नहीं करनी चाहिए। क्योंकि जितनी प्रतीक्षा हम जीवित लोग कर नदी पार नहीं होती नदी में धँसे बिना
रहे हैं उतनी प्रतीक्षा लाशें भी नहीं करती हैं। परमानन्द श्रीवास्तव नदी में धँसे बिना
और विश्वनाथ त्रिपाठी इसी कविता की बिना पर नरेश सक्सेना को पुल का अर्थ भी समझ में नहीं आता
ब्रेख्तियन लहजे का कवि कहते हैं। नदी में धँसे बिना...
‘काँक्रीट’ कविता मानवीय रिश्तों में व्यक्तित्व के लिए स्थान जन की नदी में उतरे बिना जनवादी नहीं हुआ जा सकता। पुल
छोड़ने की बात पदार्थों के प्रतीकों के माध्यम से करती है। से गुज़रकर नदी को नहीं जाना जा सकता। संघर्ष किए बिना जीवन
हालाँकि कविता में व्यक्तित्व स्वातंत्र्य की धारणा इस प्रकार है कि के उल्लास को नहीं जाना जा सकता। नरेश सक्सेना की कविताएँ
सामूहिकता का निषेध न हो। सामूहिकता का निषेध किए बग़ैर भी जनसंघर्ष के उल्लास की कविताएँ हैं। n
हम व्यक्ति स्वातंत्र्य का अनुसरण कर सकते हैं, और इस विचार संपर्क : सहायक प्रोफेसर-हिंदी
को कविता इस प्रकार व्यक्त करती है- डी.ए.वी. कालेज, बुलंदशहर (उ.प्र.)
...जगह छोड़ देती हैं गिट्टियाँ मो. 9919988123

96 n जुलाई से सितंबर 2023 yegh


n अविराम : ऋतुराज

ये कला वस्तुएँ नहीं हैं मेरे अंग हैं


अच्युतानंद मिश्र
ऋतुराज पिछले छः दशकों से कविताएँ लिख रहे हैं। ऋतुराज ने 60’ के दशक में लिखने की शुरुवात की।
छः दशकों की अवधि किसी व्यक्ति के जीवनकाल वह अकविता का दौर था। युवा कविता पर अकविता का
की सबसे बड़ी अवधि होती है। ऋतुराज का समूचा गहरा प्रभाव था। कुछ कवि उसे एक भाषिक युक्ति के
चैतन्य कविता को समर्पित रहा है। जब आप इतने तौर पर देख रहे थें, कुछ के लिए वह एक सर्वस्व नकार
लम्बे समय तक कविताएँ लिखते हैं तो कविता स्वतः की चेतना का वहन करने वाली कविता थी। ऋतुराज के
स्फूर्त चेतना का पर्याय बन जाती है। स्वतः-स्फूर्त चेतना आरंभिक दौर की कविता अकविता से लगभग अप्रभावित
रचनात्मकता की बजाए अनुकूलन पर बल देती है। है। उनकी काव्यभाषा पर नई कविता का प्रभाव अधिक
ऐसे में अगर कवि आत्म-सजग न हो तो वह स्वतः ही अभ्यास को दिखता है। वे आत्म-अनुभव पर बल देते हैं,लेकिन साथ ही एक
कविता मानने लगता है। भाषिक उलझाव और अमूर्तन भी उनके इन आरंभिक दौर की
ऋतुराज न सिर्फ़ आत्म सजग कवि हैं, बल्कि कहना होगा कि कविताओं पर है।
वे आत्म संघर्ष के कवि भी हैं। आत्म संघर्ष का यह रास्ता उनकी दृष्टि का दृश्य से पूछना जैसे सृष्टि
कविता के उत्स में शामिल है। वे अपने स्व को, अपनी आत्मगतता का सृष्टा को सीमा में बांधना
को, प्रश्नांकित करते हुए भी चलते हैं। एक संग्रह की भूमिका में ख़ुद वन-बीहड़ों में भयातुर कल्पना
से मुखातिब होते हुए वे लिखते हैं– तुम्हारी कविता के इस अधूरेपन, दौड़ती है आगे जैसे कोई नारी
साधारणता और अत्यंत धीमी परिवर्तनशीलता ने तुम्हें हाशिये पर प्राण में अनुस्यूत देह से डरती है।
पटक दिया है, यानी तुममें एक ऐसा कवि-व्यक्तित्व ईजाद किया है जो अस्सी के दशक में ऋतुराज के तीन कविता संग्रह प्रकाशित हुए।
आम आदमी की कविता लिखकर भी आम आदमी से कटा हुआ है। इन संग्रहों की काव्य-भाषा पहले के तीनों संग्रहों से भिन्न थी। यहाँ
यह एक ईमानदार और परिवर्तन की चाह रखने वाले कवि ऋतुराज अधिक स्पष्ट और मुखर होते हैं। भाषिक उलझाव भी इन
का आत्म-वक्तव्य है। यहाँ कवि की चिंता यह है कि वह जिनकी संग्रहों में पिछले संग्रहों की तरह नज़र नहीं आता। पिछले संग्रहों में
कविता लिखता है, जिनके विषय में कविता लिखता है, जिनके दुःख, जहाँ वे आत्मगतता को महत्व दे रहे थें, वहीं इन संग्रहों में आत्म
तक़लीफ पीड़ा को अपनी कविता में व्यक्त करता है, उनसे वह का विस्तार करते हैं। उनकी कविताओं में चिंता का दायरा बढ़ता है।
गहरा जुड़ाव नहीं पाता। इस वक्तव्य में कवि की आत्मा झांकती पुल पर पानी की कविताएँ मुखर हैं। उनमें आम आदमी का
है। वह अपनी असफलता, निरुपायता,असमर्थता को छिपाता नहीं। संघर्ष और जीने का संकट के ब्योरें हैं। ये ब्योरे कविता को समकाल
यही इमानदारी, सहज-स्वीकार्यता ऋतुराज के कवि-व्यक्तित्व को से जोड़ते हैं, लेकिन वे कई बार स्थूल ब्योरें ही रह जाते हैं। उनमें
हमारे समय के प्रतिमान में बदल देती है। साथ ही कहीं हमारे मन संघर्षरत व्यक्ति की धड़कन कम सुनाई देती हैं। यदा-कदा कवि की
में यह प्रश्न भी उठता है कि कवि-व्यक्तित्व और कविता के बीच के बौद्धिक आवाज़ हावी होती नज़र आती है। संग्रह में माँ पर लिखी एक
अंतर्संबंधों को किस तरह देखना चाहिए? क्या ये सरल-सहज संबंध कविता है। माँ पर दुनिया भर में साहित्य लिखा जा चुका है। उपन्यास,
हैं? क्या इक्कीसवीं सदी के इस दूसरे दशक में हम कह सकते हैं कि कहानियाँ और सैकड़ों कविताएँ लिखी जा चुकी हैं। माँ कहते हुए
जैसा कवि वैसी कविता? क्या इस प्रश्न पर विचार करते हुए निराला हमारे समक्ष दो अर्थ उभरते हैं। पहला माँ एक संबंध है, जिसे हम
से लेकर ऋतुराज तक हम एक ही दिशा में बढ़ सकते हैं? सामाजिक, सांस्कृतिक पहलुओं में रखकर देखने समझने की कोशिश
yegh जुलाई से सितंबर 2023 n 97
करते हैं। एक दूसरा अर्थ भी है -हर व्यक्ति माँ शब्द के उच्चारण भर फिर बीमार बेटे का बयान–
से अपनी माँ की छवि का स्मरण करता है। माँ पर कविता लिखते डॉक्टर नहीं कर सकते धरती की फसल आज़ाद
हुए, कवि एक तटस्थ भोक्ता भर नहीं रह सकता। वह माँ की निजी और आदमी तुम्हारे जैसा बाज़ार से गुज़रता
स्मृतियों के रूप में संचित आत्मीय संसार से विमुख होकर सिर्फ़ बाह्य मर गया हो
संसार में विचार या अवधारणा के तौर पर माँ को व्यक्त नहीं कर तो भी डॉक्टर लिखते रहेंगे दवा
सकता। एक कवि के लिए माँ का सामान्यीकरण करना कठिन है- देते रहेंगे सेब खाने की सलाह
माँ तुमने निरंतर अपने अमर दुःख की कविता रची है यह कविता जहाँ समाप्त होती है, वहीं यह प्रश्न भी छोड़ जाती है
तुम्हारे एक-एक शब्द ने हमारे कि डॉक्टर अगर सेब को अमीर लोगों की गिरफ्त से मुक्त नहीं करा
वक्त की झुर्रियों को साफ़ किया है सकते, फिर रोगमुक्त होने के लिए उन्हें खाने की सलाह देना कहाँ
तक संगत है? यह एक वाज़िब प्रश्न है। तार्किक और दृष्टिसम्पन्न
माँ के संग रहते हुए ही भी। पर क्या यह प्रश्न हमें संवेदनात्मक तौर पर भी उद्वेलित करता
हमने माना कि है? क्या इसे पढ़कर हम आक्रोश से भर जाते हैं? जबकि इसके
धरती पर जीवन अंकुरित हुए बहुत युग बीत चुके हैं विपरीत यह प्रश्न हमें आश्वस्त करता है कि यह एकदम सही तर्क
फिर भी धरती उसी जगह ठहरी है… है। दिक्कत तब होती है, जब हम इसे संवेदनात्मक तर्क में परिणत
ऋतुराज इस कविता में वैचारिक और अवधारणात्मक विचरण करना चाहते हैं। अन्यथा यह बुद्धि संगत प्रश्न तो रहेगा, मगर हृदय
अधिक करते हैं। आत्मीय संसार के चित्र कम खींचते हैं। कविता संगत नहीं हो सकेगा।
अपने पठन में सही लगती है, मगर उसका संवेदनात्मक प्रभाव कम ऋतुराज की कविताओं में तार्किकता कई बार संवेदना का
पड़ता है। इसी तरह मुक्तिबोध पर लिखी कविता को भी देखा जा अतिक्रमण करने लगती है। साठोत्तरी कविता में भी अमूमन तर्क
सकता है, जहाँ ब्योरे एक वस्तुपरक संसार का चित्र तो खींचते हैं संवेदना पर हावी होने लगता है। लेकिन ऐसा सर्वत्र नहीं है, जैसे
मगर पाठक की स्मृति का हिस्सा नहीं बन पातें। इस तरह के विषयों कन्यादान, पूर्वदर्शनम् जैसी कविताओं में एक विरल संवेदना है।
पर लिखी कविताएँ आत्मीयता के रास्ते हमारी चेतना में दाखिल कन्यादान कविता मार्मिकता का नया विस्तार रचती है। वह स्त्री
होना चाहती हैं। जीवन की विडंबना को उसकी जीवन स्थितियों में तलाशती है -
अगर हम ऋतुराज की कविताओं पर विचार करें तो फौरी तौर माँ ने कहा, पानी में झांककर
पर यह कह सकते हैं कि उनकी कविता में सपाटबयानी बहुत है। अपने चेहरे पर मत रीझना
लेकिन सपाटबयानी के बावज़ूद उनकी कविताओं में संवादपरकता आग रोटियाँ सेंकने के लिए है
भी देखी जा सकती है। कविता के प्रवाह के बीच अचानक कवि जलने के लिए नहीं
का चला जाना और विषय का मुखर हो जाना,यह उनकी बहुत सी वस्त्र और आभूषण शाब्दिक भ्रमों की तरह
कविताओं में देखा जा सकता है। सुरत निरत की एक कविता है, बंधन हैं स्त्री जीवन के
जिसमें एक ग़रीब और वृद्ध व्यक्ति डॉक्टर की हिदायत पर अपने इसी क्रम में दूसरी कविता पूर्वदर्शनम् का ज़िक्र भी लाज़मी
मरणासन्न बेटे के लिए सेब खरीद रहा है। वृद्ध व्यक्ति का वक्तव्य है। मृत्यु के बाद स्त्रियाँ घाट पर मौज़ूद हैं। मृत्यु गाँव के किसी
सामने आता है। उसके पश्चात् बीमार बेटे का बयान आता है। यह एक खास व्यक्ति की हुई है, लेकिन स्त्रियाँ बड़े पैमाने पर वहां
कविता एक ही विषय पर दो अलग- अलग मनःस्थितियों से विचार चुपचाप ‘गीली साधारण धोतियों में ठिठुरती हुई लौट रही हैं’। यहाँ
करने की कोशिश करती हुई प्रतीत होती है। बयान बाप-बेटे का स्त्रियों की उपस्थिति और उनका लौटना सहज सामाजिक सामूहिक
है, दृष्टि कवि की। कवि सेब को पाने की असमर्थता को दुनिया बोध को दिखाता है। यह दिखाता है कि स्त्रियों का समाज, उनकी
के सौन्दर्यात्मक पहलुओं से जोड़कर देखता है। एक ही तरह की सामूहिक उपस्थिति पुरुषों की तरह आक्रामक, शक्ति प्रदर्शन, हो-
असमर्थता, निरुपायता के विविध पहलू हैं। इन विविध पहलुओं के हल्ला और हुडदंग से भरी हुई नहीं है। उनकी साधारणता ही उनके
रास्ते ऋतुराज का कवि मन बाप बेटे में परकाया प्रवेश करता है सामूहिक सामाजिक बोध के मूल में है। पढ़ते हुए उत्पीड़ितों की
मैं एक ईर्ष्यालु निरुपाय चोर सहज सामाजिकता के सामाजिक सिद्धांत की ओर हठात् ही हमारा
अपने बीमार बेटे के लिए ध्यान चला जाता है, जिसे सूत्रबद्ध करते हुए मार्क्स ने कहा था-
आँखों से चुराकर ले जाता हूँ सारे तत्व... दुनिया के मजदूरों एक हो। कवि उसी एकता को यहाँ लक्षित करता

98 n जुलाई से सितंबर 2023 yegh


है। और उस समूह, उस बोध,उस चेतना,उस संवेदना का अंश न विकसित हुआ, उसे हम ऋतुराज की निम्नवर्गीय जीवन प्रसंगों को
हो पाने की असमर्थता को जाहिर करते हुए कहता है- केन्द्र में रखकर लिखी गयी कविताओं के रास्ते भी समझ सकते
अपवित्र हूँ क्योंकि स्त्री नहीं हूँ हैं। इस संदर्भ में दो कामगार, पुराने शहर के लोग,गेरू माटी, दुःख
न रोया हूँ कभी सामूहिक रूप से जो कविता नहीं हो सकता,एक आजाद आदमी की मौत, फूलवाली
चुपचाप अकेले में कभी कभार किया है विलाप आदि कविताएँ देखी जा सकती हैं।
सदा अकेला ही नहाया हूँ इन कविताओं में एक सहज सरल जीवन बोध है। विकास की
ताक़त अंततः अकेलेपन की नियति को प्राप्त होती है। विशिष्टता अंधी दौड़ के चपेट में आये लोगों के टूटने बिखरने और संघर्ष के
का ठिकाना कोई निर्जन स्थल ही होगा। पुरुषों की उपस्थिति इसी ब्योरे हैं। विपरीत जीवन स्थितियों के याँत्रिक संतुलन की धुरी पर
अकेलेपन और निर्जनता में समाहित होती है। यह भी कि दुःख, पीड़ा, टिके विकास को ऋतुराज कभी व्यंग्य के रास्ते, तो कभी विडंबना
करुणा प्रेम अपना आश्रयस्थल ढूढ़ ही लेते हैं। वे हृदय से हृदय की के रास्ते सामने रखते हैं-
यात्रा करते हैं। इसी कविता के आख़िर की पंक्तियाँ एक चमत्कृति वह फूल बेच रही है
उत्पन्न करने की कोशिश में मुब्तिला नज़र आती हैं। अंतिम पंक्तियों उसके टोकरे में ताज़ा मोगरे और गुलाब रखे हैं
को पढ़ते हुए लगता है कि हम अचानक एक संवेदनात्मक विलगाव लेकिन चेहरे पर ख़ून की कमी के चिन्ह साफ़ है
की स्थिति में पहुँच गये हैं। कविता की अंतर्लय जिस अर्थ की इस कविता को पढ़ते हुए रघुवीर सहाय की कविता सेब बेचना
सीमाओं के पार चले गये शब्दों, दृश्यों और पंक्तियों के बीच के स्वतः ही याद आ जाती है -
अन्तराल में है, वहीं कविता अंतिम हिस्से में अर्थ उत्पन्न करने की मैंने कहा डपटकर
जिद में ठोस और स्थूल होने लगती है– ये सेब दागी हैं
घाट पर से लौटती इन स्त्रियों में नहीं नहीं साहब जी
बहुत कठिन है पहचानना कि किसका पति मरा है उसने कहा होता
शायद वह ही है जो सबसे आगे चल रही है बाल खोले आप निश्चिंत रहें
अरे, मगर तभी उसे खाँसी का दौरा पड़ गया
उसका चेहरा तो मेरी पत्नी से मिलता है। उसका सीना थामे खाँसी यही कहने लगी।
ये आख़िरी पंक्तियाँ कविता की अंतर्लय में एक व्यवधान पैदा यहाँ रघुवीर सहाय अव्यक्त से व्यक्त को निकालते हैं। अनकहे
करती हैं। इसलिए जो मूल दिशा है, आख़िर में कविता उससे भिन्न में मौज़ूद कहे की शिनाख्त करते हुए, वे मार्मिक दृश्य निर्मित
दिशा में चली जाती है। कविता में संगति हर समय एक सकारात्मक करते हैं। वे अनकहे का जो स्पेस बनाते हैं, वहीं से सारी स्थिति
प्रभाव उत्पन्न करे, यह ज़रूरी नहीं। कविता में रूप और वस्तु के पुराने स्वेटर की तरह उघड़ने लगती है। वे तार्किक अनकहे से
प्रश्न को भी हम कार्यकरण सबंधों की तरह हल नहीं कर सकते। संवेदनात्मक कहन की ओर बढ़ते हैं।
संगति किसी भी कला का अंतिम और अनिवार्य मूल्य हो, यह ज़रूरी ऋतुराज के यहाँ दूसरी तरह की कविताओं में आत्म-आलोचना
भी नहीं। इस कविता में यह बात विशेष रूप से ध्यान देने योग्य का स्वर है। मुक्तिबोध की कविताओं में यह स्वर अधिक प्रगाढ़ है।
है। जिस संगति की तलाश में बढ़ते हुए कवि इस कविता को एक मुक्तिबोध इसके लिए एक नई काव्य-भाषा और काव्य-युक्ति का
बंद गली के आख़िरी मकान पर ले आता है- वह इस कविता की प्रयोग करते हैं। वे दृश्य और गति दोनों में परिवर्तन लाते हैं। एक ओर
आरंभिक संभावनाओं के विपरीत जाती हुई जान पड़ती है। वे फंतासी का इस्तेमाल करते हैं, तो दूसरी तरफ एकालाप की तीव्र
ऋतुराज की कविताओं को पढ़ते हुए दो महत्वपूर्ण बिन्दुओं को गति में आत्म को संबोधित करते हैं। ऐसा करते हुए वैचारिक दृष्टि
रेखांकित किया जा सकता है। अधिकांश कविताएँ वे हैं, जिनमें कवि संवेदना के धरातल पर आ जाती है। मुक्तिबोध की कविताओं का
निम्न-वर्गीय समाज के संघर्ष, जिजीविषा, जीवन-बोध, संस्कृति, वैशिष्ट्य यह है कि वे शुष्क वैचारिक कविताएँ नहीं लगती हालाँकि
आत्मीयता, सामूहिकता, पीड़ा क्लेश, आत्माभिमान और संभावित वे अपने प्रभाव में वैचारिक कविताएँ ही हैं। ऋतुराज की मध्यवर्ग
विपत्तियों की चर्चा करता है। दूसरी तरफ वे कविताएँ हैं, जहाँ से संबंधित कविताओं में प्रश्न और आत्म संवाद की शैली देखी जा
वे मध्यवर्ग के प्रतिनिधि के रूप में आत्म-अवलोकन करते हैं। सकती है-कैसे छोड़ा जा सकता है निराश्रित/एक लोकस्वप्न को एक
पहले प्रकार की कविताओं में ब्यौरे हैं,तथ्यों का मूल्याङ्कन है और पूरी शताब्दी के बाद/ जबकि वस्तुओं की खरीद–फ़रोख्त के बीच/
जीवन स्थितियों का विश्लेषण। 90’ के बाद जो शहरों का हाशिया करोड़ों परिवार फंसें हैं/बूढ़े रुके हैं मेज़ का सिरा पकड़े।

yegh जुलाई से सितंबर 2023 n 99


यहाँ हम देख सकते हैं कि जो विचार सूत्र हैं,वे सीधे-सीधे पाठक सबने अपना स्वरुप बदला है। संचार माध्यमों ने एक ही साथ
तक पहुँच जाते हैं। सवाल यह है कि इसमें काव्य-बोध को ग़ैर भाषा को अर्थ-हीन और बहुलार्थी दोनों बना डाला है। पुराने सारे
महत्वपूर्ण क्यों मान लिया गया है? ऊपर मुक्तिबोध का ज़िक्र किया कार्यकारण संबंध बदल चुके हैं। भाषा की भूमिका बदल चुकी है।
गया। मुक्तिबोध काव्य-बोध को एक अनिवार्य मूल्य मानते हैं, यूटोपिया का दौर समाप्त हो चुका है। हम तमाम बड़ी लड़ाईयाँ हार
इसलिए वैचारिकता का वहन करते हुए उनकी कविता एक जटिल चुके हैं। क्या ऐसे में पुराने ढर्रे से समाज को देखना,उस संगति में
काव्य-प्रारूप में अभिव्यक्त होती है। दूसरी तरफ यहाँ हम कवि की संस्कृति की व्याख्या संभव है? ऋतुराज को पढ़ते हुए ये प्रश्न हमारे
मानसिक बुनावट से तो जुड़ते हैं, लेकिन उसके आत्म पक्ष से नहीं सामने हैं। इधर के कवियों में वे सबसे लम्बे अरसे से कविताएँ
जुड़ पाते। कविता सही लगती है, लेकिन हमारे हृदय पर छाप नहीं लिखने वाले कवियों में से हैं। प्रश्न यह भी है कि जब समय की
छोड़ती-यह वह समय है जब कुछ लोग अपने/ अपराधबोध का क्रमिकता भंग होती है, तो कविता में परंपरा और क्रमिकता के अर्थ
उदात्तीकरण कर रहे हैं/ एक विचारधारा से किये अपने विश्वासघात बदलते हैं या वे स्थिर रह जाते हैं?
की/प्रशंसा कर रहे हैं/अपनी स्मृतियों की सुरंगों में टटोलते बांच रहे ऋतुराज की कविता हमारी भाषा-परंपरा हमारे सामाजिक मूल्य,
हैं/पूर्वजन्म की प्रेतलीलाएँ। इस तरह के अनेक उदहारण दिए जा हमारी आलोचनात्मक दृष्टि को प्रस्तुत करती है। ये कविताएँ,
सकते हैं। उसका अर्थ यह नहीं कि ये कविताएँ महत्वपूर्ण नहीं। प्रश्न हमारे वर्तमान पर सवाल खड़े करती हैं। बाज़ार और बाज़ार समय
यह है कि इनसे हमारी काव्य मान्यताओं का निर्माण किस तरह होता के द्वारा, मनुष्य और मनुष्यता के अवमूल्यन की बात उठाती हैं।
है? हृदय परन्तु क्या ऐसा करते हुए वे हमारे भीतर संवेदनात्मक हलचल भी
ऋतुराज की कविताएँ एक बड़े अन्तराल में हमारे समय-समाज पैदा करती हैं? ऋतुराज की कविताएँ सामाजिक, राजनीतिक और
को संबोधित हैं। स्त्री, बच्चे और प्रकृति का हर तरह से ध्वंस इधर के वैचारिक दृष्टि से सही लगती हैं। उनके तर्क स्पष्ट और प्रभावी हैं।
वर्षों में हुआ है। ऋतुराज ने सबसे अधिक कविताएँ इन्हीं पर लिखी परन्तु उनको पढ़ते हुए अक्सर लगता है उनका विचार पक्ष, उनकी
हैं। स्त्री पर केन्द्रित कविताओं का एक संकलन है स्त्रीवग्ग। इस तार्किकता उनकी संवेदना पर हावी हो जाती है? इसका एहसास
संग्रह को पढ़ते हुए स्त्री-बच्चों का एक समानांतर संसार नज़र आता कवि को भी है, वे कहते हैं-‘क्या तुमने राजनीति की भाषा के
है। ताक़त के अजमाइश की एक दुनिया। ऋतुराज इस संसार का एक बरअक्स कविता की भाषा को अधिक कारगर बनाने की कोशिश की
आलोचनात्मक पाठ तैयार करते हैं। उनके संग्रह फेरे में एक कविता है?’ ऋतुराज के साथ-साथ यह प्रश्न उनके पाठकों के मन में भी
है किताबों की दुकान। किताबों की दुनिया अंततः क्या अर्जित करती हैं। यह हमारे समय का भी प्रश्न है। कविता विरुद्ध समय में काव्य
है। किताबें जिस शोषण, दमन अन्याय का प्रतिकार करती हैं, करना भाषा के प्रश्न को हम किस तरह समझे?
चाहती हैं कहीं वे उसी की बुनियाद पर खड़ीं तो नहीं है– कवि का पक्ष सत्य का होता है, मगर वह सत्य का प्रवक्ता नहीं
एक स्त्री अपने दो बच्चों को लेकर है। क्योंकि ऐसा होने पर वह सत्य को तार्किक और प्राकट्य की भाषा
शहर की कालकोठरी में रह रही है में व्यक्त करने लगेगा। यह काम तो वैज्ञानिकों का है। इसलिए वहां
किताबों की दुकान पर काम करती है रूपक नहीं समरूप हैं। कविता में रेटोरिक भी हृदय के मर्म को ही
परन्तु किताब की दुकान भी अन्य दुकानों की तरह ही हैं। शोषण छूती है। कविता सत्य पर पहुँचे किसी व्यक्ति का आत्म वक्तव्य नहीं
और मुनाफे के कायदे से बंधे। फ़र्क सिर्फ़ इतना है कि वे कायदों के है। वह सब तो विचारकों और धर्म-गुरुओं के जिम्मे है। कविता तो
विरुद्ध विचार, दर्शन और ज्ञान को अपने में समाहित किये हुए हैं। रेगिस्तान में भटके हुए थके हारे मुसाफिर के पैरों में चलने की ताक़त
यही कवि को एक दरार, हल्की रोशनी की उम्मीद दिखाई देती है। है। भूली हुई स्मृतियों में कोई मार्मिक क्षण के कौंधने की चमक है।
दरअसल हमारा आलोचनात्मक रवैया भी अपने अंतरतम में कोई वह घबराहट, निराशा और निरर्थकता के अधिक क़रीब है, लेकिन वह
उम्मीद,कोई यूटोपिया लिए रहता है। आप शिकायत तभी करते हैं इनमे से नहीं। ऋतुराज की भी कविता सत्य का बखान नहीं करती।
जब आपको इसकी उम्मीद होती है कि वह किसी के कानों तक, वह सत्य में हमारी आस्था बनाये रखती है। अंततः एक कविता उम्मीद
हृदय तक पहुँच रही है-दुकान में भरे हैं/ अनेक महान लेखक/ और आस्था ही तो बचा सकती है। जीवन में, समाज में, भाषा में,
सबके सब खामोश/ अधिकांश बिकने को तैयार/ जैसे दुकान एक लेकिन इस आस्था, इस उम्मीद के टूटने का नाम भी कविता ही है। n
कब्रिस्तान हो/ और आलमारियाँ ताबूत। संपर्क : सहायक प्रोफेसर हिंदी विभाग,
इधर के वर्षों में कविताएँ जटिल हुई हैं। संरचना में और भावबोध श्री शंकराचार्य वि.वि. कालाडी, केरल
दोनों में। समाज, संस्कृति के रूपाकार, हमारी इच्छाएँ-आकांक्षाएँ मो. 9213166256

100 n जुलाई से सितंबर 2023 yegh


n अविराम : लीलाधर जगूड़ी

अनुभव का सामाजिक अन्वय


ओम निश्चल

(एक) हैं। उनकी भाषा की बुनावट इकहरी नहीं है, वे कहीं


आज जब लगभग अधिकांश कविता शब्दों की स्फीति भावुक कवि की तरह पेश नहीं आते, बल्कि निरन्तर
का कारोबार बनती जा रही है, लीलाधर जगूड़ी उन नए और पेचीदा अनुभवों के साथ जीते हैं। उनके लिए
कवियों में आते हैं, जिन्होंने अनुभव और भाषा के एक रचनात्मक झूठ भी सर्जना का एक बड़ा सत्य बन
बीच कविता को जीवित रखा है। अनुभव के आकाश कर उभरता है। उनकी तमाम लंबी कविताओं से हम
में उड़ान भरने वाले वे हिंदी के एक मात्र ऐसे कवि यह समझ सकते हैं कि वे केवल लंबी कविताओं के
हैं। जिनके यहाँ शब्द किसी कौतुक या क्रीड़ा का फैशन से परिचालित नहीं हैं बल्कि अनुभव की, समय
उपक्रम नहीं हैं, वे एक सार्थक सर्जनात्मकता की कोख से जन्म की, तात्कालिक परिस्थितियों का एक घना प्रतिबिम्ब उनमें समाया
लेते हैं। बार बार दुहराई गयी, भोगी हुई जीवन पद्धति से दुहे गए है। ठीक से देखें तो वे आधुनिक भारत और उसके लोकतंत्र की
अनुभव को नए-नए रूपाकारों में व्यक्त करने का काम जगूड़ी एक निर्मम और निर्भय व्याख्या की तरह लगती हैं।
वर्षों से कर रहे हैं, कुछ इतनी तल्लीनता और तार्किक एकाग्रता के कवितामय जीवन के वरण के शुभारंभ में ही उनके भीतर प्रकृति
साथ कि अनुभव की वह पूँजी, संवेदना और भाषा का वह स्रोत को, ऋतुओं को, देश को, पहाड़ को, सौंदर्य को, प्रेम को समझने-
सर्वथा अजाना, अनछुआ और अ-व्यक़्त लगे। अनुभव को भाषा बूझने की एक अद्भुत व्यग्रता दीख पड़ती है, और इस बातचीत में
और संवेदना की नई प्रतीतियों में बदलने में निष्णात जगूड़ी जैसे कहे अनुसार, अगले जन्म में भी कवि-जीवन ही उन्हें काम्य है।
कवि को भी अक़्सर किसी नई बात को कहने के लिए किसी गूँगे उनके पहले ही संग्रह शंखमुखी शिखरों पर की ज्यादातर कविताएँ
के शब्दकोश-सा अवाक् रह जाना पड़ता है। सरलता और सहजता मंत्र की तरह गूँजती और सम्मोहित करती हैं। वे लिखते हैं: मेरी
के हामी कदाचित`जान पाएँ कि कितना कठिन है कितने ही कठिन आकाशगंगा में कभी बाढ़ नहीं आई/ मेरे पास तट ही नहीं है जिन्हें
पर सरल-सा कुछ बोल देना। वे लिखते हैं– अपना मुख आईने मैं भंग करने की सोचूँ/एक साँवला प्यार है मेरे पास सेबार जैसा/
में, आईना अपने हाथ पर/फिर भी अद्भुत वाणी-सा यह यथार्थ जिसे पाने के लिए बहुत बार भेजे हैं/ धरती ने बादलों के उपहार।
पकड़ में नहीं आता। वे भाषा को एक जैसे किटप्लाई में बदलने के यही वह रोमांचक दौर है जब प्रकृति के साथ उन्होंने मानवीय
ख़िलाफ़ हैं। एकरसता, एकरूफता और एकीकरण रचनात्मकता संबंधों की छुवन महसूस की। इस यात्रा में संकलित अ-मृत में वे
के लिए क्षरण और ऊब के कारक हैं। अनुभव, भाषा और संवेदना इस अनुभूति की बानगी देते हैं– हमेशा नहीं रहते पहाड़ों के छोये/
के वैविध्य के लिए ही उन्होंने कहा है– ‘भाषाएँ भी अलग-अलग पर हमेशा रहेंगे वे दिन जो तुमने और मैंने एक साथ खोए। (इस
रौनकों वाले पेड़ों की तरह हैं। सबका अपना अपना हरापन है, कुछ यात्रा में) यह स्वप्निल, रोमानी और कोमल गाँधार की सी
उन्हें काट कर उनकी छवियों का एक ही जगह बुरादा बना देते हैं।’ अनुगूँज-वाली पंक़्तियाँ जगूड़ी के भीतर के बुनियादी स्वभाव का भी
ग्यारह-बारह संग्रहों के विराट काव्य फलक पर जगूड़ी को देखें एक परिचय देती हैं। पर जगूड़ी स्निग्धता के कवि नहीं हैं, वे
तो वे एक महाकवि की सामर्थ्य रखने वाले कवि के रूप में दिखते अनुभव के जटिल पठारों पर यात्रा करने वाले कवि हैं, जहाँ जीवन
हैं। जगूड़ी ऐसे कवि हैं जो हर बार नए प्रयोग, नई हिकमत, नई का अयस्क और खनिज बिखरा है। यथार्थ की यह वह विन्ध्याटवी
दृष्टि के साथ कविता के मैदान में उतरते हैं। यथार्थ के बहुस्तरीय है, जिसमें सेंध लगाने से प्रायः कवि घबराते हैं। पर जगूड़ी अपनी
छिलके उतारते हुए वे हर बार अपने अनुभवों पर नया रंदा लगाते कविताओं में यथार्थ की अपनी विन्ध्याटवी रचते हैं। वे स्वप्निल-

yegh जुलाई से सितंबर 2023 n 101


सी शुरुआती दुनिया छोड़ कर धूमिल के संग-साथ तुरत फुरत नहीं है। वह दुर्निवार अभिव्यक्ति के लिए भाषा का कारगर इस्तेमाल
आजाद हुए देश के लोकतंत्र का एक नक़्शा खींचते हैं, तो तमाम है। आत्मविलाप कविता में जैसा जगूड़ी लिखते हैं यह उस कौल
विद्रूपताएँ उनका पीछा करती हैं। नाटक जारी है इन्हीं दिनों और करार का एक निर्वचन भी है जिसके जरिए वे शब्दों को पुनरुज्जीवित
ऐसे ही खुरदुरे अनुभवों की उपज हैं। करना चाहते हैं। यह एक जीवंत कवि का कर्तव्य भी है कि वह
जगूड़ी की कविता न तो पारंपरिक कविता की लीक और लय शब्दों का परिष्कार करे और देखें कि भाषा में फूटते नए कल्ले शब्द
पर चलती है न आजमाए हुए बिम्ब-प्रतीकों का अवलंब ग्रहण की कोशिकाओं को पूरी आक़्सीजन दे रहे हैं–
करती है। यह कवित-विवेक के अपने खोजे-रचे प्रतिमानों और अपनी छोटी और अंतिम कविता के लिए
सौदर्यधायी मानदंडों फर टिकी है। रीति, रस, छंद और अलंकरण मुझमें जो थोड़ा सा रक़्त शेष है
के दिखावटी सौष्ठव से परे यह आधुनिक जन-जीवन में खिलती मैं कोशिश करूँगा वह दौड़ कर
प्रवृत्तियों, उदारताओं, मिथ्या मान्यताओं, व्याधियों, किंवदन्तियों, शब्द के उस अंग को जीवित कर दे
क्रूरताओं का खाका खीचती है। इसमें बरते गए शब्द आधुनिकता जो भाषा की हवा से मर गया है
के स्वप्न और संघर्ष की पारस्परिक रगड़ से उपजे हैं। पर्यावरण को इस तरह एक बात तो तय है कि नवीनता, जगूड़ी का पहला
ये कविताएँ चिंताओं और सरोकारों के नए धरातल से देखती हैं। लक्ष्य है। अनुभव में भाषा में, संवेदना में,कथ्य में नवता। किन्तु
इनमें सब कुछ के लुट जाने का और लुटते हुए को बचा लेने का केवल नवीनता ही कविता बनने का अचूक उपाय नहीं है। भाषा
हाहाकारी शोर और रोर नहीं है। क्रूरताओं और हिंसा के चितेरों को की नवीनता मात्र कविता नहीं है, न ही संवेदना के नएपन से
ये कविताएँ चेतावनियाँ नहीं देतीं क़्योंकि ये जानती हैं– यह काम कविता का कोई रूपाकार बन सकता है। वह तभी बनता है जब
कवि का नहीं, व्यवस्था और प्रशासन का है। जिस तरह प्रशासन कुल मिला कर यह लगे कि वाकई एक नई कविता का जन्म भी
और कानून के जिम्मे एक स्वच्छ नागरिक पर्यावरण का निर्माण है, हुआ है। हर बार कलफदार भाषा, वक्तृता का प्रभावी उदाहरण नहीं
इन कविताओं का काम नागरिकता के विरुद्ध होते पर्यावरण की हो सकती यदि वह अनुभव में पगी हुई न हो। जगूड़ी ने भाषा को
शिनाख्त है और जगूड़ी यह काम संजीदगी से अंजाम देते हैं. एक रचयिता की तरह बरता और माँजा है। उसका निर्माता बनने
मानवीय क्रूरताओं का रंगमंच बनती हुई दुनिया की शिनाख्त केवल का दंभ उनमें नहीं है, गो कि अपने समकालीन कवियों में भाषा के
कवि ही कर सकता है। यदि पूछा जाए कि जगूड़ी ने हिंदी कविता सर्वाधिक नए प्रयोग उन्होंने ही किए हैं।
को क़्या दिया है तो यह सहज ही कहा जा सकता है कि उन्होंने
कविता को भाषा और अनुभव के जितने झटके दिए हैं (ऐसा वे (दो)
ख़ुद भी कहते हैं), उतने ही अर्थपूर्ण मुहावरे और सुभाषित भी। ख़बर का मुँह विज्ञापन से ढका है– यह संग्रह इक्कीसवीं सदी की
बात बात पर ऐसी उद्धरणीयता जो मायकोवस्की जैसे क्रांतिकारी काव्यप्रवृत्तियों का जनक संग्रह लगता है। बाज़ार और अर्थशास्त्र,
कवियों की कविताओं में देखने को मिलती है। समकालीनता का बाज़ार और समाजशास्त्र के बीच लीलाधर जगूड़ी की कविताओं
शोर इन दिनों हिंदी कविता में सबसे ज्यादा है पर सच्ची की सीधी और कहीं कहीं सांकेतिक आवाज़ाही, सब कवियों से
समकालीनता जगूड़ी जैसे कवियों के यहाँ ही पायी जाती है। वे भिन्न तरह की है। प्रेम में प्रवेश को वे प्रेम में निवेश मानते हैं।
समकालीन कवि ही नहीं, समकालीनता के कवि हैं। जगूड़ी की आज की कविताओं को मुक़्तिबोध, धूमिल अथवा
जगूड़ी ने हर बार एक नई काव्यभाषा अर्जित करके हिंदी अज्ञेय और रघुवीर सहाय की कविताओं जैसा नहीं समझा और
कविता के अभिव्यक़्ति कौशल को अत्यधिक सामयिक रखते हुए व्याख्यायित किया जा सकता। भारतीय कविता की जड़ों से जगूड़ी
भी अपने समय को लाँघने की मार्मिकता के साथ रचा है। उनकी का गहरा परिचय है। यही कारण है कि वे अतीत की अभिव्यक्ति
कविताओं से नए शब्दों, मुहावरों का चयन किया जाए तो एक संपदा और भविष्य के तकनीकी गूँगेपन को एक साथ रख पाते
अलग कोश बनाने लायक सम्पदा वहाँ है। उनकी कविताओं में हैं। आधुनिक विकासवादी और परिवर्तित होते मनुष्य समाज को
सूक़्तिपरकता और उद्धरणीयता इतनी अधिक है कि सूक़्तियों का उनकी कविताओं में बिलकुल अलग ढंग से देखा जा सकता है।
भी एक अलग कोश तैयार किया जा सकता है. जगूड़ी की इस देन एक समय था, जब कर्ज़ के बाद मनुष्य का सारा चैन नष्ट हो
को अलग से रेखांकित किया जाना चाहिए कि हर दशक में उन्होंने जाता था, लेकिन उनकी कविता के चित्रित पात्र को कर्ज़ के बाद
कविता को नई भाषा और नए संदर्भोंं की कमी से उबारा है। जगूड़ी नींद आती है। सामाजिक अनुभूतियाँ किस तरह बदल रही हैं।
की कविता में भाषा अलग से चमकती है। पर वह भाषा का उत्सव बैंकों द्वारा दिए जाने वाले ऋण से जो आत्मनिर्भर खुशहाली लोगों

102 n जुलाई से सितंबर 2023 yegh


के जीवन में आ रही है– इस तरह के विषयों को हिंदी कविता
प्रतिरोध या प्रसन्नता के लिए कहीं भी छूती हुई नहीं दिखायी देती।
टेक़्नालॉजी वाले समाज के जो सुख-दुख हैं, उनकी आहट सबसे
पहले और सबसे ज्यादा जगूड़ी की कविताओं में सुनाई देती है।
उनकी कविताओं की स्त्री का अलग ही रंग ढंग है। पूरी हिंदी
कविता में वैसी स्त्री या स्त्रियाँ नहीं मिलेंगी।
जगूड़ी की कविताओं की यह उल्लेखनीय विशेषता रही है कि
जब वे संग्रह प्रकाशित करने के लिए चयन करते हैं तो अपने सृजन
संसार में हर बार एक मोड़ पैदा करने की कोशिश करते हैं।
सूचनाओं के विस्फोटक प्रसार के समय में जहाँ मीडिया तरह-तरह
के लांछनों और व्यावसायिक प्रयोगों के दौर से गुज़र रहा है, जहाँ
ख़बरें भी कमाई का ज़रिया बनती जा रही हैं, ऐसे समय में ख़बर
का मुँह विज्ञापन से ढका है का प्रकाशन हमारी आधुनिक
सांस्कृतिक चेतना को झकझोर कर रख देता है। ऐसे समय में जहाँ,
रोज़ सर्वनाश की ख़बरें उड़ रही हों, जहाँ गद्य का मतलब केवल
कहानी हो और कविता का मतलब भी नीरस गद्य हो, वहाँ लीलाधर
जगूड़ी की कविता अपने अलग तरह के प्रयासों से हमारे डर को
कुछ कम करती है। इन्हें पढ़ते हुए कविता के अल्पसंख्यक मगर
महत्वपूर्ण पाठक अपने लिए कविता समझने की और उसको अपने शब्द भावना के वशीभूत होकर किसी कविता में नहीं आ टपकता,
बीच घटित होते देखने की नई दृष्टि पाने की प्रक्रिया से गुज़र रहे बल्कि उसका होना, कविता के स्थापत्य के औचित्य से सुनिश्चित
होते हैं। कविता का यह भी कर्तव्य रहा है कि वह अपने पाठक को होता है। कहना न होगा कि कविता में यह विरल लीक जगूड़ी ने
किसी रूढ़ संस्कार से भी मुक़्त करे। कविता इसी अर्थ में संभवतः ख़ुद के बलबूते खींची है जो अब एक अकेले कवि की परंपरा बनती
हमारी पहली मुक़्ति का प्रयास करती है। जा रही है, और यह अच्छी बात है।
परिदृश्य में उपस्थित कवियों के बीच लीलाधर जगूड़ी को एक जगूड़ी की इन कविताओं का प्रारूप बहुत बदला हुआ है। इससे
ऐसे कवि के रूप में देखा जाता रहा है जो केवल हृदय से नहीं, पूर्व के संग्रह ईश्वर की अध्यक्षता में की कविताओं का साँचा इस
समस्त बौद्धिक इंद्रियों से कविताएँ लिखता है. उन्हें देख कर ही यह सीमा तक बुद्धि-बल से शासित नहीं था। यहाँ कवि की चिंता किसी
उक्ति चरितार्थ होती हैः कविर्मनीषी परिभू स्वयंभू। जगूड़ी ने अपने भावुकता का अवलंब नहीं ग्रहण करती, वह चीज़ों की तह में जाती
अनुभवों को बहुत आँजा और माँजा है। कविता को कविता जैसा न है, गहन अनुसंधान करती हुई अलक्षित अर्थ के बीहड़ों में उतरती
दिखने देने के लिए अनुभव और संवेदना से गहरी मुठभेड़ें की हैं। है। मीडिया, बाज़ार, उदारतावाद, मानवीय उच्चादर्श, प्रचलित
अपनी काव्यभाषा पाने के लिए जगूड़ी ने यथार्थ के बहुस्तरीय विश्वास और अवधारण के विरुद्ध कवि कोई वक़्तव्यबाजी नहीं
रूपांतरणों के मध्य संतरण किया है। वे कविता की कंडीिशनिंग को करता है, बल्कि उसे वह प्रतीतियों के आस्वादन में बदल देती है.
तोड़ते हुए लगातार आगे बढ़ते रहे हैं और कविता में समाज के जगूड़ी की कविता में झटके बहुत हैं– कह सकते हैं कि लटके-
प्रतिबिम्ब के साथ परिस्थितियों का प्रतिबिम्ब उकेरते रहे हैं। उनकी झटके दोनों पर दोनों सचेत भंगिमाओं के साथ प्रकट हुए हैं। यह
कविता की जटिलता दरअसल परिस्थितियों और पारिस्थितिकी की सच है कि कविता का जन्म स्वाभाविक रूप से व्यथा की कथा
जटिलता है। उनकी कविताएँ, उनकी ही नहीं, हिंदी कविता के ढाँचे कहने के लिए हुआ है, किन्तु व्यथाएँ भी जटिल से जटिलतर हुई
और साँचे से बिलकुल अलग नज़र आती हैं, लगभग अलग तरह हैं। यहाँ शब्दों का संयोजन और समन्वय भर नहीं है, बल्कि
के अनुभवों, संशयों, तार्किकताओं, वक्रताओं और प्रेक्षणों की उपज कविता की सुसंयत पारिभाषिकी– द बेस्ट वर्ड्स इन वेस्ट आर्डर
हैं, बल्कि कहें कि उनकी कविताएँ स्वनिर्मित काव्यभाषा का विरल को निरर्थ बनाते हुए अनुभव के अन्वय से बनी कविता का
उदाहरण हैं। अपने काव्यात्मक कौशल से अर्जित यह काव्यभाषा आस्वादन मिलता है। यह कविता का नया सेन्टेक़्स है। बौद्धिक
प्रेक्षण के बहुस्तरीय प्रयत्नों का प्रतिफल लगती है जहाँ कोई भी मांसपेशियों को उद्वेलित और सक्रिय करने वाली कविता, जहाँ

yegh जुलाई से सितंबर 2023 n 103


व्यर्थ का रुदन और भावात्मक आस्फालन नहीं है। इसमें जितनी टिम्बर व्यापारी, प्रापर्टी डीलर अथवा एक ठेकेदार विधायक के
समसामयिकता और तात्कालिकता है, उतनी ही दीर्घकालिकता। लिए है या एक चरवाहे, एक डाक़्टर के लिए है। बाढ़ और सूखे
यह समय को लाँघते अनुभवों का रोमांचक दस्तावेज़ है। और अन्य प्राकृतिक आपदाओं से निपटने के बहाने राहत कोषों की
कविताओं की निर्मिति और उगाही का जगूड़ी का तौर तरीका लूट की कामधेनु बनी मातृभूमि के अलग-अलग निहितार्थ हैं।
का बिलकुल अलग है। अपनी सरस्वती की अंदरूनी ख़बर से सारांश यह कि जगूड़ी की कविता न तो पारंपरिक कविता की
लेकर ख़बर का मुँह विज्ञापन से ढका है तक चौंतीस कविताओं का लीक और लय पर चलती है न आजमाए हुए बिम्ब-प्रतीकों का
भाष्य बहुआयामी है। ज्ञान-निर्भर युग में सरस्वती की भूमिका बदल अवलंब ग्रहण करती है। यह कवित-विवेक के अपने खोजे-रचे
चुकी है. वरदपुत्रों की फलदायी मूर्खताओं से लेकर मनुष्य जाति के प्रतिमानों और सौंदर्यधायी मानदंडों पर टिकी है। रीति, रस,छंद
लिए ख़तरे पैदा करने वाले लक्ष्मीपुत्रों तक पर उनकी असीम कृपा और अलंकरण के दिखावटी सौष्ठव से परे यह आधुनिक जन-
है। कवि की कठिनाई को लेकर व्यक़्त कविता में सरलता की हाँक जीवन में खिलती प्रवृत्तियों, उदारताओं, मिथ्या मान्यताओं,
लगाने वाले तत्वों की पूरी ख़बर ली गयी है। वे कहते हैं- भाषाएँ व्याधियों, किंवदन्तियों, क्रूरताओं का खाका खींचती है। इसमें बरते
भी अलग अलग रौनकों वाले पेड़ों की तरह हैं। सबका अपना गए शब्द आधुनिकता के स्वप्न और संघर्ष की पारस्परिक रगड़ से
अपना हरापन है। किन्तु जगूड़ी की शिकायत उन लोगों से हैं जो उपजे हैं। पर्यावरण को ये कविताएँ चिंताओं और सरोकारों के नए
उन्हें काट कर उनकी छवियों का बुरादा बना रहे हैं और भाषा को धरातल से देखती हैं। इनमें सब कुछ के लुट जाने का और लुटते
एक जैसी किटप्लाई में बदल रहे हैं। उनकी चिंता यह है कि कहीं हुए को बचा लेने का हाहाकारी शोर और रोर नहीं है। क्रूरताओं
कविता जैसी कविता गढ़ने की सरल बेसब्री कविता के माहौल को और हिंसा के चितेरों को ये कविताएँ चेतावनियाँ नहीं देतीं क़्योंकि
एकरस न बना दे। जगूड़ी की कविता इसी एकरसता के विरुद्ध ये जानती हैं– यह काम कवि का नहीं, व्यवस्था और प्रशासन का
बदलती जीवन शैलियों, आपराधिक वृत्तियों, चीज़ों, वस्तुओं, है। जिस तरह प्रशासन और कानून के जिम्मे एक स्वच्छ नागरिक
आदतों, राजनीतिक व्याधियों, फलश्रुतियों, जैव तकनीकी से फूलों पर्यावरण का निर्माण है, इन कविताओं का काम नागरिकता के
की खेती में फूल-फल रही उदासी, फूलों के सामूहिक संहार के विरुद्ध होते पर्यावरण की शिनाख्त है, कविता को रिपोर्ट की शक़्ल
आनंद में निमग्न सांस्कृतिक अनुष्ठानों और विदेशी फूलों की खेती देना नहीं। हाँ, इनका काम ख़बर में छिपी कविता को निकाल लेना
के इस दौर में मधुमक़्खियों की मधुकरी पर होते वज्रपात का है। पलटवार और एक ख़बर– ख़बरों के अंबार से ही निकाली गयी
बारीक अध्ययन और निरूपण है। यहाँ पर्यावरण की चिंता को नए कविताएँ हैं। पलटवार कविता में एक निरपराध व्यक्ति का अपराधी
परिप्रेक्ष्य में देखा गया है। बन जाना आज के समाज की हक़़ीकत का डरावना वर्णन है–
जगूड़ी जहाँ तमाम अपराधों के पीछे ग़रीबी की बीमारी को न पीटे जा रहे शरीफ आदमी को लगा कि कर्मठ कल्पनाशील
देख पाने वाली व्यवस्था को रेखांकित करते हैं, वहीं फर्नीचर की जीवन
एक दूकान के गूँगे कारीगर से संवाद के जरिए एक कविता उठाते जिसके लिए मॉ-बाप दवा और दुआ करते नहीं थकते
हुए कहते हैं- गूंगे कारीगर के बातूनीपन से इतना वह पलंग मुखर फिचकुर फेंकता जिबह होने जा रहा है
हो उठा था/ कि छटफटाते मन का आख़िरी विश्रामालय लगने लगा अगली चोट ने मौत की आख़िरी चेतावनी दी
था। (गूँगे का शब्दकोश) आार्थिक उदारतावाद की छाया में जीवित रहने की अंतिम इच्छा ने वहीं के वहीं पलटवार किया
पनपते आधुनिक अर्थतंत्र की आवाज़ कर्ज़ के बाद नींद में सुन पता नहीं कैसे हत्यारे के हथियार ने ही हत्यारे की हत्या कर
पड़ती है. कविता कहती हैः एक से एक नया रास्ता जानने वाले दी...
पुराने मनुष्य के भीतर/ हर जगह कर्ज़ और कमाई ढूढ़ता एक और मनुष्य के भीतर छिपी पशुता और पशुओं के भीतर छिपी
अत्याधुनिक मनुष्य चल रहा होता है/ जो गाँव में भी लोन पाने की मनुष्यता का प्रतिशत ज्ञात कर लेना जैसे कवि का बुनियादी ध्येय
जुगत में पाया जाता है। जगूड़ी ने इस कविता में जेनटि े क हो– और ऐसी ही परिस्थितियों में ही टुनकीबाई और ग़रीब वेश्या
विरोधाभासों को अलंकार बनाने वाली कुदरत की बात की है। वे की मौत जैसी कविताएँ जन्म लेती हैं।
ख़ुद कविता की जेनटि े कक़्स के इंजीनियर कहे जाते हैं जिन्होंने
पारंपरिक आस्वाद वाली कविता को आमूल बदल दिया है। उनके लीलाधर जगूड़ी की कविता विपत्ति में भी एक पुल का निर्माण
लेखे मातृभूमि का आज वही अर्थ नहीं रह गया है, जैसा कोशकार करती है। वे बेहद तात्कालिक सामाजिक विषयों को जीवन-पद्धति
बताते हैं। एक सप्लायर के लिए मातृभूमि का वही अर्थ नहीं है जो से अदृश्य कारणों तक ले जाते हैं जहाँ चीज़ें भी मनुष्यों के बारे में

104 n जुलाई से सितंबर 2023 yegh


सोच रही होती हैं। इसीलिए कवि कहता है कि चीज़ों के बारे में (तीन)
सोचना अब सरल नहीं रह गया है। इसी की तर्ज पर मैं कहना ''मेरी आत्मा लोहार है
चाहता हूँ कि कविता करना और समझना भी अब वैसा सरल नहीं ज़िन्दगी से रोज लोहा लेती है
रह गया है, जैसा हमने उसे समझना सीखा था। जगूड़ी की प्रत्येक मेरी आत्मा धोबी है
कविता का कथ्य और विन्यास देख कर लगता है कि अब कविता मन का मैल आँसुओं से धोती है
ख़ुद अपने नए औज़ार पैदा कर रही है। उन्हें पुराने औज़ारों से नहीं मेरी आत्मा कुम्हार है
जाँचा जा सकता। कविता की यह सीढ़ी, कवि कहता है कि मुझे सपनों की मिट्टी से आकार बनाती है
रोज बनानी पड़ती है। फिर आलोचक या समीक्षक ही अपनी पुरानी मेरी आत्मा बढ़ई है
नसैनी से यहाँ कैसे चढ़ सकता है– पहाड़ों पर खाइयों में नदियों रोज़ कोई न कोई विचार खराद देती है
में रास्ते-सी सीढ़ियाँ गिरी पड़ी दिखती हैं/ फिर भी जिस-जिस रास्ते किसी भी आत्मा की कोई एक जाति नहीं होती
से जाना होता है/उसे वह सीढ़ी ख़ुद बनानी होती है/ एक एक यहाँ किसी भी एकराम से काम नहीं चलने वाला
कदम कविता में जैसे छोटे-छोटे वाक़्य/ हर नए कदम फर नए डंडे मैं आत्माराम भी हूँ, सिर्फ़ मोचीराम ही नहीं
बिठाने पड़ते हैं– हवा में/...तब कहीं एक कविता उतर पाती है रोटीराम भी हूँ, सिर्फ़ रामरोटी ही नहीं।''
पृथ्वी पर...और चढ़ पाती है बिना शीर्षक के शीर्ष पर भी। यही सीढ़ी ये पंक्तियाँ लीलाधर जगूड़ी के नए कविता संग्रह ''जितने लोग
उस रास्ते तक पहुँचाती है जो एक मजदूर दम्पति के जीवन में जाता उतने प्रेम'' से उद्धृत हैं। जिन्हें भाषा की शक्तियों से, शब्दों की
है लेकिन जिस रास्ते से वे बिलकुल किनारा किए रहते हैं। उसी निस्‍सीमता से खेलना आता है, शब्द से अर्थ और अर्थ से अनेक
तक़लीफ को समझने से पत्रकारिता की भाषा में वह कविता लिखी अर्थात् बना लेने की जिनमें क्षमता है जो शब्दों के बीहड़ से
जा सकी जो एक रिपोर्ट जैसी है और जिसका उद्देश्य न प्रथमतः, न अभिप्रायों की नदी बहा सकता है, जो भाषा को हवा की तरह बाँध
अंततः कविता होना नहीं था। भाषा, हालत का साथ नहीं दे रही है। लेने में हुनरमंद है, वह कौन हो सकता है भला-लीलाधर जगूड़ी
जैसे रखे-रखे उड़ गया हो पानी का बोझ और गुस्सा। के सिवा। कविता के शिल्प में उत्तरोत्तर बदलाव की जिसकी
बेशक, दुनिया का सबसे बड़ा रचनात्मक झूठ एक कवि ही चुनौती धूमिल ने भी स्वीकारी थी, जो 'ग़रीबी हटाओ' की तर्ज पर
लिख सकता है, किन्तु रचनात्मकता में ज़मीनी हक़़ीकत भी वही भूख़ को एकदम से खत्म करने की माँग के सर्वथा विरुद्ध रहा है
बोता है। फूलों की खेती और उदासी, तथा प्राचीन संस्कृति को और जो यह कहता हो: ''आपदाओं में कुछ अच्छे गुण वाली
अंतिम बुके जैसी कविताएँ लिख कर जगूड़ी ने यह सिद्ध कर आपदाएँ भी होती है/ जिन्हें खोना नहीं बल्कि बोना चाहती हूँ सबमें
दिखाया है कि वे रचनात्मकता के उत्खनन में अभी बूढ़े नहीं जैसे कि भूख़/ भूख़ मिट जाए भले ही पर मरे न कभी, वरना मेरे
दिखते। उन्हें किसानी तथा देश के अर्थतंत्र की पूरी समझ है। वे तुम्हारे रोमांच मिट जाएँगे।'' अमिट भूख़ के रोमांच से कविता के
देश के मालियों की माली हालत और मधुमक़्खियों को मधुकरी विरल रोमांच तक संतरण करने वाले इस कवि की कल्पनातीत
(जीविका) के मौलिक अधिकार का मामला कविता की संसद में होती पतंग को सहज ही काट पाना मुमकिन नहीं है।
उठा कर यह जताते हैं कि जो कुछ भी उनकी कविता बना रही है, अपने पसंदीदा कवि को पाठक उसके उत्स से समझना चाहता
उसका सामाजिक खराबियों से कोई न कोई संबंध अवश्य है। एक है. बरसों जगूड़ी के सान्निध्य में रह कर यह जानना मुश्किल नहीं
बात यह भी कि कविता में नई प्रतीतियों और नए प्रतीकों की आमद है कि वे कविता में निरंतर रचनात्मक तोड़फोड़ करने वाले कवि
कुछ इधर घट गयी-सी लगती थी, लेकिन लगभग आठ-दस साल रहे हैं। 'नाटक जारी है' से लेकर आगे के सभी संग्रहों में उन्होंने
के अंतराल से प्रकाशित लीलाधर जगूड़ी का यह कविता संग्रह एक अपने को उत्तरोत्तर बदला है. कहा होगा अज्ञेय ने– 'राही नहीं,
अलग तरह की खुशी और दृष्टि दोनों देता है। जगूड़ी का यह सारा राहों के अन्वेषी'। पर जगूड़ी के इन प्रयोगों में भाषा, अनुभव और
काव्यात्मक उपक्रम भाषा की एक-जैसी किटप्लाई तैयार करने कथ्य का एक सर्वथा बदला हुआ संसार दीखता है। वे निरंतर ही
विरुद्ध अपने देशी रंदे के इस्तेमाल से एक ऐसी काव्यभाषा रचना नहीं, उत्तरोत्तर अपने प्रयोगों में प्रगति की कामना से भरे दिखते हैं
या पाना है जो किसी स्थापित भाषा के अदेखे-अ-सुने को प्रकट कविता लिखते हुए वे वस्तु और रूप की समरस्या से भी मुक्त
करने के लिए गूँगे कारीगर के अंदाजे-बयाँ जैसा हो। तभी शायद दिखते हैं। फिर जो कवि 'कविता जैसी कविता से बचो'–का हामी
कविता भी छटपटाते मन का विश्रामालय बन सके। हो और जो भाषा को उत्तरोत्तर नए ढंग से बाँधने के उपक्रम में
तल्लीन हो, उसके प्रयोग निस्संदेह भाषा और कथ्य की अजानी-

yegh जुलाई से सितंबर 2023 n 105


किस हद तक जोख़िम उठाते हैं। मुक्तिबोध जब यह कहते हैं कि
प्रेम जीवन में एक ही बार होता है, ऐसा कहने 'अभिव्यक्ति के ख़तरे उठाने ही होंगे/ तोड़ने ही होंगे मठ और गढ़
वाले बहुतेरे होंगे पर जितने लोग उतने किस्म सब' तो केवल स्थूल अर्थों में ही नहीं, आभ्यांतरीकृत चेतना के
के प्रेम की अद्वितीयता का अपना खास अर्थ सभी स्तरों पर वे परिवर्तन और उथल-पुथल की माँग कर रहे होते
है। हर व्यक्ति के भीतर प्रेम, करुणा तथा अन्य हैं। प्राय: कवियों की यह कामना होती है कि उन्हें व्यापक रूप से
मानवीय भावनाओं का उदय और प्रकटन समझा और सराहा जाए। वे जन जन तक संप्रेषित हो। किन्तु हिंदी
अपनी तरह से होता है-यानी अपनी प्रकृति, के कुछ कवि ऐसे हैं जो अपनी शर्तों और धुन पर कविता लिखते
अपने व्यवहार, अपनी समाहिति और चेतना में हैं। विनोद कुमार शुक्ल के बाद जगूड़ी ही ऐसे कवि हैं जो कविता
किसी भी दूसरे से भिन्न-इसीलिए जगूड़ी का लिखते हुए कविता लिखने जैसे किसी रोमांच के वशीभूत नहीं
यह चिंतन प्रेम की एक ही मनोभूमि पर 'जितने होते। विनोद कुमार शुक्ल ने 'खिलेगा तो देखेंगे' उपन्यास लिखा
लोग उतने प्रेम' की अवधारणा लेकर सामने था; जगूड़ी की एक कविता का शीर्षक है: 'लिखे में भी न खिले
आता है। कहने के लिए यह ऊपर से प्रेम
मेरी उदासी तो'। उन्होंने अपनी एक कविता को किसी प्रकार की
कविताओं के संग्रह जैसा दिखाई देता है, पर
यह प्रचलित अर्थों में प्रेम की रूढ़िबद्ध छवि से भावुकता की आबोहवा में नहीं खिलने देकर भाषा के अजाने
बाहर निकलने की कोशिश भी है। रहस्यों, अनखिले अर्थों और अभिप्रायों की क्यारियों में खिलने दिया
है। परंपरागत अर्थ देने वाले मंतव्य उनके यहाँ लगभग पस्त नज़र
आते हैं। कवि के रूप में उन्होंने कभी अच्छी तुकें खोजी हैं तो कभी
अपहचानी युक्तियों के अनाविष्कृत संसार तक ले जाते हैं। नए गद्य की गढ़न का सुख भी लिया है, जैसे वे 'कविता जैसी
एकरसता और ऊब के निर्माण के विरुद्ध उनकी कविता हर बार कविता' न लिखे जाने का बीड़ा उठाए हुए हैं, वैसे ही वे अपनी
अपना चेहरा-मोहरा बदल लेती है जैसे करवटें सुकूनदेह नींद के कविता के लिए 'आलोचना जैसी आलोचना' को नाकाफ़ी मानते
लिए ज़रूरी हैं– जगूड़ी की कविता बार-बार उद्विग्नता में करवटें हैं। वे चाहते हैं, जैसे उनकी कविता शब्दों के अजाने अभिप्रायों में
बदलती है, जो हर पल कवि की व्यग्रता– नया रचने और रूढ़ियों ले जाती है, वैसे ही कुछ जोख़िम आलोचना भी उठाए। वे गद्य को
को तोड़ने की हिकमत का परिचय देती है। लय और श्वासानुक्रम से बॉंधने के प्रयासों के तुलसी के बीजमंत्र
प्रेम जीवन में एक ही बार होता है, ऐसा कहने वाले बहुतेरे होंगे ‘भाषानिबंद्धमतिमंजुलमानोति’ से प्रेरणा लेते दिखते हैं।
पर जितने लोग उतने किस्म के प्रेम की अद्वितीयता का अपना खास 'जितने लोग उतने प्रेम' को पढ़ते हुए जगूड़ी के भीतर पैदा होती
अर्थ है। हर व्यक्ति के भीतर प्रेम, करुणा तथा अन्य मानवीय कविता की यांत्रिकता हमें विस्मित भी करती है तो चकित भी। यों
भावनाओं का उदय और प्रकटन अपनी तरह से होता है– यानी तो 'छब्बीस जनवरी 2009', 'अध:पतन', 'सार्वजनिक औरत',
अपनी प्रकृति, अपने व्यवहार, अपनी समाहिति और चेतना में 'गिलहरी और गाय', 'एकोहंबहुस्याम:', 'जवाबी चेहरा', 'नए
किसी भी दूसरे से भिन्न– इसीलिए जगूड़ी का यह चिंतन प्रेम की जूते', 'एक छिपुर की डायरी', 'प्रेम' व 'नीरस जमाने में सरस
एक ही मनोभूमि पर 'जितने लोग उतने प्रेम' की अवधारणा लेकर कवि' जैसी कविताओं में हम जगूड़ी के कवित्व के आरोह-अवरोह
सामने आता है। कहने के लिए यह ऊपर से प्रेम कविताओं के को पूरी यति-गति में अवलोकित कर सकते हैं पर कहीं न कहीं यह
संग्रह जैसा दिखाई देता है, पर यह प्रचलित अर्थों में प्रेम की प्रश्न अवश्य उठता है कि ये आख़िर किस प्रजाति के पाठकों की
रूढ़िबद्ध छवि से बाहर निकलने की कोशिश भी है। इतने चालू, कविताएँ हैं। जोख़िम उठाकर रच रहे लीलाधर जगूड़ी ने बहुतेरी
सतही, दैहिक और सांसारिक खानापूर्ति की तरह लिये जाने वाले कालजयी कविताएँ लिखी हैं तो अपने लिए दुरूहता की चुनौती-
प्रेम से जगूड़ी पहले ही अपना पल्ला झाड़ते हुए चलते हैं। इसीलिए भरी खाइयाँ भी उत्खनित की हैं जिन्हें लांघ पाने में आलोचक तक
वे उस रास्ते पर जाने को बरजते हैं जिस रास्ते का निर्माण और लड़खड़ा पड़ें। यह 'कविता को कविता जैसा न रचने' की उनकी
खोज पहले ही की जा चुकी है। कविता में, जीवन में, प्रेम में– नई हिकमत का प्रमाण भले हो, रेत से तेल निकाल पाने जैसी मशक्कत
नई सरणियों और प्रमेयों की खोज कवि को काम्य है जिससे कवि भी यहाँ पाठकों को कम नहीं करनी पड़ती. n
के शब्दों में-नई साँसों के लिए धड़कते हुए संघर्षरत जीवन की
भाषा मिल जाए और आलोचक को नया जन्म मिल सके। संपर्क : जी-1/506 ए, उत्तम नगर, नई दिल्ली
मो. 08447289976
जगूड़ी की कविता यह बताती है कि वे अभिव्यक्ति के लिए

106 n जुलाई से सितंबर 2023 yegh


n अविराम : अशोक वाजपेयी

औसतपन से मुक्ति का महाभियान


मिथलेश शरण चौबे

कविता यदि जीने के कर्म को उसकी मानवीयता की सामान्य जीवन में दखलंदाज़ी की हदें ही नहीं बचीं
और गरिमा में शक्तिपूर्वक प्रस्तुत और परिभाषित नहीं और दुर्नीति के स्तर तक पहुँचने से अब उसे कोई
करती तो उसका और कौन-सा कर्तव्य हो सकता है? गुरेज़ भी नहीं रहा। धर्म के तले अनाचार और
यदि संसार के विनाश के विरुद्ध रचनात्मक कर्म ही आक्रामकता को खुला प्रश्रय मिल रहा है, साथ ही
एकमात्र बचाव है (जैसा कि अमरीकी कवि-समीक्षक बहुसंख्यकवाद द्वारा अल्पसंख्यकों को संशयग्रस्त
केनेथ रेक्सरॉथ ने कहा है) तो कवि के लिए सबसे बनाने की अनुदार कार्यावाहियाँ फैलती जा रहीं हैं।
अधिक रचनात्मक क्या यह नहीं हो सकता कि वह सत्ता, पूँजी और अपराध का त्रिकोण प्रकट रूप से
मानव अस्तित्व के अन्तःसलिल हो रहे उत्सों को फिर से प्रकाश में विकट हो चला है। धर्म आधारित राजनीति के बल पर अर्जित सत्ता
लाये; हम ऊबे और थके और उखड़े हुओं को अपने जीने की क्रिया की क्रियाशीलता में ‘मनुष्यत्व’ संकटग्रस्त स्थिति में पहुँच चुका है।
की गहराई और विषदता पर कविता के माध्यम से बल देकर हममें निजी लालचों और भेद के अनेक जालों ने एकांगीपन में भारी
उस कर्म के लिए नया रस, नया महत्त्वबोध उत्पन्न करे ताकि हम इजाफ़ा किया है। सुरुचि, जवाबदेही, सार्वजिनक कर्तव्य,
जीवन में अर्थ, उद्देश्य और मूल्य की खोज और प्रतिष्ठा कर सकें। दीर्घकालिक चिंताएँ, नैतिकताबोध, उदारता, निर्भयता, प्राथमिक
(रघुवीर सहाय की कविता पर अशोक वाजपेयी) स्रोतों को जानने की उत्सुकता आदि छीजते जा रहे हैं। मनुष्य
छः दशकों से अधिक फैले काव्य-संसार में अशोक वाजपेयी ने जीवन से इतर व्यापक उपस्थिति के प्रति दोहक़ रवैया, प्रायोजित
कविता में अपना एक प्रतिसमय रचने की ज़िद भरी और भरोसेपर्ण ू उपक्रमों पर अप्राश्निक समर्पण और अनुकरण, मिथकीय आख्यानों
आस्था को निरन्तर चरितार्थ किया है। आरम्भिक कविताओं से की मनमाफ़िक प्रस्तुतियाँ, इतिहास की दुरव्याख्या, महानायकों पर
लेकर अभी तक की कविताएँ, उनकी काव्य-जिजीविषा के सघन लांछन, फूहड़ता और भोड़े प्रदर्शनों की होड़ आदि अनेक इस दौर
होते चले जाने का एक सतत सिलसिला बनाती हैं। ज़ाहिर है, इस के प्रत्यय हैं जो मनुष्य के मनुष्य होने को संशयग्रस्त बनाते हैं।
अवधि में स्थितियाँ लगातार बदलती रही हैं और पिछले तीसेक विरल होते जा रहे मनुष्यत्व की जीवन में वापसी भले ही
वर्षों में रुग्णताएँ बदलाव की पर्याय बनी हैं। इस समूचे दौर में असंभव हो, कविता ऐसी तमाम असंभवताओं को दरकिनार कर हर
क्रमशः निजी व सार्वजनिक जीवन में नैतिकता का तेज़ी से क्षरण उस भावबोध का पुनर्वास करती है, जिसका मानव जीवन में
हुआ है। संकीर्णता के ओसारे फैले हैं, नफ़रत की जगह ने प्रायोजित अपसरण होता है। कवि को प्रेम, स्मृति, पड़ोस, प्रकृति, भाषा के
रूप से अप्रत्याशित बढ़त बनाई है। सौहार्द लुप्त होता जा रहा है। सौन्दर्यबोध के परिपाक से बहुधा सम्बोधित किया जाता रहा है।
हिंस्र आक्रामकता सामान्य व्यवहार में घटित हो रही है। भेद की ऐसा किया भी जाना चाहिए। जीवन में विपुल उपस्थित या रिक्ति
पारम्परिक वज़हों में कई नई वज़हें मिलकर उसका कुनबा बढ़ा रही पर अनुपस्थिति का ठोस एहसास कराते भाव क्या कविता के लिए
हैं। नागरिकता बोध संशयग्रस्त है। जीने की प्राथमिकतायें अन्यों निषिद्ध होंगे? निजता को, उसके सार्वजनीय अभिप्रायों व उनमें
द्वारा थोपने और उसके स्वीकार भाव का बेहया चलन बहुतायत निहित आकांक्षा को जगह देती कविता में ही सार्वजनिक आशयों
हुआ है। निजी के शक्तिमय होने की बेहूदी आकांक्षा ने, दूसरे के के निजी अर्थों की ध्वनि प्रगाढ़ हो सकती है। ऐसा असंभव है, भले
होने और उनसे साहचर्य की इच्छा को इतना ठेल दिया है कि ही उसे संभव दिखाने के यत्न होते रहते हों, कि वैयक्तिक, निजी,
उसकी वापसी असंभव लगती है। राजनीति और आर्थिकी की एकान्तिक विषय-अनुभूति-अनुराग की सूक्ष्मता को अप्रकट कर,
केन्द्रीयता ने अन्य आयामों को दरकिनार कर दिया है। राजनीति उससे बाहर की दुनिया के सूक्ष्म अभिप्रायों को महसूस किया जा

yegh जुलाई से सितंबर 2023 n 107


सके। कवि की रचना प्रक्रिया, विषय बहुलता, भाषिक आह्वान वंचित होना कविता के विन्यास को सीमित करना होगा। कविता अर्थ
अनेक आयामों में गहरे व सूक्ष्म हैं, उनकी लगभग सभी कविताओं देने के स्थूल उद्यम से पार अनुभूति की विराटता का विहंगावलोकन
को पढ़कर बहुत स्पष्टता के साथ यह जाना जा सकता है कि कराना चाहती है, अर्थों का उतावलापन यदि बाधा न बने।
वास्तव में सत्रह कविता संग्रहों में बसे उनके काव्य-संसार की आत्मा के अँधेरे को
निर्मिति क्या है। इतनी सारी कविताओं में अन्ततः केन्द्रीय रूप से अपने शब्दों की लौ ऊँची कर
कौन-सा विचार अपनी जगह बना सका है और कविता से बाहर अगर हरा सकता
जीवन में फैलने की कवि इच्छा का पर्याय है या सिर्फ़ विविध तो मैं अपने को
अनुभूतियों की भाषिक पनाह भर ये कविताएँ हैं? रातभर
उनकी कविताएँ एक अदद मनुष्य होने की प्रस्तावना के साथ एक लालटेन की तरह जला रखता
ही एक बेहतर सामाजिक होने की आकांक्षा का प्राकट्य हैं। अगर इतने से काम चल जाता।
मनुष्यत्व की अपनी दृष्टि कविताओं में अनेक तरह से आवृत्ति दरअसल यह कवि कर्म का हीनताबोध न होकर कर्म की
करती हैं जैसे संगीत में स्वरों की आवृत्ति हो, लेकिन हर आवृत्ति निष्पत्ति की बाहरी विफलता का ऐसा गान है जिसमें इस उपक्रम
की वैयक्तिक गरिमा व उत्साह है। प्रतिसमय दरअसल वह शरण्य की अनिवार सक्रियता का आह्वान एक पुकार की तरह मिलता है-
है जिसे कवि, जीवन में कल्पित कर रहा है। उसकी जटिलता, हम जो न लड़ सकते हैं–
असंभवता, स्वयं से लेकर अन्यों की अकर्मण्यता, नाउम्मीदी जैसे न चीज़ों को बदल सकते हैं
सच तो हैं लेकिन उनके बरअक्स स्वप्न देख सकने की ज़िद जैसे हम जो अपने रामझरोखे से सिर्फ़ देख सकते हैं
ठोस प्रत्यय का निरन्तर सिलसिला है। उसकी असफलताएँ, और अपनी बही में दर्ज़ कर सकते हैं
निराशाएँ, क्षोभ, ग्लानि के बरअक्स यत्न, आशा, हर्ष, उत्सुकता ज़िन्दगी का यह गड्डमड्ड हिसाब
को कविता पोसती है। मनुष्य के वैयक्तिक आयामों को निपटता के हम यही करते रहेंगे–
साथ प्रकट करती रचना प्रक्रिया का सहज विस्तार, उसकी ताकि सनद रहे,
सार्वजिनक दुनिया में उपस्थिति और उससे निपट संलग्नता है। भले एन वक़्त पर
और यह सब होने की अनिवार्य शर्त की तरह उपस्थित है। हमारे या किसी के काम न आये
कवि, कुम्हार, लुहार, बढ़ई, मछुआरा, कबाड़ी, कुँजड़ा के द्वारा उनकी कविता में आत्मावलोकन की अनेक मुद्राएँ हैं। दूसरों को
जीवन को रचने सहेजने के कर्म, उनके संघर्ष, हताशाएँ, बेढब होती आक्षेपित करने के विरल भाव के सम्मुख आत्मप्रश्नांकन की
दुनिया पर उनके प्रश्न टटोलती कवि दृष्टि तथा दूधवाला, सघनता वैयक्तिक जवाबदेही का ही आत्मस्वीकार है -
अख़बारवाला, पोंछावाली, पोस्टमैन, रसोइया, अचार बनाने वाली, हम अपने किए के कठघरे में
समोसेवाला, पुतइया, रेज़ा, सब्जीवाला, फुटपाथ पर सोने वाला, खड़े किए जाएँगे
रिक्शाचालक, चौकीदार, माली, मसाला कूटने वाली स्त्रियाँ, कवि कर्म का यह आत्मस्वीकार एक टेक की तरह अशोक जी की
ज़रूरतमन्द बच्चों का मददगार, अनाज बीनने वाली, कचरा नबेरती कविताओं में व्याप्त है जिसमें अपने सपने, आकांक्षा के प्रत्ययों पर
बच्चियाँ, भूख़ा सोया बूढ़ा जैसे हाशिये के मनुष्यों की स्तुति की कवि इसरार की अपर्याप्तता और उनके मुगालते निस्पृहता से आते हैं–
चाहना, हर मनुष्य तक विस्तार पाना चाहती है। उसमें बूढ़े मेरे पास दुनिया को बदलने का
मुसलमान से लेकर सरनाम सिंह तक की जीवनचर्या और उनकी कोई विकराल सपना नहीं था :
नियति का प्रलाप रोज़मर्रा के घटित संताप की तरह व्याप्त है। मैं इस टुच्ची आकांक्षा में फँसा रह गया
कविता फौरी किस्म की कोई निराकरणात्मक चेष्टा नहीं करती कि कुछ रूपक, कुछ शब्द, कुछ विन्यास बदलने से
लेकिन उसमें विचार के, कल्पना के ऐसे कई आयाम मिलते हैं जो वह सब इतना बदल जाएगा,
मनुष्यत्व की आकांक्षा के दीर्घकालीन उपक्रम को सहेजते हैं। जो जितना ज़िंन्दगी को ठीक-ठीक चलाने के लिए
अशोक जी की कविताओं में फौरी प्रतिक्रिया का स्थूल आभास हमारे युग में ज़रूरी है।
तात्कालिकता का भ्रम पैदा करता है, इस आभास के अन्दर की दरअसल कविजीवन और कवि कर्म की आपसदारी और एक
सूक्ष्मता, मूर्त के पार्श्व का अमूर्त, छोटे-छोटे अनुभवों का समुच्चय, दूसरे की पारस्परिकता कवि के लिए विकट चुनौती है, कविता का
संप्रेष्य के पीछे का अव्यक्त इतना विस्तृत और अर्थगर्भी है कि उससे स्वप्न और जीवन का सच क्या इतने निकट हो सकते हैं कि एक

108 n जुलाई से सितंबर 2023 yegh


का घटित, दूसरे की असंभवता का साम्य हो सके- ‘जिनके पास सपने हैं सच भी उन्हीं के पास आयेगा’ लेकिन
मैंने जीवन और कविता को भी उलझा-सा दिया उस प्राप्ति का यत्न कोई और नहीं कर सकता। अकर्मण्य रहक़र
जीवन की की सच्चाईयों और सपनों को कविता में ले गया बदलाव की उम्मीद व्यर्थ है :
आश्वस्त हुआ कि जो शब्द में है वह बचा रहेगा हमने सपने देखे थे : बेहतर दुनिया के
भले जीवन में नहीं हम बदलाव चाहते थे ;
गलती शायद यह हुई कि जो कविता में हुआ पर उनके लिए हम कुछ करने से बचते रहे।
उसे जीवन में भी हुआ मानकर सन्तोष करता रहा हमें बढ़ते अँधेरे की पहचान थी
अशोक जी की कविता में आत्माभियोग की प्रचुरता के सिरे से और यह भरोसा भी कि अन्ततः रोशनी आ सकती है -
दूसरों पर अभियोग की अत्यल्पता है। यह एक जद्दोजहद की तरह लेकिन उसके लिए हमने कोई कोशिश नहीं की।
है कि जिस मनुष्यत्व की आवश्यकता है वह इन प्रतिकूल व्यवहारों हिंदी के अत्यल्प बहुपठित लेखकों में अशोक जी ऐसे विरले हैं
से कैसे संभव हो सकेगा- जिनकी साहित्य के साथ ही अन्य कलाओं से गहरी निकटता है।
मैं सीधा-सादा आदमी हूँ। उनके आयोजन, साहचर्य और कलालेखन इसका असंदिग्ध साक्ष्य
आप मुझे चैन से रहने देने से है। कलावन्तों पर, कलाओं पर अनेक कविताएँ भी उन्होंने लिखीं
क्यों रोकना चाहते हैं? हैं। बावज़ूद इसके उनकी कविता बहुपठित-कलासिक्त से आक्रान्त
--- नहीं होती। नए कवि चाहें तो उनसे ये सीख ले सकते हैं।
उनकी पूरी कविता-यात्रा दरअसल औसतपन से मुक्ति का
मैं बच कर रहना चाहता हूँ काव्य में घटित महाभियान ही है और जिसमें इस उम्मीद से गहरी
--- सम्पृक्ति है कि वह जीवन में भी घटित हो सकेगा, होना चाहिए।
मैं दूर रहता हूँ : एक मनुष्य को सामान्य जीवन में और हस्बमामूल इन मौज़ूदा
अपनी खिड़की से कभी-कभी मुझे हालात में क्या होना चाहिए, यह स्वर एक आह्वान की तरह गूँजता
कुछ जलता,धुँधवाता, हैं। उपदेशपरकता से मुक्त लेकिन एक नैतिक दृष्टि के प्रकीर्णन
सड़ता-गलता दिखाई देता है। की तरह, तमाम करणीय व अकरणीय की शृंखला कविताओं में
मैं अपनी पुस्तकों में डूब जाता हूँ। निरन्तर है जो एक तरह से जीवन मूल्यों की पुकार-सी है। गहरे
मैं मुश्किल से अपने को बचा पाता हूँ स्तर पर यहाँ लोकतान्त्रिक विचारों के वाहक़ मनुष्य की छवि
सुविधाभोगी, अपने कर्म के अहंकार में डूबा, श्रेष्ठीभाव का आभासित होती है। यह भाव ‘अगर बच सका/ तो वही बचेगा/ हम
वाहक़ मनुष्य दूसरों की परवाह से च्युत ख़ुद के सुरक्षित दायरे को सब में थोड़ा-सा आदमी’ के निपट बोध की सतह पर तैरता है।
सहेजता; इस आकांक्षा मनुष्यत्व की दुनिया को कितना ठेल रहा है। अनेक कविताएँ शब्द, भाषा और कविता पर ही हैं, इसके
इस विचार का वाहक़ मनुष्य अपनी आत्ममुग्ध स्थिति में अन्यों अलावा भी अनेक कविताओं में शब्द-भाषा-कविता पर अगाध
को लगातार अपनी दुनिया से बाहर मानता है और इसीलिए उस भरोसा व्यक्त है तथा इसमें जीवन में अघटित के अफ़सोस के
वर्ग ने अपने को तमाम जवाबदेहियों से विमुख होने की कठोरता बरअक्स कविता में घटित का आत्मतोष भी मिलता है। भाषा पर
को प्रश्रय दिया है- यह अनन्य भरोसा तथा भाषा पर ही टिकी अन्तिम उम्मीद
हमने सब कुछ चाक-चौबन्द कर रखा है काव्ययात्रा की एक स्थाई धुन है जिसे आरम्भिक कविताओं से
हम धीरे-धीरे अपने घरों तक को लेकर हाल ही की कविताओं में पा सकते हैं। भाषा का यह अशोक-
क़िले बना रहे हैं : पर्व अनेक भाषिक युक्तियों, संरचनात्मक नए पदों,शब्दों की
किसके पास फुरसत है अप्रचलित योजनाओं, बिम्बों-प्रतीकों-रूपकों के अप्रत्याशित रूपों
कि कुछ पल ठिठक कर से समृद्ध है। यहाँ भाषा की महानता का बखान न होकर, भाषा के
अपने अन्तःकरण का फटता हुआ संसार में ही मनुष्य की मुकम्मल उपस्थिति का ठोस एहसास है–
झीना पड़ता थैला टटोले संसार की नश्वरता के विरुद्ध
या कि किसी दूसरे की करुण कथा अपनी लड़ाई में
धीरज से सुने शब्दों की अक्षरता से

yegh जुलाई से सितंबर 2023 n 109


एक मोरचा जो सिर्फ़ होने के कारण मार कर फेंक दिए गए।
कुछ देर के लिए सही प्रत्यक्ष से सीधे सम्मुख होने की यह काव्य चेष्टा प्रतिरोध के
जीत जाता हूँ बखान की बहुल कविता से कुछेक अर्थों में एकदम भिन्न है। प्रत्यक्ष
--- का प्रत्याख्यान यहाँ किसी प्रमाणीकरण के प्राकट्य का प्रस्थान नहीं
दुनिया शब्दों के अलावा है। इसके पीछे वैचारिक व रचनात्मक उद्यम की लम्बी वैयक्तिक
और कहाँ बच पाती है आख़िरकार पृष्ठभूमि है जोकि न केवल हिंदी भाषा के बल्कि देश के एक
एक आह्वान भी इस काव्य यात्रा में अनुभव होता है : मनुष्य सार्वजनिक बौद्धिक के रूप में अपनी वैचारिक स्पष्टता, सार्वजनिक
काव्यानुभव से जीवनानुभव तक आवाज़ाही कर सके। सांस्कृतिक विषयों पर संवाद तथा सत्तापरस्त हठधर्मिता का निर्भय प्रतिकार,
दृष्टि से समृद्ध करने का उद्यम भी इनमें मिलता है, मनुष्य सिर्फ़ सक्रिय रूप में करते हुए, पिछले दो दशकों से अधिक समय से एक
जीवन संघर्ष में तिरोहित होने को अभिशप्त क्यों रहे, यह तो प्रदत्त प्रतिपक्ष का पर्याय बन चुका है तथा अनेक राष्ट्रीय मसलों पर
जीवन कर्म है, यथास्थिति के विलोम उसमें सौन्दर्यबोध और प्रतिरोध की पहल कर उसको समय व क्षेत्र के विस्तृत फलक तक
कलात्मक जीवनलय की संभवता का विचार अनेक कविताओं में ले जा सका है, उसके कवि कर्म में यह जीवन कर्म अन्तःसलिल
मिलता है। कला-कविताएँ दरअसल एक समान्तर जीवन चेष्टा को है। यह अशोक जी की लम्बी उम्मीद का एक विलोम क्रम है।
चरितार्थ करती हैं। एक गहरा विनय भाव भी इन कविताओं में ज़िन्दगी भर शब्दों से, जीवन में अघटित की कामना करते कवि की
व्याप्त है। प्रेम, पड़ोस, कला संबंधी कविताओं से लेकर आक्रोश, कविता, जीवन में संभव को काव्य संभावना तक ले जा रही है। यह
बर्बरता, हिंस्र आक्रामकता आदि के प्रत्यक्ष प्रतिकार में निमग्न जीवन और काव्य के एकमेक होने का उदात्त है। जीवन विवेक और
स्थिति में भी कविता अपना विनय नहीं तजती है। काव्य विवेक के रूप में, काव्य आस्वाद के जीवन आस्वाद में
“आज कुछ है, कोई चीज़ ज़रूर है जो तीखे यथार्थ बोध से रूपान्तरित होने की प्रक्रिया जैसे कोई वृत्त पूर्ण हो रहा है।
अधिक कुछ की मांग करती है ताकि जो कुछ कवि के कवि होने यह विस्तृत काव्य-संसार निजी और सार्वजनिक के द्वन्द्व से परे
में निहित है वह हो सके। यह मनुष्य से सीधे नंगे-बदन साक्षात्कार मनुष्य को अपार संघर्ष के बावज़ूद उसकी समूची गरिमा, आक्रान्त
की खोज है और यह खोज निर्णय लेने की एक आतंरिक ज़िम्मेदारी सच को ठेलकर अपने सपनों की जगह का साहस, बेहतर और
के साथ रचना प्रक्रिया के ख़तरों के साथ ही कोई साहित्यिक महत्त्व सुरुचिपूर्ण-जवाबदेह जीवन व समाज के लिए आत्मनिर्णय, सुन्दर को
की खोज हो सकती है।” बचाने-पोसने की नित्यता आदि को चरितार्थ करने का उद्यम निपटता
रघुवीर सहाय जब यह विचार कर रहे थे तो यह नहीं कि वे से करता है। कविता आख़िरकार और कर भी क्या सकती है-
यथार्थ-बोध को ठेल रहे थे, बल्कि ‘उससे अधिक की माँग’ कर अपने आदमी बने और बचे रहने की
रहे थे, ‘ताकि जो कुछ कवि के कवि होने में निहित है वह हो सके। कहीं भी दर्ज़ न की जाने वाली
पिछले एक दशक में अशोक जी की कविता का स्वर प्रत्यक्ष को एक पवित्र लड़ाई
अधिक सम्बोधित रहा है। पूर्व की यह धुन समय के अन्तर्विरोधों ----
के सम्मुख ज़्यादा तीव्र, प्रतिरोधी और व्यवस्था प्रश्नांकन का रुख़ हो सके तो मैं बचाना चाहता हूँ
अख्तियार करती है– सुन्दरता को समय से
समय है समय से यह पूरी बेबाकी से कहने का अपनी पगडण्डी को किसी मार्ग में लय होने से
कि वह कितना ही क्रूर-हिंसक और हत्यारा अपने सच को अपने ही अन्दर मुरझाने से
क्यों न होता जा रहा हो अपनी आवाज़ को थरथराने और घबराने से
उसका प्रतिकार करने का और अशोक वाजपेयी की पूरी कविता यात्रा इस चाहना की धुरी पर
उससे बचने की कोशिश करने का समय फिर भी है अनवरत वर्तुल है। हिंदी कविता संसार में उनकी काव्य यात्रा;
---- मनुष्य के लिए जीवन में अर्थ, उद्देश्य और मूल्य की खोज और
लिखो प्रतिष्ठा के उल्लेखनीय कर्म के प्रति उन्मुख करने के उद्यम रूप में
कि जब वक़्त मिले जो इतिहास उन्हें पहचान सके एक बड़ा अवदान है। n
संपर्क :सागर (म.प्र.)
जो तरह-तरह के मुखौटों में हत्यारे थे मो. 9407533522
और जिन्होंने सुघरता से उनकी अन्त्येष्टि की

110 n जुलाई से सितंबर 2023 yegh


n अविराम : राजेश जोशी

खो रहे संसार को बचा लेने की ज़िद है कविता


विवेक कुमार मिश्र
राजेश जोशी को पढ़ते हुए बराबर ऐसा लगता है कि ऐसा वाक्य है जिसमें कविता के होने और कविता के
आप अपने संसार में प्रवेश कर रहे हैं-जो द्वार बंद समूचे व्याकरण का विधान समाहित है। यह किसी एक
थे, उसकी कुंडी खटखटा रहे हों। अपने संसार में कवि का कथन भर नहीं है इसे कविता की प्रकृति से
आने की,उन चीज़ों को देखने और बचाए रखने की जोड़ते हुए सभ्यता और संस्कृति के संदर्भ को समझने
ज़िद उनकी कविताओं में बराबर मिलती है जो हमारे के क्रम में एक कवि की उपस्थिति के रूप में भी देखा
आसपास थीं लेकिन अब नहीं है। हैं भी तो उस तरह जा सकता है कि किस तरह कवि का होना मूलतः
नहीं, जिस तरह से उन्हें होना चाहिए। वह उस समय सभ्यता और संस्कृति की ही रक्षा के लिए खड़ा होना है
से संवाद करते हैं जो पिछली शताब्दी के हमारे पूर्वजों ने हमें दिया और उस व्यवस्था में शामिल होना है जिसमें मानवीय अस्तित्व को
था और जिसे देखते देखते हम खोते जा रहे हैं। उस खोते हुए संसार अहिंसा के रास्ते रचा जाता है। कविता की पहचान करते हुए वह
को बचा लेने की ज़िद में उनकी कविताएँ खड़ी होती हैं। लिखते हैं–
एक कवि अपने समय समाज और संसार के लिए टिक कर खड़ा कविता तो हमेशा से ही एक हुक्म-उदूली है
हो; उसको बचा लेने की ज़िद करें, इससे बढ़कर और क्या हो सकता हुकूमत के हर फरमान को ठेंगा दिखाती
है! उनकी कविताएँ इन्हीं अर्थों में जीवन जीने की कविताएँ हैं। कविता उल्लंघन की एक सतत प्रक्रिया है
जिंदगी को गाती हैं और वह राग भी सुनाती हैं जिसे बहुत दिनों से
हमने सुना नहीं था। इसीलिए यह देखने में आता है कि राजेश जोशी व्याकरण के तमाम नियमों और
की कविताएँ एक बतकही की मुद्रा में पाठकों से मुख़ातिब होती हैं भाषा की तमाम सीमाओं का उल्लघंन करती
और स्मृति पटल पर बहुत दिनों तक पड़ी रहती हैं। जब कभी कविता वह अपने आप पहुँच जाती है वहां
के पाठकों पर बने प्रभाव पर काम किया जाएगा तो उसमें राजेश जहाँ पहुँचने के बारे में कभी सोचा भी नहीं था मैंने
जोशी की कविताएँ बड़ी जगह लेंगी। कविता किस तरह काम करती (उल्लंघन पृष्ठ -10-11)
है; कविता क्या है और किस तरह संसार में जगह बनाती है और किस कविता हुक्म उदूली है, इसे कवि और कविता की विरासत को
तरह अपनी उपस्थिति को सिद्ध करती है- इसे राजेश जोशी की समझने वाले कवि से ज्यादा कोई नहीं जान सकता! यह कविता-
कविता यात्रा से समझा जा सकता है। राजेश जोशी की कविताएँ सभ्यता की उस टकराहट को भी सामने रखने की बड़ी कोशिश है जो
सभ्यतामूलक पाठ बनकर सामने आती हैं। इन कविताओं का उपयोग एक कवि को अपनी उपस्थिति के रूप में रखनी ही होती हैं। व्यवस्था
सीधे सीधे जनता के मन को समझने और जीने की शक्ति के रूप में को चुपचाप स्वीकार करना न नागरिकता का धर्म है और न ही कविता
किया जा सकता है जो किसी भी कवि के लिए सबसे पहले काम्य है। का इसलिए कवि उसका अतिक्रमण करता है। कवि इतिहास, पुराण
‘कविता उल्लंघन की एक सतत प्रक्रिया है’- कवि की प्रतिज्ञा और प्रकृति के बीच से मानवीय अस्तित्व और जीवन की उस कथा
भर नहीं है बल्कि यह कवि कर्म की आलोचनात्मक पड़ताल का एक को उकेरता चलता है जिनकी वज़हों से हम सब यहाँ पर हैं। इन्हीं में

yegh जुलाई से सितंबर 2023 n 111


से एक कथा विंध्याचल पर्वत की भी है जो झुका है अगस्त मुनि को कविता भी नहीं लिखने देता न ही किसी को कुछ करने देता। अबू
रास्ता देने के क्रम में ...यहाँ यह भी एक प्रकार से कहा जा रहा है कि हसन भी बस अपनी जगह पर बना भर है।
हमें भी बड़े प्रश्नों के लिए झुकना होता है। पहाड़ से यह सीख मनुष्य 'सुनो कहता है अबू हसन
को लेनी ही चाहिए। तभी तो कवि कहता है कि– फौजें दिखें न दिखें फौजी बूटों की
'तुम्ही ने सिखाया है मुझे कि झुक जाना आवाज़ आ रही है
छोटा हो जाना नहीं है बांस पर रूई का फाहा लगाकर अबू हसन
जानता हूँ किसी जरूरतमंद को रास्ता देने को चाँद के माथे का ख़ून पोंछ रहा है।' (अबू हसन चाँद के
तुम झुक गये माथे का ख़ून पोंछ रहा है-पृष्ठ-44)
इसीलिए तो तुम पहाड़ हो!' इस तरह एक बात तो तय है कि राजेश जोशी की कविताएँ
(इसीलिए तो तुम पहाड़ हो, पृष्ठ-16) सभ्यता और संस्कृति के संदर्भ को समझने समझाने की कोशिश में
इसलिए तो तुम पहाड़ हो कि जरूरतमंद को रास्ता देते हो,उसके मनुष्य के उस इतिहास को लिखती जाती हैं जो उसने लहूलुहान होते
लिए झुक जाते हो। पीठ दर्द भी करे तो भी रास्ता देने के लिए झुके शब्दों के कोलाज के बीच गाते गाते अँधेरे का आख्यान रचना
रहते हो। यह मनुष्य होना ही तुम्हें इतना बड़ा और महान बनाता है सिखाती है। यह अँधेरा तय है कि प्राकृतिक नहीं है यह तो स्वयं
कि कहना पड़ता है कि तुम पहाड़ हो। यह तुम्हारी विरासत ही मनुष्य ने अपने हाथों से रचा है जिसे रचना था प्रेम, सत्य, शील
कविता की विरासत है जिसे पहाड़ के बहाने से राजेश जोशी का सौंदर्य, साहस, स्वतंत्रता, मानवीयता, वह इनकी जगह पर अँधेरा
कवि दुनिया के सामने रखता है। और हिंसा का पाठ कर रहा है और आश्चर्य यह कि यह सब मनुष्यता
कवि जब दुनिया बनाने चलता है तो दुनिया की मुश्किलें दूर के नाम पर हो रहा है। एक कवि अपनी ही रची दुनिया में से भविष्य
करता है। इस दुनिया में दिन प्रतिदिन जो अँधेरा गहरा रहा है उससे के लिए एक ऐसी दुनिया रचना चाहता है जो मनुष्य को खुशी दे
मुक्ति की बात कोई और नहीं कवि ही करता है। कवि का संघर्ष सकें। उसकी दुनिया को भय मुक्त कर सकें और हिंसा, अपराध और
अँधेरे के ख़िलाफ़ होता है। एक कवि कुछ करें या न करें अँधेरे के खूंखार होते समय से बचा सकें इसके लिए तमाम तरह की विकसित
विरुद्ध आवाज़ उठाता है। वह बार बार कहता है कि इतना अँधेरा तो तकनीकी दुनिया के बावज़ूद एक कवि को मानवीय तकनीक और
कभी नहीं था किसी भी काल में अँधेरे का ऐसा प्रसार नहीं हुआ कि मूल्यों की दुनिया पर भरोसा होने के कारण परमाणु ऊर्जा से भी
कोई अँधेरे को अँधेरा न कह सके। आज हद तो यह हो गई है कि ज्यादा भरोसा कवि कर्म पर है और यह सघन भरोसा इस दौर के
अँधेरा होने के बावज़ूद कोई भी अँधेरे को अँधेरा नहीं कह रहा है न महत्वपूर्ण कवि राजेश जोशी की कविताओं के कारण बनता है।
ही इसके ख़िलाफ़ कोई गवाही दे रहा है। ऐसा अँधेरा तो कभी नहीं उनकी कविताएँ हमें मूल स्रोत तक ले जाती हैं और जीवन क्रम
था। लोगबाग खुल कर गवाही तो देते थे। अब इतना अँधेरा रच दिया में हम किस पदार्थ का किस तरह प्रयोग करते हैं और कहां है इनका
है कि एक बात के आगे कोई और बात दिखती ही नहीं। सच में अँधेरे जीवन कहां सेे? यह सब हमने लिया तो इसकी खोज में उनकी
ने अपना राज कायम कर लिया है - कविताएँ उस जंगल में ले जाती हैं जहाँ से जीवन संचालित होता है।
'इतना अँधेरा तो पहले कभी नहीं था तकिए को ले लीजिए ...सिरहाने तकिया रखकर आराम से सोया है
कि मुँह खोलकर अँधेरे को कोई पर यह भी पता होना चाहिए कि इस आराम के पीछे कपास का एक
अँधेरा न कह सके पेड़ है। न जाने कितने सपनों में साथ में कपास का पेड़ चलता रहा
कि हाथ को हाथ न सूझे या जो थाली में रोटी है तो क्या वह रोटी यूं ही आ पड़ी नहीं उसके
कि आंख के सामने घटे अपराध की कोई पीछे गेहूँ की बालियाँ, किसानों का श्रम और बाज़ार से होते हुए आटा
गवाही न दे सके की जो यात्रा है वहां कविता ले जाती है। एक उत्पाद जिस रूप में
इतना अँधेरा तो पहले कभी नहीं था।' दिख रहा है वहां तक आने में वह कहां कहां यात्रा किया? कैसे
(रोशनी-पृष्ठ-30) चला? इस यात्रा में क्या था? और आज क्या है और क्या नहीं? और
इस अँधेरे के कारण ही सब अपनी मनमर्जी और मनमानी कर वह क्यों नहीं है? इन सारी बातों को तथ्यों के रूप में सामने लाते
रहे हैं। ऐसे में अबू हसन भी चाँद के माथे का ख़ून ही पोंछ सकता। ही तथ्य प्रश्न की तरह सामने खड़े हो जाते हैं जिसका उत्तर उनकी
यह सब अँधेरे के राज में ही संभव है जो कि कवि को ठीक से कविताएँ देती हैं। इन उत्तरों में समय के तमाम सवालों के समाधान
मिलते हैं तो कुछ के उत्तर आने वाली पीढ़ियाँ देंगी। इस तरह एक
112 n जुलाई से सितंबर 2023 yegh
कवि समय के आगे पीछे की पीढ़ियों से संवाद करते हैं। इस संवाद नहीं है बल्कि एक स्थिति से आजिज हो जाने की पीड़ा है यह ध्वनि
में भाषा की शक्ति, आदमी की स्मृति और पदार्थों की गति भरी कब आती है जब हजार कोशिशें कर चुका होता है एक आदमी एक
दुनिया एक साथ काम करती है। कविता की यात्रा मूल को पहचानने सभ्यता पुरुष एक सभ्यता पिता। यहाँ सभ्यता पिता कहना ही ठीक
में होती है। इस मूल से जीवन क्रम पर चलते हैं यह जीवन की लगता है–
प्रक्रिया है तो जीवन का सम्मान भी जिसे एक कवि शब्द और जीवन सबको चकमा देकर एक रात
के बीच बने प्रकाश से खोजता है। किसी को स्वीकार करने या नहीं मैं किसी स्वप्न की पीठ पर बैठकर उड़ जाऊँगा
करने के पीछे उसके मूल तक जाने की ज़िद उन्हें कविता के संसार हैरत में डाल दूंगा सारी दुनिया को
में लाती है इसलिए कविता उनके यहाँ जीवन के मूल स्रोत, स्वभाव सब पूछते बैठेंगे कैसे उड़ गया?
और जीवन जीने की संस्कृति से आती है, इसी तर्क से उनकी क्यों उड़ गया?
कविताएँ स्मृति का स्थाई हिस्सा बन जाती हैं। इसी से सामने जो देखना एक रात
स्थित है उसके मूल की पहचान में कविताएँ खड़ी हो जाती हैं- मैं सचमुच उड़ जाऊँगा। (मैं उड़ जाऊँगा)
तकिए में यह सचमुच का उड़ जाना कविता के राज में ही संभव होता है।
कपास का एक पेड़ अपने लोग और अपने जैसों के दुःख संसार को देखते हुए इतने दिन
कपास के फूल पर रह गया। हमेशा यही लगता कि कहीं भी चला जाऊँ पर अपने लोगों
चिड़िया नहीं आती को कैसे छोड़ दूं। भला अपनी जड़ों को कैसे छोड़ दूं। हिंसा, बर्बरता,
नींद किस चिड़िया का नाम है (नींद) आशंका और दुस्वप्न के बीच मनुष्य होने की गंध और मनुष्य की
यह नींद भी उस मूल में पहुँच जाने पर आती है। उपस्थिति को जीने की शर्त की तरह उनकी कविताएँ आंखों में टंगी
यहाँ से वहां तक जो संसार है वह किस क्रम में चल रहा है इसे होती है। सभ्यता की चुनौतियाँ उनके यहाँ संवेदना और तर्क के
घड़ी के बिम्ब से कवि बतलाता है। सूई एक के साथ चलते हुए दूसरे धरातल पर टकराते हुए मनुष्य की आवाज़ बनकर कविता में आती
और तीसरे के साथ चल पड़ती है इस तरह सूई एक क्रम में संसार हैं। कविता यहाँ अपने आपको पाने का, अपने जादुई करतब को
की गति को रचती है ...जीवन का भाग्य सुनिश्चित करती है और दिखाने या कवि की पहचान को बतलाने की जगह वाकई एक आम
समय पर सब जाग जाये यह क्या कोई कम बड़ा काम है जो सूई आदमी कैसे चले और उसकी उम्मीद को कैसे रचा जा सकता है इस
करती रही है चुपचाप। घड़ी की सुई घर की और इस तरह संसार की बात की तस्दीक करती कविताएँ जिंदगी को संभालती हैं। इस तरह
दिनचर्या सेट कर देती जिसे कोई नहीं सम्भाल पाता उसे दीवार पर उनकी कविताएँ संवेदनात्मक धरातल पर मानवता के सत्य को स्पर्श
टंगी हुई घड़ियाँ संभालती हैं। एक तीसरी सूई है जो दुनिया की गति करती हैं। चाँद के साथ कवि संभावनाओं की दुनिया को रचता है।
समय और मनुष्य की अस्मिता को सामने रखती है– चाँद जितना आसमान में दिखता है, जितना ही दूर दिखता है उतना
एक तीसरी सूई ही हमारे आसपास भी होता है। कभी हम सब चाँद मामा को छोड़ ही
चक्कर काट रही है लगातार नहीं पाते एक यारी एक रिश्ते में चाँद घूमता रहता है। इच्छा में घूम
और समय सरक रहा है रहे इस चाँद को कवि उठाकर एक जेब में रख लेता है। दूसरी जेब में
समय बदल रहा है प्रतिपल सिगरेट है। तीसरी जेब में लाइटर और चौथी जेब में भी कुछ न कुछ
(धूप घड़ी की परछाई में) है। कवि खाली नहीं है वह जा रहा है। गति में है। कहीं जाना है। चाँद
समय के भीतर-बाहर आदमी चलता रहता है और एक यहीं को कैसे छोड़ दें। इसलिए उठाकर जेब में रख लेता और चल देता है।
आदमी कहता है कि क्या करूँ? कैसे सबको समझाऊँ कि यह सही कवि की दुनिया है और कवि की दुनियादारी भी जिसमें चाँद भी है।
है और यह गलत। चलों समझा भी दें पर कोई माने तो.... सुनते सब यहाँ चाँद केवल सुंदरता का प्रतीक भर नहीं है बल्कि हमारी जिंदगी
हैं पर चलते नहीं। इस क्रम में उनका कवि मनुष्यता की पीठ पर बैठे के साथ वास्तविक समय में संसार में है। रह रह कर झांकता है जेब
पिता की तरह दिखता है। एक पिता जब समझाते समझाते आजिज से, उस संसार को देखता रहता जिसमें कवि है और कवि का संसार।
आ जाता तो यही कहता है कि अब क्या करूँ। चलों मैं ही चला इसमें साथ ही आसमान के तारे भी हैं और जेब में रख लेने और भर
जाता हूँ। इस बात को राजेश जोशी का कवि जादुई ढंग से कहता है लेने की इच्छा भी। कवि कुछ भी छोड़ता नहीं सब साथ लिए चलता-
कि एक दिन सबको चकमा देकर उड़ जाऊँगा। फिर तुम सारे हाल चाँद मैने कमीज की एक जेब में रख लिया
पूछते रहना ... नहीं आऊँगा। यह चकमा देकर उड़ जाना भागना दूसरी जेब में क्योंकि सिगरेट थी

yegh जुलाई से सितंबर 2023 n 113


इसीलिए तारे, वो प्यारे प्यारे चीज़ों को बनाते चले जाने के उत्साह में
ढ़ेर सारे सितारे, पैंट की जेबों में भर लिए इतना ज्यादा भर गया चित्र
(उसके स्वप्नों में जाने का यात्रा वृत्तांत) कि गेंद को रखने की कोई जगह ही
एक कवि कैसे देखता है? दुनिया उसके सामने किस तरह आती नहीं बची चित्र में
है? वह दुनिया से क्या चाहता है? क्या कुछ एक कवि कर सकता तब समझ में आया उन्हें
है इसे बहुत बार कवि की जीवन कथा में जाकर देखना होता है या कि बड़ों ने कैसी-कैसी गलतियाँ की हैं
बतकही में कवि खुलता है और संसार भर की बातों के बीच अपने इस दुनिया को बचाने में (बच्चों की चित्रकला प्रतियोगिता)
होने की उपस्थिति को रेखांकित करता रहता है। राजेश जोशी कविता इससे बड़ी कोई बात नहीं हो सकती दुनिया बचाने के लिए जो
के भीतर ही संसार का साक्षात्कार करा देते हैं और किस तरह की बच्चों ने चित्रकला प्रतियोगिता में कह दिया।
दुनिया है और कौन सी दुनिया लानी है वह भी लेकर आ जाते हैं। कवि जीवन की सुंदरता का वृत्त रचता है। इस वृत्त में अनावश्यक
तभी तो कवि लिखता है कि 'कल लिखाऊँगा नई दुनिया का ड्राफ्ट' विचार के लिए जगह नहीं है जैसे कि आत्महत्या करता आदमी इससे
सीधी सी बात है कि कवि की दुनिया में क्या हो सकता जो एक कवि पलट कवि वह दृश्य बनाता है कि जीवन की ओर चिल्लाता आदमी
लिखाना चाहता है कि सनद रहे। पुरखे कवि भी बराबर दुनिया के दौड़ रहा है कि जीवन से सुंदर कुछ नहीं। हां जीवन से सुंदर कुछ
बारे में ही लिख कर गये। एक न एक परिकल्पना देकर गये कि नहीं है। जीवन की इस अपार संभावना पर कवि की इच्छा है कि जब
दुनिया ऐसी होनी चाहिए पर दुनिया कवि की इच्छा के सामने न मैं सूरज के साथ चाय पी रहा होऊँ तो एक विशाल समुद्र की तरह
होकर पीठ पर भी नहीं पीठ से भी बहुत दूर है जिसे कवि का आम दिखे मेरा कप। जीवन की ओर चिल्लाते हुए दौड़ पड़ना उन सारे
आदमी भी देख नहीं पाता ऐसे में कवि होना ही इस बात से होता है संदर्भोंं को प्रमाणित करता है जिसके कारण जीवन होता है। जीवन
कि हम कुछ ऐसा छोड़ कर जाये कि आने वालों के पास थोड़ी बहुत की अनंत संभावनाओं पर विचार करना और संसार को जीवन के
दुनिया तो बची रहे। उस बची हुई दुनिया के लिए एक कवि ड्राफ्ट लिए सौपना ही एक कविता का स्थाई कार्य है जिससे जीवन बचता
तैयार करा रहा है। यह ड्राफ्ट कविता भी है और भविष्य का जीवन है। इसीलिए जीवन की ओर दौड़ता आदमी इस समाज का, कविता
संकेत भी। भविष्य कवि ही रचता है तुम्हारे इस क्रूर समय में होते का और सभ्यता में संस्कृति का स्थाई पोस्टर है...
हुए भी कवि के पास अंततः कोमलता, रची जा सकने वाली संभावना कि आत्महत्या करता आदमी पलट कर दौड़ पड़े
बचती है और वह दुनिया जिसमें करुणा का बीज होता है...कवि के जीवन की ओर चिल्लाता हुआ
लिखाए ड्राफ्ट पर चलते रहना... कुछ नहीं है ज्यादा सुंदर
कल लिखाऊँगा मैं तुम्हें ज्यादा से ज्यादा प्यारा
नई दुनिया की संरचना का जीवन की तरह अमर
नया ड्राफ्ट!! मैं चाहता हूँ कि कविता के भीतर फैली
(असली किस्सा तबियत के हिरन हो जाने का) आसमान की टेबल पर
मैं जब सूरज के साथ चाय पी रहा होऊँ
यहीं सपनों की दुनिया रचने के लिए चल रहे कवि के संसार में एक विशाल समुद्र की तरह दिखे/ मेरा कप।
बच्चे भी होते हैं। बच्चों के बिना किसी दुनिया की कल्पना की भी नहीं जीवन सुंदर है और इसकी स्थाई सुंदरता में आस्था भी है पर दिन
जा सकती। अब यहाँ बच्चे रच रहे हैं। दुनिया और इस दुनिया को प्रतिदिन का जो कटु यथार्थ है, जो चारों तरफ अपराध और हिंसा का
रचने के क्रम में, सब कुछ बना लेने के बाद देखते हैं कि बच्चों के जाल है जिसके शिकार सब हो रहे हैं। ऐसे क्रूर समय में होने की
लिए तो हमने कुछ छोड़ा ही नहीं। क्योंकि जो दुनिया हम बना रहे शर्त क्या हो जाती है कि जो अपराधी नहीं होंगे मारे जाएँगे। कितना
हैं और जिसे कागज पर बच्चे उतार रहे हैं उसमें सब कुछ उतार लेने बड़ा व्यंग्य है। कविता उनके यहाँ यथार्थ से मुठभेड़ करते हुए सामने
के बाद एक गेंद रखने की भी जगह नहीं बची। यह कितनी बड़ी आती है–
क्रूरता हो सकती है इसे बच्चों की आंख से जब देखेंगे तभी समझ सबसे बड़ा अपराध है इस समय
आयेगा। गेंद का न होना पृथ्वी की सुंदरता में भी ग्रहण लगा रहा है। निहत्थे और निरपराध होना
यह अकारण नहीं है कि राजेश जोशी को नई दुनिया की संरचना का जो अपराधी नहीं होंगे मारें जाएँगे
नया ड्राफ्ट लिखाना पड़ रहा है...

114 n जुलाई से सितंबर 2023 yegh


इन स्थितियों के बावज़ूद जो कुछ बचा रहेगा उसमें हम सब बड़े आराम से यह बतलाते हुए आ रहे हैं कि हां हम सब साथ रहते
अपने साथ अपने पुरखों की ध्वनि को उनकी सभ्यता और संस्कृति हैं पर संयुक्त परिवार के रूप में एक एलबम में। यह इस कालखंड
को लेकर चलेंगे। हमारे साथ हमारी जिंदगी चलेगी साथ में पुरखों का सच है और इस समय के तमाम हादसों का कारण भी ...यह
की गूंज। इस तरह कविता एक साथ बहुत सारी स्मृतियों को साथ टूट-फूट सभ्यता और संस्कृति के एक बड़े हिस्से में बहुत तेजी से
लिए हुए चलेगी। और इस तरह कविता ही बचायेगी दुनिया और हो रही है। इस टूट-फूट में सब शामिल हैं-
मानवीय संबंधों को जिसमें सब एक दूसरे के साथ जीवित होंगे ... मुझे नहीं जानता मेरा पड़ोसी मेरे नाम से
ध्वनियों से गूंज से... अब सिर्फ़ एलबम में रहते हैं
हमारी आवाज़ में बची रहती है परिवार के सारे लोग एक साथ
हमारे पुरखों की गूंज टूटने की इस प्रक्रिया में क्या क्या टूटा है
इस गूंज को लिए-लिए ही हम यहाँ तक आ गये। अभी भी दुनिया कोई नहीं सोचता। (संयुक्त परिवार)
में इतना कुछ सुंदर है कि जीने के लिए दौड़ता हुआ आदमी संस्कृति पर इस टूटने में क्या कुछ टूटा जा रहा है कोई नहीं सोचता।
का सबसे सुंदर आदमी है। दुनिया जिस मानवीय मूल्यों से हमारे आख़िर क्या बचेगा? इसीलिए कवि जिंदगी की और दौड़ते आदमी
सामने अभी भी आ रही है वह हर क्रूरता को नष्ट करते हुए एक नया का पोस्टर रचता है। काश! यह टूट-फूट अब यहीं रुक जाये और
रुपक रच देती है कि एक बूढ़े को महानगर में भी यह कहते सुना जा बूढ़े आदमी की बात सच हो जाये कि अभी भी बहुत कुछ अच्छा है
रहा है कि अभी सब कुछ नष्ट नहीं हुआ है। एक अच्छी सी दुनिया महानगर में। इस तरह की कविताएँ बीसवीं सदी के उत्तरार्ध में ही
सौंप कर जाएँगे आने वाली पीढ़ियों को यह विश्वास एक कवि और जन्म ले सकती हैं। इसके परिणाम क्या हो सकते हैं और वह कितना
कविता के संसार से ही संभव होता है। वह हर क्रूरता के बीच फूल ख़तरनाक हो सकता है इसे इस दौर में रहक़र ही जाना जा सकता
को खिलते देखता है– है। इस तरह कविता हमारा भविष्य भी रचती है और आंख भी
बीसवीं सदी के अंतिम दिनों में हो रहा था खोलती है। राजेश जोशी के यहाँ गली मुहल्ले की यादें हैं, पारिवारिक
यह सब और वह भी एक महानगर में ताना बाना है और इन सबके बीच जो बातें जो दृश्य टूट रहें हैं जो
बूढ़ा अंदर ही अंदर भीगता जा रहा था छूट रहें हैं उन्हें स्मृति के गलियारे से कविता की ज़मीन पर खोजा
वह बुदबुदाता था जा रहा है। उनकी कविता का एक बड़ा हिस्सा भोपालियत में डूबी
अभी सब कुछ नष्ट नहीं हुआ है है। इस क्रम में बाज़ारों, गलियों घरों में अपनी उपस्थिति को दर्ज़
यह कवि ही है जो बचा लेता है संसार। रच रच कर संसार को कराते हुए कविता के स्थानीय भूगोल के साथ सार्वभौमिक मानवीय
जीता है और हम सबको सौंप जाता है एक सुंदर सी दुनिया जिसमें सत्य और मानवीय संबंधों को जोड़ने का क्रम भी है। उनकी कविता
जीवन की ओर दौड़ता आदमी आ रहा होता है खोज के पुल पर चलते चलते मानवीय रिश्तों की तुरपाई करती
इन्हें गलतियों से बाहर निकलने के सारे रास्ते पता हैं चलती है।
और जिन रास्तों की ख़बर नहीं उन्हें खोज लेंगे ये इस क्रम में बराबर उनको मानवीयता के हिज्जे ठीक करते देखा
तकनीकों का सारा रहस्य ये जानते हैं जा सकता है। रिश्ते-नातों के साथ मानवीय संबंधों की रागात्मकता
इनकी जानकारियाँ हमसे बहुत ज्यादा हैं। को जो कुछ दुर्लभ सी होती जा रही है को याद कर कवि नई ज़मीन
यह आज के बच्चे हैं जो आश्चर्य से ज्यादा तकनीक की बटनों पर नई सदी में नये-नये लोगों से बात करता है। यह कुछ इस तरह
से सीखते हैं। इनके लिए तकनीक आश्चर्य नहीं है, इनके लिए हमारे होता कि इसके बिना कुछ संभव ही नहीं होता। परिवार समाज और
जमाने के लोग रहस्य की तरह आते हैं जो बड़े हो जाने के बाद भी एक दूसरे को अपने भीतर बसा कर चाहने वाले होंगे तो यह संसार
फोन उठाने से घबराते हैं। वहीं आज के बच्चे घबराते नहीं तकनीक और सुंदर लगेगा। जीने की दुनिया और सुंदर हो जायेगी। पारिवारिक
की गलियों से निकलने की कला में माहिर हैं और फंस जाये तो कोई गंध की कविताओं से राजेश जोशी की कविताएँ सीधे-सीधे जीवन
बात नहीं कह कर निकल लेंगे। हम एक ऐसे समय में आते जा रहे संसार से जुड़ जाती हैं।
n

हैं जहाँ सूचनाएँ सत्य और ज्ञान का अहसास कराने लगती हैं। बच्चों
संपर्क : एसोसिएट प्रोफेसर प्रोफेसर हिंदी
का क्या करें? यह प्रश्न बना हुआ है। सभ्यता के इस क्रम में हम
राजकीय कला महाविद्यालय, कोटा
कहां आ गए कि मेरा पड़ोसी मुझे मेरे नाम से नहीं जानता। और लोग मो. 9414595515

yegh जुलाई से सितंबर 2023 n 115


n अविराम : आलोक धन्वा

व्यापक फ़लक की कविताएँ


डॉ. नियति कल्प
ऐसी कविताएँ अत्यल्प होती हैं जो मन-मस्तिष्क पंजाब के लेखक संगठनों से गहरे जुड़े।” 1 1998 ई०
में चिरकाल तक रच-बस सकें। आठवें दशक के में प्रकाशित 'दुनिया रोज़ बनती है' शीर्षक काव्य-संग्रह
सर्वाधिक चर्चित और नवप्रगतिवादी कवि आलोक की पहली कविता 'आम का पेड़' से अंतिम कविता
धन्वा के एकमात्र कविता-संग्रह 'दुनिया रोज़ बनती 'सफ़ेद रात' तक यानी कुल इकतालीस (41)
है' की कविताएँ कुछ इसी प्रकार की छवि निर्मित कविताएँ कवि की संवेदना को अभिव्यक्त करने के
करती हैं। आलोक जी ने निःसंदेह कविताओं को एक साथ-साथ उसकी वैविध्यपूर्ण विषयों और समस्याओं
नये साँचे में ढालकर उन्हें एक नई दिशा प्रदान की। पर चलाई गई लेखनी की शक्ति की परिचायक हैं।
निःसंदेह, कविताओं का अर्थ-विस्तार, उनमें निहित भाव और उन उक्त संग्रह के अतिरिक्त भी आलोक जी ने कई कविताओं की रचना
भावों की सहज संप्रेषणीयता ही आलोक जी को अन्य रचनाकारों की है। एक लंबे अंतराल के बाद 'आम के बाग़', 'उड़ानें', 'ओस',
से अलग और असाधारण बनाती है। आलोक धन्वा उन कवियों में 'गाय और बछड़ा', 'चेन्नई में कोयल', 'नन्हीं बुलबुल के तराने',
से एक हैं जिन्होंने बेहिचक और बेखौफ़ अंदाज में देश-दुनिया की 'फूलों से भरी डाल', 'बारिश', 'भूल पाने की लड़ाई', 'मुलाक़ातें',
समस्याओं से पाठकों को रूबरू कराने का प्रयास किया। पहल 'रेशमा', 'रात', 'शृंगार', 'सवाल ज्यादा है' आदि कविताएँ कवि मन
सम्मान, नागार्जुन सम्मान, फिराक गोरखपुरी सम्मान, गिरिजा की प्रवाहशीलता को सिद्ध करती हैं।
कुमार माथुर सम्मान, प्रकाश जैन स्मृति सम्मान, बनारसी प्रसाद आलोक जी की प्रथम दो लंबी कविताओं 'जनता का आदमी'
भोजपुरी सम्मान, राहुल सम्मान तथा बिहार राष्ट्रभाषा परिषद और 'गोली दागो पोस्टर' की अगर बात की जाए तो दोनों कविताएँ
का विशेष साहित्य सम्मान आदि कई पुरस्कारों से नवाजे और समाज सापेक्ष यथार्थ को प्रस्तुत करती हैं जिन पर नक्सलबाड़ी
सम्मानित कवि का दीर्घावधि तक मात्र एक संग्रह के दमखम पर आंदोलन का स्पष्ट प्रभाव परिलक्षित होता है। नक्सलबाड़ी आंदोलन
साहित्यिक चर्चा में निरंतर बने रहना उसकी लेखकीय प्रतिभा और हिंसा का समर्थक नहीं था और न ही कवि की कविता हिंसा की
काव्य के प्रति उनकी गंभीरता को दर्शाता है। पैरोकार है। कवि की नज़र में हिंसा के रास्ते चलकर हम कोई बड़ा
उनकी पहली कविता 'जनता का आदमी' 1972 ई० में 'वाम' और स्थायी परिवर्तन नहीं ला सकते। हिंसा का मार्ग सदा गलत होता
पत्रिका में प्रकाशित हुई। इसी वर्ष 'गोली दागो पोस्टर' शीर्षक कविता है। आलोक जी की दोनों कविताएँ, सामाजिक और राजनीतिक
'फ़िलहाल' में प्रकाशित हुई। 1967 ई० में बंगाल में नक्सलबाड़ी अमानवीयता की पराकाष्ठा के विरुद्ध आवाज़ बुलंद करती हैं।
आंदोलन के प्रभाव को प्रतिबिंबित करती उक्त दोनों कविताओं में उन्होंने तत्कालीन सामाजिक और राजनीतिक व्यवस्था की पोल को
उग्र वामपंथी स्वर गूंजता है। इन कविताओं ने आलोक जी को शब्दों के आडंबर के बिना सीधे और स्पष्ट शब्दों में उघाड़ कर रख
आठवें दशक के सर्वाधिक चर्चित कवियों में ला खड़ा किया। “ये दिया है। अगर कविता में सहज मानवीय और प्रकृतिपरक शब्दों का
दोनों कविताएँ देश के वामपन्थी सांस्कृतिक आन्दोलन की प्रमुख चित्रण न होकर आग, बंदूक, रायफल, गोली, टैंक, जहरीली गैस,
कविताएँ बनीं और आलोक बिहार, पश्चिम बंगाल, आन्ध्र और चीख, मुर्दागाड़ी आदि शब्दों का प्रयोग हो रहा है तो तत्कालीन

116 n जुलाई से सितंबर 2023 yegh


राजनीतिक स्थिति स्पष्ट है। आलोक धन्वा के लिए कविता लक्ष्य भी
है, राह भी है, मंजिल भी है, राही का कदम भी है, उसका हथियार
भी है और जुनून भी। आख़िरकार 'जनता का आदमी' कौन है? स्वयं
'कवि' या उसका हथियार यानी 'कवि की कविता'! इन्हीं प्रश्नों का
उत्तर कवि अपनी कविता 'जनता का आदमी' में ढ़ूँढता है। उक्त
कविता में मानवीयता की तिलांजलि देते शासक वर्ग की देन जलते
हुए गाँव-घर की तेज आग और नुकीली चीखों के साथ जली हुई
औरत के पास कविता के पहुँचने का दृश्याँकन कठोर हृदय को भी
भेदने की सामर्थ्य रखता है। कविता में ऐसा यथार्थ चित्रण कवि के
अनुसार उस कविता को भी नुक़सान पहुँचाते हैं। क्योंकि अक्सर
दूसरों को बचाने में हमारे हाथ भी जल जाते हैं। वही हाल कविता
का भी है कि वह सामाजिक विद्रूपताओं के चित्रण में कई जगहों से
जल जाती है। इस संदर्भ में कविता की आरंभिक पंक्तियाँ द्रष्टव्य
हैं–
बर्फ़ काटने वाली मशीन से
आदमी काटने वाली मशीन तक
कौंधती हुई अमानवीय चमक के विरुद्ध
जलते हुए गाँवों के बीच से गुज़रती है मेरी कविता;
तेज़ आग और नुकीली चीख़ों के साथ
जली हुई औरत के पास कलम की ताक़त आधुनिक हथियारों की भेदन क्षमता से सौ गुना
सबसे पहले पहुँचती है मेरी कविता अधिक होती है। कवि स्वीकारता है कि उसका करोड़ों शोषितों की
जबकि ऐसा करते हुए मेरी कविता आवाज़ बनकर कविता के क्षेत्र में उतरना तत्कालीन सुविधाभोगी
जगह-जगह से जल जाती है2 कवियों को अश्लील उत्पात सा प्रतीत हुआ। क्योंकि ऐसे कवियों
कवि तत्कालीन सामाजिक और राजनीतिक अराजकता और द्वारा निर्मित सुविधाजनक काव्य-जगत व्यवस्था और धारा के
भ्रष्टाचार से निश्चिंत, बंधी-बंधायी परिपाटी और परंपरा की लीक विपरीत कवि आलोक की कविता प्रतिकार करती है। जिस कारण
का अनुगामी बने हुए उन कवियों पर अपना आक्रोश प्रकट करता है कवि की कविता को दबाने-कुचलने और मारने की हरसंभव चेष्टा
जो ऐसे माहौल में भी अपनी कविता का इस्तेमाल मुर्दागाड़ी की तरह की जाती रही। उक्त संदर्भ में कविता की पंक्तियाँ कवि की अंतर्वेदना
कर मात्र नये मुहावरे और शब्दों द्वारा अपनी कविता को नया रंग- बनकर उमड़ी है। पंक्तियाँ द्रष्टव्य हैं–
रूप दे रहे हैं। परंतु कर्फ्यू सदृश बंदिशों में उत्पन्न, अपनी साँसों में जब कविता के वर्जित प्रदेश में
लू की तरह गर्माहट लिए यानी विरोध की अग्नि अपने भीतर मैं एकबारगी कई करोड़ आदमियों के साथ घुसा
प्रज्वलित किये आम जनता के रूप में चित्रित खान मज़दूर के मन तो उन तमाम कवियों को
में कविता का बिलकुल नयी बंदूक की तरह याद आना उक्त कविता मेरा आना एक अश्लील उत्पात-सा लगा
को 'जनता की कविता' बना देता है। जाहिर सी बात है कि निष्क्रिय जो केवल अपनी सुविधा के लिए
और संवेदनहीन प्रबुद्ध जत्थों में आम आदमी का प्रतिनिधित्व करते अफ़ीम के पानी में अगले रविवार को चुरा लेना चाहते थे3
खान मज़दूर के मन में नयी बंदूक की तरह कविता का प्रकट होना कवि को संज्ञान है कि चाहे कविता के शब्द ताज़े, गर्म और
कविता रूपी हथियार की सफलता को बयाँ करता है। निःसंदेह, आक्रामक क्यों न हों, रायफलों की गोलियों के सामने वे व्यर्थ हैं।
साहित्य की महत्ता सर्वविदित है कि, जिसने सदा से निष्क्रियता में परंतु फिर भी कवि अपने कर्मपथ पर कविता रूपी हथियार के साथ
सक्रियता का संचरण करने का पुनीत कार्य किया है। शोषितों और अग्रसर है। कवि भी प्रकृति के सौंदर्य में डूबकर शब्द लिखना चाहता
पीड़ितों के मध्य क्रांति का आगाज़ कर पाने में समर्थ कविता है पर उसे स्वयं नहीं पता कि वह क्यों नहीं लिख पाता है। जैसी
जनकविता बन जाती है और कवि जनकवि। काव्य की ताक़त यानी बच्चों की नींद होती है, खान होती है, पके हुए जामुन का रंग होता

yegh जुलाई से सितंबर 2023 n 117


मुझे है या उन दोग़ले ज़मींदारों को जो पूरे देश को
सूदख़ोर का कुत्ता बना देना चाहते हैं
1976 ई० में रचित कविता 'पतंग' में कवि की
पूर्व कविताओं में उपस्थित आक्रोश का स्वर यह कविता नहीं है
मानो अचानक से विलुप्त होकर सुकम ु ारता का यह गोली दागने की समझ है
स्थान ग्रहण कर लेता है। बच्चों के जीवन की जो तमाम क़लम चलानेवालों को
कोमलता की तुलना कपास से करना निःसंदेह तमाम हल चलानेवालों से मिल रही है।8
नवीन उपमान की सर्जना करता है। तेज आँधी, कवि की नज़र में गोली दागने का अधिकार श्रम और मेहनत
तेज बारिश, तेज लू जैसे झंझावातों के मध्य करनेवालों को ही है जो धरती को सींचकर जीवन आबाद करते हैं।
बच्चों का पतंग उड़ाने के लिए सूरज के कोमल यह गोली लोहे की हथियार वाली गोली नहीं, वरन् विरोध और क्रांति
होने और दिन के सरल होने का इंतजार बचपन की गोली है। जिस प्रकार गाँधी जी का हथियार सत्याग्रह था उसी
के दिनों को तरोताज़ा कर देता है। प्रकार कवि हिंसा का नहीं क्रांति और विरोध के स्वर का समर्थक है।
1976 ई० में रचित कविता 'पतंग' में कवि की पूर्व कविताओं में
उपस्थित आक्रोश का स्वर मानो अचानक से विलुप्त होकर
है, माँ के शरीर में नये पुआल की महक़ होती है, बाँस के जंगल में
सुकुमारता का स्थान ग्रहण कर लेता है। बच्चों के जीवन की
हिरन के पसीने की गंध होती है, जैसे खरगोश के कान होते हैं। कवि
कोमलता की तुलना कपास से करना निःसंदेह नवीन उपमान की
चाहक़र भी ऐसे शब्दों को लिपिबद्ध नहीं कर पाता क्योंकि उसकी
सर्जना करता है। तेज आँधी, तेज बारिश, तेज लू जैसे झंझावातों के
कविता लाखों किसानों के हलों के ऊपर, लाखों मजदूरों के टिफिन
मध्य बच्चों का पतंग उड़ाने के लिए सूरज के कोमल होने और दिन
कैरियर में ठंडी, कमज़ोर रोटी की तरह लेटी हुई होकर भी उनमें नई
के सरल होने का इंतजार बचपन के दिनों को तरोताज़ा कर देता है।
ताक़त भर कर उन्हें ऊर्जावान बना रही है। और यह ताक़त कवि के
भादो की काली रातों, काले मेघों, तेज बौछारों,कड़कती हुई बिजली
मन को शांत कर देती है। 'गोली दागो पोस्टर' कविता में कवि ने
से डरे बच्चों के साथ-साथ भीगी और डरी हुई चिड़ियों का दादी से
तत्कालीन किसानों और मजदूरों की दयनीय दशा का यथार्थपरक
कहानी सुनने का सुंदर दृश्य उपस्थित कर कविता अकस्मात् भूख़,
चित्रण किया है। धरती पर हल चलाने से लेकर पकी फसल को
महामारी, बाढ़ और गोलियों से चिड़ियों और बच्चों को मार डालने
गोदाम तक पहुँचाने के बाद हमारी थाली में भोजन के परोसे जाने
वाले शासक वर्ग को उनकी बंदूकों समेत बर्फ में फेंक कर मारे जाने
तक की लंबी और परिश्रमी प्रक्रिया का सारा श्रेय किसान-मजदूर
की चेतावनी भी दे डालती है। परंतु कविता की ख़ूबसूरती को, बच्चों
वर्ग को जाता है। परंतु अगर यही मेहनतकश वर्ग यदि समाज में
की कोमलता को कवि भूलता नहीं है और कविता पुनः बच्चों की
वंचितों और शोषितों की श्रेणी में रहे तो भला देश की स्वतंत्रता किस
सुकुमारता और कोमलता के बीच आ जाती है। भादो के जाने के बाद
काम की? ओम निश्चल ने लिखा है– “किसानों-मजदूरों के लिए
के सवेरे की उपमा ख़रगोश की आँखों जैसा देना और शरद ऋतु का
लामबंद कवियों की पीढ़ी में आलोक धन्वा सबसे तेजस्वी कवि हैं
मानवीकरण कर उसे नयी चमकीली साइकिल पर ज़ोर-ज़ोर से घंटी
जिन्होंने उस दौर में किसानों-मजदूरों से जुड़ी सबसे ज्यादा तेजाबी
बजाते हुए पतंग उड़ाते बच्चों को चमकीले इशारों से बुलाना निःसंदेह
कविताएँ लिखीं।”7 उक्त कविता की धारदार और पैनी पंक्तियाँ जुबां
कवि कल्पना की नव्यता है। बचपन में उड़ान के अदृश्य पंख लगे
पर आसानी से चढ़ जाती हैं–
होते हैं जो उनके शरीर में रोमांच के संगीत की सृष्टि करते हैं। पतंग
जिस ज़मीन पर
उड़ाते समय यही रोमांचित शरीर का संगीत छतों के ख़तरनाक
मैं अभी बैठकर लिख रहा हूँ
किनारों से उनकी रक्षा करता है। वे अगर छतों के ख़तरनाक किनारों
जिस ज़मीन पर मैं चलता हूँ
से गिरकर बच जाते हैं तो और भी निडर होकर उठते हैं। मंगलेश
जिस ज़मीन को मैं जोतता हूँ
डबराल ने लिखा है– “पतंग उड़ाने जैसे बाल- सुलभ काम को
जिस ज़मीन में मैं बीज बोता हूँ और
मनुष्यता को बचाने की कार्रवाई में बदल देने की यह संवेदनात्मक
जिस ज़मीन से अन्न निकालकर मैं
क्षमता आलोक को हमारे समय का अद्वितीय कवि बनाती है।”11
गोदामों तक ढोता हूँ
एक लंबे अंतराल के बाद आलोक जी ने 'भागी हुई
उस ज़मीन के लिए गोली दागने का अधिकार
लड़कियाँ'(1988 ई०) और 'ब्रूनो की बेटियाँ' (1989 ई०) जैसी

118 n जुलाई से सितंबर 2023 yegh


कविताओं का लेखन किया। 'भागी हुई लड़कियाँ' में कवि आलोक उतनी अहमियत नहीं थी जितनी कि उम्र के इस पड़ाव पर महसूस
स्त्री मन की गाथा कहते हैं। घर की जंजीरों को तोड़कर भागने वाली हो रही है। कवि बचपन को विस्मय रूपी तरबूज़ की उपमा देता है।
लड़कियों के भागने को परिवार वाले हमेशा ज़माने से छुपाते रहे हैं। तरबूज़ देखने में ऊपर से जितना हरा होता है,उतना ही भीतर से पका
लड़की के भागने का कारण हमेशा लड़का नहीं होता, जैसा कि हुआ यानी लाल होता है। जब हमें कोई वस्तु उपलब्ध होती है तब
आमतौर पर सामाजिक मानसिकता है। जीवन में कई ऐसे प्रसंग हैं, हम उसकी कद्र करें न करें परंतु उसका अभाव हमारे जीवन में
कई ऐसे सपने हैं जिन्हें पूरा करने के लिए लड़की को घर से भागना समय-समय पर रिक्तता का अहसास कराता रहता है।
पड़ता है। जो लड़कियाँ घर से भागने की हिम्मत नहीं जुटा पातीं वे सोवियत संघ के विघटन (1991 ई०) के बाद कवि आलोक
भागूँ या न भागूँ की उधेड़बुन में फँसी मन ही मन भागती रहती हैं, धन्वा की कविताओं की प्रखरता कुछ कम होती दिखायी पड़ती है।
जिनकी तादात बहुत अधिक है। कविता की निम्न पंक्तियाँ स्त्री मन कवि ने सामान्य जीवन यथा– गाँव-घर, परिवार, स्त्री-प्रेम और
का चित्रण कर पाने में पूर्णतः समर्थ हैं- अपने बचपन पर आधारित कई स्मृतिपरक कविताओं की रचना की।
कितनी-कितनी लड़कियाँ आधुनिक समय के वैश्विक परिदृश्य में बाज़ारवाद के प्रभाव में
भागती हैं मन ही मन कसता मनुष्य नैसर्गिक सौंदर्य और उसके आनंद से दूर होता जा रहा
अपने रतजगे, अपनी डायरी में है। अपनी संस्कृति, भाषा, अपने गाँव-घर से,अपनी मिट्टी से कोसों
सचमुच की भागी लड़कियों से दूर होता वह समझ नहीं पा रहा है कि अपनी जड़ को विस्मृत करने
उनकी आबादी बहुत बड़ी है14 वाला वह कितना भी भौतिक रूप से समृद्ध-संपन्न हो जाय, परंतु
लंबी कविता 'ब्रूनो की बेटियाँ' में कवि की संवेदना सामाजिक सही अर्थ में वह सुखी नहीं है। 'नदियाँ' (1996 ई०) शीर्षक
पक्ष में खड़ी दिखाई देती है। लोकतांत्रिक देश भारत के एक गाँव में कविता बाज़ारवाद के चक्रव्यूह में फँसे भौतिकवादी मनुष्य को
मज़दूर औरतों को आधी रात में जिंदा जला दिया जाना कवि को भली-भाँति व्याख्यायित करती है। मनुष्य प्रकृति के सान्निध्य में
विचलित कर देता है। कविता की पंक्तियों में कवि का आक्रोश देखा विश्राम करना चाहता है,खुश रहना चाहता है, लेकिन बाज़ारवाद का
जा सकता है– पाश उसे प्रकृति के पास भटकने भी नहीं देता। कविता की पंक्तियाँ
वह क्या था उनके होने में द्रष्टव्य हैं-
जिसके चलते उन्हें ज़िन्दा जला दिया गया? इछामती और मेघना...
बीसवीं शताब्दी के आख़िरी वर्षों में उनसे उतनी ही मुलाक़ात होती है
एक ऐसे देश के सामने जितनी वे रास्ते में आ जाती हैं
जहाँ संसद लगती है?15 और उस समय भी दिमाग़
1989 ई० में ही रचित 'जिलाधीश' आलोक जी की एक व्यंग्यपूर्ण कितना कम पास जा पाता है
कविता है। कविता में जिलाधीश यानी डीएम को कवि राजा- दिमाग़ तो भरा रहता है
महाराजाओं से भी अधिक ऊँचे आसन पर विराजमान करता है। लुटेरों के बाज़ार के शोर से।17
विरोध की भाषा बोलने पर आज़ाद देश में भी हमें आज़ादी से दूर 'शरद की रातें', 'आम का पेड़', 'अपनी बात', 'हसरत', 'सात
रखने की ताक़त जिलाधीश के पास ही है। कविता की व्यंग्यपूर्ण सौ साल पुराना छन्द', 'समुद्र और चाँद’, ‘पक्षी और तारे' प्रकृति
पंक्तियाँ दर्शनीय हैं- और पर्यावरण संबंधी बातें करती हैं। 'आम का पेड़' कविता में बीसों
यह ज्यादा भ्रम पैदा कर सकता है साल पुराना आम का पेड़ प्रकृति के संरक्षक के रूप में प्रस्तुत है।
यह ज्यादा अच्छी तरह हमें आज़ादी से कवि प्रकृति प्रेमी तो है ही, साथ ही वह पर्यावरण के संरक्षण के प्रति
दूर रख सकता है। भी सचेष्ट है। वर्षों से आम के पेड़ ने प्रकृति को बाँधकर रखा है,
कड़ी जिसके तले पक्षियों का आश्रय स्थल है। कविता की पंक्तियों में
कड़ी निगरानी चाहिए पुराने आम के पेड़ की महत्ता को महसूस किया जा सकता है-
सरकार के इस बेहतरीन दिमाग़ पर! रात में इसके नीचे
कभी-कभी तो इससे सीखना भी पड़ सकता है!16 सूखी घास जैसी गरमाहट
'विस्मय तरबूज़ की तरह' (1990 ई०) कविता में कवि अपने नीड़, पक्षियों की साँस
बचपन के उन खुशनुमा पलों को याद करता है, जिनकी बचपन में उनके डैनों और बीट की गंध

yegh जुलाई से सितंबर 2023 n 119


होना, जानवरों का दूर होना, गाँव की शुद्ध आबोहवा और लोगों में
आत्मीयता का अभाव होना हमारे तथाकथित विकसित शहरी जीवन
समग्र रूप से अगर कवि आलोक धन्वा की पर तमाचे की तरह प्रतीत होता है। इस संदर्भ में कविता की पंक्तियों
बात करूँ तो यह कह सकती हूँ कि भले ही में व्यंग्य को महसूस किया जा सकता है–
उन्होंने संख्या में कम कविताओं का प्रणयन शहर में इस तरह बसे
किया मगर उनकी एक-एक कविता में उसके
कि परिवार का टूटना ही उसकी बुनियाद हो जैसे
कथ्य, शिल्प और विषय वैविध्य को देखा जाए
तो उनकी हर कविता कई दृष्टियों से पाठकों न पुरखे साथ आये न गाँव न जंगल न जानवर
को प्रभावित करती है। कविता के शब्दों में शहर में बसने का क्या मतलब है
कई जगहों पर सुगफि ुं त श्लेष मन-मस्तिष्क शहर में ही ख़त्म हो जाना?21
पर ज़ोर देने को मजबूर कर देते हैं। यह कवि समग्र रूप से अगर कवि आलोक धन्वा की बात करूँ तो यह
की लेखनी की संपन्नता और समृद्धि ही है कह सकती हूँ कि भले ही उन्होंने संख्या में कम कविताओं का
जिस कारण उनकी कविता की हर एक पंक्ति प्रणयन किया मगर उनकी एक-एक कविता में उसके कथ्य, शिल्प
उनके रचनाकाल के प्रारंभ से लेकर आज तक और विषय वैविध्य को देखा जाए तो उनकी हर कविता कई दृष्टियों
प्रासंगिक बनी हुई है। से पाठकों को प्रभावित करती है। कविता के शब्दों में कई जगहों पर
सुगुंफित श्लेष मन-मस्तिष्क पर ज़ोर देने को मजबूर कर देते हैं।
यह कवि की लेखनी की संपन्नता और समृद्धि ही है जिस कारण
काली मिट्टी जैसी छाया।18
उनकी कविता की हर एक पंक्ति उनके रचनाकाल के प्रारंभ से
माँ और गाँव-घर से दूर होने के बाद भी उनसे जुड़े होने की
लेकर आज तक प्रासंगिक बनी हुई है। n
झलक 'एक ज़माने की कविता', 'रेल', 'रास्ते' आदि में प्रस्तुत हैं।
प्रेमपरक कविताओं में 'छतों पर लड़कियाँ' (1992 ई०), 'मैटिनी संदर्भ:
शो' (1996 ई०),’जंक्शन'(1994 ई०), 'पगडंडी' (1996 ई०), 1. आलोक धन्वा, दुनिया रोज़ बनती है, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, पृ.1
'मीर' (1996), 'हसरत'(1996 ई०), 'अपनी बात'(1996 ई०) 2. वही, पृ. 30
आदि मन को छूती हैं और कवि जीवन में प्रेम की उपस्थिति दर्ज़ 3. वही, पृ. 30
4. डबराल मंगलेश, कवि का अकेलापन, राधाकृष्ण प्रकाशन, दिल्ली, पृ.50
कराती हैं। 'छतों पर लड़कियाँ' शीर्षक कविता की सुंदर प्रेम से पगी 5. आलोक धन्वा, दुनिया रोज़ बनती है, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, पृ. 32
पंक्तियाँ द्रष्टव्य हैं- 6. वही, पृ. 33
अब भी 7. निश्चल ओम, www.aajtak.in, 02 जुलाई 2020
8. आलोक धन्वा, दुनिया रोज़ बनती है, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, पृ. 29
छतों पर आती हैं लड़कियाँ 9. वही, पृ. 38
मेरी ज़िन्दगी पर पड़ती हैं उनकी परछाइयाँ19 10. वही, पृ. 39
कवि की लेखनी की यह विशेषता है कि उसने जहाँ एक तरफ 11. डबराल मंगलेश, कवि का अकेलापन, राधाकृष्ण प्रकाशन, दिल्ली, पृ.52
लंबी कविताएँ लिखीं, वहीं दूसरी ओर मात्र दो पंक्तियों की 12. आलोक धन्वा, दुनिया रोज़ बनती है, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, पृ.15
'रंगरेज़'(1991 ई०) नामक कविता भी लिखी। कम शब्दों में 13. डबराल 14. वही, पृ.45
मंगलेश, कवि का अकेलापन, राधाकृष्ण प्रकाशन, दिल्ली, पृ.51
संपूर्णता की अभिव्यक्ति लिये कविता की पंक्तियाँ द्रष्टव्य हैं– 15. वही, पृ.63
एक पुरानी कार रँगी जा रही है 16. वही, पृ.48
छलकने तक रँगी जायेगी। 20 17. वही, पृ.10
'सफ़ेद रात'(1997 ई०) एक लंबी स्मृतिपरक कविता है। पुराने 18. वही, पृ. 9
19. वही, पृ.51
शहर की छत पर चाँदनी रात में वर्षों पूर्व की जंगल की एक रात का 20. वही, पृ.79
यानी जंगल, जानवर,पेड़-पौधे, घास, ओस और घर के आँगन का 21. वही, पृ.92
सुखात्मक पक्ष के रूप में कवि की स्मृति में कौंधना निश्चित रूप से संपर्क : सहायक प्रोफेसर, हिंदी विभाग,
गाँव से विकसित होते शहर की विकास-यात्रा की विविध विद्रूपताओं राँची विश्वविद्यालय, राँची
को उजागर करता है। संयुक्त परिवार का विघटन, जंगलों का विनष्ट मो. 943036083

120 n जुलाई से सितंबर 2023 yegh


n अविराम : ज्ञानेन्द्रपति

कोलाहल के बीच कविता का मंद्र स्वर


कुमार मंगलम
ज्ञानन्े द्रपति हिंदी कविता का एक मुकम्मल व्यक्तित्व उपेक्षित का सौंदर्य भी मौज़ूद हैं, जिसमें नए अर्थ
हैं। “आँख हाथ बनते हुए” (1970) संग्रह से अँखुआते हैं। ये कविताएँ जीवनधर्मी हैं और मानवता
लेकर “प्रकृति और कृति”(2023) तक उनकी को संपुष्ट करती हैं, जिनमें जीवन की तमाम रहस्यों के
काव्य-वैविध्य का एक विशद् प्रमाण पाठकों के बीच रोशनी की तलाश है। ““क्या है इन जुगनुओं का
बीच है। “शब्द लिखने के लिए ही यह कागज बना /रहस्य ? नहीं जानता/नहीं जानना चाहता/मुझे अच्छा
है” (1981), “गंगातट”(2000), “संशयात्मा” लगताहै कोई एक जिस्म/रोशनी ढोता हो और/अँधेरे में
(2004), “भिनसार” (2006), “कवि ने कहा” चिनगी बना/रोशनी ढोता हो और/जिस्म।”1
(2007), “मनु को बनाती मनई” (2013), “गंगा बीती” ज्ञानेन्द्रपति का पहला संग्रह “आँख हाथ बनते हुए” 1970 में
(2019) और “कविता भविता”(2020) इस यात्रा के महत्वपूर्ण पहचान पुस्तिका के तहत प्रकाशित हुआ था, इसमें शमशेर बहादुर
पड़ाव हैं। ज्ञानेन्द्रपति की काव्य प्रतिबद्धता दृश्य में अंतर्निहित सिंह, जितेंद्र कुमार, विष्णु खरे अन्य कवि के तौर पर शामिल थे।
रचनात्मकता को संवेदना की शर्त पर काव्यात्मक बनाना है। सोलह कविताएँ इस संकलन में शामिल हैं, इन कविताओं की
उनके भीतर का खोजी कवि-मन बेहद सावधान और सतर्क है, परिपक्वता ज्ञानेन्द्रपति को एक सजग और संवेदनशील कवि के रूप
जो अंतर्घटनाओं और अंतर्दृश्यों को लगातार कविता में रूपांतरित में स्थापित करती है। आँख हाथ बनते हुए पर लिखते हुए श्रीकांत
करता रहा है। उनकी चिंता में खजुराहो की मूर्तियों को निर्मित करने वर्मा ने ठीक ही लक्षित किया है, “ज्ञानेन्द्रपति की कविताओं का
वाले कर्म कुशल हाथ और पुल का बनना भी है। आकर्षण उनका मुहावरा है जोकि हिंदी की प्रचलित कविताओं के
ज्ञानेन्द्रपति की कविताओं की दृश्यावली कतई मनोरम नहीं हैं, मुहावरों से बहुत अलग है। तात्कालिक घटनाओं, प्रसंगों और
वे उस वेदना के सहभागी हैं जो “जन-मन-वेदना” से पैदा हुआ है। हलचलों से स्वयं को सतही ढंग से जोड़ना, इतिहास से जुड़ना मान
ज्ञानेन्द्रपति की कविताओं की विलक्षणता सच्चिदानंद और ‘जन- लिया गया है और इस नकली प्रक्रिया में हिंदी कविता की भाषा
मन-वेदना’ से आगे “जन-मन-करुणा” के रूप में तब्दील होकर लगभग नष्ट हो चुकी है। ज्ञानन्े द्रपति इस ‘हल्ले’ में नहीं हैं बल्कि
पाठकों के बीच आती हैं। करुणा के धरातल पर भी कवि की मुट्ठी हल्ले के विरुद्ध हैं। इसलिए उन की कविता भी ‘बनी हुई’ कविता
तनी हुई है। वे अपने भीतर तीव्र परिवर्तनकामी चेतना को एक नहीं बल्कि ‘बनने की प्रक्रिया’ की कविता है। कविता को रंगीन
क्रांतिकारी रोमान में समेटे हुए हैं इस कारण उनकी मुट्ठी तनी हुई बनाने के लिए आंचलिक शब्दों और मुहावरों का इस्तेमाल पहले भी
और रीढ़ सीढ़ी है। समकालीन इतिहास में हाशिए पर छूट गयी किया गया है। केदारनाथ अग्रवाल से ले कर केदारनाथ सिंह तक,
संवेदना अक्सर वर्ग के ख़िलाफ़ युयुत्सु जयघोष में तब्दील हो जाता अनेक कवियों ने, बड़ी कारीगरी और कामयाबी के साथ इस विधि
है किन्तु ज्ञानेन्द्रपति के यहाँ वे संवेदनाएँ कविताओं में सामाजिक एवं का प्रयोग किया। ज्ञानन्े द्रपति भी आंचलिक मुहावरों का धड़ल्ले के
आत्मिक आलोचना के नैतिक विवेक के ज़मीन पर दर्ज़ होती जाती साथ उपयोग करते हैं। मगर उनका उद्देश्य कविता को रंग और गंध
है। यहाँ एक ओर आत्मिक मुलाक़ातें हैं तो दूसरी ओर परित्यक्त और का संसार प्रदान करना नहीं बल्कि विडंबना को उभारना है। यह

yegh जुलाई से सितंबर 2023 n 121


भाषा का औपचारिक नहीं, अनौपचारिक इस्तेमाल है और इसलिए समाज-शत्रुओं को ललकारता और उससे आमने-सामने दो-चार
अपने समय की जरूरतों के ज्यादा नज़दीक है।”2 करता हुआ वेध्य और जूझता कवि-मन है। यहाँ परित्यक्त कुछ भी
ज्ञानेन्द्रपति अपनी कविताओं में कविता के लिए अछूत समझे नहीं, मानव और मानवेतर सबकुछ नये अर्थ-भंगिमा के साथ सार्थक
जाने वाले विषयों को भी हमेशा से उठाते रहे हैं। उनकी कविताओं अभिव्यक्ति पाते हैं। कहीं मुक्तिबोधीय और कहीं निराला की चेतना
में अक्सर हाशिए पर रह गए लोग और जीव-जंतु रहे हैं। इस संग्रह की सहचरइन कविताओं में अनगढ़ काव्य और भाषा की दुरूहता
में बच्चों से संबंधित इनकी दो कविताएँ ‘लड़की’ और ‘अपना आपको ठहरा जरुर सकती है लेकिन थोड़े श्रम और लगाव से
बघवा’ इसे समझे बग़ैर ज्ञानन्े द्रपति की काव्य निर्मिति को समझना आपको नये अर्थ की प्रतीति भी हो सकेगी। यह दुरूहता जीवनधर्मी
मुश्किल होगा। लड़की शीर्षक कविता में लोलुप और भोगी नज़र का मानवीय जिजीविषा को संपुष्ट करने वाले ठहराव हैं जो आगे की
जो चित्रण यहाँ मौज़ूद है, उसे लडकियाँ आज तक भोगती हैं। यात्रा में पाथेय बन जाते हैं। ‘भिनसार’ संकलन में एक अलग तरह
ज्ञानेन्द्रपति कोई बनाव नहीं रचते, वे दृश्य को इतना साफ़ रखते हैं की कविता है- प्रत्यभिज्ञा। यह आकार में तनु है किन्तु अपने अर्थ-
कि पाठक सोचने पर विवश हो जाए, बल्कि घिन आने लगे। वे यहाँ विस्तार में दीर्घ। यह एक दार्शनिक मनोभाव को रचने वाली कविता
कविता को सद्-चित्त-आनंद नहीं सद्-चित्त-वेदना में तब्दील करते है, जिसमें कविता की अर्थ-कुंजी शीर्षक में निहित है। बग़ैर शीर्षक
हैं जिसे पढ़ने के बाद करुणासिक्त होने के अतिरिक्त का अवकाश को समझे कविता को नहीं समझा जा सकता। यह कविता प्रथम
नहीं है- “उनकी आँखें/तुम्हारी छाती में शोर करते दौड़ते रक्त पर दृष्टया सामान्य लग सकती है लेकिन इसका विवेचन अपने भीतर
टिकी हैं/तुम्हारी छाती पर उनकी नज़र है लड़की/कार और रिक्शे से निहित प्रज्ञा के संबोधन से है। यह बात इसे असामान्य बनाती है।
फिसली हुई नज़र/चीज़ों की ताकमें लगी लालची नज़र/चीज़ों से घर अपने आप से संवाद की सूरत बेहद मुश्किल प्रक्रिया है। यह आत्म-
भरने वाली नज़र।”3 बोध और आत्म-संवाद की कविता है- “अरे,/इसने अब तक रखा
“भिनसार” ज्ञानन्े द्रपति के पहले संग्रह ‘आँख हाथ बनते हुए’, मुझे याद? यह तो/बहुत पहले गुज़रे एक बियाबान की/कोयल है।”4
‘शब्द लिखने के लिए ही यह कागज बना है’ एवं उनके आरंभिक “गंगातट” और “गंगा-बीती : गंगू तेली की जबानी” ज्ञानन्े द्रपति
समय की प्रकाशित-अप्रकाशित कविताओं का संकलन है। इन की सर्वाधिक चर्चित कृतियाँ हैं। इन दोनों कृतियों में गंगा और
कविताओं में युवा आक्रोश और आवेग से जन्मा क्रांतिकारी मिज़ाज, बनारस केंद्र में हैं। एक तरह से गंगा बीती, गंगातट का विस्तार है।
इन दोनों संग्रहों में ज्ञानन्े द्रपति का कवि-द्रष्टा विस्तार पाता है। हिंदी
क्षेत्र में राजनीति का प्रभुत्व इतना अधिक है कि सब कुछ राजनीति
के वृत्त के आसपास ही सिमटने लगता है। यहाँ तक कि कविता और
विचार पर भी राजनीति हावी है। ऐसे में कवि ज्ञानेन्द्रपति राजनैतिक-
विमर्श को पर्यावरण विमर्श और पर्यावरणीय चिंता के साथ कविता
के केंद्र में लाते हैं। फिर गंगा या बनारस कोई इकाई नहीं एक
प्रतिनिधि पाठ के रूप में तब्दील होकर हमारे बीच एक बड़े चिंता के
तौर पर उपस्थित होते हैं। प्रकृति अपने सामान्य अर्थ में मानवेत्तर ही
नहीं मनुष्य के साहचर्य के साथ इन कविताओं में मौज़ूद है। इन
कविताओं में राजनीति का स्वर भी मुखरता और प्रतिबद्धता के साथ
चलता है। ज्ञानेन्द्रपति उपभोग के लक्ष्मण रेखा का शिनाख्त करते हैं
और उसका एक गांधीवादी रूपक इन कविताओं में तलाशते हैं,
जिनके गुणसूत्र हमारे औपनिषदिक मानस में पहले से मौज़ूद है।
‘गंगातट’ की कविताओं को पढ़ते हुए आलोचक डॉ. नामवर सिंह ने
सैलानी की दृष्टि से देखे गए बनारस की बात करते हैं, “उसमें
बनारस से संबंधित कविताएँ हैं, लेकिन उन कविताओं में बनारस
नहीं है, यानी बनारस की आत्मा और संस्कृति।”5 तो राजेश जोशी
इन कविताओं में ज्ञानन्े द्रपति की दूसरी नागरिकता की कविता बताते
हैं, “गंगातट ज्ञानेन्द्रपति की दूसरी स्थानीयता की नागरिकता की

122 n जुलाई से सितंबर 2023 yegh


कविता है।”6 किन्तु गंगा-बीती की कविताओं में ज्ञानेन्द्रपति नामवर
सिंह की स्थापना सैलानी दृष्टि को अपने गहन पर्यवक्ष े ण दृष्टि से गंगा-बीती की पहली ही कविता नौका-विहार
और राजेश जोशी की स्थापना दूसरी नागरिकता को प्राथमिक इस बदलाव का सबसे सबल उदहारण है। यहाँ
नागरिकता से बदल देते हैं। गंगा-बीती की पहली ही कविता नौका- सैलानी-दृष्टि और नागरिक कर्तव्य से अधिक
विहार इस बदलाव का सबसे सबल उदहारण है। यहाँ सैलानी-दृष्टि एक सजग कवि की चिंता अधिक दिखती है।
वे इस कविता में शहर के सहृदय और कुलीन-
और नागरिक कर्तव्य से अधिक एक सजग कवि की चिंता अधिक
शालीन नागरिकों को भी नहीं बख्शते। भारतेंदु
दिखती है। वे इस कविता में शहर के सहृदय और कुलीन-शालीन ने भारत-दुर्दशा पर भारत भाइयों को रोने के
नागरिकों को भी नहीं बख्शते। भारतेंदु ने भारत-दुर्दशा पर भारत लिए आह्वान किया था लेकिन यहाँ गंगा-दुर्दशा
भाइयों को रोने के लिए आह्वान किया था लेकिन यहाँ गंगा-दुर्दशा में में ज्ञानेन्द्रपति किसका आह्वान करें, सहृदयतो
ज्ञानेन्द्रपति किसका आह्वान करें, सहृदय तो नाले में तब्दील होती नाले में तब्दील होती गंगा में बुढ़वा मंगल
गंगा में बुढ़वा मंगल मनाने में व्यस्त हैं। ज्ञानन्े द्रपति के पास रोने का मनाने में व्यस्त हैं।
विकल्प नहीं है, वे करुणा-सिक्त-मन से दर्ज़ कर रहे हैं, बनारस
को, गंगा को और अपने समय को— “अघायी दिखती सुरुचि से संग्रहों की तुलना में विपुल भी है। इस संग्रह में कवि का गाँव
ढँके भोग-भूख़ी क्रूरता/कि नदी मर रही है और वे बजरे पर पथरगामा और झारखंड है, तो पटना, कलकत्ता और बनारस की
बुढ़वामंगल मना रहे हैं/शहर के कुलीन-शालीन, शहर के सहृदय।”7 उपस्थिति भी है, यह जिनता स्थानिक है उतनाही वैश्विक भी। इन
ज्ञानेन्द्रपति इस कविता में एक सूचना देते हैं गंगा मर रही है, वहीं कविताओं में राष्ट्रीयता को अंतर्राष्ट्रीयता के साथ और अंतर्राष्ट्रीयता
गंगातट में शामिल कविता नदी और साबुन को याद करें, जहाँ नदी को राष्ट्रीयता के साथ देखने का उपक्रम है जो अंधराष्ट्रीयता को
एक साबुन की टिकिया से हार जाती है। यह अंतर है गंगातट और बढ़ाने वाली साम्राज्यवादी बुर्जुआ प्रवृत्ति का निषेध करती है। इसकी
गंगाबीती की कविताओं में। यह सिर्फ़ देखने का अंतर नहीं है, यहाँ चिंता में केन्या के साथ पलामू, बस्तर और केरल के जंगल और
कवि नदी के साथ-साथ जी रहा है। यहाँ अपनी कविताओं में शहर जगल के जीव एक साथ शामिल हैं। यहाँ मानव जितना प्रकृति का
का एक वैकल्पिक इतिहास लिख रहे हैं। गंगातट और गंगाबीती में सहोदर है उतना ख़ुद प्रक्रति के अन्य मानवेत्तर जीव भी। ‘गजदंत
मौज़ूद शहर दरअसल भूमंडलीकरण के बरअक्स लोक का प्रतिरोध धूमगज’ कविता देखें—“वह गजदंत का धुआँ/उन श्वेत समिधाओं
है जिसे ज्ञानेन्द्रपति बनारस के माध्यम से दर्ज़ कर रहे हैं। बनारस से उठता हुआ धुआँ/लेता गजाकार आकाश में मेघस्पर्धी/पारकर
यहाँ विकल्प है। बनारस एक शहर नहीं, प्रतीक है— प्राचीन सभ्यता महादेशान्तराल/केन्या का वनान्धकार छा लेता है आकाश भारत का
का, नगर का, क़स्बा का, लोक का, जीवन का। यह सनातन भी एक पल।”9 संशयात्मा में ज्ञानन्े द्रपति गाँव और शहर के संधिस्थल
प्रतिपक्ष है। ज्ञानन्े द्रपति बनारस को कविता के लिए चुनते हैं। गंगातट पर खड़े हैं। गाँव ज्ञानन्े द्रपति के यहाँ सांस्कृतिक इकाई नहीं है बल्कि
और गंगा-बीती दोनों संग्रहों में ज्ञानन्े द्रपति गांगेय-नगर और गंगा के ग्राम्य-ग्रासी नगर संस्कृति का भोज्य है, जिसको मिट जाना है या
बहाने जो पाठ निर्मित करते हैं, वह किसी नगर का विस्फारित वर्णन अनवरत रूदन की वह सिसकी है जहाँ बहुत दूर बज रहे आर्केस्ट्रा
अथवा उस नगर-संस्कृति का चित्र नहीं, चल-चित्र है, जिसमें का शोर है। “गाँव का वह घर/अपना गाँव खो चुका है/पंचायती राज
सभ्यता-समीक्षा के तत्व मौज़ूद है। ये कविताएँ पूंजीवादी व्यवस्था में जैसे खो गए पञ्च परमेश्वर।”10 वह एक ऐसे कम्पोजिट कल्चर
को बरकरार रखने वाली साजिश का उद्घाटन करती है। दलाली का रूप लेगा जहाँ मानव सिर्फ़ संसाधन और आपूर्ति का माध्यम
और गुमराह करने वाली सत्ता के शक्ति प्रतिष्ठानों का शिनाख्त होगा। वह सस्ता श्रम होगा, भोग-विलास का वस्तु बन जाएगा,
करती है जो सदियों से कभी धर्म, कभी ईश्वर, भाग्य, राजनीति, विकास के अंधाधुंध उपभोग का एक ऐसा चक्र चलेगा जो सिर्फ़
सत्ता, शक्ति, परंपरा और आधुनिकता के नाम पर जनता को विनाश और विस्थापन का कारक होगा। ‘संशयात्मा’ में मौज़ूद
बरगलाता रहा है। हेरोड़ेटस ने कहा था, “भूगोल को ऐतिहासिक नगर-चित्र जिसमें कलकत्ता, पटना और बनारस शामिल है, उन
और इतिहास को भौगौलिक परिप्रेक्ष्य में पढ़ा जाना चाहिए।”8 कविताओं में गाँव से अविभाज्य संबंध है। वे नगर की सुन्दरता,
ज्ञानेन्द्रपति बनारसकी स्थानिकता (भौगोलिकता) को इसी गतिशील सुविधाओं और चमक-दमक की बानगी नहीं है। हरेक नगर में बसे
जल-दर्पण में देखते हैं, देखते क्या हैं? बल्कि उसका एक साभ्यातिक एक गाँव की त्रासद कहानी है। इन कविताओं की चिंता में शहर
रूपक रचते हैं। अथवा गाँव की चिंता मिलावट या स्खलन की चिंता से अधिक
‘संशयात्मा’ ज्ञानन्े द्रपति का सर्वाधिक सशक्त संग्रह है और अन्य इसके रहवासी मनुष्य और प्रकृति से है। आज़ादी के बाद जहाँ गाँव

yegh जुलाई से सितंबर 2023 n 123


हरेक तरह की आपूर्ति का साधन बनता गया, वहीं शहर में फल रहे संयोग, वियोग, स्मृति से परे मनु को बनाती मनई की स्त्री सहयात्री
उद्योग-धंधे, कल-कारखानों के लिए कच्चे-माल से लेकर श्रमिक है। यहाँ स्त्री भोग्या अथवा कमजोर नहीं ना ही शक्ति-स्वरूपा है।
तक के लिए शहर गाँव की ओर देखता रहा, किन्तु शहर में इन स्त्री को उसके सम्पूर्ण इयत्ता और उसके स्त्रीत्व में देखने की कोशिश
मजदूरों के लिए मानवीय स्तर की न्यूनतम व्यवस्था भी नहीं कर है। यहाँ प्रेम का कोमल भाव है तो वियोग का कठिन क्षण भी। संग्रह
सका। हरित क्रांति के बाद पंजाब और हरियाणा जैसे राज्यों में के शुरुआत में स्त्री की छवि बेहद आम और कामगार स्त्री की छवि
खेतिहर मजदूर की आवश्यकता भी बढ़ी। गाँव से पलायन कभी है। इसमें मालती है, धोबिन है, दशाश्वमेध पर की रुकमिनिया है,
नौकरी, कभी शिक्षा, कभी स्वास्थ्य आदि कारणों से होता रहा। बाटी वाली ताई है तो फिर प्रेम से पगी और फिर प्रेम से विदग्ध स्त्री
ज्ञानेन्द्रपति की पक्षधरता स्पष्ट है, वे जानकी को अपनी बेटी की भी है और अंत तक आते-आते वे स्त्रियाँ भी हैं जो किसी पुरुष के
तरह पहचानते हैं तो मुंबई के क्वींस नेकलेस को छतीसगढ़ी मजूरिन अस्तित्व-राग की रागिनियाँ भी हैं। स्त्री यहाँ ‘एक ठेठ भारतीय
की हँसली के रूप में। ज्ञानन्े द्रपति के यहाँ दबाव नहीं शिनाख्त है। आत्माभिव्यक्ति’13 है। मनु को बनाती मनई की कविताएँ स्त्री-जीवन
“मैंने देखा/रानी का जगमगाता गलहार/बेशकीमती/नहीं यह हँसली के मेहनतकश उपेक्षित पक्ष से शुरू होकर अस्तित्व की स्मृतियों तक
छतीसगढ़ी मजूरिन की”11 संशयात्मा की कविताओं में कवि की की यात्रा करती हैं। यह अनायास नहीं है कि इस संग्रह में अभिव्यक्त
रचनात्मकता के कई रंग हैं। इसमें सांप्रदायिकता से उपजी बेचैनी है स्त्री एक पुरुष-दृष्टि से अभिव्यक्त स्त्री है। इसमें स्त्री के प्रति
तो एक सांद्र और संयत कवि मन भी है, जो बहुत उम्मीद और जीवन अनुराग है, कृतज्ञता है, उस करुणा के प्रति संवेदना है जो स्त्री अपने
के साथ अपने समय को देखता है। इन कविताओं में बेहद ही भीतर हरेक परिस्थिति में भी जिलाए रखती है तो वह पुरुष-दृष्टि भी
सांकेतिक तरीके से वे वह सबकुछ बचाना चाहते हैं जो मनुष्यता को मौज़ूद है जो विमर्शों के घेरे में अनालोच्य नहीं रह जाता है। इस
जीवित रखे इन कविताओं में बचाने का सौन्दर्य ‘सब कुछ होना बचा संग्रह की कविताएँ स्त्री-जीवन की आद्योपांत कथा का सजग
रहेगा’ की तर्ज पर नहीं है बल्कि उस बचने -बचाने के जद्दोजहद में आत्मावलोकन हैं जहाँ आत्म, करुणा, समस्त मानवीय मनोभाव
एक आलोचनात्मक मन सदैव तैयार है, जो यथार्थ के प्रति निष्कवच मौज़ूद है। यह मौज़ूदगी स्त्री-मन की किंचित प्रतिध्वनि को निकषों
है। यहाँ विस्मरण नहीं बचाने की अनंत अर्थछवियों की स्मृति को के निष्करुण यथार्थ पर नहीं सम-वेदना, सम-व्यथा और सह-
अक्षुण्ण रखना है। जीवन-राग की रागिनी को सुनकर पैदा हुई है। इन कविताओं की
ज्ञानेन्द्रपति की प्रेम कविताओं “मनु को बनाती मनई” और यूँ सार्थकता और सीमा दोनों यही है कि यहाँ स्त्री एक अलग इकाई
कहें स्त्री विषयक कविताओं का संकलन है। इस संग्रह के केंद्र में नहीं बल्कि स्त्री-पुरुष का वह अद्वैत है जो शिवःशक्ति परिस्पंद का
स्त्री है। जो किसी मनुष्य को अधिक मनुष्य बनाने और स्त्री-विषयक कारक है।
संवेदना को विस्तारित करने में मददगार है। ग़ालिब के शब्दों में ‘कविता भविता’ ज्ञानेन्द्रपति की कविताओं का ऐसा संकलन है
‘आदमी को भी मयस्सर नहीं इंसा होना’ की तरह ये कविताएँ मनुष्य जिसकी केन्द्रीय विषय-वस्तु कविता की रचना-प्रक्रिया को समझना
को मनई बनाने का उपक्रम रचती है। इसमें ‘ऐ काकी’, ‘दाई माँ’, है। किसी रचनाकार की रचना-प्रक्रिया के भीतर प्रवेश पाना उस
‘विदा माँ’ जैसी कविता है तो ‘जरत्कारू’ जैसी कविता भी है। रचनाकार के उस भीतरी-अँधेरे कमरे में प्रवेश करने जैसा होता है
जीवन में साहचर्य का रंग है तो एकाकी जीवन के वियोग के कई जिसमें कवि-जीवन के यथार्थ के कई परतदार तहखाने मौज़ूद होते
चित्र भी मौज़ूद है। मनु को बनाती मनई संग्रह में स्त्री-विमर्श का हैं। ज्ञानन्े द्रपति सरीखे कवि, जिनके जीवन में कविता प्राथमिक और
मुहावरा नहीं बल्कि स्त्री संवेदना के तत्व मौज़ूद है। ज्ञानन्े द्रपति के अंतिम दायित्व है, की रचना-प्रक्रिया को समझना उन अँधेरे बंद
पहले के संग्रहों में चेतना पारीक, बनानी बनर्जी, जानकी इत्यादि कई कमरों की तलाशी लेना है। और इस तलाश में कविताएँ ही हमारी
स्त्री-चरित्रों का अभिलेख देखने को मिलता है किन्तु इस संग्रह की सहयात्री हैं। ज्ञानन्े द्रपति का विशद रचना कर्म जो आज हमारे सामने
स्त्रियों में तन-गंध नहीं जन-गंध आती हैं- “हाँ, उस मालती की देह है, एक लम्बे जीवनानुभव से उद्भूत हुआ है। इस जीवनानुभव में
से/तन-गंध नहीं, जन-गंध आती है/वह एक गंध जो मरद को जीवन और कविता एकमेक हैं। और इस प्रयास में वे एक ओर
न्योतती नहीं घूमती/चाहे मरदों के बीच/—मज़दूरिन और महतारी आलोचक प्रवर आचार्य रामचंद्र शुक्ल के निबंध ‘कविता क्या है?’
की मिली-जुली गंध”12 ज्ञानेंद्रपति के इस संग्रह में स्त्री जीवन के उस की चिंतन-भूमि पर, तो दूसरी तरफ मुक्तिबोध के चिन्तनपरक गद्य
श्रम और सौन्दर्य से जुड़ी हैं, जहाँ सिर्फ़ करुणा नहीं बल्कि जीवन ‘एक साहित्यिक की डायरी’ की संवेदनात्मक ज़मीन पर खड़े
के साहचर्य का वह उदात्त भाव मौज़ूद है जहाँ से जीवन का समावेशी दिखायी पड़ते हैं। अपने चिन्तन के रकबे में हरेक रचनाकार अपने
रूप निर्मिति पाता है। स्त्री यहाँ जीवन के साझेपन का मूलाधार है। तईं ‘कविता क्या है?’ जैसे सवालों से टकराता है और अपनी समझ

124 n जुलाई से सितंबर 2023 yegh


के अनुसार उत्तर खोजता भी है। ज्ञानन्े द्रपति अपने इस संग्रह में
कबीर, बाशो, मायकोवस्की, निराला, प्रसाद, मुक्तिबोध, त्रिलोचन,
धूमिल इत्यादि कवियों की रचनाओं से टकराते हुए अपने लिए
कविता की ज़मीन तलाशते हैं और तराशते भी हैं। कविता को लेकर
ज्ञानेन्द्रपति के इस चिन्तन में, जिससे कविता भविता की कविताएँ
संभव होती हैं, कविता को लेकर मूल्यों का संघर्ष और एक कवि की
बेचैनी की एक सतत प्रक्रिया विद्यमान है, जिसमें स्वयं ज्ञानन्े द्रपति
का अपना आत्म-संघर्ष भी शामिल है। बग़ैर संघर्ष के जब दो वक्त
की रोटी नसीब नहीं होती तो ऐसे में कविता और कविता में निहित
मूल्य कैसे निर्मित होंगे? ‘कविता भविता’ कविता और कविता में
अंतर्निहित मूल्य को बचाने की संवेदना से निर्मित कृति है जिसे
सायास भावी पीढ़ी को ज्ञानन्े द्रपति सौंपते हैं। इस किताब के समर्पण
में लिखते हैं— “भावी कवि-पीढ़ियों के हाथों में/जिनकी हथेलियों
की लकीरों में/हृदय-रेखा और मस्तिष्क-रेखा के बीच/एक लकीर
कविता की भी होगी।”14 और ऐसा लिखते हुए ज्ञानेंद्रपति के मन में
कोई अहंकार-भाव नहीं बल्कि एक लेखक का विश्वास और अपनी
अगली पीढ़ी पर कहीं अधिक भरोसे की उम्मीद दिखती है। जिसे
अभिनवगुप्त ने ‘ज्ञान का विशेष रूप से अनुसंधानात्मक निरूपण’
कहा था उसे ही ज्ञानेन्द्रपति ने कविता के संदर्भ में ‘कविता भविता’
कहा है। इन कविताओं में भविष्य के प्रति एक उम्मीद और अपने लिखी जाती है कविता/धूपछाँही”16 ज्ञानेंद्रपति को यह अनुभव और
अनुभव और उससे जन्मी सचाई को अगली पीढ़ी को सौंपने का एक अनुभूति का संसार पाने में अपने पूर्वज कवियों से भी योगदान
विनम्र प्रयास अन्तर्निहित है। यही वज़ह है कि यह कविता भविता है; मिलता है। हालाँकि ज्ञानन्े द्रपति अपने को निगुरा मानते हैं तथापि
अपने भवितव्य को सम्बोधित। वस्तुतः कविता की सृजन-प्रक्रिया उनके लिए उनकी पूर्वज कविताएँ पाथेय बनती हैं। और वे अपनी
को समझना और समझाना, उसकी प्रविधि विकसित करना, मनुष्य आगे की पीढ़ी को भी इसी रूप में सम्बोधित करना चाहते हैं।
में विचारशीलता को बृहदाकाश देने और मनुष्य-हृदय के औदात्य ज्ञानेंद्रपति के ‘गंगातट’ में एक कविता है, जिसमें आय हुआ बीरू
के लिए आवश्यक है। ज्ञानन्े द्रपति की कविताओं में मनुष्यता की रगों मल्लाह उनमें निराला की एक कविता की स्मृति जगा देता है—
में बहने वाला शीत-ताप है। ‘दीठ बँधी, अँधेरा उजाला हुआ/सेंधों का ढेला, शकरपाला हुआ’
कविता की प्रतीक्षा में कवि जन-जीवन से ऊष्मा लेता है। कविता और ज्ञानेंद्रपति का काव्याँश—“चाँदी की एक बिछिया/ जो रही होगी
अनुभूतियों और अनुभवों की विविधताओं में लिखी जाती है। तनिक ढीली उस पादांगलि ु में/लेकिन जो, देखो तो, कितनी फिट
ज्ञानेन्द्रपति के लिए कविता की प्रतीक्षा जीवात्मा के अस्तित्व के आती है बीरू मल्लाह की अनामिका में” — निराला की कविता-
विकासमान होने और कोमलतम भाव के सनेह-सन्देश बाँचने तक स्मृति से भी एक अभिनव चमक अर्जित करता है। किस तरह
की प्रतीक्षा है। बकौल ज्ञानेन्द्रपति, “जीवनानुभव के भीतर ही महाप्राण आज के एक कवि की जीवन-दृष्टि और काव्य-दृष्टि में
काव्यानुभूति बसी होती है, लेकिन उसकी दमक तभी निखरती है एकाकार हैं— लेखक की अन्तःप्रज्ञा की आंतरिक उजास बनकर,
और निरखने योग्य बनती है, जब जीवनानुभव एक संरचना में यह तथ्य उजागर होकर हमारे सामने आता है। पूर्वज कवियों की
विन्यस्त हों; आत्मा को भी व्यक्त होने के लिए देह चाहिए होती कविताओं की अंतरछवियाँ बाद के कवियों के लिए पाथेय की तरह
है— पंच महाभूतों से एक संचयन...”15 इसीलिए ये कविताएँ हैं। कबीर की कविताओं की तरह ही निराला की कविताओं में
धूपछाँही हैं। ज्ञानेंद्रपति की कविताएँ जीवनानुभव एवं काव्यानुभव ‘देखना’ एक बहुप्रयुक्त क्रिया है। ठीक वैसे ही ज्ञानेन्द्रपति की
को एक साथ संलयित करने से उपजती हैं। यही वज़ह है कि ये कविताओं में भी ‘देखना’ क्रिया अपने सम्पूर्ण बनक के साथ मौज़ूद
कविताएँ जीवन की तरह ही एक क्रमिकता लिये हुए पाठकों के है। ज्ञानेंद्रपति की कविताओं की बनावट मात्र भावनात्मक
सामने प्रकट होती हैं-“अनुभूतियों की विविधवर्णी वर्णमाला में/ प्रतिक्रियाओं से निर्मित नहीं है बल्कि जीवन-द्रव्य से जुड़कर जीवन

yegh जुलाई से सितंबर 2023 n 125


का निकटतम अवलोकन है। जीवन का सूक्ष्म अवलोकन कविताओं आना था क्या छोड़ आये!”18 ज्ञानन्े द्रपति अपने इस संग्रह में स्पष्ट
के लिए किस कदर ज़रूरी है और उसमें एक दुर्लभतम विट और कर देते हैं कि “प्रकृति का ऋणबोध ही ऋणशोध है।”19 प्रकृति और
ह्यूमर, समस्त क्रिया-व्यापारों, यथा प्रकृति-परक और मनुष्य-परक, कृति में कोरोना काल की मौज़ूदगी है तो वन-प्रांतर, गाँव, बनारस
का अवलोकन और उसकी अन्विति कविता की शर्त पर बग़ैर इत्यादि शहरों की छवियाँ भी है। इसमें पंडुक शिशु है, चमगादड़ के
काव्य-रस खंडित किए हुए किसी भी कविता की प्राथमिक शर्त होती बच्चों से बातचीत भी है। ज्ञानेंद्रपति अपने कवि-कर्म में इस तरह से
है, ज्ञानेन्द्रपति की कविता को पढ़ते हुए इस सच से साक्षात्कार किया सचेत हैं कि अलभ्य और अलक्षित चीज़ें भी उनकी कविताओं के
जा सकता है। कविता चाहे किसी एक मूल नैरेटिव को लेकर आगे लिए हेय नहीं रह जाते। प्रकृति और कृति में ज्ञानेंद्रपति ने उस ओर
बढ़े अथवा एकाधिक बातों को अपने कलेवर में पुंजीभूत करे, इशारा किया है जहाँ प्रकृति ही हमें सृजित करती है। यानी यह
अवलोकन की अन्विति ही कविता को वह स्वरूप देती है जिससे चराचर की सभी कृतियाँ उसी प्रकृति का अंश-भाग है, कृति है।
सामान्य जन और कवि-संवेदन के द्वैत को अलगाया जा सकता है। ज्ञानेन्द्रपति की रचनाओं में एक परस्परिकता के गुणसूत्र मौज़ूद
‘प्रकृति और कृति’ सम्पूर्ण चराचर जगत जिसमें मानव और है, जिससे उनमें एक औपन्यासिक वितान बनता है। तद्भव-तत्सम-
प्रकृति की अनन्यता मौज़ूद है के व्यापक संदर्भोंं को लेकर अपना देशज शब्दावली प्रचुर कविता, कविता के सौंदर्य के बढ़ाने के
रूप अख्तियार करती है। प्रकृति की उपस्थिति ज्ञानेन्द्रपति की कारक होते हैं, उसमें बाधक नहीं। ज्ञानेन्द्रपति समय से संवाद करने
कविताओं में कोई नई बात नहीं है, यह उनकी काव्य-चिंतन में वाले और तमाम केंद्रकों में हाशिए पर रह गए चीज़ों को दर्ज़ कर
हमेशा से मौज़ूद रही है। प्रकृति और कृति में प्रकृति से ज्ञानन्े द्रपति एक वैकल्पिक इतिहासकार-सामाजिक बन जाते हैं, जहाँ उनकी
का दृष्टि-पथ व्यापक हुआ है और प्रकृति के उन क्षेत्रों की यात्रायें रचनाएँ सभ्यता-समीक्षा का पाठ निरंतर तैयार करती हैं। n
भी हैं जो अयात्रित हैं। प्रकृति को लेकर कोरोना काल के बाद विश्व
संदर्भ–
भर में विचार की एक अलग सरणी निर्मित हुई है। आधुनिकता,
1. ज्ञानन्े द्रपति,भिनसार, किताबघर प्रकाशन, नई दिल्ली, 2006, पृ. 17
भूमंडलीकरण, वैश्वीकरण की आंधी में प्रकृति को देखने का 2. साप्ताहिक हिन्दुस्तान, वर्ष 22, अंक 10, पृ. 43
भारतीय नज़रिया भी समझौता ग्रस्त रहा। प्राकृतिक इकाईयों को 3. ज्ञानन्े द्रपति, भिनसार, किताबघर प्रकाशन, नई दिल्ली, 2006, पृ. 68
जननी और जीवन का आधार मानने वाला देश अपने क्षुद्र स्वार्थों 4. ज्ञानन्े द्रपति, भिनसार, किताबघर प्रकाशन, नई दिल्ली, 2006, पृ. 175
के लिए प्रकृति का दोहन करता रहा। जिसका भीषण परिणाम हमें 5. नामवर सिंह, कसौटी, नंद किशोर नवल (सं.), अंक 8, पृ, 114
6. राजेश जोशी, एक कवि का नोटबुक, राजकमल प्रकाशन, नई
देखने को मिला है। केदारनाथ आपदा से लेकर, जल-जंगल-ज़मीन दिल्ली,2004, पृ. 99
का संघर्ष, मानवीय जीवन का संघर्ष बनता गया। आज मौसम का 7. ज्ञानन्े द्रपति, गंगा-बीती, सेतु प्रकाशन, नोयडा, 2019, पृ. 09
मार सिर्फ़ किसान नहीं झेल रहा, सम्पूर्ण विश्व प्रकृति की अवहेलना 8. अभय कुमार दुबे(सं), दीवान-ए-सराय-2 शहरनामा, वाणी प्रकाशन,
और उसके रौद्र का शिकार हुआ है। प्रकृति के व्यापक पक्षों को नई दिल्ली, 2005, पृ. 383
9. ज्ञानन्े द्रपति, संशयात्मा, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, 2004. पृ. 153
लेकर ज्ञानन्े द्रपति प्रकृति और कृति निर्मिति करते हैं जहाँ प्रकृति का 10. ज्ञानन्े द्रपति, संशयात्मा, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 2004. पृ.16
सजल मेघ और उज्ज्वल मेघ दोनों पक्ष अभिव्यक्त हुआ है। इसमें 11. ज्ञानन्े द्रपति, संशयात्मा, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 2004. पृ.57
प्रकृति का सुन्दरतम रूप है तो वह असुन्दर पक्ष भी है जो मानव की 12. ज्ञानन्े द्रपति, मनु को बनाती मनई, किताबघर प्रकाशन, नई दिल्ली,
उपभोग रुपी भोग से पैदा हुआ है। प्रकृति और कृति इस रूप में हमारे 2013, पृ. 32
13. ज्ञानन्े द्रपति, मनु को बनाती मनई, किताबघर प्रकाशन, नई दिल्ली,
समय का अप्रतिम और बहसतलब दस्तावेज़ बन जाता है कि मनुष्य 2013, पृ.159
जो स्वयं प्रकृति का अभिन्न है उसने अब तक प्रकृति के साथ किस 14. ज्ञानन्े द्रपति, कविता भविता, सेतु प्रकाशन, नोयडा, 2020, पृ. 05
तरह का व्यवहार कर क्या रचा है और उसने अपनी यात्रा में क्या 15. सिद्धार्थ शंकर राय, (सं.), ज्ञानेन्द्रपति, प्रभाकर प्रकाशन, नई
पाया है। संग्रह की पहली ही कविता है क्या छोड़ आये– “दुर्गम- दिल्ली,2023, पृ. 387
16. ज्ञानन्े द्रपति, कविता भविता, सेतु प्रकाशन, नोयडा, 2020, पृ. 13
दुर्दम समरगाथा फत्ह कर आये/हिम-हत होने से बच लौट आये/ 17. ज्ञानन्े द्रपति, गंगातट, सेतु प्रकशन, नोयडा, 2022,पृ. 385
अवाक् कर देने वाले विराट ने लघुता का जो बोध उपजाया/लौटते- 18. ज्ञानन्े द्रपति, प्रकृति और कृति, अमेज़न किंडल ई-बुक, 2023, पृ. 19
लौटते उसे एवरेस्ट-जयी होने के गुरूर में बदल लाये/क्यों न दर्प 19. ज्ञानन्े द्रपति, प्रकृति और कृति, अमेज़न किंडल ई-बुक, 2023, पृ.203
दिपदिपाये/वहाँ उस आकाश-आलिंगित शिखर पर/बेतहाशा फैल संपर्क : सहायक प्राध्यापक (हिंदी)
उत्तराखंड मुक्त विश्वविद्यालय, हलद्वानी (उत्तराखंड)
रहे राष्ट्रीय झण्डों के चीथड़ों के ढेर में/कुछ जोड़ आये/क्या छोड़ माे. 8840649310

126 n जुलाई से सितंबर 2023 yegh


n अविराम : दिनेश कुमार शुक्ल

“वरिष्ठ कवि दिनेश कुमार शुक्ल पर हम प्रस्तुत कर रहे हैं हिंदी आलोचना के शिखर
पुरुष नामवर सिंह की लिखत। नामवर जी द्वारा यह भूमिका दिनेश कुमार शुक्ल के
कविता संग्रह ‘कभी तो खुले कपाट’ के लिए 1999 में लिखी गयी थी।”–संपादक

पुरोवाक्
नामवर सिंह
उनको आसपास की दुनियाँ से दूर चली जाती है।
जरा भी नहीं था अनुमान लेकिन कविता का महत्व केवल इतना ही नहीं है
शताब्दियों से उन्हीं के आसपास कि उसमें अग्नि बची रह गई। वह अग्नि किस तरह
भूख़ बनकर रची गई है, कवि-कर्म का यह पक्ष कहीं अधिक
दहक़ रही थी अग्नि महत्वपूर्ण है। अग्निवर्णी कवि आगे भी हो गए हैं और
लाखों उदर कंदराओं में वे अंधाधुंध आग बरसा चुके है। आज शायद वे राख
राजा और दरबारियों के के रूप में ही याद आते है। दिनेश कुमार शुक्ल के
बंद थे कान लिए वह आदिम अग्नि है। उसकी ज़रूरत: राजा की रसोई में भी है
गरजती चली आ रही थी और यजमान के यज्ञकुंड में भी। रसोई से यज्ञकुंड तक दृश्यविधान
उन्हीं को घेरती के साथ यह आदिम अग्नि नाट्यायित की गई है। समस्त क्रिया-
दसों दिशाओं से प्रयोग में एक क्लासिकी कसावट है। अंततः वह अग्नि उदर
कन्दराओं से जिस तरह सहसा प्रकट होती है और दसों दिशाओं से
सचमुच चली आ रही थी अब गरजती हुई आगे बढ़ती है वह इस काव्यनाट्य का उदात्त चरमोत्कर्ष
पतित पावन अग्नि। है। अपनी परिणति में वह है अब 'पतित पावन अग्नि’।
और इस 'अग्नि' ने ही दिनेश कुमार शुक्ल की कविता की ओर आदिम अग्नि के इस नाट्य-विधान के अंतर्गत भाषा की भी
मुझे आकृष्ट किया। आश्वस्त हुआ कि जो अग्नि निराला-नागार्जुन अनेक प्राचीन अनुगूंजे हैं। 'जावत् सामग्री' में पुरोहितों के बोलचाल
से होती हुई मुक्तिबोध और धूमिल में कल तक जल रही थी वह का 'जावत्' यथावत है तो 'पीन पाठीन मीन' और 'भूधराकार' जैसे
आज भी बुझी नहीं है। बीच में थोड़ी शंका होने लगी थी। कविता पदों में तुलसीदास का मानस पुनर्जीवित हो उठता है। अग्नि कविता
पर कला का शौक ऐसा चढ़ा कि कवि के शब्दों में 'सब कुछ था, का रचनाकार एक बार आश्वस्त करता है कि आज भी बैसवाड़े के
बस अग्नि नहीं थी। ' सभी चतुर सुजान हैरान-परेशान कि अग्नि कवि में तुलसीदास की अवधी जीवित है। 'अपत', 'अधिकाई' जैसे
कहां चली गई? अन्वेषण आरंभ हुआ। अग्नि की खोज में कोई पुरानी कविता के शब्दों को ले लेने में भी उन्हें कहीं हिचक नहीं
ज्वालामुखियों में उतरा तो कुछ गुणीजन सूर्यलोक तक उड़े और होती। आज की बहुत सी कविताएँ जहाँ अपनी भाषा में अनुवाद का
कुछ ने तो पटक दिए पर्वत पर पर्वत, लेकिन चिनगारी के बदले स्वाद देती हैं, दिनेश कुमार शुक्ल उन थोड़े से कवियों में है जिनकी
उड़े छींटे ख़ून के। गरज़ कि अग्नि सचमुच जहाँ थी उन 'उदर कविता ठेठ हिंदी की कविता मालूम होती है। कवि की स्मृति में
कंदराओं' की ओर किसी का ध्यान नहीं गया। शायद इसलिए अग्नि के साथ ही 'जल' भी सुरक्षित है और वहां जाने का अर्थ है
कि वह अपने इतने पास है-बस आसपास ही। विडंबना यही है। 'सौ योजन मरुभूमि पार कर रचना के प्रान्तर में जाना'। 'जल'
कविता-जब दूर की कौड़ी लाने के चक्कर में पड़ती है तो अपने कविता का महत्व इसलिए भी है कि इधर लोगों का पानी मर गया

yegh जुलाई से सितंबर 2023 n 127


है। आदिम अग्नि की तरह दिनेश के लिए यह भी वस्तुतः 'प्राक्जल' रघुवीर सहाय की कविता 'पानी के संस्मरण' के बाद दिनेश
है। यह वही 'प्राक्जल' है जिसमे जीवन का पहला अंकुर फूटा था शुक्ल की 'जल' की संस्मृतियाँ एक सुखद अनुभव है। कहना न
और आदि कवि का अन्तर्घट भी इसी जल में टूटा था। कवि की होगा कि यह पुनरावृत्ति मात्र नहीं है। यह पानी नहीं 'जल' है जो
स्मृति में 'घनीभूत इतिहास की तरह संचित सामूहिक अनुभव की दिनेश शुक्ल के लिए कविता को परिभाषित करता है-'भाषा का
चट्टानें हैं' और उन 'काई-भरी बड़ी बेडौल ' चट्टानों से जो बूंद-बूंद जल है कविता' (अवध्य नहीं है कवि)।
कर जल रिस रहा है वही उसकी निधि है। स्वयं कवि के शब्दों में- इसी प्रसंग में एक स्मृति और ‘धरती माता जागो’ एक छंदोबद्ध
'यही अमृत है गीत। लोकगीत के आवर्तनों के साथ। गीत के नीचे यह टिप्पणी है
यही गरल है 'बैसवाड़े’ में दीवाली की रात को दीपक जलाते समय धरती माता
इसको पाना को भी जगाया जाता है और उन्हें जगाने के लिए पारंपरिक तौर पर
इसे समझना निम्नांकित पंक्तिया जोर-जोर से बोली जाती हैं- धरती माता जागो,
इसको पीकर ब्रह्मा जागो, विष्णू जागो, जागो सहस कला गोविन्द, धरती माता
तिरपित होना जागो'। यह टिप्पणी स्पष्टतः उन लोगों के लिए है जिन्हें या तो इस
कभी सुगम है परंपरा का पता नहीं है या फिर वे भूल गए हैं। सच पूछिए तो मुझे
कभी जटिल है '। इस लोक परंपरा का ज्ञान पहली बार इसी कविता से हुआ।
रिसते जल वाली काई भरी चट्टाने यदि एक ओर मुक्तिबोध की त्रिलोचन जी बैसवाड़े के न सही अवध के तो हैं पर उनकी 'धरती'
पूर्वपरिचित 'फैंटेसी' की याद दिलाती हैं तो दूसरी ओर उस काव्य- में भी ऐसा कोई गीत नहीं है। अपनी धरती से हम लोग कितने
जल का एक ही साथ अमृत और गरल दोनों होना कवि की उखड़ गए हैं। शहर में दीवाली का अर्थ बस इतना ही रह गया है
द्वन्द्वात्मक दृष्टि की ओर सहज संकेत है। यहाँ भी भाषा के स्तर पर : दिया बाती और आतिशबाजी या फिर कुछ लोगों के लिए शुभ-
दिनेश को 'तिरपित' होते देखकर कौन 'तृप्त' होना चाहेगा? लाभ और लक्ष्मी-गणेश।
कहना न होगा कि स्मृतिभ्रंश और स्मृतिहीनता के इस दौर में
धरती माता को जगाना एक अनुष्ठान मात्र नहीं बल्कि आत्मबोधन
और स्मृति का पुनर्वास है। वैसे, स्मृति के पुनर्वास के अपने ख़तरे
भी हैं। इसलिए देखना होगा कि कवि क्या-क्या जगाता है। इस
दृष्टि से कवि की सूची काफ़ी लम्बी है और लोक संस्कार के
अनुरूप ही बहुत कुछ मिली जुली भी, साथ ही द्वन्द्व न्याय के
अनुसार परस्पर विरोधी भी। दिलचस्प यह है कि एक ओर कीट-
पतंग और ढोल मृदंग हैं तो दूसरी ओर तुलसी-मीरा सूर-कबीरा के
अनहत छंद के साथ ही हम गूंगों की भाषा को भी जगाने का
आवाहन है। अंत में- 'दूधो जागो पूतो जागो/ दीपक जागो बाती
जागो/ लो गज भर की छाती जागो। ' अच्छी बात यह है कि दिनेश
शुक्ल इसे लोकगीत की नकल कह के तथाकथित 'नवगीत' होने
से साफ़-साफ़ बचा ले गए हैं। हिंदी में धरती के कवियों की कमी
नहीं है, पर दिनेश शुक्ल की धरती अपनी है। उसी धरती के छंद
से उनके हृदय का छंद भी मिला हुआ है और धरती का रस भी
तलवों से छन कर कवि की आत्मा तक पहुँचता है पादप की तरह।
मसलन 'वह दिन' शीर्षक कविता में-
तलवों से उठता है
धरती का संस्पर्श और
चढ़ता है ऊपर
छनता है गहरे

128 n जुलाई से सितंबर 2023 yegh


तुम्हारी आत्मा में।
इस धरती के साथ मां की छवि इतनी घुली मिली है कि कवि जड़ों तक पहुँचने की इच्छा कवि में इतनी
की स्मृति में वह अक्सर कौंध जाती है। मां की स्मृति में लिखी हुई उत्कट है कि वह उसके लिए बड़ा से बड़ा
कविताओं में एक अविस्मरणीय कविता है 'नाभिनाल'। अपनी जोख़िम भी उठा सकता है। सर्प के विषदन्त की
जन्मभूमि में जाने पर कवि को यह विचित्र अनुभूति होती है– जड़ में जाने में भी उसे कोई हिचक नहीं है। इस
'बरसने लगता है पुतलियों पर/मां की कोख का मद्धम प्रकाश’ और प्रसंग में 'साक्षात्कार' शीर्षक एक लम्बी कविता
फिर 'मां की धमनियों में घुली आक्सीजन की गंध/ उठती है धरती का उल्लेख आवश्यक प्रतीत होता है जिसमें
चाँदनी रात में अकस्मात खुले खेत में एक
से/ जहाँ गड़ी है मेरी नाल/ जो पहुच गई होगी अब/ घुसती पाताल
लम्बे काले सांप से साक्षात्कार का रोमहर्षक
तक/ जाने किस पोषण को खोजती/ सत्य की जड़ तक/ अतल में अनुभव तफ़सील के साथ अंकित है।
अथाह। किसी और को अपनी गड़ी हुई नाल की याद कभी आई
है- मुझे इसकी जानकारी नहीं। फिर उस नाल के अतल अथाह में
सत्य की जड़ तक जाने की कल्पना तो अकल्पनीय है। दिलचस्प कि मुझको -
यह है कि दिनेश शुक्ल को अपनी मां के साथ ही उन मेहतरानी नीम कड़वी नहीं लगती
चाची के हाथ भी याद आते है जिन्होंने 'जनाया’ था। कविता में और यह कटुता
'नाभिनाल' का ज़िक्र मुक्तिबोध के बाद संभवतः यहीं मिलता है। मुझे संसार की
नाभिनाल और मां की कोख की याद के साथ कुछ और भी अर्थ अब हर परिस्थिति में
संकेत है। दिनेश वस्तुतः हर चीज़ की जड़ तक पहुँचना चाहते हैं मधुरता खोज लेने की
और इस आकांक्षा के संकते उनकी अनेक कविताओं मे मिलते हैं। नई विधियाँ सिखाती है।
जैसे 'कभी तो खुलें कपाट शीर्षक कविता में- नई विधियाँ सीख कर वे एक ओर 'वह दिन', 'गहरी दुपहर',
इसीलिए आती है कविता 'गद्यमयी' जैसी छोटी-छोटी प्रगीतात्मक कविताएँ लिखते हैं और
भीतर पैठे दूसरी ओर 'तुम और महावृश्चिक' जैसी कामासक्ति की उद्दाम
उन जगहों को छुए लम्बी कविता। कभी-कभी 'चन्द्रकटार' जैसे परम्परित धुन के गेय
जहाँ तक गीत लिखने से भी कोई गुरेज नहीं।
नहीं पहुँच पाता प्रकाश। किन्तु जैसा कि इस काव्यसंग्रह के नाम से ही स्पष्ट है, 'कभी
इसी प्रकार ‘अंतर्यात्रा’ शीर्षक एक अन्य कविता में– तो खुलें कपाट' का कवि मूलतः मुक्ति का गायक है। उसकी नज़र
और मैं प्रवेश कर सकूं में कविता सारे वज्र-कपाटों को तोड़ती है, चाहे वे 'लोहे' के हो या
चीज़ों के अंतर्जगत में फिर 'तिलिस्म' के। इसी प्रकार 'सभी तरह के बन्दीगृह की/ काली
ताकि समूल ही उखाड़ सकंू चीकट दीवारों पर/ कविता भित्तिचित्र लिखती है'। इस मुक्ति संघर्ष
दुःख की विषबेल में कवि के पास दो ही संबल हैं : स्मृति और स्वप्न। स्मृतियों में
जड़ों तक पहुँचने की इच्छा कवि में इतनी उत्कट है कि वह सबसे प्रमुख हैं अपनी धरती, माता-पिता और कुछ साथी। स्वप्न-
उसके लिए बड़ा से बड़ा जोख़िम भी उठा सकता है। सर्प के सिर्फ़ एक 'बेहतर संसार की संभावना'। कवि पूरी तरह सावधान है
विषदन्त की जड़ में जाने में भी उसे कोई हिचक नहीं है। इस प्रसंग कि न तो स्मृतियाँ अतीतजीवी बना दें और न स्वप्न अन्यलोकवासी।
में 'साक्षात्कार' शीर्षक एक लम्बी कविता का उल्लेख आवश्यक कुल मिलाकर वह 'असिधार ज्योति की' कविता का व्रती है और
प्रतीत होता है जिसमें चाँदनी रात में अकस्मात खुले खेत में एक 'शब्द संसार' का वाग्मी शिल्पी।
लम्बे काले सांप से साक्षात्कार का रोमहर्षक अनुभव तफ़सील के दिनेश कुमार शुक्ल अब किसी परिचय पत्र के मोहताज नहीं हैं।
साथ अंकित है। कई दृष्टियों से यह कविता अनन्य है किन्तु इसका इससे पहले वे एक काव्य संग्रह प्रकाशित करके समकालीन
महत्व कवि की रचना प्रक्रिया के एक विशेष पहलू के लिए भी है। कविता में अपनी हाज़िरी दर्ज़ करा चुके हैं। इसके बाद भी कपाट
स्वयं कवि के ही शब्दों में- न खुले तो? n
और तब से नई दिल्ली
आज का दिन है अप्रैल, 1999

yegh जुलाई से सितंबर 2023 n 129


n अविराम : उदय प्रकाश

बाढ़ में डूबी नदी के पार आधी रात को आती कोई व्याकुल टेर
दुर्गा प्रसाद गुप्त
“एक आवाज़ है वर्षों पहले की पुकार बचपन की की अनुगूँज देखी और सुनी जा सकती है। जो कवि और
बाढ़ में डूबी नदी के पार आधी रात कोई व्याकुल टेर उसकी कविता को भावात्मक रूप से आंदोलित ही नहीं
फिर जो डूब जाती है धार के भीतर” करती, उनकी स्मृतियों में अनुभूतियों के इस हाहाकार
('मैं यह हूँ,' एक भाषा हुआ करती है, को रचना में रच स्थाई बना देती हैं। इस व्याकुल टेर की
उदय प्रकाश, पृ. 11) विवशता एकतरफा नहीं है। कभी कभी बेबस व्यक्ति
ऐसी अमानवीय परिस्थितियों में घिरा होता है कि उसकी
उस्ताद राशिद ख़ान और हीरा देवी मिश्रा की गाई एक विवशता की आर्त पुकार अनसुनी हो जाती है। यह '
दर्द-भरी ठुमरी के बोल “मोरा सैंया बुलावे आधी रात/ नदिया बैरी आत्म' से नि:सरित होकर पानी की लहरों की तरह अपने किनारों से
भई” की याद आती है। …सावन-भादो की उफनती हुई नदी के पार प्रेमी टकरा टकरा कर बार बार आत्म की ओर लौटती हैं! जिससे निजात
से मिलने के लिए उसकी प्रिया को जाना है पर वह कैसे जाए, नदी संभव नहीं है! इस टेर को मैं उदय के जीवन और सृजन के संदर्भ में
गहरी है,नांव पुरानी है और केवट है कि बात नहीं मानता! (केवट ऐसे रूपक के रूप में देखता हूँ, जो उनके जीवन और सृजनात्मकता
माने नहिं बात/नदिया बैरी भई।) जैसे उसकी अरमान, विरह कातर में आद्यांत उपस्थित है। बचपन की स्मृति में रची-बसी यह टेर जैसे
पुकार उफनती नदी की धार में डूब गई हो! बस ठुमरी अपनी टेर में जीवन और सृजन में रच बस कर सरोकारी अन्य से जुड़कर संतोष
पीछे एक दर्द,एक खलिश छोड़ जाती है। ठीक इस कविता के भाव पाती हो और उनके विविध मानवीय संदर्भोंं और परिप्रेक्ष्यों को रचती
की तरह! बाढ़ में डूबी हुई नदी का दृश्य डरावना और दहशत-भरा हो!
होता है, आधी रात का अँधेरा उसे और भी गहराता है, ऐसे में नदी पार जब वे कहते हैं कि 'मैं यहाँ हूँ ' तो मैं समझना चाहता हूँ कि वे
से आती कोई व्याकुल टेर करुणा ही उपजाती है। उदय की कविता अपनी संवेदना और अनुभूति में कहां और कैसे हैं? और कहां तक
में बचपन के अनुभवों में इस दृश्य के मध्य यह करुण पुकार स्मृति उनकी अनुभूति, स्मृति, दृष्टि और मूल्यों में इसकी व्याप्ति है? एक
के रूप में शेष है। दोनों ही व्याकुल पुकारों का अपना-अपना दुःख बेचैन कर देने वाली व्याकुल वेदना का उनकी रचनाओं में आत्म की
दर्द है जिसे किसी मानवीय सहारे या भरोसे के अभाव में, अंतत: रात केंद्रीयता से लेकर अन्य के तटों के बीच टकराव बराबर बना रहता
के अँधेरे में, नदी की धार में विलीन होना स्वाभाविक है। यह रात है। 'सुनो कारीगर ' कविता का दुःख एक तक सीमित नहीं रह गया
के अँधेरे में बाढ़ में डूबी नदी की धार में निमग्न टेर की मानवीय है– “रोज़ रोज़ की दारुण विपत्तियाँ हैं/ जो आंखें खोल देती हैं
विवशता है, जो संवेदनात्मक रूप से उदय को अभी भी परेशान अचानक/ सुनो बहुत चुपचाप पांवों से/ चला आता है कोई दुःख/
करती है, इसलिए वे गाहें-बेगाहें उस ओर लौटते हैं। आज भी उदय पलकें छूने के लिए/ सीने के भीतर आने वाले/ कुछ अकेले दिनों
प्रकाश के जीवन और सृजनात्मकता में बचपन के इस व्याकुल टेर तक/ पैठ जाने के लिए/… सुनो यहीं था मैं/अपनी थकान, निराशा,
की निरंतरता बनी हुई है और इसकी व्याप्ति जैसे पूरे जीवन और क्रोध/ आंसुओं, अकेलेपन और/ एकाध छोटी-मोटी/खुशियों के
सृजनात्मकता पर छा गई हो! स्मृति के माध्यम से यह अनुभूति टेर के साथ/ यहीं नींद मेरी टूटी थी/ कोई दुःख था शायद/ जो अब सिर्फ़
रूप में अभी भी कवि का पीछा कर रही है। मेरा नहीं था” यह अकेले का दुःख जब दूसरों के दुखों से एकाकार
उदय की कविता और जीवन में इस संवेदना की ख़ास अहमियत होता है, दूसरों के दुखों के साथ होता है, तब सामाजिक स्वरूप ग्रहण
है। उनकी कविता के पूरे भावलोक में इस आदि बिंब और उसके टेर करता है और तब वह अपना-पराया नहीं रह जाता। दुखों को अलग

130 n जुलाई से सितंबर 2023 yegh


अलग नहीं, एक हो जाने में ही उनको समझा जा सकता है। जो दुःख दहशतनाक दुर्घटना ढेले के रूपक के रूप में स्वयं कवि एवं अन्य के
की वैयक्तिक व्याख्या, दृष्टि और दर्शन नहीं है। भले दुःख वैयक्तिक अस्तित्वगत संघर्ष से उपजा दुःख, आत्मदया और करुणा का भाव है
हो! 'पिता' कविता का दुःख अपने स्रोत और व्याप्ति में कितना जो उसके बचपन से लेकर महानगर तक के संघर्ष को विश्वसनीय
सार्वजनीन हो गया है– “बाद में पिता/ गायब हो गए/ कहते हैं खेत/ स्वर देता है।
कुदाल/ बैल/ इमारतें, ईंटें, दरवाजे/ बाज़ार/ उन्हें पचा गए/ मुझे उदय की कविता दुःख को दयनीय नहीं, निस्पृह बनाती है और
लगता है/ उस चटियल मैदान/ के भीतर (जो पिता थे) ज़मीन की आलोचनात्मक स्वर और दृष्टि के महत्व को बनाए रखती है, ताकि
दूसरी-तीसरी परतों में। / सरकता हुआ कोई/ नम सोता भी था/ जो मानवीयता के पक्ष में अमानवीयता का प्रतिरोध रचा जा सके।
मेहनत करते/ पिता की देह के अलावा/ कभी-कभी मेरी आंखों से भी/ “मक्खियों की आत्माएँ” कविता में एक कवि पूंजी और बाज़ार के
रिसने लगता था।” यह दुःख का नम सोता है जो की देह और ज़मीन अमानवीय परिवेश के विरुद्ध प्रतिरोध को रचते हुए ज़िद में जिस अंत
की अनेक परतों से होता हुआ पुत्र की आंखों तक पहुँच रिसने लगता को चुनता है वह त्रासद और भयावह है -'मरता है उधर कवि कोई
है। यह दुःख का ऐसा सोता है जो कवि के जीवन और उसकी कविता एक/ संस्कृति के अंधकार में सूचनाओं से बाहर/ उपनगर के किसी
में रह-रहक़र रिसता रहता है। दुःख का यह रिसाव और छाया “ईंट विस्मृत कोने में/ न बिकने की बेहद अपनी ज़िद में बीमार/ उसकी
की नींव हो तुम दीदी” में भी है- “हमारा क्या है दिदिया री!/ हारिल मृत्यु को छुपाती है किसी उजड़े हुए पीपल की/ डाल से टूटी/ एक
हैं हम तो/ आएँगे बरस-दो-बरस में कभी/ दो-चार दिन/ मेहमान-सा जर्जर सूखी पत्ती/ एक उदास और हतप्रभ भूख़ी मक्खी/ उसकी अधूरी
ठहरकर/ फिर उड़ लेंगे कहीं और/ घोंसले नहीं बनाए हमने/ बसे नहीं कविता पर/ बैठती है अंतिम हताश काव्य-बिंब के अंत की खाली
आज तक/ कठिन है/ हमारा जीवन भी/ तुम्हारी तरह ही है।” दीदिया जगह पर धीरे से/ दुःखों को अपने पंखों में समेटती हुई।' इस भयावह
और हारिल के रूप में स्वयं कवि के बचपन की स्मृतियों से रिसता निर्मम संसार में यह उदय द्वारा रचा गया मृत्यु का शिल्प है, जो अपने
आ रहा यह नया दुःख है,जो कभी सूखता नहीं है। दुःख जैसे इस रिश्ते त्रासद बिंबों की शृंखला में एक और बिंब को जोड़ देता है। इस तरह
को और अधिक प्रगाढ़ और स्वायत्त करता है! दुःख का वैराग्य वाला वह अपनी रचनात्मक अनुभूतियों से मृत्यु का शिल्प अर्जित कर,एक
भाव! पर यह स्थाई नहीं है, इस रिश्ते से निकल 'एक शहर को छोड़ते कवि की मृत्यु से उपजे दुःख को, स्वयं के दुःख की तरह स्वर देता
हुए।' दुःख के जद्दोजहद को देंखे तो वह जूझता हुआ दिखाई देता है; दुःख का आधुनिक वृतांत रचता है। और यह दुःख मानवीय संसार
है– “यह ठीक है/ कि बहुत मामूली बहुत/ साधारण-सी है यह हमारी से निकल मानवेत्तर संसार और प्रकृति में व्याप्त हो जाती है। निर्मम
लड़ाई/ जिसमें जूझ रहे हैं हम/ प्राणपन के साथ/ और गहरे घावों से दुनिया द्वारा रचित दुःख को एक उदास और हतप्रभ भूख़ी मक्खी जिस
भर उठा है हमारा शरीर/ हमारी आत्मा/ इस विकट लड़ाई को/ कोई तरह अपने पंखों में समेटती है,वह हिंदी कविता में अन्यत्र दुर्लभ है।
क्या देखेगा हमारी अपनी आंख से?” जो शरीर और आत्मा गहरे घावों उदय की शुरुआती कविताओं में जो दुःख अपने वैचारिक स्वरूप
से भरा हो, उनकी कोई भी लड़ाई, कोई भी दुःख साधारण नहीं हो में दिखाई देता था वह बाद में आत्मा की नैतिक आवाज़ और विश्वास
सकता। आख़िर कवि इसे अपनी आंख यानि अपनी दृष्टि से देखे जाने की आंच में तपकर, पूर्ण हो, उस पूर्ववर्ती दुःख, यातना के वैचारिक
की गुजारिश क्यों करता है? ताकि उसकी लड़ाई और दुःख की स्वरूप को समेट, उसे और भी मानवीय स्वर दे देती है। यह संरचना
अनुभूति की वास्तविकता किसी और दृष्टि से देखे जाने पर प्रभावित अपने आचरण में जिस पाखंड को निर्मित करती है उससे चीज़़ें
न हो। कभी कभी दृष्टियाँ अनुभूतियों को इतनी ‘डाल्यूट’ कर देती हैं प्रभावित होती हैं। इस लोकतांत्रिक देश का संस्थानिक और नागरिक
कि उनकी वास्तविकता निष्प्रभावी हो जाती है। इसीलिए उदय उससे चरित्र बहुत नैतिक नहीं रह गया है। 'चंकी पांडेय मुकर गया है'
इसे बचाते हैं और वह स्वयं बचती भी है तो अपनी निरंतरता के द्वारा। कविता में वे कहते हैं-'वह भी अन्यायी सत्ता और अनैतिक पूंजी का
'ढेला' कविता को देंखे 'वह था क्या एक ढेला था/ कहीं दूर गांव- देशी भाषा में किया गया/ एक उबाऊ करतब है/ एक भ्रष्ट राजनीति
देहात से फिंका चला आया था/ दिल्ली की ओर/ रोता था कड़कड़डूमा, का ही परम भ्रष्ट सांस्कृतिक विस्तार है/ एक उत्सव,एक समारोह/
मंगोलपुरी, पटपड़गंज में/ ख़ून के आंसू चुपचाप/ ढेले की स्मृति में एक राजनेता और आलोचक, कवि और दलाल/ संगठन और गिरोह
सिर्फ़ बचपन की घास थी/ जिसका हरापन दिल्ली में हर साल/ और में फ़र्क बहुत मुश्किल है।' यह एक कवि की सृजनात्मकता का
हरा होता था….जब लड़की ने अपने प्रेमी से कहा-/ संभाल कर उठाओ नैतिक, चारित्रिक और मानवीय बोध है जो उसे दूसरों से अलग करता
और रख दो इस बेचारे को/ गुड़गांव के किसी खेत में/ या टिकट देकर है। लोग इसे 'एक डरे हुए रिएक्शनरी कवि की कविता कहने के सिवा
चढ़ा दो छत्तीसगढ़ एक्सप्रेस में/और भूल जाओ/ उसी तरह जैसे और क्या कर सकते हैं 'और यह निरापद नहीं है– “क्योंकि जो डुबोते
राजधानी की सड़क पर हर रोज़/ हम भूल जाते हैं कोई-न-कोई/ हैं जार का जहाज़ किसी समुद्र में/ वही छीन कर ले जाते हैं सूफियों

yegh जुलाई से सितंबर 2023 n 131


से लंगर की कढ़ाई/ ग़रीबों से उनका ईश्वर, खेतिहरों से उनके खेत/ उदासी, अकेलेपन और यंत्रणा वाली ही है। वह वैचारिक आग्रहों से
और कवियों से उनकी क़मीज़, क़लम, आंखें और शब्द/ कवि, सूफ़ी, निस्पृह अपनी स्मृति और अनुभूति की आंतरिकता से बाह्य दुनिया की
नौकरों और ग़रीबों के ही कंकाल मिला करते हैं/ किसी कंपचि ु या या वास्तविकता के साथ संबद्ध होती है। और काव्य न्याय की प्रक्रिया में
किसी साइबेरिया की धरती के गर्भ में।” यह नैतिक स्वर की पीड़ा, मूल्य निर्णय को स्थापित करती है। उनकी कविता मनुष्य के दुःखों
किसी प्रश्न और उत्तर की बात नहीं करती, बल्कि इस दृश्य जगत के का आख्यान है और वे उतना ही कहती हैं जितना उन्हें कहना चाहिए।
अनैतिक आचरण के यथार्थ से उपजे दुःख दर्द का बोध कराती है। यह शब्दों, भाषा और रचनात्मकता की वास्तविक दुनिया है जिसके
जिसे नैतिक और मानवीय होना था। माध्यम से कवि स्वयं की पहचान और कविता को रचता है। जीवन
'कवि ने कहा', 'एक भाषा हुआ करती है', और 'अम्बर में के अँधेरे,अकेलेपन के आस्तित्विक संघर्ष में केवल भाषा ही काम
अबाबील' कविता संग्रहों की अधिकांश कविताओं का संबंध आदमी आती है। सृष्टि की भौतिकता में वह उसका एकमात्र विश्वासी माध्यम
के दुःख- दर्द, शोषण, रोग-शोक, डर, असुरक्षा, भूख़, आग और है। जिसमें जीवन, प्रकृति और शेष दुनिया की गति, समझ, अभिव्यक्ति
हिंसा से है, जिन्हें पढ़ना एक नैतिक पीड़ा से गुज़रना है। 'तिब्बत' और व्याख्या की क्षमता है। जीवन रहस्य नहीं है, यह भी भाषा ही
कविता 1977-78 में लिखी गई थी, जिसे 1980 का भारत भूषण बताती है। यह कवि या अन्यान जीवन की अर्धशती के भौतिक,अभौतिक
अग्रवाल पुरस्कार मिला था। तब से लेकर अब तक; 'अम्बर में असफलताओं का रुदन नहीं, इसकी नियति ही पूरी संरचना की
अबाबील' के प्रकाशन 2019 तक; तिब्बत की दुखद निर्वासित नियति है और इसकी अपनी लिपि, भाषा, व्याकरण और शिल्प होती
संवेदना कवि के अपने वैयक्तिक सामाजिक दुःख और यातना के है,जो सबको नहीं, किसी किसी को नसीब होती है। यदि इस रहस्य
साथ उपस्थित हैं। यह तिब्बत से निर्वासित लामाओं की तरह ही, की डिकोडिंग मृतक के पास है तो अप्रत्याशित नहीं है! पर यह
अपनी धरती से अम्बर में विस्थापित अबाबीलों का आख्यान अन्याय और अनैतिक उपक्रम की सापेक्षता में है। यह एक समर्थ और
है,जिसका समापन भी 'तिब्बत' कविता और उससे संबंधित तीन सृजनात्मक जीवन के दुःख की लिपि,भाषा और व्याकरण है जिससे
निबंधों से होता हैं, जो 'तिब्बत' कविता लिखे जाने की पृष्ठभूमि, उसे लगातार चुनौती मिल रही है। 'एक द्युति भर' में वह कहता है
प्रक्रिया, पाठ और विवरण से संबंधित है। बचपन की स्मृति से आरंभ कि- 'मैं हार बैठा हूँ अपना जीवन/ जो पहले से ही एक हारा-थका
और उसी से अंत! इसी के साथ 'पसली का दर्द' में दोस्त का दर्द, 'दो जीवन था/ अपनी वंचनाओं में चुपचाप…' इस स्वीकार के पार्श्व में
हाथियों की लड़ाई' में आम आदमी के पिसने, कुचले जाने का दुःख, जिजीविषा और संघर्ष की सार्थकता एवं सफलता विद्यमान है, जिसने
'वैरागी आया है गांव' में लोगों की भूख़ और शोषण, 'औरतें', में जीवन को जिया नहीं, उसे सहा और बचाया है।
उनकी असुरक्षा, डर,' 'पंचनामें में जो दर्ज़ नहीं है' में औरतों के साथ 'अम्बर में अबाबील' संग्रह के अंतिम खंड तिब्बत की तीसरी
बर्बर कृत्य, 'दिसंबर' में अयूब, अम्मा और पिता का डर एवं दुःख, कड़ी में वे फरमाते हैं कि 'मैंने अब तक बहुत खोजा लेकिन शायद
'हत्या' में पति की आत्महत्या का दुःख,'सफल चुप्पी' में लाखों अभी तक किसी परफ्यूम कम्पनी ने कोई ऐसा सेंट नहीं बनाया है, जो
करोड़ों बेसहारा बच्चों और औरतों का शोषण, 'एक जल्दबाज़ बुरी आषाढ़ की पहली वर्षा के साथ धरती की देह से उठती मिट्टी की गन्ध
कविता में आंकड़े' में तीसरी दुनिया के बच्चों की भूख़ और रोग से की स्मृति जगा दे।' यह सच है कि आज तक उन्होंने जिस भी विधा
मृत्यु, 'घर या मजार' का ग़रीब लाचार इंसान, 'पता' में घर का दुःख, में लिखा है, वैसा किसी ने भी नहीं लिखा है कि वह उदय की
'वे यहीं कहीं हैं' में सफ़दर हाशमी की हत्या का दुःख, 'आग' में सर्जनात्मकता से उठती उस गन्ध की याद दिला दे। ऐसा हो भी कैसे
1984 के दंगों का दर्द, 'जो फिल्म नहीं है का दृश्य' में दंगें, आगजनी, सकता है, क्यों कि सबकी विशिष्टताएँ भी तो अलग-अलग हैं। उनके
हत्या, लूट, बम धमाके, 'आंकड़े' में गांधी के अंतिम आदमी का दुःख जीवन और कविता में वैयक्तिकता के गाढ़े स्वर की बात मुझे कभी
दर्द, 'विरजित खान' में घायल अफ़गानी गड़ेरिया, 'न्याय' में गिरफ्तार उचित नहीं लगी। क्यों कि सृजन अपने वैयक्तिक वैचारिक स्रोत की
मैं, 'रोशनी' की मानवीय विडंबना, 'दुःख' की मानव संग यात्रा,' विशिष्टताओं से भरपूर होती है। जिसके आगोश में पूरी कायनात होती
सिद्धार्थ, कहीं और चले जाओ' में हिंसा और आग, 'क्षेपक' में हिंसक है,पूरा दर्शन होता है। उदय और उनकी कविता की वैयक्तिक त्रासदी
उन्माद से उदय की कविता अटी पड़ी है। जिसे पढ़ते हुए हम भी कवि का आख्यान उस अफ़गानी गड़ेरिए 'बिरजित खान' (स्व. शैलेश
की तरह ही एक यातना, नैतिक पीड़ा और उसके बोध से गुज़रते हैं। मटियानी को समर्पित) कविता में निहित है, 'जो अफगानिस्तान में
उदय ने प्रेम, प्रकृति, संगीत, संस्कृति, पूंजी, भाषा और मानवेत्तर अमेरिकी बमबारी के दौरान अपनी भेड़ों के साथ घायल हुआ था। उस
संसार से संबंधित कविताएँ लिखी हैं, वे कम महत्वपूर्ण नहीं हैं पर हाल में भी वह अपने लिए नहीं, मेमनों और भेड़ों के लिए चीख रहा
उनकी काव्य संवेदना मूलतः करुणा आधारित शोक, दुःख, यातना, था।2 क्या उदय अपनी कविता में घायल उस गड़ेरिए की तरह नज़र

132 n जुलाई से सितंबर 2023 yegh


नहीं आते,जो स्वयं के घायल होने के बावज़ूद, अपनी नहीं, अपने हों। हमारे गांव में माना जाता है कि रात में चितावर की लकड़ी इसी
मेमनों और भेड़ों की चिंता करता है– 'मेमनों और भेड़ों के शवों के तरह जलती है।” वे कुछ लोग, कोई और नहीं,लामा थे, जो इस
बीच/ चीखता है बिरजित ख़ान/ जैसे चीखते हैं हम/ अपनी ही भाषा मृत्युलोक में अपने किसी लामा को अंतिम विदाई दे रहे थे, उसका
के भीतर/ हिंदी में हम/ जैसे कंधार में बिरजित ख़ान/ जैसे बामियान अंतिम संस्कार कर रहे थे। 'तिब्बत' कविता जैसे चीन के आधिपत्य
में बुद्ध/ जैसे नज़फ़ में तितली/ जैसे दज़ला में फूल/ फ़रात में कश्ती/ का अंतिम संस्कार हो!!' जब लोग मर जाते हैं/ तब उनकी कब्रों के
गुज़रात में वली दकनी/ अपनी ही भाषा के भूगोल में/ हम सब चारों ओर/ सिर झुका कर/ खड़े हो जाते हैं लामा/ वे मंत्र नहीं पढ़ते।
बिरजित ख़ान/ ……गड़रिए!' / वे फुसफुसाते हैं… तिब्बत..….तिब्बत...…तिब्बत...…तिब्बत-तिब्बत…... और
वे मानते हैं कि “इस संग्रह की कविताएँ उन अबाबीलों की तरह रोते रहते हैं/ रात-रात भर।' यह लामाओं की विस्थापित, निर्वासित
हैं,जो तरह तरह की माफियाओं की विकास परियोजनाओं में जलती जिंदगी के सपनों की ही चितावर नहीं, अपनी यातना और विक्षोभ में
और नष्ट होती वह धरती,जो हर रोज़ 'अन्यों' और 'परायों' की लाशों चीन की चितावर भी लगती है,जिसे कवि ने बचपन में बाढ़ में उफनती
से पटती जा रही है,उस धरती से दूर और ऊपर आकाश में अपना नदी के पार रात के अँधेरे में इस दृश्य को देखा था– “उस रात मुझे
ठिकाना खोज रही हैं। इन कविताओं की उड़ान में अब थकान है।” स्पष्ट लगा था, कि जो संगीत जैसी आवाज़ वहां से आ रही थी,वह
विकास की आंधी में बहुत कुछ नष्ट हुआ है। वे स्वयं अपनी कोई गाना नहीं, कोई ऐसा मंत्र था, जिसमें कोई दारुण विलाप भी
सर्जनात्मकता की उड़ान में थकान और विस्थापन को स्वीकार करते सम्मिलित था। जैसे कोई समूची आत्मा, देह और हृदय के साथ,अपने
हैं, इसीलिए इस संग्रह की कविताओं को अम्बर में विस्थापित पूरे अस्तित्व के साथ रोते हुए शोकगीत में कोई प्रार्थना करें।” n
अबाबीलों का एक घर कहते हैं और अपने जीवन एवं कविता में
संदर्भ एवं पुस्तकें -
यथार्थ और अतियथार्थ के उड़ान,अनुभव, और स्मृति को निरंतरता में
1. उस्ताद राशिद ख़ान भारतीय शास्त्रीय संगीत के कलाकार हैं,जिनका संबंध
नहीं देखते। यह स्वीकार स्वाभाविक है कि– “यह किसी औपचारिकता रामपुर- सहसवान घराना से है। वे ख़ास तौर पर हिंदुस्तानी संगीत में ख्याल
में नहीं कह रहा हूँ। विस्थापन, निर्वासन,बे-दखली,भय, गृह- गायिकी के लिए जाने जाते हैं। हीरा देवी मिश्रा का संबंध बनारस से है।
विहीनता, दिशाहारापन, व्याकुलता इन अधिकतर कविताओं में है।” यह आश्चर्यजनक है कि इतनी अच्छी ठुमरी गायिका के संबंध में पर्याप्त
'कल्चर एंड इम्पीरियलिज्म' और 'रेफ्लेक्शंस ऑन इग्ज़ाइल' में इस जानकारी तक उपलब्ध नहीं है।
2. 'बिरजित ख़ान उस गड़ेरिए का नाम था, जो अफगानिस्तान में अमेरिकी
समस्या से संबधित ं एडवर्ड सईद के लेखन और चिन्तन से हम बमबारी के दौरान अपनी भेड़ों के साथ घायल हुआ था। उस हाल में भी
अंजान नहीं हैं। इम्रे सैल्यूजिंस्की के साथ एक साक्षात्कार में उन्होंने वह अपने लिए नहीं, मेमनों और भेड़ों के लिए चीख रहा था। इस घटना की
कहा था कि “मेरी पीढ़ी के पास विस्थापनों एवं निर्वासनों की एक ख़बर टी. वी.या व्यावसायिक अख़बारों ने नहीं, मानवाधिकारों और शांति
शृंखला है जिसकी क्षतिपूर्ति असंभव है। संस्कृतियों के बीच जीने का के पक्ष में पत्रकारिता कर रहे प्रख्यात पत्रकार रॉबर्ट फिस्क ने दी थी।' एक
भाषा हुआ करती है,उदय प्रकाश, पृ.98
अनुभव मेरे लिए एक बहुत गंभीर चिंता का विषय रहा है।” मुझे अलग 3. अबूतर कबूतर उदय प्रकाश, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, प्र. सं. 2002
से कुछ कहने की आवश्यकता नहीं है। वैसे 'तिब्बत' कविता के 4. कवि ने कहा,उदय प्रकाश, किताबघर प्रकाशन, नई दिल्ली, प्र.सं.2008
विस्थापित/ निर्वासित लामाओं की यातना, बिरजित ख़ान की चीख- 5. एक भाषा हुआ करती है, उदय प्रकाश, किताबघर प्रकाशन, नई दिल्ली,
पुकार, अबाबीलों के विस्थापन के साथ कवि-जीवन के भटकाव/ संस्करण 2011
6. अम्बर में अबाबील, उदय प्रकाश, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, प्र सं. 2019
विस्थापन को देखते बनता है, कि सृष्टि में कहीं तो इनके लिए कोई 7. वर्चस्व और प्रतिरोध, एडवर्ड डब्ल्यू सईद, प्रस्तुति और अनुवाद : रामकीर्ति
शांत, सुरक्षित, स्वतंत्र और, न्यायपूर्ण आश्रय हो और जिसमें हर तरह शुक्ल,नयी किताब, दिल्ली,2015
की आश्वस्ति का भाव हो। कवि के बचपन की स्मृति में आषाढ़ की 8. How to Read Literature,Terry Eaglten,Yale University
बारिश के बाद बाढ़ में उतराती नदी के किनारे का उसका घर है! कवि Press,2013
9. How to Read a Poem, Terry Eaglten,Wily Black-
का यह कहना कि “कितना विरल होता है बाढ़ में उतराती नदी के well,2016
पास रात में अकेले खड़ा होना। किसी इन्द्रजाल में बिंधे हुए। अंदर- संपर्क : प्रोफेसर, हिंदी विभाग
अंदर भय से सिहरते हुए। ...उस रात बाढ़ में उफनती नदी के पार जामिया मिल्लिया इस्लामिया वि.वि., दिल्ली
आग की लाल, पीली, नीली लपटें किसी क्रम में टहल रही थीं। जैसे मो. 9868255696
कुछ लोग अपने हाथों में नन्हीं-नन्हीं मशालें लिए एक वृत्त में घूम रहे

yegh जुलाई से सितंबर 2023 n 133


n अविराम : हरीशचन्द्र पांडे

कविता की दुनिया में 'छोटी चीज़ों के देवता'


अरविंद त्रिपाठी

“अधूरा मकान यह/ आधा सच है, आधा सपना/ आधा अंदाज के कवि नहीं है। न ही हमारे समय के सतह
हँसी है,आधा रोना/ यह ताजा कटे बकरे की छटपटाती के कवि हैं,बल्कि वे सतह के नीचे छिपे जीवन सत्य
देह है/ एक कामना है जो मरते आदमी को मरने नहीं को उजागर करने वाले एक नायाब कवि हैं। सहज ही
देती/ बाहर अपने हरे पन के साथ सूख गई पत्तियों उन्हें हम सामाजिक और राजनीतिक यथार्थ को व्यक्त
का वंदन वार है/ xxxxxxxx मकान के अधूरेपन से करने वाले वर्तमान सीन में जागृत समर्थ कवियों की
एक खुशबू आ रही है/ एक खुरदुरी ऊँचाई को लांघ कोटि में रख सकते हैं। वे समकालीन कविता की भेड़
गई है लौकी की एक बेल/ और छा गई है अधूरे पन चाल के अभ्यस्त कवियों के आगे-पीछे, दौड़ते-भागते
के ऊपर/ हरे सपने की झालर लिए यह मकान/ इस बस्ती का सबसे जमात से अलग जाकर अपनी राह बनाने वाले एक असाधारण
ख़ूबसूरत मकान है/ इस घर का सबसे छोटा बच्चा अपनी कॉपी में/ कवि के रूप में प्रकट होते हैं। काव्य वस्तु के चुनाव से लेकर एक
एक पूरा मकान बना रहा है/ इस मकान में उसने कुछ पंख लगा साधारण लहजे से निर्मित काव्य शिल्प के जरिए वह कविता में
दिए हैं।” (अधूरा मकान:एक बुरुंश कहीं खिलता है : पृष्ठ 18,19) निश्चित तौर पर अपना स्थाई मुकाम हासिल कर चुके हैं, जिस पर
“जहाँ सूर्य/ वहां दिवस/ जहाँ राम वहां अयोध्या/ कितनी बड़ी किसी पूर्ववर्ती या समकालीन समानधर्मा कवि की छाप नहीं है।
अयोध्या सौंप गए थे/ तुलसी हमें/ कितनी छोटी रह गई है अयोध्या/ यह तथ्य उनके हाल ही में प्रकाशित काव्य संग्रह 'कछार कथा' की
मत पेटिका से भी छोटी।” (अयोध्या : वहीं पृष्ठ 63) कविताओं को पढ़ते हुए सहज ही परखा जा सकता है।
बीसवीं शताब्दी के महान कवि मुक्तिबोध ने नई कविता के दौर
“अभी बहुत कुछ बचा है/ किसी औरत को स्कूटर के पीछे बैठी देख/ में एक कवि की मुश्किल का वाज़िब ज़िक्र करते हुए कहा था कि
आप यहाँ से सोचना शुरू नहीं करते/ कि यह पटाई हुई औरत है/ समस्या काव्यवस्तु में विषयों की कमी की नहीं है बल्कि समस्या
किसी बच्चे को आदमी के साथ घूमते देख/ आप यह नहीं सोचते/ काव्य विषयों के चुनाव की है। इस मामले में जो कभी जितना
की यह उसकी रखैल का बेटा है/ अभी बहुत कुछ बचा है/ जिसे सक्षम होगा वह उतना ही अर्थवान और महत्वपूर्ण कवि के रूप में
और बिगड़ने से बचाया जा सकता है।” (अभी बहुत कुछ बचा है : प्रकट होगा। ग़ाैर से विचार किया जाए तो आज समकालीन कविता
भूमिकाएँ खत्म नहीं होती : पृष्ठ 40) के बहुत सारे कवि विषयों के चुनाव के मामले में अवयस्क हैं।
“खड़े हैं पहाड़/ आंगन के सबसे चौड़े पत्थर पर/ जैसे खड़ा हो नंग- उनमें से अधिकांश का ख्याल है कि समाज, राजनीति और जीवन
धड़ंग बच्चा/xxxxxx झुक आए हैं बादल/ बहुत नीचे घाटियों तक/ में जो भी प्रतिपल घट रहा है वह सब कविता का विषय हो सकता
मां घुटने, एड़ियाँ साफ कर रही हो जैसे देर तक/ बालों से टपक रहा है। जबकि यह काव्यवस्तु की सच्चाई नहीं है। कवि को जो घटित
हो टप्प-टप्प पानी/ तौलिया ढूंढ रहे हैं पहाड़।” (पहाड़ : असहमति: हो रहा है उसमें से चुनने की आवश्यकता होती है,अन्यथा आप
पृष्ठ 79) और पत्रकार में क्या फ़र्क रह जाएगा? इस परिप्रेक्ष्य में देखें तो
हरीशचन्द्र पांडे काव्य वस्तु के चुनाव के मामले में शुरू से ही
(एक) अत्यंत सजग और गंभीर मति के कवि रहे हैं। इसलिए इसी काव्य
हरीशचंद्र पांडे समकालीन कविता के भीतर महज समकाल, विवेक के चलते उनकी काव्य यात्रा में काव्य वस्तुओं की विविधता
तात्कालिकता, हड़बड़ी, व्यर्थ की चीख-पुकार और शहीदाना दिखाई देती है। वह उन कवियों में नहीं हैं जो एक ही थीम को

134 n जुलाई से सितंबर 2023 yegh


बार-बार दुहराते नज़र आते हैं। उनकी कविता की ज़मीन अपनी
है, जिस पर वे लगातार काबिज बने हुए हैं।
मेरा मानना है कि हर जागरूक कवि अपने जीवन में कविता
रचते हुए अपनी पृथ्वी का निर्माण करता है। यह पृथ्वी ही उसकी
कविता का वास्तविक घर है। इसी घर में रहते हुए वह अपनी
कविता में देश दुनिया की बातें करता है। यह आकस्मिक नहीं है
कि दुनिया के महानतम कवियों में शुमार पाब्लो नेरुदा सबसे
ज्यादा प्यार अपनी कविताओं में अपनी धरती को करते हैं।
आधुनिक हिंदी कविता के इतिहास में खोजबीन करें तो पाएँगे कि
प्रगतिशील धारा के सभी महत्वपूर्ण कवियों की अपनी धरती है।
जनकवि त्रिलोचन के पहले कविता संग्रह का नाम ही है– धरती।
ग़ाैर करें तो प्रगतिशील कविता की त्रयी नागार्जुन, त्रिलोचन,
केदारनाथ अग्रवाल तीनों धरती के कवि हैं। रामविलास शर्मा,
नामवर सिंह जैसे आलोचकों ने इन तीनों को धरती का ही कवि
माना है। नई कविता के दौर से लेकर समकालीन कविता के दौर
के कवियों पर अगर दृष्टिपात करें तो पाएँगे उनमें से अनेक ऐसे
कवि हैं जो धरती के बजाए नभचर के कवि लगते हैं। उनकी (दो)
कविता फूलों, पत्तियों, नालों से बात तो करती है पर धरती पुत्रों से
बात नहीं करती। उनकी सुधि नहीं लेती। कहना न होगा कि ऐसे आइए जायज़ा लेते हैं कि हरीशचंद्र पांडे काव्य वस्तुओं की खोज
कवि प्रतिभाशाली और काव्य कौशल के कुशल शिल्पी भी हैं, पर कैसी और किस तरह करते हैं। कैसे वह समकालीन कविता में
ये लोग जनता के कवि नहीं बन सके। इनके कवि कर्म का सौंदर्य के नए प्रतिमान रचते प्रतीत होते हैं। उनकी कविता में
ज्यादातर मकसद सुख शैय्या और सहवास तक सीमित है। बड़ी जीवन सौंदर्य के वे कौन से अलक्षित परिवेश और परिसर हैं जिस
और महान कविता का निर्माण जिंदगी की रगड़ से उपजी चिंगारियों ओर अन्य कवियों का ध्यान नहीं जाता। लेकिन हरीशचन्द्र की
से होता है। कवि को जिंदगी के मोर्चे पर एक मुस्तैद सैनिक की कवि दृष्टि अचकचा कर वहीं बैठ जाती है और उसे वे कविता
तरह,एक जासूस की तरह समाज के भीतर निवास करते हुए समाज का विषय बनाते हैं। जबकि अन्य कवि किनाराकशी कर लेते
की ख़ूबसूरती के साथ उसकी बदसूरती पर भी कड़ी निगाह रखनी हैं। कविता में ऐसी विषय वस्तुओं की खोज उनमें शुरू से लेकर
पड़ती है। कविता में काव्य वस्तुओं की खोज एक कवि को कबाड़ी आज तक बरकरार है। इसलिए वे समकालीन कवियों के संसार
की भूमिका निभाने के दौरान ही प्राप्त होती है। जिंदगी में ख़ूबसूरत में एक रेयर कवि के रूप में हमें दिखाई देते हैं। ग़ाैर करिए 'एक
चेहरों को तो सभी देखते हैं। पर कवि को बदसूरत चेहरों पर पहले बुरुंश कहीं खिलता है' कविता में जैसे फूल का चुनाव वे तमाम
निगाह डालनी पड़ती है तभी वह जीवन सत्य, जीवन यथार्थ की परिचित,सदाबहार, लोकप्रिय फूलों की प्रजातियों को छोड़कर
खोज कर पाता है। प्रगतिशील धारा के जितने भी महत्वपूर्ण कवि करते हैं और कहते हैं— “ख़ून को अपना रंग दिया है बुरुंश ने/
हैं उन्होंने जिंदगी की कठिन मार के बीच से काव्य सत्य की तलाश बुरुंश ने सिखाया है/ फेफड़ों में भरपूर हवा भरकर/ कैसे हँसा
की है। उन्होंने काव्य सौंदर्य के पैमानों को बदल दिया है। आठवें जाता है/ कैसे लड़ा जाता है/ ऊँचाई की हदों पर/ ठंडे मौसम के
दशक के दौर में जिन कवियों ने इन पैमानों को बदलने की लगातार विरूद्ध/ एक बुरुंश कहीं खिलती है/ ख़बर/ पूरे जंगल में आग की
कोशिश की है उनमें हरीशचन्द्र पांडे का काव्य संघर्ष औरों के तरह फैल जाती है/ आ गया है बुरुंश xxxxx बुरुंश आ गया है/
मुक़ाबले ज्यादा प्रभावशाली और महत्वपूर्ण दिखाई पड़ता है। जंगल के भीतर एक नया मौसम आ रहा है।” (एक बुरुंश कहीं
जिसकी शिनाख्त लगभग नहीं की गई है। निश्चय ही वे एक बदले खिलता है : पृष्ठ 163)
हुए सौंदर्यबोध के कवि है। कहना न होगा यह रक्तिम फूल लाल क्रांति का प्रतीक भले न
बन सके लेकिन इस रक्तिम फूल का जंगल में खिलना, जंगल में
बदलाव की आहट ज़रूर है। अगर यह समाज जंगल की मानिंद है

yegh जुलाई से सितंबर 2023 n 135


तो यह बुरुंश का फूल बदलाव की बेचैनी और आहट दोनों है। वहां अभी पपीते का एक पेड़ बड़ा हो रहा है/ जब फल लगेंगे इस
पहाड़ी इलाके का यह उपेक्षित फूल पहाड़ की छाती फोड़कर पेड़ पर तो याद दिलाएँगे हमें/ इतना समय बीत गया और हम कुछ
खिलता है। हमारे समाज में कुछ लोग गुलाबी चेहरे वाले हैं जो श्रम नहीं कर पाए xxxxxxx अधूरा मकान यह/ आधा सच है, आधा
से भागते हैं लेकिन जो मेहनतकश हैं वह बुरुंश के फूल की तरह सपना/ आधा हँसी है,आधा रोना/ यह ताजा कटे बकरे की
है जो जिंदगी की कठिन मशक्कत के बाद जिंदगी जी पाते हैं। छटपटाती देह है” (वही : पृष्ठ 18,19)
पाठकों को यह कविता पढ़ते हुए सहज ही पहाड़ी इलाके में पैदा
होने वाले 'कुटज' की याद तैर जाएगी जो महान गद्यकार हजारी
प्रसाद द्विवेदी का सर्वाधिक लोकप्रिय और विश्वासपात्र निबंध है। (तीन)
ज़मीनी स्तर पर बुरुंश और कुटज पहाड़ी जीवन की उपज है।
हरीश को पढ़ते हुए लगता है कि उनके कवि कर्म का जो संघर्ष हरीशचन्द्र साधारण जीवन बोध के कवि हैं। इसलिए उनकी कविता
और प्रतिफलन है उसका प्रतीक गहरे अर्थों में बुरुंश के ये रक्तिम श्रम जीवन की कठोर जिंदगी की डोर से बंधी हुई है। इसलिए
फूल ही हैं, जो पहाड़ की जिंदगी से उतरकर अब मैदानी जीवन में उनका सौंदर्यबोध साधारण जीवन के भीतर छिपे असाधारण तत्वों
चुपचाप खिले हुए हैं। की खोज और उसकी कहीं बेबाक, तो कहीं मार्मिक शिनाख्त से
एक दूसरा उदाहरण 'अधूरा मकान' कविता का लें। अक्सर संभव हुआ है। सहज ही उन्हें श्रम सौंदर्य का कवि ठहराया जा
चालू नजरों में कॉलोनी के भीतर या बाहर अधूरे मकान को कोई सकता है। उनकी कविता में श्रम सौंदर्य के दृश्य पहाड़ी इलाके से
सुंदर नहीं कहता। लोग कहते हैं जल्दी पूरा करके सजाइए तब लेकर मैदानी इलाकों के गांव, कस्बे, शहरों की तंग बस्तियों तक
सुंदर कहा जाएगा। मगर देखिए कवि 'अधूरा मकान' कविता में फैले हुए हैं। उनकी अनेक ऐसी कविताएँ हैं जहाँ आप साधारण
कैसे विलक्षण सौंदर्यबोध की तस्दीक करता है। यह विलक्षण की महिमा का बखान, उसका रहस्योद्घाटन देख सकते हैं। इस
सौंदर्यबोध अभाव और बेबसी के हालात से उपजा है। यह जीवन तरह हर जगह उनकी कविता पीड़ितों, दमितों, श्रम से थके हारे
के अभावबोध से उपजी हुई काव्यानुभूति है जो कविता के रूप में इंसानों के पक्ष में अन्याय के विरुद्ध प्रतिकार करती है। प्रतीक के
फूट पड़ी है। पाठक ग़ाैर करेंगे कैसे इस अभावग्रस्त कविता में रूप में 'इस उद्यान में' कविता के भीतर कैसे हस्तक्षेप करके मनुष्य
जीवन के कितने छिपे भाव भरे हैं जो कविता की पूर्णता के साथ की महिमा और उसके सम्मान की रक्षा की चेतावनी सार्वजनिक
प्रकट होते हैं– “इसे दो कमरे का मकान बनना था/ फिलहाल एक दी गई है। यह भाव बोध इस छोटी सी कविता में जग जाहिर होता
कमरे के बाद काम बंद है/ जो कमरा अभी बनना है वह नक्शे के है– “काट छांट कर/हरे उद्यान के किसी पेड़ को/ हाथी बना दिया
हिसाब से बड़ा कमरा है/ जहाँ इस कमरे का दरवाजा होना था/ गया/किसी को शेर/ xxxxxxx आदमी को आदमी से नफ़रत/और
जानवरों से प्रेम/इस उद्यान में देखने लायक है।” (वही :पृष्ठ 53)
उनकी लंबी काव्य यात्रा से यदि श्रम जीवन मूलक कविताओं
की शिनाख्त की जाए तो फेहरिस्त लंबी होगी फिर भी कुछ ऐसी
प्रमुख कविताओं की सूची बनानी चाहिए जिस पर पाठकों की नज़र
पड़े। जैसे लद्दू घोड़े, परीक्षा कक्ष में, हिजड़े, लड़का और समय,
इस महादेश को चलाने के लिए (हाजी कलीम उल्ला खां को
समर्पित कविता) परिवर्तन, इक्कीसवीं सदी की ओर, बिलासपुरी
मजदूर, कहानी का एक पात्र, कर्ज़गाथा, देहात जाती आख़िरी बस,
लेबर चौराहे पर, वह आई थी, गुथाई का राग, महराजिन बुआ,
पुताई वाला, किसान और आत्महत्या,चीटियाँ, इधर है आजमगढ़,
पनचक्की, मैं इक्कीसवीं सदी का एक दृश्य हूँ, संगम होती हुई,
तिब्बत बाज़ार, यही उगेंगे, लोहा, मछुआरे, कविता और खेती जैसी
कुछ कविताएँ हैं जहाँ श्रम जीवन की त्रासदी, विडंबना, क्रूरता के
साथ श्रम सौंदर्य की छवियाँ भी देखी जा सकती हैं। श्रम सौंदर्य की
यह खास विशेषता होती है कि वह स्थिर सौंदर्य नहीं होता बल्कि

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निरंतर श्रम शील चेहरों की आवाज़ाही होता है अर्थात श्रम सौंदर्य
में कर्म की निरंतरता की उपस्थिति एक ज़रूरी तथ्य है जो हरीश श्रम संस्कृति पर केंद्रित इन कविताओं के
की कविताओं में जगह-जगह पाठक ग़ाैर कर सकते हैं। श्रम जीवन भीतर श्रम जीवन की त्रासदियाँ, बेचनि ै याँ,
का आह्वान 'परिवर्तन' कविता में सुनी जानी चाहिए– “ज़मीन से हाड़ तोड़ मेहनत के बावज़ूद पेट न भरना,
उठाऊँगा मैं/ एक गिरी पड़ी चीज़/ सोना समझकर नहीं/ सोना दमन, शोषण और असामयिक मृत्यु की
बनाने के लिए उसे।” (एक बुरुंश कहीं खिलता है : पृष्ठ 101) खौफ़़नाक तस्वीरों के अक्स उभरते हैं। जिससे
अंदाजा लगाया जा सकता है कि समाज में
“हम रिक्शे पर बैठे राजनीति पर बातें कर रहे थे/ लड़का रिक्शा कवि किसके साथ खड़ा है। खड़ा ही नहीं,
खींच रहा था xxxxxxx खुश थे हम कि/ रिक्शा सस्ता मिल बल्कि साथ दे रहा है। बावज़ूद इसके कि
गया आज xxxxxxx असमतल और ऊब भरे रास्ते में भी/ खुश हरीश के वहां श्रम जीवन की चरित्र मूलक
थे हम/ फूल रिक्शा खींच रहा था/ इक्कीसवीं सदी की ओर।” कविताओं का खासा अभाव है। उनके पूरे
(इक्कीसवीं सदी की ओर : पृष्ठ 125) काव्य संसार की तफ़तीश में सिर्फ़ इक्का-
दुक्का कविताएँ ही हाथ लग पाएँगी। इस दृष्टि
से ' महाराजिन बुआ ' जैसी चरित्र प्रधान
“मल्लाह ही है वे साक्ष्य जो कह सकते हैं/ कि हमने यमुना को कविता एक समय वैधव्य की शिकार स्त्री के
उसके अंतिम चरण में देखा है/ वही कह सकते हैं की सभ्यताएँ संघर्षपर्ण
ू जीवन की रोमांचक दास्तान है।
संगमों का इतिहास है/ अकेले-अकेले का खेल नहीं।” (कछार
कथा : पृष्ठ 16)
उसके भी आंचल में दूध था/ और आंखों में भरपूर पानी/ अबला
श्रम संस्कृति पर केंद्रित इन कविताओं के भीतर श्रम जीवन की थी/ और भी अबला हो गई होती विधवा बनकर/ चाहती तो काशी
त्रासदियाँ, बेचैनियाँ, हाड़ तोड़ मेहनत के बावज़ूद पेट न भरना, की विधवाओं में बदल जाती/ या चली जाती वृंदावन/ वह चल
दमन,शोषण और असामयिक मृत्यु की खौफ़नाक तस्वीरों के पड़ी शमशान की ओर/ कांटेदार तिमूर लकड़ी की ठसक लिए घूम
अक्स उभरते हैं। जिससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि समाज रही है घाट पर/ हाथ से बुने मोजों के ऊपर कपड़े के जूते डाल
में कवि किसके साथ खड़ा है। खड़ा ही नहीं, बल्कि साथ दे रखे हैं उसने/ मोटे ऊन की कन टोप है/ मुँह में गिलौरी दबाए/
रहा है। बावज़ूद इसके कि हरीश के वहां श्रम जीवन की चरित्र जलती चिताओं की बगल से निकलती और राख हो गई/ चिताओं
मूलक कविताओं का खासा अभाव है। उनके पूरे काव्य संसार की को लांघती/ एक से दूसरी चिता/ दूसरी से तीसरी/ तीसरी से चौथी/
तफ़तीश में सिर्फ़ इक्का-दुक्का कविताएँ ही हाथ लग पाएँगी। इस मुखाग्नि दिलवाती/ कपाल क्रिया करवाती घूम रही वह/ अपने
दृष्टि से 'महाराजिन बुआ' जैसी चरित्र प्रधान कविता एक समय मोक्ष के लिए छटपटाती एक नदी के तट को/ त‌र्पणों का समुद्र सौंप
वैधव्य की शिकार स्त्री के संघर्षपूर्ण जीवन की रोमांचक दास्तान रही है।” (महाराजिन बुआ : असहमति : पृष्ठ 16-17)
है। 'इलाहाबाद के मरघट की स्वामिनी चिंताओं के बीच ऐसे टहल
रही है/ जैसे खिले पलाश वन में विचर रही हो।' कहना चाहिए
श्रम जीवन के पुरुषार्थ और स्वाभिमान पर केंद्रित स्त्री जीवन की (चार)
यह कविता स्त्री मुक्ति की गाथा भी है। खासतौर से विधवा स्त्री के
पुरुषार्थ की अप्रतिम कविता। महाराजिन बुआ वर्तमान प्रयागराज हरीशचंद्र पांडे की कविता का संसार विविधधर्मी इसलिए भी है
में स्त्री मुक्ति की तस्वीर ही नहीं बल्कि तकदीर पहले हैं। यह क्योंकि वह कविता में 'छोटी चीज़ों के देवता हैं।' घर, परिवार,
तथ्य उल्लेखनीय है कि तत्कालीन इलाहाबाद निवासी महाकवि हाट, गलियाँ, नुक्कड़, चौराहे, राजमार्ग से लेकर खेत-खलिहान,
निराला की 'विधवा' और 'तोड़ती पत्थर' जैसी कालजई कविताओं पर्वत, पठार चट्टानों से लेकर कार्य-व्यवहार विचार की दृष्टि से
की परंपरा में वर्तमान में प्रयाग निवासी कवि हरीशचन्द्र पांडे की वे बराबर छोटी चीज़ों की तलाश करते हैं। जिन पर लोगों का
महाराजिन बुआ जैसी कविता परंपरा में नया प्रस्थान है। काश! ध्यान प्रायः नहीं जाता, पर कवि हरीश बराबर साधारण दिख रही
हरीश चरित्र प्रधान ऐसी कविताएँ और लिख पाते। इस कविता में चीज़ों,घटनाओं,जगहों में ऐसी निगाह डालते हैं कि कविता में ऐसी
महाराजिन बुआ की धज देखने लायक है– “एक औरत की तरह चीज़ों की उपस्थिति से इन चीज़ों में अर्थ का भार और देखने का

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नज़रिया बदल जाता है। कहना न होगा इस पृष्ठभूमि की कविताएँ से मैं इक्कीसवीं सदी का एक दृश्य हूँ, कछार कथा, कर्ज़ गाथा,
प्रगतिवाद के दौर में नागार्जुन और त्रिलोचन से बहुतायत लिखी। प्रगति, डूबना एक शहर का : प्रसंग टिहरी, तिब्बत बाज़ार,यही
नागार्जुन की मादा सुअर, नेवला, त्रिलोचन की दर्ज़नभर चरित्र रुकेंगे, वेश्यालय में छापा, मैं एक भ्रूण गिराना चाहती हूँ, वजीरा
प्रधान कविताएँ इस तथ्य की साक्ष्य बनती हैं। आठवें दशक में पानी पिला दे, फूलों के शहर में बच्चे,भूकंप,सहेलियाँ,मेरा घर,
यह काम वीरेन डंगवाल और हरीशचन्द्र पांडे ने संभव किया है। ऐसी कविताएँ हैं जिनकी काव्यवस्तु अत्यंत सजग और प्रभावशाली
वीरेन ने उस दौर में मक्खी, समोसा, जलेबी, तोप, पोस्टकार्ड जैसी है कि पाठक सहज ही आकृष्ट और विचारवान हो उठता है। 'मैं
चीज़ों पर कविताएँ लिखकर छोटी लगने वाली चीज़ों में अमरत्व इक्कीसवीं सदी का एक दृश्य हूँ' कविता की काव्यवस्तु को ग़ाैर से
पैदा किया है। इस परंपरा में मौज़ूदा दौर में हरीश की दर्ज़नों ऐसी देखें तो अंदाजा लगा सकते हैं कि यह कविता हमारे सभ्य समाज
कविताएँ हैं जो जीवन और समाज में नगण्य होती हैं, पर हरीश और विकास का दावा करने वाली व्यवस्था से आंखों में आंखें डाल
अपने काव्यात्मक विवेक से अर्थ की एक ऐसी आभा और चमक कर किस तरह मनुष्यता के संकट के गंभीर सवाल पूछती है। कवि
पैदा करते हैं जो पाठक को दूर से ही आकृष्ट ही नहीं करती बल्कि का यह सवाल कितना मौजू है- “यह हमारी इक्कीसवीं सदी का
बांध लेती हैं। कहना न होगा कि हरीश की कविताओं में मामूली दृश्य था/ स्वजन विसर्जन का आदिम कट पेस्ट नहीं/ जब धरती
चीज़ों, जगहों और लोगों की तलाश का सिलसिला लगातार बना पर कोई डाक्टर न था,न अस्पताल,न कोई सरकार/ यह मंगल पर
हुआ है। कविता का एक काम यह भी है कि वह पाठकों में जिज्ञासा जीवन खोजने के समय में/ पृथ्वी पर जीवन नकारने का दृश्य था/
पैदा करें। भूली चीज़ों, जगहों को याद दिलाए। जिज्ञासा के भाव ग्रहों के लिए छूटते हुए राकेटों को देख हमने तो यही समझा था/
को जगाने के लिए कवि को जीवन में भटकना पड़ता है, तभी वह कि अपने दिन बहुरने की उल्टी गिनतियाँ शुरू हो गई है/ पर किसी
अनहोनी और अनछुई चीज़ों को अपनी कविता में दाखिल करा भी दिन ने यह नहीं कहा कि मैं तुम्हारा कंधा हूँ/ पता नहीं मैं पत्नी
पाता है। हरीश की कविता का यह उद्यम उन्हें दुहराव से बचाता है का शव लेकर घर की ओर जा रहा था/ या इंसानियत का शव
और हमेशा उनके कवि कर्म को पुनर्नवा करता रहता है। लेकर गुफा की ओर/ मैंने सुना है नदियों को बचाने के लिए/ उन्हें
जीवित आदमी का दर्ज़ा दे दिया गया है/ जिन्होंने यह काम किया
है उन्हें बता दिया जाए कि/ दाना माझी भी एक जीवित आदमी का
(पांच) नाम है” (कछार कथा : पृष्ठ 13)
कहना न होगा कि यह कविता सिर्फ़ मानवीय हस्तक्षेप की ही
हरीश उन कवियों में शुमार हैं जो वर्तमान का सामना करते हुए कविता नहीं है बल्कि व्यवस्था से सवाल पूछती कविता है। कविता
कभी अतीत में जाते हैं तो कभी भविष्य में। लेकिन वे अतीत जीवी का बुनियादी काम प्रश्न पूछना है उत्तर देना नहीं। उत्तर व्यवस्था
कवि नहीं हैं। उनकी कविता हमेशा वक्त के सामने पाठकों से और समाज के नियामकों को देना होता है। हरीशचन्द्र पांडे की यह
संवाद करती है, पर जैसा मैंने पहले भी कहा है कि वे यथार्थ के खासियत है कि उनकी कविताएँ पाठकों के सामने कभी व्यवस्था
नाम पर सिर्फ़ सतह को खुरचकर शांत हो जाने वाले कवि नहीं से,कभी समाज से,कभी ख़ुद से सवाल करती हैं। कर्ज़ गाथा इस
हैं। अभी हाल ही में प्रकाशित उनका पांचवा काव्य संग्रह 'कछार लिहाज से अत्यंत उल्लेखनीय और वाज़िब सवाल उठाने वाली
कथा' इस तथ्य की बारीकी से शिनाख्त करता है। उनकी इस संग्रह कविता साबित होती है। नई स्वेटर आमतौर पर सभी खरीदते-
की कविताओं से गुज़रते हुए आप पाएँगे कि वह सिर्फ़ सामाजिक पहनते हैं पर किसी की दृष्टि इस ओर नहीं जाती है कि “नई स्वेटर
यथार्थ के ही कवि नहीं है बल्कि गहरे अर्थों में एक राजनीतिक क्या पहनी कि लगा/ एक नए कर्ज़ से लद गया हूँ/ कई लोग
कवि के रूप में उनकी कविताएँ पाठक को उद्वेलित करती हैं। एकाएक सामने आ गए xxx कितनों का कर्ज़दार हूँ मैं/ मगर एक
लेकिन उन्हें महज एक राजनीतिक कवि के रूप में स्वीकार कर शीशे के सामने मुस्करा रहा हूँ/ स्वेटर खींच खींच कर/ जैसे यह
उनकी कविता की हदबंदी नहीं करना चाहता, वह व्यापक स्तर पर कर्ज़दारों के मुस्कराने का समय है/ यू तो मै पहले ही उतार आया
जीवनानुभवों के समर्थ कवि हैं। हूँ अपना कर्ज़ दुकानदार के पास/ जबकि ऊन बनाने में उसकी
इस परिप्रेक्ष्य में देखें तो हरीशचंद्र पांडे काव्य वस्तु के चुनाव में कोई हिस्सेदारी नहीं थी xxxxx भेड़ों के बदन का ऊन भेड़ों के
अत्यंत सजग और गंभीर मति के कवि ठहरते हैं। उनके इस संग्रह लिए था मेरे लिए नहीं/ उन्हें तो मालूम ही नहीं उन्होंने किस-किस
की लगभग सभी कविताओं से गुज़रते हुए पाठक अनुभव करेंगे कि पर मेहरबानी कर डाली है xxxxxx मुझ पर वास्तव में जिनका
उनका विवेक कितना सजग और चौकस प्रवृत्ति का है। इस लिहाज कर्ज़ है उनमें कोई भी साहूकार नहीं/ मुझसे जो वसूल कर ले गए

138 n जुलाई से सितंबर 2023 yegh


हैं उनका मुझ पर कोई कर्ज़ नहीं था।” (कछार कथा : पृष्ठ) इस लिहाज से हरीशचन्द्र पांडे बेहद्दी कवि
देखना होगा कि यह कविता बाज़ारू होती दुनिया में मनुष्यता लगते हैं। उनकी काव्य संवेदना का रेंज और
के चरम हस्तक्षेप की एक अत्यंत विरल कविता है। ऊन का स्वेटर उसकी व्याप्ति देखने लायक है। पाठकों को
साधारण, विशिष्ट सभी पहनते हैं पर कितने लोग अपने को भेड़ों काव्य संग्रह का शीर्षक पढ़कर लग सकता
का कर्ज़दार मानते हैं? सभी तो यही मानते हैं कि मैं दुकानदार को है कि हरीशचन्द्र कछार जीवन के कवि हैं,
इसकी कीमत चुका कर लाया हूँ मैं किसी का कर्ज़दार नहीं। पर पर ग़ाैर करेंगे तो आप पाएँगे कि वे ऊँट और
कवि कहता है कि मैं भेड़ों का कर्ज़दार हूँ। आप ग़ाैर कीजिए कि रेगिस्तान के भी कवि है। ' डूबना एक शहर
यह कविता किस तरह भेड़ों की कर्ज़दार बनकर मनुष्यता के पक्ष का : प्रसंग टिहरी ' को पढ़ते हुए लगता है कि
में एक अनिर्वचनीय हलफ उठा रही है। कहना न होगा कि कवि वे जितने मैदानी, शहरों, कस्बों,गांवों के कवि
ही समाज में वह अल्पसंख्यक प्राणी है जो मानव समाज के साथ हैं उतने ही अपने पुश्तैनी वतन पहाड़ के भी
शेष जीवन से जुड़े पशु, पक्षी यहाँ तक की स्थावर और जंगम कवि हैं।
समाज की चिंता में हमेशा मग्न रहता है। हरीशचन्द्र के काव्य की
यह अलक्ष्य चिंता दरअसल मनुष्य की मानवीय संवेदना है जो हमले पर लिखी कविता 'फूलों के शहर में बच्चे' सहेलियाँ कविता
सबके लिए उपलब्ध रहती है। वरना भेड़ों की खाल खींचने वाले के अंत में केमिस्ट की दुकान पर एसिड खरीदता लड़का जैसी
सौदागरों को इसकी चिंता करने की क्या ज़रूरत है। मुझे याद नहीं कविताएँ पाठकों को हिंसा की दहशत से भर देती हैं। जाहिर है
है कि भेड़ों के ऊन को केंद्र में रखकर इस तरह की कर्ज़ गाथा हिंसा का जवाब, हिंसा से नहीं दिया जा सकता। हिंसा को खत्म
कविता किसी भी पीढ़ी के कवि ने लिखी हो। करने के लिए जीवन और समाज में प्रेम का बीज बोना ज़रूरी है।
आप इससे अंदाजा लगा सकते हैं कि हरीशचन्द्र पांडे कितने इस दृष्टि से चंद्रधर शर्मा गुलेरी की लिखी सौ वर्ष पूर्व की कहानी
गहरे स्तर पर प्रौढ़, पुष्ट और वयस्क संवेदना के कवि के रूप में 'उसने कहा था' पर आधारित कविता 'वजीरा पानी पिला दे' अत्यंत
समकालीन कविता के परिसर में मौज़ूद हैं। उनकी काव्य संवेदना प्रभावकारी और मननीय कविता है। कहानी की मूल थीम है प्रेम
का रेंज इतना व्यापक और विविध है कि उन्हें लोकजीवन या शहरी और प्रेम मांगता है– “त्याग। काश! हमारी नई पीढ़ी प्रेम में त्याग
जीवन के कवि के रूप में विभाजित करना मुश्किल है। क्योंकि और बलिदान के मूल्य को समझ पाती। अगर ऐसा होता है तो
उनकी कविता के संसार में गांव भी हैं,शहर भी है पहाड़ भी है,मैदान समाज में प्रेम की आगार स्त्री का जीवन फ्रीज में महदूद होने से
भी है,देश भी है, परदेस भी है। मनुष्यों के साथ,जंगल,पहाड़, बच जायेगा। इस कविता की मार्मिक पंक्तियों को महसूस कीजिए–
झरने, नदियाँ,ताल सरोवर सब कुछ एक साथ समाहित है। बड़े वजीरा कैसा लगा होगा/ जब बोधा ने बताया होगा मां सूबेदारनी
कवि की यह ख़ूबी होती है कि वह हर कविता में विचारधारा की को/ यह जो जर्सी पहन रखी है ना मां/ लहना की है xxxxx यह
कसमें खाकर लकीर का फकीर नहीं बनता है। उसे किसी हद में कहते हुए कि/ मुझे बहुत पसीना आ रहा है इसे पहनकर/ तब
बांधना कठिन होता है। इस लिहाज से हरीशचन्द्र पांडे बेहद्दी कवि सूबेदारनी ने बेटे को पलासनी के बहाने ख़ूब-ख़ूब छुआ होगा ना
लगते हैं। उनकी काव्य संवेदना का रेंज और उसकी व्याप्ति देखने उस जर्सी को/ जर्सी में जगह-जगह रोएँ उठ आए होंगे ना।” (वही
लायक है। पाठकों को काव्य संग्रह का शीर्षक पढ़कर लग सकता पृष्ठ: 50)
है कि हरीशचन्द्र कछार जीवन के कवि हैं, पर ग़ाैर करेंगे तो आप कहना न होगा उनकी समग्र कविताओं से गुज़रते हुए पाठक
पाएँगे कि वे ऊँट और रेगिस्तान के भी कवि है। 'डूबना एक शहर उनके काव्य-संस्कार से वाकिफ होंगे। जाहिर है उनकी कविता
का : प्रसंग टिहरी' को पढ़ते हुए लगता है कि वे जितने मैदानी, बोलती कम कहती ज्यादा है। उनका लहजा आक्रामक नहीं बल्कि
शहरों, कस्बों, गांवों के कवि हैं उतने ही अपने पुश्तैनी वतन पहाड़ मितभाषी और संयमी है। पर उनकी कविता का आंतरिक लहजा
के भी कवि हैं। विद्रोही और परिवर्तनकामी है। सस्ती रोमांटिकता के प्रवेश को
कहना चाहिए आज के जमाने और निजाम में अहिंसा सचमुच बरजते हुए हरीशचन्द्र पांडे समकालीन कविता के परिसर में वाकपटु
पैदल चल रही है, जबकि हिंसा बुलडोजर की शक्ल में चारों तरफ के बजाए वाक् सिद्ध कवि हैं। n
दौड़ती अट्टहास कर रही है। हिंसा का साम्राज्य किस तरह फैल रहा संपर्क : 901, अमरावती निकुंज, तारामण्डल
है इसे समझने के लिए इन कविताओं से गुज़रना बेहद ज़रूरी है। सिद्धार्थ इंक्लेव शहर, गोरखपुर 273017 (उ०प्र०)
इस लिहाज से पेशावर में आर्मी स्कूल के बच्चों पर हुए आतंकी मो. 9415313214

yegh जुलाई से सितंबर 2023 n 139


n अविराम : अरुण कमल

मानवीय संवेदनाओं और रागात्मकता के कवि


स्मृति शुक्ल

कविता एक ऐसी भावभूमि है, जो मनुष्य को न प्रति अनुराग जगाया। ‘अपनी केवल धार’ संग्रह की
केवल सच्चे अर्थों में मनुष्य होना सिखाती है बल्कि कविताएँ अपनी सहजता, ताजगी, देशजता की मिठास
उसे मनुष्यता के उच्च शिखर तक पहुँचा सकती है, और जीवन के प्रति तीव्र लालसा, ऐन्द्रिकता,
बशर्ते मनुष्य वहाँ पहुँचना चाहे। कविता मानवीय दृश्यात्मकता और काव्य रूढ़ियों को तोड़कर अपने
भावों की अभिव्यक्ति सबसे सरल, सबसे ताक़तवर नये स्वर और कलेवर के कारण सराही गयीं थीं।
और संप्रेषणीय माध्यम तब है, जब वह सच्ची ‘सबूत’ (1989) ‘नये इलाके में पुतली में संसार’
और खरी हो तथा कवि के अन्तर्जगत से नि:सृत (2004) और ‘मैं वो शंख महाशंख’ (2012) के
होकर पाठक के हृदय को तरंगायित करने में समर्थ हो। कवि की बाद हिंदी की अनेक प्रतिष्ठित पत्रिकाओं से होते हुए ‘परिकथा’ के
आंतरिक संवेदना उसकी सूक्ष्म चेतना, उसका भाषिक सामर्थ्य और सौवें अंक में प्रकाशित गद्य कविताओं तक अरुण कमल की
सृजनात्मकता कविता को प्रभावी बनाने वाले कारक हैं। समाज में सृजन-यात्रा अनवरत जारी है जो उनकी रचनात्मकता के सातत्य
कवि और कविता की उपस्थिति प्राचीन काल से मनुष्यता के बचे का प्रमाण हैं।
रहने के सबूत के रूप में रही है। कविता मनुष्य के आत्मजगत अरुण कमल की कविताओं में समाज में सकारात्मक परिवर्तन
के प्रसार से प्रारंभ होकर भावनाओं के उदात्तीकरण की उर्ध्वगामी और मानवीयता को स्थापित करने की दिशा देने की शक्ति है।
यात्रा तय करते हुए उसके सामाजिक और सांस्कृतिक कर्म का उनकी कविताओं में गहरी जीवन दृष्टि के साथ मनुष्य की गरिमा
भी हिस्सा बनती है। कविता मानवीय संवेदना के साथ समाज से उसकी स्वतंत्रता और समानता की बात की गयी है। अरुण कमल
और इंसानियत से गहरे सरोकार बनाती है इसलिये वह सदा से ही मूल्य-चिंता के कवि हैं। अशोक बाजपेयी ने उनकी कविताओं के
प्रासंगिक है और रहेगी। संबंध में लिखा है कि-“अरुण कमल की कविताओं में सूक्ष्म
समकालीन कविता के सर्वाधिक प्रदीप्त और कवि अरुण अंतर्दृष्टि,संयतकला अनुशासन और आत्मीयता है। जाहिर है आज
कमल की कविता मानवीयता से जुड़ी सर्वसाधारण के हित में के विघटित और अवमूल्यित समाज में कवि की चिन्ता आदमी के
लिखी और संघर्ष की चेतना जगाने वाली कविता है। उनकी प्रति प्यार, उसकी गहरी पहचान और संघर्ष शक्ति को संवेदना के
प्रगतिचेता दृष्टि गहरी मानवीय संवेदना से आर्द्र है तथा पीड़ित, स्तर पर भविष्य को नया आकार देने में परिलक्षित होती है।” अरुण
शोषित और वंचित वर्ग के प्रति पक्षधरता और त्रासद समय में कमल धीरे-धीरे शुष्क होती जा रही संवेदनाओं और इंसानियत के
बहुमूल्य को बचा लेने के सार्थक और ईमानदार प्रयत्नों से ही खो से जाने तथा मूल्यों के क्षरण से गहन चिंता में हैं। वे समाज के
उष्मित है। अरुण कमल को अपने पहले कविता संग्रह ‘अपनी लिये ज़रूरी और बहुमूल्य बचाना चाहते हैं-'बचा हूँ अब भी/जल
केवल धार’ (1980) की प्रतिनिधि कविता “अपना क्या है इस कर राख हुआ घर का चौखट/ रौंदा हुआ धान का खेत/ नल लग
जीवन में/ सब तो लिया उधार/ सारा लोहा उन लोगों का अपनी जाने के बाद, त्यागा हुआ घर का कुँआ/बचा है जब अब भी।'
केवल धार से इतनी लोकप्रियता मिली जितनी अनेक कविता कठिन समय में सार्थक को बचा लेने की जो कोशिश है उसी की
संग्रहों के प्रकाशन के बाद भी रचनाकारों को नहीं मिलती। अरुण उर्जा की बदौलत उनकी कविता में ताजगी है-चारों ओर अँधेरा
कमल के इस संग्रह की कविताओं ने हिंदी में एक बड़ा पाठक वर्ग छाया/ मैं उठूँ जला लू बत्ती/जितनी भी है दीप्ति भुवन में/सब मेरी
तैयार किया और कविता के सामान्य पाठक के हृदय में कविता के पुतली में कसती। अरुण कमल की कविताओं में ऐसी चेतना है जो

140 n जुलाई से सितंबर 2023 yegh


पाठक को जीवन की सच्चाईयों से रू-ब-रू कराती है और जीवन भी नहीं है गुप्त/फिर भी तुम चुप क्यों हो?' अपनी ‘जेल का
और समाज के ज्वलंत प्रश्नों से टकराती है। अरुण कमल की गिलास’ कविता में वे मानते हैं कि सभी ने एक ही नदी से जल
कविताएँ तमाम विपरीत परिस्थितियों में आशा और उम्मीद की पिया है–
किरणें बिखेरती हैं-'पत्थर की नाभि में अभी भी कहीं/ जिंदा है हरा आज जिस गिलास में पानी पी रहा हूँ,
रंग मुझे उम्मीद है फिर भी।' कवि ने प्रायः अपने हर साक्षात्कार में उसी में पिया था पानी इस मजदूर ने
यह बात कही है कि-“साहित्य प्रायः उनका पक्ष लेता है जो हारे हुए दफ़ादार चौकीदार ने बिजली मजदूर
हैं, जो अपना सब कुछ खो चुके हैं। कविता मनुष्य के सबसे भीतरी शिक्षक छात्र नौजवानों ने
कोने-संधियों का संधान करती है। तमाम प्रौद्योगिकी और एक ही नदी से पिया है
मशीनीकरण के बावज़ूद इस जीवन में जो जैविक तत्व शेष हैं- जल सब ने एक ही रास्ते चले सारे पाँव
मनुष्य का होना, हँसना-रोना, दुख-संताप तब तक कविता भी जिसने भी रक्खा इस रास्ते पाँव सागर से जा मिला।
रहेगी। कविता मनुष्य का अंतिम अभ्यारण होगा।” ‘नये इलाके में’ संग्रह की अधिकांश कविताओं में एक ऐसी
इस तरह अरुण कमल की कविताएँ गहरे जीवन राग की दुनिया का बिंब है जहाँ स्मृति का भरोसा नहीं है लेकिन तेजी से
कविताएँ हैं। एक ओर उनमें जीवन प्रसंगों और दृश्यों की उपस्थिति बदलते इस संसार में वस्तुएँ जल्दी पुरानी हो रही हैं। अरुण कमल
है तो दूसरी ओर अनुभवों के माध्यम से यथार्थ को अभिव्यक्त अपने दैनन्दिं न जीवन में इस बदलाव को अनुभूत करते हैं और
करने के कारण उनकी कविताओं में विषय वैविध्य का विस्तार है। उनका मन आंदोलित होता है। अपनी कविता ‘बात’ में वे चिंतन
आम आदमी की गरिमा और सम्मान की रक्षा उनकी कविताओं का करते हैं कि आख़िर मुझे क्या हो गया है, मैं इतना बदल कैसे गया।
केन्द्रीय विषय कहा जा सकता है। कवि को किसी भी व्यक्ति एक समय था जब मैं किसी के सामने कुछ खा नहीं पाता था पर
आदमी की अवमानना स्वीकार नहीं है-'आदमी धान का बिजड़ा अब मैं भरे बाज़ार में बच्चों के सामने आइसक्रीम खाता हूँ, बाल
तो नहीं/ कि एक खेत से उखड़कर दूसरे में रोप दे कोई।' वे चाहते रंगता हूँ और फिल्में देखता हूँ और दुर्घटना के बाद अपने बचे होने
हैं कि समाज में सभी एक सम्मानजनक जीवन जिये। गहरी करुणा का जश्न मनाता हूँ जबकि अनेक लोग इस दुर्घटना में अपनी जान
प्रेम की ऐसी सान्द्र और सघन अनुभूति तथा कम से कम शब्दों में गवाँ चुके हैं- 'बीसियों मरे उस मोटर दुर्घटना में/जो बचे वे भी
अधिक से अधिक कहने की शक्ति अरुण कमल के पास है। वे जैसे-तैसे/ एक मैं ही बचा साबुत/और मैंने यारों को दारू पिलाई/
सबसे ज़रूरी सवाल उठाते हैं-'सबसे ज़रूरी सवाल यही है मेरे इस मौज में -इसमें आख़िर क्या बात है?'
लिये/ क्या हमारे बच्चों को भरपेट दूध मिल रहा है/ सबसे ज़रूरी अँधेरे और उजाले तथा ना उम्मीदी और उम्मीद के संधि स्थल
सवाल यही है कि क्या प्रसूति माताओं को/मिल रहा है हल्दी- पर उपजी अरुण कमल की कविताओं में कहीं विघटित होते मूल्य
छुहारे का हलवा/ और दादा-दादी को हर रात दूध में रोटी?/क्या हैं, कहीं टूटते-छीजते संबंध हैं, कहीं अन्याय और शोषण है, कहीं
हर बीमार के सिरहाने रक्खा है अनार/ और हर बीमार को वही आम आदमी की बदहाली है। आज पहचान का संकट उत्पन्न हो
इलाज जो देश के प्रधान को?' इन सबसे ज़रूरी सवालों को वे गया है। अरुण कमल के संग्रह ‘नये इलाके में’ की पहली कविता
साहस के साथ उठाते हैं। अरुण कमल उन लोगों के पक्ष में खड़े ‘नये इलाके में’ पहचान के संकट को बड़ी गहराई से अभिव्यक्त
हैं जो अथक परिश्रम करते हैं फिर भी व्यवस्था ने और जीवन ने किया है। एक बड़े कवि की पहचान भी यही है कि उसकी कविताएँ
उन्हें बोझ ही दिया है। दारुण स्थितियाँ, निरीहता उनकी कविताओं पाठकों के अंतस में बसती हों और कठिन समय में वे अक्सर
में दर्ज़ है। लेकिन इससे आप अरुण कमल को स्थितियों के जुबान पर आ जाती हों। हमारा शहर स्मार्ट सिटी प्रोजेक्ट के चलते
निरीक्षण का कवि नहीं कह सकते। निरीक्षण से बहुत ऊपर जाकर जगह-जगह से ख़ुदा पड़ा है। यहाँ कुछ नया बन रहा है और पुराना
वे उनकारणों की तलाश करते हैं और उन मसलों के गहन संदर्भोंं टूट रहा है। ऐसे में पुरानी जगहों को पहचानना मेरे लिये मुश्किल
को सामने लाते हैं, जो इन स्थितियों के लिये जिम्मेदार हैं। वे हो जाता है ऐसी परिस्थिति में मुझे अरुण कमल की नये इलाके में
पूँजीपतियों के असली मन्तव्यों को ताड़ लेते हैं। वे मानते हैं कि इस कविता की याद आती है- 'धोखा दे जाते हैं पुराने निशान/ खोजता
श्रमशील वर्ग की मुक्ति अकेले में नहीं है बल्कि सबके साथ है हूँ ताक़ता पीपल का पेड़/ खोजता हूँ ढहा हुआ घर/और ज़मीन का
इसलिये वे सर्वसाधारण के हितों की चिंता करते हैं। वे चाहते हैं कि खाली टुकड़ा जहाँ से बायँ मुड़ता था मुझे/यहाँ रोज कुछ नया बन
लोग अपनी चुप्पी तोड़े-'जहाँ कहीं दुख में है आदमी/जहाँ कहीं रहा है/रोज कुछ घट रहा है, यहाँ स्मृति का भरोसा नहीं/एक ही
मुक्ति के लिये लड़ता है आदमी/ वहाँ कुछ भी नहीं है निजी, कुछ दिन में पुरानी पड़ जाती है दुनिया/जैसे बसंत का गया पतझड़ को

yegh जुलाई से सितंबर 2023 n 141


लौटा हूँ/ जैसे वैशाख का गया भादों को लौटा हूँ।' अरुण कमल
की कविताएँ संवेदना और संप्रेषणीयता में बहुत समर्थ है। अपनी लेकिन आज वही नहीं है दुनिया, उतनी कठोर
अभिव्यक्ति में वे जीवन के अनेक पहलुओं और पक्षों को गहरे जो कल परसो थी, समय के प्रवाह में
संदर्भोंं के साथ उद्घाटित करते हुए मानव जीवन के अनेक तुम्हारे ही लिये धुल रही है दुनिया।
महत्वपूर्ण सवालों और तनावों से जूझती हैं- अरुण कमल का मानना है कि स्त्रियों की प्रगति के बिना हमारी
कहाँ जाएँगे वे लोग जिनका कोई घर नहीं प्रगति एकांगी है। आज उन्हें हर क्षेत्र में सार्थक और प्रभावी
कहीं कुछ भी स्थिर नहीं सहभागिता चाहिये। असुरक्षा और अविश्वास से निजात पाते हुए
जहाँ कहीं जल मिले थोड़ी सी मिट्टी गरिमापूर्ण जीवन व्यतीत करने के लिये अनुदान और संरक्षण के
उग जायें वहीं-कहाँ जाएँगे वे लोग जिन्हें चाहिए पूरी पृथ्वी। अतिरिक्त स्वावलंबन, जीवन-दृष्टि एवं न्याय और शिक्षा के
इस तरह एक छोटी सी कविता में अरुण कमल समाज के दो अधिकार के अवसर दिये जाने चाहिए।
वर्गों को समानान्तर रखते हैं। एक वर्ग वह है जो थोड़ी सी मिट्टी, अरुण कमल की कविताएँ स्त्री के विविध रूपों तथा उसके
जल और वायु में अपना जीवन यापन कर लेना चाहता है, दूसरा संघर्षों और समस्याओं को अपनी कविताओं में पूरी संवेदना के
वर्ग वह है जिसे पूरी पृथ्वी पाकर भी संतोष नहीं है। अरुण कमल स्तर पर उठाते हुए नारी के अपमान, तिरस्कार और शोषण को पूरी
की कविताओं में वे मजदूर अनेक बार आये हैं जिन्हें रोजी-रोटी की मार्मिकता से अभिव्यक्त करती हैं। एक स्त्री का संघर्ष और
तलाश में अपना गाँव छोड़ना पड़ा है। जिजीविषा दोनों उनकी कविताओं में अभिव्यक्ति पाते हैं- 'दिन भर
कवि स्त्रियों के प्रति गहरी संवेदना के साथ अर्न्तात्मा को कपड़ा फींचा घर को धोया/मालिक के घर गयी और बर्तन भी
झकझोर देने वाली ऐसी कविताएँ रचता है जो हमें सोचने पर विवश माँजा/मलकीनी को तेल लगाया, मालिक ने डाँटा भी शायद/ घर
करती हैं। एक स्त्री पति के द्वारा किस तरह अपमानित और प्रताड़ित आयी फिर चूल्हा जोड़ा, और पतोहू से भी झगड़ी।' सदियों से
होती है। इस अपमान और शोषण का चित्र पाठक को हिलाकर रख भारतीय परिवार व्यवस्था प्रधान रही है। और तमाम बदलावों के
देता है - बाद आज भी इस व्यवस्था के अंश समाज में मौज़ूद हैं। स्त्री की
मैंने उसे इतना डाँटा गालियाँ दी, दो-तीन बार पीटा भी हत्या, मारपीट, बलात्कार, आरी से टुकड़े-टुकड़े करना, पत्थर से
फिर भी वह चुपचाप सारा काम करती गयी सिर फोड़ देना, तंदूर में जला देना ये सारी घटनाएँ आज के
पानी का गिलास हाथ में लेने से पहले तथाकथित आधुनिक और सभ्य समाज में घट रही है। भारतीय
मैंने तीन बार दौड़ाया गिलास गंदा है, पानी में चींटी है परिवार व्यवस्था में स्त्री पुरुष के अन्याय सहने को विवश है।
गिलास पूरा भरा नहीं है और अरुण कमल ‘स्वप्न’ कविता में उस स्त्री के दुख को अभिव्यक्त
वह चुपचाप अपनी गलती मानकर करते हैं जो आर्थिक रूप से स्वतंत्र नहीं है और पितृसत्तात्मक
दौड़ती रही और जब मैं पानी पी चुका व्यवस्था की क्रूरता को सहने के लिये विवश है-
तो धीरे से बोली पानी अच्छा था? कभी नैहर चली गयी, हफ्ते माह पर थककर लौटी
अरुण कमल ने मेरी शोधार्थी नेहा के प्रश्नों और जिज्ञासाओं हर बार मार खा भागी, हर बार लौटकर मार खायी
वाले पत्र का उत्तर देते हुए दिनांक 28.1.2006 के पत्र में लिखा जानती थी वो कहीं कोई रास्ता नहीं है
है कि-“मेरी कविताओं में अंकित स्त्रियाँ मेरे आसपास की ही हैं। कहीं कोई अंतिम आसरा नहीं है।
कभी-कभी कई स्त्री चरित्र एक साथ घुल-मिल जाते हैं। मैं मानता अरुण कमल की कविताओं में प्रकृति एक आधारभूत तत्व की
हूँ कि स्त्री सदियों से रही हैं आज स्थितियाँ बदल रही हैं, फिर सभी तरह उपस्थित है। प्रकृति और मनुष्य का सह-संबंध और सह-
लोग एक जैसे नहीं होते।” उनकी कविता ‘एक नवजात बच्ची को अस्तित्व निर्विवाद है। उनकी कविता में प्रकृति और मनुष्य के
प्यार’ स्त्री के प्रति बदलते नज़रिये को अभिव्यक्त करती है- संबंधों की अतिशय प्रगाढ़ता और शाश्वतता है। प्रकृति के सौन्दर्य
जिस दादी ने जूठन खाकर ही बोध के साथ वे जीवन मर्म को स्पर्श करते हुए मनुष्य की संवेदना
गुजार दी जिंदगी को सघनता प्रदान करते हैं। अरुण कमल पर्वत, नदी, चाँद, सूरज,
जिस माँ ने अपने पति की मार चुपचाप सही धरती, आकाश, जंगल, वृक्ष, बेलें, फल-फूल, सागर, हरियाली,
और जिस पिता ने देखा है, तिलक दहेज का क्रूर व्यापार पशु-पक्षी, ऋतुओं और हवाओं को मनुष्य के साथ जोड़कर प्रकृति
वे कैसे खुश होंगे? को एक लयात्मक और गत्यात्मक सौन्दर्य प्रदान करते हैं। उनकी

142 n जुलाई से सितंबर 2023 yegh


कविता के प्रकृति चित्र-जीवन चेतना की अभिव्यक्ति करने वाले लिखते हैं जो इंतजार करते अपने बेहद आत्मीयों को छोड़कर हवाई
हैं। प्रकृति के प्रति अटूट लगाव और गहरी आसक्ति उनकी कविता टिकिट के लिये दौड़ रहा है।
में है लेकिन वे प्रकृति का चित्रण केवल उसके सौन्दर्य की दृष्टि से अरुण कमल मानते हैं कि कविता से प्यार सबसे कठिन है और
या पाठक को रोमानी लोक में उलझाने के लिये नहीं करते। उनकी उससे भी कठिन है उस कविता के पक्ष में संग्राम। अरुण कमल ने
कविताओं में प्रकृति का रौद्र रूप भी जीवन के द्वन्द्व और विषम अपनी कविता को अनावश्यक रूप से अलंकतृ नहीं किया क्योंकि
परिस्थितियों को प्रकट करने के लिए हुआ है। कवि संघर्षरत वृक्षों वे अपनी सहज और सादगी से भरी कविता में उस निहत्थे और
के दुर्धर्ष सौन्दर्य को एक नई दृष्टि से देखता है। कमजोर वर्ग की पक्षधरता करते हैं जिन्हें पूँजीवादी ताक़तों ने
अरुण कमल की कविता में प्रकृति का सुन्दर और सूक्ष्म रूप हाशिए पर ढकेल दिया है। आज गोदी मीडिया सत्ता और पूँजी के
पाठक को लोक जीवन के निकट ले आता है। लोक सौन्दर्य उनकी पक्ष में खड़े होकर ख़बरों में छंद प्रस्तुत कर रहे हैं, ख़बरें क्रिकेट
कविता का प्राण तत्व है- का रूपक बन चुकी हैं, कविता से दूर हुए अलंकार ख़बरों की
मैं जब उठूँ तो भादों हो शोभा बढ़ा रहे हैं और वास्तविकता से परे जाकर एक अवास्तविक
पूरा चन्द्रमा उगा हो ताड़ के फल सा प्रतिसंसार रच रहे हैं-इन तमाम स्थितियों और विडंबनाओं को
गंगा भरी हो धरती के बराबर अरुण कमल छोटी-छोटी कविताओं में गहरे ‘विट’ के साथ प्रस्तुत
खेत धान से धधाए करते हैं। वह तेजी से क्षरित होते हुए मूल्यहीन समाज की पहचान
और हवा में तीज त्यौहार की गमक करते हुए देख सकते हैं कि सरकारी अस्पताल में रुई और पट्टी तक
इतना भरा हो संसार कि जब मैं उठूँ तो, नहीं है, नर्सें स्वेटर बुन रही हैं, डॉक्टर सैर पर आ रहे हैं, सरकारी
चींटी भर जगह भी खाली न हो स्कूल के अध्यापकों को मुर्गियाँ गिनने के काम पर लगाया जा रहा
खेत और खेतों में लहलहाती धान की फसलों के साथ अन्न, है, नदियाँ किस तरह नालों में तब्दील हो रही हैं। अरुण कमल
पेड़, फूल धान-गेहूँ के पौधों से किसान के आत्मीय और प्रगाढ़ लगातार व्यवस्था के उस छद्म को उधाड़कर हमारे सामने लाते हैं
संबंधों की गवाही देती ये पंक्तियाँ - जो सेवा का मुखौटा पहनकर शोषण करता है जिसे आम आदमी
अब आ रहे है कटनी के दिन की दुश्वारियों उसके संघर्ष और पीड़ा से कुछ लेना देना नहीं है।
और छाती तक बढ़ आये धान के पौधे अरुण कमल की कविताओं को पढ़ते हुए मुझे हमेशा यह
फिर खोजेंगे उन हाथों को लगता रहा कि उनकी कविताओं में प्रसंग, घटनाएँ और पात्र इस
जिन्होंने कीचड़ में धँसकर रोपा था उनको तरह घुले-मिले हैं जैसे कविता में कोई कथा कही जा रही हो। भाषा
पीले खेत, हरे पेड़, नीला आकाश और सफेद बगुले, अगहन में लोक जीवन की मिठास, शब्दों के विन्यास से निर्मित सुन्दर
का महीना खेतों की श्री और किसान जीवन की खुशी के साथ बिम्ब, खासतौर से दृश्य बिम्बों में रूपात्मक और गत्यात्मक
प्रकृति उनकी कविताओं में झाँकती है। फलों के स्वाद, गंगा का सौन्दर्य, अनकहे के भीतर कहे की अनुगूँज है। स्मृतियों का सघन
प्यार, तमाम फूल और पेड़ों की गंध तथा ध्वनियाँ, आँधी में ललाट लोक, लोकजीवन के शब्दों और मुहावरों से सजी, अभिव्यक्ति की
से ललाट टकराते पेड़। प्रखरता के आलोक में स्नात, एक नये लयात्मक रचाव और
अरुण कमल अपनी केवल धार ; सबूत ; नये इलाके में ; मितकथन में अमित अर्थ को भर देने की शक्ति अरुण कमल के
पुतली में संसार से ‘मैं वो शंख महाशंख’ तक-में रची गयी पास है। उनकी कविताएँ बोधगम्य होते हुए गहन अर्थवत्ता से
कविताओं के आगे पुनः जीवन के विविध संदर्भोंं का उत्खनन करते परिपूर्ण हैं। n
हुए समाज के निर्बलों के संघर्षशील और श्रमशील बाशिंदों के गीत संपर्क : ए-6, पंचशील नगर
गाते हैं, वियतनाम में एक खेल के मैदान में खेलते बच्चे जो जबलपुर (म.प्र.)-482001
अचानक बम फटने से मारे गये लोगों के लिए कविता लिखते हैं, मो. 9993416937
सुदर्शन की कहानी 'हार की जीत' को संदर्भित करते हुए गहरे
आशय वाली कविता लिखते हैं, उस अभागे कवि पर कविता

yegh जुलाई से सितंबर 2023 n 143


n अविराम : अष्टभुजा शुक्ल

जीवन के अर्थगर्भी कवि


सेवाराम त्रिपाठी

(1) “साथी! अपना गाँव रखाना/चौकस, इस दुर्दांत और संभावनाओं के व्यापक परिप्रेक्ष्य और क्षितिज
काल का कोई नहीं ठिकाना/पंचसितारों की चकमक उनके लेखन में लगातार सक्रिय हैं।
में घर को भूल न जाना/जब-तब ढोल-मजीरा लेकर याद नहीं पड़ता कि अष्टभुजा जी से मेरी पहली
चैता-फगुआ गाना/…मुँह में राम, बगल में छूरी, मुलाकात कब हुई थी। हाँ, इतना ज़रूर स्मरण है कि
पहने पीयर बाना/जाति-धर्म पर ख़ून-खराबा करते उन्नयन काव्य-पुस्तिका पद-कुपद उन्होंने मुझे 11
उखमज नाना/कुत्ते पूँछ हिलाते चलते, चिक्कन मई 1998 को मेरे घर में भेंट की थी। मैं इसकी
तलुआ चाटें/अष्टभुजा के शब्द ओल-से कानों को कविताओं को पढ़कर बेहद चकित हुआ था। अष्टभुजा
गर काटें।” (पद-कुपद, पृष्ठ-16) जी में मुझे कभी भी बनाव-चुनाव नहीं दिखा। उनमें गजब की
स्वाभाविकता और अपनापा भी है। बेचैनियों के इर्द-गिर्द उनके
(2) “मैदा की लोई जैसी देहों/कच्ची मूंगफली की दालों जैसे लेखन का मुकम्मल दारोमदार है। जाहिर है कि वे लोक-आराधक
दाँतों/तोतली बोलियों/और केले की बतिया जैसी नन्ही अँगुलियों कवि हैं; जिसकी परंपरा को हम भक्ति-आंदोलन से जोड़ सकते हैं।
को/कुछ न हो/ इसके लिए हम प्रार्थना करते हैं/इस बुरे वक्त में।” वे किसी भी सूरत में भक्त और अंध भक्त नहीं हैं; बल्कि तथाकथित
(रस की लाठी, पृष्ठ-36) भक्ति के प्रतिरोध में ही हमेशा खड़े दिखते हैं। मुझे उनमें वही
चिरंतन पुकार दिखाई पड़ती है; जो मध्यकालीन भक्ति-आंदोलन
(3) “किसी धर्मस्थल के विवाद में/पाँच हज़ार गोली से/चार में मिलती है; जिसमें मुक्ति की छटपटाहट की तीव्र आकांक्षा भी है
हज़ार गोले से/पाँच सौ चाकू से/और चार सौ जलाकर मार डाले और एक अजब ढंग की प्यास भी है। पदों से जुड़ा यह आदमी
जाते हैं/तीन सौ महिलाओं को नाली/और दो सौ बच्चों को बकरा विकृतियों, विडंबनाओं, अंतर्विरोधों और पाखंडों का भंडाफोड़
समझा जाता है/धर्म में सहिष्णुता का प्रतिशत ज्ञात कीजिए?” करता हुआ हलचल मचाता-सा दिखता है। उनकी कविताओं में
(गणित के कुछ प्रश्न- चैत के बादल, पृष्ठ-16-17) एक विशेष कि स्म की छटपटाहट आप देख और अनुभव कर
सकते हैं। उनकी रचनात्मक कर्मठता हमारे जीवन से और लोक
लेखक वही सच्चा और मूल्यवान होता है; जो अपने समय, से सहज ही संबद्ध है; जिनमें लोक बोलियों के बहुत संजीदा रूप
समाज, राजनीति के डिगे हुए आत्मविश्वास, हिल रही आस्थाओं और भंगिमाएँ आपको अनुभव होती दिखेंगी। अष्टभुजा के यहाँ
को सुरक्षित बनाने की कोशिश करता है; अपने लेखन या कविता कविता की स्वाभाविकता और सहजता दोनों है; जिसकी ओर जॉन
के द्वारा मानव-मुक्ति की तलाश करता है और अँधेरे इलाकों कीट्स ने इंगित किया है; यानी “अगर कविता उस तरह नैसर्गिक
को आलोकित करने की मुहिम चलाता है; विपरीत-से-विपरीत रूप में नहीं आती है तो बेहतर होता कि वह बिलकुल न आती।”
परिस्थितियों में हमें जीने का हौसला देता है और संभावनाओं से किसी लेखक का लिखा हुआ, उसकी असलियत और वैचारिकी
लबालब भर देता है। अष्टभुजा शुक्ल हमारे डिगे हुए आत्मविश्वास को हम कई-कई रूपों में भी देखते हैं। अपनी फेसबुक वॉल में
को परवान चढ़ाने वाले बेहद संभावनाशील कवि हैं। वे शायद ऐसा अष्टभुजा शुक्ल ने लिखा है– “साहित्य, कला, संस्कृति या विचार
इसलिए कर पाते हैं कि उन्हें लोक और जन आकांक्षाओं से यह को किसी भी राजनीति के प्रतिवाद, प्रतिरोध या विरोध में लगाया
ताक़त बराबर मिलती है। मनुष्यता पर अगाध आस्था, विश्वास जा सकता है; लेकिन किसी भी राजनीति की चाकरी या सेवा में

144 n जुलाई से सितंबर 2023 yegh


कदापि नहीं। बावज़ूद इसके कि पर्सनल इज़ पॉलिटिकल; क्योंकि पर भी/कोई पत्थर उन्हें बैठ पहँटकर चमका नहीं सकता/इतनी
उपर्युक्त सभी प्रत्यय सामाजिक हैं, व्यक्तिगत नहीं।” लेखक को विकट समस्या है/कि उसे छापने के लिए कोई अख़बार नहीं/इतनी
अपने लिए सीमांकन भी करना पड़ता है। देखा जा रहा है कि इधर भारी मशीन है/कि हर गाड़ी को ढकेलकर बाहर कर देने वाले भी/
विचारों की अति भी बढ़ी है और अंधभक्ति का विराट कैनवास भी। उसे ढकेलकर गाँव से बाहर नहीं खदेड़ सकते।” (इसी हवा में
हमारा विरोध या समर्थन खूँटे में बँधकर नहीं होना चाहिए। जो अपनी भी दो-चार साँस है, पृष्ठ-161)
वर्तमान परिदृश्य और समय में घट रहा है, उसे खुलेआम उजागर यह उनका आत्मविश्वास भी है और मुकम्मल घोषणापत्र भी।
करना चाहिए। विनाशकारी सत्ता व्यवस्था का प्रतिरोध बहुत हल्के- उनकी रचनात्मकता का, उनकी कविता का ठाठ ही अलग है;
फुल्के स्तर से संभव भी नहीं है। बल्कि उनकी कविता एक विशेष अर्थ में ऊबड़-खाबड़, कँटीली
अष्टभुजा की कविता संस्कृत काव्य-परंपरा और हमारी झाड़ियों और दलदली इलाकों की दुनिया भी है और इसी तरह की
अस्मिता-आकांक्षा और आधुनिकता के अनेक आयामों को अड़बीहड़ कविता भी है। वह हर बाधा को पार कर अपनी
आत्मसात करती है, उसके अक्षांश और देशांतर की दुनिया विराट जिजीविषा से सारे अवरोध हटा देती है। उसकी गैल ही अलग है;
है। इसके बावज़ूद उसमें आधुनिकता, नई संचार-प्रणाली का लेकिन वह लोक संवेदना के रस-रसायन में भरपूर डूबी हुई कविता
करिश्मा और नयापन मौज़ूद है। उसमें टटकापन और नई तरह का है। वह लोक-संवेदना की चेतना से संपृक्त कविता है।
आस्वाद भी है; जो हमें निरंतर बांधे रखता है। उनका एक पद है- कोई कविता मजूर, किसान, खेत-खदान और स्त्री संघर्षों की
“हम भी फल हैं अपने जल के/परम कंटीले चरम रंगीले गीले गीले बात करने भर से बड़ी कविता नहीं हो जाती। यह उसी तरह से है
गलके/भूमिविहीन प्रजातिहीन हम बंधु तथापि कमल के/खर जैसे आज़ादी, जनतंत्र और मनुष्यता के जाप से कोई सरकार या
पतवार सेवार सखा हैं हम जलोदभिद जल के/खाद न खाए, कोई देश महान नहीं होता। उसे इन्हें जीवन में क्रियात्मक ढंग से
खनिज न चूसे, लीले लवण न बल के/मिला न पोषाहार पेट भर साबित करना होता है और इन लक्षणों को पाना होता है। इसी में
फिर भी हुए न हलके/आदिगोत्र-उत्पन्नोऽहम् पर इतने नए कि कल हम यह भी देखते हैं- कहने से नहीं; बल्कि उसका व्यवहार कैसा
के।” (पद-कुपद, पृष्ठ-77) कवि का यह विश्वास लगातार है। इन सबके अनुभव-संसार के संयोजन से जब उसमें रक्त की
अपडेट भी होता है और लंबाता-चौड़ाता भी है। गाँव-समाज से धारा बहने लगती है तो वह कविता बड़ी कविता होगी। अष्टभुजा
उनकी रचनात्मक यात्रा शुरू हुई थी। उन्होंने किसी भी हालत में की कविता पढ़ने वालों की यादों को झकझोरती है; उनकी
अपना पाला नहीं बदला। नहीं बदला तो नहीं बदला। वे न तो मनःस्थिति को विचलित करती है। यही नहीं, हमारे जीवन के बंद
किसी के पिट्ठू हैं और न ही गुलाम। अपने लेखन और जीवन के इलाकों को खोलती भी है; जिसमें नफ़रत का लावा फूट रहा है,
लिए जो पाला उन्होंने चुना, उसका कड़ाई से दामन थामे रहे; यह हमारे जीवन के ताप, छवियाँ, भंगिमाओं और रिश्तों की गर्माहट है।
महती विशेषता है उनकी। उनके लेखन में और काव्य-वैभव में एक कविता है शासनादेश- “छप्पर जो छाओ/तो आग मत जलाओ/
उसे दर्ज़ किया जाना चाहिए। वे ग्राम्य जीवन पर, वहाँ के लोक पर आग जो जलाओ/तो खिचड़ी मत पकाओ/ खिचड़ी पकाओ/ तो
पूरी तरह वे सन्नद्ध रहे। ढेर सारी कविताएँ यहीं से सामने आई हैं। हमारा ही नमक खाओ/ हमारा नमक खाओ/ हमारा नमक खाओ/
यूँ तो लोक पर छिटपुट कविता लिखने वाले अनेक कवि हैं; लेकिन तो बंधक बन जाओ/ बंधन बन जाओ/ तो दोनों हाथ उठाओ/-
हिंदी कविता में दो ही ऐसे विरल कवि हैं; जिनके खूँटे यहीं गड़े यही शासनादेश है/” (दुःस्वप्न भी आते हैं, पृष्ठ-41)
हैं- अष्टभुजा शुक्ल और एकांत श्रीवास्तव। इनके यहाँ गाँव की, कविताएँ जीवन के विभिन्न क्षेत्रों से आती हैं और रह-रहक़र
कस्बों की, जीवन की जद्दोजहद, आपाधापियों और सच्चाइयों की सीझती हैं; रह-रहक़र बतियाती हैं। और ज़िंदगी का औचक
अनंत छवियाँ हैं। ये दोनों गाँव की ही स्थितियों को ज्यादातर निरीक्षण करती हैं। एकांत श्रीवास्तव की कविता का एक अंश
सहेजते रहे अपनी कविताओं में। लोक को ही ज्यादातर टेरते रहे। पढ़ें– “वे रास्ते महान हैं जो पत्थरों से भरे हैं/मगर जो हमें
इन्होंने बता दिया कि हम गाँव किसी भी सूरत में छोड़ नहीं सकते। सूरजमुखी के खेतों तक ले जाते हैं/वह साँस महान है/जिसमें
वे अपनी कविताओं में गाँव के हाहाकार और विस्तार को जीवंत जनपद की महक़ है/और वह हृदय खरबों गुना महान/जिसमें
और मूर्त करते हैं; लेकिन गाँव-गँवई की पुतलियों से समूचा संसार जनता के दुःख हैं।” ऐसे कवियों की यही दुनिया होती है। अष्टभुजा
देखते हैं और उनकी वास्तविकताएँ भी। हाथ कंगन को आरसी की कविता हमें सतत जाग्रत कराने वाली साधना-संपन्न कविता
क्या? कंबाइन कविता का यह अंश पढ़ें- “इस साल हँसियों को है। वे छंद का बहुत सार्थक, सृजनात्मक, धूसर और बेहद
जंग खा रही है/इतना टेढ़ा और मुरचाया दुःख है/कि आँसू गिरने प्रभावशाली इस्तेमाल और व्यवहार करते हैं कि पढ़ने-सुनने वाला

yegh जुलाई से सितंबर 2023 n 145


गनगना जाता है- हिंदी-कविता के चेहरे से अलग गँवईपन से मुक़ाबला नहीं कर सकता।
ओतप्रोत; लेकिन अर्राटोर, गंभीर और सक्षम। वे निरंतर नए-नए मुद्दे बहुत हैं; प्रश्न है कि किसी कवि की कितनी पकड़ है समय
शब्दों का इस्तेमाल करते हैं। उनके कविता-संग्रह- 'चैत के बादल' और समाज के कठोर यथार्थ पर। अष्टभुजा की कविताओं के
की एक कविता सूखे में बरसात पढ़ें– “आकाश देखते-देखते/ साथ-साथ उनके लोक पर या पानी पर लिखे निबंधों को किसी भी
आँख कट गई/बीसों दिन बाद/आज लहरा गिरा/कुश होते धान/ तरह बिसराया नहीं जा सकता। उनकी नज़र जीवन के अनेक
फिर भी जी गए/मुँह में जूठ लगने का/बँधा आगम/दोनों परानी में/ आयामों की ओर भी ख़ूबसूरती के साथ जाती है और युग की
बोलचाल हो गई/पंचमी आने लगी/सड़फड़ाती नई साड़ी हवा/ चुनौतियों से हमारा सक्षम साक्षात्कार भी कराती है– “अब ब्रज
युवा, छोटी बहन-सी/सिर झुकाए/पास से जाने लगी/वनस्पतियों और मिथिला हाशिए पर हैं; जहाँ से जीवन-रस मिला। जीव-रस से
को मिला जीवन/ मिला पर्वों को नया उत्साह/भर्त्सना से बच गई ज्यादा ज़रूरी हो चुका है सत्ता-सुख। इसीलिए अब मथुरा और
है प्रकृति/जन्म लेती है चतुर्दिक नई कृति/रम गई बरसात/थम गई अयोध्या एजेंडे में है। ब्रज और मिथिला से संस्कृति विकसित हुई
बरसात/आज तो जम गई बरसात।” (चैत के बादल, पृष्ठ : 25- थी; मथुरा और अयोध्या से सांस्कृतिक राष्ट्रवाद फल-फूल रहा है।
26) शब्द-निर्वाह की अभूतपूर्व क्षमता से युक्त दूसरी कविता है सच्चाई यह है कि मिथिला एवं ब्रज का विस्मरण स्त्री-अस्मिता की
ननदें- “ननदें/बनाती हैं पराठे/खाती है रोटियाँ/लौकी की तरह/ उपेक्षा का कुचक्र है; जबकि मथुरा और अयोध्या का उभार पुरुष-
प्रतिदिन दो अंगुल बढ़तीं/ननदों का/आगा नहीं रोका जा सकता वर्चस्व सत्ता की हिंसक राजनीति।” (पानी पर पटकथा, पृष्ठ-
अब/तर्जनी दिखाकर/ननदें/कब तक बेहन बनी रहेंगी?/जो बीज 463) देश मणिपुर की शर्मनाक हरकत पर आँखें झुकाए बैठा है
से पौधे बनें/किसी खेत में/और उखाड़कर रोपी जाएँ/किसी खेत और इसके बावज़ूद ललकारों के निनाद अनवरत जारी हैं। उसकी
में।” (वही, पृष्ठ : 40-41) आग हरियाणा में भी धधक रही है और यदि यही हालात रहे तो पूरा
निबंध-लेखन हो या कविता, अष्टभुजा के लिए वह एक कठिन देश झुलस जाएगा; फिर भी हमारी अस्मिता आकांक्षा और
चुनौती की तरह आती है। वे काल के कपाल पर खड़े होकर जिजीविषा हर बाधा को पार करेगी। इस दौर में सहानुभूतियाँ भी
जीवन-परिवेश, वास्तविकताओं और सामाजिक-सांस्कृतिक घूँघट में हैं– “प्रकट होने को/ सदा बेचैन रहती हैं/ सहानुभूतियाँ/
चुनौतियों का सामना करते हैं। जाहिर है कि हर कवि को अपने उन्हें प्रकट होने के लिए चाहिए/ कोई बीमार या विपन्न या मरा
लिए नुस्खे तलाशने होते हैं। अपने मूल्यों को पाने बचाने के लिए हुआ या दु:खी/ कोई आदमी, कोई समाज या कोई देश/ और
संघर्ष करना पड़ता है। जो कवि भारतीय कविता और विश्व कविता कभी-कभी तो समूची दुनिया/ प्रकट होने के लिए सदैव बेचैन/
के पास नहीं जाएगा, ज़िंदगी के हाहाकार को नहीं समझेगा, वह सहानुभूतियाँ/ हर हाल में ढाल लेना चाहती हैं/ किसी न किसी रूप
कविता में हो रहे निरंतर प्रयोगों को भी सही ढंग से नहीं जान में/ आदमी, समाज या देश/ और कभी-कभी दुनिया को/ अपने
पाएगा। आज के दौर की कविता जितनी सहज और सरल है उतनी अनुरूप।” (रस की लाठी, पृष्ठ-27)
ही अधिक जटिल भी है। कविता का कोई एक फॉर्म नहीं होता और अष्टभुजा की कविता आकाश से उतरकर नहीं आई; बल्कि इसी
न हो सकता। कविता में दृश्य और अदृश्य यथार्थ दोनों होते हैं और धरती से ज़िंदगी से और यथार्थ की तमाम स्थितियों और तल्खियों
वे दोनों तरह से पेश होते हैं। कविता का आत्मपक्ष भी होता है और से हर तरह के कपाट खोलते हुए आई है; जिसमें कोई बनाव-
बाह्यपक्ष भी। कविता प्रेम में भी होती है और नफ़रत, हिंसा, क्रूरता, चुनाव और रंगरोगन नहीं है। कोई अलहदा शृंगार भी नहीं। उनकी
कट्टरता और अनेक जानी-अनजानी लपटों से घिरती भी है। ख़राब कविता ठेठ किसान की तरह संभव होती है। अच्छी बात यह है कि
चीज़़ों से मुठभेड़ करती है और सावधान भी। कविता स्मृति, यथार्थ न उसमें एकरसता है, न इकहरापन है और न ही कोई बनावटीपन।
और सपनों के बीच भी होती है। कविता की दुनिया घर से बाहर लोकजीवन में बिंधे हुए शब्द, लहजा, भंगिमा, कहन, उसकी
जाने की दुनिया है और बाहर से घर वापस लौटकर खिलखिलाने असलियत और परिस्थितियाँ वहाँ सहज ही मिल जाती हैं। अष्टभुजा
की भी है। कविता एक सेतु बनाती है और उन सभी स्थानों में जाती की कविता कोई सुचिक्कन रास्ते से हासिल नहीं होती, न हो
है; जिन्हें जिन्हें दुरदुराया और भुलाया जा रहा है और यही नहीं सकती और न पाई ही जा सकती; बल्कि वह ऊबड़-खाबड़ और
इरादतन नष्ट किया जा रहा है। हर कवि का एक जैसा मुहावरा एक विशेष अर्थ में घामड़ कविता भी है; ठीक वैसी ही जैसा हमारा
नहीं हो सकता। इस मुहावरे को पाने के लिए लोग नक़ल करते हैं लोक होता है। उनकी कविता सड़क की कविता नहीं है; बल्कि
और अपने आप को मौलिक साबित करने की हर हाल कोशिश गली-पगडंडी, काँटा-खुड्डी, पहाड़ी, कीचड़ी- दलदली इलाकों से,
करते हैं। नक़ल तो नक़ल है, वह किसी भी हालत में असल का गड्ढे-भरके, मोहल्ले-मोहल्ले घूमती हुई कविता है। वहाँ फटी हुई

