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श्रीः

॥ आनन्दमकरन्दीः ॥

् ङ्कटरामन ्
श्र रमणचरणतरर् थीः नोच्चूर वे

Sri Ramana Maharshi Brahmavidyasrama


Anandamakaranda
A collection of Sanskrit hymns composed by
Sri Ramanacharanatirtha Nochur Venkataraman

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Fourth edition: December 2018


Price: ₹100

Printed by:
Sri Bharati Printers, Bengaluru
आवेदकालादागत अववविन्न-ऋविपरम्परा-सञ्जातानाां
अरुणाचल-हृदन्तस्थ-आत्मववद्याप्रकाशकानाां कोऽहां-
ववचार-ववधूत अहांकृवत-मूलाववद्यानाां अहङ्कार-मूलान्वेिणेन
ु द्ध-म
सावधत वनरहांपद-प्रकाशकानाां वनत्य-शद्ध-ब ु क्त-


स्वभावानाां आत्मबोध-आवरणोत्पाटनचतराणाां अववविन्न
-अहांस्फूर्ततरूप-सहजसमावध-सञ्जात-वनरावरण-दृष्टरनाां
अत्याश्चर्थ-आत्मवनष्ठारूप-तपसा जाज्वल्यमानानाां
शरररस्थत्वेऽवप अनवरत अशरररात्मबोधवनष्ठाप्रकाशक-
ु रुिाणाां
मक्तप ु मौनेन ैव-सम्बोवधत-ब्रह्मात्मैक्य-वनर्तवकल्प-
प्रज्ञानाां साक्षाच्छ्रर-दवक्षणामूर्ततरूपाणाां महर्ति
श्ररमणभगवत्पादानाां परम्परा-सञ्जात श्ररमणचरणतरर्थ-
प्रणरत स्तोत्रावण।

वविर्ानक्रमाणर
वविर्ाीः पृष्ठावन वविर्ाीः पृष्ठावन

रमणध्यानश्लोकीः························ 1 ्
शरणागत्यष्टकम ························ 52
अरुणाचलध्यानश्लोकीः ················ 3 शरणागवत पञ्चदवश ···················· 53
ु ··························· 5
ववघ्नेश्वरस्तवतीः ्
प्रज्ञानेत्रम ································ 57

ववनार्कपञ्चचामराष्टकम ·············· 6 एकश्लोकचर्ाथ ···························· 57

गणपवतभजङ्गप्रर्ातस्तोत्रम ्
··········· 8 आत्मानभू ु वतस्तव:······················ 58

पावथतरपरमेश्वर ध्यानम ················ 9 ्
स्वतन्त्राष्टकम ···························· 59

वशवसप्रभातम ्
··························· 10 ्
उपदेशदशकम ·························· 60

वशवभवक्त दशकम ······················ 17 ववचारमाला······························ 62

वशवरसपञ्चकम ························· 20 ्
प्रत्यवभज्ञादरपम ························· 76

सदावशवाष्टकम·························· 21 ु
गरुतत्त्वाष्टकम ्
·························· 80

वशवपञ्चरत्नम ···························· 24 ु
गरुरहस्यम ्
······························ 81
वशवमरडेस्तवीः ·························· 26 ु
गरुभवक्ततरवङ्गणर ······················· 82

वशवाष्टकम ······························· 28 ्
प्रकार रमणेशपञ्चकम·················· 91
आत्मानन्दवशवस्तवीः·················· 29 ्
श्ररमणदेवशकदशकम················· 92
आनन्दवशवस्तवीः ······················ 30 ्
श्ररमणेश करावलम्बस्तोत्रम ········ 94
वचत्सभेशववभूवतस्तवीः················· 38 ्
देवशकाष्टकम····························· 96
वचत्सभेश भज ्
ु ङ्गप्रर्ातम ·············· 41 ्
अरुणाचल रमणाष्टकम ··············· 97
वचदम्बरेश पञ्चचामर दशकम ········् 44 अरुणाचलस्तवु तीः ··················· 99

कै लासनार्ाष्टकम······················· 47 जर् सद्ग ुरुरमण ······················· 100
तपोववलापीः ····························· 49 जर् अरुणाचलरमण ················ 101
सन्मागथबन्धस्त ्
ु ोत्रम ···················· 50 विश्लोकर ································ 102

वविर्ानक्रमाणर
वविर्ाीः पृष्ठावन वविर्ाीः पृष्ठावन


पवनपरेु श भागवताष्टकम············ 103 श्रशारदा वभक्षास्तव: ················ 116
श्रसङ्गमेशमन्त्रार् थदरवपकास्तोत्रम ··् 104 शावन्तदुगाथस्तवीः ······················ 118

श्र सङ्गमेशदशकम ··················· 106 ्
कात्त्यार्नर अष्टकम ·················· 121

गोपालकृ ष्ण गानाष्टकम ············· 108 ु
गङ्गास्तवततरङ्गम ्
······················ 122

कावलर्मदथनम························· 110 ु ···························· 124
गङ्गा स्तवतीः

बविके शाष्टकम························· 112 कालवटपूणाथनदरस्तवीः ················ 125

परुिोत्तमदशकम ्
····················· 113 भारतमातास्तवीः ······················ 126
ु ····················· 114
श्र मारुवतस्तवतीः वशवाष्टोत्तरशतनामाववलीः ··········· 127

पूजा-समप थण-गद्यम....................133

ु -दरपदशथनम......134
पूजासमर्े पञ्चमख

ु -दरपदशथनम......134
पूजासमर्े एकमख
ु वतस्समज्ज्व
र्त्कृ पालेशमात्रेण स्वानभू ु ला।
तमरडेऽहां सदाशद्धु ां रमणेशमहेश्वरम॥्
वेदान्तशैलजनदर रमणरर्रूपा
ु रसार्नबोधधारा।
वनवाथणवनस्तल
सांसारजातसकलामर्दोिहन्त्रर
जरर्ावदर्ां च रमणेश्वरवाक्सववत्रर॥

सदावशवसमद्भ ु ज्ञान ैकरूवपणरम।्


ु ू तशद्ध

रमणाचार्थसम्पूणाां वन्देगरुपरम्पराम ॥्


अन्तश्च ैतन्यरूपेण गरुरूपे
ण र्ो बवह:।
ु बोधां तां देवशकां रमणां भजे॥
भासते शद्ध
ु ॥
॥ ववघ्नेश्वरस्तवतीः

मूलाधारस्थमरडे मवु नतवतववनतांु मूविकारूढमाद्यां


दुीःखालोकनर्ोगजातवविर्प्रोध्वांसकालानलम।्
ववघ्नाळिं च ववनाशर्न्तमवनशां जम्भावरसम्भाववतां
शम्भोर्ोगतपीःप्रभावजवनतां श्रववघ्नराजां भजे॥

5

॥ ववनार्कपञ्चचामराष्टकम ॥

सवेु दवेद्यववग्रहां ववचारवसद्धमोदकां


ववकमथकाम्यनाशकां कपावलवसद्धसांववदम।्

सर्ोगमागथ
गावमनामनल्पववघ्नवारकां

नमावम र्ोवगनाां गरुु ां हृवद प्रवसद्धवारणम॥१॥


स्वतीःप्रवसद्धवाचकां श्तु रे गाधवसन्धजां

स्वरावदमूलरूवपणां श्मावदहेतवारणम ।्
वरावददानजालकां ववनावप शैवसम्पदां

सदावपवर्तिणां सदा कररन्द्रजोऽस्त ु दैवतम॥२॥

कुसवङ्गसङ्गजातदोिजालतूलवारकां
ु वशकम।्
ससङ्गजातज्ञानबाल्यमौनबोधदे
असवङ्गनाां समाश्र्ां ववचारवसवद्धदार्कां

ससङ्गमोऽस्त ु मे सदा गजाननाविपङ्कजे॥३॥

कुरङ्गधृत्कुलेश्वरां कुलाचलेन्द्रसवन्नभां
मृदङ्गवावदनवन्दके शहृत्सरोजनतथनम।्
अमन्दमोदकावरणां कमण्डलावदधावरणां

ु पूु वजतां भजे ववनार्काविपङ्कजम॥४॥
समन्त

6
॥ ववनार्कपञ्चचामराष्टकम ् ॥


समन्थने
न जातसोमशेखरात्मबोधजां
ु द्यमन्तरार्कू टदाहकम।्
अमन्दबवद्धवे
ु न्दववन्दतम ्
सनत्सजातनारदावदर्ोवगवृ
स नीः प्रसरदतामनल्पवरर्थजोऽस्त ु वारणीः॥५॥

धरन्नहरन्द्रमावलकामगेन्द्रजामनोहराां
ु िणरम।्
वहन्ननल्पभावनाां वशवामृतानवर्त

क्वणत्पदाब्जवशवञ्जकाां वहन्नटन्तमाशमे
ववनार्कस्य लोकतापनाशकोऽस्त ु ववग्रहीः॥६॥

धराधरेन्द्रचन्द्रसूर्वथ ासवावदववन्दतां
वहन्तमविकुवण्डकाां नटन्तमन्तरे सदा।
गराशनस्य तापनाशवदव्यमन्त्रववग्रहां

गणेशनामधावरणां सरेु श्वरां नमाम्यहम॥७॥

कुटुम्बपोिणोत्सकैु रलां वधर्ा ववभाववतां



कलत्रपत्रबान्धवाख्यमोहनाशनक्षमम ।्

धवरवत्रधारकाङ्गजामखाम्ब ु
जातभास्करां

दरां वनवार्थ शां तनोत्वगस्त्यवन्द्यदैवतम॥८॥

7

॥ गणपवतभजङ्गप्रर्ातस्तोत्रम ्

वववेकैकदन्तां ववरागाख्यशण्ु डां अर्वे वगराां मूर्ध्न्नथ ल्पां ववराजत ्


ववचारेण भान्तां चतवु दे हस्तम।् मवहम्ना स्वकरर्ेन राराजमानम।्

ववशालां सफालां श्तु रे र्थपालां अगस्त्येन वन्द्यां समस्तार्ततनाशां

महादेवबालां भजे ववघ्नकालम॥१॥ स्वतीः पूणबथ ोधां गणेश ां भजावम॥५॥

कलत्रां च ववद्या करे र्ोगपाशां नमो वेदवेद्याद्यबोधस्वरूप


महामोदकां वेदसारां च हस्ते। नमो वबन्दुमध्ये वनगूढात्मरूप।
श्तु रे र्थपण
ू ोदरां भावर्ेऽहां नमो शवथहृत्पद्मभृङ्गरन्द्रदेह

ववरागार्थमरशानसून ां ु गणेशम॥२॥ ु
कृ पापष्टगात्रावद ु
देव नमोऽस्त॥६॥

महार्ोगपरठे हृदाख्ये ववराजत ् नमस्ते वशवानन्ददुग्धाविचन्द्र


ु तसांववत्स्वरूपम।्
प्रभापञ्जमिै मनस्ते पदाब्जे वश्तां ते नमोऽस्त।ु
ु परुस्थू
वशवप्रेमभक्त्या ु लकार्ां ु
नमो देवदेवाऽनकम्पाऽकृ ते ते

वशवज्ञानदातारमरडे गणेशम॥३॥ ्
ु म॥७॥
नमस्ते नमस्ते गणेशार् तभ्य


क्वणवत्कवङ्कणर मञ्जमञ्जररनादै
- नमस्तेऽस्त ु र्ोगाविपूणोदरार्
मथहावाक्यघोिां ववतन्वन्नटन्तम।् ्
समस्तेि ु भास्वत वचदे ते नमोस्त।ु
ज्वलन्तां समाधौ वचदानन्दकन्दां नमस्तेऽन्तरार्ाविधूिंरकर्न्त्र

हृदा भावर्ेऽहां गणेशावभधानम॥४॥ नमस्ते नमस्ते कररन्द्राकृ ते ते॥८॥

8

॥ पावथतरपरमेश्वरध्यानम ॥


सधावसन्ध ु मद्भ
स ु ू तशरताांशरुु वचरप्रभाां
ु भहाटके श्वरववग्रहम।्
सन्ध्यारांभसवणाथ
ु वचदानन्दमर्ीं वशवाां
महादेवसमार्क्त
मनोमवन्दरकञ्जान्तभाथसमानौ समाश्र्े॥

9

॥ वशवसप्रभातम ्

प्रातीः स्मरामीः परमात्मतत्त्वां


बोधां वशवन्तां रसरूपमेकम।्
ज्ञानामृत ां वचत्प्रवतवबम्बरूपां

वेदान्तवेद्य ां रमणां गहेु शम॥१॥

प्रातीः स्मरामो लविंताधवन्तां


कै लासवासां कमनरर्गात्रम।्
सभातले वचत्प्रवतवबम्बमूत्याथ

तटन्तमाद्यां वनजबोधमरशम॥२॥

उवत्तष्ठ देव करुणामर् दरनबन्धो


उवत्तष्ठ शङ्कर कृ पामर् भो दर्ालो।
उवत्तष्ठ कामदहनावखलतापहावरन ्

उवत्तष्ठ भो रमण ते वशव सप्रभातम ्
॥३॥

उवत्तष्ठ साम्ब वरदावखललोकबन्धो


उवत्तष्ठ देव भवपाशववनाशकावरन ्
उवत्तष्ठ वेदभवणतावखलसारमूत े
उवत्तष्ठ भो परमपावन

10

॥ वशवसप्रभातम ्


स्वावमन प्रभातसमर्े ु
ववबधादर्स्त्ाां
ृथ
वेदान्तवेद्यववभवां वनगमैगणवन्त।
िावरवस्थताीः परममङ्गल शान्तमूत े
देव त्वदरर्चवरतां वर्मालपामीः॥५॥

् शजगताां जननीं प्रभाते


स्वावमन परे

वेदागमैर्तवबधगरतपववत्रगान ैीः।
भेरर मृदङ्ग वननदैरवभबोधर्न्तीः

िावरवस्थता वगवरपते तव सप्रभातम ्
॥६॥

ु ते
शोश्ूर्ते किंकिंे त्यनशाखमे
कू जवन्त कोवकलगणाीः पवरतो वदशश्च।
काके वत काकगणबोवधत भूतवगाथीः
् सप्रभातम
त्वामाह्वर्वन्त भगवन तव ु ्
॥७॥

दृष्ट्वा प्रभातसमर्े वदनराजवबम्बां


कू जवन्त कुक्कुटगणाीः प्रवतबोधर्न्तीः।
भ्राजवन्त पद्मवनवहाीः सरसररुहाक्ष

कासारनररजवनतास्तव सप्रभातम ्
॥८॥

11

॥ वशवसप्रभातम ्

स्नात्वा प्रभातसमर्े वववधवत्तवाग्रे


मन्य ां ु जहरवह भगववन्नवत रुिगरतम।्

गार्वन्त वेदनवतवभभ थु ववप्रवर्ाथीः
वव
वेदरै वभष्टत ु
ु ववभो तव सप्रभातम ्
॥९॥

ु हृदर्े रमन्तम ्
आमरवलतावक्षर्गलां

आनन्दकन्दमवतसन्दरमन्दहासम ।्
वनत्यां समावधवनरतां वशवमेकमरड्यां
भक्त्या भजाम भगवन तव ् सप्रभातम
ु ्
॥१०॥

् नामशक्त्या
शान्ता वर्न्त ु भगवन तव

दान्ताश्च तावकतनस्मरणे न वनत्यम।्

त्वामेव भान्तमनभावत जगत्समग्रम ्
आनन्दरूप भगवन तव ् सप्रभातम
ु ्
॥११॥

मानापमानसदृशैमवथु नवभस्त्मेको

वनत्यां प्रभातसमर्े स्तवतवभीः प्रगरतीः।
सार्ां प्रदोिसमर्े च तनोवत नृत्त ां
ु कुरु सप्रभातम
सेर् ां नवतस्तवगरो ु ्
॥१२॥

12

॥ वशवसप्रभातम ्

त्वाां नौवम देव सततां सववतवथु रेण्र्ां


े धविंरकृ तसोममूर्ततम।्
सौराष्ट्रदश

ज्योवतमथर् ां मवनसमरड्यपादाब्जर् ु
ग्मां
श्र सोमनार् भगवन तव ् सप्रभातम
ु ्
॥१३॥

कोऽहां ववचारवनरता हृवद र्ोवगवर्ाथीः


ु वविर्प्ररोहाीः।
नाहां तननु थ च गणा
् भावर्वन्त
एवां ववजह्य वविर्ान हृवद

सोऽहां वचदेव सततां तव सप्रभातम ्
॥१४॥

एवां मवतदृथढतरा परमात्मतत्त्वे


एिाां ववचारववदुिाां प्रववभावत वनत्यम।्
तेिाां सदावप वविर्र भववस त्वमेव
वेदान्तवेद्य भगवन तव् सप्रभातम
ु ्
॥१५॥


बालोऽवप देव तव नामवन शद्धभक्त्या

कालादपारकलनादवप मक्तबन्धीः।
वनत्यत्वमाप वशवदां वह मृकण्डुसनू ीःु

वचत्रस्त्दरर्मवहमा तव सप्रभातम ्
॥१६॥

13

॥ वशवसप्रभातम ्

ु ववडेि ु भूतीः
मावणक्यवाचकगरुिथ
ु व वचन्वन।्
प्रेमािथगद्गदवगरा गरुमे

त्वामेवनार्मवतमानिमाप नार्ां
ु तव सप्रभातम
भक्तो रराज भवने ु ्
॥१७॥


ु धरावधवासीः
श्र वेङ्कटावभधमवनमथ

मृत्यप्रभरतमनसा सहसा वववचन्वन।्
त्वामेव तत्त्वमरुणां त्वववकल्पबोधां

ज्ञात्वानरागवववशीः कुरु सप्रभातम
ु ्
॥१८॥


त्यक्त्वा गृहावदसकलां तृणवत्सदूरे
गत्वा च देशमरुणाचल देवसेव्यम।्
ु रराज रमणो धृततत्त्वरूपीः
मक्तो
् सप्रभातम
श्र शोणश ैलभगवन तव ु ्
॥१९॥

जेजरर्ते वशवतनमु वथु नवभर्तवमृग्र्ां


ु ।्
देवावदसेव्यमवनशां करुणासमिम
कामावददोिहरणे धृतदक्षमाद्यां
काशरपरेु श सततां कुरु सप्रभातम
ु ्
॥२०॥

14

॥ वशवसप्रभातम ्

त्वाङ्के रिंे ि ु भगवन वृ् िभाचलेश ां



स्तन्ववन्त ु र्तर्ोऽवप भक्त्या।
सत्त्वपरुिां
गार्वन्त वेदववदुिाां वनवहोप्यमूत े
शां नस्तनोत ु भगवन तव ् सप्रभातम
ु ्
॥२१॥


हेतस्समस्तजगताां वत्रववधस्त्मेव
सेतीःु प्रभरतमनसाां भवभरकरािेीः।

मातस्समस्तजगताां हृवद सवन्नववष्टीः
ु देव सततां कुरु सप्रभातम
स्तोतश्च ु ्
॥२२॥

त्वाां र्ोवगगम्यमवतवेलमनन्तमाद्यां
ु समरसां हृदर्े स्फुरन्तम।्
सवच्चत्सखां
ववन्दवन्त भवक्तवववशाीः कृ पर्ा तवैव
ु कुरु सप्रभातम
त्वद्दत्तर्ा वर्नर्ा ु ्
॥२३॥


शांभो त्वदरर् पदपङ्कजभवक्तर्क्ताीः
ु ववरेजवरतरे
मक्ता ु भवपाशबद्धाीः।
अज्ञानपङ्कमपनरर् वचरार् दूरां
बोधाकथ वबम्बभगवन क् ु रु सप्रभातम
ु ्
॥२४॥

15

॥ वशवसप्रभातम ्


मवक्तस्त्दरर्पदपङ्कजभवक्तरे व
ज्ञेर् ां तदेव वनगमेष्ववनशां ममु क्षोीः।

कार्श्च कालवशतीः क्षर्मेवत नून ां
तस्मात्त्वमेव शरणां मम दरनबन्धो॥२५॥


एवां त्वदरर्कृ पर्ा वशव सप्रभातां

गार्न त्वदरर्चरणे धृतवचत्तहांसीः।
हांसाविधूविंकणलेशववधूतमोहो

मक्तश्चरावम ्
भगवन शरणां प्रपद्ये॥२६॥

आनन्दगरतमरुणाचलपादभक्त्या
आनन्दर्ोगरमणां हृदर्े वनधार्।
थ ृ पाकटाक्ष ैीः
श्र शङ्करार्थपवरपूणक

शां नस्तनोत ु भगवन वनजबोधरूपीः॥२७॥

16

॥ वशवभवक्त दशकम ॥

नमीः वशवार् करतथन ां समस्तपापनाशनां


नमीः वशवार् वचन्तनां समस्तलोकरञ्जनम।्
नमीः वशवार् बोधनां ववरवक्तभवक्तवद्धथन ां
नमीः वशवार् मानसे जपन्वसावम मवन्दरे॥१॥


नवतभथवत्पदाब्जर्ोीः समानबवद्धदार्क
ववचारनाशनक्षमामजाां जहरशतेजसा।
कदावह देव शैलजासमेतमरश्वरां परां

हृवदवस्थतां प्रपूजर्न गळत ु ॥२॥
परामवाप्नर्ाम ्

गलवन्त कालधूलर्ो जराश्च तजथर्वन्त माां



तदवन्त थ मथसवञ्चताीः।
माां च व्याधर्ोऽवप पूवक
भवविदस्त ु पादर्ोरनन्यभावर्ा वधर्ा

पतन्तमाशपावह माां नमीः वशवार् नार्क॥३॥

वपतीःु कराग्रलालने सखां


ु सववन्दते
ु भ थकीः

र्दाम्ब ताडने शठां समद्यता भववष्यवत।
ु वपतीःकरे
सवववत्रधारणासखां ु ण तर्तजतो
ममेश भावमरदृशां वपत ैव मातृताां गतीः॥४॥

17

॥ वशवभवक्त दशकम ॥

थ ां वशवाक्षरां समागृणन ्
नमोपचारपूवक
क्ववचिसावम शङ्कर त्वमेव दैवतां मम।

स्मृवतभथवत्पदाब्जर्ोरववच्यतास्त ु मे प्रभो
स्मरान्तकां भवान्तकां भवन्तमाश्र्े सदा॥५॥

भवे भवे च जार्ताां भवावनजावनराश्र्ीः


न जात ु लोकवस्तिु ु प्रजार्ताां रवतीः क्ववचत।्
सदा च शोणभूधरप्रकाण्डगह्वरे वसन ्

भवन्तमेव वचन्तर्न वसाम्यहां ु
मदान्वहम ्
॥६॥

ु गृणवन्त धन्यसम्पदां
तदेव जरववतां बधाीः
र्दरशपादमावश्तां च साध ु सङ्गमे रतम।्
ववनष्टमेव जरववतां ववनश्वरार्थसेववतां
त्वमेव मे महावनवधीः सभापते कृ पावनधे॥७॥

त्वमेव तत्त्ववमत्यहो वदशन्ममावप देवशकीः


स्वरूपवनष्ठतामकावर धन्यमेव जरववतम।्
तर्ावप नार् पादर्ोरथवतमथमास्त ु वनश्चला

गरुस्त्मे
व दैवतां ममाम्ब तात ववग्रह॥८॥

18

॥ वशवभवक्त दशकम ॥

वनररक्ष्य त्विपीःु परीः


ु कृ पावगररन्द्रववग्रह
हृदन्तरे च वचत्सभाकलावदनाट्यनार्क।
ु म्
वववमवश्तां मनोह्यहो वचदेकगभथभावक

