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अनुकर्म

पपपपपपपपपपपपप पपप
पपपपप
पपप पपपप पपपपपपपप
पपपप पप
पपपपपप-पपपपपप

पपपप पपपप पपपपप पपपप पप पपपप पपपपपप


हम धनवान होगे या नहीं, चुन ाव जीते गेया नही इसमे शं काहो सकती है परं तुभै या! हम मरेंगे
या नहीं, इसमें कोई शंका है? िवमान उड़ने का समय िन श ि ्च त होता है, बसचलनेका समय
िनशि ्चत होता है, गाड़ी छूटने का समय िन श ि ्च त होता है परंतु इस जीवन की गाड़ी छूटने
का कोई िनशि ्चत समय है?
आज तक आपने जगत में जो कुछ जाना है, जो कुछ पर्ाप्त िकया है.... आज के बाद
जो जानोगे और पर्ाप्त करोगे, प्यारे भैया ! वह सब मृत्यु के एक ही झटके में छूट
जायेगा, जाना अनजाना हो जायेगा, पर्ािप्त अपर्ािप्त में बदल जायेगी।
अतः सावधान हो जाओ। अन्तमुर्ख होकर अपने अिवचल आत्मा को, िनजस्वरूप के
अगाध आनन्द को, शाश्वत शांित को पर्ाप्त कर लो। िफर तो आप ही अिवनाशी आत्मा हो।
जागो.... उठो.... अपने भीतर सोये हुए िनश् चयबलको जगाओ। सवर्देश, सवर्काल में
सवोर्त्तम आत्मबल को अिजर्त करो। आत्मा में अथाह सामथ्यर् है। अपने को दीन-हीन
मान बैठे तो िवश ् वमें ऐ सीकोई सत्ता नहीं जो तुम्हें ऊपर उठा सके। अपने आत्मस्वरूप
में पर्ितिष्ठत हो गये तो ितर्लोकी में ऐसी कोई हस्ती नहीं जो तुम्हें दबा सके।
सदा स्मरण रहे िक इधर-उधर भटकती वृित्तयों के साथ तुम्हारी शिक्त भी िबखरती
रहती है। अतः वृित्तयों को बहकाओ नहीं। तमाम वृित्तयों को एकितर्त करके साधना-काल
में आत्मिचन्तन में लगाओ और व्यवहार-काल में जो कायर् करते हो उसमें लगाओ।
दतिचत होकर हर कोई कायर करो। सदा शानत वृित धारण करने का अभयास करो। िवचारवनत एवं पसन रहो।
जीवमातर् को अपना स्वरूप समझो। सबसे स्नेह रखो। िदल को व्यापक रखो। आत्मिनष्ठ में
जगे हुए महापुरुषों के सत्संग एवं सत्सािहत्य से जीवन को भिक्त एवं वेदान्त से पुष्ट
एवं पुलिकत करो।
अनुकर्म
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
पप पप पपप पपपपपपपप पपप.......
नारी नारायणी तभी बन सकती है जब उसका िचत्त क्षद ु र् िवषय-सुख एवं अपनी दीन-
हीन मनोदशा को छोड़कर ऊध्वर्गामी हो जाय। उसकी जीवनशिक्त शरीर के िनम्न केन्दर्ों
में न बहकर ऊपर उठ जाय और परमात्म-िचनतन मे लग जाय। सिदयो से और जनमो से जो िचतवृित नीचे
की ओर बहकर जीवन को सुख की खोज में भटकाती है, कई योिनयों में जन्म िदलवाती है,
अपने िदव्य आनन्दमय स्वरूप को भुलाकर कत्तार्-भोक्ता के िवषैले चकर् में पीसती है
वह िचत्तवृित्त एकदम कैसे ऊपर उठ सके ? भगवान के भजन से ऊपर उठती है। जो-जो
महान व्यिक्त हुए हैं वे सब भगवान के जप-तप-ध्यान-भजन आिद से हुए हैं। अतः अपना
जप-तप-िनयम उत्साहपूवर्क करें।
जप-तप-ध्यान-भजन में सहयोगी ऐसे बर्ह्मिनष्ठ, सच्चे संत-महात्मा, योगसामथ्यर्
से संपन्न, िनलोर्भी, परम करूणावान महापुरूष आज कहाँ हैं ? अगर हैं तो पहाड़ों,
जंगलों, गुफाओं के एकान्त का बर्ह्मानंद छोड़कर समाज में रहते हुए हमें पर्ाप्त हो
सकते हैं ?
हाँ, ऐसे ही मसत बाबा, बर्ह्मिनष्ठसंत, समथर् योगीराज अरण्य में अपनी बर्ह्मानंद की
गगनगामी उड़ान छोड़कर समाज में ज्ञान की प्याउ ही नहीं पूरा महासागर लुटा रहे हैं।
गुजरात की भूिम में अहमदाबाद के पास साबरमती नदी के िकनारे पर बसे हुए आशर्म में
िवराजमान प.पू. संत शर्ी आसाराम जी बापू के सािन्नध्य में जाकर, उनके मुखारिवंद से
वेदान्त-अमृत का एवं संपर्ेक्षण शिक्त द्वारा योगसामथ्यर् का पर्साद पाकर आज हजारों
नर-नािरयाँ सांसािरक भूल-भुलैया में फँसी हुई अपनी िचत्तवृित्तयों को ऊपर उठाकर हृदय
में आनन्दस्वरूप ईश् वरकी झाँकी पा रहे हैं।
पपपप पपप पपपपपपप पपपप पपपपप
पपपपपपप पपपपप
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

पपपपपपप
पूज्य बापू जी का पावन सन्देश
आज भी ऐसे महापुरूष यहाँ हैं......
कौन नारी पृथ्वी को पिवतर् करती है ?
सती अनसूया
सती शािण्डली
बर्ह्मवािदनीमैतर्
ेयी
लजजाः नारी का भूषण
नारी में शर्द्धा-िवश् वास
क ्यों अिधक है ?
स्तर्ी-पुरष ू में पिरचय की मयार्दा
आदर्शम ाता मदालसा
नारी सम्माननीय
सतीत्व का संरक्षण
रजोदर्शन के समय कैसे रहना चािहए ?
गभार्धान संस्कार से उत्तम संतान की पर्ािप्त
गभार्धान िकसमें ?
रजस्वला अवस्था में अकरणीय
रज-वीयर् पर िवषयों का पर्भाव
रूप का रज-वीयर् पर पर्भाव
रस का रज-वीयर् पर पर्भाव
स्पर्
श क ा रज-वीयर् पर पर्भाव
शब्द का रज-वीयर् पर पर्भाव
पुतर् की पर्ािप्त कैसे हो ?
पुंसवन संस्कार
मनोवैज्ञािनक उपाय
औषधवैज्ञािनक उपाय
कुछ िनयम
काल िववेक
गिभर्णी स्तर्ी के िलए आहार-िवहार
गिभर्णी स्तर्ी के िलए िनिषद्ध बातें
नवजात िशशु का स्वागत
वैधव्य को िदव्य बनाओ
िपंगला का पश् चाताप
पुरूषों के िवषय में िस्तर्यों की भर्मजिनत मान्यता
िववाह का पर्योजन
माताः नारी का आदर्शस ्वरूप
नारी सौभाग्यकरण मंतर्
नारी स्वातन्तर्य
आत्मबल जगाओ
आत्मबल कैसे जगायें ?
सती धमर् की शिक्त
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
पपप पपपप पपपपपप पप पपपपपप पपपप पप ?
पपपपप पपपप पपपपप पपपपपपपपप पपपपपपपपप पपपपपपपपपप प
पपपपपप।
पपपपपप पपपपपप पपपपप पपपपपपपपप पपपपप पप पपपपपप
पपपपपपपपप ।। पपपपपपपपपप
'िजस स्तर्ी का लज्जा ही वस्तर् एवं िवशु द्धभाव ही भूषण हो, धमर्मागर् में िजसका
पर्वेशहो शश , मधुर वाणी बोलने का िजसमें गुण हो वह पितसेवा-परायण शर्ेष्ठ नारी इस
पृथ्वी को पिवतर् करती है।'
भगवान शंकर महिषर् गगर् से कहते हैं-
'िजस घर में सवर्सदगुणसंपन्ना नारी सुखपूवर्क िनवास करती है, उस घर में
लकमी अवशय िनवास करती है। हे वतस ! कोिट देवता भी उस घर को नहीं छोड़ते।'
लोग घरबार छोडकर साधना करने के िलए साधु बनते है। घर मे रहते हएु , गृहस्थधमर् िनभाते हुए नारी
ऐसी उग साधना कर सकती है िक अनय साधुओं की साधना उसके सामने फीकी पड जाती है। ऐसी देिवयो के पास एक
पितवर्ता-धमर् ही ऐसा अमोघ शस्तर् है, िजसके सम्मुख बड़े-बड़ेवीरोंकेशस्तर्भीकुिण्ठतहोजाते
हैं। पितवर्ता स्तर्ी अनायास ही योिगयों के समान िसिद्ध पर्ाप्त कर लेती है, इसमें
िकंिचत् मातर् भी सन्देह नहीं है। सती अनसूया ने बर्ह्मा, िवष्णु और शंकर, इन तीनों
देवो को अपने पितवरतधमर के बल से छः-छःमहीनेकेदूध पीतेबच्चेबनािदयेथे। सती शािण्डलीनेसूयर्की गितको रोक
िदया था। सती सािवती ने अपने भता के पाण यमराज से वापस पापत िकये थे।
एक जी जन्म में एक पितिनष्ठ रहती है वह पितवर्ता है। सत्य संकल्प से अन्य
जन्मों में भी उसी पित को पर्ाप्त करती है वह सती है।
यही फासला साधू और संत के बीच में है। साधू की मेहनत जारी है, संत की सब
मेहनत पूरी हो गयी है। जैसे सती में पित से ज्यादा सामथ्यर् आ जाता है वैसे संत
में इष्ट से भी ज्यादा सामथ्यर् आ जाता है।
ऐसे संत कबीर जी कहते है-
पपपप पपपप पपप पपपप पपप पपपप पपपप।
सती-साध्वी नारी अपने पाितवर्त्य के पर्भाव से पापी पुरष ू ों की पाप-भावना को नष्ट
कर सकती है। रावण के सामर्ाज्य में अकेली सीता माता ने अपना संरक्षण इसी बल पर
िकया था।
ऐसी पितवरता, साध्वी, भक्त, योिगनी एवं आध्याित्मकता में जगी हुई बर्ह्मिनष्ठ महान
नािरयाँ इस पृथ्वी को पिवतर् करती हैं। देवताओं और मुिनयों का तेज सती िस्तर्यों में
स्वभावतः ही रहता है।
पपपपपप पपपपपपप पपपपप पपपप पपपपपपपप।
सितयों की चरण रज से पृथव ् ी तत्काल पिवतर् हो जाती है।
अनुकर्म
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
पपप पपपपपप
बर्ह्मिषर्
कदर्मऔरदेवीदेवहूितकी पुतर्ीअनसूयाभारतवषर् की एकअिद्वितयसतीसाध्वीनारीथी। उनकेचिरतर्
में स्वाभािवक रूप से ही सत्य, धमर्, शील, सदाचार, िवनय, लजजा, क्षमा, सिहष्णुता तथा
तपस्या आिद सदगुण िवकिसत थे। बर्ह्माजी के मानस पुतर् परम तपस्वी महिषर् अितर् को
इन्होंने पितरूप में पर्ाप्त िकया था। पितवर्ता तो वे थीं ही। पावन पर्ेमभरी सतत सेवा
से पित का हृदय जीत िलया था। तपस्या में खूब आगे बढ़ चुकी थीं िफर भी पित की सेवा को
ही नारी के िलए परम कल्याण का साधन मानती थीं।
एक बार भगवती लक्ष्मीजी, सती जी और बर्ह्माणी जी को अपने पाितवर्त्य का बड़ा
अिभमान आ गया। भगवान और सब सह लेते हैं िकन्तु अपने भक्तों का अहंकार हरिगज
नहीं सहते। भगवान परम करूणामय हैं पर अहंकार जीव को भगवान से दूराितदूर ले जाता
है। अहंकार ही तो जीव और िव श क े बीच दीवार बनकर खड़ा है।
कौतुकिपर्य नारदजी को इन तीनों जगवन्दनीया देिवयों के गवर् को दूर करने के
िनिमत्त मन में पर्ेरणा िमल गई। पर्थम वे पहुँचे लक्ष्मी जी के पास। उनको देखकर
लकमी जी ने समाचार पूछा तो नारदजी ने कहाः
"माता जी क्या बताऊँ ? मेरा जीवन कृताथर् हो गया। िचतर्कूट की ओर महिषर् अितर्
के आशर्म में उनकी पितवर्ता पत्नी भगवती अनसूया के पावन दर्शन करने का अवसर
िमला। संसार में उनके समान पितवर्ता अन्य कोई भी नहीं है। संसार की सभी सती-साध्वी
पितवर्ताओं में वे िरोमिण शह ैं।"
यह सुनकर लक्ष्मी जी को बुरा लगा। 'यह मेरे घर का बच्चा मेरे ही सामने अन्य
पितवर्ता स्तर्ी को मुझसे उत्तम बताता है ! यह तो मेरा अपमान है।' बातस्पष्टकरनेकेिलए
पूछाः "नारद ! क्या अनसूया मुझसे भी बढ़कर है ?"
"माता जी ! आप बुरा ना मानना। आप उन देवी अनसूया की चौथाई के बराबर भी नहीं।"
लकमीजी का मुँह फीका पड गया। उनके मन मे ईषया पैदा हुई। मनोमन िनशय कर िलया िक अनसूया को नीची
िदखाकर रहूँगी।
नारद ने देखा, िनशाना ठीक जगह पर लगा है। उन्होंने तो कलह का बीज बो िदया था।
ठीक समय पर जोती-गोड़ी उवर्र भूिम में बीच जल्दी ही उगकर वृक्ष बन जायगा। पर्सन्न
होकर अब वे कैलास की ओर चल िदये।
इधर भगवान िवष्णु पधारे तो लक्ष्मीजी मुँह फुलाकर बैठ गई। भगवान ने बहुत
समझाया, दुलार िकया तब लकमी जी बोलीः "देखो जी, सुन लो मेरी बात। बहुत िदनों तक मैंने आपके
पैर दबाये, आपकी हाँ में हाँ िमलाई। आज तक कुछ नहीं माँगा। आज आपको एक बात
माननी पड़ेगी। वादा करो।"
िवष्णुः "हाँ, वादा करता हूँ। पट्टा िलख दूँ या गंगा जी में खड़ा होकर कहूँ ?" लकमी जी
खुश हो गई और बोलीः "बसमहाराज, िवश् वासहै। आपको कुछ भी करके अनसूया देवी का सतीत्व
भंग करना होगा।"
भगवान मामला समझ गये। मन में कहने लगे िकः "अरे देिव ! हममें इतनी
सामथ्यर् कहाँ जो उस देवी का पाितवर्त्य खंिडत कर सकें ?' परन्तु पर्कट में हँसकर
बोलेः"बसइतनी-सी बात पर मुँह फुला िलया था ? हम अभी जाते हैं।" भगवान इतना कहकर
अितर् के आशर्म की ओर चल पड़े।
उधर नारदजी पहुँचे कैलास। सती जी ने स्वागत करके एक लड्डू िदया। खाते ही
नारद बोलेः "वाह ! लडडू मीठा तो है मगर सती अनसूया के लडडू मे जैसा अमृतमय सवाद है वैसा इसमे नही।"
सती जी ने पूछताछ की तो नारदजी ने देवी अनसूया की पर्शंसा करते हुए बताया िकः
"भगवती अनसूया भगवान अितर् की पर्ाणिपर्या पत्नी है और िवश् व म ें सवोर्त्तम पितवर्ता
देवी है। आपका पाितवरतय भी उनके आगे फीका है।"
यह सुनते ही सती जी दौड़ी-दौडी िशवजी के पास पहुँची। सतीचिरत रचके भोलेनाथ को सती अनसूया
का सतीत्व भंग करने के िलए राजी कर िलया। भोले बाबा अितर्-आशर्म की ओर चल िदये।
इधर नारदजी बर्ह्मलोक में माता बर्ह्माणी के पास पहुँचे। माता ने बेटे को बहुत
समय के बाद आया हुआ देखा तो उनका िदल िखल उठा। िफर बातचीत के िसलिसले में नारद
जी ने बतायाः "माता जी ! मत्यर्लोक में एक बड़ी अदभुत बात देखी। क्या बताऊँ ?
अितर्पत्नी अनसूया के पाितवर्त्य का ऐसा पर्भाव है िक सब ऋिष-मुिन आकर उनकी स्तुित
करते हैं। उनसे बढ़कर संसार में कोई पितवर्ता नहीं है।"
बर्ह्माणीः"क्या मुझसे भी बढ़कर पितवर्ता है ?"
नारदः "अपनी माँ तो माँ ही है, सवर्शर्ेष्ठ है ही। िकन्तु ऋिष मुिन लोग यही बात कर
रहे हैं िक आज अनसूया से बढ़कर कोई अन्य पितवर्ता नहीं है।"
बातबनगई। बर्ह्माणीनेतुरन्तसभामेस ं ेबर्ह्मज
ा ीको बुलवायाऔरयेनकेनपर्करणदेवीअनसूयाको
पाितवर्त्य-धमर् से च्युत करने के िलए बर्ह्माजी को बाध्य िकया। बर्ह्माजी तो समझते थे
िक जो दूसरों के िलए खाई खोदता है उसके िलए कूआँ खुदा-खुदाया तैयार रहता है। वे
अितर् आशर्म की ओर चल पड़े।
भगवती मंदािकनी के तट पर तीनों देव महामुिन अितर् के आशर्म में पहुँचे।
परस्पर अिभवादन िकया। सभी ने अपने आने का कारण बताया। आपस में सलाह की और
तीनों साधू का वेश बनाकर सती अनसूया के पाितवर्त्य की परीक्षा करने चले।
अितिथरूप में तीन मुिनयों को आते देखकर देवी अनसूया ने उनका स्वागत-सत्कार
िकया। अघ्यर्, पाद्य, आचमनीय देकर कन्द, मूल, फलािद भेंट िकये। िकन्तु मुिनयों ने इस
आितथ्य का स्वीकार नहीं िकया। देवी के पूछने पर मुिनयों ने कहाः "आप हमें एक वचन
दे तो आपकी पूजा गहण करेगे।"
अनसूयाः "मुिनयों ! अितिथ का सत्कार पर्ाणों का बिलदान करके भी िकया जाता है।
आप िजस पर्कार पर्सन्न होंगे, उसी पर्कार मैं करने को तैयार हूँ।"
तब मुिनयों ने अनसूया को वचनबद्ध देखकर कहाः "देवी ! आप अपने ममर्स्थान नग्न
करके हमारा आितथ्य सत्कार कीिजए।"
यह सुनकर पितवर्ता अनसूया हक्की बक्की सी रह गई। यह अनुिचत पर्स्ताव करने
वाले तीन मुिन कौन हैं यह देखने के िलए ध्यान लगाया तो सब ज्ञात हो गया। िफर बोलीः
"हे अितिथ देवों ! मैं ऐसे ही होकर आपका सत्कार करूँगी।"
िफर सती ने पानी में िनहारते हुए संकल्प िकया िकः 'पपप पपप पपपपप
पपपपपपपप पपप, पपपपप पपप पपप पप पप, पपपपपप पपप पप पपप-पपप पप
पपपपपपप पप पपपपपप प पपपप पप पप पप पपपपप पप-पप पपपपप पप
पपपपप पप पपपप।'
ऐसा संकलप करके वह पानी तीनो मुिनयो पर िछडक िदया। तीनो के तीनो छः-छःमहीनेकेदूधपीतेबच्चेबनकर
पालने में ऊँवाँ ऊँवाँ करने लगे। इतने में महामुिन अितर् भी आ गये। पूछाः "देवी !
