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विषयसूची
o तैला वर्गा
o एरण्ड तेल के लाभ एवं गुण
o फ़ायदे
o सरशपा तैल
o सरशापा तेल के कु छ अन्य गुण
o अक्षतैल (विभीतक का तेल)
o निम्बा तैलम (नीम तेल)
o उमा कु सुम्भा तैलम (अलसी का तेल और कु सुम तेल)
o वासा-मज्जा-मेडस (मांसपेशियों में वसा, अस्थि मज्जा और
वसा)
o पंचकर्म में तैल
o विषगर्भ तेल
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तैला वर्गा
तैला वर्गा
तेलों में आम तौर पर उनके स्रोत (उदाहरण - बीज) के समान गुण होते हैं ।
तिल का तेल सभी तेलों में सर्वोत्तम है।
सारा - यह शरीर के तरल पदार्थों (रेचक) की प्राकृ तिक गति को बढ़ावा देता है
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अमापाचन - विषाक्त पदार्थों को दूर करता है, अपच भोजन को पचाता है (अमा)
उदारा - जलोदर
लाल किस्म के अरंडी के बीजों का तेल सामान्य अरंडी के तेल की तुलना में
अधिक भेदक , गर्म तासीर वाला, चिपचिपा होता है और इसमें दुर्गंध भी होती है
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सरशपा तैल
सरसापा तैला - सरसों का तेल है
कटु
तासीर में गर्म
गहराई तक प्रवेश करना
कफ, वीर्य और अनिल (वात दोष) को कम करता है
पचाने में आसान
रक्तस्राव रोग , त्वचा रोग, त्वचा पर चकत्ते , अल्सर , बवासीर और
कीड़े (जीवाणु संक्रमण आदि) का कारण बनता है ।
सरसों का तेल अपने तीखे स्वाद और गर्म शक्ति के कारण बढ़े हुए कफ को
शांत करने के लिए जाना जाता है और इसे ऐसी श्वसन समस्याओं के इलाज
के लिए एक उत्कृ ष्ट आयुर्वेदिक उपचार के रूप में उपयोग किया जाता है।
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अक्षतैल (विभीतक का तेल)
अक्सा तेल - विभीटक के बीजों से प्राप्त तेल में निम्नलिखित गुण होते हैं
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उनमें जानवरों के मांस के समान गुण होते हैं जिनसे उन्हें प्राप्त किया जाता
है।
वातदुष्टी
क्षीरबला तैल - शमन, बृंहण धन्वन्तर तैल - वातपित्त शामक तथा सूतिका में
बृंहणपित्तदृष्टि चंदनबला लाक्षादि तैल पित्तवात शामक, बृंहण
कफदुष्टी
एलादि तैल - उष्ण, वातकफ- शामक, रक्तप्रसादन, Psoriasis कार्पस्यादि तैल - उष्ण,
बृंहण Dandruff/scalp- दुर्वादि तैल, दूर्षुरपत्रादि तैल Psoriasis, खालित्यपालित्य
पूर्वकर्म
आतुरसिद्धता :-
रुग्ण को वेग निर्हरण होने के पश्चात् शिरोभाग पर यथा योग्य तैल से तलम
करे तथा आस्य, मन्या एवं अंसप्रदेश पर अभ्यंग कर कपाल प्रदेश पर नेत्र से दो
अंगुल ऊपर पट्टबंधन करे। इस पट्टबंधन का उद्देश्य शिरोधारा करते समय द्रव
नेत्र में ना जायें यही है। कान में पिचू रखें। इस प्रकार रुग्णसिद्धता होने पर
उत्तान शयनावस्था में (supine position) लेटने के लिए कहे। इस समय रुग्ण
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की ग्रीवा के नीचे rolled towel अथवा पतली तकिया लगाएँ। जिससे रुग्ण
अधिक समय तक सिर एक ही स्थिति में रख सके ।
सामान्य तापमान
प्रधानकर्म
धारापात्र के छे द को सहायक अंगुली द्वारा बंद करे। कोष्ण तेल पात्र में डाले
तथा धारापात्र रुग्णशीर्ष के ऊपर लाकर अंगुली हटाकर तैल धारा शुरु करें। धारा
कपालमध्य पर गिर रहा है इसका ध्यान रखें तथा धार संतत (uniform &
uninterrupted) होने चाहिए। धारा होते समय पात्र दोलायमान रहे (दोलायमान
रहने पर विद्वानों में मतमतांतर है)।
धारा का तैल धारा टेबल के नीचे पात्र में जमा करें तथा कोष्ण कर पुनः
धारापात्र में डाले। यह क्रिया बिना रुके चलती रहनी चाहिए।
पश्चात्कर्म
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तिल का तेल खाने से यह त्वचा, बालों और आंखों के लिए उतना फायदेमंद नहीं
होता है जितना इसकी मालिश करने से फायदा मिलता है. चोट, मोच, घाव, जले
हुए अंग और हड्डी टू टने आदि में भी यह उपयोगी है। खाने और मालिश के
अलावा तिल के तेल का उपयोग नस्य (नाक में डालने की प्रक्रिया), सिकाई और
कान में डालने में किया जाता है.