अरािंतामपास्यवचत्स्वरूपलरनताां गतम॥९॥

ु रैु स्त्दरर् पादपङ्कजां


प्रपूवजतां सरास

वदवावनशां हृवदस्पृशन भवन्तमापनन्दनीः।
रवतीः वशवेवत नामवन प्रदरर्ताां सभापते

कृ पाम्बवनभथराकृ ते नवतस्सदा भवत्पदे॥१०॥

19

॥ वशवरसपञ्चकम ॥

ु द्यरसां भवरोगववनाशनवदव्यरसम।्
ज्ञानरसां मवनवे

वेदगणादृत सामरसां वशवमाकलर्े वनजबोधरसम॥१॥


एकमनामर्मात्मरसां समशरतिंशावन्तसर्ोगरसम ।्

र्ोवगगणादृतभावरसां वशवमाकलर्े वनजबोधरसम॥२॥

वनत्यमनाश्र्माश्र्दां वश्तपालनभक्तकटाक्षरसम।्

र्वतसङ्गरसां भवभङ्गरसां वशवमाकलर्े वनजबोधरसम॥३॥

वववदतावखलर्ोगसमावधरसां जडचेतनबन्धननाशरसम।्

सांर्वमवेद्यसमावधरसां वशवमाकलर्े वनजबोधरसम॥४॥


सगथववसगथववनोदरसां भवताण्डवनाट्यसशरलरसम ।्

सङ्कटमोचननामरसां वशवमाकलर्े वनजबोधरसम॥५॥

रसपञ्चकमेतदधरत्यनरीः वशवपादरसां सममेत्यपरम।्



भवर्ोवगगण ैरवप पूज्यपदां दृढमेत्य सदा जर्मेवत भवम॥६॥

20

॥ सदावशवाष्टकम ॥

हृवदप्रववश्र् भासमानमेकमक्षरां सदा


सदावप सन्तमात्मरूपमच्यतु ां ववमवक्तदम
ु ।्
अमात्रमोवमवत प्रचण्डमन्त्रनादमरश्वरां

वशवां भवां ववभ ां ु भजे भवविदां सदावशवम॥१॥

जटान्तरे ववहावरवावरसोमखण्डमवण्डतां

वत्रन ेत्रमरशमम्बजाक्षन ु वजतम।्
ेत्रपष्पपू
स्फुरन्तमेकमन्तरे सदाहवमत्यनामर्ां

भवे भवे सभावर्े ्
ममान्तरे सदावशवम॥२॥


वशवेवत वनत्यमक्षरिर्ां सवचन्तर्े सदा
वशवां भजे भर्ापहां भवां भवान्तकां ववभमु ।्
वरेण्र्मच्यतु वप्रर्ां समावधमिमानसां

पदां परात्मभावदां ववभावर्े सदावशवम॥३॥

प्रपञ्चनाशकाहलां प्रदोिकालताण्डवां
वचदम्बरे नटन्तमात्मबोधरूपमरश्वरम।्

वदगम्बरां ममान्तरे सभावर्े महेश्वरां

वशवां वशवां वशवां सदा तनोत ु नीः सदावशवम॥४॥

21

॥ सदावशवाष्टकम ॥

धराधरेन्द्रनवन्दनर सपूु वजताविपल्लवां


ु भवम।्
वचदेकरूपमिर्ां सर्ोवगगम्यवै
मृकण्डुसनू पूु वजतां मृगन्द्र
े चमथमवण्डतां

वनशाकरेन्द्रशेखरां नमावम तां सदावशवम॥५॥

वत्रकालकालकालशून्यकािंकण्ठमरश्वरां
कृ तान्तकान्तकां हरां सदाववभान्तमक्षरम।्
र्मेवभान्तमरदृशां जगवन्त भावन्त सन्ततां

तमेव वचन्तर्े सदा ममान्तरे सदावशवम॥६॥

पदां च र्स्य सन्ततां ववहङ्गवाहनार्तचतां


ववलासलास्यपेशला सदा समेवत र्ां वशवा।
ववशालफाललोचनां ववचारचारुलोचनां

ववनम्रवृन्दगोचरां ववभावर्े सदावशवम॥७॥

वपबन्तमविजां वविां मदा ु वत्रलोकनाशकां


ृ ां ववभूिणां ववभोवरदां त ु भूिणम।्
गिंे धत
शशाङ्कशेखरां प्रभ ां ु श्मशानभूवतभूवितां
ववभावर्े सदावशवां स शां तनोत ु शङ्करीः॥८॥

22

॥ सदावशवाष्टकम ॥

सदावशवाष्टकां परां वशवप्रसादकां नृणाां



पठवन्त र्े स्तवां नराीः वशवां सववन्दते सदा।
सदावशवो भवापहीः सदा च तस्य सन्ततां
हृवद प्रकाशमेष्यतरवत वचत्रमत्र ळक ब्रवु ॥
े ९॥

23

॥ वशवपञ्चरत्नम ॥

ु भूवमीः
अघववदिंनदक्षा सान्द्रसार्ज्य
ु दाहा
कृ ततनजस ु बोधन ेत्रापराख्या।

अगजवनतसनार्ाथ गाढमावलवङ्गताङ्गा
जर्वत हृदर्कञ्जे कावप कारुण्र्मूर्ततीः॥१॥

अहवमवत हृवद वनत्यां भासमानाऽसमाना



समशरहरन ेत्रा सत्कृ पापूणपथ ात्रा।
ववमलमृगकिंङ्कां धार्थमाणा च मौलौ
जर्वत हृदर्कञ्जे कावप कारुण्र्मूर्ततीः॥२॥

वटववटवप समरपे शान्तपद्मासनस्था


कलुिहरणदरक्षाां स्यन्दमाना च मौनम।्
ु ताां
अमरगरुस ु स्तानात्मतत्त्वां वदशन्तर
जर्वत हृदर्कञ्जे कावप कारुण्र्मूर्ततीः॥३॥

रहवस तमवस वनत्यां सोऽहमस्मरवत वेद्या


ववगतवविर्बाह्या सांववदेका ववशोका।
सकलमृगनराद्य ैवेद्यमाना वचदाख्या
जर्वत हृदर्कञ्जे कावप कारुण्र्मूर्ततीः॥४॥

24

॥ वशवपञ्चरत्नम ॥


सकलकरणलरन े वेद्यमाना सिु प्ता-

वहवमह सखमासां शोकमासरन्नमेवत।
सकलजनसवेु द्या शाङ्कररवृवत्तराद्या
जर्वत हृदर्कञ्जे कावप कारुण्र्मूर्ततीः॥५॥

25
॥ वशवमरडेस्तवीः ॥

शम्भ ां ु शान्तमनावदमनन्तां परमेशां


वेदान्त ैवरहवेद्यववभ ां ु वचद्घनरूपम।्
कालाकालकलामर्मेकां वजतकालां
कालां कालववधूतववशेि ां वशवमरडे॥१॥

दृष्ट्वाचान्ते ववश्वमशेि ां बोधमर्ां


नानाकारववकारववहरनां वचवतभान्तम।्
घण्टानादसमां हृवदनादां तारमन ां ु
र्ोगरशैवरह वन्द्यववशेि ां वशवमरडे॥२॥

ु द्य ां सरसेव्यां
र्ोगानन्दपदां सखवे ु
कल्पान्ताविसमानतन ां ु तां ववश्वनरम।्
जातमजातां वनत्यमन ेकां मृवतहरनां
मृत्य ां ु मत्य थगळत परमेशां वशवमरडे॥३॥


सांसाराविशमां मनबोधकमात्मववदां
शान्तां शरतलसांववदमात्मवन तत्त्वमर्म।्
िैतािैतववहरनववचारां मौनरसां
मौनां मोहववधूतपरां तां वशवमरडे॥४॥

26
॥ वशवमरडेस्तवीः ॥

आकाशादवप ववस्तृतरूपां वनजबोधां


ु व्यम।्
सत्यां ज्ञानपदां परमेकां मवनसे
गह्वरवासां कावन्तमर्ां तां हृवदकान्तां
कल्पववहरनां कवल्पतलोकां वशवमरडे॥५॥

ु न्तीःस्फुटवेद्यमशेि ां परुिाख्यां
श्त्य ु
भावाभावसमावधजमाळद पवरपूणमथ ।्
ु लभावां वदववमूलां
अश्वत्थां सखवनमथ

मत्यावेद्यगहावनलर्ां तां वशवमरडे॥६॥

ु ा वनत्यां देवशकवाचा वनजरूपां


श्त्व
मत्वा च ैत्यमनावदमनन्तां शवमताहम।्
वहत्वा देहे सत्यमळत र्ां ववदुररशां
वनत्यां शद्धु महामवहमानां वशवमरडे॥७॥

प्राणापानववलासववहरन े हृवदकञ्जे
कार्ाथकार्थववचारववहरनां परमार्थम।्

र्ां वै दृष्ट्वा वातववहरनां बधदरपां
शान्त्यानन्दपदां परमेवत वशवमरडे॥८॥

27

॥ वशवाष्टकम ॥

कृ पापूणवथ सन्धो प्रप्रन्नात्मबन्धो ु


मळत मे वनर्िस्वरूपे सबोधे
ु न्द
ममानन्दवसन्धौ ववराजत्सख े ो। समाळध च हरनां ववकल्पाख्यवृत्त्या।
कुरुष्वात्मसाद्धेव दरनां च शम्भो श्तु रे र्थपरर्ूिपानां च भवक्तीः
शरण्र्ां त्वदन्यां न जान े न जान े॥१॥ सदा देवह मे देव र्ोगेश्वरोऽवस॥५॥


ममेशान बाल्यात प्ररूढा च भवक्तीः वस्थवतमे ववववक्ते मवतमे स्वरूपे
वशवादन्यदैव े न मे देव सवक्तीः। गळत चावप र्ोगस्य मे देव ब्रूवह।
प्रभो देवह मे देव देहे च शवक्तीः ु ववमष्टां
त्वमेव प्रभो मे गरुदै
शरण्र्ां त्वदन्यां न जान े न जान े॥२॥ ु ते॥६॥
प्रपद्ये सदा देव पादाम्बजां

भजेऽहां सदा नरलकण्ठां प्रशान्तां प्रकृ ष्टात्मभक्त्या वतरस्कृ त्यमार्ाां


भजेऽहां भवानरवचदानन्दभृङ्गम।् प्ररूढात्मबोधाख्यमेकां तरु रर्म।्
भजेऽहां सदा शान्तपद्मासनस्थां प्रपद्ये सदा वचत्तवृत्तर्ते नरोधां
भजेऽहां भजेऽहां त्वदन्यां न शम्भो॥३॥ प्रभापूणमथ क
े ां महामौनपञ्जम ्
ु ॥७॥

स्वदृळष्ट वनवृत्यात्मर्ोगे रमन्तां करे मे च वबल्वां स्वफाले च भस्म


परानन्दमिैतपूणां महान्तां। गिंे रुिमाला च ते नाम वावच।

गहाध्वान्तमन्तर्त नरस्यात्ममूत्याथ हृवद त्वाां भजेऽहां वचदानन्दवलङ्गां

ज्वलन्तां च वचञ्चत महश्शै वमरडे॥४॥ प्रसरद प्रभो देव कै वल्यमूत॥े ८॥

28
॥ आत्मानन्दवशवस्तवीः ॥


आत्मानन्दसधापर्ोवधगवलतां स्वानन्दगङ्गामृत ां
वेदान्तार्थवनान्तरङ्गमवहतां ज्ञानाम्बपूु रां महत।्
ु वतरसभग्हां
स्तोकास्तोकरसानभू ु सावलरवभीःवश्तां

गिन्तांवनजसङ्गभङ्गकलनाकारां तमरडे वशवम॥१॥


वनत्यानन्दसधाम्ब ु समरसे वृत्त्यावदशून्य े वशवे
धौ
ु मवत्थतावखलमहाव्यामोहजालां
आशावार्स ु जगत।्
वेधा ववष्ण ु महेश वजष्ण ु ववबधा
ु नागा नरा: साधव:

बोधारण्र्तृणावलरर्मवखलां शून्य ां वशवां शाश्वतम॥२॥

ु मन्यते
वनिाकालववनष्टबोध्यवविर्ीः सोऽहां सखर

सत्तामात्रशररवरणां वनजभगां बद्ध्वाऽवप बोधो न वह।
जाग्रत्कालगृहरतकतृवथ वकलां सगाथवद सत्ताभ्रमां

सत्ताहरनवमदां न ु सगथकलहां पश्र्वन्त ववश्वां वनजम॥३॥

29
॥ आनन्दवशवस्तवीः ॥

वशववमत्यवतबोधरसां फलां स्वर्मेववह खावदतवानहो।


कवररूपकपादर्गु ां तव कुमराग्रजसन्ततमाश्र्े॥१॥

करुणाकर कामवजताांवर हृदर्ान्मम मोहमपाकुरु।


कृ पर्ा तव पादर्गु े मम परमामृतभावरळत वदश॥२॥


गरुवाक्यजबोधरसापगा श्वणार्तजतधरवरकू लगा।

मवतशेखर त्वत्कृ पर्ा मम वनजबोधह्रदे भव जार्ताम॥३॥

ु रसशाम्भवशरतरसाणथव।
रसरूपकबोधसमद्भव
रसलाभ महावनवधवैभव रसभूवतज भूरुहसम्भव॥४॥

ु ङ्गु ज बोधववभाकर।
स्वर्मेव वह वचत्तकलालर् श्वतत
श्वणावदज बोधरसां मम हृदर्ावधप देवह सभापते॥५॥

परुु मे भवमोहमहोक्ववचद ् वविर्ावदि ु मास्त ु ममेश्वर।


वविर्ावदि ु शोभनताां जवह ववततां जगदरश तवात्मना॥६॥

पशपु ाशववमोचनपाटवां शवशशेखर दशथर् साम्प्रतम।्


वशशरु वस्म वपतावस ममाम्ब च वशवशङ्कर मोचर् मोचर्॥७॥

ु न वह सांसवृ ततारकां वशवनामसमावश्तमद्भतु म।्


सलभे
ु तव नामवन भवक्तरर्ास्त ु मे॥८॥
परवचिसगभथफले मदा

30
॥ आनन्दवशवस्तवीः ॥

मम तापवनवारणमौिधां ममतापहनामरसार्नम।्
महतरवमह सांसवृ तवेदनाां मरुतावधपशङ्कर वारर्॥९॥

उदर्ास्तववहरनमहोहृवद वनजभास्करबोधमहामहीः।
हृदर्ोदर्भूधरमवन्दरे वर्नु ावधप भासवत भासवत॥१०॥


जगदावदजमक्षजवैभवां वशव ते सखबोधसम ु
द्भवम ।्

वनजबोधप्रभञ्जनतेजसा परदेवशकमार्तजतमद्भतु म॥११॥

शवु चहरनजजरवजकरटकीः श्वु तहरनजगभथमहोदरे।


ु मात्मवन भोगजमावश्तीः कर्मरश्वर शोचवत पालर्॥१२॥
शच

वशशतु ा भवमोहववपावशका वशवबोधलवामृतहरनजा।


स्तनपानवपपासजवविना क्ववर्ता भव साम्ब कृ पाां कुरु॥१३॥

वविर्ावदरसोबहुदोिदीः परमार्थववरोवधि ु वस्तिु ।ु


् नामवन भावरसां वदश॥१४॥
परमेश्वर वक्षप्यवत दुबथलान तव

ु मोहकरा इमे।
गृहमात्मजदारधनादर्ो भव भावक
सनकावदवभरर्तचतपादुक कृ पर्ा वशव बोधमर्ावदश॥१५॥

् वसध्यवत शरघ्रतर्ा वशवम।्


नरजन्मवन देव भवत्पदम इह
नटराज तर्ावप कृ पाां ववना नरकार् भवेन्नवह सांशर्ीः॥१६॥

31
॥ आनन्दवशवस्तवीः ॥

करणावदकपञ्चकसांर्मर र्वतरावडह शैवमहत्पदम।्



ु न वह जन्मवन वनश्चर्ां हृदर्े वशव पश्र्वत साम्प्रतम॥१७॥
सलभे

पदबोधक जन्मजरान्तक पदबोधक शान्तवचदात्मक।


पदबोधक कालकलान्तक पदबोधक वन्दनमस्त ु ते॥१८॥

पदबोधक दुीःखवनवारक पदबोधक बोधववधार्क।


पदबोधक मानसरञ्जक पदबोधक वन्दनमस्त ु ते॥१९॥

पदबोधक शैलजशरतल पदबोधक ध्यानरसात्मक।


पदबोधक शाश्वतशङ्कर पदबोधक वन्दनमस्त ु ते॥२०॥

हृदर्े मम शैवमहामहस्तपनोदर्कालमहो वशव।


स्फुरतरह कदा वद सद्गरोु चरणेन वह पावर् मे वशरीः॥२१॥


मौलाववतसन्दरचवन्द्रका मौलाववतशरतलनररगा।

मवनमानसरञ्जकमरदृशां परमेश्वरमाश्र् मानसे॥२२॥


तरुणारुणभास्वररूवपणां वशरसाधृतकालभजङ्गकम।्
स्वर्मेवधृतात्मसमावधनां परमेश्वरमाश्र् मानसे॥२३॥

अरुणाचल शोकरसापगा वशव मे हृदमािथमकावर च।



ववरहां कर्मरश्वर भावर्े पदमरश्वर दशथर् साम्प्रतम॥२४॥

32
॥ आनन्दवशवस्तवीः ॥

ु चरम।्
मनसा बहुशास्त्रमहावनां ववचरवन्नह पस्तकभू
ु मवहतािर्बोध महावनधे॥२५॥
मलहरनगळत कर्माप्नर्ाां

उमर्ा सह भावमर्ीं पराां हृदर्े तव ताण्डवलास्यताम।्


करुणामर् िष्टम
ु हो मम वगवरजाङ्गसशे ्
ु खर वावितम॥२६॥

वशव शङ्कर शवथ सनातन भवमोचक पावथवतनार्क।


ु वर्नु ावधप ते पदमाश्र्े॥२७॥
करुणाां कुरु साम्ब महागरो


मम मानसवचन्मर् मवन्दरे गरुवाचकबोधमहामवणीः।

वनगमान्तजसम्पटववग्रह ्
स्फुरते वशवमिर्मरदृशम॥२८॥

वववदता नवह कमथमहाटवर भ्रममेष्यवत बम्भरवन्मनीः।


परमेश्वरपादसरोरुहां गवतरस्त ु वचदम्बरनार्क॥२९॥

गवतररश्वर पादमहावटस्सृवततापनतापहतावमह।

शरणागवतशरतलमवन्दरां ववश मे खगराज मनोधना॥३०॥

वसवतमथम गदथभवन्मृिा ममतामर्भाण्डभरार्तदता।


परमेश्वर सवथवहीः प्रभो शरणागवतरस्त ु पदाम्बजे
ु ॥३१॥

र्वद मा भवशेिमर्ार्िु ो वशवबोधरसामृतरञ्जकम।्


कुरुिे बत धन्यमर्ो भवीः ववरहेण वह चातकताां मनीः॥३२॥

33
॥ आनन्दवशवस्तवीः ॥

तटमरश्वर दृश्र्तर्ा नवह ववलपावम च भरवतवशादहम।्


ु अरणां भवनावमर्ावदश॥३३॥
इभभञ्जकवावरजदुन्धवलीः

तरणां भववावरवधतारक वरणां मम कार्थवमवावम्बका।



ु ॥३४॥
शरणां मम ते पदमवस्त्वत मरणां वद करदृशमाप्नर्ाम

ु सवथजनावनह ग्रसते वशव दृश्र्महो मम।


मरणां भवव
चरणौ तव वावरजटाधर शरणां मम देवह कृ पावनधे॥३५॥

ु जन्मजरादर्स्तरसा वशव दृवष्टपर्ङ्गताीः।


मरणां भवव
ववरवतभथवभोगपर्े दृढा कृ पर्ा मम देवह जगद्गरो॥३६॥

लवमप्यर् स्वात्मवन मानसां भ्रममेवत न वतष्ठवत वनश्चलम।्


ु बोवधतमस्त ु मे॥३७॥
समताां भवरोगवनवावरणरमवहराण्मवन


अवहराण्मवनसाञ्जवलववन्दतो मृगपादसपूु वजत वैभव।
कुणपावदि ु स्वात्ममळत जवह परसौख्यपर्ां वदश देवशक॥३८॥

शमिट्कववहरनमहो मम जरठाश्ववदरश्वरमानसम।्

ु ॥३९॥
वहनां भरमेव वववधमथम कर्मरश्वर वनवृवथ तमाप्नर्ाम


वनजबवद्धरहो मम बन्धिु ु परबवद्धरर्ान्यनरे
ु मम।

परमार्थसधाकर मार्र्ा नन ु मोवहतमरश्वर मे मनीः॥४०॥

34
॥ आनन्दवशवस्तवीः ॥

ु िर्ोीः।
परवचिसगर्तभणमरश्वरां पवरपश्र्वत भूसरशू
परमार्थववदिर्भूवतमानवनशां मवतरस्त ु ममेदृशर॥४१॥


अवनलां भवमाप ् खां रवववमन्दुमर्ावखलम।्
च तापनम अर्
हृदर्े वनजबोधमहाप्रभाां कलर्े वशवरूपतर्ा तव॥४२॥

कलर्े वशवकालमहाकलामचलात्मतरङ्गकलावमवत।

कलनावदववहरन वचदम्बधाववखले शववलरनमहो मनीः॥४३॥

कवलरेि च सत्वहरो ववदुीः बवहरेवत ससम्भ्रममानसम।्


मलमप्यरुु साधर्तरह भो समसार्कदाहक
ु ्
पावहमाम॥४४॥

अरुणाविकुलेश्वरनार्क वशवबोधजशरतलतरर्थगाम।्
करुणािथदृशा मवर् विथर् ववरहाविजतापमपाकुरु॥४५॥

ु मरुतावधप भेिजमरर्ताम।्
वविमरश्वर वैिवर्कां सखां

मृवतजन्मजरान्तकमवस्त मे वशवनामरसामृतमौिधम॥४६॥

वशवबोधरसामृतवसवद्धरप्यर् वसद्ध्यवत देवशकसवन्नधौ।



परमािर्मौनरसोदवधरर् मे हृवद वनभथरमद्भतु म॥४७॥

क्ववचदप्यर् वनजथनभूतले वनतराां त्ववर् मिमनो ह्यहम।्



वशवनामसधारसलोलुपीः ु
ववचराम्यसर्ाववदहावस्त मे॥४८॥

35
॥ आनन्दवशवस्तवीः ॥

ध्ववनपूणमथ हागगनां हृवद पवरपूणवथ चदात्मकताङ्गतम।्



वनवखलात्मवन वचन्मर्ववग्रहे वचवतमज्जवत हा मम मानसम॥४९॥


प्रवर्तावखलवेदवचालर्े प्रवतबोधसभाववतसां
ववद।
प्रवतमावदि ु प्रेमकरादृत वप्रर्वमत्यवप नाम तवेश्वर॥५०॥

उरुनश्वरदेहमहो वशव उरगाहृतददुथरचञ्चलम।्



प्रणवार्थबधोवदतवाक्यजसरलािर्बोधमर्ावदश॥५१॥


उदर्ास्तववहरनमहाप्रभामवतगूढहृदा सववभाववताम।्
ु हृदर्े बत दर्तशतमवस्त मे॥५२॥
श्वु तबोवधतवाक्यतर्ा गरो