ये देवस्वरूप, परम सुन्दर, मनोहर तीनों बच्चे िकस भाग्यशाली के हैं ?"
अनसूयाः "भगवन् ! ये आपके ही हैं।" मुिन सब रहस्य समझ गये। तीनों देवता
बच्चेबनकरवहाँरहनेलगे।माताअनसूयाउन्हेिखलातींं , िपलातीं, पुचकारतीं, पालनें में झुलातीं।
उधर तीनों देिवयाँ अपने देवेश् वरोंको लापता पाकर िचिन्तत हो उठी। अपने
भतार्ओं को ढूँढने के िलए घर से िनकल पड़ी। अकस्मात िचतर्कूट में इकट्ठी हो गईं।
परस्पर वाणीिविनमय करने से पता चला िक यह सब नारदजी की कारस्तानी थी। इतने में
नारद जी भी 'नारायण... नारायण....' करते उनके पास पहुँचे और तीनों देवों का हाल बताते
हुए कहाः
"माताएँ ! देखो, वहाँ भगवती अनसूया का आश र्म है। वहाँ तीनों देव छः-छःमहीनेके
बच्चेबनकरउनकी गोदमेब ंैठकरस्तनपानकर रहेहैं।अबउनकी आशाछोड़ो। आपउस आशर्ममेप ंैररखेंगीतोसती
अनसूया आपको पल भर में भस्म कर देंगी। उन तीनों देवों की िचन्ता अब छोड़ो। पन्दर्ह-
बीसवषर्मेवंेबड़ेहोंगे
तबमाताउनकािफरसेकहींिववाहकर देगी।अबआपभस्मरमाकर, माला लेकर भजन
करो, दूसरा कोई उपाय नही है। अनसूया के समान संसार मे दूसरी कोई सती नही है। अब समझी िक नही ?"
तीनों ने पश् चातापभरे स्वर में कहाः "अब भैया ! तू जीता, हम सब हारीं। हमने
अपने िकये का फल पा िलया। हमने अच्छा सबक सीखा िक कभी िकसी गुणवान के पर्ित
असूया-ईष्यार् नहीं करनी चािहए। दूसरों से ईष्यार् करना बड़ा पाप है।"
नारदजी ने कहाः "अब आई िठकाने पर। पश् चातापसे सब पाप धुल जाते हैं। एक
उपाय है। तुम जाकर सती िरोमिण शअ नसूया माता के पैर पकड़ो। तभी कल्याण होगा। "
तीनों अनसूया के पास गईं, पैर पकड़े और अपने पित जैसे पहले थे वैसे
बनाकरलौटानेकेिलएपर्ाथर्नाकी।
अनसूयाः "तुम कौन हो ?"
तीनोः "हम आपकी पुतर्वधू हैं।"
अनसूयाः "अजी ! मेरे बच्चे तो अभी छोटे हैं और इतनी बड़ी लंबतड़ंग बहुएँ
कहाँ से आ गईं ?"
इतने में अितर् आये। तीनों घूँघट मारकर एक ओर हट गई। मुिन ने पूछाः "देवी ! ये
तीनों कौन हैं ?"
अनसूयाः "भगवन् ! ये आपकी पुतर्वधुएँ हैं।"
मुिनः "देवी ! तुम कमाल के खेल रचती हो। अभी तो पुतर् बना िलए और छः महीने के
नहीं हुए िक पुतर्वधुएँ भी आ गईं ! हाथ भर के बच्चे और पाँच हाथ की बहुएँ !"
अनसूयाः "मेरे बच्चे भी एक िदन बड़े हो जाएँगे।" यह सुनकर मुिन हँसने लगे।
अब तीनों ने सती के पैर पकड़े और अपने-अपने पितयों को वापस पाने के िलए
पर्ाथर्ना करने लगी।
अनसूयाः "मैं कब मना करती हूँ ? आपके पित ये सो रहे हैं पालने में। गोदी में
उठाकर ले जाओ।"
तीनों देिवयाँ लिज्जत हो गईं। वे पश् चातापसे भर गईं। आिखर माता का हृदय
पसीज गया। हाथ में जल लेकर संकल्प िकया और बच्चों के ऊपर िछड़क िदया। तीनों देव
अपने-अपने असली स्वरूप में आ गये। अनसूया ने तीनों देवों की िविध सिहत पूजा और
पर्दिक्षणा की। पर्सन्न होकर देवों ने वरदान माँगने के िलए कहा।
अनसूयाः "आप यिद मुझ पर पर्सन्न हैं तो मैं यही माँगती हूँ िक आप तीनों मेरे
पुतर् हो जाएँ।"
"तथास्तु !" िफर तीनों ने नतमस्तक खड़ी लक्ष्मी जी, सती जी तथा बर्ह्माणी जी से
पूछाः "अब कहो, संसार में सबसे बड़ी सती कौन है ?"
तीनों ने एक साथ कहाः "परम पूज्या पर्ातः स्मरणीया भगवती अनसूया देवी
सवर्शर्ेष्ठ सती हैं।"
जो स्तर्ी पित को ही परमेश् वरमानकर अपनी समस्त इच्छाओं को पित की इच्छाओं
में ही िवलीन कर देती है, एकिनष्ठ होकर पाितवर्त्य धमर् का पूरा पालन करती है वह इस
संसार में सब कुछ करने में समथर् हो जाती है। िफर पित चाहे कैसा भी हो, इसका
महत्त्व नहीं है। सती नारी में सामथ्यर् पर्कट होता है वह पित के गुणों के कारण नहीं
बिल्कअपनीएकिनष्ठाकेपर्भावसेपर्कटहोताहै।
संकल्प की दृढ़ता के आगे सब संभव होता है। अतः अपने दुबर्ल और मिलन
संकल्पों से बचें। तुम भी वही नारी हो। तुममें भी वही अथाह शिक्त के बीज छुपे हैं। डरो
मत। छोटी-मोटी बातों से िचिन्तत मत हो जाओ। अपने कत्तर्व्य िकये जाओ। संसार सारा
स्वप्न है। सती की कथा भी स्वप्न हो गई। तुम्हारे दुःख भी स्वप्न बन जायेंगे।
पिरिस्थितयों से परेशान मत हो। दृढ़ता पूवर्क ईश् वरके रास्ते पर कदम रखे हैं तो
चलते चलो। ॐ शाितः ॐ शाितः ॐ शाितः।
अनुकर्म
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
पपप पपपपपपपप
पर्ितष्ठानपुर में एक सती थी। उसका नाम तो नमर्दा था िकन्तु शािण्डल्य गोतर् में
पैदा हुई थी इससे शािण्डली नाम से पर्िसद्ध हुई। वह नारी क्या थी, देवी थी। उसका पित कौिशक
नामक एक पर्िसद्ध बर्ाह्मण था। वह पूवर्जन्मों के पापों के कारण कोढ़ी हो गया था। पैसे
बहुतथेइसिलएबदचलनभीहोगयाथा।
शािण्डली अपने घृिणत रोगगर्स्त पित की सेवा पूरी लगन से करती थी। उस साध्वी
और पितवर्ता नारी को इस शास्तर्-वचन पर अटल शर्द्धा थी िक सब पर्कार से सेवा करके
पित को सन्तुष्ट रखना ही नारी का परम धमर् है। वह खूब पर्ेम से पित के नहलाती, कपड़े
पहनाती, हाथ से भोजन कराती। इतना ही नहीं, उसके थूक, खंखार, मल-मूतर् और रक्त भी
स्वयं धोती। मधुर वाणी से पित को पर्सन्न रखती और देवता की भाँित उसका पूजन करती।
कौ शिकका स्वभाव कर्ोधी था। पितसेवापरायण इस देवी को वह िनष्ठुर सदा फटकारता
रहता। िफर भी सती ने अपना सतीत्व नहीं छोड़ा। कौश िकसे चला-िफरा नहीं जाता था। वह
एक सुन्दर वेश् यामें आसक्त-िचत हो गया था। उसने अपने पती से कहाः "तू अपने कन्धे पर
बैठाकरमुझेमेरीपर्ेिमकावेशयाकेघरले
् जायाकर। "
सती पर तो जैसे दुःखों को पहाड़ टूट पड़ा। मगर शािण्डली भी जैसे सहनशीलता का
अवतार थी। दुःख को समझपूवर्क सहन करे तो भिक्त बन जाता है, िनंदा करके सहन करे तो
पाप बन जाता है और बेसमझी से सहन करते रहे तो व्यथर् में दुःखी ही होना पड़ता है।
शािण्डली ने सत्संग के कारण और अपने गुरू के आशीवार्द के कारण दुःख को सुख
समझकर झेला, दुसह कषो को अपनी साधना का साधन बना िलया। उसने अपनी सतसंग की समझ से पितकूल
पिरिस्थित को अनुकूल पिरिस्थित में पलट िदया। लोगों को िदखने में आने वाली उसकी
िनबर्लता ही सत्संग की समझ के कारण बाद में जाकर उसका अपूवर् बल िसद्ध हो गई।
जो कायर् नौकर करता था वह अब शािण्डली को करना पड़ा। वह अपने पित को अपने
कन्धे पर चढ़ाकर वेश् याके घर रात को ले जाती और वेश् याके पास छोड़कर स्वयं सुबह
नीचे बैठी इन्तजार करती रहती। जब वह सुबह इशारा करता तब वह उसे अपने कंधे पर
चढाकर पुनः घर ले आती।
एक ऋिषपुतर् था। योगी महापुरूषों में रहकर आसन-पर्ाणायाम और ध्यान की कला
सीखकर वह योग साधना करने लगा। वह िनत्य बड़े सबेरे उठता और अपनी योग साधना में
लग जाता। धीरे-धीरे वह लड़का योगी बन गया।
बचपनमेव ं हबड़ाचंचलथा। एकबारगंगातटपरअपनीनादानीमेव ं हदुवार्साऋिषका अपमानकर बैठा।
दुवासा ऋिष अपनी मौज मे िविचत सा वेश बनाकर भमण कर रहे थे। लडके ने नादानी मे मजाक िकया िक, "महाराज,
ऐसा नटो का वेश बनाकर कया फासी पर चढने जा रहे है ?" बस..........। दुवासा तो कोध के अवतार ही कहलाते थे।
उन्होंने उसे शाप दे िदयाः "जा, तुझे फाँसी पर लटकना पड़ेगा।"
वह लड़का जब बड़ा योगी बना तो घूमते-घामते एक गाँव में आया। एक जगह को वह
उिचत समझकर धयान मे बैठ गया। उधर कया हुआ िक राजमहल मे कुछ चोर चोरी करके भाग रहे थे और उनके पीछे
राजा के िसपाही लगे हुए थे। उनके भय से चोर अपना माल उस ध्यानस्थ योगी के पास
छोड़कर लापता हो गये। िसपािहयों ने योगी को ही चोर समझकर पकड़ िलया और राजा के
सामने उसको दोषी ठहराया। राजा ने उसको दण्ड सुनाया िकः "जाओ, जहाँ यह पकड़ा गया है,
वहीं पर इसको फाँसी लगा दी जाय।"
इस पर्कार दुवार्सा के शाप ने अपना पर्भाव समय आने पर िदखाया। वह योगी समझ
गया िक यह शरीर का पर्ारब्ध शरीर को भुगतना ही पड़ेगा।
योगानुयोग यह वही स्थान था जहाँ से वेश् या क े यहाँ से अपने पित को कंधे पर
उठाए हुए शािण्डली अपने घर की ओर लौट रही थी। बहुत सँभलकर चल रही थी िफर भी घनघोर
अन्धकार के कारण उसके पित का िसर रास्ते में फाँसी लगे हुए योगी से टकरा गया।
योगी के मुँह से िनकल पड़ाः "अरे, यह कौन मरते हुए को कष्ट दे रहा है ? िजसने मुझे
छुआ है वह भी सूयोर्दय होते समय मर जायेगा।"
सती शािण्डली ने कहाः "महाराज ! ऐसा शाप मत दो। अनधेरे के कारण भूल मेरी हुई है, इनकी
नहीं। इनका सर लटकते हुए आपके पैरों से टकराया है। मैंने जानबूझकर आपको कष्ट
नहीं िदया है। सजा देनी हो तो मुझे दो, इनको क्यों शाप दे रहे हो ?"
मगर योगी ने और िचढ़कर कहाः "मेरा शाप िमथ्या नहीं जाएगा। इसको कोई िवफल
नहीं कर सकता।
अब शािण्डली का सतीत्व जाग उठा ! वह हँसकर िनदोर्ष भाव से बोलीः "महाराज ! आप
कभी सतीत्व के पर्भाव से अनजान हैं। ठीक है, आप कहते हैं िक सूयोर्दय होते ही
मेरे पित मर जाएँगे, तो जाओ, सूयोर्दय ही नहीं होगा। िफर कैसे मरेंगे ?"
ध्यान, सहनशीलता और गुरू कृपा से शािण्डली के संकल्प में सत्य होने की शिक्त आ
गई थी। स्थूल जगत से आध्याित्मक जगत बहुत अिधक शिक्तशाली होता है। स्थूल बुिद्ध में
िवचरने वाले और भोगपर्धान लोग यह नहीं जानते िक आध्याित्मक सूक्ष्म शिक्तयों से ही
स्थूल जगत संचािलत होता है। योगी इस बात को समझते हैं। ध्यान करने से मनुष्य ऐसी
शिक्तयों पर पर्भुत्व जमा लेता है।
शािण्डली के दृढ़ संकल्प के कारण तीन िदन हो गये, मगर सूयोर्दय नहीं हुआ। भू-
लोक, देवलोक मे सवरत हाहाकार मच गया। सभी देवता, इन्दर्, बर्ह्माजी, िवष्णुजी आिद शंकर भगवान के
पास गये और शंकर भगवान उन सबको लेकर शािण्डली की गुरू सती अनसूया के पास पहुँचे।
अनसूया ने सबका स्वागत िकया। देवराज इन्दर् ने उनसे िवनती कीः "देवी ! आप की िष् श या
शशशश
ने सूयर् को उदय होने से रोक रखा है। अब आप ही उसे समझाएँ, तब यह सृिष्ट का कायर्
ठीक से चल सकता है, अन्यथा नहीं।"
महासती अनसूया बोलीं- "यह तो मेरे बस की बात नहीं। चलें, हम सब शािण्डली के
पास जाकर उसे समझाने का पर्यास करते हैं।"
शािण्डली ने खड़े होकर अपने घर आये हुए अपने गुरू सिहत सभी व्यिक्तयों का
शर्द्धापूवर्क स्वागत िकया। उसके कोढ़ी अपािहज पित को तो अपनी मृत्यु ही नजदीक िदख रही
थी। वह तो बहुत घबड़ा रहा था और अपनी सती साध्वी पत्नी शािण्डली से बार-बारकह रहाथािक
तुम मुझे छोड़कर कहीं मत जाना।
मनुष्य को जब अपनी मौत सामने आई िदखती है तब उसे अपने िकये हुए पापों के
िलए पशाताप होता है।
शािण्डली का पित अब उसको अपने से दूर करना नहीं चाहता था। आज उसे पहली बार
अपनी पत्नी की महानता का बोध हुआ। परन्तु महान बनने तक िकतनी घािटयाँ पार करनी
पड़ती हैं, िकतने कष्ट सहन करने पड़ते हैं यह वह क्या जाने ?
अनसूया ने कहाः "बेटी! तू सूयर् को छोड़ दे नहीं तो यह सब लोक-लोकानतर का सृिषकम
अस्तव्यस्त हो जाएगा।"
शािण्डली बोलीः "हे माता ! मैं सूयर् को उदय होने दूँ, यह आप सब की बात ठीक है,
मगर उस सूयर् के उदय होते ही मेरे घर का सूयर् सदा के िलए अस्त हो जाएगा, मेरा सूयर्
डूब जाएगा।"
अनसूया बोलीः "उसकी तू िफकर् मत कर। मैं तेरे पित को अपने सतीत्व के पर्भाव
से एवं योगबल से पुनः िजन्दा कर दूँगी। तू सूयर् उदय न होने का अपना संकल्प लौटा ले।
शािण्डली ने सूयर् पर से अपना संकल्प खींच िलया। सूयोर्दय हुआ। सभी देवता
हिषर्त हुए। सृिष्टकर्म पुनः सुचारू रूप से चल पड़ा। योगी के शाप का पर्भाव हुआ और
शािण्डली का अपािहज पित सूयर् की पर्थम िकरण के साथ ही पर्ाणहीन होकर पृथ्वी िगर पड़ा।
अनसूया बोलीः "कल्याणी ! तुम डरना नहीं। पित की सेवा से मुझे जो सामथ्यर् िमला
है उससे मैं तुम्हारा कायर् सम्पन्न कर देती हूँ।
पपप, पपप, पपपपपप, पपपप पपपप पपप पपपपपपप पपप पपपप पपप पप
पपपप पपपप पपपप पपपपप पप पपपपप पपप प पपपप पप पप पप पपपप पप
पपपपपप पप पप पपपपपपपप पपपपप पपपप पपपप पपप पपपपपपपप पप
पपप। पपप पपप पपपप पपपपपप पप पपपप पपपप पपपपप पप पप पपपप
पपपपप पप पप पपपप पप पपपपपप । पप पप पपपपपपपप पपपपप पप पपपप
पपप पप, पपपप पपप पपपप पपपपपप पपपप पपपप पपपपपपप पपपपपपपप
पपप पप पपपप पप पपप ।
पप पपपप पप पप पप पपपपपपपप पपपपप पप पपपप "
अनसूया के सतीत्व और योगबल के पर्भाव से कौश िकबर्ाह्मण का अन्तवाहक सूक्ष्म
शरीर वापस मृतदेह में आ गया। वह जैसे नींद में से जागा हो, करवट लेकर उठ खड़ा
हुआ। उसे नवजीवन िमला। उसका कोढ़, कुरूपता और अपािहजता नष्ट हो गई। वह पहले से भी
अब अिधक सुन्दर देहवाला बन गया था। नतमस्तक होकर वह शािण्डली से कहने लगाः "हे
देवी ! मैंने तुम्हें पहचाना नहीं था। मैंने तुम्हें बहुत कष्ट िदये हैं। मुझे माफ कर
दो।"
शािण्डलीः "नहीं पितदेव ! ऐसा मत कहो। यह सब आपकी एकिनषा से की हुई सेवा का पभाव है।"
धमर्पालन में, अपनी िनष्ठा बनाये रखने में जो सहन करता है उसमें शिक्त
आती है। हम लोग छोटी-छोटी बातों में उलझकर अशांत हो जाते हैं। अशांत िचत्त में
सुख, शांित और सामथ्यर् कहाँ ? चंचल और अशात हृदय महान् तततव को कैसे धारण कर सकेगा ?