146 n जुलाई से सितंबर 2023 yegh


बिवाइयाँ भी हैं और कँकरीली-पथरीली राह भी है। वह किसानों के लिए किसी दूसरे तरह के काव्यशास्त्र की माँग भी नहीं कर रहा हूँ।
खेत से आई कविता है। वह मजूरों की बस्ती में चक्कर लगाती हुई कविता का मिज़ाज़ निरंतर बदल रहा है। देश, दुनिया, समाज अब
एकदम बेलाग कविता है। उनकी संवेदनशीलता की एक झलक धीरे-धीरे नहीं परिवर्तित हो रहे; बल्कि भूमंडलीकरण और संचार-
उनकी कविता में देखें– “कराह सुनकर/ जो न टूटे/नींद नहीं/ माध्यमों के तमाम विकसित हो रहे रूपों में उसकी फिज़ा, तकनीक,
मृत्यु है/चाहे जितना थका हो आदमी/और चाहे जब सोया हो।” विविधता और बाज़ार के मायाजाल ने उसकी असलियत और
(मृत्यु) उनकी साफ़ साफ़ कविता भी पढ़ें– “जो रोशनी में खड़े परिस्थितियाँ ही नहीं, उसकी आक्रामकता को नए सिरे से
होते हैं/ वे अँधेरे में खड़े लोगों को तो/देख भी नहीं सकते लेकिन/ व्याख्यायित करना शुरू कर दिया है। अब कविता ने भाषा और
अँधेरे में खड़े लोग/रोशनी में खड़े लोगों को देखते रहते हैं।” मुहावरा तक बदल दिया है। समूची दुनिया में दक्षिण पंथ की
अष्टभुजा निरंतर लिख रहे हैं, छप रहे हैं और अपनी एक क्लासिक भयानक खलबली और पतनोन्मुख इरादों ने हमारे जीवन-परिवेश,
पहचान भी बना रहे हैं। वे जीवन के साथ हैं और संघर्षों की दुनिया वास्तविकताओं और आयामों को समय के भयावह सवालों से जोड़
में हैं। और सच तो यह है कि न किसी तरह रहसे-बहसे हैं; यानी दिया है। यही नहीं, तानाशाही मनोविज्ञान, भर्रेशाही, फासिस्टी
वे अपनी औकात में हैं। वे लोक की आवाज़़ों को, लोक-बोलियों वर्चस्व की कगार तक पहुँच गए हैं। आज़ादी और जनतंत्र की जगह
के जीवन में अनुभवों के संसार को स्पष्टता, सघन संवेदना, अनवरत सिकुड़ती-सिमटती जा रही है और निरंतर नए-नए उत्पात
आत्मविश्वास की अनंत छवियों को दुनिया के पर्यावरण के सामने कई प्रकार की जटिलताओं में ढल रहे हैं। उनके यहाँ यथार्थ डंके
रखकर थाहना चाहते हैं। वे तमाम तरह के विमर्शों को फलांगना की चोट पर आता है। यह अंश पढ़ें और इसे कवि की बैचैनी में
चाहते हैं और जिस तेज़ी से दुनिया विकृत हो रही है, कुछ उसी परखें- “अपुष्ट सूत्रों के अनुसार/एक विधेयक पेश होने वाला है
तरह के रूपाकारों को बेलौस ढंग से पेश कर रहे हैं। कोई क्या सदन में/कि माँएँ अब केवल लड़के पैदा करें/या अधिक-से-
कहेगा, इसकी चिंताओं से वे पूरी तरह मुक्त भी हैं और यही उनकी अधिक बाँझ रहें/हिंदुस्तान मर्यादाओं का देश है/सिवान तक पहुँच
कविता की असली ताक़त भी है और दुनिया भी। जाहिर है कि चुकी है सप्तक्रांति।” (इसी हवा में अपनी भी दो-चार साँस है,
अष्टभुजा शुक्ल बीसवीं शताब्दी के अंतिम दशक में प्रकाश में आते पृष्ठ-126) ज़ाहिर है कि कवि को मुहावरों में नहीं, उसकी
हैं और धीरे-धीरे अपनी सक्षम पहचान बनाते हैं। लोक उनकी असलियत में परखना चाहिए। लोग तो न जाने क्या-क्या उड़ाते हैं
रचनात्मक कर्मठता और ताक़त के साथ घुल-मिलकर ही आता और न जाने कहाँ-कहाँ उड़ते हैं। उनकी कथनी और करनी में एक
है। पद-कुपद से शुरू हुई उनकी काव्य-यात्रा चैत के बादल, विशेष किस्म की बहुत बड़ी दरार होती है। सौभाग्य से अष्टभुजा
दुःस्वप्न भी आते हैं, इसी हवा में अपनी भी दो-चार साँस है और के यहाँ ऐसी कोई दरार नहीं मिलती है। आजकल प्रशंसा से अघाने
रस की लाठी से अनथक संभव होती है। कविता उनके लेखन के और अघवाने का प्रचलन है। अष्टभुजा को उस खेमे के बाहर ले
स्वभाव में पकती भी है। लोक-आराधना के स्वर उनके निबंध- जाकर सोचता हूँ। हाथा मारना कविता का यह अंश पढ़ें–
संग्रह, मिठउआ और पानी के निहितार्थ तक पहुँचते हैं। वंदे मातरम् “भविष्यवाणियों का/बाज़ार गर्म है/क्या पता कि किसके चमक
कविता का यह फलक कुछ अलग तरह से महसूस होगा- जाएँ कब सितारे/कौन छू जाए पारस से/कौन पड़ जाए रामानंद की
“सूचकांक मत देखो टोपी नीचे गिरी दरोगा/मूत में रोहू खोज रहे खड़ाऊँ के नीचे/किसके दाहिने दिख जाए नीलकंठ/और किसकी
पोंगा के पोंगा/अबकी ऐसे किस्मत-लेखक आए हैं कि/राष्ट्र कनक रुकती छींक के सामने/कौन बन जाए सूरज?” (इसी हवा में
भूधराकार मिनटों में होगा।” (रस की लाठी, पृष्ठ-102) अपनी भी दो-चार साँस है, पृष्ठ-51)
अष्टभुजा को मात्र स्थानीयता में नहीं पाया जा सकता। उन्हें अष्टभुजा परंपरा, स्मृति, शक्ति, संवेदना और पुनराविष्कार के
ढूँढ़ना है तो बदल रही दुनिया के तमाम आयामों और अक्सों में भी साथ विकास की नई भाव-भंगिमाओं, प्रपत्तियों, अर्थछवियों को
खोजिए। वे जितना गाँवों के परिवर्तनकारी रूपों को बाँधते हैं, हृदयंगम करा देने वाले कवि हैं। हम एक ऐसे तटबंध में हैं; जहाँ
उतना ही शहरों-कस्बों में देश-दुनिया में मंडराते कोहरामों को न सहिष्णुता है और न कोई सार्थक हस्तक्षेप है और न कोई मौसम।
साधने का भी उद्यम करते हैं। हालाँकि गाँव, कस्बे तो उनकी हिंसा, क्रूरता और नफ़रत का तांडव जारी है। समूची संवेदनाएँ
आत्मा के भूगोल में रमें हैं। सवाल यह ज़रूर उठता है कि वे इसे एक-एक कर बिखरती जा रही हैं। ज़िंदगी भाग रही है और झकझोर
कितना पकड़ पाए हैं और कितना उनसे छूट गया है। वे जो पकड़ रही है। सत्ताएँ विध्वंस में लगी हैं पागलपन के सीमांतों तक;
पाए हैं, वह भी कम नहीं है। अष्टभुजा को आलोचना के बँधे- लेकिन ज़िंदगी विध्वंस नहीं है। वह निरंतर रचना, सजना-सँवरना,
बँधाए फार्मूलों में भी नहीं खोजना चाहिए। मैं उनको परखने के सँवारना भी है और गलत का प्रतिरोध-प्रतिकार करना भी है।

yegh जुलाई से सितंबर 2023 n 147


पथभ्रष्ट इरादों पर सवारी गाँठना भी है। तानाशाह ज़िंदगी में तोड़- गुरगुराने लगा। इसी को विचलन कहते हैं। यही गँवारों के लिए
फोड़ करता है और ज़रा-ज़रा से सुख के लिए तरसाता है। कवि विछलन है और फिर डरे हुए आदमी का उच्चारण भ्रष्ट हो जाता
निरंतर नई निर्मितियों की ओर ले जाता है। अष्टभुजा शुक्ल की है, रक्तचाप बढ़ जाता है, गला सूख जाता है, पसीने से नहा जाता
'रहूँगा' शीर्षक कविता का यह अंश पढ़ें– “जिस खेत में भी रहूँगा/ है और कभी-कभी बोलती बंद हो जाती है। ऐसी दशा या तो ज्ञान
रहूँगा तराई के धान की तरह/असम की चाय के बागान की तरह/ के शिखर पर होती होगी या फिर अज्ञान के ही शृंग पर।” (कोबरा
महोबा के घुलने वाले पान की तरह/जिस ग्रह पर भी रहूँगा इंसान सर, पानी पर पटकथा, पृष्ठ-101)
की तरह/समस्याओं के बीच समाधान की तरह/…जिस दौड़ में भी सोचिए इस दौर में कितने कवि सक्रिय ढंग से लिख रहे हैं।
रहूँगा/रहूँगा घुड़सवार की तरह/वक्तव्य में रहूँगा उद्गार की तरह/ गाहे-बगाहे वालों की संख्या भी कई हज़ार है। अष्टभुजा ढोल की
लोगों के बीच समाचार की तरह/औरर देश में रहूँगा/संसार की पोल वाले कवि नहीं हैं। कवि का मुहावरा एकदम ठेठ देशज है।
तरह।” (दुःस्वप्न भी आते हैं, पृष्ठ : 21-22) कभी-कभी तो वे ऐसे शब्दों का व्यवहार करते हैं कि जो अवधी या
प्रश्न है कि कोई अष्टभुजा को कैसे देखे और उसके किन रूपों भोजपुरी के जानकार हैं वे भी चकित हो जाया करते हैं। मैं उनके
और संदर्भोंं की पड़ताल करे। उनकी काव्य अनगढ़ता को भी शब्दों की कोई सूची छाँट-फटक नहीं रहा हूँ और न कोई तरतीब
पहचानना चाहिए। वे उस साधु की तरह हैं; जो कंबल छोड़ना तलाश रहा हूँ… हाथा मारना, घुसडें, लसियाकर, उखारबेंट, छुच्छी,
चाहता है; लेकिन कंबल उसे नहीं छोड़ता। न वे गाँव-कस्बों को घटतौली, कोयलांसी और न जाने कितने शब्द वे अपने अंतःकरण
छोड़ सकते और न गाँव-कस्बे उन्हें छोड़ते। उनका मन भी रमा है के आयतन में लाते हैं और कविता की धौंकनी से प्रज्ज्वलित करके
और दिल भी। जाहिर है कि अब गाँव-कस्बे प्रेमचंद के समय के व्यवहार करने में जुटे रहते हैं। वे समूची चीज़़ें खंगालते हैं और
नहीं हैं। गाँव-कस्बे एकजाई नहीं बदलते; बल्कि क्रमशः वहाँ कविता के खनिज-तत्त्वों में शामिल कर मुख्यधारा में इस्तेमाल कर
परिर्वतन घटित होते रहते हैं। लोक का बदलता स्वरूप, लेते हैं। यह एक भयावह दौर राजनीतिक परिवेश भर के लिए नहीं
लोकोन्मुखता भी एक विशेष किस्म की रूमानियत के शिकार हैं। है, लेखकों की मठाधीशी के ख़िलाफ़ भी बोलते हैं और आत्मालोचन
अष्टभुजा का रहन-सहन, उनका आस्वाद, पहनावा, धज और करते हैं– “कविजन खोज रहे अमराई/जनता मरे, मिटे या डूबे
शैली कायम है; जो बाहर-बाहर दिखता है; सामान्य रूप से नहीं इनने ख्याति कमाई/ शब्दों का माठा मथ– मथकर/कविता को
दिखता। मुझे लगता है कि कवि में अतिरेक नहीं है। वह इसलिए खट्टाते/और प्रसंशा के मक्खन कवि चाट-चाट रह जाते।” (पद-
कि उसमें आत्मालोचन का भंडार है। देखें–“अपने को ही ठोंका- कुपद,पृष्ठ-14)
पीटा/बिगड़े मन का झोंटा पकड़े बारंबार घसीटा/कान पकड़ तिष्ठा- अष्टभुजा में कविता के प्रति अटूट विश्वास है और न जाने
उत्तिष्ठा, धिका-धिकाकर ईंटा/व्रत के तप्त लौह से दागा, दे तेजाब कितनी जिम्मेदारियाँ और संकल्पनाएँ हैं। इस संदर्भ में उनकी एक
का छींटा/आँखों से किरणें तब फूटीं, अल्फा, गामा बीटा/गुड़ जैसे ताजा कविता पढ़ें और इसके टटकेपन को महसूसें– “ अपना हृदय
नोचा चंगुल से, चढ़ा ग्लानि का चींटा।”(पद-कुपद, पृष्ठ-48) चीरकर/लिखता हूँ कविता/निकालता हूँ एक आदमी/लेकिन मैं/
भूमंडलीकरण की आँधी में हम बाज़ार नहीं जाते तो बाज़ार ही कोई बाजीगर नहीं हूँ/...हाथों के सहारे/मिट्टी के लोंदे से भी/ बना
हमारे पास आ धमकता है। बाज़ार ही है; जो लोक को लीलने पर सकता हूँ एक आदमी/ जो मिट्टी का नहीं होगा/ लेकिन मैं/कोई
आमादा है। लोक ही आठ-आठ आँसू नहीं बहा रहा; मूल्य, मूर्तिकार नहीं हूँ/कवि नहीं हूँ/ लेकिन कुछ शब्दों से/बनाऊँगा एक
नैतिकता और चरित्र पड़े-पड़े गंधा रहे हैं। यहाँ जितना ज्ञान है आदमी/जो डाल दूंगा तुम्हारे दिल में/जो घूमता रहेगा अविराम/
उससे ज्यादा अज्ञान का कुशल प्रबंधन है। देश मूर्ख की टिपुर्रबाजी तुम्हारे रहने तक।” (लेकिन कुछ शब्दों से) n
में औंधा हो गया है। इधर ज्ञान के नाम पर अज्ञान की सौदेबाजी संपर्क : रजनीगंधा-06, शिल्पी उपवन,
को अष्टभुजा ने इंगित किया है– “सच्चा ज्ञानी वस्तुतः वही है; जो अनंतपुर, रीवा (म.प्र.) 486002
अति समझदारों को नासमझ और नासमझों को समझदार बनाता मो. 7987921206
और बताता है। जो समझदारों को और समझदार तथा नासमझों को
और नासमझ बनाने की कूट रचना करते हैं, वे ज्ञानी नहीं, सौदागर
होते हैं…सरों की सरसराहट से शुरू होकर फिर बंदा गुरुओं से

148 n जुलाई से सितंबर 2023 yegh


n अविराम : मदन कश्यप

नीम रोशनी में अपना ही देश


देवशंकर नवीन

मदन कश्यप एक बड़े कवि हैं। उल्लेखनीय है कि‍ से उन्हें परहेज है। उनकी जीवन-दृष्टि उदार है।
एक बड़ा कवि, अपनी कवि‍ताओं और संकलनों अपनी समकालीनता को भी वे आदि‍म सभ्यता से और
की बड़ी गि‍नती से नहीं; रचनात्मक दृष्टि‍कोण क्षेत्रीयता को वैश्वि‍कता से अविच्छि‍न्न नहीं मानते।
से होता है। क्योंकि‍ दृष्टि‍कोण से ही रचनाओं में उल्लेख सुसंगत होगा कि‍क्रान्ति‍, प्रेम का ही अवयव
वि‍षय-वि‍स्तार और कथ्य-संघनन होता है; शि‍ल्प है, प्रेम के अवरोधों को दूर हटाने के लि‍ए क्रान्ति‍की
और सम्प्रेषण प्रभावशाली होता है; मूल्य-बोध दृढ़ जाती है; बेशक वह भौति‍क प्रेम हो या नैसर्गि‍क,
होता है; चेतना उन्नत होती है; जि‍सके बि‍ना कवि‍ता, मनुष्य-प्रेम हो या राष्ट्र-प्रेम। 'स्त्री-पुरुष' ('पनसोखा
कवि‍ता नहीं, वक्तव्य हो जाती है। केदारनाथ सिंह और कुँवर है इन्द्रधनुष',पृ. 9, रचनाकाल सन 2015) शीर्षक कवि‍ता में
नारायण की बाद वाली पीढ़ी की वृहत्रयी– राजेश जोशी, वि‍नोद मदन कश्यप ने स्वीकार भी कि‍या है कि‍'हमें प्यार की उतनी ही
कुमार शुक्ल और मदन कश्यप ही हैं। मंगलेश डबराल के रहते मैं ज़रूरत थी/जितनी क्रान्ति की/...क्रान्ति की तरह प्यार पर भी
वृहत्‍चतुष्ट्य की गणना करता था। अपने समय के ज्वलन्त प्रश्नों हमारा बस नहीं है।' उनकी कवि‍ताओं में दर्ज़ क्रान्ति‍के संकेतों की
का सामना करना हर वि‍शि‍ष्ट कवि‍का धर्म और दायि‍त्व होता है। सि‍द्धि‍ भी प्रेम के परि‍पाक से ही होती है। मनुष्य, समाज, मूल्य,
इति‍हास, समाज और संस्कृति की सूक्ष्मता जाने बि‍ना कि‍सी की नीति‍, वि‍वेक, राष्ट्र और वि‍श्व के जिस कि‍सी प्रसंग में जहाँ कहीं
राजनीति‍क चेतना साफ नहीं होती, वह सामुदायि‍क परि‍वेश की असंग‍त गति‍वि‍धि‍याँ उन्हें दि‍खीं, अपनी कवि‍ताओं में उन्होंने
सूक्ष्मता जान नहीं पाता। धज्जि‍याँ उड़ाते हुए व्यंग्य-प्रहार कि‍या है, और हर जगह उनका
मदन कश्यप के अब तक कुल छः कविता-संग्रह– 'लेकिन प्रेम ही प्रकट हुआ।
उदास है पृथ्वी' (सन 1992 एवं 2019), 'नीम रोशनी में' (सन उन्हें अपने आत्म या अपनी भामि‍नी या अपनी सन्तानों से ही
2000), 'कुरुज' (सन 2006), 'दूर तक चुप्पी' (सन 2014), नहीं, पूरी दुनि‍या से प्रेम है। उन्हें केवल अपने घर नहीं, दुनि‍या के
'अपना ही देश' (सन 2016) और 'पनसोखा है इन्द्रधनुष' (सन हर जीव-जन्तु के लि‍ए एक सुरक्षि‍त घर, व्यवस्थि‍त परवरि‍श और
2019); और आलेखों/टिप्पणि‍यों के तीन संकलन -'मतभेद' सकारात्मक सोच की चि‍न्ता रहती है। उन्हें केवल अपनी ही माँ
(सन 2002), 'लहूलुहान लोकतन्त्र' (सन 2006), 'राष्ट्रवाद नहीं, दुनि‍या के हर जीव-जन्तुओं के मातृत्व की रक्षा की चि‍न्ता
का संकट' (सन 2014), 'कोरोना डायरी' (सन 2023) और रहती है। उनकी कवि‍ताओं के अवगाहन से उनकी यही धारणा
'बीजू आदमी' (सन 2023) प्रकाशित हैं। इनके अलावा 'कवि ने स्पष्ट होती है कि‍ मनुष्य प्रेम भर करना सीख ले, तो बाकी सब
कहा' काव्य-शृंखला में उनकी चुनी हुई कविताओं का भी एक कुछ उन्हें प्रेम सि‍खा देगा। प्रेम मि‍ल जाए, तो मनुष्य को क्रान्ति‍का
संग्रह प्रकाशित है। इन छहों संग्रहों में कुल 298 कवि‍ताएँ संकलि‍त प्रयोजन नहीं होगा; और इससे इतर प्रसंग तो फि‍र कोश में आएँगे
हैं; जि‍नमें से आठवें दशक में 17, नौवें दशक में 58, बीसवीं ही नहीं। स्पष्टत:‍ उनका यह 'प्रेम' केवल शरीरी नहीं है। यहाँ
शताब्दी के अन्ति‍म दशक में 60, इक्कीसवीं शताब्दी के पहले उनके छठे कवि‍ता संग्रह 'पनसोखा है इन्द्रधनुष' में संकलि‍त दूसरी
दशक में 80 और दूसरे दशक में 67 कवि‍ताएँ है। कुल सोलह कवि‍ता 'एक अधूरी प्रेम कवि‍ता' का पाठ-विश्लेषण प्रासंगि‍क
कवि‍ताओं का रचनाकाल अज्ञात है। होगा। इस कवि‍ता का लेखन-काल संग्रह में उल्लि‍खि‍त नहीं है, पर
मदन कश्यप प्रेम के कवि‍हैं; घृणा, युद्ध, अहंकार और वर्चस्व लि‍खे जाने के तत्काल बाद यह श्रेष्ठ कवि‍ता अक्टूबर 2015 में

yegh जुलाई से सितंबर 2023 n 149


प्रकाशि‍त 'तद्भव' पत्रि‍का के बत्तीसवें अंक में छपी थी। भारतीय चलो/महानगर बनते शहर की काली सड़क पर/इस ढलती मगर
परि‍वेश से पूरी तरह अवगत दुनि‍या का हर संवेदनशील प्राणी इस जलती तिपहरी में चलना कठिन है/...बस थोड़ा दूर-दूर ही सही/
दौर में हो रहे घृणा, द्रोह, आघात, छद्म, वंचना के अमानवीय थोड़ी दूर तक चलो/इस शहर में शामें सुनहरी नहीं होतीं/...कोई
उत्सव से परि‍चि‍त होगा। झील नहीं/जो हमारे स्नेह को दे सके शीतल स्पर्श/बस तपती हुई
इस अधूरी प्रेम कवि‍ता में कवि‍अपने सारे पुरुष आचार त्यागकर सड़क का निर्मम सूनापन/यह काफ़ी है कुछ दूर तक साथ चलने
अपने प्रेमाधार के समक्ष उपस्थि‍त है। मदन अपने सारे उद्यमों का के लिए!'
लेखा-जोखा और अनजाने में की गई सारी भूलों के लि‍ए पर सन 2016 आते-आते जनपदीय वातावरण में वि‍राट
स्वीकारोक्ति‍ व्यक्त करते हैं। इस स्वीकारोक्ति‍ में उनका 'मैं' परि‍वर्तन आ गया। धर्मान्धता, सांप्रदायिकता, घृणा, द्रोह, प्रति‍शोध
पूर्वजों की सम्पूर्ण शृंखला का प्रतीक है, क्योंकि इस कवि‍ता की और अनास्था की चि‍नगारि‍यों को हवा दे-देकर ज्वाला बनाने का
अधूरी प्रेम-कथा उनकी युवावस्था में नहीं, हड़प्पा काल की सिन्धु कार्य पूरा हो चुका था। सामुदायि‍क जीवन में धर्म और शासन का
घाटी सभ्यता के ऐति‍हासि‍क स्थल, राजस्थान के कालीबंगा और ऐसा दखल हुआ कि सामाजि‍कता के पुनीत अर्थ सि‍रे से गायब हो
सिन्ध में अवस्थि‍त कांस्ययुगीन मुअनजोदड़ो से शुरू हुई है। गए। 'पनसोखा है इन्द्रधनुष' संग्रह में संकलि‍त कवि‍ता 'अकेलापन'
लगभग दो सौ दो पंक्ति‍यों की इस कवि‍ता में कवि‍ने प्रेम के इतने (सन 2016) ऐसी ही विडंबनाओं को उजागर करती है। असंगत
रूप दि‍खाए हैं, कि‍प्रेम की वि‍लक्षण परि‍भाषा नि‍र्धारि‍त हो गई है। और मनुष्य विरोधी आचरणों में तल्लीन ऐसी लोकतान्त्रिक
प्रत्यक्ष समय के दारुण दैन्य और मानवीयता की अधोगति‍देखकर व्यवस्था में मदन कश्यप बार-बार अपनी कविता के लि‍ए प्रेम और
उन्होंने सिन्धु घाटी सभ्यता के आदि‍म रूप का स्मरण कि‍या है, प्रेम की भाषा तलाशते दि‍खते हैं। प्रेम के प्रतिगामी स्वरूप और
और पुरा-काल के सारे दर्द से नि‍रपेक्ष हो गए हैं। अपनी सभ्यता से पाखण्डपूर्ण आचरण की चतुर्दि‍क व्याप्ति‍देखकर वे धिक्कार और
प्रेम करते हुए उन्हें स्मरण आया है कि– 'जब कच्ची ईंटों वाले/ आत्मालाप पर उतर आए हैं। प्रेम के मनभावन स्वरूप की
कालीबंगा के मकानों से/भागे थे हम/मुअनजोदड़ो की ओर/तब जो अनुपस्थि‍ति‍मनुष्य को अकेलेपन का शि‍कार बनाता है। अकेलेपन
पाँव हमारे हुए थे लहूलुहान/आज भी टीसते हैं/रात के तीसरे पहर की दुर्वह स्थि‍ति से उबरने के लि‍ए ही कभी हमारे पूर्वजों ने
में/...कम नहीं हुआ दर्द ऋचाओं के पाठ से/बुद्ध की करुणा के लेप सामाजि‍कता और सामूहि‍कता की भावना वि‍कसि‍त की होगी।
का असर भी/बहुत थोड़े दिनों तक रहा/और अपने पुरखे महावीर अक्सर देखा जाता है कि‍ समाज के हर परि‍वार के लोग अपनी
को तो/हमने पहले ही निर्वासित कर दिया था।' दैनन्दि‍न चर्या की प्रति‍पूर्ति‍अपने उद्यमों से करते हैं, पर जीवन में
इसी तरह इस संकलन की अगली कवि‍ता 'कुछ देर साथ चलो' कदम-कदम पर ऐसी स्थि‍ति‍याँ आती हैं, जि‍नसे नि‍पटने के लि‍ए
में प्रेम का एक दूसरा रूप नि‍खरता है, जि‍समें तीन बि‍म्बों– काली सामाजि‍क सहयोग अनि‍वार्य होता है। पर व्यवहारत: देखा जाने
सड़क, दमकती धूपवाली जलती ति‍पहरी और वाटि‍का-वि‍हीन, लगा कि‍ राजनीति‍क दखलन्दाजी से यह सामाजि‍कता खण्‍डि‍त
झीलहीन वातावरण के सहारे कवि‍ने महानगरीय जीवन की मूल्य- होने लगी। मनुष्य धर्म, सम्प्रदाय, जाति‍, वर्ग, पदक्रम, भाषा में
रि‍क्तता को उजागर कर दि‍या है। राजीव गाँधी की हत्या (मई वि‍भाजि‍त होने लगा। ऐसा भी नहीं रहने लगा कि‍ समान धर्म या
1991) और भारतीय लोकतन्त्र के दसवें लोकसभा चुनाव (जून समान जाति‍ के लोगों में पारस्परि‍क आस्था हो। अपने खण्ड में
1991) से लेकर हर्षद मेहता घोटाला (सन 1992), मस‍द्जि- आकर भी लोग अन्तत: खण्डित ही रहने लगे। ऐसे में कवि‍ के
ध्वंस (सन 1992) के बाद की क्रूर हिंसाएँ, बम्बई में शृंखलाबद्ध समक्ष कवि‍ता की भाषा का सवाल खड़ा हुआ। गि‍नती के लोगों की
बम-विस्टफोट (सन 1993) ने इन वर्षों के भारतीय परि‍वेश को अभीप्सा-पूर्ति‍के लि‍ए ऐसा जघन्य आचरण, न केवल नागरि‍कों के
ऐसा मूल्यहीन बनाया कि‍स्नेह और संबंधों में रि‍क्तता ही रि‍क्तता लि‍ए, बल्कि‍कवि‍नागरि‍क के लि‍ए भी दुर्वह ही होना था, सो हुआ।
भर गई थी, अनास्था परवान चढ़ी थी, वि‍श्वासपूर्वक कि‍सी प्रसंग छठे-सातवें दशक में ऐसे राजनीति‍क आचरणों पर राजकमल
में कुछ कहना कठि‍न हो गया था। ऊपर से पी.वी. नरसिंह राव के चौधरी को क्रोध आया था, वे भी इसी तरह धिक्कार और आत्मालाप
नेतृत्ववाला कांग्रेसी शासन...। मनुष्य तो हर मामले में अवसन्न ही पर उतर आए थे।
था। ऐसे समय में महानगरीय जीवन में स्नेह-शून्य संबंधों की सन 2012 से 2015 के बीच अवसर पाकर मदन कश्यप ने
औपचारि‍कताओं एवं विडंबनाओं के सि‍वा कुछ भी बचा नहीं रह चैटिंग की शैली में बारह कवि‍ताएँ लि‍खीं, जिन्हें उन्होंने 'चैट
गया था, प्रेमि‍का का व्यवहार भी कुछ-कुछ परीक्षणीय ही था। इन्हीं कवि‍ता' कहा है। साहि‍त्यि‍क वि‍धाओं और चि‍न्तनों में ऐसी कवि‍ता
संदर्भों को प्रकट करते हुए कवि, प्रेमि‍का से कहते हैं 'कुछ देर साथ की कोई परंपरा पहले से नहीं है। पर सार्वजनि‍क संचार के चबूतरों

150 n जुलाई से सितंबर 2023 yegh


पर ऐसी पंक्ति‍याँ आती रही हैं, जो अपने प्रभाव में भावकों को
कवि‍ता का रसबोध कराती हैं। ये कवि‍ताएँ भि‍न्न-भि‍न्न ति‍थियों‍में
रची गईं हैं और इन बारहों कवि‍ताओं में प्रेम की घनीभूत अभि‍व्यक्ति
है। पन्द्रह अगस्त 2012 को लि‍खी प्रेमपरक पंक्ति‍यों में कवि‍ ने
अनुभूति‍ की अभि‍व्यक्ति‍ के लि‍ए भाषा की अक्षमता और
अननुवाद्यता को जीवन्त कर दि‍या है– 'हम देखते रहे एक-दूसरे
को/सन्नाटों और सपनों के ताने-बाने से कुछ बुनते रहे/जो शायद
प्यार था/तुम्हारी चुप्पी इतनी सुन्दर थी/हम भाषा में उसके कमतर
अनुवाद से बचना चाहते थे/बैठे थे हम एक-दूसरे के निकट। ' प्रेम
की ऐसी सघनता में कवि‍ उस देवता को भी नि‍कट हुआ समझने
लगते हैं, जो उस मन्दि‍र के भीतर थे, जि‍समें वे सायास नहीं गए
थे। क्योंकि‍वे आश्वस्त थे कि‍उनके पास सपने थे, पर देवता के
पास सपने नहीं थे। महीने भर (17.09.2012) बाद ही, जब
प्रेमि‍का के नि‍कट बैठकर भी प्रेम की अनुभूति‍सघन नहीं हुई, तो
कवि‍का उस देवता के लि‍ए नकार भाव उपजा और कवि‍को संशय
हुआ कि‍ 'उस दिन काव्य पाठ अधूरा छोड़कर हम भागे/...हम
पास-पास बैठकर भी पास कहाँ थे।' प्रेमि‍का के नि‍कटताबोध में
पि‍छली बार उन्हें जि‍स देवता का नि‍कट होना प्रतीत हुआ था, उसी
देवता के लि‍ए वे कहते हैं 'अगर वह ईश्वर था/मेरा ईश्वर नहीं था/
अगर वह नैतिकता थी/मेरी नैतिकता नहीं थी/तो क्या वह हमारी
वासना थी/जो कभी ईश्वर तो कभी नैतिकता की तरह दिख रही है। प्रेम के प्रसार, प्रसार की चतुराई, प्रेमाधार में अहं और चतुराई
थी!' ये भाव प्रेमवि‍द्ध प्राणि‍यों के वि‍वि‍ध भावों को ईमानदारी और के वि‍लय की बड़ी सघन अनुभूति‍नौ मार्च 2013 की उनकी चैटिंग
नि‍ष्ठा से व्यक्त करते हैं, जि‍समें सारे ही भाव ऋजुरैखि‍क नहीं होते, देती है, जि‍समें प्रेमी अपनी प्रेमि‍का को आश्वस्त करते हैं कि‍हम
वक्ररैखि‍क भी होते हैं; प्रेमी मन के आत्मबोध और आत्मालाप को दोनो की कामनापूर्ति‍के लि‍ए सारी बाधाओं को लाँघकर मैं तुमसे
भी व्यक्त करते हैं। आगे की चैटिंग में ऐसे ही प्रेम की स्मृति‍यों में मि‍लने इस तरह आऊँगा कि दरवाज़ा तक नहीं चरमराएगा, 'वहशी
कभी सपना या चेतना का वि‍स्तार, कभी धर्म नि‍रपेक्षता, कभी रखवाले ताक़ते ही रह जाएँगे/इस तरह पैठूँगा तुम्हारी आत्मा में/कि
धरती और बादलों के प्यास की चि‍न्ता करते हुए प्रेम की तन को भी पता नहीं चलेगा/...जैसे अमरूद में घुसती है मिठास/
पारस्परि‍कता, कभी प्रेम की अनश्वरता के रूप नि‍खारते हैं। अपने खिच्चे कसैलेपन को टरियाती हुई/वैसे ही घुसूँगा अनन्त चोर
प्रेम को वे रेत नहीं, गुलाल समझते हैं, क्योंकि‍मुट्ठी में बन्द करने दरवाज़े से/पानी में मिले ग्लूकोज-सा घुल जाऊँगा/फैल जाऊँगा
पर रेत के कण एक-एक कर गायब हो जाते हैं, गुलाल गायब होने तुम्हारी पूरी देह में!' प्रेम में दो के एक हो जाने का यह मनोरम चि‍त्र
पर भी अपना रंग छोड़ जाता है। प्यार के लि‍ए यह अनुपम रूपक है।
है, जो पूरे-का-पूरा झड़ जाने पर भी काल की हथेली पर अपना प्रेम की यह लालसा सन 2015 आते-आते कुछ ऐसी स्थि‍ति‍में
निशान छोड़ जाता है। प्रेम की एषणा-पूर्ति‍ के सारे प्रयासों के चली गई कि‍प्रेमी सामुदायि‍क जीवन की चर्याओं में ही प्रेम के लि‍ए
बावज़ूद, प्रेमाधार पराङ्मुख हो, तो कवि‍के पास वि‍लक्षण रूपक है प्रति‍गामी बि‍म्ब देखने लगे। छब्बीस अप्रैल 2015 को आकर
कि‍'मैं गीले तौलिये की तरह/लिपट जाना चाहता हूँ/लेकिन तुम तो उनका प्रेमी मन उस प्रेमाधार की प्रतीक्षा कुछ ऐसे करने लगा, जैसे
अपनी/ओदी-ओदी इच्छाओं को सुखाने चली गई हो/ईश्वर के ख़ाली सड़क राहगीरों के कदमों की प्रतीक्षा करे, जैसे धँसने से
आँगन में!' यह ईश्वर, यहाँ एक भ्रम है, माया है, मृगतृष्णा है, पहले तक मिट्टी की खान कि‍सी कुम्हार की बाट जोहे, जैसे परती
भटकाव है, जो दो प्रेमि‍यों के मि‍लन-भाव का प्रति‍पक्षी है, जो खेत की खुरदरी देह हलवाहे की आहट अकाने; और इन्तजार में
प्रेमि‍का को सत्य का भान नहीं होने देता; या फि‍र समाज या परि‍वार उनके प्रेमी-मन को प्रतीत होता है कि‍'काश! प्रतीक्षा कोई ख़ुशबू
का प्रतिष्ठाबोध (?) है, जो उसे प्रेम-डगर पर चलने से बरजता होती/जो फैलती चली जाती तुम तक!' प्रतीक्षा को खूशबू बनाने

yegh जुलाई से सितंबर 2023 n 151


करने के ऐन मौके पर जब प्रेमी की बाँहों में घि‍री प्यार करती हुई
प्रेमि‍का कहे कि‍स्त्री जैसा कुछ भी नहीं बचा है मेरे भीतर, तुम में
भी मर्द जैसा कुछ बचा है, तो उसे त्यागकर प्यार करो, तो प्रेमी
भयमुक्त हो उठता है। कवि‍ कहते हैं कि‍ 'एक-दूसरे को बाँहों में
जकड़ते हुए/हमने सबसे पहले जिसे छोड़ा/वह था भय/न तो
असफलता हमें डरा रही थी न ही सफलता/सारा संकट तो स्त्री-
पुरुष होने तक ही था।' वस्तुत: पुरुष का पुश ं त्व और स्त्री का
स्त्रीत्व प्यार करते समय भी वि‍जय-बोध की लालसा से भरा रहता
है। पर जय-पराजय की लालसा से मुक्त होकर ही कोई
अालिंगनबद्ध जोड़ा नि‍र्द्वन्द्व प्यार का भोक्ता हो सकता है। सही भी
है कि प्यार में जब दो शरीर, दो आत्माएँ, दो धारणाएँ, दो लालसाएँ
एक हो जाती हैं, तो कि‍सकी वि‍जय और कि‍सकी पराजय! कि‍स
पर कि‍सकी जय, कि‍ससे कि‍सकी पराजय! प्यार की जि‍स उत्कट
लालसा की कामना इस पद्यांश में की गई है, वस्तुत: हर प्रेम
करनेवालों की ऐसी ही कामना, ऐसी ही समझ होनी चाहि‍ए; पर
प्रश्नाकुल कवि-मन अगले ही पल सशंकि‍त हो उठता है। 'क्या
मतलब हमारे होने का जो हम स्त्री-पुरुष न हों!' जैसे सवाल को
नामंजूर करने से पहले, 'प्यार में दो जीवों का समेकन स्वीकार
करने पर' उन्हें दोनों के लि‍ए एक नकार दि‍खने लगता है, क्योंकि‍
समेकन के बाद दोनो में से कोई वह तो नहीं रह गए, जो थे।
इसलि‍ए प्यार की भावनाओं से नि‍कलकर तर्क की वैचारि‍की में
आने पर, उन्हें अपना होना ही अधूरा लगने लगा; क्योंकि‍ उन्हें
की यह संकल्पना अकल्पनीय है। यह प्रेम के उदात्त का प्रमाण है 'प्यार की ज़रूरत उतनी ही थी/जितनी क्रान्ति की/...क्रान्ति की
कि‍प्रेमी ख़ुद न सही, अपनी प्रतीक्षा को ही खुशबू बनाकर अपने तरह प्यार पर भी हमारा बस नहीं है। ' तथ्यत: पूरा जीवन तो कोई
प्रेमाधार तक पहुँचाना चाहता है। यह एषणा परम पवि‍त्र है, इसमें 'भावुकता' में डूबा नहीं रह सकता, यथार्थ की दुनि‍या सर्वत्र और
कहीं कोई कलुष नहीं दि‍खता, प्रेमी मन स्वयं को खुशबू बनाना सर्वदा कोमल ही नहीं होती, कठोर भी होती है। 'ज़िन्दगी एक
नहीं चाहता, ख़ुद को उन तक पहुँचाने की इच्छा नहीं करता, जलता हुआ सिगरेट थी/जिसे मैंने अंगुलियों में फँसा रखा था/
अपनी प्रतीक्षा को उन तक पहुँचाना चाहता है। इस पवि‍त्रता को लेकिन कश लेना भूल गया था/आग ने फिर भी अंगलि ु यों को
नमन। छुआ/तब जाकर उसके होने का एहसास हुआ।' यही आग यथार्थ
'स्त्री-पुरुष' (पनसोखा है इन्द्रधनुष, पृ. 9) शीर्षक कवि‍ता का है; इसी यथार्थ में मनुष्य की इच्छाएँ, जल-तल पर तैरते
लक्ष्य-बि‍न्दु भी प्रेम ही है, जि‍समें कवि‍ ने स्त्री और पुरुष– दोनों स्पाइरोगाइरा के ढूह की तरह छाई रहती है। यह स्पाइरोगाइरा, पानी
दृष्टि‍यों से वि‍चार करने की कोशि‍श की, कि‍न्तु अनुभव केवल के ऊपरी तल पर तीव्र गति‍से विकसित होने वाला शैवाल है, जो
पुरुष पक्ष का ही उतारा, स्त्री पक्ष का उपशीर्षक देकर छोड़ दि‍या। इतनी तेजी से विकसित होता है कि‍ मि‍नटों में पूरे तालाब में छा
कदाचि‍त इसलि‍ए कि‍इस पक्ष के अनुभव के वे अधि‍कारी नहीं हैं। जाए। अब कोई आदमी अपनी इच्छा के इस स्पाइरोगाइरा से कब
अनुभवी जानते होंगे कि जब स्त्री-पुरुष साथ होता है, तो पुरुष तक संघर्ष करे! मानवीय इच्छा के लि‍ए इस स्पाइरोगाइरा का
अपने पुंशत्व के पराजि‍त हो जाने की आशंका से सर्वाधि‍क भयभीत रूपक कवि‍ने बहुत सोच-वि‍चार कर रचा होगा; क्योंकि‍जि‍स तरह
रहता है। ऐसे में जब प्रेमि‍का उसे अपने स्त्रीत्व की क्षमता बताकर, क्रान्ति और प्यार पर मनुष्य का वश नहीं चलता; बहुत हद तक
उसके बचे-खुचे पुंशत्व को भुलाकर 'प्यार' पर केन्द्रि‍त होने की इच्छा के स्पाइरोगाइरा पर भी वश नहीं चलता। जब तक मनुष्य
सलाहाज्ञा दे, वह भयमुक्त हो जाता है। प्यार में लीन हर प्रेमी को जल-तल से उसे हटाने का वि‍चार और तरकीब बनाए, तब तक
अपनी प्रेमि‍का, दुनिया की सबसे सुन्दर स्त्री दि‍खती है। और, प्यार वह दूर-दूर तक अपना क्षेत्र वि‍कसि‍त कर लेता है; इच्छा भी ऐसे

152 n जुलाई से सितंबर 2023 yegh


ही करती है। नायकों की भयाकुल मन:स्थि‍ति‍ को। इस कवि‍ता में वस्तुत:
'एक अधूरी प्रेम कवि‍ता', 'स्त्री-पुरुष' या उल्लि‍खि‍त अन्य रहवासी मनुष्य की स्मृतियाँ घर के ति‍नके-ति‍नके में जीवित रहती
कवि‍ताओं का केन्द्रीय वि‍षय प्रेम है, पर सबमें प्रेम के एक रूप हैं। कि‍सी संवेदनशील मन को कल्पना करते देर नहीं लगेगी कि
नहीं हैं, इनकी कवि‍ताओं में प्रेम के असंख्य आयाम हैं, शरीरी भी, घर केवल टाट-फूस से बने छप्पर का नाम नहीं होता, घर में
नैसर्गि‍क भी, व्यवस्थाजन्य भी। पर तय है कि‍उनकी कवि‍ताओं के पीढ़ि‍यों से जीवन बसर कर रहे मनुष्य की असंख्य अनुरक्ति‍याँ
सारे प्रेम मानवीयता की ओर केन्द्राभि‍मुख हैं। उनकी कुछ और प्रेम जुड़ी होती हैं। उन्हें मलबे में दबने से पहले तक उन खम्भों में बची
कवि‍ताओं का उल्लेख आगे के अंशों में होगा। अपने स्पर्श की स्मृति‍याँ भी कुरेदती हैं, जिन्हें पकड़कर वे बचपन
देखने की बात यह है कि‍बीसवीं शताब्दी के आठवें दशक की में चक्कर काटा करते थे। अतीत-व्यतीत के अत्यन्त साधारण
शुरुआत में मदन कश्यप की राजनीति‍क-सामाजि‍क चेतना और प्रसंगों का ऐसा असाधारण रेखांकन, जो कवि‍ता में आकर
रचनात्मक सरोकार कि‍स तरह सक्रि‍य, सावधान और दृढ़ थे कि‍ सार्वजनि‍क उपादेयता प्राप्त कर ले, वि‍लक्षण है। वि‍रासत को
उन्होंने ऐसे रूपक रचे; अर्थध्वनि‍यों को ऐसा नादमय बनाया कि‍ बचाए रखने के प्रयास में खर्च हो गई दो पूर्ववर्ती पीढ़ि‍यों की
भावक चमत्कृत हो उठते हैं। इस प्रारम्भिक प्रयास में छन्दों से घनीभूत पीड़ा तो इस कवि‍ता में है ही; पर उन्हें सर्वाधि‍क पीड़ा
उनकी मुक्ति‍-कामना भी दि‍खती है। प्रतीत होता है कि‍इससे पूर्व कि‍सी अनदेखे 'राकस' के कुकृत्य से सताई गई अपनी माँ की पीड़ा
भी वे गीति‍मय रचनाएँ करते रहे होंगे, जि‍से उन्होंने कभी प्रकाश में से है।
नहीं आने दि‍या। यह कवि‍-कर्म और कवि‍ता की गुणवत्ता के प्रति‍ उस घर में उनके पैदा होने की प्रतीक्षा थी, छप्परों के चूने से
उनकी अनुशासि‍त सावधानी का ही प्रमाण है कि‍ सन 1973 में गीली देहरी पर फिसलकर गिरता हुआ उनका बचपन था, घर के
ऐसी श्रेष्ठ कवि‍ता लि‍खने वाले कवि‍का पहला संग्रह लगभग बीस पूरा होते ही दि‍वंगत हुए दादा और उम्र के आख़िरी दस वर्ष
वर्ष बाद सन 1992 में 'लेकि‍न उदास है पृथ्वी' शीर्षक से प्रकाशि‍त गुजारनेवाली दादी की स्मृति‍ थी, पर सर्वाधि‍क मार्मि‍क वह दृश्य
हुआ। और, पहले ही संग्रह के बूते उनकी गि‍नती हिंदी के मानक था, जि‍समें ओसारे पर धधकती सबसे मीठी आग के समक्ष भात
कवि‍यों में होने लगी। इसके साथ यह भी वि‍चारणीय है कि‍ पकाती पृथ्वी की सबसे सुन्दर स्त्री उनकी माँ होती थी, जो मरने से
भावुकतावश या छपास रोग के रोगी की तरह उनकी ऐसी कोई भी पहले ही उस घर की दीवार में जड़ दी गई थी। सावन-भादों के
कवि‍ता प्रकाश में नहीं आई, जि‍स पर वि‍चारकगण छपास का नि‍यमि‍त अन्नाभाव में माँ कोठी के पेन्दे से निकाले गए चावल
दोषारोपण करें या नवोदि‍त संज्ञा से वि‍भूषि‍त करें। ऐसा धैर्य, बीनती हुई दादी के किस्से के राकस को याद करती, कि‍कैसे वह
असामान्य होता है। राकस मिट्टी ढुलवाकर, थका-थकाकर मनुष्य को मार देता। राकस
साम्य-वैषम्यमूलक बि‍म्ब बनाकर और वस्तु में चेतना का पराक्रम उसकी चमत्कारी जटा में होता, जटा नोंच लें तो
समावि‍ष्ट कर कवि‍ता की अर्थ-ध्वनि‍ को वैराट्य देने के मदन पराक्रम नष्ट। लोक-कथा के उ‍स राकस के पराक्रम को उनकी माँ
कश्यप के कौशल की कि‍तनी भी प्रशंसा कम होगी। उनके इसी भी परि‍पुष्ट करतीं -'...कोई उसे भी ला देता राकस की जटा/तो वह
कौशल के कारण उनकी कवि‍ताओं के भावक कवि‍ता में रेखांकि‍त रख देती चावल की कोठी में/फिर चाहे जितना पकाते, जितना
प्रसंगों में स्वानुभूति‍ की तरह स्मृति‍यों में खो जाते हैं। उस घर के खाते/कभी न घटता चावल/कभी न कमता भात। ' यह परि‍पुष्टि‍
गि‍रने की पूरी प्रक्रि‍या में वे घर के एक-एक अंश की चेतना को यक़ीनन माँ के अन्धवि‍श्वास या अज्ञानता का समर्थन नहीं; बल्कि‍
रूपायि‍त करते हैं। उन्हें यक़ीन है कि‍गिरने से पहले उस घर की एक साधन-सुवि‍धावि‍हीन माँ की तरकीब होती, जो अबोध बालक
नोनियाई दीवारों ने उन्हें याद किया होगा; उस घर का ठाट के झूठी आस्था की ओट में अपनी वि‍वशता को उजागर होने से
भदभदाकर गिर जाने से पहले उनके कन्धे की प्रतीक्षा में थोड़ी देर बचा लेती। यह राकस कौन था? यह राकस वस्तुत: परि‍वार-मोह,
रुका होगा। यहाँ तक कि‍चूहा पकड़ने की कोशिश में, उस ठाट से सन्तान-मोह, व्यवस्था-मोह की दीवार में चुन दी गई एक स्त्री की
फि‍सलकर उनके पाँव के पास गि‍र जाने वाले साँप की वि‍फलता वि‍वशता थी, जो चाहक़र भी उस राकस की जटा उखाड़ नहीं पाती
भी उन्हें याद आई। पर चतुराई प्रशंसनीय है कि‍बालपन में अपने थी। कवि‍ता के इस अंश में स्त्री-वि‍मर्श की ऐसी उज्ज्वलता खचि‍त
पाँव के पास साँप के गि‍रने से अपना भय उन्हें याद नहीं आया। है, जि‍सकी पहचान अभी भारतीय समाज में बाकी है।
यक़ीनन उन्हें भय नहीं हुआ होगा, या फि‍र भय की स्मृति‍यों से वे इस कवि‍ता के दूसरे अंश में कवि‍ने उसी घर में कि‍सी ठण्डी
परहेज करते होंगे। इसमें दूसरी समभावना प्रबल है। मदन कश्यप भोर में पत्नी की आँखों की ललक और बेटी की तोतली मुस्कान के
की कवि‍ता न तो कभी उनके भय को रेखांकि‍त करती, न अपने साथ अपने दायि‍त्व-क्षेत्र की शुरुआत की, जहाँ ज़िन्दगी के लम्बे

yegh जुलाई से सितंबर 2023 n 153


सफर में असंख्य कँटीली लताओं से उलझकर दफ्तरों-कारखानों अपने कुटुम्बों को आपद-विपद से बचाएँ और अनन्त में फैले
में दौड़-भाग करते हुए, पत्नी के दर्द, बेटी के गलशोथ, बेटे की सन्मार्ग अपनाकर वे कुछ बेहतर करें, पर ऐसा हो न सका। कुटुम्बों
गिल्ट से जूझते हुए फि‍र से वह राकस मिला, बंगलों में और मंचों ने अपने आलस्य, बेपरवाही और छुद्रताओं में न केवल अपना,
पर वर्चस्व बनाए उन राकसों की जटा उखाड़ने की कोशिश में बल्कि‍ बि‍जूका बने अपने महान वि‍चारक कुटुम्ब को भी कि‍सी
कटकर गिरे हाथ मि‍ले; पर कवि‍नि‍राश नहीं हुए। उनका वह घर काबि‍ल नहीं रहने दि‍या। धीरे-धीरे उसके वस्त्र सड़े, धरती में गड़े
बेशक नहीं रहा; न नींद में, न सपनों में, न ख़ून में, कहीं भी नहीं; पाँव और फैले हुए हाथ जड़ हो गए, और अन्त में महसूस हुआ कि‍
पर उन्हें इस पृथ्वी और देश से बेहद प्यार है-'हे पृथ्वी/अब तुम्हारे उनका सिर त्यागी हुई काली हाँड़ी हो गया। वि‍वेकहीन राजनीतिक
किसी कोने में नहीं है मेरा कोई घर/प्यार करता हूँ मेरे देश/मैं तुम्हें व्यवस्था‍, दानवीय दुर्नीति से भरे स्वार्थी शासन-तन्त्र और दूसरों के
अब भी प्यार करता हूँ/तुम्हारे धीरोदात्त पहाड़ों को/तुम्हारी चंचल हिस्से के पवन-प्रकाश-पायस चुराने वाले व्यवस्थापकों की चेतना
नदियों को/तुम्हारे झरनों, जंगलों, खेतों, फसलों, खदानों और ने मनुष्य को ऐसा 'बि‍जूका' बनाया कि‍वह सही अर्थ में 'बि‍जूका'
कारखानों को/बेहद-बेहद प्यार करता हूँ। ' भी नहीं रह गया, क्योंकि मनुष्य के स्वभाव में– 'सबसे पहले
पूरी पृथ्वी के सभी उपादानों से प्यार करने वाले इस कवि‍की दुनिया को बदलने का सपना मरा/एक ख़ूबसूरत दुनिया में हो मेरा
काव्य-संवेदना वस्तुत: बेहद प्यार से भरा हुआ है। उनके प्यार की घर की जगह पर मैं सोचने लगा/दुनिया में हो मेरा ख़ूबसूरत घर/
सीमा बस प्यार ही नि‍र्धारि‍त कर सकता है, क्योंकि‍उस प्यार का फिर एक-एक कर वह सब कुछ मर गया/जिनके मरने से आदमी
सरोकार कि‍सी जाति‍, धर्म, सम्प्रदाय, वर्ग, धारणा, क्षेत्र...से नहीं, मर जाता है...।'
पूरी पृथ्वी और मानवीयता से है। यहीं आकर मदन कश्यप के इस मदन कश्यप जैसे बड़े कवि‍की पूरी कवि‍ताई को एक आलेख
पहले संग्रह के शीर्षक की सार्थकता सि‍द्ध होती है-'लेकि‍न उदास में समेटना असंभव है। उनके यहाँ वि‍षय वैवि‍ध्य की वि‍स्तृत
है पृथ्वी। ' सब कुछ तो सही चल रहा है। आम चुनाव लगातार हो दुनि‍या तो है ही, कथ्य को रूपाकार देने का रचनात्मक कौशल
रहे हैं, घपले-घोटाले हो रहे हैं, ख़ून-खराबा-दंगा करवाया ही जा इतना बहुमुखी एवं अन्तरानुशासनि‍क है; और अर्थ-छवि‍यों की
रहा है, प्राकृति‍क आपदाएँ आ ही रही हैं, कि‍सानों की भुखमरी और रश्मियाँ इतनी दि‍शाओं में फूटती हैं कि‍छोटी से छोटी कवि‍ताओं के
आत्म-हत्याएँ जारी ही हैं, अबलाओं के बलात्कार आए दि‍न होते अर्थान्वेष के लि‍ए कई-कई युक्ति‍याँ लगानी पड़ती हैं।
ही रहते हैं, राजनीति‍ज्ञों की थोथी घोषणाएँ होती ही रहती हैं, परि‍णामस्वरूप काव्य-वि‍वेचन में वि‍स्तार आना सहज सम्भाव्य है।
मँहगाई बढ़ती ही जा रही है, घूसखोर की समृद्धि‍ हो ही रही है, अब तक प्रकाशि‍त छहों संग्रहों में संकलि‍त 298 कवि‍ताओं में से
नि‍ठारी काण्ड हो ही रहा है, राजनेताओं की मौज-मस्ती बढ़ ही रही मेरी सर्वाधि‍क प्रि‍य कवि‍ताएँ– 'कालयात्री', 'छोटे-छोटे ईश्वर',
है, फि‍र 'पृथ्वी उदास क्यों है?' इसलि‍ए कि‍जि‍स पृथ्वी से मदन 'एक अधूरी प्रेम कवि‍ता', 'स्त्री-पुरुष', 'अकेलापन', 'पानसोखा है
कश्यप को इतना प्यार है, उस पृथ्वी की सबसे सुन्दर स्त्री इस इन्द्रधनुष', 'बि‍जूका', 'हवा में पुल', 'कुरुज', 'माँ की तस्वीर', 'माँ
पृथ्वी को तबाह करने वाले 'राकस' की पराक्रमी जटा उखाड़कर के गीत', 'रफ़ूगरी', 'हम्मूराबी', 'नीम रोशनी में', 'एक दलि‍त
उसे निष्क्रि‍य और नि‍रर्थक नहीं बना पा रही है। पृथ्वी सर्वसहा प्रार्थना', 'कहाँ है पृथ्वी', 'कि‍सी वि‍स्थापन की तरह नहीं', 'अच्छी
होती है, सब कुछ सह लेती है, माँ की तरह; पर अपनी पीठ पर कवि‍ता', 'पुलि‍स अधि‍कारी', 'तूफान...भूकम्प...ज़ि‍न्दगी',
पसरी हुई सृष्टि‍ की अधि‍ष्ठात्री, सबसे सुन्दर स्त्री की त्रासद 'क्षमायाचना', 'सरकार', 'उद्धारक', 'नौकरशाह कवि‍', 'म्युजि‍कल
वि‍वशता वह पृथ्वी कैसे देखेगी? इसलि‍ए उदास है पृथ्वी। चेअर', 'पुरखों का दुख', 'तानाशाह और जूते', 'अठारह सौ
मदन कश्यप का वि‍षय-क्षेत्र अत्यन्त उदार और वि‍राट है। पूरी सत्तावन', 'उदासी का कोरस', 'अपना ही देश', 'लौटूँगा', 'फुटपाथ
पृथ्वी के लि‍ए उदार है। अपने नि‍ज और संकुचि‍त धारणाओं से पर सोनेवाले'...आदि हैं, जो यथेष्ट वि‍वेचना की हक़दार हैं, और
उन्हें बड़ी चि‍ढ़ है। उनकी इस धारणा की स्पष्ट अभि‍व्यक्ति‍‍उनके जि‍नमें से कई कवि‍ताओं पर अभी वि‍चार नहीं हो पाया है; इनके
पाँचवें कवि‍ता-संग्रह 'अपना ही देश' की 'बि‍जूका' (सन 2005) अलावा लगभग डेढ़ सौ महत्त्वपूर्ण कवि‍ताएँ और हैं, जि‍न पर
शीर्षक कवि‍ता में हुई है, जि‍समें कवि‍ने स्वयं को ही एक बि‍जूका इत्मीनान से वि‍चार होना चाहि‍ए... n
की हैसि‍यत में खड़ा कर दि‍या है। मानवीय छुद्रताओं को अपने संपर्क :भारतीय भाषा केन्द्र,
ऊपर ओढ़कर उन्होंने बताया कि‍ वे खेतों में बि‍जूके की तरह जे.एन.यू., नई दि‍ल्ली-110067
अनन्त की ओर बाँहें फैलाए इसलि‍ए राजी-ख़ुशी खड़े हुए थे कि मो. 9868110994

154 n जुलाई से सितंबर 2023 yegh


n अविराम : असद ज़ैदी

तंत्र से मुठभेड़ करती कविता


तनुज

“कुछ होना था जो सत्तर की दशक में नहीं हुआ, हमारे पूर्वज कवि मुक्तिबोध ने 'ब्रह्मराक्षस' कविता में
अस्सी के दशक में चलने लगीं उल्टी-सीधी हवाएँ : 'युग बदला फिर आए कीर्ति व्यवसायी' के रूप में
और नब्बे के दशक में जो नहीं होना था हो ही गया रेखांकित किया है।
इस तरह सदी के ख़त्म होने पहले ही इस भ्रष्ट और कूपमण्डूक रूपवादी नवाचार के प्रति
रुख़सत हो चली एक पूरी सदी जिसकी नोटिस असद काव्य के इस मर्म-स्थल पर खड़े
होकर ले रहे हैं, वे कहते हैं :
और यह सब अध्ययन की वस्तु है...” ये हमसे क्या-क्या पूछ सकेंगे
यह पंक्ति समकालीन हिंदी साहित्य के विशिष्ट कवि असद ज़ैदी के हम इन्हें क्या-क्या बतला सकेंगे
तीसरे कविता संग्रह 'समान की तलाश' से है, जिसका शीर्षक है- अपनी नई पीढ़ी के प्रति ऐसी ममता और इस तरह की ऊँची
'मौखिक इतिहास'। निश्चय ही यह भारतीय राजनीति और सत्ता तंत्र रागात्मकता समाज और कविता के भीतर बहुत कम ही देखने को
से जुड़े हस्तक्षेप की प्रतिनिधि रचनाओं का संकलन है। असद जैदी मिलती है। यह ममता उसी बोध से पैदा हुई कोई चीज़ है जिसे कवि
की कविता यात्रा की बात की जाए तो ‘बहनें और अन्य कविताएँ’ यहाँ बख़ूबी समझ पा रहा है। असद ज़ैदी की आलोचना 'अतिवादी'
(1980) उनका पहला कविता संग्रह था; जिससे उनकी कविता में प्रगतिशील हलकों में जिन वज़हों से अक़्सर होती रहती हैं-परिवार
एक अलग पहचान बनी। उनका दूसरा कविता संग्रह 'कविता का उसका केंद्रीय आधार रहा है और यह आरोप भले कहीं लिखित रूप
जीवन' 1988 में प्रकाशित हुआ और फिर एक लंबी अवधि के बाद में मौज़ूद न रहें, मगर अक़्सर ही बचकाना मर्ज़ के शिकार वामपंथी
तीसरा कविता संग्रह 'समान की तलाश' दूसरे संग्रह के प्रकाशन के लोगों को परिवार संस्था के प्रति रागात्मकता, तटस्थता और न जाने
बीस साल बाद यानी 2008 में आया। तीसरे संग्रह तक आते-आते क्या-क्या... इस तरह के कुपाठ के शिकार होते रहते हैं। लेकिन उलट
इस बात से कोई इनकार नहीं कर सकता कि असद की कविताओं बात यह है असद की कविता में परिवार संस्था की मौज़ूदगी समाज
की बुनियादी भिड़ंत अपनी कविता की सम्पूर्ण अंतर्वस्तु से होती है। की एक ठोस इकाई के रूप में झलकती है। भारतीय संदर्भ में कोई भी
असद ख़ुद की ही छवियों के साथ जूझते दिखाई देते हैं। वह आगे प्रगतिशील कवि जब जब 'राष्ट्र' की सामाजिक प्रवृत्तियों का सघन
कहते मिलते हैं : चित्रण करना चाहेगा तो उस संस्था की मौज़ूदगी अपरिहार्य होगी।
और चूँकि हम बीसवीं शताब्दी के कुछ प्रतिनिधि नमूने हैं अपने पहले कविता संग्रह 'बहनें और अन्य कविताएँ' की पहली
तो गेलैक्सी चैनल की मौखिक इतिहास परियोजना के तहत ही कविता 'विस्मृत आवास' में वह कहते हैं : “कि जहाँ मेरी यादें
एक प्रश्नावली और माईक लेकर आ रहे हैं समाप्त होती होगी, माँ वहीं रहती होंगी!” परिवार संस्था का निर्माण
इक्कीसवीं शताब्दी के शोधकर्ता जिन्हें ज़ाहिरा तौर पर एक ऐतिहासिक परिघटना है और कालक्रमानुसार
इक्कीसवीं का आलिफ़ और सदी का बे पता नहीं... समाज में इसकी भूमिकाएँ और मान्यताएँ भी बदली हैं। कबीलाई
यहाँ इक्कीसवीं शताब्दी के शोधकर्ता को इक्कीसवीं का ‘आलिफ़’ समाज से होते हुए सामन्ती समाज तक और सामंती समाज से होते
और सदी का ‘बे’ से रिक्त बताना नव-उदारवाद की उन संतानों को गए आधुनिक पूँजीवादी समाज तक परिवार के मूल्यों, मान्यताओं में
चिह्नित करना है जो प्रतीकात्मक रूप से ख़ुद को इस युग की क्रमिक बदलाव आए हैं। असद ज़ैदी अपने इस संग्रह में भारतीय
प्रतिध्वनि मानते हैं। असद ज़ैदी कोई आडम्बर नहीं बरतते। कहीं न मध्यवर्गीय परिवारों के भीतर घट रहे द्वंद्वों को बेहद ही आश्चर्यजनक
कहीं ये 'नमूने' 'जो नब्बे के दशक में नहीं होना था हो गया' की ठोस कहन की शैली से उद्घाटित करते हैं। परिवार संस्था की सबसे
सामाजिक-साहित्यिक अभिव्यक्तियों के वीभत्स विकास हैं, जिन्हें रागात्मक प्रतिभागी का संबंध भावुकता से लबरेज़ हिंदी के एक

yegh जुलाई से सितंबर 2023 n 155


महत्वपूर्ण प्रगतिशील कवि के साथ किस तरह हो सकता है, ज़ाहिरा अपनी ऐतिहासिक ज़रूरतों के साथ काव्य में स्वछंदतावाद और
तौर पर यह सघन लोकतांत्रिक एकता की मांग इसी तरह अभिव्यक्त व्यक्तिवाद का उभार होता है, जिसके विचार तत्व के भीतर पुरानी
हो सकती थी। जड़ सामुदायिकता से मुक्ति और नए एकांत का सृजन है मगर अपने
अपनी कविता 'करुणा के वज़न के कोई शब्द' में असद परवर्तीकाल में जिस तरह के सायाश मध्य-वर्गीय व्यक्तिवाद का
रेखांकित करते हैं– उभार होता है, वह कला-साहित्य के भीतर काम कर रही प्रगतिशील
कब से चारों तरफ़ के शब्दरहित शोर से घिरा हुआ हूँ सामूहिकता के प्रति एक तरह की अगंभीर प्रतिक्रिया है, जिसकी
कब से मैं पढ़ नहीं पा रहा हूँ प्रमुख प्रवृत्ति घोर आत्ममुग्ध पीढ़ी को तैयार करना है, जिसके पास
समय के घूमते विचार को कोई सामाजिक दायित्वबोध या जीवन दृष्टि न हो। इन भटकावों से
लोग किन कथाओं से निकल आए हैं कोई प्रगतिशील रचनाकार भी ज़ाहिर है बच नहीं सकता और इसके
किन कथाओं को खोजते मिले हैं ख़िलाफ़ नियमित आत्म-संघर्ष की प्रक्रिया में रत रहता है।
देखो दोस्तो, जैसे दूसरे युग थे असद जी के दूसरे संग्रह की जो एक बड़ी ख़ासियत उभर कर
समाप्त होने को हैं सामने आती है, वह है-पूर्व के दौर की तरह छोटी और सुगठित
यह युग भी...! कविताओं की जगह थोड़ी बड़ी कविताएँ। यहाँ तक आते-आते
यह निहायत ही किसी सचेत प्रगतिशील कवि की निराशा और उनका 'क्रिएटिव एडवेंचर' भी बढ़ता चला जाता है। साथ ही साथ
आशावाद के द्वंद्व से उपजी हुई बात हो सकती है जिसे वह संप्रेषित असद ज़ैदी के व्यंग्य में एक तरह के अद्भुत नुकीलेपन से हम रूबरू
करने की कोशिश कर रहे हैं। उस अलगावबोध को रेखांकित करते होते चले जाते हैं। देश-काल की बनती-बिगड़ती राजनीतिक-
हुए यहाँ कवि की दिलचस्पी अपने पाठक समूहों को 'उत्पादन संबंध' सामाजिक पृष्ठभूमि और आपात दुष्काल इन कविताओं की महत्ताओं
की उस लयात्मकता से परिचित करवाना हैं जो सतत है और उसी को और अधिक सम्प्रेषणीय बनाती चली जाती हैं। 'बंगाली मार्केट'
क्रम में 'पूँजी एवं श्रम' के अंतर्विरोध का इसी तरह नष्ट होना भी। कविता में वह लिखते हैं :
असद ज़ैदी साहब के पहले काव्य संग्रह में ही एक असाधारण हम सृष्टि का उद्गम शब्द में नहीं देखते
प्रेम कविता है– 'आयशा'। जिस सहज भावबोध के साथ कविता का हम अख़बारी रूपकों की आड़ में
अन्तर्जगत गठित होता है, वह कविता की आगामी पीढ़ी के लिए एक जनसंहार का खेल नहीं खेलते
ऐंद्रिकता की मौलिक प्रस्तावना है। रेशनलिटी की जिस ज़मीन और कविता के जिस मोर्चे पर खड़े होकर असद भारतीय जनसंघ और
पृष्ठभूमि पर साथी असद हमेशा खड़े दिखते हैं, वह इतिहास और फ़ासीवाद को एड्रेस करते मिलते हैं, वह है धार्मिक और सांप्रदायिक
भूगोल और परंपरा के प्रति संकीर्ण भाववाद न होकर एक साथ मोर्चा। आपातकाल, नक्सलबाड़ी आंदोलन का राज्य के विभिन्न
चलती हुई ठोस भौतिक चीज़ है। 'प्यार' कवि के लिए विचार और संघटकों के द्वारा बर्बरतापूर्ण दमन, फिर आपातकाल के बहाने
प्रबोधन से कटी हुई कोई भावना नहीं है: भारतीय जनसंघ का उभार और समाज में क्रियाशील प्रतिक्रियावादी
“हम दोनों एक दूसरे के अंदर ताक़तों का फैलाव, कोई भी परिदृश्य असद के विस्तृत काव्याकाश
कुछ पकाते रहते थे से छूटता नहीं है।
अस्मितावादी मध्यवर्ग के 'टुटपुँजिया' कवियों को असद से यह
फिर क्या होता है? बात सीखनी चाहिए कि कैसे किसी जातीय परिवेश की अभिव्यक्ति
आयशा फिर जैसे अंडा फूटता है।” एक मेटा-नैरश े न के भीतर संभव बन सकती है। यहाँ व्यक्ति और
यह उसी असाधारण साहचर्य के बदौलत संभव हो सकता है, समाज का द्वंद्व नितांत किसी प्रगतिशील ज़िम्मेदारी की तरह विकसित
जब हम एक दूसरे से प्यार करते हुए एक अंतहीन यात्रा पर एक होता चला जाता है और इस पूँजीवादी व्यवस्था का एक मज़बूत
दूसरे को समझते रहने की कोशिश करते हैं और अपनी आत्मा के 'प्रतिपक्ष' तैयार सा होता दिखता है-
पुनर्नवीनीकरण के साथ-साथ उस ऐंद्रिक बोध को भी नवीनीकृत आपका पानी बेस्वाद
करते हैं। यहाँ 'अंडे का फूटना' से तात्पर्य इसी एक जीवन के भीतर आपका खाना ख़राब
किसी नवीन जीवन प्रसंग में उस आत्मीय आधार की बदौलत बार- आपकी ज़बान ग़लीज़
बार प्रवेश करना हुआ, जिसे साधने की कोशिश आयशा के माध्यम आपकी पोशाक नक़ली
से वह कर पा रहे हैं। आपका घर बेहूदा

156 n जुलाई से सितंबर 2023 yegh


मेरा वोट लिए बग़ैर भी कविता में असद ज़ैदी इस तरह अपने पूर्वज को याद करते हुए हिंदी
आप मेरे सांसद हैं जाति का 'पुनर्लेखन' प्रस्तुत करते हैं।
आपको वोट दिए बग़ैर भी इस तरह के स्मृति-दंश की अभिव्यक्ति से यह कविता शुरू होती
मैं आपकी रिआया हूँ है और उस ऐतिहासिक 'हार' के पीछे काम कर रही शक्ति-संरचना
यह मशहूर पंक्तियाँ है असद की कविता 'हिन्दू सांसद' से। यदि की भूमिका पेश करते हुए असद कविता को उसकी बेठोस परिणीति
हम असद के अंतर्विरोधों से अपरिचित रहेंगे और किसी पूर्वग्रह में की तरफ़ ले जाते हुए कहते हैं :
रहक़र कविता को पढ़ेंगे तो हो सकता है हम किसी ग़ैर ज़रूरी हो सकता है यह कालांतर में लिखे उपन्यासों और
ख़तरनाक निष्कर्ष तक पहुँच जाएँ कि असद तो यहाँ किसी उदारवादी व्यावसायिक सिनेमा का असर हो
बौद्धिक की तरह धार्मिक भावना पर चोट कर रहे हैं। मगर यहाँ पर यह उन 150 करोड़ रुपयों का शोर नहीं
कविता के एक समझदार पाठक की तरह यह समझने की ज़रूरत जो भारत सरकार ने 'आज़ादी की पहली लड़ाई' के
महसूस कराती है कि असद यहाँ आम मेहनतकश जनसमूह के प्रति 150 साल बीत जाने का जश्न मनाने के लिए मंज़ूर किए हैं
कोई बात नहीं कहते मगर वे उस 'राजनेता' को चिह्नित कर रहे हैं उस प्रधानमंत्री के क़लम से जो आज़ादी की हर लड़ाई पर
जो सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के बल पर सत्ता में आए और जो कवि के शर्मिंदा है और माफ़ी माँगता है पूरी दुनिया में
वोट लिए बग़ैर भी उनके सांसद हैं। कवि उनका रिआया है! उनकी जो एक बेहतर ग़ुलामी के राष्ट्रीय लक्ष्य के लिए कुछ भी
कविताओं के भीतर बौद्धिक रूप से विपन्न और असंवेदनशील क़ुरबान करने को तैयार है
'भारतीय मध्यवर्ग' की समझदारी की आलोचना की जा सकती है। अग्रेज़ी उपनिवेशवाद से होते हुए नवउदारवाद और भूमंडलीकरण
यह असद की कविताओं के भीतर ही संभव बन पाता है कि की राष्ट्रीय यातनाओं की इस यात्रा को शायद ही कोई दूसरा कवि
बौद्धिक रूप से विपन्न और असंवेदनशील 'भारतीय मध्यवर्ग' की इतने स्पष्टवादी तरीके से चित्रित कर पाने में सफल हो पाया है!
समझदारी की आलोचना इतनी काव्यात्मकता और सहज ढंग से की असद हिंदी के जिस भद्र साहित्य की आलोचना कई बार करते
जा सकती है। सभ्यता के जटिल से जटिल प्रश्न मुक्तिबोध के बाद रहे हैं, असल में वह भी इसी मुख्यधारा के अविभाज्य अंग हैं। असद
की प्रगतिशील पीढ़ी के लिए रोज़मर्रे का कोई सवाल बन जाता है यहाँ उन औपनिवेशिक मध्य-वर्ग पूर्वजों को चिन्हित कर रहे हैं
और कविता को एक साधन बनाकर वे तार्किक हल सुलझाने की जिनके अंतर्विरोधों ने एक अँधेरे युग की पूर्व-पीठिका तैयार की थी।
कोशिश करते हैं। दूर तक साथ निभाते-निभाते लगभग एक दशक हालाँकि पूरी कविता में कहीं भी वह यह नहीं कहते ऐसा उन्होंने
पहले असद की कविता 'समान की तलाश' पर छिड़े विवाद को बहुत सचेत होकर किया होगा, लेकिन औपनिवेशिक गिरफ्त और
समझना बहुत ज़रूरी है। असद ज़ैदी बहुत हद तक बेहद साफ़गोई द्वंद्वों से उनका न छूटना और एक ग़ैर-क्रांतिकारी धारणाओं के
के साथ इस कविता को एक महत्वपूर्ण माध्यम बनाकर उत्तर- निर्माण में उन सभी की ठहरी हुई भूमिकाएँ थीं, ये सब साफ़-साफ़
औपनिवेशिक चेतना का प्रतिनिधित्व कर पाते हैं जो बहुत हद तक कविता में ज़ाहिर हुई है और इस मान्यता को एक तरह से आवश्यक
उन्हें विरासत में निराला, शमशेर और मुक्तिबोध के औपनिवेशिकता बहस के लिए भी कवि कविता लिखकर छोड़ देता है।
विरोधी तेवर से मिली है। लेकिन असद तक पहुँचते-पहुँचते इस वह लिखते हैं :
चेतना के तमाम अंतर्विरोधों का रैडिकल रूपांतरण संभव होता है। लड़ाइयाँ अधूरी रह जाती हैं अक्सर,
आलोचक कृष्णमोहन के नज़रिए से समझे तो अंग्रेज़ी बाद में पूरी होने के लिए
औपनिवेशिकता के प्रादुर्भाव से पहले की 'संभावित बुर्ज़ुआ क्रांति' थी किसी और युग में किन्हीं और हथियारों से...
जिसका दमन अंग्रेज़ों के द्वारा किया गया और कहीं न कहीं इस दमन एक उद्विग्न समग्रता के साथ असद ज़ैदी के व्यावहारिक और
के पीछे काम करने वाली शक्तियों में उन भारतीय जमींदारों और रचनात्मक जीवन का जब हम मूल्यांकन करते हैं, तो उस गहरी
सामंतों की भी बड़ी भूमिका थी जिनकी वर्ग-अवस्थिति अंग्रेज़ी आत्मीयता का सघन संचार हम अपने भीतर पाते हैं, जो किसी
उपनिवेशवाद के संपर्क में आने की वज़ह से ग़ैर-क्रांतिकारी ढंग से सच्चे कवि के सम्पूर्ण अन्तर्जगत में टोह लेकर ही संभव बन सकता
बदल ज़रूर गई, लेकिन उनकी मान्यता और संवेदना उस स्वतःस्फूर्त था। n
ढंग से विकसित नहीं हो पाई। 'हिंदी जाति' की रामविलासीय संपर्क :परास्नातक छात्र, हिंदी
अवधारणा को मज़बूत करने में इन्हीं मध्य-वर्गों की बड़ी भूमिका है काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी
और एक ज़िम्मेदारीपरस्त कवि के तौर पर 'समान की तलाश' मो. 9693867441

yegh जुलाई से सितंबर 2023 n 157


n अविराम : लीलाधर मंडलोई

ओ कवि! तेरी करुणा का पारावार नहीं


अमिय बिन्दु

हम अपने समय के एक ऐसे कवि की बात करने जीवन की किस अनुभूति को, समय के किस दृश्य को
जा रहे हैं जिन्होंने समय और समाज पर इतना लिख या समाज के किस घटित को अपनी कविताओं में दर्ज़
छोड़ा है और अभी भी लिखते जा रहे हैं कि उसका करने से छोड़ दिया है? आख़िर कुछ तो ऐसा मिले
मूल्यांकन करने के लिए पीढ़ियों तक इंतजार करना जिसे लेकर हम कह सकें कि हाँ मंडलोई जी की
पड़ेगा। लीलाधर मंडलोई की कविताओं को पढ़कर प्रारंभिक कविताओं में ऐसे क्षणिक उद्गार थे जो
जो सबसे पहला शब्द मन पर चोट करता है वह है क्रमशः गाढ़े होते हुए अमुक दिशा की ओर अग्रसर
‘अनुभव’। वे अनुभव के कवि हैं। उनकी कविताओं हुए। ऐसा कोई छोर नहीं है। इसके अतिरिक्त कथन
में जीवन का जो चित्रण है वह पांचों कर्मेंन्द्रियों और पांचों ज्ञानेन्द्रियों इतना गाढ़ा और मन पर असर करने वाली है कि मानो कविताएँ
के सन्निवेश से उतरता है। वे जल, जंगल, ज़मीन के बारे में सीधे जीवन से उठाई गई हैं और जीवन दृश्यों को कविताओं के
लिखते हैं या कि महिलाओं, आदिवासियों और दलितों के बारे में माध्यम से उकेरा गया है। मंडलोई जी 1976 के आसपास से सृजन
या फिर पूंजी, शोषण, दमन और सत्ता के बारे में उनकी कविताओं कर रहे हैं और बचपन के उस ईको सिस्टम के छूट जाने की पीड़ा
से पता चलता है कि दसों दिशाओं से अनुभव उसमें अनुस्यूत हुआ मंडलोई जी को तराशती रही तो अंदर ही अंदर तोड़ती भी रही। घर
है जैसे कि– ‘मैं 1991 के अख़बार में/ पढ़ रहा हूँ यह ख़बर/ सिर्फ़ घर नहीं होता बल्कि मनुष्य को निर्मित करने वाली पूरी
एक एकड़ कपास की/लागत 2500 रुपये/ और आज 2010 में/ पारिस्थितिकी होती है जिसमें उसका जीवन धड़कता है। बचपन
यह भयानक ख़बर/कि विदर्भ में/ किसान आत्महत्या को मजबूर/ का वह संसार हमारे अंदर हमेशा जीवित रहता है। उसी की दूरी
कि लागत/ 13500 रुपये प्रति एकड़।’ इन दोनों समयों में कवि कवि को भी हमेशा महसूस होती रही। वह शहरों की हवा में अपने
भला एक साथ कैसे हो सकता है? वह एक साथ इतनी दूर की गांव की हवा ढूंढ़ता रहा और जब गांव भी लौटकर जाता था तो उसे
तिथि का अख़बार भी सिर्फ़ कविता लिखने के लिए नहीं पढ़ रहा वहाँ वही बचपन वाला गांव नहीं मिलता था उसमें कुछ न कुछ
होगा, है न! दरअसल वह उस महामना के साथ है जिसे सामूहिक कमी हो जाती थी। उस कमी को वह बदलती पारिस्थितिकी के
चेतना कहते हैं और जिसपर आरूढ़ होकर व्यक्ति, वैश्विक दृष्टि बदले अपने जीवन और बचपन के संसार से तुलना करके देखता
का वाहक़ बन जाता है। यह वैश्विक चेतना उन्हें विश्व मानव नहीं है कि क्या-क्या घट जाता था। इसीलिए वह कहता है कि, ‘घर
बनाती बल्कि वे अपनी ज़मीन, अपने देश, अपने वतन से उतने जब-जब लौटना हुआ/एक बार पिता न थे/दूसरी बार भाई/तीसरी
ही गहरे से जुड़े रहते हैं और साथ ही उनकी नज़र दुनिया की उन बार...अँधेरा था घना/मैंने खटखटाया अँधेरा जो खुलता गया ओर-
दुरभिसंधियों की ओर लगातार जमी रहती है जो भारत और दूसरे छोर/मैं अपना घर अँधेरे में आज भी खोज रहा हूँ।’ यह संवेदना,
तरीके से मनुष्यता को लूटने में कोई कसर नहीं छोड़ते। तभी तो वे यह भाव हर उस व्यक्ति का है जो वापस अपने बचपन के संसार
कह पाते हैं कि, ‘विश्व बैंक खुश था/ और अन्तरराष्ट्रीय मुद्राकोष में वापस जाना चाहता है। हमारे मन में हमारे गली मुहल्लों की
उत्फुल्ल/एक निरीह लोकतंत्र को वे/ खरीद सकते थे कर्ज़ से/ कि स्मृति यथावत है लेकिन जब हम अपने बच्चों के साथ उन गलियों
वे हुए आधुनिक द्रोणाचार्य।’ में पहुँचते हैं तो हमें लगता है सब कुछ बदल गया है, सब कुछ खो
पिछले कई माह से लीलाधर मंडलोई की कविताओं में डूबा है गया है। वह समाज खो गया है, वे लोग बदल गए हैं, लोगों से
मन। उसे कोई ओर-छोर नहीं मिल रहा कि आख़िर इस कवि ने मिलना जुलना बदल गया है लेकिन सच्चाई इससे इतर यह होती

158 n जुलाई से सितंबर 2023 yegh


है कि दरअसल वह वहाँ से चला गया है इसलिए जीवन उसकी
अनुपस्थिति के साथ बहना सीख गई है। पिता को याद करते हुए
मंडलोई जी हमेशा कुछ न कुछ जीवन का पाठ जोड़ते हैं। उन पिता को याद करते हुए मंडलोई जी हमेशा
कविताओं में एक सीख होती है, गहरी सीख होती है। यह भारतीय कुछ न कुछ जीवन का पाठ जोड़ते हैं।
परिवार के उस इकोसिस्टम को भी प्रकट करता है जिसमें माना उन कविताओं में एक सीख होती है, गहरी
जाता है कि माँ लाड़ दुलार देती है और पिता दुनिया में, जीवन सीख होती है। यह भारतीय परिवार के उस
संघर्ष में टिके रहना सिखलाते हैं। ऊपर जैसे पिता के शहर से लौट इकोसिस्टम को भी प्रकट करता है जिसमें
जाने को बाज़ार से जोड़कर एक संदश े दिया है उसी तरह एक माना जाता है कि माँ लाड़ दुलार देती है और
दूसरी कविता में पिता को याद करते हुए लिखते हैं कि, ‘पिता ने पिता दुनिया में, जीवन संघर्ष में टिके रहना
बताया/कि वे दुनिया के/सबसे अमीर आदमी थे/उन्होंने कभी सिखलाते हैं।
किसी से/ न आग मांगी/न रोटी/ न शब्द/न कविता/ न कोई
उधार.... वे अंबानी से अधिक अमीर थे/ यह मुझे तब पता चला/
जब मैं अंबानी का नौकर हुआ।’ इसमें गहरी सीख देते हुए अपनी दुपहरिया में पुदीने का पानी बेंचने वाले के सहारे संघर्ष में अपने
स्थिति पर एक करारा चोट भी करते हैं। यह कवि मन के लिए को अकेला नहीं समझता बल्कि उसका साथ उसे सुकून देता है,
संभव है कि उसकी निगाह अपने को भी नहीं छोड़ती और यही सही हिम्मत देता है– ‘बस एक पुदीने वाला/ भरी धूप में/टाट की छाँव
तरीका भी है। दूसरों को सीख देते रहने से क्या होगा? इसीलिए में/ इस अजाब से बमुश्किल बचता/ शाम की रोटी को आवाज़
मंडलोई जी ने लिखा यह मुझे तब पता चला जब मैं अंबानी का देता/मैं उस छाँव की जन्नत में/एक गिलास पुदीने से/ लड़ता हुआ
नौकर हुआ। भले वे सीधे अंबानी के नौकर नहीं हुए हों या कि अकेला कहाँ?’
उनकी कंपनी में नौकरी न की हो लेकिन पूंजीपतियों के यहाँ नौकरी व्यवस्था या सत्ता या बाज़ार से लड़ता हुआ आदमी भी यदि देखे
के लिए हाँ करते हुए उनके मन में उनके पिता की सीख की टंगारी तो वह अकेला नहीं रहता। क्योंकि व्यवस्थाएँ बहुवचन से डरती हैं
ज़रूर लगी होगी तभी यह उनके हलक से निकलकर कविता में इसलिए वे लोगों को अकेला दिखाने की कोशिश करती हैं। उन्हें
मुखर हुआ है। भी यही पता होता है कि संख्या बल में शक्ति है और भीड़ उनकी
उनकी कविताओं को पढ़ते हुए यह बारम्बार लगता है कि भी शक्ति का आधार होती है इसलिए व्यवस्थाएँ या बाज़ार मनुष्य
बाज़ार या पूंजी सबसे बड़ी कारक थी जिसने समाज को गहरे से की सामूहिक शक्ति से बचती रहती हैं। मगर उसके इस मायावी
प्रभावित किया। अगर हम राष्ट्र के जीवन के स्तर पर भी देखें तो संसार की कमजोरी को समझ इठलाते हुए अकेला आदमी भी
बाज़ार ने ही सबसे अधिक प्रभावित किया है। हाल के दशकों में लड़ने के लिए तैयार खड़ा होता है तो देखता है कि इस व्यवस्था
तो जैसे बाज़ार ने ऑक्टोपस की तरह जीवन के सभी पहलुओं को या बाज़ार या कि सत्ता से लड़ने के लिए हथियार बहुत ही मामूली
अपने बाहुपाश में ले लिया। लेकिन ग़रीब जन कमोबेश इस बाज़ार से प्रयोग करने पड़ते हैं। मैं तोड़ता हूँ सेताब की एक डाली और
से दूर है हालाँकि सबसे अधिक प्रभावित और प्रताड़ित भी वही पत्तियों को उछालता उनकी तरफ। बची नंगी शाखा से बनाता हूँ
हुआ है। पहले एक नज़र डालते हैं कैसे वह बाज़ार की हलक से दातून और थूक के गुब्बारे बना घृणा में फेंकता हूँ। मेरी यह तरकीब
दूर है– ‘मजूर परिवार भूल जाता है/ उन तमाम व्यंजनों का कितनी कारगर होगी कह नहीं सकता। इस तरह अपने भय से
संभावित स्वाद/कि जिनके विज्ञापनों पर/ इतराता है बाज़ार।” लड़ता हुआ मैं, धरती की सुगन्ध लेता सिर्फ़ चीखने की जगह हँसने
लेकिन विडंबना यह है कि मजदूर ने स्वाद के समक्ष तो घुटने नहीं लगता हूँ। यही बात तो गांधी जी को भी समझ में आई थी कि कोई
टेके लेकिन बाज़ार की दूसरी जरूरतों के प्रति वह बेतरह परेशान भी सत्ता या व्यवस्था उसी से अपनी शक्ति लेती है जिस पर वह
हुआ है और परेशान होकर आत्महत्या तक करने को विवश है। सत्ता या व्यवस्था कायम रहती है। जैसे हिन्दुस्तानियों की सेना ही
इसकी बानगी हम एक और कविता में देख सकते हैं–‘एक किसान अंग्रेजों की शक्ति थी। इसी से यह राज भी मिला कि यदि एक साथ
और मर गया/उसे आत्महत्या कहना/अपमान होगा। /मरने के सभी असहयोग जैसा मंत्र अपना लें और उनके सामान का उपयोग
समय/ वह बैंक का दरवाजा खटखटा रहा था।’ इस अँधेरे के बाद न करें तो बाज़ार अपने आप टूट जाएगा और उसी तरह यदि उनकी
फिर एक लौ दिखलाते हैं कि ग़रीब ही लेकिन उस बाज़ार से लड़ने बातें न मानें तो पूरी सेना एक बार में नाकाम कर दी जा सकती है।
का साधन और सहारा भी बन रहा है। जब एक लड़ाकू बीच लेकिन चूकि ं व्यवस्थाओं या सत्ताओं को पता होता है कि उनकी

yegh जुलाई से सितंबर 2023 n 159


कविताओं के विषय इतने व्यापक और विविधता भरे हैं कि
जैसा शुरुआत में कहा उसका कोई ओर-छोर नहीं मिलता। वे
स्त्रियों के बारे में बात करते हैं तो लगता है स्त्रियों की पीड़ा के बारे
में उनसे अच्छा कोई नहीं जानता, आदिवासियों के बारे में बोलते
हैं तो उनकी एक-एक परेशानियों को गिना डालते हैं, दलितों और
शोषितों के बारे में लिखते हैं तो एक-एक जुगत लगाकर धर्म,
समाज, पूंजी सबकी कलई खोलकर रख देते हैं कि कौन किस
तरह से शोषण में लगा हुआ है। सबके अपने तरीके हैं। स्त्रियों के
लिए भी उन्होंने मैं शैली में कविताएँ लिखी हैं– ‘मैं वो स्त्री हूँ/
जिसके भाग्य में/ ससुराल नहीं/ मैंने कोख में नाचना शुरू कर
दिया था। और आदमियों या पुरुषों के ख़िलाफ़ हो गए ऐसा लिखते
हुए– आदमी ने रचा अँधेरा/अँधेरे में कोने/ कोने में स्त्रियाँ/ चीखती
हैं बहुएँ।’ यदि स्त्री सड़क पर आ जाए, बीच समाज में आ जाए या
भीड़ में आ जाए तो उसकी क्या प्रतिक्रिया होती है– कान है लेकिन
कमजोरी क्या है? वे ऐसा कोई अवसर ही नहीं देतीं कि उनके नीचे कान नहीं देती/ हाथ है लेकिन हाथ नहीं देती/ आँख है लेकिन
दबे मनुष्य ऐसा सोच सकें और ऐसा कोई कदम उठा सकें। आँख नहीं देती/ मन है लेकिन मन नहीं देती/ काम पर जाती हुई
इस बचाये रखने में मंडलोई जी ने उन चीज़ों को भी सहेजने की लड़की/ काम पे जाती है/ सूरज की सीध में।
कोशिश की है जो धीरे-धीरे हमारे जीवन से विस्थापित होती जा वे शोषण के उस सिरे को पकड़ते हैं जिसके बल पर समाज
रही हैं। जैसा कि एक स्थापित सत्य है कि हम केवल बाहरी स्थानों सदियों से इन लोगों पर जुल्म करते आया है, उन्हें नेपथ्य में रखते
से या भौतिक स्थिति से ही विस्थापित या निर्वासित नहीं होते बल्कि आया है। कोई बहुत भावुक होता है तो कहता है घर की लक्ष्मियों
बहुत कुछ हमारे मन से भी निर्वासित होता जाता है। जैसे कि को बहुत बचाकर रखना चाहिए। इस बचाकर रखने में शोषण की
बचपन की बोली, भाषा और स्मृतियाँ हम कहाँ तक सहेज पाते हैं। कितनी गहन परतें हैं इसे लक्षित करने के लिए कुछ उदाहरण
बहुत सी ऐसी वस्तुएँ हैं जिनका अस्तित्व तक आज नहीं है। बिजली मंडलोई जी की कविताओं से देखिए- ‘मैं बेटी हूँ प्यारी-प्यारी/ सारे
के कटने पर हम लोग पहले दीया जलाते थे, फिर किराेसिन से घर की राजदुलारी/ मैं न पढ़ती, न सही/ बिना किसी किताब पढ़े/
चलने वाली ढिबरी, फिर गैस लाइट, फिर पेट्रोमैक्स और बाद में पढ़ती हूँ मैं काम काज/ मैं इस इम्तेहान में अव्वल हूँ।’ घर की
इमरजेंसी लाइटें और सोलर लाइटें जैसी अन्य उन्नत चीज़ें। इसके राजदुलारी को राज करने के लिए पढ़ने नहीं दिया जाता। इसीलिए
बाद आया इनवर्टर और अब तो इनवर्टर भी पीछे छूटता जा रहा है ऐसी राजदुलारियों का जब समाज से मोहभंग होता है या कहें कि
और उसकी जगह लेता जा रहा है जनरेटर। इसी तरह ढिबरी की जब नंगी सच्चाई से सामना होता है, ‘तो प्रेम को गुलामी की वह
याद में एक कविता मिलती है मंडलोई जी के यहाँ, ढिबरी को पहली सीढ़ी मानती थी/ ईश्वर की मायाओं को वह निरा झूठ
उनकी बोली में टेमा कहा जाता था। वह उसे याद करते हैं उसकी समझती थी/ शिवलिंग पूजक स्त्रियों पे/ वह खुलके हँसती थी/
पूरी पारिस्थितिकी के साथ– ‘तोड़ते हुए उसने कोयले के पहाड़/ कहना था उसका ‘मैं लिंगपूजक नहीं, न शिव की/ न ही किसी
याद रखा टेमे को एक आइने की तरह/उसके विषैले धुएँ की परत और की/ अपनी कोख को लेके उसमें/ अजीब-सा वितृष्णा भाव
फेफड़ों को बनाती रही घर/एक गन्ध भरी रोशनी लेकिन जो/दो था/ वह नहीं चाहती थी अपना कोई उत्तराधिकारी।’ लेकिन उसके
जून की रोटी का इन्तजाम कर सकती थी।’ यह बचाना या याद चाहने से होता भी क्या है। उत्तराधिकारी कभी उसका होता कहाँ
करना सपाट स्मृति का विषय नहीं है और न सिर्फ़ कोरी भावुकता है? उत्तराधिकारी तो पितृसत्ता का होता है और उसका बर्ताव भी
है बल्कि यह बचाना है उस दौर को थोड़ा सा बचा लेना जब बिना वही-समझ रहा मैं कि वहाँ वह/ घिरी असंख्य छायाओं से/ पिता,
सुविधाओं के जीवन दौड़ रहा था। यह केवल बोली या भाषा को पति, पुत्र और सास-ससुर/ ननदें कम जल्लाद नहीं और देवर तो
बचाए रखना नहीं है। भाषा को बचाने की कवायद तो अलग स्तर उफ! ऐसी व्यापक और विशाल दृष्टि के बाद भी कुछ लोग कहते
पर करते हैं कि देश उनकी अगवानी में अपनी भाषा भूल/ उनकी हैं कि मंडलोई की कविताएँ भले आदिवासियों और शोिषतों-पीड़ितों
भाषा में कसीदे पढ़ रहा है। की बात करती हैं लेकिन उनकी कविता खाए अघाए कवि की

160 n जुलाई से सितंबर 2023 yegh


कविता है, अभिजात्य की कविता है। मनुष्य के दोस्तों की तरह चलते थे साथ-साथ। मनुष्यों का सामान
कौन ऐसा अभिजात्य है जो बारम्बार छिंदवाड़ा और आसपास और दुख-सुख लिये वे करते थे यात्रा और छाँह देते थे। फिर मनुष्य
के इलाकों में अकेला घूमता नज़र आता है। कौन है ऐसा जो भले की अनदेखी, बेरहमी और उपहास के कारण हो गये सब अपनी
परिस्थितिवश महानगर में रहता हो लेकिन जिसकी आत्मा बार- जगह स्थिर। किसी ने नहीं देखा उन्हें उसके बाद चलते हुए।
बार उस नदी, उस पहाड़ की ओर भागती है जिनके बीच उसका लोककथा में रूपक कितना प्यारा है? भले ही इसका सच्चाई से
बचपन बीता था। क्या किसी व्यक्ति को विकास का अधिकार नहीं कोई लेना देना नहीं हो लेकिन जीवन के लिए सच्चाई का अर्थ क्या
है? यदि वह विकास की सीढ़ियाँ चढ़ता हुआ अपने शोषण के सारे है? क्या भौतिक जगत की सच्चाई जीवन के लिए ठीक वैसी ही है
रास्तों को बंद करता हुआ ख़ुदमुख्तार हो जाता है तो क्या उसे जैसी हमें दिखती है? या जैसे हम देखते हैं? यदि ऐसा होता तो
अभिजात्यता में गिना जाएगा? ऐसे ही बहसबाजियों के लिए कोई सबके लिए सच्चाई का एक ही रूप होता। सबके लिए सुन्दरता का
भी जुमला उठा देना आजकल का नया शगल हो गया है। क्योंकि एक ही मतलब होता। सबके लिए अच्छाई का एक ही अर्थ होता।
अब सबके लिए दरवाजे खुले हैं और सोशल मीडिया का प्लेटफार्म लेकिन जीवन तो अपने व्यापक रूप में हर क्षण परिवर्तनशील है
है तो कोई कुछ भी लिख देता है। अभी सोशल मीडिया की हालत और इसी क्षणिकता में उसकी जीवंतता छिपी है।
यह है कि वहाँ प्रेमचन्द भी अभिजात्य की श्रेणी में गिने जा रहे हैं इसी तरह कुछ लोग कहते हैं कि कविता में लय होनी चाहिए
और उनके साहित्य को शब्दों का मायाजाल कहक़र उसे प्रेरित और यह भी कि कविताएँ गेयता से जितनी दूर होती जाती हैं उनकी
बताया जा रहा है। ऐसे में शोषकों को लक्षित करना और उन्हें आत्मा उतनी कमजोर होती जाती है। ऐसे लोगों का यह भी कहना
संबोधित करना भी बड़ी बात है- ‘इधर भेड़िये हैं उधर लकड़बग्घे/ है कि मंडलोई जी की कविता में गेयता की कमी है, कम से कम
सलाह के लिए स्याह सियार/ या फिर कुटनी बिल्ली/ अब ऐसे में उसमें लय तो होनी चाहिए। निश्चित तौर पर मंडलोई जी ने तमाम
भला कैसे बच सकती है जवान होती लड़की।’ वे नारा बनाने के विचारधारात्मक और अनुभवात्मक कविताएँ लिखी हैं लेकिन
लिए काम नहीं करते और न ही झण्डाबरदार बनने के लिए। उनकी उसमें गेयता की, एक धमक की, एक धुन की बिलकुल अनुपस्थिति
बातें सिर्फ़ और सिर्फ़ करुणा से निःसृत होती हैं जो गहरे तक चोट हो ऐसा नहीं लगता। जब वह नदियों के बारे में लिखते हैं तो उसमें
करती हैं लेकिन शोर नहीं मचातीं- ‘एक साधारण घटना नहीं/ शर्म से आप नदियों की कल-कल, छल-छल सुन सकते हैं। जब वह
की बात है-/ कि एक स्त्री ने/ प्रतिरोध में/ धरती की शरण ली।’ आदिवासियों की बात करते हैं तो उन कविताओं में उनके जीवन
और अंततः उन स्त्रियों की ललकार बनकर बिफरते हैं कि मैं समा धुन को साफ-साफ सुन सकते हैं। दरअसल जब हम संगीत को
नहीं सकती किसी बने-बनाये घेरे में/ मैं रक्त की नदी हूँ/गोस्त का छंद में सीमित करने लगते हैं तब इस तरह के निष्कर्ष निकाले जाने
ढेर नहीं।’ का रास्ता मुफीद होता है कि अमुक की कविता में संगीत अनुपस्थित
सबको आवाज़ देने की जुगत में सबकी बोलियों को, भाषाओं है। मगर यदि हम संगीत के बोध और नाद की उपस्थिति की बात
को, शब्दों को बचा लेने की जो जुगत मंडलोई जी अपनी कविताओं करें तो उसके बिना तो कविताएँ, कविताएँ रह नहीं जातीं। आप इन
में करते हैं उनमें सबसे ज्यादा स्थान आदिवासियों को मिला है। पंक्तियों को बोलकर देख लो आख़िर हाथ कंगन को आरसी क्या-
कारण भी साफ है कि उनकी ही थाती और विरासत को सबसे ‘आओ बाबू साहब आओ/ भरी नींद से हमें जगाओ/ पियो विदेशी,
अधिक ख़तरा है। इस ख़तरे को भाँपते हुए वे कभी अण्डमान के मुर्गा खाओ/रात-रात भर हमें नचाओ.’... इतना ही नहीं इसमें हो
आदिवासियों के रक्षक बनते हैं तो कभी अपनी जन्मभूमि और सकता है आपको छंद भी मिल जाए। एक विचारणा वाली कविता
आसपास के। आदिवासी समाज की एक-एक बात को वे बचा लेना देखिए- ‘इस मिट्टी में खेलकर बड़े हुए/ इस मिट्टी से माँ ने खदान
चाहते हैं क्योंकि उन्हें पता है कि यदि इन्हें मुख्य धारा में कुछ जगह के लिए गुटके बनाए/इस मिट्टी से घर की भीत उठाई/इस मिट्टी से
नहीं मिली तो बहुत जल्द विलुप्त की श्रेणी में इनका नाम शामिल पुरखों की आकृतियाँ दीवार पर उकेरीं/इस मिट्टी से घर का चूल्हा
हो जाएगा। देखिए अण्डमान की एक जनजाति ओंगियों के एक बनाया/इस मिट्टी से परिन्दों के लिए सकोरे बनाए...इसे छूकर आज
विलक्षण संस्कार को कैसे रक्षित करते हैं- ‘और संस्कारों से मुझे बेतरह रोना आया/इस मिट्टी पर मेरा कोई हक़ नहीं/सरकार
एकदम अलग है ‘तानागिरू’/डुगांगक्रीक की सबसे बड़ी ख़बर है का अध्यादेश तो यही कहता है।’ n
आज/ कि अभी एक लड़का हुआ है जवान/ और इस तरह एक संपर्क : फ्लैट नं. 132, शिवम खण्ड, वसुन्धरा
और रक्षक ओंगियो का।’ वह इसी तरह अंडमान की एक लोककथा सेक्टर 19, गाजियाबाद, उत्तर प्रदेश-201012
का ज़िक्र करते हुए अपनी कविता में बतलाते हैं कि पेड़ पहले मो. 9311841337

yegh जुलाई से सितंबर 2023 n 161


n अविराम : स्वप्निल श्रीवास्तव

लोकजीवन, प्रेम और विडंबनाओं की यात्रा


विशाल श्रीवास्तव

यह बहुत कम होता है कि किसी कवि की कविता इकाई और मध्यवर्गीय साधारण चीज़ों (विषयों) की
तक पहुँचने का रास्ता उसकी किसी गद्य पुस्तक से स्वीकृति समकालीन हिंदी कविता में होने लगी थी।
खुले, लेकिन कभी-कभी ऐसा होता भी है। स्वप्निल ‘ईश्वर एक लाठी है’ से प्रारम्भ हुई स्वप्निल श्रीवास्तव
श्रीवास्तव की कविताओं को एक अध्येता के रूप में की कविता-यात्रा का प्रारम्भिक हिस्सा लोकजीवन के
लम्बे समय से पढ़ते रहने के बावज़ूद उनकी उपन्यास अनुभवों, गाँव के जीवन की परिस्थितियों और संबंधों से
कही जा रही पुस्तक ‘कवि की अधूरी कविता’ से आच्छादित है। अपने पिता के साथ उनका संबंध वैसा
गुज़रने के बाद मेरे लिए उनकी कविता को समझने का ही था जैसा हर औसत मध्यवर्गीय परिवार में पिता और
रास्ता कुछ अधिक प्रकाशित हुआ। यह मूलतः एक संस्मरणात्मक पुत्र का होता रहा है। उसमें संकोच की एक सख़्त दीवार मौज़ूद थी
या कि कह लें आत्मकथात्मक उपन्यास है, जिसके क़िरदार पहचाने जिसके आर-पार संबंधों का ताप शायद नहीं पहुँच सकता था।
जा सकते हैं और उसमें विन्यस्त जीवन भी। एक कवि के रूप में स्वप्निल श्रीवास्तव के इस संग्रह में शामिल उनकी सबसे चर्चित
स्वप्निल श्रीवास्तव की निर्मिति का पूरा इतिहास यहाँ उपस्थित है। कविता ‘ईश्वर एक लाठी है’ के केन्द्र में भी पिता ही हैं।
उनके कविता-संग्रहों की कविताओं के साथ-साथ इस उपन्यास के ईश्वर एक लाठी है
विवरणों को मिला-जुलाकर ही उनके काव्य-व्यक्तित्व के समस्त जिसके सहारे अब तक
आयामों को उद्भासित किया जा सकता है। चल रहे हैं पिता
स्वप्निल श्रीवास्तव आठवें दशक के कवि हैं, यह वह दौर था मैं जानता हूँ कहाँ-कहाँ
जब हिंदी कविता सातवें दशक में व्याप्त विविध आंदोलनों से मुक्त दरक गयी है उनकी
हो रही थी। नंद किशोर नवल का ‘धूमिल से मुक्ति की कविता’ लेख यह कमज़ोर लाठी
अत्यंत महत्वपूर्ण है, जिसमें वे हिंदी कविता की धूमिल के मुहावरों
से मुक्ति की बात करते हैं। यह लेख लिखते-लिखते वरिष्ठ कवि रात में जब सोते हैं पिता
राजेश जोशी का एक साक्षात्कार देखा, जिसमें वे आठवें दशक में लाठी के अन्दर चलते हैं घुन
चारू मजूमदार की मृत्यु को एक महत्वपूर्ण समय-बिन्दु के रूप में वे उनकी नींद में पहुँच जाते हैं
देखते हुए यह मानते हैं कि इसके बाद आंदोलन कमज़ोर पड़ते गए। मध्यवर्गीय परिवार संस्था में लगभग हर पुत्र-पिता के बीच इस
समकालीन हिंदी कविता पर इसका प्रभाव भी स्पष्ट रूप से दिखाई तरह के संबंधों को उस दौर में देखा जा सकता था। साठ के दशक
देता है कि अकविता आंदोलन से जुड़े कई कवि भी बाद मे यथार्थवादी में तो परिवार और घर से एक तरह की ऊब भी स्पष्ट थी, जिसे
अभिव्यक्तियों की ओर बढ़ते चले गए। उनके इस यथार्थ का संसार ज्ञानरंजन और उनके साथी कथाकारों ने अपनी कहानियों के केन्द्र में
केवल विचारधारा या राजनीति से जुड़े संस्तरों में नहीं मौज़ूद था रखा था। समकालीन कविता के इस दौर में पारिवारिक संबंधों की
बल्कि व्यापक मानवीय संबंधों, निजी सुख-दुख, घर-परिवार आदि वह ऊष्मा लौटती हुई दिखाई देती है, भले ही उसमें दूरियाँ रही हों पर
के वर्णनों में भी विन्यस्त था। इसके कई उदाहरण मिलते हैं मसलन संकोच के साथ गुथं े हुए प्रेम की एक हरारत भी बनी रही। निश्चित
उदयप्रकाश की कविता ‘पिता’, जो संघर्षशील पिता के बारे में है। रूप से इस पीढ़ी के जो पिता थे, वे आज़ादी के दौर में सपनों और
यह उन दिनों की कविता में बहुत साफ़ दिखता है कि पारिवारिक संघर्षों का मिला-जुला दौर देख रहे थे। उनकी मुश्किल थी कि वे

162 n जुलाई से सितंबर 2023 yegh


स्वयं रूढ़िवादी और सामंतवादी मूल्यों से मुक्त नहीं हो पा रहे थे और नौकरी के सिलसिले में विस्थापन उस दौर की सामान्य परिघटना थी।
उनकी अगली पीढ़ी आधुनिकता का ध्वज लिए तैयार थी। यह दो ऐसा नहीं था कि यह लोक की स्मृति और उससे उपजी अतीतजीविता
पीढ़ियों का वैचारिक संघर्ष था, जिसमें नैतिक मूल्यों से जुड़ी वर्जनाएँ हिंदी कविता में कोई नयी परिघटना थी। नयी कविता की कवि त्रयी
एक महत्वपूर्ण संस्तर के रूप में मौज़ूद थीं। यही कारण है कि नयी केदारनाथ अग्रवाल, त्रिलोचन और नागार्जुन के यहाँ लोक की अत्यंत
पीढ़ी अपने पिता के संघर्ष और मूल्यों का सम्मान तो करती थी समृद्ध छवियाँ पहले से उपस्थित थीं। यद्यपि नयी कविता में लोक-
लेकिन वैचारिक आधारों पर गहरे रूप में असहमत थी। इसी कविता चेतना की अभिव्यक्ति और समकालीन कविता में उपस्थित लोक में
में ‘लाठी पिता का तीसरा पैर है’ जैसी पंक्ति आती है, यहाँ पिता को भिन्नता स्पष्ट दिखाई देती है। जहाँ नयी कविता में लोक ऊर्जस्विता
उनकी आस्तिकता से मिलने वाली ताक़त पर कवि केन्द्रीभूत है, का प्रतीक है और कवि के वर्तमान जीवन को शक्ति देता प्रतीत होता
लेकिन उसका यथार्थ भी उसे पता है। यदि ऊपर संदर्भित कवि के है, वहीं समकालीन कविता में प्रायः विस्थापन की पीड़ा के कारण
आत्मकथात्मक उपन्यास के विवरणों में हम जाएँ तो पता चलता है लोक-सौंदर्य की स्मृतियाँ उनके लगातार होते जाते क्षरण की चिंता
कि पिता के साथ उनका संबंध तनिक रूखा-सा ही था। अनुशासन, के रूप में अधिक अभिव्यक्त हुई हैं। नयी कविता का लोक अपनी
नियमबद्धता और सामाजिक ताने-बाने के प्रति आग्रही पिता और ओर आमंत्रण देता हुआ और आकर्षित करता हुआ दिखता है तो
कवि में प्रवाहमय और तरल स्नेह-संबंध नहीं दिखाई देता बल्कि एक समकालीन कविता का लोक जैसे बहुत दूर से आती हुई आवाज़ है,
गहरा तनाव हर जगह तारी दिखता है। पिता को इस तरह विभिन्न जिसमें एक उदास भारीपन है। उदाहरण के लिए पहले संग्रह ‘ईश्वर
स्थितियों में देखते कवि ने बेहद साधारण चीज़ों के माध्यम से उनके एक लाठी है’ की कविता ‘धान के खेत’ में खेत, बादल और
व्यक्तित्व की पहचान करने की कोशिश की है। किसान-जीवन के सौंदर्य अन्ततः फसल पर नज़र गड़ाए महाजन की
स्वप्निल श्रीवास्तव के दूसरे संग्रह ‘ताख पर दियासलाई’ में हम दृष्टि पर आकर समाप्त होती है, यानी लोक-सौंदर्य के वर्णन के साथ
देखते हैं कि पिता की मजबूत लाठी एक कमजोर और मरम्मतशुदा उसके नष्ट हो जाने की आशंका और भय भी कविमन में निरंतर
छाते में बदल जाती है, हालाँकि अभी भी पिता इस छाते से लाठी का विद्यमान हैं। कुछ ऐसी ही परिणति ‘गेहूँ’ कविता में होती है, जहाँ गेहूँ
भी काम लेते थे- की महक़ से सुगन्धित सीवान के वर्णन के बाद कवि कहता है कि
पिता जब भी गहरी नींद में होते हैं ‘रोटी का स्वाद खेत से शुरू होता है/और जब वह नहीं पहुँच पाता
चूहे छाते को कुतरते हैं है भूख़े आदमी के मुँह तक/तब भूख़ा आदमी भूकम्प की तरह पूरे
उसे छलनी-छलनी कर देते हैं ग्लोब पर उठता है’। ‘सेंमल’ कविता में फिर यह बात देखने को
पिता सुई तागा लेकर फिर से मिलती है कि आधुनिक मध्यवर्ग ने लोक की याद अपने विस्थापित
तोपने लग जाते हैं नये छेद जीवन में किस तरह की है। तकिए में भरी रूई से सेंमल की स्मृति
यह कविता रचना-यात्रा का एक स्वाभाविक क्रम भी है, पहली का आना कुछ ऐसा ही है, समकालीन हिंदी कविता में गाँव से आए
कविता में बमक कर लाठी तानने वाले पिता के अशक्त होते जाने शहरी मध्यवर्ग के कवियों के यहाँ रोज़मर्रा के इस्तेमाल की मामूली
का प्रतीक जैसे यह छलनी छाता है, जो अब उनकी लाठी भी है। चीज़ों के माध्यम से लोक की स्मृतियों का प्रस्फुटन बहुतायत से हुआ
लाठी से छाते तक की यह यात्रा जैसे उसी पीढ़ी की चमक का एक है, जिसके प्रतिनिधि कवि केदारनाथ सिंह हैं। लोक-स्मृति से सम्पृक्त
उतार भी है। यह यात्रा अन्ततः पिता की मृत्यु के बाद उनकी याद में यह अतीतजीविता निरंतर उसके क्षरण की चिंताओं से किस तरह
लिखी कविता ‘पिता की तरह’ तक पहुँचती है। ‘ज़िन्दगी का सम्बद्ध होती है, इसके कई उदाहरण कवि के दूसरे संग्रह ‘ताख पर
मुकदमा’ शीर्षक संग्रह में सम्मिलित इस कविता में कवि ख़ुद को दियासलाई’ में मिलते हैं।
पिता जैसा होते हुए अनुभतू कर रहा है- विजयदेवनारायण साही ने लघुमानव विषयक अपने चर्चित लेख
मैं पिता का प्रतिफल हूँ में कृषक-संस्कृति को भारतीय चेतना के मूल में देखा है, ग़ौरतलब
उनका लगाया हुआ अमोला है कि हिंदी कविता में कुदाल पर कई कविताएँ हैं। स्वप्निल कुदाल
लेकिन उनकी तरह छतनार को खेत के इतिहास में महत्वपूर्ण मोड़ की तरह देखते हुए इसकी मूठ
नहीं हो सका पर चाँदी की तरह चमकते हुए श्रमकणों की और स्त्रियों द्वारा इसे
स्वप्निल श्रीवास्तव के प्रारम्भिक संग्रहों में जो एक दूसरी देखकर रचे हुए लोकगीतों की बात करते हैं, जाहिर है उनकी नज़र
महत्वपूर्ण प्रवृत्ति दिखती है, वह है गाँव के लोक-जीवन के प्रति गहरी में कुदाल शक्ति, सौन्दर्य और संस्कृति के समन्वय का प्रतीक है।
आसक्ति। स्वतंत्रता के बाद स्वप्नभंग के वातावरण में पढ़ाई और केदारनाथ सिंह अपनी ‘कुदाल’ कविता में अचरज़ में हैं कि माली

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उसे दरवाज़े के बाहर रखकर चला गया है और उसका वहाँ होना जिस तरह की विडंबनाओं का सामना करना पड़ता है और हालिया
कवि को अटपटा लग रहा है और उनका किसान मन स्वयं को पृथ्वी लॉकडाउन में हुए प्रति-विस्थापन की कारुणिक गाथाओं ने इस
पर कुदाल होने की गवाही में खड़ा देखता है तो कुमार मुकुल अपनी विमर्श का व्यापक विस्तार संभव किया है। समकालीन कविता में
कविता ‘कुदाल की जगह’ एक मज़दूर स्त्री की पगड़ी के ऊपर टिकी यथार्थ के इस आयाम का अंकन अत्यंत महत्वपूर्ण है।
कुदाल को देखकर केदारनाथ सिंह को बताना चाहते हैं कि कुदाल लोकजीवन के विभिन्न चरित्रों पर आधारित कविताएँ भी अपने
की सही जगह एक गतिशील सर पर होती है। हालाँकि यहाँ उनसे इस समूचे वैशिष्ट्य में स्वप्निल श्रीवास्तव के काव्य-संसार में मौज़ूद हैं।
तथ्य के साथ असहमत होने को जी चाहता है कि स्वप्निल श्रीवास्तव ‘ताख पर दियासलाई’ के मुखिया दादा को समर्पित खण्ड में एक
की कुदाल समृद्धि खलिहान से निकलकर केदारनाथ सिंह के शहरी लम्बी कविता है ‘सुगुनू साधू’। हमारे अतीत में सामाजिक जीवन में
घर की क्यारी में विस्थापन पाती है और अंततः कुमार मुकुल की चरित्रों की विविधता एक आकर्षक तत्व के रूप में उपस्थित थी, अब
कविता में साइबर सिटी में भटकती मज़दूर स्त्री की पगड़ी में अभाव सबका जीवन एकरैखिक और एकवर्णी होता जा रहा है, किसी का
का निर्वासन पाती है तो यह कुदाल की सही जगह भला कैसे हो सधुआ जाना पहले के समय में प्रायः होने वाली एक घटना थी।
सकती है? वस्तुतः कुदाल के विस्थापन की यह यात्रा मनुष्य के भी सुगुनू लोनिया का सधुआ जाने को किसी किंवदंती या मिथक के
विस्थापन की वास्तविक तस्वीर को बयान करती है। बतौर कवि रहस्य की तरह इस कविता में विस्तार मिला है। उनके सधुआने के
स्वप्निल श्रीवास्तव इस विस्थापन की पीड़ा को भी न केवल बख़ूबी कारणों के साथ उनके लौकिक जीवन की विशिष्टताओं को भी कवि
पहचान सके हैं बल्कि उसका काव्यात्मक बयान भी संभव कर सके ने बहुत आत्मीयता के साथ याद किया है, उदाहरण के लिए कुँआ
हैं, जिसका उदाहरण है उनकी कविता ‘पुरबिये’, जिसमें वह साफ खोदने की उनकी विशेषज्ञता या अच्छे-बुरे बैलों की उनकी सटीक
कहते हैं- पहचान की ताक़त। जीवन में इतना डूबे व्यक्ति के सधुआ जाने को
मैंने उन्हें देखा है एक विशाल वृक्ष से कवि ने एक विस्मय की तरह देखा है और उनके साधु जीवन और
डाल की तरह अलग होते हुए लौकिक जीवन के संतुलन की परिस्थितियों और पलायन को गहराई
महसूस की है मैंने पेड़ की पीड़ा से वर्णित किया है। कविता के अंत में यह पंक्ति कि ‘अब भी उनके
डाल का विछोह खोदे गये कुँओं में/दिखाई पड़ता है उनका चेहरा/गूँजती है जहाँ-तहाँ
कौन जानता है महानगर के उनके फरुहे की आवाज़’ लोक के एक चरित्र की व्याप्ति को रेखांकित
किस फुटपाथ पर करती है और यह बताती है कि तथाकथित अध्यात्म की बजाए
किन गंदी बस्तियों में मनुष्य का श्रम ही वह वस्तु है जो संसार में उसकी वास्तविक स्मृति
पत्तों की तरह विपरीत हवाओं में को बनाये रखती है। इसी तरह ‘गठरी में रोटी’, ‘खाँची’, ‘ढिबरी’,
उड़ते हुए वे किस अलाव की बनेंगे आँच ‘पुराने चावल’ और ‘जामुन का पेड़’ जैसी कई कविताएँ हैं जो
शहर के किस कोने में गलायेंगे स्वप्निल श्रीवास्तव की कविता के लोकपक्ष को उद्घाटित करती हैं।
अपना हाड़-माँस कवि के तीसरे संग्रह ‘मुझे दूसरी पृथ्वी चाहिए’ में 1990 से
शोर में नहीं सुना पायेंगे 1999 तक की कविताएँ संकलित हैं। हिंदी कविता का यह एक
अपनी बोली अपनी भाषा अत्यंत महत्वपूर्ण दौर है, जहाँ न केवल कविता के कथ्य की दृष्टि
इस कविता में स्वप्निल श्रीवास्तव अंजोर की दिशा वाले लोगों के से बल्कि शिल्प की दृष्टि से भी कुछ महत्वपूर्ण प्रस्थानबिन्दु देखने
जीवन में व्याप्त अँधेरों को पहचानने की कोशिश करते हैं। भारतीय को मिलते हैं। उदारीकरण के बाद मुक्त अर्थव्यवस्था से उपजे
अर्थव्यवस्था के केन्द्र में कृषि की जगह उद्योग के आ जाने के बाद बाज़ारवाद और कट्टरवाद के उभार के उत्पाद के रूप में सांप्रदायिकता
जिस तरह सीमांत किसानों और मजदूरों का विस्थापन शहरों की ओर दो बड़ी चुनौतियों के रूप में सामने थीं, जिनका स्पष्ट प्रभाव उस दौर
हुआ और ग्राम्य संस्कृति दरिद्र होती चली गयी, इसकी शिनाख़्त इस में लिखी गयी कविताओं में नज़र आता है। स्वप्निल श्रीवास्तव की
कविता में है। पुरबिया होना एक समृद्ध भौगोलिक-सांस्कृतिक कविताएँ भी इस प्रभाव से अछूती नहीं हैं। वैसे तो इस प्रभाव की
पहचान से नगरीय क्षेत्रों में मज़दूरी करने वाले वर्ग में बदल गया, यह शुरुआत मेरठ पर केन्द्रित उनकी आठ कविताओं की शृंखला से ही
इस कविता में दर्ज़ होता और यह भी कि किस तरह वह अवमूल्यित हो जाती है, जो उनके पिछले संग्रह में संकलित हैं, लेकिन ‘मुझे
होते हुए दिल्ली-मुम्बई में इस वर्ग को दी जाने वाली एक गाली में दूसरी पृथ्वी चाहिए’ संग्रह की शुरुआती कविता ‘ईश्वर का जन्म
बदल गया। आज राजनीति में क्षेत्रवाद के चलते हुए इस वर्ग को स्थान’ जो तीन खण्डों में विभाजित है, सांप्रदायिक उभार की स्पष्ट

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और तीखी आलोचना करती है। स्वप्निल अपनी शुरुआती कविता में समृद्ध इलाका है। किसी मामूली प्रसंग से शुरू होकर यह कविताएँ
अगर यह कहते हैं कि पिता नहीं समझ पाये कि ईश्वर किस कोठ की एक मार्मिक उठान तक अनायास ही पहुँच जाती हैं। कवि का
लाठी है, तो यहाँ वे कहते हैं कि इन सांप्रदायिक शक्तियों को पता है व्यक्तिगत जीवन भी सतत प्रेमाच्छादित रहा है, यद्यपि उसके रोमांच
कि ‘उनकी राजनैतिक विपदा में/सबसे ज्यादा काम आता है ईश्वर’ और प्रसन्न अनुभवों की तुलना में त्रासदियाँ और विडंबनाएँ उनके
और बताते हैं कि ‘जनता को ठीक-ठीक पता नहीं/कहाँ है ईश्वर का हिस्से में अधिक आई हैं, तथापि प्रेम की गहनता को जिस अनूठी
जन्मस्थान/वह पुरातत्ववेत्ता और राजनेता/की राय के बीच में संवेदना के साथ उन्होंने अपने काव्य-संसार में व्यवहृत किया है, वह
दिग्भ्रमित है’। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि कवि ने अपने जीवन के सचमुच रेखांकित करने योग्य है। उनके पहले ही संग्रह में एक स्त्री-
उत्तरार्द्ध का एक बड़ा हिस्सा अयोध्या में व्यतीत किया है, जो नब्बे सौन्दर्य का बिम्ब है, जहाँ एक स्त्री महुए के फूल चुन रही है। हिंदी
के दशक से ही सांप्रदायिक ध्रुवीकरण का केन्द्र बना हुआ है। उन्होंने कविता में श्रम का सौंदर्य वर्णित नहीं हुआ है, ऐसा नहीं है किन्तु
इस सांप्रदायिक राजनीति के बीजारोपण और पल्लवन को बहुत कविता में सौन्दर्य के तत्प्रचलित ऐन्द्रिक मुहावरे से बाहर आकर गाँव
नज़दीक से देखा है। यही कारण है कि उनकी कविता में ईश्वर की के एक तरुण कवि की सौन्दर्यदृष्टि यहाँ एक नया दृश्यसंसार रचती
शपथ खाकर मंत्री घोषणा करता है कि अफीम से ईश्वर के समीप हुई प्रतीत होती है। उनके दूसरे संग्रह ‘ताख़ पर दियासलाई’ में
पहुँचा जा सकता है और अफीम आध्यात्मिक स्वास्थ्य की कारग़र ‘बारिश : चार प्रेम कविताएँ’ में भी वे सम्बोधित प्रेयसी को एक
औषधि है। स्वप्निल श्रीवास्तव की कविता में प्रगतिशीलता का प्रभाव निचाट युवा पेड़ की तरह अकेला भीगते हुए देखना चाहते हैं और वह
है, लेकिन अपने कथ्य में वे कहीं भी घोर अनास्थावादी नहीं नज़र भी एक भटके हुए मेघ दृष्टि से। उल्लेखनीय इसी कविता में वे प्रेयसी
आते हैं, बावज़ूद इसके वे धर्म और आस्था के राजनैतिक इस्तेमाल से यह प्रश्न भी पूछते हैं कि तुमने गाँव के मकानों का बारिश में लद्द-
के ख़तरों को समझते हैं और उसकी आलोचना करते हैं। स्वप्निल लद्द गिरना नहीं देखा है। यानी यह प्रेम अपनी अनुभूति की गहनता
श्रीवास्तव जब वैचारिक कविता के मैदान में आते हैं तो यह समझ में भी लोकदृष्टि से निरपेक्ष नहीं है और उस ‘कन्सर्न’ से च्युत नहीं
आता है कि वे चीज़ों को एकदम निरपेक्ष तरीके से ही नहीं देखते होता जो कवि की मूल चेतना में निरंतर मौज़ूद है। स्वप्निल स्वयं को
बल्कि उसको इतिहास के पूर्वापर संबंधों में व्याख्यायित करने की भी दुनिया के कोलाहल से भागा हुआ एक हिरन शावक कहते हैं, जो
क्षमता रखते हैं। उनकी कविता किसी उत्साही क्रांतिकारी की तरह एक छतनार पेड़ के नीचे ठिठका हुआ है, दरअसल कवि की प्रेम की
सिद्धान्तों और तद्विषयक गतिविधियों के बुलडोजरी मूर्तिभंजन में तलाश पृथ्वी की हरियाली में एक आदिम संगीत की खोज है, जिसे
विश्वास नहीं रखती बल्कि वे आधार पर धीरे-धीरे पुख़्ता चोट करने कवि ने अपनी कविता में अभिव्यक्त भी किया है। लेकिन इसे एक
में विश्वास रखते हैं। एक दूसरी कविता ‘बादशाह हुसैन रिज़वी का व्यक्तिगत त्रासदी का परिणाम कहें यह बदली हुई दुनिया की रुक्षता
दुख’ में वे कहते हैं, ‘बादशाह हुसैन रिज़वी/हिन्दू अथवा मुसलमान कि कवि को कहना ही पड़ता है कि ‘मुझे दूसरी पृथ्वी चाहिए’, इसी
नहीं/एक इंसान हैं/लेकिन हिन्दुओं के मुहल्ले में उन्हें/इंसान नहीं नाम से आए अपने संग्रह की प्रतिनिधि कविता ‘प्रेमावेग’ में कवि
मुसलमान/समझा जाता है/यही बादशाह हुसैन रिज़वी का दुख है/ कहता है, ‘मुझे अपना प्रेमावेग/प्रकट करने के लिए/दूसरी पृथ्वी
जिसे दिल्ली के शाही इमाम/और विश्व हिन्दू परिषद के आका/नहीं चाहिए/यहाँ कुछ भी संभव नहीं है/यहाँ सभी चीज़ें़ प्रेम के विरुद्ध हैं’।
समझ पाते’। सांप्रदायिक तनाव ने भारत और ख़ासकर अवध और ग़ौरतलब है कि यह संग्रह उन्होंने अपनी दिवंगत पत्नी को समर्पित
पूर्वांचल के इलाके़ की मशहूरियत रही गंगा-जमुनी संस्कृति को बहुत किया है (‘ताख़ पर दियासलाई’ का भी एक खण्ड उन्हें समर्पित
नुक़सान पहुँचाया है, यह हमारी सभ्यता की अपूरणीय क्षति है। यह है)। यहाँ ध्यान देने योग्य बात यह है कि निजी जीवन की त्रासदी
नब्बे के दशक के बाद अचानक हुआ कि वे हिन्दू-मुसलमान को उन्होंने किस तरह बड़ी और व्यापक मानवीय चिंताओं में
पड़ोसियों और दोस्तों में एक दीवार खड़ी हो गयी। अल्पसंख्यक वर्ग रूपांतरित करते हुए अनुभूत और अभिव्यक्त किया है। उनकी चिंता
में उपजे असुरक्षाबोध का यह कविता मुक़म्मल बयान करती है। यह है कि यह पृथ्वी हरीतिमा की कमी, प्रदूषण और हिंसा के कारण प्रेम
अकारण नहीं है कि इसी संग्रह की एक दूसरी कविता ‘हिन्दू’ में वे करने की जगह नहीं रह गयी है, इसीलिए वे दूसरी पृथ्वी की खोज
कहते हैं, ‘मुझसे कहा गया म्लेच्छों को मुल्क से बाहर निकालो/गुस्से करना चाहते हैं। प्रेम की वंचना से उपजी त्रासदी को एक बहुत
में मैंने अपने दोस्त को दर-बदर कर दिया/....... मैं भूल गया/मैं साधारण से बिम्ब के माध्यम से वे ‘ज़िन्दगी का मुकदमा’ में संकलित
मनुष्य भी हूँ/मुझे हिन्दू बनने से/फुरसत न मिली।’ कविता ‘कमीज’ में अभिव्यक्त करते हैं, ‘तुमने न जाने कहाँ रख
प्रेम, सौन्दर्य और साधारण मानवीय जीवन से जुड़ी सहज दिया/मेरी ज़िंदगी का सुई धागा/बिना बटन के कमीज़/जैसे बिना दाँत
कविताएँ कवि स्वप्निल श्रीवास्तव के काव्य-संसार का सर्वाधिक का कोई आदमी.....चलो इसको यूँ ही पहन लेता हूँ/जैसे मैंने तुम्हारे

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न होने के दुख को/पहन लिया है’। प्रेम स्वप्निल की कविताओं में रूप में जिस प्रकृति-समृद्ध साधारण दुनिया को देखना शुरू किया
भले ही बरास्ते अवसाद या दुःख आता हो, लेकिन उसमें विरेचन के वह आज एक जटिल भौतिक-बौद्धिक दुनिया में बदल गयी है। इस
उपरांत पैदा हुई एक आभा अपने समूचेपन में मौज़ूद है, जो उनकी बदलाव के क्रम को उन्होंने अपनी कविताओं में पूरी सघनता के साथ
कविताओं की विशेषता है। इसी तरह कवि की वे कविताएँ, जिनमें दर्ज़ किया है। अपनी प्रारम्भिक कविताओं में वे प्रकृति-लोक के
सहज मानवीय जीवन की भावनाएँ प्रकट हुई हैं, वे भी गहरा प्रभाव सौन्दर्य और मानवीय संबंधों की जिस ऊष्मा को दर्ज़ करते हैं, अंत
सृजित करती हैं। ‘शहर से जाने के बाद’ कविता में यह कहना कि तक आते-आते उन्हें चाहे-अनचाहे उसके क्षरण और ठण्डे पड़ते
उसे ‘वह अकेला आदमी याद आएगा/जिसकी आँखों में मेरे दुख के जाने को भी अभिव्यक्त करना पड़ता है। वे न केवल इन परिवर्तनों
लिए आँसू थे’, एक तीव्र आवेग और स्मृति की गहनता को प्रकट के साक्षी हैं बल्कि एक सजग विश्लेषक भी हैं। बहुत सहज और
करता है। ‘गाता हुआ आदमी’, ‘कितना अच्छा होता’, ‘साइकिल की साधारण दिखती हुई कविताओं में सांप्रदायिकता, बाज़ारवाद और
मरम्मत करने वाली दुकानें’, ‘स्वेटर’, ‘मृत्यु’, ‘दोस्त की आवाज़’, राजनैतिक क्षरण के सूत्र बहुत सावधानी के साथ विन्यस्त हैं। जो
‘पुराना घर’, ‘उन जगहों की याद’, ‘घरेलू नाम’ और ‘लौटना’ बात उन्हें उनके समकालीनों से अलग करती है, वह है इतनी निराशा
सहित तमाम ऐसी कविताएँ हैं, जिनमें एक स्मृतिजीविता और और विडंबना के बीच भी अपनी जिजीविषा को एक उद्दाम आवेग की
स्थानीयता के साथ यह साधारण मनुष्य-जीवन अभिव्यक्त हुआ है। तरह बचाए रखना। गहरी से गहरी दुखात्मक अभिव्यक्ति में भी वे
स्वप्निल श्रीवास्तव के यहाँ राजनैतिक कविताएँ भी हैं, भले ही वे आशा की एक चमक को बनाये रखने मे यक़ीन रखते हैं, जो उनके
अधिकतम प्रतीकों का सहारा लेकर लिखी गयी हैं लेकिन उनकी काव्य संसार की उपलब्धि है। उन्होंने कविता में भाषा और शिल्प को
व्यंजना बड़ी तीखी और धारदार है। ‘राजधानी में तेन्दुए’ ऐसी ही एक लेकर कभी कोई प्रयोग नहीं किया। कई बार कथ्य को यूँ ही कह देने
कविता है, जिसमें वे कहते हैं,’वह दिन दूर नहीं जब तेन्दुए/मुल्क की को उनकी शैल्पिक सीमा के रूप में भी देखा गया है, लेकिन उनका
कुर्सी पर काबिज़/हो जाएँगे/कायम हो जायेगा जंगलराज’। यह कहन ही उनका शिल्प है, जो उनकी कविता-यात्रा में लगभग
कविता भारतीय राजनीति की विडंबनाओं पर एक सटीक व्यंग्य के अपरिवर्तित रहा है। एक कवि के रूप में यह उनकी सहजता ही है
रूप में सामने आती है। ‘इस शहर में’ कविता में उनका कहना ‘इस कि परिपक्व आलोचकों से लेकर युवतर कवियों तक के वे पसंदीदा
शहर में एक राजनेता है/जो रात में हत्या और दिन में/राजनीति करता हैं। एक वरिष्ठ कवि के रूप में वे निरंतर इतने सालों से लिख रहे हैं
है’ राजनीति के बदलते हुए चरित्र को सामने रखता है। उनकी चर्चित और लोग न केवल उनको पढ़ रहे हैं बल्कि पसंद भी कर रहे हैं, आज
कविता ‘हत्या एक कला है’ में वे लिखते हैं, ‘हत्याएँ इस तरह की के लगभग कविता-विरोधी होते जाते समय में यह किसी बड़ी
जा रही हैं/कि हत्याओं का कोई सुबूत नहीं मिलता/और यही कला है उपलब्धि से कम नहीं है। n
जिससे हत्यारे/पकड़ में नहीं आते/हमारे पास बचने की वज़हें हैं/और
संदर्भ–
हत्यारों के पास हत्या के/तमाम तर्क हैं’। स्पष्ट है कि भले ही उनको
1. श्रीवास्तव, स्वप्निल, ईश्वर एक लाठी है, हजारीबाग (बिहार), नवलेखन
कोमल मानवीय संवेदनाओं का कवि माना जाए, लेकिन राजनीति के प्रकाशन, 1982.
क्रूर चेहरे पर उनकी गहरी निगाह है। ‘सरल चीज़ों के ख़तरनाक 2. श्रीवास्तव, स्वप्निल, ताख़ पर दियासलाई, हापुड़, संभावना प्रकाशन,
प्रयोग’, ‘प्रधानमंत्री की ग़ज़ल’ और ‘राष्ट्रपति के कारण घोड़े महान 1992.
हैं’ जैसी कविताएँ भी इस दृष्टि से उल्लेखनीय हैं। अपनी कविता 3. श्रीवास्तव, स्वप्निल, मुझे दूसरी पृथ्वी चाहिए, दिल्ली़, मेधा बुक्स, 2004.
4. श्रीवास्तव, स्वप्निल, ज़िन्दगी का मुकदमा, हापुड़़, पुनर्नवा प्रकाशन,
‘चुनाव’ में वे कहते हैं कि ‘आपके सामने चाँद और रोटी रख दी 2010.
जाए/तो आपके हाथ किस ओर बढेंगे?/आपका चुनाव यह तय 5. श्रीवास्तव, स्वप्निल, जब तक है जीवन, इलाहाबाद़, अनामिका प्रकाशन,
करेगा कि आपको/किस तरह की दुनिया चाहिए’। दरअसल उनकी 2014.
काव्य-यात्रा का राजनीतिक स्वर तनिक मद्धिम होते हुए भी अत्यंत 6. श्रीवास्तव, स्वप्निल, घड़ी में समय, नोएडा़, सेतु प्रकाशन, 2022.
7. श्रीवास्तव, स्वप्निल, कवि की अधूरी कविता, नई दिल्ली़, न्यू वर्ल्ड
महत्वपूर्ण इसलिए माना जाना चाहिए कि उसमें विचार के स्तर पर पब्लिकेशन, 2023
स्पष्टता हर जगह उपस्थित है।
इस तरह स्वप्निल श्रीवास्तव का काव्य-संसार ‘ईश्वर एक लाठी संपर्क : सहायक प्रोफेसर-हिंदी
है’ से शुरू होकर उनके हालिया संग्रह ‘घड़ी में समय’ तक की राजकीय महविद्यालय, पंचबस, बस्ती (उ.प्र.)
विभिन्न कविताओं में हमें देखने को मिलता है। इस पूरी यात्रा में वे मो. 941546868684
एक ऐसे कवि के रूप में दिखते हैं, जिसने गाँव के तरुण युवक के

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n अविराम : कुमार अंबुज

प्रतिरोध का रचनात्मक रूपांतरण


डॉ. अमित कुमार सिंह

विगत दिनों सोशल मीडिया में काव्यगत एवं आलोचना पर भी बख़ूबी दिखाई पड़ता है और बहुधा
विचारधारागत प्रतिरोध को आधार बनाकर, प्रसिद्द विवादों को भी जन्म देता है।
साहित्यकार और सामाजिक कार्यकर्ता कात्यायनी आधुनिकता के सुबह– शाम बदलते मानदंडों और
की “हत्यारे समय में प्रणय विकल कविताएँ” शीर्षक अंधाधुंध गति से भाग रही इस धैर्यहीन दुनिया में,
कविता ज़ेरे– बहस रही। इस संदर्भ में चर्चित पत्रकार साहित्य का स्वभाव उसी अनुपात में बदल जाए,ऐसा
और साहित्यकार प्रियदर्शन की टिप्पणी के उपरांत, प्रायः संभव नहीं होता और यदि कहीं ऐसा होता भी है
कविता– लेखन में विचारधारात्मक प्रतिबद्धता की तो वह प्रभाव स्थाई न होकर वस्तुतः तात्कालिक होता
मात्रा और कविता के पाठ को लेकर बहुत सारी बातें कहीं गयीं। है। यूं कहें कि वह चेतना को गहराई के उस स्तर पर प्रभावित नहीं
कविता की विषय– वस्तु, कवि की अभिव्यक्ति के तरीकों और करता, जहाँ वह स्मृति का स्थाई हिस्सा हो सके। तब जाहिर है, एक
सामयिक संदर्भों में अर्थ की बहुस्तरीयता को कितना और किस स्तरीय और गंभीर साहित्य, विशेषतः काव्यास्वाद और उसे
रूप में ग्रहण किया जाये, इसे लेकर साहित्य में यह बहस नयी नहीं आत्मसात करने की प्रक्रिया कहीं न कहीं इस जल्दबाजी से दूर
है। हाँ, इधर के वर्षों में साहित्य लेखन पर तकनीक और सोशल किसी भिन्न स्तर पर सम्पन्न होती है और अपने लिए ठोस आधारों
मीडिया के प्रभाव ने जिस गति और संख्या में साहित्य के लेखकों की अपेक्षा रखती है। चूकि ं इस लेख का संबंध मूलतः कवि और
और पाठकों को प्रभावित किया है, उससे यह बहस अपने मूल कविता से है, इसलिए हमें यह समझना होगा कि जिस लेखन में
मंतव्य में कई नयी चीज़ों को भी जोड़ती है। बीते दस से पंद्रह वर्षों सर्जक के गहन अनुभव और एक की पीड़ा को दूसरों से जोड़ने की
में सोशल मीडिया प्लेटफ़ॉर्म ने नए लेखकों को न केवल तकनीक भावना नहीं होगी, संवेदनात्मक सीमाओं के विस्तार की प्रेरणा नहीं
के हवाले से एक खुली और स्वतंत्र जगह उपलब्ध कराई है, बल्कि होगी, वह लेखन यथार्थ की ठोस ज़मीन पर अपना वज़ूद नहीं बना
पाठकों से सीधे जुड़ने और उन तक पहुँचने की सुविधा भी प्रदान सकेगा। साथ ही,यह भी स्पष्ट होना चाहिए कि न तो किसी कवि
की है। इस माध्यम से एक हद तक दबावमुक्त अभिव्यक्ति और की हर कविता किसी बड़े फलक को समेटने वाली होती है, न ही
प्रचार-प्रसार के टूल्स तक सबकी पहुँच आसान तो हुई ही है, फ़ौरी उससे इस तरह की कोई अपेक्षा की जा सकती है। हाँ, कविता की
किस्म की लोकप्रियता और उससे होने वाले नफ़े– नुक़सान ने रचना– प्रक्रिया के ये बेसिक्स कवि-पाठक के बीच संवेदनात्मक
भी साहित्य जगत के शिल्प में कई रेखांकित किये जाने लायक भरोसे के वे सेतु हैं, जिनसे कोई कविता लोगों के भीतर एक विश्वास
बदलाव भी लाये हैं। हलांकि, यह बात कहते हुए इस तथ्य को भी और भरोसा पैदा करती है, एक अच्छी रचना बन कर उपस्थित होती
ध्यान में रखना होगा कि तकनीक की यह सुविधा और अवसर है।
समान रूप से पुरानी पीढ़ी के कवि– रचनाकारों या पूर्व से ही पिछले कुछ दशकों में, कविता की ज़मीन को इन कमजोरियों से
पर्याप्त प्रसिद्द/ लोकप्रिय लेखकों– रचनाकारों को भी उपलब्ध बचाते हुए जिन कुछ कवियों ने वास्तव में इसे समाज के वंचित
रही है और थोड़े संकोच के बाद अधिकाँश वरिष्ठ लोगों ने भी समूहों और शोषण के पहलुओं से जोड़ा है, इन वर्गों के लिए एक
इसका उपयोग किया है। पूँजी और बाज़ार के गठजोड़ ने जीवन– स्पेस बढ़ाने में कारगर भूमिका निभाई है, उनमें कुमार अंबुज
जगत के सभी हिस्सों में पल– पल परिवर्तन की जो तूफानी लहर निर्विवाद रूप से अगली पंक्ति में शुमार हैं। हिंदी कविता की ज़मीन
पैदा की, तकनीकी संदर्भों में उसका प्रभाव साहित्य लेखन और की मुकम्मल परख करने में जिन कवियों रचनाकारों को हम उम्मीद

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से निहारते हैं, उनमें कुमार अम्बुज का कवि रूप तसल्ली देने वाला
अधिक की इस सृजन-यात्रा में कवि का रचना-संसार, दुनिया भर
है। अपनी सृजन– यात्रा में समाज के सभी हिस्सों से उनका जैसा
में मानव मूल्यों के ह्रास, संबंधों के अर्थहीन होने, प्रकृति से मनुष्य
संबंध दिखाई पड़ता है, वह समाज की क्रूर सच्चाइयों को तो व्यक्त
के अलगाव और सामूहिकता के क्षरण के साथ-साथ उन तमाम
करता ही है, कवि के विस्तृत अनुभव– संसार और सूक्ष्म मनोजगतराजनीतिक-सांस्कृतिक-सामाजिक संकटों को समेटता है, जिनसे
तक पहुँचने वाली दृष्टि को भी दिखाता है। अब तक प्रकाशित कुल
मनुष्यता के भाव को कुछ नुक़सान पहुँचा है। विस्मय, निराशा,
छः काव्य– संग्रहों में हम कवि की आँख से उसके समय– समाज अफ़सोस और भय के विभिन्न भावों से गुज़रते हुए कवि अपनी
की एक गहरी पड़ताल कर सकते हैं और निश्चय ही इन्हें पढ़ते हुएचिंता कविताओं में चित्रों की तरह उकेरता है। जीव-जगत के
हमारा संवेदनात्मक धरातल भी एक विस्तार पाता है। तमाम आपसी संबंधों के बीच निर्जीव वस्तुओं के महत्व, उनकी उपस्थिति
लिप्साओं, प्रवंचनाओं के बीच सच्चाई के पक्ष में संघर्षरत काव्य–
और उनके होने से व्यक्ति के अस्तित्व की अनुभूति किस प्रकार
परंपरा को, कुमार अम्बुज की कविताओं में मजबूत होते हुए देखा
अर्थ पाती है, इसे कवि अत्यंत बारीक़ी से अभिव्यक्त करता है।
जा सकता है, जिनकी सहायता से सामजिक सरोकारों की पहचान ‘किवाड़’ शीर्षक से इनका एक काव्य-संग्रह ही है, जहाँ अपनी
होती है। अपने वर्तमान से तटस्थ रहते हुए कविता में उसकी कठोर
कविता में कवि सांकल और किवाड़ के माध्यम से एक भरे–पूरे
सच्चाइयों को दर्ज़ करना वस्तुतः एक चुनौतीपूर्ण काम है। विशेष
घर की स्मृतियों और उसके वैभव को जीवंत कर देता है। विषय के
रूप से, सुविधा, प्रलोभन और लाभ– लोभ के इस चरम समय में स्तर पर विविधताओं से भरे कुमार अम्बुज के काव्य– संसार को
यह और कठिन हो जाता है, जब सच को महत्वहीन सिद्ध कर देने ध्यान से देखने पर स्पष्ट होता है कि ये सभी विषय अपनी भीतरी
में कोई कोर– कसर नहीं बाक़ी रह गयी है। कुमार अम्बुज को पढ़ते
संवेदना में कहीं न कहीं आपस में जुड़े हुए हैं। मनुष्य जगत के
हुए हम यह समझ पाते हैं कि काव्य– सत्य कितनी दूर तक देखता आपसी संबंधों को लेकर उन्होंने कई कविताएँ लिखी हैं, जो उनके
है और अपने वर्तमान के साथ-साथ आने वाले समय के प्रति अलग– अलग संग्रहों में प्रकाशित हैं। पिता से जुड़ी कविताएँ,
आपको कैसे सजग करता है। वर्ष 1990 में लिखी “संभावना” शीर्षबहनों के प्रति भावनाओं की अभिव्यक्ति हो, मां के प्रति कवि के
कविता की पंक्तियाँ, कवि की इस दृष्टि की तस्दीक करती हैं– भाव हों, सभी जगह राग और प्रेम की निरंतर छूटती जाती डोर को
“इससे ज्यादा और क्या अंतिम हो सकता था कवि जैसे किसी भी तरह पकड़े रखना चाहता हो। इन कविताओं
कि मैं अधर्म को धर्म कहने में की विशिष्टता इस बात में है कि ये केवल संवेदनात्मक उद्वेलन
उनके साथ नहीं था को उभारने वाली कविताएँ न होकर, इन संबंधों के प्रति अपनी
मेरे पक्ष में केवल एक संभावना थी कमियों का स्वीकार भी है। रिश्तों के संबंध में बात करते हुए
कि मैं अपनी हरकतों में अकेला नहीं था” (संभावना) कवि उस कचोट को भी वैसी ही इमानदारी से अभिव्यक्त करता
और समय के साथ, कवि आगे चलकर होने वाले परिवर्तनों को है, जिससे अक्सर हम आँखें चुरा लेते हैं। कवि की अभिव्यक्ति
भी दर्ज़ करता है, जहाँ उम्मीद क्षीण होने लगी है। “अब सिर्फ़ साहस
में संबंधों के पीछे रह चुकी लम्बी और जीवंत स्मृतियाँ साकार
चाहिए/ जो एक-दूसरे का मुँह देखने से आता है/ और इसी वज़ह हो उठती हैं। इन स्मृतियों और संवेदनाओं के नष्ट होते जाने की
से कभी-कभी/ टूट भी जाता है।” यहाँ ध्यान देने लायक बात यह कचोट, इन कविताओं को अपने समय की महत्वपूर्ण कविताओं
है कि इन कविताओं के लिखे जाने में वर्षों का अन्तराल है। इन
में शामिल करती हैं– “पिताओं के बिना इस संसार को/ सिर्फ़ उस
लम्बे वर्षों में स्थितियों के निरंतर विपरीत होते जाने की टीस साफ़
तरह देखा जा सकता है/ जैसे किसी अनाथालय को।” (पिताओं
दिखाई पड़ती है– के बारे में कुछ पंक्तियाँ)। ऐसी ही एक कविता में वे मामा के बारे
“मैं अब भी भरोसा करता हूँ कुछ पुराने तरीकों पर में बातें करते हैं। विशेष यह कि यहाँ केवल स्मृतियों को सामने
जैसे, आदमी को उसकी प्रतिज्ञाओं से पहचानता हूँ लाना भर उद्देश्य नहीं, बल्कि उनके न होने से जो रिक्तता पैदा
लेकिन सबसे ज्यादा, उन प्रतिज्ञाओं के टूटने से” हुई है, वह संबंध की प्रकृति के अनुरूप अभिव्यक्त भी होता है।
(पहचान, 2019)
ऐसी कविताओं का प्रभाव यह होता है कि इन्हें पढ़ते समय पाठक
उस संबंध से जुड़ी स्मृतियों और भावनात्मक लगाव को दूर तक
वर्ष 1990 से अब तक की यह काव्य–यात्रा रचनाकार की उम्मीद- महसूस करता है– “कभी विराट सृष्टि थी उस मुँह में/ इस बार
नाउम्मीदी, भय, हताशा और उदासी का वृतांत है, जिसे सामने बड़े मामा मिले/ तो गायब थे उनके सारे दांत/ बत्तीसी भरे जीवन
होकर भी भुला देने की हर कोशिश जारी है। चार दशकों से कुछ में अब/ बचा हुआ था बस उनका पोपला मुँह।” (बड़े मामा का

168 n जुलाई से सितंबर 2023 yegh


मुँह)। जैसे जीवन नहीं... यदि कोई धोखा न दे/ कर ले थोड़ा सा विश्वास/
घटनाओं, वस्तुओं और मनुष्य-मनुष्येतर रिश्तों के इर्द-गिर्द तो चकित रहता हूँ बहुत दिनों तक।”
निर्मित कुमार अम्बुज की कविताएँ शोषण-चक्र के दायरे के बढ़ते हिंदी कविता में यह मुक्तिबोध की परंपरा है, जहाँ अभिव्यक्ति
जाने के साथ-साथ, अपनी अभिव्यक्ति का दायरा भी बढ़ाती जाती के ख़तरे उठाने ही होते हैं। कुमार अंबुज के लेखन में आम आदमी
हैं। वह सब कुछ, जो तथाकथित आधुनिकता विकास की आड़ में के पक्ष में व्यक्त होने वाली यह स्पष्ट वैचारिकी, बरबस ही गांधी
लील जाना चाहती है, कवि उसे बचाने और दर्ज़ करने की ज़िद के और ऐसे अन्यान्य विश्व मानवता के पैरोकारों की छवि उपस्थित
साथ कविताओं में खड़ा दिखता है। इस क्रम में कहीं निराशा के करती रहती है। उनके प्रतिरोध की यह ताक़त भाषा के सटीक प्रयोग
चिह्न मिलते हैं, तो कहीं यह साहस भी कि खड़े रहने के अलावा से और अधिक गहरी, और अधिक मुखर हो उठती है। अपने सघन
कोई दूसरा विकल्प नहीं है। यह अनायास नहीं है कि कवि के एक अनुभवों और भाषा की समर्थ बुनावट से जिन काव्य-रूपकों को
काव्य-संग्रह का नाम “क्रूरता” है और इस संग्रह में विषय के हमारे समक्ष ले आते हैं, वे पाठक के अनुभवों के इतने क़रीब होते
लिहाज़ से सर्वाधिक विविधतापूर्ण कविताएँ दिखाई पड़ती हैं। इस हैं, जिन्हें चाहक़र भी अनदेखा नहीं किया जा सकता। अलग–
संग्रह में संकलित कविताएँ हमारे समय-समाज में, जीवन के हर अलग संग्रहों में बहुत सारी कविताएँ इस रूप में शुरू होती हैं, जैसे
क्षण में, प्रत्येक विचार में जगह बनाती क्रूरता की व्याख्या करती हैं। वे ‘व्यक्ति का आत्मालाप’ हों, लेकिन इन कविताओं में अभिव्यक्त
अब, जबकि यह एक लगभग स्थापित कल्चर के रूप में हमारी जटिल यथार्थ धीरे-धीरे खुलता है और क्रमशः एक से अनेक की
स्वीकार्यता का हिस्सा बनता जा रहा है, कवि बराबर इसके ख़तरों यात्रा करता है। अपने अस्तित्व की तलाश के प्रश्न से शुरू हुई
के प्रति सचेत करता है। बेहद प्रायोजित किस्म के सॉफिस्टिकेटेड कविता हो या नैतिकता के अनसुने कर दिए गए सवाल हों, इन
विरोध के दौर में अम्बुज की कविताओं का शिल्प रूढ़िवादिता के कविताओं का शिल्प इस अर्थ में अनूठा है कि जब तक पूरी कविता
प्रतिकार को निर्मित करता है। प्रतिकार इस रूप में कि कवि कहीं सामने से न गुज़र जाए, उसके निहितार्थ पूरी तरह पकड़ में नहीं
भी यथार्थ की विडंबनात्मक अभिव्यक्ति को अबूझ नहीं बनने देता, आते। यह निर्मिति कवि की अपनी विशिष्टता है, जो कविता को
बल्कि कई दफ़े वह इतने अधिक स्पष्ट और सपाट ढंग से व्यक्त विविध स्तरों पर चकित करने वाले अर्थों तक ले जाती है। कविता
होता है कि निराशा की तरफ़ जाता अधिक प्रतीत होता है। पर, कवि में भाषा की सार्थकता और उसकी सटीक व्यंजना को लेकर कुमार
इन काव्यात्मक वक्तव्यों के पक्ष में ठोस आधार प्रदान करता है अम्बुज अत्यंत सावधान दीखते हैं। गहन उदासी और नैराश्य के
न्याय की उम्मीद का, करुणा के आवश्यक विस्तार का, संवेदना क्षणों में भी वे काव्य-भाषा को अभिव्यक्ति के उस उच्चतम स्तर पर
की ज़मीन का, जिससे कविता का शिल्प पार्श्व में चला जाता है ले जाते हैं, जहाँ अर्थ की गहराई अपनी पूर्णता में व्यंजित होती है।
और कथ्य प्रभावी हो उठता है। किसी समाज के भीतर जब क्रूरता इधर के वर्षों में हिंदी कविता (और गद्य) भाषा के अतिरिक्त
भाव की जगह संस्कार के रूप में विकसित होने लगती है, तब रोज़ अनूठे प्रयोगों और शिल्प के स्तर पर ली जान वाली छूट ने बहुधा
का जीवन कितना चुनौतीपूर्ण होने लगता है, एक अज्ञात अनिश्चितता कविता को अमूर्त और अबूझ बनाने की ही कवायद की है। संभव
व्यक्ति और समाज के भीतर भय का वातावरण निर्मित करने लगती है, प्रतिरोध के आसन्न ख़तरों के दरमियान इससे कुछ छूट मिल
है, इसे कवि बिना किसी जादुई शिल्प की चमक की तरफ़ गए हुए, जाती हो। लेकिन, कुमार अंबुज के यहाँ काव्य-विषय के तौर पर
खरे शब्दों में कहता है– जो यथार्थ अभिव्यक्त होता है, वह निश्चय ही भाषा-कौशल के
“इन दिनों हर रोज़/ नए सिरे से पहचानना होता है चीज़ों को/ नज़रिये से भी सीखने लायक है। भाषाई कौशल की असमर्थता और
परखना होता है अपनी भाषा और चुप्पी को/ ख़तरे का लाल निशान/ शब्दों की प्रभावहीनता से जुड़ा व्यर्थता-बोध भी उनकी चिंताओं में
रोज़ ठीक जगह लगाना होता है।” (इन दिनों हर रोज़) वैसे ही महत्व रखता है, जैसे उनकी कविताओं में आये हुए विषय
आलोक धन्वा की कविता “सफ़ेद रात” भी ऐसी ही निशानदेहियों रखते हैं। वस्तुतः यह काव्य-सृजन के उन महत्तम उद्देश्यों के प्रति
की कविता है और यह अपने समय के दो संवेदनशील और सजग वह दायित्व-बोध है, जिसे किसी भी हाल में कवि कमतर नहीं होने
कवियों की चेतना के स्तर पर समान वैचारिकी को भी दर्शाती है। देता। यह एक महत्वपूर्ण कारण है, जिससे उनकी लम्बी कविताओं
एक अन्य कविता, जिसका ज़िक्र इस संदर्भ में बहुत ज़रूरी लगता में भी पाठ की रोचकता और निरंतरता बराबर बनी रहती है। ‘मै’
है, ‘इधर का जीवन’ शीर्षक से है, जो बदलती हुई सामाजिक शैली की इनकी कविताओं को साहसिक आत्मालोचन के रूप में
परिस्थितियों में जीवन के बदलते मायनों को साधारण आदमी से देखा जाना चाहिए, जहाँ वह मनुष्यता के उपादानों के खंडित होते
जोड़कर प्रस्तुत करती है– “इधर का जीवन कुछ ऐसा हो गया है/ जाने को और व्यक्ति के अपमान को समय के नए संदर्भों में

yegh जुलाई से सितंबर 2023 n 169


पुनर्परिभाषित करता है। इस अभिव्यक्ति में कवि की समृद्ध और कविताएँ रची हैं और जिनमें प्रकृति, मनुष्य, मनुष्येतर समाज व
स्पष्ट काव्य-भाषा एक कारगर हथियार की तरह है, जिसे वह उतनी इनके आपसी संबंधों की अर्थपूर्ण अभिव्यक्ति हुई है। ‘आदिवासी
ही ईमानदारी से प्रस्तुत भी करता है-“यों तो मैं खुश हूँ/ परन्तु मुझे मुक्ति संगठन को समर्पित कविता’–“सताए हुए लोग” या “प्रजा के
शर्म आती है/ अपनी समकालीन कायरता पर/ मैं शब्दों से काम बारे में” जैसी कविताएँ अपने कहन में सत्य को बिना किसी बाह्य
चलाता हूँ/ पर मुझे अब कुछ दूसरे हथियार भी लगेंगे। ”(परन्तु) आरोपण के स्पष्ट तरीके से प्रकट करती हैं–“वे जो सृष्टि का केंद्र
हिंदी की समकालीन कविता में यह साहसिक आत्म-स्वीकार हैं मगर/ बरसों से घोरे हुए परिधि के बाहर/ जिनके जीवन का हो
और भाषाई व्यर्थता-बोध जिस तीव्र गति से क्षीण हो रहा है, उससे रहा है व्यापार विशाल/ जो हँस रहे हैं अभावों में” (सताए हुए
भी त्वरित गति से आत्म-मुग्धता का शिकार भी हो रहा है। प्रसिद्द लोग)।
आलोचक/ कवि विष्णु खरे ने कुमार अंबुज की कविताओं पर स्मृतियों को पुनर्जीवित किये रहने की एक उत्कट इच्छा कुमार
टिप्पणी करते हुए बहुत मार्के की बात कही है–“कुमार अंबुज की अंबुज के यहाँ बराबर दिखाई पड़ती है। पिता की स्मृतियाँ, पुश्तैनी
ये कविताएँ भारतीय राजनीति, भारतीय समाज और उसमें भारतीय मकान, पुश्तैनी गांव के लोग, जीवन के अलग– अलग पड़ावों पर
व्यक्ति के साँसत भरे वज़ूद की अभिव्यक्ति हैं। इनके केंद्र में स्त्रियों की उपस्थिति– ये कुछ ऐसी चीज़ें हैं, जो बार– बार कवि की
करुणा, लगाव और फ़िक्र है, जिनसे हिन्दुस्तानी आदमी के पक्ष में रचनाओं में लौटती हैं। यह लौटना बताता है कि कवि का अपनी
कविता बनती है।” जीवन-यापन के कभी न हल हो पाने वाले स्मृतियों से कितना गहरा जुड़ाव है, जिनसे एक व्यक्ति, समाज और
मसलों में उलझे व्यापक सामाज का अपनी जड़-ज़मीन से दूर होते परिवेश निर्मित होता है, जीवन के सघर्षों की दिशा जिनसे तय होती
जाना, रोजमर्रा के संघर्षों के बीच सोचने के अवकाश का भी मिटते है। यह ध्यान देने लायक बात है कि लगभग ग्यारह-बारह वर्षों के
जाना ऐसी कचोट पैदा करता है, जिसे आज की बड़ी आबादी अंतराल पर आये अलग-अलग संग्रहों में भी कवि अपनी ज़मीन,
पलायन के दंश के रूप में झेल रही है। कुमार अंबुज अपने अस्तित्व उन लोगों की याद और उस सामूहिकता की अपने भीतर उपस्थिति
के लिए संघर्षरत उन समाजों के भौतिक अभावों और उनकी को उसी शिद्दत से महसूस करता है। साथ ही, यह उपस्थिति केवल
जद्दोजहद ही नहीं, मानसिक अतृप्ति की व्यथा को भी संजीदगी से स्मृति के रूप में न होकर, वर्तमान के छल-प्रपंचों के बरअक्स
कविता में ले आते हैं–“अब हम गीत नहीं बनाते/ हम तो यहाँ सुदूर आगाह करने वाले अनुभवों और झेली जा चुकी पीड़ा के प्रामाणिक
परदेस में/ भटकते शहर दर– शहर/खोजते हैं अपनी रोज़ी– रोटी/ वक्तव्य की तरह है। परिस्थितिजन्य अंतर्विरोधों और मनमुटाव के
भूल चुके हैं अपना जीवन– संगीत” परिणामस्वरूप उभरे तनावों को संजीदगी से व्यक्त करती ये
अपनी अधिकांश कविताओं में कवि जिन प्रतीकों से अपनी बात पंक्तियाँ, भावनाओं को उदात्त बनाने वाले मार्मिक संबंधों की
शुरू करता है, आरम्भ में वे अमूर्त से प्रतीत होते हैं, लेकिन, जैसे– कविता के रूप में एक बेचैनी पैदा करती हैं।
जैसे हम आगे बढ़ते हैं, अपने को एक ठोस यथार्थ की ज़मीन पर कुमार अंबुज की प्रेम और स्त्री संबंधी कविताओं में भी एक
पाते हैं। कुमार अंबुज के काव्य– शिल्प की यह एक प्रमुख विशेषता धैर्यपूर्ण ठहराव दिखाई पड़ता है। स्त्री समुदाय के दोहरे स्तर पर
है कि, जहाँ एक औसत सी शुरुआत को वे गहरे विडंबना बोध में चलने वाले संघर्षों और सब कुछ बचाए रखने की उसी की
बदल देते हैं। वहीं, कटु यथार्थ को हताशा के शिल्प में प्रस्तुत करती जिम्मेदारियों को कवि अत्यंत तटस्थ भाव से रेखांकित करता है।
भाषा को भविष्य की उम्मीद तक ले जाते हैं। दोनों ही स्थितियों में स्त्रियों के प्रति समाज और परिवार के अन्यायपूर्ण व्यवहार को कवि
काव्यात्मक प्रवाह का यथावत बने रहना कवि की समर्थ उस शर्म के रूप में रखता है, जिसका कोई गिल्ट अपने को पर्याप्त
अभिव्यक्ति-क्षमता को प्रमाणित करता है। कविताओं में हाशिये के आधुनिक मानने वाले पुरुष पुरुष समाज को अब भी नहीं है ‘अमीरी
समाज और वंचित तबके के प्रति उनके दायित्व– बोध का हमेशा रेखा’ शीर्षक काव्य–संग्रह में संकलित यह कविता इन अन्यायों के
बने रहना इसकी एक प्रमुख वज़ह है। लोकतांत्रिक अधिकारों और विरोध में दर्ज़ बयान की तरह हैं, जिन्हें बार-बार पढ़ा जाना चाहिये–
उससे से भी आगे बढ़कर मनुष्यता के न्यूनतम अधिकारों की रक्षा “आपने उन्हें सुन्दर कहा तो उन्होंने खाना बनाया
को कविता के मूल और अंतिम उद्देश्य के रूप में सतत बनाए और डायन कहा तब भी
रखना, कवि के रचना– संसार को प्रत्येक समाज, प्रत्येक वर्ग और उन्होंने बच्चे को गर्भ में रखकर खाना बनाया
हर उस समूह का कवि बना देता है, जहाँ असहाय और निर्बल को फिर बच्चे को गोद में लेकर
इसकी ज़रूरत है। कवि-कर्म के प्रति यह गहरा दायित्व-बोध और उन्होंने अपने सपनों के बीच ठीक बीच में खाना बनाया
नैतिक ज़िम्मेदारी ही है, जिसकी बदौलत कुमार अंबुज ने वैविध्यपूर्ण तुम्हारे सपनों में भी वे बनाती रहीं खाना।

170 n जुलाई से सितंबर 2023 yegh


आपने शायद ध्यान नहीं दिया है हिंसा नहीं व्यवस्था है।” काव्य– भाषा में होने वाले इस परिवर्तन
पिछले कई दिनों से उन्होंने को हम समय के सापेक्ष, प्रतिरोध की भाषा में होने वाले आवश्यक
बैठकर खाना बनाना शुरू कर दिया है बदलाव के तौर पर देख सकते हैं। छद्म क्रांतिकारिता और
हालाँकि उनसे ठीक तरह से बैठा भी नहीं जाता है।” बुद्धिजीविता के इस घोर प्रदर्शनकारी युग में भाषा में इस तंज का
(खाना बनाती स्त्रियाँ) आना अत्यंत स्वाभाविक है– “इस तरह वह युग आता है/ जब
अपने वर्तमान से यदि कवि की इस बात को जोड़ें तो परिवर्तन कलायें झूठ रखने के लिए/ बन जाती हैं सबसे सुरक्षित संदूक/
की भयावहता को इस रूप में रेखांकित किया जा सकता है कि प्रतिरोध के शिल्प में गाये जाते हैं प्रशंसा के गीत/”। लेकिन, जीवन
भावुकता अब निरीहता की जगह लगभग मूर्खता का पर्याय सिद्ध हो में उल्लास, प्रेम और मनुष्यता के भाव को और अधिक उदात्त
चुकी हैं और असहमति की स्वतंत्रता को सुविधाजनक विकल्पों की बनाने वाले प्रयत्न और उम्मीद किसी भी परिस्थिति में छोड़ी नहीं
आड़ में चालाकी से शिफ्ट कर दिया गया है। इन कर्मों में जानी चाहिए, इस भाव को कवि ने गहरे नैराश्य के बीच भी बचाए
आश्चर्यजनक रूप से वे लोग भी शामिल हैं, अंततः ये चीज़ें जिनके रखा है– “बुरे दिनों की अच्छाई है कि वे इंसानों को/ दुर्दिनों के बीच
ख़िलाफ़ जाती हैं। न्याय– अन्याय के बदलते अर्थ– संदर्भों और भी/ कई तरह से जीना सिखाते हैं”। – (शोकगीत)।
उनके पीछे खड़े सत्ता– लोलुप कुतर्कों की पहचान कर कवि सचेत कुमार अंबुज के अब तक प्रकाशित सभी काव्य– संग्रहों के
करता है– “कि जब कोई शक्तिशाली या अमीर या सत्ताधारी/ विषय क्रम से रखें जाएँ तो मानव जीवन के एक लम्बे कालखंड का
लगाता है न्याय की गुहार तो दरअसल वह/ एक वृहत्, वैश्विक कथात्मक आख्यान गद्य रूप में भी तैयार किया जा सकता है।
और विराट अन्याय के लिए ही/ याचिका लगा रहा होता है।” (यदि कविता की दीर्घजीविता और उससे होने वाले असर को ज़हन में
तुम नहीं मांगोगे न्याय)। विश्व– मानवता की चिंताओं के इन बरकरार रखने के लिए जिस अपूर्व भाषाई धैर्य की ज़रूरत होती है,
कविताओं में शामिल होने के पीछे कवि का अपना अनुभूत संसार कुमार अंबुज की कविताएँ इसका प्रमाण हैं। जिस समय में कविता
तो है ही, साहित्येतर कला– रूपों के संबंध में इनका विशद समाचार के तौर पर लिखी और पढ़ी जा रही हो, कविता से महत्वपूर्ण
अध्ययन और विश्व– चिंतन की परंपराओं से उनका गहरा लगाव कवि– व्यक्तित्व (वैभव) हो, सुविधाजनक अवसरवाद बहुसंख्यक
भी है। विश्व सिनेमा से जुड़े उनके लेखन और विभिन्न भाषाओँ की का चुनाव होने के कारण सही ठहराया जा रहा हो और सत्ता
कविताओं के अनुवादों को, कुमार अंबुज के कवि– रूप पर बात समर्थित ताक़तों का प्रिय होना लोकप्रियता का मानक बनता जा रहा
करते हुए ध्यान में रखा जाना चाहिए, जिससे उनके वैविध्यपूर्ण हो, ऐसे प्रलोभनकारी समय में इनसे तटस्थ रहते हुए कविता में
लेखन का महत्व पता चलता है। वर्ष 2022 में प्रकाशित उनके सच्चाई और प्रेम को बचाए रखना एक जद्दोज़हद ही है। लिखने का
कविता संग्रह “उपशीर्षक” की लम्बी कविता ‘शोकगीत’ वैश्विक उद्देश्य केवल दिखना न रह जाए, काव्य– कर्म इत्मीनान और सुख
घटनाओं और मनुष्यता के पक्ष में किये जा रहे प्रयत्नों पर कवि की का भ्रम बनाये रखने का वाहक़ भर न हो, तमाम संघर्षों के बीच भी
संतुलित दृष्टि का प्रमाण है। टी एस इलियट की काव्य– पंक्तियों, उजाले और प्रेम का अंकुरण हो, ऐसे हर प्रयास के साथ खड़ा होना,
विश्व– प्रसिद्द युद्ध विरोधी पेंटिंग गुएर्निका, प्रसिद्द ऑस्ट्रियन सत्य, साहस, ईमानदारी और प्रेम के पक्ष में खड़ा होना है। वस्तुतः
संगीतकार मोत्सार्ट के संदर्भों को समेटे यह शोकगीत दरअसल आज के दौर में कुमार अंबुज की कविताएँ इसी आकांक्षा और
लम्बे वर्षों तक एकत्र किये उन दर्द भरे अनुभवों का वृतांत है, उम्मीद को बनाये और बचाए रखने का सार्थक प्रयत्न हैं। n
जिनसे दुनिया भर में मनुष्यता को चोट पहुँची है। इस संदर्भ में यह
बात बार– बार रेखांकित किये जाने लायक है कि उदासी के शिल्प संपर्क : सहायक प्राध्यापक-हिंदी
में व्यक्त अभावों और दुःख की भाषा, यहाँ तक आते– आते शासकीय महाविद्यालय, फास्टरपुर
आक्रोश और व्यंग्य के उत्कर्ष पर पहुँच जाती है। – “कैबिनेट की मुंगेली (छत्तीसगढ़)
हिंसा, हिंसा नहीं अधिनियम है/ जैसे न्यायालय की हिंसा, हिंसा नहीं मो. 9407655400
न्याय है/ एँकर की हिंसा, हिंसा नहीं समाचार है/ पुलिस की हिंसा,

yegh जुलाई से सितंबर 2023 n 171


n अविराम : देवी प्रसाद मिश्र

सभ्यता का छद्म और कविता की भूिमका


जीतेन्द्र गुप्ता

मनुष्य अपने भविष्य से बरी हो सकता है, लेकिन भाषा कुछ भी हो सकता है।
उसका अतीत (इतिहास) उससे कभी भी अलग नहीं सरल शब्दों में कहें तो नई सदी के पहले दशक के
हो सकता है। इतिहास महज़ घटनाओं का कुल योग आते-आते मनुष्य समुदाय का नायक-खलनायक के
नहीं होता है, इसके बजाए यह मनुष्य के अनुभवों रूप में स्पष्ट रूप में विभाजन हो चुका है। साहित्य पर
की जटिल बौद्धिक प्रक्रिया होती है। यह बौद्धिक भी इन स्थितियों का प्रभाव बहुत गहरा पड़ा है। ऐसे में
प्रक्रिया ही हमें अनपेक्षित भविष्य से बरी करती है। मनुष्य की पहचानों को विभिन्न संस्तरों को खोजना
लेकिन इसके लिए सबसे अनिवार्य तत्व इतिहास और विभिन्न संस्तरों की पारस्परिक अंतर्क्रिया को
की यथार्थवादी व्याख्या है। हमारे वर्तमान का सबसे नज़दीकी समझना लगभग नामुमकिन सा होता गया है। इस मुश्किल का एक
ऐतिहासिक बिन्दु पिछली सदी के आख़िरी दशक का आरंभिक और कारण सामुदायिक मनोविज्ञान भी है जहाँ भिन्नता (विविधता)
बिन्दु है। समाजवाद की पराजय ने एक ध्रुवीय दुनिया को जन्म खलनायकत्व के पर्याय के रूप में ग्रहण की जाती है। इन स्थितियों
दिया और इस एक ध्रुवीयता ने बौद्धिक स्तर पर यह साबित के प्रत्याख्यान के तौर पर देवी प्रसाद मिश्र की दो कविताएँ
करने का प्रयास किया कि ‘इतिहास का अंत’ हो गया है। लेकिन ‘मुसलमान’ और ‘निजामुद्दीन’ प्रातिनिधिक हैं। ये कविताएँ अपनी
‘वैश्वीकरण’ के महज़ दो दशकों के बाद ही यह बात साबित होती संरचना में बिलकुल भिन्न हैं, लेकिन अपनी प्रकृति में समकालीन
गई कि यह इतिहास का अंत नहीं है, बल्कि इतिहास के दोहराव की इतिहास के दस्तावेज़ीकरण जैसी हैं। भारत की बदलती सामाजिक
पृष्ठभूमि है। पूँजी की अराजकता के प्रतिक्रिया स्वरूप मनुष्य की संरचना इन कविताओं के केंद्र में है।
बाड़ेबंदी करने वाले सभी विचारों को अधिक से अधिक प्रोत्साहन देवी प्रसाद मिश्र के बारे में ‘मुसलमान’ और ‘निजामुद्दीन’ से
मिला है। इस तरह से मनुष्य का अपने इतिहास और संस्कृति से शुरूआत करने का उद्देश्य केवल कवि के इतिहासबोध को रेखांकित
संबंध अधिक से अधिक कमजोर हुआ, वहीं दूसरी ओर अराजक करना है। साहित्य का उपजीव्य (प्रायः) व्यक्ति होता है और इस
पूँजी के शोषण ने वे स्थितियाँ पैदा की जहाँ मनुष्य अपने शोषण व्यक्ति की पहचान की बहुस्तरीयता ही व्यष्टि से समष्टि की ओर
और दुःख का कारण उन समुदायों को मानने लगा जो उसकी ले जाती है। सरल शब्दों में प्रतिनिधिकता के दायरे की ओर ले जाती
बाड़ेबंदी के बाहर थे। यह परिघटना केवल एक समुदाय या क्षेत्र है। लेकिन इसके विपरीत यदि साहित्यिक कृति सामुदायिक पहचान
तक सीमित नहीं रही हैं, बल्कि वैश्विक स्तर पर इसका प्रसार है। पर केंद्रित हो, तो प्रायः आशंका रहती है कि पहचान की बहुस्तरीयता
यूरोप जैसे समृद्ध महाद्वीप में एशियाई या अफ्रीकी मूल के यानि धर्म, जाति, स्थानीयता, भाषा, संस्कृति, आर्थिक स्थिति जैसे
व्यक्ति वहाँ की समस्याओं के मूल कारण के रूप में चिह्नित किए संस्तर नज़रअंदाज हो सकते हैं। लेकिन ध्यान देने की बात है कि
जाते हैं और नस्लीय हिंसा का शिकार होते हैं। उत्तरी अमरीका जैसे अतिवादी राजनीति प्रायः पहचान की बहुस्तरीयता (विविधता) का
आर्थिक रूप से शक्तिशाली महाद्वीप में भी कमोवेश यही स्थितियाँ निषेध करती है। इसका सर्वोच्य रूप दूसरे महायुद्ध में दिखाई देता
हैं। एशिया में भी बहुसंख्यक पहचान से परे या भिन्न लोगों को यहाँ है, जहाँ ‘यहूदी’ को मात्र एक सामुदायिक पहचान में सीमित कर
की समस्याओं का कारण मानने की प्रवृत्ति लगातार बढ़ती गई है। उन्हें जर्मनों के दुःखों के एकमात्र कारण के रूप में चिंह्नित कर
यहाँ ध्यान रखना चाहिए कि स्थानीय परिस्थितियों की विविधता के नस्लीय द्वैष की पृष्ठभूमि निर्मित की गई।
आधार पर बहुसंख्यक पहचान का आधार धर्म, समुदाय, जाति या इस ऐतिहासिक पृष्ठभूमि को ध्यान में रेखें तो भारतीय संदर्भ में

172 n जुलाई से सितंबर 2023 yegh


‘मुसलमान’ कविता को आधुनिक क्लासिक श्रेणी में रखा जा
सकता है। यह आधुनिक क्लासिक श्रेणी में इसलिए नहीं शामिल
हो जाती है कि यह एक समुदाय के ख़िलाफ़ दक्षिणपंथी प्रचार का
प्रत्याखान रचती है, बल्कि इसलिए भी कि यह कविता समष्टि से
व्यष्टि की ओर यात्रा करती है। ऐसा नहीं है कि समष्टि से व्यष्टि
की ओर जाने के उदाहरण मौज़ूद नहीं हैं, लेकिन इन उदाहरणों की
शुरूआत ही ‘ऐतिहासिक अन्याय’ की कल्पित भावना के साथ ही
होता है। और इसीलिए सामुदायिक पहचानों पर केंद्रित कविताएँ
अंतः में ‘जागरण’ का उद्घोष करने लगती हैं, एक कल्पित स्वर्णिम
अतीत की कल्पना में खो जाती हैं! मैथिलीशरण गुप्त इस विषय में
प्रातिनिधिक उदाहरण हो सकते हैं:
होकर ऋषियों की सन्तान
सहते हो तुम क्यों अपमान?
अपने को भूले हो आप
पाते हो सौ-सौ सन्ताप (हिन्दू)
इसके विपरीत ‘मुसलमान’: होता है। धर्म के आभामंडल वाला यह दैव-मंडल ही मनुष्य की
वे चट्टान और ऊन की तरह सच थे स्वतंत्र पहचान में सबसे बाधक तत्व है।
वे सिंधु और हिन्दूकुश की तरह सच थे कवि की वैचारिक तारतम्यता और तीक्ष्णता विस्मित करती है।
सच को जिस तरह भी समझा जा सकता हो कवि रेखांकित करता है कि किस प्रकार मनुष्यों के पुरुषार्थ के लिए
उस तरह वे सच थे निर्धारित ‘देव’ का ‘विस्तार-विकास’ होता है। ऐसा नहीं है कि हवा
वे सभ्यता का अनिवार्य नियम थे इसलिए नहीं चल रही है कि इंद्र अपनी ज़िम्मेदारी नहीं पूरी कर रहे
वे मुसलमान थे अफ़वाह नहीं थे हैं। बल्कि अब स्थितिकुछ और ही है:
इस तरह ‘मुसलमान’ की सबसे बड़ी विशेषता ऐतिहासिक कल्याण मंत्रालय समता की विराट और अछोर
विवेक से परिपूर्ण वस्तुनिष्ठता है जो सामुदायिक पहचानों की सीमा मॉरचुअरी था
को भी उजागर करती है और इन पहचानों से चिपके रहने की अज्ञान के प्रसार के लिए था शिक्षा मंत्रालय
वर्तमान विवशता को भी रेखांकित करती है। इस कविता का और और उन्माद के लिए कल्चर की मिनस्ट्री
‘निजामुद्दीन’ की सबसे मार्मिक पक्ष यह है कि ये कविताएँ दक्षिणपंथ (जिधर कुछ नहीं)
के संदर्भविहीन तथ्यों को संदर्भगत तथ्यों में तब्दील करती है। यह नागरिक सत्ता के सर्वसत्तावादी होते जाने की पहचान है।
यह निश्चित तौर पर कहा जा सकता है कि देवी अपने कवि- यह केवल सत्ता के चरित्र की पहचान मात्र नहीं है, बल्कि इसे परे
कर्म के आरंभ से ही मनुष्य की धर्मगत और दूसरी पहचानों के द्वंद यह उस प्रचारतंत्र की प्रभावकता की भी पहचान है जिसे सत्तातंत्र
से संघर्षरत रहे हैं। इस संदर्भ में उनके पहले संग्रह की प्रातिनिधिक नागरिकों के ख़िलाफ़ इस्तेमाल करता है। इस उदाहरण के लिए
कविता ‘प्रार्थना के शिल्प में नहीं’ को याद किया जा सकता है। इस कहीं दूर जाने की ज़रूरत नहीं बल्कि महज सौ साल पहले के विश्व
कविता में कवि वैदिक देवताओं को यहाँ से कूच करने के लिए इतिहास की घटनाओं का स्मरण करना पर्याप्त होगा। क्या कल्पना
कहता है कि आप यहाँ से जाए तो संभव है कि वह काम हो पाए की जा सकती है कि लाखों-लाख लोगों को मारने के लिए कैंपों का
जिसका कार्यभार आपके ऊपर है। कवि के हिसाब से वृहस्पति के निर्माण हो और नागरिक समाज उसे ‘खुशी’ से स्वीकार कर ले?
हटने से बुद्धि कुछ काम करना शुरू कर सकती है। वर्तमान में न लेकिन सरकारी प्रचार ने इन कैंपों को नागरिकों के हित के रूप में
तो यहाँ इंद्र हैं, न ही अदिति हैं- लेकिन सादृश्यता जैसी साहित्यिक परिभाषित किया और साधारण जनता ने इस पर यक़ीन भी किया!
युक्ति का कुछ मतलब होता है तो अंदाजा लग जाएगा कि यह दैव- ‘गणतंत्र’ का चरित्र देवी के लिए पहले से ही स्पष्ट है:
मंडल और कुछ नहीं बल्कि सत्ता समूह है जिसमें शामिल हर एक अभिजन जब सुरक्षाओं के लिए चीखते हैं
व्यक्ति को विशिष्ट कार्यभार है, लेकिन यह कार्यभार कभी पूरा नहीं गणतंत्र के नियम उसी दिन निर्मित होते हैं (गणतंत्र)

yegh जुलाई से सितंबर 2023 n 173


सत्ता का यह वर्गीय चरित्र देवी की कविताओं में पहले भी चित्रित (लेकिन प्राथमिकता शाब्दिक अनुभव की ही है)। इस अर्थ में ‘हर
हुआ है। लेकिन समयक्रम में सत्तात्मक प्रक्रियाओं की पारस्परिकता इबारत में रहा बाकी’ और ‘यह एक और आख़िरी वाक्य है’ अपनी
की पहचान का उद्यम भी कवि की काव्य-चेतना में शामिल होता प्राथमिक प्रतिज्ञा में कवि के मंतव्य को स्पष्ट कर देती है। हाशिए
गया है। ‘प्रार्थना के शिल्प में नहीं’ सघन जागतिक अनुभव से लेकर मुख्य तक, वाचालता से लेकर चुप्पी तक, हर एक संस्तर
निष्कर्षात्मक रूप में व्यक्त हुए हैं, हालाँकि इस संग्रह में कई की अभिव्यक्ति इन कविताओं में शामिल है और इससे भी बड़ी बात
कविताएँ हैं जो घटनाओं और विवरणात्मकता के कलेवर में इसे कि हाशिए का मुख्य के साथ, वाचालता का चुप्पी के साथ परस्पर
व्यक्त करती हैं। संवाद व पारस्परिकता भी इन कविताओं में दिखाई देती है।
‘हर इबारत में रहा बाकी’ और ‘यह एक और आख़िरी वाक्य है’ राजनीति जाली है- यह इतिहास से
जैसी कविताएँ देवी की काव्ययात्रा के नए चरण की घोषणा जैसी नेशनल बिल्डिंग राजनीति की
हैं। इन कविताओं से स्पष्ट होता है कि ‘जनता’ से कवि का संबंध निकलकर आती आवाज़ है या कि
और अधिक आवयविक होता गया है। जनता कोई अमूर्त अवधारणा राजनीति क्या है
नहीं है, बल्कि विभिन्न वर्ग, समुदाय, धर्म, जाति और लैंगिकता के आधीनता-स्वाधीनता का
लोग इसमें शामिल हैं। कवि की काव्य-चेतना का यह विस्तार कई एक संथाली स्त्री का आख़िरी वाक्य
रूपों में व्यक्त होता है: काव्यविषय, काव्यरूप और काव्य-व्यवहार अगर नब्बे प्रतिशत पर
जैसे सभी स्तरों पर इस विस्तार को देखा जा सकता है। अजूबा कोलाज
‘जनता’ (काव्यपात्र) की एकरैखिक पहचान से परे उसकी और ये लोग कौन हैं जो एक
बहुस्तरीयता की अभिव्यक्ति के लिए देवी ने शिल्पगत प्रयोग भी दस की दया है
किए हैं। पूर्व में संदर्भित दोनों ही कविताएँ तीन कॉलमों में लिखी बीता कहाँ बीता नहीं
गई हैं;जहाँ एक ओर ये कॉलम स्वतंत्र रूप से एक कविता की तरह जगह को छोड़कर दूसरी जगह जा
पढ़े जा सकते हैं, वहीं दूसरी ओर ये कॉलम परस्पर संवादी भी हैं। बर्तानिया राज
आधुनिक समय (छापाखाना के आविष्कार के बाद) में कविता रहे हैं, बेघर और बदहवास
केवल शाब्दिक अनुभव नहीं है, बल्कि यह चाक्षुष अनुभव भी है कदम वे उठाते हैं
और बुदबुदाते हैं
इस तरह से देखें तो ‘हर इबारत में रहा बाकी’ और ‘यह भी एक
आख़िरी वाक्य है’ देवी की काव्ययात्रा के दूसरे चरण का आरंभ है।
इस दूसरे चरण की विशेषता अनुभव की सघनता और विवरणात्मकता
की बहुलधर्मिता है। इन दोनों ही विशेषताओं का गहरा संबंध हमारे
वर्तमान समाज के सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक
परिवर्तनों से है, जिसका प्रभाव साहित्य पर और बौद्धिक परिक्षेत्र पर
भी दिखाई देता है।
पिछले तीन दशकों के भारतीय बौद्धिक परिदृश्य को देखें तो
आसानी से रेखांकित कर पाएँगे कि नए तथ्यों और खोजों के मामले
में यह परिक्षेत्र एक विराट शून्य से भरा हुआ है। लेकिन इस विराट
शून्य के बावज़ूद बौद्धिक क्षेत्र उत्तेजनाशून्य नहीं है और इस उत्तेजना
का स्रोत ‘विमर्श’ है। सहज शब्दों में कहें तो तथ्यों के ऐतिहासिक
परिप्रेक्ष्य के बजाए तथ्यों के समकालीन संदर्भ महत्वपूर्ण होते गए हैं
और समकालीन संदर्भ ही बौद्धिक उत्तेजना का स्रोत हैं। इस स्थिति
का कोई व्यवहारिक उदाहरण सामने रखने की विवशता हो तो हम
वर्तमान ‘समाचार उद्योग’ का उदाहरण ले सकते हैं। घटना, घटना
की परिशुद्धता, प्रमाणिकता जैसे पत्रकारिता के आधारभूत अवयवों

174 n जुलाई से सितंबर 2023 yegh


से परे केवल ‘बहस’ ही हमारे समय में महत्वपूर्ण रह गई है।
जबकि पत्रकारिकता एक ऐसा परिक्षेत्र है जिसकी बुनियाद में
साहित्य इस प्रभाव से अलग नहीं है।
विवरणात्मकता है। लेकिन आज पत्रकारिता की परिभाषा बदल गई साहित्य में, और खासतौर से कविता के क्षेत्र
है और विमर्श महत्वपूर्ण होता गया है। में विवरणात्मकता के प्रति विकर्षण और
साहित्य इस प्रभाव से अलग नहीं है। साहित्य में, और खासतौर निष्कर्ष-निष्पत्तियों के प्रति आग्रह लगातार
से कविता के क्षेत्र में विवरणात्मकता के प्रति विकर्षण और निष्कर्ष- बढ़ा है। ऐसा प्रतीत होता है वर्तमान कवि
निष्पत्तियों के प्रति आग्रह लगातार बढ़ा है। ऐसा प्रतीत होता है आलौकिक सत्य की खोज में निकला
वर्तमान कवि आलौकिक सत्य की खोज में निकला दार्शनिक है दार्शनिक है और चार पंक्तियों की कविता में
और चार पंक्तियों की कविता में व्यक्त सूक्त, नीति-वचन, दार्शनिक व्यक्त सूक्त, नीति-वचन, दार्शनिक सत्य और
सत्य और साहित्य सब कुछ एकसाथ है। और कई बार यह युक्ति साहित्य सबकुछ एकसाथ है। और कई बार
उसके‘ग़ैर-राजनीतिक’ होने की सुविधा होती है! यह युक्ति उसके‘ग़ैर-राजनीतिक’ होने की
देवी की हालिया कविताएँ विवरणात्मकता से भरी हुई हैं- सुविधा होती है!
विवरणात्मकता से तात्पर्य यह कि वे समकालीन राजनीतिक-
सामाजिक-आर्थिक-धार्मिक परिस्थितियाँ जिनमें कला-समय परिघटना को देवी ने बड़ी तीक्ष्णता से रेखांकित किया है:
साकार होता है। ‘जिधर कुछ नहीं’ ऐसी ही कविताओं में एक है। भीड़ भटकता हुआ मृत थी
‘जिधर कुछ नहीं’ कवि की बड़ी महत्वाकांक्षी कविता है। इसमें जौम्बी
भी कोई दो मत नहीं कि इस कविता का शुमार हिंदी की महत्वपूर्ण कहाँ हो इस कठिन समय में कोसंबी
लंबी कविताओं में होगा। इस कविता में एक व्यक्ति (काव्य- (जिधर कुछ नहीं)
नायक) का बौद्धिक विकास और उसकी सामाजिक अवस्थिति केंद्र ‘जिधर कुछ नहीं’ में प्रयुक्त यह ‘जौम्बी’ प्रतीक ऐसा है जिसकी
में है। एक साधारण से कस्बे में फिल्मी गाने सुनने वाले इस व्यक्ति तुलना केवल ‘ब्रम्हराक्षस’ से हो सकती है। अर्थ की बहुलता और
के अनुभव बहुत हाहाकारी किस्म के हैं। सहिष्णुता से असहिष्णुता जटिलता प्रतीकात्मकता का एक हिस्सा होती है। ‘जौम्बी’ बिलकुल
की ओर बढ़ते समाज में यह मानवीय मूल्यों के खोते जाने का वर्णन उसी तरह की अर्थ बहुलता को व्यक्त करता है।
है। मानवीय मूल्य और मानवीय लक्ष्य खोने की स्थिति में मनुष्य इस तरह से हम देख सकते हैं कि देवी में नवोंमेष का अथाह
किस तरह धार्मिकता की ओर अग्रसर होता है, इसका विवरण इस साहस है और इस साहस का स्रोत हमारे समाज की वे यथार्थ
कविता का उपजीव्य है: स्थितियाँ हैं जहाँ मनुष्य अपनी मनुष्यता से वंचित है। लेकिन इस
अधिक हिन्दू होने के लिए हिन्दू नवोंमेष के साथ कवि का भारतीय काव्य परंपरा से भी अटूट रिश्ता
कोई किताब नहीं पढ़ रहे थे, टीवी देख रहे थे है। कवि के लिए साहित्य का एकांत कला-साधना नहीं है, इसके
तालिब इसका उल्टा कर रहे थे परे उसे सामाजिक परिवर्तन के एक बौद्धिक अवयव के रूप में
(जिधर कुछ नहीं) उपयोग में लाना है। कवि को इससे गुरेज नहीं कि वह इन विद्रूप
हिंसा और द्वैष से सराबोर इस धार्मिकता का लक्ष्य मनुष्य की स्थितियों में पूर्ववर्ती कवियों की भाँति एक बेहतर भविष्य की
आध्यात्मिक मुक्ति नहीं है, बल्कि इसका लक्ष्य राजनीतिक है और कल्पना करे। यह उद्दात्त कल्पना राष्ट्रवाद के जैसे विचार की सीमा
धार्मिकता इस राजनीतिक लक्ष्य का साधन है। यह कार्य-कारण के से परे जाती है। देवी ने अपने पहले ही संग्रह में राष्ट्रवाद के विचार
एकत्व का यह अनोखा ऐतिहासिक उदाहरण है! यहाँ ऐसा इसलिए की अतार्किकता के प्रति अपनी सतर्कता का परिचय दे दिया है। इन
कहना पड़ रहा है क्योंकि धार्मिक कट्टरता-हिंसा के जो भी उद्देश्य अर्थों में कवि भारतीय काव्य-परंपरा की प्रगतिशील धारा का हिस्सा
कहे जाते हैं, वे लक्ष्य असत्य हैं, सामान्य विवेक का व्यक्ति भी इन है जिसके पूर्ववर्ती कवि-गुरु रवींद्रनाथ टैगोर, सुब्रह्मण्यम भारती
लक्ष्यों की असंभाव्यता पहचान लेगा। जैसे कवि रहे हैं। कवि स्वयं को इस विराट मनुष्यता का अटूट
सच्ची धार्मिकता से परे धार्मिक उन्माद से सराबोर इस समाज हिस्सा मानता है और मनुष्यता का यह संबंध संकीर्ण विचारों से
की त्रासदियों का बहुत कारुणिक विवरण ‘जिधर कुछ नहीं’ में है। प्रभावित नहीं होता है। ‘मैं’ शीर्षक कविता ‘प्रार्थना के शिल्प में
नागरिकता के बोध से रहित नागरिकों और मनुष्यता के बोध से नहीं’ में संकलित है और आज की परिस्थितियों में यह कविता कवि
रहित मनुष्यों का यह समाज भीड़ में बदल गया है। इस पूरी के अटूट साहस को व्यक्त करती है-

yegh जुलाई से सितंबर 2023 n 175


उम्र भर के लिए क्यों
इस तरह से देवी अपनी कविताओं के जरिए नहीं आ रही है
हमारे समय के जटिल यथार्थ को बेहद लेकिन उसके होने की आहट है
संवेदनशील नजरिए से सामने रखते हैं। जैसे हवा है और उसका
‘यथार्थ’ की जटिलता को समेटने के लिए वह
हिलना है
किसी भी तरह की संरचनात्मक तोड़-फोड़
करने से परहेज नहीं करते हैं। भाषिक स्तर अर्थो के होने पर
पर उन्हें नवोन्मेष से परहेज नहीं है। उनकी भाषा के हिलने जैसा यह भी तो अरे
कविता के दायरे में सामाजिक मुक्ति का वह पृथ्वी और उस पर टिके
ग़ाैरवशाली इतिहास है जो आधुनिक लोकतंत्र बदलने की कविता में
की बुनियाद है। भारतीय काव्य परंपरा के ढांचों का हिलना है यह
पूर्वजों के प्रति उनमें जो कृतज्ञता का भाव कविता के बदलते अर्थ में
है वह भी उनके कवि कर्म से व्यक्त होता देवी ने स्वयं इस स्थिति के लिए ‘वर्गापसरण-जात्यापसरण-
है, लेकिन इसके साथ ही वे इन पूर्वजों की लिंगापसरण’ कहा है। यह कवि के सुदीर्घ बौद्धिक विकास का
सीमाओं को रेखांकित करने में कोई संकोच परिणाम है कि वह बार-बार सामाजिक तौर पर मौज़ूद उन सारी
नहीं करते हैं। संकीर्णताओं से परे जाने की कोशिश करता है। सच्चे अर्थों में यह
‘वैकल्पिक मनुष्यता’ की खोज का उद्यम है।
मेरे पूर्वपिता आल्पस से आये इस तरह से देवी अपनी कविताओं के जरिए हमारे समय के
मेरी पूर्वमाँ सरयू के पार किसी जंगल की थी जटिल यथार्थ को बेहद संवेदनशील नजरिए से सामने रखते हैं।
मैं विन्ध्य की तलहटी मे रहता हूँ ‘यथार्थ’ की जटिलता को समेटने के लिए वह किसी भी तरह की
मैं चाहता हूँ मेरा पौत्र संरचनात्मक तोड़-फोड़ करने से परहेज नहीं करते हैं। भाषिक स्तर
यूराल के पार बसे पर उन्हें नवोंमेष से परहेज नहीं है। उनकी कविता के दायरे में
‘राष्ट्रवाद’ को मनुष्य की स्वतंत्रता में बाधक सीमा के तौर पर सामाजिक मुक्ति का वह ग़ाैरवशाली इतिहास है जो आधुनिक
कविगुरू ने रेखांकित किया था। राष्ट्रवाद से परे विराट मनुष्यता के लोकतंत्र की बुनियाद है। भारतीय काव्य परंपरा के पूर्वजों के प्रति
साथ यह आवयविक रिश्ता आधुनिक समय की संकीर्णताओं से उनमें जो कृतज्ञता का भाव है वह भी उनके कवि कर्म से व्यक्त
मुक्ति का एक उद्यम है। साहित्यकार की ज़िम्मेदारी को रेखांकित होता है, लेकिन इसके साथ ही वे इन पूर्वजों की सीमाओं को
करते हुए गुरूदेव ने लिखा है, ‘स्वयं को प्रांतवाद की संकीर्णता से रेखांकित करने में कोई संकोच नहीं करते हैं। हमारे समय के
मुक्त करके और विश्व साहित्य की सार्वभौम ईकाई के तौर पर वैचारिक विचलनों से परे देवी का कवि कर्म उन बीहड़ और निर्जन
देखना, और इसी समग्रता में हर एक लेखक की रचना को समझना इलाकों में ले जाता है जो हमारे समय की ‘लफ्फाजी’ में कहीं खो
और व्यक्ति की आत्माभिव्यक्ति के हर एक प्रयास में मौज़ूद गया है। देवी हमारे समय की उन शिराओं में प्रवेश करते हैं जो
अंतर्संबद्धता को देख पाना ही वह उद्देश्य है जिसके प्रति हमें सतर्क हमारे समय की कट्टरता के स्रोत से परिचित कराती है। यह स्रोत
रहने की ज़रूरत है।’अब यह कहने की ज़रूरत नहीं कि एक कवि अंबर्तो इको के शब्दों का इस्तेमाल करें तो ‘उर-फासिज्म’ है जिसने
के तौर पर देवी प्रसाद मिश्र की वैचारिक बुनियाद क्या है। कवि के हमारे समय के मनुष्य को जौम्बी में तब्दील कर दिया है। हमारे
तौर देवी इस बात को नहीं भूलते हैं कि आधुनिक समय की इन्हीं समय को पहचानना किसी प्रेत लोक में भटकने के पर्याय में तब्दील
संकीर्णताओं का एक और अधिक कठोर रूप जाति, वर्ग और लिंग हो गया है। ऐसे कठिन समय में देवी वैचारिक दृढ़ता के साथ
के रूप में भी मौज़ूद है। देवी ने ‘हर इबारत में रहा बाकी’ कविता मनुष्यता के चिंह्नों को खोजने की कोशिश में लगे हैं। देवी की
में एक और असाधारण प्रयोग किया है जहाँ कविता के आरंभ बेटे कविता और कुछ नहीं बल्कि ‘बदलने की कविता’ है। देवी की
का ज़िक्र है और कविता के अंत तक आते-आते यह बेटी में तब्दील कविता उसे ‘बदलने की कविता’ है जो मनुष्यता विरोधी है। n
हो जाता है! संपर्क : 5-डी, हेमोलाता हेरिटेज
चलो यहाँ से कहीं और लीला बोरा रोड, गुवाहाटी, असम
फूल लेकर आती बेटी मो. 9420732622

176 n जुलाई से सितंबर 2023 yegh


n अविराम : दिनेश कुशवाह

सोई बिमोहा जेहि कबि सुनी


निरंजन कुमार यादव

कविता मानव जीवन की गहन अनुभूतियों की है। इन दोनों काव्य संग्रहों के बीच 10 वर्ष का अंतराल
रसात्मक अभिव्यक्ति है। इसके साथ ही कविता है। एक का प्रकाशन वर्ष 2007 है तो दूसरे का
प्रकृति एवं जीवन के सहक़ार का समुच्चय भी है। 2017। यह अंतराल यह दर्शाता है कि कवि को
इसी समुच्चय बोध के कवि हैं- दिनेश कुशवाह। कविता लिखने की कोई हड़बड़ी नहीं है। वह कविता
जैसे जीवन को जानने एवं जीने के कई तरीके होते को बहुत इत्मीनान के साथ समय एवं समाज के
हैं ठीक वैसे ही कविताओं के मूल्यांकन के कई सापेक्ष रचता और गढ़ता है, इसलिए उनकी कविताएँ
मानदंड हो सकते हैं, लेकिन सीधे अर्थों में वही देर से आती हैं लेकिन मुकम्मल एवं दुरुस्त रूप में
कविता श्रेष्ठ एवं बड़ी होती है, जिसमें अनुभूतियों का ताप गहरा आती हैं। जिसको पढ़ते हुए पाठक उसके साथ अपना तादात्म्य
एवं ऊँचा होता है एवं संवेदनाओं के फलक पर अंकित चित्र अपने बिठाता चलता है और उन कविताओं में शब्दों के भीतर छिपी
समाज एवं परिवेश से जीवन सत्व और रस लेते हों। उसमें सामान्य चिंगारी से अपने अंतस के अँधेरे को भी देखने की कोशिश करता
जन जीवन का स्वर पूरे आवेग एवं संवेग के साथ मुखरित होता है। इन दो काव्य संग्रह के अलावा साहित्य भंडार की एक महत्वपूर्ण
हो। साथ ही टभकते दु:ख के साथ एक ऐसे आदमी से मिलने की योजना 'साहित्य के 50 वर्ष' के अंतर्गत इनकी कुछ चुनी हुई
इच्छा हो जिसे देखते ही लगे इसी से तो मिलना था। उस कविता कविताओं का संग्रह 'ईश्वर के पीछे' भी प्रकाशित है। यह कहना कि
में उन लोगों के बारे में चिंता की गई हो जो इतिहास में कहीं नहीं इस चयनित काव्य संग्रह को पढ़कर ही हम दिनेश कुशवाह के कवि
हैं। जिसमें श्रमशील जनता के पसीने की बूंदे कविता में अक्षर के कर्म को जान सकते हैं, यह दावा बिलकुल गलत होगा। यह मानक
रूप में सुशोभित हुए हों। और लोक अपनी राग एवं आग के साथ उनके अन्य समकालीन कवियों के साथ हो सकता है किंतु दिनेश
मौज़ूद हो और जिसकी जनपक्षधरता स्वतः प्रमाणित हो। इस दृष्टि कुशवाह के साथ नहीं। हाँ इतना अवश्य है कि इस चयनित संग्रह
से दिनेश कुशवाह की कविताई खरी उतरती है। इनकी कविता को पढ़कर कवि की भाव भूमि को महसूस जरुर किया जा सकता
एक तरह से बंद दीवारों में मानवीय चेतना एवं मूल्यों की खिड़की है, लेकिन इसी के माध्यम से उसके पूरेपन को नहीं जाना जा
खोलती है-जिसके पार इतिहास के अभागे, भौतिकता की चकाचौंध सकता। पूरेपन के लिए दिनेश जी की कविताओं से होकर गुज़रना
के पीछे बॉलीवुड की नायिकाओं का त्रासद जीवन, खेत-खलिहान पड़ेगा, क्योंकि इनके यहाँ दुहराव नहीं है, कविता का विस्तार बहुत
एवं चौखट के भीतर खटती औरतें, प्रेम में पड़ी हुई लड़कियाँ, भय है। हर कविता अपने कथ्य एवं विषय वस्तु में पिछली कविता से
भूख़ लूट एवं शोषण के अनंत पारंपरिक एवं धार्मिक रूप, जल भिन्न है। संवेदना के स्तर पर इतनी सूक्ष्मता कहीं और नहीं मिलती
जंगल ज़मीन की चिंता और सिसकती मानवता के साथ जीवन राग है। इसलिए इनकी कविता ठहर कर पढ़ने की मांग करती है।
एवं लालसा के अनेक रंगों को महसूस किया जा सकता है। सरसरी तौर पर पढ़ने से बहुत कम हाथ लगेगा। जैसे कबीर कहते
दिनेश कुशवाह हमारे समय के महत्वपूर्ण कवि हैं। वे आर्थिक हैं कि मोती पाने के लिए किनारे नहीं गहरे पानी में उतरना पड़ेगा
उदारीकरण के बाद से आए सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक एवं ठीक उसी तरह से दिनेश जी की कविताओं के मर्म को जानने के
पर्यावरणीय परिवर्तनों को अभिव्यक्त करने की सबसे प्रमाणिक लिए 'इसी काया में मोक्ष' से 'इतिहास में अभागे' की अंतर यात्रा
आवाज़ हैं। अब तक इनके दो काव्य संग्रह 'इसी काया में मोक्ष' करनी ही पड़ेगी। तब जाकर कहीं वह मोती हाथ लगेगा जिसकी हमें
और 'इतिहास में अभागे' राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित हो चुका तलाश हो–

yegh जुलाई से सितंबर 2023 n 177


“बहुत दिनों से मैं हैं। जो विषय चयन से लेकर भाव बोध एवं संवेदना के धरातल पर
किसी ऐसे आदमी से मिलना चाहता हूँ बिलकुल मौलिक, अपनी तरह का अकेला एवं अनूठा कवि। इनकी
जिसे देखते ही लगे कविताओं में विचारों एवं भावों का ऐसा मणिकांचन योग बनता है
अगर पूरी दुनिया अपनी आंखों नहीं देखी जो अन्यत्र दुर्लभ है -
तो भी यह जन्म व्यर्थ नहीं गया।” “जनता को शास्त्र से नहीं
दिनेश जी इसी सार्थकता बोध के कवि हैं। इनके काव्य में जीवन कविता से शिक्षित करो
का रचाव और बसाव बहुत सघन रूप में विद्यमान है साथ ही साधुता को श्रम से जोड़ो
सामाजिकता की प्रधानता भी है। इनके यहाँ शास्त्र और पुराण की भिक्षा से मुक्त करो
बजाए लोक की चिंता अधिक है। सहजता के साथ सारता को साधुता वहाँ बसती है
पकड़ने की कोशिश ख़ूब है। यह कविताएँ अपने कलेवर में छोटी- जहाँ जूता गाँठते हैं रैदास
बड़ी हैं लेकिन हैं अपने पूरेपन और कवितापन के साथ, जिसे पढ़ते चादर बुनते हैं कबीर।”
हुए लगता है कि देखो यह है कविता! यदि आप 90 के दशक के दिनेश कुशवाह विवेक संपन्न कवि हैं। जहाँ भावनाओं के साथ
बाद के कवियों के गद्य कविता से ऊब गए हैं तो आपको दिनेश विवेक की महत्ता बनी हुई है। इनकी कविताओं में संवेदनात्मक
कुशवाह की कविता पढ़ते हुए पुरसुकून का एहसास होना लाजमी ज्ञान के आलोचकीय विवेक भी सम्मिलित हैं। हिंदी साहित्य में इस
है। विचार आने के लिए कविता को गद्य न बनाया जाए, इस बात परंपरा की शुरूआत कबीर से मानी जाती है। जिनके यहाँ भावना
की चिंता दिनेश जी के यहाँ मौज़ूद है। यहाँ विवेक से उपजी की प्रबलता के साथ विचारों की प्रभुता भी है। यह गुण दिनेश जी के
मुक्तछंद कविताओ में भी लय, गति, संगति, संवेदना एवं प्रेम के यहाँ भी मौज़ूद है। इनके यहाँ जीवन में परिवार, संबंध, प्रेम, कला,
स्वर प्रमुखता से विद्यमान हैं। संस्कृति आदि के प्रति एक सकारात्मक अभिव्यक्ति के साथ बहुत
प्रायः यह देखने को मिलता है कि एक कालखंड विशेष में कुछ को नकार देने का साहस भी विद्यमान है। ईश्वर, महारास,
लिखी गई कविताएँ समान भाव बोध वाली होती हैं। उन पर किसी स्वर्ग, कल्पवृक्ष एवं कामधेनु आदि पर जो टिप्पणियाँ दिनेश
न किसी की छाप को पाठक महसूस करता है,लेकिन दिनेश जी के कुशवाहा करते हैं उससे साफ जाहिर होता है कि उनमें समाज में
साथ ऐसा बिलकुल नहीं है। वह अपने समकालीनों में सबसे अलग फैली कुरीतियों एवं अंधविश्वासों से लड़ने का कितना माद्दा है!
इससे पूर्व यह मद्दा कबीर, निराला, नागार्जुन एवं मुक्तिबोध की
कविताओं में नज़र आता है। इस प्रकार से यदि हम दिनेश जी की
कविताओं को एक खास परंपरा के रूप में विकसित होते हुए देखें
तो पाएँगे कि यह वही परंपरा है जिसके निकट दिनेश जी की
कविताएँ जा लगती हैं। जहाँ पर विषय वस्तु के शिनाख्त में सीधी
भाषा का प्रयोग मिलता है और अपनी बात पूरी निर्भीकता के साथ
कहीं जाती हैं-
“ईश्वर के अदृश्य होने की अनेक लाभ हैं
इसका सबसे अधिक फायदा
वे लोग उठाते हैं
जो लोग हर घड़ी यह प्रचारित करते रहते हैं
कि ईश्वर हर जगह और हर वस्तु में है
इससे सबसे अधिक ठगे जाते हैं वे लोग
जो इस बात में विश्वास करते हैं कि
भगवान हर जगह है और
सब कुछ देख रहा है।”
धर्म की आड़ में पल रहे पाखंड और झूठ का जैसा पर्दाफाश
कबीर के यहाँ मौज़ूद है ठीक वैसा ही पर्दाफाश दिनेश जी की

178 n जुलाई से सितंबर 2023 yegh


कविताओं में भी मौज़ूद है। कबीर के यहाँ स्थित निर्णायक है। वह
सीधे-सीधे प्रहार करते हैं और निर्णायक की भूमिका में आ जाते हैं, ‘इतिहास में अभागे’ कविता में जिस
लेकिन दिनेश जी के यहाँ वर्णात्मकता अधिक है। वह निर्णय अस्मिता एवं जीवन का प्रश्न दिनेश जी
पाठकों पर छोड़ देते हैं। वह दृश्यों के माध्यम से एक ईमानदार उठाते हैं वह उस जीवन एवं अस्मिता का
कोशिश करते हैं कि मूल्यों एवं मान्यताओं का असल रूप जनता प्रश्न है जो भारत के इतिहास में ओझल है।
के सामने आ जाए, इसलिए उन विषयों का चुनाव करते हैं जिस पर यह किसी एक खास व्यक्ति की अस्मिता
बात करने से प्रायः हमारे लोकप्रिय कवि बचा करते हैं। की खोज नहीं है अपितु यह श्रमरत भारतीय
ख़ुद के भीतर ख़ुद को खोजना और अपने ख़िलाफ़ अपने से अस्मिता की खोज है। जिसके मार्फत हमारा
लड़ना यह वह मूल्य हैं जिससे मनुष्यता जिंदा है। दिनेश जी भरे पूरे परिवेश बहुत ही मार्मिकता के साथ भारत
मनुष्यता के कवि हैं। जिसमें सबकी चिंता है। उनके चिन्तन के के नक्शे पर छप जाता है। अपनी स्मृतियों के
केन्द्र में स्त्रियाँ हैं, दलित हैं, मेहनतकश लोगों के साथ इतिहास के माध्यम से दिनेश कुशवाह जी अपनी कविता
अभागे हैं। जिनके श्रम का शीशमहल तो है लेकिन उनका कहीं में जो दृश्य उपस्थित करते हैं वह सिर्फ़ स्मृति
कोई नामोनिशान नहीं है। ऐसे लोगों की एक लंबी शृंखला है, जो की चीज़ न होकर इस देश की यथार्थ तस्वीर
है। स्मृतियाँ अतीत का हिस्सा होती हैं, लेकिन
एक सिरे से गायब हैं -
दिनेश जी की स्मृतियाँ भारतीयता का हिस्सा
वे अभागे कहीं नहीं है इतिहास में हैं। इसलिए वह जितनी स्मृतियों में हैं उतनी
जिन के पसीने से जोड़ी गई ही हमारे आस-पास के समाज में भी हैं।
भव्य प्रचीरों की एक एक ईट
पर अभी भी है मिस्र के पिरामिड
चीन की दीवार और ताजमहल। की भांति अचानक से गिरने लगे। उस समय दिनेश जी की कविता
‘इतिहास में अभागे; कविता में जिस अस्मिता एवं जीवन का उम्मीद का दामन थामें संघर्षों के बीच से नए रास्ते की तलाश का
प्रश्न दिनेश जी उठाते हैं वह उस जीवन एवं अस्मिता का प्रश्न है हमें दिलासा देती है। दिनेश कुशवाह की कविताएँ टूटे हुए दिलों की
जो भारत के इतिहास में ओझल है। यह किसी एक खास व्यक्ति की उम्मीददारी की कविताएँ हैं-
अस्मिता की खोज नहीं है अपितु यह श्रमरत भारतीय अस्मिता की मत पूछो सुख की परिभाषा
खोज है। जिसके मार्फत हमारा परिवेश बहुत ही मार्मिकता के साथ क्या है आशा और निराशा
भारत के नक्शे पर छप जाता है। अपनी स्मृतियों के माध्यम से जीवन के संघर्षों ने ही
दिनेश कुशवाह जी अपनी कविता में जो दृश्य उपस्थित करते हैं वह दे रखा है एक दिलासा।
सिर्फ़ स्मृति की चीज़ न होकर इस देश की यथार्थ तस्वीर है। इस प्रकार से हम पाते हैं कि दिनेश कुशवाहा की कविताएँ आम
स्मृतियाँ अतीत का हिस्सा होती हैं, लेकिन दिनेश जी की स्मृतियाँ जनमानस के बहुत निकट हैं। इनके सौंदर्यबोध और अनुभूतियाँ
भारतीयता का हिस्सा हैं। इसलिए वह जितनी स्मृतियों में हैं उतनी इन्हीं के इर्द-गिर्द है। इनकी कविताओं में मानवीयता को बचाने की
ही हमारे आस-पास के समाज में भी हैं। आज 21वीं सदी के इस जो चिंता है वह कविता के प्रत्येक पंक्ति, प्रत्येक शब्द एवं वाक्य में
दूसरे दशक में भी कई सुदूर भारतीय गांवों में ऐसी कई घटनाएँ इस प्रकार से पिरोया है कि लोगों में मानवीयता एवं सहृदयता की
सुनने को मिलती रहती है। यह घटनाएँ मानवता के मुँह पर काले प्रतिबद्धता को और भी प्रगाढ़ कर देती हैं। मूर्तियों, नदियों एवं
धब्बे की तरह उभरती रहती हैं। इसी धब्बे से मनुष्य की मुक्ति हेतु प्राकृतिक प्रतीकों के माध्यम से इन्होंने मनुष्य की जीवनधारा के
दिनेश जी की कविताएँ संघर्षरत हैं। कई बिंब सिरजे हैं। जिसके आधार पर इनकी कविता कला के बहुत
दिनेश कुशवाह उदारीकरण के समय के महत्वपूर्ण कवि है। निकट प्रतीत होती है। चित्रकला सी दृश्यात्मकता इनकी एक खास
जब वह कविताएँ लिख रहे हैं उसी समय में हमारा देश एक नया विशेषता है। इसके अलावा इनकी कविताओं की यह ख़ूबसूरती है
करवट लेता है। मण्डल और कमंडल के साथ भूमंडलीकरण का कि वह समकालीन मनुष्य के आदिम मन की उपस्थिति के साथ
हो हल्ला हमारे देश में चहुंओर गुंजायमान हो रहा है। इसी समय में सभ्य होने की यातना और अंतःसंघर्ष को बहुत ख़ूबसूरती के साथ
साहित्य एवं जीवन के वैश्वीकरण द्वारा एक प्रकार से उपेक्षा होनी व्यक्त करती है। बॉलीवुड की नायिका रेखा, हेलेन, स्मिता पाटिल,
शुरू हुई। अर्थ का महत्व अचानक से बढ़ गया और मूल्य सेंसेक्स मीना कुमारी आदि पर लिखी गई कविताएँ इस दृष्टि से बेहद

yegh जुलाई से सितंबर 2023 n 179


समकालीन हिंदी कविता में स्त्रियों की एक सम्मानजनक उपस्थिति
दर्ज़ कराई है। यह उपस्थित पुरुषवादी दंभ के चलते नहीं अपितु
दिनेश जी की कविताओं में आक्रोश है किंतु कवि के भीतर रहने वाली असंख्य स्त्रियों के चलते संभव हुआ
निराशा नहीं है। संघर्ष है पर थकान नहीं है। है–
इनकी कविताओं में स्वप्न, श्रम एवं उत्साह सिर झुका कर
भरपूर है इसलिए जिनके भीतर स्वप्न, साहस,
जब भी बैठती है लड़की
संघर्ष, उम्मीद एवं प्रतिरोध आज भी कायम
है दिनेश कुशवाह उन सबके प्रिय कवि हैं। सहारे के लिए उठाती है तिनका
वह हमें उम्मीद दिलाते हैं 'यूं ही नहीं रहेगा लड़की जब भी चुनती है फूल
सब दिन, एक दिन बदलेगा'। इस बदलाव के बालों या गालों से लगा लेती है।
लिहाज से भी वह इस समय के सबसे ज़रूरी वह चाहती है बनी रहे लड़की पूरी उम्र।
एवं महत्वपूर्ण कवि हैं। उनकी कविताओं से उदारीकरण के बाद आर्थिक आज़ादी के नारों के बीच स्त्री
गुज़रते हुए अनायास यह अनुभूति होती है कि जीवन कितना आजाद हो पाया? बाज़ार और विज्ञापन ने स्त्रियों को
वह हमारे समय एवं समाज पर चढ़े आवरण कहाँ से कहाँ पहुँचाया? यह किसी से छिपा नहीं है। आज़ादी के
को बहुत ताक़त एवं सच्चाई के साथ उघाड़ना सपने वाला विज्ञापन स्त्रियों को किस कदर अपने चंगुल में फंसाता
चाहते हैं। है, यह दुनिया आज धीरे धीरे जान चुकी है। एक सचेत कवि की
नज़र सिर्फ़ अपने वर्तमान पर ही नहीं होती, वह भविष्य पर भी
अपनी नज़र टिकाए रखता है। इसलिए उसकी प्रासंगिकता हमेशा
महत्वपूर्ण है। इसके आलावा वह हमें परंपरागत और आधुनिक बनी रहती है। वह वर्तमान की समस्याओं पर तो कलम चलाता ही
मानस के बीच लाकर खड़ा कर यह महसूस करने और सोचने का है उसके साथ ही साथ वह भविष्य के आसन्न ख़तरे के प्रति भी
अवसर भी प्रदान करती है कि उनकी कविता एक समूची जीवंत अपने लोगों को आगाह करता है। दिनेश जी की कविताओं में
लोकधारा की कविता है। जिसमें गोपन या अकथनीयता नहीं है, बाज़ार और विज्ञापन से उत्पन्न होने वाले ख़तरों का एक साफ
क्योंकि दिनेश कुशवाह की कविताएँ गहरे जीवन राग एवं सामाजिक संकते दिखाई पड़ता है– उसका घर छोड़कर भागता है सांप।
वेदना की कविता हैं– दिनेश जी की कविताओं में आक्रोश है किंतु निराशा नहीं है।
जितनी सहती है ग़रीब की बेटी संघर्ष है पर थकान नहीं है। इनकी कविताओं में स्वप्न,श्रम एवं
क्या सहेगी धरती! उत्साह भरपूर है इसलिए जिनके भीतर स्वप्न, साहस, संघर्ष,उम्मीद
ओफ! शताब्दियों से इतने अनाचार एवं प्रतिरोध आज भी कायम है दिनेश कुशवाह उन सबके प्रिय
अगर सही में फटती धरती कवि हैं। वह हमें उम्मीद दिलाते हैं 'यूं ही नहीं रहेगा सब दिन, एक
तो न जाने कितनी बार फटी होती। दिन बदलेगा'। इस बदलाव के लिहाज से भी वह इस समय के
जितना जलता है ग़रीब का बेटा सबसे ज़रूरी एवं महत्वपूर्ण कवि हैं। उनकी कविताओं से गुज़रते
क्या जलेगा सूरज! हुए अनायास यह अनुभूति होती है कि वह हमारे समय एवं समाज
ओफ! शताब्दियों से इतने भयानक अत्याचार पर चढ़े आवरण को बहुत ताक़त एवं सच्चाई के साथ उघाड़ना
अगर सही में टूट कर गिरता आसमान चाहते हैं। n
तो ना जाने कितनी बार गिरा होता।
जितनी पीड़ा भोगती है ग़रीब की मां संदर्भ–
क्या भोगेगा कवि! इसी काया में मोक्ष, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली
इतिहास में अभागे, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली
दिनेश कुशवाह की बहुत सी कविताएँ स्त्रियों पर केंद्रित है। ईश्वर के पीछे, साहित्य भण्डार, इलाहाबाद
लड़की और सोना, लड़की और फूल, लड़की और रोटी, लड़की
और शब्द, लड़की और सपने, प्रेम में पड़ी हुई लड़की, सदी की संपर्क : असिस्टेंट प्रोफेसर,हिंदी,
शुरुआत पर स्त्री के लिए शोकगीत, पूछती है मेरी बेटी और एक राजकीय महिला स्नातकोत्तर महाविद्यालय, गाजीपुर
लड़की ही थी आदि कविताएँ लिखकर दिनेश कुशवाह ने मो. 8726374017

180 n जुलाई से सितंबर 2023 yegh


n अविराम : आशुतोष दुबे

अवलोकन के कवि
अम्बर पाण्डेय

आज की अधिकांश कविताएँ विचार से बनती हैं, तो बाहर ही देखता रहे भीतर विलीन हो जाये और
अधिकतर बुरी कविताएँ विचारधारा से। कविता की यदि भीतर देखे तो बाहर मात्र अँधेरा हो। यह देखना
एक परंपरा है जहाँ कविता मनोस्थिति विशेष को आशुतोष दुबे की कविता में हम देखते है इसलिए वे
पाठक (पढ़े श्रोता) में उत्पन्न करने के लिए रची चीज़़ों को नये सिरे से देखते है।
जाती रही। जापानी कविता हो या रस सिद्ध भारतीय हम उन्हें नए सिरे से देखते हैं
काव्य इसी प्रकार की कविता के उदाहरण रहे आए जिनके बग़ैर जीना हमने सीख लिया था
है और इसे व्यवस्थित रूप से हमने अपने देश में जैसे हम एक खोए हुए वक्त के हाथों
पिछले डेढ़ सौ वर्षों में और छायावाद के अंत के बाद बहुत तेज़ी से अचानक पकड़े जाते हैं
नष्ट किया है। इसके समानांतर हमारे यहाँ वाक्-सिद्ध कविता की
भी सुदीर्घ परंपरा है, अज्ञेय हिंदी के वाक्-सिद्ध कवि है। आशुतोष और ख़ुद को नए सिरे से देखते हैं
दुबे की कविता इस सभी मार्गों से भिन्न है। वे अवलोकन के कवि जल्दी से आईने के सामने से हट जाते हैं
है। अवलोकन की कविता क्या है? सिमोन वै (Simon Weil) अपनी किताब ग्रेविटी एँड ग्रेस में
अवलोकन किसी भी वस्तु, व्यक्ति या घटना को एकाग्रचित्त लिखती है, “कवि अपना ध्यान किसी पर केन्द्रित करता और
देखना है, कवि लम्बे समय तक देखता रहता है। कभी कभी वह सुन्दरता उत्पन्न हो जाती है। प्रेम भी यही है। यह जानना कि यह
केवल लम्बे समय तक ही नहीं दूर तक भी देखता है और इस भूख़ा-प्यासा आदमी वास्तव में उतना ही सच है जितना कि मैं-
देखने को फिर एक दिन वह कविता में बदल देता है। देखते हम इतना ही काफ़ी है, बाकी सब अपने आप आ जाता है।” वै ऐसे
सभी है किन्तु हम देखते हुए बाहर को बस एक उपकरण की तरह दृश्य को देखने के इच्छा करती है जिसमें वह नहीं हो, दृश्य के
बरतते है और उसके मार्फ़त भीतर देखते है। हमारा देखना कभी दोनों ओर नहीं हो। हमारा कवि भी जल्दी से आईने के सामने से
विशुद्ध रूप से देखना नहीं होता। हम सीधे किसी वस्तु का हट जाता है-
साक्षात्कार नहीं कर पाते, हमें देखने के लिए विचार या विचारधारा लौटते हुए समय की उँगली थामकर वे दुनिया में आने
चाहिए होती है जो हमें बताये कि क्या देखना है क्योंकि पूरा देखना से पहले के समय में चले जाना चाहते हैं जहाँ एक
बहुत कठिन होता है। विचार हमें देखी जा रही वस्तु या घटना या कुनकुन अँधेरे में वे भ्रूण की तरह तैर रहे थे, और चमक
व्यक्ति के अवयवों को चुनने में हमारी सहायता करते है। रही थीं उनके आस-पास अदेखी दुनिया की आवाज़़ें।
विचारधारा इसे और भी सरलीकृत कर देती है, वह क्या देखना है यहाँ कवि भी ऐसे ही दृश्य को देखने की आकांक्षा करता है
यह चुनकर हमें दे देती है कि यह यह देखो। इस तरह हम वस्तु जिसके दोनों तरफ़ वह उपस्थित न हो। कवि एकाग्र चित्त किसी
के टुकड़े चुनकर उसे अपने भीतर देखते है। यह खंडित दृष्टि है दृश्य को देखता है, वह उससे किसी झेन भिक्षु की तरह एकाकार
और इस खंडित दृष्टि से देखने के लिए हम मनुष्य अभिशप्त है। हो जाता है। कविता पूर्ण से बनती अवश्य है किन्तु पूर्ण को प्रकट
कविता (अच्छी कविता) इसी खंडित दृष्टि का अतिक्रमण करती करने के लिए वह पूर्ण को दर्ज़ नहीं करती। इस अर्थ में वह गणित
है। उसकी आकांक्षा पूरा देखने की होती है। पूरा वही देख सकता की भाँति होती है। वह सुचिंतित चिह्नों का प्रयोग करती है। आशुतोष
है जो जहाँ देख रहा हो वहाँ बँटा न हो, वह बाहर यदि देखता हो दुबे भी दृश्य से उसके काव्य सत्य चुनते है वे दृश्य से बहुत कुछ

yegh जुलाई से सितंबर 2023 n 181


ऊबता रहता है फव्वारों का पानी
दिन दोपहर अजायबघर के जानवर
तमाशबीनों को अलसाए आदमियों की
जमुहाई नज़र से देखते हैं
अपनी खोह में जाने से पहले
यहाँ कवि अपनी तरफ़ से किसी सत्य का दावा नहीं करता,
बड़ी बड़ी बातें नहीं बनाता बस ऊब का एक दृश्य खींचता है।
हमारी कविता से ऊब के दृश्य इंटरनेट आने के बाद से ही कम
होना शुरू हुए क्योंकि ऊबने का अवकाश हमारे जीवन से लगभग
ख़त्म हो चुका है। यहाँ तक कि अब बच्चों के लिए भी ऊबने के
स्थल नहीं रहे, फ़ोन और टेलीविज़न उन्हें भी लगातार व्यस्त रखते
है। यह दुनिया ऊब का एक विशाल कारख़ाना है, ऊब सबसे पहले
दृश्य से उसका अर्थ छीन लेती है, वह दुनिया को उसकी रिक्तता
और अर्थहीनता में प्रकट करती है। वह न केवल दुनिया को बल्कि
हमें भी जो कि इस दुनिया के ही एक हिस्से है उसके तमाम थोथेपन
के साथ हमारे ही सामने खड़ा कर देती है। इसका परिणाम यह
होता है कि हम अपने प्रामाणिक स्व को खोजने निकल पड़ते है।
इसका एक ओर परिणाम है सूक्ष्म अनुभूतियों के एक बृहद अरण्य
में हम ख़ुद को पाते है। हाइकू लिखनेवाले जापानी कवि शृंगार या
शौर्य में व्यस्त, या दुनिया में इंक़लाब लाने की आकांक्षी नहीं थे।
घटा देते है और यह तभी संभव होता है जब दृश्य से कवि एकाकार वे ऊबे हुए थे। वे बर्फ़ से घिरे, कुटियों में एकाकी जीवन काट रहे
हो। यही कारण है कि कवि में हम इतना अर्थ ग़ाैरव देखते है। कवि थे। आशुतोष दुबे भले ही इंदौर में रहते हों, वे भले ही मोबाइल
शब्दों को लेकर उतना ही मितव्ययी है जितना कोई संगीतकार फ़ोन और इंटरनेट की दुनिया के निवासी हों और हम सभी की तरह
स्वरों को लेकर या व्यापारी पैसों को लेकर होता है। यहाँ उक्ति इन तकनीकों के आदी हों पर उनकी कविता का मूल तत्त्व इन्हीं
लाघव है, यहाँ न शब्दों की न भावात्मक अवस्थाओं का कोई सूक्ष्म अनुभूतियों से बना है जो कवि ख़ुद को किसी दृश्य पर ध्यान
अपव्यय है। लगाकर और स्वेच्छा से ख़ुद को उससे ऊब उत्पन्न करता है।
आशुतोष दुबे में दृश्य अंततः विचार में रूपांतरित हो जाता है। उनकी एक चार पंक्तियों की कविता ‘अब’ इसी तरह की है-
विचार की टॉर्च से वे दृश्य को नहीं टोहते बल्कि दृश्य देखते देखते बहुत दिनों से मेरी क्षमा-याचना मेरे पास लंबित थी
विचार उद्घाटित होता है। इसे ही ग्रीक चिंतन का अलेथिया आख़िर ऊबकर मैंने उसे ख़ारिज कर दिया
aletheia है और सत्य के संसक्तता सिद्धांत (coherence अब किसी भी सुबह यह धुकपुकी ख़ामोश हो सकती है
theory of truth) या सत्य के अनुरूपता सिद्धांत कि मैं अपने इंतज़ार में हूँ…
(Correspondence theory of truth) से सर्वथा भिन्न है। एक कविता है- वह, जिसमें एक स्त्री की अँगूठी सपने में खो
यहाँ सत्य के संबंध में वक्तव्य नहीं दिया जाता क्योंकि कवि जाती है। वह जागकर अपनी उँगली देखती है जहाँ वह अँगूठी है।
जानता है वक्तव्य से केवल वक्तव्य के सत्य के बारे में चलता है अब वह सपने में खोई अँगूठी को याद कर रही है। यह विचार, रस,
सत्य के विषय में नहीं। सत्य को प्रकट करने का एकमात्र तरीक़ा वक्रोक्ति या कविता के लगभग सभी प्राचीन- अर्वाचीन ढंग से
उसे प्रकट होने के लिए स्थान निर्मित करना है और कलाएँ ख़ासकर अलग सूक्ष्म अनुभूतियों की कविता है। ऐसे कविता जापान में, जहाँ
कविता इसे सबसे अच्छे से जानती है। शायद दार्शनिकों से अधिक बौद्ध चिंतन और जीवन शैली, ध्यान की संस्कृति रही वहीं संभव
उज्ज्वल तरीक़े से- हुई और हिंदी में आशुतोष दुबे के वाङ्मय में संभव होती है। यही
उसी ऊपर नीचे के रास्ते और रंगबिरंगी वज़ह है कि कभी कह पाता है सिर्फ़ वसंत नहीं, यहाँ ऋतु अपने
रोशनी के तमाशे में इतने सूक्ष्मतम रूपों में प्रकट होती है कि समकालीन मनुष्य जो

182 n जुलाई से सितंबर 2023 yegh


स्थूल का, बड़ी घटनाओं का, अद्भुत दृश्यों और शक्तिशाली
नायकों का इतना अभ्यस्त हो चुका है कि इन कविताओं में जो
साधारण है और इसलिए कविता का केंद्र है उसका स्पर्श ही
नहीं कर पाता। इस तरह की काव्य चेतना हमने विकसित ही
नहीं की जबकि भारतीय काव्य परंपरा का इस तरह ही
आधुनिक विकास होना था। स्थायी और व्यभिचारी भाव आगे
चलकर अपनी आधुनिकता में इसी तरह प्रकट होते। विनोद
कुमार शुक्ल के बाद आशुतोष दुबे की कविता में ही हमें
इसका साक्षात्कार होता है। कवि नितांत के भव्य स्थापत्य को
दूर से ही सलाम करता है-
फिर एक साझा घर हो गया एकांत का
उसकी खिड़कियों से दुनिया का एकांत दिखता था
हम टहलते हुए उस तरफ़ भी निकल जाते हैं अक्सर
ताज्जुब से देखते हुए
कितने एकान्तों की दीवारें विसर्जित होती हैं लगातार
तब कहीं संसार का एकांत होता है
जैसे सूक्ष्म अनुभूतियों का संबंध ऊब से है उसी तरह ऊब
का संबंध एकान्त से है और एकान्त लगभग एक लुप्तप्राय:
स्थिति होती जा रही है। हम अकेले तो रहते है मगर एकांत
दुर्लभ हो गया है, अकेले मनुष्य बहुत से लोगों से घिरा हुआ
है। उसमें इस संसार के एकांत का अन्वेषण करना, दो एकांतों
के मध्य पुल बनाना एक कवि का काम है और हमारा कवि
यह करता है।
आशुतोष दुबे की कविता केंद्र से बहुत दूर, बहुत एकान्त
में, ध्यानस्थ मनुष्य की कविताएँ है। वे यदि कोलाहल की
कविताएँ नहीं है तो मौन की कविताएँ भी नहीं है। वहाँ केवल
पंछियों की यदा कदा कूजन से भारी नीरवता है। यह दुनिया
बदलने नहीं निकली है, यह ख़ुद को बदलने पर भी उतारू
नहीं है। यह केवल ख़ुद को खोजना, समझना चाहती है।
समकालीन मनुष्य की आध्यात्मिकता कैसी होना चाहिए यह
कविताएँ हमें बतलाती है। यह शुरुआत भर है, इस रास्ते पर
अभी अनेक कवियों के घर, कुएँ और कुंज होना हैं। बदलने से
जो बदलता है वह कितना अस्थायी होता है और उसमें कितनी
हिंसा होती है जबकि देखने और देखकर समझने से जो बदलता
है वह हमेशा के लिए बदल जाता है यह कविता उसका प्रमाण
है। आत्मा का फ़र्नीचर फिर से जमाने में कोई आवाज़ नहीं
होती आशुतोष दुबे की कविता ठीक यही काम करती है। n
संपर्क : दिल्ली
ईमेल- ammberpandey@gmail.com

yegh जुलाई से सितंबर 2023 n 183


n अविराम : एकांत श्रीवास्त

शब्द, मिट्टी और लोक के साधक


स्नेहा सिंह

‘शब्द’ के साधक एकांत श्रीवास्तव मिट्टी का गंध, उनमें एक तरफ व्यवस्था का प्रतिकार है तो दूसरी
अंचल की हवा, अन्न की खुशबू, जनपद की धूल तरफ नव-सृजन की प्रतिबद्धता। उनमें आक्रोश है तो
तथा लोक-संस्कृति के राग के साथ समकालीन धैर्य भी। किन्तु सब कुछ बहुत सहजता व शालीनता
हिंदी कविता में अपनी विशेष उपस्थिति दर्ज़ करने के साथ– विसंगतियों को उभारने के बावज़ूद उनमें
वाले महत्वपूर्ण कवि हैं। ‘अन्न है मेरे शब्द’, ‘मिट्टी व्यवस्था के प्रति कहीं तोड़-फोड़ नहीं है बल्कि
से कहूँगा धन्यवाद’, ‘बीज से फूल तक’, ‘धरती परिवर्तन हेतु चेतना की मशाल जलाने की उत्कंठा
अधखिला फूल है’, ‘नागकेसर का देश यह’, उनकी विशेषता है। उनमें जीवन के विविध रंग हैं,
‘कविता का आत्मपक्ष’, ‘मेरे दिन मेरे वर्ष’, ‘बढई, कुम्हार और बिम्ब हैं, लय है, साथ ही जिजीविषा और संभावनाएँ भी। ‘संरक्षण’
कवि’, ‘पानी भीतर फूल’, ‘चल हँसा वा देश’ आदि आपकी उनका स्वभाव है और उनकी कविता की मूल चिंता भी। एकांत जी
विशिष्ट कृतियाँ हैं। की विशेषता है कि जहाँ कहीं भी वे तोड़ने की बात करते हैं वहां
कविता ‘मानस- संस्कार’ का साधन है। यह कवि के रक्त में उनका सृजनधर्मी व्यक्तित्व किसी विशिष्ट मौलिक-संरचना को
सम्मिलित होती है। जीवन को सुन्दर देखने की इच्छा ही रचनाकार आकार देता दिखाई पड़ता है— “मनुष्य ने तोड़ी धरती की बंजरता/
को सृजन के लिए प्रेरित करती है। ‘कविता का आत्मपक्ष’ में कवि मनुष्य ने उगाया अन्न/ मनुष्य ने तोड़ी संसार की बंजरता/ मनुष्य
ने कविता की परिभाषा, स्वरूप, उद्देश्य, अंगों तथा विविध पक्षों पर ने बनाए घर।” (‘धरती अधखिला फूल है’, पृष्ठ-14) कवि
विस्तार से विचार किया है। कवि- कर्म की सैद्धान्तिक विवेचना विस्थापन का दर्द समझता है। ऐतिहासिक घटनाओं को केन्द्रित
करते हुए कविता में निहित इतिहास, परंपरा, यथार्थ व कल्पना के करती उनकी कुछ कविताएँ विभाजन की त्रासदी की परतें उघाड़ती
सामंजस्य में कवि की भूमिका को स्पष्ट करते हुए एकांत श्रीवास्तव हैं तो कुछ ग्रामीण परिवेश की खुशबू भी बिखेरती हैं।
लिखते हैं -“कविता के पांव, यथार्थ, इतिहास व परंपरा की कठोर ‘शब्द’ चेतना से उद्भूत है। यह सभ्यता का ‘बीज’ है जो अपनी
भूमि पर चाहे टिके हो मगर उसके हाथों ने कल फूलने वाली उर्वरता में भविष्य को संरक्षित करने का सामर्थ्य रखती है। ‘शब्द’
डगालिओं को भी थाम रखा है। दरअसल कविता जो है और जो के साधक एकांत श्रीवास्तव के लिए’शब्द’ शाश्वत है, चिरंतन है।
होना चाहिए के बीच, यथार्थ और स्वप्न के बीच एक पुल का काम जहाँ कोई नहीं रहता वहां शब्द रहता है, समय के बीचोबीच और
करती है। ” (‘कविता का आत्मपक्ष’, पृष्ठ- 99) अर्थात कविता समय के पार भी। यह सुदिनों में निर्णय बनकर तथा दुर्दिनों की
में केवल इतिहास और वर्तमान ही नहीं रहता बल्कि भविष्य के अंतः शक्ति के रूप में निरंतर हमारा आलंबन बना रहता है। इस
बीज भी उसमे अंकुरित होते रहते हैं। काव्य-क्षेत्र में इन दिनों ‘शब्द’ के महत्व को उन्होंने बार- बार उकेरा है। यह हमारे अंतस
‘इन्टेलेक्चुअल टफनेस’ की बढ़ती मांग को देखकर एकांत इसका का द्वार खोलता है। समस्त जड़ताओं से मुक्त करते हुए समय व
विरोध करते हैं। वे कहते हैं कि कविता इस्पात नहीं है। यदि है भी समाज को समझने की दृष्टि देता है। जीवन के कुरुक्षेत्र में ये शब्द
तो यह गला हुआ और पिघला हुआ इस्पात है..‘द्रव’ होने में ही ही हमारा मार्गदर्शन करते हैं— “वे सिर्फ़ शब्द ही थे/ जो मुझे उस
उसकी पहचान है। अर्थात् काव्य में संवेदनात्मक- तरलता एक मोड़ पर मिले/ जहाँ मैं तय नहीं कर पा रहा था/ कि मुझे किधर
अनिवार्य तत्व है। जाना है।” (‘बीज से फूल तक’, पृष्ठ-14) कवि का आत्मविश्वास,
एकांत की कविताएँ ‘सृजनात्मक प्रतिरोध’ की कविताएँ हैं। उनकी आत्मशक्ति बेजोड़ है। ‘बीज से फूल तक’ संग्रह की

184 n जुलाई से सितंबर 2023 yegh


कविताएँ उनके आत्मविश्लेषण का साक्ष्य हैं। उन्हें मनुष्य की कवि केवल मिट्टी की ही गंध नहीं पहचानता अपितु इस मिट्टी में
शक्ति में विश्वास है। कविता शीर्षक ‘आपबीती’ की पंक्तियाँ रचे-बसे फसलों एवं कीट-पतंगों की गंध भी पहचानता है। इनकी
मनुष्य की आदिम आत्मनिर्भरता को दर्ज़ करती हुई कठिन समय देह से गुज़रते हँसिये की ध्वनि, कठफोड़वा की ठुकठुक, नदियों
में जिजीविषा को बरक़रार रखने का दृष्टांत प्रस्तुत करती हैं। ये की कलकल पुकार, पत्तियों की सरसराहट भरे संगीत उन्हें संवदित े
कविताएँ संघर्ष की चुनौती में सफलता का सुकून लेकर आने वाली करता है। कवि यहीं तक नहीं रुकता। नींद में सोते बच्चे की
हैं। विसंगतियों से भरे इस समाज में कदम- कदम पर जीने की कुनमुनाहट, रोटी बेलती स्त्रियों की गुनगुनाहट, टिटिहरी का आर्त्त
दहशत छायी है। मूल्यों की दुहाई देने वाले इस समाज में एकांत स्वर, आधी रात में कोयल की कूक आदि उसे बेचैन करते हैं।
श्रीवास्तव ‘मूल्य’ शीर्षक कविता रचते हैं। वे स्पष्टतः लिखते हैं विदाई होती लड़कियों की सिसकियों में सुहागिनों के गीत सुनकर
— “सिक्कों का मूल्य यहाँ सब जानते हैं/ मनुष्य का मूल्य कोई वे उल्लसित हो उठते हैं। परन्तु कवि की कर्मठता केवल
नहीं जानता।” (वही, पृष्ठ-23) आंचलिक-सौंदर्य से सराबोर होकर तृप्त नहीं होती। बल्कि युद्ध में
कवि धरती-पुत्र है। यह धरती उन्हें सर्वाधिक प्यारी है। यही दम तोड़ते आम आदमी की कराह, दंगों में कुचलती स्त्रियों व बच्चों
उनकी आराध्य भी है और जननी भी। अखरोट-सी सख्त, की इच्छाएँ भी उन्हें मथती हैं। अतः एकांत श्रीवास्तव अपने पाठकों
नासपाती-सी गोल, दिखने वाली हरी-भरी इस धरती पर जब भी से अपील करते हैं कि वे अपनी समस्त व्यस्तताओं को स्थगित
जीवन की हत्या की जाती है, वैमनस्य की दीवारें खड़ी की जाती करके अपनी आत्मा की आवाज़ सुनें।
हैं, शब्दों को दफ्न किया जाता है, धार्मिक उन्मादों में जब- जब ‘धरती अधखिला फूल है’ संग्रह में कवि स्मृतियों की कथा
ईश्वर को घायल किया जाता है, एकांत इस धरती के भविष्य की कहता नज़र आता है। यहाँ वह उस समाज को याद करता है जो
चिंता करने लगते हैं। और मनुष्य की भी। अत: उनके अन्तःस्थल ‘स्व’ से ‘पर’ की ओर अभिमुख हुआ करता था। जहाँ व्यक्ति
से ‘शांतिः शांतिः’ की बुदबुदाहट प्रार्थना का गीत बनकर प्रकट होने व्यक्तिगत सरोकारों से परे सामूहिक हितों में जीने के बहाने ढूँढ़
लगता है। वैश्विक स्तर पर फैले सामाजिक-राजनीतिक द्वंद्व, लेता था। इसमें उल्लिखित कुछ कविताएँ प्रकृति-सौन्दर्य की हैं
सांप्रदायिक विद्वेष, महामारी की विभीषिकायें उन्हें व्यथित करती जिसमें कल्पना का रंग शामिल है। ये कविताएँ मनुष्य की शक्ति
हैं– “यह ख़ून जो बह रहा है/ उस मां का है जिसके हम बेटे हैं/ को सूचित व संबोधित करती हैं, धरती का बांझपन तोड़ने की कथा
जिसे हम धरती कहते हैं।” (‘बीज से फूल तक’, पृष्ठ-20) इस कहती है, धरती-पुत्रों के सामर्थ्य को चिह्नित करती है। ‘हत्या’ और
धरती को बचाने के लिए एकांत श्रीवास्तव लोहा लेना चाहते हैं, ‘आत्महत्या’ में निहित अंतर को व्याख्यायित करते हुए समूची
हवा, मिट्टी, पानी और ख़ून में ‘लोहा’ को सुरक्षित रखना चाहते हैं। समाज-व्यवस्था को उनकी कविताएँ प्रश्नों के कटघरे में खड़ा
अर्थात् हर आततायियों को धराशायी करना उनका लक्ष्य है। उनकी करती हैं। वस्तुतः एकांत श्रीवास्तव की लोक-चेतना अंतः का
निगाह में धरती और मनुष्य का रिश्ता बहुत गहरा है। मनुष्य ने उद्गार बनकर मुखरित हुआ है। पगडंडियों की धूल, तीतुर की
अपने शब्द, कर्तव्य व स्वप्नों से इस धरती को सींचा है। अतः बोली, बुलबुल का गीत, बन में डोंगी, बिजली, सांझ का आकाश,
इसकी सुरक्षा हमारी ज़िम्मेदारी है। विशेषतः आज के क्षरित मूल्यों कांस का फूल, घास की हरी पत्तियाँ, ओस, बंजर भूमि, इत्यादि को
के बीच यह और भी चुनौतीपूर्ण हो उठा है— “दिन-ब-दिन राख कवि अपनी कविताओं में ‘स्पेस’ देते हैं। यहाँ एक तरफ वे बुनकर,
हो रही इस दुनिया में/ जो चीज़ हमें बचाए रखती है/ वह केवल बंजारा व श्रमिक- दम्पतियों के जीवन को बहुत क़रीब से देखते हैं
मनुष्य की महक़ है।” अतः कवि की कर्म-चेतना ही कविता बनकर तो समय की चादर बुनने वाले ‘कबीर’ की खोज भी करते हैं। कभी
इस धरती को बांधे रखती है। ट्रेन में अंधे भिखारी को सिक्के गिनता देख उन्हें आश्चर्य होता है
एकांत के लिए यह ‘धरती’ किसी भी देश- काल की सीमा से तो कभी इनकी डेढ़ बरस की बच्ची उन्हें ‘सूर्योदय’ की भांति
परे है। वे इसका अभिवादन करते हैं, कृतज्ञता ज्ञापित करते हैं। दिखाई पड़ती है। इन बेटियों के लिए वे कभी लोरियाँ लिखते हैं, तो
‘मिट्टी से कहूँगा धन्यवाद’ काव्य-संग्रह में वे मिट्टी से जुड़ी कविताएँ कभी करेले और आम बेचती स्त्रियों की विवशताओं को झांकते हैं।
लिखते हैं। यहाँ कवि ने खेत, खलिहान, पेड़, पक्षी, नदी, सरोवर, लोक-जीवन की विभिन्न झांकियों को वे जनमानस का अनिवार्य
समुद्र आदि के बिंब प्रस्तुत किये हैं। नागार्जुन का ‘अंचल’ यहाँ अंग बनाना चाहते हैं। इसी क्रम में उन्होंने ‘दिया बाती, शब्द का
जीवंत हो उठा है। ‘बीज से फूल बनने’ की प्रक्रिया के ज़रिये बार-बार प्रयोग करके भारतीय संस्कृति का परिचय भी दिया है।
उन्होंने समाज-निर्माण प्रक्रिया का प्रतीकात्मक विश्लेषण किया है। ‘अन्न है मेरे शब्द’संग्रह की कविताएँ लोक-संस्कृति की धरोहर
इसमें विभाजन से जुड़ी त्रासदी और व्यथा-कथा भी अंकित हुई है। हैं।

yegh जुलाई से सितंबर 2023 n 185


कवि की स्त्री-चेतना जितनी प्रबल है, उतनी ही मर्मस्पर्शी। धूमिल हो रहें हैं। पेड़- पौधे, पशु- परिंदे सहित मनुष्य अपने घरौंदे
परंपरा से ही स्त्री को ‘प्रकृति’ कहा गया है। प्रकृति में ‘स्त्री’ और से बेदखल किये जा रहे है।
स्त्री में ‘प्रकृति’ को देखना हमारी आदिम संस्कृति रही है। हमने पर्यावरण-विमर्श आज का अनिवार्य मुद्दा है। पूरा विश्व आज
इसे महिमामंडित भी किया है। किन्तु एकांत की संवेदनशील- दृष्टि इससे प्रभावित है और सतर्क भी। एकांत ने प्रकृति को बहुत क़रीब
प्रकृति एवं स्त्री- सत्ता की पृथकता को महसूस करती है। पूंजीवादी से देखा है। याँत्रिकीकरण एवं औद्योगीकरण की संस्कृति ने
सभ्यता ने जिस बाज़ार को विकसित किया है उसमें ‘स्त्री’ भी एक पर्यावरण- संकट को गहराया है। वरिष्ठ आलोचक ‘अरुण होता’
उत्पाद ही है। बल्कि यों कहें कि ‘स्त्री’ इस बाज़ार का केन्द्रीय लिखते हैं—“समकालीन कविता में प्रकृति को देखने का नज़रिया
आकर्षण है तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। कवि बाज़ार की इस बदला है। नदी, पहाड़, वृक्ष, फूल, चाँद, सूर्य तब भी थे और आज
मानसिकता का प्रतिरोध करता है। उसने ‘लड़की और आम’ भी। आज प्रकृति महज प्रकृति नहीं है, एक समस्या भी है। सभ्यता
शीर्षक कविता में इसका समतुल्य रूपक बांधते हुए स्त्री जीवन की के विकास से इस समय मानव के लिए एक बड़ी चिंता है पर्यावरण
विसंगतियों को संवेदनशीलता से उभारा है—“फल, फल थे/ उन्हें की समस्या। दिनोंदिन पर्यावरण प्रदूषण की मात्रा बढ़ती जा रही है।
बिकना ही था/ किसी न किसी बाज़ार में/ लड़की मगर लड़की थी/ यह अत्यंत चिंतनीय है कवि एकांत श्रीवास्तव के लिए और मानव-
हाड़ मांस की और जीवित/ उसकी इच्छाएँ थीं/ कि उसे स्कूल जाति के लिए भी...।”(‘कविता का समकालीन प्रमेय’, पृष्ठ-
जाना था/ कि उसकी डोली उठनी थी/ लड़की आम नहीं थी।” 53) नगरों-महानगरों का जहरीला धुँआ अब गावों में भी फ़ैल रहा
(वही पृष्ठ-89-90) लड़की आम न थी, न है, न कभी हो सकती है। ढहती इमारतों के मलबों ने गंगा के प्रवाह को अवरुद्ध किया
है। समाज ने स्त्री को सदा ही भोगवादी चश्मे से देखा है। इसीलिए है। लगातार पेड़ों की कटाई, वनक्षरण और रियल-इस्टेट व्यवसाय
उसे वह भोग की वस्तु ही जान पड़ती है। भोगवादी निगाह में के विस्तारीकरण ने जलवायु में आक्सीजन-कार्बन-डाई-आक्साईड
उसकी उपयोगिता तब तक ही मानी जाती है जब तक वह की मात्रा को असंतुलित किया है। फलतः इसका नया समीकरण न
शारीरिक- तृप्ति का माध्यम बनी रहती है। उपयोगिता पूरी होने केवल परिवेश-चिंता को बढ़ावा दे रहा है बल्कि यह सांस्कृतिक-
पर‘आम की गुठली’ की भांति वह तिरस्कृत कर दी जाती है। अस्मिता का संकट भी उत्पन्न कर रहा है। जल-संकट की ओर
समाज की इस गंदली व उपयोगितावादी मानसिकता का विरोध संकेत करते हुए एकांत लिखते हैं– “तब पड़ता नहीं था/ ऐसा
वस्तुतः कवि का ‘सृजनात्मक प्रतिरोध’ है जो एक नई समाज- अकाल, ऐसा सूखा/ गहरे कुण्ड सरीखे थे/ गाँव के कुएँ/ कभी
दृष्टि को निर्देशित कर रहा है। सूखता नहीं था जल।” (‘नागकेसर का देश यह’, पृष्ठ-24)
कवि की कविताएँ ‘मनुष्य’ और ‘मनुष्यता’ से जुड़ी हैं। उनकी उनकी संवेदनशील-दृष्टि जब-जब ‘नर्मदा’ को निहारती है, उसका
सृजनधर्मिता इस सृष्टि के तमाम कणों का रहस्य पहचानने का विरोधाभासी सौन्दर्य उन्हें विस्मित कर जाता है। ‘नर्मदा’ को
प्रयत्न करती है। एकांत की कई कविताओं में इतिहास भी मौज़ूद एकसाथ बहते और हँसते हुए देखना वस्तुतः ‘राग’ और ‘विराग’
है। वे बड़ी बारीकी से मानव- सभ्यता के अभ्युदय का कालचक्र के सामंजस्य की अद्भुत कला को समझना है। यह कवि की
प्रस्तुत करते हैं। आदिम युग से लेकर अब तक सृष्टि के निर्माण, स्वीकारोक्ति है। जितनी शिद्दत से उन्होंने आदमी की ‘भूख़’ को
विध्वंश एवं नव-निर्माण की प्रक्रिया का उल्लेख करते हुए कवि ने पहचाना है उतनी ही तल्लीनता से प्रकृति की ‘भूख़’ को भी महसूस
बड़े ही सीधे शब्दों में वर्त्तमान वित्तीय पूंजीवाद और बाज़ारवादी किया है— “नर्मदा जानती है यह/ कि पहाड़ों और जंगलों में/ बस
व्यवस्था को प्रश्नों के घेरे में लिया है। ‘मनु’ के वीर्य से जन्मे इस सुन्दरता नहीं होती/ ...वहां भूख़ भी होती है प्रबल/ और उन पठारों
मानव- सृष्टि को पूंजीवाद के ‘फन’ ने डस लिया है। पूंजी के की भूख़/ जहाँ कुछ नहीं उगता।” (वही, पृष्ठ-74) कहा जा
‘विषधरों’ ने हमें ऐसा विषाक्त कर दिया है कि हम अपने ही हाथों सकता है कि एकांत श्रीवास्तव का रचनाकार मानव, मानवेत्तर-
पूरे सामाजिक परिवेश को दूषित व ध्वस्त कर रहें हैं। बाज़ारवादी जगत तथा सम्पूर्ण प्रकृति को समानांतर धरातल पर देखने की
रणनीतियों ने हमें इस कदर ग्रस लिया है कि हम कभी साहूकार, कोशिश करता है।
कभी महाजन, कभी राजा तो कभी हत्यारा की भूमिका में समाज, ‘नागकेसर’ अर्थात् छत्तीसगढ़ में धान की एक किस्म जो सूर्ख
राजनीति, धर्म व अर्थ का समीकरण समझने- समझाने लग जाते लाल या कत्थई रंग की होती है। जिसकी जड़ें धरती से होती हुई
हैं। किन्तु इन सब के बीच मानवता हर पल दम तोड़ रही है। शीत- कवि के स्वप्नों तक दस्तक देती हैं। बंजारों व घुमक्कड़ जनजातियों
युद्ध के रूप में गृह-युद्ध तथा इसके आवरण में विश्व-युद्ध की के जीवन से संबंधित अध्ययन इस संग्रह की विशेषता है। इसमें
रणनीतियाँ बनाई जा रहीं हैं। आम आदमी के इन्द्रधनुषी सपनें रोजमर्रा की चुनौतियाँ हैं। रोटी की चिंता है और है अविकसित गाँवों

186 n जुलाई से सितंबर 2023 yegh


का दृष्टांत। चार खण्डों में विभाजित यह संग्रह बेघर बंजारों से
लेकर बेघर हुए नीलकंठों के भटकने की त्रासदी को मूर्त करता
है- “और जो भूख़ का विष है/ जिसका काट/ बटकी भर भात है/
जिसके जुगाड़ में/ भटकते हैं ये यहाँ-वहां।”...“क्या तुम्हें सुनाई
देती है/ उसकी आवाज़?/ क्या तुम लौटा सकते हो/ एक नीलकंठ
को उसका पेड़?” (‘नागकेसर का देश यह’, पृष्ठ-104) एकांत
श्रीवास्तव विकास के नाम पर वोट बटोरने वाली राजनीति व
राजनीतिज्ञों पर भी कटाक्ष करते हैं। डिज़िटल-क्रान्ति के युग में
आज भी भारतवर्ष में कई ऐसे गाँव हैं जहाँ न तो कोई डाकघर है,
न अस्पताल, न स्कूल, न तो बिजली है, न खेतों को जोतने वाले
ट्रैक्टर। यहाँ बच्चे स्कूल नहीं जाते, किताबें नहीं पढ़ते, बल्कि
कुपोषण के त्रस्त उनके बचपन को हथियार चलाने का प्रशिक्षण
दिया जाता है। निर्दोष आम जनता को बरगलाने व भावी पीढ़ी को
अपदस्त करने वाली इस व्यवस्था के विरुद्ध कवि की व्यंग्य-
संवेदना मर्मान्तक हो उठी है– “ओ मेरी महान सभ्यता के आत्मपक्ष’, पृष्ठ- 26)
आकाओं/तुम इनकी किताबें छीनकर/ पहले अस्त्र पकड़ते हो/ जीवन के विभिन्न रंगों से सुसज्जित उनकी कविताओं का एक ही
फिर अपने वातानुकूलित/ सुनसान में बैठकर/ युद्ध से घबराते रंग है— प्रेम का रंग। एक ही धरातल है— ‘यथार्थ’। ये कविताएँ
हो।” (‘नागकेसर का देश यह’, पृष्ठ-19-20) भावी पीढ़ी के लिए धरोहर हैं। इतिहास, वर्त्तमान व भविष्य का
मध्यकाल में गोस्वामी जी के वर्णाश्रम-धर्म का आधार चाहे जो संगम– इसकी संरचनागत विशेषता है। कवि का हृदय इस धरती को
भी रहा हो किन्तु आज वह पूंजी-आधारित वर्ग-वैषम्य में तब्दील हर पल ‘पुनर्नवा’ होते देखने का आकांक्षी है। कहीं- कहीं वे
हो चुका है। एक तरफ पूंजी की कतार है तो दूसरी ओर बुनियादी दार्शनिक व अति भावुक होते भी नज़र आते है। यह उनके कलाकार
जरूरतों की जद्दोजहद। खाई बड़ी गहरी है। श्रीवास्तव जी का की विशेषता है– “कथाएँ जहाँ ख़त्म नहीं होती/ हम जिन्हें जन्म देते
रचनाकार इस वैषम्यमूलक समाजवादी-व्यवस्था का निरीक्षण हैं/ धरती अपनी उर्वरता में/ पुनर्नवा हो जाती है।” (‘नागकेसर का
करते हुए हमसे सवाल करता है। उन्होंने परस्पर दो विरोधी-वर्गों देश यह’, पृष्ठ-81) उनका कवि- मानस पूरी पृथ्वी की परिक्रमा
के जीवन-यथार्थ को आमने-सामने रखते हुए विश्लेषण व कर उसी जनपद में लौटना चाहता है जहाँ कृत्रिमता का कोई आवरण
मूल्यांकन का दायित्व पाठकों को सौंपा है। यह उनके रचना-कर्म न हो। कंप्यूटर-क्रांति व आणविक हथियारों के दौर में भी हम
की सफलता है— “नहाकर आधी लपेटकर गीली साड़ी/ आधी को सफरी, दूबराज, विष्णु-भोग, सोना मासूरी और जावा फूल को न
सुखातीं/ ये स्त्रियाँ हैं भारतवर्ष की/ और ये किसकी अलमारियों में भूलें— यही कवि की प्रचेष्टा है। जहाँ ‘नागकेसर’ अपनी मूल जड़ों
ठसी पड़ी हैं/ दस हज़ार साड़ियाँ।” (‘नागकेसर का देश यह’, और विशिष्ट रंग के साथ अपनी स्वतंत्र पहचान रखती हो...“कि
पृष्ठ-40) जहाँ चीन्ह सकूँ/ हरे खेतों के बीच अलग से/ खेत नागकेसर का/
एकांत की कविताओं का शिल्प बेजोड़ है। यह अपने चरम लाल, सुर्ख, कत्थई।” (वही, पृष्ठ-83) तात्पर्य यह कि कवि बाहरी
लक्ष्य अर्थात् संप्रेषणीयता में पूर्णतः सफल है। इनकी अधिकांश प्रवाह व प्रभावों के अधीन नहीं होना चाहते। वे भारतीय सांस्कृतिक-
कविताएँ अपने पीछे कई प्रश्नों को छोड़ जाती हैं और पाठक अस्मिता को सुरक्षित रखना चाहते हैं। महत्वपूर्ण बात यह है कि
गोताखोर की भांति उनमें डुबकी लगाता हुआ सर्जनात्मक-रहस्यों कवि ने प्रकृति, अपने जनपद के बहाने अपने समय की महत्वपूर्ण
के मोती खोजने लगता है। उन्होंने कवि- कर्म पर विचार करते हुए चिंताओं को संवेदनात्मक धरातल पर निराले ढंग से अभिव्यक्त
कविता में रूप और वस्तु का तार्किक संतुलन आवश्यक माना किया है। यह एकांत श्रीवास्तव को अपने समकाल के कवियों से
हैं– “कवि उस गोताखोर की तरह है जिसे गोताखोरी की विशिष्ट बनाता है। n
कलाबाजियाँ तो दिखानी ही हैं लेकिन अंत में मुट्ठी खोल कर मोती संपर्क: असिस्टेंट प्रोफेसर, (हिंदी)
भी दिखाना है– अन्यथा उसकी गोताखोरी में, उसके श्रम में पाठक वीमेंस कॉलेज, पश्चिम बंगाल, कोलकाता
या आलोचक की न दिलचस्पी होगी न सहानुभूति।” (‘कविता का मो. 9475396089

yegh जुलाई से सितंबर 2023 n 187


n अविराम : पवन करण

दो सदियों की संधि पर कविता का प्रक्षेप


सिद्धार्थ शंकर राय

किसी भी कवि या लेखक के मूल्यांकन का एक अपनी कविताओं के द्वारा आने वाले काव्य-समय की
आधार उसकी साहित्यिक यात्रा चेतना के स्तर पर ओर इंगित भी करते रहे। इस धारणा को समझने के
हुए बदलावों का भी हो सकता है कि वह किन लिए हम विद्यापति, अमीर खुसरो, केशव और
वैचारिक मूल्यों का विकास अपनी लेखनी के द्वारा रीतिकाल के परवर्ती कवियों को देख सकते हैं।
करता है। रचनाकार पहली रचना से लेकर आख़िरी आधुनिक हिंदी कविता में यह बदलाव बहुत तेजी से
रचना तक एक ही भाव-स्थिति में आबद्ध तो नहीं घटित होता है इसलिए एक ही कवि किसी काव्यांदोलन
है। इस प्रवृत्ति को काव्यशास्त्र के मर्मज्ञों से लेकर का प्रणेता बनता है और उसके अवसान की घोषणा
लोकवादी आचार्यों ने पुनरुक्ति दोष माना है। कवि की काव्ययात्रा भी करता है। इक्कीसवीं सदी का आगमन केवल समय-सापेक्षता
में चेतना के क्रमिक विकास का प्रश्न इसलिए भी महत्वपूर्ण हो की दृष्टि से ध्यातव्य नहीं है। यह वही समय है जब उदारीकरण
जाता है कि कविता जनमानस की स्थिति का पता ही नहीं देती है को आत्मसात करने के परिणाम सामने आने लगे। पूँजीवाद के
अपितु वह जनमानस की अग्रगामी चेतना के निर्माण में भी अति मुक्त प्रवाह ने भारतीय सामाजिक ताने-बाने में अनेक परिवर्तनों
महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन करती है। इसलिए ही आलोचकों और को लाने का कार्य किया। इसके प्रभाव में ये परिवर्तन इतने तेजी से
विचारकों द्वारा कविता को जनचेतना का इतिहास कहा गया है। यह घटित हुए कि इनके प्रभाव का समुचित आकलन संभव नहीं हो पा
‘चेतना’ किसी एकनिष्ठ या एकायामी गतिविधि का प्रतिबिंबन नहीं रहा था। उदारीकरण ने बाज़ार को विनियम-केंद्र से आगे बढ़ाकर
करती है। यह समस्त सामाजिक-क्रियाओं के गत्यात्मक स्वरूप एक मनोवृत्ति में बदल दिया।
को चिन्हित करने वाली धारणा है। जिसमें मनुष्य के निजी अनुभवों उदारीकरण ने समाज की गतिकी को परिवर्तित कर दिया या
से लेकर समस्त सामाजिक संबंधों और सिद्धांतों का समेकित रूप फिर उसमें एक विशेष गति भर दी। किसी भी व्यवस्था के आगमन
परिलक्षित होता है। कविता के भीतर निहित ‘चेतना’ कवि कर्म को के अनेक पक्ष होते हैं जो मानव-स्वभाव और इसके क्रिया-कलापों
समझने-बूझने का प्रवेश-द्वार है। इस प्रवेश-द्वार से जाने पर कवि को नियंत्रित करते हैं। पूँजीवादी व्यवस्था अपने वृहत्तर और
की संवेदनाओं के रचाव को आसानी से समझा जा सकता है। इस दीर्घकालीन स्वरूप में मनुष्य के शोषण और मुनाफे की ही
आधार पर देखा जाए तो पवन करण बीसवीं और इक्कीसवीं सदी व्यवस्था है। किंतु, इसके भीतर प्रवाहित होने वाले व्यक्तिवादिता
के संधि-काल पर अपने प्रथम काव्य संग्रह के माध्यम से हिंदी के विशेष गुण ने मनुष्य के भीतर ‘स्वयं’ का भाव पैदा किया।
काव्य-संसार में प्रवेश करते हैं। इनका पहला कविता संग्रह ‘इस जिससे ‘व्यक्ति-स्वातंत्र्य’ भाव अधिक सुदृढ़ हुआ। इसके कारण
तरह मैं’ वर्ष 2000 में प्रकाशित होता है। इसके उपरांत ‘स्त्री मेरे अनेक समूहों, समुदायों और सामाजिक इकाईयों के भीतर ‘अपनी
भीतर’, ‘कहना नहीं आता’, ‘पवन करण के जनगीत’, ‘अस्पताल अस्मिता’ का भाव उदित हुआ। कवि और रचनाकार के लिए यह
के बाहर टेलीफोन’, ‘स्त्री शतक (दो भाग)’, ‘कोट के बाजू पर संधिकाल बहुत कठिन होता है। वह विशेष प्रकार के दायित्व-
बटन’, ‘तुम्हें प्यार करते हुए’ संग्रह प्रकाशित हुए। संशय का शिकार होता है कि वह तत्काल दिख रहे ‘मुक्तिलक्षणों’
वस्तुतः हिंदी साहित्य के इतिहास में संधिकाल के कवियों की की उपासना करे या व्यवस्था के भीतर पल रहे दीर्घकालिक
अति महत्वपूर्ण भूमिका रही है। संधिकाल के कवियों ने स्वयं शोषण-चक्र का प्रतिकार। कवि को इस दायित्व-संशय के संकट
अपनी पिछली पीढ़ी से एक महीन वैचारिक तंतु से बाँधे रखा और से स्वयं ही उबरना होता है। संधिकाल की परिस्थितियाँ काव्यकला

188 n जुलाई से सितंबर 2023 yegh


के लिए कई स्तरों पर चुनौती प्रस्तुत करती हैं। व्यवस्था के भीतर पवन करण का पहला संग्रह बीसवीं सदी के अंत
मनुष्य के शोषण-चक्रों का खुलासा और प्रगतिशील मूल्यों की और इक्कीसवीं सदी की दहलीज पर आता है।
पहचान कर जीवन और समाज के लिए इसके महत्व की विवेचना कवि के भीतर तनाव और द्वन्द्व की उपस्थिति का
ही काव्य-साधना बन जाती है। होना अनिवार्य ही है। समकालीन हिंदी कविता का
पवन करण का पहला संग्रह बीसवीं सदी के अंत और इक्कीसवीं परिवेश ‘संधिकाल’ से गुज़र रहा था। कविता की
सदी की दहलीज पर आता है। कवि के भीतर तनाव और द्वन्द्व की आलोचना से पहचान बनाने वाले ‘आलोचना-
उपस्थिति का होना अनिवार्य ही है। समकालीन हिंदी कविता का सम्राट’ के संपादन में निकलने वाली पत्रिका में
परिवेश ‘संधिकाल’ से गुज़र रहा था। कविता की आलोचना से ‘कविता का भविष्य’ पर अंक निकाले जा रहे थे।
पहचान बनाने वाले ‘आलोचना-सम्राट’ के संपादन में निकलने ऐसी साहित्यिक मनःस्थिति से निर्मित परिवेश में
वाली पत्रिका में ‘कविता का भविष्य’ पर अंक निकाले जा रहे थे। काव्य-संग्रह का प्रकाशन कविता विरोधी धारणाओं
ऐसी साहित्यिक मनःस्थिति से निर्मित परिवेश में काव्य-संग्रह का का साहित्यिक और रचनात्मक प्रतिकार था; पवन
प्रकाशन कविता विरोधी धारणाओं का साहित्यिक और रचनात्मक करण के मूल्यांकन में इस तथ्य की ओर भी ध्यान
जाना आवश्यक है।
प्रतिकार था; पवन करण के मूल्यांकन में इस तथ्य की ओर भी
ध्यान जाना आवश्यक है। पवन करण के पहले संग्रह की पहली
ही कविता है-‘पिता का मकान’। यह कविता अस्मिता और परंपरा खींचतान नयी सदी का संकेत दे रही है, “भरोसा/अब भी मौज़ूद है
के कुछ स्थायी मूल्यों से उतर जाती है। जिस ‘अपनी अस्मिता’ दुनिया में/नमक की तरह/अब भी/पेड़ों के भरोसे पक्षी/सब कुछ
और ‘व्यक्ति-स्वातंत्र्य’ का उल्लेख पहले किया गया है, उसकी छोड़ जाते हैं/बसंत के भरोसे वृक्ष/बिलकुल रीत जाते हैं/बरसात के
अभिव्यक्ति साफ-साफ देखी जा सकती है। इस कविता में नये भरोसे बीज/धरती में समा जाते हैं/पतवारों के भरोसे नाव/संकट
कवि की छटपटाहट भी मौज़ूद है जिसमें वह ‘अपने हिसाब’ और लाँघ जाती है/अनजान पुरुष के पीछे/सदा के लिए स्त्री चल देती
‘अपनी रुचि’ का काव्य-संसार चाहता है। पुरखों और पिताओं की है।”2
साहित्यिक मान्यताओं से इनकार कर कविता के भविष्य के प्रति इस ‘भरोसा’ कविता ने पवन करण को जन सरोकारों से जोड़ा
गहरी आसक्ति और नव-निर्माण के संकल्प का सृजन होता है। है। अपने और पराये का विवेक प्रतिबद्धता की कसौटी मानता है।
कविता इस प्रकार है, “पिता का मकान मुझे/अपने मकान की तरह ‘यह दुनिया सब के लिए है’ का भाव ही पूँजीपतियों के विरुद्ध खड़ा
नहीं लगता/जो अपनी ज़िन्दगी में/अपने हाथों एक बार/अपना होने का साहस देता है। जहाँ पर कवि का द्वन्द्व समाप्त होता है,
घोंसला ज़रूर बनाता है/मैं उस पक्षी की तरह हूँ।”1 वहाँ वह कह उठता है, “साहूकारों की काली दुनिया के ख़िलाफ़/
वस्तुतः अस्मिता-बोध का यह सोपान लोकतांत्रिक मूल्यों के कुछ नहीं करते/उन्हें अपना नहीं मानता/और वहाँ गुर्राते हुए
प्रति आस्था और सामूहिकता के विश्वासी जनसरोकारों और राष्ट्राध्यक्ष के आगे/कुछ मिमियाते हुए राष्ट्राध्यक्ष/इसे कागज पर/
समाजवादी मूल्यों की देन है। यह द्वन्द्व कविता को सच्चे अर्थों में बिना सोचे लगाए जा रहे हैं।”3
समकालीन बनाता है। जिस ‘संधि-काल’ की चर्चा ऊपर की गयी अपने समय और समाज को ख़ुद के भीतर खोजने की प्रक्रिया
है, वह आरंभिक दो कविताओं में दिख जाता है। इस द्वन्द्व से ही आत्मालोचन है। इस आत्मालोचन में सामाजिक यथार्थ को अपनी
पवन करण की रचना-प्रक्रिया आगे बढ़ती है और वे ‘स्त्री को वास्तविक जीवन-स्थितियों और इच्छित जीवन-स्थितियों में परखा
अपने तलाशने’ के साथ-साथ जनगीतों की रचना करते हैं। पहले जाता है। अपनी अनुभूतियों को अन्य की अनुभूतियों के साथ
संग्रह की दूसरी कविता है- ‘भरोसा’। पहली कविता में पिता का मिलाकर दूसरों को एक बेहतर नागरिक समाज और ज्ञान-समाज
मकान अपना नहीं लगता है लेकिन दूसरी कविता में गहन प्रदान करने की चेष्टा के कारण ही ‘स्त्री मेरे भीतर’ की कल्पना
सामाजिकता और आश्वस्ति का बोध रचा हुआ है। दोनों कविताओं साकार होती है। जगत-सत्य को आत्म-सत्य बना लेने पर ही मुक्ति
को एक साथ पढ़ने पर नये ढंग के व्यक्ति और समाज के संबंधों और समानता की वृहत्तर संवेदना का विकास होता है। यह प्रमाणित
का पता चलता है, जिसमें भरोसे का भाव कायम है लेकिन उधार सत्य है कि स्त्री हजारों वर्षों से अधिकारविहीन सामाजिक इकाई
की पहचान स्वीकार नहीं है। पहली कविता जो ‘घर जोरे आपना’ है। कवि के भीतर बैठी स्त्री जब अपने सहज मानवीय अधिकारों
है तो दूसरी कविता ‘चले हमारे साथ’ की सामाजिकता का बोध के लिए कुलबुलाती है तो उसकी अनेक छवियाँ काव्यरूप में प्रकट
कराती है। पिता के मकान से विराग और पारिस्थितिकी से राग की होने लगती हैं। पवन करण की स्त्री विषयक कविताएँ इसलिए

yegh जुलाई से सितंबर 2023 n 189


प्राबल्य के साथ पढ़ना अधिक उपयुक्त है। भाव-प्राबल्य के कारण
ही बेटी प्रेम में डूबी माँ को देखकर इतरा रही है, “अब तुम्हें वाकई
नहीं मालूम पिता कि माँ/इस उम्र में कितनी ख़ूबसूरत देती है
दिखाई/और प्रेम करती हुई माँ को देखती/मैं क्यों न फिरुँ बौराई/
प्रेम करती हुई माँ इन दिनों/ बिलकुल मुझ जैसी लगने लगी है/जैसे
मेरे स्कूल की कोई सहेली/शरारती चंचल और हँसमुख।”4 इस
कविता पर विष्णु नागर ने ‘स्त्री मेरे भीतर’ की भूमिका लिखते हुए
बहुत ही मौजूँ टिप्पणी दर्ज़ की है, “इस कविता में सबसे दिलचस्प
और पुरुषों को पीड़ा देने वाली बात यह है कि बेटी अपनी माँ को
दुनिया की सबसे ख़ूबसूरत माँ ही नहीं बताती, अपने पिता को याद
करते हुए अपनी माँ के देह के वेग, उसकी कामुक चंचलता, उसके
संसर्ग-संयम की भी बात करती है और लड़की अभी स्कूल में
पढ़ती बतायी गयी है।”5
इसी तरह की एक भिन्न मनोवृत्ति और ज़मीन की कविता है-
‘बहन का प्रेमी’। यह कविता भाई की भूमिका को गलाकर बहन
की आकांक्षाओं का प्रतिरूप होकर लिखी गयी है। भारतीय
सामाजिक व्यवस्था में बहन के प्रेमी को मान्यता प्रदान करने या
स्वीकार करने में अनेक बाधाएँ हैं। भाई का पुरुष-मन भी एक
इतनी प्रभावशाली हैं क्योंकि उनमें सामाजिक-रूप में मौज़ूद स्त्री जटिल-प्रक्रिया से गुज़रता है। बहन घर की इज्जत ढोने वाली ठेला
को अपने भीतर एक मनुष्य के रूप में विकसित किया है। इस गाड़ी मान ली जाती है, जिसे प्रत्येक पुरुष अपने हिसाब से हाँक
प्रक्रिया को मुक्तिबोध ‘बाह्य का आभ्यांतरीकरण’ कहते हैं। पवन देता है। इसमें बहन की रुचि और इच्छा की कोई संभावना नहीं
करण ने ‘बाह्य के आभ्यांतरीकरण’ से मनुष्योचित संवेदनात्मक होती। किंतु, इस कविता में धीरे-धीरे से ही सही भाई का पुरुष-मन
आवेग को आकार दिया जिससे तमाम रूढ़ियाँ और बंधन छिन्न- गलकर नीचे गिरता है। यह धीरे-धीरे होना समाज के भीतर होने
भिन्न हो जाते हैं। इस कारण ही इनके यहाँ स्त्री-जीवन के अनेक वाले धीरे-धीरे बदलावों को रेखांकित करता है, “धीरे-धीरे प्रेम
सोपानों का ब्यौरा मिलता है। इन ब्यौरों में ऐसे कोने-अँतरे भी हैं करती बहन/और उसका प्रेमी/घर और मेरी दिनचर्या में/होता गया
जहाँ तक पूर्ववर्ती कवियों ने जाने का जोख़िम नहीं उठाया है। शामिल/और मेरे भीतर का भाई गलकर/घर के फर्श पर टपकता
कभी-कभी तो ऐसा प्रतीत होता है कि सामाजिक जागरण के देखे रहा”6 स्त्री-जीवन को मूल्यवान बनाने के लिए कई प्रतिबंधित और
गये स्वप्नों में ये संवेदनाएँ भला कहाँ और क्यों पीछे हट गयी थीं वर्जना क्षेत्रों से गुज़रना होगा। स्त्री अपराध बोध और पश्चाताप के
जिनसे हमारा परिचय कवि द्वारा कराया जाता है। ‘स्त्री सुबोधिनी’ अँधेरे कोनों से बाहर आकर ‘तुम जैसी चाहते हो वैसी नहीं हूँ मैं’
की कामना करने वाला संसार भला ‘बहन का प्रेमी’, ‘तुम जैसी कह उठती है। स्त्री अपनी पूरी अस्मिता और शर्तों के साथ किसी
चाहते हो वैसी नहीं हूँ मैं’ और ‘प्यार में डूबी माँ’ जैसी कविताओं पुरुष के पास आती है, “मुझे इस बात का कोई पश्चाताप नहीं है/न
को कैसे स्वीकार कर पायेगा। हाशिए के प्रश्नों को उठाने वाले ही कोई अपराधबोध मेरे भीतर/हमेशा के लिए उसकी होते समय
प्रायः हाशिए पर चले जाते हैं, यह जानते हुए भी पवन करण ने आज/जैसी वह मुझे चाहता है, वैसी नहीं हूँ मैं”7
हाशिए के प्रश्नों को केंद्र में लाने के साहसिक कार्य को अंजाम पवन करण के पास स्त्री जीवन और मन को समझने के लिए
दिया है। समाज में प्रेम के लिए ही कम अवकाश होता है और गहरी संवेदना और सूझ-बूझ से युक्त काव्य-विवेक है। इनके लिए
इसमें भी माँ के प्रेमालाप का वर्णन तथा इस प्रेम का उत्सवधर्मी स्त्री काव्य-वस्तु नहीं है वरन् अपने ही शरीर का भीतरी हिस्सा है
वर्णन बेटी द्वारा किया जाना थोड़ा आश्चर्यचकित करता है। कविता जो समस्त बाहरी संरचना को नियंत्रित करता है। आधी आबादी का
को पढ़कर उपजने वाला यह ‘आश्चर्य’ ही कवि के सामर्थ्य का पूरा सच लिखने के लिए कवि ने अपना पूरा पृष्ठ समर्पित कर दिया
परिचायक है। समाज को परंपरागत ढंग से समझने वालों के लिए है। वे संसार के माध्यम से स्त्री-जीवन में नहीं उतरते हैं बल्कि
यह कविता ‘मर्यादा-भंग’ प्रतीत होगी। इस कविता काे भाव- स्त्री-जीवन के माध्यम से संसार की धड़कनों को पकड़ने का

190 n जुलाई से सितंबर 2023 yegh


पवन करण के पास स्त्री जीवन और मन को समझने के लिए गहरी संवेदना और सूझ-बूझ से युक्त काव्य-
विवेक है। इनके लिए स्त्री काव्य-वस्तु नहीं है वरन् अपने ही शरीर का भीतरी हिस्सा है जो समस्त बाहरी
संरचना को नियंत्रित करता है। आधी आबादी का पूरा सच लिखने के लिए कवि ने अपना पूरा पृष्ठ समर्पित
कर दिया है। वे संसार के माध्यम से स्त्री-जीवन में नहीं उतरते हैं बल्कि स्त्री-जीवन के माध्यम से संसार
की धड़कनों को पकड़ने का सफल यत्न करते हैं। ‘स्त्री शतक’ की दोनों भागों की कविताएँ उनकी इस
काव्यवृत्ति का जीवंत प्रमाण हैं। स्त्री-जीवन और संघर्ष का पुनर्पाठ वस्तुतः स्त्री-समाज के संघर्ष का इतिहास
भी है जिसमें सभी सामान्य और विशेषीकृत जन-व्यवस्था का रेशा-रेशा दिखने लगता है। स्त्रियों के विरुद्ध
रचे गये सभी शोषण-तंत्रों की ऐतिहासिक प्रक्रिया भी स्पष्ट हो जाती है।

सफल यत्न करते हैं। ‘स्त्री शतक’ की दोनों भागों की कविताएँ पर ला दिया गया है। खेती केवल आजीविका नहीं है वरन् जीवन
उनकी इस काव्यवृत्ति का जीवंत प्रमाण हैं। स्त्री-जीवन और संघर्ष शैली भी है; संस्कृति भी है। अपनी संस्कृति का विनाश करने का
का पुनर्पाठ वस्तुतः स्त्री-समाज के संघर्ष का इतिहास भी है जिसमें यह सुख पूँजीवादी षड्यंत्रों के कारण ही है। ‘खेती का गीत’ में
सभी सामान्य और विशेषीकृत जन-व्यवस्था का रेशा-रेशा दिखने आने वाला ‘बिल्डर’ वस्तुतः ‘डिस्ट्रायर’ है। इस जनगीत में
लगता है। स्त्रियों के विरुद्ध रचे गये सभी शोषण-तंत्रों की ‘बिल्डर’ शब्द विपरीत अर्थ को उद्भासित करता है, “बेचो खेत
ऐतिहासिक प्रक्रिया भी स्पष्ट हो जाती है। पवन करण ने मिथकों बेचो खेत/बिल्डर कह रहे बेचो खेत/खेत खल्हानी बहुत है गई/
को चुनौती के रूप में अंगीकार किया है। वे स्त्री के कष्टों को भुस और सानी बहुत है गई/गाँव किसानी बहुत है गई/काए नहीं
सुलझाने के लिए दैवीय रूपों से भी प्रश्न कर उठते हैं, “ये आपने तुम पैसे लेत/बिल्डर कह रहे बेचो खेत।”10
क्या किया ग़ाैरी/आपने तो करोड़ों स्त्रियों के मन में/कुंठा घोलकर पवन करण इस उदास सदी में जनता की उल्लास-कामना के
रख दी/आश्चर्य है कि शंभु के सामने शक्तिहीन होकर रह गई गायक है। वे व्यवस्था और समाज द्वारा निषिद्ध क्षेत्रों में प्रवेश
शक्ति/ग़ाैर वर्ण प्राप्त करने को उद्यत/आपने एक बार भी/उन करने से बिलकुल भी हिचकते नहीं हैं। इस कारण प्रचलित और
स्त्रियों के बारे में नहीं सोचा/जिनकी त्वचा का रंग काले सर्प सा विमर्शवादी विषयों पर कविता लेखन के बावज़ूद तथ्यों और
डसता रहता है उन्हें”8 पवन करण इस तथ्य से अवगत है कि स्त्री- धारणाओं का पुनर्निर्धारण करने में सफल होते हैं। पवन करण के
जीवन में भी शोषण और संघर्ष के अनेक स्तर हैं। पितृसत्तात्मक स्त्री बाहर की नहीं उनके भीतर की स्त्री है और पवन करण काव्य
व्यवस्था के शोषण के साथ-साथ वर्ग आधारित विभेद भी मौज़ूद मूल्य उपेक्षितों और वंचितों के हक़ में खड़े हैं। n
है जो स्त्री को स्त्री के विरुद्ध खड़ा कर देता है। जाहिर है कि वर्ग
संदर्भ-सूची :
आधारित शोषण के विरुद्ध जन-आधारित गीत लिखने और गाने
1. करण, पवन; इस तरह मैं; राधाकृष्णन प्रकाशन, नयी दिल्ली; पृ.11
पड़ेंगे। पवन करण श्रम की महत्ता के पोषक हैं इसलिए उनकी 2. वही; पृ.12
कविताओं में कामवालियों का दुःख उतरता है। कवि की आवाज़ 3. वही; पृ.46
‘काम कराने वालियों’ के विरुद्ध बुलंद हो उठती है, “बीमार पड़ना 4. करण, पवन; स्त्री मेरे भीतर; राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली; पृ.92
मैडम को है सताएँ/छुट्टी पे हमरा रहना मैडम को नसुहाए/गुस्से में 5. नगर, विष्णु; (भूमिका) स्त्री मेरे भीतर; राजकमल प्रकाशन, नयी
दिल्ली; पृ.8
हमसे कहती कामचोर सालियाँ/हम कामवालियाँ हम कामवालियाँ”9 6. करण, पवन; स्त्री मेरे भीतर; राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली; पृ.32
पवन करण ने अपने जनगीतों में अपनी बोली को अपनाया है। 7. वही; पृ.53
जीवन का सारा विषाद-योग लोक के पास ही है। आज के कठिन 8. करण, पवन; स्त्री शतक; परख : स्त्री शतक (पवन करण: साधना
समय में ‘आगे बढ़ने’ का नारा इतना विस्तारित हो चुका है कि पीछे अग्रवाल (samalochan.blogspot.com)
9. करण पवन; पवन करण के जनगीत; कामवालियों का गीत/पवन करण
रह गये लोगों की चीख-पुकार पर ध्यान देने वालों का अकाल है। -कविता कोश (kavitakosh.org)
यह भाषा-परिवर्तन बहुत सायास है क्योंकि जनता के दुःखों की 10. करण पवन; पवन करण के जनगीत; खेत का गीत/पवन करण-कविता
अभिव्यक्ति उसकी अपनी भाषा में ही हो सकती है। दुःखों का कोश (kavitakosh.org)
रूपांतरण किसी भी प्रकार से संभव नहीं है। किसान जीवन की संपर्क : हिंदी विभाग, हरियाणा केंद्रीय विश्वविद्यालय,
विषमता का अवलोकन खेती-किसानी की भाषा में ही हो सकता महेंद्रगढ़, हरियाणा
है। विकास की तथाकथित आँधी में किसानों को विनाश के कगार मो. 8397061555

yegh जुलाई से सितंबर 2023 n 191


SataabdI smarNa

हबीब तनवीर
(1 सितम्बर 1923 - 8 जून 2009)

192 n जुलाई से सितंबर 2023 yegh


मनमोहन
कौशल किशोर
नरेंद्र पुण्डरीक
अग्निशेखर
योगेन्द्र कृष्णा
लाल्टू
राम कुमार कृषक
देवन्े द्र आर्य
मोहन डहेरिया
मिथिलेश श्रीवास्तव
शरद कोकास

महत्तम
शिव कुमार पराग
नासिर अहमद सिकंदर
विनोद पदरज
वसंत सकरगाए
कविता मेरी नागरिकता है यश मालवीय
और हस्तक्षेप मेरा लोकतंत्र असंगघोष
वशिष्ठ अनूप
केशव तिवारी
राकेश रेणु
संजय मिश्र
संजय अलंग
राकेश मिश्र
अनिरुद्ध उमट
पंकज राग
अनिल करमेले
रविशंकर पाण्डेय
विनय विश्वास
yegh जुलाई से सितंबर 2023 n 193
194 n जुलाई से सितंबर 2023 yegh
n महत्तम : मनमोहन

तम के द्वार पर दमक की दस्तक


डॉ. अरुण कुमार पाण्डेय

'जिल्लत की रोटी' काव्य संग्रह को पढ़ते हुए मन दुनिया का यथार्थ चित्रण प्रस्तुत करता है। इस संग्रह
में अनायास कई विचार उमड़ घुमड़ रहे हैं। इस की कुछ एक कविताएँ मृत होती मानवीय संवेदना को
काव्य संग्रह की कविताएँ जिस समय में लिखी गई झकझोरती हैं तो कुछ कविताएँ सवाल खड़ा करती हैं
हैं वह उत्तर आधुनिकता का दौर है और बाज़ारवाद जिसका उत्तर ढूंढना हम सबों का कर्तव्य बनता है।
पूरे विश्व के साथ हमारे देश में भी अपना पैर पसार कवि समाज को आईना दिखाता है और हमारे
रहा था। वास्तविकता से हमें रूबरू कराता है। बदलते जीवन
बाज़ारवाद ने हमारी सोच,हमारी संस्कृति,हमारी मूल्य और सर्वग्रासी संस्कृति के विरुद्ध प्रतिरोध की
व्यवस्था पर अपनी पकड़ पूरी तरह से बना ली है। बाज़ारवादी प्राचीर को मजबूत करने का आह्वान भी है। 'समायोजन' कविता
व्यवस्था से उत्पन्न उपभोक्तावादी संस्कृति के इस दौर में मानव के देश की साझी सांस्कृतिक विरासत को सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के नाम
लिए उपयोगी सुविधाएँ बिकाऊ हो गई हैं जिसके परिणाम स्वरूप पर ध्वस्त करने की जुनून बयाँ करती है। देश दुनिया में विवादों
मनुष्य अपनी महत्वाकांक्षा और अनियंत्रित अभिलाषा का शिकार को खड़ा करने की मुहिम चली है लेकिन विवादों का समाधान
हो रहा है। जिससे समाज में अशुभ प्रतिस्पर्धा का माहौल बना हुआ उद्देश्य नहीं है। विवादों के द्वारा देश में विभाजन करना मुख्य उद्देश्य
है। असम प्रतिस्पर्धा के कारण सामाजिक ढांचा चरमरा रहा है। है। रवींद्रनाथ टैगोर ने हमारे देश को महामानव समुद्र कहा है।
आगे बढ़ने की होड़ में सारे मानवीय संबंध औपचारिक हो गए हैं। भारतीय संस्कृति का निर्माण आर्य और आर्येतर संस्कृतियों के
हर व्यक्ति एक दूसरे को अपने प्रतिद्वंदी के रूप में देख रहा है। समायोजन से ही हुआ है। आज सागर में लहरों को अलग करने
अतृप्त लालसा और भोग करने की प्रवृत्ति ने मानव सभ्यता को की कोशिश की जा रही है। व्यवस्था अपनी अकर्मण्यता, विफलता
सबसे कठिन दौर में लाकर खड़ा कर दिया है। ऐसे समय में इस के कारण साम्राज्यवादी ताक़तों और इजारेदारी मुक्त प्रतिस्पर्धा के
तरह की कविताओं का लिखा जाना निश्चित रूप से साहसी कदम समक्ष समर्पण कर रही है और आमजन की समस्या सुलझाने में
है। आज मनुष्य की सारी संवेदनाएँ समाप्त हो रही हैं। अपने स्वार्थ असमर्थ है। परिणाम स्वरूप विवादों को खड़ा करके सांस्कृतिक
के लिए लोग किसी भी हद तक जाने के लिए तैयार हैं अर्थात आज राष्ट्रवाद के नाम पर विभिन्न संस्कृतियों में विभेद पैदा किया जा
मानवता संकट में है। मनुष्य का कल, आज को नियंत्रित नहीं कर रहा है। इस दौर में भी बकौल मुक्तिबोध “अभिव्यक्ति के सारे ख़तरे
पा रहा है और भविष्य की चिंता उसे आज सुकून नहीं दे पा रही है। उठाने ही होंगे तोड़ने होंगे ही मठ और गढ़ सब”। उनकी कविता
हम अनिश्चित भविष्य की ओर बढ़ रहे हैं। आज का हर मनुष्य अभिव्यक्ति के ख़तरे उठाने का कार्य करती है और वर्चस्ववादी
बेचैन है,हताश और निराश है। हताशा और निराशा के दौर में इस मानसिकता के बीच संपूर्ण मनुष्य के रूप में अपने अस्तित्व को
तरह की कविताएँ कुछ आस जगाती हैं कि मानवीय संवेदना पूरी बचाए रखने का आह्वान करती है। व्यक्ति आत्मकेंद्रित होता जा
तरह से राख नहीं हुई है। राख होती संवेदना में अभी कुछ उष्मा रहा है और अपने परिवार, समाज और परिवेश से अलग-थलग
शेष है। इस राख के ढेर से उष्मा को बचाने की ज़रूरत है ताकि पड़ता जा रहा है। कविताएँ आत्म केंद्रित होते व्यक्ति की व्यथा को
मानवीय संबंधों में ऊष्मा बनी रहे जिससे मानवता और समाज को भी रेखांकित करती हैं कि किस प्रकार व्यक्ति अपने समाज और
बचाया जा सके। परिवेश से कटकर अकेला पड़ गया है। इस भीड़ में भी व्यक्ति
'जिल्लत की रोटी' काव्य संग्रह इस समय के समाज, देश और अकेला हो गया है। उसकी संवेदनाएँ समाप्त हो गई हैं। अपनी

yegh जुलाई से सितंबर 2023 n 195


अनुभूति को अभिव्यक्त करने के लिए स्थान उसके पास नहीं है। श्रेष्ठता के आधार पर दरकिनार करने का प्रयास हो रहा है जो आने
कविता में बड़ी शक्ति होती है। कविता बहुत कुछ कह जाती है। वाले भविष्य के लिए शुभ संकते नहीं है। हमारे समाज में विशेषकर
मनमोहन जी की कविता भारतीय समाज का चरित्र,लोगों की मध्यवर्ग के भीतर जल्दी ही नव-धनाढ्य बनने की इच्छा जताई जा
मनोवृति,जनतंत्र के ठेकेदारों और सत्ता की बदनियति की पूरी रही है। उसके मोबाइल नंबर और उसके ईमेल पर लगातार ऐसे
कलई खोल कर रख देती है। लोकतंत्र की दुहाई देकर सांठगांठ संदेश बिन बुलाए आ रहे हैं कि वह कैसे अधिक सुख-सुविधाएँ
कर सत्ता को प्राप्त करना और उसे बनाए रखने की साजिश रची जुटा सकता है। धन के प्रति लालसा जाग जाने पर पुरानी मान्यताएँ
जाती है। इसके लिए नीति और नीयत की आवश्यकता ही नहीं है। खत्म हो गई हैं जिनमें बताया जाता था कि 'साईं इतना दीजिए जामे
जनता को मूर्ख बना कर सत्ता की मलाई मिल बांट कर खा ली कुटुम समाय' या 'जब आवे संतोष धन सब धन धूरि समान'। अब
जाती है। दिखावे के लिए विरोध या यूं कहें कि प्रकाश दिवा लोक तो सचमुच ही सबसे बड़ा रुपैया है और डॉलर उससे भी बड़ा है।
में विरोध-विरोध का नाटक खेला जाता है और रात के अँधेरे में लोग उसी दिशा में अंधी दौड़ में शामिल हैं। इस दौर में इस तरह
सभी आनंद सरोवर में डुबकी लगाते हैं। जो इस फार्मूले में फिट की रचनाएँ आश्वस्त करती हैं कि सब कुछ समाप्त नहीं हुआ है
नहीं बैठते हैं उनके लिए बुलडोजर संस्कृति कायम हो चुकी है। बल्कि सकारात्मक हस्तक्षेप के द्वारा इन स्थितियों को बदला जा
जहाँ सहमति की गुंजाइश नहीं वहां सीधे तौर पर ध्वंस की कार्यवाही सकता है।
हो जाती है अर्थात जनतंत्र में जिसके पास ताक़त (सत्ता) है,सहमति 'जिल्लत की रोटी' कविता हमारे सामने आज के नग्न यथार्थ
उसकी शर्तों पर होगी अन्यथा परिणाम भोगना होगा। हमारे देश को प्रस्तुत करती है। एक ओर किल्लत की रोटी तो दूसरी और
और समाज के नैतिक मूल्यों की व्याख्या अपनी सुविधा के अनुसार जिल्लत की रोटी है जो वर्तमान समय के समाज में आए भयंकर
करने पर अमादा यह व्यवस्था उन मूल्यों को समाप्त करना चाहती बदलाव की ओर हमारा ध्यान आकर्षित करती है। बाज़ारवाद के
है जो हमारे देश की मूल धरोहर हैं। हमारा देश संस्कृतियों का दौर में मनुष्य अपनी पुरानी तमाम सामाजिक मान्यताओं को
संगम स्थल है। हमारे देश की विविधता ही इसकी ख़ूबसूरती है। दरकिनार कर रहा है। पहले भारतीय समाज के सामने सम्मान
इस विविधता को में व्याप्त संस्कृतियों को अपनी संस्कृति की सर्वोपरि था परंतु अब भोग की प्रवृत्ति बढ़ी है। पहले जितना उपार्जन
करते थे उसमें से कुछ भविष्य के लिए संचय करते थे अर्थात कम
खर्च करते थे। पहले आवश्यकतानुसार प्राथमिकताएँ तय होती थी
'जिल्लत की रोटी' कविता हमारे सामने आज लेकिन अब शौक, दिखावा और भोग के अनुसार प्राथमिकताएँ तय
के नग्न यथार्थ को प्रस्तुत करती है। एक ओर हो रही है। भौतिक सुविधा पाने की लालसा ने हमारे ऊपर ऐसा
किल्लत की रोटी तो दूसरी और जिल्लत
प्रभाव डाला है कि हम सारी नैतिकता भूल गए हैं। अनैतिकता,नैतिकता
की रोटी है जो वर्तमान समय के समाज
में आए भयंकर बदलाव की ओर हमारा के स्थान पर विराजमान है। पहले हम अभाव में थे लेकिन सुकून
ध्यान आकर्षित करती है। बाज़ारवाद के दौर का जीवन जी रहे थे। अब सब कुछ होने के बावज़ूद हमारे पास
में मनुष्य अपनी पुरानी तमाम सामाजिक सुकून की कमी है। इस भाग दौड़ में सारे संबंध समाप्त हो रहे हैं
मान्यताओं को दरकिनार कर रहा है। पहले और जो संबंध बन रहे है वे स्वार्थ से भरे हुए हैं। पिछले 30-35
भारतीय समाज के सामने सम्मान सर्वोपरि वर्षों में एक अहम बदलाव मध्यवर्ग के आर्थिक स्तर पर भी आया
था परंतु अब भोग की प्रवृत्ति बढ़ी है। पहले है, जिसने सामाजिक स्तर पर व्यापक बदलाव कर दिया है। विश्व
जितना उपार्जन करते थे उसमें से कुछ भविष्य पूंजीवाद व्यवस्था कायम होने से विश्व पूंजीपतिवाद को बहुत बड़ा
के लिए संचय करते थे अर्थात कम खर्च करते बाज़ार में जाने से जो बढ़त हासिल हुई उसका फायदा भारतीय
थे। पहले आवश्यकतानुसार प्राथमिकताएँ इजारेदारी पूंजीपति वर्ग को भी वित्तीय पूंजी के आगमन के बाद
तय होती थीं लेकिन अब शौक, दिखावा और भारत में उत्पादक शक्तियों के विकास में मदद शासक वर्ग को हुई
भोग के अनुसार प्राथमिकताएँ तय हो रही हैं। और पूंजीवाद को फायदा पहुँचा। उत्पादन व्यवस्था में मध्यवर्ग की
भौतिक सुविधा पाने की लालसा ने हमारे ऊपर भी हिस्सेदारी होती है अतः यही वर्ग उनके उत्पादनों का बाज़ार
ऐसा प्रभाव डाला है कि हम सारी नैतिकता बना। धीरे-धीरे मनुष्य बाज़ार के नियंत्रण में होता गया। बहुराष्ट्रीय
भूल गए हैं। अनैतिकता, नैतिकता के स्थान पर
कंपनियों ने और तकनीक के नित्य नए अविष्कारों ने,मध्यवर्ग के
विराजमान है।
लिए नए अवसर और नई संभावनाएँ और नए सपने मुहैया करा

196 n जुलाई से सितंबर 2023 yegh


दिए। इस तरह पूंजीवाद ने मध्यवर्ग को पाल पोस कर अपने लिए
बाज़ार का विस्तार भी कर लिया। मध्यवर्ग अपने सपनों को पूरा
करने के लिए किसी हद तक जाने के लिए तैयार हो गया। समाज
में उसके सपनों को पूरा करने के लिए प्रलोभनों की कमी नहीं है।
उदारनीति के पूर्व का भारतीय समाज विशेषकर मध्यवर्ग ग़रीबी में
जी रहा था,उस समय वह न कार का सपना देख सकता था, ना
ही अपने निजी मकान का सपना देखता था। तब से लेकर अब तक
समय काफ़ी बदल चुका है। पूंजीवाद ने यहाँ के मध्य वर्ग के
हालत में बहुत बड़ा बदलाव ला दिया है। नई टेक्नोलॉजी ने भौतिक
सुख के संसाधनों में बढ़ोत्तरी कर दी और बाज़ार में सस्ते कर्ज़े
आदि ने सुख-सुविधाएँ उपलब्ध करा दी, तब लोगों में अधिक धन
कमाने की लालसा तीव्र हुई। पूंजीवाद के आकर्षण में हर किसी को
करोड़पति बनने के लिए प्रेरित कर दिया है जिसके लिए मनुष्य
किसी भी तरह पैसा कमाने का प्रयास करता है। क्योंकि पूंजीवादी
राजनीति में भी धन दौलत का वर्चस्व है इसलिए भ्रष्टाचार,गुंडागर्दी,
हिंसा आदि की दिनों-दिन बढ़ोत्तरी हो रही है। मनुष्य अपने मान-
सम्मान की परवाह किए बग़ैर सारे सुख सुविधा के संसाधनों को
पाना चाहता है इसलिए वह तमाम नैतिक-अनैतिक कार्य करता है सुख पाने की लालसा में इस तरह के लोगों को बेज्जती भी मंजूर
ताकि उसे जीवन की सारी सुख सुविधाएँ प्राप्त हो सकें। इस धन है। कविता ही पक्षों का उद्घाटन करती हैं।
उगाही और सुख के संसाधनों को प्राप्त करने के चक्कर में वह अस्तु मनमोहन की कविताएँ समय, समाज और मानव मन की
मानवीय मूल्यों को छोड़ता जा रहा है। पहले अभाव था परंतु जीवन सूक्ष्म अनुभूतियों के साथ-साथ लोगों के कटु यथार्थ का वर्णन भी
में शांति थी,अब इतना कुछ होने के बावज़ूद भी शांति नहीं है। आज करती हैं। इनकी कविता का सरोकार जनपक्षधर है। धूमिल के
की मीडिया अपने वर्गीय हितों को साधने में तमाम जनतंत्र प्रतिज्ञाएँ शब्दों में “कविता शब्दों की अदालत में,मुजरिम के कटघरे में,खड़े
और अपनी व्यवसायिक ईमानदारी को ताक पर रख देता है। सत्ता हुए आदमी का हलफनामा है।” धूमिल ऐसा इसलिए कहते हैं
की चरण वंदना करके सारे सुख-साधनों को प्राप्त करने की होड़ क्योंकि उन्हीं के शब्दों में इस वक्त सच्चाई जानना, विरोध में होना
लगी हुई है। राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय मसलों पर कुछ भी ना जानने- है। धूमिल के लिए अकेला कवि कटघरा होता है इसलिए वे भी
समझने वाले अपढ़-कुपढ़ संपादक और मीडियाकर पत्रकार सत्ता मुक्तिबोध की तरह आत्मसंघर्ष से अधिक जनसंघर्ष को महत्व देते
के पक्ष में ऐसे कसीदे लिख बोल रहे हैं जैसे वे इन तमाम विषयों हैं जो आत्मसाक्षात्कार के बाद की स्थिति है। मनमोहन जी कटघरे
के विशेषज्ञ हैं। भारतीय समाज का एक वर्ग है जो इस तरह की में जाकर जनचेतना को जगाने का कार्य अपनी कविताओं के
हरकतों को जानबूझ कर करता है। उसे यह पता है कि यह देश माध्यम से करते हैं। इनकी कविताएँ सामाजिक सरोकार के उन
की बहुसंख्यक आवाम के लिए अच्छा नहीं है,परंतु वह सत्ता के तमाम क्षेत्रों को रेखांकित करती है जो मानव समाज में विद्यमान
साथ रहक़र मिलकर सारे कार्य करता है जिससे उसे सुख संपदा है। मनुष्य की मनोवृति, बदलते परिवेश में सामाजिक और
की प्राप्ति हो सके। दूसरी ओर सत्य के पक्षधर हैं और जनता के मानसिक स्थिति, वर्तमान की समस्या और भविष्य की संभावना
विरोध में उठाए गए प्रत्येक कदम का विरोध करते हैं। उन्हें तरह- आदि को भी बड़ी संजीदगी के साथ प्रस्तुत करती है। एक अच्छी
तरह की यातनाएँ दी जा रही हैं इसलिए लोग भयभीत हैं। एक पक्ष कविता की शर्त जनपक्षधरता,प्रतिरोध का स्वर और नव निर्माण
के लोग अभाव से मुक्त होने के लिए अपने जीवन मूल्यों से की आकांक्षा होती है और मनमोहन जी की कविताएँ तमाम शर्तों
समझौता कर लेते हैं तो दूसरा पक्ष अभाव में रहक़र भी अपने को पूरा करती है। n
नैतिक पक्ष में खड़े रहते हैं। जो समझौता परक नीति लेकर चलते संपर्क : अध्यक्ष हिन्दी विभाग, बी.बी. कॉलेज,
हैं वह बेशर्म और वह बेहया बनकर सारे सुख साधन को प्राप्त आसनसोल, प:बं.
करते हैं। सत्ता की चाटुकारिता निर्लज्ज रूप से करते हैं। भौतिक मो. 7908546594

yegh जुलाई से सितंबर 2023 n 197


n महत्तम : कौशल किशोर

दहशत के दौर का रचनात्मक संघर्ष


उमाशंकर परमार

कौशल किशोर हमारे समय के सबसे सक्रिय एवं कविता संग्रह के इस खण्ड की अन्य कविताओं जैसे
चर्चित कवि हैं। इसी वर्ष उनका तीसरा कविता इस वक्त के बाद, कारखाने से लौटने पर, ताला,
संग्रह उम्मीद चिनगारी की तरह रुद्रादित्य प्रकाशन सरकार चाहती है, लिख दूँ एक नारा दीवार पर, आग
इलाहाबाद से प्रकाशित होकर आया है। इससे पूर्व और अन्न में यही मोहभंग का भाव प्रधान है।
उनके दो कविता संग्रह 'वह औरत नहीं महानद इस खण्ड में एक बात और ग़ाैरतलब है कि
थी' और 'नयी शुरुआत' पहले प्रकाशित हो चुके चिड़िया और ग़ाैरैया आदि को लेकर कवि ने कई
हैं। उनके दूसरे और तीसरे कविता संग्रह के मध्य कविताएँ लिखी हैं। इन कविताओं में विविध प्रयोग
अधिक समयान्तराल नहीं है मगर पहला कविता संग्रह बहुत देर देखने में आते हैं। जीवन और जगत के प्रति नकारात्मक
से आया था इसका कारण यही कि वह मूल रूप में एक्टिविस्ट हैं। अवधारणाओं और परिस्थितियों से निरन्तर टकराव देखने को
एक्टिविज्म और संपादन व समकालीन राजनीति, विचारधारा के मिलता है साथ ही सार्थक संघर्षों द्वारा मनुष्य को उस पार ले जाने
सवाल, अस्मिता के सवालात व सरकार की आर्थिक नीतियों के की ईमानदार कोशिश भी दिखाई देती है। सकारात्मकता और
जन सामान्य कृषक मजदूरों के जीवन पर पड़ रहे प्रभावों पर वो जीवन के प्रति एकनिष्ठ समर्पण व लोकमानस से जुड़े रहने का
दशकों से स्वतन्त्र लेखन करते रहे हैं। अख़बारों में स्तम्भकार रहे अटूट जज्बा इन चिड़िया सीरीज की कविताओं में परिलक्षित होता
हैं। पार्टी के विभिन्न जन संगठनों में काम किया, मजदूर आन्दोलन है। उनकी एक कविता है ग़ाैरैया। इस कविता में ग़ाैरैया 'मेहनकश'
से गहरा जुड़ाव भी रहा। तीन चार दशक से जसम लेखक संगठन वर्ग का प्रतीक बन गयी है जहाँ भी ग़ाैरैया या चिड़िया का प्रयोग है
में सक्रिय हैं। एक्टिविस्ट होने के कारण वह संघर्षों और आन्दोलनों वहाँ उसके श्रमशील चरित्र को अवश्य उकेरा गया है। श्रम और
का हिस्सा रहे। जनान्दोलनों के लिए ही लेखन में समर्पित रहे उसका व्यक्तित्व व ग़ाैरैया के मासूम सपने सब आपस में आत्मीय
लिहाजा उन्होंने निजी कविता संग्रह प्रकाशित करने में जल्दबाजी रूप से संबद्ध हैं। साथ ही ग़ाैरैया के ख़िलाफ़ सक्रिय शक्तियों की
नहीं दिखाई। लिख सत्तर के दशक से रहे हैं मगर कविता संग्रह चर्चा उनके चरित्र का वर्णन इन कविताओं को विपर्यय और
2010 के बाद आया। पहला कविता संग्रह लगभग चालीस साल गतिरोध के भयानक दिनों में भी निर्माण के हौसला पूर्ण व साहसी
बाद प्रकाशित होना इस बात का प्रमाण है कि उन्हे कवि होने की संकल्प का मार्ग सुझाती हैं। प्रतीक में वर्गीय चरित्र खोज लेना इन
धुन नहीं रही वह शौकिया मनोरंजक कवि नहीं हैं कि अन्यथा अब कविताओं को अपनी तरह का विलक्षण विस्तार देता है। ग़ाैरैया,
तक तीस चालीस कविता संग्रह प्रकाशित होकर आ गये होते। कवि चिड़िया, चिड़िया और आदमी एक, चिड़िया और आदमी दो, ऐसी
भाषा के करतब की अपेक्षा निष्ठापूर्ण जनपक्षधर अभिव्यक्ति पर ही कविताएँ हैं जो अपने अभिधार्थ से मुक्त होकर वैचारिक
अधिक जोर देता है– 'कहते हो/ सम्पूर्ण हुई अधूरी क्रान्ति/ बदल निर्मितियों के ध्वन्यार्थ का निर्वहन करती हैं।
गया है राज/ बदल रहा सम्पूर्ण समाज/ और मैं देख रहा हूँ/ मेरे कौशल किशोर समय के स्याह पक्ष के प्रतिरोधी कवि हैं उनकी
पडोस के बच्चे/ पेट दबाए सो जाते हैं।' लोकतन्त्र और आज़ादी भाषा में लोक और लोकजीवन का प्रभाव है। जन के अनुभवों को
के विद्रूप चेहरे और अमानवीय चरित्र को उद्घाटित करती इन समझने व सामूहिक पीड़ाओं को अभिव्यक्त करने का जोख़िम है।
कविताओं का मूल्यांकन टकराती हुई साँसों और संघर्ष के लिए प्रतिगामी मूल्यों से टकराने और लड़ने का साहस है। सत्ता और
तत्पर व्यक्ति के मनोवेगों को भाँपकर ही किया जा सकता है। बाज़ारवादी पूँजी द्वारा उत्पन्न नये सांस्कृतिक प्रदूषण के विरुद्ध

198 n जुलाई से सितंबर 2023 yegh


जनसंस्कृति लोकसंस्कृति को पुनर्जीवित करने की जिद है। और रास्ते आ सकता है/ स्मृतियों को रौंदता/ संस्कृति का नया पाठ
मनुष्य के ख़िलाफ़, मुल्क और संवैधानिक लोकतन्त्र के ख़िलाफ़ पढ़ाता/ वह आ सकता है/जैसे वह आया इस बार/ ढोल नगाड़ा
व्यापारिक पूँजी व सत्ता द्वारा किये जा रहे अपराधों के समक्ष सड़क ताशा/ एक ही ध्वनि प्रतिध्वनि/ अबकी बार बस बस अपनी
मे संघर्ष का दुस्साहस भी है। सरकार'। यह कविता इस नये युग में सत्ता परिवर्तनों को रेखांकित
कौशल किशोर के नये कविता संग्रह 'उम्मीद चिंगारी की तरह' करती है। कवि समय को देख रहा है, वह गम्भीरता से शिनाख्त
में लगभग 45-48 कविताएँ हैं जो दो भागों विभक्त हैं। पहला कर रहा है, वर्तमान व्यवस्था के परिप्रेक्ष्य में भविष्य के विकसित
खण्ड भेड़िया निकल आया माँद से है और दूसरा खण्ड कोरोना का होते संबंधों और वर्गों के बीच बढ़ती दूरी को भी समझ रहा है। प्रभु
रोना है। अपने आत्मवक्तव्य में कौशल जी ने लिखा है कि इस वर्ग की महत्वाकांक्षाओं के सामने वर्ग भेद ही नहीं, जन जन का
कविता संग्रह में 16 मई 2014 के बाद की कविताएँ हैं। अर्थात ये भेद है। जन में आपसी एकता को नष्ट करने के लिए वह भेदकता
आज के हिन्दुस्तान की कविता है। 2014 का वर्ष इसलिए को हथियार बनाकर आम आदमी में फूट डालकर अलग-थलग
महत्वपूर्ण है कि इस वर्ष पूँजीवादी शक्तियों की लोकतान्त्रिक कर देने को ही अपना सुरक्षा कवच मान बैठा है ऐसे तानाशाहों के
महाविजय हुई थी। 2012-13 के दौर में जनता समाज में बढ़ती जन्म और उनके बहुरूपिया व्यक्तित्व इस कविता संग्रह में कौशल
अमीरी ग़रीबी की खाईं, किसानों की आत्महत्या, निचले स्तर से जी ने बड़ी शिद्दत से रेखांकित किया है ऐसे राजाओं पर उनकी एक
लेकर उपरले स्तर तक फैले भ्रष्टाचार, महँगाई, हर दिन हो रहे कविता है 'फासिस्ट'। इस कविता में लोकतन्त्र, संविधान,
घोटालों से ऊब चुकी थी। अतः जनता अन्ना हजारे के नेतृत्व में गंगाजमुनी तहजीब एवं विपक्ष के प्रति फासिस्ट की सोच को
सड़क पर उतर आई। ऐसा प्रतीत हो रहा था कि जनता का यह उजागर किया है। वह लिखते हैं 'दुनिया में/ जहाँ भी फासिस्ट आए
गुस्सा व्यवस्था में कुछ न कुछ परिवर्तन ज़रूर करेगा। ऐसे में हैं/ वे चुनाव लड़कर आए हैं/ अपने विरोधियों को पराजित कर/ वे
कारपोरेट और देशी पूँजीपति व वैश्विक पूँजी के सभी पक्षकार सत्ता में आए हैं/ मतलब लोकतन्त्र के रास्ते ही आए हैं/ और इसी
सक्रिय हो गये। मीडिया में लगातार सपने दिखाकर कि चुनाव आ रास्ते भारत भूमि में भी खिला है/ उनका कमल।’
गया सत्ता बदल दो हम अच्छे दिन लायेगें जनता को सपने दिखाकर कौशल किशोर की मुख्य चेतना प्रतिरोध है वह भूमड ं लीकृत
एक व्यक्ति को मसीहा बना दिया गया है जनता को यह विश्वास लम्पटीकृत इस सांप्रदायिक फासीवाद का प्रतिरोध कर रहे हैं इसके
दिया गया कि जिस तरह गुज़रात में जनता सुखी है विकास है वही लिए वे केवल बयानों का तर्क नहीं लेते हैं वह चरित्र भी उपस्थित
विकास पूरे देश में होगा क्योंकि हमारे पास चमत्कारी नेतृत्व है। करते हैं। उनके पहले कविता संग्रह वह औरत नहीं महानद थी में
वैश्वीकरण और उपभोक्तावाद की बाज़ार संस्कृति ने भारतीय भी उन्होंने प्रतिरोध हेतु चरित्र की संकल्पनाएँ की हैं। एक लोकधर्मी
समाज एवं अस्मिताओं के समक्ष नयी नयी चुनौतियाँ पेश कर दी कवि अपने आस-पास के परिवेश से एक चरित्र नहीं चुनता तब
हैं। शीतयुद्ध अब अपना पुराना स्वरूप त्याग कर और अधिक तक उसके बयान संवेदन से नहीं जुड़ते हैं चरित्र संवेदन और
हिंसक होकर आर्थिक साम्राज्यवाद का स्वरूप धारण कर चुका है। अनुभूति को कथात्मक आधार देकर यथार्थ को मूर्त कर देते हैं
वह तीसरी दुनिया के देशों को अपना कर्ज़दार बनाकर उनके जिससे बयान वास्तविक और भावपरक अनुभूति में तब्दील हो जाते
आर्थिक संसाधनों पर काबिज हो गया है और सामाजिक संरचना हैं और आक्रोश की काव्य भाषा भी एक जीवन्त व्यक्ति की ललकार
व संस्कृति को बुरी तरह विकृत कर रहे हैं। इतना ही नहीं वैश्वीकरण बन जाती है।
एवं आर्थिक नव उदारवाद ने राजनीति व लोकतन्त्र को भी विकृत इस संग्रह में एक कविता है 'वह हामिद था' कविता यह चरित्र
किया है। यह दौर चुने हुए तानाशाहों का दौर है ऐसे भेड़ियों का प्रेमचन्द की कहानी ईदगाह का चरित्र है। कविता शुरूआत में
दौर है जिनका रीमोट पूँजीपतियों के हाथ में है जिसका लक्ष्य जनता ईदगाह कहानी का काव्य व्याकरण सी प्रतीत होती है मगर कविता
की निर्मम हत्या है। धर्म और राष्ट्रीयता के नाम पर देश में ज्यों-ज्यों आगे बढ़ती है हामिद समय की घटनाओं और सत्ता के
सांप्रदायिक फासीवाद का, व्यावसायिक क्रूरता का नजारा देखने हिंसक चरित्र से जुड़ता चला जाता है। सवाल हामिद पर ही नहीं
को मिल रहा है किसी भी संवेदनशील कवि के लिए यह झकझोर उसके सृजक प्रेमचन्द पर भी उठते हैं मुकदमा पेश होता हामिद को
देने वाली बात है। कवि देख रहा है कि पूँजीवाद की माँद से आतंकवादी बताया जाता है गुनहगार सिद्ध किया जाता है। सत्ता के
सांप्रदायिक फासीवाद निकल पड़ा है। उम्मीद चिंगारी की तरह एजेंट ही वकील थे वही पेशकार थे वही मुन्सिफ थे वही जज थे
कविता संग्रह के पहले खण्ड की पहली कविता 'भेड़िया निकल उन्ही की अदालत थी अन्त में प्रेम से चिमटा खरीदकर अपनी माँ
आया है माँद से' में वह लिखते हैं..'वह आ सकता है/लोकतन्त्र के देने वाला हामिद मार दिया जाता है। यह हत्या सत्ता द्वारा

yegh जुलाई से सितंबर 2023 n 199


अल्पसंख्यक व असहमत लोगों पर फर्जी गढ़ी गयी मान्यताओं के चेहरा इस आपदाकाल मे देखने को मिला उन्होने आपदा को लाभ
आधार पर जिस अवधारणा का कुप्रचार किया गया उस हिंसक झूठे के अवसर मे बदल दिया।
और फर्जी कुप्रचार का नतीजा है। कौशल लिखते हैं 'हामिद मारा कौशल किशोर की कविताओं में कहीं बिम्ब विधान हैं तो कहीं
गया/ नहीं नहीं हामिद नहीं मारा गया/ मारी गयी संवेदनाएँ/ हत्या आख्यान हैं कहीं बयान हैं तो कहीं व्यंग्यकथन और मितकथन हैं।
हुई भाव विचार की/ जो हमें हामिद से जोड़ती है/ जो हमें आपस भाषा के वैविध्यपूर्ण विधान हैं लेकिन इससे कवित्व को कहीं भी
में जोड़ती है/ जो हमें इन्सान बनाती है/ जो हमें हिन्दुस्तान बनाती क्षति नहीं पहुँचती है। कवि चमत्कृत तो नहीं करता पर सामाजिक
है'। कौशल किशोर केवल प्रेमचन्द के चरित्र को समकालीन नहीं सांस्कृतिक राजनैतिक संघर्षशीलता के साथ जोड़ता अवश्य है।
करते वे अपने इस संग्रह की कविताओं में कई कवियों की जन और जीवन के प्रति हमारे दृष्टिकोण को नया आयाम देता है।
कविताओं का पाठ अपने तरीके से करते हैं। केदारनाथ सिंह की पूँजी और बाज़ार तथा सत्ता के क्रूर गठबन्धन के विरुद्ध उम्मीद से
लौटना कविता का विश्लेषण करते हुए वह अन्त यही निष्कर्ष देते लबालब भरे हुए प्रतिरोध का सृजन करता है।
हैं कि समय का अन्धकार इतना बढ़ गया है कि गाँव अब पहले 'वह औरत नहीं महानद थी' यह शीर्षक स्त्रीवादी कविता का
जैसे गाँव नहीं रह गये इसी तरह गड्ढा शीर्षक की चार कविताओं में स्वाभाविक विकास है। इन कविताओं में विशेषकर 'वह औरत नहीं
वह मुक्तिबोध की चर्चा करते हैं वह लिखते हैं 'मुक्तिबोध को महानद थी' में कवि एक एक्टिविस्ट संघर्षशील औरत का वर्णन
मिलते हैं/ कदम कदम पर चौराहे/ हमें मिलते हैं/ जगह जगह करता है। हमारे समाज में ऐसी औरतें बहुत हैं जो तमाम छोटी बड़ी
गड्ढे'। अपने पूर्वज अग्रज कवियों की कविताओं में चर्चा अकारण लड़ाइयाँ पूरे समर्पण के साथ लड़ रही हैं। कवि ने ऐसी स्त्री को
नहीं है अपितु यह साहित्य की परंपरा का इतिहास बोध है। कौशल 'महानद' कहा है। महानद होने का आशय है कि वह अपने वर्ग
अच्छी तरह जानते हैं कि साहित्य के स्थाई मूल्य क्या हैं और ये का प्रतीक है। औरत को वर्ग के रूप में देखना नव वामपंथ का
मूल्य कितने संघर्षों और कितने समय पर अर्जित हुए है। जिन नज़रिया है और यौन विमर्श का रचनात्मक जवाब भी है। स्त्री के
मूल्यों को उपार्जित करने में युग बीते इतिहास बीता उन मूल्यों को समक्ष सबसे बड़ा संकट यह है कि वह वर्ग के रूप में अभी तक
सहज नहीं है नष्ट करना, इसलिए वह बारम्बार अपनी रीति और अपनी कोई पहचान नहीं बना पाई। वह व्यवस्था और भागीदारी से
परंपरा पर बात करते हैं और उस युग व आज के समय को लेकर विस्थापित होते होते पुरुष वर्चस्ववाद के समक्ष हाशिया बनकर रह
पारस्परिक मूल्यांकन करते हैं। गयी। आधुनिकतावादी लेखकों ने हाशिए के सवालों को लेकर
संग्रह का दूसरा खंड कोरोना का रोना है। कोरोना महामारी इस विचारधारा पर सवाल उठाए और तमाम किस्म के विमर्शों को
सदी की सबसे भयावह आपदा रही। इस महामारी ने निजीकरण, साहित्य में प्रस्तावित किया। इन विमर्शों का स्वरूप भले ही
उदारीकरण व पूँजीवाद का अमानवीय चेहरा सबके सामने उजागर बाज़ारवादी रहा पर जो वस्तु मुद्दा नहीं थी वह भी ज़रूरी मुद्दा बनी।
कर दिया। जब आर्थिक उदारीकरण लागू हुआ था तब यह तर्क वामपक्ष के समक्ष दो ही रास्ते थे या तो बाज़ारवादी भूमंडलीकृत
दिया गया था कि निजी पूँजी भी जनहित के लिए सेवाओं का विमर्शों के समक्ष नतमस्तक हो जाए या फिर स्त्री को वर्गीय स्वरूप
विस्तार करेगी। चिकित्सा का विस्तार होगा, शिक्षा का विस्तार देकर उसके हक़ और विस्थापन व संघर्षों को अपने ऐजेण्डे में
होगा। रोजगार का विस्तार होगा। इसने धीरे-धीरे सार्वजनिक सम्मलित करे। कौशल किशोर ने ख़ुद को नतमस्तक नहीं किया
सरकारी प्रतिष्ठानों को भी अपना ग्रास बना लिया। निजी पूँजी कभी बल्कि औरत को वर्गीय पहचान दी। स्त्री है वह, मलाला, माँ का
भी जनकल्याण के सिद्धांत पर काम नहीं करती उसका ध्येय रोना, उसका हिन्दुस्तान आदि इसी भावभूमि और कथ्य की
मुनाफाखोरी और शोषण है। यही कोरोना काल में हुए लाॅकडाउन कविताएँ हैं।
की अवस्था मे सारे निजी प्रतिष्ठानों ने, कारखानों ने छः सात 'वह औरत नहीं महानद थी' के इस दूसरे खण्ड में कवि की
महीने का वेतन भी अपने मजदूरों को नहीं दिया। मजदूरों को वाहन विषय वैविध्यता और शिल्प वैविध्यता दोनों देखते बनती है। साथ
देकर उनके गाँव घर नहीं भेज सके। सबको काम से निकाल दिया ही लोक को लेकर कवि की आशावादी दृष्टि कवि के वैचारिक
और महामारी के भीषण दौर में जब लाॅकडाउन था मजदूरों को सरोकारों को और भी परिपक्व रचनाशीलता के आकाश को व्यापक
सड़क पर मरने के लिए छोड़ दिया गया। लोग पैदल चलकर नदी कर देती है। मैं कह सकता हूँ कौशल किशोर वरिष्ठ कवियों की
तैरकर मरते कटते अपने घरों तक पहुँचे। निजी दवा कम्पनियाँ पीढ़ी में उन गिने चुने लोगों में से हैं जिन्होने अपने दशक और
अस्पताल, डाॅक्टर सब कोरोना काल में अफवाहें फैलाकर अपनी शुरुआत से विमुक्त होकर समकालीनता का ताना बाना बुना
कालाबाज़ारी कर रहे थे। इस वैश्वीकरण का असली अमानवीय है। इस कविता संग्रह में कुछ आज का है तो कुछ आगे का भी है।