र्वदहावस्त प्रपञ्चतर्ाभवस्त्वधूतववमोहपटस्य मे।



प्रवतबद्धमर्ोिरनररवद्यमशासन वन्दनमस्त ु ते॥५३॥

करुणा वशवशान्तसमररणो हृदर्े पटमद्धु ृतमवस्त मे।



ु कुशलो बत तारर्तरह माम॥५४॥
र्वतनार्ककणथधरो गरुीः


अनृताम्बवधतारणकौशलमर् भो मम ब्रूवह कृ पावनधे।
स्फुटतत्त्वदृशा र्वद वरक्ष्यते न वह कोऽवप च सांसवृ तसागरीः॥५५॥

गगनाभमनन्तमनामर्महवमत्यवतबोधसमावधना।
हृदर्े वशवबोधतर्ा वधर्ा गृह एव वसावम सनातन॥५६॥

36
॥ आनन्दवशवस्तवीः ॥

ु वशव जडदेहगता नन ु भावना।


जननां मृवतवरत्यभर्ां

जठरान्तरवर्ततपमानहो कलना बत र्ाचनवत्प्रभोीः॥५७॥


बधतास्वपवनवितकल्पना ु
कलना बत वचत्परुचक्ष ु
िीः।

करुणािथदृशा परदेवशकवचसा वनजबोधसमद्भवीः॥५८॥

करुणारसवबन्दुगलत्फलां वनगमान्तमहातरुसम्भवम।्

परशाम्भववदव्यकलेबरां वनवसाम्यर् पश्र्त मे भवम॥५९॥

न च कमथ ममावस्त भवान्तक कृ वतसाधकजरवमवतगथता।


नरबन्धनमोहवटरगता वटमावश्तपापखगा गताीः॥६०॥

ु वमहामहीः हृवद र्ावदुदेवत न सद्गरो।


मृवतहरनसशै ु

परमेश्वर ताववददां मम वशवनामजपां भव दास्यताम॥६१॥

वशवपञ्चकनामजपो मम रसनाधरवदव्यमहालर्े।
वनवशवाहवन वनत्यवनरन्तरां भवताद्भव देवह वरां मम॥६२॥

मवहमा तव श्ौतहृदादृता हृवद बोवधतमु स्त ु कृ पा तव।


ु सखमाप्न
हृदर्े वशव तत्त्वदृशा वधर्ा वनजलाभमदा ु र्ाम ्
ु ॥६३॥


अरुणाचल ते करुणामवर् गरुरूपतर्ा खलु विथवस।

सखमरश्वर धन्यमहो भवीः रमणेश्वरसद्गरुमाश्र्े
ु ॥६४॥

37
॥ वचत्सभेशववभूवतस्तवीः ॥
(वसन्तवतलकम)्

वेदार्थमद्धु ृतपदासमपावदशन्तां

कालावहदांशनमहावभिजां स्मरेवत।
ु वरतनृत्तराजां
कोलाहलात्ममदपू
श्र वचत्सभेशमवखलात्मववभूवतमरडे॥१॥

इन्दुस्स्वशरतलरुचावशरवस प्रशोभां

मन्दवस्मतािथमखपङ्कजवदव्यशोभम।्
कन्दप थदप थवतवमरान्तकरप्रकाशां
श्र वचत्सभेशमवखलात्मववभूवतमरडे॥२॥

अम्भोरुहोदरदृशार्तचतपादपद्मां
र्म ।्
कुन्दाभदेहमवतसन्दरमप्रमे

सन्तापनाशनमनौपमशावन्ततररां
श्र वचत्सभेशमवखलात्मववभूवतमरडे ॥३॥

पञ्चाक्षररप्रचर्दर्तशतवचत्स्वरूपां
पञ्चाक्षरर प्रबलपञ्जरराजहांसम।्

पञ्चाक्षरावलमखपरतस ु
धारसां तां
श्र वचत्सभेशमवखलात्मववभूवतमरडे॥४॥

38
॥ वचत्सभेशववभूवतस्तवीः ॥

सत्यांदर्ावविर्नररसवावरविां
वनत्यां च र्ोवगहृदर्ामलतङ्गु वासम।्

तत्त्वां पदार्थमपवदश्र् पदां वदशन्तां
श्र वचत्सभेशमवखलात्मववभूवतमरडे॥५॥


पादां मदरर्मधनाश्र्म ु
वक्तदां भोीः
पोतां भवावितरणे न ववचारणरर्ा।
इत्यावदशवन्नव सदा स्वपदां वदशन्तां
श्र वचत्सभेशमवखलात्मववभूवतमरडे॥६॥

सगथवस्थवत प्रलर्के वल सभापळत तां


सप्तस्वरार्तजततन ां ु वनगमान्तगभथम।्

सांतप्तहेमसदृशाकृ वतमत्यदारां
श्र वचत्सभेशमवखलात्मववभूवतमरडे॥७॥

र्स्य प्रसादववभवादवखलात्मभावीः
वचन्मात्रता वशवपदां स्फुरतरह लोके ।
तां शेिशेवितनमु वित
ु सवथ भेदां
श्र वचत्सभेशमवखलात्मववभूवतमरडे॥८॥

39
॥ वचत्सभेशववभूवतस्तवीः ॥

तापत्रर्ाकथ पवरपरवडतसज्जनानाम ्
ु िसखशरतल
आपत्सल ु तरर्थराजम ।्
काकुत्स्थरामपवरपूवजतदेवदेवां
श्र वचत्सभेशमवखलात्मववभूवतमरडे॥९॥

कामावददोिवनवहाांस्तरसावनवार्थ
ु मत्र भगवन कृ् पर्ाववधेवह।
सार्ज्य
र्ोगाविनालसदृशाभगभररगात्र

श्र वचत्सभेश भगवन शरणां प्रपद्ये॥१०॥

40

॥ वचत्सभेश भजङ्गप्रर्ातम ्

महार्ोवगराजां हृदन्ते नटन्तां


ज्वलन्तां सभार्ाां वचदानन्दकन्दम।्
श्तु रे र्थपण
ू ाथकृळत भावर्ेऽहां

सभानार्मेकां परां वचत्सभेशम॥१॥

जटार्ाां च गङ्गाां तर्ा चन्द्रखण्डां


करे कुवण्डकामविपूणाां धरन्तम।्
ु मे
पदां च ैवमरिच्चलन्तां मदा

हृदाभावर्ेऽहां परां वचत्सभेशम॥२॥


क्वणवत्कवङ्कणरमञ्जमञ्जररनादै
-
मथहावाक्यघोिां ववतन्वन्नटन्तम।्
डमत्कारनादैभर्थ ां वारर्न्तां

महश्शैवमरडे परां वचत्सभेशम॥३॥

ज्वलत्कावन्तदेहां लसन्मन्दहासां

मदेभस्यकृ ळत्त वसानां मनरन्द्रम।्
स्मृत ां तापस ैवश्चत्तपद्मान्तरस्थां

वचदानन्दभृङ्गां भजे वचत्सभेशम॥४॥

41

॥ वचत्सभेश भजङ्गप्रर्ातम ्

स्फुरन्मौवलमध्ये शरच्चन्द्रवबम्बां

सनासाप टांु र्ोगगम्भररन ेत्रम।्
ललाटोल्लसच्छुद्धभस्माङ्करेख ां

सदा भावर्ेऽहां परां वचत्सभेशम॥५॥


समाकृ ष्य वचत्तां हृवद न्यस्यशद्धां
र्माप्नोवत तत्त्वां तरु रर्ां वशवाख्यम।्
तदेवान्तरस्थां हृदाभावर्ेऽहां

ु र्ततमरडे परां वचत्सभेशम॥६॥
सधामू

कटाक्षे प्रसन्नां गले नरलरत्नां


क्वणित्नमञ्जररवामाङ्गपादम।्
जटावभीः कलाप ैश्चलवद्दव्यरूपां

भजेऽहां भजेऽहां सदा वचत्सभेशम॥७॥

नमो वेद वेद्याद्यबोधस्वरूप


नमो वबन्दुमध्ये वनगूढात्मरूप।
नमो भक्तहृत्पद्मभृङ्गरन्द्रदेह

कृ पापष्टगात्र नमो वचत्सभेश॥८॥

42

॥ वचत्सभेश भजङ्गप्रर्ातम ्

नमस्ते वचदानन्द दुग्धाविचन्द्र


मनस्ते पदाब्जे वश्तां ते नमोऽस्त।ु

नमो देवदेवानकम्पाकृ ते ते
नमस्ते नमस्ते सदा वचत्सभेश॥९॥

नमस्तेऽस्त ु र्ोगाविपूणाथकृते ते

समस्तेि ु भास्वत वचते ते नमोऽस्त।ु
नमस्तेन्धकाराविधूलरकर्न्त्र
नमस्ते नमस्ते प्रभो वचत्सभेश॥१०॥

43

॥ वचदम्बरेश पञ्चचामर दशकम ॥

नमीः वशवार् ववग्रहां नतार्ततनाशनौिधां


वनशाकरेन्द्रशेखरां वनतान्त भि र्ोगदम।्
ववर्ोगर्ोगमण्डलप्रकाशकात्म सांववदां

वचदम्बरस्थ र्ोवगनां सभापळत नमाम्यहम॥१॥

स्वर्ां प्रकाशवचन्मर्ां स्वरावदमूलरूवपणां


ु वतशेववधम।्
ु वशवानभू
श्तु रे गाध वसन्धजां
तटस्थबोधकां तर्ा स्वरूपभूततन्मर्ां

सरवप्रर्ां ्
ु ॥२॥
सदा भजे वचदम्बरस्थ भूसरम

कुसङ्गजातसवथदोिजालतूल वारकां

ससङ्गवे ु
दकू लमागथ बोधवसन्धनार्कम।्
असवङ्गनाां समाश्र्ां सवेु दमस्तकवस्थतां

वचदम्बरस्थमाश्र्े र्तरन्द्रलोकनार्कम॥३॥

कुरङ्गधावरणां प्रभ ां ु कुलाचलेन्द्रसांवन्नभां


मृदङ्गवावदनवन्दके शहृत्सरोज नत्तथनम।्
अमन्दमोदकावरणां कमण्डलावदधावरणां

ु पूु वजतां भजे वचदम्बरस्थदैवतम॥४॥
समन्त

44

॥ वचदम्बरेश पञ्चचामर दशकम ॥


समन्थन ेन जातर्ोग साधनात्मबोधजां

सतारकारवणप्रसूतवचत्स्वरूपदेवहनम।्
ु द्यमन्धकारतूलदाहकां
अनल्पबवद्धवे

वशवप्रकाशमाश्र्े वचदम्बरस्थवेवदजम॥५॥

धरन्नहरन्द्रमावलकामगेन्द्रजामनोहराां
क्वणत्पदाब्जवशवञ्जकाां नटन्तमाश्र्े सदा।
धमद ् धमवन्ननादकारपादचाल वैभवां

महाववभूवतमाश्र्े वचदम्बरस्थ भूपवतम॥६॥

धराधरेन्द्रचन्द्रसूर्वथ ासवावदववन्दतां
वहन्तमविकुवण्डकाां नटन्तमन्तरे सदा।

स्मरविदां भवविदां मनरन्द्रवचत्त वावसनां

वचदम्बरस्थ देवशकां समाश्र्े सभापवतम॥७॥

धनाजथन ेरत ैजथन ैरलां वधर्ाववभाववतां


जनादथन ेन पूवजतां त्वगस्त्यवन्द्यदैवतम।्

कलत्रपत्रबान्धवाख्यमोहनाशनौिधां

वचदम्बरस्थ भेिजां नमाम्यहां सभापवतम॥८॥

45

॥ वचदम्बरेश पञ्चचामर दशकम ॥

तपीः प्रभावभास्करां स्वतीः प्रभावनशाकरां


प्रलरन सवथ तेजसां प्रवृद्धमोद कन्दलम।्
स्वनान्तमौनतवु न्दलां शमावदर्ोगसन्दरां


वनरन्तरात्मबोधकां सभापळत नमाम्यहम॥९॥

ु कदम्बकां वववरवञ्चपूवजताविकां
वशवानभू
ु वतभास्वरां श्वतप्रकाशभास्करम
वशवानभू ु ।्
वशवेवत वेद मध्यगां श्तु क्ष ु
े णेववमवक्तदां

भजङ्गमावलकाधरां ्
भजे वशवां वचदम्बरम॥१०॥

46

॥ कै लासनार्ाष्टकम ॥


गौरर देहाद्धथमाद्यां समशरदहनां ु फालन ेत्रां
सन्दरां
वामे स्कन्दां तर्ा श्रकवरवरवदनां दवक्षणे धारर्न्तम।्
वसद्धाधरशां गभररां कववकुलरमणां वनत्यमात्मस्थमरशां

वन्दे सवथज्ञमेकां र्वमजनववनतांु वेदवेद्य ां गृहस्थम॥१॥

कै लासाचलकन्दरान्तरवनशां वचन्मात्रबोधे वस्थतां


ु नाख्यान्तमेकात्मताम।्
मध्ये प्रेमपरानरागकवलते
स्वानन्दामृतपूणगथ भथवचसा गौरीं च वशष्याग्रणीं
त्वां ब्रह्मावस वचवतश्च तत्परपरेत्याख्यान्तमरशां भजे॥२॥

रात्रौ मन्दवनशाकरेन्द्रकलर्ा वेदान्तवाक्यान्मदु ा


ु स्सपां ाठर्न्तां तर्ा।
वैराग्र्ावदवभरादृतानजसताां
ु सम्माजथर्न्तां जटाां
शरतस्पशथसमररवेगववधताां
ु ज्ञ ां भजे॥३॥
र्ीः कोऽप्यत्र ववराजते च मवनराडरशानसां

ु ोमलवशरास्तारागण ैस्सेववतो
साम्बीः शरतवहमाांशक
तङ्गु ां हैमवगरेरनन्तमवहमा गरतीः पराण
ु ैीः वश्तीः

ध्यानाववस्थतवनश्चलावर्ततनस्त्ारूढ ु
र्ोगो मवनीः
शावन्तस्सान्द्रपरागरेणतु वतवभवाथतवे रतो राजते॥४॥

47

॥ कै लासनार्ाष्टकम ॥


देवीः प्रेमपरानरागवववशो देहां वस्त्रर् ै दत्तवान ्
अन्याां लोकजपापपावनकरीं मौलौ वनगूढामधात।्
ु चावप तपीः प्रभावजवनतौ वनत्यात्मवनष्ठापरौ
पत्रौ

एकां देवमनौपमां परवशवां शान्त्य ै भजे सन्ततम॥५॥


एको वावरजटाधरश्च र्वमराडाशावसानो मदा
सामाम्नार् ऋचाक्षराांश्च मधरांु तन्त्ररवभरुन्नादर्न।्
वरणावादनतत्परो वहमवगरौ राकावनशाां पूरर्न ्
भृङ्गरशावदवभरर्तचतो ववजर्ते नादान्तवाराां वनवधीः॥६॥


रात्रौ सवे प्रसप्तास्त ु
वहनवगवररसौ वनश्चलाङ्गो बभूव

नन्दरशाद्या मनरन्द्रा ु
वनजसखरवसका ब्रह्मवनष्ठा बभूवीःु ।
एको देवो गभररो वहमवगवरतनर्ाां स्ववप्रर्ाां मोदनरर्ाां
मोदाद ् गङ्गातटान्ते श्वु तमतववभवैमोदर्ामास देवीं॥७॥

तवस्मन कै् लासशृङ्गे तवु हनकररुचा प्लाववते हैमतङ्गु े


धन्यो वार्ीःु प्रवावत श्वु तसमस
ु रवभीः
ु शवथरर मौनगन्धा।
गङ्गा गम्भररकार्ा हरहरतरला रङ्गमाप्लावर्न्तर
ु ८॥
गार्न्तर सा स्रवन्तर प्रवतपदमर् मे मङ्गलां देवदशरत॥

48
॥ तपोववलापीः ॥

कदावा पवरत्यज्य लोकां समस्तां ु


वन े वा गहार्ाां ु वप गेहे
गरोवाथ
ऋिरकावण वचत्ते समाकृ ष्यवनत्यम।् पवरत्यज्य कृ त्यां समस्तां ववरागर।
वनराकारमाद्यन्तशून्य ां वशवाख्यां श्तु वे ाथक्यपरर्ूिपानास्तमोहो

भजेऽहां ववववक्ते सर्ोगासनस्थीः॥१॥ ्
भजेऽहां भवन्तां भवानरकलत्रम॥३॥

वशवेबोधरूपे वनररहे समस्ते कदा वा वसन्देव पूणाथतटे त्वाां


समाधार् वचत्तां वजतप्राणवगथीः। वशवानन्द वसन्धौ वनमिीः सदाहम।्
वववेकर ववरक्तो भववष्यावम शम्भो ु
जपेलरन वचत्तो सभक्त्या भवन्तां

ववहार्ान्य वचन्ताां वचताभस्मधावरन॥२॥ ्
भजे देव तत्त्वां समां बोधरूपम॥४॥

असत्यां समस्तां वशवादन्यतत्त्वां


पवरत्यज्य वनत्यां वनजां ववश्वसारम।्
समस्तार्थसत्ताप्रदातारमरशां

भजेऽहां प्रसरद प्रपन्नार्ततहावरन॥५॥

49

॥ सन्माग थबन्धस्तोत्रम ्

शम्भो महादेव देव


े शम्भो
वशव शम्भो महादेव देवश
शम्भो महादेव देव।

वेदान्तवाक्येि ु गूढां
वेदवेद्य ां परेशां परांब्रह्मरूपम।्
सत्यां वशवां शान्तमेकां

स्वात्मरूपां भजे वदव्यसन्मागथबन्धमु ॥१॥
॥ शम्भो महादेव देव ... ॥

कोऽहां ववचारेण वनत्यां


सोऽहमात्मा सदाभावतवचत्तेमदरर्े।
प्रज्ञानमेकां तरु रर्ां

ज्ञानसारां भजे वदव्यसन्मागथबन्धमु ॥२॥
॥ शम्भो महादेव देव ... ॥

तत्त्वां सदानन्दरूपां
र्ोगगम्यां वचदानन्दमानन्दकन्दम।्
भेदावदहरनां त्वमेवां

भावशून्य ां भजे वदव्यसन्मागथबन्धमु ॥३॥
॥ शम्भो महादेव देव ... ॥

50

॥ सन्मागथबन्धस्तोत्रम ्

वधवमवधवमवत नृत्यन्तमरशां
कालकालां महेशां करुणािथमरशम।्
े मानां
ववद्याधरैस्सव्य

वामदेवां भजे वदव्यसन्मागथबन्धमु ॥४॥
॥ शम्भो महादेव देव ... ॥


कण्ठे सदा मण्डमाला
र्स्यकण्ठे गिंन्तर सदानागमाला।
वचत्ते भजे नरलकण्ठां

देवदेवां भजे वदव्य सन्मागथबन्धमु ॥५॥
॥ शम्भो महादेव देव ... ॥

अरुणाचलानन्दगरतां
स्तोत्ररत्नां पठे द्यस्त ु भक्त्याप्रर्ाणे।
काम्यार्थवसळद्ध ववधत्ते

मोक्षसौख्यां सदातस्य हस्ते च लिम॥६॥
॥ शम्भो महादेव देव ... ॥

51

॥ शरणागत्यष्टकम ॥

सांसारतापसांतप्तो प्रार्थर् े तापभेिजम।्



देवह मे कृ पर्ा शम्भो त्वत्पादे परमाां रवतम॥१॥


‘वशवार् नम’ इत्येकां मन्त्रां वनत्यमदररर्न।्
त्वामेव शरणां गिन वसे ् र्वमवत मे मनीः॥२॥

तर्ावप करुणावसन्धो बलां दैवस्य तादृशम।्



इतश्चेतरतश्चेह पश्र् माां धावतोवनशम॥३॥

कृ पापूणमथ हावसन्धो प्रपन्नपवरपालक।



भरतोऽवस्म शरणां र्ातीः त्रावह माां भवसागरात॥४॥

न वविां वविर्ात्तरव्रां एकदेहहरां वह तत।्


इमे त ु वविर्ाघोरा जन्मजन्मान्तकारकाीः॥५॥


गन्धवथनगरप्रख्ये पत्रदारावदवत्मथ
वन।
भ्रमावम शरणां देवह त्वदन्यो नावस्त मे गवतीः॥६॥

जराव्यावधश्च ववपदीः प्रहसवन्त वश्र्ां मम।



कुत्रावस्त तत्पदां नार् शाश्वतां परमव्यर्म॥७॥

वनर्न्ता भगवांस्त् ां मे र्न्त्रोऽवस्म भगवन तव।्



नान्यां त्वदभर्ां पश्र्े बालां माां रक्ष मातृवत॥८॥

52
॥ शरणागवत पञ्चदवश ॥

प्रार्थर् े भवतीः शांभो वरमेकां कृ पावनधे।


भवक्तभथवत ु मे नार् त्वामहां शरणां गतीः॥१॥
O! Gracious Lord Shambho! I pray unto Thee for a
single boon. Grant me unflinching devotion to Thee.
My Master! I surrender unto Thee.

नाहां काङ्क्षे नाकपृष्ठां वसळद्धवाऽवप महेश्वर।


भवक्तभथवत ु मे नार् त्वामहां शरणां गतीः॥२॥
I have no desire either for heaven or for occult pow-
ers. O! Supreme Lord! Give me devotion.
My Master! I surrender unto Thee.

तत्त्वमस्यावद वाक्यार्थप्रकाशेन हृवद प्रभो।


ु ह्णात ु माां देव त्वामहां शरणां गतीः॥३॥
अनगृ
O! Lord! Reveal to me in my heart the real import of
the mahāvākyas such as Tattvamasi and bless me!
O! Lord I surrender unto Thee.

दृष्ट्वा सांसार सन्ताप ववदुिामवप सद्गरो।



दृष्ट्वा च धवननाां क्लेशां त्वामहां शरणां गतीः॥४॥
Perceiving the miseries of samsāra even in the
learned, and seeing the difficulties of the wealthy! O!
Lord! I surrender unto Thee.

53
॥ शरणागवत पञ्चदवश ॥

दृश्र्न्ते र्ोवगनोऽप्यत्र मनोवनग्रहकर्तशताीः।


वविरदन्तोऽसमाधानात त्वामहां् शरणां गतीः॥५॥
Seeing the miseries and restlessness of many
Yogis in their effort to control the mind,
O! Lord! I surrender unto Thee.

भक्त्या त्वामवभजानावत स्वस्वरूपतर्ा प्रभो।



सावप नावस्त मम स्वावमन त्वामहां शरणां गतीः॥६॥
Prabho! Through pure devotion, one knows Thee intimate-
ly as one's own real Self. O! Lord! I do not have such devo-
tion in me. I surrender unto Thee.

सोऽर्ां स्वात्मववचारोऽवप कोऽहां स्यावमवत रूपकीः।


हृदर्े नावस्त रमण त्वामहां शरणां गतीः॥७॥
O! Ramana! Self-enquiry taught by Thee in the form of
'Who am I?' does not shine forth in my heart. O! Lord! I
surrender unto Thee.

् मे प्रकृ वतर्तह बलरर्सर।


वनग्रहेण भवेत ळक
त्वमेव मनसो र्न्ता त्वामहां शरणां गतीः॥८॥
What is the use of deliberate control of the mind for me?
Prakriti is indeed very powerful. Thou art the sole control-
ler and operator of my mind. O! Lord! I surrender unto
Thee.

54
॥ शरणागवत पञ्चदवश ॥

सदा नाम ैव मे रक्षा त्विूपां नाममात्रकम।्


नाम भळक्त वभक्षमाणीः त्वामहां शरणां गतीः॥९॥
Always the Name alone is my protection. The Name is veri-
ly the form. O! Lord! I surrender unto Thee begging for
devotion to Thy Name.