सती शािण्डली ने पित की सेवा करते हुए िकतना सहा ? पित को कंधों पर िबठाकर
वेश् याके घर पहुँचाना पड़ा िफर भी अपने पितवर्त धमर् से च्युत न होने का नाम नहीं।
धन्य हैं पृथ्वी को पावन करने वाली, समता में िस्थत समत्वयोग की मूितर्मय ऐसी
देिवया !
अनुकर्म
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पपपपपपपपपपपप पपपपपपपप
महिषर् याज्ञवल्क्य की दो िस्तर्याँ थीं- मैतर्ेयी और कात्याियनी। मैतर्ेयी
ज्येष्ठ थी और कात्याियनी छोटी। मैतर्ेयी संसार से उपराम और बर्ह्मतत्त्व की
िजज्ञासु थी, जबिक कात्याियनी की बुिद्ध साधारण सांसािरक स्तर्ी जैसी थी।
महिषर् याज्ञवाल्क्य ने अपनी दोनों पित्नयों को एक िदन बुलाया और कहाः "अब
मेरा िवचार संन्यास लेने का है। इसिलए अब तुम दोनों को सम्पित्त बाँट देना चाहता हूँ,
िजससे बाद में परस्पर िववाद न हो।"
यह सुनकर मैतर्ेयी ने कहाः "भगवान ! यिद संपूणर् ऐश्वयर् से युक्त सारी पृथ्वी भी
मेरे अिधकार में आ जाय तो क्या उससे मैं िकसी पर्कार अमर हो सकती हूँ ? क्या मैं
अमरता को पर्ाप्त हो सकती हूँ ?"
याज्ञवल्क्य ने कहाः "नहीं, कदािप नहीं। यह आशा िनरथर्क है।"
मैतर्ेयीः "भगवन् ! िजससे मैं अमर नहीं हो सकती उसे लेकर क्या मैं क्या
करूँगी ? आप ऐसी कोई चीज अवश् यजानते हैं िजसके आगे यह सारा धन और ऐशव ् यर् तुच्छ
है। इसिलए इसको आप छोड़कर चले जा रहे हो। मैं भी उसी को जानना चाहती हूँ। पपपप
पपपपप पपप ।पपपप पपपपपपप केवल िजस वस्तु को शर्ीमान अमरता का साधन जानते
हैं, उसी का मुझे उपदेश करें।"
मैतर्ेयी की यह िजज्ञासापूणर् बात सुनकर याज्ञवाल्क्य को बड़ी पर्सन्नता हुई।
पर्ेम भरे स्वर में कहाः "धन्य ! मैतर्ेयी धन्य ! तुम्हारी िजज्ञासा देखकर अत्यंत खुशी
होती है। मैं तुम्हें उपदेश करता हूँ। उस पर स्वयं िवचार करके हृदय में धारण करो,
मनन और िनिदध्यासन करो।
पित को पत्नी और पत्नी को पित क्यों िपर्य है ? इस रहस्य पर कभी िवचार िकया है ?
हे मैतर्ेयी ! पित को पत्नी इसिलए िपर्य नहीं िक वह पत्नी है, अिपतु इसिलए िपर्य है िक
वह अपनी आत्मा को संतोष देती है। उसी तरह पत्नी को पित भी अपने आत्मा को सुख देने
के कारण ही िपर्य है। इसी न्याय से पुतर्, धन, बर्ाह्मण , देवता एवं समसत जगत अपनी िपयता के कारण
िपर्य लगता है, अन्य िकसी से नहीं। अतः सबसे बढ़कर िपर्य वस्तु अपनी आत्मा है।
इसिलए-
पपपपप पप पपप पपपपपपपपप पपपपपपपपप पपपपपपपप
पपपपपपपपपपपपपपप पपपपपपपप पपपपपप पप पपप पपपपपपप पपपपपपप
पपपपप पपपपपपपपपपपप । पपपपप पपपपपपपप
मैतर्ेयी ! तुम्हें आत्मा का ही दर्शन, शर्वण, मनन और िनिदध्यासन करना चािहए।
उसी के दर्शन, शर्वण, मनन और यथाथर् ज्ञान से सब कुछ ज्ञात हो जाता है।"
तदनन्तर महिषर् याज्ञवल्क्य ने िभन्न-िभन्न अनेक युिक्तयों से मैतर्ेयी को
बर्ह्मज्ञानका उपदेशिदयाऔरकहाः "हे मैतर्ेयी ! तुम िनश् चयपूवर्कसमझ लो, यही अमृतत्त्व है।"
यों कहकर याज्ञवल्क्य संन्यासी हो गये। मैतर्ेयी यह अमृतमय उपदेश पाकर कृताथर् हो
गई। यही यथाथर् ज्ञान है िजसे मैतर्ेयी ने आत्मसात िकया।
इस आत्मज्ञान की प्यास, अपने आपको जानने की प्यास िजस नारी में है वह नारी
होते हुए भी नारायणी है। वह सितयों में शर्ेष्ठ है। सती तो वैकुण्ठ जाएगी लेिकन
बर्ह्मवािदनीनारीअनन्तबर्ह्माण्डअपनेमेह
ं ीपालेगी।
अनुकर्म
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पपपपपप पपपप पप पपपप
पपपपपपपपपपप पपपपपप पपपपपप । पपपपपपपपप पप पपपपपपपपपप
पपपपपप पपपपप पपपपपप पपपपपपपपपप पपपपपपपपपपप।।
'संतोषहीन बर्ाह्मण, संतोषी राजा, लजवनती वेशया और लजजाहीन कुलवधू का नाश िनिशत है।'
नारी के पास सबसे मूल्यवान संपित्त है उसका सतीत्व। इस सतीत्व की रक्षा ही नारी
की सच्ची रक्षा है। इसीिलए वह बाह्य व्यवहार-पर्वृित्तयाँ छोड़कर घर की रानी बनी रहती
है।
िस्तर्यों के िलए िस्तर्योिचत लज्जा को छोड़कर पुरूषों से िनःसंकोच िमलना,
उसके साथ खेल-तमाशों म ें जाना, खान-पान तथा नृत्य-गीत आिद करना सबसे बढ़कर
हािनकर है।
आजकल जो लोग िस्तर्यों के उद्धार के िलए, स्तर्ी जाित पर सहानूभूित या दया
करने के भाव से उनको घर से खींच कर बाजार में पुरूष के समकक्ष खड़ा करने में
अपना कत्तर्व्य मानते हैं वे लोग या तो अपना भाव शुद्ध होने पर भी भर्म में हैं, जीवन
की गहराइयों का उन्हें पता नहीं है या जान-बूझकरअपनीवासनाको हीदया, सहानूभूित का चोंगा
पहनाकर नारी जाित के सत्यानाश में संलग्न हैं।
नारी में लज्जा नैसिगर्क है। यह दैवी भाव उसमें स्वाभािवक ही रहता है। इसी
से सतीत्व और पाितवर्त्य का पोषण-संरक्षण होता है। इसिलए लज्जा को नारी का भूषण कहा
गया है। लज्जा का पिरत्याग करके पुरूष की भाँित सवर्तर् िवचरने का गौरव नहीं है। यह
एक वैज्ञािनक रहस्य है िक िजस नारी पर बहुत से पुरष ू ों की काम-दृिष पडती है उसके चिरत की
िनश् चयहािन होती है। मनुष्य के मानिसक भावों का िवद्युत-पर्वाह उसके शरीर से िनरन्तर
बहताहै।यहपर्वाहशब्द, स्पर्शए वं दृिष्ट द्वारा दूसरे के मन एवं शरीर पर असर करता है।
सामने भी ऐसा ही सजातीय भाव होता है तो ये सूक्ष्म तरंगों की पिरणित मौका पाकर घोर
पतन में अवश् यहो जाती है। यिद सजातीय भाव नहीं भी है िफर भी बार-बारदृिष्ट -संपकर् से
ऐसा भाव बन ही जाता है।
लजजा छोडकर पुरषालयो मे िनःसंकोच घूमने -िफरने से पिवतर् पाितवर्त्य में क्षित पहुँचती
है, क्योंिक इस िस्थित में नारी को हजारों पुरूषों की िवकृित, कामुक, दूिषत दृिष का िशकार होना
पड़ता है।
पपप पपपपपपपपप पप पप पपपपपप पपपपपपप पपपपपपपपप पपप
पपपपप पपपप पप पप पपपप पपपपपपप पपप पपपपप पप पपपपपप
पपपपपपप पपपपप प पप पपप, पप पपप पप पपपपपपपपप पपपप पपपप पपप
पपपपपप पप पपपपपपपपप पपपप पप पपपपपपप पपपपपपप पप पप पपपपप
पपपप पप पपपपप पप। पपपप पपपप पप पप पपपप पपपपपप पप पपप पपपपप
पप पप पपप । पपपपप
अब बताइये, िदवयता की मूितर, लजजाशील नारी को दुकानो एवं ऑिफसो मे खडी करने से उनके पाितवरतय मे
िकतनी हािन होती होगी ?
'A woman’s reputation is like a bright and shining (crystal) mirror, even a small breath
can stain it.'
'नारी की कीितर् स्फिटक दपर्ण के समान है, जो अत्यंत उज्जवल एवं चमकीला होने
पर भी एक श्वास से मिलन होने लगता है।'
सर वांटेस
'The least obtrusive the least heavy handed presence of a woman is her most captivating
presence.'
'सबसे अिधक सुगंधवाली स्तर्ी वही है िजसकी गंध िकसी को नहीं िमलती।'
प्लैंटस
'The flower of feminity blossoms only in the shade.'
'नारी एक ऐसा पुष्प है जो छाया (घर) में ही अपनी सुगंध फैलाता है।'
लेमेिनस
'Flower with the loveliest perfume are delicately attractive'.
'शर्ेष्ठ गंधवाला पुष्प लजीला और िचत्ताकषर्क होता है।'
वडर्सथर्
जो चीज िजतनी मूल्यवान तथा िपर्य होती है वह उतनी ही अिधक सावधानी, सम्मान और
संरक्षण के साथ रक्खी जाती है। स्तर्ी पुरूष के िवषय-िवलास की सामगर्ी नहीं है, बिल्क
सम्पूणर् गृहस्थ धमर् में सहधिमर्णी है। िविभन्न पुरष ू ों की दृिष्ट िस्तर्यों पर न पड़े और
उसके िवपरीत िस्तर्यों की दृिष्ट पुरूषों पर न पड़े इसिलए िस्तर्यों के िलए बाजारों में,
पुरूषालयों में न घूमकर घर में रहने का िवधान है। यहाँ तक कहा गया है िक आहार, िनदर्ा
के समय भी पुरूष िस्तर्यों को न देखें।
पपपपपपपपपप पपपपपपप पपपपपपपप पपपपपपपपपपप
पपपपपपपपप।
पपपपपपपपप
'स्तर्ी-पुरूष एक साथ बैठकर भोजन न करें और स्तर्ी भोजन करती हो तो पुरूष उसे
देखे भी नही।
आजकल सुधार के नाम पर िस्तर्यों को साथ लेकर घूमने-िफरने की एवं होटलों
में एक ही टेबल पर खाने पीने की पर्था बढ़ रही है। ऐसे स्तर्ी-पुरूषों को ईमानदारी के
साथ अपनी मनोदशा का अवलोकन करना चािहए और भलीभाँित सोच समझकर सबको ऐसी
व्यवस्था करनी चािहए, िजससे नारी के भूषण लज्जा की रक्षा हो और उसका पितवर्त-धमर्
अक्षुण्ण बना रहे। इसी से िस्तर्यों के िलए पुरूषालयों में, बाजारोंन घूमकरघरमेरंहनेकािवधान
है।
इसका मतलब यह नहीं िक नारी परम्परा की गुित्थयों में उलझ जाय, कपड़े गहने,
बालबच्चोंमेम ं ग्नहोजाय, आँख बन्द करके संसार का बोझ ढोने वाली गुिड़या बन जाय। नहीं,
नारी को इस अन्धकार की ओर ले जाने वाली पटिरयों से बचना है। अपने भीतर के
खजाने साधना के पर्काश से खोजने हैं। मनुष्यजीवन िमला है तो अपने व्यावहािरक
कत्तर्व्यों का पालन करते हुए परम कत्तर्व्य आत्म ज्ञान की िसिद्ध करनी है। उसमें
पाितवर्त्य आवश् यकहै। उसी नींव पर चिरतर् का पूरा भवन खड़ा है। जो नारी उच्छृंखलता
से बचकर अपने गौरव से गौरवािन्वत हो जाती है, अपनी वास्तिवक मिहमा से मिहमामयी
हो जाती है उससे यह पृथ्वी भी पावन हो जाती है।
अनुकर्म
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
पपपप पपप पपपपपपप-पपपपपपप पपपपप
पपपप पप ?
सूयर् स्थावर जंगम जगत की आत्मा है। सूयर् और चन्दर् दोनों मायािवश िष्टबर्ह्म
के नेतर् हैं। इनके द्वारा ही जड़ और चेतन जगत को जीवन िमलता है। स्तर्ी अपने
पािथर्व तत्त्व द्वारा इस जीवन को पर्ाप्त करती है और पुरूष अपने अमृतत्त्व द्वारा। सूयर्
की लगभग एक हजार रशि ्मयाँ हैं, िजनके गुण और पर्भाव पृथक पृथक हैं।
पुरुष का तत्त्व सूयर् की पहली दूसरी िकरण को अिधक आकिषर्त करता है और स्तर्ी का
तत्त्व सूयर् की तीसरी िकरण को खींचता है। सूयर् की तीसरी िकरण में तमोगुण की अिधकता
है। िस्तर्यों के पािथर्व केन्दर् में भी तमोंगुण के अंश अिधक हैं क्योंिक वे माया की
अिधष्ठातर्ी शिक्त हैं। तमोगुण का अिधष्ठान होने का कारण तथा तमोगुण का आकषर्ण करने
के कारण िस्तर्यों में शर्द्धा-िवश् वासकी अिधकता होती है। या तो सत्त्वगुण में शर्द्धा-
िवश् वास
क ी मातर्ा अिधक होती है क्योंिक सत्त्वगुणी जीव ज्ञानानुपूवीर् होते हैं, अथवा
तमोगुणी जीवों में शर्द्धा-िवश् वास
क ी पर्धानता होती है, क्योंिक तमोगुण में शंका-
समाधान के िलए अवकाश नहीं रहता। िस्तर्यों में तमोगुण की मातर्ा अिधक होने के कारण
उनमें शर्द्धा-िवश् वासकी भावना पर्बल होती है। इसिलए पुरूष की अपेक्षा िस्तर्यों को
बहकानायाफुसलानाअिधकसरलमानाजाताहै।इसी शर्द्ध-ािवश् वासकी भावनाओं के बल पर गोिपयाँ
एवं मीरा की पर्ेम-साधना ने चरम आध्याित्मक उत्कषर् साधा है तो दूसरी ओर नारी को इसी
भावना का अनुिचत लाभ उठाकर दुराचािरयों ने, भोिगयों ने, साहबों ने नारी को पथभर्ष्ट
करके अपनी नारकीय वासनाओं की तृिप्त का साधन बनाया है। भोली भाली नािरयाँ कुपातर्ों
के पर्ित असावधानी के कारण अपना सवर्सव ् खो बैठती हैं। अतः भारतीय शास्तर्कारों ने
नारी की िनरन्तर रक्षा करने का परामर्शि द या है। जब कन्या हो तब िपता द्वारा वह
रक्षणीय है। नािरयों को उिचत है िक वे अपनी इस पर्कृितदत्त शर्द्धा-िवश् वास र प ू ी संपित्त
को दुराचारी, पाखण्डी, धूतोर्ं से बचाये। नौकरी, ऑ िफसमे प मोशनके प लोभनमे आ कर काम-िवकार
की िकार
श न ब ने। अपने शर्द्ध -िव
ा श् वासको सच्चे आध्याित्मक क्षेतर् में लगाकर अपने
जीवन को धन्यधन्य, कृतकृत्य बनायें।
अनुकर्म
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
पपपपपप-पपपपप पपप पपपपप पप पपपपपपप
व्यावहािरक क्षेतर् में स्तर्ी पुरूष के बीच संपकर् केवल आवश् यकताके मुतािबक
ही होना चािहए। साधारण स्तर पर स्तर्ी के िलए पुरूष के शरीर को और पुरूष के िलए स्तर्ी
के शरीर को स्पर्शक रना िबल्कुल जोखम है। िवजातीय स्पर्शह मे शा िवकार की संभावना
बनीरहतीहै।
स्तर्ी-पुरष
ू को आपस में सम्मान रखना आवश् यकहै क्योंिक व्यावहािरक और
सामािजक जीवन परस्पर पर्ेम से भरे सहयोग पर ही िनभर्र है। परन्तु पित-पत्नी के
सम्बन्ध के िसवा शारीिरक एवं बौिद्धक रूप से भी स्तर्ी-पुरूष का पिरचय िबल्कुल ही िनिषद्ध
है। िफर भी जब अपने या दूसरे के पर्ाणों की आपित्त का पर्संग खड़ा हो जाय तब परस्पर
बोलकरयाछूकरपर्ाणोंकी रक्षाकी जानीचािहए। िहन्दूशास्तर्ऐसेसंकटकेपर्संगकेिसवायस्तर्
-ीपुरष
ू के िमलन
को िनतान्त मिलन एवं दोषपूणर् कहता है।
पपपपपपपपपपपप पपपप।पपपपपपपपपपपप पपपपपपप
पपपपपपप पपपप प पपपपपप ।। प पपपपपप पपपपपपपपप पपपपपप
पपपप पपपपपपप पपपपपपपप पप प पपपपपपपपपपप पपपपप।
पपपपपपपपपपपपपपपपपपप पपपपपपपपपपप पपपपपप।।
'नारी घृत के घड़े के समान है और पुरष
ू जलती हुई आग के समान है इसिलए
बुिद्धमानपुरष
ू जैसेआगबढ़जानेकेभयसेभीऔरआगको एकसाथ नहींरखते , वैसे ही नारी और पुरूष को
साथ नहीं रहना चािहए। यहाँ तक िक माँ, बिहनऔरपुतर्ोंकेसाथ भीएकान्तमेन
ं बैठें।इिन्दय
र्बड़ीबलवती
ाँ
हैं। वे िवद्वान को भी खींच लेती हैं।'
अनुकर्म
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
पपपपप पपपप पपपपपप
मदालसा देवी कहतीः "एक बार जो मेरे उदर से गुजरा वह यिद दूसरी स्तर्ी के उदर
में जाय, मुक्त न होकर दूसरा जन्म ले तो मेरे गभर्धारण को िधक्कार है।"
अपने पुतर्ों को जब पालने में सुलाती थीं तब उनको आध्याित्मक ज्ञान की
लोिरया सुनाती थी। जैसेः
पपपपपपपपप पपपपपपपपप पपपपपपपपपप
पपपपपपपपपपपपपपपपपपपपपप।
पपपपपपपपपपपप पपपप पपपपपपपपपप पपपपपप पपपपपपपपपप
पपपपपपप।।
'हे पुतर् ! तू शुद्ध है, बुद्धहै
, िनरंजन है, संसार की माया से रिहत है। यह संसार
स्वप्न मातर् है। उठ, जाग, मोहिनदर्ा का त्याग कर। तू सिच्चदानंद आत्मा है।'
इस आयर् मिहला ने, आदर्शम ाता ने अपने सभी पुतर्ों को आत्मज्ञान से संपन्न
बनाकरसंसारसागरसेपारकरिदया।
मिहला बनो तो ऐसी बनो। बच्चों को आत्मज्ञान की लोिरयाँ दो। घर में भी
आत्मज्ञान की चचार् करो। सुख-दुःख आये तो आतमजान की िनगाहो से िनहारो। इस संसार से कभी पभािवत मत
हो। अपने परमात्मा की मस्ती में मस्त रहो। ॐ.....! ॐ.....!!
