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श्री ना र दबड़े ही तप स् वीऔ र ज्ञा ऋषि सकशंथीं ।तब ही

नी हुए जिनके ज्ञान और तप की माता पार्वती भी प्र सक


एक दिन माता पार्वती श्री शिव से नारद मुनि के ज्ञान की तारीफ करने ल गीं । शिव ने पार्वती जी को
बताया कि नारद बड़े ही ज्ञानी हैं। लेकिन किसी भी चीज का अं ह का अच्छा र नहीं होता है। एक बार
नारद को इसी अहंकार (घमंड) के कारण बंदर बनना पड़ा था। यह सुनकर माता पार्वती को बहुत
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चहुआ । उन्होंने श्री शिव भगवान से पूरा कारण जानना चाहा। तब श्री शिव ने बतलाया। इस संसार
में कोई कितना ही बड़ा ज्ञानी हो, लेकिन श्री हरि जो चाहते हैं वो उसे बनना ही पड़ता है। नारद
को एक बार अपने इसी तप और बुद्धि का अहंकार (घमंड) हो गया था । इसलिए नारद को सबक सिखाने
के लिए श्री विष्णु को एक युक्ति सूझी। हिमालय पर्वत में एक बड़ी पवित्र गुफा थी। उस गुफा के निकट
ही गंगा जी बहती थीं। वह परम पवित्र गुफा नारद जी को अत्यन्त सुहावनी लगी। वहां पर के पर्वत, नदी
और वन को देख कर उनके हृदय में श्री हरि विष्णु की भक्ति अत्यन्त बलवती हो उठी और वे वहीं बैठ कर
तपस्या में लीन हो गए । नारद मुनि की इस तपस्या से देवराज इंद्र भयभीत हो गए कि कहीं देवर्षि नारद
अपने तप के बल से उनका स्वर्ग नहीं छीन लें। इंद्र ने नारद की तपस्या भंग करने के लिये
कामदेव को उनके पास भेज दिया। वहां पहुंच कर कामदेव ने अपनी माया से वसंत ऋतु को उत्पन्न कर
दिया। पेड़ और पत्ते पर रंग-बिरंगे फूल खिल गए कोयले कूकने लगीं और भौंरे गुंजार करने
लगे। कामाग्नि को भड़काने वाली शीतल.मंद.सुगंध सुहावनी हवा चलने लगी। रंभा आदि अप्सराएं
नाचने लगीं।

किन्तु कामदेव की किसी भी माया का नारद मुनि पर कुछ भी प्रभाव नहीं पड़ा। तब कामदेव को
डर सताने लगा कि कहीं नारद मुझे प न दे दें। इसलिए उन्होंने श्री नारद से क्षमा
मांगी। नारद मुनि को थोड़ा भी क्रोध नहीं आया और उन्होंने कामदेव को क्षमा कर दिया।
कामदेव वापस अपने लोक में चले गए। कामदेव के चले जाने पर नारद मुनि के मन
में अहंकार (घमंड) हो गया कि मैंने कामदेव को जीत लिया। वहां से वे शिव जी के पास
चले गए और उन्हें अपने कामदेव को हारने का हाल कह सुनाया। भगवान शिव समझ गए कि
नारद को अहंकार हो गया है। शंकरजी ने सोचा कि यदि इनके अहंकार की बात विष्णु जी जान
गए तो नारद के लिए अच्छा नहीं होगा। इसलिए उन्होंने नारद से कहा कि तुमने जो बात
मुझे बताई है उसे श्री हरि को मत बताना। नारद जी को शिव जी की यह बात अच्छी नहीं लगी।
उन्होंने सोचा कि आज तो मैने कामदेव को हराया है और ये भी किसी को नहीं बताऊं ।
नारद जी क्षीरसागर पह़ुंचे गए और शिव जी के मना करने के बाद भी सारी कथा उन्हें
सुना दी। भगवान विष्णु समझ गए कि आज तो नारद को अहंकार (घमंड) ने घेर लिया है।
अपने भक्त के अहंकार को वे सह नहीं पाते इसलिए उन्होंने अपने मन में सोचा कि
मैं सा उपाय करूंगा कि नारद का घमंड भी दूर हो जाए और मेरी लीला भी चलती रहे।

नारद जी जब श्री विष्णु से विदा होकर चले तो उनका अभिमान और भी बढ़ गया। इधर श्री हरि ने
अपनी माया से नारद जी के रास्ते में एक बड़े ही सुन्दर नगर को बना दिया । उस नगर
में शीलनिधि नाम का वैभव ली लीशाराजा रहता था। उस राजा की विव श्वमोहिनी नाम की बहुत ही
सुंदर बेटी थी, जिसके रूप को देख कर लक्ष्मी भी मोहित हो जाएं। विव श्वमोहिनी स्वयंवर
करना चाहती थी इसलिए कईं राजा उस नगर में आए हुए थे। नारद जी उस नगर के राजा के
यहां पहुंचे तो राजा ने उनका पूजन कर के उन्हें आसन पर बैठाया। फिर उनसे अपनी
कन्या की हस्तरेखा देख कर उसके गुण-दोष बताने के लिया कहा। उस कन्या के रूप को
देख कर नारद मुनि वैराग्य भूल गए और उसे देखते ही रह गए । उस कन्या की हस्तरेखा
बता रही थी कि उसके साथ जो विवाह करेगा वह अमर हो जाएगा, उसे संसार में कोई भी
जीत नहीं सकेगा और संसार के समस्त जीव उसकी सेवा करेंगे। यह बात नारद मुनि ने
राजा को नहीं बताईं और राजा को उन्होंने अपनी ओर से बना कर कुछ और अच्छी बातें
कह दी। अब नारद जी ने सोचा कि कुछ ऐसा उपाय करना चाहिए कि यह कन्या मुझसे ही विवाह
करे। ऐसा सोचकर नारद जी ने श्री हरि को याद किया और भगवान विष्णु उनके सामने प्रकट हो
गए। नारद जी ने उन्हें सारी बात बताई और कहने लगे, हे नाथ आप मुझे अपना सुंदर रूप
दे दो, ताकि मैं उस कन्या से विवाह कर सकूं। भगवान हरि ने कहा हे नारद! हम वही
करेंगे जिसमें तुम्हारी भलाई हो। यह सारी विष्णु जी की ही माया थी । विष्णु जी ने अपनी
माया से नारद जी को बंदर का रूप दे दिया । नारद जी को यह बात समझ में नहीं आई। वो
समझे कि मैं बहुत सुंदर लग रहा हूं। वहां पर छिपे हुए शिव जी के दो गणों ने भी इस
घटना को देख लिया।

