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शब्द ब्रह्म

आचार्य मनोज
आपकी दिव्य और अद्भुत प्रेरणा प्राप्त करने के लिये दक
आप के दिखाये मार्ग पर चिने के लिये मैं तैयार हू, न
के वि प्रेरणा प्राप्त करने के लिये यद्यलप आपकी भक्ती
और उपासना से उर्ाग रूप शलक्त उत्साह धैयग पराक्रम को
भी प्राप्त करने के लिये। आपकी उत्तम श्रेष्ठ प्रेरणा और
कृ पा िृष्टी से आप मुझे मेरे र्ीवन के परम िक्ष्य तक
पहुंचने का सामर्ग प्रिान दकर्ीये।
शब्ि ब्रह्म

भुलमका को पकड़ने में सक्षम हैं। पर उनसे कम तर्ा अलधक


आवृलत्त वािी ध्वलन तरुं र्ों का भी अलस्तत्व है।
शब्िाद्वैतवाि के अनुसार शब्ि ही ब्रह्म है।
श्रवणेलरियों की मयागिा अपनी सीमा रे खा को चीर
उसकी ही सत्ता है। सम्पूणग र्र्त शब्िमय है। शब्ि
नहीं पाती। फिस्वरूप वे ध्वलनयााँ सुनाई नहीं
की ही प्रेरणा से समस्त सुंसार र्लतशीि है। महती
पड़तीं। कान यदि सूक्ष्मातीत ध्वलन तरुं र्ों को
स्फोट प्रदक्रया से र्र्त की उत्पलत्त हई तर्ा उसका
पकड़ने िर्ें तो मािूम होर्ा दक सुंसार में नीरवता
लवनाश भी शब्ि के सार् होर्ा। इलरियों में सबसे
कहीं और कभी भी नहीं है। कमरे में बरि आिमी
अलधक चुंचि तर्ा वेर्वान मन को माना र्या है।
अपने को कोिाहि से िूर पाता है। पर सच्चाई यह
‘मन के तीन प्रमुख कायग हैं’- स्मृलत, कल्पना तर्ा
है दक उसके चारों और कोिाहि का साम्राज्य है।
लचरतन। इन तीनों से ही मन की चुंचिता बनती है।
समूचा अरतररक्ष ध्वलन तरुं र्ों से आिोलड़त है। उनमें
िेदकन यदि मन को शब्ि का माध्यम न लमिे तो
से र्ोड़ी-सी ध्वलनयााँ मात्र मनुष्य के कानों तक
उसे चुंचिता नहीं प्राप्त हो सकती। उसकी र्लत
पहाँच पाती हैं। प्रकृ लत की अर्लणत घटनाएाँ सूक्ष्म
शब्ि की बैसाखी पर लनभगर है। सारी स्मृलतयााँ,
र्र्त में पकती रहती हैं। घरटत होने के पूवग भी
कल्पनाएाँ तर्ा लचरतन शब्ि के माध्यम से चिते हैं।
उनकी सूक्ष्म ध्वलन तरुं र्ें सूक्ष्म अरतररक्ष में
िैनलरिन र्ीवन में काम आने वािे शब्िों को िो
िोियमान रहती हैं। उरहें पकड़ा और सुना र्ा सके
भार्ों में बााँटा र्ा सकता है- व्यक्त और अव्यक्त।
तो दकतनी ही प्रकृ लत की घटनाओं का पूवागनुमान