ु ।्
आशा वह परमां दुीःखां न ैराश्र्ां परमां सखम

आशाां ववहार् हे स्वावमन त्वामहां शरणां गतीः॥१०॥
O! Lord! Knowing that desire indeed is misery, and that
desirelessness is supreme joy, I renounce all desires and sur-
render unto Thee.

थ ीः पङ्गरु हां प्रभो।


अन्धकू पे स्नेहपाशैबद्ध
कमथणा पवततो देव त्वामहां शरणां गतीः॥११॥
O! Lord! Bound by the ropes of attachment and handi-
capped (without legs), I have fallen into the dark well of
samsāra by the power of destiny. O! Deva! I surren-
der unto Thee.


अतरतवविर्ानन्दां भव्यां वा सखदार्कम।्

कदावप नानसन्धानीः त्वामहां शरणां गतीः॥१२॥
Neither ruminating upon the pleasures enjoyed in the past,
nor expecting any pleasures in the future, I surrender
unto Thee.

55
॥ शरणागवत पञ्चदवश ॥


भववतव्यां भवेदवे प्रारिानवशावदह।
एवां ज्ञात्वा महादेव त्वामहां शरणां गतीः॥१३॥
Knowing that whatever has to happen in life will hap-
pen according to one's prārabdha, O! Mahādeva! I
surrender unto Thee.

उद्धरेदात्मनात्मानवमवत वाणर जगद्गरोीः।



तदर्ां नावस्त मे प्रज्ञा त्वामहां शरणां गतीः॥१४॥
'One must lift oneself up with enlightened
understanding' says Lord Krishna, the Jagadguru
(The Bhagavad Gita). But I do not have that
understanding. O! Lord! I surrender unto Thee.


सवथधमाथन पवरत्यज्य मामेकां शरणां व्रज।
ु ा त्वामहां शरणां गतीः॥१५॥
इवत गरतावगरां श्त्व
Listening to Lord's proclamation in The
Bhagavad Gita, 'Give up all dharmās take refuge in
me alone', O! Lord! I surrender unto Thee.

56

॥ प्रज्ञान ेत्रम ॥

र्स्माज्जातवमदां जगच्च सकलां देहावद ज्ञात्रान्तकम ्


र्वस्मन्नेव लर्ां च र्ावत हृदर्े गूढाश्च र्ो कारणे।
र्ां वै कारणकारणात्मकवचदानन्दात्मबोधां ववदुीः
तां सामान्यववशेिभेदरवहतां ब्रह्माख्यमेकां भजे॥१॥

् चराचरात्मकतनावेतत कर्ां
तवस्मन सवथ ् भासते
नानारूपववकारकारकलुिां कल्पान्तसञ्जरवकम।्
इत्यालोचनलोचनान्तरवनशां र्ल्लोचनां वतथत े
प्रज्ञान ेत्रवमतरह वेदभवणतां स्वात्मानमरडे सदा॥२॥

॥ एकश्लोकचर्ाथ॥


एकान्ते सखमास्यताां ु
हृवद वशवध्यान ेन सन्तष्यताां

तन्नामामृत-पान-मत्त-मनसा मोमह्यताां सन्ततम ।्

सन्मौनरन्द्रमपास्यताां प्रवतपदां वेदान्तमाशृण्वताां
स्वात्मध्यानमपेु त्य सन्ततमहो कालां मदा ्
ु नरर्ताम ॥

57
ु वतस्तव: ॥
॥ आत्मानभू

अमलरजतदेहां भावत वचज्ज्योवतरेकां


हृदर्कुहरमध्ये वनष्कलां देवरूपम।्
वनकटपवर् ववचारैववृ थ त्तवभीः सादरेण

सभर्मवभवरेण्र्ां तेजसा दरप्यमानम॥१॥


करणतनवधर्ाां र्ीः प्रेरकीः स्वेन भासा
कबवलतजगदण्डीः वपण्डमध्ये शर्ानीः।
सकलहृदर्वासश्शाश्वतो ब्रह्मरूपो
ववतरत ु पवरशळु द्ध चेतसो नवश्शवाख्यीः॥२॥

58

॥ स्वतन्त्राष्टकम ॥

ु ीः।
न माता वपता मे न वा बन्धवगथ
न ववत्तां न भार्ाथ स्वतन्त्रोऽहमवस्म॥१॥

न देहो मनो वा स्वरूपे ममावस्त।


न मे वलङ्गभेदीः स्वतन्त्रोऽहमवस्म॥२॥

न कामो मदो व न वा िेिरागौ।


न कमाथवण वा मे स्वतन्त्रोऽहमवस्म॥३॥

न मे कवश्चदवस्त वप्रर्ो वाऽवप्रर्ो वा।


उदासरनभावे स्वतन्त्रोऽहमवस्म॥४॥

न शास्त्रां न शास्ता न वा ग्रन्थरावशीः।


न वणाथवदभेदीः स्वतन्त्रोऽहमवस्म॥५॥

न देवो न वा वेदरावशन थलोकीः।


न र्ज्ञो न दरक्षा स्वतन्त्रोऽहमवस्म॥६॥

न सङ्घो न सङ्गो न मे वशष्यवगथीः।


अहन्ता कर्ां मे स्वतन्त्रोऽहमवस्म॥७॥

शरररे गृहे वा धन े च ैव भृत्य।े


न मे लाभवचन्ता स्वतन्त्रोऽहमवस्म॥८॥

59

॥ उपदेशदशकम ॥

आत्मानमात्मना ज्ञात्वा न वकवञ्चदवप धारर्।


त्वमेवावस परां तत्त्वां तूष्णरमास्व वचदात्मवन॥१॥

न वकवञ्चद्धारणाां वचत्ते साधनाां वा ववभावर्।


न त्वां देहो परात्माऽवस तूष्णरमास्व वचदात्मवन॥२॥

सत्तावचिूपमेवावस न त्वां व्यळक्त ववभावर्।


देहवे न्द्रर्ावद हरनस्त्ां तूष्णरमास्व वचदात्मवन॥३॥

देहां वचत्तवमवन्द्रर्ावण मररचरतोर्वन्मृिा।


एत ैर्तवहरनस्त्ां बोधीः तूष्णरमास्व वचदात्मवन॥४॥

न कताथ ववद्यते बोधे करणां वा पृर्वग्वधम।्


न चेष्टा ववववधा तत्र तूष्णरमास्व वचदात्मवन॥५॥

अहङ्कारावद हरनस्त्ां वनजबोधोऽवस वचन्मर्ीः।


न कदावचवन्नशाां पश्र् तूष्णरमास्व वचदात्मवन॥६॥

वनत्यवनवाथणरूपे त्वय्यज्ञानावद कर्ां वद।



मक्तोऽवस वनत्यशद्धु ोऽवस असङ्गोऽवस स्वभावतीः॥७॥

60

॥ उपदेशदशकम ॥

पवरविन्नत्वववभ्रावन्तमसवथत्व महाभ्रमम।्
ववचारेण पवरत्यज्य तूष्णरमास्व वचदात्मवन॥८॥

सांसावरत्व महामोहीः कर्ां भो ते वचदात्मनीः।


अववचारकृ तां मोहां ववचारेण पवरत्यज॥९॥

वजज्ञासा च वजहासा च प्रेप्सा च ैव वचकरिथता।


कतृतथ ा भोक्तृता च ैव ववनश्र्वन्त ववचावरणीः॥१०॥

61
॥ ववचारमाला ॥

(आनन्दानभवप्रकाशीः)

न त्वां देहो न वा जरवो वनजबोधोऽवस वनमथलीः।


ु गौ॥१॥
वृर्ा खेदर्से ह्येव ां उवत्तष्ठेवत प्रभजथ

तस्य श्वणमात्रेण वतवमरां मे वववनगथतम।्


आनन्दबोधभान ां ु तां देवशकां रमणां भजे॥२॥


अन्तश्च ैतन्यरूपेण गरुरूपे
ण र्ो बवहीः।
ु बोधां तां देवशकां रमणां भजे॥३॥
भासते शद्ध

कारुण्र्ामृतवसन्ध ां ु तां स्वरूपानन्दभास्करम।्


कोऽहां ववचारदातारां देवशकां रमणां भजे॥४॥

आत्मा वसद्धोह्यहांरूपीः सदा भावत हृवद स्वर्म।्


बोधोर्नतां सदा तत्त्वां देवशकां रमणां भजे॥५॥

अरुणाविकुलाधरशां करुणामर्ववग्रहम।्
तरुणारुणसांकाशां देवशकां रमणां भजे॥६॥


जाग्रत्स्वप्नसिु प्तरनाां सावक्षभूत ां सदावशवम।्
वनत्यवनवाथणरूपां तां देवशकां रमणां भजे॥७॥

ब्रह्म ैवावस्त जगन्नावस्त त्वमेवदे ां न सांशर्ीः।


एवां तत्त्वोपदेष्टारां देवशकां रमणां भजे॥८॥

62
ु ॥
॥ ववचारमाला - गरुीः

ु ~
~ गरुीः

ु ा स्वानभू
ु ा र्क्त्य
श्त्य ु त्या ज्ञात्वा स्वात्मानमात्मना।
वनवाथसनीः कृ पावसन्धीःु गरुवरत्यवभधरर्ते
ु ॥९॥

सवथभतू िे ु र्ीः पश्र्ेदात्मानां के वलां ध्रवु म।्


ु स एव ववज्ञेर्ो नान्यीः शास्त्रार्थसङ्कटीः॥१०॥
गरुीः


बहवो गरुरूपे ण मोहर्न्तश्चरवन्त वह।
् ढाांस्तभ्य
वञ्चर्न्तीः वश्तान मू े ो जाग्रत जाग्रत॥११॥

स्वात्मानां च गरुु ां मत्वा वशष्यान कृ् त्वा सहस्रशीः।



पर्थटवन्त महामूढाीः सपवथ त्तान पवरत्यजे ्
त॥१२॥

ु वीः वशष्यभावीः परेि ु च।


र्स्य नावस्त गरोभाथ

सवथत्र समदशी र्ो गरुवरत्यवभधरर्ते
॥१३॥

तपसा ज्ञानरूपेण ववद्यर्ात्ममनरिर्ा।


ु स्मृतीः॥१४॥
सदा स्वानन्दपरर्ूिपानोन्मत्तो गरुीः

न त्वां नाहां न वा लोकीः सवां ब्रह्मेवत र्ो वदेत।्



स्वात्मानां रवक्षत ां ु शक्तां गरुवरत्यवभधरर्ते
॥१५॥

बहुजन्मवक्रर्ातप्तां शान्त्या र्ोजर्तरह र्ीः।



ब्रह्मववश्ावन्तसम्पन्नो गरुवरत्यवभधरर्ते
॥१६॥

63
ु ॥
॥ ववचारमाला - गरुीः

न त्वां देहो न वा वचत्तां ब्रह्म ैव त्ववमवत स्फुटम।्



बोधर्ेद्यो सदा वशष्यां गरुणाां ु तीः॥१७॥
स गरुस्मृ

वनर्तवकल्पात्मबोधेन वचविलासपरो मवु नीः।


के वलेन वह मौन ेन ब्रह्मववद्याां प्रकाश्र्ते॥१८॥

थ दुीःखमाताथण्डज्वालादग्धान्तरात्मनीः।
कतृत्त्व

ु ेन ववना शावन्तीः कर्ां भवेत॥१९॥
ज्ञानशरताम्बपान

ु बहवस्सवन्त मन्त्रशास्त्रार्थबोधकाीः।
गरवो
स्वात्मज्ञानप्रदान ेन ज्ञानर तेभ्योऽवतवरच्यते॥२०॥

अन्ये सवे महात्मानीः लर्ां गिवन्त देवशके ।



तस्मात ज्ञानोपदे ु ते॥२१॥
ष्टारां सदा स्मृत्वा ववमच्य

ु व नान्यो भववतमु हथवत।


आत्मनो गरुरात्मै

आत्मा वह बवहरार्ावत गरुरूपे
ण भास्वता॥२२॥


गरुरात्मा कदावचन्न देहवावनवत ववद्यर्ा।

ु न्ते तेन वकवििात॥२३॥
जानवन्त कोववदास्तत्त्वां मच्य

ु देहवमळत कृ त्वा सपां रज्जौ र्र्ा वनवश।


गरौ
थ ां ु व्रजवन्त ते॥२४॥
ु वन्त मार्र्ा मूढा मृत्योमृत्य
मह्य

64
ु ॥
॥ ववचारमाला - गरुीः

स्वात्मतत्त्वोपदेशने बवहवृळथ त्त वनरुद्ध्य च।


ु तीः॥२५॥
प्रज्ञाां स्वरूपसांस्थाां र्ीः तनोवत स गरुस्मृ


र्र्ा पष्पस्य सौगन्ध्यां अवभतो वतथत े तरोीः।

तर्ा वनवाथणसौगन्ध्यां वतथत े वववदतात्मनाम॥२६॥

तेिाां सावन्नध्यमात्रेण वनश्चला धरभथववष्यवत।



परन्त ु दुलथभ ां ह्येतत जरवन्म ्
ु स्य दशथनम॥२७॥
क्त

ु र।
र्वद भवक्तभथगववत वनष्कामा च अहैतक
आगवमष्यवन्त र्ोगरशाीः स्वर्मेव तर्ाहृताीः॥२८॥

् त्मना साधो भळक्त सांपादर्स्व भोीः।


तस्मात सवाथ
मोक्षकारणसामग्र्ाां भवक्तरेव गररर्सर॥२९॥


स्वस्वरूपानसन्धानां पराभवक्तन थसांशर्ीः।
सा त ु सङ्गेन साधूनाां कृ पर्ा च भववष्यवत॥३०॥

भक्त्या परमर्ा सवां ईशावास्यवमवत स्फुटीः।


ु भववष्यवत॥३१॥
प्रोज्ज्ववलष्यवत वेदार्थीः तेन मक्तो

ु ववष्यवत।
भोगत्यागेन वचत्तस्य सत्त्वशवद्धभथ

ु कमथ सङ्गां त्यक्त्वा समाचरेत॥३२॥
सत्त्वस्य शद्धर्े

65
ु ॥
॥ ववचारमाला - गरुीः

सङ्गत्यागार् महताां सङ्गां कुर्ाथदहर्तनशम।्


ु सङ्गो भववष्यवत॥३३॥
तेिाां सावन्नध्यवरर्ेण मक्त

भोगत्यागोऽवतदुीःखार् प्रसक्तस्य गृहावदि।ु


स एव कल्पते शान्त्य ै ववरक्तस्य ववचावरणीः॥३४॥

सवे भोगा स्वभावेन दुीःखर्ोनर् एव वह।


ु सदा तेि ु प्रारिेि ु चरेद्बधु ीः॥३५॥
दोिबद्ध्या

ु न्ते न सांशर्ीः।
सवे सांर्ोगजा भोगा ववर्ज्य
तेिाां ववर्ोगकाले त ु तरव्रा ववरहवेदना॥३६॥

र्ो अवनत्येि ु भोगेि ु दोिबद्ध्या


ु ववरज्यते।
अन्तश्शरतिंता तस्य ववर्ोगे च भववष्यवत॥३७॥

प्रारिेन त ु र्े भोगा न च हेर्ाीः स्वभावतीः।


तेिाां क्षर्स्त ु भोगेन अनासक्त्या भववष्यवत॥३८॥

् दस्य
सवां ब्रह्मेवत र्ोगेन रागिेिान व्य ु च।
आरिानाां क्षर्ां कुर्ाथदाश ु वसद्ध्यवत भूवमका॥३९॥

ईशस्य कृ पर्ा दुीःखमागवमष्यवत देवहनाम।्


भोगेि ु ववरळत दात ां ु तस्माद्दीःखां ्
ु न गहथर्ते ॥४०॥

66
ु ॥
॥ ववचारमाला - गरुीः

ु समार्ावत प्रसादोह्यात्मनस्तत।्
र्द्यद्दीःखां
सवथसवञ्चतकमाथवण भस्मसात क ् ु वरते तर्ा॥४१॥

र्दा दुीःखां समार्ावत पूवपथ ापेन कमथणा।



तदा सवां वतवतक्षेत तपोभावेन बवद्धमान ्
॥४२॥

ु द्यते पस
ज्ञानमत्प ्
ां ु ाां क्षर्ात पापस्य कमथणीः।
तेिाां क्षर्स्त ु भोगेन तपोभावेन साध्यते॥४३॥

थ रश्वरां समर्ाचत।
एवां ज्ञात्वा पृर्ा पूवम
ववपदीः सन्त ु नीः शश्ववदवत तत्त्वववदाां वरा॥४४॥

वनवेदमूलां वह दुीःखां प्रसक्तस्य गृहावदि।ु


अनगृु ह्णावत भगवान दुीःखे् न तपसा प्रभ:॥४५॥

ु स्य कृ पावातीः प्रवतथत।े


वैराग्र्ेण ववशद्ध

नरर्ते तां कृ पावाते ज्ञानदेवशकसवन्नवधम॥४६॥

~ ज्ञानोपदेशीः ~

अहमस्मरवत सवेिाां र्ा च सांववत्प्रकाशते।



हृदा मनरिा ताां वचन्वन स्वस्वरूपोऽवभासते ॥४७॥

बाल्ये वर्वस र्ो बोधीः अहमस्मरवत भासते।


स एव वाद्धथके च ैव देहाभावेऽवप वशष्यते॥४८॥
67
॥ ववचारमाला - ज्ञानोपदेशीः ॥


जाग्रत्स्वप्नसिु प्तरनाां ु त।े
पवरणामेऽनवतथ
वनर्तवकारो वनराकारो र्ोऽहमस्मरवत वनश्चलीः॥४९॥

तां ववद्यात्सोऽहमस्मरवत आत्मरूपेण सांर्मर।


् द्घटपटावदवत॥५०॥
अहङ्कारावददेहान्तान पश्र्े ्

ु वतीः स्वप्रकाशा ह्यहांरूपतर्ा वस्थता।


अनभू
अन्ये सवे मृिाभावा दृश्र्रूपतर्ा वस्थताीः॥५१॥

अहां बोधस्त ु ब्रह्म ैव गहार्ाां


ु ु
भासतेऽधना।

प्रवतवबम्बोह्यहङ्कारो मृिा भावत स्वरूपवत॥५२॥

आगमापावर्वान ेिीः प्रवतवबम्बीः स्वभावतीः।



आद्यन्तरवहतोह्येिो वबम्बभूतो महाप्रभीः॥५३॥

ृ ीः।
सावक्षदरपस्य भानार्ां राजमागो ह्यर्ांस्मत

कोऽहमस्मरवत रूपोऽसौ ववचारीः कथ्यतेऽधना॥५४॥

अहांरूपेण सवेिाां भावानाां हृदर्े वस्थतम।्


अहांपदार्ां श्द्धत्स्व वचदाकाशीः प्रकाशते॥५५॥

परमात्मैव हृद्व्योवम्न अहांरूपेण भासते।



र्र्ा बद्बु दु गभथस्थ ां भास्वरां रववमण्डलम॥५६॥

68
॥ ववचारमाला - ज्ञानोपदेशीः ॥

अहां पदार्ो ब्रह्म ैव जरवो न ैव तदहथवत।


जरवबोधस्त ु वमथ्य ैव सांशर्श्चेविचारर्॥५७॥


आसरनोऽहां शर्ानोऽहां भञ्जानोऽहवमवत स्वर्म।्

मोवहता गणसगे
ण सांसरन्त्यववचावरणीः॥५८॥


आसरनोऽहां शर्ानोऽहां भञ्जानोऽहवमवत स्वर्म।्
ु ो भववष्यवत॥५९॥
प्रवाहपवततां बोधां जानन्मक्त

ु अनवतथ
अवस्मन्नेकाह्यहांबवद्धीः ु वत सवथदा।
ताां ववववच्य ववजानरर्ादधनु ैव ववमच्य
ु ते॥६०॥

~ आत्मववचारसाधना ~


र्दा कावचत क्ववचद ् वृवत्तवश्चत्तववक्षेपकावरणर।
ु त्या कस्येर्वमवत वचन्तर्ेत॥६१॥
न धावेत्तामनस्मृ ्

ममार्वमवत रूपेण र्ा वृवत्तीः स्फुरवत स्वर्म।्



ताां वृळत्त मनसा गृह्णन हृदर्े लर्मेष्यवत॥६२॥

ु ।्
तत्स्थान े बोधरूपोऽन्यीः प्रोज्ववलष्यवत भानवत
नाहांकारोह्यर्ां बोधे ब्रह्मज्योवतन थसांशर्ीः॥६३॥

् लान्वेिणवासना।
एवां वनरन्तराभ्यासात मू
श्वासप्रश्वासववञ्चत्ते स्वर्मेव भववष्यवत॥६४॥
69
॥ ववचारमाला - आत्मववचारसाधना ॥

थ नाशीः स्यादात्मबोधो वनरन्तरीः।


तेन कतृत्व
थ नाश एवेवह समावधवरवत कथ्यते॥६५॥
कतृत्व

अहां कतेत्यहांभावमोहपाशाद ् वववनगथतीः।


ु ॥६६॥
चन्द्रवविमलीः पूणीःथ शरतिंाननमश्नते

अहांकारोदर्ाभावे स्वरूपानन्दभास्करीः।
समज्ज्वलवत हृद्व्योवम्न मेघापार्े र्र्ा रववीः॥६७॥

अज्ञानध्वान्तववध्वांस ां स्वरूपानन्दतवु न्दलम।्


ु ां प्रचक्षते॥६८॥
वजज्ञासावदवनवृत्त ां तां जरवन्मक्त

ु परमानन्ददार्ोनर।
वैशारदरमहाबवद्धीः
ु ार् नमस्कुमो पनीःप
तस्य ै तस्म ै च मक्त ु नीः॥६९॥

~ गाहथस्थ्य ववचारण ~

गृहस्था बहवीः सवन्त तत्त्वमागे ववचावरणीः।


े ७०॥
तेिावमर्ां ब्रह्मववद्या साध्यावेवत ववचार्थत॥

ु ानाां पूणाथ मवु क्तभथववष्यवत।


एिणात्रर्मक्त
अत्र नावस्त ववदाां कोऽवप सांशतोऽस्य ववचारणे॥७१॥

एिणात्रर्मवु क्तर्तह मवु क्तब्रूतथ े श्वु तीः स्वर्म।्


तस्याां गृहस्थीः ळक कुर्ाथवदवत वचन्ता प्रवतथत॥
े ७२॥

70
॥ ववचारमाला - गाहथस्थ्य ववचारण ॥

एिणात्रर्बन्धोऽर्ां नात्मनीः क्वावप बन्धकृ त।्


ु ते॥७३॥
शरररस्य वह बन्धोऽर्ां आत्मज्ञानाविमच्य

सङ्कल्पप्रभवाह्येत े सङ्कल्पश्च मनीःकृ तीः।


मनसोह्यमनरभावे सङ्कल्पो न भववष्यवत॥७४॥

ब्रह्मववत्के वलां ब्रह्म न गृहस्थो न वा र्वतीः।


गृहस्थो वा वनस्थो वा तस्य कार्ां न ववद्यते॥७५॥

ईदृशीं कल्पनाां त्यक्त्वा कोऽहवमत्येव शोधर्ेत।्


अहांकारोदर्ाभावे न गृहस्थो न वा र्वतीः॥७६॥

ु ते।
गृहस्थो वा वनस्थो वा स्वात्मज्ञानाविमच्य
गृहस्थो वा वनस्थो वा अनात्मज्ञो वनबद्ध्यते॥७७॥