अनुकर्म
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
पपपप पपपपपपपपप
(पपपपपपप पप पपपपप पपपपप)
भारतीय समाज में नारी एक िवश िष्टएवं गौरवपूणर् स्थान को उपलब्ध है। आयर्पुरूष
ने उसको सदा अपनी अधार्ंिगनी माना है। व्यवहार में पुरूष-मयार्दा से नारी-मयार्दा सदा
ही ऊँची है।
पपपप पपपपपपपपप पपपपपपपपप । पपपपपप पपपप पपपपपप
पपपपपपपपपपप प पपपपपपपप पपपपपपपपपपपपपपप पपपपपपप ।।
'िजस कुल में िस्तर्यों का आदर है वहाँ देवता पर्सन्न रहते हैं और जहाँ ऐसा
नहीं है वहाँ सब िकर्याएँ िनष्फल होती हैं।'
सृिष्ट के आरंभ में ही परमात्मा ने अपने को दो रूपों में िवभक्त िकया। आधे
िहस्से से पुरूष बने और बाकी से नारी। दिक्षण भाग से पुरूष बने और वाम भाग से
पर्कृित।
सभी शास्तर्, वेद, पुराण, स्मृित संस्कृित भी स्तर्ी को पुरूष की अधार्ंिगनी मानते
हैं। गृहस्थ के घर में स्तर्ी को लक्ष्मी समझते हैं। िजस घर में स्तर्ी न हो उसे जंगल
के समान माना जाता है। घर को घर नहीं कहते। जहाँ गृिहणी रहती है, वही घर कहलाता है।
िजस घर में नारी का सम्मान नहीं होता, उसके अिधकारों की सुरक्षा नहीं होती वह
घर लक्ष्मी से शून्य हो जाता है। िजस घर में दुःिखत स्तर्ी अिभषाप देती है, उस घर का
धन, पशु और सन्तान सभी नष्ट हो जाते हैं। इसीिलए शािन्त चाहने वाले लोगों को हरेक
उत्सव में भोजन-भूषण आिद से नारी का सम्मान करना चािहए।
नारी सदा रक्षण करने योग्य है, सदा अवध्या है। िकसी भी वगर् की नारी, चाहे कैसी भी
हो, उसे मारना पाप कहा गया। जो दुःख में पड़ी एक नारी की रक्षा करती है, वह मानों
अनेक पापों का पर्ायशि ्चत करके पुण्य का संचय करता है।
एक बड़ा भारी डाकू था। उसने अपने जीवन में बहुत से कुकमर् िकये थे। सत्तर
व्यिक्तयों की हत्या की थी। एक िदन उसे अपने घृिणत कृत्यों पर संताप हुआ। अपने पापों
के शोधनाथर् वह िकसी संत पुरूष की शरण में गया और उनसे पर्ायशि ्चत कराने को कहा।
संत शर्ी ने उसे एक काला झण्डा िदया और तीथर्यातर्ा करने भेज िदया। कहा िक,
'स्वयं तीथोर्ं में स्नान करके झण्डे को भी कराना। जब झण्डा सफेद होवे तब समझना िक
पर्ायशि ्चत पूरा हुआ है, पाप धुल गये हैं।'
डाकू झण्डे के साथ सब तीथोर्ं में स्नान कर चुका परन्तु वह झण्डा सफेद न हुआ।
व्याकुल हो उसने गुरद ू ेव के दर्शन करने के िलए लौटा। रास्ते में एक जंगल आया।
भीतर जाने के बाद उसे एक स्तर्ी की करूण आवाज सुनाई दी, जैसे कोई िहरनी शेर के
पंजे में फँस गई हो। दस डाकू उस अबला पर बलात्कार करना चाहते थे। उसे देखते ही
इस डाकू को दया आई। उसने सोचा िक इस स्तर्ी को बचाने के हेतु सत्तर के साथ दस
हत्याएँ और भी हो जाय तो क्या फकर् पड़ेगा ? एक अबला बचाने का पुण्य तो होगा ही। उसने
सोचा िक इस स्तर्ी को बचाने के हेतु सत्तर के साथ दस हत्याएँ और भी हो जाय तो क्या
फकर् पड़ेगा ? एक अबला बचाने का का पुण्य तो होगा ही। उसने अपनी तलवार से दसों का
मस्तक काट कर स्तर्ी को मुक्त िकया। उसी समय उसका काला झण्डा सफेद हो गया। वह खुश
होता हुआ गुरू के चरणों में पहुँचा।
गुरू ने पूछाः "िकस तीथर् में यह झण्डा सफेद हुआ ?"
डाकूः "गुरूदेव ! आपकी कृपा से अस्सीतीथर् में यह सफेद हुआ।"
गुरूः "अस्सीतीथर् क्या है ?"
डाकूः "सत्तर हत्याओं के साथ जब और दस िमलकर अस्सी हत्याएँ हुईं तब यह झण्डा
सफेद हुआ।" इतना कहकर उसने सारी घटना गुरूजी को सुना दी।
गुरूः "तूने जो एक िनःसहाय अबला स्तर्ी की रक्षा के िलए हत्याएँ की वह पाप होते
हुए भी तेरे िलए पुण्य बन गई और उससे तेरे पुराने पापों का भी नाश हुआ।"
सारांश यह िक स्तर्ी रक्षा करने योग्य है।
नारी अबला नहीं, सबला भी है। नारी मातर् भोग्या नहीं, पुरष
ू को भी िक्
श षदा ेने
योग्य चिरतर् बरत सकती है। स्तर्ी अपने माता, िपता, पित, सास और श्वसुर की भी उद्धारक
हो सकती है, अगर वह अपने चिरतर् और साधना में दृढ़ एवं उत्साही बन जाए तो।
सती सािवतर्ी ऐसी ही एक नारी हो गई िजसने अपने तपोबल के पर्भाव से यमराज से
अपने माता-िपता, सास-श्वसुर एवं पित के साथ अपने िलए भी वरदान माँगकर सबको उन्नत
बनाया।
अनुकर्म
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पपपपपप पप पपपपपपप
रजोदर्शन पर्कृित का एक महान संकेत है। इसके तीन साल के बाद स्तर्ी गभर् धारण
के योग्य हो जाती है। इसी कारण ऋतुकाल में िस्तर्यों की काम-वासना बलवती हुआ करती
है। यह वासना उसे बलात्कार से पुरूष-दशरन करवाती है। इस समय यिद पित के दारा अनतःकरण सुरिकत
नहीं होता तो उसके िचत्त पर अनेकों पुरूषों की छाया पड़ती है, िजससे उसका आदर्शशश
सतीत्व नष्ट हो जाता है। ऋतुमती स्तर्ी के िचत्त की िस्थित ठीक फोटो के कैमरे की सी
होती है। ऋतुस्नान करके वह िजस पुरूष को मन से देखती है, उसकी मूितर् िचत्त पर आ
जाती है।
आदर्शस ती वही है जो पित के िसवा िकसी को पुरूष रूप में देखती ही नहीं। यिद
देखती है तो िपता, भर्ाता या पुतर् के रूप में। परन्तु ऐसी देखने वाली भी मध्यम शर्ेणी की
पितवर्ता मानी गई है। गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं-
पपपपप पप पप । पप पप पपपपपप ।। पपपप पपप पप पपपपप पप पपपपपपप
पपपपप पप-पपप पपपपपप पपपप। पपपपपप पपपप पपपपप पपप
पपपप।।
कन्या जब यौवनास्था में पर्वेश शश क र र ह ीहोतबउसकेमाता
-िपता का पिवतर्
कत्तर्व्य हो जाता है िक उसके ये अित संवेदनशील एवं नाजुक काल में उसके िचत्त का
संरक्षण होता रहे ऐसा वातावरण बनायें। सत्सािहत्य के पठन, मनन एवं संतजनों के
दशरन-सत्संग से कायर् स्वाभािवक ढंग से उत्तम पर्कार से संपन्न हो जाता है।
11 साल के बाद बच्ची का जीवन साित्त्वक सरल होना चािहए। सती साध्वी नािरयों के
जीवन की कथाएँ उसे पढ़नी चािहए। लड़कों के साथ ज्यादा संपकर् न रहे। क्योंिक स्तर्ी
इस काल से ही पुरूषों से आकिषर्त होने लगती है।
िकसी से भी आकिषर्त होने से शिक्त िबखर जाती है। आद्यशिक्त के रूप में होते
हुए भी जब शिक्त का क्षय कर बैठती है तब 'अबला' होकर ठोकरें खाती है। ऋिषयों ने
जगदंबा के रूप में बाला की पूजा की है। िचत्त में जब अनजाने पुरूषों को िबठा लेती है
तो वही बाला 'अबला' (बलहीन) हो जाती है।
पुरूषों के िलए स्तर्ी का िचत्त िजतना-िजतना िबखरता है उतना-उतना बल नष्ट हो
जाता है। अतः माता-िपता का पर्थम कत्तर्व्य है िक अपनी िनदोर्ष कुमािरकाओं, बिच्चयोंको
भर्ष्टता की ओर ले जाने वाले िसनेमा-नाटक आिद के वातावरण से युिक्तपूवर्क बचायें,
अनजाने लड़कों से, व्यिक्तयों से सुरिक्षत रखें। ऐसी सहेिलयों से बचाते रहें जो
खुद 'अबला' हो चुकी हों, पुरूषों के गहरे िचतर् िचत्त में ले चुकी हों। ऐसी सुरक्षा पर्ारंभ
से ही िमलने से स्तर्ी में सतीत्व पनपता है, पूणर्रूप में पर्गटता है। वह चिरतर्वान,
सुशील बन कर पिरवार, समाज, देख एवं पूरी पृथवी को पावन करती है।
अनुकर्म
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ 5
पपपपपपपप पप पपप पपपप पपपप पपपपप ?
स्तर्ी शरीर में जो मिलनता होती है वह पर्ित मास रससर्ाव के द्वारा िनकल जाती
है और वह स्तर्ी पिवतर् हो जाती है। शास्तर्ों मे कहा गया है िक रजस्वला स्तर्ी को तीन
िदन तक िकसी का सपशर नही करना चािहए। उसे सबसे अलग, िकसी की नजर न पड़े ऐसे स्थान में
बैठनाचािहए। चौथेिदनस्नानकरकेपिवतर्होनेकेसमयतक िकसी को अपनामुँहनिदखानाचािहए, न अपना शब्द
सुनाना चािहए।
रजस्वला होने के समय िजतना इिन्दर्य-संयम, हल्का भोजन तथा िवलािसत का अभाव
होगा उतनी ही स्तर्ीशोिणत की शिक्त कम होगी। रजस्वला स्तर्ी को तीन िदन तक केवल एक
बारभोजनकरनाचािहए, जमीन पर सोना, संयत रहना चािहए। घी-दूध का सेवन नही करना चािहए, गहने
इत्यािद नहीं पहनने चािहए और अिग्न को स्पर्शन हीं करना चािहए। चतुथर् िदन वस्तर् सिहत
स्नान करना चािहए।
देखा गया है िक घर मे पापड बनते हो और रजसवला सती उनको देख ले तो पापड लाल हो जाते है। कुछ लोग
इसको वहम मानते हैं परन्तु यह वैज्ञािनक सत्य है।
अमिरका के पर्ो. शीक ने यह पर्मािणत िकया है िक रजस्वला नारी के शरीर में ऐसा
कोई पर्बल िवष होता है िक वह िजस बगीचे में चली जाती है उस बगीचे के फूल-पत्ते
आिद सूख जाते हैं, पौधे मर जाते हैं, फल सड़ जाते हैं। यहाँ तक िक वृक्षों में
कीड़े तक भी पड़ जाते हैं।
खांड के एक कारखाने में रजस्वला स्तर्ी को पर्वेश कराया गया। बाद में
िनरीक्षण िकया गया तो मालूम पड़ा िक खांड घिटया हो गई थी।
अतः रजस्वला स्तर्ी के दर्शन से दूर रहना उसके और अपने स्वास्थ्य के िलए
अत्यंत िहतकर है। जहाँ दर्शन और स्पर्शि न िषद्ध है वहाँ उसके हाथ के बनाये हुए
भोजन खाने की तो बात ही कहाँ रही ?
रजोदर्शन के िदनों में स्तर्ी को कुछ िनयमों का पालन करना आवश् यकहोता है।
पपपपप ऐसा कोई काम नही करना चािहए िजससे उदर (पेट) को अिधक िहलाना पड़े या उस
पर दबाव पड़े। जल का घड़ा उठाना, देर तक उकडू बैठना, दौड भाग करना, जोर से हँसना या रोना,
झगड़ा करना ज्यादा घूमना-िफरना, गाना-बजाना, शोक, दुःख या कामभाव बढाने वाले दृशय देखना या ऐसी
कामुक पुस्तकें पढ़ना, ये सब हािनकारक हैं।
उदर और कमर को ठणडा लगे ऐसा काम नही करना चािहए। कमर तक जल मे डू बकर सनान नही करना
चािहए। मसतक मे गमी मालूम पडे तो ठणडा तेल लगाना और भीगे अंगोछे से शरीर को पोछना हािनकर नही है।
रजोदर्शन के समय का रक्त एक पर्कार का िवष है। इस िवष के संसगर् में आई हुई
चीजो को भी िवष के समान ही समझकर तयाग देना चािहए।
जब तक रक्तसर्ाव होता हो तब तक पित का संग तो भूलकर भी न करना चािहए। इन िदनों
में पित का दर्शन भी िनिषद्ध बतलाया गया है।
ये िनयम साधारण से हैं पर इनका पालन करने वाली स्तर्ी स्वस्थ और सुखी रहती
है। इनका पालन न करने वाली स्तर्ी को िनश् चयही बीमार एवं दुःखी होना पड़ता है। ऐसी
स्तर्ी न केवल खुद के िलए बिल्क पूरे पिरवार के िलए नकर् का िनमार्ण करती है।
अनुकर्म
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
पपपपपपपप पपपपपपप पप पपपपप पपपपप पप
पपपपपपपप
शास्तर्ों में गभार्धान संस्कार की जो िविध बताई है उसका पर्ायः लोप हो जाने के
कारण ही आज कुलकलंक तथा देश-िवदेश में आतंक पैदा करने वाली सन्तानों की
उत्पित्त हो रही है। अतः गभार्धान संस्कार एक महत्त्वपूणर् संस्कार है। स्तर्ी-पुरूष के
शरीर और मन की स्वस्थता, पिवतर्ता, आनन्द तथा शास्तर्ानुकूल ितिथ, वार, समय आिद के
संयोग से ही शर्ेष्ठ संतान की पर्ािप्त हो सकती है। फोटो लेने के समय जैसा िचतर्
होता है वैसा ही फोटो में आता है। उसी पर्कार गभार्धान के समय दम्पित्त का जैसा तन-
मन होता है वैसे ही तन और मनवाली संतान होती है।
मनुष्य का पर्धान लक्ष्य है भगवत्पर्ािप्त। अतः उसी लक्ष्य को ध्यान में रखकर
जीवन के सारे कायर् करने चािहए। गभार्धान का उद्देश् य, गभर् गर्हण की योग्यता,
तदुपयोगी मन और स्वास्थ्य, तदुपयोगी काल, इन सब बातों को सोच-समझकर िववािहत पित-
पत्नी का समागम होने से उत्तम संतान की पर्ािप्त होती है।
'गभार्धान संस्कार के िबना ही पशु श
-पक्षी सन्तानोत्पित्त कर रहे हैं िफर इस
संस्कार की क्या आवश् यकता
ह ै ?' – ऐस पश हो सकता है। इसका उतर यह है िक पायः पशु, पक्षी आिद
सभी पर्ािणयों में गभार्धान का कायर् पर्कृित के पूणर् िनयन्तर्ण में होता है। पशु कभी भी
अयोग्य काल में गभार्धान नहीं करते। वह गभर्वती के साथ समागम नहीं करता। िकन्तु
मनुष्य अयोग्य काल में तथा गभर्वती के साथ भी समागम करता है।
मनुष्य सवार्िधक बुिद्धमान पर्ाणी है। वह पर्ाकृत पदाथोर्ं तथा िनयमों में अपनी
बुिद्ध
सेऔरकुछ संशोधनकरकेअिधकलाभउठासकताहै।इसिलएगभार्धानािदसंस्कारोंकी आवशय ् कतािसद्धहो
जाती है।
स्मृित में कहा है िक गभार्धान संस्कार से बीज (वीयर्) और गभार्शय सम्बन्धी दोष
का माजर्न होता है और क्षेतर् का संस्कार होता है। यही गभार्धान संस्कार का फल है।
गभार्धान करते समय स्तर्ी-पुरष ू िजस भाव से भािवत होते है उसका पर्भाव उनके रज-
वीयर् में पड़ता है। उस रज-वीयर् से जन्य संतान में वे भाव पर्कट होते है। ऐसी दशा
में केवल कामवासना से पर्ेिरत होकर मैथुन करने पर उत्पन्न सन्तान भी कामुक ही होती
है। अतः इस कामवासना को िनयंतर्ण में रखकर शास्तर्मयार्दानुसार केवल सन्तानोत्पित्त
के िलए ही मैथुन कायर् में पर्वृत्त होते हैं वह मैथुन भगवान की ही िवभूित है। गीता में
कहा हैः
पपपपपपपपपपपपप पपपपपप पपपपपपपपप। (गीताः 7.11)
'अमुक शुभ मुहूतर् में अमुक शुभ मन्तर् से पर्ाथर्ना करके गभार्धान करें।' इस
िवधान से कामुकता का दमन तथा शुभ भावना से भािवत मन का सम्पादन हो जाता है। क्योंिक
शुभ मुहूतर् तक पर्तीक्षा करना कामुकता का दमन िकये िबना हो ही नहीं सकता। देवों से
पर्ाथर्ना करते समय मन अवश् यशुद्ध भावनामय होगा। स्तर्ी की अनुमित के िबना बलात्कार
करना भी कामुकता का सम्पादन कर देता है। इसके अितिरक्त अस्वस्थता या मानिसक
िखन्नता के कारण यिद स्तर्ी सहमत नहीं हो रही हो, ऐसी दशा मे यिद गभाधान िकया जाएगा तो जननी की
अस्वस्थता तथा िखन्नता का पर्भाव जन्य बालक के शरीर और मन पर अवश् यपड़ेगा।
गभर्धान से पहले पिवतर् होकर िद्वजाित को इस मंतर् से पर्ाथर्ना करनी चािहएः
पपपपप पपपप पपपपपपपप । पपपपप पपपप पपपपपपपप
पपपपप पपपपपपपपप पपपपपपपपपपपप ।। पपपपपपपपपपपपप
'हे अमावस्या देवी ! हे सरस्वती देवी ! आप स्तर्ी को गभर् धारण करने का
सामथ्यर् देवें और उसे पुष्ट करें। कमलों की माला से सुशोिभत दोनों अशि ्वनीकुमार
तेरे गभर् को पुष्ट करें।"
अनुकर्म
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
पपपपपपपप पपपपपप ?