भोजन बनाने में भी इसका उपयोग होता है। इसकी एक विशेषता है कि स्निग्ध
होते हुए भी यह कफ को नहीं बढ़ाता तथा मालिश करने से पित्त को शान्त
करता है।
सरसों का तेल
अपने देश में खाना पकाने और मालिश के लिए सबसे ज्यादा सरसों के तेल का
ही उपयोग किया जाता है. यह स्वाद में कडवा होता है और इसकी तासीर गर्म
होती है. सरसों के तेल के भी अनगिनत फायदे हैं. यह चकत्ते आदि चर्म रोगों,
सिर और कान के रोगों तथा पेट के कीड़ों को नष्ट करने वाला है। प्लीहा
(Spleen) की वृद्धि में सरसों के तेल का उपयोग करना उत्तम माना गया है।
मूंगफली का तेल
मूंगफली का तेल भारी, चिकनाई युक्त और गर्म तासीर वाला होता है. यह कफ
वात के कु प्रभाव को कम करता है और पित्त को बढ़ाता है. त्वचा पर इसकी
मालिश करने से चिकनाई की अपेक्षा रूखापन आता है। आजकल भोजन को
पकाने में इसका बहुत उपयोग किया जाता है।
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नारियल का तेल
नारियल के तेल का इस्तेमाल खाना पकाने के साथ साथ मालिश और बालों में
लगाने के लिए भी किया जाता है. इसकी तासीर ठं डी होती है. बालों के लिए यह
सबसे अच्छा तेल माना जाता है. यह बालों को मजबूत और घना बनाता है
और उन्हें झड़ने से रोकता है. गर्मी में सिर में लगाने से यह शीतलता देता है
तेल के गुण
दूसरी ओर सूक्ष्म होने के कारण मोटे व्यक्ति के स्रोतों में भी पहुंच कर चर्बी
कम करता है, जिससे मोटापा घट जाता है। आधुनिक दृष्टि से भी देखें तो तेल
में अनसैचुरेटेड फै टी एसिड (असंतृप्त वसाम्ल) पाया जाता है. जो मोटापे एवं
उससे होने वाले रोगों जैसे कि डायबिटीज, , हृदय-रोग आदि में हानिकारक नहीं
माना जाता है।
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इसी तरह तेल ग्राही अर्थात् मल बांधने और कब्ज दूर करने वाले, दोनों ही गुणों
से युक्त माना गया है; क्योंकि यह मल (पुरीष) को बाँधता है और स्खलित मल
को बाहर निकाल देता है।
“एक वर्ष के बाद घी की पौष्टिकता कम हो जाती है, परन्तु तेल जितना पुराना
होता है, उतना ही अधिक गुणकारी बन जाता है।”
तेल के फायदे
आयुर्वेद में तेल के अनेकों फायदों के बारे में बताया गया है. आइये कु छ प्रमुख
फायदों के बारे में विस्तार से जानते हैं.
आयुर्वेद के अनुसार तेल में ऐसे गुण होते हैं जो आपकी मानसिक क्षमता और
बुद्धि को तेज करती है. तेलों में मौजूद अनसैचुरेटेड फै टी एसिड मस्तिष्क की
कार्यक्षमता बढ़ाते हैं.
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पाचन शक्ति कमजोर होने से कई तरह की बीमारियाँ होने लगती हैं. तेल का
सेवन करने से पाचन शक्ति बढ़ती है और पेट से जुड़ीं कई समस्याओं से बचाव
होता है.