ऋषिराज नारद तत्काल विव श्वमोहिनी के स्वयंवर में पहुंच गए और साथ ही शिव जी के वे
दोनों गण भी ब्राह्मण का रूप बना कर वहां पहुंच गए। वे दोनों गण नारद जी को सुना कर
कहने लगे कि भगवान ने इन्हें इतना सुंदर रूप दिया है कि राजकुमारी सिर्फ इन पर ही
रीझेगी। उनकी बातों से नारद जी मन ही मन बहुत खुश हुए। स्वयं भगवान विष्णु भी उस
स्वयंवर में एक राजा का रूप धारण कर आ गए। विव श्वमोहिनी ने कुरूप नारद की तरफ देखा
भी नहीं और राजा रूपी विष्णु के गले में वरमाला डाल दी। मोह के कारण नारद मुनि की
बुद्धि नष्ट हो गई थी । राजकुमारी द्वारा अन्य राजा को वरमाला डालते देख वे परे ननशा
हो
उठे। उसी समय शिव जी के गणों ने ताना कसते हुए नारद जी से कहा – जरा दर्पण में
अपना मुंह तो देखिए। मुनि ने जल में झांक कर अपना मुंह देखा और अपनी कुरूपता देख
कर गुस्सा हो उठें। गुस्से में आकर उन्होंने शिव जी के उन दोनों गणों को राक्षस हो
जाने का शाप दे दिया। उन दोनों को शाप देने के बाद जब मुनि ने एक बार फिर से जल में
अपना मुंह देखा तो उन्हें अपना असली रूप फिर से मिल चुका था। नारद जी को अपना असली
रूप वापस मिल गया था। लेकिन भगवान विष्णु पर उन्हें बहुत गुस्सा आ रहा था , क्योंकि
विष्णु के कारण ही उनकी बहुत ही हंसी हुई थी। वे उसी समय विष्णु जी से मिलने के लिए
चल पड़े। रास्ते में ही उनकी मुलाकात विष्णु जी जिनके साथ लक्ष्मी जी और विव श्व
मोहिनी भी थीं‍, से हो गई।

उन्हें देखते ही नारद जी ने कहा आप दूसरों की खुशियां देख ही नहीं सकते। आपके भीतर
तो ईर्ष्या और कपट ही भरा हुआ है। समुद्र- मंथन के समय आपने श्री शिव को बावला बना कर
विष और राक्षसों को मदिरा पिला दिया और स्वयं लक्ष्मी जी और कौस्तुभ मणि को ले लिया।
आप बड़े धोखेबाज और मतलबी हो। हमे शंकपट का व्यवहार करते हो। हमारे साथ जो
किया है उसका फल जरूर पाओगे। आपने मनुष्य रूप धारण करके विव श्वमोहिनी को प्राप्त
किया है , इसलिए मैं आपको शाप देता हूं कि आपको मनुष्य जन्म लेना पड़ेगा । आपने
हमें स्त्री से दूर किया है , इसलिए आपको भी स्त्री से दूरी का दुख सहना पड़ेगा और
आपने मुझको बंद र का रूप दिया इसलिए आपको बंदरों से ही मदद लेना पड़े। नारद के
शाप को श्री विष्णु ने पूरी तरह स्वीकार कर लिया और उन पर से अपनी माया को हटा लिया।
माया के हट जाने से अपने द्वारा दिए शाप को याद कर के नारद जी को बहुत दुख हुआ किन्तु
दिया गया शाप वापस नहीं हो सकता था। इसीलिए श्री विष्णु को श्री राम के रूप में मनुष्य बन कर
अवतरित होना पड़ा। शिव जी के उन दोनों गणों ने जब देखा कि नारद अब माया से मुक्त हो
चुके हैं तो उन्होंने नारद जी के पास आकर और उनके चरणों में गिरकर कहा हे
मुनिराज! हम दोनों शिव जी के गण हैं। हमने बहुत बड़ा अपराध किया है जिसके कारण
हमें आपसे शाप मिल चुका है। अब हमें अपने शाप से मुक्त करने की कृपा करें । नारद
जी बोलें मेरा शाप झूठा नहीं हो सकता इसलिए तुम दोनों रावण और कुंभ कर्ण के रूप में
महान ऐश्वर्यशाली बलवान तथा तेजवान राक्षस बनोगे और अपनी भुजाओं के बल से पूरे
विव श्वपर विजय प्राप्त करोगे। उसी समय भगवान विष्णु राम के रूप में मनुष्य शरीर धारण
करेंगे। युद्ध में तुम दोनों उनके हाथों से मारे जाओगे और तुम्हारी मुक्ति हो
जायेगी।

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