माता की पाँच तथा िपता की सात पीिढ़यों को छोड़कर असगोतर्ा अपनी जाित की कन्या
के साथ िववाह करके उसी में शास्तर्मयार्दानुसार गभार्धान करना चािहए। अन्यतर् कहीं
भी गभार्धान करने से वणर्संकर सन्तान उत्पन्न होती है जो अपने समाज का अिहत करके
इस लोक में और िपतरों का पतन करके परलोक में भी दुःख देने वाले होती है।
माता की पाँच तथा िपता की सात पीिढ़यों तक रक्त की अित समान जातीयता होती है।
अित समान जातीय पदाथोर्ं को परस्पर िमलाने से िवकास नहीं होता। जैसे, पानी में पानी
या दूध में दूध िमलाने से कुछ भी नया िवकास नहीं होता। यही कारण है िक अपनी पपप,
पपपप पपप पपप पपप पपपपपपपप पपपप पपपपपप पपपपपपप पपपप पप
पपपप पपप-पपपपपपपप पपप पपप । पपपपप पपपप पपपपप वे अनािदकाल से
ज्यों के त्यों चले आ रहे हैं।
अित िवजातीय पदाथोर्ं को परस्पर िमलाने से िवनाश या िवकृत िवकास होता है।
जैसे दूध में नींबु का रस डालने से दूध फट जाता है। घोड़े से गधी में गभार्धान
कराकर उत्पन्न हुआ खच्चर अिधक बलवान होने पर भी स्ववंश संचालक नहीं होता। कलमी
आम अिधक स्वािदष्ट तथा बड़ा होने पर भी स्वास्थ्य के िलए अिधक िहतकर नहीं होता तथा
कलमी आम के बीज से कलमी आम पैदा नहीं होता।
िकंिचत समान जातीय को समान जातीय के साथ िमलाने पर िवकास होता है। जैसे
दूध मे दही का तोड िमला देने से मकखन-जनक, स्वास्थ्य पर्दायक स्वािदष्ट दही बन जाता है।
इसी पदाथर् िमशर्ण िवज्ञान के आधार पर ऋिषयों ने अित समान जाितवाले होने
के कारण माता की पाँच तथा िपता की सात पीिढ़यों को छोड़ अपनी जाित की कन्या के साथ
ही िववाह करके गभार्धान करने का िवधान िकया है तथा अित िवजातीय अन्य वणर् की कन्या
के साथ िववाह करने का तथा उसमें गभार्धान करने का िनषेध िकया है।
अनुकर्म
पपपपपपप पपपपपप पपप पपपपपप
रजस्वला स्तर्ी यिद िदन में सोये और कदािचत उसे उसी ऋतुकाल में गभर् रह जाय
तो भावी िश ु शअ
ित सोनेवाला उत्पन्न होगा। काजल लगाने से अन्ध
, रोने
ा से िवकृत दृिष्ट,
स्नान और अनुलेपन से शरीर पीड़ावाला, तेल लगाने से कुष्ठी, नख काटने से कुनखी,
दौडने से चंचल, हँसने के काले दाँत, काले ओष्ठ तथा िवकृत िजह्वा और तालुवाला, बहुतबोलने
से बकवादी, बहुतसुननेसेबहरा, कंघी से बाल खींचने पर गंजा, अिधक वायु-सेवन से तथा
पिरशर्म करने से पागल पुतर् उत्पन्न होता है। इसिलए रजस्वला स्तर्ी इन कायोर्ं को न
करे। इन शास्तर्ीय िनयमों का पालन न करने से ही अिनिच्छत सन्तानें होती हैं। अतः
इिच्छत व तेजस्वी सन्तान चाहने वालों को गभार्धान संस्कार के िनयमों का पालन अवश् य
करना चािहए।
अनुकर्म
पप पपपपप पप पपपपपप पप पपपपपप
हम कणर्, नेतर्, नािसका, िजह्वा और त्वचा, इन पाँच ज्ञानेिन्दर्यों के द्वारा शब्द,
स्पर्
शशश , रूप, रस और गंध ये पाँच िवषय गर्हण करते हैं। उन सबका पर्भाव हमारे मन
पर पड़कर रक्त आिद द्वारा रज एवं वीयर् तक पहुँच जाता है। जैसा रज-वीयर् होता है
वैसी संतानें उत्पन्न होती हैं। अतः उत्तम संतान के इच्छुकों को अपने रजवीयर् की
साित्त्वकता के िलये, उसकी सुरक्षा के िलए अपने स्थूल एवं सूक्ष्म आहार की ओर िवशेष
ध्यान देना आवश् यकहै।
अनुकर्म
पपप पप पप-पपपपप पप पपपपपप
मनुष्य नेतर् द्वारा िजस पर्कार का साित्त्वक, राजस या तामस भाव का वधर्क रूप
आँखों से देखता है उसका पर्थम पर्भाव नेतर्ों में, बादमेम ं नपरपड़कररक्तआिदद्वारवीयर्
तक
पहुँच जाता है। जैसे कामवधर्क रंग-िबरंगयुक्तचमकीली, भड़कीली पोशाक युक्त स्तर्ी-पुरूषों
के रूपों को, इन साधनों से संपन्न आिलंगन, चुमबन, मैथुन आिदवाले चलिचतर्ों को तथा
पोस्टरों को देखकर मन में राजस कामभाव का उदय होकर रक्त-मन्थन पूवर्क वीयर्
उत्तेिजत हो जाता है। ऐसा पर्भाव युवकों तथा रूप में पड़ता है। इसका पर्बल पर्माण यह
है िक उक्त पर्कार के रूपों को जो छोटे बालक देखते रहते हैं, यद्यिप उस समय तो कुछ
भी पर्गट मािसक धमर् का पर्ादुभार्व समय से कुछ पूवर् ही हो जाता है िजससे वे बालक
िचतो मे देखी आिलंगन, चुमबन, मैथुन आिद िकर्याओं में पर्वृत्त हो जाते हैं। इसी पर्कार तामस
िहंसा आिद के िचतर्ों को देखकर भी उनका पर्भाव पर्थम मन में तथा अंत में वीयर् तक
पड़ता है। अतः अपने को तथा बालकों को साित्त्वक बनाने के िलए साित्त्वक रूपों को ही
देखना चािहए।
अनुकर्म
पप पप पप-पपपपप पप पपपपपप
चबाकर, चूसकर तथा पीकर िजन पदाथों का रसना इिनदय से गहण करते है उसका पभाव रकत और मास मे
और अन्त में वीयर् पर पड़ता है, इसमें तो िकसी तरह का िववाद ही नहीं है। यही कारण है
िक वीयर् की िनबर्लता के कारण िजनको सन्तान नहीं होती उन्हें डॉक्टर तथा वैद्य दोनों
ही वीयर् को बलवान बनाने वाले रसािदक पदाथर् िखलाते हैं।
एक बार पटना की अदालत में एक मुकद्दमा आया। स्तर्ी कहती थी िक यह मेरे पित का
पुतर् है। वे गभार्धान करने के एक महीने बाद मर गये। अतः सम्पित्त का अिधकारी उनका
पुतर् ही है। उसके देवर कहते थे िक इसे हमारे भाई से गभर् नहीं रहा, यह स्तर्ी
बदचलनहैअतःसम्पित्क तेअिधकारीहमहैं।इस परस्तर्ीनेकहािक बहुतिदनोंतक सन्तानन होनेपरडॉक्टरोंने
अमुक जाित की मछली खाने के िलए मेरे पित से कहा था। मैंने उन्हें बहुत िदनों तक
उस मछली का मांस िखलाया था। परीक्षण कराके देखा जाय, इस िशशु के शरीर में उस
मछली के परमाणु अवश् यिनकलेंगे। न्यायाधीश ने परीक्षण कराया, िश ु शमें उस मछली
के परमाणु िमले, अतः िश ु शको उन्हीं का पुतर् है ऐसा कहकर उसी को सम्पित्त का अिधकारी
घोिषत िकया।
इससे यह स्पष्ट होता है िक हम रसना इिन्दर्य से जो गर्हण करते हैं उसका गहरा
पर्भाव रज-वीयर् पर और उसके द्वारा होने वाली सन्तान में पड़ता है।
अनुकर्म
पपपपपप पप पप-पपपपप पप पपपपपप
युवकों तथा युवितयों के द्वारा परस्पर एक दूसरे का स्पर्शक रने पर िकतना जल्दी
वीयर् उत्तेिजत हो जाता है इसे स्पष्ट करने की आवश् यकतानहीं। स्पर्शक ा पर्भाव
बालकोंपरभीअपर्कटरू प मेपं ड़ताहैइसेहीयहाँस्पष्टकरनाआवशय
् कहै।
कुछ दुष्ट लोग अबोध बालकों के गुप्तांगों को बार-बारस्पर्क
श रते है
, अपने
ं गुप्तांगों
का स्पशर् क रवाते हैं , कामुक रीित में चुम्बन और आिलंगन करते करवाते हैं। इन सब
स्पशोर् ंका पर्भाव अबोध बालकों पर पड़ता है। इसका यही पर्बल पर्माण है िक बालकों में
वीयर् एवं मािसक धमर् का पर्ादुभार्व समय से कुछ पूवर् ही हो जाता है, िजससे उनकी
पर्वृित्त गुप्त अंगों के स्पर्शक रने और कराने में हो जाती है। अतः अपने को तथा
अपने बालकों को इन दूिषत स्पशोर् ंसे बचाकर माता, िपता तथा गुरूजनों के चरणस्पर्शर ूप
साित्त्वक स्पर्शम ें ही लगना और लगाना चािहए।
अनुकर्म
पपपप पप पप-पपपपप पप पपपपपप
आज के वैज्ञािनक युग में टर्ांिजस्टर, रेिडयो तथा लाउडस्पीकरों के 95
पर्ितशत क ामोत्तेजक , गन्दे, अश् लीलगीतों के शब्द दूर-दूर एकानत सथानो तक अित सपष धविन मे
पर्सािरत होते रहते हैं। शर्वण की इच्छा न होने पर भी वे शब्द बलात् कानों में पर्िवष्ट
होकर एकान्तवासी साित्त्वक साधकों के पर्थम मन में कामुकता का संचार करके बाद में
वीयर् को भी उत्तिजत कर देते हैं। ऐसी दशा में ये शब्द शहर में रहने वाले अन्य
सहायक सामगर्ी से सम्पन्न कामभाव वाले लोगों के मनों का मंथन करके वीयर् को
उत्तिजत कर देते हों, इसमें कोई सन्देह नहीं। इतना ही नहीं, अबोध बालकों पर भी इन
शब्दों का पर्भाव पड़ता है। पूवर् की तरह इसमें भी यही पर्बल पर्भाव है िक इन कामुक
गीतों को सुन-सुनकर कुछ भी भाव समझे िबना गाते रहने वाले बालकों में वीयर् तथा
मािसक धमर् का पर्ादुभार्व समय से कुछ पूवर् ही हो जाता है, िजससे वे उन शब्दों के
अश् लीलभावों को भी समय से पूवर् ही समझने लग जाते हैं। इतना ही नहीं, पूवर्किथत
दुषो के दारा िसखाये गये दूिषत सपशों, िसनेमा, टेलीिवजन और पोस्टरों में पर्दशि र् त कामुक रूपों
एवं काम-वधर्क मद्यािद रसों के पान और उनकी गन्ध व परफ्यूम, सेन्ट आिद के सेवन से
पूणर् कामकला-पर्वीण हो जाते हैं। अतः इन सभी से अपने को तथा बालकों को बचाकर
साित्त्वक गीतों-भजनों का ही शर्वण करना और कराना चािहए।
अनुकर्म
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
पपपपप पप पपपपपपपप पपपप पप ?
लौिकक दृिष से देखे तो वृदावसथा मे सभी को सेवा की आवशयकता होती है। उसके िलए पुत होना आवशयक
समझा जाता है। अलौिकक कारण से देखा जाय तो पपपपपपपप पपपपपपप पपपपपपप
पपप पपपपपप ऐसा शासत वचन है। 'पुं' नामके नरक से रक्षा पर्ाप्त करने की दृिष्ट से
आिस्तक जन पुतर् की इच्छा करते हैं। अनेकों कन्याएँ होने पर भी यिद पुतर् न हो तो
गृहस्थ को संतोष नहीं होता। वह पुतर्-पर्ािप्त के िलए नाना लौिकक उपाय करता है एवं
देवी-देवताओं की मनौतीरप अलौिकक उपाय भी करता है।
पित-पत्नी के समागम से पुतर् ही उत्पन्न हो ऐसा कोई उपाय है ? हाँ, अवश् यहै।
श ास्तर्कारों ने बड़े वैज्ञािनक ढंग से अपनी इच्छानुसार पुतर् या पुतर्ी की पर्ािप्त हो
इसके िलए उपाय बताये हैं।
स्तर्ी के मािसक धमर् या ऋतु के पहले िदन से सोलहवें िदन तक ऋतुकाल माना
गया है। मनु महाराज के कथनानुसार ऋतुकाल की पर्थम चार राितर्याँ, ग्यारहवीं और
तेरहवीं राितर् स्तर्ी समागम के िलए अित िनिन्दत है। स्तर्ी के ऋतुकाल की 6, 8, 10, 12,
16 वी युग्म राितर्यों में गभार्धान करने से पुतर् की उत्पित्त होती है और 5, 7, 9, 11, 13,
15 वीं अयुग्म राितर्यों में गभर् रहने पर पुतर्ी की उत्पित्त होती है। अतः पुतर् की
आकांक्षा वाले गृहस्थ को युग्म राितर्यों में स्तर्ीगमन करना चािहए।
पुरूष का बीज अिधक होने पर पुतर् और स्तर्ी का बीज अिधक होने पर पुतर्ी की
उत्पित्त होती है। सामान्य पर्ाकृितक िनयम के अनुसार पर्ायः 5-7 अयुग्म राितर्यों में
स्तर्ी का बीज अिधक और पर्बल होता है और 8-10 युग्म राितर्यों में उसका बीज कम और
दुबरल रहता है। उसकी अपेका पुरष का बीज अिधक और पबल होता है। इसिलए युगम राितयो मे पुत और अयुगम राितयो
में पुतर्ी की उत्पित्त होती है।
िकन्तु यहाँ ध्यान रहे िक यिद िवशेष खान-पान आिद कारणों से स्तर्ी बीज पर्बल हो
जाय तो युग्म राितर्यों में भी पुतर्ी ही उत्पन्न होगी, पुतर् नहीं। क्योंिक पुतर् या पुतर्ी की
उत्पित्त में कर्मशः पुरूष-बीजऔरस्तर्-ीबीजकी अिधकतायाअिधकसामथ्युर क्तताकी
् हीपर्धानताहै
, युग्म
राितर्याँ उसमें हेतु होने से उनमें परंपरा से ही कारणता होती है, साक्षात् कारणता तो
स्तर्ी और पुरष ू के बीज की पर्बलता या अिधकता में ही है। इसिलए पपपपपपपपप पपप
पपपपपपपपपप पप पपपपप पपपपपपपपपप पपपपपप पपपप पपपप पप पप
पपपपपप पप पप पपपपपप पप पपपपप पपपप पपप पप।
जो स्तर्ी चाहती है िक मेरे पित के समान गुण वाला या धर्ुव जैसा भक्त, अिभमन्यु
जैसा वीर, कणर् जैसा दानी, अष्टावकर् या जनक जैसा आत्मज्ञानी पुतर् हो तो उसको चािहए
िक ऋतुकाल में चौथे िदन स्नान आिद से पिवतर् होकर अपने आदर्शर ूप उन महापुरूषों के
िचतो का दशरन करे, मन ही मन पूणर् साित्त्वक भाव से उन्हीं का िचन्तन करे तथा उसी भाव में
भािवत रहकर योग्य राितर् में अपने पित से गभार्धान करावे। पित भी उन्हीं भावों से
युक्त रहे। ऐसा करने से जैसे पुतर् की इच्छा होगी वैसा ही पुतर् उत्पन्न होगा क्योंिक
ऋतुकाल में स्तर्ी का िचत्त कैमरे के िचतर्गर्ाही पदेर् की तरह होता है, उस पर उस
समय जैसी छाप पड़ जाती है वैसी ही सन्तान उत्पन्न होती है। धन्वन्तिर भगवान ने
स्पष्ट कहा हैः
"ऋतुस्नान के बाद स्तर्ी जैसे पुरूथ का दर्शन करती है वैसा ही पुतर् उत्पन्न होता
है। अतः शर्ेष्ठ पुतर् का ही दर्शन करायें। "
अनेकों बार पर्योग करके यह देखा गया है िक ऋतुमती घोड़ी की आँखों के
सामने िजस रंग का पदार् लगाकर घोड़े से गभार्धान कराया गया है वैसे ही रंग का
बच्चापैदाहुआहै।
सन्तान में वे गुण स्थायी बने रहें इसके िलए गभर्काल में भी बराबर नौ महीने
तक उन्हीं आदशोर् ंके गुणों का िचन्तन तथा उनकी कथा का शर्वण करते रहना चािहए।
सन्तान उत्पन्न होने के बाद भी माता, िपता तथा िक् श षदकों व ् ारा िश ु शको उन्हीं आदशोर् ंके
अनुकूल आचरण और िक् श षपण र्ाप्त होना चािहए।
अनुकर्म
पपपपपप पपपपपपप
शरीर िवज्ञान के अनुसार स्तर्ी-पुरष
ू िवभेदक िलंग, योिन आिद अंग का बनना
तीसरे या चौथे मास के बाद ही पर्ारंभ होता है, इससे पहले गभर् मांस का िपण्डमातर् ही
होता है। इसिलए जब गभर् दो-तीन महीने का होता है तभी पुंसवन संस्कार करने का िवधान
िकया गया है। पुरूष के ही अंग बने, उसके िलए इस संस्कार में मनोिवज्ञान और औषिध-
िवज्ञान इन दो पर्कार के उपायों को कायर् में लाया गया है।
अनुकर्म
पपपपपपपपपपपप पपपप
यह सभी जानते हैं िक जो जैसी पर्बल भावना करता है उसके बाह्य तथा आन्तर
अंगों पर उसका पर्भाव अवश् यपड़ता है। भावपर्धान होने के कारण िस्तर्यों पर भावना का
पर्भाव अिधक होता है। यिद इस भावना, को कोई ऐसा आधार पर्ाप्त हो जाय िजसकी पर्माणता
पर उसे पूरा िवश् वासहो तब तो तत्काल ही फल देखने को िमल जाता है।
एक भावुक सज्जन को यह वहम हो गया िक मुझे क्षय का रोग हो गया है। एक डॉक्टर को
िदखाया, उसने रूपया ठगने की दृिष्ट से उसकी पुष्टी कर दी। इसका पिरणाम यह हुआ िक उनके