200 n जुलाई से सितंबर 2023 yegh


अपने शहर अपने गाँव और अपनी ज़मीन पर कविता लिखना
सहज काम नहीं है। यह दुष्कर कार्य केवल लोकधर्मी कवियों ने
किया जैसे केदार ने बाँदा, नागार्जुन ने तरौनी, विजेन्द्र ने धामपुर,
सुधीर सक्सेना ने बिलासपुर, वही काम कौशल किशोर अपने
लखनऊ को लेकर करते हैं। लखनऊ पर उनकी दो कविताएँ हैं।
यह लखनऊ है एक, यह लखनऊ है दो। पहली कविता में
लखनऊ की सांस्कृतिक पहचान व विरासत का आत्मीय वर्णन
करते हैं तो दूसरी कविता में आज के विकसित लखनऊ की
दुरव्यवस्था, शोषण, यातनाओं का आक्रोशपूर्ण वर्णन करते हैं-
'जनाब चौंकिए नहीं/ हाँफते, भागते/ हैरान परेशान/आप जहाँ
पहुँचे हैं/ वह लखनऊ ही है'। लखनऊ की भीड़, जाम, गन्दगी,
बेरोजगारी, तबाह बस्तियाँ, गन्दी गोमती, और प्रकृति की ख़ूबसूरती
की जगह भयावह रूप का ताण्डव जिस अन्दाज में वर्णित है इससे
लखनऊ एक शहर का स्वरूप छोड़कर हिन्दुस्तान का रूप धारण
कर लेता है। पूँजीवादी विभ्रमों के बीच छिपे हुए शोषित, पीड़ित
हिन्दुस्तान चित्र विचारों की आँख में जड़ जाता है।
शहर आधारित कविताओं के अतिरिक्त कौशल जी ने पर्यावरण
और पृथ्वी विमर्श पर भी अपना ध्यान केन्द्रित किया है। पर्यावरण
आैद्यौगीकरण की देन है। मुनाफा कमाने के लिए मसीनों के सहारे
उत्पादन किया जाता है। इससे दो तरह की हानियाँ होती हैं– पहली
हानि श्रम की होती है। मशीनीकरण के कारण बेरोजगारी बढ़ती है
तथा दूसरी हमारी प्रकृति का नुक़सान होता है। मैं पहली बार देख
रहा हूँ कि कौशल किशोर ने इस मुद्दे को मानवीय आदत जैसे
विषय से पृथककर वर्गीय आधार पर विवेचित किया है। बसन्त,
खेती, पेड़, धरती-जैसी कविताएँ इसका प्रस्तुत करती हैं। इन रचाव के साथ कविता की भाव सम्पदा को प्रदीप्त करती है। बिम्ब
कविताओं के अतिरिक्त कुछ स्वतन्त्र और ग़ैर कथात्मक कविताएँ विधान ने जटिलता को खत्म किया है अलंकारिकता और अमूर्तन
भी हैं जो फार्मूले से मुक्त और विषयनिष्ठ हैं। वह वर्तमान की कटु है ही नहीं। भाषा और कला के स्तर में सब कुछ सामान्य सा है।
विभीषकाओं और सत्ता तन्त्र के तिक्त अनुभवों को अभिव्यंजित मोहभंग से लेकर समकालीन कविता तक की काव्य यात्रा में यदि
करती हैं। इन कविताओं में कवि के अन्तर्जगत की भूमिका और वह भाषा के स्तर में आग्रही होते तो शायद अभिव्यक्ति के स्तर में
समय दोनों को पढ़ा जा सकता है। इन कविताओं कवि पाठक से कहीं न कहीं चूक जाते लेकिन ऐसा हुआ नहीं। वह समय के साथ
ज्यादा व्यक्ति को सम्बोधित करना चाहता है और जिस व्यक्ति को समय के शिल्प में अपनी मौलिक भाषा के साथ मनुष्य द्वारा
वह सम्बोधित कर रहा है वह अति मानवीय, संवेदनशील, और क्षतिग्रस्त समाज की पुनर्रचना करते रहे। उनका यह तेवर और
संघर्षशील है ये कविताएँ सामूहिकता की स्थापना करती हैं और सादगी उनकी सभी कविताओं में दिखाई देता है। उनकी कविताएँ
व्यक्ति को सामूहिकता के अनुकूल बनने को प्रेरित करती हैं। इस बात के लिए सर्वदा याद रखी जाएँगी कि इनमें दो युगों के
कार्यकर्ता की भाषा संरचना ऐसी ही होती है इन कविताओं में पृथक तनावों में सन्तुलन की स्थापना की गयी है। n
संपर्क : बबेरू, बांदा, उत्तरप्रदेश
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ध्वन्यात्मकता, ओज, अर्थसामर्थ्य की तमाम संभावनाएँ सांगीितक

yegh जुलाई से सितंबर 2023 n 201


n महत्तम : नरेंद्र पुण्डरीक

कविता में लोक और स्मृित का उजास


श्रीधर मिश्र

बीती सदी एवम वर्तमान सदी के संधिकाल के कवि व्यक्तिगत प्रज्ञा की अपेक्षा उसके परंपराबोध को
नरेंद्र पुण्डरीक, इन दो सदियों के बीच एक पुल अधिक महत्व दिया है।
सरीखे हैं जिनसे दो सदियाँ आपस मे जुड़ती हैं। नरेंद्र पुण्डरीक के पास सहज प्रवाहमान भाषा है।
नरेंद्र पुण्डरीक की कविताएँ ऐसे दौर में नमूदार उनकी कविताएँ किसी न किसी रूप में भाषा की
होती हैं जब (नवें दशक के उत्तरार्ध में) कविता सम्पूर्ण और सफल क्रियाएँ हैं। किसी भी कविता से
से यह अपेक्षा की जा रही थी कि पाठक से सहृदय सच्चा संपर्क तब तक स्थापित नहीं हो सकता जब तक
रागात्मक रिश्ता कायम कर उससे विश्वसनीयता कि पाठक उस तक भाषा की लयात्मक क्रिया के
पैदा की जाए। नरेंद्र पुण्डरीक की कविताओं में सहज रागात्मकता आनन्द के माध्यम के द्वारा न पहुँचे। नरेंद्र पुण्डरीक की भाषा जन
के साथ सहृदय साहचर्य है, जिससे पाठक बड़ी सरलता से उनकी भाषा सी तो है लेकिन उसका एक सांस्कृतिक परिष्कार भी है। यही
कविताओं से जुड़ कर आत्मीय रिश्ता कायम कर लेता है। परिष्कार करते हुए वे जीने के कर्म को, उसकी कष्ट व्यवस्था,
नंगे पांव का रास्ता(1992), सातों आकाशों की लाड़ली क्षुद्रता और महिमा को, और उसकी मौलिक आभा को, प्रशंसनीय
(2000), इन्हें देखने दो इतनी सी दुनिया (2014), इस पृथ्वी कौशल के साथ परिभाषित करते चलते हैं। वह इतिहास व परंपरा
की विराटता में (2015), इन हाथों के बिना (2018), समय का के गहरे तल में प्रवेश कर वहां से अपनी काव्यभाषा की शब्दावली
अकेला चेहरा (2021) उनके प्रकाशित कविता संग्रह हैं जो अत्यंत की तलाश करते हैं साथ ही दैनन्दिन के कार्य व्यवहार की प्रचलित
चर्चित रहे हैं। इन किताबों में हमारे समय के बदलते चेहरे की लोकशब्दावली से भी शब्दों का चयन करते हैं, उनकी वास्तविक
तस्वीर साफ साफ देखी जा सकती है व स्पष्ट सुनी जा सकती है शक्ति उनकी यही समावेशी भाषा है। इसी क्रम में वे अपनी प्रतीक-
उसकी आवाज़, इन अर्थो में इनमें सांस्कृतिक इतिहास दर्ज़ है। व्यवस्था उपलब्ध करते हैं और उनकी भाषा मे एक विशिष्ट
नरेंद्र पुण्डरीक की संवेदना का आयतन वृहत्तर है, वे एक साथ तात्कालिकता, एक निजी लय विधान और गति आ जाती है।
चर-अचर, जड़-जंगम सबके प्रति आत्मीयता रखने वाले एक बुनियादी तौर पर पुण्डरीक की कविता का आर्कषण विचार समुच्चय
प्रकृति प्रेमी कवि हैं, उनकी कविताओं में एक बेहतर दुनिया का या उनकी परंपरा में ही नहीं है, उनकी कविता के पास हम उसकी
नक्शा है, जिसे लेकर वे अपने रचना संसार मे जूझते हुए मिलते हैं। तीखी चमकती समझ के लिए जाते हैं जो निरे विचार से संभव नहीं
समय समाज व रिश्ते उनकी कविताओं के प्रमुख विषय हैं, उनमें है और जिसके लिए एक ऐसी संवेदना की ज़रूरत है जो जीने की
गहन परंपराबोध व गहन जीवनबोध है, वे अपने इसी परंपराबोध से तक़लीफों से जूझती-उलझती है, और उनसे पल्ला नहीं छुड़ाती
गुज़रे हुए वक्त व वर्तमान के बीच एक पुल बनाते हैं, वे परंपरा के बल्कि उन तक़लीफों से घिरे रहक़र एक तरह का यातना पूर्ण
प्रतीकों, मिथकों व विश्वासों से सघन संवाद तो करते ही हैं साथ ही विवेक विकसित करती हुई जीने की इच्छा को अटूट रखती है।
उनका समकालीन संदर्भों में पुनर्पाठ भी करते हैं। अपने गहन भयंकर तनावों और अमानवीयकरण की शक्तियों से उनकी
जीवन बोध व प्रखर आलोचनात्मक चेतना से वे जीवन जगत का समझभरी संवेदना कविता में मुठभेड़ करती है, जय पराजय की
सूक्ष्म अन्वीक्षण करते हैं तथा विसंगतियों, असंगतियों के विरुद्ध शब्दावली में सोचना नरेंद्र पुण्डरीक की कविता की बुनियादी शर्त
प्रतिरोध खड़ा करते हैं। टीएस इलियट ने अपने विश्व प्रसिद्ध के लिए अप्रासंगिक-सा होगा उनकी कविता सर्वग्रासी शक्तियों के
निबन्ध 'ट्रेडिशन एन्ड इंडिविजुअल टैलेंट' में कवि के लिए उसकी बरअक्स अपनी बुनियादी मानवीयता बनाये रखने का आश्वासन

202 n जुलाई से सितंबर 2023 yegh


देती है। करती है। नरेंद्र पुण्डरीक यातना और सँघर्ष के इतिहास में नहीं,
नरेंद्र पुण्डरीक में प्रकृति-बोध व विवेक-बोध अत्यंत गहरा है उनकी संहति में विश्वास करते हैं। उनकी कविता में दुःख के
जिससे उनकी कविताओं की आस्वाद-क्षमता अपने समकालीन स्थापत्य, विडंबना के शिल्प किसी ऐतिहासिकता में नहीं आज और
कवियों से अधिक है। अपनी परिवेश-चेतना के चलते वे अपने अभी की संहति में बनते बिगड़ते हैं। कामू ने लेखक के बारे में कहा
निकट में घटित होने वाली दैनंदिन घटनाओं, सामाजिक व था कि वह उनके काम नहीं आ सकता जो इतिहास बनाते हैं- वह
सामुदायिक कार्यवाहियों, एवं रिश्तों की गतिविधियों का ऐसा उन्हीं के काम आ सकता है जो इतिहास प्रजा हैं, नरेंद्र पुण्डरीक
काव्यांकन करते हैं कि उनकी कविताएँ लंबे समय तक स्मृतिपटल इतिहास की इसी प्रजा के संघर्ष और विकल्प के कवि हैं, इतिहास
पर बनी रहती हैं, मुक्तछंद की कविता के संदर्भ में यह अलग से या उसकी जय पराजय के नहीं। उद्धृत कविता में विफल होती
रेखांकित करने योग्य विशेषता है। रचना और रचनाकार की श्रेष्ठता लोकतांत्रिक प्रणाली व राजनीतिक छल छद्म के चलते जो आम
का निर्णायक तत्व पाठक की अभिरुचि है। नरेंद्र पुण्डरीक, पाठक आदमी के संघर्ष व दुर्दशा की स्थिति है उसका बयान दर्ज़ है- ‘मुझे
की अभिरुचि को प्रभावित करने वाले कवि हैं। जोसेफ एडिसन तुलसी बाबा पर बहुत गुस्सा आता है/ पिटने का लाइसेंस उनके द्वारा
(1672-1719) ने अपने पत्र स्पेक्टेटर में अभिरुचि को परिभाषित मिलने के बाद/ कितना सहा स्त्री ने-हमेशा एक स्त्री की मार में/
करते हुए कहा है– 'अभिरुचि आत्मा की वह शक्ति है जो रचना के साझी रही एक स्त्री/ एक के लिये दूसरी/ देती रही माचिस/ एक स्त्री
सौंदर्य को आनन्दपूर्वक ग्रहण करती है और उसकी अपूर्णताओं को फांसी चढ़ती रही/ दूसरी लगाती रही उसमें गांठ/ सो कैसे न
नापसंद करती है।' इस प्रकार एडिसन ने रचना की श्रेष्ठता के बिगड़ता स्त्री का अपना संसार’ (कविता- स्त्री जो न दाएँ भाग पाई
निर्णय में उसकी आस्वाद-क्षमता को महत्व दिया, उसकी दृष्टि में न बाएँ, समय का अकेला चेहरा)
श्रेष्ठ रचना आनंददायिनी होती है। नरेंद्र पुण्डरीक की कविताओं की यह नरेंद्र पुण्डरीक की काव्यदृष्टि है कि वे सच बयानी में पीछे
आस्वाद क्षमता को इसी संदर्भ में देखना समीचीन होगा। इसी संदर्भ नहीं हटते, इसके लिये वे हर जोख़िम उठाने को तत्पर रहते हैं।
में डॉ जानसन ने भी कहा है कि 'कविता एक कला है, जिसमें कवि कविता के पहले अंश में वे तुलसीदास की विवादास्पद चौपाई का
का विवेक कल्पना की सहायता से सत्य को आनंददायी बनाकर ज़िक्र करते हुए स्त्री के संदर्भ में उनके बयान की निंदा करने में नहीं
प्रस्तुत करता है' नरेंद्र पुण्डरीक की कविताएँ प्रबल भावावेग की हिचकते लेकिन कविता के अंत मे स्वयं स्त्री की दुर्दशा के लिए
सहज, स्वैच्छिक, अदम्य अभिव्यक्ति हैं यही कारण है कि वे ऐंद्रिय जिम्मेदार स्त्रियों की खुलकर भर्त्सना करने से नहीं चूकते, यही
संवेदनों को नए रूप में ढालकर रम्य रूप में प्रस्तुत करती हैं जिससे न्यायबोध ही नरेंद्र पुण्डरीक की काव्यप्रवृत्ति का केंद्रीय स्वर है।
लंबे समय तक स्मृति में बनी रहती हैं- 'इस लोक तंत्र की सबसे उत्तरआधुनिक युग के प्रदेयों में प्रमुख है- अनुपस्थित स्वरों की
बड़ी दुख भरी कथा है/ जो सत्तर सालों से/ बिना किसी क्षेपक के उपस्थिति। दलित स्वर, स्त्री स्वर, अल्पसंख्यक समाज व
चल रही है/ जब भी कोई नया आता है/ उसकी चोटों घावों और टूट आदिवासी समाज के स्वर की आज पर्याप्त अनुगूंज है। आज के
फूट को/ क्षेपक बताकर/ नई चोटें नए घाव इसमें फिर से लगा जाता विमर्श- बहुलतावादी समय मे जबकि स्त्री स्वर बड़ी प्रखरता व
है' (कविता- क्षेपक- समय का अकेला चेहरा) आक्रामकता से अपना पक्ष प्रस्तुत कर रहा है, स्त्री की दुर्दशा के
मिलान कुंदेरा के एक पद का उपयोग करें जो साहित्य की लिए स्त्री को जिम्मेदार ठहराने की सच बयानी नरेंद्र पुण्डरीक के
रेडिकल स्वायत्ता का है। जिसमे साहित्य और राजनीति, साहित्य अदम्य साहस की परिचायक है। इस कविता में सत्य के उद्घाटन
और समाज परावलम्बी तो हैं पर आत्मप्रतिष्ठ भी- ‘वे सभी एक का जोख़िम है यदि तुलसी ने असंगत कहा है तो उन्हें भी प्रश्नांकित
समान मूल्य-विस्तार से जांचे परखे जाते हैं और जिनके बीच कोई करते का साहस है व प्रखर स्त्रीविमर्श के युग मे यदि स्त्री समाज
वर्ण व्यवस्था नहीं है। यह रेडिकल स्वायता अगर साहित्य को अपने ही समाज के लिए घातक बन रहा तो उसे भी उतने ही साहस
राजनीति से जांचे परखे जाने का अवकाश देती है तो राजनीति के से कठघरे में खड़ा करने का हौसला है। यही नरेंद्र पुण्डरीक के
साहित्य द्वारा परखे जाने का भी। इस रेडिकल स्वायत्तता के रहते काव्य प्रयोजन की औचित्यमयता है जिसके संदर्भ में तुलसीदास
साहित्य न तो राजनीति से फेरता है और न जीवन विमुख होता है।’ लिखते हैं 'कीरति भनिति भूति भलि सोई। सुरसरि सम सब कह हित
लोकतंत्र की दुख भरी कथा का बयान उसी रेडिकल स्वायत्ता के होई।' अर्थात कीर्ति, कविता एवम सम्पत्ति वही उत्तम है जिसमे
चलते है, यह कविता लोकतांत्रिक प्रणाली की खामियों को (बिना किसी भेद भाव के) सबका कल्याण निहित हो। जैसे गंगा
प्रश्नांकित करती है, हर पांच वर्ष बाद इसकी नसों में जो कुछ और अपने जल की शीतलता, निर्मलता और पवित्रता में सबका हित
जहरीला ख़ून विकास के नाम पर चढ़ाया जाता है उसका भाष्य साधन करती है वैसे ही कविता को भी अपनी सहजता सरसता और

yegh जुलाई से सितंबर 2023 n 203


औचित्यमयता से सबका हित साधन करना चाहिए- ‘रात को हुए कहती क्या है यह महत्वपूर्ण नहीं होता बल्कि महत्वपूर्ण यह होता
कविता पाठ में/ अदम गोंडवी और रमेश रंजक को सुन/ बहुत खुश है कि कविता किस वातावरण का सृजन करती है। इधर के कुछ
हुए थे शहर के लोग/ पहली बार उन्हें लगा था कि/ कविता हमारे वर्षों में भारतीय समाज के गंगा जमुनी तहजीब का पुल बेहद
लिये कुछ कह रही है।’ (कविता-हर कहीं होता है थोड़ा-थोड़ा’, कमजोर हुआ है, राजनीतिक प्रपंचों व सत्तासीन होने के षड्यंत्रों के
समय का अकेला चेहरा-संग्रह से) चलते दोनों समुदायों के बीच दूरी बढ़ी है, शंकाएँ उपजी हैं व
यह कवितांश हमारे समय की कविता व कवियों के संदर्भ में समरसता लगातार टूटी है, यह कविता भारतीय समाज के इसी
एक बड़ा बयान दर्ज़ करता है। शहर के किसी कवि सम्मेलन में बदले हुए चेहरे की शिनाख्त करती है, पहले दोनों समुदायों के
शहर के लोगों को अदम गोंडवी व रमेश रंजक की कविताएँ इस त्योहार साझे थे, ताज़िये का मेला, होली, दिवाली, मुहर्रम के जुलूस
कदर पसन्द आईं कि सब मुरीद होकर कह उठे कि कविता में उनके साझे थे, यह कविता उसे याद दिलाती है व उसे पुनः बहाल करने
लिये भी कुछ है। आज कविता से जन का संवाद टूटा है। कवि मंचों का प्रकारान्तर से प्रस्ताव करती है। यही नरेंद्र पुण्डरीक का
पर सतही मनोरंजन है व कविता की तथाकथित मुख्यधारा में काव्यप्रयोजन है वे निरन्तर अपनी कविताओं के माध्यम से एक
बौद्धिक कसरत है, ऐसे में जन सामान्य का कविता से मोहभंग हुआ समरस समाज के लिए चिंतातुर दिखते हैं व प्रकारांतर से एक
है, यह मोहभंग उस जन सामान्य का हुआ है, जहाँ आज भी कबीर समरस, संवेदनपूर्ण समाज के लिए प्रस्ताव करते हैं। सोमनाथ ने
व रहीम के दोहों की जमानत पर पंचायतों में फैसले लिए जाते हैं। अपने इस दोहे में ऐसे ही काव्य प्रयोजन को महत्वपूर्ण माना है-
नरेंद्र पुण्डरीक वस्तुतः उद्घाटन के नहीं वरन अर्द्धउन्मीलन के ‘कीरति वित्त विनोद अरु अति मंगल को देति, करै भलो उपदेश
कवि हैं नरेंद्र पुण्डरीक की कविता में उनका व्यक्तित्व सीधे सीधे नित वह कवित्त चित चेति।’
अपने को एसर्ट नहीं करता, लेकिन आत्मविलोपन द्वारा भी वे अपने ‘चीज़ें तय कर रही हैं/ हमारे बारे में कि हमें/ जाना कहाँ है/और
व्यक्तित्व की अचूक छाप छोड़ते हैं, अपने स्वाभाविक संकोच के मिलना कहाँ है हमे/ किससे कब/ जहाँ जाते हैं हम/ पहले वहां
कारण जिसकी काव्याभिव्यक्ति अक्सर शब्दों की मितव्ययता द्वारा उपस्थित मिलती हैं चीज़ें’ (कविता-चीज़ें तय कर रही हैं, इन्हें
होती है। इस कवितांश में कई सवाल व जिज्ञासाएँ एक साथ ज़ेहन देखने दो उतनी ही दुनिया-संग्रह से)
में उभरते हैं कि क्या आज जनमानस में एक सामान्य अवधारणा सी आदमी पहले परिस्थितियों का दास था अब वह चीज़ों का दास
कायम हो गयी है कि उसके लिए कविता में कुछ नहीं है? अदम व हो कर रह गया हैं, भूमड ं लीकरण ने आदमी को चीज़ों में तब्दील
रमेश रंजक की कविताओं में आख़िर क्या था कि जन मानस को किया और फिर भूमंडलीकरण ने आदमी की हालत चीज़ों से भी
उनकी कविताओं से ऐसा महसूस हुआ कि उनके लिए भी उन बदतर कर दिया। यह अस्तित्वबोध के संकट का मामला है जिसकी
कविताओं में कुछ है? तो क्या कविता को ऐसा होना चाहिए कि उसे बड़ी गहरी दृष्टि से नरेंद्र पुण्डरीक शिनाख्त करते हैं। कविता के जो
सुनते हुए जनमानस उसमें अपनी चिंताओं, चुनौतियों, दुश्वारियों, नए प्रतिमान जटिलता, तनाव और सूक्ष्मता के रूप में पिछले तीन
की उपस्थिति महसूस कर सके? नरेंद्र पुण्डरीक इस कविता के दशकों में विकसित हुए हैं, उन्हें नरेंद्र पुण्डरीक अवमूल्यित नहीं
माध्यम से अपने समकालीन कवियों के समक्ष एक चुनौती तो पेश करते, बल्कि नई प्रतिष्ठा व सार्थकता देते हैं। मानव संबंधों,
करते ही हैं साथ ही प्रकारांतर से जन भाषा मे रची जनसंवादोन्मुखी भद्रलोक, स्त्री पुरुष संबंधों की क्रूर सचाइयों और निजी घरों तक
कविता के पक्ष में ज़िरह भी करते हैं- ‘वे हमारे राम की बात करते सीमित हो रही जटिलता इस कविता में नया संस्कार पा रही है। वह
हैं/ वे हमारे कृष्ण की बात करते हैं/ हमे हैरानी होती है कि/ वे राम मनुष्य को नियंत्रित करने वाली भयानक, अमूर्त पर सदैव उपस्थित
और कृष्ण को हमसे ज्यादा जानते हैं/ हमे अपने आप पर कोफ्त शक्तियों की छाया के नीचे चित्रित करती है- ‘ठसा ठस्स भरी हुई/
होती है कि/ हम मुहम्मद साहब के बारे में/ उतना ही जानते हैं बस में बैठ जाना और/ दफ्तर पहुँच कर/ सुर्ख दिखना भी कविता
जितना/ दूसरी कक्षा में पढ़ा था/ हम हसन हुसैन के बारे में उतना होती है/ बिलकुल लस्त पस्त होते हुए भी/ घर वापसी के लिए
ही जानते हैं जितना/ पचास साल पहले ताज़िये के मेले में देखा था’ बेताब होना/ सारी टीसें भूल कर/ बच्चों के समक्ष/ हरे पेड़ में बदल
(कविता- मेरे शहर में- समय का अकेला चेहरा- संग्रह से) जाना/ सबसे अच्छी कविता होती है।’ यह कविता वस्तुतः कविता
यह कविता जितना कहती है उससे अधिक देखती है, इस के विभिन्न आयामों इसके वृहत्तर परिसर का भाष्य करती है। यह
कविता को पढ़ते हुए हमारे देखने की शक्ति में वृद्धि होती है, इस कविता को किताब के बाहर लाती है। यह कविता वस्तुतः कविता
कविता के प्रभाव में हम अपने समय को कुछ और साफ साफ देख को एक कार्यदायी संस्था के रूप में स्थापित भी करती है व
व समझ पाते हैं। इस दृष्टि से यह एक दृष्टिवर्ती रचना है। कविता प्रतिपादित भी। कविता ही हजार अपूर्ण परिभाषाओं में यह भी

204 n जुलाई से सितंबर 2023 yegh


कविता की एक परिभाषा नियत करने का उपक्रम करती है। भी है कि 'कविता जीवन की समीक्षा है।' बिखरे दिनों में कविता का
मध्यवर्गीय गृहस्थ कर्ता की चुनौतियों, संघर्षों व विवशताओं का हिस्सा होता है। फ्रायड के सहयोगी एडलर ने मनुष्य की अहं
बयान दर्ज़ करती इस कविता का अपना विशेष महत्व है। दिन भर स्थापना की प्रवृत्ति को महत्वपूर्ण माना है उसके अनुसार मनुष्य जब
भी थकान, खीज, बेचैनी, उलझन को को छिपाकर घर लौटते ही व्यवहारिक जीवन मे अपने प्रभुत्व को स्थापित नहीं कर पाता तो
ख़ुद को पुनर्नवा कर हँसते हुए उसी अजस्र ऊर्जा के साथ अपने इससे मुक्त होने के लिए वह काव्य रचना या अन्य महत्वपूर्ण कार्य
बच्चों से मिलना जीवन की सबसे बड़ी साधना है, आत्मसंयम है, करने में प्रवृत्त होकर उसकी क्षतिपूर्ति करता है, यही एडलर की
जीवन का हठयोग है, नरेंद्र पुण्डरीक जीवन की पारिस्थितिकी से क्षतिपूर्ति का सिद्धांत है। आधुनिक कवियों में मैथिलीशरण गुप्त व
कविता चरितार्थ करने वाले कवि हैं, इसलिए उनके बिम्ब व प्रतीक अज्ञेय ने स्पष्ट रूप से एडलर के क्षतिपूर्ति सिद्धान्त को मान्यता दी
सर्वथा परिचित से लगते हैं व बड़ी शीघ्रता से रागात्मक रिश्ता है, गुप्त जी के अनुसार- 'जो अपूर्ण कला उसी की पूर्ति है' (साकेत,
कायम कर लेते हैं, उनकी कविताओं को पढ़ते हुए प्रायः महसूस प्रथम सर्ग) अज्ञेय ने त्रिशंकु में कहा है- 'कला सामाजिक
होता है कि इन कविताओं से हमारा भी एक रिश्ता बनता है। वस्तुतः अनुपयोगिता की अनुभूति के विरुद्ध अपने को प्रमाणित करने का
सफल कवि कर्म यही होता भी है कि कवि अपने निजी अनुभव को प्रयत्न, अपर्याप्तता के विरुद्ध विद्रोह है' (त्रिशंकु पृष्ठ 23) नरेंद्र
कुछ इस कौशल से सार्वजनीन करे कि वह सबका होकर रह जाय, पुण्डरीक की कविताएँ भी जीवन के बिखरे दिनों की अपर्याप्तता के
हर रचना की ज़मीन अलग अलग होती है, कवि को इसके लिए विरुद्ध प्रतिरोध व विद्रोह की कविताएँ हैं।
अपने अनुभव दीप्त कदमों से रचना की ज़मीन तक पहुँचना होता अपने आसपास के प्रति संवेदनशीलता और जो दिखता या
है, यही कारण है कि एक ही विषय वस्तु की विविध रचनाओं की महसूस होता है उसे कविता में सहेज और दिखा पाना कठिन काम
प्रभावोत्पादकता भिन्न भिन्न होती है। नरेंद्र पुण्डरीक का यही है, हालाँकि यह कविता का एक बुनियादी काम ही ऐसी कविताओं
काव्यकौशल उन्हें अपने समकालीन कवियों में विशिष्ट बनाता है- की भरमार है जो बिम्बों और रूपकों के ढेर के बावज़ूद हमें साफ
‘मैं मरूँ ऐसे कि/ जी उठूँ फिर/ उस पीपल के/सुरमई पत्ते सा- मैं साफ कुछ दिखा नहीं पातीं ऐसे में नरेंद्र पुण्डरीक की कविताएँ
क्या करूँ/अपनी इस इच्छा का/ जो मर नहीं रही है।’ पढ़ना कई मायने में दृष्टिवर्ती रचनाएँ पढ़ना है। नरेंद्र पुण्डरीक की
वे लोक शब्दावली के देशज शब्दों का ही उपयोग करने वाले भाषा बोलती उतना नहीं जितना देखती है और उसके काव्यप्रभाव
कवि नहीं वरन लोक- संपृक्ति के कवि हैं, अपनी इसी गहन व में हम भी अपने देखने की शक्ति को अधिक एकाग्र और सक्रिय
वृहद लोकज्ञता के चलते ही वे एक साथ ग्रामीण व नगरीय जीवन कर पाते हैं। नरेंद्र पुण्डरीक जड़ीभूत सौन्दर्याभिरुचि और रूढ़ जीवन
के संघर्षोंं, चुनौतियों, व विवशताओं से सघन संवाद करने में सक्षम मूल्यों से विद्रोह कर अपने नए काव्य और जीवनशास्त्र का औचित्य
होते हैं- प्रमाणित करने वाले कवि हैं। नरेंद्र पुण्डरीक के यहाँ अतिकथन
‘यह क्या कम है कि/ नींद और चिंता से दूर रख कर/ लोगों में बहुत कम हैं वे मुख्यतः अल्पकथन के कवि हैं। इतनी अर्थगर्भी
कविताएँ बचाये हुए हैं/ जलते रास्तों में चलने का माद्दा/उपेक्षित नीरवता भी शायद ही किसी और कवि के शब्दों के बीच हो जितनी
आदमी हो या हों मेरी/ ज़िन्दगी के जिये हिस्से/ उन्हें उठा कर ही उनके यहाँ है। इस नीरवता का नरेंद्र पुण्डरीक की ऐंद्रियता से गहरा
आगे बढ़ती है कविता/ नदी का पानी/ पेड़ की छाया और/ बिखरे संबंध है। समय, सच्चाई, आदि सबकी इन कविताओं में जगह और
दिनों में/ चिड़ियों के साथ/ कविता का अपना हिस्सा होता है’ (यह भूमिका है– लोग हैं और जीवन छवियाँ हैं, चीज़ों की धड़कती
क्या कम है-इस पृथ्वी की विराटता में-संग्रह से) दुनिया हुई दुनिया है। नरेंद्र पुण्डरीक के यहाँ अज्ञेय या मुक्तिबोध
यही नरेंद्र पुण्डरीक की काव्यप्रवृति है, उनके लिए यही कविता जैसी बौद्धिक सख्ती भले न हो, वे भावनात्मक सख्ती के कवि हैं।
का मायने है। लोगों में कविता बची रहे उनकी यही कामना है। उनके यहाँ चीज़ें देखती हैं, बोलती हैं, चुप रहती हैं, घेरती हैं, उनकी
उपेक्षित आदमी, नदी, पेड़, पानी, पहाड़, चिड़िया इन सबमे कविता कविता को निरे काव्यसंसार से पूरी तरह पकड़ पाना मुश्किल है वह
का हिस्सा है, यानी इन्हीं सब से संवाद के क्रम में नरेंद्र पुण्डरीक इतनी बार चित्रलिखित है, उनमें इतनी बार स्पेस का विभाजन
की कविताएँ चरितार्थ होती हैं। अरस्तू ने अपने काव्यशास्त्र में सन्तुलन है, आकारों का खेल है, गूंजों अनुगूंजों का संपुंजन है कि
काव्य के दो प्रयोजनों की ओर संकेत किया है। वह कहता है- नरेंद्र पुण्डरीक संश्लेष व विश्लेष के बीच अपना कविता पथ नियत
'अनुकृत वस्तु से प्राप्त आनन्द भी कम सार्वभौम नहीं।' अनुभव करते दिखते हैं। n
संपर्क : गोरखपुर
इसका प्रमाण है- जिन वस्तुओं का भावन आह्लादकारी बन जाता
मो. 9450829617
है,। यही जीवन की व जीवन जगत की समीक्षा है। मार्क्स ने कहा

yegh जुलाई से सितंबर 2023 n 205


n महत्तम : अग्निशेखर

विस्थापन और करुणा की विरल आवाज़


सुशील कुमार

“मैंने भूख़ंडों को जलते देखा है काव्य-सौंदर्य को अपनी कलम दी है? अग्निशेखर की


उबलते हुए समन्दरों में मैंने देखा है कविताओं से गुज़रते हुए मैं महसूस करता हूँ कि इनमें
नदियों का चीखते-कराहते हुए उतर डूबना विस्थापन उनके जीवन का वह भोगा हुआ यथार्थ है,
गिरना ज़हरीले पानियों के गाजों का.. जिसमें न सिर्फ़ समय की बेतरतीब टीस मौज़ूद है, जो
किंतु रहा फिर भी मैं ज़िन्दा हमें कारुणिकता से आप्लावित कर देती है, बल्कि
मैं पैदा हुआ हूँ ज़िन्दा रहने के लिए ही”– उनकी काव्यात्मकता भी हमें उतनी ही मोहती और
(तिलचट्टा/किसी भी समय) बेचैन करती है। यह लोकजीवन के उस संघर्ष की
व्यथा-कथा है, जो द्वंद्व के उस छोर पर लाकर हमें खड़ी करती है,
“इच्छाएँ मेरा घर थीं जहाँ हम मानवीय मूल्यों की शिनाख्त के लिए बेचैन हो उठते हैं।
तमाम उम्र रहा अकेला उनमें नीचे इमेज फ़ाइल में इनकी एक कविता देखिए -मुझसे छीन ली गई
संसार की तमाम कब्रों में मेरी नदी।
दफन हूँ मैं मुझसे छीन ली गई मेरी नदी
आकाँक्षाओं के साथ
सपनों की मिट्टी है मेरे ऊपर” मुझसे छीन ली गई मेरी नदी
(तमाम उम्र/कालवृक्ष की छाया में) बदल दिया गया उसका नाम
“खंगाल रहे हैं आंसूओं को बंद हो गया उसमें दियों का बहना
गोताखोर
आपदा के तल में बहुत मोती हैं मुझसे छीन ली गई चिनार की छांह
इस समुद्र पर सब की आँख है!” उसका कर दिया गया लिंग-परिवर्तन
(भूकंप के बाद भुज/कालवृक्ष की छाया में) वह थी मेरी भुवन व्यापिनी माँ
उसके रोम रोम से मुस्कराती थी
जब हम ऐसे समय में जी रहे हों, जहाँ सच्ची कविताएँ नकली मेरे सपनों की कोंपलें
कविताओं से विस्थापित और बेदखल हो रहीं तो ऐसे समय में
किसी प्रामाणिक और सच्चे कवि का बेदखल हो जाना कोई बड़ी एक दिन चुपचाप बदल दिए गए
बात नहीं! मेरे सैंकड़ों गाँवों के नाम
मैं कवि अग्निशेखर के बरअक्स अपनी बात रख रहा हूँ। क्या जैसे आँख मूंदकर पहुँचा दिया गया हो
यह सही नहीं कि कविता में विस्थापन और पलायन की भावसत्ता किसी अरब-देश में
कई बार कवि के महज शौक से उत्पन्न होती है? कितने कवियों ने
अपनी छूटती हुई ज़मीन के बारे में भोगे हुए सत्य का दर्शन अपनी मुझसे छीन ली गई मेरी भाषा
कविता में कराया है? किन आलोचकों ने जलावतनी पीड़ा के छीलकर फेंक दी गई उसकी लिपि

206 n जुलाई से सितंबर 2023 yegh


इस तरह सदियों की ठंड में दे दिया था। देखने वाली बात यह है कि इस संग्रह की सभी
बर्फ होती कभी गयी मेरी आवाज़ कविताएँ उनके विस्थापन के पूर्व की हैं। पर आगत समय को
भाँपकर कवि का इन्द्रियबोध इतना प्रखर और चेतस हो गया लगता
मुझसे छीन लिया गया मेरा चेहरा है कि उसे कविता में आने वाले बुरे समय की आहट पहले ही मिल
और सब तरफ से जाती है, जबकि कश्मीर में आने वाले सैलानी अभी तक भावी
पहचान लिये जाने के डर से आतंक, हिंसा, विस्थापन, विखंडन, स्मृति विलोपन और
मैंने बदल लिया हुलिया मध्यकालीन बर्बरता के पुनरागमन के पूर्वाभास से बेख़बर थे। तभी
और घूमता रहा गलत फहमी में बेखौफ़ तो शेखर कहते हैं कि -
दया करो सैलानियों के सौंदर्यबोध पर
मुझसे छीन ली गई धीरे धीरे फिल्मी कवियों के दारिद्र्य पर
बर्फ,पहाड़ियाँ, मुस्कान वे पानी के नीचे कैद आइसबर्ग के
पेड़, मौसम,त्योहार सतह पर आते शब्दों को
और समूची मातृभूमि अबकी बार बुलबुले कह रहे हैं
इस कविता की तरह ही इनकी बहुत सारी कविताएँ हैं, जो कवि झील ने छिपा रखी है इतनी बड़ी बात
के विस्थापन का जिया हुआ यथार्थ है, जो हमें कागजी कविताओं (कविता : जादुई झील/पृ 37)
से न केवल अलग करता है, बल्कि उस भावजगत से हमारा सच में यह कवियों के लिए कितनी बड़ी चुनौती है कि एक
साक्षात्कार भी कराता है जहाँ विस्थापन का गहराता हुआ मर्मभेदी संवेदना का मकान आज के हिंदी के अधिकांश कवियों के यहाँ भी
लोकस्वर है, दूर से निकट आती और बरजती हुई, क्रमशः तेज जुदा हो गया है! कवि आगे अपनी एक लघु कविता में व्यक्त करता
होती, कुरेदती हुई, हिलाती हुई, झिंझोरती हुई बेकस ध्वनियाँ हैं। है कि-
अग्निशेखर की कविताओं से गुज़रते हुए हमें मानव-विस्थापन बंद हैं खिड़कियाँ सहस्रमुखी कविताओं की
के जिस रूप और रीति का साक्षात्कार होता है, वह केवल मर्मी ही चुप हैं शब्द अपनी-अपनी सीपियों में
नहीं, मर्माहत भी करता है। वह प्रभावोत्पादकता में जितनी वीभत्स हमारी लहूलुहान दस्तकें नहीं हैं मानवेतर
रूप का वरण करती है, उतना ही करुणामय और हृदयविदारक भी कि घबराकर दूर भागते हो तुम
महसूस होती है। गोया कि, विस्थापन के कई रूप होते हैं। एक रूप (कविता : इस महाविपदा में/पृ 35)
होता है विकास की बाढ़ में लीलती संस्कृति का। पर इससे उजड़ते किन्तु अग्निशेखर के कवि ने इस जोख़िम को स्वीकार ही नहीं
गांव-घर, वनवासी, लोग-बाग की व्यथा-कथा इत्यादि उतनी विद्रूप किया, बल्कि वहां के लोगों के विस्थापन को अपनी कविता में
और टीस भरी नहीं होती, जितनी सत्ता-प्रभुओं के नियोजित जनसंहार आवाज़ दी और पहली बार चुप्पी की परंपरा को तोड़ने का पहल
(जीनोसाइड) के फलस्वरूप जान बचाकर शरणार्थी शिविरों में किया। यह हिंदी साहित्य में अजूबा और अकेला ही है! किसी कवि
भागकर आए, गुज़र-बसर करते, जैसे-तैसे अपने दिन काटते, के लिए इससे बड़ी बात और क्या हो सकती है! अब तक उनके
अपनी दुःख-दैन्यता और संस्कृति की दुर्दशा से कराहते और पाँच काव्य संग्रह विस्थापन और अलगाववादी प्रवृत्तियों की
जिल्लत भोगते समाज की। इस विस्थापन में सत्ता-प्रभुओं द्वारा अन्तरवस्तुओं पर आ चुके हैं। इनका दूसरा संग्रह ‘मुझसे छीन ली
केवल जीव-संहार ही नहीं किया जाता, बल्कि साथ-साथ उसका गई मेरी नदी’ (1996), तीसरा ‘कालवृक्ष की छाया’ (2002),
एक पूरा 'कल्चरल जीनोसाइड' भी कर दिया जाता है। यह कोई चौथा ‘जवाहर टनल’ (2008) और पाँचवाँ ‘जलता हुआ पुल’
विकासवादी सांस्कृतिक प्रत्यावर्तन नहीं, बल्कि उसके सम्पूर्ण (2019) हैं। प्रसंगवश कहना चाहूँगा कि अग्निशेखर ने अपनी
विरासत का अपहरण और उसकी निर्मम हत्या है, जिसका कविता ‘जवाहर टनल’ पर चयनित जम्मू कश्मीर कला, संस्कृति
सामाजिक विस्तार केवल उसके 'डेमोग्राफिक' स्तर तक नहीं जाता, और भाषा अकादमी का सर्वश्रेष्ठ पुस्तक का अवार्ड यह कहते हुए
बल्कि वह उसके 'इकोलॉजिकल' और भौगोलिक लेयर को भी छूता लेने से ठुकरा दिया कि कश्मीरी जन सड़क पर हैं, हम कैसे अवार्ड
है। वह वहाँ की प्रकृति में भी उसी तरह ध्वनित होता है। लें, जिसके तहत 51 हजार रुपये का नकद पुरस्कार, स्मृति चिन्ह
अग्निशेखर ने अपने पहले काव्य-संग्रह ‘किसी भी समय’ और शाल भेंट किया जाता है।
(1992) में ही कश्मीर के निर्वासन और 'जीनोसाइड' का संकेत खैर, यहाँ इनकी कविताओं पर बात आगे बढ़ाते हुए कहना

yegh जुलाई से सितंबर 2023 n 207


चाहता हूँ कि विस्थापन के दर्द को अभिव्यक्त करने के लिए वे ठगी हुई मछयारिन दृष्टि, विधवा की रुसयाई मांग, ठिठुरती
कविता में जिन प्रतीकों, बिम्बों और कहन के शिल्प को समेटते हैं, चेतना की तमाम सीढ़ियाँ, हिजड़ों की तरह बेशर्म नाचती हुई गिरती
वह हिंदी में विस्थापन की कविताओं में विरल प्रतीत होता है। उनमें बर्फ, लोहे का चेहरा चढ़ाए मिहिरकुल, कीलों मे जड़े जूतों मे गोरे
जितना बौद्धिकता का बल है, उतना ही भावों का उद्रेक। यहाँ लोक गाँव, चील के पंजों में पकड़े साँप, नींद के जंगलों को टापों तले
के शब्द इतने जीवंत हैं कि वह हमारी आत्मा को मथकर रख देते रौंदता घोडा आदि अनगिनत ऐसे मुहावरे और बिम्ब इस पहले ही
हैं। वस्तुतः ये विस्थापित पीड़ित जनों के जीवनधर्मी बिम्ब हैं, जो संग्रह की कविताओं में आई है, जो हिंदी कविता में अन्यत्र दुर्लभ हैं।
उनके जीवन–संघर्षों और द्वन्द्वों से जन्मते हैं। इसलिए उनकी पीड़ा ये कविताएँ पाठक के मन में विस्थापित हो गए लोक का एक ऐसा
में हमें एक आत्मिक खिंचाव की अनुभूति होती है जो आजकल के भावलोक रचती हैं जो भय, आतंक,त्रासदी झेल रहे जन के जीवन
शहराती कवियों में शायद नहीं मिलेगी– और संस्कृति को बचाने की मुसलसल जद्दोजहद व तड़प से पैदा
“झेलम मुझे पाकिस्तानी जासूस की तरह लगती है... होती है। यहाँ जीवन स्थिर और मौन नहीं, रागात्मक और गतिशील
और मैं नींद में महसूसता रहा है जो अपने अस्तित्व के संघर्ष की निर्मिति का नाम है, जिनकी नींव
कि ज़मीन खिसक रही है।” पर ये कविताएँ खड़ी हैं।
ये पंक्तियाँ इस बात को बताती है कि एक नदी के पाकिस्तानी अग्निशेखर की कविताओं में प्रकृति के बिम्ब विस्थापन की
होने और कवि की नींद में उसके ज़मीन के खिसकने का अभिप्राय भावभूमि पर आकर जो रूप लेते हैं, वह दुःख, भय, त्रासदी और
क्या है। एक कविता चिनार पर देखिए, कवि कश्मीर की गोद में आशा के बीच के अंतर्द्वंद्व को जिस काव्यात्मक सौष्ठव और मेधा
खेलता हुआ आनंद-प्रमोद नहीं मनाता। वह वितस्ता नदी के रुपहले के साथ प्रकट करते हैं, वह पाठक के मन में कई भावों-अनुभावों
पहलुओं में नहीं जाता, बल्कि चिनार से कई सवाल करता है। यह का एक 'मिश्रित हिलोर या कम्पन' (मिक्स्ड वाइब्रेशन) पैदा करता
कविता जितनी संकते ात्मक है, उतनी ही मर्मभेदी- है, जैसे कि-
चिनार! तुम्हें कैसा लगता है 'छलनी छलनी मेरे आकाश के उपर से
बहती थी जो तुम्हारे सामने से होकर बह रही है
चाँदनी की चादर सी स्मृतियों की नदी
मैली हो गई है अब वितस्ता
वितस्ता में अब नहीं बहते झिलमिलाते दिए ओ मातृभूमि!
पूजा के फूल क्या इस समय हो रही है
जगह-जगह सूने पड़े हैं स्नान-घाट मेरे गांव में वर्षा'?/कविता -वर्षा।
किसी विधवा की जैसे रूसियाई मांग यहाँ आकाश का बिम्ब कवि-पात्र की ज़मीन से अलगाव की
मैंने बहुत दिनों से तुम्हें भी पीड़ा के लिए व्यक्त हुआ है और नदी उसकी स्मृति के लिए।
नाभी तक पानी में उतरकर सूरज को आकाश यानी स्वतंत्रता के छलनी-छलनी होने का दुःख सीधे
जल चढ़ाते नहीं देखा है अपनी ज़मीन और संस्कृति से छूटने का दुःख है। आप यह भी
तुम कहां धोते हो कपड़े लत्ते देखते हैं कि कविता में ज़मीन से नदी का न बहक़र आकाश के
हाथ-मुँह ऊपर से बहना जिस प्रकृत्यात्मक विलोम में अर्थ-स्फीतियाँ उत्पन्न
क्या पीते हो करती है, उसकी व्याप्ति कवि के उस अवचेतन मन अर्थात उसकी
चिनार! स्मृति में है, जिसमें वह अपने छूटे हुए गांव में वर्षा की आशा करता
असह्य है तुम्हारे लाखों है और इसके मानिंद अपनी मातृभूमि से सवाल भी करता है। इस
बातुनी पत्तों की खामोशी (कविता– चिनार -1) तरह यहाँ एक ही बिम्ब से जातीय प्रेम (ethnic attachment)
अग्निशेखर बहुत कलात्मक ऊँचाई से कविता में लोकसिक्त के साथ विस्थापन की पीड़ा को सामने लाने का जो दुहरा काव्य-
मुहावरों को रखते हैं, जो उनके अपने शब्द की निर्मिति हैं और उपक्रम किया गया है, वह काव्य-बिम्बों के शिल्पगत प्रयोग की
उनमें कला के साथ भाव का अपूर्व संयोजन है, जिसके फ्यूजन से उत्कृष्ट बानगी है।
कविता पाठक पर कबीराना अंदाज में बिना तल्ख हुए अपना गहरा जीवन के रागात्मक द्वंद्वों और दुद्धर्ष संघर्षों को व्यक्त करने
छाप छोड़ती है। वाला कवि कभी 'प्रकृति का सुकुमार' कवि नहीं बन सकता। उसके

208 n जुलाई से सितंबर 2023 yegh


यहाँ प्रकृति उसके जीवन के साथ इस तरह से अंतर्ग्रंथित होती है एक्रोबैटिक्स' पैदा नहीं करते, बल्कि कवि के उसी 'पोएटिक स्किल'
कि प्रकृति के काव्य-उपकरण कवि-जीवन के अनुभवों से एकाकार से ही वह गुण प्रकट हो पाता है जिसकी ऊपर चर्चा की गई है। पर
हो उठते हैं। यह सब कवियों के वश की बात नहीं होती। गोया कि, आजकल
महसूस होता है कि कविता की अंतर्वस्तु तब बाह्यगतता से कवि तुरत-फुरत आत्मश्लाघा हो जाते हैं, यही कारण है कि
आत्मगतता की ओर प्रसारित होती है। इसके उलट, जिस कवि का अनुभवहीन आत्मबद्ध कविताएँ अब थोक में लिखी जा रही।
लोकानुभव कमजोर होता है, उसकी अंतर्वस्तु चेतना से निकल कर यही नहीं, अग्निशेखर की कविताओं की अंतर्वस्तु वस्तुतः उनके
बाहर की प्रवाहित होती है, जिससे इन्द्रिय-चेतस मन बाह्य उपकरणों उस स्वभुक्त यथार्थ का हिस्सा है जिसमें जलावतनी/ पलायन की
से तादात्म्य स्थापित नहीं कर पाता। फलतः रचना अपनी स्वाभाविक मार्मिक अभिव्यक्ति कश्मीर के परिवेश के सामाजिक तल के उस
छटा खोकर आत्मबद्ध हो जाती है। इससे रचना में ऊब और तनाव कोण से परिलक्षित हुई है, जहाँ आलोचकों ने अब तक एक रूटीन
का सृजन होता है, संघर्ष और श्रम का नहीं। यह बुर्जुआ सोच से तौर पर ही काम किया है। उनमें ध्वनित लोकबिम्बों और विरल
रची गई कविताओं में अधिक पाया जाता है। ख्यालातों पर लोगों की नज़र कम ही गई है। खासियत यह है कि
उक्त परिप्रेक्ष्य में आप पाएँगे कि जिस प्रकार सुधीर सक्सेना की सघन जीवनानुभव और इन्द्रिय-बोध से निःसृत इन कविताओं में
कविताओं में प्रकृति स्त्री-प्रेम का उपकरण बनकर आती है, जैसे विस्थापन के दुःख की जो रागात्मकताएँ हैं, वे रूप और कथ्य दोनों
शम्भु बादल की कविताओं में वह प्राकृतिक उपादानों; पशु-पंछियों स्तरों पर हमें ‘भर्तृहरि’ के गीत की तरह आलोड़ती हैं। इसमें केवल
से जनविद्रोह के प्रस्फुटीकरण का रूप लेकर आती है, अग्निशेखर वर्तमान के क्षण का ही स्पंदन नहीं महसूस होता, हुतात्माओं की
भी उसी प्रकार प्रकृतिगत बिम्बों से विस्थापन व आतंक के सौंदर्य स्मृतियाँ और शहीदों का अनुभव भी दृष्टिगत होता है, जो अग्निशेखर
(एस्थेटिक्स ऑफ टेरर) को कविता में अभिव्यंजित करने का काम के कवि को इस अर्थ में महत्वपूर्ण बनाता है कि वह लोक-विस्थापन
लेते हैं- के सबसे अलहदा और विशिष्ट कोटि का सौंदर्य रचते हैं। यह उनके
'गरजते बादलों समकालीनों में कहीं मिलता भी है तो इतनी काव्यात्मक गतिकी के
और कौंधती बिजलियों के बीच साथ नहीं, आप स्वयं 'कवि का जीवन'- इनकी एक कविता
स्तब्ध है देखिए-
मेरी अल्पसंख्यक आत्मा 'कविता लिखना
वहीं कहीं अधजले मकान के मलबे पर तपे हुए लोहे के घोड़े पर चढ़ना है
जहाँ इतने निर्वासित बरसों की उगी घास में या उबलते हुए दरिया में
छिपाकर रखी जाती हैं छलाँग मार कर मिल आना
पकिस्तान से आईं बंदूकें उन बेचैन हुतात्माओं से
जो करते हैं
यहाँ किसे बख्शा गया मेरे देश में हमारी स्मृति में वास
निर्दोष होने के जुर्म में पूछना उनसे शहीद होने के अनुभव
तैरती हैं आज भी हवा में और करना महसूस अपने रक्त में
दहाड़े मारती स्त्रियों की बददुआएँ' उनके नीले होठों पर दम तोड़ चुके
.................................. शब्दों को
आज के दिन कोई आए मेरे पास
ले जाए मुझे यह कविता मेरे समय में
किसी पहाड़ी यात्रा पर किस काग़ज़ पर उतारी जा सकती है
मै छनू ा चाहता हूँ अपने खुलते हुए लहू से
एक नया और ताज़ा आकाश/ कविता काला दिवस/ सिवाय बलिवेदी के
यहाँ 'निर्वासित बरसों की उगी घास में' बंदूकों का छिपा रहना
उसी बाह्यगत अनुभव का हिस्सा है। कह सकते हैं कि अग्निशेखर ऐसे कवि का जीवन
जी अपनी कविता में मंगलेश डबराल जी की तरह कोई 'पोएटिक आकाँक्षा मेरी'/ कविता : कवि का जीवन।

yegh जुलाई से सितंबर 2023 n 209


शहीदों के नीले होठों पर दम तोड़ चुके शब्दों को कागज पर समझने में हमें भूल नहीं करना चाहिए कि यह कवि का
उतारना इस कविता में एक नवीन लोकसौंदर्य का उन्मेष है, जिसमें आत्मनिर्वासन नहीं है।
भय और वीभत्सता का अनुभवसिक्त नीला रंग भी मिला हुआ है। प्रसंगवश यहाँ रेखांकित करना ज़रूरी लगता है कि कवि का यह
इसका मतलब यह भी नहीं कि अग्निशेखर के कवि का बिम्ब स्वानुभूत यथार्थ इकहरा और उतना 'सिम्पल' नहीं है, जितना हम
हमेशा चेतन-मन से ही नहीं उपजता है, वरन बीच-बीच में उसमें समझ बैठते हैं। सादे शब्दों की बानगी में इसमें जीवन के जिस
स्मृति और अवचेतनता भी उतनी ही दिखती है, जिसे फैंटेसी या दुर्द्धर्ष संघर्ष और दुर्घटनाओं का संगफ
ु न और संश्लिष्टता विद्यमान
स्वप्न के माध्यम से भी कवि चित्रित करने में सफल हुआ है - है, उसके कई प्रस्तर (लेयर) हैं। मुक्तिबोध की तरह उनकी
मेरे दोस्त ने सपने में सुने मुझे कविता - कविताओं में संवेदना का संश्लिष्ट रूप अंतर्वस्तु और शिल्प के कई
'मास्को में हिमपात' पहलों में दृष्टिगोचर होता है। जिस तरह 'फैंटेसी' का सार्थक उपयोग
....................... मुक्तिबोध की कविताओं में देखने को मिलता है, उसी प्रकार
इतने में चली आई माँ भी कहीं से मेरे पास जलावतनी की पीड़ा और संवेदना विचारों के जिस लयात्मक और
मेरे चेहरे पर गिरने लगे कलात्मक प्रवाह और तीव्रता के साथ अग्निशेखर के यहाँ प्रकट
मास्को की बर्फ़ के आवारा फाहे होती हैं, वह कवि के यथार्थ बोध के वस्तुनिष्ठ अध्ययन के कई
कुछ अदृश्य छींटे नए द्वार खोलता है यथा; विशिष्ट काव्यशिल्प, विचारों का आवेग,
छुआ मेरी माँ ने आश्चर्य से अलंकार विधान, आतंक का सौन्दर्य, भाषाशिल्प, लोकचेतना की
मेरे विस्मय को वस्तुनिष्ठता, कविता की प्रामाणिक भावसत्ता, उसका कलापक्ष,
दंग था वहीं खड़ा उसके वैश्विक मूल्य इत्यादि। बहरहाल, इनकी एक कविता देखिए-
मेरे कवि दोस्त भी मैं तुम्हें भेजता हूँ
गिर रही थी जैसे सदियों बाद बर्फ़ अपनी नदी की स्मृति
जैसे पहली बार भीग रहा था मैं सहेजना इसे
किसी के प्रेम में वितस्ता है

मै आँख मूँदकर निकल पड़ा उस क्षण कभी यह बहती थी


बचपन की गलियों मेरी प्यारी मातृभूमि में
खेत खलिहानों में निर्वासन के पार अनादि काल से
बरस दर बरस मैं तैरता था
.............. एक जीवन्त सभ्यता की तरह
और बर्फ़ गिर रही थी झूम झूमकर इसकी गाथा में
हमारे हाल पर
समय के कमाल पर' अब बहती है निर्वासन में
यह फैंटेसी उदय प्रकाश की फैंटेसी-कविता 'रात में हारमोनियम' मेरे साथ-साथ
की तरह हमें चौकाती नहीं, न कोई अनर्गल प्रलाप ही करती है,
बल्कि कविता की अंतर्वस्तु को मुक्तिबोध की 'अंधेरे में' कई तरह कभी शरणार्थी कैम्पों में
समकालीन सच की परतों को उघाड़ती है। कवि के अनुभवों के कई कभी रेल यात्रा में
'लेयर' होते हैं, उसके अनुभतू संसार का जो हिस्सा उस समाज कभी पैदल
(यहाँ कम्युनिटी कहना बेहतर होगा) से जाकर जुड़ता है, जिसके कहीं भी
यथार्थ को उसने भोगा-सहा है, वह अनुभव कविता को उस
कम्युनिटी से जोड़ देता है। फिर वह अनुभव कवि का व्यैक्तिक रात को सोती है मेरी उजड़ी नींदों में
अनुभव नहीं रह जाता! प्रसंगात, अग्निशेखर की कविताएँ निर्वासित
समाज के उसी अनुभतू यथार्थ का प्रतिबिम्बन है। इस बात को नदी बहती है मेरे सपनों में

210 n जुलाई से सितंबर 2023 yegh


शिराओं में मेरी कविताओं का सृजन नहीं किया जा सकता। आप विस्थापन से
इसकी पीड़ाएँ हैं प्रत्युत्पन्न बहुत सारे भारतीय कवियों की कविताएँ देख सकते हैं।
लेकिन अग्निशेखर जब अपना घर वापस लौटना चाहते हैं और
काव्य संवेदनाएँ मेरी लौट नहीं पाते हैं तो उनकी स्मृति में वर्षों से संजोये हुए सारे सपने
और मेरे जैसों की भीत के किले की तरह ढह जाते हैं। उस जगह जाकर भी वे उन
मैं तुम्हें भेजता हूँ स्मृतियाँ भौगोलिकताओं, वतन और इति-तत्वों को ढूंढ नहीं पाते अर्थात
एक जलावतन नदी की सांस्कृतिक संहार (कल्चरल जीनोसाइड) की उत्पन्न स्थिति और
(एक नदी का निर्वासन/ अग्निशेखर) अक्सों के साये में उनके विस्थापन का सदमा दुगुना हो जाता है।
ऊपर हमने अग्निशेखर की काव्यात्मकता के कई पहलुओं पर सपने के दुबारा टूटने से उनके 'नॉस्टेल्जिया' में कारुणिकता का जो
ग़ाैर किया है। लिहाजा, किसी रचना में अंतर्भूत कला का विश्लेषण इजाफा होता है, उसकी केंद्रीय संवेदना हमें कहीं न कहीं विस्थापन
जब उसकी अंतर्वस्तु और सोद्देश्यता के आधार पर की जाती है तो के बड़े वैश्विक साहित्यकारों के रचना-लक्षण से तुलना करने को
उससे रचनाकार की पक्षधरता का पता चलता है। यह पक्षधरता मजबूर करता है। जैसे कि, अग्निशेखर की कविताओं की संवेदना
साहित्य में प्रतिबद्धता बनकर तब सामने आती है, जब कवि का तुर्की के एक बड़े साहित्यकार ओरहान पामुक और इजरायल के
नैतिक बल मजबूत हो। प्रतिबद्धता मात्र कला या शिल्प-सौंदर्य के आधुनिक कवि यहूदा अमिखाई की केंद्रीय संवेदना से जुड़ती हुई
विकास से अर्जित नहीं की जा सकती, न ही वह कवि के काव्य- दिखती है। पामुक ने विस्थापन के भीतर विस्थापन (अर्थात वैश्विक
ज्ञान, अर्जित परंपराओं या उसके समाजशास्त्रीय अनुभवों से फलित साम्राज्यवादी नीतियों व लड़ाइयों के उपरांत पीड़ित विस्थापितों की
होता है, बल्कि वह लोक से अर्जित नैतिकता और सुसंस्कार से पूर्व स्मृतियों का विस्थापन) और दुनिया के दो हिस्सों के बीच
फलित होता है। अग्निशेखर ने अपनी कविताओं में जिस सामाजिक- मानसिक-वैचारिक टकराहट के बीच जिस संवेदनात्मक तनावों को
चेतना का निरंतर विकास किया है, उसकी भावभूमि उस उजड़े हुए अपनी कृति में रखा, उसके अक्स आपको अग्निशेखर की कविताओं
लोक में वापस लौटने की प्रतिबद्धता से बनता है जहाँ से वे में भी मिलेंगी। मसलन, उनकी एक कविता 'एक जानलेवा पुस्तक
जलावतन हुए। लोकार्पण' ('जलता हुआ पुल' संग्रह) में कवि व्यक्त करता है कि
इतिहास बताता है कि दुनियाभर में राजनीतिक महत्वाकांक्षा, अपनी ही पुस्तक के लोकार्पण के लिए अपनी नदी के एक पुल पर
वर्चस्ववाद और घेरेबंदी के परिणामस्वरूप जलावतनी और वह सुरक्षा बलों से तनी संगीनों के साये में खड़ा हुआ है, जहाँ से
विस्थापन की घटना सार्वभौम रही है। सभी देशों के इतिहासज्ञों ने उसे सब कुछ बदला हुआ नज़र आता है। उसका स्कूल वीरान पड़ा
इसे बड़ी मानवीय त्रासदी के रूप में रेखांकित किया क्योंकि इससे है। घर बदहाल,सूने से हैं और सुरक्षा बलों ने 'जल्दी' (लोकार्पण)
दुनियाभर में लाखों बेकसूर जिंदगियाँ तबाह हुईं, बिना वज़ह हजारों करने का हुक्म दिया! और कवि कहता है-
मौत के घाट उतार दिए गए, बल्कि सामुहिक नर-संहार हां, शायद
(जीनोसाइड) ने वहां की संस्कृति-विशेष के कला-साहित्य का भी मैं गंवाने जा रहा था जीवन
निर्ममतापूर्वक दमनकर उसके 'कल्चरल जीनोसाइड' को अंजाम पहचान लिया जा सकता था
दिया। विस्थापन की इन दुःखभरी विद्रूपताओं पर पूरी दुनिया में नदी तटों पर खड़े
क्लासिक और मार्मिक साहित्य रचे गए, उसको कलात्मक सूने बदहाल घरों की किसी भी
अभिव्यक्तियाँ मिलीं। इस क्रम में देखने वाली बात यह है कि इसका अँधेरी खिड़की से आ सकती थी गोली
भारतीय काव्यचित्त जितनी उदात्तता, कलात्मकता और प्रज्ञा के और पुल से
साथ कवि अग्निशेखर के काव्य में मिलता है, वह समकालीन अन्य कविता संग्रह के साथ
हिंदी कवियों में विरल है। (कश्मीर) घाटी के जलावतनी की मेरी लाश भी नदी में गिर जाती
अस्मिता और वस्तुसत्य की जो तस्वीर इनकी कविताओं में मिलता
है, वह उनके कद को एक चौड़ा पाट प्रदान करता हुआ और एक कितना अच्छा होता
वैश्विक फलक तक ले जाता हुआ प्रतीत होता है। गोकि, ज़मीन मैं घुल जाता नमक की तरह
और चीज़ों के छूट जाने की जो स्मृतिशेष हैं,उससे कवि के अंदर जो नदी के मौन में
'नॉस्टेल्जिया' उत्पन्न होता है, उस विषाद मात्र से ही उत्कृष्ट

yegh जुलाई से सितंबर 2023 n 211


यह विस्थापन के भीतर एक दूसरे विस्थापन के दर्द की ओर कविता प्रतिमानों एवं काव्यात्मक संवेदनाओं के काफ़ी क़रीब ले
इशारा करता है, जहाँ अपने वतन में टिकने के हालात नहीं है, कवि आती हैं। अग्निशेखर के कवि का यह गुण शिल्पसौंदर्य और
अपने किताब के लोकार्पण को अपनी ज़मीन पर गया हुआ है, पर भावसौंदर्य दोनों ही दृष्टियों से अनूठी, महत्वपूर्ण और रेखांकित
ज्यादा देर वहां पुल पर उसे रुकने की इजाजत नहीं है। माहौल इतने करने के योग्य है। उदारहण स्वरूप उनकी एक कविता और
खराब है कि सुरक्षा बल जल्दबाजी करने का आदेश दे रहे। इस देखिए-
तरह मानव की स्वतंत्रता वहां पूरी तरह स्मृतिशेष ही हैं! वादियाँ विरसे में गांव-
वहाँ पूरी तरह बर्बाद हो चुकी है, वहां सब कुछ बदल चुका है। चारो पिता ने गर्व से दिखाई थीं मुझे/ गांव ले जाकर अपनी
ओर डर और आतंक का साया है। इस संदर्भ को और स्पष्ट करने जड़ें/ खेत खलिहान/ नदी, अखरोट/ और चिनार के पेड़/जो
के लिए 'जलता हुआ पुल' संग्रह की ही एक कविता 'यह हमारा छीन चुके थे पिता से/ विभाजन के बाद पाकिस्तानी हमले
जीवन' के कुछ अंश देखिए- में/लेकिन बचा लाए थे वह समूचा गांव/अपने हृदय में/ हम
हँसो कि जिन्होंने मजबूरी में बेच डाले शहर दर शहर बसते- उजड़ते/जहाँ भी रहे/ स्मृतियों में रहे
खेत,पेड़ और अस्थियाँ पुरखों की अपने गांव में/
उनके फटे तंबूघर बदले हैं
वृद्ध आश्रमों में पिता ने दिया यह विरसा/ एक दिन मुझे सौगंध के साथ/
....... कि कभी ना भूलू में अपनी जड़ें/जनपद अपना/नहीं तो/
अरे हँसो वह स्वीकार नहीं करेंगे/तर्पण मेरा
टूटी खिड़कियों से उगी घास
या वीरान अधजले घरों क्या यह पिता को था एक और/जलावतनी का पूर्वाभास/
खंडित देवालयों पर क्या वह देख रहे थे/ खोदी जा रही हमारी जड़ें/ मालूम
या बदले जा चुके था उन्हें/ स्मृति और एक सोंधी महक़ मातृभूमि की/रखेगी हमें
हमारे काव्यबिम्बों, प्रतीकों, उपमाओं जिंदा/खानाबदोश बरसों में/
रोजमर्रा के मुहावरों पर
मैं लड़ता रहूँगा पिता/ स्मृतिलोप के खिलाफ/ और पहुँचूँगा
इन कविताओं में विस्थापन की संवेदना केवल एक 'नॉस्टेल्जिया' एक दिन/हजार हजार संघर्षों के बाद/अपने गांव की नदी
भर नहीं है। विस्थापन की मार इतनी गहरी है कि केवल लोग पर/ बुलाऊँगा तुम्हें पितृलोक से/ चिनारों के नीचे/ पिलाऊँगा
ग़रीब-अशक्त ही नहीं हुए, धार्मिक आस्थाओं के केंद्र यानी अंजुरी भर-भर तुम्हें/ वितस्ता का जल
प्रार्थनाओं की जगह और पूजाघर भी खंडित हो गए। उसी प्रकार,
हमारे काव्यबिम्बों, प्रतीकों, उपमाओं और रोजमर्रा के मुहावरों पिता में सांस सांस जी रहा हूँ/अपना गांव/तुम स्वीकार
बदल जाने का अर्थ कितना गहन-गंभीर है यहाँ! साहित्य भी दासता करो मेरा तर्पण।
और मोहताज के शिकस्त हो गए। अजगर के मुँह में रुक रुककर (काव्य संग्रह जवाहर टनल से)
हिलती हुई निगले जाने वाले निवाले के अंतिम अंश सरीखे बिम्ब यह अकेली कविता 'कल्चरल जीनोसाइड' में निगल लिए गए
को देखिए! वीभत्सता को रेखांकित करने के इतने सुघड़ बिम्ब एक अपनी सांस्कृतिक धरोहरों को वापस लौटाने के लिए लिखी गई वह
ही वाक्यांश में सांस्कृतिक संहार को सलीके से व्यक्त कर रहा है। स्वप्न-काव्य है, जिसके मिथक और फैंटेसी हमें भीतर तक
अग्निशेखर की कविताओं के जलावतन पीड़ितों के होमलैंड की आलोड़ते ही नहीं, उस लोकचेतना से, उस मिट्टी से जोड़ते हैं जो
हालातों को जब यूरोप एवं बाहरी देशों की साम्राज्यवादी ताक़तों भारतीय होने की थाती है और जिसकी जद्दोजहद और प्रतिबद्धताएँ
द्वारा ध्वस्तीकरण के पश्चात शरणार्थियों के हालातों से तुलना करेंगे कवि को एक वैश्विक आयाम देने से नहीं चूकती। ■■ n
तो आपको लगेगा कि ये आपस में काफ़ी मिलते-जुलते हैं। इस तरह संपर्क : जिला शिक्षा पदाधिकारी का कार्यालय,
अग्निशेखर की कविताओं में विस्थापित-पीड़ितों एवं नागरिकों की नया समाहारणालय ब्लॉक बी, द्वितीय तल, पोस्ट–छत्तरमांडू्र,
अवस्थितियाँ जिस प्रकार चित्रित-व्यंजित होती हैं, वह उनकी रामगढ़ (झारखंड)-825101
कविता-प्रतिमानों को दुनियाभर के विस्थापित मशहूर कवियों के मो. 7004353450)

212 n जुलाई से सितंबर 2023 yegh


n महत्तम : योगेंद्र कृष्णा

मनुष्य और मनुष्यता की पुकार


उत्कर्ष

कविताएँ जीवन के महीन रेशों का रहस्यबोध बयान दर्ज़ कर जाता है।


करती हैं तो साथ ही उस आख़िरी आदमी के सत्यों उनकी कविता 'पिता' किसी अपने की जीवन-
का उद्घोषक भी होती हैं। निरंतर पथरीले होते जा स्मृति से सीखने की ओर बरबस लिए जाती है, जहाँ
रहे समय में, जीवन की गहराई से भरी कविताएँ कवि याद करते हैं कि पिता का समय आज की
मनुष्यता का हाथ मजबूती से थामती हैं। ऐसे में, यह तरह इतना विद्रूप नहीं था कि झूठ को सच की तरह
कहना न होगा कि योगेंद्र कृष्णा की कविताएँ आदमी बतलाया जाए। वह आगे कहते हैं कि-
के सहजबोध और आत्मसंघर्ष को बख़ूबी दर्ज़ करती इतना बौद्धिक और क्रूर नहीं था
हैं। एक ऐसे समय में जब अधिकांश कविताएँ बयानबाज़ी के उनका समय
अतिरेकों और सुंदर विशेषणों की अतिशयोक्ति से भरी हुईं हैं और कि सड़क किनारे
इस तरह जीवन की सहजता से दूर जाती हुई दिखाई दे रही हैं, योगेंद्र किशुन राम मोची की दुकान पर
कृष्णा की कविताओं में हमें ऐसे सूक्ष्म दृश्य सहज ही मिल जाते राम-रहीम के साथ चाय पीते ताश खेलते
हैं, जिन्हें पढ़कर जीवन की सरल व्याख्या की ओर लौटना संभव हँसते-बतियाते
हो जाता है। योगेंद्र कृष्णा का रचना-संसार जिन प्रकाशित कृतियों उन्हें महसूस होने लगे
में मौज़ूद हैं, वे हैं- 'खोई दुनिया का सुराग', 'बीत चुके शहर में', कि वे कितने क्रांतिकारी थे
'कविता के विरुद्ध', 'शब्द चुक गए थे जहाँ', 'जहाँ कोई बिल्ली यहाँ पिता के समय से आज के छूट गए समय की असाधारण
आपका रास्ता नहीं काटती' (सभी कविता संग्रह), 'संस्मृतियोँ में अभिव्यक्ति है। पिता को याद करते हुए कवि का नाॅस्टेल्जिया वह
तोल्स्तोय' (हिंदी अनुवाद), 'गैस चैंबर के लिए कृपया इस तरफ खोखला नास्टैल्जिया नहीं है कि जिसमें यादों को बाज़ार नए-नए
: नाजी यातना शिविर की कहानियाँ' (तादयुष बोरोवस्की की डिब्बों में भरकर बेचता है। कवि की वैचारिकी इतनी सुदृढ़ है कि
कहानियों का हिंदी अनुवाद), 'लव इन पोस्टस्क्रिप्ट' (अंग्रेजी- पुरखों की यादें उनका वर्तमान समृद्ध करती हैं और जीवन के
कविताएँ), 'द होल एंड सोल' (अंग्रेजी लघु-उपन्यास) आदि। सहज मूल्यों के सूखते पौधे को पुनर्नवा कर जाती है। कवि इसी
उनकी रचनाएँ जीवन के विविध अनुभवों और उनकी संजीदगी बहुमूल्य पूँजी को अपनी कविता 'कबाड़ीवाला' में भी समेटते-
का सहज कलेवा हैं। उनकी कविताओं का काव्य-स्थान प्रकृति, सहेजते हैं। योगेंद्र कृष्णा की कविताओं को पढ़कर यह भी लगता है
ग्राम्य-जीवन, नगर, इमारतें, खँडहर, अंतर्मन, नदी आदि को स्पर्श कि उनकी दृष्टि पड़ताल की भी दृष्टि है। अराजकता और भ्रष्टाचार
करने की अनुभूतियों में बसा-सहेजा गया है। की पड़ताल। खो रही संवेदना और मिट रहे स्मृति-चिन्हों की
योगेंद्र कृष्णा की कविताएँ वहाँ निर्मित हुई हैं, जहाँ एक यात्री पड़ताल। यह पड़ताल बहुत मानीखेज़ इसलिए भी है क्योंकि एक
अपने घर तो लौटता है, पर अपनी यात्रा के अनुभवों को अपने कवि चुपचाप अपना काम बड़ी ईमानदारी से कर रहा है। आडंबर
मन-आँगन में कुछ ऐसे भर लेता है कि उसके कारण-प्रभाव और और दिखावटीपन के शोरगुल से दूर कहीं अपनी आवाज़ के धागे
उसकी वस्तुस्थिति की पड़ताल से ख़ुद को अछूता नहीं रख पाता में जीवन की सहज बुनाई बुन रहा है और यह कहन खँडहर के
और जो भी सोचता-विचारता है, उसे अपनी रचनाओं में बहुत मलबे में से खोजकर हमें दे रहा है कि-
तादात्म्यपूर्वक अपनी सुदृढ वैचारिकी की संश्लेषित प्रतिध्वनियों में पुराने शहर के खंडहरों से उठती

yegh जुलाई से सितंबर 2023 n 213


या हवा के साथ गूँजती एक विस्तृत संसार रचती हैं। इन कविताओं का फॉर्म यह भी दर्शाता
पूर्वजों की एकाश्म आवाज़ों के बीच है कि कवि शब्दों के अतिरेक से परे अपनी बात को बिलकुल
कितना कठिन है सीधे और साफ़गोई से कह रहे हैं और जो पाठकों से बिना किसी
किसी एक आवाज़ को पकड़ कर अतिरिक्त के सीधे बातचीत करती हैं। कविताएँ कविमन का पाठक
उसमें ख़ुद को ढूंढ पाना से संवाद ही तो हैं, वह जो महसूसता है, वह भाव और संवेदना
किसी भी गंभीर कवि का जीवन-कथ्य उन बहुत ज़रूरी छोटी- अपने आसपास भी देखना चाहता है। कवि का स्वप्न उस आदर्श
छोटी चीज़ों की सारगर्भितता को रेखांकित अवश्य करता है। साथ समाज का स्वप्न है, जहाँ ईमारतें आदमी की साधारण जरूरतों से
ही इन कविताओं को पढ़ते हुए लगता है कि कवि अपनी यात्रा पर इतनी ऊँची न हो जाएँ कि इंसानियत का कोई वज़ूद ही न रहे।
है, बिलकुल अपनी दृष्टि से चीज़ों को बहुत नज़दीक से देखते हुए कवि का कथ्य मार्क्सवादी विचारों का वह उद्घोष है, जिसमें
अपने अंतर्मन को शब्द दे रहा है। यह इसलिए भी ज़रूरी है क्योंकि समाज के हत्यारे ताड़ लिए जाते हैं और वंचितों की चेतना कवि
साहित्य में बाह्य-प्रभाव आसानी से देखे और महसूस किए जाते हैं की चेतना से आकर मिल जाती है। अपनी कविता 'सभ्य हत्यारे'
और साथ ही कविताएँ बिना किसी तैयारी के ही बस कुछ जल्द कह में आततायी का बेबाक़ चित्रण ध्यान देने योग्य है-
देने भर की भी समस्या से दो-चार होती रही हैं, वही जिसे आमतौर हत्यारे अब सफेद कॉलर में
पर हम सपाटबयानी भी कहते हैं। कवि का शिल्प और कहन सरेआम पहचान के
सहजता के उस ढाँचे में है, जहाँ कुछ भी अतिरिक्त ऐसा नहीं, बाहर आने लगे हैं
जो लालित्यपूर्णता के पूर्वाग्रहों से आच्छादित हो। योगेंद्र कृष्णा की हमारी कमाई रोटियाँ
कविताएँ उस यायावर की भी अभिव्यक्ति हैं, जो अपनी यात्राओं से अपनी झोली से निकाल
हर बार कुछ ज़रूरी लेकर लौटता है, साथ में अपना आत्मचिंतन हमें ही खिलाने लगे हैं
भी। यह आत्मचिंतन ही है कि वह दुनिया के उन सवालों से घिरा
है और लगातार उन सवालों से वाकिफ़ हो रहा है, जो वर्तमान और वे सभ्य जुबान में
भविष्य के पाठ्यक्रम से जबरन बाहर कर दिया जा रहा हो; जब बच्चों को उनकी पसंद की
भी जीवन का स्वरूप बदल जाता है, कविमन व्यथित हो जाता है। लोरियाँ सुनाने लगे हैं
कवि का हृदय गाँव की ओर भी लौटता है और शहर की उन ऊँची हमारे भरोसे जीतकर
इमारतों में पलते अकेलेपन की बदहवासी का रहस्योद्घाटन भी हमारी ही ज़मीन पर
करता है। अँधेरे और रोशनी की बाइनरी को डाइलेक्टिकली देखने अपनी इमारतें उठाने लगे हैं...
की कोशिश करते। रोशनी के मोहजाल को भी प्रकट करते और यहाँ कवि की चेतनाशील दृष्टि उन हत्यारों का पर्दाफाश करती
अँधेरे को बिलकुल निकट से जानने की कोशिश करते हुए, दोनों है, जिसके बारे में अडोर्नो और ज़िज़ेक जैसे विचारक हमें चेताते रहे
के आदिम रूपों के पास लौटते हुए भी, जिसमें उनकी व्याख्याओं हैं। इसी कविता में कवि आगे यह कहते हैं कि हत्यारे हममें इतने
में कुछ भी मिलावटी न हो। घुल गए हैं कि वे ‘हमारी ही ज़ुबान में/ आदमी कहलाने लगे हैं...’
इन कविताओं का शिल्प भी उतना ही सहज है, जितना लिखने और यह सत्यान्वेषण हर कालखंड में सबसे ज़रूरी रहा है। वैसे भी
का फॉर्म या यूँ कहें कि ढाँचा। अलंकतृ भाषा से कवि दूर है, कवि हमेशा जनता के उद्घोषक की महत्ती भूमिका में ही अपनी
क्योंकि वह सौंदर्यबोध से कहीं अधिक सत्यबोध का कवि है। ये तपस्या करता है। कवि जाँचता है कि धुंध क्या सही में धुंध ही है
कविताएँ जो केवल क्राफ्ट से नहीं, मन की उलझनों और सवालों या धुंध का फैलाया भ्रम। योगेंद्र कृष्णा जन-सरोकारों के निकटवर्ती
के ईमानदार मंथन से मिलकर बनी हैं, जो महान पंक्तियों के प्रभाव सतहों पर चलते हैं और उनकी कविताएँ अराजकता और निरंकुश
में नहीं, आसपास की बेचैन उदासी की ठहरी हुई परछाइयों से शक्ति-समूहों पर लगातार प्रहार करती हैं।
मिलकर बनी हैं। लंबी पंक्तियों की जगह कवि कम शब्दों में अपनी निराशा और दुःखों को दर्ज़ करते हुए कवि उम्मीद का हाथ
बात कहने का वह ज़रूरी शिल्प लिए हुए हैं। उनकी कविताएँ कभी छोड़ते हुए नहीं दिखाई देते। वह जानते हैं कि मानवता की
जैसे 'पिता ने कहा था', 'अतिथि', 'रोशनी के लिए', 'मजबूरियाँ', रोशनी झूठ और फ़रेब के धुएँ की वज़ह से भले ही थोड़ी धूमिल
'गलीचे', 'कमियाँ', 'लोग कहते हैं', 'मेरा पता', 'रोशनी के पैरहन दिखाई दे, पर सच्चाई यही है कि जीवन की सड़क उसी रोशनी
में', 'वर्जनाएँ' आदि कम शब्दों में रची हुईं वो रचनाएँ हैं जो अपना से ओतप्रोत होती रहेगी। उनके सपने किसी को छोटा करके नहीं

214 n जुलाई से सितंबर 2023 yegh


बने हैं, बल्कि अपने विचारों की मजबूती से बने हैं। अपनी कविता
'ख़ुश हूँ कि' में वह कहते हैं-
ज्ञान विज्ञान की कोई समझ नहीं मुझे
और न ही सभ्य होने का कोई गुमान
कि भीतर-भीतर दाह हो
और चेहरे पर मुसकान

ख़ुश हूँ कि
हमारे सपनों की
ऊँचाई भी बस उतनी
कि थोड़ा उचक कर भी
अपने हाथ से छू लूं आसमान
उम्मीद की बाँह थामे कवि की पगडंडियों पर चलना हमें
शहर के बियाबान से दूर वहाँ लिए जाता है जहाँ कवि अपने
मन को सहृदयता और प्रकृति-प्रेम के अलौकिक दृश्य के निकट
बसाए खड़े हैं। कवि वह जगह खोजने में सफल होते हैं, जहाँ पर
प्रेम अपने आदिम परिपाटी में अब भी अक्षुण्ण है। अपनी कविता
'उम्मीदें' में कवि कहते हैं-
...कि चिड़ियों के चूजों की
लगातार चीं-चीं सुन के बुलाने पर भी नहीं आते थे उनके कभी पास। समय की ऐसी
जब उधर देखता हूँ कि लिखाई और परिस्थितियों का यह ऐसा खेल कवि की इस कविता
अभी अभी कोई चिड़िया में दर्ज़ होता है, जब जीवन बीतने के बाद भी जीवन अपनी ऊष्मा
चोंच में दाना लिए पेड़ पर बिखेर रहा है, पर विडंबना ऐसी कि जब तक जीवन रहता है, हम
हवा में काँपते अपने घोंसले में आदमी को कितना समय दे पाते हैं!
लौट आई है सुरक्षित कवि के यहाँ यादों के ऐसे पैरहन मौज़ूद हैं, जो आमतौर पर
दर्ज़ किए जाने से बरबस ही छूट जाते हैं। जीवन जिन स्मृतियों से
तो मेरा यक़ीन और भी दृढ़ हो जाता है मिलकर बना है, वे स्मृतियाँ अपनी सम्पूर्ण सजीवता में पाठकों
कि कठिन नहीं है गाढ़े समय में भी से संवाद करने में सफल होती हैं। यह कहना भी ज़रूरी जान
प्रेम को बचाए रखना पड़ता है कि कवि के विषय सुदूर नहीं हैं, कवि की कविताई
कि उतना भी उदास नहीं है उनके आसपास घटित होती घटनाओं और समय की चैतन्य व्याख्या
उदासी का कोई भी मौसम संप्रेषित करती है। बिलकुल अपने पास के चित्र और पुरखों की जमा
कवि कहीं-कहीं भावों की ऐसी तीक्ष्ण मार्मिकता बटोरते हैं कि पूंजी। बिलकुल अपने भीतर की छटपटाहट और वेदनाओं के स्वर।
कविता की पंक्तियाँ पूरी होने के बाद भी मन से बीत नहीं पातीं, ये स्वर आजकल बहुतेरे नहीं हैं, सहजता से प्राप्य नहीं हैं और
साथ रहती हैं और परेशान भी करती हैं, समाज के कटु सत्यों को किसी खँडहर की तरह ही परित्यक्त हैं, लेकिन इन कविताओं में
बिलकुल पास जाकर जानते-समझते हुए। यही कविता की वह उन स्वरों की छाप गहरी है। इन कविताओं में आज के युवाओं के
बलवती संभावना भी है कि कविता अपनी छाप इस तरह छोड़े कि लिए ढेर सारा ज़रूरी कहन उपस्थित है, जैसे आधुनिकता की प्रबल
मन का शीशा एकदम से धुल जाए और सत्य सशरीर सदृश हो रोशनी में अपना चेहरा भूल गए लोगों के लिए एक दर्पण की तरह।
उठे। 'श्मशान में पिता' मार्मिकता और समाज के खोखलेपन की हर पल बदल दिए जा रहे नामों और पतों की बात को बहुत गहराई
ऐसी ही आपगोई है। कविता में वह दृश्य, जब जाड़े में जलती चिता से रेखांकित करती उनकी कविता 'किस नाम से पुकारूँ तुम्हें' थोड़े
के आसपास लोग आग तापने जमा होते हैं, वे वही लोग हैं जो पिता व्यंग्य, थोड़ी सहानुभूति और थोड़ी चिंता का सुभग मेल है।

yegh जुलाई से सितंबर 2023 n 215


अब इतने दिनों बाद कहाँ ढूढं ंू जनचेतना में बसने का होना चाहिए। कवि के कविता-संसार में
किस नाम से पुकारूँ तुम्हें यह बात भी प्रतिलक्षित होती है कि कविता का कथ्य सतही भावों
बहुत कुछ बदल गया है इस बीच से परे उसके अंतस में भावनाओं को अभिव्यक्त कर सके। उनके
तुम्हारे शहर की तरह आसपास बहुत आम चीज़ें हैं, जो अमूमन ही नज़रों से छूट जाती
कहीं तुम्हारा नाम भी हैं, लेकिन कवि की दृष्टि से वह दूर बिलकुल भी नहीं है। कवि के
तो नहीं बदल गया होगा भीतर एक प्रार्थना है जो जीवन को जीवन के उसी सादे वस्त्रों में
इस कविता में ज़रूरी प्रश्नचिन्ह मौज़ूद हैं। एक सवाल सत्ता देखने की भावना से संचालित है और कवि को अपने आसपास की
से, जो जगहों के नामों में परिवर्तन तो कर देती है, लेकिन यह नहीं स्थितियों का बदलना विचलित करता है। कहना न होगा कि कवि
समझती कि उन बदले गए नामों के साथ जुड़ी स्मृतियों का क्या का यही विचलन उन्हें उनके एकांत में लिए चला जाता है, जहाँ
होगा? अब वह किस पते पहुँचेंगी? कवि की दृष्टि वहाँ पहुँचती है केवल कवि-मन है और परिस्थितियों को देखने का सजग परिश्रम।
जहाँ नाम का बदल दिया जाना, महज एक साधारण सी प्रक्रिया कवि के डिटेल्स मनुष्य की लालसाओं की विद्रूपता का नक्शा
नहीं, जिससे कोई फर्क़ न पड़ता हो, बल्कि यह उस नाम से जुड़े बनाते हैं।
अपनापे का और उन ज़रूरी एहसासों की जबरन विदाई भी है। देखो तो
स्मृतियों का विस्थापन और उसका अंत, समय के केवल एक शीशे की ऊँची मीनारों-गुम्बदों से
हिस्से का अंत नहीं, बल्कि एक भरे-पूरे ट्रेडिशन का क्षरण भी होता कितने लहूलुहान हो चले हैं
है। सत्ता जुड़ाव नहीं, बस शक्ति-स्थापत्य और शक्ति-संतुलन हमारे शहर के आसमान
जानती है और आदमी के जीवन में जिस कारुणिक ह्रास का इल्म बारिश की रक्ताभ बूँदों में
उसे नहीं होता, उसे भी यह कविता बहुत ही बारीकी से उजागर काँच की किरचें भी आने लगी हैं
करती है। प्रेम कवि के हृदय में सामीप्य की दैहिकता से नहीं, अपनापे के
और मैंने ही तुम्हें बार-बार ताकीद की थी साझेपन से निर्मित होता है। उनकी कविता 'साझा किरदार' अपने
खिड़की के बाहर ज़रूर देखती रहना एकाकीपन के निरीक्षण के इतना निकट है कि वह अपनी कल्पना
और मियाँ का बाड़ा हॉल्ट पर उतर जाना बिना प्रेम के कर ही नहीं सकता। प्रेम जिसमें दो मन समान रूप से
ट्रेन आई और गुज़र भी गई साझीदार हों कि दुख-सुख की के रास्ते एक-दूसरे से सहज मिलते
मैं प्लेटफॉर्म पर बदहवास हैं। साथ ही वह अपने साथी के मन के बहुत निकट जाना चाहता
इंतजार करता रहा है ताकि वह उसके मन को ठीक-ठीक जान सके और समझ सके।
और तुम 'मियाँ का बाड़ा' ढंढू ती रही यहाँ भी कवि सहज है और इतना कि वह प्रेम के साथ बैठा है
बदहवास राजदरबारियों की जिद के आगे अपने पूरे समर्पण के साथ। उस साथ का पा लिया जाना कवि के
हमारी-तुम्हारी बदहवासी लिए अपनी उस सारगर्भित जिजीविषा का संवाहक़ बनता है। कवि
और जिद का कोई मोल कहां! का प्रेम और साहचर्य के प्रति आग्रह विशेष्य और विशेषणों की
'चिंतामणि' में आचार्य रामचंद्र शुक्ल कविता की साधना को अतिशयोक्ति से कोसों दूर सहज-मन-अनुरागी है।
भावयोग कहते हैं और यह भी कहते हैं कि कविता-सृजन की उन उपमाओं और रूपकों में नहीं
प्रक्रिया मन को लोक-सामान्य भाव-भूमि पर ले जाती है। योगेंद्र जो दुनिया भर के कवियों ने
कृष्णा की कविताओं को भी पढ़कर लोक-सामान्य की दुनिया से तुम्हारे लिए रची हैं
मन स्वतः ही अवगत होता है और अपने पूरे मनोयोग में कवि-
मन से जुड़ता है। कविताओं से जुड़ाव महसूस कर पाना कवि के मैं पाना चाहता हूँ तुम्हें
रचना कर्म की प्राथमिक आवश्यकता है। मशहूर उपन्यासकार ई. बस तुम्हारे अपने किरदार में
एम. फॉर्स्टर भी 'कनेक्ट' के साहचर्य को तरजीह देते हैं क्योंकि कवि का आशावान मन मुक्तिबोध के शब्दों में उस मेहतर की
रचनाकार जिस संवेदना से स्थितियों को देखता है, वह संवेदना लगातार खोज में है, जिससे दुनिया बेहतर हो सके। कवि स्थितियों
अगर पाठकों तक भी पहुँचे तो भाव-चित्रों का विस्तार एक बड़ी की व्याख्या दूर से करता नहीं जान पड़ता, बल्कि अपने मौन में
जनचेतना को स्फूर्त करता है। साहित्य का मूल-लक्ष्य भी तो इसी करते मंथन कि हालात ऐसे क्यों हैं। उसकी चिंता वैश्विक है,

216 n जुलाई से सितंबर 2023 yegh


समसामयिक है और सबकुछ समाहित है उसमें। जंगल, ज़मीन,
यादें, औरतें, बच्चे, शहर, गाँव सबकुछ। अपनी कविता 'औरतें घर
होती हैं' में कवि पुरुषों से जैसे सीधे-सीधे संवाद कर रहा है कि-
उनकी उदासियों में
झर कर गिरने लगती हैं
छतों की तुम्हारी सुर्खियाँ

और उनके नहीं होने से


पारदर्शी हो जाती हैं
तुम्हारे घर की दीवारें
यह कविता एक ज़रूरी दस्तावेज़ है उस सत्य को और स्थापित
करता हुआ कि घर में जो घर होता है, वह तभी तक घर होता है,
जब तक उसमें औरतें होती हैं और उनकी स्वछंद मुस्कराहटें। यह
कविता हृदय के भीतर अपनी छाप कुछ ऐसे छोड़ती है कि स्त्री-
विमर्शों के प्रगल्भ ढाँचे से इतर अपनी बात बहुत स्पष्टता से रखती
है। बहुत सपाट और सीधे तरीके से यह कहते हुए कि घर का
अस्तित्व औरत के मन-आँगम में किस कदर बसता और फलता-
फूलता है। यहाँ भी कवि की वह महसूसियत ही है, जिससे वह घर
को क़रीब से जानता है, उसके सच्चे अर्थों में। हैं। यह कविताएँ आत्मसंवाद भी हैं और आत्मकथ्य भी। कवि ने
कवि की कविताएँ अपने कहन की पारदर्शिता की बेबाक इबारत जो भी जीवन-मूल्य में बटोरे हैं, उसकी झलकियाँ इन कविताओं
लिखती हैं। 'बाज़ार में मसीहा' मन को उद्वेलित करती है और की खिड़की से साफ़ दिखाई देती हैं। यह हमारे समय की ज़रूरी
झकझोरती भी, क्योंकि समाज का कटु सत्य इस कविता का सत्य कविताएँ इसलिए भी हैं क्योंकि यहाँ आत्ममुग्ध सत्ता के प्रपंच प्रकट
बनकर सामने आ खड़ा होता है और इसे पढ़ने के बाद मंटो की भी होते हैं और ध्वस्त भी। जो भी तथाकथित सुंदर और भव्य है,
याद आती है, उसी साफ़गोई से कवि आबादी के उस हिस्से में ले उसकी तमाम परिभाषाएँ टूटती हैं।
जाते हैं, जहाँ रूह आदमी की पशुता से अभिशप्त एक ऐसी दुनिया मैं वैसी तमाम सुंदर चीज़ों को
में ज़ब्त है, जिसकी बात कोई नहीं करता और कवि उस औरत भूदृश्य का हिस्सा नहीं मानता
की दुनिया का चित्र खींचते हैं, जिसे देखकर यथार्थ-बोध मन की जिनके स्थापत्य में
दीवारों पर पसर जाता है। इस कविता में उस औरत की चेतना क्रूरता के अदृश्य हाथ हों
है, जिसे यह खोखला समाज औरत की अस्मिता से जोड़कर तो
कभी देखता ही नहीं। एक ऐसा रुदन समाया हुआ, जो आदमी की मैं महलों हवेलियों की
मलिन शालीनता को उघेड़कर रख देता है और एक गहरी कहानी उस भव्यता को नकारता हूँ
रचता है, वेदना और उस चिर-संघर्ष की, जिसे ख़त्म होना चाहिए। जिसकी नींव में दबी
योगेंद्र कृष्णा की कविताओं में सच की परतें समाई हुई हैं, कुछ मासूम बेचैन
जिन्हें जानने के लिए आत्ममंथन करना बहुत आवश्यक होगा। अनसुनी पुकारें हों
इन कविताओं की दुनिया में जाना दरअसल उस जहाँ में भी जाना
है, जहाँ रखे आईने आदमी के अलग-अलग सत्यों को ठीक-ठीक मैं हासिलों के
दिखाते हैं। इन कविताओं में आत्मस्वीकृति परत-दर-परत जज़्ब हर उस शिखर पर खड़ा
है। इनका पाठक होना स्वयं के मन को पढ़ना भी है और सारी एक प्रश्नचिह्न हूँ जहाँ
बंद खिड़कियों को खोलने का आह्वान भी। कवि के यहाँ कविता पहुँच कर लोगों ने
की समृद्ध परंपरा अपने समय को दर्ज़ करती हुईं विस्तार लेती अपनी निष्ठाएँ गँवाई हों

yegh जुलाई से सितंबर 2023 n 217


कहना न होगा कि कवि का एकांत वैभव और विलासिता के अपने सहज वस्त्रों में और आपसी सौहार्द के एकमात्र आवरण में
उन मठों और प्रतिमानों से कोसों दूर बिलकुल अपनी ज़मीन को है।
सहेजने का एक ज़रूरी संकल्प है। इन कविताओं में सत्य भीतर तुम सभ्य सुशील और
तक उतरने और तथ्यों का तटस्थ आँकलन करने का आग्रही है। दुनिया की नजरों में महान होना चाहते हो
कवि की राजनैतिक चेतना उनकी कविता 'हासिलों के विरुद्ध' में घर-गृहस्थी और दुनियावी व्यवहार में
स्पष्ट रूप से हाशिये पे खड़े उस आदमी के मन के साथ अविचल एक निपुण इंसान होना चाहते हो
खड़ी है, चकाचौंध के साजिशों को पहचानते हुए, वह फ़रेबी रोशनी
जो “चाँदनी धूप और बारिश को भी/ अपने पक्ष में घसीट लाना मैं इन सब से बहुत दूर
चाहती हो...”। इन कविताओं में आडंबर के छलावे ध्वस्त होते हैं सभ्यता के उस पार बसा
और मार्क्सवादी चिंतनशीलता इनके कथ्य की अंतर्धारा में अविरल आदिम वह गाँव होना चाहता हूँ
बहती दिखाई देती है। उनकी कविताएँ वहाँ जाती हैं, जहाँ विकास
एक औचक मृगतृष्णा और निरापद बंजर के सिवाय कहीं और नहीं जहाँ की आपसदारी
ले जाता। 'ऊँची इमारतों में पलता अकेलापन' एक और ऐसी ही का रंग ख़ून-सा नहीं
कविता है, जहाँ सुखों के तमाम आडंबर सिवाय अकेलेपन की नदी के मीठे पानी-सा
खोह को और विशाल करने के सिवाय कुछ और नज़र नहीं आते। हवा की अदृश्य रवानी-सा
महानगरों के जीवन की कड़वी सच्चाई को उजागर करती हुई ये लरजता हो
कविता गहरे दुःख का मार्मिक वृतांत है, जहाँ विदेश में रहनेवाले
बेटे के घर लौटने पर कई महीनों से मरी हुई माँ का भयावह सत्य जहाँ की नदियाँ और हवाएँ
आक्रांत कर देता है, स्तब्ध करता है और एक अंतहीन मौन छोड़ अपनी स्वाभाविक गति और प्रवाह में
जाता है। ऐसे में कवि का मन एक ज़रूरी बात दर्ज़ करता है- हमारी सच्ची खुशहाली के गीत रचती हों
विकास यात्रा की लंबी छलाँग लगाते कवि के उस आदर्श जीवन की कल्पना और उस ओर लौटने
अलंघ्य बीहड़, जंगल पहाड़ का वह सुंदर आग्रह। मनुष्यता के गझिन उजालों से भरा हुआ।
और घाटियाँ पार करते हुए पत्थरों का अजायबघर नहीं, बल्कि हरियाली के गलीचे। जहाँ
हम उन रास्तों और पुलों को भी सजीव हो मन, अवसादों के अंधाधुंध निर्माण से परे का मन-
ध्वस्त करते गए आँगन। जहाँ जिजीविषा लोक ले हमें। इन कविताओं में पर्यावरण
जो हमारे घरों तक लौटते थे के सरंक्षण का आलाप भी है और विस्थापन के दुःखों का झकझोरने
कवि के यहाँ जो भी सत्य हैं, वो पूरी ताक़त से हमें यह कहते वाला चित्र। कवि के यहाँ बहुत-बहुत शब्द नहीं, एक ऐसा फॉर्म है,
हैं कि कुछ बहुत ज़रूरी अख़बारों के इश्तेहारों के नीचे दबी और जो अपनी बात को कंडेंस्ड रूप में दर्ज़ कर रहा। कवि के भावचित्र
अट्टालिकाओं के नीचे दबीं कराहों की अनुगूँज में है। यह कविताएँ भले ही विषय-विषयाँतर में बहुत विविध न हों, पर कवि की उस
कवि की जिम्मेदारियों का एक महत्वपूर्ण उदाहरण हैं, जहाँ कवि- सूक्ष्म दृष्टि ने जो भी देखा है, उसे इतनी सहजता से सहेजना कि
कर्म इतना सचेत है कि उसके दृश्यों में कुछ भी मिथ्या अपनी सेंध अनुभवों का इतना प्रभावी विवरण, कवि को हमारे समय की एक
नहीं लगा सकता। कवि का दायित्व जीवन की सहज जरूरतों के बहुत महत्वपूर्ण आवाज़ के रूप में और एक किस्सागो-कवि की
लिए संघर्षरत उस कतार में खड़े आखरी आदमी की बेहतरी की चेतनाशील अनुभूतियों के मानीखेज़ दस्तावेज़ों के रूप में भलीभाँति
माँग से भरा है। योगेंद्र कृष्णा की कविताओं के कहन में किसी एक स्थापित करता है। इन कविताओं को पढ़कर कवि की स्मृतियाँ हम
समय, व्यक्ति, जगह या स्थिति का वर्णन नहीं, बल्कि संवेदना सबकी स्मृतियाँ हो जाती हैं, यही कविता की सुंदरता है। n
की वैश्विक चेतना का आग्रह है। ये कविताएँ चुपचाप कुछ ज़रूरी
दर्ज़ करती हैं, इतनी विकलता और ईमानदारी से कि अपना प्रभाव संपर्क : स्नेही पथ, पटेल नगर,
मन पर गहराई से अंकित कर जाती हैं। प्रगतिशीलता के पूँजीवादी पटना, बिहार-800023
आखेट से दूर उस जीवन की कल्पना से भरी हुई, जहाँ आदमी मो. 7250448608

218 n जुलाई से सितंबर 2023 yegh


n महत्तम : लाल्टू

क्योंकि प्यार मेरा आख़िरी मक़सद है


लोकेश मालती प्रकाश

कुछ भी कहने से पहले यह स्वीकार करना ज़रूरी कविताएँ लिखता हूँ


लगता है कि यह एक कवि के कविता कर्म के बारे मेरा सपना शब्दों में उतरकर अक्षरों में
में किसी आलोचक का विश्लेषण नहीं है। यह एक हर अक्षर के अनंत बिन्दुओं में बिखरता है
पाठक की टिप्पणियाँ है जो कविता में ज़िन्दगी की
वो अभिव्यक्तियाँ ढूँढने की कोशिश करता है जिनको बार बार देखता हूँ
वह महसूस तो करता है मगर कह नहीं पाता। कई एक बड़ा शहर
बार ठीक से समझ भी नहीं पाता। महसूस किए गए बहुत बड़ा अँधेरा
ऐसे तमाम अहसासों की तड़प उसे भटकाती है। जितना बाहर, छोटा बच्चा खोया हुआ।
उतना ही भीतर। किसी नेब्यूला सा इंसानी ज़िन्दगी का जटिल (कविता-2, ‘एक झील थी बर्फ़ की’ संग्रह से, 1991)
ताना-बाना। जहाँ हर पल कोई तारा टूटता, और कोई तारा जन्म पिछले तीन दशक से भी ज्यादा वक्त से हिंदी साहित्य की
लेता। धर्म, राजनीति, संस्कृति से लेकर निजी रिश्ते, दोस्तियाँ,दुनिया में सक्रिय लाल्टू ने अपनी कविताओं में इंसान के वज़ूद में
प्रेम, सुन्दरता और अनगिनत गहन मनोभाव − ऐसा ताना-बाना पैवस्त इस बुनियादी ऊहापोह को मुकम्मल अभिव्यक्ति दी है। और
जिसके निर्माता हम हैं और भुक्तभोगी भी। सामूहिक। अकेले। एक इसमें ख़ास बात यह भी है कि ऐसा करते हुए वे दुनिया में बेहतरी
ऐसी विरासत जिसे व्यक्ति ने चुना नहीं। और इन सबके बीच एक की उम्मीद का दामन कभी नहीं छोड़ते। यह ख़ास इसलिए है
ज़िन्दगी जिसकी जिसकी कगार पर मौत रहती है जिसकी मौज़ूदगी क्योंकि अबूझ से लगने वाला ज़िन्दगी का प्रवाह कई बार हमें एक
हमारी आँखों से ओझल नहीं हो पाती और जिसे अकसर मन ऐसी दिशा में भी ले जा सकता है जहाँ न्याय-अन्याय के बीच हमारी
स्वीकार भी नहीं कर पाता। पक्षधरता किसी आध्यात्मिक उच्छ्वास में खो जाए। लाल्टू की
बहुत बड़ा शहर कविता लगातार भरोसा दिलाने वाली कविता है कि संभावनाओं के
बहुत बड़ा अँधेरा रास्ते ख़त्म नहीं हुए हैं और ना ही ख़त्म होते हैं, चाहे क्रूर तानाशाह
छोटा बच्चा खोया हुआ बड़ी अँधेरी भीड़ में व सामाजिक व्यवस्थाएँ कितना भी गतिरोध पैदा करने की कोशिश
मुझे यह सपना बार बार आता है क्यों ना करें। इसकी बानगी देखिए–
दरख्त पर चढ़ जाऊँगी
अँधेरे से एक पतले धागे से जुड़े होने का एहसास कई क्योंकि प्यार मेरा आख़िरी मकसद है
बार होता है क्योंकि कस्तूरबा के बिना गाँधी की क्या औकात
कभी अँधेरे तक पहुँचने की कोशिश भी की है कि ग़ालिब की ख़लिश मैं समझती हूँ
महज संयोग है कि अभी तक किसी गड्ढे में गिरा नहीं क्योंकि सावित्री फुले और फातिमा शेख ने प्यार बाँटा था
दरख्त पर चढ़ कर देखूँगी कि
किसने दरख्तों के ख़ून से कागज के पहाड़ बनाये एक दिन नफ़रत ढूँढे नहीं मिलेगी,
जिनमें मुझे अँधेरे में वापस लौटाने के समीकरण लिखे हैं कोई नहीं पूछेगा कि कौन किसका है,
मैं बार-बार वह सपना देखता हूँ हर कोई ख़ूब सारा खा पाएगा,

yegh जुलाई से सितंबर 2023 n 219


हर कोई खुशी के गीत गाएगा– दुनिया से अपने गहरे जुड़ाव भाग रहे हैं या भगाए जा रहे हैं। क्रूर
दरख्त पर चढ़ जाऊँगी सत्ताएँ हमारे ख्वाबों को मुल्तवी करती जा रही हैं। हमें आज्ञाकारी
क्योंकि अपनी ऊँचाई में वह और ग्रहों को चूमता है मशीन में तब्दील करती जा रही हैं।
वहाँ लोगों को लव जिहादी कह कर मारा नहीं जाता है अपनी कविता ‘मुंशीगंज की वे’ में लाल्टू बड़ी बारीकी
वहाँ इरोम को आफ्स्पा के ख़िलाफ़ से इस अमानवीयता को उभारते हैं जो सभ्यता में इस कदर
अनशन नहीं करना पड़ता रची-बसी है कि इंसान की नियति जैसी बन गई है। कहना
क्योंकि ऊँचाई से दिखता है कि भविष्य हमारा है। ज़रूरी नहीं कि नियति से ज्यादा यह उस व्यवस्था की देन है
जिसके आधार में ‘इंसान की इंसान पर हुकूमत’ का निज़ाम
पेड़ पर मैं लोगों के साथ होती हूँ जो भविष्य बना रहे हैं; है। 'आना-जाना समांतर ब्रह्मांड में घटित होता था। अपनी
मेरे पास चढ़ने के औजार हैं, लफ्ज हैं, नज्में हैं, शायरी है, धरती पर उन्हें कोई फिक्र न थी कि किस जंग में कौन जीत
तरन्नुम में या कि खुली शैली की। माँ-बाप घबरा कर बच्चों रहा है, कौन प्रधानमंत्री कब मरा या किसको नोबेल जैसा
को रोकते हैं कि मत चढ़ो, कहीं जो पास है वह खो न जाए। सम्मान मिला। कुछ बातें न जानना जन्म से उनकी नियति
चढ़ना वक्त माँगता है और मचान भी बनाना है, बीच-बीच में थी। बाक़ी की ख़बर ख़ुद नहीं रखते थे। उन्हें शिविरों में
लौट कर नीचे उतरना है और फिर-फिर चढ़ना है। डर होता जानवर की हैसियत से रखा जाता था। जरा सी ग़फलत होने
है कि जाने ऊपर क्या होगा, चढ़ते हुए थक गए तो, ऊपर पर उनको ऐसे काम करने पड़ते जो जानवर से भी करवाए न
खाने-पीने का क्या इंतज़ाम होगा, वहाँ चढ़कर हम कितना जाते थे, मसलन रेंग कर पत्थर ढोना। उन्हें लगता कि यही
बदल जाएँगे– सच है, उनको जानवर जैसा होना था। मुंशीगंज की वे उनके
सजदा करती हूँ कि कुदरत का साथ रहे, दुआ माँगती हूँ। जिस्मों की गर्माहट सँभाल रखतीं …ज़िंदगी एक जंग के मानिंद
मैं सपनों को सीने से लगा रखती हूँ, उन्हें अपने स्तन से उन्हें निगल जाती थी। किसी भी जंग की तरह कहना मुश्किल
दूध पिलाती हूँ। सपनों में मुँह छिपाकर खुद को धरती पर है कि कौन किस ओर था। कौन जी रहा था और कौन मरता
फैली सड़ांध से बचाती हूँ। मैं और मेरे जैसे सभी, सपनों से था, कहना मुश्किल था। ज़िंदगी धरती के सूरज के चक्कर
बातें करते हुए दरख्त की ओर बढ़ रहे हैं। साथ बढ़ते हुए हम काटने जैसी आवर्ती घटना थी। वे चली जातीं और वे आतीं।
गीत गाते हैं। यह गीत तुम्हें सुनाऊँगी। तुम सुनोगे, क्योंकि तबादले होते और नए मर्द आ जाते। मुल्क में तख्तापलट
प्यार के बिना तुम जी नहीं सकते। मेरे गीत की धुन तुम्हें होता, सरकार गिरती और नई सरकार सत्तासीन होती। कहीं
दरख्त के ऊपर ले आएगी और वहाँ तुम - हम सब में से एक कोई मसीहा सिसकता हुआ ग़ायब हो जाता और नया मसीहा
हो जाओगे। ज़िन्दा हो उठता। अदीब उन औरतों के बारे अफ़साने लिखते
('कुछ जो दूर होता नहीं' शृंखला से, जाते। कई इसी से पहचाने गए कि उन्होंने उन औरतों के
अनुनाद डॉट कॉम, 2017) सपनों में जगह बनाई। मुंशीगंज की वे।' (मुंशीगंज की वे,
लेकिन यह भी सही है कि ज़िन्दगी की आपाधापी में हमारे 2020)
वज़ूद से जुड़े सूक्ष्म अहसासों को महसूस करने और जीने का पर यह भी सच है कि चाहे कितनी भी अमानवीयता व उत्पीड़न
अवकाश लगातार कम होता जा रहा है। एक बड़ा तबका है जो हो, इंसान की जिजीविषा उसके साथ रहती है। उसकी उम्मीदों और
अपने निहायत ही भौतिक अस्तित्व को बचाने के लिए दिन-रात सपनों में। शायद इसलिए क्योंकि यही ज़िन्दगी है और अहसासों
अमानवीय श्रम में टूटता जा रहा है। और एक छोटा तबका है में कुछ जादुई ताक़त सी होती है कठिन से कठिन हालात में
जिसने थोड़ी सुख-सुविधाएँ जुटा ली हैं और उनको बढ़ाने-बचाने भी उमड़ते-घुमड़ते रहने की। तभी कवि हैं। और कविताएँ। और
की जद्दोजहद में ख़ुद से दूर भाग रहा है। और एक और भी छोटा उनको पढ़ने, महसूस करने वाले पाठक भी। ऐसे में लाल्टू की
तबका है जो सत्ता के नशे में डूबा ज़िन्दगी से खेल रहा है। लगता कविताएँ एक ज़रूरी दखल की तरह सामने आती हैं। साधारण
है इस अमानवीय सत्ता-संरचना में जीने की एक शर्त बची है − की असाधारणता को बुनती हुई, किसी आकाशगंगा सी ज़िन्दगी में
अपनी संवेदनाओं को लगातार सुन्न करते जाना। कहीं थकान और बनते-बिखरते सितारों और कणों से मुख़ातिब कराती–
मायूसी में, कहीं कभी न ख़त्म होती दीखती दौड़ में, कहीं ताक़त 'कायनात में क्यूबिट कलाम लिख रहे हैं। परस्पर प्यार
की होड़ में − हम लगातार अपने अहसासों से, अपने एकान्त से, में उलझे हैं सूक्ष्मतम कण। हर पल ध्वनि गूँजती है, प्यार

220 n जुलाई से सितंबर 2023 yegh


तरंगित होता है नीहारिकाओं के पार। हम इस गूँज में हैं।
धरती और आकाश हमारे साथ गूँजते हैं। हम हैं साम्य के
नाद में; गूँजती है आज़ादी। यह गूँज हमारी प्रार्थना है, सजदा
है, क्यूबिट कणों में टेलीपोर्ट होकर कायनात के चक्कर लगा
आती है गूँज। हमारा प्यार हमारा रब है। हमने मीरा से प्यार
किया, परवीन शाकिर से प्यार किया। हीर और रांझा हम, हम
हादिया, इशरत हम। हम प्यार हैं, हम प्रेमी। हम आज़ाद, हम
आज़ादी। हम समंदर का नील, हम प्रतिरोध का लाल। हम
खुली हवा की मिठास, हम पंछी लामकां। (जुड़ो)
यहाँ दो बातों का ज़िक्र करना प्रासंगिक होगा। पहला तो गद्य
कविता में लाल्टू के प्रयोग और दूसरा भाषा की उनकी समझ।
हमारे मुल्क की शिक्षा-दीक्षा की व्यवस्था की बदौलत आमतौर पर
पढ़े-लिखे लोगों में भी कविता की समझ तुकबन्दी से बहुत ज्यादा
आगे नहीं बढ़ पाती। बावज़ूद इसके छन्द मुक्त कविता या ‘फ्री
वर्स’ अब हिंदी में स्थापित फ़ॉर्म हैं। मगर गद्य कविता का चलन
अभी उतना नहीं हुआ है। लाल्टू की कई गद्य कविताएँ इस दिशा में मिसाल के लिए उनकी कविता ‘भाषा’ देखिए,
हिंदी कविता को आगे ले जाती हैं। उनकी गद्य कविताओं को पढ़ते कहो
हुए लगता है कि हम संवेदनात्मक चित्रों से रूबरू हो रहे हैं। जो अनुदैर्घ्य उत्क्रमणीय जैसे शब्द नहीं पढ़ेंगे
बात कही जा रही है वह बहुत सी अनकही बातों के तार बुनते हुए शब्दों को छुओ कि वे बाजीगरों सरीखे उलट सकें
आगे बढ़ती है जिससे गद्य में एक ख़ास तरह की लय बनती है जो और उनके पीछे-पीछे कुछ नाचता हो
भाषा और अर्थ के दायरों को लगातार विस्तार देती है– विज्ञान घर-घर में बसा दो
चप्पे-चप्पे पर नाकाबंदी है, सब्ज़ा-ओ-गुल पर उन्होंने परी भाषा बन कर आओ परिभाषा को कह दो
पतंगों के आकार के ड्रोन बैठा दिए है, वे ढढूं रहे हैं कि तुम
किधर कहाँ किसे ढूंढ रहे हो। तुम डरते-घबराते रेंग-रेंग कर यह छेड़ो आंदोलन
बच निकलने की कोशिश में होते हो, वे हँस रहे होते हैं कि कि भाषा पंख पसार उड़ चले
तुम इतनी बातें एक लफ़्ज़ मे क्यों नहीं बयाँ करते-ढँढू ना। शब्दों को बड़ा आस्माँ सजा दो।
दोस्त, साथी, आमिगो, सब ढँढू लिया है तुमने, अब जाओ भाषा के साथ ज्ञान और वर्चस्व की पूरी राजनीति जुड़ी हुई है।
प्रेम ढूँढों। तुम्हें पता नहीं था कि इसीलिए तुम जन्मे हो, मातृभाषा, आसानी से समझ में आ सकने वाली भाषा महज़ कई
इसीलिए तुम मरोगे। जाओ प्रेम ढँढू ो। इसीलिए तुम नाचते रंगों में एक रंग चुनने का नहीं बल्कि अपने सामाजिक वज़ूद को
हो, हँसते-रोते हो, बच्चों के साथ बच्चा और बड़ों के साथ बनाए रखने का मामला भी है। समाज और राजनीति में सत्ता के
बड़ा बन जाते हो। जाओ, प्रेम ढढूँ ो, तसल्ली से ढढूँ ो। यादों खेल से भाषाओं के साथ और क्या-क्या मर रहा है, किसे परवाह?
में ढूँढो, ढँूढने में ढँढू ो। बुल्ले-कबीर के साथ ढढूँ ो, अकेले हर मौत कहानी नहीं होती
ढढूँ ो, जाओ प्रेम ढँढू ो। (खंडहर−30, ‘थोड़ी सी जगह’ संग्रह मसलन भाषाओं की मौत कौन पढ़ता है।
से, 2021) कोई कहानी मर रही है हर किसी कोने में
दूसरी बात है भाषा की। संस्कृतनिष्ठ हिंदी और अंग्रेज़ी, दोनों यह किसी भाषा के मौत की कहानी है।
के दबाव के ख़िलाफ़ लाल्टू ने अपनी रचनाओं में लगातार मोर्चा कोई जासूस इन कोनों पर नहीं आता
लिया है और हिन्दुस्तानी के पक्ष में पूरी सजगता के साथ खड़े रहे मरती भाषा के सुराग अपने ही अंदर होते हैं
हैं। लगभग ज़िद की तरह। एक हारी हुई लड़ाई को भी जीतने की भाषा मरती है तो कहानी अपने अंदर मरती है
ज़िद सी घनी। लेकिन उनके लिए यह कोई भावुकता का मसला कौन पढ़ता है।
नहीं है। यह समाज और ज्ञान के लोकतांत्रिकरण का मसला है। (भाषाओं की मौत कौन पढ़ता है)

yegh जुलाई से सितंबर 2023 n 221


यह साल जैसा भी रहा

बदलते रहें रंग और कुचले जाएँ हम बार-बार


धरती ने अभी अरबों साल जीना है ...

...जो छूट गया


लाल्टू की कविताओं की बात करते हुए एक और बात का वह प्यार
ज़िक्र करना लाज़िमी हो जाता है। जिस दौर में हम जी रहे हैं उसमें
आमतौर पर हर संवेदनशील व्यक्ति से अपेक्षा होती है कि अपने जो रह गया है वह भी प्यार है
समय के अन्यायों और अत्याचारों के बारे में लिखे। अपनी लेखनी पिछली सरसों का पीला छूटा है
में उसे शामिल करे। अपनी प्रतिबद्धता को ज़ाहिर करे। दिक्कत तो आ रहा है फिर से बसंत
यह है कि कला या सृजन कर्म में इस तरह के दबाव के नतीजे कई
बार बड़े अनपेक्षित होते हैं। राजनीतिक कार्यवाही या एक्टिविज्म के आएँगे और गीत-संगीत
अपने तक़ाज़े होते हैं और कई बार कला कर्म से एक द्वंद्व सा बनता घर-घर से निकलेंगी
दिखता है। फिर देखने में यह आता है कि राजनीति में तो कला या आज़ादी और बराबरी की आवाज़़ें
कविता का उतना दखल नहीं बचता लेकिन कला या कविता में
राजनीति का बड़ा ही स्थूल दखल बन जाता है। यह उस स्थिति धरती तानाशाह का घमंड ख़ारिज करेगी
से बिलकुल अलग है जिसको सोचते हुए शायद प्रेमचन्द ने कहा तूफानी हवाओं में और-और प्यार की धुन गूँजेंगी।
था कि साहित्य को राजनीति के आगे चलने वाली मशाल होनी (हम नहीं हटे, डर ही हटा पीछे, 2017-18)
चाहिए। कुछ ऐसे ही विचार अमरीकी कवि-लेखक एड्रिएन रिच ने लाल्टू का रचना संसार तीन दशकों से भी ज्यादा फैला हुआ
भी रखे थे। अपनी किताब ‘वाह्ट इज़ फ़ाउंड देअर' में वे कहती
है। एक आलेख में उसके बारे तफ़सील में बात कर पाना मुमकिन
हैं कि कविता नए क़ानून या संस्थान नहीं बना सकती। यह काम
नहीं। शायद इस अदना के लिए मुमकिन भी नहीं। बात वहीं ख़त्म
व्यापक राजनीतिक कार्यवाहियों से ही मुमकिन है लेकिन कविता
करूँगा जहाँ से शुरू की थी। इस धरती पर इंसान का वज़ूद बहुत
संवेदना जगाने का काम कर सकती है जिससे हमें लगातार काटा
कुछ वैसा ही है जैसे “छोटा बच्चा खोया हुआ बड़ी अँधेरी भीड़ में”।
जा रहा है। यानी चेतना की परत पर कार्यवाही। और राजनीति
लाल्टू की कविता इस सच को हमारे सामने खोलने की लगातार
को इसकी ज़रूरत है। संवेदना की। नहीं तो कई बार प्रतिरोध
जद्दोजहद की तरह सामने आती है। ग़र महसूस कर सकें तो एक
की राजनीति भी उन्हीं खोखली सत्ता-संरचनाओं की नक़ल करने
दिन कहेंगे,
लगती है जिनके ख़िलाफ़ वह खड़ी है। उफ़क देखता है
लाल्टू की कविता अपनी प्रतिबद्धता को साफ़ रखते हुए नारेबाज़ी
देख रोकता है
में न तब्दील होकर अपने समय के विरोधाभासों को व्यक्त करती हैसपने कब तक देखोगे
और उम्मीद की तरफ़ ले जाती है। यह एक महत्वपूर्ण उपलब्धि है कहता टोकता है
क्योंकि 'सही' कहने के दबाव में कई बार कविता को पीछे धकेल अब जो बचा सो बचा
देने की जल्दबाज़ी हो जाती है। आस्मां समंदर जो कुछ
लापरवाह अराजक गर्दन कुछ कह रही थी अब तक रचा
कि चारों ओर तेजी से बदलते रंगों के इन दिनों में वही सच है वही रह जाएगा
वह नाकाम मुहावरा नहीं था आएँगे और भी
हमसुख़न हमसपन
हारी हुई फौजों का आख़िरी सिपाही बन सड़क सँभाले मोहब्बत का इक दम रह जाएगा। n
हुए था − संपर्क : भोपाल
उसे देखकर मुतमइन होना लाजिम था कि मो. 9407549240

222 n जुलाई से सितंबर 2023 yegh


n महत्तम : रामकुमार कृषक

भूगोल की सीमाओं का अतिक्रमण करती ग़ज़लें


रहमान मुसव्विर

ग़ज़ल ने भाषा और भूगोल की सीमाओं का अतिक्रमण विचार है कि ग़ज़ल केवल ग़ज़ल है। हिंदी ग़ज़ल
किया है। अरबी भाषा के क़सीदे की कोख से जन्मी कहने का कोई औचित्य नहीं है। लेकिन यहाँ एक
ग़ज़ल फ़ारसी की समृद्ध काव्य परंपरा से होते हुए दुविधा यह है कि यदि हिंदी में लिखी/कही जा रही
उर्दू तक पहुँची है। उर्दू ग़ज़ल की लोकप्रियता ने ग़ज़ल को केवल ग़ज़ल कहेंगे तो उसका मुक़ाबला
अन्य भारतीय भाषाओं को भी अपनी ओर आकृष्ट उर्दू ग़ज़ल से होगा। यह भी मान लेना चाहिए कि
किया। ग़ज़ल की लोकप्रियता और स्वीकार्यता का ऐसी स्थिति में हिंदी में लिखी जा रही ग़ज़ल कहीं नहीं
कारण संभवत: यह रहा है कि ग़ज़ल ने अपनी ठहरेगी। वैसे भी जब आकादमिक स्तर या आलोचना
परंपरा का निर्वाह करते हुए आधुनिकबोध को भी उदारता के साथ की दृष्टि से बात की जाती है तो उर्दू में कही जा रही ग़ज़ल को
आत्मसात किया है। यह आधुनिक बोध कथ्य, विचार, भाव, शिल्प ‘उर्दू ग़ज़ल’ कहक़र संबोधित किया जाता है। अत: यह स्वीकारने
और शब्द आदि सभी स्तरों पर रहा है। आज की ग़ज़ल वस्ले-यार में कोई झिझक नहीं होनी चाहिए कि हिंदी ग़ज़ल अपने स्वरूप में
की तमन्ना, महबूब के वियोग का दर्द, इंतिज़ार की तड़प, दोस्त की उर्दू ग़ज़ल से अलग है और इसे हिंदी ग़ज़ल कहना हिंदी ग़ज़ल की
बेवफ़ाई आदि विषयों के बीहड़ से निकल कर सामाजिक विद्रूपता, विशिष्ट पहचान को स्वीकृति देना ही है।
आर्थिक विषमता, मजदूरों के दर्द, किसान की बेचारगी, स्त्री की रामकुमार कृषक हिंदी की उस कविता के सर्व स्वीकृत कवि
अस्मिता और आम आदमी की प्रतिदिन की समस्याओं तक आ हैं जो किसान, मजदूर और शोषित के पक्ष में निर्भीकता के साथ
पहुँची है। डटी है। उन्होंने अपने मूल्यों के साथ न जीवन में समझौता किया
हिंदी कवियों ने भी ग़ज़ल का मुक्त हृदय से स्वागत किया न ही कविता में। मुक्तछंद कविता से नवगीत और ग़ज़ल तक की
है। बहुत से महत्वपूर्ण हिंदी कवियों ने हिंदी ग़ज़लें कही हैं। कुछ उनकी यात्रा इस बात का प्रमाण है कि जीवन और कविता को
विद्वान हिंदी ग़ज़ल की जड़ें अमीर ख़ुसरो और कबीर में खोजते अलग करके नहीं देखा जा सकता है। जब इस भावबोध के साथ
हैं। लेकिन यह केवल दूर की कौड़ी है। हिंदी ग़ज़ल दुष्यंत कुमार रामकुमार कृषक ग़ज़ल की भूमि पर पदार्पण करते हैं तो उनका
के ग़ज़ल संग्रह ‘साए में धूप’(1975) से उड़ान लेती है। यहीं से स्वर कुछ और तीखा और व्यंग्यात्मक हो जाता है। व्यंग्य और
प्रेरणा लेकर हिंदी में अनेक कवियों ने गज़लगोई की दिशा में गंभीर अभिव्यंजना वैसे भी ग़ज़ल की विशेषता है। इसी विशेषता का लाभ
प्रयास किए। हिंदी ग़ज़ल में आरंभ से ही दो धाराएँ स्पष्ट दिखाई उठाते हुए वे बेबाकी से कह उठाते हैं–
देती हैं। एक धारा वह है जो फ़ारसी से आई हुई उर्दू ग़ज़ल परंपरा मस्त रहना है तो पूछिए क्या करें,
का ही निर्वाह करती है। उनकी ग़ज़ल का कथ्य और शब्द चयन पेट ख़ाली रखें रोज़ योगा करें!
भी उर्दू ग़ज़ल से न केवल अनुप्रेरित है बल्कि पदानुगामीहै। अंतर देश आज़ाद है हम भला क्यों कहें,
केवल लिपि-भर का दिखाई देता है। दूसरी धारा वह है जो ग़ज़ल आप ऐसा करें आप वैसा करें!
की शब्दावली और कथ्य का स्रोत हिंदी कविता की सुदीर्घ परंपरा समाज में व्याप्त विडंबना और विसंगति को प्रस्तुत करने में
से ग्रहण करती है। वस्तुत: यह दूसरी धारा ही सही अर्थों में हिंदी व्यंग्य की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। व्यंग्य व्यक्ति और जीवन
ग़ज़ल है। के खोखलेपन और पाखण्ड को उजागर करने का माध्यम है।
हिंदी ग़ज़ल पद के प्रयोग पर कुछ विद्वानों को आपत्ति है। उनका हरिशंकर परसाई ने कहा था कि “व्यंग्य जीवन से साक्षात्कार

yegh जुलाई से सितंबर 2023 n 223


करता है, जीवन की आलोचना करता है, विसंगतियों, मिथ्याचारों या प्रारूप के अनुसार पूर्व संचित अनुभवों, विचारों या भावों को
और पाखण्डों का पर्दाफाश करता है”। व्यंग्य तिलमिलाहट पैदा शे’र में ढालता जाता है।
करता है। इसमें एक काट होती है। यह इतनी तेज़ होती है कि कटने जिसने ग़ज़ल के अनुशासन को साध लिया, वह कामयाब हो
वाले को पता ही नहीं चलता है। जब तक एहसास होता है तब तक गया। लेकिन ग़ज़ल को साधना ‘पुल सिरात’ पर चलने के सामान
व्यंग्य अपना काम कर चुका होता है। व्यंग्य ग़ज़ल का महत्वपूर्ण है। इस्लामी अवधारणा के अनुसार ‘पुल सिरात’ वह पुल है जो
तत्व है। रामकुमार कृषक की ग़ज़लों में भी व्यंग्य का तत्व स्पष्ट जहन्नम (नरक) के ऊपर से गुज़रता है और जन्नत (स्वर्ग) तक
रूप से उभरकर आया है। उनकी एक चर्चित ग़ज़ल है, जिसकी पहुँचता है। यह बाल से बारीक और तलवार से तेज़ है। जिसने
रदीफ़ है–लड़कियाँ। पुण्य कर्म किए हैं, साधना की है, वह पार उतर जाता है। जिसने
आजकल लेकर नहीं चलती दुपट्टा लड़कियाँ पाप किए हैं वह कटकर नरक की आग में जा गिरता है। रामकुमार
हो गई शर्मो-हया के नाम बट्टा लड़कियाँ कृषक ने अपनी साधना से ‘पुल सिरात’ को पार कर लिया है
बज़ाहिर यह शे’र ऐसा लगता है जैसे शाइर लड़कियों के रवैये और ग़ज़ल की जन्नत में प्रवेश कर लिया है। कोई भी विचार या
से क्षुब्ध है कि लड़कियाँ नाफ़रमान हो गई हैं और वे अपनी अनुभव हो, वह उसे बड़ी सहजता से ग़ज़ल के पैराय में ढाल देते
और परिवार की इज्ज़त-आबरू का ख़याल नहीं रखती हैं। लेकिन हैं। चूंकि वे प्रगतिशीतल चेतना से संपन्न हैं, जनवादी सरोकारों
मामला बिलकुल इसके उलट है। यह व्यंग्यात्मक लहजा है। के पैरोकार हैं तो उनकी ग़ज़ल का कथ्य किसान, मजदूर, अभाव,
अंतर्निहित भाव यह है कि लड़कियाँ अब स्वतंत्र हैं और अपनी संघर्ष, क्रांति, घरेलू स्त्री और क्रूर राजनीति के सिवा क्या होगा।
मनमर्ज़ी से जी रही हैं। ‘नाम पर बट्टा लगाना’ मुहावरे का भी बहुत वे वर्तमान व्यवस्था के प्रति असंतोष से भरे हुए हैं। वे परिवर्तन
ख़ूबसूरत प्रयोग हुआ है। वस्तुत: इसी से व्यंग्य की धार तेज़ हुई के घोर समर्थक हैं। लेकिन गड़े मुर्दे उखाड़ने के पक्ष में नहीं हैं।
है। व्यंग्य के कुछ और शे’र देखिए- वे चाहते हैं कि अतीत के वैमनस्य को भूलकर नए पथ का सृजन
भले सिर पर तुम्हारे छत नहीं है करें–
मगर कुछ और तो दिक्क़त नहीं है खोदोगे तो मंदिर-मस्जिद की दीवारें निकलेंगी
*** बुनियादों में दफ्न हुईं जो वो तकरारें निकलेंगी
हैं बहुत ही ख़ास कुल दीपक हमारे मिट्टी और पसीने से जिनको हाथों ने खड़ा किया
क्लास दसवीं पास कुल दीपक हमारे मज़हब की चोटों से उनमें पड़ी दरारें निकलेंगी
भूख़ का अनुभव नहीं है इसलिए ग़ज़ल की विशेषता यह है कि हर शे’र नए मज़मून को अपने
कर रहे उपवास कुल दीपक हमारे में समेटे हुए होता है। हर शे’र का विषय अलग और विशिष्ट होता
रामकुमार कृषक ने ग़ज़ल विधा को जितनी गंभीरता से लिया है। प्रत्येक शे’र अपने आप में संपर्ण ू होता है। अगले और पिछले
है, वह साधना तक पहुँच गई है। उनके विचार, अनुभव, संघर्ष; शेर से उसका सीधा संबंध नहीं होता है। लेकिन कभी-कभी ऐसा
सब कुछ शे’र के कालिब में ढलने को तैयार दिखाई देते हैं। भी होता है कि ग़ज़ल के सभी शे’र किसी एक विषय पर कहे गए
दरअसल ग़ज़ल की ख़ूबी यह है कि इसमें विचार या भाव पहले होते हैं। हर शे’र अपने आप में भी संपूर्ण होता है और उनके बीच
नहीं आता है, शिल्प आता है। यानी ग़ज़ल की रचना-प्रक्रिया ही एक तारतम्यता भी बनी रहती है। ऎसी ग़ज़ल को ग़ज़ल मुसलसल
उसका मूल है। इसे दो तरह से समझ सकते हैं– कहते हैं। रामकुमार कृषक मुसलसल ग़ज़ल में सिद्ध हस्त हैं–
1. कोई विचार या भाव शाइर को उद्वेलित करता है। वह अभिव्यक्त भेद लंका का सभी जान लिया
होने के लिए छटपटाने लगता है। उस ख़याल को शाइर मिसरे हम विभीषण ही सही मान लिया
में ढालता है। फिर उस पर दूसरा मिसरा लगाता है। उसे नहीं शीश दस बीस बाहुओं वाले
पता होता कि कौन-सी बहर होगी, क्या काफ़िया होगा,क्या रावणी राज को पहचान लिया
रदीफ़ होगी। बस शे’र हो जाता है। शे’ र हो जाने पर शाइर हो कोई राम कहीं बनवासी
रदीफ़-क़ाफ़िया निश्चित करता है और अपने संचित अनुभवों हम वहीं होंगे यही ठान लिया
और अवलोकन के आधार पर शे’र कहता जाता है। इस ग़ज़ल में ग़ज़लकार मिथकीय संदर्भों का सहारा लेकर
2. शाइर पहले बहर का चयन करता है, रदीफ़ और क़ाफ़िया तय सामयिक राजनैतिक परिदृश्य की विवेचना करता है। विभीषण को
करता है,फिर शे’र कहता है। इस प्रकार निश्चित किए गए ढाँचे प्राय: कुल के विरुद्ध कार्य करने वाले के रूप में चित्रित किया जाता

224 n जुलाई से सितंबर 2023 yegh


है। लेकिन यह भी एक पक्ष है कि जब कुल प्रमुख अन्याय और
अधर्म के कीचड़ में अपादमस्तक डूबा हो और उसके आसपास
के लोग उसका यशोगान कर रहे हों तो किसी न किसी को यह
साहस करना पड़ता है कि वह उसके विनाश के लिए आगे आए।
विभीषण उसी साहस का प्रतीक है। यहाँ कवि के राम वह नहीं हैं,
जिनके नाम पर समाज में वैमनस्य फैलाया जा रहा है। यहाँ राम
उस उस जल्वे का नाम है जो कण-कण में व्याप्त है। इसी शिल्प
में उनकी एक और ग़ज़ल है, जिसमें भाषा के प्रति उनकी चिंता
अभिव्यक्त हुई है–
इंगलिश हर सू तनी हुई है क्या कीजे
दिल्ली डेल्ही बनी हुई है क्या कीजे
जिस भाषा ने कल लूटा अब लूट रही
हमसे ही वो धनी हुई है क्या कीजे
ग़ज़ल की विशेषताओं में एक प्रमुख विशेषता है तज़ाद यानी
विरोधाभास। किन्हीं दो परस्पर विरोधी विचारों या भावों को एक
साथ इस प्रकार रखा जाता है कि एक नया अर्थ-संसार खुल जाता
है। अर्थों की विभिन्न छवियाँ मूर्तिमान हो उठती हैं। तज़ाद का यह
गुण रामकुमार कृषक की ग़ज़लों में प्राय: दिखाई देता है–
मुश्किलों पर मुश्किलें लाता है दिन
खोलकर कुछ और कस जाता है दिन
यहाँ खोलना और कसना परस्पर विलोम हैं। इनको एक साथ
रखकर जिस नए अर्थ की तलाश की गई है, वह प्रशंसनीय है। हिंदी ग़ज़ल का अपना विशिष्ट स्वभाव है। इसकी प्रकृति और
खोलकर कुछ में ‘कुछ’ शब्द किसी अनिश्चित वस्तु का संकेत संस्कार हिंदी कविता के उदर से आए हैं। भले ही बाहरी आवरण
करता प्रतीत होता है। यह ‘कुछ’ कल्पना के नए गवाक्ष खोलता उर्दू ग़ज़ल का है, लेकिन उसकी अन्तश्चेतना हिंदी कविता से
है। इस ‘कुछ’ से शे’र में इबहाम पैदा हो गया है। इबहाम शे’र को अनुस्यूत है। इस दृष्टि से शब्द-चयन में अतिरिक्त सावधानी की
बड़ा और कालजयी बनाता है। यहाँ ग़ालिब बार-बार याद आते हैं– आवश्यकता है। उदाहरण के लिए हिंदी में फ़सल, दख़ल और
-है कवाकिब कुछ नज़र आता है कुछ। सुबह शब्द मान्य और स्वीकृत हैं, लेकिन उर्दू में फ़स्ल, दख़्लऔर
-न था कुछ तो ख़ुदा था, कुछ न होता तो ख़ुदा होता। सुब्ह सही है, फ़सल, दख़ल और सुबह नहीं। हिंदी में फ़सल
शब्दों का सही चयन और भावानुसार उनका अभिनव प्रयोग का प्रयोग होता है, लेकिन कहीं- कहीं बह्र की आवश्यकतानुसार
ग़ज़ल को सघनता प्रदान करता है। यह सघनता संप्रेषणीयता के फ़स्ल भी बरत लिया जाता है। यह उचित नहीं है। हिंदी ग़ज़ल में
बिना अधूरी है। प्रतीक, रूपक और बिंब ग़ज़ल को सघन भी हिंदी की प्रकृति के अनुसार ही शब्द का इस्तेमाल होना चाहिए
बनाते हैं और संप्रेषणीय भी। रामकुमार कृषक इन उपादानों का और इसके लिए कुछ मानक भी तय किए जाने चाहिए। इसी प्रकार
बहुत सुन्दर और प्रभावशाली प्रयोग करते हैं। उनके बिंब देखते इज़ाफ़त (जैसे ज़ुल्मते-सल्तनत) से भी बचना चाहिए। अब तो
ही बनते हैं– उर्दू वाले भी इससे परहेज़ करने लगे हैं। रामकुमार कृषक की
भोर से पूछकर दोपहर का पता सांझ की देहरी तक पहुँच ही गए ग़ज़लों में शब्दों के ऐसे प्रयोग हैं तो, लेकिन बहुत कम हैं। इसलिए
रात-भर फिर उनींदे रहे, नींद में ख़्वाब ही ख़्वाब थे, ख़्वाब इनकी ग़ज़ल को हिंदी की प्रतिनिधि ग़ज़ल कहना अतिशयोक्ति
छलते रहे नहीं होगी। n
आप माने न माने मगर सच यही, जिस्म तक ही नहीं रूह तक संपर्क : प्रोफ़ेसर, हिंदी विभाग
घाव हैं जामिया मिल्लिया इस्लामिया, नई दिल्ली-25
क़त्ल होते रहे आँख के सामने लोग अपनी छतों पर टहलते रहे मो. 9871610200

yegh जुलाई से सितंबर 2023 n 225


n महत्तम : देवेंद्र आर्य

गीतों व कविताओं में िवन्यस्त सामयिकता


डॉ. नवीन सिंह

वर्तमान में जो कुछ भी घटित होता है उसका अतीत को आज के ज्वलंत सवालों के साथ गुम्फित कर
से कुछ न कुछ संबंध अवश्य होता है। समाज का उनको विस्तार दे देते हैं। ‘आयो घोष बड़ो व्यापारी’
दर्पण यानी साहित्य, समाज में होने वाले परिवर्तन गीत में ज्ञान और प्रेम की तकरार को विस्तार देते हुए
को प्रतिबिंबित करता चलता है। आचार्य शुक्ल के उदारीकरण के बाद मुक्त व्यापार से उत्पन्न हुए संकट
अनुसार, जनता की चित्तवृत्तियों में परिवर्तन के से जोड़ देते हैं, जहाँ संबंधों में अर्थ की महत्ता बढ़ने
साथ-साथ साहित्य में भी परिवर्तन होता चला जाता के साथ-साथ मूल्य-विघटन की समस्या मुँह बाए
है। वर्ष 1991 में भारत की सरकार ने मुक्त बाज़ार खड़ी हो गयी है–
वाली अर्थव्यवस्था को अपनाया जिसे एलपीजी यानी उदारीकरण, कभी जमूरा कभी मदारी
निजीकरण और वैश्वीकरण मॉडल भी कहा गया। इससे भारत में इसको कहते हैं व्यापारी
संचार क्रांति का सूत्रपात हुआ। बाज़ार में वस्तुओं की उपलब्धता अपना उल्लू सीधा हो बस
बढ़ी और एक ही सामान के कई विकल्प सामने आने लगे। वस्तुओं कैसा रिश्ता कैसी यारी। (कविता कोश– प्रतिनिधि गीत)
की उपलब्धता और विकल्पों की प्रचुरता ने लोगों की जीवन-शैली वैश्वीकरण के प्रभाव से मुक्त अपने देशीपन पर भरोसा जताते
में परिवर्तन लाने के साथ ही विचारों को भी प्रभावित किया। पहले हुए कवि अपने तईं सांस्कृतिक संकट से भी उबरने का रास्ता
जो परिवर्तन व प्रभाव समाज में कई दशकों में देखने को मिलता दिखाने की कोशिश करते हुए भी नज़र आता है -
था वह अब कुछ ही वर्षों में तीव्रता के साथ दिखने लगा। रचनाकार दुनिया की सुंदरतम कविता
समाज में होने वाले किसी भी तरह के परिवर्तन को सबसे पहले सोंधी रोटी दाल बघारी। (कविता कोश– प्रतिनिधि गीत)
महसूस करता है। कवि व लेखक हर तरह की चकाचौंध से बचते देवेंद्र आर्य की कहन शैली ऐसी है कि पाठक का मन मोह लेती
हुए समाज को उसके मूल स्वरूप की पहचान कराता है। ऐसे ही है। वे कविता के साथ-साथ गीत-ग़ज़ल भी लिखते हैं। निस्संदेह
समकालीन दौर की संवेदनाओं को स्वर देने वाले कवि हैं देवेंद्र उनकी ग़ज़ल का भी कुछ असर कहीं-कहीं उनकी कविता की
आर्य। देवेंद्र आर्य की कविताओं पर बात करने का मतलब है ऐसी पंक्तियों में अनायास ही दिख जाता है। उनके शब्दों का चयन
जोख़िम भरी यात्रा पर निकल पड़ना जहाँ कई विचलित कर देने उनके भावों को अधिक गहनता के साथ अभिव्यक्ति देने और
वाले दृश्य हमारे समक्ष उपस्थित होते हैं। इसमें एक तरफ तो पाठक को उसे महसूसने का धूप-छाहीं धरातल प्रदान करता है।
मानवीय संवेदनाओं के पत्थर होते जाने की पीड़ा दिखती है, तो सपनों का जमावन, एक अंजुरी भर प्यास, दाल बघारना, अलगनी,
दूसरी तरफ अपने हक़ के लिए आवाज़ उठाने वालों की लाशों पर ऐसे ही कई देशज शब्द, अपने सोंधेपन के साथ पाठक के भीतर
भेड़िओं का नृत्य दिखाई देता है। इनकी कविताओं में कहीं पर्वतों तक समा जाते हैं। अपने भीतर सघन भावों को समेटे हुए जमावन
की कराह है, तो कहीं नदियों का पेट काट के अपने घरौंदे ऊँचे (कवि) कितने ही सुंदर सपनों के साथ भविष्य के समाजोपयोगी
करने वालों के प्रति रोष। इनकी दृष्टि, जहाँ वर्तमान स्थितियों की छाछ और मक्खन के लिए अनुकूल परिस्थितियाँ बनाने में सृजनरत
अतीत के सातत्य के रूप में पहचान करती है; वहीं अतीत को भी है। उनके गीतों, ग़ज़लों व कविताओं में एक संवादधर्मिता दिखाई
वर्तमान संदर्भोंं में व्याख्यायित करती है। कवि सूरदास की काव्य देती है। वह अपने पाठक से सीधे संवाद करती हुई नज़र आती है।
संवेदना को समकालीन भावबोध से जोड़ते हुए गोपी-उद्धव संवाद देवेंद्र आर्य के लिए व्यक्ति से ज़्यादा विचार महत्त्वपूर्ण हैं,

226 n जुलाई से सितंबर 2023 yegh


क्योंकि व्यक्ति को मारा जा सकता है परंतु उसके विचारों को नहीं। टिन का एक टुकड़ा लटक रहा,
‘किसने लिखा है’ से अधिक महत्त्वपूर्ण ‘क्या लिखा गया है’ इस ‘कुत्ते से रहिए सावधान।’ (कविता कोश– प्रतिनिधि
पर केंद्रित होकर ही किसी सार्थक निष्कर्ष तक पहुँचा जा सकता गीत)
है। ‘कवि नहीं कविता बड़ी हो’ गीत में कवि इस बात को जोर यह लिखते हुए कवि बिना किसी लागलपेट के, बिना किसी
देकर कहना चाहता है - विचारधारा की ओट लिए देश की 100 करोड़ जनता (आज 140
‘इस तरह तू लिख करोड़) के हक़ की मांग कर रहा है। आपातकाल के बाद की यह
कि लिख के कवि नहीं कविता बड़ी हो.. कविता अपने नाख़ूनों से अंधियारे को खुरच देने की कोशिश रहा
ह से हाथी है। बातों और शब्दों के भ्रमजाल में बिना उलझे अपने लक्ष्य पर
ह से हौदा नज़रें टिकाए कवि उन सभी लुटेरों की पहचान कर लेता है जो
क़द नहीं कीमत का सौदा जम्हूरियत को जमूरा बनाकर मदारी का खेल दिखाने की कोशिश
अपने खेतों पर लिखा है हमने अमरीकी मसौदा’ (कविता करते हैं। कवि कहता है -
कोश– प्रतिनिधि गीत) ‘बातों की देते पटकनिया
भूमंडलीकरण या जिसे अमेरिकीकरण भी कह सकते हैं, यह चश्मा स्याही टोपी बनिया।’ (कविता कोश–प्रतिनिधि
व्यवस्था कुछ पूंजीवादी प्रतिष्ठानों या बहुराष्ट्रीय कंपनियों के हितों गीत)
की रक्षा का माध्यम मात्र हैं। संसार को एक करने की इनकी दृष्टि एक साधारण नागरिक जो एक सम्मानजनक जीवन जीना
पूरी तरह से एक आयामी है। यह सिर्फ़ व्यापार के लिए दुनिया को चाहता है, अपने लिए कुछ बुनियादी सुविधाएँ चाहता है, तो कौन
एक करना चाहती है और मुनाफा इसके केंद्र में है। उसके लिए सा अपराध कर देता है। उससे वोट लेकर पांच साल तक उसे
जायज़-नाजायज़ भी बहुत महत्त्व नहीं रखता है। भ्रमजाल में घुमाते रहने वाले टोपी यानी नेता, बनिया अर्थात
आधुनिकता, उत्तर-आधुनिकता और उपभोक्तावाद ने चिंतन पूंजीपति और चश्मा-स्याही वाले वे लोग जो कानून की मोटी–
के बिंदुओं और स्तरों में जो परिवर्तन किए हैं उनके परिणाम मोटी किताबें पढ़ तो लेते हैं लेकिन उसका उपयोग सिर्फ़ पैसे वालों
संवेदनहीनता, मूल्यहीनता के रूप में परिलक्षित हुए हैं। भाई-भाई को न्याय दिलाने में करते हैं। एक साथ कवि सत्ता, पूंजीपति और
के बीच रिश्तों में दरार पड़ने लगी है। एक ही माँ के गर्भ से जन्में, कानून इनके गठजोड़ की पोल खोल देता है। बाबा नागार्जुन ने भी
बचपन से एक-दूसरे के दुखों से दुखी होने वाले सहोदर आज अपने दौर के सच को हर दौर के लिए मौजूं सवाल के रूप में कह
एक-दूसरे के सुख से दुखी होने वाली प्रतिस्पर्द्धा में फँस गए हैं। दिया क्योंकि बातों के फेर में बहुत से वाद प्रचलित हैं किंतु लोगों
रिश्तों की कमजोर होती डोर को टूटने से बचाने की जद्दोजहद और को अंततः उनके जीवन से जुड़े मूल सवाल रोटी, कपड़ा और
उस टूटन के लिए ख़ुद भी अपराध-बोध से ग्रसित हुए मन को कवि मकान का हल चाहिए -
कुछ इस तरह बयाँ करता है– ‘क्या है दक्षिण क्या है वाम,
मेरी भी आंख में गड़ता है भाई जनता को रोटी से काम।’ (hindisamay.com)
मगर रिश्तों में वो पड़ता है भाई। (कविता कोश– एक अन्य कविता में कवि अमीर और ग़रीब के बीच बढ़ती खाईं
प्रतिनिधि गीत) को देख रहा है, वह यह भी समझ रहा है कि यह लड़ाई आसान नहीं
इसी भाव साम्य पर वसीम बरेलवी की एक पंक्ति का उल्लेख है, क्योंकि एक तरफ पूरा तंत्र है और दूसरी तरफ लाचारी। फिर भी
करना भी समीचीन होगा क्योंकि एक ही पीड़ा को दूसरा हृदय कैसे कवि को उसी निराश जनता के बीच से ही चिंगारी की उम्मीदें हैं -
महसूस करता है, इसकी भी बानगी देखने योग्य है- ‘कल्पना कीजिये
‘जायदादें कहाँ बटीं उनमें, सोलहलखा सूट के सामने हवाई चप्पल विपक्ष है। ‘
जायदादों में बँट गए भाई’। (shayarikosh.com) (कविता कोश– समकाल की आवाज़ : कविता संग्रह)
‘रोटी का संविधान’ लिखते हुए कवि उन सभी अवरोधों की ये वही भाव हैं, जहाँ सोने की लंका के स्वामी के बरअक्स
ओर संकते करता है जिसके कारण आम लोगों के लिए दिल्ली एक नंगे पांव वाला योगी अपने समय की चुनौतियों से जूझते हुए
हमेशा दूर ही रही है - सत्ता का प्रतिपक्ष रचता है। जिसके लिए तुलसीदास जी ने सुंदर
‘दिल्ली झंडा और देशगान अभिव्यक्ति दी है–
साधु जंगल गइया महान, रावण रथी विरथ रघुवीरा। देखि विभीषन भयउ अधीरा।
….
yegh जुलाई से सितंबर 2023 n 227
इसलिये इसे कवि लीकेज यानी लीक-एज की संज्ञा देता है, लीक-
एज अर्थात लीक वाला युग।
अश्लीलता पर विचार करते हुए एक गंभीर बहस को भी आसान
भाषा में बता जाते हैं। वे कहते हैं–
फ़ोटो में होती
तो सारे कैमरे अश्लील होते
रेखाओं में होती
तो सारे चित्रकार अश्लील होते
शब्दों में होती तो सारी कविताएँ अश्लील (कविता कोश–
समकाल की आवाज़ : कविता संग्रह)
इन्हीं पंक्तियों में वह पंक्ति भी आती है जो इस बात की तस्दीक
करती है कि अश्लीलता वस्तु में नहीं देखने वाले की आंखों में
होती है।
(लंकाकांड :श्रीरामचरित मानस– गोस्वामी तुलसीदास) ‘अश्लीलता यदि औरत में होती तो
आज भी पूंजीपतियों की खुली लूट के साथ सत्ता का गठजोड़, माँ का अस्तित्व ही नहीं होता।’ (कविता कोश– समकाल
मीडिया की चापलूसी के बरअक्स देश की आम जनता द्वारा रचा की आवाज़ : कविता संग्रह)
गया प्रतिपक्ष, जिसका एक प्रतिनिधि कवि भी है, जो उसकी वाणी माँ से ऊँचा स्त्री का कोई और दर्ज़ा नहीं हो सकता, और स्त्री ही
को बल प्रदान कर रहा है। है जो इस इतने ऊँचे दर्ज़े पर पहुँचती है और विडंबना देखिए कि वही
‘औरतें’ कविता में देवेंद्र आर्य स्त्री विमर्श के उन सवालों को स्त्री समाज के समक्ष अपनी शुचिता को प्रमाणित करने अग्निपरीक्षा
मुखरता से उठाते हैं जिन पर कई बार चुप्पी साध ली जाती है। देने के लिए भी बाध्य है। श्लीलता-अश्लीलता व शर्मो-हया की बात
औरतें पीठ पर लादे रोशनी पर प्रसिद्ध शायर अकबर इलाहाबादी फरमाते हैं–
धुंधलके में क्यों रहना चाहती हैं। (कविता कोश– समकाल “बेपर्दा नज़र आयीं जो कल चंद बीवियाँ
की आवाज़ : कविता संग्रह) अकबर ज़मीं में ग़ैरते क़ौमी से गड़ गया
आज जब हिंदुत्ववादी ताक़तें निजी एजेंडे को आगे बढ़ाने के पूछा किसी ने आपका पर्दा वो क्या हुआ
क्रम में लोगों के भीतर वैमनस्य को प्रोत्साहित करने से नहीं चूक कहने लगीं कि अक्ल पे मर्दों के पड़ गया।’
रही हैं और धर्म के उन्माद के सहारे बुनियादी सवालों को गुमराह (rekhta.org)
किया जा रहा है तब कवि की बेचैनी दीख पड़ती है– कला, कला के लिए है या कला समाज के लिए, यह सवाल
भूख़ को भजन से भगाने की साधना आज भी उतना ही ज्वलंत है जितना कि पहले था। कविता का जीवन
उत्सर्ग की जगह आराधना। (कविता कोश– समकाल की कितना होगा यह इस बात से तय होता है कि कविता जीवन के कितने
आवाज़ : कविता संग्रह) निकट है। शायद इस द्वंद्व से कवि स्वयं को उलझा हुआ पाता है और
आज पीएचडी धारक भी चपरासी की नौकरी के लिए आवेदन कोई निर्णय नहीं देना चाहता क्योंकि कवि के लिए कविता का उतना
करने को बाध्य हैं, इसके लिए किसे दोष दिया जाए? कवि की ही सम्मान है जितना कि कविता जिसके लिए लिखी गयी है। कवि के
बेचैनी आज के युवाओं की पीड़ा के साथ एकमेक होकर कुछ इस लिए कविता और जीवन में भेद नहीं है। अतःविकल्पहीनता की इस
तरह से व्यक्त होती है- विवशता को कवि सहर्ष स्वीकार कर कह उठता है–
सरकारी हिंसा हिंसा न भवति दूसरा विकल्प नहीं है
वैसे ही सरकारी लीक लीक न भवति। (कविता कोश– गीत बचाऊँ कि जिंदगी। (कविता कोश– प्रतिनिधि गीत)
समकाल की आवाज़ : कविता संग्रह) n

‘लीक से लीकेज’ कविता में कवि पेपर लीक की घटनाओं से संपर्क : सहायक प्रोफेसर, क्षेत्रीय िशक्षा संस्थान,
लाखों छात्रों के भविष्य से होते खिलवाड़ को लेकर आहत हो उठते अजमेर
हैं। नेट, टेट, स्लेट या फिर गेट, हर जगह पेपर लीक हो रहा है। मो. 9763748374

228 n जुलाई से सितंबर 2023 yegh


n महत्तम : मोहन कुमार डहेरिया

विकट नैतिकताबोध और आत्मजिरह का कवि


श्रीराम निवारिया

मोहन कुमार डहेरिया हिंदी कविता के नवें दशक में सच्चाइयों, विडंबनाओं को प्रकट करने तथा गहराई
उभरे महत्वपूर्ण कवियों में अपनी एक अलग पहचान देने के लिए कला का इस्तेमाल कर रहा है। कवि
रखते हैं। छिंदवाड़ा जिले के कोयला खदान क्षेत्र से मोहन, अपने अंदर के कवि को भी न बख्शते हुए,
उभरे इस कवि की 'पहल' में 'गूंगा' शीर्षक से एक अपनी एक कविता ' कहाँ रहता है कवि ' में स्वयं से
साथ ग्यारह कविताएँ उसी दौर में छापकर, सबसे और दुनिया भर के अन्य लोगों से कवि के रहने की
पहले उनकी काव्यात्मक क्षमता तथा प्रतिभा को जगह की सख्त तहक़ीकात इस तरह करते हुए नज़र
ज्ञानरंजन जी ने रेखांकित किया था। उसके बाद आते हैं -
उनकी काव्य यात्रा रुकी नहीं। देश की लगभग सभी महत्वपूर्ण 'कहाँ रहता है कवि
पत्रिकाओं में निरंतर उनकी कविताएँ छपती रहीं और अन्य काव्य मछुआरों के लोकगीतों के अंदर
संग्रह भी आते चले गए। मोहन कुमार डहेरिया साधारण विषय को ईश्वर के सिंहासन के नीचे
प्रभावशाली ढंग प्रस्तुत करने की कला के निर्माता हैं। वे जीवन किसी हत्यारे के प्रायश्चित के भीतर
की तलछटों में घुसने की कला में माहिर हैं, जिसके लिए वे अपनी यश के ऊँचे पहाड़ के अभिशप्त शिखर पर
कविता में प्रतीकों, उपमाओं तथा रूपकों के नायाब औज़ारों का ... ... या धूर्तता की
अविष्कार करते हैं। वे इन औज़ारों का इस्तेमाल इस तरह करते हैं किसी कलात्मक सुरंग के अंदर'
कि सीधे मर्म तक पहुँचकर, समाज से चिपटे मर्ज को पकड़ लेते यहाँ इस कवि को ख़ुद से ही नहीं, अन्य कवियों से भी एक
हैं; इसी अर्थ में वे रवि से बढ़कर कवि होने के मुहावरे को सिद्ध स्वाभिमानी अपेक्षा है। उन्हें यह बर्दाश्त नहीं कि कवि और कविता
करते हैं। उनकी यह सफलता, कवि की सफलता से आगे बढ़ के बीच जरा सी भी फांक हो। इसलिए वह कविता को अपने
कर पाठक तथा समाज की सफलता बनकर आनंद, चिंतन तथा समानांतर चलने का आवाहन करते हुए कहते भी हैं -
बदलाव की ज़मीन तैयार करती है। 'मेरे साथ-साथ चलना मेरी कविताओं
मोहन कुमार डहेरिया के एक कविता संग्रह का नाम ' इस घर गणतंत्र दिवस में भाग लेते सैनिकों की तरह
में रहना एक कला है ' है। दुनिया का एक बड़ा हिस्सा कला के एक ही दिशा में तनी हो हमारी गर्दनें
अंतर्गत आएगा। मानव का जब से सभ्य समाज में प्रवेश हुआ है, मैं खांसू जब सीने को पकड़कर
तबसे उसमें कला का दखल माना जाएगा। अर्थात जहाँ-जहाँ भूख़ तुम्हारे मुँह से भी निकले ख़ून सना बलगम'
का भूगोल खत्म हुआ है, मनुष्यों ने नंगेपन से निजात पाई है, उसके वस्तुतः कविता के माध्यम से कवि स्वयं के प्रति ईमानदार,
बाद जो दुनिया शुरू होती है, वह कला की ही दुनिया है। कला के प्रतिबद्ध रहने का पक्का आश्वासन चाहता है और जानना चाहता है
बिना लेखकों, कलाकारों, चित्रकारों का काम नहीं चलता लेकिन कि कविता लिखकर वह कोई बेजा फायदा तो नहीं लेना चाहता है।
कई बार कला का सृजनात्मक पक्ष दूषित होकर धूर्तता, चोरी, झूठ इसलिए कविता के अंत में कहता है 'देखना मेरी कविताओं/कहीं
बोलना, जैसे दुर्गुणों में बदल जाता है। जो कवियों के अंदर भी घुस मैं/शिकार और शिकारी की भूमिका/आपस में बदल तो नहीं लेता'
जाते हैं। इसलिए यह सवाल महत्वपूर्ण हो जाता है कि कौन कवि इस कविता की हर पंक्ति से एक अलग तरह का काव्य सौंदर्य
सिर्फ़ कला के लिए कविता लिख रहा है; और कौन कवि जीवनगत झरता दिखाई देता है, जिससे पाठक पंक्ति दर पंक्ति तरबतर होता

yegh जुलाई से सितंबर 2023 n 229


रहता है और अंत में जिजीविषा तथा संघर्ष की भावना से ठसाठस एक माँ के बुरे कर्मो का ज़िक्र करता है; फिर एक बेटे की माँ होने
भर जाता है। की ममतामयी भूमिका तड़प को रेखांकित करता है। उसके जवान
नई ज़मीन बनाना, नई ज़मीन पर चलने से बड़ा काम है। बेटे की असामयिक मृत्यु पर, दाह संस्कार के समय, उसके पिछले
यह काम अपनी कई कविताओं में कवि गहरी संलग्नता से करता बुरे कर्मो पर उसे लांछित करने वाले उथले किस्म के लोगों को
दिखाई देता है। 'मौत के बाद उस घर में त्यौहार' कविता में कवि चेतावनी देते हुए कहता है-
यातना की नई ज़मीन पर चहलकदमी करता दिखाई देता है। इस 'मत करो इस समय
कविता में चित्रण तो दुख के अवसर का है लेकिन इस दुख के उसके चरित्र पर टीका-टिप्पणी लोगो
चारों तरफ कवि ने खुशियों की जो बागुड़ लगाई है; वह उसके मत कहो सिर पटकने को नाटक
कला कौशल का उम्दा उदाहरण है। इस चित्रण में वे उन कुरीतियों नहीं करो ज़िक्र
पर भी प्रकाश डाल रहे हैं, जिसमें लोग आज भी पत्थर की मूर्ति कि पकड़ी गई थी रात दो बजे प्रेमी संग
के सामने पशुओं की बलि देकर अपने परिवार के सुखद जीवन बेचती थी दारु
की आकांक्षा पाल लेते हैं। इस कविता में नया मुहावरा निर्मित कर थे गलत संबंध कई लोगों से
कवि ने संवेदना तथा विचार को गतिशील बनाकर सरल, सहज अभी देवी देवताओं के फोटो फेंकती
रूप में प्रस्तुत कर जीवन के दोहरेपन को उलटबांसी के शिल्प में यमराज के भैंसे से जूझती
इस तरह प्रस्तुत किया है- वह सिर्फ़ एक माँ है।'
'हँस पड़ी दिवंगत लड़के की माँ भी जाहिर है, माँ को देखने की यह नई यथार्थवादी दृष्टि है,जिसमें
बिलबिलाकर एक माँ के चरित्र के कई रंग है,जो समकालीन कविता में कम ही
ख़ुशी कोई कोड़ा हो जैसे देखने को मिलती है। यह कविता किसी की मृत्यु जैसे अवसर पर,
पड़ा पीठ पर सटाक से मनुष्य की मक्कारी को भी स्पष्ट करती है। मोहन जी ने स्त्री-पुरुषों
जबकि तय हुआ था सबके बीच के संबंधों पर भी कुछ अच्छी कविताएँ लिखी है। उनमें स्त्रियों के
खुलने नहीं देना है जीवन के कई अनजाने पहलु तथा नए रहस्य रेखांकित हुए हैं।
परिवार के घाव का मुँह ' कुछ स्त्रियाँ कभी-कभी भीड़ का हिस्सा बनकर सार्वजनिक मंचों से
यह कविता परिवार के दुखी लोगों की भ्रामक सुख में डूब जाने पुरुषों को कोसती हैं। वे ही घर आकर पति की लम्बी आयु के लिए
की विडंबना की पोल को भी मार्मिक ढंग से रेखांकित करती है। व्रत रखती हैं। भाइयों की तारीफों के पुल बांधती हैं लेकिन मोहन
मोहन कुमार डहेरिया के अब तक पाँच कविता संग्रह प्रकाशित जी के अंदर का कवि पत्नी के रूप में एक ऐसी स्त्री को सामने
हैं। उनकी कविताओं में जीवन की विभिन्न जटिल परतें है। कहीं लाता है, जो एक कवि की आवारगी, अकेलापन तथा उसके बिखरे
जीवन के प्रेमिल क्षणों का शहद पीती भय, तनाव तथा आशंकाओं हुए जीवन की गहराई को समझती है और कवि के सृजनात्मक
की मधुमक्खियाँ हैं, कहीं अपने ही सपनों के कीचड़ में रहने की कार्य करने के दौरान शराब पीने पर कहती है -
यातना, तो कहीं पैरों के नीचे स्मृतियों के नाग की पूँछ दबी हुई है 'पियो, कभी-कभार ख़ूब पियो
तो कहीं आशंकाओं का ध्रुव तारा उनके जीवन को रास्ता दिखाता तुम्हारे हर पैग पर
तथा जोशीला बनाये रखता नज़र आता है। जीवन को लिजलिजी कटघरे में खड़ा हो रहे हैं न्यायाधीश
भावुकता देखने का मलाल भी उन्हें कई बार होते रहता है। तुम्हारी हर अनर्गल बुदबुदाहट को
डहेरिया जी अपनी कविताओं में अक्सर नए-नए विषयों को स्पष्टता और गहरे औचित्य से सुन रहे हैं
उठाकर, नए जीवन संदर्भ, नई जटिलताओं के साथ रेखांकित इस देश के विवेकवान लोग '
करते हैं। ऐसा करना लेखकीय साहस का भी काम है और पाठकों अक्सर देखा गया है, लेखकों और उनकी पत्नियों के बीच
को अरेखांकित, अदृश्य जीवन अनुभवों से परिचित कराना भी। संबंध सहज तथा सामान्य नहीं रह पाते हैं। उनकी भयंकर कलह
'माँ' को लेकर हिंदी में लंबे समय से कविताएँ लिखी जाती रही हैं भी कई बार देखने को मिलती रही है लेकिन इस कविता में मौज़ूद
और उन्हें अक्सर रोमानी भाव से देखा गया है। साथ ही साथ उन्हें पत्नी एक बिलकुल अलग तरह की साहसी, सुलझी हुई पत्नी के
महान शक्तिशाली योद्धा बनाकर, उनसे दुनिया भर की अपेक्षाएँ रूप में सामने आती है, जिससे जुड़ना पाठकों के लिए भी नया
की जाती है परंतु 'वह सिर्फ़ एक माँ' कविता में कवि सबसे पहले अनुभव होगा।

230 n जुलाई से सितंबर 2023 yegh


मोहनजी की काव्य दुनिया में अपने समय, समाज तथा जीवन कब तुम्हारी बोलीबानी का हिस्सा हुए
की बहुपरतीय, बहुमुखी छवियाँ भी हैं। जैसा कि मैंने ऊपर कहा ग़रीबी रेखा कार्ड, बोहनी बट्टा, त्यौहारी
है, वे तात्कालिक जीवन को कला के शिल्प में लपेटकर प्रस्तुत बाज़ार
करने की कला के निर्माता हैं। तात्कालिक जीवन की ही अगर बात कब मात्र तीन कश पीकर
करें तो गाय इस समय हमारे समय, समाज तथा राजनीति के केंद्र फेंकने लगा मैं कीमती सिगरेट
में हैं, जो मनुष्य के शोषण का औज़ार बनी हुई हैं परंतु कवि वर्षो कब आधी पीई बीड़ी कानों में खोंचने लगे तुम
से हमारी संस्कृति के केंद्र में रहे इस पशु को किसी राजनैतिक कि पी सको कई बार '
अवसरवादी नजरिए से न देखकर, बेहद मानवीय निगाह से देखते ये चित्रण तथा पंक्तियाँ पाठकों के कानों के पर्दे से संबंधों के
हैं। उनकी नज़र भूख़ी, प्यासी एक गाय पर हैं, जो स्कूल के खेल शोकगीत सा टकराती है। इस कविता में ऐशो-आराम से रहने वाला
के मैदान में गोल पोस्ट पर लगी जाली में बुरी तरह फंस गई है कवि का भाई अपने ग़रीब मंगल भाई से बेहद कातर स्वर में पूछ
तथा उसे कुत्तों ने घेर रखा है। उनकी नज़र इसके घावों, स्वादिष्ट रहा है, बताओ भाई, हमारी जड़ें तो एक ही मिट्टी में धंसी थी फिर
मांस, तथा बहते हुए ख़ून पर हैं। वे अपना घेरा कसते हुए निरंतर ये छदम, अमानवीय जीवन का बदबू का झोंका मेरी आत्मा के
गुर्रा रहे हैं। उन्हें एक शानदार भोज की उम्मीद है। कवि अपनी इस पीछे कैसे लग गया जबकि इतनी ग़रीबी में रहने के बाद तुम्हारा
कविता में कहते हैं - जीवन स्वाभिमान और मनुष्यता की खुशबू से अभी तक कैसे सना
'आख़िर कैसे बचाऊँ इस गाय को हुआ है। इन सादे, सरल शब्दों को सही जीवन संदर्भ में पिरोने से
छा रहे आसमान में बादल वे ताक़तवर होकर संवेदना, करुणा में इतने भीग गए हैं कि वे हर
कस रहा चारों और कुत्तों का घेरा पाठक के दिल को धक्का देकर; अपने संबंधों के जंग लगे ताले
होता अगर पोला का त्यौहार या पशु दिवस को तोड़ देते हैं।
तो कैसे भी गाय को निकाल ले जाते लोग' एक कवि के रूप में मोहनजी की चिंताएँ विस्तृत तथा गहरी
इस तरह की मुसीबत, किसी भी प्राणी पर आ सकती है लेकिन है। एक कवि और लेखक की अंदरूनी रचना प्रक्रिया कैसी होती
कवि की चिंता यह है कि यदि कोई विशेष अवसर होता, जैसे पोला है; मोहन कुमार डहेरिया ने अपनी एक कविता में इस पर भी
का त्यौहार या पशु दिवस तब अनेक लोग ऐसे त्यौहार को मनाने विचार किया है। वे अपनी एक कविता 'कविताओं का मेरे अंदर
के जोश में मदद के लिए आ जाते हैं। बाकी समय उन्हें गायों की आना' में बताते हैं कि कई बार बहुत कोशिश करने पर भी वे एक
कोई चिंता नहीं रहती। इसी कविता में कवि आगे व्यंग्य करते हुए शब्द नहीं लिख पाते हैं। उन्हें लगता है, उनकी आत्मा की नमी
पूछते हैं, हमारा यह कैसा कृषि प्रधान देश है, जो अवसर विशेष को किसी भयावह, विराट रेगिस्तान ने दबोच लिया है। पेन में
को ही बड़ा मानते हुए सक्रिय होता है। उसी समय लोगों की दया, स्याही की जगह रेत भर गई है। वे अपने इस काव्यात्मक सूखे पर
करुणा जागती है। अन्य दिनों पशु प्रेम की बुनियादी चिंता उन के कई कई तरीके से विचार करते हैं। कभी उन्हें लगता है, उनकी
अंदर स्वाभाविक रूप से नहीं रहती। कवि की चिंता गाय भर की काव्यात्मकता को कहीं उनकी दैत्यनुमा नौकरी खा गई है, कभी
चिंता नहीं है, मनुष्य की उस संकीर्ण हो रही साप्रदायिक सोच में वे कल्पना करते हैं, पाठ्यकीय आक्सीजन की कमी भी उनकी
घिरे होने की है; जिसमें वह अवसर विशेष को देखकर ही मानवीय रचना शक्ति को मृत प्रायः बना सकती है। यहाँ इस संदर्भ में, मुझे
अच्छा काम करना चाहता है। केदारनाथ सिंह के कविता-संग्रह 'अकाल में सारस' की पाठकों की
'पता ही नहीं चला कविता' पारिवारिक जीवन की घनिष्ठता चिंता करती निम्नानुसार कविता याद आती है-
और संवेदना की एक अन्य महत्वपूर्ण कविता है। इस कविता में 'प्रिय पाठक
कवि मृत हो चुके संबंधों पर से विस्मृति की धूल, इतनी कलात्मक मिलने आया था
ख़ूबसूरती से हटाते हैं कि पहले तो पाठक उस धूल को हटाने के पता चला आप बाहर है'
तरीकों में ही रम जाता है; फिर संवेदना से सराबोर, संबंधों की जो मोहन कुमार डहेरिया भी इसी परंपरा को आगे बढ़ाते हुए
जीवंत मूर्ति बनती है, वह उसके दिलो-दिमाग में लंबे समय के कहते हैं, आख़िर पाठक साहित्य से बाहर क्यों हैं। साहित्य उसकी
लिए ठहर जाती है। उदाहरण देखिए- रोजमर्रा की जरूरतों में शामिल क्यों नहीं है। पाठकों का बाहर हो
'कब शामिल हो गए मेरी भाषा में जाना साहित्य का जीवन से बाहर हो जाना है। यह मानव समाज
पिज्जा, ब्रांडेड जीन, तथा डालर जैसे शब्द का एक बड़ा संकट है, जिसकी तरफ किसी भी राजनैतिक दल का

yegh जुलाई से सितंबर 2023 n 231


ध्यान नहीं है। यहाँ एक और बात उल्लेखनीय है, मोहन कुमार रहे, मनुष्य की आत्मा को कुछ भी खिला देने से वह संतुष्ट हो
डहेरिया को सिर्फ़ अपने ही अरचनात्मक होने क़ी चिंता नहीं है; जाएगी। जिस तरह नेता जनता को मूर्ख बना देता है, अधिकारी
वे अपने लेखक मित्रों को भी याद करते हैं, जिनकी लेखन यात्रा नेता को और कर्मचारी अधिकारी को गलत जानकारी देकर संतुष्ट
तो उनके साथ ही प्रारंभ हुई थी लेकिन वे न जाने कब इस यात्रा करने की कोशिश करते रहते हैं; यह अब हमेशा नहीं चलते रहेगा।
से अलग हो गए, किसी ध्यान ही नहीं गया। उन्हें भुलाकर सब कवि अपनी आत्मा को बहुत ऊँचाई पर ले जाकर गहरी रूपकता
अपनी-अपनी दौड़ में व्यस्त रहे। इसी तक़लीफ को उन्होंने एक तथा सांकेतिकता से जो संदेश देना चाहते है; वह इन पंक्तियों से
अन्य कविता 'हरीश कुमार आजकल बिलकुल नहीं लिखता' में प्रकट होता है-
बड़े ही प्रभावशाली ढंग से व्यक्त किया है। कुछ पंक्तियाँ देखिए– 'पत्नी और बच्चों की नजरें बचाकर
'हरीश कुमार आजकल बिलकुल नहीं विलक्षण कौशल से हटा देता मैं
लिखता जूठे बर्तनों से
कहीं मानने तो नहीं लगा सब्जियों के सड़े-गले टुकड़े तथा हड्डियाँ
साहित्य तथा अन्य कलाओं को ताकि गन्दगी में न लिथड़े
मनुष्य क़ी आत्मा का फिजूल का शगल बर्तन माँजने वाली की आत्मा'
रह तो नहीं रहा किसी नासूर के अंदर कवि मानता है, अगर आत्मा को हम महत्वपूर्ण, ज़रूरी मानते
देख विरक्त तो नहीं हो गया हैं तो यही उच्च नैतिकता बोध वाला हमारा चरित्र होना चाहिए।
लेखकीय पाखंड और पुरस्कार क़ी मंदिर के घंटे और सुन्नत ज़रूरी है या कैथोलिक ईसाई ही मूल
राजनीति' है; जैसी धारणाएँ अब काम की नहीं है। दूसरों की नजरें बचाकर,
यदि ये ही चिंताएँ, हरीश कुमार क़ी मूल चिंताएँ होंगीं, जिनके छोटी हैसियत वाले मनुष्य के हित में कोई अच्छा काम कर देना भी
कारण उसने लिखना छोड़ दिया है तो पूरे ये पूरे समाज के क्रूर, हमारे चरित्र को उज्ज्वल बनाए रख सकता है और हमारी आत्मा
करुणाविहीन तथा पशुवत हो जाने की बड़ी चिंताएँ हैं। इन्हें साहित्य को भूख़े मरने से बचा सकता है।
बिरादरी की मूल चिंता बननी चाहिए। मोहन कुमार डहेरिया जबसे कविता लेखन कर रहे हैं; अपने
मोहन कुमार विकट नैतिकता बोध के कवि हैं। उनकी लगभग समय और समाज पर हमेशा उनकी सतर्क निगाह रही है। पितृ
हर कविता में एक नैतिक ऊहापोह चलती ही रहती है; जाहिर है, सत्तात्मक समाज, जातिगत दंश, या सांप्रदायिकता का मामला
जो आज के हर संवेदनशील व्यक्ति की बुनियादी तथा मूल चिंता हो, उनकी कविता ने ऐसे हर सामाजिक जहर की पड़ताल की है
है। लेकिन समाज का एक बड़ा वर्ग इससे कटा हुआ भी है। 'मैं लेकिन कविता की दुनिया में जिस योगदान के लिए उन्हें जाना
और मेरी भूख़ी आत्मा' उनकी इसी बुनियादी सरोकार की एक जाता रहा है; वे हैं उनकी प्रेम कविताएँ जोकि उनके हर कविता
अच्छी कविता है; जिसमें कवि ने नैतिकता और आत्मा के सवाल संग्रह में मौज़ूद रही हैं। 'न लौटे कोई इस तरह' उनका चर्चित
को परंपरागत, धार्मिक अर्थ से अलग हटकर उसे अलग रूप में प्रेम कविता संग्रह रहा है जिसे पर्याप्त सराहा गया था और इस पर
गढ़ने की कोशिश की है। कवि कहते है - 2016 में उन्हें सम्मान भी मिला था। प्रेम तथा कला, ये दोनों तत्व
'नहीं थी पहले मोहन कुमार डहेरिया की कविताओं के मूल तत्व रहे हैं। उनकी
ऐसी बीहड़ और अनंत उसकी भूख़ कविताओं में प्रेम के चमकीले, स्याह और धूसर रंग हैं। ऐन्द्रिक
आती थी कभी-कभी सामने कामनाओं से भी उन्हें परहेज नहीं है। 'लौट आओ ओ साँवली
पेश कर देता लड़की' उनकी एक बेहद मार्मिक कविता है। यह कविता नहीं,
अपने चरित्र का कोई भी उज्ज्वल हिस्सा दहक़ते अंगारे से किसी मनुष्य के झुलसे कंठ से निकली छटपटाती
हो जाती खाकर संतुष्ट' लंबी आह, चीख या पुकार है। इस कविता में कवि अपनी प्रेमिका
जाहिर है, यहाँ भूख़ का संबंध मनुष्य के पेट से नहीं है। कवि सॉवली लड़की को कामनाओं के भीषण छींटे उछालते, आग की
मनुष्य की भूख़ी आत्मा की बात कर रहा है। खाने के भौतिक रूप लपटों से घिरे जंगल में फंसे परिंदे, पालने में लेटे शिशु, दीवाने
से उसका पेट नहीं भरने वाला। वह मनुष्य से सम्पूर्ण रूप से कुछ सा नाचते हठयोगी तथा देह के कटोरे में अपनी आत्मा को सिक्के
उच्च चीज़ की अपेक्षा कर रही है। उपर्युक्त पंक्तियों में गंभीर मुद्दा सा खनखनाकर भिखारी सा, बस एक बार अपने जीवन में आ
उठाया गया है। डहेरिया जी बताना चाहते हैं, दुनिया भुलावे में न जाने का अनुरोध करता हुआ पुकारता है लेकिन हर बार उसकी

232 n जुलाई से सितंबर 2023 yegh


पुकार अनसुनी रह जाती है। इसका नायक प्रेम में डूबकर इतना विषकन्या हो जैसे किसी शत्रु देश की'
दीवाना,आत्मलीन तथा उन्मत हो चुका है कि लोग कहने लगते हैं, यहाँ भालेनुमा अंगुलियाँ, विषकन्या बिलकुल नए रूप तथा
इस आदमी से अपने खेतों-खलिहानों, रीत-रिवाजों, पूजाग्रहों तथा संदर्भ में आकर, कविता के सौंदर्य को नया आयाम दे देते हैं।
बच्चों को बचाओ क्योंकि यह पागल सूफ़ी जहाँ भी थूकता है; वहाँ मोहन की प्रेम कविताओं में प्रेम की बहुस्तरीय छवियाँ हैं। उनके
आशिकी के कीड़े पैदा हो जाते हैं। यह कविता चर्मोत्कर्ष पर तब यहाँ में पस्त होती कामनाएँ, उसकी थकान, अकेलापन है तो
पहुँच जाती है; जब कवि जीवन रूपी युद्ध में ढहते हुए योद्धा सा अंकुरित होती प्रेम की नई आहटें भी हैं। उनकी प्रेम कविताओं की
अपने शरीर के हर रोमछिद्र से करुण स्वर में पुकारने लग जाता एक अलग ही दुनिया है।
है। रोम छिद्र से पुकारने की बात लिखकर कवि ने इस कविता के व्यक्ति, रचना, वस्तु तथा आपके कार्यक्रम तभी आकर्षण के
प्रेम संगीत को बहुत ऊँचाई पर पहुँचा दिया है। इन पंक्तियों में कवि केंद्र होते हैं; जब उनमें नयापन, ताजगी होते हैं। मोहन कुमार
की वेचैनी देखिए- डहेरिया अपनी कविता के कथ्य, शैली में एक ताजगी भरकर लाते
'विश्वास की किसी ज़मीन पर खड़े होकर हैं। इसी ताजगी का मनभावन झोंका पाठकों को बांध लेता है।
संभावना की किसी दिशा से भाषा, शैली, उपमाओं के एक शहंशाह जयशंकर प्रसाद हैं तो दूसरे
आँखों में कितने मानसूनों का जल लेकर शहंशाह कवि अज्ञेय। जिस तरह जयशंकर प्रसाद कामायनी के
पुकारूँ 'श्रद्धा' सर्ग में श्रद्धा के सौंदर्य को बताने के लिए बिम्बों, उपमाओं
कि लौट आओ तुम मेरे पास' तथा रूपकों की झड़ी लगा देते हैं ; उसी तरह इस कवि का काव्य
लेकिन कवि की यातना यहीं खत्म नहीं होती। वे प्रेम के वियोग मुहावरा भी अत्यंत कुशाग्र है। 'हरी घास पर क्षण भर' तथा 'बावरा
को भूलकर नए वैवाहिक जीवन में प्रवेश करते हैं और उनकी आहेरी' के अज्ञेय में भी यही ताजगी देखी गई थी। इसी विशिष्ट
तक़लीफें फिर नए सिरे से प्रारंभ हो जाती है वे टूटते उलझते रचना कौशल के कारण मोहनजी की उनके समकालीन अन्य
अपने वैवाहिक जीवन की त्रासदी, विसंगतियों तथा विडंबना पर कवियों से एक अलग पहचान बनती है। उनके पहले काव्य संग्रह,
भी कलम चलाते हैं। उनकी कई कविताओं में आज के जटिल होते यही विशिष्टता थी, जिसे प्रख्यात कवि, आलोचक विष्णु खरे ने भी
वैवाहिक जीवन के भी बहुत नए-नए चित्र दिखाई देते हैं। लम्बे पहचाना था। मोहनजी गहरे आत्मद्वन्द्व, आत्म संशय तथा विकट
समय तक साथ रहने से पति-पत्नी के बीच सहमति, असहमति नैतिक जिरह के कवि हैं।
तथा टकराव स्वाभाविक है। 'कामायनी' में इसी बात को चित्रित यह सच है, मोहन कुमार डहेरिया प्रतीकों, उपमाओं तथा
करते हुए जयशंकर प्रसाद ने लिखा है-दुख की रजनी बीच व्यंजना के बेहद मौलिक कवि हैं परंतु कभी-कभी यह कला उनकी
विकसता सुख का नवल प्रभात' मोहनजी भी प्रसाद की परंपरा की कविताओं में इतने घनघोर, अटूट ढंग से सामने आती है कि इन्हीं
काव्य शैली को आगे बढ़ाते नज़र आते हैं। वे भी जयशंकर प्रसाद कला तत्व से उनकी कविताएँ थोड़ा ज्यादा भारी हो जाती है और
की तरह अपनी बात कहने के लिए बिलकुल नए तरीके के प्रतीक, कुछ जगह पाठक तक ठीक से संप्रेषित नहीं हो पाती। कुछ जगह
काव्य औज़ार निर्मित करते हैं, इससे कविता की पुरानी गाड़ी में अनावश्यक भाषा विस्तार भी है। हो सकता है, यह उनका अर्जित
नई गति आ जाती है। उनके कविता संग्रह 'इस घर में रहना एक काव्य शिल्प हो। वैसे भी हर कवि की अपनी ख़ूबियाँ, कमियाँ होती
कला है' में 'तय हो गया है जैसे' ऐसे ही स्वभाव की एक कविता ही हैं। यह नहीं भूलना चाहिए कि विष्णु खरे की कविताओं में भी
है, जो यह बताती है कि कई बार वैवाहिक जीवन में पति पत्नी के लंबे-लंबे वाक्य हैं। यह काव्यगत दुर्बलता उनके शुरुआती कविता
बीच इतना पेचीदापन, कटुता तथा अजीब तरह की हिंसा आ जाती संग्रहों में कहीं-कहीं दिखाई देती है। यह अच्छी बात है कि उन्होंनें
है कि एक भयानक झगड़े के बाद जब उनके विवाह की वर्षगाँठ इससे अब काफ़ी हद तक मुक्ति पा ली है और अपने विशिष्ट
आती है, तो भी यह कटुता खत्म नहीं होती है और अगले दिन जब काव्य मुहावरे को गहरी तल्लीनता से साधे, सधे हुए कदमों से
इस वर्षगाँठ के एक शानदार समारोह के बाद पति पत्नी को रात में निरंतर आगे बढ़ रहे हैं। n
प्रेम के एकांत पल मिलते है तो उनका मिलन यों होता है -
'पति ने भालेनुमा अंगुलियों से एच.आई.जी., 54/2, चयन कॉलोनी,
हटाने शुरू किए पत्नी के वस्त्र जमानी रोड, इटारसी, मध्यप्रदेश,
पत्नी ने भी पति के गले में बाहें डालकर मो. 8989925747
यों लिया चुम्बन

yegh जुलाई से सितंबर 2023 n 233


n महत्तम : मिथिलेश श्रीवास्तव

हमारा जनतंत्र और कविता का विवेक


मनोज कुमार सिंह

बीसवीं शताब्दी के पहले भारतीय समाज ने इतना वह पता मेरा स्थायी पता कैसे हो सकता है
व्यापक और क्रूर विस्थापन नहीं देखा था। आज़ादी लेकिन हममें से हर एक का
के बाद विस्थापन की गति और तेज हुई है। इसका एक स्थायी पता है जहाँ से हम उजड़े थे...
सबसे बड़ा कारण अंग्रेजी व्यवस्था और आज़ाद एक दिन मुझे लिखना पड़ा कि
भारत की व्यवस्था के शिल्पकारों के विकास मेरा वर्तमान पता ही स्थायी पता है...
संबंधी स्वप्न और दृष्टिकोण का समान होना है।
औद्योगीकरण, नगरीकरण और विकास के केन्द्रीकृत कविता का आख़िरी हिस्सा उजड़े हुए लोगों के
प्रारूप ने विस्थापन को अनिवार्य बना दिया है। श्रम, स्वास्थ्य, दुख को और अधिक मर्मांतक और विडंबनायुक्त बना देता है-
शिक्षा, सुरक्षा और पूँजी निवेश हेतु लोग अपने घर-परिवार, गाँव- ‘पुलिस इस बात से सहमत नहीं हुई
समाज, संबंध-स्मृति, भाषा-संस्कृति सबको पीछे छोड़ महानगरों वर्तमान पता बदल जाने पर वह मुझे कहाँ खोजेगी...
की ओर आने को मजबूर हैं। इस विस्थापन का दुख सबसे पहले लोकतांत्रिक देश की पुलिस
मातृभाषाओं में व्यक्त हुआ है। हिंदी क्षेत्र की मातृभाषाएँ हिंदी की वर्तमान पते पर रहने वालों से
बोलियाँ हैं। हिंदी की बोलियों में विस्थापन का दुख केन्द्र में रहा स्थायी पता माँगती है
है। हिंदी क्षेत्र की बोलियों में रचे हुए लोकगीत इस बात की गवाही जिसका कोई पता नहीं
देते हैं। बोलियों के लोग जब नगरों और महानगरों में मजबूरन या पुलिस उसे संदिग्ध मानती है...'
विकास हेतु आते हैं तो सबसे पहले उन्हें अपनी मातृभाषा छोड़नी यदि विस्थापित लोगों की स्मृतियों में न भरने वाले ज़ख्म हैं तो
पड़ती है। जिन समाजों की भाषा छिन जाती है वो कुछ समय के वर्तमान भय, दशहत और विडंबनायुक्त यह काव्य-सत्य, जीवन-
लिए संदर्भहीन और भावशून्य हो जाते हैं। कुछ मुहलत मिलने सत्य भी है। व्यंजना और अबिधा दोनों एकमएक हैं। विस्थापितों
के बाद वे अपनी जड़ों की ओर मुड़ना चाहते हैं। कोई भी ज़िन्दा की स्थिति अब ऐसी हो गयी है कि वे न लौट सकते हैं न स्थापित
व्यक्ति या समाज स्मृतिविहीन नहीं हो सकता। ये उजड़े हुए लोग हो सकते हैं-
समय-समय पर अपने 'स्थायी पते' को याद करते हैं। मातृभाषा ‘आगे थी एक और लंबी सड़क
से उखड़े हुए लोग नगरों, महानगरों की भाषा में अपना पुनर्वास पीछे वह छोड़ आया था
ढूढ़ते रहते हैं। नगर उन्हें अपनाता नहीं और जहाँ से वे उजड़े हैं एक लंबी सड़क
वहाँ के वे रहे नहीं। अधिकांश का अनुभूत जब अभिव्यक्त होता कोई घर नहीं था
है तो उसकी विश्वसनीयता बढ़ जाती है। विस्थापन के क्रूर और जिधर से वह आ रहा था,
व्यापक प्रभाव को आवाज़ देती हुई इस कविता को पढ़िये और जिधर वह जा रहा था
अपनी स्थिति से मिलान कीजिए- उधर भी कोई घर नहीं था...’
लोग कहते हैं मैं जहाँ रहता नहीं हूँ ऊपर जिन दो काव्यांशों को प्रस्तुत किया गया है उनके रचयिता
जहाँ मेरी चिट्टियाँ आती नहीं हैं हैं मिथिलेश श्रीवास्तव। इधर के कवियों में मिथिलेश श्रीवास्तव
दादा या पिता के नाम से जहाँ मुझे जानते हैं लोग.... की कविताएँ अपनी सादगी और लोगों के दुख को ईमानदार

234 n जुलाई से सितंबर 2023 yegh


ढंग से अभिव्यक्त करने के कारण पाठकों में अपनी साख और और वर्तमान विश्व में तर्कसंगत कुछ भी घटित नहीं हो रहा है।
विश्वसनीयता कायम कर रही हैं। विस्थापित लोगों की स्मृतियों राष्ट्र-राज्य अपने वादों से मुकर रहे हैं। पुराने ढांचे से कटा और
को जिस ढंग से मिथिलेश श्रीवास्तव ने उकेरा है उसके कुछ और नये ढांचों (राष्ट्र-राज्य) से छला जा रहा दुनिया भर का समाज
दृश्यांश देखिये- एक ऐसे मोड़ पर खड़ा है जहाँ से न तो वह पीछे लौट पा रहा है
- यह दुनिया क्या मैं कह सकता हूँ और न आगे बढ़ पा रहा है। यह यथास्थितिवाद अब बहुत दिनों
-कर्ज़ लेकर परिवार पालने वाले पिताओं की है घर के पिछवाड़े तक चल नहीं सकता। दुनिया भर को सुख का स्वप्न दिखाने वाले
से निकलते और एक अँधेरा खोजते मैंने उन्हें देखा है। राष्ट्रवादी मानवता के भविष्य को सभ्यताओं के संगठित संघर्ष
-कॉलेज के किसी साथी को कनखी से देख भर लेती है भाई का भय दिखा रहे हैं। राष्ट्र राज्य अपनी ईमानदार भूमिका में खड़े
के सिर के बाल गिरने लगते हैं, वह निकलता है बहन के लिए होकर इस विस्थापित जनता को आगे बढ़ने में मदद कर सकते
वर ढूंढने... हैं। जनता अगर पीछे की ओर मुड़ गई तो दुनिया की सबसे बड़ी
-तीन व्याह दी गयीं जल्द ही बड़ी बेटी के पति ने उसे छोड़ त्रासदी घटित होगी। पीछे लौटाने के लिए पुरानी स्मृतियाँ जगायी जा
दिया नौकरी के लिए वह फिर से पढ़ेगी.... रही हैं। आधुनिक संस्थानों की विफलता, धोखे और दोगलेपन को
-दूर कहीं बूढ़ी हो रही एक माँ है एक बेरोज़गार भाई है जो घर रेखांकित कर पुरानी-स्मृतियों के सहारे नई दुरभिसंधियाँ आयोजित
देर से लौटता है या किसी रात लौटता ही नहीं.... की जा रही हैं। इसका कुरुक्षेत्र दक्षिण-पश्चिम एशियाई देश बने
इन तमाम दुखों को दूर करने के लिए तमाम लोग अपने जन्म हुए हैं। ऐसे में नागरिक समाजों और लोकतांत्रिक संस्थाओं को
स्थानों से विस्थापित हो रहे हैं लेकिन उनका दुख दूर नहीं हो रहा। ईमानदार और ज़िम्मेदार होना होगा।
अभाव और दुख से दबे हुए इन लोगों की दुनिया में फिर भी कुछ जो कवि या रचनाकार आधुनिक राष्ट्र-राज्यों की आलोचना
ऐसी बात थी जिससे सब आपस में जुड़े हुए थे- कर रहे हैं वह कबीर की भूमिका में हैं। हिंदी कविता में लोकतंत्र
एक पुलिया थी जहाँ से चिल्लाते थे हम भूख़ की पड़ताल करने वाले कवियों की एक लम्बी और मज़बूत परंपरा
वह आवाज़ कई घरों में सुनी जाती। रही है। मिथिलेश श्रीवास्तव की कविताएँ नागार्जुन, मुक्तिबोध,
आज़ाद भारत के लाखों गाँवों में पसरे हुए इस दुख को दूर करने रघुवीर सहाय, धूमिल और आलोक धन्वा की राजनीतिक संवेदना
के लिए जिन नगरों और महानगरों की ओर बेशुमार युवा, बूढ़े, को अपने ढंग से आगे बढ़ा रही हैं।
बच्चे, स्त्रियाँ चले आ रहे हैं वहाँ भी दुख टेलीफोन और बिजली के उजड़े हुए हम बेजुबान हो रहे हैं
तार की तरह लाखों घरों में फैला है- क्या यह हैरानी की बात नहीं
-सड़क पक्की थी लेकिन उस पर धूल की कई परतें थीं कई हमें बसाया जाएगा यहीं कहीं
सड़कों से गुज़रने के निशान जैसे जिनको पहचानना मुमकिन नहीं हमसे कहा गया
था... कोई पूछता था कुछ देर बाद बदल जाने वाली तारीख़ कोई बसने के इंतज़ार में हम दर-ब-दर होते चले गये
पूछता था किसी घर किसी पेड़ किसी छाया के बारे में... कुछ लोग चुपचाप...
कुछ नहीं पूछ रहे थे। चलते चले जा रहे थे। क्या यह जीभ काट लेने से बदतर नहीं है....
दुनिया भर के पुराने समाजों को आधुनिकता और राष्ट्रवाद ने क्या यह लोकतंत्र की जड़ें हिलाने जैसा नहीं है भरोसा देकर
यह कह कर ख़ारिज किया कि तुम्हारे बुरे हालात के जिम्मेदार उसके बदले में
पुराने ढांचे हैं जिनमें तुम संगठित हो। तुम अपनी जाति, क्षेत्र, धर्म, -हम अपने घरों से उजड़ते रहे धीरे-धीरे कहा गया हम निकले
मिथक और अंधविश्वासों से बाहर निकलो और राष्ट्र-राज्य में हैं बेहतर ज़िन्दगी की खोज में... हम पुरखों से ज्यादा महत्वाकांक्षी
संगठित हो जाओ, हम तुम्हारे दुख को दूर करने का वादा करते हैं। नहीं थे।
दुनिया के सारे दुख भौतिक हैं और हमारे पास विज्ञान, प्रौद्योगिकी अपने पुरखों से कम महत्वाकांक्षी और अपनी जन्मभूमि से
और अपार भौतिक संसाधन हैं। हमारी बुद्धि और तुम्हारा श्रम बिछुड़े लोगों से आधुनिक संस्थाओं ने एक वायदा यह भी किया था
अगर मिल जाए तो हम तुम्हारे धार्मिक और मिथकीय नायकों के कि इस नई व्यवस्था में ईश्वर की जगह तुम रहोगे। हमारी व्यवस्था
आदर्श 'स्वर्ग' को धरती पर उतार लायेंगे। दुनिया भर के मेहनकश की सबसे महत्वपूर्ण इकाई 'व्यक्ति' तुम हो। इस नई व्यवस्था में
अपना श्रम राष्ट्र के शिल्पकारों, उद्योगपतियों और बुद्धिजीवियों स्त्री-पुरुष, गोरे-काले, हिन्दू-मुस्लिम सब समूह और जमात नहीं।
को सौंप चुके हैं। लोगों से उनके पारम्परिक विश्वास छिन गये हैं व्यक्ति की निजता और मानवीय गरिमा से युक्त होंगे। इस मोर्चे

yegh जुलाई से सितंबर 2023 n 235


पर दुनिया भर की सरकारों ने अपनी-अपनी विश्वासी
जनता से छल किया है। जाति, धर्म और क्षेत्रवाद के n अनन्य प्रकाशन से प्रकाशित पुस्तक
ख़िलाफ़ नारे लगाने वाले हमारी आँखों के सामने खापों
में जाकर ढिठाई और निर्लज्जता के साथ नंगा नाच कर
रहे हैं। राष्ट्र-राज्य के लिए सांप्रदायिकता सबसे बड़ी
चुनौती है। समानता, स्वतंत्रता और भाईचारे की जगह
अलगाव और भिन्नता का पाठ पढ़ाया जा रहा है। इस
मुददे पर हिंदी कविताएँ दुनिया की तमाम भाषाओं में
प्रकाशित होनेवाली कविताओं से अधिक संवेदनशील
और ईमानदार कविताएँ हैं।
सांप्रदायिक विरोध के मुददे को लेकर मिथिलेश
श्रीवास्तव की कविताएँ पूर्ववर्ती हिंदी कविताओं से
काफ़ी आगे बढ़ी हुई हैं। शिल्प की सहजता, सामाजिक
पक्षधरता, अंध-धार्मिकता के विरोध और अभिव्यक्ति
की स्पष्टता में कविताएँ बेजोड़ हैं।
-शायद लालू यादव के हाथों लालकृष्ण आडवाणी
के विजय रथ रोके जाने के बाद मांसाहार जो हिन्दुओं
का सामूहिक भोज कभी नहीं रहा हिन्दुओं के घरेलू
समारोहों में निर्विघ्न और निर्विरोध परोसा जा रहा है।
भय और हिंसा दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।
उसी प्रकार साहस और प्रेम दोनों भाव एक-दूसरे के
साथी हैं। कवि का काम है भय के विरुद्ध साहस को
प्रस्तावित करना। मिथिलेश श्रीवास्तव ने एक कविता इस पुस्तक में चित्रा मुद्गल से सोनी पाण्डेय तक कुल
में यह बयान ज़रूर दिया है। कि 'प्यार के बग़ैर लोग तिरपन कथा लेखिकाओं की प्रमुख कहानियों पर अलग-
रह सकते हैं भय के बिना नहीं।' लेकिन दुनिया भय को अलग स्वतंत्र मूल्यांकनपरक आलेख दिये गये हैं जो
हराना चाहती है। प्यार जीवन का धर्म है। इस साठोत्तर पीढ़ी से भूमंडलीकरण के बाद आज तक उभरे
जीवन के लिए हमें साहसपूर्वक भय से लड़ना ही है। स्त्री-विमर्श के प्रश्नों को उजागर करते हैं। कद्दावर एवं
कविता प्यार का जुड़वा है। इससे मनुष्य भाव की रक्षा प्रखर आलोचक पंकज पराशर, के ‘स्त्री–कथा और
होती है। अच्छी कविता मनुष्य भाव से आगे बढ़कर अनुभव जन्य आख्यान’ शीर्षक पड़ताल परक वैचारिक
जीवन और जगत के संगीत को हम तक उपलब्ध आलेख से स्त्री-कथालेखन के पूरे परिदृश्य को समझने में
कराने का काम करती है। अपने हित अहित से तटस्थ काफ़ी मदद मिलेगी, ऐसी मुझे उम्मीद है। इसके साथ ही
होना मुश्किल ज़रूर है लेकिन कवि इस मुश्किलात दलित और आदिवासी स्त्री कथा लेखन पर एक मुकम्मल
से बच नहीं सकता। मिथिलेश की कविताएँ दुनियावी लेख एवं प्रवासी कथा लेखिकाओं की प्रमुख कहानियों
भाग-दौड़ से अलग हमें एक ऐसे सम पर ला खड़ा का विवेचन भी प्रस्तुत किया गया है। बारह संभावनाशील
करती हैं जहाँ से हमें अपनी दुनिया को देखने परखने कथा लेखिकाओं पर भी एक पड़ताल है जिससे कहानी के
की एक और नज़र मिलती है। n बदलते विचारों की बानगी मिलेगी।
संपर्क : गुरुग्राम
मो. 9810584409 मूल्य : रुपये 995.00

236 n जुलाई से सितंबर 2023 yegh


n महत्तम : शरद कोकास

काव्यात्मक सरोकारों का जटिल संघर्ष


नासिर अहमद सिकन्दर

नवें दशक के कवियों के कविता संग्रह सन 92-93 का प्रयोग अपने मूल अर्थों में नहीं है। शरद कोकास
के आसपास आने शुरू हो गए थे। कुमार अम्बुज,देवी की कविताओं में वस्तुएँ,प्रतीक,प्रकृति तो उपस्थित है
प्रसाद मिश्र, विमल कुमार, एकांत श्रीवास्तव, संजय लेकिन वहाँ उस तरह का सौन्दर्य या रागात्मकता का
चतुर्वेदी, बोधिसत्व, बद्री नारायण आदि कई कवियों भाव नहीं होता जो केदारनाथ सिंह,अरुण कमल या
के कविता संग्रह इसी के आसपास छपे। कवि शरद एकांत श्रीवास्तव की कविताओं में होता है। दरअसल
कोकास का पहला काव्य संग्रह ‘गुनगुनी धूप में वे अपनी कविताओं में वस्तुओं,प्रतीकों या प्रकृति को
बैठकर’ इसी दौर (1993) में प्रकाशित हुआ था। अपनी कविता की अंतर्वस्तु के अनुरूप मनचाहे ढंग
आलोचक कमला प्रसाद जी ने इस संग्रह की भूमिका में लिखा से ट्विस्ट करते हैं, लगभग रूपात्मक शैली में। यही कारण है
है-“शरद कोकास की कविताओं में व्यंग्य का पुट भी है, बार कि उनकी कविताओं में पेड़ों की टहनियों का सौन्दर्य बंदूकों में
बार जिज्ञासाएँ हैं और तरह तरह के प्रश्न हैं, टिप्पणियाँ हैं। एक बदलता है,यहाँ हवा और सूरज को फाँसी दी जाती है। वे इस तरह
प्रगतिशील नागरिक की तरह कवि व्यवस्था की दरारों को देखता का रूपांतरण शायद इसलिये भी करते हैं ताकि अपनी कविता को
है। वह परिवर्तन का हामी है। अनजान जगहों से प्रसंग उठाकर अधिक से अधिक संप्रेषणीय बनाया जा सके। उनकी कविताओं
अनुभूति के घोल में वह अपने अनुकूल मोड़ देता है। मानसिक को पढ़कर यह बात ज़ोर देकर कही भी जा सकती है कि इधर
जद्दोजहद से बनती कविताओं में एक नैतिक आकांक्षा सक्रिय है जितने कवि उनकी समकालीन पीढ़ी के हैं, अपनी कविता के भीतर
जो जनतांत्रिक भी है। इस तरह एक भले मानुष सा स्वभाव इन रूप और संवेदना के प्रभावित होने की हद तक संप्रेषणीयता का
कविताओं से व्यक्त हुआ है। विरोध, चिढ़, घृणा या व्यंग्य इसी जोख़िम उठा रहे हैं। इसका आशय यह कतई नहीं है कि वे रूप
भलेपन के प्रति, दुर्भाव रखने वाली शक्तियों के प्रति है। चौकस के प्रति सतर्क नहीं हैं। वे रूप का इस्तेमाल उतना ही आवश्यक
आदमी की तरह इन कविताओं में कवि होते जाने का संयोग मानते हैं जिससे कविता में मौज़ूद विचारों का अतिक्रमण न हो और
दिखाई पड़ता है।” हालाँकि शरद कोकास का यह पहला काव्य कविता सहज संप्रेषणीय हो जाये। संग्रह की ‘बाढ़’ कविता इसी
संग्रह अलक्षित रह गया। कमला प्रसाद जी की यह मान्यता 'झील रूप और विचार के द्वंद्व की कविता है, जहाँ वे कहते हैं-‘बारिश
से प्यार करते हुए' कविता में बड़ी आसानी से देखी जा सकती अच्छी लगती है/ बस फुहारों तक’ वे कविता के अंत में उन
है। “वेदना सी गहराने लगती है जब/ शाम की परछाइयाँ/ सूरज कला समीक्षकों पर व्यंग्य भी करते हैं जो कविता में सिर्फ़ 'रूप'
खड़ा होता है/ दफ्तर की इमारत के बाहर/ फाइलें दुबक जाती की वकालत करते है। “फोटो ग्राफर कैमरे की आँख से देखकर/
है/ दराज़ों की गोद में/बरामदा नज़र आता है/कर्फ्यू लगे शहर की समीक्षक की भाषा में चिल्लाता है/ पानी एक इंच और बढ़ जाता/
तरह/फाइलों पर जमी उदासी/टपक पड़ती है मेरे चेहरे पर/झील तो क्या ख़ूबसूरत दृश्य होता।”
पूछती है मुझसे/मेरी उदासी का सबब/मै कह नहीं पाता झील से/ यह बाबरी मस्जिद ढहाये जाने के बाद उपजी निराशा और
आज बॉस ने मुझे गाली दी है।” किंकर्तव्यविमूढ़ता का समय था। साहित्य के समीकरणों से अपने
वैसे इस कविता के माध्यम से शरद कोकास की काव्यकला को आप को अलग रख कर इस दौर में शरद कोकास ने इतिहास
भी कुछ हद तक समझा जा सकता है। यहाँ कविता में झील न तो को नकारे जाने और सांप्रदायिक शक्तियों द्वारा संस्कृति की
झील की तरह है न सूरज, सूरज की तरह। यहाँ झील, सूरज आदि एकांगी परिभाषा गढ़े जाने के ख़िलाफ़ एक लम्बी कविता लिखने

yegh जुलाई से सितंबर 2023 n 237


की शुरुआत की। यद्यपि चरम सांप्रदायिकता के दौर में वे राम वाजपेयी ने ज़रूर इस काव्य पुस्तिका पर ‘जनसत्ता‘ में अपने
निवास,राम कथा, दंगे के बाद, दंगों की अपराधिक पंजी, संगीन स्तम्भ ‘कभी-कभार’ में लिखा। डॉ. लालबहादुर वर्मा ने अपनी
की नोक जैसी छोटी कविताएँ भी लिखते रहे। यह कविताएँ पत्रिका ‘इतिहास बोध’ में, कवि लीलाधर मंडलोई जी ने अपनी
‘पुरातत्त्ववेत्ता’ जैसी लम्बी कविता के दरम्यान की तात्कालिक पुस्तक में, पत्रकार रमेश नैयर जी ने अपनी पत्रिका में तथा युवा
सरोकारों की आन्दोलनधर्मी कविताएँ थी। शरद कोकास की यह कवि बसंत त्रिपाठी ने भी अख़बार में इस कविता पर परिचयात्मक
कविताएँ बाबरी मस्जिद के विध्वंस के कुछ बाद की कविताएँ हैं। लेख लिखे। ‘पुरातत्त्ववेत्ता’ पूरे हिंदी प्रदेश में उनकी पहचान बनी
एक मित्र होने के नाते मैं बहुत अच्छी तरह जानता हूँ कि शरद और उनकी सिग्नेचर कविता के रूप में चर्चित हुई।
भाई का उस वक्त का विचलन और बेचैनी किस तरह की थी। मैं शरद कोकास ने फिर एक लम्बी चुप्पी साध ली लेकिन
यह भी कहना चाहूँगा कि उस दौर में देवी प्रसाद मिश्र (मुसलमान वे कविताएँ बराबर लिखते रहे, और यदि काव्य पुस्तिका
कविता) और राजेश जोशी (अपील, मारे जाएँगे, अंतिम इच्छा, ‘पुरातत्त्ववेत्ता’ को छोड़ दिया जाए तो पहले संग्रह के लगभग बीस
आदि) के बाद अगर किसी कवि ने इस मुद्दे पर एक आंदोलन साल बाद जहाँ नवें दशक के कवियों के उस समय तक चार या
धर्मिता को केंद्र में रखते हुए कविताएँ लिखी हैं तो वे शरद कोकास उससे अधिक संग्रह प्रकाशित हो चुके थे वहीं उनका दूसरा काव्य
हैं। संग्रह ‘हमसे तो बेहतर है रंग‘ ‘दख़ल प्रकाशन’ से 2014 में छपा।
पहले प्रकाशित संग्रह के लगभग बारह वर्षों पश्चात सन 2005 कवि शरद कोकास का यह कविता संग्रह ‘ हमसे तो बेहतर है रंग’
में ‘पहल पुस्तिका’ के अंतर्गत काव्य पुस्तिका के रूप में शरद दो खंडों में विभाजित है। पहला खंड ‘उमस भरे कमरे में लटका
कोकास की लम्बी कविता ‘पुरातत्ववेत्ता’ प्रकाशित हुई। इतिहास है ताज़ी हवा का एक पोर्ट्रेट’ और दूसरा खंड है ‘इन आवाज़ों में
के अध्ययन को आवश्यक बताती हुई उनकी लम्बी कविता एक चीख है जो सुनाई नहीं देती’। एक छोटा सा खंड परिशिष्ट की
‘पुरातत्ववेत्ता’ मूलत: सांप्रदायिकता के विरोध और इतिहास बोध तरह ‘मुम्बई की सिटी पोयम्स’ शीर्षक से है जिसमें जुहू बीच, गेटवे
हेतु मनुष्य की चेतना को झकझोरने वाली कविता है। इस कविता ऑफ इंडिया, जहाँगीर आर्ट गैलरी, बीईएसटी, राजाभाई टॉवर,
में इतिहास की प्रामाणिकता की व्याख्या करते हुए वे इतिहास को दादर पुल, लोकल ट्रेन,जहाँगीर आर्ट गैलरी तथा वरली सी फेस
परिभाषित भी करते हैं “इतिहास तो दर असल माँ के पहले दूध की जैसे शीर्षकों से मुम्बई को एक अलग दृष्टि से देखती हुई कविताएँ
तरह है/ जिसकी सही खुराक पैदा करती है हमारे भीतर/ मुसीबतों हैं। इस संग्रह के पहले खंड में शामिल कविताएँ सन दो हज़ार से
से लड़ने की ताक़त/ दुख सहन करने की क्षमता देती जो/ जीवन पहले की कविताएँ हैं तथा दूसरे खंड में सन दो हज़ार के बाद की
की समझ बनाती है वह/ हमारे होने का अर्थ बताती है हमें/ हमारी लिखी कविताएँ शामिल हैं।
पहचान कराती जो हमीं से” (‘पुरातत्ववेत्ता’ पहल पुस्तिका, पृष्ठ- नवें दशक के कवियों में लीलाधर मंडलोई, देवीप्रसाद मिश्र,
12) मन्दिर-मस्जिद विवाद और चरम सांप्रदायिक शक्तियों के अष्टभुजा शुक्ल के बाद शरद कोकास ही एकमात्र ऐसे कवि हैं जो
उभार के इस दौर में कविता के भीतर इस कथ्य को किस तरह अपनी कविता में भिन्न वस्तुओं, चित्रों, अनुभवों आदि के विवरण
रखा जाए, कौन से तर्क दिये जाएँ, किस प्रतीक और माध्यम पर या से कथ्य को विविधता प्रदान करते हैं। इस संग्रह में भी कथ्यों की
विचार पर भरोसा किया जाए-यह प्रश्न भी कवियों के लिए चिंतनीय विविधता देखी जा सकती है। उनके संग्रह में मौज़ूद कविता के
था। सांप्रदायिक दौर के इस उभार में शरद कोकास ने एक लेखक, कथ्यों पर ग़ाैर किया जाए तो यह कहा जा सकता है कि वे जीवन
चिंतक और इतिहासकार के रूप में केन्द्रीय पात्र ‘पुरातत्ववेत्ता’ जीते हुए हर क्षण सचेत, सतर्क, जागरूक और रचनात्मक बने
को चुना, क्योंकि यहाँ सवाल ऐतिहासिक-पुरातात्विक होने के रहते हैं। यही कारण है कि इस संग्रह की कविताओं में नाविक को
साथ साथ राजनीतिक भी था, इसलिए प्रामाणिक तथा विश्वसनीय खराब मौसम की चेतावनी देने, शतरंज की बिसात पर प्यादे और
इतिहासबोध को केन्द्र में रखकर ही उन्होंने ‘पुरातत्ववेत्ता’ शीर्षक राजा का खेल, ग़मगीन मोहर्रम में ताजिये और अलाव का, तो
से लम्बी कविता लिखी। शायद ही कहीं, देवी प्रसाद मिश्र की किसी कविता में रंगकर्मी की पारिवारिक और सामाजिक स्थिति,
‘मुसलमान’, बोधिसत्व की ‘पागलदास’ और अनिल कुमार सिंह सेवानिवृत कर्मचारी की व्यथा, जीवन के रास्तों में आने वाले मोड़,
की ‘अयोध्या 91’ कविता के अलावा उस दौर में छाये मुद्दे को बेरोज़गारी,रेल्वे का मालधक्का,नेपाल के गोरखा, परपीड़क, बच्चों
विश्वसनीय बनाती और इतनी लम्बी कोई कविता नवें दशक के के सपनों का विश्लेषण, मेले में अकेलेपन, पड़ोसी का समाज,
किसी कवि ने लिखी हो। इस काव्य पुस्तिका की कहीं समीक्षा नहीं फिसलपट्टी, डायन, झांकी, विज्ञापन में बच्चे, हत्या, बैंडबाजे वाले,
छपी, न कहीं इस कविता की मुखर चर्चा हुई। अलबत्ता अशोक अर्थी सजाने वाले, नीली फिल्मों में काम करने वाली लड़कियाँ,

238 n जुलाई से सितंबर 2023 yegh


कौसर बानो का अजन्मा बेटा,विश्वकर्मा, फैशन, हत्या, हैलमेट कवि की काव्य प्रक्रिया और कला में नहीं है। वे इस कविता को
आदि के वर्णन के मार्फत कविता का कथ्य बनता है। वे ‘कुष्ठ’ लिखते वक़्त सीधे घटना पर नहीं आते न कविता का प्रारम्भ किसी
जैसे विषय पर भी अद्भुत कविता लिखते हैं। यहाँ यह भी ग़ौर तरह के घटना प्रधान वाक्य से करते हैं, न ब्योरों को ही दर्ज़ करते
तलब है कि वे भिन्न भिन्न वस्तुओं, घटनाओं, व्यक्तियों आदि पर हैं, न बिम्बों की लड़ियाँ बनाकर चित्रण करते हैं, बल्कि बच्चे के
कविता लिखते हुए सिर्फ़ चित्र भर नहीं उभारते अपितु ज्ञान और जन्मने का बिम्ब कुछ इस तरह रखते हैं “अपनी देह के पूर्ण होने
चिंतन की प्रक्रिया से गुज़रते हुए, उससे जुड़े ब्योरे और विचार के शिल्प में/ जीवन के लिए आवश्यक जीवद्रव्य लिए/ बस कुछ
की शृंखला बनाकर कथ्य को सामाजिक भी बनाते हैं। उनकी ही दिनों बाद बाहर आना था उसे/ अपनी माँ कौसर बानो की देह
कविताओं में आए विवरण और ब्योरे भी पूरी कलात्मकता और से/ और सृष्टि की इस परंपरा में/ अपनी भूमिका का निर्वाह करना
राजनीतिक चेतना के साथ कविता में आते हैं। शरद कोकास के था/ छोटे-छोटे ऊनी मोज़ों व दस्तानों के साथ/ बुना जा रहा था
काव्य संकलन के पहले खंड की कविताओं, ताजिया,घुटन,रिटायर उसका भविष्य/ पकते हुए गुड़ में सोंठ के लड्डुओं के स्वप्न तैर
मेंट के बाद बना मकान, इधर संवेदना गुम है, बेरोज़गार, मेरा रहे थे”। (कौसर बानो का अजन्मा बेटा-एक, पृष्ठ-155) फिर
नाम, डायन, पसीना या झाँकी आदि इसी कला की कविताएँ हैं। इस कविता में और आगे “मातृत्व की गरिमा और/ मानवता के
जैसे ‘ताज़िया’ कविता में वे सिर्फ़ धर्म या ग़मगीन प्रसंग को ही इतिहास की अवमानना करते हुए/ उन्माद की एक लहर उठी/
नहीं रखते बल्कि कविता के भीतर उनकी विचार प्रक्रिया ‘बड़ों दया, रहम, भीख जैसे शब्दों की धज्जियाँ उड़ाते हुए/ हवा में एक
की देखादेखी आडम्बर भरे अलाव से गुज़रते बच्चे के नन्हें पाँव में तलवार लहराई/ और क्रूरता का अध्याय लिख दिया गया/ अगले
चिपकता अंगारा’ देखती है। ‘डायन’ कविता में वे मिथकीय संदर्भों ही क्षण लपटों के हवाले था/ पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश
के साथ उस औरत के दर्द को रखते हैं जिस पर आरोप मढ़कर उसे में लिथड़ा/ आदम और हव्वा के जिगर का वह टुकड़ा” (कौसर
डायन कहा जाता है। उनकी कई कविताओं की तरह यह कविता बानो का अजन्मा बेटा- एक, पृष्ठ-156)
भी जनमानस को झकझोरने का काम करती है। यहाँ काव्य प्रक्रिया कैप्टन कुक नामक नमक उत्पाद पर ‘कैप्टन कुक की कथा‘
में इतिहास भी जुड़ता है और कवि की प्रतिबद्धता मुखर होकर शीर्षक से कविता लिखते हुए भी वे यही प्रक्रिया अपनाते हैं, मसलन
सामने आती है। ऐतिहासिक सभ्यता के ब्योरों का विवरण भी इस वे कविता प्रारंभ करते हैं कि कैप्टन कुक कौन था “वह पानी पर
खंड की कविताओं में दर्ज़ होता है। इस संग्रह के पहले खंड की चलता था/ और सपनों में पाँव रखने के लिए ज़मीन तलाशता
कविताओं की काव्य प्रक्रिया उनके पहले काव्य संग्रह ‘गुनगुनी धूप था/ बुलन्दी के आसमान में जहाँ/ पहले ही कई मशहूर सितारों के
में बैठकर’ की कविताओं से जुडती है, तो दूसरे खंड की कविताओं नाम टंगे थे/ अपने नाम का एक सितारा जड़ना चाहता था वह”
की रचना प्रक्रिया उनकी लम्बी कविता ‘पुरातत्ववेत्ता’ से जुड़ती (कैप्टन कुक की कथा पृष्ठ 139) फिर इस कविता का अंत
है। इस संकलन में संकलित दूसरे खंड की कविताएँ ‘प्राकृतिक वे साम्राज्यवादी राष्ट्राध्यक्षों के नाम जोड़कर करते है “ओबामा,
आपदा का सच, कैप्टन कुक की कथा, कामकाजी लड़कियाँ, बुश, ब्लेयर,क्लाइव का परदादा था/ अविकसित सभ्यताओं पर
बैंडबाजे वाले, अर्थी सजाने वाले, संवेदनशील इलाका, हैलमेट, जीत के लिए/ मुकर्रर ईनाम था/ राष्ट्रीय नायकों की सूची में
शिकारी, बदबू, पुरुष आदि कविताएँ इसी कला की कविताएँ है। उसका नाम/ नमकहलाली का पर्यायवाची यह नाम/ अब आटे
‘फैशन’ कविता में वे जहाँ बाज़ारवाद और अपसंस्कृति पर गहरा और नमक के पैकेटों पर सवार होकर/ निकला है विकासशील
कटाक्ष करते हैं वहीं पूंजीवाद के कसते हुए शिकंजे को व्याख्यायित सभ्यताओं को जीतने” (कैप्टन कुक की कथा,पृष्ठ -141) इस
करते हैं और आम आदमी को सावधान करते हैं .. “उसका पहला कविता के अलावा ‘गोद’, ‘हमलावर’ आदि कविताओं में भी यही
हमला टिकाऊ पर है/ दूसरा आक्रमण सस्ते पर/ सुन्दर को अपने काव्य प्रक्रिया है। इन कविताओं में वे साम्राज्यवादी देशों की सत्ता
शिकंजे में कसकर/ वह तंत्र की नई परिभाषा गढ़ रहा है/ अंतिम लोलुपता, बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की आमद और उनके बरअक्स
प्रहार होगा उसका मनुष्य की अस्मिता पर/ सावधान!!/ अभी वह विकासशील और कमज़ोर देशों की असहायता को दर्ज़ करते हैं।
मन पढ़ रहा है।”(फैशन, पृष्ठ -154) शरद कोकास की ‘प्रेम और स्त्री संवेदना’ पर लिखी कविताएँ
कौसर बानो के अजन्मे बेटे पर कविता लिखते हुए वे उपमाओं भी समकालीन कविता की प्रेम विषयक अथवा स्त्री संवेदना पर
और प्रतीकात्मक ब्योरों से विचार वाक्य बनाते हुए जिस तरह लिखी कविताओं से भिन्न शिल्प में है। इस संग्रह की ‘प्रेम के दिनों
कविता रचते हैं और जिस तरह अंत में कथ्य उभरता है यह पूरी में’ ‘कामकाजी लड़की’ और ‘बुरे वक़्त में जन्मी बेटियाँ’, ‘नीली
काव्य प्रक्रिया और कला फिलहाल उनकी पीढ़ी के किसी हिंदी फिल्मों में काम करने वाली लड़कियाँ’ शीर्षक कविता के माध्यम

yegh जुलाई से सितंबर 2023 n 239


से इसे समझा जा सकता है। वे महज नारीवाद का नारा बुलन्द नहीं में मानव देह की नििर्मति किस तरह प्रारंभ हुई और अद्यतन इस
करते बल्कि स्त्रियों के प्रति गहन संवेदना के साथ उनके विगत देह पर क्या क्या घटित होता रहा। ऐतिहासिक विवरणों से प्रारंभ
और आगत को वर्तमान के संदर्भ में देखते हैं। इस संकलन में होकर यह कविता देह को माटी की परंपरागत परिभाषा से बाहर
‘शिकारी’ और ‘पुरुष’ शीर्षक से लिखी उनकी कविताएँ स्त्री पुरुष निकालकर, वैज्ञानिक चिंतन में रूपांतरित कर प्रकारांतर से चली
के संबंधों का एक नया आयाम प्रस्तुत करती है जहाँ वे मिथकीय आ रही सभ्यताओं, धार्मिक मान्यताओं के साथ, कबीलाई, सामंती,
और ऐतिहासिक संदर्भ के साथ मातृसत्ता के पतन और उस पर साम्राज्यवादी शासको के समय के समानांतर चलते हुए इक्कीसवीं
पुरुष के अहं की विजय का चित्र खींचते हैं। इस संकलन की अंतिम सदी तक पहुँचती है। अध्यात्म और धार्मिक चिंतन की पद्धति में
कविता है ‘दृष्टि’ जो उनकी मस्तिष्क शृंखला पर लिखी जा रही देह को माटी अथवा पंचतत्व का सम्मिश्रण माना गया है। कबीर
आगामी कविताओं की प्रथम कविता है। मानव मस्तिष्क की कार्य का फलसफा भी इसी पर समाप्त होता है, “माटी कहे कुम्हार से तू
पद्धति क्या है, मानवीय बोध और सामाजिक चेतना का मस्तिष्क क्या रूँधे मोय”। लेकिन यहाँ शरद कोकास देह की पूरी व्याख्याओं
से संबंध कैसा होता है? यह सब प्रश्न भी उनकी मानव मस्तिष्क को मौलिक, वैज्ञानिक, ऐतिहासिक भौतिकवादी दृष्टिकोण प्रदान
कविता शृंखला में शामिल है। इस शृंखला की ‘दृष्टि’ कविता कर अपनी मौलिक लम्बी कविता लिखते हैं।
ऐसी ही कविता है जहाँ मुक्तिबोध की ‘अन्धेरे में’ कविता को याद “दिन जैसा दिन नहीं था न रात जैसी थी रात/ धरती की तरह
किया गया है। एक तरह से यह कविता मुक्तिबोध की ‘अन्धेरे में’ धरती नहीं थी वह/न आसमान की तरह दिखाई देता था आसमान/
कविता की काव्यप्रक्रिया और उसकी व्याख्या है। इस कविता में ब्रह्मांड में गूँज रही थी/कुछ बच्चों के रोने की आवाज़/सूर्य की देह
मुक्तिबोध का ‘आत्म चेतस’ शब्द भी विस्तार पाता है, “मानव से गल कर गिर रही थी आग/और नए ग्रहों की देह जन्म ले रही
मस्तिष्क के विशाल कार्य क्षेत्र में/ जहाँ समाप्त होती है ऑप्टिक थी/अपने भाईयों के बीच अकेली बहन थी पृथ्वी/जिसकी उर्वरा
नर्व्स की भूमिका/वहाँ दृष्टि की भूमिका शुरू होती है/ज्ञान की कोख में भविष्य के बीज थे/ और चाँद उसका इकलौता बेटा/ जन्म
उष्मा से छँटती जाती है असमंजस की धुन्ध/यहाँ मस्तिष्क प्रारम्भ से ही अपना घर अलग बसाने की तैयारी में था/ इधर आसमान
करता है/दृश्य में दिखाई देते विचार का विश्लेषण/ यहीं से शुरू की आँखों में अपार विस्मय/ कि सद्यप्रसूता पृथ्वी की देह/ अपने
होती है/ मुक्तिबोध की कविता ‘अन्धेरे में’” (दृष्टि, पृष्ठ-200) मूल आकार में वापस आने के प्रयत्न में/ निरंतर नदी पहाड़ समंदर
इस तरह कवि शरद कोकास समकालीन कविता के मौज़ूदा कथ्य, और चटटानों में तब्दील हो रही है/ रसायनों से लबालब भर चुकी
शिल्प, भाषा, विचार और काव्य प्रक्रिया के स्तर पर बिलकुल है उसकी छाती/ और मीथेन,नाइट्रोजन,ओषजन युक्त हवाओं में
अलग से पहचाने जा सकने वाले कवि हैं। तर्कशील सोसायटी सांस ले रही है वो।” (लम्बी कविता देह ‘ पहल 104 पृष्ठ 75)
और अंधश्रद्धा निर्मूलन समिति के एक्टिविस्ट शरद कोकास की इस तरह शरद कोकास की काव्य चेतना के भीतर बने
कविताओं की काव्य प्रक्रिया में कोई अनुभूति,भाव, विचार, या काव्यात्मक संघर्ष की जटिलता पर ग़ाैर किया जाए तो उनकी
घटना-दर्शन, ज्ञान, विज्ञान, इतिहास, मनोविज्ञान या मिथ आदि से शिल्पगत संरचना के अंतर्गत उनका पहला संग्रह ‘गुनगुनी धूप में
जुड़कर विचार शृंखला के रूप में व्यक्त होती है। उनकी कविताओं बैठकर’ छोटी कविताओं का संकलन है, फिर उनकी लम्बी कविता
की काव्यभाषा में उपमा,प्रतीक,बिम्ब आदि का इस्तेमाल शिल्प ‘पुरातत्त्ववेत्ता’ है, फिर दस बरस पश्चात आया काव्य संग्रह ‘हमसे
के साथ साथ कथ्य और उनके विचारों से भी ताल्लुक रखता है, तो बेहतर हैं रंग’ जो छोटी और मझोली कविताओं का संकलन है
यही वज़ह है कि उनकी कविताओं की भाषा और विचार शृंखला और फिर उनकी लम्बी कविता ‘देह’ आती है। इस तरह क्रमशः
न बोझिल होती है, न अबूझ बल्कि सृजनात्मक, लयात्मक और छोटी और लम्बी कविताओं के लिखने के रचनात्मक संघर्ष को
सम्प्रेषणीय होती है। जीना क्या साधारण सी बात लगती है? हिंदी कविता के समकालीन
इस संग्रह ‘हमसे तो बेहतर हैं रंग’ के पश्चात शरद कोकास काव्य परिदृश्य में तो किसी कवि द्वारा शायद ही संभव हो, क्योंकि
फिर लम्बी कविता की ओर आते हैं। उनकी दूसरी लम्बी कविता छोटी और लम्बी कविताओं की काव्य संरचना एवं काव्य प्रक्रिया
‘देह’ भी पहल पत्रिका में प्रकाशित हुई। इस लम्बी कविता ने उन्हें को इस तरह एक साथ साध पाना आसान नहीं होता। n
काव्य परिदृश्य के केंद्र में लाकर खड़ा कर दिया। इस कविता संपर्क : मोगरा 76, बी ब्लॉक, तालपुरी,
को डॉ मलय, राजेश जोशी, शीतेंद्रनाथ चौधुरी, डॉ भगवान सिंह, रिसाली भिलाई, जिला दुर्ग
नरेश सक्सेना, लीलाधर मंडलोई, विजय कुमार जैसे अनेक कवि मो. 9827489585
आलोचकों ने सराहा। यह कविता दर्शाती है कि सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड

240 n जुलाई से सितंबर 2023 yegh


n महत्तम : शिव कुमार पराग

हिंदी के जनकवि
शैलेन्द्र कुमार शुक्ल

एक मशहूर ग़ज़ल के मक़बूल शे’र जो अक्सर है। मेरे ख़्याल से हर रचना यह चाहती होगी कि वह
सड़क से संसद तक लोगों की ज़बान से नुमाया कवि से, अपने रचयिता से, अपने सृष्टा से छूट जाए
हुए न जाने किन किन के नाम से या बिना शायर और अपनी ही राह पर कुछ कदम चल सके”।2 शिव
का नाम लिए जनांदोलनों में बड़े जोश के साथ गाये कुमार ‘पराग’ की यह ऐसी ही प्रतिष्ठित रचना है
गए। शायरी की सबसे बड़ी ताक़त यही होती है कि जो अपने सृष्टा की गोद से उतर कर अपनी सृष्टि में
वह जिसके लिए लिखी गई वहाँ तक पहुँच जाये। लोकजयी हुई।
आज हिंदी कविता सिमटती जा रही है तो उसका ऐसी ही अनेक कालजयी रचनाओं के रचनाकार
एक कारण यह भी है कि वह जिसके हमदर्द ख्यालों की परवाह जनकवि शिव कुमार ‘पराग’ का जन्म साहित्य और राजनीति
में दुबली हुई, मोटी जमात की महफिलों में आह बनकर रह गई। की उर्वर भूमि जनपद बलिया के गाँव दिघार में बहुत निम्नवर्गीय
ख़ैर! मैं जिस मशहूर ग़ज़ल की बात कर रहा हूँ वह बनारस के परिवार में हुआ। अपने बचपन के संघर्षोंंं को याद करते हुए वे
जनकवि शिव कुमार ‘पराग’ द्वारा रचित सन 1978 ई. की रचना बताते हैं कि ‘सतुआ, प्याज और जनेरा (मकई) के भात, दाल,
है। एक शे’र याद दिला रहा हूँ- आलू के चोखे ने बड़ा साथ दिया। जाड़े में साग खोंट-खांट के
“गर हो सके तो अब कोई शम्मा जलाइए आ जाता। भात तो काज-परोज में ही नसीब होता था। ग़रीबी का
इस अहले सियासत का अँधेरा मिटाइए”1 आलम न पूछिए! मिट्टी का पुराना घर बरसात में कभी इधर चूता
बनारस शहर के मशहूर संस्कृतिकर्मी व कवि व्योमेश शुक्ल तो कभी उधर। जाड़े में कपड़े से ज्यादा घाम का सहारा। बड़की
इस ‘हिंदी ग़ज़ल की एक कहानी’ सुनाते हैं। यह रचना कमलेश्वर माई गांती बांन्ह-बूंन्ह कर बचाव का जतन करती रहती थीं। रात
के सम्पादन में निकलने वाली हिंदी की प्रतिष्ठित पत्रिका ‘सारिका’ में लेवा-गुदरी जिंदाबाद! बचपन से तुरतं बाद माता-पिता से दूर
में सन 1978 ई. में पहली बार छपी थी। सन 80 के दशक में रहना पड़ा, एक तरह से बनवास झेला।’ इस जीवन की सामाजिक
इस गज़ल को हीरावल समूह ने गाया। उन्हें भी इसके रचयिता का पृष्ठभूमि उनकी कविताओं का आधार है। लेकिन वे इन संघर्षों
नाम नहीं पता था। यह इस रचना की ताक़त है कि देश भर में हो के प्रति व्यैक्तिक नहीं होते। वे हिंदी के उन लेखकों में नहीं हैं जो
रहे तमाम जनांदोलनों में ख़ूब गाई गई और अत्यंत लोकप्रिय होती अपने संघर्षों को हर्र-फिटकरी लगाकर चमकाते फिरते हों। उनकी
गई। फिर आगे 2016-17 में देश के मशहूर बैंड ‘इंडियन ओशेन’ यह ग़रीबी मुक्तिबोध की शब्दावली में कहूँ तो हमारे कोटि-कोटि
के कलाकारों ने इसे बिलकुल अधुनातन संगीत के साथ प्रस्तुत जनों की गरबीली ग़रीबी है। पराग जी की प्रारंभिक शिक्षा गाँव के
किया। मजेदार यह है कि इंडियन ओशेन बैंड को भी यह पता नहीं विद्यालय से संपन्न हुई एवं आगे की पढ़ाई के लिए वे बनारस आ
था कि इस गज़ल का रचनाकार कौन है। व्योमेश फरमाते हैं कि गए जहाँ क्वींस कॉलेज में पढ़ने का उन्हें मौका मिला। उच्च शिक्षा
“यह एक ग़ज़ल है बल्कि और सही होकर कहें तो ग़ज़ल के फॉर्मेट में उन्होंने काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से हिंदी विषय से स्नातकोत्तर
में लिखी गई एक हिंदी रचना है, मानो ग़ज़ल को हिंदी भाषा में किया। साहित्य और संवेदनाओं से बेशुमार प्रेम करने वाले पराग
बचा लेने की एक रचनात्मक कोशिश लेकिन बहुत मशहूर, बहुत जी ने घर-परिवार के भरण-पोषण के निर्मित हिंदी की अकादमिक
मक़बूल, रचनाकार की गोद से उतर कर अपने पैरों पर चलने दुनिया से बहुत दूर बैंक में नौकरी की। ग्रामीण बैक की शाखाओं में
वाली एक ऐसी रचना, जैसा हो जाना हर कविता का स्वप्न होता नौकरी के दौरान उन्होंने लंबे समय तक पूर्वांचल के गांवों में बहुत

yegh जुलाई से सितंबर 2023 n 241


देसी ठाठ में रहना पसंद किया। उनकी रचनाओं में वहाँ के बड़े : देश के देस का’ आलोचना कृति में लिखते हैं- “शिव कुमार
मार्मिक दृश्य आये हैं। शिव कुमार ‘पराग’ की अब तक कविता की पराग ने गीतों और ग़ज़लों में भी आज के यथार्थ को समझने की
पाँच पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। पहली किताब में हिंदी ग़ज़लें हैं कोशिश की है। इस कोशिश में कवि का स्वर स्वाभाविक रूप से
‘देख सको तो देखो’ जो 1993 ई. में दुष्यंत प्रकाशन, आजमगढ़ व्यंग्यात्मक हो उठा है। भारतीय लोकतन्त्र का चरित्र और व्यवहार
से छपी थी। इसके बाद ‘रोशनी के शब्द’ (गीत संग्रह), ‘देश बड़ा निरंतर जटिल होता जा रहा है। शासक वर्ग की राजनीति ने जनता
बेहाल है’ (दोहा संग्रह), ‘बर्फ की तहें टूट रही हैं’ (मुक्त छंद की समझ और शक्ति को कुंद करने की मुहिम चला रखी है।
कविताओं का संग्रह) एवं ‘काहे रउवाँ बानी मनबेधिल’ (भोजपुरी आदमी को विवश बनाया जा रहा है। संघर्ष के बजाए झुंझलाहट
कविता संग्रह) पुस्तकें प्रकाशित हुईं। इन किताबों में संकलित भरा समझौता इसके व्यक्तित्व में शामिल होता जा रहा है। इस
रचनाएँ अपने दौर की हंस, सारिका, धर्मयुग, वसुधा सरीखी तमाम स्थिति को शिव कुमार पराग इस तरह प्रकट करते हैं-
संजीदा पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहीं और कमलेश्वर, राहत के एलान भइल त सागरो धूम मचल
धर्मवीर भारती, ज्ञानेंद्रपति, अरुण कमल सरीखे साहित्यिकों के जे राहत पवलन ओके झुझुआवन लागत बा।”4
प्रशंसा भरे तमाम पत्र उन्हें मिलते रहे। लेकिन इसे हिंदी का दुर्भाग्य केंद्र की राजनीति से संस्थानों का कैसा गठजोड़ होता है यह
ही कहूँगा कि अपने संकुचित स्वार्थ संबंधों में खँचिया-खँचिया भर कहने की आवश्यकता नहीं। जनता और सत्ता के बीच सेफ़्टी वाल्व
बर्बाद मशाले पर नुमाइश लगाने वाली हिंदी एकेडमिया की नज़र का काम हिंदी का अकादमिक जगत करता आया है। वह जन
शिव कुमार ‘पराग’ पर नहीं पड़ी। उनकी रचनाओं पर अब तक की संचित निधियों के साहित्य पर सामाजिक न्याय का मुलम्मा
कोई आलेख नहीं लिखा गया। लगाए सत्ता चरित्र की राजनीति ही करता है। यही कारण है कि
‘पराग’ की कविताएँ और उनके साहित्यिक अवदान को शिव कुमार ‘पराग’ जैसे जन कवि को विमर्श की आवारा दुनिया
पढ़ने-गुनने के क्रम में मुझे उनके दस्तावेज़ों से एक पत्र प्रतिष्ठित बाहर निकाल देती हैं। लेकिन जैसे ही छुद्रता की ग़रीबी में द्रव्य का
कथाकार कमलेश्वर का मिला। इसे पढ़ते हुए अवधी के महान अकाल महसूस होगा पराग उन्हें अपने लगने लगेंगे।
जनकवि बलभद्र दीक्षित ‘पढ़ीस’ के कविता संग्रह ‘चकल्लस’ शिव कुमार ‘पराग’ ने अपने समय की लगभग सभी प्रचलित
(1933) की महाप्राण निराला द्वारा लिखी भूमिका याद आ गई। शैलियों में कविताएँ रची हैं। वे त्रिलोचन की परंपरा के कवि हैं
निराला जी ने जो बात अपनी संवेदनाओं को मानवीय बड़प्पन की लेकिन भाषा और शिल्प में त्रिलोचन से भिन्न। उन्होंने गीत, ग़ज़ल,
निजता में स्वीकार किया, उस तरफ लोगों का ध्यान बहुत कम दोहे और मुक्तछंद सब में श्रेष्ठ कविता की है। हिंदी के प्रतिष्ठित
गया। निराला बड़े हैं क्योंकि उन्हें बड़ी संवेदनाओं की समझ है। कवि ज्ञानेंद्रपति उनकी इस विशेषता को रेखांकित करते हुए लिखते
उन्हें ‘पढ़ीस’ की किताब की भूमिका लिखते हुए कालिदास याद हैं- “दरअसल, शिव कुमार ‘पराग’ हिंदी में उस विरल कोटि के
आए। उनकी शकुंतला याद आई। निराला अभिज्ञानशाकुंतलम् की कवि हैं जिनकी कविता का आकाश अविभाजित है। निराला से
एक सूक्ति के हवाले से कहते हैं- ‘मैं तो शास्त्र का अन्वेषण करके गिरिजा कुमार माथुर तक आई हुई इस काव्यधारा को विजेंद्र, प्रेम
मारा गया सारा रस तो मधुकर तुम ले गए’। यह एक महान कवि शंकर रघुवंशी, अष्टभुजा शुक्ल और शिव कुमार ‘पराग’ जैसे कवि
एक अन्य महानता के बारे में ही लिख सकता है। कमलेश्वर जी नई परिस्थितियों तक पहुँचा रहे हैं; जबकि प्रगीतात्मकता जीवन
शिव कुमार ‘पराग’ को भेजे एक पत्र में लिखते हैं- “रोशनी के लय का भाषिक प्रतिरूप है, के प्राणवत परस से वंचित आज की
शब्द’ और ‘काहें रउवां बानी मनबेधिल’ (भोजपुरी) दोनों ही पढ़े। मुक्तछंद कविता का अधिकांश उकठकर गद्य कविता में पर्यवसित
‘काहे होत बगावत नईखे’ की चिंता से ही हम सब चिंताग्रस्त और हो गया है और पाठकों की सह अनुभूति खो रहा है...उसके श्रोताओं
जुड़े हुए हैं, पर हमने एक परिपुष्ट लोकतन्त्र विकसित किया है का तो ख़ैर सवाल ही नहीं उठता।”5
जिसमें बगावत वोट के जरिए होती है। इसी की आधारभूमि तुम्हारी ‘पराग’ भाषा और शिल्प में सहजता और सजगता के नए
और लोकभाषा की रचनाएँ बनती हैं! हम तो हाथी के दांत हैं, प्रतिमान ही नहीं खड़े करते बल्कि उनके काव्य प्रयोजन भी
असली दांत तो तुम और तुम्हीं जैसे रचनाकार हैं।”3 यह कितनी लोकजागरणकालीन महान कवियों की लोकहित वाली डगर पर
महत्वपूर्ण बात है कि निराला पढ़ीस की जिन कविताओं पर मोहे निर्द्वंद्व बढ़ते दिखाई पड़ते हैं। वे ‘कविता’ शीर्षक कविता में लिखते
थे, वे जन भाषा अवधी में थीं और कमलेश्वर पराग की जन भाषा हैं-
भोजपुरी कविताओं पर। भोजपुरी काव्यालोचन के विशिष्ट विद्वान “तुम कहोगे
और हिंदी के जनवादी साहित्यिक डॉ. बलभद्र ‘भोजपुरी साहित्य खाली शब्दों से क्या होता है

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और कविता हमें क्या देती है? को अपना देवता मान बैठा है। इसमें प्रत्यक्ष-परोक्ष हम सब शामिल
लेकिन मैं ख़ूब जनता हूँ हैं। लेकिन सहजता जहाँ सजग होगी वहाँ इस ‘मैं’ को कठघरे में
कि सारी परेशानियों के पार जाकर खड़ा किया जाता रहेगा। ‘पराग’ इसी ‘मैं’ को फटकारते हैं जिसे
कविता अपनी ज़िम्मेदारी समझती है कभी कबीर ने तो कभी तुलसी से दुत्कारा था। हम इस धरती पर
एक गिरते हुए आदमी की बाँह थामने मनुष्यता के नागरिक हैं लेकिन हमने मनुष्यता की ज़मीन खोखली
और घुप्प अँधेरे से जूझते समाज में कर दी है। यहाँ मनुष्यता के दरख़्त को कवि कल्पवृक्ष कहता है
रोशनी होने की ज़िम्मेदारी है कविता”6 क्योंकि यही हमारे जीवन की बुनियाद है। लेकिन हमारे धूर्त स्वार्थों
‘पराग’ कविता की ज़िम्मेदारी पर जोर देने वाले कवि हैं। यह ने इस महावृक्ष पर बड़े आघात किए हैं, इसकी टहनी-टहनी दर्द
रास्ता ही उनके कवि को प्राथमिक जन बनाए रखता है। उनके से कराह रही है, पत्ते-पत्ते हमारे अपराध, अन्याय, मक्कारी की
जन पर कविता बोझ नहीं बनती, सदैव सहभागी रूप में तत्पर कथा कह रहे हैं। और हमारा सत्ता सुरभित अहंकार देखिए कि हम
संघर्ष की डगर पर सहयोगी की तरह डटी रहती है। उनके यहाँ अपनी मरती हुई संस्कृति और सभ्यता के सिरहाने बड़ी निर्लज्जता
चमकदार चमत्कार नहीं मिलेंगे। भाषा का भ्रमजीवी जंजाल नहीं से खड़े हैं। सिरहाने और पैंताने का आज विवेक ही नष्ट हो गया
मिलेगा। उनके यहाँ जीवन मिलता है। एक तरफ विसंगतियों और है। अहंकारों की निर्लज्जता प्रकृति और मनुष्यता को ही नहीं आज
विडंबनाओं से उपजा निर्लज्ज दुख है तो दूसरी तरफ निर्लज्ज कविता को भी दूषित कर रही है। अब सोचने की बात है कि
फ़रेबों से लड़ने का अदम्य साहस। पराग की इसी ताक़त को अहंकारियों को अपने बाज़ार के लिए कविता की ज़रूरत पड़ गई,
पहचानते हुए प्रतिबद्ध साहित्यिक जयप्रकाश धूमकेतु लिखते हैं- कितना जघन्य है यह। ‘पराग’ प्रकृति, मनुष्यता और कविता को
“स्वतन्त्रता के झरते उल्लास की उम्मीद में पराग ज्योतिस्नान और बचाने की टोह में हैं। वे स्वार्थी ‘मैं’ को दुत्कार कर समहितकारी
मचलते अरमान के साथ केवल घर गृहस्थी की मिठास की लालसा ‘हम’ की पक्षधरता में खड़े दिखाई देते हैं-
लेकर आगे नहीं बढ़ते बल्कि वे खेत के हुलसने, मजदूरों के चेहरों “बस्ती को लेकर हमने कुछ प्रश्न कर दिये हैं जिंदा
के दमकने की आशा में भयावह काली रात के खात्मे के साथ ही बगलें झाँक रहे बेचारे और लगे हैं घबराने”9
यातनाओं के दुर्ग को ढहाना चाहते हैं ताकि काली रात का अँधेरा जब चेतना सवाल करेगी तो घबराहट होना लाज़मी है। जिस
छंट सके, पेड़-पौधे, वन-उपवन झूम उठें और गुलामी की जंजीरें झूठ पर गुमान किया उसे बेनकाब होने पर शर्मिंदगी होनी ही
टूटें।”7 पराग इसी रास्ते पर चलने वाले कवि है उनमें एक मनुष्य चाहिए। लेकिन यदि शर्मिंदगी सत्ता का वहम पा जाए तो उसे
की संवेदनशील विनम्रता है तो जन स्वाधीन जीवन की स्वाभिमानी पटकना पड़ता है। यह काम कभी काशी में रहने वाले कबीर ने
ठसक भी। वे समझौते के पंक में कलुषित पथिक नहीं। यही कारण किया था। उनके दोहे आज भी साक्षी हैं। यही कारण है कि उन्हें
है कि उनके प्रशंसक भी उन्हें ज्यादा तरजीह नहीं दे पाते। संतों ने साखी कहा। उसी काशी में आज ‘पराग’ यह गुनते हुए
‘पराग’ कविता के माध्यम से मानुष अधिकारों के साथ खड़े चुपचाप पाए जाते हैं-
दिखाई देते हैं। यह लोक की ताक़त है जिसे साहित्य के स्वाभिमान “अल्ला ने रोके नहीं बलवे कत्लेआम
में वैश्विकता की निगाह मिली। वे डगमगाने वाले स्वार्थी नहीं, वे दंगे भर चुप ही रहे घट घट वासी राम”10
संघर्ष पथ पर समता के निमित्त डटे रहने वाले धीर पथिक हैं। वह यह हमारे समय की विकृत राजनीति का सबसे घिनौना चेहरा
व्यक्ति से अधिक जन की पक्षधरता के कवि हैं। यह उनके भाषिक है, जिस पर अंध-मुग्ध अभागी लहालोट हैं। कभी सचेत नागरिक
शिल्प में बहुत संजीदा ढंग से सहज रूप में आ जाता है। एक बहुत धर्म को राजनीति से दूर रखने की नैतिकता को एक मूल्य समझते
प्यारी गज़ल से उदाहरण देखिए- थे, लेकिन आज मूल्यहीनता ही सबसे बड़ा मूल्य बन गई है।
“टहनी-टहनी दर्द बिछा है, पत्ते-पत्ते अफसाने धार्मिकता आज सांप्रदायिकता की कट्टर जहालतों के तम्बू लगाए
तड़प रहा है कल्पवृक्ष, मैं खड़ा हुआ हूँ सिरहाने”8 देश की सर्वत्र भूमि पर रणभेरी बजा रही है। पराग इसी रणभेरी को
यहाँ जितनी सहजता है उससे कहीं अधिक है कविता। ज़रूरत नकेल लगाने वाले सवाल उठाते हैं। ‘देश बड़ा बेहाल’ पुस्तक में
है इसे सजगता से समझा जाए। लोकमन इसे तुरंत समझ लेगा। इस तो अपने समय की जटिल और ज्वलंत अत्याधुनिक समस्याओं
‘मैं’ का कवि पक्षधर नहीं हैं। यहाँ ‘मैं’ उस व्यक्ति का प्रतीक है पर अद्भुत चुटीले सात सौ दोहे हैं। ये दोहे हमारे समय के साक्षी हैं
जिसके मन में विकृत सत्ता की छाया ठहर गई है, जो अपना हित- और शिव कुमार ‘पराग’ हमारे दौर के कबीर। यह कहने में मुझे
अनहित भूल गया है और झूठे अहंकार में अपराध के अधिनायक कोई संकोच नहीं।

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‘पराग’ अपने समय की नब्ज़ को टटोलने वाले कवि हैं। वे त्रिपाठी एक बड़ी महत्वपूर्ण बात लिखते हैं- “लोक साहित्य बराबर
बहुत चुपचाप बरसों से अपना काम किए जा रहे हैं बिना किसी अपनी ओर देखता रहता है। आत्मन्वेषण की यह प्रक्रिया एक ओर
यश की परवाह किए। ग़ालिब याद आते हैं- ‘न सताइश की तमन्ना लोक रूढ़ियों पर सही वार करती है तो दूसरी ओर विवेक को और
न सिले की परवा’। वे जानते हैं समय की भंगुरताओं को। सब परिष्कृत करती है। लोक में जिस तरह सहने की क्षमता अधिक
चमचम बिला जाएगा, निठल्ले स्वार्थ एक दिन औंधे मुँह गिर होती है, उसी तरह लोक भाषा में कहने की क्षमता अधिक होती है।
जाएँगे। त्याग और पुरुषार्थ की स्नेहिल थाती रह जाएगी बस- मनुष्य हृदय से निकली हुई बात लोक की सीमाओं का अतिक्रमण
“बादलों की करते हुए राष्ट्रीय चेतना को प्रतिबिम्बित करने लगती है।”13 ऐसे ही
साज़िशों को लांघ कर चेतना सम्पन्न कवि है ‘पराग’।
अँधेरों के निष्कर्षतः हम कह सकते हैं ‘पराग’ का जिंदा काव्य अपने
शिकंजों को तोड़कर प्रयोजन से बहुत दिनों तक दूर नहीं रह सकता। वे चेतना की
सूर्य आख़िर निकल आएगा”11 लेखनी से हृदय को मानुष विवेक से परिपुष्ट करते रहेंगे। उनकी
यह पंक्तियाँ जिस गीत से उद्धृत कर रहा हूँ उसे कभी धर्मवीर कविताएँ अपने असली ठिकानों पर पहुँच रही हैं। इस हलचल की
भारती ने धर्मयुग में प्रकाशित किया था। बड़ा प्यारा गीत है। ऐसे धमक का एहसास तो होता ही रहेगा-
ही चेतना को कुरेदने वाले अनेक गीत ‘रोशनी के शब्द’ संग्रह में “एक सनसनी है हवाओं में
संकलित हैं। इस किताब की भूमिका में पंकज गौतम लिखते हैं- एक हलचल है पानी में
“पराग के गीतों में अजनबी शब्दों, पदों और बिंबों से परे मनुष्य और बर्फ की तहें टूट रही हैं।”14 n
जीवन और उसके सामाजिक संदर्भोंं की आत्मीय और विश्वसनीय
अभिव्यक्ति है। ये गीत न चमत्कृत करते हैं, न वस्तुतत्व को
संदर्भ-
फैलाकर व्यंजित करते हैं और न इनमें ओढ़ी हुई क्रांतिकारी मुद्रा
1. पराग, शिव कुमार.(1993).देख सको तो देखो. आजमगढ़, दुष्यंत
दिखाई देती है। इनमें अंतर्ग्रथित आवेग, तनाव और आक्रोश के प्रकाशन. पृष्ठ. 92
सरल क्रियाशील चित्र हृदय की रागात्मकता को आलोड़ित करते हैं 2 . Hindwi के फेसबुक पेज से 12 जनवरी 2021 को एक वीडियो से
और मस्तिष्क में देर तक कौंधते रहते हैं।”12 ‘पराग’ के गीतों की प्रस्तुत
प्रवृत्ति और स्वभाव को समझने के लिए यह टिप्पणी महत्वपूर्ण है। 3. पराग, शिव कुमार के नाम कमलेश्वर का पत्र. 10.11.2003
4. डॉ.,बलभद्र.(2020).भोजपुरी साहित्य : देश के देस का.नई दिल्ली,
‘पराग’ ने अपनी मातृभाषा भोजपुरी में बहुत सुंदर कविताएँ रचीं सर्व भाषा ट्रष्ट. पृष्ठ. 51
हैं जिनका संग्रह ‘काहें रउवाँ बानी मनबेधिल’ नाम से प्रकाशित 5. ज्ञानेंद्रपति का पत्र. 12.04.2003
है। यह कवि की जीवंतता का प्रमाण है। प्रत्येक रचनाकार को 6. पराग, शिव कुमार.(2001).बर्फ की तहें टूट रही हैं.मऊ, अभिनव
अपनी मातृभाषा में लिखना ही चाहिए। सच्चा साहित्य मातृभाषाओं कदम कविता पुस्तिका-3.पृष्ठ. 60
7. वहीं. पृष्ठ. 03
में ही रचा जा सकता है। इसकी मिसालें मिलती हैं। यही वह 8. पराग, शिव कुमार.(1993).देख सको तो देखो. आजमगढ़, दुष्यंत
जगह है जहाँ से एक सच्चे रचनाकार को ताक़त मिलती है। तभी प्रकाशन. पृष्ठ. 24
किताब के शीर्षक में ही कवि कह रहा है प्यारे! तुम्हारा मन क्यों 9. वहीं. पृष्ठ. 24
व्यथित है! व्यथा संसार की स्वाभाविक माया है। इसे सिर्फ़ ज्ञान 10. पराग, शिव कुमार.(2001).देश बड़ा बेहाल.मऊ, राहुल सांकृत्यायन
लोकसंस्कृति संस्थान. पृष्ठ. 72
से नहीं समझा जा सकता। इसके लिए सच्चे अनुभव के प्रताप की 11. पराग, शिव कुमार.(2003).रोशनी के शब्द.आजमगढ़, सबके दावेदार.
भी आवश्यकता होती है। सच्चे अनुभवजनित ज्ञान की थाती तो पृष्ठ. 23
लोक ही है। इसे समझना मानकीकरण के बूते नहीं। यह अंगढ़ता 12. वहीं. पृष्ठ. 4
में ही सुगम है। इसीलिए व्यथित जन के मन को कोई लोक कवि 13. पराग, शिव कुमार.(2003). काहें रउवाँ बानी मनबेधिल. शांतिनिकेतन,
सरयुधारा (पत्रिका) पृष्ठ.3
ही समझा सकता है कि काहे परेशान हो भाई! इसीसे एक राह 14. पराग, शिव कुमार.(2001).बर्फ की तहें टूट रही हैं.मऊ, अभिनव
निकलेगी। आज बहुत से रचनाकार अपनी मातृभाषा में लिखने से कदम कविता पुस्तिका-3.पृष्ठ. 7
कतराते हैं इसका कारण भी यही है कि उनकी सारी चालाकियों का संपर्क : िहन्दी शिक्षक,
पानी वहाँ उतर जाता है। उक्त किताब की भूमिका में शैलेंद्र कुमार िगरीडीह (झारखंड)
नं. 7498653618

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n महत्तम : नासिर अहमद सिकन्दर

कविता की प्रगतिशील-प्रतिबद्ध दृष्टि


बसंत त्रिपाठी

समकालीन हिंदी कविता में नासिर अहमद सिकंदर चला गया। बेशक इन्हीं मनःस्थितियों से जुड़कर कुछ
की कविताओं को लेकर पाठकों और आलोचकों की बेहद महत्वपूर्ण कविताएँ भी लिखी गई हैं। ऐसे में
राय कई बार बिलकुल विरोधी जान पड़ती है। नासिर जिद की तरह अपनी कला से जुड़े रहना नासिर को
शहर के श्रमशील जन, मध्यवर्गीय अंतर्विरोधों और संभवतः आत्मिक आनंद देता होगा। बहरहाल, नासिर
उसके प्रण को रखने के साथ-साथ राष्ट्रीय और की कविताओं की ओर लौटें कि क्या जटिल संरचना,
वैश्विक घटनाक्रमों को मार्क्सवादी विचारधारात्मक अमूर्तन और आनंदात्मक अनुभूतियों की कलात्मक
दृष्टि से देखने वाले कवि हैं। समकालीन हिंदी कविता कविता ही कविता का एकमात्र पक्ष है या इसके परे
का एक बड़ा दायरा प्रगतिशील चेतना का है। बावज़ूद इसके, ऐसी की कविता का भी महत्व है। बेशक इसे उलटकर भी पूछा जा
प्रगतिशील-प्रतिबद्ध दृष्टि रखने वाले कवि और पाठक भी उनकी सकता है।
कविताओं के बेलाग प्रशंसक नहीं हैं। कविता के पारखी तो पारखी, नासिर अहमद सिकन्दर के अब तक चार कविता संग्रह
मामूली समझ रखने वाले भी पीठ पीछे कहते हुए दिखाई पड़ते हैं प्रकाशित हैं-जो कुछ भी घट रहा है दुनिया में (1994), इस वक्त
कि नासिर अहमद की कविताएँ साधारण हैं। अपने आरंभिक लेखन मेरा कहा (2001), भूलवश और जानबूझकर (2011), अच्छा
से लेकर अब तक नासिर अहमद जिस तरह की कला के आग्रही आदमी होता है अच्छा (2015)। इसके अलावा सुधीर सक्सेना
हैं और उसी के सहारे कवि-कर्म कर रहे हैं संभवतः उसके कारण द्वारा चयनित और सम्पादित एक संकलन ‘नासिर की कविताएँ’
भी कविता-प्रेमी मानते रहे हों कि देश-दुनिया की गति के अनुरूप (2019) भी है। इसमें उक्त संकलनों से ली गई कविताओं के
उन्होंने अपना समुचित विकास नहीं किया। लेकिन कवि नासिर को अलावा चाँद शृंखला की कुछ कविताएँ भी हैं। नासिर की कविताओं
इससे बहुत फ़र्क नहीं पड़ता। परेशान और आक्रामक होते ज़रूर हैं में ख़बरों की उल्लेखनीय उपस्थिति है। ऐसी ख़बरें जो प्रिंट और
लेकिन अपनी काव्य-कला के बारे में निश्चिंत हैं, संशय-रहित हैं, इलेक्ट्रॉनिक दोनों ही तरह के माध्यमों से प्रकाशित-प्रसारित होती
दृढ़ हैं और तनिक जिद्दी भी। इस जिद के पीछे एक कारण उनके रहती हैं। ऐसी राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय महत्व की ख़बरें वैचारिक
अपने समकालीनों का बहुत कुछ पा लेने की सफलता भी है। बहुत प्रतिबद्धता के साथ उनकी कविता में आती है। नासिर कई बार उन
कुछ यानी पुरस्कार, प्रकाशन, चर्चा, आयोजन और इतर भाषाओं ख़बरों को केवल अपनी काव्य-कला में रूपांतरित कर देते हैं और
में अनुवाद। इसको लेकर वे लगातार आक्रामक भी होते गए हैं कई बार कवि-वक्तव्य देना भी ज़रूरी समझते हैं। ख़बर कविता
और अपने प्रियजनों पर हमला करने से भी परहेज नहीं करते। के लिए कितनी ज़रूरी हैं? क्या इनका संबंध केवल सूचना से है?
यद्यपि नासिर को व्यक्तिगत रूप से जानने वाले इतना तो जानते हैं और केवल सूचना तक ही सीमित है तो इसे अन्य माध्यमों द्वारा
कि ऐसे हमले व्यक्तिगत दुर्भावना से प्रेरित नहीं होते। न ही ईर्ष्या भी पढ़ या जान लिया जाता है। फिर इन्हें अलग से कविता में लाने
इसका कारण है। समाज की लगातार जटिल और दुरूह होती का क्या औचित्य है? नासिर अहमद की इन कविताओं को पढ़ते
व्यवस्था में सहमति और विरोध के अंतःसूत्रों के बीच स्याह-सफेद हुए ऐसे सवालों का उठना स्वाभाविक है। ऐसे सवालों से टकराने
वाला रिश्ता नहीं रह गया है। बल्कि यह धूसर है। यदि यह रिश्ता से पूर्व देखना होगा कि कवि किस तरह की ख़बरों को कविता में
रणनीतिक होता तो फिर भी ठीक था। लेकिन बहुधा यह निहायत ले आने को आतुर है। रियो सम्मेलन, सोवियत विघटन, लेनिनग्राद
व्यक्तिगत लोभ-लाभ, निजी संबंध और स्वार्थवश स्थापित होता का नाम पीटर्सबर्ग कर देना, इराक-अमेरिका युद्ध, परमाणु अप्रसार

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कबूतर रखा जाए
(कहा जाए, जो कुछ भी घट रहा है दुनिया में, पृष्ठ-58)

परमाणु अप्रसार सन्धि के उन्वान के तहत


कौन लिख रहा मजमून
नीचे दस्तखत
मोटे-मोटे
हरुफों में

देता
हिदायत सख्त
हमारे हाथ
चाबुक भी न हो।
(परमाणु अप्रसार सन्धि पर, इस वक्त मेरा कहा, पृष्ठ 60)
अपने समकालीनों में नासिर संभवतः अकेले ऐसे कवि हैं
जिन्होंने राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय घटनाक्रमों पर एक कवि और एक
सन्धि, दक्षिण अफ्रीका की आज़ादी, मन्दिर-मस्जिद विवाद, संसद नागरिक की ज़िम्मेदारी से इतनी अधिक कविताएँ लिखी हैं। नासिर
में अविश्वास प्रस्ताव पर बहस, समान सिविल कोड, सानिया की कला पर सबसे अंत में बात होगी। लेकिन यहाँ दो-एक बातें।
मिर्ज़ा, मिस युनिवर्स प्रतियोगिता, क्रिकेट, विज्ञापन, गोरक्षा घटनाक्रमों पर लिखी जाने वाली कविताओं का अपना महत्व भी
अभियान आदि-आदि। ग़ाैरतलब है कि ये कविताएँ इन ख़बरों के है लेकिन उनमें से अधिकतर कविताएँ रचनात्मक जद्दोजहद की
असर में नहीं लिखीं गई हैं बल्कि इन्हीं ख़बरों पर हैं। कवि इन किसी सृजनात्मक प्रक्रिया से गुज़रे बग़ैर भी लिखी जाती रही हैं।
ख़बरों को समूचे संसार के परिप्रेक्ष्य में देखता है। मन-मस्तिष्क पर ऐसी कविताओं पर रिपोर्टिंग की शैली हावी होती है। ऐसी कविताओं
पड़ने वाले ऐसी घटनाओं के केवल असर को पकड़ने की अपेक्षा की सबसे बड़ी दिक्कत यह होती है कि कविता में समूची प्रक्रिया
कवि सीधे घटनाओं और उसके राजनीतिक-सामाजिक-आर्थिक की बजाए घटना विशेष पर जोर ज्यादा होता है। वही कविता के
प्रभाव को कविता में रूपांतरित करता है। यदि कोई वक्तव्य देता बहाने सम्प्रेषित भी होती है। समय के लिहाज से तो इनका अपना
भी है तो वह उनके निजी व्यक्तित्व से उभरकर आया वक्तव्य महत्व है। लेकिन ऐसी कविताएँ सस्ती सृजनात्मकता में दफ्न हो
न होकर अपने समय की ओर से आया हुआ वक्तव्य होता है। जाती हैं। नासिर की कविताएँ उनसे अलग हैं। दूसरी बात, कवि
जिसमें प्रगतिवादी दौर की आस्था और पक्षधरता ध्वनित होती है। ऐसी ज़रूरी घटनाओं को रिपोर्टर की तरह नहीं बल्कि अपनी खास
काव्यशास्त्रीय बहसों में औचित्य या वक्रोक्ति के महत्व को स्वीकार तरह की अर्जित और विकसित कला के माध्यम से रखता है। वे
तो किया गया है लेकिन उसके केन्द्रीय स्थान को लेकर हमेशा एक कई बार एक घटना की समाज में उपस्थिति को कई-कई रूपकों
बहस की स्थिति रही है। नासिर अहमद की कविताओं में औचित्य द्वारा अपनी कविता में ले आते हैं। जैसे दक्षिण अफ्रीका पर कविता
और वक्रोक्ति का विशेष महत्व और स्थान है। इसका संबंध उनकी लिखते हुए एक काली लड़की को घर का काम करते और गोरी
वैचारिक पक्षधरता और कला से है। यह एक नागरिक ज़िम्मेदारी मेम को हुकुम चलाते हुए दिखाकर कहते हैं– ‘जैसे घर हो देश
भी है। अंतररष्ट्रीय घटनाक्रमों पर लिखी गई इन दो कविताओं को सरीखा जैसे दक्षिण अफ्रीका’ या दक्षिण अफ्रीका की आज़ादी पर
देखें, जो उनके दो अलग अलग संग्रहों से ली गई हैं : लिखी एक अन्य कविता ‘बरसों बाद’ में काले मेघ, काली मैना,
दक्षेस सम्मेलन जब हो काले चूजे और काले केश की मुक्ति और सुंदरता का ज़िक्र करने
कहा जाए के बाद कैनवास पर बरसों बाद छिटके काले रंग का जश्न मनाते
गुटनिरपेक्ष देशों की बैठक जब हो हैं। समूची कविता में दक्षिण अफ्रीका कहीं नहीं है। लेकिन काले
कहा जाए रंग के स्वागत और विस्तार से उसकी मुक्ति का स्वागत कर जैसे
यू। एन। ओ में कहा जाए-हर राष्ट्र का राष्ट्रीय पक्षी वे एक वैश्विक चेतना-संपन्न नागरिक होने के साथ-साथ अपनी

246 n जुलाई से सितंबर 2023 yegh


सौंदर्य और संवेदनशील दृष्टि का भी परिचय देते हैं। क्योंकि सरलीकरण वस्तुतः अनुभवहीनता से जन्मता है जबकि
नासिर अहमद सिकन्दर की कविताओं में देखा गया जीवन नासिर अहमद की ऐसी तमाम कविताएँ अनुभवजन्य है। दृश्य
एक दृश्य-खण्ड या फिर पात्रों के रूप में कई-कई तरीके से आता या जन को देखने का उनका नज़रिया संलग्नता के गहरे बोध से
है। इसमें आस्था और विडंबना दोनों ही दिखाई पड़ते हैं। देखा विकसित होता है। उनके संग्रह ‘भूलवश और जानबूझकर’ में एक
गया जीवन या ऑब्ज़र्वेशन हर तरह की कला का एक महत्त्वपूर्ण कविता है ‘पालिशवाला’। इसमें कवि देखता है कि बच्चे का ब्रश
पक्ष है। किसी भी कवि या कलाकार की संवेदना और विचार- पकड़ा हाथ जूते पर चल रहा है और चेहरे पर बाल का ब्रश भी चल
पक्ष को देखे गए जीवन को कला के लिए चयन के माध्यम से रहा है। चेहरे और पालिश का रंग एक जैसा था। जूता तो उसके
भी जाना जा सकता है। नासिर जी अपने इर्द-गिर्द जिस जीवन श्रम से चमक गया :
को देखते हैं वह अमूमन बीसवीं शताब्दी के अंतिम दशक की पर यह भी ग़ाैरतलब- उसका मासूम चेहरा
शुरुआत में कथित आर्थिक उदारीकरण के बाद का समय और वैसई था
समाज है। इसमें श्रम और श्रम पर पलने वाला परजीवी, दोनों कांतिहीन! (पृष्ठ-20)
ही मौज़ूद हैं। ऐसी कविताएँ लिखते हुए नासिर अहमद सिकन्दर ऐसे छोटे-छोटे अनुभव-खण्डों को लेकर नासिर अहमद
फोटोग्राफी शिल्प का प्रयोग करते हैं। यानी अपनी ओर से कुछ सिकन्दर ने नगरीय जीवन के आर्थिक-सामाजिक-राजनीतिक-
भी अतिरिक्त न कहक़र दृश्य को ही सबकुछ कहने की छूट देना। सांस्कृतिक जीवन को जिस सूक्ष्म दृष्टि से कविता में लाया है उस
लेकिन जैसे फोटोग्राफी में प्रकाश, छाया और कोण की केन्द्रीय पर अधिक ध्यान नहीं दिया गया। कहना होगा कि ये कविताएँ
भूमिका होती है ठीक वैसे ही नासिर की इन कविताओं में भी है। केवल कविता नहीं बल्कि जन-इतिहास है।
उनकी अब तक लिखी गई कुल कविताओं का एक बड़ा हिस्सा घर-परिवार और अपने इर्द-गिर्द पसरे जीवन को जिस तरह से
ऐसी कविताओं का है। कुली की गाड़ी, बूट पालिश करता हुआ कविता में रखने की ज़िम्मेदारी नासिर अहमद सिकन्दर में है वह
लड़का, अपनी जान जोख़िम में डालकर चलती ट्रेन के यात्री को उन्हें पूर्णकालिक कवि की तरह पेश करती है। यहाँ पूर्णकालिक
दौड़कर उसके बचे पैसे वापस करता बच्चा, काम की तलाश में का अर्थ आजीविका से नहीं वरन अपने कवि को हर वक्त मुस्तैद
गाँव से विस्थापित होकर शहर आया नन्हा आगंतुक, ट्रक से चावल रखने से है। बेशक इसमें से अधिकतर कविताएँ मध्यवर्गीय नागर
के बोरे उतारते हमाल, केबल बिछाने वाले मज़दूर, कारखानों के जीवन से ताल्लुक रखती हैं। लेकिन मध्यवर्गीय आत्मकेन्द्रित
ठेका मज़दूर, अपना मकान बनाते चन्द्राकर बाबू, उनके अपने जीवन के पक्ष में लिखी नहीं हैं और न ही उसका पूरी तरह निषेध
सहक़र्मी, आक्रामक बॉस, पैसा लेकर रिज़र्वेशन की सीट बाँटता करती हैं। माँ, पिता, बहन, बच्चे, पत्नी, पड़ोसी और मित्रों से
टीटीई, भ्रूण परीक्षण में लड़कियों के बाद लड़के को गर्भ में जानकर परिपूर्ण दुनिया उनकी कविताओं में उपस्थित है। कवि से इनका
मुग्ध स्त्री, अक्षरज्ञान के लिए संघर्ष करती नन्ही बच्ची जैसे तमाम केवल भावात्मक ही नहीं बल्कि सामाजिक बोध से परिपूर्ण रिश्ता
लोगों का जीवन किसी घटना विशेष के माध्यम से उपस्थित होता भी है। जैसे पिता की मूँछों को स्टालिन की मूछों की तरह देखना
है। रघुवीर सहाय ने भी इस तरह की कई कविताएँ लिखी हैं। या स्कूटर बजाज में अपने परिवार को न अँट पाते हुए देखना।
अंतर इतना है कि रघुवीर सहाय की ऐसी अधिकतर कविताएँ ‘इस वक्त मेरा कहा’ संग्रह में एक कविता है ‘एक नागरिक का
सामाजिक विडंबनाओं को उजागर करती हैं जबकि नासिर अहमद वक्तव्य’। नासिर जी लिखते हैं :
सिकन्दर मूलतः सामाजिक-राजनैतिक आस्था के कवि हैं। उनकी बच्ची के लिए ले आया गुड़िया
विडंबनाओं को उजागर करती कविताएँ भी श्रम के किसी पक्ष की अब अपने जूते
उपेक्षा से जन्मे दुख को रखती हैं। ऐसी कविताओं के माध्यम से अगले माह लूँगा
जैसे वे अपने समय का प्रतिपक्ष रचते हैं। श्रमशील-संघर्षशील ये
जन के प्रति नासिर जी की आस्था उनकी कविता में बिना किसी तीन हजार मासिक वेतन पाने वाले
लाग-लपेट के सीधे-सीधे आती है। अपनी एक कविता ‘जन’ एक नागरिक का वक्तव्य है
में वे कहते भी हैं : ‘बूझो/ जानो/ जन का मतलब/ जन का है/ बिलकुल सच्चा! (पृष्ठ-15)
संघर्ष से नाता/ जन होता है/ युग-निर्माता।’ हो सकता है कि घर-परिवार से लेकर पास-पड़ोस से सम्बद्ध ऐसी कविताएँ
उनके कुछ पाठकों और आलोचकों को ऐसी कविताएँ पारिभाषिक मनुष्य के अंतर्मन, उसके भाव-जगत और परिवेश से उसके संबंध
और सरलीकृत लगे। लेकिन ऐसा इसलिए नहीं मानना चाहिए कि को दर्शाने वाली कविताएँ हैं। आर्थिक उदारीकरण के उपरांत

yegh जुलाई से सितंबर 2023 n 247


बहुत छोटे-छोटे चित्रों से इस सच को कविता में लाते हैं। शहर में
गाँव से ब्याह कर आई स्त्री देखा देखी ही सबसे पहले गैस चूल्हा
खरीदती है! जलावन से छुटकारा किसे अच्छा नहीं लगेगा? कौन
इसकी प्रशंसा नहीं करेगा? लेकिन इस कविता में जो शब्द आया
है ‘देखा देखी’, वही इस कविता का केन्द्रीय कथ्य है। नासिर जी
ऐसी विडंबनाओं के बरअक्स संवेदनात्मक मानवीय अनुभूतियों की
ओर से आँखें मूँदे नहीं रहते।
अपनी कला के मामले में नासिर अहमद सिकन्दर अपने
समकालीनों से बिलकुल अलग हैं। उनकी अधिकतर कविताएँ
संरचना में छोटी हैं। तीन पंक्तियों से लेकर अठारह-बीस पंक्तियों
तक। केवल कुछेक कविताएँ ही लम्बी हैं। लय और तुक उनकी
कविता में अनिवार्यतः होता है। वे दरअसल मितकथन के कवि हैं।
भाषा को लेकर उनका यह बर्ताव केदारनाथ अग्रवाल से मिलता
है। केदारनाथ अग्रवाल उनके प्रिय कवि भी हैं। छोटी संरचना के
कवि होने के कारण वे भाषा में विस्तार की जगह संकते ों से काम
लेने वाले कवि हैं। उनकी भाषा में वाचिकता के आरोह-अवरोह,
बलाघात, प्रश्नाकुलता और कहन की जो बानगी है वह कविता
को कई-कई बार पढ़ने के लिए बाध्य करती है। एक साक्षात्कार
उपभोक्तावाद का विस्फोट, निम्नमध्यवर्गीय नागर जीवन के संकट में उन्होंने कहा भी था कि वे वाक्यों की कला के कवि हैं। अपने
का विस्तार तथा जाति-धर्म-लिंग से जुड़ी पहचान का लगातार वाक्यों और शब्दों और पंक्तियों पर वे बहुत मेहनत करते हैं। एक
कट्टर एवं आक्रामक होना गुज़रे तीन दशकों के भारत का भयावह कविता है ‘तबादला’। नासिर अहमद लिखते हैं :
सच है। नासिर जी एक कवि और नागरिक दोनों ही तरह से घर- हमीं से कहे कोई
परिवार और पास-पड़ोस को देखते हैं। न केवल देखते हैं बल्कि जाओ शहडोल
उसे कविता में ले आने की रचनात्मक प्रक्रिया से गुज़रते हैं। इसके भोपाल
लिए घटनाओं और उनसे जन्मी मनःस्थिति को बहुत विस्तार से या दिल्ली
नहीं बल्कि उल्लेख मात्र से उसके भीतर की संवेदना या विडंबना तो न जा पाएँ
को पकड़ते हैं। वस्तुतः नई बसी औद्योगिक बस्तियों-नगरों में भी सौ दफा सोचें (भूलवश और जानबूझकर, पृष्ठ-40)
पुराने सामाजिक मूल्य कैसे चुपचाप पैठ गए हैं, इसे नासिर अहमद इसका पाठ इतना आसान है कि लगता है ये क्या कविता हुई?
की इन कविताओं के माध्यम से समझा जा सकता है। दो पड़ोसी लेकिन जरा वाचिक विशिष्टता को ध्यान में रखकर इसे पढ़ें।
जो एक दूसरे के घर जातिभेद के कारण खाते-पीते नहीं, लेकिन पहली पंक्ति में शुद्ध वाचिक शब्द ‘हमीं’ का प्रयोग। दूसरी, तीसरी
मेहमान के आने और चीनी खत्म होने पर चीनी का आदान-प्रदान और चौथी पंक्ति दरअसल एक ही वाक्य जो तीन पंक्तियों में है। ये
करते हैं! है ये एक साधारण घटना, लेकिन जातिभेद और संतुलन तीन शहर के नाम नहीं है। तीन भिन्न चारित्रिक विशिष्टताओं वाले
के जिस बिन्दु को यह कविता रखती है वह दिलचस्प है। इसी शहर हैं। पाँचवीं और छठी पंक्ति में कोई विराम चिह्न नहीं है लेकिन
तरह ‘खाना खजाना’ में नए व्यंजन सुझाते हैं। और ये व्यंजन दोनों के बीच एक लम्बा अंतराल लेना पड़ता है। तभी वास्तविक
भी क्या हैं– भजिया बनाना या नये चावल पकाना या बासी भात अर्थ पकड़ में आता है। एक और कविता है ‘कक्षा एक की छात्रा’।
बनाना। बाज़ार नए पर बल देता है जबकि मनुष्य के अधिकतर छात्रा की वर्तनी की भूलों पर केन्द्रित इस कविता में लिखते हैं :
काम पुराने से सधते हैं। इसलिए बाज़ार की हमेशा कोशिश होती है वर्तनी की भूलें भी ख़ूब ख़ूब
कि वह क्रयशक्ति भले न बढ़ाए लेकिन नए के प्रति आकर्षण को कपड़े कौन सिलता
मनोरोग के स्तर तक पहुँचा दे। समाज की क्रयशक्ति बढ़ाने की ‘ज’ में लगाती छोटी ‘इ’ की मात्रा
प्राथमिकता तो अब राज्य की भी नहीं रह गई है। नासिर अहमद अन्न कौन उगाता

248 n जुलाई से सितंबर 2023 yegh


‘क’ में बड़ी ‘ई’ (उपर्युक्त, पृष्ठ 43)
इस उद्धरण की तीसरी और पाँचवी पंक्ति में पाठक को अपने
मन में ‘दर्ज़ि’ और ‘कीसान’ लिखना होगा। तब जाकर वह बच्चों नासिर अहमद सिकन्दर की कविताओं में
देखा गया जीवन एक दृश्य-खण्ड या फिर
की मासूमियत और भाषा अर्जित करने की मेहनत को ठीक-ठीक
पात्रों के रूप में कई-कई तरीके से आता है।
समझ पाएगा। उक्त दोनों उदाहरणों से स्पष्ट है वे कि भाषा में इसमें आस्था और विडंबना दोनों ही दिखाई
निहित संकेतों का अपनी कविता में भरपूर इस्तेमाल करते हैं। पड़ते हैं। देखा गया जीवन या ऑब्ज़र्वेशन
वार्त्तालाप में जो भूमिका शरीर भाषा की होती है नासिर अहमद की हर तरह की कला का एक महत्त्वपूर्ण पक्ष है।
कविता में वह संकेतों की है। यदि संकेतों को पाठ के दौरान नहीं किसी भी कवि या कलाकार की संवेदना और
पकड़ा गया तो अर्थ पकड़ से छूट जाएगा। इन्हीं संकेतों के माध्यम विचार-पक्ष को देखे गए जीवन को कला के
से वे अपने समय के राजनीतिक-सामाजिक अर्थ को रखते हैं। दो लिए चयन के माध्यम से भी जाना जा सकता
छोटी कविताओं को देखें : है। नासिर जी अपने इर्द-गिर्द जिस जीवन
मेरे सामने लड़की थी मैंने कहा लड़का को देखते हैं वह अमूमन बीसवीं शताब्दी के
वह खुश हुई (खुशी, जो कुछ भी, पृष्ठ-33) अंतिम दशक की शुरुआत में कथित आर्थिक
xxx उदारीकरण के बाद का समय और समाज है।
किसी रेडियो का नाम नहीं था
दुनिया जहान के समय के बिगाड़े लोगों को
आका का नाम था बुश मैं सताता नहीं
कुछ समय के बनाए लोग
क्लिण्टन भी किसी समय के बनाए लोगों को
फाउण्टेन पेन का नाम नहीं मैं मानता नहीं।
(आका, इस वक्त मेरा कहा, पृष्ठ-57) (समय, अच्छा आदमी होता है अच्छा, पृष्ठ– 84)
लड़की को लड़का कहने पर उसका खुश होना स्त्री-पुरुष तो जैसे स्थापित कवियों-आलोचकों की चालाकियों के ख़िलाफ़
असमानता को समझने के लिहाज से महत्त्वपूर्ण है। बुश और मोर्चा खोल देते हैं। उनके चौथे संग्रह ‘अच्छा आदमी होता है अच्छा’
क्लिंटन का उल्लेख भर करके दुनिया पर अमेरिकी वर्चस्व में सीधे बयान वाली ऐसी कविताएँ ज्यादा हैं। शिल्प हालाँकि वही
को अत्यंत सांकेतिक तरीके से कह देना भी मितकथन और है, संरचना भी वही, वाक्य के बाँकपन से कविता को मुक्कमल
सांकेतिकता का अद्भुत उदाहरण है। उनकी इस कला पर ज्यादा बनाने की कोशिश भी वही। लेकिन अब बात में ज़रा तल्खी दिखाई
ध्यान नहीं दिया गया। वाक्य की सहजता को सरलीकृत और द्वन्द्व पड़ती है। यदि वे कहने के अन्य तरीकों का भी इस्तेमाल करते तो
विहीन कविता मान लिया गया। और जिस कविता की भाषा दुरूह शायद उन पर अधिक ध्यान दिया जाता। लेकिन ये भी सही है कि
और तनाव से भरी हो उसे ही तरजीह दी गई। ऐसे में कवि का अपनी छोटी कविताओं में भी किसी एक शब्द की तलाश में मैंने
बौखलाना स्वाभाविक है। नासिर अहमद की बहुत सारी कविताएँ उन्हें महीनों परेशान देखा है। इसलिए उनकी छोटी कविताओं को
ऐसी स्थितियों की प्रतिक्रिया में आरोप की तरह लिखी गई है। कौंध की तरह दिमाग में आई कविता मानना भूल होगी। कविता
लेकिन आरोप के कारणों को देखना ज़रूरी है। जब वे कहते हैं में पक्षधरता और मानव-मूल्य दोनों उनके मुख्य सरोकार रहे हैं।
‘एक नवोदित कवि से समय छूटता भूलवश और एक पुरस्कृत लगातार गद्यात्मक और केवल पढ़ने के लिए लिखी जा रही और
कवि समय छोड़ता जानबूझकर’ (भूलवश और जानबूझकर) तो प्रचार माध्यमों की वाहवाही में डूबी अधिकतर हिंदी कविताओं की
साहित्य समाज की मौज़ूदा स्थिति के प्रति अपना असंतोष ही प्रकट तुलना में वाचिकता और पाठ से अपनी कला को विकसित करने
करते हैं। जब वे कहते हैं ‘कठिन काल/ कैसा/ कवि का कुल/ का रचनात्मक संघर्ष करते नासिर अहमद सिकन्दर की कविताएँ
आकुल/ न व्याकुल/ शांत/ बिलकुल’ (कवि का कुल, अच्छा अलग से रेखांकित किए जाने योग्य हैं। n
आदमी,पृष्ठ-9) या फिर : संपर्क : प्रोफेसर-हिंदी विभाग, इलाहाबाद विश्वविद्यालय
कुछ प्रयागराज-211001
समय के बिगाड़े लोग मो. 9850313062

yegh जुलाई से सितंबर 2023 n 249


n महत्तम : विनोद पदरज

सभ्यता की समझ के महीन कवि


स्वर्णलता उपाध्याय

दुनिया की सारी शासन प्रणालियाँ मनुष्यों, प्राणियों पिता, लोग, दोस्त और अपनेपन की आँच गूँजती है।
और आत्मीयता की रक्षा के लिए गढ़ी और रची गई ‘माँ का स्नान’ नामक कविता में वे अकारण नहीं
हैं, ऐसा ही हम सभी सुनते-समझते आए हैं। अभाव, लिखते हैं कि, “माँ की गहरी साध थी उस नदी में
प्रभाव और दबाव के बीच और बरअक्स जो स्वभाव नहाने की/ वहाँ से जल भर कर लाने की/ वह नदी
है वह कविता में ऐसे तत्त्व हासिल कर ही लेता है जो अब एक रुका हुआ नाला थी।” मरी हुई मछलियों
अलभ्य है, महज़ दुर्लभ भर नहीं। सहित का जो भाव और सड़ते हुए जलपाँखी को देख लेने की कला
है, जिससे साहित्य की रचना होती है वह परिवार, किसी कविहृदय में ही मौज़ूद हो सकती है। जिसे
समाज, गाँव-देहात और देश को सुन्दर ही बनाता है, सहजीवन हम निर्देशित या प्रबन्धित लोकतन्त्र कहते हैं, उसका नज़ारा तो
सिखाता है। ओशो ने सही ही कहा है कि कुछ सत्य ऐसे होते हैं ख़बरिया चैनल दिखाते ही रहते हैं। पर यहाँ मसला कविता का
जो अपनी उम्र से ज्यादा जी चुके होते हैं, इसलिए उनको बदल है और अलहदा है और दुनियावी अज़ाब से जुड़ा हुआ है। बड़े
देना चाहिए। यह बदलाव, यह परिवर्तन हमें निश्चय ही उस दिशा अफ़सुर्दा दिल के साथ यह कहना पड़ता है कि विनोद पदरज
में ले जाता है जहाँ हम एकाकीपन का अहसास नहीं करते, हम की कविता “मैं एक आदमी को याद करता हूँ” की ये पंक्तियाँ
तो पत्थरों और प्राणिमात्र का आदर करने की, उनकी देखभाल सर्वथा स्मरणीय हैं, “मैं एक आदमी को याद करता हूँ/ वह कुएँ
करने की भावना से ही प्रेरित रहे हैं। विनोद पदरज एक ऐसे कवि पर मड़ैया में रहता/ वहीं नहाता धोता खाना कलेवा करता/ वहीं
हैं जिन पर कम चर्चाएँ की गई हैं क्योंकि कभी छायावाद था, कभी सोता चालीस साल से.../बहुत कम बोलता था वह/ केवल काम
प्रयोगवाद था, कभी प्रगतिवाद था, आज फ़ोटोवाद और सेल्फ़ी की बातें क्रिया पदों से भरी/ एक जोड़ा धोती दो कमीज़ें।”इस
लेने का वाद है जिससे पदरज जी बहुत दूर ही रहते हैं। रघुवीर तर्कसंगत चयन ढाँचे में व्यापकता का अकाल आख़िर दिखता क्यों
सहाय जैसे महान लेखक ने ऐसे ही नहीं कहा था कि, “लोकतन्त्र है? दर्शनशास्त्र में पढ़ाया जाता है कि जहाँ-जहाँ आग है, वहाँ-वहाँ
का अन्तिम क्षण है, कहक़र आप हँसे, निर्धन जनता का शोषण धुआँ है। यह धुआँ ‘जगह’ उनवान वाली कविता में दिखता है,
है, कहक़र आप हँसे।” आज जब प्रतिनिधित्व की जगह परामर्श जहाँ विनोद पदरज लिखते हैं कि “बहुत-सी जगहें हैं जहाँ मैं नहीं
को ज़रूरत से ज्यादा महत्त्व दिया जाता है तो विनोद पदरज की रहा/ जिन्हें मैं याद करता हूँ/ जैसे एक छोटा शहर है गंगापुर/ जहाँ
कविताएँ व्यष्टि से समष्टि तक आशा बँधाती हैं। ‘पिता’ नामक मैं कभी नहीं रहा/ माँ से बात करते वक्त नानी/ कई बार कहती
अपनी व्यष्टिमूलक कविता में वे लिखते हैं कि, “बुढ़ापा अपने आप थीं/ तेरे पापा जब गंगापुर थे तब तू पैदा हुई थी।” यह सृष्टि की
में एक बीमारी होता है/ फिर पिता तो बीमार रहने भी लगे थे/ और उपस्थिति का एक व्याकरण है और किसी की अनुपस्थिति की एक
एक बात जाने कैसे बैठ गई थी उनके दिमाग़ में/ कि घर में कोई भी व्याकुलता। लेकी और हेनरी मेन दोनों यह मानते हैं कि प्रजातन्त्र
चीज़ बन्द हो जाएगी तो उनकी मृत्यु हो जाएगी/ विशेषकर घड़ी/ और स्वतन्त्रता एक-दूसरे के विरोधी हैं। निवास करने और निवास
जो उनके बिस्तर के ठीक सामने दीवार पर टँगी थी।” न करने का यह विरोध विनोद पदरज की कविताओं में दिखता है
आज जब चुप रहने को सुरक्षित होना और कलाकार होने का साफ़-साफ़, “मैं तो कभी नहीं रहा गंगापुर या रतलाम/ मेरी तो कोई
एक प्रमाण माना जाता है तो विनोद पदरज का चौथा कविता संग्रह स्मृति नहीं वहाँ की।”
‘आवाज़ अलग-अलग है’ विचारणीय है। यहाँ भाई-बहन, माता- विनोद पदरज समझते हैं कि अबस होने का मतलब क्या होता

250 n जुलाई से सितंबर 2023 yegh


है!‘गिद्ध’ कविता में उन्होंने बयाँ किया है कि, “आज मैंने एक गिद्ध विनोद पदरज एक कवि से बढ़कर एक बेहतरीन इंसान हैं।
देखा/ बहुत सालों से नहीं देखा था किसी गिद्ध को/ सब कहते राजस्थान की खाँटी मिट्टी से उपजा एक ऐसा देशज कवि जो
थे– विलुप्त हो गए वे धरती से।” यह जो विलोपन की प्रक्रिया आधुनिक बाज़ार के बारे में ऐसा लिख सकता हो कि, “लकदकशृंगार
है, उसे मानवीय तरीके से सँजो लेने का नाम ही कविता है और से पहले/जिनको भख लिया था।” जिन वीरान बस्तियों में शोक
वह पदरज जी के यहाँ बेशुमार तरीके से मौज़ूद है। वे अश्क़िया बरसता हो विनोद पदरज कीकविताएँ उन बस्तियों की यात्राएँ
सल्तनत की बेरहमी को पंक्तियों के बीच समझते हैं। यह बेवज़ह करती हैं। रिश्तों का आयतन, संबंधों की ऊष्मा, अपनत्व की
नहीं है कि उन्हें नुकीली तीक्ष्ण आगे से मुड़ी हुई चोंच याद आती आँच, व्यवस्था की खोट, वैश्विक परिप्रेक्ष्य के नकली चित्र, जटिल
है और खुरदुरे पाँव उनके ज़ेहन में तैरते हैं। विनोद पदरज आब- और गुंफित यथार्थ– यही सब विनोद पदरज की रचनाओं का पिथ
ए-आईना से रू-ब-रू होते हैं और सन्दीप नामक एक पात्र के और सबस्टेंस हैं।
बहाने यह बताते हैं कि उसकी माँ गूँगी बहरी है, पर चेहरे पर पानी नरेश सक्सेना ने ठीक ही लिखा है कि, “पुल पार करने से/
है। यह पानी अस्मिता का पुँजीभूत प्रकाशपुंज है। बूँद-बूँद पानी पुल पार होता है/नदी पार नहीं होती।” विनोद पदरज न सिर्फ़ नदी
को तरसे है अपना मन, लारी भरि-भरि पानी फ़र्श धोवन को जात को पार करते हैं, बल्कि कुएँ पर भी पूरा ध्यान रखते हैं : “कुएँ में
है। बाज़ार ने जो इज्तिराब पैदा किए हैं, उस पर विनोद जी की कूदकर भी बच सकती है/आग में झुलसकर भी बच सकती है...।”
गहरी निगाह है, “मारने की बहुत-सी विधियाँ हैं/ पर सबसे उन्नत आग और पानी का यह विपर्यय पाठकों की आत्मा के पेंदे को बहुत
नफ़ीस दर्दरहित विधि/ आधुनिक बाज़ार है/ क़ातिल मुस्कराता है आदर के साथ संबोधित करता है। पदरज लिखते हैं, “पानी बरस
इस क़दर सम्मोहक़ ढंग से/ कि आदमी स्वयं प्रस्तुत हो जाता है रहा है काफ़ी देर से/और सामने के बबूल पर एक पाँखी युगल पंख
सहर्ष/ और मारे जाने के बाद उसकी आत्मा उपकृत महसूस करती फड़फड़ा रहा है/तीतर हैं शायद।” यह जो शायद है, वह वर्तमान
है।” अल्फ्रेड सावी ने जब तीसरी दुनिया का विचार दिया था और व्यवस्था में एक कवायद है। एक ऐसी व्यवस्था जिसने हमें एक
बाद में केन्द्र और परिधि का सिद्धान्त आया तो यह ऐसी ही एक साइकिल दुर्घटना और एक सभ्यता के ध्वंश के बीच के अंतर
विचारधारा थी कि तुम्हें परिधि पर ही रहना है किसी उपग्रह की को भुला देने का आदी बना दिया है। तवारीख़ में घड़ी की सुई
तरह। जहाँ अटक जाती है, पदरज की कविताओं का प्रस्थान बिन्दु वहीं
‘स्त्री को जानना’ कविता में विनोद पदरज लिखते हैं, “स्त्री से चिन्हित होता है। अनुतान, बलाघात और संगम से उपजी इन
को जानने के लिए/स्त्री के पास स्त्री की तरह जाना होता है/और कविताओं की एक बानगी देखिए, “पणिहारी/तेरी कमर के लचके
स्त्री के पास स्त्री की तरह/केवल स्त्री ही जाती है... मैं जब भी तो सबको दिखते हैं/पर माथे पर धरी/भरी जेगड़ का बोझ/किसी
किसी स्त्री के पास जाता हूँ/अपना आधा अंश छोड़कर जाता हूँ/ को नहीं दिखता।” न दिखने वाली यह चीज़, यह प्रेक्षण मासूमियत
तब जाकर स्त्री की हल्की सी झलक पाता हूँ।” जिन्होंने आधा से लबरेज़ नहीं है, बल्कि बेहद सावधानी और संवेदनशीलता से
आसमान अपने सर पर उठा रखा है, ये कविताएँ उसकी पूरी गुँथी-बिंधी हुई भी है। यह होना, ऐसा होना है, जो होने को महसूस
कहानी बयाँ करती हैं। यह सारी-पूरी कहानी किन वज़हों से अधूरी करता है, रिश्तों की तरह। फूलों की मानिंद। कविता यहाँ वमन
रह जाती है, इसकी शिनाख़्त इन कविताओं में मुकम्मल तरीके नहीं है, ईमानदार भावों का सहज उच्छलन है। ऐसा उच्छलन जो
से की गई है। विरुद्धों के सामंजस्य को यहाँ भलीभाँति पहचान पृथ्वी को सुंदर बनाता है। आश्चर्यजनक होने में और ख़ूबसूरत होने
लिया गया है और उनका एक आमफ़हम रेखाचित्र खींचा गया है। में एक बहुत पतली लकीर होती है, पदरज इस लकीर की लंबाई
जिस तरीके का प्रबोधन पारिवारिकता में व्याप्त होना चाहिए और को जानते हैं। जानते ही नहीं हैं, समझते और मापते भी हैं। यह
जिसका अभाव अब नित नए रूपों में देखने को मिलता है, विनोद मापन पाठक के मन में कहीं बैठता है। यह स्थगन चिरकालिक है
पदरज की कविताएँ उसकी पड़ताल करती हैं। ‘स्त्रियाँ’ नामक एक और पाठकों के लिए तो काल से परे! दरअसल समय के वेक्टर की
अन्य कविता में विनोद पदरज लिखते हैं, “ये सब स्त्रियाँ हैं/जिनके तफ़्तीश करने वाली पदरज की कविताएँ भूगोल का इतिहास और
होने से सुंदर है हमारा संसार/पर इनके होने के लिए/व्रत उपवास पारिवारिक इतिहास का भूगोल समाजशास्त्र के आईने में देखती हैं।
मन्नत बोलारी का कोई प्रसंग नहीं/वे सदा ही अनचाही आईं संसार छूकर देखती हैं, पीड़ा झेलकर देखती हैं और तब देखना नामक
में।” संसार के सृजन में जिन्होंने सबसे अधिक पारिवारिक भूमिका क्रिया एक नया अर्थ ग्रहण कर लेती है और ये कविताएँ कितनी
निभाई, उनको हाशिये पर डाल दिए जाने की विसंगति का इन छवियों और कितनी बातों की बात करती हैं, मन भर जाने की भी
कविताओं में चित्रण होता है। कितनी बात करती हैं और एक संतोष की बात करती हैं।

yegh जुलाई से सितंबर 2023 n 251


कभी किसी ने ठीक ही सोचा था कि इंसान होना भाग्य है, पर नौटंकी करती है, तब विनोद पदरज अमावस को पढ़ रहे होते
कवि होना सौभाग्य! एक राजनेता, एक आम आदमी और आम हैं। हालात जब मुश्किल हो जाते हैं तो सिरजना और सहजना
जनता दस से सौ वर्षों तक के भविष्य का अनुमान लगाने की एक बुनियादी जीवन मूल्य बन जाया करता है। किसी गुमशुदा
कोशिश करती है लेकिन विनोद पदरज सामासिकता के अपक्षरण समीकरण को बचाना तो और भी, “बड़ी मुश्किल से पंद्रह सौ
को अपनी कविताओं में आगामी कई सदियों के बारे में बाक़ायदा बचाये हैं उसने/साल भर में।” बचाने का यह जो मुआमला है, वह
चिन्तन करते हुए व्यक्त करते हैं। वे जानते हैं कि बुरे से बुरा असल में उस लोकतंत्र की देन है जिसे बहुत पहले भीड़तंत्र के रूप
आना अभी बाकी है, “उनकी ज़िम्मेदारी मेरी है/ पर किसी ने में और आशंका के ख़तरे की शक्ल में बहुत बारीकी से समझ लिया
मेरी नहीं सुनी/ लाभ-लाभ के दिगंत व्यापी शोर में।” आज जब गया था। समझ भर नहीं लिया गया था, महसूस किया गया था और
लोग अपनी व्यक्तिगत ज़िम्मेदारी तक भी नहीं निभा पा रहे हैं बाक़ायदा समझ भी लिया गया था और अभिव्यक्त किया गया था,
(भले ही व्यवस्थागत विसंगतियों के कारण), तब कभी भगत सिंह ज़ेहन को छूने वाली भाषा में कि, “कहक़र आप हँसे।” टखनों और
जैसे महान क्रान्तिकारी ने कहा था कि बहरों को सुनाने के लिए घुटनों और कमर और छाती में हाशिये कि कितनी समस्याएँ हैं यह
कोलाहल की ज़रूरत पड़ती है। यह कोलाहल, ये शोरगुल विनोद भाव विनोद पदरज कृषकमेध नामक अपनी कविता में शीर्षक के
पदरज की कविताओं में टहलता है। कथ्य और शिल्प का जो ही अनुसार रूपायित करते हैं। जब दुनिया को एक ही रंग में रँगने
अपघर्ष यवनिका के भीतर पदरज के यहाँ दिखता है, वह वाकई में की साजिश मुसलसल जारी हो और पूरे समाज को भेड़चाल में
उल्लेखनीय है। यहाँ धर्षिताओं की गुपचुप रहने वाली वेदनाओं की ढकेलने की कोशिश की जा रही हो, तब विनोद पदरज की कविता
पड़ताल की गई है और यह रचा गया है कि, “यह उसका पहला ‘गड़रिये’ एक गंभीर आश्वासन देती है और बताती है कि, ‘गर
प्रसव था/ पूरे दिन चल रहे थे उसके/ और वह सुरक्षित ठाँव ढूँढ़ पाँवों में न होतीं तो आप पहचान भी न पाते कि वे जूतियाँ हैं/और
रही थी।” ज़िम्मेदारी निभाना और ठाँव ढूँढ़ना इतना आसान काम उनमें यात्राएँ इतनी/कि वे सीधे चलते तो क्षितिज तक पहुँच जाते।’
भी नहीं है कि हम इसकी तुलना इस वाक्य से कर दें कि दो और विनोद पदरज समाज,परिवार और सभ्यता को समझने
दो चार होते हैं। होते होंगे, पर हमेशा चार नहीं होते। वरना एक वाले महीन कवि हैं। ऐसे कवि जिनका विश्वास अच्छाई और
और एक दो ही होते, ग्यारह न हो जाते! पदरज जब लिखते हैं कि, सच्चाई पर लगातार कायम है, कुछ ऐसा जो हमारे बाल-बच्चों के
‘आपकी आदतें पापा जैसी हो गई हैं/ नहाकर तौलिया बाथरूम में भविष्य को बेहतर बना सके। विनोद पदरज की कविताएँ न सिर्फ़
छोड़ देते हो’, तो यहाँ एक फ़रज़न्दी शब्दकोश है। पढ़ने लायक हैं, बल्कि सँजोकर अगली पीढ़ी को देने लायक भी
जब भावना एक विचार का आकार ले लेती है और जब उस हैं। हम इस उम्मीद में कविता पढ़ते या रचते हैं कि संसार और
विचार को शब्द मिल जाते हैं तब और तभी कविता का जन्म होता सुंदर हो जाएगा। विनोद पदरज के यहाँ ऐसा ही होता है। सूक्ष्म से
है। एक प्रतिध्वनि कवि या कवयित्री के कानों में गूँजती रहती है लेकर स्थूल तक, कवि की जो निगाह है, वह आम जानता के लिए
और यह गूँजन हाशिये की आत्मा तक जाती है, परिवार के किसी कल्याणकारी और लोकप्रिय है, लोकलुभावनवादी नहीं। बिलकुल
सबसे सताए इंसान तक जाती है। अनुभव के आधार पर पदरज नहीं। पिछले कई दशकों से कविता रचने वाले विनोद पदरज को
ने इसका मश्क़ किया है। पदरज एक वश्य कवि हर्ग़िज़ नहीं हैं। एक आम पाठक समझता है, उनका बोध करता है, यह उनकी
आज़ादी का असल तात्पर्य वे जानते हैं। यह वाक़िफ़ियत उनको बहुत बड़ी कामयाबी है।
एक सुकून देती है। पाठक जब सुकून की इस नदी में डूबते या रेखा खींचना अलग बात है, सीधी रेखा खींचना सबसे टेंढ़ा
तैरते हैं तो यह अहसास होता है कि हम कितने पानी में हैं। हमारे काम। इन रेखाओं पर चलते हुए जो लैम्प पोस्ट मिलते हैं, वे हमें
घ़ुटने कहाँ तक डूबे हुए हैं। न तो कोई प्रश्न पहला है, न कोई उत्तर तथाकथित रूप से आगे जाने का रास्ता दिखाते हैं। पर क्या करें,
अन्तिम। इसी भूमध्यरेखा के डोलड्रम में झूलते और खाँसते हुए जब रास्ते ही ख़त्म हो जाएँ! रूहानी काबिलियत जहाँ पर इन रास्तों
पारिवारिक बिछड़न की कविताएँ पदरज गढ़ते हैं। का संधान करती है, विनोद पदरज की कविताएँ वहीं पर टिकती
वनस्पतियाँ और आकाश जिस कवि की कलम पर हँसते हुए हैं। इन्हें पढ़ना चाहिए। n
नृत्य करते हों, वह स्याही और दवात के साथ विनोद पदरज के संपर्क : 8B/6 एनपीएल कॉलोनी,दिल्ली
यहाँ प्रचुर रूप से उपलब्ध है। यहाँ रेगिस्तान है, सब कुछ खुला मो.8527037362
हुआ है, कुछ इस तरह जैसे फूलों की पंखुड़ियाँ खुलती हैं। रात
जब रौशन हो जाती है, तो चाँदनी जिन विशालकाय आवारा पूँजियों

252 n जुलाई से सितंबर 2023 yegh


n महत्तम : वसंत सकरगाए

अलभ्य चीज़़ों में प्रार्थना की चीख


प्रांजल धर

कविता हर किसी प्राणी के हृदय में उसी तरह ख़ुदी यहाँ एक सानिहा-ए-ज़ख्म की तरह उदित होती है।
हुई होती है जैसे हड़प्पा, मोहनजोदड़ो या गीज़ा के बाड़ लगाने से बचने वाले कवि वसंत सकरगाए जब
पिरामिड। मरणशीलता और विलोपन का पल्लवन यह लिखते हैं कि “पेड़ का बच्चा पेड़ से सीखता है
और पाठबोधन करते हुए कविता जिस शख्स के (क्रोमोसोम की तरह)” तो वह अदृश्य को देखने की
यहाँ क़लम और स्याही के साथ, न कि की-बोर्ड एक ऐसी कोशिश करते हैं, जहाँ यह कहा जाता हो
और कम्प्यूटर के साथ, उतरती है, उस शख्स का कि वचन नष्ट हो जाते हैं, कोशिशें कामयाब।
नाम है वसंत सकरगाए। नहीं, कविता यहाँ उतरती समय के क्रूर यथार्थ और व्यतिक्रमों को कविता
नहीं है, चढ़ती है। पहाड़ियों की एक चढ़ाई। नहीं, पहाड़ियों की में उतारना एक कला है। नृत्य, संगीत, चित्रकारी, पत्रकारिता और
नहीं, पर्वतों की एक कठिन चढ़ाई। अगर किसी का गाँव-घर ही मूर्तियों की एक कला। मुझे सुभाष राय का नवीनतम कविता संग्रह
डूब गया हो और वह उसका साक्षी नहीं, भोक्ता हो तो उसके भीतर 'मूर्तियों के जंगल में' याद आता है। यह कला वसंत सकरगाए के
की कविता सहजतः एक उच्छलन होगी। कम से कम, वमन तो यहाँ यह एक ऐसी कला है जिसके बारे में यह कहा जा सकता है
नहीं ही होगी। शान्ति के घनघोर क्षणों में एकत्रीभतू होगी। जिस्म कि कलाकार ज्यों-ज्यों बूढ़ा होता है, कला त्यों-त्यों जवान होती है।
से जान जुदा होते समय जो वेदना, सन्त्रास और यन्त्रणा भोगने जब हम पानीदार होने की बात करते हैं तो सवाल विनम्रता, गरिमा,
के लिए प्राणी अभिशप्त है, ये उसी संक्रमणकाल की कविताएँ हैं। शिष्टता, सौम्यता और स्मिति का आता है। वसंत सकरगाए के यहाँ
वसंत सकरगाए की कविताओं पर बात करते हुए ईशमधु तलवार प्रार्थना की एक स्मिति है, अट्टहास नहीं। नकार का एक शीतल
ने मुझसे सटीक बात कही थी कि कविता वही और वहीं है जहाँ आक्रोश है, मर्यादाओं की रक्षा करते हुए। ‘पानी के मुँह पर पानी
कविता डूबकर लिखी गई हो। डूबने के कारण वसंत सकरगाए के नहीं’ नामक कविता में वे लिखते हैं कि, “बहुत दूर से आता है पानी/
यहाँ एक अलभ्य पीड़ा का अव्याख्येय व्याकरण होगा ही। एक आकाश से आता है पानी/ आर्द्रा पुनर्वसु पुष्य अश्लेषा मघा/ पूर्वा
स्मृति होगी ही। प्रार्थना की एक चीख होगी। इस चीख को बेहतर फाल्गुनी उत्तरा फाल्गुनी या हस्त/जिन्हें देखा नहीं कभी उन नक्षत्रों से
ढंग से समझना हो तो रबीन्द्रनाथ टैगोर या जयन्त परमार के लेखन आता है पानी।” सरोकारमूलकता यह है कि यह पानी करता क्या है?
का संदर्भ लिया जा सकता है। क्या करना एक सकर्मक क्रिया है। व्यास सम्मान के लिए चयनित
वसंत सकरगाए बहुत संकोची कवि हैं। संकोची हैं, संकुचित गद्य की एक पुस्तक में ठीक ही लिखा गया था कि ईश्वर ने सृष्टि की
नहीं। यहाँ कवि की आत्मा का क्षेत्रफल नहीं, आयतन बहुत बड़ा रचना की और आख़ीर में यह कहा कि मुझसे जो ग़लतियाँ हो गई हैं,
है और जो कुछ छूट गया है उसे कवि की ही भाषा में कहना उचित उन्हें सुधारने के लिए सृष्टि में कवियों की रचना करूँगा और ये कवि
होगा, “मेरी उँगलियों पर एक तीली तैनात है/ माचिस के रोगन पर/ मेरी त्रुटियों को सुधारेंगे। वसंत सकरगाए के यहाँ न सिर्फ़ ग़लतियों
सिर्फ़ एक रगड़ बाकी है।” सँजोने की प्रार्थनाएँ कवि का मूलभाव की सुधारने की विनम्र कोशिश है बल्कि एक प्रार्थना है कि ‘हमें भी
रहा है और संक्षेपण के साथ यह पाठकों के सामने विपर्ययों के बचा लो’। इस कविता में नैतिक दुविधा, सुविधा और घोर असुविधा
बीच और बरअक्स आता है, “मेरे घर की नींव में यह जो झर-झर को पहचान लिया गया है। कुछ पंक्तियाँ देखिए, “हमारी पहचान का
झर रही है रेत/ ये नदी के अस्थि-कण हैं/ साक्ष्य है नदी की हत्या आवरण धीरे-धीरे खिरज रहा है/ कुछ कहने की ताक़त होती शेष
का/ अब तो तय है नदी का गाद-गाद मरना।” नर्मदे हर! कविता तो वे ज़रूर कहते/ हो सके तो हमें भी बचा लो ज़रूरी क़िताबों की

yegh जुलाई से सितंबर 2023 n 253


तरह।” बिली कोलिन्स का संदर्भ याद आता है कि मेरा कविता में हैं। वे बोधन, उद््बोधन और सम्बोधन के प्रति सावधान हैं,
बहुत अधिक विश्वास है लेकिन कक्षा यानी क्लासरूम के बाहर, “स्वीकृत-अस्वीकृत रचनाओं की कोई चिट्ठी/ और छपी रचनाओं
सार्वजनिक स्थलों पर। संगोष्ठियों की मेज़ों पर अपनी कविताएँ रखने का मानदेय/ मनीऑर्डर फ़ॉर्म पर दस्तख़त लेकर दे जाता था/ वह
की बजाए मैं उन्हें रेलगाड़ियों में छोड़ना पसन्द करूँगा, यह वसंत तो वापस चला जाता था लेकिन/ उसके दिए रुपये और चिट्ठियों को
सकरगाए की प्रार्थनाओं की चीख है। अक्सर/ मैं अपने इसी तकिये के नीचे रख लेता था/ और अपनी
डिजिटल माध्यमों और इण्टरनेट की वर्तमान दुनिया में एक इसी खुशबू में छुपकर/ एक डाकिया मेरे तकिये में रह जाता था/
कवि ही क़िताबों के महत्व को समझ सकता है क्योंकि उसे मालूम दूसरों के सुख-दुःख बाँटते-बाँटते/ कभी फ़ुर्सत में होता तो अपना
है कि लगातार पढ़ते हुए देर रात तक, क़िताबों को सीने पर रखकर दुखड़ा सुनाता था।”
सोया जा सकता है, डिजिटल माध्यमों को नहीं। यह एक स्पर्श ‘निगहबानी में फूल’ और ‘पखेरू जानते हैं’ वसंत सकरगाए
बिम्ब भर नहीं है। यह घ्राण भी है। इसीलिए कविता वसंत सकरगाए के दो मौलिक कविता संग्रह हैं। पहला एकवचनात्मक यानी फूल
के यहाँ बिम्बों का एक गाँव बन जाया करती है, बिम्बों का महानगर है और दूसरा बहुवचनात्मक यानी पखेरू है। यह एक कोमल कवि
नहीं। महानगर और राजमार्गों के अपने ख़तरे हैं। वसंत सकरगाए की दुर्लभ यात्रा का दस्तावेज़़ है। साक्ष्य है। यह साक्ष्य ऐसा है कि
को इसका बोध है कि जब हम राजमार्ग पर चलते हैं तो यह हमारा कवि को रचना पड़ा कि “तंग आ गया हूँ चाँद की इस बेज़ा हरकत
चुनाव नहीं हुआ करता, बल्कि राजमार्ग का चुनाव होता है और से/ आकर मुँह टेढ़ा बनाना, फिर मुँह फुलाकर/ जाकर कहीं छुप
जब हम पगडण्डियों पर चलते हैं तो या तो हम पगडण्डियाँ गढ़ जाना/ दो-दो हफ्ते।” ये दो हफ्ते चन्द्रमा के जीवन-आचरण की
और रच रहे होते हैं या फिर कुछ हाशियाकरण की आवाज़़ों और अलभ्य और सुनिश्चित यात्राएँ हैं। सन 2022 का साहित्य का
पदचिह्नों पर चल रहे होते हैं। सवाल प्रयोजन का है। जवाब इतने नोबेल पुरस्कार एनी को मिला है इसलिए क्योंकि उन्होंने साहस
अधिक हैं कि कोई जवाब समझ में नहीं आता। हर कोई कहने को दिखाया है और व्यक्तिगत स्मृतियों को सामूहिक निषेधों के रूप
तत्पर, आतुर और शब्द-विस्फोटित है। सुनने वाला कोई है ही नहीं। में देखा है। ऐसी स्मृतियाँ वसंत सकरगाए के यहाँ व्याप्त हैं। नहीं,
यह व्याकरण वसंत सकरगाए के यहाँ एक अत्यावश्यक चिन्ता के व्याप्त नहीं हैं, पसरी और फैली पड़ी हैं और वसंत सकरगाए इसको
रूप में आता है और पाठक इस बात को समझते हैं। नहीं, कवि के अलभ्य प्रार्थनाओं के ज़रिये सिरजते हैं। वे जानते हैं कि हवा बदल
शीतल आक्रोश को समझते हैं, कवि को प्यार करते हैं। “शेर जंगल रही है। ऐसे कवि के यहाँ हवा झूठी गवाही नहीं दे सकती। उसी
का राजा था/ मगर जानवर था/ इसलिए जंगली राज था।” कवि तरह जैसे शमोएल अहमद ने 'सब्ज़ रंगो वाला दूत' नामक एक
का मूलभाव यहाँ जानवरों के प्रति हिक़ारत भरी दृष्टि से देखना कहानी लिखी थी और विजय राय साहब ने उसे 'लमही' नामक
हर्ग़िज़ नहीं है, वरन यह वर्तमान राजनीतिक परिस्थितियों पर एक अत्यन्त प्रतिष्ठित पत्रिका में ज्यों का त्यों प्रकाशित किया था। यह
व्यंग्यात्मक और बोधात्मक टिप्पणी है। ऐसी कविताएँ यथार्थ को दशकों का एक संयोग है।
समझने में अपना कुछ, गिलहरी-सा ही सही, योगदान देती हैं। वसंत सकरगाए के यहाँ खानें हैं, जहाँ खोदने पर हीरा ही
पाठकों की वैचारिकी को समृद्ध करती हैं। स्मरण, प्रस्फुरण और निकलता है। यह हीरा चलने और अलभ्य यात्राओं का पर्यायवाची
विस्मरण के फ़र्क़ को समझती हैं वसंत सकरगाए की कविताएँ। है। वसंत सकरगाए चलते हैं। नियम-क़ायदे के हिसाब से सड़क
ऐसे अनन्य लोग बहुत कम होते हैं जिन पर पूरा विश्वास कर पर बाएँ नहीं चलते। वे पगडण्डियों पर अपने हिसाब से चलते हैं।
लिया जाए। वसंत सकरगाए बाक़ायदा और मुक़म्मल तौर पर कोई खोजना चाहे तो उसकी दैनिक क्रियाओं में भी एक कविता
भरोसेमन्द इंसान हैं। वे जीवन-मूल्यों की दरकन के प्रति रुँधे गले होती ही होती है। कैरोल एन डफ़ी ने मुद्दत पहले ऐसा ही कहा
वाले कवि हैं। उनकी कविताएँ बर्क़ की तरह ज़ेहन में आवाज़ाही था और ठीक ही कहा था। वसंत सकरगाए के यहाँ भी सूरज
करती हैं। दरअसल भूमंडलीकरण, उदारीकरण और निजीकरण बुरी तरह फँस जाता है दो मामलों में। ‘कितने पाकिस्तान’ के
के वर्तमान व्याकरण में मूल्य बदल गये हैं और यह सुखद है कि बाद कमलेश्वर जी ने मुझसे ठीक ही बयाँ किया था कि जहाँ
कवि वसंत सकरगाए इसकी शिनाख्त अपनी कविताओं के माध्यम डाइकोटोमी नहीं है, वहाँ साहित्य भी नहीं है। वसंत सकरगाए
से कर भी चुके हैं और लगातार कर भी रहे हैं। “मेरे बच्चो!/ मेरे को “अदालतों की लेटलतीफ़ियाँ” मालूम हैं। इस डाइकोटोमी को
पिता की तरह मैंने/ कोई घर नहीं बनवाया तुम्हारे लिए/ हालाँकि तोड़ने की यहाँ पुरज़ोर कोशिश है, “डॉक्टर का बच्चा डॉक्टरी/
बड़े अचरज से देखते रहे तुम/ चिड़े-चिड़ी को घोंसला बनाते।” अफ़सर का बच्चा अफ़सरी/ नेता का बच्चा नेतागिरी/ अपराधी का
वसंत सकरगाए घर और मकान के फ़र्क़ को समझते हैं। समझाते बच्चा अपराध/ व्यापारी का बच्चा व्यापार।” यह खाँचों को तोड़ने