र्ैन पुंरर्ी इरहें अपनी भाषा में र्ल्प और अरतर्गल्प
िर्ा सकना सम्भव है। मनुष्येत्तर दकतने ही र्ीव
कहते हैं। र्ो बोिा र्ाता है उसे र्ल्प कहते हैं।
ऐसे हैं लर्रहें प्रकृ लत की घटनाओं का भूकम्प, तूफान
र्ल्प का अर्ग है- व्यक्त स्पष्ट मरतव्य। र्ो स्पष्टतः
आदि लवभीलषकाओं का पूवागभास हो र्ाता है।
बोिा नहीं र्ाता, मन में सोचा अर्वा लर्सकी मात्र
सूचना लमिते ही उनका व्यवहार बिि र्ाता है।
कल्पना की र्ाती है वह है- अरतर्गल्प। मुाँह बरि
अपनी आित के लवरुद्ध वे अस्वाभालवक आचरण
होने होठ के लस्र्र होने पर भी मन के द्वारा बोिा
करने िर्ते हैं। दकतने ही सुरक्षा के लिए सुरलक्षत
र्ा सकता है, र्ो कु छ भी सोचा र्ाता है, वह भी
स्र्ानों की ओर िौड़ने िर्ते हैं। सूक्ष्म ध्वलन
एक प्रकार से बोिने की प्रदक्रया है तर्ा उतनी ही
स्परिनों के आधार पर ही वे सम्भाव्य लवभीलषकाओं
प्रभावशािी होती है लर्तनी की व्यक्त वाणी। शब्ि
का अनुमान िर्ा िेते हैं। र्ो कु छ भी बोिा अर्वा
अपनी अलभव्यलक्त के पूवग चचुंतन के रूप में होता है।
सोचा र्ाता है वह तुररत समाप्त नहीं हो र्ाता,
अपनी उत्पलत्त काि में वह सूक्ष्म होता है पर बाहर
सूक्ष्म रूप में अरतररक्ष में लवद्यमान रहता, तरुं लर्त
आते-आते वह स्र्ूि बन र्ाता है। र्ो सूक्ष्म है वह
होता रहता है। हर्ारों-िाखों वषों तक ये कम्पन
हमारे लिये अश्रव्य है। र्ो स्र्ूि है वही सुनाई
उसी रूप में रहते हैं। ऐसे प्रयोर् भी वैज्ञालनक क्षेत्र
पड़ता है। ध्वलन लवज्ञान ने ध्वलनयों को िो रूपों में
में चि रहे हैं दक भूतकाि में र्ो कु छ भी कहा र्या
लवभक्त दकया है-श्रव्य और अश्रव्य। अश्रव्य- अर्ागत्-
है ईर्र में लवद्यमान है उसे यर्ावत् पकड़ा र्ा सके ।
अल्रा साउण्ड- सुपर सोलनक। हमारे कान मात्र
सदियों पूवग महा-मानवों ऋलष कल्प िेव पुरुषों ने
20000 कम्पन आवृलत्त को ही पकड़ सकते हैं। वे
क्या कहा होर्ा, उसे प्रत्यक्ष सुना र्ा सके ऐसे
रयूनतम 20 कम्पन आवृलत्त प्रलत सेकेण्ड तर्ा
अनुसरधान प्रयोर्ावलध में हैं। अभी सफिता तो
अलधकतम 20 हर्ार कम्पन आवृलत्त प्रलत सेकेण्ड
नहीं लमि पायी है पर वैज्ञालनक आश्वस्त हैं दक आर्