आयुर्वेद में शरीर पर तेल की मालिश करने के कई फायदे बताए गए हैं. आइये
उनमें से कु छ प्रमुख फायदों के बारे में जानते हैं.
लोग इस बात को लेकर काफी दुविधा में रहते हैं कि कौन सा तेल मालिश के
लिए अच्छा होता है और कौन सा तेल खाने के लिए इस्तेमाल करना चाहिए.
दरअसल जो तेल जिस पदार्थ से निकाला गया है, उसमें उसी पदार्थ के गुण पाये
जाते हैं। मुख्यतः तिल, सरसों, नारियल, अलसी के तेलों का प्रयोग किया जाता
है। इन तेलों के गुणों का संक्षेप में वर्णन इस प्रकार है :
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तिल का तेल
तेलों में तिल का तेल सबसे अच्छा माना जाता है। इसका प्रयोग मालिश करने
और खाने के लिए दोनों तरह से किया जाता है. इसका स्वाद तीखा होता है और
इसमें शरीर में तुरन्त फै लने वाले गुण होते हैं।
तिल का तेल अपने फायदों की वजह से ही सबसे उत्तम माना गया है. तिल के
तेल के प्रमुख फायदों की सूची निम्न है।
मल को बाँधने वाला
शक्ति बढ़ाता है
सावधानी
1. तैल अति उष्ण ना हो
2. धार खंडित ना हो
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3. धारा नेत्र में ना जाए इसका ध्यान रखें।
व्यापद
चिकित्सा
अञ्जन
प्रथम दिन का शेष तैल संग्रहीत कर दूसरे दिन उसमें पुनः नया तैल यथा मात्रा
डालकर शिरोधारा करे, ऐसे ही तीसरे दिन करे। तीसरे दिन की शेष मात्रा एक
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अलग पात्र में रखे। चौथे दिन नया तैल का प्रयोग करे तथा इसी तरह से अगले
दो दिन तक प्रयोग करें। सातवे दिन तीसरे तथा छठें दिन का तैल एकत्रित कर
प्रयोग करें। पुराना स्नेह प्रयोग में लाने से पूर्व उसे गरम कर जलांश जलाकर
छान लें
गुणधर्म
रस - मधुर
विपाक - मधुर
वीर्य - उष्ण
1. वात-कफ नाशक
2. लेखन कार्य
3. कृ मिघ्न
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4. शूलघ्न
5. मूत्रावरोधक
6. मार्दवकर
स्नेहनाई (Indications)
2. नाडीव्रण (fistula/sinuses)
3. कृ मि (parasites)
4. कफ एवं मेदोरोग
5. वातव्याधि
6. क्रू रकोष्ठी
8. स्थौल्य (obese)
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Sesame oil is a power antioxidant, high source of Vit E, phytoestrogen (lignan)
and low in saturated fat having property of anti- cholesterol agent.
Composition
Energy884 Kcal
CarbohydrateNil
ProteinNil
Fat100%
Saturated14.6%
Monosaturated fatty39.7%
acid (MUFA)
Poly unsaturated41.7%
शीतल स्पर्श वाला मिल प्रदाता। बुद्धिदायक व्रण प्रमेह कर्णरोग योनिशूल मरुत
करृलनाशक मर्दन करने के त्वचा के श तथा नेत्रों के लिये हितकारी और खाने से
त्वचा के श तथ वोके लिये हानिकारक है। अग्नि से जला स्थान से हटा मायल
आदि पर बस्तिकर्म में ,पीने में ,कर्ण व नेत्रों में डालने से रोकने में और
अवगाहन में तिल का तेल उत्तम है।
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सरसों सरसों का तेल अग्नि प्रदीपक बीर्ग में तष पित्त तथा रुधिर को दूषित
करने वाले और कफ मेद वात मरतक के रोग कर्ण रोग खुजली व कृ मिनाशक
है। काली तथा लाल राईक लगी । यही गुण है।
तुवरी तेल के गुण तुवरी का तैल गर्म हल्का जरीत अग्निकारक व विष कृ मि