254 n जुलाई से सितंबर 2023 yegh


की एक काव्यात्मक कोशिश है। इस कोशिश में पाठकों के सब्र को यहाँ कविता मिश्रित अहसासों के साथ अमिश्रित और स्पष्ट रूप में
आज़माने का व्याकरण शामिल है। पाठकों के सामने उपस्थित होती है। इनके यहाँ कविता शब्दों का
'डकार' नामक कविता में कॉमरेड वसंत सकरगाए लिखते हैं एक गुच्छा या बहुलक भर नहीं है, बल्कि ईमानदारी की आवाज़
कि, “घर के दरवाज़े पर/ सिल्ला के पास रखी पानी की बाल्टी और प्रति-आवाज़ है।
में/ डूबी रहती थी नीम की डगाल।” डूबना एक विचित्र क्रिया है। एक अच्छी कविता यथार्थ में अपना कुछ, गिलहरी जैसा ही
डूबकर पार हो जाना और ख़तरनाक। वसंत सकरगाए के यहाँ सही, योगदान देती है। वह स्वयंसिद्ध राजनीति के वस्तुनिष्ठ
क्रियाएँ ही नहीं हैं, क्रियाओं पर लगातार चढ़ती हुई क्रियाएँ हैं। नियमों की लकीरों पर चलने के लिए बाध्य ही हो जाया करती
हर किसी को एक गिनना और किसी को भी एक से ज्यादा नहीं है क्योंकि कोई भी सरोकारमूलक कवि कभी भी अराजनीतिक
गिनना वसंत सकरगाए की कविताओं का सार और तत्त्व है। पिथ नहीं हो सकता। अपनी हिंदी भाषा में कहा जाता है कि कविता
और सब्सटैंस है। जेरेमी बेंथम की स्लेट है। ये समानतावाद से आगे वह है जिसे पढ़ने या सुनने के बाद पाठक वह ही न रह जाए जो
यानी समतावाद के सिद्धान्त की कुशल रचनाएँ हैं। वसंत सकरगाए वह कविता पढ़ने या सुनने के पहले था लेकिन बात अब ज़रा
की कविताओं में इक्वैलेटैरियनिज्म और इगैलिटेरियनिज्म भ्रमित आगे की है। एक अच्छी कविता जब भी सृष्टि में जुड़ जाती है तो
होते हैं और यह भ्रमित होना ही उनकी कविताओं को आम पाठकों सृष्टि वही नहीं रह जाती, जो वह उस कविता विशेष के जुड़ने के
तक ले जाने में उन्हें बहुत सक्षम करता है। उनकी रचनाशीलता पहले हुआ करती थी। वसंत सकरगाए को पढ़ना नोम चोम्स्की के
की ख़ूबी यह है कि पाठक मुन्तज़िर रहता है कि आगे क्या आएगा, ट्रांसफ़ॉरमेशनल ग्रामर को महसूसना है, “आधुनिक हथियारों से
“बहुत मुमक़िन है कि गन्तव्य तक पत्र के पहुँचते-पहुँचते/ लैस थे मेरे हाथ/ और तो और शेर के ख़िलाफ़/ क़ानून गुंजाइश
ताप्तिपुरम हो जाए बुरहानपुर।” थी मेरे पास/ आत्मरक्षार्थ।” आत्मरक्षा यहाँ सृष्टि की रक्षा है। रक्षा
वसंत सकरगाए लुप्त हो रही चीज़़ों, परंपराओं, मूल्यों और यादों नहीं, सुरक्षा है। हैंस जे. मॉर्गेन्थाऊ जब राजनीति के वस्तुनिष्ठ
को खोजते हैं। एक पुरानी अमेरिकन कवयित्री एमिली डिकिन्सन नियम बताते हैं तो राजनीति में यथार्थवाद की बात करते हैं। वसंत
की याद आती है जिन्होंने ज़ोर देकर यह कहा था कि अगर मेरे सकरगाए के यहाँ कविता 'पॉलिटिक्स एमंग नेशंस' नहीं है। यहाँ
सिर को उतारकर मेरे धड़ से अलग कर दिया जाए तो यह समझ राजनीति कूटनीति की बजाए एक मुहब्बत भरी प्रतिबद्धता है। एक
लीजिएगा कि सिर उतारने वाला व्यक्ति अन्ततः कविता ही लेकर वादा है। वादे का एक निर्वाह है। आधा-अधूरा निर्वाह नहीं, पूरा
गया है। यह अकारण नहीं है कि वसंत जी लिखते हैं कि “जूते का निर्वाह है। मानवीय स्वभाव में सहज ही व्याप्त शक्ति की भूख़ और
सूराख़ एक अँधेरी सुरंग जिसमें गुज़रती है साँसो की रेल।” एक सत्ता की लालसा वसंत सकरगाए के यहाँ नहीं आती है। यहाँ प्यास
और उदाहरण देखिए, “प्रेमिकाओं को उन दरवाज़ों पर दस्तक नहीं को बुझाने की कला आती है।
देनी चाहिए/ जहाँ रहते हैं/ उनके प्रेम में हार चुके/ उनके प्रेमी/ वसंत सकरगाए की कविताएँ अपनी हिंदी परंपरा की कविताएँ
माना कि एकतरफ़ा था प्रेम और उन्होंने/ प्रेमियों से कभी नहीं हैं, नृजातिवाद यानी एथनोसेण्ट्रिज़्म से बहुत ही दूर। कवि के लिए
किया प्रेम।” दूरियों और नज़दीकियों का एक अर्थ होता है। वह अर्थ मुक़म्मल
महमूद दरविश ने बहुत अच्छा लिखा है कि कविता और होता है। हम कुछ सोचें, अलग बात है, हमें कुछ सोचने पर विवश
सौन्दर्य हमेशा ही शान्ति प्रदान करते हैं। जब आप कुछ सार्थक किया जाए, और अलग बात है। वसंत सकरगाए इस अन्तर को न
और सुन्दर पढ़ते हैं तो आप साहचर्य को भीतर तक महसूस करते सिर्फ़ समझते हैं, बल्कि अपनी कविताओं में दर्ज़ करते हैं। हिंदी में।
हैं और बाँटने वाली दीवारें तब गिर जाया करती हैं। यह साहचर्य मातृभाषा में। मुझे उम्मीद ही नहीं, विश्वास है कि मातृभाषा की यह
वसंत सकरगाए की कविताओं में ही नहीं है, जीवन में भी बराबर समृद्धि वसंत सकरगाए करते ही रहेंगे, प्रार्थनाओं की अलभ्य चीख
है। जीवन भी कैसा? जहाँ “भाँप लेते हैं मरणासन्न स्थिति को/ की तरह। लोग याद रखेंगे कि लाल रंग उनके झरने का पानी है। यह
पता चलता है उन्हें ही सबसे पहले।” यहाँ आकर समय वेक्टर पानी पाठकों को पानीदार बनाने की प्रार्थनाओं से लबरेज़ है। n
हो जाता है। कार्ल सैण्डबर्ग सही ही कहते हैं कि कविता एक ऐसी
प्रतिध्वनि है जहाँ परछाइयों से नृत्य करने की गुहार लगाई जाती संपर्क : सी-17, एन.पी.एल. कॉलोनी,
है। अब यह अलग बात है कि इस गुहार को कोई सुने या न सुने। न्यू राजेन्द्र नगर, नई दिल्ली–110060
वसंत के यहाँ कविता व्यवस्था के ख़िलाफ़ खड़े एक विद्रोही का मो. 09990665881
जीवन-रक्त हैं और चेतना की उपरिगामी यात्रा का एक प्रयास हैं।

yegh जुलाई से सितंबर 2023 n 255


n महत्तम : यश मालवीय

गीतों का बेलौस जुलाहा


मधु शुक्ला

यश मालवीय के रचना संसार से गुज़रते हुए हम ऐसे उल्लेखनीय अवदान दर्ज़ करा रहा है। उनके अब
कालखण्ड से गुज़रते हैं, जिनमें विगत की स्मृतियाँ तक दो दर्ज़न से अधिक संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं,
और भविष्य की कल्पनाओं का अनूठा संयोजन है। उन्होंने गद्य एवं पद्य की प्रायः सभी विधाओं में लेखन
यश के लिये गीत रचना शांत-एकांत में बैठकर किया है। जिसमें– ‘कहो सदाशिव, उड़ान से पहले,
अनुभूति के विशेष क्षणों में सम्पन्न की जाने वाली एक चिड़िया अलगनी पर एक मन में, बुद्ध मुस्काये,
यौगिक क्रिया नहीं है, वरन उनकी दिनचर्या में नींद कागज की तरह, रोशनी देती बीड़ियाँ, कुछ तो
शामिल सामान्य प्रक्रिया है, जो निरंतर उनके साथ बोलो चिड़िया, एक आदिम आग, समय लकड़हारा,
चलती रहती है। उनके गीतों में विषय विविधता एवं आत्मानुभूति काशी नहीं जुलाहे की, वक्त का मैं लिपिक, हरे पत्तों की गवाही
का व्यापक विस्तार है। अपनी अप्रतिम काव्य प्रतिभा और सतत से’ सभी नवगीत संग्रह। चिंगारी के बीज़-दोहा संग्रह। इंटरनेट पर
साधना से उन्होंने हिंदी गीत में जो मुकाम हसिल किया है, वह लड्डू, कृपया लाइन में आये-व्यंग्य संग्रह रेनी डे, ताक धिनाधिन-
उनके नाम को पूर्णतः सार्थक करता है। कथ्य की नई धार और बालगीत संग्रह। मैं कठपुतली अलबेली-नाटक संग्रह, इसके
तेवर की ताज़गी से उन्होंने गीत में नया प्रतिमान स्थापित किया अतिरिक्त स्तम्भ लेखन एवं दूरदर्शन व आकाशवाणी के विभिन्न
है, जो छायावादी गीत और नवगीत के साँचों और खाँचों से अलग केन्द्रों से रचना का प्रसारण भी वे निरंतर करते रहे।
आज के समय के गीत का मानक है। इनमें जीवन की धड़कने हैं, गीत उनकी साँसों में धड़कनों की तरह घुले-मिले हैं, वे उनके
वक्त का मिज़ाज है और कहने का एक अनूठा अंदाज है। साथ सोते हैं, जगते हैं, हँसते, मुस्कराते हैं, पत्नी की चाय में
यश मालवीय नवगीत की विगत और वर्तमान पीढ़ी के उस मिठास की तरह घुलते हैं, टिफिन में चटनी-अचार के साथ सजते
संक्रान्ति बिन्दु पर स्थित हैं, जहाँ से गीत आधुनिक भावबोध के हैं, बस और ट्रेन में यात्रा करते हैं, फ़ोन में बतियाते हैं, डायरी में
साथ एक नयी करवट लेता है, उनमें परंपरा और आधुनिकता शब्द बनकर उतरते हैं, इनमे थकान है, बुखार है, कच्ची नींद का
का सुंदर समन्वय है। गंगा, यमुना और सरस्वती के पवित्र संगम खुमार है, छुट्टियों की जद्दोजहद है, फुरसत का इतवार है, धर्म के
तट पर बसे उत्तरप्रदेश के प्रसिद्ध शहर प्रयागराज (इलाहाबाद) नाम पर सियासी जंग है, सत्ता का असली रंग है, जटिल ज़िदगी के
की ख्याति जहाँ सदियों से उसकी धार्मिक और सांस्कृतिक छवि दंश हैं, इनमें प्रकृति के रंग और मौसम की उमंग है, गुलमोहर और
के कारण रही, वहीं यह शहर अपनी साहित्यिक पृष्ठभूमि एवं अमलतास हैं, प्रेम और उल्लास है। उनका गीत कभी अलगनी में
राजनीतिक गतिविधियों के कारण भी चर्चा के केन्द्र में रहा। साहित्य बैठी चिड़िया के साथ गाता है कभी आदिम राग बनकर गुफाओं से
की प्रायः सभी धाराओं का सूत्रपात इसी भूमि से हुआ। महादेवी, गूँजता है और कभी वक्त का लिपिक बनकर दफ़्तर की सीढ़ियाँ
पंत, निराला, फ़िराक और बच्चन की इसी नगरी में कैलाश गौतम चढ़ता-उतरता है।
और उमाकांत मालवीय जैसी प्रतिभाएँ भी परवान चढीं। इनमें सूर-तुलसी, कबीर हैं, निराला और नईम हैं, परिवार है,
चार दशकों की सतत सृजन यात्रा में उन्होंने सफ़लता के कई संस्कार हैं, विरासत की थाती है और इलाहाबाद की वो माटी है,
सोपान तय किये हैं, जो कृतियों के रूप में दर्ज़ हैं। उनका समृद्ध जिसकी समृद्ध गीत की परंपरा के साथ वे खड़े दिखाई देते हैं। गीत
सृजन संसार उनकी लेखनी की निर्बाध गति और अक्षुण्ण ऊर्जा उनके जीवन में इस तरह रचा बसा है कि वे उसे स्वयं से अलग
का प्रत्यक्ष प्रमाण है, जो उत्तरोत्तर, वृद्धि के साथ साहित्य में अपना करके नहीं देख पाते हैं, इसलिये वे ज़िंदगी और गीत को एक साथ

256 n जुलाई से सितंबर 2023 yegh


प्रीति के धागों में बुनते हैं- फिर अपने पर खोलो चिड़िया
एक करघा ज़िंदगी का, एक करघा प्रीत का चुप हो क्यों कुछ बोलो चिड़िया
बुने दोनों साथ मिलकर, इक दुशाला प्रीत का यश के ये प्रेम गीत मध्यम वर्गीय परिवार की रोजमर्रा जिंदगी
लाल डोरे आँख में गोधूलि सी कविता लिखे की भाग-दौड़ और घर-गृहस्थी व द़फ्तर की तमाम हलचलों के
काँपता मस्तूल नीली शाम पर तनता दिखे। बीज अनायास अपनी उपस्थिति दर्ज़ कराते हैं, इसीलिये ये स्वतः
माथ पर रौली समय की एक चावल प्रीति का। हमसे आत्मिक संवाद स्थापित कर लेते हैं-
जीवन की समस्त सुखानुभूति और उसका सौंदर्य प्रकृति और तुमने याद किया हम तो मन ही मन फूल गये
प्रेम में ही अवगुंठित है, अतः प्रेम और प्रकृति सदैव गीत के अंग रहे पेन-रूमाल, घड़ी-मोबाइल, सब कुछ भूल गये
हैं। नवगीत में प्रेम कल्पना लोक के वायावी वातावरण में विचरण औंधे मुँह गिर पड़ी, रास्तों में दफ़्तर की जल्दी
नहीं करता वरन प्रतिक्षण जीवन की सच्चाईयों से रूबरू होता है। याद आ गयी वो धरती के छोर बँधी सी हल्दी
प्रेम प्रकृति, सौंदर्य एवं रागात्मक भावबोध की रचनाओं से यश यादों का बस्ता ले, सपनों के स्कूल गये।
मालवीय का सृजन भरा पड़ा है। उनके दो संग्रहों ‘एक चिड़िया ’याद आ गयी वो धोती के छोर बँधी हल्दी’ पंक्ति से वह अपनी
अलगनी में एक मन में’ एवं ‘कुछ तो बोलो चिड़िया’ के गीतों में आनुभूतिक संवेदनाओं को जिस तरह अतीत की सुखद स्मृतियों
रागात्मक भावों की ही प्रमुखता है। वे अपने प्रेम गीतों को आज के और परंपराओं से जोड़कर यादों के बस्ते में भविष्य के सपनों के
परिदृश्य में बिलकुल नये संदर्भोंं के साथ प्रस्तुत करते हैं। यश के साथ संजोते हैं, वह अर्थ सौंदर्य में नयी भावव्यंजना उत्पन्न करता
प्रेम का आधार काल्पनिक प्रतीतियों की आभासीय छवियाँ न होकर है। स्वयं को अभिव्यक्त करने की आकांक्षा मनुष्य में स्वभावतः
यथार्थ की ज़मीन पर अवस्थित घर-गृहस्थी के घोंसले को चिड़िया होती हैं, पर अभिव्यक्ति की यह कला किसी किसी के पास ही होती
की तरह तिनका-तिनका बुनती हुई गाती, चहक़ती वह मूर्तिमान है। विशेष कर ’प्रेम’ को शब्दों में अभिव्यक्त करना तो बड़े-बड़े
पत्नी है, जो उनका हर कदम पर सम्बल बनती है। उनके प्रेम का कवियों के लिये भी दुष्कर कार्य होता है, जिसके लिये महाकवि
धरातल दैहिक न होकर सात्विक और उदात्त है, जो हर छोटी-छोटी ’रत्नाकर’ ने लिखा था’ विरह व्यथा की कथा अकथ अथाह महा,
चीज़ों और बिखरते क्षणों में प्रेम के बड़े-बड़े सुख समेट लेने को कहन बने न जो प्रवीन सुकबीन सौ।’
आतुर है- प्रेम में सब कुछ कह कर भी बहुत कुछ अनकहा ही रह जाता
आज पहली बार इतने पास से देखा तुम्हें, है और इसी अनकहे की छटपटाहट ही कला और कविता जैसों
मिल रही धरती जहाँ आकाश से देखा तुम्हें माध्यमों को जन्म देती है। महाकवि कालिदास मन की यही
पेड़ बादल हवा पानी सब अचानक छू गये। पीड़ा अभिव्यक्त करने के लिये ‘मेघदूत’ रचते हैं, यद्यपि मनीषी
कुछ पुराने से फसाने हो गये सहसा नये। महाकवि कालिदास भली भाँति जानते थे कि मेघों का उनकी पीड़ा
बहुत अपने अजनबी अहसास से देखा तुम्हें। से कोई वास्ता या सरोकार नहीं है। परवाह उनके मन का संसार
चिड़िया उनके गीतों का प्रिय प्रतीक है। विशेष कर रागात्मक था, जिसे उन्होंने शब्दों में उतारा था। आज इंटरनेट के युग में जब
भावों की अभिव्यक्ति के लिये वे चिड़िया को माध्यम बनाते हैं। वे संवाद करना बहुत सुलभ हो गया है और दूरियां भी घट गयी है,
स्वयं स्वीकारते हैं कि चिड़िया मेरे गीतों का प्रिय प्रतीक है। इस दुनियाँ हमारी मुट्ठी में कैद है, पर प्रेम की प्रकृति आज भी वही है।
प्रतीक से मैं गहरी सम्पृक्ति अनुभव करता हूँ। मुझे लगता है, मेरे और उसी ‘अनकहे’ को यश मालवीय जब अपने नये अंदाज में
अंतस में कहीं कोई बेचैनी की चिड़िया है, जो लगातार गीत रचते प्रस्तुत करते हैं, तो वह हर मन का ‘अनकहा’ हो जाता है-
जाने की ज़िद भी करती रहती है, यदि ज़िद मेरे लिये प्रेरणा है। मेरी खुशी थोड़ी ढेर सा अवसाद आया
प्रिय ही मेरे लिये चिड़िया है, उसकी खामोशी मुझे तोड़ती है, चुप्पी हमें था कुछ और कहना अभी तुमसे
सालती है, उसका टिन्न-फुन्न ही मेरा आक्सीजन है, मुझे लगता है जब रिसीवर रख दिया तब याद आया
उसे कभी चुप नहीं होना चाहिये, उसका बोलते रहना बहुत ज़रूरी सच्चा और आत्मिक ‘प्रेम’ कभी घटता और मरता नहीं है, वरन
है, उसके गुँजायमान होने से अवसाद की कैसी भी ठोस बर्फ हो, वह दिये की लौ की तरह हृदय में जलता रहता है।
पिघलने लगती है, चुप होने से मेरा जीवन स्थगित होने लगता है, प्यार दिये की लौ जैसा, कब मद्धिम होता है।
इसीलिये जब कभी चिड़िया चुप हो जाती है, मैं बेकल हो उठता हूँ चुकती नहीं बात औ’ सूरज पश्चिम होता है।
और आकुल व्याकुल दुलराहट के साथ बार-बार कहता हूँ- किसी भी रचना की शक्ति और सौन्दर्य उसकी लोक जीवन

yegh जुलाई से सितंबर 2023 n 257


से सम्पृक्ति और अभिव्यक्ति में निहित है, प्रकृति लोक जीवन की वे आतुर हैं।
धरोहर है, यह वह चेतन इकाई है, जिसमें रच बस और पगकर रचना ’पारदर्शिता’ एवं कहन में से सहजता यश के गीतों का विशेष
प्राणवान और जीवन्त हो उठती है। प्रकृति हमारे जीवन और संस्कृति गुण हैं। वे साधारण को असाधारण तरीके से प्रस्तुत करते हैं, उनके
का मूल आधार है, उसमें हमारे दिन, महीने, मौसम, उत्सव, आनंद, बिम्ब अर्थों के जाल में उलझाते नहीं है, वरन सम्प्रेषणीयता को
प्रेम, सौन्दर्य के साथ ही लोक जीवन के सारे रंग समाहित है। सुगम्य बनाते हैं। उनकी सादगी की व्यंजना बेजोड़ है। चिर-परिचित
सौन्दर्य के साथ ही लोक जीवन के सारे रंग समाहित है। शब्दों में स्फुट अनुभूतियों का संयोजन नया न होकर भी अनुपम है।
यश मालवीय ने अपने गीतों को प्रकृति के अनूठे और टटके जहाँ तक भाषा की बात है यश ने भाषा को अच्छी तरह साथ रखा है,
बिम्बों से सजाया है। ये गीत कभी अमलतास पहनते है, कभी वह उनके कथ्य के मिज़ाज के अनुरूप ढलती दिखायी देती है, यश
अमलतास की आँखांे में गुलमोहर बनकर खिलते हैं - प्रयोगधर्मी रचनाकार हैं, उन्होंने कथ्य शिल्प और भाषा के स्तर पर
गीत हमारा अमलतास पहने है। अनेक प्रयोग किये हैं, उन्होंने अपने गीतों की भाषा को आंचलिक,
मौसम गर्म गुलमुहर वाली/साँस-साँस पहने हैं उर्दू एवं अंग्रेजी के शब्दों से समृद्ध और समय सापेक्ष बनाया है।
हवा चले मन की टहनी का/हर पत्ता काँपे है। विशेष कर अंग्रेजी शब्दों के बहुत सार्थक और सटीक प्रयोग के लिये
परछाई में रोली के, हल्दी के छापे हैं। उनके गीतों को विशेष तौर पर रेखांकित किया जायेगा-
आँखों में आदिम आँधी का अनुप्रास पहने है। देह भर में धूप मेहंदी सी रची हैं
मनुष्य एवं प्रकृति के अनुभवों का एकाकार होना और अभिव्यक्ति आज घर पर ही रहेंगे।
का वैयक्तिक विशिष्टता से सम्पन्न होना नवगीत के भाव और हैं दिसम्बर कैजुअल बाकी बची है।
शिल्प का आधार है। यश ने अपनी माटी की गंध से कविता को है घना कुहरा कि मौसम भी टची हैं।
महक़ाया है, जिसमें वेदना और उल्लास दोनों अवस्थित होते हैं। ऐसे ही तरह तमाम अंग्रेजी के शब्द कम्प्यूटर, फेसबुक, फाइल,
मौसम के बदलने से केवल बाहरी परिदृश्य ही नहीं बदलता, रिसीवर, ब्लेड, रेजर, पर्स आदि उनके गीतों में सहजता से घुले-
घर की तमाम चीज़ें बदलती हैं। मन का वातावरण भी बदलता है, मिले देखे जा सकते हैं। अंग्रेजी भाषा के ये शब्द हिंदी की समृद्धि
सहसा विगत की स्मृतियों को साथ लिए पूरा कालखण्ड लौटता है- के लिये कितने सहायक या बाधक सिद्ध होंगे, ये अलग मुद्दा है, पर
भूली बिसरी चोट दुखाने मौसम बदला है यश ने इन शब्द प्रयोगों से अपने गीतों को जो अद्भुत सौंदर्य और
भारी बक्से से सर्दी का कपड़ा निकला है सम्प्रेषणीयता दी है वह सराहनीय है।
देह हमारी और पिता की सदरी बोल रही यश गहरे मानवीय सरोकारों और चिंताओं के कवि हैं, उनके
नैप्थलीन वाली यादों की खुश बू डोल रही पास अपने समय को देखने और पढ़ने की बहुत बारीक दृष्टि है।
माँ का शाल, लक्ष्मी के काँधे पर फिसला है उनमें भावों और विचारों का सुंदर संतुलन एवं कथ्य और शिल्प
यश मालवीय के गीत प्रकृत्या विचार गीत हैं जो बिम्बों और में लयात्मक बंदिश दिखाई देती है। वे छंद को रचना के लिये
प्रतीकों से सहज विस्फोट करते हैं, उनमें क्रांतिधर्मी बौद्धिकता के आवश्यक मानते हैं, परंतु शिल्प को कथ्य के अनुसार ढालने के
साथ व्यंग्य का स्वर भी समाहित है। व्यवस्था पर तंज कराता हुआ पक्ष में है। वे प्रतिबद्ध रचनाकार है और आज के विपरीत समय में
उनका यह गीत विशेष रूप से द्रष्टव्य है - गीत की लगाम थामें हुए निरंतर सृजनरत् हैं, उन्हें विश्वास कि एक
बिल्लियाँ ही बिल्लियाँ हैं दिन ये तस्वीर बदलेगी–
कौन बाँधें घंटियाँ इनके गले में अँधियारा है यहीं कहीं पर सूरज निकलेगा
लोग चूहों से, डरे-सिमटे पड़े हैं लगता है, कुछ लिखने से ही मौसम बदलेगा
खिड़कियाँ ही खिड़कियाँ हैं यश मालवीय ने अपनी नैसर्गिक प्रतिभा को परिश्रम की आँच
क्रूर सत्ता के किले में। में तपा कर कुंदन की तरह दमकाया है, जिनकी आभा के आलोक
वे अपनी रचनाओं में युगबोध एवं नवबोध को जीते हुए सहज में हिंदी गीत में संभावनाओं के नये क्षितिज खुलते दिखायी दे रहे
किंतु प्रखर विरोध दर्ज़ करते हैं और आज के समय की तल्ख हैं। n
तस्वीर खींचते हैं; परंतु तमाम निराशाओं और हताशाओं के बावज़ूद संपर्क : 6, साँई पैलेस, साँई हिल्स, कोलार रोड,
भी वे हार नहीं मानते हैं। उनके मन में आशा की लौ और सुनहरे भोपाल (म.प्र.) 462042
कल को गढ़ने सपना अहर्निश पल रहा है, जिसे साकार करने को मो. 9893104204

258 n जुलाई से सितंबर 2023 yegh


n महत्तम : असंगघोष

संघर्ष, विद्रोह और स्मृति के कवि


शचीन्द्र आर्य

असंगघोष कैसे कवि हैं, इससे पहले कइयों के मन यह पद अपने लिए इस्तेमाल नहीं करते। न कोई
में शायद यह सवाल होगा, असंगघोष कौन हैं? यह आलोचना कर्म, उन्हें इस तरह चिह्नित करता है।
किसी बौद्ध भिक्षुक का नाम तो नहीं है, जो कविताएँ बहरहाल,असंगघोष का जन्म 29 अक्तूबर 1962
लिख रहा हो? इस प्रश्न का सबसे सरल सा उत्तर है, को मध्य प्रदेश के एक छोटे क़स्बे जावद में हुआ।
जो खोजने पर मिल जाएगा। आप खोजेंगे तो पाएँगे– उनकी आरंभिक शिक्षा क़स्बे में ही हुई। शिक्षा पूरी
उन्हें हिंदी दलित कविता का एक प्रमुख कवि माना कर आरंभ में बैंक की नौकरी की, फिर प्रशासनिक
जाता है। एक कवि जो कविता करता है, उसकी सेवा से संबद्ध हुए। एक लंबे अंतराल के बाद पीएचडी
कविता को पढ़ने से पहले परिचय में लिखी गयी यह पंक्ति किसी की डिग्री प्राप्त की। अब तक इनके 11 कविता-संग्रह आ चुके हैं।
पाठक की क्या मदद कर सकती है? यह एक पंक्ति क्या किसी जिनमें ‘खामोश नहीं हूँ मैं’ (2001), ‘हम गवाही देंगे’(2007),
कवि के समूचे कृतित्व पर अपनी उपस्थिति दर्ज़ करवा रही है। यह ‘मैं दूँगा माक़ूल जवाब’(2012), ‘समय को इतिहास लिखने
पंक्ति हिंदी आलोचना की उस परंपरा के काम तो आ सकती है, दो’(2015), ‘हम ही हटाएँगे कोहरा’(2016), ‘ईश्वर की मौत’
जो सभी रचनाकारों को अलग-अलग साँचों में रखने की अभ्यस्त (2018), ‘अब मैं साँस ले रहा हूँ’(2018), ‘बंजर धरती के
है। यह अनुशीलन की ऐसी सुविधाजनक धारा है, जो पहचाने जाने बीज’ (2019),‘हत्यारे फिर आएँगे’ (2021) शामिल हैं। इसके
लायक चिह्नों, रूपों, प्रवृत्तियों, विशेषणों, कथ्य, भाषा आदि को अतिरिक्त उनके दो कविता-संचयन भी ‘तुम देखना काल’ (साल)
किसी रचनाकार पर लादती है। और ‘चयनित कविताएँ’ (2022) शीर्षक से प्रकाशित हैं। उन्हें
किसी ऐसे पाठक के लिए जो पहली बार इस या किसी भी कई पुरस्कारों से सम्मानित किया गया है, जिनमें मध्य प्रदेश
कवि की कविता को पढ़ना चाहता है,कोई परिचय किस तरह कोई दलित साहित्य अकादमी पुरस्कार (2002), सृजन गाथा सम्मान
मदद कर सकता है, यह देखा और समझा जाना चाहिए। ऐसी (2013), मंतव्य सम्मान (2019) आदि प्रमुख हैं। वह जबलपुर
आलोचना से यह प्रश्न भी पूछा जाना चाहिए कि जो साहित्यकार से प्रकाशित त्रैमासिक पत्रिका ‘तीसरा पक्ष’ का संपादन कर रहे
‘दलित’ हैं, वे तो ‘दलित साहित्यकार’ कहलाए, उनका साहित्य हैं। उनकी कविताओं का अनुवाद नेपाली, अंग्रेज़ी, मलयालम,
भी ‘दलित साहित्य’ कहलाया। जो साहित्यकार‘ ग़ैर-दलित गुज़राती, मराठी, पंजाबी आदि भाषाओं में हुआ है।
जातियों/समुदायों’से आए वह ‘ग़ैर-दलित साहित्यकार’ या
‘सवर्ण साहित्यकार’ नहीं कहलाए। यहाँ तक कि उनका लिखा (2)
हुआ कुछ भी कभी ‘ग़ैर-दलित साहित्य’ या ‘सवर्ण साहित्य’ नहीं कोई भी कवि संवेदनशील हुए बिना कविता नहीं कह सकता। कोई
कहलाया। यह भी रेखांकित करने योग्य है कि किसी ‘सवर्ण’या ऐसी बात जो सीधे पढ़ने वाले के मर्म स्थल को छू जाये, वह कविता
‘ग़ैर-दलित’साहित्यकार को इन श्रेणियों में देखने की कोशिश कभी होगी। कविता का मूल कथ्य यह जीवन है। जीवन जो उसने जिया
कोई आलोचक या पाठक करता ही नहीं है। क्या इसे इस स्थापना और जिसमें उसका सबकुछ आकार लेता है। यह आदतों से लेकर
से समझा जा सकता है कि दलित साहित्यकार का विशेषण इच्छाएँ, पसंद-नापसंद, स्वाद, दैनिक जीवन की वह बारीकी जो
दलित साहित्यकारों ने स्वयं ‘अर्जित’ किया है और जो ग़ैर-दलित कभी हम नहीं देख पाते हैं, उसे हमारे सामने उद्घाटित करता है।
साहित्यकार हैं, वह ग़ैर-दलित (सवर्ण) साहित्य लिखते हुए भी बचपन की स्मृतियाँ कौन भुला पाता है। असंगघोष की कविताओं

yegh जुलाई से सितंबर 2023 n 259


में बचपन की स्मृतियाँ बार-बार आती हैं। वह बचपन जो अब बिजली की चमक में माँ का बेटी को छाती से लगा कर अपने फटे
लौटकर कभी नहीं आएगा। हम कविता में या किसी अन्य विधा आँचल से ढक ले रही है और काले आसमान की ओर देख कर
में उसकी पुनर्रचना करते हैं। जैसा वह हमें याद रह जाता है। वह सोचती है,“क्यों मेहरबान बादल/ उमड़ता हुआ/ आज ही/ सारा
कोमल अनुभूतियाँ अलग-अलग बिंबों में असंगघोष की कविता में पानी उड़ेल रहा है”। यहाँ एक साथ ग्राम्य जीवन और उसका
बख़ूबी दिखाई देती हैं। जैसे इस कविता ‘सहारा अलगनी’ में एक अतीत मोह, जो सब शहराती मस्तिष्क में पैठ बनाए बैठा है, वह
गुदड़ी घर पर थी और एक पिता की दुकान पर। सुबह होने पर एक दम से टूट जाता है। यह माया लोक भाषा को बदलने और
वह अलगनी पर टांग दी जाती थी। कभी-कभी पिता दुकान पर ही उसके प्रचलित मुहावरों को अभिधा में लाकर पटक देता है, जब
रात में रुक जाते कि अगली सुबह तक चप्पल तैयार कर ग्राहक़ कविता में पीछे की दीवाल गिरने, चूल्हे की आग बुझने, गीली
को देनी होती थी। तब कुछ आमदनी होती। इसकी कुछ पंक्तियों लकड़ी को देखकर उस टपकते, भीगते घर में ठंड से ठिठुरते हुए
को देखिये - बच्चे को देखते हुए माँ कहती है: क्या ईश्वर कहर भी/ छप्पर फाड़
पिता ग्राहक़ से मिले कर देता है?
रुपयों में से कुछ इन कविताओं में यह दुनिया बहुत निष्ठुर है। इतनी निष्ठुर कि
अलगनी पर डली ऊपर आए कवि और उनके कविता संदर्भ उस अन्याय, शोषण
गुदड़ी की तह में रख को व्यक्त करने में असमर्थ ही प्रतीत होते हैं। उनकी एक कविता
बचा लेते भविष्य के लिए है- ‘अँधा बहरा भगवान’। जिसमें बच्चे एक खंडहरनुमा मंदिर के
जब हाथ में काम नहीं होता पास सितोलिया (बच्चों का एक खेल, जिसमें वे खपरैल आदि
उस समय अलगनी ही आसरा थी के सात टुकड़ों को एक के ऊपर एक सजा कर गेंद से मारते
ख़ुद रस्सी के सहारे बँधी हैं: संदर्भ- हिंदवी वेबसाइट), जिसे अंग्रेज़ी में ‘सेवनटाइल’ और
सहारा थी बुरे वक्त का हमारी तरफ ‘पिट्ठू’ कहते हैं। बच्चे इस खेल को खेल रहे हैं। खेलने
हमारे लिए। के दौरान गेंद मंदिर के भीतर चली जाती है और उसके पीछे-पीछे
बचपन की यह स्मृतियाँ सुखद नहीं हैं। बाल्यावस्था का जीवन एक बच्चा भी गेंद खोजने भीतर चला जाता है। वहाँ एक पुजारी
कष्टमय है। वह सभी के लिए एक सा नहीं है। उसकी कोई एक छवि बैठा था, जिसके लिए वह एक खेल खेलता हुआ बच्चा न होकर
या व्याख्या संभव ही नहीं है। कल कैसा होगा इस पर संशय बना एक अस्पृश्य या अछूत था। जो अनायास अनधिकार मंदिर में घुस
हुआ है। जो आज की आमदनी है, वह भविष्य का आधार है। आज आया था, तब :
की नींद का स्थगन, आने वाले समय में काम न मिलने की आशंका पंडित ने
है। यह स्मृति आज तक कवि के मन में बनी हुई है। वह इसे भुलाए उस बालक को
नहीं भूल पाया है। इसी में जो ‘चंद्रमा’अपनी कोमलतम अनुभूतियों मारा डण्डे से
से भरा हुआ सम्पूर्ण(बाल) साहित्य में उपस्थित है, उसमें‘जब चाँद किया लहूलुहान
गिर पड़ेगा’ कविता के इस बिम्ब को ज़रा महसूस कीजिये: उस रोते अबोध बालक को बचाने
चाँद जब कभी गिर पड़ेगा वहाँ क्यों प्रकट नहीं हुआ
आसमान से धरती पर भगवान
हम निहारना बन्द कर देंगे अंधा बहरा
धरती के चाँद को यह कविता एक साथ कई परतों को उघाड़ देती है। जिसमें
बूढ़ी नानी का चरखा थम जाएगा बच्चों के बचपन के अनुभव उसकी जन्म से आधारित जाति तय
रुँध जाएगा लोरी गाती माँ का गला करती है। वही उसके लिए शोषण और उत्पीड़न के अवसरों को
नहीं रहेगा सृजित कर रही है। यहाँ रेखांकित करना होगा कि 90 के दशक
बच्चों का चन्दामामा में जिन विरोधाभासों को दलित लेखकों द्वारा चिह्नित किया गया,
यह सृष्टि भी नहीं रहेगी उस सिलसिले में यहाँ भीमराव आंबेडकर को उद्धृत किया जाना
जहाँ कल तक यह चाँद एक टूटे हुए छप्पर के छेद से बनी झन्नी समीचीन होगा। आंबेडकर समाज में व्याप्त इन विरोधाभासों की
के पार झाँकता एक बच्चे को दिख रहा था,वहाँ आज कड़कड़ाती तरफ सबसे पहले संकेत करते हैं। स्वाधीनता के बाद जब संविधान

260 n जुलाई से सितंबर 2023 yegh


को अंगीकार किया गया, तब उन्होंने भारतीयों से आग्रह किया कि
वे महज राजनीतिक लोकतन्त्र से संतुष्ट न हों। संविधान सभा के असंगघोष की कविता इन्हीं अंतर्विरोधों से
हमारा सामना करवाती है। यह जीवन ऐसे ही
समापन भाषण में उन्होंने कहा-
अंतर्विरोधों से भरा हुआ है। भले ऊपर आई
“26 जनवरी 1950 को हम अंतर्विरोधों की दुनिया में कदम कविता बच्चों के सितोलिया खेलने, उनके
रखने जा रहे हैं। राजनीति में हम समान होंगे लेकिन सामाजिक मंदिर में प्रवेश कर लेने और बच्चे की पिटाई
और आर्थिक जीवन में असमानता रहेगी। राजनीति की दुनिया में को दिखती हो, वह इन अंतर्विरोधों को बनाए
हम एक व्यक्ति एक वोट और एक वोट एक मूल्य के उसूल को रखने और सुदृढ़ करने वाली व्यवस्था पर भी
अपनाने जा रहे हैं। लेकिन, सामाजिक और राजनीतिक जीवन में प्रश्न उठाते हैं।
हम अपने सामाजिक और आर्थिक ढाँचे के कारण एक मूल्य एक
वोट के उसूल को नकारते रहेंगे। अंतर्विरोधों की इस दुनिया में हम है, तो समुंदर के पानी से उसकी उंगली भीग जाती है। जो आश्चर्य
आख़िर कब तक जिएँगे? सामाजिक और आर्थिक जीवन में हम लोक था, चंद्रमा, वह धरती पर आकर बिखर जाता है। यहाँ नरेश
समता को कब तक ठुकराते रहेंगे? अगर हमने देर तक समता सक्सेना की कविता ‘शिशु’ का तोतलापन और ‘बाद में सीखेगा
को नकारना जारी रखा तो परिणामस्वरूप हम अपने राजनीतिक भाषा अभी वह अर्थ समझता है’ जैसी पंक्तियाँ बहुत मासूम होते
लोकतन्त्र को ही संकटग्रस्त कर देंगे।”1 हुए भी इन कविताओं के मर्म और वास्तविक संसार तक नहीं पहुँच
असंगघोष की कविता इन्हीं अंतर्विरोधों से हमारा सामना पाती। उनके यहाँ बचपन सिर्फ़ कविता का कथ्य नहीं है। वह संघर्ष
करवाती है। यह जीवन ऐसे ही अंतर्विरोधों से भरा हुआ है। भले की पूर्वपीठिका के समान यहाँ उपस्थित है। व्यवस्था बदले बिना यह
ऊपर आई कविता बच्चों के सितोलिया खेलने, उनके मंदिर में संघर्ष समाप्त नहीं होगा। इस तरह यह सीधा टकराव पहले किसी
प्रवेश कर लेने और बच्चे की पिटाई को दिखती हो, वह इन कवि या उसकी कविता में दिखाई देता हो, मालूम नहीं पड़ता। इसके
अंतर्विरोधों को बनाए रखने और सुदृढ़ करने वाली व्यवस्था पर भी बिना समाज की पुनर्रचना नहीं की जा सकती।
प्रश्न उठाते हैं। जो असमानता जीवन में जन्म लेने के साथ प्रवेश
कर जाती है, उसे इसी तरह कहा जाएगा। जो प्रतीक, व्यवस्था (3)
या परंपरा के नाम पर ढोये जा रहे हैं, उनके आधार को समझे समय जिस तरह से बदल रहा था, वह कार्ल मार्क्स, हीगल,
बिना,उसे समाप्त नहीं किया जा सकता। एँगेल्स, वेबर जैसे अन्य पश्चिमी विद्वानों के शास्त्रीय महावृत्तान्तों
सतह पर उनकी कविताओं में यह बचपन तीन तरह का दिखाई से समझ में आने वाला नहीं था। ‘दूर खड़े एक विद्वान द्वारा
देता है। एक ख़ुद का (हल्लाड़ी, माँ, हसीन सपने, दादी दूर नहीं),
वैज्ञानिक पद्धति का प्रयोग कर लिखे गए इतिहास में लाजमी तौर
अपनी संतान के बचपन का (कंदील, तकधिना धिन) और तीसरा पर छोटे-छोटे असंख्य इतिहास गायब हो जाया करते हैं, जिनका
किसी अन्य के बचपन में (मोना तुम क्यों नहीं मरी) आवाज़ाही। लेखन वैज्ञानिक कायदों पर नहीं बल्कि भोगे हुए यथार्थ पर निर्भर
यह पहली बार है, जब बच्चा अपने परिवार के साथ ‘हिंदी कविता’ है’। उनका मानना था कि इसमें ‘निष्पक्षता’ और वस्तुनिष्ठता का
में मौज़ूद है। इन कविताओं में जो बचपन और बच्चों का संसार अभाव है। आदित्य निगम(2005) के अनुसार ‘वैज्ञानिकता के
उपस्थित है, वह राजेश जोशी की कविता ‘बच्चे काम पर जा रहे आग्रह के चलते इस नयी ज्ञानमीमांसा का एक पहलू और उभर
हैं’और भागवत रावत की कविता ‘बच्चा’ से अलग है। असंगघोष कर सामने आया– ‘प्राकृतिक ज्ञान के मॉडल पर बनने वाले नए
की कविता में वह ऐसे काम पर जाता हुआ भले दिखाई न दे रहा सामाजिक ज्ञान को भी अब ‘मूल्य निरपेक्ष’ बनाने की कोशिशें होने
हो,लेकिन वह परिवारमें अपने माता-पिता के साथ जिस तरह का लगीं। यह मूल्य निरपेक्षता तभी संभव होती है जब ‘ज्ञाता’ अपने
जीवन जीने को अभिशप्त है, उसकी तरह शायद ही कभी ध्यान दिया ‘ज्ञातव्य’ के बाहर खड़ा एक ‘वैज्ञानिक’ हो और अपने ज्ञातव्य
गया है। असंगघोष की कविताओं में चन्द्रकान्त देवताले की कविता
जगत के मूल्य बोध से प्रभावित न हो’।
में तरह किसी पहाड़ पर ‘बच्चों की जेल’(बिना किसी तानाशाह अगर सच (या तथाकथित ज्ञान) तक उन्हीं लोगों की पहुँच
की तस्वीर के) को देख कर भावुकता नहीं है। वहाँ ‘बिटिया’ का हो सकती है, जो इस सही, वैज्ञानिक, मूल्य निरपेक्ष पद्धति या
आश्चर्य लोक भी नहीं है, जो दीदी की किताब में उंगली डालती कायदे से सम्पन्न हों, तो यह तय है कि सामाजिक ज्ञान का समूचा
1 सुनीलखिलनानी की पुस्तक‘आइडिया ऑफ इंडिया’(1997)के हिन्दी
कारोबार भी इन ‘बाहर खड़े’ ज्ञाताओं के काबू में रहेगा। इसने एक
अनुवाद‘भारतनामा’(2006) के पृष्ठ 54 से उद्धत तरह से ‘वर्चस्व’ को स्थापित किया। इस प्रक्रिया में छोटे-छोटे

yegh जुलाई से सितंबर 2023 n 261


असंख्य इतिहासों के गायब हो गए। इसका एक अर्थ यह है कि जो रैदास ने देखा था। यह सपना तल्ख भाषा में भले हमें उनकी
लोग ‘शिक्षित’नहीं हैं, मतलब ग़रीब, आदिवासी, दलित, महिलाएँ कविताओं में देखने को मिलता हो पर उसका आधार समानता,
और वह बच्चे, जो कभी औपचारिक शिक्षा संस्थान में प्रवेश नहीं मानवता और लोकतान्त्रिक मूल्य हैं। वह समाज में बंधुत्व को
कर पाये, उन्हें किसी भी प्रकार का कोई ‘ज्ञान’ नहीं है। उन्हें किसी जीवन का एक अनिवार्य हिस्सा मानते हैं।
ने ज्ञान का हिस्सा ही नहीं माना गया, न कभी माना जाता है। जिसने ‘खा जाओ दीमकों’, ‘गांधी के बंदर’,‘निर्जीव मनेरी’,‘
आधुनिकता की इस परियोजना में जिस तरह आधुनिक समाज तेरी कालिख’, ‘इज्जत वाली जात’, ‘पाथरूट’,‘पाँव का जूता’,
बनने का स्वप्न देखा गया था,उसमें हर नागरिक को एक समान ‘जहर खत्म करो’, ‘थोड़े दिन तो गुज़ारो गुज़रात में’, ‘हमारी साहस
नागरिकता मिलनी थी, वह अभी अपने लक्ष्य तक पहुँच नहीं पाया की दरकार’,‘कहाँ था मंगल’,‘रंग विदूषक’ जैसी कविताएँ लिखी
है। इस आधुनिक समाज का आधार इस स्थापना को माना गया हों, उसके संदर्भ में कोई भी बात क्या इस बात से शुरू हो सकती
था कि तमाम तरह की जन्म से प्राप्त पहचानें आधुनिक विकास है कि वह (केवल) ‘दलित’ साहित्यकार हैं? जो आलोचना कर्म
के साथ गायब हो जाएँगी। निगम कहते हैं, ऐसा हुआ नहीं। पिछले उन्हें ऐसी कविताओं के लिए ‘दलित’ साहित्यकार कहता है, वह
बीस वर्षों (90 के दशक से) में यह पहचानें मिटी नहीं, बल्कि बताए कि सामाजिक-आर्थिक न्याय, समानता, स्वतन्त्रता, व्यक्ति
उनकी पुनर्रचना हो रही है। छोटी अस्मिताओं की बगावत कई मुद्दों की गरिमा और बंधुत्व की बात करने वाला व्यक्ति क्या केवल इस
पर दोबारा से सोचने के लिए बाध्य करती है। पद से अपनी संपूर्णता में समझ आ सकता है?
इस उपक्रम में जिस तरह की ‘व्यक्तिनिष्ठता’ ने साहित्य में इन साहित्यकारों ने यह पद अपने लिए इसलिए नहीं चुना
अपना स्थान बनाया,छोटी अस्मिताओं ने अपने होने के दावे को था कि उन्हें केवल जाति के आधार वर्गीकृत करके दिखा जाए।
दोबारा पेश किया। इससे हुआ यह कि साहित्य की दुनिया में वह अपने साथ सदियों से होने वाले शोषण और उस प्रक्रिया
‘अनुभवात्मक’ और ‘अनुभवजन्य ज्ञान’के लिए नयी जगह बनने को उघाड़ना चाहते थे। साहित्यिक आलोचना ने उन्हें ‘दलित
लगी। इस अस्मितावादी विमर्श ने साहित्य के ढांचे को भी पूरी तरह साहित्यकार’ कहक़र एक खास श्रेणी बना दिया, जिसमें उन्होंने
से (आमूलचूल रूप से) परिवर्तित कर दिया। इसमें स्त्री, दलित, केवल इसी सीमा तक बांध कर सीमित कर दिया। जिन मूल्यों
आदिवासी, पर्यावरणवादी सब अपनी-अपनी दृष्टियों से साहित्य और आदर्श समाज की बात दलित साहित्यकार प्रारम्भ से करते
को सम्पन्न कर रहे हैं। असंगघोष की कविताओं में जो विद्रोह हमें आ रहे हैं, उस आधुनिक राष्ट्र का स्वप्न भारतीय संविधान में राष्ट्र
दिखाई देता है, उसे इस पृष्ठभूमि में समझा जा सकता है। इसके निर्माताओं ने स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद देखा। ऐसे आलोचना कर्म
संबंध में वह स्वयं कहते हैं कि 1979-80 में कविताएँ लिखने के लिए हमारा संविधान किसी दलित विमर्श का हिस्सा होगा।
की शुरुवात की थी। नौकरी करते हुए साम्यवादी मजदूर संगठनों आलोचकों को इन प्रश्नों का उत्तर दिये बिना अपनी बात शुरू
के संपर्क में आने और मार्क्सवाद से प्रभावित होकर रचनाएँ की नहीं करनी चाहिए। अगर नहीं कर पाते हैं तो वह अपनी असमर्थता
लेकिन 1990 के बाद लेखन ने एक अलग दिशा प्राप्त की। वह जता कर खेद प्रकट कर सकते हैं।
जातिगत शोषण, भोगे हुए यथार्थ और भेदभाव का प्रतिरोध अपनी मेरे लिए असंगघोष संघर्ष, विद्रोह और स्मृति के कवि हैं। n
कविताओं में दर्ज़ करते हैं। वह अन्याय, असमानता और भेदभाव
सहायक पुस्तकें:
को अभिव्यक्त करते हैं।
1. आधुनिकता के आईने में दलित,2005,अभय कुमार दुबे,संपादक, वाणी
इस बिन्दु पर यह आलेख जिस प्रश्न से प्रारम्भ हुआ था, हम प्रकाशन, दिल्ली
दोबारा वहीं पहुँच गए हैं। प्रश्न था– किसी भी रचनाकार को यदि 2. भारतनामा, सुनील खिलनानी, 2009, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली
हम किसी खास खाँचे में रख कर देखना शुरू कर देते हैं, तब 3. चन्द्रकान्त देवताले, प्रतिनिधि कविताएँ, 2013, राजकमल प्रकाशन,
उससे होता क्या होता है? उसका एक ही उत्तर है, उससे कुछ खास दिल्ली
4. भगवत रावत, प्रतिनिधि कविताएँ, 2014,राजकमल प्रकाशन, दिल्ली
होता नहीं है, बस हम एकांगी दृष्टि से उसकी तरफ आगे बढ़ते 5. बंजर धरती के बीज, असंगघोष,2019, रश्मि प्रकाशन, लखनऊ
हैं। एक ऐसा कवि जिसमें लगभग पाँच सौ कविताएँ लिखी हों, 6. तुम देखना काल,असंगघोष,2019, लोकमित्र प्रकाशन, दिल्ली
क्या उसे कोई आलोचना कर्म सिर्फ़ ‘दलित’ साहित्यकार कहक़र 7. असंगघोष, चयनित कविताएँ, 2022, न्यू वर्ल्ड पब्लिकेशन, नई दिल्ली
अपनी सभी बातों का स्पष्टीकरण दे सकता है? असंगघोष अपने संपर्क : आर्य समाज, अनारकली
समय को जिस तरह देख रहे हैं, उसे अपनी कविता का आधार मंदिर मार्ग, नई दिल्ली-110001
बना रहे हैं, वह ऐसी दुनिया का सपना है, जो कभी कबीर और मो. 99716 17509

262 n जुलाई से सितंबर 2023 yegh


n महत्तम : वशिष्ठ अनूप

तुलसी के, जायसी के, रसखान के वारिस हैं


बलभद्र

वशिष्ठ अनूप हिंदी के एक सतत सक्रिय गीत- जो कहा है उसका ज़िक्र ऊपर हो चुका है। सचमुच
ग़ज़लकार हैं। वे एक ऐसे रचनाकार हैं जो गीत- ये दोनों हमारे समय के महत्वपूर्ण ग़ज़लकार हैं। दोनों
ग़ज़ल की रवायत से अच्छी तरह वाकिफ हैं। उर्दू- ग़ज़लकार के साथ-साथ गीतकार भी हैं और यह भी
हिंदी ग़ज़ल की आपसदारी और उनके तकनीकी उल्लेखनीय है कि हिंदी के साथ-साथ भोजपुरी में
मामलों के भी जानकार हैं। कहने का तात्पर्य यह दोनों ने गीत भी लिखे हैं। ऐसा महसूस हो रहा है कि
कि उनके गीतों और ग़ज़लों में उनका यह ज्ञान बहुत इन दोनों की हिंदी ग़ज़लें भाषा के स्तर पर भोजपुरी
काम आया है। गीत और ग़ज़ल को लेकर आजकल से बहुत लेन-देन रखती हैं और केवल भाषा के स्तर
यह सवाल प्रमुखता से उठने लगा है कि हिंदी गीत-ग़ज़ल को पर ही नहीं,लोकजीवन और लोकसंस्कृति से सघन-सजीव संवाद
क्यों सम्पूर्ण हिंदी-काव्य परिदृश्य से अलग-थलग समझा जाए। कायम करते हुए संभव होती हैं। हिंदी-ग़ज़ल के पाठ और समझ
क्यों न इनको हिंदी के काव्य-रूप के रूप में लिया जाए? इसको का जो एक अब तक का मिज़ाज है, वो इस 'देसीपन' को ढंग से
लेकर ख़ुद गीत-ग़ज़लकारों के साथ-साथ इन विधाओं पर सोचने- स्वीकार नहीं कर पा रहा है। वशिष्ठ अनूप हिंदी ग़ज़ल के बारे
विचारने और बतौर आलोचक काम करने वाले रचनाकारों का में कहते भी हैं– “निष्कलुष प्यार की भीनी-भीनी महक़,ताजगी
गंभीर रचनात्मक हस्तक्षेप देखने को मिल रहा है। रामकुमार जैसे बच्चों की निश्छल हँसी/ इसमें शामिल है माटी का कुछ
कृषक की पत्रिका 'अलाव' का हाल-फिलहाल प्रकाशित ग़ज़ल सोंधापन, खूँ-पसीने से हमने सँवारी ग़ज़ल।” वे हिंदी ग़ज़ल की
की आलोचना पर केंद्रित अंक इस लिहाज से काफ़ी महत्व का वैचारिकी और संवेदना को हिंदी कविता की वैचारिकी और संवेदना
है। इस अंक में पंकज गौतम का एक बढ़िया आलेख है जिसका से जोड़कर देखते हैं– “प्यार मीरा घनानंद रसखान का,पीर इसमें
शीर्षक है 'आलोचना की समस्याएँ और कुछ ग़ज़लकार'। इस कबीरा निराला की है।” साथ ही, हिंदी-ग़ज़ल की उत्तरोतर समृद्ध
आलेख में कुछ प्रमुख ग़ज़लकारों की ग़ज़लों की विषय-वस्तुओं होती स्थिति की ओर भी संकेत करते हैं– “आज है अपनी कुटिया
के साथ-साथ अन्य कई महत्वपूर्ण पहलुओं पर बातें हुई हैं। इसमें की रानी बनी..।” ध्यान देने की बात है कि यहाँ 'कुटिया की रानी'
शिवकुमार पराग और वशिष्ठ अनूप की ग़ज़लों पर भी बातें हुई हैं। कहा गया है। यहाँ हिंदी-ग़ज़ल की विषयवस्तु के साथ ही उसकी
शिवकुमार पराग के बारे में लिखते हैं– “शिवकुमार पराग संभवतः वर्तमान स्थिति की ओर संकते है। उपर्युक्त पंक्ति के आधे के बाद
अकेले ग़ज़लकार हैं,जो हिंदी-उर्दू की भाषिक संरचना और रवायत है– “कल भिखारिन-सी थी दसदुआरी ग़ज़ल।” यहाँ मेरा ध्यान
के झंझट में नहीं पड़ते। अपने कथ्य के अनुरूप शिल्प-निर्माण की 'दसदुआरी' पर गए बिना नहीं रहा। रेणु की एक प्रसिद्ध कहानी है
उनमें आत्मविश्वास भरी सलाहियत है।” पराग के बाद वे वशिष्ठ 'रसप्रिया'। उसमें इस 'दसदुआरी' का प्रयोग हुआ है 'मिरदंगिया'
अनूप के बारे में लिखते हैं– “परंपरा की गहरी समझ और उसे जैसे एक लोक कलाकार के लिए जिसकी हालत भिखारी जैसी हो
आत्मसात कर ग़ज़ल के रचना-संसार में प्रवेश करने वालों में गई है। एक लोक कलाकार की हालत कई वज़हों से दसदुआरी
वशिष्ठ अनूप का नाम महत्वपूर्ण है,पर पराग जैसी विडंबना के वे जैसी हो जाती है। विषयवस्तु और भाषा-शिल्प के मामले में जो
भी प्रायः शिकार हैं।” पंकज गौतम ने शिवकुमार पराग के संबंध में वैविध्य दिख रहा है, वो ग़ज़ल की उत्तरोत्तर समृद्धि का सूचक है।
लिखा है कि उनको जिस तरह पढ़ा-समझा जाना चाहिए, वह नहीं साहित्य की एक विधा लोकजीवन और लोकसंवेदना से जुड़कर
हो रहा है और वशिष्ठ अनूप के संबंध में पराग का ज़िक्र करते हुए कई चुनौतियों के बावज़ूद सम्पन्नता की ओर अग्रसर है। वशिष्ठ

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अनूप की ग़ज़लों में लोक और उसका जीवन अपने विविध तुक- को समझते-समझाते अपने अंदाज में उसे एक काव्य-विधा के
तालों में सृजित है। लोक के रागात्मक और द्वंद्वात्मक अन्तर्संबंधों रूप में न केवल स्वीकृति देते हैं, बल्कि इसकी घोषणा भी कर
की ऐसी उपस्थिति है कि उसको हिगराकर समझना कठिन है। ऐसा देते हैं। जिसको लेकर बहस जारी है, उस ग़ज़लाधारित बहस
उचित भी नहीं है। का एक समाधान ग़ज़ल में ही पेश करते हैं– “कैसे जीवन से
वशिष्ठ अनूप की ग़ज़लों में आम आदमी के जीवन-संघर्षों कविता जुड़ेगी पुनः/ प्रश्न का एक सीधा-सा हल है ग़ज़ल।”
की विश्वसनीय अभिव्यक्ति है। हर कोई हर रोज अपनी जिंदगी कविता जीवन से तभी जुड़ेगी जब उसमें जीवन की सहज- सटीक
में होता है, होना चाहता है। जिसकी जैसी स्थिति होती है, उस उपस्थिति होगी और वह लयात्मक होगी,सांगीतिक और ग़ज़ल इस
हिसाब से वो अपना तौर-तरीका तय करता है, उसे जीता भी है। लिहाज से एक समर्थ काव्यरूप है। वे तो सुंदर जगत के सृजन
इस तय करने और जीने में वर्गीय स्थितियों की अहम भूमिका होती के लिए शब्द-संसार मे ग़ज़ल को एक पहल मानते हैं। वरिष्ठ
है। ग़रीब- गुरबों को अपने लिए जो तय करना होता है, वो बहुत आलोचक मैनेजर पांडेय ने 'अलाव' के ग़ज़ल केंद्रित विशेषांक में
कुछ अपने वश में न होकर किसी और के वश में होता है। वो सब मो.जाहिदुल दीवान के एक प्रश्न के उत्तर में इस बात का ज़िक्र भी
कुछ एक आदमी की तरह चाहता है, सुख-सुविधा, मान-सम्मान, किया है– “देखिए,कविता वह होती है,जो सुर में पढ़नेवालों की
हँसी-खुशी के अवसर–सब कुछ। पर, यह सब उसके लिए संभव स्मृति में बसी रहे। इसे कविता को नया जीवन मिलता है। इसी
नहीं हो पाता है। हमेशा उसके साथ छल हुआ है। बहुत पीछे न भी प्रक्रिया में आज भी तुलसीदास, कबीरदास की कविता जनता की
जाया जाए तो आज़ादी के बाद से लेकर आज तक के इस कड़वे कविता बनी हुई है। वह कविता (मतलब कबीर और तुलसी की
सच को कोई नकार नहीं सकता है। साहित्य की किसी भी विधा में कविता) जनता को संकट के समय, समस्या के समय याद आती
इस वास्तव की उपेक्षा नहीं हुई है। हिंदी-ग़ज़ल ने भी इस वास्तव है और काम आती है। यह जो स्मृति में बसने और बसी रहने की
का अनदेखा नहीं किया है। बल्कि, उससे टकराते हुए ही उसने क्षमता कविता में होती है, वह प्रायः छंद से ही आती है। हिंदी की
अपनी अग्रगति हासिल की है। इस दिशा में उसे बहुत कुछ ख़ुद जो समकालीन कविता है,वह पाठकों की स्मृति में तो नहीं ही
को भी बदलना पड़ा है। नई-नई चुनौतियों के बरक्श अपने को भी रहती; अधिकांश कवियों की अपनी स्मृति में भी नहीं रहती।...
कई तरह से माँजना पड़ा है। कई वरिष्ठ ग़ज़लकारों के साथ-साथ लेकिन, ग़ज़लों में छंद के कारण यह संभावना है कि वह श्रोता
वशिष्ठ अनूप की ग़ज़लों में भी यह सब देखने को मिलता है। और पाठक की स्मृति में रहे और स्वयं कवि की भी स्मृति में हो तो
इनकी ग़ज़लों में जूझता हुआ इंसान दिखाई देता है। सोचता हुआ। सीधे संवाद की तरह श्रोता तक पहुँच सकती है।” मैनेजर पांडेय
सोचना जूझ की बुनियादी प्रक्रिया है। जूझते इंसान की तरह ग़ज़ल के साथ-साथ वरिष्ठ कवि नरेश सक्सेना को भी ऐसा कहते हुए
भी जूझती हुई दिखती है। लोक से संवाद कायम करती उस पर कई बार सुना है। किसी आलोचक, किसी कवि अथवा किसी
रीझती हुई भी और उसको उसके वस्तुगत संदर्भोंं में समझती हुई विद्वान की बात उद्धृत न भी की जाए तो भी यह बात आसानी से
भी। यहीं से वो अपने कथ्य की विश्वसनीयता अर्जित करती है। देखी-समझी जा सकती है कि तुलसी, सूर, कबीर, मीरा, रहीम
एक शेर है– “आंखें टिकी हैं जब भी दहक़ते सवाल पर/थप्पड़ लगे की कविताओं की पंक्तियों को लोग बात-बात में सुना देते हैं। उसी
हैं तेज विचारों के गाल पर।” तरह से ग़ालिब, अकबर इलाहाबादी के साथ-साथ और कई शायरों
कविता को हिंदी के कई कवियों ने अपने ढंग से कविता के की पंक्तियों को भी। इधर के कवियों में सबसे अधिक गोरख पांडेय
शिल्प में परिभाषित किया है। वशिष्ठ अनूप ग़ज़ल को ग़ज़ल में लोकप्रिय हुए। मतलब की लय-छंद के साथ-साथ कविता कहिए
परिभाषित करते दिखते हैं। लिखते हैं– “कहते हैं ग़ज़ल जिसको या ग़ज़ल उसमें जीवन की उपस्थिति अनिवार्य है,साथ ही साथ
शबनम भी है शोला भी/ आक्रोश है धनिया का, होरी का पसीना मनुष्यता के पक्ष होना भी एक अनिवार्य शर्त है। वशिष्ठ अनूप जब
है।” साहित्य की अन्य विधाओं की तरह ग़ज़ल का भी अपना ग़ज़ल को सुंदर सृष्टि के लिए एक 'पहल' मानते हैं और कविता
समकाल होता है। बदलते जीवन-यथार्थ से उसका आत्मीय और को जन-जीवन से जुड़ने-जोड़ने की बात ग़ज़ल के शिल्प में कहते
आलोचनात्मक रिश्ता होता है। ऐसा किसी एक या खास दौर में हैं तो हमें निश्चित रूप से जानना होगा कि वे किसी हड़बड़ी या
नहीं होता। मीर,ग़ालिब, नज़ीर की रचनाओं में भी उनके दौर का किसी आग्रह के दबाव में नहीं कहते।
बहुस्तरीय यथार्थ अभिव्यक्त हुआ है और आज की ग़ज़लों में आज वे ग़ज़ल को खेत, किसान, माँ, पिता, घर-आँगन, हाट-बाज़ार,
का। वशिष्ठ अनूप लिखते हैं– “कौन कहता है कि आकाश-फल प्रेम, बिछोह के साथ-साथ ग़रीबों के दुःख-दर्द, उनके शोषण-
है ग़ज़ल/ वक्त के रूबरू आजकल है ग़ज़ल।” वे तो ग़ज़ल उत्पीड़न तक ले जाते हैं। सत्ता के अमानवीय कृत्यों को उजागर

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करते हुए जन-प्रतिरोध की तसवीरों को भी सहेजते हैं,उनको स्वर तो एक शृंखला दिखाई देती है। माँ के हाथों का खाना अच्छा
देते हैं। आदिवासी समूहों की तरफ भी उनकी दृष्टि है। जल- लगना किसको अच्छा नहीं लगेगा। अपने बच्चों से किसी पिता
जंगल-ज़मीन की वाज़िब लड़ाई तक उनकी ग़ज़ल-यात्रा है। अथवा गुरु की मनुष्योचित 'हार' को लहक़कर लयबद्ध करना
आवारा वित्तीय पूँजी के प्रसार और उसकी चहुदिश ं घातक पहुँच कोई वशिष्ठ अनूप से सीखे। दरअसल यह हार सुकूनदायी है।
और प्रभावों की तरफ भी उनकी दृष्टि है। हमारे आर्थिक, सामाजिक मुझे यहाँ भोजपुरी के कवि रामजियावन दास 'बावला' सहज ही
और सांस्कृतिक ताने -बाने के साथ-साथ अर्जित लोकतांत्रिक- याद आते हैं। हालाँकि, उनका थोड़ा भिन्न काव्य-संदर्भ है। उनकी
संवैधानिक मूल्य और हमारे लक्ष्य, हमारी अपेक्षाएँ सब डाँवाडोल एक कविता 'नमन बा' सीरीज में है जिसमें कही व्यंग्य है तो कई
हैं। किसानों और मजदूरों की हालत बद से बदतर है। उनकी मानवीय करुणा और सहानुभूति। बावला ने 'डोली वाले पिछले
ज़मीन उनसे छीनकर कारपोरेट-घरानों को दी जा रही है। रोजी- कहार' को भी नमन किया है। वशिष्ठ जी की ग़ज़ल में दिल से
रोजगार के अवसर समाप्त किए जा रहे हैं। विकास की उल्टी गंगा उठती धिक्कार भी सुनी गई है। गलत शर्तों पर झुककर समझौता
बहाई जा रही है– “यह रथ प्रगति का जा रहा किस ओर है मियाँ/ करने पर उठने वाली यह 'आत्म-धिक्कार' कम ही सुनाई देती है।
अंधियारा सारे देश में घनघोर है मियाँ।” काशी को क्योटो बनाने यह आत्म-आलोचना है। और यहीं पर चट से कह देते हैं– “जुल्म
के नाम पर काशी की मूल आत्मा को ही क्षत-विक्षत किया जा रहा से जब भी लड़ी तो जिंदगी अच्छी लगी।” ग़ज़लों में नरम-नाजुक
है। 2014 से भारतीय राजनीति में काशी और गंगा को काफ़ी चर्चा रोमांटिक मन-मिज़ाज को भी जस्टिफाई किया गया है– “कुछ
में ला दिया गया है। सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के लिए ऐसा किया जा सकुचाना कुछ घबराना अच्छा लगता है/तेरा हँसना फिर शरमाना
रहा है। जनता की समस्याओं की तरफ नहीं,धार्मिक प्रतीकों के अच्छा लगता है।”
राजनीतिक इस्तेमाल और सत्ता की तरफ ज्यादा ध्यान है। काशी बाज़ारवाद, काॅर्पोरेट लूट, राजनीति का भगवाकरण, मानवीय
के गंगा घाटों पर हो रहे राजनीतिक रोशनीकरण भी ग़ज़ल का व लोकतांत्रिक मूल्य-मान्यताओं के तीव्र क्षरण, बढ़ते अपराध,
विषय है– “कितने घरों में अब भी पहुँचा नहीं उजाला/ घाटों को दलित व महिला उत्पीड़न, कृषि क्षेत्र से किसानों का पलायन यह
रोशनी से नहला रहे हो कबसे।” 2014 के बाद की राजनीति के सब तो यहाँ है ही, इसके साथ-साथ प्राकृतिक संपदा की लूट की
अमानवीय,लोकतंत्र और संविधान विरोधी कारपोरेटपरस्त फासिस्ट खुली छूट भी है और इन सबके विरोध में उठ रहे जन-प्रतिरोध
चरित्र और उसकी कारगुजारियों को लेकर वशिष्ठ अनूप ने काफ़ी के स्वर भी हैं। अनूप जी प्रतिरोध के असंगठित और संगठित रूपों
कुछ लिखा है– “अभी आगाज है,कल क्या करेगा/नजरवालों को और स्वरों की तरफदारी करते हैं। यह अलग बात है फिर भी बहुत
अंधा करेगा। कमाई भी है,इज्जत भी बहुत है/कसाई धर्म का धंधा मतलब की है कि प्रतिरोध को संगठित करने की कोई टेकनीक यहाँ
करेगा। अभी पुरखों की थाती बेचता है/किसी दिन मुल्क का सौदा नहीं है। वज़ह स्पष्ट है कि वे उस मोर्चे के अनुभव के रचनाकार
करेगा। निशाने पर अहिंसा आ रही फिर/ये हिटलर गोडसे पैदा नहीं हैं। पर, प्रतिरोधकामी अवश्य हैं। यहाँ देखना यह होगा कि
करेगा। किसे है याद पहले क्या किया था/ये हर दिन एक नया किस ज़मीन पर खड़ा होकर प्रतिरोध को पहचान देते हैं। ग़ज़लों में
वादा करेगा।” तो कई बार 'प्रतिरोध' शब्द की आवृत्ति-पुनरावृत्ति भी हुई है। मुझे
हमारी पीढ़ी को बचपन में जो बताया- समझाया गया था और बार -बार महसूस हो रहा है कि यह सब वे घर-परिवार और रिश्ते-
जिसकी प्रतिध्वनियाँ आज भी कहीं न कहीं, किसी न किसी मोड़ नातों को नकारकर नहीं करते हैं। पारवारिक जीवन के चित्र ग़ज़लों
पर हममें गूँजती रहती हैं वो है 'सादा जीवन उच्च विचार। ' अब में देखते ही बनते हैं। खटोले पर भतीजे का मचलना देखना हो तो
उसका बिलकुल उलट पाठ पढ़ाया जा रहा है। सादगी को आउट इन ग़ज़लों से गुज़रना होगा। इसे कुछ ग़ज़ल या साहित्य-चिंतक
ऑफ डेट करार दिया गया है और विचारों की उच्चता की जगह नास्टेल्जिक कह सकते हैं। और ऐसा पहली बार तो नहीं कहा गया
तिकड़म, झूठ, ठगी आदि ने ले ली है– “इन दिनों सदियों सराही है। खटोला और भतीजा हो सकता है कुछ को पसंद न आए।
सादगी ख़तरे में है।” अब तो हालात इस किस्म के हो चले हैं कि अपनी रचनाओं में प्रेम-मुहब्बत,मान-मनुहार, गाँव-समाज,
हमारी लोकसांस्कृतिक विरासतों के साथ-साथ नदी, पेड़, पहाड़ पेड़-पौधों, फूलों, सूरज, चाँद, पशु-पक्षियों, तितलियों, भाभियों,
और 'प्यार में डूबी निश्छल हँसी', हुनर, भोलापन और आदमीयत दुल्हनों, बच्चों-बच्चियों, स्कूली बस्तों से दबे हुए बच्चों, बच्चे को
सब साँसत में हैं। इन बातों को उनकी ग़ज़लें कई बार कहती पहली बार उड़ना सिखाती चिड़ियों, बेरोजगारी और जगहँसाई
हैं। जो ज़रूरी है कहना उसको अनूप कहे बग़ैर नहीं रहते। जो का दंश झेलते लाखों नौजवानों, अपमानित महिलाओं, नदियों,
अच्छा लगता है उसको कहते सुनना भी अच्छा लगता है। इसकी गिलहरियों, ऊँटों, गधों, खच्चरों, लोकगीतों और लोककथाओं की

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वशिष्ठ अनूप की कई ग़ज़लें ऐसी हैं जो एक ही विषय को
लेकर चलती हैं और आरम्भ से अंत तक परस्पर सम्बद्ध दिखती हैं।
वशिष्ठ अनूप संघर्ष की राह चुनने की वज़हों
को गीत का विषय बनाते हैं। ये वज़हें बहुत बहुत सी ग़ज़लें अलग-अलग शेरों में भिन्न-भिन्न बातों को लेकर
वाज़िब हैं। किसी भी देश और किसी भी भाषा हैं पर अपने पूरे रचाव में वे किसी एक ही मूल बात या चिंता और
के कविता-गीत में उस देश और उस भाषा चिंतन को सम्बोधित हैं। बहुत-सी ऐसी भी हैं जो हिंदी-दोहा की
से संबंधित जनता के जीवन की, समाज की तरह अपने आप में ही पूर्ण और स्वतंत्र हैं। कई बार तो ग़ज़लों में
बातें ही होती हैं। समाज में व्याप्त असमानता, लोकगीतों की गूँज भी सुनी जा सकती है। इसका एक कारण यह
ग़रीबी और शोषण-उत्पीड़न और उससे है कि वे गीत भी रचते हैं।
उत्पन्न हालातों और हासिल अनुभवों को भी,
अन्य अनुभवों की तरह गीत बहुत सघन और (2)
प्रभावी रूप में अभिव्यक्त करता है। ख्वाब पर खौफ़ की चौकसी ना रहे...
मुझे तो गीत और ग़ज़ल को लेकर विधागत उलझन कभी नहीं
भूमि उनकी ग़ज़लों और गीतों की आधार भूमि है और उनको यक़ीन रही। यह एक वास्तविकता भी है कि दोनों को गाने और सुनने से
है कि यहीं से सत्ता-व्यवस्था को चुनौती दी जा सकती है। इन सबों मतलब होता है। ग़ज़ल के लिए गाने की जगह 'कहना' कहा जाता
के लिए ही संघर्ष ज़रूरी है– “चलो कि दूब, घास,तितलियाँ बचा है। लेकिन,यह कहना जिस तरह होता है वह गाना ही है। जिसे
लें हम/शज़र बचेंगे तभी गुलसिताँ सुरक्षित है। चलो कि ऊँट, हम आम जनता या आम रसिक या श्रोता कहते हैं उसका संबंध
गधे,खच्चरों की भी सोचें/ये सब रहेंगे तभी कारवाँ सुरक्षित है।” उस बात से ज्यादा होता है, जो गीत या ग़ज़ल में कही जाती है।
आज की हालत ऐसी हो चली है कि आदमी की पहचान ही वह भक्ति हो, प्रेम हो या प्रतिरोध या कुछ भी। उसमें विरह हो या
संकटग्रस्त हो चली है। आलीशान घर नहीं,महल और लग्जरियस संयोग या विस्थापन की पीड़ा। उसको तो इससे लेना-देना होता है।
जीवन-शैली ही व्यक्ति के बड़े होने की पहचान बनती जा रही अब रही बात उसके रचना-विधान या शिल्प की, तो ध्यातव्य है कि
है। मनुष्य छोटा होता जा रहा है– “हजारों महल बनवा लो बहुत रचना का शिल्प रचना में न दिखे अलग से, यह सबसे अच्छी बात
सी गाड़ियाँ ले लो/अगर किरदार बौना है तो ख़ुद्दारी नहीं आती।” होती है। लोकगीतों में ऐसा ज्यादातर सहज ही देखने को मिलता
'सदियों सराही सादगी' का यह एकदम उल्टा पाठ है। मुझे यहाँ है। अवधी का वह 'हिरनी' वाला गीत एक श्रेष्ठ उदाहरण है। हिंदी
थोड़ी-सी आपत्ति 'बौना' को लेकर है। शेर में जो बात है वो तो और भोजपुरी में भी ऐसे अनेक गीत हैं। नवगीत के बाद हिंदी में
बहुत रेलेवेंट है पर, बौने जो इक्के-दुक्के हैं कहीं, उनके लिए कम 'जनगीत' का दौर शुरू होता है। शलभ श्रीराम सिंह, गोरख पांडेय,
से कम ऐसे प्रयोगों से बचना मनुष्यता के हक़ में होगा। विजेन्द्र अनिल, केशव रत्नम, बली सिंह चीमा, जमुई खां आजाद,
त्रिलोचन जी की एक कविता में तुलसी, कबीर और ग़ालिब आते नचिकेता, शिवकुमार पराग जैसे अनेक जनगीतकार हुए जिनके
हैं और ये उनके अपने हैं। ऐसा त्रिलोचन जी ने लिखा है। तुलसी गीतों में आम जनता के जीवन के सुख-दुख, आशा-निराशा और
से वे भाषा सीखते हैं और ग़ालिब की बोली उनकी (त्रिलोचन की) उनके संघर्षों की विश्वसनीय अभिव्यक्तियाँ हैं। यह सूची लम्बी है।
अपनी बोली है। विजेन्द्र अनिल एक भोजपुरी ग़ज़ल में लिखते उल्लेखनीय है कि वशिष्ठ अनूप के गीत भी इसी भाव-भूमि के हैं।
हैं– “हम कबीर के बानी हमरा पानी कहाँ मिली।” वशिष्ठ अनूप हिंदी की जनगीत-धारा को उनके गीत समृद्ध करते हैं।
लिखते हैं– “तुलसी के, जायसी के,रसखान के वारिस हैं। कविता वशिष्ठ अनूप संघर्ष की राह चुनने की वज़हों को गीत का
में हम कबीर के ऐलान के वारिस हैं।” एक शेर में मीरा, घनानंद विषय बनाते हैं। ये वज़हें बहुत वाज़िब हैं। किसी भी देश और
और निराला का नाम लेते हैं। यह हिंदी-साहित्य की ऐतिहासिक किसी भी भाषा के कविता-गीत में उस देश और उस भाषा से
सृजनशीलता और उसकी परंपरा की स्वीकृति के साथ-साथ उससे संबंधित जनता के जीवन की, समाज की बातें ही होती हैं। समाज
आत्म-संबद्धता की अभिव्यक्ति है। पर, यहाँ यह कहना भी ज़रूरी में व्याप्त असमानता, ग़रीबी और शोषण-उत्पीड़न और उससे
है कि वशिष्ठ जी यहाँ गालिब,मीर,नज़ीर का ज़िक्र नहीं कर रहे उत्पन्न हालातों और हासिल अनुभवों को भी, अन्य अनुभवों की
हैं। करते तो बात कुछ और ही हुई रहती। यहाँ यह भी समझना तरह गीत बहुत सघन और प्रभावी रूप में अभिव्यक्त करता है।
होगा कि यह हिंदी ग़ज़ल को हिंदी-काव्यधारा के अंतर्गत उसकी वशिष्ठ अनूप के एक गीत में संघर्ष की राह चुनने की वज़हों
प्रवहमानता में एक काव्य-रूप की स्वीकृति से भी संदर्भित है। की एक लिस्ट है और वे वज़हें इस किस्म की हैं कि कोई जो

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लोकतांत्रिक मिज़ाज का होगा वो असहमत भला कैसे होगा। वे
उस गीत में संघर्ष की राह चुनने की अपील की मुद्रा में हैं। इस
अपील के साथ जिन वज़हों का उल्लेख करते हैं वे जीवनसंगत
हैं,न्यायसंगत हैं। वे 'ख्वाब पर खौफ़ की चौकसी ना रहे' जैसी बात
सामने ले आते हैं। यह पंक्ति जिस गीत की है उसको गुनगुनाते
वक्त गोरख पांडेय का गीत 'हमारे वतन की नई जिंदगी हो' गूँजने
लगता है। इस गीत में वे किसानों, मजदूरों, नौजवानों, बच्चों,
महिलाओं सबकी आज़ादी की बात करते हैं। ग़ज़ल रचने के क्रम
में वे 'अच्छा लगता है'/ 'अच्छी लगती है' वाली ग़ज़ल-शृंखला
पेश करते हैं। गीत में भी वे 'तो अच्छा होता' लिखते हैं। यहाँ हम
देखें कि क्या अच्छा होता– “प्यार-मोहब्बत,अमन-चैन की/ फिर देश के बच्चों को भूख़ा-प्यासा सोना पड़े (सोना क्या, भात-भात
टूटी आशा/ तानाशाह समझता है/ बन्दूकों की भाषा। / बातचीत करते मरना पड़े), किसान ग़रीब-लाचार हों, अदालतें धनवानों
से राह निकलती/ तो अच्छा होता।” यह गीत (बन्दूकों की भाषा) की सुनती हों,बुनकर भूख़े-नंगे रहने को विवश हों, बच्चियों और
आगरा में भारत के तत्कालीन पी.एम. अटल बिहारी वाजपेयी और औरतों के ऊपर जुल्म ढाये जाते हों; उस देश का माथा कैसे ऊँचा
पाकिस्तान के परवेज मुशर्रफ की वार्ता असफल होने के बाद हो सकता है। देश के भीतर की इन समस्याओं को गीतों में ढालते
का है। आगे की पंक्तियाँ हैं– “अविश्वास की बर्फ पिघलती/ तो हैं और एक तरह से आज की तारीख़़ में यह काम जोख़िम भरा
अच्छा होता/ फिर न कहीं बस्तियाँ उजड़तीं/ तो अच्छा होता/ है। वे एक कजरी भी लिखते हैं। पारम्परिक कजरी सावन में गाई
फिर न कहीं सेनाएँ सजतीं/ तो अच्छा होता।” इस गीत में युद्ध जाती है। पर,यह एक राजनीतिक कजरी है। इसे जनकजरी भी कहें
के मानव-द्रोही परिणामों का भी वर्णन है। समकालीन हिंदी-गीत तो कोई हर्ज नहीं। इसमें भी देश की जनता की बदहाली को स्वर
का यह युद्ध-विरोधी पक्ष है। एक गीत में एक बार फिर लड़ने का दिया गया है– “सारी जिंदगी हमारी तार-तार हुई/रद्दी अख़बार हुई
संकल्प गूँजता है। एक बार फिर उसी तरह से जैसे 'लड़े थे पहले ना। /कैसा आया है सुराज/नहीं मिलता काम-काज/सब पढ़ाई और
फिरंगियों से'। एक तरफ गीतकार हक़-अधिकारों के वास्ते संघर्ष लिखाई है बेकार हुई/रद्दी अख़बार हुई ना।” आगे देखिए- “जब भी
की राह अपनाने का हिमायती है और दूसरी तरफ दो देशों के बीच उठती हक़ की बोली/ हम पे चलती लाठी-गोली/ हम ग़रीबों की
के युद्धों का समाधान बातचीत से करने का। हम समझ सकते हैं है बैरी सरकार हुई।” इस कजरी में भी हक़ के खातिर लड़ने का
कि दोनों दो भिन्न संदर्भ हैं। आजाद देश की जनता की खुशहाली संकल्प है। वे महँगाई पर 2016 में एक गीत लिखते हैं- 'अजब
अगर शासकवर्गीय बदनीयती और कुचक्रों की शिकार हो जाए तो महँगाई बढ़ी है'।
जनता को एकजुट हो आगे आना ज़रूरी हो जाता है। दूसरी ओर, कुछ गीत तो कई अन्य मानवीय भावों और मूल्यों वाले हैं। प्यार-
कभी-कभी क्या,अक्सर ऐसा देखा गया है कि दो देशों के बीच युद्ध मनुहार भरी गुफ़्तगू भी कम नहीं है। अपने प्रियजनों से कुछ निवेदन
अथवा युद्ध के हालात सरकारों के राजनीतिक कुचक्र ही होते हैं। भी। किसी के लिए पुकार भी है। फूलों पर इतराती शोख तितलियों
आम जनता के जीवन के बुनियादी सवालों के समाधान में या इस और फुदक-फुदक गाती रहने वाली चिड़ियों के गायब होते जाने
जैसे अन्य मामलों में अपनी असफलताओं पर जनता के प्रश्नों को की व्यथा भी है। बहुत सारी स्मृतियाँ भी गीतों में ढली हैं। यहाँ सब
दूसरी तरफ शिफ्ट करने में सरकारें इन युद्धों के जरिए कामयाब पर बात करना संभव नहीं है। हाँ, यह कहना ज़रूरी है कि वशिष्ठ
होती रही हैं। इसलिए भी, ये युद्ध आमजन और आमजीवन के हित अनूप के गीत व्यापक मानवीय भावों और सरोकारों के हैं। वरिष्ठ
मे नहीं होते। गीत-ग़ज़लकार और इन विधाओं के मर्मज्ञ नचिकेता के संपादन में
इन दिनों अगर कोई देश के आम अावाम की बदहाल माली प्रकाशित गीतकोश में वशिष्ठ जी के भी कुछ गीत हैं। इस कोश में
हालत पर बात करता है तो बड़ा ख़तरा है उसके ऊपर। केंद्र और नचिकेता की एक वृहद गम्भीर भूमिका है। हिंदी के गीत, नवगीत,
राज्यों की सरकारें और सरकार समर्थक कई संगठन, समुदाय जनगीत के ऐतिहासिक विकास-क्रम, पृष्ठभूमि और आलोचनात्मक
और समर्थक (भीड़) बहुत कुछ इल्जाम मढ़ दे रहे हैं। इसको मानदंडों को समझने के लिए यह एक ज़रूरी ग्रंथ है। n
देश-निंदा करार दे राष्ट्रद्रोही तक कह दे रहे हैं। अनूप जी का संपर्क : िगरीडीह (झारखंड)
एक गीत है– “उस देश का माथा कैसे ऊँचा हो सकता”। जिस मो. 9801326311

yegh जुलाई से सितंबर 2023 n 267


n महत्तम : केशव तिवारी

लोक का द्वंद्व
अविनाश मिश्र
केशव तिवारी के कविता-लोक पर आलोचनात्मक कभी मुसव्विर, कभी मुजाहिद, कभी शहीद होने की
होने की प्रक्रिया में यह सत्य सहज ही प्रकट होता है सदिच्छा और तड़प नज़र आती है। इस भूमिका में वह
कि वह लोक-द्वंद्वात्मकता के कवि हैं। हिंदी साहित्य उन आधुनिक मोड़ों पर मुड़े नहीं हैं जो उन्हें उनके
संसार में लोक का स्थापत्य1 और उसकी उपस्थिति2 पर्यावरण, इतिहास, राग, उजाड़ और वैफल्य से दूर
आधुनिकता के प्रवेश के बाद से ही विमर्श का अंग ले जा सकते थे। कवि ने इस सब कुछ की स्मृतियों
रही है। केशव तिवारी की कविताओं को इस लोक- के साथ नहीं, इस सब कुछ के साथ रहना चुना है—
विमर्श के साथ ही पढ़ा गया है; जबकि वह अपने कविता और जीवन दोनों में ही। कविता यहाँ जीवन
कविता-लोक में जिस लोक को अभिव्यक्त करते हैं, वह बहुधा से पहले इसलिए है, क्योंकि उसे जीवन में सब कुछ से पहले रखा
लोक के उन स्थापित आशयों के पार चला जाता है जिनकी तरफ़ गया है। इस प्रकार कवि-व्यक्तित्व निर्मित होता है और जीवन में
पाद टिप्पणियों में नंदकिशोर आचार्य और जीवन सिंह के कथ्य आता हुआ सब कुछ, कविता के लिए ही आता हुआ नज़र आता है :
संकेत करते हैं। ख़ाली जेब उससे मिलते और
केशव तिवारी के लोक-नागरिक में कभी सहाफ़ी, कभी तबीब, भरे मन वापस लौट आते।
[बेरोज़गारी में इश्क़]
1 लोक-संस्कृति का अर्थ है मानवीय सर्जनात्मकता की स्थानीय परिवेश
से प्रतिविशिष्ट अभिव्यक्ति। इसलिए लोक को कभी-कभी शास्त्र से फ़र्क़
केशव तिवारी हिंदी के उन चंद कवियों में से एक हैं जो अपने
बात समझ लिया जाता है—जबकि शास्त्र लोक के रचनात्मक अनुभवों काव्य-विषयों के सर्वाधिक निकट हैं। उनके यहाँ पास को दूर
का तत्त्वान्वेषण और सहिंताकरण ही तो है। — नंदकिशोर आचार्य, लोक से देखकर निकल जाने की ‘विशेषता’ का अभाव है। यहाँ कवि
(प्रथम संस्करण : 2002) संपादक : पीयूष दईया अपनी कविता से बाहर अपनी कविता के साक्ष्य की तरह उपस्थित
2 स्वाधीनता-प्राप्ति के बाद हिंदी में एक ऐसा कवि-समूह ‘प्रसिद्धि’ पा गया
था, जो अपनी दृष्टि और संवेदना में आकाशविहारी था। इस समूह ने
है और कविता के भीतर के काव्य-नायक से बहुत मिलता-जुलता
कविता से धरती का संबंध-विच्छेद किया। कविता में आकाश और धरती है। यह साम्य जीवन में लोक की केंचुल उतारकर, कविता में लोक
का यह संघर्ष सतत चलता रहा है। मुक्तिबोध, नागार्जुन, केदारनाथ की खाल ओढ़कर घुसने वाले कवियों की कविताओं में नज़र नहीं
अग्रवाल, त्रिलोचन ने इस संघर्ष में आगे आकर तथा अंतर्वस्तु के साथ आएगा। इस वज़ह से ही ‘तो काहे का मैं’3 कहने वाले कवि को
कविता के रूप-पक्ष को तरजीह देकर हिंदी में धरती की लोक-कविता
लिखने में सफलता अर्जित की है तथा कविता को आकाशविहारी होने 3. किसी बेईमान की आँखों में
से बचाया है। कविता की अगली पीढ़ियों में भी यह संघर्ष साफ़ तौर पर न खटकूँ तो काहे का मैं
दिखाई दे रहा है। इस संघर्ष का एक निष्कर्ष बहुत स्पष्ट है कि केवल
मध्यवर्गीय अनुभव, ज्ञान, संवदेना, बोध और दृष्टि के आधार पर आज मित्रों को गाढ़े में याद न आऊँ
की वह कविता नहीं लिखी जा सकती; जिसमें प्रत्येक मानव-स्थिति को तो काहे का मैं
सृजित किया जा सके। यह संभव है कि मनुष्य की कुरूपता के अनेक कोई मोहब्बत से देखे और मैं उसके
प्रसंग उसे इन अनुभवों में मिलें, कुछ सुंदर प्रसंग भी मिल सकते हैं; सीने में सीधे न उतर जाऊँ
लेकिन श्रम की नींव पर टिके सहज सौदंर्य की तलाश के लिए आज के तो काहे का मैं
कवि को उन खेतों-खलिहानों, मैदानों-पटपरों, गाँवों-ढ़ाणियों, नगरों- अगर यह सब कविता में तुम्हें
महानगरों में बसी मज़दूर-बस्तियों, जंगल में रहने वाले आदिवासियों, सिर्फ़ सुनाने के लिए सुनाऊँ
छोटे-छोटे शिल्पियों, कारीगरों की ऊबड़खाबड़ और असुविधाजनक तो फिर काहे का मैं।
दुनिया में जाना ही पड़ेगा; जिसे किसी अन्य सटीक शब्द के अभाव — केशव तिवारी, तो काहे का मैं (पृष्ठ : 48), साहित्य भंडार, प्रथम
में हम आज भी ‘लोक’ का नाम देते हैं। — जीवन सिंह, कविता और संस्करण : 2014
कवि-कर्म (पृष्ठ : 20), बोधि प्रकाशन, प्रथम संस्करण : 1999

268 n जुलाई से सितंबर 2023 yegh


अपनी कविताओं के भीतर-बाहर पकड़े जाने का भय और पकड़े विचार किया है, वे भी हिंदी साहित्य के कथित केंद्र से दूर बहुत
जाने पर खी-खी करने की सुविधा—दोनों ही—प्राप्त नहीं है। चुपचाप अपना काम करने में विश्वास रखने वाले व्यक्तित्व रहे हैं।
केशव तिवारी की काव्य-यात्रा की शुरुआत जिस कविता-संग्रह केंद्र के विरुद्ध हाशिए की कविता लगभग छायावाद के बाद से ही
के साथ हुई, उसका शीर्षक उनके अब तक के प्रतिनिधि काव्य- आधुनिक हिंदी साहित्य के केंद्र में रही है। इस स्थिति में यहाँ यह
व्यवहार को व्यक्त करने के लिए पर्याप्त है—‘इस मिट्टी से बना’। विडंबना ध्यान देने योग्य है कि कैसे हाशिए भी अपना एक केंद्र
इस शब्द में ‘इस’ शब्द की आभा हिंदी में बहुत कम कवियों को गढ़ते हैं और उसमें एक नए हाशिए का निर्माण करते हैं। केशव की
ही नसीब है, क्योंकि रोज़ बनती दुनिया में अपनी मिट्टी से दूर होकर कविता हिंदी साहित्य और समाज में इसी हाशिए की कविता है :
नए-नए इलाक़ों में बस जाने की सचाई इतनी व्याप्त है कि ‘इस’ कंपनी के काम से छूटते ही
की जगह ‘उस’ का प्रयोग प्रचलन का रूप ले चुका है। इस स्थिति पहाड़गंज के एक होटल से
के कारणों और परिणामों पर विचार लगभग तीस-पैंतीस बरस से दिल्ली के मित्रों को मिलाया फ़ोन
हिंदी आलोचना-समीक्षा का पसंदीदा कार्यभार है। वह इसे कभी यह जानते हुए कि दिल्ली से बोल रहा हूँ
अपने एजेंडे के साथ, तो कभी एजेंडाविहीन ढंग से बरतती रही है; बदल गई आवाज़ें
और यही वज़ह है कि ठीक इस वक़्त केशव के कविता-लोक पर
आलोचनात्मक होते हुए वे सारे आलोचक स्मृत हो उठते हैं जिन्होंने कुछ ने कहला दिया दिल्ली से बाहर हैं
गए तीन दशकों में समय-समय पर उनकी कविता पर अपनी कुछ ने गिनाई दूरी
आलोचना-समीक्षा में विचार किया है। इस विचार में यह बात कुछ ने कल शाम को
बुनियादी है कि केशव आभिजात्य के विरुद्ध लोक के कवि हैं। नई बुलाया चाय पर
पीढ़ी के आलोचक आशीष मिश्र के शब्दों में “केशव तिवारी लोक- यह जानते हुए भी कि
सैलानी कवि न होकर लोकभूमि के रहवासी कवि हैं।”4 इस रहवास शाम को ही ट्रेन से जाना है वापस
तक कवि और कवि तक यह रहवास कैसे गया है, इसे आशीष एक फ़ोन डरते-डरते मिला ही दिया
स्पष्ट करते हैं : “उनकी (केशव तिवारी) लोक-संवेदना का भूगोल विष्णुचंद्र शर्मा को
अवध से लेकर बुंदेलखंड तक फैला हुआ है। केशव की कविताओं तुरंत पूछा कहाँ से रहे हो बोल
से इस पूरे क्षेत्र की नदियों, पठारों, बोलियों व लोक-व्यवहारों का
मानवशास्त्री संसार रचा जा सकता है। उन्होंने जायसी, तुलसी, दिल्ली सुनते ही फट पड़े तुरंत
पढ़ीस, त्रिलोचन, मानबहादुर सिंह, ईसुरी, केदारनाथ अग्रवाल की बोले होटल में नहीं
काव्य-संवेदना को न सिर्फ़ हृदयस्थ किया है, बल्कि इसे अपनी हमारे घर पर होना चाहिए तुम्हें
कविताओं में ससंज्ञ लौटाते हैं। केशव तिवारी अवधी-बुंदेली के पूछते-पूछते पहुँच ही गया सादतपुर
शब्दों, मुहावरों और कहन-भंगिमा का खड़ी बोली से सहज संलयन छः रोटी और सब्ज़ी रखे
करते हैं। साथ ही समकालीन टंकित काव्य-भाषा से अलग इसे ग्यारह बजे रात एक बूढ़ा
वाचिक भाषा की तरफ़ खींचते हुए उसकी लय और तान को इतनी बिलकुल देवदूतों से चेहरेवाला
ख़ूबसूरती से साधते हैं कि कविताएँ एक बार पढ़ी जाकर मन में घुल मिला इंतज़ार में
जाती हैं। इधर लिखी जा रही कविताओं में किसी हिंदी क्षेत्र का ऐसा चार रोटी मेरे लिए दो अपने लिए
ठोस भूगोल विरल हुआ है। ऐसे देखने पर केशव कविता के सपाट अभी-अभी पत्नी के बिछुड़ने के
भू-दृश्य में छविमय पठार लगते हैं।5 दुःख से जो उबर भी न पाया था
इस स्पष्टता के बावज़ूद यह कहते हुए दुःख होता है कि केशव
तिवारी की कविता हिंदी साहित्य में उस तरह से केंद्र में नहीं रही मैं ताक़ता ही रह गया उसका मुँह
है, जिस तरह से उनकी धारा के ही उनके कुछेक हमवक़्तों की और वह भी पढ़ रहा था मुझे
रही है। केशव की कविता पर जिन आलोचकों ने गंभीरतापूर्वक मित्रो, मैं दिल्ली में एक अनुभवी बूढ़े कवि से
मिल रहा था!
4. सीमांत का सौंदर्य और विषाद, आशीष मिश्र, वागर्थ, दिसंबर-2021
5. पूर्वोद्धरित वह दिल्ली में एक और ही दिल्ली को जी रहा था।

yegh जुलाई से सितंबर 2023 n 269


[दिल्ली में एक दिल्ली यह भी] [अन्ना फिरा मैं]
केशव तिवारी की कविताएँ हिंदी-अभिजन के लिए बहुत जानी- यह जो अपने लोक-संवेदन से बाहर किसी अज्ञात की खोज में
पहचानी नहीं हैं। स्वयं उनके काम का दायरा भी बहुत उपलब्ध, नहीं लगना है, यह केशव तिवारी को एक मनुष्य और कवि दोनों
उपस्थित और आसानी से अपने में ले लेने वाला नहीं है। वह ही रूपों में सतत द्वंद्वात्मक बनाए रखता है। इस द्वंद्व में कवि अपने
आगमन, अन्वेषण और संवाद माँगता है। इस अनिवार्यता में अपने ज्ञात का विस्तार और परिष्कार कुछ इस प्रकार करता है कि उसकी
परिवेश से बाहर की सारी आवाज़ाहियाँ कवि को अवसादयुक्त लोक-संवेदना उसके काव्यालोक में एक प्रामाणिक आधार पा
कर देती हैं, क्योंकि वह अपने उस भूगोल में ही बराबर बने रहने सके :
से फ़ुर्सत नहीं चाहता है; जहाँ से वह अपनी कविताओं के विषय, यह पहली बार मेरी ज़बान पर
स्थान और चरित्र चुनता है। यह चुनाव नए जीवन की तीव्रता से आई थी माई के दूध की तरह
बदलती प्राथमिकताओं के साथ सतत द्वंद्व में रहता है। इस परिवर्तन इसके ही इर्द-गिर्द मँडराती है मेरी संवेदना
की गति ऐतिहासिक रूप से इस क़दर तेज़ है और होती जा रही यह वह बोली है जिसमें
है कि कविता में कवि-निर्णय फिसलते हुए नज़र आते हैं। इस सबसे पहले मैंने किसी से कहा
फिसलन से बचने के लिए कवि परिवर्तन को बहुत पास से देखना कि मैं तुझे प्यार करता हूँ
चाहता है, जबकि नए परिवर्तन व्यक्ति को सबसे पहले उसके इसके प्राण बसते हैं
पास से वंचित कर रहे हैं। श्रम का स्वरूप और उसे देखने की बिरहा, कजरी और नकटा में
दृष्टि बदल गई है। राजेश्वर सक्सेना के शब्दों में : “आज के नए आल्हा और चैती में तो
परिदृश्य में जब इस श्रम का भौतिक अर्थ बदल गया है। श्रम के सुनते ही बनता है इसका
साथ मनुष्य का होना या बने रहना उतना ज़रूरी नहीं रह गया है। ओज और ठसक
श्रम, एक मूल्य सृजन भी है, यह सच, अब एकदम ही याँत्रिक-सा जायसी, तुलसी, तिरलोचन की
हो गया है। उत्पादन श्रम का अर्थशास्त्र कल जैसा नहीं रह गया बानी है यह
है और उत्तर संरचनावाद तथा उत्तर आधुनिकतावाद से यह संकते यह उनकी है जिनका
मिल रहे (चुके) हैं कि ज्ञान-मीमांसा टूट चुकी है।”6 सुख-दुःख सना है इसमें
इस दृश्य में केशव तिवारी की संवेदना जिस धरातल पर है; धधक रही है जिनकी छाती
वह बहुत अपरिचय और बनावट बर्दाश्त नहीं कर सकती है। कुम्हार के आवाँ की तरह
उनके यहाँ अतियत्नपूर्वक तानी गई भाषा नहीं मिलेगी। उनकी जिसमें पक रहे हैं
ढूँढ़-तलाश के सिरे अलग हैं। उनके काव्य-विधान में कोई बिंब यहाँ की माटी के कच्चे बर्तन
जबरन लाया हुआ नहीं नज़र आएगा। इस प्रकार उनके कविता- कल के लिए।
लोक से संबंध रचते हुए रचयिता का सामना कुछ इस प्रकार के [अवधी]
एक कवि से होता है जो क्षरण के समस्त लक्षण जानता है : केशव तिवारी अपने बिलकुल हमवक़्त ‘लोकसिद्ध’ कवियों को
ज़िंदगी हाथ में हरा चारा बहुत ध्यान से देखने-पढ़ने वाले व्यक्ति-कवि हैं। वह उनकी
और पीछे रस्सी छुपाए चूकों से अपरिचित नहीं हैं, इसलिए उनकी कविताओं की लोक-
बुलाती ही रह गई विसंगतियों के पार जाना चाहते हैं। वह अपने लोक-संवेदन को
तमाम उम्र इन पठारों में द्वंद्वात्मक रखते हुए एक आगे की राह निकालते हैं तथा लोक के
अन्ना फिरा मैं मूल्यों और भयावहता दोनों से जूझते हुए अपना कविता-लोक
संयोजित करते हैं :
मेरे सपने की अपनी आँखें थीं
एक हत्यारे ने पूछा अवधी में—
और मेरी दूरियों के अपने पैर।
का हाल चाल बा
एक ठग ने पूछा भैया—
6 उत्तर आधुनिक सौंदर्यशास्त्र और द्वंद्ववाद (पृष्ठ : 27), राजेश्वर बहुत दिन मां देख्याना
सक्सेना, श्री प्रकाशन, प्रथम संस्करण : 2000

270 n जुलाई से सितंबर 2023 yegh


एक हारे प्रधान ने की शिकायत— [विचार की बहँगी]
तोहरे घरे कै वोट नाही मिला एक द्वंद्वयुक्त कवि अपने लोक के सारे रंगों से परिचित होता है।
लगा तिरलोचन और मान ही नहीं लाल कितनी तरह से लाल हो सकता है और हरा और पीला और
अवधी में इनका भी कारोबार चलता है। सफ़ेद कितनी तरह के रंग बदल सकते हैं, इसकी समझ उसमें
बहुत साफ़ होती है। इस अर्थ में केशव तिवारी अपने लोक की सारी
[अवधी में] रंगतें और ध्वनियाँ जानते हैं। विलाप कब संगीत में बदल जाता है
केशव तिवारी के कविता-लोक में कुछ बचाने या बचा ले जाने का और संगीत कैसे विलाप में बदलता है, वह इस प्रक्रिया से उसकी
वह फ़र्ज़ी हाहाकार नहीं है, जिसे महानगरों में रहक़र मध्यवित्तीय सारी बारीकियों के साथ परिचित हैं :
ज़िंदगी गुज़ारने वाले कथित लोकनिष्ठ कवियों ने हिंदी कविता में जैसे कोई तेज़ी से सरकती गीली रस्सी को
संभव किया है। यह यूँ ही नहीं है कि उनके कविता-लोक में ऐसी भीगे हाथों से पकड़ने की कोशिश कर रहा है।
लोक-तरकीबें नहीं मिलेंगी जो अंतत: लोक-करतब में परिणत या
कहें पर्यवसित हो जाती हैं। इस कविता-लोक में सम्मोहन और [गवनहार आजी]
वशीकरण सरीखे काव्य-दोष नहीं हैं। केशव लोक-आसक्ति में जाने कहाँ-कहाँ से भटकते-भटकते
नगर-घृणा के कवि नहीं हैं। वह मानव-जीवन में नगर की भूमिका आ जाते हैं ये भरथरी गायक
को रेखांकित करते हैं : कांधे पर अघारी
धीरे-धीरे निकल रहे हैं लोग हाथ में चिकारा थामे
अमृतसर, जालंधर हमारे अच्छे दिनों की तरह ही ये
अपने उजाड़ खेतों को देर तक टिकते नहीं
देखते-बिसूरते पर जितनी देर भी रुकते हैं
झाँक जाते हैं
कितने बड़ोखर बुज़ुर्ग आत्मा की गहराइयों तक
कितने महोखर घुमंतू-फिरंतू ये
एक जालंधर के पेटे में समा जाते हैं जब टेरते हैं चिकारे पर
बचे हैं ये कि रानी पिंगला का दुख
बचा है अमृतसर सब काम छोड़
ये शहर कितने लोगों के दीवारों की ओट से
ज़िंदा रहने का आश्वासन हैं चिपक जाती हैं स्त्रियाँ
और वह चईता का लरजता सुर भी यह वही समय होता है
जो उन्हें यहाँ से बाँधकर रखता है जब आप सुन सकते हैं
समूची सृष्टि का विलाप।
[कितने बड़ोखर बुज़ुर्ग]
केशव तिवारी लोक-विसंगति को लोक-संगीत की तरह बरतने के [भरथरी गायक]
बाहर खड़े होकर दर्ज़ करते हैं : इस प्रकार की कविताएँ और कविता-पंक्तियाँ जिनमें रंगों और
जीवन में कितना कुछ छूट गया स्वरों का विरल विश्लेषण हुआ हो, केशव तिवारी के कविता-लोक
और हम विचार की बहँगी उठाए में भरपूर हैं। उन्हें उद्धृत करने के मोह का—यहाँ उद्धरणातिरेक के
आश्वस्त फिरते रहे भय से—बहुत प्रयत्नपूर्वक निषेध करना पड़ रहा है। बहरहाल, इस
नदी पर कविता लिखी सिलसिले में कवि की ‘जोगी’, ‘ईसुरी’, ‘तीजनबाई’, ‘तानसेन’,
और ज़िंदगी के कितने ‘छुन्नू ख़ाँ’, ‘नोहर होई जाई रे दे’, ‘तुम्हारी आवाज़़’, ‘पुकार’,
जल से लबालब चौहड़े सूख गए ‘लावनी’, ‘ये वहीं पर गा रही हैं’, ‘पूरी रात’, ‘आवाज़ दो’,
‘एक वृद्ध लोक-गायक को सुनकर’ और नदी केंद्रित कविताएँ

yegh जुलाई से सितंबर 2023 n 271


[‘बकुलाही’, ‘चंद्रावल’, ‘पहुज’, ‘क्वारी’, ‘सिंध’, ‘धसान’, का। वह देखे हुए से देर तक विकल रहने वाले व्यक्ति-कवि हैं।
‘उर्मिल’, ‘चेलना’, ‘जेमनार’] उल्लेख्य हैं। यह विकलता इतनी प्रभावी है कि वह कविता में उसे व्यक्त करके
केशव तिवारी कविता को बहुत माँज देने वाले कवि नहीं हैं, भी उससे विमुख या मुक्त नहीं हो पाते हैं। उनके यहाँ चीज़ें अविराम
लेकिन उनकी कविता में लोकालेख बहुत मँजा हुआ है। लोकालेख उलटी-पलटी-उधेड़ी-खोली-समझी जा रही हैं और इस क्रमिकता
अपने मँजे हुए रूप में कविता में तब प्रकट होता है, जब धूल और में विकलता और-और गाढ़ी होती जा रही है। वह व्यक्ति-कवि-
धुँध को देखते हुए कवि-दृष्टि धूसरित और धुँधली न हो। केशव स्थिति से अभिन्न हो जाती है। कविता में उसे कह देना, किसी
इस दुर्लभ दृष्टि से युक्त कवि हैं और इस वज़ह से ही उनकी व्यक्ति-मित्र से उसे कह देने जैसा ही है; लेकिन समस्या यह है कि
कविताओं में यथार्थाग्रह इतना गंभीर है कि वस्तुओं और व्यवहारों कविता में उसे बार-बार नहीं कहा जा सकता, इसलिए व्यक्तियों-
पर कोई धूल या धुँध नहीं है : मित्रों से उसे बार-बार कहा जाता है जिसके अपने मनोवैज्ञानिक
अगर मुझे बाज़ की उड़ान पसंद है, और सामाजिक संकट हैं। अंततः इस प्रक्रिया के प्रभाव कवि की
तब मुझे अपने कविता और उसके स्वास्थ्य दोनों पर नज़र आते हैं :
पठारी मैदानों में होना चाहिए। कुछ मित्र बहुत संघर्ष में थे
मैं इस तंग कॉफ़ी हाउस में क्या कर रहा हूँ? साथ-साथ संघर्ष की
कविता लिखते
[मैं इन ठंडी किताबों में क्या कर रहा हूँ?] धीरे-धीरे संवाद में नहीं रह गए
इस आलोचनात्मक गद्य में अगर किंचित संस्मरणात्मक छूट लें
तब कह सकते हैं कि केशव तिवारी अपनी कविता ही नहीं अपने [न चाहते हुए भी]
रोज़मर्रा में भी ऐसे ही हैं और यह उनसे/उनके सुपरिचित जानते हैं : यहाँ संस्मरण से मुक्त होकर पुन: आलोचनात्मक होते हुए यह
अगर मैंने पिछली सर्दी में आलू बोना सीखा है कहना ही होगा कि केशव तिवारी की कविता हिंदी की सर्वाधिक
तब मुझे इस ठंडी में नैतिक कविता है और उनका कवि सर्वाधिक उसूलबद्ध। वह किसी
अपने खेत और क्यारियों को तैयार करना था। होड़ाहोड़ी में नहीं है और अपने युग के अंधकार से भली-भाँति
परिचित है—उस अंधकार से भी जिसे अपने-अपने दृष्टि-अहंकार
मैं इन ठंडी किताबों में क्या कर रहा हूँ? में अक्सर रोशनी समझ लेने का चलन है। युग-अंधकार भाषा
अगर मैंने अभी हाल में कविता लिखना सीखा है में अँधेरे जितना न सही, लेकिन भाषा जितना प्राचीन तो है ही।
तब मुझे सबसे पहले अपने गाँव के इसलिए इसकी समझ अपना वह भू-दृश्य पहचानने से संभव होती
उस अलमस्त गड़रिए को सुनना चाहिए था। है, जिस पर खड़े होकर आप सबके आसमान में सबका सूर्योदय
मैं इन वातानुकूलित सभागारों में क्या कर रहा हूँ? देखते हैं और ख़ुद को यह यक़ीन देते हैं कि अपना देखा हुआ
सबके हिस्से से बना हुआ है।
मुझे वहाँ होना चाहिए
जहाँ नए मकान बनाने के संदर्भ :
बुनियादी प्रयत्न किए जा रहे हैं। 1. प्रस्तुत आलेख में केशव तिवारी के अब तक प्रकाशित तीन कविता-
संग्रहों—रामकृष्ण प्रकाशन, विदिशा से प्रकाशित ‘इस मिट्टी से बना’
इन हवाई क़िलों में मेरा दम घुटता है। (2005); रॉयल पब्लिकेशन, जोधपुर से प्रकाशित ‘आसान नहीं विदा
कहना’ (2010) और साहित्य भंडार, इलाहाबाद से प्रकाशित ‘तो काहे
[मैं इन ठंडी किताबों में क्या कर रहा हूँ?] का मैं’ (2014)—तथा चौथे कविता-संग्रह की पांडुलिपि ‘नदी का
केशव तिवारी कविता के लिए दृश्य से गुज़रते नहीं, उसमें प्रवेश मर्सिया तो पानी ही गाएगा’ को आधार बनाया गया है। n
करते हैं। वह विकल करने वाले दृश्य को पहले कविता से बाहर संपर्क : शालीमार गार्डन, एक्सटेंशन-II
अपनी सामर्थ्य भर बदलने का यत्न करते हैं, फिर कविता में लाने ग़ाज़ियाबाद-201005
मो. 9818791434

272 n जुलाई से सितंबर 2023 yegh


n महत्तम : राकेश रेणु

समकालीन बोध के कवि


नीरज कुमार मिश्र

1990 के आसपास का दौर भारतीय राजनैतिक, चरम तनाव से गुज़रना है। बड़ा कवि उसी चरम
सांस्कृतिक, धार्मिक और सामाजिक परिवर्तन का तनाव से गुज़रकर अपनी रचना-प्रक्रिया को साधता
दौर था। उस दौर में हो रहे बदलाओं की झलक उस है। रोजनामचा संग्रह की भूमिका में कवि ने कविता
समय के साहित्य में देखी जा सकती है। उस समय की स्वतंत्र चेतना को रेखांकित किया है– “कविता
का साहित्य इन परिवर्तनों के बीच नयी साहित्यिक की अपनी एक नैतिक चेतना होती है जो उसकी
चेतनाओं और चेष्टाओं का विकास करता दिखता है। रचना प्रक्रिया से उपजती है और इसलिए वह कोई
यह दौर प्रतिरोध की नई ज़मीन तैयार करने का दौर साहित्येतर या आरोपित नैतिकता नहीं होती है। इस
है। इस प्रतिरोध की ज़मीन को कविता से अच्छा कौन तैयार कर तरह कविता एक गहरे और बुनियादी अर्थ में अपनी प्रक्रिया में ही
सकता है। क्योंकि सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनैतिक, धार्मिक एक नैतिक कर्म हो जाती है। इस नैतिकता की नींव कविता की
और साहित्यिक परिवर्तनों को एक सच्चा कवि मन बहुत सूक्ष्मता बुनियादी प्रतिज्ञा है और वह है एक सृजनात्मक स्वतंत्र चेतना द्वारा
से परखता है। आज समकालीन हिंदी कविता समाज के हर संप्रेषण की उत्कट इच्छा। अपने घोषित उद्देश्यों और लक्ष्यों में
नकारात्मक मोर्चे पर प्रतिपक्ष के रूप में खड़ी है। आज बाज़ारवाद अलगाव के बावज़ूद सभी कवियों और साहित्यकारों बल्कि संपूर्ण
ने हमारे सामाजिक और आर्थिक परिदृश्य को बदल दिया है। इस कलाकर्म में यह प्रतिज्ञा एक समान होती है।”
परिदृश्य ने हमारे आपसी संबंधों की मिठास को लगभग सोख रोजनामचा संग्रह की कविताएँ स्याह होते सामाजिक अँधेरे में
लिया है। सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनैतिक बदलावों को उस लालटेन की तरह हैं, जो अन्याय और अत्याचार के ख़िलाफ़
समकालीन हिंदी कविता ने महसूस ही नहीं किया, बल्कि उसे दीप दीप जल रही है। आज के इस दौर में जिस तरह राजनीति ने
अपनी ऐतिहासिक ज़िम्मेदारी के साथ रेखांकित भी किया है। अपने चरित्र को बदला है, उससे बहुत सी बातें सपनों में ही साकार
राकेश रेणु के अब तक तीन कविता संग्रह- “रोजनामचा” होती दिखती हैं। इस बात को यह कवि अच्छे से जानता है, तभी
(1994), “इसी से बचा जीवन” (2019) और “मगध” वह सपने कविता के माध्यम से सपने में ही सामाजिक समानता
(2022) प्रकाशित हो चुके हैं। इस लेख में इन तीनों संग्रहों में और समरसता को स्थापित देखना चाहता है– “प्यार करने के
संकलित कविताओं के आधार पर इनकी कविताओं की विकास लिए/ ख़त्म हो गई योग्यता अब जाति की/ गले मिलने के लिए/
यात्रा में आई काव्यगतनुभूति को समझने की यह कोशिश की ज़रूरी नहीं रहा धर्म। उच्च और नीच/ अमीर ग़रीब जिंदा हैं नानी
गई है। राकेश रेणु की कविताएँ उसी समष्टि की अभिव्यक्ति से दादी की कहानियों में/ आदमी से आदमी/ मिलकर गा रहा है/
जुड़ती हैं। इस कवि ने सभी क्षेत्रों में होने वाले परिवर्तनों को बहुत पैसा, मुँह छुपा रहा है।”
शिद्दत से महसूस करके, उसे समष्टिगत अभिव्यक्ति में ढालकर कवि अपने हृदय पर नित्य प्रभाव डालने वाले रूप-व्यापारों
कविता की ऐसी ज़मीन तैयार की है, जिससे उसका संबंध समाज को भावना की भावभूमि में लाकर वाह्य प्रकृति के साथ मनुष्य की
से जुड़ता दिखाई देता है। इस जुड़ाव के बाद कवि की अपनी अंत:प्रकृति का सामंजस्य स्थापित करके कविता की भूमि तैयार
कोई सत्ता नहीं रह जाती। अपने समकाल की गति के साथ वही करता है। यही वज़ह है कि कविता केवल वस्तुओं के रंग-रूप में
कवि चल सकता है तो अपने समय की नब्ज़ को बहुत अच्छे से सौंदर्य की छटा नहीं दिखाती, श्रम और कर्म की मनोवृत्ति के अत्यंत
जानता और समझता हो क्योंकि अपने समकाल के साथ चलना मार्मिक दृश्य सामने रखती है। यानि जीवन के अनुभव ही कवि की

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कविता के अनुभतू सत्य होते हैं। रोजनामचा शीर्षक कविता सही करना भी जानती है, जो उसकी अस्मिता और सम्मान का हनन
मायने जीवन के अनुभूतसत्य से कवि के अनुभतू सत्य की यात्रा करते हैं। इन कविताओं की स्त्रियाँ इस तंत्र के ख़िलाफ़ मज़बूती के
करती हुई केवल आमजन का बहीखाता ही नहीं बनती,बल्कि उनके साथ खड़ी दिखती हैं। राकेश रेणु जैसा कवि ही ऐसा अद्भुत स्त्री
सामाजिक तानेबाने की गाथा को व्यंजित करती हैं– “सुर्ख लाल/ चरित्र गढ़ा सकता है,जैसा उन्होंने अपनी कविता “स्त्री:चार” में
या सुनहरी जल्द वाली/ डायरी के पन्नों/ और बनिए की बही में गढ़ा है– “स्त्रियाँ जहाँ कहीं हैं/प्रेम में निमग्न हैं/एक हाथ से थामे
केवल/ नहीं होता है दर्ज़/ रोजनामचा/ परेशान आदमी के माथे से/ दलन का पहिया/दूसरे से सिरज रही दुनिया।”
पसीने की बूंदे टपकी हो जहाँ/ रोजनामचा/ दर्ज़ हुआ समझो।” राकेश रेणु की कविताओं में प्रेम नमक की तरह घुलकर निरंतर
इस कवि की सबसे बड़ी चिंता है कि समाज में अपनापन बना क्रूर होती जा रही दुनिया में प्रेम को बचाए रखने की जद्दोहद में
रहे। ये अपनापन ही जीवन को बचाये रखने का संबल है। इनकी लगा है। जब मौन हो जाएँगी भाषाएँ, तब प्रेम ही बताएगा आपसी
कविताओं में आईं स्त्रियाँ कमजोर नहीं हैं। बल्कि अपने अधिकारों सौहार्द्र की पाती। उस समय प्रेम ही मुकम्मल कविता की तरह
के लिए लड़ने वाली,प्रेम से परिवार और समाज को संबल देने हमारे सामने खड़ा होकर प्रलयवेला में बचाएगा– “जब सब समाप्त
वाली, आत्मशक्ति से लबरेज़ स्त्री नज़र आती हैं। इनके संग्रह हो जाएगा/ बचा रहेगा प्रेम/ वही बचाएगा हमें प्रलयवेला में/ रक्षा
“इसी से बचा जीवन” की दूसरी कविता में एक सवाल है,जो कवच बन साफ़ हवा पानी ऑक्सीजन-सा।” प्रेम विषयक कविताएँ
आज हम सबकी जिज्ञासा भी है कि– “कौन आया पहले/ पृथ्वी, कवि के व्यक्तिगत प्रेम की अनुभूति से उपजी हैं। कवि राकेश रेणु
जल, अकास, बतास/ या कि स्त्री?” इस संसार में स्त्री ही है की कविताओं में आई स्त्रियाँ अज्ञेय की रचनाओं में आई स्त्रियों
जो सभी काम प्रेम में निमग्न होकर करती है। चाहे अपने अंडे की तरह ही पुरुषों से अधिक समर्थ और आत्मबल से भरपूर नज़र
उठाये चीटियाँ हों, या ऊष्मा सहेजती भूख़ और थकान से बेपरवाह आती हैं। इसी आत्मबल की वज़ह से ही वे पितृसत्तात्मक व्यवस्था
चिड़िया हों, या अपने तरल दु:खों को चाटकर अपने नवजात में की सभी बेड़ियों को तोड़कर अपनी ख़ुद की व्यवस्था रचना चाहती
नव जीवन का संचार करने वाली कोई माँ हो। इन सभी रूपों में हैं-“वह तोड़ती है बेड़ियाँ…/ पितृसत्ता व्यवस्था की बेड़ियाँ/ वह मुक्त
स्त्री प्रेम में निमग्न ही दिखाई देती है। स्त्रियों की वज़ह से ही पृथ्वी होती है/चराचर के समस्त बंधनों से/संबंधों से,समाज से,परंपरा
में प्रेम बचा है। कवि यह मानता है कि संसार में जो भी और जैसा से/काम मार्ग से।” इस समाज में सबसे ज्यादा दु:ख स्त्रियों के
भी रचा गया है, यानी जो प्रेम में है उसे स्त्रियों ने ही रचा है। लेकिन हिस्से ही आते हैं। स्त्रियाँ जिन दु:खों को लगातार उठाती रहती
विडंबना ये है कि समाज में स्त्रियों पर हो रहे अत्याचार और शोषण हैं। यह कवि ख़ुद स्त्री बनकर उन दु:खों को आत्मसात करना
लगातार बढ़ रहे हैं। स्त्रियों का यह शोषण प्राचीनकाल से अब तक चाहता है-“मैं स्त्री हो जाना चाहता हूँ/वह दुख समझना चाहता हूँ/
बदस्तूर जारी है। इस कवि ने “कुछ और स्त्रियाँ-दो” कविता में जो उठाती हैं स्त्रियाँ।” इसकी कविताओं की स्त्रियाँ समाज के हर
स्त्रियों के शोषण की लंबी गाथा को रेखांकित किया है– “आर्यावर्त मोर्चे पर अपने अधिकारों एवं अस्मिताओं के लिए संघर्षरत रहते
की यह कथा कालजी थी/ नदियों, बोलियों पर्वतों को लाँघती/ हुए भी नई दुनिया रचती हुई समाज की धारणा को बदलती जाती
हस्तिनापुर,अयोध्या, मिथिला/ किष्किन्धा, कोसल, चित्तौड़ होती हैं–“केवल देह होती भी नहीं स्त्रियाँ/ गति,लय,ऊर्जा,रचना-पुंज
हुई/ नए मगध तक चली आई थी।” होती हैं/ देह के आवरण में लिपटी/ रचती दुनिया जिससे/ उतनी
यह मगध श्रीकांत वर्मा का मगध नहीं है,जिसने अपने अस्तित्व ही गतिमय, लयबद्ध/ प्रेमिल ऊर्जा से दिप-दिप।” कवि राकेश रेणु
को खंडहर होते देखा था। उस मगध के खंडहर पर राकेश रेणु ने की कविताएँ स्त्री समाज की आवाज़ बनकर उनके पक्ष में और
नये मगध को खडा किया है। इस नये मगध में जनता की आंखों पितृसत्तात्मक व्यवस्था के विपक्ष में खड़ी नज़र आती हैं। इन संग्रहों
में सत्ता ने धर्म की ऐसी अफीम घोल दी है कि जनता बिना दिमाग, की कविताओं में स्त्री की चुप्पी के अंदर छिपी चीख़ हमें साफ
बिना विचार, बिना रीढ़ के हिंसा में उतारू है। ऐसे दौर में स्त्रियाँ सुनाई देती है-“उसकी चीख़ में शामिल है/हमारे समय की तमाम
अपने सम्मान और अस्तित्व को बचाने की जद्दोजहद में अकेले लड़कियों,औरतों की चीख़ रौंद डाले गए जिनकी इच्छाओं/और
लगी हैं। कवि उनके इस शोषण को लगातार महसूस कर रहा है- संभावनाओं के इंद्रधनुष/उनकी चीख़ में शामिल/मर्दाना अभिमान
“जो राँधी जा रही थीं/सिंक रही थीं धीमी आँच में तवे पर/जो ख़ुद का दुख/धर्म और जात का दुख/प्रेम के तिरोहन का दुख/उनकी
रसोई थीं रसोई पकाती हुई/स्त्रियाँ थीं…जो तोड़ीजा रही थीं/अपनी ही चीख़ में शामिल/इस अकाल काल का दुख।” आज हम स्त्रियों की
शाख से/वे स्त्रियाँ थीं।” यही वज़ह है कि इनके यहाँ स्त्री केवल घबराई सी चीख को सुनकर भी मौन हैं। हमारे इसी मौन का फायदा
प्रेम करना ही नहीं जानती बल्कि शोषण के हर उस तंत्र को दमन उठाकर अलीगढ़ जैसी घटनाओं को लोग अंजाम देते हैं। कवि

274 n जुलाई से सितंबर 2023 yegh


राकेश रेणु ऐसे अँधेरे समय में मौन को तोड़कर एकजुट होने का
आह्वान करते हैं-“तोड़ो/तोड़ो यह सन्नाटा/तोड़ो यह मौन/आवाज़ राकेश रेणु प्रेम, विश्वास, उम्मीद, खुशी और
दो कहाँ हो।” क्योंकि कविता,साहित्य का सबसे विश्वसनीय और भरोसे के बल पर इस अँधेरे समय पर विजय
मज़बूत विपक्ष होती है। पाने की सुकुमार इच्छाओं को पाले हैं। ये
कवि राकेश रेणु प्रेम, विश्वास, उम्मीद, खुशी और भरोसे के सुकुमार इच्छाएँ ही इस कवि के अंदर चिता के
बल पर इस अँधेरे समय पर विजय पाने की सुकुमार इच्छाओं को रूप में धू-धू कर जल रही हैं।
पाले हैं। ये सुकुमार इच्छाएँ ही इस कवि के अंदर चिता के रूप
में धू-धू कर जल रही हैं। इसके बावज़ूद ऐसे समय में राकेश रेणु सच्चा जनपक्षधर कवि सत्ता और समाज को सही रास्ता दिखाता
जैसा सजग कवि ही, ऐसी कविताएँ लिखकर समाज में भाईचारा, है। इस कवि के तीनों संग्रहों की कविताएँ जनपक्षधरता की सशक्त
प्रेम, अपनत्व, सहभागिता के भाव के माध्यम से जीवन बचाने की आवाज़ें हैं।
जद्दोजहद में लगा हुआ है। कविता ही ऐसा माध्यम है जो समाज बड़ा कवि वही है जो एक साथ भूत, भविष्य और वर्तमान को
की इस वैमनस्यता को पाट सकती है। ऐसे समय में इस कवि की अपने समय के आईने में केवल देखता ही न हो, बल्कि कविताओं
“नज़ीर अकबराबादी के लिए” कविता सोये हुए कवियों को जागृत के माध्यम से नया वितान भी रचता हो। ‘नये मगध में’ संग्रह की
करने का काम करती है– “कवि,जब घर जल रहा हो तुम्हारा/ प्रारम्भिक पंद्रह कविताएँ ‘नये मगध में’ शीर्षक से ही संकलित हैं।
क्या आग बुझाने नहीं बढ़ोगे? जब आदमी देखता हो आदमी को आप जैसे जैसे इन कविताओं को पढ़ते हुए आगे बढ़ते जाते हैं,
शक की निगाह से/और फट गई यक़ीन की चादर/क्या कविता इन कविताओं में व्याप्त प्रतिरोध के ताप से आप भी तपते जाएँगे।
तुम्हारी नहीं आयेगी आगे/रफ़ूगर का सुई धागा बनकर? तुमसे क्योंकि यह नये मगध का जनतंत्र है– “उन नियमों का पालन
बहुत उम्मीदें हैं तुम्हारे समय और समाज को। /कब तक सोओगे ज़रूरी था जन-जन के लिए/ न मानने की सज़ा कुछ भी हो सकती
कवि?” ऐसे समय में सजग कवि राकेश रेणु एक उम्मीद की तरह थी/ सार्वजनिक प्रताड़ना, मारपीट, कारावास/ या फिर मृत्युदंड/
हमारे सामने खड़े नज़र आते हैं। इनकी कविताओं में भविष्य के खड़े-खड़े गोली मारी जा सकती थी अवज्ञाकारी को/ यह नये
प्रति जिज्ञासा के साथ वर्तमान समय के बहुत सारे सवाल भी हैं। मगध का जनतंत्र था।” इस कवि को सृजन का ताप आत्मबल
यह कवि इस बात से चिंतित हैं कि‌– “हम सो रहे होंगे/और बदल से लबरेज आमजन के जीवन के ताप से गले लोहे से मिला है।
दी जाएगी पूरी दुनिया/इस तरह हमारे सोते-सोते बहुत देर हो चुकी केदारनाथ अग्रवाल और मुक्तिबोध की तरह इस कवि को जनता
होगी तब/नींद से जागेंगे जब हम।” के लिए कविताएँ ऑक्सीजन का बल प्राप्त है। यही बल इनकी कविताओं का भी बल है।
की तरह पाठकों के दिलों में जीवन का संचार करती हैं। उनका रोजनामचा से लेकर नये मगध की ये कविताएँ उसी ताप से पगी
मानना है कि कविता से ही बचा है जीवन। यही वज़ह है कि वह युग जीवन का सत्य लिख रही हैं।
बार बार कविता की तरफ लौटते हैं-“मैं तुममें,वो कविता/बार-बार आज हम जिस यूटोपिया में जी रहे हैं, इनकी कविताओं को
लौटता हूँ/तुम्हीं इस जीवन का ऑक्सीजन।” पढ़ने के बाद वह यूटोपिया भरभराकर हमारे सामने ही बिहार के
कवि राकेश रेणु समकालीन कविता के प्रमुख हस्ताक्षर हैं। पुल की तरह गिर जाती है। यह कवि हमारी आज की विडंबना
इनका तीसरा कविता संग्रह ‘नये मगध में’ अभी हाल ही में को अच्छे से पहचानता है कि हम आज एक संभावनाहीन जगह
प्रकाशित होकर आया है। राकेश रेणु ने इतिहास के उस पहलू से दूसरी संभावनाहीन जगह के बीच एक पेंडुलम की तरह घूमकर
को केंद्र में रखकर ऐसे नये मगध का निर्माण किया है,जिससे अपनी यथास्थिति में ही आ जाते हैं। इन मूल्यों से उपजे डर को
राज्य में सब त्रस्त हैं। यह निर्माण कवि की पक्षधरता को रेखांकित इनकी कविताओं में महसूस किया जा सकता है। नये मगध में
करता है। यह पक्षधरता मुक्तिबोध और उनकी कविता की याद आपको एक तरफ दुख की नीली स्याही सोखने वाले सोख्ता के
दिलाती है कि तय करो किस ओर हो तुम? नए मगध में (ग्यारह) रूप में हम सबके बाबूजी दिख जाएँगे तो दूसरी तरफ माँ को
कविता में कवि ने पक्षधरता के सवालों को उठाया है– “मातृभूमि चिता में जलते देखने का दारुण और मार्मिक चित्र आपको भावुक
के प्रति/ स्पष्ट करो अपना पक्ष/ या तो तुम उसके साथ हो/ या कर देगा। इसमें आपको किसान,उसके खेत, बरसात आदि अपनी
उसके शत्रुओं के साथ।” सामाजिक सरोकारों से जुड़ा कवि ही ऐसे जीवंतता के साथ मौज़ूद हैं। बीते वर्ष अपने अधिकारों के लिए उठ
नये मगध का निर्माण कर सकता है। सत्ता का कोई भी केंद्र हो, खडा हुआ किसान आन्दोलन तीन केंद्रीय कृषि क़ानूनों के निरस्त
साहित्य और साहित्यकारों का काम है उसे सही रास्ता दिखाना। होने के बाद खत्म हुआ। लेकिन सवाल यह है कि इससे किसानों

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की स्थिति में कोई परिवर्तन आया है क्या? पूंजीवादी तंत्र ने जंगल कवि बनने की सीढ़ी तैयार करता है। कवि राकेश रेणु के भाषाई
के बाद अब किसान के खेतों पर भी नज़र गड़ा दी है। ‘खेत चाहिए’ पहलू की बात करें तो यह बात स्पष्ट होती है कि इनकी कविताओं
कविता किसानों की स्थिति और उनकी ज़मीन पर हो रहे पूंजीवादी में भाषाई शिल्प का न तो पांडित्य प्रदर्शन है और न ही कविताई
हमले को बेपर्दा करती है– “खेत चाहिए स्वचालित कारखाने के शिल्प का बोझिलपन। इनकी कविताएँ सहज, सरल और संप्रेषित
लिए/ स्मार्टसिटी बनाने के लिए खेत चाहिए/ मॉल और बाज़ार भाषा के माध्यम से आमजन और उससे जुड़ी घटनाओं को अपनी
बसाने के लिए खेत चाहिए। नौकर बनाने के लिए खेत चाहिए।” कविताओं का विषय बनाती हैं।
रंग पर पहले भी कई कवियों ने कविताएँ लिखी हैं। राकेश ऐसा भी नहीं है कि इनकी कविताओं में आये विषय और
रेणु की कविताओं में रंगों के अनेक फलक और उस फलक में समस्याएँ नये हैं। इस कवि ने इन विषयों और समस्याओं को नई
समाहित कवि की समाहार शक्ति आपको इस कवि की कविताओं भावभूमि प्रदान की है। यही एक अच्छे सर्जक कवि की पहचान
की गहनता का भान करायेगी। जिस तरह “एक रंग काला” कविता है। कवि अज्ञेय इसी बात पर ज़ोर देते है कि “कवि का कार्य नए
में काला रंग भोर को भरोसा दिलाता है– “यह फौलादी इच्छाशक्ति अनुभवों की,नए भावों की खोज नहीं है,प्रत्युत पुराने और परिचित
का रंग है अविजित/ कठिन है दूसरा रंग चढाना इस पर। यह रात भावों के उपकरण से ही ऐसी नूतन अनुभूतियों की सृष्टि करना
का रंग है/ जुगनुओं तारों चंद्रमा की कलाओं को यौवन देता/ भोर है,जो उन भावों से पहले प्राप्त नहीं की जा चुकी हैं। वह नई धातुओं
का भरोसा दिलाता।” उसी काले रंग की तरह कवि राकेश रेणु भी का शोधक नहीं है;हमारी जानी हुई धातुओं से ही नया योग ढालने
अपनी कविताओं के माध्यम से समकालीन कविता को यह भरोसा में और उससे नया चमत्कार उत्पन्न करने में उसकी सफलता और
दिलाते हैं कि वह अपनी कविताओं से सभी सत्ताओं के ख़िलाफ़ महानता है”। इस कवि ने भी जाने-पहचाने विषयों और समस्याओं
नये बदलाव की बयार के साथ एक नया मोर्चा तैयार कर रहे हैं। में अपनी अनुभूति के बल पर नया चमत्कार उत्पन्न किया है।
बिहारी की तरह कम शब्दों में बड़ी बात करना कवि राकेश ये नया चमत्कार ही कवि राकेश रेणु को अन्य कवियों से अलग
रेणु जी की कविताओं की पहचान है। इनकी कविताओं के शब्द भावभूमि प्रदान करता है। किसी कवि की रचना-प्रक्रिया ही उसे
सृजन के ताप से पगे हैं। आज कवियों की सबसे बड़ी विडंबना है कवि नहीं बनाती बल्कि उस कवि का काव्यानुभव ही उसे कवि
कि उनकी कविताओं में उनका कवि ज्यादा बोलता है कविता कम बनाता है। मुक्तिबोध वास्तविक जीवन से प्राप्त इसी काव्यानुभव
बोलती है। ऐसे कवि की कविताओं में वक्तव्यबाजी कविता में हावी को ज़रूरी मानते हैं‌ “कवि केवल रचना-प्रक्रिया में पड़ कर ही
हो जाती है। तब कविता, कविता नहीं रह जाती, बल्कि वक्तव्य का कवि नहीं होता,वरन उसे वास्तविक जीवन में अपनी आत्म-
पुलिंदा बन जाती है। जबकि होना यह चाहिए कि उसकी कविता समृद्धि को प्राप्त करना पड़ता है और मनुष्यता के प्रधान लक्ष्यों
ज्यादा बोले और कवि शान्त रहे। बड़े कवि की विशेषता है कि से एकाकार होने की क्षमता को विकसित करना पड़ता है”। इन्हीं
वह कविता को स्वतंत्र रखते हैं। किसी कवि का काम कविता में लक्ष्यों को एकाकार करके कवि राकेश रेणु अपनी और पाठकों की
शब्दों के प्रयोग करने से ज्यादा ज़रूरी है उन शब्दों में निहित अर्थ कसौटी पर खरे उतरते हैं। इसी वज़ह से इनकी कविताएँ पाठकों
की संभावनाओं का विस्तार करना। क्योंकि अच्छा कवि शब्दों और को अलग तरह का रसास्वादन कराती हैं। इनकी कविताओं की
उसके अर्थ के बीच के मौन की अभिव्यंजना की सहायता से अच्छी भाषा वस्तु सत्य और व्यक्ति सत्य से पगी है।
कविता रचता है। अज्ञेय के शब्दों में कहूँ तो कविता शब्दों में नहीं कवि राकेश रेणु ने समकालीन कविता की ठोस ज़मीन को
होती-कविता शब्दों के बीच की नीरवताओं में होती है। इसीलिए अपनी कविताओं की संवेदना से नम, भुरभुरी, धूसर धरती बनाया।
अज्ञेय मौन को भी अभिव्यक्ति का साधन मानते हैं। इस तरह हम उस ज़मीन में रोजनामचा, इसी से बचा जीवन और नये मगध में
कह सकते हैं कि कविता भाषा में नहीं होती है,कविता शब्दों में भी संकलित कविताएँ अब केवल नई कोंपलों के रूप में नहीं, बल्कि
नहीं है। सही मायने में कविता शब्दों के बीच के शब्दहीन अंतराल ज़मीन में अपनी गहरी जड़ें जमाए मजबूत छायादार वृक्ष बनकर
में होती है। जिसमें जीवन की समूची विडंबना को उकेरते हुए कुछ पाठकों के सामने खड़ी हैं। राकेश रेणु अपनी रचना-प्रक्रिया के
अनसुलझे सवाल पाठकों के सामने आते हैं। इन शब्दों के बीच आलोक में समकाल के साथ चलने वाले कवि हैं। इनके तीनों
की नीरवता या मौन की सार्थकता पाठक पर निर्भर करती है। ऐसे संग्रहों की कविताओं की विकास यात्रा इसका प्रतिफलन है। n
समय में पाठक की सृजनात्मक सक्रियता बहुत ज़रूरी है। कवि
और उसकी कविताओं के लिए सृजनात्मक कल्पना से परिपूर्ण संपर्क : द्वारका, दिल्ली
पाठक का होना बहुत ज़रूरी है। इन दोनों का आपसी संबंध ही बड़े मो. 9968323683

276 n जुलाई से सितंबर 2023 yegh


n महत्तम : संजय अलंग

दृश्य के भीतर के अदृश्य की कविता


शरद कोकास

किसी साधारण मनुष्य की अभिव्यक्ति में उसकी है। चाक्षुस अनुभव अनुभूति के रूप में अवचेतन में
आवश्यकताएँ, आसपास की वस्तुओं पर उसकी दर्ज़ होते हैं जिन्हें एक शिल्प के साथ शब्द देना ही
प्रतिक्रिया, जन जीवन और व्यवस्था को लेकर पर्याप्त होता है। इस प्रविष्टि के अंतर्गत इस संकलन
उसकी समझ तथा दृष्टिकोण निहित होता है किन्तु में ‘कस्बे की तैराक लड़की’ और ‘सुपारीलाल की
एक कवि से हम उसकी कविता में न केवल उस रामलीला’ जैसी कविताएँ जन्म लेती हैं। संवेदना के
के व्यवहार, समय समाज के प्रति उसकी समझ केन्द्रीय भाव के साथ इन कविताओं में स्त्री विमर्श के
अपितु उसके विश्व दृष्टिकोण की अपेक्षा भी करते प्रचलित मुहावरे से अलग कुछ तीखे सवाल भी आते
हैं। जीवनानुभूति को रचनानुभूति में परिवर्तित करने की प्रक्रिया हैं। उनकी कविता ‘वेश्या’ की पंक्तियाँ हैं-
में हम जानना चाहते हैं कि वह विश्व की उत्पति व संरचना, वह चुपचाप लेटकर
मानवता,सामाजिक असंतुलन, वैश्विक राजनीति तथा मनुष्य तुम्हारा नंगापन देख
जीवन के मूल रागों के प्रति क्या समझ रखता है। समस्याओं के आँखें मीच रही है
निराकरण हेतु उसकी क्या कार्य विधि है तथा मानव जीवन के तुम कंडोम में समा रहे हो
लक्ष्यों और अर्थ को समझने की कितनी सुस्पष्ट समझ उसकी उतारकर फेंके जाने के लिए
वैचारिकी में है। एक पाठक के लिए इन कविताओं में शब्दों के अर्थ से परे
कवि संजय अलंग अपने प्रथम कविता संकलन ‘शव’ की जाकर देखना आवश्यक है जो केवल राजनीतिक समझ के चलते
कविताओं में कमोबेश इन्हीं प्रश्नों से जूझते दिखाई देते हैं। किसी ही संभव हो सकता है। समय के समानांतर चलती राजनीतिक
कवि के पहले कविता संकलन की भांति उनकी भी शुरुआत चेतना के अंतर्गत वे ‘राष्ट्र’, ‘अधिपति’ जैसी कविताएँ लिखते हैं
स्मृतियों के देशज बिम्बों से होती है जिसमे ‘कक्षा में कोने वाला जिनमें वे राजतन्त्र पर सवाल करते हैं और व्यवस्था को कटघरे
लड़का’ हाथों में ‘गुलेल’ लिए पूछता है ‘बचपन कहाँ है तू’। में खड़ा करते हैं। सामान्यतः पहले संकलन में काव्य भाषा तथा
लेकिन परिपक्व होती समझ में उस गुलेल के निशाने पर कोई फल शिल्प को लेकर कवि इस तरह सतर्क नहीं होते जिस तरह कवि
या पक्षी अनुपस्थित है। यहाँ वह पक्षी शांति के प्रतीक उस सफ़ेद संजय अलंग अपनी कविताओं में दिखाई देते हैं। यद्यपि इस
कबूतर में परिवर्तित हो गया है जिसके लिए उनके भीतर सवालों संकलन में विगत सदी का प्रचलित शिल्प है, कुछ शब्दों की
के साथ एक द्वंद्व उपजता है, जहाँ ‘उड़ते सफ़ेद कबूतर बंदूकों आवश्यक पुनरावृत्ति है तथा काव्यबोध में उनका निज आत्मबोध
और सुरंगों के बीच फडफडाते हैं’ (कविता- सलवा जुडूम के भी शामिल है लेकिन कविता अपने भाव, लय तथा विचार के साथ
दरवाज़े से)। यहीं उनका विश्व दृष्टिकोण विस्तार लेता है जब वे यहाँ उपस्थित है। कवि होने की इस विशिष्ट क्रियात्मक प्रविधि
कविता ‘पश्चिमी रात्रि’ में वर्तमान ईराक के निवासियों का आह्वान में वे बुद्ध को भी कवि घोषित करते हैं। उनके प्रथम संकलन में
करते हुए कहते हैं, ‘आओ मेसोपोटामियाइयों’। वहीं वे तंज़ानिया ‘सिंधियों के लिए’ और पेट में होने वाले ‘कृमि’ जैसे अछूते विषयों
अफ्रीका के एक गाँव में ग़रीबी उन्मूलन कार्यक्रम देखकर ‘प्यास’ को लेकर लिखी गई कविताएँ भी शामिल हैं जिनमे निश्चित ही
जैसी कविता लिखते हैं। कवि की दृष्टि का विस्तार है। इसमें ‘गर्मी पड़ती बेशुमार’ जैसी
एक कवि के लिए स्थानीयता कविता का प्रथम आलंबन होता रोचक कविताएँ भी हैं जो उनके ब्योरों को कविता में परिवर्तित

yegh जुलाई से सितंबर 2023 n 277


को लेकर कन्या भ्रूण हत्या, लिंग अनुपात की कमी जैसे मुद्दों पर
छत्तीसगढ़ और विशेष रूप से बस्तर पर अनेक महत्वपूर्ण कविताएँ शामिल हैं।
कवियों ने महत्वपूर्ण कविताएँ लिखी हैं। संजय अलंग का दूसरा संकलन ‘पगडंडी छिप गई थी’
जंगल का सौन्दर्य और स्थानीय संस्कृति के छत्तीसगढ़ पर एकाग्र कविताओं का संकलन है। यह संकलन प्रथम
दर्शन इन कविताओं में होते हैं लेकिन संजय संकलन के लगभग एक वर्ष के अंतराल में ही प्रकाशित हुआ है
अलंग की कविताएँ उन सभी से अलग अपने अतः कवि प्रथम संकलन की कुछ कविताओं को इस संकलन में
विशिष्ट मुहावरे में दृश्य और स्थानीयता की शामिल करने का मोह संवरण नहीं कर पाए हैं। यद्यपि इसमें कुछ
भावुकता से निरपेक्ष होकर यथार्थ का एक अस्वाभाविक नहीं है। कविता एक कवि की बौद्धिक सम्पदा होती
संसार रचती हैं। स्थानीय शब्दों का प्रयोग कर है वह इच्छानुसार उसमें परिवर्तन अथवा अन्य स्थानों पर उसका
वे चमत्कारिकता और सौन्दर्य का अविर्भाव उपयोग कर सकता है। शीर्षक में उल्लेख किये जाने के बावज़ूद इस
नहीं करते अपितु उनके अर्थ में छुपे इतिहास को संकलन की कविताएँ छत्तीसगढ़ की संस्कृति का ग़ाैरव गान मात्र
विस्तार देते हैं। नहीं है बल्कि जीवन की स्थितियों को लेकर यहाँ के निवासियों की
पीड़ा, जनजातियों की जीवनशैली, उनकी जिजीविषा और विश्व
करने की कला का संकत देती है। मिथकों को लेकर कविता मानव से उनके संबंधों का ब्यौरा भी इनमें निहित है। सामान्यतः
लिखते हुए इस बात के लिए सतर्क रहने की आवश्यकता होती है क्षेत्र विशेष को लेकर लिखी जाने वाली कविताओं में कवि की
कि कहीं हम उन्हें यथार्थ के रूप में प्रस्थापित करने की दिशा में निजता,सांस्कृतिक विरासत से प्रेम तथा क्षेत्र से लगाव के कारण
अग्रसर तो नहीं हो रहे हैं इसीलिए ‘राम की मृत्यु’ जैसी महत्वपूर्ण भावुकता का आधिक्य संभव है। लेकिन यहाँ इन कविताओं में
कविता में वे शीर्षक के आगे प्रश्नचिन्ह लगाते हैं। उनका यह कवि भावनात्मकता, स्थानीय वस्तुओं व स्थानों से पहचान, उनके
सायास प्रयास उनके ‘इतिहास बोध’ के आगे प्रश्नचिन्ह नहीं लगने वैशिष्ट्य, संस्कृति और परंपराओं से परिचय तथा उनके इतिहास
देता। कविता में ही इसे स्पष्ट करते हुए, ‘प्रेरणा के शोक गीत में को समायोजित करते हुए चलते हैं। इन कविताओं में संजय अलंग
बदलने’ की बात कहते हुए वे कहते हैं ‘मेरे इतिहास में सभी लोग की सूक्ष्म दृष्टि छत्तीसगढ़ की उस वन सम्पदा पर है जो खनिज
सम्मिलित हो जाते हैं।’ के अलावा मनुष्य के आदिम जीवन के अवशेष भी अपने भीतर
विश्व दृष्टिकोण का यह संप्रत्यय अपने विस्तृत फ़लक में संजोये हुए है। उनकी कविता में गेज और महानदी जैसी नदियाँ हैं
वैश्विक राजनीति, विभिन्न राष्ट्रों में चल रहे युद्ध की विभीषिका, जो मेसोपोटामिया की दज़ला फ़रात की तरह उफनती हैं और अपने
अतीत की क्रांतियों की गाथा और वैश्विक मनुष्य की चिंता को साथ उपजाऊ मिट्टी लेकर आती हैं। उनकी कविता में यहाँ स्थित
समाविष्ट करता है। संबंधित शब्दावली के बग़ैर भी ऐसी कविताएँ खदानें हैं जिनकी गहराई माँ की गोद जैसी है, वनांचल के तीज
विश्व दृष्टिकोण की कविताएँ कहलाती हैं। एक कवि अपने लोकेल त्यौहार हैं, मांदल की थाप और कर्मा की धुन पर नृत्य करता प्रेम
में भी इसे कह सकता है। यद्यपि कहीं कहीं कवि की यह अतिरिक्त है, गीत गाती पहाड़ी मैना है, महुआ बीनती बस्तर के कुई विद्रोहियों
सतर्कता दिखाई देती है लेकिन उसे हम उनकी राजनीतिक चेतना की वंशजायें और गोदना गुदवाती आदिवासी लड़कियाँ हैं, वहीं इस
के निहितार्थ में भी देख सकते हैं– आदिम सौन्दर्य के बरअक्स, संगीनों के साये में साँस लेती ज़िंदगी
पुलिस समझ नहीं पा रही कि है, सलवा जुडूम की अकथ कथा है, बारूदी सुरंगों के आतंक में
सपनों और इच्छाओं को कहाँ फेंके पलता जीवन है, जिसमें घुसपैठ करते पूंजी के तंत्र हैं।
अब तो दंतेवाड़ा, बेरुत, बग़दाद, गोधरा छत्तीसगढ़ और विशेष रूप से बस्तर पर अनेक कवियों ने
सभी जगह गड्ढे पटे पड़े हैं महत्वपूर्ण कविताएँ लिखी हैं। जंगल का सौन्दर्य और स्थानीय
(कविता:शव) संस्कृति के दर्शन इन कविताओं में होते हैं लेकिन संजय अलंग
एक कवि कविता की विशाल भूमि का प्रथम नागरिक होता है की कविताएँ उन सभी से अलग अपने विशिष्ट मुहावरे में दृश्य
लेकिन उसका नागरिक बोध तथा समाज के स्वभाव के निरीक्षण और स्थानीयता की भावुकता से निरपेक्ष होकर यथार्थ का एक
का बोध सजग होता है। वह सामाजिक विसंगतियों पर अपनी पैनी संसार रचती हैं। स्थानीय शब्दों का प्रयोग कर वे चमत्कारिकता
नज़र रखता है और उन्हें दूर करने हेतु समय सापेक्ष सुझाव भी और सौन्दर्य का अाविर्भाव नहीं करते अपितु उनके अर्थ में छुपे
देता है। संजय के इस प्रथम संकलन में उनके इस नागरिक बोध इतिहास को विस्तार देते हैं। इनमें केवल परिस्थितिजन्य संवेदना

278 n जुलाई से सितंबर 2023 yegh


नहीं है। इन कविताओं को पढ़ते हुए हम महसूस कर सकते हैं कि
कविता और सूचना में बहुत अंतर होता है तथा कविता मातृभूमि
की प्रशस्ति नहीं होती। छत्तीसगढ़ पर एकाग्र इन कविताओं में
स्थानीयता के वितान में सम्पूर्ण विश्व का समावेश है। वे पर्यटकों
की तरह बस्तर आने वाले लोगों को उलाहना देते हुए अपने एक
हाइकु में कहते हैं–
फिलिस्तीन सिंध सीरिया सोमालिया कश्मीर
सब एक साथ याद आता है
आते हो लेने जब बस्तर की तस्वीरें
विभिन्न भूभागों हेतु प्रयुक्त यह शब्द केवल शब्द नहीं हैं, यह
अपने आपमें उनका इतिहास और राजनीतिक उथल पुथल समेटे
हुए हैं जिसे देखने के लिए कविता एक विशेष दृष्टि की मांग करती
है। इस तरह दृश्य के भीतर अदृश्य रचने की उनकी क्षमता और
उनका यह विश्व दृष्टिकोण सृजन के मुहावरे के साथ उनके तीसरे
कविता संग्रह ‘नदी उसी तरह सुन्दर थी जैसे कोई बाघ’ में और
विस्तार पाता है-
हर औरत और आदमी सुंदर थे
जैसे कोई भी अन्य चीज़, बात या लोग
थी पूर्णतः सुंदरता से लबरेज कायनात
भेद नहीं किसी का किसी से के रूप में कागज़ पर उतारता है। इस संकलन की द्वीप पर एक
ना औरत का आदमी से दृश्य,बिटिया का जन्मदिन,अस्पताल की खिड़की, शुरुआत, जीता
न नेग्राइड का कॉकेशियन से उसने कैंसर, पहचान,चप्पल,बैडमिंटन,धरती खाने वाली औरत
नेग्राइड, प्रोटो ऑस्ट्रियालाई, कॉकेशियन, मंगोलियन जैसी और ऐसी तमाम कविताओं को पढ़ते हुए इस बात का अनुभव होता
नस्लों का उल्लेख हम इतिहास, पुरातत्व या मानव शास्त्र की है कि वे अपनी जीवन शैली, जीवन चर्या, रोजमर्रा के कामकाज
किताबों में ही पाते हैं। कविता में ब्योरों या सूचना के रूप में भी के बीच कविता के लिए ब्योरे प्राप्त करते हैं जिन्हें कविता कहन
उनका ज़िक्र हो सकता है। लेकिन संजय अलंग जैसा कवि जो एक की कला के साथ अपनी कविता में प्रस्तुत करते हैं।
इतिहासकार भी है अपनी कविता में कला दृष्टि के साथ ब्योरों में यह कविता देश के वर्तमान का एक बिम्ब हमारे अवचेतन के
अन्तर्निहित तथ्यों का विश्लेषण भी करता है। ध्यातव्य है कि संजय आईने में प्रस्तुत करती है हम देखते हैं कि आज अव्यवस्था ही
अलंग ने कविताओं के अलावा इतिहास पर भी अनेक पुस्तकें व्यवस्था में तब्दील हो गई है। संजय अलंग इस तरह की अपनी
लिखी हैं इसीलिए कविता लिखते हुए उनके भीतर का इतिहासकार राजनीतिक कविताओं में घटित के बीच का अघटित लिखते हैं।
सजग रहता है। एक कवि के रूप में उनकी कविता जहाँ संवेदना उनका कवि मूक दर्शकों की भांति दृश्यों में केवल ब्योरे नहीं
का चरम स्पर्श करती है वहीं इतिहासकार के रूप में इतिहास बोध देखता है बल्कि उसे देखकर उपजे भाव को अपनी वैचारिकी
के साथ यथार्थ का एक आईना पाठकों के सामने रखती है। के साथ समन्वय करता है साथ ही जो बेहतर है उसे घटित होते
संजय अलंग की कविताओं में उनके विश्व दृष्टिकोण के हुए भी देखना चाहता है। इस तरह मुक्तिबोध की पंक्ति ‘जो है
अलावा मानस में उपस्थित अनुभूतियों पर आधारित उनकी रचना उससे बेहतर चाहिए’ उनकी कविता में प्रतिफलित होती दिखाई
प्रक्रिया का एक मनोवैज्ञानिक पक्ष भी उपस्थित है। कविता लेखन देती है। संजय अलंग की कविताओं में बिम्ब और रूपक बहुत
में हृदय से अधिक मस्तिष्क की भूमिका होती है। हम इंद्रियों द्वारा सीमित संख्या में होने के बावज़ूद वे अपने अलंकरण का बोझ
अनुभव प्राप्त करते हैं जो अनुभूतियों या परसेप्शन के रूप में हमारे लिए हुए नहीं आते बल्कि अपनी स्वाभाविकता में, कविता के लिए
अवचेतन में दर्ज़ होते हैं। एक कवि इन्ही अनुभूतियों को बिम्ब और आवश्यक शर्तों के साथ उपस्थित रहते हैं। दिखाई देने वाले दृश्यों
रूपक के अलंकरणों से सुसज्जित कर कविता कला के साथ शब्दों से परे भी हमारे आसपास ऐसा बहुत कुछ होता है जो न केवल एक

yegh जुलाई से सितंबर 2023 n 279


कहानी नहीं
वह कहता है
तुम आईने के सामने खड़े हो और
यही सच है
अपने आसपास दिखाई देने वाला यह सत्य एक कवि अपने
मन से बमुश्किल स्वीकार करता है। यद्यपि वह अपने सपनों के
संसार को साकार होते देखना चाहता है लेकिन जब वह अपने
लिखे अनुसार दुनिया को बनते हुए नहीं देखता तो या तो वह
पलायनवादी हो जाता है या फिर उसका दर्शन आत्महंता हो जाता
है। कवि संजय अलंग जीवन और कविता में इस स्थिति से बचे
हुए हैं। जो व्यक्ति स्वयं ‘हत्या के खिलाफ’ हो उसका जीवन
आत्महंता कैसे हो सकता है।
कविता के भीतर और बाहर संतुलन बनाए रखने का आलंबन
कवि की विचारधारा से जन्म लेता है। एक मजबूत और परिपक्व
विचारधारा से युक्त कवि आम आदमी का पक्षधर होता है। वह
सरकार की योजनाओं की संस्तुति नहीं करता अपितु ‘झुमका
बांध’ जैसी कविताओं में अपना अंतर्द्वंद्व प्रस्तुत करता है। इसे
हम उहापोह जैसी स्थिति से अलग करके देख सकते हैं। ऐसी ही
कुछ कविताएँ संजय अलंग के पास हैं जिनमे वे साम्राज्यवाद के
विस्तार, पूंजीवाद की विसंगतियों, वर्तमान वैश्विक राजनीति जैसे
मुद्दों पर अपनी बेबाक टिप्पणी करते हैं।
हिदी साहित्य में ऐसे अनेक कवि हुए हैं जो अपने जीवन में
प्रशासनिक अधिकारी भी रहे हैं। अक्सर ऐसे कवियों की कविताएँ
कवि अथवा कलाकार बल्कि समाज के प्रति चिंता करने वाले हर पढ़ते हुए हमारे मन में यह प्रश्न उद्भवित होता है कि कोई कवि
व्यक्ति के मन में घटित होता है। कविता में सामाजिक सरोकार अपनी प्रशासनिक जिम्मेदारियों के साथ अपने जीवन और कविता
जैसी आवश्यक शर्त का निर्वाह करने वाला कवि जब अपने लिखे में अपने कवि होने का निर्वहन कैसे कर सकता है क्योंकि सही
हुए को घटित होते हुए नहीं देखता तो निराश हो जाता है। एक कवि जो ‘कला कला के लिए’ का नहीं अपितु ‘कला जन के
सच्चा कवि यथार्थ से मुँह मोड़ते हुए ‘छद्म’ नहीं लिख सकता। लिए’ का पक्षधर होता है वह वास्तव में व्यवस्था के विरुद्ध ही
कवि के सामने समस्या तब आती है जब वह अपने रचे हुए संसार होता है। ऐसी स्थिति में ऐसा कौनसा मनोवैज्ञानिक द्वंद्व होता है
के बरअक्स एक प्रति संसार देखता है जहाँ भूख़ है, ग़रीबी है, जो हर समय उसके मन के भीतर पलता है। प्रश्न यह भी है कि
बेबसी है, लाचारी है, विषमता है, तब वह लिखता है - यह द्वंद्व उसका नुक़सान करता है अथवा उसकी सृजनात्मकता में
जब भी मैं दर्पण के सामने होता हूँ वृद्धि करता है? कवि संजय अलंग की कविताओं को पढ़ते हुए
वह सदा एक कहानी बताता है यही प्रश्न हमारे मानस में आते हैं। लेकिन यहाँ हम अनुभव कर
मैं उसमें देखना चाहता हूँ सकते हैं कि संजय अलंग अपनी कविताओं में आम आदमी के
सुंदर चेहरा भरी झील हरित वृक्ष पक्ष में अपनी राय रखते हुए, अपनी स्पष्ट समझ के साथ इस द्वंद्व
ऑंखें खुली की खुली रह जाती हैं को समायोजित करते दिखाई देते हैं। इसकी झलक उनकी कुछ
जब वह दिखाता है कविताओं में मिलती है जैसे ‘सलवा जुडूम के दरवाज़े से’ नामक
बदरंग चेहरा, सूखी झील, सूखा वृक्ष कविता में वे कहते हैं
मैं कहता हूँ बन्दूक शाश्वत है
सच बताओ कभी राजा पर कभी प्रजा पर

280 n जुलाई से सितंबर 2023 yegh


किसी के भी हाथ में हो की फिक्र नहीं है उन्हें मनुष्यों के बीच कवि होने या विशिष्ट होने
कहीं भी चले मरेगा तो आदमी ही का कोई गुमान भी नहीं है इसलिए स्वयं के और अपने जैसे अन्य
संजय के भीतर एक एक्टिविस्ट भी है जो समय समय पर अपना लोगों के प्रतिनिधि के रूप में वे कहते हैं-
प्रतिरोध सामने रखता है, ‘सेज जैसे विस्तारों पर’ उनकी एक नाम जानकर क्या करोगे मेरा
अपनी राय है जिसे वे भले ही अपनी रिपोर्ट के रूप में न रख पाए नहीं जानना है नाम तुम्हारा
हों लेकिन कविता में वे रखते हैं। ‘अच्छा आदमी सब और बस तब भी हमारा साथ है सभी जगह
जायेगा’ नामक कविता में उनकी यही छटपटाहट दिखाई देती है- गांव में शहर में जंगल में
ज़मीन जायेगी जाए तुम और मैं बेनाम ही हों
पेड़, पहाड़, नदी, जानवर तब भी हमें मजबूत होना है
नाच- गाने, किताब, बोली साथ होना है सभी जगह।
आन- बान, इज्जत, आबरू इस तरह सम्पूर्ण में निज को विलीन कर देने की यह मानसिकता
शासन, संस्कृति ही एक कवि को विशिष्ट बनाती है। कवि संजय अलंग संप्रेषणीयता
साथ जाएँ तो जाएँ के ख़तरे उठाते हुए भी स्थानीय व्यक्तियों, स्थानों और चरित्रों को
लेकर कविताएँ लिखते हैं। ऐसी ही उनकी एक कविता है जिसका
जब अच्छा आदमी ज़मीन लेगा तो शीर्षक है ‘दन्न फ़ो’। यह कविता एक ऐसे इंसान के बारे में है
ख़ूब पैसा देगा जो मानसिक रूप से विचलित है, जो सड़क पर चलते हुए पत्थर
पैसा आएगा तो यहाँ वहां जायेगा उठाता है, लोगों को मारने दौड़ता है और चिल्लाता है। ‘दन्न फ़ो’
कथाकार तेजिंदर ने उनके कविता संकलन ‘पगडंडी छिप कविता की पंक्तियाँ हैं-
गई थी’ की भूमिका में लिखा है “संजय अलंग की कविताओं में बस बैठ जाता किसी के द्वार पर
व्यवस्था के प्रति एक तरह के अन्तर्निहित विरोध का स्वर है, जो उनके ही जिसे वह सही समझता
बहुत मुखर न होते हुए भी पाठक के भीतर धंस जायेगा।” यह उसका चयन था
संजय अलंग की कविता के कुछ और भी महत्वपूर्ण पहलू भी मन की आवाज़ ले जाती उसे सही घर तक उसे
हैं। रहस्य, बीतता समय, वर्तमान में जीना, भूमध्य रेखा से सूर्य को उनसे ही लेता वह रोटी और पानी
ताक़ते हुए जैसी दार्शनिक सौन्दर्य से ओतप्रोत उनकी कविताओं में ऐसे घर नहीं होते ख्यात या सेठ के
उनके भीतर एक दार्शनिक भी दिखाई देता है। उनकी एक कविता तब भी लोग उसे कहते पागल
है ‘अस्तित्व’ जिसकी पंक्तियाँ कुछ इस तरह हैं- इस तरह संजय अलंग के यहाँ कविताओं का एक विविध संसार
ब्रह्माण्ड में तैरते है जहाँ कविता कर्म के उनके विकास को हम उत्तरोत्तर समृद्ध होता
शून्य में विचरते हुआ देखते हैं। वे आम आदमी के जीवन से कविता के लिए शब्द
पैदा होते चुनते हैं और इसीलिये आम आदमियों के कवि हैं। सामाजिक
शून्य की ऊर्जा से सरोकार उनके यहाँ उपदेशात्मक रूप में नहीं आते बल्कि उनका
आता है सृजन स्व उनमे सदैव उपस्थित रहता है। उनकी कविताएँ आत्मपरक
धमाके के साथ नहीं हैं बल्कि उनका विस्तार मनुष्य की पीड़ा में, प्रकृति के सौन्दर्य
शब्दों में बिग बैंग की थ्योरी का आभास कराने वाली यह में, जीवन के मूल रागों में निरंतर होता है। एक कवि के आसपास
कविता अपने विस्तृत अर्थ में वर्तमान के आभासी संसार का एक उसे लुभाने के लिए अनेक चीज़ें होती हैं लेकिन उनके आकर्षण,
चित्र प्रस्तुत करती है। इन दिनों सोशल मीडिया पर हम कवि रूमान और सायास अमूर्तन से बचते हुए उनके भीतर के स्वभाव
लेखकों की बाढ़ देख रहे हैं। आज एक रचनाकार के पास अपनी को देखकर, परखकर आम आदमी की भाषा में उन पर कविता
अनगढ़ रचना को भी तुरतं प्रकाशित कर लोकप्रिय हो जाने की लिखने का महत्वपूर्ण कार्य संजय अलंग जैसे कवि से ही संभव
सुविधा प्राप्त है। यह पापुलैरिटी कल्ट इस तरह से समाज में व्याप्त हो सकता है। n
है कि लोग अब केवल अपना नाम चाहते हैं। लाइक और कमेंट संपर्क : दुर्ग छत्तीसगढ़
की इस दुनिया में संजय अलंग एक ऐसे कवि हैं जिनको अपने नाम मो. 8871665060

yegh जुलाई से सितंबर 2023 n 281


n महत्तम : संजय मिश्र

उम्मीदें सहेजती हुई मर्मवेधी कविताएँ


कीर्ति बंसल

कविता जब द्वन्द्व से गुज़रती है और उम्मीद बँधाती पहले/ जब भी जाता था गाँव,/ गाँव को जागता हुआ
है तो वह जिजीविषा का ही प्रतीक होता है। दैनंदिन ही पाया,/मगर इस बार गाँव,/ सो नहीं पा रहा था।”
जीवन के संघर्षों से लेकर लगभग हर मोर्चे पर आम जागने में और सो न पाने में जो अन्तर होता है, वह
आदमी संघर्षरत है, परेशान है और उलझा हुआ है। बहुत बारीक होता है और इन्हीं बारीकियों से संजय
कविता संघर्ष के लिए आम इंसान को आवश्यक मिश्र की कविताओं का जन्म होता है।
बल प्रदान करती है, अँधेरों को चीरने का जज्बा पैदा फुरसत के क्षणों में संकुचन होने के कारण जीवन
करती है। ‘उम्मीद की तरह एक विचार’, ‘रोशनी से में संगति का अभाव होता चला गया है, और घटनाओं
सुराग़ तक’ तथा ‘आईने और असली कद’ जैसे महत्त्वपूर्ण कविता में तारतम्य बैठाने में हम प्रायः असफल होते चले जा रहे हैं। कवि
संग्रह रचने वाले चर्चित कवि संजय मिश्र अपनी कविताओं में को विश्वास है कि आकाश में ही मिलेगा पूरा चाँद, भले ही बच्चों
जिजीविषा के लिए जाने जाते हैं। उनकी कविताएँ हमारे समय के ने सप्तर्षि मण्डल और चाँद के रोज़-रोज़ घटने-बढ़ने के बारे में
विद्रूप यथार्थ को पाठकों के सामने नए तरीकों और सहज किन्तु ख़ूब पढ़ा हो। बच्चे भले ही पूरे चाँद की रात में ताजमहल को या
बेहद प्रभावशाली शिल्प के साथ प्रस्तुत करती हैं। इस कॉरपोरेट जैसलमेर की रेत को देखने के आकांक्षी हों लेकिन कवि को तो
समय की तेज़रफ्तार ज़िन्दगी में मार्मिकता और प्रेम किस तरह पूरा चाँद अपने गाँव के निरभ्र और प्रदूषणरहित आकाश में ही
गायब हो रहे हैं, मूल्य और मानक किस तरह खण्डित हो रहे हैं दिखता है। यह दिखना केवल दिखना नामक क्रिया भर नहीं है,
इन सबका जायज़ा लेते हुए‘सब कुछ खत्म नहीं होगा’ नामक जीवन-दर्शन को महसूसना है। यहाँ एक अन्विति, समन्वय और
कविता में संजय मिश्र लिखते हैं–“कभी ऐसा भी दिन आएगा/ सहजीवन है, कोई टकराव नहीं। ‘टक्कर के बाद’ नामक कविता
कि शायद धरती पर तो थोड़ा बहुत बचा रहे/ पर आँख में नहीं में कवि का प्रेक्षण है कि “आज/ सड़क पर मैं/ एक आदमी से
होगा पानी/ चीज़़ें और भी कम होती जाएँगी/ जैसे/ आदमी में टकरा गया/ उस आदमी ने/ मुझे दिल खोलकर गालियाँ दीं/ और
इंसान/ ग़रीब की थाली में रोटी/ बरसात में रूमानियत/ सिनेमा मैं/ देर तक/ उस बेचारे का चेहरा देखता रहा/ शायद/ उसकी
में शालीनता/ होंठों पर हँसी/ बच्चों में मासूमियत/ और बातों में बीवी ने आज उससे/ किसी महँगी चीज़ की फ़रमाइश की है/ या/
मिठास/ प्रेम में रहस्य/ जीवन में आनन्द।” असल में उदारीकरण उसके बॉस ने अपनी खीझ/ आज उसी पर उतारी है...।”टक्कर
और भूमड ं लीकरण के बाद जहाँ विकास के टापुओं यानी शहरों तो किसी के साथ भी हो सकती है, चाहे भीड़ हो या न हो, लेकिन
और महानगरों में मुनाफे के लिए होड़ और आपाधापी बढ़ी है, वहीं इतनी सामान्य घटना पर इतनी सारी संभावनाओं और आशंकाओं
गाँवों और ग़रीबों की दशा में कोई उल्लेखनीय सुधार नहीं हुआ के कयास लगाने से कवि की कल्पनाशीलता और आम आदमी
है। आर्थिकी और समाजशास्त्र के सारे सिद्धान्त बौने नज़र आते हैं, के जीवन के अनुमानित संघर्षों के प्रति कवि की संलग्नता और
जब हम समाज में व्याप्त असमानता और शोषण के दुष्चक्रों को सहलग्नता साफ जाहिर होती है। असलियत यही है कि समय की
देखते हैं। संजय मिश्र समय को समग्रता में देखने वाले कवि हैं बढ़ती जटिलता के कारण कयासबाजियों और किन्तुओं-परन्तुओं
और उनकी कविताओं में उम्मीद प्रायः अपनी सम्पूर्ण वैचारिकी में की भरमार-सी होती चली गई है और सामाजिक रिश्ते निश्चितता,
उपस्थित होती है। ‘गाँव की आँख’ नामक कविता में उन्होंने अपने निश्चिन्तता और विश्वसनीयता से हीन होते गए हैं। संबंधों की
भीतर के कवि के भोक्ता का यथार्थ रचा है :“पच्चीस तीस बरस लय भले ही बिगड़ती चली जा रही हो, लेकिन अभी भी ऐसे लोग

282 n जुलाई से सितंबर 2023 yegh


मौज़ूद हैं जो दूसरों की भलाई के लिए निःस्वार्थ भाव से काम करते था, आज वे सभी दावे समय की प्रवाहमान कन्दरा में गुम हो गए।
हैं। संजय मिश्र की काव्य-दृष्टि कविता की भीतरी रागात्मकता के इसीलिए कवि स्वीकार करता है कि “दुनिया की आख़िरी किताब/
साथ अपना प्रसार करते हुए न सिर्फ़ गद्य की नीरसता से मुक्त होती कयामत तक भी लिखी जाने से बची रहेगी।”कविता की ये पंक्तियाँ
है, बल्कि पाठकों को आत्मीयता के रस से सराबोर भी करती है। इस संग्रह का सारतत्त्व हैं क्योंकि संजय मिश्र की कविताएँ रोशनी
अगर कविता में सादगी और संयम को महत्त्वपूर्ण माना जाता के दुर्लभ सुराग़ तक पहुँचती हैं जो गहरी एक उम्मीद पर टिका हुआ
हो, तो“मैं/ उस जमाने का हूँ/ जब जीवन में प्रेम होता था/ और है। कविताओं की पंक्तियों में इस बात की वाज़िब उम्मीद कायम
प्रेम में जीवन” जैसा गहन काव्य लिखने वाले संजय मिश्र की है कि दुनिया में आख़िरी किताब लिखने तक न जाने कौन-कौन
कविताएँ सादगी और प्रत्यक्ष अनुभूतियों का सहज परिणाम हैं। से विकास और बदलाव होंगे, न जाने कौन-कौन सी स्थितियाँ-
यहाँ कोई हवाई कल्पना या फोटो खिंचवाने वाली नकली लड़ाई परिस्थितियाँ आएँगी। इन सारी स्थितियों-परिस्थितियों के प्रति
नहीं है, बल्कि इसके उलट यहाँ लड़ाइयों और आत्मसंग्रामों के आशा और उम्मीद का आश्वस्तिकारक भाव सहेजने के कारण ये
भीतरी खुरदुरे रेशों का उद्घाटन है। आत्मिक द्वन्द्वों की कालिमा को कविताएँ अपने आयामों में बड़ी बनती हैं और कवि के आनुभविक
चीरकर निकलने वाली बिजली यहाँ द्वन्द्वातीत होकर कौंधती है और अन्तःकरण के दायरे की विशालता को परिलक्षित करती हैं। कुछ
समय की लहरों पर एक प्रतिदीप्ति के साथ तैरती है। ‘बालूघड़ी’ कविताओं में कवि का न्यायोचित आक्रोश भी जाहिर होता है।
नामक कविता में कवि कहता है, “मैं परेशान हूँ कि/ मेरा दिमाग़ संजय मिश्र की कविताओं में उम्मीद के बरअक्स चुटकी भर
और पेट/बालूघड़ी के ऊपर और नीचे के/ हिस्सों की तरह क्यों है/ नाउम्मीदी का काव्यात्मक छायाभास भी मौज़ूद है। ‘आईने और
जब दिमाग़ पूरी तरह/ खाली होता है तभी/ पेट पूरी तरह भर पाता असली कद’ शीर्षक कविता में वे लिखते हैं, “मैं वह उस्ताद हूँ,/
है।” कितना सपाट अनुभव है यह कि जब मनुष्य अपनी या समाज जिसने चेलों को सिखाई थी बारहखड़ी/ जिसका एक भी शब्द/
की गम्भीर चिन्ताओं के समन्दर में डूबा रहता है, तब भूख़-प्यास वापस दुआ सलाम की तरह भी/ नहीं लौटा।” प्रतिदान की आकांक्षा
कहाँ लगती है भला! कवि अन्त तक इस दुविधा से लड़ता है कि के बिना घटित हुए इस प्रेम को हम अपने आसपास अनेक रूपों
कौन-सा हिस्सा ज्यादा महत्वपूर्ण है, दिमाग़ या पेट? ऐसे सवाल और शक्लों में देख सकते हैं। सह-अस्तित्व की चाहना के साथ-
कवि की कविताओं में अनेक बार आए हैं और कोई भी कवि अपने साथ विषयों की विविधता तो यहाँ मौज़ूद है ही, भावों का कैनवास
समय के सवालों से मुँह नहीं चुरा सकता। उसे, कम से कम, भी बहुत व्यापक है। यहाँ अगर‘मेमने की आपबीती’ जैसी कविता
अपने समय के गम्भीर सवालों से तो जूझना ही पड़ता है, उनके रची गयी है, तो वहीं ‘इतिहास घूम-घूमकर आ रहा है’ जैसी बड़े
उत्तरों को हासिल करने के लिए मुठभेड़ करनी ही पड़ती है। उन फलक वाली कविताएँ भी एक अलग ही यथार्थमूलक कल्पनाजगत
सवालों की परतों में उतरकर यथार्थ को उधेड़ना पड़ता है और में ले जाती हैं। सूचना और संचार क्रान्ति के वर्तमान दौर में शोर
संजय मिश्र ऐसा करने का जोख़िम उठाते हैं–“कभी-कभी जानवर तो बहुत बढ़ा है, लेकिन आत्मीय संवाद की मात्रा और गुणवत्ता
भी/ करेंगे हत्याएँ, आत्महत्याएँ और बलात्कार/ चोरी, बदमाशी, दोनों में गिरावट आई है। कवि ने इस विषय पर ‘सूचना क्रान्ति
चीज़ें और भी होंगी/ एक अनजान से शहर में।” कविता की ये और संवाद’ नामक एक मार्मिक कविता गढ़ी है और उन दिनों को
पंक्तियाँ चाक-चौबन्द कहे जाने वाले हमारे महानगरों की तल्ख़ याद किया है जब एक पोस्टकार्ड में भावनाओं और आत्मीयता
सच्चाइयों का रूपायन करती हैं और इस बात को साबित करती हैं का वारिधि समाया रहता था और दूसरी तरफ आज का समय
कि कवि का चिन्तन-परास बहुत विस्तृत है। है, जब फोन, इंटरनेट, फैक्स और चैटिंग के उन्नत जमाने में भी
कवि जो कुछ सोचता है, उसे लिखने से पहले हजार तरीके आत्मीयता को खोजना किसी भयंकर रेगिस्तान में जलस्रोत खोजने
की अड़चनें आती हैं। इसीलिए एक किताब प्रकाशित होकर आती जैसा होता चला गया है। संजय मिश्र की ख़ूबी यह है कि वे नीरस
है और लोग उसे ख़ूब पढ़ते-सराहते हैं, लेकिन वक्त के साथ वह और उपेक्षित विषय पर भी हृदयस्पर्शी कविता रच ले जाते हैं। ऐसा
किताब अप्रासंगिक हो जाती है या पुरानी हो जाती है। इसी विषय शायद इसलिए संभव होता है क्योंकि वे लयात्मक कविताओं और
को सैद्धान्तिक तरीके से पकड़कर इस विषय की व्यावहारिकता ग़ज़ल के भी माहिर हैं। अपनी एक ग़ज़ल में वे कहते हैं, “जुल्म
का पूरा ध्यान रखते हुए कवि संजय मिश्र ‘दुनिया की आख़िरी इतने सह रही हैं ये बेचारी पट्टियाँ/ जख्म इतने हैं कि कम हैं आज
किताब’ नामक अपनी कविता में बात उस ज़माने से शुरू करते हैं, सारी पट्टियाँ/ घाव भर जाए तो उसके बाद यह दस्तूर है/ फेंक दी
जब सूरज घूमता था धरती के चारों ओर और धरती चौरस, चौकोर जाती हैं बाहर ग़म की मारी पट्टियाँ।” ग़ज़लों में ही नहीं, कविताओं
हुआ करती थी। तब सारी की सारी किताबों में जो कुछ भी लिखा में भी कहन और शिल्प के स्तर पर वे हमेशा इस बात को लेकर

yegh जुलाई से सितंबर 2023 n 283


चौकन्ने रहते हैं कि अमुक किस्म के कथ्य के लिए किस तरीके के हैं कि, “सारी घृणा/ मैंने उछाल दी आसमानों में/ सारा प्यार/ मैंने
प्रसंगानुकूल शिल्प का प्रयोग किया जाए। ऐसी सजगता के कारण फेंक दिया,/ जंगलों में, पहाड़ों में, समन्दर में/ धरती पर।” विरुद्धों
इन कविताओं में अनावश्यक स्फीति नहीं है और ये कहीं से भी के सामंजस्य की तरह यह फेंकना, फेंकना नहीं है, विस्तार की
बोझिल नहीं लगतीं। दिशा में आत्मा के आयतन को बढ़ाना है। इस उम्मीद के साथ
पिता पर कुछ लिखते हुए संजय मिश्र इस बात पर ज़ोर देते कि, “भरूँगा फिर से/ अपनी आत्मा,/ लबालब,/ परिचय, प्यार,
हैं कि माँ और उनके प्यार पर तो अनगिनत कविताएँ लिखी गई स्नेह और/ थोड़े से/ नमक की तरह/ संशय से।” कवि इस बात से
हैं लेकिन पिता पर? पिता पर भी लिखा गया है, पर कितना और वाकिफ हैं कि लोग चाहे जितना कहें कि वे पूर्ण हो गए हैं लेकिन
कैसा! इस फ़र्क पर वे पूरकता की दृष्टि से ग़ाैर फरमाते हैं। पिता असल में वह पूर्णता नहीं होती है, पूर्णता की दिशा में बढ़ाया जाने
के प्रति कवि का जो प्रेम है उसे न तो पिता ही भाषाबद्ध कर सके वाला एक कदम भर हुआ करता है और इसीलिए वे संशय का
और न ही पुत्र कवि। यह विसंगति और विडंबना भी अन्ततः एक स्वागत करते हैं, चाहे दबे मन से ही सही। कवि का अच्छाई और
आशावादिता और उम्मीद की तरफ जाती है। सच्चाई की शक्तियों में असीम विश्वास है, तभी उन्होंने ‘सिर्फ़ सच
बहुत सारे रंगों को, किसी चित्रकार की तरह, अपनी रचनाओं जीत जाता है’ नामक सुन्दर कविता लिखी है जो पाठकों को बहुत
में समाहित कर लेने वाले संजय मिश्र के यहाँ एक रंग बदरंग भी कुछ सोचने पर विवश करती है।
है। सारे फल पीले हैं, फिर भी कोई खट्टा है, कोई मीठा तो कोई आमफ़हम भाषा के देशज शब्दों और लोकजीवन की कुछ
खटमिट्ठा; एक ही इत्र में सभी महक़ रहे हैं, एक ही ब्राण्ड के कपड़े कहावतों पर संजय मिश्र नए तरीके से अपना नज़रिया रखते हैं।
सभी ने पहन रखे हैं, शक्लें भी लगभग एक दूसरे की कॉर्बन कॉपी, चाहे वह ‘कब तक हम ढोएँगे’ नामक कविता हो, चाहे ‘एक
मकान अलग-अलग ईंटों से बने हुए लेकिन पुते हुए एक ही रंग अच्छे इंसान की दुख भरी कहानी’ हो या फिर ‘ज़िन्दगी चलती
में। दुनिया एक ही रंग में रंगी जाकर कितनी बदरंग हो जाती है, इसे है’ जैसी कविता– इन सभी कविताओं में वो सारे वाक्य, भाव,
संजय मिश्र के भीतर का कवि महसूसता है, प्रश्नाकुल होता है। अभिव्यक्तियाँ, शैली और वातावरण मौज़ूद हैं, जो अनचाहे ही
वैविध्य-समापन की यह कारुणिक प्रक्रिया प्रेम की पुरानी पोथी पर हमारे मुँह से निकलते रहते हैं। एक आम आदमी इन कविताओं
प्रहार करता है और अलग-अलग मौसमों के महत्त्व को रेखांकित में अपने लिए बेहतरीन स्पेस पाता है क्योंकि साधारणतम विषयों
करता है। कविता अभिव्यक्ति का एक ताक़तवर माध्यम है। इसके के प्रति भी कवि का ट्रीटमेण्ट ऐसा है कि साधारण विषयवस्तु भी
निहितार्थों को समझते हुए संजय मिश्र लिखते हैं कि, “कविता आकर्षक और स्वादयुक्त लगने लगती है।
अगर तलवार है/ तो रहे/ मगर ज़रूरी होगा यह सोचना/ कि वह अपने आस-पास के रिश्तों तक ही उनकी संवेदना सीमित
काटती क्या है?” कविता को अगर हवा माना जाए तो कवि का नहीं है, बल्कि वे प्राणिमात्र को इस संवेदना का विषय बनाते हैं,
सवाल यह है कि वह आख़िर किसकी प्राणवायु है! कविता के पर्यावरण की सच्चाइयों को ख़तरे की घण्टी की तरह प्रस्तुत करते
प्रति कवि का दृष्टिकोण स्पष्ट रूप से उभरता है और यह कहना हैं और ‘जानवरों के देश से एक चिट्ठी’ जैसी कविता रच पाने में
समीचीन होगा कि यह दृष्टिकोण सर्जनामूलक है। वे लिखते हैं, सक्षम साबित होते हैं। इन सबके अलावा हैरत तो तब होती है
“कविता जीवन हो तो/ जीवन के साथ,/ जीवन के भीतर रहे,/ कि इतने सक्षम होकर भी वे लिखते हैं कि “भले ही अपने आप
किसी ऊँचाई पर बैठकर/ जीवन को छोटा न देखे।” लघुता की से शर्मिन्दा हूँ/ ...मगर बनैले जानवरों के बीच/ आज तक ज़िन्दा
महत्ता को समझने वाला और सुई या तलवार में से किसी को भी हूँ।” इसी तरह ऐसे कितने ही मौके आते हैं, जब रचनाओं के
छोटा-बड़ा न मानने वाला एक सुलझा हुआ कवि ही ऐसी रचनाएँ माध्यम से कवि की पक्षधरता चमकते शीशे की तरह जाहिर होती
रच सकता है। है और कविताएँ सरोकारमूलक होती चली जाती हैं। इसीलिए इन
नीति, न्याय, नियम, नैतिकता, सदाचार और करुणा जैसे कविताओं की एक गहरी संदर्भ सापेक्षता बनती है। मनुष्यता की
जीवन-मूल्यों के न सिर्फ़ मायने बदल गए हैं बल्कि अब तो वे पक्षधर कविताएँ रचनेवाले कवि संजय मिश्र की कविताएँ पठनीय
पोथियाँ भी हटा दी गई हैं जहाँ इनके सटीक अर्थ लिखे रहते थे। ही नहीं, चिन्तन और मनन करने योग्य भी हैं। n
आन्तरिक और बाहरी दबावों ने आत्मीय, पारिवारिक, सामाजिक
और वैश्विक संरचनाओं पर अच्छा-खासा असर डाला है और बी-3/55, सेक्टर-16, रोहिणी,
मानव को विमानवीकृत किया है। इसीलिए, संजय मिश्र लिखते दिल्ली–110089,
मो. 08586866747

284 n जुलाई से सितंबर 2023 yegh


n महत्तम : राकेश मिश्र

समकालीनता को कालातीत बनाने वाले बौद्धिक संवेदना के कवि


करुणा शंकर उपाध्याय

कविता मनुष्य की आदिम उपलब्धियों में गिनी जाती सूक्ष्म-दृष्टि है जो इनके संवेदनात्मक सरोकारों को
है। वह अपने प्रशस्त रूप में जीवन और जगत का बिंबात्मक रूप में मूर्तिमान करती है। इन कविताओं
पुनःसृजन है। वह मानवीय मनोविकार के परिमार्जन का सबसे बड़ा वैशिष्ट्य यह है कि यहाँ कवि की
का सबसे बड़ा साधन है। कविता मानवीय चेतना का जीवनानुभूति ही काव्यानुभूति बन गई है। कवि ने
उन्नयन करके उसे लोकमन अथवा जनसामान्य से बड़ी सहजता से अपने जीवन में जो कुछ देखा,
जोड़ती है। कवि अपने जीवनानुभवों को काव्यानुभव समझा, महसूस किया उसे सुसंगत काव्य पंक्तियों
में रूपायित करके स्वयं को जीवन और जगत के में रूपांतरित कर दिया। इन कविताओं में कवि अपने
वृहत्तर संदर्भोंं से जोड़ता है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने अपने विश्व व्यापक सरोकारों के साथ प्रकट हुआ है। इसमें समाज के प्रत्यक्ष,
प्रसिद्ध निबंध 'कविता क्या है?' में ठीक ही लिखा है कि, “सभ्यता यथार्थ और आदर्श तीनों ही रूप विद्यमान हैं-
की वृद्धि के साथ -साथ ज्यों-ज्यों मनुष्यों के व्यापार बहुरूपी और बहुत ज्यादा कीट हैं
जटिल होते गए त्यों-त्यों उसके मूल रूप आच्छन्न होते गए। भावों धरती पर
के आदिम और सीधे लक्ष्यों के अतिरिक्त और लक्ष्यों की स्थापना कीटनाशकों से भी ज्यादा
होती गई, वासनाजन्य मूल व्यापारों के सिवा बुद्धि द्वारा निश्चित दुनिया को कीटों से मुक्त होना है...’
व्यापारों का विधान बढ़ता गया।” कहने का आशय यह है कि राकेश मिश्र वैज्ञानिक चेतना से अनुप्राणित सर्जक हैं। विज्ञान
मनुष्य ने सभ्यता के विकास में जो उपलब्धियाँ अर्जित की हैं उनसे का संबंध जिस वास्तविकता की प्रस्तुति, उसको समझाने एवं
उसके मूलभूत मनोभावों पर आवरण पड़ता गया है। विश्लेषित करने की समझ से है, वह इन कविताओं में एक भिन्न
कविता के समकालीन परिदृश्य में राकेश मिश्र की उपस्थति स्वरूप में आती है। राकेश मिश्र की कविताएँ समसामयिक जीवन
अपने गहन सामाजिक-सांस्कृतिक सरोकारों के कारण महत्वपूर्ण के कठिन, बहुस्तरीय और अमानवीय होती स्थितियों के बीच बहुत
बन गई है। राकेश मिश्र का कवि नए ढंग से सोचने का उद्यम ही कुछ बचा लेने की चाह से उपजी हैं। इनमें मनुष्य को मनुष्य बनाए
नहीं करता, नए की सार्थकता की तलाश भी करता है | नए की रखने की गहरी चिंता है। जीवन और जगत को उसके वैविध्यपूर्ण
सार्थकता तभी है, जब उसमें बद्धमूल विचार-प्रणाली के बरअक्स स्वरूप में समझने की ललक है। आप सही मायने में जीवन धर्मी
वैकल्पिकता की तलाश हो; जीवनगत अवरोधों के प्रतिपक्ष में कवि हैं। आपके सृजन का सबसे महत्वपूर्ण बिन्दु और जीवन के
आवाज़ उठाने का साहस हो और अपने जीवन के आर पार निहारने प्रति स्वीकृति का भाव है। 'चलते रहे रात भर' में भी कवि का यही
की विकलता हो। विकलता से उपजी इस यात्रा में अब तक कुल दृष्टिकोण अभिव्यक्त हुआ है–
उनके पांच काव्य-संग्रह, जिनमें– ‘शब्दगात’, ‘जिंदगी एक “रात भर चलते रहे हल
कण है’, ‘चलते रहे रात भर’, ‘अटक गई नींद’ तथा 'शब्दों का स्याह बंजरों में
देश’-आ चुके हैं। ‘शब्दगात’ संग्रह 2002 में प्रकाशित हुआ था मन के/ बैलों की पैजनियाँ
उसके बाद 2019 में ‘चलते रहे रात भर’ आया। 'चलते रहे रात खनकती रहीं/ खन्-खन्/ झन्-झन्
भर' में कुल 191 कविताओं का समावेश हुआ है। राकेश मिश्र के रात भर उगा/ बहुत कुछ
पास अंत:प्रकृति और बाह्य प्रकृति का संधान करने वाली पारगामी भूरी मिट्टी मन की/ चिपक ली

yegh जुलाई से सितंबर 2023 n 285


सुरसरी हवा से/ रात भर और जागतिक संदर्भोंं की अनदेखी नहीं करने देता बल्कि जीवन
मेड़ों पर सीमांत/ टहलते रहे और जगत के वृहत्तर संदर्भोंं की सापेक्षता में उसे विशिष्ट भाव-
तुम। भंगिमा और तेवर प्रदान करता है। 'चाहत' शीर्षक कविता में वह
हमारे कवि का जीवन और जगत के प्रति दृष्टिकोण अत्यंत लिखते हैं- “बहुत चाहता हूँ/ मैं/तुमको/ पर/ देखो/-जब मैं बहुत
व्यापक है। वह जीवन को संपर्णत ू ा में चित्रित करने के लिए चाहता हूँ/तुमको/तब जिंदगी/जिंदगी नहीं रहती।” इस तरह कवि
मृत्युबोध की कविताएँ भी लिखता है। वह भली-भाँति जानता है कि की चाहत उसके व्यक्तित्त्वांतरण का कारण बन जाती है। कवि
जीवन की चरम परिणति मृत्यु अथवा मुक्ति है। इस दृष्टि से 'कैसे प्रेम को अपने अनुभव और चिंतन से परिपुष्ट करके पारिभाषित भी
मर जाऊँ', 'मौत', 'ख़बर मौत की,' तथा 'मुक्ति' जैसी कविताएँ करता है। वह लिखता है कि "प्रेम/चरमोत्कर्ष है/असमस्त बिंदुओं
उसके जीवन संबंधी चिंतन को स्वाभाविक परिणति तक पहुँचाती के बीच/प्रेम एक अनवरत मौन है/समस्त वासना संवादों के बीच/
हैं। हमारा जीवन किस तरह हर संघर्ष एवं हर परिस्थिति से पार प्रेम आत्यंतिक विद्रोह है/रोम-रोम का/समस्त जड़ता के बीच/प्रेम
पाने के अनवरत प्रयास की अभिव्यक्ति है और किस तरह हमारे एक विश्वास है सबकुछ पास होने का/समस्त अकिंचनता के बीच/
सारे संकल्पों के पीछे अदम्य जिजीविषा कार्य करती है इसका प्रेम एक शान्त मृत्यु है/समस्त जिजीविषा के बीच। प्रेम एक नियति
संधान भी इन कविताओं में किया जा सकता है। राकेश मिश्र का है/गिर पड़ने की/गहनतम अंधकूप में। इस तरह मिश्रजी प्रेम के
कवि संवेदना के धरातल पर कहीं भी दुविधाग्रस्त नहीं है। वह अनेक पक्षों पर दार्शनिक की तरह चिंतन करते हुए उसे अर्थव्याप्ति
इस संसार को सही कोण से देखता है और उसके समूचे सच प्रदान करते हैं। प्रेम की नाना रूपात्मक छवियों का एक कोलाज़
को निरावृत करता है। वह 'जीवन' शीर्षक कविता में एक जीवन तैयार करते हैं-
चिंतक की भांति लिखता है कि– ‘प्यार अक्सर
“जब मोटर वाले ने/ हार्न बजाकर जेठ की धूप होता है
अकेली सड़क से/ बतकही शुरू की जो तपता है तो
और/ जब मैं सोचता रहा जल उठती हैं रातें।’
एक चौकोर आसमान (प्यार)
तब मैंने जाना कि जीवन की सारी समस्या इनका प्रेम-चिंतन वर्तमान जीवन में बढ़ रही आपाधापी,
इसे बिता डालने की समस्या है।” संवेदनहीनता का अतिक्रमण करते हुए मनुष्य को जीवन के
कहना न होगा कि कवि अपनी सर्जनात्मक ऊर्जा के सम्यक वास्तविक स्वरूप और आह्लाद से परिचित करा सकता है। उसके
उपयोग द्वारा जीवन को सार्थकता प्रदान करता है। वह अपने जीवन में संतुलन पैदा करके तमाम तनावों का निराकरण कर
रागात्मक अनुबंध पर भी लेखनी चलाता है। कवि एक स्वप्न- सकता है। ये कविताएँ प्रेम को अनुभव के दायरे से निकालकर
समय की निर्मिति द्वारा सामाजिक-सांस्कृतिक सामंजस्य को बौद्धिक मीमांसा की ओर ले जाती है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए
पुनर्नवता प्रदान करता है। सहज शब्दों द्वारा, अकृत्रिम शिल्प कि हर मनोभाव भी किसी न किसी चिंतन की स्वाभाविक परिणति
के माध्यम से विविध अर्थ-संदर्भोंं का आभास देना मिश्रजी की है। मनुष्य का हर कार्य उसके मन के संकल्पों, चिंतन सरणियों
कविताओं की प्रमुख विशेषता है। तथा आंतरिक विप्लवों से संचालित होता है। हमारे सारे मनोभाव
ऐसा माना जाता है कि प्रेम मनुष्य का सबसे कोमल एवं प्रेरक किसी न किसी रूप में बुद्धि की सहक़ारी भूमिका का आश्रय पाकर
भाव है। उसका जीवन प्रेम से ही पूर्णता तथा सार्थकता प्राप्त करता ही स्वाभाविक परिणति तक पहुँचते हैं। फलतः राकेश मिश्र की प्रेम
है। इस दृष्टि से राकेश मिश्र की प्रेम संबंधी कविताएँ विशेष रूप कविताएँ उनकी अपनी निजी उपलब्धि हैं जो उनके अपने जीवन
से उल्लेखनीय बन पड़ी हैं। कवि का मानना है कि मनुष्य का सारा को भी सार्थकता प्रदान करतीं हैं। कवि की प्रेम कविताएँ केवल
प्रयत्न सुंदर और पूर्ण होने के लिए है। ये कविताएँ इसी उद्देश्य को उसके प्रेमास्पद तक परिमित नहीं है अपितु उसमें प्रकृति और
साधने के प्रयास की सटीक अभिव्यक्ति हैं। कवि अपने काव्य- मनुष्यता के साथ रागात्मक अनुबंध भी समाहित है। कवि की प्रेम
विवेक से प्रेम जैसे अत्यंत कोमल और एकांतिक मनोभाव को एक संबंधी कविताएँ भी जीवन और जगत के प्रति उसकी संलग्नता का
नए तेवर और मुहावरे के साथ प्रस्तुत करता है। उसका प्रेम-दर्शन परिचय देती हैं। कवि प्रेम को मानवीय जीवन के उत्कर्ष का आधार
उसकी कविताओं को संवेदनात्मक औदात्य प्रदान करता है। उसका बनाकर प्रस्तुत करता है। यह इस बात का प्रमाण है कि हमारा कवि
गहन दायित्वबोध उसे प्रेम के चित्रण में भी व्यापक सामाजिक अपने कवि कर्म के प्रति सजग है। वह गहरे दायित्वबोध का कवि

286 n जुलाई से सितंबर 2023 yegh


है। कविता अपनी सामाजिक संपृक्ति और लोकधर्मिता के कारण
ही बड़ी बनती है। इस संकलन की एक महत्वपूर्ण कविता 'मुझमें कविता के समकालीन परिदृश्य में राकेश मिश्र
हो तुम' शीर्षक से है जिसमें कवि लिखता है कि ‘कहीं मुझमें ही की उपस्थति अपने गहन सामाजिक-सांस्कृतिक
हो तुम’ - सरोकारों के कारण महत्वपूर्ण बन गई है। राकेश मिश्र
“शारदीय नदी के जल में का कवि नए ढंग से सोचने का उद्यम ही नहीं करता,
उगते सूरज की तरह नए की सार्थकता की तलाश भी करता है | नए की
किताबों के पन्नों में सार्थकता तभी है, जब उसमें बद्धमूल विचार-प्रणाली
के बरअक्स वैकल्पिकता की तलाश हो; जीवनगत
छिपी सार्थक बातों की तरह
अवरोधों के प्रतिपक्ष में आवाज़ उठाने का साहस हो
कहीं मुझमें ही हो तुम। और अपने जीवन के आर पार निहारने की विकलता
सूने कैनवास पर हो। राकेश मिश्र का कवि नए ढंग से सोचने का उद्यम
उभरने वाले रंगो की तरह ही नहीं करता, नए की सार्थकता की तलाश भी करता
कहीं मुझमें ही हो तुम।” है | नए की सार्थकता तभी है, जब उसमें बद्धमूल
इस तरह अपने प्रेमास्पद के प्रति कवि की यह आंतरिक विचार-प्रणाली के बरअक्स वैकल्पिकता की तलाश
संलग्नता पाठक को प्रभावित करती है। वह अपने काव्य कौशल हो; जीवनगत अवरोधों के प्रतिपक्ष में आवाज़ उठाने
के सहारे बड़ी सटीक और सूक्ष्म अंतर्वृत्तियों का चित्रांकन करता का साहस हो और अपने जीवन के आर पार निहारने
है। हमारा कवि प्रेम जैसे नितांत आत्मीय एवं कोमल मनोभाव की विकलता हो।
को जिस गहनता के साथ प्रस्तुत करता है वह सहृदय पाठक के
लिए रमणीय वस्तु है। इनकी प्रेम संबंधी कविताएँ अपने समूचे करते हुए अपनी चिंताओं को प्रकट करते हैं तब आपका गहरा
भाव-वैभव और वैविध्य के कारण विशिष्ट उपलब्धि बन गई हैं। मानवीय जुड़ाव महसूस किया जा सकता है।
ये कविताएँ प्रेम जैसे अत्यंत कोमल और एकांतिक मनोभाव को राकेश मिश्र की कविताओं की भाषा अपनी अभिव्यंजना में
एक नए तेवर और मुहावरे के साथ प्रस्तुत करतीं हैं। 'तुम्हारा प्रेम' बेहद सटीक, सुबोध और परिपक्व है। इनमें वस्तु,रूप और शिल्प
‘हमतुम,' 'ढाई आखर,' ‘आंखें उसकी’, 'तुम' वह लड़की जैसी का द्वन्द्वात्मक ऐक्य और सुपरिणत बिंब परिलक्षित होता है। इसमें
कविताओं के माध्यम से प्रेम को एक मूल्य की प्रतिष्ठा प्रदान किसी तरह का छद्म नहीं है। वह अपनी सहजता में भी पाठक को
करते हैं। आज के इस भौतिकतावादी, तेज रफ्तार, बहुस्तरीय, मुग्ध करती है। कवि अपने चिंतन और अनुभव में निहायत स्पष्ट
संवेदनशून्य, आपाधापी वाले जीवन में कविता ही वह रचनात्मक है। अतः कहीं भी कोई अभिव्यक्तगत समस्या नहीं आती। चूंकि
माध्यम है जो मनुष्य की भीतरी सद्वृत्तियों और मानवीय भावनाओं इनमें एक सुचिंतित बौद्धिक की संवेदना प्रकट हुई है। अतः ये
को उद्बुद्ध करके मनुष्य-मनुष्य के बीच मधुर संबंधों का सेतु बना सावधान पाठ की अपेक्षा रखतीं हैं। इन कविताओं में काव्य-भाषा
सकती है। इस दृष्टि से इनकी प्रेम कविताओं का अपना महत्व है की दृष्टि से मानक हिंदी का सुघड़, प्रांजल और अपनी अभिव्यंजना
क्योंकि ये मनुष्यता की संवेदना का विस्तार करती हैं। ये मानव में अत्यधिक सटीक रूप दर्शनीय है। कविता मिश्र जी के लिए एक
मात्र को बेहतर मनुष्य बनने के लिए प्रेरित करती हैं और उनमें विशिष्ट प्रकार का संवेदन और जीवनानुभव है और यहाँ अनेक
भावनात्मक उन्मेष पैदा करती हैं। अनुभव अपनी साभिप्रायता प्राप्त करते हैं। एक सिद्धहस्त कवि की
राकेश मिश्र की कविताओं का महत्व इस दृष्टि से भी है कि तरह कविता यहाँ 'वागर्थसम्पृक्तौ' है। फलस्वरूप वह वस्तु और
इसके द्वारा पाठक को भावनात्मक पोषण प्राप्त होता है। कवि बुद्धि शिल्प, गुण और परिमाण दोनों ही दृष्टियों से बहुवस्तुव्यापकता
तथा भावना के संतुलन को साधने का यहाँ सफल उपक्रम करता तथा सहज,स्वाभाविक प्रयोग धर्मिता के कारण नए भाव-बोध,
है। इन कविताओं के सतर्क पाठ के उपरांत यह कहा जा सकता चिंतनात्मकता और अनूठे शिल्प का स्वाभाविक रूपायन है। मिश्र
है कि ये कविताएँ अपनी बुनावट में निहायत स्वच्छ और पठनीय जी की कविता संकेत गर्भिता, चित्रात्मकता तथा प्रतीकात्मक
हैं। मिश्र जी के पूर्व के तीनों संकलनों की कविताएँ और इधर जो अभिव्यक्ति के कारण विशेष महत्त्व की अधिकारिणी है। यह भाषा
नई कविताएँ लिखी गई हैं वे इस बात का सबूत हैं कि आप अपने कृत्रिमता का वरण नहीं करती। यह बोलचाल के शब्दों से आबाद
दायित्वबोध के अंतर्गत काव्य- सृजन को भी समाहित करते हैं। दुनिया है।
आप जब वर्तमान समय की तमाम विडंबनाओं पर सार्थक टिप्पणी राकेश मिश्र का नवीनतम काव्य संग्रह 'शब्दों का देश' है। यह

yegh जुलाई से सितंबर 2023 n 287


इनका अब तक का सबसे बड़ा काव्य संग्रह है जिसमें कुल 173 प्रयास की अभिव्यक्ति है जिसमें कवि की दुर्निवार जीवनास्था,
कविताएँ संकलित हैं। यह संकलन अनेक कारणों से समकालीन संघर्ष चेतना, चिंतनात्मकता और अनुभव जगत का वैविध्यपूर्ण
हिंदी कविता में अनन्य स्थान का अधिकारी है। ऐसे समय में जब समारोह उपस्थित हुआ है। रचना विन्यास, भावों की उत्कटता,
कविता विवरणों और सूचनाओं से आप्लावित है- राकेश मिश्र चित्रण की सूक्ष्मता, व्यंजकता और जीवनानुभूति की गहनता- को
‘संक्षिप्तता और मितव्ययिता’ का शिल्प अपनाते हैं। शब्दों का देखते हुए लगता है कि कवि ने कई स्तरों पर मानक गढ़े हैं। इस
देश छोटी किन्तु मारक कविताओं से आबाद है। इन कविताओं कारण ये कविताएँ एक विशिष्ट औदात्य एवं वैभव से परिपूर्ण हैं जो
में एक ओर जीवन के विशिष्ट अनुभव और प्रकृति के रंग हैं तो एक बड़ी संभावना की ओर बढ़ रहे कवि का निदर्शन कराती हैं।
दूसरी ओर सभ्यता के कार्य-व्यापार और परिवेशगत विवर्तन हैं। इस दृष्टि से राकेश मिश्र की कविताएँ बेहद पठनीय, चिंतनीय और
यहाँ कवि जिस तटस्थता से शब्दों एवं संवेदनाओं के संश्लेषण पाठक को संवेदनात्मक एवं बौद्धिक धरातल पर प्रेरित, प्रभावित
द्वारा जिंदगी और कविता को परस्पर अनुस्यूत करता है, उससे और समृद्ध करने वाली हैं।
जीवन और जगत का वैविध्यपूर्ण- अनावृत यथार्थ पूरी मर्मस्पर्शिता इसमें संदेह नहीं है कि राकेश मिश्र की कविताएँ समकालीन
तथा गहनता के साथ प्रस्तुत हुआ है। महाकवि जयशंकर प्रसाद ने हिंदी कविता की विशिष्ट उपलब्धियाँ हैं जो उनके कवि व्यक्तित्व
यथार्थवाद को पारिभाषित करते हुए उसे 'लघुता के प्रति साहित्यिक को निरंतर उन्नत बना रही हैं। इनकी कविताएँ प्रकृति और
दृष्टिपात' कहा था। मिश्र जी के इस संकलन में सामान्य दीख मानवीय जीवन के सूत्रों की एकता का संधान करते हुए सौंदर्य का
पड़ने वाले पदार्थ, मानवेतर प्राणी प्रकृति-पर्यावरण के स्फुट संदर्भ जीवनधर्मी दृष्टिकोण विकसित करती हैं। ये अपनी बात को कहने
और जीवन-स्वप्न कवि के जीवन बोध को व्याप्ति प्रदान करते के लिए कल्पना, बिंब, प्रतीक, मिथक, फैंटेसी एवं यथार्थ दृष्टि
हैं। प्रकृति-पर्यावरण की भाँति हमारा भौतिक जीवन, सामाजिक- समेत प्राय: सभी काव्यात्मक एवं सौंदर्यधर्मी तत्त्वों का संश्लेषण
सांस्कृतिक संदर्भ और वस्तुजगत मनुष्य की नियति को कैसे करते हैं। इनकी कविताएँ वस्तु, रूप एवं शिल्प की एकता अर्थात
संचालित करता है तथा उसे कैसे घेरे रहता है, इसे आविष्कृत करने सत्य और शिव के सारतत्त्व को सुंदर के विन्यास द्वारा प्रकट
का दुष्कर एवं चुनौतीपूर्ण कार्य इन कविताओं द्वारा संभव हुआ है। होती हैं। आज उत्तर-आधुनिकता जिस एकरूपता से असहमति
फलस्वरूप इन्हें पढ़कर पाठक का मन संवेदनात्मक एवं बौद्धिक व्यक्त करती है,जिस असंगति को स्वीकार करके स्थितियों के
धरातल पर सम्पन्नता का अनुभव करता है। यह दायित्वबोध से बहुवचनवाद को बढ़ावा देती है वह आप मिश्रजी की कविताओं में
परिपूर्ण एक ऐसा शब्द-पथ है जो स्व का अतिक्रमण करते हुए वैविध्य के रूप में देख सकते हैं। कवि गतिशील लोकोन्मुख चेतना
सामाजिक मंगल की ओर विस्तार पाता है। इस संकलन की केंद्रीय के साथ-साथ रागात्मक बोध का चतुर चितेरा है। वह मानव जीवन
कविता है– 'शब्दों का देश' जिसमें कवि की निर्भ्रांत दृष्टि एक के गतिशास्त्र को समझकर जीवन और समाज को सुंदर बनाने का
विशिष्ट तेवर के साथ मुखरित है। वह लिखता है कि, “शब्दों उपक्रम करता है।
का देश परियों का देश नहीं/ यहाँ मिल जाएँगे देवदूतों के वेश में राकेश मिश्र अपनी रचनाओं के वस्तुशिल्प, शब्दचयन,
सौदागर। शब्दों का देश प्रजा का देश नहीं/ यहाँ मिल जाएँगे शब्दों पदविन्यास के सन्निवेश द्वारा यह स्पष्ट करते हैं कि इनकी कविताएँ
से सत्ता साधते तानाशाह। शब्दों का देश शुचिताओं का देश नहीं/ विवरण और वर्णन की तुलना में बिंब की तीव्र प्रभावान्विति एवं
यहाँ मिल जाएँगे तंगदिल अनुदार साथी। शब्दों का देश नीर- क्षीर प्रतीकात्मक व्यंजना से संश्लिष्ट हैं। इनमें निहित सार्वभौम-शाश्वत
विवेक का देश नहीं/ यहाँ मिल जाएँगे कुंठित-कुंद-विवेक मंचस्थ। संदर्भ, सामाजिक सरोकार, जीवनानुभूति, प्रकृति-पर्यावरण की
शब्दों का देश सूरज का देश नहीं/ यहाँ मिल जाएँगे अपने अँधेरों चिंता, मानवीय संलग्नता-इन्हें सचेत तथा गहन दायित्वबोध के
में सुखी मतिभ्रम।” कहना न होगा कि अपने इसी विशिष्ट तेवर, कवि के रूप में प्रमाणित करते हैं। वस्तु-परकता, समसामयिकता,
वैविध्यपूर्ण लय-प्रयोग एवं बिंब-धर्मिता के कारण यह हिंदी के प्रभावोत्पादकता और बुद्धि एवं भाव के समरस संयोग द्वारा हिंदी
श्रेष्ठ काव्य संग्रहों में स्थान पाने का अधिकारी है। इस संकलन काव्य संसार को विशेष रूप से समृद्ध करती हैं। उसके आयतन
की कविताओं में समकालीन मनुष्य की जीवन स्थितियों, संकल्पों, का विस्तार करती हैं। ये कविताएँ व्यापक लोक विधान का अंग
संघर्षों, विडंबनाओं और उपलब्धियों के खंड चित्र अत्यंत प्रभावी बनकर पाठक के मन का संस्पर्श करती हैं। n
रूप में प्रस्तुत हुए हैं। इसमें प्रेम, सौंदर्य, आसपास के जीवनानुभव, संपर्क : प्रोफेसर हिंदी विभाग, मुंबई विश्वविद्यालय
गांव- शहर से लेकर वैश्विक घटनाओं तक का गत्यात्मक चित्रण विद्यानगरी, सांताक्रूज (पूर्व), मुंबई-400098
हुआ है। शब्दों का देश मनुष्य और जीवन को बेहतर बनाने के मो. 91679 21043

288 n जुलाई से सितंबर 2023 yegh


n महत्तम : अनिरुद्ध उमट

जा चुके चेहरों की तलाश


निशा नाग

वर्तमान में जबकि अधिकांश कविता सीधे शब्दों तुम्हारे/ द्वार पर मेरी छाया/ताज़ा टूटे/पत्ते-सी”2
बयान है या मिथक और प्रतीकों को लेकर अपने आईना अनेक कवियों का प्रिय बिम्ब रहा है यहाँ
समय को व्याख्यायित करने का प्रयत्न है, अनिरुद्ध इस कविता को पढते हुए अनायास ही शमशेर की
उमट की कविताएँ एक नया तेवर लेकर सामने कविता एक ‘नीला आईना बेठोस’ याद आ जाती है
आती हैं। अभी तक उनके कुल जमा तीन काव्य- जहाँ वह कहते हैं-
संग्रह प्रकाशित हुए हैं। ‘कह गया जो आता हूँ अभी’ “एक नीला आईना/ बेठोस-सी यह चाँदनी/और
(2005), ‘तस्वीरों से जा चुके चेहरे’, (2015) अन्दर चल रहा हूँ मैं/उसी के महा तल के मौन में /
तथा सद्य: प्रकाशित ‘संलाप’-इन तीनों काव्य-संग्रहों की कविताओं मौन मैं इतिहास का/ कन किरन जीवित एक बस”3
को परखते हुए महसूस होता है कि सरलता के एक-रस शिल्प से हालाँकि अर्थधर्मिता में परस्पर दोनों के बिम्ब अलग हैं।
निकल कर कविता यथार्थ और फंतासी की नई निर्मिति करके अस्तित्व और अनस्तित्व के इस युद्ध में झील और चट्टान का
सार्थक पाठ बनती है। परस्पर विरोधाभास काव्य व्यक्तित्व को भिन्न आयाम देता है।
आज के समय में अधिकांश कविता समसामयिकता की परिधि झील का मौन यानी उसका बिना लहरों का व्यक्तित्व फिर भी
में बंधकर आँखिन देखी समस्याओं अथवा रूढ़ विषयों को लेकर पिघल जाता है किंतु ठोस चट्टान वैसी ही रहती है उसे समझने
लिखी जा रही है, प्रेम के क्षेत्र में भी कविता अधिकतर देह-राग वाला कोई चाहिए। किंतु उस ठोस चट्टान के भीतर भी कभी जीवन
बनकर रह गई है ऐसे में अनिरुद्ध की कविताएँ इस अर्थ में भिन्न था यह उसके भीतर स्थित जीवाश्म ही बताता है इसी तरह कवि
हैं कि वे विषयाधारित नहीं,वस्तु आधारित हैं। कविता के नेपथ्य व्यक्तित्व के भीतर छिपा प्रेम या राग भाव है। ‘एक तरह का ठोस
में अनेक अर्थध्वनियाँ होती हैं। पहले ही काव्य संग्रह ‘कह गया आलोक मंडल– जो चीज़ों की गहराई और पार्थिकता को बरकरार
जो आता हूँ अभी’ की पहली ही कविता इसका प्रमाण है-‘जहाँ रखता है और उन्हें स्वत: शब्द में बदल देता है।4 ‘टूटा पत्ता’ जीवन
पक्षियों की उड़ान में ‘सागर का पानी, हवा की तीव्रता और अग्नि और मृत्यु के मध्य स्थित भाव है जिसके विषय में निर्मल वर्मा का
की आकुलता का विराट बिम्ब ‘पृथ्वी की उस स्थिति से जुड़ता है कहना था–“हर पेड़ के नीचे छोटा सा तालाब है मरे हुए पत्तों का
यहाँ “पृथ्वी किसी गीले कागज़ सी/ थरथरा रही थी/जब उस पर जब हवा चलती है वे घास पर उड़ते हैं जैसे मृत्यु के बाद दोबारा
निरीह प्राणियों की हत्या का लगा/ अभियोग।”1 मर रहे हों।”5 किंतु अनिरुद्ध की कविता में यह वस्तु-भाषा की
यह पक्षी क्या मनुष्य की अदम्य महत्वाकांक्षा के प्रतीक नहीं जो सूक्ष्म बनावट में गुंथे हुए सुनहरी तारों सी झिलमिलाती है।
पर्यावरण को भेद कर अब इस स्थिति में पहुँच गया है कि पृथ्वी पर अनिरुद्ध की कविता का मूल-स्वर स्मृति में निहित है।
न जाने कितने निरीह प्राणियों का अस्तित्व ख़तरे में है अथवा प्रेम अखिलेश का कहना है- “स्मृतियाँ काल के घमंड को तोड़ती
की उस स्थिति का जब प्रेम का प्रत्युत्तर सिर्फ़ अभियोग रह जाता हैं।”6 निर्मल वर्मा ‘सुलगती टहनी’ के अंत में कहते हैं–“शायद
है। उमट की कविताएँ यह सिद्ध करती हैं कि रचनाकार की कविता अंत में स्मृति के ये अंक बचे रह जाते हैं, न इस धरती के न ईश्वर
की दृष्टि और दृष्टिकोण बहुविध होते हैं। के–किंतु दोनों को एक एपिक गाथा में बाँधते हुए” है। अनिरुद्ध के
“आईने को देखता/देखता हूँ/उससे लिपट गया/मेरा मौन/ झील संवेदनात्मक सरोकारों का महत्वपूर्ण बिन्दु है ‘मृत्यु बोध’ परंतु यह
सा नहीं/चट्टान-सा/ हो/ जिसमें/ जीवाश्म-सा/ पाया जाऊँ/अभी मृत्यु का एहसास वह नहीं है जो सत्तरोतरी कविता में पाया जाता था

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उदाहरण देकर कहा जाए तो श्रीकांत वर्मा का मृत्यु बोध के संबंध कविताएँ हैं अपितु एक खास समय में उपस्थित व्यक्ति विशेष
में कहना था “आत्मनिर्वासन सामाजिक पलायन, प्रेम में विफलता, की स्थिति का बयान भी हैं। यहाँ मृत्यु का सरोकार कहीं न कहीं
मूल्यहीन संसार में जीने का एहसास, मानवीय क्रूरता, करूणा कविता का जनतांत्रिकरण करता है।
विहीनता, यह सब मृत्यु के ही सैंकडों नाम हैं।”7 इसके विपरित इन कविताओं के काव्य-विषय में प्रेम और शृंगारिक भाव
मृत्यु यहाँ भारतीय परंपरा में निहित दर्शन अर्थात जीने का उत्सव जड़ीभूत सौंदर्याभिरुचि से परे गहन जीवन प्रक्रिया से जुड़े हैं, किंतु
है। जीना हमारी मौलिक क्रिया और बाध्यता है किंतु मृत्यु भी सत्य कहीं कहीं कविता प्रेम की आदिम मिथकीय ‘एरोटिक’ कल्पना भी
है। अनिरुद्ध की कविताओं में मृत्यु जीवन का अंतिम पड़ाव नहीं है। गहन प्रेम या राग का यह भाव बरबस शमशेर की याद दिलाता
बल्कि साथ-साथ चलने वाली समानांतर धारा है। मानव केवल है जहाँ यह सूरियालिस्टिक रंगों और बिम्बों में डूबा हुआ दिखाई
जीवन ही नहीं जीता,वह मृत्यु भी जीता है। “सूखे पेड़ पर गिरती देता है। यह उद्दाम प्रेम जो संकेतों की भाषा में है कविता को भास्वर
बर्फ/और एक अदद/हरे से पीला होता/सिहरता पत्ता/खिड़की से बनाता है और इसके आलोक में कविता उदात्त हो उठती है। अज्ञेय
झाँकती लड़की/पाती कँधे पर काँपता हाथ/ग्रामोफोन पर रिकार्ड/ ने कभी कहा था “प्रेम अकेले होने का ही/ एक और ढंग है’ तो
अपने सूनेपन में बदहवास।”8 महादेवी कहती हैं ‘जान लो वह एकाकी/विरह में है दुकेला’-
अगर उसी पत्ते के बिम्ब को फिर से देखा जाए तो कहना न होगा अनिरुद्ध की कविता प्रेम में मिलन की स्मृतियों से भरपूर तथा विरह
कि इन कविताओं में मृत्यु की उपस्थिति जीवन के बोध को लौटाती की कसक की कविता है। कविता इसे इस तरह प्रकट करती है–
है। मृत्यु की इस ओर से जीवन को देखना और उन समस्त खंडित “झर गया/ हरे पत्ते के साथ/नीला आसमान/ भी/तुम्हारे ललाट/
टुकड़ों को याद करना जिससे जीवन की संरचना बनी है– ओ’ पर जैसे/ मेरा हाथ/मेरे सर पर/चेहरा तुम्हारा/घुट गई स्मृति/
हेनरी की कहानी ‘द लस्ट लीफ’ की तरह। अनिरुद्ध की कविता सिसकी में।”12 इन कविताओं में न केवल प्रेम है अपितु प्रेम का
में यह मृत्यु-बोध शाश्वत सत्य की तरह कई बिम्बों से बार बार पूरा दर्शन भी है। प्रणय-प्रेम, के संदर्भ में उमट की कविताएँ अतीत
प्रकट होता है। यह अनायास नहीं है कि उनके दो काव्य संग्रह के अनुभव के साथ-साथ प्रेम और बिछोह का अंतर्द्वंद्व है। यहाँ प्रेम
‘कह गया जो आता हूँ अभी’ और ‘तस्वीरों से जा चुके चेहरे’ की की की दार्शनिकता मुक्ति अथवा मोक्ष से परे अस्ति-नास्ति का
मूल अंतर्धारा में यही भाव-बोध है। एक सेतु बनाती दीखती है। “शीतल धोरों के/सीने पर/चाँद के होंठ
“मृत्यु प्रदेश में/असंभव सरल/पक्षी की उड़ान/लहराती-उतराती अधखुले/किसी वृक्ष सा कोई एक एक पत्ता त्यागता है।”13
है/द्वार पर जहाँ असंख्य हड्डियाँ/पंख/कूक/यह रंग है/ उड़ान का/ कहना न होगा कि कविता के अंतर्पाठ के तरीके आज बदल
कि मृत्यु का/या/उस पार प्रभु के होने का।”9 गए हैं। समसामयिक प्रेम, हास-शोक, स्थितियाँ, दंगे, मृत्यु यहाँ
मृत्यु की उपस्थिति यहाँ जीवन को उत्तीर्ण करती है। मृत्यु का यह कविता को आख्यान बनाते हैं। किंतु इस आख्यान में वे स्थितियाँ
सहज स्वीकार मृत व्यक्तियों को स्मृति में जीवंत रखता है। कवि का हैं जो पाठक के द्वारा व्याख्यायित होने की अपेक्षा रखती हैं। कविता
कहना है–“जो लोग चले गए हैं उनसे मैं निरंतर संवाद में रहता हूँ। यहाँ बाहर नहीं पाठक के मन में खुलती है। अपने आसपास के
‘कह गया जो आता हूँ अभी ये एक लाईन ही काफ़ी है’। उसमें गए संसार और जीवन-सत्यों को यह कविताएँ मद्धिम किंतु दृढ स्वर में
हुए आदमी की स्मृतियों से हम निरंतर गुत्थम गुत्था रहते हैं। उन्हीं से प्रस्तुत करती हैं। उनकी कविताओं से रू-ब-रू होना अपने ध्यान
प्रेम उन्हीं से सुख-दुख उन्हीं से संवाद उन्हीं से सपने और यथार्थ। ” के परिवृत्त का विस्तार करना है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने प्रसिद्ध
“अभी आयेंगे वे/ज़रा पान की दुकान तक/गए हैं/राह देखती निबंध ‘कविता क्या है’ में कहा है–“शास्त्र के भीतर निरूपित
खाली कुर्सी/कितनी चीज़ें/इस घर में/आत्मा रोती उस क्षण को/ तथ्य को भी जब कोई कवि अपनी रचना के भीतर लेता है, तब
कह गया जो आता हूँ अभी।”10 ठीक-ठाक व्यक्ति की आकस्मिक वह पारिभाषिक तथा अधिक व्याप्ति वाले जाति-संकेत शब्दों को
मृत्यु का संत्रास यहाँ स्पष्ट रूप से दिखाई देता है। यह सच है हटाकर उस तथ्य को व्यंजित करने वाले कुछ विशेष मार्मिक रूपों
कि ‘मृत्य मनुष्य की सबसे बड़ी सनातनी समस्या है। परंतु इस और व्यापारों का चित्रण करता है।’14 अनिरुद्ध की कविता में अधूरे
सनातन समस्या में जब तक ऐतिहासिक अंतर्वस्तु का (उस युग स्वप्नों की आकुलता,आकांक्षाएँ, इच्छाएँ, काल का अवबोध और
की सामाजिक आर्थिक शक्तियों के निहितार्थों के साथ संघर्ष) का समय की अंतर्भुक्ति भाषा विन्यास में इस तरह आती है कि शब्दों
विकास नहीं होता तब तक वह जीवंत और प्रभावशाली व्यक्तियों में जो कुछ कहा गया है उसका अर्थ उससे परे अन्यत्र प्रतिफलित
को नहीं बना सकती।’11 अली मियाँ और बड़ी बी कविता में इस होता है और वस्तु का अंतरण-अर्थ से अर्थवत्ता तथा साभिप्रायता
स्थिति को देखा जा सकता है यह न केवल मृत्यु के संत्रास की में बदल जाता है। रूप की दृष्टि से उनकी छोटी कविताएँ इस

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सांकेतिकता का पूरी तरह निर्वाह करती हैं। जैसे “रात की/नदी में/ लगता है ठीक जायसी की पद्मिनी के सौंदर्य की तरह जहाँ उसके
नींद एक नाव/ काग़ज़ी।” केश-मात्र की छाया समस्त आकाश में अंधकार कर देती है–
यहाँ भाषिक संकते , भाषेतर में परिवर्तित होकर नवीन अर्थ- “सरवर तीर पद्मिनी आई/खोंपा छोरि केस मुकलाई? –ओनई घटा
छायाओं से झिलमिलाने लगते हैं। ये कविताएँ अंत: प्रक्रिया की परि जग छाँहा...।” पाश्चात्य काव्यशास्त्र की दृष्टि से देखा जाए
कविताएँ हैं। जो कच्चे माल की तरह कविताओं का मूल हैं। कविता तो अनिरुद्ध की कविता वर्ड्सवर्थ का स्वत:स्फूर्तता के सिद्धांत की
में चयन का विवेक आवश्यक है अन्यथा वह केवल बयान बनकर विरोधी है। पर कॉलरिज़ के कल्पना-दर्शन के क़रीब है। चन्द्रकांत
रह जाएगी कवि इस विवेक को निरंतर बनाए रखता है। इसी लिए देवताले का कविता के विषय में कहना है “कविता किसी सामयिक
उनके यहाँ रत्ती भर भी शब्दों का अपव्यय नहीं है वे कम से कम सवाल के उत्तर या समाधान में नहीं लिखी जाती। उसमें यथार्थ,
शब्दों में अपनी बात कहते हैं, “दूर-दूर/दो ध्रुव/हिलते सूरजमुखी/ कल्पना, स्मृति, स्वप्न का फ्युज़न होता है, जिसकी रोशनी और
रंग कोई स्पर्श/ जो/ तुम हो।” प्रेम के सूक्ष्मानुभव को यहाँ जिस अँधेरे में हम अपने को, अपने आसपास की भूलभूलैया को और
तरह के बिम्ब से अनुभव ज्ञात किया गया है वह अहसास नागार्जुन भूलभूलैया में भटकते जीवन क्रम को नए से देख16 सुन पाते हैं।”
के यहाँ भी है परंतु कहन का अन्तर साफ देखा जा सकता है। ‘स्मृतियों में जीवन चिर वर्तमान है,वह अंत नहीं जानता। निमित्त
नागार्जुन कहते हैं “कर गईं तिमिर का सीना चाक वह तुम हो।” और नियति जीवन के बहुत बड़े दो सत्य है।’17 इस तत्व को उनके
अनिरुद्ध उमट संस्मरणों में जीते हैं। यह स्मृतियाँ सीमाबद्ध लघु उपन्यास जो लगभग गद्य कविता का एहसास देता है उसमें
संसार में शाश्वत का प्रवेश है। जीवन-मृत्यु, आत्मा, ईश्वर जैसे भी देखा जा सकता है। जहाँ एकाकी स्त्री प्रेम की स्मृतियों मॆं डूबी
संदर्भ संवेदनशील आत्मसाक्षात की तरह उनकी कविता में आते हैं। है। ‘नींद नहीं जाग नहीं’ ज्यामिति की शब्दावली में कहा जाए तो
निर्मल वर्मा का कहना था ‘मेरे लिए लिखना और लौटना एक चीज़ कविता और गद्य का उभयनिष्ठ है। रचनाकार के अनुसार “अच्छी
है”। रचे जाने की प्रक्रिया में अनिरुद्ध की कविताएँ-स्मृति बिम्बों के कविता वह नहीं कि हमने लिख दिया अच्छी कविता ये है कि हम
बीच स्थित रहती हैं पुन: पुन: अतीत में लौटती हैं। यह बिम्ब जिए इंतज़ार करते हैं न उसका फिर जब हम उसके लिखे जाने की
गए जीवन को एक नए अर्थ से परिभाषित करने लगते हैं। प्रक्रिया में होती है। कवि का रुख़ उस प्रक्रिया में है। ‘नींद नहीं
अनिरुद्ध की कविताएँ आत्मसंबोधन के साथ-साथ दूसरों से जाग नहीं’– मेरे भेद नहीं है कि मैं कविता रच रहा हूँ या उपन्यास।
संलाप भी है। सुखद संलाप तभी हो सकता है जब वक्ता और श्रोता जो गद्य कविता है। मैं अपना प्रेम किस विधा में लिख रहा हूँ फ़र्क
दोनों समान भूमि पर हों। ये कविताएँ संलाप करने के लिए एक नहीं पड़ता क्योंकि मैं राग लिख रहा हूँ।”
समान धरातल की खोज भी हैं। प्रस्तुत कविता में यह अनायास नहीं है कि तानपुरा, तबला
“देखो तो/बेंच पर से जाने वाला रह गया/चली गई है बेंच कुछ- सारंगी, हारमोनियम (जिस पर शृंखला है कविताओं की) निरंतर
अलबम में से हाथ इतना निकला/मटकी में डूबता लोटा/मध्य में पात्र की तरह उपस्थित रहते हैं जिमके माध्यम से जीवन के
ही थिर हो गया/ डूब गई प्यास।” अनिरुद्ध की कविता में ‘प्यास’ विभिन्न मोड़, अपने आप से सँघर्ष-हृदय का मार्मिक संबंध जीवन
का एक विशेष स्थान है। इसीलिए यहाँ निरंतर कुँए,तालाब और के विविध रूपों के साथ जुड़ता हुआ दिखाई देता है।
बावडियाँ भी हैं। परंतु क्या यह प्यास उस आदिम राग का प्रतीक मुक्तिबोध ने ‘जनता का साहित्य किसे कहते हैं’ में लिखा है
नहीं जो मनुष्य मात्र में निरंतर बना रहता है। जल के समस्त स्रोत ‘साहित्य के अन्दर सांस्कृतिक भाव होते हैं। साहित्यिक भावों को
सूख जाने पर भी यह प्यास निरंतर शेष बनी रहती है। ग्रहण करने लिए, बुलन्दी बारीकी और ख़ूबसूरती को पहचानने के
“ईश्वर की अदालत में/ एक नदी गिड़गिड़ा रही थी/कोई लिए उस असलियत को पाने के लिए जिसका नक्शा साहित्य में
तालाब हाथ बाँधे/ बैठा था उकड़ँू/समन्दर उम्मीद हारे खड़े थे/ रहता है,सुनने या पढ़ने वाले की कुछ स्थिति अपेक्षित होती है। यह
पर्वत अनमने से पसर गए थे/बावड़ियाँ उँघ रही थीं?–उधर ईश्वर स्थिति है उसकी शिक्षा,उसके मन का सांस्कृतिक परिष्कार।”18
प्यास के मारे था बेहाल/कह भी नहीं पा रहा था/कोई भी उठे मेरे कवि कहता है– “होने से/होगी/जिसकी भी/कविता/ होगा नहीं/
कंठ में बैठ जाए/ मैं प्यासा नहीं मरना चाहता।”15 वह/ कहीं।” केवल दस शब्दों की इस कविता का शीर्षक है अंत
घर का गहरा अहसास और घर में अवस्थित होते हुए भी कहीं नहीं। कविता रचने के बाद कवि की नहीं होती वह पाठक की
न कहीं घर की खोज और प्रेम अनिरुद्ध की कविता की अंतर्धारा हो जाती है। परमानंद श्रीवास्तव का कहना था–“कविता पूर्णता
है। यह उस तरह से रोमांटिक कविता नहीं है वरन् प्रेम में ठहराव से इनकार करती है, जादुई यथार्थ में भी, आकस्मिकता से भी,
की कविता है जहाँ एक का प्रेम समस्त कायनात में दिखाई देने समयबद्धता से भी।’19 अनिरुद्ध उमट की कविताएँ अनायास ही

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कभी शमशेर की याद दिलाती हैं तो कभी सप्तकों के अन्य कवियों कभी भी एक नदी बन जाएगी/आड़ी-टेढी/उस नदी में कूद पड़ ने
की। कारण उनकी कविता की बिम्बधर्मिता और शब्द तथा अर्थ का को एक बच्चा/सपने की अंतिम सीढी पर खड़ा”22
वह अहैतुक संबंध है जहाँ दोनों एकमेक हो जाते हैं। नवीन बोध ये अमूर्तन वस्तुगत यथार्थ के आत्मगत बिम्ब बनकर उभरते हैं
के साथ नवीन सर्जना की अपेक्षा हमेशा ही रहती है। अर्थगांभीर्य और समग्र मानवीय नियति को अंतर्वैयक्तिक संबंध में ढालते हैं।
का चारुत्व से संपृक्त होना ज़रूरी है। अर्थ की गंभीरता मूल्यों उमट की कविताओं का साँचा बँधा-बँधाया नहीं है लेकिन उनका
की गंभीरता ही है। दूसरे जीवन पल पल किसी न किसी बोध एक पैटर्न है जो पहले से जाने-समझे और अपने चारों तरफ फैले
से स्पंदित रहता है। अपने पूरे सौंदर्य-विषाद–अवसाद,सुख- हुए संसार को अर्थवत्ता देता है।
दुख,हास-शोक समस्त रागों से जुड़ कर भी वह व्यतीत हो जाता है कहना न होगा अनिरुद्ध की कविता उस गहन सांस्कृतिक
उसका महत्वपूर्ण हिस्सा निशब्द रहता है हमेशा ही शब्द उपस्थित चेतना से संम्पृक्त है जो आधुनिक और चिरंतन दोनों पक्षों का
रहें यह संभव नहीं। जीवन के सामने ये भाषा और साहित्य दोनों की निर्वहनकरती है। उनकी कविता में वैयक्तिक एंद्रियबोध, साहित्यिक
सीमाएँ हैं। अनिरुद्ध की कविताएँ शब्द-संयोजन से अधिक कुछ सौंदर्य चेतना और भाषिक चैतन्य का जो जटिल रचनात्मक संश्लेष
और हैं। कविता यह कुछ और होना ही कविता होना है। उनका है वह प्रबुद्ध पाठक से सक्रिय भागीदारी की अपेक्षा रखता है क्योंकि
अपना ‘वाक्य पदीय’ है। साहित्यिक अभिनिवेश भाषा के प्रति इन समसामयिक हिंदी कविता के लगभग रूढ़ हो गए शिल्प से परे
कविताओं में विशेष आग्रह है। उनकी काव्य पंक्तियाँ एक वाक्य उनका अलग मुहावरा है। n
से दूसरे वाक्य का अंतराल वैसे ही लाँघती हैं जैसे कोई ‘वनैली
संदर्भ :
चिड़िया’ एक टहनी से दूसरी टहनी की ओर’ बीच में पता नहीं वह
1. कह गया जो आता हूँ अभी ;अनिरुद्ध उमट-पृ. 13
कितना अंतराल लाँघ जाती है बिजली की कड़क सा कोई भूला 2. तस्वीरों से जा चुके चेहरे पृ. 31
सा अर्थ बीच में कौंधता है और फिर लोप हो जाता है।20 अनिरुद्ध 3. टूटी हुई, बिखरी हुई पृ.16 संपादक अशोक वाजपेयी, राधाकृष्ण
कविताओं में जो कुछ रचते हैं वह अनुभूति की गहराई के प्रति प्रकाशन-संस्करण 2004
प्रामाणिक होकर अभिव्यक्त होता है ठीक घनानंद की तरह जहाँ 4. धुन्ध से उठती धुन– निर्मल वर्मा पृ. 26
5. वही पृ. 33-34
वे कहते हैं-“लोग हैं लागी कवित्त बनावत/ मोही तो मेरे कवित्त 6. अक्स: अखिलेश
बनावत”। किसी प्रकार का बाहरी आग्रह उसमें नहीं है इसीलिए 7. ठंड : भूमिका श्रीकांत वर्मा पृ.5
उनके काव्य में निरंतर एक खोज है चाहे वह खोज भूले हुए 8. कह गया जो आता हूँ अभि- अनिरुद्ध उमट– पृ. 49
व्यक्तियों,रिश्तों, रस, रंग, स्वाद या परिवेश की हो। अथवा रेत के 9. वही पृ. 44
10. वही पृ. 42
धोरों, घर, रोटी के स्वाद, बाजरे की महक़, गली, मोहल्ले,गाँव, 11. आधुनिक साहित्य और इतिहास बोध :नित्यानंद तिवारी पृ 110
घर, कुओं-तालाबों अथवा वृक्षों की हों। सभी उनकी कविता के 12. तस्वीरों से जा चुके चेहरे: अनिरुद्ध उमट: पृ-47
परिकर में समाए हुए हैं। ठीक उसी तरह जैसे “अँधेरी रोही में/ 13. वही पृ. 42
खेजडी पर/ बाँध गया कौन/ लहरिया कामना का।”21 जीवन की 14. रामचंद्र शुक्ल संचयन: संपादक नामवर सिंह पृ-40
15. कह गया जो आता हूँ अभी: अनिरुद्ध उमट:पृ :15
यह कामना कविता के माध्यम से किस तरह प्रतिफलित होती है 16. चन्द्रकांत देवताले की कविता: उषस पी. एस. पृ.114,जवाहर पुस्तकालय
यह यहाँ विशेष रूप से दृष्टव्य है। बिम्ब और रंग, प्रतीक और मथुरा 2008
संवेदन किसी निश्चित अर्थ को नहीं खोलते बल्कि पाठक से यह 17. अनिरुद्ध उमट से टेलीफोन पर बातचीत– 24 जुलाई 2023
अपेक्षा रखते हैं कि वह उनके संवेदन में घुल कर अर्थ नई परतों 18. आधुनिक साहित्य का सौंदर्यशास्त्र:पृ. 78 (1971)
19. प्रतिरोध की संस्कृति और साहित्य : परमानंद श्रीवास्तव, पृ:72
को खोले। स्वयं कवि के अनुसार “सारा माध्यम भाषा का है भाषा 20. धुन्ध से उठती धुन निर्मल वर्मा पृ.
ही मुख्य है मैं तो सिर्फ़ लिख रहा होता हूँ कवि के लिए भाषा ही 21. तस्वीरों से जा चुके चेहरे : अनिरुद्ध उमट : पृ:43
निमित्त है सारा खेल भाषा का है। भाषा के लिए मैं निमित्त हूँ कवि 22. संलाप पृ:38
के लिए भाषा निमित्त होती है यहाँ मैं निमित्त हूँ भाषा के लिए। भाषा संपर्क : एसोसिएट प्रोफेसर, मिरांडा हाउस कॉलेज,
को मैं चलने देता हूँ जैसा वो देखती है वैसा मैं देखता हूँ”। कला दिल्ली विश्वविद्यालय
वह अवकाश देती है। कवि ऐसे ऐसे अमूर्तन मे चला जाता है की मो. 9810790680
पाठक के भीतर जो तर्कसंगत होने की जो अभ्यस्त परंपरा पड़ी
रहती है। उससे परे जाती है भाषा। “आसमान में तनी नीली लकीर/

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n महत्तम : पंकज राग

कविता की इतिहासधर्मिता का मानवीय आलोक


सिद्धार्थ शंकर राय

इक्कीसवीं सदी के पहले दशक में पंकज राग ने होते हैं। अगर जनता के कोण से इतिहास को लिखा
अपनी कविताओं की बनावट और बुनावट से सबका जाए, तब मानव सभ्यता के विकास का क्रम कैसा
ध्यान अपनी ओर खींचा। उनका काव्य-संग्रह यह होगा या मानवीयता की शक्ल कैसी दिखायी देगी?
‘यह भूमड ं ल की रात है’ की छियालीस कविताएँ पंकज राग 'हिस्टीरियोग्राफी' के इसी नए कोण से बात
भिन्न-भिन्न ज़मीन और आस्वाद के बावज़ूद एक- शुरू करते हैं-
दूसरे पर अंतरावलंबित हैं। अपनी चेतना और “पूछें कि 1857 क्या था
निर्मिति के धरातल पर इन कविताओं में इतिहास क्या वह एक सिपाही विद्रोह था,
और मानवीय संवेदना की निरंतरता मिलेगी। इसमें संकलित दो क्या वह धर्म को लेकर लड़ा गया था?
लम्बी कविताएँ, ‘दिल्ली : शहर दर शहर’ और ‘1857 के डेढ़ क्या वह जन साधारण की लड़ाई थी
सौवें वर्ष में’ बहस के लिए आमंत्रित करती हैं। ये दोनों कविताएँ या वह राजसत्ता की वापसी का युद्ध था?
अलग-अलग होने के बावज़ूद एक साथ पाठ की माँग करती हैं। और आपको इनमें से सिर्फ़ एक चुनना हो तो
पंकज राग मिथकों, आख्यानों और पौराणिक चरित्रों व कथाओं आप क्या करेंगे?
को समकालीन बनाकर समस्या पर बात नहीं करते, वे ‘इतिहास’ क्या आप इतिहास की अनिवार्यता पर
और ‘ऐतिहासिक प्रक्रिया के द्वन्द्व’ में अपना पक्ष रखते हैं। पंकज ऊँगली उठाते हुए चारों को चुनेंगे
राग की कविताएँ बारम्बार इंगित करती हैं कि ‘हिस्टीरियोग्राफी’ या फिर प्रतियोगिता में सफलता के लिए
के निर्धारित मानदण्डों के आधार पर सिर्फ़ सत्ता और शासकों इतिहास को तिलांजलि देकर
का इतिहास लिखा जा सकता है। अब तक हम जिस इतिहास से किसी एक प्रश्न पर निशान लगाएँगे?”1
दो-चार होते हैं, वह अधिकांशतः सत्ता का इतिहास है। कविता पंकज राग जिस 'इतिहास' और ऐतिहासिक प्रक्रिया के द्वन्द्व
अपनी निर्मिित में जन-इतिहास का दस्तावेज़ होती है। कवि ने दोनों के हिमायती हैं, उसका रास्ता मेगस्थनीज की ‘इण्डिका’, ह्वेनसांग
कविताओं, ‘दिल्ली : शहर दर शहर’और ‘1857 के डेढ़ सौवें के यात्रा-वृत्तान्तों, इब्नबतूता की भारत-यात्रा, अबुल फजल के
वर्ष में’ को जनता के इतिहास के बतौर लिखा है। एक कविता में ‘आइने अकबरी’ फिरदौस के ‘शाहनामा’ और विलियम जोन्स के
जनता के शोषण और सत्ता को बनाए रखने की कवायद का ब्यौरा इतिहास-ग्रन्थों से नहीं समझा और समझाया जा सकता है। अट्ठारह
है, तो दूसरी में इस शोषण से ऊब चुकी जनता का महाविद्रोह। सौ सत्तावन पर केंद्रित कविता में उठे सवालों के जवाब ‘दिल्ली:
अट्ठारह सौ सत्तावन भारतीय इतिहास का बहुत ही मौजूं विषय है। शहर दर शहर’ कविता में मिलते हैं-
इस विषय पर भारतीय और विदेशी इतिहासकारों की अलग-अलग “जहाँ आक्टरलोनी को लूनी अख्तर कह कर
धारणाएँ हैं। पंकज राग ने इतिहास-दर्शन की एक भिन्न भूमिका को दिल्लीपन की इंतहा मानी जा सकती थी
ग्रहण किया है, जो कवि का इतिहास को देखने का नज़रिया है। इस जहाँ विलियम फ्रेजर के हरम को अपनी
इतिहास दर्शन की केंद्रीय धारणा में जनता का पक्ष है। तहजीब की अगली कड़ी समझा जा सकता था
दरअसल, सत्ता द्वारा पूछे गए सवाल विश्वसनीयों के चुनाव जहाँ गदर के सिपाहियों को सामंती तहज़ीब के पैमाने से
होते हैं और उनके रटे-रटाये उत्तर सत्ता के क़रीब जाने के साधन कुछ लुच्चे उत्पातियों की शक्ल दी जा सकती थी।”2

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“एक परोपकारी राजा था
एक करुणामयी रानी थी
एक दुष्ट राक्षस था...
ऐसी कहानियों के अंत बदल देने चाहिए
बच्चे बड़े हो रहे हैं”3
पंकज राग असलियत में उन कहानियों को बदलना चाहते
हैं जिसमें ‘परोपकारी’ और ‘करुणामयी’ के बीच नादिरशाही,
फिरोजी, तुगलकी सनक और अंग्रेजी साम्राज्यवाद के ढोल-तमाशे
में लाखों-करोड़ों बेगुनाह लोगों की बलि चढ़ा दी गयी। इनका कोई
भी इतिहास नहीं लिखा गया। इन कविताओं में उन्हीं लोगों का
इतिहास है जो सत्ता की बर्बरता की आलोचना से प्रस्थान लेते हैं।
वाल्टर बेंजामिन ने कहीं ठीक ही लिखा है कि “प्रायः संस्कृति के
दस्तावेज़ बर्बरता के भी दस्तावेज़ होते हैं।”4
एक इतिहास शासकों का होता है जो लिखित और अभिलेखों
पर अंकित होता है; दूसरा लोक कथाओं, गीतों आदि में तथा श्रवण
परंपरा से पीढ़ी-दर-पीढ़ी चला आता है, यही जनता का इतिहास
होता है। इसमें सुख-दुःख, अमीरी-ग़रीबी, संघर्ष और जय-पराजय
के किस्से दर्ज़ होते हैं। ये ‘बुन्देलखण्डी विवाह गीतों में गाली
स्पष्ट है कि पंकज राग सामंती तहज़ीब के पैरोकार नहीं हैं। बनकर’ और ‘भीमा के आवनो से दुःख सारा कोटी जोसे/ आज
उन्होंने अट्ठारह सौ सत्तावन के महासंग्राम में अपना पक्ष तो रखा भी गाते हैं निमाड़ के भील’ के रूप में पंकज राग की कविताओं में
है, लेकिन बहस की गुंजाइश को भी बरकरार रखा है। वस्तुतः उपस्थित हैं। सन सत्तावन का संघर्ष सत्ता और सत्ता के बीच का
दोनों कविताओं को मिलाकर पढ़ने पर भारत के जनपक्षीय इतिहास संघर्ष नहीं था। यह पदवी, मान-प्रतिष्ठा, दिखावापन और जान
का ब्यौरा मिलता है। ऐसा प्रतीत होता है कि ‘दिल्ली’पर लिखी बचाने का भी युद्ध नहीं था, अपितु हमारी पुस्तकों में वर्णित तथा
गई कविता ‘अट्ठारह सौ सत्तावन’ पर लिखी गयी कविता की उस समय की जनता द्वारा भोगे जा रहे कार्नवालिसों और कर्ज़नों
पूर्वपीठिका है। दिल्ली भारतीय जनमानस में सत्ता के केंद्र के के तथाकथित सुधारों के विरुद्ध युद्ध था-
रूप में स्थापित है। कहते हैं कि दिल्ली अनेक बार उजड़ी और “क्योंकि ख़तरा सिर्फ़ गद्दियों और ओहदों
फिर बसी है। इसलिए दिल्ली को जानने के लिए सीधी प्रणाली या या ज़मीन और जायदाद का नहीं था
एकरेखीय परिपाटी कारगर नहीं है। आज की दिल्ली ने जनतांत्रिक लगान का बोझ हो, या अफीम या
होने या कहे जाने के बीच व्यवस्था की यांत्रिकी के द्वारा मानव नील की थोपी हुई मारक खेती हो
सभ्यता को बार-बार युद्ध की ओर जाते हुए देखा है। जाहिर है कि या रिवाज़ों और कायदों की जगह
इन युद्धों की शानशाही में रिआया का ख़ून बहता है और एक सत्ता ऊँचे खम्भे वाली अदालतें हों
स्थापित होती है जो जनता के ऊपर भयंकर दमन-चक्र चलाती सभी कुछ-कुछ अजीबोग़रीब और ऐसा था
है। इन्हीं दमन-चक्रों की उपज जनक्रांतियाँ होती हैं। अट्ठारह सौ जैसा पहले कभी देखा न था”5
सत्तावन भारतीय इतिहास की एक ऐसी ही क्रांति थी। दुनिया की कविता में ऐतिहासिक वाद-विवादों को गतिमान बनाए रखने
सभी क्रांतियों का कोई न कोई महानायक अवश्य रहा है। लेकिन के लिए गहरी अंतर्दृष्टि युक्त ‘प्रश्नवाचकता' का होना अनिवार्य
1857 की छवि स्वयं महानायक की है। कुँवर सिंह, लक्ष्मीबाई, है। पंकज राग की इस अन्तर्दृष्टि के कारण ही कविताओं की
बिरसामुण्डा, अजीमुल्ला खाँ, दुखनू और मंगनू तथा भीमा जैसे विषयवस्तु में एक कशमकश मौज़ूद है। वे जब-जब प्रश्नों और
नायकों ने इसे महानायकत्व की छवि प्रदान की। जिस बदलाव के मुद्दों की ओर जाते हैं, तब-तब कविता में सरगर्मी दिखायी पड़ती
लिए यह महासंग्राम हुआ, उसका स्वर ‘कहानियों का अंत’ कविता है–
में स्पष्ट होता है- “कई सवाल उठते हैं

294 n जुलाई से सितंबर 2023 yegh


क्या दिल्ली एक आवाज़ है? अपनी सम्पूर्ण रचना-प्रक्रिया में ‘दिल्ली: शहर दर शहर’ सिर्फ़
क्या दिल्ली की गलियाँ पुकार रही है? निगहबानों की नहीं, इंसानों की भी कहानी है, और इसका रास्ता
क्या दिल्ली की रातों में आत्माएँ भटकती हैं? 1857 से होकर जाता है। पंकज राग की कविताओं में राजनीति
दिल्ली, जो हमेशा शहर कहलाती रही बहुत अंदर तक धँसी हुई है। उनकी राजनीति सापेक्षता ‘नारेबाजी’
वह कहीं टिकती क्यों नहीं? या ‘पोस्टर’ जैसी नहीं है, बल्कि कविता काव्य-विवेक में एक
यह हमेशा की बेचैनी कैसी? अन्तर्धारा के रूप में उपस्थित है तथा जनहित की व्यापक आशाओं
बार-बार इलाके बदलने की यह उत्कंठा कैसी? और आकांक्षाओं को रेखांकित करने का साधन बनती है। जो कुछ
बदलते मौसमों का यह शहर घटित हो रहा है उसकी प्रस्तुति मात्र करने वाले कवियों से अलग
क्या पिपलते मौसमों का भी शहर रहा है?”6 हटकर पंकज राग इसमें सार्थक हस्तक्षेप भी करते हैं। इस हस्तक्षेप
‘दिल्ली: शहर दर शहर’ कविता में भारत के लगभग एक से वे समस्या के मूल तक पहुँचते हैं। वस्तुतः मर्ज की पहचान ही
हजार वर्षों के इतिहास को गहराई में उतर कर जांचा-परखा गया उसके उपचार का प्रथम चरण है और इस कार्य में उनकी कविताएँ
है। कवि ने ‘अभी तो साम्राज्यवाद का पहला डंका था’ और ‘वह पूरी तरह सफल हैं-
नव साम्राज्यवाद का आलाप है’ से बनते-बिगड़ते भारत के कई “आदमी समस्या विहीन नहीं मरता
रूपों को देखा है। इस लंबी कविता में मध्यकालीन और आधुनिक जो विमुक्त मरते हैं
इतिहास के मुगलिया सल्तनत के सिरमौर अकबर का न होना कुछ शायद वे आदमी नहीं होते।”8
खटकता है। आदमीयत की यही अनिवार्य शर्त मनुष्य की विकसनशील
पंकज राग अपनी कविताओं की इतिहास- प्रक्रिया के बीच प्रवृत्ति का परिचायक है।
किसी समसामयिक समस्या को रखकर कौतूहल पैदा करते हैं। पंकज राग की कविताओं में उल्लिखित घटनाओं को जीवन से
एक बारगी लगता है कि ये प्रसंग कविता के प्रवाह को शिथिल जोड़ देने पर व्यवस्था के अन्तर्विरोध स्वतः ही प्रकट हो जाते हैं।
करते हैं, परन्तु इन प्रसंगों की अनुगूंज समकालीन चुनौतियों की ‘समय पर कुछ कविताएँ’, ‘होना’, ‘सम्पूर्ण साक्षरता’, ‘सूचित
ओर ले जाती है जो अलग-अलग रूपों में आज भी देश और समाज तो तुम्हें होना ही पड़ेगा’, ‘संस्कृति संचालनालय’ जैसी कविताएँ
में मौज़ूद है। ‘यादों को संदर्भोंं से न जोड़ने का विकल्प इस समय व्यवस्था के अन्तर्विरोध को बहुत सजगता से दर्शाती हैं। ‘कविता
तक/ बहुत सुविधाजनक हो गया है हम सबके लिए’ से कवि यादों का अंत’ के दौर में ‘समय’ पर लिखी गई कविताएँ बहुत प्रासंगिक
को संदर्भों से जोड़ता है। जनता का इतिहास सुविधाओं का नहीं हैं–
दुविधाओं का घटाटोप है। समकालीन समय में ऐसा कुछ घटित हो “सब कुछ वीभत्स था
रहा है जो इतिहास से चला आ रहा है कि सत्ता और सुविधा कुछ न फूल, न खुशबू, न रोशनी
लोगों तक सिमट गयी है। सत्ता के केंद्रीयकरण की परंपरा कवि की जो था वह न ज़मीन था, न पानी
पेशानी पर बल डालती है- और शायद किनारा भी नहीं था
“दिल्ली में उमस बहुत बढ़ गई है एक चुप्पी सी छा गई थी
बहुत सारे लोगों ने अब शीशे चढ़ा रखे हैं न तोहमत, न विश्लेषण
अंदर पूँजी का सामंतवाद बहता है कोई शेर भी नहीं
जो दिमाग को ठण्डा रखता है हम सब अपने-अपने घर चले गए
और जिसे गर्मी महसूस होने पर अख़बारों ने लिखा-समय ही दोषी है।”9
खरीदा और बेचा जा सकता है अमूर्तन की स्थिति सत्ता-व्यवस्था का सुरक्षा कवच है। सत्ता
डी.एल.एफ. के बड़े-बड़े शॉपिंग माल्स में द्वारा भाषाई चमत्कार और भंगिमा की चातुरी से वही दिखाया जाता
बड़े-बड़े मल्टीनेशनल पे पैकेजों के सहारे है, जिससे व्यवस्था में लोगों का विश्वास बना रहे जबकि कविता
बार्बी डॉल्स की तरह व्यवस्था के व्यतिक्रम को दिखाने और उल्टी चीज़ों को उलट देने
जिनकी गुड़ियों सी शादी नहीं होती जैसे काम भी करती है। ‘सम्पूर्ण साक्षरता’ शीर्षक कविता इसी
और जो विचारशून्यता की अन्तर्राष्ट्रीय खुशी में व्यतिक्रम को लक्षित करती है–
माचो मर्दों से लिपट-लिपटकर क्रेजी किया करती हैं।”7 “मनसुखवा के हाथ में पकड़ाकर अपना चॉक

yegh जुलाई से सितंबर 2023 n 295


वैज्ञानिकों, राजनीतिशास्त्र के मर्मज्ञों और बुद्धिजीवियों की नींद
हराम कर सकता है। ‘प्रश्नवाचकता’ पंकज राग की कविताओं की
पंकज राग इतिहास, राजनीति और व्यवस्था एक बड़ी ताक़त है।
संबंधी प्रश्नों से अलग निजी अनुभूति और पंकज राग इतिहास, राजनीति और व्यवस्था संबंधी प्रश्नों
गहरे इन्द्रियबोध के कवि भी हैं। इन कविताओं
से अलग निजी अनुभूति और गहरे इन्द्रियबोध के कवि भी हैं।
में प्रेम, रूप, रस, गंध, संगीत, रंग, परिवार की
उपस्थिति जीवन की विविधता का आस्वाद इन कविताओं में प्रेम, रूप, रस, गंध, संगीत, रंग, परिवार की
कराती है। ‘पत्नी’, ‘खुशबू’, ‘गर्मी बाकी है’, उपस्थिति जीवन की विविधता का आस्वाद कराती है। ‘पत्नी’,
‘सोचते हुए’, ‘दिन’, ‘अभी वक्त है’, ‘ज़मीन ‘खुशबू’, ‘गर्मी बाकी है’, ‘सोचते हुए’, ‘दिन’, ‘अभी वक्त है’,
आसमान’, ‘फूटने दो रंग’, ‘पापा, फुग्गा दो', ‘ज़मीन आसमान’, ‘फूटने दो रंग’, ‘पापा, फुग्गा दो', ‘प्रेम’जैसी
‘प्रेम’जैसी कविताएँ कवि की अनुभूतियों को कविताएँ कवि की अनुभूतियों को संघनित करती हैं। जीवन में रंग
संघनित करती हैं। को बचा लेने पर ही जीवन के बचने की आशा होती है,
“उगने दो गेहूँ की बालियों को
फैलने दो वटवृक्ष, फूल, पौधे, बाँस
फूटने दो रंग,चटकने दो गंध
उससे अपने बोले हुए शब्द लिखवाना होने दो सब गाढ़ा-गाढ़ा,
लिखवाकर पढ़वाना तुम यूँ ही मद्धम रहो।”12
पढ़वाकर सुनाना पंकज राग की काव्यानुभूति ने ठीक ही लक्षित किया है कि जब
नुमाइश को देखकर रंगों से मन भर जाए...शिष्टाचार भी एक बहाना हो...धर्म बहक़
साहब का रीझ रीझ जाना जाए...समकालीनता ठहर जाए...बाज़ार की हुकूमत का पारा चढ़
मनसुखवा का रीत रीत जाना जाए...सपना आये कि सारी चिंताएँ समाप्त हो गई हैं...अन्तर्राष्ट्रीय
यही सम्पूर्ण साक्षरता है।”10 शोर में खाली मस्तिष्क, रीतते विचार हों...तब समझना चाहिए कि
पंकज राग बेहद सरल और सीधी शैली में भाषा के कौशल भूमंडल पर रात गहरा रही है। n
को दिखाते हैं। भाषा कभी-कभी हथियार का भी काम करती है।
भाषा के भीतर अनेकार्थता के लक्षण होते हैं। कवि अपने काव्य- संदर्भ-सूची:
संवेगों को गत्यात्मक बनाने के लिए भाषा की इस अनेकार्थता का 1. राग, पंकज; यह भूमडं ल की रात है; राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली;
पृ:115
प्रयोग करता है। भाषा की इस शक्ति को पहचानते हुए एक कुशल 2. वही; पृ: 30
कवि ने मारने-बचाने, बिखरने और सँवारने की बहुविध क्रियाएँ 3. वही; पृ:74
सम्पादित की हैं- 4. वाल्टर, बेंजामिन; उद्धृत-भारतीय समाज में प्रतिरोध की नई परंपरा
“धर्म का बहक़ना (ले.-मैनेजर पाण्डेय); वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली; भूमिका से
5. राग, पंकज; यह भूमड ं ल की रात है; राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली;
बच्चों का चहक़ना पृ:117
आग का दहक़ना 6. वही; पृ:15
फूलों कामहक़ना 7. वही; पृ:37
मुझे बता दो इनमें से कौन क्रिया है, 8. वही; पृ:60
9. वही; पृ:50
कौन प्रतिक्रिया?” 11
10. वही; पृ:61
भूमंडलीकरण, सूचना क्रांति, उदारीकरण और उत्तर- 11. वही; पृ:63
आधुनिकता जैसी शब्दावलियों की चकाचौंध में धार्मिक 12. वही; पृ:99
पुनरुत्थानवाद, हथियारों की होड़, जातीय उन्मादों के नवोन्मेष संपर्क : सहायक प्रोफेसर, हिंदी विभाग
को पूँजीवाद आगे बढ़ा रहा है। प्रतिक्रियावाद को सभ्यता के हरियाणा केंद्रीय विश्वविद्यालय, महेंद्रगढ़
नवीन उत्थान की संज्ञा दी जा रही है। पंकज राग का क्रिया और मो. 8397061555
प्रतिक्रिया का विभेदन संबंधी प्रश्न बड़े-बड़े समाजशास्त्रियों, भाषा

296 n जुलाई से सितंबर 2023 yegh


n महत्तम : अनिल करमेले

ठोस प्रतिबद्धता और ऐंद्रिकता से कुसमय का सामना


कैलाश बनवासी

अनिल करमेले नियमित और लगातार लिखने वाले नागरिक की पीड़ा है जो देख रहा है– लोकतंत्र का
कवि नहीं हैं। उनके अभी तक दो संग्रह ही प्रकाशित लगातार भ्रष्ट-तंत्र में बदलते चले जाना, और आगे
हुए हैं। उसमें भी पहला संग्रह ‘ईश्वर के नाम पर’ चलकर ऐसे भ्रष्टाचारियों या दोगले चरित्रों का इस
1996 में छपा था। उसके बाद दूसरा संग्रह ‘बाकी व्यवस्था में बहुत बेशर्मी से नए मान्य विकास पुरुष
बचे कुछ लोग’ 23 बरस के बड़े अंतराल के बाद बन जाना। इसीलिए इस कविता की अगली कड़ी के
2020 में छपकर आया। और एक तरह से कहा रूप में अनिल की एक अन्य कविता ‘कामयाब लोग’
जाए,अनिल करमेले के कवि को मजबूती से स्थापित को देखा जा सकता है,जहाँ वे मूल्य पूरी तरह से
करने वाला यही संग्रह है जो काफ़ी चर्चित-प्रशंसित हुआ। उनके गायब हो चुके हैं और बाज़ार चतुर लोग हमारे समय के नए नायक
कवि कर्म के मूल में देश के पिछड़े इलाके में रहनेवाले वे जन- बन चुके हैं- ‘ वे सब अपने-अपने काम में माहिर थे/ लम्बे तज़ुर्बों
साधारण हैं,जो विकास की चर्चा सुनते आये हैं, जो कभी उनके से इनमें से कुछ विशेषज्ञ हो गए थे/ वे कभी चूके नहीं थे इसलिए
दरवाजे तक पहुँचा नहीं। इस जन की खासियत यह है कि विकास ज़िन्दा थे/ दरअसल बहुत सारे लोगों और चीज़ों की मृत्यु पर ही/
की चकाचौंध से वंचित रहने के कारण ये कुटिलताओं,चालाकियों, टिका था उनका जीवन/ सियार की तरह चालाक और लकड़बग्घे
छल-क्षद्म से वैसे प्रदूषित नहीं हुए हैं जैसे कि बड़े शहर के लोग। की तरह धूर्त/ और गिरगिट की तरह बदलते/ वे सब शहर में थे/
अनिल दरअसल कस्बाई संवेदना के कवि हैं,जो महानगरीय उनके पास कविता से लेकर पिस्तौल बेचने की कला थी/वे हर
विकास के चलते छल और व्यापार को भली-भाँति जानते हैं। तरह के जश्न के आयोजक थे/अप्रासंगिक को प्रासंगिक बनाने में
तभी अपनी कविता एक ’सुखी आदमी के बारे में’ में वह कहते कुशल वे इवेंट मैनेजर थे’।
हैं- ‘फिर यकायक कुछ यूं हुआ कि वह/ जीवन में समेटी हुई हम सब इस विकृत, कुत्सित, झूठे, कृत्रिम विकास के गवाह
चालाकियों से/एक बेहद सुखी इन्सान बन गया/ अब यह पता नहीं हैं। कथाकार ज्ञानरंजन ने अपनी पुस्तक ‘कबाड़खाना’ के एक
वह कितना सुखी है।’ निबंध ‘समय, समाज और कहानी’ में इस छलिया विकास की
यहाँ सुखी होने के दो ‘परसेप्शन’ हैं। दोनों ही परस्पर विरोधी। सूक्ष्म पड़ताल करते हुए लिखा है– ‘यथार्थ ठोस नहीं रहा,वह
एक जिसे दुनिया सुखी मानती है, और दूसरा जिसे कवि सुखी हर दिन बदल रहा है। वह ज्यादा अप्रत्यक्ष,अमूर्त और सूक्ष्मता
मानता है। जीवन में समेटी गयी चालाकियों से सुखी बनने का में क़ैद होने के साथ,उतना ही जटिल लुका-छिपा है। उसमें गहरी
यहाँ तीखा व्यंग्यात्मक विरोध है। किसी छोटे शहर से निकले एक समरस मिलावट हो गयी है। उसका फोटोग्राफ आसानी से नहीं
निम्नवर्गीय व्यक्ति के लिए यही सबसे बड़ा अचम्भा होता है कि बन सकता। उसमें परदेस आ गए हैं और दीर्घकालिक संधियाँ।
अपनी सफलता के लिए लोग उन सारे आदर्शों को कितनी आसानी उनमें विश्वप्रसिद्ध वित्तीय संस्थान आ गए हैं, उनमें कूट, अप्रतिम
से छोड़ते चले जा रहे हैं जो कभी उनके स्थायी और सारवान प्रभावशाली और फुर्ती से भरे हुए दलाल आ गए हैं, उन्हें दलाल
जीवन-मूल्य रहे हैं। इस औसत-सी कविता का ज़िक्र इसलिए शब्द देना भी झूठ और हिम्मत का काम लगता है। क्योंकि वे बेहद
क्योंकि यहीं से अनिल करमेले की कविता को समझने के कुछ ख़ूबसूरत, संपन्न और स्वीकृत हैं।’
सूत्र हाथ लगते हैं। कि किसी भी तरह की चालाकी से सुखी होने देश ने अपने लिए विकास का जो रास्ता चुना– व्हाया
के प्रति बुनियादी विरोध है कवि का। यह दरअसल उस सरल सच्चे भूमंडलीकरण, उसमें यही होना था। वे तमाम संस्थाएँ जो कभी

yegh जुलाई से सितंबर 2023 n 297


देश की आत्मनिर्भर आर्थिक व्यवास्था की रीढ़ थी, उन्हें पिछड़ा, शिल्प में निम्नवर्ग उस पीड़ा से ही इसका प्रतिवाद रचते हैं– हमारे
कमज़ोर और घाटे में बताकर तोड़कर, बेच डाला गया या बंद यहाँ दुःख नहीं आता चुपचाप/ मगर नहीं रह पाता ज़्यादा दिन/
कर दिया गया। किसी भी समय-सजग कवि को इसकी पीड़ा और पेट में उठती है भडांग/ और काट देता है हँसिया दुःख को/ एक
बेचैनी होनी ही होनी है। अनिल के यहाँ इसे ‘चिट्ठियाँ’, ‘टेलीग्राम’, ही वार में।
जैसी कविताओं में देख सकते हैं- ‘तुम बहुत दिन जी लिए तार 000
मियाँ/इक्कीसवीं सदी की भागती हुई दुनिया में/तुम्हारी कोई रफ़्तार अनिल की एक कविता ‘लोहे की धमक’ पढ़ते हुए बरबस
ही नहीं थी। /बहुत पहले से तय था/तुम्हारी होनी थी यही गति/ केदारनाथ अग्रवाल की कविता ‘मैंने उसको जब-जब देखा’ की
तुम बोझ बन गए थे सरकार पर/ जैसे रंगीन जिंदगी जीते परिवार स्मृति हो आती है। यह अपने भाषाई कौशल और ऐंद्रिकता से श्रम
में घर का कोई बुजर्गु ।’ का महत्व बहुत घनीभूत ढंग से एक नयी चमक के साथ स्थापित
उनकी अधिकांश कविताएँ छोटे आकार की हैं। इन कविताओं करती है। दरअसल यह कविता में भीमा लुहार के बहाने संसार के
के विषय,शिल्प और संरचना प्रायः आठवें-नवें दशक के कवियों सारे श्रमशील और कर्मठ लोगों का सम्मान है जो प्रगतिशील हिंदी
से बहुत अलग नहीं हैं। लेकिन अनिल की मौलिकता उनके शिल्प कविता का एक बुनियादी मिजाज़ रहा है, जिसे निराला, मुक्तिबोध,
से अधिक उनकी गहन संवेदना और पक्षधर वैचारिक दृष्टि में है। त्रिलोचन, नागार्जुन, केदारनाथ अग्रवाल, शमशेर बहादुर सिंह,
हमारे समय से छूटती, गायब होतीं उन चीज़ों पर भी कविताएँ हैं जो केदारनाथ सिंह, अरुण कमल, मंगलेश डबराल, आलोक धन्वा,
कभी आम जन-जीवन में या रोज़मर्रा में शामिल थीं। ‘छिंदवाड़ा’, वीरेन डंगवाल, गोरख पाण्डेय, राजेश जोशी जैसों से लेकर अभी
‘डायरी’ जैसी कविताएँ इसी श्रेणी की हैं। उनकी कविता ‘हमारे के युवतम कवियों में भी सहज देखा जा सकता है। लेकिन वहीं
यहाँ दुःख’ मुझे कवि की एक महत्वपूर्ण कविता लगती है। यह ऐसे विषय कवि के लिए एक चुनौती भी होते हैं, कि यदि इन्हें
महत्वपूर्ण सिर्फ़ अपने विषय-निम्नवर्ग के लोगों के जीवन-चित्र गहरे आत्मिक लगाव और जुड़ाव से नहीं लिखा गया, तो कविता
के कारण नहीं है, वह महत्वपूर्ण है तो लोक-जीवन पर कवि की खोखले और निरर्थक नारों में तब्दील होती नज़र आती है। अनिल
गहरी पैठ, संवेदना और अंतर्दृष्टि के कारण। वह गाँव के जीवन इस कठिनाई को बेहतर समझते हैं, इसीलिए उनका ढंग यहाँ गहन
में शोक के आगमन को दिखावटी मार्मिकता या किसी भावात्मक ऐन्द्रिक और रागात्मक है जो उनके ठोस जीवनानुभव से निकला
उबाल के सहारे किसी लोकप्रिय काव्यात्मक टूल में नहीं बदलते। है- ‘भट्ठी के लाल उजाले में/ देवदूत की तरह चमकता भीमा का
बल्कि उनकी सशक्त जिजीविषा को समझने के कारण एक ठंडे चेहरा/ घन उठता और हज़ार घोड़ों की ताक़त से/ तपते लोहे
पर गिरता/ लाल किरचियाँ बिखरतीं टूटते तारों की मानिंद/ गिरते
अनिल की एक कविता ‘लोहे की धमक’ पसीने से छन-छन करता पकता लोहा/ बिन लोहा अन्न और बिन
पढ़ते हुए बरबस केदारनाथ अग्रवाल की भीमा लोहा/ अब भी संभव नहीं है/ मैं रोज़ ख़ून में लोहे की धमक
कविता ‘मैंने उसको जब-जब देखा’ की स्मृति सुनता हूँ।’ यह कविता अपने रचाव में पूरे काव्यात्मक शर्तों– खरे
हो आती है। यह अपने भाषाई कौशल और अनुभव, जीवनमूल्य, भाषा की कलात्मकता, सौन्दर्यबोध–के साथ
ऐंद्रिकता से श्रम का महत्व बहुत घनीभूत ढंग है।
से एक नयी चमक के साथ स्थापित करती है। कम लिखने के बावज़ूद अनिल की कविताओं का फलक
दरअसल यह कविता में भीमा लुहार के बहाने बहुत विविधताओं से भरा है जिसमें हमारे समय की ख़ूबियाँ और
संसार के सारे श्रमशील और कर्मठ लोगों का कमियाँ दर्ज़ हैं। गाँव-कसबे से लेकर महानगर तक और मजदूर से
सम्मान है जो प्रगतिशील हिंदी कविता का लेकर ऊँचे ओहदों में बैठे सुखियार भ्रष्ट अधिकारियों राजनीतिज्ञों
एक बुनियादी मिजाज़ रहा है, जिसे निराला,
तक,साधारण घरेलू कामगार लड़कियों से लेकर विश्वसुन्दरी
मुक्तिबोध, त्रिलोचन, नागार्जुन, केदारनाथ
अग्रवाल, शमशेर बहादुर सिंह, केदारनाथ तक। नौकरीपेशा मध्यवर्ग का तथाकथित ‘सुखी’ जीवन भी बहुत
सिंह, अरुण कमल, मंगलेश डबराल, आलोक नज़दीक से देखा है। और उस लगभग निष्क्रिय, एकसार और
धन्वा, वीरेन डंगवाल, गोरख पाण्डेय, राजेश निरर्थक जीवन पर वह अपनी कड़ी टिप्पणी दर्ज़ करते हैं। ‘रोशनी’
जोशी जैसों से लेकर अभी के युवतम कवियों कविता में वह कहते हैं– उन रास्तों पर चलता चला गया/जहाँ
में भी सहज देखा जा सकता है। चलते रहने के अलावा कुछ भी नहीं था।
अनिल के मन में आज भी वही छिंदवाड़ा बसता है जिसे वह

298 n जुलाई से सितंबर 2023 yegh


छोड़कर आया था इसी शीर्षक से उनकी एक लम्बी कविता है।
लेकिन अच्छी बात ये है कि यहाँ देखना किसी अतीत मोह की
रुदाली से ग्रस्त नहीं है। वह समय के साथ बदलते शहर को कहना न होगा अनिल की इधर की कविताओं
अपने गहरे आलोचकीय विवेक से देख रहा है– ‘नए ज़माने की में तंत्र की विकृतियों, चालाकियों, आडम्बरों
नज़र लग गयी उसी छिंदवाड़ा को/ जहाँ सैकड़ों कालोनियों में और शोषण के प्रति गहरी आक्रामकता है,
बसकर भी/ उजड़ गयी उसकी आत्मा।’ वह छिंदवाड़ा के बहाने जिसे कविता के दायरे में पूरा कर पाना निश्चय
ही हमारे समय की एक बड़ी चुनौती है।
देश के तमाम ऐसे छोटे शहरों या कस्बों में बहुत तेज़ी से ज़ारी
तथाकथित आधुनिकीकरण उर्फ़ बाज़ारीकरण को देख रहा है,जो
उनका भूगोल, अर्थशास्त्र ही नहीं,समाजशास्त्र भी बदल देने पर
आमादा है। दरअसल कवि की चिंता में सिर्फ़ कोई ख़ास प्रिय नगर अंधराष्ट्रवादी अभियान में पूरी कुटिलता, नृशंसता और निर्लज्जता
नहीं है, बल्कि पूरी पृथ्वी और मनुष्यता है, जो दिन-पर-दिन वोट से मुब्तिला हैं,अनिल अपनी कविता ‘बाकी बचे कुछ लोग’ में ऐसी
की राजनीति और मुनाफे की बाज़ारू व्यवस्था से अधिकाधिक सत्ता और उसके सर्वोच्च प्रतिनिधि का मुखौटा भरपूर आक्रोश के
विकृत, संकचित ु , हृदयहीन होती जा रही है। साथ जैसे नोचकर उतार देते हैं: ‘वह हर बार एक घटिया तर्कहीन
एक सिने दृश्य से भी कैसे एक विलक्षण कविता संभव हो पाती बात के साथ/कहता है इस देश के लोग यही चाहते हैं/ अपनी
है,उसकी नज़ीर है कविता—‘बैंडिट क्वीन के एवज़ी दृश्य में।’ सार्वजनिक स्वीकार्यता के लिए/ अंततः हर तानाशाह संस्कृति के
फूलन देवी की इस बायोपिक फिल्म में नायिका (सीमा बिस्वास) पास ही आता है।’
के एक पूर्ण निर्वसन दृश्य को निर्देशक ने अपनी विकट ग़रीबी से यह समय ऐसा है जब सामने अन्याय, शोषण, लूट, अत्याचार
असहाय एक ज़रूरतमंद स्त्री पर फिल्माया था। यह कविता उस के लगातर होने के कारण कविता के बिम्ब, उपमाएँ या शिल्प
विवशता की मर्मान्तक पीड़ा का जैसे चीत्कार है– ‘लम्बी काली नाकाफ़ी ही नहीं असंगत भी हो जाते हैं और कवि को सीधे कहने
रातों की लगातार दबोच के बाद/ इस सुबह की मरियल सी रोशनी का जोख़िम उठाना पड़ता है, इसे ही मुक्तिबोध कहते हैं– तोड़ने
में/ उस स्त्री को दिख रही थी/ अपने भाई के जीवित बच जाने ही होंगे मठ और गढ़ सब’। इस में आपकी कविता को महज
की उम्मीद/ जो कुल हज़ार रुपये के एवज़ में/ अपनी आत्मा को राजनीतिक बयान माने जाने का भी जोख़िम है। यह ऐसा दौर है
लहुलुहान करती/ वह बैंडिट क्वीन की छाया/ जा रही थी निर्वसन जिसमें लोगों को विरोध और परिवर्तन की ज़्यादा ज़रूरत है,जो
कुएँ पर पानी लाने।’ पुराने बिम्ब, मुहावरे, शिल्प या भाषा में संभव ही नहीं। यह कवि
बरसों से कायम घोर कट्टर वर्णभेदी, लिंगभेदी और स्त्रीविरोधी की अंतर्दृष्टि और समय-सापेक्ष पक्षधरता का तकाज़ा है कि वह
हमारी समाज-व्यवस्था में यह कोई नयी, पहली या अनोखी घटना पाठक से सीधे बात करे। और हिंदी कविता में अब तक इसकी
नहीं है, बल्कि आज हम रोजाना इससे भी भयानक,हौलनाक और सुदृढ़ परंपरा है– धूमिल, नागार्जुन, केदारनाथ अग्रवाल, सर्वेश्वर
लोमहर्षक नृशंसताएँ देख रहे हैं। कठुआ, उन्नाव, हाथरस,निर्भया दयाल सक्सेना, रघुवीर सहाय से लेकर राजेश जोशी कुमार अम्बुज
से लेकर मणिपुर तक... एक असमाप्त सिलसिला है स्त्री के प्रति और कात्यायनी जैसों तक जारी है। अनिल के यहाँ इस कड़ी में
समाज की क्रूरता का, उसकी दिन-ब-दिन बढती पराकाष्ठा का, उनकी ‘ईश्वर के नाम पर’, ‘रात के तीसरे पहर में’, ‘राहत’ यह
जिसके चलते धीरे-धीरे हमारी संवेदनाएँ भोथरी होकर ऐसे तमाम समय’ ‘बेहतर दुनिया की कोशिश में’ जैसी कविताओं को देखा
अमानुषिकताओं और अनाचारों की आदी होती जा रही हैं। जा सकता है।
000 कहना न होगा अनिल की इधर की कविताओं में तंत्र की
समकालीन राजनीति,अर्थनीति की कुटिलताओं की गहरी समझ, विकृतियों, चालाकियों, आडम्बरों और शोषण के प्रति गहरी
उसके प्रतिरोध और वैकल्पिक स्वप्न के बग़ैर आप वास्तविक आक्रामकता है, जिसे कविता के दायरे में पूरा कर पाना निश्चय
रचनाकार नहीं हो सकते। देश में लगातार बढ़ते फासीवादी प्रवृत्ति ही हमारे समय की एक बड़ी चुनौती है। यहीं हमारे समय के प्रखर
और नफ़रत का उद्गम और माध्यम अब अहंकारी और उजड्ड आलोचक और कवि विजय कुमार की अपनी किताब ‘खिड़की
राष्ट्रवादी सत्ता-व्यवस्थाएँ हो गयीं हैं जो अपने लक्ष्यों को पाने के पास कवि’ में लिखी यह बात याद आती है—‘हमारे समय में
किसी भी हद तक जा सकती हैं। इस सच को अनिल पूरी शिद्दत कविता और क्या हो सकती है? वह उस सीमा रेखा की खोज है
से जानते हैं, इसीलिए जो लोग संस्कृति की आड़ में घोर नफ़रती जिसके एक तरफ अर्थहीन शोर है दूसरी तरफ जड़ खामोशियाँ।

yegh जुलाई से सितंबर 2023 n 299


अपनी अब तक की कविता यात्रा में अनिल ने से लगातार ऊपर जा रहा है। खासकर प्रेम और स्त्री के मामलों
अपना निजी विशिष्ट मुहावरा भले न विकसित में। यह बेहद शर्म ही नहीं कलंक की बात है! और इस क्रूरता
किया हो, लेकिन चीज़ों को देखने की अपनी और कट्टरता में सिर्फ़ गाँव-खेड़े के अशिक्षित लोग ही नहीं हैं,बहुत
दृष्टि अर्जित कर ली है,और यही आगे चलकर पढ़े-लिखे, सभ्य और संपन्न कहे जाने वाले शहरी लोग भी बड़ी
कवि के निजी मुहावरे को निर्मित करती है। संख्या में शामिल हैं। अपनी तथाकथित आन की रक्षा के लिए
इसके लिए ज़रूरी है कविताओं की संख्या के उन्होंने इधर एक नया शब्द गढ़ लिया है– ‘ऑनर किलिंग’। इस
साथ-साथ उनके कैनवास का बड़ा होना। इसी हत्या,बर्बरता को लेकर उन्हें कोई पछतावा नहीं,वरन उसकी जगह
के साथ, उन्हें वर्तमान जीवन और यथार्थ की एक बर्बर हिंसक चमक होती है– ‘कलंक’ को मिटा डालने का।
नयी खोजों के लिए निरंतर उसके तहखानों, अनिल की इस पर कविता है– ‘यह धरती के आराम करने का
बीहड़ों में ज्यादा गहरा उतरना होगा। समय है’ जिसका एक उदाहरण प्रस्तुत है–
‘और एक क्रूर हत्यारा अट्टहास/ फैला है प्रेम के चहुँ ओर/ एक
कविता इन दोनों स्थितियों के बीच इतिहास की तमाम विडंबनाओं घृणित कार्रवाई बनने को तत्पर है संस्कार/कलंक है एक भारी/
और त्रासदियों से गुज़रती हुई तमाम तरह के धोखों, फरेबों, प्रपंचों, जिसे धो डालने को व्याकुल है सारा संसार/ उनकी चैन की नींद/
बदकारियों का सामना करती हुई भरोसे की कोई अंतिम चीज़ बन उस स्त्री की मृत्यु में शामिल है/ जो इन दिनों मुझसे कर रही है
जाना चाहती है। वह इस पूरे समय का एक निदान चाहती है और प्रेम।’
इस बुनियादी सवाल को उठाती है कि यह सब क्यों?’ (पृष्ठ 94)
000 000
पिछले कुछ दशक से हिंदी साहित्य में स्त्री-विमर्श एक प्रमुख यूं तो उम्मीद,संकल्प और संघर्ष या अपने कवि-कर्म को लेकर
स्वर है। निश्चय ही बदलते समय के साथ उन सारे स्त्री विरोधी अधिकांश कवियों के पास कविताएँ हैं, अनिल अपनी विनम्रता,
मूल्यों,मान्यताओं को ध्वस्त करने की ज़रूरत है,जो लम्बे सामंती प्रतिबद्धता, समर्पण और गहन ऐंद्रिकता से कविता ‘मैं इस तरह
और पितृसत्तात्मक व्यवस्था का कूड़ा है। अनिल अपनी कविताओं रहूँ’ में लिखते हैं– ‘मैं इस तरह रहूँ/ जैसे बची रहती है आख़िरी
में सहज किन्तु प्रबल विमर्श रचते हैं। ’उसके आगमन पर’ जैसी उम्मीद/ मैं स्वाद की तरह रहूँ लोगों की यादों में/ रहूँ ज़रूरत
कविता सिर्फ़ विचार या विमर्श के सहारे नहीं लिखी जा सकती। बनकर नमक की तरह/ इस तरह रहूँ कि मेरे रहने का अर्थ रहे।’
भ्रूण-हत्या बैन है, लेकिन चारों तरफ़ घनघोर ज़ारी है। पारंपरिक इस कविता को अनिल के प्रतिनिधि या पोस्टर कविता की तरह
स्त्रीविरोधी सोच के चलते कन्या के जन्म पर जैसा विषाद घरों में देखा जा सकता है। वैसे यह सभी की जानकारी में है, कि अनिल
व्यापता है,उसकी बेहद मार्मिक और विडंबनात्मक अभिव्यक्ति करमेले पिछले कुछ बरसों से सुंदर और प्रभावशाली कविता
अनिल इस कविता में करते हैं- उसने भीतर जिन हाथों से/ महसूस पोस्टर्स बनाने का काम निरंतर कर रहे हैं।
की थी मखमली थपकियाँ/ उन्हीं हाथों में अब नागफनी उग आयी अपनी अब तक की कविता यात्रा में अनिल ने अपना निजी
थीं/वह जानती थी/ पूरा कुनबा कुलदीपक के इंतज़ार में खड़ा है। विशिष्ट मुहावरा भले न विकसित किया हो, लेकिन चीज़ों को
अनिल की कविताओं में बड़ा हिस्सा प्रेम कविताओं का है। देखने की अपनी दृष्टि अर्जित कर ली है,और यही आगे चलकर
उनके यहाँ प्रेम गहन ऐंद्रिकता,आवेग और रोमान के साथ-साथ कवि के निजी मुहावरे को निर्मित करती है। इसके लिए ज़रूरी है
ज़मीनी बेचैनी और चिंता लिए हुए है। यह कपोल-कल्पित दैहिक कविताओं की संख्या के साथ-साथ उनके कैनवास का बड़ा होना।
या वायवीय नहीं है। यहाँ वे सारे रंग, शब्द और खुशबूएँ मिलेंगी इसी के साथ, उन्हें वर्तमान जीवन और यथार्थ की नयी खोजों
जिनसे प्रेम अपना आकार विस्तारित करती हैं– सूरज,चंद्रमा, के लिए निरंतर उसके तहखानों, बीहड़ों में ज्यादा गहरा उतरना
चाँदनी,तारे, पेड़, नदी, हवा, खुशबू इत्यादि को शामिल करते हुए। होगा। जिसके लिए मुक्तिबोध कहते हैं– मुझे चाहिए मेरा असंग
प्रेम और स्त्री को लेकर अधिसंख्य एशियाई समाज जिन भयावह बबूलपन! या गोरख पाण्डेय जिसे कहते हैं– उलटी चीज़ों को
कट्टरताओं,संकीर्णताओं में जीता रहा है,वह जगजाहिर है। भारत के उलट देने का काम। n
संदर्भ में इसीलिए अरुंधति राय कहती हैं कि यह एक साथ कई संपर्क : 41, मुखर्जी नगर, सिकोलाभाठा,
सदियों में जीता हुआ देश है। इस इक्कीसवीं सदी में भी जाति, धर्म दुर्ग (छत्तीसगढ़)
या वर्ग आधारित घृणा, कट्टरता और हिंसा का ग्राफ ख़तरनाक तेज़ी मो. 9827993920

300 n जुलाई से सितंबर 2023 yegh


n महत्तम : रविशंकर पाण्डेय

लय और अनुभूति का लोक पक्ष


डॉ. इन्दीवर

रविशंकर पाण्डेय भारत की सांस्कृतिक चेतना और दूसरी ओर/दूर तक/जमी बरफ है


और ग्रामबोध के कवि हैं। उनकी पहचान एक मैं प्राणों की/ भीख मौत से/ माँग रहा हूँ।”
उत्कृष्ट नवगीतकार के रूप में बनी। उनके नवगीत इस भाषायी मुहावरें में कितनी रोचकता है,
समकालीन कविता की अधुनातन कड़ी हैं, जिनमें सहजता और प्रवाह की जीवन्तता है! व्यंग्य और
हमारी काव्य-परंपरा का ताजा और टटका रूप विद्रूप को किस अंदाज में यहाँ प्रस्तुत किया गया है
मौज़ूद है। रवि शंकर पाण्डेय के संदर्भ में यह कहने उससे कवि की रचना शक्ति का परिचय मिलता है।
की ज़रूरत है कि ‘सामाजिक संदर्भ में’ गीत को जिस विवशता को यहाँ कवि/गीतकार प्रस्तुत कर रहा
दूसरे दर्ज़े पर रखा जाता है। उनके गीतों को पढ़ते हुए-वैयक्तिकता है, उसे अगर व्यापकता में देखना है तो ‘जल बिच मीन पियासी’
और आत्मपरकता का आक्षेप धराशायी हो जाता है। इस संग्रह की संग्रह ज़रूर पढ़ा जाना चाहिए।
रचनायें उन्हें समाज का अभिचेता घोषित करती हैं। कविताओं का रविशंकर पाण्डेय के पास समकालीन जीवन-दृष्टि है जिसके
विश्लेषण करते समय सामाजिक यथार्थ का प्रश्न सामने खड़ा बल पर वह अपने समय की चुनौतियों से टकराते हैं; उनमें छिपी
होता है। छान्दस काव्य-परंपरा में जब सामाजिक यथार्य पर दृष्टि सचाइयों को सामने लाने की कोशिश करते हैं। इसके साथ ही
डालते हैं तो अधिकतर प्रबन्ध काव्यों की ओर दृष्टि जाती है। उनके नवगीतों में एक ऐसी अन्तरलय है जो कंटेंट के अनुकूल
रविशंकर पाण्डेय को पढ़ते हुए यह लगता है कि उनकी रचनायें चलती है। उनके नवगीतों के बारे में यह कहना सवर्था उचित होगा
बहुत बड़े मानसिक दबाव से उद्भूत हुई हैं। इसलिए इन रचनाओं में कि वे ‘कन्टेन्ट के नवगीतकार’ हैं। उनके नवगीतों में सामाजिक
संक्षिप्तता और क्षिप्रता है। गीत पर आक्षेप लगता है कि वे आत्मपरक यथार्थ, गाँव, शहर, आँचलिक परिवेश, लोक जीवन, सांस्कृतिक
होते हैं। यहाँ आत्मपरकता भी सामाजिक हो गयी है या समाज का चेतना राजनीतिक विसंगति, विद्रूप, शोषण, ग़रीबी, भुखमरी,
प्रतिबिम्ब बनकर उभरी है। यथा- “लगता है/ जैसे सोते में/जाग रहा जहालत, किसान के दुःख-दर्द और ग्रामीण जीवन के दर्द आर्थिक
हूँ/ फँसा हुआ/टेड़े प्रश्नों के/चक्रव्यूह में/या कि/व्यर्थताओं के ऊँचे/ रूप में उभरते हैं। इन्हीं से निर्मित होता है उनके नवगीतों का
अगम गृह में/ ख़ुद से डरकर/ उल्टे पाँवों भाग रहा हूँ।” सामाजिक यथार्थ–
छान्दस गीतकारों में क्लासिकल होने का रोग कुछ अधिक ही “विश्वासों की इस बस्ती में
दिखाई देता है। नवगीत की नवता में संवेदना को प्रभावोत्पादक सौ-सौ-जोंकें हैं
बनाने के लिए जिस वैचारिकता और विट की आवश्यकता होती असली चेहरे अन्दर
है,रविशंकर उसे पूरा करते हैं। उनके पास समकालीनता का ऊपर लगे मुखौटे हैं
दृष्टिबोध है जिसके बल पर वह यथार्थ को कई स्तरों पर उघाड़ डिजिटल युग में
देते हैं– नये-नये पिंडारी लौटे हैं।”
“एक प्रश्न के/सौ-सौ उत्तर/क्या बो लूँ मैं इसी तरह लोग कई-कई रूपों में चेहरा बदलकर आ जाते
धान सभी/बाईस पसेरी/ क्या तोलूँ मैं हैं। इनका एक ही उद्देश्य है आम आदमी का शोषण/छल और
मुजरिम हूँ/ख़ुद को सलीब पर/टाँग रहा हूँ विश्वासघात। ये पंक्तियाँ अत्यन्त ही समसामयिक है। साइबर ठगी
धू-धू कर जलता दावानल/एक तरह है/ और डिजिटल लूट क्षण भर में हो जाती है। जब तक इसका पता

yegh जुलाई से सितंबर 2023 n 301


चलता है आदमी हाथ मलता रह जाता है। कवि एक गीत में आगे रविशंकर पांडेय के नवगीतों में अनेकशः विशेषताएँ हैं जिनका
लिखता है कि सबकी अपने-अपने रंग की ध्वजा-पताकायें हैं और सम्पूर्ण वर्णन इस छोटे-से आलेख में संभव नहीं है। उनके पास
जनता को ठगने के तरीक़े हैं; राजनीतिक विद्रूप का यह चित्रण संवेदन-धर्मिता एवं संस्पर्शी शक्ति है जिसके बल पर वह पाठक
कितना सटीक है- के मन में प्रवेश कर जाते हैं। उनकी शैली में बिम्ब-धर्मिता एवं
“इनके अपने/अस्त्र-शस्त्र तो उनके चित्रात्मकता का अंकन है। एक तरह से देखें तो इनके गीतों में
अपने धनुष-बाण हैं खुरदुरापन है- बुदेलखंड की धरती की तरह। इन गीतों में अनलंकतृ
इध दिख रहा/संविधान तो सादगी और खुलापन है। उनकी दृष्टि में जातीय बोध और यथार्थ
उधर खड़े गीता-पुराण हैं” बोध का सहमेल है, जिसके कारण इन गीतों में सामाजिक चेतना
कवि ने बुंदेलखंड की धरती में व्याप्त विषमता को रेखांकित और अधिक मुखर होती गयी है।
करते हुए अपने संग्रह के शीर्षक रखा है- ‘जल बिच मीन पियासी’। रविशंकर पाण्डेय के पास मार्मिक भाव बोध और संवेदन है
वह मानते हैं कि विषमता का यह का रूप भौगोलिक एवं प्राकृतिक जिसके बल पर स्पर्शनीय रचनाएँ लिख पाए। पारिवारिक संदर्भोंं
परिवेश से प्राप्त हुआ है किन्तु राजनीतिक उपेक्षा ने इसे और गंभीर को आधार बना कर लिखे उनके एक गीत का मार्मिक मुखड़ा जरा
बना दिया है। बुन्देलखण्ड में बूँद बूँद पानी को तरसते लोगों का देखिए–
दर्दनाक चित्रण वह कुछ इस तरह करते हैं– “खतम हुआ सब मेला -ठेला
“जल बिच मीन पियासी साधो शाम हुई जब हुआ अकेला
जल बिच मीन पियासी तब स्मृतियों से छन करके
दूर-दूर तक जल ही जल है चेहरा आता माद पिता का
जल के बीच मगर बैठा है तुम क्या गये कि निपट अकेला”
पुर सुकून माहौल भले हो रविशंकर पांडेय अपने समय के नवगीत लेखकों में काल से
लेकिन अन्दर डर बैठा है होड़ लेने वाले जन जीवन की पुकार हैं। उनके पास कहने का
साहस है, अभिव्यक्ति की नवता है। वो समय की कसौटी पर खरे
परजौटी की बात करें क्या उतरने वाले नवगीतकार हैं। जटिल होते जीवन और उसके व्यापक
राजा प्यासा रानी प्यासी प्रभावों को रेखांकित करने वाले लेखक हैं। जीवनानुभवोंजो से
बुदेलों की कौन सुने जब उनके गीतों में लोक पुकार है, लोक संसक्ति है। उनके पास एक
ख़ुद दिल्ली राजधानी प्यासी ऐसी भाषा है जिसमें गँवई बोध और श्रम बोध का संगम दिखाई
सूख गई सागर की गागर देता है। लय को उन्होंने अनेक स्तरों पर साधने की कोशिश की
झाँसी हुई गले की फाँसी।” है। उनके नवगीतों को पढ़ते समय मानस में चित्रों या बिम्बों का
कवि की विसंगति सामाजिक विसंगति हैं। कहीं बच्चे भूख़े सो निर्माण होता है। सिनेमा के रील की तरह चित्र, दृश्य-बिम्ब बनते
जाते हैं। नारी कुंठाग्रस्त भावना के कारण मुँह छिपाये बैठी है। जाते हैं। हमारे मन में जो लय गूँजती है, बिम्ब उभरते हैं उससे एक
आलीशान महलों में अठखेलियाँ हैं, तो टाट के पैबन्द वाला ग़रीब परिवेश निर्मित होता है और यह परिवेश नवगीतों को नया कन्टेन्ट
है। एक निराशा एवं कुंठा जनित अभाव की ज़िन्दगी है तो दूसरी देता है हम जब ऐसे जटिल पैटर्न में प्रवेश करते हैं तभी इसके मूल
ओर विवशता का करुण चीत्कार। इन रचनाओं में एक तरफ हम तत्व को ग्रहण कर पाते हैं।
देखते हैं कि सच्चाई और ईमानदारी की ज़िन्दगी जीने वाला आम नवगीतों में जीवटता और गत्यात्मकता का अपना अलग
आदमी भूख़ा सो जाता है तो दूसरी ओर छलछन्द और अवांछनीय व्याकरण निर्मित करने वाले इस महत्वपूर्ण गीतकार को पढ़ते हुए
तरीके से धन कमाने वाला आदमी खुश है। अन्याय और अत्याचार हम समय के व्यतिक्रमों को पहचानते ही नहीं,उनके मूल में छिपे
करने वाले सत्ता में बने हुए हैं। रवि शंकर का यह गीतांश देखिए– कारणों की निशानदेही भी कर पाते हैं। n
“सुबह शहद-सा हुआ, शाम तक कितना तीता दिन/तनी हुई रस्सी संपर्क : 4/36 पी-3 आर.
पर चलते कैसे बीता दिन/खुली किताब ज़िन्दगी अपनी किस्मत बजरंग नगर कालोनी दौलतपुर रोड,
बन्द लिफाफा/ सुख का टुकड़ा नहीं अटा पर दुःख में रहा इजाफा पांडेयपुर, वाराणसी-221002
लगा रहा छोटी खुशियों पर बड़ा पलीता दिन।” मो. 8707301780

302 n जुलाई से सितंबर 2023 yegh


n महत्तम : विनय विश्वास

न कोई वा'दा न कोई यक़ीं न कोई उमीद


पंकज शर्मा

विनय विश्वास का पहला कविता संग्रह 'पत्थरों का कविता को रेगिस्तान समझा जाए तो यहाँ ऊँट ही
क्या है' शीर्षक से सन 2004 में प्रकाशित हुआ और ऊँट नज़र आते हैं। बनारस के जितने भी प्रतीक हैं,
दूसरा संकलन, 'धूप तिजोरी में नहीं रहती' शीर्षक से अपनी पूरी सज-धज के साथ मौज़ूद हैं– जल, नाव,
सन 2019 में। इन दोनों संग्रह के प्रकाशित होने के घाट, शेख, गंगा, शव, खाली, कटोरा, सूर्य, अर्ध्य,
बीच पंद्रह वर्ष का लंबा फासला रहा है। इस फासले महुआडीह इत्यादि। केदार जी इस कविता में आज
से दो बातें बिलकुल स्पष्ट हैं-पहली यह कि कविता के बनारस को नहीं, बल्कि कालातीत बनारस की
संकलन का ढेर लगाने में कवि यक़ीन नहीं रखते हैं। खोज करते हैं। ' सचमुच कृष्ण कल्पित अपने अचूक
दूसरा, कविता के प्रति वे किसी तरह की आपाधापी नहीं मचाते निशाने से अभेद्य किले को भी भेद देते हैं। उनमें वह साहस है और
हैं। [अकसर देखा गया कि ऐसी आपाधापी मचाकर कई कवियों ने दृष्टि भी।
अपनी कविता और कवि की हत्या कर दी है।] यहाँ कवि केदार की तुलना विनय विश्वास से करने की धृष्टता
विनय के पहले काव्य संकलन की अधिकांश कविताएँ का प्रयास बिलकुल न समझा जाए। हर कवि अपने-अपने समय
मध्यवर्गीय शहरी जीवन के जटिल बोध की कविताएँ हैं। मां-बाप, का प्रवक्ता होता है। इसलिए एक युग के कवि से दूसरे युग के
रिश्ते-नाते, परिवार, मित्र, पड़ोसी, बेरोजगारी, सन्नाटा, प्रेम और कवि की तुलना ही बेमानी है। विनय विश्वास की कविता का
भूख़ कवि की कविताओं में बीज शब्द की तरह शामिल हुए हैं। अपना रंग है। [चकाचौंध नहीं] अपना स्वर है। [मैं नहीं!] शहरी
इन कविताओं में संवेदना का रूपांतरण अपने वास्तविक बोध के जीवन को समझने वाले जन को विश्वास की कविताएँ विश्वसनीय
साथ हो पाया है, क्योंकि विनय विश्वास के जीवन का अधिकांश प्रतीत होंगी।
हिस्सा शहर में तपा है। उनकी कविताओं में शहरी जीवन का सच विनय विश्वास की कविताओं से विश्वास इसलिए भी जगता है
दिखता है। आमतौर पर दिक्कत तब ज्यादा आती है, जब कोई कि वे किसी व्यक्ति विशेष को अपनी कविता में जगह नहीं देते हैं।
कवि ग्रामीण इलाके से पलायन कर शहर में आकर बस जाता है। उनकी समूची कविताई के केंद्र में 'शहरी संस्कृति' है। इसी शहरी
शहर में ठीक से बस भी नहीं पाता है और शहरी बोध की कविताएँ संस्कृति से उनकी जोराजोरी होती है। खासकर ऐसी संस्कृति से,
रचने का उपक्रम करने लगता है। वैसे कवियों की कविता में गांव जिसने 'सुंदर' को खदेड़ दिया है। 'अच्छा' हाशिये पर खिसककर
नाॅस्टेल्जिया की तरह उभरता है और शहर कृत्रिम रोशनी की तरह। चला गया है। 'उपयोगी' की उपेक्षा कर दी गई है। 'शुभ' का
यहाँ सवाल उठना स्वाभाविक है कि कवि तो कवि होता है, बहिष्कार कर दिया गया है। 'नेक' को रौंद दिया है। दरअसल,
शहरी और ग्रामीण सांचे में बांटने का औचित्य क्या? औचित्य भले विनय विश्वास की कविताएँ उप-संस्कृति से उपजे कठिन जीवन
न हो लेकिन असली और नकली कविता में फ़र्क करने के लिए का आख्यान हैं।
एकाध मर्तबा ऐसा कर भी लें तो बिगड़ ही क्या जाएगा! 'जाली विनय विश्वास के पहले संकलन 'पत्थरों का क्या है?' संग्रह
किताब' के लेखक कृष्ण कल्पित ने केदारनाथ सिंह की कविता में कुल 64 कविताएँ संकलित हैं और यह 96 पृष्ठों में सिमटा है।
'बनारस' पर टिप्पणी करते हुए लिखा है-'फारसी महाकवि हाफिज कविता का रचनाक्रम दर्ज़ है : 1984 से 2004 तक। इन बीस
का कहना था कि जब भी रेगिस्तान पर कविता लिखो तो इस बात वर्षों की जीवनानुभूति को कवि ने बेहद ख़ूबसूरती के साथ गूंथा है।
का ध्यान रहे कि उसमें ऊँट न आए। अगर केदार जी की 'बनारस' आलोच्य संग्रह में एक कविता 'शहर' शीर्षक से है। कविता कुछ

yegh जुलाई से सितंबर 2023 n 303


इस तरह शुरू होती है-'रह लेता हूँ मैं/एक लगातार ख़ूबसूरत होते रहती है पत्तों में सुर बसाए/जैसे पिता के घर बिटिया उड़ती है पंख
शहर में/रह लेता हूँ/एक लगातार बंजर होते जाते शहर में। ' यहीं फैलाए/ जैसे नालायक़ से नालायक़ बेटे के लिए/माँ में रहता है
से शहर में रहने का सुख और लाचारी दोनों एक साथ उभर जाते दुलार/जैसे भयानक मुसीबतों में इकट्ठा रहता है परिवार/जैसे घड़े
हैं। हालाँकि दूर से देखने पर शहरी जीवन हर किसी को लुभाता है। में रहता है कुम्हार का पसीना/ऐसी दुनिया में रहूँ तो मेरा जीना भी
प्राय: हर किसी को अनुमान है कि यहाँ सारी ज़रूरी चीज़ें मौज़ूद हो जाए जीना।'
हैं। सुख-सुविधाओं का अंबार लगा है। विनय की कविताओं में जीवन का उल्लास है। अगर कुछ कम
कवि अपनी इस कविता के माध्यम से बताना चाहता है कि है तो उसका रोना नहीं है। जितना कुछ है, उसे सुंदर बनाए रखने
शहर में देखने लायक बहुत कुछ है। और देखने से जी भर जाए का जतन है। कवि को उदासी की चादर लपेटे रहना नापसंद है।
तो 'देखो लोगों/कितना ख़ूबसूरत होता जा रहा है मेरा शहर/जिसमें जब वे 'इच्छाओं का गीत' गाते हैं तब ऐसी दुनिया बेजान दुनिया
एक मैं हूँ-भाड़ में चना/एक मेरा घर है-जूतों का बंद डिब्बा/एक को नकार देते हैं: 'मैं इस दुनिया में ऐसे नहीं रहना चाहता/जैसे
मेरा भाई है-फलों के इंतजार में सूखता जाता पेड़/एक मेरी बहन पंछी पिंजड़े में रहता है/जैसे तिनका नदी में बहता है/जैसे हलक में
है-ऊपर से मजबूत दिखती चट्टान/एक मेरी मां है-दवा की बड़ी प्यास रहती है/जैसे बूटों-तले घास रहती है/जैसे दंगों में अट्टहास
सीसी/ एक मेरा पिता है-दीवारों से झड़ता पलस्तर/जिससे बात उछलता है/जैसे शहर में हत्या देखकर भी ,खामोश रहना खलता
हुए गुज़र जाते हैं महीनों/बिना बताए।' ज्यादातर शहरी आदमी का है/जैसे ईमान की जेब में/हर बड़ी ज़रूरत लिए रहते हैं थोड़े-से
जीवन कुछ इसी तरह से व्यतीत होता है। सच तो यह है कि आदमी पैसे/मैं इस दुनिया में नहीं रहना चाहता ऐसे। ' शहरी मूल्य बोध
यहाँ आदमी से एक दर्ज़ा नीचे उतर जाता है। उसके पास पाने के का जितना कड़ा प्रतिरोध विनय की कविताओं में दिख जाता है,
लिए बहुत कम है और खोने के लिए बहुत ज्यादा। अन्यत्र कहीं और नहीं दिखाई पड़ता है।
यहाँ 'मनुष्य की जगह' ही कितनी है? शहर में वह कितनी जगह विनय विश्वास का दूसरा कविता संकलन 'धूप तिजोरी में नहीं
घेर ही पाता है? शहर उसे देता क्या है? देखिए न-'सारा सामान रहती' शीर्षक से 2019 में प्रकाशित हुआ है। इस संग्रह में कविता
लेकर टेंपो चल पड़ा/जगह की भीख सी मांगता/ उस तरफ/जहाँ का काल 2005 से 2019 अंकित है। दोनों संग्रह में कवि ने अपनी
तरक्की भले ही न हो/पर बची हो दोनों वक्त भरपेट रोटियों की कविता से पहले तुलसी का एक दोहा उद्धरित किया है-'कबित-
उम्मीद।' जैसाकि कृष्ण कल्पित ने फारसी कवि हफीज का ज़िक्र बिबेक एक नहीं मोरे। /सत्य कहहुं लिखि कागद कोरे।। ' इससे
करते हुए लिखा था, उसी तर्ज पर विनय की कविताओं को कस यहाँ पर भी दो बातें बिलकुल स्पष्ट रूप से उभरती हैं कि कवि
दिया जाए तो यह कहना मुनासिब होगा कि कवि शहरी भाव बोध अपनी कविताई को लेकर कोई दावा पेश नहीं करते हैं। फिर भी
की कविता लिखते समय कभी भीड़-भाड़ का ज़िक्र नहीं करते हैं। यदि यहाँ फिराक को याद करें तो क्या हर्ज– 'न कोई वा'दा न
पिज्जा और बर्गर उनकी कविता में जगह नहीं बनाते। शहर की कोई यक़ीं न कोई उमीद/मगर हमें तो तिरा इंतिज़ार करना था।'
छाती को मेट्रो ट्रेनें चीरती नहीं हैं। ऊँची-ऊँची भव्य इमारतें कहीं विनय विश्वास की कविता में एक खास तरह का अपनापन है।
दिखाई नहीं पड़ती हैं। छोटे-छोटे कमरे, एक टेंपो में समा जाने ऐसा लगता है मानो कवि अपने लोक से इतर एक शब्द भी अलग
वाला थोड़ा-सा सामान और एक जगह से दूसरी जगह विस्थापित से नहीं कहना चाहते हैं।
होने की पीड़ा को कवि अपनी कविता में दर्ज़ करते चलता है। दूसरी बात, कवि ख़ुद को तुलसी के निकट महसूस करते
विनय का भाव बोध एक साथ सहज और सजग दोनों है। कवि हैं। इससे इतर एक बात और है। इस संग्रह की संक्षिप्त भूमिका
जटिल से जटिलतर मानवीय पक्ष को इतनी सादगी से अभिव्यक्त काव्य मर्मज्ञ आदरणीय विश्वनाथ त्रिपाठी ने लिखी है। संकलन
करता है कि उनकी कविता सीधे पाठक के मन के किसी एक की भूमिका विनय विश्वास की कविताओं को जानने-समझने की
कोने-अंतरे में प्रवेश कर पैठ जाती है। किसी घटना को कवि इस एक कारगर कुंजी की तरह है। एक संदर्भ में त्रिपाठी जी ने लिखा
तरह से प्रस्तुत करता है कि वह घटना जीवन का सच लगती है। है: ‘यहाँ संकलित कविताएँ विनय विश्वास के कवि का नया रूप
कवि की कविताओं में सुख और दुख का बिंब जीवन से निकलता प्रकट करती हैं। कई कविताएँ ऐसी भी हैं जो अप्रत्याशित झटका
है इसलिए वह सुख और दुख अमूर्तता की भेंट चढ़ने से बच जाता देने, कला-कौतुक से शब्दों के तोते उड़ाने और वाहवाही लूटने के
है। विनय जिस दुनिया में रहने का ख्वाब देखते हैं, वह हर आम तौर-तरीके अपनाती हैं किंतु उनमें भी भाव की सच्चाई है। कमजोरी
आदमी का सपना बन जाता है-'मुझे तो यहाँ रहना है यों/जैसे कढ़ी रूपात्मक गतानुगतिकता में है। मेहनत करते हुए कविता खत्म
हुई चादरों में लड़कियों के सपने हँसते हों/ जैसे पेड़ों पर कोयल करके जल्दी छुट्टी पा जाने के उपक्रम में है। लेकिन प्रच्छन्न को

304 n जुलाई से सितंबर 2023 yegh


अपने ढंग से उद्घाटित करने और अनुभव-क्षण में अखिल के सार
को रच देने की नई क्षमता इस कविता-संकलन की विशेषता है। '
सचमुच अपने दूसरे संकलन में कवि ने अपने अनुभव का विस्तार
किया है। कवि के यहाँ एक तरफ भूख़ है। न्याय है। अपराधी है।
तानाशाह है। आज़ादी है। तिरंगा है। फिर दैत्य अंधेरा भी है। हत्यारी
हँसी है। व्यवस्था का विकृत चेहरा है। और है नए दौर का सबक।
दूसरी तरफ, मां है। प्रेम है। मित्र है। कलाकार है और है धूप, जो
किसी की तिजोरी में नहीं रहती।
विनय विश्वास के इस संग्रह में एक कविता है-'सुनो मर्दों।' यह
कविता स्त्री की तरफ से लिखी गई है। स्त्री जीवन को किस हद
तक नियंत्रित करने का प्रयास किया गया है, वह इस कविता में
साफ-साफ झलकता है। कविता कुछ इस प्रकार से है:' मैं हँसी तो
तुमने मेरे लिए रोने के इंतजाम कर दिए/ रोई तो कहने लगे-हँसी
वरदान है/रुकी तो बोले- चलो/चली तो कहने लगे-रुकना सीखो/
चुप रही तो बोले- बोलो/बोली तो कहने लगे-चुप रहो/कपड़े पहने
तो बोले-उतारो उतारे तो कहने लगे-बेशर्म/फिर भी तुम्हें शिकायत
है कि मैं तुम्हारी बात नहीं सुनती!' आज भी भारतीय समाज में स्त्री
के साथ किस तरह का बर्ताव होता है, यह बात किसी से छिपी नहीं
है। असल में, 'सुनो मर्दों' कविता स्त्री के प्रति पुरुष समाज का
सच्चा आख्यान है। इस संकलन में स्त्री जीवन को केंद्र में रखकर
एक और मार्मिक कविता संकलित है: 'एक प्रेमिका की अंतिम
इच्छा।' दरअसल यह एक आधुनिक जीवन की प्रेम कथा है, जिसे
कवि ने कविता के रूप में पिरो दिया है: 'तुम्हें जीतना अच्छा लगता कवि बनावटी और तथाकथित 'बड़े आदमी ' का किस्सा बड़े
रहा/मुझे हारना/सुनो! तुम्हें अपने झूठे प्यार की क़सम/आग और जोरदार तरीके से बयाँ करता है। बड़े होने का मतलब क्या है? इस
ऊँचाई से/बहोत डरती हूँ मैं/मुझे/जलाकर या गिराकर मत मारना!' तथ्य की पहचान कराते हुए कवि कहता है: 'बड़ी रोशनी के रहते/
कवि के मन में मां के प्रति आगाध श्रद्धा का भाव है। हालाँकि बड़े आदमियों के हाथों में/ संस्कृति का बड़प्पन सुरक्षित रहता
यहाँ 'मदर्स डे' वाली मां नहीं है, जो साल भर में किसी एक खास है/ बड़े आदमी अँधेरे में खुलते हैं/ तमाम नाख़ूनों और दांतों के
दिन को 'हैप्पी मदर्स डे' कहक़र अपने कर्तव्य का निर्वहन कर साथ/बड़े आदमियों के नाख़ून भी बड़े होते हैं दांतों की तरह/ बड़े
लिया जाए! इनके यहाँ 'पानी जैसी मां' है, 'मां की कड़वाहट' है, आदमियों में इतने नाख़ून होते हैं/जितने रोम होते हैं शरीर में/बड़े
'मां की उंगली है', 'मां की दुनिया है', 'बुरी बनती मां' है, 'ग़रीबी में आदमियों के शरीर में बड़े रोम होते हैं/ और हर रोम असल में या
मां' है, 'मां का सुख है' और 'मां की लड़ाई' है। मां का वात्सल्य, तो एक दांत होता है/या एक नाख़ून।'
करुणा और स्नेह के अनेक शेड्स कवि ने अपनी कविता के जरिए विनय विश्वास अपनी इस कविता में बड़े आदमियों के शौक के
उतारे हैं। कविता 'माँ की दुनिया' में कवि कहता है: 'गली से कोई विषय में ज़िक्र करते हैं। कितने शौक पाले रखते हैं बड़े आदमी,
भी गुज़रता/ तो मां बेझिझक उससे हालचाल पूछ लिया करती/ थोड़ा इस तरफ भी देख लेना चाहिए : 'बड़े आदमियों को बड़ी
उसे पता भी नहीं लगता/और बातों-बातों में वह/अपना हो जाता दया करने का शौक होता है/बड़े आदमियों को बड़ा सच बोलने का
माँ का/मैं अपनों से भी हालचाल पूछते/झिझकता हूँ/और सोचता शौक होता है/बड़े आदमियों को बड़ी ईमानदारी दिखाने का शौक
हूँ कि क्यों नहीं रहा कोई अपना मेरा अपना!' मां का अपनापन होता है/बड़े आदमियों को बड़ी कुरबानियाँ देने का शौक होता है/
किसी हाट-बाज़ार में नहीं बिकता है। वह बाहर-भीतर एक समान बड़े आदमियों को बड़ी सादगी बरतने का शौक होता है।'
होती है। उसके दुख का कोई विलोम नहीं होता है और न ही उसके बड़ा आदमी आख़िर बड़ा कैसे बन जाता है? वह ऐसा कौन-सा
वात्सल्य का कोई एक पर्याय। उपक्रम करता है कि बड़ा आदमी लगातार बड़ा होता चला जाता

yegh जुलाई से सितंबर 2023 n 305


रेस का हिस्सा बन बैठे हैं। हर कीमत पर तरक्की चाहिए। तरक्की
कुछ मौके पर विनय विश्वास की कविताओं का नशा इतना अधिक है कि उसे किसी की परवाह नहीं है।
के बारे में यह भी कहा-सुना गया है कि वे तरक्की पाने के बाद आदमी का व्यसन क्या रह जाता है, उसे
मंच पर पढ़ी जाने वाली कविताएँ लिखते हैं।
कवि अपनी कविता तरक्की का छोटा-सा मर्सिया' में इस अंदाज
यह बात किसी भी सूरत में यक़ीन करने योग्य
नहीं है। हां, यह बात सच है कि विनय की में बयाँ करते हैं: ‘रोटी-शोटी/पानी-वानी/कपड़े- शपड़े/मकान-
कविताओं में इतनी ताजगी है कि उनकी कोई वकान/रोटी-पानी-कपड़े-मकान की समस्या तो हल हो गई/अब
भी कविता उठाकर मंच पर पढ़ दी जाए तो शोटी-वानी-शपड़े-वकान में उलझा हूँ/सच पूछो तो तरक्की इसी
श्रोता मंत्रमुग्ध हुए बिना नहीं रह सकते। यह को कहते हैं/कैसी फुर्सत कहां की थकान/हाय शोटी/बस चौबीसों
किसी भी कवि की ताक़त मानी जानी चाहिए, घण्टे एक ही धुन रहे-हाय शपड़े/हाय वानी/हाय वकान!'
न कि उल्टे कवि को ही कटघरे में खड़ा कर फिर कवि सच को नहीं छिपाता। वह जानता है कि बड़ा होना,
देने का स्वांग रचना चाहिए। तरक्की पाना, बड़ी गाड़ी और बड़े घर पर काबिज हो जाना, असल
में एक ख़ूबसूरत ढोंग के सिवा कुछ भी नहीं है। इस संग्रह की
है। अंत आते-आते बड़ा आदमी छोटे आदमी को आदमी तक नहीं अंतिम कविता 'धूप तिजोरी में नहीं रहती' में वे सब कुछ बराबर
समझता है: 'बड़े आदमी धीरे-धीरे गला रेतते हैं/ और चेहरे पर कर देते हैं। 'बड़ा होने' के भाव का वह जमकर मखौल उड़ाते हैं।
बड़ी खामोशी रखते हैं/बड़े आदमी शाकाहारी हँसी से पहले/ दाँतों आदमी बड़ा हो या छोटा, धूप किसी के साथ दोहरा बर्ताव नहीं
की बड़ी दरारें साफ करते हैं/बड़े आदमी तब तक नहीं गिरते/जब करती है। वह सब को एक समान मानती है। अमीर -ग़रीब, छोटा-
तक धरती पर पड़ी कोई बड़ी चीज़ न देख लें/बड़े आदमी बड़े बड़ा, ऊँच-नीच को नहीं पहचानती: पांच दिन हो गए दिल्ली में
नाटक करते हैं बड़े रंगमंच के पीछे/बड़े आदमी अकसर इतने छोटे धूप निकले/ बादलों को आसमान घेरे बिना बरसे/ आज धूप की
होते हैं साथी/कि बड़ों से बड़ा होता है कोई भी/छोटे से छोटा।' बड़ी याद आ रही है/जैसी बाहर वैसी भीतर/उजली की उजली/धूप
कुछ इसी तरह से जब कोई बड़ा आदमी किसी बड़े पद पर होती है तो होती है नहीं तो नहीं/ होती है तो सब जगह/ नहीं तो
आसीन हो जाता है, तब उसका मनोविज्ञान किस तरह से काम कहीं नहीं/होती है तो सबके लिए/ नहीं तो किसी के लिए नहीं। '
करता है, यह नजारा विनय विश्वास की एक कविता 'मैं मैं मैं' यदि ध्यान से देखा जाए तो कवि विनय विश्वास अपनी इस अंतिम
में प्रतिबिंबित होता है। बड़े पद पर बैठते ही बड़े आदमी के अपने कविता में सारा कसर निकाल लेते हैं और उनका मानवीय पक्ष
से छोटे लोग पीछे छूट जाते हैं। उसे हर कोई तुच्छ-सा दिखाई उभरकर सामने आ जाता है।
पड़ने लगता है। वह ख़ुद को पहाड़ समझता है और सामने वाला कुछ मौके पर विनय विश्वास की कविताओं के बारे में यह भी
व्यक्ति रेत का एक छोटा-सा कण बन जाता है। विनय बड़े पद पर कहा सुना गया है कि वे मंच पर पढ़ी जाने वाली कविताएँ लिखते
सुशोभित व्यक्ति की तस्वीर इस तरह से उतारते हैं: हैं। यह बात किसी भी सूरत में यक़ीन करने योग्य नहीं है। हां, यह
‘मैं जब से बैठा हूँ पद/ पर मुझ पर पद भी बैठ गया है/अपनी बात सच है कि विनय की कविताओं में इतनी ताजगी है कि उनकी
स्तुति में खोया-खोया/दुनिया को देखा करता हूँ/मुझे देखकर झुके कोई भी कविता उठाकर मंच पर पढ़ दी जाए तो श्रोता मंत्रमुग्ध हुए
न कोई/क्या ऐसा भी हो सकता है/ निकल आए यदि ऐसा कोई तो बिना नहीं रह सकते। यह किसी भी कवि की ताक़त मानी जानी
मुझको लगने लगता है/ रिश्तों पे गिर पड़ी बिजलियाँ/ सारी दुनिया चाहिए, न कि उल्टे कवि को ही कटघरे में खड़ा कर देने का स्वांग
ही अशिष्ट है।' छोटे व्यक्ति से बड़े पद पर बैठे आदमी का व्यवहार रचना चाहिए। हालाँकि कुछ लोग इस बात को कुछ इस शैली में
कितना अमानवीय हो सकता है या हो जाता है, इसकी कल्पना तक कहते हैं, जिससे यह भान हो कि कवि को मंच ज्यादा सूट करता
करना मुश्किल है। यह तब समझ में आता है, जब बड़े पद पर बैठे है। वैसे शमशेर से लेकर नागार्जुन तक ने अपनी कविताएँ मंच पर
आदमी से पाला पड़ जाता है: धूमधाम से पढ़ी हैं। उनकी कविताएँ विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रम
'उसे बुलाकर/समझाने की भाषा में भी धमकाता हूँ/ और में लगी हैं और आम जनता के बीच अपनी जगह बनाए रखी हैं।
क्योंकि वो पदविहीन है/ उसको झुकना ही पड़ता है/...मुझे बचाने जहाँ तक विनय विश्वास की कविताओं का सवाल है वह अपनी
पड़ते हैं यों सच्चे रिश्ते/चॉकलेट के स्वप्न दिखाकर/चरण चाटने पीढ़ी के बहुत सशक्त कवि के रूप में दिखाई पड़ते हैं। n
वालों में से एक-एक शातिर को/अपना दुश्मन एक थमा देता हूँ।' संपर्क : कार्यकारी सम्पादक, पाखी
वास्तव में, आज के आधुनिक परिदृश्य में लोग एक अजीबोग़रीब मो. 7827778998