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शब्ि ब्रह्म

नहीं तो कि वह लवद्या हार् िर् र्ायेर्ी। परतों- मन एवुं अरतःकरण को मरत्र की सूक्ष्म एवुं
लनस्सरिेह यह उपिलब्ध मानव र्ालत के लिए कारण शलक्त ही प्रभालवत करती है। व्यलक्तत्व का
महत्वपूणग तर्ा अलद्वतीय होर्ी अब तक की रूपारतरण- लवचारों में पररवतगन उसके प्रभाव से
वैज्ञालनक उपिलब्धयों में वह सवोपरर होर्ी। ही होता है। यों तो वेिों के हर मरत्र एवुं छरि का
सम्भवतः इसी आधार पर कृ ष्ण द्वारा कही र्यी अपना महत्व है। िेखने में र्ायत्री महामरत्र भी अरय
र्ीता, एवुं राम रावण सुंवािों को अपने ही कानों से मरत्रों की तरह सामारय ही िर्ता है, र्ो नौ शब्िों
सुनना सम्भव हो सके र्ा। रे लडयो, टेिीलवर्न, तर्ा 24 अक्षरों से लमिकर बना है। पर लर्न
राडार की भााँलत प्राचीन काि के आलवष्कारों में कारणों से उसकी लवलशष्टता आाँकी र्ई है वे हैं- मरत्र
सबसे अलधक महत्वपूणग तर्ा चमत्कारी खोर् र्ी- के लवलशष्ट क्रम में अक्षरों एवुं शब्िों का र्ुाँर्न प्रवाह,
मरत्र लवद्या। मरत्र ध्वलन लवज्ञान का सूक्ष्मतम उनका चक्र-उपलत्यकाओं पर प्रभाव तर्ा उसकी
लवज्ञान र्ा। इसके अनुसार र्ो कायग आधुलनक यरत्रों महान प्रेरणाएाँ। हर अक्षर एक लवलशष्ट क्रम में
के माध्यम से हो सकते हैं वे मरत्र के प्रयोर् से भी र्ुड़कर असीम शलक्तशािी बन र्ाता है। 24 रत्नों के
सम्भव हैं। पिार्ग की तरह अक्षरों तर्ा अक्षरों से रूप में अक्षरों के नवनीत का एक मलणमुक्तक बना
युक्त शब्िों में अकू त शलक्त का भाण्डार्ार मौर्ूि है। तर्ा आदिकाि में प्रकट हआ। ब्रह्म की स्फु रणा के
मरत्र कु छ शब्िों के र्ुच्छक मात्र होते हैं पर ध्वलन रूप में र्ायत्री मरत्र का प्रािुभागव हआ तर्ा आदि
शास्त्र के आधार पर उनकी सुंरचना बताती है दक मरत्र कहिाया। सामर्थयग की िृलष्ट से इतना लविक्षण
एक लवलशष्ट ताि, क्रम एवुं र्लत से उनके उच्चारण से एवुं चमत्कारी अरय कोई भी मरत्र नहीं है। दिव्य
लवलशष्ट प्रकार की ऊर्ाग उत्पन्न होती है। प्राचीन प्रेरणाओं की उसे र्ुंर्ोत्री कहा र्ा सकता है। सुंसार
काि में ऋलषयों ने शब्िों की र्हराई में र्ाकर के दकसी भी धमग में इतना सुंलक्षप्त, पर इतना अलधक
उनकी कारण शलक्त की खोर्-बीन के आधार मरत्रों सर्ीव एवुं सवाांर्पूणग कोई भी प्रेरक िशगन नहीं है
एवुं छरिों की रचना की र्ी। लपछिे दिनों ध्वलन र्ो एक सार् उन सभी प्रेरणाओं को उभारे लर्नसे
लवज्ञान पर अमेररका पलिम र्मगनी में दकतनी ही महानता की ओर बढ़ने तर्ा आत्मबि सम्पन्न बनने
महत्वपूणग खोर्ें हई हैं। साउण्ड र्ैरेपी एक नयी का पर्-प्रशस्त होता है। ब्रह्म की अनुभूलत शब्ि
उपचार पद्धलत के रूप में लवकलसत हई है। ध्वलन ब्रह्म-नाि ब्रह्म के रूप में भी होती है लर्सकी सूक्ष्म
कम्पनों के आधार पर मारक शस्त्र भी बनने िर्े हैं। स्फु रणा हर पर सूक्ष्म अरतररक्ष में हो रही है।
ब्रेन वाचशुंर् के अर्लणत प्रयोर्ों में ध्वलन लवद्या का र्ायत्री महामरत्र नाि ब्रह्म तक पहाँचने का एक
प्रयोर् होने िर्ा है। अरतररक्ष की यात्रा करने वािे सशक्त माध्यम है। प्राचीन काि की तरह सामारय
राके टों, स्पेस शटिों के लनयरत्रण सुंचािन में भी व्यलक्त को भी अलतमानव- महामानव बना िेने की
शब्ि लवज्ञान का महत्वपूणग योर्िान है। पर सामर्थयग उसमें मौर्ूि है। आवश्यकता इतनी भर है
वैज्ञालनक क्षेत्र में ध्वलन लवद्या का अब तक लर्तना दक र्ायत्री मरत्र की उपासना के लवलध-लवधानों तक
प्रयोर् हआ है, वह स्र्ूि है, सूक्ष्म और कारण ही सीलमत न रहकर उसने लनलहत िशगन एवुं
स्वरूप अभी भी अलवज्ञात अप्रयुक्त है र्ो स्र्ूि की प्रेरणाओं को भी हृियुंर्म दकया र्ाय और तद्नुरूप
तुिना में कई र्ुना अलधक सामर्थयगवान है। मरत्रों में अपने व्यलक्तत्व को ढािा र्ाय। पूरी श्रद्धा के सार्
शब्िों की स्र्ूि की अपेक्षा सूक्ष्म एवुं कारण शलक्त मरत्र का अविम्बन लिया र्ा सके तो आर् भी वह
का अलधक महत्व है। मानवी व्यलक्तत्व की र्हरी