मन में हर समय क्षय रोग के िचन्तन का ऐसा गहरा पर्भाव पड़ा िक उन्हें क्षय रोग सचमुच
में ही हो गया।
इस मनोिवज्ञान के आधार पर पर्ामािणक वेदमन्तर्ों के अलौिकक पर्भाव पर परम
शर्द्धा रखने के कारण जब वेदमन्तर्ों द्वारा पुंसवन संस्कार कर िदया जाता है तब
भावपर्धान स्तर्ी के मन में पुतर् भाव का पर्वाह पर्वािहत हो जाता है, िजसके पर्भाव से
गभर् के मांस-िपंड में पुरूष अंग उत्पन्न होते हैं।
पपपपप स्तर्ी के उदर में जब तीन मास का गभर् हो तब नीचे िदया हुआ वेदमन्तर्
लगातार नौ िदन तक पातःकाल मे या राित को सोते समय नौ बार पढकर सुनाया जाय तथा गभरवती सती सवयं बार-बार
दृढ िनशय करे िक मुझे पुत ही होगा, तो उस शर्द्धावान स्तर्ी को पुतर् ही होता है। पपपपपप
पपपपपपपपपप पपपपपपपपपपपप पपपपपप पपपप पपपपपपपपप।
पपपपपपप पपपपपप पपपपपपपप ।। पप पपपपपपपप पपपपपपपपप
(सा. वे. मं. बर्.ा1.4.9)
पपपपप अिग्न देवता है पुरूष है, देवराज इनद भी पुरष है तथा देवताओं का गुर बृहसपित भी
पुरूष है, तुझे भी पुरूषयुक्त पुतर् ही उत्पन्न हो।
अनुकर्म
पपपपपपपपपपपप पपपप
वट का अंकुर वर्ण का रोपण करने वाला तथा सिन्धकारक होने से गभर्-मांसिपण्ड
में योिनरूप वर्ण के बनने में बाधक होता है। अतः अन्य चीजों के साथ वट के अंकुर को
पीसकर पुंसवन संस्कार में गभर्वती को िदया जाता है। बल वीयर्वधर्क सोमलता का भी
िवधान है िकन्तु सोमलता अब िमलती नहीं।
पपपपप बीजिनकालकरमनकादर्ाक्षऔरकालीदर्ाक्ष25-25 गर्ाम, दो आँवला, तीन चार काली
िमचर् वट के 10-12 अंकुर लेकर अच्छी तरह पीसकर उसमें गर्ाम गाजर का रस िमलाकर
गभर्वती स्तर्ी को िदया जाय।
अनुकर्म
पपप पपपप
गभर्काल में िनम्न विणर्त िनयमों का पालन करने से िनश् चयही उत्तम सन्तान की
पर्ािप्त होती है।
पर्ािणयों की िहंसा न करे, िकसी को शाप न दे, झूठ न बोले, कर्ोध न करे, दुषजनो के
साथ बातचीत न करे।
नख और रोम छेदन न करे, अपिवतर् और अशु भवस्तु का स्पर्शन क रे।
जल में गोता लगाकर स्नान न करे। िबना धोया कपड़ा और िनमार्ल्या माला धारण न
करे।
जूठा, चीिटयो का खाया हुआ, आिमषयुक्त, शूदर् के द्वारा लाया हुआ और ऋतुमती स्तर्ी की
नजर में पड़ा हुआ भोजन न करे।
भोजन करके हाथ धोये िबना, केश शशशशश बाँधेिबना , वाणी का संयम िकये िबना, वस्तर्ों
से अंगों को ढके िबना और संध्या के समय घर से बाहर िवचरण न करे।
पैर धोये िबना, गीले पैर रखकर एवं उत्तर या पशि ्चम िदशा की ओर िसर करके न
सोवे। नंगी होकर, िकसी दूसरे के साथ तथा संध्या काल में भी न सोवे।
पर्ातः काल भोजन से पहले धोये हुए कपड़े पहन कर, पिवतर् होकर पर्ितिदन गौ,
बर्ाह्मण
, भगवान नारायण और भगवती लक्ष्मी देवी का पूजन करे। माला, चनदन, भोजन-सामगर्ी
आिद के द्वारा पित का पूजन करे एवं पूजा के बाद अपने उदर में पित का ध्यान करे।
अनुकर्म
पपप पपपपप
शास्तर्ों के अनुसार अष्टमी, एकादशी, चतुदरशी, पूिणर्मा, अमावस्या, सकर्ांित,
इष्टजयंती आिद पवोर्ं में संसार व्यवहार करना िनिषद्ध है। ऋतुकाल की सोलह राितर्यों
में से चौदह िनिषद्ध राितर्यों का त्याग करके केवल दो राितर् में संसार-व्यवहार करने
वाले गृहस्थ के बर्ह्मचयर् की हािन नहीं होती।
भोग की संख्या िजतनी कम होगी उतनी ही रजवीयर् की िनरोगता, पिवतर्ता और
शिक्तमत्ता बढ़ेगी। भोगसुख अिधक पर्ाप्त होगा। होने वाली संतान भी स्वस्थ, पुष्ट,
धमर्शील, मेधावी तथा उत्तम चिरतर्वाली होगी।
शर्ाद्ध के िदनों में मैथुन करना बड़ा पाप माना गया है। इन िदनों में मैथुन
करने वालों को एवं उनके िपतरों को परलोक में वीयर्पान करना पड़ता है और उनका पतन
होता है। पर्दोषकाल में मैथुन करने से आिध-व्यािध-उपािध आ घेर लेते हैं। िदन में
गभार्धान करना सवर्था िनिषद्ध है। िदन के गभार्धान से उत्पन्न सन्तान दुराचारी और
अधम होती है। संध्या की राक्षसी वेला में राक्षस तथा भूत, पर्ेत, िपशाचािद िवचरण
करते रहते हैं। िदित के गभर् से िहरण्यकश िपुजैसे महादानव इसीिलए उत्पन्न हुए थे
िक िदित ने आगर्हपूवर्क अपने स्वामी महात्मा कश् यपजीके द्वारा संध्याकाल में
गभार्धान करवाया था।
पपपपपप पप पपपपप पपपपप (12 पप 3) पप पपपपपप पपपपपपप पप
पपपपपपपपप पपपप पप।
गभार्धान के समय शुद्ध साित्त्वक िवचार होने चािहए। गभार्धान के समय रज-वीयर्
के िमशर्ण काल में माता-िपता के मन में जैसे भाव होते हैं वे ही भाव पूवर् कमर् के
फल का समन्वय करते हुए गभर्स्थ बालक में पर्कट होते हैं।
जैसी धािमर्क, शूर, तेजस्वी सन्तान चािहए वैसा ही भाव रखना चािहए। ऋतुस्नान के
पश् चातस्तर्ी पहले पहल िजसको देखती है उसी का संस्कार उसके िचत्त पर पड़ जाता है
और वैसी ही सन्तान बनती है।
गभर्वती स्तर्ी को गभर्काल में बहुत सावधानी के साथ सदिवचार, सत्संग,
सत्सािहत्य का अध्ययन और शुभ दृश् योंको देखना चािहए। गभर्काल में पर्ह्लाद की माता
कयाधू देविषर् नारदजी के आशर्म में रहकर िनत्य हिरचचार् सुनती, इससे उनके पुतर्
पर्ह्लाद महान भक्त हुए। सुभदर्ा के गभर् में ही अिभमन्यु ने अपने िपता अजुर्न के साथ
माता की बातचीत में ही चकर्व्यूह भेदन करने की कला सीख ली थी।
अतः तेजस्वी, मेधावी, सुशील, बुिद्धमान
, िववेकी, भक्त, वीर, उदार संतान पापत करने के िलए
शास्तर् के आदेशानुसार संसार-व्यवहार होना चािहए। शास्तर्ाज्ञा की अवहेलना करके
अपनी िवषय वासना की अन्धता में अयोग्य देश, काल और रीित से संसारव्यवहार करने
से बीमार, तेजोहीन, चंचल, क्षदु र् स्वभाववाले, झगड़ालू, अशश ांत
शश , उपदर्वी बच्चे पैदा
होते हैं। कैसे जीव को अपने यहाँ आमंितर्त करना है यह माता-िपता को सोचना चािहए।
अनुकर्म
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
पपपपपपप पपपपपप पप पपप पपपप-पपपपप
गभार्वस्था में माता के आहार-िवहार का, शारीिरक और मानिसक िस्थित का गहरा
पर्भाव उदरस्थ संतान के तन-मन और स्वास्थ्य पर पड़ता है। माता जो खाती है उसके सार
से एक अंश स्तनदुग्ध बनता है और दूसरा अंश रक्त के रूप में पिरणत होकर गभर् का पोषण
करता है। इसिलए माता यिद सुपथ्य का सेवन करती है तो बालक सहज ही हृष्ट पुष्ट होता है।
पर्सव भी ठीक समय पर सुखपूवर्क होता है।
पपपपप गिभर्णी को रूिचकारक, िस्नग्ध, हल्का, अिधक िहस्सा मधुर और अिग्नदीपक
(सोंठ, पीपल, काली िमचर्, अजवायन आिद) दवयो के संयोग से बना हुआ भोजन करना चािहए। मधुर पदाथों मे
दूध, घी, मक्खन, चावल, जौ, गेहूँ, मूँग आिद अन्न, खीरा, नािरयल, पपीता, कसेरू, केला आिद
फल, िकशशश िमश , खजूर आिद मेवा और लौकी, कुम्हड़ा आिद साग समझने चािहए।
गिभर्णी का कोठा साफ रहे, पेशाब सरलता से होता रहे इस ओर िवशेष ध्यान रखना
आवश् यकहै।
गिभर्णी को भारी भोजन, अिधक मसाले, लाल िमचर और जयादा गमर चीजे नही खानी चािहए। रखी,
बासीऔरसड़ीचीजेिब ं ल्कुलनहींखानीचािहए। गभार्वस्थामेच
ं ायबहुतहािनकारकहै।
पपपपपप गिभर्णी को पहले िदन से सदा पर्फुिल्लत, पिवतर् साफ-सफेद वस्तर् से
िवभूिषत, मंगल कायोर्ं में िनरत तथा देवपूजन और भिक्त में रहना चािहए। पपपपप
पपप पपपपप पप पपपपप पप पपपपपपपपपप पप पपपपपप पपप पपप पप
पपपप पपप पपपपपप पपपप पप पपपपप पप पपपपप पप पपपप ? सत्संग-शर्वण
और ध्यान-भजन का बहुत अच्छा पर्भाव उदरस्थ बालक के िचत्त पर पड़ता है। गिभर्णी को
भक्तों, महापुरूषों, संतों और शूरवीरों के जीवन चिरतर् तथा शर्ीहिर कथा आिद सुनना
चािहए।
गिभर्णी को ज्यादा मोटा कपड़ा नहीं पहनना चािहए। वस्तर् चुस्त नहीं बिल्क कुछ
ढीले रहें। कपड़े, शरीर, िबछौनाइत्यािदस्वच्छ, पिवतर् रहे। कुछ देर तक शुद्ध हवा में
टहलना लाभदायक है।
शरीर ठीक हो तो रोज एक बार नहाना जरूर चािहए परन्तु पानी अिधर्क गमर् या अिधक
ठंडा न हो।
घर में भगवान व साधु-महात्मा के िचतर् रखने चािहए।
काम, कर्ोध, िहंसा, शोक, मोह, लोभ, चोरी, दमभ, असत्य, भय आिद से बचकर क्षमा,
अिहंसा, बर्ह्मचयर् , शािन्त, आनन्द, िववेक, सन्तोष, आस्तेय, िनष्कपटता, सत्य, अभय आिद
दैवी गुणो की भावना सवरदा करनी चािहए।
व्यिभचार संबंधी बातें कहने-सुनने और स्मरण रखने से सदा बचकर सती
िस्तर्यों के चिरतर्ों का शर्वण, मनन करना चािहए।
जहाँ तक हो सके वहाँ तक महाभारत के शािन्तपवर्, गीता जी, शर्ीमद भागवत के
तीसरे और ग्यारहवें स्कन्ध, तुलसीकृत रामायण और भक्तमाल आिद की चुनी हुई कथाएँ
सुनना और उनका िचन्तन, मनन करना चािहए।
गंदी पुस्तकें कभी मत पढ़ो।
भगवन्नाम का जप सदा करना चािहए।
दीनो पर दया का भाव सदा ही हृदय मे जागत रखना चािहए।
इतने जोर से न बोलो िक िजससे तुम्हारे शब्द घर से बाहर तक सुनाई दें। िबना
मतलब घर के दरवाजे पर खड़ी मत होओ। िखड़की या झरोखों से बाहर की तरफ मत झाँको।
अनुकर्म
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
पपपपपपप पपपपपप पप पपप पपपपपपप
पपपपप
मैथुन िबल्कुल नहीं करना। टट्टी पेशाब की हाजत नहीं रोकना। बहुत तेज चलने
वाले वाहन पर नहीं चढ़ना। कूद-फाँद या दौड़-भाग न करना। बोझ न उठाना। पिरशर्म करना,
परंतु पिरशर्म से शरीर को थका न देना। िदन में सोना नहीं, रात में जगना नहीं। मन
िखन्न हो ऐसा कायर् नहीं करना।
इसके उपरान्त, सदा िचत्त होकर सोना, बहुतजोरोंसेहँसनाउकड़ूबैठना, अकेले कहीं जाना
या सोना, कर्ोध, शोक, भय आिद करना, मैले, िवकलांग या िवकृत आकृित की व्यिक्तयों का
स्पर्
श क रना , दुगरनध सूंघना, वीभत्स पदाथर् या दृश् यदेखना, जनशू न्
घय र में रहना, अिधक तेल
मसाला या हल्दी-उबटनआिदसेशरीरमलना, लाल वसत पहनना और िकसी सती के पसव के समय उसके पास
रहना – ये सब बातें भी गिभर्णी स्तर्ी के िलए हािनकारक हैं।
यिद कोई बहन मन लगाकर इन िनयमों को पाले तो ईश् वरकृपा से वह पर्ह्लाद, धर्ुव,
नारद, हिरश् चन्दर्, बुद,्धसीता, सािवतर्ी सरीखी संतान की जननी होकर अपना और जगत का बड़ा
भारी कल्याण कर सकती है। पृथव ् ी भी उससे पावन होती है।
अनुकर्म
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
पपपपप पपपप पप पपपपपप
िश ु शज
न्मते समय पर्सूित कराने वाली दाई बालक की नाल जल्दी से काट देती है।
यह नाल माता और बच्चे के शरीर को जोड़ती है। इसी नाल द्वारा बच्चा माता के शरीर में
से सब पोषण पर्ाप्त करता है। यह नाल सहसा ही काट डालने से बालक के पर्ाण भय से
आकर्ांत हो जाते है। उसके िचत्त पर भय के संस्कार गहरे हो जाते हैं। िफर समस्त
जीवन भयातुर रहकर व्यतीत करता है।
पुराने िवचारों की दाइयाँ तो ठीक परन्तु आज के आधुिनक वैज्ञािनक साधन-संपन्न
मनोिवज्ञान-सुश ििक्षतडॉक्टर भी यही नादानी करते जा रहे है। बालक के जन्मते ही
तुरन्त उसकी नाल काट देते हैं।
बालकका जन्महोनेकेथोड़ीदेरबादयहनालअपनेआपसूख जातीहै।िजस पर्कारबढ़े हुएबालऔरनाखून
काटने से कष्ट नहीं होता उसी पर्कार ऐसी सूखी हुई नाल काटने से बालक के पर्ाणों में
क्षोभ नहीं होता और वह सुख के साँस लेता हुआ अपने लौिकक जीवन का आरम्भ कर सकता
है।
बालककेजन्मोंपरान्तपर्थमबारदूध िपलानेसेपूवर्
मधु औरघीिवषणपर्माणमेल
ं ेकर(अथार्त् घी अिधक
हो, मधु कम हो अथवा मधु अिधक हो, घी कम) िमशर्ण तैयार करें। िफर पहले से बनाई हुई
सोने की सलाई को उस िमशर्ण में डुबोकर उससे नवजात िश ु शकी जीभ पर ॐ िलखें। उसके
कान में ॐ शब्द का उच्चारण बड़ी ही मधुरता से करें।
इससे बालक पर्ज्ञावान, मेधावी, तेजस्वी और ओजस्वी होता है।
अनुकर्म
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
पपपपपप पप पपपपप पपपप
िवधवा का जन्म दुःखमय होता है। दुःख का कारण है हमारे अपने ही कमर्। यिद हमें
सुख चािहए तो संयमपूणर् होकर ऐसे सत्कमर् करें िक पिरणाम में सुख हो।
स्तर्ी िवधवा क्यों होती है ? इसका कारण है िक स्तर्ी के पूवर्जन्म का दुराचार। यिद
िवधवा स्तर्ी यहाँ भी पुनः भर्ष्ट होकर िवषय-सेवन में लगेगी तो उसका भावी और
अन्धकारपूणर् एवं दुःखी होगा।
स्कन्दपुराण में आया हैः
पप पपपप पप पपपप पपपपपपपपप । पपपपपपपपपपपपपपपपपप
पपप पपपपप पप पपपप पपपपप पप पपपपपपपपपपपप।
पपप पपपपपपपपपपप।। पप पपपप पपपपप पपपपपपप
'जो नारी अपने पित को त्यागकर मन, वचन, शरीर तथा कमर् से जार का सेवन करती
है, दूसरे पुरष के पास जाती है वह नारी उस कमर के फलसवरप जनमानतर मे िवधवा होती है।'
पुरूष भी यिद ऐसे पापों में उतरता है तो दूसरे जन्म में स्तर्ी होकर िवधवा होता
है। स्कन्दपुराण में भगवान शंकर भगवती पावर्ती से कहते हैं-
पप पपपपपपपप पपपपपपपपप पपपपपपपपप पपपपपपपपपप।
पपपपपपप पप पपपपपपपपपप । पप पपपपपप पपपपपपपपपप
पपपपपपपपपपपप पपपपपप पपपपपप ।। पपपपपप पपपपप पपपपपपप
'हे देवेश् वरी! जो पुरूष अपनी िनदोर्ष तथा कुलीन पत्नी को छोड़कर परस्तर्ी में
आसक्त होता है या दूसरी स्तर्ी को पत्नी बनाता है वह जन्मान्तर में स्तर्ी योिन में जन्म
लेकर िवधवा होता है।'
इस पर्कार िवधवापन का दुभार्ग्य पूवर्जन्म के पापकमोर्ं के फलस्वरूप ही िमलता
है। यह दुभार्ग्य पुनिवर्वाह या िवषय-सेवन से नहीं िमटता बिल्क शुभकमर्, तपस्या एवं
भगवद् भजन से ही िमटता है। स्कन्दपुराणान्तगर्त शर्ी गुरूगीता (आशर्म द्वारा पर्काश ित
अत्यंत उपयोगी पुस्तक) में भगवान ि वन श े कहा हैः