306 n जुलाई से सितंबर 2023 yegh


राजेन्द्र कुमार बलभद्र
विजय कुमार बद्री नारायण
ए.अरविंदाक्षन हूबनाथ पाण्डेय
विष्णु नागर शहंशाह आलम
अजय सिंह प्रेमशंकर शुक्ल
भगवानस्वरूप कटियार राजकिशोर राजन

आयतन
संजीव बख्शी रजत कृष्ण
विनोद दास बोधिसत्व
सुधीर सक्सेना प्रेम रंजन अनिमेष
गोविन्द प्रसाद हरिओम
मेरी परिधि मेरा आयतन है कविता कुलदीप कुमार पंकज चतुर्वेदी
मेरे सृजन का गुरुत्वाकर्षण है कविता सुभाष राय भरत प्रसाद
कृष्ण कल्पित आशीष त्रिपाठी
ओम निश्चल जितेंद्र श्रीवास्तव
सदानंद शाही राहुल राजेश
अनूप सेठी प्रमोद कुमार तिवारी
निरंजन श्रोत्रिय उमाशंकर चौधरी
अनिल त्रिपाठी विमलेश त्रिपाठी
सर्वेन्द्र विक्रम गौतम चटर्जी
दुर्गा प्रसाद गुप्त घनश्याम ित्रपाठी
सिद्धेश्वर सिंह

yegh जुलाई से सितंबर 2023 n 307


308 n जुलाई से सितंबर 2023 yegh
n आयतन : राजेंद्र कुमार

आस्थावान कवि
पी. रवि

राजेन्द्र कुमार स्वातंत्र्योत्तर भारतीय समाज का सूक्ष्म 'अँधेरा न डर का पर्याय है,


निरीक्षण करते आ रहे हैं, उनकी अधिकांश कविताएँ न कारण
इसका प्रमाण देती हैं। उनका यह निरीक्षण सतही न कारण है डर का न पर्याय
नहीं है, पैना है। अपने को उक्त समाज का एक अँधेरा डर को फींचता है
हिस्सा मानते कवि उससे भागना नहीं चाहते हैं। वे खींचता है खौफ़, जज्ब करता हुआ
सामाजिक दायित्व निभाने का प्रयास निरंतर करते अपने में सियाही को,
आ रहे हैं। उनका स्पष्ट मत है कि पूंजीवाद की छाता है आसमान पर'
पकड़ से मुक्त हुए बिना समाज की असली मुक्ति संभव नहीं है, (ऋण गुणा ऋण तथा अन्य कविताएँ, पृ-94-95)
इसके लिए निरंतर कोशिश करनी चाहिए। ग्लोबल गाँव में यह कविता आगाह करती है कि जनहित के बहाने जनविरोधी कदम
और भी जटिल एवं कठिन हो रहा है, फिर भी वे आस्थावान दिखाई उठाती ग्लोबल काल की सत्ता के ख़िलाफ़ संघर्ष करने की ताक़त
देते हैं। ग्रामीण किसान, खेतीहर मज़दूर, दलित, स्त्री, आदिवासी, अब भी जनता को है। उदारीकरण का राक्षसीय कदम किसान के
अल्पसंख्यक से लेकर पूरे निम्न एवं निम्न मध्यवर्ग वर्ग की हालत जीवन को भी बरबाद करने लगा है। असहाय किसान आत्महत्या,
स्वतंत्र भारत के लोकतंत्रीय शासन प्रणाली में भी आशाजनक नहीं जिसे समायोजित हत्या कहना ठीक है, करने को मजबूर हो रहे हैं।
है। इसलिए कवि मन दुखी एवं चिंतित नज़र आता है। कॉरपोरेट खेती, जी एम बीज, रासायनिक उर्वर एवं कीटनाशक आदि
राजेन्द्र कुमार आस्थावान कवि हैं। सामाजिक यथार्थ के घने परंपरागत खेती एवं किसान के हत्यारे हैं। किसान के पास आज खेत
काले पक्षों से वाकिफ़ कवि अपनी आस्था को छोड़ते नहीं हैं। नहीं, बीज नहीं, पानी और फसल भी नहीं है। खेती के देश भारत के
अंधकार से ढके वर्तमान परिवेश को वे बारिश से पहले का किसान असहाय हो गए हैं। ऐसे असहाय किसान का चित्र देखिए-
अंधकार कहते हैं, अस्थाई मानते हैं। बारिश के पहले घने बादलों कहाँ है वह फसल
से पूरा आकाश अँधेरे की पकड़ में होता है। लेकिन बारिश ज़मीन जिसकी लहलहाती बालियों में
को, संपूर्ण प्रकृति को नया जीवन प्रदान करती है, उसके साथ पसीने की बूंदें हमारी
अँधेरा भी दूर हो जाता है। 'बारिश से पहले का अँधेरा' शीर्षक दाना बन हुलसें
कविता कहती है कि जब ज़मीन पर बारिश की बूंदें पड़ने लगती हैं दाना उमगे हमारी रगों में दौड़ने को। (वही, पृ-91)
तब मिट्टी की गंध चारों ओर फैल जाती है, मनुष्य की नाक से भीतर अंतर्राष्ट्रीय कानून तथा उसकी हिडन शर्तों से निरीह किसान
तक पहुँचती है। उसके साथ सिर्फ़ किसान ही नहीं, सारे मनुष्य अनभिज्ञ हैं। वे खेती करना जानते हैं, पड़ोसियों से प्रेम करना
जीव-जन्तु एवं प्रकृति राहत की साँस लेने लगते हैं और ज़मीन पर जानते हैं, प्रकृति को जानते हैं, उसके साथ एकमेक होकर जीवन
नए पौधे उगने लगते हैं। इस आनंद व पुनर्नवा के पूर्व के बादल, बिताना जानते हैं। पेटेंट, ग्लोबल ट्रेड एंड टैरिफ, ऋण की साजिश
बिजली का कौंधना सब परिवर्तन की प्रक्रिया को मज़बूत करते हैं। इत्यादि से वे कोसों दूर रहते हैं। सरकार एवं कॉरपोरेट्स के षड्यंत्र
परिवर्तन के साथ समाज में एक सुंदर सुबह का आगमन होगा। में फंसे किसान के आगे यही सबसे बड़ा सवाल है।
बदलाव निकट आ गया है और तत्कालीन अँधेरा डर का हेतु या कैसे तब्दील करें कर्ज़ को हम
पर्याय नहीं है, यही कवि का अभिप्राय है। अपने लिए / अन्न के दानों मे? (वही, पृ-92)

yegh जुलाई से सितंबर 2023 n 309


'यह ख़ुदकुशी नहीं, हत्या' कविता इसे आत्महत्या नहीं, हत्या पर आधारित गांधी की परिकल्पनाओं को अनदेखा करके पश्चिमी
कहती है, क्योंकि किसान आत्महत्या नहीं कर सकते हैं। 'जैदी का विकास परियोजनाओं का पीछा करता रहा। औद्योगिक सभ्यता की
जूता' कविता भी राष्ट्रीय, अन्तर्राष्ट्रीय, तानाशाही, झूठी सत्ता एवं चपेट में भारतीय ग्रामीण कंगाल हो गए, उसका सबकुछ लुट गया।
उसके फरेब के ख़िलाफ़ बोलती है। कविता कहीं गांधी का स्मरण इस पर व्यंग्य करते हुए कवि लिखते हैं कि-
करती है तो कहीं ऐसे अन्य मुक्तिदाताओं का स्मरण करती है– वह जो हमारा 'भारत छोड़ो' आन्दोलन था,
जो किसी भी तानाशाही के सामने उससे हम आज बहुत आगे बढ़ आए हैं।
इनकार की तरह उठने का जोख़िम उठाने को बेताब है, अब तो यह दौर है उदारता की वार्ता का,
और उस खोपड़ी की तरफ चला 'असहयोग' आदि तो इतिहास की बलाएँ हैं।
जिसके भीतर मल्टीनेशनली विकास का तकाजा है।
निशस्त्रीकरण और विश्वशांति के नकली नोट भारत को पकड़े जो भारत में आए हैं।
छापे जाते हैं युद्ध की मोहर के साथ- देश अब स्वदेश नहीं, ऐसा बाज़ार बने
दुनिया भर में, विचारों के बाज़ार में चलाने को जहाँ जो भी अपने हैं वो भी पराए हैं।
(वही, पृ-148) (हर कोशिश है एक बगावत, पृ-123)
सत्याग्रह के साथ असहयोग आन्दोलन एवं भारत छोड़ो भारत के एक प्रधानमंत्री ने पचास से अधिक साल बाद भारत
आन्दोलन भारतीय इतिहास की महत्वपूर्ण घटनाएँ हैं। उपनिवेशी छोड़ो आन्दोलन के नाम पर ब्रिटेन से माफी मांगी। सत्याग्रह,
सत्ता से भारत को मुक्त करने के लिए गांधी के नेतृत्व में महत्वपूर्ण स्वदेश, देशी उद्योग, भारतीय खेती के नाम पर रोने वालों को रोने
काम किए गए। लेकिन मोहनदास करमचंद गांधी की बातों से दीजिए। आज मन को जीतने वाले कुशल प्रबन्धक एवं समर्थ
स्वतंत्र भारत हटता रहा, विशेषकर 1990 के बाद मनमोहन सिंह व्याख्याता वक्ताओं की ज़रूरत है जिसके आगे रुलाई की आवाज़
की बातों के आधार पर भारत उदार एवं वैश्विक हो गया, स्वदेश- कोई नहीं सुन सकते। आगे कवि आज की विकास नीतियों,
विदेश के अन्तर को कम करके हम ग्लोबल हो गए। विसंगति की बाज़ारीकृत-उदारीकृत स्थितियों का उपहास करता है।
बात यह है कि तब भी स्वदेश की रक्षा के लिए करोड़ों-करोड़ों कभी इस मुल्क में हुआ था कोई मोहनदास,
रुपए भारत खर्च करता रहता है। गांव केन्द्रित भारत (भारत की गांधी था वह तो, उसे माला पहनाइए।
आत्मा गाँव में है) की जगह शहर केन्द्रित भारत, निजी संसाधनों अब तो सामने है, आपका मनमोहन है।
जैसे मन करे, इसे वैसे आजमाइए।
चाँदी रहे हम दोनों राजकाज वालों की
यही हम मनाते हैं, आप भी मनाइए।
मछलियाँ किसी भी तालाब की हो मनचाही
हम भी फंसाएँ और आप भी फंसाइए। (वही, पृ-124)
आज मनुष्यता का समय नहीं, सुविधा का दौर है। आज की
पीढ़ी अपनी सुविधा पर मात्र ध्यान देती है कि अपने चारों ओर
वह देखती नहीं। पड़ोसी की परेशानी, परिवारवालों के दुख-दर्द,
कुछ भी उसकी सुविधा की राह पर अड़चन नहीं बनती है। इस
प्रकार की मनुष्यता के सूखे को कवि राजेंद्र कुमार दोनों पीढ़ियों
को आमने-सामने रखकर प्रस्तुत करते हैं। स्वतंत्रता आन्दोलन
नवोत्थान कालीन मूल्यों को आदर्श मानती पुरानी पीढ़ी वर्तमान
समय को लेकर दुखी होती है, असहाय दिखाई देती है।
उनका समय अच्छा समय था-
बूढ़े कुछ और बूढ़े हो रहे हैं।
याद कर करके
अपने गुज़रे जमाने की अच्छाइयाँ (वही, पृ-82)

310 n जुलाई से सितंबर 2023 yegh


औद्योगिक सभ्यता एवं उसकी सुविधा के भ्रम में फंसे मनुष्य भी
संतुष्ट नहीं हैं। क्योंकि आज समय के इतिहास को समझने के लिए
कोई तैयार नहीं है। उक्त इतिहास पर बहस करने के लिए आज औद्योगिक सभ्यता एवं उसकी सुविधा के भ्रम
की पीढ़ी इसलिए उद्यत नहीं होती है कि वह सुविधा की उपेक्षा में फंसे मनुष्य भी संतुष्ट नहीं हैं। क्योंकि आज
नहीं करना चाहती है। व्यावहारिकता को बुद्धि मानती नई पीढ़ी समय के इतिहास को समझने के लिए कोई
तैयार नहीं है। उक्त इतिहास पर बहस करने
समझौता करने के लिए, ऋण में ज़िन्दगी गुजारने के लिए, जिल्लत
के लिए आज की पीढ़ी इसलिए उद्यत नहीं
की रोटी खाने के लिए तैयार है। पुरानी पीढ़ी भले ही उपनिवेशी होती है कि वह सुविधा की उपेक्षा नहीं करना
शासन की प्रजा थी पर वह मानसिक स्तर पर कभी भी गुलाम नहीं चाहती है। व्यावहारिकता को बुद्धि मानती नई
थी। स्वाधीनता को चरम मूल्य समझती थी और उसी के अनुसार पीढ़ी समझौता करने के लिए, ऋण में ज़िन्दगी
जीवन बिता रही थी। 'बताने का उन्माद' कविता यही बताती है- गुजारने के लिए, जिल्लत की रोटी खाने के
नहीं बताते कि पहले यहाँ क्या था लिए तैयार है। पुरानी पीढ़ी भले ही उपनिवेशी
जहाँ अब उधार का वैभव है, शासन की प्रजा थी पर वह मानसिक स्तर पर
विदेशी पूंजी का बाज़ार है कभी भी गुलाम नहीं थी।
नहीं बताते कि पहले यहाँ क्या था
जहाँ अब पसरता हुआ अमरीका है, जापान है।
(वही, पृ.118) एवं विकृत जीवन जी रहा है और कहीं ध्यान दिए बिना जीवन की
अब यहाँ नेता हैं, मंत्री हैं, बाज़ार है, कोई उसके पहले की ओर भागदौड़ में हिस्सा ले रहा है। इस दौरान जीवन बिताना 'बहुत बड़ी
झांकते तक नहीं। इतिहास से बचते हैं सब, पर ध्यान देने की बात दुर्घटना' है। भौतिक सुविधायें उपलब्ध होने पर भी भीतरी तौर पर
यह है कि इतिहास से बचने का मतलब अपने ही नाश का मार्ग सब जख्मी हैं। इस तरह के 'शहरी सभ्य जीवन' की आलोचना
प्रशस्त करना है। आधुनिक सभ्यता का आक्रमण लगातार होता 'आहतनाद' कविता करती है। इसके साथ कवि भारतीय लोकतंत्र
रहता है। हम इससे बचना चाहते हैं। पर हमारे हल्के विरोधों, की त्रासद स्थिति, समाजवाद के पतन सांप्रदायिकता, आतंकवाद
प्रतिरोधों को एक-एक करके वह मिटाते आगे बढ़ रही है। उसके आदि मुद्दों पर भी प्रकाश डालता है।
घुसने का खास राह व समय नहीं है। उसका कोई निश्चित रूप भी धर्म आज विश्व भर में अपनी पकड़ मजबूत करता जा रहा है।
नहीं है। वह किसी की सहमति-अनुमति का इंतज़ार नहीं करती है- आज धर्म अपने मूल्यों से, अपने उद्देश्यों से कोसों दूर पहुँच गया है,
यह शहर जो किसी का नहीं है। यह भी एक सच्चाई है। ऐसे माहौल में धर्म पर बहस करना अनिवार्य
न मेरा, न तुम्हारा हो गया है। यहाँ राजेन्द्र कुमार धर्म की व्याख्या अपने ढंग से करने
जाने किस अधिकार से का प्रयास करते नज़र आते हैं। 'कागज़ की ज़िद' का कवि अपने
समय असमय हमारे घर के धर्म की तलाश करते कागज़ से कहता है कि तुम्हारा अपना कोई
दरवाजों की दरारों से ताँक-झांक करता है निश्चित धर्म नहीं है। कागज़ पर लिखते ग्रंथ के अनुसार तुम्हारा
और हम देखते हैं कि अभी-अभी धर्म बदल जाता है। इस जवाब से असंतुष्ट कागज चिट्ठी को देखकर
जो पर्दा हमने अपने अपनी नंगी खिड़की पर टांगा था पुलकित हो जाता है और कहता है कि मेरा धर्म चिट्ठी होना है। 'यही
वह वहाँ नहीं है। है मेरा धर्म-चिट्ठी होना।' दूसरों तक संदश े पहुँचाने का माध्यम
(ऋण गुणा ऋण तथा अन्य कविताएँ, पृ-55) बनना मेरा दायित्व है, मेरा धर्म है। कागज़ के असली मूल्य पर
मनुष्य नैतिकता, दया, करुणा, प्रेम आदि से दूर हो गया है। इन प्रकाश डालते कवि आज के आडंबर, आचार-अनुष्ठान को धर्म
मूल्यों की जगह उसमें लालच, स्वार्थ, क्रूरता, महत्वाकांक्षा आदि नहीं मानते हैं। 'धर्म की ध्वजा', 'धरम का रास्ता', 'आतंकवादी',
उभर आए हैं। इस दौरान वह दूसरों की परवाह नहीं करता है, 'दिए गए नाम को लेकर', 'कश्मीर उन दनों, इन दिनों', 'ओसामा
उसके लिए पास-पड़ोसी नज़र नहीं आते हैं। उसका ध्यान एक ही बिन लादेन' आदि कविताओं के जरिए उसके असली चेहरे को
बात पर है कि सबने मुझे सबसे ऊँचा-मान लिया। इस सिलसिले अभिव्यक्ति देते हुए कवि अपना विचार प्रकट करता हैं। कवि कहता
में अन्य मनुष्य उसके लिए सीढ़ियाँ बन जाते हैं, जिस पर चढ़कर है कि धर्म की ध्वजा का रंग चाहे हरा हो या भगवा, वह ख़ून का
वह ऊपर चढ़ता रहता है। आधुनिक परिवेश में मनुष्य, जो खण्डित रंग नहीं हो सकता। फिर भी ऐसे धर्म के लिए मनुष्य क्यों ख़ून

yegh जुलाई से सितंबर 2023 n 311


अडिग आस्था रखते हैं। सरकार इन सबकी रक्षा-सुरक्षा की बात
करती है। दुख की बात यह है कि हर कहीं आज धर्म के नाम पर
किसी भी बच्चे का जन्म किसी धार्मिक परिवार
अत्याचार, आतंकवाद चलते हैं। देश-विदेश में मंदिर, मस्जिद,
में होता है और जन्म लेते ही उस पर धर्म का
सवार होता है। वह धर्म को अनिवार्य नहीं गिरिजाघर, मकबरा, मूर्तियों पर आक्रमण हो रहे हैं। यहाँ भाषा,
मानने पर भी परिवेश के अनुसार कभी-कभार वेश-भूषा, भोजन, दाढ़ी-मूंछ, रंग आदि के आधार पर नागरिक को
उसका बाहरी रूप भी निश्चित होता है। दुनिया आतंकवादी, राष्ट्रद्रोही सिद्ध करते आ रहे हैं। व्यक्ति बेगुनाह होने
में क्या पाक है, क्या नापाक है इसे समझने पर भी बिना डर के जी नहीं सकता। कवि कहते हैं कि-
के लिए धर्म की ज़रूरत तो नहीं है। फिर भी वे सब भी हमारी ही तरह थे
धर्म मनुष्य को अपनी क़ैद में रखने का प्रयास अलग से कुछ भी नहीं, कुदरती तौर पर। (वही, पृ-89.)
करता है। किसी भी बच्चे का जन्म किसी धार्मिक परिवार में होता है और
जन्म लेते ही उस पर धर्म का सवार होता है। वह धर्म को अनिवार्य
नहीं मानने पर भी परिवेश के अनुसार कभी-कभार उसका बाहरी
बहाते हैं? अपनी-अपनी चमक-दमक तथा अहंकार एवं आडंबर रूप भी निश्चित होता है। दुनिया में क्या पाक है, क्या नापाक है इसे
को दिखाने के लिए कोई मंदिर का कंगूरा बड़ा बना देता है, कोई समझने के लिए धर्म की ज़रूरत तो नहीं है। फिर भी धर्म मनुष्य को
मस्जिद की मीनार| कवि का सवाल यह है कि मनुष्य द्वारा मनुष्य अपनी कैद में रखने का प्रयास करता है। आज धर्म मनुष्य के लिए
की भलाई के लिए निर्मित धर्म की ध्वजा को, मीनार को, गुंबज कोई झरोखा या खिड़कियाँ तक खोलने नहीं देता है, क्योंकि बाहरी
को, कंगूरे को अपने से भी ज्यादा ऊँचाई पर फहराने को क्यों जिद संपर्क में आने पर शायद वह धर्म के अँधेरे से प्रकाश की ओर चले
करते हैं? उनकी राय में धर्म का उद्देश्य उल्टा हो गया है। उसका जाए। धर्म के संकीर्ण रूप के बारे में कवि कहता है-
रंग मानवता का होना चाहिए। 'धरम का रास्ता' कविता बता रही है कमरा खिड़कियाँ जिसमें थी ही नहीं -
कि आज धर्म ने अपने लक्ष्य एवं मार्ग को बदल दिया है। कहा जाता कि रोशनी आ सके या हवा, कहीं बाहर से
था कि धर्म का रास्ता मन्नत की ओर था लेकिन आज उस रास्ते का बस एक दरवाज़ा था
नियंत्रण धर्म के स्वामी ठेकेदारों के हाथ में है। उनके नियंत्रण में वह भी जो कुछ हथियारखानों की तरफ खुलता था
फंसे धर्म मनुष्य के लिए नहीं, उल्टे मनुष्य धर्म के विकास के लिए या कुछ खजानों की तरफ। (वही, पृ-90)
हो गया है। मनुष्य धर्म का पायदान बन गया है। राजनीति, पूंजी एवं राजेन्द्र कुमार संवेदनशील कवि हैं। वे करुणा, प्रेम, दया जैसे
बाज़ार के हाथ में धर्म आज मनुष्य विरोधी नज़र आता है। इसका मानवीय गुणों पर एतमाद करते हैं। इसलिए वर्तमान परिवेश में वे
विरोध साधारण मनुष्य, साधु, संत नहीं कर सकते हैं, भविष्य बता परेशान दिखाई देते हैं। उनकी कविता इस परेशानी का शब्दबद्ध रूप
नहीं पाते हैं। 'किससे पूछें? कोई साफ-साफ नहीं बताता, जो समूह है। सन 1970 से लेकर तक के राजनीतिक-सामाजिक-सांस्कृतिक
का समूह चला जा रहा है इस पर, धार्मिक परिस्थितियों के साथ उपनिवेशवाद, वैश्वीकरण, बाज़ार,
वो भी नहीं- उपभोग, तृष्णा आदि उनकी परेशानी के हेतु हैं। उनकी कविता इन
न सद्गृहस्थ न साधु-संत मुद्दों से मुख़ातिब होती है। इसके दौरान उनका लंबा जीवनानुभव,
न गुरु, जगद् गुरु इतिहासबोध एवं विचारधारा सक्रिय दिखाई देते हैं। इसलिए
न जौहरी, न नजूमी, न सौदागार कलापक्ष की अपेक्षा कविता में विचार एवं उद्देश्य अधिक प्रस्फुटित
न योगी, न भोगी। (हर कोशिश है एक बगावत, पृ. 116) हुए हैं, यही राजेन्द्र कुमार कवि व्यक्तित्व का अभीष्ट है। कवि
इसकी परंपरा, ख्याति आदि सब बताते हैं रास्ता बहुत पुराना किसी भी शर्त पर अपने में सीमित नहीं होने देना चाहते हैं। n
है, बाप-दादाओं ने इसी पर चल कर परलोक प्राप्त किए हैं। यह संपर्क : प्रोफेसर, हिंदी विभाग,
पुण्य कार्य है, इसलिए उसके इतिहास की छानबीन करने की श्री शंकराचार्य संस्कृत विश्वविद्यालय, कालडी, केरल,
जुर्रत नहीं करनी चाहिए। समझदार लोग इसी रास्ते पर जय- मो. 9446269365
जयकार करके आगे बढ़ते हैं, बिना तर्क करके। वे इस पर अपनी

312 n जुलाई से सितंबर 2023 yegh


n आयतन : विजय कुमार

चमकदार समय में घने अँधेरे के ख़िलाफ़ खड़ा कवि


डॉ. सतीश पांडेय

समकालीन कवियों में विजय कुमार कुछ गिने-चुने गफ़लत नहीं रही है। वे धूमिल की तरह बख़ूबी
कवियों में से एक रहे हैं, जिन्होंने न सिर्फ़ महत्वपूर्ण जानते हैं कि ‘यह कविता/ पुलिस थाने में इंसाफ
कविताएँ लिखी हैं बल्कि समकालीन कविता के की दुहाई नहीं/ न इसमें दिनचर्या/ न धधकती आग/
मूल्यांकन द्वारा समीक्षा के मानदंड भी स्थापित न पोटलियों में बँधे विवरण/ और न इस्तीफा है/
किए हैं। एक समर्थ कवि, एक बेबाक समीक्षक, यह बीच चौराहे पर गोलियों से भून दिए गए आदमी
एक गंभीर विचारक तथा विश्व-कविता के वर्तमान की/ ख़ून से लिथड़ी कमीज भी नहीं।’ इसके बावज़ूद
से परिचित कराने वाला श्रेष्ठ अनुवादक और इन जिस तरह धूमिल कविता को ‘भाषा में आदमी होने
सबके बावज़ूद मित्रों के लिए कुछ भी कर गुज़रने वाला एक सहज की तमीज़’ मानते हैं, उसी तरह विजय कुमार का भी मानना है
संवेदनशील सहृदय व्यक्ति एक साथ मिलना शायद ही संभव हो कि दुनिया के तमाम कवि रोज असंख्य कविताएँ लिख रहे हैं, एक
लेकिन विजय कुमार को नज़दीक से जानने वाले उनके व्यक्तित्व विश्वास के साथ लिख रहे हैं कि आज के कठिन समय में कविता
की इन सच्चाइयों से भली-भाँति परिचित हैं। समकालीन कविता ही मानवीय संवेदनाओं को बचाए रख सकती है। उनको भी पता
में विजय कुमार की अपनी अलग पहचान रही है लेकिन उनके है कि इन्हें पढ़ कर कैंसर के किसी मरीज का दुख कम नहीं होता
साहित्यिक अवदान को सही ढंग से पहचाना नहीं गया है। उनका और न ही बंदूक से निकली गोली वापस लौटती है लेकिन ‘घेराव
कवि उनके समीक्षक-विचारक रूप की ओट में छिपा रह गया या में किसी बौखलाए हुए आदमी के संक्षिप्त एकालाप’ की तरह आज
यों कहें कि उसे महत्व नहीं दिया गया। के कठिन समय में विषम स्थितियों से लड़ने का और कोई रास्ता
‘अदृश्य हो जाएँगी सूखी पत्तियाँ’ (1981) से प्रारंभ हुई उनकी भी शेष नहीं है। वे कविताओं में ही वह संभावना तलाशते हैं, जहाँ
काव्य-यात्रा में अब तक कुल चार कविता संग्रह आ चुके हैं। आत्मा पर लगे घावों का निशान लिए इंसान की परछाइयाँ बैठी
पहले संग्रह के बाद चाहे जिस शक्ल से’ (1995), ‘रात-पाली’ हैं—तो क्या ये तमाम कविताएँ/ चाबियाँ हैं किन्हीं ओझल दरवाजों
(2006) और ‘मेरी प्रिय कविताएँ’ (2014) नामक संग्रह आ की / जो समय के बाहर खुलते हैं? / आत्मा के किन घावों का
चुके हैं। इसके बाद भी तमाम कविताएँ विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में निशान लिए / इंसानों की परछाइयाँ बैठी हुई हैं भाषा में?’
लगातार छपती रही हैं। इसके साथ ही इन्होंने सृजनात्मक और विजय कुमार उन समकालीन कवियों में से हैं, जिनकी
वैचारिक आलोचना के साथ अनुवाद-कार्य भी किया है। इनकी अधिकांश कविताएँ महानगरीय परिवेश की उपज हैं लेकिन इन
आलोचनात्मक पुस्तकें हैं-साठोत्तरी हिंदी कविता की परिवर्तित कविताओं को गाँव-नगर या महानगर जैसा सरल विभाजन करके
दिशाएँ (1986), कविता की संगत (1996), कवि-आलोचक नहीं समझा जा सकता। अच्युतानन्द मिश्र इनकी कविताओं में
मलयज के कृतित्व पर साहित्य अकादमी द्वारा प्रकाशित मोनोग्राफ़ एक त्रिकोण आकार लेते हुए देखते हैं जो शहर, मनुष्य और
(2006), कविता के पते-ठिकाने (2014)। इन्होंने बीसवीं सदी समय से मिलकर बना है लेकिन वे सब एक दूसरे की संगत में
के युद्धोत्तर यूरोपीय विचारकों पर ‘अँधेरे समय में विचार’(2006) ही अपना रूपाकार ग्रहण करते हैं। इन तीनों का योग ही एक
तथा विश्व के 18 प्रमुख कवियों पर समीक्षात्मक निबन्धों की गतिशील दृश्य बनाता है–‘सड़कें गीली थीं/ और रोशनियाँ धुली
महत्वपूर्ण कृति ‘खिड़की के पास कवि’ (2012) लिखा है। हुईं/ एक सलेटी अँधेरा घेरता था/ शर्म लानतों और विस्मृतियों
विजय कुमार को अपनी कविता की शक्ति के बारे में कोई से गुज़रते हुए/ इन्हीं सब के बीच इच्छाओं पर तैरता चला आया

yegh जुलाई से सितंबर 2023 n 313


था वह समय/ जहाँ अचानक हम पहले से ज़्यादा मानुस थे।’ अपराधी और गुंडे तत्वों ने भी इसका भरपूर फायदा उठाया है।
इन कविताओं में महानगरीय मध्यवर्गीय जीवन की विसंगतियाँ, इसका सबसे अधिक प्रभाव आम आदमी पर पड़ा है। विभाजन
हाहाकार, झूठ-सच, आकांक्षाएँ, जिजीविषा और संघर्ष एक साथ के तुरंत बाद की घटनाओं से लेकर ‘राम मंदिर– बाबरी मस्जिद
दिखाई देता है। इन कविताओं में मध्यवर्गीय जीवन की एक ऐसी प्रकरण’ तक की तमाम घटनाएँ सुनकर आज भी हमारे रोंगटे
मुकम्मल तस्वीर बनती है, जहाँ उसका भीतरी संसार और बाहरी खड़े हो जाते हैं। मुंबई भी इन सांप्रदायिक-आतंकवादी घटनाओं
क्रिया-कलाप दोनों मुखर होता है। वस्तुतः उनकी संवेदना हाशिये का शिकार कई बार बन चुकी है। वर्ष 1993 के दंगे मुंबई के
का जीवन जी रहे लोगों की पक्षधर बन कर अधिक मुखर हुई है। लिए एक ऐसी ही भयावह यादगार रहे हैं। विजय कुमार ने अपनी
वे अभिशप्त मानवता का वह कटु यथार्थ उजागर करते हैं, जिनकी कविता ‘कुछ पंक्तियाँ लिखी नहीं गईं’ में इस पर सटीक टिप्पणी
ओर समान्यतः लोगों का ध्यान नहीं जाता। इनकी अधिकांश की है- ‘हमने बर्बरों को देखा/ पर सहम कर/वे गलियों से निकले/
कविताओं में इसी वर्ग का दुख, उनकी पीड़ा, सपने, निराशा और और अन्धकार की तरह हर जगह फ़ैल गए/ अपने पराक्रम पर हँसे
अवसाद अधिक व्यक्त हुआ है। जब वे ‘सड़क के बच्चे’,‘हारा वे/उन्होंने बस्तियाँ जलाई और मिठाइयाँ बाँटी/ खंजर भोंके और
हुआ आदमी’या‘रक्त बेचने वाले’ की बात करते हैं तो महानगर के मंदिरों में घंटियाँ बजाई/ मुझे लिखना था कविता में बार-बार/
तलछट का जीवन जी रहे लोगों की विडंबना ही बयान करते हैं। बेहरामपाड़ा, पठानवाडी, धारावी, असल्फा/ इस तरह मुझे लिखनी
‘हम न मरब’ अपनी बीवियों की कमाई खाने वाले समाज का थी उन्नीस सौ तिरानबे की/ कठिन दरिन्दगी पर एक मुकम्मल
यथार्थ बयान करने वाली कविता है। इसमें वे जो ग़रीब औरतें हैं, कविता।’
जिन्हें शिक्षित होने का अवसर नहीं मिला। इसके विपरीत उन्हें प्रकाशित संग्रहों के अतिरिक्त इनकी अनेक महत्वपूर्ण कविताएँ
अपने जीवन की गुज़र बसर के लिए दूसरों के घर जाकर उनके पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रही हैं। इनमें से कुछ एक का ज़िक्र
जूठे बर्तन साफ करना और झाड़ू-पोछा करना पड़ता है, तब जाकर करना उचित होगा। विशेषतः इनकी लंबी कविता ‘मीठी नदी का
उनके जीवन का गुजारा चलता है। विडंबना यह है की उनके मर्द शोकगीत’ महत्वपूर्ण कविता है जिसमें मुंबई के बढ़ते औद्योगीकरण,
उनकी मेहनत की कमाई पर रौब जमाते हुए उनसे रुपए छीनकर भौतिक संसाधन, बढ़ते कंक्रीट के जंगल तथा भौगोलिक-
शराब पीते और फिजूलखर्ची में उड़ा देते हैं। जो औरतें अपने इस पर्यावरणीय-प्राकृतिक बदलावों को ही नहीं,बल्कि बदलते समाज,
शोषण और दमन के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाती हैं, उनकी आवाज़ें राजनीति, अर्थतंत्र और समूचे महानगरीय सांस्कृतिक परिवर्तनों को
बंद कर दी जाती हैं या उन्हें अपने घरों से बेदखल कर दिया जाता भी अभिव्यंजित किया गया है। विजय कुमार अपने बचपन की
है। स्त्री-जीवन की जटिलता, विवशता, मायूसी और उसके दर्द के स्मृतियों में बसी मीठी नदी के बरअक्स प्रदूषण और गाद से भरी
साथ-साथ उसके जीवन-संघर्ष, को विजय कुमार ने बड़ी शिद्दत निष्प्रयोजन बहती इस मीठी नदी की बदलाव-गाथा के माध्यम से
से महसूस किया है। उनमें समय के प्रति कोई आक्रोश न होकर मुंबई ही नहीं बल्कि तमाम महानगरों के किनारे बहने वाली उन
तटस्थता है, जिसमें स्त्री जीवन की विवशता के अनेक रूप उभरते नदियों के प्रदूषित होने का यथार्थ बयान कर जाते हैं, जो हत्याओं,
हैं। अपने समय की जटिलताओं और अंतर्द्वंद्वों को अपने नजरिए से साजिशों, घृणाओं और पिपासाओं के जंगल में पुरानी पगडंडी-सी
रख देने की छटपटाहट उनकी कविताओं में देखी जा सकती है। गुम हो गई हैं। इन सभी स्मृति-छवियों के माध्यम से कवि उस समय
आधी दुनिया आज भी विवशता का जीवन जी रही है। परंपरागत की मुंबई का एक सहज चित्र खींचता है, जिसके बरअक्स आज की
संस्कारों में जकड़ी हुई स्त्रियों को दीवारों की बदरंगी से जोड़कर प्रदूषित मीठी नदी कीचड़, गाद, पॉलिथीन की थैलियों और तेजाब
तथाकथित समूचे सभ्य समाज का असली चेहरा उजागर कर दिया से भरा काला जल है, जिसके नीचे उसका बचपन दब गया है–
है- ‘वे सब/ अब अच्छे घरों की गिरस्तनें/हमेशा डालती हैं राजी- ‘वे परछाइयाँ अब भी कैद होंगी/ मीठी नदी के काले जल में/
खुशी की चिट्ठियाँ/ जाड़ों में गाजर का अचार/वे कभी-कभी घर कीचड़ की मोटी परत के नीचे/ निकालो इस गाद को निकालो/
लौटती हैं– रुआँसी /दीवारें होती बदरौनक/ तो/ शायद हम/ बहनों पॉलिथिन की थैलियों को निकालो/ जस्ते और तेजाब को निकालो/
को कुओं से निकाल लाते/ वे हमारी माँ की निशानी/ वे थकी हुई इसके नीचे हमारा बचपन दबा हुआ है/ नाथो इसमें बैठे कालिया
परियाँ/ जब कभी लौटतीं घर।’ नाग को/ नदी के विषैले जल में/XXX / कागज की हमारी नन्हीं
आज़ादी मिलने के बाद से ही सांप्रदायिकता एक ऐसा मुद्दा कश्तियाँ/ कुछ रंग-बिरंगी तैरती हुई/ छोटी-छोटी मछलियाँ/ शायद
रहा है, जिसका उपयोग एक तरफ नेता गण और पूँजीपति अपने अब भी जिंदा इस कीचड़ के नीचे’ (पहल-84, पृ.118-119)
राजनीतिक स्वार्थ साधने के लिए करते रहे हैं तो दूसरी ओर महानगरों में जिस तरह नदियाँ और मैदान गायब हो रहे हैं,

314 n जुलाई से सितंबर 2023 yegh


उससे बच्चों का बचपन प्रभावित हो रहा है, उसकी पीड़ा यहाँ साफ तालाबंदी में अपनी भूख़ के लॉक डाउन की चाबियाँ खोजते ये लोग
देखी जा सकती है। नदियों के साथ छेड़-छाड़ बाढ़ का कारण शायद कल फिर कहीं और दिखाई दे जाएँ लेकिन इनका वर्तमान
बनती है। गाहे-बगाहे फेंके गए कचरे के कारण उत्पन्न होने वाली यही है कि अधबनी इमारतों ने उन्हें दुत्कार दिया है। बोरे, तसले,
नदी की प्रतिक्रिया होती है बाढ़। उसके स्वाभाविक प्रवाह के विरुद्ध फावड़े अब रहस्य बन गए हैं। गारा-ईंटों ने भी इंतजार करने को
हुई छेड़छाड़ की प्रतिक्रिया स्वरूप उसने महानगर वासियों के लिए कहा है। बोझे अब सिर पर नहीं है। इस तरह श्रम शक्ति की पूरी
चुनौतियाँ भी प्रस्तुत की हैं। विजय कुमार ने मीठी नदी में आयी हलचल थम-सी गई है। सब गायब है, अदृश्य है। यहाँ तक कि
बाढ़ के प्रकोप को आक्रामक तथा भयावह रूप में प्रस्तुत किया है। ठेकेदारों-मुकदमों के आश्वासन भरी तारीख़़ों की खिड़कियाँ भी बंद
मीठी नदी के साथ-साथ कवि ने मुंबई महानगर के विकास का हो गयी हैं। ऐसे में– ‘मुट्ठी भर भात के साथ चुटकी भर नमक/और
प्रवाह भी चित्रित किया है। मीठी नदी के मार्ग में पड़ने वाले महानगर खत्म हो जाती है सोशल डिस्टेंसिंग।’
की शिनाख्त कराते हुए वह इस महानगर के सामाजिक-सांस्कृतिक विजय कुमार नई सदी में बदलते भयावह समय के प्रतिमान
प्रवाह का चित्र भी प्रस्तुत करता है और मानव जीवन की सुंदरता की के साथ रचना स्पेस की बात कविता और आलोचना दोनों के लिए
संभावना तलाशता है। इसीलिए मीठी नदी जैसे ‘मृत्यु के घोसलों में ज़रूरी मानते हैं उनके लेखे, “यह एक एक ऐसा भयावह समय है
एक पक्षी का जीवन तलाशती है।’ मीठी नदी का विनाशकारी रूप जिसमें हमारे सारे वैचारिक वृतांत और नैरटि े व्स भंग और खण्डित
आज के बेतरतीब और असमान विकास, सामाजिक विषमता तथा हैं। यह रचनात्मक कीमियागिरी आलोचना से एक नई सूझबूझ
सांस्कृतिक स्खलन के कारण उत्पन्न दुख के विरुद्ध नदी का विद्रोह की मांग करती है।” कविता इसी मायने में विरल है कि यथार्थ
है जो स्वार्थी मानव समाज को उसके विकास कार्यों में प्रकृति के का हूबहू प्रत्यायन नहीं करती। तकनीकी समय के इस जटिल
साथ संतुलन बनाए रखने की चेतावनी देता है। यथार्थ को समझते हुए कविता मनुष्य के भीतर विद्यमान उसकी
कोरोना के कारण उत्पन्न मानवीय संकट वर्तमान समय की बौद्धिक सर्जनात्मक शक्ति और संभावनाओं की तलाश करती है।
दूसरे विश्वयुद्ध से भी अधिक भयावह मानवीय त्रासदी है, जिसके विजय कुमार इसी को कविता की समकालीनता कहते हैं। उन्हीं
कारण समूची मानवता के समक्ष अस्तित्व का संकट पैदा हो गया के शब्दों में... “कविता अपनी इस कोशिश में बाहर के किसी भी
था। इसकी भयावहता से शायद ही कोई ऐसा व्यक्ति हो जो प्रभावित निज़ाम किसी भी व्यवस्था के सामने अपना एक प्रति संसार रचती
और विचलित न हुआ हो। विजय कुमार ने इस मानवीय त्रासदी है जबकि उन्नत टेक्नोलॉजी के हमारे इस युग में जो भी चीज़
पर कई महत्वपूर्ण कविताएँ लिखी हैं, जिनमें ‘वे महज संख्याएँ उपस्थित है वह बाहर के किसी सूत्र से नियंत्रित है। किसी व्यापक
नहीं हैं’,‘आने वाले ख़तरे’ और ‘तालाबंदी में किसी अज्ञात की कैलकुलेशन का एक अंग बन गई है।”
खोज’ उल्लेखनीय हैं। भारत में कोरोना की पहली लहर के दौरान इस तरह इनकी कविता उस संवेदनशील मन की उपज है, जो
महानगरों से गाँवों की ओर पलायन की त्रासदी ने हर संवेदनशील सीधे-सीधे व्यवस्था से टकराने का बड़बोलापन तो नहीं दिखाती
व्यक्ति को झकझोर कर रख दिया था। विजय कुमार इसके असली लेकिन अपने समय की विडंबना को उजागर करते हुए समूची
कारणों की ओर, उसकी जड़ तक जाना चाहते हैं। उनके अनुसार व्यवस्था को कटघरे में ज़रूर खड़ा करती है। विजय कुमार अपनी
‘गर इसका कोई सीधा सरल जवाब होता तो/ नहीं लिखी जातीं कविताओं के माध्यम से अपने समय और समाज को रचते हैं,
दुनिया भर में कविताएँ।’ अत्याचार और दमन के ख़िलाफ़ सवाल उठाते हैं और समस्याओं
‘भूख़ से लड़ने की चाबी खोजने’ अपने गाँव से महानगर तक की जड़ों की पड़ताल करते हैं। उपभोक्तावादी संस्कृति एवं वर्चस्व
आए और फिर इस महामारी के कठिन समय में कोई काम न रह और उन्माद वाले इस समय में कविता द्वारा मानवीय हस्तक्षेप को
जाने के कारण अपने घरों की ओर लौटने को विवश इन लोगों को वे एक नैतिक ज़िम्मेदारी मानते हैं। विजय कुमार वर्तमान दौर के
जगह-जगह से खदेड़े जाने के उस अनलिखे इतिहास को कवि कवियों की तरह वैश्वीकरण और बाज़ारवाद के तंत्र से बाहर भी
ने व्यक्त किया है। जिनके लिए हिक़ारत, गालियाँ, लानत और अपना अलग काव्य-संसार निर्मित करते हैं। अलग इस मायने में
घुड़कियाँ बेमानी हो गई हैं, उनके चेहरों पर बदहवासी, आँसू और कि वे अन्य कवियों से अलग बिम्बों-प्रतीकों आदि का चयन करते
मुखाकृतियों की तमतमाहट के अगले ही पल याचनाओं के लिए हैं, जिनमें मनुष्य जीवन की घटनाओं का सत्यान्वेषण तथा यथार्थ
टूटे हुए वाक्य होते हैं, उन आधा मुख ढकी स्त्रियों तथा कंधों पर की गंभीर अभिव्यक्तियाँ प्रमुख रूप से दिखाई देती हैं। n
चढ़े मटमैले, रूखे बच्चों की आँखों में अनलिखे वर्तमान को भी संपर्क : संपादक, समीचीन, मुंबई
कवि ने उजागर किया है। महामारी के इस कठिन दौर की इस मो. 9820385705

yegh जुलाई से सितंबर 2023 n 315


n आयतन : ए. अरविंदाक्षन

कविता का ‘संगीत’
प्रभाकरन हेब्बार इल्लत

कविता के शब्द मानव के जीवन में संगीत और इच्छानुसार रचता भी है। इसके बल पर वह आत्मगत
सौंदर्य ले आते हैं और वे जीवन में रंजकता, माधुर्य सौंदर्य को वस्तुगत रूप दे सकता है, उसको लयात्मक
आदि भर देते हैं। कविता अपने इस साध्य को संभव अभिव्यक्ति भी दे पाता है। प्रकृति के समानांतर मानव
बनाने के लिए प्रेम-पंथ का अनुसरण हमेशा करती विशिष्ट प्रकार का अनुसृजन करता हुआ अंतस्थ के
है, और इसलिए स्वाभाविक रूप से हिंसा का प्रतिरोध बिंबात्मक-प्रतीकात्मक अनुभूति को आकार देता है।
भी। हिंसा प्रत्यक्ष हो या अप्रत्यक्ष,वह जीवन की अनुभूति कोई भी हो, वह सामाजिक-संबद्धता की
संगीतात्मकता तथा सौंदर्यमयता को ख़ारिज कर देने कल्पनात्मक छवि है। श्रम-भाषा-सामाजिकता द्वारा
वाली होती है। यहाँ भूतल में अतिजीवन को संभव बनाने हेतु मानव निर्मित संसार में मनुष्य जीता है, तभी संगीत-सौंदर्य के साथ का
द्वारा की जाने वाली न्यूनतम हिंसा की बात नहीं की जा रही है, ‘प्रत्यभिज्ञान’ उसका हो जाता है। इस सौंदर्य में संतुलन, संगति,
पर यह वह हिंसा की बात है जो मानव योजनाबद्ध तरीके से लागू सत्ययता, नैतिकता, परिज्ञान आदि की जुगलबंदी है, संगीत का
करता है। इससे जीवन में बदरंग और बेसुर भर जाते हैं। ऐसे समय साध्वनियों का क्रमगत, सार्थक-भावात्मक विन्यास-आलाप है,
में कविता का जैविक-धर्म जीवन के सौंदर्य-संगीत की समृद्धि को लय-विलय है। यह सूक्ष्म रूप में मानवीय अनुभूति का सुंदरतम
सुनिश्चित करना होता है। यही समृद्धि संस्कृति की समृद्धि कही जा आख्यान है। कविता एवं संगीत मन की संस्कारित ध्वनि-शब्द
सकती है। कविता का अंतर्लोक सदैव यह कहता है कि वर्चस्व, साधना है। इस साधना से मानव आत्मलीन हो जाता है, अपने और
प्रतिकार-दुश्मनी-युद्ध, नस्ल-सांप्रदायिकता-भ्रूण-स्त्री-शिशु हत्या, परिवेश को समृद्ध करता है। संगीत-कविता दोनों का आधार प्रकृति
नर-पशु बलि, नशा, पीड़ा-कामुकता, निर्वनीकरण, गाली-गलौज़, और मानव का सक्रिय चैतन्य है और वह आपसी अविरल संवाद
प्रदूषण आदि मात्र नहीं, अंध विचारधारात्मक कट्टरता, स्वतंत्रता- से उन्नत होता रहता है। कवि-आलोचक अरविंदाक्षन की कविता
समानता-बंधुता का निरास, कारावास, सैनिकीकरण, धमकी, इस संवाद-साधना की परिणति है। इस साधना के बल पर वे
तन-मन शोषण, देह-व्यापार, बहिष्कार-तिरस्कार आदि भी हिंस- दिखाते हैं कि चिरैयों का गाना संपर्णू आकाश में किस प्रकार राग-
दैत्य के विविध हाथ हैं। इसलिए कविता अनंत करुणा, आत्म- रंग भर देता है। यहाँ तक कि लोदी गार्डन के पेड़ों की धुन गिलहरी
परिष्करण, धार्मिकता-नैतिकता, तर्क-तार्किकता आदि के बल पर तक को कैसे लुभा देती है। वर्तमान जीवन के परिसर में बहुविध
यह सिखाती है कि एक बूंद भर आंसू या करुणा के अमृत प्रसार हिंसात्मक विकलताओं की वज़ह से प्रकृति के जैविक संजाल में
से मन में हिम-धवलता का संचरण होता है। दूसरों के साथ खुशी दरारें पड़ने लगी हैं, प्रकृति का संगीत विलुप्ति के कगार पर है।
की साझेदारी करते समय हृदय-मंडल में निर्मल चाँदनी फूट पड़ती ऐसे में अरविंदाक्षन की कविता प्रकृति-जीवन के संगीत की वापसी
है। इस तरह सौंदर्य का विकीर्ण होना मानव की श्रम (सर्जना) की मांग करती है। ‘बांस का टुकड़ा’, ‘घोड़ा’, ‘आसपास’, ‘सपने
शक्ति की उदात्तता का मिसाल है, जो प्रकृति के साथ के द्वंद्वात्मक सच होते हैं’, ‘राग लीलावती’, ‘असंख्य ध्वनियों के बीच’, ‘भरा-
संबंधों के बल पर विकसित होती है। इन संबंधों के ऐतिहासिक पूरा घर’, ‘पतझड़ का इतिहास’, ‘राम की यात्रा’, ‘जंगल नज़दीक
घात-प्रतिघात से ही मानव की इंद्रियों का विकास हुआ है। इसलिए आ रहा है’, ‘समुद्र से संवाद’, ‘खंडहरों के बीच’, ‘नीलांबर’,
मानव अपने जीवन में अन्य प्राणियों की तरह प्राकृतिक साधनों- ‘वट के पत्ते पर’,‘लीलारविंद की तरह’, ‘साक्षी है धरती साक्षी है
संसाधनों का इस्तेमाल मात्र नहीं करता है, वह उनको अपनी आकाश’, ‘प्रार्थना एक नदी है’ आदि दशाधिक काव्य-संकलन

316 n जुलाई से सितंबर 2023 yegh


इसके दस्तावेज़़ हैं। ‘राग लीलावती’ में ‘संगीत’ शीर्षक से एक तलाशी में, कभी इच्छा के न रहने पर भी मानव का भौतिक दृष्टि से
कविता है। कविता अपना आत्म-संगीत इस प्रकार व्यक्त करती तबादला हो जाता है तो उस जागतिक परिवेश, मानव और इतर के
है-“हर क्षण/मैं/ संगीत को अपने में/समेटता हूँ। /फूल की पंखुड़ी/ साथ के रागानुराग हवा हो जाते हैं। ऐसे क्षणों में मानव यह अनुभव
बारिश की एक बूंद/बिजली की क्षण भर की रोशनी/हवा का बहना/ करता है कि मानवीय अस्तित्व की परिपूर्णता लगाव में है, अलगाव
नदी का हँसना/मैं संगीत से सराबोर/एकदम हल्का-सा अनुभव में नहीं। चिड़िया, गिलहरी, कुत्ते, पेड़-पौधे, मिट्टी आदि से अलग
करता हूँ। /हर क्षण/मैं/संगीत को अपने में/समेटता हूँ/दुर्घटनाग्रस्त हो जाने पर एक रिक्तता अभ्यंतर में छा जाती है, अशांति मन में
युवक का चेहरा/शाम को लौटती कामगार महिलाएँ/चीरकर भागती विकसित होती है। हम उस वक्त यह समझते हैं कि वे सब हमारे
फायर इंजिन/मैं संगीत से भर जाता हूँ।”1 स्थल-काल बद्ध जीवन मन के पड़ोसी थे, वे हमारे ही आत्म के अंश थे। संबंधों के कटाव
के रास्ते से होकर जीवन के अनुभवों को क्षण-क्षण समेटने का के समय में कवि मन पीड़ा-वेदना से भर उठता और अनुभूत करता
भाव अंतर-बाह्य संगीत को समझने की काव्यगत पद्धति है। जीवन है कि वह संगीत से कट गया है। कविता की पहचान है कि जीवन-
के अनेकानेक गति-विन्यास के प्रति खुली हुई कवि-चेतना एक संगीत प्रकृति-परिवेश के महीन-महीन संबंधों से निसृत संगीत है।
ओर प्रकृति के कण-कण में परिलसित संगीत के सूक्ष्म स्वर को इस संगीत-विच्छेद से अर्थहीनता-नीरसता जीवन में भर जाती है,
सोख लेती है तो दूसरी ओर शाम को घर लौटती कामगार महिला हिंसा का साम्राज्य विस्तृत होता रहता है।
के भीतर जो भाव ‘संगीत’ उभरता है, उसका दर्शन करती है। अरविंदाक्षन की कविता में जीवन के विविध संदर्भोंं का
चीरकर भागती ‘फयर इंजन’ व ‘दुर्घटनाग्रस्त युवक’ के नष्टप्राय आरोहण-अवरोहण है। आपकी कविताओं के साथ यात्रा करते
जीव-संगीत को पुनरुपलब्ध करने की कविता की बेबसी पंक्तियों समय लगता है कि समकालीन कविता में चर्चित विषयों का
में झलकती है। जीवन के प्रकरणों का विस्तृत बयान कविता में सौंदर्यात्मक वैविध्य है। वे अपने शब्द विस्तार से आधुनिक जीवन
नहीं है, पर पाठक कविता के कल-कल करती बहती करुणा- के शिथिल संदर्भोंं को भावना-संपुट में बद्ध करते हैं। जीवन की
मानवता की लहरियों के संगीत का अनुभव कर सकता है। कविता विविधता का उत्साहपूर्वक अंगीकार आपके शब्दों में लबालब भरा
की पंक्तियों में कहीं ‘द्रुत खयाल’ की गतिकी-आवेग है तो कहीं हुआ है। सौंदर्य-संगीत से उत्पन्न संस्कृति आपकी कविता में हैं,
हृदयागार की राग लीलावती की ‘सुर-साधना।’कवि का स्वभाव जो नूतन स्थल-काल की खोज़ करती है। इसमें स्वतंत्र चेतना से
है कि वह बारिश की बूंद में, हवा के झोंके में से झरते संगीत का उत्पन्न मानव की संघर्षमयता-प्रतिरोधधर्मिता संकलित है तथा
पान कर ‘हल्कापन’ महसूस करता है और आंतरिक लयावस्था नूतन जीवन मूल्यों के निर्माण करने की उत्कट अभिलाषा भी।
या जुड़ाव का अनुभव करता है।2 पाठक का अनुभव है कि यही इसके लिए कविता स्मृति के जगत में प्रवेश करती है, यह संगीत-
आंतरिक संबद्धता सामाजिक संबद्धता के रूप में परिवर्तित होती है। साधना से कम नहीं है। कवि की भाषा में “बचपन की स्मृतियों/
कविता के घराने का तराना ‘पतझड़ के इतिहास’ संकलित ‘संगीत’ और/भविष्य के सपनों के बीच/अदृश्य सा एक पुल है। /उसे संगीत
नामक कविता में भी छलक उठता है। यहाँ कविता इस प्रश्न को का आलापन कहो/तो गलत नहीं होगा”3 (कविता की यात्रा)।
संबोधित करती है कि जीवन की तन्मयता, लय-विलय का आधार समय-पथ से होकर कविता जब यात्रा करती है, तब स्मृति बिंब-
क्या होता है। कविता का उत्तर यह है कि प्रकृति के नाद के साथ के प्रतीक-मिथक आदि का रूप धारण कर विशिष्ट क्रम में उपस्थित
(इस जगत को संगीत की भाषा में नादात्मक जगत कहा जाता है) होती है, जो अनुवाचक के दिल को बाग-बाग करने की कुव्वत
समंजन में ही जीवन की आनंदमयता है। जब इस समंजन में स्वर रखती है। कविता जीवन के थाहने-परखने का प्रयास है, जीवन
भंग हो जाता है तो जीवन का संगीतात्मक सल्लाप रुक जाता है, को समझने-समझाने का खास तरीका है। ‘स्निग्धता’, ‘पिता एक
उसकी तानें बिगड़ जाती हैं। कवि-मन का ‘अनाहत नाद’ ‘आहत रेखा चित्र’ जैसी कविताएँ माता-पिता की पुण्य-स्मृतियाँ लेकर
नाद’ बनकर इस प्रकार अपना शब्दाकार लेता है कि विस्थापन से आती हैं तो ऐसा लगता है कि बचपन फिर से डगमग करके अपने
जीवन में राग-अनुराग के स्वरों से जनित लय में भंग जब संभव कदम भरकर आता हो। मां की स्तन्यता (वात्सल्य) घर पहुँचते
होता है तब अंतस की आत्मलय बिछुड़ जाती है। जिस प्रकार बूंद-बूंद बनकर गिरती है तो संबंधों की आंतरिक कसावट बोलने
विभिन्न नाद-स्वरों का संयक नियोजन खत्म होता है तो वहां फिर लगती है। प्यार की बूँदों के टपकने की आवाज़ में मातृत्व के संगीत
संगीत नहीं रह सकता है। कविता बताती है कि जीवन के समृद्ध का अनुरणन अनुवाचक अनुभव करता है। बात यह भी है कि
संबंधों के संगीत के अलग हो जाने से मानव-जीवन उन्नत नहीं हो अरविंदाक्षन की कविता यह तकनीक भी बता देती है कि स्मृतियों
सकता है। यह सामान्य अनुभव है कि जिंदगी में आजीविका की की चाबी से अनुभूति के इतिहास को कैसे आराम से खोला जा

yegh जुलाई से सितंबर 2023 n 317


सकता है। जो इतिहास हमारे पास है, वह इतिहास जगत के संपूर्ण है। कविता में प्रयुक्त मरुस्थल शब्द संगीत-सौंदर्य से विरत बंजर
इतिहास का शक्ल मात्र है। मानव ख़ुद इतिहास का निर्माता कहे मानव का मन-समाज ही है। कविता (धूप में) कहती है- “अपने
जाने पर भी हमें यह जान लेना आवश्यक हो जाता है कि ‘अन्य’ काम में मशगूल औरत की/अधनंगी लेटी बच्ची को/देखने के बाद/
का भी अपना एक समृद्ध इतिहास होता है। हमारी सांस्कृतिक सपने भागते चले गए। /धूप में/काम करती दुबली पतली मां को/
समझ की सीमा को उद्घाटित करके कवि का कहना है कि हमें देर तक देखने के बाद/ऊष्मल स्मृतियाँ सूख जाती हैं/उस समय/
साकल्यवादी दृष्टि अपनाकर जीवन को जीना-समझना होता है। मरुस्थल के विस्तार को ही/मैं देख पा रहा हूँ।”6
‘पतझड़ का इतिहास’ संकलन की पाईलेट कविता की ओर ही स्निग्धता या आंतरिक संगीत का पारदर्शी अनुभव अरविंदाक्षन
पाठक का ध्यान आकर्षित करना चाहूँगा। कविता यह नसीहत देती की कविता में पर्याप्त मात्रा में है। जब मकड़ी के जाल को बुहारते-
है कि इस प्रकृति का इतिहास मानव के इतिहास से भी पुराना है। बुहारते निकाल दिए जाते हैं, तो कवि को अनुभतू होता है कि वह
कविता के ही शब्दों में-“पतझड़ का/एक बृहदाकार इतिहास है/ उसका घर था, वह प्रकृति के निगूढ़ रचनात्मक संगीत का रूप
सूखे-सिकुड़े पत्तों की अपार निरंतरता। /यह कह पाना नामुमकिन है। यह अनूठी संवेदना का नमूना है। इसके अभाव में जीवन के
है/पतझड़ में/कितने पत्ते गिरे होंगे/हर एक को/गिरते समय/कितना विभिन्न तत्व, भले ही वह जामुन का पेड़ हो, मधुमक्खी का छत्ता
दर्द हुआ होगा/गिरते समय/अटके हुए पत्तों का/हरे या पीले पत्तों याभले ही वह जंगली मोर-बेर हो, सब के सब वस्तुएँ मात्र रह
का/दर्द कितना गहरा होगा/गिरे हुए का ख़ून/कब सूख गया होगा/ जाती हैं। वस्तुकृत होते मानव के मन के वर्तमान परिदृश्य पर
कितना पत्ते में ही सूख गया होगा/और कितना मिट्टी में।”4 कविता अपनी टिप्पणी देते हुए ‘समुद्र से संवाद’ शीर्षक काव्य-संकलन
का बताया हुआ ‘वृहदाकार’ शब्दप्रकृति के जीवन-संगीत के वृहद की भूमिका में कवि कहता है कि “वैश्वीकृत समाज के व्यवहार
इतिहास की तर्जनी है। पत्तों के उगने-झड़ने की आवृत्ति के साथ में, आचरण में, आदान-प्रदान में, आपसी रिश्तों में, चिंनतशीलता
पत्तों के पीले हो जाने तथा झड़ जाने के भीतर दर्दीले अनुभवों को में मुनाफा केंद्रित दृष्टि सर्वाधिक महत्वपूर्ण बन गई है। धन सबसे
समाहित करने में भी सांगीतिक शब्द-भाव योजना और उसका बड़ा मूल्य बन गया है। प्रतिस्पर्धा सबसे बड़ा यथार्थ। इनके अलावा
राग-विस्तार है। कविता अंतिम चरण तक आते-आते पतझड़ के अधिकार का दूषित वृत्त बलवान होता जा रहा है। सभी उस वृत्त
साथ वसंत ऋतु की युग्मता बिठाकर दुख-सुख के राग-विराग को में विलयित होना चाहते हैं। अल्पसंख्यक इसमें जीत जाते हैं और
दर्शाती है। जिस कवि के भीतर रोम-रोम में संगीत समाया है, वही बहुसंख्यक हार जाते हैं। यही वह समाज है जिसमें लोग कुलबुला
यह काम कर सकता है। इस स्वभाव के रहते अरविंदाक्षन का रहे हैं- कीटों की तरह। इसी माहौल में हमारी कविता भी सांस ले
कवि-हृदय जंगल के झरने में संगीत का दर्शन करता है और यह रही है। अतः कविता के सामने कई प्रकार की चुनौतियाँ हैं। पहली
भी देखने में सफल निकलता है कि झरना अपने अंतस्थल में क्या चुनौती यह है कि उसे विपरीत परिस्थिति में रचनाशीलता को बचाए
करता है। संगीत की एक कश का आनंद उठाइए-“जंगली झरने रखना है, दूसरी है कि प्रतिरोध की संस्कृति के व्यापक संप्रेषण को
के अंतस्थल में/पत्थर गोल-गोल हो जाते हैं/हर जंगली झरने के संभव बनाना, तीसरी है, नए नागरिक बोध का प्रसार तथा चौथी
भीतर/संगीत है।”5 (जंगली झरना)। है, गतिशील भविष्य को सुनिश्चित करना। इतनी सारी चुनौतियों
कवि के रूप में दार्शनिक धरातल पर अरविंदाक्षन अपने को को अपने कंधे में उठाकर ही कविता अपनी उपस्थिति दर्ज़ कर
रामायणकार और कालिदास की परंपरा के अनुयायी मानते हैं। हम रही है। इस अर्थ में हम कह सकते हैं कि कविता एक दायित्वपूर्ण
जानते हैं कि दोनों शोक या रुदन के पीछे भागने वाले कवि रहे हैं। अभिव्यक्ति है, तमाम सरलीकरणों के विरुद्ध तमाम महिमा-
यदि जिस किसी की भाषा छीन ली गई हो या हरियाली खाली कर मंडनों के विरुद्ध।”7 आपकी कविता (आवाज़़) में दायित्वपूर्ण
दी गई हो या किसी को निहत्था कर छोड़ दिया गया हो या किसी अभिव्यक्ति ‘आवाज़़’ के रूप में बहुरंग-रूप-राग धारण कर
को नंगा-अधनंगा किया गया हो या आत्महत्या के जंगल में छोड़ अपनी मौज़ूदगी पेश करती है-“आवाज़/उम्मीद का दूसरा नाम है/
दिया गया हो या विस्थापित होने के लिए बाध्य किया गया हो तो आवाज़/आदमी का दूसरा नाम है/आवाज़़/सृजन का दूसरा नाम
कविता उनका साथ निभाती है। ऐसा प्रतीत होता है कि असल में है/आवाज़़/इतिहास का दूसरा नाम है/आवाज़़/मिट्टी का दूसरा नाम
कविता जीवन की सारी वक्रताओं से वंचित लोगों की शरण-स्थली है/आवाज़़/मनुष्य का पर्याय है।”8
है। कविता के संगीतात्मक स्पर्श से मानव की कोशिकाओं में ‘बांस का टुकड़ा’ अरविंदाक्षन जी का कथा-काव्य है। इसकी
आनंद का संक्रमण होता है। कविता की भाषा में जीवन में संगीत भूमिका में प्रभाकर माचवे का कहना है कि “अनेक स्तरों पर यह
का न रहना तो जीवन का ‘मरुस्थलीकरण’ है, दर्द की व्यापकता काव्य-कृति सहृदय को छुएगी। यह ‘वंश’ से उखड़ी कृष्ण के

318 n जुलाई से सितंबर 2023 yegh


अधरों तक पहुँची सप्त स्वर की साधना है।”9 युद्ध की विभीषिका गा रहे हैं/मैं नाच रहा हूँ/आकाश रंग रहा है/मैं गा रहा हूँ/बादल
के कालखंड में मानवीय नृशंसता और अनैतिकता के विरुद्ध बांसुरी बजा रहा है/मैं कान्हा बन रहा हूँ।”11 यही ‘कान्हा’ कठफोड़े
पौराणिक मिथकीय आख्यान के माध्यम से अपनी काव्यात्मक के संगीत को सुनता है, जीवन के संगीत को सुनता है और उसके
प्रतिक्रिया व्यक्त करने के प्रकरण में भी कवि-मन ‘बांसुरी की सौंदर्य में मुग्ध होता है, क्योंकि वह प्रकृति का हरित-स्निग्ध प्राण-
लयमुक्त मंद्र-ध्वनि की प्रतीक्षा कर रहा है।’ यह मिथक वर्तमान संगीत है। प्राण या प्राण शक्ति का यह संगीत बिसमिल्ला खां
संदर्भ में नया संवाद पथ खोलता है और नए अर्थों में रूपांतरित की शहनाई से होकर विराट-वृक्ष का रूप धारण करता है। कवि
होता है। रूस-उक्रेन युद्ध के वर्तमान जीवन संदर्भ को ध्यान में कहता है- “हवा का संगीत/बिसमिल्ला खां की शहनाई की तरह
रखकर कथा-काव्य पढा जाए तो नूतन भंगिमा मन में छा जाएगी। है/क्योंकि वह हमारे शरीर में घुस जाता है/हर कोशिका में/संगीत
युद्ध समस्त हिंसात्मक विकृतियों का भौतिक रूप है, जो मानव के का स्पर्श बीज बोता है/पानी देता है/एक विराट-वृक्ष की प्रतीक्षा
आंतरिक और बाह्य जगत को वीरान कर देता है। युद्ध-आतंक से में रहता है”12 (बिस्मिल्ला खां की शहनाई की तरह)। हिंसा के
दूसरी भाषा में जीवन का संगीत तिरोहित हो जाता है। कविता की काल में अरविंदाक्षन की कविता वृक्षत्व धारण कर छाया प्रदान
पंक्तियाँ पहले देखते हैं-“बांस का यह टुकड़ा/कब मेरे हाथ आया/ करती है। आपकी कविता के शब्द दुनिया की प्रति सृष्टि करते
स्वर-सागर का यह क्षण/मैंने कब अपनाया। /यह मेरी बांसुरी/मेरे हुए जीवन के विविध पक्षों की कल्पनात्मक पुनर्रचना करते समय
एकांत की सहचर/मेरी अभिव्यक्ति है /वादन करते-करते मैं/उसके अपने सामाजिक प्रभाव और उसकी अर्थवत्ता को तिरोहित होने नहीं
एकांत में पहुँचता हूँ/वह एक निर्झर है/एक लहरिल प्रवाह/नादों देते हैं। कविता आपके लिए जीवन को समझने और अनुभूत को
का स्रोत/रागों का पल्लवन/मैं उसके एकान्त का सहचर /मेरी यह व्यक्त करने की स्वतंत्र पद्धति रही है। गद्यात्मकता और वैचारिकी
बांसुरी/मेरी अभिव्यक्ति है। /उसके छेदों में राग है/रागों में जीवन के भारसे कभी-कभार कविता के झुक जाने पर भी अरविंदाक्षन का
है /जीवन का विस्तार है/मेरी यह बांसुरी/मेरे एकांत की सहचर / कवि मन संश्लिष्ट संगीत का साथ कभी नहीं छोड़ता है। n
उसमें से अब राग उतरते नहीं/एक खामोशी एकदम घेर लेती है/
संदर्भ
वह कौन-सा राग है/जिसके आगे लड़ते-झगड़ते मनुष्यों का व्यूह
1. ए. अरविंदाक्षन, राग लीलावती, अंश प्रकाशन, दिल्ली, 2007, पृ.19.
है/वह कौन-सा नाद है/जिसके आगे अपने भी ग़ैर हो जाते हैं/वह 2. सुबह सबेरे/जब सूरज की किरणें/पत्तियों को सहलाती हैं/संगीत की लहर/
कौन-सा निनाद है/जिसके आगे चुप खड़ा आकाश है। /यह मेरी मेरे कानों तक आती है/वह मुझे सरोबोर कर जाती है। ए. अरविंदाक्षन,
बांसुरी/अब एक बांस का टुकड़ा है।”10 यहाँ हम अनुभव करते हैं आसपास, गोविंद प्रकाशन, मथुरा, 2003, पृ. 28.
कि कृष्ण की बांसुरी जीवन की वर्तमान स्थिति से खिन्नता प्रकट 3. ए. अरविंदाक्षन, पतझड़ का इतिहास, मानव प्रकाशन, कोलकत्ता,
2013, पृ. 22.
करती है। कविता में बांसुरी कृष्ण के ही प्रतीक के रूप में आती 4. वही, पृ. 11-12.
है। यहाँ कृष्ण/बांसुरी असल में मानव के भौतिक शरीर-जीवन 5. ए. अरविंदाक्षन, आसपास, गोविंद प्रकाशन, मथुरा, 2003, पृ. 18.
का प्रतीक भी हो सकता है। बांसुरी का बंद हो जाना तो वास्तव में 6. ए. अरविंदाक्षन, पतझड़ का इतिहास, मानव प्रकाशन, कोलकत्ता,
मानव के भीतर और समाज में आसुरी वृत्तियों का भर जाना होता 2013, पृ. 76.
7. ए. अरविंदाक्षन, समुद्र से संवाद, आधारशिला प्रकाशन, नई दिल्ली,
है। यदि बासुरी प्रेम का वादन करने में असमर्थ हो तो ज़िंदगी की 2019, पृ. 9. (भूमिका से
सारी की सारी अर्थवत्ता तक नष्ट हो जाती है, वह एक बांस की 8. ए. अरविंदाक्षन, आसपास, गोविंद प्रकाशन, मथुरा, 2003, पृ. 61.
लकड़ी का टुकड़ा मात्र रह जाती है। 9. ए. अरविंदाक्षन, बांस का टुकड़ा, लोकभारती प्रकाशन, नई दिल्ली,
युद्ध की विभीषिका को झेलने वाले आदमी की मानसिक 2004, (भूमिका से)
10. वही,पृ. 13-14
स्थिति कृष्ण की मानसिक स्थिति है। यहाँ कवि हिंसा का प्रतिरोध 11. ए. अरविंदाक्षन, राग लीलावती, अंश प्रकाशन, दिल्ली, 2007, पृ. 73.
मिथकीय आख्यानों के प्रतिस्मरण के माध्यम से करता है। कथा- 12. अनामिका (सं), उनकी गाड़ी चलती रहती है, वाग्देवी प्रकाशन, नोएडा,
काव्य का पाठक दिल ही दिल चाहता है कि बांसुरी से मनमोहक़ 2023, पृ. 205.
राग फिर उठे। जो उस राग को ठीक-ठीक समझता है और उसमें संपर्क : प्रोफेसर हिंदी विभाग
आप्लावित होता है तो वह धीरे-धीरे ‘कन्हैया’ हो जाता है। वहां कालीकट विश्वविद्यालय, केरल
फिर जीवन का नृत्य होता है, गायन होता है, प्रेम के वसंत का मो. 9446661250
आगमन हो जाता है। अरविंदाक्षन की कविता (मुझे लग रहा है)
की भाषा में यह भाव इस प्रकार अंकित हुआ है, देखिए- “पंछी

yegh जुलाई से सितंबर 2023 n 319


n आयतन : विष्णु नागर

साधारण जीवन के असाधारण कवि


डॉ. अिनता

समकालीन हिंदी कविता में विष्णु नागर की मनोभूमि के प्रति एक सजग कवि हैं। यही कारण है कि उनकी
का निर्माण जेपी आंदोलन और आपातकाल के बीच कविता आत्मीय लहजे में पाठक को निजी एवं वर्गीय
हुआ। यह समय ताक़त के आतंक, निराशा और अनुभवों से सहज ही जोड़ देती है। व्यंग्य-विनोद,
राजनीतिक उतार-चढ़ाव का था। कवि विष्णु नागर क्रीड़ा भाव, आत्मविडंबना जैसी कई युक्तियाँ है जो
का काव्य संग्रह ‘मैं फिर कहता हूँ चिड़िया’ उसी दौर कवि विष्णु नागर की कविता की मुख्य विशिष्टता के
में प्रकाशित हुआ था। ठीक इसी समय आपातकाल रूप में नज़र आती है। गंभीर मुद्राओं के बीच में इन
का माहौल बनने लगा था। गुज़रात में जनवरी 1974 की उपस्थिति कविता के प्रभाव को बढ़ा देती है-
रसोई गैस, तेल,अनाज आदि ज़रूरी चीज़ों की कीमतों में भयंकर ‘एक अकेला पंछी
वृद्धि के विरोध में जनाक्रोश ने छात्र आंदोलन का रूप ले लिया जब आधी रात को चहचहाता है
था। इसके बाद मार्च में बिहार में भी इसी प्रकार का आंदोलन शुरू तो इसके मायने क्या हैं?
हुआ। जयप्रकाश नारायण ने राजनीतिक संन्यास को त्याग कर इस क्या सिर्फ़ यह कि उसकी नींद
आंदोलन का नेतृत्व किया और इसे संपर्ण ू क्रांति का नारा दिया। समय से पहले खुल गयी है
भयंकर उथल-पुथल के बीच क्रांति की संभावना का माहौल बन और उसका समय बोध गड़बड़ा गाया है...
गया था पर इतने बड़े आंदोलन के राजनीतिक चरित्र में भी फांक वह दूसरों से कह रहा है
आई। विष्णु नागर संपर्ण ू क्रांति के इस आंदोलन को देख रहे थे कि भई तुम भी चहचहाओ
और उसकी परिणिति को भी उन्होंने देखा था। जागो जागो मैं बार बार कहता हूँ
विष्णु नागर की रचनाशीलता का पाट बहुत चौड़ा है किन्तु कि अब जागो भोर भई।’
इस लेख का उद्देश्य एक कवि के रूप में उनकी कविताई को (हँसने की तरह रोना)
देखने-समझने की कोशिश है विशेष तौर से उनके नब्बे के बाद क्रूरता और अवसरवादी समय में संवेदनशीलता का क्षरण तेजी
प्रकाशित संग्रहों को केंद्र में रखकर। नयी सदी की शुरुआत में ही से हो रहा है। संवेदनविहीन समय में परपीड़न की प्रवृत्ति बढ़ रही
उनका कविता संग्रह ‘चीज़ें कभी नहीं खोयीं (2001) प्रकाशित है। समाज-विरोधी मनुष्य इतना आत्मकेंद्रित है कि वह मृत्यु जैसी
हुआ। इसके बाद 2006 में– ‘हँसने की तरह रोना’ और 2010 कारुणिक स्थिति में भी सुख तलाशता है। मृत्यु के साथ मानवीयता
में ‘घर के बाहर घर’। इसके बाद 2014 में ‘जीवन भी कविता भी मर रही है, उसकी जगह समाज में क्रूरता अपनी जगह बना
हो सकता है’ कविता संग्रह ने विष्णु नागर की कविताओं को रहीं हैं। कवि विष्णु नागर इस प्रवृत्ति को बेबाकी से बयान करते
एक नयी उंचाई दी हालाकि इससे पहले ‘कवि ने कहा’ चयनित हैं। विष्णु नागर अपने समय की नब्ज को पहचान रहे हैं। किस
कविताओं का संकलन प्रकाशित हो चुका था। उनका कवि आज तरह फासिस्टवादी ताक़तें निरंतर नागरिकों को उनके जनतांत्रिक
भी उसी मुस्तैदी के साथ डटा हुआ है जीवन भूमि में। विष्णु नागर अधिकारों से बेदखल कर, प्रतिरोध के हर संभव प्रयास को
की कविताएँ लगातार पैनी और व्यंग्य गर्भी होती गयी हैं। उनकी नेस्तनाबूद कर रही हैं। सत्ता की बढ़ती निरंकुशता और दमनकारी
कविताओं में रोजमर्रा की विसंगतियों की गहरी पहचान है जिसे नीतियों ने आम नागरिक को दोपाये में तब्दील कर दिया है। सत्ता
वह वर्ग-बोध के साथ व्यक्त करते हैं। वह अपनी रचना-प्रक्रिया हर हाल में यही चाहती है कि जनता उनका गुणगान करें। राजा को

320 n जुलाई से सितंबर 2023 yegh


नंगा कहने वाले बालक का साहस ख़तरनाक साबित हो सकता है।
विष्णु नागर की रचनाओं को रघुवीर सहाय की परंपरा में देखा
जा सकता है क्योंकि पत्रकारिता और कविता का जो रिश्ता रघुवीर
सहाय का है वैसा ही रिश्ता विष्णु नागर में दिखाई देता है। कवि
विष्णु नागर को पढ़ते हुए रघुवीर सहाय की कविता संबंधी चिंताओं
को याद करना, उन जैसे प्रतिबद्ध कवियों को पढ़ने में सहायक
हो सकता हैं। वे मानते हैं कि वास्तव में कविता तभी होती है जब
वह बनी बनाई समझ को तोड़ती है और पाठक के साथ मिलकर
उसे फिर से बनाती है-इस बार पाठक में। वह श्रोता या पाठक
को इस बनाने में हिस्सा लेने को उकसाती चली जाती है। अमर
कविताएँ,सब से अच्छी कविता, मैं कोई चिड़िया नहीं, एक दिन
ऐसा आएगा, कला में वाणिज्य, छोटा लड़का आदि कविताओं को
पढ़ कर रघुवीर सहाय की कविता के सरोकार याद आते हैं।
विष्णु नागर की कविता में उपस्थित निम्न-मध्यम वर्ग का
आदमी लगातार अपनी चाल-ढाल, सोचने के तरीके और बातचीत
के अंदाज से हमारे इर्द गिर्द का परिचित आदमी लगता है। जो
बदलते हालात पर हैरान, परेशान होता है और उस पर टिप्पणी
करने से नहीं चूकता। वह अपने दुख-सुख की बात करता, कभी
गंभीर हो जाता हैं तो कभी अपने और अपने आसपास की दुनिया
पर व्यंग्य करता हुआ हँसता है। यह सरल आदमी बौड़म नहीं है।
वह सब देख सुन कर 'हर ग़म को धुएँ में उड़ाता' बर्बर समय के है। इस कविता में कवि की पैनी और सजग दृष्टि राजनीतिक
बड़े से बड़े ख़तरनाक सच को, अख़बार की ख़बरों सा गुज़र जाने शब्दावली के प्रयोग के बिना ही गहरे राजनीतिक संदर्भोंं, आशयों
देता है। ऐसे जाने पहचाने आदमी का कविता में आना, राजनीतिक को स्पष्ट कर देती है। कविता में कई अर्थछवियाँ खुलने लगती हैं
भाषा के प्रयोग के बिना विष्णु नागर की कविता को गहरे अर्थों में और सरल सी दिखने वाली कविता नए धरातल पर ज्यादा सशक्त
राजनीतिक बनाता है। उनकी पहले प्रकशित एक कविता याद आ और अर्थसंपन्न हो जाती है। वह कविता को अंतिम परिणीति तक
रही है-‘दयाराम बा’। इस कविता में वह अपने समय की नब्ज लेकर नहीं जाते- उसे किसी एक बिंदु पर ले जाकर छोड़ देते हैं।
पर उंगली रखते हैं। कैसे अमानवीय सत्ता आम आदमी का जूता जहाँ से कविता सीधे पाठक के मस्तिष्क पर प्रहार करती है। अपनी
ही नही, उसकी टोपी और धोती को भी छीनकर उसे नंगा बना रही बुनावट में ऊपरी तौर पर आसान दिखती हुई यह कविता वस्तुत:
है। निम्न मध्यमवर्गीय व्यक्ति दयाराम बा का एक जूता, टोपी और एक जटिल प्रक्रिया का उदाहरण है।
घोती खोना, अंत में नंगा होने पर वह शर्म के कारण सार्वजनिक विष्णु नागर अपनी कविताओं को अनावश्यक विवरणों और
शौचालय में घुस जाता है। उस जैसे मामूली आदमी को मारने के विचारों की जटिलता से दूर रखते हैं। हालाँकि हिंदी कविता परंपरा
लिए सेना बुलाई जाती है। तब वह खब्ती दयाराम बा नहीं रह जाता में अनेक नए और पुराने कवियों ने इस अंदाज़ को अपनाया है पर
बल्कि वह उस ग़रीब का प्रतीक बन जाता है जो आज़ादी के बाद इनके यहाँ इसके प्रयोग का विज़न और तरीका उन्हें अन्य कवियों
लगातार अभाव, अन्याय, शोषण और ग़रीबी की मार झेल रहा है। से अलग करता है। वे लगातार और निरंतर घटित होने वाली
जो निरन्तर जीवन की बुनियादी जरूरतों से वंचित होता जा रहा है। औसत पीड़ा, त्रासद स्थितियों और दैनिक हिंसा के अलग-अलग
लगभग अस्तित्वहीन जीवन जीता मामूली व्यक्ति सत्ता के दमन पहलुओं को सहजता से चुनते हैं। कविता में उन्हें विशेषीकृत व
का शिकार बन जाता है। अतिरंजित किए बिना अभिधा में अपने बात कह कर पाठक को
साधारण सी लगने वाली ‘दयाराम बा' कविता मामूली उसमें शामिल सा करते हुए नज़र आते हैं, पर ठीक इसी बिंदु पर
जीवनानुभव से कैसे बड़े सामाजिक यथार्थ से जुड़कर, सत्ता की वह झटके से औसत पीड़ा के स्खलन को बचाते हुए पाठक को
क्रूरतापूर्ण दमनकारी कार्यवाही का जीवंत दस्तावेज़ बन जाती उसमें शामिल होने से रोक देते हैं और सोचने के लिए बाध्य कर

yegh जुलाई से सितंबर 2023 n 321


देते है। यह प्रक्रिया आन्तरिक स्तर पर दैनिक तक़लीफों को देखने, से कविता में हल्का सा घुमाव आ गया है। यही वह टर्निग प्वाइंट
समझने और सुनने की क्षमता को बढ़ा देती है- है जहाँ व्यंग्य तत्व का समावेश हो जाता है जिससे कविता की
एक दिन फिर लौटने के लिए अंत: ध्वनि बदल गई और उस में निहित असहजता और जटिलता
गाँव आ जाएगा उभरकर आ जाती है।
फिर आँधी बन लौटने के लिए विष्णु नागर मित कथन में अपनी बात कहने वाले सारवादी
गाँव आएगा कवि हैं। वे कम से कम शब्दों का इस्तेमाल करते हुए पाठक के
मौत आ जाएगी ज़ेहन में लंबी कहानी की जगह बना देते हैं। गिने चुने शब्दों में
शहर की आड़ होगी मुश्किल से मुश्किल हालात को भी बयान करने की क्षमता यह
गाँव छुप जाएगा। साबित करने के लिए पर्याप्त है कि भाषा को लेकर विष्णु नागर
ग़ाैरतलब है कि ऊपर से देखने पर बहुत सरल नज़र आने वाली बेहद सजग और गंभीर रहे हैं। उनका कवि अपनी बात को कहने
कविता की संरचना से असंभव अर्थ ध्वनित होने लगता है तो वह के लिए सार्थक और सटीक शब्द-चयन करता है। कौन सा शब्द
अर्थ अपनी प्रक्रिया में साधारण नहीं होता। कविता में असाधारण कहां उचित है, कहां शब्द की आवृत्ति करनी है, कहां शब्द के
अर्थ के बावज़ूद, वे उसकी मूल संरचना को सुरक्षित रखते। अंतराल से प्रभाव को बढ़ाना है और कहां बलाधात से स्थिति को
कवि स्वयं को दुवन्नी का आदमी मानता है। वह आठ आने सघन बनाना है। किस शब्द को कहां से हटाकर उसके स्थान पर
की कलम से वर्तमान के बारे में लिख रहा है। यहाँ आम व्यक्ति अन्य वैकल्पिक शब्द को रखना है। साथ ही रोजमर्रा के कहे सुने
द्वारा सस्ती सी कलम से लिखना साधारण बात है पर अगली पंक्ति जाने मुहावरों की उपस्थिति पाठक को कविता के इतने क़रीब ले
'वर्तमान के बारे में' यानि भयावह निर्मम वर्तमान को कहने के आती है कि कवि को ज्यादा बोलने की ज़रूरत ही नहीं रह जाती।
साहस में असाधारणता निहित है। पहली और अंतिम पंक्ति के गालिब ने कहा है कतरे में दरिया को देखा जाए,यह विष्णु नागर
बीच संबंध स्थापित करने के लिए ' वह भी' पर बल दिया है। इस की कविता पर सटीक लगता है।
‘जीवन भी कविता हो सकता है’ जैसी बात कहने वाले कवि की
विष्णु नागर मित कथन में अपनी बात कहने कविता के दृश्य- लेख में माँ, स्त्री-लड़कियाँ, प्रेम, नौजवान और
वाले सारवादी कवि हैं। वे कम से कम शब्दों मजदूर– सभी हैं। कवि की प्रतिबद्धता हर तरह से बेदखल लोगों
का इस्तेमाल करते हुए पाठक के ज़ेहन में के पक्ष में सामूहिक आवाज़ बन कर उभरती है। हाशिये के समाज
लंबी कहानी की जगह बना देते हैं। गिने चुने के बलबूते पर तथाकथित सफल लोग तने रहते हैं इस स्थिति को
शब्दों में मुश्किल से मुश्किल हालात को भी पेड़ पर लिखी कविता से समझा जा सकता है- ‘अँधेरे में तुम्हारी
बयान करने की क्षमता यह साबित करने के
जड़ें है /उजाले में /तने रहो,तने रहो।’ पेड़ को प्रकाश में तन कर
लिए पर्याप्त है कि भाषा को लेकर विष्णु नागर
बेहद सजग और गंभीर रहे हैं। उनका कवि खड़े होने के लिए ज़रूरी है जड़ों का अँधेरे से रस खीचते रहना।
अपनी बात को कहने के लिए सार्थक और पेड़ की हरियाली,उसका विकास, उजाला सब अँधेरे के कारण है
सटीक शब्द-चयन करता है। कौन सा शब्द यानि समाज में सफल लोग हाशिये के लोगों के बलबूते पर ही
कहां उचित है, कहां शब्द की आवृत्ति करनी है, तन कर खड़े हैं। बावज़ूद इसके उजाले के शीर्ष पर रहने वाले
कहां शब्द के अंतराल से प्रभाव को बढ़ाना है हाशिये के लोगों को कुछ नहीं समझते। विष्णु नागर की कविताओं
और कहां बलाधात से स्थिति को सघन बनाना से स्पष्ट नज़र आता है कि वह अंतिम पंक्ति में खड़े मनुष्य के
है। किस शब्द को कहां से हटाकर उसके स्थान कवि हैं। करोना काल की विकट स्थितियों में ग़रीबी, अभाव और
पर अन्य वैकल्पिक शब्द को रखना है। साथ विस्थापन झेलते मजदूरों की पीड़ा को कवि 1947 की त्रासदी से
ही रोजमर्रा के कहे सुने जाने मुहावरों की जोड़ देता है–
उपस्थिति पाठक को कविता के इतने क़रीब ‘जैसे आंधी से उठी धूल हो/लोग शहर से गाँव
ले आती है कि कवि को ज्यादा बोलने की चले जा रहे /जैसे1947 फिर आ गयी हो’
ज़रूरत ही नहीं रह जाती। गालिब ने कहा है स्त्री जीवन की विडंबना से जुड़ें अनेक पहलू कवि विष्णु नागर
कतरे में दरिया को देखा जाए,यह विष्णु नागर की कविता मे गहरी करुणा के साथ व्यक्त हुए हैं। उनकी कविता
की कविता पर सटीक लगता है।
बिना किसी दावे के बहुत सहजता से अपने पक्ष को रखती हुई, स्त्री

322 n जुलाई से सितंबर 2023 yegh


की चुप्पी, उसकी पीड़ा, उसके प्रेम को बयान करती है- ‘लड़की
का जागा /बादलों से पुराना प्यार /वह लांघने लगी / दरो–दीवार।’
पुरुष वर्चस्ववादी समाज में तमाम चीज़ों की तरह स्त्री को भी
वस्तु समझा जाता है। उपभोक्तावादी दिमाग में सामाजिक सरोकारों
के बारे में सोचने के लिए जगह ही नहीं है। कवि समाज की
उपयोगितावादी सोच पर प्रहार करता है कि कैसे वह हर रिश्ते को
लाभ हानि के मापदंड से मापता है फिर वह जन्म देने वाली माँ,
पत्नी या गाय हो। बेशर्मी इतनी कि उसे लाचारी बता कर तर्क देता
है– ‘मेरी लाचारी समझिये/ मैं हूँ बड़ा व्यापारी /मैं गाय को माँ न
मानूं /तो क्या अपनी माँ को माँ मानूं / उसकी नहीं है पूछ/वह कैसे
पार कराएगी वैतरणी।’
बराबरी के तमाम दावों के बावज़ूद वह दोयम दर्ज़े का जीवन
जीने के लिए विवश है। वह हर जगह घर हो या बाहर हर प्रकार
की हिंसा का शिकार होती है। उसका जीवन दूसरों की इच्छा पर
निर्भर है कवि ने उस के अर्थहीन जीवन का मार्मिक बयान किया
है–
वह गाय की तरह जी/और गाय की तरह मर गयी
xxx
गाय की तरह उसकी आँखों की कोरें कभी भीगी हुई दिखी/गाय
दृष्टि और निम्न मध्मवर्ग की तक़लीफों का बयान दर्ज़ है जो यथार्थ
की तरह उसे मरने का/कोई पछतावा नहीं हुआ/ गाय की तरह उसे
के बहुरंगी पक्षों की अभिव्यक्ति में स्पष्ट दिखाई देता है। पर कवि
पता नहीं चला कि वह जी रही थी।’
निराशा, हताशा और विलाप की मुद्रा में यथास्थिति को कोसता
स्त्री का वज़ूद पितृसत्तात्मक समाज में निरीह गाय की तरह ही
नहीं है और ना ही मसीहाई अंदाज में क्रांति की झूठी उम्मीद बांधता
है उस के लिए गाय और स्त्री मे ज्यादा फ़र्क नहीं– जो खामोश रह
है। बकौल कवि “...हम कवियों का काम असंभव संभावनाओं की
कर जीवन भर सबके लिए मंगलकामनाएँ करती है और खत्म हो
ओर भी इशारा करना भी होता है। हम जीवन जैसा है, जैसा बना
जाती है। कवि यथार्थ की कटुता में भी बेहतर भविष्य की संभावना
दिया गया है उसकी ताईद तो कतई नहीं करते रह सकते। उसके
की तलाश की इच्छा रखता है। 'संसार बदल जाएगा' काव्य रचना
बाहर, उसके परे भी जीवन है,जीवन हो सकता है होना ही चाहिए
में कवि आने वाले संसार की आज के संसार से तुलना करता है।
उसकी बात शायद यह कविता करती है। वैसे हर कविता के पाठ
कविता खत्म होने पर पाठक के मन में एक ही बात आती है कि
अलग-अलग हो सकते है और ज़रूरी नहीं कि कवि का पाठ
आख़िर यह बदला हुआ संसार कब आएगा। कवि की आकांक्षा
अंतिम माना जाए।” असहिष्णुता और संवेदनहीनता के परिवेश में
का बदला हुआ ‘मानवीय संसार’ कुछ ऐसा है– ‘हाथ होगे बदले
कवि बुलडोजर मानसिकता को पहचानकर उससे सावधान रहने
हुए संसार में सबसे सक्रिय/ वे सब समझ जाएँगे /संसार की मदद
पर बल देता है–‘जब भी देखो मशीन को/इसके पीछे के विचार
में लग जाएँगे/कान, आंखों की/आंखें शरीर की चिकित्सा में लग
को देखो/ वरना हर मशीन जिसे देखकर बुलडोजर का ख्याल
जाएँगी /बदला हुआ संसार/बदले हुए मनुष्यों का संसार होगा/
तक नहीं आता/ बुलडोजर साबित हो सकती है।’ (बुलडोजर
ग़रीबों का ख़ून नहीं होगा/अमीरों का नाम नहीं होगा/ बदले हुए
एक विचार है)। निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि विष्णु नागर
संसार में दर्शक नहीं रह पाएँगे/अभिनेता, अभिनय से वंचित हो
की कविता मनुष्यता के पक्ष में एक मजबूत आवाज़ है। उम्मीद
जाएँगे/ बदले हुए संसार में/ बदला होगा सब कुछ/ यह नहीं कि/
है वह वह ‘वर्चस्व’ के विरोध में खड़े मनुष्य को आगे भी शक्ति
होगा यही कुछ/ मौसम बदल जाएँगे।’
देती रहेगी। n
यहाँ कवि जिस संसार की बात कर रहे हैं उसमें सामान्य व्यक्ति
संपर्क : विष्णु गार्डन, दिल्ली
की हिस्सेदारी की बात है। वस्तुत: इनकी कविताओं में यथास्थिति मो. 919811126554
को बनाए रखने वाली कोशिशों, साजिशों के प्रति सजग और पैनी

yegh जुलाई से सितंबर 2023 n 323


n आयतन : अजय सिंह

यह स्मृति को बचाने का वक़्त है


उषा राय

वह कवि जो शताब्दियों की कराह को आवाज़ देता जीवन की आकांक्षा है जो हर देश के हर नागरिक की


है, उनसे आँखें मिलाने की कुव्वत रखता है। वह होती है- ठीक उसी वक्त अहमदाबाद में कत्लोगारद
कवि जो राष्ट्रपति भवन में सूअर की परिकल्पना मचता है जो बोस्निया हर्जेगोविना के अतीत में हो
करता है। वह कवि जो लाल किले पर लाल सितारा चुके भयानक और बेहद शर्मनाक घटनाओं की याद
माँगता है। वह कवि जो मुकम्मल प्रेम में सहभागिता दिलाता है। यहाँ भी-
की नई ज़मीन रचता है। वह जो जलते गुज़रात और “कोई दया नहीं कोई रहम नहीं कोई सुनवाई नहीं/
भारतीय गणतंत्र का निर्लज्ज सलूक आँखों के सामने बस एक नारा-जय श्रीराम, कोई ज़िन्दा न बचे।”
रखता है और वह जो पितृसत्ता की कैद में स्त्री की आज़ादी की xxx
तड़प को आवाज़ देता है; आइए ऐसे कवि की कविताओं की “टेलीफोन पर दिल्ली से पूछता है कोई/अरे बहुत कम और
काव्यवस्तु और सौंदर्य दृष्टि की परख करते हैं। मारो मारो मारो/जब तक 58 के बदले 5800 न मारे जायें/अपना
कवि अजय सिंह के दो कविता संग्रह गुलमोहर प्रकाशन से आ राजधर्म निभाते रहना प्यारे।”
चुके हैं। फरवरी 2015 में ‘राष्ट्रपति भवन में सूअर’ और दूसरी एक राजनीतिक विश्लेषक के तौर पर अजय सिंह इस तरह
फरवरी 2022 में ‘यह स्मृति को बचाने का वक्त है’ कविता की घटनाओं पर पैनी निगाह रखते हैं। पंकज बिष्ट के संपादन में
की किताब आई। उनकी कविताओं पर वीरेन डंगवाल, मंगलेश निकलने वाली पत्रिका ‘समयांतर’ में उनके लेख बराबर छपते
डबराल, असद जैदी, पंकज बिष्ट, आनंद स्वरूप वर्मा, शीबा रहते हैं। किलवेणमणि, बेलछी, कफल्टा, बथानी टोला, खैरलांजी,
असलम फहमी आदि ने अपने विचार रखे थे। कवि अजय सिंह सोनभद्र आदि इलाकों में हुए जनसंहारों और फर्जी मुठभेड़ों के बारे
कहते हैं- “ओ अनंत वासनाओं! ओ गहरी प्यास! ओ दमित में समय-समय पर वे तीखे सवाल उठाते रहे हैं। कश्मीर तो कभी
आंकांक्षा! धूल भरे अंधड़ की तरह उठो/ओ शताब्दियों की कराह! उनकी आंखों से ओझल हुआ ही नहीं। कविता कहानी उपन्यासों
ताबूत से बाहर निकलो और सजीव आलिंगन बन जाओ।” तो वे की समीक्षाओं में भी उनकी वैचारिकी हमें देखने को मिलती है।
दरअसल उन जकड़बन्दियों को आवाज़ देते हैं जिसे धर्म, राजनीति यह वर्ग लूटपाट और सड़कों पर जिंदा जलाए जाते इंसानों का
और पितृसत्ता मुक्त नहीं होने देती है। उनकी लम्बी कविता है दुर्लभ नज़ारा देखने के पिकनिकी उत्साह से भरा हुआ है। इस
‘खिलखिल को देखते हुए गुज़रात’इसे उन्होंने गुज़रात 2002 कत्लेआम और आगजनी को देखते यह वर्ग यह तो मानता है कि-
के नरसंहार में मारे गए लोगों की स्मृति में लिखा, कौसर बानो ‘जो हुआ वह ठीक नहीं था लेकिन...’ यहाँ एक सुराख है जिसकी
और गीता बेन की स्मृति को समर्पित किया जिन्हें हिन्दुत्ववादी ओर कवि इशारा करते हैं। यह सुराख दिनों दिन बढ़ता जा रहा है।
फासीवादियों ने मार डाला। जिससे यह पता चलता है कि फासीवाद कारण चाहे जो हो। इस तरह की घटनाओं को पूरी ताक़त से दबा
वह दुधारी तलवार है जो उनके साथ जुर्म में शरीक होंगे, उनके दिया जाता है। बोस्निया हर्जेगोविना में जो कुछ हुआ उस पर न
अलावा सब पर चलेगी। इस कविता में बहुत से आत्मीय, वैश्विक अफसोस किया गया न माफी मांगी गई। 2002 की क्रूरताओं के
और ऐतिहासिक संदर्भ हैं जिसकी बात करते हुए वे पूरी ताक़त से बारे में कवि का कहना है कि इस खास कमल से पराग वैसे ही
हस्तक्षेप करते हैं– इस छः अरब लोगों की दुनिया में एक बच्ची झर रहा है जैसे परमाणु विस्फोट के बाद भयावह विकिरण होता
जन्म लेती है जिससे दुनिया कुछ और सुन्दर, सुरीली होती है। यह है। अन्त में‘उनको कभी माफ मत करना’ की बात खिलखिल के

324 n जुलाई से सितंबर 2023 yegh


माध्यम से कवि पाठक की गाँठ में बाँध जाते हैं।
‘देशप्रेम की कविता उर्फ सारे जहाँ से अच्छा...’ कविता की
अजय सिंह जहाँ शताब्दियों की कराह की बात
बहुत ख़ूबसूरत पंक्तियाँ हैं–
करते हैं वहीं घोड़ों के टाप की भी बात करते
“मैं आधा हिन्दू हूँ हैं। यह बात सबसे पहले आती है कविता-
आधा मुसलमान हूँ ‘झिलमिलाती हैं अनंत वासनाएँ’ में जहाँ वे
मैं पूरा हिन्दुस्तान हूँ ” ययाति की चिर तृषा की बात करते हैं। जिसे
जैसा कि वे कहते हैं कि “कहने की ज़रूरत नहीं कि मैं आधी शताब्दी के बाद वसंत के घोड़ों की टापें
कम्युनिस्ट हूँ और कम्युनिज्म की यात्रा का अब तक जो इतिहास दूर जाती हुई सुनाई देती हैं।
रहा है, जिसमें भारत का कम्युनिस्ट आंदोलन शामिल है, उसे मैं
आलोचनात्मक दृष्टि से देखने-समझने की कोशिश करता हूँ।”
मार्क्सवाद उनका जीवन दर्शन है। यही कारण है कि कविता में वे नरसंहारों का ज़िक्र आता है जो सरकार की ठीक नाक के नीचे
राजनीति से साहित्य, साहित्य से राजनीति की ओर छलांग लगाते हैं हुआ। वे कश्मीर और पूर्वोत्तर भारत में तैनात जनता पर अत्याचार
और मद्धिम पड़ते वाम स्वर को हवा देते हैं। कविता ‘लाल सलाम करने वाली सेना, युद्ध के लिए उन्मादी लोग, अंधराष्ट्रवादी तथा
साथी’ जिसे उन्होंने वामपंथी महिला आंदोलन की नेता अजंता जल जंगल ज़मीन के लुटेरों का प्रबल विरोध करते हैं और उनके
लोहित की याद को समर्पित किया है। इस कविता में वे उस सपने राष्ट्रपति भवन में घुसने का निषेध करते हैं।
के बारे में बात करते हैं जिसे अब सुधीजन भूलने लगे हैं या फिर कवि अजय सिंह जहाँ शताब्दियों की कराह की बात करते हैं
उनके झूठे मुखौटे उतरने लगे हैं। ऐसे में अजंता को वे शिद्दत से वहीं घोड़ों के टाप की भी बात करते हैं। यह बात सबसे पहले आती
याद करते हैं– है कविता- ‘झिलमिलाती हैं अनंत वासनाएँ’ में जहाँ वे ययाति की
“क्रांति के सिवा उसकी और कोई चिर तृषा की बात करते हैं। जिसे आधी शताब्दी के बाद वसंत के
महात्वाकांक्षा नहीं थी। घोड़ों की टापें दूर जाती हुई सुनाई देती हैं। ययाति एक पौराणिक
हिंदुत्वादियों व साम्राज्यवादियों मिथकीय पुरुष हैं जो ये मानते हैं कि वासनाएँ अनंत हैं और उनका
का नाश हो शमन नहीं किया जा सकता है। इस मिथक को संयम से जोड़कर
यही था उसका अरमान।” बड़े-बड़े ग्रंथ लिखे गए और अपनी वासना को छोड़ स्त्री की
छद्म वामपंथ की वह घोर विरोधी थीं। और उनका पक्का वासना को नियंत्रित करने का अनंत प्रयास किया गया। यह उसी
यक़ीन था कि– प्रकार था जैसे भिनभिनाती मक्खियों को एक जार में बन्द करने
“मार्क्सवाद से होकर गुज़रता/है रास्ता/महिला मुक्ति का।” की कोशिश। वासना को रोकने की भावना, प्रकृति विरुद्ध चलने
‘राष्ट्रपति भवन में सूअर’ यदि इस शीर्षक कविता की बात के विचारों ने स्त्री को अनंत ताबूतों में दफन कर दिया। स्त्री को
करें तो यह धड़कते लोकतंत्र के विस्तार की कविता है। राष्ट्रपति नियंत्रित करने के मूर्खतापूर्ण प्रयासों ने अंततः सबकी मुक्ति पर
भवन 300 एकड़ ज़मीन पर बना है जिसमें 350 कमरे हैं जहाँ ताला डाल दिया। कविता- ‘कहीं कोई मुक्ति नहीं’में इन्हीं घोड़ों
सिर्फ़ एक व्यक्ति तीन चार लोगों के परिवार के साथ रहता है। वे की टाप उम्मीदों के रूप में आई है-
ये कहना नहीं भूलते कि वह देश का सबसे डरा हुआ नागरिक है। “दूर से घोड़ों की आती हुई
वर्तमान संदर्भोंं में इसे अच्छी तरह समझा जा सकता है। रही बात टाप सुनायी
इसके बड़े होने और कविता में पैराडाक्स रचने की, तो इसे हाल पड़ती है।
की एक घटना से हम समझ सकते हैं। दिल्ली में एक दफ्तर का शायद वे ठंडा पानी तथा हरी-भरी
मुख्यालय बनाने के लिए 1.6 एकड़ में बसे पांच सौ लोगों के घर घाटियाँ ला रहे होंगे।
पर बुलडोजर चला दिया गया और अनगिनत लोग फुटपाथ पर आ अंधड़ के बाद बहने वाली
गए। इस तरह की घटनाएँ हो रही हैं जो अलोकतांत्रिक हैं। इसी शीतल मंद बयार भी
के विपरीत इस कविता में कवि लोकतंत्र का ख़ूबसूरत स्वप्न रचते आ रही होगी
हैं। ऐसी जगह पर किन चीज़ों को और लोगों को रहना चाहिए और उनके संग।”
किन लोगों को नहीं यह साफ कहते हैं। इस कविता में भी उन शायद मुक्तिबोध की ही बात सच है कि ‘मुक्ति के रास्ते अकेले

yegh जुलाई से सितंबर 2023 n 325


नहीं मिलते’। उन घोड़ांे की टापें धीरे-धीरे दूर होती जा रही हैं और रामनाथन का मसौदा प्रस्ताव एक संक्षिप्त बयान” जिसमें वे कहते
उन्हीं के साथ वे तमाम अभीप्सित वस्तुएँ भी जा रही हैं। हैं कि -
अजय सिंह की कविताओं पर बात करना देश में घट रही ‘यदि हिंदी को हिन्दू होने से बचाना है/तो उसे रामचन्द्र शुक्ल
घटनाओं को नए नज़रिए से देखना है। उनकी सहमति और से बचाना होगा/और उन्हें/पाठ्यक्रम से बाहर करना होगा/और नए
असहमति की भावनाओं और विचारों के बड़े फलक से होकर सिरे से लिखना होगा/हिंदी साहित्य का इतिहास।”
गुज़रना है। दूसरे संग्रह की शीर्षक कविता ‘यह स्मृति को बचाने इस कविता में रामचंद्र शुक्ल के प्रति इतनी नाराज़गी क्यों
का वक्त है’ दरअसल उन घटनाओं का कोलाज है जिन्होंने देश दिखाई देती है। दरअसल वे कहना चाहते हैं कि यह हिंदी साहित्य
के जन-जीवन को व्यापक रूप से प्रभावित किया। इन कविताओं के इतिहास का एकांगी नज़रिया है, बहुत सी ऐसी प्रवृत्तियाँ रहीं
के लिखे जाने के आसपास नित नई करवट लेने वाले दो आन्दोलन जिनकी अनदेखी की गई, बहुत से महत्वपूर्ण कवि थे जिन्हें ख़ारिज
चल रहे थे। ‘शाहीनबाग’ जिसे वे नए भारत की खोज कहते हैं किया गया और सबसे बड़ी बात कि हिंदी साहित्य का यह इतिहास
और ‘किसान आन्दोलन’ जिसे वे लोकतंत्र का विस्तार कहते हैं। सवर्ण मानसिकता को पोषित करता हुआ उर्दू विरोध और मुसलमान
इन दोनों ही आंदोलनों को भारी मात्रा में महिलाओं की भागीदारी विरोध पर टिका था। साहित्य समाज और राजनीति के इसी पहलू
के कारण देश भर में काफ़ी समर्थन मिला। ‘करोना महामारी’ आई पर अपनी बात रखते हुए कविता के अंत में वे कहते हैं- “जो मीर
जिसने सबको सबसे अलग कर दिया। इसके पीछे वे उस शातिर गालिब नज़ीर को/हिंदी न कहे/समझो/वो हिंद से बाहर हुआ।”
दिमाग को ढूँढते हैं जो पूँजी की खातिर लूट-खसोट और प्रकृति का कविता के सरोकारों की बात करें तो वह इन्हीं विषयों से होती
शिकार कर रहा है। कवि का गुस्सा कारपोरेट घरानों को लेकर है हुई जीवन की ओर लौटती है। जो मनुष्य और मनुष्य को जोड़े
जिनकी कमाई का ग्राफ प्रति घंटा बढ़ रहा है। ‘कोरोना’ महामारी वही प्रेम चाहिए। ‘राखी के मौके पर एक बहन की पुकार’ कविता
पर लिखी उनकी अलग तरह की कविता है-‘दुनिया बीमारी या में एक मार्मिक बयान है जिसमें सदियों का दर्द उमड़ा चला आता
महामारी से खतम नहीं होगी’ जिसमें वे कहते हैं कि - है। बयान देती हुई स्त्री रोती नहीं है बल्कि हौसला पूर्वक विरोध
“दुनिया बीमारी या महामारी से खतम नहीं होगी/खत्म होगी/ की धमकी देती है। घरेलू हिंसा और ऑनर कीलिंग के सम्भावित
चुंबन व आलिंगन की कमी से/जब दिलों में प्यार/किसी के लिए ख़तरे को भांपती हुई बहन कहती है- “भाई मेरे/मुझे ज़िन्दा रहने
तड़प नहीं होगी/दुनिया के होने की वज़ह नहीं होगी/ दुनिया खत्म देना! जैसे उस भाई ने अपनी बहन को काट डाला/जैसे उस भाई
होगी उस पुकार से/आओ तानाशाह आओ/हमारी आत्मा का ध्वंस ने/अपनी बहन को विधवा बना डाला/वैसा न करना/मुझे घर की
कर दो/जो सारी बुराइयों की जड़ है।” इज्ज़त या निजी जायदाद/न समझना!”
उनकी चर्चित कविता है- ‘हिंदी के पक्ष में ललिता जयंती एस एक बार केवल महिलाओं के चित्रों की प्रदर्शनी लगी थी।
रिर्पोट लिखते हुए संवाददाता अपनी टिप्पणी में लिखती हैं कि-
“पूरी प्रदर्शनी को देखकर मन में यह वाक्य उभरता है कि- ‘आई
जस्ट वांट टु बी वुमेन, आई डोन्ट वांट टु बी समवन्स वुमेन’ (मैं
केवल औरत होना चाहती हूँ,मैं किसी की औरत नहीं बनना चाहती
हूँ) यह आज की औरत है जिसकी सहमति और असहमतियों को
समझने की ज़रूरत है। खासकर उसकी अपनी स्वतंत्रता और
निजता के संदर्भ में, जिसमें उसकी यौन-आज़ादी और चाहत भी
शामिल है। इस संग्रह की तमाम कविताओं में स्त्री के अलग-
अलग रूप और मनोभाव दिखाई देते हैं। ‘मैं’ की शैली में लिखी
कविताओं में कवि भी ख़ूब जूझते हैं। इन कविताओं में दो प्रकार की
स्त्रियाँ हैं एक वह जो लेखक, विचारक और सामाजिक कार्यकर्ता
हैं जैसे-अन्ना अख्मातोव, परवीन अहंगार, कौसल्या बैसंत्री,
सारा शगुफ्ता, अमर शेख, कमलादास, सोनी सोरी, शीतल साठे,
नारायण अम्मा, राधिका वेमुला, फातिमा नफीस आदि कवि उनके
संघर्षों को सलाम करते हैं। दूसरी ओर वे स्त्रियाँ हैं जिनके जीवन

326 n जुलाई से सितंबर 2023 yegh


में दोस्ती, प्रेम, महात्वाकांक्षा के लिए स्थान है। वह विचारधारा में
वाम की ओर झुकी हैं। उनमें नैतिकतावादी शुद्धतावादी मान्यताओं कविता आग नहीं होती लेकिन कवि उससे
के प्रति तीव्र विद्रोह और आज़ादी की आकांक्षा दिखाई देती हैं। आंच का काम लेता है, कविता फूल नहीं होती
यह वही स्त्री है जो अपनी छूटी हुई ऐतिहासिक लड़ाई लड़ लेकिन कवि उससे सुगंध का काम लेता है इसी
प्रकार कवि अपनी कविता ‘प्रेम एक संभावना’
रही है कभी समाज से तो कभी प्रेमी से। एक कविता है ‘प्यार का
में गत्यात्मक बिम्ब ले आते हैं- ‘दौड़ना क्रिया
ट्रक’। इस कविता की स्त्री मंटो के कहानियों के स्त्रियों की याद नहीं/जीवन विधान है उसका गोया कि/वह
दिलाती है जिसमें वह बेधड़क अंदाज में गाली देती है और अटूट फलांगती हुई सीढ़ियाँ चढ़ती है/छलांग लगाती
प्रेम करती है। वह प्रेमी के जालबट्टे वाली बातों पर खरी-खोटी हुई उतरती है।’ यह स्त्री हारने वाली नहीं बल्कि
सुनाने को तैयार रहती हैं। यह स्त्री अपनी यौनिकता की दावेदारी अपनी मुश्किलों का डट कर सामना करने
जताने और अपनी शर्तो पर जीने की बात करती है। वह अपने प्रेमी वाली है।
से बेइन्तहा प्रेम करती है बावज़ूद इसके अपनी शक्की निगाहें इधर-
उधर दौड़ाती रहती है। वह कहती है- ‘सारे मर्दो का तर्क एक जैसा
होता है/वे औरत की आज़ादी निजता को बर्दाश्त नहीं कर सकते।’ कि आज की स्त्री स्वयं सक्षम है। वह इस बात को सिरे से नकारती
‘सुन्दर औरत की मुश्किल’ कविता की स्त्री अपनी प्रतिभा, है कि औरत मर्द की छाया है। उसके भीतर प्रेम का भरोसा हर हाल
बौद्धिकता और सुन्दरता के प्रति सजग और सावधान है। स्त्री को में जीवित रहता है। उसे विश्वास है कि प्रेम लौटकर फिर आएगा
पालतू बनाने की साजिशों को वह ख़ूब पहचानती है। फासीवाद, वह कहती है- ‘जैसे कड़ियल चट्टानों के बीच से/नन्हीं हरी दूब
अमेरिकी साम्राज्यवाद, ब्राह्मणवाद से उसे तीखी नफ़रत है, इसके बाहर झांकती है/वैसे ही प्रेम झांकेगा/और मुझे ढूँढ लेगा।’
ख़िलाफ़ वह नारा लगाना चाहती है। बराबरी का दावा करती हुई ‘प्रेम एक पड़ाव’ की स्त्री वह जागी हुई स्त्री है जिसमें सौंदर्य
यह स्त्री अपनी सेक्सुआलिटी के बारे में फक्र से बात करती है। है, यौवन का आवेग है वह आज़ाद-ख्याल है और इसकी हिफाजत
‘वह सुंदर औरत/सुंदर औरत के बारे में बने सारे मिथ/को ध्वस्त करना भी ख़ूब जानती है। ये स्त्रियाँ स्वयं से प्रकृति और ज़िन्दगी
करती हुई/सुंदरता का जनवाद रचती है।’ से प्रेम करती हैं। ये साहित्यकार, संस्कृतिकर्मी, थियेटर आर्टिस्ट,
कविता आग नहीं होती लेकिन कवि उससे आंच का काम लेता मॉडल, अभिनेत्री और अन्य कलाओं में दक्ष हैं। उनके तार्किक
है, कविता फूल नहीं होती लेकिन कवि उससे सुगंध का काम लेता और सशक्त विचारों को कवि ने संवेद और आवेग से सहेजा है।
है इसी प्रकार कवि अपनी कविता ‘प्रेम एक संभावना’ में गत्यात्मक प्रेम की कविताओं में स्त्रियों के जो रूप इस कविता संग्रह में देखने
बिम्ब ले आते हैं- ‘दौड़ना क्रिया नहीं/जीवन विधान है उसका गोया को मिलते हैं वे आधुनिक,मनोहारी तो है ही अन्यत्र दुर्लभ भी हैं।
कि/वह फलांगती हुई सीढ़ियाँ चढती है/छलांग लगाती हुई उतरती उनकी सशक्त कविता है-‘मर्द खेत है औरत हल चला रही है’।
है।’ यह स्त्री हारने वाली नहीं बल्कि अपनी मुश्किलों का डट कर इस कविता को पढ़ते हुए यह बात स्पष्ट होती है कि पितृसत्ता का
सामना करने वाली है। ‘पुराने ढंग की प्रेम कविता’ में भी ढेर सारे सवाल केवल संस्कृति से ही नहीं बल्कि राजनीति और अर्थव्यवस्था
गत्यात्मक दृश्य हैं जिसमें स्वाद है सुगन्ध है उनके बीच कविताएँ से भी जुड़ा हुआ है। उनका कहना है कि सभ्यताएँ केवल नदियों
हैं। उनमें एक दूसरे के लिए बेकरारी और चाहतें हैं। जैसे- के किनारे ही नहीं पलीं बल्कि औरतों की गोद में भी पलीं बढ़ी हैं।
“मैं चाहता हूँ/सारी रात/तुम्हारे साथ/पैदल शहर को नापूं’, ‘जब से धान की खेती शुरू हुई/औरतें खेती किसानी करती आयी
वयस्क स्त्री-पुरुष का यह प्रेम आकर्षित करता है। एक स्वस्थ हैं/लेकिन औरतों को किसान नहीं माना गया/ज़मीन का पट्टा उनके
लोकतंत्र में ऐसे प्रेम के लिए जगह होनी चाहिए। नाम नहीं रहा/खेत का मलिकाना उनके नाम नहीं रहा/हमेशा
“प्रेम एक बुरा सपना’ और ‘महान प्रेम का अंत’ कविता में ‘किसान भाई’ कहा जाता रहा/‘किसान बहन’ कभी नहीं/जबकि
प्रेम की विडंबना दिखाई देती है। स्त्री प्रेम में सहज नहीं हो पाती। औरत ही दुनिया की पहली किसान रही है। इस कविता में वे याद
प्रेम और प्रेमी के संभावनाओं के बावज़ूद ऐसी अनेक बातें आती हैं दिलाते हैं कि मातृसत्तात्मक व्यवस्था का सुनहरा दौर आए या न
जिसके कारण दोनों के ही विचारों और दिनचर्या में उदासीनता भर आए लेकिन सत्ता और सम्पत्ति पर कब्जे का सपना औरतों को नहीं
जाती है। असफल प्रेम कटुताओं का अंबार छोड़ जाता है। कविता छोड़ना चाहिए। n
संपर्क : 65 आवास विकास कॉलोनी,
की स्त्री प्रेम की महानता को मोम की तरह गलते हुए देखती है,
मॉल एवेन्यू, लखनऊ
और धीरे-धीरे ब्रेक-अप की तरफ बढ़ने लगती है। वह मानती है मो. 7897484896

yegh जुलाई से सितंबर 2023 n 327


n आयतन : भगवान स्वरूप कटियार

कविता में ‘निश्छलता की कला’


कौशल किशोर

भगवान स्वरूप कटियार हिंदी कविता के क्षेत्र में कविताएँ लिखीं जो इस संग्रह में शामिल हैं। ये
1970 के दशक के पूर्वार्ध में प्रवेश करते हैं। यह दौर शुरुआती कविताएँ हैं जिनके माध्यम से सत्तर के
है जब ‘आज़ादी से मोहभंग’ और ‘व्यवस्था विरोध’ दशक के युवा आक्रोश तथा बदलाव और विद्रोह की
कविता का मुख्य स्वर था। इनकी कविताओं में यह भावना सामने आती है। यह 1970 का दशक यानी
युवा आक्रोश और विद्रोह के रूप में व्यक्त होता है। जेपी आन्दोलन का दौर है।
उनका पहला संग्रह ‘विद्रोही गीत’ नाम से आया। इस तरह भगवान स्वरूप कटियार ने पांच दशक
अपने कवि के नाम के साथ ‘विद्रोही’ उपनाम का से अधिक की काव्य यात्रा की है। इस दौरान कविता
जोड़ना इसी आक्रामक तेवर की अभिव्यक्ति है। संग्रह की भूमिका राजनीतिक होने के साथ-साथ सामाजिक और सांस्कृतिक हुई
भी प्रसिद्ध क्रांतिकारी रामकृष्ण खत्री ने लिखी है तथा यह यशपाल है। कवि के अनुभव संसार का विस्तार हुआ है और कविता में
जी को समर्पित है। अपनी कविताओं में ‘आज़ादी’ और ‘लोकतंत्र’ कलात्मकता, वैचारिक गहराई और संवेदनात्मक सघनता आई
पर सवाल उठाते हुए वे कहते हैं - है। ‘विद्रोही गीत’ मिलाकर भगवान स्वरूप कटियार के अब
‘प्रसव की पीड़ा को सहते हुए तक छ कविता संग्रह आ चुके हैं। ये हैं ‘जिंदा कामों के नाम’
भारत माँ ने जन्म दिया (1998), हवा का रुख़ टेढ़ा है (2004), ‘मनुष्य विरोधी समय
आज़ादी को।... में’ (2013), ‘अपने-अपने उपनिवेश’ (2017) और समय का
आज़ादी का नवजात शिशु कैद हो गया चेहरा (चयनित कविताओं का संग्रह, 2019)। संप्रत्ति, उनका
मंत्रालयों और सचिवालयों की फाइलों में। लिखना निरंतर जारी है और वर्तमान की दरपेश चुनौतियों से जूझते
हमारी झोपड़ी का द्वार खुला है हुए ‘लिखने को बदलना होगा लड़ाई में’ जैसे भाव-विचार के साथ
आज़ादी की प्रतीक्षा में। वे नए संग्रह की तैयारी में जुटे हैं।
उसके अभिनंदन के लिए हम आतुर हैं भारतीय आज़ादी ने संविधान दिया। संविधान से लोकतंत्र
आज़ादी आएगी/मगर कब?’ आया। प्रजा से लोग नागरिक बने। उन्हें अधिकार मिला। लेकिन
और : संसद और राजनीति के पतन पर कवि की निग़ाह है। उसकी नज़र
‘लोकतंत्र? में यह लोकशाही नहीं तानाशाही है। उल्लेखनीय है कि कटियार
एक पद्धति या व्यवस्था? जी जिस यथार्थ को आठवें और नौवें दशक में ले आते हैं, वह
या कुर्सी का पर्याय? वर्तमान की क्रूर सच्चाई के रूप में हमारे सामने है। इस दौर की
या लूट की छूट?... अनेक कविताओं में यह यथार्थ व्यक्त हुआ है। उसके चंद नमूने
आख़िर क्या है आपका लोकतंत्र?’ हम देखें। वह कहते हैं-
गांधीवाद को लेकर कटियार जी का कहना है ‘अहिंसा के ‘आज़ादी
पुजारी तुम्हारे देश में अहिंसा रो रही है/तुम्हारे मरते ही तुम्हारा उनके लिए लूट
सत्य भी मर गया’। कटियार जी को अब गांधीवाद से नहीं लेनिन और अराजकता का महोत्सव है
और भगत सिंह की विचारधारा से उम्मीद है। इसे लेकर उन्होंने जनतंत्र में जन मर गया है

328 n जुलाई से सितंबर 2023 yegh


सिर्फ़ तंत्र बचा है
और आज़ादी उस तंत्र की गिरफ्त में
बेबस शिकार की तरह
सिसक रही है मुक्त होने के लिए’
कटियार जी की कविता शोषकों, उत्पीड़कों, तानाशाहों के
विरुद्ध सामाजिक बदलाव का एक हथियार है। उन्हें इस पर भरोसा
है। कहते भी हैं ‘कविता थकने का नहीं लड़ने का नाम है/सच जब
थक जाएगा लड़ते-लड़ते/अकेला निहत्था सच/जब फँस जाएगा/
झूठ के रचित चक्रव्यूह में/....कविता तब भी जिंदा रहेगी मेरे पास’।
कटियार जी ‘अँधेरे का सच’ उजागर करने वाले कवि हैं और उनकी
कविता ‘एक सजग प्रहरी’ की तरह सामने आती है : ‘इतिहास/
अरबपति नहीं रचते हैं/किंतु मौज़ूद रहते हैं/इतिहास में खलनायक
के रूप में।” कविता इस सचाई से रू-ब-रू कराती है कि यही
खलनायक ‘मुख्यधारा’ में हैं। वह नायक बना है। उसके मूल्य ही
समाज के मूल्य बन गए हैं। इसीलिए कवि का संघर्ष ‘मुख्य धारा
के विरुद्ध’ है। उसके अन्दर ‘संवेदनाओं के मरने का दर्द’ है। वह
‘आदमी के ख़ुदगर्ज़ होने के खिलाफ’ है। उसके भीतर ‘बेहतर
दुनिया के लिए’ स्वप्न है। यह कवि का संघर्ष है जो शिशु के साथ
संवाद में व्यक्त होता है : ‘ओ शिशु, उस नयी दुनिया के बनने
का/इंतजार करो/वहाँ तुम्हारी ख़ूबियाँ जगह पा सकेंगी/फल-फूल
सकेगी तुम्हारी इंसानियत/और तभी/चूम सकूंगा तुम्हें प्यार से’।
बीसवीं सदी के अंतिम दो-तीन दशक क्रांतियों का ही नहीं
प्रतिक्रांतियों के भी दौर हैं। इस दौरान सोवियत समाजवादी व्यवस्था कटियार जी वक्त की जटिलताओं-विसंगतियों से जूझते हैं और
का पतन हुआ। अमरीका के नेतृत्व में एक ध्रुवीय नवउदारवादी उसे अपने कविता का विषय बनाते हैं। वे दुनिया की तस्वीर
विश्व व्यवस्था लागू हुई। भारत में बाबरी मस्जिद ध्वंस के द्वारा बदलना चाहते हैं। उनका संघर्ष और स्वप्न ‘अन्याय मुक्त/
दक्षिणपंथी-सांप्रदायिक शक्तियों के संगठित होने तथा 2002 में उत्पीड़न मुक्त विश्व समाज’ के लिए है। इसे आगे के कविता
गुज़रात नरसंहार की घटना से फासीवाद की राजनीतिक दावेदारी संग्रह ‘मनुष्य विरोधी समय में’ और ‘अपने-अपने उपनिवेश’ की
मजबूत हुई। सांप्रदायिक राष्ट्रवाद के उभार ने लोगों के बीच कविताओं में सघनता और व्यापकता मिलती है। कविता ‘अच्छी
अविश्वास और विभाजन को बढ़ाया। आतंकवाद ने दुनिया में किस्मत के दिन’ से समय की शिनाख्त शुरू होती है। कैसा है
अपना पैर पसारा जिसकी परिणति वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर हमले में हुई। यह समय? जो तस्वीर उभरती है, वह क्रूर और भयावह है। वह
यह दौर समाजवादी-जनवादी रूपांतरण के लिए संघर्ष करने वालों ‘खौफ़नाक हादसों’, ‘विस्फोट’ से भरी है। हवा में जहर फैला
के लिए एक धक्का है। इसे कटियार जी कविता में ‘बुरे वक्त’ है। लोकतंत्र के आवरण में तानाशाही का शासन चल रहा है।
के रूप में चिन्हित करते हैं। यह उनके चिंतन की सकारात्मकता तानाशाह के सिपाहियों ने बस्ती को घेर रखा है। वे जिस वेश में हैं,
व द्वंद्वात्मकता है कि वे इस विपरीतता में भी आगे बढ़ने की राह उसमें पहचानना मुश्किल है। यह विभ्रम पैदा करने वाली स्थिति
निकालते हैं। वे कहते हैं- है। वह मानव जीवन की छोटी छोटी खुशियों, उल्लास को अपना
‘यही सही वक्त है ग्रास बना रहा है, प्रेम की कोमल भावनाएँ रौंदी जा रही हैं। ‘खौफ़
बुरे वक्त में के साये में है प्रेम’ जिसका गवाह है नीम का पेड़ और ज़मीन पर
कम से कम गिरी पीली पत्तियाँ जहाँ ‘कुछ दिन पहले/इसी पेड़ से लटका कर/
हम एक होकर एक प्रेमी युगल को/दी गई थी फांसी/जबकि उनका धर्म एक था/
लड़ना सीखें सिर्फ़ जाति अलग थी’। जाति और धर्म ने मनुष्य मनुष्य के बीच

yegh जुलाई से सितंबर 2023 n 329


किस तरह का विभाजन पैदा किया है और खाप पंचायतों ने इसे ही कविताएँ हैं। शहीद छात्र नेता चन्द्रशेखर को याद करते हुए और
संस्थागत रूप प्रदान किया है, कविता इस हक़़ीकत का बयान मानवता के संघर्ष की प्रेरणा लेते हुए वे कहते हैं-
करती है। ‘दिनदहाड़े सीवान की सड़क पर
कटियार जी की नज़र में भले ही यह मनुष्य विरोधी और बहे हुए तुम्हारे ख़ून से
नाउम्मीदों से भरा समय है लेकिन उनकी कविताओं में उम्मीदों युवा होने का जज्बा
को न छोड़ने और चुप्पी तोड़ने की ज़िद है। कवि को सोचने, पैदा करना चाहता हूँ
लिखने और बोलने की ताक़त पर भरोसा है। शब्दो पर यक़ीन ताकि हथियारबन्द हत्यारों के गिरोहों,
बढ़ता गया है। ‘फ़र्क’, ‘अभिव्यक्ति’ आदि अनेक कविताओं में भुखमरी और युद्धों के बीच
अपने यक़ीन को कुछ यूँ व्यक्त किया हैः ‘लिखे जाने से/भले ही हम रच सकें
उतना फ़र्क न पड़ता हो/पर न लिखे जाने से/बहुत फ़र्क पड़ता है/ उम्मीद और सर्जना के गीत
जैसे बोलने से उतना फ़र्क न पड़ता हो/पर चुप्पी तो प्रतिरोध का और जीवन का नया सौंदर्य शास्त्र।’
निषेध है’। वे मानते है कि सच कहना जोख़िम भरा है। उसके कटियार जी के लिए सीमा आजाद दमन-उत्पीड़न के विरुद्ध
ख़तरे हैं। अभिव्यक्ति पर पहरा है। फिर भी जानते हैं कि ‘मेरा प्रतिरोध की नायिका है, और यह संकल्प है कि दमन के विरुद्ध
बोलना/सदियों से कैद/किसी आवाज़ का मुक्त होना है’। कटियार टिके रहना है, आगे बढ़ना है। इसके लिए संगठित होना और रहना
जी सोचने, लिखने और बोलने को मुक्ति की सांस्कृतिक कार्रवाई ज़रूरी है। इसी प्रक्रिया में हम फौलाद बनेंगे। वे कहते हैं ‘हम
मानते हैं। उनका यक़ीन सिर्फ़ शब्दों पर ही नहीं है बल्कि मुक्ति फौलाद के गीत गायेंगे/दुनिया फौलाद की बनी है/और हम फौलाद
के लिए संघर्षरत लोगों पर भी है। वे कहते हैं ‘इस क्रूर समय के की संताने हैं’। कटियार जी कविता के जिस सौंदर्य की रचना करते
पेट में/कोहनियाँ गड़ाते हुए/मनुष्य अपने आने का/ रास्ता बना हैं, वह जीवन और संघर्ष के बीच ही सृजित होता है। वे समाजवादी
रहा है’। इसी रास्ते से मनुष्य को, उसकी गरिमा व ग़ाैरव को तथा विचारक रामस्वरूप वर्मा, लेखक व पत्रकार अनिल सिन्हा, दलित
उसके कोमल प्रेम और आज़ादी को बचाया जा सकता है। इस तरह छात्र रोहित वेमुला आदि को याद करते हैं। ये मात्र श्रद्धांजलि नहीं
कटियार जी प्रतिरोध रचते हैं और भले ही यह हताशा-निराशा या है बल्कि कविता के माध्यम से उनके व्यक्तित्व को सामने लाने
कहिए नाउम्मीदी का दौर हो पर वे उम्मीद पैदा करते हैं। इसलिए की कोशिश है। रोहित वेमुला को जिन हालातों में आत्महत्या करने
कि विपरीतताओं से संघर्ष करके ही मनुष्य आगे बढ़ा है। नये को बाध्य किया गया, कटियार जी ‘टूटना एक तारे का’ कविता में
सृजन का नियम भी यही है। अपनी एक छोटी कविता ‘सर्जना’ में न सिर्फ़ इसका विरोध करते हैं बल्कि इस ‘संभावनाहीन समय में
वे कहते हैं ‘हमें/यह नहीं भूलना चाहिए/कि इतिहास और बच्चा/ एक बड़ी संभावना’ के रूप में उसे देखते हैं।
सदैव ख़ून में/सन कर ही/पैदा होते हैं’। मानव इतिहास यही रहा कटियार जी विचार के कवि हैं। यह उनके सृजन में अंतर्धारा
है। कविता की यही इतिहास दृष्टि है। के रूप में काम करता है। वे प्रगतिशील विचारों में सर्वाधिक
कटियार जी ऐसे कवि हैं जो न सिर्फ़ अतीत से शक्ति पाते अग्रगामी विचार को ग्रहण करते हैं और इसे अपने जीवन-व्यवहार
है बल्कि उन लोगों के साथ भावनात्मक जुड़ाव महसूस करते में आत्मसात करते हैं। उनके यहाँ जो निजी है, उसका सामाजिक
हैं जिन्होंने समाज, राजनीति और साहित्य की दुनिया में अपना आधार है। वहीं, सामाजिक संघर्ष और सरोकार की ज़मीन निजी
महत्वपूर्ण योगदान किया है। वे सामाजिक बदलाव के संघर्ष के अनुभव व जीवन है। यहाँ कोई फांक नहीं है। अपनी कविता में
नायकों से प्रेरित हैं जिन्होंने अपने विचार व कर्म को मानवता की वे आत्मीय और स्नेहिल दुनिया रचते हैं जिसमें मां, पिता, दादी,
मुक्ति के लिए समर्पित किया है, अपनी शहादतें दी हैं। ऐसी कई नातिन आदि हैं। उनके कोठार में ऐसी अनेक कविताएँ हैं जिनमें
कविताएँ कटियार जी के पहले संग्रह से लेकर उनके नवीनतम संबंधों की उष्मा को महसूस किया जा सकता है। ऐसी ही एक
संग्रह में हैं। यह इस बात का उदाहरण है कि कवि की स्मृति कविता है ‘एक भोर की याद’। यह बूढ़ी दादी के साथ संवाद है,
तथा मानस लोक में ऐसे लोग भावनात्मक रूप से रचे-बसे हैं। उनकी नेक सीखें हैं। जब भी कवि अपने गाँव के महुए का पेड़
‘कवि की शहादत’, ‘एक घुमन्तू आदमी का हलफनामा’, ‘कार्ल देखता है, उसमें उसे दादी का चेहरा दिखता है और उसके साथ
मार्क्स’, ‘हेमिंग्वे के प्रति’, ‘मसीहा की आवाज़’, ‘हम फौलाद जुड़ी यादें ताजा हो जाती हैं।
के गीत गायेंगे’, ‘शहादत की प्रतिध्वनि’, ‘अभिमन्यु फिर छला स्त्रियों पर लिखी कविताओं पर विशेष चर्चा की जानी चाहिए।
गया’, ‘तहरीक चौक से आस्था महफूज की आवाज़’ आदि ऐसी ये नये धरातल पर रची गई हैं। यहाँ स्त्री पीड़ा, उसका संघर्ष तथा

330 n जुलाई से सितंबर 2023 yegh


उसके पारिवारिक रिश्ते, संबंधों के जो ताने-बाने हैं, उससे कविता
बाहर निकलती है। कटियार जी तर्क व विचार के साथ स्त्री प्रश्नों
को उठाते हैं। जैसे उनकी कविता ‘प्रेम का तर्क’ को हम देखें।
कविता का आरम्भ होता है ‘कोई मुझसे/ईश्वर और स्त्री के बीच/
चुनाव करने को कहे/तो मैं स्त्री को चुनूंगा/क्योंकि स्त्री प्रेम है/
ईश्वर आस्था’। कविता आस्था के स्थान पर यथार्थ के पक्ष में
खड़ी होती है। कटियार जी ‘स्त्री का लोकतंत्र’ ऐसा रचते हैं जो
समानता व स्वतंत्रता पर आधारित है। वे घर बनाते हैं जिसमें इन्हीं
मूल्यों की पक्षधरता है। स्त्री को लेकर कटियार जी की कविताएँ
जिन मूल्यों को स्थापित करती हैं, वो आज़ादी और समानता के
मूल्य हैं। स्त्री मुक्ति को भी इन्हीं मूल्यों के साथ वे जोड़कर देखते
हैं तथा आपसी रिश्ते में भी इन्हीं मूल्यों की स्थापना है।
कटियार जी की कविता के विविध रंग हैं पर इनमें सबसे चटक
रंग है ईमानदारी और प्रेम का। इनकी चर्चा न की जाए तो इनकी
कविता पर बात अधूरी रह जाएगी। ऐसे समय में जब छल, छद्म,
धूर्तता व अवसरवाद मूल्य के रूप में स्थापित किया जा रहा हो,
ईमानदार होना किसी बुराई से कम नहीं है। वे कहते हैं : ‘ईमानदार
होना उतना ही ख़तरनाक है/जितना उसका महत्वपूर्ण होना’। यहाँ
ईमानदारी मूल्य है जिसे लड़कर ही हासिल किया जा सकता है।
जो इसके पक्ष में हैं उन्हें लड़ना ही होगा और कवि स्वयं इस संघर्ष
में शामिल है। तभी तो वह कहता है : ‘मैं लड़ रहा हूँ/वह लड़ाई
जिसे/हर ईमानदार आदमी को/जीतना अभी बाकी है।’ कविता
और प्रेम इस लड़ाई के हथियार हैं। इनके लिए ‘कविता प्रेमगीत
होती है’। ये दोनों ‘ज़िन्दगी के हथियार’ हैं। यदि ज़िन्दगी को
बचाना है तो कविता और प्रेम दोनों को बचाना होगा। वे कहते हैं :
‘प्रेम है इसलिए जीवन है... कटियार जी की कविताओं के संबंध में आलोचक प्रणय कृष्ण की
सोचो प्रेम के बिना जीवन कैसा होता टिप्पणी ग़ाैरतलब है। वे इनकी कविता में ‘निश्छलता की कला’
नीरस.....मुर्दा देखते हैं। उनका यह कथन उचित जान पड़ता है क्योंकि छल व
जीवन को बचाने के लिए ज़रूरी है प्रेम को बचाना प्रपंच के इस ‘बौद्धिक’ दौर में यह कला लुप्त होती जा रही है।
जो विलुप्त होता जा रहा है प्रतिदिन कटियार जी इस कला को जिलाते हैं जहाँ क्रूर व अमानवीय समय
आपसी रिश्तों और व्यवहार में।’ के प्रति आलोचनात्मक विवेक है, वहीं संवेदनात्मक धरातल पर
कटियार जी ऐसे कवि हैं जहाँ आलोचक की भूमिका सीमित है। गहरी आत्मीयता है और सोच व विचार के स्तर पर साफ दृष्टि है।
कुछ विद्वानों का मत है कि कविता जितना कहती है या अभिव्यक्त इस दौर में जब समकालीन हिंदी कविता अबूझ व अपठनीय हुई
करती है, उससे अधिक वह छिपाती है या वहाँ अव्यक्त रहता है। है और कविता के कलावादी होने की बात कही जा रही है बल्कि
कहने का आशय है कि कविता में पाठक के लिए सोचने-विचारने मेरी नज़र में वह ज्यादा ही कलाविहीन व कांतिविहीन हुई है, ऐसे
के लिए कुछ गुंजाईश हो। कटियार जी की कविताएँ इस मत में कटियार जी की कविताएँ अपने कथ्य में ही नहीं बल्कि हिंदी
का खण्डन करती हैं। वह अपने कथ्य और रूप दोनों स्तर पर कविता-कला में भी उम्मीद पैदा करती हैं। n
अत्यंत साफ, स्पष्ट, पारदर्शी तथा संप्रेषणीय हैं। इसीलिए इनके संपर्क : एफ-3144, राजाजीपुरम,
लिए किसी व्याख्याकार की आवश्यकता नहीं है। यदि हम इन्हें लखनऊ-226017
जानना-समझना चाहते हैं तो इसके टूल्स भी कविता में ही मिलेंगे। मो. 8400208031

yegh जुलाई से सितंबर 2023 n 331


n आयतन : संजीव बख्शी

जीवन और राग का सांगीतिक तादात्म्य


नीलाभ कुमार

संजीव बख्शी की कविताओं को पढ़ते समय सायास किए जाने वाले प्रयत्न को जगह दी जाती है। कैसे
विनोद कुमार शुक्ल की कविताओं की याद हो आती गाँव को हड़पना है कि गाँव को यह आभास भी न
है। कहीं ऐसा प्रतीत होता है कि संजीव बख्शी की हो कि उसका अंत किया जा रहा है। गाँव को हड़पा
कविताएँ उनकी छाया हैं, तो कहीं ऐसा भी महसूस जाए, लेकिन उसे महसूस यह करवाया जाए कि इसमे
किए जाने के लिए उत्प्रेरित करती हैं ये कविताएँ उसका ‘विकास’ निहित है। विकास के इस भंवरजाल
अलहदा हैं, इन्हें विनोद कुमार शुक्ल की परंपरा में में वह आसानी से फंस सके इसके लिए चहुंदिश
में रखकर देखा जा सकता है। एकबारगी कविता- कार्य योजना निर्मित की जा रही है। इसी कार्य योजना
संग्रह के नामों को देखने से यह बात और दृढ़तर होती चली जाती का हिस्सा मनुष्य को ‘कमोडिटी’ बन जाने तक की प्रक्रिया में इस
है कि चाहे विनोद कुमार शुक्ल की छाया हो या उस परंपरा को कदर निमग्न किए जाने की साजिश रची जा रही है कि वह अपने
आगे बढ़ाने वाली कविताएँ हों, उनका असर तो संजीव बख्शी की असल रंग से महरूम होता चला जा रहा है। नदियों, पर्वतों-पठारों,
कविताओं पर है। संजीव बख्शी का चौथा काव्य-संग्रह ‘सफ़ेद से झीलों-तालाबों का रंग भी ‘कमोडिटी’ की इसी प्रक्रिया में छीजता
कुछ ही दूरी पर पीला रहता था’ विनोद कुमार शुक्ल का काव्य- चला जा रहा है। आसमान नीला होने से डर रहा है, मनुष्य अपनी
संग्रह ‘वह आदमी चला गया नया गरम कोट पहनकर विचार की मनुष्यता के रंग से हिगराता चला जा रहा है। हरेक रंग के खरीददार
तरह’ की याद करा जाता है। कीमत लिए सामने खड़ा दिखाई दे रहा है। सारी चीज़ें कीमत से
2023 में संजीव बख्शी का पाँचवाँ काव्य-संग्रह ‘उनके मापी जा रही हैं। कीमत के रंग में लिपटा हरेक मूल्य अपने असल
अंधकार में उजास है’, अंतिका प्रकाशन से प्रकाशित हुआ है। इस को छोड़कर चला जा रहा है। कहाँ जा रहा है, किधर जा रहा है-
संग्रह की कविताओं को पढ़ने के बाद ऐसा समझ में आता है कि इसकी भनक यदि इन वर्चस्वशाली शक्तियों को है भी तो वह दूसरे
उनकी कविताओं के ‘शेड्स’ में कई तरह के रंगों को उकेरे जाने को इसका एहसास तक नहीं होने देना चाह रही है। उपभोक्ताओं
के लिए कई कूचियों का भी इस्तेमाल किया गया है। जिन रंगों को को कमोडिटी बनते जाने की प्रक्रिया में इतना तो उपभोक्ताओं के
उकेरे जाने के लिए जिस कूची की ज़रूरत कवि को महसूस होती लिए आवश्यक जान ही पड़ता है कि उसे बाज़ार के रंग से परिचित
है, उसका वे इस्तेमाल कर लेते हैं। पूंजीवादी शक्तियों की हड़प होने की आवश्यकता है। बाज़ार के छद्म की भाषा को समझने
नीति को व्याख्यायित करने के लिए वे अपनी कविता ‘खसरा की ज़रूरत है। हमें यदि एक की ही ज़रूरत है, तो हम एक से
पाँचसाला’ के ग्यारहवें अध्याय में बड़ी संजीदगी और सहजता से अधिक न चाहते हुए भी क्यों खरीद लाएँ? यह तो बाज़ार का छद्म
अपनी काव्य भाषा को उकेरते दिखाई देते हैं। वे लिखते हैं- “बाहरी है, जो अपने लाभ-लोभ की चाशनी में इस कदर डुबो रखा है कि
आदमी गाँव आता है/ सागौन की लकड़ी चाहिए/ कोई खदान लेना उपभोक्ता वर्ग उस चाशनी में बिना डूबे निकल न पाये। बाज़ार
चाहता है/ या उद्योग लगाना है/ कोई ज़मीन की दलाली में है/ अपनी इस नीति को लागू करने में बहुत हद तक सफल भी होता
खैरियत पूछने कम ही आता है कोई।” पूंजीवादी शक्तियों की हड़प दीख रहा है। बाज़ार के रंग बहुविध, बहुवर्णी किस्म का होता है।
नीति में खैरियत को जगह नहीं है, न ही उनके पास इतना समय यदि बाज़ार के इन बहुविध रंगों के बारे में जानकारी नहीं होगी,
है कि वे खैरियत को जगह दे सकें। वहाँ तो गाँव को हड़प जाने तो पता भी नहीं चल पाएगा कि दरअसल बाज़ार का असल रंग
की पूरी योजना को मूर्त रूप प्रदान करने के लिए दिन-रात एक क्या है? इस स्थिति में यह तय कर पाना भी मुश्किल हो जाएगा

332 n जुलाई से सितंबर 2023 yegh


कि उपभोक्ता वर्ग की सोच सही है या बाज़ार में पसरा बहुवर्णी तादात्म्य दोनों को ऊँचाइयाँ प्रदान करने में सहायक होती हैं।
रंग, जिसे बाज़ार की शक्तियों ने बड़े रंग-रोगन से परोसने का हिंदी पद्य-साहित्य में इसका सबसे प्रबल उदाहरण भक्तिकालीन
काम किया है और लगातार करता जा रहा है। कवि अपनी कविता कविता है, जिसका गहरा तादात्म्य संगीत से है। इसकी वज़ह से
‘मोहल्ले की दुकान’ में जब यह लिखते हैं, तो उक्त स्थिति का ही भक्तिकालीन कविता न सिर्फ़ ऊँचाइयों को ग्रहण करती दिखाई
पर्दाफाश करते दिखाई दे रहे होते हैं- “आपने देखा नहीं ये बुजर्गु , देती हैं, बल्कि यह अधिक टिकाऊ भी है। कथा-साहित्य में यह
बीमार रहे/ एक साल बाद निकले हैं घर से/ इन्हें बाज़ार में क्या हो सांगीतिक ट्यूनिंग निर्मल वर्मा के पियानो से निकलने वाली सुमधुर
रहा क्या पता/ घर में क्या है, क्या नहीं महाशय नहीं जानते/ इतने संगीत के लय में दिखाई देती है और फणीश्वरनाथ रेणु के ठेठ
आत्मविश्वास से भरे थे पाँच रुपये देते/ मैं कुछ कह नहीं पाया कि मृदंगिया में सुनाई देती है। संजीव बख्शी के यहाँ चिट्ठियों में कविता
आप गलत हैं और बाज़ार ठीक।” (पृष्ठ-66, ‘उनके अंधकार में और संगीत की झंकार सुनाई देती है। कवि इस झंकार को न सिर्फ़
उजास है’ संग्रह से)। सुरक्षित रखना चाहता है, बल्कि इससे आसपास के वातावरण
कवि जिस स्वप्नजीवी होने को याद करते हैं, दरअसल वह को गुंजरित होते भी देखना चाहता है। इस झंकार से कवियों की
स्वप्नजीविता अंधकार से प्रकाश की यात्रा है। कविता ‘जंगल का जिजीविषा को भी समझता है, जिससे जीवन जी पाना आसान
अंधकार’ में लिखते हैं- “सोने दो/ जंगल को/ पेड़-पौधों को/ पशु- समझ में आने लगता है।
पक्षियों को/ उनके अंधकार में उजास है/ उनके सुनसान में संगीत किसना से किसान तक की यात्रा में धानी रंग में लिपटे खेतों को
है/ यह आदिम उजास/ यह आदिम संगीत/ इसे नष्ट मत होने दो।” देखे जाने की जो आकांक्षा है, उस आकांक्षा की प्रतिपूर्ति होता देख
(पृष्ठ-12, ‘उनके अंधकार में उजास है’ संग्रह से)। जंगल, पेड़- किसना का रोयाँ-रोयाँ पुलक उठता है। वह अपनी तमाम बीमारियाँ
पौधे, पशु-पक्षियों का सोना, गुम हो जाना, गमजदा होना नहीं, एक भूल जाता है। धानी खेतों को श्यामल रंग में धर्म का गोशा-गोशा
मुसलसल यात्रा की तलाश है, जिस यात्रा में जिंदगी है, जिंदगी के भी इस कदर समो उठता है कि वह जाति और धर्म की नकारात्मक
फ़लसफे हैं, जीवन जीने के रागों की संगीतमय ध्वनि है, जो एक बातों को भी भूल जाता है। कहा जाए कि इसी श्यामल रंग में धर्म
कठिन शास्त्रीय संगीत की तरह है, जिसका अभ्यास नित्य-प्रति के बीज रूप समाहित हो जाते हैं। किसना के इस प्रफुल्लित हृदय
ज़रूरी है। ज़रूरत है- उस जीवन-राग को अलापने की। ज़रूरत पर उस समय वज्रपात होता दीखता है जब सूदखोर की तिरछी
है- उस राग को मूर्त रूप प्रदान करने के लिए जीवन जीने की कला नज़र उसके धानी खेतों पर पड़ती है। इस तिरछी नज़र से किसना
का अभ्यास करने की। नित अभ्यास से ही कठिन शास्त्रीय राग के मन में उबकाई भर आती है, उसकी ऐसी चाहत होने लगती है
की तरह जीवन-राग को भी मूर्तता प्रदान की जा सकती है। संगीत कि सूदखोर जो आते-आते उसकी खैरियत पूछ रहा है, दरअसल
की चुप्पी और जिंदगी की चुप्पी के इस मनमोहक़ राग को मनुष्य वह खैरियत नहीं, बल्कि अपने सूद का हिस्सा उसमें समोया हुआ
एक नई स्फूर्ति और नए उमंग से भर सकता है। जीवन-उमंग से देख रहा है। इस समोए हुए हिस्से से जो आतंक की बू उठती है
सराबोर मनुष्य अपने जीवन की गतिकी को नई दिशा और नया राग उसमें किसना अपने को पूरी तरह से मर्माहत पाता है। कविता
प्रदान करते दिखाई दे सकता है। कवि ‘संगीत की धुन’ कविता में ‘किसना’ में कवि लिखते हैं- “नहीं भूल पाता किसना तो सिर्फ़
जब यह लिखते हैं- “जिद्दी नहीं हूँ, जरा भी नहीं/ संगीतमय होना एक सूदखोर की बात को/ जो रोज-रोज धान की खेत की ओर/
ही जीवन है दरअसल।” (पृष्ठ-105, ‘जो तितलियों के पास है’ आते-जाते खैरियत पूछता है।” (जो तितलियों के पास है’ संग्रह
संग्रह से)। कवि का जिद्दी नहीं होने का जो स्वीकार-भाव है, वह से)। सूदखोरी और बिचौलिए की इसी समस्या को कवि ‘उनके
दरअसल उसके ढुलमुलेपन की ओर इशारा नहीं है, बल्कि उस अंधकार में उजास है’ संग्रह की कविता ‘किसे बताऊँ यह फल
जीवन-राग की तलाश की वज़ह से है जिससे जीवन संगीतमय मीठा है...’ में कुछ इस तरह देखते हैं- “होना तो यह चाहिए कि
होता है, जीवन में उल्लास के सुर फूटते और बजते दिखाई देते फल वहीं बिके जहाँ पर पेड़ हो” (पृष्ठ-93)। फलों को बेचे जाने
हैं। यदि जीवन संगीतमय है, तो जीवन का लय बरकरार होने और की चिंता प्रकारांतर से उस पूरी व्यवस्था में उमग आए बिचौलियों
रहने की पूरी संभावना बनती दिखाई देती है। जहाँ संगीत है, वहाँ से किसानों को निजात दिलाए जाने से मुत्वज्जेह होना है। यह
गति है, ठहराव नहीं है। गति में प्रगति के सुर हैं, ताल हैं, लय हैं- कितना अच्छा होता कि किसानों के फसलों का वाज़िब दाम उसे
जीवन लय, जिससे जीवन का गोशा-गोशा आप्लावित होता रहता उसके खेतों पर ही मिल जाता। एम एस पी का निर्धारण इतना
है और जीवन-संगीत के सुर फूटते ही जीवन लयमय हो उठता है। साफ-सुथरा और किसान हित में होता कि किसानों को अपनी
जीवन-राग से उत्पन्न होने वाली कविता और संगीत का फसलों के दाम के लिए न तो किसी की चिरौरी करनी पड़ती और न

yegh जुलाई से सितंबर 2023 n 333


सचमुच से छूकर देखना होगा? पहाड़ जिस तरह से बौने किए जा
कवि द्वारा पूछे गए इस सवाल में ही जैसे रहे हैं, उससे ऐसा लगता है कि हमें पहाड़ देखने के लिए मशक्कत
किसानों की दुर्दशा के चित्रण हो जाते हैं। करनी होगी? मनुष्य मशीनों पर जितना आश्रित होता चला जाएगा,
जबकिसानों का नाम ही कहीं दर्ज़ नहीं होता उसके अंतरिक्ष की सैर करने की इच्छा उतनी ही बलवती होती
है, तो ऐसी स्थिति में उसके द्वारा उपजाए जाने चली जाएगी? क्या इस इच्छा से वह अपने आसपास शून्य को ही
वाले अनाजों पर उसके नाम लिखे होने को देख पाएगा या शून्य से बाहर भी निकाल पाएगा?
कैसे सोचा जा सकता है? जिस किसान से अपनी भाषा, संस्कृति को भूलते चले जाने की हमारी चाहत के
मनुष्य, पशु-पक्षी आदि समस्त गोचर जगत पीछे जिम्मेदार कौन है? क्यों हम इनसे लगातार कटते चले जा
के भोजन की व्यवस्था होती है, उन्हीं किसानों रहे हैं? क्या यह कटाव हमें कहीं पीछे तक तो घसीटते लिए नहीं
को भुला दिया जाना बड़ी शर्मनाक और
चली जा रहा है? लेकिन सवाल अनुत्तरित ही है कि इसका हल
हास्यास्पद बात है।
क्या है? हल ढूँढना आसान भी नहीं है। न ही आसान है इसका
‘अलटेरनेटिव’ खोज पाना। तो ऐसी स्थिति में फिर क्या होगा?
ही उसे बिचौलियों का सामना करना पड़ता। यदि ऐसी स्थिति बनाई या कहें क्या किया जाना चाहिए? “कितने मजबूर हैं हम/ हम
जाती जो कि किसानों के हक़ में होती, तो यह सवाल जो कवि भी भूलते जा रहे हैं दिन-दिन/ इन मिठाइयों के नाम” (कविता-
‘मेरा नाम’ कविता में पूछ रहे हैं, उसकी नौबत नहीं आती- “क्या ‘छत्तीसगढ़ की मिठाई ‘पीड़िया’ और ‘हथवा’, पृष्ठ-54, ‘उनके
एक किसान का कोई नाम नहीं होता?” (पृष्ठ-13, ‘तार को आ अंधकार में उजास है’ संग्रह से)। अपनी भाषा और व्याकरण से
गई हल्की-सी हँसी’ से)। कवि द्वारा पूछे गए इस सवाल में ही जैसे निर्मित अपने घर की चौहद्दी में पाँच सितारा होटल की सुविधाएँ,
किसानों की दुर्दशा के चित्रण हो जाते हैं। जबकिसानों का नाम ही विलासिता नहीं अंट पाती है। अपनी भाषा और व्याकरण की समझ
कहीं दर्ज़ नहीं होता है, तो ऐसी स्थिति में उसके द्वारा उपजाए जाने से अपनी नींद को अच्छे से आते रहने के लिए खटिया और मचिया
वाले अनाजों पर उसके नाम लिखे होने को कैसे सोचा जा सकता की अपनी समझ ही हमारा साथ रखती है, पाँच सितारा होटलों के
है? जिस किसान से मनुष्य, पशु-पक्षी आदि समस्त गोचर जगत खुशबूदार गद्दे उसके सामने हमें बौने ही दिखाई देते हैं।
के भोजन की व्यवस्था होती है, उन्हीं किसानों को भुला दिया जाना मनुष्य अपने वितान में इस कदर रम चुका है कि उसके असल
बड़ी शर्मनाक और हास्यास्पद बात है। समझे जाने वाले रंग भी जैसे उसका साथ देने को अब तैयार
मनुष्य के जीवन-लय को मशीनों की धक-धक करती लय से नहीं दीख रहे हैं। इसी का नतीजा है कि मनुष्य के चहुंओर हाई
ही गोया निर्धारित किया जाने लगा है। यह मशीनी स्थिति किसी ब्लड प्रेशर, हाई डाईबिटीज़, हाई कॉलेस्ट्रॉल अपना पैर पसारता
भी मनुष्य के लिए श्रेयस्कर नहीं हो सकती। मनुष्य के जीवन में चला जा रहा है और असल का रंग पीछे छूटता चला जा रहा है।
मशीन की भूमिका है, मशीनों से काम लिए जाने के लिए, न कि असल जीवन का जो चित्र हमारे मानसपटल पर बन-उभर रहा
मनुष्य को ही मशीन बना दिए जाने के लिए। ऐसा कहा माना जा है, दरअसल वह चित्र मानव जीवन का असल चित्र नहीं है, वह
रहा है कि मशीनों की अधिकता ने मनुष्य को बेदखल किया है। गुलदस्तों में सजने वाले प्लास्टिक के फूलों से निर्मित हुआ है,
हमें ऐसा लगता है कि मनुष्य की यह बेदखली की साथ-साथ जिसमें गंध-सुगंध की भीनी महक़ हमने अपने लिए ईजाद करने
उसके कौशल की कुशलता को धार देने का समय है। आज की कोशिश तो की है, पर वह हमारे ईजाद किए जाने का प्रयत्न
मशीनी युग में उसी मनुष्य की ज़रूरत समझ में आ रही है, जिसके दरअसल हमारे असल जीवन का रंग नहीं, वह रंग तो बनावटी
पास कौशल है। समय की गतिकी में हुए बदलाव को भी समझे है। इस बनावटी रंग से बचने के लिए हमें जंगल के बीज बोने
जाने के लिए इस बदलाव को समझना ज़रूरी जान पड़ रहा है। इस की ज़रूरत है ताकि उस बीज से बड़े होने वाले पेड़-पौधों से हमें
बदलाव के साथ जो कई प्रकार के प्रश्न उठ खड़े हो रहे हैं, उन्हें भी वास्तविक रंग मिलता रहे, पृथ्वी सुरक्षित रहे, पर्यावरण को बचाए
देखे-सुने, समझे जाने की ज़रूरत है। क्या हम उस समय की ओर रखे जाने के लिए किए जाने वाली जद्दोजहद से हमें मुक्ति मिले
बढ़ रहे हैं, जब हमारे खेत नहीं होंगे, उनकी जगह उनका नक्शा और मानव समुदाय जीवन रूपी नौका से नदी के किनारों के दूसरे
बचा रह जाएगा? अनाज नहीं होगा, अनाज की जगह ‘कुछ और’ छोर पर पहुँचने में सक्षम हो सके।
होगा जिससे हमें काम चलाना होगा? पहाड़ नक्शे से ही नहीं, कवि की कविताओं को पढ़कर यह बात कही जा सकती है कि
सचमुच के गायब हो जाएँगे? पहाड़ को देखने-जानने के लिए उसे कविता लिखने के लिए साँस लिए जाने की तरह लिखे जाने संबंधी

334 n जुलाई से सितंबर 2023 yegh


बात कविता को कृत्रिमता की तरफ धकेल सकती है। कविता
लिखने के लिए साँस ली नहीं जाती है, साँस ख़ुद-ब-ख़ुद निकल
आती है। कवि की यह चिंता बड़ी वाज़िब जान पड़ती है जिसमें
वह मिट्टी के न गाने, गुनगुनाने, हँसने और मुस्कराने के लिए
जिम्मेदार कौन है, इसकी पहचान की ताकीद करता है। कौन
जिम्मेदार है सुगंध के गायब होने के लिए? कवि की चिंता बड़ी
वाज़िब जान पड़ती है कि अभी तो गाना, गुनगुनाना, हँसना और
मुसकराना ही बंद हुआ है, कल यदि बोलना, बताना भी बंद हो
जाएगा तो क्या होगा? क्या होगा सुगंध के गायब होने के बाद?
क्या बचा रह जाएगा जब लोग चावल की जगह सुगंध खरीदने
के लिए तत्पर दिखाई देंगे? स्थिति तो यही बयान कर रही है कि
जिस तरह से किसानों की स्थिति लगातार दयनीय होती जा रही
है, उसमें हल और बैल तो गायब होते ही जा रहे हैं, गायब हो
जाएगा दुबराज चावल और उसकी महक़ भी। “अभी तो यही हुआ
है/ मिट्टी ने गाना, गुनगुनाना, हँसना, मुसकराना किया है बंद/
गायब हुई है सुगंध/ कल हो गया बोलना, बताना भी बंद तो/ क्या
होगा?” (कविता-‘नगरी का दुबराज’, पृष्ठ-52, ‘उनके अंधकार
में उजास है’ संग्रह से)।
संजीव बख्शी के अब तक प्रकाशित पाँचो काव्य-संग्रहों की
कविताओं पर कुल मिलाकर बात की जाए, तो उपर्युक्त स्थितियों
के अलावा कई ऐसे रंग हैं, जो मनुष्य के जीवन से सीधे जुड़े हैं में तलाश की जाने वाली खुशियों के लिए सुबह की ताजगी से
और वे मनुष्य जीवन को बहुत हद तक प्रभावित किए जा रहे हैं। अपने को आप्लावित किए जा सकने का सामर्थ्य विकसित किए
अस्पतालों द्वारा की जानेवाली धोखाधड़ी का मामला एक तरफ है, जाने संबंधी बात कविता में स्थान पाता है, तो जीवन की वास्तविक
तो दूसरी तरफ कर्तव्यनिष्ठ चिकित्सक दिखाई देते हैं, जो अपनी हक़़ीकतों का सामना कर रहा मनुष्य भी दिखाई देता है। कवि जैसे
कर्तव्यनिष्ठता से समाज को सकारात्मक रास्ता दिखाने का काम हम मनुष्यों को कुटुंबसर बस्तर की मछलियों के माध्यम से आगाह
करते नज़र आते हैं। कवि मंदिरों में मांगे जाने वाले मन्नतों को भी करते दिखाई दे रहे हैं कि यह चेतावनी का समय तो नहीं है न!
अपनी कविता में जगह देते हैं, तो बच्चों के जंक फूड्स के प्रति जिन मछलियों का वास ही अँधेरे में होता है, यदि वे अँधेरे की
बढ़ते रुझान से भी परिचित कराते दिखाई देते हैं। पूजा से प्रसन्नता वज़ह से ही संकट में हैं, तो यह समय वाकई हमारे लिए चेतावनी
का एहसास होता दिखाई देता है, तो ज़रूरी शब्दों के खोटे, छीजते का समय है। मनुष्य जितनी लापरवाही से अपने चहुंओर स्याह पक्ष
चले जाने वाले अर्थ से भी हमारा परिचय होता है। लोकरंग, लोक को कुरेदे जा रहा है, वह उजलेपन को धुंधलके में बदलने के लिए
संस्कृति के धूसरित होते चले जाने की बानगी कविताएँ देती जान पर्याप्त दिखाई दे रहा है। इससे हमें सीख लेने की आवश्यकता है
पड़ती हैं, तो फूलों से आनेवाली महक़ के रंग भी हमें दिखाई देते और अपनी करतूतों पर प्रश्नचिह्न खड़ा करते हुए उसमें शोधन-
हैं। कवि पेशे से प्रशासनिक अधिकारी रहे हैं, वे कार्यालयों के संशोधन की आवश्यकता है। यदि मनुष्य जाति को कोरोना नामक
काम करने के ढंग से परिचित हैं। उनका यह परिचय बाबू के बढ़ते वैश्विक महामारी ने आगाह किया है, तो आने वाले दिनों में इससे
चले जाते ख़जाने को कविता में स्थान दिलाता है। आज मौसम के भी भयावह कोई बीमारी दस्तक न दे दे, इससे हमें सतर्क रहने और
मिज़ाज के बेहिसाबी होने के लिए जिम्मेदार कौन है?- यह सवाल अपनी करतूतों को संभालते चले जाने की ज़रूरत है। n
कविता खड़ा करती है, तो मनुष्य के कौशल की कुशलता को धार संपर्क : सहायक प्राध्यापक
देने का समय है यह- इसकी भी बानगी पेश करती नज़र आती स्वामी आत्मानंद शासकीय अंग्रेजी माध्यम आदर्श
है। कवि पॉलिटिक्स से दूर रहना चाहते हैं, लेकिन ‘पॉलिटिकल महाविद्यालय, अम्बिकापुर, जिला-सरगुजा (छत्तीसगढ़)
विज़न’ को ज़रूर बनाए रखना चाहते हैं। मनुष्य द्वारा अपने जीवन मो. 9644212029

yegh जुलाई से सितंबर 2023 n 335


n आयतन : विनोद दास

योगात्मक से वियोगात्मक होने की काव्य-यात्रा


शंभु गुप्त

विनोद दास के तीन कविता-संग्रह प्रकाशित हैं- जन-सम्बद्ध प्रतिबद्धता इन तीनों के संश्लेष में ही
‘ख़िलाफ़ हवा से गुज़रते हुए’,‘वर्णमाला से बाहर’ पुख्ता होती देखी जा सकती है। यह कहा जाना क़तई
और ‘कुजात’। इन संग्रहों में उनकी कुल एक सौ अतिकथन नहीं होगा कि विनोद दास अपनी काव्य-
पंद्रह कविताएँ संकलित हैं। विनोद दास एक धैर्यवान यात्रा के प्रारम्भ से ही इन तीनों कसौटियों को अपने
और जेन्युइन खाँटी कवि हैं। इस धैर्य और खांटीपन लिए एक चुनौती की तरह लेते देखे जाते हैं और इन्हें
का वैचारिक मूलाधार उनका अपने मूलभूत जीवन- इनके संश्लिष्ट स्वरूप में ही काव्य-बद्ध करते चले
स्रोतों, अर्जित चिंता-धारा, भौगोलिक-राजनीतिक- हैं। उनके तीनों संग्रहों में लिखी गई अनेक कविता-
सामाजिक संदर्भोंं तथा इन सबके संश्लेषण से विनिर्मित कवि- शृंखलाएँ इस तथ्य की गवाही देती हैं। इन कविता-शृंखलाओं
दृष्टि, विज़न व काव्य-न्याय रहा है। वीरेन्द्र यादव ने ‘चिंतनदिशा’ में इन तीनों ही मोर्चों पर एक सिपाही की तरह सन्नद्ध हैं और
पत्रिका में छपे अपने संस्मरणात्मक लेख ‘ख़िलाफ़ हवा से गुज़रते उनके सरोकार खुलकर सामने आते हैं। इन कविता-शृंखलाओं में
हुए’ में लिखा है कि- “मुझे लगता है कि विनोद दास अपनी मूल ‘साँस रोककर याद करो भोपाल’, ‘आदिवासियों का गीत : तीन
प्रकृति में अपने गाँव, कस्बे के जीवन और उसकी सामाजिक कविताएँ’,‘गाँव : छः कविताएँ’,‘गृहिणी : कुछ कविताएँ’ (ख़िलाफ़
संरचना से मुक्त होकर कभी महानगरीय चेतना में विलीन नहीं हवा से गुज़रते हुए),‘अयोध्या : सात कविताएँ’,‘अयोध्या : कुछ
हो पाए। बल्कि उसके उलट उसकी रचनात्मकता के लिए उसने और कविताएँ’ (वर्णमाला से बाहर) आदि शामिल हैं। ‘कुजात’
खाद पानी का काम किया।” अपनी सचमुच की ज़मीन और जड़ों संग्रह में ऐसी सीरीज़ नहीं हैं; संभवतः इसका कारण यह है कि वहाँ
से नाभिनालबद्ध रहे आने से उनमें अटूट धैर्य और खांटीपन पैदा अनेक कविताओं का आकार अपेक्षाकृत बड़ा है और उसमें काव्य-
हुआ जिसका संबंध निर्गुण संत संप्रदाय से उनके आनुवांशिक वस्तु के अनेकानेक आयाम/वेरिएबल्स एक ही कविता में समाहित
सांस्कारिक स्वभाव से भी जुड़ता है; जिसके अंतर्गत एक निरंतर व समेकित कर दिये गये हैं। ‘देश’,‘ख़ुदकुशी’,‘सिपाही’,‘बलात
डि-कास्ट होने की असमाप्त प्रक्रिया में वे रहे आते दिखाई देते हैं। कृता का हलफनामा’,‘प्रेम के शुक्राणु’,‘सड़क पर मोर्चा’,‘ईश्वर
जैसा कि हम देखते हैं, आगे अपने व्यक्तित्व व लेखन में ठोस रूप के दलाल’,‘झूठ’,‘कुजात’,‘जोड़ों का दर्द’,‘बांग्लादेशी गीता
से उन्होंने प्रगतिशील जीवन मूल्यों का विस्तार किया है। ‘ख़िलाफ़ बाई’,‘चालीस साल’ आदि लगभग ऐसी ही बहुआयामी व विस्तृत
हवा से गुज़रते हुए’ से लेकर‘कुजात’ तक की अनेकानेक कविताएँ कविताएँ हैं। विनोद दास के सरोकार लगातार पुख्ता हुए हैं।
इसकी तस्दीक़ करती हैं। विचलन/विपथन लगभग नगण्य है। कवि जैसे शुरू से अब तक
एक तरह से देखा जाए तो कवि विनोद दास अपनी लंबी काव्य- अपनी नाक की सीध में अपनी पूरी इयत्ता और अस्मिता के साथ
यात्रा में डि-कास्ट,डि-क्लास और डि-जेंडर तीनों ही प्रक्रियाओं सक्रिय होता आया है। निश्चय ही उसकी यह सक्रियता पर्याप्त
से एक साथ और समानान्तर रूप से गुज़रते और इनमें दीक्षित आत्मविश्वास से लबरेज़ है।
होते चलते प्रतीत होते हैं। ऐसा कोई विरला ही कवि होता है, जो विनोद दास अपनी कविता में समय के सरोकारों से गहरे
इन तीनों स्तरों पर समान व समेकित रूप से खरा उतरता हो। वाबस्ता दिखायी देते रहे हैं। जैसे कि ‘गाँव’ सीरीज़ की कविताओं
कास्ट-क्लास-जेंडर; ये तीनों एक साथ संरचना में लाए जाएँ, तभी में समय के उस अंतराल में तरह-तरह की राजनीति के अखाड़े के
सर्वोत्तम रेशनल जीवन-दृष्टि आयत्त होती है। एक कवि की असल रूप में गाँव उभरते दिखायी देते हैं। सीरीज़ की पाँचवीं कविता में

336 n जुलाई से सितंबर 2023 yegh


कवि लिखता है कि समाज के कमज़ोर, पिछड़े व अल्पसंख्यकों के है। अयोध्या को एक बिकाऊ जिंस बनाने का वह पुरज़ोर विरोध
नाम पर की गयी राजनीति लगभग इसी तर्ज़ पर चली कि वे सब करता है-
लोग इनके परम हितैषी बनकर आये, लेकिन अंततः कुल मिलाकर अयोध्या
जन-हित के स्थान पर केवल अपना हित उन्होंने साधा। उदाहरण सिर्फ़ ख़बर नहीं है
के लिए, उन्होंने कमज़ोरों से कहा,‘मैं तुम्हें ताक़त दूँगा’,पिछड़ों से मनुष्यता का पहचान पत्र है
कहा,‘मैं तुम्हें शिखर पर ले जाऊँगा’, अल्पसंख्यकों से कहा,‘मैं जो इन दिनों संवाददाताओं के जेबों में भी नहीं मिलता।
तुम्हारी तरफ़ से बोलूँगा’; लेकिन ये सब उद्घोषणाएँ मात्र दिखावा स्त्री विनोद दास का एक महत्वपूर्ण कंसर्न है। पुरुष-वर्चस्व और
थीं; असल मक़सद इनके पीछे ख़ुद की ज़मीन तैयार करना था पितृसत्ता के गहरे और अंतहीन दुष्चक्र में फँसी उसकी ज़िन्दगी कैसे
और अपने स्वार्थ साधने थे; स्वार्थ, जो राजनीतिक, आर्थिक, बाक़ायदा शुरू होने से पहले ही लगभग तमाम हो लेती है, तथा
सामाजिक सशक्ति थी, गाँव के संसाधनों पर क़ब्ज़ा था! कवि ने किस तरह ‘दुःख ही जीवन की कथा रही’ की तर्ज़ पर उसका सारा
अपने ऐतिहासिक समकाल को कविता में बख़ूबी उतारा है। जीवन यों ही निरर्थक और निरुद्देश्य बीत लेता है, इसके बहुविध
इसी तरह ‘आदिवासियों का गीत : तीन कविताएँ’ शृंखला में खुलासे उनकी कविताओं में आद्यंत उपलब्ध होते हैं। अपने पहले
आदिवासियों के उस समय के अंदरूनी यथार्थ की एक पुख्ता संग्रह ‘ख़िलाफ़ हवा से गुज़रते हुए’ की कविताएँ तो इसकी गवाह
झलक हमें मिल जाती है, जिसके अंतर्गत उनके अंतहीन दुखी हैं ही, आगे की कविताओं में भी वे लगातार स्त्री-जीवन के यथार्थ
जीवन की प्रामाणिक दास्तां की परतें एक के बाद एक खुलती जाती को गहरे से गहरे जाकर पकड़ते हैं और उसका दृष्टिगत व यथार्थ
हैं। जल-जंगल-ज़मीन पर क़ब्ज़े के साथ ही उनके खाद्यों, उत्पादों, वस्तुगत विकास करते हैं। जैसे कि ‘ख़िलाफ़ हवा से गुज़रते हुए’
विभिन्न सम्बद्ध वस्तुओं व संसाधनों पर भी दिकुओं व सरकारी की पहली ही कविता ‘चाँदी के तार’ स्त्री-कंसर्न से बहुत गहरे जुड़ी
आदमियों ने अपना एकाधिकार जमा लिया है। इन स्थितियों ने एक कविता है। यह कविता बताती है कि एक स्त्री का समूचा जीवन
तरह से उनके जीवन को जीवन-रहित जैसा कर दिया है। उनकी किस तरह देखते-देखते हवा हो जाता है! इस कविता को पढ़ते हुए
संवेदनाएँ बुरी तरह आहत हैं और काठ की तरह ठस-जैसे होते प्रसिद्ध स्त्रीवादी विमर्शकार और कथाकार अरविंद जैन की कहानी
जा रहे हैं। कवि दिकुओं और सरकारी आदमियों की उस शोषण- ‘लापता लड़की’ बेसाख्ता याद आने लगती है।
प्रविधि पर प्रकाश डालता है, जिसके तहत वे चुपचाप आदिवासियों विनोद दास अनेक कविताओं में स्त्री के सेल्फ़ सेंसर पर मुखर
का अनवरत शोषण करते जाते हैं, जिसका आभास तक इन्हें नहीं होते हैं। कथित लज्जा या शर्म या हया इसी तरह का स्त्री का एक
हो पाता। इसका पता तभी चल पाता है, जब शरीर की आख़िरी स्वयं द्वारा स्वयं पर लागू किया गया आत्म-निषेध/आत्मांकुश है।
बूंद तक चुस जाती है! जंगलों को हथियाकर वहाँ कथित विकास ‘गृहिणी : कुछ कविताएँ’ सीरीज़ की कविता संख्या तीन यह दर्ज़
के नाम पर मूल निवासियों को खदेड़ा जा रहा है। इस शृंखला करती है कि यह स्त्री घर में हर दूसरे शख़्स की छोटी से छोटी
की तीसरी कविता में दिकु और सरकारी लोग आदिवासियों की ज़रूरतों का ध्यान रखती है, नहीं रखती है तो सिर्फ़ अपनी ज़रूरतों
अस्मिता और स्वत्व से कैसे खेलते हैं और कैसे उनकी स्त्रियों को का। ज़रूरतों की मुख्यधारा से ख़ुद को यह हमेशा परे कर लेती है।
अपनी हवस का शिकार बनाते हैं; इस शर्मनाक यथार्थ पर प्रकाश हमारे यहाँ पितृसत्ता की जड़ें बहुत गहरी हैं। वे पातालतोड़ रूप
डाला गया है। से फैली हैं और स्त्रियाँ ख़ुद उनका जश्न मनाती देखी जा सकती
अयोध्या सीरीज़ की कविताओं में कवि बाबरी मस्जिद के हैं। विनोद दास की शुरुआती कविताओं में परंपराओं में उलझी व
विध्वंस से पहले और बाद के दोनों अंतरालों में यथार्थ के बहुत पस्त स्त्री दिखायी देती है, जबकि परवर्ती कविताओं में आज़ाद-
समीप खड़ा है और दोनों स्थितियों का आकलन-अन्वेषण कर रहा ख़याल व आत्म-चेतस स्त्री। प्रतीत होता है कि कवि ने समय
है। बाबरी-विध्वंस से पहले की सातों कविताएँ अयोध्या में पैदा के साथ बदलते भारतीय स्त्री के यथार्थ को नज़दीक व गहराई
किए जाते बवंडर की आक्रामक व सर्वनाशी प्रकृति की सूचना देती से अनुभव किया है और उसे आत्मीय अभिव्यक्ति प्रदान की है।
हैं लेकिन साथ-साथ यह भी ढाढ़स बँधाती हैं कि अभी भी बहुत- ‘कुजात’ में वह अपने सर्वथा नये रूप व स्वरूप में नमूदार है।
कुछ बाक़ी है, यदि कोई चाहे तो स्थितियाँ संभाली जा सकती हैं। ‘बलात्कृता का हलफनामा’ इस संदर्भ में देखी जा सकती है।
अयोध्या के इस कथित मंदिर आंदोलन के समय प्रेस ने कैसी विनोद दास की कविताएँ पर्याप्त वर्गचेतस कविताएँ हैं। सर्वहारा
अमानवीय और पत्रकारिता की आचार-संहिता की धज्जियाँ उड़ाते वर्ग उनकी कविताओं में शिद्दत से अपनी सशक्त उपस्थिति दर्ज़
हुए बेहया पैंतरेबाज़ियाँ अता कीं; कवि इसकी पूरी नोटिस लेता कराता है। उनका मत संभवतः यह है कि यहाँ बहुजन/दलित वर्ग

yegh जुलाई से सितंबर 2023 n 337


ही वास्तव में सर्वहारा है, जो सामाजिक रूप से अभिनिष्क्रमण इसके बेशुमार दोस्त
झेलते-झेलते राजनीतिक व आर्थिक मुख्यधारा से नितांत परे कर ‘विकास’ इन दिनों एक नया मुहावरा है। यह हमारे यहाँ की
दिए गए हैं। अनंत काल से हमारे यहाँ का यथार्थ यही है व अभी पुरानी राजनीतिक आर्थिकी रही है कि लगभग सारे संसाधन और
भी जारी है। विनोद दास अपने तीनों संग्रहों में इस यथार्थ को सुविधाएँ कथित संभ्रांत और समर्थ लोगों के लिये होती हैं। इसमें
समेटते हैं। ‘बीड़ी’, ‘दुकान में’, ‘नए अन्न की आहट’, ‘ठेले पर थोड़ी छूंछ कभी-कभार किसी और को मिल जाए तो कोई बात
दुनिया’ जैसी कविताएँ देखी जा सकती हैं। नये बाज़ार के बीच नहीं! विकास के केंद्र में बहुत पहले से यही उच्च/उच्च मध्य वर्ग
वर्ग-सचेतनता की पहचान एक टेढ़ा और ज़ोखिम भरा काम है। रहा है। आज़ादी के बाद से ही यह परिपाटी चली आ रही है। अपनी
विनोद दास इसका एक रास्ता निकालते हैं- ‘पर्सनल इज़ नॉट ‘विकास कथा’ शीर्षक कविता में विनोद दास इस तथ्य को उजागर
पर्सनल; इट’ज़ पॉलिटिकल’। अमेरिकन नारीवादी कार्यकर्ता और करते हैं। भूमडं लीकरण और नयेबाज़ार ने लोगों की संभवनशीलता,
सिद्धांतकार कैरल हैनिस्क (Carol Hanisch) की अवधारणा तसल्ली, भरोसे और स्पेस को बराबर कर दिया है। भूमंडलीकरण
‘पर्सनल इज़ पॉलिटिकल’ अथवा ‘प्राइवेट इज़ पॉलिटिकल’ यहाँ के बाद भारत जैसे देशों की जो दुर्गति हुई है, उसमें वहाँ के स्वदेशी
बाक़ायदा याद की जा सकती है। विनोद दास अपनी इधर की एक राजनैतिक नेतृत्व का बराबर का योगदान है। स्वदेशी राजनीति ने
कविता ‘जोड़ों का दर्द’ में एक जगह लिखते हैं- किसी कमीशन एजेंट या दलाल की तरह अपने ही बृहत्तर जन-
दर्द राजनीतिक नहीं होता समुदाय के साथ विश्वासघात किया। अलबत्ता उच्च वर्ग इसमें
यह कहना भी एक गहरी साजिश है सत्ता के साथ था। नया पूंजीवाद अपने साथ नये क़िस्म के तत्ववाद
इधर के कथित खुले बाज़ार में खुले-आम जो लूट मची है, और धार्मिक कट्टरता को भी लाया जिसने आगे चलकर धार्मिक
उसके दृश्यों/बिंबों के मार्फ़त नये पूंजीवाद में वर्ग-विभाजित समाज बहुसंख्यकवादी सर्वसत्तावाद का रूप लिया। यहाँ मुझे विनोद दास
के अक्स कवि देता चला है। ‘ख़िलाफ़ हवा से गुज़रते हुए’ के की एक कविता बरबस ध्यान में आती है- ‘ईमानदारी’। यह नवें
दिनों में जो लूट सीमित और दबे-छुपे/गुप-चुप थी, ‘वर्णमाला से दशक के शुरुआती समय की कविता है। क्या उस समय हम एक
बाहर’ के दिनों में उसे खुली छूट मिल गयी और आज ‘कुजात’ के आगे आने वाली झूठ और फ़रेब और बेईमानियों/मूल्यहीनताओं से
दिनों में तरह-तरह की धमकियों के बीच परम आत्मविश्वास के भरी कथित छद्म राष्ट्रवाद की फ़ासीवादी दुनिया में क़दम रख रहे
साथ ‘चोरी और सीना ज़ोरी’ और बेधड़क राष्ट्रवाद के धनिये के थे, जो अंतिमतः क्रोनीअथचगेंगस्टर पूंजीवाद के परतदार कवच
पेड़ पर आम जन को चढ़ाते, बहक़ाते और बरगलाते बेलगाम हुई के बतौर काम करने लगता है। यह छद्म राष्ट्रवाद सारी नैतिकता,
वह सातवें आसमान को छूती नज़र आ रही है! अब वह ख़ुद एक ईमानदारी, मूल्यवत्ता, जनोन्मुखता इत्यादि को एक तरफ़ करते हुए
‘मूल्य’ है और नये समय व राजनीतिक व सामाजिकार्थिक निज़ाम सर्वसत्तावाद की ओर बढ़ता है।
की असल पहचान व कसौटी है। यदि हम विकास की बात करें तो; यह कैसा विकास है, जो
इस सिलसिले में कवि अनेकानेक लोगों को निशाने पर लेता दूसरों के गोश्त में नाख़ून धँसाये बिना पूरा नहीं होता? विकास
है। पक्ष-विपक्ष की राजनीति,व्यवस्था और उसके सूत्रधारों पर के कुछ ऐसे उदाहरण भी इस दुनिया में मौज़ूद हैं, जो दूसरों के
तो अपना ग़ुस्सा निकालता ही है; मध्यवर्गीय युवा-वर्ग से वह अधिकारों को बराबर का सम्मान देते हुए पूरे हुए हैं। समाजवादी
बेतरह खफ़ा है। इधर के युवाओं को अपने समय की राजनीतिक, व्यवस्था इसकी गवाह रही है। विनोद दास ने अपनी एक कविता
सामाजिक, आर्थिक समस्याओं, संकटों, दुश्चिंताओं इत्यादि से में लिखा था-
कोई लेना-देना नहीं है। बाज़ार की चकाचौंध और उत्तर आधुनिक विकास क्या है
आकर्षणों में वे इस हद तक व्यस्त है कि उन्हें अपने आस-पास दूसरों के गोश्त में नाख़ून धँसाये बिना
और चारों तरफ़ क्या हो रहा है, उससे कोई लेना-देना नहीं है। उन्होंने परिभाषित किया
उन्हें सिर्फ़ अपनी तात्कालिक एषणाओं में रुचि है। ‘युवा’ शीर्षक लेकिन इधर की यह जो वामनावतारवादी व्यवस्था है, वह
कविता में कवि एक जगह लिखता है- बिना दूसरे को उजाड़े विकास करती ही नहीं है! ध्यातव्य है कि
रिश्तों को व्यापार में कवि ‘वामन देव’ कविता में भी ‘कच्चे गोश्त’ का प्रतीक लाता है।
बदलने की कला में पारंगत एकदम स्पष्ट है कि किसकी क़ीमत पर किसका विकास यह हो
यह नवजवान अकेला नहीं है रहा है! कवि ‘वे यहाँ क्यों नहीं हैं’ कविता में सवाल उठाता है कि
मोबाइल लैपटॉप के बटनों में छिपे हैं जिन आदिवासियों को खदेड़कर उनकी इस नदी किनारे की बेहद

338 n जुलाई से सितंबर 2023 yegh


उपजाऊ ज़मीन पर विदेशी पूंजी से यह जो तापगृह बन रहा है, अनुगूँज की ओर बढ़ता हुआ सारगर्भिता और संक्षिप्तता अपनाना
उससे किसे लाभ मिलने वाला है? क्या इससे पैदा बिजली थोड़ा- श्रेयस्कर समझने लगता है। कालांतर में सारगर्भी और संक्षिप्त होना
बहुत इन लोगों के भी हिस्से में आयेगी? या इन्हें केवल विस्थापन उसके लिए पर्फ़ेक्शन की पहचान बन जाता है। हिंदी में यह एक
मिलेगा? कवि शायद पूछता है कि यह कैसा विकास है, जो एक सामान्य परंपरा रही है। लेकिन विनोद दास इसके उलट लक्षणा-
को उजाड़कर दूसरे को बसाने जैसा पक्षपात किये ही जा रहा है- व्यंजना, संकेत, ध्वनि, गूंज-अनुगूँज इत्यादि से पीछे लौटते हुए
कोई नहीं बताता अभिधा, इतिवृत्तपरक ब्यौरे व यथार्थ के सहज व सरल खुलासे
हाँका की तरह उन्हें खदेड़कर की तरफ़ अग्रसर हुए हैं। ‘ख़िलाफ़ हवा से गुज़रते हुए’ से ‘कुजात’
विदेशी पूँजी से जहाँ बन रहा है तापगृह तक की यात्रा इसी मुक़ाम तक पहुँचने की यात्रा है। इस लौटाबाट
उसकी महँगी बिजली से अंतर्यात्रा में ‘वर्णमाला से बाहर’ इन दोनों शिल्प-कलाओं का
तपते जेठ के दिनों में किनके घर ठंडे होंगे संयुक्त निदर्शन है। इस संग्रह में कवि योगात्मक से धीरे-धीरे
अपनी इधर की कविताओं में कवि ‘सबका साथ,सबका विकास’ वियोगात्मक होता चला है।
की असल वास्तविकता खोलकर रख देता है। इन कविताओं में विनोद दास ने जो यह योगात्मक से वियोगात्मक होने की
साफ़ तौर पर इंगित किया गया है कि उन्हें सबका साथ तो अपेक्षित काव्य-यात्रा सम्पन्न की है, इसका संबंध केवल उनकी कवि-
है, लेकिन सबके सहयोग से निर्मित होने वाली विकास की थाती शक्ति से नहीं है अपितु इसका सिलसिला उनकी कथा-प्रतिभा तक
एक विहित प्रक्रिया से आख़िरकार समृद्ध-सम्पन्न संभ्रांत लोगों के जाता है, जिसका सबसे ताज़ा उदाहरण उनका उपन्यास ‘सुखी घर
हिस्से पहुँच जाती है! ऐसा आख़िर क्यों है? क्या यह राज्य की सोसाइटी’ (राजकमल प्रकाशन : 2022) है, जो अपनी कथावस्तु
अमीरपरस्ती नहीं है? यानी कि विकास की यह मौज़ूदा चमक- और एप्रोच के लिए काफ़ी चर्चा में है। इस उपन्यास में उनकी
दमक वस्तुतः एक ख़ास तबक़े को लाभ पहुँचाने के लिए है! जैसा अनेक पिछली लिखी कविताओं का एक्सटेंशन भी मिलता है।
कि मैंने पहले भी कहा; ‘राष्ट्रवाद’ अपनी इसी चालाक़ी, छद्मनीति जो हो। कहना यहाँ यह है कि उनके काव्याभिव्यंजन-परिवृत्त में
और दुरभिसंधि को ओट और आवरण देने के एक उपकरण के कथा-तत्व अथ इतिवृत्तात्मकता लगातार सघन से सघनतर होती
बतौर इन दिनों इस्तेमाल में लाया जा रहा है; ‘देश’ कविता में एक चली है। ‘ख़िलाफ़ हवा से गुज़रते हुए’ की कविताओं में कथा-तत्व
स्थान पर कवि लिखता है- या इतिवृत्त बीज की तरह अंतर्निहित है जो ‘वर्णमाला से बाहर’
विकास एक सुंदर फंतासी है में पल्लवित होते हुए ‘कुजात’ तक आते-आते अच्छे-खासे वृक्ष
या एक ऐसी सड़क का रूप ले लेते हैं। संभवतः यही कारण है कि ‘ख़िलाफ़ हवा से
जिसके रास्ते में कभी नहीं आता है उसका घर गुज़रते हुए’ की कविताएँ विस्तार में औसतन अपेक्षाकृत छोटी हैं।
विनोद दास के यहाँ काव्याभिव्यक्ति-प्रणालियों के कई रूप ‘वर्णमाला से बाहर’ की कविताओं में लंबाई का यह औसत थोड़ा
देखने को मिलते हैं। इतनी कम कविताओं में इतनी शिल्पगत बढ़ गया है। जहाँ तक ‘कुजात’ की बात है तो वहाँ तो, जैसा कि
विविधता हिंदी के बहुत कम कवियों में मिलती है। बल्कि कहें कहा गया,कवि चल ही इतिवृत्त के सहारे रहा है।
कि विनोद दास हर अगले संग्रह में एक नया शिल्प लेकर आते आँखों देखा यह यथार्थव्यंजना से ही निकले; यह ज़रूरी नहीं।
हैं। शिल्प के मामले में हिंदी की आम परिपाटी से अलग वे थोड़ा यह सीधे-सीधे सहज-सरल तरीक़े से भी निकल सकता है। अपनी
उलटा रास्ता अपनाते हैं। हिंदी में अमूमन यह देखने में आता है कि एक यत्किंच दीर्घ कविता ‘वे यहाँ क्यों नहीं हैं’ में एक स्थान पर
एक कवि अपने प्रारम्भिक दौर में अभिधा और इतिवृत्तपरक ब्यौरे व विनोद दास लिखते हैं-
यथार्थ का खुलासा-सा करते हुए अपने ख़ुद के साथ एक अंतहीन यह व्यंजना नहीं है
ज़िरह-सी में शामिल रहता है और साफ़-साफ़ व्यवस्था और उसके कि जो कल यहाँ
नियामकों को लानत भेजता अपनी नाराज़गियाँ दर्ज़ करता चलता एक जीवित यथार्थ की तरह थे
है। इन नाराज़गियों में आधी वैचारिक सतर्कता होती है और आधी एक हतप्रभ यथार्थ की तरह
भाववादी सरलता। लेकिन चूंकि ये शुरुआती अभिव्यक्तियाँ होती वे आज यहाँ नहीं हैं। n
हैं, इसलिए इनमें एक निरभ्र अहेतुकता व भोलापन होता है। कवि संपर्क : 21, सुभाष नगर,एन.ई.बी.,
जैसे-जैसे प्रबुद्ध और अनुभवी होता जाता है, अपना कौशल माँजता अग्रसेन सर्किल के पास, अलवर-310 001 (राजस्थान)
चलता है। धीरे-धीरे वह लक्षणा-व्यंजना, संकेत, ध्वनि, गूंज- मो. 9414789779

yegh जुलाई से सितंबर 2023 n 339


n आयतन : सुधीर सक्सेना

कविता के अनिर्मित पंथ के पंथी


डॉ. नीरज दइया

आधुनिक हिंदी कविता के परिदृश्य में वरिष्ठ कवि खोला है वहीं आश्चर्यचकित और हैरतअंगेज तथ्यों
सुधीर सक्सेना की कविता-यात्रा पर विचार करते से हमारा साक्षात्कार कराया है। विज्ञान विषयक
हुए मैं सर्वप्रथम कवि सर्वेश्वरदयाल सक्सेना की कविताएँ हिंदी में ही नहीं भारतीय भाषाओं में और
पंक्तियों का स्मरण करना चाहूँगा- ‘लीक पर वे अन्यत्र भी इतनी देखने को नहीं मिलतीं जितनी सुधीर
चलें जिनके/ चरण दुर्बल और हारे हैं / हमें तो जो सक्सेना के यहाँ हैं। जैसे वे इस धारा का सूत्रपात
हमारी यात्रा से बने/ ऐसे अनिर्मित पंथ प्यारे हैं।’ कर रहे हैं। ऐसा नहीं है कि यह संग्रह अचानक और
कवि सुधीर सक्सेना की कविताएँ किसी परंपरागत एकाएक प्रकट हो गया है। इस संग्रह में संकलित
लीक पर चलने वाली सहज, सामान्य अथवा साधारण कविताएँ कुछ कविताएँ उनके पूर्ववर्ती संग्रह में देखी जा सकती है। अपने
नहीं है। वे असहजता को सहजता से स्वीकार करते हुए अपने समय के साथ और परंपरा को खंगालते हुए कवि ने अपनी कविता
विशिष्ट विन्यास में सामान्य से अलग प्रतीत होती हैं। उनके यहाँ यात्रा में अनेक ऐसे स्थल निर्मित किए हैं जिनके उल्लेख के बिना
असाधारण चीज़ों को साधारण बनाने का सतत उपक्रम कविता आधुनिक हिंदी कविता का इतिहास पूरा नहीं हो सकेगा।
में होता रहा है। सुधीर सक्सेना अपनी लीक सदैव स्वयं निर्मित सुधीर सक्सेना की कविता यात्रा के उद्गम से आरंभ करें तो
करते रहे हैं। अपने प्रत्येक कविता संग्रह में उन्होंने निरंतर स्वयं आपके पहले कविता ‘बहुत दिनों के बाद’ की एक कविता ‘शर्त’
को जटिलताओं अथवा कहें अतिसंवेदनशीलताओं में गाहे-बगाहे का यहाँ उल्लेख ज़रूरी लगता है-
डालते हुए हर बार मजूबत-दृढ़ कदमों के साथ आगे बढ़ते हुए “ममाखियों के घरौंदे में/ हाथ डाल
मनुष्यता की जीत का अहसास कराया है। आपको किसी धारा या और जान ज़ोख़िम में
वाद में आबद्ध नहीं किया जा सकता है। कहना होगा कि उन्होंने लाया हूँ/ ढेर सारा शहद
अपनी कविता यात्रा द्वारा हिंदी कविता के प्रांगण में अनेक अनिर्मित पर एक शर्त है/ शहद के बदले में
पंथ सृजित करते हुए अपने एक अलबेले पंथी होने का साक्ष्य तुम्हें देना होगा/ अपना सारा नमक।”
छोड़ा है। आज आवश्यकता यह है कि हम इन साक्ष्यों के आलोक अपने पहले ही संग्रह से कवि सुधीर सक्सेना ने एक व्यवस्थित
में अनिर्मित पंथ के पंथी मुक्त और स्वछंद विचरने वाले सुधीर कवि होने का अहसास कराते हुए अनेक उल्लेखनीय कविताएँ दी
सक्सेना की कविता-यात्रा को देख-परखकर उनका उचित स्थान हैं। इन कविताओं में उनका अपना समय-समाज और इतिहास-
निर्धारित करें। बोध अपने गहरे रंगों में अंकित हुआ है।
परिमल प्रकाशन से ‘बहुत दिनों के बाद’ (1990)आपका अगले संग्रह ‘समरकंद में बाबर’ (1997)पर आपको रूस
पहला कविता संग्रह आया जिसे मध्य प्रदेश हिंदी साहित्य सम्मेलन के प्रतिष्ठित ‘पुश्किन पुरस्कार’ से सम्मानित किया गया। यह
द्वारा वागीश्वरी पुरस्कार से सम्मानित किया गया। उनके लेखन संग्रह अपनी सहजता, संप्रेषणीयता, सृजनात्मकता और विषयगत
का सिलसिला विद्यार्थी काल से ही उल्लेखनीय रहा है जिसका विविधता के कारण एक संग्रहणीय है। अपने समय की अनिश्चितता
अनुमान हम आपके सद्य: प्रकाशित कविता संग्रह ‘सलाम लुई को कवि ने इन शब्दों द्वारा जैसे परिभाषित किया- “कुछ भी/
पाश्चर’ (2022) कविता संग्रह की लंबी भूमिका से हो सकता ऐतबार के काबिल नहीं रहा/ न कहा गया/ न सुना गया/ और न
है जिसमें कवि ने जहाँ वर्ष 1970 से अपनी स्मृतियों का गुल्लक लिखा गया/ कुछ भी नहीं/ जहाँ भरोसा कोहनी टिका सके/ कोई

340 n जुलाई से सितंबर 2023 yegh


कोना नहीं/ जहाँ यक़ीन बैठ सके/ आलथी-पालथी मारकर।” अपना अपना बिलासपुर दिखता है। बदलाव की आंधी में आधुनिक
(‘समरकंद में बाबर’ की पहली कविता से) समय के साथ बदलते इतिहास और एक शहर का यह दस्तावेज़
सुधीर सक्सेना के ‘समरकंद में बाबर’ संग्रह के साथ ही एक एक आईना है। किसी शहर को उसके ऐतिहासिक सत्यों और
अन्य संग्रह ‘काल को भी नहीं पता’ (1997) प्रकाशित हुआ था अपनी अनुभूतियों के द्वारा सजीव करना सुधीर सक्सेना के कवि का
जिसने हिंदी आलोचना का ध्यानाकर्षित किया। यह संग्रह सुधीर अतिरिक्त काव्य-कौशल है। कविता की अंतिम पंक्तियाँ हैं- ‘किसे
सक्सेना के कवि की कीर्ति को अभिवृद्धि करते हुए उनका एक पता था/ कि ऐसा भी वक्त आयेगा/ बिलासपुर के भाग्य में/ कि
अगला पड़ाव है। यहाँ कवि की अपनी चिरपरिचित भाषा और सब कुछ धूसर हो जायेगा/ और इसी में तलाशेगा/ श्वेत-श्याम
कहन को स्थापित करते हुए पहचान बना चुका है। यह संग्रह गोलार्द्धों से गुज़रता बिलासपुर/ अपनी नयी पहचान।’ अस्तु कहा
पुख्ता अहसास कराता है कि यह कवि सामान्य नहीं वरन विशेष जा सकता है कि जिस नई पहचान को संकेतित यह कविता है वैसी
है, जो हिंदी कविता में प्रयोग और अपने अद्वितीय विचार-बल ही हिंदी कविता यात्रा की नई पहचान के एक मुकम्मल कवि के
पर कविता की ऊँचाई पर ले जाने वाला कहा जाएगा। कवि की रूप में सुधीर सक्सेना को पहचाना जा सकता है।
सहजता में भीतर की असहजता को हम सहज ही देख-परख सकते बिलासपुर के साथ ही अन्य कविताओं में बांदा, बस्तर,
हैं। शहर, घटनाओं और व्यक्तिपरक कविताओं के अनेक रूप यहाँ रायबरेली, अयोध्या के संदर्भोंं में गूंथी उनकी लंबी कविताओं को
हमें मिलते हैं। संग्रह ‘काल को भी नहीं पता’ में शृंखला में रचित ‘सुधीर सक्सेना की लंबी कविताएँ’ (2019) संपादक- उमाशंकर
तीस कविताएँ ‘तूतनख़ामेन के लिए’ जैसे हिंदी कविता में एक नया परमार में देखा जा सकता है। जाहिर है इस संकलन में संपादक
अध्याय है जिसमें इतिहास जैसे नीरस विषय को सरस बनाते हुए की लंबी भूमिका ‘सामूहिक संवेगों की अंतर्कथा’ में इन कविताओं
कविता के प्रांगण में कवि ने प्रस्तुत किया है। यह कवि का स्वयं को पर विवेचन किया गया है जिस पर वरिष्ठ आलोचक धनंजय
एक समय से दूसरे समय में ले जाकर, वहीं लंबे समय तक ठहर वर्मा की यह टिप्पणी सटीक लगती है- ‘मैं मुतमईन हूँ कि सुधीर
जाना है। बिना ठहराव के यहाँ जो अनुभूतियाँ शब्दों में रूपांतरित सक्सेना की ये लंबी कविताएँ और उनके मर्म को उद्घाटित करता
होकर हमारे सामने हैं, वे कदापि संभव नहीं थी। इन कविताओं में उमाशंकर जी का आलेख, आप अनुभव करेंगे, हमारी भावना और
कोरा ऐतिहासिक ज्ञान अथवा विमर्श नहीं, वरन कवि के वर्तमान अनुभूति के साथ हमारी दृष्टि के कोण और दिशा को भी इस तरह
से अतीत को छूने की चाह में उस बिंदु तक पहुँच जाना अर्थात बदलता है कि हम अपने समकालीन माहौल को नए संदर्भ और
कवि का काल को विजित करना है। आयाम में देखने लगते हैं।’ (पृष्ठ-14)कहना होगा कि सुधीर
‘काल को भी नहीं पता’ संग्रह के अंत में ‘बीसवीं सदी, सक्सेना हिंदी के विशिष्ट और प्रयोगधर्मी कवि रहे हैं और उन्होंने
इक्कीसवी सदी’ एक लंबी कविता है जो बाद में स्वतंत्र पुस्तिका लंबी कविता के क्षेत्र में अद्वितीय योगदान दिया है।
के रूप में भी प्रकाशित हुई है। इस कविता में बेहद उत्सुकता के यहाँ यह भी स्पष्ट करना आवश्यक है कि मैं कवि सुधीर
साथ समय में झांकने का रचनात्मक उपक्रम हुआ है। यहाँ समय सक्सेना की कविता-यात्रा से इतना प्रभावित रहा हूँ कि उनके दस
के बदलाव को देखने-समझने का विन्रम प्रयास निसंदेह रेखांकित संग्रहों से चयनित कविताओं का राजस्थानी अनुवाद ‘अजेस ई
किए जाने योग्य है। कवि का मानना है कि समय तो एक समय के रातो है अगूण’ शीर्षक से राजस्थानी भाषा में किया है, वहीं उनके
बाद अपनी सीमा-रेखा को लांध कर, अंकों के बदलाव के साथ संग्रह ‘ईश्वर : हां, नहीं... तो’ (2014) का भी अनुवाद किया है।
दूसरे में रूपांतरित हो जाता है किंतु उस बदलाव के साथ बदलने कोरोना काल की 21 कविताएँ अंग्रेजी अनुवाद के साथ पुस्तकाकार
वाले सभी घटकों का बदलाब क्या सच में होता है? इस भ्रम में ‘लव इन क्वारंटाइन’ नामक संग्रह में देखी जा सकती है। सुधीर
खोये हुए हैं हम और कविता के अंत तक पहुँचते पहुँचते स्वयं सक्सेना और बांग्ला के शुभाशीष भादूड़ी के संयुक्त हिंदी-बांग्ला
प्रश्न-मुद्रा में समय के बदलाव को नियति की विडंबना मान कर संग्रह ‘शब्दों के संग रूबरू’ में अनुवादिका अमृता बेरा ने दो
चुप रहने की त्रासदी झेलने की विवशता को रेखांकित किया है। भारतीय भाषाओं के कवियों के एक साथ देखने दिखाने का उपक्रम
सुधीर सक्सेना की काव्य यात्रा में अनेक लंबी कविताएँ किया है। यह भी उल्लेखनीय है कि कवि की कविताओं का अनेक
हैं। ‘धूसर में बिलासपुर’ (2015) और ‘अर्द्धरात्रि है यह...’ देशी-विदेशी भाषाओं में होकर चर्चित रहा है।
(2017) आदि लघु-पुस्तिकाओं के रूप में प्रकाशित हैं। ‘धूसर ईश्वर विषयक संग्रह का नामकरण ही बेजोड़-अद्वितीय है।
में बिलासपुर’ संभवतः किसी शहर पर अपने ढंग की अद्भुत विराट परमपिता और अदृश्य शक्ति को लेकर संग्रह की कविताओं में
कविता है। यहाँ एक ऐसा बिलासपुर है जिसकी छाया में हमें किसी संत कवि-सी दार्शनिकता और कोमलता है, तो साथ ही

yegh जुलाई से सितंबर 2023 n 341


इतिहास-बोध के विराट रूप को दृष्टि में रखते हुए असमंजस, रूप अौर अरूप के दो बिंदुओं के बीच गति करती इन कविताओं
संशय, द्वंद्व और विरोधाभास जैसे अनेक घटक हमें अद्वितीय में निसंदेह किसी एक ठिकाने की कवि को तलाश है। ‘कितना
अनुभव और विस्तार देते हैं। इस संग्रह की अनेक कविताएँ कवि के कुछ शको-शुबहा है/ तुम्हें लेकर/ सदियों की मुडे ं र पर’ अथवा
आत्म-संवाद के शिल्प से उजागर होती है। यहाँ उल्लेखनीय है कि ‘तुम्हारी भौतिकी के बारे में कहना कठिन/ मगर तुम्हारा रसायन
जो ईश्वर से अपरिमित दूरी है अथवा होना न होना जिस संशय- भी मेल नहीं खाता/ किसी और से, ईश्वर!’ जैसी अभिव्यक्ति में
द्वंद्व में है, उसके अस्तित्च को कवि ने आशा और विश्वास से पाप और पुण्य से परे हमारे आधुनिक जीवन के संताप देखे जा
भाषा में नई अभिव्यंजनाएँ प्रस्तुत की है। ‘ईश्वर : हां, ना... नहीं’ सकते हैं। कवि की दृष्टि असीम होती है और वह इसी दृष्टि के
संग्रह पर मैंने विस्तार से विचार करते हुए ‘अतिसंवेदनशीलता बल पर जान और समझ लेता है कि इस संसार में माया का खेल
में कविता का प्रवेश’ शीर्षक से एक आलेख भी लिखा जो इस विचित्र है- ‘कभी भी सर्वत्र न अंधियारा होता है/ न उजियारा’।
पुस्तक के दूसरे संस्करण जिसका संपादक- बुलाकी शर्मा ने किया यहाँ यह भी रेखांकित किया जाना चाहिए कि सुधीर सक्सेना की
उसमें संकलित है। सुधीर सक्सेना समकालीन कविता के विशिष्ट काव्य-भाषा में प्रयुक्त शब्दावली एक विशेष प्रकार के चयन को
कवि हैं। विशिष्ट इस अर्थ में कि वे अब तक की यात्रा में सदैव साथ लेकर चलती है। यह उनका शब्दावली चयन उन्हें भाषा के
प्रयोगधर्मी और नवीन विषयों के प्रति मोहग्रस्त रहे हैं। कहा जा स्तर परअन्य कवियों से विलगित करती विशिष्ट बनाती है। प्रेम
सकता कि उनकी भाषा, शिल्प और कथ्य के स्तर अन्य कवियों कविताओं की बात हो तो उनके संग्रह ‘रात जब चंद्रमा बजाता है
से भिन्न हैं। संभवतः उनके प्रभावित और स्मरणीय बने रहने का बांसुरी’ (2019) का स्मरण किया जाएगा। संग्रह में सांसारिक
कारण उनकी नवीनता और प्रयोगधर्मिता है। वे विषयों का हर बार और प्रकृतिक-प्रेम एक ऐसे विन्यास में समायोजित है कि कविताएँ
अविष्कार करते हैं। या यूं कहें कि उनकी कविताओं के विषय विराट को व्यंजित करती हुई, बेहद निजता को भी अनेक अर्थों में
अपनी ताजगी और नवीन दृष्टिकोण के कारण नवीन अहसासों, जोड़ती हुई भीतर समाहित करती हैं। प्रेम में पगी इस संग्रह की
और ऐसी मनःस्थितियों में ले जाने में सक्षम हैं जहाँ हम प्रभावित प्रथम कविता ‘नियति’ को उदाहरण के रूप में देखें-
हुए बिना रह नहीं सकते हैं। वे इतिहास और वर्तमान को जैसे “मैंने तुम्हें चाहा/ तुम धरती हो गईं
किसी धागे से जोड़ते हुए, मंथर गति से हमारे सामने उपस्थित तुमने मुझे चाहा/ मैं आकाश हो गया
करते हैं। उनकी कविताएँ तीनों कालों में अविराम गति करती हुई और फिर/ हम कभी नहीं मिले/ वसुंधरा!”
अनेक व्यंजनाएँ प्रस्तुत करती हैं। कहीं सांकेतिकता है तो कहीं सुधीर सक्सेना जहाँ अपनी लघु आकार की कविताओं में तुलना
खुलकर उनका कवि-मन अपने विमर्श में हमें शामिल कर लेता और बिंबों का आश्रय लेते हैं वहीं औसत और लंबी आकार की
है। उनकी कविताओं के सवाल हमारे अपने सवाल प्रतीत होते कविताओं में घटना-अनुभवओं के साथ विचारों का सूत्रपात करते हैं।
हैं, कवि के द्वंद्व में हम भी द्वंद्वग्रस्त हो जाते हैं। वे अभिनव विषयों कवि के दायरे में घर-परिवार के अनेक संबंधों के साथ देश-विदेश
से मुठभेड़ करते हुए अपने चिंतन-मनन का वातायान प्रस्तुत कर के अनेक मित्र हैं और वे भी उनके परिवार जैसे उनसे घनिष्ठता से
हिंदी अथवा कहें भारतीय कविता के अन्य कवियों और कविताओं जुड़े हैं। उनकी इस आत्मीयता के अदृश्य रंगों को कविता में उनके
में वरेण्य है। संग्रह ‘किताबें दीवार नहीं होतीं’ (2012) में देखा जा सकता है।
ईश्वर विषयक ‘हां’ और ‘ना’ के दो पक्षों के अतिरिक्त उनके मेरे विचार से समग्र आधुनिक भारतीय कविता में यह कविता संग्रह
यहाँ जो ‘तो’ का एक अन्य पक्ष है, वह कवि का इजाद किया हुआ रेखांकित किए जाने योग्य है। इस संग्रह में कवि ने अपने आत्मीय
नहीं है। तीनों पक्षों को एक साथ में कविता संग्रह का केंद्रीय विषय मित्रों और पारिवारिक जनों पर जो कविताएँ लिखी हैं, वे असल में
बनाना कवि का इजाद किया हुआ है। हिंदी साहित्य में भक्तिकाल अनकी आत्मानुभूतियाँ और हमारा जीवन हैं। इस कविता संग्रह को
में ईश्वर के संबंध में ‘हां’ की बहुलता और एकनिष्ठता है वहीं हिंदी कविता में कवि के व्यक्तिगत जीवन के विशेष काल-खंडों
आधुनिक काल और वैज्ञानिक दृष्टिकोण के रहते बीसवीं शताब्दी और आत्मीय क्षणों का काव्यात्मक-रूपांतरण कर सहेजने-संवारने
में ईश्वर के विषय में ‘ना’ का बाहुल्य है। यह भी सच है कि सुधीर का अनुपम उदाहण कहा जाएगा। व्यक्तिपरक कविता लिखना
सक्सेना अपने काव्यात्मक विमर्श में जिस ‘तो’ को संकेतित करते जहाँ बेहद कठिन है वहीं अनेक ख़तरे भी हैं कि अभिव्यक्ति को
हैं वह बीसवीं शताब्दी के उतरार्द्ध का सच है। कवि के अनुभव किन अर्थों में लिया जाएगा। यह संग्रह सुधीर सक्सेना को हिंदी
और चिंतन में जहाँ तार्किकता है वहीं इन छत्तीस कविताओं में समकालीन कविता के दूसरे हस्ताक्षरों से न केवल पृथक करता है
निर्भीकता भी है। वरन यह उनके अद्वितीय होने का साक्ष्य भी है।

342 n जुलाई से सितंबर 2023 yegh


‘किरच-किरच यक़ीन’ (2013)सुधीर सक्सेना की कविता- कवि कहां और कितनी संभवानाएँ तलाश करने में सक्षम है। जिस
यात्रा को समृद्ध करने वाला कविता-संकलन है। इसमें छोटी अनिर्मित पंथ की बात आरंभ में मैंने की है वह इन्हीं संभावनाओं
और मध्यम आकार की कविताओं में संक्षेप में कवि ने अपने से संभव होता है।
काव्य-कौशल दिखाया है वहीं शैल्पिक प्रयोग से कविताओं को ‘यह कैसा समय’ (2021) संग्रह में समय के साथ बदलते
प्रभावशाली बनाने का हुनर पा लिया है। राजनीति के घटकों को भी कवि ने समाहित किया है। यहाँ हमारे
‘कुछ भी नहीं अंतिम’ (2015)संग्रह अपने नाम को सार्थक समय की त्रासदियाँ और आंकड़ों के जाल निर्भीकता से उजागर
करता अपनी कविताओं से बहुत बार हम में यह अहसास जगाता हुए हैं वहीं इस संग्रह में मेरे शहर ‘बीकानेर’ पर कविताएँ हैं जो
कि सच में कवि के लिए कविता का कोई प्रारूप अंतिम और रूढ़ सुधीर सक्सेना जैसे कवि द्वारा ही संभव है। यह अथवा ‘सलाम लुई
नहीं है। संकलित कविताओं में कुछ शब्दों के प्रयोग को लेकर पाश्चर’ संग्रह उनकी काव्य-यात्रा के ऐसे वृहत्तर मुकाम हैं, जिन्हें
इससे पहले भी मुझे लगता रहा है कि सुधीर सक्सेना जैसे कवि समय रहते पहचाना जाना आवश्यक है।
हमारे भाषा-ज्ञान में भी विस्तार करते हुए नया वितान देते हैं। अनेक सक्सेना की विविधता और बहुवर्णी काव्य-सरोकारों को
ऐसे शब्द हैं जो एक पाठक और रचनाकार के रूप में सक्सेना को जानने-समझने के लिए उनके पूर्व प्रकाशित सात कविता-संग्रहों से
पढ़ते हुए मैंने पाया कि यह भाषा का एक विशिष्ट रूप है जिसे हमें चयनित‘111 कविताएँ’ (2016)मजीद अहमद द्वारा किया गया
सीखना हैं। कविता के प्रवाह और आवेग में कहीं कोई ऐसा शब्द एक महत्त्वपूर्ण संचयन है। संपादक के कथन- ‘सुधीर सक्सेना
अटक जाता है कि हम उस शब्द का पीछा करते हैं। हम शब्दकोश की कविताओं की शक्ति, सुन्दरता के आयामों की विविधता ही
तक पहुँचते हैं और लोक में उसे तलाशते हैं। संग्रह की कविताओं कवि को समकालीन हिंदी कविता की अग्रिम पंक्ति में ला खड़ा
के पाठ को फिर-फिर पढ़ने का उपक्रम असल में हमारा कविता करती है।’
में डूबना है। बहुत गहरे उतरना है। जहाँ हम पाते हैं कि एक ऐसा साहित्य की यह एक त्रासदी है कि हमारे समय के रचनाकारों
दृश्य है जो हमारी आंखों के सामने होते हुए भी अब तक हमसे का समय पर आकलन नहीं होता है। हम साहित्य के शीर्ष बिंदुओं
अदृश्य रहा है। सुधीर सक्सेना की कविताएँ हमें हमारे चिरपरिचित को पहचानते नहीं, संभवतः ऐसी ही न्यूनताओं को दूर करने के
संसार में बहुत कम परिचित अथवा कहें समाहित अदृश्य संसार प्रयास में लोकमित्र से तीन पुस्तकें प्रकाशित हुई है- जैसे धूप
को दृश्य की सीमा में प्रस्तुत करती है। सच तो यह है कि ‘कुछ भी में घना साया (सं. रईस अहमद ‘लाली’), शर्म की सी शर्त
नहीं अंतिम’ संग्रह में गहन संभवनाएँ हैं। यहाँ उनकी काव्य-यात्रा नामंजूर (सं. ओम भारती) और कविता ने जिसे चुना (सं.
के परिभाषित-अपरिभाषित अनेक संकेत देखे जाने शेष हैं। यशस्विनी पांडेय) जो हिंदी के ख्यातनाम कवि सुधीर सक्सेना की
संग्रह की कविता ‘अनंतिम’ पूरी देखें- “कुछ भी अंतिम नहीं/ रचनात्मकता के विविध आयाम प्रस्तुत करती हैं। ‘शर्म की सी शर्त
कुछ भी नहीं अंतिम,/ शेष है एक घड़ी के बाद दूसरी घड़ी,/ नामंजूर’ के संपादक प्रसिद्ध कवि-आलोचक ओम भारती लिखते
उमंग के बाद ललछौंही उमंग,/ उल्लास के बाद रोमिल उल्लास,/ हैं- “वह कवि, अनुवादक, संपादक, इतिहासकार, उपन्यासकार,
सैलाब के बाद भी एक बूंद,/ आबदार कहीं दुबका हुआ एक कतरा पत्रकार, सलाहक़ार इत्यादि हैं। वह पैरोडी बनाने, लतीफ़े गढ़ने,
ख़ामोश/ बची है पत्तियों की नोंक के भी आगे सरसराहट,/ पक्षियों तुके मिलाने, चौंकाने और हँसाने में, कह देने में ही शह देने में
के डैनों से आगे भी उड़ान,/ पेंटिंग के बाहर भी रंगों का संसार,/ भी माहिर हैं। वह शर्तें नहीं मानता और मुक्तिबोध के शब्दों का
संगीत के सुरों के बाहर संगीत,/ शब्दों से पर निःशब्द का वितान/ सहारा लूं तो जिंदगी में शर्म की सी शर्त उसे शुरू से ही नामंजूर
ध्वनियों से पर मौन का अनहद नाद/ कोई भी ग्रह अंतिम नहीं रही है। वह अपना रास्ता ख़ुद चुनता है, और जहाँ नहीं हो, वहां
आकाशगंगा में,/ कोई भी आकाशगंगा अंतिम नहीं ब्रह्मांड में,/ बना भी लेता है।” अभी सुधीर सक्सेना की कविता-यात्रा की विशद
अचानक नमूदार होगा कहीं भी कोई ग्रह/ अंतरिक्ष में अचानक/ पड़ताल शेष है और उनकी रचनात्मकता-रागात्मकता जारी है।
अचानक फूट पड़ेगा मरू में सोता/ अचानक भलभला उठेगा इसलिए यह संभव है कि उनकी कविता-यात्रा से अभी हिंदी कविता
ज्वालामुखी में लावा/ अचानक कहीं होगा उल्कापात/ तत्वों की के लिए कुछ अनिर्मित पंथ बनें क्योंकि उनकी कविताई लीक छोड़
तालिका में बची रहेगी/ हमेशा जगह किसी न किसी/ नए तत्व के कर चली है और चलती रहेगी। n
लिए/ शब्दकोश में नए शब्दों के लिए/ और कविताओं की दुनियाँ संपर्क : सी-107, वल्लभ गार्डन, पवनपुरी,
में नई कविता के लिए।”यह एक कविता जिन विशद अर्थों और बीकानेर- 334003 राजस्थान
घटकों को समाहित किए हुए है वह अपने आप में एक साक्ष्य है कि मो. 9461375668

yegh जुलाई से सितंबर 2023 n 343


n आयतन : गोबिंद प्रसाद

सागर में जैसे मछली की प्यास


डॉ. मलखान सिंह

कई बार सार्थक रचने वाले रचनाकार अलक्षित रह जिसमें इस हत्यारी संस्कृति की समाई हो नहीं सकी।”2
जाते हैं परन्तु उनकी अहर्निश रचनात्मक साधना गोबिंद प्रसाद अपने समय की सही और खरी पहचान
ही उनकी पहचान बन जाती है। सूफी अदब और करने वाले कवि हैं। वे पूंजी और बाज़ार की दम
शायराना मिज़ाज वाले गोबिंद प्रसाद को कला और घोटू व्यवस्था में चुपचाप मर रहे लोगों की आवाज़
संगीत की बारीक़ परख है, इसलिए वे ‘जीवन में बनकर उभरते हैं। अपने वज़ूद को टटोलना,जगाना
लय’ की खोज करने वाले कवि हैं। वे जीवन अनुभव और प्रतिरोध करना दरअसल मनुष्यता के पक्ष में
के रंगों को कैनवास की तरह कविता में उतारकर खड़े होना है। “हर ज़माने में शास्त्र,सत्ता और बाज़ार
समकालीन हिंदी कविता के फ़लक को और अधिक व्यापक बनाते के मायावी प्रलोभन रहे हैं और वर्जनाएँ रही हैं। कविता इन घेरों-
हैं। गोबिंद जी मूलतः हिंदी साहित्य के व्यक्ति हैं लेकिन उनकी बंदिशों से हमेशा बाहर निकली, तभी वह मनुष्यता की मातृभाषा
आवाज़ाही हिंदी-उर्दू-फ़ारसी में समान रूप से है। हिंदी में उनके बन सकी।”3 वह पूंजी, बाज़ार, मीडिया और सत्ता के गठजोड़
अब तक चार कविता संग्रह ‘कोई ऐसा शब्द दो’ (1996) ‘मैं नहीं के प्रति आगाह करने वाले स्वतंत्रचेता कवि हैं– “जब मैं बोलता
था लिखते समय’(2007), ‘वर्तमान की धूल’, (2014) ‘यह हूँ.../ तो दरअस्ल बोलता कहाँ हूँ-/ भीतर-ही-भीतर / कहीं अपने
तीसरा पहर है’ (2018) प्रकाशित हो चुके हैं। में घोलता हूँ / जहर में बुझा वह समय / जिसकी नाव पूंजी और
गोबिंद प्रसाद समकालीन हिंदी कविता के परिदृश्य में नए बाज़ार के / चप्पूओं के गठजोड़ पर चल रही है।” 4
जीवन बोध के साथ उभरते हैं। यह नया जीवन बोध दरअसल गोबिंद प्रसाद अपने समय के सवालों से सीधे टकराने वाले
समाज के परिवर्तित ताप और तेवर के साथ निजी अनुभव की भट्टी कवि हैं। एक तरफ ग़रीबों की अभिशप्त दुनिया दूसरी तरफ रईसों
में पके हुए शब्दों में ढलकर व्यक्त होता है। इसलिए उनकी कविता के चोंचले। एक तरफ श्रम संस्कृति दूसरी तरफ ठग संस्कृति। ऐसे
में अपने समय और समाज के प्रति आलोचनात्मक साहस और में ग़रीबों की वीरान आँखें आज भी मानव संस्कृति के समक्ष एक
सजगता दिखाई देती है। वे समकालीन हिंदी कविता को ‘चिलम में चुनौतीपूर्ण प्रश्न हैं। इसलिए खौफ़जदा करने वाले अमीरों को कवि
आंच’ की तरह धीरे- धीरे सुलगने वाली आग मानते हैं–“कविताएँ अपने लेखन द्वारा चुनौती देता है– अपनी अमीरी का ख़ौफ़ दिखाते
/ ऐसे नहीं आती हैं जैसे चिलम में आँच /वे सुलगती रहती हैं दिनों हो मुझे, मेरी ग़रीबी चुराकर दिखाओ6। ग़रीबों को सहानुभूति नहीं,
दिन चुपचाप।”1 सहयोग की ज़रूरत है। कवि सिर्फ़ अमीरों को ग़रीबों के पक्ष में
एक ऐसे समय में जब सब कुछ बिकाऊ हो,सत्य कई पर्दे खड़े होने के लिए ही नहीं ललकारता अपितु अपने आत्म को
के पीछे छिपा हो, ढोंग और आडम्बर को जीवन मूल्य की तरह भी िझंझोड़ता है। जब समय इतना कठिन हो कि आत्माभिव्यक्ति
परोसा जा रहा हो,अभिव्यक्ति के ख़तरे उठाने को कोई तैयार न के लिए कोई जगह न बचे तो ऐसे जहरीले समय में कवि अपने
हो,चारो तरफ ऊब,उदासी और भय का आलम हो, ऐसे वातावरण भीतर के सोये हुए मनुष्य को जगाता है और तार तार होकर भी
में आवाज़ बुलंद करना दरअसल अपने भीतर की बेचैनी को उस अभिव्यक्ति के ख़तरे उठाता है– “जब मैं बोलता हूँ / तो बोलता
भाषा में प्रकट करना है जिसे कविता कहते हैं-“जब मैं बोलता हूँ…/ कहाँ हूँ / तार-तार कर अपने को / बस अपने को / अपने में सोये
तो दरअस्ल बोलता कहाँ हूँ / अन्दर-ही-अन्दर खौलता हूँ / रह- हुए को / िझंझोड़ता हूँ / जब-जब मैं बोलता हूँ।” 7
रहक़र कहीं अपने को टटोलता हूँ/ भीतर-ही-भीतर/उस भाषा में/ कवि का सृजन उसी भाषा का अनुगामी होता है जो कवि को

344 n जुलाई से सितंबर 2023 yegh


जानती है। जिस भाषा में समय, समाज और संस्कृति से जुड़े अनोखी सघन पुक़ार होती हैं /भीतर की चुप / फूल बन खिलती है/
अनुभव-दृश्यों की समायी न हो, समकालीन कवि को वह भाषा तो कभी / ओस की बूँद करुणा बन ढुलकती है।”13 (यह तीसरा
स्वीकार नहीं है। आज का कवि जीवन से जुड़ी भाषा का प्रेमी है। पहर था– 2018)
जिस भाषा में जीवन जगत न धड़कता हो वह भाषा कविता की कविता अंधरे में डूबे,आत्ममुग्ध,जड़,खल प्रवृत्ति वाले लोगों
भाषा नहीं बन सकती। कविता का सौन्दर्य, उसकी भाषा है। “इस में चैतन्य का विस्तार नहीं करती,समकालीन कवि उसे कविता
कवि ने हिंदी और उर्दू काव्य भाषा की बहुत सी दूरियाँ ध्वस्त कर नहीं मानता। कविता वह है जो मनुष्य को चिंतनशील और
दी है और इस तरह एक नयी काव्य-भाषा बनती हुई दिखती है। क्रियाशील बनाती है। लोभ-लालच से बचकर न्याय के पक्ष में
इसे गोबिंद प्रसाद की एक काव्यगत सफलता के रूप में देखा जाना खड़ा होना,मनुष्यता और प्रकृति की रक्षा के लिए रचनात्मक संघर्ष
चाहिए।”11 गोबिंद प्रसाद की भाषा अपने पाठकों को नए स्वप्नों करना, वास्तव में अँधेरे में मशाल जलाना है। गोबिंद प्रसाद की
की सहयात्री बना देती है और बाज़ार की चकाचौंध में अंधा होने कविता अँधेरे में उजाले की तलाश करने वाली कविता है– “मुझ से
से बचा लेती हैं। विकट से विकट और विषम से विषम स्थिति में बड़ा/ कहीं / मेरा अँधेरा /अन्धेरे से बड़ी/ कहीं /अन्धेरे की छाया/
मनुष्य बोध के साथ जीना सिखाती हैं। रिश्तों की मिठास उसके फिर कहाँ होगा आलोक/ कैसी होगी/आलोक की काया...!”14
जीने के उल्लास को और बढ़ा देती हैं। हर पराये में अपनों को जटिल समय में जब सत्य को पकड़ना मुश्किल हो रहा हो,
ढूंढ़ना और अपनों के बिछड़ने के दर्द को कम करने की कोशिश सच जो रूप–रंग बदलने में माहिर है;उसे अपने लेखन में उतार
करना दरअसल सामाजीकरण का वह धरातल बनाना है जहाँ न पाने की असमर्थता ही गोबिंद प्रसाद का सबसे बड़ा दुःख है–
मनुष्य समाज बोध के साथ जीता है। समाज बोध के बिना दुनिया जब कविता अनुत्तरित प्रश्न बन जाती है–सत्य का रंग नहीं पकड़
के सारे रंग फीके नज़र आते हैं- पाती है तब एकालाप करते कवि के हजारों प्रश्नों की भाषा बहुरंगी
आख़िर कौन-सी भूख़ है मिश्रण बन जाती है। जिसमें बेचैनी,उदासी,निरीहता व असमर्थता
जो हर पराये में भी अपना ढूँढ़ती रहती है के रंग एक साथ उभर आते हैं। गोबिंद प्रसाद उदासी में भी सुलगने
और जहाँ शब्द की दीवारें दरकने लगती हैं वाले कवि हैं– “और कोई दिन कितना अनबीता-सा / जागा रहता
दुनिया के रंग सारे फीके लगने लगते हैं है हमारे भीतर /मुद्दतों तक अपनी उदासी में भी सुलगता-सा।”15
(यह तीसरा पहर था-2018) सस्ती लोकप्रियता, खेमेबाजी से दूर साहित्य और कला की दुनिया
गोबिंद प्रसाद अपने विशिष्ट लहजे और टटकी विषय वस्तु के में डूबे गोबिंद प्रसाद साहित्य को सम्पूर्णता में देखने का हिमायती
कारण तत्काल सम्मोहित कर लेने वाले कवि हैं। इस कवि की छंद हैं। वे विमर्शों से दूर रहक़र भी विमर्शों को अपने लेखन द्वारा
मुक्त पंक्तियों में अद्भुत लय मिलती है। शहर के दमघोटू माहौल ने गहराई प्रदान करते हैं। इस प्रकार हाशिये में जीने वाले उपेक्षित,
जीवनदायी रस को सोख लिया है। बहरहाल जीवनशक्ति को फिर शोषित लोगों का दुःख दर्द उनकी कविताओं में देखा जा सकता
से जुटाने के लिए कवि गोबिंद प्रसाद अपने समकालीन कवियों है– ‘और क्या देखने को बाक़ी है’ कविता में “किसी ने सच ही
को याद करते हैं परन्तु अपने वर्तमान से पलायित नहीं करते हैं। कहा था/ सात जनम भी गर इन सवर्णों का मैला सर पर ढोओगे/
उन्होंने वर्तमान यथार्थ के विविध और जटिल रूपों को अपनी याद रखना तो भी तुम कभी सवर्ण नहीं बन पाओगे।”16
कविता का मूल विषय बनाया है। जब कवि के भाव शब्दों में नहीं विमर्शों के दौर में समकालीन कवि केवल भोगी हुई पीड़ाओं
अट पाते तो वह कला और संगीत की दुनिया से शब्दों को चुनता के साथ नहीं जीता। वह हूक जो सदियों से उसके ज़ेहन में समाई
है और अपनी काव्याभिव्यक्ति को अर्थवान,प्राणवान, बहुव्यन्जक हुई है, वह दर्द ही बदलाव के लिए उसे प्रेरित करता है- “उसे नई
बनाता है। ग़ाैरतलब है कि-“श्रम और संघर्ष के स्वाभाविक सौन्दर्य आशा-विश्वास के साथ जीना सिखाता है। वह पुरखों के अनुभव
से निर्मित कविताओं की कला महज कला के लिए नहीं होती,एक को अपनी थाती समझता है, उसे यूँ ही नहीं गंवाता। उससे बहुत
व्यापक सामाजिक पाठ के रूप में वह सम्पूर्ण मानवता के लिए कुछ करने की ताक़त पाता है। “गोबिंद प्रसाद की कविता बिसरे
होती है।”12 गोबिंद प्रसाद की कविता दिल की वह गहरी पुकार है हुए को फिर स्मृति का हिस्सा बनाती है। वह विस्मृत को विस्मृत
जो कभी ओस की बूंद बनकर,कभी अंतस की आवाज़ बनकर,तो नहीं होने देती। इस बिसरे हुए में एक प्रक्रिया घटित होती है की
कभी शब्द-रंग में ढलकर फूटती है। गोबिंद प्रसाद की कविता उसमे जो व्यथा है, वह निथरकर पुनः धरती की हूक सी उठती
भीतर की चुप्पी तोड़ने वाली कविता है– “ईश्वर की कई बोलियाँ है।”17 गोबिंद प्रसाद प्रकृति विरोधी आचरण के दुष्परिणामों के प्रति
हैं / एक बोली कविता की बोली है / जिसमें भीतर के चुप की / आगाह करने वाले कवि हैं। खाओ-पिओ-मौज उड़ाओ वाली पीढ़ी

yegh जुलाई से सितंबर 2023 n 345


को बिम्बों, प्रतीकों, चित्रों के माध्यम से प्रकृति के प्रति जागरूक का दुःख रचता है तो कभी समाज और व्यवस्था से नाउम्मीद होकर
बनाना, समकालीन कविता की प्रमुख विशेषता है। गोबिंद प्रसाद फंदे में झूलते किसान, मजदूर और बेरोजगार का दुःख रचता है,
की कविता जीवन और प्रकृति के अभिन्नता के प्रति अनुराग जगाने कभी चिड़िया पहाड़ नदियों पेड़ों झीलों झरनों तालाब पोखरों का
वाली कविता है– “आकाश नहीं मेरा मन है /धरा नहीं यह मेरा दुःख रचता है। हर ओझल पक्ष का दुःख कवि का दुःख है। कवि
तन है /नदियाँ, पेड़-पर्वत वन-राजी सब मेरा/धन है” (यह तीसरा की आँख हर दुःख पर रोती है। कवि इसी दुःख से मुक्ति का सपना
पहर था-2018) गोबिंद प्रसाद मनुष्य को प्रकृति के प्रति संवेदन देखता है। इस प्रकार अपने सपने को सबका सपना बनाना ही कवि
शील बनाने वाले कवि हैं। वे अपने पाठकों को प्रकृति की आत्मीय की मूल चाहत है।
दुनिया में ले जाते हैं। जहाँ धरती माँ का ममत्व देखकर सूरज एक रचनाकार जब अनन्त संभावनाओं से भरा होता है तो वह
भी चकित हो जाता है। उनके अनुसार प्रकृति ने ही मनुष्य को कभी हारता नहीं है। उसकी भविष्योन्मुखी दृष्टि ही उसे सार्थक
प्रेम करना सिखाया है–“धरती दिन-रात/ पलक पावड़े बिछाये/ रचनाकार बनाती है। कवि गोबिंद प्रसाद का सारा जीवन दिल्ली
असंख्य अदृश्य हाथों से दुलराती/ असीस देती/ सदा अपना असीम जैसे महानगर के टेढ़े-मेढ़े रास्तों में चक्कर काटते हुए बीता।
आसमानी आँचल/ फैलाये रहती है/ धरती के इस सुभाव पर सूरज/ बीमारी और पारिवारिक अशांति के बावज़ूद उन्होंने अपनी कलम
जब-तब चकित रह जाता है।”18 (यह तीसरा पहर था-2018) को कभी भी थकने नहीं दिया। उनके भीतर का कलाकार सदैव
समकालीन हिंदी कविता मूलतः सर्वसमावेशी और बहुलतावादी जागता रहा– वे प्रकृति के राग ,रंग और रस से अपनी रचनात्मक
है। मानवीय सरोकारों को विवेक का विषय बनाना ही इसका दुनिया को हराभरा बनाते रहे। इस प्रकार गोबिंद प्रसाद जीवन की
मूल ध्येय रहा है। अनेक ऐतिहासिक पड़ावों से गुज़रकर सरस, खुरदुरी ज़मीन में अनंत संभावनाओं की तलाश करने वाले कवि
सुकोमल, प्रखर और चुटीली अभिव्यंजना के साथ समकालीन हैं। n
हिंदी कविता आगे बढ़ती रही है। गोबिंद प्रसाद की कविता किसी
संदर्भ :
विचार विशेष की अनुगामी न होकर सामाजिक प्रतिबद्धता की
1. गोबिंद प्रसाद-कोई ऐसा शब्द दो’1996 फलैप से
कविता है। अपने पूर्ववर्ती और समकालीनों से प्रेरित और प्रभावित 2. गोबिंद प्रसाद–यह तीसरा पहर था,अनुज्ञा प्रकाशन,दिल्ली 2018 पृष्ठ-7
होकर अपनी नयी राह बनाने कवि हैं गोबिंद प्रसाद। उनकी कविता 3. शम्भुनाथ–वागर्थ पत्रिका दिसंबर 2012-पृष्ठ- 48
बहुवर्णी और बहुआयामी है। शोर मचाने के बजाए वे अत्यंत 4. गोबिंद प्रसाद–यह तीसरा पहर था,अनुज्ञा प्रकाशन,दिल्ली 2018 पृष्ठ-7
शालीनता के साथ आत्माभिव्यक्ति करने वाले कवि हैं। वे अपनी 5. तदैव पृष्ठ-16
6. तदैव पृष्ठ-8
बात अत्यंत धैर्य के साथ रखते हैं। इसलिए गोबिंद प्रसाद को प्रेम 7. तदैव पृष्ठ-7
और धैर्य का कवि कहा जाता है। कविता दुःख के मार्मिक यथार्थ 8. तदैव पृष्ठ-17
की सूक्ष्म अभिव्यक्ति है। व्यक्ति विशेष के आलाप को गोबिंद 9. तदैव पृष्ठ-10
प्रसाद निर्जन विलाप मानते है। समष्टि बोध की कविता को वे 10. तदैव पृष्ठ-79
11. तदैव पृष्ठ- केदारनाथ सिंह–फ्लैप वर्तमान की धूल काव्य संग्रह–गोबिंद
सार्थक रचना मानते हैं। जो कवि की संवेदना के साथ पाठकों के प्रसाद
हृदय को द्रवितकर, उसे झकझोर दे, उसे सबके दुःख के साथ जोड़ 12. पंकज परासर–आलोचना सहस्राब्दी अंक -52,राजकमल प्रकाशन नई
दे– वही सार्थक रचना है। इस प्रकार गोबिंद प्रसाद संवेदना का दिल्ली पृष्ठ- 82
नया धरातल रचने वाले कवि हैं। 13. तदैव पृष्ठ-95
14. तदैव पृष्ठ-21
गोबिंद प्रासाद अपनी आवाज़ में अपना विलाप नहीं दूसरों का 15. तदैव पृष्ठ-23
दुःख व्यक्त करने वाले कवि हैं। कवि का दुःख,खीझ, शिकायत, 16. वर्तमान की धूल काव्य संग्रह–गोबिंद प्रसाद पृष्ठ -54
आक्रोश केवल कवि का नहीं है बल्कि कवि अपनी आवाज़ में उस 17. राजेश जोशी–फ्लैप–यह तीसरा पहर था,अनुज्ञा प्रकाशन,दिल्ली 2018
दुनिया का दुःख व्यक्त करता है जिसे लोग अनदेखा कर देते हैं। 18. तदैव पृष्ठ-15
कभी कवि दूर किसी अँधेरे कोने में सिसकते वृद्धों के अकेलेपन संपर्क : असिस्टेंट प्रोफेसर, हिंदी
भारतीय भाषा केन्द्र, जे.एन.यू. नई दिल्ली-67
को रचता है तो कभी चुप्पी के भीतर हरहराते दुःख को रचता है।
मो. 9990765648
कभी रोजमर्रा की भड़-भड़ाहट में गुम होते आत्मनिर्वासित व्यक्ति

346 n जुलाई से सितंबर 2023 yegh


n आयतन : कुलदीप कुमार

कविता संसार में नारी अस्मिता एवं संघर्ष


अनिरुद्ध तिवारी

समकालीन इतिहास और राजनीति के व्यतिक्रमों के दौड़कर बस पकड़ते हुए


बीच कोई शख्सियत जन्म ले लिया करती है। ऐसा हो देखे वे केश
ही जाता है। हो नहीं जाता है, हो ही जाया करता है। लाल बत्ती पर रुके-रुके।”
कोई फ्रांज काफ्का बन जाया करता है, कोई प्रभाष कुलदीप जी एक सुप्रसिद्ध पत्रकार, स्तंभकार एवं
जोशी और कोई महादेवी वर्मा। यहाँ न किसी छाया यशस्वी कवि हैं। उन्होंने जीवन को देखा, समझा और
और न ही किसी छायाभास का ज़िक्र किया जा रहा जाना है। उनकी कविता ‘यही जीवन’ अनुभवों और
है, बल्कि शुद्ध रचनाशीलता की विसंगतिपूर्ण भाषा में भाषाओं का एक ऐसा शब्दकोश है, जिसे पढ़ना इतना
एक दुर्लभ सार्थकता की तलाश करने की एक वैसी कोशिश की आसान नहीं है। यह सब कुछ हर्ग़िज़ शब्द के साथ ही वज़ूद में
जा रही है, जिसे हिंदी की जातीय भाषा में गिलहरी का लघु किन्तु आता है। वे लिखते हैं कि, “शायद उन सभी शहरों में भी जा सकूँ/
महत्त्वपूर्ण प्रयास कहते हैं। हम सब देखते हैं, छूते हैं, यथार्थ को जहाँ बढ़िया खुरचन मिलती है।” हाशिये के प्रति संवेदनशीलता
छूकर देखते हैं और देखकर छूते हैं। क्रियाओं की इन निरर्थकताओं एक इंसान को पेंदे पर ले जाती है और पेंदे पर खुरचन ही नसीब
के प्रति बेहद सावधान कुलदीप कुमार ने जवाहरलाल नेहरू होती है। पर यह नसीब हार और मजबूरी की स्याही और कलम-
विश्वविद्यालय से प्राचीन भारतीय इतिहास और हिंदी साहित्य का दवात से नहीं उत्पन्न है बल्कि एक कवि की जिजीविषा से सृजित
अध्ययन किया। वे वर्ष 1980 से पूर्णकालिक पत्रकार की भूमिका हुआ है। कुलदीप जी रचना संचार अत्यंत गहन एवं व्यापक और
में गम्भीरता से जुटे हुए हैं। ज़िन्दगी के सभी रंगों को समेटते हुए चलता है। उन्होंने अपनी
कुमार जी 'यूनाइटेड न्यूज़ ऑफ़ इंडिया', 'दि संडे ऑब्ज़र्वर', लेखनी के माध्यम से नारी जीवन-मूल्य के विभिन्न पहलुओं को
'संडे', 'दि संडे टाइम्स ऑफ़ इंडिया' और 'दि पायोनियर' में कविता रूपी कैनवास पर उतारा है। उन्होंने नारी को विभिन्न
विभिन्न पदों पर काम किया। मार्च, 1997 में 'दि पायोनियर' भूमिकाओं में उस आधी दुनिया को, जिन्होंने आधा आसमान सिर
के एसोसिएट एडिटर के पद से त्यागपत्र देने के बाद से स्वतंत्र पर उठा रखा है, उनके दायित्वों के बोझ को निरंतर प्रेक्षित करते
पत्रकारिता की। दुबई से प्रकाशित होने वाले अंग्रेज़ी दैनिक 'गल्फ़ हुए तप-त्याग-बलिदान और समर्पण की अपरिभाषेय भावना के
न्यूज़' के लिए दो साल तक एक साप्ताहिक स्तंभ लिखा और जर्मन साथ नश्वर जीवन को साधते हुए बहुबिंबित रूप में चित्रित किया
रेडियो डॉयचे वेले की हिंदी सेवा के लिए लंबे समय तक रिपोर्टिंग है। स्पर्श, घ्राण और श्रव्य बिंब कुलदीप कुमार की कविताओं में
की। विभिन्न हिंदी-अंग्रेज़ी प्रकाशनों में नियमित लेखन किया। पाँच फुमड़ी की तरह तैरते हैं। यह ऐसी फुमड़ी है, जहाँ पर संगाई हिरन
वर्ष तक 'दि हिंदू' में हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत के कार्यक्रमों की निवास करते हैं। प्रतिरोध और मुठभेड़ की एक ऐसी भाषा यहाँ
समीक्षा की। उन्हें मीडिया के माध्यम से संगीत के प्रति योगदान के आमफ़हम तरीके से सामने आती है, जो न्याय की गुहार लगाती
लिए आईटीसी-म्यूज़िक फ़ोरम की ओर से इंटरनेशनल फ़ाउंडेशन है। न्याय! जेरेमी बेन्थम ने कभी ठीक ही कहा था कि, “न्याय एक
फ़ॉर फ़ाईन आर्ट्स का वर्ष 2011 का पुरस्कार दिया गया। पिछले तो इंग्लैण्ड में बिकता है, और वह भी बड़े महँगे दामों पर” इस
कई वर्षों से 'दि हिंदू' और 'आउटलुक हिंदी' में पाक्षिक स्तंभ लिख न्याय की जड़ तक कुलदीप कुमार जी न सिर्फ़ जाते हैं, बल्कि हिंदी
रहे हैं। उनकी एक कविता का अंश है- कविता की पारम्परिक संरचना में अपना विवेक और अपनी आत्मा
“झलकी पार्श्व से वही ठोढ़ी झोंककर कविता करते हैं। वे यह पूरी ईमानदारी और अपने वृहद

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कब उठकर/ खाट से गिरी रज़ाई वह मुझे/ धीरे से ओढ़ाती है/
पुरुष प्रधान इस समाज में नारी जीवन के और बरसों टकटकी लगाकर देखती है।” इस कविता के अंत में
अधिकतर निर्णय किस तरह पुरुषों द्वारा लिए वे लिखते हैं- “माँ नींद में कराहती है/ और करवट बदलकर सोने
जाते रहे हैं और किस प्रकार उसके किसी भी की कोशिश में/ जनम काट देती है।” जनम और मरण का यह
निर्णय में उसकी सहमति अथवा असहमति का व्याकरण कुलदीप कुमार की कविताओं का निकष और निष्कर्ष है।
ध्यान नहीं रखा जाता है इसका एक बेहतरीन पुरुष प्रधान इस समाज में नारी जीवन के अधिकतर निर्णय
उदाहरण उनकी कविता ‘मत्स्यगंधा’ है। किस तरह पुरुषों द्वारा लिए जाते रहे हैं और किस प्रकार उसके
किसी भी निर्णय में उसकी सहमति अथवा असहमति का ध्यान
नहीं रखा जाता है इसका एक बेहतरीन उदाहरण उनकी एक
अनुभवों के साथ करते हैं। जेरेमी बेन्थम के बाद, जॉन स्टुअर्ट कविता जिसका शीर्षक ‘मत्स्यगंधा’ है, में मिलता है। इस कविता
मिल ने अकारण ही नहीं कहा था कि “एक असन्तुष्ट सुकरात एक में वे एक जगह लिखते हैं:-
सन्तुष्ट सूअर से हमेशा ही बेहतर होता है। “कुलदीप कुमार की “स्वयंवर क्या वास्तव में स्वयंवर है?
रचनाओं की एक नज़ीर देखिए, “मेरी सुबह भी काफ़ी अजीब है/ क्या द्रौपदी ने कामना की थी कि वह,
कभी भी हो जाती है।” यह अकेला वाक्य समय को एक वेक्टर उसी से विवाह करेगी जो घूमती हुई मछली
क्वाण्टिटी मानता है। अदिश राशि बिलकुल भी नहीं! की आँख बाण से बीधेगा,
कुलदीप कुमार ने नारीवाद की मूल जड़ों को जनसंचार माध्यमों नहीं,
के ज़रिये समझने की ईमानदार कोशिश की है। वे अपनी द्रौपदी यह शर्त उसके पिता जी ने निर्धारित की थी,
नामक कविता में नारी जगत की, अपने समय की सीमा से युक्त, फिर स्वयंवर में द्रौपदी का ‘स्वयं’ कहाँ है।”
गंभीर लाचारी को व्यक्त करते हुए कविता की नायिका को अभिव्यक्त नारी जीवन जटिल संवेदनाओं का एक गम्भीर ताना-बाना है,
करते हैं कि,“घिसटने के अलावा कोई चारा भी तो नहीं/ यूँ भी जीवन जिसकी बुनावट को समझना एक पहेली है, इसी ताने बाने में वह
भर घिसटती ही रही हूँ/ यदि कभी चली भी हूँ तो दूसरे के ही पैरों जीवन के उहापोह को समेटती हुई आगे बढ़ती है उसे अभिव्यक्त
पर”। इसी कविता में वे आगे कहते हैं “आगे अब कोई राह नहीं/ करने के लिए तो है बहुत कुछ लेकिन वह कहती नहीं हैं,उसके
कभी थी भी नहीं/ जिसने चाहा उसी ने किसी राह पर धकेल दिया।” चेहरे का भाव सहजतापूर्वक उसकी संवेदना को प्रकट कर देते
नारी किस प्रकार तप-त्याग और समर्पण की मूर्ति होने के बावज़ूद हैa। किसी भी विकट परिस्थिति से संघर्ष करना और जूझना उसकी
नियति के भरोसे अपने जीवन को छोड़ देती है इसका व्यापक चित्रण नियति है और इस संघर्ष में उसके दर्द को बड़ी सूक्ष्मता से हृदय
कुलदीप कुमार जी की कविताओं में मूर्त होता है। के अंतरतम में महसूस किया जा सकता है। कुलदीप कुमार जी
राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त की नारी संवेदना पर रचित पंक्तियों की एक रचना जिसका शीर्षक “एक औरत का दर्द” है से एक
यथा–“अबला जीवन हाय तुम्हारी यही कहानी, आँचल में दूध बानगी देखते हैं:
और आँखों में पानी” का प्रभाव भी कुलदीप कुमार जी के रचना “वह एक औरत है,
संसार में परिलक्षित होता है। एक माँ की भूमिका में नारी की जो दूर है,
दुनिया उसका परिवार ही नहीं, बल्कि वृहद कुटुम्ब होता है, वह और जो मुझे देख रही है,
सिर्फ़ अपने लिए ही नहीं जीती है, वरन् अपनी सन्ततियों के जीवन उस औरत की आँखों में वह सब है,
को निखारने और सँवारने में लग जाती है, वह कभी अपने दुख जो उसने अपने दर्द के बारे में,
पर ध्यान ही नहीं देती है सन्तानों को खुशी में ही उसके जीवन कभी नहीं बताया उसकी देह में
का पिथ और सब्सटैंस यानी सार और तत्त्व छिपा है, वह अपने तरह-तरह के फूल हर साल खिलते हैं।”
पहाड़ जैसे दुख को बहुत मामूली किन्तु असमाधेय प्रमेय यानी राई वह सभी मनोभावों की सहजवाहिनी है,इसकी उस सहजता
के बराबर समझती है और अपने बच्चे के राई के समान दुख को और सरलता तथा स्वाभाविकता में कहीं भी लेश-मात्र कोई रोक
पहाड़ मान लिया करती है, इन सभी मार्मिक पहलुओं को कुलदीप या गतिरोध नहीं है। अगर ऐसा कोई गतिरोध है भी, तो बस उसकी
जी ने माँ नामक कविता में बख़ूबी लिखा है। माँ नामक शीर्षक से चेतना में अदृश्य रूप से समाविष्ट है। चैतन्य अवस्था में गतिरोध
एक उदाहरण देखते हैं– “माँ नीद में कराहती है/ रात में न जाने मन:मस्तिष्क पर अपना दीर्घकालिक प्रभाव छोड़ता है। कुलदीप

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कुमार ने कविता के रचना में दो दशक से भी अधिक समय का नदी के बीचों-बीच
विराम लिया है और इस विराम ने उनको लेखन में चक्रवृद्धि ब्याज बलात्कार किया था
के साथ बेहद कोमल और मानवीय तरीके के साथ हम सबके अनाघ्रात पुष्प थी मैं
सामने पेश किया है। विपन्नता, क्षीणता और असहाय होने के नवागत यौवन के झूले में झूलती हुई
बावज़ूद अपने कर्तव्य के प्रति असीम लगाव की अनुभूति अगर इतनी भोली कि यह भी पता नहीं चला
किसी के भीतर दिखलाई पड़ती है तो वह स्त्री का ममत्व है। मेरी देह के साथ क्या घटित हो रहा है
इस ममत्व में छिपी पीड़ा कुलदीप जी के पात्रों में स्पष्ट रूप से चीरहरण की सभी चर्चा करते हैं
झलकती है। लेकिन यह पीड़ा उसकी कर्तव्य-निष्ठा के समक्ष मेरे कौमार्य हरण की कोई भी नहीं!”
फीकी दिखलाई पड़ती है। चारौहे पर लड़की नामक कविता से एक द्रौपदी नामक शीर्षक से कुछ दृष्टांत देखे जा सकते हैं:-
दृष्टांत प्रस्तुत है: “रोज दिखती है वह उसी चौराहे पर/ सर्दी, गर्मी “और मैं?
बरसात/ ओले, आँधी, लू, कुछ भी नहीं रोक पाता उसे/ बंदरिया पूरा जीवन मेरा
की तरह एक नन्हें से बच्चे को सीने से चिपकाए वह कार के पास अंगारों पर ही गुज़रा
जाकर हाथ फैलाती है।” गुज़रता भी क्यों नहीं
कुलदीप जी के काव्य-जगत में स्त्री जगत की संवेदना शून्य से मेरा तो जन्म ही
शिखर की ओर प्रस्थान करती है, इस यात्रा में समाज का प्रत्येक यज्ञकुंड की अग्नि के गर्भ से हुआ था
वर्ग उस संवेदना का सहभागी बनता है। वह कहीं सापेक्ष तो कहीं और तभी से मेरी अग्निपरीक्षा शुरू हो गयी थी
निरपेक्ष रूप में उसके हर पड़ाव में अनवरत साथ होता है, लेकिन हर क्षण यही सोचती रही हूँ
उसकी समस्या के हल में वह कहीं रंच-मात्र सहयोग प्रदान करता मैं पैदा ही क्यों हुई?
हुआ नज़र नहीं आता है। उसकी समस्या का हल वह ख़ुद ही है। क्या सार रहा मेरे इस जीवन का
इस प्रकार हम देख सकते हैं कि कुलदीप जी का साहित्य संसार क्या मिला मुझे?
हमें उस प्रश्न के समक्ष लाकर खड़ा कर देता है जहाँ से नारी पाँच-पाँच पुरुषों की कामाग्नि का संताप, दुस्सह अपमान
संवेदना की शुरूआत होती है। अर्जुन जैसे प्रेमी-पति की उपेक्षा।”
काव्य संग्रह- ‘बिन जिया जीवन’ एक बहुत लोकप्रिय संग्रह कुलदीप जी की कविताएँ किसी बाह्य आडम्बर से परे हैं, वे
है। इसमें कुलदीप कुमार के स्वप्न, उनकी स्मृतियाँ और उनके सीधी एवं सपाट हैं, कहीं भी मुख्य विषय से भटकाव नज़र नहीं
कटु अनुभव दर्ज़ हैं। पाँच दशकों से भारतीय समय को जीते हुए आता है अपितु विषय पर सूक्ष्म दृष्टि दिखलाई पड़ती है। इनकी
एक सचेत, प्रबुद्ध नागरिक की राजनीतिक, सांस्कृतिक मन्तव्य इन कविता जिस टीस को अभिव्यंजित करती है पाठक उसको निरंतर
कविताओं के सृजन का आधार-स्तम्भ हैं। महसूस करते हुए उस विषय पर सोचने को मजबूर हो जाता है और
कुमार जी इतिहास के अध्येता रहे हैं और एक इतिहासकार में उस टीस से जुड़े सभी शिल्प उनके सामने आने लगते हैं। इनकी
अतीत को लेकर जिस तटस्थता की अनिवार्यता होनी चाहिए वह कविताएँ कहीं पौराणिक ग्रन्थों से किसी कथानक को लेकर उसका
‘महाभारत व्यथा’ के स्त्री पात्रों को लेकर लिखी उनकी कविताओं वर्तमान समय की समस्या के संदर्भ में समाधान ढूंढती हैं तो कहीं
मे स्पष्ट रूप से झलकती है, कई जगह तो निर्मम होने के जोख़िम पौराणिक ग्रन्थों के किसी प्रसंग की वर्तमान परिप्रेक्ष्य में एक नई
के साथ यह एक ‘स्त्री पाठ’ भी है। मत्स्यगंधा शीर्षक से कुछ विवेचना प्रस्तुत करती नज़र आती हैं। कविता मत्स्यगंधा से एक
दृष्टांत देखे जा सकते हैं:- प्रसंग देखा जा सकता है– “कौन है इस ध्वंस का उत्तरदायी? द्रौपदी
“बहुत पहले ही की दुर्योधन पर फ़ब्ती? कौरव राजसभा में द्रौपदी का चीरहरण?
मर्यादा टूट चुकी थी और युधिष्ठिर की जुए की लत? दुर्योधन की ईर्ष्या? मर्यादा का क्षरण?
सत्ता पर सवार हो चुके थे नहीं, बहुत पहले ही, मर्यादा टूट चुकी थी और सत्ता पर सवार हो
निरंकुश वासना, अतृप्त लालसा, निर्वसन लोभ चुके थे, निरंकुश वासना, अतृप्त लालसा, निर्वसन लोभ।” n
ध्वंस के बीज तो तभी पड़ गए थे संपर्क : 9 ए/3 एन.पी.एल. कॉलोनी
जब न्यू राजेन्द्र नगर, दिल्ली–110060
ऋषि पराशर ने मुझ नाव चलाने वाली पर मो. 9717761854

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n आयतन : सुभाष राय

कविताओं के अग्नि-वलय से गुज़रते हुए


विंध्याचल यादव

सुभाष राय की कविताओं का सोता संत कवियों प्रधान संपादक के रुप में लखनऊ में काम करते हुए
की अक्खड़ता और छायावाद की स्वच्छंदता की उन्होंने कविताएँ लिखनी शुरू कीं। उन्होंने एक साल
अंत:सलिला परंपरा में धँसा हुआ है। अपने समय तक मासिक साहित्यिक पत्रिका 'समकालीन सरोकार'
की तमाम सत्ताओं की वर्जनाओं, दमन और दबाव का संपादन भी किया। उनका पहला और चर्चित
के विरुद्ध जीवन,आज़ादी,मनुष्यता और सच के पक्ष कविता संग्रह 'सलीब पर सच' बोधि प्रकाशन,जयपुर
में सुभाष राय शब्दार्थ की बारूद बिछा देते हैं जिसकी से 2018 प्रकाशित हुआ। उनका दूसरा काव्य-संग्रह
गंध उनकी कविताओं के तेवर में सूंघी जा सकती 'मूर्तियों के जंगल में' (2022)तथा तीसरा संग्रह न्यू
है। उनकी कविताओं में एक खास तरह की बेचैनी,ललक और वर्ल्ड पब्लिकेशन, नई दिल्ली से समकाल की आवाज़ शृंखला के
ललकार है। लगभग दो शताब्दी पहले 1936 में उसी लखनऊ अंतर्गत 'चयनित कविताएँ'(2023) शीर्षक से प्रकाशित है।
में प्रेमचंद ने कहा था कि अब हमें ऐसे साहित्य की ज़रूरत है जो सुभाष जी की कविताओं के संदर्भ तीन स्तरों पर खुलते हैं।
हममें गति और बेचैनी पैदा करे, हमें सुलाए नहीं,क्योंकि अब और पूंजीवाद, महामारी और सत्ता का प्रतिरोध। प्रतिरोध के साथ प्रकृति
ज्यादा सोना मृत्यु का लक्षण है। सुभाष जी अपनी कविताओं में इस से मनुष्य के बेहद आत्मीय रिश्ते की अनगिनत छवियाँ उनकी
बेमौत मृत्यु के ख़िलाफ़ बड़ी तल्ख जिंदादिली के साथ खड़े हैं- कविताओं में जगह जगह उभरती हैं। 'बादल आये' की इन पंक्तियों
मेरा परिचय उन सब का परिचय है को देखें,तो प्रकृति से मनुष्य के लास्य और ललित रिश्तों की ऐसी
जो सोए नहीं हैं जनम के बाद महक़ उठेगी कि नागार्जुन की कविता 'बहुत दिनों के बाद' में कवि
उनसे मुझे कुछ नहीं कहना का अरसे बाद गन्ना चूसना,तालमखान खाना और धान कूटती
जो दीवारों में चुने जाने से खुश हैं किशोरियों की कोकिल कंठी तान सुनना सब याद हो आता है:
जो मुर्दों की मानिंद घर से निकलते हैं बादल प्यारे कल भी आना
बाज़ार में खरीद दारी करते हैं भींगे मुझको हुआ जमाना। (चयनित कविताएँ)
और ख़ुद खरीदे हुए सामान में बदल जाते हैं बादल के साथ मनुष्य का अपनापा और बादल की मनुहार
जो सिक्कों की खनक पर बिक जाते हैं दिलचस्प है। यह कहा जा सकता है कि इतना प्रीतिकर संबंध तो
ऐसे मुर्दों पर गंवाने के लिए वक्त नहीं है मेरे पास किसानों का ही बादल और प्रकृति से होता है। इसमें सुभाष जी का
मैं अपने जैसे गिने-चुने लोगों को ढंढू रहा हूँ गांव बोलता है। उनका किसान बोलता है। कवि को अपने गांव के
मुझे आग बोनी है और अंगारे उगाने हैं दिन और बचपन की याद आती है, जब वह बारिश में भींगने का
(सलीब पर सच) लुत्फ लेता था। 'हुआ जमाना' कहने में ही आज मशीनों से घिरे
सुभाष राय का कविता कर्म 21वीं सदी के पहले दो दशकों मनुष्य की यांत्रिक जिंदगी की टीस और कृत्रिमता व्यक्त हो गई है।
में आता है,हालाँकि वे वरिष्ठ हैं और चार दशकों की लंबी और यह बाल कविता की शैली में लिखी गई कविता है लेकिन इसमें
प्रतिष्ठित पत्रकारिता के कैरियर के बाद कविता लेखन में मुखर होते नव-औपनिवेशिक समय में अपनी परंपरा, गँवई संस्कृति के स्पेस
हैं। अमृत प्रभात,आज,अमर उजाला,डीएलए, डीएनए जैसे समाचार व उल्लास तथा रिश्तों के माधुर्य को गँवाकर एक आपाधापी से भरी
फोरमों में शीर्ष जिम्मेदारियाँ निभाने के बाद जनसंदेश टाइम्स में रूखी कृत्रिम जिंदगी की घुटन है। इस विषैली घुटन से निकलने

350 n जुलाई से सितंबर 2023 yegh


की छटपटाहट में 'कुछ नया' शीर्षक कविता में कवि फिर से उन्हीं व्यक्तित्व और कृतित्व से 'रिफ्लेक्ट' होती है। दरअसल कविता में
देशज सरोकारों की ओर जाता है और प्रकृति से गझिन आत्मीयता ही नहीं जीवन में भी सुभाष जी का यह किसान लड़ाका मुसलसल
और जिंदादिली की प्रेरणा महसूसता है: जिंदा है। आपातकाल की ज्यादतियों के ख़िलाफ़ आंदोलन करने
“मुझे यक़ीन है मैं बाहर निकलूंगा तो और जेल जाने से लेकर अपनी लेखकीय स्वाधीनता के लिए कई
आसमान में बादल छाएँगे बरसेंगे महत्वपूर्ण पत्र-पत्रिकाओं की स्थापित सेवाओं को छोड़ने तक तथा
हवा तेज होगी और आंधी में बदलेगी अब 'जनसंदेश टाइम्स' अख़बार में बतौर प्रधान संपादक सरकार
अरसा हो गया भीगे,आंधियाँ देखे और विरोधी लेखों विचारों को धड़ल्ले से छापने का साहस आज भी
ओले खाए सोचता हूँ कि यूं ही बैठे बैठे ना मरूँ।” उसी आग की वज़ह से संभव है। यह सुखद है कि आज की तारीख़़
('सलीब पर सच' में संकलित) में हिंदी अख़बारों ने साहित्य और कलाओं के लिए स्पेस खत्म कर
विकास के पूंजीवादी मॉडल ने जिस तरह से मानवीय संवेदना दिया है। सब कारपोरेट के क़ब्जे में जा रहे हैं। तब छोटी-बड़ी
और संबंधों को क्षत-विक्षत किया है, उसमें मानवीय सरोकारों जगहों से खोज कर अनाम और नामवर रचनाकारों को आगे लाना
के फिर से जाम जाने की एक मात्र उम्मीद कविता से ही है और और उन्हें अभिव्यक्ति का फोरम प्रदान करना उसी आग के बलबूते
कवि प्रकृति की जिजीविषा से उम्मीद करता है। 'उग आया हूँ एक संभव हो रहा है।
बार फिर' कविता एक साथ तीन स्तरों पर खुलती है। पूंजीवादी आग से ही सीखा है मैंने
नाश, महामारी के कहर और राजसत्ता के दमन तीनों के ख़िलाफ़ हमेशा सुलगते रहना
प्राकृतिक प्रतीक के भीतर से प्रतिरोध करती है। बारंबार काटे जाने इस तरह ऊष्मा जमा करता रहता हूँ
के बाद भी पेड़ जगह जगह से कल्ले फेंक देता है। यह कविता गहरे मुझे मालूम है एक दिन एक ऐसे
अर्थों में राजनीतिक भी है,और महामारी आदि प्राकृतिक आपदाओं धमाके की ज़रूरत होगी
के कहर के साथ यह कविता राजनीतिक दमन के ख़िलाफ़ भी ताकि उसे हुए चिराग
संघर्ष और उम्मीद की हरी-हरी पत्तियाँ फेंक देती है। एक साथ भभक कर जल उठें”
सुभाष जी की कविताओं में प्रकृति,महामारी, प्रेम और स्त्री (सुलगते रहना, मूर्तियों के जंगल में)
गुंथे हुए हैं। यही कारण है कि उनकी कविताओं में उम्मीद और सुभाष जी प्रकृति के प्रत्येक पक्ष में आग का एक खास रंग देखते
जिंदादिली का तत्व बेहद सघन है। उम्मीद से भरी कविताओं में हैं। वह रंग उगते सूरज में, अंकुआते बीज में,फुनगियों में,कलियों
जहाँ कोमल सृजन का भाव है,स्वप्न है, कुछ कातने-बुनने,सिलने- में, कड़कती बिजलियों में, गर्म लोहे,ज्वालामुखी, यहाँ तक कि
पूरने की कोशिश है, वहीं जिंदादिली से भरी कविताओं में दहक़ती स्वप्न और प्रेम में भी आग का वही रंग देखते हैं। एक विध्वंशक
आग है। आक्रोश की आग। कुछ भस्म कर देने की आग, कुछ रच आग की तीलियाँ हत्यारों के दिमाग में देखते हैं, तो एक सर्जनात्मक
देने की आग। हर तरह के अन्याय और वर्चस्व के ख़िलाफ़ बेधड़क आग दादी के गुड़गुड़ाते हुक्के में;जिसे वे राख में दबाकर रखती
भिंड जाने की आग। हैं भावी पीढ़ियों के लिए। सुभाष राय की कविताओं में इसी आग
सुभाष जी के तीसरे संग्रह 'मूर्तियों के जंगल में' (2022) का (प्रतिरोध-सहनशीलता-सृजन) और प्रकृति (उम्मीद-संघर्ष-
पहला पूरा खंड ही सृजन और संघर्ष की आग पर केंद्रित कविताओं जिजीविषा) के विस्तार के रूप में स्त्री आती है। स्त्री सृजन की
से भरा हुआ है। इस पूरे संग्रह का शिल्प चतुर्स्तरीय है- आग, चेतना के रूप में सुभाष जी की कविताओं में रची गई है। उनके
दुःख (महामारी से उपजा), प्रतिरोध (व्यवस्था के खिलाफ) यहाँ स्त्री अपने देवी-सती आदि आदर्शीकृत पुरुष-निर्मित छवियों
और उम्मीद(प्रकृति और मनुष्यता से) के स्तर। वे बताते हैं कि से भिन्न एक मानुषी के रूप में,एक औरत के रूप में रची गई है -
प्रमथ्यु के यूनानी मिथक के सहारे स्वर्ग में बंद आग को निरीह “यहाँ कोई पद्मिनी नहीं है
और दास जनता के लिए उपलब्ध कराकर उनमें स्वातंत्र्य की सब की सब स्त्रियाँ हैं
चिंगारी बो दी। इसी आग के सहारे सुभाष राय सत्ता के समकालीन चैतन्य,आत्माचेतस स्त्रियाँ”
दमन और वर्जनाओं के विरुद्ध लोहा लेते हैं राज व्यवस्था के (आत्मचेतस स्त्रियाँ, सलीब पर सच)
कहर और महामारी के जहर की काट इसी आग के सहारे ही स्त्री और प्रेम दोनों आनुषंगिक विषय हैं,तो यह देखना रोचक है
सुभाष राय खोजते हैं। किसान पृष्ठभूमि और गंवईं माटी सुभाष कि प्रेम के प्रति सुभाष जी का दृष्टिकोण प्रेम के देहवादी प्रस्ताव के
जी की रग-रग में अपनी शीतलता और आंच दोनों के साथ उनके विरुद्ध है। प्रेम को जायसी की तरह 'फूल मरे पर मरे न बास' के

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स्तर पर अनुभूति, त्याग और समर्पण के 'फिनामेना' में स्वीकारते मजदूरों का अमानवीय माइग्रेशन हो रहा था,जहाँ लोग भूख़-प्यास,
हैं। भीषण ग्रीष्म, थकान और सड़क तथा रेल दुर्घटनाओं से मारे जा
“प्रेम देह को मार देता है रहे थे,तो दूसरी तरफ सरकारी तंत्र गलत आंकड़ेबाजी, रणनीतिक
आंखों का अनंत आकाश एक क्वारण्टीन, अनियोजित लॉकडाउन तथा अमानवीय तरीकों से
दहक़ते फूल में बदल जाता है सैनिटाइजेशन करने में लगा हुआ था। सुभाष जी ने जनता की
गंध में बदल जाता है पूरा शरीर” अपार पीड़ा और तंत्र की इस पूरी लीपापोती को अपनी कविताओं
(प्रेम, सलीब पर सच,) में दर्ज़ किया है। उनका पत्रकार यहाँ बोल उठा है। 'मां उठेगी'
स्त्री को स्त्री और मनुष्य के रूप में मानने तथा उसे प्रकृति के जैसी हृदयविदारक करुणा से भरी हुई कविता में उन्होंने स्टेशन पर
सूक्ष्मतम प्रत्ययों में रूपकीकृत करने में एक अंतर्विरोध तो है जिसे मर चुकी मां की लाश के आसपास खेलते बच्चे की दारुण तस्वीर
सुभाष जी प्रेम के अदेहवादी रूप से हल करते हैं, यानी अंततः वे खींचकर मौत और ज़िन्दगी का ऐसा विद्रूप साकार किया है कि जहाँ
स्त्री के प्रति एक तरह के देवीवाद-सतीवाद का विरोध करते हुए बड़ी बड़ी सत्ताएँ हिल जाएँगी।
उसे दूसरे तरह के पवित्रतावाद में जकड़ देते हैं। जो स्त्री फूलों “बड़े-बड़े तानाशाह हांफ रहे
में गंध बनकर,फलों में स्वाद बनकर, प्रकृति में रूप बनकर, एक मामूली वायरस का कुछ नहीं
अंतरिक्ष में ध्वनि बनकर, नदी, समुद्र, मिट्टी,वन-वन में समाई बिगाड़ सकते ताक़तवर परमाणु बम
हुई है,उसको मानुषी प्रेम करना कितना मुश्किल होगा। सुभाष राय असहाय हैं मौलवी, पादरी,
के यहाँ कन्नड़ संत अक्क महादेवी की गुफा से लौटकर लिखी पुजारी और धर्माधिकारी
गई एक बड़ी ख़ूबसूरत कविता है 'लड़की हूँ'। जिसमें लड़की के ईश्वर बेमियाद क्वैरंटीन में चला गया है
पैदा होने से लेकर बड़ा होकर बराबरी की मांग रखने तक परिवार सारी क्रूरताएँ और बर्बरताएँ
संस्था से लेकर राज्य संस्था तक सबने उसे उसके लड़की होने याचना की मुद्रा में खड़ी हैं निरुपाय”
की सीमा का बोध कराया। मानो सिमोन द बोउवा का वाक्य कानों (वही जिएँगे कल, मूर्तियों के जंगल में)
में गूंजता है कि ‘स्त्री पैदा नहीं होती बनाई जाती है।’ लेकिन जब सुभाष राय की कोरोजीवी कविताएँ मनुष्य की मौत,सरकारी
वही लड़की प्रकृति के पास जाती है तो प्रकृति के प्रत्येक अवयव बेरुखी और मनुष्यता के क्षरण को तो दर्ज़ करती ही हैं, साथ
उसका अपने ढंग से जोरदार स्वागत करते हैं। फूल गंध से उसकी ही लोगों से कटते चले जाने से पैदा अकेलेपन और डिप्रेशन को
झोली भर देता है, नदियाँ अपनी कल कल ध्वनि की मिठास उसके भी कविता में बड़े गहरे रंगों में चित्रित किया गया है। 'घर नहीं
कंठों में उतार देती है। इसी तरह चाँद, चिड़िया, पेड़ सबने उसका पहुँचा अभी' एक ऐसी ही संवेदनशील कविता है, जिसमें मनुष्य
स्वागत किया। लेकिन समाज ने उसे लिंग के आधार पर दोयम के एलिएनेशन की पीड़ा,अपनी जड़ों से कटाव और पूंजीवादी
बताया। स्त्री को लेकर प्रकृति और संस्कृति में मौज़ूद इस विभेद समय में तेजी से बदलते सामाजिक संबंधों के बीच अकेले पड़
को यह कविता बख़ूबी अभिव्यक्त करती है। इस कविता पर नब्बे जाने की बीहड़ त्रासदी चित्रित हुई है। सुभाष राय की कोरोजीवी
के दशक के महत्वपूर्ण कवि मदन कश्यप की प्रसिद्ध कविता कविताओं में 'यह सोने का वक्त नहीं है' और 'दो पक्षियों की बात'
'अंझलि ु या' (नीम रोशनी में)का प्रभाव जान पड़ता है। का उल्लेख ज़रूरी है। दोनों कविताओं में कवि ने महामारी की
स्त्री और प्रकृति की पीड़ा और प्रतिरोध के साथ सुभाष राय मार और सत्ता के दमन दोनों के बीच पिसते आम लोगों की त्रासदी
ने महामारी की करुण कथा अपनी कोरोजीवी कविताओं में गूंथी को चित्रित किया है और बड़े बेधक ढंग से सत्ता की साजिशों को
है जो न केवल दुनियाँ में लिखी गई पैण्डेमिक पोयट्री की परंपरा डिकोड किया है और जन की एकजुटता को महामारी और सरकार
का हिस्सा है वरन् दुनियाँ भर में पूंजीवादी विकास, ताक़तवर की दोहरी मार से निकल सकने का मंत्र बताया है।
राजनीतिक सत्ताओं और धर्मसत्ताओं के तमाम खोखलेपन को सुभाष राय मूलतः एक तीखी राजनीतिक चेतना के कवि
उजागर होते दिखाती है। सुभाष जी ने एक ओर मनुष्य के दुखों हैं। वे भारतीय लोकतंत्र में सरकार और जनता दोनों को अपनी
को और उसकी जिजीविषा से भरे संग्राम को अपनी कविताओं में आलोचना के निशाने पर लेते हैं। इस मामले में वे भारतीय
दर्ज़ किया है तो दूसरी तरफ इस दौरान राजसत्ता के अमानवीय लोकतंत्र और व्यवस्था-विरोध की हिंदी कविता की लंबी परंपरा
और ग़ैर जिम्मेदार किरदार को भी उभारा है। जिससे मनुष्यता की के कवियों मुक्तिबोध,धूमिल, नागार्जुन, रघुवीर सहाय आदि की
त्रासदी और विकट हो गई थी। एक तरफ जहाँ लॉकडाउन में ग़रीब परंपरा से जुड़ते हैं। उन्होंने अगर एक तरफ मरजीवा, बुलडोजर,

352 n जुलाई से सितंबर 2023 yegh


नीरो, बाज की गलतफहमी, भगवान सोने जा रहे हैं, दर्प की सभी भाषा के तिजोरिए बने हुए हों, सरकार का प्रतिरोध देशद्रोह
उड़ान, ठोक दिया जाएगा, एक था राजा, देवता की मुस्कान, की श्रेणी में आता हो,उस दौर में अभिव्यक्ति के सारे ख़तरे उठाते
खल-नायक,तानाशाह,एक सपना जैसी कविताएँ लिखी हैं;जिनमें हुए गढ़ और मठ तोड़ने के लिए सुभाष जी कविता का 'गुरु हथौड़ा'
राजसत्ता की तीखी आलोचना और धर्मसत्ता से उसकी सांठ-गांठ उठाए हुए हैं बार बार प्रहार करते हैं। सुभाष राय का स्पष्ट मानना
और राष्ट्रवाद तथा सांस्कृतिक मोहपाश से जनता को छलने की है कि जिंदादिल जिंदगी वही जी सकता है जो मौत की तैयारी
पूरी प्रक्रिया को परत परत उधेड़ा गया है। इस नजरिए से सुभाष रखता हो। 'सलीब पर सच' में इस भावबोध की कई कविताएँ हैं।
जी अपनी पीढ़ी के विलक्षण कवि हैं जिन्होंने न केवल अपने समय सच के लिए 'शीश उतारै हाथ करि' का कबीरी नशा ही अब देश
की राजनीतिक सत्ताओं की आलोचना की बल्कि उनकी सत्ता पर और संस्कृति की रक्षा कर सकता है। कबीर समाज की तमाम
काबिज रहने की पूरी प्रक्रिया और साजिश को कविता के माध्यम रूढ़ियों और वर्जनाओं के साथ अपने भीतर के बद्धमूल संस्कारों
से डी-प्रासेस किया है। तो वहीं दूसरी तरफ चीटियाँ, बच्चे नहीं को भस्म कर देने के लिए लुकाठा लिए फिरते हैं,तो सुभाष जी के
डरते, डरे हुए लोग, मुर्दे, प्रार्थनाएँ,ट्रेन में, तुम कब जागोगे आदि यहाँ यह लुकाठा बहुत कुछ भस्म करने के लिए भी है और बहुत
ऐसी भी कविताएँ हैं,जिनमें जनता में एकता के अभाव तथा ज़रूरी कुछ पैदा करने के लिए भी है। यह महज संयोग नहीं है कि उन्होंने
होने पर भी साहस के साथ बोल न पाने के कारण सत्ता की मजबूती 'उष्मा' को केंद्र में रखकर कई कविताएँ लिखीं हैं। यह देखना भी
और जनता के दमन को दर्ज़ किया गया है। दिलचस्प है कि सुभाष जी दक्षिणपंथी शक्तियों के 'पोलिटिकल
इसमें 'ट्रेन में' कविता अलग से रेखांकित करने योग्य है। यह हिंदुत्व' की आलोचना तो बेहद तीखी करते हैं, लेकिन उसकी
कविता हमारे आसपास घट रही मामूली और महत्वपूर्ण हर तरह भीतरी काट के तौर पर 'सांस्कृतिक हिंदुत्व' का रास्ता पकड़ते हैं।
की घटनाओं के प्रति हमारे तटस्थ होते जाने की त्रासदी पर लिखी हिंदू जीवन-संस्कृति के भीतर से ही हिंदुत्व की तपती राजनीति
कविता है। यहाँ ट्रेन जीवन सफर है जो चल रहा है। और हम का सामना करने की रणनीति हमारी भक्ति कविता से लेकर गांधी
तमाम चीज़ों को बिना विचलित हुए पीछे छोड़ते चले जाते हैं। इस हमें मुहैया कराते हैं। संभवतः तभी 'मूर्तियों के जंगल में' आख़िरी
तरह यह कविता हमारे राजनीतिक-सामाजिक परिवेश में हो रहे कविताओं में सुभाष जी 'फिर छोड़ आया हूँ अयोध्या','पितरपक्ष
घटनाक्रमों के प्रति हमारे 'डिस-इंगेजमेंट' की कविता है। कहना में मां','पितरपक्ष में पिता' जैसी कविता लिखते हैं,जिसमें पहली
न होगा कि अपने परिवेश के प्रति यह बेरुखी और तटस्थता हमारे कविता में तमसा नदी से राम का करुण वार्तालाप है कि राम के
लोकतंत्र और जन-अधिकारों के लिए क्यों इतनी ख़तरनाक प्रवृत्ति मूल्यों और मर्यादा को ताख पर रखकर 'पोलिटिकल हिंदुत्व' की
है? यही कारण है कि सुभाष जी के यहाँ भारतीय लोकतंत्र की नीति ने अपने क्रूर हितों को साधा है। यह कम दिलचस्प नहीं है
आलोचना से संबधित ं कविताओं में सर्वाधिक कविताएँ अभिव्यक्ति कि सुभाष जी इसी संग्रह के आख़िरी हिस्से में आत्मीय रिश्तों पर
की आज़ादी के सवाल से जुड़ती हैं। 'सलीब पर सच' से लेकर कविताएँ रचते हैं, जैसे, 'मां', 'स्त्री','पिता तुम्हीं हो', 'मेरे पिता'
'मूर्तियों के जंगल में' और 'चयनित कविताएँ' तक में सुभाष राय और 'एक बात छोटे भाई से'। इन रक्त संबंधों से जुड़ी कविताओं
ने अभिव्यक्ति के दमन पर 'वरवर राव के प्रति', बोलने से कौन में आया जीवन प्रसंग हिंदू जीवन पद्धति और संस्कृति के अनुरूप
रोकता है, आसमान की चीख, चिड़िया,आंखों की भाषा,धूल,डरे है। आत्मीय रिश्तों पर कविता लिखने का एक कारण पूंजीवादी
हुए लोग, मुर्दे, मूर्तियाँ,शब्द,मरजीवा आदि तमाम कविताएँ समय का रिश्तों पर घनघोर दबाव भी हो सकता है जिसके उत्तर
अभिव्यक्ति के सवाल पर ही लिखी हैं। में मां,पिता और भाई पर कविताएँ आती हैं। दूसरे इस बर्बर होते
इस प्रकार हम देखते हैं कि सुभाष राय की कविताएँ 21वीं बाहरी समाज और समय का सामना करने के लिए भीतरी संबंधों
सदी के पहले दो दशकों के भारतीय समाज,संस्कृति और की पुकार स्वाभाविक है। निराला याद आते हैं कि– ‘बाहर मैं कर
लोकतंत्र के बदलावों की विश्वसनीय दस्तावेज़़ हैं। भारतीय दिया गया हूँ पर भीतर भर दिया गया हूँ।’ n
राजनीति में दक्षिणपंथी शक्तियों के मजबूत उभार और उसके संपर्क : सहायक प्राध्यापक, हिंदी विभाग,
दूरगामी सामाजिक प्रभावों को सुभाष राय की कविताएँ रेखांकित बीएचयू, वाराणसी,
भी करती हैं और उससे तीखे सवाल भी पूछती हैं। जिस दौर मो. 8004130639
में कवि,कलाकार,पत्रकार,मीडिया, वकील, न्यायालय,अध्यापक

yegh जुलाई से सितंबर 2023 n 353


n आयतन : कृष्ण कल्पित

गद्य में पद्य में समाभ्यस्त...


कमलेश वर्मा

कृष्ण कल्पित की चार पुस्तकों के आधार पर उनके जवाब में मंटो ने कहा था कि
कवि-व्यक्तित्व के बारे में कुछ बातें कहना चाहता ‘शरीफ औरत का कोई अफ़साना नहीं होता!’
हूँ– ‘बाग़-ए-बेदिल’ (2013), ‘कविता-रहस्य’
(2015), ‘हिन्दनामा’ (2019) और ‘रेख्ते के इसी तरह श्लोक शैतान ही लिख सकता है, पार्थ!
बीज और अन्य कविताएँ’ (2022)। वे एक समर्थ सृष्टि का प्रथम श्लोक भी
कवि के दायरे का विस्तार करते हैं। कृष्ण कल्पित एक दस्यु ने लिखा था, सार्त्र! (पृ.-57)
हिंदी कविता की एक दुर्लभ आवाज़ हैं। वे किसी कल्पित की शैली दुश्मन पैदा करती है। उनकी
क्लासिकल कवि की तरह भाषा रचते हैं। उनकी कथन-भंगिमाओं रचनाओं से नाराज़ होनेवालों की संख्या पर्याप्त होगी! कल्पित
को ठीक से पहचाना जाए तो मानना पड़ेगा कि वक्रोक्ति ही काव्य अपनी कविताओं में बहुतों की ख़बर लेते हैं, मगर ऐसा नहीं है
की आत्मा है। उनकी कविताओं की विषय-वस्तु एक सजग कि वे मुग्ध नहीं होते! मीर और नामवर उन्हें बहुत प्रिय हैं।
साहित्य-बौद्धिक की मानसिक दुनिया है। ‘हिन्दनामा’ की कविताएँ व्योमेश शुक्ल और काशी के लिए उनके दिल में प्यारी-सी जगह
नए ढंग की ‘डिस्कवरी ऑफ़ इंडिया’ हैं। भारत की न जाने कितनी है, “नदेसर पर ठंडई छानकर/आप काशी के कवि व्योमेश शुक्ल
छवियाँ इसके पन्नों पर अंकित की गयी हैं। ‘बाग़-ए-बेदिल’ का की...” (पृ.-32)
वातावरण प्रायः साहित्य से जुड़ा है। संस्कृत, फ़ारसी और देशज कल्पित की कविताओं में स्त्रियों के बारे में जिस तरह की
स्रोतों का इस्तेमाल करते हुए कल्पित एक नयी बात कहने का बातें कही गयी हैं, वे प्रचलित स्त्री-विमर्श से अलग ढंग की हैं।
हुनर ख़ूब विकसित किए हुए हैं। ‘कविता-रहस्य’ कविता से जुड़ी वे संस्कृत के संदर्भ लेकर या स्वतःसंज्ञान लेते हुए स्त्रियों के बारे
मान्यताओं, सिद्धांतों और कवि के रचना-अनुभव पर विचार करने में जो कुछ कहते हैं उन पर परंपरागत क्लासिकल पोएट्री की
वाली किताब है। ‘रेख्ते के बीज और अन्य कविताएँ’ की कविताओं छाप है, जल्दबाजी में इन्हें ‘अश्लील’ भी समझा जा सकता है,
में कृष्ण कल्पित के कवि के विकास को रेखांकित किया जा सकता “इस कवयित्री ने कमाल कर दिया– सामूहिक-नग्न-नृत्य का/
है। यह कार्यक्रम/चतुर्भुज स्थान से/रामलीला मैदान तक/बदस्तूर जारी
कल्पित की कविताएँ कविता में लिखी गयी आलोचना हैं। है, सार्त्र!” (पृ.59)
वे इतिहास, राजनीति और साहित्य की आलोचना करते हैं। वे विमर्शों के परिवेश में कल्पित की कविताएँ इस बात को
कविता में बेबाकी के उस दर्ज़े तक जाकर मुखरित होते हैं, जहाँ प्रमाणित करती हैं कि कविता केवल ‘जगतबोध’ से नहीं लिखी
व्यक्तिगत रूप से गलत समझे जाने के ख़तरे मौज़ूद होते हैं। जाती है। उसकी प्राणशक्ति ‘जगतबोध’ के साथ ‘आत्मबोध’ से
आत्मविश्वास और अहंकार के सुंदर मिलन-बिंदु पर पहुँची हुई जुड़ी हुई है। जगतबोध को तरजीह देनेवाले होशियार होते हैं और
काव्य-भाषा कल्पित की पहचान हो सकती है। उनकी अभिव्यक्ति आत्मबोध को तरजीह देनेवाले समझदार! कविता की दुनिया इन
में अहंकार पर एतराज किया जा सकता है, उनके आत्मविश्वास दोनों से बनती है। कल्पित ‘जगतबोध’ और ‘आत्मबोध’ के बीच
को नकारात्मक बताया जा सकता है। मगर जिस संत-सात्विकी से कोई समझौता नहीं करते। वे दोनों को उनकी जगह के अनुसार
बेपरवाह होकर वे अपने को जोख़िम में डालते हैं, वह नायाब है- महत्त्व देते हैं। उनका ‘आत्मबोध’ प्रचलित जगतबोध के ख़िलाफ़
‘आप बुरी औरतों के अफ़साने ही क्यों लिखते हैं?’ भी खड़ा हो जाता है। ऐसे प्रसंगों को सतही तरीके से समझने से

354 n जुलाई से सितंबर 2023 yegh


परहेज करने की ज़रूरत है। कविता भी हैं और आलोचना भी! कृष्ण कल्पित कविता में
‘पार्थ’ और ‘सार्त्र’ को संबोधित करके अपनी बात कहना आलोचना लिखते हैं और उनका गद्य भी कविता है। उनकी पुस्तकें
कल्पित के ‘बाग़-ए-बेदिल’ की कैफ़ियत है। कृष्ण ने पार्थ ‘काव्य’ के पारिभाषिक अर्थ में गद्यकाव्य और पद्यकाव्य को एक
(अर्जुन) को कर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्तियोग की बातें ‘गीता’ साथ समेटती हैं। उनका गद्य काव्य से मुक्ति नहीं चाहता है और
के छंदों में बतायी थीं। मगर इस किताब के कृष्ण ‘कल्पित’ हैं। उनका पद्य महज ‘पद्यबद्ध’ नहीं है– ‘गद्य में पद्य में समाभ्यस्त’।
‘कल्पित’ होने के बावज़ूद वे ‘कृष्ण’ तो हैं ही, इसलिए ‘पार्थ’ कल्पित की कविताएँ असंख्य पुस्तकों के हवाले से लिखी गयी
को संबोधित करने का अधिकार उनके पास सुरक्षित है। नए युग हैं। इतनी सारी पुस्तकों को पढ़ना और मौके के अनुसार, उनमें
के कर्म, ज्ञान और भक्ति के अनेक योग इन किताबों में पैबस्त लिखी बातों का इस्तेमाल अपनी ज़रूरत के हिसाब से करने का
हैं। ‘सार्त्र’ के बिना आधुनिकता संभव नहीं! परंपरा से लेकर कौशल उनमें ख़ूब है। वेद-पुराण से लेकर क़ुरान तक, संस्कृत से
आधुनिकता तक को समेटने की चाहत ने ‘पार्थ’ और ‘सार्त्र’ के लेकर फ़ारसी तक, कला से लेकर इतिहास तक, दिल्ली से लेकर
सम्बोधन को इन कविताओं के लिए प्रासंगिक बना दिया है, काशी तक, राजस्थान से लेकर बिहार तक न जाने कितने संदर्भों
“मृत्यु जीवन का अन्तिम सत्य नहीं है, पार्थ! का बयान उनकी कविताएँ करती हैं। संन्दर्भों में जान डाल देने
जैसे यहाँ काशी में मणिकर्णिका अकेला घाट नहीं है की अद्भुत काव्य-प्रतिभा का निदर्शन इस कवि की पहचान बन
दाह-संस्कार के पहले जीवन को सकती है।
कितनी तरह से जलना होता है! कृष्ण कल्पित पर गंभीर विचार-विमर्श की ज़रूरत बनी हुई है।
यहाँ हर मुरदा चीज़ को जला देने की परंपरा वैचारिक ऊँचाई और भावनात्मक गहराई को जिस आवारगी के
शताब्दियों से चली आती है, सार्त्र!” साथ वे व्यक्त करते हैं, उसमें बसी हुई उच्च कोटि की कलात्मकता
कृष्ण कल्पित की कविताएँ गद्य-पद्य की सीमाओं में नहीं बाँधी को धैर्य के साथ रेखांकित करने की ज़रूरत है। कृष्ण कल्पित के
जा सकती हैं। वे सचमुच में कविताएँ हैं और केवल कविताएँ हैं। हमउम्र कवियों के बीच उन्हें जो जगह मिलनी चाहिए, उसके लिए
कविता कहलाने के लिए उन्हें किसी सहारे की ज़रूरत नहीं है। हिंदी आलोचना को साहस करने की ज़रूरत है और कवि को धैर्य
उनकी काव्य-भाषा इकहरी या दुहरी नहीं हैं, बल्कि वह बहुस्तरीय रखने की! हमारा साहित्यिक समाज लेखन के उचित मूल्यांकन
है। वे छन्द और बेछंद की कविता को साध चुके हैं। कृष्ण कल्पित की माँग करता रहता है, मगर किसी अप्रिय प्रतिभाशाली की उपेक्षा
एक ही साथ मौलिक भी हैं और शास्त्रीय भी! यह दुर्लभ संयोग करने से बाज नहीं आता है।
किसी में यदि दिखता भी है तो कम ही मात्रा में! मौलिकता और नए ढंग और नयी बात के साथ कविता रचना सबके वश की
शास्त्रीयता को एक साथ निभा लेने की अद्भुत प्रतिभा के वे धनी बात नहीं होती है। कल्पित के पास कविता के नए रंग भी हैं और
हैं। वे एक ऐसे कवि हैं जो भाव-प्रवणता में पर्याप्त परिपक्व है। नए ढंग भी! यह ठीक बात है कि हिंदी के महान कवियों की चली
मगर भावुकता का सतहीपन तो जैसे उन्हें छू ही नहीं पाता है। आ रही परंपराओं का विकास होना चाहिए। पिछले तीन दशकों में
उनके रोचक दावे उनकी सभी पुस्तकों के व्यक्तित्व के अटूट केदारनाथ सिंह की काव्य-परंपरा का विकास कई कवियों में देखा
हिस्से हैं। अपनी किताब ‘कविता-रहस्य’ में वे दावा करते हैं कि जा सकता है। कल्पित को किस परंपरा में रखा जाए? मुझे लगता
यह ‘हिंदी का प्रथम काव्यशास्त्र’ है। यह ‘New Criticism है कि किसी एक कवि की परंपरा में कल्पित को रख पाना संभव
उर्फ़ नया काव्यशास्त्र’ है। कृष्ण कल्पित अभिमान से भरी अनेक नहीं है। उनमें कबीर की बेबाकी और नागार्जुन का फक्कड़पन है।
सूक्तियों के रचयिता हैं। उनकी बातों को ‘अहंकार’ समझ लेने विभिन्न स्रोतों से अर्जित शब्द-संपदा और अपनी प्रतिभा से सृजित
पर आस्वाद की दिशा बदल जाएगी, बदली भी है! कोई आश्चर्य वचन-भंगिमा को काव्य-भाषा में पिरोने की उनकी कला निराला
नहीं कि उन्हें ग़ालिब के इस टुकड़े के साथ याद किया जाए कि की याद दिलाती है। यह सब कहने का मतलब यह नहीं है कि
‘शायर तो वह अच्छा है पर बदनाम बहुत है’। भरोसा भी होता है वे कबीर या नागार्जुन या निराला की परंपरा के कवि हैं। उनकी
कि मूल चीज़ कविता है, कवि का नंबर बाद में आता है। कविता कविताओं को पढ़ते हुए इन कवियों की याद आती है,केवल इतना
का इतिहास श्रेष्ठ काव्य-पंक्तियों से निर्मित हुआ है, कवियों की कहा जा सकता है।
जीवनी से नहीं। ‘हिन्दनामा’ कविता की भाषा के सहारे इतिहास में हस्तक्षेप
‘कविता-रहस्य’ और अपनी दूसरी किताबों में वे काव्य और है। इतिहास-ध्वंस के दौर में इतिहासकारों की असमर्थता ‘भूल-
काव्यशास्त्र पर काव्यात्मक टिप्पणी करते चलते हैं। ये टिप्पणियाँ ग़लती’ कविता की याद दिलाती है, जहाँ दरबार में इब्नेसिन्ना,

yegh जुलाई से सितंबर 2023 n 355


के बारे में बात की गयी है। ‘कविता-रहस्य’ में भी कविता के
शास्त्रीय और व्यावहारिक पक्षों पर कई तरह की मारक टिप्पणियाँ
की गयी हैं,
“कविता एक कालिख का नाम है
जिसे कोई सम्मान नहीं मिटा सकता
इसी स्याही से धवल-पट्ट पर कविता लिखी जाती है
हर कवि तमस का पुत्र होता है
घोर-अन्धकार में ही कविता प्रस्फुटित होती है!”
(कविता-रहस्य, बोधि प्रकाशन, पृ.50)
उनके लिए कविता की विषय-वस्तु और कविता के शिल्प के
बीच अभेद की स्थिति है। जो लोग कविता का उपयोग साहित्येतर
उद्देश्य से करते हैं उनका ध्यान विषय-वस्तु की बारीकी पर रहता
है, जैसे अस्मितावादी कविताओं का बड़ा हिस्सा। ऐसी कविताओं
में विचार और वाद को उसके सही रूप में कहने का प्रयास किया
जाता है। कविता की कलात्मकता वहाँ द्वितीयक वस्तु होती है।
इसके विपरीत कलावादी कविताएँ कला के विचार और वाद
को अपने शिल्प में उतारने का प्रयास करती हैं। ऐसी कोशिश
अलगज़ाली, अलबरूनी आदि चुप हो गए थे। ऐसे दौर में एक कवि रीतिवादी, प्रयोगवादी, नकेनवादी, आधुनिकतावादी आदि कवियों
ने अपनी कविताओं के सहारे भारत के इतिहास के मर्म को पेश में कई बार देखने को मिलती है। कल्पित की चिंता कविता की
करने का बीड़ा उठाया है। इस किताब को भारत के एक सपूत की श्रेष्ठ परंपरा को बचाने और विकसित करने की है। वे परंपरागत
चिंता की कविता भी कह सकते हैं। वह चाहता है भारत को ठीक कविता लिखने के हिमायती नहीं हैं, बल्कि परंपरा की श्रेष्ठता को
से समझा जाए। विकसित करने के प्रयासी हैं,
कृष्ण कल्पित की कविताएँ साहित्य के पाठकों के बाहर भी “यूरोप से उठी
समादृत होने की क्षमता रखती हैं। इस मामले में वे भक्त कवियों आधुनिकता की आँधी में
और प्रगतिशील कवियों की तरह हैं। ऐसी कविताएँ कविता के देखते-देखते
साहित्यिक पाठकों के द्वारा तो पढ़ी ही जाती हैं, वे ग़ैर-साहित्यिक कविता कला में बदल गयी जो कभी पंचमी विद्या थी
या कम साहित्यिक लोगों के द्वारा भी समझी-सराही जाती हैं।
‘रेख्ते के बीज और अन्य कविताएँ’(2022) की पहली कविता यदि कविता कला होती
है ‘एकल कविता पाठ’ और अंतिम कविता है ‘गद्य की ग़ुरबत उर्फ़ तो कवि कलाकार होता
छंदों को देश-निकाला’। इन दोनों कविताओं में कविता की चिंता नहीं होता ब्रह्मा का सहोदर
है। तीस बरसों की काव्य-यात्रा में यह चिंता कवि को बराबर लगी
रही है कि कविता की श्रेष्ठ परंपरा कैसे बची रहे, कलाएँ चौंसठ थीं
“सब कुछ था वहाँ पर सब कुछ जिसे उपविद्या में परिगणित किया था वात्स्यायन ने
सिर्फ़ कविता को छोड़कर!” (पृ.-12)
आधुनिक वात्स्यायन के तार-सप्तक के बाद
“फिर कब खिलेंगे इस मरुभूमि में कविता कलाकारी थी” (पृ.- 212)
कविता के पुष्प” (पृ.- 214) इसी संग्रह की कविता ‘रेख्ते के बीज’ को महत्त्वपूर्ण माना जाना
कृष्ण कल्पित कविता की चिंता लगातार करते रहे हैं, जैसे चाहिए। कल्पित के अनुसार यह कविता ‘उर्दू-हिंदी शब्दकोश पर
रामचंद्र शुक्ल जीवन भर ‘कविता क्या है’ निबंध को सँवारते रहे! एक लम्बा पर अधूरा वाक्य’ (पृ.-56) है। इस बात को ‘कविता-
इस संग्रह की आधी कविताओं में किसी न किसी रूप में कविता रहस्य’ की इस पंक्ति से जोड़कर देखना चाहिए कि ‘और एक

356 n जुलाई से सितंबर 2023 yegh


संपूर्ण वाक्य एक संपूर्ण कविता है’ (पृ.-37)। ‘रेख्ते के बीज’ बढ़ाना है। वे अपने समय के कवियों, कथाकारों, संपादकों और
कविता में शब्दों को वाक्य में और वाक्य को कविता में बदलते आलोचकों को ख़ूब याद करते हैं। कुछ की कड़ी आलोचना करते
हुए दिखाया गया है। यह भी संकल्प है कि कविता गद्य या पद्य में हैं और कुछ ही हैं जिनकी वे प्रशंसा करते हैं। थोड़ा ध्यान देकर
नहीं लिखी जाती है, वह भाषा का एक विशिष्ट विन्यास है। यह भी पढ़ा जाए तो उनकी कविता आलोचना का काम करती है। साहित्य
बताया गया है कि हिंदी कविता के पुष्ट बीज ‘रेख्ते’ के भीतर भी और साहित्यिक दुनिया से जुड़े प्रश्नों पर की गयी उनकी तीखी
मौज़ूद हैं। कृष्ण कल्पित की सभी किताबों को मिलाकर पढ़ा जाए टिप्पणियाँ एक तरह का आलोचनात्मक मूल्यांकन हैं। उदाहरण के
तो यह प्रतिभाषित होता है कि हिंदी कविता की परंपरा को पुष्ट तौर पर कुछ पंक्तियों को पढ़ा जा सकता है:
बनाए रखने के लिए ज़रूरी है कि उर्दू-हिंदी, देशी भाषा, फ़ारसी, “लिखना एक लड़ाई है
संस्कृत और अंग्रेजी की मिली-जुली काव्य-परंपरा को अपनाने की यह एक ख़ून-ख़राबा है!” (पृ.-79)
ज़रूरत है। इन सभी भाषाओं को मिलाकर पढ़ने-समझने-रचने
पर ही हिंदी क्षेत्र की भारतीय काव्य-परंपरा को प्रतिनिधित्व प्रदान “अगर देश के सारे कविता-संग्रह जलाए जाएँ
किया जा सकता है। आज की हिंदी कविता को इस समृद्ध विरासत तो दो-चार साल तक आग न बुझे
का अनुगमन करना चाहिए,
“नए कवि को सुनो मैं किसी ऐसे मनुष्य से मिलना चाहता हूँ जो कवि न हो
उसमें सारे पुराने कवि शामिल हैं!” (पृ.-103)
मैं चाहे कबूतर की सूखी हुई बीट हूँ
‘बाग़-ए-बेदिल’ की कुछ पंक्तियों को भी इस तारतम्य में रखा पर कवि नहीं हूँ!” (पृ.-72)
जा सकता है। उन पंक्तियों में कृष्ण कल्पित को काव्य-भाषा की
विविध परंपरा की चिंता करते हुए पढ़ा जा सकता है, “कविता एकमात्र कला है दुनिया में
“हिंदी उर्दू फ़ारसी जिसके लिए मनुष्य होना ज़रूरी होता है!” (पृ.-83)
संस्किरत है एक। ‘बाग़-ए-बेदिल’ में वे नाम लेकर साहित्यकारों पर टिप्पणियाँ
कालिदास पढ़कर पढ़ो करते हैं। नामवर सिंह, अशोक वाजपेयी, राजेन्द्र यादव, पुरुषोत्तम
हाफ़िज़ सादी शेख। । (पृ.-251) अग्रवाल, अज्ञेय, ज्ञानेंद्रपति, अरुण कमल आदि पर की गयी
टिप्पणियों में जो मूल्यांकन मौज़ूद है उसे गंभीरतापूर्वक पढ़ने की
“–कभी तुम हिंदी लिखते हो ज़रूरत है। मीर और ग़ालिब उन्हें बहुत प्रिय हैं। इन बातों के सहारे
कभी उर्दू, कभी फ़ारसी, कभी संस्कृत यह कहने का प्रयास किया जा रहा है कि कृष्ण कल्पित हिंदी
आख़िर तुम किस भाषा के कवि हो, कल्ब-ए-कबीर? कविता की पूरी परंपरा और समकालीनता को ध्यान में रखकर
कवि-कर्म-रत रहे हैं।
–मैं किसी भाषा का कवि नहीं हूँ, पार्थ! उनकी कविताओं को प्रबंध की तरह पढ़ने की ज़रूरत है। न
मैं भाषातीत हूँ जाने कितने संदर्भों को उनकी कविताएँ समेटे होती हैं। इतिहास,
कवि-कुलांगार!” (पृ.-320) साहित्य और लोक उनके मुख्य संदर्भ हैं। इन पक्षों को अधिक से
कृष्ण कल्पित की कविताएँ जिस काव्य-बोध के साथ रची अधिक जाननेवाला व्यक्ति उनकी कविताओं के मर्म तक ज्यादा
गयी हैं उसे हम हिंदी प्रदेश का संपूर्ण भाषिक काव्य-बोध कह पहुँच सकता है। इतिहास के प्रबंधात्मक संदर्भों को ‘हिन्दनामा’
सकते हैं। भाषा को महज भाषा या साधन नहीं समझना चाहिए। की कविताओं में पढ़ा जा सकता है। ‘कविता-रहस्य’ में काव्य-
वह अपने आप में संपूर्ण कविता होती है। भाषा में समाज बोलता सिद्धांतों के भरपूर संदर्भ उपलब्ध हैं। कृष्ण कल्पित थाती-प्रधान
है, प्रतिबिंबित होता है और पुनर्रचित होता है। ‘रेख्ता’ शब्द के कविताओं के शिल्पी हैं।
माध्यम से कृष्ण कल्पित उपर्युक्त परंपरा को पहचानना चाहते हैं। उनकी कविताओं के कई रंग हैं। उन रंगों का समेकित प्रभाव
उनका विश्वास है कि हिंदी कविता के पास समृद्ध परंपरा रही है। भी है। यह प्रभाव कवि की दृढ़ता को प्रकट करता है। साफ़ भाषा
उस परंपरा का निर्वाह करते हुए उसके आगे की कविता लिखना में साफ़-साफ़ बात करने का ऐसा स्वभाव इस कवि को मिला
सबके वश की बात नहीं है, मगर ऐसा लिखना ही कविता को आगे है कि गूढ़ बातें भी उसकी कविता की अनुगामिनी बन जाती हैं।

yegh जुलाई से सितंबर 2023 n 357


‘सरमद’ शीर्षक कविता की गद्य-भाषा को पढ़ते हुए कविता का मजेदार कविता है ‘चेतना पारीक की याद’। ज्ञानन्े द्रपति और
जो सुख प्राप्त होता है वह उसकी वैचारिकी से संबधित ं है। ‘सुनो जीवनानंद दास को संदर्भित करते हुए जिस अंदाज़ से यह कविता
प्रधानमंत्री’ (2019) और ‘नया काफ़िर बोध’ (2016) में जो लिखी गयी है उसने इससे जुड़ी पहले की कविता के मजमून को
राजनीतिक पक्ष प्रकट हुआ है उसे सतही तरीके से पढ़ने पर मर्म लगभग छीन लिया है। हास्य-व्यंग्य-बोध को जिस ऊँचाई पर ले
तक पहुँचने की संभावना नहीं रह जाती है। ये कविताएँ केवल जाने की क्षमता कृष्ण कल्पित में है वह क्षमता अर्थ को गहराई
आज की राजनीति पर टिप्पणी नहीं हैं। इन्हें पूरी पृष्ठभूमि के साथ प्रदान करती है।
समझना चाहिए। भारत की धार्मिक परंपराओं में परस्पर शिरकत कृष्ण कल्पित छन्द के साधक हैं। उनके छंदों में कोई दोष
होने की स्वीकृति को कोई झुठला नहीं सकता। कट्टरता राज कर प्रायः दिखायी नहीं पड़ता है। मगर इस किताब में उन्होंने एक भी
सकती है, मगर सच को बदल नहीं सकती है- छंदोबद्ध कविता नहीं रखी है। गद्यात्मक कविताओं का यह संग्रह
“इस मठ में मुसलमान जोगी जब ईद मनाते थे अद्भुत प्रभाववाली काव्य-भाषा में रचा गया है। मैं पहले भी कह
तो अबीर गुलाल भी उड़ाया करते थे चुका हूँ कि कविता की भाषा गद्य या पद्य की मोहताज नहीं होती।
यह तुम्हारी जगह नहीं है, ठाकुर!” (पृ.-141) भारतीय काव्य-परंपरा में गद्य को भी काव्य की श्रेणी में रखा गया है
भारत का बदलता हुआ राजनीतिक परिदृश्य इन दोनों कविता और माना गया है कि पद्यात्मक होना काव्य होने की अनिवार्य शर्त
में चित्रित हुआ है, मगर एक पक्षधरता के साथ! नहीं है। मगर हिंदी कविता में छन्द मुक्त से मुक्त छन्द की यात्रा
कृष्ण कल्पित का मन कविता पर विचार करने के बाद सबसे तक पहुँचते हुए प्रायः ऐसी भाषा को काव्य-भाषा बनाने की कोशिश
ज्यादा रमता है लोक में। लोककथा, लोकजीवन, लोकभाषा के न की जाने लगी जिसकी साहित्यिकता ही संदिग्ध होती थी। गद्य को
जाने कितने रूप इनकी कविताओं में मिलते हैं। यह दौर लोक के पढ़ते हुए कविता की आनंदानुभूति हो तब मानना चाहिए कि वह
बाज़ारीकरण का है। लोक के नाम पर नया बाज़ार बन चुका है। काव्य-भाषा है। कृष्ण कल्पित की काव्य-भाषा पिछले तीस वर्षों में
गंगा की रेती पर टेंटसिटी में धर्म, लोक और पूँजी का आकर्षक विकसित होती हुई हिंदी की गद्यात्मक काव्य-भाषा का सुंदर नमूना
बाज़ार अपना नया रंग दिखा रहा है। मंदिरों को पर्यटन स्थल के है। छंदों का सहारा लिए बग़ैर भावबोध की काव्यात्मकता के सहारे
रूप में विकसित किया जा रहा है। लोक की जैसी झाँकी रेगिस्तान भाषा के ऐसे रूप की रचना कोई आसान काम नहीं है। यह काम
के वासी कवि कल्पित ने पेश की है, वह बाज़ार के दायरे में समाने हिंदी के अनेक कवि निरंतर कर रहे हैं। केदारनाथ सिंह, राजेश
से इनकार करती है। ‘उमरकोट की सईदा : एक दुर्दांत प्रेम कविता’ जोशी, ज्ञानेंद्रपति आदि कई कवियों को उनकी भाषा के कारण इस
(1993) को पढ़ते हुए लोक के कई पक्ष से परिचय होता। यह प्रसंग में याद किया जा सकता है। गद्य में कविता लिखना, केवल
कविता भारत-पकिस्तान के बँटवारे में बँट चुके प्रेम-संबंधों की भी देखने में आसान लगता है। गद्य को काव्य-भाषा बनाने के लिए
लोक-स्मृति है। इसमें ‘साँडनी’ शब्द है। यह मेरे लिए नया शब्द गद्य को भी साधना पड़ता है और काव्य-भूमि को भी! वहाँ एक
था। अर्थ मालूम हुआ कि ऊँटनी को ‘साँडनी’ कहते हैं। कवि ऐसी भाषा रची जाती है जो गद्य की कसौटी पर भी ठीक दिखे और
कल्पित लोक से सटीक शब्द लेते हैं। ऐसी ही काली ‘साँडनी’ पर कविता की मर्म-भूमि की भी रक्षा करे!
चढ़कर आती थी सुगन कँवर, वह कवि की राजपूत प्रेमिका थी। कल्पित की कविताएँ व्यापक अर्थ में हिंदी कविता के पिछले
‘मेरी प्रेम कथाएँ’ कविता में राजपूत, ब्राह्मण, दलित, बनिया, तीन दशकों के इतिहास को प्रतिबिंबित करने का प्रयास करती हैं।
सुनारन, बंगाली मालाकार, कायस्थ, गूजरी, कुम्हारन, मालन, इसके विषयों की विविधता न केवल समकालीन है, वह पुरातन-
जाटनी, पठान प्रेमिकाओं का ज़िक्र है। सबने प्रेम किया। अर्थ है सनातन-नवीनतम है, वह राजनीतिक है, वह प्रेम का आख्यान
कि सबको प्रेम करने का अधिकार है। प्रेम की सर्वव्यापकता को लिए हुए है, वह कवि की पीड़ा है, वह कविता के सपनों से भरी
जिस देशी अंदाज़ में कवि ने पेश किया है वह दार्शनिकता के स्तर है, वह दरवेश-दार्शनिक की सार्थकता का बयान करती है, वह
की होकर भी कथा-कहानी की तरह मालूम पड़ती है, हँसती भी है, व्यंग्य भी करती है और न जाने कहाँ-कहाँ के चक्कर
“उस गूजरी हरखी को कैसे भूल जाऊँ लगा आती है। n
कैसे भूल जाऊँ कमला कुम्हारन को जो ओक से पिलाती संपर्क :A-20, सन्धिनी, त्रिदेव कॉलोनी,
थी शीतल और मीठा-जल चाँदपुर, वाराणसी-221106
और वह मधु नाम की मालन मो. 09415256226
जो छिपाकर लाती थी मेरे लिए मीठी गाजर” (पृ.-98)

358 n जुलाई से सितंबर 2023 yegh


n आयतन : ओम निश्चल

पलकों में स्वप्न बसे हैं, होठों में गीत बसा है


डॉ. आनन्द वर्धन द्विवेदी

गए दो तीन दशकों में हिंदी कविता के विवेचन प्रचुर गद्य लेखन का साक्ष्य हैं। साठोत्तर कविता के
मूल्यांकन को ग़ाैर से देखा जाए तो इस क्षेत्र में एक वैचारिक पहलुओं पर शोध करने वाले ओम निश्चल
शख्स पूरे मन और समर्पण से संलग्न रहा है। उसकी ने साठ से अब तक के अनेक कवियों पर नीर-क्षीर
आलोचनाएँ समीक्षाएँ कविताएँ गीत सब उसकी विवेक के साथ लिखा है।
शख्सियत के विधायक तत्व हैं। इस शख्‍स ने हिंदी ओम निश्चल की साहित्यिक शख्सियत के अनेक
समीक्षा-आलोचना को एक प्रांजल और समावेशी पहलू हैं। वे मूलत: कवि-गीतकार थे तथा गौणत:
भाषा दी है। साथ ही भाषा को आम आदमी तक एक आलोचक लेकिन संयोगवश वे धीरे धीरे मुख्यत:
ले जाने के अपने प्रयासों को मूर्त रूप दिया है। पिछले दिनों एक आलोचक ही होते गए और गौणत: कवि। भाषा से उनका रिश्ता
पुस्तक भाषा को लेकर चर्चित रही है वह थी :भाषा की खादी। व्यावसायिक रहा है। हिंदी गीत रचना में जैसा पद-लालित्य उनके
भाषा का आम आदमी से वही रिश्ता है जो हिंदी का हिंदुस्तानी गीतों में देखा जाता है, वैसा अन्य गीतकार-कवियों में कम। उनकी
से। भाषा की खादी जैसी अवधारणा पर पहली बार किसी ने इतनी आलोचना पर बात होती रही है। उसका वितान बहुत विस्तृत है।
सक्षमता से कलम चलाई तथा हिंदी-हिंदुस्तानी, भाषा, राजभाषा गए पांच छः दशकों की हिंदी कविता का ऐसा क्लोज रीडर और
तथा हिंदी के प्रचार प्रसार में आने वाली कठिनाइयों का समाधान उस पर टीका लिखने वाला दूसरा कोई आलोचक न होगा। लेकिन
देती व भाषा व संस्कृति के ताने बाने को ख़ूबसूरती से सहेजती आज चर्चा उनके गीत पक्ष पर होनी है। जैसा कि विदित है कविता
ऐसी पुस्तक केवल वही शख्स लिख सकता था जिसका भाषा से में उनकी उपस्थिति का साक्ष्य उनका संग्रह 'शब्द सक्रिय हैं' है,
सघन रिश्ता हो। जो 1987 में प्रकाशित हुआ। कहना न होगा कि वे नवगीत के
बीते चार दशकों से काव्य, आलोचना और भाषा-चिंतन के बेहतरीन रचनाकारों में शुमार किए जाते हैं। इसकी वज़ह शायद
क्षेत्र में कार्यरत ओम निश्चल की अनेक ख़ूबियाँ हैं। आलोचना के यह कि उन्होंने ठाकुरप्रसाद सिंह, शंभुनाथ सिंह सरीखे कवियों के
क्षेत्र में नंद किशोर नवल, परमानंद श्रीवास्तव, विश्वनाथ प्रसाद संपर्क में रह कर गीत की संरचना एवं पदलालित्य की सीख ली
तिवारी तथा विजय कुमार की अगली पीढ़ी के जिन कुछ लेखकों है। कोरोना समय में भी ओम जी ने अनेक कविताएँ पत्र पत्रिकाओं
और सहृदय आलोचकों की समावेशी आलोचना पर निगाह जाती एवं महत्वपूर्ण वेब पत्रिकाओं के लिए लिखीं जिनमें मजदूरों, और
है उनमें एक नाम ओम निश्चल का भी है। उन्होंने कविताओं आम आदमियों को कोरोना विस्थापन से जो कष्ट हुआ उसे बहुत
और गीत लेखन से शुरुआत की किन्तु धीरे धीरे आलोचना में ही मार्मिक ढंग से अपनी कविताओं में उकेरा है।
उनका पथ प्रशस्त होता गया और मुख्यत: आलोचक के रूप इधर कोरोना जैसे उनकी रचनात्मकता का एक डिवाइडर
में प्रतिष्ठित होते गए। हाल के वर्षों में उनकी लिखी कृतियाँ: प्वाइंट भी है। कोरोना में उनके एक से एक मुखर गीत पढ़ने को
शब्द सक्रिय हैं, कविता के वरिष्ठ नागरिक तथा समकालीन हिंदी मिले। आजतक वेबसाइट पर उन्होंने लगातार लिख कर कविता
कविता: ऐतिहासिक परिदृश्य और हाल ही प्रकाशित कवि विवेक में अपने समय की त्रासदी को पिरोने की पहल की। ''देश बचा
जीवन विवेक : कविता का वैचारिक हस्तक्षेप, निबंधों की पुस्तक लो जान बचा लो/ भारत का सम्मान बचा लो/ पार्थ चलाओ वाण
: हिंदी का समाज, समाज की संस्कृति एवं संस्मरणों की पुस्तक कि पूरा देश सुलगता है/ सांस का पंछी पिंजरे में ही पड़ा तड़पता
खुली हथेली और तुलसीगंध– उनकी आलोचकीय सक्रियता एवं है।'' तथा ऐसे ही बहुत मार्मिक गीत लिख कर उन्होंने कोरोना की

yegh जुलाई से सितंबर 2023 n 359


इस विश्व त्रासदी को शब्द दिए। किन्तु उनका कवि सुकोमलता गीत संगीत की लहरियों की उत्फुल्ल तरंगों का बोध करा देता है कि
का साक्षी भी रहा है सो गीतों में तात्कालिकता के कथ्य से बचते सब कुछ बजने सा लगता है। इस गीत के बोल देखें–
हुए प्रकृति, मानवीय संबंधों, प्रेम के भी अनेक गीत उन्होंने लिखे। यह उमड़ घुमड़ मन की
उनके गीतों में भाषा की प्रखर तेजस्विता बोलती है। जब वे सावन ये आहटें पवन की
भादों की बारिश पर लिखते हैं तो जैसे डूब से जाते हैं- यह धान झकझोर झूम बारिश
का मौसम है ऐसा ही बेहतरीन गीत है जिसमें उनका किसानी मन ये बिजलियाँ गगन की
भी झूम झूम कर गा उठता है। गीत के बोल देखें– खोलो ये खिड़कियाँ भी थोड़ा तो पास आओ
बादल से कहो बरसें बारिश की तरह आओ। बूँदों की तरह गाओ।
पांवों से कहो थिरकें गीत की संवेदना तो बहुत नाज़ुक होती है। जरा सा स्नेह मिला
हैं कह रहीं फिजाएँ कि मन पिघल का बादल बादल हो गया। तनिक नाख़ुशी हुई कि
अरघान का मौसम है रूठ बैठा। ओम जी के गीतों में इसका पूरा खयाल मिलता है। वे
यह धान का मौसम है। यह धान का मौसम है। गीतों में जैसे प्रिय से मनुहार करते हैं। शिकायत भी बहुत ही मीठे
अंदाज में करते हैं। वे अक्सर चर्चा में गीतों की बुनावट के बारे में
है क्वार में दशहरा सुपरिचित कवि व वंशी और मादल के रचनाकार ठाकुरप्रसाद सिंह
कार्तिक में है दीवाली की बात को उद्धृत करते हैं। वे कहते थे कि गीतकार को बनारस
कुदरत ने सजाई है के पनवाड़ी की तरह होना चाहिए। मघई पान का बड़ा पत्ता पकाते
ज्यों अल्पना की थाली पकाते जब वह बहुत छोटा-सा हिस्सा रह जाता है परिपक्व तब
कांधे धरे अँगोछा खलिहान का मौसम है। उस पर वह पान का बीड़ा लगाता है जो कंठ में डालते हुए ही घुल
यह धान का मौसम है। जाता है। ऐसे ही है गीत की बुनावट का स्थापत्य। उन्होंने एक या
इसी तरह वे सावन भादों के गीत लिखते हैं तो जैसे पूरी कुदरत दो पद के गीत भी लिखे किन्तु उनकी बिम्ब रचना बेहतरीन हुआ
नाचने लगती है। इसी मौसम का एक गीत है बूँदों की तरह गाओ। करती थी। वंशी और मादल के गीतों को आज भी इसीलिए नवगीत
बहुत ही मधुरिम लय के अपूर्व विन्यास में सहेजा सिरजा हुआ यह या नए गीतों के एक माॅडल के रूप में याद किया जाता है। ओम
निश्चल ठाकुरप्रसाद सिंह के सान्निध्य में रहे हैं इसलिए वे निश्चय
ही उनके गीतों से अपनी राह चुनते हैं। उनके एक मनुहार गीत के
अंश देखें–
यहाँ पे आडुओं के सेब के घने दरख्त हैं
मिज़ाज़ से नरम बहुत मगर ये दिल से सख्त हैं
यहाँ मिलेंगी जिंदगी की साखियाँ
कि आ भी जा!
बुला रही है प्यार से ये घाटियाँ
कि आ भी जा!