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शब्ि ब्रह्म

पुरातन काि की ही तरह चमत्कारी सामर्थयगिायी होता है लनरुं तर र्लतशीि बने रहने वािा तत्व
लसद्ध हो सकता है। क्योंदक अकमगण्यता वस्तुओं को र्ीणग शीणग कर िेती
है र्ो र्णता का प्रर्म र्ुण है। इस तरह से
कमगशीिता लनरुंतर दक्रयाशीि बने रहना ही
लवकास और और प्रािुभागव का कारण बनती है।
अर्ागत दक्रयाशिता ही र्ीवन का मुि उद्देश्य स्वयुं
र्ीवन रूप लनरुं तर बहने वािी उर्ाग है। बस तुम
कु छ ऐसा उद्योर् पुरुषार्ग करो की लवद्वान महापुरुष
तुम्हें आर्े बढ़नें में तुम्हारी सहयता करें , लर्ससे तुम
दिन प्रलतदिन लनरुं तर बढ़ते रहो और तुम्हारा
झुकाव श्रेष्ठतम कमों की तरफ ही हो। र्ो तुम्हारे
ओ३म् इषेत्वर्े त्वा वायव स्र् िेवो वः सलवता
उत्र्ान के लिये ही हो, तुम्हारा पुरुषार्ग लनरुंतर
प्रापगयतु श्रेष्ठतमाय कमगणऽआप्यायध्वरयाऽइरिाय
सही दिशा में सार्गक अपने र्ीवन श्रेष्ठ उद्देश्य की
भार्ुं प्रर्ावतीरनमीवाऽअयक्षमा मा वस्तेनऽईशत
प्राप्ती के लिये हो। तुम चहुंशा रलहत अलहसुंक कमो
माघाँसो ध्रुवाऽअलस्मन र्ोपतऔ स्यात
को करने वािे मनुष्यों में अग्रणी मनुष्य बनो,
बह्वीयगर्मानस्य पशूरपालह।।
तुम्हारे र्ीवन के प्रत्येक कायग से यह प्रलतबीलम्बत
इस मुंत्र में र्ीव प्रभु से प्रार्गना करता है दक मैं हो दक तुम्हार कायग मानव कल्याण के सार् मानव
आपके चरणों में उपलस्र्त हआ हूुं आपकी दिव्य और लनमागण सवग र्नलहताय और सवगर्न सुखाय हो।
अद्भुत प्रेरणा प्राप्त करने के लिये दक आप के तुम्हारे दकसी भी कायग से दकसी भी प्राणी का
दिखाये मार्ग पर चिने के लिये मैं तैयार हू, न अरयाय से लबनाश ना हो, ना ही तुम्हारा कायग
के वि प्रेरणा प्राप्त करने के लिये यद्यलप आपकी दकसी प्रकार से लबद्धरसक हो। तुम परम ऐश्वयगशािी
भक्ती और उपासना से उर्ाग रूप शलक्त उत्साह धैयग मेरे समान मेरे ही सभी र्ुणों को धारण करने वािे
पराक्रम को भी प्राप्त करने के लिये। आपकी उत्तम और तुम्हारे र्ीवन में मेरे ही श्रेष्ठ र्ुणों की
श्रेष्ठ प्रेरणा और कृ पा िृष्टी से आप मुझे मेरे र्ीवन के अलधकता है ना दक मेरे लबपरीत प्रकृ त के र्ुणों की
परम िक्ष्य तक पहुंचने का सामर्ग प्रिान दकर्ीये। अलधकता अर्ागत र्णता और नस्वरता की मात्रा
मैं अपने र्ीवन के परम उद्देश्य को प्राप्त करने में आलधकता हो। इस तरह से तुम मेरे सार् मेरे
कभी ढीिा ना पड़़ु या आिस्य का शीकार ना बनु। सालनध्य से अपने सभी कायग को सरिता से लसद्ध
प्रेरणा, शलक्त व उत्साह इन तीनो से युक्त हमारा करने में सबि होर्े। अर्ागत तुम के वि प्रेय के लपछे
र्ीवन वास्तलवक और सच्चा र्ीवन है। हे प्रभो मुझे न चि कर मरने वािे मरणधमाग ना बन कर श्रेय के
तो बश यही र्ीवन प्राप्त करने के योग्य बनाइये। सार् चिो लर्ससे तुम अमरता की उपिब्धी अपने
र्ीवन में कर सको। अपने र्ीवन को तुम ऐसा बना
इस उपासक र्ीव को प्रभु प्रेरणा िेना प्रारम्भ कर लनलित रूप से उत्तम उत्तम सुंतानो वािो बनों
करते हए कहते है, दक हे र्ीव तुम सतत र्लतशीि तुम्हारे र्ीवन की यह एक महत्त्वपूणग असफिता
कमगलशि बनो अकमगण्यता तुम्हे कभी भी िूर – िूर होर्ी यिी तुम्हारी सुंतान या प्रर्ा लनकृ ष्ट स्वभाव
तक स्पशग ना कर सके । आत्मा शब्ि का अर्ग ही दक होर्ी र्ो तुम्हारी ही शत्रु बनेर्ी लर्ससे तुम्हारा