नाहां देहो न मे देहीः वनजबोधोऽहमव्यर्ीः।


ु ते॥७८॥
इवत वनवश्चतबोधेन गृहस्थोऽवप ववमच्य

प्रजोत्पत्यादर्ोधमाथ बाधन्ते वह गृहवे स्थतम।्


कर्ां तस्य ववमवु क्तस्स्यावदवत वचन्ता प्रवतथत॥
े ७९॥

प्रजोत्पत्यादर्ोधमाथीः सदा देहस्य नात्मनीः।


न बाधन्ते स्वरूपस्थां भास्करां वावरदो र्र्ा॥८०॥

71
॥ ववचारमाला - गाहथस्थ्य ववचारण ॥

ु स्य वनर्तवकल्पे वस्थतस्य च।


आत्मज्ञानाविमक्त
वनवतथन्त े देहधमाथ गृहस्थस्यावप र्ोवगनीः॥८१॥

बहवो तादृशा वसद्धा गृहवे स्थत्वावप न ैवष्ठकाीः।



अभूवन वासनाश ु ा नात्र कार्ाथ ववचारणा॥८२॥
द्ध्य


आत्मानभवसां
पन्नाीः के वचद्योगववदाांवराीः।
आरिभोगनाशार्ां वविर्ेि ु रमवन्त च॥८३॥

तर्ावप न च ते बद्धाीः सांसाररव सरवन्त वह।


पङ्कमद्ध्यगतां पद्मां न कदावचवििज्जते॥८४॥

वासनार्ाीः क्षर्ां तेिाां शरघ्रमेव भववष्यवत।


र्र्ा परैु व तेजस्वर राहुमक्त
ु ो वदवाकरीः॥८५॥

् होवचताीः।
गृहस्थोऽवप गृहवे स्थत्वा वक्रर्ाीः कुवथन गृ
ु ते न सांशर्ीः॥८६॥
स्वस्वरूपववचारेण ववमच्य


अहङ्कारावद देहान्तान बन्धानज्ञानकवल्पतान ।्
स्वस्वरूपात्मबोधेन कदा हास्यावम सद्गरो॥८७॥

इवत भक्त्या गरुु ां पृष्ट्वा तरव्रर्ाऽऽत्मममु क्ष


ु र्ा।

ु शक्त्या तत्त्वबद्धो
गृहस्थोऽवप गरोीः ु भववष्यवत॥८८॥

72

॥ ववचारमाला - अनग्रहपर्म ्


~ अनग्रहपर्म ्
~

ु ा वैशारदीं वाताां ववजन े तविचारर्न।्


श्त्व
ु न ैश्चल्यमनभू
कालेनाल्परर्सा बद्धौ ु र्ते॥८९॥

ु वतीः प्रजार्ते।
न ैश्चल्येन वह र्ोगेन स्वानभू

ु त्या स्वरूपस्थां जानवन्त परमेश्वरम॥९०॥
स्वानभू


~ सगथरहस्यम ~

अन्तस्सूक्ष्मस्वरूपेण कारणात्मागृहवे स्थताीः।



पदार्ाथीः स्थूलरूपेण वनगथिवन्त बवहीः स्वर्म॥९१॥

एवां ववजृम्भमाण ैस्स्वैवाथसनागारसांवस्थत ैीः।


पदार्ैीः पूवरता दृवष्टलोकाकारेण ववस्तृता॥९२॥

तस्मादात्मैव लोकोऽर्ां नान्यदस्तरह वकञ्चन।


इवत वनवश्चतबोधेन िैतजालां वववनदथहत ्
े ॥९३॥

अन्तवश्चत्तावदभावेन जगिूपेण र्ो बवहीः।



वतथत े तां परात्मानां अहवमत्येव भावर्ेत॥९४॥

अहांबोधे जगत्सवां तरङ्गां सागरे र्र्ा।


उदेवत च लर्ां र्ावत वनत्यानन्दे महाम्बधु ौ॥९५॥

73

॥ ववचारमाला - सगथरहस्यम ॥

अहांबोधां सदा स्मृत्वा मनो नश्र्वत र्ोवगनीः।


वनर्तवकल्पा च वचन्मात्रा प्रज्ञा तत्राववशष्यते॥९६॥

कवञ्चत्कालां समाधार् स्ववस्मन्नेव मनोदृढम।्


तस्य वस्थरा भवेत्प्रज्ञा वस्थतप्रज्ञस्तदोच्यते॥९७॥


एवां ज्ञात्वा चरेवििान ववरक्तो ु बन्धनीः।
मक्त
ु ॥९८॥
धन्तोऽसौ ज्ञातसवाथर्ीःथ परमानन्दमश्नते

क्ववचत्सरससल्लापीः क्ववचविश्ान्तमानसीः।
ु बन्धनीः॥९९॥
क्ववचद्गम्भररवाचालीः राजते मक्त

अहमेव जगत्सवां नान्यदस्तरह वकञ्चन।



इवत मत्वा चरन र्ोगर स्वराज्ये रमते सदा॥१००॥

र्स्य स्फुरवत सवथत्र स्वात्मा सवेि ु सवथर्ा।



तां नमस्यवन्त देवाश्च धन्यां तस्य ैव जरववतम॥१०१॥

साधना तस्य वै नावस्त साधकत्वां वनराकृ तम।्


ु बन्धनीः॥१०२॥
साध्यां सवथत्र चाभावत धन्योऽसौ मक्त

धन्यां भोगेि ु वैराग्र्ां धन्यो लक्ष्यार्थवनश्चर्ीः।


ु पवत्तीः धन्यां तत्त्वार्थदशथनम॥१०३॥
धन्या च गरुसां ्

74

॥ ववचारमाला - सगथरहस्यम ॥

ववचारकुसमग्रवर्ताां
ु ु र्तु ाम।्
वववेकगणसां
ववज्ञानवासनापूणाां मालामेनाां समपर्थ ॥
े १०४॥

अरुणाचलपादाब्जमधपेु न समर्तपताम।्
पात ु देवो र्र्ा पत्रीं
ु मालामेनाां महाप्रभीः॥१०५॥

75

॥ प्रत्यवभज्ञादरपम ॥


नमीः परमशद्धु ार् बद्धार् सवथसावक्षणे।
ु सवथलोकानाां वनत्यमक्तार्
गरवे ु ते नमीः॥१॥

वेदान्तार्थववचारेण भासते र्ो सताां हृवद।


वेदान्तगगनारूढमाद्यां बोधकमाश्र्े॥२॥

थ ाहङ्कृळत मत्तीः वनमथलानन्ददावर्नम।्


वनमूल्य
वनत्यवनवाथणबोधां तां सद्गरुु ां रमणां भजे॥३॥

अरुणाचलवशरोद्भूतसांप्रदार्प्रवतथकम।्
करुणाणथवमरडे तां रमणाख्यमहां महीः॥४॥

र्त्कृ पालेशमात्रेण सोऽहवमत्यात्मवनश्चर्ीः।


प्रत्यवभज्ञानरूपेण भासते तां गरुु ां नमीः॥५॥

ु च चलाां वधूम।्
थु ां वनश्चलां नार्ां सगणाां
वनगण
वन्दे च वपतरावाद्यौ बोधसन्तानवसद्धर्े॥६॥

वनविर्ो वनमथलो भताथ तस्य भार्ाथ वक्रर्ामर्र।



सांबन्धेनानर्ोनूनांथ सगथकल्लोलपत्तनम॥७॥

76

॥ प्रत्यवभज्ञादरपम ॥

वनश्चला सचला शक्तर वतेत े गूढदर्तशनाम।्



वनश्चलात्वमृता प्रोक्ता मृत्यरूपा त ु मानसा॥८॥

वनश्चलाां ताां वशवाां वन्दे बोधसन्तानदावर्नरम।्



मृत्यरूपाां ्
च ताां वन्दे वैराग्र्धनदावर्नरम॥९॥

सचला मानसर शवक्तीः ववक्षेपलर्रूवपणर।


अहङ्कारावददेहान्ता श्द्धाधनववशोविणर॥१०॥


गरुवाक्यसम ु ूतप्रत्यवभज्ञानवविना।
द्भ
भस्मरकृ ता वशवांसतू े अन्यर्ाऽनर्थकावरणर॥११॥

प्रत्यक्प्रवावहनर ववद्या तारा सांसारशोविणर।



गरुवाक्य ु सारतावरणर॥१२॥
ैीः क्षणां भावत मृत्यसां

सा कला परमेशस्य त ैजसरव ववभावसोीः।


अवभन्ना सांववदाकारा वशवशक्त्य ैक्यरूवपणर॥१३॥

थु तर्ा पश्र्ेदात्मसांस्थाां हृदा सदा।


अन्तमख
ु वद्य
नान्यर्ा सा ससां े ा मृतसञ्जरववनर र्र्ा॥१४॥

77

॥ प्रत्यवभज्ञादरपम ॥

वतरोभववत्रर त्वरक्षमाणा वशवे लरना भववष्यवत।


र्वद तामरक्षते वविान म् च्यते
ु कमथबन्धन ैीः॥१५॥

वचदाख्यार्ाीः समावेश े वनर्तवकल्पो भवेविवीः।



के वलां सवच्चदानन्दां वशष्यतेऽत्र महाणथवम॥१६॥

ववद्यावत्वर्ां त ु ज्ञातव्या प्रत्यवभज्ञानपारग ैीः।


थु ववचारेण नान्यर्ा भावत कौशलैीः॥१७॥
अन्तमख

पञ्चिारैश्च वचिवक्तबथवहीः सरवत वस्तिु ।ु


ताां सदाऽवधान ेन हृवद बध्नरवह वसद्धर्े॥१८॥

अहां रूपेण र्ा वनत्यां वचदाख्या स्पन्दते हृवद।


कलाां सदाऽवधान ेन श्द्धत्स्वानन्द वसद्धर्े॥१९॥

अहां रूपेण नृत्यन्तीं कलाां ताां वववद्धशारदाम।्


तामहथर्दे वभन्नेन वशवबोधप्रदावर्नरम॥२०॥ ्

ु भवव।
स आवदत्यो गोवभर्थिदालोकां तनते ु
ु बोधां वचिक्त्या करणालर्े॥२१॥
तर्ाऽऽत्मा तनते

78

॥ प्रत्यवभज्ञादरपम ॥


स्वस्वरूपववचारेण सतरक्ष्णरकृ तचेतसा।

सावक्षरूपेण भासन्तां बोधानन्दवनळध भजेत॥२२॥

वनर्ि मन्य ां ु दम्भां च दपां मात्स्यर्थमवे च।


बह्वनर्थकरां कामां बोधानन्दवनळध भजेत॥२३॥ ्

पञ्चेवन्द्रर्ावण सांर्म्य वचत्तां वचत्ते वनरुद्ध्य च।



ु च वनश्चलाां कृ त्वा बोधानन्दवनळध भजेत॥२४॥
बळद्ध

पञ्चिारैधाथवमानाां शळक्त बध्नरवह सावक्षवण।


नान्यर्ा वसद्ध्यते बोधीः प्रत्यवभज्ञानभास्करीः॥२५॥

79

॥ गरुतत्त्वाष्टकम ्

तस्म ै वचद्बोधदरपार् दुर्तवतक्याथत्मवत्मथन े।


ु मनसोऽतरतस्वरूपमहसे नमीः॥१॥
गरवे

तस्म ै नमीः कृ पापूणवथ चिसासववसन्धवे।


ु मौनशरवलन े॥२॥
व्यापावदतात्मतमसे गरवे

ु तर्थ ।े
तस्म ै ववकाररवहतववशद्धज्ञानमू

अभौमालोकपञ्जार् नमस्ते श्वु तमूतर्थ ॥
े ३॥

तस्मक
ै ारणदेहार् वचदाकाशस्थभानवे।
वनश्चलार् मनोऽतरत स्वप्रकाशवचते नमीः॥४॥

तस्म ै वनरस्तमोहार् मूलाऽववद्यावनवावरणे।


मौनानन्दघनरभूतववग्रहार् हृदे नमीः॥५॥


तस्म ै परमशद्धु ार् बद्धार् सवथ सावक्षणे।
ु सवथलोकानाां वनत्यमक्तार्
गरवे ु ते नमीः॥६॥


तस्म ै ववचारन ेत्रार् वववेक गणशावलन े।
ववज्ञानलोकचन्द्रार् नमस्ते बोधभानवे॥७॥


तस्म ै प्रसन्नबोधार् न ैश्चल्यसखदावर्न े।
हृदारामववहारार् वेदहांसार् ते नमीः॥८॥

80

॥ गरुरहस्यम ्

र्स्य नात्मज्ञववभ्रावन्तीः तर्ानाज्ञमवतीः परे।


तमाहुस्तत्त्ववेत्तारां र्ळत लोकववभूिणम॥१॥ ्

ब्रह्मण्र्पु रतीः शान्तो ब्रह्मभूतीः प्रशान्तधरीः।


स्वस्य सवन्नवधमात्रेण ज्ञानदाता रववर्थर्ा॥२॥

सांसारतापतप्तस्य वचत्तशरतिंमारुतम।्

ु ॥३॥
भवभरकररोगस्य भेिजां परमां गरुम

् स्वप्ने त ु के सवरम।्
कवरस्सप्तु ो वन ेकवश्चत दृष्ट्वा
उद्बध्य
ु के वलां स्वत्वां जानावत गजर्ूर्पम॥४॥ ्

तर्ा च मार्र्ा सप्तोु दृष्ट्वात्मानां गरुु ां परम।्


ु के वलां तत्त्वां जानावत परुिोत्तमम
प्रबद्धीः ु ्
॥५॥

त्वमेव परमां तत्त्वां नान्यदवस्त कर्ञ्चन।



तस्मादात्मानमवन्वष्य वचत्तशावन्तमवाप्नवह॥६॥

ु वाचा बोधर्न्तां महुम


एवां मधरर्ा ु हुथु ीः।
तमेव तत्त्ववेत्तारां अवभगि महामते॥७॥

81

॥ गरुभवक्ततरवङ्गणर ॥


गरुवरप्रभो तवकृ पादृशा। (1) O Lord! My Supreme Guru! By Thy
Glance of Grace the sun of divine awaken-
भावत हृस्थले बोधभानमान ्
ु ॥१॥ ing shinesforth in the horizon of my heart.

(2) O Supreme Lord of Ascetics! Your very


वशवपदप्रदां कामदाहकां । presence bestows Self-realisation (which is
the most auspicious blessing) and burns all
र्वतवरप्रभो नवतवरर्ां तव॥२॥ desires in the mind. I prostrate to Thee.

(3) As I recollect Thy immaculate 'nāma'


अमलनाम ते स्मरणतो मम। it wipes out the hidden ego and its move-

हरवस हृिर्ां क्लेशसञ्चर्म॥३॥ ments in my heart which is the sole cause of
misery. Thus Thy name bestows supreme
release.

ववरहवेदनाां कर्महां सहे। (4) O Master! How can I bear the intolera-
सवन्नळध तव दशथर्ाश ु मे॥४॥ ble pain of viraha (pangs of separation that
mystics undergo) from you? Please reveal
Thy presence now itself.
स्वरकृ तस्त्र्ा प्रेमभावत:। (5) Thou with abundant compassion and
हृवदवनवेवशतोऽप्यवस्म मा त्यज॥५॥ love accepted me and kept me in Thy heart.
Now O Lord! Please do not discard me!


मातृतोऽवधक: करुणर्ा गरो। (6) O Guru! Thou with more compassion
than one's mother, have taken responsibil-
माां प्रशावसत ां ु वनवश्चतां त्वर्ा॥६॥ ity of me and determined to direct my inner
life with affectionate disciplines.

बवहरटे द्यर्ा न ैव मानसम।् (7) O Lord of samyamis (ascetics or renun-


ciates or Yogis) with Thy Grace, please
सांर्मरश्वर सांर्मां कुरु॥७॥ control the mind in such a way that it ceas-
es to wander outside.

82

॥ गरुभवक्ततरवङ्गणर ॥

(8) O Supreme Teacher of Vedas, the ban-


वेदबोधक मोहनाशक। isher (destroyer) of delusion, awaken the

बोधर्ाश ु मे परमसांववदम॥८॥ supreme awareness in my heart.

(9) Thou art the embodiment of awaken-


त्वत्समोऽवधको नावस्त बोधको। ing! None is either equal or superior to you
in awakening the soul! O Lord! Awaken me
बोधरूप भो बोधमावदश॥९॥ to the Supreme Truth (Bestow on me the
implied meaning of the Mahāvākyas).

च ैत्यववग्रहे त्ववर् रसाणथव।े (10) Thy divine manifestation is an ocean


of inundation. My mind melts in the ine-
ु लरर्ते मानसां मम॥१०॥
मधवन briating honey of Thy experience (form).

(11) You imparted the Words of Supreme



वचत्तशान्तर्े बोधर्न वगरम ।् Wisdom for my mind to be in Peace
(Silence) and from within Thou swallowed
कबवलतां त्वर्ा वचत्तमात्मना॥११॥ the mind as the inner-Self (Atman).

(12) O Sadguru! Please tell me how I shall


कर्महां तव पादपङ्कजे। attain delightful love at Thy lotus feet.

ु ब्रूवह सद्गरो॥१२॥
रवतमवाप्नर्ाां ु (13) O Lord! Give me the knowledge of the
word 'ASI' in the Mahāvākya (Tat-Tvam-
Asi) which will wipe out the delusion of the
मोहमाजथकां स्वात्मबोधकम।् jīva-bhāva (individuality) and thus awaken
one to the realization of the Supreme Self.
अवसपदां मम बोधर् प्रभो॥१३॥ (ASI-are, it is the connecting link between
'That' and 'You'. The implied meaning of
ASI is the experience of oneness of Jīva and
ववग्रहेवन्द्रर् प्राणधरतम:। Brahman).
नाहवमत्यहो बोवधतां त्वर्ा॥१४॥ (14) “I am not the body, the senses, prāṇa,
intellect or the darkness of ignorance.”
Thus did Thou teach me.

83

॥ गरुभवक्ततरवङ्गणर ॥

ज्ञातवानवप ज्ञानमात्मन:। (15) Dull-witted that I am, even after grasp-


ing the knowledge of the Supreme Self, I
मन्दधररहां न ैव जागृवम॥१५॥ continue to wallow in darkness. Wake me
up with Thy Grace.

वचत्स्वरूपखे वनवष्ठतोऽभवम।् (16) Ha! Thou art the effulgence of Chit!


With Thy single glance, I got
वरक्षणेन ते वचत्प्रभामर्॥१६॥ established in the infinite
space of Chit (Chit means awareness of
consciousness).
ईश जरवर्ोरैक्यबोवधवन।
(17) In Thee resides a force which is of the
शवक्तरवस्त ते सांववदाकृ वत:॥१७॥ form of pure consciousness which awakens
the oneness of Jīva and Īśvara (The
Pratyabhijña śakti of the Atman gives the
तव वह सवन्नधौ नृत्यमेवत सा। ultimate experience of Advaita).


वचत्तरवङ्गणीं बोधर्ाश ु ताम॥१८॥ (18) In Thy presence alone dances the
inebriating force of Chit; awaken that in
me.
रहवस लास्यतामेवत कुण्डलर।
(19) By Thy sheer Glance of Grace dances
तव कृ पादृशा हृदर्गह्वरे॥१९॥ the divine force kuṇḍali in the secret cave
of my heart.

तादृशीं भवत्तापहावरणरम।् (20) Reveal to me Thy moon-like cool pres-


ence which removes the misery of samsāra
चन्द्रशरतलाां सवन्नळध वदश॥२०॥ instantaneously.

वेदवावदनाां भ्रमर्तरहमाम।् (21) The hyperbolic words of scholars elu-


cidating the karmakānda portion of Vedas
कृ त्यभारतर ह्यर्थवावदनर॥२१॥ confuse me. (Reveal the essence of Vedas).

84

॥ गरुभवक्ततरवङ्गणर ॥

तत्वमात्मन: श्ोतमु वस्त मे। (22) O Lord my Saviour! Let me be blessed


to listen to the Truth of the Self from Thy
तव मख ु
ु ाम्बजात्तारक प्रभो॥२२॥ Lotus face.

(23) Mere materialistic blabbering from the


वैखरर जडा शास्त्रवावदनर। scientific world spoils the flowering of
भरिर्त्यहो भवक्तनावशनर॥२३॥ bhakti in the listeners' heart. O Lord! It
frightens me to be involved in such talks.

वेदमस्तके राजमान हे। (24) O Lord! Thou shines-forth gloriously


in the head of Vedas (in the Upanishads).
स्वात्मबोधकां वाक्यमावदश॥२४॥ Give me that Supreme WORD
(Mahāvākya) by which I will wake up to
the Self-Knowledge.
श्वु ति ु सप्रभा
ु सांववदाकृ वत-।
(25) Let me have the experience of the efful-
भथवभर्ापहा भूवतरस्त ु मे॥२५॥ gent consciousness spoken by the Upani-
shads which will wipe out the fear of trans-
migration.
े ृ ते।
कोऽहवमत्यसौ मागथणक
(26) When enquired “Who am I?” the most
स्फुरवत शङ्करर वृवत्तरावदमा॥२६॥ auspicious primordial force pulsates (in the
centre of my heart).

अवनशमात्मनो ध्यानर्ोगत:। (27) By continuous meditation on the Self


स्वर्महांतर्ा भावत वचत्प्रभा॥२७॥ the light of Chit (Pure Consciousness)
shines-forth by itself as I - I.

तवकृ पाां ववना ज्ञातमु रदृशरम।् (28) Without Thy Grace it is


impossible to recognise this light

वचत्प्रभामहो न ैवशक्नुर्ाम॥२८॥ of consciousness.

85

॥ गरुभवक्ततरवङ्गणर ॥


ववरहवविना दह्यते वप-। (29) This body is burning in the fire of
divine separation (viraha). Shower the cool

श्शरतलावर्त ां ु विथर्ामृतम॥२९॥ nectar of Thy experience.

भेदवर्तजते वनत्यवनवृतथ ।े (30) In the ever released state of non-duality


reveal Thy abode at least once, O Lord.

सकृ दवप प्रभो दश्र्थवस्थवतम॥३०॥

(31) O Guru! Only by those who have con-



सांर्तेवन्द्रर् प्राणबवद्धवभ-। trolled their senses, prāṇa and intellect are
वेद्यमवस्त ते मौनमात्मन:॥३१॥ mature enough to recognise Thy profound
silence of the Self.

गवतरहो मम तव पदिर्म।् (32) O Lord! I have no refuge other than


Thy Holy Feet. Show me that fearless state
नावस्त मेऽन्यर्ा ह्यभर्मावदश॥३२॥ of Jñāna.

ु पाां ववना मवु क्तरवस्त वकम।्


गरुकृ (33) Is there absolute release (emancipation)
without the Grace of Guru? How can the

मातरां ववना शैशवां कर्म॥३३॥ baby survive without the mother?

ु सारघां मध।ु
तव पदाम्बजे (34) My mind is craving to drink the de-
lightful honey of Thy lotus feet.
पातमु िे मे लालसां मन:॥३४॥
(35) O Lord! My Saviour! Thou art the
राजहम्सवत्तारकप्रभो। Royal Swan (Rajahamsa). Come and reside
in the lake of my mind (mānasa saras).

सरवस मानसे ववहर मे भवान॥३५॥

86

॥ गरुभवक्ततरवङ्गणर ॥

हृत्स्थले मम वदव्यमवन्दरे। (36) In the sacred temple of my heart, sport


and delight with Thy divine śakti who is of
हांसववद्यर्ा रमर् रामर्ा॥३६॥ the form of Paramahamsa Vidyā. (The
knowledge by which one separates con-
sciousness from matter)
ग्रन्थसञ्चर्ां भरमहो मम।
(37) O Lord! My mind appears like an ass
गदथभार्ते मानसां वृर्ा॥३७॥ with the burdensome load of the collection
of scriptures on my head.