यहाँ पे बादलों के गुच्छ गुच्छ खिलखिला रहे


नहा के जैसे पक्षियों के झुंड गुनगुना रहे
गिरा रहे हैं मन पे जैसे बिजलियाँ
कि आ भी जा।
बुला रही है प्यार से ये घाटियाँ
कि आ भी जा!
ओम निश्चल के यहाँ मनुहार के शृंगार के गीत हैं तो विरह
और अवसाद के गीत भी कम नहीं। जीवन में सुख दुख आते हैं तो

360 n जुलाई से सितंबर 2023 yegh


मिलन और विरह के क्षण भी। गीतकार दिल से लिखता है इसलिए
सच लिखता है। उसके शब्द तमाम पाठकों के अपने अनुभव पगे ओम निश्चल के गीत पर्सनल पोयट्री के
शब्द बन जाते हैं। उसकी आर्त्त पुकार में जन जन को अपनी पुकार गुणों का निदर्शन करते हैं तो यथार्थ और
सुनाई देती है। ऐसा ही एक मन को भारी कर देने वाला गीत देखें– समकालीनता के प्रवाह में सत्ता व्यवस्था का
चुपचाप पी गए हम क्रिटीक भी रचते हैं। आज की राजनीति में
संताप इस भुवन के दिनोंदिन आते क्षरण को उनके गीत हमारे
छू कर चला गया ज्यों समय की आधुनिक भाषा में रूपायित करते हैं
कोई किवाड़ मन के। तो किसान आंदोलन, किसान आत्महत्याओं
• और गांधी चिंतन से विपथ होते समाज की
आलोचना भी करते हैं।
आंखों में झांकता हूँ
सपनों में झांकता हूँ
अभिलेख इस नियति के गीत ' हिंदी के चेहरे पर चाँदी की चमक है' में उद्घाटित करते हैं।
हर रोज बांचता हूँ उनके गीत कुदरत की ख़ूबसूरती का बयान करते हैं तो आपातकाल
चूते हैं ओस बन कर के दौरान इस समय को क्या हुआ है– जैसे गीत के माध्यम से उन
आंसू कहीं गगन के। दिनों की भयावहता का चित्र भी खींचते हैं। जिन दिनों पंजाब में
छू कर चला गया ज्यों खालिस्तानी आंदोलन और ब्लूस्टार आपरेशन का माहौल था, सत्ता
कोई किवाड़ मन के। की नाकामयाबी पर प्रकाशित ओम जी का गीत आज से चालीस
••हाल ही में मैदानी इलाकों में असमय बारिश हुई तो सरसों की साल पहले बहुत ही मौजूँ तरीके से हिंसक कार्रवाईयों पर आंख मूंदे
फसल खराब हो गयी। गेहूँ की बालियों में दूध बन ही रहा था कि सरकार की आलोचना करता हुआ नवभारत टाइम्स के रविवासरीय
बारिश और आंधी से सारी फसल खेतों में लोट गयी। सारा अन्न अंक में प्रकाशित हुआ था-
परिपक्वता से पहले ही बरबाद हो गया। मौसम के खुशगवार गीत राजा का फरमान हुआ है
लिखने वाला कवि मौसम की इस मार से संवेदित भी होता है। वह मंत्रीगण सोएँ
लिखता है– हत्याओं से नहीं काँपते
अभी-अभी तो बाली सत्ता के रोएँ
पकने ही वाली थी आड़ धरम की लिए सियासत
कुछ दिन में कटनी भी बेच रही सपने
लगने ही वाली थी टूट रहा है लोकतंत्र के नट का वशीकरण।
किंतु इंद्र देवता की गीत से नवगीत की यात्रा के बीच जनगीत की आहट भी गीतों
जैसे अकल डूब गई में सुनाई देती रही है। अपने समय के बेहतरीन जनगीत कभी
एक स्वप्न डूब गया गोरख पांडेय ने लिखे थे। समाजवाद बबुआ धीरे धीरे आई– उस
एक ग़ज़ल डूब गई। समय की जनवादी मुहिम का एक स्मरणीय गीत बन गया था।
ओम निश्चल के गीत पर्सनल पोयट्री के गुणों का निदर्शन करते वे भोजपुरी के भी कुशल रचनाकार थे। बाद में जनगीत की कुछ
हैं तो यथार्थ और समकालीनता के प्रवाह में सत्ता व्यवस्था का बानगी पटना के कवि नचिकेता के यहाँ दीख पड़ी। ओम निश्चल
क्रिटीक भी रचते हैं। आज की राजनीति में दिनोंदिन आते क्षरण के यहाँ गीत-नवगीत-जनगीत का कोई अलग अलग खांचा नहीं
को उनके गीत हमारे समय की आधुनिक भाषा में रूपायित करते है। जब जैसा मन हुआ गीत लिख उठा। वह निजी भी हो सकता है
हैं तो किसान आंदोलन, किसान आत्महत्याओं और गांधी चिंतन से सामाजिक भी। वह सत्ता से प्रश्नांकित भी हो सकता है तथा सभ्यता
विपथ होते समाज की आलोचना भी करते हैं। कहाँ खो गया गांधी और संस्कृति के मामले में भारतीयता के बोध से अभिभूत भी।
पथ कह कर वे गांधी चिंतन को नेपथ्य में डाल देने वाले समाज को अवध की संस्कृति व बोलचाल में पगे ओम निश्चल के शब्द चाहे
आड़े हाथों लेते हैं तो हिंदी को राजभाषा बनाने वाली सत्ता की नाक वह आलोचना समीक्षा हो, संस्मरण हो, निबंध हो, या कविता-
के नीचे पुरस्कारों को लेकर होने वाली जोड़-तोड़ को भी मुखर गीत– हमारी कोमल धड़कनों को छूते हैं। समय समय पर ओम

yegh जुलाई से सितंबर 2023 n 361


निश्चल की निगाह अपने समय के यथार्थ पर भी जाती रही है। कहीं क्रांतियाँ ढँक के मुँह सो गयी हैं
ऐसे अनेक गीत उनके खाते में जो शब्द सक्रिय हैं में भी थे और कहीं चल रही है धुँआधार गोली।
इधर सोशल मीडिया के प्लेटफार्म– आजतक व न्यूज18 व अमर इसी सीरीज का एक और गीत–
उजाला काव्य के वेब पोर्टल पर भी। बिना किसी लाग लपेट के ये अच्छे दिनों की भला कैसी कीमत
वे कवि के कार्यभार से भरे दिखते हैं और कविता को क्रिटीक का जहाँ घुट रही है ग़रीबों की किस्मत
एक बड़ा माध्यम बनाते हैं। उनकी हाल की एक कविता के अंश– जहाँ जल रही हैं किसानों की फसलें
कैसा लोकतंत्र है साधो जहाँ लुट रही है मजूरों की अस्मत
फरियादी पर लाठी जहाँ खा के सल्फास लाखों मरे हैं
न्याय माँगने वालों को अब वहीं पूंजीपतियों की भरती है झोली
मिलती यहाँ लुकाठी। किसानों के दल पे बरसती है गोली।
इधर उनके गीतों में प्रतिरोध का तेवर प्रबल रहा है। प्रतिबद्ध
बड़े-बड़े हैं छली बली सब मार्क्सवादी लेखक कवि न होते हुए भी वे प्रगतिशील रचनाकार के
ये राजे महाराजे रूप में उभरे हैं तथा जनविरोधी व्यवस्थाओं की सदैव आलोचना
नेताओं के आसन पर अब की है। उनकी आलोचना भी जहाँ रचना के बुनियादी तत्वों को
आकर यही विराजे विमर्श के दायरे में रखती है वहीं रचना के विश्लेषण-विवेचन
इनकी शह पर पुलिस तोड़ दे आलोचन में अपना प्रगतिशील तेवर बरकरार रखती है। कभी कभी
कैसी भी कद-काठी। उनकी आलोचना में जो तल्खी देखने को मिलती है वह उनके गीतों
एक वक्त ऐसा भी था जबकिसानों को लेकर सत्ताएँ विमुख में भी उतर आती है। एक गीत में उनका यह तेवर महूसस किया
थीं। न किसानों को उनकी मेहनत के अनुरूप उपज मिलती थी जा सकता है–
न उनकी उपज के समुचित विपणन की व्यवस्था थी। विदर्भ में हाथ टूटे, काम छूटे
किसानों की आत्महत्याएँ चर्चा का विषय बनीं। तमाम जगहों पर व्यवस्था लाचार
किसानों पर गोलियाँ भी चलाई गयीं। हाल के किसान आंदोलन में रोटियों के पड़े लाले
भी हमने देखा कि किसानों को अपनी मांगें मनवाने के लिए सत्ता से बंद हैं बाज़ार
प्रतिरोध का मोर्चा लेना पड़ा। किसानों के लिए बनाई गयी नीतियाँ खेल मत सरकार
उनके पक्ष में न होकर पूंजीपति घरानों के हित में थीं। ऐसे में ओम तू पावों के छालों से
निश्चल ने तब यह रचना लिखी थी– आदमी की भूख़ से
‘किसानों के दल पे बरसती है गोली।’ इस गीत के ज्वलंत उनके निवालों से।
अंश देखकर लगेगा कि यह कवि वीर रस का कवि है पर यह एक यहीं लगे हाथ वे गीत के क्षेत्र में व्याप्त आलस्य और थके
शालीन कवि का विक्षोभ है– हुए तेवर की आलोचना भी करते हैं। आज गीत तो बहुत लिखे
कहां नीतियाँ हैं किसानों के हक़ में जा रहे हैं पर उनका प्रभाव समाज पर साहित्य पर खास नहीं पड़
फसल सड़ रही है किसानों के घर में रहा है। पहले शंभुनाथ सिंह, बाद में नचिकेता और राधेश्याम
न बिजली न पानी न नहरें न नदिया बंधु जैसे कवि नवगीत के संस्थापक की ही खोज ख़बर करते रहे
कहीं खो गया जल रसातल के तल में तथा प्रतिमानों के निर्धारण में ही संलग्न रहे। गीत को जैसा नेतृत्व
जिसे लोग कहते हैं, वह अन्नदाता मिलना चाहिए था जैसा वातावरण मिलना चाहिए था, जैसा धर्मवीर
उसी की है खाली अनाजों की झोली। भारती, रमानाथ अवस्थी, कन्हैयालाल नंदन, उमाकांत मालवीय,
ठाकुरप्रसाद सिंह व शंभुनाथ सिंह के दौर में था वह आज नहीं
है उसके लिए अब बचा क्या है धंधा है। लोग लिख रहे हैं पर वह प्रभाव नहीं पैदा हो रहा है। नईम को
खेता किसानी का युग आज मंदा जो ख्याति मिली वह आज के गीत कवियों के पास कहां है। नरेश
उसे और कोई हुनर भी न आता सक्सेना कविता की ओर चले गए और खासा ख्याति पाई। ऐसे में
बचा उसकी खातिर है फांसी का फंदा गीत के इस गतिरोध को वे स्वयं महसूस करते हैं और लिखते हैं–

362 n जुलाई से सितंबर 2023 yegh


टांग टूटी बिम्ब उखड़े
शिल्प में मोचें ग़ज़लों में भी वे नस्लभेद, विश्वयुद्ध और
क्या हुआ है छंद को काबुल तक की तालिबानी हिंसा को दर्ज़ करते
आओ ज़रा सोचें; हैं। इसलिए उनकी ग़ज़लें सामयिक हालात
बहुत ब्यौरेवार से लेकर अनेक प्रासंगिक विषयों पर प्रकाश
अख़बारी हवालों से डालती हैं। तथापि उनका मन जैसे कल्पना के
बचा लो तुम गीत को रथ पर आरूढ रहता है और कहता है : 'वश में
अब लेखपालों से। जो होता यह मन। उड़ आता बन कर खंजन।
कोरोना ने समाज और व्यक्ति पर जो कहर ढाया उसकी और जूड़े में फूल टाँक देता। दे देता बासंती मन।
' और मन का मौसम ठीक न हो तो ऐसे गीत
कोई मिसाल नहीं है। पूरे घर के घर मृत्यु के गाल में समा गए।
उनके होठों पर आ बिराजते हैं: ‘मन का मौसम
एकल परिवारों में कोई एक दूसरे को बचाने वाला नहीं बचा। ठीक नहीं तो होठों पर भी गीत नहीं। अरसा
अनेक परिवार कोरोना संक्रमण की भेंट चढ़ गए। कोरोना ने जीवन हुआ हृदय के पथ से गुज़रा कोई मीत नहीं।’
की क्षण भंगुरता को सामने खोल कर रख दिया जहाँ लोग अपने
परिजनों की लाश तक न ले जा सके। ऐसे में व्यक्ति नियतिवादी
होता गया। इस अनुभूति को ओम जी ने एक गीत में इस तरह दिन। ग़ज़लों में भी वे नस्लभेद, विश्वयुद्ध और काबुल तक की
उकेरा है– तालिबानी हिंसा को दर्ज़ करते हैं। इसलिए उनकी ग़ज़लें सामयिक
किसी के साथ जीना था हालात से लेकर अनेक प्रासंगिक विषयों पर प्रकाश डालती हैं।
किसी के साथ मरना था तथापि उनका मन जैसे कल्पना के रथ पर आरूढ रहता है और
मगर हर हाल में दुस्सह कहता है : 'वश में जो होता यह मन। उड़ आता बन कर खंजन।
नियति का वरण करना था जूड़े में फूल टॉंक देता। दे देता बासंती मन।' और मन का मौसम
ठीक न हो तो ऐसे गीत उनके होठों पर आ बिराजते हैं: ‘मन का
अधूरी राह में ही मौसम ठीक नहीं तो होठों पर भी गीत नहीं। अरसा हुआ हृदय के
विदा का हाथ लहराया पथ से गुज़रा कोई मीत नहीं।’
तभी से मैं अकेला ओम निश्चल के भीतर नई कविता का चरम अध्येता और
इस भुवन में चिरभ्रमण में हूँ। विवेचक है तो भीतर अंत:हृदय में एक सजल करुण और सम्मोही
कवि-गीतकार भी रचा बसा है जो जब विचार के धरातल पर
किसी की चिर प्रतीक्षा में कविता को आंकता है तो देश काल और परिस्थितियों के पूरे
किसी की चिर शरण में हूँ। परिप्रेक्ष्य में आंकता है और जब गीत में किसी दृश्य किसी बिम्ब
इस तरह ओम निश्चल के गीतों में प्रेम, सुख-दुख, त्रासदी, किसी अहसास और किसी विचार को अनुस्यूत करता है तो जैसे
कुदरत, मानवीय संबध, नियति, जीवन चिंतन के स्फुलिंग बिखरे वाकई मगही पान की खुशबू उसके शब्दों में रच बस जाती है। इस
हैं। वे अपने गीतों में जीवन के इन तमाम पहलुओं को पिरो कर आलेख का जाल समेटते हुए मुझे ओम जी के गीत की ये पंक्तियाँ
कवि की अनुभूति को सार्वभौम बनाते हैं। गीत क्योंकि पूरी तरह याद आ रही हैं : ‘तुम हो तो सोने से रैन / तुम हो तो चाँदी से
केवल विचार केंद्रित नहीं होता इसलिए इसमें संवेदना के तत्व दिन/ हर पल जैसे पहाड़ से/ लगते हैं सचमुच तुम बिन/ तुम हो तो
सघन होते हैं। किन्तु इन गीतों को पढ़ने वाला यह तो जान ही जाता जीवन में छंद-रस का अहसास बचा है/ पलकों में स्वप्न बसे हैं/
है कि विचार कैसे संवेदना के पंख पर उड़ कर आते हैं और गीतों होठों में गीत बसा है।’ उनका लेखन उनका पाठ– सारा वैशिष्ट्य
को प्रासंगिक बना देते हैं। कहना न होगा कि ओम निश्चल के पांव जैसे इन्हीं दो पदों में व्यंजित हो– ‘पलकों में स्वप्न बसे हैं/ होठों
जितना आलोचना की आधुनिकता में रमे हैं उससे कम गीतों और में गीत बसा है।’ n
ग़ज़लों में नहीं। संपर्क : 2/217, दूसरा फ्लोर,
हाल ही में उनकी ग़ज़लों की दो कृतियाँ प्रकाशित हुई हैं- विजय खंड -2, गोमती नगर, लखनऊ-226010
मेरा दुख सिरहाने रख दो व ये जीवन खिलखिलाएगा किसी मो. 9415006453

yegh जुलाई से सितंबर 2023 n 363


n आयतन : सदानन्द शाही

कविता से प्रेम और प्रेम की कविता


विभु प्रकाश सिंह

अपनी एक कविता में सदानन्द शाही स्वयं को कविता दुनिया भर की समस्याएँ


की दुनिया का अस्थायी नागरिक बताते हैं। एक ऐसा देश के भीतर की उठापठक
कवि जो कविता-संसार में आवाज़ाही करता रहता है यहाँ तक कि दफ़्तर की फसाहटें
पर अपना घर नहीं बनाता। स्थायी नागरिकता न ले गाँव जवार की झंझटें
पाने का कारण वे बताते हैं- सब तुम्हें सौंपकर
कविता की दुनिया के बाहर निश्चिन्त हो गया हूँ।
इतने सारे मोर्चे हैं जो दुनियावी मोर्चे कवि की कविता की दुनिया में
जिनसे जूझने में खप जाता है जीवन स्थायी नागरिकता निषिद्ध करते हैं उन्हीं मोर्चों से उत्पन्न संघर्षोंं,
इनसे न फुरसत मिलती है, न निजात समस्याओं को कविता में व्यक्त कर मुक्ति का अहसास पाना-
कि कविता की दुनिया की स्थायी नागरिकता ले सकूँ। कविता से बातचीत करने जैसा है। मन की गाँठ किसी के समक्ष
कारण वास्तविक हैं और प्रत्येक व्यक्ति (कवि-अकवि) के खोल देने से दुःख में कमी महसूस होने जैसा। यह कविता को
जीवन-सत्य भी। ये कारण किसी भी कवि को कविता से दूर करने में विषय के रूप में चुनकर उसमें ‘दर्द ओ ग़म’ कहना है और कहक़र
समर्थ हैं। परन्तु यही कारण कविता को-वैयक्तिक-सामाजिक यथार्थ ‘ग़म से निजात’ पाना है। इस प्रक्रिया में कवि कविता से ‘थोड़ी सी
से लैस कर-जीवन्त एवं उर्वर बना सकने में भी सक्षम हैं। ग़ालिब, हवा/थोड़ा सा प्यार/थोड़ी सी भावुकता ले ता है और शक्ति-संचय
निराला, मुक्तिबोध, शमशेर, धूमिल आदि की कविता इन ‘मोर्चों’ के कर वापस हो जाता है अपने संसार में’ –फिर लौट जाता हूँ। उसी
बीच ही उपजी है। शाही के काव्य-संसार से परिचय के बाद महसूस दुनिया में वापस/जहाँ छोटे-छोटे मोर्चे/इन्तजार करते रहते हैं। यहाँ
हुआ कि विनम्रतावश वे अपना दावा कमजोर कर रहे हैं। ऐसा करना प्रश्न किया जा सकता है कि क्या कविता आरामगाह है जहाँ कवि
हिंदी की कवि-परंपरा भी रही है। विस्तृत कार्यक्षेत्र के चलते वे भले परेशान, ऊबा हुआ, परास्त मनःस्थिति के साथ आए और शक्ति-
कविता की दुनिया के ‘अस्थायी’ नागरिक हों पर कविता उनकी स्वयं संचय कर चला जाए, पुनः थककर लौटने के लिए। कविता तो
की दुनिया की ‘स्थायी’ नागरिक बन चुकी है। इस स्थायी नागरिकता स्वयं में पूर्ण जीवन है। यहाँ आकर काव्य-जीवन कवि के जीवन
के बग़ैर इतनी सहज सम्प्रेषणीयता संभव नहीं। से अधिक महत्वपूर्ण हो जाता है। कवि-जीवन का अधिक मोह
सदानन्द शाही की बहुत सी कविताओं की विषय-वस्तु स्वयं काव्य जीवन को क्षत करता है। हर बड़े कवि ने इस द्वन्द्व में काव्य-
कविता है। कविता के तात्विक-दार्शनिक महत्व या उसकी जय- जीवन को वरीयता दी है। कवि कविता को लक्ष्य बनाए रखता है
पराजय का आख्यान इन कविताओं की भावभूमि नहीं हैं, बल्कि और सांसारिक संघर्ष कवि को। दोनों अपनी घात में सफल होते हैं।
इनमें वे कविता से अपने निजी रागात्मक संबंधों को परिभाषित कविता समृद्ध होती है, कवि लहूलुहान और नष्ट। यह ‘आत्महन्ता
करते जान पड़ते हैं। उन्हें लगाव है कविता से। इनमें वे अपनी आस्था’ महान कला-सर्जक की अनिवार्य शर्त है। पर साहित्य की
समस्याओं की मानसिक-मुक्ति पाते हैं। जैसे कविता दिलों में दफ़्न लोकतान्त्रिक दुनिया में यह कवि का व्यक्तिगत चुनाव है। कविता
घावों पर मरहम हो। अपनी हर परेशानी उसे देकर चिन्ता मुक्त किसी को संघर्षों से आराम और शक्ति दे तो यह भी कम महत्वपूर्ण
होना चाहते हैं– नहीं। शाही की ईमानदार आत्मस्वीकृति हैं-कविता की दुनिया/बस
इस तरह पर्यटन है मेरे लिए/न कोई चुनौती/न कोई मोर्चा/न ही कोई किला/

364 n जुलाई से सितंबर 2023 yegh


जिसे जीतने की बेचैनी हो।’ हालाँकि कविता से एक बार संपृक्त
हो जाने के बाद इतनी निस्पृहता संभव नहीं। निस्संगता इतनी तीव्र
होती तो कवि एक कविता खोने की बेचैनी महसूस नहीं कर पाता-
सदानन्द शाही की कविता विस्तृत अनुभवों से भरी-पूरी है।
उसमें राजनीति है, समसामयिक घटनाएँ हैं, यात्राएँ, स्त्री, ईश्वर-
सब हैं। इन सबके साथ बहुत अच्छी प्रेम कविताएँ हैं। काव्य-
विषय के रूप में ‘प्रेम’ कविता की एकमात्र स्थिर प्रवृत्ति है। समय
कितना ही परिवर्तित हो जाए इस प्रवृत्ति की स्थिरता अपरिवर्तनीय
है-अनादि से अनन्त तक। प्रेम मनुष्यता का मापक है। प्रेम के प्रति
संवेदनहीनता समाज के प्रति कभी संवेदनशील नहीं बना सकती।
दौड़ती-हांफती ज़िन्दगी में प्रेम दुर्लभ ठहराव और वक्त देता है।
प्रेयसी के सामीप्य भाव को आधार बनाकर प्रेम कविताएँ बहुतायत
में लिखी गयी हैं। वास्तविक सामीप्य संभव न हुआ तो कवि
कल्पित कर लेता है। भले यह चाहना और मिलना हफ़्तों, महीनों
या वर्षों में घटित न हो फिर भी यह विचार कि हम एक ही शहर में
हैं, हमें आश्वस्ति भाव से भर देता है। शहर की सड़कों पर चलते
हुए प्रिय के दिख जाने की कामना करना या उन अदृश्य आँखों
से निहारे जाने की कल्पना करना– एक आनन्ददायक अनुभूति
बन जाती है। विरह के दुखों से मुक्ति है– एक ही शहर में होना–
वैसे भी वर्णन अधिक करवाती है। रत्नसेन को साधक और विद्यापति को
उससे रोज रोज मिलना भक्त मानने की ज़िद भी यही देती है। घनानन्द का विरह इसीलिए
कहाँ हो पाता है पूरे रीतिकालीन संयोग को उपेक्षित बना देता है। कारण पारम्परिक
फिर भी उसका शहर में होना हो या व्यक्तिगत सदानन्द शाही की प्रेम कविताओं में यह दूरी बनी
इत्मीनान की तरह है रहती है। कवि प्रेयसी के बालों के शृंगार के लिए फूल उगाने की
कि जब मन में आएगा इच्छा रखता है। परन्तु उन फूलों को उसे मिलकर नहीं देना है,
उठेंगे और मिल आएँगे। उसके दरवाजे पर रख आना है-
सदानन्द शाही की प्रेम कविताएँ मांसलता से एक निश्चित दूरी तुम्हारे बालों में लगाने के लिए
बनाकर चलती हैं। किसी आधुनिक कवि के साथ ऐसा कैसे संभव कुछ फूल उगाऊँगा
हुआ? क्या यह आध्यात्मिक भारतीय सांस्कृतिक परंपरा का दबाव तुम्हारे दरवाजे रख आऊँगा।
है जो शरीर से मुक्त सूक्ष्म मानसिक प्रेम को एक पायदान ऊपर जटिल विषयों और मनोभावों का सहज एवं समर्थ संप्रेषण शाही
रखती है। हिंदी में भक्त, सूफ़ी, रीतिकवियों से लेकर आधुनिक की विशेषता है। विषय को अनावश्यक जटिल वैचारिक उलझनों
काल तक प्रेम कविता में शारीरिक उपस्थिति की दीर्घ परंपरा रही और घुमावदार रूपकों से बचाए रखने का प्रयास उनकी कविताओं
है। परन्तु साथ ही यह मान्यता भी उतनी ही दीर्घ रही है कि वियोग में परिलक्षित होता है। कहन की सादगी और सहजता पर विशेषण
(शारीरिक अनुपस्थिति) प्रेम का सच्चा और श्रेष्ठ मानक है। वह बल है। शब्दों की ज़िम्मेदारी और भावप्रवणता का बोध है। यह
प्रेम को खरा बनाता है– वासना रहित। यह मान्यता स्वतः और तकनीक उनकी कविताओं को दीर्घ नहीं बनने देती। यह संक्षिप्तता
अकारण ही संयोग को वासनामय सिद्ध कर देती है। यही मान्यता और संवेदनशीलता उनके पूरे कविता-संसार की प्रवृत्ति है। कवि
पाठ्यक्रमों में राधा-कृष्ण के संयोग की जगह भ्रमरगीत बन के के प्रकाशित कविता-संग्रहों में आपको छोटी और सुगठित रचनाएँ
अधिक उपस्थित रहती है। यही धारणा ‘पद्मावत’ से नागमती मिलेंगी। शब्दों के अनावश्यक विस्तार से कवि को परहेज है। एक
का विरह वर्णन विस्तार से पढ़वाती है और रत्नसेन-पद्मावती के छोटी प्रेम कविता-‘रेशम के धागे’ की चार पंक्तियाँ द्रष्टव्य है-
मांसल-मिलन की अपेक्षा पद्मावती के उदात्त दार्शनिक सौन्दर्य का तुम शहतूत की डाल हो

yegh जुलाई से सितंबर 2023 n 365


जिसपर टिका हुआ मैं
दिन रात बुनता हूँ
n अनन्य प्रकाशन से प्रकाशित पुस्तक
रेशम के धागे।
जीवन की भागदौड़ में उपेक्षित प्रेम और प्रेमपात्र, समय को
मोड़कर पीछे ले जा सकने की असहाय आकांक्षा,स्मृतियाँ,दुःख,
बेचैनी,संकोच के मनोभाव इनकी प्रेम कविताओं के सहयात्री हैं।
गौतम बुद्ध शाही की कविता के स्थायी विषय हैं। विभिन्न संदर्भों
में बुद्ध और बौद्ध स्थलों का ज़िक्र बार-बार उनकी कविताओं में
आता है। कुशीनगर-सुप्रसिद्ध बौद्ध तीर्थस्थल-सदानन्द शाही का
जन्मस्थल है। कुशीनगर-पडरौना-गोरखपुर में पले -पढ़े और युवा
हुए। बसे बनारस में,बगल में सारनाथ। बुद्ध उनकी संवेदनात्मक
निर्मिति में सहज ही जुड़े रहते हैं-अन्तर्मन का हिस्सा बनकर।
शायद इसीलिए जब मन में प्रेम और दुःख के अन्तर्संबंध का प्रश्न
उठता है तो बुद्ध याद आते हैं-
सारनाथ में बुद्ध की आँखों को देखकर
तुम्हारी आँखों की याद आयीं
वह क्या था
जिसने बेचैन कर दिया था बुद्ध को
वे बोधगया से मीलों पैदल चलते हुए
रातो रात आ गए सारनाथ
और दुनिया को पहली बार बताया हिंदी की प्रतिष्ठित साहित्यिक पत्रिका ‘लमही’
दुख से मुक्ति का उपाय की ‘हमारा कथा समय–1’ (‘समकालीन
क्या वह प्रेम था? हिंदी कहानी का स्त्री–पक्ष’ शीर्षक से प्रकाशित
वैश्वीकरण के दौर में बाज़ार ने प्रेम को बहुत ‘लाउड’ बना पुस्तक) की प्रभावशाली प्रस्तुति के बाद ‘हमारा
दिया है। बाज़ार के ‘प्रोडक्ट्स’ प्रेम को ‘बाई-प्रोडक्ट’ में और कथा–समय–2 ‘प्रकाशित हुआ। सुखद है कि
प्रेमियों को ‘उपभोक्ता’ में बदलते जा रहे हैं। उसकी मायावी ‘हिंदी के प्रमुख साठोत्तर कथाकार’ शीर्षक से
लकदक प्रेम को निस्तेज और विवेकहीन बनाने की जुगत में है। अब वह पुस्तकाकार हुआ है। इसमें वरिष्ठ
इसकी सूक्ष्म चतुराइयों, चक्रव्यूह से प्रेम को बचाए रखना एक कथाकार ज्ञानरंजन, काशीनाथ सिंह, दूधनाथ
चुनौती है। सीमित आवश्यकताओं को असीमित इच्छाओं में बदल सिंह, रवींद्र कालिया, जितेंद्र भाटिया, असग़र
डालना बाज़ारवाद की बुनियादी शर्त होती है। इच्छा की असीमता वजाहत से लेकर उदय प्रकाश तक सभी
एवं ऐश्वर्य आधारित छद्म मांग उत्पन्न करना उसकी मजबूरी है। महत्वपूर्ण कथाकारों के सृजन-संसार का
उसकी दृष्टि में क्रय शक्ति विहीन व्यक्ति का मूल्य शून्य है। विवेचन और विश्लेषण विवेक सम्मत ढंग से
उसका अस्तित्व ही संदिग्ध है। जो उपभोक्ता नहीं-वह मनुष्य नहीं। किया गया है। लमही पत्रिका के यशस्वी संपादक
मनुष्य से उपभोक्ता में परिवर्तित होते जा रहे मानव-समाज में प्रेम विजय राय ने पूरे कथा परिदृश्य पर विचार करते
अगर उपभोग की वस्तु में बदलता दिखे तो आश्चर्य की बात नहीं। हुए लिखा है– “अब यह भी रेखांकित करने
मनुष्यता और प्रेम के सुखद भविष्य के लिए आवश्यकताओं और योग्य तथ्य है कि विमर्श के दायरे में महदूद
इच्छाओं के बढ़ते दायरे को सीमित करना होगा। n रहक़र लेखन करने से लेखक बाहर आ रहे हैं
संपर्क : सहायक प्रोफेसर, हिंदी और उनकी अभिव्यक्ति का दायरा विस्तृत हो
राजकीय महाविद्यालय, सैदपुर, गाजीपुर (उ.प्र.) रहा है।”
मो. 7565864805 मूल्य : 1200

366 n जुलाई से सितंबर 2023 yegh


n आयतन : अनूप सेठी

कविता का रचनात्मक आशय


रमेश राजहंस

'चौबारे पर एकालाप' अनूप सेठी जी का दूसरा काव्य का सामना करना पड़ता है, ये कविताएँ कुछ-कुछ
संग्रह है। पहला काव्य संग्रह 'जगत में मेला' 2002 उसी का बयान करती हैं। 'कवि लीलाधर जगूड़ी जी
में आया था। यह दूसरा संग्रह 16 वर्ष बाद आया आये थे' कविता की ये पंक्तियाँ देखी जाएँ -
है। मन ही मन मुस्कराया-जगत के मेले से अनूप मिल तो तब भी रहा होता है कवि
जी निकल कर ये चौबारे पर एकालाप क्यों करने जब पाठक पढ़ रहा होता है
लगे भई! उत्तर भी अपने आप उभरा-ये तो संग्रह की अकेले में उसे अपने आप
कविताएँ ही बताएँगी। 16 वर्षों में चयनित कविताओं
का दो ही संग्रह आना इस बात का संकेत देता है कि वे अपनी कवि से मिलना कविता के बाहर फिर भी
सृजन प्रक्रिया के सचेतन कवि हैं। उनके अनुभवों-अनुभूतियों का बड़ा ज़रूरी लगता था
अपना गर्भाधान काल है। गद्य-कविता के अन्य फौरी कवियों के रह गये जैसे जीवन में बहुत ज़रूरी बहुत काम
क्षिप्र गल्पावेग से उनकी कोई प्रतियोगिता या स्पर्धा नहीं दिखती। रह गया यह भी आधे धाम
कविवर अनूप सेठी जी की 55 कविताओं के इस संग्रह की ऊपर से साधारण दिखती ये पंक्तियाँ विद्यमान साहित्यिक
अधिकांश कविताएँ 2001 से 2014 के दौरान लिखी गयी बतायी परिवेश की गतिविधियों की सांकेतिकता से अथाह अर्थ भरी हैं।
गयी हैं। इसमें दो लम्बी कविताएँ 'मेरे भीतर का शहर' 1988 जब कभी कविता का गंभीर पाठक किसी कवि के कविता संग्रह को
और 'चौबारे पर एकालाप' 1989 में लिखी गयी हैं। अनूप जी ने ज़रूरी पढ़ना समझ कर पढ़ता है, तो उस कवि से उसकी आंतरिक
कविताओं का रचनाकाल देकर पाठकों और खासकर आलोचकों मित्रता होने लगती है। उनमें उन्हें कुछ-कुछ अपनापन मिलता है।
को अपने आंतरिक व्यक्तित्व और रचना प्रक्रिया को समझने का यह अपनापन कितने दिनों तक टिकता है या विकसित होता है, यह
सुलभ अवसर प्रदान किया है पर इन कविताओं के लेखन और दोनों के आंतरिक व्यक्तित्व की विकास-प्रक्रिया पर निर्भर करता
चयन के बारे में स्वयं कुछ नहीं लिखा है। अगर वे भूमिका या है। उद्धृत पंक्तियों का मर्म यह है कि एक कवि अपने सीनियर
प्रस्तावना के रूप में कुछ लिखते तो वह इन कविताओं के सूक्ष्म कवि से, जिससे उसका संबंध कविता के माध्यम से श्रद्धामूलक
संदर्भ का काम करतीं। हाँ, संग्रह के फ्लैप पर आगे-पीछे विजय बना हुआ है, मिलना तीर्थ (धाम) जैसा ज़रूरी समझता है पर
कुमार जी की एक छोटी टिप्पणी ज़रूर है पर यह तय मैं नहीं साहित्य के स्थानीय पंडे (या सूबेदार) उस कवि को अपनी ही
कर पाया कि उस टिप्पणी का प्रयोजन क्या है? क्या उसे पुस्तक दुनिया में उड़ा ले जाते हैं। वह अपहरण कर्ता कवि अपहरित कवि
खरीदने या पढ़ने के लिए दृष्टिबन्ध और सिफारिश माना जाये? को अन्य स्थानीय कवियों से नहीं मिलने देना चाहता कि कहीं
आजकल के कविता संग्रह में ऐसे अमूर्त फ्लैप लेखन का चलन सबसे मिलकर उस सीनियर कवि को उसकी असलियत का पता
ख़ूब दिखता है। मुझे नहीं मालूम यह अनूप जी ने लिखवाया है या न चल जाये और अन्य समर्थ कवियों से उनका नाता जुड़ जाये।
ज्ञानपीठ के प्रकाशक-संपादक ने? यह कविता इसी प्रवृत्ति को उजागर करती है।
साहित्य का सुधी और गम्भीर पाठक जब संस्कारित होकर 'छोटी सी साहित्य सभा', 'कवि की दुनिया, 'कवि को देश
रचना के क्षेत्र में उतरता है और अपनी संभावना को जानने-समझने निकाला', 'स्थानक कवि', 'स्थानीय कवि' आदि कविताएँ आज
के लिए हाथ-पैर मारता है तो उसे कैसे-कैसे माहौल और स्थितियों के हिंदी साहित्य के पतनशील संपर्कवादी माहौल पर बड़ी मार्मिक

yegh जुलाई से सितंबर 2023 n 367


तीसरी कविता 'कवि को देश निकाला है' जो इस बात को
स्थानीय कवि की पहचान कराते हुए अनूप दर्ज़ करती है कि हिंदी साहित्य की दुनिया में सच सुन पाने का
जी कहते हैं कि 'स्थानीय कवि में अपार श्रद्धा साहस छीजता जा रहा है। यहाँ अब चारणों-विरुदावली गायकों को
होती है कविता के प्रति... श्रेष्ठ कवियों का पद्मासन पर पद्ममाला से विभूषित कर बिठाने और सत्तासीन प्रभुओं
भक्त होता है वह... बाहर के कवियों पर के मंगल गान को देशरत्न से नवाजने की नव परंपरा स्थापित की
न्योछावर हो-हो सकारथ होता पाता है अपना जा रही है। मुझे लगता है कवि ने यहाँ देश निकाला exile के
जीवन। ये श्रेष्ठ कवि कौन होते है? समतुल्य के रूप में लिया है। प्रमाण–
आसान नहीं सच का गीत सुन पाना
अन्तरमन तक छिल जाता है
और मीठी व्यंग्यात्मक टिप्पणी है। अनूप जी ने 'स्थानक कवि' जीवन के घमासान में कुछ कर जाता है
और स्थानीय कवि की दर्दनाक और शोचनीय स्थिति काे जो दबे
स्वर में बयान किया है, वह मारक प्रभाव छोड़ता है और अचानक वो जिगरा कहाँ कि कोई आग में जले
नागार्जुन की कविता 'उनको प्रणाम' याद आती है। अनूप जी द्वारा वो हुलस कहाँ कि कोई चन्दन मले
वर्णित यह परिवेश चित्र पूरी तरह मुकम्मल हो जाता अगर वे ऐसे
ही संपर्कवादी और स्ट्रैटजीबाज तथाकथित नेशनल परमिटधारी यह कवि को देश निकाला है
कवियों पर भी अपनी सिद्धहस्त कलम चलाते। 'स्थानीय कवि' की पहचान कराते हुए अनूप जी कहते हैं कि
‘स्थानक कवि’ का स्थानिक रह जाना उनकी विवशता है। मुझे 'स्थानीय कवि' में अपार श्रद्धा होती है कविता के प्रति... श्रेष्ठ
लगता है अनूप जी ने यह शब्द मराठी भाषा से लिया है जहाँ यह कवियों का भक्त होता है वह... बाहर के कवियों पर न्योछावर
वाहनों के रुकने के लिए निर्दिष्ट होता है। आज़ादी के 70 सालों हो-हो सकारथ होता पाता है अपना जीवन। ये श्रेष्ठ कवि कौन
के बाद भी हिंदी क्षेत्र पुस्तकालय, पुस्तकों की दुकान आदि सूचना होते है? जो लघु पत्रिकाओं के विशेषांकों में जगह बनाते हैं और
और ज्ञान केंद्रित बुनियादी सुविधाओं से वंचित हैं। पाठ्यपुस्तक समीक्षाओं और पुरस्कारों और आयोजनों प्रायोजनों में सहभागिता
को छोड़ कर शायद ही अन्य सामान्य विषयों की पुस्तकें उपलब्ध से महिमामण्डित होते हैं और श्रेष्ठ होने की भंगिमा अर्जित करते
होती हैं। ऐसे में उनकी भाषा में ताक़त और अभिव्यक्ति कौशल हैं। ये स्थानीय कवि होते हैं जो सहज ही उनकी श्रेष्ठता को
का विकास नहीं हो पाता। फिर महानगरों और भोपाल, इलाहाबाद, स्वीकार लेते हैं और स्वयं को ग़ाैरवान्वित महसूस करते हैं।
लखनऊ जैसे शहरों से आने-जाने वाले कवि-लेखक उन्हें हेय ऐसे श्रेष्ठ कवि जब दूसरे शहरों में जाते हैं जहाँ इनके सम्पादक
दृष्टि से देखते हैं। आज की पहली पंक्ति के अत्यन्त वरिष्ठ प्रमुख या गोष्ठीबाज कवि मित्र रहते हैं तो पहले यह सुनिश्चित करते हैं
कवि ने तो एक साक्षात्कार में यहाँ तक कह डाला कि भविष्य में कि वहाँ उनकी कविताओं का एकल पाठ हो और तमाम स्थानीय
हिंदी के सारे प्रमुख कवि दिल्ली और भोपाल जैसे विकसित नगरों कवि श्रोतागण में उपस्थित हों लेकिन ये मंच पर किसी स्थानीय
से ही आयेंगे क्योंकि प्रचार-प्रसार के शक्तिशाली केन्द्र और विभिन्न कवि के साथ, आयोजक को छोड़कर, बैठना हेठी समझते हैं।
बड़े बड़े संस्थानों में नौकरियों के अवसर भी इन्हीं जगहों में होंगे। इसी तरह विश्वविद्यालयों के प्राध्यापकों की चापलूसी करता वहाँ
यानी आने वाले दिनों में कवि अपनी कविता की गुणवत्ता के कारण के आयोजनों में जगह बनाता है। फिर वह प्राध्यापक अपने किसी
शायद ही मूल्यांकित हो, उसके बड़े होने की काबिलियत इस बात छात्र से उसके 'कृतित्व और व्यक्तित्व' पर लेख लिखवाता है और
पर निर्भर करेगी कि वह मीडिया में कितनी जगह पर कब्जा कर एक दिन किसी आयोजन में उसे महान कवि का मुकटु पहना
पाता है और सेलेब्रेटी का दर्ज़ा हासिल कर पाता है। लेकिन ताज्जुब देता है। आगे जब आधुनिक कविता के पुरोधों की नाम गिनाई
होता है कि ऐसे भविष्यद्रष्टा महान कवि यह नहीं देख पाते कि शुरू होती है और उसमें उनके मित्र का नाम छूट जाता है तो उस
इण्टरनेट और सेलफोन के प्रसार से गाँव-कस्बे के सचेतन लोग भी लेख को ही सिरे से ख़ारिज कर दिया जाता है, ऐसी मुहिम चलाई
दुनिया में घटित हो रही उथल-पुथल और उनके वैचारिक स्रोतों से जाती है। फिल्मी संघर्ष के तर्ज पर आजकल इसी को कहा जाता
कटे नहीं रहेंगे इसलिए उनकी चेतना और गुणवत्ता का स्तर शहरी है साहित्यिक संघर्ष|
लेखकों के बनिस्पत कमतर होगा; ऐसा मानना उन्हीं की सचेतनता आगे कुछ 'घर गृहस्थी की कविताएँ' हैं। इनमें 'जूते बेटी के', 'ये
पर प्रश्न चिह्न लगाता है। लोग मिलें तो बतलाना', 'पिता', 'तर्पण', 'कुनबा' जैसी कविताएँ,

368 n जुलाई से सितंबर 2023 yegh


पारिवारिक संबंधों के अनुभव-अनुभूतियों की कविताएँ हैं। 'जूते ................
बेटी के ' की आरंभिक पंक्तियाँ हैं- ‘घर भर में फैले हैं जूते बेटी के, आंखों की जोत मंद होती देह सिकुड़ती जाती
जगह-जगह कई जोड़ियाँ।’ आज के जागरूक मध्यवर्गीय परिवार आत्मा का ताना-बाना नाती-पोतों के हाथ सौंपते
में बच्चों की परवरिश में उनकी छोटी-छोटी रुचियों और मांगों पर
मम्मी-पापा किस तरह ध्यान देते हैं, यह कविता इसी पर हमारा एक चादर बुनना मेरे बच्चों
ध्यान केंद्रित करती है। उस चादर में महक़ेगा फूल
पर ऊपर से सामान्य-सी दिखती यह कविता इस दृष्टि से ख़सोटोगे तो झरेगा
महत्वपूर्ण हो जाती है कि बच्चा यहाँ बेटी है, जिसे भारत के सहेजोगे तो फलेगा
अधिकांश क्षेत्र में लाइबिलटी माना जाता है इसलिए उसे वह इसी सुर की कविताएँ है 'भाई', 'पिता', 'तर्पण' और 'कुनबा'।
तरजीह नहीं मिलती जो बेटों को दी जाती है। बेटी की आवश्यकता 'कुनबा' थोड़ी-सी अलग है। इसमें कवि यह दर्शाने की कोशिश
की पूर्ति की जाती है, उसे एफ्लूएंस का स्वाद नहीं चखाया जाता करता है कि हमारे शारीरिक और स्वाभावगत चरित्र में कैसे हमारे
क्योंकि अगर उसे ऐसे स्वाद का चस्का लग गया तो ससुराल में पुरखे बसते हैं। वे नहीं रहते हुए भी हमारे व्यक्तित्व में छाये रहते
एडजेस्टमेंट में कठिनाई हो सकती है। 'ये लोग मिलें तो बतलाना' हैं। 'टमाटर' मुंबई के उपनगर स्टेशनों से सटी सड़कों पर रोज
एक आदर्श परिवार का बिंब है जो खोता जा रहा है। ऐसे परिवार लगने वाले भीड़-भड़क्के भरे बाज़ार में सब्जी खरीदने के जोख़िम
में बूढ़ों की भूमिका के महत्व को दर्शाती है। पारिवारिक रिश्तों की से पाठकों को परिचित कराने का प्रयास है। मुझे तो इस कविता
ऐसी मोहक़ कविता मैंने हाल फिलहाल नहीं पढ़ी। इस कविता को में मुंबई की भागमभाग ज़िन्दगी के मासूम से लगते इस चित्रण
पढ़ते हुए ऐसा महसूस हुआ जैसे वर्षों बाद मैं किसी अमराई में में शालीन सूक्ष्म व्यंग्य और मीठे हास्य का स्वाद मिलता है।
पहुँच गया हूँ। पेड़ अभी भी फल दे रहे हैं पर चुप लगाये हैं, अब महानगरीय जीवन से स्पर्धा रखने वाले गंभीर आलोचक को इसमें
वहां वह गहमा-गहमी नहीं है। जीवन की भारी विद्रूपता का साक्ष्य मिल सकता है। यानी, अपनी
बेटा होने का मतलब है धमा चौकड़ी ज़मीन से कट कर बड़ी उपलब्धियों की प्राप्ति के चक्कर में आप
घर को सर पर उठा लेने वाले शरारती देवदूत महानगर की ओर भागते हैं, वहां आप की टमाटर जैली उपलब्धियाँ
घुटरुन चलत राम रघुराई भी भीड़-भाड़ की धक्कम-धुक्की में आपके हाथ से छूट कर रौंदी
माँ-बाप को घुटने टिकवा देते हैं जाती हैं। अर्थात महानगर के आकर्षण में जो लोग अपनी ज़मीन
................. से उखड़ कर भागते हैं– वे टमाटर जैसी उपलब्धियाँ भी सहेज कर
उनकी बहनें न होतीं तो अन्तरिक्ष को थरथरा देते नहीं रख पाते।
................. अगली कविता 'रोना' ने अपने साथ बहुत देर तक बांधे रखा।
देश देशान्तर को राज्य प्रांतर को घर द्वार को यह कविता रोने की क्रिया और उसके बाद की अनुभूतियों को
बेटा तोड़ के सीखना चाहता है पकड़ने की कोशिश करती है। हम सभी वाकिफ हैं कि रोना
खिलौना हो वस्तु हो या हो संबंध अकारण नहीं होता। जो संबंध धुआँ का आग से है, वही संबंध
बेटी सहेज के जोड़ना जानती है रोने का पीड़ा से है। अपमान, अवमानना, अवहेलना, उपेक्षा,
गुड़िया हो गृहस्थी हो या हो धरती माता तिरस्कार, प्रताड़‌ना आदि से जो व्यक्ति प्रतिकार द्वारा मुक्ति पाने
परिवार में लड़कियों के होने मात्र से परिवार में भावी पुरुषों में की स्थिति में नहीं होता, तो प्रकृति उसे इससे मुक्ति दिलाने के
किस तरह भावनात्मक और नैतिक संतुलन स्थापित होता है, उक्त लिए नैसर्गिक उपाय रोना लेकर उपस्थित होती है। उसी रोने को
पंक्तियाँ उनकी मौज़ूदगी से स्फुरित ऊर्जा का जो प्रभाव क्षेत्र बनता यहाँ कवि कारण से मुक्त कर सिर्फ़ एक कार्य या घटना के रूप में
है, उसका व्यक्तित्व निर्माण में जो योगदान होता है, उसकी ओर देखता-परखता है। यह कविता रोने का चाक्षुष निरीक्षण करती है
हमारा ध्यान आकर्षित करती हैं। इसी तरह अनूप जी परिवार में और उसे बारिश में नहायी प्रकृति जैसी निर्मल, महक़ती और मिट्टी
बूढ़ों की उपस्थिति की अनिवार्य भूमिका को भी दर्ज़ करते हैं- से अंखुआ फूटने जैसा पाता है। अंतिम परिणति के अहसास की
कथा बाँच के ताक़त पाते हैं बूढ़े पंक्तियाँ बाकी सब कह देती हैं–
खाते कम गाते ज्यादा हैं फिर भी रह रह कर यही लगता है
धीरे-धीरे सत्ता त्याग करते जाते हैं कि रोना और रोने के बाद का होना कुछ और ही है

yegh जुलाई से सितंबर 2023 n 369


बहुत हल्का बहुत खाली फिल्म, 'ईकरू, गोगोल की कहानी 'ओवरकोट', मुंबई का डाकयार्ड
बहुत भारी बहुत भरा हुआ इलाके से गुज़रती सड़क पीडिमेलो के मस्जिद बन्दर, दानाबन्दर,
पास भी अपने बहुत और दूर भी अपने से पता नहीं कितने कर्नाक बंदर जैसी जगहों पर बसे पुराने गंदे रेस्त्रां में खाते अफ्रीकी,
इसी तरह की एक और कविता है-'अकेले खाना खानेवाला यूरोपीय मूल के बदरंग लोग जो जहाज से दण्डस्वरूप उतार दिये
आदमी'। यह महानगरों में परिवार से दूर रहने वाले कारीगरों, गये हैं; बान्द्रा स्टेशन के समीपवर्ती नेशनल होटल में फिल्मी
क्लर्कों, सेल्समेन, बहुत ही छोटे-छोटे व्यापारियों आदि के रात्रि स्ट्रग्लर के बिंब एक-एक कर उभरने और तिरोहित होने लगते हैं।
भोजन का चित्र उपस्थित करता है। ये वे लोग होते हैं जो कई 'बेसुध औरत' और 'बेसुध औरत का आदमी' आप को
कारणों से अपने परिवार को साथ नहीं रख पाते। ये जो कमाते हैं, राजकमल चौधरी के 'मृत्युप्रसंग' कविता की विवरणात्मक शैली
उसका न्यूनतम से न्यूनतम हिस्सा अपने उपर खर्च करते हैं ताकि का स्मरण दिलायेगी। 'भोली इच्छाएँ', 'प्रेतबाधा, 'रोजनामचा',
अधिक से अधिक राशि अपने गाँव या कस्बे में स्थित परिवार के 'गेहूँ' जैसी कविताएँ जीवन के बहाव में सामान्य में विशिष्टता
भरण-पोषण के लिए भेज सकें, इसीलिए महानगर की नारकीय देखती दृष्टि का प्रमाण हैं।
ज़िन्दगी को जीते हैं। आटोमोबाइल को जैसे काम करने के लिए एक और महत्वपूर्ण खण्ड है- राजभाषा हिंदी के कार्यान्वयन की
पेट्रोल की ज़रूरत होती है, उसी तरह ये पेट भरने के लिए खाते हैं। केन्द्र सरकार की नीतियों के तहत केन्द्र सरकार के कार्यालयों और
शरीर को स्वस्थ रखने के लिए पौष्टिक आहार के सेवन या भोजन उपक्रमों में हिंदी अधिकारियों की नयी नस्ल की पैदाइश। अस्सी
का आनन्द लेने के लिए नहीं खाते। अक्सर खाते समय ये अपने के दशक के आस-पास इनका प्रादुर्भाव हुआ और नौकरशाही के
जीवन की समाधानहीन समस्या में उलझे होते हैं। इसलिए कवि को विशाल तंत्र में इनके अस्तित्व और कार्य की द्वन्द्वात्मकता पर अनूप
वह खाने की धीमी मशीन-सा लगता है। कवि मक्खी के अवतार में जी ने हल्की-फुल्की कविताओं के माध्यम से दशा- दुर्दशा पर
उसे विभिन्न कोनों से देखता है। भारतीय समाज में खाना बनाने से नजरें इनायत फरमाई हैं जो ऐतिहासिक महत्व रखता है।
लेकर परिवार के सदस्यों को खिलाने तक की प्रक्रिया से पारिवारिक 'मेरे भीतर का शहर' (1988) और 'चौबारे पर एकालाप'
स्त्रियों का अविच्छिन्न संबंध है जो अकेले खाते आदमी के मन (1989) लम्बी कविताओं की श्रेणी में आती हैं। मुक्तिबोध के
मस्तिष्क में कौंधता रहता है। उसके खाने की तमाशबीन मक्खियाँ 'अँधेरे में', धूमिल की 'पटकथा', मणि मधुकर की 'घास का
असंख्य हैं जिनकी उपस्थिति से हम जान पाते हैं कि खाने की उक्त घराना, राजकमल चौधरी की 'इस अकाल वेला में और नागार्जुन
जगह स्वास्थ्य की दृष्टि से हितकर नहीं है। फिर क्यों खाता है ऐसी की 'हरिजन गाथा' जैसी लम्बी कविताएँ बहुत बौद्धिक मशक्कत से
जगह आदमी? क्योंकि यही जगह उसके पेट और जेब के सामर्थ्य बार-बार पढ़ीं पर यहाँ वहाँ कुछ टुकड़ों के सिवा कहीं कविता की
के अनुकूल है। कविता के अगले बंध में यह बात खुल जाती है। रसात्मकता को नहीं पाया। इसलिए ऐसे कवियों से सविनय अनुनय
खाने का बिल चुकाने के बाद है कि लम्बी कविता लिखने की इतनी ही बेचैनी और आंतरिक
अकेले आदमी के माथे पर बल पड़ गये दबाव है तो हे! काव्यवीर प्रबंध काव्य महाकाव्य जैसे काव्य रूपों
जहाँ लिखा था दाम फिर बढ़ गए हैं पर हाथ आजमाएँ तो हम जैसे लोग भी लोहा मान लेंगे। यह मेरी
पेट भराई का अब कम दामी ठिकाना ढूँढना होगा सीमा है।
महंगाई की मार आदमी को कैसे धीरे-धीरे अदृश्य रूप में इन कविताओं में जो अच्छी बात लगी, वह है इनका सौम्य
तोड़ती है, उसे निकृष्ट तर जीवन की ओर धकेलती है, अनूप सेठी स्वाभाव, मंथर लय, व्यंग्य में भी मधुरता, भाषा में पहाड़ी जीवन
की यह कविता इस तथ्य को जैसे परत-दर-परत उघाड़ती है, क्या की सी सादगी और बिंबों की सघनता, विराम चिह्नों की अनुपस्थिति।
यह काम इसी शिद्दत से किसी प्रख्यात राष्ट्रीय-अन्तर्राष्ट्रीय प्रसिद्धि गद्य कविताओं के रूखेपन, एकरसता और पोस्चरिंग से आप को
प्राप्त वामपंथी अर्थशास्त्री का आंकड़ों भरा लेख मुद्रास्फीति के राहत मिलेगी और कविता के कवितापन के सौन्दर्य से आपका मन
दूरगामी प्रभाव या सरकारी मौद्रिक नीति पर सारगर्भित लेख कर भर जायेगा। n
सकता है? संपर्क : 2201, सत्यम टावर, 90 फीट रोड,
अच्छी कलाकृति, कविता, संगीत, चित्र और फिल्म एक और ठाकुर काम्पलेक्स, कांदिवली (पूर्व) मुंबई-400101
बड़ा काम करती है। वे आपकी स्मृतियों के अजायबघर के द्वार मो. 9820035673
खोल देती हैं। इस कविता को पढ़ते हुए मुझे अकिरा कुरोसोवा की

370 n जुलाई से सितंबर 2023 yegh


n आयतन : निरंजन श्रोत्रिय

‘नहीं’ कहने के हौसले की कविताएँ


जानकी प्रसाद शर्मा

पिछली सदी के अंतिम दशक में जिन कवियों का इस संदर्भ की वज़ह से बड़ी नहीं है, बल्कि मनुष्यता
रचनात्मक सफ़र शुरू होता है, निरंजन श्रोत्रिय का में अटूट भरोसा इसे एक बड़ी कविता बनाता है जो
उनमें एक अहम मक़ाम है। समकालीन कविता की कि इसकी केन्द्रीय वस्तु है। कवि को भरोसा है कि
पूर्वागत विभिन्न सरणियों की गहरी समझ के साथ जहाँ मनुष्यता के साथ लय, ताल, प्रेम और आनंद
वे अपनी सर्जना के लिए एक अलग राह निकालते में सराबोर जुगलबंदी की ताक़त है, वहाँ ‘जगह कहाँ
नज़र आते हैं। पहले संग्रह ‘जहाँ से जन्म लेते हैं किसी लपट की!’ यानी घृणा की लपटों की क्या
पंख’ (2002) की कविताओं से ही इस राह के बिसात! मनुष्यता अपराजेय है।
संकेत मिलने लगते हैं। यानी सामयिक सच्चाईयों का अपने प्रत्यक्ष यह कविता महान संतूर वादक पंडित शिवकुमार शर्मा और
अनुभवों के आलोक में निरीक्षण और साथ ही ज़मीनी भाषा से युक्त तबला नवाज़ उस्ताद शफ़ाअत अहमद ख़ाँ की जुगलबंदी से प्रेरित
नर्म लहजे की प्रभविष्णुता पर भरोसा। दूसरे संग्रह ‘जुगलबंदी’ है। ‘यह एक काफ़िर और एक म्लेच्छ की जुगलबंदी थी/ जो
(2008) में इस लहजे की आबो-ताब में और इज़ाफ़ा होता है। दुनिया को एक लय में बाँध लेना चाहती थी।’ यह कविता तथ्य
संग्रह की बतौरे-ख़ास एक अलग शिल्प में लिखी गई शीर्षक रचना और कल्पना के सायुज्य से एक ऐसे यथार्थ को रचती है जो हमारी
समकालीन काव्य परिदृश्य के बीच उन्हें एक प्रतिबद्ध कवि की श्रेष्ठ सौन्दर्यवृत्तियों को सुकून देने के साथ-साथ एक सकारात्मक
विशिष्ट पहचान देती है। तीसरे और फ़िलहाल के अंतिम संग्रह दिशा में हमें भीतर से बदलता भी है। स्वर, थाप और शब्द की
‘न्यूटन भौंचक्का था’ (2022) में हम कविता की कुछ नई सांगीतिक बंदिशें कविता में इस तरह संयोजित है कि एक अनूठे
ज़मीनों से रूबरू होते हैं। इन तीनों संग्रहों से गुज़रते हुए इस बात शिल्प ने आकार ले लिया है। साबरमती एक्सप्रेस के एस-6 कोच
की साफ़ तौर पर निशानदेही की जा सकती है कि निजी मुहावरा के अंदर की मंज़रकशी और जुगलबंदी के स्वरविधान व मात्राओं
अर्जित करने की प्रक्रिया में वे समकालीन कविता की प्रतिरोध की आदि के प्रामाणिक ब्योरे कवि के सूक्ष्म निरीक्षण और असाधारण
धारा से अपनी वाबस्तगी बदस्तूर क़ायम रखते हैं। कलात्मक सामर्थ्य की निशानदेही करते हैं। यह कहना ग़लत
‘जुगलबंदी’ उनकी शाहक़ार रचना है। यह झूठ, घृणा और न होगा कि यह रचना ललित कलाओं विशेषतया संगीत और
हिंसा द्वारा पोषित फ़ासीवादी सांप्रदायिकता को बेनक़ाब करते हुए कविता के अंतस्संबंधों को समझने के लिए एक विश्वसनीय पाठ
बहुलवादी संस्कृति की हिमायत में उठाई गई पुरज़ोर आवाज़ है। उपलब्ध कराती है। ‘जुगलबंदी’ कविता के बीज उनके पहले
कविता के रूप में यह हमारे समय के एक बड़े सवाल का माक़ूल संग्रह की ‘फ़न्ने ख़ाँ गाइड’ कविता में देखे जा सकते हैं। फ़तेहपुर
जवाब है। जैसा कि कविता में कहा गया है- ‘नासमझो, यह सीकरी के स्थापत्य में फ़ारसी कल्पना और हिन्दू कारीगरी की
जुगलबंदी का देश है!’ सौहार्द्र की इस जुगलबंदी के पीछे हमारी अद्भुत जुगलबंदी है। फ़न्ने ख़ाँ की शुभेच्छा हैः “रखें मेहफ़ूज़ गंगा-
सदियों की विरासत रही है। इस मिज़ाज की रचनाओं को कैसे पढ़ा जमनी फ़िज़ा की इस याद को जियें जब तक।” अपने सारतत्त्व में
जाए? मेरा पाठकीय अनुभव बताता है कि कविता का एक विशेष ‘जुगलबंदी’ कविता इसी शुभेच्छा का शानदार विस्तार है।
संदर्भ समूची रचना के अर्थों को अपने इर्द-गिर्द सीमित कर देता एक व्यापक सरोकारों वाले कवि से हमारी जो अपेक्षाएँ हो
है। ‘जुगलबंदी’ में संदर्भ गोधरा 2002 का है। इस तारीख़ का सकती हैं, उन्हें लेकर निरंजन श्रोत्रिय बहुत संजीदा हैं। उनकी
स्मरण मात्र रूह को झकझोर कर रख देता है। यह रचना सिर्फ़ कविता निजी रागात्मक संवेदनों, घर-गिरस्ती के सुख-दुखों,

yegh जुलाई से सितंबर 2023 n 371


पर्यावरण संकट, कॉरपोरेट दुनिया और लोकतंत्र से जुड़े सवालों के अपहरण की व्यथा-कथा बयान करती है। प्रेम और सौहार्द का
का अहाता करती है। अपने समय का एक भरा-पूरा बिम्ब उनकी प्रतीक यह रंग देखते ही देखते किस तरह विद्वेष के प्रतीक के रूप
कविताओं के बीच से उभरता है। देश और दुनिया में जो तब्दीलियाँ में इस्तेमाल किया जाने लगता है, कविता का फ़ोकस इस बात पर
पेश आ रही हैं, उन पर वे चौकस निगाह रखते हैं। पाठक के नाते है। सिर्फ़ रंग के विमर्श के कारण यह कविता हमारे दिलो-दिमाग़
हम ऐसा मानते हैं कि रचनाकार की समय सजगता का महत्त्व तभी को नहीं छूती, इसकी अपील की वज़ह है दादी माँ के पुरातत्त्वीय
है, जब वह अपनी अभिव्यक्ति के प्रति भी उतना ही चाक़ चौबन्द बक्से से इस केसरिया रंग का रिश्ता। वात्सल्य भाव से भरा दादी
हो। हमारे दौर के अन्य समर्थ कवियों की भाँति निरंजन के यहाँ माँ का बिम्ब एक राजनीतिक कविता को हमारे हृदय के और ज़्यादा
भी यह सिफ़त मिलेगी। वे व्यापक जनहित से वाबस्ता सवालों समीप पहुँचा देता है। कविता का समापन नोट “कई दिनों से कै़द
और अंतर्विरोधों को निजी अनुभव का हिस्सा बनाते हुए एक सूरज छटपटाता/ दादी माँ के बक्से में।”-उस बेचैनी को बख़ूबी
सौन्दर्यात्मक रचाव के साथ शब्दबद्ध करते हैं। यह ख़ूबी उनके व्यक्त कर देता है जो अपहृत रंग को बचाने की जद्दोजहद में हमारे
समूचे रचना-कर्म पर सच गुज़रती है। बतौरे ख़ास उनके ‘जहाँ से दिलों में पैदा होती है।
जन्म लेते हैं पंख’ संग्रह की ‘फ़न्ने ख़ाँ गाइड’, ‘जुगलबंदी’ संग्रह इसी तरह ‘न्यूटन भौंचक्का था’ संग्रह की ‘वारंट’ शीर्षक
की ‘जुगलबंदी’, ‘एक रंग को बचा लेने की अपील’, ‘दारू में कविता शब्दों, स्वरों और रंगों से विहीन समय की अक्कासी करती
ड्राफ्ट’ और ‘न्यूटन भौंचक्का था’ संग्रह की ‘शांतिपूर्ण विध्वंस’, है, साथ ही प्रेम और सौन्दर्य के सभी स्रोतों के प्रति व्यवस्था की
‘कोई नहीं’, ‘मैं’, ‘वारंट’ और ‘जंतर मंतर’ जैसी कविताएँ समाज क्रूरता को सामने लाती है। यहाँ निरंजन की ख़ूबी यह है कि तथ्यों
के ज्वलंत मुद्दों को ज़ेरे बहस लाती हैं। लेकिन इन मुद्दों को वे या घटनाओं के बगै़र महज़ प्रकृति बिम्बों के ज़रिये इस सच्चाई को
निजी स्पर्श और मुनासिब कलात्मक संयम के साथ कविता की आईने की तरह सामने रख देते हैं। यही वह सौन्दर्यात्मक रचाव है
शक्ल देते हैं। सिर्फ़ एक-दो कविताओं के संक्षिप्त विश्लेषण से जो अपेक्षाकृत ज़्यादा मुश्किल काम है। इसके लिए वे दास्तानगोई
हम इस बात की पुष्टि कर सकते हैं। ‘एक रंग को बचा लेने के के फ़ॉर्म का इस्तेमाल करते हैं। क्रूर सत्ता के प्रतीक के रूप में
लिए अपील’ हमारे पारम्परिक उत्सवधर्मी जीवन से केसरिया रंग बादशाह को लाते हैं। एक परदेसी किरदार की कल्पना करते हैं
जो बादशाह को प्रकृति की वे तमाम चीज़ें एक-एक कर दिखाता
है, उनकी व्याख्या करता है। मसलन ज़मीन पर गिरे गुलमोहर
के फूलों को वह एक प्रेम कविता बताता है, कोयल की कूक को
राग मल्हार और इन्द्रधनुष को धरती के प्रति आभार के रंग। कवि
यह लक्षित करना चाहता है कि ये चीज़ें यानी प्रेम और सौन्दर्य
के ये प्रतीक बने रहे तो बादशाहत कैसे चलेगी? इनके ख़िलाफ़
गिरफ़्तारी का वारंट जारी होना लाज़िमी था। यहाँ ज़बर्दस्त आइरनी
है। बात सिर्फ़ फूलों और रंगों तक नहीं रह जाती, उन लोगों तक भी
पहुँचती है जो समाज में भाई चारा क़ायम करने के लिए निजी स्तर
पर या संगठित रूप से काम कर रहे हैं। इन कविताओं से यह भी
स्पष्ट हो जाता है कि निरंजन श्रोत्रिय के यहाँ विचारधारा सूत्रों के
रूप में नहीं, कविता के समूचे परिप्रेक्ष्य में व्याप्त रहती है। गढ़े हुए
सूत्र कविता की अपील को सीमित करते हैं और एक फ़ौरी असर
के बाद कविता ज़ेहन से निकल जाती है। इस विषय पर उनकी
एक दिलचस्प कविता हैः
एक फ़ार्मूला लो और
राज करो

एक फ़ार्मूला लो और
प्रजा ही बने रहो

372 n जुलाई से सितंबर 2023 yegh


एक फ़ार्मूला लो और संस्कृति को कुतरती अपसंस्कृति के इस दौर
कविता बना लो में धीरे-धीरे ये सब चीज़ें हमारे जीवन से
गुम होती जा रही हैं। ‘जुगलबंदी’ संग्रह की
एक फ़ार्मूला लो और..... ‘खोज’ और ‘न्यूटन भौंचक्का था’ संग्रह की
‘विदाई’ कविता में इस वेदना को महसूस
यह एक ऐसा देश है किया जा सकता है। ‘खोज’ कविता से मालूम
जिसमें एक अरब लोग नहीं होता है कि किस तरह से मनुष्य की अनिवार्य
आठ-दस फ़ार्मूले रहते हैं। आकांक्षाएँ बदल दी गई हैं।
(‘जहाँ से जन्म लेते हैं पंख’, पृष्ठ 94)
निरंजन श्रोत्रिय की बेश्तर कविताओं का उपजीव्य क़स्बे का जगह को भरते हैं।
जीवन है। जिस परिवेश में उनके रचनात्मक संस्कारों का निर्माण उपर्युक्त भावभूमि से संबंधित एक पक्ष लोक-संवेदना का है जो
हुआ, वह उनकी कविताओं के पर्दे में बोलता है। उसके एक-एक निरंजन के सरोकारों को विस्तार देता है। अतीत की चीज़ बनते
रगो-रेशे से कवि का हार्दिक जुड़ाव है। मालवा अंचल के क़स्बाई जा रहे लोक पर्व, क़स्बों-देहातों के पारंपरिक खेल और राग-रंग
जीवन के अंतरंग चित्र जीवंत स्थानिकता को आकार देते हैं। इससे उनकी चिंता के दायरे में शामिल हैं। ये मेल-मिलाप के सेतु को
कविता के मूल उत्सों का पता तो चलता ही है, इसके अलावा सुदृढ़ बनाने के साधन हुआ करते थे। इनको लेकर चिंता का
यह भी मालूम होता है कि कवि ग्लोबल विलेज यानी दुनिया को इज़हार व्यर्थ का अतीत-मोह नहीं है बल्कि चेतना के स्तर पर एक
एक साँचे में ढालने की साज़िशों को लेकर आगाह है। स्थानिक सांस्कृतिक पुनर्यात्रा है। ‘न्यूटन भौंचक्का था’ संग्रह की ‘आज’
विविधताओं को बचाना हमारी विविधवर्णी संस्कृति को बचाने के शीर्षक कविता में बड़े ड्रामाई और रूमानी अंदाज़ में खेलों का
मानिंद है। व्यापक परिप्रेक्ष्य में देखेंगे तो यह मानवीय सदाशयता ज़िक्र हुआ है। फ्रेम से लड़की के भागने की फ़ैण्टेसी अद्भुत है।
को महफ़ूज़ रखना भी है जिसकी ओर ‘खोज’ कविता (जुगलबंदी) इसमें मालवा के सितौलिया नामक खेल का उल्लेख है। सितौलिया
में इशारा किया गया है। यह बात यक़ीनी है कि पीछे छूटे हुए लोगों एक के ऊपर एक सात पत्थर रख कर गेंद से खेले जाने वाला खेल
और जगहों के स्मृति-बिम्ब हमारी संवेदना को समृद्ध करते हैं। है। ‘जहाँ से जन्म लेते हैं पंख’ संग्रह की ‘कनेर का पेड़’ कविता
इधर अवसाद की ओर धकेलने वाली स्मृतिविहीनता बहुत तेज़ी के में पाँचे नामक खेल को जगह मिली है। किसी फल के पाँच बीजों
साथ हमारे समाज में बढ़ रही है। कविता में यदि ये स्मृति बिम्ब से लड़कियाँ यह खेल खेलती थीं। ‘न्यूटन भौंचक्का था’ संग्रह
आते हैं तो इसे स्मृतिविहीनता के विरुद्ध भाषा को जागरूक बनाये की ‘कॅनवस’ कविता में आदिवासी सौन्दर्य बोध की बानगी देखी
रखने की एक कारगर कोशिश समझना चाहिए। ‘जहाँ से जन्म जा सकती है जहाँ वे इन्द्रधनुष को अपनी खाँटी भाषा में ‘दामिणी
लेते हैं पंख’ संग्रह की ‘मुझे पसंद है’,‘अस्वीकार’, ‘सब्ज़ी बाज़ार दोल’ (बिजली को तौलने वाली तराजू) कहते हैं। संस्कृति को
में’, ‘पहचान’ और ‘ताँगे की कविता’, ‘जुगलबंदी’ संग्रह की ‘पान कुतरती अपसंस्कृति के इस दौर में धीरे-धीरे ये सब चीज़ें हमारे
की गुमटी’ और ‘न्यूटन भौंचक्का था’ संग्रह की ‘कॅनवस’ और जीवन से गुम होती जा रही हैं। ‘जुगलबंदी’ संग्रह की ‘खोज’ और
‘हाजमा’ आदि कविताओं में इस कोशिश को बज़ाहिर देखा जा ‘न्यूटन भौंचक्का था’ संग्रह की ‘विदाई’ कविता में इस वेदना को
सकता है। ‘भाड़ पर खड़े रह कर/ मक्का के दानों को गर्म तवे पर महसूस किया जा सकता है। ‘खोज’ कविता से मालूम होता है कि
फूटते हुए देखना’ (मुझे पसंद है), पान की दुकान पर इलायची किस तरह से मनुष्य की अनिवार्य आकांक्षाएँ बदल दी गई हैं। यहाँ
की मांग (अस्वीकार), ‘सात साल की उम्र में टूटा मेरा पहला गुम होती जा रही चीज़ों के संदर्भ से कवि ने अपने समय पर गंभीर
दाँत/ जिसे गाड़ दिया ओसारे में’ (पहचान), सवारियों के लिए टिप्पणी की हैः
तरसता रमज़ान मियाँ का ताँगा (ताँगे की कविता), नानूराम की जब
पान की गुमटी (पान की गुमटी), आदिवासियों का सौन्दर्यबोध ममता गाय के थनों से निकलकर
(कॅनवस) और कैलाश पंडित व करीम मियाँ जैसे किसानों का पॉलीपैक में क़ैद
भाईचारा (हाजमा) स्थानिकता के ये तमाम स्मृतिबिम्ब हमें भीतर और मेंहदी हथेलियों से उतरकर
से कुछ और अधिक मनुष्य बनाते हैं और हमारे अस्तित्व की ख़ाली कँटीली फ़ेंसिंग में लौट जाए

yegh जुलाई से सितंबर 2023 n 373


शहर को मरहूम कहना कितना पीड़ा दायक है! एशिया के सबसे
वह समय बड़े विस्थापन का दर्द इस कविता में महसूस किया जा सकता है।
जीवन से स्वाद और रंगों की विदाई का यह कविता कवि-दृष्टि की एक विशेषता को भी लक्षित करती है।
ख़तरनाक समय होता है। वह अनुपस्थित को हमारे सामने उपस्थित कर देता है। कविता में
(न्यूटन भौंचक्का था, पृष्ठ- 56) हज़ारों लोगों के विस्थापन का कोई स्पष्ट उल्लेख नहीं है, लेकिन
मनुष्य के दुःखों के प्रति संवेदनशील रचनाकार प्रकृति-विनाश पंक्तियों के बीच विस्थापन के दर्दनाक मंज़र साकार हो उठते हैं।
को लेकर उदासीन नहीं रह सकता है। निरंजन श्रोत्रिय पर्यावरण निरंजन श्रोत्रिय की कविता में मौज़ूद हस्तक्षेप का तेवर उन्हें
और तथाकथित विकास के अंतर्विरोध को अपने बोध के दायरे में प्रतिरोध की मुख्य धारा का एक नुमाइंदा कवि की शिनाख़्त देता है।
लेते हैं। उन्हें इस सच्चाई का अहसास है कि जहाँ दुनिया में जर्मनी हस्तक्षेप की विभिन्न सूरतें उनके यहाँ मिलती हैं। उनकी कविताओं
के क्षेत्रफल बराबर जंगल प्रतिवर्ष काटे जाते हों, ऐसे में मनुष्य और में इस बात के पर्याप्त सुबूत मौज़ूद हैं कि एक भयमुक्त और बेहतर
जीवधारियों का अस्तित्व कब तक सुरक्षित रह सकेगा! वे आगाह मानवीय दुनिया के निर्माण में अवरोध पैदा करने वाली ताक़तों से
हैं कि इस वैश्विक संकट का लाभ उठाते हुए हवा और पानी पर वे आगाह हैं। एक नागरिक की हैसियत से उनका रचनाकार तमाम
कॉरपोरेट घरानों का इजारा होता जा रहा है। वृक्ष विहीन पृथ्वी मनुष्य विरोधी हालात के ख़िलाफ़ अपने ख़ास अंदाज़ में प्रतिरोध
का ‘दुःस्वप्न’ मनुष्यता के सामने है। उनकी अनेक कविताओें और असहमति दर्ज़ करता है। वह अपने समय के अँधेरों की
की अंतर्वस्तु में यह चिंता नुमायाँ तौर पर मौज़ूद है। ‘जहाँ से तरफ़दारी के बजाए उनसे इनकार का विकल्प चुनता है। ‘जहाँ से
जन्म लेते हैं पंख’ संग्रह की ‘पेड़ः तीन कविताएँ’ और ‘दुःस्वप्न’, जन्म लेते हैं पंख’ संग्रह की ‘भयावह समीकरण’ और ‘मुझे पसंद
‘जुगलबंदी’ संग्रह की ‘डूबते हरसूद पर पिकनिक’ व ‘पहाड़’ है’, ‘जुगलबंदी’ संग्रह की ‘बादशाह का कनकव्वा’ और ‘आग’
और ‘न्यूटन भौंचक्का था’ संग्रह की ‘चिड़िया और कविता’ आदि तथा ‘न्यूटन भौंचक्का था’ संग्रह की ‘अपराधी’ व ‘असहमत
रचनाएँ इसकी बेहतरीन मिसालें हैं। पेड़ विषयक तीनों कविताएँ होना’ जैसी कविताएँ उनके इस विकल्प की बेहतरीन मिसालें हो
बहुत मार्मिक हैं। पहली कविता प्रकृति-विनाश की पागल हिंसा का सकती हैं। ‘भयावह समीकरण’ कविता में यह तेवर ज़्यादा मुखर
सशक्त प्रतिरोध है। दूसरी कविता में कुल्हाड़ी की धार का बिम्ब है। यहाँ तात्कालिकता के दबाववश आवेशजनित प्रतिक्रिया का
पेड़ के वज़ूद को लेकर हमें विचलित कर देता है। तीसरी कविता लहजा आ गया है। जिस दौर में यह कविता लिखी गई थी, तब की
बहुत गहरे अर्थों वाली रचना हैः “नब्बे करोड़ चुप्पियों” पर सवाल खड़े करती है। ‘मुझे पसंद है’
डाल से लटके अंतिम पत्ते के कविता में श्रोत्रिय इस बात के प्रति आश्वस्त हैं किः
क्लोरोफ़िल का अंतिम अणु तमाम जी-हुजूर शोर के बीच
जो बच गया दुबक कर नष्ट होने से ‘नहीं’ कहने वाले
रोप दें उसे समय के गर्भ में अभी बचे हुए हैं
अगली सदी की हरियाली के पक्ष में इस मक़ाम पर निदा फ़ाजली का एक शे’र बहुत प्रासंगिक हैः
(जहाँ से जन्म लेते हैं पंख, पृष्ठ-38) हरेक बात को चुपचाप क्यूँ सुना जाए
यहाँ क्लोरोफ़िल का अंतिम अणु अदम्य आशावाद को प्रतीकित कभी तो हौसला करके ‘नहीं’ कहा जाए
करता है। हमारे सामने हज़ार नाउम्मीदियाँ सही, लेकिन अगर यह ‘नहीं’ समकालीन कविता में एक अहम मोड़ को सूचित
सूक्ष्म-सी उम्मीद भी है तो वह हमें जिजीविषा से भर सकती है। करता है। इसी तरह ‘बादशाह का कनकव्वा’ कविता पतंग और
उसे हमें बचाना है। ‘चिड़िया और कविता’ जैव विविधता की हानि कनकव्वे के प्रतीकों के ज़रिए ‘नहीं’ का हौसला दिखाती है।
की ओर ध्यान आकृष्ट करती है। यहाँ जंगलों के कटने के सबब इमारत बादशाह की, डोर बादशाह की, कनकव्वा बादशाह का,
चिड़ियों की प्रजातियों की विलुप्ति पर चिंता का इज़हार किया गया हवा बादशाह की, आसमान बादशाह का, इसके बावुजूद निचली
है। “मैं चिड़ियाँ नहीं देख पा रहा” वाक्य में बड़ी वेदना है। ‘डूबते बस्ती से एक पतंग पेच लड़ाने के हौसले के साथ उड़ने लगती है।
हरसूद पर पिकनिक’ कविता बताती है कि अावाम को अनियोजित ‘असहमत होना’ कविता का यह बीज वाक्य है– “एकालाप के
विकास कार्यों के कैसे-कैसे दुष्परिणाम भोगने पड़ते हैं। 2004 में कर्णभेदी स्वर के बीच मधुर संगीत है असहमति।” कवि ने बाप के
निमाड़ जनपद का हरसूद शहर नर्मदा पर इंदिरा सागर बाँध के कंधे पर बैठे बच्चे द्वारा राजा के नंगे होने के सच को बयान करने
कारण जलमग्न हो गया। बच रहे कुछ शिखर और मीनार। एक वाली लोककथा के माध्यम से असहमति के मूल्य को रेखांकित

374 n जुलाई से सितंबर 2023 yegh


किया है। कवि का यक़ीन है कि–
एक असहमत इंसान भरपूर जीवन है
साँस लेता हुआ, धड़कता हुआ हालाँकि अल्पसंख्यक
यक़ीन मानिए यह संकटापन्न प्रजाति ही
बचाएगी इस दुनिया को संकट से
(न्यूटन भौंचक्का था, पृष्ठ 87)
उनकी कई रचनाएँ विज्ञान कविता का आभास देती हैं। इनमें
तीन ख़ूबियाँ नज़र आती हैं। एक तो विज्ञान के संदर्भोंं के कारण
कवि का आशय ज़्यादा स्पष्टता के साथ व्यक्त हो सका है, किसी
अनुमान या भ्रम के लिए गुंजाइश नहीं रहती। दूसरे, कवि ने रचना
की आंतरिक माँग के अनुरूप वैज्ञानिक शब्दावली का बर महल
यानी उचित अवसर पर प्रयोग किया है। तीसरी महत्त्वपूर्ण बात यह
है कि इस शब्दावली ने समकालीन काव्यभाषा के शब्द भंडार में
कुछ न कुछ इज़ाफ़ा ज़रूर किया है। मसलन ‘जिजीविषा’ कविता
में माइक्रोस्कोप के नीचे रखी स्लाइड, ‘पेड़’ कविता में क्लोरोफ़िल
का अणु, ‘भयावह समीकरण’ कविता में गणितीय समीकरण
(जहाँ से जन्म लेते हैं पंख’ संग्रह), ‘घर-गिरस्ती की कविताएँ’
में ऊर्जा गतिकी के नियम, (‘जुगलबंदी’ संग्रह), ‘द करवा चौथ’ तब उसने लिखा नया नियम
में हिस्टेरॉक्टॉमी और ‘गुरुत्व’ कविता में गुरुत्वाकर्षण के नियम ‘पृथ्वी पर मौज़ूद
(न्यूटन भौंचक्का था-संग्रह) के संदर्भ जहाँ आए हैं, वहाँ कविता आततायियों की लालच-दृष्टि
के प्रभाव में वृद्धि हुई है। ‘न्यूटन भौंचक्का था’ संग्रह की ‘समस्या’ पृथ्वी के गुरुत्व को
और ‘वाट्स एप संदेश’ कविताएँ इंटरनेट और कम्प्यूटर से संबंधित कम कर देती है।’
शब्दावली में लिखी गई हैं। इन दोनों प्रयोगधर्मी कविताओं में कवि समग्रतः निरंजन श्रोत्रिय की कविता ‘अर्थ की छाया में उजाले
ने एक नई बात पैदा की है। ‘समस्या’ कविता में यह विडंबना है की तलाश’ का इसरार करती है। यह शब्दबंध उनकी एक कविता
कि ‘नेट’ ने मनुष्य की वास्तविक समस्याओं को विस्थापित कर ‘शब्द साधक’ में इस्तेमाल हुआ है। अर्थ से मुराद यहाँ सतह
दिया है। ‘वाट्सएप संदश े ’ कविता प्राइवेसी सेटिंग के ज़रिए की या सामने के अर्थ से है। इस सामने के अर्थ तक ही हमारी दृष्टि
जाने वाली धूर्तता को व्यंग्य का लक्ष्य बनाती है। इस सिलसिले में महदूद रहती है तो उस ‘उजाले’ यानी मानवीय सारतत्त्व तक
अर्थगर्भत्व और अपील के लिहाज़ से ‘गुरुत्व’ शीर्षक कविता का हमारी पहुँच नहीं हो पाएगी जो कि कवि का मुख्य अभिप्रेत है। मैंने
कोई सानी नहीं है। एक मामूली देशज शब्द ‘भौंचक्का’ ने कविता यह इसलिये कहा कि इधर लिखी जा रही कविता का एक हिस्सा
में ग़ैरमामूली प्रभाव पैदा कर दिया है। यहाँ विस्मित, आश्चर्यचकित फ़ौरी प्रशंसा के दबाव में सामने के अर्थों के प्रति आग्रहशील है।
या हैरत ज़दा जैसे तमाम वैकल्पिक शब्द बेमानी थे। इसके अलावा श्रोत्रिय अक्सर यथार्थ को बड़े भाषिक संयम के साथ स्वायत्त करते
सेब को त्रिशंकुवत् हवा में लटका देख कर न्यूटन के नया गुरुत्व हैं। इसके फलस्वरूप सामने के अर्थ के इलावा अनेक अर्थ-स्तर
का नियम लिखने में गहरी व्यंजना है। यह प्राकृतिक संपदा का हमारे ज़ेहन में खुलने लगते हैं। वे अपनी भाषा में यह तासीर पैदा
निर्ममता से दोहन करने वाले वर्ग का ज़बर्दस्त एक्सपोज़र है। करने की कोशिश करते हैं कि ‘छेड़ो एक शब्द को/ झंकृत सैकड़ों
निश्चय ही यह कविता अपने नये भाव और अभिव्यक्ति की ताज़गी अर्थ-स्वर।’ इस कोशिश के सबब उनकी कविताएँ देर तक हमारे
के लिए याद की जाएगी। कविता इस तरह हैः ज़ेहन में बनी रहती हैं और हमारी सोच को सकारात्मक परिवर्तन
इस बार सेब की दिशा में सक्रिय करती हैं। n
पेड़ से गिरा तो संपर्क : बी-330, अशोक नगर,
हवा में ही लटका रहा शाहदरा, दिल्ली-110093
न्यूटन भौंचक्का था! मो. 9811517897

yegh जुलाई से सितंबर 2023 n 375


n आयतन : अनिल त्रिपाठी

कवि-कर्म की समकालीनता
अरुण होता

दूसरी सहस्राब्दी के अंतिम दशक में हिंदी कविता ठहर कर कम लिखने में विश्वास करते हैं। शब्दों के
में महत्वपूर्ण उपस्थिति दर्ज़ करने वाले कवियों में मितव्ययी तो हैं ही। उनके प्रथम कविता संग्रह के दस
अनिल त्रिपाठी एक परिचित नाम है। उनकी पहली साल बाद यानि 2014 में ‘ अचानक कुछ नहीं होता’
कविता 1992-93 ई. के आस-पास प्रकाशित होती शीर्षक दूसरा कविता संग्रह प्रकाशित होना उपर्युक्त
है। इसके बाद हिंदी की तमाम महत्वपूर्ण साहित्यिक विचार को स्पष्ट करता है। एक बात और भी है,
पत्रिकाओं में अपनी कविताओं से इस कवि ने अनिल त्रिपाठी की कविताओं में हिंदी काव्य परंपरा
पाठकों का ध्यान आकर्षित किया। नब्बे के दशक विशेषतः त्रिलोचन और केदारनाथ सिंह का निर्वहन
ने हिंदी कविता का नया वितान रचा। भूमंडलीकरण, उदारीकरण, हुआ है। कवि ने इन कवियों के सान्निध्य से प्राप्त अनुभवों को यूं
निजीकरण, विश्व बाज़ार आदि के चलते सामाजिक, राजनीतिक, कहा जाए कि ‘कवि शिक्षा’ को अपने ढंग से विकसित किया है।
आर्थिक और सांस्कृतिक क्षेत्रों में भयानक बदलाव परिलक्षित हुए। अनिल ‘यक़ीन’ के कवि हैं। किसी भी कवि के लिए विश्वास,
बहुत कुछ हमसे छूटता जा रहा था और हमारे तमाम मूल्य बदल आत्मविश्वास उसके कविपन के लिए ही नहीं, उसकी कवि दृष्टि
रहे थे। खुशी की बात है कि युवा पीढ़ी के रचनाकारों ने परिवर्तित से परिचित होने के लिए अत्यंत आवश्यक होता है। उसे अपनी
स्थितियों को अपनी अपनी विधाओं में अंकित करने का प्रयास किया रचनाशीलता पर विश्वास है तो अपने ‘डटे रहने ‘ पर भरोसा है।
है। अनिल त्रिपाठी भी उन युवा कवियों में एक उल्लेखनीय नाम वह संभावनाओं की खोज करता है। संभावनाओं की तलाश में
है। इनकी कविताओं में भूमंडलीकरण की बदलती परिस्थितियाँ हैं निकला कवि को जल्दबाज़ी पसंद नहीं है। अपनी प्रारम्भिक दिनों
तो उन विकट स्थितियों से जूझने का साहस भी मौज़ूद है। पूंजी, की कविता में कवि ने स्पष्टतया लिखा भी है–
बाज़ार, सत्ता की साँठ-गांठ को उनकी कविताएँ पर्दाफाश करती हैं “मुझे यक़ीन है
तो जीवन मूल्य और पर्यावरण के समक्ष उत्पन्न संकटों से परिचित अगर भाषा की शिनाख्त नहीं हुई
कराती हैं। यद्यपि अनिल ने अन्य विधाओं खास कर आलोचना तो भी मैं चलूँगाअलक्षित कला को खोजने
में लेखन जारी रखा, फिर भी वे मूलतया कवि हैं। स्मरण है कवि विलंबित ख़यालों की पगडंडियाँ पकड़े”
का प्रथम कविता- संग्रह ‘एक स्त्री का रोजनामचा’ (2004) के बाज़ार और उपभोक्तावादी समय में एक बेलगाम प्रतियोगिता
प्रकाशन ने कविता के पाठकों को बहुत लुभाया था। इस संग्रह को जारी है। सभी भागे जा रहे हैं किसी अनिश्चित लक्ष्य की ओर।
पाठकों ने बहुत सराहा भी। अनुभव और स्मृति को कविता के साँचे अनिल त्रिपाठी की कविता में अपनी जड़ से जुड़ने का एक प्रबल
में सफलता पूर्वक ढालने का काम कवि ने किया है। सादगी इस आग्रह दिखाई पड़ता है। यह इसलिए कि मनुष्य अपनी जड़ से
कवि की शक्ति है और इसका साक्षात्कार इसकी कविताओं की उखड़ते जा रहा है। यह जितना मानव निर्मित है उससे कहीं अधिक
अंतर्वस्तु और शिल्प में होता है। कवि का नाभि-नाल संबंध अवध बाज़ारवादी अर्थ-व्यवस्था की चालाकियाँ हैं। खुशी की बात है कि
प्रांत से रहा है, इसलिए उसकी कविताओं में अवध का लोक बार- भूमंडलीकरण की आँधी जो सब कुछ लील लेना चाहती है, कवि
बार झाँकता नज़र आता है। समकालीन कविता में लोक की झांकी उसकी काट तैयार करता है। अपनी जड़, ज़मीन बची रहेगी तो
दरअसल कविता को समृद्ध करने की दिशा में अग्रसर करती है। कोई भी चक्रवात आए, कुछ बिगाड़ न सकेगा। कवि की अब तक
अनिल हड़बड़ी के कवि नहीं हैं। बहुतायात के कवि नहीं हैं। वे प्रकाशित कविताओं में उसका लोक बड़ी संजीदगी के साथ जीवित

376 n जुलाई से सितंबर 2023 yegh


हुआ है। यूं भी कहा जा सकता है कि उसकी कविताओं में लोक से लेकर केदारनाथ सिंह, ज्ञानेंद्रपति, उदय प्रकाश, चन्द्रकान्त
बड़ी प्रमुखता के साथ उभरा है। इस विषय पर आगे विचार होगा, देवताले, राजेश जोशी, विनोद कुमार शुक्ल, विष्णु नागर, अरुण
लेकिन यहाँ उल्लेख किया जा सकता है कि इस भाग-दौड़ में वे कमल, वीरेन डंगवाल, मंगलेश डबराल, मदन कश्यप, कुमार
अपनी जड़, ज़मीन और अस्मिता को भुलाते जा रहे हैं। बेरोजगार अंबुज, अष्टभुजा शुक्ल, नीलेश रघुवश ं ी,जितेंद्र श्रीवास्तव,
युवक नौकरी के पीछे भागे जा रहा है तो व्यापारी पूंजी और मुनाफे श्रीप्रकाश शुक्ल आदि तमाम पीढ़ियों के कवियों ने ‘घर’ की चिंता
के पीछे। नाते-रिश्ते कभी हमें आपस में बांधे रखते थे। लेकिन को कविता में अभिव्यक्त किया है। इस अभिव्यक्ति में घर एक
इस भयानक समय में हम भागते जा रहे हैं किसी अनजान और आवश्यकता से अधिक एक सपना है। अनिल त्रिपाठी के लिए भी
बेपहचान मंजिल की ओर। ऐसी स्थिति में कवि को भरोसा है– ‘घर’ संबंधों की ऊष्मा का दूसरा नाम है। इसके लिए अपनापा का
“इस तरह जुड़ेंगे हम, होना भी अत्यंत आवश्यक है। आधुनिक समाज ने जो संदेह का
अपने प्रतीक्ष्य मूल से वातावरण निर्मित किया है उसका घर में कोई स्थान नहीं होता है।
बहुत दिनों बाद कवि के शब्दों में–
एक अलग रूप के साथ।” “विश्वास की नींव और सपनों की छत के
जैसा कि उल्लेख किया जा चुका है भूमंडलीकरण के दौर में अलावा भी बहुत कुछ है
अनिल की कविताएँ प्रकाशित और चर्चित होती हैं तो स्वाभाविक जिसे कमाना पड़ता है”
है कि वे अपने समय और समाज की नब्ज़ को सही माने में कवि का स्पष्ट मानना है कि गोधरा हो या निठारी अथवा सद्दाम
टटोलने में सफल प्रतीत होते हैं। एक जागरूक कवि की दृष्टि में की फांसी, अचानक कुछ नहीं होता है। हर एक घटना, परिदृश्य के
उसका समय रचना में उपस्थित होता है और रचनाकार अपनी पीछे लंबे समय से एक मानसिकता काम कर रही होती है। इसलिए
दृष्टि से अपने समय को रेखांकित करना नहीं भूलता है। कहने का ज़रूरी है कि हम उस मानसिकता को समझ लें, उसके आगामी
आशय यह है कि अनिल त्रिपाठी की कविताओं में उनका समय परिणामों अथवा दुष्परिणामों के बारे में जान लें अर्थात पूरी तरह
बड़ी शिद्दत के साथ अंकित हुआ है। कवि ने अपने समय को से जागरूक रहें।
भयानक,भयावह,विकट,कठिन, प्रतिकूल आदि शब्दों से विशेषित समकालीन कविता में पर्यावरणीय चिंता शिद्दत के साथ अंकित
किया है। परंतु वह हताश, उदास, निराश और पराजित नहीं है। हुई है। अब तक प्रकाशित अनिल की कविताओं से गुज़र कर
उसे पूरा विश्वास है कि प्रेम को आधार बनाकर नव सृजन किया यह एहसास होता है कि इस कवि ने भी पर्यावरण के विनष्ट होने
जा सकता है,मौज़ूदा समय को थोड़ी देर के लिए सही, रोका जा और आसन्न संकटों की चिंता को अपनी कविताओं में चित्रित
सकता है– किया है | प्रसन्नता की बात है कि इसकी पर्यावरण चिंता केवल
“समय को स्थगित पेड़-पौधों तक सीमित नहीं है। जल, जंगल और ज़मीन की चिंता
नहीं किया जा सकता के साथ-साथ विभिन्न प्रजातियों के पक्षियों की विलुप्ति को कवि
उस पर अपना ज़ोर नहीं ने कई कविताओं का विषय बनाया है। अतः कहा जा सकता है
हाँ, उसे रोका जा सकता है थोड़ी देर कि कवि की पर्यावरण संवेदना से संबंधित कविताएँ जहाँ उसकी
बशर्ते हम प्यार करें” पर्यावरणीय सचेतनशीलता की संकेतक हैं वहीं मानवेतर प्राणी
समकालीन कविता में ‘घर’ की चिंता भी बार-बार उज्जीवित जगत के प्रति उसकी व्यापक संवेदना का उदाहरण भी है। पानी
हुई है। यह समाज की एक छोटी इकाई भले हो लेकिन यहाँ प्रकृति की अनुपम देन है लेकिन राजस्थान ही नहीं, चेन्नई आदि
परिवार, समाज,मूल्य और मान्यताएँ तथा सभ्यता और संस्कृति दक्षिण भारतीय स्थानों में भी पानी की समस्या उत्कट होती नज़र
चरितार्थ होते हैं। औद्योगिक और भूमड ं लीकृत समय में लाभ और आ रही है। पूरे विश्व में जलस्तर घटता जा रहा है। पीने का पानी
बाज़ार का जादू छाने लगा तो घर मकान में तब्दील होते गए। मयस्सर नहीं हो रहा है तो बड़ी तादाद में लोग गंदा पानी पीकर
मकान को ही घर समझ लिया गया बिना यह समझे कि ईंट,गारे, रोगग्रस्त हो रहे हैं और मृत्यु का शिकार बनते जा रहे हैं। कवि ने
बालू, लोहा, सीमेंट आदि की सहायता से मकान बनते हैं, घर नहीं। आग्रह किया है कि पेड़, पानी, पशु-पक्षियों आदि को बचाए बिना
प्रेम, स्नेह,विश्वास, संबंधों की ऊष्मा की नींव पर घर निर्मित होता पर्यावरण संतुलन कायम नहीं हो सकता है। उसने इस चेतावनी
है। घर वह है जहाँ रिश्तों की आधारशिला होती है, जहाँ सपने को भी साझा किया है–
पलते–बढ़ते हैं। यही कारण है कि त्रिलोचन, शमशेर, नागार्जुन “जबकि चेतावनी यही है कि

yegh जुलाई से सितंबर 2023 n 377


अगली लड़ाई शराबा नहीं है। मौज़ूदा दौर की कलुषित राजनीति पर व्यंग्य है
इस धरती पर तो दो जून की रोटी के लिए संघर्षरत ग़रीब,पीड़ित, शोषित और
पानी के लिए होगी।” मजदूर वर्ग की हिमायत करने वाली कविताएँ हैं। कवि प्रतिश्रुत है
इसी तरह कवि ने धीरे-धीरे उजड़ते जा रहे हमारे अपने हाशिए के समाज के उत्थान के लिए। तभी वह कहता है–“लौटा
वैशिष्ट्य के कारण आनेवाली पीढ़ी के समक्ष उत्पन्न संकटों की दो रोशनी/ उन आँखों को/ जो न जाने कब से/ अंधकार में डूब
ओर भी संकते किया है–“मुझे दुख है कि मेरा बेटा/ आम के पेड़ रही है/ आहिस्ता-आहिस्ता मुस्कान उन होठों पर/ जो सूख गई है/
पर तो क्या/ अमरूद के पेड़ पर चढ़कर/ अमरूद खाये बिना ही/ हँसी में तब्दील होने से पहले।”
बड़ा हो जाएगा/ और बेटी को एक सोहर तक भी/ नहीं याद होगा। कवि ऐसे लोगों की बात करना चाहता है जिनके चेहरों पर कभी
चिड़ियों की चहचहाहट सुनाई न पड़ना कवि के लिए मामूली चैती और फगुनाहटी रंग नहीं लौटा। इसलिए वह ग्लोबलाइजेशन
विषय नहीं है। वृक्षों और वनों की लगातार हो रही कटाई से को नकारता है कि इसने भारतीय सभ्यता की आत्मा को कंकाल
ग्लोबल वार्मिंग बढ़ती जा रही है। यह स्थिति बनी रही तो आनेवाले -सार में तब्दील कर दिया है। अतः उसका आग्रह है कि कोई
समय में मानव जाति के अस्तित्व के सामने एक बड़ा प्रश्नचिह्न जनांदोलन शुरू हो --
लग जाएगा। ‘चिड़िया’ कविता की अधोलिखित पंक्तियाँ कवि की “मैं चाहता हूँ फिर से
प्रकृति और पर्यावरणीय चिंता और सरोकार को साकार करती हैं– शुरू करो कोई डांडी
“इस तरह नहीं रहा बूढ़ा नीम जहाँ मिल जाए कोई गांधी
और चिड़िया का भी कुछ पता नहीं ताकि बच जाए
शायद वह अपने ठिकाने की खोज में रवांडा और कालाहांडी।”
भटक रही है कवि गुज़रात की घटना हो अथवा इन दिनों लोकतन्त्र के नाम
बूढ़े नीम की अनुपस्थिति में।” पर चलने वाली नौटंकी से क्षुब्ध है। ऐसे स्थलों पर उसकी भाषा में
प्रकृति और पर्यावरण की समस्या से निजात पाने के लिए कवि आक्रामकता से अधिक व्यंग्यात्मकता दिखाई पड़ती है। राजनीतिक
सोचता है–“मेरा बस चलता तो / जहाँ भी जाता उठा लाता अपना भ्रष्टाचार पर कवि का व्यंग्य दृष्टव्य है–“भ्रष्टाचार के अब/ कोई
घर/ उठा लाता अमरूद और नीम का पेड़ / घर गाँव की हरियाई/ मायने नहीं/ जैसे कि वह हो गई है/ इस मुल्क का स्थायी भाव”
जेठ की तप्त धरती का पहला दौंगरा”। कहना न होगा कि कवि के कहना न होगा कि आमजन के सपने चकनाचूर हो रहे हैं जबकि
लिए जीवनानुभव और स्मृति बहुत मायने रखते हैं। उसने वर्तमान राजनेता कुबेर को अपने यहाँ मुनीम रखे हुए हैं।
के यथार्थ को अनदेखा नहीं किया है। उसकी कविताओं में समय अनिल त्रिपाठी ने निराला, त्रिलोचन, नागार्जुन, केदारनाथ
और स्थितियों के प्रति कवि की जागरूक दृष्टि परिलक्षित होती है। सिंह, राजेश जोशी, अरुण कमल की काव्य परंपरा को विकसित
ध्यातव्य है कि अनिल की प्रेम संबंधी कविताओं में आत्मीयता करने का सफल प्रयास किया है। इनमें से अधिकांश कवियों के
का भाव मुख्य है। पाठक इन कविताओं से गुज़र कर अपने प्रति अनिल ने न केवल कविताएँ लिखीं हैं बल्कि उनकी परंपरा को
अनुभवों को कवि के अनुभवों के साथ जोड़ता चला जाता है। समृद्ध भी किया है। अंतर्वस्तु और कविताई का सुंदर तालमेल कई
यहाँ कवि के रचने की अर्थवत्ता है। एक महत्वपूर्ण बात यह भी कविताओं में परिलक्षित होता है। जटिल से जटिल कथ्य को अत्यंत
है कि इस प्रेम चित्रण में यथार्थ अनुपस्थित नहीं है। जीवन और सहज शब्दावली में प्रस्तुत कर देने की कला इस कवि को मालूम
जगत को अनदेखा करते हुए प्रेम की अभिव्यंजना नहीं हुई है। यह है। आज के दौर में भाषिक सहजता, सरलता और सादगी जैसे गुण
प्रेम ऐकांतिक से अधिक सामाजिक है। ‘प्रेम’,‘तुम्हारी आकांक्षा दुर्लभ होते जा रहे हैं। ऐसी स्थिति में इस कवि की कविताओं से
में’ जैसी कविताओं के माध्यम से उपर्युक्त विचार की पुष्टि हो गुज़रना सुखद प्रतीत होता है। n
सकती है। संपर्क : प्रोफेसर, हिंदी विभाग,
अनिल की कविताओं में राजनीतिक स्थितियों का चित्रण भी पश्चिम बंगाल राज्य विश्वविद्यालय,
मौज़ूद है। राजनीतिक दृष्टि से सम्पन्न कई कविताएँ उनके संग्रहों बारासात, कोलकाता,
में मौज़ूद हैं। कहा जा सकता है कि यहाँ कोई नारेबाजी या शोर- मो. 9434884339

378 n जुलाई से सितंबर 2023 yegh


n आयतन : सर्वेन्द्र विक्रम

समय का सच बयान करती कविताएँ


नलिन रंजन सिंह

हमारे समय के महत्वपूर्ण कवि सर्वेन्द्र विक्रम के उस समय से परे निकल गई है। जो उस समय में
दो कविता संग्रह प्रकाशित हैं। उनका पहला कविता अब भी फँसे हुए हैं, दरअसल वे पिछड़े हुए हैं। इस
संग्रह 'एक दिन दिल्ली में समय' वाणी प्रकाशन से बात ने व्यक्ति को जबरदस्त एलियेशन दिया है। एक
2002 में आया था। दूसरा संग्रह 'दुख की बन्दिशें' अजनबीपन दिया है। जो भी अपने समय को लेकर
राजकमल प्रकाशन से 2014 में प्रकाशित हुआ था। कॉन्शस है, वह भागती दिल्ली में हाशिए पर छूट
दोनों कविता संग्रहों की कविताएँ अपने समय का गया है। सर्वेन्द्र विक्रम हाशिए पर छूट गए आदमी के
दस्तावेज़ हैं। सर्वेन्द्र विक्रम समय को लेकर बेहद साथ हैं और अपनी पूरी कविता में उसी की दास्तान
सजग कवि हैं। समय उनकी कविताओं में बार-बार आता है सुनाते हुए प्रतीत होते हैं। उनके तमाम बिंब-प्रतीक उसी के हक़
और वे उसका विमर्श बेहद ख़ूबसूरती से रचते हैं। उनका पहला में गढ़े गए हैं। उनके यहाँ अतीत की स्मृतियाँ हैं जो उनकी कविता
कविता संग्रह 'एक दिन दिल्ली में समय' बहुत सारी स्मृतियों को में जगह पाती हैं। उनके पास किस्सागोई है और उस किस्सागोई
जगह देता है। 'दिल्ली में टाइम' शीर्षक से उनकी तीन कविताएँ के इस्तेमाल की समझ भी है। अतीत के इस्तेमाल से किस तरह
हैं। तीनों कविताएँ बीसवीं शताब्दी के आख़िरी दशक में बेहद हम वर्तमान को ढक देते हैं, उसको बयान करती कई कविताएँ
जगरमगर समय में भागते हुए महानगर की कविताएँ हैं। महानगरों इन संग्रहों में मिल जाएँगी। हर जगह ऐसे लोग खड़े हैं जो बीच के
की विशेषता कुछ इस तरह से बनती है कि उनकी चमक-दमक के लोग हैं। देवता और व्यक्ति के बीच में पुजारी खड़े हैं, व्यवस्था
नीचे बहुत कुछ दबा रह जाता है, छुपा रह जाता है। वे लिखते हैं– और व्यक्ति के बीच में नेता खड़े हैं। सर्वेन्द्र विक्रम के यहाँ जिस
'खिड़की के बाहर बहुत कुछ है सहजता से व्यंग्य आता है, वह अद्भुत है। 'महामहिम सो रहे
जगरमगर दुकानें, भागते लोग राजनीतिक मसखरापन हैं' जैसी कविताएँ उनके चुटीले व्यंग्य का उदाहरण हैं। किसी
सिटी बस में पूछ रहा है, टाइम क्या है? भी लेखक के लिए उसकी पर्यवक्ष े ण शक्ति बहुत मायने रखती
हँसता है कण्डक्टर, लोग भी है। आप चीज़ों को किस तरह से देखते हैं और अपनी कविता में
देखो-देखो उसका किस तरह से इस्तेमाल करते हैं, यह एक बेहतर कवि होने
दिल्ली में टाइम पूछ रहा है' के लिए ज़रूरी है।
राजधानी इस स्थिति में आ गई है कि वहाँ समय ठहरता ही सर्वेन्द्र विक्रम के प्रेम का फलक बहुत बड़ा है। किसी भी कवि
नहीं। दिन-रात का पता ही नहीं। लोग इतने मसरूफ हैं कि उन्हें का पहला संग्रह आए और उसमें प्रेम कविताएँ न हों अक्सर ऐसा
अपनी मसरूफियत में समय का कोई इल्म ही नहीं। उन्हें समय संभव नहीं होता है। सर्वेंद्र विक्रम भी इससे अछूते नहीं हैं। 'सिर
क्या चल रहा है, इससे कोई लेना-देना नहीं। जबकि समय है कि झुकाए बैठी रहती हैं कुर्सियाँ' कविता में जब वे लिखते हैं– 'धान
बहुत सारी चीज़ों को बदल रहा है। बहुत सारे जीवन संदर्भ बदल की पकती बालियों सी नतमुख' तो सहसा फणीश्वरनाथ रेणु की
रहे हैं। लेकिन दिल्ली है कि अपनी रफ्तार में भागी जा रही है। कहानी 'लाल पान की बेगम' याद आ जाती है। सर्वेंद्र विक्रम
दिल्ली जो देश की राजधानी है, दिल्ली जहाँ से सारे बदलाव हो के यहाँ आँखें भी 'कुम्हलाए पौधे' सी हैं। जाहिर सी बात है कि
रहे हैं, जहाँ से देश को बदलने के निर्णय लिए जा रहे हैं, वहाँ कवि अपनी देशज संवेदना से मुक्त नहीं है। महानगरीय बोध की
टाइम पूछना एक मजाक की तरह लिया जा रहा है। क्योंकि दिल्ली कविताएँ लिखते हुए भी उसकी स्मृति में उसका अंचल बैठा हुआ

yegh जुलाई से सितंबर 2023 n 379


है। वहाँ से निकले हुए प्रतीक उसकी कविता के जीवद्रव्य हैं। डॉ. दरअसल दुखहरन आम आदमी के प्रतीक हैं। समाज का वह
नामवर सिंह बताते हैं– 'कविता में जब कवियों को नया मार्ग अंतिम आदमी जो सर्वेन्द्र विक्रम की कविताओं के केंद्र में है
नहीं सूझता, नई दिशाएँ मेघाच्छन्न दिखाई पड़ती हैं और पुरानी उसके प्रतीक चरित्र को जिस तरह से कविताओं में ढाला गया है,
चहारदीवारी से निकलने का उपाय नहीं सूझता तो लोकशक्ति वह मानीखेज है। जिन कविताओं में दुखहरन आते हैं उन सारी
ही मशाल लेकर आगे बढ़ती है… अंधकार को चीरती है, कुहरे को कविताओं को एक जगह रख कर देखा जाए तो पता चलता है कि
छाँटती है, मार्ग को प्रशस्त करती है और दम घुटते कवियों की इक्कीसवीं शताब्दी के दूसरे दशक तक आम आदमी की वास्तविक
संज्ञा में प्राण-वायु का संचार करती है।' (इतिहास और आलोचना, स्थिति क्या है। दुखहरन के जूतों को खरीदने की इच्छा जूतों जितनी
राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली) सर्वेन्द्र विक्रम भी जहाँ भी अँधेरा ही प्राचीन है। कवि लिखता है–
देखते हैं, उस अँधेरे को हटाते हुए लोक की नई राह गढ़ते हैं। 'दुखहरन न नायक हैं न प्रतिनायक
सर्वेन्द्र विक्रम की कविताओं में तमाम संदर्भ ग्रामीण क्षेत्रों से पुराणों में नहीं हैं उनकी जड़ें
जुड़े हुए हैं। उन्होंने दुनिया के दोनों हिस्सों को बख़ूबी समझ रखा नहीं हैं देवताओं का आशीर्वाद उनके साथ
है। एक दुनिया वह है जो महानगर की है, राजधानी की है, कार उन्होंने जन्म नहीं लिया जूतों के साथ'
वालों की है। और एक दुनिया वह है जो सामान्य जन की है। दुखहरन का चित्र और उनकी इच्छा को एक करके देखिए
इन दोनों के अंतरसंघर्ष में स्त्रियाँ, बच्चे और ग़रीब सबसे ज्यादा तो पता लगता है कि दुखहरन जैसे प्रतीक चरित्र भारतीय समाज
परेशानी में हैं। इसीलिए सर्वेन्द्र विक्रम की दृष्टि इन पर सबसे में अनवरत हाशिये में जी रहे हैं। उन्हें वे सारी चीज़ें कभी नहीं
ज्यादा गई है। यहाँ तक कि उनका ध्यान हवाई अड्डे पर भी बच्चों मिल पाईं जिसके लिए वे इस लोकतंत्र में अधिकारी थे। यह एक
पर है। बच्चों के लिए नानी के आने का क्या मतलब है, यह भी वे विडंबना ही कही जाएगी कि समाज के अंतिम व्यक्ति तक जो
बयान करते हैं। नदी, पहाड़, मैदान, फसलें सब उनकी कविताओं पहुँच होनी चाहिए, व्यवस्था वहाँ तक नहीं पहुँच पाती। वही
में जगह पाते हैं। नदी को तो वे मानवीकरण के साथ प्रस्तुत करते व्यक्ति हमेशा हाशिए पर रहता है, शोषण का शिकार होता है और
हैं। 'देस और देश' का फ़र्क उनके यहाँ बख़ूबी व्यक्त हुआ है। नदी लगता है कि जैसे सारे दुख उसी के लिए बने हुए हैं। इक्कीसवीं
कविता में वे लिखते हैं– सदी में आज़ादी के इतने सालों बाद आम आदमी का यह हुलिया
'तेरे देस का मैं भी शामिल था व्यवस्था की विफलता को प्रस्तुत करता है।
गले में था पट्टा शहर का तुझसे क्या छिपाना यह एक बड़ी विडंबना है कि जिस स्त्री को लेकर आज स्त्री
शायद इनकार भी कर दूँ कि तुम मेरे देस की विमर्श में इतनी बहसें हैं, जिसको केंद्र में रखकर लोग रचनाएँ कर
कि तुम्हें जानता था बहुत दिन से' रहे हैं, उसकी अपनी पहचान अभी तक नहीं बन पाई है। दरअसल
तकनीक के दौर में हस्तशिल्प का पीछे छूटते जाना भी हमारे दुखहरन, लेड़ी बो, शेष टाइम कका जैसे तमाम प्रतीक हैं जिनका
समय का एक कड़वा अनुभव है। बुनकरों या कुम्हारों की त्रासदी समय नहीं बदल रहा है। सर्वेन्द्र विक्रम की नज़र ऐसे चरित्रों की
को भुलाया नहीं जा सकता। 'मिट्टी में डूबे हाथ' कविता में हुनर के तरफ ख़ूब गई है। जब वे गुब्बारे वाले, धार लगाने वाले, चूड़िहार,
नष्ट होते जाने का दर्द बख़ूबी बयान किया गया है। कवि लिखता गाड़ीवान, पेंटर, प्रेस वाले से होते हुए बँसफोर तक पहुँचते हैं तो
है– ऐसा लगता है कि कामकाजी, घुमतं ू और वयनजीवी जातियों का
'उन्होंने मिट्टी को पढ़ा एक विस्तृत अध्ययन कर रखा हो। इन कविताओं के माध्यम से
इससे समझने में मदद मिली सर्वेन्द्र विक्रम की कविताओं में हाशिये के विमर्श पर अलग से
कुछ भी स्थिर नहीं है बात हो सकती है।
मिट्टी चाक और अंततः जीवन भी सर्वेन्द्र विक्रम के पास चीज़ों को देखने का भी अद्भुत हुनर
उन्होंने गाँव छोड़ा है। वे कुर्सी, कैमरा, बगुले, हाथ, पानी, गांठ, कोठरी, आलमारी,
तो सब कुछ छोड़ दिया खिड़की, पोस्टकार्ड, लिहाफ और मुर्दों तक को अपनी कविता
अपनी मिट्टी अपना हुनर उनसे रिश्ता। ' का विषय बनाते हैं। वे देशज संदर्भोंं को अपनी कविता के केंद्र
सर्वेन्द्र विक्रम की कविताओं के सबसे चर्चित चरित्र हैं में लाते हुए उस भाषा का इस्तेमाल करने में भी झिझक नहीं
'दुखहरन'। वे 'दुखहरन खरीदना चाहते हैं जूता' से लेकर 'तब करते। अकिल, गियान, पिसनहारी का कुआँ, कसेरवा का इनारा,
दुखरन', 'दुखहरन की दाल' आदि कई कविताओं में आते हैं। गगरा, ठिल्ला, चिरौरी, घिर्रियाँ, गड़ारियाँ, जलमभूमी, पोस्टकाट

380 n जुलाई से सितंबर 2023 yegh


जैसे शब्द वे इस्तेमाल करते हैं। उनकी कविताओं में संस्कृत,
अंग्रेजी और उर्दू के शब्द भी आते हैं। कहीं-कहीं उन्होंने मुहावरों
का भी इस्तेमाल किया है। 'स्रोत की परवाह करने वालों का समय'
कविता में वे 'कुएँ में भाँग पड़ने' वाले मुहावरे का प्रयोग करते हैं।
मुक्त छंद में लिखी गई उनकी कविताएँ कहीं-कहीं अलग प्रयोग
करती नज़र आती हैं। जैसे 'बगुले' कविता में हर पंक्ति का अंत
'र' पर होता है–
'इस इलाके में कुछ बगुले बाक़ायदा जमाते हैं कारोबार
बोली बानी बिकने लायक ठीक-ठाक विचार
नाना रूप ताल-तिकड़म फाँसने की युक्तियाँ हजार
जल हो थल हो भक्ति या संसार
सब कुछ मिल जाता है जैसे जन्म सिद्ध अधिकार।'
कविता अक्सर उद्बोधन का काम भी करती रही है। उद्बोधन गान
लिखे जाने की हमारी परंपरा पुरानी है। जब स्थितियाँ विपरीत हों तो
कवि उनका मुक़ाबला करने के लिए आह्वान करता है। यह आह्वान कितने तो देवता हैं क्या जतन करूँ
सर्वेन्द्र विक्रम की कविताओं में भी मिलता है। वे अपनी कविता मुझे शर्म आती है, कहीं इस सब की जड़ में मैं तो नहीं हूँ?'
'वसीयत' में लिखते हैं– कहते हैं दुनिया उम्मीदों पर टिकी हुई है और सर्वेन्द्र विक्रम की
'जब अँधेरा पार करने लगे हदें कविताएँ भी उम्मीद जगाती हैं। उनकी आख़िरी कविता 'लिखता हूँ'
गुनाह है चुप बैठना।' पढ़कर केदारनाथ सिंह की कविता 'मुक्ति' और मंगलेश डबराल
युद्ध और बाज़ारवाद के घालमेल का एक सुंदर चित्र उन्होंने की कविता 'कुछ देर के लिए' की याद आती है। वे लिखते हैं– 'मैं
अपनी कविता 'शताब्दी का बड़ा खेल' में प्रस्तुत किया है। यूँ तो एक कविता लिखता हूँ सोचता हूँ कि इसे कोई पढ़ेगा?' इस कविता
केदारनाथ सिंह की कविता 'मुक्ति' मुझे बेहद पसंद है किंतु सर्वेन्द्र के माध्यम से वे अपनी वैचारिकी भी अंत में स्पष्ट कर देते हैं–
विक्रम ने अपनी कविता 'मुक्ति' में नई किताबें पाकर उन्हें पढ़ने 'दो दुनियाएँ हैं साफ तौर पर उनमें अंतर दिख रहा है
वाले बच्चों का जैसा चित्र खींचा है, वह बेहद महत्वपूर्ण है। वे दोनों के लिए अलग इंतजाम हैं
लिखते हैं–
'उन्हें सिखाया नहीं गया, यह किसी साजिश का हिस्सा है मैं उन चीज़ों की फेहरिस्त बनाने लगता हूँ
या यह किसकी साजिश है ओझल हो गया है सवाल' जो दोनों के लिए समान रूप से हों
दरअसल हमारे बीच से सवाल का गायब हो जाना सबकुछ को फिर हैरान हो जाता हूँ कि दोनों वृत्तों के बीच
यथावत स्वीकार कर लेने की घोषणा है। कवि चाहता है कि आने कोई स्पर्श-बिंदु नहीं है'
वाली पीढ़ी में सवाल करने की क्षमता बची रहे। हम सब जानते मैंने पहले ही कहा है कि सर्वेन्द्र विक्रम अमीर और ग़रीब के बीच
हैं कि पिछली शताब्दी का सबसे बड़ा दाय यह है कि उसने प्रश्न की चौड़ी खाई को बख़ूबी समझने वाले कवि हैं। वे अपनी पक्षधरता
करना सिखाया। उत्तर की तलाश जब तक बनी हुई है और जब कमजोरों के साथ दिखाते हैं। इसीलिए वे यथार्थवादी कवि तो हैं ही,
तक हम सवाल करके उत्तर की खोज करते रहेंगे तब तक उत्तर समय की बख़ूबी पहचान करने वाले कवि भी हैं। उनकी कविताएँ
देने से बचने वाले लोग भागते रहेंगे, सवालों का सामना करने से कोई आदर्श प्रस्तुत करती हुई नहीं दिखतीं बल्कि व्यवस्था का
बचते रहेंगे। इसलिए सवाल उठाना ज़रूरी है। परिस्थितियाँ जब यथार्थ और विद्रूप चेहरा दिखाती हैं। वे सवालों के जवाब देती नहीं
विकराल हो जाती हैं, न्याय नहीं मिलता तो मनुष्य को लगने लगता चलतीं बल्कि सवाल उठाना सिखाती हैं और अपने मारक अंदाज से
है कि वह उन परिस्थितियों का निर्माता है और स्वयं दोषी है। एक पाठक के सामने स्थितियों को जस का तस प्रस्तुत कर देती हैं। n
कविता में वह लिखते हैं– संपर्क : C–1/24 रतन खंड, शारदा नगर,
'न्याय महज एक दृष्टिकोण भर रह गया है लखनऊ–226002
बारी बारी सबको देख परख चुका फ़र्क नहीं पड़ा मो. 9651163672

yegh जुलाई से सितंबर 2023 n 381


n आयतन : दुर्गा प्रसाद गुप्त

सूफ़ी हृदय का काव्य


अरुंधति

काव्य सृजनधर्मिता रचनाकाल के अनन्तर बनते नये संवाद की भाषा को तलाशते हुए उसमें सपाटबयानी
समीकरणों के मध्य उर्जस्वित उस सोते की भांति है के तत्व दिखाई देने लगते हैं।
जो तमाम अंतर्विरोधों से लड़ते हुए अपने प्रवाह का दुर्गा प्रसाद गुप्त के दो काव्य संग्रह प्रकाशित हुए
रास्ता ढूँढ लेता है। समकालीन कविता के उत्तर काल हैं पहला है ‘जहाँ धूप आकार लेती है’ तथा दूसरा
में कई ऐसे परिवर्तन काव्य संवेदना और अभिव्यक्ति ‘अकेलेपन में भी इश्क सूफी’ है। दोनों काव्य संग्रहों
के धरातल पर देखने को मिलते हैं जो समकालीन के प्रकाशन काल में लगभग एक दशक का अंतर है
कविता की पिछली एक पीढ़ी से बिलकुल अलग एवं बावज़ूद इसके दोनों काव्य संग्रहों में एक तारतम्यता
अलहदा प्रतीत होते हैं। समकालीन कविता के उत्तर काल में विशेष है, और दोनों काव्य संग्रह को एक साथ पढ़ने पर कई कविताओं
तौर पर सन 2000 के बाद जो कविताएँ लिखी गईं उनमें सभ्यता में आपसी सूत्र बनते हुए दिखाई देते हैं। महत्वपूर्ण है कि कवि इन
की नई पहचान दिखाई देती है। समकालीन कविता के कवियों ने कविताओं में अपनी ज़मीन से न सिर्फ़ जुड़ा हुआ है बल्कि अपनी
सभ्यता विमर्श को नए सिरे से अपनी कविता में अभिव्यक्त किया माटी की महक़ को वह इस तरह से अपनी कविताओं में व्यक्त करता
है, सभ्यता के निरंतर नए अंतर्विरोधों को समझने के लिए दार्शनिक है कि उसकी सोंधी महक़ पाठक के अंतर्मन में भी उसी ‘नॉस्टेल्जिया’
सूत्र भी उतने ही गूढ़ होते जा रहे हैं। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने अपने को बना पाने में सफल हो जाता है। दुर्गा प्रसाद गुप्त भारतीय ग्रामीण
निबंध ‘कविता क्या है’ में एक महत्वपूर्ण कथन उद्धृत किया है, जीवन की अद्भुत छवि तो रचते ही हैं किंतु उससे महत्वपूर्ण यह है
“मनुष्य के हृदय की वृत्तियों से सीधा संबंध रखनेवाले रूपों और कि इस ग्राम्य अनुभव में वास्तविकता और अंतर्विरोध कहीं नहीं
व्यापारों को प्रत्यक्ष करने के लिए उसे बहुत से पर्दों को हटाना छूटे हैं। दुर्गा प्रसाद की कविताओं में जीवनानुभव की कई तस्वीरें
पड़ेगा। इससे यह स्पष्ट है कि ज्यो-ज्यों हमारी वृत्तियों पर सभ्यता मौज़ूद हैं, जीवन का हर रंग प्रस्तुत है, संघर्षों में जूझता मध्यमवर्ग
के नए-नए आवरण चढ़ते जायँगे त्यों-त्यो एक ओर तो कविता भी है, महानगरीय त्रासदी भी है, काल के गर्त में गायब होते बच्चे
की आवश्यकता बढ़ती जायगी, दूसरी ओर कवि कर्म कठिन होता भी हैं, असाध्य बीमारी का दंश झेलती माई भी हैं, और बेटियाँ-बहन
जायेगा।” (कविता क्या है, चिंतामणि, भाग-1) हम समझ सकते हैं के तरल संबंध भी, प्रेम की पीड़ा भी है, मिलन की आकांक्षा भी है,
कि कविता और सभ्यता के सूत्र आपस में अंतर्गुम्फित हैं, सभ्यता के वक्त की गर्दिश में खोये कलाकार भी हैं, तो कालिदास और हिमालय
परिवर्तन संदर्भोंं को समझे बिना कविता के परिवर्तन बिंदु, उसकी भी। दुर्गा प्रसाद गुप्त के काव्य संसार की विविधता ही उनकी काव्य
काव्य संवेदना में आ रहे परिवर्तन, शिल्प एवं भाषा की नई स्थितियाँ अभिव्यक्ति की विशिष्टता का प्रमाण है, कवि की मर्मस्पर्शी दृष्टि में
नहीं समझी जा सकतीं। समकालीन कविता के इस उत्तर काल में मानवीय अनुभव का विस्तृत और अनंत आकाश है किन्तु वह सरल
अभिव्यक्ति की बनावट और हिंदी कविता की भाषा पर बार-बार और निष्पाप, हृदय को छू लेने वाला है।
चर्चा की जा रही है। इस विमर्श एवं चर्चा में सपाटबयानी की एक कविता की बात करते हुए आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने लोकमंगल
नई लीक बनती हुई दिखाई दे रही है, यह सपाटबयानी उस तरह की बात की है, इसी क्रम में बाद में मुक्तिबोध ने कविता और
की नहीं है जिस तरह से हमें अस्सी के दशक की कविता में दिखाई सामाजिकता के गहरे अंत:सूत्रीय संबंध को उद्घाटित किया। कविता
देती है, उस समय सपाटबयानी कविता में मुखरता से केंद्र में आ की संवेदना पर बात करते हुए हुए हमारे समय के महत्वपूर्ण कवि
गयी थी। वर्तमान की कविता संवाद के लिए प्रस्तुत होती है और राजेश जोशी ने लिखा है कि “कविता को ऐसी विराट फंतासी रचना

382 n जुलाई से सितंबर 2023 yegh


चाहिए। मनुष्य के सुख-दुख को, उसके जीवन को एक विराट की पंक्तियाँ हैं-
ब्राह्मणीय ताने-बाने के साथ गूथँ -बुनकर देखना चाहिए..कविता को जिस तरह भागते हुए पूरी जिंदगी जी लेते हैं वे
कुछ-कुछ ऐसा होना चाहिए। उसे एक ब्राह्मणीय यथार्थ को रचने में उसी तरह भागते हुए अपनी मृत्यु यात्राएँ पूरी कर लेते हैं वे
समर्थ होना चाहिए।” (एक कवि की नोटबुक, पृ.119) स्पष्ट है कि इस महानगर में, पर
कविता का अपना संसार उसके सामाजिक सच से निर्मित होता है। अपने दुखों के ख़िलाफ़ हँसते तक नहीं।
कवि की कविता की मिट्टी उसकी व्यक्तिगत पहचान ही नहीं होती (महानगर,पृष्ठ,67)
बल्कि उस समय उस समाज की भी पहचान होती है जिसमें कवि महानगर सभ्यता की त्रासदियों का केंद्र बन गया है, जहाँ आज
मन निर्मित हुआ है। कविता की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि वह मनुष्य अपनी जीवटता को खोने को विवश है। किंतु इसी क्रम में
अभिव्यक्ति के स्तर पर अर्थों के कई सतहों को एक साथ काव्य कवि यह भी चिह्नित करता है कि मनुष्य संकटापन्न भावबोधों को
बिंबों में ढाल देता है, यह गद्य के लिए संभव नहीं है। कविता विशेष याँत्रिकता के मध्य किस तरह निरंतर अपनी जिजीविषा से बचाए
तौर पर वर्तमान की कविता की सफलता इस बात में निहित है कि रखने के लिए प्रयासरत है। काव्य-संग्रह में उन सभी समस्याओं
वह किस तरह से अमूर्त भाव में पाठक के अर्थानुभव के लिए स्पेस से कवि जूझता हुआ दिखाई देता है जो उसके समय के लिए एक
बनाती है। कवि की संवेदना का विस्तार ही कविता की सफलता संकट, एक प्रश्न की तरह खड़ा हुआ है। इन सबके बीच कोशिशें
का परिचायक होता है। दुर्गा प्रसाद गुप्त की कविताओं को पढ़ते यह हैं कि कवि अपनी संवेदना के उन कोनों को बचाए रखें जो
हुए निश्चित तौर पर यह कहा जा सकता है कि उनकी कविता की मनुष्य के लिए उसकी मनुष्यता की पहचान है, प्रेम तत्व इस
अर्थ-छवियाँ पाठक के हृदय में जाकर उसी भाव विस्तार को रखने मनुष्यता का केंद्रीय पुंज है, दार्शनिक सत्य है, जीवन का पर्याय है-
का कार्य करती हैं जो अंतर्मन की सतहों में जीवन की आपाधापी मनुष्य मरता है
के मध्य दब चुका है तथा भावनात्मकता ऊपरी सतह रोजमर्रा के इश्क़ नहीं
संघर्षों से सूख चुकी है। इनकी कविताओं में मनुष्य जीवन की वह वह ज़िन्दा रहता है इश्क़ में
भावनात्मक टूटन प्रत्यक्ष प्रतीत होती है जो मध्यमवर्गीय संघर्षों एक सूफी की तरह (सूफी की तरह,पृष्ठ,20)
के मध्य कई बार चूकती हुई नज़र आती है। दुर्गा प्रसाद गुप्त का दुर्गा प्रसाद गुप्त की काव्य रचनाओं को पढ़ते हुए विशेष तौर
समय-बोध उनकी कविताओं की प्राणशक्ति है, अपने समय को पर दोनों काव्य रचनाओं के बीच बनते अंत:सूत्रीय संवाद क्रम
समझने की जो बारीक़ नज़र इनकी कवि- में दृष्टि में है वह उनकी को समझना बहुत महत्वपूर्ण हो जाता है। दोनों ही काव्य संग्रह
कविताओं को और अधिक महत्वपूर्ण बना देती है,'जीना चाहता हूँ में महानगरों की समस्याएँ मौज़ूद हैं। बाज़ार से त्रस्त मध्यमवर्गीय
मैं' कविता का अंश है- जीवन की संघर्ष गाथाएँ अंकित होती हैं। ‘माई’ और ‘गांव’ के
स्वप्न भर स्मृति भावचित्र हैं, इस सब के मध्य अपने काल के दो ऐसे पात्र मौज़ूद हैं
स्मृति भर मनुष्य जो संघर्षों के बीच खड़े होकर खत्म होती मानवता के दो सिरों को
मनुष्य भर मौसम व्याख्या करते हैं। पहले काव्य संग्रह में ‘दशरथ मांझी’ हैं जो पहाड़
मौसम न काटकर प्रेम का ऐसा मानक तय करते हैं जो किसी भी इमारत की
भर सभ्यता बुलंद तस्वीर से अधिक हृदय पर चोट करता है-
सभ्यता भर प्यार के साथ दुख से ठन जाती है उसकी, और
जीना चाहता हूँ मैं। (जीना चाहता हूँ मैं,पृष्ठ,35) दुख के कारणों की तलाश में जुट जाता है वह
दुर्गा प्रसाद गुप्त के पहले काव्य संग्रह में जहाँ युवा मन के उनके दुख का कारण पहाड़ था
अनुभव एवं अंतर्विरोध हैं, वही दूसरे काव्य संग्रह में कविता की पहाड़ यदि बीच में ना होता, तो
ज़मीन पकी हुई है, संवेदना एवं शिल्प में गहरी परिपक्वता है। यहाँ उनकी जीवन संगिनी अस्पताल जल्दी पहुँच जाती
शब्दों के माध्यम से अर्थ बिंब स्वयं ही अपना आकार ग्रहण करने और शायद बच जाती
लगते हैं। पहले काव्य संग्रह पर बात करते हुए विशेष तौर पर उन्हें लगा कि
सभ्यता के उन संदर्भ उन सूत्रों को समझने की आवश्यकता है जो मनुष्य से ज्यादा ऊँचा और बड़ा कोई नहीं होता
इस काव्य संग्रह के केंद्र में हमें दिखाई देते हैं। संग्रह में बाज़ार एवं इस सृष्टि में (दशरथ माझी, पृष्ठ,28)
महानगर पर महत्वपूर्ण कविताएँ संकलित हैं, ‘महानगर’ कविता प्रेम के दो त्रासद चित्र हैं, भारतीय समाज की जाति संरचना,

yegh जुलाई से सितंबर 2023 n 383


वर्ग संरचना कैसे मानवता को तार-तार करती है और एक समाज समकालीन कविता में पुरुष दृष्टि में स्त्री केवल प्रेमिका सहचरी
के तौर पर हम आज भी कहां खड़े हैं, उस समस्या को हमारे समक्ष नहीं है, आदर्श और त्याग की प्रतिमूर्ति नहीं है बल्कि संकटों में
प्रत्यक्ष सवाल की तरह विचारने को छोड़ देती है। प्रेम के मानकों घिरी मानवी है जिसके संबंध उसे परिभाषित करते हैं। कवि का यह
को और प्रेम के आदर्शों को उत्सव की तरह मूल्यों की तरह सहेजने स्त्रियों के प्रति स्निग्ध भाव उसे और अधिक आत्मीय बनाता है,
वाला भारतीय समाज दशरथ मांझी और दाना मांझी की त्रासदी को उनकी कविता'बेटियाँ' में जब लिखते हैं,
नहीं समझ सकता तो इस समाज के लिए प्रेम के सही अर्थ को दुनिया से लड़ने वाले उनके पिता
समझना संभव नहीं हो सकता। यह कवि की दूरदृष्टि है कि वह कैसे हार जाते हैं अपनी बेटियों
इन दोनों प्रसंगों को न सिर्फ़ अपनी कविता का विषय वस्तु बनाता और उनके आंसुओं से (जानती हैं बेटियाँ,पृ.16)
है बल्कि जिस तरह से संवेदना के तंतु इन कविताओं में प्रकट हुए दुर्गा प्रसाद गुप्त के काव्य संग्रह की कविताओं में एक विशेष
हैं वह मनुष्य के जीवन में प्रेम और संघर्ष के जटिल किंतु समाज प्रकार का रूमानी भाव है किंतु यह रोमान वास्तविकता की ज़मीन
के लिए अनिवार्य मर्मभेदी पक्ष को भी सामने लाने का कार्य करते को इस तरह से पकड़े हुए हैं कि भावना और संवेदना का विशेष
हैं, यहाँ पर प्रेम व्यक्तित्व से उठकर सामाजिकता की मानवीय सम्मिश्रण कविता की अंतर्वस्तु में विद्यमान है। कवि का यह रोमान
ज़रूरत बन जाता है। दोनों पात्रों की त्रासदी को अनुभतू करते हुए तत्व इसलिए भी खास है क्योंकि वह अपने समय की त्रासदियों के
कविता में ढाल देना कवि की उसी मर्मस्पर्शी दृष्टि का द्योतक है। मध्य उन मर्मस्पर्शी स्थलों की पहचान करने में सफल है जो हमारे
दुर्गा प्रसाद की कविता में अवध क्षेत्र और अवध क्षेत्र की विशेष समय के याँत्रिकी के मध्य मनुष्यता की नींव को अभी भी थामें हुए
पहचान और मिठास विशेष तौर पर व्यक्त हुई है, पहले संग्रह में हैं। यही कारण है कि अरुण कमल उनके बारे में लिखते हैं, “दुर्गा
अवध नाम से ही कविता संकलित है और दूसरे संग्रह में वह जब प्रसाद के पास कहने को बहुत है। बहुत संयत स्वर में वह दुख भरे
अपने ग्रामीण परिवेश, अपनी ‘माई’, परिवार और माटी को याद जीवन की कथा सुनाते जाते हैं। जरा भी विचलन या स्खलन नहीं।
करते हैं तो विशेष तौर पर एक छवि बनती हुई दिखाई देती है जो और उनकी दृष्टि भी प्रतिबद्ध और प्रतिरोधी है। पर कहीं भी अवांछित
उनकी जातीय पहचान को व्यक्त करती है- नहीं। यह कवि शिखरों का यात्री है, पर लगातार धरती को निहारता
कितना हिस्सा अवध के बादलों का है, और हुआ। (अरुण कमल, फ्लैप अकेलेपन में भी इश्क सूफी है) दुर्गा
कितना हिस्सा अनकहे मूंक भावों का है। (अवध,पृष्ठ,39) प्रसाद गुप्त की कविता में कई ऐसे स्थल हैं जहाँ भाव सरलता काव्य
किसी भी कवि की यह सजग जातीय पहचान कविता की के धरातल पर सामान्य भावजगत के विशिष्ट रूप में ढलने लगते हैं-
पहचान को भी बनाती है, भाषा का सोंधापन भी इसी जातीय सोचता है
चेतना की देन कहा जाता है। ‘अदहन के पानी की तलाश में’ क्यों दर्द में ही प्यार करते हैं लोग एक दूसरे को
कविता दाल चुरने के लिए पानी ढूँढती औरतों का बिंब एक उस (दर्द में प्यार करते हैं लोग, पृ42)
पूरी सांस्कृतिक अस्मिता को प्रस्तुत करता है जिसमें पिछली पीढ़ी दुर्गा प्रसाद गुप्त की कवि दृष्टि की में विशेष भावपरक
की ग्रामीण महिलाओं की अलग ही जीवनचर्या का संघर्ष है। आज सामाजिक आग्रह है, जब अरुण कमल उनकी कविता पर टिप्पणी
का युवा इन बिंबों को नहीं जनता किन्तु कवि की चेतना हमारी करते हैं, “दुर्गा प्रसाद के पास कहने को बहुत है। बहुत संयत स्वर
संस्कृति में छिपे इस विशेष रवायत और सांस्कृतिक चिह्न को ढूंढते में वह दुख भरे जीवन की कथा सुनाते जाते हैं। जरा भी विचलित
हुए औरतों के श्रम को स्थापित करता है- स्खलन नहीं। और उनकी दृष्टि भी प्रतिबद्ध और प्रतिरोधी है पर
बटलोई में पानी अच्छा न हो तो कहीं भी अवांछित नहीं। यह कभी शिखरो का यात्री है, पर लगातार
दाल चुरने की गारंटी कोई नहीं दे सकता। धरती को निहारता हुआ यह संग्रह समकालीन हिंदी कविता ही
(अदहन के पानी की तलाश में ,पृष्ठ 22) नहीं वरन भारतीय कविता के लिए एक नया प्रस्थान बिंदु है जो
दुर्गा प्रसाद गुप्त की कविता में आईं स्त्रियों की बात किये एक बार पुनः यह सिद्ध करता है कि विचार के जल से ही भाव की
बिना उनके काव्य जगत का सही विश्लेषण नहीं हो सकता, भाप बनती है। और यह भी कि निर्वात अकेलापन भी।” (अरुण
यथा, 'दरअसल इन कविताओं के स्त्री पात्र अपनी मजबूती अपार कमल, अकेलेपन में इश्क़ सूफी है, फ्लैप) इस कथन के भाव
सहनशक्ति और मनुष्यता को करते हुए पाठक के दिमाग में गहरी को इस तरह और अधिक स्पष्टता से समझा जा सकता है कि
छाप छोड़ जाते हैं। ' (मंगलेश डबराल, जहाँ धूप आकर लेती गुप्त जी पहले ही संग्रह की पहली कविता ‘निर्जन में संगीत’ तथा
है,फ्लैप) स्त्रियाँ, माई, बहन, बेटियाँ दाल चुरने जाती औरतें, दूसरे संग्रह की कविता ‘शब- बखैर भी’, में भी उसी संवेदना-

384 n जुलाई से सितंबर 2023 yegh


क्रम को सहेजते हैं जो दशरथ मांझी और दाना मांझी कविताओं नई अर्थ ज्वालासे धधक उठते हैं और पूरी कविता तांत की तरह
के बीच में मौज़ूद है। यह दो कविताएँ हमारे सामान्य परिवेश में तन जाती है।” (अकेलेपन में इश्क़ सूफी है, अरुण कमल, फ्लैप)
मौज़ूद उन कलाकारों को विशेष सम्मान देने का कवि का अपना स्पष्टत: यह बात सिद्ध है कि बोलचाल की भाषा में कविता की
तरीका है लेकिन महत्वपूर्ण यह है कि कवि ने जिस तरह से हमारे संवेदना का विस्तार करना कवि की विशिष्ट क्षमता का परिचायक
सामान्य जनजीवन में मौज़ूद इन कलाकारों की पीड़ा और सरलता है। दुर्गा प्रसाद गुप्त की कविताओं में यह विशिष्टता मौज़ूद है। पहले
को परखा है, वह समकालीन कविता दौर की विशेष उपलब्धि काव्य संग्रह में जहाँ दृश्यों और छवियों की स्पष्टता दिखाई देती है,
कहीं जाएगी जहाँ सामान्य जनजीवन की पीड़ाओं को कवियों ने वहीं दूसरे काव्य संग्रह में आते-आते यह बिंब और प्रतीक, अर्थ की
महाकाव्य सी तरलता के साथ प्रस्तुत किया है- छवियों से पूर्ण होकर पाठक के आगे स्वयं अपना रूप गढ़ने लगते
उनके संगीत से ऊपर का है जीवन का उल्लास हैं। यही कवि की सार्थकता है कि वह पहले काव्य संग्रह की अपनी
जो संगीत के रहस्य को खोलने के क्रम में विशेषताओं को दूसरे काव्य संग्रह में एक नया आयाम एक नई
दूसरे रहस्य की सृष्टि करते हैं, कि ऊँचाई दे देता है। किसी भी कवि के लिए यह महत्वपूर्ण है कि वह
फटे हाल जिंदगी जीने वाले गायक, अपनी भाषा का यह संधान निरंतर जारी रखें, दुर्गा प्रसाद गुप्त की
जिंदगी के किस मुकाम पर सीख लेते हैं संगीत, और कविताओं में यह संधान सिद्धता की तरह मौज़ूद है।
बन जाते हैं गायक, और महत्वपूर्ण है कि कवि अपने विगत जीवन में मौज़ूद जनमानस
निर्धनता में भी बिखेरते हैं जीवन का संगीत, शायद की छवियों का गुणगान करने अथवा उन्हें रोमानी नॉस्टैल्जिक
ना उम्मीद ही नहीं लगती कोई भी जगह उन्हें- अभिव्यक्ति बनाकर प्रस्तुत करने की कोशिश नहीं करते बल्कि
संगीत के लिए। (निर्जन में संगीत,पृष्ठ,9) वह उस जीवन में उतर कर उन छवियों की पहचान, उन स्थलों
दुर्गा प्रसाद गुप्त की भाषा में कहीं भी कोई छद्म आवरण नहीं है, की पहचान करते हैं जहाँ अभी भी मनुष्य होने की संभावनाएँ बची
कविता संवाद के लिए लिखी गई है और संवादात्मक शैली में लिखी हुई हैं। सभ्यता के बदलते आवरण में पीछे छूटे हुए लोगों में बहुत
गई है। भाषा जितनी सरल, सहज है उतनी ही सरस और तरल भी। से संघर्षरत कलाकार है स्त्रियाँ हैं, और हाशिए पर टूटे हुए लोग
भाषा में बोलचाल का अदब मौज़ूद है और जीवन की गरिमा भी। हैं। हिंदी कविता में बहुत कुछ ग्रामीण जीवन अथवा अपनी जातीय
कभी-कभी सपाट से प्रस्तुत होने वाली पंक्तियों के मध्य जो बिंब पहचान को पुष्ट करती हुई कविताएँ लिखी गयीं, जहाँ एक विशेष
मौज़ूद हैं, वह दुर्गा प्रसाद गुप्त की कविता का प्राण तत्व है। कवि आदर भाव सम्मान भाव अथवा उसके प्रति नतमस्तक आदर्श भाव
ने भाषा को उसी तरह बरता है जिस तरह व्यक्ति अपने सामान्य दिखाई देता है। यथार्थपरक कविता लिखने की परंपरा में आदर्श
जनजीवन में बातचीत करता है। यही कारण है कि यह कविताएँ का ताना-बाना टूट जाता है, यथा मर्मस्पर्शी स्थलों की पहचान भी
किसी विशेष पाठक वर्ग के लिए नहीं है बल्कि इनका विस्तार कविता से गायब होती हुई दिखाई देती है। कविता की इन दुश्वारियों
सामान्य पाठक वर्ग, यहाँ तक कि उनकी कविताओं में मौज़ूद शब- के मध्य एक ऐसी भी ज़मीन मौज़ूद है जहाँ इतनी साफगोई से
बखैर के ‘मघई काका’ के लिए भी उतनी ही गुंजाइश मौज़ूद है। कवि आदर्श और यथार्थ के बोध को कवि अलग-थलग नहीं करता
की भाषा की समर्थता ही कही जाएगी कि वह अपनी अभिव्यक्ति का है। दुर्गा प्रसाद की कविताओं की ज़मीन इसी संश्लिष्ट किन्तु पुष्ट
विस्तार करना जानते हैं। शैल्पिक अभिव्यंजना अपनी भावात्मकता ज़मीन का निर्माण है, यहाँ कीचड़ तो अवश्य है किंतु इसी कीचड़ में
में स्वयं ही अपनी अर्थ छवियों को स्पष्ट करने की क्षमता रखते हैं। कई बार कमल भी खिलता हुआ दिखाई देता है। कवि की सार्थकता
कविता का सौंदर्यबोध सामान्य जनजीवन के सौंदर्यबोध से निर्मित इसी बात में है कि वह इस कीचड़ का धिक्कार भी नहीं करता और
है और कविता के लिए इससे महत्वपूर्ण क्या ही होगा कि वह अपने ना ही उस कमल के प्रति कोई उदासीनता है। उनकी काव्य संवेदना
सौंदर्य में उस जीवन को स्थान देती है जिस जीवन से उसके अंकुर में प्रेम कविताएँ, प्रकृति की कविताएँ, मध्यमवर्गीय चेतना और
फूटे हैं। दुर्गा प्रसाद गुप्त की कविताओं का यह सौंदर्य तत्व उनकी मध्यमवर्गीय व्यक्ति का विस्तृत संघर्ष, ईमानदारी, असफलताओं
कविता का प्राण तत्व भी कहा जा सकता है उनकी सीधी सरल भाषा की स्वीकृति भी है। दुर्गा प्रसाद गुप्त की कविताओं में सामान्य
के बीच में अर्थ की कई भंगिमाएँ छिपी हुईं हैं। उनकी भाषिक शक्ति भारतीय परिवेश की यह व्यापक समझ दिखाई देती है। n
के बारे में अरुण कमल भी स्वीकारते हैं कि “दुर्गा प्रसाद की सबसे संपर्क : हिंदी विभाग, सत्यवती महाविद्यालय,
बड़ी विशेषता है भाषा की अभिव्यक्ति का अमोघ अस्त्र की तरह दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली
प्रयोग। कई बार वक्तव्य से लगने वाले सपाट वाक्य अचानक एक मो. 9968094067

yegh जुलाई से सितंबर 2023 n 385


n आयतन : सिद्धेश्वर सिंह

अपनी राह बनाने वाले कवि


खेमकरण ‘सोमन’

मुझे चुपचाप अपना काम करना है/इतना चुपचाप आज बाल दिवस है/बच्चों का एक दिन
कि सन्नाटे में भी सुनाई न दे अपनी ही पदचाप मैं खोज रहा हूँ कोई नई भाषा/
(काम, पृष्ठ 10, कर्मनाशा) गढ़ रहा हूँ किसी नई लिपि के प्रतीक
जानता हूँ इस काम में मदद करेंगे बच्चे ही
सिद्धेश्वर सिंह अपने कार्य में चुपचाप और सतत बच्चे ही साफ करेंगे सारा कूड़ा-कबाड़।
संलग्न रहने वाले कवि हैं। उनको पढ़ते हुए महसूस (बाल दिवस, पृष्ठ 76, कर्मनाशा)
होता है कि हृदय पटल पर उनकी कविताओं का यद्यपि सिद्धेश्वर सिंह बख़ूबी जानते हैं कि दुनिया
प्रभाव बहुत धीरे-धीरे पड़ रहा हैं। उनकी कविताएँ जल्दीबाजी बदलने के नाम पर या तो भाषा ठीक प्रकार से कार्य नहीं कर पा
के जाल में फंसकर हाय तौबा नहीं मचाती, बल्कि हाय तौबा रही या भाषा के पीठ पर सवार मनुष्य। तथापि वह भाषा और
या शोर शराबा का दामन थामकर जीने वालों का कच्चा चिट्ठा, स्वयं को सही मनुष्य होने की प्रामाणिकता कुछ इस तरह प्रस्तुत
और माथे पर समझदारी का तिलक लगाकर अपने सामाजिक करते हैं-
उत्तरदायित्वों से दूर रहने भागने वाले लोगों की मानसिकता का यह रात है/इसी में दिखता है/अभी आधा
भव्य चलचित्र हैं। चूंकि कवि और कर्मभूमि के रूप में उनका गहरा कभी पूरा/और कभी अदृश्य होता हुआ चाँद
संबंध उत्तराखण्ड से है, अतः उनकी कविताओं में पहाड़ी संस्कृति,
सुख-दुःख और समावेशी संस्कृति की स्वाभाविक हलचलों को यह रात है/इसी में डूबकर कह उठता हूँ:
देखकर हिंदी साहित्य संसार उन्हें प्रायः पहाड़ का सुपरिचित कवि मुझे चाँद चाहिए/और सहसा
कह -लिखकर सुख पा लेता है परन्तु मैं उन्हें पहाड़ के कवि क्षितिज पर उदित हो आता है/तुम्हारा चेहरा।
की अपेक्षा मुख्यधारा के कवि-आलोचक और अनुवादक के रूप (एक रातः तीन बात, पृष्ठ 121, कर्मनाशा)
में अधिक जानता-समझता हूँ। वह अपनी कविताओं के माध्यम उपरोक्त विचार कवि के रूप में सिद्धेश्वर सिंह के हैं अतः
से सदैव उन चीज़ों को पढ़ने-गढ़ने, समझने और समझाने की संभव है कि अधिकांश सहृदय-पाठक, उनके इस उद्गार-भावना
ईमानदार कोशिश करते रहे हैं जिन्हें न कभी ताक़तवर आदमी का प्रथम पाठ प्रेम, प्रेमिका या प्रेयसी से जोड़कर देखें और इस
लिख-पढ़ पाता है, और न ही कभी सत्ता-सरकार या समूह। ऐसा कविता को इसी संदर्भ में अपने मन के कोने की कोमल कुर्सी पर
नहीं कि ताक़तवर आदमी, सत्ता, सरकार या समूह की आँखें बिठाकर चले जाएँ! किन्तु इन पंक्तियों को मैं ताक़तवर आदमी,
खराब हैं या पढ़ना नहीं जानते, बल्कि वास्तविकता है कि वे सत्ता और सरकार की ओर से किसी के अस्तित्व या चेहरे को
पढ़ना ही नहीं चाहते। किसी को पढ़ने-समझने का अर्थ ही है कि देखने की दृष्टि से समझ पा रहा हूँ कि यह कविता तो एक अरब
मनुष्यता के स्तर पर उसके अस्तित्व को स्वीकार करने का कार्य चालीस करोड़ जनता के चेहरे, अस्तित्व और उनसे प्रेम की बातें
प्रारम्भ। सिद्धेश्वर सिंह की कविताओं से गुज़रते हुए प्रतीत होता करने की बातें करती है और जिस दिन सत्ता और सरकार, इस
है कि विचार, व्यवहार और सार में वह बहुत ज़मीनी व्यक्तित्व कवि और कविता की तरह प्रेम की भाषा बोलने लगेगी, दुनिया को
हैं। उनकी दृष्टि चहुँदिशा है। भरोसे की बात करें तो उन्हें बड़ों की बदलने-सुधरने में अधिक समय नहीं लगेगा। आश्चर्य की बात
अपेक्षा बच्चों पर अधिक भरोसा है- है कि जब सत्ता-सरकार और ताक़तवर आदमी दिन में किसी का

386 n जुलाई से सितंबर 2023 yegh


चेहरा स्पष्ट नहीं देख पा रहे हैं, तब एक सरलमना कवि रात को कवि चाहते हैं-
अपने प्रिय का चेहरा स्पष्ट देख लेता है! क्या यही अंतर है सत्ता- इस पर कविता लिखकर अमरत्व हासिल कर लेना
सरकार, ताक़तवर आदमी और राजदरबारियों और एक सुकवि में?
बहरहाल। इस दुनिया में सारी लड़ाईर्याँ और संघर्ष ही चेहरा स्पष्ट मैं एक साधारण मनुष्य/एक पिता/क्या करूँ?
न देखने या अस्तित्व के नकार से जुड़ी हुई हैं, क्योंकि यह प्रश्न चुपचाप अपनी छतरी देता हूँ तान
विविधतापूर्ण जीवन, पहचान और स्मरण से जुड़ा हुआ है। दूसरा गो कि उसमें भी हो चुके हैं कई-कई छिद्र।
यह कि सिद्धेश्वर सिंह की उपरोक्त कविता का मूल स्वर किसी के (बेटी, पृष्ठ 64, कर्मनाशा)
अस्तित्व या चेहरे को लेकर है। चेहरा बचेगा तभी वह किसी का बहुत समय पहले जब मैं लिखना-पढ़ना, समझना सीख रहा
प्रेम, प्रेमिका-प्रेयसी या प्रिय होगा, या किसी का बेटा-बहू, बेटी- था, तब महादेवी वर्मा सृजनपीठ रामगढ़ नैनीताल की एक सुबह
दामाद, चाचा-चाची, दादा, दादी और मामा-मामी इत्यादि। और प्रकृति को बहुत बारीकी से निहारते हुए उन्होंने अपने पुरखे कवि
आज चेहरा इतना अस्पष्ट हो गया है कि चेहरे की तलाश में तो कई सुमित्रानंदन पन्त का स्मरण किया, और लंबी साँस छोड़ते हुए
बार बीच का रास्ता निकलते-निकालते सब कुछ तबाह हो चुका मुझसे बोले-
होता है। चाहे बात समूह, समाज या व्यक्ति की ही क्यों न हो– द्रुत झरो जगत के जीर्ण पत्र
नहीं थी/कहीं थी ही नहीं बीच की राह हे स्रस्त-ध्वस्त हे शुष्क शीर्ण!
खोजता रहा/होता रहा तबाह हिम-ताप-पीत, मधुवात-भीत,
(बीच का रास्ता, पृष्ठ 9, कर्मनाशा) तुम वीतराग, जड़, पुराचीन!
सिद्धेश्वर सिंह आत्म साक्षात्कार वाले कवि हैं। उनके संबंध में तब मैं अधिक समझ न सका, लेकिन कालांतर में जब उनकी
कवि अजेय लिखते हैं- “कवि के सपनों में बहुत कुछ आता है।” कविताओं और उनके व्यवहार से परिचय हुआ, तब मैं और अधिक
और यह भी कि- “यह कवि जितनी बारीकी से भाषा के गोदामों को समझ सका कि कवि सिद्धेश्वर सिंह नई प्रतिभा और नए कवियों के
खंगालता है, उतनी ही शिद्दत से भूगोल के कंटुअर भी जाँच लेता लिए, उनके हिस्से का मार्ग छोड़कर चलने वाले चिंतनशील कवि
है। इनकी कविताओं का यायावर एक साथ भाषा, विचार, इतिहास हैं। वह भलीभाँति परिचित हैं कि व्यक्ति को आगे बढ़ने के लिए कोई
और भूगोल के दरमियान विचरण करता है और सहज ही आपको न कोई मार्ग चाहिए। यदि पुराने लोग मार्ग घेरने चलेंगे तो नए कवि
भी इन तमाम सीमाओं के पार ले जाता है।” या कलाकार कैसे उत्पन्न होंगे। जब तक जीर्ण-शीर्ण पत्ते गिरेंगे
कवि का सच स्वयं द्वारा निर्मित है तभी उनके सपनों में बहुत नहीं, तब तक नए पत्ते कैसे उगेंगे? जब तक पुराना नहीं जाएगा,
कुछ आता है। तभी बूँद को बेटी और बेटी को बूँद के रूप में देखना तब तक नया कैसे आएगा? इन्हीं बिन्दुओं के कारण इस साधक
उनकी पाकसाफ दृष्टि को बहुत पसन्द है! तभी उन्हें बचाने के कवि की कविताओं में एक तरफ मुक्तिबोध की तरह आत्मचिंतन,
लिए और उनके सम्मान में वह पिता बन जाना चाहते हैं। उनका आत्मसंघर्ष, द्वन्द्व के संकेत के साथ-साथ आशा और निराशा की
बहुत सटीक निष्कर्ष है कि बूँद केवल बूँद नहीं बल्कि उन्हीं से बचा अनुगूँज सुनाई देती है तो दूसरी ओर सुमित्रानन्दन पन्त की तरह
हुआ है समुद्र। बेटी, केवल बेटी ही नहीं बल्कि उन्हीं से बची हुई है प्रकृति और प्राकृतिक छंटाओं-घटाओं की वाणी। परिणामस्वरूप
यह दुनिया। बूँद, बेटी, खेत, रेत, धरती, आकाश, पर्यावरण और प्रकृति के उपादानों का अवलंब पा कवि आत्मचिंतन और द्वन्द्व के
इस दुनिया को केवल पिता बनकर बचाया जा सकता है, पूँजीपति द्वार पर खड़े हो जाते हैं-
बनकर कदापि नहीं- बादल से कहा/बदलो बन जाओ पानी
घास पर ठहरी हुई ओस की एक बूँद धूप में सीझ रही हैं वनस्पतियाँ
इसी बूँद से बचा है जंगल का हरापन गला खुश्क है स्कूल से लौटते बच्चों का
और समुद्र की समूची आर्द्रता
हवा से कहा/बदलो बन जाओ आक्सीजन
सूर्य चाहता है इसका वाष्पीकरण मृत्यु शय्या पर पड़े रोगी को
चंद्रमा इसे रूपायित कर देना चाहता है हिम में अभी कुछ और वसंत देखने की है ताव
मधुमक्खियाँ अपने छत्ते में स्थापित कर ख़ूशबू से कहा/बहक़ो बन जाओ उल्लास
सहेज लेना चाहती हैं इसकी मिठास कबाड़ होती हुई इस दुनिया में

yegh जुलाई से सितंबर 2023 n 387


फूलों के खिलने को बची रहनी चाहिए जगह कवि का बकरी के माध्यम से मानव जीवन, समय और समाज
पर इससे बड़ा व्यंग्य, निजी क्रोध या आक्रोश और क्या होगा?
बड़ी लम्बी है फेहरिस्त। उन्नीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध में रूसी आलोचक वी. जी. बेलिंस्की ने
सबसे कहा/सबने मान ली सलाह मनुष्यों की दुनिया को परिभाषित करते हुए कहा था कि- “कल्पना
मगर ख़ुद से कह न पाया एक भी बात में हर कहीं इतनी संपन्नता और प्रचुरता, वास्तविकता में हर कहीं
निष्क्रिय-निरर्थक से बीत रहे हैं दिन-रात। इतना दैन्य और तुच्छता।” सिद्धेश्वर सिंह ‘बकरी’ कविता लिखकर
(आग्रह, पृष्ठ 32, कर्मनाशा) बेलिंस्की से भी आगे की कथा लिखते हैं। दु:खद है कि मनुष्य
छः अनुच्छेदों की कविता के चौथे अनुच्छेद में सिद्धेश्वर सिंह जीवन बकरी जीवन बनता जा रहा है। यह विडंबना, विसंगतियाँ
कुछ ऐसा मारक कह देते हैं कि इक्कीसवीं सदी भी अपने कर्म और और मान्यताएँ ही लील रही हैं मनुष्य, मनुष्यता और समाज
वज़ूद पर शर्म अवश्य प्रकट करती होगी! कारण... एक नहीं अपितु को। अब उर्वर होने की जगह ऊसर होना ही नियति है या कर्म।
कई हैं, जिनमें इतना ही बहुत है कि इक्कीसवीं सदी में अधिकांश परिणामतः पूरा सामाजिक विज्ञान ही गड़बड़ा गया है-
लोग समझदारी और महानता की डिग्री-डिप्लोमा और तमगा लगाए सुना है बड़े-बड़े शहरों में/ऊसर होते जा रहे हैं उर्वर प्रदेश
योगमुद्रा में बैठे हुए हैं! और उधर मणिपुर जैसे कांड रोके नहीं रुक ग्लोबल वार्मिंग की मार से गड़बड़ाने लग गया है
रहे! यही स्थिति देश के अलग-अलग प्रांतों की है, जिनकी सूची शताब्दियों से चला आ रहा फसल-चक्र
फेसबुक-वाट्सअप और सोशल मीडिया पर प्रतिदिन दिख जाती रासायनिक खादों की भारी खपत के बावज़ूद
है। परन्तु हर प्रकार का शोषण देखकर भी ये निष्क्रिय-निरर्थक हैं। निरंतर कम होती जा रही है पैदावार।
ऐसे में कवि अपनी भाषा के गोदाम से शब्द छाँटते हुए कहते हैं- (कस्बे में कवि गोष्ठी, पृष्ठ 40, कर्मनाशा)
जानकारों ने बतलाया है/यह जग मिथ्या है माया है और इतना देखने, जानने-समझने, लिखने के बाद भी कवि को
अतः स्वतः/मिमियाती रह/घास खा इस दुनिया में अंततः दो शब्दों पर, जिनमें पहला शब्द है- कविता
माँस कर दान/इसी में तेरा उद्धार/तेरा जीवन महान। और दूसरा शब्द है- उम्मीद, से ही सभी प्रकार की उम्मीदें हैं-
(बकरी, पृष्ठ 88, कर्मनाशा) डायरी में लिखे थे केवल दो ही शब्द
जिनमें पहला था -कविता
और दूसरा उम्मीद।
(कस्बे में कवि गोष्ठी, पृष्ठ 40, कर्मनाशा)
यह सुखद है कि अपनी कविताओं में सिद्धेश्वर सिंह एक
ओर दुःख, चिंता, आत्मसंघर्ष और नैराश्य का चित्र खींचते हैं, तो
दूसरी ओर उम्मीदों के चित्र भी। इस प्रकार नैसर्गिक तुलनात्मक
अध्ययन-विश्लेषण भी हो जाता है कि समाज, समय की कंधे पर
चढ़कर आख़िर जाना कहाँ चाहता है? क्या ये सब रास्ते के चुनाव
के कारण हो रहा है? बात तार्किक भी है कि रास्ता बदल देने से
जीवन स्वर्ग बन जाता है तो रास्ता बदल देने से नर्क भी-
वे वहाँ हैं/सुन रहे हैं गोलियों की आवाज़
हम यहाँ हैं/सुन रहे हैं शांत सुमधुर संगीत
वे वहाँ हैं/उनके नथुनों में पसर रही है बारूदी गंध
हम यहाँ हैं/हमारी आत्मा तक उतर रहा है रस और स्वाद।
(नतशीश, पृष्ठ 42, कर्मनाशा)
वहीं चहुदिश
ँ ा अवमानना, विरोध, शापित और अपवित्र कही
जाने वाली नदी ‘कर्मनाशा’ का पुरजोर पक्ष लेते हुए प्रश्न उठाते हैं-
भला बताओ/फूली हुई सरसों/
और नहाती हुई स्त्रियों के सानिध्य में

388 n जुलाई से सितंबर 2023 yegh


कोई भी नदी/आख़िर कैसे हो सकती है अपवित्र?
(कर्मनाशा, पृष्ठ 50, कर्मनाशा)
सिद्धेश्वर सिंह की विशेषता है कि वह हाशिए पर रखी हुई बात, कवि और सरकार की सोच में अंतर मात्र इतना
विचार और संस्कृति की ओर अधिक ध्यान देते हैं। जैसा कि पूर्व है कि कवि के यहाँ पक्ष और पक्षधरता है जबकि
सरकार के पास केवल नारा। नारा या नारे
में कहा गया है कि उनके लिए बूँदों को बचाना बेटी की तरह है।
समय-समाज या देश बदलने का काम तभी
इस हेतु वह सतत प्रयासरत भी हैं। तो उनकी सोच, सरकार के बेटी करते हैं जब उसमें पक्षधरता की नींव हो। जैसा
बचाओ-बेटी पढ़ाओ अभियान की तरह नहीं है। कवि और सरकार कि सिद्धेश्वर सिंह की अधिकांश कविताओं
की सोच में अंतर मात्र इतना है कि कवि के यहाँ पक्ष और पक्षधरता में है। जैसा कि वह कर्मनाशा नदी के पक्ष में
है जबकि सरकार के पास केवल नारा। नारा या नारे समय-समाज अपना सवाल उठाते हैं। दूसरी विचारणीय बात
या देश बदलने का काम तभी करते हैं जब उसमें पक्षधरता की नींव कि जहाँ उत्तरदायित्व या पक्षधरता नहीं होती,
हो। जैसा कि सिद्धेश्वर सिंह की अधिकांश कविताओं में है। जैसा वहाँ की धरती और आकाश में घृणा की हवा
कि वह कर्मनाशा नदी के पक्ष में अपना सवाल उठाते हैं। दूसरी व्यक्ति को धीरे-धीरे विषयुक्त बना देती है।
विचारणीय बात कि जहाँ उत्तरदायित्व या पक्षधरता नहीं होती,
वहाँ की धरती और आकाश में घृणा की हवा व्यक्ति को धीरे-धीरे
विषयुक्त बना देती है। इन्हीं व्यक्तियों के लिए उनका कथन-चित्र सम्मोहन के बीच उनकी कविताएँ वहाँ के लोगों के दुःख, संत्रास
है कि- और शोषण की कथा कहती हैं।” और... दुःख, संत्रास और शोषण
वे घृणा करते हैं कमरे के सूनेपन से/ की कथा का पता लगाने के लिए बिना शर्त सिद्धेश्वर सिंह के
वे घृणा करते हैं बाहर के शोरगुल से कविमन और सरलता की थाह इसी बात से लग जाती है कि वह
वे घृणा करते हैं खुंटियाई हुई दाढ़ी से/ शब्दों तक को संभ्रांत समझते हैं। इन्हीं पवित्र भावनाओं के कारण
वे घृणा करते हैं घिसे हुए ब्लेड से उनकी पुरजोर स्वीकृति है कि शब्दों के साथ कभी अन्याय नहीं
वे घृणा करते हैं प्रेमिकाओं और परस्त्रियों से! होना चाहिए।
वे घृणा करते हैं नौकरी और सरकार से सिद्धेश्वर सिंह की कविता ‘कुत्ता’ उनकी ‘जानवरों के बारे
अंततः वे अपने आप से भी घृणा करने से नहीं चूकते में’ शीर्षक कविता के अंतर्गत है, जिनमें गधा, शेर, बकरी और
सियार शीर्षक कविताओं के अतिरिक्त उनकी दर्ज़नों कविताएँ बहुत
वे सुखी हैं/वे कुछ नहीं करते/बस घृणा करते हैं। सूक्ष्मता से मानव जीवन की जाँच-पड़ताल कर बहुत ख़ूबसूरती
(घृणा, पृष्ठ 124, कर्मनाशा) से सामाजिक-सांस्कृतिक और मनोवैज्ञानिक आख्या प्रस्तुत करती
दूसरों से घृणा या स्वयं से घृणा वास्तव में स्वयं को मारने का हैं कि मानव अच्छा कार्य करने के उपरान्त भी लगातार अपना
बहुत घातक प्रयत्न है। कई कारणों से अवसाद की गठरी अपने सिर विश्वास खोता जा रहा है! और विश्वास का खोना, न होना ही
पर लादे उत्तर आधुनिक समाज अब इसी ओर अग्रसर हो चला है। तमाम आशंकाओं, युद्धों और लड़ाइयों का कारण है। ऐसे में
इसी का अनुमान लगाकर कभी मुक्तिबोध ने कहा था- सिद्धेश्वर सिंह की कविताएँ लोकल होने के साथ-साथ विश्वग्राम
मरना होगा, की वास्तविकता हैं। उन्हें पढ़ते हुए जब कभी सरलता का बोध
मरते रहने का करते रहना होगा होता है तब नागार्जुन और धूमिल की याद आती हैं और कविता
प्रयास। के तंतुओं को खोलते हुए जब कभी जटिलता का बोध होता है तब
सिद्धेश्वर सिंह के पास कविताओं के लिए बहुत माल-पानी, मुक्तिबोध की। n
धन-सम्पत्ति है। वह अपने आसपास को बहुत क़रीब से देखने- संपर्क : हिंदी विभाग,
परखने और महसूसने वाले कवि हैं। लेखक अशोक कुमार पाण्डेय राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय बाजपुर,
उनके विषय में कहते हैं “सिद्धेश्वर सिंह कविता के लिए कच्चा जिला-ऊधम सिंह नगर, उत्तराखण्ड-262401
माल अपने आसपास से चुनते हैं। पहाड़ के विराट सौन्दर्य के मो. 9045022156

yegh जुलाई से सितंबर 2023 n 389


n आयतन : बलभद्र

समय के ताल पर अपने पाँव चलती कविताएँ


सुमन कुमार सिंह

समकालीन हिंदी कविता में बलभद्र एक सुपरिचित / होठों पर बाँसुरी रख / किसन-कन्हइया के तुम
नाम है। यद्यपि कि उनका 'समय की ठनक' नामक भी गाओ गीत / कदम्ब की डालियों पर /गोपियों के
पहला हिंदी काव्य संकलन 2018 में और दूसरा चीर के / अपनी बोल, अपने सोहर, अपनी लोरियों
न्यू वर्ल्ड पब्लिकेशन द्वारा समकाल की आवाज़ को / खड़ा कर सको तो / खड़ा करो बीच बाज़ार /
शृंखला के तहत 'चयनित कविताएँ 2023 में उनकी ...पर, कर भी पाओगी भला!” (जिसे समझते हुए)
कवि ख्याति के बहुत बाद प्रकाशित हुआ है। इससे हमारे गाँव-नगर और वहाँ का जन-जीवन जिस गति
पहले 'कब कहलीं हम' नाम से एक भोजपुरी काव्य से बदल रहे हैं, जिन शर्तों पर बदल रहे हैं, वो गति
संकलन भी प्रकाशित हो चुका है। इस सबके पूर्व से ही यह कवि व शर्तें अधिकतम बाज़ार की हैं। आधुनिकता की चकाचौंध और
एक अनाम स्वर की तरह एक लंबी कालावधि में व्याप्त है। कवि उसके भीतर की संवेदनहीनता ने किसी को नहीं बख्शा है। जीवन
को अपनी कविता और उसकी पहचान को लेकर कोई हड़बड़ी की शुचिता पर गहराते संकट का हल भी संकट में ढूँढना पड़
नहीं है। उसके पास कविता से अधिक कविता की ज़मीन है। यह रहा है, इसलिए साझे संघर्षों की राह भी दुर्गम हुई है। इस कारण
ज़मीन सामान्य जन की ज़मीन है, जिसका लोक गाँव से नगर तक रिश्ते-नाते, सुख-दुख,लाभ-हानि सब दुष्प्रभावित हुए हैं। बलभद्र
रागात्मक अनुभूतियों व अहसासों से ओतप्रोत है। अपने गाँव जवार की कविताई की अंतर्धारा इससे विलग होकर नहीं गुज़रती।
और वहाँ के लोगों से कवि की गहरी आत्मीयता सहज ही दिख बलभद्र जिस ग्रामीण जीवन से सन्नद्ध नज़र आते हैं, वह
जाती है। उसकी अपने गाँव से शहर तक की जो आवाज़ाही है, सदा से दुखों-अभावों का एक बड़ा परिसीमन रहा है। आर्थिक,
वह राह उसके अकेले की नहीं है बल्कि साथ- साथ उसके लोगों सामाजिक व राजनीतिक रूप से इस परिसीमन की तमाम भिन्नताओं
की भी है, जहाँ बाज़ार का व्यूह है, सत्ता की मार है, घुटन है, टूट के बावज़ूद यहाँ जीवन के लिए बहुत कुछ सहज-सरल बचा हुआ
है और इस सब के ख़िलाफ़ बार-बार जुटता-बिखरता उम्मीदों भरा है। कवि इस बचे हुए को बचा लेने के संघर्ष में उतरा हुआ प्रतीत
संघर्ष है। होता है। अपने इस परिसीमन के भीतर की विषमताओं की कोख
खेती-किसानी में रचे-बसे मन के कवि का अपनी कविता के से जन्मी जटिलताओं को चुनौती देता दिखता है- “पता नहीं क्यों
प्रति विनत स्वर कि “अभी तुम रहो यहीं पर / खेतों में ही / रहो / मैं इस व्यवस्था की सूरत का मन ही मन/ माँ से मिलान करता
किसानों के संग / जीवन अभी भी / इन्हीं के बल है टिका हुआ।” हूँ अक्सर /और गिरने-पड़ने पर धूल झाड़ते / भूख़-प्यास का
(कविता मेरी) बलभद्र भारतीय जन-मन का आर्त व आर्द्र स्वर हैं। हिसाब रखते न पाकर / न पाकर माँ की तरह जिम्मेवार/ आहत
तभी तो वह गँवई चट्टी-बाज़ार में एक जगह बैठी कदम्ब बेंचने वाली और आक्रोशित होता हूँ हर बार विषमताओं की कोख से जन्मी/
बूढ़ी माई की विवशताओं को जानते हुए, उसे इस विज्ञापनी संस्कृति जटिलताओं की धूप-छाँही में पली-बढ़ी / ओ मेरी उद्दंडताओं / तुझे
की सूचना देता है, साथ ही ऐसे विद्रूप बाज़ारू बदलाव पर तंज भी उछालना चाहता हूँ आकाश की ओर।” (ओ मेरी उद्दंडताओं!)
करता है। यहाँ नए बाज़ार मूल्यों पर तंज के साथ-साथ कचोट भरे संघर्षों का यह साहचर्य गाँव से बाहर निकलते, नगरों में काम-धाम
शब्दों में सलाह भी है-“जड़ी-बूटियों, जंगलों, पहाड़ों और/ जटाजूट करते और गाँव से नगर तक सबसे जुड़े रहने, सबके लिए खड़े
ऋषियों की / योग मुद्राओं से जोड़कर / अपने उत्पादों की / बड़े- रहने में काम आता है। यहाँ माँ व प्रकृति के सान्निध्य का बल है।
बड़े लोग और बड़ी-बड़ी कंपनियाँ / जैसे सिद्ध करते हैं श्रेष्ठताएँ इसमें बाबूजी की सामाजिक-राजनीतिक चेतना की विरासत का

390 n जुलाई से सितंबर 2023 yegh


बोध है। लाल साहेब भाई के परिश्रम से उपजी उम्मीदों का उफान ठहरा झूठ।” कवि ने सरकार की इस तरह लानत-मलामत करते
है। रामजतन के मजबूत इरादे हैं। खेत-खलिहान, हल-हराइयाँ हुए व्यवस्था के प्रति अपने प्रतिरोध को कई रूपों में दर्ज़ कराया है।
हैं,रोपनहारिने हैं, ईंट पाथते पथेरे हैं। कोरोना जैसी वैश्विक महामारी की भयावहता को लिखते हुए कवि
मजूरन मेठ है। वास्तव में ये सब के सब सहमेल वाली कृषि बिलकुल दुखी है परंतु शासकीय रवैये से क्षुब्ध व क्रुद्ध भी है। जब
संस्कृति के पूरक हैं। श्रम के साधक-श्रम के सूरज हैं। इसीलिए सरकार घोषणा करती है कि कोरोना की दूसरी लहर में ऑक्सीजन
अपने समय की ठनक को झेलते हुए अभी भी यहाँ जीवन बचा की कमी से किसी की मौत नहीं हुई, तब कवि कह उठता है- “यह
हुआ है। प्रसिद्ध आलोचक डॉ. जीवन सिंह ने अपने आलेख कथन / किसी मरे हुए आदमी का ही हो सकता है/ इसमें सरकार
'ठनकती आवाज़ का समय' में यह स्वीकार किया है कि, “बलभद्र की मौत की सूचना दर्ज़ है।” लानत, पाँच सितंबर पाँच बजे, क्या
समकालीन हिंदी कविता में एक ऐसा नाम है जो वैश्वीकरण के बात है भाई, आगे को न पूछे, हजारों पाँव पैदल, कोरोना और
इस जमाने में भी अपनी ज़मीन, अपने खेत-क्यार, अपने जनपद, वह कामगार महिला जैसी कविताओं में भी इस महामारी के कई
अपनी बोली-बानी और अपने गाँव के लोगों की बात करता है जो पहलुओं पर बातें कही गई हैं। यही नहीं बल्कि जीवन पर आये
वैश्वीकरण के रजिस्टर में एक उपभोक्ता से ज्यादा हैसियत नहीं किसी भी इस तरह के किसी भी गहरे संकट को देखने का कवि का
रखते। जो एक देश में रहते हुए भी देश से अलग-थलग उपेक्षित अपना नज़रिया बेहद साफ है।
पड़े रहते हैं।” सचमुच, यह कवि अपने लोगों और अपनी भावभूमि झारखंड प्रदेश में हुए औद्योगिकीकरण से उपजे जीवन के
के प्रति प्रतिबद्ध नज़र आता है। जनपक्षीय प्रतिबद्धता की यह मंथर संकट को रेखांकित करते हुए कवि प्रकृति-पर्यावरण व मनुष्य के
यात्रा नागार्जुन-त्रिलोचन से होते हुए गोरख पाण्डेय और अन्य- विकट घेराव की भरपूर पड़ताल करता है। अपनी कविता 'भू-तल
अनेक जनकवियों-जनगायकों तक की यात्रा से समृद्ध है। वह के जल संग खेलते-नहाते' में प्रश्न करता है- “कौन है जो हमारी
सामाजिक-सांस्कृतिक जन आंदोलनों की उपज है, इसलिए उसे सुबह-ओ-शाम को कर रहा बदरंग/ हमारी साँसों में धुआँ घोल रहा
नगरीय परिवेश में भी सायकिल पर कोयला ढोते लोगों की पीड़ा है/ प्रश्न यह पूछना धूर्तता है चालबाजी है/ शहर को ग्रीन करना
महसूस होती है, आदिवासी औरतों की जूझ नज़र आती है, रोज जिसने ले रखा है अपने जिम्मा/ वृक्ष लगाते फोटो शेयर करते
कमाने-खानेवालों का संघर्ष आकर्षित करता है। दरअसल, सिर जो दिखता है मुस्काते/ क्या संबंध है उनका इन चिमनियों से?”
पर व्यवस्था की सघन छाया तले सूरज की कठिन तलाश करते और सत्ता-शासन से आँख मिलाकर ऐसे अनेक प्रश्न करनेवाला
इस कवि की रचना यात्रा फूंक-फूंक कर बढ़ रही है। यह कई यह कवि अपने जनपक्ष के साथ खड़ा मिलता है। इन्हीं मायनों में
समकालीनों को अनाकर्षक और वायवीय लग सकता है। परंतु उन्हें बलभद्र समकालीन हिंदी कविता के भद्र लोक से बाहर हो जाते हैं।
ही जिन्हें संघर्ष में आस्था नहीं, परिवर्तन की उम्मीद नहीं। बलभद्र कवि की समझ स्पष्ट है कि व्यवस्थागत बदलाव की लड़ाई न एक
का सीधा जुड़ाव सामाजिक-राजनीतिक व सांस्कृतिक आंदोलनों से दिन की है, न एक रूप में है। इसलिए वह आक्रोश और पीड़ा को
रहा है। भोजपुर के किसान-मजदूरों के आंदोलन के सिपाही रहे हैं दबाये संघर्ष के भीतर के उत्साह की तलाश करने में सफल रहा
वे। इसलिए उनकी रचनात्मक वैचारिकी शोषण-दमन के ख़िलाफ़ है। इस छोटी-सी कविता 'कोई सुने तो' में इसे समझा जा सकता
जनपक्षीय चेतना से लैस है,तनिक भी दिखाऊ नहीं है। उसे सत्ता है-“चल रही है गेहूँ की कटाई/ ताबड़तोड़ चल रहे हैं हँसिये/ खेतों
के तिकड़म पता हैं, इसलिए जूझने से कैसे भाग सकता है? 'समय से उठ रहा एक संगीत चतुर्दिक/ कोई सुने तो समझे/ झींगुरों ने
की ठनक' से पाठकों को अवगत कराते कवि कहता है- “शासन भी इसमें डाली है जान।” बाबा नागार्जुन 'पकी-सुनहरी फसलों से
चुप/ सरकार निगोड़ी/न्याय सामाजिक/ पोल खुल गई/...लंबी रात/ जो/ अबकी यह खलिहान भर गया/ मेरी रग-रग की शोणित की
कथा भी लंबी/ हक़ की बात/ व्यथा भी लंबी/ठनक रहा है समय बूँदें इसमें/ मुस्काती हैं ...मेरी भी आभा है इसमें' कहते हुए जहाँ
का माथा/जूझ रहा है/ सत्ता के ख़ूनी तिकड़म को बूझ रहा है।” ऐसे परिवेश में ख़ुद की सहभागिता को रेखांकित करने का अवसर
इससे आगे की कविताओं में भी सत्ता और शासन के विरुद्ध कवि नहीं चुकते, वहीं बलभद्र खेतों में उठ रहे चतुर्दिक संगीत का श्रेय
की आवाज़ उत्तरोत्तर मुखर सुनाई पड़ती है। लूट और झूठ के सहारे उस बेहद छोटे जीव झींगुर (सामान्य) को देते हैं। जिस प्रकार
चल रही सरकार की ओर इशारा करते हुए कहता है- “पहन कोट गोरख पाण्डेय को यह 'तू हवs श्रम के सूरुजवा हो...' कहते हुए
पतलून/ कसकर लूट की पकड़े मूठ/ हिलाता हाथ आ गया झूठ/ ख़ुद को श्रम के महत्व और श्रमशील लोगों के संघर्ष के संग-साथ
बनाता बात आ गया झूठ/ अनेको भेस बनाता झूठ/ बहुत चढ़बांक होने में अपनी सार्थकता नज़र आती है, बलभद्र उसी प्रतिबद्धता के
बना है झूठ/ लेकिन, यह सच नहीं है झूठ/ कि आख़िर झूठ तो वाहक़ हैं।

yegh जुलाई से सितंबर 2023 n 391


हुआ है पर आँचल थामें पिछलग्गू बना नहीं फिरता। बल्कि माँ के
पकाये ठेकुए-लिट्टी लिए नये की तलाश में निकल पड़ता है, माँ-
पिता और औरों का सहारा बनने के लिए। गोपाल प्रधान कहते हैं
कि, “हिंदी प्रदेश का ग्रामीण परिवेश तो अन्य कवियों की कविता
में भी नज़र आता है लेकिन बहुधा उसकी भूमिका कई हिंदी फिल्मों
में देहात की छौंक लगाने के लिए किसी पात्र के मुख में ठूंसी
बनावटी भोजपुरी की होती है। कुल मिलाकर उनकी कविता का
देहात सामंती कुलीन की निगाह से देखा हुआ होता है। जिस तरह
आधुनिक शहराती सौंदर्यबोध का ही अंग थोड़ा एथनिक छुअन भी
होती है उसी तरह अत्यंत रेशमी भाषा को मिट्टी की गंध से सज्जित
करने के लिऐ खेती के कुछ उपकरण या पुराने पारिवारिक संबंधों
की भावुक शब्दावली भी टांक दी जाती है। देहात के साथ ऐसे
आधुनिकतावादी नागर बरताव के मुक़ाबले बलभद्र की कविता
में हमें कामगारों का जीवंत संसार दिखाई देता है। यहीं चीज़ उन्हें
बलभद्र तेजी से बदलते अपने समय-समाज को महसूस करते पुरानी दुनिया के नाश पर हिंदी जगत में बहुप्रचलित करुण रुदन से
हैं और मन हीं मन इस बदलाव के समानांतर अपने गाँव-नगर को बचा लेती है और पाठक के सामने परेशानी के बीच भी जीवंत और
खड़ा करने की लालसा भी रखते हैं। इसे समझने के लिए वहाँ भरा पूरा मनुष्य प्रकट होता है।”
जाना होगा जहाँ “आज भी चउवे के बल ही/ भैंसों को दुहते हैं मेरे बलभद्र को पढ़ते हुए कई बार यह महसूस होता है कि उनके
लालसाहेब भाई / और घर्र-घों की आवाज़ संग/ फफा उठता है 'काव्य वैविध्य' की अपनी सीमा है। एक तरह का भावगत दुहराव
गरम-गरम फेन/ हमारी अभिलाषाओं की तरह।” (कविता मेरी) भी नज़र आ सकता है। ऐसा इसलिए भी कि कवि की एक स्पष्ट
और फिर इससे इतर वहाँ भी जब झारखंड का नौजवान रोजगार वैचारिकी है। भाषा और भाव की प्रगाढ़ता के साथ इस वैचारिकी
की तलाश में मुंबई का रुख़ करता है। ये आकांक्षाएँ ही हैं कि उस का सौंदर्य और खिल उठा है। कवि का कथन कि, “मैं अपनी माई
नौजवान की अपने जान की कीमत चुकानी पड़ती है। वह ख़बर बन की भाषा की तरह कविता की भाषा कमाना चाहता हूँ। जिन लोगों
जाता है-“कविता मेरी/ मत जाओ इनकी मटक चाल पर/ देखो, ने जीना सिखाया.चलना,बोलना-उनको सहेजे रखना चाहता हूँ।
आज ही एक ख़बर छपी है / मुंबई से आई है एक नवहे की लाश/ कितना सीख पाया वह सब, कविता में कहना चाहता हूँ।” (चयनित
झारखंड का यह नवहा/ करता था वहाँ राजमिस्त्री का काम/ मरा कविताएँ) निश्चित रूप से कवि को इसमें सफलता मिली है। घर-
वह गिर कर कितनी ऊँचाई से/ ऐसे ही मरते हैं ढेर सारे नवहे।” परिवार, समाज, माँ-पिता, बच्चे, संगी-साथी, प्रकृति-पर्यावरण,
बावज़ूद इसके हमारी आकांक्षाओं का फफाना नहीं रुक सकता, खेती-किसानी, पशु-पक्षी, जीव-जंतु यानी एक सम्पूर्ण जीवन
पर मुंबई की मरणांतक ऊँचाई के लिए झारखंड की ज़मीन यूँ ही सरोकार और दुनियावी बदलावों की अभिव्यक्ति से भरे बलभद्र
अभिशप्त है, रहेगी भी। कवि अपनों को इससे अगाह कराना नहीं का काव्य जगत कविता के सहारे जीवन को समझने का ही अपना
भूलता। सत्ता की बड़ी साजिशों और उसके ख़िलाफ़ जन संघर्षों की प्रयास है। अगर यह कम है तो इस कम लिखे में भी बलभद्र ने
लामबंदी को समझने के लिए कवि की 'राष्ट्र भक्तों के राज में, वे एक अलग पहचान कायम की है, यह पहचान समकालीन कविता
सैनिक थे कारगिल के मोर्चे पर, मुक्तिपथ पर, तुमको जगह-जगह को और मजबूत करती है। फ़िक्रमंद परंतु बेफ़िक्र-सी यह आवाज़
से तोड़ा, कैथरकला प्रतीक नहीं जैसी कविता आश्वस्त करती हैं। कितनी सधी हुई है, समझा जा सकता है- “चोंच में तिनका लिए
बहुचर्चित लेखक-आलोचक गोपाल प्रधान ने बलभद्र के चिरइयाँ / उड़ी जा रही डाल पर/ चीं-चीं-चूँ-चूँ बचिया-बचवा/
पहले काव्य संकलन 'समय की ठनक' की भूमिका में उन्हें गाढ़े चला समय के ताल पर।” समय के ताल को सुनना और अपने पाँव
इंद्रियबोध के कवि रूप में महसूस किया है। निश्चित रूप से जिन चलना बलभद्र की कविता का गुणधर्म है। n
पाठकों ने बलभद्र को हिंदी के साथ-साथ मातृभाषा भोजपुरी में भी संपर्क : बी.एस.डीएवी. प. स्कूल,
पढ़ा-समझा है वे इसे और गहराई से महसूस किये होंगे। इस कवि मीलरोड, आरा, भोजपुर,
का काव्य विवेक माँ और मातृभाषा के आँचल तले विकसित तो मो. 8051513170

392 n जुलाई से सितंबर 2023 yegh


n आयतन : बद्रीनारायण

वैचारिकता की समकालीन निर्मिति और कविता समय


आशीष त्रिपाठी

पिछले छः दशकों की हिंदी कविता में, विशेष रूप होता है। ‘तुमड़ी में शब्द’ इसी यात्रा के अगले चरण
से मुक्तिबोध की कविता के केन्द्रीय स्थान हासिल की बानगी देता है। जन इतिहास, लोक-इतिहास,
करने के बाद, कविता में वैचारिकता और बौद्धिकता मौखिक इतिहास और उपाश्रयी इतिहास से होते हुए
की जगह बढ़ी है। बद्रीनारायण की कविताओं में कवि कबीर व रैदास जैसे निर्गुण क्रान्तिकारियों तक
बौद्धिकता और वैचारिकता की इस बढ़त को देखा पहुँचा है। इस संग्रह की अनेक कविताओं में उनकी
जा सकता है। वैचारिक सरोंकारों वाले बड़े कविता- व्याप्ति से ही इस संग्रह के केन्द्रीय स्वर की रचना
परिसर में यह सिर्फ़ रुचियों का द्वंद्व नहीं है, इसमें एक होती है। निर्गुण परंपरा में बौद्धों, नाथों और सिद्धों के
सत्ता- संघर्ष भी शामिल है, जिसने पहले दो दशकों में कविता- प्रभाव समाये हुए हैं। बुद्ध की एक स्वतंत्र उपस्थिति इस संग्रह में
परिदृश्य में अपनी स्पष्ट छाप छोड़ी है। चूकि ँ यह सारी प्रक्रिया यत्र-तत्र देखी जा सकती है। निर्गुण भक्तों की वैचारिकी के प्रभाव में
आलोचना में बहस किये बिना,रुचि-बोध को परिवर्तित करने की कवि सामाजिक संरचना, जनतंत्र, भूमंडलीकरण, शक्ति-आकांक्षा,
रणनीति के साथ की जा रही है, इसलिए इसका एक दबाव तो संचय और पूँजीवादी जीवन-चर्चा की आलोचना करता है। इस
है परंतु उससे बहस कर पाने की जगह नहीं है। कहना न होगा आलोचना को आत्मालोचना की तरह भी देखा जा सकता है और
कि इसमें कविता के कुछ खास प्रारूपों को श्रेष्ठ मानने और उसे वर्गीय आलोचना की तरह भी। ‘तुम क्यों नहीं समझते’ कविता में
परिदृश्य में लोकप्रियता और महत्ता दिलाने की मंशा शामिल है। लगभग निबंधात्मक होकर वे कबीर की ज़रूरत का बखान करते
इन प्रारूपों में कविता सपाट, एकार्थी और बिम्ब-हीन है, जिसे हैं-‘तुम समझते क्यों नहीं / कि इस सभ्यता को / कबीर की एक
प्रायः गद्यात्मक कहा गया है, परन्तु वस्तुतः जो निबंधात्मक है, और बार फिर आ पड़ी है ज़रूरत /कि एक बार फिर पुराने डिक्शन में
वैचारिक सरोकारों को सूक्तियों और बयानों में व्यक्त करती है। नई बात /कहने की बड़ी आवश्यकता है।’
बद्रीनारायण एक पारंगत समाजविज्ञानी हैं। प्रारंभ में उन्होंने आधुनिक युग में स्थानांतरण, प्रवास और विस्थापन मानवीय
जन-इतिहास और लोक इतिहास के क्षेत्र में कार्य किया है। गँवई जीवन में सामान्य परिघटनाएँ हैं। इसलिए जगहों, लोगों और पेशों
और किसानी परिवेश में अनुकूलित, संस्कारित और निर्मित व्यक्ति को छोड़ना और छोड़कर आगे बढ़ जाना पेशेवर व्यक्ति के लिए
के लिए यह उसके ‘स्वभाव’ के निकट जाने का ही एक मार्ग था। ज़रूरी माना जाता है। अनेक पेशों में लगातार कंपनियाँ बदलना
ऐसे में उनके कवि को उनके समाजविज्ञानी से एक सकारात्मक सफलता का सूचक माना जाता है। ऐसे में क्या यह एक पुरातन मन
मदद मिली है, जिसके परिणाम उनके प्रारंभिक दो संग्रहों ‘सच सुने की अभिव्यक्तियाँ हैं? क्या ये सामंतवादी युग में मौज़ूद स्थिरता से
कई दिन हुए’ और ‘शब्दपदीयम’ की कविताओ में देखे जा सकते उपजा मूल्य बोध है? क्या इसे अनाधुनिक माना जाना चाहिए? क्या
हैं। आगे चलकर बद्रीनारायण ने हिंदी क्षेत्र की दलित राजनीति इसे एशियाई किसान समाजों की विशिष्टता की तरह देखना चाहिए,
की व्याप्ति और निर्मितियों पर काम किया। इस काम ने उनकी जो आधुनिक होने के बावज़ूद उस मनुष्यता को छोड़ना नहीं चाहते
पूर्ववर्ती सामाजिक समझ को विशेषीकृत किया। ‘ख़ुदाई में हिंसा’ जो मूलतः सामंतवाद में उपजी गँवई किसान-शिल्पी संस्कृति का
का कवि एक ओर भूमड ं लीकरण युगीन नवपूँजीवादी संस्कृति हिस्सा है। भावुकता का यह रूप भी उसी मनुष्यता से यवायविक
से मुठभेड़ करता है, तो दूसरी ओर हमारे सामाजिक जीवन में रूप से जुड़ा है-
दलितों की विडंबनामय करुण-कथा से भावुक और आक्रोशित “आज जब छोड़ देना और

yegh जुलाई से सितंबर 2023 n 393


छूट जाना एक आम बात है कवि का कबीराना मन समझ पाता है कि बाज़ार के बढ़ते
मेरे भीतर तडफड़ाती मछली के विस्तार के साथ ही शमशान का रक़बा भी बढ़ रहा है। बुद्ध-
मुँह में अंकुसी की तरह महावीर-कबीर-नानक-रविदास का अपरिग्रह यहाँ कार्ल मार्क्स के
फँसी हैं कई यादें पूँजी के विवेचन के साथ मिलकर एक तार्किक-भावनात्मक जीवन
मैं आज भी उन यादों के लिए रोता हूँ।” चर्या प्रस्तावित करता है। इस वैचारिकी के अनुसार धन-संचय और
“भदोही बस स्टेंड पर” कविता में कबीर एक नैतिक आलोचक उससे उपजा भोगवाद एक सामाजिक रोग की तरह है-
की तरह उपस्थित हैं। वे समकालीन समाज की कठोर आलोचना “तुम पहुँच रहे हो
करते हैं। वे यहाँ अपनी पारंपरिक छवि के साथ एक साधारण एक महाबाज़ार में
नागरिक का बाना धरे हुए हैं। वे इस संसार की जीवन-विधियों और उसी बाज़ार के बिलकुल बगल से
जीवन चर्या से दुखी हैं। यह दुख क्रोध से उपजा है जो उन्हें गहरी खुलता है मृत्यु लोक का एक महाद्वार
विरक्ति की ओर धकेलता है। कबीर देख रहे हैं कि यह दुनिया तुम समझते क्यों नहीं
खरीदने-बेचने के कारोबार में इस तरह मुब्तिला है कि अब यहाँ रह
पाना संभव नहीं है - तुम समझते क्यों नहीं
चलो और कहीं चलें। कि जिंदगी के हँसी खिलखिलाहटों के बीच
ओस, धान की फुनगी, गेहूँ के पौधों की डाली की चमक यह दुनिया एक महाश्मशान”
और नदी का पानी चारों ओर फैला महाबाज़ार लालसा, प्रतिस्पर्धा ईर्ष्या और
जिन सबसे मैं गढ़ रहा था महात्वाकांक्षा पैदा करता है, जिनकी पूर्ति करते हमारे समय का
एक सुंदर चाँद नागरिक-समाज दुख सहता हुआ अंततः महाश्मशान के मुख में
सब नीलाम हो गया समा जाने को अभिशप्त है। ‘एक पंडुक की रिपोर्टिंग’ कविता
कबीर ‘एक सुन्दर चाँद’ गढ़ रहे हैं। यह चाँद मनुष्य के सुन्दर लोककथात्मक फैंटेसी के प्रारूप में इस विडंबना का काव्यात्मक
समतामूलक भविष्य का स्वप्न है, जो प्रत्येक अँधेरे में रोशनी देता बखान करती है। ‘मैं’ “पंडुक पक्षी की तरह ‘एकै तुही’ ‘एकै तुही’
चमकता रहता है। इसे हवाई चीज़ों से नहीं ठेठ भौतिक, प्राकृतिक बोलता हुआ आकांक्षाओं के महाबाज़ार में कुछ पक्षियों के साथ
और किसानी चीज़ों ओस, धान की फुनगी, गेहूँ के पौधों की डाली आया। सभी इस महाबाज़ार में अंततः मिट गये- उनमें से तीन तोते
की चमक और नदी के पानी से बनना था। पूँजीवाद में ये सब मूल तो इस माया बाज़ार में /भड़क उठी कामनाओं की अग्नि में जल
चीज़ें नीलाम हो गयी हैं। न प्रकृति सुरक्षित है न खेती -किसानी। मरे /पपीहा महत्वकांक्षाओं के भयानक युद्ध में /शहीद हुआ, /
नवपूँजीवाद ने मनुष्यता के मूल आधारों पर ही हमला बोला है। हारिल ने दम तोड़ा संसद भवन के ठीक पीछे के /रसोई घर में /
ऐसे में न भविष्य सुरक्षित है, न स्वप्न। कबीर का दुख वही नहीं स्वाद, संबंध, रिश्तों की बहुलता की /चकमक आक्रामकता से
है जो सामन्तवाद-मध्यकाल में था। दुख ने नवपूँजीवाद के दौर में दीप्त बाज़ार में /मैं मिटा /‘तुही’ ‘तुही’ करता हुआ’। कामनाओं
नया रूप धर लिया है। कबीर में भी नया रूप धर लेने की क्षमता की अग्नि, महत्वाकांक्षाओं के युद्ध, स्वाद-संबंध की बहुलता और
है। संभवतः इसीलिए कवि उनके क़रीब गया है, इस उम्मीद से कि आक्रामकता न सिर्फ़ मारती-मिटाती है, बल्कि अनन्त समय तक
नये ज़माने के लिए नया ‘सुन्दर चाँद’ गढ़ा जा सके। बद्रीनारायण जलाती है। स्त्री के लिए यह बाज़ार मुक्ति छद्म का आख्यान रचता
कबीर-बुद्ध के विचारों के आधार पर भूमड ं लीकरण युगीन पूँजीवाद है। मुक्ति के नाम पर शोषण का एक भयानक संजाल उसे खींचता,
के युग में लगातार बढ़ते भोगवाद की कड़ी आलोचना करते हैं। उलझाता और अन्ततः जलाता है। कहना न होगा कि पुरुष की
भोगवाद-बाज़ारवाद की गिरफ़्त में फँसे समाज को वे याद दिलाते तुलना में स्त्री के लिए यह बाज़ार नये तरह की कै़दगाह लेकर
है कि महाभोग व्यक्तिगत और सामाजिक दुखों पर परदा नहीं डाल आया है। कवि समझता है कि इस कै़दगाह में उसे रोज जलना है -
पाता- “मेरे साथ आई महरि चिड़िया
तुम चाहते हो इस जीवन के हर आनन्द को भोग लेना आज भी रहती है
परन्तु तुम यह क्यों नहीं समझते यही कहीं साउथ दिल्ली में
कि चार्वाक दिल्ली में महाभोग के बाद भी कितना दुखी है रोज आधी रात के बाद
और शाहदरा की किसी गली में बैठा फूट-फूट रो रहा है मैं जली! मैं जली!!

394 n जुलाई से सितंबर 2023 yegh


चीखती हुई।” अपने बीजक पर / और अम्बेडकर अपने संविधान पर / कर रहे हैं
गहन विडंबनाओं को उसकी संपूर्ण गहनता के साथ, प्रकट कर पुनर्विचार / और साथ साथ / अपनी आत्मालोचना भी कर रहे हैं।’
पाना- सक्षम कवित्व की पहचान है। बद्री जी ने ‘एकै तुही’ ‘एकै ‘ख़ुदाई में हिंसा’ से बद्रीनारायण भारतीय जनतंत्र की
तुही’ की ध्वनि का सार्थक प्रयोग करने के साथ ही उसे ‘मैं जली’ आलोचनात्मक टीका लिख रहे हैं। वे भारतीय जनतंत्र में नये किस्म
‘मैं जली’ के नाद में बदलते हुए दिखाकर जैसे संपूर्ण कथा को के सामंती श्रेणीकरण और पुरातन सामंती शक्तिसंरचना के प्रभाव
इन दो ध्वनियों के दुहराव और बदलाव से ही व्यक्त कर दिया है। को एक साथ देखते हैं। वे इसमें नये किस्म की बर्बरता का विकास
अबूझ हुए बग़ैर बेहद सहजता से छोटी लोककथा रचकर बड़ी बात लक्षित करते हैं। यह बर्बरता वस्तुतः फासीवाद का लक्षण है। ‘हम’
कह देने की दृष्टि से यह कविता संग्रह की प्रतिनिधि कविताओं में शीर्षक कविता समकालीन जनतंत्र की कठोर आलोचनात्मक टीका
से एक बन गयी है। बद्रीनारायण ने पहले संग्रह में कहन की जिस है। कवि स्पष्ट करता है कि भारतीय जनतंत्र का समकालीन रूप
निजी प्रविधि का विकास किया था, यहाँ नयी भंगिमाओं के साथ सामाजिक भेद, हिंसा और शोषण के समावेश से बना है। राजनीतिक
पुनर्नवा हुई है। जनतंत्र की स्थापना के सत्तर वर्षों बाद भी समाज और परिवार में
इस बाज़ार के पीछे मौज़ूद है- नया पूँजीवाद, जो संपर्ण ू जीवन जनतंत्र की स्थापना नहीं हो सकी है। फासीवाद की ओर उन्मुख
को ही तबाह करने पर तुला हुआ है। नये-नये गजेट्स और मशीनें इस जनतंत्र का आधार नागरिक समाज है, जो भूमंडलीकरण के युग
इसके उपकरण हैं। कवि मानता है कि ये मात्र मशीनें नहीं हैं / में हिंसक, आक्रामक और क्रूर होता जा रहा है। सामान्य नागरिक
विचार हैं /ये मात्र सुविधाएँ नहीं हैं / विचारों के प्रवाह के मार्ग हैं ऊपरी तौर पर आधुनिक, उत्तर आधुनिक और धर्म-निरपेक्ष दिखायी
/ उनमें स्वप्न देखता है /सिलिकॉन वैली / दिल्ली की आँखों से। देता है, परंतु भीतर से जाति, धर्म और नस्लीय गर्व को लेकर हिंसक
नव पूँजीवाद नये तरीकों से काम करता है। वह अत्यन्त आक्रामक होता जा रहा है।
है। उसने रास्ते में बाधा की तरह खड़ी पुरातन सामाजिकता बद्रीनारायण की कविताओं में सांग रूपक और रूपक कथा
और मनुष्यता के विरुद्ध एक युद्ध छेड़ रखा है। इस युद्ध में वह निर्मित करने की प्रवृत्ति शुरुआती दौर से ही मौज़ूद है। इधर अक्सर
मीडिया, बाज़ार, अन्तर्राष्ट्रीय संबंध, राष्ट्र-राज्य, लोकतंत्र, सूचना बिखराव के कारण सांग रूपक या रूपक कथायें कमज़ोर और
प्रौद्योगिकी, सामाजिक भेद और राजनीतिक सत्ता-सभी को अग्रिम निबंधमुखी हो गयी हैं, परंतु ‘बेगमपुरा एक्सप्रेस’ में रूपक-कथा
मोर्चे पर रखता है। नवपूँजीवाद ने पूँजीवादी शक्ति-संरचना को स्पष्ट और पूरापन लिए हुए है। ‘बेगमपुरा एक्सप्रेस’ अमरपुर और
नया रूप दिया है। साधारण ग़रीब वंचित जनता को पराजित कर बेगमपुरा के बीच चलती है। अमरपुर की कल्प सृष्टि कबीर ने
उसके जीवन, विचारों और संस्कृति पर नियंत्रण स्थापित करना ही की, जबकि बेगमपुरा की रविदास ने। मीरा के ‘वृंदावन’, सूरदास
उसका अन्तिम लक्ष्य है। के ‘गोकुल’, तुल्सीदास के ‘रामराज्य’ और जायसी के ‘सिंहल
दुनिया भर की बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ अपनी एजेंट राजसत्ताओं द्वीप’ आदि कल्पनाओं की शृंखला में इन्हें देखा जाना चाहिए। ये
के साथ मिलकर कभी ‘लोक कल्याण’, कभी ‘सुशासन’, कभी कल्प- सृष्टियाँ इसलिए महत्वपूर्ण हैं कि इनमें शोषण, अन्याय,
‘विकास’ और ‘कभी अच्छे दिनों’ के नाम पर अब तक होते आये दमन, उत्पीड़न के दुखों से मुक्त होने की कामना स्पष्ट रूप से
‘अन्याय’ का खात्मा कर ‘वास्तविक समाजवाद’ लाने का वादा मिलती है। चूकि ँ निम्नवर्गीय जनता के जीवन के ग़म शोषणकारी
और दावा करती हैं। इस प्रक्रिया में उन्होंने विकासशील राष्ट्रों व्यवस्था से उपजे हैं, इसलिए शोषणकारी व्यवस्था से मुक्त
के जनतंत्रों पर गहरी चोट की है। जनतंत्र समानता के नाम पर हुए बिना ‘बेगमपुरा’ की कल्पना नहीं की जा सकती। कविता
असमानता की नयी कोटियाँ गढ़ रहे हैं। सामाजिक लोकतंत्र के के अनुसार ‘बेगमपुरा एक्सप्रेस’ का टिकट सिर्फ़ पैसों से खरीदा
लिए संघर्ष करने वाले कबीर, नानक, रविदास और अम्बेडकर नहीं जा सकता। पारंपरिक भाषा में जो सदाचारी और सज्जन नहीं
दुखी और चिंतित हैं। कविता का है “अमरपुर गाँव” के अनुसार। हैं, ऐसे भ्रष्ट, अमानुष और दुर्जन लोगों को बेगमपुरा का टिकट
उनकी चिन्ता का कारण बढ़ती हुई असमानता है। “वे चिंतित हैं कि नहीं मिलेगा। ज्ञान, सत्ता और शक्ति के प्रभाव से भी से टिकट
/ उन्हांने जो बनाई थी लोकतंत्र की चाभी /वह काम क्यों नहीं कर नहीं पाया जा सकता– “कत्ली, ख़ूनी, बलात्कारी /बेईमान, चालू,
रही है /अँधेरा इतना बढ़ता जा रहा है कि / जो दीपक जलाये थे / फ्रॉड, लम्पट /हिंसक, झूठ, बवाली, /सुल्तान, साहेब, मालिक /
वो हारते जा रहे हैं /जैसे-जैसे गहरा रहा है लोकतंत्र /असमानता की इन सबको नहीं मिलेगा टिकट।” दम्भी कवि और सत्ता के बौद्धिक
नई-नई कोटियाँ /बनती जा रही है।” इस असमानता और क्रूरता के इस सूची में भी शामिल हैं : टिकट बाबू अगर इन्हें बेचना भी
कारण ये पूर्वज अपनी वैचारिकी पर पुनर्विचार कर रहे हैं- ‘कबीर चाहेगा/ तो उसके हाथ बेकार हो जाएँगे।’ इसे वही प्राप्त कर सकता

yegh जुलाई से सितंबर 2023 n 395


है जो कबीर के ढाई आखर अर्थात प्रेम को जानता हो : ‘जो ढाई देना चाहते हैं-
आखर जानता होगा /वही बेचेगा टिकट /जो ढाई आखर जानता देखों कितने तोप, तीर, तलवार,
होगा /वही पायेगा टिकट।’ ट्रेन में धना, पीपा, सेना, नाई जैसे लोग आरी, कटार, तने हैं इस शब्द पर
यात्रा करते हैं। धनी, कुलीन, सत्ताधारी नहीं। ‘बेगमपुरा एक्सप्रेस’ कई फूलों के बाण से
समकालीन पूँजीवादी समाज का एक नैतिक प्रात्याख्यान है। क्या इसे मार कर खा जाने
इसे कवि का भोला विश्वास माना जाय? क्या इस भोले विश्वास में सिद्धहस्त
का कोई सामाजिक मूल्य भी है? क्या इससे कोई रास्ता निकलता लगाए बैठे हैं घात
है?-इन कठिन सवालों के कोई स्पष्ट जवाब दे पाना संभव नहीं है। परन्तु ‘यह शब्द मरते ही जी जाता है।’ यह ग़ाैर करने की
इनके जवाब तो शायद समय ही दे सकता है। परंतु इतना तो कहा ज़रूरत है कि दूसरे कविता संग्रह ‘शब्दपदीयम’ तक कवि को यह
ही जा सकता है कि प्रकृति और स्वभाव की ओर लौटे और सत्ता- विश्वास न था। तब वह सोचता था- ‘कोई कहता है /शब्द अमर
संरचना को तोड़े बिना बेगमपुरा बना पाना असंभव है। बेगमपुरा है/ पर मैं अपने शब्दों पर कैसे करुँ विश्वास/दो बूँद जल में ही
पाने का रास्ता है- सामाजिक क्रांति, परंतु जब तक सामाजिक क्रांति गल जाते है। ‘ तब ‘शब्द’ ‘शंकर के डमरू से निकला’ संभवतः
आकार नहीं लेती, व्यक्तित्वांतण की प्रक्रिया पर बल देना होगा। कुलीन-अभिजन-संस्कृत शब्द था। इसीलिए यह भय था कि कब
कवि के लिए व्यक्तित्वांतरण का अर्थ है-अपने भीतर कबीर को कोई गवैया, कब कोई भाँट आए’ और ‘किसी आततायी राजा
जीवित करना। कबीर बनना। भीतर कबीर जैसा फकीर जब तक का/इतिहास लिखवाए। भय था कहीं इस शब्द से ‘कोई मनुस्मृति
रहेगा, आदमी लोभ-लालसा से दूर रहेगा, शोषण-दमन-अन्याय- फिर न लिख दी जाए’। कहीं ‘इतिहास की दुर्दान्त घोषणाएँ’ और
उत्पीड़न का विरोध करेगा, धन-संचय से विरक्त रहेगा, सबको तानाशाहों की आत्मकथाएँ न रच दी जाएँ। इसीलिए शब्द ‘नगाड़ों
समान मानेगा, मनुष्य के प्रकृति-विजय अभियान में साथ न देगा। की गड़गड़ आती आव़ाज के बीच/ हिरण के मन की तरह डरता’
उनके अनंतिम संग्रह की केन्द्रीय संवेदना में कबीर, नानक था। इस शब्द से जुड़े कई सवालों पर अभी भी कई तरह के संशय
और रैदास की निर्गुण भक्ति कविता और वैचारिक पुनर्नवा होकर हैं, परन्तु अब इसकी शक्ति पर कवि को पूरा भरोसा है-
विन्यस्त है। इसीलिए यह उचित ही है कि संग्रह का शीर्षक ‘तुमड़ी इस शब्द से निर्बल को बल मिलता है
का शब्द’ हो। यह शीर्षक कविता-संग्रह के केन्द्रीय विचार को इससे अपमानितों को सम्मान मिलता है
काव्यात्मक तरीके से व्यक्त करता है। कबीराना संवेदना और विचार मिलता है इसमें निचलों को उठान
अनेक कविताओं में मौज़ूद हैं। इसी कारण कविताएँ एक आन्तरिक इन्हीं शब्दों से ग़रीबो में जनमता है
अन्विति से जुड़ी हुई हैं। संग्रह का ब्लर्ब लिखते हुए अरुण कमल ताज और तख्त हिलाने का स्वप्न
ने उचित ही रेखांकित किया कि “यहाँ हर कविता दूसरी से अभिन्न नागरिक-समाज को लेकर बद्रीनारायण का आॅब्जर्वेशन सख्त
और अपरिहार्य है। ऐसी परिकल्पना व सृजन अपने आप में एक है। वे देख पाते हैं कि धीरे-धीरे ‘जनतंत्र’ बहुसंख्यवाद की गिरफ़्त
दुर्लभ घटना है।” कबीर-मुखी वैचारिकता का चुनाव समकालीन में चला गया है। अब जनतंत्र की प्रक्रिया में सिर्फ़ ‘मूड़ियों की
समय में एक स्पष्ट राजनीति है-निर्धन वंचित जनता की पक्षधर, गणना’ होती है। ऐसे ही बहुसंख्यक समाज का आत्मलिप्त, स्वार्थी
आधुनिक धर्मनिरपेक्षता और पारम्परिक सामासिकता से प्रतिबद्ध और अवसरवादी नागरिक जनतंत्र की ‘पीठ पर बैठा हुआ’ मजे
और असमानता- शोषण-अन्याय-हिंसा की मुखर विरोधी। अपने ले रहा है। समकालीन जनतंत्र में नागरिक पराभव की प्रक्रिया तेज़
पहले कविता-संग्रह ‘सच सुन कई दिन हुए का निवेदन लिखते हुई है। यह मध्यवर्ग एक ओर अश्लील ढंग से अपनी संपन्नता
हुए बद्रीनारायण ने ख़ुद को ‘कविता के वृत्त से बाहर’ ‘कविता का का प्रदर्शन करता है, तो दूसरी ओर खुल्लम खुल्ला हत्या-हिंसा-
डोम’ कहा था, जो निर्दयी बिदुआ पुरोहित से-“शब्द (भाव और नरसंहार का समर्थन करता है। इसने स्वतंत्रता आन्दोलन की
वाक्य) छूने देने का निवेदन” करता है। चौथे संग्रह तक आते- विरासत को दरकिनार कर दिया है। यह एक ऐसा उत्तरआधुनिक
आते कवि को यह ‘शब्द’ मिला है, बिना प्रार्थना के-‘तुमड़ी का मध्यवर्गीय समाज है, जो भीतर ही भीतर सामन्तवादी मध्ययुगीन
शब्द’। पुरोहित से प्रार्थना के बाद भी समाज के जिस हिस्से को प्रवृत्तियों से शक्ति पाता है। स्पष्ट है कि बद्रीनारायण ने मुक्तिबोधीय
शब्द नहीं मिलता, उसी ने गढ़ा है यह शब्द-‘तुमड़ी का शब्द’। यह आत्मालोचन को नया तेवर और समकालीन भंगिमायें दी हैं। n
सांस्कृतिक वर्चस्व के प्रति विद्रोह की प्रक्रिया से उपजा है। इसीलिए संपर्क : प्रोफेसर, हिंदी विभाग, बीएचयू, वाराणसी
साँस्कृतिक रूप से वर्चस्व रखने वाले शक्तिवान इसे समाप्त कर मो. 9450711824

396 n जुलाई से सितंबर 2023 yegh


n आयतन : हूबनाथ पाण्डेय

मानवीयता को तलाशता कवि


डॉ. चन्दन कुमार

समकालीन कवियों में हूबनाथ पाण्डेय एक महत्वपूर्ण दिखाती हैं, जगाती हैं। भौतिकतावाद में डूबती जा रही
हस्ताक्षर हैं उनकी कविताएँ आश्वस्त कर रही हैं, दुनियाँ को आध्यात्मिकता का महत्व समझाती हैं।
सत्ता के हम्बग और विडंबनाओं को लगातार दर्ज़ कर वे सिकंदर, अशोक, नेपोलियन, अकबर, रामकृष्ण,
रहीं हैं। उनके काव्य संग्रह हैं-‘कौए’, ‘लोअर परेल’, गौतम, यीशु, पैगंबर का उदाहरण देते हुए कहते हैं-
‘मिट्टी’। इसके अतिरिक्त ‘सिनेमा समाज साहित्य’, ‘जो भी धरता है देह
‘कथा पटकथा संवाद’ जैसी सार्थक कृतियाँ भी वह कहीं जाता नहीं
उनकी कलम से निकली हैं। ‘मातृदेवो भव’, रहता है इसी धरा पर
‘समांतर सिनेमा में नारी’ जैसी आलोचनात्मक पुस्तकों से उन्होंने उसे धारती है धरती
स्त्री विमर्श में नए आयाम जोड़े हैं। ‘मिट्टी’ काव्य संग्रह में उन्होंने आओ हम सब ढूंढें अपने-अपने पुरखों को
सहज भाषा, नवीन विषय वस्तु व कथ्य, वैविध्यपूर्ण संवेदनाओ जिन्हें मिट्टी ने
से हिंदी साहित्य को समृद्ध किया है। ‘मिट्टी’ काव्य संग्रह जीवन मिट्टी में मिला दिया हैं।’ (मिट्टी-11)
की व्यापकता, भूमड ं लीकरण, बाज़ारवाद, उत्तर उपनिवेशवाद में इक्कीसवीं सदी के दूसरे दशक में पर्यावरण-विमर्श पर आधारित
शोषणकारी दुष्चक्रों की पहचान, पर्यावरण विमर्श, लोकतंत्र को साहित्य सृजन एक मुख्य प्रवृत्ति के रूप में उभर रहा है। कोरोना
भेड़तंत्र में बदलते जाने की पड़ताल,चुनावी ढकोसला, शहरीकरण महामारी की त्रासदी ने पर्यावरणीय चिंतन के लिए दुनियाँ को एक
विकास के नाम पर विकसित ठगतंत्र, मानवीय संवेदनाओं में मंच पर ला खड़ा किया है। ऐसे परिदृश्य में जब संयुक्त राष्ट्र संघ
सहजता, कोमलता की तलाश, आक्रोश और प्रतिरोध का स्वर जैसे वैश्विक मंचों से विलुप्तप्राय प्रजातियों को अभयारण्यों, राष्ट्रीय
वैचारिक प्रतिबद्धता को समेटे हुए हैं। पार्कों में सुरक्षित रखने के समझौते हो रहे हैं। ओजोन परत क्षरण,
अनुभव सत्य और मानुष सत्य हूबनाथ की कविताओं के भी वैश्विक ताप में वृद्धि, जलवायु परिवर्तन, जैव विविधता पर मंडरा रहे
केंद्र में है। मनुष्य और उसकी संवेदनाएँ कवि की कविताओं का संकट पर दुनिया भर के देशों में अनवरत बैठकें हो रही हैं। बावज़ूद
लक्ष्य रही हैं। उस लक्ष्य को पाने के लिए मानवीय भाव और इसके बाढ़-सूखे में वृद्धि, समुद्री जल स्तर में वृद्धि,शहरीकरण,
मनोविकार की तराश व तलाश जारी रही है। ‘मिट्टी’, ‘देह’, वनों के कटान में वृद्धि सतत विकास की अवधारणा को खंडित कर
‘राजा’, ‘आशीष’, ‘इमानदारी’, ‘ईमान’, ‘झूठ-सच’, ‘प्यार’, रहे हैं। ‘मिट्टी’ काव्य संग्रह में संकलित कविताएँ इस त्रासदी पर
‘इज्जत’, ‘नफ़रत’, ‘कायरता’, ‘क्रोध’, जैसी कविताओं में कवि सवाल खड़ा करती हैं। ‘पर्यावरण अध्ययन’ कविता सरकारी शिक्षा
यथार्थ की शिनाख्त करते हुए आदर्श का निर्माण करता है। हूबनाथ नीति और सरकारी झूठे इरादे का पर्दाफाश करती है-
की कविताएँ भौतिक जीवन में बढ़ती जा रही इंसानी भूख़ का ‘सरकार ने अनिवार्य कर दिया
समाधान बताती है। भटकी हुई इंसानियत को राह दिखाती है जो पर्यावरण अध्ययन सभी के लिए
नगरीय जीवन या दिखावे की ओढ़ी हुई बाज़ारवादी, भूमंडलीकृत शिक्षा विभाग ने नहीं नियुक्त किया
संस्कृतियों द्वारा थोपी जा रही है। विज्ञापनों की भयावह दुनिया के एक भी शिक्षक
मकड़जाल में पूँजीवाद नवउपनिवेशवाद की साजिशें रची जा रही जो जानता हो पर्यावरण का ‘प’
हैं तब हूबनाथ की कविताएँ सचेत करती हैं, ‘अँधेरे में’ मशाल पर्यावरणविदों ने जो पाठ्यक्रम बनाए उसे पढ़ाने के लिए शिक्षक

yegh जुलाई से सितंबर 2023 n 397


ही नहीं है शिक्षक संस्थानों में। बाँध, फ्लाईओवर, चौड़ी सड़कों के अगले ही रोज
विस्तार में वर्ल्ड बैंक का जो पैसा पर्यावरण विनाश के लिए खर्च सूजी हुई आंखों
होता आया है। उस पैसे का मामूली अंश भी पढ़ाने के लिए शिक्षकों टूटे हुए दांतो/ और फूटे सिर को छिपाती
की नियुक्ति पर खर्च नहीं हुआ। ऐसी शिक्षा व्यवस्था जिसमें गाइडें गांव की प्रजा
और कुजि ं यों से पास होने भर की नसीहत हो, शिक्षा व्यवस्था के अपने प्यारे सुल्तान के साथ
इस खोखलेपन को उजागर करती है कविता- रंगीन फोटो खिंचवा रही थी।’ (बसई गाँव)
‘पर्यावरण अध्ययन का महत्व शहरीकरण विकास के नाम पर जो हवा में जहर घुल रहा है,
कि यह है ऐसा सब्जेक्ट किसानों की ज़मीनें अधिग्रहित हो रही हैं, पेड़ कट रहे हैं, नदियों
जिसे सिर्फ़ अटेम्प्ट करना को प्रदूषित किया जा रहा है। ये सब पूंजीपतियों, उद्योगपतियों,
है ज़रूरी नेताओं, सरकारों की मिलीभगत का नतीजा है। आश्चर्य है जलवायु
सब समझते हैं परिवर्तन और पृथ्वी पर आसन्न ख़तरों के बावज़ूद कोई पर्यावरण
शासन की मजबूरी।’ रक्षा के लिए आंदोलन, भूख़ हड़ताल या सुधार की मांग नहीं हो
आज जब लोगों का, लोगों के द्वारा,लोगों के लिए निर्वाचित रहीहै,भारतीय समाज या राजनीति में।
सरकारें अभिव्यक्ति की आज़ादी पर हमला कर रही हों। सत्ता और मजदूरों के जीवन की सबसे भयावह त्रासदी ‘वे दो थे’ कविता
सरकारों से सवाल करने और जवाब माँगने पर जेल और हत्या का रचती है जिसमें आठ भाई-बहनों में जीवित दो भाइयों को महानगर
ख़तरा पैदा हो गया है। मॉब लिंचिंग का भय पत्रकारों, साहित्यकारों, का गटर निगल जाता है वह भी प्रशासन सरकारों की लापरवाह
बुद्धिजीवियों पर लगातार मंडरा रहा हो ऐसे वक्त में हूबनाथ अपनी नीतियों के कारण-
कविताओं में इस लोकतंत्र के ढकोसले के ख़िलाफ़ आवाज़ बुलंद ‘जब पहली बार
करते जा रहे हैं– बिना किसी प्रशिक्षण
‘पूरा हक़ है हमें या एहतियात के
अपनी नाराजगी घुसे थे
अपनी शिकायत महानगर के गटर के
अपनी राय जाहिर करने का मेनहोल में
अरे भाई लोकतंत्र है शहर की गंदगी निकालने
यूं ही नहीं मिल गई हमें अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और वेदो भी नहीं बचे
सड़क पर पड़ी हुई आठ भाई-बहनों में’ (वे दो थे)
करोड़ों लोगों ने किसानों मजदूरों के नाम पर प्रत्येक चुनाव में नेता बड़े-बड़े दावे
पूरी दुनिया में दी कुर्बानियाँ।’ (लोकतंत्र-1) उद्घोषणाएँ जारी करते हैं लेकिन ऐसी दुर्घटनाएँ आज़ादी के 75
लोकतंत्र और जनता के पक्ष में खड़े मुक्तिबोध,रघुवीर सहाय, सालों के बाद भी होती रहती है। ‘सिर्फ़ एक वोट’ ही तो है नागरिक।
सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, लीलाधर जगूड़ी, सुदामा पाण्डेय‘धूमिल’ मजदूरों के पसीने को पैसे में बदलने में कितनी पीढ़ियाँ खप गईं।
जैसी कविताओं की परंपरा में अगली कड़ी जोड़तीं है हूबनाथ ऐसी शोषणकारी व्यवस्था के ख़िलाफ़ ही कहीं ‘नक्सलवाद’ उठ
की कविताएँ। लोकतांत्रिक जीवन की विडंबनाओं को, चुनाव, खड़ा हुआ तो कहीं ‘सोमालिया’। ‘सोमालिया’ समुद्र के लुटेरों
धार्मिक पाखंडवाद, जातिवाद, अवसरवाद, स्वार्थ-लिप्सा घिनौनी द्वारा जहाजों के लूटे जाने के लिए कुख्यात है। लेकिन हूबनाथ
राजनीतिक बदमाशियों, दोगलेपन को लगातार दर्ज़ करती है- सोमालिया की ग़रीबी,भुखमरी, कुपोषण, बाल मृत्यु दरों में बेतहाशा
‘हुकूमत से ताल्लुक रखने वाले वृद्धि की एक दूसरी सच्ची तस्वीर पेश करते हैं-
दिनदहाड़े दंगे नहीं करते ‘सोमालिया बच्चों की लाशों के नीचे
यह आचार संहिता के विरुद्ध है दबी घास की पत्तियों की हरियाली में है
सो मजबूरन इलाके के निर्वाचित सुल्तान को एड्स बांटती औरतों के जिस्म के
इंतजार करना पड़ा किसी कोने में दुबका है सोमालिया।’(सोमालिया)
सूरज के डूबने का हूबनाथ छली राजनीति एवं छद्म प्रजातंत्र के षड्यंत्रांे का

398 n जुलाई से सितंबर 2023 yegh


पर्दाफाश करते रहे हैं। वे लोकतंत्र की हो रही हत्या का जिम्मेदार हूबनाथ अपनी ‘कविताओं’ में शब्दों के चयन और प्रयोग से
अवसरवादी व्यापारियों, हाकिमों और नेताओं को मानते हैं जो लगातार चौकाते चलते हैं। वे प्रस्तुतीकरण में ताजगी के साथ
अनवरत भ्रष्टाचार में लिप्त रहक़र देश को दीमक की तरह खोखला धारदार व्यंग्य की सर्जना करते हैं। उनके व्यंग्य का आधार
कर रहे हैं। सदियों से अशिक्षित,ग़रीबी, भुखमरी से पीड़ित जनता से संवेदनशीलता है। उनके व्यंग्य, खासकर उनके राजनीतिक व्यंग्य
धर्म और देवताओं के ठेकेदार दलाली करके मानसिक गुलाम बनाए जनता की अवस्था में सुधार के लिए, समाज में बदलाव के लिए हैं।
हुए हैं। हूबनाथ अपनी कविताओं ‘तुम्हारा देवता’, ‘ईश्वर’,‘ख़ुदा कृत्रिमता,विज्ञापन संस्कृति, प्रदर्शनप्रियता, शोषणकारी व्यवस्था,
हैरान है’,’सबका ईश्वर’, ‘अमृत’, 6 दिसंबर’ में धार्मिक पाखंडों नेता, प्रशासन,सरकार की मिलिभगत, साँठ-गाँठ, नाभिनालबद्ध
की परत हटाकर धर्म और ईश्वर के हो रहे राजनीतिक, आर्थिक व्यवस्था पर व्यंग्य आक्रोश मिश्रित होता है चिढ़ाने के भाव में।
इस्तेमाल की शिनाख्त करते हैं- व्यवस्था के ख़िलाफ़ व्यंग्य करते हुए हूबनाथ आत्म व्यंग्य भी करते
‘तुम्हारे ईश्वर के चरणों में हैं जिसका उद्देश्य है विसंगति से संगति, जड़ व्यवस्था में सुधार,
बरसने वाली धनराशि शोषणपरक व्यवस्था से मुक्ति।
दरअसल भक्तों का प्रतीकों और बिम्बों के प्रयोग से कविता ध्वन्यात्मक, चित्रात्मक,
काला धन ही होता है संप्रेषणीय होती गयी है। जो प्रतीक, संकेत, बिम्ब बहुत सारे कवियों
तुम्हारा ईश्वर आता है दुर्दांत आतताईयो की तरह के लिए सौंदर्य को स्थापित करने के ज़रूरी उपकरण के रूप में
और छा जाता है हैजे की तरह आते हैं उसे भी हूबनाथ अपनी प्रतिभा से नया रंग दे देते हैं।
तुम्हारे ईश्वर के आते ही हूबनाथ की कविताओं को पढ़ते हुए जिसे हम पाठक शीर्षकों का
डर जाते हैं बच्चे, बूढ़े, बीमार।’ दुहराव समझते हैं दरअसल वह हमें चौंकाता है जैसे ‘मिट्टी’(1-
(ईश्वर हमेशा अमर नहीं होते) 22),‘ देह’(1-7), ‘राजा’(1-13)। कुछ जगहों पर कविता में
अंधाधुंध जंगलों की कटाई,शहरीकरण से ख़ुद पृथ्वी पर भी डिटेलिंग बार-बार खटकती है। संकेतों, मुहावरों, बिम्बों, प्रतीकों से
संकट आ खड़ा हुआ है ऐसे में- गुज़रती कविता अपने कहन में विस्तार लिए हुए आती है। विवरण-
‘ख़ुदा हैरान है वर्णन कविता का हिस्सा हो गए हैं। ध्वनियों, व्यंजनाओं में कविता
कोई जोर नहीं चल रहा कैद नहीं रह पाती। ऐसा इसलिए भी खटकता है कि काव्यशास्त्र के
कयामत पर उसका पुराने प्रतिमानों से कविता का मूल्यांकन करना संभव नहीं, हूबनाथ
फिक्रमंद है ख़ुदा की कविताएँ नए सौंदर्यशास्त्र की मांग करती हैं। अंग्रेजी,अरबी
इंसान को बचाए फारसी, संस्कृत के शब्दों का व मुहावरों, लोकोक्तियों का प्रयोग
या बाकी जीवो और धरती को।’ काव्य भाषा को उत्कर्ष तक ले जाते हैं। अर्थ संप्रेषण व व्यंग्यात्मकता
(ख़ुदा हैरान है) को गहरी धार देते हैं।
हूबनाथ की कविताओं में आधुनिक युग की राजनीति, प्रशासन, हूबनाथ अनवरत सृजनशील हैं। उनकी कविताएँ मानवीयता की
धर्म, समाज, संस्कृतियों में छिपे और खुले तौर पर विसंगतिययों, तलाश करती हैं। जीवन और कविता के संबंधों को गहरा बनाती हैं।
विडंबनाओं, विद्रूपताओं को पकड़ने और कलम रखने की अद्भुत कविता की महान संभावनाओं की ओर ध्यान दिलाती हैं। कबीर,
क्षमता है। गंभीर प्रसंगों के बीच हल्की बात कहक़र गंभीरता को निराला, मुक्तिबोध, धूमिल, जगूड़ी जैसे जनप्रतिबद्ध कवियों की
एक झटके से तोड़ना ही विडंबना है। हूबनाथ के कवित्व में एक परंपरा में हूबनाथ की कविताएँ गहरे मूल्यांकन और अध्ययन की
खासियत यह भी है कि एक गंभीर बात को निहायत अगंभीर ढंग मांग करती हैं। ये कविताएँ असहमति का साहस व सहमति का
से कह जाते हैं। वे चारों और फैले ‘सिनिसिजम अराजकता’ का विवेक देती हैं। व्यवस्था की विसंगतियों, विडंबनाओं की शिनाख्त
एहसास कराते हैं अपनी कविताओं के फलक से। विडंबना देखिए- करते हुए जनजागरण का नया अध्याय जोड़ती हैं। n
‘राजा के बोलने में/फूल झरते हैं/ज्ञान के/ज्ञान वही/जो बोलता संपर्क : असिस्टेंट प्रोफेसर (हिंदी विभाग)
है/राजा/गलत नहीं होता/जो होता है/ गलत/वही होता है/राजा।’ राजकीय महाविघालय, बाराखाल, संतकबीरनगर
(राजा-9 -11) मो. 8077887381

yegh जुलाई से सितंबर 2023 n 399


n आयतन : शहंशाह आलम

समय की पटकथा लिखता कवि


राजकिशोर राजन

हम ऐसे समय में जी रहे हैं जब धीरे धीरे साहित्य भी कवि हमारे समय की भयावह सच्चाई से सिर्फ़ रूबरू
बाज़ारवाद के ढांचे में समाहित हो रहा है। ख़रीद और ही नहीं होता बल्कि उससे मुठभेड़ करता है और
बिक्री के अलावा सब कुछ परिदृश्य से बाहर होता जा प्रकारांतर से कहता है कि इस बुरे दौर में प्रतिरोध
रहा है। सरकारें विदूषक से अधिक की हैसियत नहीं सिर्फ़ कागज़ी नहीं होना चाहिए। अब वक्त आ गया
रखतीं। प्रतिरोध के स्वर मायावी अधिक वास्तविक है कि हम अपनी चौखट से बाहर निकलें और हत्यारे
कम हैं और जो वास्तविक हैं वे नेपथ्य में फेंके समय के ख़िलाफ़ अपनी पूरी ताक़त से खड़े हों-
जा रहे हैं। ऐसा किसने सोचा था कि इस सदी में मालूम नहीं किधर से चाकू आया
सत्य कहना असामाजिक हो जाना होगा। वैसे में एक कविता और कैसे घुसा उसके पेट में
ही है जो सबसे ज्यादा बेचैन है, चूँकि उसका सपना संसार को कोई अँधेरे झुरमुट में जा छिपा
सुन्दर,कलात्मक,भय-भूख़ और शोषण से मुक्त करना है। सूंघ लेता है हत्यारा मुझे भी शायद
आज हिंदी कविता का वितान निरंतर विस्तृत और समृद्ध हो चश्मदीद गवाह समझकर
रहा है,वह सीना तान कर इस मनुष्य विरोधी समय के बरअक्स हत्या और मृत्यु के इस समय में
खड़ी है। शहंशाह आलम की कविताएँ इस कविता विरोधी समय मैं चाहता हूँ खींच निकालूँ
में दृढ़ता के साथ खड़ी होती हैं। इनकी कविताएँ भले कोरे कागज़ हत्यारे को झाड़ी के पीछे से।
पर आकार लेती हैं लेकिन उन्हें किताबों में जीना मंजूर नहीं, यह झाड़ी जो पहले से ही ख़तरनाक थी अब राजपथ पर भी
उनकी इच्छा मजदूर, किसान और आमजन के साथ जीने की है। फ़ैल गयी है। आज पता नहीं झाड़ियों का विस्तार दिन- रात कितनी
तेजी से फ़ैल रहा है और एक दिन हम भी उन झाड़ियों में घिरा हुआ
शहंशाह आलम की कविताएँ इस बेबस,लाचार आएँगे। 'हमारे लोकतंत्र में' उस ख़तरे की आवाज़
कविताविरोधी समय में दृढ़ता के साथ खड़ी बहुत तेज़-तेज़ सुनाई देती है जब लोकतंत्र से लोक का उत्सव
होती हैं। इनकी कविताएँ भले कोरे कागज़ पर विदा ले चुका होता है और दसों दिशाओं से विलाप का समवेत
आकार लेती हैं लेकिन उन्हें किताबों में जीना स्वर फूटने लगा है-
मंजूर नहीं, उनकी इच्छा मजदूर, किसान और हमारे लोकतंत्र में वे
आमजन के साथ बीच जीने की है। कवि हमारे दसों दिशाओं से वे आए
समय की भयावह सच्चाई से सिर्फ़ रूबरू इस सभ्य सभ्यता में
ही नहीं होता बल्कि उससे मुठभेड़ करता है मारे गए लोगों की
और प्रकारांतर से कहता है कि इस बुरे दौर में विधवाओं का विलाप सुनने
प्रतिरोध सिर्फ़ कागज़ी नहीं होना चाहिए,अब
जबकि समाप्त हुआ
वक्त आ गया है कि हम अपनी चौखट से
बाहर निकलें और हत्यारे समय के ख़िलाफ़ लोकतंत्र का उत्सव
अपनी पूरी ताक़त से खड़े हों। इस लोक से कब का
आज का अँधेरा, मुक्तिबोध के अँधेरे से और सघन और

400 n जुलाई से सितंबर 2023 yegh


विस्तारित हो चुका है साथ ही घोर मनुष्य विरोधी हो चुका है,मठ
और गढ़ दिनोंदिन रक्तबीज की तरह फ़ैल रहे हैं। कवि सिर्फ़ विचार
कर नहीं बैठ सकता,उसे मात्र चर्चा कर संतोष नहीं होता। जहाँ
बाक़ी लोग यह सब कर अपने कर्तव्यों का इतिश्री समझ लेते हैं
वहीं कवि उस दुःख और पीड़ा में जीता है। सिर्फ़ कविता लिखना,
कवि होना नहीं है उसे कवि का जीवन भी जीना होता है। शहंशाह
आलम का कवि एक कवि का जीवन भी जीता है। जन से और
मिट्टी से जुड़े कवि की यही पहचान है वह आलोचकों तथा अपने
समकालीनों को खुराक देने वाली कविताएँ नहीं लिखता अपितु
अपने समय-समाज से संवाद करने के लिए कविताएँ लिखता है।
आप 'चावल' नामक कविता से गुज़रिये, आप जान जाएँगे कि
शहंशाह आलम अपने समय के ईमानदार और जनपक्षधरता के
प्रति प्रतिबद्ध कवि हैं। इनकी कविताओं की आँख बारीक़ से बारीक़
सत्य को पकड़ती हैं भले वो अँधेरे में सात बांस अंदर क्यों न हो-
चावल ने रचा कितने शरीर
कितनी आत्माओं को दिया संबल
कितनों को संभावनाएँ
कितने बच्चों को किलकारियाँ
जीवन की लड़ाई में भात बन कर
(चावल,इस समय की पटकथा)
जैसे जीवन की लड़ाई में चावल का भात बन जाना उसका
श्रेय और प्रेय है उसी प्रकार इस कवि की कविताएँ भी हमारी
लड़ाई में हमारी उम्मीद बन जाने की इच्छा से भरी हुई हैं। वे हमारे
साथ-साथ चलना चाहती हैं। किसी कवि के लिए अपनी शैली
ढूंढ लेना एक लम्बी साधना का प्रतिफलन है। शहंशाह आलम जिन्होंने परवीन शाक़िर की नज़्मों को पढ़ा है वे इस कविता के
की कविताओं से गुज़रते आप यक़ीन करेंगे कि इस कवि ने अपनी वितान को क़रीब से समझ सकते हैं। इस कवि की कविताओं के
शैली ढूंढने के लिए दूर तक यात्रा की है उसके पास भाषा की पूंजी कई आयाम हैं। अपने समकाल का शायद ही कोई पक्ष हो जिन्हें
है और कहन का अलहदा तरीका। आपको भाषा में गंगा-जमुनी ये कविताएँ नहीं देखती हैं। इशारे में कोई कैसे कहता है उसे भी
तहज़ीब देखनी हो तो इनकी कविताओं से गुज़र सकते हैं। आप इनकी कविताओं को पढ़ जान सकते हैं। सबसे बड़ी बात है
अपने समय-समाज के साथ शहंशाह आलम जब प्रेम कविताएँ कि अपनी गम्भीर वैचारिक कविताओं के साथ प्रेम कविताओं में भी
लिखते हैं तो चकित कर देते हैं एकदम अनूठा शिल्प और चमक इस कवि की ताक़त देखी जा सकती है। वह सबसे अनूठा प्रेम कर
के साथ वे हमें वे भिन्न आस्वाद के कवि लगते हैं- सकता है,सबसे अनोखी इच्छा रख सकता है और अंततः चुम्बन
देवियों,लौट चलो के निशां छोड़ सकता है-
मैं तुम सबको आज सबसे अनूठा प्रेम मैंने किया
परवीन शाक़िर की नज़्में सुनाऊँगी सबसे अनोखी इच्छा मैंने की
और चाय पीते हुए दर्शकों के बीच सबसे बढ़िया अभिनय मैंने किया
फ़रवरी की इस सुबह को चुम्बन के निशां मैंने छोड़े
हम एक यादगार सुबह बनाएँगी मृत्यु को जीवन में मैंने बदला
(फ़रवरी की सुबह टहलने निकलीं सात अदद लड़कियाँ-इस काठमांडू मैं गया
समय की पटकथा) कलकत्ता मैं घूमा

yegh जुलाई से सितंबर 2023 n 401


शहंशाह आलम के पास विरल अनुभव के
साथ -साथ गहरी आलोचनात्मक दृष्टि है।
इन्हीं कारणों से इनकी कविता एक ओर
वैचारिकता तो दूसरी ओर कलाबोध दोनों
स्तरों पर समृद्ध है। जब आप उनकी कविताओं
से गुज़रेंगे तो आपको मेरी बात पर यक़ीन हो
जायेगा। शहंशाह के पास राजनैतिक कविताएँ
भी हैं जो नारेबाजी से दूर दुख,अफसोस और
एक गहरी उदासी के साथ अपने मुल्क के
निज़ाम को बेपर्दा करती हैं।

अब सत्ता का मतलब सत्ता ही बच गया है और हद तो यह कि


तुम्हारे हठ में मैं रहा
वह निरंतर क्रूर और अमानवीय होती जा रही है। कहीं कोई उम्मीद
तुम्हारी लय में मैं रहा
नहीं दिखती और ऐसे में कवि अपनी कविता शीर्षक 'भाषा में हत्या'
भोर के आकाश में मैं रहा
में कहता है: ‘यह कैसी रुलाई वाली रात है’ और कहने की ज़रूरत
नीले उस शंख में मैं रहा
नहीं यह रुलाई बहुत देर तक पाठक को सुनाई देती है।
(काठमांडू मैं गया कलकत्ता मैं गया,इस समय की पटकथा)
इनकी प्रेम कविताओं में ‘स्मिता पाटिल’ नामक शीर्षक कविता
यह किसी कवि के लिए सौभाग्य की बात होती है कि वह
ज़रूर पढ़नी चाहिए क्योंकि हिंदी फिल्मों के किसी नायिका पर हिंदी
सुनसान राह का पथिक बनना स्वीकार करता है सिर्फ़ इस उम्मीद
में लिखी यह एक उल्लेखनीय कविता है। मुझे नहीं पता इस तरह
में कि वह अपनी लड़ाई लड़े और उसकी पराजय भी जय का पथ
की जीवंत कविता किसी दूसरे कवि ने लिखी हो। जैसे कि कवि
प्रशस्त करे-
के साथ स्मिता पाटिल का साथ वैसा ही है जैसे आम में उसकी
सूखे पत्तों से भरा यह सुनसान रास्ता है
मिठास, गुलाब में उसका गंध और रंग और अनाज में उसका
इस सुनसान रस्ते पर चलते हुए
आदिम स्वाद। इनके पास जॉन एलिया, दीप्ति नवल, गुलाम अली
पत्तों की आवाज़ को सुनता हूँ
पर भी उम्दा कविताएँ हैं। इन कविताओं के बहाने कवि अपने
और अपनी लड़ाई को याद करता हूँ
समय को अर्थ और रंग देने वाले लोगों को शुभकामनाएँ देता है।
जो मुझे हर तानाशाह के विरुद्ध लड़नी है।
आप इसे ऐसे भी समझ सकते हैं कि ये वैसे लोग हैं जो किसी
शहंशाह आलम के पास विरल अनुभव के साथ -साथ गहरी
राजनेता, किसी प्रधानमंत्री से कवि के लिए,हमारी दुनिया के लिए
आलोचनात्मक दृष्टि है। इन्हीं कारणों से इनकी कविता एक ओर
अधिक महत्वपूर्ण हैं। इनकी कविताओं में अपने समय समाज को
वैचारिकता तो दूसरी ओर कलाबोध दोनों स्तरों पर समृद्ध है।
लेकर एक गहरी उदासी है और यह उदासी अकारण नहीं है। जो
जब आप उनकी कविताओं से गुज़रेंगे तो आपको मेरी बात पर
इस दुनिया,अपनी मिट्टी से अजहद प्रेम करेगा वही उदास होगा।
यक़ीन हो जायेगा। शहंशाह के पास राजनैतिक कविताएँ भी हैं
शहंशाह आलम ने अपनी काव्यभाषा लंबे समय तक कविताई
जो नारेबाजी से दूर दुख,अफसोस और एक गहरी उदासी के साथ
के बाद अर्जित किया है। इसमें तत्सम का ठाट है तो उर्दू की
अपने मुल्क के निज़ाम को बेपर्दा करती हैं:
ख़ूबसूरती भी है। इसीलिए इनकी कविता की भाषा ताज़गी और
मेरी जान,
जीवंतता से भरपूर है जैसे खेत में लहराते सरसों तीसी के फूल,वसंत
अपने मुल्क का हुक्मरान
में मोजराए आम। n
कितना तेज बंदा है
संपर्क :पटना
वह अब हमें लूटता भी है तो मो. 7250042924
राष्ट्रहित में लूटता है।

402 n जुलाई से सितंबर 2023 yegh


n आयतन : प्रेमशंकर शुक्ल

हरमेश पूरम्पूर बना रहता है मन-बल जहाँ


राहुल राजेश

प्रेमशंकर शुक्ल हमारे समय के एक ऐसे महत्वपूर्ण पराजित नहीं होगा, जब तक इस पृथ्वी पर कलियाँ
कवि हैं जिनकी कविताओं में जीवन की साँसें फूट रही हैं, कलाएँ सिरज रही हैं जीवन की बगिया में,
महक़ती हैं,श्रम का स्वेद चमकता है और प्रेम का जीवन के आंगन में, जीवन के रंगमंच पर।
राग बजता है। एक वाक्य में यदि अपनी बात कहनी प्रेमशंकर शुक्ल की कविताएँ वैसे तो प्रकट रूप
हो तो कहूँगा कि प्रेमशंकर शुक्ल की कविताओं में में कला अनुशासनों पर केंद्रित कविताएँ हैं। पर थोड़े
जीवन का, इस महाजीवन का महाराग बजता है। और व्यापक फलक पर, थोड़ी और सूक्ष्म दृष्टि से
प्रेमशंकर शुक्ल के कविता-संग्रह 'जन्म से ही जीवित देखें तो ये कविताएँ वस्तुत: महाजीवन की कविताएँ
है पृथ्वी' से अपनी बात शुरू करता हूँ और इसी संग्रह के साथ आगे हैं। महाजीवन के महाराग की कविताएँ हैं। महाजीवन के महारास
बढ़ते हुए अपनी बात रखने की कोशिश करता हूँ। की कविताएँ हैं और मनुष्य के इस महाजीवन में, पृथ्वी के इस
हाँ, सचमुच जन्म से ही जीवित है पृथ्वी। जन्म से अर्थात् जन्मने महाजीवन में, धरती के रोम-रोम के महाजीवन में या फिर बारिश
से। जन्मने से पल्लवों के, शिशुओं के, कलाओं के, सुंदरताओं के। की बूंदों के महाजीवन में या फिर कोयल की कूक के महाजीवन में
जन्म रही हैं सुंदरताएँ फूहड़ता और फरेब के बरअक्स। जन्म रही हैं यह महाराग और महारास कलाएँ ही तो रचती हैं। हाँ, वही कलाएँ
नित नई कलाएँ- नई ऊर्जा और नई आभा के साथ, मनुष्य का मन- जो पृथ्वी के जन्म से ही, मनुष्य के जन्म से ही, शिशु की प्रथम
बल बढ़ातीं। पृथ्वी का मन-बल बढ़ातीं कि- “कलाओं की कोख किलकारी से ही इस महाजीवन का साथ निभाती आ रही हैं। हाँ,
कभी अपनी पृथ्वी को मरने नहीं देती।” हाँ, यह जन्म सनातन सत्य वही कलाएँ जो आदिकाल से ही, अनंत काल से ही पृथ्वी को,
है। शाश्वत सत्य है और यह सत्य, निरंतर जन्म का यह सबसे सुंदर मनुष्य को, जीवन को लय-ताल, सुर और स्वर देती आ रही हैं।
सत्य मृत्यु के विरुद्ध सबसे मुकम्मल, सबसे मजबूत बयान है। हाँ, वही कलाएँ जो जीवन के आरंभ से ही जीवन को संगत देती
इसलिए तो पृथ्वी कभी मृत्यु के चिर तिमिर में एक क्षण के लिए भी आ रही हैं।
विलीन नहीं हो पाती। क्षणांश के लिए भी दृष्टि से, सृष्टि से ओझल यह अनायास नहीं है कि बारिश की बूंदों के जन्म से जन्म लेता
नहीं हो पाती। कि नित, हर क्षण जन्म घटित होता रहता है, जो मृत्यु है टप-टप का मधुर संगीत। दरअसल यह बारिश की बूंदों के जन्म
को पराजित करता रहता है। जिसकी नव-प्रस्फुटित रोशनी मृत्यु के पर धरती के कंठ से स्वत: फूट पड़ने वाला मीठा आदिम लोकगीत
अंधकार को हमेशा हरती रहती है। इसलिए जन्म से ही यानी जन्म है। यह अनायास नहीं है कि कोयल की कूक सुनकर पृथ्वी पर
के कारण ही नित्य निरंतर जीवित रहती है पृथ्वी। और इसी जन्म बरबस उतर आता है बसंत। दरअसल कोयल की कूक विरह का
के बूते हमेशा पूरम्पूर बना रहता है मनुष्य का मन-बल। पृथ्वी का विदारक गीत है, जिसे सुनकर पृथ्वी के पोर-पोर से करुणा फूट
मन-बल भी बना रहता है इसी जन्म से ही। इस संग्रह को पढ़ते- पड़ती है। इसी करुणा के जल से पूरी पृथ्वी एक बार फिर हरी हो
महसूसते, ठहर-ठहरकर इनकी कविताओं को अपने अंतरतम में जाती है। सच कहें तो बसंत पृथ्वी पर विरह और प्रेम की अद्भुत
जज्ब करते कुछ ऐसा ही अंतर्बोध हुआ मुझे। और यह अंतर्बोध ही चित्रकारी है। और यह चित्रकारी केवल प्रकृति तक ही सीमित नहीं
इन कविताओं का असली सामर्थ्य है, जो बिलकुल सूक्ष्म तरीके से रहती। हाँ, बसंत केवल पेड़ पर ही नहीं उतरता। वह महावर की
और सलीके से मनुष्य को यह विश्वास दिलाता है कि यह पृथ्वी, शक्ल में स्त्री के पाँव तक उतर आता है। तभी तो कवि 'पाँव-
यह जीवन तब तक दुखों, विपदाओं, आपदाओं या कि मृत्यु से महावर' शीर्षक कविता में कहता है कि "महावर पाँव पर बसंत है।

yegh जुलाई से सितंबर 2023 n 403


और यह भी कि- कलाएँ हमारे जीवन का शृंगार हैं। आभूषण हैं। जो इस जीवन को
स्त्री और धरती जुड़वाँ हैं सुंदर बनाती हैं और जीने लायक भी। इसलिए कवि इस कविता में
फूल-पत्तियाँ, बेलें धरती के महावर-मन से ही फूटती हैं। आगे कितनी सच्ची बात कहता है-
मैं इसी कविता से अपनी बात आगे बढ़ाते हुए कहना चाहता हूँ भाव से भरा हुआ महावर
कि कलाएँ भी जीवन की, दुख की सहोदर हैं। जीवन के दुखों से अभाव का आभूषण है
जूझने की शक्ति कलाओं की कोख से ही सिरजती हैं। सच तो यह नहीं होता जेवर-गहना
है कि जीवन में दुखों और कलाओं का जन्म एक साथ हुआ है। तो हमारे छोटे-छोटे घरों की औरतें
जितना पुरातन है दुख, उतनी ही पुरातन हैं कलाएँ। कलाएँ जीवन महावर से ही कर लेती हैं
में दुखों से अवकाश उपलब्ध कराती हैं पल दो पल के लिए। अपना साज-सिंगार।
कलाएँ दुखों से विवर्ण हो गए जीवन के चेहरे में रंग भरती हैं। पाँवों की थिरकन नृत्य बनकर उत्सव रचती हैं तो दीवारों
कलाएँ मनुष्य को नवजीवन देती हैं हर दिन। पर, कागज पर, कपड़ों पर, काठ पर, कन्था पर उकेरे गए चित्र
वस्तुत: रंगो के, रेखाओं के, धागों के ही तो उत्सव हैं। मूर्तिकार
(दो) या शिल्पकार जो मूर्ति या शिल्प गढ़ता है, वह दरअसल उसकी
दरअसल, कलाएँ मनुष्य के दुखों की सबसे आदिम अभिव्यक्ति हैं। उंगलियों की लोच का ही तो उत्सव है। सच कहें तो यह कलाएँ
कलाओं में ही मनुष्य अपना सुख सृजित करता है। इसलिए मनुष्य के सुख-दुख की अभिव्यक्तियों के आदिम उत्सव ही तो हैं।
कलाएँ मनुष्य का सबसे आदिम सुख भी हैं। वरना खेतों से लौटकर ये कलाएँ इन्हीं अभिव्यक्तियों के नयनाभिराम क्रिया-रूप ही तो हैं।
लोग गीत गा-गाकर अपनी थकान नहीं मिटाते। श्रम करते वक्त जहाँ मनुष्य का दुख भी रंगमंच पर अभिनय करता नज़र आता है।
लोग गीत गा-गाकर अपनी मेहनत को इस तरह माँजते नहीं। यही दरअसल, दुख ही सारी कलाओं में असली किरदार निभाता है। न
नहीं, साँझ पहर आसमान में अपने-अपने नीड़ों की ओर लौटते पंछी हो यक़ीन तो इस 'किरदार' शीर्षक कविता को पढ़िए, जो संग्रह की
सामूहिक कलरव-गान के साथ लौटते नहीं। वे चुपचाप न लौट पहली ही कविता है-
जाते? गोधूलि बेला में घंटियों के समवेत नाद के साथ गायें क्योंकर एक नाटक का किरदार
लौटतीं? वे सिर झुकाए चुपचाप न लौट आतीं? तो यह साफ है कि नाटक से भाग कर चित्र बन गया
कुछ दिन चित्र में रहक़र
फिर खंडकाव्य में पढ़ा जाता रहा।
महज पंद्रह छोटी-छोटी पंक्तियों की यह कविता बहुत बारीकी से
यह बयान कर देती है कि दुख ही दुनिया की सारी कलाओं-विधाओं
का केंद्रीय स्वर है और यह दुख ही हर जगह अभिव्यक्त होता है,
चाहे वह रंगमंच हो, चित्रकला हो, संगीत हो या फिर शोकगीत।
भले यह दुख हर बार अपना चोला बदल ले, लेकिन यह अंतत:
पहचान ही लिया जाता है-
विधाओं की दौड़-भाग और छुपाछुपी में
वह तो पकड़ा ही न जाता अनगिनत युग

लेकिन मंच पर गाते हुए


गायक के कंठ में फंस गया उसका दुख
जिससे कांप कांप गया किरदार
और शोकगीत भी थरथरा गया हर पंक्ति

शोकगीत में ही सबके सामने


बरामद कर लिया गया किरदार

404 n जुलाई से सितंबर 2023 yegh


यही नहीं, यहाँ हँसिया को उसके प्रचलित
तभी से
प्रतीकार्थ से मुक्तकर उसे एक उच्चतर अर्थ
हर किरदार शोकगीत में जाने से और मान देने का प्रशंसनीय काव्य-विवेक
थरथराता है। भी दिखता है। हँसिया को एक औज़ार के रूप
में न देखकर, एक वाद्य के रूप में देखना श्रम
(तीन) को महज उत्पादन के उपादान के रूप में न
कलाएँ जहाँ एक ओर दुख को सुख में बदलने की एक आदिम देखकर, जीवन के सबसे आदिम उत्सव के
प्रविधि है, वहीं प्रेम की पुकार प्रेयसी तक पहुँचाने में भी कलाएँ ही रूप में देखना है! इस अर्थ में यह कविता श्रम
काम आती रही हैं। जैसे श्रम के संगीत को जीवन-दर्शन में बदलने से संबंधित प्रचलित विमर्श का अतिक्रमण
में आदिकाल से काम आते रहे हैं गीत। प्रेम, पसीना, दुख-सुख, करते हुए, उसे एक आदिम प्रकल्प और कला
हँसी-खुशी, आँसू-मुस्कान- यह सब जीवन के अलग-अलग सुर- के रूप में चिन्हित करती है।
ताल हैं, अलग-अलग रंग-राग हैं, जो कभी सुबह-सवेरे, कभी
दिन-दोपहर, कभी सरे सांझ और कभी आधी रात को- कभी बांसुरी भी अपना ही संगीत है/पसीने के सारे गीत आत्मा के होंठ से फूटते
में, कभी इकतारे में, कभी तानपुरे में, कभी पखावज में, कभी होंठ- हैं/बैलगाड़ी को देखिए न आप-/धड़धड़ाती पूरब से लादे चली आ
बाजा में बज उठते हैं। इस संग्रह से गुज़रते हुए बरबस महसूस होता रही है/खेतों की खिलखिलाहट, सूर्योदय की लाली/और चिड़ियों
है कि कलाओं के बिना जीवन कितना अधूरा होता? कलाएँ न होतीं के गीत के साथ/भरी-पूरी धड़कती हुई एक सुबह।’ इस कविता
तो हमारे दुखों को, हमारे प्रेम को, हमारे संघर्ष को कौन सहेजता? की भाषा तो मोहक़ है ही, इस कविता के बिंब अनूठे और अवाक
संग्रह की दूसरी कविता 'इकतारा' को ही लीजिए- कर देने वाले तो हैं ही; पर इस कविता में हँसिया को जीवन-संगीत
इकतारा फक्कड़ वाद्य है के एक अद्भुत वाद्य के रूप में पहली बार प्रतिष्ठित करना एक
अपने एक तार पर गाता है उच्च कोटि की काव्य-दृष्टि और बहुत ही सूक्ष्म सौंदर्यबोध का
आख्यान, कविता, पद और लोकगीत परिचायक भी है।
यही नहीं, यहाँ हँसिया को उसके प्रचलित प्रतीकार्थ से मुक्तकर
सन्यासियों, फकीरों को बेहद प्रिय है इकतारा उसे एक उच्चतर अर्थ और मान देने का प्रशंसनीय काव्य-विवेक
भी दिखता है। हँसिया को एक औज़ार के रूप में न देखकर, एक
इकतारा से अधिक आंसुओं से भीगा वाद्य के रूप में देखना श्रम को महज उत्पादन के उपादान के रूप
नहीं है अभी तक कोई वाद्य में न देखकर, जीवन के सबसे आदिम उत्सव के रूप में देखना
इकतारा सुनना करुणा सुनना है है। इस अर्थ में यह कविता श्रम से संबधित ं प्रचलित विमर्श का
और बुनना है पूरे मन में उजाले का थान। अतिक्रमण करते हुए, उसे एक आदिम प्रकल्प और कला के रूप
यहाँ और एक उल्लेखनीय और महती बात यह है कि कलाओं में चिन्हित करती है।
के बिना केवल मनुष्य का ही नहीं, स्वयं प्रकृति का भी काम इसी तरह 'बांसुरी' शीर्षक कविता में कवि कहता है- “बांसुरी
नहीं चलता। प्रकृति भी कलाओं की कलाई थामे बिना अपनी चरवाहों का सिरजा वाद्य है/ मुग्ध रहते हैं जिस पर झरने-जंगल-
दिनचर्या भी आरंभ नहीं कर पाती। इस संग्रह की तमाम कविताएँ नदियाँ।” यहाँ भी चरवाहे को सबसे आदिम बांसुरी वादक के रूप
इस बात की गवाह हैं। पर यह बात जिस कविता में सबसे सघन में देखने की उदारता तो है ही; श्रम और उत्पादन, मजदूर और
लालित्य और कलात्मक रूपात्मकता के साथ दृश्यांकित हुई है, मालिक, शोषक और शोषित के आधुनिक औद्योगिक विमर्श से परे
वह है 'जीवन-संगीत' शीर्षक कविता। यह कविता इस संग्रह की जाकर, चरवाहे को प्रकृति के साथ सहजीवन में अपना जीवन-
सर्वाधिक सुंदर और मेरी सर्वाधिक प्रिय कविताओं में से एक है। यापन करने वाले एक विनम्र उद्यमी के रूप में प्रतिष्ठित करने
इसकी पंक्तियाँ, देखिए, किस तरह प्रकृति की पाँखें खोलती हैं- की उदात्तता भी दिखती है, जो आधुनिक हिंदी कविता में अन्यत्र
‘पत्तियाँ धूप का कोई कुनकुना गीत गाती हैं/हवा ताल देती है/घास दुर्लभ है। यहाँ मैं परोक्ष रूप से यह भी इंगित करना चाहता हूँ कि
अपने तानपुरे पर बनाए रखती है स्वर विन्यास/खेत की तरफ जाती कोई माने या न माने, पर मॉडलिंग और मॉडलिंग फोटोग्राफी जैसी
हँसिया/जीवन-संगीत का अद्भुत वाद्य लगती है/खुरपी-कुदाल का आधुनिकतम कलाओं की आरंभिक संकल्पना में भी गाय-बैलों,

yegh जुलाई से सितंबर 2023 n 405


भेड़-बकरियों को हांकने वाले डंडे पर अपनी कमर टिकाकर खड़े की इबारत है कि सही नहीं छप रही है।” इतना ही नहीं, वह
हो जाने वाले चरवाहे-चरवाहिनें और मटकी लेकर मटक-मटक कवियों-कथाकारों को भी कटघरे में खड़ा करते हैं- ‘कथाकार
कर चलने वाली पनहारिनें ही थीं, जो इनकी सबसे आदिम मॉडल कहानी के नाम पर लिख दे रहा है रपट/ झूठ दिन-दोपहर साँच
बनीं। को रहा डपट/ अर्धविराम, अल्पविराम, पूर्णविराम को अवकाश
(चार) पर भेज/ खु‌श हैं युवा कवि कि-/ वे कविता में नए प्रयोग कर रहे
इन कविताओं को हाजिर-नाजिर मानकर मैं बग़ैर किसी लाग-लपेट हैं।’ प्रेमशंकर शुक्ल भाषा के प्रति बहुत सजग और जिम्मेदार कवि
के यह कह सकता हूँ कि प्रेमशंकर शुक्ल इस दौर के सर्वाधिक हैं और इसलिए वह भाषा और कविता के बीच के सूक्ष्म रिश्ते को
कल्पनाशील, कल्पना-प्रवण और अप्रतिम कवि हैं, जिनके पास बख़ूबी समझते हैं। तभी तो वह ‘जुगलबंदी’ शीर्षक कविता में यह
मौलिक भाषा, अनछुआ बिंब-विधान, नैसर्गिक दृष्टि-सामर्थ्य और रेखांकित करते हैं- ‘भाषा के साथ/ कविता की लंबी जुगलबंदी है/
काव्य अनुभूतियों का विपुल संसार तो है ही; उनके पास भाषा को इसलिए भाषा को ठस होंठ छूने से/ कविता को लगती है ठेस।’
बेहद बारीकी से बरतने का देशज शऊर भी है। 'तत्सम तद्भव' लेकिन यह देखना कितना दुखद है कि आजकल लोग भाषा को
शीर्षक कविता में वह स्वयं स्वीकारते हैं- झूठ के भूसे से लगातार ठस बनाए जा रहे हैं। ‘भाषा-दुख’ शीर्षक
खेती किसानी का आदमी कविता में भाषा के इस दुख को वह बहुत बेधक ढंग से व्यक्त करते
तत्सम को तद्भव में रूपांतरित कर लेना हैं- ‘झूठ-कोश ने संक्रमित कर रखा है/ भाषा की श्वासनली/ दुर्बल
आया है पीढ़ियों से मेरे भीतर। हो रही है भाषा/ दिन-रात भाषा को काम करना पड़ रहा है/ सच के
इसलिए तो 'अभिप्राय' शीर्षक कविता में भी वह कहते हैं- बरअक्स और/ विरुद्ध अपनी ही आत्मा के।’ भाषा को दिए दुख के
बहुत भाषा लगाना लिए वह दूसरों को ही नहीं, स्वयं कवियों को भी जिम्मेदार मानते हैं
उचित नहीं है कविता में और यह बात वह स्वयं स्वीकारते भी हैं 'हम कवि' शीर्षक कविता
अर्थ से अधिक अभिप्राय में खुलता है में कि ‘हम कवि/ अपनी भाषा के गुनाहगार हैं।’ इसलिए वह अपने
कविता का मन। इस गुनाह को भरसक कम करने की कोशिश भी करते हैं-
यह तो सोलह आने सच है कि बिना ईमानदारी और मेहनत जितना ही हम
के, भाषा में न तो बनक आती है और ना ही कविता में चमक। प्रेम के रसायन से
सच्चा कवि इस बात के लिए सदैव सजग रहता है कि कभी भी करुणा के जल से मांजते हैं
प्रश्नांकित ना हो पाए उसका कवि-न्याय। इसलिए 'मेहनत मन' हमारी भाषा की धातु
शीर्षक कविता में वह कहते हैं- चमक उठती है वह सहसा
फसलों के हरे होने में किसान के साथ और जी उठता है उसका रेशा-रेशा
चिड़ियों के भी गीत हैं, धूप के भी होता है उतना ही
गीत में मिट्टी, पानी, हवा का ज़रूरी है ज़िक्र हमारा गुनाह भी मुआफ।
नहीं तो प्रश्नांकित होगा कवि-न्याय। प्रेमशंकर शुक्ल भाषा की रवानियत और रवायत- दोनों को
मेहनत करता कवि ही 'पसीने के पराक्रम' को इस तरह पहचान शिद्दत से महसूसने वाले कवि हैं। इसलिए हमारी भाषा की वर्णमाला
सकता है- पसीने का पराक्रम कि हरियाली/ उसके होने का दस्तूर में श, ष और स का एक साथ होना उन्हें सिर्फ़ सुंदर ही नहीं,
है" और यह भी कि- खेत-खलिहान हमारे सबसे पहले तीरथ हैं। मानीखेज भी दिखता है। 'श, ष, स' शीर्षक कविता के अंत में
इसलिए वह कहते हैं– ‘तीनों की अपनी-अपनी धूप है/ अपनी-
(पांच) अपनी ऊष्मा/ लेकिन साथ का उजाला/ भाषा का चरित्र चमकाता
पर ऐसा नहीं है कि प्रेमशंकर शुक्ल अपनी कविताओं में केवल रहता है।’ इसी क्रम में 'तथा' और 'बिंदी-बिंदी' (....) शीर्षक
कलाओं से ही संगत निभाते हैं। वह अपनी कविताओं में अपने कविताओं का उल्लेख यहाँ करना चाहता हूँ, जो इस बात के प्रमाण
समय से भी मुठभेड़ करते हैं और समय की शिनाख्त भी करते हैं कि प्रेमशंकर शुक्ल भाषा में कौतुक ही नहीं रचते, वरन् वह भाषा
हैं। ‘प्रूफ’ शीर्षक कविता इसका सबसे मुखर उदाहरण है और में गहरे पैठते हुए, भाषा को एक नई चमक और नया ध्वन्यार्थ भी
मेरी प्रिय कविताओं में से एक भी। इस महत्वपूर्ण कविता में बेहद देते हैं। 'तथा' शीर्षक कविता की ये पंक्तियाँ देखिए-
बेबाकी से वह कहते हैं- “कितने लोग प्रूफ देख रहे हैं/ पर दुनिया हमारे दोनों होठों के बीच

406 n जुलाई से सितंबर 2023 yegh


आवाज़ के लिए जगह देती हुई
जो जगह है वह 'तथा' है
वाक्य में जहाँ फांक दिखने लगे
सोचना चाहिए 'तथा' अवकाश पर है।

(छः)
लेकिन कविता और आलोचना के आकाश में प्रेमशंकर शुक्ल
की कविताएँ उन्हें बस बिंदी-बिंदी भर जगह पाने की नहीं, बल्कि
पंक्ति-दर-पंक्ति जगह पाने की हक़दार बनाती हैं। ज़मीन से जुड़ा
कवि ही भाषा को मांज पाता है और कविता में सत्य का सामर्थ्य भर
पाता है। सच कहें तो सच्चा आदमी ही सच्चा कवि हो पाता है और
सच्चे कवि की कविता में ही 'सत्यम् शिवम् सुंदरम्' का एक साथ
समावेश हो पाता है। प्रेमशंकर शुक्ल अपनी कविताओं में केवल
सुंदर पंक्तियाँ और सुंदर सत्य ही नहीं रचते, वह सुंदर शब्द और
पद भी रचते हैं। और उनसे यह इसलिए संभव हो पाता है क्योंकि
उनकी कल्पनाशीलता और रचनाशीलता में उनकी मिट्टी की नमी रतिसुख अधिक
भरपूर बनी हुई है। इसलिए तो उनकी भाषा इतनी उर्वर है और
उनकी कविता की फसल में पंक्तियाँ इतनी पुष्ठ। और पंक्तियों अमर
की बालियों में सिर्फ़ अर्थ और अभिप्राय का मीठा दूध ही नहीं भरा रतिताप से
हुआ है, भाषा की खनक भी भरी हुई है। तभी तो वे वह मीरा-मन, पत्थर।
खुशमन, मेहनत-मन, पंक्ति-मन, पूरम्पूर, मन-बल, पुरखुश, मनोभावों का काव्यात्मक विस्तार प्रेमशंकर शुक्ल के अगले
राधा-पाँव, नृत्यलिपि, राग-मुख, हरहमेश, बात-नदी आदि जैसे संग्रह ‘शहद लिपि’ में हुआ है, जो उनकी प्रेम कविताओं का
ढेरों शब्द नए ध्वन्यार्थ के साथ गढ़ देते हैं। और जब कभी उनकी एक विशिष्ट संकलन है। देखिये, इस संग्रह की कविता ‘प्यार
अभिव्यक्ति एकदम घनीभूत हो जाती है तो वह सिर्फ़ सहायक अपरम्पार’ की अंतिम कुछ पंक्तियों में प्रेम का सत्व कितनी
क्रियाओं से ही नहीं, पंक्तियों से भी मुक्त हो जाते हैं। खजुराहो संचेतना से अभिव्यक्त हुआ है-
पर रची गई उनकी इक्कीस कविताएँ इसका अप्रतिम उदाहरण ‘प्यार झुकने की तमीज है
हैं। ये कविताएँ अपनी लघु काया में इतनी सुगठित, सौंदर्यवती और उठने का साहस
और विराट हैं कि इनके शब्द-संयोजन में भी एक लय और वलय प्यार ग्यारह का पहाड़ा नहीं है।’
दिखता है। मानो इन कविताओं में भी पत्थरों को तराशकर खजुराहो और, जिस कविता से इस संग्रह ने अपना सुंदर शीर्षक पाया
की मूर्तियाँ ही उकेरी गई हैं। मेरी दृष्टि में खजुराहो पर रची गई है, उस कविता यानी ‘शहद लिपि’ की अंतिम पंक्तियों के साथ मैं
ये इक्कीस कविताएँ इस संग्रह की सबसे सुंदर कविताएँ हैं और आपसे विदा लेता हूँ; जो जीवन में ही नहीं, वरन् भाषा में भी प्रेम
मेरी सबसे पसंदीदा कविताएँ भी। पहली ही कविता 'रतिप्रिया' की चिर उपस्थिति का विनम्र आह्वान करती है-
का शिल्प देखिए- मूर्तियों में/खजुराहो की/रचा/मनुष्य का मन/ ‘भाषा में पढ़त के लिए शहद लिपि रहे
गहन/रतिस्पर्श से मिला/बहुत मान/मंदिर को। तीसरी कविता मौन की भी रहे मीठी लिपि
'आलोकित' का यह आलोक भी गहिए- और कभी कोई भाषा
रति शिल्प निहारतीं किसी की हत्या नहीं करे।’ n
लजातीं
दसों दिशाएँ संपर्क : जे-2/406, रिज़र्व बैंक अधिकारी आवास,
गोकुलधाम, गोरेगाँव (पूर्व), मुंबई-400063
लाज से खुलता मो. 9429608159

yegh जुलाई से सितंबर 2023 n 407


n आयतन : राजकिशोर राजन

कविता का देशज ठाट


निर्मल चक्रवर्ती

समीक्षा कर्म बहुत सहज भी है और बेहद दुरूह भी। इस कवि के अब तक पाँच कविता संग्रह
समीक्षकों के बारे में एक बहुप्रचलित धारणा यह है प्रकाशित हैं उनमें से एक संग्रह सम्यक संबुद्ध बुद्ध
कि उन्हें महापंडित होना चाहिए और समीक्षा की की महायात्रा पर केंद्रित चर्चित कविता संग्रह भी है
भाषा गुरु गंभीर होनी चाहिए। यह स्थापना आचार्य जिसका नाम “कुशीनारा से गुज़रते” है। “जीवन जिस
रामचंद्र शुक्ल के उत्तरवर्ती ज्ञानी समीक्षकों की धरती का” नवीनतम कविता संग्रह है जिसने कविता
समीक्षा पुस्तकों में प्रतिपादित हुई है। लेकिन डॉ. संग्रहों की भीड़ में अपनी विशिष्ट पहचान बनाई।
रामविलास शर्मा, नामवर सिंह, नन्दकिशोर नवल इस कवि की कविताओं पर इस नवीनतम संग्रह की
जैसे आलोचकों ने उस परंपरा को तोड़ दिया। सहज, सरल कुछ कविताओं को आधार बना कर बात की जा सकती है क्योंकि
भाषा, रचना की हर दृष्टिकोण से ऐसी व्याख्या, जो रचना और यही बात अधिक तर्कसंगत प्रतीत होती है बनिस्बत की हवा में
रचनाकार को पाठकों के मर्म तक पहुँचा दे, यह दायित्व उन्होंने फ़तवेबाजी की जाए जैसे की इन दिनों का चलन है–खाता न बही
बख़ूबी निभाया। यह भ्रांति भी दूर हुई कि समीक्षा साहित्य ज्ञानी जो आलोचक जी कहें वही सही।
लोगों के लिए होता है और इस दुनिया में सामान्य काव्यप्रेमी या इस कवि ने शब्दों की मितव्ययिता पर आद्योपान्त ध्यान दिया
साहित्यनुरागियों की गुंजाइश नहीं। ख़ुद मैंने समीक्षा साहित्य पढ़ने है। इस संग्रह से एक कविता को लें। कविता है “उस भुवनमोहिनी
से तौबा कर ली थी। विदेशी विद्वानों के उद्धरणों से अटे पड़े पृष्ठ। को लिखना चाहता हूँ प्रेमपत्र”, शीर्षक से। प्रथम दृष्टया इसके
एक-एक पैराग्राफ का एक-एक पृष्ठ। पचाना मुश्किल था। मगर शुद्ध रूमानी कविता होने का भ्रम होता है। लेकिन ऐसा है नहीं।
उपर्युक्त समीक्षकों की कृतियाँ पढ़ने पर रुचि इस ओर लौटी। मेरी जीवन के कड़वे,कसैले, रूखे यथार्थ से इसकी पंक्तियाँ यह भ्रम
मान्यता अथवा समझदारी यह है कि समीक्षक होने की पहली शर्त तोड़ देती हैं। वस्तुतः इस निर्मम आर्थिक सामाजिक व्यवस्था में
है– कवि चित्त होना। सिर्फ़ पंडिताई और कुछ मानकों के अलावा शुद्ध रूमानियत,प्रेम के लिए कोई जगह नहीं। यह रचना रोमांस
विदेशी विद्वानों के सहारे किया गया समीक्षाकर्म सुपाच्य नहीं हो की चालू अवधारणा को तार-तार कर एक नई पटकथा लिखती है।
सकता। ऊपर से अगर निजी पूर्वाग्रह हों तो रचना एवं रचनाकार ‘विलाप” कविता में ठोस यथार्थ है, समकालीन सत्य है। लेकिन
के साथ अन्याय ही होता है। बात बिलकुल सीधे ढंग से रखी गयी है। “हत्यारे की चीख” में आम
मैं पांडित्य-शून्य कविता प्रेमी हूँ। शुरू से अंत तक विज्ञान आदमी और ईमानदार बुद्धिजीवी का नपुंसक आक्रोश झलकता है
का विद्यार्थी रहा हूँ परंतु उन्माद की सीमा तक साहित्य प्रेमी रहा पर रचना थोड़ी स्थूल हो गयी है। ‘भगदड़ में छूटी चप्पलें” बेहद
हूँ और अपनी इसी कविचित्त मानसिकता के आधार पर एक सशक्त रचना है, शिल्प और कथ्य दोनों के स्तर पर। “पक रही
महत्वपूर्ण समकालीन कवि की कविताएँ तथा उसकी काव्ययात्रा है कविता” संभवतः संकलन की सबसे दीर्घतम रचना है। ग्राम्य
पर टिप्पणी करने बैठा हूँ। हो सकता है कुछ गलती छूट जाए जीवन से लिए गए बिंबों के सहारे लिखी गयी एक उदासी भरी
या भाषा परिमार्जित न हो लेकिन तटस्थ काव्यरसिक पाठक की कविता है यह। मगर कवि आस छोड़ते नहीं दिखता। “बसमतिया
हैसियत से मैं विचार करूँगा। दरअसल समीक्षा के नियत मानदंड बोली” छोटी सी, मीठी सी रचना है त्रिलोचन की याद दिलाती हुई।
होते हैं और उसका क्षितिज भी सीमित होता है जबकि कविता का मगर इसमें एक चेतावनी भी छिपी है सृजनशील कवियों के लिए।
विश्व असीम है। एक सत्य कि कविता जनसामान्य से दूर होती जा रही है। वह

408 n जुलाई से सितंबर 2023 yegh


अपनी संप्रेषणीयता खो रही है। वैसे पूरे रचना कर्म से गुज़रने पर
कभी त्रिलोचन झांकते दिखते हैं तो कभी केदारनाथ सिंह। दरअसल
हर साहित्यकार के अन्तर्मन पर पूर्वज, अग्रज कवियों की छाप पड़
जाती है और अवचेतन में वह मौज़ूद रहता है। इसे मैं illusion
कहूँगा। बस नकल नहीं होनी चाहिए। मगर राजन ने उपादान, बिंब
अपने रोजमर्रे के जीवन से, अपने गाँव-जवार से, अपनी आँखों
से और दिल से उठाए हैं और हर कविता में यह जाहिर होता है।
देखने का नज़रिया भी उनका अपना है और शैली स्वकीय। कुछेक
को छोड़ उनकी कविताओं में भाषा विधान भी उनका अपना है यह
किसी भी कवि को प्राप्त करना ही होता है वह आज प्राप्त करे या
कल। समकालीन हिंदी कविता में चालू भाषागत बासी मुहावरेबाजी
से बहुत हटकर इनकी भाषा दे'kज ठाट लिए हुए है।
इनकी एक कविता है-“सरसों फूलने के मौसम में” यह कविता
दिल को छू जाती है। गाँव-गँवई की दुनिया, उसका प्राकृतिक
परिदृश्य और गाँवों को छलनी करता अभाव, लोगों के सपने,दुख
सभी मिल जाते हैं यहाँ। “दूब....” कविता में प्रकृति चित्रण
चित्तग्राही बन पड़ा है, लेकिन अभी प्रकृति अप्रासंगिक नहीं हुई है,
भले ही हम उसके सत्यानाश में लगे हैं, यह भी सत्य है। “हमने
बचाया” कविता हर छद्म वामपंथी, पाखंडी क्रांतिकारी ओर ढोंगी वहाँ बिखरते रिश्तों पर कम शब्दों में तीखा व्यंग्य है। राजनीति में
मानवतावादी के लिए पठनीय है। “सुनैना चुड़ीहारिन” बाज़ारवादी आयी विकृति ने कैसे गाँवों की घुलनशील परंपरागत संस्कृति में
संस्कृति और World is a global village की अवधारणा की भी जहर घोल दिया है, इस रचना में नष्ट होती जीवन शैली और
आँधी में ध्वस्त होती मानवीय आत्मीयता, लुप्त हो चली ग्राम्य बदसूरत बदलाव की तस्वीर है जो हमें घनीभूत पीड़ा से भर देती
आंतरिकता की जीवंत रपट है। आनंदमय ग्रामीण जीवन से गायब है। “रसप्रिया” गाँवों के विलक्षण चितेरे रेणु की एक अद्भुत जादुई
हो चुके परिदृश्य की याद दिलाती हुई इस कविता में बड़े आतंरिक, कहानी है। इस मर्मस्पर्शी कहानी की पृष्ठभूमि का बख़ूबी इस्तेमाल
आत्मीय बिंबों का प्रयोग हुआ है जो पाठक के दिलो-दिमाग को कवि ने इस कविता में किया है और वे सफल रहे हैं। सारे किरदार,
छू जाते हैं। एक दुःखद Nostalgia जो यथार्थ है। कविता के गाँव जीवंत हो उठते हैं। “दुनिया की सबसे उदास सुबह” कविता
भाषा सौंदर्य में वस्तुतः गहन अवसाद है। “जिऊँगा जितने दिन, में एक अवसाद, एक हताशा है। परिवर्तनकामी कवि की ऊर्जा,
रहूँगा संग वसंत के” कविता के सहारे आशाओं को जिलाए रखने उसका कवि कर्म भी यहाँ वर्तमान है, लक्ष्यभेद में असफलता से
का भरोसा दिलाती है। “मिट्टी का गुल्लक” रचना भी कोशिश जन्मी हताशा, जब अंततः रचनाकार को यह लगता है कि उसकी
करती दिखती है कि आशाओं के मर जाने का वक्त अभी नहीं रचनाशीलता भी सार्थक न हो सकी जिनके लिए वह रचना कर्म
आया है। “एक तानाशाह...संदेश” कविता अपने सारे आक्रोश करता रहा, उन चरित्रों तक भी वह पहुँच न सका। “ बनते-बनते
के बावज़ूद rheotoric हो गयी है। “हँसिए” छोटी सी कविता बनती है दुनिया” कविता में बदरंग हो रही जिंदगी का दुख तो है
है मगर बात गहरी कह जाती है। वैसे मेरी समझ से लकड़बग्घे मगर पीड़ा उतनी असरदार नहीं दिखती। कुल मिलाकर औसत ही
भी हँस लेते हैं। “मेला से...” एक औरत के लिए पुरुष प्रधान है प्रभाव की दृष्टि से। “यक्षिणी” कविता में यक्षिणी के बिंब के
सामाजिक व्यवस्था और सोच में नारी की वास्तविक स्थिति के सहारे नारी की वेदना और आकांक्षा का प्रभावी चित्रण हुआ है।
यर्थाथ को, तमाम नारेबाजी के बावज़ूद उजागर करता है। “होरी उसकी उसे सही मर्यादा मिलने की आकांक्षा। रोजमर्रे की जिंदगी से
महतो का गाँव” देहातों में फैली भयावह बेरोजगारी, गाँव से रोटी एक मामूली से किरदार को प्रतीक रूप में प्रयोग कुशलता से करते
की तलाश में महानगरों में पलायन, महानगरीय चकाचौंध में हुए राजकिशोर अपनी पूरी बात दार्शनिकता के साथ कह गए हैं,
गुम होते जा रहे गाँवों का वर्तमान और भविष्य, दोनों का यथार्थ जिन्हें हम अनदेखा कर जाते हैं। “इस सच के साथ लौटना” कवि
बताता है। “पधारिए हम्मर गाँव” गाँवों के बदलते चरित्र और के जुझारू तेवर को जाहिर करता है। हालाँकि रचना शब्दशिल्प की

yegh जुलाई से सितंबर 2023 n 409


वैशाख-जेठ में” रचना आकार में छोटी होने कभी परिचित हुआ। “मेरे गाँव का अकेला पोखर” भी ध्वस्त चिन्हों
के बावज़ूद छूती है। हालाँकि वैशाख की जगह की कहानी है और अनायास माफिया बिल्डर राज, सिंडीकेटों की
बैसाख शब्द का प्रयोग होता तो बेहतर होता, याद दिला जाता है। “अपने शहर...लिए” में कैशौर्य के अल्हड़पन
ऐसी मेरी सोच है। “कुर्सियों पर बैठे लोग” को कवि ने जिया है। सचमुच, व्यावहारिक होने या परिपक्व होने
अच्छा व्यंग्य है। पूरी व्यवस्था पर, समाज- में कुटिलता के कैक्टस उग आते हैं जो मानवीयता को छलनी कर
देश के कर्णधारों पर, भ्रष्ट, जड़ व्यवस्था देते हैं। “जानना पिता को जाते-जाते” रचना हमारे मध्यवर्गीय
के सर्वज्ञानी, बड़ बोले पोषकों पर। प्रकृति, पारिवारिक जीवन के रिश्तों पर एक सच्ची टिप्पणी है। “सुस्ताने
सृष्टि की सहजता, उसके स्वरूप को ध्वंस के समय में” एक बेहद आकर्षक, जीवंत शब्दचित्र है। “लौटना”
कर रहे बाज़ारवादी तत्वों के सर्वनाशी चरित्राें गाँव से महानगर और शहर से गाँव वापसी की गाथा है। “आगे
के परिप्रेक्ष्य में संवेदनशील रचनाशीलता की कविता पीछे मैं” कविता में जीवन से कविता का साक्षात्कार है।
“गलना” कविता की सृजन प्रक्रिया उद्घाटित करती है। “शब्द”
बदौलत सपाटबयानी होने से बाल-बाल बची है। “वैशाख-जेठ में” कविता शब्द की शक्ति का एहसास कराती है। “उसकी हँसी” में
रचना आकार में छोटी होने के बावज़ूद छूती है। हालाँकि वैशाख किसी निश्छल खिलखिलाते शिशु की प्रतिच्छवि दिखती है। “दो
की जगह बैसाख शब्द का प्रयोग होता तो बेहतर होता, ऐसी मेरी कौड़ी का आदमी” भी विलक्षण यथार्थ बोध की कविता है। मगर
सोच है। “कुर्सियों पर बैठे लोग” अच्छा व्यंग्य है। पूरी व्यवस्था ऐसी रचनाएँ माँग करती हैं कि पाठक भी थोड़ी यात्रा करे और
पर, समाज-देश के कर्णधारों पर, भ्रष्ट, जड़ व्यवस्था के सर्वज्ञानी, रचना, रचनाकार के मानस क्षितिज तक पहुँचे। “अभी भी....” में
बड़ बोले पोषकों पर। प्रकृति, सृष्टि की सहजता, उसके स्वरूप रिश्तों की सच्चाई है। “पसंदीदा अर्थ” प्रकारांतर से हर व्यक्ति के
को ध्वंस कर रहे बाज़ारवादी तत्वों के सर्वनाशी चरित्राें के परिप्रेक्ष्य अपने-अपने जीवनानुभवों की विशिष्ट पृथक-पृथक दृष्टिकोण की
में संवेदनशील रचनाशीलता की नाकामी और सीमाबद्धता पर बात बात कहती है। “कलेजे में हूक उठती है दोस्त” एक मर्मभेदी रचना
पुरअसर तरीके से रखी गयी है “कागज पर लफ्फाजी” में। “अपने है मृत्यु का मारक अवसाद लिए है, एक यूटोपियन अवधारणा
गाँव की विलुप्तप्रायः नदी के नाम” रचना में बिंबों का सटीक प्रयोग की विकलता का सत्य। “हो सके तो मिलना कभी” की अंतिम
हुआ है और असरदार ढंग से। नदी वस्तुतः पिट रहे गाँवों, गाँवों के पंक्तियाँ लाजवाब बन पड़ी है। साहित्य या कलाकृति में बैठने के
लोगों और नदियों की मिट रही पहचान की गाथा है जो अब देश लिए दिमाग से ज्यादा दिल ज़रूरी है इसके लिए हमें “हो सके
का सार्वजनिक यथार्थ है। नदियाँ रेत के दोहन का स्रोत भर हैं, यह तो बाँचना तुम” कविता ज़रूर पढ़नी चाहिए। “अंतिम ओवर”
सच्चाई है। शब्दचित्र भी बेहद उम्दा है इस कविता में पठनीयता में क्रिकेट को उपादान बनाकर जीवन संघर्ष के सही फार्मूले की
गजब की हैं। “बाज़ार से खाली हाथ लौटते एक वृद्ध को देख कर” तलाश कवि करता है। “दिल्ली की रजाई” आम आदमी के जीवन
में अवसाद का रंग बेहद गाढ़ा है। “कम अक्लों की दुनिया” छद्म के संसाधनों का महानगरों में केंद्रित अवसाद है। समकालीन हिंदी
बुद्धिजीवियों पर करारा व्यंग्य है, कम शब्दों में। “किऊल नदी” कविता के शिखर पुरुष, केदारनाथ सिंह को याद करते हुए लिखी
कुल मिलाकर हमारी सभ्यता के नष्ट होते मानवीय मूल्यों की गयी कविता, “पगडंडियों पर घास बन उगता रहूँगा” पढ़कर बंगला
निशानी है। नदियाँ भी बीमार, रुग्ण हो चली हैं और प्रगति की बाढ़ के दिक्पाल कवि, जीवनानंद दास की ये पंक्तियाँ बरबस याद आ
में आदमी भी बीमार हो रहा है। “सबसे बुरे वक्त में प्रभावी तरीके जाती है, “आबार आसिबो फिरे”, अर्थात फिर आऊँगा लौटकर।
से मानवीय संवेदना के अप्रासंगिक होते जाने की बात कही गयी “होरी महतो का गाँव” कालजयी रचनाकार प्रेमचंद के अमर
है। कविता की यह पंक्ति, “उसे मालूम था ....अच्छा वक्त नहीं किरदारों, होरी, धनिया को सामने लाकर लिखी गयी कविता है।
आता” जबर्दस्त है। “दुनिया का कारोबार” गाँवों के बदलते स्वरूप ये किरदार काल्पनिक भी थे और वास्तविक भी। गाँव तब भी थे,
का बाईस्कोप है। दुनिया में प्रासंगिक होने का भरम पाले गांवों का। आज भी हैं। भले गाँवों के चेहरों पर विकास की पालिश पोतकर
“एक वीरान गाँव में एक घर ढूँढ़ते”, निष्प्राण होते गाँवों की मार्मिक उसके कायाकल्प की लंबी चौड़ी लफ्फाजी का दौर चल रहा है,
कथा बयान करती है। ज्वलंत तस्वीर बनी है। “ख्वाब में मकबूल” लेकिन गाँव-गिराँव की अंतर्दशा आज भी वही है। राजकिशोर जब
संकलन की एक कमजोर कड़ी है। वज़ह यह कि वे चित्रकार कम गाँवों के चित्र शब्दों से उकेरते हैं, कविता सम्मोहक़, जीवंत हो
थे, विवाद पैदा कर सुर्खियों में ज्यादा बने रहने वाले शख्स थे। उठती है। “एदुआर्दो” एक जुझारु, जनवादी कथाकार के तेवर
न उन्हें आम आदमी से कोई सरोकार था, न आम आदमी उनसे की रपट है। आदमी की अमिट जिजीविषा की गाथा है जहाँ ऐसे

410 n जुलाई से सितंबर 2023 yegh


साहित्यकार, कलाकार आइकॉन हो सकते हैं। “जँतसार” एक भूली
बिसरी गँवई जिंदगी के सामान के सहारे जीवनक्रम की निरंतरता
बयान करनेवाली रचना है। “विलोम” में त्रासदी है, उपहासजनित
हल्का व्यंग्य है। “ किसी न किसी दिन...” में अमित आशा है,
प्रकृति के सुंदर रंग हैं, हरियाली है और कवि भी।
राजकिशोर राजन की रचनाओं का सफर तय करने के बाद
किसी भी पाठक को यह अनुभूति सहज ही होती है कि कवि
की जड़ें अपनी माटी में बहुत गहरे धँसी हैं और जड़ों से यह
जुड़ाव ही उसकी रचनाशीलता को पुख्ता बनाता है। एक अद्भुत
उदासी, अवसाद है रचनाओं में जो कहीं से भी कृत्रिम नहीं लगता।
ग्रामीण परिवेश,मामूली गँवई किरदारों का उदात्तरीकरण जो रेणु,
नागार्जुन, त्रिलोचन सरीखे वरिष्ठ रचनाकारों ने बख़ूबी किया था,
उसका अप्रत्यक्ष प्रभाव भी यहाँ झलकता है। मगर कवि ने इन
अमर चितेरों की कहीं से भी नकल नहीं की है, जैसा कविगुरु
के उत्तरवर्त्तियों ने करके बंगला कविता का बेड़ा गर्क कर दिया
था। अपने अग्रज रचनाकारों का प्रभावशाली चित्रांकन अंतर्मन
पर किसी भी संवदेनशील चित्र का गहरा असर छोड़ जाता है और
अंततः रचना कर्म की एक प्रेरक शक्ति साबित होता है। टैगोर पर
येट्स का प्रभाव था और येट्स का संपूर्ण विश्व साहित्य पर प्रभाव
तो सर्वविदित है। राजकिशोर मनोनुकूल चित्र उकेरने में सफल
रहे हैं। यहाँ आक्रोश कम दुःख ज्यादा है, सहज, सरल ग्राम्य
जीवनशैली और सोच के महानगरीय बाज़ारवाद में विलीन होते कविता की बुनियादी शर्त्त उसका कविता होना है और यदि शिल्प
जाने का। हालाँकि एकाध कविताओं में महानगरीय जीवनशैली के ही सबकुछ नहीं तो वक्तव्य भी सबकुछ नहीं। कवि की रचनाओं
भयावह, आदमखोर, अमानवीय चरित्राें को भी राजकिशोर ने उतने में ढाई आखर, अर्थात् प्रेम भी बहुत सकुचाते हुए और यदा कदा
ही सशक्त ढंग से बेपर्दा किया है। ही आया है। संभवतः इसकी वज़ह उनका पारंपरिक ग्राम्य समाज
सबसे सुखद बात यह है कि वे संप्रेषणीयता में कहीं कोई उलटबाँसी में पलना बढ़ना है।
नहीं, एक सादगी है जो कवि हृदय चित्त तक बात आसानी से ले एक बार फिर समकालीन हिंदी कविता में एक बासीपन,
जाता है और यह बात अब समकालीन कविता में विरल है। अगर ऊबाऊपन की हद तक दुहराव देखा जा रहा है। या तो अनबूझ
उलझाव ही श्रेष्ठता का मानक है तो रामचरितमानस को भी हमें पहेली लगती है या सपाट भाषणबाजी। नारों, पोस्टरों को जस
ख़ारिज करना होगा। जबकि स्वघोषित महान समकालीन कवि कविता का तस उतार देने पर कविता रूप, रस, गंध खो देती है और
के अप्रासंगिक होने का मर्सिया गाते हैं, वे भूल जाते हैं कि इसके लिए पाठक श्रोता से उसका तादात्म्य छिन्न हो जाता है। इस मोर्चे पर
सिर्फ़ बाज़ारवादी अपसंस्कृति का हमला ही उत्तरदायी नहीं। राजकिशोर सफल रहे हैं। एक आत्मीयता, सहजता है उनकी भाषा
एक और अच्छी बात यह है कि रचना कर्म के केन्द्र में आम में। अतीत में भी हिंदी कविता को इस समस्या से दो चार होना पड़ा
आदमी को रखने के बावज़ूद कवि ने नारेबाजी और पेास्टरों था और तब धूमिल, रघुवीर सहाय सरीखे कवियों ने जड़ता तोड़ते
को कविताओं का उपादान नहीं बनाया है। जबकि स्वयंघेाषित हुए हिंदी कविता को एक गति दी थी। राजकिशोर राजन यदि इस
जनवादियों, बुद्धिजीवियों की यही घिसी-पिटी तकनीक है निरंतरता को बरकरार रखें तो यह न सिर्फ़ उनके लिए शुभ होगा
अभिव्यक्ति के दूसरी ओर अय्याश पाँच सितारा जिंदगी जीनेवाले बल्कि हिंदी कविता के लिए भी। n
ये छद्म् वामपंथी जनता और टूटते पुराने मूल्यों पर टेसुवा बहाते संपर्क : 261 रवीन्द्र पल्ली, पुरुलिया,
रहते हैं। जहाँ जहाँ कवि ने ऐसा करने की कोशिश की है, वे 24 परगना, प. बंगाल
लड़खड़ाते दिखते हैं और सपाट photenic हो गए हैं। वस्तुतः मो. 9470089999

yegh जुलाई से सितंबर 2023 n 411


n आयतन : रजत कृष्ण

लोहे से बुनी तरल कामनाओं का कवि


पीयूष कुमार

26 अगस्त को जन्मे रजत तो आम बच्चों से ही थे कविता ‘छत्तीस जनों वाला घर’ में वे कहते हैं -
किन्तु 14 साल की उम्र में मस्कुलर डिस्ट्रोफी नामक छत्तीसगढ के
बीमारी का शिकार हो गए जिसका इलाज आज भी एक छोटे से जनपद बागबाहरा में
संभव नहीं है। शरीर की मांसपेशियों ने साथ ही छोड़ छत्तीस जनों वाला एक घर है
दिया! इलाज की हर संभव कोशिशों से भी निराशा जहाँ से मैं आता हूँ कविता के इस देश में
ही हाथ लगी। हाँ, पता ज़रूर चला कि अब रजत
की आयु सिर्फ़ 30 बरस तक की है। इस आघात को यहाँ आने जाने को एक नहीं,
वे और उनका परिवार कैसे सह सका, वही जानते हैं। इस अत्यंत दो नहीं तीन नहीं चार दरवाजे हैं
निराशाजनक स्थितियों में रजत ने अपनी जिजीविषा को प्रबल और घर का एक छोर एक रास्ते पर
किया और अपने कठिनतम जीवन से संघर्ष किया। 14 साल बाद तो दूसरा दूसरे रास्ते पर खुलता है
छूटी पढ़ाई पूरी की। एम.ए. हिंदी प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की। उच्च रजत कृष्ण की लोक दृष्टि का आधार है उनकी कृषक पृष्ठभूमि।
शिक्षा में अनिवार्य राज्य स्तरीय SET परीक्षा पास की। 2009 में समकालीन या कहें हिंदी कविता में किसानों पर कविताओं का
अपनी पीएचडी पूरी की और आज सहायक प्राध्यापक के रूप में अकाल उतना ही है जितना किसान के जीवन में होता आया है।
शिक्षा के क्षेत्र में सेवा दे रहे हैं। किसानों पर कविता के इस अकाल में जो कुछ भी हरियर दिखता
मानवीय अस्मिता और उसके संघर्ष को आंचलिक भावों और है, उनमें रजत कृष्ण की कविताएँ भी हैं। रजत कृष्ण की किसानों
शब्दों से अपनी कविताओं में लाने वाले रजत कृष्ण तीन दशकों से पर पच्चीस से अधिक कविताएँ हैं जो उनकी पृष्ठभूमि के कारण
कविता और साहित्य में सक्रिय हैं। प्रतिष्ठित पत्रिका 'सर्वनाम' के जीवंत, वास्तविक, सरल और सहजता से पेश हुई हैं। उनका
संपादक रजत कृष्ण ने विभिन्न लेखों और समीक्षाओं से साहित्य किसान मेहनतकश तो है ही, दुख तक़लीफ वाला भी है। ‘खेत और
जगत को समृद्ध किया है। विभिन्न साहित्यिक सम्मानों से सम्मानित किसान’ कविता में वह लिखते हैं-
कवि रजत कृष्ण के अब तक दो कविता संग्रह 'छत्तीस जनों वाला हम कहते थे खेत और महक़ उठती थी
घर' (2011) और 'तुम्हारी बुनी हुई प्रार्थना' (2020) प्रकाशित पुरखों के ख़ून पसीने से सीझी भीजी माटी
हो चुके हैं।
रजत कृष्ण की कविताओं में अनुभूति की प्रामाणिकता सिर्फ़ हम कहते हैं खेत
कविता में ही नही, वरन जीवन में भी है। उनके पात्र अपने घर, और झूल आते हैं
पारा-पड़ोस के और देखे-भाले लोग हैं इसलिए उन्हें अपनी कविता अब तो आंखों में
में अप्रस्तुत विधान की आवश्यकता नहीं पड़ती या कम पड़ती है। अपने ही घर की मियार में फांसी पर झूलते किसान
अपनी कविताओं को रजत जिस रागात्मक आवरण और उदात्त तत्वों कीटनाशक पीते बेटे उसके जवान
के माध्यम से जाहिर करते हैं, वह सार्वभौमिक और सर्वकालिक किसान जीवन से रजत कृष्ण की यह आत्मीयता उनके अपने
हैं। अपने कठिनतम जीवन के अँधेरों से गुजर कर निकला उनकी घर से शुरू होती है। उनकी मां, पिता, भाई सबका ताज खेत और
जिजीविषा का प्रकाश पाठक के मन में प्रेरणा भरता है। उनकी खलिहान से जुड़ा है। उनकी एक कविता है, ‘कमइलीन की बेटी’।

412 n जुलाई से सितंबर 2023 yegh


कमइलीन बेटी रजत कृष्ण की अपनी मां है। यह मां इस दुनिया कृष्ण का कवि मन लगातार श्रम और श्रमिक पर विचार करता रहता
की उस हर मां का प्रतिनिधित्व करती है जो जांगर पेरकर, पांच है। इस श्रमिक जगत में भी उनकी कविताओं का ज्यादातर क्षेत्र
कोस से पानी लाकर अपने परिवार को पोसती हैं। इस कविता में खेती के ही मजदूर हैं। उनका जुड़ाव कभी भी इन चिंताओं से विलग
वे लिखते हैं– नहीं होता। 'दो मजदूर', 'आदिम मितान', 'गोधूलि', 'उस आदमी
मेरी मां किसान की बेटी है का जीना', 'तिकड़मी', 'हद', 'जरखरीद बिक्री' आदि कविताओं में
किसानी उसे विरासत में मिली है मजूर और उसकी मेहनत और शोषण का चित्रण है। उनकी कविता
वह जब ब्याह कर आई 'दो मजदूर' में श्रम के बीच के अवकाश को वे देखते हैं और इन
उसके पांव का माहुर शब्दों में महसूस करते हैं– 'आएगा न कोई मुक्तिदाता/'भरम काल'
घर की देहरी पर छूटा से/ निकलें निकलायें/चलो संगी बीड़ी सिपचाएँ/रोम रोम जुड़ायें न/
हाथ की मेंहदी छूटी खेत के मेड़ पर आग दहक़ाएँ।' इसी तरह उनकी एक कविता है, 'बनिहारिनें'। स्त्री
रजत कृष्ण किसानी के कवि हैं और शायद इस विषय मे मजदूर को छत्तीसगढ़ में बनिहारिन कहते हैं। यहाँ रजत कृष्ण श्रम
अनुभूति की विश्वसनीयता लिए हिंदी कविता में अकेले कवि हैं। में नारी का स्थान सुनिश्चित करते हैं-सुख समृद्धि के नाम पर/दिन
इस विषय पर कृषि के आधुनिकीकरण, बाज़ार के दबाव और इन पर दिन/हो रहे हैं बंधुआ जब/ काली रातों के हम/तब श्रम की
सबके कारण छीजती जाती मनुष्यता का दर्द रजत कवि रूप में उजास से/झुका रही होती हैं दिनमान को/अपने कदमों में पूरे के पूरे
महसूस करके उसे पारंपरिक कृषि उपकरणों की पीड़ा के माध्यम ही/बनिहारिनें यह सभी/ हमारे गांव जनपद की।
से व्यक्त करते हैं। उनकी 'मिट्टी काठ और लोहा' कविता के इस प्रतिरोध रजत कृष्ण की कविताओं का मुख्य गुण है। एक कवि
अंश में देखें- का मेयार भी यही है। रजत कृष्ण आम जीवन की कठिनाइयों
सूखे पड़े काठ के सपनों से भी और व्यवस्था जनित अव्यवस्था को बेहतर इसलिए भी पहचानते
लोप होने लगे हैं हैं क्योंकि वे गांव जनपद से तो आते ही हैं, कृषक पृष्ठभूमि से भी
बिंधना पटासी बंसुला और आरी आते हैं। उनकी प्रतिरोधी कविताओं में स्पष्टता और मजबूती अपने
जंग खाये लोहे का मन भी सादे शब्दों में साफ दिखाई देती है। उनके सादे शब्दों की मारकता
होने लगा है भारी उनकी इस कविता ‘पक्षधर’ में देख सकते हैं -
मिट्टी अपना दुःख किससे कहे खंजर हो
किसके कांधे पर सिर रखकर रोये नागरिक के हाथों में
काठ लुहारी लाड़ से विरत हो रही और नागरिक की पीठ ही
इस दुनिया में हो एक मात्र लक्ष्य
कौन सुनेगा लोहे का विलाप! ऐसे वक्त क्या करेंगे आप?
कितना भाव सघन और विरल मानवीयकरण है कृषि से लेकर
कृषि उपकरणों में। जंग खाया लोहा वजन में घटता है पर उसका पहचानेंगे हम
मन भारी है, मिट्टी सबसे ज्यादा धैर्यवान है पर वही दुखी है, काठ खंजर लिए हाथ
को कठोर माना गया है पर उसे भी कंधा चाहिए, लोहे जैसी चीज़ और खड़े होंगे
यहाँ विलाप कर रही है। यह दुर्लभ बिम्ब हैं और संभवतः नवीन भी। जीवन के पक्ष में।
खेत और खेती रजत कृष्ण का आरम्भ और अंत है। 'हार जीवन के पक्ष में बोले गए शब्द
के विरुद्ध', 'बनिहारिनें', 'खेत और किसान', 'आख़िरी दीया', चुभते हैं
'दस्तखत की स्याही में', 'डूबती आंखों में बिटिया', 'महाजन की धारदार खंजर को भी
हँसी', 'खेत', 'धान किसान', 'अगहन की सुबह', 'धान मिंजाई के खंजर चाहे काट ले
दिन', 'खलिहान में', 'सूखे के दिन', 'मिट्टी काठ और लोहा', 'लोहे जुबान हमारी
का विलाप', 'सुकाल में', 'बत्तीस डिसमिल ज़मीन', 'आत्महत्या के हम होंगे पक्षधर
बीच' जैसी तमाम कविताएँ किसानी का हिंदी कविता में दस्तावेज़ जीवन के ही
के रूप में दर्ज़ हैं। जनपदीय और श्रमिक पृष्ठभूमि के कारण रजत हाँ जीवन के ही

yegh जुलाई से सितंबर 2023 n 413


उनकी प्रतिरोधी चेतना को हम उनकी अन्य कविताओं मसलन, हवा-धूप के संबंध को जाहिर करती उनकी एक कविता है, ‘तेरे न
'जड़ की खातिर', 'पेड़', 'पवन', 'पानी', 'आग', 'ज़ख्म की उम्र', होने के दिनों में’। इसमें वे लिखते हैं– ‘तेरे न होने के दिनों में /तेरे
'दंगे के बाद', 'उम्मीद बन खिल उठे सूरज', 'इस बखत शब्द' होने को महसूस कर रहा हूँ / तू मेरे हिस्से की /हवा पानी धूप और
आदि कविताओं में देख पाते हैं जहाँ वे अपनी जिजीविषा के साथ मिट्टी है /तुझसे पक रही है /फसल मेरे जीवन की।’
जीवन के, मनुष्य के पक्ष में हर नकारात्मकता का प्रतिकार करते इसी तरह अपने कठिन समय में भी जीवन के प्रति राग और
मजबूती से खड़े हैं। आशाओं को प्रेम का आलंब लेते नहीं भूलते प्रकृति को, उसके
रजत कृष्ण की कविताओं का वितान और विस्तार स्थानीय से स्पंदन को। इस तरह की कविताओं में रजत कृष्ण के भाव
लेकर वैश्विक है। ज़मीन, जंगल, लोक और इसमें जीवन से युद्धरत कोमलतम अनुभूतियों के साथ आते हैं। यह कोमल भाव उनकी
आम आदमी की व्यथा-कथा उनकी कविताओं में मार्मिकता से इस कविता ‘तुम्हारी बुनी हुई प्रार्थना’ में देख सकते हैं।
व्यंजित होती हैं। एक कवि अपनी हर बात में सृजन की बात पर ओ जलधार मेरी!
केंद्रित रहता है। वह सोचताा है कि नकारात्मकता या जो बात प्रकृति हार-हताशा
के, मनुष्य के विरुद्ध हो, वह कभी न हो। रजत भी यही सोचते हैं। टूटन और तड़कन के
उनकी ‘युद्ध की बात करने से पहले’ कविता का यह अंश देखें - बीहड़ में बिल मे
युद्ध की बात करने से पहले जो मुकाम और रास्ते
देख सको तो खटखटा रहे हैं कुण्डियाँ
युद्धों में मिली बैसाखियों को देखो मेरे पाँवों की
देखो मेरी खातिर बुनी हुई
युगों युगों से भीजकर भारी हो रहे वह तुम्हारी प्रार्थना है
आंचल चुनरी और दुपट्टे को! इसी तरह उनकी एक कविता है, ‘काठ सा समय और एक
वे अंतरराष्ट्रीय स्तर पर समस्याओं को पहचानते हैं और जोड़ी आंखें’। यहाँ भी हम प्रेम को कोमलतम पर सशक्त रूप में
रेखांकित करते हैं। बीसवीं सदी में शीतयुद्ध के बाद शांति कराने देख पाते हैं। रजत की प्रेम कविताओं में एक ठहराव है शांत जल
के नाम पर प्रभुत्व और दुनिया की सामाजिकता-सम्प्रभुता को नष्ट सा। उनके प्रेम में एक साधक की लौ दिखाई देती है। ग़ाैरतलब है
करने वाले अमेरिका के लिए 'अमेरिकी युग' कविता में वे कहते हैं- कि जनपदीय भाषा को बरतने का उनका अंदाज यहाँ हमें ‘हौले
2002 में आज़ाद कराया गया हौल बरता है’ में सहजता से दिखाई देता है- 'उम्र की इस वज्र
अफगानिस्तान को दोपहरी में /काटे नहीं कटता है/काठ सा समय जब/एक जोड़ा
2003 में इराक को आंखें उसकी/याद आती मुझे/और गाने लगता मैं गीत वासंती/एक
ईरान को सीरिया को अहसास दिलाया गया नाम एक मुखड़ा वह/ बाहर कहीं नहीं /भीतर मेरे अखंड ज्योति
ज़रूरत है तुम्हें भी सा/हौले हौले बरता है।'
स्वतंत्र कराने की यह रजत कृष्ण की जिजीविषा और दृढ़ता के कवि हैं। यह
दृढ़ता, और अडिगता उनकी कविता काे एक नया आयाम देती है।
अमेरिकी युग शुरू हुआ यह अडिगता उनके व्यक्तित्व और कविता की अनिवार्य पहचान है।
और शुरू हुई यह उनकी कविता 'उम्मीद बन खिल उठे सूरज' में देख सकते हैं-
नई गाथाएँ गुलामी की काट ली जाए
रजत कृष्ण न सिर्फ़ प्रतिरोध और सरोकारों के कवि हैं बल्कि प्रेम उंगलियाँ हाथों की हमारी
के भी कवि हैं। अपने कृषक परिवेश से इतने संपृक्त हैं कि प्रेम जैसे चाहे कुचल दिए जाएँ
विषय पर भी उनकी कविता खेत, फसल और मिट्टी की उपमाओं अंगूठे पांव के सभी
के साथ लहलहाती है। कविता में यह स्वतःस्फूर्तता उनके प्रेम को चिह्न लिखत के
ज़मीनी बनाती है और सरोकारों से जोड़े रखती है। रजत कृष्ण का मिटाए नहीं जा सकते कभी
कवि इन कविताओं में प्रेम और उसकी निजता को भावसघन रूप में न ही मिटाई जा सकती हैं
जाहिर कर सका है। जीवन की फसल के लिए प्रेम के खाद-पानी, ध्वनियाँ कोई भी