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शब्ि ब्रह्म

र्ीवन साक्षात नरक बन कर रह र्ायेर्ा। इस इलरिया मानव दकसी काम को नहीं छोड़ती है हर
र्ीवन यात्रा में ऐसी समझिारी युक्त यात्रा करना प्रकार से पर् भ्रष्ट कर िेती है। र्ो पतौ का मतिब
दक तुम्हारी शरीर रोर् से आक्रारत ना हो। यह वेि वाणी को र्ानने वािा परमलपता भी होता है
शरीर रूप तुम्हारा रर् मध्य में ही ना तुम्हारा सार् इस प्रभु में तुम हमेशा के लरित रहना अपना ध्रु
छोड़ िे यदि ऐसा हआ तो तुम्हारी र्ीवन यात्रा परमेश्वर को बना कर रखना, र्ो परमेश्वर के
कै से पुरी होर्ी? इसके प्रती हमेशा सचेत रहना र्ैसे सलमप के लरित रहा वहीं यहाुं बचा है। लर्सने ऐसा
सूयग पृलर्वी का के प्रती सचेत रहता है। र्ब तुम नहीं दकया वह यहाुं सुंसार रूपी चक्की के िो पाटों
हमारा ध्यान करोर्े तो हमेशा स्वस्र् रहोर्े, िुःखी के लबच में फुं स कर लपसता रहा उसका बचना
और बीमार रोर् ग्रस्त वही होते है र्ो अत्यलधक असुंभव हो र्या। प्रभु ही इस लवश्वचक्र के धुरी की
शारीररक प्राकृ लतक लवषय भोर् में ही आसक्त मुख्य दकि है इसी में तुम हमेंशा लस्र्रता से
तल्िीन रहते है। तुम्हे यक्ष्मा रोर् ना घेरे इस रार् लनवास करना। बहत होना सुंसार में स्वार्गरत आत्म
रोर् के घेरे में मत आओ यदि तुम प्रकृ ती का सही के लरित बन कर मत रहना अलधक से अलधक
सि् उपयोर् करोर्े तो इसके लशकार तुम कै से फुं स प्रालणयों और र्ीवों से अपना सुंबरध स्र्ालपत करने
सकते हो? चोर िुटेरे तुम्हारे सुंपत्ती के स्वामी कभी का लनरुं तर प्रयाश करते रहना िूसरों के भी िुःख
ना बनने पाये इसके लिए तुम हमेशा सतकग रहों ििग को समझना और एक से मैं बहत हो र्ाउ
और अपनी धन की रक्षा के लिये उलचत प्रबरध इसका भाव या ख्याि रख कर र्ीवन को र्ीना ।
करो। लबना श्रम या पुरुषार्ग के धन सुंपत्ती को प्राप्त और परमेश्वर सबसे अरत में मुंत्र से उपिेश कर रहा
करना भी एक प्रकार की चोरी या स्तेन ही है। है दक यज्ञमानस्य इस श्रृष्टी यज्ञ को चिाने वािा
इससे तुम हमेशा स्वयुं को मुक्त रखो। यह चोरी मुझ प्रभु के काम क्रोधादि पशुओं को बहत ही
लबलभन्न प्रकार के सट्टे िाटरी र्ुआ आदि इसी में सुरक्षीत रखना क्योंदक पानी को ज्यािा सुरलक्षत
आते है यह मनुष्य कामचोर लनकम्मा आरामपसुंि रखना आवश्यक नहीं िेदकन आर् को बहत
लविाशी बनाते है। लर्ससे मानव भयुंकर तम सावधानी से रखने की र्रुरत है अरयर्ा इससे
लवपत्तीयों र्रिे व्यसनो और लबमारीयों के चपेट मे बहत भयुंकर कष्ट और िुःख उत्पन्न होता है। इसका
आ र्ाता है। लर्समे से लनकिना बड़ी मशक्कत के मुख्य कारण है इनको असुरलक्षत रखना और इनका
बाि भी मुलस्कि होता है कभी – कभी असुंभव हो िापरवाही के तररके से उपयोर् करना। लर्स प्रकार
र्ाता है। पाप को अच्छी तरह से व्यक्त या लचत्रीत से लचलड़या घर में मृर्ादि को बहत अलधक बुंधन में
करने वािा पापी पुरुष तुम्हारें लवचारों तुम्हारें रखना आवश्यक नहीं होता है िेदकन उसी लचलड़या
मलस्तस्क पर कभी हाबी या तुम कभी उसके परबस घर में शेरादि प्राणीयों को बहत शख्त लपर्ड़े में
ना हो, या वह पाप आत्मा तुम्हारें लवचारों पर रखना दकतना परम आवश्यक होता है? इसी प्रकार
कभी भी शासन ना करें । तुम हमेंशा लनिि एक से इन पशु रूप काम क्रोधादि को भी बहत
शारत लचत्त रहो और अपनी इलरियों को हमेंशा लनयरत्रण में रखना आवश्यक होता है। क्योंदक यह
अपने वश में रखों और उनको अपने लनयुंत्रण रखो। कामादि के द्वारा ही सुंसार में प्रर्नन आदि का
र्ो पतौ अर्ागत इलरियों के स्वामी परमेश्वर के कायग लनरुं तर होता है। यह काम उर्ाग ही सुंसार का
सालनध्य में रहने से इलरिया अपना मार्ग कभी नहीं मूि है मन की भी उत्पत्ती इस काम से हइ है मन से
भटकती है और र्ब ऐसा नहीं होता है तो यह शरीर बना और शरीर से सुंसार बना है।