रक्त विकार खुजली कोढ रोग मे दीप सूजन को नष्ट करनेवाला है।
अलसी तेल के गुण अलसी का तेल अग्नि गुण का रिमाका व पित्त को बढ़ाने
वाले पाक में चरपरा बलवर्धक वातनाशक हानिकारक मधुर रसयुक्त ग्राही चर्म
दोषनाशक होता है पान सदन में वस्तिकर्म में नासा व कर्ण में डालने के लिये
वात की शाति तथा अनुपान के लिये अलसी का तेल प्रयोग में लाना चाहिये।
कु सुम कु सुम का तेल भारी विदाही नेत्रों के लिये हानिकारक बलवर्धक रक्तपित
व कथकारक है।
पोस्त पोस्त के बीजों का तेल पुष्प बलव्ध भारी,वात तथा कफनाशक शीतल
पाक व रस में मधुर है।
एरण्ड तेल तीक्ष्ण गर्म त्वचा के लिये हितकारी बुद्धि कांति व बन्दूक दुर्गत पर
में कद दस्तावर विषमज्वर हदयरोग उदो रा रक्तविकार सूजन आम और बीपी
आदि का तक है। सर्व तेलों के गुण जो तरल पदार्थ से मवा उस पदाथो के
गुणो को वह धारण करता है।
विषगर्भ तेल
महाविषगर्भ तेल के समान न्यून गुण वाला।
षडबिंदु तेल : इस तेल के व्यवहार से गले के ऊपर के रोग जैसे सिर दर्द, सर्दी,
(जुकाम), नजला, पीनस आदि में लाभ होता है। सेवन : दिन में दो-तीन बार 5-6
बूंद नाक में डालकर सूंघना चाहिए।
सैंधवादि तेल : सभी प्रकार के वृद्धि रोगों में इस तेल के प्रयोग से अच्छा लाभ
होता है। आमवात, कमर व घुटने के दर्द आदि में उपयोगी है।
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सोमराजी तेल : इस तेल की मालिश से रक्त विकार, खुजली, दाद, फोड़ा-फुं सी,
चेहरे पर कालिमा आदि में फायदा होता है।
एरण्ड तेल : पेट के सुद्दों को दस्त के जरिये निकालता है। जोड़ों के दर्द में
लाभकारी है।
जैतून तेल : त्वचा को नरम करता है तथा चर्म रोगों में जलन आदि पर लाभप्रद
है।
अणु तेल : सिर का दर्द, आधा सीसी, पीनस, नजला, अर्दित, मन्यास्तम्भ आदि में
लाभप्रद।
इरमेदादि तेल : दंत रोगों में लाभदायक। मसूढ़ों के रोग, मुंह से दुर्गन्ध आना,
जीभ, तालू व होठों के रोगों में लाभप्रद। ब्रणोपचार के लिए उत्तम। प्रयोग विधि
: मुख रोगों में मुंह में भरना अथवा दिन में तीन-चार बार तीली से लगाना।
काशीसादि तेल : व्रण शोधक तथा रोपण है। इसके लगाने से बवासीर के मस्से
नष्ट हो जाते हैं। नाड़ी व्रण एवं दूषित व्रणों के उपचार हेतु लाभकारी।
प्रयोगविधि : बवासीर में दिन में तीन चार बार गुदा में लगाना अथवा रूई
भिगोकर रखना।
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गुडु च्यादि तेल : वात रक्त, कु ष्ठ रोग, नाड़ी व्रण, विस्फोट, विसर्प व पाद दाहा पर
उपयुक्त।
चंदनबला लाशादि तेल : इसके प्रयोग से सातों धातुएं बढ़ती हैं तथा वात विकार
नष्ट होते हैं। कास, श्वास, क्षय, शारीरिक क्षीणता, दाह, रक्तपित्त, खुजली, शिररोग,
नेत्रदाह, सूजन, पांडू व पुराने ज्वर में उपयोगी है। दुबले-पतले शरीर को पुष्ट
करता है। बच्चों के लिए सूखा रोग में लाभकारी। सुबह व रात्रि को मालिश
करना चाहिए।
जात्यादि तेल : नाड़ी व्रण (नासूर), जख्म व फोड़े के जख्म को भरता है। कटे या
जलने से उत्पन्न घावों को व्रणोपचार के लिए उत्तम। प्रयोग
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BIBLIOGRAPHY –
पंचकर्म संग्रह (मनोज शर्मा )
Wikipedia
विद्यानमः निर्देष
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