414 n जुलाई से सितंबर 2023 yegh


यात्रा पथ पर दर्ज़ हुए 'एकलव्य' एक पौराणिक पात्र अवश्य था पर वास्तविक रूप में
हमारे पदचापों की! अब भी जीवित है, उसे जीवित रखा गया है। इसी तरह 'इरोम की
रजत कृष्ण की इन तमाम कविताओं में जो ठहराव भरी विकलता हार' कविता आज कितनी प्रासंगिक सिद्ध हो रही, इन पंक्तियों में
है, उस पर उनके निजी जीवन का पर्याप्त असर है। संचरण में देख सकते हैं-
असमर्थ रजत का जीवन प्रेरक है कि कैसे विषम बाधाओं के सिर इरोम की हार
पर पांव रखकर उसे हराया जा सकता है। उनकी प्रबल जिजीविषा मणिपुर विधानसभा चुनाव में
का प्रमाण उनकी कविताएँ हैं जो निराशा के घने अँधेरे में उजाले महज एक प्रत्याशी की हार है
का सूरज बनकर आती हैं। उनकी लिखी कविता ‘अँधेरे की उमर‘ या है लोकतंत्र की बिसात में
साहित्य में आशावाद का एक दस्तावेज़ है। वे लिखते हैं - उन ताक़तों की बड़ी जीत
जब रगों में पसरने लगे जिनके लिए देश हो या राज्य
अँधेरा और साथ छोड़ दे सत्ता कभी सबसे मुफीद काठ होता
दुनिया भर की बिजलियाँ तो कभी भुरभुरी मिट्टी के सिवा
प्रवेश करना अपने भीतर कुछ और नहीं!
वहाँ जल रहे होंगे आज मणिपुर को जलते चार महीने हो रहे हैं और इस ज्वाला
सहस्त्रों दिए में यह आसानी से समझ आता है कि सोलह वर्षों तक जिस जन के
इस अदम्य जिजीविषा का विस्तार उनकी तमाम कविताओं में जनाधिकारों के लिए इरोम लड़ती रहीं, शायद उस जन को उनकी
हमें देखने को मिलता है। संचरण में असमर्थ रजत कृष्ण के शब्दों ज़रूरत थी ही नहीं। क्या यह माना जाए कि वहां जन ने गलती की
में वह तासीर है जो कठिन समय में भी उत्साह जगा दे, हारे हुए को और अब उसका परिणाम आ रहा है? रजत कृष्ण ने यह कविता
फिर से खड़ा कर दे। वह उन कवियों में से हैं जिनके लिखत और 2017 में लिखी थी और इरोम की हार में सन्निहित चिंताओं को
जियत में फांक नहीं है। उनकी कविताओं में यह ईमानदारी सहज जाहिर किया था। यह चिंताएँ विकराल रूप में आज जाहिर हो रही
ही दिखाई देती है। ईमानदार कवि होना इस कवि और कविता हैं। इस लिहाज से इस कविता में यह कवि की दूरदृष्टि का एक
की भारी भीड़ वाले समय में दुर्लभ है। जीवन और साहित्य की बेहतरीन उदाहरण है।
ईमानदारी में वे विष्णुचंद्र शर्मा, मानबहादुर सिंह, गोरख पांडे की रजत कृष्ण की जनपदीय चेतना में कुव्यवस्था के विरुद्ध धीमी
परंपरा के कवि ठहरते हैं। उनकी कविताओं का वितान स्थानीय से सुलगती आग हैं। इस आग में तपकर उनकी कविताएँ कुंदन
लेकर वैश्विक है। उनकी ‘मंडेला की डायरी से’, ‘शर्मिला इरोम होने की यात्रा करती हैं। वे बहुस्तरीय और बहुआयमी जीवन की
की हार’ और ‘रोहित वेमुला का माफीनामा’ कविताएँ इसी श्रेणी जटिलता को देख पाने और जाहिर कर सकने वाले कवि हैं। रजत
की हैं। रोहित वेमुला एक युवा जिसके सपने थे भेदभाव का शिकार कृष्ण की विशेषता है कि वे छोटी संवेदना का एकत्रीकरण कर
होकर अपने जीवन को हार गया। रजत कृष्ण उसकी इस हार को विराट संदर्भोंं को पकड़ते हैं। उनकी कविताएँ महानगरीय भावबोध
विश्लेषित करते हैं, उस भाव मे उतरते हैं और ‘रोहित वेमुला का और जीवन से इतर लोक की सुदीर्घ यात्रा का प्रतिफल हैं। उनकी
माफीनामा’ कविता में जाहिर करते हैं– सभी कविताओं में लोक, जंगल और आम आदमी की व्यथा सरल
मैं एक बार फिर मारा गया सहज रूप में व्यंजित हुई हैं। समकालीन हिंदी कविता की समृद्धि
सफेद सूत से बुने दस्ताने वाले में उनकी कविताओं का बड़ा योगदान है। n
उन्हीं हाथों से
जिसका ज़िक्र हमारे पुरखे संपर्क : सहायक प्राध्यापक हिंदी
प्रायः करते थे उच्च शिक्षा विभाग, छत्तीसगढ़
यह कविता रोहित वेमुला की आत्महत्या और उससे उपजे मो. 8839072306
सवालों का उत्तर देती है और काल के कपाल पर हमेशा के लिए
इस भेदभाव को दर्ज़ करती है। यह इस तरह दर्ज़ होता है कि

yegh जुलाई से सितंबर 2023 n 415


n आयतन : बोधिसत्व

तानाशाह समय के तनाव के मोर्चाकार


भरत प्रसाद

समकालीन हिंदी कविता जो कि पिछले पांच दशकों होगा, आख़िर किस करवट बैठेगा, यह बहुत स्पष्ट
की यात्रा है,यक़ीनन अपनी अधिकतम महत्ता हासिल और घोषित न था,किन्तु कविता में बदलाव साफ
कर चुकी है। इन पांच दशकों में शताधिक महत्वपूर्ण सुना जा सकता था।
कवियों की पीढ़ी निर्मित हु्ई। दशकों में विभाजित नब्बे के दशक में उस अनिवार्य बदलाहट की एक
करके सृजन को परखना वैज्ञानिक दृष्टि नहीं, बल्कि आवाज़ बने बोधिसत्व, जिन्हें उस दशक के एक ज़रूरी
सुविधावादी नज़रिया है। साहित्य के क्षेत्र में विभाजन कवि के तौर पर याद किया जाता है। हम जो नदियों
का आधार दशक नहीं, बल्कि निर्णायक प्रवृत्तियाँ, का संगम हैं (2002), दुखतंत्र(2004),बोधिसत्व
परिवर्तनकामी विचार या युगारंम्भकारी काव्यभाषा एवं नवोन्मेषी के बिलकुल प्रारंभिक काव्य संग्रह हैं। प्रारंभिक यात्रा से लेकर
शिल्प होता है। कई बार अचानक ऐसा नैसर्गिक युग प्रवर्तक आ आजतक बोधिसत्व में जो प्रवृत्ति कायम रही, वह है-राजनीतिक
खड़ा होता है बहती काव्यधारा के बीच,कि अकेले वही अपनी सजगता की धार। जाहिर है-यह बग़ैर वैचारिक पक्षधरता के
दुर्लभ कलम के दम पर नये युग की शुरुआत कर देता है। इस संभव नहीं। और स्पष्ट कहें, तो जो प्रगतिशील नहीं, जनपक्षधर
कसौटी पर समकालीन हिंदी कविता को परखें,तो उसका जन्म नहीं, यथार्थवादी और तर्कप्रिय नहीं वह राजनीति चेतना सम्पन्न
किसी कवि विशेष के हाथों न होकर युगीन सामाजिक, राजनीतिक रचनाकार हो नहीं सकता। क्योंकि राजनीतिक सजगता आती ही
और आर्थिक प्रवृत्तियों के कारण हुआ। बल्कि इस दौर का आरंभ है- देश की दशा पर आकंठ बेचैनी उत्पन्न होने से। कवि की
करने में मनुष्यगत प्रवृत्तियों ने भी निर्णायक भूमिका नहीं निभाई, एक कविता है- ‘सुख सूचक शिलालेख’,जो कि समय के दोहरे,
जो कि रचना के क्षेत्र में बदलाहट का प्रमुख कारण बनती हैं। बहुपरतीय और जटिल राजनीति चरित्र पर मिर्चहा व्यंग्य है। वह भी
समकालीन हिंदी कविता में नब्बे का दशक वह समय है,जब बिलकुल ताजा राजनीतिक चरित्र पर। इसे चरित्र के बजाए व्यापक
साहित्येतर दुनिया में व्यापक बदलाव की ध्वनियाँ स्पष्ट सुनाई भारतीय राजनीति का असली चेहरा कहें, तो अधिक सटीक बैठेगा।
देने लगी थीं। खासकर भूमड ं लीकरण, बाज़ारवाद, उपभोक्तावाद देखिए तीन पंक्तियों को :
और उत्तर पूंजीवाद की आहट। सूचनाक्रांति 20वीं सदी के अंतिम सूचित किया जाता है कि
दशक में एक आकर्षक सनसनी की तरह विश्वप्रिय हो चला प्रजा के दुख से दुखी रहते हैं राजा
था। इसका असर साहित्य की हर प्रमुख विधा पर पड़ना ही था। तो राजा को सुख देने के लिए
सक्रिय कवियों ने कलम संभाली और इस बदलाव की ख़बर प्रजा भूल जाए सब दुख।
अपनी फौरी-आजकल जीवी कविताओं के माध्यम से देने लगे। जो समय की असलियत समझते हैं, जो राजनीति का खेल बूझते
तत्कालीन कवियों की भाषा स्पष्ट: वह न रह गयी,जो धूमिल, हैं, जो नेताओं की हक़़ीकत जानते हैं, उन्हें बताने की ज़रूरत नहीं, कि
कुमार विकल,वेणुगोपाल, कुंवर नारायण और केदारनाथ सिंह की यहाँ राजा कौन है और प्रजा कौन। एक कट्टा, कोहली स्टूडियो, नया
हुआ करती थी। सबसे अप्रत्याशित बदलाव कवियों की भाषा और खेल,खोना चाहता हूँ और त्रिलोचन नये आस्वाद, रंग और रुख़ की
शिल्प में दिखाई देता है। नब्बे का दशक निश्चय ही एक पहचान कविताएँ हैं। इन कविताओं का तेवर अलग, भाव भंगिमा अलहदा
रखने वाला दशक है,जहाँ समकालीन कविता का पुरानापन टूट और शब्द-कौशल सधा हुआ। ‘एक कट्टर’ प्रेम का साहसिक
रहा था,और कुछ नया सा बनता महसूस होता था। वह नया क्या इजहार है। जरा छिपकर, संकोच के साथ,शर्म सहित। इसमें मांसल

416 n जुलाई से सितंबर 2023 yegh


आकर्षण की आवाज़ सुनी जा सकती है। कवि बोधिसत्व इस युवा व्यंग्यात्मा की ख़बर लग जाती है। नयी सदी में जैसे-जैसे लेखक,
भाव को सीधे-सपाट धर देने के बजाए कलात्मक ढंग से पेश करते कवि,आलोचक, कलाकार सत्तापेक्षी होते गये, उसी अंदाज़ में
हैं। यहीं पर कवि की हुनर का इम्तिहान होता है,जिसमें यक़ीनन राजनीति के प्रति हिम्मती तेवरों का अकाल पड़ता गया। ‘साहित्य
वे आगे निकल गये हैं। साहसिक प्रेम कविताओं की बेलीकियत से राजनीति के आगे चलने वाली मशाल है।’ (प्रेमचंद) मौज़ूदा
रिक्त होते मौज़ूदा दौर में ऐसी कविताएँ महत्व रखती हैं। ‘कोहली साहित्यिक दौर में यह कलेंडरी वाक्य बनकर रह गया है,जिसे
स्टूडियो’ कविता में कवि ने बिलकुल नया,व्यापक और रोचक केवल शोभा बढ़ाने के लिए,अपनी कायरता ढकने के लिए इस्तेमाल
विषय जीवंत किया है। आज के मध्यवर्गीय समाज में विवाह परंपरा किया जा सकता है। प्राय: सरकारें सपनों का सौदागर होती हैं, जो
और फैशनपरस्ती के बीच झूलकर रह गयी परिपाटी है। कुंडली का मंचों से जनता की आंखों में सपने बांटती हैं, जो वह कभी पूरा नहीं
मिलान करना,फोटो देखना और दिखाना,लड़की के घर-परिवार करतीं, जिसे जीतने के पहले सौ बार दोहराया है। जनता है कि सौ
और कुनबे का हालचाल जानना,कम से कम दो घंटे के लिए बार हारकर भी 101वीं बार उम्मीद पालती है। बोधिसत्व की यह
ही सही,लड़का-लड़की के बीच देखा-देखी की रस्म निपटा लेना कविता भाजपा सरकार की वादा खिलाफी और हवाई सपनों की
ज़रूरी फार्मेलिटी हो गयी है। इस कविता में बोधिसत्व ने और भी पोल खोल देती है। ‘डरो ऐसे समय में’ कविता जनमन की उस
अनछुए पक्षों को साधने की आकंठ मन से कोशिश की है : सच्चाई को बयाँ करती है, जो इन दिनों सबसे बड़ा अनकहा सत्य
कोहबर में दोनों ने है। जबकि डर व्यक्ति या व्यक्तित्व के स्वतंत्र, स्वस्थ विकास में
एक दूसरे को फोटो से कम सुंदर पाया सबसे घातक रूकावट है।
दोनों को बहुत सुंदर दिखना था कवि का दबा हुआ आक्रोशी स्वर भी यही है,कि सत्ता, व्यवस्था,
दोनों ने कोहली स्टूडियो से फोटो खिंचवाया शासन, सरकार भय के बवंडर पर टिकी है। जो जनता को जितना
दोनों को कोहली स्टूडियो ने सुंदर दिखाया ही अघोषित रूप से भयभीत कर सकता है,वह उतना ही ताक़तवर।
ब्लैक एँड ह्वाइट फोटो से। देखिए कवि बोधिसत्व की तनी हुई पंक्तियाँ-
बोधिसत्व वर्जित विषयों से काव्यार्थ ढूंढ़ निकालने का साहस जैसे हर पेड़ एक जंगल होता है
करते हैं। जैसे कविता- ‘कुछ भी मारो, बस आंख मत मारो।’ जैसे हर बूंद एक समुद्र
यह गहरे, प्रखर और प्रतिबद्ध राजनीतिक दृष्टिकोण की कविता हर कंकड़ एक पर्वत
है, जिसमें कवि ने आंख मारने की आदत के बहाने समसामयिक वैसे ही हर यातना
नंगई, बदमाशी, चालाकी, टुच्चई, दलित हिंसा, निर्लज्ज बेइज्जती एक रुलाई होती है।
और बेखौफ़ सांगठनिक हत्याओं को नग्न करके धर दिया है। कुछ ‘यह एक कील मुबारक हो’ कविता सिर्फ़ कविता नहीं, शब्दों की
वर्ष पहले राहुल गांधी ने एक बैठक के दौरान संसद में आंख क्या शक्ल में खदकता हुआ आक्रोश है। निश्चय ही भारत का वर्तमान
मारी,सियासी बवाल खड़ा हो गया। बस क्या था, कवि बोधिसत्व राजनीतिक दौर भारतीयता की आत्मा को रौंदने का दौर है। जहाँ
ने उसी का बहाना लेकर मौज़ूदा सरकारी व्यवस्था की नाकामी समावेशी स्वभाव खत्म किया जा रहा है,सहिष्णुता की सोच को
और दोहरेपन को निशाने पर ले लिया। वह भी तीर-कमान उठाने मिटाया जा रहा है। जहाँ राष्ट्रवाद का अर्थ है- अघोषित हिन्दू धर्म,
के अंदाज़ में। पूरी कविता अपनी बनावट में सामयिक राजनीति के जहाँ एक रंग,एक पंथ,एक जीवन पद्धति का दबदबा कायम रखने
अध:चरित्र का बारीक पोस्टमार्टम है। देखिए कुछ पंक्तियाँ- की अभूतपूर्व कोशिश जारी है। यह कविता उस ताक़त के विरुद्ध
घेर कर मारो घूर कर मारो खड़ी है,जो भारतीयता, भारतीय स्वभाव और भारत के निर्माणकों
कपड़ा फाड़कर मारो की पहचान मिटाने,जमींदोज़ करने पर आमादा हैं। विकट समय के
घर जलाकर मारो समानांतर खड़े एक सचेत कवि की पहचान भी यही होती है, कि
बच्चा चोर कह कर मारो वह कला, शिल्प, शैली, साहित्यिक भाषा की अतिशय परवाह किए
बाढ़ में डुबोकर मारो बग़ैर चालाक राजनीति को आइना दिखाता है। दो मत नहीं, कि यह
दिन दहाड़े मारो सिर्फ़ कविता नहीं, मौज़ूदा राजनीति का आइना है :
बस आंख मत मारो। एक कील मेरी आंतों में
चंद पंक्तियों की एक और कविता है- ‘अच्छे दिन देखना है, एक कील तुम्हारी जीभ में
साहेब! बताओ किधर देखूं?’ शीर्षक से ही इस कविता में छिपी एक कील संविधान के पृष्ठ पर

yegh जुलाई से सितंबर 2023 n 417


एक कील नए बिहान की दृष्टि पर विश्वास, कौशल, शिल्प और भाषा दी,नयी पहचान कायम करने
बधाई हो! में। एक सजग,संवेदनशील, यथार्थप्रिय कवि विपरीत से गंभीर खेल
आजकल देश में गोडसे बनाम गांधी की बहस छिड़ी हुई है। खेलने का कौशल रखता है। प्रगतिशील चेतना उसे निरंतर लड़ने,
दक्षिणपंथ गोडसे के पक्ष में खड़ा है और शेष भारत गांधी के पक्ष अड़ने, प्रतिरोध करने की एक समर्थ भाषा देती है। इसलिए जो कवि
में। यू़ कहिए कि यह सत्य और असत्य, न्याय और अन्याय, उचित आत्मसंघर्ष में तपा है, प्रतिकूलताओं के बीच इंच-इंच बड़ा हुआ है
और अनुचित, हिंसा और अहिंसा के बीच युद्ध है। गांधी का जीवन और ख़ारिज भरी आलोचना के बीच विकसित हुआ है, उसके भीतर
देश के लिए जीवन उत्सर्ग का विरलतम उदाहरण है,जबकि गोडसे मजी हुई रचनाशीलता का स्रोत कभी सूख नहीं सकता। बोधिसत्व
का कृत्य संकीर्ण स्वार्थ के वशीभूत होकर हिंसा का कुपथ अपनाने की काव्य-ऊर्जा लोगों के बीचोबीच और साहित्य के बाहर है। सूत्र
वाला कदम। कवि बोधिसत्व का शीर्षक भी स्पष्ट है- ‘गोडसे हिन्दू वाक्य में सृजन करना अचूक दृष्टि-लाघव की सिद्धि है,जो दीर्घ
नहीं, सनातनी हत्यारा है।’ दो मत कहाँ, कि गोडसे अब सिर्फ़ अनुभव, मजे हुए चिंतन और सघन भाव श्रम के बूते ही संभव
इतिहास का अपराधी नहीं, बल्कि अपराध की चरम मानसिकता होती है। इतना ही नहीं, जिसने शब्दों से विचार निचोड़ने की दक्षता
और हिंसावादी चरित्र का प्रतीक बन चुका है। आजकल जो भी हासिल कर ली है, जो समय के विस्तार को दर्शन के एक बिन्दु
रत्तीभर गोडसे के प्रति नरम है,वह अन्याय, हिंसा, हत्या, अपराध पर लाकर देख सकता है, वही सूत्र वाक्य का पारंगत रचनाकार
और अमानवीयता के ख़िलाफ़ भी ‘उदार’ है, जिसको मौकापरस्त बनकर निखर पाता है। सदियाँ आयीं, और जा रही हैं। परन्तु कबीर,
कहने में कोई हिचक नहीं होनी चाहिए। मुक्तिबोध ने कहा-चाँद का तुलसी, रहीम, रसखान, बिहारी जैसा शब्द सिद्ध कवि प्रकट न
मुँह टेढ़ा है। अब बोधिसत्व कह रहे हैं-चाँद कच्चा है। कवि दृष्टि हुआ,जिसके एक-एक वाक्य में समूची मानव सभ्यता का अकाट्य
भावानुगामिनी होती है,चेतनाभक्त होती है,अनुभूतियों की एकांत सत्य समाया हुआ हो। बोधिसत्व की कविता है-‘छूना ही पाना है।’
पथिक होती है,और कल्पना की प्रेमिका भी। शायद दुर्लभ आवेग के जिसमें कवि की अपनी सोच का रेंज ध्वनित हो रहा है। यदि उसमें
किसी चुम्बकीय क्षण में कवि ने ऐसे अनजाने बिम्ब को चुना होगा। निहित अर्थों का विस्तार किया जाय,तो निस्संदेह मौलिक निष्कर्ष
एक कविता है-न्यट्रल आदमी। कहने की ज़रूरत नहीं, कि ऐसे निकल कर आएँगे, परन्तु सामान्य पाठक के लिए कवि की मूल
भद्र पुरुषों से हम सबका रोजबरोज सामना होता है। न्यूट्रल आदमी मंशा तक पहुँचना आसान नहीं।
का अपना सुनिश्चित, निर्धारित, फिक्स्ड मनोविज्ञान है। बाहर से यह कविता साबित करती है,कि बोधिसत्व के भीतर अपनी
निष्क्रिय, किन्तु भीतर से परम सक्रिय, बाहर से लगभग मौनी चाचा, समृद्ध दृष्टि को कम से कम शब्दों में उद्भाषित करने की हुनर
किन्तु भीतर से चतुर बाबा। दिखने में निहायत शरीफ, किन्तु भीतर प्रज्ज्वलित है। उत्तर प्रदेश की योगी सरकार बुलडोजर शासन के
की संरचना में मकड़ी के जाल को मात देने वाला। अपनी गूढ़ लिए जानी जाती है, जिसके चलते अनेकों के घर उजड़ चुके हैं
आदत के पीछे उसका अपना एकांतिक तर्क होता, जिससे सहमत और आज भी बेरोकटोक उजाड़े जा रहे हैं। दरअसल यह बुलडोजर
रहने वाला दुनिया का वह अकेला जीव होता है। न्यूट्रल आदमी शासन सत्ता की ताक़त का प्रतीक है। एक संदश े यह भी सत्ता
परम चतुराई की उस हद तक पहुँच गया है,जहाँ मनुष्यता के प्रति जिसे चाहे अपनी ताक़त के आगे झुका सकती है। बुलडोजर एक
सारे नैसर्गिक, सहज, स्वाभाविक जज्बात समाप्त हो चुके होते हैं- शाही मानसिकता का भी प्रतीक है। इसके आगे सही और गलत
देवीपुरा हरियाणा में पड़ता हो सब जमींदोज़ हो जाते हैं। भय,दहशत, बेचैनी और उजाड़ियत का
या आसाम में सिम्बल बन चुका है -बुलडोजर।
भदोही,इलाहाबाद या खेत सराय में ‘इलाहाबाद में निराला’ बोधिसत्व की लंबी कविता है जिसमें
लेकिन न्यूट्रल आदमी आपको मिलेगा ज़रूर। महाकवि के दारुण जीवन के अलक्षित यथार्थ को चित्रमय किया
समकालीन हिंदी कविता में बोधिसत्व का उभार उस दौर की गया है। निराला-ऐसा अपराजेय व्यक्तित्व, जो हार कर हारता नहीं,
गवाही है, जब केदारनाथ सिंह जी समूचे परिदृश्य में प्रतिष्ठित टूट कर टूटने का नाम नहीं लेता, जिसके लिए दुख, स्वभाव में मस्त
होकर एक नयी पीढ़ी का निर्माण करने में लगे हुए थे। रघुवीर रहने की नियति है। जो अपने लिए जीता है नहीं? यह प्रश्न बहुत
सहाय, धूमिल, कुमार विकल के बाद एक ऐसी पीढ़ी,जो सशक्त सरल है। जो चलता है ज़मीन पर,पलता है-अभावों में। निराला तब
कवियों की छाया, दबाव और प्रभाव से मुक्त होकर पहचानी निराला बने,जब जीवन के अंतिम मोड़ पर खड़े थे। बोधिसत्व ने
जाय। कहना ज़रूरी है कि केदारनाथ सिंह न सिर्फ़ ख़ुद सफल हुए कथात्मक शिल्प में निराला को पुनर्जीवित करने का साहस किया
अपनी राह निर्मित करने में,बल्कि अपने बाद की पीढ़ी को भी एक है। देखिए चंद भावपूर्ण पंक्तियाँ :

418 n जुलाई से सितंबर 2023 yegh


उसकी गांठ में कुछ नहीं था कि अयोध्या में बसकर भी
वह किसी को नहीं दे सकता था क्यों उदास थे पागलदास।
कुछ भी पखावज वादक को कवि ने कविता में अविस्मरणीय बनाया ही
आशीष और शाप के सिवा है। सिद्ध किया है कि कविता को जीवित रखने वाली जड़ें अलक्षित
वह बुझ गया था दुनिया में दूर-दूर तक फैली होती हैं। इस कविता में पक्षधरता है,तो
छिन गयी थी उसकी चमक-दमक कि दुनिया में चरित्र-दक्षता भी,ज़मीनी आसक्ति है,तो वैचारिक अडिगता भी। एक
वह आपकी तरह था। निष्ठता है,तो समय के प्रति आकंठ जवाबदेही भी।
इस प्रदीर्घ कविता में कवि ने निराला के अविश्वसनीय रूप से बोधिसत्व की कलम वहाँ समूचे आवेग के साथ बहती है,
विकट जीवन को बयाँ करने की आकंठ शिद्दत से कोशिश की है। जबकिसी चरित्र का साक्षात्कार करना होता है,जब कोई अदद
निश्चय ही यह प्रयत्न निराला के व्यक्तित्व को एकाश्मक बनाने में चेहरा कलम की नोंक पर चढ़ता है,जब कोई गुमनाम कीमती
ज़रूरी भूमिका निभाते हैं, परन्तु ज़रूरी है कहना कि जीवनकथा के आदमी,भीतर पुकार लगाना शुरू कर देता है। दिल्ली पर अनेक
विस्तार मात्र से निराला जैसे रचनाकार का सच मुकम्मल नहीं हो समकालीन कविताएँ हैं। दिनकर की,भगवत रावत की..और अब
जाता। उनके अंतर्बाह्य द्वन्द्व, अलक्षित संघर्ष, पीड़ा,पराजय,अकारण बोधिसत्व की भी। शीर्षक है-‘दिल्ली’ इस कविता में कवि ने दिल्ली
अपमान और अकेलेपन को वाणी देने के लिए मन की अनजानी के निर्ममतापूर्ण माहौल की कठोर ख़बर ली है। दिल्ली सबकी
तहों में, चित्त की गहराई, भावनाओं के एकांत में उतारना पड़ेगा। है,परन्तु किसी की नहीं। दिल्ली में सब आना चाहते हैं, परन्तु
किसी सर्जक का जो यथार्थ बाहर दिखता है,उससे कई गुना ज्यादा दिल्ली किसी को दिल से नहीं लगाती। दिल्ली ज़रूरी है,परन्तु
लावा भीतर बहुत पहले से उबल रहा होता,जिसका एक चौथाई ही दिल्ली के लिए कोई अनिवार्य नहीं। दिल्ली देश का केन्द्र है,किन्तु
ढंग से प्रत्यक्ष दिखाई देता है। दिल्ली के दिल में कोई एक नहीं। बेशक दिल्ली भीड़धानी है। है
अयोध्या के पखावज वादक स्वामी पागलदास पर लिखी गयी राजधानी, किन्तु वहां राजनीति की तहों के नीचे जनतंत्र की सांसें
कविता-पागलदास, बोधिसत्व की प्रतिनिधि कविता है,कह सकते घुटती हैं। ठीक ही कहा बोधिसत्व ने :
हैं, उनकी कविताई का स्मारक,उनके अधिकतम का निचोड़,उनकी दिल्ली बाप दादा के खाएसि
क्षमता का पैमाना और उनके भाव श्रम का मेहनताना। यह कविता दिल्ली थोड़ हँसाएसि
अपने कहन में पारदर्शी, तरल, उष्म और जीवंत है। पागलदास को ढेर रोआएसि
बिना आशिक की तरह चाहे ऐसी कविता लिखी कहाँ जा सकती है? दिल्ली ग जे लौटा नांहि
पागलदास केवल अयोध्या की हदों में बंद थे, बोधिसत्व के हृदय खर कहई संगति नसाई
ने उन्हें अयोध्या से बाहर फैला दिया। पागलदास एक व्यक्ति थे, अब केउ दिल्ली न जाई।
बोधिसत्व ने उन्हें अक्षय व्यक्तित्व बना दिया। पागलदास अनकहे समसामयिक विषयों पर गतिशील, आलोचनाशील,तीक्ष्ण,
नाम थे, बोधिसत्व ने उन्हें स्थायी कहानी बना दिया। यह कविता पारखी निगाह बोधिसत्व की अक्सर कायम रही। खासतौर पर उन
समकालीन हिंदी कविता की ज़रूरी चरित्र कविताओं में याद की विषयों के प्रति, जो राष्ट्रीय, सार्वजनिक महत्व के हों। सामाजिक
जाएगी, कारण कि यह कविता ऐसे चेहरे की आवाज़ बनती है, जो हों या राजनीति के गलियारों से उठे हों। आज की, अभी की, दिन-
आवाज़ बिखेरने की मिसाल थी, लेकिन जिसकी बेमिसालियत को प्रतिदिन की जीवन-भाषा में कविता रचना बोधिसत्व की प्रकृति है।
किसी ने नहीं आंका। देखिए कुछ पंक्तियाँ कविता की : उनके विषय दुर्लभ नहीं, बल्कि उनके प्रति यथार्थवादी दृष्टि बरतने
क्यों उदास हैं आप बनारस में का कौशल अलग है। n
बुद्ध कपिलवस्तु में
कालिदास उज्जयिनी में संपर्क : प्रोफेसर, हिंदी विभाग
फसलें खेतों में पूर्वोत्तर पर्वतीय विश्वविद्यालय,
पत्तियाँ वृक्षों पर,लोग दिल्ली में शिलांग, मेघालय-22
पटना में मो. 9774125265
दुनिया जहान में क्यों उदास हैं
आप सिर्फ़ यहाँ क्यों पूछ रहे हैं

yegh जुलाई से सितंबर 2023 n 419


n आयतन : हरिओम

शब्दों और सुरों का अनंत आकाश


ओम निश्चल

अपनी ग़ज़ल और गायकी दोनों के असर से शब्दों मिलती है। हिंदी लिपि में छपी हुई ये ग़ज़लें हिंदी
में प्राण फूँक देने वाले शायर बहुत कम होते हैं। डॉ. की कही जा सकती हैं– संस्कार इन रचनाओं का
हरिओम ऐसे ही अनूठे ग़ज़लकार हैं जिन्हें सुन कर उर्दू का है। हिंदी-उर्दू की लड़ाई में यह संकलन सेतु
एक बार फिर एजरा पाउंड के इस कथन का कायल का काम करेगा। त्रिलोचन छंदों के साधक थे। बरवै
हुआ कि कविता जब संगीत से दूर निकल जाती है से लेकर अवधी तक में काव्य रचना करने वाले
तो दम तोड़ देती है। उनके सुरों में समां बाँध देने की त्रिलोचन ‘धरती के कवि’ रहे हैं। ग़ज़लें भी उन्होंने
वह कला है जो किसी भी ऊबे हुए चित्त को संसारी बख़ूबी लिखीं। सानेट को भारतीय माटी का छंद
बना दे, दुनिया के जंजाल में डूबे हुए चित्त को रूहानी बना दे। बनाकर अपनाया कि पढ़ते हुए यह कतई न लगे कि यह अंग्रेजी
कहना होगा कि जो सुख और सुकून हरिओम को ग़ज़ल लिखने का कोई विजातीय छंद है। हिंदी के जाने-माने आलोचक परमानंद
और ग़ज़ल गायकी से मिलता है शायद वह सुकून उन्हें और श्रीवास्तव ने उनकी ग़ज़लों को ध्यान में रखते हुए लिखा था कि
कहीं मिलता हो! वे अपनी ग़ज़लें जब से मंच पर और संगीत की हरिओम ने उर्दू की बहरों का इस्तेमाल ज़रूर किया है पर हिंदी
महफ़िलों में परफॉर्म करने लगे हैं, उनकी ग़ज़ल गायकी के दीवानों की प्रकृति उनकी अपनी पहचान है। यह ग़ालिब, मीर और वली
की संख्या में उत्तरोत्तर इज़ाफ़ा हो रहा है। दक्खिनी तक से प्रेरणा लेने के बल पर संभव हुआ है। उनके एक
कविता या शायरी का कोई स्‍कूल नहीं होता। यह प्रकृत उपहार शेर को परमानंद जी ने उद्धृत किया है :
है। प्रकृति का उपहार है। यह कला सिखाई नहीं जा सकती। यह पुरनवा हो उठेंगे सन्नाटे
ख़ुद ब ख़ुद विकसित होती है और परवान चढ़ती है। भीतर कविता शर्त ये है कोई सदा निकले।
उमगने लगे तो यह अध्ययन की एकाग्रता भंग कर देती है क्योंकि डॉ. हरिओम की ग़ज़लें ज़िन्दगी के अनेक भावों, अनुभावों से
शायरी या कविता को खिलने के लिए पूरा वातावरण चाहिए। भरी हैं। वे एक साथ अपने समय से रूबरू हैं तो उसकी विडंबनाओं
सोते जागते कविता के बिम्ब मन में आकार लेने लगते हैं तो बिना पर तंज भी कसते हैं। जीवन से रोमांस वाली संवेदना भी उनके
लिखे नहीं रहा जाता। आज पिछले दो तीन दशकों से जिस तरह यहाँ है तो यथार्थ की वेदना को शब्द देने की कला भी उनमें ख़ूब
समाज में ग़ज़लों के प्रति रुचि बढ़ी है। महफ़िलों में क़द्रदान बढ़े है। गांव के पूरे समाजशास्त्र, अर्थशास्त्र और बात-बतकही को
हैं, इसके पीछे ग़ज़ल का यथार्थवादी होते जाना और मीटर और पूरी तरह अपनी रचनाओं में उन्होंने आत्मसात किया है तभी तो वे
लय के अनुशासन को निभाते हुए यह एक बड़ी वज़ह है। कवि मुँहनोचवा, लबड्डा, भैयाराम, जगधर की प्रेमकथा, मियाँ का रास्ता
होकर ज्यादा दूर समाज में नहीं पहुँचा जा सकता जितना गीतों और किधर है, राजराज की बग्धी, परछाईयाँ, भूसा जैसी कहानियाँ लिख
ग़जलों से। वे अपनी ग़ज़ल समाज में पहुँचा रहे हैं यानी समाज सके हैं। बाज़ार और आज की राजनीति ने किस कदर गांवों को
को दुनिया को और बेहतर बनाने में वे अपने कवि के कार्यभार को बदला है, किस तरह विकास की नकली पटकथाएँ लिखी गयी हैं,
बख़ूबी निभा रहे हैं। पंचवर्षीय योजनाओं का जो हश्र हुआ है, उस सबकी एक घनी
उन्हें अपनी परंपरा का भान है इसलिए ग़ज़लें लिखीं तो अपने दृश्यानुभूति आपको उनकी कहानियों में मिलेगी। डॉ. हरिओम ने
बड़ों की राय की क़द्र भी की। त्रिलोचन ने उनकी ग़ज़लें देख कर बचपन से अपने गांव, देहात को देखा और महसूस किया है और
कहा कि इन रचनाओं में वही भाषा है जिसमें रहीम की झलक

420 n जुलाई से सितंबर 2023 yegh


जब कोई नया रचनाकार गांव को देखता है तो वह किसी सामान्य
व्यक्ति का देखना भर नहीं होता। वह अपने भीतर आलोचना और
जिरह की कसौटी पर रख कर देखना होता है। इन विडंबनाओं से याद है हमें दुष्यंत की वह मकबूल ग़ज़ल
रूबरू होते हुए हरिओम की ग़ज़लों के सूक्ष्म ताने-बाने में ये चीज़ें जो आपातकाल में लिखी गयी अवाम
भी छन कर आई हैं– की एक सच्ची तहरीर पेश करती है। ‘न हो
इस सुबह को सांसों में बसा लीजिए हुज़ूर कमीज़ तो पांवों से पेट ढँकते हैं / ये लोग
ये शाम सितारों की नज़र कीजिए हुज़ूर। कितने मुनासिब हैं इस सफर के लिए।’
थोडी सी धूप घर में बचाना है ज़रूरी हिंदी ग़ज़ल में दुष्यंत कुमार और अदम
मौसम के इस मिज़ाज से कुछ सीखिए हुज़ूर। गोंडवी ये दो हस्ताक्षर ऐसे रहे हैं जिनसे
(धूप का परचम, पृष्ठ 36) सीख कर पीढ़ियाँ बड़ी हुई हैं। ग़ज़लें कैसे
आम आदमी के सुख-दुख का इज़हार
किस साफगोई से वे जैसे गांव-समाज के शोषकतंत्र को बन सकती है, इन दोनों शायरों ने ये सीख
चेतावनी देते हैं- अपनी ग़ज़लों के ज़रिए दी है। हरिओम
ये तुम्हारे ज़ुल्म का इतिहास है के यहाँ समय जिस ख़ूबी से छन-छन
जो यहाँ मज़लूम है मोहताज़ है कर आता है वह यह जताता है कि इस
आपसे ही मुल्क को उम्मीद है ग़ज़लकार ने अपनी रवायत को आत्मसात
आपमें न शर्म है,न लाज है किया है तथा अपनी मौलिकता के साथ
वक्त के आसार कहते हैं यही वह हमारे सम्मुख है।
ये तुम्हारे अंत का आग़ाज़ है।
(धूप का परचम, पृष्ठ 42)
भूख़ की तहरीर लिखती हुई एक और ग़ज़ल के कुछ अशआर- जा रहे हैं, कवि की दृष्टि वहीं सत्य को रोशनी के दायरे में बराबर
उस झोपड़ी में आज भी चूल्हा नहीं जला अनावृत करती रहती है।’ जहाँ तक उनकी ग़ज़लों की संप्रेषणीयता
फ़ाकों से प्यार था या मुक़द्दर का फ़ैसला का प्रश्न है कपिल देव कहते हैं, ‘हरिओम की शायरी को पढ़ते हुए
कुछ जल रहा था गोश्त की मानिंद हर तरफ़ भाषा के किसी ऐसे मुश्किल रास्ते से नहीं गुज़रना पड़ता है जिस
हर हलक़ पे लिखी थी प्यास,पेट पे शोला पर चलते हुए लगे कि यह आम रास्ता नहीं है। वे एक ऐसी भाषा में
घुटनों में पड़े ढोर थे, इन्सां तो नहीं थे अपनी बात कहने का हुनर रखते हैं, जो रोज़ाना के बर्ताव में घिस
लगता था सर उठाने का जज्बा नहीं मिला। कर रवां हो चुकी है।’ (धूप का परचम,पृष्ठ 25)
(धूप का परचम, पृष्ठ 53) ‘धूप का परचम’ के बाद उनकी चुनिंदा शायरी का कलेक्शन
याद है हमें दुष्यंत की वह मकबूल ग़ज़ल जो आपातकाल में ‘ख्वाबों की हँसी’ आया। ‘धूप का परचम’ के डेढ़ दशक बाद
लिखी गयी अवाम की एक सच्ची तहरीर पेश करती है। ‘न हो आए इस संग्रह में उनकी कुछ नयी ग़ज़लें जुड़ीं। पर इस लंबी यात्रा
कमीज़ तो पांवों से पेट ढँकते हैं / ये लोग कितने मुनासिब हैं इस के दौरान वे चुप नहीं रहे। ग़ज़लें बनती रहीं। वे अन्य विधाओं
सफर के लिए।’ हिंदी ग़ज़ल में दुष्यंत कुमार और अदम गोंडवी ये में अपना हाथ रवां करते रहे। साथ ही ग़ज़लों को संगीत के सुर
दो हस्ताक्षर ऐसे रहे हैं जिनसे सीख कर पीढ़ियाँ बड़ी हुई हैं। ग़ज़लें से सजाने का काम भी करते रहे। बिना संगीत की कोई विधिवत
कैसे आम आदमी के सुख-दुख का इज़हार बन सकती है, इन दोनों तालीम लिए वे हारमोनियम पर सरगम साधते हुए ग़ज़लों की
शायरों ने ये सीख अपनी ग़ज़लों के ज़रिए दी है। हरिओम के यहाँ गायकी में उतरे। सच्चा सुर लगाने के लिए तो पूरी उम्र ही गायकी
समय जिस ख़ूबी से छन-छन कर आता है वह यह जताता है कि को दे देनी होती है। हरिओम की आवाज़ में मिठास थी जो उनकी
इस ग़ज़लकार ने अपनी रवायत को आत्मसात किया है तथा अपनी अपनी थी। वे बेहद सधे हुए सुर में गाते थे। यही दीवानगी उन्हें
मौलिकता के साथ वह हमारे सम्मुख है। कथाकार नीलकांत ने गाने की तरफ़ ले आई। गायकी में उतरे तो उसके लिए रियाज़ का
इन ग़ज़लों के बारे में लिखा कि ‘वास्तविकता की ओर हरिओम वक्त भी निकलता रहा। साथ में प्रशासनिक व्यस्तताएँ भी चलती
की उंगली सदैव तनी रहती है। सत्य-असत्य ‍के फ़र्क जहाँ मिटाए रहीं। वे बड़े ओहदे पर थे, अब भी हैं पर अपने होने का पता वे

yegh जुलाई से सितंबर 2023 n 421


अपनी ग़ज़लों में पूछते रहे- तमाम तरह के रंग भरने का हुनर रखते हैं। मन उदास है तो
मेरे होने का पता दे मुझको उदासियों में बह जाने वाली ग़ज़ल, मन खुश है तो जैसे खुशी के
ज़िन्दगी ख़ुद से मिला दे मुझको। परचम लहराने वाली ग़ज़ल, मन आक्रोशित है तो आवेग और
मैं कि तारीख़ का टूटा लम्हा ओज से भरी ग़ज़ल, चित्त प्रेम से मुहब्बत से भरा है तो मुहब्बत
तू कभी मुड़ के सदा दे मुझको। की ग़जल। यानी हर अहसास की शायरी उनके यहाँ हैं। यही हाल
दर्द हो दिल में हँसी होठों पर उनकी नज़्मों का है। ओज, माधुर्य, नेह-छोह, वफ़ा और समर्पण
ये हुनर थोड़ा सिखा दे मुझको। सबके अहसासात उनके यहाँ खिलते हुए दिखते हैं। नरम अहसासों
(ख़्वाबों की हँसी, पृष्ठ 94) को बेहतरीन क़ाफिये रदीफ़ में बांध लेने में उन्हें महारत हासिल
जो अपनी हैसियत के जुनून में यह भूल नहीं जाता कि इतिहास है। गरज़ यह कि वे गाये जाने पर होठों को भी सुकूनदेह महसूस
उनको याद करता है वो इतिहास रचते हैं, इतिहास गढ़ते हैं। जो हों, ऐसे अल्फाज़ को इस नज़रिये से तराशते भी हैं कि वे जैसे
अपने ख़्वाबों की तामीर ख़ुद करते हैं। वे अपनी ग़ज़लों में इस बात एक सांचे में ढले मिलें। मुहब्बत से भीगी हुई संवेदना तो यत्र-तत्र
के सबूत देते हैं कि आदमी को अपनी ख़ुद्दारी नहीं छोड़नी चाहिए। मिलती ही है, कभी-कभी वे जैसे एक एक्टिविस्ट की तरह भी
हमेशा कठिन से कठिन दौर आता है चला जाता है पर हमें उनके अपनी नजमों में पेश आते हैं। ‘ख़्वाबों की हँसी’ में शामिल कई
प्रति शुक्रगुज़ार होना चाहिए क्योंकि ऐसे कठिन दौर ही हमें माँजते नज्मों की ख़ुसूसियत यही है कि वे अपने भीतर इंसानी जज़्बात का
हैं। चुनौतियों से जूझना सिखाते हैं तथा शायर को उसकी ताक़त एक ख़ूबसूरत संसार समेटे हुए हैं और ऐसी शायरी भी जिसे पढ़
का अहसास भी कराते हैं– कर इंसान हरकत में आ जाए–
अगर ये ज़ुल्म ओ तबाही है नागवार तुझे तहज़ीब के ये बासी जुमले
दिलों में सोज़ो-तड़प बेहिसाब पैदा कर। ताबीज़-तरक्की के नुस्खे
ये सब्ज़बाग, छल-छद्म-कपट
वो खो गया है कहीं बेयक़ीन सिम्तों में सब दुश्मन की तैयारी है
नया रक़ीब कोई बहरे-ख़्वाब पैदा कर। जैसे जनता बेचारी है
(ख़्वाबों की हँसी, पृष्ठ 61) ये कारोबार पुराना है
सब सेठों का बैनामा है।
डॉ. हरिओम ने ग़ज़लों के अलावा अनेक नज्में भी लिखी हैं।
एक से बढ़ कर एक। किसी में रिश्तों की तुरपाई है तो किसी में सब लूट-पाट के हथकंडे
मुहब्बत के जज़्बात। उनके भीतर जैसे समाज में होते हुए अन्याय, गद्दी-गद्दी बैठे गुंडे
ज़ुल्म-ओ-सितम के प्रति एक आक्रोश दिखता है। वे शायरी में लोफर-लंपट ठग-बटुक-मार
ज़ाहिल-लहक़ट और मुस्टंडे
ओज, माधुर्य, नेह-छोह, वफ़ा और समर्पण रत्तीभर माल-मलाई को
सबके अहसासात उनके यहाँ खिलते हुए जूता ढोते ये चाटुकार
दिखते हैं। नरम अहसासों को बेहतरीन इनसे ये मुल्क बचाना है
क़ाफिये रदीफ़ में बांध लेने में उन्हें महारत उठकर आवाज़ लगाना है।
हासिल है। गरज़ यह कि वे गाये जाने पर (ख़्वाबों की हँसी, पृष्ठ 160)
होठों को भी सुकूनदेह महसूस हों, ऐसे डॉ. हरिओम आज ग़ज़ल के जिस मोड़ पर हैं, वहां पहुँच
अल्फाज़ को इस नज़रिये से तराशते भी हैं कर उन्हें कोई गुमान नहीं है। बचपन में गाना अच्छा लगता था
कि वे जैसे एक सांचे में ढले मिलें। मुहब्बत
तो फिल्मी गीत गाया करते थे। बाद में ग़ज़लें अच्छी लगने लगीं
से भीगी हुई संवेदना तो यत्र-तत्र मिलती ही
है, कभी-कभी वे जैसे एक एक्टिविस्ट की तो मेंहदी हसन, गुलाम अली, हुसैन बंधु और जगजीत सिंह की
तरह भी अपनी नज्मों में पेश आते हैं। गायकी के मुरीद हुए। वैसा ही गाने की तलब जगी। अभी उन्होंने
नामचीन गायक चंदन दास के साथ एक कन्सर्ट में जुगलबंदी की
जिसे लोगों ने बहुत सराहा। ज़िन्दगी के हर भाव को हरिओम ने
422 n जुलाई से सितंबर 2023 yegh
कहना न होगा कि हरिओम हिंदी की पारंपरिक दुनिया के बेहतरीन कवियों में से एक हैं
जिनका कविता संग्रह ‘कपास के अगले मौसम में’ उनकी कविता को एक नई ऊँचाई देता
है। वे चाहते तो कविता में रम सकते थे, कहानियों से बनी हुई अपनी पहचान को और
उँचाइयाँ दे सकते थे पर अपने भीतर की गायकी की कला को उन्होंने इस संकोच से नेपथ्य
में नहीं रहने दिया कि सार्वजनिक तौर पर गाते बजाते हुए देख कर एक आला ओहदे पर
तैनात अधिकारी के बारे में लोग क्या कहेंगे। कला संगीत व नृत्य को लेकर लोगों के
ख़याल बदले हैं। उन्होंने यह मूलमंत्र पहले ही सीख लिया था कि समाज में कुछ बनना है,
कुछ बदलना है, कुछ नया रचना है तो वह केवल प्रशासनिक ओहदे की सीमाओं में क़ैद
होने से नहीं होने वाला, उसके लिए गीत-संगीत-कला व अदब की धारा में ख़ुद उतरना
और बहना होगा।

अपनी ग़जलों में पिरोया है। जिस तरह के नरम सख्त लफ्ज़ चाहिए सकें। सरस्वती की ऐसी इबादत करने वाले दम्पति कम होंगे जो
ग़ज़लों के कथ्य के मुताबिक उन्होंने भरपूर चेष्टा की है कि शब्द अपने अदब के लोकतंत्र में बैठ कर उन्हें वाक् और अर्थ का अर्घ्य
ग़ज़लों के बोल-बनाव पर भारी न पड़ें। जिस भाव को कितनी ही अर्पित करते हों। मुझे यह कहने में संकोच नहीं कि दो कलाकारों
बार कहा जा चुका होता है उसी या उन्हीं भावों को हरिओम लिख की ऐसी जोड़ी दुर्लभ है जिनके भीतर कला संगीत को लेकर इतना
कर गाकर अपनी ग़ज़लों में एक ताज़गी पैदा कर देते हैं। आप गहरा अनुराग हो। आज देश विदेश में हरिओम जी का आना जाना
मुहब्बत की कितनी ही ग़ज़लें पढ़ या सुन चुके हों, हरिओम को होता है, उनकी गायकी तो नेट के जरिए दुनिया भर में पहुँच ही
सुनते ही सुरों और अल्फाज़ के नये दरीचे खुल जाते हैं। चुकी है, मालविका जी का ख़ुद का जीवन गृहस्थी के साथ-साथ
अब तक उनकी गाई ग़ज़लों के कई अलबम जारी हो चुके लेखन व गायकी को समर्पित है।
हैं– रंग पैराहन, इंतिसाब, रोशनी के पंख, रंग का दरिया और हाल कहना न होगा कि हरिओम हिंदी की पारंपरिक दुनिया के
में ही आया ग़ज़ल और कथक की जुगलबंदी को मुमकिन बनाने बेहतरीन कवियों में से एक हैं जिनका कविता संग्रह ‘कपास के
वाला अल्बम ‘खनकते ख़्वाब’ इन दिनों खासा चर्चा में है। आवाज़ अगले मौसम में’ उनकी कविता को एक नई ऊँचाई देता है। वे
में जगजीत सिंह के बाद लगभग वैसी ही मुलायमियत और वैसी चाहते तो कविता में रम सकते थे, कहानियों से बनी हुई अपनी
ही कशिश पैदा करता चुंबकीय आकर्षण शब्दों के अयस्क में जैसे पहचान को और ऊँचाइयाँ दे सकते थे पर अपने भीतर की गायकी
एक अपूर्व चमक भर देता है। एक धात्विक खनक सी उठती हुई की कला को उन्होंने इस संकोच से नेपथ्य में नहीं रहने दिया कि
उनकी आवाज़ दूर से जैसे पुकारती हुई लगती है। अपने अशआर सार्वजनिक तौर पर गाते बजाते हुए देख कर एक आला ओहदे पर
के सम्मोहन में बांध लेने वाले हरिओम जीवन के एक-एक लम्हे तैनात अधिकारी के बारे में लोग क्या कहेंगे। उन्होंने यह मूलमंत्र
को पूरी तृप्ति के साथ जीते हैं। लोग आते हैं जाते हैं पुस्तकें आती हैं पहले ही सीख लिया था कि समाज में कुछ बनना है, कुछ बदलना
जाती हैं और कहीं गुमनामी में खो जाती हैं पर एक सधे हुए लेखक है, कुछ नया रचना है तो वह केवल प्रशासनिक ओहदे की सीमाओं
कवि ग़ज़लगो की आवाज़ कभी फीकी नहीं पड़ती। उसकी तहरीर में क़ैद होने से नहीं होने वाला, उसके लिए गीत-संगीत-कला व
कभी धुंधली नहीं पड़ती। अपने पूर्वजों का एक ऐसा संस्रकरण बन अदब की धारा में ख़ुद उतरना और बहना होगा। वे गीत-संगीत की
जाता है जिसके आईने में कुलशीलता का पूरा इतिहास पढ़ा जा अजस्र धारा में पहले ही उतर चुके हैं और अब वे उस प्रवाह का
सकता है। हरिओम ने अपने भीतर और इर्द-गिर्द अदब व मौसिकी हिस्सा बन गए हैं जिस प्रवाह की अबाध कड़ी में अहमद फराज़,
की दुनिया केवल अपने लिए नहीं एक और शख्स के लिए बसाई बशीर बद्र, वसीम बरेलवी और निदा फ़ाज़ली जैसे शायर, मेहदी
है और वह हैं मालविका। उनकी पत्नी, लेखिका व गायिका भी। हसन, ग़ुलाम अली और जगजीत सिंह जैसे गायक शुमार किए
अपनी धुन में खोयी खोयी सी रहने वाली मालविका भी कला का जाते हैं। 'उनकी ग़ज़लों को पढ़ कर ही उनके भीतर के कलाकार
मोल जानती हैं तभी तो उन्होंने अपने जीवन के लिए हरिओम जैसे को ठीक-ठीक पहचाना जा सकता है। n
आज़ाद ख़याल शायर का वरण किया कि घर घर भी रहे और कभी संपर्क : जी-1/506 ए, उत्तम नगर, नई दिल्ली
कभार महफ़िल भी हो जाया करे जहाँ बैठ कर दोनों रियाज़ कर मो. 08447289976

yegh जुलाई से सितंबर 2023 n 423


n आयतन : प्रेम रंजन अनिमेष

मनोभावों के कुशल चितेरे


चेतन कश्यप

किसी कवि की नयी रचनाओं को पढ़ने से पाठक के साथ’ अभी पुस्तकाकार प्रकाशन की प्रक्रिया में है।
का अनुभव-संसार कुछ और समृद्ध होता है, उसकी ‘कोई नया समाचार’ जहाँ सृष्टि के नवागतों, यानी
समझदारी थोड़ी और बढ़ती है। बल्कि एक ही बच्चों को केंद्र में रखकर लिखी गयी कविताओं का
कविता को बार-बार पढ़ने पर उसमें नये अर्थ दिख संग्रह है तो ‘संगत’ पिता के अंतिम दिनों के सानिध्य
जाते हैं। कुछ अरसा पहले प्रेम रंजन अनिमेष की का सृजनात्मक अभिलेख। ‘माँ के साथ’ के केंद्र में
प्रकाशित पुस्तकों को पढ़ने का मौक़ा मिला और तो माँ है ही, जिसके विषय में कवयित्री अनामिका
उनकी कविताओं की रागात्मकता और आत्मीयता कहती हैं -“हर किसी को इस पुस्तक को अवश्य
ने बाँध लिया। उसके बाद सुयोग जुटा और उनके अप्रकाशित पढ़ना चाहिए, क्योंकि इसके प्रत्येक पृष्ठ से गुज़रना गहन अनुभव
कविता संग्रहों को भी पढ़ने का अवसर मिला। साथ ही साथ और संवेदनाओं से संपृक्त समृद्ध होना है और पहले से कहीं अधिक
उनके पूर्व-प्रकाशित संग्रहों को दोबारा देखने का भी संयोग बना। मानवीय!” ये तीनों संग्रह संबंधों की आत्मीयता और उष्णता को
दरअसल उनकी जितनी कविताएँ पुस्तकों के रूप में प्रकाशित हैं, बहुत शिद्दत के साथ महसूस कराते हैं। भले ही ‘कोई नया समाचार’
उससे कम-से-कम दोगुनी अभी प्रकाशित होनी हैं। इससे उनकी और ‘संगत’ के केंद्र में ‘माँ’ नहीं है, उसकी मौज़ूदगी दोनों संग्रहों
सक्रिय रचनाशीलता का अंदाज़ा लगाया जा सकता है। उनके में भी बहुत प्रमुखता के साथ है। माँ की उपस्थिति को समझने के
पहले ही काव्य-संग्रह ‘मिट्‍टी के फल’ के ब्लर्ब पर सुप्रसिद्ध कवि लिए ‘संगत’ की ' विषयांतर' शीर्षक कविता द्रष्टव्य है–
केदारनाथ सिंह ने लिखा है– “उनका काव्य मानस ऐसे चकित- पिता पर लिखता
विस्मित करने वाले दैनंदिन बदलावों को चुपचाप दर्ज़ करके चलने और लिखते-लिखते
वाला एक ऐसा संवेदनशील यंत्र है, जिससे मामूली से मामूली अंतत: हो जाती वह
हरकत भी नहीं छूटने पाती।” निश्चित तौर पर कहा जा सकता है माँ की कविता
कि यह ‘यंत्र’ आज तक एकदम सुचारू रूप से काम कर रहा है। इन तीन संग्रहों के अलावा कवि के आने वाले दो संग्रह ‘स्त्री
कवि अनिमेष की कविताओं से गुज़रते हुए सहज ही यह सूक्त’ और ‘नींद में नाच’ भी स्त्री जीवन पर आधारित हैं। 2018
लक्षित किया जा सकता है कि उनकी कविताओं में मनुष्य ही में प्रकाशित बच्चों के लिए कविता संग्रह ‘माँ का जन्मदिन' में भी
नहीं, मानवेतर प्राणियों और वस्तुओं को भी बहुत ही आत्मीयता के माँ उपस्थित है। ‘स्त्री सूक्त’ में स्त्री का विवाहोपरांत जीवन है तो
साथ स्थान दिया गया है। अनिमेष जीवन जगत की हर धड़कन ‘नींद में नाच’ की कविताएँ मुख्यतः उसके विवाह के पूर्व के जीवन
को अपनी कविता में दर्ज़ कर लेना चाहते हैं। दैनंदिन व्यवहार की से संबंधित हैं। स्त्री-जीवन को इतने विस्तार से अपनी रचनाओं
इतनी सारी बातों पर कविताएँ तभी संभव हुई हैं। स्त्री की उपस्थिति में जगह देने वाले कवि कम ही होंगे। उसके विविध रूपों और
उनकी कविताओं का मुख्य स्वर है, यह आसानी से कहा जा सकता विशेषकर उसके मातृस्वरूप की अनेकानेक हृदयस्पर्शी छवियाँ हैं
है। ग़ौरतलब है कि उन्हें प्रतिष्ठित भारतभूषण अग्रवाल पुरस्कार भी अनिमेष की कविताओं में। ‘माँ के साथ’ संग्रह की एक बहुत छोटी-
उनकी कविता ‘इक्कीसवीं सदी की सुबह झाड़ू देती स्त्री’ के लिए सी कविता ‘उपस्थिति’ ध्यातव्य है–
मिला। अनिमेष अपने तीन संग्रहों-'कोई नया समाचार', 'संगत' गेंदड़े में खुँसी है सूई
और 'माँ के साथ' -को ‘आत्मीयता की 'वृहद्‍-त्रयी’ कहते हैं। ‘माँ माँ होगी

424 n जुलाई से सितंबर 2023 yegh


यहीं कहीं... हल्की झींसी-सा एक धुँधलापन महसूस होता है। ये कविताएँ जीवन
इस कविता की सिर्फ़ तीन पंक्तियों में माँ साकार हो उठी है। की कोमलता, उसमें उपस्थित प्रेम के साथ कठोर यथार्थ से हमें
लोकभाषा से उठाया गया शब्द ‘गेंदड़ा’ कविता को लोकगीत के परिचित तो कराती ही हैं, साथ ही ‘स्थापित ऑर्डर’ के ख़िलाफ़
पास ले जाता है। लोकगीत से समीपता को इसी संग्रह की इन विरोध भी दर्ज़ करती हैं। ‘कोई नया समाचार’ की ‘महक़’ शीर्षक
पंक्त्तियों में भी देखा जा सकता है– कविता दर्ज़ हुए इस विरोध की तस्दीक़ करती है– ‘अब जो चूमता
हाड़ हुई अब ठठरी रे हूँ उसे/ होठों से नहीं लगती/ कच्चे दूध की महक़ /अब वहाँ /
खुलने को यह गठरी रे... अकसर मिलती है/ बारूद की महक़।’ इसी तरह ‘माँ के साथ’
संग्रह की इसी शीर्षक की कविता के ये सारगर्भित अंश देखे जा
कहाँ कहाँ से उधड़ी रे सकते हैं–
जीवन की यह कथरी रे... पर अब जितनी देर
अनिमेष की स्त्रीपरक कविताओं में नारी के त्याग, करुणा और सूखता रहता गेहूँ
संघर्ष के स्वर तो हैं ही, समय व समाज से जूझने और उसे बदलने मैं डरता हूँ
के हौसले की अनुगूँज भी है। ‘स्त्री सूक्त’ और ‘नींद में नाच’ संग्रह
के दो अंश द्रष्टव्य हैं। पहले ‘स्त्री सूक्त’ की ‘नवरूप’ कविता की कैसा डर? किससे डर?
पंक्तियाँ– इस दुनिया को भी /अच्छी तरह /धोने की ज़रूरत है... पूछती है चिड़िया पूछती गिलहरी
‘नींद में नाच’ की ‘नये ज़माने की लड़की’ शीर्षक कविता का
यह अंश भी ध्यातव्य है– अंदेशा होता है
कि अपनी धुन में लड़कियाँ कि देख साफ़ मोतियों सरीखे
रस्सी फलांग रही हैं चमकते झलकते दाने
सीढ़ी फलांग रही हैं कोई लड़ाकू विमान हड़हड़ाता
बारूद गिराता न गुज़र जाये
घेरे लाँघ रही हैं
दीवारें लाँघ रही हैं कि जब तक
फैला है पुरानी सादी चादर पर गेहूँ
और तुम चौखट की बात आसमान से शुरू न हो जाये तेज़ाब की बारिश
कर रहे हो...! अनिमेष की कविताओं में उपस्थित आत्मीयता और रागात्मकता
लंबे अरसे से रंगमंच पर सक्रिय लेखक अनीश अंकुर की चर्चा से धारणा बन सकती है कि कवि सिर्फ़ उज्ज्वल और मधुर
अपनी किताब ‘कलाओं के तीन शिखर’ में विश्व प्रसिद्ध पेंटिंग पक्षों पर ही अपनी नज़र ले जाता है, जबकि ऐसा है नहीं। ‘महक़’
‘मोनालिसा’ के विषय में बात करते हुए लिखते हैं- “लियोनार्दो और ‘माँ के साथ’ सरीखी कविताओं के उदाहरण यह बताते हैं कि
ने एक ऐसी तकनीक विकसित की, जिसे ‘स्फूमातो’ के नाम से कवि सजग है, उसकी आलोचनात्मक दृष्टि जाग्रत है और सधे हुए
जाना जाता है, जो चित्रों पर धुँधला प्रभाव डालता है। ..‘स्फूमातो’ शब्दों में प्रतिरोध के स्वर भी हैं। संभव है, कविता की भाषा उतनी
प्रभाव रूपरेखा को धुँधला बना देता है, लेकिन इससे चेहरा स्पष्ट नुकीली, वैसी तीखी न लगे, लेकिन प्रभाव उतना ही सशक्त है।
और यथार्थवादी तो होता है, पर साथ ही एक रहस्य का भी आवरण अपने पहले संग्रह ‘मिट्टी के फल’ से ही अनिमेष की कविता में
बन जाता है। ...इस चित्र में हमें छुपी-दबी हुई भावनाओं का प्रतिरोध के स्वर को सुना जा सकता है। उनके आने वाले संग्रह
एहसास मिलता है। ये भावनायें ख़तरनाक मानी जाती हैं, क्योंकि ‘ऊँट’ की एक छोटी-सी कविता है ‘पदातिक’। अपने लघु आकार
ये स्थापित ऑर्डर के ख़िलाफ़ विद्रोह के रूप में देखी जाती हैं।” में भी कविता एक बेधक टिप्पणी करती है आज की मौक़ापरस्त
कवि अनिमेष के तीन संग्रहों– ‘कोई नया समाचार’, ‘संगत’ और राजनीति पर– ‘अचकचाये/रेगिस्तान के दौरे पर आये/राजनेता/
‘माँ के साथ’ की कविताओं को पढ़ने के बाद यह महसूस होता ऊँट को देखते/यह कौन/जो बिना किसी राजनीतिक उद्देश्य के/किये
है कि इन कविताओं में भी ‘स्फूमातो’- सा प्रभाव है। कविताओं जा रहा/अनंत पदयात्रा...?’
में उपस्थित संवेदनशीलता और भावनाओं के कारण उसमें बहुत आसपास की अर्थहीनता और निरर्थकता को दर्ज़ करना भी कवि

yegh जुलाई से सितंबर 2023 n 425


का प्रतिरोध है। ‘साइकिल पर संसार’ संग्रह की ‘अनर्थ’ शीर्षक महामारी के मार
कविता की ये पंक्तियाँ द्रष्टव्य हैं– जीने मरने के लिए
कुछ कहा नहीं जा सकता प्रेम रंजन अनिमेष की कविताओं में आख्यान या कथा सूत्र की
कुछ भी हो सकता इस दुनिया का उपस्थिति तो है ही, उनकी अनेक रचनाओं में कल्पना या ‘फैंटेसी’
इस दौर में इस समय के उपयोग को भी देखा जा सकता है। ‘रूसी’ शीर्षक कविता के
जिसमें एक निर्दोष साइकिल को उपर्युक्त अंश को भी इस संदर्भ में सराहा जा सकता है। अनिमेष
बनाया जा सकता है बम एक सफल कथाकार भी हैं। संभवत: इसीलिए कविता और कहानी
प्रकाशित पुस्तकों- ‘मिट्टी के फल’, ‘अँधेरे में अंताक्षरी’, में उनकी आवाज़ाही चलती रहती है। संगीत में भी अच्छी-खासी
‘बिना मुँडेर की छत’ और प्रकाश्य संग्रहों -‘साइकिल पर संसार’, रुचि है उनकी। यूट्यूब पर उनके द्वारा रचित और संगीतबद्ध की हुई
‘ऊँट’, ‘मरुकाल का मेघ’, 'संक्रमणकाल’ और ‘कुछ पत्र कुछ कई रचनाओं को सुना जा सकता है। संगीत और लय का सहजबोध
प्रमाणपत्र और कुछ साक्ष्य’ को समय और समाज के प्रति कवि की उनकी कविताओं में भी स्पंदित है। उनके संग्रहों में सम्मिलित गीत
आलोचनात्मक दृष्टि और कविताओं में व्याप्त प्रतिरोधी स्वर के लिए भी इस बात का प्रमाण हैं। उनकी मुक्तछंद कविताओं को भी पढ़ते
देखा जाना चाहिए। जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है, ‘संक्रमणकाल' सुनते हुए उनकी अंतर्निहित लय को महसूस किया जा सकता है।
संग्रह में महामारी के दौर की कविताएँ हैं। हर संवेदनशील मन को अनिमेष के तीन संग्रहों-‘कोई नया समाचार’, ‘संगत’ और ‘माँ
इस संग्रह की कविताएँ बहुत अपनी लगेंगी- महामारी के सबसे के साथ’ की ज्यादातर कविताओं के अंतिम अंतरे में अंत्यानुप्रास
बुरे दौर के गुज़र जाने के बाद भी उसकी जीवंत स्मृतियों और को भी सहजता के साथ लक्ष्य किया जा सकता है। कई बार तो
अनेकानेक निहितार्थों से आंदोलित करती हुई। इस संग्रह की एक कविता की अंतिम पंक्ति पढ़ने के बाद उसकी पहली पंक्ति से
कविता ‘विडंबना’ की कुछ पंक्तियाँ इसका प्रमाण हैं– मिलकर लय के साथ एक छंद झंकतृ हो उठता है पाठक के मन
अजीब है में। लय के प्रति यह रुझान कवि को कभी-कभी शब्द-क्रीड़ा की
कि जो फले फूले ओर भी ले जाता है। ‘खिचड़ी’,‘आलूदम’, ‘झ पर झूठमूठ की दो
पहले से कविताएँ, ‘आली के लिए’ और’ स्वर’ –ऐसी ही कुछ कविताएँ हैं।
और भी फलते इनमें पाठक को कौतुक का आनंद मिलता है। दरअसल लय पहाड़
फूलते जा रहे की ऊँचाई से गिरते हुए पत्थर के समान है -एक बार लुढ़कना शुरू
मुश्किलों से भरे हुआ तो वेग ख़ुद ब ख़ुद बढ़ने लगता है, जिसे सँभालना मुश्किल हो
इस दौर में सकता है। लेकिन कवि अनिमेष लय और छंद को बख़ूबी साधना
जानते हैं। कई जगहों पर अनिमेष सहायक क्रियाओं के प्रयोग को
अजीब है छोड़ देते हैं। शायद कविता में लय, संगीतात्मकता के प्रति कवि की
कि व्यवस्था सचेतता सहायक क्रियाओं की अनुपस्थिति का कारण बन जाती है।
बचायेगी 'संगत' पर नामवर जी से चर्चा के दौरान मदन कश्यप ने सर्जना
उन्हीं को में एक ही साथ कवि अनिमेष की 'संलिप्तता और निर्लिप्तता' की
जीवनरक्षण दुर्लभ सिद्धि को रेखांकित किया है। कवि संभवतः ‘डिटैच’ होकर
उपलब्ध करायेगी एक द्रष्टा के रूप में कविता को देख रहा होता है। लोक से लिए
गए शब्दों का भी अनिमेष बख़ूबी इस्तेमाल करते रहते हैं, जिससे
और जो शुरू से उनकी कविताओं की सरसता और भी बढ़ जाती है। उनकी कई
कुटते पिसते कविताओं का अंत ‘…’ से होता है। इसके माने ढूँढ़ने के लिए ‘संगत’
आ रहे की ‘अंतहीन’ शीर्षक कविता देखनी होगी–
जगह जगह तुम्हीं ने था सिखाया
मार खा रहे
उन्हें छोड़ देगी लिखना कुछ भी तो उसके आगे
उनके हाल पर समाप्त न लिखना

426 n जुलाई से सितंबर 2023 yegh


उसका चिह्न भी न लगाना

कहीं
पूर्णविराम
नहीं

न कोई
आख़िर आखर
वह ओस कण उस समय तक का
सबसे नया सबसे टटका
उसके आगे हमेशा
रख देना
कुछ और बूँदों की बिंदियाँ...
कवि अनिमेष जिन संग्रहों को ‘आत्मीयता की वृहद्‍-त्रयी’ कहते
हैं, उनकी कविताओं में प्रेम की इतनी सघनता है कि कई बार वे
प्रार्थना का रूप लेती हुई लगती हैं। उदाहरण-स्वरूप ‘संगत’ की
एक और कविता ‘आश्रय’ देखी जा सकती है–
जब तक प्राण है
तब तक पुकार
इसमें शक नहीं है कि आज बहुत बड़ी संख्या में कविताएँ छप
जब तक पुकार रही हैं, लेकिन इसका यह अर्थ नहीं है कि उसके पाठक भी बढ़ रहे
तब तक प्राण... हैं। फिर भी रचनाकार और पाठक, दोनों का भरोसा तो क़ायम रहना
अनिमेष की दृष्टि जीवन के हर पहलू पर जाती है। वे हर बात ही चाहिए। ‘वागर्थ’ के संपादक शंभुनाथ ने अपने एक संपादकीय
को कई-कई कोणों से देखने में सक्षम हैं। उनकी सजग और सक्रिय में लिखा है- “फिर भी पाठक ज़िंदा है तो लेखक भी; और पाठक
रचनाशीलता जीवन के हर व्यवहार-व्यापार को काव्य-विषय बना कभी नहीं मरेगा।” इसी विश्वास की तो ज़रूरत है कि पाठक
लेती है। इस सतत और समर्पित सृजनशीलता को उनकी ही कविता कविता को धैर्य के साथ पढ़ेगा और बार-बार पढ़ेगा। अनिमेष का
‘काम’ की इन पंक्तियों से व्याख्यायित किया जा सकता है– रचना-संसार काफ़ी विस्तृत है और वे सतत रचनाशील भी हैं–इस
कवि नहीं मैं जीवन-मात्र के प्रति और अपनी रचनाशीलता के प्रति सचेत और
करता हूँ कविता का काम जागरूक रहते हुए। पाठकों को भी उनकी कविता धैर्य के साथ और
बार-बार पढ़नी चाहिए।
लेकिन कवि की चिंता क्या है? उसके सरोकार क्या हैं? उसकी अनिमेष हमेशा कविता में विषय और शिल्प, दोनों स्तरों पर
संवेदनशीलता उसकी कविता से क्या चाहती है? इसका उत्तर नये का संधान करने के आग्रही हैं। इस सिलसिले में ‘भारतभूषण
‘हामिद का चिमटा’ कविता में कवि यूँ देता है– अग्रवाल’ पुरस्कार प्राप्त करने के अवसर पर उनके दिये वक्तव्य के
कविता मेरे लिए इस अंश को याद करना सर्वथा समीचीन होगा– “कविता में नया
तीन पैसे का चिमटा है लिखना नया करना ही होता है। और इस अर्थ में ‘नया कवि’होना
जिसे बचपन के मेले में ग़ाैरव की बात होती है। कोशिश यही है कि सही अर्थों में ‘नया
मोल लिया था मैंने कवि’ बन सकूँ।” निश्चित तौर पर मानस की यही बुनावट प्रेम
रंजन अनिमेष की रचनात्मकता को जीवंतता प्रदान करती है। n
कि जलें नहीं रोटियाँ सेंकने वाले हाथ संपर्क : रांची, झारखंड
कि दूसरों को दे सकूँ अपने चूल्हे की आग! मो. 9386897809

yegh जुलाई से सितंबर 2023 n 427


n आयतन : पंकज चतुर्वेदी

यथार्थ के आईने में कविता का बयान


अवनीश मिश्र

मानव सभ्यता के विकासक्रम को हम ध्यान से देखें से समय के सरोकारों के साथ अभिव्यक्त करने की
तो पाते हैं कि चाहे कोई भी समाज हो, चाहे उसकी कोशिश की है। इसी जटिल समय को अपने लेखनी
सामाजिक, राजनैतिक या आर्थिक पहचान भले न से कविता के रूप में साधने वाले विलक्षण कवि हैं
हो परन्तु कविता और कहानी किसी न किसी रूप -पंकज चतुर्वेदी। यह विलक्षणता इसलिए कि अपनी
में अवश्य विद्यमान रही है। जिससे उस समाज की कविताओं में वे बराबर नागरिक दायित्व, मानुष- प्रेम
गत्यात्मकता को भलीभाँति समझा जा सकता है। और सामाजिक-संघर्ष को बचाये रखना चाहते हैं।
कविताएँ संघर्षशील समाज की जीवन्तता और उसकी पंकज चतुर्वेदी एक ख्याति प्राप्त कवि और
आदिम आकांक्षाओं, जिजीविषा का जिंदा प्रमाण रही हैं। सभ्यता आलोचक हैं। वे बराबर संवेदनशील संसार में उठने वाली हलचलों
के विकास के साथ ही कविता में से संवेदनाएँ लगातार गायब हुई और जनाकांक्षाओं पर सार्थक हस्तक्षेप करते हैं। सत्तापक्ष का
हैं। इसी चिंता को केन्द्र में रखकर शायद आचार्य रामचंद्र शुक्ल पटाक्षेप और आम जनता के अधिकार उनकी कविता के मुख्य
अपने निबंध 'कविता क्या है' में लिखते हैं कि ‘ज्यो-ज्यों हमारी प्रतिपाद्य रहे हैं। नब्बे के दशक में जब वे लेखन में प्रवृत्त होते हैं,
वृत्तियों पर सभ्यता के नए-नए आवरण चढ़ते जायँगे त्यों-त्यो एक वह समय बड़े उतार चढ़ाव व परिवर्तन का रहा है। देश आपातकाल
ओर तो कविता की आवश्यकता बढ़ती जायगी, दूसरी ओर कवि के बाद धीरे धीरे उबर रहा था, आर्थिक उदारीकरण, भूमड ं लीकरण,
कर्म कठिन होता जायगा।’ एक तरफ वे कहते हैं कि कविता बाबरी मस्जिद विध्वंस और भारत का द्वार वैश्विक बाज़ार के निमित्त
की आवश्यकता और बढ़ती जायेगी, वहीं दूसरी ओर कवियों को बहुराष्ट्रीय कंपनियों के लिए खुलता है। टेलीविज़न, कम्प्यूटर,
कविता की ज़िम्मेदारी के प्रति आगाह भी करते हैं। यानि सभ्यता के मोबाइल और इंटरनेट का प्रसार बढ़ने से लोगों के जीवन शैली
स्थूल प्रसार के साथ साथ उसके भावमूलक संसार को बचाये रखने में बदलाव का यह महत्वपूर्ण दौर रहा है। भारतीय समाज और
का कार्य कवियों और रचनाकारों का है। हिंदी साहित्य में कविता आम जनता पर इसका व्यापक रूप से प्रभाव पड़ा। इसने लोगों के
की लगभग एक हजार साल की लम्बी परंपरा रही है, विभिन्न जीवन-दर्शन और दिनचर्या को बहुत कुछ बदल दिया। हालाँकि
प्रवृत्तियों और वादों के साथ अनेक कालखंडों से होती हुई हिंदी आम जनता की हालत में बहुत बदलाव नहीं आया।
कविता ने एक प्रदीर्घतर यात्रा की है। इसमें देश, काल और मनुष्य एक कठिन समय की संवेदना को कविता में रूपायित करने
की चित्तवृत्तियों में परिवर्तन के साथ साथ ही कविता के कहन, वाले पंकज चतुर्वेदी बहुत ही ज़हीन और संज़ीदा कवियों में से एक
उसके आस्वाद और शिल्प में भी अवश्यंभावी परिवर्तन घटित हुए हैं। उनके अब तक कविता के पांच संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। ‘एक
हैं। आधुनिकता के प्रवेश के साथ ही मनुष्य और मनुष्य के बीच में संपर्णत
ू ा के लिए’, ‘एक ही चेहरा’, ‘रक्तचाप और अन्य कविताएँ’,
दूरियाँ कम हुई हैं लेकिन उसके साथ ही हृदय की भावशून्यता बढ़ी ‘आकाश में अर्द्धचंद्र’, ‘काजू की रोटी’ (कविता-संग्रह) उनकी
है। संचार, चकाचौंध, यातायात के साधन, मीडिया,ग्लैमर और प्रकाशित कृतियाँ हैं। इन संग्रहों में शामिल कविताओं के मार्फत
भौतिक सुख सुविधाओं ने मनुष्य को व्यक्ति केन्द्रित जकड़बंदियों पंकज चतुर्वेदी का व्यक्तित्व एक जन सरोकारधर्मी व नागरबोध
में कैद कर दिया है, संवेदनाएँ लगातार कमतर हुईं हैं। जिससे संपन्न कवि का दिखाई देता है। जो बराबर जनता के पक्ष में
कवियों का काम और जटिल व बौद्धिक होता गया है। आधुनिक सत्तातंत्र के विरूद्ध मनुष्यता का बयान करता है। पंकज चतुर्वेदी की
व समकालीन कविता की कई पीढ़ियों ने इसे अपने-अपने ढंग कविताएँ अपने कहन में बेहद मुखर और सत्ता तंत्र की मुखालिफत

428 n जुलाई से सितंबर 2023 yegh


करती हैं। वे सीधे सीधे और कम शब्दों में अपनी बात कहने को पूरक िदखाई देते हैं। प्रेम में बग़ैर गहरे धंसें बिना आप एक मजबूत
तवज्जों देते हैं। जहाँ लोग कविता में पूरा का पूरा कह देने का संघर्ष नहीं कर सकते हैं। प्रेम और संघर्ष का यह रूपक मुझे पंकज
भरम रखते हैं, वहीं पंकज चतुर्वेदी कम शब्दों में या एक बिम्ब में चतुर्वेदी की कविताई में बराबर देखने को मिलता है- ‘कभी मैं उसे/
अपनी बात कहने में विश्वास रखते हैं। उनके यहाँ न तो शब्दों का देखता था रोज़ रोज़/जैसे एक स्वप्न रोज़ रोज़/ बाकी जीवन यथार्थ
बाह्य आडंबर और फिजूलखर्ची है और न ही सपाटबयानी। उनकी था/ उतना ही स्वप्न था।’
कविता का ध्येय है– अपने समय में हस्तक्षेप। एक ओर पंकज वे बख़ूबी जानते हैं कि दिन भर क्रांति, समानता और संघर्ष
चतुर्वेदी की वैचारिकी पर मार्क्सवाद का प्रभाव रहा है तो दूसरी ओर की बात करने वाले लोग दरअसल मौका पाते ही सत्तापक्ष में
उनकी कविता में पिछली पीढ़ी के कवियों-रघुवीर सहाय, मंगलेश खड़े दिखाई पड़ते हैं। इस देश में संविधान की दलीलें देकर,
डबराल, वीरेन डंगवाल, विष्णु खरे, राजेश जोशी और आलोक धर्म की आड़ लेकर, जनता को झूठे वादे करके बढ़ने वाले लोग
धन्वा का प्रभाव भी दिखाई देता है। भी आख़िर वहीं पहुँचना चाहते हैं जहाँ इस झूठ के कारोबार की
किसी भी कवि या उसकी कविता की निर्मिति में उस समय फैक्ट्री है। संविधान के नीचे लगातार चुनाव होते रहे और सरकार
की सामाजिक व राजनीतिक परिस्थितियों का प्रभाव पड़ता है। पर सरकारें बदलती रहीं लेकिन आम जनता की हालत दिन पर
कोई भी रचना अपने समय के यथार्थ से टकराये बिना महत्वपूर्ण दिन बद से बदतर होती गयी है। शिक्षा, रोजगार, मंहगाई, स्वास्थ्य
या कालजयी नहीं बन सकती। इससे उस कवि का अपनी रचना जैसी मूलभूत सुविधाओं का भी बुरा हाल है। उन्होंने देश में नफ़रत,
तथा उस समकाल के प्रति व्यक्तिगत ईमानदारी व जवाबदेही का हिंसा, कट्टरता, बेरोजगारी, अशिक्षा, भ्रष्टाचार जैसे गलीज़ फैलाये
भी पता चलता है। पंकज चतुर्वेदी की कविताएँ इस माने में बहुत और देश को सिर्फ़ राजनीति का अड्डा बनाये रखा। देश का सिस्टम
ज्यादा अपील करती हैं। उनकी कविताएँ अपने समय की सामाजिक ज्यों का त्यों बना रहा- ‘एक सरकार से/ दूसरी सरकार तक देश
राजनीतिक सच्चाई से बराबर प्रश्न करती हुई आगे बढ़ती हैं। उनकी पहुँचा भ्रष्टाचार से/ नफ़रत और हिंसा के/ ज्वार तक।’
कविताएँ मनुष्यता के पक्ष में खड़ी दिखाई देती हैं। जब सत्ता पूछती उनकी कविताओं में भाषा व विचारों का तेवर बख़ूबी देखने को
है कितने लोग मारे गए, तब उनकी कविता निर्भीक ढंग से पूछती मिलता है। जिस तरह की घटनाएँ होती हैं उसी ही तरह का कविता
है कि एक भी इंसान क्यों मारा गया? उनकी कविताएँ क्रूरतम में उसका प्रतिपक्ष रचते हैं। हालाँकि विचार व भाषा का यह तेवर
समय में इंसानियत के पक्षधरता की तस्दीक़ करती हैं और सत्ता उनको अपनी पिछली पीढ़ी के कवियों रघुवीर सहाय, राजेश जोशी
तंत्र के हर अलोकतांत्रिक रवैये का प्रतिपक्ष भी रचती चलती हैं। से दाय रूप में मिला है। उस पर धार और मुखरता पंकज चतुर्वेदी
सत्ता में क़ाबिज़ ताक़तों ने आम नागरिक को लोकतांत्रिक आज़ादी का अपना है। उनकी कविताओं का मूल स्वर अभिधात्मक यथार्थ
व अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता से हमेशा दूर रखा और दबाकर रखना व व्यंग्य के क़रीब है।
चाहा है-‘लोकतंत्र में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता उन्हें है/ जो सफल कई बार कविता में कम कहने से भी अर्थ का अनर्थ होता
हैं/ असफल लोगों से कहा जाता है/ कि आज़ादी का मतलब रहा है। जिस प्रकार द्विवेदीयुगीन कविताओं को इतिवृत्तात्मक का
अराजकता नहीं है।’ आरोप लगाकर किनारे कर दिया गया। स्थूल के विरूद्ध सूक्ष्म के
पंकज चतुर्वेदी की कविताओं को राजनीतिक बीहड़पन से बाहर इस मताग्रह ने भी कविता का बहुत भला नहीं किया है। ये छोटी
निकलकर देखें तो उनके यहाँ मनुष्य और मनुष्य के राग संवेदन कविताएँ भी कुछ ही समय तक अपना प्रभाव छोड़ पाती हैं। उसके
का संसार भी बिखरा पड़ा है। जो उनके आरंभिक कविता संग्रहों में बाद ये कहाँ गायब हो जाती हैं कुछ पता नहीं चलता। पंकज
ज्यादा देखने को मिलता है। हालाँकि बाद के संग्रहों में यह संवेदन चतुर्वेदी के यहाँ कुछ दूसरे कवियों की बातों को फेरबदलकर कहने
पक्ष कम और ठोस यथार्थ का रूप ज्यादा गहरा हुआ है। उनके का तरीका भी देखा है। यह जानबूझकर है या अनजाने में कह नहीं
यहाँ अपने को अभिव्यक्त करने के कई तरीके हैं। लगभग प्रेम पर सकता। मसलन ‘ख़बर का मुँह विज्ञापन से ढका है’-यह कवि
ही उनके यहाँ पचास से अधिक कविताएँ देखने को मिलती हैं। वे लीलाधर जगूड़ी की पंक्ति है। अब पंकज की कविता देखिए–
जीवन की वास्तविकताओं से गुज़रते हुए भी आम आदमी के संसार पढ़ना चाहता हूँ समाचार
में घटित अनुभवों व हलचलों को समेटते चलते हैं। बहुत सारे पर अख़बार का मुखपृष्ठ है बाज़ार।
छोटे किन्तु मार्मिक स्थलों को उन्होंने एक ज़रूरी विषय के रूप में अगर कवित्व का मूल बीज भाव और संवेदना ख़ुद कवि की है
रेखांकित किया है और उसके पक्ष में मजबूती से खड़े भी रहे हैं। तो वह अपना असर कविता में दिखा जाती है। परानुभूति कभी भी
पाश्चात्य साहित्य- सिनेमा में प्रेम और संघर्ष परस्पर एक दूसरे के स्वानुभूति नहीं बन सकती। प्रत्यक्षानुभूति से हृदय द्रविभूत हो जाता

yegh जुलाई से सितंबर 2023 n 429


उनका प्रतिपक्ष भी रचती हैं। समाज में होने वाले शोषण, दमन,
यही नहीं, यहाँ हँसिया को उसके प्रचलित
प्रतीकार्थ से मुक्तकर उसे एक उच्चतर अर्थ हत्या और अलोकतांत्रिक रवैये के मूल की पहचान उनके यहाँ
और मान देने का प्रशंसनीय काव्य-विवेक सबसे अधिक है। कला का समय, छब्बीस जनवरी को, रक्तचाप,
भी दिखता है। हँसिया को एक औज़ार के रूप जहाँ उम्मीद नहीं है, मोक्ष, सबसे ज़रूरी, सरकारी हिंदी, विकल्प,
में न देखकर, एक वाद्य के रूप में देखना श्रम कविता की सुनवाई, संक्रमण से बचने के लिये, दुख लिखा जाना
को महज उत्पादन के उपादान के रूप में न चाहिए, यही साहस, आत्महत्या के विरुद्ध, मैं एक जज था, देश
देखकर, जीवन के सबसे आदिम उत्सव के काफ़ी बदल गया आदि कविताएँ अपने उन्वान में पाठक को अपनी
रूप में देखना है! ओर आकर्षित करती हैं। कविता में प्रतिरोध का ऐसा पारदर्शी पाठ
अन्यत्र दुर्लभ है। काव्यभाषा का ऐसा बर्ताव कि सामान्य सी दिखने
है और अन्तस्तल करुणा से पूरित हो उठता है। कविताएँ कागज पर वाली बात में भी वे विलक्षण बात कह देने की कला रखते हैं।
छपी निरीह शब्द भर नहीं होतीं, पाठक से तादात्म्य होते ही वे अपना उनकी कविता में अपने समय का सबसे ताक़तवर प्रतिरोध व
सच बयाँ कर देती हैं- ‘आंसू जो छलक गया/आंख से/ सबूत है कि व्यंग्य देखने को मिलता है, जो उनकी कविता का सबसे मजबूत
बर्तन /भर गया दु:ख का।’ पक्ष भी है। भारतीय राजनीति के ओछेपन से उपजे मानवीय समाज
पंकज की कविताओं पर विचारों के आत्यंतिक प्रभाव से शिल्प की विडंबना व विसंगति की पहचान अपने समकालीनों में उनकी
लगातार शिथिल हुआ है। जिससे कविता में भाव, संवेदना और कविता में सबसे अधिक है। साथ ही कविता में एक लोकतांत्रिक
करुणा के बरअक्स निरा वैचारिक संगुफन अधिक परिलक्षित होता तरीके की बहस और सवाल पूछते रहने की गुंजाइश उनके यहाँ
है। कविता में न तो कोरी भावुकता का आधिक्य उचित है, न तो पैदा होती है।
बौद्धिकता का। कविता इन सबके बीच मिलजुलकर अभिव्यक्त होती सारत: यह कहा जा सकता है कि पंकज चतुर्वेदी नागरिक
है। कविता सूचना, बयान या सूक्ति नहीं है जिसे क्षणिकाओं में अधिकारों के प्रति प्रबुद्ध व सचेत कवि हैं। उनके यहाँ निराशा,
कह दिया जाय। कविता का काम क्षण की जगह काल में तरंग कुंठा या दैन्य जैसे मनोभाव आपको देखने को न मिलेंगे। वहाँ संघर्ष
उत्पन्न करने का है। जो कविता वर्तमान में हलचल, करुणा या भाव करने की ऊर्जा भी है और गलत को गलत कह देने का साहस भी
तादात्म्य न पैदा करे, उसे कविता कहना अत्युक्ति होगी। बहुत बार है। सत्य का पक्ष सत्ता का पक्ष नहीं, बल्कि अभय जनता का पक्ष
उनकी प्रेम कविताएँ पढ़ने पर भी शुष्क और नीरस लगती हैं। यह तब है। सबसे ज़रूरी बात जो पंकज चतुर्वेदी के यहाँ है कि उन्होंने
होता है जब हर विषयवस्तु या ख़बर को कविता में कहने की भूल की कविता का परिवेश निर्मित किया है। पिछली पीढ़ी की बातों को
जाती है। बाजदफ़ा गद्य में कही गई बातें कविता से ज्यादा प्रभावित नए अंदाज़ में प्रस्तुत किया और साथ ही न‌ई पीढ़ी के कवियों का
करती हैं, हमें कविता और गद्य के इस अन्तर को भी समझना चाहिए। पृष्ठपेषण भी किया। पंकज चतुर्वेदी जितना अपनी जड़ और ज़मीन
कवि व्योमेश शुक्ल ने ठीक ही लक्षित किया है कि पंकज लगातार की तरफ लौटेंगे, उतना ही अपनी कविता के तरफ भी लौटेंगे।
कविता का शिल्प भूलते गए और अब अपनी ही शुरूआती कविताओं हालाँकि कोई काव्यकला का चश्मा लगाकर उनकी कविताओं का
से बहुत दूर चले आए हैं " और इस भूलने के क्रम उन्होंने कविता अवलोकन करेगा, उसे निराशा होगी। उसे उनकी कविताओं की
के कहन का नया शिल्प और मुहावरा तो अपने लिए गढ़ा है लेकिन सीमाओं के भीतर ही देखना चाहिए। पिछले दो दशकों में पंकज
विवेक का मताग्रह बढ़ने से कविता वहाँ से तिरोहित होती गई है। चतुर्वेदी सबसे ज्यादा पढ़े और सराहे जाने वाले कवियों में से एक
अगर यह देखा जाए तो पंकज चतुर्वेदी की बहुतेरी कविताओं का हैं। यह उनकी कविताओं के व्यापक स्वीकृति का सबूत है। प्रेम
लब्बोलुआब बौद्धिकता से परिचालित है। मसलन 'शिल्प'– और संघर्ष उनकी बुनियादी ज़मीन है जिससे व्यापक मनुष्यता की
वह मेरा भय था / तुमने उसे शिल्प कहा। पहचान होती है इस तरह से इन तमाम सहमतियों-असहमतियों के
या बावज़ूद पंकज चतुर्वेदी एक जनसंवादधर्मी और व्यापक मनुष्यता
सभी बर्बर हैं : / यह बर्बरों का / प्रिय तर्क है। के प्रति जिम्मेदार कवि हैं। n
बहरहाल हर युग में प्रत्येक कवि और रचनाकार की अपनी संपर्क : सहायक प्राध्यापक हिंदी
सीमाएँ रही हैं और पंकज चतुर्वेदी भी इस घेरे से बाहर नहीं हैं। फिर बीआरए विश्वविद्यालय, मुजफ्फरपुर, बिहार
भी उनके यहाँ कवित्व की अपार संभावनाएँ हैं। उनकी बहुत सारी मो. 9455472765
कविताएँ अपने समय के ज़रूरी सरोकारों से ज़िरह करती हैं और

430 n जुलाई से सितंबर 2023 yegh


n आयतन : भरत प्रसाद

यथार्थ से टकराती कविता का लोक


ज्योतिष जोशी

युवा कवि, कहानीकार और आलोचक भरत प्रसाद प्रसाद की कविताएँ, सभी संग्रहों की कविताएँ एक
को मैं दशकों से जानता हूँ और उनके बनने की विमर्श रचने का प्रयत्न करती हैं। विमर्श अव्यवस्था
प्रक्रिया का गवाह भी रहा हूँ। भरत प्रसाद में अपने के प्रति प्रतिरोध का तो है ही, सत्ता संरचना के विरुद्ध
छात्र जीवन से ही आक्रोश रहा है और वे बराबर भी है, जिसमें कवि के छल और वंचना के अतिरिक्त
बद्धमूल सामाजिक ढांचे से लेकर अभिजात्यवादी कुछ देखा ही नहीं है। एक सुंदर स्वप्न के टूट जाने,
संरचनाओं को प्रश्नांकित करते रहे हैं। कहानियों उम्मीदों पर नज़र गड़ाए पथराई आँखों से बिसूरते
और अपनी आलोचनात्मक टिप्पणियों में भी उनका लोगों और समाज में फैली दहशत पर चीत्कार करती
आक्रोश जब-तब प्रकट होता रहा और वे ग़ैर बराबरी पर आधारित भरत प्रसाद की कविताएँ यथार्थ और विडंबना-बोध के मध्य उन
प्रायः हर तरह की व्यवस्था को लक्ष्य करते रहे हैं। सुदूर उत्तर-पूर्व बेशर्म चालाकियों को पहचानती हैं जिनके कारण भोले-नासमझ
में रहक़र भी लगातार काम करना, साहित्य के केन्द्रीय विमर्शों लोग अब भी उम्मीद की गठरी अपनी पीठ पर लादे प्रतीक्षा कर
में हिस्सेदारी करना और एक सार्थक जगह बना लेना आसान रहे हैं और कवि अपनी पहरेदारी की मुनादी करता हुआ कहता है-
काम नहीं है। यह सचमुच हैरान करने वाली बात है कि भरत ‘मेरे शब्द चौकीदार की तरह
प्रसाद ने अपने क्षेत्र में, चाहे वह कहानी हो या आलोचना हो तुम्हारे चरित्र पर रात दिन पहरा देते हैं
या कविता का क्षेत्र हो-निरंतर असुविधाजनक प्रश्नों से टकराने तुम्हारी करतूतों के पीछे घात लगाये बैठे हैं वे
की कोशिश की है और अपने दायित्व को गंभीरता से निभाया है। तुम तो क्या, तुम्हारी ऊँची से ऊँची
ये प्रश्न सत्ता-संरचना के तो हैं ही, सामाजिक विषमता, हिंसा, धोखेबाज कल्पना भी
प्रजातांत्रिक दुःस्वप्न और छीजती मनुष्यता के भी हैं। अपने चारों उनकी पकड़ से बच नहीं पायेगी
तरफ पसरे दुःख और उदासी के बीच भरत प्रसाद का सर्जक व्यर्थ परत-दर-परत एक दिन खोल-खोलकर
की खुशफहमी नहीं पालता, उसे बेमतलब का कोई भ्रम भी नहीं है तुम्हें नंगा कर देंगे मेरे शब्द।’
जैसा कि अनेक युवा रचनाकारों का शगल बन गया है। एक तरफ प्रतीक्षातुर पथराई आँखों वाले लोग, तो दूसरी तरफ
भरत प्रसाद साहित्य-कर्म को एक जिम्मेदार नागरिक धर्म की धोखेबाज कल्पना’ और बहक़ावे के साथ धूर्तता का खेल खेलती
तरह निभाते हैं और यहीं से उन पर चर्चा की शुरुआत की जा व्यवस्था, दोनों के बारीक फ़र्क से भरत प्रसाद कविता का गवाह
सकती है। कहानियों, लेखों, आलोचनात्मक कार्यों और विचारपरक बनाकर प्रस्तुत करते हैं और जनता को ख़बरदार करने वाले ख़ुद
आलेखों की कई पुस्तकों के अलावा भरत प्रसाद के तीन कविता
संग्रह हैं-‘एक पेड़ की आत्मकथा, ‘बूँद-बूँद रोती नदी’ और भरत प्रसाद की कविताएँ यथार्थ और
‘पुकारता हूँ कबीर’। इन तीनों ही संग्रहों में भरत प्रसाद का कवि विडंबना-बोध के मध्य उन बेशर्म चालाकियों
प्रतिरोध की अपनी ज़मीन पर खड़ा है और जनधर्मी सरोकारों को पहचानती हैं जिनके कारण भोले-नासमझ
से आबद्ध है। कविता कवि की लाचारी नहीं, उसका संघर्ष और लोग अब भी उम्मीद की गठरी अपनी पीठ पर
लादे प्रतीक्षा कर रहे हैं।
दायित्वबोध है इसलिए वह जब कलम उठाता है तो प्रश्नाकुल
करता जाता है, पाठकों के मन की दुविधा को मिटाता है। भरत

yegh जुलाई से सितंबर 2023 n 431


था बचपन का आकाश।’ कवि को बीते दिन आज के भयावह दिनों
भरत प्रसाद गहरी संवेदना के कवि हैं। अपने के मुक़ाबले इसलिए अच्छे लगते हैं कि उन लोगों की याद में करुण
कथन में बेलाग और पारदर्शी तो कहने के ढंग हो गया है, जिन्होंने उसे बनाया और संवारा-
में मर्मभेदी। उनका कवि व्यर्थ के सपने नहीं ‘नहीं चाहिए मुझको मेरा भविष्य
पालता। यह सपने के टूटने से आए संतापों को रत्ती-भर चिन्ता नहीं मुझे अपने वर्तमान की
बांधता है। इसमें दुःख है, वेदना है, छटपटाहट मुझे सँवारने में मर-खप गये लोगों को
है तो गहरी बेबसी भी, जो पाठकों को सहज ही फिर से पा लेना ही मेरा वर्तमान है
बेंधने लगती है। पर वे निरे यथार्थ के कवि भी उनके नंगे पाँव के निशान को
नहीं हैं, क्योंकि उनके यहाँ जीवन के वे रंग भी अपने होठों से चूम लेना ही मेरा भविष्य है।’
हैं जो एक सम्मोहन में ले जाते हैं और बीते हुए यह अतीत राग नहीं, मानवी संवेदना का वह करुण-जगत है
दिन बरबस सामने हो जाते हैं।
जहाँ लौटकर कवि को अपने वर्तमान की भयंकरता से राहत मिलती
है। पुराने दिन, पुराने लोग, सजल हार्दिकता और आत्मीयता, पर
को पहरेदार कहते हैं। कवि की चिन्ता का एक बड़ा पक्ष देश में निस्वार्थ-भाव से जुड़े उनके प्रेम में आज की आपाधापी से भरी
फैलती जा रही सांप्रदायिक हिंसा का है। भरत प्रसाद की कविताओं अमानवीयता का कारगर प्रतिरोध है। कवि में आत्म उत्पीड़न है, जो
में समाज के उच्छिष्ट लोगों के प्रति गहरी संवेदना है और मार्मिक बार-बार उसके व्यग्र मन से बाहर आता है- ‘अंग-अंग विद्रोह करते
पीड़ा भी। शिलांग के ‘पोलो टॉवर’ में स्थित कूड़ाखाना में चौबीसों हैं / मन की गुलामी से/पक चुकी है आत्मा /बुद्धि की मनमानी से’
घंटे डटे रहने और कूड़ा खाकर ही जीवन-बसर करने वाले कहते हुए भरत प्रसाद ‘सुक्खू’ नामक बंधुआ मजदूर की अकाल
‘कूड़ाखोर’ पर लिखी गई है, जो हमें द्रवित करने के साथ-साथ मृत्यु पर फट पड़ते हैं-
हमारी व्यवस्था की आमनवीयता पर तीखी चोट भी करती है- ‘आओ, अपनी मौत के बाद
‘कूड़ा उसके लिए कूड़ा नहीं मुझमें साकार हो जाओ
बुझते हुए जीवन की अंतिम उम्मीद है जी उठो मेरे आत्म-धिक्कार में
डूबते हुए सुख का आख़िरी तिनका उठ बैठो मेरे वज़ूद में
पराजय की आख़िरी शरण-स्थली पुकारों मेरी बहरी हो चुकी आत्मा को
यह निःशेष उम्र के लिए कूड़ाखोर बन चुका है चूर-चूर कर डालो मेरा पत्थरपन
जिसे अपने मामूली पेट से बढ़कर आओ, जिलाओ मुझे
दुनियाँ की कोई पराजय नहीं मिली आओ...!’
पेट से कदम कदम पर मात खाए
उस इंसान के लिए यह कविता ‘सुक्खू-की अकाल-मृत्यु पर एक विदा-कविता ही
जूठन,जूठन नहीं नहीं है, उस व्यवस्था पर विलाप भी है, जिसके सामन्ती अनाचार के
सिद्धि प्राप्त कर लेने जैसी चीज़ है..’ शोषण से ग़रीब सुक्खू मरा है और उस जैसे नामालूम कितने अवश
भरत प्रसाद गहरी संवेदना के कवि हैं। अपने कथन में बेलाग सुक्खू असमय काल के गाल में समा जाते हैं। कवि का अपने में
और पारदर्शी तो कहने के ढंग में मर्मभेदी। उनका कवि व्यर्थ के सुक्खू को साकार करने का आह्वान वस्तुतः उस व्यवस्था का अंग
सपने नहीं पालता। यह सपने के टूटने से आए संतापों को बांधता होने के स्वीकार के साथ आत्मग्लानि की मार्मिक अभिव्यक्ति है जो
है। इसमें दुःख है, वेदना है, छटपटाहट है तो गहरी बेबसी भी, जो मन को विचलित कर देती है। भरत प्रसाद की कविताओं में दलित-
पाठकों को सहज ही बेधने लगती है। पर वे निरे यथार्थ के कवि भी उत्पीड़ित और वंचित के प्रति गहरी करुणा है, तो आत्मग्लानि से
नहीं हैं, क्योंकि उनके यहाँ जीवन के वे रंग भी हैं जो एक सम्मोहन भरी गहरी कृतज्ञता भी है। अपने पूर्वजों के अनाचारों से त्रस्त होती
में ले जाते हैं और बीते हुए दिन बरबस सामने हो जाते हैं-‘फिर वंचितों की अस्मिता के प्रति अपराध-बोध से भरे कवि के मन में
उसी छाँव में लौटने को जी करता है/ फिर उसी धूल में मिटने का कृतज्ञता का जो भाव है, वह उसके एक ऐसे स्वप्न का हिस्सा है
मन करता है/ कोई दे न दे मेरे पाँवों को मेरी पगडंडियों / कोई जिसमें समता है। इस स्वप्न में कोई बड़ा-छोटा नहीं है। सबके प्रति
दिला न दे मेरी आँखों को बीती हुई दुनिया/ कितना अपना लगता समभाव का विमर्श रचते भर प्रसाद उन्हें अब भी पुराने अपराधों के

432 n जुलाई से सितंबर 2023 yegh


लिए चेतावनी देते हैं जो नये समय में भी मनुष्यता में भेद करने का ‘अपनी ही ज्वाला में नाचता है, भागता है।’ वह आँसुओं की भाषा
घृणित कर्म करते हैं - भूल चुका है, भूल गया है गूंगे की पुकार और ‘खा ही डाला
‘जज्ब है इन आँखों में आख़िरकार इंसान होने का अर्थ।’ ‘हत्यारे सपनों का शिल्पकार
सदियों का संताप वह’ नामक दूसरे खंड में खलनायक अपने को ‘हिंसा के उत्सव
दफन है सीने में का पागल नृत्यकार’ और ‘हत्यारे सपनों का कुशल शिल्पकार
पीढ़ियों की चीत्कार कहता है’ और स्वीकार करता है कि एक सनक उसके हृदय पर
दिन में मचलता है सवार है। विडंबना यह है कि वह इस विचार का कायल हो चुका
पूर्वजों का अपमान।’ है कि ‘खड़े-खड़े प्रलय भरी आँखों के बूते वह/ झुक कर दो हाथों
वंचित जनों की उपेक्षा की व्यथा के साथ भरत प्रसाद में उनके पर चलना सिखायेगा’। कविता का तीसरा खंड-‘देश की हरियाली
प्रति कृतज्ञता का भाव भी है, जो हमे गहरे मथता है। ‘गूंगी आँखों को लकवा मार गया है’ में दहशत की भेंट चढ़े देशों की दुर्दशा का
का विलाप’ नामक कविता में भरत प्रसाद वंचित जनों के शोषण चित्र है -
और सदियों से हो रहे उत्पीड़न पर व्यथित होकर कहते हैं- ‘समूचे आकाश को खा गई है धूल
‘रोम-रोम पर दर्ज़ है अंधकार निगल गया है दिशाओं को
तुम्हारे ख़ून-पसीने का कर्ज़ क्षितिज का कोना-कोना
मिट ही नहीं सकते पृथ्वी से काली धुंध के चंगुल में फँसा हुआ
तुम्हारे पैरों के निशान गूंजता है सीने में आतंक की माया ऐसी कि
तुम्हारे सीधेपन का इतिहास देश को लकवा मार गया है।’
मचलता है मेरी आँखों में इस खंड में आतंक के ख़िलाफ़ विद्रोह है, जो कहती है -
तुम्हारी गूंगी आँखों का विलाप।’ ‘लो! छोड़ती हूँ वतन
भरत प्रसाद की कविताओं में यथार्थ से मुठभेड़ के साथ वर्तमान भागती हूँ अपनी ज़मीन से
की विडंबनाओं को थाहने और उसे भेदने की हिक़मत भी मिलती नहीं माँगूगी अपने लिए दया
है। यह हिकमत कई दफा स्वप्न और यथार्थ से मुठभेड़ की शक्ल प्राण की भीख माँगने के लिए
ले लेती है तथा एक दृश्य-चित्र की तरह कविता हमारे सामने से झुके मेरी गर्दन तो काट लेना उसे’
गुज़र जाती है। बड़ी कविता के विन्यास को साधने की कुशलता चौथे खंड- भविष्य का प्रातः काल में आतंक की भेंट चढ़े इन
के साथ भरत प्रसाद ने ऐसी कुछ कविताओं में जिस कौशल का देशों की औरतों की मुनादी है -
परिचय दिया है, वह चकित करने वाला है। ऐसी कुछ कविताओं ‘हम तो क्या, हमारा बच्चा-बच्चा
में एक है-‘बंधक देश! यह कविता अपने ही देश में बेसहारा हुई हमारी आने वाली पीढ़ियों
इराक और सीरिया की जनता को समर्पित है। चार खंडों में फैली नस्लें-दर-नस्लें
यह कविता अपने पहले खंड-‘तौल दिया है ख़ुद को’ में स्थिति दीवार बनकर खड़ी होंगी
के विवरण के साथ कवि की संवेदना में घुलकर सामने आती है - तुम्हारी हुकूमत के खिलाफ
‘गिरवी रख दिया है उसने शरीर को अमन की हिफ़ाज़त में।’
बेच डाली है आत्मा मज़हब के हाथों यह कविता विस्तार से टिप्पणी मांगती थी ; क्योंकि यह यथार्थ
तौल दिया है ख़ुद को ख़ुदा के आगे के जिस भयावह दुःस्वप्न से टकराती है और जिस चित्रमयता के
जी कर भी वह अपने लिए नहीं जीता साथ पहले काव्य-नायक पुरुष के अपने धिक्कार को सामने लाती
मरकर भी अपने लिए नहीं मरता।’ है, उसमें धर्म के नाम पर बर्बाद हुई उसकी आत्मा चीत्कार करती
इसी कविता में - है। बाद के खंडों में औरतों का विद्रोह एक उम्मीद के साथ अंतिम
‘अंधा अनुगामी वह ख़ूनी खयालातों का खंड तक आता है जिसमें कवि ने आने वाले बच्चों में अमन की
भीषण गुलाम है अपने जज्बातों का आश देखी है। यह कविता यथार्थ और विडंबनाबोध के जिस शिल्प
ख़तरनाक सपनों का मायावी शिल्पकार’ में ढली है, वह परंपरा मुक्तिबोध की काव्य-परंपरा है, जिस पर
कविता का खलनायक यथार्थ को फैंटेसी की शक्ल देता हुआ बहस करने वाले कवियों की कोई कमी नहीं है, पर उसे कविता

yegh जुलाई से सितंबर 2023 n 433


को अपना उपजीव्य बनाती है और नए समाज-विमर्श को रचती
भरत प्रसाद की यह कविता तो स्पष्टतः हैं। उनकी कविता में कमनीयता और चमत्कार नहीं, जीवन
मुक्तिबोध के विन्यास से जुड़ती ही है, कुछ
के खुरदरे यथार्थ से टकराव है। ‘मर्द और उनकी ऐसी ही एक
अन्य कविताएँ, जैसे-‘बुद्ध के एक-एक कदम’
और ‘उमड़ते आँसुओं का उद्घोष भी उसी कविता है। मर्द की देह पाई यह एक ऐसी औरत का रेखाचित्र
परंपरा में देखी जा सकती हैं, जिनमें अपने है जो मर्दों की तरह काम करती है, पर समाज उसे औरत तो
समय के विरूपित यथार्थ से टकराने और नहीं ही मानता, मर्द की तरह भी छोड़ देने से इनकार करता है।
वर्तमान के दुष्चक्र को भेदने का प्रयत्न दिखाई इस दोहरी विडंबना को झेल रही औरत को भरत प्रसाद ने कुछ
देता है। इस तरह आंका है -
वह/किसी ठूंठ वृक्ष की/ सख्त गाँठ की तरह
में बरत पाने की संवेदना और आवश्यक धैर्य का अभाव है। भरत अपनी कमर पर हाथ ऐसे रखती है
प्रसाद की यह कविता ‘अँधेरे में के शिल्प और उसके संवेदनात्मक मानो कह रही हो/ बोलो! कभी हरा सकते हो
वितान का विकास करती है जो सराहनीय पहल है। मुझे?
भरत प्रसाद की यह कविता तो स्पष्टतः मुक्तिबोध के विन्यास यह सबके मजाक का विषय है-दर्द यह है कि वह न औरत बन
से जुड़ती ही हैं, कुछ अन्य कविताएँ, जैसे-‘बुद्ध के एक-एक सकी, न मर्द। मर्द की तरह काम करती है पर स्त्री होने की विडंबना
कदम’ और ‘उमड़ते आँसुओं का उद्घोष भी उसी परंपरा में देखी जीती है, स्त्री है पर मर्द की तरह दिखती हुई मर्द न बन पाने की
जा सकती हैं, जिनमें अपने समय के विरूपित यथार्थ से टकराने बेबसी झेलती है। यह समाज उसके स्त्रीत्व को तो हरता है, पर स्त्री
और वर्तमान के दुष्चक्र को भेदने का प्रयत्न दिखाई देता है। कुछ का दर्ज़ा नहीं देता, पुरुष वह है नहीं, जिसे वह अपनी अस्मिता मान
उदाहरण देंखे - सके। भरत प्रसाद कहते है-
‘काँपता हुआ वक्त बैठ गया है ‘वह सवाल बनकर
दिल के दरवाजे पर सभ्यता की पीठ पर
अंग-अंग रक्त से लथपथ तनकर खड़ी है-
पलकों के उठने-गिरने पर पूछ रही है कि
किसी षड्यंत्र का पहरा मैं तो औरत हूँ
पागल जैसा बदहवाश हमें मर्द की तरह किसने बनाया?
लहराता है मुट्ठियाँ हवा में किसने छीने?
पीटता है माथा, पीटता है सीना
अवाक् कर देने वाली चीख मेरे भाव, मेरे रूप, मेरे रंग, मेरे हक़?
घुट कर रह जाती है मुँह में कह सकते है कि भरत प्रसाद अपने समकालीन कवियों में
जैसे जीभ को लकवा मार गया हो’ अलग से पहचाने जा सकने वाले ऐसे कवि हैं जिनका काव्य-
अवसरवादी चेहरे को घूरता है समय मुहावरा सबसे अलग और हिंदी कविता की विशुद्ध यथार्थवादी
तौलता है मेरी निगाहें काव्य-परंपरा का विकास है। कविता को सहज-स्फूर्त बिम्बों, अपने
जैसे तीर धँस जाए आँखों में समय के मानवीय प्रश्नों और विमर्शों से उठाकर इस कवि ने हिंदी
बीच चौराहे पर।’ कविता की प्रगतिशील परंपरा को समृद्ध किया है। अपनी दुनिया
कविता को एक भरे-पूरे जीवन की नागरिक जवाबदेही की में कवि के लिए समूची मानवता ही कविता क्षेत्र है। इनमें अनुभूति
तरह बरतते भरत प्रसाद के यहाँ गाँव की गहरी स्मृति है, तो की जो सहजता है या विडंबना को थाहने की जो गहरी युक्ति है,
शहर का परायापन भी है, तिल-तिल कर मरती मनुष्यता की वह भरत प्रसाद को एक विचारशील कवि बनाती है। वह संतोष का
व्यथा है तो अपनी प्रकृति और पर्यावरण की चिन्ता भी, पर विषय तो है ही, एक बड़ी संभावना की बानगी भी है। n
उनके काव्य की मूल चेतना यह प्रतिरोध है जो हिंदी कविता की संपर्क : डी-4/37. सेक्टर-15,
यथार्थवादी परंपरा से आई है। अपने कहन में बेबाक, बेलाग राेिहणी, िदल्ली-110089
भरत प्रसाद की कविताएँ रोमानी भावुकता से परहेज कर यथार्थ मो. 9818603319

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n आयतन : आशीष त्रिपाठी

अन्तरंग में ठहरते रंगों की कविता


डॉ. शान्ति नायर

स्मृतियों की ज़मीन की नमी को बनाए रखते हुए चाहिए। हर किसी का अपना पथ है और हर पथ का


अन्तर्ध्वनियों की गूंजों को गूथ ँ कर अनुनादों में अपना सच। बने बनाए पथ पर चलने को बाध्य किए
परिवर्तित करने की अथक कोशिश के कवि हैं जाने वाले मनुष्य का दम घुटने लगता है। लीक से
आशीष त्रिपाठी। काव्यानुभव के विस्तृत कैनवास पर हट कर चलने वाला ही नयी राहों की खोज करता
अनायास फैलती संवेदना के साथ अपने बहुत निकट है। वह सच की ओर अग्रसर होता है यह उसकी ज़िद
के समकालीन सवालों और चुनौतियों से जूझते रहना हो सकती है और संसार की दृष्टि में पागलपन भी।
ही आशीष त्रिपाठी की कविता की वास्तविक क्षमता कवि कहते हैं -
की पहचान बनता है। “मन्दिर जाने की जगह
समय के संकट को अभिव्यक्ति देने वाले संवेदनशील कवि किसी विस्मृत से लोक कवि का
आशीष त्रिपाठी की कविताओं में जो विडंबना अनुस्यूत हैं वह पुराना गीत गाऊँगा मैं”
क्षिप्रगति के साथ हुए अप्रत्याशित परिवर्तन और मानवता के ह्रास कविता में ‘मन्दिर’ के अर्थ की व्याप्ति मनुष्यों द्वारा आन्तरिक
को लेकर है। पाठक की मनोभूमि को व्यंजनाओं से जोतकर सुख प्राप्ति का दावा करते हुए गढ़े जाने वाले तमाम स्थलों से है।
संवेदनात्मक भाषा से सींचकर संभावनाओं को अंकुरित कर लेने इन स्थानों को आत्मशान्ति का केन्द्र बताया जाता है। परन्तु इनमें
की कोशिश करती हैं आशीष की कविताएँ। सम्पूर्ण कविताओं का भी प्रवेश-अप्रवेश की विभाजन रेखाएँ हैं।
विन्यास इसी इच्छा- तर्क से निर्धारित है। कवि की अभिव्यक्तियों सांप्रदायिकता विरोध का स्वर आशीष त्रिपाठी की कविता में
में पक्षधरता है, अन्यथाचार का विरोध और दुर्बल के पक्ष में सशक्त रूप से सुनाई देता है। सांप्रदायिकता को लेकर कवि की
साहसपूर्ण संघर्ष है साथ ही अमानवीय शक्तियों से जूझने का संवेदना में विरोध का भाव ही नहीं वरन पीड़ा का घनत्व भी दिखाई
अह्वान भी। और इन सबका किसी तात्कालिक आक्रोश या रोमांच देता है। बावज़ूद इसके कहीं इन सबसे उबर कर सहमना भाव से
के साथ खत्म नहीं हो जाना वाँछित नहीं, वरन ठहराव की गहरी पूर्ण जीवन की कामना भी कविता अभिव्यक्त करती है।
इच्छा से भरपूर हैं। सांप्रदायिकता विचारधारा के रूप में ही नहीं वरन हिंसा के रूप
मानवीय संवेदनाओं को बचा लेने की तीव्र अकांक्षा आशीष में भी सामने आती है तो बर्बरता भय और आतंक की संस्कृति को
त्रिपाठी की कविता में दिखाई देती है। भौतिक विकास और प्रगति धर्म के नाम पर जन्म देती हैं। कविता इस अपसंस्कृति के समूल
के खोखले समीकरण के प्रति अपनी असहमति कवि व्यक्त करते नाश की कामना करती है। सांप्रदायिक वैमनस्य और तद्जनित
हैं। वर्तमान समय में बाज़ार व्यक्ति को चारों तरफ़ से घेरे हुए है हिंसा से लगातार होने वाली क्रूरताओं से त्रस्त कवि मन पूछे बग़ैर
अर्थात जीवन का लक्ष्य ही लाभ होता चला जा रहा है। परन्तु इस नहीं रह पाता कि
स्थिति में भी कवि आशावान है कि मनवीय संवेदना को लाभ “धर्म स्थल है
अथवा सुविधा के लिए स्थानान्तरित (रीप्लेस) न करेंगे। बाज़ार या हिंसा का कारखाना” (इनकार)
के बीच रहक़र भी बाज़ार के ख़िलाफ़ रहने की ज़िद मानवता की सांप्रदायिक हिंसा से इतिहास के पृष्ठ जब रंगने लगते हैं तो
पक्षधरता है। जीवन की स्वाभाविकता को कवि सर्वोपरि महत्व वर्तमान और भविष्य आशंका और भय से मुक्त नहीं हो पाता।
देते हैं। कवि मानते हैं कि जीवन संहिताओं का मोहताज नहीं होना “यह धर्म है

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या अँधेरे में डरे हुए आदमी के हाथ आया चाकू” नहीं पाती। “जब भी चली/ किसी ने किसी ने रोका उसे” कविता
(इनकार) का शब्द ‘लंगड़ी’ अपने में अर्थ के अलग अलग दो आयाम
कविता में ‘अँधेरा’ जैसे शब्दों का सार्थक प्रयोग हुआ है। अँधेरा समेटती है। क्यों कि कविता आगे कहती है -
वह है जिसमें व्यक्ति को कुछ भी दिख नहीं सकता। यहाँ अँधेरा “वह घूमती रही जीवन भर
सांप्रदायिकता का है जिसमें न शत्रु पहचान में आता है न मित्र। आदेशों के पीछे
वह सोचता है कि कोई भी उसे मार सकता है और इसी कारण वह एक पाँव पर
स्वयं भी किसी पर भी वार करने को तैयार रहता है। अविश्वास पर लंगड़ी नहीं खेल पाई”
का यह अँधेरा उस इतिहास की देन है जिसमे धर्म को नैतिकता यहाँ अर्थ का वह आयाम खुलकर सामने आता है जिसमें स्त्री
से पृथक कर स्वार्थ सिद्धि का साधन बनाया गया और विद्वेष के उस सहज स्वाभाविक जीवन को जी पाने से रोकी जाती है जो कि
पर्याय सामने लाया गया। कविता में कवि जिस ‘चाकू’ की बात दो पैरों पर सहज रूप से चलने के समान है। समाज की उस दुमुही
कर रहे हैं वह बहुत गहरा अर्थ सम्प्रेषित करता है। इतिहास से हिंसा चाल की ओर भी कविता इशारा करती है जिसमें कुछ कार्य ऐसे हैं
के किस्से भी इस प्रकार वर्तमान और भविष्य में स्थानान्तरित होते जो स्त्री के लिए वर्ज्य हैं पर वही कार्य अन्यत्र जब पुरुषसत्तात्मक
हैं कि जन्म से ही भय का रूपायन व्यक्ति के भीतर होने लगता समाज के लिए सुविधा बनते हैं तो स्वीकार्य भी हैं। इस कड़वे सत्य
है। इस भय में जहाँ अात्मरक्षा को लेकर अतिरिक्त सजगता होती को उकेरते हुए आशीष की कविता के स्वर में अवसाद का रंग कुछ
है वहीं प्रतिहिंसा भी साथ साथ पनपती है। इसी आत्मरक्षा की घना होकर ठहर जाता है। “अब तो उसे याद भी नहीं होगा /वह
अतिरिक्त सजगता और प्रतिहिंसा को कविता का ‘चाकू’ संभवतः लंगड़ी खेलना चाहती थी”
व्यक्त करता है। विडंबना यह है कि कि यह भय एक विरासत बन तलाकशुदा स्त्री का जीवन परिवार और समाज द्वारा रूढ़िवादी
जाता है जो पीढियों तक बरकरार रहता है और इसके साथ पनपती तरीकों से ही संचालित किया जाता है। समाज स्त्री की सेक्सुअलिटी
रहती है प्रतिहिंसा। पर नियन्त्रण रखना चाहता है। समाज में यह धारणा पलती है कि
कवि यह भी कहते हैं कि धर्म के ठेकेदार इतने सशक्त नहीं होते एक बार शादी होने पर और संबंध बनने पर स्त्री अपवित्र हो जाती
कि वे स्वयं धर्म के उग्र रूप से समाज का कुछ भी बिगाड़ सकें। है। जबकि पुरुषों के लिए अपवित्रता की ऐसी कोई अवधारणा नहीं
बाघ और सोने के कंगन के मिथक से आशीष त्रिपाठी से बख़ूबी है। यह सोच भी पितृसत्तात्मक समाज की उपज है। तलाकशुदा स्त्री
से सम्प्रेषित करते हैं। जैसे शिकार करने में असफल कमज़ोर हो को चरित्र हीन कहने का सिलसिला भी आरम्भ हो जाता है या उसे
चला बाघ मुसाफ़िर को देखकर सोचता है कि वह उसका स्वादिष्ट प्रत्यक्ष परोक्ष रूप से भोग्या के रूप में देखने की दृष्टि भी उभरने
भोजन बन सकता है। वह पंजे में कंगन थाम कर जोर से बोलता लगती है। कविता इस सत्य को उकेरती है कि-“प्रेमगीतों में उसे
है- ‘मेरे पास सोने का कंगन है। मुझसे दान में ले लो।’ कंगन के भोग के मैले कुचले छन्दों की बू आती है” सर्वाधिक विडंबनात्मक
लालच में पास पहुँचने वाले आदमी को बाघ खा लेता है ठीक उसी स्थिति यह है कि तलाशुदा स्त्री स्वयं इस बोध को साथ लेकर
प्रकार सांप्रदायिकता में धर्म के ठेकेदार हित और सुरक्षा का लालच चलती है कि वह हीन है। हीनता के इस बोध से बाहर निकल
देकर लोगों को आकृष्ट करते हैं और उनके भीतर हिंसा वैमनस्य कर स्त्री की एक अपनी वैकल्पिक दुनिया के होने की अनिवार्यता
भर कर उनसे मार काट और हत्याएँ करवाते हैं और स्वयं मरने देते को ही कविता यहाँ सामने रखती है। और निश्चय ही यह कवि
हैं। धर्म के इस रूप के प्रति पूर्ण असहमति को अभिव्यक्ति देती है के प्रगतिशील चिन्तन का स्पष्ट प्रमाण है। ऐसी स्त्री के प्रति गर्व
‘इनकार’ शीर्षक कविता। मिश्रित आदर का भाव भी कविता में कविता की भाषा में ध्वनित
आशीष त्रिपाठी की कविता स्त्री जीवन के प्रति अत्यन्त होता है।
संवेदनशील दीख पड़ती है। वे देखते हैं कि स्त्री जीवन की यात्रा वर्तमान संदर्भों में भी हम देखते हैं कि स्त्री किस प्रकार देह या
आरम्भ से ही दूसरों के द्वारा योजनाबद्ध किये गये एक टूर पैकेज वस्तु के रूप में देखी जा रही है। स्त्री स्वतन्त्रता और स्त्री के लिए
की तरह है। जिसमें उसकी अपनी छोटी छोटी इच्छाओं तक के अवसर(better opportunities) का नारा और दावा भी पेश
लिए कोई जगह नहीं रह जाती है। ‘एक पाँव पर’ शीर्षक कविता किया जाता है। परन्तु स्त्री को उत्तेजना का आलम्बन और उपकरण
इसे संवेदनात्मक लहज़े में अभिव्यक्ति देती है। कविता में लंगड़ी मानने की मानसिकता और तद्ज्जनित प्रवृत्तियों से आज भी समाज
खेलने की लड़की की इच्छा जीवन की सहजता और स्वाभाविकता मुक्त नहीं है। बल्कि यह मानसिकता और प्रवृत्ति नए रूप धर कर
के प्रति उसकी चाह है जो कभी भी निर्विघ्न रूप से सम्पन्न हो ही सामने आ रही है। ‘उत्तेजना’ कविता इस विडंबना को सशक्त

436 n जुलाई से सितंबर 2023 yegh


भाषा में अभिव्यक्ति देती है। समाज की विकृत मानसिकता की खास महसूस करता है। जन्मदिन का मनाया जाना यहाँ पहचान
चरम सीमा है कि कामुकता ने जिस स्त्री की देह को रौंद डाला स्नेह और महत्व के साथ जुड़ता है। कविता संकेतों में कहती है
वह भी समाज के लिए उत्तेजना का कारण बनता है। बाज़ारवाद के कि तमाम लोगों के जन्मदिन याद करना / मनाना और माँ के
दौर में स्त्री की देह का उपयोग कामोद्दीपन के उपकरण के रूप में जन्मदिन से अनजान रहना उसे विस्मृत करना ठीक उसी प्रकार है
विविध प्रकार से विविध माध्यमों मे किया जाना अपसंस्कृति की जैसे अपने उद्भव और अपने समीप को न जानना अपनी जातीय
चरम अवस्था तक पहुँच रहा है। उत्तेजना पैदा करने के लिए स्त्री अस्मिता को विस्मृत कर देना अपनी जड़ों से कटना-
की नग्नता का प्रदर्शन इतना आम हो रहा है कि शोषण, शोषण “मुझे नहीं मालूम
नहीं लगता। स्वार्थ और लाभ इसके केन्द्र में होते हैं। स्त्री एक जिंस अपनी माँ का जन्मदिन
में बदल दी जाती है। उसकी अस्मिता ही है जो ग्राहक़ को लुभाने पता नहीं कितनों के जन्मदिन
/ खुश करने के लिए परोस दी जाती है- जानता हूँ
“कभी किसी पुरुष देह के चारों ओर त्योहार-सा मना आता हूँ
अमरबेल की तरह लिपटा दिया गया है घर के बाहर
उसे कभी जाँघ दिखाकर
कामुकता से पढ़ता हूँ पाठ्यक्रम में
कुत्ते की तरह पुचकारने कितनों ही के जन्मदिन”
आदेशित किया गया है”
इसी प्रकार ‘आलाप’ शीर्षक कविता की लता मंगेश्कर और माँ निजी जीवन संदर्भों को उकेरती कविताओं की अर्थ व्याप्ति का
स्त्री जीवन के दो प‍क्ष हैं। कविता शुरू होती है- “माँ की उमर / दायरा कवि के व्यक्तिगत अनुभवों से आगे तत्कालीन समय और
ठीक लता मंगेशकर जितनी है।” एक अभिरुचि को समर्पित होकर समाज में फैलता है। अभिव्यक्ति की शैली ऐसी है कि पाठक के
प्रकृतिदत्त निपुणता का विकास करती है अपना निजी जीवन जीने लिए साधारणीकण सहज ही सम्भाव्य हो जाता है और वह स्वयं
वाली स्त्री है तो दूसरी समस्त अभिरुचियों को परे रखकर परिवार भी तत्कालीन समय से रूबरू होता है। पढ़ाई पूरी करने के बाद के
के दायरे में सिमट जाती है। समस्त क्रियात्मकता गृहस्थी और समय और संदर्भ को लेकर लिखी गयी कविता है ‘विचित्र वीणा’-
बच्चों के पालन में बिताती है। माँ के तानपूरे का ठूँठ में बदलना “एक ठीहे तक पहुँचते
वास्तव में स्त्री अस्मिता का समाप्त होना है। लता के गीत सुन रोज़ लांघनी पड़ती है अनंत दूरी
तानपूरे के तार मिलते तो हैं पर माँ से साधना की बात कोई नहीं पहचानी अपनी दुनिया को
करता। वस्तुतः स्त्री अपने समाज परिवार में जिन भूमिकाओं को देखना है अपरिचित बनते
निभाती चली आ रही है वे मिथक बन कर ठहर गये हैं। जैसे कि
माँ का एक ढाँचा है और स्त्री उसमें फ़िट है। इससे बाहर निकलने कागज़ के टुकड़े में बार बार
की कहीं कोई कल्पना नहीं। कविता की अन्तिम पंक्ति है - सामने रखनी है अपनी पहचान
“माँ की साधना की बात विवशता को स्वीकारना है दोस्त की तरह”
कोई नहीं करता” पढ़ाई पूरी करने के बाद नौकरी ढूँढने को संदर्भ बनाकर
आशीष त्रिपाठी की कविता में स्त्री के प्रति संवेदनात्मक ‘एप्रोच’ लिखी गयी कविता संभवतः स्वतन्त्रता के मानों को नए अर्थों में
आत्मीय संबंधों के कैनवास पर अधिक निखरा हुआ पाया जाता व्याख्यायित करती है। मुक्त उड़ान में स्वतन्त्रता है परन्तु स्वतन्त्रता
है। ‘माँ का जन्मदिन’ शीर्षक कविता माँ के प्रति गहन संवेदना को की भी अपनी शर्ते हैं। स्वतन्त्र होने का अर्थ है अपनी व्यवस्था
व्यक्त करती हुई माँ के साथ के संबंध से भी आगे शायद कुछ कह आप करना।
देने की कोशिश करती है। आज जन्मदिन मनाने का चलन धीरे “भविष्य विचित्र वीणा की तरह
धीरे सभी समाजों में स्थान घेर रहा है वहीं कवि कहते हैं कि जन्म मेरे सामने है
देने वाली माँ का जन्मदिन या तो अज्ञात रहता है या आसानी से और मुझे
भुला दिया जाता है। यहाँ जन्मदिन के संदर्भ को कवि इसलिए लेते उसे स्वर में छेड़ना है”
हैं क्यों कि सामान्य से सामान्य व्यक्ति भी उस एक दिन अपने को एक ओर असीमित समृद्धि तो दूसरी ओर असह्य ग़रीबी। दोनों

yegh जुलाई से सितंबर 2023 n 437


में व्यक्तियों और समाजों के व्यवहार को आकार देते हैं। यह
ऐतिहासिक घटनाओं, सामाजिक संरचनाओं और आर्थिक स्थितियों
सहित विभिन्न कारकों से प्रभावित होती है और प्रभावित करती
भी है।
आशीष त्रिपाठी की कविता में विचारधारा के सफल रूपान्तरण
की क्षमता भी दीख पड़ती है। कविता, कविता के रूप में विचारधारा
से समान रूप से एकता और दूरी पैदा करने की क्षमता रखती है।
इस रूप में वह अपेक्षाकृत अधिक उन्नत सामाजिक संस्था होने
का आदर्श भी पेश करती है। कविता समय की विद्रूपता को पाठक
के समक्ष खोलती है-
“गणतंत्र में अब सिर्फ़ सत्ता पक्ष होगा
विपक्ष भी चुना जाएगा उसकी सहमति से
इस तरकीब से पक्ष और विपक्ष का रोचक
खेल जारी रहेगा
रुपहले पर्दे पर मुर्गा युद्ध की तरह
चलती रहेंगी बहसें” (नया गणतन्त्र)
स्वाभाविकता इस बात में है कि कवि अपने समय के जिस
राजनीतिक वातावरण में साँस ले रहा है, उससे अनजान नहीं रह
पा रहा है। यह कवि से समय की माँग भी होती है। हिंदी में राष्ट्रीय
काव्यधारा, प्रगतिशील कविता भी आपातकाल के दौर में लिखी
गई ढेरों कविताएँ सब इसके प्रमाण भी रहीं हैं। आशीष त्रिपाठी की
के फ़ासले आज के समय में बढ़ते जा रहे हैं, वर्तमान समय की कविता में यह भी देखा जा सकता है कि कहीं कहीं कलात्मकता
खासियत यह है कि यह आँकड़ों का समय है और एक बड़ा से अधिक कविता की राजनीतिक आलोचना मुखर होती नज़र
झूठ इतनी बार कहा जाता है कि सच लगने लगता। ऐसे समय आती है। पर यहाँ कलात्मकता को क्षति पहुँचाना या उसके महत्व
में आशीष त्रिपाठी में अपने काव्य-तर्क का प्रतिवाद करने वाला को कम समझना नहीं है बल्कि बात यह है कि इस प्रकार की
उनका अपना स्व भी हमें अक्सर दीख पड़ता है अर्थात कवि के कविताओं में जो समझ निहित है वह राजनीतिक परिवर्तन है।
अपने विचार, अपनी दृष्टि, अपना स्वप्न है, जिसमें इस झूठे सच यहाँ आशीष त्रिपाठी की कविता में ध्यान देने योग्य बात है
से सहमति की गहरी कठिनाई दीख पड़ती है। कविता में कवि का कि राजनीतिक प्रभाव ग्रहण अवश्य किए गये हैं,लेकिन किन्हीं
प्रश्नाकुल मन है। राजनैतिक जरूरतों के अधीन होकर कविता नहीं लिखी गयी।
यदि हम राजनीतिक कविता की खास पहचान के दायरे में अर्थात कविता नारा नहीं है। अपने समय से कवि बच नहीं सकता
आशीष त्रिपाठी की कुछ कविताओं को पढ़ना चाहें तो कवि- और समय का सामाजिक राजनैतिक पहलुओं से विच्छेद भी
कार्यकर्ता की भूमिका को भी ‘ट्रेस’ कर लेने की कोशिश की जा असंभव है। ‘काला सूर्य’ कविता समय की विसंगति अमानवीयता,
सकती है। परन्तु ध्यान देने की बात है कि राजनीतिक कविता का तर्कहीनता, अन्धविश्वास, घृणा आदि नकारत्मक भावों के उपजने
भी मुख्य सरोकार मनुष्य ही है, जिसका संसार स्वप्नों से रीता नहीं और बढ़ने को लेकर आकुलता और व्याकुलता को अभिव्यक्ति
है,वहाँ भी कल्पनाएँ हैं, बहुत कुछ है जो जाना जा चुका है आगे देती है-
गवेषणा जारी है। राजनीतिक लगावों के चलते कवि का उलझाव “खड़े हैं हम
समाज के साथ कहीं ज्यादा हो जाता है और वे मनुष्य की नियति तेजस्वी काले सूर्य की अभ्यर्थना में
को अपेक्षाकतृ अधिक समझते हैं। संदेह, भ्रम, निराशा और अविश्वास से भरे
वस्तुतः राजनीतिक सांस्कृतिक दृष्टिकोणों, विश्वासों और हिंसा, हत्या और जनसंहार में भागीदार हो
मूल्यों के समुच्चय को भी द्योतित करती है जो राजनीतिक क्षेत्र विलोपित होती जाती है

438 n जुलाई से सितंबर 2023 yegh


हमारी आत्मा कविता भविष्य को लेकर चिन्तित है कि ‘राजनीतिक कार्यक्रम
वह मरती है क्षण क्षण फैशन परेडों और मनोरंजक कार्यक्रमों में बदल जाने निर्धनता,
अन्याय और तरह तरह के दुःखों को कथा साबित कर दिया जाने,
पुरखों की सीखें जनता की खुशहाली के चित्र राजकीय विज्ञापनों में जगमगाने पुराने
हमारी बाहें छोड़ चुकी हैं गणतंत्र की स्मृतियों का अपराध करार दिया जाने’ की चिन्ताएँ कवि
मनुष्य बने रहने का हमारा संघर्ष ढीला पड़ गया है को अस्वस्थ करती हैं। यहाँ किसी भीड़ को खुश करने के लिए
हम भूल चुके है उजले सूरज” भावोद्गार प्रकट करना नहीं है, सुविधाजनक विचारों का ताना-
कवि, राजनीति और उसकी जरूरतों को कविता में चरितार्थ बाना तैयार करना, सुघड़ बिम्बों की कतार लगाना और तुकबन्दियों
करने में सफल है तो इसका अर्थ है कि उनकी अनुभूति के दायरे की बौछार करना भी इन कविताओं में नहीं दीख पडता। आशीष
में एक कोना राजनीति ने भी रखा है- त्रिपाठी के यहाँ कविता के प्रति ऐसा ‘एप्रोच’ नहीं मिलता वरन
“कालिमा के प्रवक्ता कविता में 'अनुभूत विश्व' अथवा 'अवचेतन विश्व के साथ-साथ
जिन ऊँचाइयों के सामने यह विश्वव्यापी दृष्टिकोण भी मिलता है। इस दृष्टिकोण का कहीं
ख़ुद को बौना पाते हैं भी आशीष त्रिपाठी कविता निषेध नहीं करती है-
उन ऊँचाइयों को मिटा देने को तत्पर हैं वे” बुद्ध का मुखौटा इन दिनों प्रिय है राजा को
कहना न होगा कि कला के मर्म में 'राजनीति' का स्पन्दन है अक्सर उसे लगाकर वे सो जाते हैं सभाओं में
और यह श्लाघ्य भी। मात्र स्वप्न और कल्पना में खोये रहने की राजा को इतने प्रिय हैं मुखौटे
बजाए कवि समय के यथार्थ से रू-ब-रू होते हैं। कि जनता भूल गयी है इन दिनों
आज हमारा जीवन जिन यथार्थ-परिस्थितियों से घिरा है, उसमें उनका असली चेहरा” (मुखौटे)
राजनीति की केन्द्रीय भूमिका है। यथार्थ की पहचान कविता अथवा कविता लोकतन्त्र के विकृत होने का विरोध बार बार करती
कलाओं की बड़ी ज़िम्मेदारी है। इसी मोड़ पर राजनीति की छाया है पर यह 'प्रतिपक्ष की राजनीति' करने से भिन्न है। आशीष
कविता में प्रतिबिम्बित होती है। कवि कहते है- त्रिपाठी की कविता में जो ढाँचागत सुसंगति है-इसमें मूर्तन की
“बेचैन भागता हूँ अपूर्व क्षमता दिखाई देती है अर्थात इसमें राजनैतिक विचारधारा के
उदास खण्डहरों वीरान रास्तों निर्जन तटों सफल रूपान्तरण की क्षमता भी है। कविता में व्यंजना का अधिक
और अतीत की नीली झील की ओर और सटीक होना जहाँ मनोवैज्ञानिक स्तर पर कार्य करता है, वहीं
भागता हूँ इतिहास बोध जगाता है, सामाजिक रूप से सचेत करता है-
भागता ही जाता हूँ बेबस” (काला सूर्य) “एक कवि
यह बेचैनी कवि की व्यक्ति मन की अस्मिता है। यहाँ एक रचता है ईश्वर
बड़ा सामूहिक स्वप्न जिससे राजनीति पैदा होती है, कविता उसका दूसरा उसे अपना सखा बना लेता है
उपमान हो सकती है। इस स्तर पर राजनीति की समझ से युक्त तीसरा उसमें खोजता है मानुष-सत्य
कविता की उम्मीद आशीष त्रिपाठी में नज़र आती है। एक चौथा भी है
अपने काव्य-देश की सीमा से विचारधारा और राजनीति को जो उसके प्रस्थान की घोषणा करता है
बहिष्कृत करने वाले कवि नहीं हैं आशीष त्रिपाठी। व्यवस्था और
राजनीति के गठबन्धन और व्यक्ति की त्रासदी को लेकर कवि आप जानते होंगे उस पाँचवे को
परेशान हैं - जिसकी कविता में ईश्वर की कोई जगह नहीं।”
“राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए ख़तरा होंगे कविता के दायरे से कोई विषय बाहर नहीं है, फिर राजनीति
इसलिए उन्हें कारागार में रखना न्याय माना जायेगा तो एक बड़ा विषय है। हम चौतरफा राजनीति से घिरे हैं। वह हमें
गणपतियों के पक्ष में फैसला देने वाले न्यायपति जितना मुक्त करती है, उतना ही जकड़ती है। इस जकड़ने में जो
अवकाश प्राप्त करते ही ‘टॉक्सिसिटी’ है, उसे तोड़ने की कोशिश आशीष त्रिपाठी कविता में
गण परिषदों में नामित कर दिए जाएँगे करते हैं और प्रश्न करते हैं -
राजकीय राष्ट्रीय का समानार्थी हो जायेगा” “तुम देवताओं के लिए लड़ते हो

yegh जुलाई से सितंबर 2023 n 439


पर क्या जानते हो कहाँ रहते हैं देवता” दृश्य है,जिसे वह अपने मुनाफ़े के लिए प्रयुक्त कर सकता है।
राजनीतिक कवि की ही यह खास ज़िम्मेदारी बनती है कि वह कविता में माँ अपने बेटे को अकेले में और सारी दुनिया के बीच भी
राजनीतिक जकड़न और कुचक्र को तोड़ने का काम करे, चाहे यह लगातार चूमती है तो वहाँ वात्सल्य का उमड़ता आवेग है। परन्तु -
काम किसी भी दल के संदर्भ में ही क्यों न करना पड़े। कहा जा “एक कम्पनी प्रमुख
सकता है कि आशीष त्रिपाठी की कविता में जहाँ युग-की झलक है जिसका वार्षिक दान ज्यादा है
वहीं, आलोचनात्मक दृष्टि भी, इस तरह कविता समझ का साक्ष्य कुछ देशों की सकल राष्ट्रीय आय से
देती है- जिसके सामने झुकते हैं
“हत्यारे मनुष्य से ख़तरनाक हैं कितने ही देशों के पहले नागरिक,
हत्यारे विचार अपनी निर्मिति को ऐसे ही किसी दृश्य से जोड़ने वास्ते
अहिंसा मानने का भरम देने वाले के दिमाग में समझाता है विज्ञापन-प्रभारी को”
चलती रहती है कविता का व्यंग्य तथा भीतर तक उतरती टीस और भी गहरी
नरसंहार की योजनाएँ इस बात से हो रही है क्योंकि यहाँ ऑक्सीजन का विज्ञापन तैयार
वीरता के नाम पर हो रहा है जो जीवन का आधार है, पर बिक रहा है। विज्ञापन में जो
वे हिंसा के कारखाने चलाते थे”(समय) दिख रही है उस प्रकार की अनेक माँओं का सच यह है कि पैसों
यदि युग-चित्रण ही पर्याप्त है तो प्रश्न है राजनीतिक प्रतिबद्धता के अभाव में ऑक्सीजन नहीं खरीद सकतीं न अपने लिए न अपने
की क्या आवश्यकता है? इसका एक उत्तर यह बनता है कि बच्चे के लिए। कविता इस सत्य को इस प्रकार अभिव्यक्ति देती है
प्रामाणिक युग-चित्रण में प्रतिबद्धता छुपी होती है। जहाँ तक कि “दो मुहा नुकीला काँटा धंसता जाता है दोनों के भीतर” जीवन
प्रतिबद्धता का सवाल है प्रतिबद्धता साहित्यिक भी हो सकती है, और का आधार वायु बिक रही है, संवेदनाएँ बेचने का माध्यम बनायी
निजी जीवन के अनुभवों पर आधारित भी। जब हम 'साहित्यिक जा रही हैं। सब कुछ बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को सौंपने और उनसे
प्रतिबद्धता' कहते हैं तो इस विचार को बल मिलता है कि कविता खरीदने के लिए मजबूर हो रहा है तीसरी दुनिया का नागरिक।
अथवा सभी कलाएँ स्वभावतः प्रगतिशील होती हैं और यह बात आशीष त्रिपाठी अपने दौर की फ़ैलती निराशा और चिन्ता को
आशीष त्रिपाठी की कविता में दिखाई देती है। टेरी इगल्टन ने मिथकों से जोड़ते हुए व्यक्त करते हैं। शिक्षा जिस प्रकार पूँजी के
लिखा है, सभी कलाएँ प्रगतिशील होती हैं। इस अर्थ में सही है कि कब्ज़े में आ चुकी है वहाँ क्षमता का कोई मूल्य नहीं है। दलित व
अगर कोई भी कला अपने आपको अपने युग के सार्थक आन्दोलनों सर्वहारा को शिक्षा के अधिकार से वंचित कर देने की नए प्रकार
और उसके केन्द्रीय ऐतिहासिक तत्त्वों से काट लेती है तो अपनी की विडंबना है पूँजीवाद का नया चेहरा जो वर्तमान में उभर कर
औकात को भी घटा लेती है। सामने आ रहा है। कविता पहले हमें इतिहास के उस दौर में ले
कविता मनुष्य के पारंपारिक संबंधों को पीछे मुड़कर देखती जाती है जहाँ सूतपुत्र कर्ण का धनुर्धर बनने के लिए अपनी क्षमता
है तो परंपरा और वर्तमान की जटिलताओं के मध्य विकराल होते और लगन के बल पर किया गया संघर्ष है, उस कठिन समय में
अंतराल की सूक्ष्म पड़ताल भी करती है। जिस आर्थिक उदारीकरण भी भीमराव अम्बेडकर समाज के निचले पायदान से ऊपर उठकर
ने बाज़ार और बाज़ारवादी व्यवस्था को ताक़त दी है,उसने अपने सबसे ऊँची जगह तक पहुँचे थे परन्तु आज का समय वह है जहाँ
पारंपरिक नाते-रिश्तों को अनुदार, मतलबी और अर्थ-केंद्रित बना पूंजी के तले दबकर इस प्रकार के क्षमता रखने वालों के लिए संघर्ष
दिया है। उसने मानवीय मूल्यों को भी परिवर्तित कर दिया है। जहाँ कर ऊपर उठ पाने की संभावनाएँ तक नहीं रह जातीं। सर्वहारा
सब कुछ बिकने की चीज़ है वहीं सब कुछ को बेचने का माध्यम की क्षमाताएँ शिक्षा के क्षेत्र में उसी प्रकार काटी जाती हैं जैसे कि
बनाया जाता है। जो संबंध जो भावनाएँ आकर्षक रूप से विज्ञापन एकलव्य का अंगूठा काट लिया गया था। कविता के अन्त में एक
के परदे पर दीख पड़ती हैं वही सामन्य जन के जीवन में निष्करुण माँ अकेले में रोते हुए चूमती है अपने बेटे को जिसमें भविष्य की
रौंद दी जाती हैं। तमाम आकुलताएँ हैं, व्याकुलताएँ हैं और निराशाजनित वेदना भी।
‘एक माँ अपने बेटे को’ शीर्षक कविता इसे मार्मिक रूप से जीवन के प्रति रागात्मकता भी कवि में प्रचुर मात्रा में है। जीवन
अभिव्यक्ति देती है। माँ का अपने बच्चे से प्यार किसी भी लाभेच्छा की व्यस्तताओं के बीच जीवन की लय और सौन्दर्य को जी लेने
से परे संभवतः संसार की सबसे गहरी सकारात्मक संवेदना है। इच्छा आशीष त्रिपाठी की कविताओं में बलवती दीख पड़ती है।
किन्तु किसी व्यापारी के लिए माँ की यह संवेदनशीलता मात्र एक ‘अन्तराल’ कविता व्यक्त करती है कि व्यस्तताओं के अन्तराल में

440 n जुलाई से सितंबर 2023 yegh


जिए गये जीवन में जीवन की लय है। तमाम कलाओं का जन्म भी से जुड़ते हैं।
संभवत: इसी अन्तराल में होता है। जहाँ अंग्रेज़ी के कवि वर्ड्सवर्थ प्रकृति से मानव का आत्मसंबंध जीवन शक्ति प्रदान करता
के लिए कविता ‘Emotion Recollected in Tranquility’ है। मन को शान्ति, ऊर्जा प्रदान करने के लिए प्रकृति से संवेदना
और कार्ल मार्क्स के अनुसार भूख़ के मिटने के बाद जो अन्न का भाव सहायक होता है। उन्हें प्रकृति में जीवन की ऊष्मा नज़र
बचता है वह संस्कृति को जन्म देता है। वहीं आशीष त्रिपाठी के आती है। कविता में प्राकृतिक सुन्दरता का बयान साफ प्रकट है।
लिए जीवन की व्यस्तताओं के बीच का अन्तराल ही है जो जीवन ज़ाहिर है कि मनुष्य और प्रकृति का सहसंबंध मनुष्य के लिए
को जीने की इच्छा से जोड़ता है- ऊर्जा, विश्वास और जीवनशक्ति प्रदान करता है। कहना न होगा
“इस अन्तराल का मौन कि प्रकृति को स्पर्श और गन्ध का अनुभव करने वाले ही प्रकृति
गीतों में गुनगुनाता है सदियों तक” का अनुभव करके समझ सकते हैं। कवि ने इस प्रकृति में ही स्वयं
संवेदना के धरातल पर आत्मीय संबंधों की गहराई और विस्तार को समाहित किया है।
दोनों आशीष त्रिपाठी की कविता मे बार बार छलक उठते हैं। आशीष की कविता का 'मैट्रिक्स' कुछ अलग नज़र आता है
‘सिर्फ़ शरीर नही’ जैसी कविताएँ जहाँ पाठक के समक्ष एक रील और यही मेट्रिक्स कविता की भाषा में असन्तुलित समकाल को
की तरह चलती हैं वहीं संबंधों की आत्मीयता से भरी भी दीख सहजता से सम्प्रेषित भी करता है। कविता विचार की ज़मीन में नए
पड़ती हैं। रामावतार मामा के मृत्यु संघर्ष को समर्पित यह कविता रास्तों की खोज करती है जो भविष्य में सन्तुलित ज्यामिति तैयार
व्यक्त करती है कि एक समर्पित सरल ग़ाैरवशाली व्यक्ति का कर सके। घर, स्त्री, चिड़िया, बच्चे का कविता में दिखाई पड़ना
प्रस्थान केवल एक व्यक्ति का मात्र नहीं होता वरन एक सम्पूर्ण समय के लिए सुखद अनुभव है और साथ ही इन सभी के प्रति
सुरक्षा के अहसास का तिरोहित होना होता है। कविता जहाँ जीवन चिन्ता भी है।
संघर्ष के विविध पहलुओं को सामने रखती है वहीं लोक को भी हर कवि की रचनात्मक क्षमता को दूसरे की तरह नहीं देखा
समानान्तर रूप से अपने में उतारती चलती है और आम आदमी के जा सकता, आशीष त्रिपाठी की कविताओं में रोमांटिकता की
जीवन संघर्ष को रेखांकित कर देती है। धीमी आँच है। कविता में असहमतियाँ भी प्रचुर मात्रा में हैं। परन्तु
आशीष त्रिपाठी की कविता में संबंधों के ये ताने बाने व्यक्तिगत वे किसी क्षिप्रकोप के उद्गार से नहीं बनतीं। अपनी संरचना में
लगते हैं परन्तु इनके अनेक स्तर, कई आयामों में पाठक के सामने कविता का स्वभाव सामान्यतः शान्त ही है अतिरिक्त आक्रोश या
खुलते जाते हैं। संभवतः समकालीन संदर्भ में संबंधों में व्याप्त होती आवेश नहीं है परन्तु भाषिक स्तर पर कुछ बलाघातों और अनुतानों
शुष्कता के प्रति प्रतिरोध के शेड भी इन कविताओं में दृष्टिगोचर के सफल प्रयोग को अधिक सम्प्रेषणीय बनाते हैं। विषय की दृष्टि
होते हैं। जनतांन्त्रिक संस्कृति की शुरुआत ही परिवार से होती है से आशीष त्रिपाठी की कविता का कैनवास विस्तृत है और विविध
और ‘पिता की इच्छाएँ’ कविता के पिता इच्छाओं से परिपूर्ण हैं वर्णी भी। इसमें विचार भी हैं रागत्मकता भी। कविताएँ क्षण विशेष
परन्तु इच्छाएँ कहीं भी अपने लिए नहीं है वरन सन्तानों के लिए, के किसी दबाव की उपज नहीं प्रतीत होतीं। कवि को लगता है कि
घर के सभी सदस्यों के लिए हैं। ध्यान देने की बात यह है कि पिता अब तक के इतिहास में निराशा ने अधिक स्थान घेर रखा है तथा
की इन इच्छाओं में कहीं भी किसी भी सदस्य के उपभोग के आग्रह आज का समय और भी कठिन है। लेकिन बावज़ूद इसके हम
की पूर्ति की इच्छा नहीं है वरन उपयोग अथवा आवश्यकताओं की देखते हैं कि आशीष त्रिपाठी के काव्यलोक में आशा के स्रोत कभी
पूर्ति की इच्छाएँ ही है। यहाँ यह भी व्यक्त है कि निष्क्रियता को सूखते नहीं हैं। निसंशय यह बात कही जा सकती है कि कलम से
प्रश्रय देते हुए लोगों की आवश्यकताओं की पूर्ति करते रहने की उतरकर,पाठक की संवेदना में फैलते हुए इन कविताओं का रंग
संस्कृति नहीं अपितु संघर्ष से उन्नति की ओर प्रयाण की संस्कृति पाठक के अन्तरंग में ठहर ही जाता है। n
की संकल्पना ही कवि पिता के माध्यम से अभिव्यक्त करते हैं -
“पिता घर को बना देना चाहते हैं संपर्क : प्रोफ़ेसर, हिंदी विभाग
सुनार की भट्टी श्री शंकराचार्य संस्कृत विश्वविद्यालय,
वे हमें खरा सोना देखना चाहते हैं” कालडी-683574
कविता के पिता का ग़ाैरव और संरक्षित करने के भाव जहाँ मो. 9447291549
एक ओर संवेदना के निजी धरातल पर महसूस होते हैं वहीं अर्थ
की विस्तृति में राष्ट्र से, राष्ट्र के अगुवाओं की विस्तृत संकल्पना

yegh जुलाई से सितंबर 2023 n 441


442 n जुलाई से सितंबर 2023 yegh
n आयतन : जितेंद्र श्रीवास्तव

सामाजिक यथार्थ और मानवीय संवेदना की कविता


डॉ. सुरेश चंद मीणा

जितेंद्र श्रीवास्तव समकालीन कविता के महत्वपूर्ण हुआ’ का एक अंश देखिए–


हस्ताक्षर हैं। अब तक इनके सात काव्य-संग्रह– ‘किसी भी समय में
‘अनभै कथा’, ‘असुन्दर सुन्दर’, ‘बिलकुल तुम्हारी जिन रिश्तों को होना चाहिए पानीदार
तरह’, ‘इन दिनों हालचाल’ ‘कायाँतरण’, ‘सूरज और पानी की तरह पारदर्शी
को अँगूठा’, ‘जितनी हँसी तुम्हारे होठों पर’ प्रकाशित वे अब काठ की तरह हैं
हुए हैं। ये सभी काव्य संग्रह पाठकों के बीच काफ़ी कोई माने या न माने
लोकप्रिय हैं। हम सब जानते हैं कि आज का मनुष्य पर बिजली की तरह गिरता हुआ
विज्ञान और तकनीकी के क्षेत्र में बहुत आगे पहुँच गया है लेकिन यही सत्य है हमारे समय का
दूसरी तरफ मनुष्यता के लिहाज से वह बहुत पीछे है। आज कहने मृत्यु जितना सच’1
को हम आधुनिक हैं लेकिन विचारों से हम आधुनिक नहीं हो पाए हैं। एक संवेदनशील मनुष्य अपने रिश्तों को संभाल कर रखता है,
हम आज भी समाज में जाति, धर्म, संप्रदाय, वर्ग, क्षेत्र के आधार पर अपने दोस्तों से प्रेम करता है। लेकिन सभी संबंध विश्वास और
भेदभाव करते हैं। आज के व्यक्ति को सिर्फ़ अपने सुख से मतलब प्रेम पर टिके होते हैं। एक बार विश्वास टूटा तो उसके बाद संबंधों
है, दूसरों के दुखों से उसको रंच मात्र भी फ़र्क नहीं पड़ता। आज के के बीच अँधेरा छा जाता है। हमारे समय का सच यही है कि अब
समय का सच यही है कि हम मनुष्यता के सबसे निचले स्तर पर चाहे शहर हो या गाँव, लोगों में पहले जैसी मनुष्यता कहीं नहीं रह
खड़े हैं। ऐसे समय में समाज को मनुष्यता की बहुत आवश्यकता है। गई है। अपने स्वार्थ और लालच के लिए लोग रिश्तों की भी परवाह
कवि अपने समय और सामाजिक यथार्थ के प्रति सजग हैं। नहीं करते। वे छोटी सी छोटी बात पर झगड़ा शुरू कर देते हैं और
इनकी कविता समाज के साधारण से साधारण मनुष्य से सरोकार कई बार तो एक दूसरे का जीवन भी समाप्त कर देते हैं -
रखती है। जितेंद्र वर्तमान समय की विसंगतियों को चुपचाप ‘अब गाँवों में भी
नहीं देखते अपितु उन पर अपनी तल्ख़ टिप्पणी करते हैं। अपनी आने-दाने की लड़ाई है
कविताओं में समकालीन समय और समाज का सच, मानवीय इंच-इंच के लिए ख़ून-खराबा है’2
संवेदना, राजनीति, प्रेम, किसान, मजदूर, स्त्री, दलित, आदिवासी आज का व्यक्ति आगे बढ़ने के लिए किसी भी हद तक चला
सभी से जुड़े प्रश्नों को प्रस्तुत किया है। आज मनुष्य का लगातार जाता है। वह जोड़-तोड़ करने में माहिर होता है। अपना काम
नैतिक पतन हो रहा है वह इतना गिर गया है कि वह रिश्तों को भी करवाने के लिए भ्रष्ट लोगों की चापलूसी करता है। जिनसे घृणा
अपनी ज़रूरत के अनुसार इस्तेमाल करता है। मित्रता अब उसके करनी चाहिए उनसे भी प्रेम करता है और जो लोग सम्मान के
लिए फुर्सत के समय में मन बहलाने का कार्य करती है। अब रिश्तों हक़दार हैं उनको दुत्कारा जाता है। वह बड़ा बनने के लिए बहुत
में पहले जैसी बात नहीं रह गई है जब लोग व्यस्त समय में से भी सारे अमानवीय कार्य करता है, ऐसे लोगों से कवि सीधे सीधे
समय चुराकर अपने लोगों से मिलते थे। कवि का मानना है कि पूछते हैं-
रिश्तों को सहज होना चाहिए, उनको काठ की तरह कठोर न होकर ‘कैसे मनुष्य हो
पानी की तरह पारदर्शी होना चाहिए, जिसमें आसानी से आर पार जिनसे करनी चाहिए घृणा
सब कुछ देखा जा सके। उनकी कविता ‘बिजली की तरह गिरता उनसे करते हो प्रेम

yegh जुलाई से सितंबर 2023 n 443


कैसे मनुष्य हो वे कहते हैं कि जब सरकार जनता को सामान्य मूलभूत सुविधा
विधाता बनने की इच्छा में उपलब्ध नहीं करवा सकती है तब ऐसी सरकारों का क्या फायदा।
पल-पल हो रहे हो अमानुष!’3 फिर सरकारें क्या करती हैं? क्या सरकारों का काम सिर्फ़ और
जितेंद्र की कविताओं में राजनीतिक चेतना प्रभूत मात्रा में मौज़ूद सिर्फ़ षड्यंत्र करना है? और जनता हर बार बिना सोचे समझे
है। इन्होंने राजनीति और उनसे जुड़े तमाम प्रश्नों को प्रस्तुत किया जाति, धर्म, क्षेत्र के आधार पर उनको चुन लेती है। फिर वही
है। वह राजनीतिक स्वार्थपरता और विसंगतियों को चुपचाप नहीं सरकार आम लोगों की भावनाओं से खेलती हैं और जनता के
देखते अपितु उन पर तीखी टिपण्णी करते हैं। दरअसल कोई सपनों को ध्वस्त कर देती है -
भी संवेदनशील और जागरुक कवि राजनीति से अलग नहीं रह ‘आख़िर क्या करती हैं सरकारें
सकता, उस पर अवश्य ही उसका प्रभाव पड़ता है। आज़ादी के आख़िर क्यों हैं सरकारें
बाद जनता को उम्मीद थी कि अब सरकार द्वारा उन पर ध्यान दिया क्या काम यही बस उनका
जाएगा, उनकी समस्याओं को दूर किया जाएगा। लेकिन हर बार कि करें षड्यंत्र
जनता एक उम्मीद के साथ नई सरकार चुनती है और हर बार चुनी लूटें मौज’5
हुई सरकार जनता को धोखा दे जाती है। आज़ादी के इतने वर्षों जितेंद्र ने स्त्री के संघर्ष को अपनी कविता का विषय बनाया है।
बाद भी कुछ नहीं बदला - क्योंकि उन्होंने स्त्री जीवन को, उनके सुख दुःख को बहुत क़रीब
‘हर बार से देखा और महसूस किया है। हम जानते हैं कि स्त्री स्वभाव से
जनता चुनती है सरकार ही बहुत संघर्षशील होती है। किसी भी परिवार, समाज और पुरुष
छोटी छोटी उम्मीदों के साथ के जीवन में स्त्री का महत्वपूर्ण स्थान होता है। समाज में आज
हर बार भी स्त्रियों की स्थिति दयनीय है। इसका मूल कारण है समाज की
दगा दे देती है सरकार जनता को पितृसत्तात्मक व्यवस्था। जिसमें सदियों से स्त्री का किसी न किसी
जब जनता उबरने लगती है सरकार के धोखे से रूप में शोषण होता आ रहा है। पुरुषों ने स्त्री के बाहरी सौंदर्य को
अचानक नई सरकार तो देखा लेकिन उसकी पीड़ा को अनदेखा किया। स्त्री की आँखों
फिर धकेल देती है उसे गहरी खाई में’4 की गहराई की तुलना समुद्र से की जाती है। समुद्र चाहे कितना भी
जितेंद्र ऐसी सरकारों के प्रति अपना आक्रोश जाहिर करते हैं। गहरा हो लेकिन वह अपना खारापन छिपा नहीं पाता है वहीं स्त्री
अपने आँसुओं को सदियों से पीती आ रही है और वह अपने दुखों
को अपने चेहरे से छिपा लेती हैं -
‘समुद्र चाहे जितना हो अगम
छिपा नहीं पाता अपना खारापन
पर स्त्रियाँ अनादि काल से पी रही हैं अपना खारापन
बदल रही हैं
आखों के नमक को चेहरे के नमक में
और पुरुष चमत्कृत है खुश है
कि यह रूप-लावण्य उसके लिए है'6
पितृसत्तात्मक समाज में कभी भी स्त्रियों को वे अधिकार प्राप्त
नहीं हुए, जिनकी वह असल में हक़दार है। पुरुष जैसे चाहता है
वैसे स्त्री का इस्तेमाल करता है। पुरुष की मर्जी के बिना स्त्री, घर
हो या घर से बाहर कहीं भी कोई कार्य नहीं कर पाती। आज भी स्त्री
पुरुष के नियंत्रण में रहती है। स्त्री पितृसत्तात्मक समाज से आज़ादी
चाहती है। वह अपना अस्तित्त्व ख़ुद बनाना चाहती है। आमतौर
पर ग्रामीण क्षेत्रों में पिता भी अपनी बेटी का विवाह उसकी मर्जी
पूछे बिना ही कर देते हैं। जब विवाह के बाद बेटी दुखी होती है तो

444 n जुलाई से सितंबर 2023 yegh


उसे ईश्वर की मर्जी मान लिया जाता है। कवि चाहते हैं कि पिता
अपनी बेटियों किसी प्रकार की लाचारी में नहीं छोड़ें, क्योंकि हर
बेटी को अधिकार है अपने हिस्से की हँसी और आकाश में उड़ने कवि जितेंद्र अपने समय और सामाजिक
की आज़ादी की। ‘पुकार’ कविता में कवि पिताओं से कहते हैं- यथार्थ के प्रति सजग हैं। इनकी कविता समाज
‘पिताओं उठो कि बेटियाँ पुकार रही हैं के साधारण से साधारण मनुष्य से सरोकार
उन्हें मत छोड़ो विधाता की मर्जी पर रखती है। जितेंद्र वर्तमान समय की विसंगतियों
देखो उनकी भी मर्जी को चुपचाप नहीं देखते अपितु उन पर अपनी
उनको मत परोसो जीवन भर की लाचारी तल्ख़ टिप्पणी करते हैं। जितेंद्र श्रीवास्तव ने
उन्हें हँसने दो उनके हिस्से की हँसी अपनी कविताओं में समकालीन समय और
उड़ने दो उनके हिस्से की उड़ान’7 समाज का सच, मानवीय संवेदना, राजनीति,
भारत को गाँवों का देश कहा जाता है क्योंकि यहाँ की अधिकांश प्रेम, किसान, मजदूर, स्त्री, दलित, आदिवासी
जनसंख्या गाँवों में निवास करती है। गाँवों में लगभग सभी समुदायों सभी से जुड़े प्रश्नों को प्रस्तुत किया है।
द्वारा कृषि कार्य किया जाता है इसलिए भारत को कृषि प्रधान देश
की संज्ञा दी जाती है। किसान अपनी कड़ी मेहनत से सदैव भारत
के विकास में अपना महत्वपूर्ण योगदान देते रहे हैं। फिर भी देश
में किसानों के हालात ठीक नहीं हैं। आज भी भारत का किसान
ग़रीब है। उसे दो वक्त का खाना भी ठीक से नसीब नहीं होता है, नए राय साहबों की
न उसके पास रहने को अच्छा घर है, न उसके पास पहनने को टांगों के बीच’9
कपड़े हैं, न ही वह अपने बच्चों को अच्छी शिक्षा दिला पाता है- मनुष्य के जीवन में ‘प्रेम’ एक स्वाभाविक आवश्यकता है।
‘किसान भूख़ और लाचारी से मर रहे हैं जितेंद्र जानते हैं कि यह दुनिया घृणा से नहीं प्रेम से ही चलती है
किसान बदहाल हैं क्योंकि इस सृष्टि का आधार प्रेम ही है। लेकिन आज के समय की
मर रहे हैं भरी जवानी में बिडंबना यह है कि लोगों के मन में प्रेम भाव नहीं है। इस दुनिया
जो बचे हैं उनकी जेबें इस कदर खाली हैं में वे लोग बहुत भाग्यशाली हैं जिनको प्रेम की प्राप्ति हो जाती है,
कि वे भर नहीं सकते बच्चों की फीस जिनको प्रेम करने का सलीका आ जाता है। जितेंद्र का प्रेम दाम्पत्य
उनके घर में नहीं हैं जीवन का प्रेम है। जिसमें जीवन के विभिन्न रंग दिखाई देते हैं। वे
किसी के बदन पर साबुत कपड़े’8 मानते हैं कि एक स्त्री पुरुष के जीवन को पूरी तरह से बदल देती
कवि ने किसान जीवन के संघर्ष को बहुत नज़दीकी से देखा है, है। पुरुष के डगमगाते कदम संभल जाते हैं, दुखों के बादल भी
महसूस किया है। देश में आज भी लाखों किसान कर्ज़ के बोझ तले दबे उड़कर कहीं दूर चले जाते हैं। स्त्री के आने से पुरुष के जीवन में
हुए हैं। यह कर्ज़ किसानों ने बैंकों, सरकारी समितियों और साहूकारों निश्चिंतता आ जाती है और वह आशा और विश्वास से भर जाता
से लिया है। साहूकार तो अक्सर ऊँची ब्याज दरों पर कर्ज़ देते हैं जिसे है। वे अपना जीवन अपने साथी के साथ देखते हैं, क्योंकि अपने
एक ग़रीब किसान द्वारा चुकाना मुश्किल होता है। दिन-रात खेतों में साथी के साथ होने से जीवन में ताक़त मिलती है, आकाश को
खटने के बाद किसान जब अपनी फसल बेचने बाज़ार जाता है तब पलकों पर उठाने का साहस मिलता है। बिना साथी के वे जीवन
उसे उसका उचित दाम नहीं मिलता है। कई बार लगातार पानी की की कल्पना भी नहीं करते -
कमी से फसल सूख जाती है और भी अनेक प्राकृतिक आपदाओं से ‘तुम हो तो
खेती में नुक़सान और कर्ज़ की वज़ह से किसान आत्महत्या कर लेते यह जीवन है
हैं। फिर भी सरकार का ध्यान उनकी तरफ नहीं जाता- तुम्हारे बिना
‘आज भी कोई ख़ास तवज्जो नहीं है सरकारों की कल्पना भी नहीं जीवन की’10
बस छोटे-छोटे प्रलोभन हैं स्मृति मनुष्य की एक मानसिक प्रक्रिया है जो व्यक्ति के जीवन
और बड़े बड़े खेल सरकारी अनुभवों पर आधारित होती हैं। एक संवेदनशील मनुष्य अपने बीते
अब भी असंख्य होरियों की गर्दनें दबी हुई हैं समय को अवश्य याद करता है। कवि जितेंद्र श्रीवास्तव बार बार

yegh जुलाई से सितंबर 2023 n 445


श्रम की संस्कृति से है। मजदूरों की बस्तियों से है, जहाँ भी श्रम
की संस्कृति है वो ‘लोक’ है। महानगरों में भी श्रम की संस्कृति
जितेंद्र के यहाँ लोकजीवन के विविध रंग देखने है। मजदूरों की बस्तियाँ हैं। सुबह शाम खटते लोग हैं। वह भी पूरा
को मिलते हैं। ‘लोक’ में उनका मन रमता ‘लोक’ सृजित करते हैं। अंग्रेजी का जो ‘फोक’ है वो ‘लोक’ का
है। उनका शुरुआती जीवन गाँव में गुज़रा
एक हिस्सा है बस। वो पूरा ‘लोक’ नहीं है’13 भारत में भौगोलिक
और अब शहर आने के बाद भी अपने गाँव,
जनपद से जुड़े हुए हैं। इसलिए वे गाँव, नदी, विविधता देखने को मिलती है। जो लोग पहाड़ों से दूर रहते हैं,
खेत, किसानों, मजदूरों का जीवन, संघर्ष और उनको सब कुछ अच्छा ही दिखाई देता है। वे पहाड़ों के जीवन को
पीड़ा को देख पाए। उन्होंने ‘लोक’ को बहुत नहीं समझ पाते, वहाँ के संघर्ष को नहीं देख पाते।
नज़दीकी से देखा और महसूस किया है। जितेंद्र निष्कर्षतः हम यह कह सकते हैं कि जितेंद्र की कविताएँ वर्तमान
का ‘लोक’ व्यापक है वे सिर्फ़ अपनी मिट्टी, सरोकारों की कविताएँ हैं। जीवन-जगत के विविध पक्षों पर उन्होंने
अपने गाँव और जनपद तक ही सीमित नहीं अपनी लेखनी चलाई है। एक तरफ उनकी कविता वर्तमान समय,
रहते अपितु वे जहाँ जहाँ गए वहाँ के ‘लोक’ समाज और राजनीति की विसंगतियों को उजागर करती हैं तो दूसरी
को उन्होंने अपना लिया और उसे अपने जीवन तरफ भविष्य की संभावनाओं के द्वार भी खोलती हैं। अतः जितेंद्र
का हिस्सा बना लिया। की कविताएँ हमको नाउम्मीदी के दौर में उम्मीद से भर देती हैं। n
संदर्भ -
1. जितेंद्र श्रीवास्तव, कायाँतरण, किताबघर प्रकाशन, दिल्ली, प्रथम
स्मृतियों में जाते हैं। ‘स्मृतियों में बार-बार लौटना जितेंद्र की कविता संस्करण-2012, पृ. 19
की एक ख़ास प्रविधि है। स्मृति के आत्मीय संदर्भोंं की पुनराविष्कृति 2 . जितेंद्र श्रीवास्तव, कायाँतरण, किताबघर प्रकाशन, दिल्ली, प्रथम
से अपने समय के विभ्रमकारी यथार्थ को उजागर करने की यह संस्करण-2012, पृ. 51
3 . जितेंद्र श्रीवास्तव, सूरज को अँगूठा, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, प्रथम
प्रविधि जितेंद्र को उनके समवयस्क कवियों में विशिष्ट बनाती संस्करण-2020, पृ. 52
है11 उनकी स्मृति में उनका पूरा ‘लोक’ समाया हुआ है। उनकी 4 . जितेंद्र श्रीवास्तव, सूरज को अँगूठा, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, प्रथम
स्मृति में गाँव, घर, परिवार, मित्र, प्रकृति, खेत-खलिहान, पहाड़ संस्करण-2020, पृ. 120
सब आते हैं। वे अपने घर को याद करते हैं जिसे उनके पिता ने 5. जितेंद्र श्रीवास्तव, कायाँतरण, किताबघर प्रकाशन, दिल्ली, प्रथम
संस्करण-2012, पृ. 57
एक एक पैसा जोड़कर बनाया था। वह सपनों का घर अब खाली 6 . जितेंद्र श्रीवास्तव, कायाँतरण, किताबघर प्रकाशन, दिल्ली, प्रथम
मकान रह गया- संस्करण-2012, पृ. 11
पिता के सपनों का यह घर 7 . जितेंद्र श्रीवास्तव, कायाँतरण, किताबघर प्रकाशन, दिल्ली, प्रथम
एक खाली मकान है अब’12 संस्करण-2012, पृ. 45
8 . जितेंद्र श्रीवास्तव, सूरज को अंगूठा, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, प्रथम
जितेंद्र के यहाँ लोकजीवन के विविध रंग देखने को मिलते हैं। संस्करण-2020, पृ. 144
‘लोक’ में उनका मन रमता है। उनका शुरुआती जीवन गाँव में 9 . जितेंद्र श्रीवास्तव, कायाँतरण, किताबघर प्रकाशन, दिल्ली, प्रथम
गुज़रा और अब शहर आने के बाद भी अपने गाँव, जनपद से जुड़े संस्करण-2012, पृ. 47
हुए हैं। इसलिए वे गाँव, नदी, खेत, किसानों, मजदूरों का जीवन, 10 . जितेंद्र श्रीवास्तव, बिलकुल तुम्हारी तरह, भारतीय ज्ञानपीठ, दिल्ली,
प्रथम संस्करण– 2011, पृ. 25
संघर्ष और पीड़ा को देख पाए। उन्होंने ‘लोक’ को बहुत नज़दीकी 11 . जितेंद्र श्रीवास्तव, असुन्दर सुन्दर, भारतीय ज्ञानपीठ, दिल्ली, प्रथम
से देखा और महसूस किया है। जितेंद्र का ‘लोक’ व्यापक है वे संस्करण– 2008, फ्लैप से
सिर्फ़ अपनी मिट्टी, अपने गाँव और जनपद तक ही सीमित नहीं 12 . जितेंद्र श्रीवास्तव, सूरज को अंगूठा, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, प्रथम
रहते अपितु वे जहाँ जहाँ गए वहाँ के ‘लोक’ को उन्होंने अपना संस्करण-2020, पृ. 09
13 . चैनसिंह मीना, कवि का विश्व, कलमकार प्रकाशन, दिल्ली, प्रथम
लिया और उसे अपने जीवन का हिस्सा बना लिया। पहाड़ हो, संस्करण– 2022 पृ. 278
बुन्देलखंड हो या फिर दिल्ली सभी जगहों के साथ उन्होंने गहरी संपर्क : द्वारका, दिल्ली
संलग्नता महसूस की है और उन्हें ऐसे जिया है जैसे वे ख़ुद वहाँ मो. 9999827424
पैदा हुए, वहीं पले-बड़े हों। जितेंद्र कहते हैं ‘लोक’ का मतलब
मैं बराबर यह मानता हूँ कि ‘लोक’ का जो सीधा मतलब है वो

446 n जुलाई से सितंबर 2023 yegh


n आयतन : राहुल राजेश

जैसे स्वच्छ नदी की शांत धारा में नौकायन


कपिलदेव त्रिपाठी

इक्कीसवीं सदी में प्रकाश में आये हिंदी के युवा वाली निरलंकृत भाषा के कवि हैं। भव्यता की जगह
कवियों में राहुल राजेश सर्वथा नयी ऊष्मा से संपन्न सौम्यता और शोर की जगह शांति का वातावरण
एक प्रतिभाशाली कवि हैं। बीते आठ सालों में उनके रचना ही उनकी कविता का प्रेय है। इसके लिए वे
तीन संग्रह आ चुके हैं। पहला, ‘सिर्फ़ घास नहीं’ सन जिन काव्य-तत्वों का उपयोग करते हैं, उसे उनकी
2013 में साहित्य अकादेमी से प्रकाशित हुआ था। एक कविता की इन पंक्तियों से समझा जा सकता है-
‘क्या हुआ जो’ और ‘मुस्कान क्षणभर’ क्रमशः 2016 “निश्छल हृदय में संचित
ओैर 2021 में, ज्योतिपर्व प्रकाशन, गाजियाबाद और थोड़ी-सी प्रेमराशि
सूर्य प्रकाशन मंदिर, बीकानेर से प्रकाशित हुए हैं। थोड़ा-सा नमक
राहुल राजेश के संग्रहों को पढ़ने का अपना अलग ही आनंद थोड़ी-सी मिठास
है। विमर्शवादी कविताओं के कोलाहल से भरे आज के समय में थोड़ा-सा पानी
इन्हें पढ़ते हुए,किसी स्वच्छ नदी की शांत धारा में नौकायन करने थोड़ी-सी आग”
जैसा अनुभव होता है। यह भी समझ में आता है कि कविता लिखने (‘सिर्फ़ घास नहीं’ संग्रह से, पृष्ठ 15)
के लिए, किसी उपकरण की नहीं, सिर्फ़ अपनी अंतःप्रकृति को देखना दिलचस्प है कि राहुल राजेश की कविता जिन तत्वों
उपलब्ध कर लेने की ज़रूरत होती है। कविता की दिव्यता और (प्रेम,मिठास,नमक,पानी और आग) से निर्मित है,वे बहुत
भव्यता असल में तो निरलंकतृ और साधारण होने में है। कवि साधारण, प्राकृतिक और न्यूनतम हैं। पंच तत्वों से निर्मित संसार
कोई कीमियागर या जादूगर नहीं, वह भी साधारण जीव होता है का अस्तित्व जिस तरह परमात्मन् के बिना संभव नहीं, उसी
और कविता के पास उसे साधारण जीव की तरह ही जाना चाहिए। तरह निश्छल हृदय के बिना कविता का होना भी असंभव है।
कितना अजीब है कि तमाम कवि ‘जहाँ न जाए रवि,वहाँ जाए काव्य-सृजन के संदर्भ में निश्छल हृदय परमात्मन् का ही दूसरा
कवि’वाली रीतिकालीन उक्ति को आज भी अपना आदर्श मानते नाम है। निश्छलता के अभाव में कविता, कविता न होकर भाषा-
हैं और अपनी कविताओं में पाठकों को कला के नाम पर मायावी विलास का माध्यम बन कर रह जाती है। हम सब जानते ही हैं कि
लोक की निरर्थक यात्रायें कराते रहते हैं। ऐसे मायावी कवियों से हार्दिक-निश्छलता का स्वाभाविक वास परिवार और पारिवारिकता
चिढ़कर ही चिली के प्रसिद्ध कवि निकानोर पार्रा ने कहा होगा- का अवबोध कराने वाले विषय-प्रसंगों में सबसे ज्यादा होता है।
“परियों और समुद्री देवों में हमें यक़ीन नहीं परिवार ही वह जगह है जहाँ मनुष्य अपनी जड़ों,अपने अनुभवों,
कविता ऐसी होनी चाहिए- अपनी माटी और अपनी भाषा के साथ सर्वाधिक स्वाभाविक संबंध
जैसे गेहूँ के खेत में खड़ी एक लड़की में जी रहा होता है। कविता में सहजता और स्वाभाविकता बनाए
वर्ना कुछ भी नहीं।” रखने के लिए कवि को अपने पारिवारिक अनुभवों से सजीव रूप से
(निकानोरपार्रा की कविता‘घोषणा पत्र’, अनुवादःउज्ज्वल जुड़े रहना होता है। यह सजीवता बनी रहे, इसके लिए राहुल राजेश
भट्टाचार्य) का कवि वैदिक ऋचाओं जैसे शिल्प में कामना करता है कि-
थोड़े में कहें तो, राहुल राजेश ‘गेहूँ के खेत में खड़ी लड़की’ “लौटें हम अपनी जड़ों की ओर
जितनी ही साधारण और नितांत आसपास के जीवन में बरती जाने तलाशें बिसराए संबंध

yegh जुलाई से सितंबर 2023 n 447


जिएँ अपना ही लोक,अपनी ही माटी राजेश का कवि निकानोर पार्रा से काफ़ी प्रभावित लगता है। अपनी
अपनी ही भाषा।” ऊपर संदर्भित कविता में निकानोर पार्रा कहते हैं- हमारा पैगाम
(‘सिर्फ़ घास नहीं’ संग्रह से,‘प्रार्थना-2’, पृष्ठ 54) हैः कविता की रोशनी/सबके लिए है/कविता हम सब का खयाल
निश्छल होना एक अर्थ में निरुद्देश्य होना भी है। राहुल राजेश रखती है।” निकानोर पार्रा की कविताओं की तरह राहुल राजेश की
अपनी कविता को किसी उद्देश्य की बंदी नहीं बनाते। सोद्देश्यपरकता कविता भी सबका खयाल रखने को प्रतिश्रुत है और प्रकृति द्वारा
अपने आप में कोई मूल्य नहीं है। काव्य-मूल्य तो बिलकुल नहीं। सृजित छोटे-बड़े,निर्जीव-सजीव सभी अस्तित्वों का सम भाव से
गहराई से विचार करें तो समझ में आता है कि उद्देश्यपरकता स्वागत करती है-
एक विभाजनकारी विचार है। ऐसे समय में,जब हर कवि के पास “सिर्फ़ चीते की चाल पर मुग्ध होना
कविता लिखने के पर्याप्त और स्पष्ट उद्देश्य हैं,राहुल राजेश साफ घोंघे की मंथरता की बेकद्री है!”
शब्दों में कहते हैं कि उन्हें नहीं पता कि वे कविता किनके लिए (‘बेकद्री’, ‘मुस्कान क्षणभर’संग्रह से)
अथवा किस लिए लिखते हैं। यह कथन फ्रेंच कवि ज्याँ काक्टो साधारण-सी दिखने वाली इन दो पंक्तियों में कवि ने भारतीय
के उस कथन से मिलता है जिसमें वह कहता है कि “उसे नहीं मनीषा का निचोड़ रख दिया है। इसके तार रहीम के दोहे–“रहिमन
मालूम कि कविता का क्या काम है। लेकिन यह ज़रूर मालूम है देखि बड़ेन को लघु न दीजिए डारि/ जहाँ काम आवै सुई, कहा
कि कविता के बिना मुनष्य का काम नहीं चल सकता!” करे तरवारि”से तो जुड़ते ही हैं,समत्व का सनातन विचार भी इसमें
राहुल राजेश वस्तुत: कविता किसी पक्ष का प्रतिपादन या चरितार्थ होते देखा जा सकता है। प्रसिद्ध आलोचक नन्दकिशोर
प्रतिकार के लिए नहीं, बल्कि इसलिए लिखते हैं कि कविता के बिना आचार्य ने राहुल राजेश की कविताओं में समत्व के इस विचार
आदमी का काम नहीं चल सकता। कविता आदमी की सहचरी है। को लक्ष्य करके ही कहा होगा कि-“नैतिक अर्थ में मनुष्य होने का
जीवन जीने का वह सबसे कोमल तरीका है। कविता अपने आप इससे बड़ा प्रमाण और क्या हो सकता है कि हम मानव के साथ-
में एक प्रकार की गहरी सुखानुभूति है- अंतःकरण के शुद्धिकरण साथ मानवेतर अस्तित्व के साथ भी आत्मीय भाव महसूस करें।”
और समृद्धिकरण का साधन। राहुल राजेश कविता क्यों लिखते हैं, राहुल राजेश की द्वंद्वात्मक यथार्थवादी दृष्टि उनकी कविताओं
इसका उत्तर उनकी इस छोटी-सी कविता में खोजा जा सकता है- में हर समय सक्रिय और सजग रहती है। रोमानीपन उनकी कविता
“अभी-अभी कुछ कविताएँ पढ़ कर उठा हूँ में उतना ही होता है, जितना कि जीवन में सुकोमलता और सौंदर्य
और कुछ और अधिक मनुष्यता से भर गया हूँ बनाए रखने के लिए उसका होना आवश्यक है। यहाँ तक कि प्रेम
(‘अभी-अभी’, ‘मुस्कान क्षण भर’ संग्रह से) के चरम क्षणों में भी, जब रोमानी क्रांतिकारिता में गर्क हो जाने का
राहुल राजेश की नज़र में कविता वही है जो कवि और पाठक ख़तरा सबसे अधिक होता है, कवि का नैरटे र पूरी तरह सजग और
दोनों को मनुष्यता से भर दे, दुनिया को बेहतर बनाने के लिए प्रेरित नैतिक बना रहता है। बुरा बनने के हजार आकर्षणों से भरे आज
करे और सबसे बड़ी बात कि पारिवारिकता की संवेदना जाग्रत के समाज में बुरा बन पाने की हिम्मत न जुटा सकना साबित करता
करे। परिवार ही वह प्राथमिक इकाई है जहाँ कोई मनुष्य प्रेम और है कि कवि सुखों के साजो-सामान से भरपूर किंतु कलाहीन जीवन
आत्मीयता के संस्कार अर्जित करता है,स्वप्न देखना सीखता है की जगह एक ऐसा जीवन चाहता है जहाँ-
और अपने भीतर की मनुष्यता के प्रति सचेत होता है। मनुष्यता “सुबह-सुबह जागें तो
से भर कर पत्नी और बच्चों को गले लगाने की बेचैनी ही राहुल बाहर नीम की झूलती डाल को निहारें
राजेश के कवि को अपनी माटी, अपने लोक और अपनी भाषा से उसपर कूकती कोयल को सुनें
जुड़े रहने के लिए प्रेरित करती रहती है। वह पारिवारिक जीवन के खिड़की-रोशनदानों से आती ताजी हवा
आत्मीय दायरों के उदात्त अनुभवों के कवि हैं। उनकी कविताओं और मुलायम धूप का स्वागत करें!”
में माँ,पिता,बहन, दादा,दादी के अनुभवों और संदेशों की धड़कनें (‘मॉर्निंग रागा’, ‘सिर्फ़ घास नहीं’ संग्रह से)
सुनी जा सकती हैं। परिन्दे, चूड़ीहारिन, अन्न, तकिया, गन्ना, बाँस, नीम की झूलती डाल, कूकती कोयल, ताजी हवा और मुलायम
बेर, पानी, नींद, जाड़े की धूप और बारिश की शाम आदि उनकी धूप जिसका अभीष्ट होगा, स्वाभाविक है वह सुखोपभोग की थोथी
कविता के ऐसे काव्य-विषय हैं जो हमें हमारी पारिवारिक जड़ों से सुविधाओं के संग्रहण के लिए बुरा बनना नहीं चाहेगा। इस कविता
जोड़ते हैं और अपनी परंपरा से सीखने की प्रेरणा देते हैं। में वस्तुवादी सुखों के नकार का स्वर छिपा हुआ है। वस्तुवादी
बात कुछ ज्यादा बड़ी न लगे तो कहना चाहूँगा कि राहुल सुखेषणा ही समाज में व्याप्त सारी दुविधाओं, सभी तरह के

448 n जुलाई से सितंबर 2023 yegh


विभाजनों,वंचनाओं और तज्जनित दुखों का मूल है। यही तरह- बानगी इन पंक्तियों में देखी जा सकती है-
तरह की राजनीतिक दार्शनिकताओं का रूप धारण करके हमारी “यह शहर
प्राकृतिक सामाजिक समरसता को नष्ट करता रहता है। कवि इस इतना डरा क्यों हैं
कविता में नीम की झूलती डालों, कोयल की कूक,ताजी हवा और यह शहर इतना मरा क्यों है
मुलायम धूप की तरफ लौटने का आह्वान करने के बहाने सभी इस शहर की आँखों में इतनी राख क्यों है
दु:खों के मूल-वस्तुवादी दार्शनिकताओं द्वारा पैदा किये गये संकटों इस शहर की आत्मा में इतना धुआँ क्यों है?”
से पार पाने की जरूरतों की तरफ भी संकेत कर देता है। (‘यह शहर’, ‘क्या हुआ जो’ संग्रह से)
ऊपर उद्धृत कविताओं से यह नहीं समझना चाहिए कि राहुल राहुल राजेश इन कविताओं में बड़ी नामालूम-सी सहजता से
राजेश केवल घर-परिवार और परिवेशगत परिधियों के भीतर देश-काल के सघन दृश्यारेख खींच देते हैं। छोटे और मामूली
सक्रिय रहने वाले,कोमल किस्म की आत्मगत संवेदनाओं के शब्दारेखों में बड़े और जटिल परिप्रेक्ष्यों को अंकित कर लेने का
कवि हैं। वैसे, यह बात किसी हद तक सही भी है और जैसा कि सामर्थ्य इन कविताओं में देखा जा सकता है। ‘चित्रपट’कविता वैसे
स्वाभाविक है, हर कवि सबसे पहले आत्मगत सरोकारों को ही तो नगरपालिका की टोंटी पर रोजमर्रा के दृश्य का बेहद मामूली-सा
अपनी अभिव्यक्ति का माध्यम बनाता है। इसलिए कोई चाहे तो वर्णन है, लेकिन पाठक को समझते देर नहीं लगती कि वस्तुतः यह
इन संग्रहों को आत्म की निर्मिति और संवेदनात्मक अवस्थिति की देश की एक बड़ी आबादी के जीवन का सांद्र रूपक है-
पहचान कराने वाले संग्रहों के रूप में पढ़ सकता है। आत्मगतता “नगरपालिका की टोंटी पर
और प्रेमास्पदता की नाभिकीय उपस्थिति हालाँकि राहुल राजेश के नागरिकों का जमघट है
सभी संग्रहों की कविताओं में देखी जा सकती है, फिर भी उनकी बूँद-बूँद के लिए हाहाकार है
कविताओं, खास कर दूसरे और तीसरे संग्रहों की कविताओं में ओैर लंबी कतार है
कवि के परिपक्व अनुभवात्मक विस्तार को आकार लेते भी देखा खाली डब्बा, खाली बाल्टी
जा सकता है। तीसरे संग्रह तक आते-आते कवि के प्रेम-संवेग को खाली कनस्तर,खाली घट है
अपने परिपाक तक पहुँचते देखा जा सकता है। एक कविता में और बस जीने का हठ है!”
कवि कहता भी है कि- कवि ने इसमें भारतीय जनता की कठिन जिजीविषा का जो
“प्रेम में जितना रहा जा सकता था,रहा हाहाकारी चित्र उकेर दिया है,उसे उकेरने के लिए ‘क्रांति के
अब और नहीं सूत्रधार’कथित कवियों को भारी भरकम शब्दों का घटाटोप खड़ा
यह प्रेम के पकने का समय है करने में हलकान होते देखा जा सकता है।
प्रेम के मिट्टी में धँसने का समय है।” राहुल राजेश को पढ़ते हुए बराबर यह समझ पक्की होती
(‘निर्वासन’, ‘मुस्कान क्षण भर’ संग्रह से) चलती है कि उनकी कविताओं का कोई एक केन्द्रक नहीं है।
‘क्या हुआ जो‘ और ‘मुस्कान क्षणभर’संग्रहों में राहुल राजेश को ‘इंडिया इंटरनेशनल’,‘दिल्ली’,‘अहमदाबाद’,‘कोलकाता’,‘गड़ि
समय की विद्रूपताओं और विडंबनाओं पर ध्यान केंद्रित करते देखा याहाट’, ‘कुटिल आदमी’, ‘अमरूद का पेड़’, ‘मेरा शहर’, ‘ग्रेटा
जा सकता है। ‘शहर’, ‘खिलाफ’, ‘तस्वीर’,‘यह शहर’(सभी थनबर्ग’, ‘बाँसुरी’,‘गोश्त’, ‘पानी’, ‘नमक’, ‘पृथ्वी-गाथा’,‘पानी
कविताएँ‘क्या हुआ जो’संग्रह से); ‘आज़ादी’, ‘त्रिधारा’, ‘दोनों ही’, पुल्लिंग है’, ‘फोटोग्राफर’, ‘दरवाजे’,‘नत हूँ मैं’ आदि स्थान-
‘ज़रूरत’,‘झूठे लोगों से भरी पड़ी है दुनिया’, ‘खेल’, ‘आधुनिक’, विषयक,व्यक्ति-विषयक तथा वस्तु-विषयक कविताओं से लेकर
‘न होगा’,‘दुनियादारी’ (सभी ‘मुस्कान क्षण भर’ संग्रह से) आदि ‘गंतव्य’, ‘लौटना’, ‘जाना तब’, ‘आज़ादी’, ‘नींद’, ‘खुशी’,
कविताओं में सामाजिक विद्रूपताओं के अक्स संकेतित होते देखे ‘ग्लानि’, ‘संशय’, ‘अधूरा पता’, ‘डूबना’, ‘भरोसा’, ‘आखेट’,
जा सकते हैं। इन कविताओं की मारकता से समझा जा सकता है ‘घर वापसी’, ‘प्यास’, ‘घास पर पाँव’ और ‘मुस्कान क्षण भर’
कि कवि अपने सामाजिक परिदृश्य से अनजान या उदासीन नहीं जैसी भाव-विषयक अनेक कविताओं से निर्मित उनका काव्य-वृत्त
है। ‘यह शहर’ शीर्षक कविता अपने आप में हमारे उदास और अनुभव-वैविध्य से भरे वास्तविक संसार की प्रतीति कराता है।
हताश समय का एक विराट बिंब रचती है। प्रश्नवाचक शिल्प में राहुल राजेश का कवि अभी अपने काव्य-जीवन के किशोर वय
लिखी गयी इस कविता में सवालों के माध्यम से, पंक्ति दर पंक्ति में है, मगर उसके काव्यानुभव का विस्तार उसके वयस्क होने का
कवि अपने समय और समाज का जो संकेत-चित्र गढ़ता है,उसकी आभास कराता है। कितना सुखद है कि विचारधाराओं में दीक्षित

yegh जुलाई से सितंबर 2023 n 449


कवियों में पायी जाने वाली, ‘सर्वज्ञ’और ‘दिव्य-द्रष्टा’ होने के है। उनकी कविताओं में राजनीति और विचारधारा का हस्तक्षेप
मिथ्या-बोध से ग्रसित युवा कवियों की तरह वे अपने देश-काल लगभग अनुपस्थित रहता है। यही कारण है कि उनकी वैचारिकता
के विरुद्ध मिथ्या असंतोष अथवा रोमानी उम्मीद की यूटोपियायी से असहमत पाठक भी उन्हें पढ़ना पसंद करते हैं। राहुल राजेश
कविताएँ लिखने में अपना समय जाया नहीं करते। वे अपने हृदय की कविताओं में भारतीय भावभूमि से लगातार दूर होती गयी हिंदी
के आयतन और अपनी संवेदनशीलता को लेकर हमेशा एक विनम्र कविता को, फिर से अपनी विस्मृत जातीय संवेदना में लौटते देखा
संकोच से भरे एक ऐसे कवि हैं जिसे यह मानने में कोई संकोच जा सकता है। n
नहीं कि वह एक साधारण मनुष्य है और उसकी अपनी मानवीय संपर्क : 11-ई, सिद्धार्थ नगर कॉलोनी
सीमा है। (सेंट्रल एकाडेमी स्कूल के पीछे)
उनके सद्य प्रकाशित तीसरे संग्रह ‘मुस्कान क्षण भर’तक आते- पोस्ट-सिद्धार्थ एनक्लेव, तारा मंडल रोड, गोरखपुर,
आते यह पूरी तरह स्पष्ट हो जाता है कि राहुल राजेश मूलत: मो. 9651170768
आत्म-परिष्कार के कवि हैं। कविता उनके लिए अपनी और अपने
समय की आनुभूतिक गहराई में उतरने का एक ज़रूरी माध्यम

मेरी कविताओं पर आपकी


असहमतियाँ उचित नहीं कैसे कवि हैं आप कि अपनी
जान पड़तीं! आलोचना बर्दाश्त नहीं कर
पाते।

कवि-आलोचक की नोंक झोंक

450 n जुलाई से सितंबर 2023 yegh


n आयतन : प्रमोद कुमार तिवारी

ज़मीन की कविता
कुमारी गीतांजलि

विगत् दो दशकों में प्रमोद कुमार तिवारी की है, जिसमें मनुष्य मात्र ही नहीं अपितु वनस्पतियों
कविताओं ने अपनी विशिष्ट उपस्थिति दर्ज़ की है। से लेकर कीड़े-मकोड़ों तक और जानवरों से लेकर
लोक संदर्भोंं की नवीन प्रस्तुतियों ने उन्हें प्रयोगधर्मी धामिन सांप तक शामिल है, जिसे किसानों के लिए
कवि के रूप में स्थापित किया है। उनकी कविताओं धन और ऐश्वर्य का प्रतीक माना जाता है। एक संपूर्ण
का संग्रह ‘सितुही भर समय’ नाम से प्रकाशित है। घर, जिसके छप्पर तले सब साथ रहते थे। तभी तो
इधर विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में उनकी ‘सड़क’ वह लिखते हैं:
संबंधी कुछ कविताएँ प्रकाशित हुई हैं, जिसने उनकी ‘वह घर था
प्रयोगधर्मिता और संदर्भग्राह्यता को और भी अधिक पुष्ट किया घर
है। ‘सितुही भर समय’ गाँव से दूर हो चुके लोगों के स्मृतियों का जिसमें
जीवंत संयोजन है। इन कविताओं में जहाँ ग्रामीण संस्कृति के प्रति सभी सदस्यों के लिए होती थी पर्याप्त जगह
एक तीव्र आसक्ति दिखाई पड़ती है, वहीं दूषित प्रथाओं के प्रति कुत्ते, बकरी, बिस्तुइया से लेकर
एक गहरा विषाद भी मौज़ूद है। इन दो दशकों में ग्रामीण संस्कृति आन गाँव से आने वाले
एवं लोक जीवन केन्द्रित कई संग्रह प्रकाशित हुए हैं, परन्तु प्रमोद सारंगी बजाते बाबा तक के लिए
की कविताएँ अलहदा हैं। कुछ ऐसी परिस्थितियाँ, कुछ ऐसे दृश्य, ग़रीबी थी
कुछ ऐसे पात्र और कुछ ऐसे प्रसंग जो नितांत सामान्य होते हुए अभाव न था’1
भी अनछुए रह गए थे और तब जिसे एक बालक ने बड़े ग़ाैर से भावों से लबालब भरा रहने वाला घर। लेकिन वह भाव, वह
निहारा था, आज इस युवा रचनाकार की कविताओं की सबसे बड़ी प्रेम, वह मिट्टी की सुगंध कहीं पीछे छूटती जा रही है। संपन्न
उपलब्धि बन पड़े हैं। सामाजिक संरचना से विपन्नता की ओर जा रही यह ग्रामीण
संग्रह में सहेजी गई अधिकांश कविताएँ बालमन की स्मृति से संस्कृति ही कवि की चिंता का मुख्य कारण है। प्रमोद वही हैं, जो
सृजित हैं, कुछ-कुछ जिज्ञासु जो जाने हुए को समझना चाहता है। उनका गोंइया ठेलुआ है। यही कारण है कि एक शांत, स्थिर स्वर में
ऐसा जान पड़ता है कि इस बौद्धिक युवा कवि ने अभी भी अपने वह सब कह जाते हैं जो इस गाँव को गाँव होने से रोकता है। जहाँ
भीतर कहीं उस छुटपन को बचाए रखा है। कभी तो वह ग्रामीण जमींदारीप्रथा ख़त्म होने का नाम ही नहीं लेती, भेदभाव-छुआछूत
परिवेश को निहारता रहता है तो कभी आम के बौराए मोजरों में खो दिनों-दिन बढ़ती ही चली जा रही है, जहाँ स्त्रियों को आज भी
जाता है और जब जागता है तो मानवीय रिश्तों को बचाए रखने के प्रताड़ित किया जाता है।
लिए गजब का प्रतिवाद करता है। कवि का गोंइया (खेल में अपने इन कविताओं का ट्रीटमेंट भी बड़ा रोचक है। एक कविता है
दल का साथी) ‘ठेलुआ’,आँगन में बोलता‘कौवा’, विमर्शों पर ‘कमरू चाचा बनाम कमरुआ’। जाति का हज्जाम और धर्म से
भारी पड़ती ‘माँ’, अपनी छुरी-कैंची से आदमी बनाने वाले ‘कमरू मुसलमान इस पात्र में प्रमोद विमर्श नहीं ढूँढते, न ही जातिगत
चाचा’, टूटे टीन-बर्तनों और अनाज के बदले सामान देने वाले अथवा धार्मिक भेदभाव को दुत्कारते अथवा पुचकारते ही हैं। वह
‘फेरीवाले’,‘दइतरा बाबा’ सभी उसके जीवन के महत्त्वपूर्ण अंग बस आपसी रिश्तों की गर्माहट महसूस करा जाते हैं। कहते हैं खिंची
हैं। एक भरा-पूरा संपन्न जीवन। प्रमोद के लिए पूरा गाँव ही कुटुंब हुई रेखा बिना मिटाए छोटी करनी हो तो उसके बगल में एक बड़ी

yegh जुलाई से सितंबर 2023 n 451


रेखा खींच दो। प्रमोद ठंडी पड़ती जा रही सामाजिक समरसता और बेटे का सेवानिवृत्त पिता की आँखों से डर, यहाँ तक कि एक पिता
तल्ख़ी पर रिश्तों की एक गहरी लकीर खींच जाते हैं- का अपनी सुन्दर बेटी के गोरे रंग से डर। प्रमोद इसे समझने की
नहीं मालूम, कितने ज़माने से कोशिश करते हैं। वह लिखते हैं कि आज समझदार होना डर
चाचा के परिवार वाले हमारे घरवालों को के नए विकल्प खोलना है और हालात ऐसे हैं कि अगर इस डर
बनाते रहे हैं आदमी से बचना है तो डराते रहो दूसरों को। इसी भय की एक उपज है
कमरू चाचा सांप्रदायिकता, जहाँ मनुष्य अपने दायरों को लगातार संकुचित
कब कमरुद्दीन करता जा रहा है। इस भय की स्थिति तो देखिए-
फिर कमरुद्दीन मियाँ आज कुछ भी डरा सकता है
और कमरुआ हो गए एक टीका
किसी को ख़बर नहीं हुई2 टोपी
ठीक ऐसा ही ट्रीटमेंट हमें स्त्री केन्द्रित कविताओं में भी दिखाई दाढ़ी
देता है। लेखक ने स्त्रियों के अंतःकरण को छुआ भर है और यह यहाँ तक कि सिर्फ़ एक रंग भी5
छुअन ऐसी टीस पैदा करती है कि सभ्य समाज सोचने पर मजबूर इन सब के बीच में है ‘समय’। ‘टाईम और स्पेस’ को नए
हो जाए। आज भी महिलाओं को डायन बता कर मार डालने की ढंग से रचता है यह कवि। लोक और शास्त्र दोनों ही व्याख्याओं
घटनाएँ सुनाई पड़ जाती हैं। 3 अगस्त, 2010 को उत्तर प्रदेश का अनुपम संगम। ‘सितुही भर समय’, ‘दोस्त’ और ‘शून्य और
के सोनभद्र जिले के कहरिया गाँव की एक महिला जागेश्वरी को समय’ ऐसी ही कविताएँ हैं। बिलकुल नए प्रतिमान। खेतों में पाए
डायन बताकर उसकी जीभ काट ली गई थी। कवि का यह प्रश्न जाने वाला सितुही (सीप) संभवतः सर्वाधिक छोटा नपना है।
कि - समय जो कहीं तेज भाग रहा है और कहीं यह सितुही भी उसके
भला जागेश्वरियों के पास लिए कम जान पड़ता है। समय जिसने सब कुछ बदल कर रख
कहीं जीभ, दाँत और नाख़ून होते हैं दिया है और कुछ ऐसी विपरीत परिस्थितियाँ हैं जो समय को ही
इन पंचों के पूर्वजों के पूर्वजों ने पछाड़ने में लगी हुई हैं।
सदियों पहले कर दी थी व्यवस्था संयोग देखिए, इस संग्रह की कुछ कविताएँ हालिया घटनाओं
साफ़ बात है का जीता-जागता चित्रण लगती हैं, जो इनविपरीत परिस्थितियों में
जब जीभ थी ही नहीं सत्ता को सीधे चुनौती देती हुई प्रतीत होती हैं। ना, यह संयोग नहीं।
तो कटी कैसे3 यह तो कविता की शक्ति है, उसकी कालजयिता है। कविता अपने
यह कविता स्त्रियों की सामाजिक स्थिति बयाँ करती है। कम अर्थगर्भ्य के कारण ही सभी विधाओं में अनमोल है, बेजोड़ है।
उम्र में विधवा हुई औरतों को अपशकुनी और डायन मानने वाली ‘भीड़’, ‘एक बात बताओ भगवान’, ‘महानगर में पुरबिए’, ‘क ख
ग्रामीण मानसिकता को उजागर करती एक अन्य कविता‘दीदी’ ग और सरकार का बदलना’ऐसी ही कविताएँ हैं, जो पुनः जीवंत हो
अपने साथ कई सवाल छोड़ जाती है। तभी तो कवि जे.एन.यू. उठी हैं, कहीं ज्यादा मारक और मर्मस्पर्शी। ‘हत्या और आत्महत्या
की उस निर्भीक और आज़ाद लड़की को अशेष शुभकामनाओं के के बीच’ कविता उन परिस्थितियों पर कड़ा प्रहार करती है जो उन
साथ कहता है; ‘देखना! बचाना अपनी आग को, ज़माने की पुरानी हजारों किसानों से लेकर विश्वविद्यालय के उन अभागे विद्यार्थियों
ठंडी हवाओं से।’4 कवि यह कामना करता है कि इस निर्भीकता तक की आत्महत्या का कारण बनी। ‘जे.एन.यू.’कविता की ये
और स्वतंत्रता के कीटाणु सम्पूर्ण वातावरण में फ़ैल जाए क्योंकि पंक्तियाँ उल्लेखनीय हैं-
यह संक्रमण ही हजारों जागेश्वरियों के प्रतिरोध का कारण बनेगा। सवाल का दूसरा नाम है जे.एन.यू.
प्रमोद की ये छोटी-छोटी कविताएँ सम्पूर्ण मानवता को अपने जो अक्सर चिपक जाता है
ज़द में ले लेती हैं। आज जो विपरीत परिस्थितियाँ उत्पन्न हुई हैं, प्रश्नचिह्न बनकर
इसमें व्यक्ति अपनी अवस्था और परिवेश को लेकर एक डर सत्ताधारियों के माथे पर6
महसूस कर रहा है। आख़िर यह कौन सा डर है, जो हमें भीतर तक़रीबन डेढ़ दशक पूर्व लिखी यह कविता जे.एन.यू. संबंधी
ही भीतर समेटे जा रहा है? हम ‘स्व’ को पहचानने तक से कतरा हालिया परिस्थितियों पर बहुत कुछ कह जाती है। यह कविता की
रहे हैं। हट्टे-कट्टे मज़दूर का मरियल जमींदार से डर, बेरोज़गार शक्ति ही तो है, जो समय और परिस्थिति के अनुरूप उसके साँचे

452 n जुलाई से सितंबर 2023 yegh


में ढल जाती है। ढलना लिखना गलत होगा यो कहें कि विपरीत कि सड़क को पता न चले
परिस्थितियों में ढाल बन जाती है। यह कविताएँ हालिया घटनाओं इस बात से बेख़बर
के विरुद्ध चीत्कार उठती हैं और लगभग कड़े शब्दों में यह ताक़ीद कि सड़क भी स्त्री है
करती हैं कि ‘अभी मैं हूँ।’ खुल कर प्रेम करती स्त्रियों को
कवि स्वप्नद्रष्टा होता है। हाँ, बस इतना ही। प्रमोद की कविताएँ जब सड़क बताने को तुला होता है समाज8
क्रान्ति गीत नहीं गातीं, न ही गाँव की गोद में कहीं खो कर रह जाती इधर कविता की सर्वाधिक आलोचना इसकी भाषा और रूप
हैं। बल्कि यह एक स्वप्न देखती हैं। वह स्वप्न, जो हर निर्दोष को लेकर हुई है। पिछले कुछ समय से आलोचकों का एक वर्ग
चित्त देखता रहा है। ‘नामकरण’ कविता इन्हीं स्वप्नों को रूपायित मानता रहा है कि कविताओं पर विमर्शों का दबाव बढ़ा है और वह
करती है। जहाँ गली, सड़क, चौराहे, अस्पताल, स्टेडियम के नाम गद्यात्मक अधिक हुई हैं। संभवतः पहली नज़र में आपको प्रमोद
ग़रीब, मज़दूर, किसान, सिपाही और लेखकों के नाम पर रखने का की कविताएँ भी ऐसी ही जान पड़े। यह सही है कि इन कविताओं
प्रस्ताव है। दरअसल यह प्रस्ताव अथवा विकल्प नहीं है। यह तो का पाठ हमें कोई नए शब्द नहीं देता और न ही नए प्रतीक गढ़ता
अधिकार है। जिन्होंने सदियों से इस धरा को सींचा है, संजोया है, है। एक युवा कवि के लिए यह ख़तरनाक हो सकता है। लेकिन
इसकी रक्षा की है, इसे आगे बढ़ाया है। यह देश उन्हीं को समर्पित। प्रमोद ने यह ख़तरा उठाया है। बातें वजनी नहीं हैं, बल्कि हल्की
विगत् एक-डेढ़ वर्षों में प्रमोद की ‘सड़क’ केन्द्रित कई हैं, कुछ-कुछ ओस की मानिंद। लेकिन इसकी छुअन अन्दर तक
प्रयोगधर्मी कविताएँ प्रकाशित हुई हैं। यह उत्तरआधुनिकता, घर कर जाती है और देर तलक ठहरती है। इनमें एक भदेसपन है।
बाज़ारवाद, पर्यावरण संरक्षण से लेकर लोक संस्कृति और मानवीय इन्होंने गँवई भाषा के विशाल भंडार से अपने शब्द ढूंढ निकाले हैं
संबंधों तक से जुड़ती हैं। प्रमोद का यह प्रयोग रुचिकर है। संभव है और जब उस बालस्मृति की जिज्ञासा, उसके प्रश्न, उसकी घुटन,
भविष्य में उनका एक काव्य-संग्रह ‘सड़क’ केन्द्रित हो। सड़क पर उसका प्रेम इन शब्दों से टकराता है, तो शब्द गा उठते हैं। जैसा कि
लिखते हुए उन्हें उस ज़मीन की याद आती है, जो उपजाऊ है, जहाँ वह स्वयं लिखते हैं,‘शब्दों की एक दुनिया रचने के भ्रम में, ख़ुद
कीड़े-मकोड़ों से लेकर चूहे और खरगोश तक का आशियाना है। गढ़ा जा रहा था मैं’9 और जब आपका साक्षात्कार इन कविताओं
धीरे-धीरे यह ज़मीन बंजर होती चली जा रही है। दिनोंदिन सड़क से होता है तो आप स्वयं भी गढ़ते चले जाते हैं। ऐसा लगता है कि
की लंबाई नहीं बल्कि बंजर ज़मीन की लंबाई बढ़ती जा रही है- इनकी कविताई उस गाँव की बोली के आगे नतमस्तक हो। वह
पहले बस थोड़ी सी ज़मीन तो अपने धरोहर को सहेजने में लगे हैं। कुछ-कुछ रागदरबारी की
इस दर्द को ढोती थी भाँति जिसमें श्रीलाल शुक्ल इंगित करते हैं कि सारे मुहावरे, सारी
अब हर रोज़ पैदा होती हैं नयी सड़कें लोकोक्तियाँ, सारा गीत यहीं है। वास्तव में, प्रमोद कविता की
दिनोंदिन मोटी होती जाती हैं सड़कें ज़मीन पर ज़मीन की कविता बोते हैं। n
अपने अकेलेपन में डूबी
संदर्भ-
ज़मीन सोचती है
1. सितुही भर समय, बभनी, पृष्ठ-65-66
लोगों को ज़मीन की नहीं 2. वही, कमरू चाचा बनाम कमरुआ, पृष्ठ.107-109
बस सड़कों की ज़रूरत है7 3. वही, जीभ थी ही नहीं तो कटी कैसे, पृष्ठ-47
आधुनिक समय में प्रेम निरर्थक होता जा रहा है। आधुनिक 4. वही, जे.एन.यू. की लड़की, पृष्ठ-28
होते इस समाज में स्त्री को भोग्या समझने वाली मानसिकता 5. वही, डर, पृष्ठ-13
6. वही, जे.एन.यू., पृष्ठ-96
आश्चर्यजनक रूप से नए अर्थों में बढ़ती जा रही है। कवि स्त्रियों 7. पुस्तकनामा, चेतना का देश राग, ज़मीन, पृष्ठ.161
को प्रेम की शरणस्थली मानता है,जो निष्कपट है। कवि ने स्त्रियों 8. वही, सड़क पर प्रेम, पृष्ठ-161
की तुलना सड़क (स्त्रीलिंग) से की है, जहाँ मर्द गुज़र जाना चाहते 9. सितुही भर समय, शब्द और कवि, पृष्ठ-104
हैं स्त्रियों से, सड़क की तरह। ‘सड़क पर प्रेम’ कविता स्त्री-पुरुष
संबंधों के कई संदर्भ खोलती है। यह पितृसत्तात्मक व्यवस्था और संपर्क : न्यू कॉलोनी, डाक बंगला रोड,
बेतिया, पश्चिमी चम्पारण, िबहार
उसकी मानसिकता पर कड़ा प्रहार करती है। कवि लिखता है-
मो. 6206247570
सड़कवाली स्त्री से प्रेम करने आते हैं मर्द
इस तरह

yegh जुलाई से सितंबर 2023 n 453


n आयतन : उमाशंकर चौधरी

कवि के बोल खरग हिरवानी..


निशान्त

(एक) सा। यह परिवर्तन भौतिक परिवर्तन है जैसे इक्के की


सबसे पहले मैं दो छोटी-छोटी कहानियाँ आप से जगह बस,ट्राम की जगह रेलगाड़ी ठीक उसी तरह
शेयर करूँगा-एक कवि ट्रेन में एक असम के लड़के जैसे मिडिल क्लास हवाई जहाज में चलने लगे।
से मिलता हैं जिसकी उम्र 36 साल है। वह पैसा टेलीविज़न का आना भौतिक परिवर्तन है,जिससे थोड़े
कमा कर वापस घर लौट रहा है। कवि एक पत्रिका बहुत मानसिक परिवर्तन भी हुए। मनोरंजन का दायरा
पलटता है जिसमें वह तस्वीरों को पहचान लेता है बढ़ा। पर इस परिवर्तन की रफ्तार काफ़ी धीमी है।
कि यह करीना कपूर है। यह शाहरुख़ खान है। उमाशंकर चौधरी की कविताओं में इस भौतिक और
अमिताभ बच्चन, सचिन तेंदुलकर, सौरभ गांगुली आदि। लेकिन मानसिक परिवर्तन को पकड़ने की एक लगातार कोशिश है। इस
पत्रिका के अंत में छपी बड़े से तस्वीर को नहीं पहचान पाता जो कि कोशिश के केंद्र में है सामान्य नागरिक। इसलिए उमाशंकर चौधरी
प्रधानमंत्री की है। वह दिल्ली से पैसे कमाकर अपने घर जा रहा है। पहले संग्रह से लेकर चौथे संग्रह तक लगातार प्रधानमंत्री को केंद्र में
उसके पास एक रेडियो है। बच्चों के लिए कुछ नए कपड़े भी। वह रखकर जिरह या प्रश्न किये जा रहे हैं। प्रधानमंत्री से लगातार बहस
प्रधानमंत्री की तस्वीर को नहीं पहचान पाता जबकि देश में मतदान या मुठभेड़ उमाशंकर की कविता की खासियत है। 'प्रधानमंत्री की
करने की न्यूनतम आयु 18 वर्ष है। पहचान' से शुरू हुई कविता 'प्रधानमंत्री लेते हैं निर्णय और हम डर
अब मैं दूसरी कहानी सुना रहा हूँ जो कलकत्ते के बड़े बाज़ार जाते है','प्रधानमंत्री पर अविश्वास','प्रधानमंत्री को पसीना','छोटी
की है। वहाँ मुझे एक मुठिया मजदूर (जो अपने सर पर एक बड़ा बातों पर प्रधानमंत्री' तक लगातार चली आती हैं। ये वे कविताएँ
सा बांस का टोकरा रखकर उसमें समान ढोते हैं) मिला जो बहुत है जो सीधे प्रधानमंत्री को संबोधित हैं। इसके अलावा भी ऐसी ढेरों
मासूमियत के साथ बतला रहा था कि हम लोग कभी आजाद ही कविताएँ है जिसमें प्रधानमंत्री आते है और उन्हें जनता-जनार्दन से
नहीं हुए। हम लोग तो अभी भी गुलाम है। वह कह रहा था यह देश भय भी लगता हैं। इधर के बीस सालों में लगातार प्रधानमंत्री के
भी हमारा देश नहीं है, मेरा देश यहाँ से काफ़ी दूर उत्तर भारत के प्रतिपक्ष में उमाशंकर चौधरी के अलावा किसी ने कविताएँ नहीं
किसी गांव का नाम बतला रहा था और कह रहा था वोट देने तो मैं लिखी है चाहे वह चुप्पे प्रधानमंत्री के ख़िलाफ़ हो या बड़बोले।
आज तक नहीं गया। मैं तो यह भी नहीं जानता कि हमारे देश का वास्तव में एक कवि लगातार विपक्ष में रहता है चाहे सत्ता में कोई
राष्ट्रपति कौन है। पहली कहानी उमाशंकर की कविता 'प्रधानमंत्री भी हो। विपक्ष में वही नहीं रहते जिन्हें सत्ता से कुलपति का या
की पहचान' की है और दूसरी तो सच्ची है,इसकी तस्दीक तो मैंने रजिस्ट्रार का या कोई बड़ा पद चाहिए होता है। उनके लिए मेरी
शुरू में ही कर दी है। ये दोनों कहानियाँ मैं इसलिए बतला रहा हूँ कि भाभी एक मुहावरा कहती है-जिधर-जिधर पूड़ी, उधर-उधर घूमी।
जो मजदूर वर्ग है, उसे डेमोक्रेसी, स्वाधीनता, गणतंत्र, प्रधानमंत्री, बाकी पाठक को अब इसका क्या अर्थ बताना। हाँ, इतना तो तय है
राष्ट्रपति,सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश या पश्चिम बंगाल के कि उमाशंकर समाज, संस्कृति और कविता को अच्छे से जानते हैं।
राज्यपाल या सुदूर केरला और मणिपुर के मुख्यमंत्री या राज्यपाल यह जो कविता में समाज और संस्कृति का द्वंद्व है, उमाशंकर
से क्या लेना-देना। उसके पास देश के राष्ट्रपति,गणतंत्र,प्रधानमंत्री चौधरी उसे अच्छे से अपनी कविताओं में पकड़ पाते हैं। यह द्वंद्व
पहुँचते ही नहीं है। वह पहले जैसा था, आज़ादी के 75 साल बाद ही कविता को उसके शिखर पर ले जाता है। उमाशंकर इस द्वंद्व को
अब भी वैसा ही है। हां उसमें परिवर्तन हुआ है,काफ़ी सामान्य पूरी सामाजिक संरचना में पकड़ते हैं। इनके पहले संग्रह की पहली

454 n जुलाई से सितंबर 2023 yegh


कविता है-'अंततः उसकी आवारगी ही काम आई'। उसमें भी एक जीने की वासना-लालसा है। यह जीवन से प्रेम का एक दूसरा पक्ष
लड़का है जो आवारा है। वह हर किसी लड़की को देखकर सीटी है जो उनकी कविताओं को काफ़ी बड़ा कैनवास देता हैं। स्त्रियाँ भी
बजाता है। उनके साथ फ्लर्ट करने की कोशिश करता है और ऐसा कुछ ऐसा ही सोचती है इसलिए तो 'स्त्रियों को प्यार करने से उनका
करते-करते एक लड़की उससे पट भी जाती है। कवि की प्रेमिका पिछला जीवन ही रोकता है'। 'उसे डर लगता है पुरुष और पुरुष के
उसे बतलाती है कि उस लड़की के दिन खराब आने वाले हैं। वह इनकार से'। या जब उमाशंकर कहते है- 'काश! बहन ने प्रतिकार
लड़का उसकी जिंदगी से उसका सारा सत्व सोखकर उसे रिक्त किया होता' तो एक तरह से उस सामंती सोच के प्रति अपनी सोच
करके बिन बताये चला जाएगा। कवि की प्रेमिका उन दोनों प्रेमी को उदार बना रहे होते हैं। कविताएँ कई बार आपको बेहतर मनुष्य
युगल जोड़े के बारे में इस तरह की घोषणाएँ करती है। इस तरह बनाती है लिखने के बाद या पढ़ने के बाद। कविता कभी भी एक
की इतनी सामाजिक गड़बड़ियाँ है कवि की नायिका के अंदर जो तरफा मामला नहीं होता। यदि कविता कविता है तो याद आते हैं
एक सभ्य समाज द्वारा पैदा की गई है। इस समाज द्वारा पैदा की गई महावीर प्रसाद द्विवेदी जो कहते थे कि कविता यदि कविता है तो
समझ है जो प्यार को देखने का एक खास नज़रिया बनाती है। उस बिना प्रभावित किये रह नहीं सकती। तो कई बार कविता लिखने
सारे नजरियों को धता बताते हुए वह आवारा लड़का उस लड़की या पढ़ने के बाद हम और बेहतर मनुष्य बनने लगते है और तब
से शादी करता है। बच्चे पैदा करता है। उन्हें पार्क में झूला झुलाने हमें समझ में आता है कि-'लड़कियाँ अब प्यार नहीं चाहती' या
ले जाता है और एक बहुत ही अच्छी जिंदगी जीता है। जबकि कवि 'काश! बहन ने प्रतिकार किया होता'।
और उसकी प्रेमिका के बीच में ब्रेकअप हो गया होता है। दोनों बहन और बच्ची ही नहीं, पिता भी उमाशंकर के यहाँ ख़ूब
जिंदगी के दो छोर की तरह एक दूसरे से अलग हो चुके हैं जो आते है और अपनी पूरी गरिमा के साथ आते हैं-“दिल्ली में जगह
कभी नहीं मिलेंगे। यहाँ भी हम उस समाज और उसके भौतिक और तलाशते पिता,माँ से पिता क्या बहुत दूर थे,चाय की दुकान पर
मानसिक द्वंद्व को समझ सकते हैं। कविताएँ हैं जो यह बतलाती हैं पिता,संघर्ष पिता की ख्वाहिश से भी है, गाँव में पिता बहादुर शाह
कि जो दिखता है, वह होता नहीं। जो होता है,वह दिखता नहीं। जफर थे, अपनी मुट्ठी में पिता की उंगली का स्पर्श, बुजुर्ग पिता
इस दिखने और होने के द्वंद को उमाशंकर चौधरी की कविताएँ के झुके हुए कंधे हमें दुख देते हैं,मोबाइल के बिना पिता, पिता
परिभाषित करती हैं। की तरफ से, पिता की उम्र और पिता के गुज़र जाने के बाद” यह
प्रेम पर इसके अलावा भी काफ़ी अच्छी कविताएँ उमाशंकर अंतिम कविता है जो उमाशंकर के चौथे संग्रह में है। एक तरह से
चौधरी के पास है। यज वायवीय प्रेम नहीं है। यह देखा-भोगा हुआ देखे तो उमाशंकर ने एक भारतीय पिता का जीवन चरित ही यहाँ
प्रेम लगता है। यहाँ सिर्फ़ प्रेमिका ही नहीं हैं, यहाँ-पत्नी, बच्चे, पिता लिख दिया है। पिता केंद्रित और प्रधानमंत्री केंद्रित कविताओं को
और दिल्ली तक अपनी पूरी गर्माहट और बेचैनी के साथ है। छः एक जगह इकट्ठा कर दे तो एक भरा-पूरा संग्रह ही हो जाएगा। पर
साल का बेटा और चाँद, क्रिकेट खेलती दस साल की बेटी,बड़ी हो वहीं है कि एक में प्यार की पराकाष्ठा है तो दूसरे में प्रश्नानुकूलता।
ही बेटियों के पिता, इतिहास और बच्चे,बच्ची बड़ी हो रही है,कविता जायसी ने ऐसे ही नहीं कहा था– “कवि के बोल खरग हिरवानी/
से ज्यादा प्यारी है डेढ़ साल की बेटी आदि कविताएँ बच्चों को एक दिसि आग, एक दिसि पानी।” उमाशंकर चौधरी प्यार और
केंद्र में रखकर लिखी गई हैं। यहाँ बच्चों के साथ एक पिता का प्रश्न के कवि है।
ऊष्मा से भरा संबंध है तो चिंताएँ भी। बल्कि एक कविता तो इतने
संवेदनशील ढंग से पहले संग्रह में है जहाँ कवि किसी बच्ची को (दो)
स्पर्श या छूना या चाहक़र भी प्रेम नहीं कर पाता क्योंकि वह जानता कई बार निराशा का चित्रण हमारे समय की महत्वपूर्ण कविता
है- “मैं एक पुरुष हूँ/और मुझ पर संदेह करने के लिए इतना ही बन जाती है। कवि को आशा की कोई किरण नहीं दिखाई देती। न
बहुत है।” यह कविता की अंतिम पक्तियाँ नहीं एक भयानक सच प्रधानमंत्री के अंदर, न मुख्यमंत्री के अंदर, न राजनैतिक पार्टियों
है। आज जिस तरह से स्कूल में बच्चों को गुड और बैड टच के के एजेंडे में, और तो और अपने अंदर भी उसे आशा का कोई चिन्ह
बारे में बताया जाता है या आंकड़े कहते है कि बच्चों के साथ सबसे या संकेत या कोई लक्षण नहीं दिखाई देता। कवि ख़ुद घोर निराशा
ज्यादा शोषण उनके घर में होता है; उसकी तस्दीक करती है यह के घर में, अकेले अँधेरे कमरे में बैठकर सिर्फ़ अपने समय का
कविता। इसी तरह के मनोविज्ञान पर बूढ़े-बुजुर्ग लोगों को केंद्र में चित्रण करता हुआ नज़र आता है। क्या निराशा की कविताएँ सही
रखकर लिखी गई कविताएँ है- 'पुरुष की स्मृति में कभी बूढ़ी नहीं कविताएँ हैं? कविता में इतना निराशावादी स्वर सही है? कवियों
होती लड़कियाँ,कामुक बातें करता बुजुर्ग। यह भी एक तरह की को क्या आशा, उत्साह, प्रेम, उल्लास 'उमंग की कविताएँ नहीं

yegh जुलाई से सितंबर 2023 n 455


लिखनी चाहिए? ये प्रश्न हैं जो मुझ जैसे व्यक्ति को कचोटते रहते कविताओं की सारी पंक्तियाँ ही मिलकर दे दे/इस अँधेरे समय
हैं। मैं कई बार चिंतित हो जाता हूँ कि हम कैसे समय में रह रहे के ख़िलाफ़ सबसे प्रमाणिक गवाही” (पृष्ठ-72-73) ऊपर जिस
हैं जहाँ प्रेम को प्रेम कहना नफ़रत फैलाना है। जहाँ आशा भरी अँधेरे की चर्चा की जा रही थी। जिस निराशा की चर्चा की जा रही
निगाह से किसी को देखना अपने आप में गुनाह करना है। क्या थी उसकी यह सबसे सफल अभिव्यक्ति है। एक कवि अपने पूर्वज
हम सिर्फ़ नितांत व्यक्तिगत अनुभव की कविताएँ लिखेंगे? समाज कवियों को पूरे मन से याद करता है। स्मरण करता है और उन्हीं के
क्या हमारे चिंता के केंद्र से दूर होते चला जाएगा? हम एक ऐसे जैसा लिखना चाहता है। वास्तव में यह उनके जैसा लिखना नहीं,
समाज में रह रहे हैं जहाँ सिर्फ़ प्रश्न ही प्रश्न है। उत्तर नहीं है यहाँ। यह प्रतिरोध की आवाज़ को व्यक्त करना है। प्रतिरोध के परचम
निराशा ही निराशा है। आशा नहीं है। यहाँ चारों तरफ अँधेरा ही को फहराना है। उमाशंकर चौधरी वास्तव में अपने अँधेरे अनुभव
अँधेरा दिख रहा है, उजाला नहीं है। इस अँधेरे-उजाले के बीच में के खीझ के कवि हैं जो लोकतंत्र को बचाना चाहते हैं। प्रधानमंत्री
बैठा हुआ कवि उमाशंकर चौधरी उस अँधेरेपन को अपनी कविता से सवाल करना चाहते हैं और सरकार को वेलफेयर स्टेट की
में लिख लेना चाहता है। लिख-लिख कर उसे इतिहास की किताब तरह काम करते हुए देखना चाहते हैं। वास्तव में कवि सरकार या
बना देना चाहता है। आज से जब पचास-सौ साल बाद आने वाले प्रधानमंत्री से लोकतंत्र और देश की बेहतरी के लिए कार्य करते हुए
लोग पूछेंगे -उस समय के कवि क्या कर रहे थे? जब समाज में देखने का हिमायती है। वह बेहतर दुनिया के लिए बेहतर स्वप्न
इतना घना अँधेरा था। निराशा थी। प्रश्न थे,उनके उत्तर नहीं थे। और ख्वाब को देखना चाहता है। खीझना नहीं चाहता है लेकिन
तब उमाशंकर चौधरी की कविताओं को पढ़ने की ज़रूरत महसूस वह खीझता है। रोशनी की बात करता है। अँधेरे को मिटाने की बात
की जाएगी। वहां समय इतिहास की किताब की तरह उपस्थित करता है। ताकि एक बेहतर भविष्य, बेहतर कल की परिकल्पना
रहेगा कि तब दिल्ली में एक प्रधानमंत्री सिर्फ़ भाषण दे रहा था। वह कर सके। उमाशंकर चौधरी क्रिकेट खेलती दस साल की बेटी
उस भाषण का जनता से कोई मतलब नहीं था। कोई संबंध नहीं या छः साल का बेटा और चाँद, पचहत्तर साल के पिता और पिता
था। दिल्ली में लोग अपने प्रश्न लेकर जाते थे- हल्ला बोल-हल्ला की मृत्यु के बाद जो कविताएँ लिखते हैं उनमें दिखता है एक कवि
बोल, जला दो-मिटा दो के नारे के साथ, ढोल और नगाड़े के साथ, कितनी शिद्दत से अपने जीवन में प्रेम, उल्लास, उमंग, स्वप्न,
बड़े-बड़े ट्रैक्टरों में, जीपों में भरकर लेकिन कवि जानता था कि वे पारिवारिक चिंताएँ, पारिवारिक जीवन को तरजीह देता है। इतना
बैरंग लौटेंगे। उन्हें वहां कोई जवाब नहीं मिलेगा। संसद भवन में ही नहीं जब उमाशंकर चौधरी अफगान महिलाओं की आज़ादी की
सुअर बैठा होगा और चुप्पी का साम्राज्य फैला होगा। वह अपनी बात करते हैं या कोरोना वायरस में अपने मित्रों या लोगों के नम्बर
बच्ची की आंखों में बैठे हुए निराशा को देखता है, पहचानता है। में बदल जाने की तब भी उनका कवि एक बेहतर दुनिया की तलाश
उसे लिपिबद्ध तो कर सकता है। उसका जवाब नहीं लिख सकता। में, बेहतर दुनिया के स्वप्न में, कविताएँ लिखते हुए हमारे सामने
उमा शंकर चौधरी हमारे समय के ऐसे कवि हैं जो समाज में व्याप्त उपस्थित होता है। वास्तव में कोई भी कवि अपने निजी अनुभव,
अँधेरे को आवाज़ देते हैं। अँधेरे का चित्रण करते हैं। वे मुक्तिबोध अपनी समझ,संवेदनात्मक ज्ञान और अपनी चिंताओं से मिलकर
के बाद अँधेरे के सबसे बड़े कवि हैं जो अँधेरे को कविता में लिख ही बनता है। उमाशंकर चौधरी के यहाँ देश की भलाई या देश की
रहे हैं। चिंता में लिखी गई चिंतातुर कविताएँ हैं तो पारिवारिक प्रश्नों और
उमाशंकर चौधरी की एक कविता है- ‘फिलहाल कविताएँ जीने की ललक से भरपूर कविताएँ भी। वे स्त्रियाँ चाहे अफगान की
स्थगित हैं।’ उसकी कुछ पंक्तियों को देखें- “जिन कविताओं को हों या भारत की, उनकी आज़ादी के बहाने इस संसार में उनकी
कबीर, निराला, मुक्तिबोध/धूमिल और काजी नजरुल ने लिखा बेहतर उपस्थिति की कामना भी करते हैं। एक कवि और क्या कर
है/अपने अपने समयों में/मैं भी चाहता हूँ फिर से लिखना उन्हीं सकता है? वे जो कर सकते हैं,वह वे करते हैं और जोर गले से
कविताओं को/उतनी ही तल्खी से, इस समय में/ इस समय जब कहते है-फिलहाल कविताएँ स्थगित हैं।
खत्म करने की की जा रही है कोशिश/ इस देश की सारी आवाज़ें/ लोकतंत्र, सरकार, प्रधानमंत्री, अनुभव, अँधेरा, खीझ, प्रेम,
वे नज्में और वे पंक्तियाँ जिन्होंने समझाया है हमें जिंदगी का प्रेमी, पिता ये शब्द उमा शंकर चौधरी की कविताओं में बार-बार
फलसफा/ इस समय जब खत्म किए जा रहे हैं अपराध के सारे आते है। ये कुछ ऐसे शब्द है जो कवि के मानस को हमारे सामने
सबूत/जब रद्दी में फेंके जा रहे हैं संविधान के सारे अनुच्छेद/ तब उपस्थित कर देते हैं। हर कवि की कविता को समझने के लिए कुछ
क्या पता एक दिन/ इन अँधेरे दिनों को समझने के लिए ये पंक्तियाँ बीज शब्द होते हैं। कुछ विचार धाराएँ होती हैं। कुछ सरोकार होते
ही आए काम/ तब क्या पता एक दिन अभी लिखी जा रही/इन हैं। कुछ चिंताएँ होती हैं। उसी तरह कुछ 'की वर्डस' होते हैं जो

456 n जुलाई से सितंबर 2023 yegh


कवि की कविता में बार-बार आते हैं। ये शब्द बतलाते हैं कि कवि के पास है,न सरकार के पास है। इसलिए वे खीझते है। लगता है
की चिंताएँ क्या है? कवि के सरोकार क्या है? कवि किन लोगों वे एक लंबी कविता को छोटे-छोटे खंडों में लगातार लिख रहे हैं।
के प्रति जवाबदेह है? कवि किन लोगों के बारे में सोचता है? क्या वास्तव में उमा शंकर चौधरी अपने समय से लगातार जिरह करते
सोचता है? क्यों सोचता है? कैसे सोचता है? कविताएँ ही किसी हुए दिखते हैं,इसलिए वे अपने प्रश्नों की धार को भोथरा नहीं होने
कवि का जवाब होती है। आज तो कविता कवि के मन के प्रश्नों देते। बार-बार उन्हीं प्रश्नों को उठाते हैं। उनसे लड़ते हैं, कविता
के उत्तर में लिखी जाती है। वैसे भी कविता या तो मन की मौज के अंदर और बाहर लोगों को सचेत करते हैं। कविताओं को प्रश्न
है या पीड़ा की अभिव्यक्ति। उमा शंकर चौधरी मौज के कवि हैं, की शक्ल में सामने लाते हैं। हिंदी में प्रश्नाकुलता को कविता बनाने
वही देखते हैं जहाँ वे अपने बच्चियों के लिए, अपने बेटे के लिए की कला उमाशंकर चौधरी के कवि को आती है। उनके चारो संग्रह
और अपने पिता से संबंधित कविताएँ लिखते हैं। नहीं तो उनकी प्रश्नाकुलता से शुरू होते हैं और प्रश्नाकुलता से ही खत्म। n
कविताओं के केंद्र में लोकतंत्र, दिल्ली, आम नागरिक, सरकार, संपर्क : हिंदी विभाग,केनयु
खीझ, प्रधानमंत्री द्वारा उठाए गए ऐसे-ऐसे प्रश्न हैं जिनका जवाब पो. कल्ला सी.एच.
वह प्रधानमंत्री से मांगते हैं। वास्तव में हर एक कविता प्रश्न की जिला-पश्चिम बर्दवान-713340
शक्ल में शुरू होती है और खीझ पर जाकर खत्म होती है। क्योंकि पश्चिम बंगाल
उमाशंकर चौधरी जानते हैं कि इन प्रश्नों के जवाब न प्रधानमंत्री मो. 8250412914

पुरस्कार समारोह संचालन


कवि-आलोचक प्रसन्न मुद्रा में

कवि उवाच - आपने ही तो मुझे सर्वश्रेष्ठ कवि घोषित किया है


और आज आपके हाथों से ही पुरस्कार पा रहा हूं...

yegh जुलाई से सितंबर 2023 n 457


n आयतन : विमलेश त्रिपाठी

कविता के संघर्षधर्मी होने का आशय


मीना बुद्धिराजा

कविता की स्वाधीनता की ज़रूरत प्रत्येक युग और कविता के वर्तमान फलक पर निरंतर उपस्थित
समय में रहती है और समकालीन परिदृश्य के निर्मम, रहते हुए जो सार्थक हस्तक्षेप उन्होनें किया है वह
संवेदनशून्य और जटिल परिवेश में भी कविता में एक नये तरह की आंदोलंनधर्मिता का प्रखर स्वर बन
अंतर्निहित यह स्वाधीनता उतनी ही ज्यादा अनिवार्य कर उभरा है जो यथार्थ की धीमी आँच में पकती इन
और प्रासंगिक है। इस दौर की कविताओं में जो संघर्ष कविताओं के ताप में महसूस भी किया जा सकता है।
व्यक्त हो रहा है वह व्यक्ति विशेष से सामान्य जन इनमें साधारण से लगने वाले जीवन के अनुभव बड़े
की तरफ निरंतर बढ़ा है। लोकतांत्रिक व्यवस्था की मुद्दों से जुड़े हैं और व्यक्तिगत पीड़ाओं के माध्यम से
विसंगतियों में साधारण मनुष्य की घोर निराशा, हताशा, तनाव और इस समय की सामाजिक और राजनीतिक यातनाएँ सामने आती
पीड़ा की आत्मघाती स्थितियों से बचने के लिये आज की कविता हैं–
जिस विश्वसनीय विकल्प को स्थापित कर रही है वह आत्मसंघर्ष कविताओं से बहुत लम्बी है उदासी
के धरातल से आगे बढ़कर सामाजिक और राजनीतिक धरातलों यह समय की सबसे बड़ी उदासी है
पर प्रतिफलित होता है। जो मेरे चेहरे पर कहीँ से उड़ती हुई चली आयी है
इस सदी के आरंभ में जिन प्रमुख कवियों ने कविता की जन मैं समय का सबसे कम जादुई कवि हूँ
प्रतिबद्धता के इस अलग मुहावरे को पहचानकर उसकी बौद्धिक कविता का सबसे पहला दायित्व है कि वह मुक्ति के लिए
भंगिमा और प्रतिरोध की चेतना को एक नया स्वर दिया उनमें एक विकल्प देती है और मनुष्य के पक्ष में खडे‌ होकर निरंतर प्रश्न
सशक्त और सार्थक उम्मीद के रूप में युवा कवि विमलेश त्रिपाठी करती है क्योंकि वह सिर्फ़ क्रूर भयावह समय की सूचनाएँ भर
एक जाना-पहचाना नाम हैं जिनकी कविताओं में विद्रोह और देकर विलीन नहीं हो सकती। समकालीन कविता की यह बुनियादी
संघर्ष महज़ एक शब्द या आवेग नहीं। यह संवेदना और विचार प्रवृत्ति है कि भौतिक उपभोग और बाज़ारवाद पर टिके विकास
के समन्वय में उनकी संपर्णू काव्यात्मक–रचनात्मक प्रक्रिया की की चकाचौंध और तेजी से हुए बाहरी बदलावों में भी उसकी
मानसिकता का हिस्सा बनकर कविता को लगातार और बार- बार तह में छुपे नेपथ्य के अँधेरे को देख पहचानकर उस यथार्थ को
घेरता है। उनके प्रकाशित कविता-संग्रहों में हम बचे रहेंगें, एक देश दृश्यगत करती है जो औसत नागरिक के सामने शोषण, ग़रीबी,
और मरे हुए लोग, उजली मुस्कराहटों के बीच, कन्धे पर कविता, अभाव, विस्थापन पहाड़ जैसी चुनौतियों की तरह समाज और
एक पागल आदमी की चिट्ठी, यह मेरा दूसरा जन्म है, लौटना है व्यवस्था की विसंगतियों में आज भी समाहित है। यह कविता का
एक दिन जैसी महत्वपूर्ण और चर्चित कृतियाँ इस बात का प्रमाण भी संकट और चुनौती है जिससे निरंतर संघर्ष करते हुए विमलेश
हैं कि कविता के लिए एक विशिष्ट आंतरिक परिपक्वता उनकी त्रिपाठी जी की कविताएँ व्यक्ति और परिवेश के इस अंतर्विरोध को
रचनाशीलता में आरंभ से ही मौज़ूद रही है। एक संवेदनशील और गहराई से देखती हैं। प्रतिरोध के स्वर के लिए इन कविताओं की
आत्मसजग युवा कवि के रूप में विमलेश जी में अपने समय के आस्था हमेशा स्पंदित रहती है जिसमें जीने की शर्त और मानवीय
यथार्थ को कविताओं में दर्ज़ करते हुए जहाँ उनमें मनुष्य और सार्थकता के प्रश्नों नें अस्तित्व की खौलती हुई स्थितियों से कविता
समाज के दर्द की अनूभूति है तो परंपराओं को तोड़ने का साहस भी में इनका सामना होने पर बचा नहीं जा सकता-
है जो उन्हें कविता में अलग और मौलिक पहचान देता है। वह पिघलता है

458 n जुलाई से सितंबर 2023 yegh


और ढलता है चाकू में अपने तथाकथित अन्नदाताओं के भाषण सुनता
तलवार में, बन्दूक में सूई में जिसमें बहुत सारे झूठे वादे
और छैनी–हथोड़े में भी और गालियाँ शामिल
उसी से कुछ लोग लड़ते हैं भूख़ से हर फरेब पर तालियाँ बजाता नारे लगाता
भूख़े लोगों के ख़िलाफ़ कौन हूँ मैं
ख़ूनी लड़ाइयाँ भी उसी से लड़ी जाती हैं अपने राशन कार्डों लाइसेंस और पहचान पत्रों के
कई बार फ़र्क करना मुश्किल होता है छिन जाने के भय से
लोहे और आदमी में। अपने कमजोर घरों को बचाने के डर से
समाज और व्यवस्था के हाशिये पर पड़े साधारण और वंचित सभाओं की भीड़ बढा‌ता मैं कौन हूँ
वर्ग की दुनिया को समझने का, उसमें शामिल होने का सरोकार एक ऐसे समय और व्यवस्था में जब शब्दों ने भी मुखौटे पहनने
इन कविताओं में बहुत शिद्दत और आत्मीयता से झलकता है जो शुरू कर दिये हैं, जब शब्दों की नीलामी और बाज़ीगरी में उन्हें
सिर्फ़ शब्दों का बयान भर नहीं बल्कि जीवन की तरह समय की मनुष्यता से बेखदल किया जा रहा है जबकि जवाबदेही के लिये
इस तक़लीफ से जूझने का आक्रोश और आंतरिक द्वंद्व भी है। किसी रोशनी और सच का अस्तित्व न रहा हो तो इस ख़तरनाक़
एक समकालीन दायित्व बोध से भरे कवि के रूप में विमलेश समय शब्दों को बचाने की लड़ाई लड़ना, साधारण आदमी के लिए
जी की विशेषता है कि कविता के ज़रिये उस ज़मीन को बचाये टूटन और हताशा से भरे समय में शब्द और कविता पर भरोसा
रखना ज़रूरी है जहाँ तमाम विसंगतियों और निर्मम उत्तर आधुनिक करना और उसे सत्ता की ताक़त के सामने खड़ा करने की चुनौती
स्थितियों के होते हुए भी खुलकर साँस लिया जा सके तथा जीने कम से कम एक कवि के लिये यथास्थिति को तोड़ने की शुरुआत
के लिये मूलभूत ज़रूरी मानवीय आधारों और अर्थों की तलाश तो बन ही सकती है। इसलिये उनकी कविताएँ मानवीय सरोकारों
में जुटा जा सके। इन कविताओं में जन प्रतिबद्धता वह मूल्य है के साथ स्मृति, समय और इतिहास को आत्मावलोकन के नये सिरे
जो ज़िंदगी के भीतर से उभरती है मनुष्य की शक्ति बनकर,उस से पहचानते हुए भविष्य की सामूहिक उम्मीद को बनाये रखने की
तरह की खाली, खोखली और कृत्रिम प्रतिबद्धता नहीं जो सिर्फ़ आश्वस्ति ज़रूर देती रहती हैं।
फैशन और प्रचार के तौर पर इधर की कविता में ख़ूब इस्तेमाल इन कविताओं में एक युवा कवि के रूप में विमलेश जी नें
की गई है। विमलेश त्रिपाठी अपनी कविताओं में आज के समय भारतीय समाज की बुनावट की समस्याओं के भीतर से संघर्ष को
के संकटों के सामने खड़े हैं, उनके पास एक सतत जागृत आँख स्वर देते हुए उसे एक विश्वसनीय रूप दिया है जिसमें साधारण
है और वे जानते हैं कि पीछे लौटना अब जीवन में और कविता व्यक्ति की तक़लीफ से विचलित यथास्थितियों का मात्र चित्रण
में भी संभव नहीं है। कविता की इस चुनौती में अब जटिल समय नहीं है बल्कि उसमें स्थानीयता की गहरी रंगत का स्पर्श होते भी
के क्रूर यथार्थ का धुंधलाया हुआ एक नक्शा है जिसमें एक बार आज के व्यक्ति और समाज की टकराहटों की अनुगूँज भी स्पष्ट
फिर से चीज़ों की ठीक-ठीक पहचान और निशानदेही करनी होगी। सुनाई देती है। बाज़ार और उपभोग की व्यवस्था ने जिन मानवीय
विरोध और अस्वीकार के आत्मसंघर्ष को प्रखर स्वर देने वाली पारिवारिक संवेदनाओं, संबधों की उष्मा और प्रेम की अनुभूति के
ऐसी कविताओं में सच तो यह है, वही नहीं लिख पाया,कहाँ जाऊँ, वास्तविक अर्थों को लगभग खारिज़ कर दिया है। उसके बाद भी
बताईये,महामहिम,एक देश और मरे हुए लोग, क्या करोगे मेरा इन शब्दों के बचे हुए अर्थ की दृश्य- अदृश्य छवियाँ बुनते हुए और
(मुक्तिबोध को याद करते हुए), यदि दे सको, यह दुख, प्रार्थना, उनकी नष्ट होती गरिमा को बचाते हुए कविता लिखना यहाँ उनके
कवि हूँ, निवेदन, कविता का मतलब, डर, बात खत्म नहीं होती, लिये जैसे एक ज़रूरी, सार्थक मानवीय कार्यवाही बन जाती है जहाँ
फिलहाल मेरे पास, आम आदमी की कविता, झूठ मूठ समय के अब भी इस अमानवीय समय में प्रेम के लिये बचा हुआ यक़ीन है-
बीच, यह मेरा दूसरा जन्म है,वह और वे, कन्धे पर कविता मानों तुम्हारा प्यार
अपने समय की विसंगत स्थितियों के निजी, आत्मिक ब्यौरे से बुरे दिनों में आई
आगे बढ़कर पहुँचते हुए व्यापक सदंर्भो में फैलती और संप्रेषित राहत की चिठ्ठियाँ हैं
होती जाती हैं– तुम्हारा प्यार
कौन हूँ मैं घंटों धूप में इंतज़ार करता बंसत की गुनगुनी भोर में
रामलीला मैदान ब्रिगेड परेड ग्राउंड गाँधी मैदान किसी पेड़ की ओट से उठती

yegh जुलाई से सितंबर 2023 n 459


शिल्प कविता के वाक्य-विन्यास में आंतरिक लय जैसा बजता
हुआ कविता के मूल आशय और उसकी गति को आगे बढा‌ता हुआ
आज के जटिल यथार्थ में कविता को न तो समय की आने वाली संभावनाओं को ध्वनित करता है। मनुष्य और
निजी,व्यक्तिगत विषय माना जा सकता है न किसी प्रकृति से गहरे जुड़ाव की अनुभूति में आकाश के पटल पर, हवा
सीमित मतवाद और विचारधारा की अवधारणा में में स्पंदित और धरती की देह पर पदबन्ध की तरह उनकी कविता
बन्द किया जा सकता है। इसलिये एक आत्मसजग का विस्तार जैसे अपनी संरचना में जीवन की तरह उभर आता है-
कवि के रूप में विमलेश त्रिपाठी की कविता में शब्दों में ही खोजूँगा
विचार जीवन में से आते हैं, किसी आग्रह से नहीं और पाऊँगा तुम्हें
और अपनी सक्रिय हिस्सेदारी को व्यक्त करते हैं।
वर्ण-वर्ण जोड़कर गढूँगा
बिलकुल तुम्हारे जितना सुन्दर
आज के जटिल यथार्थ में कविता को न तो निजी,व्यक्तिगत
कोयल की बेतरह कूक है विषय माना जा सकता है न किसी सीमित मतवाद और विचारधारा
तुम्हारा प्यार की अवधारणा में बन्द किया जा सकता है। इसलिये एक आत्मसजग
लहलहाती गर्मी में कवि के रूप में विमलेश त्रिपाठी की कविता में विचार जीवन में
एक गुड़ की डली के साथ से आते हैं, किसी आग्रह से नहीं और अपनी सक्रिय हिस्सेदारी को
एक ग्लास पानी है। व्यक्त करते हैं। विचारधारा की उपस्थिति यहाँ इतनी ही है कि वे
चीज़ों और स्थितियों की गहन परख,पड़ताल और उनसे संवाद
इनमें बहुत सी कविताएँ जैसे प्रेम-पत्र, एक प्रेम कथा, हँसती
करके समय और समाज के टकराव को, सत्य और वास्तविकता
हुई औरतें, आग सभ्यता चाय और स्त्रियाँ, वैसे ही आऊँगा, स्त्री
को उभार सकती है। यहाँ उनके रचनात्मक द्वंद्व का ‘आत्म’ अपने
थी वह, कठिन समय में प्रेम, एक कविता जन्म ले रही है, तुम हे
परिवेश में फैलकर उसे संवेदनात्मक धरातल पर ग्रहण करता है।
स्त्री, अँधेरे में एक आवाज़, हँसती हुई औरतें, इक्कीस साल पुरानी
तस्वीर, अंकुर के लिए,बहनें,दो हाथ मिलकर,शब्द जो साथ नहीं समकालीन कविता का यह चरित्र विचार, अनुभूति और भाषा की
चलते, वैसे ही आऊँगा, यक़ीन, कभी जब, दरअसल, बचा सका बहुत सी रूढ़ियों से मुक्त होकर प्रतिरोध की नयी परिभाषा गढ़ रहा
अगर, मैंने किया इतंज़ार अनंत समय तक, दु:ख, तुम्हारे मनुष्यहै जिन्हें इन कविताओं में देखा जा सकता है। वैश्विक उपभोगवादी
व्यवस्था और मुक्त बाज़ार के इस समय में कविता को भी जब
बनने तक, भरोसे के तन्तु अपने व्यापक संदर्भोंं में एक बेहतर
दुनिया की तलाश करते हुए प्रेम की मुक्त संवेदना और मानवीय उत्पाद के रूप में बदलने का प्रयास चल है तो ख़ुद को मनुष्य
बनाए रखना कवि के लिये सबसे पहली शर्त है। इसलिये कविता
रिश्तों की निष्कपटता को, जीवन राग के स्वप्न को चारों ओर की
तमाम निर्ममताओं और कुटिलताओं से बचा लेती हैं और भरोसा को अधिक समर्थ और उत्तरदायी बनाने के लिये उसे भाषा के उन
स्त्रोतों तक जाना पड़ता है जहाँ जीवन असंख्य चुनौतियों की तरह
दिलाती हैं कि यह दुनिया नफ़रत से नहीं, प्यार की ताक़त से ही
बची रह सकती है- उसके सामने बिखरा पड़ा है
यह दु:ख ही ले जाएगा एक समकालीन और प्रतिबद्ध कवि की तरह विमलेश जी की
खुशियों के मुहाने तक कविताएँ अपनी आतंरिक सच्चाई और उनमें अंतर्निहित मानवीय
यही बचायेगा हर फरेब से सरोकारों के साथ जिन सवालों को लेकर संवाद और संघर्ष करती
होठों पे हँसी आने तक। हैं ये कविताएँ एक ज्यादा बेहतर और सार्थक विकल्प और जीवन
इन कविताओं की ऊपर से सीधी और सपाट लगते भाषिक की खोज की यात्रा करती है। जहाँ भी अन्याय है, विषमता है,
विभाजन है, शोषण है, अलगाव है, परिस्थिति के उस बिंदु पर
शिल्प में जीवन की विडंबनाओं के जो ब्यौरे हैं उनमें एक ताज़े
और नये शिल्प की खोज की जा सकती है। इस दृष्टि से कि इन विद्रोह और प्रतिरोध के संकल्प को यह कविता अपना पक्ष चुन
कविताओं के शब्द-बिम्ब महज़ सौंदर्य उपकरण नहीं है, अनुभव लेती हैं और एक मजबूत विश्वसनीय स्वर की तरह उपस्थित रहती
और बिम्ब यहाँ अलग-अलग नहीं बल्कि वे मानवीय करुणा के हैं जो उनकी काव्य-संवेदना का विशिष्ट पहलू है। n
साथ कविता के आंतरिक रेशों तक जाते है जिससे उनकी कविता संपर्क : एसोसिएट प्रोफेसर, हिंदी, अदिति महाविद्यालय, दिल्ली
संवेदना, विचार और अर्थ के कई स्तरों को छूने लगती है। यह मो. 9873806557

460 n जुलाई से सितंबर 2023 yegh


n आयतन : गौतम चटर्जी

भारतीय चिंतन परंपरा का विस्तार


नेहल शाह

बनारस की संकरी गलियों के बीच सामान्य से एक का का’बा है।


परिवार में, माँ के दुलार और पिता की कड़ी सुरक्षा कबीर का बनारस प्राचीन समय से ही साधु-संतों
के बीच बड़ा हो रहा संकोच से भरा एक छोटा बच्चा के ध्यान का पसंदीदा स्थान रहा, अतः यहाँ जंगल में
किसी शाम टी. वी. पर सत्यजीत रे की कोई फिल्म आनंद का माहौल रहता, इसलिए इसे आनंद-वन या
देखता है और अगले ही दिन से फिल्म निर्माण की आनंद कानन भी कहा गया। महर्षि अगस्त्य,वेदव्यास
जटिल प्रक्रिया को जानने में जुट जाता है जो अनवरत की हिन्दू धर्म की प्राचीनतम शिक्षा परंपरा के साक्षी
जारी रहती है। यहाँ जिस फिल्म निर्माण की बात इस शहर से जैन और बौद्ध दर्शन ने भी अपनी शिक्षा,
हो रही है वह आज का कमर्शियल सिनेमा नहीं है, अपितु विश्व दीक्षा प्रारम्भ कर क्रमशः भारत एवं संपर्णू विश्व में फैलाई। औषधि,
स्तरीय क्लासिक सिनेमा है, दृश्य काव्य (विजुअल पोएट्री) है। योग, तंत्र और व्याकरण जैसी विधाओं के जनक इस शहर को
इस दृश्यकाव्य रूपी सिनेमा के निर्माण में भौतिक सामग्री- लाइट्स, काव्य का जनक कहना भी उचित ही होगा। यहाँ के चप्पे- चप्पे में
कैमरा, एक्शन से पहले साहित्य, कला और दर्शन है। इस सिनेमा असाधारण इतिहास की महक़ है और शायद इसलिए ही विश्वनाथ
का नायक एक फ़क़ीर है जो सांसारिक दाव-पेंच से स्वयं को पृथक मुखर्जी के हृदय से आई आवाज़ ने कहा 'बना रहे बनारस'। कबीर
कर अपने अस्तिव को पहचानने की जद्दोजहद में अपनी युवावस्था की बानी बनाए रखने का प्रयास किया ठाकुर जयदेव सिंह ने।
के दिनों से ही लग गया है और इस प्रक्रिया में उसने यह एहसास जबकि केदारनाथ सिंह के 'इस शहर में अचानक ही आ गया
कर लिया कि प्रकृति के निकट कुछ ऐसे अबूझ तत्व उपस्थित हैं वसंत'। कला की सभी विधाओं में पारंगत इस शहर में ही जन्मे
जिनको ढूँढ लेने से पृथ्वी के नन्हें आंसू का एक कतरा कम किया गौतम चटर्जी। उनकी कविताएँ काशी के भौतिक स्तर, देशकाल
जा सकता है। कुछ दूर तक चलने के बाद एक दिन वह तत्व उसे और समय से ऊपर उठ कर काशी की उस आध्यात्मिक चेतना
मिल जाता है और इस तरह मिलता है कि वह उस तत्व को हर का निर्वाह करती हैं जो अनवरत है। ये कविताएँ ऐसी दृष्टि प्रदान
जीव में महसूस कर सकता है। उस एक तत्व का निचोड़ है गौतम करती हैं जो सामान्य मन से परे अतिमानस और अतिमानसिक
चटर्जी की कविताएँ। सत्य से होकर गुज़रती हैं। ऐसी कविताओं को पढ़ कर उनका
बनारस के नारायण प्रकाशन से प्रकाशित गौतम चटर्जी का तर्कसंगत ढंग से मूल्यांकन कर वर्णित करना बेमानी है। इन
काव्य संग्रह आनंद भैरवी उनके गृहनगर बनारस को ही समर्पित कविताओं को भावनात्मक एवं आध्यात्मिक स्तर पर महसूस करने
है। बनारस जितना प्राचीन शहर किसी परिचय का मोहताज नहीं। की आवश्यकता है।
तहजीब और संस्कार वाले शहर की गंगा में नहाई हुई तरोताजा महाकाव्य सावित्री के रचयिता श्री अरबिंदो ने लगभग एक
सुबह में पता ही नहीं चलता कि अज़ान की आवाज़ से मंदिरो में शताब्दी पहले कहा था कि महाकाव्य तभी रचा जाता है जब कोई
हलचल शुरू हुई है या मंदिर की घण्टियों की आवाज़ से अज़ान। ऋषि प्रकट होता है अतः ऋषि ही कवि है। सावित्री, उनकी दृष्टि
शायद इसलिए ही गालिब ने कहा था कि- है, समय देश काल के संबंध में, मृत्यु पर प्रेम की विजय के संबंध
इबादत-ख़ाना-ए-नाक़ूसियानस्त में। यह अमरत्व के ज़रिये पृथ्वी पर परिवर्तन एवं चेतना के सातत्य
हमाना काबा ए हिन्दूस्तानस्त का सिद्धान्त है। सावित्री आत्म बोध की वह कथा है, जिसमें चेतना
यानी बनारस हम शंख-नवाज़ों का मंदिर है, हम हिन्दुस्तानियों जागृत करने की शक्ति है। आधुनिक साहित्य के क्षेत्र में इस प्रकार

yegh जुलाई से सितंबर 2023 n 461


के महाकाव्य न केवल अप्रचलित हैं बल्कि अब तो गायब से हो और गोपीनाथ ने अनंत
गए हैं। गौतम चटर्जी की कविताएँ आध्यात्मिक चेतना बोध का कविता संग्रह की आगे की कविताओं में परत दर परत कवि का
निष्पादन करने का उद्येश्य साधती हुई अभिव्यक्ति, भाषा और शैली विस्तार देखने को मिलता है। कवि की आत्मपरक दृष्टि और गहन
के नए नियम के साथ एक नया प्रयास हैं। चिंतन बोध से उपजी ये ऋषि-दृष्टि की कविताएँ हैं जो भारतीय
‘आनंद भैरवी’ गौतम चटर्जी का प्रथम काव्य-संग्रह है। इस चिंतन परंपरा में नए आयाम जोड़ती हैं। इनकी भाषा-शैली, भाष्य
संग्रह के नाम से ही आपका ध्यान तंत्र की ओर आकर्षित होने और स्वरूप अलहदा है। इस काव्य संग्रह की शीर्षक कविता भी
लगता है। इस संग्रह की औपचारिक शुरुवात से पहले काशी पर एक लंबी कविता है जिसमें दस छोटी छोटी कविताएँ सम्मलित हैं।
एक लंबी कविता है 'कोमल ऋषभ काशी' शीर्षक से। 'कोमल प्रत्येक कविता आत्मचेतना से ओतप्रोत है। कवि के यहाँ काशी
ऋषभ आसावरी' एक ख़ूबसूरत राग है जिसे कवि ने काशी के और गंगा के बिंबो का मौलिक प्रयोग देखने को मिलता है, जहाँ
अलंकरण के रूप में उपयोग किया है। भारतीय साहित्य सभ्यता भौतिकतावादी जीवन में कवि को काशी उस ध्वनि की तरह दिखती
में कथा, कहानी उपन्यास का युग आधुनिक है। इसके पूर्व कथाएँ जो जागृति की परिचायक है, और गंगा व्यापक रचनात्मक लक्ष्य
काव्य के रूप में ही कही जाती थीं जैसे वाल्मीकि कृत रामायण की तरह-
और महर्षि वेदव्यास कृत महाभारत। गौतम चटर्जी ने अपनी इस अख़बार हो चुके जीवन में,
लंबी कविता के माध्यम से कथा कहने का प्रयास कर उस काव्य काशी
परंपरा को पुनर्स्थापित करने का प्रयास किया है। प्रातःशंखध्वनि की तरह है
कविता में एक स्त्री (सुप्त नदी) की बात की गई है, जो नींद और गंगा
में चलकर रचनाएँ करती है। नगर, कमल सरोवर गुफा, मंत्र, सब वृहत्तर लक्ष्य के सौंदर्य प्रस्ताव की तरह
रचती है वह और सुबह जागते ही भूल जाती है जैसे कोई स्वप्न। जो मृत्यु के साथ इस प्रस्ताव का अंत नहीं होता। देह छूट जाती है
नगर वह रचती है, सोया हुआ है- नगर का नाम है काशी, जिसकी कहीं और उस छूटने पर भी जो साथ रहती है वह काशी में आनंद
जागृति का मंत्र स्वर- 'कोमल ऋषभ' वह कहीं किसी गुफा में रख भैरवी है। यहाँ आत्मा की अनंतता का व्यापक चित्रण है। काशी के
कर भूल गयी है। स्त्री की यह कहानी एक ऋषि, जिसका जन्म अनादि होने की असीम संभावना है -
उस स्त्री के रचे कमल सरोवर से हुआ है, एक चिड़िया के स्वप्न शक्ति की सारी छवियाँ
में लिख रहा है। वह अपनी भाषा का विस्तार कर उस गुफा तक काशी में
पहुँचने का रास्ता ढूंढ लेता है जहाँ स्त्री ने मंत्र रखा है। आनंद भैरवी हैं।
युवक ने जाना मृत्यु तट के पास जाकर
सरोवर से जब लगता है जीवन का षडज
गुफा का रहस्य देह, दाह, और धुएँ के साथ
गुफा में छुपे जब बुझ जाते हैं अस्थिराग
मन्त्र स्वर का रहस्य मृत्युपद श्वाँसों के समांतर जब
संध्या भाषा में प्रकट होती है कोई सुषुम्ना
वह ऋषि है कबीर, जिसने अपने चेतना की जागृति का मंत्र सुनाई देती है तब कहीं
स्वर ढूंढ लिया है, और अब चाहता है कि सभी उस मंत्र को दोहरा आनंद भैरवी
कर सुप्त अवस्था से जागृत अवस्था की ओर पहुँच सकें। वह पंचतत्व से निर्मित यह संसार किसी एक समय में सतोगुण,
चेतना जो अनादि काल से काशी में उपस्थित है अनंत काल तक रजोगुण, और तमोगुण की प्रधानता से चलता है जो हमारी चेतना
उपस्थित रहेगी। जो भी वह मंत्र स्वर ढूंढ कर अपनी भाषा का की जागृत अवस्था, स्वप्नावस्था एवं सुप्तावस्था से संबंधित है।
विस्तार कर उसे दोहराएगा जागृत होता जाएगा- कवि के यहाँ काशी एक ऐसा मौलिक स्पर्श है जिस पर मन की
इस अज्ञात नगर में सत्ता का कोई प्रभाव नहीं। प्रत्येक प्रलोभन से अनासक्त इस चेतना
कबीर ने अपना नाम रखा तैलंग को जागृत करने वाले काव्यस्पर्श का क्षितिज भी देह की भांति ही
और तैलंग ने श्यामाचरण क्षण भंगुर है। यहाँ जागृति के क्षण को पहचान लेना ही अवसर है-
और श्यामाचरण ने गोपीनाथ तीनों गुणों के गद्य में,

462 n जुलाई से सितंबर 2023 yegh


क्षण भर का काव्य
काशी का मौलिक स्पर्श है
और इस जागृत ऋषि मन की काव्य-रचना की प्रेरणा है आनंद
का त्याग, सुख का अभाव एवं सुख की आकांक्षा से विमुखता-
'आनंद का अभाव ही सौन्दर्य है'। काशी में मृत्यु एक उत्सव है जहाँ
चिता से उठता धुआँ जैसे नदी की छाया बन कर उठता है आकाश
में मिल जाने के लिए-
आकाश की आँख में
न देह है न दाह,
जो धुआँ है वह नदी की छाया है
उत्सव होने के साथ ही यहाँ मृत्यु, किसी और के जीवन जीने
का ज़रिया भी है। ये चिताएँ किसी परिवार की आम दिनचर्या का
हिस्सा और आमदनी का साधन हैं, जो गंगा-किनारे समृद्ध सा
प्रतीत होता है। इन चिताओं से अर्जित भोजन के साथ मन आश्वस्त
हो जाना चाहता है कि यह किसी प्रिय की देह के दाह से अर्जित
न हो।
आता हुआ शव जाएँगी। क्योंकि प्रेम की यह गली बड़ी संकरी है, काशी में, यहाँ दो
संकते है के लिए स्थान नहीं। प्रेम के अभी में जब आप अपने मन को छोड़
उसके परवर्ती सुख का कर आगे बढ़ेंगे तो आनंद में रहेंगे और वापस लौट नहीं पाएँगे।
प्रेम में सबसे बड़ा भय है उसकी अल्पकालिकता, उसका कुल मिलाकर कवि के यहाँ मौलिक कल्पनाओं का अथाह
अस्थायी और सामयिक होना। यही प्रेम में दुख का सर्वोच्च कारण सागर है, जहाँ वे उस भाषा तक पहुँच जाते हैं जो उन्हें इस देशकाल
भी है। जब सम्पूर्ण प्रकृति ही परिवर्तनशील है तो भला प्रेम स्थायी के किसी भी कवि से पृथक कर देती है। वे बनारस मे रहक़र भी
कैसे हो? प्रेम जब तक देह के स्तर पर होगा अस्थायी होगा। स्थायी अपनी कविताओं के ज़रिये न केवल काशी की सर्जना करते हैं
होने के लिए प्रेम को चेतना तक पहुँचना होगा। उसे देह के स्वभाव अपितु काशी में ही रहते हैं। इन कविताओं को पढ़ने के लिए एक
से आत्मा का स्वभाव बन जाने की यात्रा तय करना होगी, वहाँ तैयारी चाहिए, दृष्टि चाहिए। एक बार पढ़ने पर ये किसी सूक्ति की
जाकर ठहरना होगा। तब ही इसके क्षणिक होने पर अंकश ु लगाया तरह आपके भीतर ठहर जाती हैं, और बार-बार पढ़ने पर अपने
जा सकेगा, इसे पूर्णता तक पहुँचाया जा सकेगा। गौतम चटर्जी की नए अर्थ अनावृत करती जाती हैं। इन कविताओं की जो विशेषता है
कविताओं में ठहर कर लगता है प्रेम का सुर। वही इनकी कमी भी है- सभी के लिए नहीं हैं ये कविताएँ। व्यापक
जब उदास पंखुरी पर अध्ययन मांगती हैं गौतम चटर्जी की कविताएँ। n
गिरती है संदर्भ
प्रेम की प्रथम ओस 1. श्री अरबिंदो, सावित्री एक किंवदंती और एक प्रतीक, पांडेचरी, श्री
जब ठहरी नदी को अरबिंदो आश्रम,1997
मिलता है 2. गौतम चटर्जी, तंत्रलोक, वॉल्यूम 2. इंडियन माइंड
भोर का प्रथम स्पर्श 3. hindisamay.com/content/745/1/लेखक-विश्वनाथ-मुखर्जी
का संस्मरण- बना रहे बनारस
तब तुम्हारा हृदय 4. https://blog.rekhta.org/mirza-ghalib-aur-banaras/
सुनता है 5. गौतम चटर्जी, आनंद भैरवी. नारायण प्रकाशन प्राइवेट लिमिटेड, बनारस,
मेरी आत्मा का 2017
प्रथम गीत संपर्क : डॉक्टर ऑफ़ फिजियोथेरेपी
कवि के इस प्रेम में मन और बुद्धि को छोड़ कर आगे जाना भोपाल मेमोरियल हास्पिटल, भोपाल
है। जब ये दोनों छूट जाएँगे तो भूत और भविष्य की चिंताएँ भी छूट मो. 9424442993

yegh जुलाई से सितंबर 2023 n 463


n आयतन : घनश्याम त्रिपाठी

परिवर्तनकारी बेचैनी और संघर्षशील चेतना से उपजी कविता


कैलाश बनवासी

“मुझे सत्ता नहीं रोटी चाहिए/ हिक़ारत और एहसान द्वेष, नफ़रत और युद्ध का कारण बनता है। घनश्याम
के दर्प में लिपटी नहीं/ हक़ और आत्मीयता के ताप अपनी कविता ‘मेरा राष्ट्रप्रेम’ में इधर दिनोदिन देश में
में पकी हुई / और इस रोटी के लिए सत्ता चाहिए/ बढ़ रहे अंध और संकीर्ण राष्ट्रवाद तथा बढ़ते नफ़रत
जिसमें सबके हिस्से की अपनी रोटी हो” के खेल को लक्ष्य कर प्रतिवाद में बहुत मुखर होकर
इन पंक्तियों के कवि घनश्याम त्रिपाठी हिंदी के दो टूक कहते हैं– “देश मेरे लिए/ कोई मनोवांछित
कवि-बाहुल्य संसार में कम लिखने वाले और बहुत तैलचित्र या मूर्ति नहीं है/ और न देशप्रेम/ उस तस्वीर
लो-प्रोफाइल में रहने वाले हैं। उनके अब तक दो या मूर्ति की वंदना या/झुककर धूप-दीप दिखाना है
संग्रह प्रकाशित हैं- ‘समुद्र को बंधना अभी शेष है’ (2014) मात्र/ भारत मेरे लिए/ उर्वर मैदानों जीवनदायिनी नदियों/ दृढ उदार
और ‘जो रास्ता संघर्षमय होता है’(2022)। उनके दोनों संग्रहों पर्वतों/ जंगल खनिज विपुल संपदा से निर्मित / एक समृद्ध भू-भाग
को पढ़ने के बाद यह देखा जा सकता है कि घनश्याम इधर कहीं है/जिसमें समस्त देशवासियों की रोजी-रोटी/ जीवन की गरिमा व
अधिक मुखर और प्रखर हैं- आज की तक़रीबन हर समस्या या सुरक्षा/ समाहित है...” इसी बात की एक अन्य कविता में जैसे वह
विषय पर पैनी दृष्टि रखते वाले। ये एक साधारण नागरिक की घोषणा कर रहे हैं– यह दुनिया जितनी एक की है उससे एक भी
गहन विकलता,संवेदनशीलता और नैतिक दायित्वों से लैस हैं, कम नहीं हो सकती अन्य की। देखा जा सकता है ये पंक्तियाँ एक
जिनका विषयगत फैलाव भूमड ं लीकरण, नयी आर्थिक नीतियों- वृहद मानवीय, उदार और वैश्विक लोकतांत्रिक दृष्टिकोण से कही
उदारीकरण और निजीकरण से लेकर क्षद्म राष्ट्रवाद,धर्म और जा रही हैं। यहाँ यह भी विचारणीय है, ऐसे वक्तव्य या कथन देश
जाति के वर्तमान स्वरूप के ज्वलंत प्रश्न, किसान आन्दोलन, छात्र की आज़ादी के बाद के दिनों में कवियों द्वारा देश-ग़ाैरव के लिए
आन्दोलन से लेकर कोरोना महामारी के कष्टों तक है। उनकी ख़ूब कहे गए हैं, जो बेशक़ नये भी नहीं हैं, किन्तु प्रश्न है, कवि को
कविताओं में नाटकीयता, प्रदर्शनप्रियता, वाचालता या अगम्भीरता आज फिर इन्हें ख़ास जोर देकर कहने की ज़रूरत क्यों आन पड़ी?
नहीं है, बल्कि इसके उलट, अपनी संजीदगी, सादगी और साफ़गोई वह इसलिए कि आज बेतहाशा फ़ैल चुके कृत्रिम, आडम्बरी, उग्र
है जिसके कारण ये अधिक इनका प्रभावशाली हो जाती हैं। और हिंसक देशभक्ति के बरअक्स वास्तविक और सच्चे देशप्रेम
घनश्याम अपनी लोकतांत्रिक वैचारिकी में हर एक नागरिक की के लोकव्यापी विचारों को आज फिर नए सिरे से स्थापित करने की
स्वतंत्रता और भिन्नता को सम्मान देते हैं, यह कहते हुए कि व्यक्ति बड़ी ज़रूरत और ज़िम्मेदारी सामने आ खड़ी हुई है।
की भिन्नता से बना है यह संसार। बिना किसी जोशीले नारे के कवि
विश्व-बंधुत्व की बात कर रहा है। लेकिन अपनी बड़ी उदारता के 0000
बावज़ूद इस बात के लिए बेहद सजग है कि— “चाहिए दिमाग के पिछली सदी के अंतिम दशक से दुनिया के कई देशों में भूमंडलीकरण
गर्भ में एक चीरफाड़ घर/ जहाँ बारीक और निष्पक्ष पड़ताल की जा की आड़ में जो नवउदारवादी आर्थिक नीतियाँ थोपी गयीं,तब से ही
सके/ वहीं किसी कोने में चाहिए एक सुरक्षित जगह/ जहाँ भीतर निजीकरण और अधिग्रहण के दरवाजे उद्योगपतियों के लिए खोल
लगे कचरे के ढेर को/ दफ़नाया जा सके जलाया जा सके। कवि की दिए गए हैं। और देश के विपुल संसाधनों—जल,जंगल,ज़मीन
नज़र में कचरे का ढेर क्या है?” व्यक्तिवाद, अहम्, श्रेष्ठतावाद, की बेहिसाब लूट प्रभुत्वशाली उद्योगपतियों द्वारा लगातर जारी है।
वर्चस्ववाद इत्यादि, जो पड़ोस के घर से लेकर पड़ोसी देश तक इसी के मद्देनज़र इक्कीसवीं सदी के तीसरे दशक में सार्वजानिक

464 n जुलाई से सितंबर 2023 yegh


सम्पत्तियों। कारखानों और मजदूरों के जो हालात हैं, उसकी हक़ीक़त हर एक काम को कर लेने के बावज़ूद/ कुछ काम वह कभी नहीं
घनश्याम त्रिपाठी अपनी अनेक कविताओं में बयान करते हैं। वे कर पाता/ मसलन किसी के भीतर जमी धूल को/ वह साफ़ नहीं
स्वयं एक कारखाना-श्रमिक हैं, संभवतः इसीलिए ये ऐसी कविताएँ कर पाता/ किसी की आँखों में धूल झोंकने का काम/ उससे कभी
हैं जो बेहद सच्चाई, ईमानदारी और संवेदनशीलता से श्रमिकों के नहीं हो पाया।” महादेव जैसे एक ठेका मजदूर के काम के दबाव
कष्टों, व्यथाओं को उठाती हैं, जो हमारी आज की तथाकथित में दुर्घटनाग्रस्त होकर मर जाने से कारखाने के रोजमर्रा के जीवन
मुख्यधारा की हिंदी कविता में कम हैं। ग़ाैरतलब बात यह है कि में कोई फ़र्क नहीं पड़ता,यह हमारी निरंतर बढ़ती हृदयहीनता को
ये सिर्फ़ भरती की या कवि की अपने वैचारिक आग्रह दिखाने को चीरकर दिखाती है,गो कि यह कारखाना-जीवन का एक जाना-
लिखी गयी कविताएँ नहीं हैं अपितु ये बहुत संजीदगी,गहराई और पहचाना तथ्य और दृश्य है, और लोग इसके आदी हो चले हैं।
संवेदनशीलता से आज के श्रमिकों की दुर्दशा, पीड़ा, असहायता, घनश्याम त्रिपाठी इस कविता के बहाने दरअसल इसी यथास्थिति
उपेक्षा आदि के केवल मार्मिक चित्र ही पेश नहीं करतीं, वरन पर चोट करना चाहते हैं,जिसमें वह प्रबंधन के साथ हमारी गिरती
उनके शोषण के लिए जिम्मेदार सत्ता,व्यवस्था, प्रबंधन सब पर मनुष्यता को भी कठघरे में खड़ा करते हैं।
उँगली उठाती हैं। ‘कामगार’,’सफाई कामगार’, ‘बूढ़े मजदूर’, उनकी ‘काम करो काम करो’ कविता सुखद रूप से चौंकाने
‘हमारी सुबह’, रास्ता दो’ जैसी कविताओं में उन्होंने जैसे आज के वाली है। घनश्याम यहाँ अपने सहज कहन से इतर व्यंग्यात्मक
मजदूरों के जीवन का बेहद संवेदनशील और हृदयग्राही आख्यान भंगिमा और शिल्प के साथ हैं। बाज़ार में कब्ज़े के गलाकाटू
रच दिया है। प्रतियोगिता के दौर में मुनाफ़ाखोर सत्ता, व्यवस्था या प्रबंधन जिस
लगातार बढ़ते वर्गीय असमानता के चलते जो नया गहरा वर्ग तरह से,और जिन बहानों से मजदूरों के घोर शोषण में मुब्तिला है
विभाजित समाज बन रहा है, जिसमें देश की 73% सम्पत्ति के और जिसका मजदूर पर दिन रात दबाव बनाया जाता है, कविता
स्वामी महज एक प्रतिशत खरबपति हैं, या 85% आबादी ग़रीबी उसकी बानगी पेश करती हुई उस पर करारा तंज़ कसती है– “तुम
रेखा के नीचे गुज़र-बसर करने को विवश है, निजीकरण का काम करो मेहनत करो/ दिन करो रात करो/ काम करो काम करो/
बुलडोजर वर्गीय विषमता को और-और चौड़ा करने के अभियान काम करो कि कई देश बहुत आगे निकल गए हैं/ काम करो कि
पर निकला हुआ है। इस कविता की अंतिम पंक्तियों में मानो इसका पड़ोस की बुरी नज़र है हम पर/ तुम नधे रहो जुते रहो जुटे रहो/
हासिल दिखाते हैं वे– “बेहिसाब शोषण की वैधता/ बल्कि अधिकार तुम खटे रहो खपे रहो डटे रहो/ यह मत देखो कौन कितना दबा
उफनता आ रहा है/ उदारीकरण में!” घनश्याम त्रिपाठी की अच्छी ले गया/ बना ले गया/पचा ले गया/ उड़ गया/ उड़ा ले गया। /
बात ये है कि वे इस दौर की विसंगतियों को बहुत संजीदगी से दर्ज़ छुट्टियाँ मत लो/ बीमार रहो दुर्घटनाग्रस्त रहो अल्पायु रहो/ पर
करते चलते हैं, बिना किसी व्यक्तिवादी काव्यात्मक महत्वाकांक्षा लगे रहो।” इसे पढ़ते हुए निस्संदेह नागार्जुन याद आते हैं–उनकी
अथवा मोह के। दरअसल इन कविताओं की सादगी,आत्मीयता विकट व्यंग्य,तंज से भरी वक्रोक्तियाँ। कहना होगा, इस कविता
और संवेदनशीलता ही है जो इन्हें एक सच्ची और अनूठी चमक में घनश्याम त्रिपाठी अपनी काव्य-संवेदना का विस्तार करते हुए
दे जाती हैं। उनके कथन सहज और सीधे दिल को छूने वाले हैं। विषय को उसके मर्म को छूते हुए ऐसी व्यंग्यात्मक धार दे सके हैं।
घनश्याम त्रिपाठी मजदूरों के महज कोरी भावुकता या कृत्रिम
जोश वाले कामरेडी आग्रह के कवि नहीं हैं। वे इस सिस्टम की 0000
पेचीदगियों को,जिनके चलते ऐसे हालात हैं, को गहराई से समझने घनश्याम मौज़ूदा समय में नज़र आती सभी प्रमुख विसंगतियों को
और समझाने वाले वाले कवि हैं। उनकी एक बहुत महत्वपूर्ण लक्ष्य करते हैं। इसीलिए उनकी व्यापक दृष्टि से न जाति छूट पाती
कविता है—‘महादेव मजदूर’। घनश्याम त्रिपाठी ने इस अपेक्षाकृत है, न राज्य, न धर्म, न औद्योगिक घरानों द्वारा संसाधनों की शातिर
लम्बी कविता में कहानी कहने के कौशल के साथ वर्तमान नव- और भयानक लूट न किसान आन्दोलन न महामारी। पिछले आठ-
उदारवादी दौर में एक मजदूर के जीवन-दशा को बहुत मार्मिकता दस बरसों में जो भी राजनैतिक, सामजिक, सांस्कृतिक या आर्थिक
और बहुत वास्तविकता के साथ दिखाते हैं। घनश्याम का बदलाव हुए हैं या हो रहे हैं, घनश्याम त्रिपाठी की संवेदनशील और
काव्यात्मक कौशल यहाँ उल्लेखनीय है जब वह धूल के बिंब सजग दृष्टि उन सारी घटना-परिघटना पर है। वह इन बातों को
के सहारे उसके जीवन की त्रासदी बयाँ कर रहे हैं– “कारखाने महज काव्यात्मक उत्तेजना में न देखकर, इसके समाज, व्यक्ति
में धूल हर जगह गिरती रहती/ कुर्सी-मेज पर/सड़क ज़मीं पर और देश पर पड़ते असर को अपनी सहज और सरोकारी मानवीय
मशीन पर/साहब की कार पर/ वह हर जगह से धूल साफ़ करता/ दृष्टि से कविताओं में लाते हैं।

yegh जुलाई से सितंबर 2023 n 465


इधर दिन-ब-दिन और घातक होते जा रहे नफ़रत के फैलाव दृष्टि कवि को जैसे अपने किसान पुरखों से मिला है, और जो कवि
को लेकर अपनी कविता ‘नफ़रत का व्यवसाय’ में कहते हैं– के जीवनानुभव से उपजा है, तभी वह अपनी कविता ‘किसान खेत
“घृणा किसी के रहन-सहन खान-पान की रुचियों में/ पूजाघर या में श्रम करता’ में खेत को ऐसी गहरी संलग्नता और आत्मीयता
दाढ़ी में नहीं छिपी होती/ वह घृणा करने वाले के दिमाग में घर भरी विलक्षण दृष्टि से देख पाता है– सर्द रात खेत में पानी लगाते
बनाए रहती है/ एक अदृश्य हथियार है/ जिससे मनचाही फसल किसान को/ चाँद-तारे नहीं दिखते/ समूचा आकाश उसे खेत नज़र
काटी जा सकती है/ और मनचाहा सिर।” वहीं अपनी कविता आता है/ जिसमें दूधभरी असंख्य बालियों वाली फसल टिमटिमाती
‘डर’ में भयभीत जन के साथ कवि के अपने भी भयग्रस्त होने की है/ और बीच में चमकता बिजूका खड़ा।
ईमानदार साहसिक स्वीकारोक्ति को देखा जा सकता है– वोट देने
के बाद/ अपनी ही सरकार से डरी हुई है जनता/ खाड़ी युद्ध के 0000
बाद/विजेता से डरी हुई है बेबस कौमें/ दंगे के बाद मुझसे डरा हुआ घनश्याम ने उन सभी ज्वलंत समस्याओं पर कविताएँ लिखी हैं
है मेरा पड़ोसी/ मुझमें इतना साहस नहीं कि/डर के ख़िलाफ़/कोई जिनसे देश आज जूझ रहा है। खासतौर पर बढ़ता फासीवाद,घटता
साहसिक वक्तव्य दूं/ मैं डरा हुआ हूँ कायदे-आम से/ सच बोलने लोकतंत्र, छात्र आन्दोलन, विरोधी आवाज़ों को दबाती या हत्या
के अंजाम से। इसी कड़ी में उनकी कविता ‘मेरी चुप्पी’ भी बहुत कराती व्यवस्थाएँ। ‘रंगीन मौत’ इसी दमन पर केन्द्रित कविता
मानीखेज हो जाती है जब वह कहते हैं– “वे स्वार्थ साधते रहे/ मैं है। गहरी बेचैनी, मार्मिकता और राजनीतिक चेतना के कवि हैं
मौन साधता रहा।” कवि का यह आत्म-धिक्कार बरबस मुक्तिबोध घनश्याम। ‘नंदीग्राम’, ‘आन्दोलन काल’, ‘साथी’, ‘फिर मिलना
की याद दिला देती है जहाँ वह यह बार-बार करते हैं और कहते है साथियों’ जैसी कई कविताएँ उनके संघर्ष और उम्मीद और
हैं– अरे! मर गया देश /जीते रहे तुम! / लिया बहुत-बहुत/ दिया समता के स्वप्न की गवाह हैं। तभी वह डॉ. विनायक सेन व अन्य
बहुत कम! इस विकट भयावह समय में एक कवि और क्या कर कामरेडों को समर्पित अपनी महत्वपूर्ण कविता ‘लोकतंत्र’ में कहते
सकता है, सिवा लोगों को सचेत करने के?” हैं– “बारहा लगता है कि व्यवस्था सिर्फ़ और सिर्फ़ उनके साथ
घनश्याम आम जन के जीवन और संस्कृति से गहरे सम्बद्ध है/ जिनके अख़बार में जगह-जगह पोस्टर छापते हैं / तो क्या
और प्रतिबद्ध हैं। इसकी एक बानगी उनकी कविता ‘एक विज्ञप्ति व्यवस्था को मात्र उस दुधारू की तरह होना चाहिए/जिसे कोई
लेखक संगठन की’ में देखी जा सकती है जिसे आज के घोर ताक़तवर अपने दरवाज़े से बांधकर पहरा बैठा दे।” घनश्याम
पूंजीवादी मूल्यों से संचालित अख़बारों के संपादकों से लेखक इन कविताओं से अपना प्रतिवाद और प्रतिरोध दर्ज़ कर रहे हैं।
संगठन की विज्ञप्ति छाप देने का आग्रह एक संस्कृति कर्मी की अपनी कविता ‘बोलूँगा ज़रूर’ में आज की दमनकारी, और जेलों
बेहद सरल,वास्तविक और उजले दिनों के आने की उम्मीद के रूप में भेज देने वाली सत्ता व्यवस्था के ख़िलाफ़ जहाँ आज बोलना
में पढ़ा जाना चाहिए— “यह गीत है असंख्य उदास और असहाय बेहद कठिन हो गया है, ऐसे समय को ही कभी रघुवीर सहाय ने
जनों का/ जिसमें दबाई कुचली गई चाहतें नए रूप लेकर लयबद्ध ‘सामूहिक कायरता’ का समय कहा था, जिस पर घनश्याम कहते
बजती हैं/इसमें बेचैन करते बोल हैं जो दुःख, करुणा बहरे कंठ हैं– “बोलने पर ख़तरा व्यक्तिगत होता है/ और तात्कालिक/ नहीं
से निकलते हैं/यह एक माला है जिसमें सपनों के मोती पिरोये हैं/ बोलने पर संकट सामूहिक हो जाता है/ और दीर्घकालिक।” स्पष्ट
सम्पादक जी इन विज्ञप्तियों को अख़बार में जगह चाहिए/ सामान्य है, घनश्याम इस संकट की भयानकता और इसके परिणामों को
डिब्बे में आम मुसाफिर की तरह/ इनका छूटना हमारे लिए खड़ी बख़ूबी जानते हैं। इसीलिए उनका कवि दृढ़ संकल्पित है इसके
फसलों पर/ बर्फ के पत्थरों का गिरना है/ और यह कैसी विडंबना विरुद्ध– “चाहे कांपती या बेआवाज़-सी लगे/ इस दुनिया में है एक
है/ लोग पढ़ना कुछ चाहते हैं उन्हें पढ़ाया कुछ और जाता है।” मेरी भी आवाज़/ चाहे दबा दी जाए या छीन ली जाए/ हर हाल में
घनश्याम श्रम के साथ-साथ प्रकृति के सौन्दर्य के भी अनूठे मैं बोलूँगा ज़रूर।”
कवि हैं जिसका उत्कृष्ट उदाहरण उनकी ‘हमारी सुबह’ कविता इक्कीसवीं सदी में भी समाज में दिनोंदिन जातिवाद का और-
है जिसमें अपनी रात पाली ड्यटी से भोर में लौटता कवि प्रकृति और शक्तिशाली होकर क्रूर होते जाना देश की तथाकथित तरक्की
की सुन्दरता– पेड़,पक्षी, हवा,आकाश के रंग आदि– से सराबोर पर बहुत बड़ा सवालिया निशान है। घनश्याम अपनी कविता ‘जाति
है,और एक श्रमिक कवि ही कह सकता है– “उधर आसमान के संगठन’ में इसकी सामंती भयावहता और आज के परिप्रेक्ष्य में
नीले ओट से एक टक देख रहा है चाँद/ अपनी रात पाली के बाद इसके पुनर्जीवित होने को यों दिखाते हैं– “वो बहुत पुरानी दीवारें/
अब तक आसमान में ठहरा हुआ है चाँद।” यह श्रम-सौन्दर्य की जो प्रेमियों के ख़ून से सनी हैं/ आख़िरकार उन्हें गिर जाना था

466 n जुलाई से सितंबर 2023 yegh


अब तक/ उन पर पलस्तर चढ़ाया जाता है यहाँ/ रंग-रोगन किया – जो अपने देखने को समय के साथ नहीं देख पाते/एक दिन
जाता है फिर-फिर। इसी कविता में वे इस निष्कर्ष तक पहुँचते हैं समय उनसे देखने की शक्ति छीन लेता है (दृष्टि)
कि—जाति संगठन/ पहुँच बनाने में लगे/ और पहुँचे हुए लोगों का – और सफलता यहाँ वह स्टेशन है/ जिसे पटरी पर चलकर
सामाजिक-राजनैतिक कारोबार हो जाते हैं।” नहीं पाया जा सकता ( आज मन भारी है)
गणित में एम.एस.सी. घनश्याम सत्ता के गणित और समाज – घोड़े पर सवार राजा/ अक्सर राज्य पर सवार रहता/ राजा के
की वास्तविकता को बख़ूबी समझते हैं और उन्हें किसी किस्म लिए प्रजा भी एक घोड़ा है (घोड़ा चौराहे को देखकर)
की जल्दबाजी नहीं है। वे आमतौर पर इत्मीनान से विषय को – भूख़ इस दुनिया की सबसे पहली महामारी है/ अकेलापन
अपनी संवेदन-तंत्र में रचने-परचने देते हैं,उसे आत्मसात करने के शहर का सबसे पुराना रोग (पैदल मजदूर)
बाद ही उसे कविता में ढालने को प्रवृत्त होते हैं। इसीलिए उनकी इसमें संदेह नहीं कि सूत्र रूप में इनमें हमारे समय की तल्ख़
अनेक कविताओं में सहृदयता, सदिच्छा, उदारता, और एक सहज और जलती सच्चाइयाँ हैं लेकिन इन्हें पढ़ते हुए एक प्रश्न उठता
करुणा दिखाई देती है। यह संवेदनशीलता उनकी कविताओं में है कि क्या कवि इन कथनों के सहारे लोकप्रियता की क्या कोई
गहरी मार्मिकता का सृजन करती है। इस संदर्भ में उनकी कविता ‘धूमिल-राह’ पा जाना चाहता है? निजी तौर मुझे लगता है अगर
‘ग्रामवासिनी’ विशेष उल्लेखनीय है। घनश्याम गाँव की श्रमशील ऐसे स्टेटमेंट अधिक संख्या में आ रहे हैं तो निश्चय ही कविता का
स्त्रियों के संघर्षशील जीवन को किस शिद्दत, लगन और आत्मीयता वह सम्पूर्ण प्रभाव– जो उसके लिखे जाने की प्रक्रिया या उसके
से याद कर रहे हैं– “अभिवादन हेतु झुकता हूँ जब उन पैरों के आंतरिक लय के पाठकीय अनुभव से उपजता है- दुष्प्रभावित होता
स्पर्श के लिए/ जो खेत से लेकर खलिहान तक लहे-तपे दिन-रात/ है। न केवल यही बल्कि कविता का अपना ‘कंटेंट’ और पाठ
विलग रहे चप्पल-जूते के स्पर्श से उम्र के लम्बे समय तक/ वो भी। पाठ की प्रक्रिया जो प्रभाव पैदा कर सकती थी,इन पंक्तियों
वक्राकार कटे-फटे कुरूप हो चुके पैर/ जो सुन्दर और सुकोमल की चमक तक सीमित होकर रह जाती है। निश्चय ही ये कवि
रहते हैं जन्म के समय।” इस आख़िरी पंक्ति से घनश्याम यहाँ के यथार्थबोध अथवा जीवनबोध की गहराई तो बताते हैं,लेकिन
उनके जीवन के कठोर संघर्ष को, उनके जीवन की दारुण विडंबना कविता की स्वाभाविक गति को बाधित भी करती है। कविता
को और गहरा देते हैं यह कहक़र– “जो सुन्दर और सुकोमल रहते स्टेटमेंट हो सकती है लेकिन इसकी अधिकता कवि का किसी
हैं जन्म के समय। इसी कविता में चढाई पर चढ़ती बैलगाड़ी के लोकप्रिय फार्मूले और सरलीकरण का शिकार हो जाना है।
रूपक से उन्होंने इनके कठोर जीवन संघर्ष को बेहतरीन ढंग से उनकी कविताओं में हमारे समय की तमाम विसंगतियाँ,
उभारा है। कवि का रचनात्मक कौशल यह है कि इनके कठोर विरोधाभास, संशय, विपदा, त्रासदी या छलनाएँ बहुत सहज
संघर्षशील जीवन को इधर इनके अस्त्तित्व पर मंडराते भयावह भाषा में दर्ज़ होती हुई अपनी मार्मिक अंतर्दृष्टि के कारण अधिक
और देश-व्यापी संकट से जोड़ देते हैं– “ख़बरें जब-तब टकराती प्रभावशाली हो जाती हैं। अपने कविता लिखने को लेकर घनश्याम
रहती हैं इन दिनों/ किसानों की भूमि अधिग्रहण की या/ उनके द्वारा ने कविता ‘निवेदन’ में जो अर्ज़ किया है,वह उनके रचनात्मक
मृत्यु के असहाय वरण की।” अंतर्संघर्ष को निराडम्बर, बहुत सहजता और आत्मीयता से प्रकट
अपने समय के तीखे अनुभव और बोध से उपजी उनकी करता है– “यूँ ही हँसते बोलते कविता नहीं पा सका मैं/ न तो पाया
अधिकाँश कविताएँ राजनीतिक हैं। जैसा कि इसराइल के प्रख्यात है इन्हें मैंने इस दुनिया से कहीं दूर जाकर/ जगह-जगह की मिटटी
कवि यहूदा अमीखाई मानते थे—‘कविताएँ अपने मूल स्वभाव को जड़ तक खोदकर / तोड़कर ऊँचे गर्वीले पहाड़ों को/ ज़रूरी
में राजनीतिक ही होती हैं क्योंकि वास्तविक कविताएँ वे ही हैं जो पत्थर और कोयला एकत्र किया है/ श्रम से उद्यम से/तरह-तरह
यथार्थ के साथ पेश आती हैं’। घनश्याम त्रिपाठी में प्रतिरोध का के जतन भांति-भांति के उपकरण से / पहर-दर-पहर भट्ठी में तपने
स्वर बहुत मुखर होते हुए भी कवि इन्हें भरसक नारेबाजी में बदलने के बाद यह लोहा पाया है।” अंत में उनकी काव्यात्मक आकांक्षा
से बचाना चाहता है। लेकिन संकट का दबाव उन पर हावी हो का उल्लेख ज़रूर करना चाहूँगा– “कहा हुआ मेरा/ उस पौधे की
जाता है और प्रतिक्रिया वक्तव्य बन जाती है। यहाँ कवि की बहुत तरह दिखे/ जिसे देखने पर/ सूर्य की दिशा-दशा दिख जाती है।”
सी पंक्तियाँ किसी ‘स्लोगन’ या ‘जनरल स्टेटमेंट’ में बदल जाती संपर्क : 41, मुखर्जी नगर, सिकोलाभाठा,
है। शायद इन पंक्तियों के कारण कविता में एक चमक उभर आती दुर्ग (छत्तीसगढ़)
है। कुछ उदाहरण– मो. 9827993920

yegh जुलाई से सितंबर 2023 n 467


SataabdI smarNa

हरिशंकर परसाई
(22 अगस्त 1924 - 10 अगस्त 1995)

468 n जुलाई से सितंबर 2023 yegh


महेश वर्मा गीत चतुर्वेदी
विवेक चतुर्वेदी निशांत
आत्मा रंजन विशाल श्रीवास्तव
संतोष चतुर्वेदी रोहित कौशिक
महेश पुनेठा कुमार अनुपम
बसंत त्रिपाठी व्योमेश शुक्ल
अरुण देव अच्युतानंद मिश्र

असीम
प्रभात मृत्युंजय
राकेश रंजन प्रांजल धर
शिरीष कुमार मौर्य अरुणाभ सौरभ
पीयूष दईया अविनाश मिश्र
मेरे जीवित हाेने की गवाही है कविता शिरोमणि महतो अनुज लुगुन
इसकी हर इबारत में जज़्ब है मेरी पहचान विवेक निराला राही डूमरचीर
पीयूष कुमार अनिल कार्की
श्रीप्रकाश शुक्ल सौरव राय
मिथलेश शरण चौबे कुमार कृष्ण
यतीश कुमार ग़ाैरव पाण्डेय
अंजन कुमार कुमार मंगलम
अजय कुमार पाण्डेय विहाग वैभव
विशेष
जम्मू कश्मीर की कविता
नयी सदी की कविता : दो स्वरों का तुलनात्मक-पाठ

yegh जुलाई से सितंबर 2023 n 469


470 n जुलाई से सितंबर 2023 yegh
n असीम : महेश वर्मा

धूल से सना इतिहास और सपनों का मिथकीय यथार्थ


डॉ. नीलाभ कुमार

महेश वर्मा की कविताएँ हमें उन बंद गुफाओं की सैर और वर्तमान स्थितियों में मनुष्य के आवाज़ाही और
करवाना चाहती हैं, जिनके दरवाजे और खिड़कियाँ उसके संकल्पों-विकल्पों की गुत्थमगुत्था से वाबस्ता
दिखाई नहीं देते, पर गुफा के भीतर रोशनी की झलक होता जान पड़ता है। ये ऐसे रूपक हैं जिनका मनुष्य
होती है। ऐसे में मन में यह सवाल उठना लाजिमी है चिरंतन से सामना करता आया है। आज भी कर रहा
कि यह प्रकाश कहाँ से अपनी छटा बिखेर रहा है? है और संभव है भविष्य की दिखाई देने वाली आहटों
कोई रोशनदान तो नहीं है जिससे गुफा में रोशनी का में भी इसकी अनुगूंज सुनायी देती ही रहेगी।
प्रवेश हो रहा है? यदि हम उन रोशनदानों को खोजने जल की होती जा रही अनुपलब्धता पूरे वातावरण
का प्रयास करेंगे तो वे भी हमें नहीं मिल पाएँगे। अब यह संशय और के लिए चिंता का कारण बनती जा रही है। मनुष्य तो मनुष्य, पशु-
भी अधिक बढ़ जाता है कि न खिड़की, न दरवाजे, न रोशनदान, पक्षी, पेड़-पौधे और जीव-जगत के सभी गोचर-अगोचर सजीव
बंद गुफा, फिर भी रोशनी की झलक कैसे दीख पड़ रही है? एक प्राणी जल की अनुपलब्धता होते देख घबड़ाने को मजबूर हैं।
रहस्य सरीखा, जिसकी खोज महेश वर्मा की कविताएँ करती जान सवाल है- आगे क्या होगा? और दूसरा कि इसका उपाय क्या है?
पड़ती हैं। इस खोज में उपमा, रूपक, बिंब, प्रतीक की भरमार है। तीसरा कि जल की अनुपलब्धता से निजात कैसे पाया जा सकता
कहीं-कहीं तो ऐसा लगता है कि ये शिल्प कविताओं को कमजोर है? ये सारे सवाल हमारे जीव-जगत में सबसे होशियार समझे
भले न बनाते हो, पर दुरूह और असंप्रेषणीय तो ज़रूर बनाता है। जाने वाले मनुष्यों को हर हमेशा, दिन-रात, चौक-चौराहे मथता
महेश वर्मा की इन कविताओं की दुरूहता हमें उस गुफा में डुबकी जा रहा है, सोचने को मजबूर किए जा रहा है। यदि हम आगे नहीं
लगाने के लिए मजबूर करती हैं जहाँ रोशनदान की कोई भी झलक चेतते हैं, हममें समझ का लेशमात्र भी विकास नहीं हो पाता है, तो
न हो, पर रोशनी दिखाई दे रही हो। महेश वर्मा की कविताओं की हम इतिहास में होती रही गलतियों को दुहराते जाने के लिए बाध्य
यही ख़ूबसूरती भी है और यही यही उसका दुरूहताबोध सामान्य होते रहेंगे और सुराहियाँ हमें ज़ोर-ज़ोर से आवाज़ देकर अपने पास
पाठक से कविता को दूर भी करता है। बुलाती रहेंगी कि हमारे भी सूखे अतड़ियों में थोड़ा पानी डाल दो।
महेश वर्मा की प्रायः कविताएँ इस बात का एहसास कराती सुराहियों की आवाज़ हमें मथती रहेंगी और हम विवश और व्यथित
हैं कि इसके आगे भी लिखा जाना शेष है क्या? इस एहसास में हो इतिहास के गलतियों को दुहराते रहने के लिए बाध्य होते रहेंगे;
पाठक को किसी प्रकार की थकान महसूस होती हो या न होती यदि हमने इतिहास से सबक लेकर आगे की राह को दुरुस्त करने
हो, पर उसका एहसास यह प्रतिकार करने के लिए हमेशा तैयार की कोशिश नहीं की तो! “वे भी इसमें पानी ही रखेंगे और विकल
रहता है कि इसके आगे भी कुछ कहना शेष है क्या? यह ‘शेष’ रहेंगे,/ गलती दुरुस्त नहीं हुई है इतिहास की।” (कविता ‘चँदिया
सब कुछ न कह पाने की तड़प के रूप में कविताओं में व्यक्त स्टेशन की सुराहियाँ प्रसिद्ध हैं’)
हुआ जान पड़ता है। समाज, राजनीति, अर्थ, संस्कृति आदि से चिड़ियों की प्रजातियों का लुप्त होते जाना, साथ ही वृक्षों की
लबरेज़ ये कविताएँ कहना बहुत कुछ चाहती हैं। रूपकों का गढ़न कमी होते जाने का बदस्तूर जारी रहना- इस बात की ताकीद
भी करती हैं, पर ये गढ़े गए रूपक कितने प्रभावशाली हैं- यह बता करती चलती है कि यदि हमारी स्थिति ऐसी बनी रही तो हम
पाना बड़ा कठिन है। सूर्य, पर्वत, राख, धूल, कुहासों आदि का जो अपने ‘भविष्य’ के लिए कितना अच्छा ‘कल’छोड़ पायेंगे? “और
रूपक गढ़ा गया है कविताओं में, उन रूपकों के सहारे तत्कालीन कूट संकेत बताने वाली चिड़िया की आवाज़/ सूख गई है अनाम

yegh जुलाई से सितंबर 2023 n 471


वृक्ष की टहनी पर।” (कविता ‘किस्सा’ से)। कवि इस बात की सकते, तो जंगल से निकलने वाली लय को कैसे पहचान सकते
ओर इशारा करता जान पड़ता है कि हम देखते रह जाते हैं जैसे हैं? इस लयको तभी सुना जा सकता है जब हममें संवेदनशीलता
तमाशबीन हों और हमारे हाथ आकर भी कुछ नहीं आता; उसी बची हो, हम अपने साथ-साथ दूसरों के दुख-दर्द को भी महसूस
फुर्र हुई ग़ाैरैया की तरह। ग़ाैरैया का खिड़की से फुर्र से निकल करने की क्षमता रखते हों। लगता है- हममें इसी क्षमता का अभाव
जाना हमें एक झटका दे जाता है- जीवन भर के लिए। पूर्वजों को होता जा रहा है। हम अपने में इस कदर गाफ़िल हैं कि दूसरे दिखाई
चाहने, उनसे सीख लेने की हमारी चाह भी जैसे खिड़की से फुर्र नहीं दे रहे। लेकिन हमें ध्यान रहना चाहिए कि आज हम दूसरे की
हुई ग़ाैरैया की तरह खिड़की के बाहर देखे जाने के बावज़ूद दिखाई आवाज़ नहीं सुन रहे, कल हो सकता है हमारे रुदन किसी दूसरे
नहीं देती; हमारी चाह में ही समाप्त हो जाती है। “सुबह में ढूंढता को सुनाई न दे, दूसरों की भी हमारी तरह नींद खराब हो! “हम
उनके पदचिह्न ज़मीन पर/ सपनों पर और अपनी कविता पर/ फुर्र बहरहाल उनलोगों के साथ हैं/ जिनकी नींद खराब होती है- ऐसी
से ग़ाैरैया उड़ जाती है खिड़की से।” (‘पूर्वज कवि’) आवाज़ों से।” (‘आदिवासी औरत रोती है’)
पुरानी हो चुकी कुर्सी, पुराने पड़ चुके लोग जैसे एक तरह के जिस समय की ताकीद जाने-अनजाने प्रश्नानुकूल होने की भी
हो जाते हैं! कहा जाए कि पुरानी पड़ चुकी सारी चीज़ों की गति मनाही करता हो, उस समय की पड़ताल गोया उत्सवों के समाप्त
क़रीब-क़रीब एक-सी होती है! उसे घर के किनारे लगा दिया जाता होने जैसा है। उत्सव प्रतीक हैं- जीवन में होने वाली खुशियों और
है, उसके उन पुराने दिनों को भुलाकर जब वह न सिर्फ़ चमकता रंगीनियों की, उत्साह और आनंद की। यदि इसे ढँक दिया जाए तो
था, बल्कि अपनी अस्थिमज्जा के दम पर दूसरे के काम भी आता जिस उत्सव में रंगीनियाँ पनपनी चाहिए थी, वे राखों से भर जाएँगी।
था। आज जब उसकी अस्थियाँ कमजोर होने लगी हैं, तब उसे उन राखों से जो इतिहास के गर्दो-गुबार को तो ढंकती ही हैं, मनुष्य
दरकिनार कर दिया गया है। उस पर किसी का ध्यान तक नहीं के सपनों को भी लील जाती हैं। स्वप्न यदि वायवीय न हो, उसकी
जाता। वे फालतू वस्तु की तरह इस्तेमाल की जाने लगी हैं। अब तो जड़ें यथार्थ में समोती हों, तो वह दिन भी दूर नहीं जब हम उत्सवों
नौबत यह आ गई है कि उस पुरानी पड़ चुकी कुर्सी को जलाकर का संयोजन स्वयं कर पायेंगे। हमारे सपने अधूरे नहीं रहेंगे। हम
उसके ताप से एक शाम के अलाव की व्यवस्था करने को सोचा इतिहास की तो ख़बर लेंगे ही, यथार्थ को भी गले लगा सकने की
जाने लगा है। क्या वृद्ध होते जा रहे मनुष्य की भी गति ऐसे ही स्थिति में होंगे। हम प्रश्नानुकूल भी हो सकेंगे और इतिहास से
जलाए जा चुके अलाव की तरह नहीं हो गई है? “जब खुल जाएँगी सबक लेकर वर्तमान में अपने प्रश्नों का हल जानना भी चाहेंगे।
इसकी संधियाँ,/ इससे पहले ही किसी शिशिर में शायद/ एकमत न्याय को जिस ढंग से परिभाषित किया जा रहा है, अपने समय
हो जाएँ कुछ लोग/ दहक़ने को इससे-/ एक साँझ का अलाव।” में, उस न्याय की विसंगति यह है कि वह हमारे प्रस्तुत होने, हमारे
(‘कुर्सी’) प्रश्नों को उछाले जाने, हमें प्रश्नानुकूल बने रहने देने से पहले ही
एक व्यंग्य का गढ़न कवि उन लोगों के लिए करता है, जो अपने निरुत्तरित कर देना चाहता है। वह ‘न्याय’ चाहता है कि हममें
में ही मगन रहते हैं। उन्हें उन स्थितियों से वाकिफ़ होना ही नहीं वैसी कोई भी चीज़ न पनपे जो हमें प्रश्नानुकूल बनाए। यदि हमने
है जो मनुष्य की मनुष्यता को झकझोरती है, चीखने, चिल्लाने के अनजाने किसी प्रश्न को चिह्नांकित भी कर दिया तो उसका उत्तर
लिए विवश करती है। हम सड़क पार हो जाएँगे बेधड़क, लेकिन उस न्याय में लिपटा मिलेगा, जो घटित हो चुका होगा। हमारे प्रश्नों
सड़क पर जो कुकृत्य होता रहेगा, उससे आँखें मूँद, उसे नजरंदाज का उत्तर उस धूल में सना मिलेगा जो हमारे इतिहास और सपनों
कर, जैसे कुछ हुआ ही नहीं हो, गोया मनुष्य कितना संवेदनहीन को ढँक लेने का काम कर रही होती है। क्या धूल की जगह वही
हो गया है! ऐसे संवेदनहीन लोगों से निर्मित हो रही दुनिया का यथार्थ लेगा, जो इतिहास और सपनों को ढँक लेने का काम कर
जो अक्स बनता है वह हमें उन रास्तों पर चलने से रोकता है, जो रही होती हैं। क्या धूल की जगह वही यथार्थ लेगा, जो इतिहास
मनुष्यता का रास्ता हो, जिन रास्तों से मनुष्य की मनुष्यता सुरक्षित और सपनों को ढंकने में मददगार साबित हो रहा है? “तयशुदा
रह सकती हो। हम कितने संवेदनहीन हो गए हैं कि हमें जंगल से दस्तावेज़ उत्तर मान लिए जाएँगे/ और प्रस्तुत होने से पहले ही
रूदन की निकलती आवाज़ नहीं सुनाई पड़ रही है। जंगल का जो कहीं/ घटित हो चुका होगा न्याय/ आख्यानों के बगुलों से धुंधला
संगीत है, लय है, उसे हम भूलते जा रहे हैं। हम उनलोगों के साथ जाएगा आकाश/ और धूल इतिहास और सपनों को ढँक लेगी।”
हो गए जान पड़ते हैं जो गुफाकालीन लय में निकलती आवाज़ों से (‘इस समय’)
परेशान हो जा रहे हैं, साथ ही उनकी नींद भी खराब हो जा रही है। सड़ी-गली मान्यताओं, रूढ़ हो चुकी परंपराओं का समाप्त
ये आरामतलबी, संवेदनहीन लोग मनुष्य की पीड़ा को नहीं समझ हो जाना ही किसी संवेदनशील और गतिवान समाज के लिए

472 n जुलाई से सितंबर 2023 yegh


अपरिहार्य है। इससे मनुष्य के जीवन में आए आलस्य को समाप्त
मशीन बने मनुष्य अपनी महत्वाकांक्षाओं को
किया जा सकेगा, मनुष्य को ऊर्जावान बनाए रखने के लिए प्रेरित अमलीजामा पहनाने के लिए इस कदर बेचैन
किया जा सकेगा। यदि सड़ी-गली मान्यताएँ जीवित रहीं तो समाज हो उठता है कि उसे मनुष्य की सारी अच्छाइयाँ
की गतिकी को अवरुद्ध करेगी। समाज अग्रगामी दिशा में जाने के बौनी नज़र आने लगती हैं और वह अपने को
बजाए पश्चगामी होगा। आइए, हम सब मिलकर यह संकल्प करें दौड़ की प्रतिस्पर्द्धा में किसी भी रूप में आगे
कि ऐसी रूढ़ हो चुकी मान्यताओं को, जो सदियों से चली आ रही निकल जाने को तैयार करता है। ऐसे मनुष्य
है, इस होली में होलिका के दहन के साथ इसे भी अग्नि में जगह को यदि रक्तपात का भी सहारा लेना पड़े तो
दे दें- “कल रात ही उसको राख होता देखा था सम्मत में/ जर्जर उसे गुरज़
े नहीं होता। “जहरीली हवा और राख
देह पिछले साल की।” (‘होली’ कविता से) कवि ‘नसीहत’ देता से ढके/ इस संसार में क्या है छोड़कर जाने के
है उन सभी भारतीयों को, जो देश को गतिशील रखने के लिए लिए।” (‘नसीहत’)
प्रयत्नशील हैं। साथ ही नसीहत है उन लोगों को भी जो जहरीली
हवा और राख से ढके इस संसार में रक्तपात को बढ़ावा देने पर सकेगा जो मानवीयता से ओत-प्रोत हो। जो भावनाएँ मनुष्य के
आमादा हैं। व्यक्ति एक-दूसरे से आगे निकल जाने की होड़ में इस लिए, मनुष्य को जीने देने के लिए नैतिक रूप में सच्चरित्र होंगी,
कदर आपाधापी में जीवन जी रहा है कि वह अपने को समझने को उन भावनाओं का प्रकटीकरण आसानी से हो पाएगा। बे-दरो दीवार
भी तैयार नहीं है। इस आपाधापी का मूल मंत्र ही है कि वह व्यक्ति से निर्मित घरों में आकाश की आवाज़ाही आसानी से हो पाएगी।
को मशीन बनाता है और मशीन का संवेदनशीलता से कोई लेना- चीज़ें बड़ी आसानी से अपना निर्माण ख़ुद कर पाएँगी। आत्मा के
देना नहीं- यह हम बख़ूबी जानते हैं। मशीन बने मनुष्य अपनी सांवला होने का डर भी बहुत कम रह जाएगा। खुले आकाश में
महत्वाकांक्षाओं को अमलीजामा पहनाने के लिए इस कदर बेचैन उड़ रहे पक्षियों की भाँति मनुष्य में भी निष्कपटता अधिक होने की
हो उठता है कि उसे मनुष्य की सारी अछाइयाँ बौनी नज़र आने संभावना बढ़ सकेगी। “थोड़ा उजला हो जाता, आत्मा का सांवला
लगती हैं और वह अपने को दौड़ की प्रतिस्पर्द्धा में किसी भी रूप में रंग।” (‘दीवारें’ कविता से)
आगे निकल जाने को तैयार करता है। ऐसे मनुष्य को यदि रक्तपात स्त्री आकांक्षा है- उन सपनों का जो खिलने के पहले मुरझाने
का भी सहारा लेना पड़े तो उसे गुरेज़ नहीं होता। “जहरीली हवा को विवश कर दी जाती है। स्त्री की घुटन, कुढ़न उसकी इबारत
और राख से ढके/ इस संसार में क्या है छोड़कर जाने के लिए।” बन जाती है। इन इबारतों में लिपटी वह दूर तक चली जाती है।
(‘नसीहत’) वहाँ तक, जहाँ कि जा पाना किसी स्त्री के लिए एक अंतहीन गाथा
हम जिस किसी भी चीज़ को बेकार समझ उसे फेंकने का प्रयास की तरह हो सकती है। स्त्रियाँ अपने दर्द को, अपनी इच्छाओं-
करते हैं या फेंक देते हैं, हो सकता है, उसमें जीवन का कोई बड़ा आकांक्षाओं को दबाते हुए जी लेने की कला में माहिर कर दी गई
फलसफ़ा निहित हो। जिस व्यक्ति के महत्व को कम आंक कर जान पड़ती है। स्त्रियों का यह गुण समय की नज़ाकत को पहचानने
उसे दरकिनार कर दिया जाता है, वह भी महत्वपूर्ण हो सकता है- का एक माध्यम हो सकती है। जिस समय में स्त्रियाँ जी रही हैं, वह
अधखाया सेब की तरह। वह हर महत्वपूर्ण हो सकता है, जो फेंका समय बदलाव का है। इस बदलाव के साथ स्त्रियों में भी बदलाव
गया है, सताया गया है, जिसे दुनिया ने अनचाहा किया है। ज़रूरत आ रहा है, पर उसकी चाल थोड़ी सुस्त जान पड़ रही है। स्त्रियाँ
है- सबों को महत्व देने की, ज़रूरत है- चीज़ों को सकारात्मकता अपने गुस्से को भीतर दबाकर एक इबारत का गढ़न कर रही हो या
में लेने की। हर सकारात्मक सोच हमें वह दिशा प्रदान करती है, अपनी चुप्पी से आकाश को भेदने का काम कर रही हो, वह अपने
जिससे हम जीवन के अनछुए पहलुओं को उद्घाटित करने में यथार्थ के उस दौर में जीने के लिए कोशिश करती जान पड़ रही हैं
सफल हो सकते हैं। जीवन की एकरेखीय गति को तोड़कर उसे जिसमें समय और स्त्री दोनों के आर्तनाद सुनायी पड़ रहे हैं। स्त्रियों
आगे बढ़ाने में मदद पहुँचा सकते हैं। “उठाकर बाहर आ गया- यह का यह आर्तनाद समय की शिला पर अपना इस्पाती रंग ज़रूर
अधखाया सेब,/-इस बेकार की चीज़ को-/ मैं उछालता हूँ आपकी बिखेर पाएगी। उस दुनिया का निर्माण वह कर पाने में सक्षम हो
ओर”। (‘सेब’ कविता से)। सकेंगी, जिस दुनिया में बेवज़ह स्त्रियों को शिकार बनाया जा रहा
मनुष्य का हृदय जितना साफ-शफ़्फाक होगा, उसमें तीन-पाँच है। “एक गुस्से की इबारत पढ़नी थी / एक चुप्पी को जानना था।”
करने की प्रवृत्ति भी उतनी ही कम होगी। ऐसी स्थिति में वह अपने (‘उदाहरण’ कविता से)।
हृदय में समोये उन सारे अरमानों का प्रकटीकरण आसानी से कर भूख़ से बिलबिला रहे मनुष्य के लिए जल, जंगल, ज़मीन

yegh जुलाई से सितंबर 2023 n 473


(‘अंतिम रात’ कविता से)।
महेश वर्मा की कविताएँ उस स्वप्न की तरह हैं जो अपने
ये कविताएँ ऐसी मुश्किलातों का सामना भीतर बड़े सपने को संजोये रहती हैं। इस सपने को पाने के लिए
करते हुए आगे बढ़ती हैं, कुछ नया रचने का छटपटाहट भी दिखाती हैं, प्रयत्न करती हैं, लीक को पीटने का
प्रयास भी करती हैं, पर वह प्रयास कहीं भटक काम भी नहीं करती, पर किस गुंजलके में खो जाती है- इसका
गया-सा, नए रास्ते की खोज में किसी दूसरे
एहसास नहीं हो पाता। ये कविताएँ ऐसी मुश्किलातों का सामना
रास्ते को अख़्तियार करता जान पड़ता है। ऐसी
स्थिति में कवि को अपना गंतव्य मिल पाएगा करते हुए आगे बढ़ती हैं, कुछ नया रचने का प्रयास भी करती हैं,
या नहीं, यह भविष्य के गर्त में छिपा जान पर वह प्रयास कहीं भटक गया-सा, नए रास्ते की खोज में किसी
पड़ता है। दूसरे रास्ते को अख़्तियार करता जान पड़ता है। ऐसी स्थिति में
कवि को अपना गंतव्य मिल पाएगा या नहीं, यह भविष्य के गर्त में
छिपा जान पड़ता है। ‘यह तुम्हारा स्वप्नफल मैंने कहा/ तुम्हारे उस
रोज के स्वप्न के लिए/ जब तुम मुझसे कुछ पूछना चाहते थे।”
जो उसके अपने संगी-साथी थे, अब उसे भी हड़पा जा रहा है। (‘प्रारूप चार’)
यह समुदाय अपनी मूलभूत आवश्यकताओं से वंचित रहनेवाला कविता’31 दिसंबर’ में सिर्फ़ भाषायी जादूगरी ही नहीं दिखाई
समुदाय रहा है। यह अपने लिए दो जून की रोटी की व्यवस्था हो देती, बल्कि इसमें एक सवाल भी है कि क्या हम इसी तरह प्रत्येक
जाए- इसके लिए भी आकाश को निहारते रहने के लिए विवश साल अँधेरे में उतरते रहने को मजबूर होते रहेंगे? यदि यही स्थिति
रहते आया है। यह स्थिति उन आदिवासियों की है जिनसे उनकी हमारे जीवन की बनी रही तो हमें इससे निपटने का प्रयास करना
भूमि छीन, उस भूमि पर महल-अट्टालिकाओं का निर्माण कर लिया चाहिए। हमें वैसे प्रयास करते रहने होंगे जिससे मानवीय जिजीविषा
जा रहा है और बदले में उन्हें ‘मिट्टी का बिस्कुट’ खाने को मजबूर अक्षुण्ण रहे। मानव विपत्तियों का सामना करने के लिए अपने को
किया जा रहा है। ‘मिट्टी का बिस्कुट’ उस व्यवस्था की उपज है, तैयार करने की शक्ति प्राप्त कर सके। ऐसे भावात्मक संदेशों के
जो जल, जंगल, ज़मीन को उनसे छीनकर पूँजीपतियों के हाथों में साथ समाप्त होने वाली कविता लकीर से हटकर रूपक गढ़ने,
थमा देने के लिए आतुर दिखती है। “यह भूख़ थी अगर तो उनलोगों भाषायी जादूगरी का इस्तेमाल करने के साथ-साथ कविता की
की थी/ जो मिट्टी के बिस्कुट गढ़कर दे रहे थे अपने बच्चों को/ उस नई पौध को जन्म लेते देखने का आग्रही दिखाई देता है, जो
जो बीच-बीच में देख लेते थे आकाश”। (‘अगर यह हत्या थी’ अपनी भाषा में ‘कुछ’ कहना चाहता है और दुनिया की रूपरेखा
कविता से) को भावात्मक रूप से गढ़ना भी चाहता है।
इतिहास के अंतिम स्मारक का ढहाया जाना बाबरी-मस्जिद महेश वर्मा की कविताएँ पाठकों से बड़े धैर्य और समझ की मांग
ध्वंस की ओर इशारा करता जान पड़ता है। वह बाबरी-मस्जिद करती है। यह बने-बनाए फार्मूले को तोड़ती नज़र आती हैं। इस
ध्वंस और हिंदुओं के मिथकीय चरित्र का आरोपण जिस ख़ून- तोड़फोड़ में कहीं-कहीं विनोद कुमार शुक्ल की नकल भी दीख
खराबे को बढ़ावा देने के लिए जिम्मेदार है, उस स्थिति से निपट जाती है। जैसे- ‘कमरे में नहीं होता आकाश’। सामान्य तौर पर
पाना पूरी मानव जाति के लिए चुनौती जैसी बात है। ख़ून-खराबे में ऐसा लगता है कि कवि शब्दों के साथ खिलवाड़ कर रहा है, शब्दों
मानवता का ध्वंस होता है। मानवता जार-जार रोती है, आंठ-आंठ का इस्तेमाल और उससे निर्मित वाक्य भी कहीं-कहीं अधूरे दिखते
आँसू बहाती है। यह स्थिति उस व्यवस्था के ऊपर भी प्रश्नचिह्न हैं। यह बनी-बनायी ज़मीन तोड़ने सरीखा है, जो काफ़ी कठिन
खड़ा करती जान पड़ती है जिसमें ऐसी स्थिति उत्पन्न कर दी जाती होता है। लकीर का फकीर होना और बने-बनाए तर्ज पर साहित्य
है कि लोग अपना आपा खो बैठते हैं और कल तक जो सगा-साथी रचते रहना आसान होता है, जबकि लीक को तोड़ने में दोधारी
थे, आज वे एक-दूसरे के दुश्मन नज़र आने लगते हैं। यह स्थिति तलवार हमेशा आपके आगे नाचती रहती है। n
किसी भी न तो धर्म के लिए उचित है और न ही मानव-समुदाय के
लिए। यह स्थिति ऐसी है जिसमें मानवता की लाश के ऊपर क्षुद्र संपर्क : सहायक प्राध्यापक, हिंदी
राजनीति की गोटी लाल करने का प्रयास किया जाता है। “अंतिम शासकीय विज्ञान महाविद्यालय, अम्बिकापुर
स्मारक ढहाया जा चुका इतिहास का/ मिथक के अंतिम नायक का सरगुजा (छ.ग.)
देवालय गढ़ रहा शिल्पी/ मरकर किसी पत्थर पर ढह चुका है।” मो. 9644212029