ग्रवन्थभेदकां वनिथर्वस्थवतम।् (38) O Lord! Teach me the path of Atma


Vichāra which alone will cut asunder the
वनजववचारणां बोधर् प्रभो॥३८॥ knot of ignorance and will reveal the state
of non-duality.
ु दशथनम।्
जगत ईशधर र्क्त (39) By Thy Glance of Grace, the divine
तवकृ पादृशा जार्ते मम॥३९॥ vision of seeing the world as God dawns in
my heart.

रसमर्ां तव वनर्तवकल्पकम।् (40) That inundating experience of Chit


which is devoid of any duality shines forth

वचत्वदशथन ां भासतेऽधना॥४०॥ here and now.

(41) Pure consciousness (chit) which is


जगदहांपरो नावस्त मे त्रर्म।् devoid of tripuṭi in the form of Jīva, Jagat
वत्रपवट ्
ु हरनवचत भावत सवथदा॥४१॥ and Īśvara (Individual, World and God)
shinesforth in all splendour.

ईशदशथन ां धन्यमरदृशम।् (42) Blessed is such divine vision! Verily


such experience of Self does not dawn with-
ु पाां ववना साध्यते नवह॥४२॥
गरुकृ out Gurukripa.

87

॥ गरुभवक्ततरवङ्गणर ॥


गरुवरार्थ भो स्वरकुरुष्वमाम।् (43) O Supreme Master! Please accept me
in Thy fold. O Lord! I have no other re-
नान्यर्ा गवत: शरणद: प्रभो॥४३॥ course. Thou art my only refuge.

(44) That absolute pristine experiential


उपवनित्स ु र्ा शारदर मवत:। wisdom of the Upanishads flashes forth in
my heart thro' Thy words.
तव वगरा मम भासते हृवद॥४४॥
(45) That highest happiness born out of
आत्मलाभजां परमसौख्यदम।् Self-Knowledge bestows the Supreme re-
pose and the Joy of awareness. That majes-
बोध वचत्सख ्
ु ां भावत साम्प्रतम॥४५॥ tic state shinesforth (reveals itself) here and
now.

अवववदतोऽवखलैमाथर्र्ाहृवद। (46) Thou art the Self residing in everyone's


heart. Yet people do not recognise Thee! It

ववस्मृतो भवान कौस्त ु र्र्ा॥४६॥
भां is like forgetting the divine kaustubha jewel
in one's own chest.

तत्त्ववमत्यहां बोवधतस्त्र्ा। (47) Thou came before me and gave me the


teaching 'You are That.' That very moment
तत्क्षणे वशवां भासते हृवद॥४७॥ I woke up and beheld the most auspicious
Truth.

ु चरन।्
ु ववनाप्यनभवां
अनभवां (48) I was moving about from one birth to
नष्टमेवमे भववत जन्म भो॥४८॥ another ignoring this ever present experi-
ence of the Self. Such absurd wandering
makes the birth meaningless.
भवभर्ापहां तवपदां र्वद।
(49) Death is far better if I cannot attain

न ैवलभ्यते मृवतरतो वरम॥४९॥ Thy state which releases one from all fear.

88

॥ गरुभवक्ततरवङ्गणर ॥


शोिर्ाम्यहां मेदजां वप:। (50) I will let this body of flesh and fat ema-
ciate (if I cannot attain Thy state). O Lord!
भेिजां तव दशथन ां प्रभो॥५०॥ Thy vision is the only medicine for me.

(51) Thou art the embodiment of wisdom



तपवस वनवष्ठतो शवद्धमाप्न ु ।्
र्ाम penance (Jñāna tapas). Bestow on me the
strength to do the tapas. I will purify my-
र्ि मे तपो वनजतपोमर्॥५१॥ self by establishing in uninterrupted pen-
ance.

वनजववचारणां महवददां तप:।


(52) Atma-Vichāra (Self-Enquiry) is the
दास्यताां मम तपवस वनष्ठता॥५२॥ Supreme Penance (tapas). Bless me to get
firmly established in vichāra.

वनजववचारणात्तत्त्वदशथनम।् (53) Thro' Atma-Vichāra one recognises


the import of Vedānta Mahāvākyas.
ु ङ्गळत दरर्तामत:॥५३॥
सत्सस O Lord! Bless me to have contact with
realised souls.

ु ङ्गमो वनजववचारणम।्
सत्सस
(54) Such contact with enlightened sages
सूर्ते तर्ा भवक्तरच्यतु ा॥५४॥ instils the power to do Atma-Vichāra and
bestows unflinching bhakti to Thy Feet.

ग्रवन्थवभन्नहृत्पद्मवासक। (55) Thou reside eternally in the heart lotus


of those in whom the knot of ignorance is
इन्दुशरतल वन्दनां तव॥५५॥ cut asunder. O! Guru! Thou art cool like
the full moon. Prostrations to Thee.

भौमववग्रह बोधभास्कर। (56) O Lord of Vedas! I bow to you. Alt-


वेदनार्क वन्दनां तव॥५६॥ hough you appear in the earth, you are the
effulgence of Atma Jñāna. You are
'Bhuma' (infinite)!

89

॥ गरुभवक्ततरवङ्गणर ॥

(57) O Chandrasekhara, Ramana, bestow


चन्द्रशेखर रमण ते पदे। bhakti at Thy feet. Here I prostrate to
Thee.
भवक्तरस्त ु मे वन्दनां तव॥५७॥
(58) O Lord of my life (prāṇanātha)! You
असपते ्
ु भवान वनवशवदवा मम। shineforth in my heart day
and night (uninterruptedly). Prostrations
हृवद ववभासते वन्दनां तव॥५८॥ to Thee.

सद्गरोु कृ पास्यन्दनां कुरु। (59) O Sadguru! You are the implied mean-
ing of 'Tattvamasi.' Drench me in the
तत्त्वमर्थ भो वन्दनां तव॥५९॥ stream of Thy Grace. Prostrations to Thee.

(60) O Infinite Mass of Grace! Bestow me


ु ।्
वविर्वासनाववरवतमाप्नर्ाम with complete release from vishaya-vāsanas
ु पामर् वन्दनां तव॥६०॥
परुकृ (worldly instincts). Prostrations to Thee.

(61) O Supreme Pure Being!


परममङ्गलां पापनाशनम।् (O Paramahamsa)! Thy padam (State) is
supremely auspicious and will destroy all
परमहम्स ते वन्दनां पदे॥६१॥ sinful tendencies. Prostrations to Thy Pa-
dam (Feet).

90

॥ प्रकार रमणेशपञ्चकम ॥


प्रशान्तगम्भररवनजस्वभावां प्रकृ ष्टकल्याणगणप्रचारम।्
प्रबोधर्न्तां श्वु तवाक्यसारां प्रभाकरां तां रमणेशमरडे॥१॥

प्रचण्डमार्ाकृ तकालहरनां प्रकृ ष्ट सवाथत्मरसप्रदानम।्


प्रवतवष्ठतां तां वनजरूपभावे प्रमोदवन्तां रमणेशमरडे॥२॥

प्रबोधचन्द्रोदर्हेतमु क ु
े ां प्रभासमानां वचवतभानमन्तम।्
प्रकृ ष्टभासा कमनरर्काळन्त प्रमेर्शून्य ां रमणेशमरडे॥३॥

प्रकृ ष्टकारुण्र्वचदात्मशक्त्या प्रसारर्न्तां प्रकृ तेीः प्रभावम।्


थ ामां प्रशस्तमेकां रमणेशमरडे॥४॥
प्रलोभदूरां पवरपूणक

प्रसह्यसङ्कल्पपरम्पराणाां प्रभेदन े वचत्तववकारभावे।


प्रशोवभतां तां परमप्रकाशां प्रदरपमेकां रमणेशमरडे॥५॥

91

॥ श्ररमणदेवशकदशकम ॥

ु जतम।्
एकमेव हृवद सन्ततां सकलनामरूपगणवर्त

भावहरनवमममद्भतु ां मनवस भावर्े रमणदेवशकम॥१॥


सत्त्वबवद्धफलदार्कां सकलवचत्तमोहभवनाशकम।्

ज्ञानबोधकरमरश्वरां मनवस भावर्े रमणदेवशकम॥२॥

कोऽहवमत्थवमह सन्ततां वनवशत वचत्तमूलपवरमार्तगतम।्


सांववदेकरसरूवपणां मनवस भावर्े रमणदेवशकम॥३॥्

ु वजतम।्
वेदसारपवरमार्तगतां सकल र्ोगवचत्तसमपू

तत्त्वरूपमवर् भासते मनवस भावर्े रमणदेवशकम॥४॥

वचत्तशावन्तदमदार्कां झवटवत चात्मतत्त्वरसबोधकम।्


ईशरूपमवर् भासते मनवस भावर्े रमणदेवशकम॥५॥ ्

पञ्चकोशपवरवेवष्टतां वविर् पञ्चसप थवविभेिजम।्



पञ्चबाणबलनाशकां मनवस भावर्े रमणदेवशकम॥६॥

तत्सदेव भववु साम्प्रतां रुवचर मत्य थरूपमवर् धारर्न।्


दृश्र्ते सकलर्ोवगनाां मनवस भावर्े रमणदेवशकम॥७॥ ्

92

॥ श्ररमणदेवशकदशकम ॥

मौनतत्त्वरसबोधकां रहवस मोदमानवपिांु परम।्



मानरोिवरपदाहकां ्
मनवस भावर्े रमणदेवशकम॥८॥


काव्यकण्ठकववसूवरणा स्तवतवभररशसू ु
नवरवत घोवितम।्
शोणशैलतटवावसनां मनवस भावर्े रमणदेवशकम॥९॥्

ु साम्प्रतम।्
भासते हृदर्मण्डले मवहत बोधभानवरह

मोहरूपघनमाजथकां मनवस भावर्े रमणदेवशकम॥१०॥

93

॥ श्ररमणेश करावलम्बस्तोत्रम ॥

ध्यान श्लोकीः
हृदर्कमलमध्ये राजमानां मनु रन्द्रम ्

प्रणतजनसधाळि ज्ञानमागाथग्रगण्र्म।्

ऋजपदवदशमाद्यां दवक्षणामूर्ततरूपां
ु ण्र्ां भावर्े बोधसूर्म
रमणगरुवरे थ ॥्

अहां च ते दास्यवताां च दासीः ु


अहां च मार्ावशचर्ा सबद्धीः
तवैव पादाब्ज रजीःप्रपद्ये। ु
कलत्र ववत्ताप्त सतावद सक्तीः।
त्वामेव नार्ां हृदर्े भजावम ु ीः भववावरराशेीः
कर्ां ववमक्त
करावलम्बां रमणेश देवह॥१॥ करावलम्बां रमणेश देवह॥४॥

गवतस्त्मेवास्यव माां कृ पालो सांसार दावानल तापतप्तो


ु तम।्
कर्ां तरेर् ां भववसन्धमे भ्रमावम भरत्या शरणां न जान।े
दरन ेि ु दरनोवस्म कुटुम्बनार्ीः ज्ञानोपदेशार् गृहरत गात्र
करावलम्बां रमणेश देवह॥२॥ करावलम्बां रमणेश देवह॥५॥

कुटुम्बपोिार् ववर्न्त आर्ीःु कोऽहां कुतश्चेवत ववचारणेन


लुठवन्त घोरे भवकानन ेऽवस्मन।् वनवृवत्तवरष्टा भवता भवािेीः।
तर्ा न माां मोहार् दरनबन्धो सोऽहां ववमह्य ु
ु े बहुभेदबद्ध्या
करावलम्बां रमणेश देवह॥३॥ करावलम्बां रमणेश देवह॥६॥

94

॥ श्ररमणेश करावलम्बस्तोत्रम ॥

ु ीःे
अहङ्कृवतग्राह गृहरत बद्ध त्वमेव माताऽवस वपता त्वमेव
ववमोक्तुमेका गवतररश वक्ष्ये। ु सखा त्वमेव।
त्वमेव बन्धश्च
त्वत्पाद पादां कुरु मे च शरर्तष्ण त्वमेव ववद्या िववणां त्वमेव
करावलम्बां रमणेश देवह॥७॥ करावलम्बां रमणेश देवह॥९॥

अववद्यमानाप्यवभावतमार्ा परा ्
ु च भूमन बहवोऽवप सन्तीः

वनशैव भानोीः परतश्च वचत्रा। र्ोगेन बद्ध्वा वनजवचत्तजालम।्
तत्त्वां पदार्ां वदश मे दर्ालो समावहतान्तीःकरणा ववरेजीःु
करावलम्बां रमणेश देवह॥८॥ तर्ा कुरु त्वां वनजबोधभानो॥१०॥

95

॥ देवशकाष्टकम ॥

सन्मात्रमिर्मनामर्वचिरररां वचिूपवरक्षणचणां हृदर्े रमन्त-


तत्त्वांपदार् थवनगमामृतबोधरूपम।् मामरवलताक्षमवनमेिसमावधवनष्ठम।्
कोऽहां ववचारमहस ैव च बोधनरर्- ु
मञ्चासनस्थमवतमानिमरशरूप-
मानन्दमात्मरमणां शरणां प्रपद्ये॥१॥ मानन्दमात्मरमणां शरणां प्रपद्ये॥५॥

शङ्कापहप्रभववैभवमौनशळक्त ु ि ु च वमत्रभावां
सत्सङ्गळत सदनगे

सांस्तोष्यमाणमवनशां मवनवभ: सभार्ाम।् भळक्त च बोधवधिणाद्यगदां ददानम।्
सांबोधनने हृदर्ान्धतम:प्रकाश- सांसाररोगवववनवारणवैद्यनार्-
मानन्दमात्मरमणां शरणां प्रपद्ये ॥२॥ मानन्दमात्मरमणां शरणां प्रपद्ये॥६॥

उत्कृ ष्टदेवशकदर्ाविगृहरतदेह- ु
कोऽहां ववचारवनवशतार्धदण्डपाळण

मल्लङ्घ्य सवथवविर्ानवधराजमानम।् नाहांशरररकुवलशार्धु मरशसूनमु ।्
उत्सृष्टदेहमवतमात्मवनरूढर्ोग- सोऽहांप्रकाशवकरणाववलचण्डभान-ु
मानन्दमात्मरमणां शरणां प्रपद्ये॥३॥ मानन्दमात्मरमणां शरणां प्रपद्ये ॥७॥

वचन्मात्रताां हृवद ददत्करुणािथदृष्ट्या थ सवथवविर्ानरुणाविशृङ्गे


वनमूल्य
राजन्तमात्मवन सदा वनजबोधरूपे । राजन्तमात्मवन सदा सहजे समाधौ।
कौपरनमात्रदधतां च वचदम्बरस्थ- वेदान्तवाक्यरसरूवपणमप्रमेर्-
मानन्दमात्मरमणां शरणां प्रपद्ये॥४॥ मानन्दमात्मरमणां शरणां प्रपद्ये॥८॥

96

॥ अरुणाचल रमणाष्टकम ॥


अरुणाचल करुणामर् वगवररूपकगरुणा
ु मम मृवतनाशकवर्नु ा।
हृवद बोवधतमधना

वटुना वटतटवासक मवननार्कववभ ु
ना

रमणावभधमहसा मम फवलतां जवनरधना॥१॥

करपङ्कजसरसावश्तजलकुवण्डकर्तर्े
शठबालकमवलनरकृ त कुपटावृतकटर्े।

हृवदभास्वरवनगमान्तजफलदार्कगरवे
ु कुरु र्वद सांसवृ त वततृिा॥२॥
शरणागवतरधना

ु कुरु रमण
मम तापह! मम तापहमधना
ु म।्
त्ववर् वतष्टवत करुणात्मवन कर्मरदृशमशच
कलर्े तव चरणाववह कुरु सांसवृ त तरणां
वनजबोधकवनलर्ां मम हृदर्ां वशव वशव भो॥३॥

दवर्ता मम दुवहता मम जननर मम जनको


त्ववर् कवल्पत मरुभूगत जलवमत्यवप कलर्े।
वशवमेववह वत्रतर्वस्थतमहमेववह परमां
जवननाशक शरणां तव चरणाववह रमण॥४॥

97

॥ अरुणाचल रमणाष्टकम ॥

कर्मात्मवन लर्मेष्यवत हृदर्ां मम वद भो



गरुरूपकसमर्े ु
भव वद मे वशवमधना।
मम मा कुरु जवनररदृशमवतकल्मिभवरतां

मम बोधर् तव वचन्मर् वनगमामृतजलजम॥५॥


सवखवचन्मर् ववगतिर् परव्योमवनवनलर्ां
वदश मे हर मम कवल्पत ववकलात्मवनववहृवतम।्
अरणां मम मृवतमोचकवनजबोधकवचनां
वदश मे वशव रमणाश्महृदर्वस्थतपरम॥६॥

अपसप थवत वनजसप्तवतरर्गिवत पवलतां



अरुणाचल नर् मे भव सखरावशि ु ववरवतम।्
कर्मात्मवन दृढभूवमकवनलर्ां रवतरसिु ु

तरुणारुणकरुणाां कुरु हृवदबोधर् वनगमम॥७॥

श्वु तमस्तकवचसा मम ववगळत हरकृ पर्ा


करुणाां कुरु भवतारणकुशलां वद भगवन।्
वनजवत्मथवन स्वगळत वदश वनगमान्तजवनलर्

कलर्े वशव पदमेव वह पवरपूवरत सखदम ्
॥८॥

98
ु ॥
॥ अरुणाचलस्तवतीः


अवस्त कवश्चत वचत्प्रकाशीः कृ पापूणो हृदन्तरे।
अवस्त कावचत त् रु रर्ाख्या शवक्तरव्यवभचावरणर॥१॥

न च सा स्वात्मनो वभन्ना त्वदरर्ा साऽववलक्षणा।


तस्याीः प्रादुभथवन्तरह सूक्ष्माश्छार्ापरम्पराीः॥२॥

वासनाधूमधूम्राश्च मह्यन्त्यावतथ
सङ्कुलाीः।
े ने दरवपताश्च वचता सदा॥३॥
प्रेवरताीः कमथवग

छार्ार्ावश्चवत्र के वैता वल्गन्ते हृवद वासनाीः।


ु चाणदु र्तशन्या िाररभूताश्च चाक्षिु ैीः॥४॥
स्वबद्ध्या

ववस्तारां च ैव र्ात्यन्तीः सगथवस्थत्यन्तकारणम।्



एवां प्रपञ्चभानां स्यात वनष्प्रपञ्चां प्रपञ्च्यते॥५॥

त्वमस्य ववश्वभानस्याधारा जववनका प्रभो।


भूत्वा प्रलरर्मानां वह सगथकल्लोलपत्तनम॥् ६॥

असङ्गोऽवस वचतेदीपीः शोणज्योतरश! भूधर।

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छार्ार्ावश्चवत्रका - Negatives of a film
अणदु र्तशनर - Magnifying glass
चाक्षुि ैीः - to be interpreted here as the five senses

99
॥ जर् सद्गरुरमण
ु ॥
जर् सद्गरुरमण
ु देव जर् सद्गरुरमण।

जर् जर् ब्रह्मसदावशवरूप॥
जर् सद्गरुरमण
ु देव जर् सद्गरुरमण॥

कोऽहां स्यावमवत दृष्ट्वा हृदर्े सोऽहां रूपवशवीः।


नृत्यवत नृत्यवत बोधस्वरूपीः
इवत खलु तव वचनम॥्
रमण जर् सद्गरुरमण॥१॥

् रवसद्धवप
वनत्यां शोणवगरौ भगवन भास ु ु
ीः।
धृत्वावतष्ठवस र्ोगसमाधौ
ब्रह्ममहाविवरव॥
रमण जर् सद्गरुरमण॥२॥


वचन्वन तातगृहां भक्त्या वहत्वा देहगृहम।्
गत्वा शोणवगळर भगवन ्
शैलवपर्तु ह बभौ॥
रमण जर् सद्गरुरमण॥३॥

ु वहत्वा तन्मर्ताम।्
देहां दृश्र् जडां बद्ध्वा
कोऽहां स्यावमवत दृष्ट्वा हृदर्े
स्वात्मपदां ज्वलवत।
भगवन जर्् सद्गरुरमण॥४॥

100
॥ जर् अरुणाचलरमण ॥

वनजजन मानस नार्क जर् हे! जर् अरुणाचलरमण।


सन्ताप ताप ववनाशक करुणा वरुणालर् पूवरत नर्न।
वशव वशव शान्त प्रपञ्चववहरन समानसदािर्बोध॥

जर् अरुणाचल रमण।



ु तचरण।
जर् जर् मवनन
जर् अरुणाचल रमण॥१॥

ु भतृ -सरोजदिंसमनर्न।
स्वात्मबोधसख-सारघसां
सामजमदवरगमन स्वरूपरसर्तु वचन।
जर् अरुणाचल रमण॥२॥

ब्रह्मबोधकरवरक्षणवकरण ज्ञानवदवाकरवदन।
शान्तप्रसन्नगभररकृ पाणथव पूवरत पावन हृदर्॥

जर् अरुणाचल रमण।


जर् अरुणाचल रमण।
जर् अरुणाचल रमण॥३॥

101
॥ विश्लोकर ॥

भक्त्यावह भगवन्तां त्वाां श्रपळत वप्रर्ववग्रहम।्


भजन्ते बहवीः सवन्त साधवो प्रेमववह्वलाीः॥

अहां त्वसाधीःु कृ पणीः भक्त्या हरनश्च माधव।



कृ पर्ा भगवन त्वद्य प्रेम्णा र्ोजर् माां प्रभो॥

102

॥ पवनपरेु श भागवताष्टकम ॥

ु ण र्ो वनत्यां शरररे वार्मु वन्दरे।


गरुरूपे

ववराजते स्वर्ां ज्योवतीः गरुवातपळत भजे॥१॥

जन्माद्या िवडमे भावाीः र्वस्मन्नावस्त वचदात्मके ।



तेन े वेदाांश्च र्ीःकस्म ै गरुवातावधपां भजे॥२॥

अन्वर्व्यवतरेकाभ्याां सवाथवस्थास ु सवथदा।


अर्ेष्ववभज्ञां जानवन्त स्वप्रकाशतन ां ु भजे॥३॥


मह्यवन्त ्
सूरर्ोऽप्यवस्मन वचन्वन्तो जलमूिरे।
दृश्र्े िष्टारवमिन्तीः तमन्तज्योवतराश्र्े॥४॥


सिु वप्तस्वप्नजाग्रवद्भीः मार्ावृवत्तवभरन्वहम।्
वत्रसगो दृश्र्ते र्वस्मन्नारार्णमहां भजे॥५॥

े वचदात्मकम।्
स्वधाम्ना स्वप्रकाशेन अर्ेष्वक

व्यावृत्तास्वनवृु त्त ां तां श्रपळत गरुमाश्र्े
॥६॥

सन्मात्रां वनमथलां शद्धु मनावृतमकल्मिम।्



गरुमारुतवन्द्यां तां स्वात्मज्योवतरुपास्महे॥७॥

ब्रह्मणे दर्तशतां पवांु ब्रह्मपाररवक्षतां परम।्


श्ूर्ते मवन्दरे र्स्य वेदमूर्ततमहां भजे॥८॥

103

॥ श्रसङ्गमेशमन्त्रार् थदरवपकास्तोत्रम ॥

ु पराणां
ॐ तत्सदाख्यां परुिां ु मेघाववनाां शास्त्रववचारभाजाां
भक्तार्ततनाशार् सरूपवन्तम।् तपवस्वनाां ज्ञानवताां समाजे।
शमां वदशन्तां करुणाणथव ां तां सदारमन्तां र्वतरूवपणां तां
श्र सङ्गमेश ां हृवद भावर्ावम॥१॥ श्र सङ्गमेश ां हृवद भावर्ावम॥५॥

