You are on page 1of 3

शरणागिि

[ श्रीमद्भगवद्गीिा के ाऄठारहवें ाऄध्यायके ६६वें श्लोक का िवस्िृि िववेचन ] न िवद्या येषाां श्रीनन शरणमपीषन्न च गुणााः पररत्यक्ता लोकै रिप वृिजनयुक्तााः श्रुििजडााः । शरण्यां यां िेऽिप प्रसृिगुणमािश्रत्य सुजना िवमुक्तास्िां वन्दे यदुपििमहां कृ ष्णममलम् ॥ ‘िजनके पास न िवद्या है, न धन है, न कोाइ सहारा है; िजनमें न कोाइ गुण है, न वेदशास्त्रोंका ज्ञान है; िजनको सांसारके लोगोंने पापी समझकर त्याग ददया है, ऐसे प्राणी भी िजन शरणागिपालक प्रभुकी शरण लेकर सन्ि बन जािे और मुक्त हो जािे हैं, ाईन िवश्विवख्याि गुणोंवाले ाऄमलात्मा यदुना श्रीकृ ष्णभगवान्को मैं प्रणाम करिा हूँ ।’
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराज

श्लोक— सवनधमानन्पररत्यज्य मामेकां शरणां व्रज । ाऄहां त्वा सवनपापेभ्यो मोक्षियष्यािम मा शुचाः ॥६६॥ ‘सम्पूणन धमोंके ाअश्रयका त्याग करके एक मेरी शरणमें ाअ जा । मैं िुझे सम्पूणन पापोंसे मुक्त कर दूगा, ूँ शोक मि कर ।’ व्याख्या — ‘सवनधमानन्पररत्यज्य मामेकां शरणां व्रज’—भगवान् कहिे हैं दक सम्पूणन धमोंका ाअश्रय, धमनके िनणनयका िवचार छोड़कर ाऄ ानि् क्या करना है और क्या नहीं करना है— ाआसको छोड़कर के वल एक मेरी ही शरणमें ाअ जा । स्वयां भगवान्के शरणागि हो जाना—यह सम्पूणन साधनोंका सार है । ाआसमें शरणागि भक्तको ाऄपने िलये कु छ भी करना शेष नहीं रहिा; जैसे—पििव्रिाका ाऄपना कोाइ काम नहीं रहिा । वह ाऄपने शरीरकी सार-सूँभाल भी पििके नािे, पििके िलये ही करिी है । वह घर, कु टु म्ब, वस्िु, पुत्र-पुत्री और ाऄपने कहलानेवाले शरीरको भी
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराज

ाऄपना नहीं मानिी, प्रत्युि पििदेवका मानिी है । िात्पयन यह हुाअ दक िजस प्रकार पििव्रिा पििके परायण होकर पििके गोत्रमें ही ाऄपना गोत्र िमला देिी है और पििके ही घर पर रहिी है, ाईसी प्रकार शरणागि भक्त भी शरीरको लेकर माने जानेवाले गोत्र, जािि, नाम ाअददको भगवान्के चरणोंमें समर्पपि करके िनििन्ि, िनभनय, िनाःशोक और िनाःशांक हो जािा है । गीिाके ाऄनुसार यहाूँ ‘धमन’ शब्द किनव्य-कमनका वाचक है । कारण दक ाआसी ाऄध्यायके ाआकिालीसवेंसे चौवालीसवें श्लोकिक ‘स्वभावजां कमन’ पद ाअये हैं, दिर सैंिालीसवें श्लोकके पूवानर्द्में ‘स्वधमन’ पद ाअया है । ाईसके न बाद, सैंिालीसवें श्लोकके ही ाईत्तरार्द्नमें ि ा (प्रकरणके ाऄन्िमें) ाऄड़िालीसवें श्लोकमें ‘कमन’ पद ाअया है । िात्पयन यह हुाअ दक ाअदद और ाऄन्िमें ‘कमन’ पद ाअया है और बीचमें ‘स्वधमन’ पद ाअया है िो ाआससे स्विाः ही ‘धमन’ शब्द किनव्य-कमनका वाचक िसर्द् हो जािा है ।
(शेष ाअगेके ब्लॉगमें) —‘शरणागिि’ पुस्िकसे

स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराज

You might also like