"यह गुरूगीता िनत्य सौभाग्य पर्दान करने वाली है। सधवा िस्तर्यों का वैधव्य
टालने वाली एवं सौभाग्य की वृिद्ध करने वाली है। कोई िवधवा िनष्काम भाव से इस गुरूगीता
का पाठ करेगी तो मोक्ष को पर्ाप्त कर लेगी। यिद वह कामना सिहत पाठ करेगी तो दूसरे
जन्म में उसे सवर् सन्ताप हरने वाला सौभाग्य पर्ाप्त होगा।"
िवधवाओं का धमर् बड़ा ही किठन है, िकन्तु वह है परम पिवतर्। िजस पर्कार
आशम र्मधमर् ें संन्यास सबका पूज्य है, उसी पर्कार स्तर्ीधमर् में भी िवधवाधमर्
सवर्पज ू ्य है। िहन्दू जाित की वे आदरणीय िवधवाएँ जो भोगिवलास की सारी सामिगर्यों को
तृणवत त्यागकर परमात्मा के चरणों में िचत्त लगाती हुई अपने दुःखमय जीवन को पिवतर्ता
के साथ सुखमय बनाकर िबताती हैं, अपने अदभुत त्याग से जो िहन्दू जाित का मस्तक ऊँचा
करती हैं, वे िवधवाएँ यिद पूज्य न हों तो दूसरा कौन हो सकता है ? आजकल कहीं-कहीं
िवधवाधमर्-पालन में जो िवपरीत भाव देखा जाता है, उसका कारण धािमर्क िक् श षका ा अभाव ,
मूखर्तावश िवधवाओं के पर्ित असद् व्यवहार और अिधकांश में पुरष ू जाित की नींव वृित्तयाँ
हैं। यिद िवधवाओं को धािमर्क िक् श षि ा म ली हुई हो उनके साथ उत्तम व्यवहार हो और पुरूष
जात अपनी नीच वृित्तयों का दमन कर लें तो िवधवाधमर् िफर िहन्दू जाित के गौरव का कारण
बनसकताहै।
िवधवा को समझना चािहए िक परम करूणामय परमात्मा ने हमको िवषयों से हटाकर
भगवद्-भजन करने का, आत्मज्ञान पाने का एक उत्तम अवसर िदया है। िवधवाजीवन घृिणत
और दुःखमय नहीं है, बिल्कपिवतर्दैवीजीवनहै।भोगासक्तजीवनका अन्तहोकरदुःख की आत्यािन्तकिनवृित्त
और परमानन्द की पर्ािप्त कराने वाले आध्याित्मक जीवन का पर्ारम्भ होता है। भोगासक्त
िस्तर्यों को, िवषयसेवन में डूबी हुई िस्तर्यों को, पता नहीं िकतने जन्मों के बाद साधना
का सुअवसर िमल सकेगा। हमको अभी इसी जीवन में िमल गया। ऐसा समझकर परमात्मा को
हृदयपूवर्क धन्यवाद देकर उनके भजन में लग जाना चािहए। ऐसे पिवतर् भाव बनाकर जीवन
को ऊध्वर्गामी बनाने की इच्छुक स्तर्ी को यिद कोई बर्ह्मिनष्ठ सच्चे महापुरूष का दर्शन,
सत्संग िमल जाय तो वह अपनी आध्याित्मक यातर्ा इतनी तीवर् गित से तय करती है िक
सैंकड़ों सधवाएँ उसके चरण छूकर अपना भाग्य बनाने को उत्सुक होती हैं।
सुख या दुःख वास्तव में कोई घटना या पिरिस्थित में नहीं होता परन्तु उस घटना या
पिरिस्थित को अनुकूल या पर्ितकूल मानने की भावना में होता है। एक संन्यासी घरबार
छोड़कर, िवषय से िवरक्त होकर सुख की अनुभूित करता है। परन्तु िकसी व्यिक्त को
जबरदस्ती घर िनकाल िदया जाय तो िवषयसुख के अभाव में वह दुःख का अनुभव करता है।
दोनो की िवषय सुखरिहता की बाहरी िसथित एक सी है िकनतु को सुख होता है और दूसरो को दुःख। अनुकूलता और
पर्ितकूलता की भावना ही सुमागर्गामी बनानी है। िवषय रिहत जीवन परम गौरव की वस्तु है
ऐसा समझकर भगवतपािपत के साधन मे मगन हो जाना चािहए। परमातमा से तार जुड जायगा तो सवतः सुख का अनुभव
होगा और समाज में भी आदरणीय स्थान िमलेगा।
साित्त्वक भोजन, मन-वाणी का संयम और सदाचारी जीवन, भगवद् भजन, हिरकथा,
त्याग, वैराग्य, सच्चे बर्ह्मिनष्ठ सन्तों का दर्शन एवं उनका सत्संग शर्व , पाितवर्
ण त्य की
मिहमा बताने वाले एवं आध्याित्मक गर्न्थों का पठनिचन्तन, ईश् वर क ी पूजा, उपासना
इत्यािद से िवधवा का जीवन साधनामय हो जायगा। इससे यहाँ तो शािन्त िमलेगी ही और यिद
साक्षात्कारी महात्मा पुरूष का कृपापर्साद िमल गया और आत्मज्ञान हो गया तो अन्त मुिक्त
भी िमल जाएगी।
अनुकर्म
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पपपपपप पप पपपपपपपपपप
"हाय हाय ! मैं इिन्दर्यों के आधीन हो गई। भला, मेरे मोह का िवस्तार तो देखो ?
मैं इन दुष्ट पुरूषों से, िजनका कोई अिस्तत्व ही नहीं है, िवषय सुख की लालसा करती हूँ।
िकतने दुःख की बात है ! मैं सचमुच मूखर् हूँ। देखो तो सही, मेरे िनकट से िनकट, हृदय
में ही मेरे सच्चे स्वामी भगवान िवराजमान हैं। वे वास्तिवक पर्ेम, सुख और परमाथर्
का सच्चा धन भी देने वाले हैं। जगत के पुरष ू अिनत्य हैं और भगवान िनत्य हैं।
हाय हाय ! मेंने उनको छोड़ िदया और इन तुच्छ मनुष्यों का सेवन िकया, जो मेरी
एक भी कामना पूरी नहीं कर सकते। कामना-पूितर् की बात तो अलग रही, वे उल्टे दुःख, भय,
आिध-व्यािध, शोक और मोह ही देते हैं। यह मेरी मूखर्ता की हद है िक मैं उनका सेवन
करती हूँ। बड़े खेद की बात है, मैंने अत्यंत िनन्दनीय आजीिवका वेश् यावृित्तका
आशर्य िलया और व्यथर् में अपने शरीर और मन को क्लेश िदया, पीड़ा पहुँचाई। मेरा यह
शरीर िबक गया है। लम्पट, लोभी और िननदनीय मनुषयो ने इसे खरीद िलया है। मै इतनी मूखा हूँ िक इस शरीर से
धन और रित सुख चाहती हूँ। मुझे िधक्कार है।
यह शरीर एक घर है। इसमें हिड्डयों के टेढ़े ितरछे बाँस और खंभे लगे हुए
हैं। चाम, रोएँ और नाखूनों से यह छाया गया है। इसमें नौ दरवाजे हैं, िजनसे मैल
िनकलते ही रहते है। इसमें सिञ्चत सम्पित्त के नाम पर केवल मल और मूतर् हं। मैं
कैसी मूखर् हूँ िक स्थूल शरीर को िपर्य समझकर इसका भोग करती हूँ ?
इन शरीरों के सेवन से बल, तेज, तंदरूस्ती, आयुष्य का हर्ास होता है। दुलर्भ
मनुष्यजन्म का िवनाश करना अत्यंत मूखर्ता है, महामूखर्ता है। हाय हाय ! मुझको और मुझ
जैसी िवषय लम्पट िस्तर्यों को िधक्कार है !"
अनुकर्म
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पपपपपपप पप पपपप पपप पपपपपपपपप पप
पपपपपपपप पपपपपपप
समाज में मातर् िवधायक सहयोग ही देखने में नहीं आता। कई पर्संगों में पुरूषों
ने िस्तर्यों की बेइज्जती की है। उनकी दीनता एवं िनःसहायता का अनुिचत लाभ उठाकर
अपना क्षुदर् उल्लू ठीक करके अपने जीवन को भी नीचता की गतर् में डाला है। यह हीन
कायर् समाज के क्षद ु र् मानिसक स्तर के लोगों का अपनी वासना की तृिप्त हेतु िकया हुआ
स्तर्ी जाित पर एक अत्याचार है। यह अित िनन्दनीय है। परंतु ऐसे पर्संगों को सुनकर या
देखकर कोई सती समाज के पुरष वगर के पित घृणा का भाव अपने मन मे गंिथत कर दे यह उसके िलए िहतकारी नही है।
स्तर्ी के साथ दुव्यर्वहार के िकस्से में केवल पुरष ू की क्षुदर् वृित्त ही नहीं अिपतु स्तर्ी
के मन की दुबर्लता एवं उसका अपुरूषाथर्, कई घटनाओं में उसका अपना दुष्चिरतर् भी
शािमल रहता है।
स्तर्ी को चािहए िक वह अपने आपमें हमेशा सचेत व सच्चिरतर्वाली रहकर
अन्तःकरण से सारे समाज के संबंध में िहतिचंतक एवं ईश् वरपरायणजीवन व्यतीत करे।
कई िस्तर्याँ पुरूषों को जािलम या िनदर्यी समझने लगती हैं और वैसा ही पर्चार समाज
में करने लगती हैं। इसका कारण पुरूषों के िवषय में उनका खराब अनुभव है और उसमें
उनका खुद को भी छोटा-मोटा दोष होता ही है। उन िस्तर्यों को यह बात ख्याल में रखनी
चािहए िक अिधकतर पुरषो ने सती का जो आदर िकया है वह अकलपनीय है। अपने सारे कुटुमब का िवशास उसके ऊपर
िनभर्र िकया। िवश् वकी आद्य शिक्त के रूप में नारी की कल्पना और पर्स्थापना अपने ऋिष
मुिनयों ने की है और वे पुरूष थे। उसकी पूजा और सम्मान भी पुरूषों ने ही की है। िस्तर्यों
के िलए आशर्म, नारी उत्थान सिमितयाँ, नारीसंघ, अनाथ आशशश र्म
श , िवधवागृह आिद पुरूषों की
करूणा का ही िवस्तार है।
इसीिलए स्तर्ी को चािहए िक वह अपना जीवन शुद्धता के साथ व्यतीत करे और सारा
बर्ह्माण्डईश् वरका हीिवलासहैऐसा सोचे।आजकलकी नासमझिस्तर्याँपुरष ू ोंसेसमानताकी होड़मेह
ं ोटलोंमेज
ं ाना,
िसगरेट पीना, शराब पीना आिद गन्दी आदतों में िगर रही हैं। यह अन्धा पाश्चात्यानुकरण
राष्ट के िलए, स्तर्ी जाित के िलए एवं देश के होनहार नागिरकों के िलए िवनाशकारी
सािबत होगा। अतः सावधान ! पुरष ू को परमेश् वरके रूप में यिद न हो सके तो िपता, भाई या
पुतर् के रूप में दर्शन करने की कोश श ि क न,रे
िजससे उसके मन की िवकृितयाँ स्वतः ही
नष्ट होकर बौिद्धक आचरण खड़ा हो जाय और अपने जीवन को िकसी भी भर्मजिनत वृित्त का
िशकार
ब नने से रोक पाय।
अनुकर्म
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पपपपप पप पपपपपपप
हरेक जीव, नर हो या नारी, अनािद काल से वासनाओं से पीिड़त होता आ रहा है।
वासना की तुिष्ट के िलए वह नये-नये शरीर धारण करता है और रस लेने में पर्यत्नशील
रहता है। परन्तु इस आनन्द पर्ािप्त के पर्यास से ही वह बेचारा अपने स्वतः पर्ाप्त
वािस्तवक आनन्द से, आत्मानन्द से वंिचत रह जाता है। आत्मस्वरूप में िस्थर हो जाय तो
जीव खुद ही आनन्द का ही खजाना है। परंतु वह अपने भीतर का यह रहस्य जानता नहीं है
और िवषयों में आनन्द ढूँढते-ढूँढते वासनाओं से पीिड़त होकर जन्म-मरण के चकर् में
घूमता है।
यिद जीव को मुिक्त पाना है, आनन्द-स्वरूप पाना है तो उसे पूणर्रूप से वासना रिहत
होना ही पड़ेगा। एकाएक वासनाओं का सवर्था त्याग करना सम्भव नहीं है। उसमें भी
सबसे पर्बल वासना है कामभोग की। इस पर्बल उच्छृंखल पर्वृित्त पर िनयन्तर्ण रखने के
िलए िववाह की एक मयादा रखी गई है। िववाह का मूल पयोजन है कमशः वासना-िनवृित्त, वासना-पूित्तर् नहीं।
आजकल के लोग इस लक्ष्य को भूलते जा रहे हैं। िववाह के द्वारा वे अपनी वासनापूितर्
की अिधक से अिधक सुिवधाएँ िनकालने को तत्पर हैं। पिरणाम में िववाह का आध्याित्मक
उदेशय लुपत होता जा रहा है। पुरष और सती के तन, मन और बुिद्धवाले बालक पैदा होते हैं। इस
पर्कार जीवन कभी वासना रिहत नहीं हो सकेगा, अपने असली घर में नहीं पहुँच सकेगा
और सच्चे िवशर्ाम व शािन्त का अनुभव नहीं कर सकेगा। िववाह का दृढ़ धमर्-बन्धनहीजीवको
वासनाजाल से मुक्त कर परमाथर्पद की पर्ािप्त करा सकता है।
जब िववेक द्वारा यह िवचार स्पष्ट हो जाता है िक वासनाओं का िनयन्तर्ण ही िववाह
का पर्योजन है तब भोगवासना के हेतु से रूप, यौवन की आज्ञा मानकर, धमर् को सामने
रखकर, वासनारूपी रोग के िनवारण के िलए औषिध समझकर ही िववाह करना चािहए। स्तर्ी-
पुरूष सम्पकर् से सभी िविध-िनषेधों का मूल तत्त्व यही है।
नारी को िकसी भी दृिष्ट से िपता, भाई, पुतर् मानकर भी परपुरूष से हेल मेल नहीं
बढ़ानाचािहए। भगवानशर्ीरामचन्दर्जबअितर् मुिनकेआशर्मपरगयेतबअनसूयाजीउन्हेपर्ं णामकरनेतक नहींआया,
िमलने की तो बात ही दूर है। लंका में हनुमान जी ने सीता माता से जब कहा िक 'आप मेरी
पीठ पर बैठकर भगवान के पास चलें' तब सीता जी ने स्पष्ट कहा िक 'अपहरण के समय
िववशता के कारण मुझे रावण का स्पर्शस हन करना पड़ा। अब मैं जान बूझकर तुम्हारा स्पर्शश
नहीं कर सकती।'
सती साध्वी नािरयों के अन्तःकरण स्वतः ही पिवतर् होते हैं। तभी तो अिग्न भी
उन्हें जला नहीं सकती। सूयर् भी उनकी आज्ञा मानने को बाध्य होता है। ऐसे महान िदव्य
पद की पर्ािप्त के साधनभूत यह िववाह संस्कार खड़ा िकया गया था मगर आजकल तो कुछ और
ही नजर आता है। नारी स्वयं अपना स्वरूप और गौरव भूलती जा रही है। वासनापूितर् की
सड़क पर तीवर् गित से भागी जा रही है। वेश-भूषा, पफ-पावडर, काजल-िलपिसटक से सजधज कर
मनचले लोगों की आँखें अपनी ओर आकिषर्त करने में संलग्न है। पप पपपप पप
पपप पपप पपप पपपपपपप पपपप पपपपप पप पपपप 'पपप' पप 'पप' पप
पपपपपपप पपपप पपपप पप पपप पपपप पप। बड़ेखेदकी बातहै , जो मनुष्य जन्म 'स्व'
और 'पर' के परम शर्ेय़ परमात्मा-पर्ािप्त में लगाना था उसके बजाय वह अपना अमूल्य
जीवन हाड़-मांस को चाटन-चूसने मे बरबाद कर रहा है। उनकी िसथित दयाजनक है।
'पपप पपपपप पपपप पपपप, पप पप पपप पपप पपपप पपपपप'
अनुकर्म
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
पपपपप पपपप पप पपपपप पपपपपप
िहन्दू धमर् नारी को माता के रूप में अिधक मूल्य देता है। उसने मातृस्वरूप में
ईश् वरकी कल्पना की है। िहन्दुत्व एक ऐसी मान्यता है जो जगत का संचालन एक शिक्त के
सहारे हो रहा है ऐसा मानती है। वह शिक्त आद्य शिक्त, जगन्माया कही जाती है। वह खुद
परम पुरूष परमात्मा, परबर्ह्म की ही आहलािदनी शिक्त है, उसी की सत्ता मातर् है। इसिलए
िहन्दू धमर् कई िकस्सों में जब िक जगत का संचालन िवकट हो गया है तब आद्य शिक्त को
वहाँ अगर्सर करता है और मातृस्वरूप में उसे स्वीकारता है।
तांितर्कों ने यह िसद्ध करके िदखाया है िक माता के रूप में स्तर्ी की पूजा करके
(खैर ! उनका पर्योग नग्न स्तर्ी को मातृभाव से पूजा करने का है) अपनी जातीय ऊजार् को
अन्तमुर्ख िकया जाता है। इससे काम िवकार नष्ट होकर जीवनशिक्त ऊपर की ओर बहना शुरू
हो जाती है। इसी से जान पड़ता है िक अगर कोई पुरष ू स्तर्ी को माता समझकर उससे मातृवत्
सम्बन्ध रखे तो उसकी जातीयता का पर्श् नउनकी साधना में िबल्कुल बाधक न हो। यही कारण
है िक िहन्दु धमर् महाकाली और जगदंबा की पूजा को उतना ही महत्त्व देता है िक िजतना िक
राम, कृष्ण और िव श क ी उपासना को।
नारी को माता का आदर्शम ाना गया है क्योंिक नारी जनन , पोषण, रक्षण और संहार,
इन चारों िकर्याओं में सफल िसद्ध हुई है। नारी का हृदय कोमल एवं िस्नग्ध हुआ करता है।
इसी वजह से वह जगत की पािलका माता के स्वरूप में हमेशा स्वीकारी गई है। भारतीय
संस्कृित ने स्तर्ी को माता के रूप स्वीकार करके यह बात पर्िसद्ध की है नारी पुरूष के