श्रमानर्ां दरन इवत प्रभेदान ् शान्त्यावदर्ोग ैरवनशां लसन्तां


ववहार् साम्येन समरक्षमाणम।् प्रशान्तगम्भररवनजस्वभावम।्
वववेकवैराग्र्रसप्रदानां प्रबोधर्न्तां श्वु तवाक्यसारां
श्र सङ्गमेश ां हृवद भावर्ावम॥२॥ श्र सङ्गमेश ां हृवद भावर्ावम॥६॥

सांसवे र्ा राघवपादुकार्ाीः र्शवस्वनाां सिवरतव्रतानाां


सौभ्रातृकां भवक्तमदु ररर्न्तम।् तपवस्वनाां च ैव समावश्तानाम।्
तपोव्रतां तां तपसाज्वलन्तां वरेण्र्मेकां तमसीःपरस्तात ्
श्र सङ्गमेश ां हृवद भावर्ावम॥३॥ श्र सङ्गमेश ां हृवद भावर्ावम॥७॥


गङ्गावदतरर्ाथन्यवप वनष्पनन्तां नवो नवोर्ो ववलसत्यजस्रां
कुलरवपनरतरर्थतटे वसन्तम।् रसस्वरूपां रमणां मनु रनाम।्
गरुु ां गरुणामजमावददे
ु व ां स्वरूपभळक्त जनर्न्तमक्ष्णा
श्र सङ्गमेश ां हृवद भावर्ावम॥४॥ श्र सङ्गमेश ां हृवद भावर्ावम॥८॥

104

॥ श्रसङ्गमेशमन्त्रार्थदरवपकास्तोत्रम ॥

मवतप्रसादां भजताां दधानां आनन्दगरतमरुणाचलपादभक्त्या


मतप्रभेदानवप वारर्न्तम।् आनन्दर्ोगरमणां हृदर्े वनधार्।
मदु ां दधानां वनजबोधदरपां आनन्दमात्मवन सदा भजताां दधात ु

श्र सङ्गमेश ां हृवद भावर्ावम॥९॥ श्र सङ्गमेशभगवान करुणास ु
धाविीः॥१०॥

105

॥ श्रसङ्गमेश दशकम ॥

सत्सङ्गतरर्ां सततां गिंन्तां ु सवे वत र्ोवगवृन्दां


सदा ससां
कुलरवपनर तरर्थ तटे रमन्तम।् मदु ा वववादास्पद भूवतवसद्धम।्
ू वथ नवाथणरसप्रदां तां
सांपण ु िवत्तत्त्व ववभूवतकन्दां
सधा
श्र सङ्गमेश ां कलर्े हृदब्जे॥१॥ ्
हृदा भजे कवञ्चदपारवसद्धम॥५॥

वैराग्र् ववज्ञान वन े चरन्तां तपोवभरानन्दसमावधमिे


स्वबोध सङ्गरतनदां नदन्तम।् तपोवभरुग्र ैश्च कृ शार्मान े।
ववशद्धु वेदान्त महा ववहङ्गां जटाकलाप ैश्च ववभासमान े

सदा भजेऽहां वचवतसांवसन्तम॥२॥ ववभूवम्नवचत्तां रसताां सदा मे॥६॥

आनन्द सन्दोह समिु रङ्गां गरता रसास्वादन काऽवप मूर्ततीः


ु रन्तम।्
सांसारदावावि समद्ध वेदान्तगूढार्थ ववनोदकरर्ततीः।
सांमोवदताशेि गजत्तरङ्गां वनवश्चन्तवनवाथणववकासपूर्ततीः

श्र सङ्गमेश ां हृवद भावर्ेऽहम॥३॥ ्
सदा हृदब्जे मम सवन्नधत्ताम॥७॥

श्र सङ्गभाग्र्ोदर् चक्रवािंां ु


सङ्गां व्यदस्यात्मवन सङ्गदाता
स्त्ररसङ्गभोगावदवनरस्तकालम।् सगाथवदहरनात्मसमावधदाता।
श्रसङ्गमाख्येन च राजमानां ु सवे वतववश्वधाता
सदाससां

वश्र् ै च नोस्त्रश पदालवालम॥४॥ सदा ममास्ताां हृवद शां ववधाता॥८॥

106

॥ श्रसङ्गमेश दशकम ॥

श्र श्रसङ्गतरर्ां हृदर्े वहन्तर ववभोरहो लोकमहाववधातीःु



जगवन्त सवाथवण सदा पनवन्त। ववभूवतरेिा करुणासपूु र्ततीः।
सांसार तापाांश्च मदु ा दिंन्तर ववभावत ववश्वोदर्भाग्र्करर्ततीः
थ ङ्गा॥९॥
गिंन्त्यहो कावचदपूवग श्रसङ्गतरर्े परमेशमूर्ततीः॥१०॥

107

॥ गोपालकृ ष्ण गानाष्टकम ॥

कृ ष्ण कृ ष्ण कृ ष्ण कृ ष्ण


कृ ष्ण कृ ष्ण कृ ष्ण कृ ष्ण
कृ ष्ण कृ ष्ण कृ ष्ण गोपालकृ ष्ण॥

गोवपकावद सेव्यमान रावधकामनोववहार।


रासलोल वदव्य गोपालकृ ष्ण॥१॥
(कृ ष्ण कृ ष्ण...)

नन्दगोप वचत्त चोर भक्तवचत्तधामवास।


कृ ष्णचन्द्र वदव्य गोपालकृ ष्ण॥२॥
(कृ ष्ण कृ ष्ण...)

तत्त्वरूप शङ्खचक्र शाङ्गथधावरणे नमोऽस्त।ु


नृत्तलोल वदव्य गोपालकृ ष्ण॥३॥
(कृ ष्ण कृ ष्ण...)

नारदावद सेव्यमान नामकरतथनप्रसाद।


नामरूपहरन गोपालकृ ष्ण॥४॥
(कृ ष्ण कृ ष्ण...)

108

॥ गोपालकृ ष्ण गानाष्टकम ॥

वेणगु ानवाद्यलोल वृन्द काननान्तचार।


गोपवृन्दवन्द्य गोपालकृ ष्ण॥५॥
(कृ ष्ण कृ ष्ण...)

वदव्यभावदानरूप इन्द्रवन्द्य देवदेव।


गोपवन्द्य वदव्य गोपालकृ ष्ण॥६॥
(कृ ष्ण कृ ष्ण...)


नरलमेघ वदव्यरूप मारकोवट सन्दरास्य।
सामवेद गरत गोपालकृ ष्ण॥७॥
(कृ ष्ण कृ ष्ण...)

सवथलोकवचत्तचोर भक्तलोकभाग्र्रूप।

भानकोवटभास गोपालकृ ष्ण॥८॥
(कृ ष्ण कृ ष्ण...)

109

॥ कावलर्मदथनम ॥

नृत्यगरवतीः

तालवाक्यम ्
तवकट तवद्दवम तावकट तक झण ु
तवकट तवद्दवम तावकट तत्तोम।्

गरतम ्

झण झणत्कृ त नूपरु वशवञ्चतां तवकट तवद्दवम तावकट तत्तोम।्



मृदुपदेन ननर्ततर् पन्नगे सवचरमरश्वर कोमल ववग्रह॥१॥

करगत ैवरह कङ्कण भूिण ैीः कलरवां बत कावलर् मूधवथ न।


ु बत ननर्ततर् के शव॥२॥
तटगत ैवरह के वकगण ैरप्यनगतो


रुवचरमरश्चर नतथनववग्रहां सवचरमरवक्षतमु ागत शङ्करम।्

अनगतोप्यर् ु
ु बधीः॥३॥
तालववदुत्तमीः र्वमजनाग्रज नवन्दमखो

भरत भारवत भास्कर नारदीः पवनजोऽच्यतु खे भववचवस्थताीः।




अकृ तनतथनमज्ज्वलमरदृशम ्
अजकरार्त चत पादमदशथर्ीः॥४॥

नृत्यशास्त्र महाकुशलो भवीः नृत्तमहो तव वरक्ष्य मदांु गतीः।


तवकट तवद्दवम नाद र्तु ो बत तालवाद्यमर्ेवरतमु त्स
ु क ु ीः॥५॥

करगतां वधवम डमरुक वादनां सकृु तमाश ु चकार महेश्वरीः।



तवकवट तवद्दवम तावकट तक झण ु तवकट तवद्दवम तावकट तत्तोम॥६॥

110

॥ कावलर्मदथनम ॥

नृत्यगरवतीः


नवन्द वावदत मृदङ्ग नावदत मखवरताशर् र्ामनु स ैकतम ्
नटनराज-सभापवतभावित-तालवाक्य-ववनोदन-नतथनम।्
वधवमवक तावक्कट वधवमवकट तक झणु ु

वधवमवक तावक्कट तावकट तत्तोम॥७॥

तटगतावश्त गोपवधूजन ैरवधक भावपरैरवभवरवक्षतीः।


ु ैरवभपूवजतीः सपदपातननादमहो
मघवच्चन्द्रमख ु ्
कलम॥८॥

जलदपूवरतगगनमण्डले अमरचारणतावतवभररवडतो।

र्मनवावरवण ्
कावलर्मस्तके पवरममदथ पदेन पदां वदशन॥९॥

परमर्ोवगहृदा धृतववग्रहां कवतचन ैवरह नागफण ैधृतथ म।्


पवरववलोक्य च देवगणावदवव ममु वदरे ्
ु बत ववश्वववमोहनम॥१०॥

ु जर्जर्ाऽवखल गरत कलामर्।


जर् जर्ा जर् नतथन सन्दर

जर् जर्ा जर् नररद शोभन जर्जर्ा गरुवातप ु
रावधप॥११॥

नरलाचलसवन्नभां वनत्योत्सवशावलनां नृत्योत्सवदशथन ां भक्ते ष्टदनररदम।्


ु ादृतमाश्र्े
सत्यात्मदमरश्वरां ववश्वात्मकसांववदां श्त्य

भक्त्यापदपल्लवम॥१२॥

111

॥ बविके शाष्टकम ॥

हे बविके श करुणामर् दरनबन्धो हे वामदेववववधपूवजतवन्द्यरूप



हे बोधरूप सखवचन्मर् तत्त्वमूत।े हे श्रवनवास दरचक्रगदावदहस्त।
ु ववतपादपद्म
हे नारदावदमवनसे हे वनमथलाविशभु सानिु ु वतथमान

सांसारदुीःखगहनात पवरपावह ्
ववष्णो॥१॥ सांसारदुीःखगहनात पवरपावह ववष्णो॥५॥


हे कम्बकण्ठ खगवाहन चक्रहस्त ु र्ोवगराजन ्
हे वनत्यर्ोगवनरताद्भत
हे कमथहरन गवतबोधक वेदसार। हे कल्पहरन कवलतात्मसमावधवनष्ठ।
हे नारळसह नरसेववत र्ोगमूत े हे सवथभत ू हृवदकञ्जकृ तप्रवतष्ठ

सांसारदुीःखगहनात पवरपावह ्
ववष्णो॥२॥ सांसारदुीःखगहनात पवरपावह ववष्णो॥६॥

हे वेदगरत वगवरमद्ध्यकृ तप्रवतष्ठ हे ववश्वनार् भवु नत्रर्गभथरूप


ु ङ्गनताविपद्म।
हे तापसावलमवनभृ ु हे ध्यानगम्य गमनागमहरनतत्त्व।

हे भवक्तमवक्तशमकाननदेवदारो हे वनत्यबोधवनर्तात्महृदावभवन्द्य

सांसारदुीःखगहनात पवरपावह ्
ववष्णो॥३॥ सांसारदुीःखगहनात पवरपावह ववष्णो॥७॥

हे भक्तलोकरवतदार्क मोहनाङ्ग हे देवदेव शरणागतवत्सलात्मन ्


हे सामवेदपवरभाववतगानमूत।े ु लोकववनताद्भ
हे मक्त ु त ु सत्यरूप।
हे वसद्धलोकपवरसेववतके वलात्मन ् ु
हे र्ोगनार् तनमद्ध्यगतात्मदरप

सांसारदुीःखगहनात पवरपावह ्
ववष्णो॥४॥ सांसारदुीःखगहनात पवरपावह ववष्णो॥८॥

112

॥ परुिोत्तमदशकम ्


स्वावमन स्वकरर्मवलोकर्मामभरक्ष्णां आशा ववहार् वविर्ेि ु वविोपमेि ु
प्रेमािथर्ा परमर्ा कृ पर्ाऽवतदरनम।् ु ।्
बोधे स्वरूपववमले च वनरूढबवद्धम
ु ाऽवतभरतां
कालावहना सकललोकभज ु
ज्ञाने च िैतरवहते सववमशथ
नार्ां

भक्त्या पनरवह ु
परुिोत्तम दरनबन्धो॥१॥ ु
भक्त्या पनरवह ु
परुिोत्तम दरनबन्धो॥६॥

ईश प्रसरद परमेश्वर तापहावरन ् लरलाकर्ाां भगवतीः प्रणतार्ततहन्त्रीं


स्वाहङ्कृळत जवहजहरवत सदा लपन्तम।् ्
शृण्वन सताां हृदर्तस्समु ख ्
ु ात स्रवन्तरम ।्
दत्वाभर्ां च सकृ दरक्ष्य दरनदरनां ्
ध्यार्न वसावम ववजने भगवन कृ् पािे

भक्त्या पनरवह ु
परुिोत्तम दरनबन्धो॥२॥ ु
भक्त्या पनरवह ु
परुिोत्तम दरनबन्धो॥७॥

ज्ञानेनहरनम अवतघोरववतण्डवादां ु मतरतमाद्यां
तेजोमर्ां परम शद्ध
कामातरांु धनमदेन च मूढबवु द्धम।् दह्रे वसन्तमहवमत्यवनशां नटन्तम।्

सांसारमोहजलधाववतमह्यमानां िष्टु ां च सूक्ष्ममनसाभवदरर्रूपां

भक्त्या पनरवह ु
परुिोत्तम दरनबन्धो॥३॥ ु
भक्त्या पनरवह ु
परुिोत्तम दरनबन्धो॥८॥

वनन्दास्ततु र धनदलोकववगह्यथवाताथ ु ि ु च वमत्रभावां


सत्सङ्गळत सदनगे
् ि ु गणदोिकर्ा
स्वात्मन परे ु च वनन्द्या। ु
भक्त्या ववहरनमनजोद्धरणे च र्त्नीः।
सवां ववहार् परमेश्वरपादपद्मे िेिो न वनन्दकजनेि ु च देव कुवनथ ्

भक्त्या पनरवह ु
परुिोत्तम दरनबन्धो॥४॥ ु
भक्त्या पनरवह ु
परुिोत्तम दरनबन्धो॥९॥

वनत्येमवतध्रवुथ मवतन थ जडे कदावप ववत्ते गृहे स्वजनदारधरास ु लोके


ु म।्
चेतश्च लोकवविर्ेि ु ववरागर्क्त देहे स्वकरर्परभावववमद्दथनने ।
शरतोष्णिन्द्वसमताां च सदावप दत्वा भूतिे ु सवथसमतामवप देव दत्वा

भक्त्या पनरवह ु
परुिोत्तम दरनबन्धो॥५॥ ु
भक्त्या पनरवह ु
परुिोत्तम दरनबन्धो॥१०॥

113
ु ॥
॥ श्र मारुवतस्तवतीः

रामकार्थसाधक प्रभाकरात्तसांववद
भक्तलोकशमथदान बद्धदरक्ष वमथद।
थ प मारुते
शवथभावरामनाममूतरू

त्वदरर्पादमाश्र्ावम शां कुरुष्व वन्दनम॥१॥

ु ारक
जानकरशसङ्कटाविशोिणाांशक
ु वाडवाविरूपक।
जानकरहृतासरस्य
जातमात्र वनत्य शद्धु बद्धु मक्त
ु ववग्रह

ु मारुतात्मजार् वन्दनम॥२॥
जानकरस्ततार्

भवाांशजात भरमरूप दुष्टवनग्रह प्रभो


भर्ावददोिगन्धहरन ब्रह्मबोधववग्रह।
बलां त्वदरर्माश्र्ावम वरर धरर मारुते
भक्तलोकरक्षकार् र्ोवगराज वन्दनम॥३॥ ्

कमथर्ोग राजर्ोग बोधर्ोगसागर


थ प रामनामशेखर।
भवक्तर्ोगमूतरू
रावणस्य मारणात्त रामबाणववग्रह

ु स्य भावराज्य भास्करार् वन्दनम॥४॥
भावक

114
ु ॥
॥ श्र मारुवतस्तवतीः

भावर्ावम वज्रदेहभासमानववग्रह

भावर्ावम कमथघमथशोिणाम्बधारक।
े भावमण्डलवस्थत
भावर्ावम धमथमघ

भूधरस्य भारतूलधारणार् वन्दनम॥५॥

बालभाव भावनाम्र बालसूर्वथ वग्रह


साधनाां ववनावपजेतमु द्यतात्मबोधक।

देवराज तावडतोऽवप प्राणरोधवमथण े

देवसङ्घसेववतार् देवशकार् वन्दनम॥६॥

हेमवणथचाकचक्यमानदेहधावरणे
हाटके श्वरप्रभञ्जनाांश र्ोगवैभव।
हम्यथतङ्गु राजमानर्ोगभास्कराकृ ते
र्ोवगन े नमोऽस्त ु पण्र्शावलन
ु े नमो नमीः॥७॥

वनशाचरावलताडनार् भरष्मदेहधावरणे
वनशाकरेन्द्रवणथभास भासमान चमथण।े
वनरन्तरात्मर्ोगवनष्ठ तापसावल शमथद

वनरञ्जनाकुलप्रसूत र्ोवगन ेऽस्त ु वन्दनम॥८॥

115
॥ श्रशारदा वभक्षास्तव: ॥

वभक्षाां देवह ववधरन्द्रवदव्यमवहिंे वभक्षाां देवह धराधरेन्द्रकुलजे


वेदान्तववद्यामवर् ु न्तजे
के नावद श्त्य
ज्ञानां र्ोगसमावधवसद्धसलभाांु सत्यां ध्यानमपरवन्द्रर्ार्थववरवत-
वचन्मात्रवनष्ठाां पराम।् ु च मे।
माहारशळद्ध

र्ोगज्ञ ैरवप दुलथभ े श्वु तनते ु
ु क्तावखल
श्त्य धमथमागथगमन े
श्रशावदवभीः पूवजते ु च न ैसर्तगकर-
बळद्ध
सद्योमवु क्तववधावर्नर ववजर्ताां माम्नार्ान्तववहारके विंववहगे
श्रशारदा ज्ञानदा॥१॥ सम्भावर्े शारदे॥३॥

वभक्षाां देवह कृ पारसािथहृदर्े वभक्षाां देवह महेशवदव्यपदर्ो-


र्ोगरश्वरैररवडते रेकान्तभळक्त पराां
वैराग्र्ां च सदात्मबोधसवहत- एकान्ते च रळत स्वरूपमहसो
स्वाराज्यलाभां मदु ा। ध्यानां समावधवस्थवतम।्
मानामानसमानतामवप सदा सोमाद्धाथवङ्कत चूढनामरवसके
दत्त्वा दर्ाां पावनर- शैवागमान्तवप्रर्े
मरशाद्धाथङ्गववलासभूवमववलसत-् र्ोगानन्दपदप्रकाशवतवमर-
सांववन्मर्र शारदे॥२॥ प्रध्वांवसवन शारदे॥४॥
116
॥ श्रशारदा वभक्षास्तव: ॥


वभक्षाां देवह र्तरन्द्रसङ्घववनते ु
वभक्षाां देवह ववनम्रवृन्दववनते
कै वल्यसौख्यप्रदे तङ्गु ातटरवावसवन
वनत्यावनत्यवववेकजातववमल- ु दङ्गवाद्यरवसके
वरणावेणमृ
प्रज्ञाां च वैशारदरम।् देवावदवभीः पूवजते।

दत्त्वा िन्द्वसवहष्णतामवप सदा मौनां प्ररवतरर्ाजथव ां च समता-
क्षाळन्त च दुीःखावदि ु मात्मेश्वरेक्षाां परे-
ध्यानध्यातृववधानभेदरवहते ष्वेतान्यम्ब दर्ािथदरघथनर्न े
वचिूवपणर शारदे॥५॥ श्रशारदे दरर्ताम॥७॥्

ु ातमवु नवभीः
वभक्षाां देवह सनत्सज ु
वभक्षाां देवह िडङ्गवेदववनते
सम्पूवजते शाश्वते पञ्चाक्षरान्तवस्थते
श्द्धाध्यानववचारभवक्तकुसमै
ु - ु शवबम्बवदन
वनत्यानन्दसधाां ु े
राराध्यमानािर्े। सन्ध्याभ्रवणे वशवे।
च ैतन्यार्घ्थ समर्तचताविर्गु िंे मौनरन्द्रान्तरहर्तनशां समर्र्ा-
ब्रह्मात्मभेदापहे सम्पूज्यमान े परे

कारुण्र्ाम्बघनाघना ववजर्ताां वचद्गभाथवङ्कतवृवत्तकामवर्भजे
श्रशारदाम्बा सदा॥६॥ त्वामेव र्ोगावम्बके ॥८॥

117
॥ शावन्तदुगाथस्तवीः ॥

श्रमिङ्करवामभागववलसद ् बालेन्दुचूडाां वशवाम ्


कल्पान्तानलकोपतापशमनरमानन्दचन्द्रोदर्ाम।्
श्र्ामाां कामकलाववनोदववभवामाद्याां कलारूवपणीं

वरणावाद्यववचक्षणाां भगवतरमरडे जगन्मोवहनरम॥१॥

साङ्गोपाङ्ग िडङ्गवेदवववदतामल्पाक्षसञ्चावरणीं

वचद्धामाग्रगहाप्रचाररवसकामद्ध्यात्मववद्याकृ वतम।्
अन्तमाथनसमन्थन ेन जवनतामरडे वचदूष्मान्तरर-

मेकाां चन्द्रववशालचूडहृदर्े राराजमानाां वशवाम॥२॥

भूम्याद्यष्टसखरववलोलरसभृिासाां रमावल्लभाां
बाह्यालोकनतत्परेि ु ववलसत्कमाथवदपाशत्रर्ाम।्
र्ोगेनान्तरभूवमकास ु ववकसत्कावञ्चन्मर्ूखाऽववलां
भक्त्यारावधतमानसा तरचररमेकाां पराख्याां भजे॥३॥

िोणरभूतश्वु तप्रभान्तरचररमेकाक्षरार्ाां महा


वाणरभूतववशालधामववकसध्द्िींकारमन्त्रावत्मकाम।्
मौनरभूतमहामहेशहृदर्े मौनोपदेशावङ्कताां
वाणीं वाक्यववलक्षणामवतमहावाक्यार्थरूपाां भजे॥४॥

118
॥ शावन्तदुगाथस्तवीः ॥

नरलग्ररवहृदङ्कमञ्चशर्नरमानन्दशृङ्गावरणीं
माध्वरपानमहाववलासरसन े रासप्रदाां र्ोवगनरम।्
ु वतववगिंत्कावञ्चिसािाथपगाां
ब्रह्मानन्दरसानभू
वनत्योल्लासकलार्मानलहररमरशाद्धथदहे ाां भजे॥५॥