474 n जुलाई से सितंबर 2023 yegh


n असीम : विवेक चतुर्वेदी

नयी सदी का कवि-सामर्थ्य


निशांत कौशिक

कविताओं पर लिखते समय सबसे बड़ी चुनौती है स्त्रियाँ घर लौटती हैं


कि उन्हें यादृच्छिक अर्थों और सूक्तियों में घटाए पश्चिम के आकाश में
बग़ैर किस तरह उनका तत्व अक्षुण्ण रखा जाए! उड़ती हुई आकुल वेग से
क्या कविता की व्याख्या कविता है या उसका वैभव काली चिड़ियों की पाँत की तरह।
उनके शिल्प एवं प्रवाह में ही सुरक्षित है? क्या पाठक स्त्री एक साथ पूरे घर में लौटती है
की यात्रा कवि की यात्रा की तरह रचनात्मक आवेग वह एक साथ आँगन से चौके तक
और तनाव महसूस कर सकती है? विवेक चतुर्वेदी लौट आती है।
की कविताओं को पढ़ते समय यही स्थिति दरपेश हुई जहाँ केवल स्त्री है... जो बस रात की
अनुभूति और उनके बदलते संदर्भों से साबक़ा नहीं है बल्कि बाह्य नींद में नहीं लौट सकती
वास्तविकता के प्रति एक जवाबदेही का भी स्वर है। उसे सुबह की चिंताओं में भी
उन्हें कई प्रसंगों में 'स्त्री के सामर्थ्य और व्यथा का कवि' कहा लौटना होता है। (स्त्रियाँ घर लौटती हैं)
जाता है। स्त्री विषयक लेखन अब एक अतिक्रमित क्षेत्र है। वह क्षेत्र कविता में पारलौकिकता, सामान्य तथा साधारण को गहराने का
जहाँ कविता का अर्थ तेज़ी से उन्मादपूर्ण और मादक अभिव्यक्ति माध्यम भी रहा है और कवि के छोटे से संसार का वैभव दर्शाने का
में बदल रहा है, जहाँ नया कहने-सुनने की कगार पतली है। जहाँ उपकरण भी। मसलन;
जल्दी-जल्दी कविता को विचार या पक्ष में घटा देने की आतुरता नहीं जाता अब सुबह
है, वहां नज़र डालने पर दिखेगा कि यह क्षेत्र सिर्फ़ बहिष्कृत और मन्नतों से ऊबे, अहम में ऐंठे
अनभिज्ञात अनुभवों, मुक्ति की उत्कंठा, समानता के युद्ध का ही पथरीले देवों के घर
संसार नहीं है बल्कि इस संसार के रोज़मर्रापन में कई सकुचाते से उठता हूँ आँगन बुहारता हूँ
उत्सव भी हैं। यह उत्सव कोई लैंगिक विशेषाधिकार नहीं है न ही और कुछ बच्चों के लिए
इसमें पीड़ाओं को रद्द करने का तर्क है। विवेक चतुर्वेदी कई रास्तों एक भोर उगाता हूँ।
से इस संसार में प्रवेश करते हैं और इस सकुचाते हुए उत्सव को
गहन करते हैं, भाषा में, कविता में सुलभ करते हैं। (भोर उगाता हूँ)
'लौटना' अक्सर कविता में जड़ों, मूल-स्थान में लौटने की
ग़ाैरवगाथा या इन्तिज़ार/उत्कंठा के रूप में दिखाई पड़ता है। -----
लेखक की एक कविता 'स्त्रियाँ घर लौटती हैं' में यह लौटना सबका यह शहर बाँदा है
लौटना नहीं है। यह युद्धोपरांत नायक का वापिस अपने राज्य में आकाश फ़िलहाल यहाँ गाय की ऊँचाई भर है
लौटना नहीं है। यह लौटना बहुत दैनिक है, मामूली है, सामान्य है।
इस लौटने में सब कुछ सुख में नहीं बदल जाता, सब सुलझ नहीं (बांदा)
जाता, साम्य स्थापित नहीं हो जाता। उसी की बानगी में कविता के गुड़ मुँह में रख वो
इस अंश को पढ़िए : दांत चियारता है

yegh जुलाई से सितंबर 2023 n 475


लेकिन यह सभी पंक्तियाँ अपनी प्रस्तुति में इतनी सघन हैं कि
सांसारिक साधारणता को मायावी होने की कगार पर ले आती
हैं। ऐसे प्रतीकों की बारम्बार सफल पुनरावृत्ति कवि के प्राथमिक
लगावों की ओर भी इशारा करती है।
शरद की सुबह
कभी-कभी इतनी मुलायम होती है
जैसे सुबह हो ख़रगोश की गुलाबी आँख
जैसे सुबह हो पारिजात के नन्हे फूल
जैसे सुबह हो झीना-सा काँच
कभी-कभी सुबह को
सुनने और छूने में डर लगता है
कि जैसे अभी दरक जाएगा
एक गुनगुना दिन।
-----
माँ की रोटी के तवे सा तपता चैत आया
गया धोबी के लोहे में सुर्ख़ कोयलों सा दहक़ता
-----
अक्टूबर के कटोरे में रखी धूप की खीर पर
माँ ख़ुश होती है पंजा मारने लगी है सुबह ठण्ड की बिल्ली"
फिर से धूप बुनती है (जनवरी) कुछ अन्य कविताएँ जहाँ अवनति, जीवन की अपरिहार्य
स्थानीयता और परिचित लेकिन लुप्त होते संसार को कविता समाप्ति, बीत चुके का पावित्र्य और अपने ही स्खलित होते अनुभूति
में स्थापित करने की प्रवृत्ति कवि के यहाँ बहुत है। अक्सर वह संसार में टॉर्चलाइट मारने का कविताई प्रयास है। इस प्रयास में
बचपनी अतीतमोह या गृहातुरता जैसे विषयों में दिखती है। ऐसी नीचे दर्ज़ पंक्तियाँ दीख पड़ती हैं।
कविताओं में सरोकार मूलभूत तथा सौंदर्यपूर्ण हैं। कई अलग तुम हमारे भर नहीं थे पिता!
कविताओं से यह हिस्से; हाँ! चीड़ों से,
मूँज की खटिया सी बुनता हूँ मैं कविता याकों से,
कविता छूटकर उड़ जाती है भोले गोरखाओं से,
बिजली के तारों में फँस कर फड़फड़ाती है तुम कहते थे पिता : मैं हूँ
बच्चों से कितनी दूर चली जाती है। तब तुम और ऊँचा कर लेते थे ख़ुद को
----- पर जब हम थक जाते
एक अनकही सुगंध का सूत तुम मुड़कर पिट्ठू हो जाते
रफ़ू कर रहा है पाशविकता के छेद प्रतीकों के ज़िक्र में उनके यहाँ टाइपराइटर, जूते तथा ताले
अनुभूति दूब-सी हरी हो चली है अपने पारम्परिक अर्थों से छिटकते हैं। टाइपिस्ट कविता की पंक्ति
कुछ ऐसा ही तो हुआ होगा है;
शुरू-शुरू में जूतों का साथ बहुत अपना है
दहक़ती पृथ्वी के साथ भी। जितना कि साइकिल का नहीं
कवि अपनी कई कविताओं में सौम्य और कवि-जाति के आदिम जितना कि रेडियो का नहीं
लगावों वाले प्रतीकों की कविता में स्थापना करते चलते हैं। बहुत जितना कि सूरज का नहीं
सारी कविताएँ इन प्रतीकों का सफल प्रतिष्ठापन ही है, जहाँ कथ्य जितना कि बहुत-सी दूसरी बातों का नहीं
का स्पेस कम और अनुभवों/स्मृतियों का प्रतीकीकरण अधिक है। जूतों की बेतरह उधड़ी सियन और

476 n जुलाई से सितंबर 2023 yegh


देह पर ख़रोंचें एक लंबे और
थका देने वाले रास्ते को सुनाती हैं।
इसी तरह 'ताले... रास्ता देखते हैं' कविता में पारम्परिक अर्थों
से कहीं दूर ताले और छवि इन्तिज़ार, याद, उत्कंठा से आगे बढ़कर विवेक चतुर्वेदी एक कवि के तौर पर अपनी
एक कोमल प्रणय प्रतीक में बदलने लगते हैं; भाषा काफ़ी हद तक अर्जित कर चुके हैं।
वह अपनी प्रेरणाओं में धूमिल और आलोक
चाबी रेंगती है उनकी देह में
धन्वा का नाम बारहा लेते हैं। यद्यपि उनके
और ताले खिलखिला उठते हैं। यहाँ आलोक धन्वा का असाधारण संसार
क्या कवि की सब निजताओं में सार्वभौमिकता खनखनाती है? अपनी भिन्नता और सौम्यता के साथ मौज़ूद
'मेरे बचपन की जेल' कविता, व्यवस्था में विकास और चारित्रिक है। राजनीतिक या सामाजिक सरोकार संबंधी
परिवर्तनों को घनीभूत ढंग से समेटती है; एक नज़र में इसमें केवल उनकी कविताएँ उनकी भाषा की ही सौम्यता
कवि की बचपन की स्मृतियाँ दिखती हैं किन्तु अपने क्रम में यह और ग्राम्यता के कारण प्रखर तेवर में ढलने से
व्यवस्था के प्रति उदासीनता, भय, विरोध के बाद उसका ही हिस्सा रह जाती हैं, उद्घोष बन जाती हैं या मानवीय
बनने की कविता है और उससे मुक्त होने की हूक भी। हितों के पक्ष में एक कोमल पुकार में बदल
विवेक चतुर्वेदी एक कवि के तौर पर अपनी भाषा काफ़ी हद तक जाती हैं।
अर्जित कर चुके हैं। वह अपनी प्रेरणाओं में धूमिल और आलोक
धन्वा का नाम बारहा लेते हैं। यद्यपि उनके यहाँ आलोक धन्वा का
असाधारण संसार अपनी भिन्नता और सौम्यता के साथ मौज़ूद है।
राजनीतिक या सामाजिक सरोकार संबंधी उनकी कविताएँ उनकी
भाषा की ही सौम्यता और ग्राम्यता के कारण प्रखर तेवर में ढलने
से रह जाती हैं, उद्घोष बन जाती हैं या मानवीय हितों के पक्ष में
एक कोमल पुकार में बदल जाती हैं। किन्तु यह नुक़्ता इतना निष्ठुर प्रतीकों और उपमाओं को लाते हैं। उदाहरणार्थ;
नहीं है। उनकी कविताएँ जैसे 'रीयूनियन', 'युद्ध', 'सभा' आदि बटुली में भात सिसकता था
दृष्टिसम्पन्न कविताएँ हैं और केंद्रीय विषयवस्तु से एक सफल तिस पर आ धमके पाहुन
प्रस्थान भी हैं। युद्ध कविता से यह पंक्तियाँ- ----
शाम से पहले मिट्टी में ढँके पुराना पड़ चुका अपना चश्मा पोंछते पिता
सूखे मेंढकों जैसे बूढ़े युद्ध विश्लेषक एक अज्ञात मंत्र बुदबुदा रहे हैं
संभावना के छींटे पड़ते ही जीवित हो जिसमें हल बैल है, तालाब है
बताने लगे कि कितने दिनों में खेत और उसकी मेड़ हैं
फ़ौज लाहौर और दिल्ली में होगी। चिड़िया डराने के धोख हैं, साइकिल है
शाम ताड़ीखाने में भौंरा है गपनी है मेला मदार है
‘लाल’ और ‘सफेद’ की तेज़ गंध के बीच गौना है होली है घर लौटने पर घेरते बच्चे हैं
एक ताड़ीबाज रोया युद्ध होगा... युद्ध होगा। विवेक चतुर्वेदी की कविताओं का प्रवाह उनका विशिष्ट गुण है।
आलोक धन्वा की 'रात के आवारा' की याद दिलाती यह एक सांस में पढ़े जाने के बावज़ूद कविताओं में अर्थलोप का कोई
कविता; ख़तरा नहीं होता। कवि ने विषयवस्तु के कई रास्ते फोड़े हैं और
रात के रफूगर ओ… अर्बन कविता के कोलाहल के बीच अपने अंदरूनी तथा बाहरी
भर दे उनींदी आत्मा के छेद संसार की बार-बार ज़ियारत की है। उम्मीद की जानी चाहिए कि
दे मुझे नींद ऐसी विवेक चतुर्वेदी आगामी काव्य यात्रा में जीवन के अनेक अछूते
कि एक सियन में सुबह हो। संदर्भों को सामने लाएँगे; एक नए बोध और परिस्कार के साथ। n
स्मृतियों और अनुभवों के तुरत तुरत मनोरंजक कंटेंट में बदलते संपर्क : जबलपुर (मध्यप्रदेश)
जाने के हालिया दुनिया में विवेक चतुर्वेदी कविता में बारहा स्थानीय मो. 7391959343

yegh जुलाई से सितंबर 2023 n 477


n असीम : आत्मारंजन

अपने समय की भूिमका टटोलता कवि


आशीष सिंह

किसी कवि की कविता को हम कैसे देखें और कहां नाथ अग्रवाल, वेणु गोपाल, विजेंद्र, आदि तमाम कवि
से देखें। एक सहृदय पाठक के सामने यह सवाल जन जीवन की छवियों और उथलपुथल को अपने
तमाम बार तमाम तरह से आता रहा है। यह 'कहां' आत्मिक संवाद के जरिए काव्य जगत में पुनर्जीवित
और 'कैसे' कवि, कविता और सहृदय के बीच करते दिखते हैं। ये कवि अपने समय के सवालों को
उपस्थित भाव दीप्ति को देखने-परखने का बार-बार पराया व्यक्ति बनकर नहीं बल्कि 'जन संग' गहरे
मौका भी देती है। इसी से गहरे तौर पर जुड़ा एक सरोकारों के साथ प्रकट कर रहे होते हैं। आज प्रचार
और सवाल पीछे से झांकता मिलता है कि– क्या और विज्ञापनी सभ्यता के आवरण में मोहांध तमाम
कविता में कवि का व्यक्तित्व आसवित होकर तैरता मिलता है? या कवि महज बहिरंग का वर्णन और शाब्दिक बयान को ही अपनी
कल्पित सृष्टि सर्जक के व्यक्तित्व से मुक्त होकर स्वतंत्र अस्तित्व प्रतिबद्धता की सीमा रेखा समझते हैं। यहाँ आत्मसंवाद, आत्मगत
लिए कविता की शक्ल में आ विराजती हैं। शायद इसीलिए सहृदय सवालों की आवाज़ाही बहुत कम, अपनी उपस्थिति दर्ज़ करा
के लिए अपना अर्थ,अपनी छवि लिए मिलती है। लेने की होड़ ज्यादा दीखती है वहीं कवि-व्यक्तित्व बेहद क्षीण
हम अक्सर देखते हैं कि एक कवि अपने समय को तो कटघरे अनुभवजन्य और यथास्थितिवादी। भले ही वे कविता में बतौर
में खड़ा करता है जबकि स्वयं व्यक्ति के तौर पर उसकी भूमिका प्रचलन 'लोक' की बात करें या जनता की आवाज़ को उठाने
दर्शक की या नैरेटर की बनी रह जाती है। क्या वह कवि यहीं का उपक्रम करते मिलें। वह महज नामानुक्रमणिका में नाम दर्ज़
से बतौर रचनाकार अपनी सामाजिक जवाबदेही की भूमिका से कराने तक सीमित लगता है। ऐसे 'तेजवंत' कवि व्यक्तित्वों से
'अन्तरगत ही भावै' की ओर प्रस्थान करने लगता है। आज के कवि आप ईमानदार कविता की उम्मीद भी भला क्यों कर करें? हाँ! इन
का व्यक्तित्व क्योंकर बहुत धुंधला, ज्यादातर 'नाम रूप गुण' में भलेमानुष कवियों की कविता बोलती ज्यादा है। बयानों, वर्णनों
किसी और की ओर से देखता-दिखाता मिलता है। जबकि हमारे की पीठ की सवारी करते हुए अपना समस्त ज्ञान काव्यमय रूप में
निकट अतीत के जन कवियों का व्यक्तित्व उनकी कविता की नशों ढकेल रहे होते है या कुछ मूर्त छवि चित्रों की महज इन्दराजी। इस
में सतत प्रवहमान मिलता है। बीच हम आज के एक कवि आत्मारंजन की अधिकांश कविताओं
हम पाते हैं कि निराला और मुक्तिबोध प्रभृति तमाम कवियों की में कवि व्यक्तित्व की छाप देखते हैं। यही वह चीज़ है जो अन्तर्धारा
कविता में उनका व्यक्तित्व उभरता मिलता है। अपने आप से सवाल के तौर पर अपने पूर्वज कवियों की काव्य परंपरा का स्मरण कराती
जबाब करती कविता के कवि हैं ये। अपने समय में अपनी भूमिका मिलती है। कविता में कवि की उपस्थिति,उसका सहज व्यवहार
टटोलते कवि हैं ये। इन कवियों की कविता की आत्मगतता अपने और आगे की ओर देखती निगाह साफ-साफ पढ़ने को मिल जाती
वर्गमूल के अन्तर्विरोधों की छाया लिये मिलती है। अपने वर्गीय है। इसी मायने में यह कवि कई युवा कवियों की तरह ज्यादा भरोसे
सीमाओं और अन्तर्विरोधों, दुविधाओं की ईमानदार अभिव्यक्ति ही का कवि लगता है–
उनकी कविता को प्राणवान बनाती है। वहीं अन्तर्विरोधों की धार जब बहुत ज़रूरी होता है
गोठिल होने लगती तब यही वैयक्तिकता अपने चरम व्यक्तिवाद असहायता की स्थिति से
में परिणत होते हुए कई कवियों में आत्मग्रस्तता तक पसरी मिलती उबारने को आतुर हाथों की
है। जिसका प्रतिकार करते हुए नागार्जुन, त्रिलोचन, शील, केदार मंशा समझ लेना

478 n जुलाई से सितंबर 2023 yegh


खासकर जबकि अविरत, अविरल
विश्वास बहेलिए की
आड़ की तरह (2)
किया जा रहा हो इस्तेमाल जिस भी रचनाकार के पास जीवन के जितने ज्यादा क़रीबी अनुभव
और वे आँख मूँदकर होते हैं उसकी रचना में उतने ही कम पच्चीकारी, बेलबूटों की
कर लेते हैं हम पर विश्वास साज सज्जा और 'नपुंसक' दार्शनिक शब्दजाल होंगे। प्रकृति हो या
आसान नहीं उनका भी सामना मानवीय समाज में डूबकर अपने आसपास के चरित्रों की गाथा का
विश्वास के साथ गान हो, उनके अन्दर चल रही कसमकस या जीवन से अथाह प्यार
असंभव कह चुकने के बाद सभी कुछ अधिकतर सतत क्रियाओं में दर्ज़ होता है,महज पंक्तियों
खेद प्रकट करना, नहीं आसान में नहीं, लम्बे-लम्बे वाक्यों में नहीं। बड़ी बात-सी दरयाफ्त करती
कैसे दुर्दिनों ने घेरा है उनमें गूंथी गई सचेतन दार्शनिक उक्तियों में भी नहीं। क्या कोई
खिन्न, तुम हो उदास यह बतायेगा कि आख़िर आज हमारी कहानी-कविता में जितना
ओ मेरे अंतरंग सखा ज्यादा वर्णन और वाह्य प्रतिचित्रण मिलता है उतना ज्यादा हम
मेरे विश्वास...! (विश्वास ः एक) उसमें अपना मानकर आवाज़ाही क्यों नहीं कर पाते हैं? रचनाकार
आज के कठिन विश्वास और भरोसे पर संकट के समय में कवि की छवि, महज देखने वाले अक्रिय रहे से व्यक्ति में बदलकर
अपने को बार बार कुरेदता है और जवाबदेही का सामना करने रह जाती है। उसकी भाव सम्पदा में दृष्टा की आत्मीयता शब्दों
से गुरेज नहीं करता। यह व्यक्ति पर सवाल करके या क्या दुर्दिन में व्यक्त होने मात्र पर निर्भर होती मिलती है। जबकि एक अच्छी
है कहक़र अपने समय को कटघरे में रखकर बच निकलता तब कविता अपनी सीमाओं को अतिक्रमित करती हुई अपने समय की
कोई बात नहीं थी कविता हो जाती, मानक पूरा हो जाता और हमें वास्तविक चिन्ताओं में उलझती-जूझती मिलती है। यहीं पर हम
सिखा देती क्या करें हम, समय ही ऐसा आन पड़ा है कि हाथ को रचना और जीवन के द्वन्द्व का ताप महसूस कर पाते हैं। जहाँ यह
हाथ नहीं सूझता! भरोसे का जमाना नहीं रहा आदि-आदि। तब यह नहीं है वहाँ जीवन कम जीवन की व्याख्या ज्यादा है। वहाँ एक
महज एक यथास्थितिवादी कविता बनकर रह जाती लेकिन यहाँ दूरी साफ-साफ महसूस की जा सकती है। अन्यथा कवि धरती के
आत्मसंवाद है अपने आप से आँखे मिला पाने की हिम्मत है और सीने में अपना कान लगाकर उसकी धड़कन सुनते गुनते भी बहुत
दोस्तों! यह है कवि व्यक्तित्व। इसी शृंखला की दूसरी कविता में कुछ कहते-कहते रह जाता है। उसके पास 'विषयों की कमी नहीं,
आत्मारंजन विश्वास को हमारे सामने अविश्वसनीय तरीके से नहीं उनका आधिक्य ही बार-बार' कुछ और कहने के लिये उद्वेलित
बल्कि भरे पूरे जाने पहचाने संबंधों की सघनता में दृढ़ भरोसे के करता है। जिसे बाबा तुलसी से लेकर अपने मुक्तिबोध तक ने बार-
साथ रखते हुए कहते हैं– बार व्यक्त करने और पूर्णता में न व्यक्त कर पाने की विवशता
वे भी जो जानते तक नहीं तुम्हें भी दर्ज़ की है।
थामे हुए हैं तुम्हारी ही उँगली यही दूरी हम उन कवियों की कविताओं में भी देखते हैं जो
जैसे बीज भी तर से झाँकता अँकुर लोक के नाम को बड़ी विहंगम भावभंगिमा के साथ हमारे सामने
जैसे पृथ्वी पर आँखें उघाड़ता बच्चा... पेश करते हैं। जिनके बारे में हमारे समय के तमाम सुधी जन बेहद
तुम ही हो सारथी जीवन के जिंदादिली के साथ प्रस्तुत कर रहे होते हैं। वे उसकी वर्णनात्मकता
रथ भी तुम्हीं पर ही रीझ कर निर्णय सुना देते हैं। उसमें जीवन का कौन सा अंश
सबसे बड़ी ताक़त के जनक है, उसकी गति प्रगति का रूप क्या है, वह उसी प्रकृति या लोक
उदास मत हो मेरे दोस्त की पैबन्दसाजी, आज की फैशनेबुल मांग की खानापूर्ती तो नहीं
बहेलियों की कुटिल कालिमा के ख़िलाफ़ कर रही है? इस पर कमोबेश कम ही बात करते हैं। भाषा और
यूँही झिलमिलाते रहो वस्तु तथ्य के सहारे हम जीवन को शब्द देते हैं लेकिन कविता में
यूँही टिमटिमाते अपनी कलात्मकता के साथ जीवन किस रूप में है उसकी आवाज़
कि बची रहे बनी रहे कैसी है, पुकार किसके लिए है, ये वो सवाल हैं जो हमें सम्बोधित
बहती रहे यह सृष्टि होते हैं जिनकी अनदेखी चाहक़र भी असंभव है, अनदेखी उचित

yegh जुलाई से सितंबर 2023 n 479


भी नहीं है। गर अनदेखी करते हैं तब वह मेरा सृजन नहीं है, और कवि बताता है कि उसके धूल धूसरित पैर के आराम की
सिरजा (बचाये जाने की आकांक्षा) नहीं है। जहाँ सिरजना होगा मुद्रा, सुकून को कोई योगाचार्य नहीं समझ सकता। क्योंकि योग
वहीं उसके जनन की पीड़ा का भारवहन संभव है। रचनात्मक पीड़ा आदि के ज़रिये अपने देह को बनाने संवारने का सुख इस समाज में
को यानि कविता के व्यक्त अव्यक्त को मुक्तिबोध अपनी प्रसिद्ध उन्हीं के लिये संभव है जिनको मेहनत नहीं करनी पड़ती बल्कि वे
कविता 'ब्रम्हराक्षस' में मानों इन शब्दों में कह दे रहे हैं– तो दूसरों की मेहनत का सुखभोग करने को ही जीते हैं। यह जीना
समझ में आ न सकता हो भी कोई जीना है! जबकि यहाँ धरती पर लेटा धरती का लाडला
कि जैसे बात का आधार बेटा उन सब से अलग है और–
लेकिन बात गहरी हो मत छेड़ो उसे ऐसे में
आत्मारंजन की कविताएँ कर्मरत जन की कविताएँ हैं। मेहनती धरती के लाडले बेटे का
कौम की जिंदगी का अक्स दिखाती कविताएँ हैं। ज्यादातर ये माँ से सीधा संवाद है यह
निम्नमध्यवर्गीय जन की निगाह से यहाँ जगह पाती हैं। वह मेहनती माँ पृथ्वी दुलरा-बतिया रही है
कौम जिनके हाथ काले हैं, बदरंग हैं, खुरदुरे और सख्त हैं। लेकिन सेंकती सहलाती उसकी
यही हाथ– पिराती पीठ
खिलाते हैं सबसे सुंदर फूल बिछावन दुभाषिया है यहाँ
उगाते सबसे सुंदर फल मत बात करो
गठीले चिकने सबसे सुंदर दाने आलीशान गद्दों वाली चारपाई की
सबसे सख्त दाने के भीतर वंचित होता / चूक जाता
रचते सबसे कोमल अंकुर स्नेहिल स्पर्श
पोसते सबसे कोमल कोंपल खालिस दुलार
(ये हाथ, जीने के लिए ज़मीन, संग्रह से) कि तमाम खालिस चीज़ों के बीच
ये मेहनती कौम धरती को अपने हक़ हकूक के रूप में जीतने सुविधा एक बाधा है
की आकांक्षा नहीं पालते हैं बल्कि उससे भेंटना चाहते हैं। उसके सुविधा एक बाधा है। मध्यवर्ग सुविधाओं के दायरे में जीने
सीने पर लोटते जीते अपने सुख को उन अर्थों में व्यक्त करते हैं और उसके गिरफ्त में बंधे रहने के चलते वह प्रकृति और जीवन
जिन अर्थों में धरती पर कब्ज़ा जमाये बैठे 'विजेता' नहीं जान पाते के स्वाभाविक ताप से दूर होता जाता है। गलाकाट प्रतिस्पर्धा और
न अहसास कर सकते हैं। 'पगडण्डियाँ गवाह हैं' में एक कविता दिखावटी जीवन उसकी ज़रूरत और कमजोरी दोनों है। उसके
है 'पृथ्वी पर लेटना' इसे पढ़ते हुए आपके सामने धरती के बेटों के सुख के पैमाने उसे बोझिल और उबाऊ बनाते हैं। वह उनसे
सुख के क्षण...' कैसे और कब होते हैं! कर्मरत जन की जिंदगी, निकलने की चाहत में ही शायद दिशाहीन दौड़ लगाता हो। वह
कर्म मय जीवन और उसी अन्तराल में घुलेमिले सुख की छवि और अधिक अधिकार की भागमभाग में उलझता घिरता जाता है।
हमारी निगाह में तैर जाती है। यह थोड़ी लम्बी कविता है। इसका और उसकी गर्वोक्ति अपनी निजी मुक्ति की चाहत उसे औरों को
एक अंश हम आपसे भी साझा करना चाहते हैं– गुलाम बना लेने तक ले जाती है। लेकिन सुख नहीं पाता। पाये भी
पृथ्वी पर लेटना क्यों जब तक उसकी मुक्ति की आकांक्षा में बहुतों की मुक्ति का
पृथ्वी को भेंटना भी है स्वर नहीं निकलता यानि वह जब तक एक प्रकार से जन समुदाय
ठीक वैसे जैसे से कटा रहता है। धरती से कटा तबका मामूली सी दिखने वाली
थकी हुई हो देह मिट्टी तक से हार जाता है। कवि यहाँ 'मिट्टी में मिलाने और धूल
पीड़ा से पस्त हो रीढ़ की हड्डी चटाने' बहुप्रचलित मुहावरों को कुछ इन नये अर्थों में प्रयोग करता
सुस्ताने की राहत में है, वह भी चमत्कृत करने या कोई बहुत असामान्य बात कहने के
गैंती-बेलचे के आसपास ही कहीं लिये नहीं बल्कि यहाँ भी जानी-पहचानी सी लगने वाली ज़रूरी
उन्हीं की तरह बात करता मिलता है–
निढाल लेट जाना मिट्टी में मिलाने
धरती पर पीठ के बल धूल चटाने जैसै उक्तियाँ

480 n जुलाई से सितंबर 2023 yegh


विजेताओं के दंभ से निकली हो। बच्चों को पुचकारने से लेकर ईश्वर के प्रति उमड़ती आस्था
पृथ्वी की अवमानना है देखकर लोग उसे महान कवि, कला प्रेमी या पहुँचा हुआ दार्शनिक
इसी दंभ ने रची है दरअसल माने बग़ैर नहीं रह सकते। उसके व्यक्तित्व का उजला रूप इन
यह व्याख्या और व्यवस्था शब्दों तक आते आते अपना अर्थ बदल देता है जब कविता कहती
जीत और हार की है अपने दुकानदार के बारे में-
विजेताओं और हारों के इतिहास में किनका नाम दर्ज़ है। अमूमन पूजा घर के ठीक नीचे
उनका जिनका धरती से लगाव नहीं बल्कि इस पर शासन करने जरा ओट में है बही और गल्ला
की मंशा रही है। समय इन पर मिट्टी डालता जाता है। बचता है तो जिनके आसपास
सिर्फ़ जीवन। मिट्टी से जुड़कर जीवन जीने और जीवन की ज़रूरी खामोश चमक रही कुछ इबारतें
भौतिक सम्पदाओं को देने वालों का जीवन। जो कहावतों -मुहावरों जैसे– 'आज नकद कल उधार'
और जनश्रुतियों में अलिखित सा दर्ज़ रहता है। उन पोथियों में नाम 'ग्राहक़ और मौत का
दर्ज़ नहीं होता जिनकी राह शासन सत्ता से होकर गुज़रती है और कोई भरोसा नहीं...' और
वे दर्ज़ भी इसीलिये करते-कराते हैं कि उनके नाम गुम हो जाने की 'ग्राहक़ ही ईश्वर है। ' (दुकानदार ः संदर्भ एक)
ज्यादा संभवाना होती है यह चिन्ता ही उन्हें और छोटा-कमतरी का
शिकार बना देती है। लेकिन ये विजेता बने रहने की आकांक्षा पाले बेचने खरीदने में ही अपने जीवन की कुशलता तलाशते
शासकवर्ग के अनुगामी बार-बार भूल जाते हैं कि उनका भविष्य निम्नमध्यवर्ग की त्रासद जीवन स्थितियों को 'तोल मोल में माहिरः
मिट्टी में दफ़न होता रहा है। जनकवि केदार नाथ अग्रवाल के शब्दों संदर्भ तीन' कविता में कवि कुछ इन अर्थों में व्यक्त करता है कि
में जो 'जीवन की धूल चाटकर बड़ा हुआ है' वह ही धरती का क्या जीवन का मूल्य सिर्फ़ चीज़ों की कीमत में तय होता रहेगा?
वास्तविक स्वाद जानता है– इसमें वह क्या है जिसका मूल्य नहीं किया जा सकता? जीवन बना
कौन समझाये इन्हें कि सिर्फ़ लेने की अंधी और डंडी मार दौड़ में बस जीवन छोड़ सबकुछ रह
हारने वाला ही नहीं जाता है, जीवन का स्वाद नहीं मिल पाता। यहीं कवि आत्मारंजन
मिलता है मिट्टी में की अपनी काव्यात्मक विशेषता और मानवीय उदात्तता का परिचय
यह भी कि धूल चाटने वाला ही मिलता है। वे हमारे सामने समाज के सबसे दलित वंचित तबके
जानता है असल में के पक्ष में खड़े होकर या सामाजिक अन्तर्विरोधों की बात करने के
मिट्टी की महक़ बावज़ूद वे मनुष्य न हो पाने की आकांक्षा को नहीं भूल पाते। यह
धरती का स्वाद उनकी सम्पूर्ण काव्यजगत का केन्द्रीय काव्यात्मकगुण कहा जाए
तो गलत नहीं होगा। अपने समय की विडंबनाओं और अन्तर्विरोधी
आत्मारंजन के खाते में कारीगरों की जिंदगी को दिखाते उनके जीवन जीने के अभिशप्त जन की मानवीय ज़रूरत को बार- बार
श्रम सौंदर्य का बखान करती कई-एक कविताएँ हैं, मसलन 'पत्थर संस्पर्श करते हैं। वह भी पूंजीवादी तंत्र की,अमानवीय बनाने वाले
चिनाई करने वाले' व 'रंग पुताई करने वाले' घास छीलने वाली तंत्र की आलोचनात्मक चीरफाड़ करते हुए, मेहनती कौम के श्रम
स्त्रियाँ, बोझा ढोते मजदूर, निराई गोनाई करते खेत मजदूर आदि। सौंदर्य का बखान करने के बावज़ूद विरोधी वर्ग में जीवन के
कवि की कविता मेहनतकश जिंदगी को उनके काम से अलग उल्लास की आकांक्षा जगाते मिलते हैं वह भी उनके पूंजी केन्द्रित,
करके नहीं दिखाती है बल्कि उसी में नत्थी होकर गतिशील जीवंत सुविधाजनक जीवनशैली के पीछे की निस्सारता बताते हुए। तब
छवि लिए मिलती है। उनका कवि कर्म सम्पूर्ण सामाजिक मुक्ति की मानवीय ज़रूरत का
निम्नमध्यवर्गीय जीवन की तस्वीर अपने पूरे चारित्रिक रेखांकन आख्यान बनकर हमारे सामने आता है। वे निश्चित तौर संघर्षशील
के साथ आत्मारंजन की कविता में दीख पड़ती है। जिन विषयों पर जन के कवि हैं लेकिन पूरी मानवता को मुक्ति कराने की आकांक्षा
उनके समकालीन कवियों ने कम ही लिखा है। जैसे कि उनकी से लैस कवि भी हैं। यही उनकी मूल सिफत बनती दिखती है। और
तीन कविताएँ 'दुकानदारों' पर हैं। वे उसके ग्राहक़ के लिये 'रसीली जानते हैं कहाँ चोट करनी है और कहाँ गरिमापूर्ण जीवन के साथ
जुबान' में सत्कार करते सम्बोधन के साथ ऐसे पेश आता है मानों आ खड़ा होना है।
जीवन जगत का आत्मीय सौंदर्यबोध का वह बेताज बादशाह

yegh जुलाई से सितंबर 2023 n 481


(3) अपने आपके बारे में सोचते हुए अपने आप में सिमट कर रह जाती
स्त्री मुक्ति के सवाल पर बात करते हुए उनकी कई कविताएँ हमारे है। 'मार खा रोयी नहीं' का दुख हम कहाँ देख पाते हैं। सुनने की
सामने बिलकुल जानी पहचानी तस्वीर के साथ कुछ नये सवाल बात क्या कहें!
ला खड़ा करती है मसलन उनकी एक छोटी सी कविता 'हँसी वह' आत्मारंजन अपनी रचनात्मक ऊर्जा और आवेग अपनी परंपरा
प्रस्तुत है– से प्राप्त करते हैं। स्त्री मुक्ति के तथाकथित आधुनिकतावादी
जी खोल कर हँसी वह विमर्श में फंसकर वे निष्कर्ष मूलक काव्यात्मक संवेदना से अपने
पूरे वेग से कथ्य की परिपूर्ति करके चुका नहीं जाते बल्कि अपनी सामाजिक
उसकी पारदर्शी हँसी वस्तुस्थिति को जीवन की सर्वांगिकता में व्यक्त करते हैं। इसी
सुबह की ताजा धूप-सी में उनकी काव्य प्रविधि भी छुपी है। उनके काव्य शिल्प की
हवाओं में छिटकी बुनावट इस तरह से आपस में गुंथी बुनी है कि इन्हें अलहदा
फिर अचानक सहमी कर देख सकना सहज नहीं। हम पाते हैं कि इन काव्य पंक्तियों
ठिठकी वह का सृजनकर्ता जीवन की अन्यान्य कई एक छवियों को ठहरकर
आया ख्याल देखता है, कुछ भी अनदेखा कर, 'पास आउट' कर गुज़र नहीं जाना
ऐसे हँसना नहीं चाहिए था उसे चाहता। इसीलिये आन्तरिक गठन में गतिशील होने के बावज़ूद
वह एक लड़की है काव्य पंक्तियाँ हड़बड़ी का शिकार नहीं है। मद्धिम गति से जीवन
उसके ऊपर के दाँत का आस्वादन करती कराती चलती हैं। और सहृदयों को पंक्तियों
बेढब हैं के मध्य बचे अवकाश में भी जीवन की धड़कन सुनने के लिए
कुछ बाहर को निकले हुए। आहिस्ता से रोक रोक लेती हैं। इसीलिये मुझे इस कवि के काव्य
कविता के पहले बंद में हमें निश्छल पवित्र हँसी अपनी ओर जगत से
खींच लेती है। सुबह की ताजी धूप सी पसरी हर ओर छिटककर पूरे गुज़रते हुए कई एक बार पूरी कविता उद्धरित करना पड़ा। और
परिवेश को अलग रंग दे देती है। वह बंधती नहीं है। लेकिन ज्यों ही जब कभी भी मन मारकर कुछ पंक्ति दर्ज़ की; कविता की मूल
हमारे सामाजिक ताने-बाने और उसमें पैबस्त मूल्य मान्यताएँ जो ध्वनि लगातार पीछा करती रही। यह है इन कविताओं की ताक़त।
एक लड़की की सुन्दरता का पैमाना शारीरिक सुन्दरता, रंग, गढ़न जो कि समकालीन युवा कविता की मजबूत आवाज़ के रूप में
या बुनावट से ही सब कुछ तय करती है। यह याद आते ही उन्मुक्त हमारे आसपास को ध्वनित कर रही है।
पवित्र हँसी मजबूरी की मुस्कराहट में बदल जाती है। यहाँ कवि की कविता जीवन के द्वन्द्व और आकांक्षाओं को
आया ख्याल अपनी पंक्तियों के मध्य अवकाश में भी, चुप्पी में भी अनकहा
ऐसे हँसना नहीं था उसे रहे जा रहे समय को तलाशती हैं, महसूसती हैं। यह आधुनिकता
वह एक लड़की है तथाकथित 'मार्डनिटी' या फैशनेबुल आधुनिकता नहीं है। बल्कि
यह पंक्ति इस 'सभ्याचार' से लदे-फंदे समाज पर मर्मभेदी जीवन में धंसे सवालों से रूबरू होने पर जन्मती है, अग्रसारित होते
तीखी टिप्पणी है। हमें अन्दर तक परेशान कर देती है। कचोटती हुए हमें अपनी परंपरा की सीमाओं और शक्तियों से परिचित कराती
सी पंक्ति है यह। है। प्रगतिशील कवियों में जनकवि त्रिलोचन की आधुनिकता का
यहाँ कवि हमारे समाज में सौंदर्य के स्थापित मापदंडों से अलग उत्स भी सहज सामान्य जीवन में अपनी जगह तलाशती है। यहाँ
अनभिजात्य सौंदर्य को हमारे सामने ला खड़ा करता है। जो कि ऊपर से मूल्य निर्धारण नहीं है जैसा कि तमाम अन्य कवियों के
अपने समाज की बद्धमूल अवधारणाओं को ही प्रश्नांकित नहीं भाषागत और काव्य गत योगदान में हम पाते हैं। इसके बरअक्स वे
करती है बल्कि मनुष्यत्व की राह में कितने कदम अभी चलना सामान्य जीवन के सामान्य प्रसंगों को बिना 'मोडीफाई' किये उसे
बाकी है इसकी ज़रूरत भी बताती है। एक तरफ पारदर्शी पवित्र हूबहू दर्ज़ करते हैं। उनमें जन्मते अन्तर्विरोधों के स्वाभाविक चरित्र
हँसी, जिसकी जद में पूरी प्रकृति शामिल हो जाती है वहीं मानव से पहचान कराते हैं।
निर्मित समाज की निगाह की कमतरी, सुंदरता की वास्तविक छवि त्रिलोचन की कविता इसी मायने में हमारे समाज के क्रियाशील
बांधी जाती सी है। यह कविता पढ़ते हुए निराला की कविता 'रानी जीवन की कविता बनकर उनसे उभरते जन्मते नये सवालों और
और कानी' का याद आना स्वाभाविक है। सब कुछ में निपुण रानी चिन्ताओं से हमें संस्कारित करती है। उन सामाजिक चुनौतियों

482 n जुलाई से सितंबर 2023 yegh


के प्रति सोचने को विवश करती है। यही उनकी कविता की
ताक़त है जो बारंबार अपने साहित्यिक अग्रजों ग़ालिब, निराला,
तुलसी, कबीर की ओर देखती मिलती है। 'चम्पा काले अच्छर नहीं
चीन्हती', 'नगई महरा' जैसी तमाम कविताएँ इसका जीवंत प्रमाण
हैं। उसी प्रगतिशील परंपरा का विकास हमें युवा कवि आत्मारंजन
की कविता में भी दिखाई देता है। वह चाहे लोक चरित्रों को लेकर
लिखी गई कविताएँ हो या सामान्य जीवन की दैनदि ं न छवियाँ
हों। आत्मारंजन के यहाँ न तो स्त्री बनाम पुरुष का आधुनिकता
वादी चलताऊ विमर्श है और न ही सामाजिक वस्तुस्थिति में स्त्री
की आधुनिक छवियों में कैद तस्वीरें हैं। यहाँ सतह पर दिखने में
परंपरागत लग सकता है,
वास्तव में यहाँ अपनी देशज ज़मीन से उठती वे तमाम छवियाँ
हैं जिनमें हमारे समय का सारभूत सत्य झांकता नज़र आता है। जो
कर्मरत रहक़र भी अपने होने की ज़रूरत खोजती-बीनती मिलती
है। 'कंकड़ छांटती' स्त्री का एक ऐसा गतिशील चरित्र हमारे से जीने लायक बनाने में जबतक पुरुष 'जीवन की व्यस्तता' का
सामने ला खड़ी करती है जो अन्यतम है। भागते हांफते समय बहाना बनाकर अलग थलग रहेगा सामाजिक मुक्ति का सवाल
के बीचोंबीच 'काम से लौटने' के बाद दाल छांटने बैठी ‘स्त्री पूरे अधूरा रहेगा। एक सामान्य दैनंदिन जीवन का प्रसंग अपने कथ्य
इत्मिनान से टांगे पसार बैठ गई है गृहस्थ मुद्रा में’ वह महज दाल में कितने ज़रूरी कार्यभार सहेजे है और सक्रिय है वह ‘कंकड़
नहीं बीन रही बल्कि दुनिया को निष्कंकर करने में जुटी है। और बीनती’ कविता बेहतर तरीके से कह दे रही है। आधी आबादी की
यहीं पर कवि उसके मन में चल रहे तमाम सवालों को मानो छू आवाज़ भागेदारी की भंगिमा में उठाने की शैली कवि आत्मारंजन
लेना चाहता है कि– की अपनी कहन शैली है। एक स्त्री के मन में खदबदाते और उठते
एक स्त्री का हाथ है यह गिरते सवालों को, आशाओं को हम नज़दीक से कितना जानते हैं
दानों के बीचोंबीच पसरा स्त्री का मन और कितना जानने की कोशिश करते हैं। 'हाँडी' नामक कविता में
घुसपैठिये तिनके, सड़े पिचके दाने तक कवि इस स्त्री से पूछ ही पड़ता है–
धरे जाते हुए 'सच-सच बताना
तो फिर कंकड़ की क्या मजाल! क्या रिश्ता है तुम्हारा इस हाँडी से
एक पुरुष को माँजती हो इसे रोज
अनावश्यक ही लगता रहा है यह कार्य चमकाती हो गुनगुनाते हुए
या फिर तीव्रतर होती जीवन की गति का बहाना और छोड़ देती हो
उसकी अनुपस्थिति दर्ज़ होती है फिर उसका एक हिस्सा
दानों के बीचोंबीच जलने की जागीर सा
स्वाद की अपूर्णता में खटकती खामोशी से'
उसकी अनुपस्थिति 'हाँडी' की भाँति जीवन की आग पर ख़ुदबुदाती,गुनगुनाती स्त्री
भूख़ की राहत के बीच को एक पुरुष कितना पहचानता है।
दांतो तले चुभती मुक्ति के नाम पर स्त्री की विज्ञापनी छवि उसे मुक्त नहीं करती
कंकड़ की रड़क के साथ बल्कि मौज़ूद पूंजीवादी व्यवस्था-बाज़ार तंत्र उसकी मासूमियत
चुभती रड़कती है उसकी अनुपस्थिति और छवि का वस्तुकरण करता है, उसे माल की तरीके से पेश
खाद्य और खाने की करता है। मौज़ूदा लोभ लाभवादी संस्कृति में मुस्कान तक बिकाऊ
तहज़ीब और तमीज बताती हुई' है। इस तंत्र में स्त्री चाहे अनचाहे नये किसिम के मकड़जाल
हमारे समाज को सुंदर और सभ्य बनाने में, तहज़ीब व तमीज में स्वयमेव गिरफ्त होती नज़र आती है। तथाकथित विमर्श और

yegh जुलाई से सितंबर 2023 n 483


जबकि यह कविता की 'खण्डित तस्वीर' है। वास्तविकता में एक
महत्वपूर्ण कवि का काव्य कर्म समग्रता में अपनी अर्थछवि और
उसे खंडों और अंशों में व्यक्त करने की बजाए भावछवि लिये होती है। उसे खंडो और अंशों में व्यक्त करने की
उसकी समग्र बुनावट में ही समझा जा सकता बजाए उसकी समग्र बुनावट में ही समझा जा सकता है। निराला
है। निराला यूँ ही नहीं कविता के समग्र छवि यूँही नहीं कविता के समग्र छवि की तुलना एक पुष्प गुच्छ से करते
की तुलना एक पुष्प गुच्छ से करते हैं। जिसकी
हैं। जिसकी कली, परागकण और गंध मिलकर उसकी छविमयता
कली, परागकण और गंध मिलकर उसकी
छविमयता और अर्थमयता रचते हैं न कि उन्हें और अर्थमयता रचते हैं न कि उन्हें अलगाकर याकि विलगाकर।
अलगाकर याकि विलगाकर। हम आत्मारंजन हम आत्मारंजन जी की कविता को पढ़ते समझते यही पाते हैं।
जी की कविता को पढ़ते समझते यही पाते हैं। इसमें विचार गुंथा है लेकिन उसकी समग्रता के रंगरोगन के साथ
इसमें विचार गुंथा है लेकिन उसकी समग्रता न कि ऊपर से चमकदार दिखने के रूप में। समकालीन युवा
के रंग रोगन के साथ न कि ऊपर से चमकदार कवियों में आत्मारंजन की कविता विचारबोध और भावबोध दोनों
दिखने के रूप में। धरातलों पर अपने को पूरे कलात्मक सौंदर्य के साथ फलीभूत
करती है। उनकी कविता की सामाजिक भूमिका अपने समस्त
कलात्मक मायनों के संग-संग अपने कवि दायित्व का निर्वहन
बाज़ारवादी बहेलियों के जाल में मुक्ति की आकांक्षा पाले स्त्रियों करती हुई आगे आती है। कवि अपनी काव्य भाषा स्थानीय जीवन
का आखेटन जारी है। जबकि यह मुक्ति नहीं बल्कि 'मुक्ति की से लेते हुए कविता को अलंकृत करने के लिए नहीं वरन् जीवन
आग का व्यापार है– की नाना छवियों को क्रियाशील बिम्बों में प्रकट करता है। जिसमें
'आँच का व्यापार भी है पहाड़ी परिवेश में व्यवहृत वे शब्द हैं जिनकी पारिभाषिक व्याख्या
हर तरफ जोरों पर किसान, मजदूर और अन्यान्य कर्मरत जनों के बग़ैर नहीं की जा
सतरंगे तिलिस्मी प्रकाश की चकाचौंध में सकती। हूल, कुटुवा, शिलगाई घास, धौलू घास, ढंगेरवश घास,
उधर टी.वी. पर भी रचा जा रह मूंज घास,झूंब, गाडका, बियुल जैसे शब्द हिंदी की शब्द सम्पदा
आँच का प्रपंच को समृद्ध ही नहीं करते बल्कि सामान्य-सहज में छुपे विशिष्ट
ज़रूरी है आग की पहचान भी कराते हैं। आज के कवियों में अपने परिवेश से
और उससे भी ज़रूरी है आँच यह लगाव अपनी जड़ों से गहरे तौर पर जुड़े होने का भान कराता
नासमझ हैं है। कवि का दूसरा काव्य संकलन 'जीने के लिए ज़मीन' की एक
समझ नहीं रहे वे कविता 'जड़ों का ही कमाया' कहती है कि–
आग और आँच का फ़र्क जड़ों का ही कमाया हुआ है
आग और आँच का उपयोग जो कुछ भी हरियाता लहलहाता है
पूजने से जड़ हो जाएगी खिलता मुस्कराता है
कैद होने पर तोड़ देगी दम रसऔर स्वाद भरा पकता महक़ता है
मनोरंजन मात्र नहीं हो सकती जड़ों का ही कमाया हुआ है।
आग या आँच कवि आत्मारंजन की कविता अपनी जड़ों, अपनी ज़मीन से रस
ख़तरनाक है उनकी नासमझी (औरत की आँच) लेती हुई राजपथ नहीं पगडंडियों की गवाही लेती हुई अग्रसर है। n
आत्मारंजन की कविता का स्थापत्य किसी एक रूपक या संदर्भ -
प्रतीक के सहारे से ज्यादा अपनी समग्र बुनावट में ज्यादा ताक़तवर 1. पगडंडियाँ गवाह है, अंतिका प्रकाशन प्रा.लि. (2011, प्रथम संस्करण)
बनकर अपनी बात कहती है। अधिकांश कवि चमकती काव्य 2. जीने के लिए ज़मीन, अंतिका प्रकाशन प्रा.लि.(2022, प्रथम संस्करण)
पंक्ति या कुछ बड़ी सी लगने वाली पंक्ति को कविता में सचेतन
विन्यस्त कर अपनी सजगता का परिचय देते हैं। और हम कविता संपर्क : E -2 / 653 सेक्टर-F,
में उसकी समग्र ध्वनि औ अन्तरध्वनि को पहचानने सुनने की जानकीपुरम लखनऊ-226021
बजाए उन्हीं पंक्तियों पर लहालोट हो अपनी ममता लुटा देते हैं मो. 08739015727

484 n जुलाई से सितंबर 2023 yegh


n आयतन : संतोष कुमार चतुर्वेदी

मन में खटका न हो, कुछ खटके नहीं तो कविता नहीं


बलभद्र

संतोष कुमार चतुर्वेदी का पहला काव्य-संग्रह है लोकमान्यताओं की छानबीन करते हैं। उसमें भी
'पहली बार'। यह संग्रह 2009 में प्रकाशित हुआ खासकर दक्खिन को लेकर। ध्यान देना होगा, कविता
था। इस शीर्षक पर प्रसिद्ध कथाकार मार्कण्डेय जी में 'दक्षिण' नहीं, 'दक्खिन' है। दक्खिन को लेकर
के प्रथम कहानी संग्रह 'पान फूल' का प्रभाव है। लोक में अनेक धारणाएँ, अनेक मुहावरे और कहावतें
यह इसलिए भी कह रहा हूँ कि मार्कण्डेय जी की प्रचलित हैं। बात-बात में लोग नष्ट हो जाने के अर्थ
पत्रिका 'कथा' के संपादन से संतोष का लंबे समय में 'दक्खिन लग जाने' का प्रयोग करते हैं। काशीनाथ
तक गहरा जुड़ाव था। मार्कण्डेय जी के बहुत क़रीब सिंह के 'काशी का अस्सी' में भी इसका प्रयोग है।
होने का सौभाग्य भी इनको प्राप्त रहा है। मार्कण्डेय जी का यह 'दखिनहीं हवा' भी कभी-कभी चलती है। लोकमान्यताओं के
संग्रह जब प्रकाशित हुआ था तब उसका जबरदस्त स्वागत हुआ अनुसार यह हवा स्वास्थ्य और अन्य चीज़ों के लिए अच्छी नहीं
था। आलोचकों और विचारकों ने विषय वस्तु और भाषा की ताजगी होती। लोकमान्यताओं के अनुसार सोते समय दक्खिन दिशा में
को देखते हुए उनके इस पहले कहानी-संग्रह को हिंदी कहानी का पांव नहीं होने चाहिए। दक्खिन मुँह भोजन नहीं करना चाहिए।
'पान फूल' कहा था। संतोष इससे बेहद प्रभावित थे। मार्कण्डेय जी दक्खिन मुँह दातुन नहीं करना चाहिए। घर का निकास दक्खिन
के उक्त संग्रह 'पान फूल' में इस शीर्षक की एक कहानी भी है। मुँह नहीं होना चाहिए। श्राद्ध के अनेक टोटके दक्खिन मुँह किए
कहानी, हालाँकि दुखांत है। संतोष से इस प्रसंग में तब बातचीत जाते हैं। ब्राह्मणवादी लोकमान्यताओं के अनुसार यह दिशा अशुभ
भी हुई थी। इस तरह यह 'पहली बार' संतोष चतुर्वेदी की तरफ से है। इत्यादि, इत्यादि। संतोष अपनी कविता में इन बातों को लेकर
हिंदी कविता का 'पान फूल' है। संतोष के संग्रह में भी 'पहली बार' सवाल करते हैं और दक्खिन के एक बड़े जटिल सामाजिक-
शीर्षक एक कविता है। इस संग्रह के प्रकाशन के समय मार्कण्डेय सांस्कृतिक संदर्भ से कविता को जोड़ते हैं। वह दलित जातियों की
जी जीवित थे और कुछ सुझाव उनके भी रहे होंगे। उल्लेखनीय बसाहट को लेकर है। दलित जातियों की बसाहट ग्रामीण बस्तियों
है कि यह संग्रह मार्कण्डेय जी को ही समर्पित है। उक्त संग्रह के में प्रायः दक्खिन दिशा में ही पाई जाती है। आख़िर इस दक्खिन
पहले संतोष की कई कविताएँ अनेक पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित में बसाहट का क्या अर्थ हो सकता है? संतोष इस कविता में इस
हो चुकी थीं। संदर्भ को भी ले आते हैं और दक्खिन से जुड़े कई मामलों को
दूसरा संग्रह आया 2014 में तो इस शीर्षक पर भी सोचा। वह क्रमवार ले आते हुए अंत में इसको ले आते हैं। दलित जातियों
शीर्षक है 'दक्खिन का भी अपना पूरब' होता है। शीर्षक बड़ा के साथ हुए इस भेदभाव और अन्याय को प्रकाश में ले आते हैं।
सांकेतिक और अर्थपूर्ण है। दक्खिन तो ख़ुद एक दिशा है तो इसके कविता में इसे 'पुराने जमाने के ऊँचे तबके के लोगों का षड्यंत्र'1¹
पूरब का क्या तात्पर्य? कोई पूरब चलता चले, चलता चले, दाएँ कहा गया है जो बिलकुल वाज़िब है।
हाथ दक्खिन भी रहेगा हर कदम पर। कोई दक्खिन चले तो बाएँ संतोष इस कविता में एक अर्थपूर्ण संकेत करते हैं जो काफ़ी
हाथ पूरब का होना भी तय है। सारी दिशाओं की मौज़ूदगी हर रोचक भी है और सहज रूप में चिंतन और प्रगति के अनेक
कदम पर रहती ही रहती है। तो आख़िर संतोष कहना क्या चाहते दरवाजों के खुलने के अर्थ को लिए हुए है। वह पूरब है। जैसे
हैं इस शीर्षक की एक कविता रचकर, इसी कविता को संग्रह सबका पूरब है, वैसे ही दक्खिन का भी। हाशिए के समाजों का
का नाम देकर? इसके लिए संतोष दिशाओं को लेकर प्रचलित भी, दलित बस्तियों का भी। यह कविता शुभाशुभ की फिजूल की

yegh जुलाई से सितंबर 2023 n 485


लोकधारणाओं का भी खंडन करती है। इसके लिए कवि में एक यह भी एक बात सामने आती है कि कोई व्यक्ति या समूह स्वयं
सूफी संत की उद्भावना है– की निर्मिति नहीं है। बहुत सारी चीज़ें एक ही साथ या अलग-अलग
कहते हैं कि एक बार किसी सूफी को भी अनेक रूपों में हम पर और हमारे अलग-अलग समूहों पर प्रभाव
रोका टोका जबकिसी आदमी ने डालती हैं। दक्खिन तो यहाँ एक प्रतीक है। ऐसे अनेक मामले हैं।
दक्खिन ओर पांव करने से बहुत सारी चीज़ें जो बिलकुल ही अव्यावहारिक और मानवद्रोही
तो सूफी ने मासूमियत से अनुरोध किया उस आदमी से हैं, एक प्रक्रिया के तहत हमारे मन-मिज़ाज, सोच, आचरण आदि
कि वह बता दे वह दिशा पर काबिज हो जाती हैं और हम सोच नहीं पाते हैं कि वे गलत हैं।
जिधर न रहता हो ख़ुदा उनको नहीं होना चाहिए। यह कविता अपने भीतर ऐसे बेमतलब
कर लेगा बेहिचक वह उसी ओर अपना पैर।2 की चीज़ों, मान्यताओं आदि को लेकर सोचने और सवाल के लिए
यह कविता संतोष की कई कविताओं की तरह सामान्य बातचीत जगह देती है।
के लहजे में बात में बात जोड़ते हुए चलती है। इसे संतोष की एक पहले संग्रह की शीर्षक कविता है 'पहली बार'। जीवन में चलना,
विशेषता के रूप में मैंने समझा है। इनकी कविताओं में कई पात्र बोलना, रोना, हँसना, प्रेम, घृणा, छिपना, छिपाना और इस तरह
और चरित्र आते हैं। जहाँ लगता है कि कोई पात्र और चरित्र नहीं की या इससे भिन्न बहुत-सी चीज़ें हैं जो कभी न कभी पहली बार
हैं, वहां भी उपस्थिति है और पात्रों के संवादों में ही कविता बढ़ घटित होती हैं। प्रत्येक घटना का 'पहली बार' मानस में दर्ज़ नहीं
चलती है। कभी-कभी तो कवि ही पात्र के रूप में मौज़ूद दिखता हो पाती है। वह संभव भी नहीं है। बाल्यकाल की घटित घटनाएँ
है। उसकी मौज़ूदगी 'मैं' के रूप में ही नहीं 'हम' के रूप में भी स्मृतियों में नहीं होतीं। लेकिन, वह घटित होती हैं। स्मृतियों में दर्ज़
दिखती है। जैसे यही 'दक्खिन का भी अपना पूरब होता है' है। होने की वय में भी बहुत सी घटनाएँ पहली बार घटित होती हैं। पर,
लेकिन इसमें 'मैं' भी है -'अब कैसे बताऊँ मैं उन्हें यह / कि सबको सब स्मरण में नहीं होता। कवि को भी नहीं। स्मरण में होते
बचपन से ही सिखाया बताया गया हमें / चार दिशाओं के बारे हुए भी सब कविता की विषय-वस्तु नहीं होतीं। बारिश में भीगना
में।'3 इसमें 'हम' और 'मैं' की सार्थक जुगलबंदी है। उत्तमपुरुष का जब स्मृति में दर्ज़ होता है तब भीगना होता है, अन्यथा वह भीगना
मध्यमपुरुष में रूपांतरण बहुत सहज रूप में है- 'अब भी जब कहीं तो पहले भी कई बार हो चुका होता है। बारिश में भीगते हुए सबको
से थका-मांदा आता हूँ/ सो जाता हूँ बेपरवाह / अक्सर दक्खिन देखना और ख़ुद को भीगने से बचाए हुए रखने के लिए किसी साये
ओर ही कर के पैर'4 ⁴ के बाद जिन पंक्तियों को देखा जाना चाहिए की तलाश भीगने के अनुभव को द्विगुणित कर देता है। दरअसल
वे हैं- 'निंदक लोग चाहे जो बे सिर पैर की बातें उछालें / चलते यह पहली बार महसूस करने और उसे दर्ज़ करने को लेकर है। इस
चले जाएँगे हम अपनी राह / चाहे जितना अकाल पड़े / मरने न संग्रह में इस कविता से भी अच्छी कई कविताएँ हैं। लेकिन, किताब
देंगे हम / जीवन पथ पर अपने तरीके से चलने की राह।'5 देखने का शीर्षक बनी यही कविता। 'चित्र में दुख', 'चींटियाँ', 'गुज़रात-
की बात है कि समाज और परिवेश से हासिल ज्ञान या अनुभव 2002', 'अयोध्या- 2003', 'डर' इस संग्रह की अच्छी कविताएँ
की अभिव्यक्ति के लिए उत्तमपुरुष एकवचन (मैं) और उस ज्ञान हैं। गुज़रात-2002 और अयोध्या-2003 कविताएँ 1992 के बाद
की निरर्थकता के बोध और उसमें बदलाव के संकल्प के लिए की सांप्रदायिक-फासीवादी राजनीति पर है। बाबरी मस्जिद विध्वंस
मध्यमपुरुष एकवचन (हम) का प्रयोग हुआ है। इस कविता से के बाद, हालाँकि पृष्ठभूमि पहले से तैयार थी, देश की राजनीति,
साझी संस्कृति, लोकतंत्र और संविधान सब पर हमले उत्तरोत्तर
दक्खिन तो यहाँ एक प्रतीक है। ऐसे अनेक बढ़ते गए हैं। इस समय तो स्थिति और भयावह है। लोकतंत्र और
मामले हैं। बहुत सारी चीज़ें जो बिलकुल ही संविधान की आत्मा पर खुलेआम हमले हो रहे हैं। इसको लेकर
अव्यावहारिक और मानवद्रोही हैं, एक प्रक्रिया चिंतकों, विचारकों, कवियों और लेखकों की चिंताएँ भी बढ़ी हुई
के तहत हमारे मन-मिज़ाज, सोच, आचरण हैं। इन सवालों को लेकर काफ़ी धारदार कविताएँ भी लिखी जा
आदि पर काबिज हो जाती हैं और हम सोच रही हैं। संतोष की गुज़रात कविता में बातें तो बेशक प्रासंगिक हैं,
नहीं पाते हैं कि वे गलत हैं। उनको नहीं होना लेकिन, कविता प्रभावकारी नहीं बन पाई है। गुज़रात -2002 की
चाहिए। यह कविता अपने भीतर ऐसे बेमतलब तुलना में अयोध्या-2003 अधिक प्रभावकारी है, प्रासंगिक तो है
की चीज़ों, मान्यताओं आदि को लेकर सोचने ही। अयोध्या तीन दशकों से भाजपा की सांप्रदायिक-फासीवादी
और सवाल के लिए जगह देती है।
राजनीति के केंद्र में है। यह अयोध्या अब राम की न होकर संघ

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और भाजपा की हो गई है। सत्ता पर पाखंड का दखल बढ़ने के
साथ ही अयोध्या राजनीति की भी धुरी बनती गई है। एक अयोध्या संतोष की एक कविता है 'चींटियाँ'। चींटी पर पंत
आमजन की स्मृतियों की है, वह राम की अयोध्या है और वही जी की भी एक कविता है। पंत जी की कविता की
अयोध्या अब उन्मादी राजनीति के केंद्र में है। कविता इन बातों को चींटियाँ 'चलतीं लघु पद पल पल मिल जुल। '
बख़ूबी दर्ज़ करती है। संतोष की कविता में भी चींटियाँ अपना रास्ता स्वयं
संतोष की एक कविता है 'चींटियाँ'। चींटी पर पंत जी की भी तलाश लेती हैं और लघुपदों से दूर और दुर्गम को भी
एक कविता है। पंत जी की कविता की चींटियाँ 'चलतीं लघु पद संभव और सुगम बना देती हैं। 'डर' कविता में संतोष
पल पल मिल जुल। 'संतोष की कविता में भी चींटियाँ अपना रास्ता अपनी स्मृतियों के साथ हैं। ये स्मृतियाँ बहुत सजीव
हैं, झूठमूठ की गढ़ी हुई नहीं हैं। डर के उत्स और
स्वयं तलाश लेती हैं और लघुपदों से दूर और दुर्गम को भी संभव
मनोविज्ञान को स्मृतियों में टटोलते हुए बड़े सहज
और सुगम बना देती हैं। 'डर' कविता में संतोष अपनी स्मृतियों के ढंग से बताते चलते हैं कि अब तो डरने के अनेक
साथ हैं। ये स्मृतियाँ बहुत सजीव हैं, झूठमूठ की गढ़ी हुई नहीं हैं। कारण हैं। हर कदम पर डरना होता है।
डर के उत्स और मनोविज्ञान को स्मृतियों में टटोलते हुए बड़े सहज
ढंग से बताते चलते हैं कि अब तो डरने के अनेक कारण हैं। हर
कदम पर डरना होता है। यह बढ़ता ही जा रहा है और वह भी इस हवाओं के झोंको से लड़ने का पुरातन हुनर है
कदर की ख़ुद से भी आदमी डरने लगा है। कवि का ख़ुद से डर जिसमें जलते-जलते बुझने को हो आने
जिस अर्थ में है वह ध्यातव्य है: और फिर
अक्सर डर जाता हूँ अपने आप से आजकल मैं बुझते-बुझते जलने को हो आने की
कि कहीं ऐसा न हो पूरी गाथा पढ़ी जा सकती है। 8
कि मैं उसी तंत्र का हिस्सा बन जाऊँ इस कविता का सबसे सजीव और कवित्वमय हिस्सा है यह।
जिससे लड़ने का जज्बा जुटाता रहता हूँ अभी ध्यान देना होगा कि इसमें कवि एक जगह 'जलते-जलते बुझने को
हर पल हर क्षण। 6 हो आने' और तुरत एक अत्यंत छोटी-सी पंक्ति के बाद 'बुझते-
संतोष की एक कविता है 'भभकना' और एक दूसरी कविता बुझते जलने को हो आने' का वर्णन करता है। इसी में लौ की जूझ
है 'दीये कभी बुझते नहीं'। 'भभकना' में लालटेन है और जब और उसका नर्तन है। अंत के भीतर ही आरंभ की प्रक्रिया चलती
लालटेन का समय लगभग समाप्त हो चुका है अथवा होने को है रहती है। दीये का न बुझना तमाम मुश्किलों के बावज़ूद जीवन
तब कवि यह कविता लिखता है। अपने निकट अतीत की स्मृतियों की निरंतरता का प्रतीक है। जिसने इस परिघटना को बहुत ढंग से
को बहुत संजीदगी से सहेजता है और वह अतीत प्रत्यक्ष हो उठता देखा होगा, वही इस बात को लिख सकता है। ऐसी भाषा भी उसी
है। लालटेन जलाते समय अक्सर यह घटना घटा करती थी। किन के पास संभव है।
वज़हों से यह क्रिया घटित हुआ करती थी, कवि ने उसे एक-एक दीया जलाना महज जलाना भर ही नहीं होता। यह हमारे
कर सहेजा है। भभकने के चलते लालटेन का शीशा किस कदर भारतीय जन जीवन के सांस्कृतिक बोध से भी जुड़ा मामला है। इस
चटक-चिनक जाता था, उसे भी दर्ज़ किया है। इस भभकने में कविता में दीया के साथ मां की भी स्मृतियाँ हैं। दीया रखा भी है
जीवन का भभक उठना भी दिख जाता है। साथ ही, 'दीये कभी और उसके शीर्ष पर दीपधूम की अनेक आकृतियाँ भी हैं। काजल
बुझते नहीं' में कवि नाउम्मीदी को ख़ारिज करता है। पंक्तियाँ देखें- और कजरौटा भी है। इस कवि की अनेक कविताओं में मां आती हैं।
हर बुझता दीया घर-परिवार के लोग आते हैं। कवि ने मां पर अलग से भी कविता
अगली लौ को जिजीविषा की मशाल थमा जाता है लिखी है। इस कवि के पास कहने को बहुत कुछ है। स्मृतियों का
तभी तो रौशन है यह दुनिया आज तलक भंडार है। अगर यह नहीं होता तो 'ओलार', 'बथुआ', 'मां का
तभी तो नाउम्मीदी हर बार हार जाती है। 7 घर', 'खाट बीनने वाले','चोरिका', 'मिटकौना' और 'मोछू नेटुआ'
इस कविता में संतोष का कवि कर्म ख़ूब निखरा हुआ है। दीये जैसी कविताएँ नहीं लिखी जा सकतीं थीं। यहाँ इस बात का ज़िक्र
का हवा के झोंको से निष्कवच जूझने और उसके नर्तन को कवि ज़रूर किया जाना चाहिए कि महज स्मृतियों से ही कविता नहीं बन
ने क्या ख़ूब देखा है- पाती है। स्मृतियों के आँख मूँद भावुक प्रयोग से कवि स्मृतिजीवी
रोशनी को बचाने का कोई कवच नहीं दीये के पास हो जाता है। संतोष ने उसका बहुत रचनात्मक और युग संदर्भोंं के

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अनुसार इस्तेमाल किया है। वह स्मृतिजीवी नहीं, स्मृतिसंपन्न कवि टिपिकल प्रयोग है। नए वस्त्र, नए बर्तन को उपयोग में लाने के
हैं और स्मृतियों का आधुनिक संदर्भोंं में इस तरह पुनर्सृजन करते अर्थ में यह अवांसना शब्द है। यहाँ राजनीतिक संदर्भ में इस शब्द
हैं कि कविता रोचक और अर्थपूर्ण हो जाती है। इन कविताओं में का प्रयोग हुआ है। अयोध्या पुरानी है, रामकथा से इसका संबंध है,
अनेक स्मृतिगाथाएँ हैं। 'उम्मीद से बनते हैं रास्ते' की कविताओं के पर, अपने राजनीतिक स्वार्थों के लिए भाजपाई और संघी रोज-ब
बारे में बिलकुल सही कहा है प्रियम अंकित ने कि 'इस संग्रह की -रोज नए-नए नफ़रती मुद्दों के साथ इसको अवांसते हैं, फसाद
कविताएँ भूलने के ख़िलाफ़ रचनाधर्मी विपक्ष के अस्तित्ववान होने खड़ा किए रहते हैं-
का गवाह बनती हैं।'9 महामहिम लोग
यह कवि जिस समय में है उसको समझने की कोशिश करता उसी पुरानी अयोध्या को
है। याद किया जाना चाहिए जब हजार और पांच सौ के नोट बंद खोज खोजकर अपने शुभ मुहूर्त में
हुए थे तब कई तरह की बहसें चलीं थीं। उनमें एक बहस 'चोरिका' रोज अवांसते रहते हैं इस उम्मीद में
पर हुई थी। रवीश कुमार ने अपने एक शो को इसी पर केंद्रित किया इसे पहन शायद तकदीर संवर जाए।11
था। इस 'चोरिका' का संबंध घरेलू महिलाओं से था जिसने खर्च यह तो एक बानगी भर है। संतोष की कविताओं को समझने के
के पैसों में से कुछ बचा-छिपाकर रखा था किसी खास अवसर के लिए इस तरह के शब्द-प्रयोगों को समझना होगा। वर्तमान सत्ता
लिए। नोटबंदी के समय ऐसे धन भी बाहर आ गए थे जो उस बुरे व्यवस्था की बहुत सी चीज़ें कवि को खटकती हैं। इस खटकने
वक्त में घर के ज़रूरी कार्यों में खर्च हुए थे। नोटबंदी के साथ चर्चा को वह कई तरह से कहता है। वह कवि ही क्या जिसको सत्ता से
में आए इस मसले पर संतोष ने संवेदनशील कविता लिखी है। खटपट न हो! इस कवि के तीन काव्य-संग्रह प्रकाशित हैं। पहले
बाज़ारवाद के बढ़ते वर्चस्व को लेकर भी कविताएँ हैं। इस और दूसरे का तो ज़िक्र ऊपर हुआ है। तीसरा संग्रह है 'उम्मीद से
दौर में छोटे- छोटे दुकानदार तंग-तबाह हो चुके हैं। फेरीवालों की बनते हैं रास्ते'। इस संग्रह की भी कुछ कविताओं की इस आलेख में
जगह ई मार्केटिंग ने ले ली है। अब सब कुछ बिकाऊ है। वस्तुओं चर्चा है। इनका उत्तरोत्तर विकास दिखाई दे रहा है। इनका लिखना
के साथ हमारे अपने जीवन मूल्य भी। हमारी अपनी भावनाएँ भी। जारी है और इन पर लिखा जाना अभी बाकी है। लोग इनकी
बाज़ार में एक से एक चीज़ें हैं, पर खरीददार के मन में ठगे जाने का कविताएँ पढ़ेंगे और उन पर अवश्य विचार करेंगे। n
खटका बराबर लगा रहता है। खटका मतलब आशंका। यह खटका
संदर्भ:
महत्वपूर्ण है। यह खटका सामान्य जन का है। बाज़ार की नीयत
1. दक्खिन का भी पूरब होता है, संतोष कुमार चतुर्वेदी, साहित्य भंडार,
का बोध इसके मूल में है। बाज़ारवाद की संस्कृति लूट की संस्कृति इलाहाबाद, पृष्ठ 103
है। आमजन के मन के इस खटके को ही यह संस्कृति खत्म कर 2. वही, पृष्ठ,102
देना चाहती है। पर, यह अभी है:
लगा रहता है एक खटका मन में 3. वही, पृष्ठ 99
4. वही, पृष्ठ 103
ठग लिए जाने का।10 5. वही,पृष्ठ 103
एक कविता है 'गप्प की तरकीब से ही'। यह थोड़े अलग ढंग 6. डर, पहली बार, संतोष कुमार चतुर्वेदी, भारतीय ज्ञानपीठ, पृष्ठ 99
की कविता है। शिल्प हालाँकि थोड़ा बिखरा हुआ है। लेकिन विषय 7. दीये कभी बुझते नहीं, उम्मीद से बनते हैं रास्ते, संतोष कुमार चतुर्वेदी,
और बातें अच्छी हैं। जीवन में गप्प की अहमियत पर यह कविता रा.प्रका.दिल्ली, पृष्ठ 27
8. वही, पृष्ठ 26
है। सब कुछ सच-सच नहीं चलता आम जीवन में। गप्प में भी 9. आवरण चार पर प्रियम अंकित की टिप्पणी, उम्मीद से बनते हैं रास्ते
समय का सच दर्ज़ होते चलता है। इनकी कई कविताओं को पढ़ते 10. कीमतों की दौड़ से बाहर, दक्खिन का भी पूरब होता है, पृष्ठ 118
हुए निबंध पढ़ने का अहसास होता है। प्रायः अपनी हर कविता 11. अयोध्या-2003, पहली बार, पृष्ठ 43
में यह कवि लोक, लोकजीवन और लोकसंस्कृति की बात करता संपर्क : प्राध्यापक, गिरिडीह कॉलेज,
है। लोकभाषा भोजपुरी के शब्दों का प्रयोग ख़ूब जमकर हुआ है। गिरिडीह, झारखंड
'अयोध्या-2003' में 'अवांसना' शब्द का प्रयोग हुआ है। यह मो. 9801326311

488 n जुलाई से सितंबर 2023 yegh


n असीम : महेश पुनेठा

विचार के शान पत्थर पर सच की शिनाख़्त करती कविताएँ


अनिल अविश्रांत

समकालीन हिंदी कविता में महेश पुनेठा जी ने इसे रचने से अधिक जीने का विषय मानते हैं-
महत्वपूर्ण उपस्थिति दर्ज़ कराई है। वह अनुपस्थित पर मैं न जी पाऊँ कविता
आवाज़ों के हक़ में लिखने वाले कवि हैं। 'भय अतल दुनिया में अँधेरा कुछ और बढ़ जायेगा।
में, 'पंछी बनती मुक्ति की चाह' और 'अब पहुँची हो यह अकारण नहीं है कि महेश पुनेठा की कविताएँ
तुम' शीर्षक काव्य संग्रहों ने काव्य जगत में अपनी दुनियाँ में अँधेरे के ख़िलाफ़ न केवल खड़ी होती
अलग पहचान बनाई है। अपनी एक कविता में महेश हैं बल्कि लड़ती भी हैं पर यह लड़ाई बाहरी और
पुनेठा जी कविताओं की तुलना उस 'दांती अखरोट' आरोपित न होकर जीवन में धँसकर की गई है।
से करते हैं जो ऊपर से भले ही थोड़ा कठोर दिखे लेकिन उसके उनकी पहली कोशिश है कि भीतर की कविता मरने न पाये।
भीतर मधुर व कोमल 'गिरी' बजती रहती है। धैर्य से ऊपरी कवच महेश पुनेठा जी की एक और छोटी-सी कविता है-'फुंसी'। एक
हटाकर उसे पाया जा सकता है। महेश पुनेठा जी की कविताएँ वैसे छोटी-सी फुंसी के माध्यम से कवि सत्ता के दमनकारी चरित्र को
ही धैर्य की मांग करती हैं। उन्हें पढ़ते हुए हम धीरे-धीरे शब्दों के न केवल उजागर करता है बल्कि उत्पीड़ित के आक्रोश को भी दर्ज़
भीतर प्रवेश करते हैं और 'अर्थ' के एक नव्य संसार के नागरिक करता है। यह कविता की ऐतिहासिक भूमिका है कि वह दमन और
बन जाते हैं। 'जनपक्षधर विचार' ही इस दुनिया के प्रवेशपत्र हैं। उत्पीड़न के ख़िलाफ़ जनता का पक्ष मजबूती से रखे। जैसे कभी
कविता में तमाम प्रचलित संदर्भ, कथाएँ और विचार प्रतिद्धता के केदारबाबू ने कहा था-'जनता नहीं मरा करती है'। महेश पुनेठा
प्रिज्म से गुज़रते हुए उस कोण से हमारे सामने पुनर्प्रस्तुत होते है भी लिखते हैं-
जिसमें अनदेखा सच साफ-साफ झिलमिला उठता है। सच ही जिसे उभरते देख
कला की अमरता का निकष है, शेष रस-छंद-अंलकार-बिम्ब- मसल कर
प्रतीक बाहरी बनाव-सिंगार हैं जिन्हें एक दिन मलिन होना ही है। खत्म कर देना चाहते हो तुम
स्वाभाविक है कि अपनी कविता के सहारे महेश पुनेठा जी उसी वही और अधिक विषा जाती है
सच के हक़ की लड़ाई लड़ते हैं, व्यवस्था से प्रश्न-प्रतिप्रश्न करते तुम्हारी गलती
हैं क्योंकि प्रश्न करना जिंदा होने का आदिम सबूत है। 'नचिकेता' छोटी सी फुंसी को
शीर्षक कविता में वह कहते हैं- दर्दनाक फोड़े में बदल देती है।
इसलिए तुम आज देश में कई जगह आक्रोश पनप रहा है। नक्सल समस्या
हजारों साल बाद भी से लेकर विश्वविद्यालय परिसरों में पैदा हो रहे छात्र तनाव के पीछे
ज़िन्दा हो सत्ता का यही अनदेखापन है और इसके कारण उसकी दमनकारी
जब तक प्रश्न रहेगें नीतियों में ही खोजा जा सकता है। महेश जी की कविताएँ दुख
तब तक तुम भी रहोगे। की तासीर समझती हैं। वे संघर्षों का एक नया व्याकरण रचती
उनके पास कुछ छोटी कविताएँ हैं जो अपने रूपाकार में भले ही हैं। उनमें निहित आत्मीयता इतनी सहज है कि वह शिकायतों से
छोटी हों लेकिन प्रभावशीलता में बहुत असरदार हैं। इसका कारण म्लान नहीं होती बल्कि बहुत दिनों तक कोई शिकायत न मिलने
यह है कि कवि को कविता में अखण्ड विश्वास है। हालाँकि वह पर कवि स्वयं को टटोलने लगता है कि उसी से कोई गलती न हुई

yegh जुलाई से सितंबर 2023 n 489


हो। कविता में दर्ज़ यह विनम्रता वास्तव में पुनेठा जी की अपनी है। नजरें चौकन्नी
'कभी भी नहीं मर सकता/ मेरी आंखों में/ सुन्दर दुनिया का समय की गति से कदम-कदम मिलाकर भागते।
सपना' कविता लिखते समय ही नहीं अपितु जीवन जीते हुए भी यह सच्ची कविता वही है जो छद्म को उजागर कर वास्तव के दर्शन
संकल्प एक चमक की तरह लगातार महेश जी की आंखो में उम्मीद करा दे। महेश पुनेठा जी की कविताएँ इस कसौटी पर खरी उतरती
की तरह देखता रहता है। यह उनकी जन सरोकारी गतिविधियों से हैं। वह सभी प्रकार के छल-छद्मों पर हमलावर होती हैं। यह जनता
स्वयं सिद्ध है। जन सरोकार ही उनके जीवन की सबसे बड़ी ताक़त की नकली लड़ाई लड़ने वालों को बेनकाब कर देती हैं, उनके
हैं और उनकी कविता की आत्यन्तिक विशेषता हैं। यह कविता रंग-बिरंगे मुखौटों को नोंचकर फेंक देने का माद्दा रखती हैं। बिना
न केवल बेहतर बदलाव के दुश्मनों को चिह्नित करती है बल्कि किसी अतिरिक्त आक्रामकता के पूरी समझदारी के साथ महेश जी
उन षडयंत्रों को भी उजागर करती है जो जनपक्षधरता के ख़िलाफ़ जन को सावधान करते हैं-
हैं। जो अन्याय, अत्याचार, शोषण, निर्धनता के कुहासे को बनाये वे लिखेगें
रखना चाहते हैं। कविता-कहानी-उपन्यास
समाज का एक बड़ा हिस्सा मध्यवर्ग का है। जिसकी सबसे बड़ी जनता के शोषण-उत्पीड़न पर
पहचान उसका वैचारिक ठंडापन है। स्वभाव में विन्यस्त जड़ता ही मानवाधिकारों के हनन पर
मध्यवर्ग को निष्क्रिय उपभोक्ता में बदल देती है। पर यह भी सच है परन्तु
कि बदलाव कि कोई बड़ी मुहिम मध्यवर्ग को साथ लिये बग़ैर पूरी जब अपने हक़-हक़ुक के लिए
नहीं हो सकती। महेश जी इस सच को भली भांति जानते हैं इसलिए या शोषण-उत्पीड़न के खिलाफ
अपनी एक कविता में वह ललकारते हुए कहते हैं- जनता होगी संघर्षरत
इतना दमन/शोषण तब वे सबसे आगे होगें
अन्याय-अत्याचार उन्हें बर्बर-जंगली और असभ्य साबित करने में।
फिर भी ये चुप्पी। ग़ैर-बराबरी की इस लड़ाई में जनता कई बार ठगी गयी है, छली
तुम से अच्छे तो गई है और धोखा खा चुकी है। फिलहाल जनता और ठगे जाने
सूखे पत्ते हैं। की अनुमति किसी को नहीं देगी इसलिए ज़रूरी है कि अपने वर्ग
चुप्पी जो मध्यवर्ग की पहचान बनती जा रही है, सूखे पत्ते उस शत्रु की सही-सही पहचान कर ली जाये। यह अकारण नहीं है कि
चुप्पी को तोड़ते हैं। डाल से विलग और मृत होकर भी सूखे पत्ते महेश पुनेठा जी अच्छे और सच्चे बीजों की बेचैनी को कविता में
अपनी चरमराहट में निर्जन वन के सन्नाटे को चुनौती देते हैं। दर्ज़ करते हैं जिससे भविष्य की फसल तैयार की जा सके। हमारे
कविता में यह ध्वनि ही मनुष्यता के मुखर प्रतिरोध का मोहक़ समय में सच को दम तोड़ने के लिए हाशिए पर विस्थापित कर
संगीत बन जाता है। महेश जी ची कविताएँ पढ़ते हुए लगातार यह दिया गया है और केन्द्र में गढ़ी गई नकली छवियाँ सच की शक्ल
महसूस होता है कि इनमें एक नई दुनिया के निर्माण का सुन्दर में बार-बार हमारे सामने पेश की जा रही हैं। अँधेरे को प्रश्नांकित
सपना आकार ग्रहण कर रहा है। उनकी कविताएँ इस परियोजना करने वाली आवाज़ें खामोश हैं। ऐसे में कवि को सूरज की आस
का ज़रूरी हिस्सा हैं। वह सहज ढंग से नये मूल्यों और विचारों है। ये कविताएँ पाठक को अनिवार्यता इस निष्कर्ष पर ले जाती हैं-
का स्वागत कर रहे हैं तो दूसरी ओर समाज में फैले पाखंड को समर्पण नहीं प्रतिरोध है उनका संकल्प
विवेक की आरी से काटकर अलग फेंक देने को बेचैन हैं। वह एक मुक्ति की चाहत उनकी
ही साथ कन्या-पूजन और कन्या-भ्रूण हत्या करने वाले समाज के अब केवल सपना नहीं पंछी बन रही है।
ग़ाैरव की पोल खोलकर उसे सरे आम नंगा कर देते हैं। यह कविता महेश जी की एक लोकप्रिय कविता 'गाँव में सड़क' है। उनकी
लैंगिक आधार पर होने वाले कार्य-विभाजन को खत्म करने की यह कविता विन्यास में छोटी है लेकिन अर्थ की दृष्टि से बढ़ी
प्रस्तावना रचती है इसलिए दुपहिया चलाती लड़की को देखकर विस्तृत है। यह बड़ी सहजता से विकास की पूंजीवादी अवधारणा
वह कहते हैं- की पूरी पोल-पट्टी खोल देती है और उसमें विन्यस्त आमजन
बहुत अच्छा लगता है उन्हें देखना के शोषण के मंसूबे को सरेआम नंगा कर देती है। आमजन इस
सिर ऊँचा कविता की रोशनी में समझ सकते हैं कि कैसे विकास के नाम पर
कंधे चौड़े उनके संसाधनों को छीना जा रहा है और इसका विरोध क्यों ज़रूरी

490 n जुलाई से सितंबर 2023 yegh


है? सड़क के बहाने महेश जी इस कविता में संवाद करते हैं ठीक ही रसोई की असली सुन्दरता है। ' दरअसल वह कहना चाहते
वैसे ही जैसे कबीर अपने समकालीनों को बार-बार 'सुनों भई हैं कि यह विविधता ही देश की भी सुन्दरता है। दुनिया का कोई
साधो' कहक़र संबोधित और सचेत कर रहे थे। कविता में संबोधन समाज अन्तर्विरोधों से मुक्त नहीं है। सबके अपने-अपने सच हैं
की यह प्रविधि गहरी निष्ठा, गहरी पीड़ा और ख़ुद विक्टिम होने लेकिन वे एक-दूसरे के विरुद्ध यदि सदैव युयुत्सवा-भाव में रहेगें
से पैदा होती है। या समाज का कथित नेतृत्व वर्ग इन अन्तर्विरोधों को उभारने का
अब पहुँची हो सड़क तुम गांव प्रयत्न करेगा तो निश्चित ही वह समाज लहूलुहान होगा। वह
जब पूरा गांव शहर जा चुका है स्वस्थ और विकसित समाज नहीं बन सकता। रसोई की विविधता
सड़क मुस्काई में कोई विरोध नहीं है। सबके सम्यक् उपयोग से स्वाद और पोषण
सचमुच कितने भोले हो भाई की एक अनोखी दुनिया बसती है। साहित्य-संस्कृति कर्मी भी यही
पत्थर-लकड़ी और खटिया तो बची है न। चाह रखते हैं कि सभी अस्मिताएँ अपनी विशेषताओं को बनाये
इस कविता को हमारी युवा पीढ़ी को ज़रूर पढ़ना चाहिए जो रखते हुए पूरी सामर्थ्य से राष्ट्र के निर्माण में सन्नद्ध हों। यह किसी
दलाल मीडिया के प्रभाव में कई बार लेखकों, संस्कृतिकर्मियों और पर किसी दूसरे के वर्चस्व से संभव न होकर सबके सहमेल से ही
सोशल एक्टिविस्टों को विकास विरोधी समझने लगते हैं। दरअसल संभव हो पायेगा।
यह हमारे संसाधनों की लूट का सवाल है,असमान विकास का रसोई में
मुद्दा है और सबसे बढ़कर यह बहुत कुछ को बेरहमी से नष्ट कर आग भी है
दिए जाने का प्रतिकार है। सैकड़ों वर्षों में जो प्रकृति और संस्कृति पानी भी है
विकसित होती है उसे विकास के नाम पर पल भर में खत्म कर और घी भी है
दिया जाता है। यह साझी मनुष्यता की अपूर्णनीय क्षति है। जिसे याद आ रहे होगें
किसी भी संवेदनशील व्यक्ति के लिए सहन करना कठिन है। आपको
महेश जी ने 'मेरी रसोई-मेरा देश' शीर्षक से एक लंबी कविता कुछ मुहावरे
लिखी है। यह कविता इस संग्रह में अलग से ध्यान आकर्षित करती लेकिन
है। रसोईं के रूपक में उन्होनें देश की विविधता को रेखांकित किया रसोइये का कौशल देखिये
है। रसोईं घर का सबसे जीवन्त स्थान है, जहाँ रंग,स्वाद, सुगंध कि तीनों के बीच
का सहमेल जीवन को पोषण प्रदान करता है। विविधता इसकी कैसा सन्तुलन बनाता है
सबसे बड़ी खुबसूरती है। पोषण विज्ञान के विशेषज्ञ भी मानते हैं रसोई के हित!
कि थाली जितनी रंगपूर्ण होगी वह उतनी ही पोषक होगी। देश का फ्रांसिस बेकन ने अपने एक प्रसिद्ध निबंध 'Of Studies'
वैविध्य भी इसकी सबसे बड़ी शक्ति है। रहन-सहन, खान-पान में किताबों के पढ़ने के आधार पर उनका वर्गीकरण किया है-
भाषा-बोली ही नहीं धर्म और आस्था की विविधतायें हर हाल में 'Some books are to be tasted, others to be swal-
बची रहनी चाहिए। इस पर चोट राष्ट्र की आत्मा पर चोट मानी lowed, and some few to be chewed and digested'
जायेगी। रसोई के हवाले से वह देश की इसी विविधता के सम्मान इस संग्रह में महेश जी की एक कविता है-'लहलहाती किताबें'।
की बात करते हैं। यह कविता भी बेकन के इसी विचार का विस्तार है। यह कविता
जितने अधिक रूप किताब पढ़ने की तहज़ीब सिखाती है। शब्दों के अन्तस्तल में छिपे
जितने अधिक रंग मर्म तक पहुँचने की यात्र इतनी सुगम भी नहीं होती। वह कुछ पूर्व
जितने अधिक स्वाद तैयारी की मांग करती है। इसे ही भारतीय काव्यशात्र में 'भावक' व
जितने अधिक स्पर्श 'सामाजिक' कहा गया है। अन्ना पशु की तरह शब्दों को बेतहाशा
जितनी अधिक गंध चरने भर से न स्वाद मिलता है और न ही पोषण। एक अच्छे पाठक
और जितनी अधिक ध्वनियाँ को उस किसान की तरह होना चाहिए जिसे अच्छे बीजों की पहचान
उतनी ही अधिक समृद्ध हो और वह उन्हें उपचारित-संस्कारित करना भी जानता हो।
मानी जाती है रसोई। कुछ लोग और भी हैं
इसी कविता में वह आगे लिखते हैं 'ज्योनारों की विविधता किताबों को

yegh जुलाई से सितंबर 2023 n 491


ऐसे पढ़ते हैं कैनन हमलावर हो सकती है, भरे-पूरे गाँव कभी भी विस्थापित
जैसे किसान अपने बीजों को किये जा सकते हैं,बदले की आग कभी भी भड़काई जा सकती है
बोने से पहले और जनता के सामूहिक विवेक का कभी भी अपहरण हो सकता
भिगो लेते हैं पानी में है। इस अराजक समय में ऐसे कवि की भूमिका बढ़ जाती है जो
उन्हें ही डालते हैं खेतों में ललकार कर सरेआम कह सके-
जो बैठ जाते हैं तले में दासता से ख़तरनाक है
तैरने वालों को दासता की वकालत!
खिला देते हैं जानवरों को महेश जी बड़ी साफगोई से अपनी कविता में अपने समय को
उनके जीवन में किताबें दर्ज़ कर रहे हैं। 'डर नफ़रत और लोकतंत्र के पहरुवे' शीर्षक
फसलों की तरह लहलहाती हैं। कविता को अपने समय के दस्तावेज़ की तरह पढ़ा जाना चाहिए।
ये कविताएँ मित शब्दों॔ में बड़े अर्थ को वहन करने की क्षमता इसमें जनता और सत्ता दोनों का मनोविज्ञान अनुस्यूत है। वे एक-
रखती हैं। कोई एक वाक्य या फिर सिर्फ़ एक शब्द ही इतना दूसरे का इस्तेमाल कर रहे हैं। सत्ता अपने शक्ति और वैभव को
तेजस्वी होता है जो अपनी आभा से पूरी कविता को भास्वर कर बचाने और बढ़ाने में लगी है तो जनता छद्म ग़ाैरव की तलाश में
देता है। भाव का संघनन इन्हें नई अर्थदीप्ति से भर देता है जैसे ख़ुद को होम कर दिये जाने को भी तैयार है। सही और गलत
'जेरूसलम' कविता की यह अंतिम पंक्ति-'पवित्र भूमि की जगह में फ़र्क करने की शक्ति जिसे विवेक कहा जाता है फिलवक्त
तुम काश! एक निर्जन भूमि होते' धर्माधारित हिंसा के अनगिन् निर्वासित है और मस्तिष्क में उसके होने की निशानियों को भी
रक्तिम अध्यायों पर भारी पड़ती है। महेश जी पहाड़ के रहने वाले खुरचकर खत्म किया जा रहा है। यह सत्ता का व्यूह है-सम्मोहक़
हैं। स्वाभाविक है कि पहाड़ को उनसे बेहतर और कौन परिभाषित किन्तु वधिक- घृणा और हिंसा इसके मजबूत हथियार हैं। प्रेम से
कर सकता है! कम-से-कम उस पर्यटक-दृष्टि में तो वह भेदकता उन्हें डर लगता है इसलिए इसपर हजार-हजार पहरे हैं। माॅरल
नहीं ही हो सकती है जो प्रकृति के आवरण पर सजे-खिले सौन्दर्य पुलिसिंग की जा रही है। घृणा के पुतले सम्मानित हैं और प्रेम करने
की ऊपरी परत से आगे ही नहीं जा पाती। इसके लिए पूरे पर्यावास वाले हृदय अपमान तले रौदें जा रहे हैं।
में रच-बस जाना और उसी का हिस्सा हो जाना प्राथमिक और एक सत्ताएँ
मात्र शर्त है। महेश जी पहाड़ की शक्ति से परिचित हैं। उनकी डरती हैं
कविताओं में अनेक बार अविचल-अडिग, नभ-स्पर्शी पहाड़ के सत्य से
बड़े उदात्त बिम्ब आये हैं लेकिन उनकी संवेदनशील दृष्टि की अहिंसा से
परास में किसी पहाड़ी स्त्री की आँखों की वह कोर भी आई है और सबसे अधिक प्रेम से।
जो अपने प्रिय के विछोह में गीली है। तब उनके लिए पहाड़ का वे डरते हैं
मतलब-' बिछोह,मिलन और फिर बिछोह' हो जाता है। यहाँ यह नफ़रत फैलाने वालों से नहीं
भी रेखांकित करने ज़रूरी है कि महेश जी किसी भावोच्छवास के प्रेम फैलाने वालों से।
कवि नहीं है। उनकी कविता के पीछे एक परिपक्व विचारधारा है। महेश जी का संवेदनशील मन बार-बार स्त्री-जीवन और उसके
वह ' हमारी आँखों में सपने बोने आ रहे' लोगों की चालाकियाँ दुःखों की ओर जाता है। जीवन यदि एक यात्रा है तो वह वहाँ
समझते हैं और अपने जन को जगाते हैं। उनकी कविता एक एक सहयात्री के रूप में उपस्थित हैं किसी उपदेशक-संरक्षक की
चेतावनी की तरह हमारे सामने आती है। वह अपनी पुर जोर तरह नहीं। वह कोरी करूणा नहीं उपजाते और न ही मर्दवादी
आवाज़ में हमें सचेत करती है क्योंकि - श्रेष्ठताबोध से परिचालित होते हैं। वह समानुभूति के स्तर पर
किसी भी दुर्घटना में पहुँचकर उन दु:खों को जीते हैं, उनके पीछे की सामाजिक-
मारे जाने की सांस्कृतिक परतों को उघारते हैं और सही कारणों की तलाश कर
सबसे अधिक आशंका उन्हें दूर किये जाने का संकल्प भरते हैं। उन्हें उस डायरी का
सोये हुए आदमी की ही होती है। इंतजार है जिनके कोरे पन्नों पर किसी स्त्री ने अपना हृदय खोलकर
हमारा समय दुर्घटना-बहुल समय है। यहाँ कभी भी कुछ भी हो रख दिया हो लेकिन समस्या यह है कि एक सामान्य स्त्री के लिए
सकता है। खेतों में पसीना बहाते-अन्न उपजाते किसानों पर वाटर- लिखना भी एक लक्जरी के तौर पर देखा जाता है। वह जानते हैं

492 n जुलाई से सितंबर 2023 yegh


कि चतुर्दिक संघर्षों से घिरी स्त्री की रचना में दुःख क्यों स्थाई भाव
की तरह उपस्थित रहता है।
वह सुख लिखने लगी
सोचती रही
सोचती रही
सोचती रह गयी
फिर
वह दुख लिखने लगी
लिखती रही
लिखती रही
लिखती ही रह गयी।
अपनी कई कविताओं में वह स्त्री जीवन के अनेक आयामों
पर विचार करते हैं। वह रोजमर्रा के जीवन से प्रतीकों को उठाते
हुए स्त्री-पुरुष मन का विश्लेषण करते हैं। एक कविता में शर्ट
से टूट गये बटन जैसा रूपक विस्थापन के दुख को व्यक्त करने
का माध्यम बनता है। स्त्री विस्थापन का दुख जानती है इसलिए
वह टूट गये बटन को तत्क्षण शर्ट में टांक देना चाहती है। समाज
की संरचना और पुरुष का माइंडसेट ऐसा है जहाँ एक ओर स्त्री तरह की ग्रन्थियों का निर्माण कर देते हैं जिससे ताउम्र छुटकारा
अपने जीवन के कष्टों को खुलकर अभिव्यक्त नहीं कर पाती है। पाना मुश्किल हो जाता है। महेश जी का कवि-मन इससे आगे तक
सहनशीलता के पाठ उसे बचपन से ही सिखाये-पढ़ाये जाते रहते विचार करता है। वह मौज़ूदा परीक्षा की पूरी प्रक्रिया में अन्तर्निहित
हैं। वह उस सीमा तक अपने दर्द को छुपाती है जब तक कि वह क्रूरता को उजागर करते हैं। उदाहरण के लिए परीक्षा की शुचिता
छिपने से इनकार न कर दें। एक निर्धन स्त्री का अस्पताल से दवाई के नाम पर भीषण सर्दी में भी बच्चों के जूते-मौजे को उतरवा देना
लेने जाने का तजुर्बा हो या मां की बीमारी में सेवा करते तीमारदार जबकि ड्यूटी करने वाले शिक्षकगण गर्म कपडों में लदे-फंदे हों।
का मन, पति के न रहने पर समाज की प्रतिक्रियाओं का दंश अभी बहुत समय नहीं हुआ जब एक अख़बार में यह समाचार
सहक़र अपने जीवन में ख़ुदमुख्तार हो जाने वाली स्त्री के जीवन सुर्खियों में छपा था कि किसी प्रतियोगी परीक्षा में छात्राओं के दुपट्टे
का निरूपण हो, महेश जी एक सहचर की तरह इन प्रसंगों से जुड़ते तो हटवा ही दिये गये थे, उनके पूरी बांह के कुरतों को काटकर
हैं और उन्हें एक तटस्थता के साथ कविता में उतारते हैं। आधी बांह का कर दिया गया। यह उनके जीवन की गरिमा के
महेश जी का कवि-मन एक शिक्षक-मन भी है। उनका कोई साथ खिलवाड़ है। महेश जी की कविता परीक्षा में अधिकारियों
ऐसा संग्रह नहीं है जिसमें विद्यालय और उसके परिवेश की कविता और शिक्षकों के अचानक तानाशाह बन जाने वाली प्रवृत्ति का
न हो। 'भय अतल में' से लेकर 'अब पहुँची हो तुम' तक इस विरोध करती है।
जाॅनर की कविताओं का अलग से विश्लेषण कर शिक्षा पर एक और अन्त में, महेश दा पहाड़ के कवि हैं। वह पहाड़ जो
मुकम्मल विमर्श की शुरुआत की जा सकती है। छात्र के बाल मन अचल-अडिग है लेकिन जिसके अन्तस में एक मीठे पानी का
का मनोविश्लेषण हो, या फिर अधिगम की प्रक्रिया का वर्णन, सोता हमेशा प्रवाहित होता रहता है। जो प्यास को तृप्ति की अनन्त
शिक्षक और शिक्षार्थी की भूमिका की बात हो या फिर परीक्षा जैसे कथाओं में रूपान्तरित कर देता है। उनकी कविताएँ पढ़ते हुए मन
नीरस विषय पर वार्ता महेश जी की कविताएँ इन विषयों पर हमें की सूखी-रेतीली मिट्टी आद्र हो उठती है और संवेदना के नन्हें-हरे
दूर तक रोशनी दिखा सकती हैं। उनकी एक कविता 'परीक्षा कक्ष अंखुए अपनी दोनों भुजाएँ उठाये आकाश के नीले क्षितिज के पार
के बाहर पड़े मोजे-जूते' शीर्षक से है। सभी शिक्षाविद् मानते हैं जाकर जीवन-अनुराग के इंद्रधनुषी रंग खोज लाते हैं। n
कि परीक्षा की मौज़ूदा प्रणाली किसी छात्र के समग्र मूल्यांकन में संपर्क : सहायक प्राध्यापक , िहन्दी,
अपर्याप्त है। यह प्राय: रटने की क्षमता की परीक्षा है। अंकों के राजकीय महािवद्यालय, िशवराजपुर बैरी, कानपुर, उ.प्र.
लिए गलाकाट प्रतिस्पर्धा और उत्तीर्ण-अनुत्तीर्ण के द्वन्द्व छात्रों में कई मो. 7565829082

yegh जुलाई से सितंबर 2023 n 493


n असीम : बसंत त्रिपाठी

अमूर्त होते गतिशील यथार्थ को मूर्त करती कविताएँ


अंजन कुमार

बसंत त्रिपाठी बीसवीं सदी के अंतिम दशक के संचालित करने की एक व्यवस्था को निर्मित कर चुका
महत्वपूर्ण कवि हैं। उनकी काव्ययात्रा एक ऐसे दौर है और जिसे बनाये और बचाये रखने के लिए वह
से प्रारंभ होती है, जहाँ से अंतर्राष्ट्रीय और राष्ट्रीय लगातार अपने रूप को परिवर्तित करता चलता है
स्तर पर व्यापक बदलावों की शुरुआत होती है। ताकि लोगों की मानसिकता उसके अनुकूल बनी रहे।
सोवियत संघ में समाजवादी व्यवस्था का विघटन बसंत त्रिपाठी की कविताएँ इसी लगातार बदलते हुए
होता है। शीतयुद्ध की समाप्ति के बाद समाजवाद का गतिशील यथार्थ के बीच उन जटिलताओं से उत्पन्न
महास्वप्न बिखरकर रह जाता है। नवसाम्राज्यवाद अवरोधों से जीवन और समाज पर पड़ रहे व्यापक
का उदारवादी नीतियों और बाज़ारीकरण के द्वारा और अधिक प्रभावों को विश्लेषित करती चलती हैं। जिसमें अपने समकालीन
विस्तार प्रारंभ होता है। सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक और समय की गहरी चिंता, पीड़ा और यथार्थ को उजागर करने के
सांस्कृतिक स्तरों पर व्यापक परिवर्तन तेजी से शुरू होते हैं। 1990 साथ अभिव्यक्ति की रचनात्मक बेचैनी भी दिखाई देती है। उनके
में भूमंडलीकरण आने के तुरतं बाद 1992 में 6 दिसंबर को बाबरी इन चारों काव्य संग्रह की कविताओं से गुज़रते हुए नई सदी के
मस्जिद ढहा दी जाती है। देश में एक के बाद एक दंगे भड़क उठते विकास के साथ कवि के रचनात्मक विकास को भी महसूस किया
हैं। कई जगहों पर बम ब्लास्ट होते हैं। जिसमें सैकड़ों लोग मारे जा सकता है। जिसमें समकालीन हिंदी कविता की परंपरा और
जाते हैं। देश की आबोहवा सांप्रदायिक नफ़रत के ज़हर से भर दी परिवर्तन के मूर्त और अमूर्त साक्ष्य मौज़ूद हैं।
जाती है। भूंडलीकरण के बाद बाबरी मस्जिद का ढहा दिया जाना बसंत की कविताएँ अतिरिक्त भावुकता से परे गहरे रूप में
अनायास ही नहीं था। बल्कि यहीं से वैश्विक और राष्ट्रीय स्तर पर मानवीय व सामाजिक सरोकारों से जुड़कर आती हैं। ‘अपने-अपने
लूट की हिंसा से भरी एक नई वैश्विक राजनीति की शुरुआत होती दायरे, ‘एक शहर तुम्हारी यादों का’, ‘तुम्हारी आंखों में’, ‘सन्नाटे
है। ऐसे ही व्यापक बदलाव और हिंसात्मक राजनीति के दौर में का स्वेटर’, ‘तुम्हारे बिना’, ‘जिंदगी की एक उदास रात’, ‘बीसवी
अपने समय की चुनौतियों, विसंगतियों और अंतर्विरोधों से चिंतित सदी के अंतिम वर्षों में प्रेम’ आदि प्रमुख कविताएँ है। बसंत के यहाँ
कवि बसंत त्रिपाठी का रचनात्मक संघर्ष प्रारंभ होता है। वह प्रारंभ प्रेम वायवी नहीं बल्कि ज़मीनी है। जिसे ‘यादों के घने बादल-सी’
से ही वैश्विक चिंताओं के साथ हिंदी कविता में आते हैं। शीर्षक कविता की इन पंक्तियों से महसूस किया जा सकता -
बसंत त्रिपाठी के अब तक चार संग्रह आ चुके हैं। ‘मौज़ूदा ‘वह मेरे सपनों की दुनिया को
हालात को देखते हुए’ (1993), ‘सहसा कुछ नहीं होता’ ज़मीन से जोड़ती है
(2004), ‘उत्सव की समाप्ति के बाद’(2012), ‘नागरिक
समाज’ (2022)। इन संग्रहों की कविताएँ नब्बे के बाद नव उसके क़रीब होने के एहसास से
पूँजीवादी व्यवस्था ने जिस तेजी से सामुदायिकता, सामाजिकता मैं ज़िन्दगी में प्रवेश करता हूँ
और सहक़ारिता की भावना को नष्ट कर वस्तुजगत के साथ दुनिया के दुखों को पहचानता हूँ’1
मनुष्य के आंतरिक मनोजगत को प्रभावित किया है। मनुष्य और
समाज को खंडित कर जीवन की रागात्मकता को बाधित किया बसंत ने स्त्रियों पर केन्द्रित कई महत्वपूर्ण कविताएँ लिखी हैं,
है। नवपूँजीवाद अपने विकराल रूप में जीवन को अपने ढंग से जिनमें स्त्री के जीवन को प्रेम, संवेदना और अनुभूति के साथ

494 n जुलाई से सितंबर 2023 yegh


व्यक्त किया है। उनकी कई कविताओं में स्त्री की अस्मिता और घटनाओं के बीच गायब होते जीवन की गहरी पड़ताल और उसे
मुक्ति का स्वर आधुनिकता बोध के साथ प्रमुखता से उभरकर व्यापक संदर्भोंं में जोड़कर देखने की वैश्विक दृष्टि समाहित है।
आता है जिसमें उन समस्त सामाजिक रूढ़ियो, परंपराओं और गहरी चिंतनधर्मिता और तार्किकता के साथ अपने समय का संधान
व्यवस्था के प्रति गहरा असंतोष दिखाई देता है। जिसमें स्त्री को ही बसंत की कविताओं की सबसे बड़ी विशेषता है। जिसमें किसी
वस्तु से अधिक कुछ नहीं समझा गया। ‘काली लड़की’, ‘शब्दों भी प्रकार के अतिरेक का निषेध और भाषा, शिल्प एवं संरचना के
के बग़ैर’, ‘लाटरी टिकट बेचने वाली लड़की’, ‘मछली बाज़ार स्तर पर अतिरिक्त सजगता सहज ही देखने मिलती है। वे भाषा के
की लड़कियाँ’, ‘रनिवास में लड़कियाँ’, ‘देवदासी’ आदि कुछ बर्ताव के स्तर पर काफ़ी सचेत कवि हैं जो आक्रोश और आवेग
ऐसी ही महत्वपूर्ण कविताएँ हैं। जिसमें सदियों से सह रही स्त्रियों के क्षण में भी भाषा का संयम उस तरह नहीं खोते बल्कि भाषा
की दासता और दुर्दशा के इतिहास के साथ पुरुषवादी सामंती के प्रभाव को लेकर एक आंतरिक अनुशासन बनाये रखते हैं। इस
सामाजिक व्यवस्था का विरोध पूरी तल्खी के साथ मौज़ूद है। प्रकार वह कविता की संप्रेषणीयता और भाषा के महत्व दोनों का
जिसके मूल में स्त्री की स्वतंत्रता, समानता और अधिकार का स्वर संतुलन बनाये चलते हैं। ‘बचपन के शहर छूट जाने का अर्थ’
अंतर्निहित है। जिसे ‘रनिवास में लड़कियाँ’ शीर्षक कविता की इन शीर्षक कविता में इसी पीड़ा को व्यक्त करते हुए लिखते है-
पंक्तियों से अनुभव किया जा सकता है - ‘हम भुख़मरी और फ़ाके के संभावित ख़तरे से भयभीत हो
‘सुनो मनु, दीर्घतमा सुनो। छोड़ेंगे अपना शहर
शंकराचार्यों, पण्डे-पुरोहितों हम छोड़ेंगे अपना शहर
धर्मशास्त्र के पहेरुओं और संघियों, सुनो। क्योंकि रोजगार की सुरक्षा मिलेगी किसी दूसरे ठौर
जहाँ रनिवास था पहले अपनी पुरानी गेन्द उत्तराधिकारी तय किए बग़ैर
वहाँ अब खिलखिलाती हैं लड़कियाँ हम छोड़ देंगे अपना शहर’5
पढ़ती है राजनीति, अर्थ और कविताएँ जल, जंगल और ज़मीन हिंसात्मक लूट ने व्यापक रूप से
यहाँ वे करती हैं प्रेम निम्नवर्ग के साथ किसानों और आदिवासियों को विस्थापित करने
और आसमान देख उदास नहीं होती’2 का काम किया है। जिस विकास को हम वैश्विक विकास समझ
आज दुख और पीड़ा के समस्त दृश्य हमारे लिए इतने आम रहे है दरअसल में वह उपनिवेशिक संस्कृति का पयार्यवाची है
होते जा रहें कि हमारी संवेदना में उनके लिए जगह खत्म होती जा जिसमें किसान, आदिवासी और निम्नवर्ग का कोई विकास नहीं
रही है। या यूँ कहे कि असल में नई आर्थिक विकास की नीतियों होगा। विकास केवल उनका होगा जो धीरे-धीरे सब कुछ हड़पते
में मनुष्य और उसके दुख के लिए कोई जगह ही नहीं है। दृश्य के जा रहे हैं। वास्तकिता यह है कि वर्तमान विकास से मनुष्य को
भीतर छिपे अदृश्य को देखने की व्यापक दृष्टि उनके यहाँ मौज़ूद अलग कर दिया गया है। मध्यवर्ग अब एक बड़ा उपभोक्ता वर्ग में
है। मूक हँसी में दारुण व्यथा की मार्मिकता को केवल दृश्य की बदल चुका है और अधिकांश कवि मध्यवर्गीय दायरे तक सीमित
घनीभूत संवेदना में समेटकर कह जाते हैं। यह विशेषता उनकी हैं और इसलिए उनकी दृष्टि आदिवासियों या किसानों के विस्थापन
कई कविताओं में देखने को मिलती है। जहाँ समस्त संवेदना किसी और आत्महत्या या हत्याओं तक नहीं जाती। लेकिन बसंत के
खास दृश्य या बिम्ब में केन्द्रित होकर मन को द्रवित कर अपनी यहाँ यह प्राथमिक चिंता के रूप में देखने को मिलती है। किसान,
जगह बना लेती है। ‘जेल में एक औरत से मुलाक़ात’ शीर्षक आदिवासी और निम्नवर्ग के कई जीवंत, यथार्थ दृश्य बसंत की
कविता में लिखते हैं - कविताओं में मौज़ूद हैं। जो विस्थापन और विवशता की पीड़ा सहते
‘वह अपनी आँखों में हुए संघर्ष करते किसानों और आदिवासियों के प्रति गहरी संवेदना
समुद्र भरकर आती है और सम्मान के साथ नज़र आते है। जो कारपोरेट सांप्रदायिक
और हँसते हुए राजनीति व अंधराष्ट्रवाद के संकुचित दायरे के बरअक्स राष्ट्रवाद
बूँद-भर रोती है’3 को व्यापक अर्थ में परिभाषित करते हैं। ‘इस बार बारिश’ शीर्षक
गायब होते प्रश्न, गायब होते लोग, गायब होता लोकतंत्र, गायब कविता में वे लिखते हैं–
होता न्याय और गायब होता देश ही विकास का असल चेहरा ‘बधाई इस पृथ्वी के अपराजेय योद्धाओं,
है। इस असल चेहरे की शिनाख्त ही बसंत की कविताओं का मुझे सीमा पर डटी सैन्य टुकड़ियों से कहीं ज्यादा
वास्तविक संसार है। जिसमें सामान्य से लगने वाले अनुभवों व तुमसे प्यार है

yegh जुलाई से सितंबर 2023 n 495


तुम हो इसलिए पृथ्वी है में अंतर मिटता जा रहा है। ऐसे में लोकतंत्र का कोई अर्थ नहीं
जैसे जंगल सिर्फ़ इसलिए है रह गया है। आज जनता को मूर्ख बनाये रखने के लिए विकास
क्योंकि आदिवासियों की गर्म साँसें के झूठे आंकड़ों के साथ सिर्फ़ लोकतंत्र का ढोल बजाया जा रहा
उन्हें अब भी थपथपाती हैं।’6 है। लोकतंत्र की इस त्रासद स्थिति को बसंत ‘लोकतंत्र का धुआँ’
बसंत की चिंता में जीवन-जगत की वे समस्त ज़रूरी चीज़ें शीर्षक कविता में व्यक्त करते हुए लिखते हैं -
शामिल हैं, जो विकास की रफ्तार में खोते चले जा रहे हैं। वे ‘एक लोकतंत्र है
अच्छी तरह जानते हैं कि भाषा, संस्कृति और लोक का ध्वंस जो खाली टिन के डिब्बे में
वैश्वीकरण की मूल प्रवृित्त है। यही कारण है कि उनकी कविताएँ पड़े कंकड़ की तरह बजता है
वर्तमान समय की निरर्थकताओं का विश्लेषण करते हुए सार्थकता खड़ंग्....खड़ंग्...’9
की पहचान करती चलती हैं। वस्तुतः सभ्यता के विकास के साथ जिस तरह वर्तमान राजनीति, सभ्यता और प्रबंधन की प्रक्रिया
जिस अज्ञानता और बर्बरता को खत्म हो जाना चाहिए था वह और चल रही है। उसमें चीज़े अमूर्त, प्रतीक और संकेतों में बदलती जा
अधिक आक्रामकता के साथ बढ़ी है। देश में घट रही एक के बाद रही है। सभ्यता के द्वारा बहुत गहराई से किए जा रहे अमूर्तिकरण
एक दिल दहला देने वाली क्रूर, बर्बर और अमानवीय घटनाएँ के बरअक्स बसंत यथार्थ का मूर्त संसार रचते नज़र आते हैं।
उदारवादी नीतियों से उत्पन्न कारपोरेट सांप्रदायिक राजनीति का ही इसलिए वे सभ्यता के विकास की प्रक्रिया और उसके मनसूबों
परिणाम हैं। जिसे अपनी आंख से गर्व भरी मूर्खताओं की पट्टी उतारे के प्रति हर समय सचेत दिखाई देते हैं। वे मीडिया के आंकड़ों या
बग़ैर समझा नहीं जा सकता। इन समस्त भयावह स्थितियों के बीच राजनीतिक बयानबाजी में सभ्यता का विकास नहीं बल्कि लगातार
किसी भी संवेदनशील वैचारिक कवि का विकल होकर आक्रोश से देश में बढ़ रहे अन्याय, अपहरण, बलात्कार, हत्या, आत्महत्या,
भर जाना स्वाभाविक है। जो बसंत की ‘उनकायरों के नाम ख़त, अंधआस्था, अंधविश्वास, पाखंड, मानसिक बिमारियाँ और खोते
जो धर्म-रक्षा की ख़ातिर’ शीर्षक कविता में सांप्रदायिक राजनीति जा रहे स्वाद आदि के बीच देखते हैं। जिसे वे ‘इस सदी को’
के प्रति एक तीखा आक्रोश बहुत ही सशक्त और प्रभावशाली रूप शीर्षक कविता में अभिव्यक्त करते हुए लिखते हैं -
में अभिव्यक्त होता है– ‘केवल विकास दर के बढ़ते ग्राफ से नहीं
‘कायरों, अपहरण बलात्कार और आत्महत्याओं के तरीकों से भी
क्या तुम बता सकते हो यह सदी दर्ज़ हो रही है इतिहास में
कि किस ईश्वर के आख्यान में डूबकर इतिहास के अंत के भाष्यकारों से नहीं
अपनी नसों में भरते हो यह घृणा? इतिहास में शामिल होने
वैसे मेरा निजी अनुभव तो यही है और उसे बदल डालने की इच्छा से भी
कि ईश्वर का नया नागर संस्करण आप जान सकते हैं इस सदी को’11
एक ध्वजा है जो घृणा सिखाता है बसंत अपनी कविताओं में समय, समाज और जीवन से जुड़े
और हत्या के लिए उकसाता है’8 छोटे-छोटे प्रसंगों को व्यापक संदर्भों से जोड़कर देखने वाले कवि
इस हिंसक फासीवादी दौर में संवैधानिक मर्यादाएँ नष्ट होती जा हैं। वह मनुष्य के समक्ष मनुष्य की कोई अवधारणा रचने की
रही हैं। समूचे देश में हिन्दुत्ववादी मानसिकता को स्थापित करने जगह बिलकुल खुले तरीके से छोटे-छोटे संदर्भोंं को अनावृत करते
का व्यवस्थित व्यापक अभियान चल रहा है। आज़ादी के बाद के हुए समकालीन समय और मनुष्य के आंतरिक जगत में आ रहे
समस्त विकास को धुंधला किया जा रहा। एक ऐसा चमकदार बदलावों तक पहुँचने की कोशिश करते हैं। उनकी रचनात्मकता में
अँधेरा रचा जा रहा है कि जिसे जनता उजाला समझ रही है। वैचारिक जनपक्षता हर स्तर पर देखने को मिलती है। यही कारण
उनकी समस्त समस्याओं का समाधान हिन्दुत्व की रोशनी में है कि उनके यहाँ सहज, साधारण भाषा में विलक्षण बात कह
देखने के लिए बाध्य कर दिया जा रहा है। इस हिंसक राजनीति देने का कौशल देखने को मिलता है। यथार्थ को पूरी तरह अमूर्त
ने लोकतंत्र को ऐसे मोड़ पर ला खड़ा किया है। जहाँ न्यायालय, कर दिए जाने के इस जटिल समय में उनके बिम्ब विषयवस्तु
कानून और संविधान के स्थान पर हिंसक भीड़ ख़ुद फैसले ले रही को और अधिक मूर्त और ग्राह्य बनाते हैं। इस अर्थ में यह अमूर्त
है। चारों तरफ अन्याय, अत्याचार और असमानता से भरा नफ़रत और अमानवीय सभ्यता में मूर्तता और मानवीयता के पुनर्खोज
का वातावरण निर्मित हो गया है। जिसमें लोकतंत्र और तानाशाही की कविताएँ हैं। जिसमें अनुभव, समय और संवेदना की एक

496 n जुलाई से सितंबर 2023 yegh


अलग, अनूठी और बेजोड़ रचनात्मक अभिव्यक्ति दिखाई देती
है। कोरी भावुकता या बौद्धिकता की सहानुभूति से उपजी कविताएँ
नहीं हैं बल्कि गहरी संवेदना से उपजी और तार्किक ढंग से सवाल
उठाती कविताएँ हैं। जिसमें वैचारिकता के साथ कलात्मक सजगता
दिखाई देती है। वे किसी की परवाह किए बग़ैर रचनात्मक स्तर
पर जोख़िम उठाने वाले कवि हैं। इसलिए उनकी कविताओं में
भाषा, शिल्प और संरचना के स्तर पर प्रयोग भी दिखाई देते हैं।
यह अपने समय को सही आकार देने के लिए अपने औज़ार को
बदलने जैसा है। जो प्रभाव, प्रेरणा और अभिव्यक्ति के बीच नये
संधान के द्वंद्व से निर्मित होते हैं। समय के जटिल अंतविर्रोधों की
द्वंद्वात्मक अभिव्यक्ति बसंत की कविताओं को महत्वपूर्ण बनाती है।
क्योंकि नवपूंजीवादी दौर में द्वंद्वात्मकता नष्ट होने लगती है और
जीवन उत्पादक शक्तियों द्वारा नियंत्रित व संचालित होने लगता है।
उपभोग ही मुक्ति का सार्वभौमिक मूल्य बन जाता है। मनुष्य की
सारी इच्छाएँ-महात्वाकांक्षाएँ, क्रिया-प्रतिक्रिया और पहचान तक
मानसिक रूप से बाज़ार से जुड़ जाते हैं। बाज़ार चरम व्यक्तिवाद
को जन्म देता है। जो मनुष्य के भीतर से आत्मावलोकन,
आत्मालोचन और आत्मसंघर्ष की प्रक्रिया को खत्म कर देता है।
मनुष्य अपने समय, समाज से कटकर केवल स्वयं के सुख तक
सीमित होकर रह जाता है। और दूसरे केवल उपयोग के वस्तु
मात्र बनकर रह जाते हैं। बाज़ारवादी व्यवस्था इतनी गतिशील संप्रेषणीयता और काव्यात्मकता के प्रति बहुत ही सजग और सचेत
व्यवस्था है जहाँ कोई ठहराव नहीं, केवल नींद है। एक ऐसी यात्रा कवि हैं। उनके यहाँ नागर संवेदना एक नयी आधुनिकता और
जिसमें चाहक़र भी कहीं रुका नहीं जा सकता है। यह वैश्विक और समकालीनता के साथ उपस्थित होती है। वे कविता को ज़रिया
सामाजिक स्तर पर प्रतिस्पर्धा को बढ़ाता है। ईष्या जिसका अभिन्न नहीं बल्कि सोचने और अनुभव करने की मौलिक ज़मीन की तरह
अंग है। जिसके कारण मानवता तिरोहित होती चली जाती है। लेते हैं। यदि देखा जाये तो हर दिन की शुरुआत किसी न किसी
याँत्रिकता, कृत्रिमता, व्यक्तिवादिता और अंहक़ार आदि प्रवृत्तियाँ लूट, हत्या, अन्याय और शोषण की क्रूरता से भरा दिन होता है।
बढ़ती चली जाती है। इसलिए आज नागरिक होने का नहीं बल्कि जो हर रोज घटित हो रहा है, जिस पर किसी का ध्यान नहीं जाता
मनुष्य होने का संकट है। बाज़ारवादी व्यवस्था विज्ञान, तकनीक है। यह कविताएँ प्रतिदिन घटने वाली ऐसी घटनाओं के प्रति सचेत
और सूचना प्रौद्योगिकी के माध्यम से मनुष्य को नागरिक बोध से और सजग चेतना विकसित करती चलती हैं। बसंत की कविताएँ
वंचित कर केवल उपभोक्ता में रिड्यूस कर दिया है। ऐसे दौर में सभ्यता की आलोचना करते हुए वस्तु स्थिति के अंतःसूत्रों को पूरी
आत्मावलोकन, आत्मालोचन, आत्मद्वंद्व से भरी जिरह करती हुई संवेदना और सतर्कता के साथ अनावृत्त कर अर्थवान जीवन-
बसंत की कई कविताएँ देखने को मिलती है। बोध उपार्जित करती है। बसंत वस्तु-संबंधों को मानवीय संदर्भों में
बसंत की कविताएँ शहरी संदर्भ में नागरिक बोध की राजनीतिक बेहद सूक्ष्मता से पकड़ने और पूरी तार्किकता से काव्यात्मक सौंदर्य
चेतना के साथ सक्रिय होती है। मध्यवर्ग के नागर चेतना से संपन्न के साथ अभिव्यक्त करने वाले विरले कवि है। ‘एक नया दिन’
लोगों में व्यक्तिवाद अधिक होता है। ऐसे लोगों में सामाजिक शीर्षक कविता में वे लिखते हैं–
चेतना और राजनीतिक चेतना को बदलना कठिन काम है। बसंत ‘इस नये दिन में
इसी मध्यवर्गीय व्यक्तिवादी चेतना को जनचेतना में बदलने का हत्या या लूट की कोई संभावना नहीं
काव्यात्मक प्रयास करते हैं। ऐसी स्थिति में कविता में बौद्धिकता का लेकिन मैं जानता हूँ कि
ख़तरा बढ़ जाता है और समाज संवेदनात्मक सहारे और साहचर्य वह इस वक्त भी
से वंचित रह जाता है। बसंत इस मायने में बौद्धिकता, संवेदना, हो ही रही है।’12

yegh जुलाई से सितंबर 2023 n 497


वैश्वीकरण के इस दौर में वैश्विक दृष्टि के बग़ैर किसी भी ईरान की बात करो या सीरिया की
तरह के बदलाव और उसके प्रभाव को समझा नहीं जा सकता। साम्राज्य की बंदूकें
ध्रुवीकरण की राजनीति ने लोकल और ग्लोबल का अंतर मिटा तुम्हारा निशाना साधे हैं
दिया है। विश्व में हो रही घटनाओं के प्रति गहरी चिंता, पीड़ा, मिसाइलों की दिशाएँ तय हो चुकी हैं’13
दुख और वैश्विक यथार्थ बसंत की कविताओं में इसी रूप में आज मुनाफ़ा ही सर्वोपरि है। वैश्विक बाज़ार पर एकाधिकार ही
आते हैं। ‘बोसनिया के बारे में: एक बयान’, ‘बेरुत’, ‘इराक पर महाशक्तिशाली होना है। ऐसे में बाज़ारवादी व्यवस्था की इन तमाम
हमला’ आदि ऐसी ही कविताएँ हैं। जिसमें नवसाम्राज्यवाद के विसंगतियों और व्यक्तिवादी स्वार्थपरता से एक बेहतर दुनिया का
विस्तार की राजनीति और क्रूरता को समझा जा सकता हैं। जिसमें स्वप्न देखने वाला हिंदी का साहित्यिक जगत भी अछूता नहीं रह
मनुष्य, मानवीयता, प्रकृति और पर्यावरण की चिंता सिरे से गायब गया है। बाज़ार के गणित में असफल लेखक जहाँ अपने ग़ाैरव
है। महाशक्ति के रूप में साम्राज्यवादी शक्तियाँ अपने लाभ और के तमाम पंख सौंपकर युद्धबंदियों की तरह चुपचाप निवेशकों व
विस्तार के लिए हर प्राकृतिक संसाधन को लूट लेना चाहती है। प्रकाशकों का मुँह ताक़ते अपमान की गठरी ढोते नज़र आते हैं तो
चाहे इसके लिए किसी भी देश को युद्ध में झोंककर मृतदेश में वहीं प्रकाशक घाटे का रोना रोते हुए भी थोक में किताबें छापकर
ही क्यों न बदलना पड़े। नवसाम्राज्यवाद की वैश्विक हिंसात्मक सरकारी खरीद की महालीला में लाखों कमाते नज़र आ रहे हैं।
लूट की राजनीति को बसंत की ‘बेरुत’ जैसी महत्वपूर्ण कविता से ऐसे बाज़ारू समय में अब मुनाफे के आगे किसी के व्यक्तित्व का
बेहतर ढंग से समझा जा सकता है - कोई अर्थ नहीं रह गया है। बसंत जिसे ‘व्यक्तित्व’ शीर्षक कविता
‘बेरूत तुम अपनी बात करो या बसरा की व्यक्त करते हुए लिखते है-
कश्मीर की बात करो या फ़िलीस्तीन की ‘व्यक्तित्व अब एक हीनतर कला-मूल्य है
बाज़ार में यह तभी बिकता है
जब विवादास्पद हो
या बाज़ार की माँग के अनुरूप संघर्षशील’14
स्थिति यह कि हमारे समय के चिन्तक भी अब सुख-सुविधाओं
और पद-प्रतिष्ठा के मोह में इतने शातिर हो गये हैं कि कोई जोख़िम
नहीं उठाना नहीं चाहते। स्वार्थ समिधा में सिद्धांतों को होम कर
थोथे शब्दों के प्रभामंडल में नतमस्तक रचनाकारों को तथास्तु
कहते नज़र आते हैं। ‘चिन्तक’ शीर्षक कविता इसी विडंबना को
व्यक्त करती है-
‘आसान रास्तों पर चलते हुए
मक्कार उद्देश्यों को साध लेते हैं
हमारे समय के चमकते चिन्तक’15
अपने प्रिय कवियों पर कविता लिखना हिंदी कविता की परंपरा
रही है, जिसे आगे बढ़ाते हुए बसंत त्रिपाठी पाब्लो नेरूदा, गैब्रिएल
गार्सिया मार्केज, नाज़िम हिकमत, मीरा जैसे महत्वपूर्ण रचनाकारों
पर कविताएँ लिखते हैं। इन कविताओं में अपने कवियों के प्रति
जहाँ इनका अगाथ प्रेम दिखता है, वहीं उनके जीवन से जुड़े
अंतर्विरोधों को भी वे अनदेखा नहीं करते, बल्कि प्रश्न करते
दिखाई देते हैं। वे नाज़िम हिकमत से पूछते हैं -
‘क्या तुम्हारा दिल
प्रेम से इतना भरा हुआ था
कि हमेशा कम पड़ती रही एक स्त्री?
............................

498 n जुलाई से सितंबर 2023 yegh


संप्रेषणीय, वैचारिक और कलात्मक दृष्टि से समृद्ध बनाती है। वे
मैं तुम्हारी बीवियों की ओर से गहरी संवेदना, जीवन दृष्टि और कला बोध के साथ हिंदी कविता
पूछता हूँ एक अंतिम सवाल में प्रतिपक्ष का रचनात्मक संसार रचते हैं। n
प्रेम से तुम्हारा आशय संदर्भ सूची:-
कहीं अपने ही भीतर के प्रेम से तो नहीं था?’16 1. त्रिपाठी, बसंत. ‘सहसा कुछ नहीं होता. नयी दिल्ली: भारतीय ज्ञानपीठ.
इस तरह के ज़रूरी प्रश्न स्त्री के पक्ष में करते हुए वे उनके प्रथम संस्करण,2004, पृ. 59
जीवन और रचना कर्म को उनके अंतर्विरोधों के साथ देखने की 2. त्रिपाठी, बसंत. ‘सहसा कुछ नहीं होता. नयी दिल्ली: भारतीय ज्ञानपीठ.
कोशिश करते हैं, वहीं इन महान कवियों की परंपरा के साथ चलते प्रथम संस्करण 2004, पृ. 46
3. त्रिपाठी, बसंत. ‘सहसा कुछ नहीं होता. नयी दिल्ली: भारतीय ज्ञानपीठ.
हुए अपनी एक अलग मौलिक पहचान की तलाश भी करते हैं, जो प्रथम संस्करण 2004, पृ. 47
एक श्रमसाध्य और ख़ारिज कर दिए जाने के जोख़िम से भरा कार्य 4. त्रिपाठी, बसंत. नागरिक समाज. नयी दिल्ली: सेतु प्रकाशन. प्रथम
है। बावज़ूद इसके जोख़िम उठाने की रचनात्मक बेचैनी यहाँ देखी संस्करण 2022, पृ. 18.
जा सकती है - 5. त्रिपाठी, बसंत. ‘सहसा कुछ नहीं होता. नयी दिल्ली: भारतीय ज्ञानपीठ.
प्रथम संस्करण 2004, पृ.14
‘तुम्हीं बताओ 6. त्रिपाठी, बसंत. नागरिक समाज. नयी दिल्ली: सेतु प्रकाशन. प्रथम
कविता की उम्मीद में तड़पता हुआ मैं संस्करण 2022, पृ. 131
कैसे छूटूँ तुम्हारी इस्पाती गिरह से?’17 7. त्रिपाठी, बसंत. नागरिक समाज. नयी दिल्ली: सेतु प्रकाशन. प्रथम
इस नव उपनिवेशिक समय में जब कही भी आज़ादी बच नहीं संस्करण 2022, पृ. 67
8. त्रिपाठी, बसंत. नागरिक समाज. नयी दिल्ली: सेतु प्रकाशन. प्रथम
रही है। यह कविताएँ आज़ादी का स्वप्न रचती हैं। जब कहीं भी संस्करण 2022, पृ. 59.
कोई उम्मीद नज़र नहीं आ रही है। तब यह उम्मीद को बचाती 9. त्रिपाठी, बसंत. नागरिक समाज. नयी दिल्ली: सेतु प्रकाशन. प्रथम
दिखती है। बंजर होते जा रहे अन्तर्मन को कुरेदती हुई जीवन को संस्करण 2022,पृ. 51.
मानवीय चेतना और सतर्कता से उर्वर बनाती हैं। समकालीनता 10. त्रिपाठी, बसंत. नागरिक समाज. नयी दिल्ली: सेतु प्रकाशन. प्रथम
संस्करण 2022, पृ. 38.
को निरंतर अर्जित करती बसंत की कविताएँ इस समकालीन समय 11. त्रिपाठी, बसंत. नागरिक समाज. नयी दिल्ली: सेतु प्रकाशन. प्रथम
का आख्यान हैं। जो विकास और विनाश में फ़र्क करने की चेतना संस्करण 2022, पृ. 14.
विकसित करती है। दुनिया की अमानवीय उपलब्धियों पर शोकगीत 12. त्रिपाठी, बसंत. नागरिक समाज. नयी दिल्ली: सेतु प्रकाशन. प्रथम
लिखते हुए भी बसंत मनुष्य और मनुष्यता के प्रति गहरे विश्वास संस्करण 2022, पृ. 69.
13. त्रिपाठी, बसंत. नागरिक समाज. नयी दिल्ली: सेतु प्रकाशन. प्रथम
और आशा से भरे कवि हैं। वह बताते है कि तमाम विसंगतियों के संस्करण 2022, पृ. 25.
बावज़ूद अभी बहुत कुछ बचा हुआ है। जिस पर भरोसा किया जा 14. त्रिपाठी, बसंत. उत्सव की समाप्ति के बाद. दिल्ली: शिल्पायन
सकता है। अभी चेहरा इतना विकृत नहीं हुआ कि किसी से समय प्रकाशन,संस्करण 2012,पृ.61
भी न पूछा जा सके, किसी की कोई मदद तक न करे- 15. त्रिपाठी, बसंत. नागरिक समाज. नयी दिल्ली: सेतु प्रकाशन. प्रथम
संस्करण 2022, पृ. 103
‘आपके चेहरे में कुछ ऐसा ज़रूर है 16. त्रिपाठी, बसंत. नागरिक समाज. नयी दिल्ली: सेतु प्रकाशन. प्रथम
सहज और आत्मीय, संस्करण 2022, पृ. 108
कि भिखारी ने बिना डरे आपसे एक रूपये माँगा 17. त्रिपाठी, बसंत. नागरिक समाज. नयी दिल्ली: सेतु प्रकाशन. प्रथम
सड़क बनाते उन मजदूरों के एक साथी ने संस्करण 2022, पृ. 120
18. त्रिपाठी, बसंत. नागरिक समाज. नयी दिल्ली: सेतु प्रकाशन. प्रथम
इशारा कर दाहिनी ओर से निकल जाने को कहा था संस्करण 2022, पृ. 123
उसका आपसे कोई संबंध नहीं था सिवाय मनुष्यता के’18 संपर्क : सहायक प्राध्यापक,हिंदी
बसंत की कविताएँ रचनात्मक सौंदर्य के साथ सभ्यता के कल्याण स्नातकोत्तर महाविद्यालय,
अंतर्विरोधों को खोलती चलती हैं। उनकी जन-सम्पृक्ति और जन- िभलाई नगर (छ.ग.)
पक्षधरता ऐसे शिल्प को निर्मित करती है जो उनकी कविताओं को मो. 7389854923

yegh जुलाई से सितंबर 2023 n 499


n असीम : अरुण देव

कविता का भद्र विवेक


संतोष अर्श

हिंदी कविता की इक्कीसवीं सदी का परिप्रेक्ष्य बहुरंगी है। ' इसी प्रकार बार-बार इतिहास से ग़ायब हो जाने
है। इसमें कोलाहल है। सूचना तकनीक के संजाल का वाले पन्ने देश की व्यथा में डूबे शानदार पोलिश
उलझाव है। तात्कालिकता और शीघ्रता है। युवाओं कवियों ने कविता की निरर्थकता को स्वीकार कर
की भीड़ है। गुटबाज़ी है। शिथिलताएँ, सनसनी और लिया। कविता से समाज और दुनिया को बचाने का
प्रयोजनवाद है। इन सब के साथ प्रत्येक वय के कवि उनका रोमानी स्वप्न छिन्न-भिन्न हो चुका था। रचने
हैं, जिनके अनुभव और सत्य पीढ़ी के अनुरूप भिन्न की एक उदासीन इच्छा बची रही बस। जिसे हिंदी-
हैं। इनमें एक पीढ़ी ऐसी भी है जिसके पास साठोत्तरी कवि केदारनाथ सिंह ने भी स्वीकार किया- 'लिखने
कविता का संस्कार और अस्सी-नब्बे के दशक की कविता का से कुछ नहीं होगा, लेकिन मैं लिखना चाहता हूँ। '
संयत स्वर है। अरुण देव प्रभृति कवियों को उस विशिष्ट और भिन्न अरुण देव 'समालोचन' जैसी लोकप्रिय और पठनीय ई-पत्रिका
ख़ाने में रखा जा सकता है। के संपादक के रूप में इतने ख्यात हो गये हैं कि उनके कवि को
इक्कीसवीं सदी की हिंदी कविता का व्यापक परिक्षेत्र होते हुए इस अवतार ने पछाड़ दिया है। उनका पहला संग्रह 'क्या तो समय'
भी उसमें एक विशेष प्रकार की संकुचनशीलता बढ़ती गयी है। भारतीय ज्ञानपीठ से (2004) छप कर आया था। यह उनकी
विषयों की अधिकता और उनके चुनाव में बरती गई अविलंबितापूर्ण कविताओं की तरुणावस्था थी, जिस पर केदारनाथ सिंह का कहना
नादानी इस सदी की कविता में धुन्ध की तरह व्याप्त है। बढ़ती था कि, 'एक ख़ास बात यह है कि इन तरुण कविताओं में वयस्क
हुई गद्यात्मकता ने काव्य-चेष्टाओं को शुष्कता का पैरहन पहनाया कला की एक कसावट दिखायी पड़ती है।' पिछली सदी के अंत
है। भाषा के मध्यवर्गीय आग्रह ने सम्प्रेषण का परिसीमन किया है, और नई के प्रारम्भ तक जेएनयू से शिक्षा-प्राप्त करके निकले
इस तरह कि एक वर्ग-विशेष से आगे हिंदी कविता की व्यंजनाएँ अकादमिक जगत के कवियों पर केदारनाथ सिंह का प्रभाव स्पष्ट
उस चहारदीवारी को पार न कर पाएँ जिससे साहित्य का विस्तार दिखायी देता है। अरुण देव के शुरुआती दो संग्रहों में यह प्रभाव
संभव होता है। कमज़ोर कविता को लचर आलोचकीय तर्कों से बिना किसी ख़ास चश्मे के देखा जा सकता है। ख़ास बात यह है
बचाने की कोशिश और अज्ञानतापूर्ण आलोचना से अच्छी कविता कि अरुण देव ने उस लोक-संवेदना को जाने दिया जो पिछली
की उपेक्षा करने की साज़िश इन रचनात्मक विफलताओं को और सदी के अन्तिम दो दशकों की कविता में अपने उत्कर्ष पर थी
भी हास्यास्पद बना देती है। लिहाज़ा कविता का पिछली सदी में और आलोचकीय प्रभाव में भी उसने केंद्रीय स्थान हासिल किया
निर्मित किया गया भरोसा अब टूट रहा है। यदि कुछ शेष रह गया था। इस तरह अरुण देव नागर-संवेदना के कवि हैं। इस नागर-
है तो वह है रचनात्मक प्रतिबद्धता। यह भी सत्य है कि, केवल संवेदना में जो अतिविशिष्ट बात है वह यह कि उनकी कविताओं
रचनात्मक प्रतिबद्धता से भी इन काव्यात्मक विडंबनाओं से पार में एक विनीत अवबोध है जो एक बड़ी हानि के रूप में इस सदी
नहीं पाया जा सकता। कविता को कुछ तो करना ही चाहिए! चाहे की नागरता से छूट गया है। संयत-भाव, कृत्रिमता से दूर अनुभूति,
वह एक चिढ़ पैदा करे, मुँह बिराये, चिकोटी काटे, सहलाये या आडम्बर-रहित, सुव्यवस्थित भाषा और बिम्बों की कोमलता
चींटी की तरह काव्य-चेतस् मन की दीवार पर रेंग जाये। जर्मनी में उनकी कविता की संरचना है। सलीक़े और आराम से अपनी बात
आश्वित्ज़ होलोकॉस्ट की क्रूरताओं को देखकर दार्शनिक थियोडोर कहने का बाहरी शिल्प उनकी कविता में दूर से चमकता है। इन
अडोर्नो ने कह दिया था कि 'अब कविता लिखना एक बर्बर काम काव्य-प्रवृत्तियों के आधार पर उन्हें 'नागर-सज्जनता का कवि'

500 n जुलाई से सितंबर 2023 yegh


कहा जा सकता है। अपनी सुगन्ध की धुन में।
पहले संग्रह 'क्या तो समय' (2004) में प्रेम और जिज्ञासाओं (वह, 'क्या तो समय')
का मधुर और विश्रांत ढंग है, बेचैन नहीं। भाषा में बरती गयी 'क्या तो समय' की कविताओं का शैथिल्य धीरे-धीरे कम होता
मौलिक विश्रांति अरुण देव की कविताओं में हतप्रभ करने वाली गया है। प्रेम का जो रूप इन कविताओं में रचा गया है, वह परिपाटी
वस्तु है। कविता की लौ धीमी है और यह धीमी लौ उस समय का ही है। माँसलता की चाह की अकुण्ठ अभिव्यक्ति मिलती है।
के काव्य-मण्डल पर छाये केदारनाथ सिंह और कुँवर नारायण इक्कीसवीं सदी की अधिकतर अच्छी प्रेम कविताएँ प्रेम के विरुद्ध
जैसे कवियों की छाया ही की देन है। लोक की ओर कृत्रिम रुझान नज़र आती हैं। वह वस्तुतः असफल प्रेम की यंत्रणाओं और समय
केदारियन प्रभाव की पुष्टि करता है, परंतु लोक-तत्त्व कृत्रिम तो की नितान्त स्वार्थपरक चालबाज़ियों के कारण हैं। प्रेम भी अब
होते नहीं हैं, वे तो इतने सहज हैं कि वैसी अनुभूति से ही उन्हें कॅरियरिस्ट हो चुका है, भविष्य तो उसमें पहले भी देखा जाता
कविता तक लाया जा सकता है। इसका प्रमाण 'गझिन-रात' जैसे रहा है। उन्मुक्त देह-राग ने प्रेम के प्रति संशय और भी बढ़ाया है।
शब्द-प्रयोग से भी मिलता है। लोकाचार की सुगन्ध पैदा करने के कुछ प्रारंभिक ढीलेपन के बावज़ूद इस संग्रह में आकर्षित करता
लिए यह गझिन शब्द अब तक प्रयोग हो रहा है। ऐसा प्रतीत होता है भाषा का बर्ताव, मीठे और मंथर गति से फिसलने वाले गद्य की
है कि भाषा का लावण्य बचाने के स्थान पर यदि बिम्ब संधान गीतात्मकता और कविता रचने का वह सलीक़ा जो रचनात्मक
का लाघव बचाया जाता तो, अरुण देव का कवि और अधिक प्रतिबद्धता और ईमानदारी का पता देता है:
विस्तार पाता। जहाँ भी यह लाघव सफल हुआ है, वहाँ कविता जब तपते रेगिस्तान में जल रहा होगा हमारा कंठ
की सुरुचि देखते बनती है और उसकी आंतरिक संरचना सुगठित, तरबूज़ में मीठे जल की तरह बैठा होगा प्रेम।
सुव्यवस्थित होती है : 'कोई तो जगह हो' (2013) की कविताएँ कवि-वय के साथ
हलवाई की दुकान का कोयला गम्भीर होती गयी लगती हैं। प्रेम का स्वर यहाँ भी है। संवेदना
धधक कर हो जाता है लाल का वह विस्तार भी है जो पीछे की गयी कविताई से आगे बढ़ता
केतली का ढक्कन हड़बड़ा जाता है है। राष्ट्र, भाषा जैसे विषयों के अतिरिक्त अपने समय के अन्य
और चाय छोड़ती है साँस। मुद्दों को विषय बना कर लिखी गयी कविताएँ हैं। ढोल, कुर्सी,
(क़िताबों के बाहर दिन और रात, 'क्या तो समय') लालटेन, छल्ला जैसी वस्तुओं पर रची गयी कविताएँ भी हैं। इनमें
कविता में हलवाई की दुकान की गन्ध भर गयी है। यह अच्छी 'लालटेन' कविता अपनी पारदर्शी संरचना और बिम्बात्मकता से
कविता का शब्दास्वाद है। बिना गन्ध का उल्लेख किये गन्ध का बाँध कर रोक लेती है। लोक और नागर तत्त्वों से परे, प्रकाश के
सौंदर्यवादी पक्ष कविता में ख़ुशबू भरे नि:श्वास की तरह आता है। इस उपकरण पर रची गई कविता लालटेन की बोलती हुई तस्वीर
'बुद्ध' 'ग़ालिब' और 'ख़ुसरो' पर लिखी गयी कविताओं से अधिक बन जाती है। लालटेन अपने प्रारम्भिक दौर में नागर आभिजात्य का
सुगठित और अभिव्यंजनापूर्ण हैं वे आत्मपरक कविताएँ, जिनमें महत्त्व रखती थी। विद्युत के विस्तार के बाद यह लोक-बिम्ब में
कवि की उपस्थिति है। बड़े विषयों, व्यक्तियों पर कविताएँ लिखने ढलती गयी। कोई उपकरण सभ्यता के साथ जब लम्बी यात्रा करता
से अच्छा है कि उन पर कुछ बेहतर गद्य लिखा जाए। इससे कविता है तो वह स्मृति में एक रोमानी आकार ले लेता है। इस बात को
पर बोझ कम होता है। यह काव्यदोष वैसे तो इक्कीसवीं सदी की कवि ने कैसी साभ्यतिक-संवेदना के साथ समझा है। यह हैरानी
कविता का जबरन बना दिया जा रहा गुण है, लेकिन इससे मुक्ति की बात है कि लालटेन जैसी कविताएँ कवि ने कम क्यों रचीं?
भी मिलेगी। यह कोई विशेष बात नहीं कि यह कवि के हालिया “अभी भी वह बची है
संग्रह 'उत्तर पैग़म्बर' तक बना हुआ है, जो कि एक परिष्कृत और इसी धरती पर
परिपक्व काव्य-चेष्टाओं से रचित कविताओं वाला अलबम है। अँधेरे के पास विनम्र बैठी
'क्या तो समय' की संयत और प्रांजल भाषा से रची गयी कवि बतिया रही है धीरे-धीरे
की प्रारंभिक कविताओं में भी सुन्दर बिम्ब यत्र-तत्र दिख जाते हैं। संयम की आग में जैसे कोई युवा भिक्षुणी”
जिनमें रचना के उत्कर्ष को पाने के प्रयत्न देखे जा सकते हैं। एक 'लालटेन' कविता का कहना है कि अरुण देव के कवि को
यह बिम्ब दर्शनीय है: संभाषण, निबंधात्मकता और कथ्यपरक वर्णन से बचकर अपनी
पतली शाख का तनहा फूल काव्यात्मक ऊर्जा को बिम्ब के शिल्प में लगाना चाहिए था। बिम्बों
हँसता है से वे हतप्रभ करने वाली कविताएँ रच सकते हैं। बिम्बों से शेष बचा

yegh जुलाई से सितंबर 2023 n 501


हुआ कथ्य भी मोहक़ हो उठता है। निम्न पंक्तियों में यह सिद्धि कर ली थी। ख़लील कविता की निरर्थकता से तंग आ चुके थे।
देखते बनती है: अलगरज़ यह कि कवि का विकास उसके सोचने के तरीके और
“धुल-पुँछकर साफ़ होना होता है समय-समाज से उसके प्रभावित होने के क्रमों से उतना ही वाबस्ता
कि तन में मन भी चमके।” है, जितना कि भाषा और सौन्दर्य के साथ विचारों की परिपक्वता
(लालटेन) से। और इन सबसे बढ़ कर है संवेदना और आवेग।
'तन में मन चमके' कथ्य होते हुए भी बिम्ब को उभार देता है। 'उत्तर पैग़म्बर' (2020) संग्रह में अरुण देव का कवि जिस
जैसे देह में आत्मा (जो है नहीं) चमक उठे। जैसे पदार्थ में चेतना तरह इनवॉल्व हुआ है उसके पीछे उपरोक्त बातों का बल है। यहाँ
झिलमिला उठे। लालटेन पर इससे सुन्दर कविता कभी क्या लिखी कविताएँ तनिक लाउड होती हैं। जिस नागर-सज्जनता की बात
गयी होगी? इस संग्रह में भी कविताओं की विविधता के अनुरूप उनके पहले दो संग्रहों के संदर्भ में कही गयी है, उसका आभासी
चलता बाहरी शिल्प मिलता है। रचनात्मक प्रतिबद्धता भी, जो निम्न सच कुछ धुँधला पड़ता है। यथार्थ से अंततः टकराना ही पड़ता है।
उक्तियों से पुष्ट होता है: “अकेला हूँ पर अपने साथ हूँ।” यह तो अपक्षयी यथार्थ का समय है। महाकाव्य में माधव को रण
कवि प्रतिदिन विकसित होता है, घटनाओं और अनुभवों से छोड़ना पड़ा था और युधिष्ठिर को अर्द्धसत्य बोलना पड़ा था। यहाँ
मुतास्सिर हो कर। यह संभव नहीं कि एक सच्चे कवि की प्रत्येक सज्जन को आ कर कुछ तीख़ी बातें करनी पड़ती हैं। यह समय
नयी सुबह उसके लिए नवजीवन न हो। कवि को नया अवतार लेना का भी अन्तर है और कवि के वय का भी। परन्तु इस संग्रह में भी
पड़ता है। चन्दबरदाई हों या अमीर ख़ुसरो या कि अब्दुल रहीम भाषा की प्रांजलता और वह विनीत संबोधन शेष है जो अरुण देव
ख़ानख़ाना, उन्हें युद्ध भी देखने थे। घनानंद को आक्रमणकारियों से की कविताई का मूल भाव है। मुहम्मद रफ़ी जैसे प्रेम और विरह के
ज़र के बदले रज दे कर अपने हाथ कटवाने पड़े थे। कौन जानता अप्रतिम गुलूकारी स्वर की स्मृति में रची गयी कविता से संग्रह का
था कि 'प्रेम की पीर' के कवि का यह हश्र होगा? किसे पता था प्रारंभ होता है। प्रारम्भ से अधिक महत्त्वपूर्ण है, उत्तर-वर्त। संग्रह
कि तुर्की की नौसेना के डेक ऑफ़िसर नाज़िम हिकमत की तमाम की अन्तिम कविता 'मैं बीमार हूँ' की अन्तिम पंक्तियाँ किसी बात
ज़िंदगी कविता लिखने के ज़ुर्म में कारा में बीत जाएगी। लेबनान की घोषणा करती हों जैसे :
के एक महत्त्वपूर्ण कवि ख़लील हावी ने 1982 में इज़रायल के पर इधर रीढ़ झुकती जा रही है
लेबनान पर बर्बर और हिंसक आक्रमण से दुःखी हो कर आत्महत्या और तन कर खड़े रहने की हिम्मत छूटती जा रही है
अब तो किसी पर तमतमाता भी नहीं हूँ।
(मैं बीमार हूँ)
'उत्तर पैग़म्बर' की कविताई पर सामयिकता का प्रभाव है।
कविताओं में अपने समय को दर्ज़ करने की उकताहट भरी बेचैनी
है। कहीं-कहीं व्यंग्य भी है। जैसे वह ज़रूरी था। मध्यवर्गीय
विवशताओं की मंथर उद्विग्नता है। अपने जटिल समय में घट
रही घटनाओं की निशानदेही है। यद्यपि ऐसा लगता नहीं है कि
कवि यह करना चाहता है। जैसे यह कवि के लहजे की बात नहीं
है, लेकिन जब सामने सबकुछ हो रहा है तो उससे कैसे विमुख
हुआ जाय? यह विसंगति प्रत्येक समय के कवियों के समक्ष रही
है। जिस दुनिया और ज़माने में कवि का होना है, वह उससे
कहाँ तक भागेगा? इससे कौन सा कवि बचा है? सुजान और
जायसी के लिए लिखी गयी कविताएँ अपनी व्यंजना में प्रभावी
हैं, किन्तु निबंधात्मकता से ग्रस्त हैं। ऐसी कविताएँ उनके पिछले
संग्रहों में भी मिलती हैं। कविता में निबंधात्मकता का बोझ उसे
स्थूलता और इतिवृत्त की ओर धकेलता है। यदि किसी व्यक्तित्त्व
की प्रासंिगकता, उसके प्रति अपने प्रेम और उसकी असाधारणता
से अभिभूत हो कर उसके विषय में (काव्यात्मक ढंग से) बताना

502 n जुलाई से सितंबर 2023 yegh


है तो क्यों न उस पर निबंध विधा में ही लिखा जाये। उसके लिए श्रम की इज्जत करना सीखो।
कविता को कष्ट क्यों दिया जाये? जबकि निबन्ध जैसी एक गद्य- (उत्तर-पैग़म्बर)
विधा प्रचलन में है। 'सुजान' कविता में स्त्री के प्रति करुणा का उपदेशात्मकता और इतिवृत्त हिंदी कविता की प्रारम्भिक प्रवृत्ति
भाव है, वह अभिव्यंजित भी होता है, किन्तु कथात्मकता के भार से रही है। यह इतनी पुरानी पड़ चुकी है कि अब कविता के इतिहास
कविता शिथिल हो जाती है। सुजान की कहानी कोई दन्तकथा नहीं की बात हो चुकी है।
है। यदि दन्तकथा होती भी तो हिंदी कविता के पास ऐसे नियुक्त प्रकृति और कविता के प्राचीन और सहज संबंधों को देखते हुए
प्रतीक नहीं हैं कि वह कथात्मकता को बयान कर सके। जैसा कि यह कहा जा सकता है कि एक आधुनिक वैज्ञानिक अनुशासन होने
उर्दू कविता में देखते हैं। राधा-कृष्ण, शिव-पार्वती, राम-सीता व के बावज़ूद पर्यावरणवाद का प्रसार कविता से बढ़ कर कोई और
अन्य पौराणिक व औपनिषदिक पात्र हैं, जिनके स्थिर और प्रचलित शय नहीं कर सकती। अरुण देव की 'धरती' कविता पढ़ते हुए यह
प्रतीक बनाये जा सकते हैं। ऐसा भी नहीं है कि पुराकथाओं से सूक्ष्म यक़ीन और पुख़्ता होता है। जीवन के सभी ज़रूरी हिस्सों में प्रदूषण
कविता नहीं रची जा सकती। रची गयी है, उर्दू कविता में इसके की पैठ ने मनुष्य को भीतर तक आक्रांत कर दिया है। वह अपने
शानदार उदाहरण मिलते हैं। अतः व्यक्तित्वों पर लिखी गयी गद्य भय को अपनी मरणासन्न सभ्यता के व्यामोह में छिपाता रहता है।
कविताएँ स्थूलता और तथ्यात्मकता के भार से बोझिल होती हैं। कवि उस भय और तनाव को छिपाता नहीं है:
और अच्छी कविता तो सूक्ष्म ही होती है। “तुम्हारी साफ़-सफ़ाई से बहुत इकट्ठा हो गया है मल
भूमंडलीकृत समस्याओं और अन्य विषयों पर लिखी गयी इस तुम्हारी सभ्यता से गिरती गंदगी से ढक गई है पृथ्वी।”
संग्रह की कविताएँ अधिक प्रभावी हैं। उनमें भाषा का सौंदर्य और (धरती)
विचार की ऊष्मा भी मिलती है। उत्तर-आधुनिकता का प्रभाव भी काव्यात्मक पर्यावरणवाद अथवा हरित-काव्य की दृष्टि से
है। सामयिकता इतनी बुरी वस्तु नहीं है, जितना कि आधुनिकता से ‘धरती’ कविता का नवाँ, दसवाँ और ग्यारहवाँ प्रकरण अधिक
निर्मित और उत्तर-आधुनिकता से आक्रान्त अकादमिक आलोचक रचनात्मक और कविता में नवीन उद्भावना है-
उस पर विलाप करते हैं। यह घटनाओं और उनके क्रम को दर्ज़ “अगर नदी तुम्हें मोहित नहीं करती
करने में सफल होती है। उत्तर-पैग़म्बर की कविताओं पर उत्तर- तो तुम्हारी नाव तुम्हें कहीं नहीं ले जाएगी
आधुनिकता का प्रभाव स्पष्ट है। 'उत्तर' शब्द पोस्ट-मॉडर्निटी की
विशुद्ध प्रेरणा है। ख़ास बात है कि इतनी प्रभावी कालिकता से भी गर वृक्ष तुम्हें कृतज्ञता से नहीं भर देते
हिंदी का कवि पृष्ठभूमिहीन (Groundless) नहीं होता, जैसा तो तुम्हारे अंदर एक कुल्हाड़ी छुपी है
कि हम अस्मितावादी साहित्य में देखते हैं। स्त्री-विमर्श की कविताएँ
इसका बड़ा उदाहरण हैं, जो पृष्ठभूमिहीन होती हैं। मार्क्सवाद अब अगर तुम्हारे अंदर बचपन के खरगोश की निर्दोष आँखें
भी हिंदी साहित्य में अपना कमाल दिखाता है। उत्तर-आधुनिकता अब भी चमक रही हैं
के तूफ़ान में घिरी वैचारिक कश्ती के मल्लाह के रूप में मार्क्सवाद तो तुम बचे हुए हो
अब तक मोर्चा संभाले है। यानी कि इतनी आसानी से प्रतिबद्धता नहीं तो एक निरर्थक व्यवस्था के सिवा हो क्या तुम?”
की नैया नहीं डूबने देंगे। यदि हम संग्रह की चार प्रमुख कविताओं (वही)
'औज़ार और हथियार', 'उत्तर-पैग़म्बर', 'घर' और 'धरती' को लें, यह रोमानी भाव आकृष्ट तो करता है, परंतु पर्यावरण और
तो उनमें 'उत्तर-पैग़म्बर' कविता कुछ कमज़ोर लगती है। अपनी प्रकृति की ओर से साभ्यतिक अतिचार और पूँजी के अविवेकी
उपदेशक वैचारिकता के चलते, परन्तु पैग़म्बर का काम ही उपदेश चरित्र पर और अधिक हमलावर होने की आवश्यकता है। मनुष्य
(preaching) है। क्या ग़रज़ कि वह उत्तर-आधुनिक पैग़म्बर और प्रकृति के आदिम संबंधों को और अधिक काव्यात्मक दृष्टि से
है : खोलने की आवश्यकता है, जिसके लिए नए शिल्प और कथ्य की
क्या तुमने खरगोश को प्रार्थना में झुके देखा है दरकार है। प्रकृति की अवनयित परिस्थितियों को अभिव्यक्त करने
उसकी दौड़ ही प्रार्थना है। के लिए कविता को और अधिक गहराई में उतरना होगा। अतः
****** अरुण देव हरित कविता के क्षेत्र में सार्थक दखल तो निःसन्देह
उनके सद्गुणों से पहचानो देते हैं, किन्तु उस स्तर तक पहुँचते-पहुँचते रह जाते हैं, जो हम
उनके ज्ञान विवेक और सहृदयता का सम्मान करो केदारनाथ सिंह, एकांत श्रीवास्तव, विनोद कुमार शुक्ल, नरेश

yegh जुलाई से सितंबर 2023 n 503


देश की राजनीति और समाज की मौज़ूदा तुम चूहे की लेंडी खाओ
विद्रूपताओं को अपने इस संग्रह में अरुण देव ढोल बजाओ
ने साहस के साथ अभिव्यक्त किया है। यह बजाओ बे।”
अभिव्यक्ति का ख़तरा ही है कि उन्होंने अपनी (पुरस्कार का खेल)
काव्य-चेष्टाओं को भी ख़तरे में डाला है। उन्हें कोई ऐसी मज़बूरी नहीं सौंपी गई है कि वे इस चेहरे की
समय को अभिव्यक्त करने और संकट में पड़े कविताएँ लिखें। उन्हें अपनी उस नागर-सज्जनता को बरक़रार
जन-जीवन को बचाने के साथ कविता को भी रखना होगा, जिसे वे अपने प्रथम संग्रह से लेकर चले थे। यह
बचाए रखना कवि का दायित्त्व है। उसे कविता काल-जनित भटकाव ध्यानाकर्षण के लिए ठीक है, किन्तु यह
को भी बचाना होगा। फ़ासिस्टों ने हमेशा चाहा लहजा कवि की ज़ुबान ख़राब करता है। अपने समय की चिन्तित
कि कवि को न मारा जाय, कविता को ही मार करने वाले घटनाक्रमों पर भी वे उसी संयत स्वर में बात कह सकते
दिया जाय। हैं, जो उनकी पहचान है। जैसे कि ये पंक्तियाँ:
“सौंदर्य की भी अपनी एक ताक़त है
इधर सुंदर लोगों में हिंसा बहुत बड़ी है
सक्सेना प्रभृति कवियों व प्रतिनिधि आदिवासी कविता में देखते
ताक़तवर लोगों की सोहबत ने उन्हें क्रूर बना दिया
हैं। प्रकृति के विराट स्थापत्य और सभ्यताओं से उसके संघर्ष को
है।”
दार्शनिकता की पृष्ठभूमि में देखे बिना आंदोलनकारी हरित-कविता
(अपनी प्रिय एँकर के लिए)
का रचाव कठिन है। ज़ोर-ज़बर्दस्ती से प्रकृति आधारित काव्य
देश की राजनीति और समाज की मौज़ूदा विद्रूपताओं को अपने
गमले में उगाये बोनसाई की तरह सीमित, संकचित ु रह जाता है।
इस संग्रह में अरुण देव ने साहस के साथ अभिव्यक्त किया है।
इससे कवि की सृजनात्मक क्षमताएँ और कृत्रिम अनुभूति का संसार
यह अभिव्यक्ति का ख़तरा ही है कि उन्होंने अपनी काव्य-चेष्टाओं
उजागर हो जाता है। इस संदर्भ में ‘मिनरल वाटर’ जैसी कविता
को भी ख़तरे में डाला है। समय को अभिव्यक्त करने और संकट
अधिक आश्वस्त करती है, जिसमें ‘जल ने मोड़ दी है सभ्यताओं
में पड़े जन-जीवन को बचाने के साथ कविता को भी बचाए रखना
की धार’ जैसी उक्तियाँ जल-तत्त्व के ऐतिहासिक, अभिन्न दर्शन
कवि का दायित्त्व है। उसे कविता को भी बचाना होगा। फ़ासिस्टों ने
को रेखांकित करती हैं। पानी सभ्यताओं का विद्रोही है, उसे बाँधा
हमेशा चाहा कि कवि को न मारा जाय, कविता को ही मार दिया
नहीं जा सकता। इमाम हुसैन के कर्बला से लेकर अंबड े कर के
जाय। जब वे कविता को मारने में असफल रहे, तब उन्होंने कवियों
महाड़ आंदोलन तक ‘प्यास’ के इस विद्रोह को किंचित अधिक
को निशाना बनाया। ‘उत्तर-पैग़ंबर’ की उत्कृष्ट कविताओं से यह
कवि हो कर समझा जा सकता है। संतोष की बात, कवि में द्रष्टा
भी पता चलता है कि अरुण देव ‘घर’ जैसी कविताओं के कवि
का यह रूप उपस्थित है।
हैं, जहाँ घर बसाने के लिए कठफोड़वा काठ ले कर आता है। वे
‘उत्तर-पैग़ंम्बर’ संग्रह की एक अन्य विशेषता इसमें कवि की
‘पुरस्कार के खेल’ के गू खिलाने वाले कवि नहीं हैं। उन्हें विशेष
खिन्नता और उसका व्यंग्यात्मक रूप में प्रकट होना है। हिंदी
ध्यान रखना होगा कि ‘खल पात्रों के कु-समय’ में भी वे ‘कविता
के साहित्यिक इदारों की कुटिल और हास्यास्पद होने तक की
के देश’ के नागरिक हैं। भारतीय कर्मवाद की अमरता का पाथेय
क्षुद्रताओं को खोलने वाली एक कविता में कवि का यह रूप अच्छा
उनके पास है :
तो लगता है, लेकिन दारुण उत्पन्न करता है। अरुण देव ‘भाषा
“जहाँ हो वही बना लो स्वर्ग
में आदमी होने की तमीज़’ के कवि हैं। उन पर ऐसी कविताएँ
खिलो और फिर अपनी संततियों में खेलते रहो
बिलकुल नहीं फबतीं:
अपने कर्मों में महक़ते रहो
“मेरा नाम लेते रहना
यही अमरता है।” (उत्तर पैग़म्बर)
मेरी लीद को नवनीत कहना
भारतीय मनीषा के अनुसार कवि-कर्म अमर है। उत्तर-पैग़ंबर
और खा लेना साले
का भी यही संदेश है। n
नहीं तो क्या?
संपर्क :सहायक प्रोफेसर-हिंदी
मैंने तो गू तक खाया है डी.ए.वी. कालेज, बुलंदशहर (उ.प्र.)
हाथी का खाया है मो. 9919988123

504 n जुलाई से सितंबर 2023 yegh


n असीम : प्रभात

जीवन की पीड़ा का कवि


सुशील सुमन

जीवन को ठहरकर देखने वाले और उसी ठहराव के के मूल में है। संवेदना की इस पुरनम ज़मीन से ही
साथ काव्य-सृजन करने वाले प्रभात, समकालीन उस कविता का जन्म होता है जो एक सहृदय के
हिंदी कविता के सर्वाधिक महत्वपूर्ण कवियों में से भीतर सहजता से उतर जाती है और उसके अंतःकरण
एक हैं। विगत तीस वर्षों से कविता लिख रहे प्रभात का विस्तार करती है। प्रभात की कविताएँ हमारी उन
के अबतक केवल दो कविता संग्रह प्रकाशित हुए संवेदनाओं को फिर से जगाती हैं, जिन्हें स्वार्थ से
हैं। उनका पहला कविता-संग्रह ‘अपनों में नहीं रह संकुचित जीवन-दृष्टि ने तथा अपार लालच और
पाने का गीत’ सन २०१४ में और दूसरा ‘जीवन के पाखंड से आच्छादित हमारी जीवन-शैली ने सुषुप्त
दिन’ सन २०२० में प्रकाशित हुआ। इन दोनों कविता-संग्रहों की कर दिया है। उनकी कविताएँ इतनी सहजता और आत्मीयता के
कविताओं को पढ़ते हुए, ग्रामीण और कस्बाई जीवन की बहुत साथ आमजन के जीवन को हमारे सामने प्रस्तुत करती हैं कि
यथार्थपरक और वस्तुनिष्ठ तस्वीर देखने को मिलती है। गाँवों- उनको पढ़ते हुए पाठक बहुत स्वाभाविक रूप से उस जीवन से जुड़
क़स्बों में रहने वाले साधारण लोगों के जीवन से जैसा संवेदनशील जाता है। उनकी कविताओं को पढ़ते हुए यह आभास होता है कि
लगाव और उस जीवन के उज्ज्वल-धूसर हर तरह के रंगों को बतौर कवि उनके भीतर किसी प्रकार की विशेष महत्त्वाकांक्षा नहीं
कविता में अभिव्यक्त करने की जैसी क्षमता प्रभात के पास है, वैसी है। प्रभात के आस-पास लोग-बाग़ जैसे हैं, जिन हालात में हैं, जिन
क्षमता आज के बहुत कम कवियों में दिखाई देती है। प्रभात अपनी अच्छाइयों-बुराइयों से घिरे हैं, वे उनको उसी रूप में दर्ज़ करने की
कविताओं में अपने काव्य-विषय की अभिव्यक्ति के लिए किसी कोशिश करते हैं। और प्रभात के यहाँ ये चीज़़ें संभव होती हैं, उनकी
तरह की अतिरिक्त कोशिश करते हुए नहीं दिखाई देते। प्रभात को गहरी एम्पथी से। उनके भीतर साधारण लोगों से जुड़ने और उनके
पढ़ते हुए इस बात को आसानी से महसूस किया जा सकता है कि सुख- दुःख को महसूस करने की अद्भुत क्षमता है। प्रभात को पढ़ते
कवि जिन लोगों के जीवन को अपनी कविताओं में दर्ज़ कर रहा है, हुए वॉल्ट विट््टमैन की एक मशहूर काव्य पंक्ति की याद आती है
उनके जीवन से वह ख़ुद गहराई के साथ जुड़ा हुआ है। कवि उस “I do not ask the wounded person how he feels,
जन जीवन से दूर रहक़र नहीं, बल्कि उनके बीच रहकर कविता I myself become the wounded person.”
लिख रहा है। यही कारण है कि उनकी ख़ुशियाँ, उसकी अपनी सच्ची कविता लिखने के लिए यह एक अनिवार्य शर्त है। जब
ख़ुशी बन जाती है। उनकी पीड़ा, उसकी अपनी पीड़ा बन जाती तक किसी कवि में इस स्तर की Empathy नहीं होगी, तब
है। इस संदर्भ में प्रभात की एक छोटी सी कविता ‘लोग’ देखी जा तक इस जीवन-जगत के सुख-दुःख या राग-विराग को कविता
सकती है- में ठीक ढंग से उतारना संभव नहीं होगा। यह न केवल पीड़ा की
मुझे तपा देता है लोगों का ख़याल अभिव्यक्ति के मामले में सही है, बल्कि सौंदर्य या प्रेम किसी
मुझे चढ़ने लगती है जुरान भी विषय पर लिखी गई कविता में यह गहरी अनुभूति और उस
मुझे तरावट से भर देता है लोगों का ख़याल अनुभूति को व्यक्त कर पाने की कवि की क्षमता ही एक सार्थक
मेरे निकल आते हैं पंख और सफल कविता को जन्म देती है। बहुत सारी कविताओं को
छूने लगता हूँ आसमान पढ़ते हुए जब एक सहृदय यह महसूस करता है कि कविता उसे
यह काव्य-संवेदना प्रभात की तमाम कविताओं की निर्मिति नहीं छू रही है, तो अनुभूति की विपन्नता उसका एक बड़ा कारण

yegh जुलाई से सितंबर 2023 n 505


होती है। काव्यविषय से गहरी सम्पृक्तता के बिना, जब कविता पहले से ही बाँट रखा था, लेकिन नब्बे के बाद इसमें भयावह
लिखने की कोशिश की जाती है, वहाँ ऐसी समस्या आमतौर तेज़ी आई और इसके भीषण दुष्परिणाम आने शुरू हुए। सामाजिक
पर दिखाई देती है। कविता लिखने के लिए ज़रूरी संवेदना और समरसता, सांप्रदायिक ज़हर के सामने दम तोड़ने लगी। दलित,
सलाहियत के अभाव के बावज़ूद, ढेर सारी कविताएँ लिखी जाती स्त्री और आदिवासी अस्मिताओं का वैचारिक धरातल पर उभार
रही हैं। काव्य-कला पर यह अत्याचार हर युग में होता रहा है। तो हुआ, अच्छी बात यह हुई कि प्रतिरोध के स्वर उभरने शुरू
हमारा समय भी कोई अपवाद नहीं है। आज की हिंदी कविता में भी हुए, लेकिन ज़मीनी स्तर पर स्त्रियों, दलितों या आदिवासियों के
कुछ चुनिंदा कवि ही हैं, जिनकी कविताओं को पढ़ते हुए हम एक शोषण में अबतक कोई विशेष कमी नहीं आ सकी है। इसकी प्रमुख
सच्ची कविता को पढ़ने के सुख को महसूस कर पाते हैं। निश्चित वज़ह यह है कि तंत्र में हर जगह इनको कमतर मानने वाले और
तौर पर प्रभात उनमें से एक हैं। इनका दमन करने वाले बैठे हुए हैं। मुख्यधारा की राजनीति में
किसी भी कवि की कविताओं को समझने में सहूलियत तब अपराधियों का बोलबाला बढ़ता गया। जल्दी ही यह इतना बढ़ा कि
होती है, जब हम उस समय को निगाह में रखते हैं, जब वे कविताएँ लगभग हर नेता या तो स्वयं अपराधी या अपराधी का संरक्षक नज़र
लिखी गयीं। यदि प्रभात के अब तक प्रकाशित दोनों कविता संग्रहों आने लगा। उपभोक्तावाद ने नागरिकताबोध को समाप्त कर दिया,
की बात करें तो हम देखते हैं कि उनमें सन १९९४ से लेकर जिसके कारण आमजन के लिए इन राजनीतिज्ञों का प्रतिवाद करना
२०१८ तक की कविताएँ हैं। बीसवीं शताब्दी का आख़िरी दशक संभव नहीं रह गया। वे या तो छोटे-मोटे लोभ-लाभ के लिए इनके
और इक्कीसवीं शताब्दी के बीते दो दशक बहुत तीव्र और व्यापक पीछे लग गये, या चुप लगा गये। प्रभात के कवि का विकास इसी
बदलाव के दशक रहे हैं। ये बहुचर्चित और बहुप्रकाशित बातें हैं, बदलते हुए भारत को देखते-समझते हुआ। प्रभात की कविताओं
फिर भी उनका ज़िक्र नब्बे के बाद के रचना समय को समझने के से गुज़रते हुए इस बात का बख़ूबी पता चलता है कि इस कवि ने
लिए आवश्यक है कि विगत तीन दशकों में भारत किन बदलावों से इन बदलावों और उसके दुष्परिणामों को केवल वैचारिक किताबों
गुज़रा है और भारतीय जन जीवन पर उसका क्या प्रभाव पड़ा है? या बहसों के माध्यम से नहीं जाना है, बल्कि आम जन की ज़िंदगी
संक्षेप में यदि हम इस कालखंड को देखें तो पाते हैं कि सन १९९० की तल्ख़ सचाइयों को क़रीब से महसूस किया है। सामाजिक-
के बाद भारत में राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक सांस्कृतिक बदलावों को समझने में और उनका विश्लेषण करने
मोर्चे पर बहुत तेज़ी से परिवर्तन हुए। इन बदलावों का लोगों के में वैचारिक बहसों और लेखों की निश्चित तौर पर महती भूमिका
जीवन पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ा। पूँजीवाद का वर्चस्व बढ़ने के होती है, किंतु मानव हृदय को उद्वेलित करने के लिए, संकचित ु
साथ, बाज़ार का प्रवेश लोगों के जीवन में अनावश्यक और बहुत होते अंतःकरण को विस्तृत करने के लिए, स्वार्थ के कारण अनुदार
तेज़ी से होने लगा। नागरिक केवल उपभोक्ता में तब्दील होता हो चुके मनुष्य को पुनः उदार बनाने के लिए, कविता से बेहतर
चला गया। अमीरी और ग़रीबी की खाई और तेज़ी से बढ़ने लगी। भूमिका का निर्वाह, अन्य कोई दूसरा अनुशासन नहीं कर सकता।
साधारण जन की आय तो नहीं बढ़ी, लेकिन बाज़ार के बढ़ते प्रभाव प्रभात की कविताएँ इस कठिन और आवश्यक काम को करने में
के कारण उनका खर्च बढ़ता चला गया। खाद-बीज-सिंचाई इन बख़ूबी सक्षम हैं और इस विपरीत समय में प्रभात बतौर कवि अपनी
सब पर महँगाई की मार पड़ी। ख़ासकर छोटे किसानों का जीवन भूमिका का ख़ूबतरीन निर्वाह कर रहे हैं।
बेहद मुश्किल होता चला गया और किसानी के भरोसे घर-परिवार भारत के सामाजिक सद्भाव को सांप्रदायिक विद्वेष के कारण
चलाना संभव नहीं रह गया। परिणामस्वरूप विस्थापन तेज़ी से अपूरणीय क्षति पहुँची है। कहने की ज़रूरत नहीं कि वोट बैंक की
बढ़ा। किसानों के लड़के-लड़कियाँ अपना घर-बार छोड़कर, राजनीति के लिए धर्म और संस्कृति के नाम पर सांप्रदायिकता की
छोटे-बड़े कॉरपोरेट घरानों में जाकर मज़दूरी करने के लिए मजबूर खेती की जा रही है। न केवल आज, बल्कि पहले भी फिरकापरस्तों
हुए। गाँव और किसान इस नए दौर में भीतर से बेहद खोखले ने सांप्रदायिक सद्भाव को बिगाड़ने के लिए इन्हीं हथकंडों का
होते गए। किसानी और छोटे-मोटे ग्रामीण-कस्बाई व्यवसायों का सहारा लिया है। बीसवीं सदी के आख़िर में इस कार्य में पूँजी और
तेज़ी से ह्रास हुआ और बेरोज़गारी बढ़ती चली गई। हर तरह के सत्ता से जुड़ी शक्तियाँ तेज़ी से लग गयीं। आमजन के दिल-दिमाग़
उद्यम और व्यवसाय पर बड़े पूँजीपतियों का क़ब्ज़ा बढ़ता चला में धर्म और जाति के नामपर भेदभाव करने का ज़हर इतना बोया
गया। तात्पर्य यह कि जनसाधारण के लिहाज़ से ये बदलाव बहुत गया कि कब साधारण लोग हिंसक हत्यारे बन गए, उन्हें पता नहीं
दुर्भाग्यपूर्ण साबित हुए। चला। प्रभात की एक कविता है- ‘सुंदर कांड’। सुंदर कांड के नाम
सांप्रदायिक और जातिकेंद्रित राजनीति ने भारतीय समाज को पर लोगों को और पैसों को जुटाकर, असुंदर कांडों को अंजाम देने

506 n जुलाई से सितंबर 2023 yegh


की कार्यवाही निरंतर जारी है। प्रभात की यह कविता इस बात को क्यों उजड़ गए गाँव से दो घर
दर्ज़ करती है- किसी ने नहीं पूछा किसी से
लोग धर्म के नाम पर चंदा माँगने आते हैं प्रभात के यहाँ ग्रामीण जीवन के सारे स्याह- मटमैले रंग गहन
हमारे चंदे से एक चाकू ख़रीदा जाता है संवेदना और यथार्थपरक दृष्टि के साथ प्रकट होते हैं। उनके यहाँ
ईदगाह कॉलोनी का नाम बदलकर गाँव केंद्रित कविताएँ काफ़ी हैं, लेकिन ये कविताएँ ऐसे शहरी
जनकपुरी रख दिया जाता है कवियों की ग्राम्य कविताओं की तरह नहीं हैं, जिनसे अस्ल में गाँव
एक इलाके में इसकी ख़ामोश प्रतिक्रिया होती है छूट चुका है। ग्रामीण जीवन की ज्यादातर समस्याओं से जिनका
शाम में शहर में धारा एक सौ चौवालीस लगती है संबंध नहीं है। खेतिहर लोगों की मौज़ूदा स्थिति से वे वाक़िफ़ नहीं
सांप्रदायिक विद्वेष के कारण भीतर-भीतर समाज किस कदर हैं। बस एक स्मृति मोह में और सुनी-सुनाई बातों के आधार पर वे
टूट रहा है, इसकी झलक ‘जनकपुरी’ या ‘ क्रिकेट और साइकिल’ ग्रामीण जीवन की कविताएँ लिखे जा रहे हैं। लोक जीवन साहित्य
जैसी प्रभात की अन्य कविताओं में भी देखने को मिलती है। हमारे में एक ऐसा ज़ॉनर हो गया है, जहाँ कुछ लोक से जुड़ी रूमानी
समाज की एक बड़ी समस्या यह है कि यहाँ हत्यारों को भी आसानी क़िस्म की बातें लिखकर हर साहित्यकार लोक से जुड़ाव का प्रमाण
से स्वीकृति मिल जाती है। कोई कितना भी जघन्य अपराध कर देने के लिए व्यग्रदिखाई देता है। किंतु आज जो गाँव की स्थिति
दे, लेकिन घर-परिवार, गाँव-समाज में उसकी स्वीकृति बनी रहती है, उसकी हक़़ीक़त को बयान करने के लिए रूमानी और भावुक
है। अपराधियों का मनोबल बढ़ाने वाली और उनके अपराधों को प्रलाप की नहीं, बल्कि ग्रामीण जन जीवन की संवेदनशील और
वैधता प्रदान करने वाली समाज की इस मानसिकता को प्रभात ने वस्तुनिष्ठ समझ की ज़रूरत है। प्रभात के पास इस जन जीवन
‘समाज’ शीर्षक कविता में बहुत ठीक से अभिव्यक्त किया है- की बहुत ठोस समझ है और उसके प्रति अपूर्व आत्मीय लगाव भी।
साल भर पहले ही जिसने हत्या की है यहाँ यह स्पष्ट करना ज़रूरी है कि गाँव पर कविता लिखने के लिए
अभी वह दूसरी क्षुद्रताओं में लिप्त है निरंतर गाँव में रहना ज़रूरी नहीं है या किसान पर कविता लिखने
समाज में उसके उठने-बैठने की जगह के लिए स्वयं खेती करना कोई आवश्यक शर्त नहीं है, लेकिन गाँव
सीमित नहीं हुई है और किसानी से आत्मीय और संवेदनशील जुड़ाव निश्चित रूप
से आवश्यक है। भारतीय ग्रामीण जीवन में आ रहे बदलावों की
औरतों में वह अभी भी झलक, प्रभात की एक शुरुआती कविता में ही देखने को मिलती
उनका देवर है है। 1994 की लिखी उनकी एक कविता, जिसका शीर्षक ‘अब
जेठ है इधर’ है, में वे इन तब्दीलियों का ज़िक्र करते हैं। यह कविता
पुरुषों में वह अभी भी गाँव से समाप्त हो गए छोटे-छोटे कारीगरों और छोटी-छोटी घरेलू
उनका भाई है ज़रूरतों की चीज़ों को बेचने वाले लोगों के ख़त्म होने की कथा
भतीजा है कहती है। बाज़ारवादी व्यवस्था ने कैसे ग्रामीण अर्थव्यवस्था को
लोगों की इस तरह की मानसिकता हो गई है कि बहुत विचलित तहस-नहस किया और उससे पैदा हुई बेरोज़गारी के कारण किस
करने वाली घटनाएँ भी उनपर कोई विशेष असर नहीं डाल पातीं। तरह की भयावह समस्याएँ पैदा हो रही हैं, उन्हें इस कविता की इन
किसी की हत्या से या किसी का घर उजड़ जाने से, किसी की बस्ती पंक्तियों में प्रभात इस रूप में दर्ज़ करते हैं-
जलाये जाने से भी, इस समाज का अधिकांश अप्रभावित रहता है। अब इधर बासन नहीं मिलते
प्रभात के यहाँ इस बात की बहुत मार्मिक पीड़ा दिखाई देती है। इस लुहारों की गाड़ियाँ नहीं आतीं अब इधर
संदर्भ में उनकी कविता -‘दो घरों का उजड़ना’ को देख सकते हैं- नहीं आते अब इधर
एक घर प्रेम ने उजाड़ दिया लाख के चूड़ों का संदूक सिर पर धरे
एक घर ग़रीबी ने टेरते चुड़िहार
जैसे नहीं रही अब इस धरती पर
इस बात से नहीं हुआ मैं उन्हें हाथ के झाले से बुलाती
इतना निराश इतना उदास सुआपंख़िनी नार
जितना इस बात से ……………

yegh जुलाई से सितंबर 2023 n 507


बेरोज़गारी और मुफ़लिसी से खदानें हो गईं खोखली भुतहा
राँय का बाँय हो रहा है पुरुष-स्त्रियाँ कहीं दिल्ली परदेशों में हैं
जन इधर वृद्ध सड़कों पर मिट्टी की तगारियाँ ढो रहे हैं
चोरी चुकारी मारपीट छीनाझपटी डकैती लड़कियाँ पहुँचाई जा रही हैं मंडियों में
बढ़ गई अब इधर बच्चे प्लेटफ़ॉर्मों पर भीख माँग रहे हैं
भूमंडलीकरण और बाज़ारवाद के बढ़ते प्रभाव के साथ जब पैर छू-छू कर
पूँजीवादी शक्तियों का वर्चस्व बढ़ता गया, तब किसानों-मज़दूरों प्रभात को गाँव से बहुत प्रेम है, लेकिन वे केवल गाँव से अपने
के जीवन में कैसी मुश्किलें पैदा हुईं, ग्रामीण जीवन किस तरह लगाव को ही व्यक्त नहीं करते, बल्कि गाँवों में तमाम तरह के
बिखरता चला गया, उसकी मार्मिक तस्वीर इस कविता के माध्यम बदलावों से उपजे स्याह यथार्थ को कहने से भी नहीं चूकते।
से देखने को मिलती है। किसानों की ज़मीनें सड़कें बनाने के लिए ‘याद’ शीर्षक कविता में वे लिखते हैं कि ‘जिन्हें गाँव की याद नहीं
या अन्य विविध तरह के सरकारी या कॉरपोरेट उपक्रमों के लिए आती, उन्हें गाँव की जगह किसकी याद आती है’, वहीं ‘क़िले’
जबरन ले ली जाती हैं और बदले में उन्हें मुआवज़े का झुनझुना शीर्षक कविता में वे खोखले होते गाँव और उसके बाशिंदों के बारे
पकड़ा दिया जाता है। कई बार यह मुआवज़ा काग़ज़ पर ही रह में लिखते हैं-
जाता है। मुआवज़ा यदि मिलता भी है तो मुआवज़े के सहारे पूरी पहाड़ों के ढहे हुए क़िलों की तरह हैं मेरे गाँव के लोग
ज़िंदगी जीना मुमकिन नहीं है, लेकिन सरकारें यदि किसानों की उनमें कोई नहीं रहता
समस्याओं पर ध्यान दें और उनके हितों को ध्यान में रखकर सिवा कुछ हिंस्र पक्षियों और जानवरों के
कृषि संबंधी नीतियाँ बनायें तो वे अपनी ज़मीन के सहारे एक न कोई स्त्री
सम्मानजनक ज़िंदगी ज़रूर जी सकते हैं। जबरन ज़मीन अधिग्रहण न ही बच्चा कोई
और मुआवज़े के इस राजनीतिज्ञों और पूँजीपतियों के इस खेल न ख़ुद वे ही
पर केंद्रित प्रभात की एक कविता है ‘मुआवज़ा’, जिसमें वे इसकी
हक़़ीक़त बयान करते हैं- उनके भीतर जाकर बोलो तो
वे आए हैं इस बार वे हर आवाज़ को
अपनी नई परियोजना लेकर वापस लौटा देते हैं भयावह गूँज के साथ
लेकर आए हैं पूरा लाव-लश्कर प्रभात के यहाँ प्रकृति पर केंद्रित जो कविताएँ हैं, उनकी रंगत
बुलडोजर, क्रेन, पुलिस, आंसू गैस, रिवाल्वर भी एकदम अलहदा है। प्रकृति में पसरी उदासी को प्रभात उसी
संवेदना से दर्ज़ करते हैं, जिस तरह से मनुष्य के जीवन में फैली
हमें मुआवज़ा दिलाने का भरोसा दिलाने के लिए उदासी को। उनकी ‘नदी’ शीर्षक कविता को पढ़ते हुए महसूस
लाए हैं हमारे जन-प्रतिनिधि को होता है, जैसे यह नदी के साथ-साथ स्त्री की कथा भी कह रही हो।
लालबत्ती गाड़ी में बिठाकर इस कविता को पढ़ते हुए देश की अनगिनत नदियों की दुर्दशा का
गाँव और किसानी से ही जुड़ा एक महत्वपूर्ण विषय है- चित्र सामने आ जाता है-
विस्थापन। गाँव की स्थिति को यदि इतना बिगाड़ा न गया होता तो सुना तू सूख गई है
गाँव से लोग अपना घर-बार, खेत-खलिहान छोड़कर पेट भरने के साँवली काली पड़ गई है तेरी काया
लिए यों दर-दर भटकने को विवश न हुए होते। विस्थापन कभी संसार की सबसे उदास नींद सो गई है तू
भी स्वाभाविक नहीं होता, कोई न कोई शक्ति अपने लोभ-लाभ के चाँद के झरने के नीचे
लिए जनता को विस्थापित होने पर मजबूर करती है। प्रभात ‘वे
आए’ शीर्षक कविता में इस व्यवस्था की तरफ़ इशारा करते हुए इस तरह की एक और कविता है- ‘आतप में पेड़’-
कहते हैं-
देखते- ही- देखते यह सब घट गया साधारण पेड़ हैं ये
हमारे गाय बैल भैंस जाने कहाँ हुए सूखते हुए जीते हुए
खेत हो गए ऊसर मेरे इलाके के ग़रीब हैं ये

508 n जुलाई से सितंबर 2023 yegh


जीवन के प्रेम में पड़े हुए स्थिति को बयान करती है, जिसकी कहीं भी, किसी से भी शादी
इस कविता में पेड़ भारत के साधारण जन का रूपक बनकर करके घरवाले मुँह मोड़ लेते हैं। वह अपनी पीड़ा यदि व्यक्त भी
रूप आता है। सूखते हुए पेड़ों में जिस तरह से प्रभात ने इस देश के करती है तो वे उसे चुप रहने की और नियति मानकर झेलते रहने
ग़रीबों की छवि देखी है, वह उनकी अद्वितीय संवेदनशीलता और की हिदायत देते हैं। प्रभात के यहाँ स्त्री केंद्रित ऐसी कई कविताएँ
अनूठी कवि-दृष्टि का परिचय देने के लिए पर्याप्त है। हैं, जिन्हें पढ़ते हुए शिद्दत से इस बात का एहसास होता है कि ऐसी
साहित्य की जवाबदेही जन की पीड़ा को अभिव्यक्ति देने के कविताएँ स्त्री-मन के बग़ैर लिखना संभव नहीं है। स्त्री जीवन के
साथ-साथ, प्रतिरोध की प्रेरणा देने की भी है। प्रभात की एक दुःख को दर्ज़ करने वाली एक और महत्त्वपूर्ण कविता है ‘सफ़र’।
कविता का शीर्षक ही है- ‘प्रतिरोध’। इस कविता में वे साधारण इस कविता में प्रभात लिखते हैं -
लोगों की जिजीविषा और रोज़मर्रा के उनके कश्मकश का ज़िक्र दुःख में गाफ़िल उस युवती ने बच्चे को गोद में लिया
करते हुए इस बात पर जोर देते हैं कि यदि उनकी यह कोशिश और रेल में बैठ गई सुख के स्टेशन पर उतरने के लिए
प्रतिरोध में बदल जाए तो क्या सूरत-ए-हाल में कोई तब्दीली नहीं स्टेशन भी आया वह उतरी भी वहाँ
आ सकती है! इस कविता के आख़िर में वे लिखते हैं- मगर चाहा गया सुख
सही है कि राह नहीं भी मिलती उसके लिए गाना दुःख बना बैठा था
बहुतों को नहीं ही मिली जिससे मिलकर वह यातना से इतना भर गई
लेकिन बहुत सारा आँधी-मेह झेलने के बाद कि उसने बच्चे को गोद में लिया
सुलग ही गया धरती पर वापस और रेल में बैठ गई
एक ढहा-फूटा चूल्हा दुःख के स्टेशन पर उतरने के लिए
तब मैं सोचता हूँ कि जहाँ से वह रेल में चढ़ी थी
इतनी ही कोशिश अगर की जाए इस कविता में स्त्री जीवन का दुःख, उसकी मुश्किलें, उसकी
किए जाने के लिए प्रतिरोध सारी विसंगतियाँ सम्पूर्णता के साथ अभिव्यक्त हुई हैं। प्रभात
न सही गाँव या शहर के भी स्तर पर की कविताओं में गाँव-घर की साधारण स्त्रियों की बहुत सारी
व्यक्तिगत जीवन में ही सही छवियाँ मौज़ूद हैं। ‘पर्दे में लोकगीत गाती स्त्रियाँ’, ‘ऊँटगाड़ी में
क्या थोड़ा-बहुत भी दूर नहीं होगा गतिरोध बैठी स्त्रियाँ’, ‘समारोह में बैठी स्त्रियाँ’, ‘रुदन’, ‘सईदन चाची’,
प्रभात की अधिकांश कविताएँ ख़ुद से या अपनों से बतियाती हुई ‘शकुंतला', 'लोक गायिकाएँ’, ‘राहत’, ‘आस का उजास’, ‘प्रेम
कविताएँ हैं। ज़ोर-ज़ोर से बोलती हुई नहीं, धीरे-धीरे अपना दुःख- और पाप' सरीखी अनेक कविताएँ हैं, जिनमें स्त्री जीवन के विविध
सुख बतियाती हुई। इसकी मुख्य वज़ह यह है कि प्रभात के काव्य स्वरूप और उनके नाना प्रकार के मुश्किलों और बंधनों की मार्मिक
विषय कवि के द्वारा दूर से देखे हुए नहीं हैं। प्रभात ने इन विषयों अभिव्यक्ति हुई है।
को बहुत क़रीब से देखा है। अपने घर-परिवार, रिश्तेदार, आस- प्रकृति संबंधी कविताओं की ही तरह, प्रभात की प्रेम कविताएँ
पड़ोस आदि के स्त्री जीवन से जिस प्रकार की कविताएँ प्रभात रचते भी बहुत महत्त्वपूर्ण हैं, जिन पर बात करने की ज़रूरत है। मृत्यु पर
हैं, उसके लिए स्त्रियों के प्रति गहरी संवेदना के साथ-साथ दृढ़ केंद्रित ऐसी कई कविताएँ हैं, जो बहुत संवेदनशील जीवन-प्रसंगों
प्रतिबद्धता दरकार है। प्रभात ने माँ, बहन, बुआ जैसी स्त्रियों पर को हमारे सामने लाती हैं। जनसाधारण के जीवन के हर पहलू पर
केंद्रित जिस स्तर की संवेदनात्मक कविताएँ लिखी हैं, वे भावुक भी प्रभात ने सादगी और सचाई के साथ जैसी यादगार और हृदयस्पर्शी
करती हैं, और चकित भी। ‘एक सुख था’, ‘जीने की जगह’, ‘नहीं कविताएँ लिखीं हैं, वे उन्हें समकालीन हिंदी कविता के एक ऐसे
की याद’ सरीखी कविताएँ इसका सशक्त उदाहरण हैं। ‘जीने की महत्त्वपूर्ण कवि के रूप में स्थापित करती हैं, जिनके बग़ैर सन नब्बे
जगह’ कविता उस बहन पर है जिसकी शादी सोलह बरस की उमर के बाद की हिंदी कविता पर कोई भी बात अधूरी होगी। n
में हुई और साल भर बाद जो ससुराल में मिलने वाले दुःख-दर्द से
तंग आकर फंदे से झूल गई। यह कविता केवल एक बहन की नहीं संपर्क : असिस्टेंट प्रोफेसर, हिंदी विभाग
है, बल्कि उन लाखों स्त्रियों की है, जो बेहद समस्याग्रस्त विवाह कोचबिहार पंचानन बर्मा विश्वविद्यालय
संस्था का शिकार हुई हैं। यह कविता हर उस लड़की की मार्मिक कोच बिहार, पश्चिम बंगाल
मो. 9939012325

yegh जुलाई से सितंबर 2023 n 509


n असीम : राकेश रंजन

जन-मन के कवि
शैलेन्द्र कुमार शुक्ल

राकेश रंजन हिंदी कविता के कुशल जनवादी मूल्यों कवि’ पर महत्वपूर्ण वक्तव्य दिया। यह वक्तव प्रो.
को निहायत तरजीह देने वाले प्रतिबद्ध प्रगतिशील आशीष त्रिपाठी द्वारा संपादित पुस्तक ‘किताबनामा’ में
कवि हैं। प्राचीन सांस्कृतिक नगरी वैशाली में जन्मे संकलित है। नामवर सिंह कहते हैं कि “हर कवि की
राकेश रंजन अपनी कविताओं के वास्ते केदारनाथ पहचान उसकी भाषा से होती है। राकेश रंजन के पास
अग्रवाल, नागार्जुन, त्रिलोचन और मुक्तिबोध की अपनी भाषा है- नितांत मौलिक और औरों से अलग।
परंपरा में दिखाई देते हैं। उनेक दो कविता संग्रह आप नहीं कह सकते कि यह पूर्ववर्ती कवियों, जैसे
‘अभी अभी जनमा है कवि’ और ‘चाँद में अटकी कि रघुवीर सहाय, श्रीकांत वर्मा अथवा केदारनाथ
पतंग’ इससे पूर्व प्रकाशित हो चुके हैं। उनकी कविताओं ने लगातार सिंह की परंपरा का कवि है। ऐसा नहीं कि यह हिंदी परंपरा से
हिंदी पाठकों का ध्यान आकृष्ट किया है तथा महत्वपूर्ण कवियों परिचित नहीं है, लेकिन इसने अपनी भाषा अर्जित की है, जिससे
एवं आलोचकों ने उनकी कविताओं को ख़ूब मन से सराहा है। इसकी एक अलग पहचान बनती है। इस पहचान के साथ-साथ
राकेश जी की कविताओं की सबसे बड़ी ख़ासियत सजगता का एक गज़ब का आत्मविश्वास भी इसमें है।”1
सहज उदात्त तत्व ही है। वह भाव को कविता में व्यक्त करने के इस संग्रह की अनेक कविताएँ ‘गुरुबानी’, ‘गुरु कौ बचन’,
मामले में उत्तर कबीर हैं। लेकिन शब्द चयन की परख तुलसी का ‘राम कहो बाबा’, ‘बरसा जलधर’, ‘हल्लो राजा’, ‘महानगर में
अनुगमन करती दिखती है। राकेश जी की कविताओं का मूल ध्येय बकरी’, ‘बात कहूँ पर कही न जाय’, ‘चल रंजनवाँ महानगर’,
मुक्त मनुष्यता पर विकृति की गुलामी का क्षरण करना है। उन्होंने ‘आ चल चोटी गूँथ दूँ’, ‘राजा अइलिन’ इत्यादि काव्य प्रेमियों के
अपने समय की विकृतियों और विडंबनाओं को बड़ी संजीदगी से मन-मिज़ाज में घर कर गईं। आधुनिक हिंदी कविता की मूलधारा
कविता में पहचाना है। कविता में उन्होंने सहज जनभाषा का प्रयोग में राकेश रंजन उन अंगलि ु यों पर गिने जाने वाले कवि हैं जिनकी
लोक लय के साथ बड़ी कुशलता से किया है। यह सबसे बड़ी कविताएँ लोगों को जबानी याद हैं। राकेश रंजन अपने युग की
ताक़त उनके पास है कि आज नहीं तो कल उनकी कविताएँ लोक कविता को एक बार लम्बे अंतराल के बाद लोक जीवन के बहुत
में जन-जन तक अवश्य पहुँचेंगी। निकट ले गए हैं। और यह ले जाना समर्थ और सार्थक सिद्ध
हुआ। यह संग्रह लोक-मन से दूर होती समकालीन हिंदी का नया
(1) ‘लिरिकल बैलड्स े ’ है जिसने हिंदी कविता का मयार बदल दिया।
राकेश रंजन का पहला कविता संग्रह ‘अभी-अभी जनमा है इस किताब में एक कविता है ‘अभी-अभी’ जिससे इस कृति का
कवि’ 2007 में प्रकाशित हुआ जिसने हिंदी कविता की दुनिया नामकरण हुआ है। यह कविता जिस भूमिका में है उसे सर्जक का
में अपनी जोरदार उपस्थिति दर्ज़ कराई। उनकी काव्य भाषा में घोषणा पत्र कहा जा सकता है- “अभी-अभी जनमा है रवि/ पूरे
अद्भुत सम्मोहन है और उनके ललित छंद बड़ी सहजता से जन- ब्रह्मांड में पसर रही है /शिशु की सुनहरी किलकारी/ पहाड़ों के
मन के कंठहार बन गए। इस नवोदित स्वर ने अपने समय के सीने में हो रही है गुदगुदी/ पिघल रही है /जमी हुई बर्फ...”2
दिग्गज कवि आलोचकों को भी ख़ूब आकर्षित किया। सुप्रसिद्ध यह ब्रह्मांड कवि और कविता की दुनिया का रूप प्रसार है
आलोचक नामवर सिंह ने दूरदर्शन से प्रसारित कार्यक्रम ‘सुबह जहाँ संवेदनाएँ विचरती हैं। ‘शिशु की सुनहरी किलकारी’ कवि
सबेरे’ में राकेश रंजन के काव्य संग्रह ‘अभी-अभी जनमा है ध्वनि के रंग को बड़ी संजीदगी से पहचानने की पहल करता है।

510 n जुलाई से सितंबर 2023 yegh


हिंदी कविता ने अपनी ध्वनियों के रंग खो दिये थे, लंबे अंतराल निराशा-मिश्रित आम राय है, उसी को वाणी देती है। पूरी कविता
के बाद राकेश रंजन उसे चिह्नित कर रहे हैं। प्रकाश की गति ध्वनि समकालीन आलोचना की किसी भी बौद्धिक प्रवृत्ति, अन्याय या
से तेज होती है। दोनों की स्मृतियों ने बिंब भेद उत्पन्न कर चारुता अत्याचार के उसके औज़ारों, उसमें शामिल व्यक्तियों या समूहों के
में विसंगति ला दी थी। राकेश रंजन उन्हें जन-मन के अतल से ख़िलाफ़ विशेष रूप से कोई टिप्पणी नहीं करती, जबकि शाब्दिक
टटोल लाते हैं- “चिड़ियाँ गा रही हैं गीत/ जन्मोत्सव के/हर्षविह्वल रूप से वह आलोचना का निंदन ही अथ से इति तक कर रही
वृक्ष/ खड़े हैं मुग्ध मौन/ पुलकित पात बज रहे हैं/ सर-सर/ सोने है।”5 यहाँ व्योमेश शुक्ल जिस कविता की आलोचना कर रहे हैं
के सिक्के/ लुटा रहा है आकाश...”3 उस आलोचना की कविता भी कवि ने की है। एक तरफ कवि
इस बिंब में सोहर के ध्वनि रंग हैं। बजते पत्तों में पुलकन का की आलोचना है तो दूसरी तरफ आलोचना की कविता। दोनों
रस पहचानना कवि के गहनतम लगाव की गरिमा है जो हमारे के ठिकाने और उद्देश्य अलग-अलग हैं। कविता आलोचकों को
पुनीत अभिभावक के मन रंग को इस रूप में व्यक्त कर पाई एकदम संबोधित नहीं है वह कविता के कवि को संबोधित है। और
है कि आकाश सोने के सिक्के लुटा रहा है। यह कविता राकेश राकेश रंजन की कविताओं की पहुँच जिस पांत के आख़िरी आदमी
रंजन की कविताओं की चाभी है, सैद्धांतिकी है। कवि बदलते तक है यह उसी की भाषा में तुकबंदी है। और व्योमेश शुक्ल ने
युगबोध की यहाँ प्रस्तावना देता है- “अभी-अभी जनमा है रवि / आलोचनात्मक निबंध में जो बात लिखी है उसका पाठक कौन हो
अभी-अभी जनमा है प्रात:/रात की मृत्यु के पश्चात/ अभी-अभी सकता है यह कहने की आवश्यकता नहीं। दोनों के प्रयोजन अलग
जनमा है कवि!”4 कवि का जन्म नई कविता का जन्म है। कविता हैं, हेतु अलग हैं।
का जन्म नई सुबह का होना है और नई सुबह सूर्य के नएपन का
बिगुल है जो रात की मृत्यु के पश्चात ही घटित हो सका है। यह (2)
महान बदलाव की एक युगांतकारी घटना है। यह कवि का पहला राकेश रंजन का दूसरा कविता संग्रह है ‘चाँद में अटकी पतंग’
काव्य संग्रह ही नहीं नए युगबोध का भी यह प्रथम पुष्प है। इन (2009)। यानी पहले संग्रह से दो साल बाद दूसरी किताब आती
नई कविताओं को समझने के लिए नए प्रतिमानों की अावश्यकता है। कवि ने सहज लोक में अपनी थोड़ी सी ही सही लेकिन जगह
है शायद इसीलिए नामवर जी इन कविताओं की भूमि के प्रमुख बनाई है। लोक मन ने उन्हें स्वीकारा है। कविता के सुंदर होने के
विंदुओं को दिखा कर निष्कर्षों की ओर इशारा करते हुए आगे दिन बहुरे हैं। जहाँ पहुँचते-पहुँचते हिंदी की काव्यधारा सूख जाती
बढ़ जाते हैं- “एक कविता है ‘चल रंजनवाँ महानगर’। इसमें थी, वहाँ छोटी ही सही इस ईमानदार सरिता ने पानी पहुँचाया है।
जिस तरह का व्यंग्य है, वह कवि के गहरे आत्मविश्वास का ही सूखी मनुष्यता की डाल एक बार फिर से पल्लवित होने को उमंग
परिचायक है। दूसरी ध्यान देने लायक बात यह है कि इस कवि उठी है। राकेश ‘एक प्रश्न’ करते हैं- “सूखी शाख पर/ एक पत्ता
में एक प्रकार का खिलंदड़ापन है। कुछ वैसा ही, जैसा रघुवीर खिला है /तो तुम क्यों तरंगित हो, कवि/ तुम्हें क्या मिला है?”7 इस
सहाय में हुआ करता था। कहीं-कहीं नागार्जुन में दिखाई पड़ता कविता में कवि तीन स्तरों पर है एक सहृदय जन का काव्यधर्मा
है।”5 नामवर जी जिस गहरे आत्मविश्वास की बात कर रहे हैं उत्तम कवि जिसे वह सब कुछ मिला जो उसका काव्य प्रयोजन
उसे विस्तार में जा कर स्पष्ट करने की आवश्यकता थी लेकिन वे था कि कविता मनुजता के प्राणों में जीवंत हो उठी तो उससे कोई
सिर्फ़ इशारा कर के आगे बढ़ गए। शायद यह उनकी या समय की सवाल ही नहीं, सवाल उस लोभी दूसरे मध्यम कवि मन से है जो
सीमा रही हो। इस कविता का ज़िक्र कवि व्योमेश शुक्ल ने अपनी क्रीतदास हो कर सुख भोगने को लालायित था जिसकी बात कवि
किताब ‘कठिन का अखाड़ेबाज़ और अन्य निबंध’ में किया है। वे विवेक ने न सुनी। सबसे अहं सवाल तीसरे स्तर के अधम कवि से
लिखते हैं कि “ख़ैर, शोषण के उपलब्ध रूपों के ख़िलाफ़ उपलब्ध है जिसका एकमात्र प्रयोजन सत्ता संस्थानों की पद-प्रतिष्ठा पाना
में ही चीख-पुकार मचाना, अनुभव से साबित है, यथास्थिति की था, जिसने अपना धरम नहीं निभाया, सच्चा कवि उसी से पूछता
निर्लज्ज अभ्यर्थना के सिवाय कुछ नहीं है। मिसाल के लिए युवा है तुम तरंगित क्यों हो भाई? कोई और साजिश बुन रहे हो शायद!
कवि राकेश रंजन की एक कविता हिंदी के आलोचकों की कथित राकेश कविता में गुणीभूत व्यंग्य बड़ी सजग सहजता से रचते हैं,
तौर पर भर्त्सना करती है। कविता का आख्याता कहता है कि यही लोक से उन्हें प्रसाद मिला है। उनकी काव्यभाषा कोई नई
महानगर चलो, आलोचक वहीं रहते हैं, हे कवि, उनसे दोस्ती कर मनुजता की भाषा नहीं है, उन्होंने जिनके सुख-दुख कविता में
लो, तुम्हारा बहुत भला होगा, आदि-आदि। कविता तुकांत है और रचे हैं उन्हीं के छंदों में उनकी ही भाषा गाई है। जो लोक से कटे
हिंदी आलोचना के सामान्य कामकाज के बारे में जो असंतोष और अकादमिक कवियों के लिए भले ही नई लगती हो, कविता के

yegh जुलाई से सितंबर 2023 n 511


सहृदय के लिए अपनी जानी-पहचानी है तभी उसे प्रिय है। यह लूटने के लिए सिर्फ़ साजिश करते मंचों पर नज़र आते हैं। यह
बात आलोचक विश्वनाथ त्रिपाठी इस किताब के बारे में गुनते सांप्रदायिता का जहर वहीं तक सीमित नहीं रहता, आज की संचार
हुए लिखते हैं- “राकेश रंजन की कविताएँ वैसी नई और अलग क्रांति के युग में उस जहर को हजारों गुना कट्टरता प्रदान करते हुए
ढंग की नहीं हैं जैसा कि कविताओं की समीक्षा करते समय या सत्ता के मीडियाकर्मी दलाल देश के घर-चौपाल तक पहुँचाते हैं।
फ्लैप लिखते समय कह दिया जाता है। कविताओं की भाषा की यह जहर देश की जनता में अफीम का काम करता है। इस गुलामी
शब्दावली नई, काव्य-भाषा के रूप में अपरिचित और प्रयोग- ने देश को किस हद तक जाहिल और कट्टर बनाया है, राकेश रंजन
उपयोग में नई है। एक-एक कविता पढ़ना नई अनुभव सरणि में से की एक और बेबाक कविता में देखिए-
गुज़रना है। अनुभव को शब्द एवं लय में बांधते हुए दिक्कत यह “हरा होता हूँ
होती है कि वह भाषा में बंधने से इनकार कर के छिटक कर अलग तो हिन्दू मारते हैं
अनबंधी रह जाती है- निराला ने इसे ‘भाषा छिपती छवि’ कहा है केसरिया होता हूँ तो मुसलमान
यानी छवि भाषा से या भाषा में छिपी रह जाती है।”8 हत्यारे और दलाल मारते हैं
राकेश रंजन स्वभाव से सुगम कविता रचने वाले कवि हैं। सफ़ेद होने पर
वे उस भाषिक अगम चकाचौंध से वागाडंबर प्रस्तुत कर सहृदय
को आतंकित करने वाले रचनाकार नहीं है। कवि कविता के तुम्हीं कहो मेरे देश
इतिहासबोध से समझता है कि कविता का आतंक से कोई रिश्ता क्या होऊँ
नहीं होता। कविता सतत आतंक विरोधी होती है। वह डरे जन मन जो बचा रहूँ शेष?”10
को साहस प्रदान करने का काम करती आई है। यदि कविता ही हरे और केसरिया की बात उन्होंने सीधे वाक्य में कही है
आडंबर से जन मन को आतंकित करे याने धाक जमाने लगे तो लेकिन सफेद की बात एकदम उससे उलट है। हरा होने पर
काहे की कविता! राकेश रंजन अपने इसी मिज़ाज की सैद्धांतिकी हिन्दू मारते हैं और केसरिया होने पर मुसलमान। यहाँ धार्मिक
से जन-मन में रच-बस जाने वाली कविताएँ लिख सके हैं। उनकी कट्टरता और सांप्रदायिकता का सीधा हमला है। और इससे सत्ता
तमाम व्यवहारिक कविताएँ विस्तार से अध्ययन और विश्लेषण के के संस्कृतिकर्मियों के वास्तविक वर्चस्व को पूर्ण पोषण मिलता
लिए मन मोहती हैं। है। एक तीसरा रास्ता है सफेद। मतलब शांति का प्रतीक जहाँ
केसरिया-हरा या हिन्दू-मुसलमान की धार्मिकता है ही नहीं। तो
(3) इस समुदाय के लिए वर्चस्व के संस्कृतिकर्मी सबसे ज्यादा खफा
राकेश रंजन की कविता की तीसरी किताब हमारे सामने आयी दिखते हैं। उन्हें शांति और अहिंसा बिलकुल पसंद नहीं क्योंकि
है- ‘दिव्य कैदखाने में’ (2017)। इस काव्य कृति में संकलित इनसे उनके धंधे में मंदी आने का ख़तरा रहता है। इन पर अफीम
कविताओं का अध्ययन करने से यह बात मुसलसल प्रतीत होती है का असर नहीं होता, इसलिए वर्चस्व के संस्कृतिकर्मियों ने उनके
कि कवि अपने समय के समाज को बहुत बारीकी और बेबाकी से लिए हत्यारे और दलाल नियुक्त किए हैं। यह मानसिक गुलामों के
अभिव्यक्त करता है। राकेश रंजन की एक कविता जो इस संग्रह बीच से छटे हुए नेता हैं। इनका काम है, सीधे-साधे नागरिक को
के शीर्षक के सबसे निकट है, जो कवि विवेक का परिचय देने के जो सांप्रदायिकता और कट्टरता से दूर हों और इंसानियत की बात
लिए बाराह याद आती है- “नीरव इस रात में/ न पत्तों की सरसर करते हों, उन्हें सेकुलर या पंथ-निरपेक्ष के नाम पर घसीट कर
न पंखों की फड़फड़/न कुत्तों की भूँक न मवेशियों की हँकार/ न मारना। सफेद के लिए कवि उलट कर बात इसीलिए करता है कि
बारिश न बिजली न पुकार/ न युद्ध न प्रहार/ फिर भी क्यों जाने/ ‘हत्यारे और दलाल मारते हैं / सफेद होने पर’। यहाँ पहले मारने
उचट-उचट जाती है नींद/ बार-बार...”9 वाले हत्यारे और दलालों का नाम आता है फिर सफेद का। यह
वर्चस्व की संस्कृति देश की जनता को मानसिक गुलामी से शिल्प ही इस गद्य को श्रेष्ठ काव्य बनाता है।
जकड़ने के लिए बड़े-बड़े मंचों से सांप्रदायिकता को भड़काने के इस भयावह समय में जो घटित हो रहा है, इसके जिम्मेदार
लिए आग उगलती है। वर्चस्व की संस्कृति कितनी हत्यारी और शोषक और शोषित दोनों पक्ष हैं। एक दूरद्रष्टा कवि इंसानियत के
कट्टर है, कवि इसका नमूना बहुत सटीक तौर पर पेश करता नाते शोषित का पक्षधर है लेकिन शोषक का ज़ेहादी दुश्मन नहीं।
है। सुनामी जैसी आपदा के बाद वर्चस्व की राजनीति करने वाले वह उस व्यवस्था को देख रहा है जिसने इस समाज में विसंगतियों
संस्कृतिकर्मी जनता के बीच सांप्रदायिकता का जहर घोल कर वोट और विडंबनाओं को जन्म दिया है। दरअसल वर्चस्व और गुलामी

512 n जुलाई से सितंबर 2023 yegh


इस व्यवस्था के दो पहलू हैं। द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद और वर्ग-संघर्ष
की अवधारणाओं से इन्हें ठीक तरह समझा जा सकता है। कवि
ने इन अवधारणाओं को साहित्य की संवेदनात्मक समझ के साथ
बहुत व्यापक आयाम दिए हैं। हमारी गुलामी और उनके वर्चस्व
मिल कर सभ्यता और संस्कृति को नेस्त-नाबूत करने में लगे हुए
हैं। यह बरबादी भविष्य में कितनी क्रूर और वीभत्स होगी! जनकवि
को इसकी कितनी चिंता सालती है, ‘हमीं’ शीर्षक कविता इसकी
जिंदा प्रमाण है- “हमीं दफना जाएँगे/ सारे खेत/ और बाग/ सारी
फसलों, जंगलों को /हमीं लगा जाएँगे आग/ हमीं सोख जाएँगे /
सारा पानी/ पेट्रोल/ सारा लोहा सोना कोयला/ हमीं कर जाएँगे
गोल /जब तू आएगा, मेरे लाल/ दुनिया रहेगी /ठनठन गोपाल!”11
इस सम्पूर्ण पृथ्वी और प्रकृति को बर्बाद करने वाला इंसान ही
है। बरबादी का सबसे बड़ा कारण कि इंसान ने अपनी स्वाभाविक
इंसानियत खो दी है। अपनी स्वाभाविकता को खोकर मनुष्य आज
धरती पर भार बन गया है। इतना अविश्वसनीय हो चुका है इंसान,
अपनी स्वाभाविकता से हीन यह प्राणी आज दुनिया की सबसे
बदतमीज और बेहूदी प्रजाति बन कर रह गया है। दुनिया की है और अपनी स्वाभाविकता की ओर लौट सकता है। व्यवस्था में
सर्वश्रेष्ठ रचना जो अपनी संवेदना और ज्ञान से इस दुनिया को यदि वर्चस्व की राजनीति के दखल से बहुत कुछ बिगाड़ की नीव
निहायत सुंदर बना सकती थी वहीं सबसे ज्यादा संसार को अपनी पड़ी है तो गुलामी ने भी सब कुछ को बर्बाद करने के लिए पूरा
बदमाश गुलामी और वर्चस्व से कुरूप बना चुकी है। इतना कुरूप सहयोग दिया है, यह नहीं भुलना चाहिए। वर्चस्व को हम आज भी
बना देने के बाद भी इस दुनिया की शेष सृष्टि अपने स्वाभाविक अपनी इंसानियत और स्वाभाविकता से चुनौती दे सकते हैं। बशर्ते
गुणों से विगलित नहीं हुई है। इस बर्बाद हुई इंसानियत को राकेश हम सोचना फिर से शुरू करें। हमें गुलामी की जगह अमानुषिक
जी एक महान संदेश देते दिखाई पड़ते हैं- उग्रता की ज़रूरत नहीं, हम यह लड़ाई विनम्रता और धैर्य से भी
“अब भी लड़ सकते हैं। हममें आज़ादी की चाह होनी चाहिए। इस संग्रह
बची है संवेदना में एक बहुत ही प्यारी कविता है ‘झुकना’। राकेश जी ने कितना
घोंघों में सुंदर और सजग वितान रचा कि देखते ही बनता है- “झुकना/ जैसे
चींटियों में फलों से लदा हुआ पेड़/ झुकता है/पृथ्वी की हथेलियों पर/ जैसे
बचा है प्रण श्रद्धा से झुकता है मन/ जैसे मेघ झुकते हैं/ किसान झुकता है/
फसल झुकती है दानों से भरकर/जैसे पृथ्वी झुकी है/ अपने अक्ष
बची है वफादारी पर/ जीवन को संभव करती/ वैसे नहीं / जैसे हमले को झुकता
मृत्यु में है जानवर।”13
झुको लेकिन उस तरह जहाँ संवेदना की स्वाभाविकता हो,
सियारों में अस्वाभाविक वर्चस्व के सामने झुकना इंसानियत का हनन है,
शेष है एकजुटता प्रकृति के साथ खिलवाड़ है, स्वाभाविकता के साथ धोखा है।
अब भी सोचिए जब हम सामंतकाल में जी रहे थे, राजतंत्र का बोलबाला
तुम कर सकते हो विश्वास था, वर्चस्व के पास शक्तियों का अंबार लगा था, जब लोकतन्त्र
एक कुत्ते पर...” 12 की कोई परिकल्पना नहीं थी, तब भी हम वर्चस्व के सामने घुटने
यह कविता मनुष्य को एक बार फिर से मनुष्यता की ओर टेक कर मानसिक गुलाम नहीं हुए थे। हमने इंसानियत को सुरक्षित
लौटने के लिए प्रेरणा देती है। मनुष्य चाहे तो शेष सृष्टि को देख- रखते हुए अपना ईमान बचाए रखा। राकेश रंजन कितना बेजोड़
समझ कर अपनी भूली हुई मनुष्यता पर खेद प्रकट कर सकता उदाहरण देकर हमें सोचने के लिए उकसाते हैं-

yegh जुलाई से सितंबर 2023 n 513


“झुकना जैसे दान में हाथ झुकता है तरह रूसो ने फ्रांस के समय और समाज को अपने चिंतन में परख
शीश झुकता है सौंदर्य के आगे कर एक सिद्धांत दिया, जिसका योगदान फ्रांस की महान क्रांति के
जैसे माँ झुकती है लिए आज भी मूल्यांकित किया जाता है। अपने समय का प्रत्येक
माँ के स्तन झुकते हैं संतान के लिए बुद्धिजीवी अपने समाज के भीतर से समस्यों के सवालों से जूझते
दूध से भारी आह्लाद से भरे हुए मनुष्यता के विकास लिए संघर्ष करता है। यह संघर्ष चिंतन के
रास्ते जब जनवादी होता है तो वह युग दर्शन में धंस कर महत्वपूर्ण
वैसे नहीं इतिहास का अंग हो जाता है। दार्शनिक या कलाकार के लिए यह
जैसे तानसेन झुकते थे दौलत की चौखट पर आवश्यक है कि वह पक्षधर और निर्णायक हो। यही ताक़त उसे
झुकना जीवंत और आशावादी बनाती है। राकेश रंजन इसी रास्ते अपने
जैसे कुम्भन झुके थे दर्शन को कला में तब्दील कर जनता के प्रति आशावादी दिखाई
उस चौखट से सिर बचाकर पड़ते हैं। उनकी पक्षधरता वर्चस्व से टकराती है और गुलामी को
निकलते हुए” 14
आज़ादी में बदलने के लिए प्रतिबद्ध दिखाई पड़ती है-
राकेश रंजन ने जिस तत्परता से अपने समय और समाज को “बरगद सी उच्चता अचानक तुच्छ पत्र सी झर जाती है
गंभीरता से लिया उसी का प्रमाण है यह संग्रह। हमारे समय ने भेड़ बकरियों सी जो रहती, सत्ताओं को चर जाती है
समाज को दिव्य कैदखाने में तब्दील कर दिया है। यह कैदखाना
कोई साधारण कैदखाना नहीं, यह बाहर से बहुत स्वतंत्र दिखता जनता दिखती जड़ीभूत है, मगर अचानक करती धावा
है लेकिन मानसिक तौर पर भीतर से उतना ही अधिक गुलाम है। जैसे ज्वालामुखी फूटता, औचक व्यापक होता लावा
ऐसी व्यापक गुलामी पहले कभी नहीं दिखी, इसीलिए चिंतकों द्वारा
लगातार ‘हमारे समय’ को टार्गेट किया जाता रहा है। राकेश जी सब हिसाब जनता करती है, नहीं किसी को देती माफी
ने इस संग्रह में बहुत ही शानदार कविताएँ लिखी हैं जो विविध कांगरेस हो या बीजेपी, हिटलर हो चाहें गद्दाफी!15 n
विषयगत रूपकों में दिखाई पड़ती हैं। और मजे की बात यह कि
संदर्भ-
आप पूरा संग्रह पढ़ जाइए, आपको कोई एक भी कविता कमजोर
1. त्रिपाठी,आशीष.(2023). किताबनामा:नामवर सिंह.नई दिल्ली,
नहीं लगेगी। अपने समय की मुख्य प्रवृत्ति को ठीक से पहचान राजकमल प्रकाशन,पृष्ठ.418
कर तमाम बेहतरीन कविताओं को धागे में पिरोया गया है। जिस 2. रंजन,राकेश.(2007).अभी अभी जनमा है कवि.नई दिल्ली, प्रकाशन
संस्थान,पृष्ठ.31
3. वहीं,पृष्ठ.31
4. वहीं,पृष्ठ.32
5. त्रिपाठी,आशीष.(2023). किताबनामा : नामवर सिंह. नई दिल्ली,
राजकमल प्रकाशन,पृष्ठ.418
6. शुक्ल,व्योमेश.(2022).कठिन का अखाड़ेबाज़ और अन्य निबंध.नई
दिल्ली, राजकमल प्रकाशन,पृष्ठ.124
7. रंजन,राकेश.(2009).चाँद में अटकी पतंग.नई दिल्ली, प्रकाशन
संस्थान.पृष्ठ.151
8. m-hindi.webdunia.com
9. रंजन,राकेश.(2017). दिव्य कैदखाने में.नई दिल्ली, राधाकृष्ण प्रकाशन
प्राइवेट लिमिटेड.35
10. वहीं.पृष्ठ.26
11. वहीं.पृष्ठ.57
12. वहीं.पृष्ठ.94
13. वहीं.पृष्ठ.74
14. वहीं.पृष्ठ.75
15. वहीं.पृष्ठ.111
संपर्क : शिक्षा विभाग गिरिडीह, झारखंड
मो. 7498653618

514 n जुलाई से सितंबर 2023 yegh


n असीम : शिरीष कुमार मौर्य

कविता की करुण पुकार


संदीप कुमार

समकालीन हिंदी कविता में शिरीष कुमार मौर्य एक में आता हो लेकिन अपनी जन्मभूमि और पुरखों की
महत्वपूर्ण कवि हैं। उनकी कविताओं का फलक बहुत जगह को भी वह बहुत शिद्दत के साथ याद करते हैं।
विशाल है। आम-जनमानस की रोजमर्रा की जद्दोजहद यह अलग बात है कि बदलाओं के इस दौर में छोटी-
और उसके संघर्षोंं, सपनों को उनकी कविताएँ एक छोटी जगहें इस कदर बदल गई हैं कि हम वर्षों बाद
नया स्वर और रूप प्रदान करती हैं। उनके पास अगर ऐसी किसी जगह पर जाते हैं तो उसे पहचान
अभिव्यक्ति के लिए एक समृद्ध काव्यभाषा है। वह नहीं पाते। हम जिन जगहों को जिस तरह छोड़ कर
अपने कविता संग्रहों ‘पहला कदम’, ‘पृथ्वी पर एक गए होते हैं उसे उसी तरह पाना चाहते हैं, यह जानते
जगह’, ‘दंतकथा और अन्य कविताएँ’, ‘मुश्किल दिन की बात’, हुए कि यह एक असंभव सी इच्छा है। फिर भी। इसलिए वह अपनी
‘खांटी कठिन कठोर अति’, ‘आत्मकथा कविता शृंखला’, ‘रितुरैण’ एक कविता में इस बेचैनी को इस तरह दर्ज़ करते हैं। ‘मैं पिपरिया
आदि में जीवन की उदासियों और सपनों के शानदार बिम्ब रचते नहीं जाता/ कभी-कभी बरसों पहले गुज़र गई दादी के घर जाता
हैं। इधर कुछ वर्षों से उन्होंने शृंलाबद्ध और विषय केन्द्रित कविताएँ हूँ/ मुझे वो घर नहीं मिलता/ एक बहुत छोटा शहर मिलता है’।
लिखी हैं, जो पत्रिकाओं में अपने प्रकाशन के साथ ही काफ़ी चर्चित उनकी कविताओं में सड़क किनारे काम करने वालों का जीवन,
हुईं। यह विषय केन्द्रित कविताएँ उनकी काव्य यात्रा का एक अलग उनका संघर्ष, उनकी पीड़ा, उनके दुःख सब बराबर आते हैं। कई
पड़ाव हैं। इन कविताओं में हमें अद्भुत कल्पनाशीलता और विराट बार यह दुःख किसी दृश्य के साथ उपस्थित होते हैं जो मन में
रचनात्मकता के दर्शन होते हैं। इन कविताओं से गुज़रते हुए जीवन एक करुणा सी पैदा करते हैं, कभी यह किसी कथात्मक शिल्प
की विविध छवियाँ अपने विविध रूपों और अर्थों में हमारे सामने में आते हैं जो हर पढ़ने वालों में एक बेचैनी भर देते हैं। जब भी
होती हैं। मैं कोई ऐसा दृश्य देखता हूँ, मुझे उनकी कई कविताएँ अचानक
पहाड़ और उसकी जीवटता के अनेक दृश्य उनकी कविताओं से याद आती हैं। मुझे उनकी एक कविता का स्मरण बार-बार हो
में बार-बार आते हैं। उस समाज, जीवन और वहां के संघर्ष को, जाता है। उस कविता का शीर्षक है– ‘किसी ने कल से खाना नहीं
उन आम मेहनतकश लोगों की बेचैनियों को बहुत संवेदनात्मकता खाया है’। यह एक ऐसी कविता है जिसमें एक कसक सी है, एक
से अपनी कविताओं में वे ले आते हैं, जिन्हें अधिसंख्य लोग कीड़े- छटपटाहट। एक कवि, एक रचनाकार, एक संवेदनशील मनुष्य
मकोड़े से अधिक कुछ नहीं समझते। जैसा वह अपनी कविताओं की छटपटाहट। “रात मेरे कंठ में अटक रहे हैं कौर/ मुझे खाने का
में कहते भी हैं कि ‘कुछ बिम्ब बहुत रोशनी में/ अपनी चमक खो मन नहीं है/ थाली सरका देता हूँ तो पत्नी सोचती है नाराज़ हूँ या
देते हैं’। वह चमक-दमक से दूर खड़े होकर देखने के हिमायती खाना मन का नहीं है।” यह अभावों को देख विचलित कर देने
हैं। इस तरह की भाषा और संवेदना उनकी कविताओं में हमें बार- वाली मनःस्थिति है जिससे कवि उबर नहीं पा रहा है और सामने
बार दिखती हैं। जब वह कहते हैं कि ‘घुप्प अँधेरे में/ माचिस की एक अच्छा भोजन होते हुए भी खाने की इच्छा मर सी गई है। एक
तीली जला/ वह कागज़ पर कुछ शब्द लिखता है’ तब यह अपने संवेदनशील मनुष्य के कान में इस तरह की आवाज़ अगर आएगी,
लिए ही कह रहे होते हैं। तो उस आवाज़ की गूँज कई दिनों तक कानों में रहेगी, उन आँखों
हर कवि का एक भूगोल होता है। उससे कोई बच नहीं सकता। को भूलना इतना आसान भी नहीं होगा। यह बेचैनी ही इतनी करुण
शिरीष मौर्य की कविताओं में पहाड़ का भूगोल भले ही अधिकता अभिव्यक्ति संभव कर सकती है। “बेटा, कल से बस ये भुट्टे ही

yegh जुलाई से सितंबर 2023 n 515


खाए हैं और कुछ नहीं खाया/ तेज बारिश में कम गाड़ियाँ निकली मिटने वाले होते हैं। वैसी ही। वह बहुत साधारण से साधारण घटना
यहाँ से/ इतने पैसे भी नहीं हुए एक दिन का राशन ला पाऊँ / पर को कविता में बहुत कलात्मकता के साथ बिलकुल असाधारण रूप
सिंका हुआ भुट्टा भी अच्छा खाना है / भूख़ नहीं लगने देता।” में प्रस्तुत करने में सिद्धहस्त हैं। किसी कवि के लिए ऐसा तभी संभव
इसी तरह वह अपनी एक और कविता में अपने बेटे को संबोधित होता होगा जब वह लगातार काव्यात्मक क्षणों में जी रहा होता होगा।
करते हुए, भूख़ और दरिद्रता की पीड़ा को, उस मर्म को इस तरह उनकी कविताओं से गुज़रकर आभास होगा कि उनके दिन रात का
लिखते हैं– “रोज तू थाली में खाना छोड़ देता है बेटा/ जबकि कितना हिस्सा इस तरह रचनात्मक रहते हुए बीतता होगा। यह बेचैनी
हमारे कितने ही लोग अक्सर अपनी थालियों में कुछ परोस ही नहीं किसी एक जगह नहीं हैं बल्कि आपकी मुलाकात ऐसी बेचैनियों से
पाते/ तू नहीं जानता खाली थालियों का दुःख।” उनकी कविता पढ़ते हुए लगातार होगी। बार-बार होगी। इस बेचैनी
एक पिता अपने पुत्र को यह समझाना चाहता है कि हमारे में घर है, समाज है, राजनीति है, साहित्य है, आम जन जीवन है,
आसपास कितने ऐसे लोग हैं जिनकी थालियों में दो वक्त का अन्न रोजमर्रा के संघर्ष हैं। यह सब लगातार उनके शिल्प में घुलकर
भी नहीं जुट पाता है। तुम्हें भी उस पीड़ा, उस अनुभव को आगे पाठकों तक आते रहते हैं.
चलकर जानना ही है। यह मनुष्यता की सीख है जिसे एक पिता लोगों में बाहर देखने की दृष्टि अधिक होती है। विरले ही होते
अपने पुत्र को देते हुए लिख रहा है “लेकिन शर्त यही है / कि थाली हैं जो उतनी ही सूक्ष्मता से अपने भीतर भी लगातार झांकते रहते हैं।
में खाना छोड़ने से पहले/ अपने आसपास खाली थालियों के गिर आत्मभियोग और आत्मधिक्कार भी उतना ही ज़रूरी है जितना कि
पड़ने की आवाज़ें भी/ तुझे सुननी पड़ेंगी।” मनुष्यता की ऐसी सीख हम बाहर वालों के लिए करते हैं। आत्मावलोकन व आत्मालोचन
उनकी कविताओं में बार-बार दिखलाई देती है। वह अपनी कई शिरीष मौर्य की कविताओं में हमें लगातार दिखता है। वह देश,
कविताओं का शिल्प कथात्मक रख कर उसे कविता का रूप देते समाज, राजनीति के साथ- साथ बराबर अपने भीतर भी झांकते हैं
हैं। इन कथात्मक और लम्बी कविताओं में वह अपने समकालीन और बहुत निर्ममता से उसे अपनी कविता में ले आते हैं। उनकी
यथार्थ और उसके घटाटोप से बार-बार भिड़ते हैं। राजनीतिक बहुत सी कविताओं में आत्मस्वीकार का यह भाव बहुत प्रबल रूप
छिछलेपन पर व्यंग्य और लताड़ भी लगाते हैं। “आचार संहिता लग से आता है-“जागते रहने की कसम जो खाई थी / बिला गई /
चुकी है / जो हमने पांच साल तक योजनाएँ बनाईं देश के विकास बिना कुछ रचे नींद आ गई / अब एक दोपाया बचा है / काम पर
के लिए / अफ़सोस उन्हें लागू करने का शासनादेश अब हम नहीं जा रहा है काम से आ रहा है / कवि की कमाई है / एक अध्यापक
कर सकते / हम चुनाव में हैं।” खा रहा है।”
समकालीन समय का बहुत भीषण यथार्थ कई बार उनकी कविता वह लगातार अपनी रचनात्मकता में झांकते हैं। अपनी ही
में अचानक इस तरह से उपस्थित होता है कि पाठक चौंक जाता है। रचना-प्रक्रिया से बार-बार उलझते हैं। यह रचनात्मक बेचैनी हर
वह अपने समय के जटिल यथार्थ को कई दफ़े बहुत सरलता और कवि में होती है। जैसे नागार्जुन लिखते हैं प्रतिबद्ध हूँ, सम्बद्ध हूँ,
सहजता से संप्रेषित कर जाते हैं। राग पूर्वी शीर्षक कविता में वह एक आबद्ध हूँ वैसे कवि ने भी लिखा है– “लेकिन मेरी स्मृतियाँ कविता
जगह लिखते हैं-“हमने / बहुत तरक्क़ी की है / घरों की छतों पर / में होंगी / मैं शब्दों के किसी सरल समीकरण में बचूंगा / मेरा अंततः
धुआँ / जो अजदाद के ज़माने में / भूख़े पेटों को / खाना पकने की / मेरी भाषा में वास करेगा” या अपनी रचना प्रक्रिया शीर्षक कविता
इत्तला / देता था / अब फ़साद का पता देता है।” वह कविता की में वह लिखते हैं– “मेरी पुरानी भाषा मेरी नई चुनौती है / और मेरी
तात्कालिकता पर भी कटाक्ष करते हैं। समकालीन कविता में यह बात नई भाषा एक पुरानी लड़ाई / लड़ते रहने होगा जिसे और भी नये
बार बार देखी जाती है कि लोग कविता लिखने के लिए इतने आतुर वक्तों में / नई चुनौतियों से पार पाना होगा / एक पुरानी भाषा के
होते हैं कि घटनाओं के साथ-साथ उनकी कविताएँ भी तुरंत लिखी सहारे / यही फिलहाल मेरी रचना प्रक्रिया है।”
जाती हैं। ऐसी कविताओं की कैसी गति- दुर्गति होती है यह किसी से इधर हाल के वर्षों में उन्होंने शृंखलाबद्ध और विषय केन्द्रित
छिपा नहीं है। वह अपनी कविताओं में समकालीन रचनात्मकता की कविताएँ लिखी हैं। उनमें ‘आत्मकथा’ शीर्षक संग्रह की कविताएँ
इस सीमा पर बहुत क्षोभ के साथ लिखते हैं– “इधर कविता इतना बिलकुल अलग रसास्वाद और मनःस्थिति की कविताएँ हैं। शृंखला
तात्कालिक मसला बन गई है / कि लगता है कवि इंतज़ार ही कर बद्ध होकर भी ये कविताएँ एक-एक कर के पढ़ी जा सकती हैं। एक
रहे थे / घटनाओं / दंगों / घोटालों / बलात्‍कारों का।” वह जैसे दिन साथ भी और अलग-अलग भी। इन कविताओं में सिर्फ़ कवि की
रात कविता में जी रहे हों, उनकी कविताओं को अगर समग्रता से कथा ही नहीं है बल्कि उसके आसपास और पूरे परिवेश की एक
देखा जाए तो उसमें एक न मिटने वाली बेचैनी दिखेगी। जैसे दुःख न कथा इसमें मौज़ूद है। बकौल कवि “मुझे आत्मकथा लिखनी है/

516 n जुलाई से सितंबर 2023 yegh


पर लिखते हुए चली आती हैं/ न जाने कितनी कथाएँ / न जाने ‘मगध’ जैसा है। वैसी ही छटपटाहट भी। यहाँ करुणा है, प्रेम है,
कितने लोगों से जुड़ी/ और मैं नियम तोड़ बैठता हूँ।” जब देश में हृदय की वह मुक्त अवस्था है जिसमें कविता संभव होती है। ऐसी
लॉकडाउन लगा था और हज़ारों-लाखों लोग पैदल अपने-अपने पंक्तियाँ उसी उच्चभूमि पर पहुँच कर रची जा सकती हैं-
घरों को आने के लिए अभिशप्त थे, उस समय के वो कारुणिक “मैं महीनों / बस्ती के सबसे वंचित व्यक्ति के द्वारे खड़ा रहा
दृश्य इस संग्रह में हैं। “जिस सभ्यता में रहता हूँ / उसमें/ न मनुष्य / भिक्षा के लिए / इतने महीने / मैंने क्या खाया / मत पूछिए /
की ज़रूरत है / जो पटरियों के सहारे घर जा रहा हो /न बासी रोटी भन्ते / मैं उस द्वार से रिक्त-पात्र भले / लौटा हूँ / रिक्त-हृदय /
जिसे वह खा रहा हो।” जो उस वक्त के दृश्य थे, वह सच मायने रिक्त-मन / नहीं लौटा।”
में बहुत भीषण और हताश करने वाले थे। वह बहुत कारुणिक थे। प्रकृति बार-बार कवि के यहाँ उपस्थित होती है। प्रकृति के
जिन्हें देखना सुनना बहुत कठिन था। कवि उस त्रासद पीड़ा को अनेक बिम्ब अनायास कविताओं में आते हैं। वह प्रयास करके
दर्ज़ कर रहा है– “गोंद में / कंधे पर / ठेले पर / बच्चों को लादे नहीं रचे जाते बल्कि वह इस तरह से आते हैं जैसे सारी की सारी
/ यह देश घर आ रहा है / बैलगाड़ी में/ जुए के नीचे एक आदमी कविताओं को इन्हीं रास्तों पर चलना हो। इनसे बचकर न कवि जा
ने / अपना कन्धा रख दिया है।” वह अपनी शृंखलाबद्ध आत्मकथा सकता है और न कविताएँ- “प्रकृति ने ही / मनुष्य को प्रज्ञा दी /
शीर्षक की कविताओं में अपनी कथा नहीं लिख रहे बल्कि समूचे प्रकृति ने ही / उर में प्रेम बसाया / प्रकृति के विरुद्ध जाए ऐसा तो/
देश और मनुष्यता की कथा लिख रहे हैं। इस कथा में लाखों मजदूर धम्म नहीं हमारा।”
हैं जो अपने काम करने की जगह को छोड़कर अपने घर पहुँचना शिरीष मौर्य की कविताओं और इस काव्य-विकास की यात्रा को
चाह रहे हैं। कैसे भी और किसी तरह। कोई साइकिल से जा रहा है हम दो भागों में बाँट सकते हैं। एक हिस्सा उनके शुरुआती काव्य
कोई पैदल। “एक बेटी रोती हुई जा रही थी / थकान / पीड़ा/ और संग्रहों का है और दूसरा हिस्सा जिसमें वह शृंखलाबद्ध रचनाएँ
भूख़ से /अब मर गई है / समूचा एक वक्त कराहते हुए/ घर आ लिख रहे हैं। दोनों में अपने समकालीन समय का यथार्थ दर्ज़ है।
रहा है।” इस पूरे संग्रह में आत्म कवि का है और कथा समाज के दोनों में फ़रक आया है तो बस कहन का। जब वह शृंखलाबद्ध और
साधारण-से साधारण लोगों की है। इसमें केवल मनुष्य ही नहीं हैं, ढाई ह़जार वर्ष पूर्व की घटनाओं से आज के समय को गुम्फित कर
इसमें कवि का अपना पूरा परिवेश समाया हुआ है। यहाँ कवि की लिख रहे हैं, तो ऐसा नहीं है कि वह अपने वर्तमान से इतिहास की
अपनी समूची पृथ्वी है। मनुष्यों से इतर यहाँ पहाड़ हैं, जंगल हैं, तरफ भाग रहे हैं या यथार्थ से दूर जा रहे हैं। ऐसा करते हुए वह
नदियाँ हैं, पूरी प्रकृति है। इसी सब के बीच कहीं कवि का आत्म समकालीन यथार्थ को और गूढ़ता व कलात्मकता के साथ लिख
है और यह कविताएँ इन्हीं सबकी कथाएँ हैं जिन्हें पढ़कर एक नए रहे हैं। वह समकालीन कविता में एक नया मुहावरा रचने के लिए
काव्य सौंदर्य या कहें कविता की अलग राह से गुज़रने जैसा होगा। तैयार हैं। इसलिए इन कविताओं के स्वर में एक विराट करुणा के
चर्यापद शृंखला की कविताएँ ‘समालोचन’ में अपने प्रकाशन साथ हमें एक विराट हलचल भी दिखती हैं। वह लगातार कुछ
के साथ काफ़ी चर्चा में रहीं। चर्यापद शृंखला की कविताओं में नया खोजने की जुगत में हैं। एक नई काव्यभाषा, एक नये ढंग का
आज के समय का दुःख-दर्द समाया है। इस जीवन और समय व कहन, एक नया मुहावरा। जैसे जब वह लिखते हैं- “मैं भद्रक/
समाज की बेचैनियों का कितना विनम्र वर्णन है यहाँ। इन काव्य निर्लज्ज हो कहूँ / तो मेरे भीतर भी / कुछ पाप बचा रहा / पर बचा
पंक्तियों की भाषा कितनी आद्र है। कितनी नरम। जैसे कोई कविता रहा / प्रेम भी / भन्ते! / मुझे बताइए / कि क्यों मेरी मनुष्यता /
न कर रहा हो बल्कि बार-बार बुद्ध को पुकार रहा हो। अपनी इसके लिए / मुझे धिक्कारती नहीं / ढाँढ़स ही बँधाती है।”
समकालीन बेचैनियों और भावों को शृंखलाबद्ध तरीके से रचना इन विषय बद्ध कविताओं में जीवन का राग छुपा हुआ है। इनमें
और उसे एक कारुणिक स्वर देना बहुत श्रम का काम है। जाहिर गूढ़ता है। यह वर्तमान से निकलना नहीं है बल्कि वर्तमान में और
है ऐसी रचनाएँ बहुत पीड़ादायक होंगी। जैसे यह लिखना-“अन्न गहरे धंसना है। हिंसा, घृणा और अन्याय की अनेक घटनाओं के
माँगो उस घर से/ जो विपन्न हो / उजड़ा हो दुर्भिक्ष में / उस गाँव बरअक्स यह लोगों में करुणा पैदा करने वाली कविताएँ हैं। ये
जाओ / उस व्यक्ति से मिलो / जिससे मिलना सबसे सरल हो / कविताएँ प्रेम में पगी हुई हैं। इनसे गुज़रते हुए ऐसा लगता है जैसे
और जिसकी तरह जीना / सबसे कठिन।” इन कविताओं में एक मनुष्यता को बचाने के लिए यह कोई करुण पुकार हो। n
ख़ास तरह की बेचैनी दिखेगी। मनुष्यता के प्रश्नों से भरी हैं ये संपर्क : हिंदी विभाग,
कविताएँ। इनमें अपने समय, समाज और हर तरह की सत्ता से राजेन्द्र प्रसाद डिग्री कालेज, बरेली
सवाल करने का साहस है। इन कविताओं का स्वर श्रीकांत वर्मा के मो. 7455074206

yegh जुलाई से सितंबर 2023 n 517


n असीम : पीयूष दईया

‘मार्ग मादरज़ाद’ से गुज़रते हुए एक पाठक का आलाप


मदन पाल सिंह

वस्तुओं के चित्र मत बनाओ, इसके बनिस्बत उस धारिता, उसकी ग्राह्यता, उसके वाहक़ होने का दाय
प्रभाव को उकेरो जो इन वस्तुओं से उत्पन्न हुआ है। स्फुरित होने लगता है। ऐसी स्थिति में भाषा पर विचार-
-मालार्मे घटना और इनकी सयुक्त आवाज़, क्रंदन की हद तक
(Lettres à Henri Cazalis / Correspondance) हावी हो जाती है। खैर यह भी भाषा को बरतने का
एक तरीका है। इसे त्याज्य कैसे कहा जा सकता है!
हिंदी कविता की सहक़ारी समिति के मयखाने में, इससे इतर नाना प्रकार के कवि-कुल भी उपस्थित हैं,
भरत मुनि के वरिष्ठ, कनिष्ठ, बलिष्ठ, गरिष्ठ… जैसे जिनका ज़िक्र यहाँ नहीं करा जा रहा है। अंतिम छोर पर
विविध मानस पुत्रों द्वारा कलावादी और लोक के वर्चस्व को लेकर, कुछ मसृण साधक हैं। ये संख्या में कम है। ये बुदबुदाते हैं। इनके
न जाने कितने जाम तोड़े जाते रहे हैं। चखना के झूठे दोने उछाले हाथ में तमाम तरह के दुनियावी काम की तस्बीह होती है। ये भी
जाते रहे हैं। बता पाना मुश्किल है। उत्प्लावन और उत्क्लेदन से अछूते नहीं है। हालाँकि दूसरे लोगों की
यहाँ एक तरफ तेल चुपड़ने से दपदपाते कांतिमान माथे पसीने तरह ये भी अपनी आँखों को गोल करके दुनियाँ देखते हैं, लेकिन
और मिटटी की सौंधी खुशबू, घूँसा मारकर तोड़ी गयी प्याज, इनकी कविता अलग है। ये अलग तरह की कविता रचते हैं। भले
अब्दुल काका, रफीक़ मियाँ, गफूरन काकी, लाल झंडा, मंदिर- ही ये मोटा काटें, लेकिन कातते बारीक हैं। इस ध्रुव पर रहने वाले
मस्जिद, गंगा-जमुनी तहज़ीब, हक़-हुकूक, सलाम-नमस्ते, लम्पट, कवियों को, हर तरह के रचनाकारों की तरह समझना आसान है,
शहर, शर्म, समझौता, साहस, फासीवाद, उत्तर-दक्षिण, टूल्स और लेकिन उनकी रचनाओं को नहीं।
बुलडोजर…इत्यादि की बात कर रहे हैं। वहीं लोकल के गिलास में यहाँ एक प्रसंग याद आ रहा है और इस लेख में इस घटना का
कुछ सज्जन बड़ी ही नरमदिली से ग्लोबल ब्रांड का नीबू निचोड़ रहे संज्ञान लिया जाना आवश्यक प्रतीत होता है। एक बार युवा प्रूस्त
हैं। एक तरफ़ कुछ ऐसे अवतारी हैं जो ग्लोबल से लोकल की ओर और मालार्मे का वैचारिक विवाद हुआ था। इसमें प्रूस्त ने मालार्मे के
लौटकर सत्तू के फायदे गिना रहे हैं। गहमा-गहमी के इसी माहौल लेखन को अस्पष्ट और भ्रांतचित का दिग्दर्शन करने वाला बताया
में, हर पंक्ति में सूक्त सम्मत महाकाव्य समेटे कुछ कवि विभिन्न था। मालार्मे ने भी 'शब्दों में अन्तर्निहित रहस्य' नामक अपने लेख
शक्तिपीठों को लेकर भौचक्क दीखते हैं। कविता के इस लोकतंत्र में में, समकालीन लेखकों पर व्यंग्य प्रकट करते हुए मत प्रकट किया
मेनिफेस्टो, बैलेट पेपर,और चुनाव चिन्ह का बिल्ला इधर से उधर कि उन्हें गंभीर लेखन पढ़ना नहीं आता। उनकी बुद्धि का स्तर मात्र
सरकाये जाने के दौरान, कुछ उत्साही कनखियों से देखते हुए अपनी अख़बार की सामग्री बाँचने के लिए उपयुक्त है।
अँगुलियाँ साफ़ कर रहें है, जो वमन के पित्त और एक दूसरे का लब्बोलुआब यह कि पियूष का शब्द-संयोजन भाषा के गोपन
इज़ारबन्द तोड़ने के कारण खटमदरी बदबू में गर्क हुईं थीं। गुण से अभिप्रेरित हैं। अब उनमें जन-मन-गण और लोक खोजने
चलिए, कल्पना करते हैं कि भाषा फुसफुसा रही है। वह कुछ वालों को यथेष्ठ सामग्री मिले या नहीं लेकिन इस बात से इनकार
कवियों से कहती है कि मुझे बरतने का सार जानो। कुछ गुणग्राही, नहीं किया जा सकता कि यह भी भाषा को बरतने का एक तरीका
संवेदनशील कवि तुरतं दुःख से भरने लगते हैं। उनका कविमन है। पियूष इसी कुल के होनहार कवि हैं।
इतनी पारदर्शी होता है कि चीत्कार सुनी जा सकती हैं। वे प्राक्कथन अब आते हैं उनकी कविताई पर। पियूष की कविताई से मेरा
और विगम का अंतर मिटा देते हैं। उनकी सक्रियता द्वारा भाषा की परिचय पुराना है। लेकिन जिस दौरान मैं मालार्मे का अनुवाद कर

518 n जुलाई से सितंबर 2023 yegh


रहा था, यह परिचय और गहराया। लंबी कविता ‘ऐरोदियाद’ के की उपरोक्त बीज कविता से– कहीं से भी, किसी भी दिशा से शब्दों
दूसरे अंश (दाई और ऐरोदियाद का वार्तालाप) के एक संवाद में को चुनकर, कहीं भी रखकर उनसे कविता निर्मित की जा सकती है।
मैंने पढ़ा : 'हे औरत! एक चुंबन वध कर चुका होता, यदि सौंदर्य इस क्रम में पियूष की काव्य कथा ‘मार्ग मादरज़ाद' से कहीं से
होता नहीं मृत्यु का पर्याय तो’...वहीं 'मार्ग मादरज़ाद' में आचार्य भी, किसी भी दिशा से कुछ बीजों को चुनकर बिखेरते हैं और अक्स
पियूष 'संभावना व व्याघात' रचते हुए कहते हैं : '…जुगनू मछलियाँ देखते हैं :
नहीं हैं, वर्ना सबकी सीप में मोती होते…। ‘ यहाँ मैं खासतौर पर ‘मार्ग अचानक से, तीन पत्थर मकड़ीले रिक्त हैं, भुला दिए गए
मादरज़ाद’का उल्लेख कर रहा हूँ। क्योंकी इस रास्ते की रचनाओं ने -सालहसाल।
बरबस मेरा ध्यान खींचा। कौन जाने किस इल्हामी इति का केकड़ी रचाव
मालार्मे की रचनाओं के आस्वाद के बाद इस रास्ते पर कुछ और अपने उवाच से।
दावेदारी हैं। कुछ और भी नवोन्मेष है। एक जहाज़ की तबाही का मूँजदार फंदों से बना लगता मादरज़ाद -यह फोकीफ़रोश
रूपक, टाइपोग्राफी मैं मालार्मे की लम्बी कविता 'पासे की एक चाल यह बिन पते का ऐबदार शख़्स।
कभी किस्मत के खेल को नहीं मिटा सकती' में जिस तरह शब्द ----------
अपनी स्वतंत्रता की सत्ता से आनंदित हैं, उसी तरह से यह किरदार दोगली हर बिरादरी
पियूष की कुछ कविताओं में भी उपस्थित है। साथ ही आगे चलने कसैले कौए जैसे हाज़िरी के काज
पर मुझे मालार्मे और पियूष में मितव्ययिता की वह साम्यता दिखी ढोंगी कटीली काट
जो दोनों की कविता का मुख्य गुण है। यहाँ अंतःकरण का विस्तार चिलम चौपाली सँपोला दोमुँहा साँप
दीखता है। इस ऋतु में, कविता की भाषा में इच्छा की आकांक्षा है, -जिन्हें वह लिख नहीं पाता आत्मा को शीर्षक देने।
लेकिन वह सुप्त है। वह निसृत होने में कठिनाई का अनुभव कर रही --------
है– अतः वह रिसती है। उसके शब्दों के बीच में अंतराल है। स्पेस छुतहा छलनाओं, पर्त-पर्त रूपोश की गणना
का अपना रहस्य है जिसे पाठकों और अनुवादकों को भरना होता है। फटेहाल माथा जैसे हिजड़े जैसे फितरत
इसी तरह की रचनाओं को लेकर इसी अवधि और अंतराल के बारे फोकटी रजील, ग़ाफ़िल घड़ियाँ
में मालार्मे कहते हैं कि 'कविता एक रहस्य है और इसके पाठक को मुंतज़िर मादरज़ाद, धुँआता रहता मसानी,
ही इसकी व्याख्या का सूत्र खोजना चाहिए। ' -अपने आपको सबकुछ बताने बैठता तो।
अब यहाँ एक साधारण सा प्रयोग करते हैं। पहले, मालार्मे की यहाँ स्पष्ट हो जाता है कि सूचनाओं की तरह बारीक विवरण में
इसी उल्लेखित कविता के कुछ शब्द कहीं से भी, दाएँ -बाएँ और जाये बिना, दिक् और काल में आविर्भाव और अवसान की यात्रा
ऊपर-नीचे से उठाकर, बिना तारतम्य के लिखते जाते हैं : करती हुई, पियूष की कविताएँ अनगिनत अर्थ खोलती हैं। उन्हें
अखण्ड दिक्क मण्डल से विछेपित कोई दूसरा प्रारब्ध और आप किसी भी तरह बरत सकते हैं– निश्चित दिशा और निश्चित
पृथक रहस्य से गुज़र जाना इसपर सगर्व, निष्कर्ष से परे।
वहाँ निष्प्रयोजन,अस्तय इसी पुस्तक से कुछ और पंक्तियाँ उठाकर कवि पियूष को
विशिष्ट क्रमांक प्रछन्न परवर्ती पुराना दानव रूपवादी कहक़र चिकोटी काटते हैं। इससे निर्मित रूप इस रचना
वही काष्ठ में आलोपित के शब्द विधान और केंद्रीय भाव का अतिक्रमण तो करता है लेकिन
वैवाहिक कामद मधुमास में अवरुद्ध रसाताल समरूप कहन को कमजोर नहीं कर पाता। कुछ शब्दों को एक साथ उठाकर
विलीन वास्तविकता थी स्वयं में कोई घटना लिखने से कविता का एक दूसरा आस्वाद सामने आता है :
सारे व्यर्थ परिणामों की दृष्टि से कि... विदूषक की भूमिका में कसूरवार
...हर विचार, सारा चिंतन प्रसारित करता है फदाफद करते जतन लाख
पासे की एक चाल। करार मरघिल्ला मामला इतना नज़रचोर
यहाँ पर बकलम मालार्मे 'हर विचार, सारा चिंतन प्रसारित करता खुरदरे ऐतराज़ों वाला
है, पासे की एक चाल' इस कविता की अंतिम पंक्ति और निकष है। कतिपय कम्बख़्त फोकटी चकलाघरी
यहाँ आकस्मिक संभावना, संज्ञानता का अतिक्रमण करती है। इस तरतीब देते रह गए,
तरह शब्दों की शक्ति को परम सत्ता के रूप में देखने वाले मालार्मे तिनके भूँकते भजन– भेदभोपा-सान्तगोपन

yegh जुलाई से सितंबर 2023 n 519


सुलह के लहजे का सच : जीने का मर्मफला सारांश। कला बन जाती है तो किसी के लिए आत्मा का संगीत। बहुतों के
मैं इस निष्कर्ष पर पहुँचता हूँ कि 'मार्ग मादरज़ाद' में प्रयुक्त लिए यह मानसिक विलास है जो सीधा 'कलावादी' होने से जुड़
शब्दों की अभिधा शक्ति को विभिन्न स्रोतों-दृष्टिकोण अनुसार जाता है। इस कलावादी ध्वज को उतारने के प्रयास होते रहें हैं।
जाना-समझा जा सकता है। प्रयोग के लिए ये शब्द जब अपनी इस समिति के कर्ताधर्ताओं के अनुसार ऐसी रचनाओं में निजता के
पंक्तियाँ तोड़कर, अपने जोड़ीदार से विरत हो, नए युगल या समूह अलावा, मानवता की कोई भी अभिव्यक्ति नहीं है। लेकिन क्या यह
में संसर्ग करते हैं तब कविता प्रजनन के उस उर्वर समय चक्र में मार्ग, यह स्याह रंग सिर्फ़ इस कवि की ही विरासत है। ऐसा नहीं है।
पहुँच जाती है जहाँ लक्षणा और व्यंजना से अनगिनत अर्थ और ज़रूरी तो नहीं है कि अपने अनुभव, अपनी निजता जन के अनुभव
ध्वनि उत्पन्न हो सकती हैं। ना हों। यहाँ बात भाषा पर भी लागू हो सकती है। क्योंकि जन निरपेक्ष
एक सीधा सवाल उठता है कि क्या मार्ग मादरज़ाद के शब्द कवि भाषा में भी जन को जाना जा सकता है। मालार्मे के अनुसार वह सब
की अपनी बोलचाल के, अपने सहज शब्द हैं। ऐसा नहीं लगता। तो जिसका दुनिया में अस्तित्व है एक पुस्तक का दृष्टांत हो सकता है,
इसका अर्थ क्या यह लगाया जाये कि कवि अपने शब्दों के माध्यम सब उसकी तरफ जाता है। फ़िलिप ज़ाकोते किताब को दुनिया को
से अपने आपको अभिव्यक्त करने में कठिनाई का अनुभव कर रहा? तरफ ले जाना चाहते हैं। इस क्रम में पियूष जहाँ अपनी सजग भाषा
महसूस तो ऐसा ही हो रहा है। संभवतः इस प्रक्रिया का स्रोत उनके बुनते हैं वहीं दुनिया से भी नहीं कटते। उनकी आवाज़ाहीं इन दोनों
परिवेश में हो। इसका उत्तर कवि ही दे सकता है। खैर, इस क्रम में के बीच में है। दुनियावी अनुभव और किताब के बीच। उनके इस
ये चुने हुए शब्द हैं। और बिना सावधानी के जिनसे हम कविता का जन अवसाद को इस किताब के द्वारा जाना जा सकता है :
यौगिक बना रहे हैं दरअसल वे सावधानीपूर्वक चुने हुए शब्द हैं। यह हलहुजूर के हलकों में हाज़िरी लगाते
चुनाव किस समय का है, इसका उत्तर भी कवि के पास है। लेकिन जान लेते कि हर ओर हंगामा हाज़िर का है।
इतना ज़रूर कहा जा सकता है कविता रचने से पहले शब्द संयोजन यह पियूष की विशेषता है। वहीं कुछ-पाठकों के लिए ग्राह्यता
/ शब्दों के चुनाव का प्रयोग होता रहा है। और वह भी याँत्रिक हद के मामले में रचना जन के सापेक्ष नहीं है। हालाँकि इस बात से भी
तक। जिसमें पहले शब्दों को मील के पत्थर की तरह गढ़ा जाता इनकार नहीं किया जा सकता कि ‘सापेक्ष और निरपेक्ष’ का सिद्धांत
है। फिर सीमा, दूरी और विवरण भरे जाते हैं। इन्हें फिर कविता में कुलभोज के समोसों में स्वाद अनुसार नमक और खाली पत्तल पर
प्रयुक्त किया जाता है। बाक़ायदा इस तरह के कविता आंदोलन का भी काफ़ी हद्द तक निर्भर करता है।
अस्तित्व रहा है। पियूष कवि हैं। स्याह उन्मेष, दृश्य लिए विसंगति अक्स के
यहाँ फिर एक प्रसंग याद आ रहा है। अंतिम प्रतीकवादी के नाम प्रति आग्रह के कवि। परिवेश-परंपरा और अनुशासन सम्मत उनकी
से मशहूर कवि पोल वालेरी का यह वर्णन बड़ा मशहूर रहा है। नवोन्मेषी भाषा, उनके शब्द स्वयम को एकाधिक अर्थवत्ता देते हैं।
यह प्रभाववादी चित्रकार एदगार देगा और शब्दों की असीम शक्ति कवि का नवोन्मेष संदश े और उपदेश को व्यक्त करने के बजाए
में विश्वास रखने वाले मालार्मे के बीच घटित हुआ। दगा कविता भाषा की सुदीर्घ प्रकृति की खोज से जुड़ा है। यहाँ ख़ुद की एक ऐसी
लेखन हेतु भरपूर विचार रखने के बावज़ूद इच्छित कविता नहीं लिख भाषा बनती है, जो ध्यान भटकाने की हद तक प्रायोगिक है। यहाँ
पा रहे थे। जब वह इसकी शिकायत अपने मित्र मालार्मे से करते हैं तक कि भाषा अपने आप में कर्ता बन जाती है। कवि की निजता
तब मालार्मे जवाब देते हैं : 'मेरे प्यारे दगा, कविता विचारों से नहीं का व्यवहार करती हुई। दूसरों के स्वेद से अस्पृश्यता बरतती हुई।
शब्दों से बनती है। ' फिर कला के साथ रहस्य बुनने के दायित्व को भी इस पर डाल
यह हिंदी कविता का ‘डार्क वेव’ है जिसमें परिष्कृत और दिया गया है।
नवोन्मेषी संयोजन के साथ अपने अनुभवों के समानान्तर एक कवि एक बात और इस मिज़ाज की कविताओं को तुकांतता में लिखने
अपने अँधेरों को शब्द दे रहा है। जो शब्द जनकविता के शब्दकोश का विचार नहीं आता और न ही इनके लिए किसी दूसरे शिल्प के
में बाँध दिए गए हैं, उनका प्रयोग ना दिखने पर इस तरह की रचनाओं विकल्प का। इससे गुज़रने पर महसूस होता है कि 'मार्ग मादरज़ाद'
को 'जनक' (जनविरोधी कलावाद) का तमगा ज़रूर मिल जाता का ‘ऑब्सर्ड मंचन’ किया जा सकता है। इस रचना के शब्दों की
है। यहाँ जन आंदोलन का कोई नारा, व्याकरण और शब्दावली नहीं ध्वनि और ध्वनियों के साथ किये जाने वाले आरोह-अवरोह जैसे
मिलेगी लेकिन इसके बावज़ूद यह जन विरत कविता नहीं है। प्रयोग इसे कितना विस्तार देंगे। यह भी देखने वाली बात होगी।
इस अन्वेषण को परिभाषित करने के प्रयास उतने ही हैं जितने उच्च ध्वनि युक्त सावधानी से चुने हुए शब्द, भाषागत प्रयोग,
इसके परीक्षक। अब किसी के लिए यह कविता में काम करने की दुर्बोधता, शब्दों की पारस्परिक स्वीकृति, सलेटी रंग का समायोजन

520 n जुलाई से सितंबर 2023 yegh


जैसी अनेक सलाहियतों के साथ पियूष का यह कार्य, शब्दों की बहुत दूर देखता, बहुत पास देखता।
शक्ति और भाषायी अनुप्रयोग में उनके विश्वास को दर्शाता है। कवि की कला संगत के कारण कविता में 'दिखने और उसके
उनके पूर्वज मालार्मे भग्नपोत के साथ, पासे लिए दिक् और काल रूपांतरित होने की प्रक्रिया' को भी नज़र अंदाज़ नहीं किया जा
से जूझते हैं। उनके अनुसार यहाँ नियम या कारण न होकर केवल सकता। इस तरह की अनुभव जन्य कविता कूट तालिका के रूप में
आकस्मिकता, ब्रह्मांड के साथ है। वहीं पियूष अपने इस संग्रह के हो तो कैसा आश्चर्य! एक और बात कहनी होगी कि 'सभी निसृत
माध्यम से घुन्नेपन और विडंबना के स्लेटी विस्तार में बंधन और खाध्य हैं' की तर्ज से अलग कवि के यहाँ धैर्य है। कविता पकाने-
जीवन की यातनाओं के नीचे निराशा और भाषा की ऋतु में भीगते परोसने का धैर्य।
दिखाई देते हैं। यहाँ लगता है कि शहर में बसा, बेकाबू होता एक इस तरह, यहाँ चित्र नहीं बल्कि उनके अक्स उपस्थित हैं। इस
आदमी आत्महत्या करने की हद तक हर रोज सलेटी धुंध में आगे अक्स और कविताई के मिज़ाज़ के पूर्वज तो दिखाई देते हैं, लेकिन
बढ़ रहा है : वंशज काफ़ी कम हैं। n
विरल से विरत, विचित्र से मोहग्रस्त। संपर्क : दिल्ली
मो. 9667456428

n लमही का कहानी विशेषांक अब पुस्तक रूप में अनन्य प्रकाशन, दिल्ली से प्रकािशत

भूमंडलीकरण, उदारीकरण और निजीकरण के दौर में विशालकाय


आवारा पूँजियों ने पिछले दशकों में मानवीयता के साथ जिस तरह
का व्यतिक्रम भरा व्यवहार किया, विजय राय द्वारा संपादित ‘हिंदी
की भूमंडलोत्तर कथाभूमि’ उसका प्रतिबिम्बन करती है। शब्दों का
अपने अर्थों से खिसक जाना, आत्मीय विस्थापन, स्वयं से अलगाव
और व्यवस्था द्वारा लादी गई विसंगतिपूर्ण ऐकान्तिकता की पड़ताल
इस आलोचनात्मक पुस्तक में बहुत महत्त्वपूर्ण तरीक़े से की गई है।
पुस्तकें पढ़कर जब कोई थक चुका होता है और समाज को पढ़ना
शुरू करता है तो सन्त्रास से गुज़रने के बाद, नई प्रस्थापनाएँ अपने-
आप जन्म लेने लगती हैं। यह सब-कुछ अचानक नहीं होता। इनके
पीछे उस पंछी की वेदना शामिल रहती है, जिसे उड़ना भुलवा दिया
गया होता है। अनुभूति की तीव्रता, कल्पना की उड़ान और दुनिया
को बेहतर बनाने की पुरज़ोर कोशिश इसमें बेहद सकारात्मक तरीके
से व्याप्त है। इस दौरान नए जनमाध्यम आए और इन नई तकनीकों
ने मनुष्य को बाज़ार का ग़ुलाम बनाने का प्रयास किया। इनकी
मंज़िलें पहले से तय हैं, रास्ते भले ही मुख्तलिफ़ हों।

मूल्य : रुपये 995.00

yegh जुलाई से सितंबर 2023 n 521


n असीम : शिरोमणि महतो

मनुष्यता के निर्माण की कुलबुलाहट


आरसी चौहान

युवा कवि शिरोमणि महतो वन और खनिज संपदा पहला कविता संग्रह-‘धूल में फूल‘ (बाल कविता
से परिपूर्ण राज्य झारखण्ड के ग्रामीण परिवेश से संग्रह) 1993 के अलावा ‘पतझड़ का फूल‘ (काव्य
आते हैं। इनकी रचनाओं में वहां की खुशबू भीतर पुस्तिका) 1996, ‘कभी अकेले नहीं ‘(कविता
तक समाहित है। अपनी भाषा के प्रति यही प्रेम इन्हें संग्रह) 2007, ‘भात का भूगोल ‘(कविता संग्रह)
अपने समकालीनों की भीड़ में पहचान छुपाने में 2012,‘चाँद से पानी‘ (कविता संग्रह) 2018 और
कारगर साबित नहीं हुई और फिर कहीं भी ये अलग सभ्यता के गुणसूत्र (कविता संग्रह) 2023 के माध्यम
से पहचान लिए जाते रहे हैं। यही वज़ह है कि इनकी से हिंदी साहित्याकाश में एक नया आयाम स्थापित
कविताओं में मनुष्यता के निर्माण की कुलबुलाहट को बख़ूबी किया है। ‘चाँद का कटोरा‘ में पानी के रूप में जीवन की खोज
महसूस किया जा सकता है। शिरोमणि महतो अपने सामाजिक करना एवं खनिज भण्डार के रूप में चाँद को देखना कवि कल्पना
परिवेश को कभी दरकिनार नहीं करते हैं। जिस परिवेश में वे जी रहे की लम्बी उड़ान भरता है- ‘तब कटोरे के पानी में/चाँद को देखता
होते हैं अपनी कविताओं में उसको बख़ूबी आत्मसात भी करते हैं। था/अब चाँद के कटोरा में/पानी देखना चाहता हूँ।’(पृष्ठ 12) यहाँ
शिरोमणि महतो अपने सामाजिक परिवेश के उन तमाम थके-हारे, कवि बचपन की स्मृतियों को साकार कर बिम्बों का विलोम रचकर
भूले-भटके लोगों को अपने काव्य का नायक नियुक्त करने में कोई चमत्कृत करता है।
संकोच नहीं करते जिनसे अक्सर आमना सामना होता रहता है। इनकी कविताओं में श्रम को सम्मान दिलाने की पुरजोर कोशिश
वह सही अर्थों में लोक के कवि हैं। वह अपनी छोटी-छोटी चीज़ों भी है। दुनिया को ख़ूबसूरत बनाने में तमाम ऐसे लोगों की भूमिका
से बनी संवेदनाओं की वृहत्तर संसार रचते हैं। होती है जो परदे के पीछे रहक़र काम करने के आदी होते हैं। ऐसे
पत्र पत्रिकाओं के माध्यम से इनसे मेरी मुलाकात तक़रीबन दो लोग विरक्ति की हद तक अपने नाम को उजागर करने से बचते हैं।
दशक पहले हुई किन्तु भौतिक रूप से जनवादी लेखक संघ के एक आदिकाल से वर्तमान तक स्थापत्य कलाओं का जो इतिहास है उसमें
कार्यक्रम के सिलसिले में 2019 में आजमगढ़ में हुई। सौम्य और वास्तुकारों का नाम है भी तो नगण्यता की हद तक। ‘अनुवादक‘
शांत प्रवृति के शिरोमणि ने पहचान न केवल एक कवि/लेखक कविता में कवि ने एक श्रमसाध्य कार्य का उचित महत्व प्रतिपादित
बल्कि शिक्षक के साथ-साथ अभिनेता और सामाजिक कार्यकर्ता किया है- “कहीं किसी शब्द को/ खरोंच न लग जाए/या किसी
के रूप में भी बनायी है। बकौल श्रीरंग-“80 के बाद के कवियों में अनुच्छेद का / रस न निचुड़ जाए / इतना सतर्क और सचेत/ रहता
शिरोमणि महतो अपने खास मिज़ाज और नज़रिये के कारण अपना है हरदम-अनुवादक।” (पृ.13) इसकी अगली कड़ी में ‘चीटियाँ’
अलग स्थान रखते हैं। इन्होंने अब के समय के केन्द्रीय कवियों के श्रमशील के साथ प्रतिरोध भी करना जानती हैं। शिरोमणि महतो
सामानान्तर कवि कर्म किया और प्रतिरोध की निजी शैली विकसित अपनी कविताओं में श्रमिक वर्ग का प्रतिनिधित्व करते दिखाई देते
अर्जित की। इन्हें समानान्तर हिंदी कविता की पहली पीढ़ी का प्रमुख हैं। यही वज़ह है कि ‘धरती के इन्द्रधनुष में’ एम. एफ. हुसैन की
हस्ताक्षर माना जाना चाहिए। “ स्मृति में लिखी कविता देश में व्याप्त असहिष्णुता को रेखांकित
शिरोमणि महतो की कविताएँ बनावटी और क्लिष्ट भाषा से दूर करने की कोशिश करते दिखते हैं- “तुम आजीवन चले/नंगे पांव/
सहज और ग्राह्यता की वज़ह से अलग से पहचानी जा सकती हैं। जुड़े रहे ज़मीन से/और तुम्हारी कल्पनाएँ/रंग भरती रही आकाश
अब तक इनके गद्य और पद्य में कई संग्रह आ चुके हैं। इनका की उंचाईयों को /तुम चले गये/छोड़कर-/अपना देश/अपना वतन/

522 n जुलाई से सितंबर 2023 yegh


अपनी मिट्टी/अपनी ज़मीन/अपनी धरती।” (पृ.18) अपनी जड़ों से
कटने की पीड़ा की गहन अनुभूति भीतर तक आंदोलित कर देती है।
कवि स्मृतियों के कैनवास पर शब्दों की तूलिका से रंग भरकर
भूले बिसरे दिनों की यादें ताजा कर देता है। ‘लालटेन‘ कविता में
आधुनिकता की आंधी में लालटेन की बेदखली के साथ मानव
संवेदना का समाप्त होना और छीजते पारिवारिक रिश्ते एवं बिखराव
को इंगित करना कवि की दूरदृष्टि का परिचायक भी है। कवि
तात्कालिक घटनाओं पर भी पैनी नज़र बनाए हुए है। भ्रष्टाचार के
ख़िलाफ़ मुहिम छेड़कर छोटे गांधी के रूप में पहचान बनाने वाले
अन्ना हजारे की जीवटता को उकेर कर न केवल 1857 की क्रांति
के नायक वीर कुंवर सिंह की याद दिला दी बल्कि गांधी के समकक्ष
खड़ा कर फिर से एक नई क्रांति का आह्वाहन भी कर डाला भ्रष्टाचार
और अत्याचार के खिलाफ। जिससे तत्कालीन सरकार की कथनी
और करनी में अंतर करना आम जनमानस को अच्छी तरह से समझ
में आ गया। और रातों ही रात अन्ना हजारे जन नायक बन गये
‘अन्ना हजारे‘ की पंक्तियाँ‘- “कहने को तेरा/रक्त-बीज कोई नहीं/
लेकिन तेरे पीछे /रोयेंगे तेरे-/सवा अरब सगे संबंधी/सचमुच, वह
सौभाग्य गांधी को मिला था।” (पृ.29) जीवन दर्शन को सहज रूप में व्यक्त करती है- “कल क्या होगा?/
शिरोमणि महतो की कविताओं में भाषा और अनुभवों की ताजगी आज क्या होगा?/पल भर बाद क्या होगा?/कुछ भी पता नहीं होता/
अनायास ही नहीं प्रस्फुटित होती बल्कि भोगे हुए यथार्थ के कारण सब कुछ अनिश्चित अज्ञात।” (पृ.49) ‘डेढ़ बजे रात’ कविता में
भाषा चमक उठती है। ‘चौबीस घण्टे’ कविता में गुलगुल के संघर्षों चूहों के माध्यम से भूख़ की तस्वीर खीची गयी है। आज भी यदा
की मर्मांतक पीड़ा को समझा जा सकता है। यहाँ अनुभूति जितनी कदा झारखण्ड,ओडिसा एवं छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों में भूख़मरी की
भावनात्मक है उतनी ही विचारशील। इसमें एक आंतरिक द्वंद्व है घटनाओं से दो चार होना पड़ता है। अकाल के बाद भूख़ पर लिखी
बावज़ूद अपने को खपाते जाने की कोई परवाह नहीं- “कहीं कोई बाबा नागार्जुन की कविता “कौए ने खुजलाई पांखें कई दिनों के
उमंग नहीं रंग नहीं/ दिन भर घर को खींचने में/ उखड़ती जड़ों को बाद” में जहाँ भूख़ की तड़प के बाद घर में दानों के दर्शन होते हैं
सीचने में/ख़ुद को खपाने की कोशिश/अपने को बचाने का/कोई वहीं इस कविता में अनाज के दानों के पकने से लेकर घर आने तक
आग्रह नहीं चाह नहीं।” (पृ.42) इस कविता में कहन की सायास के समयन्तराल से ही अकुलाहट और बेचैनी बढ़ने लगती है- “खेतों
कोशिश न होकर एक स्वस्फूर्त प्रवाह और कवि की चेतस दृष्टि है में धान रस भर रहे हैं/अभी दाने भरने में समय लगेगा/ तब तक इसी
जो अपने चारो ओर घटित हुए को खुरदरे अक्षरों में उकेर देने की कदर/चूहों को बिलबिलाना होगा/ माटी,साबुन,कागज खाकर जीना
क्षमता रखता है जो अंतस पटल पर छेनी-हथौड़े की तरह टन टन होगा।”(पृ.60) यहाँ कवि अपने जीवन से हताश और निराश हो
करता रहता है। कभी-कभी शिरोमणि महतो अपने संस्कारों,मान चुका है किन्तु भविष्य के प्रति आगाह भी कर रहा है।
सम्मान,इज्जत,सामाजिक प्रतिष्ठा को लेकर भावी आशंकित भी होते शिरोमणि महतो कहीं कहीं अपनी कविताओं के पात्र के रूप
हैं। ‘साड़ियाँ’ कविता में आधुनिकता की चादर ओढ़े लोग अपनी में उपस्थित होते हैं तो कहीं कहीं पात्र ही शिरोमणि महतो के रूप
नग्नावस्था को ही आदर्श मानने लगते हैं। कवि की आशंका ज्यादा में उपस्थित हो जाते हैं। ‘स्कूटी चलाती हुई पत्नी’ कविता में किसी
घनीभूति होती दीखती है-“कदाचित ऐसा दिन भी आयेगा/हम नंगे स्त्री को स्कूटी चलाना इनके क्षेत्र में कितना हेय दृष्टि से देखा जाता
होकर जाएँगे अजायबघर/और साड़ियों को अपने शरीर से सटा कर/ है कि झलक इस कविता में देखी जा सकती है-“अब तो मेरी पत्नी
महसूसेंगे अपने पूर्वजों की इज्जत।” ( पृ.41) के हौसले बुलन्द हैं/माप लेने को देस-दुनिया / पंख उग आये
‘रिहर्सल’ कविता में कवि की नज़र में दुनिया एक रंग मंच की उसके पावों में /पत्नी स्कूटी चलाती है /अपने मन की गति से /
तरह है जिसमें किसी भी तरह की होने वाली घटनाओं की अग्रिम अब मैं उसके पीछे बैठकर/ देख सकता हॅूं देस-दुनिया।”( पृ. 63)
सूचना नहीं फिर भी जीवन जीने का रिहर्सल लगातार जारी है। जो कवि हार नहीं मानता और समाज में फैले दकियानूसी विचारों को

yegh जुलाई से सितंबर 2023 n 523


चिन्ता आदिम समाज और वहां व्याप्त आदिम गंध को बचाने को
लेकर है। ‘जंगल में मंगल‘ सूक्ति भी कहीं अपना अर्थ खो न दे को
बचाने की भावुक अपील भी है। इस संग्रह में ‘हवा की दीवार’ भी
एक गंभीर कविता है।
‘पिता की मूंछें’ कविता में कई निहितार्थ छिपे हैं- जहाँ एक ओर
मूंछें सामाजिक मान प्रतिष्ठा की है वहीं दूसरी ओर रौब जमाने की
भी है। कवि को पिता की ‘मूंछें’ शुरू में अच्छी नहीं लगती थी किन्तु
किसी मेले में एक वाकया के बाद अपने इलाके में उनकी ‘मूंछों’
की धाक जम गयी। पिता अपने परिवार का मुखिया होता है जिसके
ऊपर तमाम दायित्वों का भार होता है। किन्तु पिता अपने अंतिम
समय में क्यों बिना के हो गये,कवि को बेचैन करती हैं- “और एक
दिन/बिना कुछ बोले/पिता ने मूंछे कटवा लीं/अब मैं रोज ढूंढता हूँ/
पिता के चेहरे पर पिता की मूंछें।” (पृ.78)
पारिवारिक छीजते रिश्तों को बचाने की महत्वपूर्ण ज़िम्मेदारी
पिता या मुखिया की ज़रूर होती है किन्तु कहीं न कहीं पत्नी की
भूमिका उससे कहीं अधिक होती है। शिरोमणि महतो ‘पत्नी के पॉंव‘
कविता में इसकी पुष्टि भी करते हैं। कवि कल्पना की आंखों से पत्नी
के बाल्यकाल से लेकर किशोरावस्था और अपनी पत्नी बनने तक
का जो सरल और सहज रूप का दर्शन किया है विरले प्रेमी को ही
प्राप्त होते हैं। परिवार को एक सूत्र में पिरोने के लिए पत्नी रात दिन
एक कर देती है तभी तो कवि कह उठता है- “मैं देख रहा /पत्नी के
पांव /और सोच रहा-आंधी-बरसात में /दिन-दुपहर रात में /हमेशा
तत्पर रहते-पत्नी के पांव/कभी थकते नहीं।” ( पृ.80)
इनकी कविताएँ पढ़ते हुए बाइस्कोप के चलचित्र की तरह दृश्य
आंखों के सामने नाचने लगते हैं। निरंजन श्रोत्रिय लिखते भी हैं कि-
अपने स्कूटी के टायरों से कुचलने का साहस भी रखता है जिसकी “शिरोमणि महतो की कविताओं की प्रकृति देशज है। उन्होंने कविता
परिणति सुखद तो है ही। एक छोटी किन्तु गम्भीर कविता है ‘भड़ास- के समस्त उपादान अपने स्थानीय परिवेश से लिए हैं। इसीलिए
“मालिक ने/मैनेजर को डाटा/मैनेजर ने मजदूर को/मजदूर मन उनकी कविताओं में एक आन्तरिक सच्चाई व्याप्त है-एक गहन
मसोसकर रह गया/घर आकर मजदूर ने/पत्नी को पीटा/और पत्नी सहजता के साथ।” ‘बंदरिया’ कविता में ठेठ देशज और स्थानीय
ने बच्चे को/बच्चा रजाई में छुपा/चुपके-चुपके रो रहा है।” (पृ.67) शब्दों का प्रयोग कर हिंदी साहित्य में एक नया वितान रचा है। उन
वाकई अधिकार जिसके पास है, उसके सभी दोष गुणों में बदल शब्दों का पूर्ण अर्थ नहीं समझ आने के बावज़ूद बंदरिया के द्वारा
जाते हैं। उसके कुकृत्यों में भी समाज की भलाई के दर्शन होते हैं रचे जाने वाले स्वांग के माध्यम से स्त्री विमर्श की अच्छी पड़ताल
तथा उनके देशद्रोहत्व को भी देशभक्ति से अलंकतृ किया जाता है, की है। जो कम पढ़ी लिखी महिलाएँ भी हैं बंदरिया के मूक प्रदर्शित
क्योंकि समर्थ होने से दोष उन्हें स्पर्श नहीं कर पाते। आजकल जो स्वांग की सत्यता को देख समझकर उसके दुख से अपने दुख का
भी घटित हो रहा है यह कविता पूरी तरह चरितार्थ करती नज़र आ मिलान कर सघन होती पीड़ा को हँसी में उड़ेल देना चाहती हैं। और
रही है। इसकी अगली कड़ी को और मजबूती प्रदान करती कविता यहाँ कवि अपनी कविता की समर्थता को सार्थक करने में सफल
है ‘इस जंगल में’ जहाँ आदिवासियों के जीवन का राग सात सुरों हो जाता है। n
में सुनायी पड़ता था वहां अब बंदूकों और बम ब्लास्टों की डरावनी संपर्क : आदर्श विद्यालय राजकीय इण्टर कालेज,
आवाज़ें आ रही हैं। पूरा का पूरा जंगल बारूद की गंध से भर गया कोटाबाग, नैनीताल, उत्तराखण्ड
है। महुआ पलास की मादक गंध बिलाने लगी है। यहाँ कवि की मो. 9125198748

524 n जुलाई से सितंबर 2023 yegh


n असीम : विवेक निराला

कविता की वर्णमाला में परंपरा का नया भाव बोध


कुमार मंगलम

क्या राजनीतिक तटस्थता, उदासीनता और अपने की ओर जो संकेत किया है “प्रच्छन्नता का उद्घाटन


समय के सवालों के प्रति चुप्पी ही हमारा यानी कवि-कर्म का एक मुख्य अंग है। ज्यों-ज्यों सभ्यता
भारतीय मध्यवर्ग का नैतिक विवेक बनता जा बढ़ती जाएगी त्यों-त्यों कवियों के लिए यह काम
रहा है? क्या दमन ही आज के उत्तर-आधुनिक बढ़ता जाएगा। मनुष्य के हृदय की वृत्तियों से सीधा
और उत्तर-सत्य युग का मूल्य है? वैश्वीकरण, संबंध रखनेवाले रूपों और व्यापारों को प्रत्यक्ष करने
भूमड ं लीकरण, उदारवाद और मुक्त बाज़ार के आने के लिए उसे बहुत से पर्दों को हटाना पड़ेगा। इससे
पर मनुष्यता को उपहार स्वरूप उपभोक्तावादी मूल्यों यह स्पष्ट है कि ज्यों-ज्यों हमारी वृत्तियों पर सभ्यता
की निर्मिति ब्रांड आकांक्षी मानसिकता, क्रूर और अपराध में लिप्त के नये-नये आवरण चढ़ते जाएँगे त्यों-त्यों एक ओर कविता की
हिंसक, नफ़रती, और सांप्रदायिक एवं सत्ता-शीर्षों की गुलामी और आवश्यकता बढ़ती जाएगी, दूसरी ओर कवि-कर्म कठिन होता
अराजकता को सहने वाला समाज मिला। फलतः समाज में निहित जाएगा।” क्या कविता आज की प्रच्छान्न्ताओं का उद्घाटन कर रही
सभी मूल्यों का सातत्य दमन में केंद्रीकृत होता गया। यह दमन है? क्या कविता आज भी जनता की आवाज़ बनी हुई है? क्या वह
एकायामी नहीं बल्कि बहुस्तरीय और बहु-आयामी है और इसकी दमन के सामने तनकर और डंटकर खड़ी है?
चरम परिणति में मनुष्य और मनुष्यता ही इसके जद में है। 1909 “ध्वस्त हो रहे हैं
में जब गांधी हिन्द स्वराज लिख रहे थे तब स्थितियाँ दूसरी थीं एक-एक कर सारे शरणस्थल
किन्तु कमोबेश मनुष्यता पर ऐसा ही संकट रहा होगा। हिन्द स्वराज निस्तेज हुए जाते हैं सारे दिव्यास्त्र
ने औपनिवेशिक वर्चस्व को चुनौती तो दी ही साथ ही हिन्द स्वराज रोज नई माया रचते हैं मायावी”
आज के भयावह स्थितियों में भी एक वैकल्पिक उपाय के तौर पर विवेक निराला की कविताओं से गुज़रते हुए उपरिवत सभी
मनुष्यता का सहचर बना हुआ है। क्या कविता आज के समय में चिंताओं और सवालों का जवाब मिलने लगता है। मायावी की
दमन का प्रतिपक्ष और मनुष्यता की आवाज़ बनी हुई है? अथवा शिनाख्त हमारे समय के समाज-शत्रु की शिनाख्त है। मायावी की
पूँजी से गंठजोड़ कर क्रीड़ा-विनोद की वस्तु में तब्दील होती गयी पहचान और स्पष्ट करते हुए वे उन मूल्यों की ओर इशारा करते हैं
है। फूको ने कहा था मुक्त पूँजी मनुष्य की आज़ादी या स्वायतत्ता जहाँ एक अच्छे आदमी को समझौतापरस्त बना कर रीढ़-हीन और
पर सीधा हमला है। क्या कविता मुक्त पूँजी के दुश्चक्र में फंस दोमुँहा बना देने की अनवरत साजिश भाषा-धर्म और जाति के नाम
कर आत्मतोष की प्रतीति देने वाली और सोशल मीडिया के भीड़ पर होती है। और आम-जन इन षड्यंत्रों से अभिशप्त है।
में प्रदर्शन की चीज़ होती गयी है। विमर्शों की बाढ़ में कविता क्या “वे अच्छे-भले आदमी के ख़ून को
वाकई अपने दायित्वों को निभा रही है या कि वह महज आस्तित्विक गंदे पानी में तब्दील कर देते थे
आवाज़ और पहचान की राजनीति तक सिमटती गयी है। आज जब वे तनी हुई रीढ़ को हर इंच पर चिटका देते थे
हम अपने समय के यथार्थ को समझने की कोशिश करते हैं और वे भाषा-धर्म और जाति को चट्टान बना देते थे
अपने समय के साहित्य को देखते हैं तो कविता की आवश्यकता अभिशप्त नागरिक जिन पर पटकते थे अपने सिर
और उसके सारतत्व में प्रतिरोध और जनताना आवाज़ की ज़रूरत वे अच्छे लोगों को सम्मान सहित बुलाते थे अपने खेमे में
सर्वाधिक महसूस होती है। आचार्य शुक्ल ने भी कविता की ज़रूरत और फिर दोमुँहा बना कर छोड़ देते थे”

yegh जुलाई से सितंबर 2023 n 525


शक्ति और सत्ता के इस खेल में मनुष्यों के साथ साथ भाषा भी समय की पहचान और उसके विसंगतियों का उद्घाटन विवेक की
निर्वचन और निर्वसन हुई है। मूल्यों का विघटन मनुष्य को मनुष्यता कविताओं में मौज़ूद है। मैं और तुम कविता में विवेक निराला ने
के प्राथमिक शर्तों से भी च्युत कर दे रहा है। प्रेम के उस उदात्त हो अभिव्यक्त किया है जिसके नहीं होने मात्र
“धर्म, ध्वजा, धन और धजा से संसार नष्टप्राय लगने लगता है। यहाँ स्वीकार-भाव इतना गहरा
का शंख बजा है कि कविता में जीवन-राग की धडकनों को सुना जा सकता है।
कुल, गोत्र, क्षेत्र और जाति ओक्तोवियो पाज ने कहा है, “कोई भी तब तक कवि नहीं है जब
के विभाजन से तक उसे अपने भीतर भाषा को नष्ट करने और एक दूसरी भाषा को
न मनुष्य रह गया मनुष्य जैसा सिरजने के आकर्षण ने लुभाया नहीं है। जब तक उसने अर्थशून्यता
न देश जैसा रहा देश के आकर्षण को और अभिव्यक्त न किए जा सकनेवाले अर्थ के
न भाषा बची भाषा की तरह भयावह अनुभव को जिया नहीं है।” प्रेम में कमोबेश ऐसी ही स्थिति
शक्ति के अधियाचन में” आती है। प्रेम अपने बुनावट में दूसरे का अनुवाद भर है। अगर प्रेम
सत्ता द्वारा निर्मित शक्ति संरचना में अर्थ अनर्थ में तब्दील होता नहीं है अथवा प्रेम जब दूर जाता है तो मानुष स्थितियाँ स्वाभाविक
गया और भाव आभाव में। पॉवर पॉलिटिक्स की इस नंगी सचाई को रूप से अपने खालीपन को दूसरे पर डाल देता है। विवेक निराला
विवेक निराला न सिर्फ़ दर्ज़ करते हैं बल्कि उसका उद्घाटन सत्ता ऐसा नहीं करते। वे उस आभाव-शून्यता को अपनी हार बना लेते हैं।
की उन दुरभिसंधियों के साथ उजागर करते हैं। निर्वाचन शीर्षक एक विवशता जो प्रेम के खालीपन से पैदा होता है। राम की शक्ति-
कविता में वे जिस अमानवीय स्थिति का वर्णन करते हैं वह हमारे पूजा में सबसे विकट क्षणों में सीता की याद राम को क्रियाशील
समय के लोकतंत्र की सचाई है। जिस लोकतंत्र को जनता के लिए बनाती है किन्तु ज्ञानेन्द्रपति की मशहूर कविता ट्राम में एक याद की
जनता के पक्ष में होना था वह जनता के ख़िलाफ़ अनेक दुरभिसंधियों प्रेमिल स्थिति उस शून्य से उत्पन्न होती है जहाँ से मनुष्य याद के
और हिंसा का कारण बना हुआ है। कभी आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने सहारे उन जीवन-मूल्यों की तलाश करता है और जीवन-द्रव्य पाना
कविता के लिए लिखा था, “कविता से मनुष्य-भाव की रक्षा होती चाहता है। हालाँकि यह तलाश उसे निराश करती है और नायक को
है।” आज सबसे अधिक हमले इसी मनुष्य-भाव पर हो रहे हैं। यह अकर्मण्य बनाती है। विवेक निराला के यहाँ आते आते यह स्थिति
अनायास नहीं है कि विवेक निराला की कविताओं की केन्द्रीयता अपने द्वारा ही निर्मित संसार को नष्ट करने तक पहुँच जाती है। प्रेम
मनुष्य और मनुष्यता के इर्द-गिर्द है। इसके साथ ही भाषा के प्रति में अपने होने के अहं और मीर का वह भारी पत्थर, आत्मा पर जमी
एक गंभीर सजगता इन कविताओं में मौज़ूद है। मनुष्यता का स्खलन हुई कारण, अपने होने को ही अभिव्यक्त करता है। यह उद्घोषणा
का प्राथमिक संकेत भाषा से ही पता चलता है। विवेक इस बात को भी पुरुष का घोष है, लेकिन विपर्यय उस भाव को स्वीकारना है जहाँ
भली-भांति समझते हैं। मूल्यों के विघटन को वे सबसे पहले भाषा में वह निस्संग है। यानी प्रेम की यह शून्य स्थिति अपने को मलियामेट
ही घटित होते देखते हैं। नई वर्णमाला भाषा के स्खलन और हमारे और मटियामेट कर देने की है। प्रेम में होना अगर ऐश्वर्य है तो प्रेम
समाज में व्याप्त विसंगतियों का सबसे सुंदर रूपक है— का न होना सबसे विपन्न-स्थिति भी है।
“प से पुलिस “मैं जो एक
फ से फिरौती टुटा हुआ तारा
ब से बलवा मैं जो एक
भ से भगौती बुझा हुआ दीप
म से मवाली” तुम्हारे सीने पर
रखा एक भारी पत्थर
वाल्टर बेंजामिन ने साहित्य की सार्थकता को दो रूपों में देखा तुम्हारी आत्मा के सलिल में
है– एक तो साहित्य अगर सार्थक है तो दृष्टि या सन्देश के लिए, जमी हुई काई
दूसरे अन्तरंग कोमल स्पर्श की अनुभूति के लिए। विवेक निराला मैं जो तुम्हारा
की रचनाओं में इन दो तरह की कविताओं को अलगाना मुश्किल खंडित वैभव
है। इन कविताओं में बेंजामिन की दोनों युक्तियाँ विन्यस्त होकर तुम्हारा भग्न ऐश्वर्य
एकमेक हो गयी हैं। प्रेम और करुणा के कोमल भाव और अपने तुम जो मुझसे निस्संग

526 n जुलाई से सितंबर 2023 yegh


मेरी आखिरी हार हो कई चरणों में अपनी आत्मा और स्मृतियों में बसे देहात को
तुम जो उजाड़ने के बाद वे
मेरा नष्ट हो चुका संसार हो” अपनी काया में निरावरण थे बिलकुल अशरण”
विवेक निराला की कविताओं का विन्यास और इन कविताओं की शहरों का यह प्रदूषण सिर्फ़ वायवीय नहीं बल्कि भीतरी भी है।
समूची प्रकृति राजनीतिक और ऐतिहासिक होने की है। ये कविताएँ बाज़ार ने रिश्तों का मानुष-संबंधों का व्यवसायीकरण तो किया ही
अपनी परंपरा की गहरी जड़ों से शक्ति अर्जित करते हुए प्रतिरोध का उसके साथ ही साथ उसने संबंध जो कि एक मूल्य था को एक
ऐसा स्वर उत्पन्न करती हैं जो चेतना की खराद पर विकसित होने वस्तु और उपयोग में इस्तेमाल की जाने वाली सामग्री के रूप में
वाली चीज़ है। स्थानीयता की प्रकृति और संश्लिष्टता के बोध से ही अपदस्थ कर किया। मानुष-राग, मानुष-संबंध जैविक नहीं। बाज़ार
यह कविता अपनी सार्वभौमिक स्थिति को पाती हैं। के वर्चस्व में मनुष्य हलकान हैं और संबंध फायदे का गुणा-गणित।
“भूमंडलीकरण के इस युग में विवेक निराला की कविताओं में ऋषि, मिथकीय चरित्र बार-
संकट ही संकट थे बार आते हैं। विवेक निराला अपनी इन कविताओं में सबसे अधिक
स्थानीय लोग कुछ वैश्विक संकटों से जूझ रहे थे निगेटिव कैपिविलिटी और मनुष्य-विरोधी अमानवीय स्थितियों को
और वैश्विक लोग स्थानीय संकटों से उजागर करने वाली युक्ति के रूप में ही प्रयोग में लाते हैं। आज
मेरा संकट मेरी टूटी खाट थी के समय की विसंगतियों को चाहे वह राजनीतिक हो अथवा वह
जबकि मैं स्वप्न में था सामाजिक अभिव्यक्त करना सबसे बड़ी चुनौती है। आज जब चहुँ-
किसानों के पास क़र्ज़ था और उद्योगपतियों के पास मर्ज़ ओर चुप्पी है। डर का माहौल सर्वत्र पैदा किया जा रहा है। तब
सरकार को किसी से न हर्ज़ था” एक कवि की भूमिका ओरहन देने की होती है। और ओरहन का
एक समय था जब शहर एक सुविधा था। संभवतः कुछ लोगों के सबसे सुंदर शिल्प उद्धव-गोपी संवाद से बेहतर क्या हो सकता
लिए अब भी हो। है ही। किन्तु अधिसंख्य आबादी आज भी शहर में है। विवेक निराला ने इधर कुछ उद्धव संवाद लिखे हैं। इनकी
एक नारकीय जीवन जीने को अभिशप्त है। ग़ालिब के समय तो दिल राजनैतिक तीक्ष्णता और वर्तमान समस्याओं का सटीक संबोधन इसे
भी बाज़ार में मिल जाया करता था। बकौल ग़ालिब— समकालीन और सार्वजनीन बनाती है। सत्ता का रमणीक संसार उन
“तुम शहर में हो, तो हमें क्या गम जब उठेंगे लोगों से संबधित
ं है जो जनता की कमजोरियों का लाभ उठाते हैं और
ले आएँगे बाज़ार से जाकर दिल ओ जाँ और” सता की नज़दीकी प्राप्त किए रहते हैं। ऐसे में सुंदर का स्वप्न देखने
वाले समानता और न्याय चाहने वाले उपेक्षित होते हैं।
हालाँकि बाज़ार एक व्यापारिक इकाई तब भी थी, ख़रीद- “ऊधौ! जाए रही डेमोक्रेसी
फरोख्त का नाता बाज़ार से तब भी था। किन्तु एक जैविक-बोध इधर खरीदी, उधर बिकाऊ, निष्ठा ऐसी-तैसी
और आत्मीयता थी। एक रागात्मक संबंध मौज़ूद था। किन्तु विवेक सत्ता के अमृत फल खातिर, नीति नई उन्मेषी
निराला जिस शहर को संबोधित कर रहे हैं वह अजैविक, अमानवीय वे रिजॉर्ट में बंद विधायक, चांपत माल बिदेसी
और मरा हुआ है। इतना मरा हुआ कि गाँव से आया मनई बार-बार जब-जब जनांदोलन होई, पागुर कहिहैं भैंसी
अपने अंतःकरण को प्रच्छालित कर रहा है और शहर में आत्मा और आगे सेनाध्यक्ष का करिहैं, कबहूँ ब्यूरोक्रेसी
स्मृतियाँ दोनों मरती जा रही हैं। हर विरोध का गला घोंटिहैं, कोर्ट होयगी पेशी
“वे सब अपने-अपने गाँवों से शहर आ गए थे जेल भेजिहैं लगा के धारा, देशद्रोही के जैसी”
शहरों में प्रदूषण था इसलिए
वे बार-बार अन्तःकरण को झाड़-पोंछ रहे थे विवेक निराला की कविता की रीढ़ करुणा, राजनीतिक पक्षधरता
और मनुष्यता के सहमेल से तनी हुई है। अपने समय की पहचान
... करने वाली ये कविता सचाई की अभिव्यक्ति के साथ-साथ किसी
वे निर्मल वातावरण के आग्रही थे भी किस्म के अमानुष स्थिति में मनुष्यता के लिए पाथेय होने का
उनके आचरण पर कई ख़ुफ़िया निगाहें थीं सामर्थ्य रखती हैं। n
वे बारहा अपनी नीतियों से मात खाते थे और भाषा से लात संपर्क : अध्यापन, उत्तराखंड मुक्त विश्वविद्यालय, हलद्वानी
क्योंकि उनके पास कोई व्याकरण नहीं था मो. 8840649310

yegh जुलाई से सितंबर 2023 n 527


n असीम : पीयूष कुमार

इस ब्रह्मांड की ऊर्जा तुमसे होकर गुज़रती है


भुवाल सिंह

“कविता नए मनुष्य का स्वागत करती है। उसे देखने गई कविताएँ पुरानी लीक से दो कारणों से विशेष
के लिए अंतर्नेत्र खोलती है। ... देखे हुए में भी कुछ है! पहला ये कविताएँ जीवन की प्रकृति साधारण
नया देखने का अवसर देती है। कविता के सक्रिय जीवन में देखती है! कुछ भी भव्य नहीं। दूसरा भव्य
होने का अर्थ जीवन की साधारण स्थितियों को अगर कुछ है तो पहाड़, झरने, पेड़, जंगल, ऋतुएँ,
असाधारण अर्थ से दीप्त कर देना है। समकालीन चिड़ियाँ, खेत और साधारण जन! भव्य का निषेध
कविता ने इसे साधारण व्यक्ति, साधारण बोलचाल, और असल भव्य का दर्शन पीयूष की कविताओं की
साधारण शब्द और साधारण स्थितियाँ जीते हुए बार ताक़त है! कवि के लिए भव्य प्रकृति के साथ जीवन
-बार साबित किया है। यह मीडिया की बहुरंगी और असाधारण का रिश्ता है–
होने के लिए मरी जा रही दुनिया का प्रतिपक्ष है।” (आज की “खेतों की मेड़ों पर खिले/कॉसमॉस के नारंगी फूल/हँस कर
कविता -विनय विश्वास) बात कर रहे पक रही फसल से/पास ही खपरैल वाले मिट्टी के घर
पीयूष कुमार यात्रा के कवि हैं। यात्रा अपने आशय में विस्तृत में/बागर साय का छोटा सा लड़का/आँगन की धूप में लिख रहा है
दुनिया की तलाश है। यह तलाश अपनी माटी और बानी में रच पग वर्णमाला/जिसे सुबह देर तक निहार रही है लाड़ से।”
कर सबको निहारने के अवकाश से भरा है! सबको निहारते हुए यह कविता में कथा रचने के हुनर से भरपूर ये पंक्तियाँ भोर की है।
गति अपने लोक को समृद्ध करता है! यात्रा जीवी रचनाकार सभी ये सुबह सेमरसोत की है। जहाँ बागर साय के छोटा लड़का जो
में होकर रचना में लय रहता है! रचना में लय होकर सब प्रकार के वर्णमाला लिख रहा है। उस वर्णमाला को सुबह देर तक लाड़ से
अतिरेक का निषेध करता है। यह जीवन विस्तार का भी परिचायक निहार रही है। कवि के लिए भोर का आशय है बचपन की उम्मीद
है। यात्रा अनुभव सत्य का इंकलाब है। यह इंकलाब नारे बाजी से से है। बचपन को शिक्षा के ज्योतिर्मय झरने से जोड़ने से। भोर का
दूर सक्रिय सर्जनात्मक प्रतिरोध का पर्याय है! यात्रा हमें अनुभव मानवीकरण वात्सल्य के रूप में परिवर्तित हो जाता है।
सत्य के अंतःस्पदन से जोड़ती है! विनम्र होकर संवादधर्मी होने का स्त्री प्रताड़नाओं के स्वर्ग इस नव महादेश में:
विरल भाव है यात्रा! पीयूष की कविताएँ परंपरा की दुहाई और पूजा भाव से दूर
पीयूष की कविताओं में यात्रा स्थायी भाव बनकर चलती है!जो आलोचनात्मक विवेक की विरल बानगी है। परंपरा के नाम पर
पीयूष के जीवन संदर्भ का भी पता देती है। पीयूष का जीवन और अपने समय से संवाद न करने वाली रचनाधर्मिता इतिहास की
रचना अबूझमाड़ [बस्तर] की प्रकृति और संस्कृति के समूहभाव शवसाधना है। कवि अपाला, गार्गी, लोपामुद्रा पर लिखते हुए
से शुरू होता है! यह यात्रा छत्तीसगढ़ के मैदान से गुज़रती हुई वैदिक इतिहास में व्यक्त स्त्री की प्रशंसनीय स्थिति तक सीमित
सेमरसोत [सरगुजा ] तक पहुँचती है! यह सुखद संयोग है पीयूष की नहीं होते! वैदिक विदुषी अपाला, गार्गी, लोपामुद्रा की कथा कविता
पहली कविता संग्रह का नाम -'सेमरसोत में सांझ 'है! की शुरुआत में बताकर कवि सीधे 'नवीन आर्यावर्त'में वृहदाराजक
सांझ लाज से सिंदूरी हो जाती है: उपनिषद लिख रहे याज्ञवल्क्य से तेजस्वी प्रश्न करते हैं-
पीयूष सेमरसोत के भोर, बारिश और साँझ को जनजीवन के मध्य गार्गी
अनुभव करते हैं। प्रकृति और मनुष्य का संवाद हिंदी कविता की आज आमसभा सभा में
पुरानी परिपाटी है! पीयूष की समकालीन कविता काल में लिखी प्रश्न करके देखो

528 n जुलाई से सितंबर 2023 yegh


कहो -आसमान से ऊँचा
और पृथ्वी के नीचे क्या है?
तुम्हारे प्रश्न के उत्तर में
आसमान से ऊँची पताका लिए
और पृथ्वी के नीचे
पतन की अनंत गहराइयों तक
कुत्सित अट्टहास के साथ
प्रतिप्रश्न लिए
एक विराट कुपुरुष
नग्न खड़ा है।
प्रश्न करना अस्तित्ववान होने की प्राथमिक पहचान है। शक्तितंत्र
द्वारा जब प्रश्न की बेचैनी को दबाकर यथास्थितिवाद को आगे किया
जाता है। उस स्थिति में मानवीय समाज की स्थापना का मूल्य क्षरित
होता है। ऐसे समाज में तर्क और विवेक का निषेध होता है। मानवीय
हरीतिमा धरती के बरअक्स पतन की अनंत गहराइयों में धंसे कुपुरुष
हमारे समय के कोई भी विवेकशून्य शक्ति हो सकती है। चैनलों के लिए 'स्त्रियों के चेहरे समाज के दर्पण और अस्मिता' के
पीयूष की कविताओं का कालयात्री रूप दर्शनीय है। वैदिक पर्याय न होकर मुनाफाखोरी के माध्यम हैं। लाखों बर्बर मस्तिष्क
और टी.आर.पी बढ़ाने को सर्वप्रधान मानने वाले चैनलों के लिए
युग से सीधे संचार युग में कदम रखते अपाला को केंद्र में रखते वे
लिखते हैं-“अपाला!/काल भिन्न पर देश वही है /आज भी छोड़ने स्त्री के देह, मन और आत्मा महज ख़बर और विज्ञापन है। यह
की परंपरा जारी है जहाँ छोड़ी हुई गुनहगार है/ जिसे टीआरपी की बदलाव सनसनी से प्रसारित है। जो पूरी तरह मनुष्यता रहित है।
चोंच लिए गिद्ध/उसमें चर्म रोग खोजते हैं/और दिखाने के लिए/ इस कविता की ताक़त मीडिया के चरित्र को परत दर परत उखाड़ने
में है। एक ऐसे देश में यह कविता लिखी जा रही है। जहाँ स्त्री को
सैकड़ों मोतियाबिंद वाले कैमरे हैं हजारों चीखते स्क्रीन हैं/जिन पर
टकटकी लगाकर रस लेते लाखों बर्बर मस्तिष्क हैं।” छोड़ने की परंपरा अनवरत है। छोड़ी हुई स्त्री को गुनाह की नज़र से
अपाला! देखा जाता है। इस कविता का अर्थ विस्तार तब होता है जब कवि
यह संचार का युग है या मध्ययुग लिखता है 'टी. आर. पी कि चोंच लिए गिद्ध' इस दुःखद स्थिति में
समझ नहीं आता भी चर्मरोग खोजते हैं। चर्मरोग यहाँ स्त्री का वस्तुकरण है। मीडिया
हिंसक समाज के पैने नाख़ून की दूसरी विशेषता बताते हुए कवि लिखता है–“दिखाने के लिए /
माइक की शक्ल में निकल आए हैं सैकड़ों मोतियाबिंद वाले कैमरे हैं /हजारों चीखते स्क्रीन हैं।” सैकड़ों
यहाँ हर पिता रोता है मोतियाबिंद वाले कैमरे जाहिर हैं मुक्त दृष्टि नहीं होंगे। दृष्टिहीनता
कोई इंद्र नहीं आ रहा उसे ठीक करने कि ओर ही अग्रसर होंगे। स्वस्थ आँखें न होकर रोगग्रस्त दृष्टि होगी।
टी.वी. स्क्रीन एक जमाने में सत्यम्, शिवम् और सुंदरम् का वाहक़
अब विधि के निर्णय के पहले हुआ करती थी। समय के साथ वह चीखती हुई दिखाई और सुनाई
स्त्री के देह मन और आत्मा की त्वचा देती है। यह चीखना वास्तविक होता तब तो सहज संवेदन लय का
बार-बार उतारी जाती है प्रसारक होती। संकटग्रस्त स्थिति का द्योतक होती। लेकिन दुर्भाग्य
खुरच खुरच कर से यह प्रायोजित है। इससे भी ज्यादा विडंबना पूर्ण इस स्क्रीन पर
उनके द्वारा टकटकी लगाकर रस लेते 'लाखों बर्बर मस्तिष्क' हैं। जनता मीडिया
जिनकी बुद्धि गुलाम और आत्मा मरी हुई है के वाग्जाल और चतुर्दिक मायावी संसार में ज़रूरी को ग़ैरज़रूरी
और जो स्वयं निर्वस्त्र हैं। और ग़ैरज़रूरी को ज़रूरी मान बैठी है। ख़बर के ज़रूरी हिस्से माइक
गुलाम बुद्धि और मरी हुई आत्मा संचार युग की शक्ति तंत्र की के लिए कवि कहता है 'यह हिंसक समाज के पैने नाख़ून' हैं। इन
पहचान है। संचार युग के दूत मीडिया के तमाम रूप हैं। टेलीविज़न सब अविवेकी और भ्रमित युगबोध को कवि मध्ययुग की संज्ञा देते

yegh जुलाई से सितंबर 2023 n 529


हैं। अकारण नहीं संचार युग अपने लोभ और बाज़ारू रूप के कारण 'स्त्री प्रताड़नाओं के स्वर्ग नव महादेश' जो कोई भी देश हो सकता
आधुनिक युगीन समय के विपरीत जान पड़ते हैं। संचार युग के दौर है। जहाँ स्त्री सामंतीय बेड़ियों में बंधी हुई है। शिक्षा, अधिकार और
के कवि पीयूष कुमार काल का अतिक्रमण कर मध्ययुग की याद विचार के लिए जहाँ बंदीशें हैं। वहाँ स्त्री को अगस्त ऋषि जैसे
बहुतेरे अर्थों में दिला रहे हैं। दो युगों को आमने-सामने करके कवि उद्धारक की प्रतीक्षा करना व्यर्थ है। स्त्री जो इस कविता में लोपामुद्रा
ने हमारे समय 'संचार युग' की वास्तविकता जो लगभग निर्वस्त्र नाम से सम्बोधित है। यह लोपामुद्रा समस्त स्त्री का प्रतीक है। जिसे
है। इस विडंबनापूर्ण स्थिति को बेबाकी से अभिव्यक्त किया है। कवि 'अप्प दीपो भव' की चेतना से सम्पन्न कर रहे हैं। पीयूष की
उन्होंने संचार युग के बहुस्तरीयता को अपाला के माध्यम से प्रगट कविता का अगिन पक्ष यहाँ प्रज्ज्वलित हो उठा है। वे स्त्री के उद्धार
कर दिया है। पक्ष को छोड़कर, दया भाव को त्यागकर अधिकार पक्ष पर जोर देते
पीयूष अपनी कविताओं में स्त्रियों को हार्दिक भाव से रचते हैं। हैं। स्त्री अधिकार कोई अगस्त ऋषि नहीं दिलाने वाला वह ख़ुद
उनके लिए स्त्रियों का होना मनुष्य का होना है। पितृसत्तात्मक ढांचे जूझकर लेनी होगी।
के समस्त वर्जना ओं से मुक्त। अधिकार और व्यक्तित्व विकास के उसके कदमों के नीचे की ज़मीन सुनहरी होती जाती है:
संभावनाओं से पूरित। लोपामुद्रा पर लिखते हुए उन्हें विश्वविद्यालय असम की फर्राटा धावक हिमा दास को समर्पित 'ढिंग
के पुस्तकालय में नीति और अधिकारों के मंत्र पढ़ती वर्तमान की एक्सप्रेस'कविता अभिजात्य के विरुद्ध श्रमजीवी की उज्ज्वल
युवतियाँ दिखाई देती है- संभावनाओं का प्रतीक है। हिमा दास की ट्रेक पर सनसनाती कदम
लोपा! लैंगिक भेदभाव और रंगभेद के विरुद्ध अनथक गति और जिजीविषा
अब विश्वविद्यालय के पुस्तकालय में जब तुम पढ़ती हो का मुकम्मल दास्तान है- “धान के खेतों से उपजी /टखने भर मिट्टी
नीति के साथ अधिकारों के मंत्र पानी की ऊर्जा/उसकी रगों से होकर/ट्रेक पर सनसनाती भाग रही
और विचारों की समिधा एकत्र करती हो है/और उसके कदमों के नीचे की ज़मीन सुनहरी होती जाती है!...
तो जाग उठते हैं उसके अंग्रेजी नहीं बोल पाने को/कमजोरी बताने वाला प्रवक्ता चुप
उत्तर वैदिक काल में स्थापित है आज /हैरान हैं अभिजात्य मीडिया के कैमरे /एक दुबली साँवली
पुरुष सत्ता के रक्षक फर्राटा भरती देह /उन्हें खींच रही बार-बार/उसकी गति इतनी तेज
छीन लेते हैं पुस्तक है कि/उनके बने बनाए फ्रेम से बाहर हो जाती है!/गोल्डन गर्ल
उच्चारते हैं अपशब्द दौड़ रही है पटरियों पर/ और चंद्रयान भेद रहा अनंत को/यह दो
करते हैं वमन दृश्य एक साथ हैं/ राष्ट्रगान बज रहा है/ मैडल लटकाए बिटिया
तुम्हारी स्वतंत्रता के हवन कुडं में मुस्करा रही है।”
दुबली साँवली देह वाली गोल्डन गर्ल हिमा दास की दौड़ तमाम
लोपा! अतार्किक मान्यताओं को तोड़ने वाली है। गाँव, रंग, जाति,भ्रूण हत्या
स्त्री प्रताड़नाओं के स्वर्ग जैसे प्रश्नों के विरुद्ध एक सुनहरी धरती रचने का नाम हिमा दास
इस नव महादेश में है। हिमा की दौड़ और चंद्रयान का अनंत को भेदना इन दो दृश्यों
वैदिक युग के को एक साथ रखकर कवि ने बेटियों के अंतस में समाहित अनंत
किसी अगस्त की प्रतीक्षा गति को सलाम किया है। इन दोनों दृश्यों के मध्य राष्ट्रगान बज रहा
व्यर्थ है! है और विश्व की समस्त बेटियाँ-“लड़कियाँ तैयार हो रही हैं भागने
पुरुष सत्ता के रक्षकों के विरुद्ध सांस्कृतिक प्रतिरोध दर्ज़ को/ ढिंग एक्सप्रेस की तरह!”
कराती यह कविता दो कारणों से विशेष है। पहला दुनिया के सभी आकाशगंगा सहमति में सिर हिलाती है :
विश्वविद्यालयों के शिक्षा के मूल अधिकार चेतना और विचार स्टीफन हाकिंग को याद करते हुए पीयूष आधी सदी से ज्यादा समय
सजगता को स्त्री के माध्यम से स्वर दिया गया है। दूसरा कारण तक जड़ रही देह चेतना में अंतर्निहित विराट ऊर्जा को निहार लेते
है यहाँ मुक्तिदाता कोई बाहर से नहीं आएगा बल्कि अपनी मुक्ति हैं। पूरी कविता स्टीफन के बहाने वैश्विक विकास के मॉडल पर
स्त्री को स्वयं संधान करना होगा। पुरुष सत्ता के रक्षक जब ज्ञान भी चिंतित है। यह कविता दुनिया के नजरों में शारीरिक अक्षमता
आलोक के प्रतीक पुस्तकों को छीन रहें हैं। अपशब्द उच्चारतें हुए के दुनियावी संदर्भ से जुदा है। पीयूष की कविताई का नायक वही
स्त्री स्वतंत्रता के अगिन जोत को वमन करके बुझा रहे हैं। यहाँ कवि हो सकता है जो जड़ सोच में अक्षय ऊर्जा और सजलता भर दें।

530 n जुलाई से सितंबर 2023 yegh


स्टीफन की चैतन्य सजलता को रूप देते हुए कवि लिखते हैं–
टेढ़ी गर्दन में ही
गाल की एक मांसपेशी के सहारे पीयूष की कविताएँ गाँधी, जार्ज क्लायड, केली और
जब वह अपनी बात कहता है रेड इंडियन्स तक जाती हुई सभ्यता मीमांसा करती हैं।
तो उसकी आवाज़ करोड़ों-करोड़ दबी कुचली बेचैन और कराहती हुई
सौरमंडल से पार सुनाई देती है आवाज़ों तक संवेदनशील दस्तक देती हैं। प्रकृति को
ठहर जाते हैं धूमकेतु किसान के नजरों से देखती हैं। स्मृति के अतीतबोध में

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