कामोपभोग की सामगर्ी नहीं बिल्क वंदनीय एवं पूजनीय है। इसी नाते मनु महाराज ने कहा
हैः
"एक आचायर् गौरव में दस उपाध्यायों से बढ़कर है, एक िपता सौ आचायोर्ं से
उत्तम है और एक माता एक सहसर् िपताओं से शर्ेष्ठ है।"
स्मृित कहती है िक माता का पद सबसे ऊँचा है। माता कभी भी अपनी संतान का अिहत
नहीं सोचती।
पपपपपपप पपपपप पपपपपपपप । पपपपपप प पपपपप
पुतर् कुपुतर् हो जाय परन्तु माता कभी कुमाता नहीं होती। माता माता ही रहती है। नारी
को 'मातृत्व' करूणामयी जगन्माता का ही पर्साद है।
इसी से मनुष्य को चािहए िक परम धमर् समझकर माता की सेवा में संलग्न रहे। यही
गृहस्थ के दोनों लोकों के सुख का कारण है। माता का स्थान वस्तुतः स्वगर् से भी ऊँचा है।
पपपप पपपपपपपपपपप । पपपपपपपपपप पपपपपपप
सन्तान को नौ महीने गभर् में धारण करने एवं िविवध कष्ट सहकर भी उसका पोषण
करने के कारण माता की पदवी सबसे ऊँची है।
लोक मे यह बात पिसद है िक जब िकसी भी वयिकत पर बडा भारी आकिसमक संकट पडता है तब वह 'ओ मेरी
माँ...' ऐसा उचचारण सहज ही कर उठता है।
पपपप पपपपप पपपपप। आपित्त में माता ही शरण है। और पपप पपपपपप
पपपपपपपपपप। माता के समान शरीर का पोषक कोई नहीं है।
जगत में एक माता ही ऐसी है िजसका स्नेह संतान पर जन्म से लेकर शैशव, बाल्य,
यौवन एवं पर्ौढ़ावस्था तक बना रहता है। यह मातृपर्ेम मनुष्येत्तर जाितयों में भी
देखने मे आता है। माता बालक का कैसा िनमाण कर सकती है यह अपने इितहास मे सुिविदत है। माता कुनती ने पाणडवो
को धमर् पर दृढ़ रहते हुए क्षातर्धमर् और पर्जा-पालन करने का उपदेश िदया था, िजसके
अनुसार चलकर वे सदा कृतकायर् रहे। माता कौशल्या को मयार्दा पुरूषोत्तम भगवान शर्ीराम
की जननी कहलाने का सौभाग्य िमला। जब शर्ीराम वन को जा रहे थे तब, भावी िवयोगजिनत
दुःख से वयाकुल होकर आगा-पीछा सोचकर धमर् का िवचार कर पुतर् को आज्ञा देते हुए यह
आशीवार्द िदया था िक 'हे पुतर् ! मैं तुझे िकसी पर्कार से रोक नहीं सकती। अब तो तू वन को
जा, पर लौटकर जल्दी आना और सत्पुरूषों के मागर् पर चलना। पर्ेम और िनयम के साथ
िजस धमर् के पालन में तू पर्वृत्त हुआ है, वही तेरी रक्षा करेगा।'
ि वाजी
शक ी माता जीजाबाई, िशवाजी
क ो वीर बनाने के गीत पालने में ही सुनाती थी।
बच्चेउतनेहीऊँचेउठ सकतेहै , ंिजतनी ऊँची िस्थित में उनकी माता होती है। जैसी माता वैसी
सन्तान, जैसी भूिम वैसी उपज।
गभर् में बालक आते ही माता को अपने कत्तर्व्यों का पालन करना चािहए। उसको
यह ख्याल रखना चािहए िक उसे एक उत्कृष्ट सन्तान को जन्म देना है। अपने बालक के
िलए उसे एक आदशर माता का काम करना है। उसे अपने तन-मन के स्वास्थ्य का खास ख्याल रखना
चािहए। शरीर िनरोगी हो और मन मे सदिवचार हो यही तन मन का सवासथय है। माता के रकत से बालक का पोषण होता
है। माता का आहार-िवहार शुद्ध एवं साित्त्वक होना जरूरी है। जन्म के समय के साथ ही
बालकका मानिसकएवंशारीिरकिवकास ऐसेढंगसेहोनाचािहएिक वहएकआदर्शब ालक बनसके।बालकको
बाजारू चीजेएवं
ं िमठाइयाँखानेसेरोकें।उसकी रू िचएवंआवशय ् कताको जानकरउसकेिलएउिचतआहारकी
व्यवस्था करें।
बच्चेको कुसंगसेबचनेएवंकपट, चोरी, गाली आिद से रोकने का पर्यत्न करें। िनभर्य,
सत्यवादी एवं बिलष्ठ हों ऐसे पर्योग एवं कहािनयाँ सुनाकर पर्ोत्साहन दें। गुरुजनों एवं
बड़ोंकेआगेवहिवनयी, नमर् एवं आज्ञाकारी होवे ऐसा भाव बच्चे में जगायें। बालक को रूिच
एवं योग्यता के अनुसार पढ़ाई-िलखाई की िशका दे और साथ-ही-साथ उच्चतम चिरतर् की िक् श षा
शशशश
देना भी अिनवायर है। िशका का उदेशय आतम कलयाण है। अतः धािमरक एवं आधयाितमक िशका की ओर तो उसे लगाना ही
चािहए। कनयाओं को खास तौर पर ऐसी िशका देनी चािहए, िजससे वह सीता और सािवतर्ी के आदर्शक ो
अपना सके और आदर्शग ृिहणी बन सके।
सन्तान की जीवनवािटका को सदगुणों के फूलों से सुवािसत करने से खुद माता का
जीवन भी सुवािसत एवं आनन्दमय बन जायगा। सन्तान में यिद दुगुर्ण के काँटे पनपेंगे
तो वह माता को भी चुभेंगे, जीवन को िखन्नता से भर देंगे। इसिलए माता का परम
कत्तर्व्य है िक सन्तानों के जीवन का शारीिरक, मानिसक, नैितक, आध्याित्मक संरक्षण
और पोषण करके आदर्शम ाता बन जाय ... अपने जीवन की महक से पिरवार, समाज और पूरी
पृथ्वी को सुवािसत कर दे।
अनुकर्म
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
पपपप पपपपपपपपपपपपपपप
जो शर्द्धावती नारी स्नानािद से शुद्ध होकर सूयोर्दय से पहले प प पपपपप प
पपपपप पपपपप । प पपपपपपप इस मंतर् की दस माला पर्ितिदन करे तो उसके घर में
सुख-समृिद्ध िस्थर बनी रहे। इस मंतर् का जप शुभ मुहूतर् में पर्ारंभ करें। पर्ितवषर् चैतर्
एवं आशि ्वन के नवरातर्ों में वटवृक्ष की सिमधा से िविधपूवर्क हवन करके कन्य,ा बटुक
आिद को भोजन से सन्तुष्ट करें। इस मंतर् के सम्यक, अनुष्ठान से घर में सुख, शािन्त
एवं समृिद्ध बनी रहती है।
अनुकर्म
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
पपपपपपपपपपपपपपप
पपपप पपपपपप पपपपपप । पपपपप पपपपपप पपपपपप
पपपपपपपप पपपपपपप पपपपपप प पपपपपप
पपपपपपपपपपपपपपपपपप।।
'स्तर्ी जब कन्या होती है तब िपता उसकी रक्षा करे, युवावस्था में पित उसका रक्षा
करे, वृद्धावस्था में पुतर् उसकी रक्षा करे। स्तर्ी स्वतंतर् रहने योग्य नहीं है।'
ध्यान रहे, धमर्शास्तर् द्वारा यह कल्याणकारी नारी स्वातन्त्र्य का अपहरण नहीं
है। नारी को िनबार्ध रूप से अपना स्वधमर् पालन कर सकने के िलए बाह्य आपित्तयों से
उसकी रक्षा के हेतु पुरूष समाज पर यह भार िदया गया है।
अनुकर्म
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
पपपपपप पपपप
नारी शरीर िमलने से अपने को अबला मानती हो ? लघुतागिनथ मे उलझकर पिरिसथितयो मे
पीसी जाती हो ? अपना जीवन दीन-हीन बना बैठी हो ? तो अपने भीतर सुषुप्त आत्मबल को
जगाओ। शरीर चाहे स्तर्ी का हो चाहे पुरूष का। पर्कृित के सामर्ाज्य में जो जीते हैं,
अपने मन के गुलाम होकर जो जीते हैं, वे सब स्तर्ी हैं और पर्कृित के बन्धन से पार
अपने आत्मस्वरूप की पहचान िजन्होंने कर ली, अपने मन की गुलामी की बेिड़याँ तोड़कर
िजन्होंने फेंक दी हैं वे पुरूष हैं। स्तर्ी या पुरूष शरीर एवं मान्यताएँ होती हैं, तुम तो
शरीर से पार िनमर्ल आत्मा हो।
जागो, उठो.....अपने भीतर सोये हुए आत्मबल को जगाओ। सवर्देश, सवर्काल में
सवोर्त्तम आत्मबल को अिजर्त करो। आत्मा परमात्मा में अथाह सामथ्यर् है। अपने को
दीन-हीन अबला मान बैठी तो जगत में ऐसी कोई सत्ता नहीं है जो तुम्हें ऊपर उठा सके।
अपने आत्मस्वरूप में पर्ितिष्ठत हो गई तो तीनों लोकों में भी ऐसी कोई हस्ती नहीं जो
तुम्हें दबा सके।
भौितक जगत में भाप की शिक्त, िवद्युत की शिक्त, गुरूत्वाकषर्ण की शिक्त बड़ी मानी
जाती है मगर आत्मबल उन सब शिक्तयों का संचालक बल है। आत्मबल के सािन्नध्य में
आकर पंगु पर्ारब्ध को पैर आ जाते हैं, दैव की दीनता पलायन हो जाती है, पर्ितकूल पिरिस्थितयाँ
अनुकूल हो जाती हैं। आत्मबल सवर् िसिद्धयों का िपता है।
अनुकर्म
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पपपपपप पपपप पपपपपप ?
हर रोज पर्ातः काल में जल्दी उठकर सूयोर्दय से पूवर् स्नान आिद से िनवृत्त हो
जाओ। स्वच्छ पिवतर् स्थान में आसन िबछाकर पूवार्िभमुख होकर पद्मासन या सुखासन में
बैठजाओ। शांतपर्सन्नवृित्त
धारणकरो। मनमेदं ढ ृ ़भावनाकरोिक मैप
ं र्कृितिनिमर्तइस शरीरकेसब अभावोंको पार
करके, सब मिलनाओं-दुबरलताओं से िपणड छुडाकर आतम-मिहमा में जागकर ही रहूँगी। आँखें
आधी खुली आधी बन्द रखो। िफर फेफड़ों में खूब श्वास भरो और भावना करो िक श्वास के
साथ मैं सूयर् का िदव्य ओज भीतर भर रही हूँ। श्वास को यथाशिक्त अन्दर िटकाये रखो। िफर
'ॐ....' का लम्बा उच्चारण करते हुए श्वास को धीरे-धीरे छोड़ते जाओ। शव ् ास खाली होने
के बाद तुरंत श्वास न लो। यथाशिक्त िबना श्वास रहो और भीतर ही भीतर 'हिर ॐ....हिर ॐ' का
मानिसक जप करो। िफर से फेफड़ों में खूब श्वास भरो और पूवोर्क्त रीित से यथाशिक्त
अन्दर िटकाकर बाद में धीरे-धीरे छोड़ते हुए िजस हिर की शरण जाने से पाप-ताप क्षय
हो जाते हैं ऐसे पावन 'हिर ॐ...' मंतर् का गुंजन करो। 10-15 िमनट ऐसे पर्ाणायाम सिहत
'हिर ॐ....' की उच्च स्वर से ध्विन करके शान्त हो जाओ। अब पर्यास छोड़ दो। वृित्तयों को
आकाश की ओर फैलने दो।
आकाश के अन्दर पृथ्वी है, पृथव ् ी पर अनेक देश, अनेक समुदर् एवं अनेक लोग
हैं। उनमें एक तुम्हारा शरीर आसन पर बैठा हुआ है। इस पूरे दृश् यको मानिसक आँख से,
भावना से देखते रहो। आप शरीर नहीं हो बिल्क अनेक शरीर, देश, सागर, पृथ्वी, गर्ह,
नक्षतर्, सूयर्, चनद एवं पूरे बहाणड के दषा हो साकी हो। इस साकीभाव मे जग जाओ। थोडी देर के बाद िफर से
पर्ाणायाम सिहत 'हिर ॐ.....' का जप करो और शान्त होकर अपने िवचारों को देखते रहो।
इस अवस्था में दृढ़ िनश् चयकरो िक 'मैं जैसी होना चाहती हूँ वैसी होकर रहूँगी।
मैं नारी नहीं हूँ, नारायणी हूँ।' िवषयसुख, सत्ता, धन-दौलत इतयािद की इचछा न करो, क्योंिक
आत्मबलरूपी हाथी के पदिचन्ह और सभी पदिचन्ह समािवष्ट हो जायेंगे। आत्मानंद सूयर्
के उदय होने के बाद िमट्टी के तेल के दीये के पर्काशरूपी क्षद ु र् सुखाभास की गुलामी
कौन करें ?
कोई भी भावना को साकार करने के िलए हृदय को कुरेद डाले ऐसी दृढ़ बिलष्ठ वृित्त
होनी आवश् यकहै। अन्तःकरण के गहरे से गहरे पर्देश में चोट करे ऐसा पर्ाण भर के
िनश् चयबल का आवाहन करो। सीना तान के खड़ी हो जाओ अपने मन की दीन-हीन दुःखद
मान्यताओं को कुचल डालने के िलए।
सदा स्मरण रहे िक इधर-उधर भटकती वृित्तयों के साथ तुम्हारी शिक्त भी िबखरती है।
अतः वृित्तयों को बहकाओ नहीं। तमाम वृित्तयों को एकितर्त करके साधनाकाल में आत्मा-
परमात्मा के िचन्तन में लगाओ, उदार ऋिषयो के धयान मे लगाओ। वे तुमहे सहाय करेगे। वे तुमहे ऊपर
उठाने के िलए करूणा-कृपा बरसायेंगे। भारत के बर्ह्मवेत्ता ऋिष-महात्मा और परमात्मा
स्वयं तुम्हारे दोष और पाप दग्ध कर देंगे। अपने ओज और आनन्द से तुम्हें तृप्त
करने के िलए वे तत्पर हैं। िनराश मत होना बेटी ! िहम्मत मत हारना। आप भी महान बनो,
औरों को भी महानता के रास्ते पर लगाओ। अपने स्वभाव में आवेश को सवर्था िनमर्ल
कर दो। आवेश में बहकर कोई िनणर्य मत लो, कोई िकर्या मत करो। सदा शान्त वृित्त धारण
करने का अभ्यास करो। िवचारवंत एवं पर्सन्न रहो। स्वयं अचल रहकर सागर की तरह सब
वृित्तयों की तरंगों को अपने भीतर समा लो। जीव मातर् को अपना स्वरूप समझो। सबसे
स्नेह रखो। िदल को व्यापक रखो। संकुिचतता का िनवारण करती रहो। खंडनात्मक वृित्त का
सवर्था त्याग करो। आत्मिनष्ठा में जगे हुए महापुरूष के सत्संग एवं सत्सािहत्य से जीवन
को भिक्त एवं वेदान्त से पुष्ट एवं पुलिकत करो। कुछ ही िदनों के इस सघन पर्योग के बाद
अनुभव होने लगेगा िकः
"भूतकाल में नकारात्मक स्वभाव ने, संशशश यात्
शशशशमक -हािनकारक कल्पनाओं ने
जीवन को कुचल डाला था, िवषैला कर िदया था। अब िनश् चयबलके चमत्कार का पता चला है।
अन्तरतम में आिवभूर्त िदव्य खजाना अब िमला। पर्ारब्ध की बेिड़याँ अब टूटने लगीं।"
िजनको बर्ह्मज्ञानी महापुरूष का सत्संग और अध्यातिवद्या का लाभ िमल जाता है
उनके जीवन से दुःख िवदा होने लगता है। ॐ आनंद !
ठीक है न ? करोगी न िहम्मत ? पढ़कर रख मत देना। इस पुस्तक को। इसको बार-बार
पढ़ती रहो। एक िदन में यह काम पूणर् न होगा। बार-बारअभ्यासकरो। तुम्हारे िलएयहएकपुस्तकही
काफी है। और कचरापट्टी न पढ़ोगी तो चलेगा।
नारी ! तू नारायणी बन। भारत की महान नािरयों की याद ताजी करके िदखा।
शाबाशबेटी
शशशश! शाबाश !
अनुकर्म
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पपपपपपपप पपप पपपप पपपपपप पप पपपप पप पपपप
पपपपप
पपपपपपप पप पपपपप
हर इन्सान में परमात्मा के गीत, परमात्मा की सत्ता, परमात्मा का चेतन और
परमात्मा का आनन्द छुपा है। मन-इिन्दर्यों के खींचाव ने इस िव श क ो जीव कर िदया है और
वह दीन-हीन होकर किल्पत सम्बन्धों में, किल्पत िकर्याओं में खींचा जाता है। जीवन
में आध्याित्मक सामथ्यर् िवकिसत करने के िलए, मन के खेल से मुक्त होने के िलए इस
देश के ऋिषयो ने अनेक-अनेक उपाय बताये हैं, जैसे अहंगर्ह उपासना, गुड़ के गणपित में
भगवद् बुिद्ध करना, सुपारी में, शर्ीफल में, तुलसी में, मंिदर की मूितर्यों में, यहाँ तक
िक अन्न में भी भगवद् बुिद्ध करना इत्यािद।
बर्ह्मपरमात्मासवर्व्यापकहोनेसेउपासक अगरदृढ़तासेसवर्तर्
परमात्मबुिद्क
धरताहैतोवहमनकेचुंगलसे
छूटकर आप ही परमात्मस्वरूप हो जाता है। पर्ितमाओं में भी परमात्मबुिद्ध कर दी जाय तो
जो इच्छाओं को हटाने के िलए योिगयों को योग करना पड़ता है, किमर्यों को कमर् करना
पड़ता है, वही योग और कमर् का फल सती साध्वी को घर बैठे पर्ाप्त होता है। थोड़ा-सा
सत्संग, आत्मिवचार एवं सच्चे संत महापुरूष की कृपा िमलने से ही उसे आत्म-
साक्षात्कार हो जाता है।
इस पुिस्तका में ऋिषयों के ऐसे रत्न भरे पड़े है िक पिवतर् नािरयाँ यिद इस
चयन का बार-बारअवलोकनकरेंगीतोअवशय
् लाभहोगा।
अनुकर्म
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