सल्लापेन सदाहृदात्मरमणामाद्योपवदष्टार्थगाां
सल्लाभेन सदा हृदन्तरमणरमेकात्मर्ोगवस्थताम।्

वचल्लाभादृतबोधभानवकरणामे
कान्तहृत्पद्मगाां

मल्लाभाां वशववनवृतथ ार्थववभवामरडे महावैभवाम॥६॥

सद्योजातसमावधजातलहररमाद्याां वचदानन्दजाां
सत्यार्ाथन्तरदृष्टदेवशकवगरा जाज्वल्यमानाां वधर्म।्

सांबद्ध्यात्मवनरूढर्ोगजबलात ् पश्र्मानाां भजे
सां

शान्त्यार्क्तभवान्तरा ्
तरचररम अस्मज्जगन्नार्करम ्
॥७॥

स्वात्मानन्दपदप्रकाशवतवमर प्रध्वांसकां र्न्महीः


श्ौतरमस्तक भवक्तभाववत महावसन्दूरवृत्तावङ्कतम।्
वन्दे मातरहर्तनशां तव चलत्पादाब्जजातां रजीः
भळक्त देवह महाववलासरवसके श्रमविवावलवङ्गते॥८॥

119
॥ शावन्तदुगाथस्तवीः ॥

श्रमिङ्करदेवशकार्तचतपदे श्रवचत्प्रभामण्डले

ववश्वाचार्थमहानभावरमणप्रोक्तात्मववद्यामर्र।
तद्दासार्तचतग्राममध्यववलसच्छ्ररचक्रमध्यवस्थते
ु श्रशावन्तदुगाथवम्बके ॥९॥
त्वामरडेऽहमनन्तबोधसखदे

120

॥ कात्त्यार्नर अष्टकम ॥

कात्त्यार्नीं कमलन ेत्रार्नीं झन्कार नादरव सम्बोवधतो-


भजत वेत्रावदपादकवलताम।् ऽहवमह मञ्चरर गरतपटुताम।्
सूत्रावर्ताां सकलशास्त्रावद कामावर देव तन ु मञ्चावर्ताां
सारपर जेत्रावदमात्रववनताम ्
ु ॥१॥ ्
सपवद सम्पादर्ेऽहमवनशम॥५॥

र्ोत्रात्म तत्त्वरसवेत्रावद सांसारताप शम सम्पादनार्थ


बोद्ध्यवमह सूत्रार्थ तत्त्वकुतक
ु र। मन ु सम्बोध बोधनकररम।्
सोत्रात्मवन प्रकृ वत गात्रावर्ताां सांसवे र्ावम वशव देहाद्धथभाग

भजवत कामेशवाममवहिरम॥२॥ ु
हर खेलानमोदनकररम ्
॥६॥

मात्रावर्तो सपवद त्वत्पाद हेलावभभूत मम कालास्य


प्रेमरस मात्रात्म भृङ्गसकृु तर। दन्त भव लरलास्यमानसमर्े।
इन्द्रावददेवकृ त तन्त्रावदसार करलालवार् ु पर कोलाहल
पर सन्तापनाशनकरर॥३॥ ्
प्रलर् लरला ववनोदनकररम॥७॥

गन्ताहमत्र पर मन्त्रार्थसार श्रनार्भूतगण न ेतावववरवञ्च



परवमन्दरवरार्त चत पदाम।् ु ।्
पर देवावद राज ववनताम
कुन्दाभदन्तवशव सन्ताप ताप मावणक्य देश भव कात्त्यार्नीं

हर मन्दावनलावर्तकटरम॥४॥ ्
मनवस सम्भावर्ेऽहमवनशम॥८॥

121

॥ गङ्गास्तवततरङ्गम ्


आवेदकालाद्धरणीं पनन्तर भवावि तारे भवतरर् तोर्े
आवसन्धदेु शां पवरपावर्न्तर। ु
सधावि ु
र्ान े सखवचत्प्रर्ाणे

आम्नार्मर्ां हृवदबोधर्न्तर नताप्तभाग्र्े नरलोकभोग्र्े
आजन्मपूता चरतरहगङ्गा॥१॥ ु
सधाप्रवाहे रमताां मनो मे॥५॥

वनरन्तरानन्द रसािथनररा तपीः प्रभावे तरुणेन्दुभासे


वनस्सङ्ग र्ोगरश वनवासतररा। ु
स्वतीः प्रकाशे सरलोकरासे

सत्सङ्ग सौरभ्य वगरावभपूता ु
भववप्रकाशे वहमभूववभासे
ववज्ञानधारा हृवदभावत गङ्गा॥२॥ श्वु तप्रकाशे रमताां मनो मे॥६॥

भागररवर्त्वां नर्नावभरामा महर्तिसेव्य े परमेशसेव्य े


महर्तिलोकस्य तपोपलिा। ु ैर्तनिेव्य।े
महेन्द्रसेव्य े मनज
मदरर्मोहां कृ पर्ा वनवार्थ ु व्य े
मृगावदसेव्य े जलजन्तसे

त्वदरर्रूपे रवतमातनष्व॥३॥ विजावदसेव्य े रमताां मनो मे॥७॥

त्वदरर् नररे भवपाशदूरे श्वु त प्रवसद्धे धरणरशलिे


र्मावदर्ोगे वनजबोधचारे। प्रतरवचवसद्धे बवहरङ्गलुिे।
सांसारतारे वशवभवक्तपूरे ववचारवसद्धे ववमलाविवसद्धे
वहमाविसारे रमताां मनो मे॥४॥ ववशद्धु नररे रमताां मनो मे॥८॥

122

॥ गङ्गास्तवततरङ्गम ्

प्रपञ्चरङ्गे वशवमौवलरङ्गे र्ामेववनत्यां र्वमनोऽवभर्वन्त


सताांप्रसङ्गे श्वु तवाक्यरङ्गे। र्ामेववनत्यां श्तु र्ोगृणवन्त।
नतार्ततभङ्गे हृवदवचत्तरङ्गे ु
र्ामेववनत्यां ववबधास्त ु
ववन्त
मदन्तरङ्गे वस देववगङ्गे॥९॥ तामेवगङ्गाां वर्माश्र्ामीः॥१०॥

भळक्त प्रर्ि जगदरश्ववर देवव गङ्गे


ज्ञानां च स्वात्मवविर्ां वशवमौवलवासे।

देहे च बवद्धमपहार् ऋिरन्द्रजाते

बोधां ववराग सवहतां दृढमातनष्व॥११॥

123
ु ॥
॥ गङ्गा स्तवतीः

मातमथहवे श करुणाम्बवु ाहे त्राता महेशीः करुणा च तस्य


ु शरू
तपीः प्रभावावि सधाां ु पे। त्वमेव गङ्गे सरतरन्दुमौलेीः।

त्वदरर् नररे भववसन्धपोते माता च ववष्णीःु स्रवतरहभूमौ

वनमज्ज्य पूतो जननर भवेर्म॥१॥ त्वमेव पद्भर्ाां हवरभवक्तरूपा॥४॥


गिंवन्त भूमावनकम्पर्ाम्ब तवैव तररे वसताां सवववत्र
का वावस्त तारा वद मे त्वदन्या। ु
वसद्ध्यवन्त नून ां लघर्त्नतोऽवप।
कदा वनजानन्द महाविनररे ज्ञानां प्रशावन्तीः परमेश्वरस्य
ववलरनवचत्तो ववचरावम तररे॥२॥ ु वतीः हवरभावगभाथ॥५॥
प्रेमानभू

श्तु वे रवार्ां सरतरह गङ्गे वशववशरवसववदरप्ता सेव्यमाना मनु रिैीः


मनु ेवरवान्तमथननां वनतान्तम।् सकृ ददनववधूतिन्द्वमोहाविनररा।
अहां वचदानन्दरसेवत घोिीः ु ाले
ववमलमृगकलङ्कां धार्थमाणाम्बज
श्वु तप्रवसद्धो ध्ववनरेि तेऽम्ब॥३॥ जर्वत धरवणमध्ये पादतरर्ाथ च
ववष्णोीः॥६॥

124
॥ कालवटपूणाथनदरस्तवीः ॥

पूणाथमत
ृ ानन्दसारां वहन्तर जलां त्वदरर्ां च छलां दिंन्तर
े मरशस्य पदां स्पृशन्तर।
पूणर् ु सववत्रर।
गिंवन्त भूमावधना
ु त्या
पूत ां च माां कतमथु ात्मानभू चला च मेधरश्चरताां त्वदरर्े

प्रत्यग्गिंन्तर जर्ताां नदरर्म॥१॥ वनजस्वरूपे त्वचले भवावन॥४॥

ू मथ ात्मानमाकाशकल्पम ्
सांपण किंां स्वनन्तर तव नररजालां
सांपद्य वनत्यां परमे समाधौ। गिंवन्त ववष्णोीः पवरतीः सतरव।
ु भणत्त्वां
कदा ववसष्येत्यधना ु
पनरवह मातीः श्वु तबोधजे त्वां
ु म्भसा पूणज
श्त्य थ गत्प्रवसद्धे॥२॥ ु ॥५॥
तत्त्वां पदार्ां वदश वसन्धकन्ये

शमावदिट्कै रवत भिकू टां श्रशङ्कराचार्थर्तरशवन्द्ये


ु च वनरस्तकू टम।्
समानबद्ध्या तन्मातरु ानन्दसमरपगे त्वम।्
समावहतान्तीः करणेि ु गूढां पूणाथमत
ृ ानन्दरसावभवृष्ट्या

भजावम मातीः वशवबोधमूढम॥३॥ प्रपवत्तमम्बे सफलरकुरुष्व॥६॥

125
॥ भारतमातास्तवीः ॥

नमो नमो भारताम्बे सारस्वतशररवरणर।


नमोऽस्त ु जगताां वन्द्ये ब्रह्मववद्याप्रकावशनर॥१॥
नमो नमो भारताम्बे वहमालर्वकररवटनर।
गङ्गाद्याीः सवरतीः सवाथ स्तन्यां ते ववश्वपावनर॥२॥
नमो नमो भारताम्बे बदररिन्डमवण्डते ।
तरर्ीकुववथ न्त लोकाांस्त े तरर्थभूता मनरश्वराीः॥३॥


नमो नमो भारताम्बे ववन्ध्यतङ्गस्तनावर्ते

समिवसन े देवर सह्यमाला ववरावजते॥४॥

नमो नमो भारताम्बे मवक्तके दाररूवपणर।
ज्ञानबरजाकरे पूण े ऋिरन्द्रतवत सेववते॥५॥
नमो नमो भारताम्बे सवथववद्याववलावसनर।
गौडमैवर्ल कावम्पल्य िववडावदशररवरणर॥६॥
नमो नमो भारताम्बे सवथतरर्थस्वरूवपणर।
काश्र्ा वह काशसे मातीः त्वां वह सवथप्रकावशका ॥७॥

नमो नमो भारताम्बे गरुस्त्ां जगताां परा।

वेदवेदान्तगम्भररे वनवाथणसखदावर्नर॥८॥
र्वतलोकपदन्यासपववत्ररकृ तपाांसवे।
नमोस्त ु जगताां धात्रर मोक्षमागैकसेतवे॥९॥

126
॥वशवाष्टोत्तरशतनामाववलीः॥

१) ॐ महादेवार् नमीः ॐ सदावशवार् नमीः


२) ॐ महेश्वरार् नमीः ॐ सदावशवार् नमीः
३) ॐ महत्तत्त्वस्वरूवपणे नमीः ॐ सदावशवार् नमीः
४) ॐ वेदवेद्यार् नमीः ॐ सदावशवार् नमीः
५) ॐ ववदाां पतर्े नमीः ॐ सदावशवार् नमीः
६) ॐ ववश्वरूपार् नमीः ॐ सदावशवार् नमीः
७) ॐ सनातनार् नमीः ॐ सदावशवार् नमीः
८) ु
ॐ वनत्यशद्धार् नमीः ॐ सदावशवार् नमीः
९) ु ार् नमीः
ॐ वनत्यमक्त ॐ सदावशवार् नमीः

१०) ॐ वनत्यबद्धार् नमीः ॐ सदावशवार् नमीः
११) ॐ वनरन्तरार् नमीः ॐ सदावशवार् नमीः
१२) ॐ परस्म ैज्योवतिे नमीः ॐ सदावशवार् नमीः
१३) ॐ परस्म ैब्रह्मणे नमीः ॐ सदावशवार् नमीः
१४) ॐ परात्परार् नमीः ॐ सदावशवार् नमीः
१५) ॐ परमात्मन े नमीः ॐ सदावशवार् नमीः
१६) ॐ परमेश्वरार् नमीः ॐ सदावशवार् नमीः
१७) ॐ अहांपदार्ाथर् नमीः ॐ सदावशवार् नमीः
१८) ॐ अकारार्ाथर् नमीः ॐ सदावशवार् नमीः
१९) ॐ उकारार्ाथर् नमीः ॐ सदावशवार् नमीः
२०) ॐ मकारार्ाथर् नमीः ॐ सदावशवार् नमीः

127
॥वशवाष्टोत्तरशतनामाववलीः॥

२१) ॐ अमात्रार् नमीः ॐ सदावशवार् नमीः


२२) ॐ ओङ्कारार्थरसात्मकार् नमीः ॐ सदावशवार् नमीः
२३) ॐ रसस्वरूवपणे नमीः ॐ सदावशवार् नमीः
२४) ॐ रमणरर्ार् नमीः ॐ सदावशवार् नमीः
२५) ॐ अिैतार् नमीः ॐ सदावशवार् नमीः
२६) ॐ ब्रह्मववद्यास्वरूवपणे नमीः ॐ सदावशवार् नमीः
२७) ॐ ब्रह्मणे नमीः ॐ सदावशवार् नमीः
२८) ॐ सत्यस्वरूपार् नमीः ॐ सदावशवार् नमीः
२९) ॐ ज्ञानस्वरूपार् नमीः ॐ सदावशवार् नमीः
३०) ॐ अनन्तार् नमीः ॐ सदावशवार् नमीः
थु ार् नमीः
३१) ॐ वनगण ॐ सदावशवार् नमीः
३२) ॐ वनरवद्यार् नमीः ॐ सदावशवार् नमीः
३३) ॐ र्मरनाां पतर्े नमीः ॐ सदावशवार् नमीः
ु नमीः
३४) ॐ र्वतलोकसांस्ततार् ॐ सदावशवार् नमीः
३५) ॐ हृवदद्योतमानप्रकाशार् नमीः ॐ सदावशवार् नमीः
३६) ॐ स्वर्ांप्रकाशार् नमीः ॐ सदावशवार् नमीः
ु त्यवसानार् नमीः
३७) ॐ अनभू ॐ सदावशवार् नमीः
ु कानन्दस्वरूवपणे नमीः
३८) ॐ अनभवै ॐ सदावशवार् नमीः
३९) ॐ बोधमात्रस्वरूवपणे नमीः ॐ सदावशवार् नमीः
४०) ॐ सवथकालकालार् नमीः ॐ सदावशवार् नमीः

128
॥वशवाष्टोत्तरशतनामाववलीः॥

४१) ॐ कालातरतार् नमीः ॐ सदावशवार् नमीः


४२) ॐ देशातरतार् नमीः ॐ सदावशवार् नमीः
४३) ॐ कारणातरतार् नमीः ॐ सदावशवार् नमीः
४४) ॐ अद्भत
ु कारणार् नमीः ॐ सदावशवार् नमीः
४५) ॐ अवनवथचनरर्स्वरूवपणे नमीः ॐ सदावशवार् नमीः
४६) ॐ वनजबोधस्वरूवपणे नमीः ॐ सदावशवार् नमीः

४७) ॐ वेदगह्यार् नमीः ॐ सदावशवार् नमीः
४८) ॐ महावाक्यववदे नमीः ॐ सदावशवार् नमीः
४९) ॐ लक्ष्यार्ाथर् नमीः ॐ सदावशवार् नमीः
५०) ॐ प्रज्ञानघनार् नमीः ॐ सदावशवार् नमीः
५१) ॐ आनन्दघनार् नमीः ॐ सदावशवार् नमीः
५२) ॐ नादवबन्दुकलातरतार् नमीः ॐ सदावशवार् नमीः
५३) ॐ वेदान्तप्रवतपाद्यमानववभवार् नमीः ॐ सदावशवार् नमीः
५४) ॐ आकाशशरररार् नमीः ॐ सदावशवार् नमीः
५५) ॐ अप्रमेर्ार् नमीः ॐ सदावशवार् नमीः
५६) ॐ शान्तार् नमीः ॐ सदावशवार् नमीः
५७) ॐ चराचरात्मन े नमीः ॐ सदावशवार् नमीः
५८) ॐ आत्मन े नमीः ॐ सदावशवार् नमीः
५९) ॐ ज्योवतिाां ज्योवतिे नमीः ॐ सदावशवार् नमीः
६०) ॐ वरेण्र्ार् नमीः ॐ सदावशवार् नमीः

129
॥वशवाष्टोत्तरशतनामाववलीः॥

६१) ॐ सावक्षणे नमीः ॐ सदावशवार् नमीः


६२) ॐ सांववत्स्वरूवपणे नमीः ॐ सदावशवार् नमीः

६३) ॐ जाग्रत्स्वप्नसिु प्तरनाां सावक्षभूतार् नमीः ॐ सदावशवार् नमीः
६४) ॐ ववश्वरूपार् नमीः ॐ सदावशवार् नमीः
६५) ॐ त ैजसार् नमीः ॐ सदावशवार् नमीः
६६) ॐ प्राज्ञार् नमीः ॐ सदावशवार् नमीः
६७) ॐ तरु रर्ार् नमीः ॐ सदावशवार् नमीः

६८) ॐ सलभार् नमीः ॐ सदावशवार् नमीः
६९) ॐ प्रवतबोधवववदतार् नमीः ॐ सदावशवार् नमीः
७०) ॐ अमृतस्वरूपार् नमीः ॐ सदावशवार् नमीः
७१) ॐ वेदान्तगोचरार् नमीः ॐ सदावशवार् नमीः
७२) ॐ ववचारगोचरार् नमीः ॐ सदावशवार् नमीः
७३) ॐ बोधचक्षिेु नमीः ॐ सदावशवार् नमीः
७४) ॐ बोधानन्दमहोदधर्े नमीः ॐ सदावशवार् नमीः
७५) ॐ ववश्वबरजार् नमीः ॐ सदावशवार् नमीः
७६) ॐ वचदाकाशार् नमीः ॐ सदावशवार् नमीः
७७) ॐ हांसमन्त्रार्थरूवपणे नमीः ॐ सदावशवार् नमीः
७८) ॐ वनिैतार् नमीः ॐ सदावशवार् नमीः
७९) ॐ वनश्चलार् नमीः ॐ सदावशवार् नमीः
८०) ॐ वनराकारार् नमीः ॐ सदावशवार् नमीः

130
॥वशवाष्टोत्तरशतनामाववलीः॥

८१) ॐ अक्षरार् नमीः ॐ सदावशवार् नमीः


८२) ॐ अजार् नमीः ॐ सदावशवार् नमीः
८३) ॐ अव्यर्ात्मन े नमीः ॐ सदावशवार् नमीः
८४) ॐ आवदमध्यान्तरवहतार् नमीः ॐ सदावशवार् नमीः
८५) ॐ अशरररार् नमीः ॐ सदावशवार् नमीः
८६) ॐ शरररेष्वववस्थतार् नमीः ॐ सदावशवार् नमीः
८७) ॐ महते नमीः ॐ सदावशवार् नमीः
८८) ॐ ववभवे नमीः ॐ सदावशवार् नमीः
८९) ॐ सूक्ष्मार् नमीः ॐ सदावशवार् नमीः
९०) ॐ सदानन्दार् नमीः ॐ सदावशवार् नमीः
९१) ॐ शरतिंार् नमीः ॐ सदावशवार् नमीः
९२) ॐ अनन्तबोधार् नमीः ॐ सदावशवार् नमीः
९३) ॐ वनर्तवकल्पार् नमीः ॐ सदावशवार् नमीः
९४) ॐ ध्यानवेद्यार् नमीः ॐ सदावशवार् नमीः
९५) ॐ ध्यानध्यातृध्यर्े रूपार् नमीः ॐ सदावशवार् नमीः
९६) ॐ तारकार् नमीः ॐ सदावशवार् नमीः
९७) ॐ परमहांसहृवदवस्थतार् नमीः ॐ सदावशवार् नमीः
९८) ॐ वनरुपमार् नमीः ॐ सदावशवार् नमीः
९९) ॐ मार्ातरतार् नमीः ॐ सदावशवार् नमीः
१००) ॐ वनत्यवसद्धार् नमीः ॐ सदावशवार् नमीः

131
॥वशवाष्टोत्तरशतनामाववलीः॥

१०१) ॐ अगोचरार् नमीः ॐ सदावशवार् नमीः


१०२) ॐ सवथभतू ाशर्वस्थतार् नमीः ॐ सदावशवार् नमीः
१०३) ॐ मौनघनामृतार् नमीः ॐ सदावशवार् नमीः
१०४) ॐ महार्ोगसमावहतार् नमीः ॐ सदावशवार् नमीः
१०५) ॐ मवु क्तस्वरूवपणे नमीः ॐ सदावशवार् नमीः
१०६) ॐ ज्ञवप्तमात्रस्वभावार् नमीः ॐ सदावशवार् नमीः
१०७) ॐ ज्ञानान्तार् नमीः ॐ सदावशवार् नमीः
१०८) ॐ ईश्वरार् नमीः ॐ सदावशवार् नमीः

ॐ सदावशवार् नमीः ॐ सदावशवार् नमीः ॐ सदावशवार् नमीः

132

॥ पूजा-समप थण-गद्यम ॥

नमस्तेऽस्त ु भगवन ् चन्द्रशेखर अरुणाविनार् चन्द्राांश-ु


शरतलान्तरङ्ग मन्दावकनरतररकृ त प्रवतष्ठ कुन्दाभदन्त-पवि

ववभूवित सन्दरास्य ु श्वर वृन्दारकगण-सेववताविपद्म
सन्दरे
सन्ताप-नाशक इन्दरवरार्तचत पादारववन्द सन्दरप्तमन्यकृु त
शलभावर्त मन्मर् वेदवेद्य ववश्वेश्वर अनर्ा पूजर्ा प्ररत:
् न भक्तान
सन सवाथ ् ् गृ
अन ्
ु ह्णरष्व। स्वावमन प्रसरद प्रसरद।

133
ु नम॥्
॥पूजासमर्े पञ्चमख-दरपदशथ

अतरवसूक्ष्म-वेदप्रवर्त-पञ्चाक्षर-स्वरूपार् पञ्चोपवनिदाां

सारावभव्यञ्जक पञ्चमखार् पञ्चेवन्द्रर्ाणाां सांर्मेन हृवद-
प्रकाशमान-परमाकाशरूपार् पञ्चप्राण-प्रवतथनप्रचोदकार्

सृवष्ट-वस्थवत-सांहार-वतरोधानानग्रहरूप पञ्चकमथकत्रे
सदावशवार् परोक्षवप्रर्ार् प्रदोिकाले आत्मज्ञानेन
प्रकाशमान प्रकाशमात्रग्रहण पञ्चेवन्द्रर्ाणाां सूचकार्ां इमां

पञ्चमखदरपां प्रदशथर्ावम।

ु नम॥्
॥पूजासमर्े एकमख-दरपदशथ

वैश्वानरस्वरूपेण प्रावणनाां देहमावश्त्य भज्यमानान्नस्य

पाककत्रे ववश्वरूपार् ते एकमखदरपां सन्दशथर्ावम।

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