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शब्ि ब्रह्म

प्रर्ानात्मक कायग पलवत्र होना चालहये, िेदकन र्ब बचाया र्ा सकता है। अपने लनत्य वधगमान
यह अलनयलरत्रत हो र्ाता है, तो यह काम लवकास लचिानुंि के लिए भर्वान ने अपने आपको अनेक
के अस्र्ान पर लवनास क्षयकारक बन र्ाता है। रूपों में लवस्तार कर लिया और र्ीवात्माएुं उनके
क्रोध भी आवेश शलक्त है िेदकन र्ब यह इस लचिानुंि के ही अुंश हैं। उनको भी आुंलशक
अलनयलरत्रत हो र्ाता है तो लवनाशकारी लसद्ध होता स्वतुंत्रता प्राप्त है, दकरतु अपनी इस स्वतुंत्रता का
है। और सब लवद्धनों लवपत्तीयों और अनर्ों का िुरुपयोर् करके र्ब वे सेवा को इुंदिय सुख में बिि
मुख्य है। िेती हैं तो वे काम की चपेट में आ र्ाती है।
भर्वान ने इश सृलष्ट की रचना र्ीवात्माओं के लिए
र्ैसा की योर्ेश्वर कृ ष्ण र्ीता मे कहते हैः- काम
इन कामपूणग रुलचयों की पूर्तग हेतु सुलवधा प्रिान
एब क्रोध एष रर्ोर्ुणसमुद्धव:। महाशनो
करने के लनलमत्त की और र्ब र्ीवात्माएुं िीघगकाि
महापाप्मा लवद्ध्येनलमह वैररणम्।।37।। काम:—
तक काम-कमों में फुं सी रहने के कारण पूणगतया ऊब
लवषयवासना; एष:—यह; क्रोध:—क्रोध; एष:—
र्ाती हैं तो वे अपना वास्तलवक स्वरूप र्ानने के
यह; रर्ो-र्ुण—रर्ोर्ुणसे; समुद्भव:—उत्पन्न;
लिए लर्ज्ञासा करने िर्ती हैं।
महा-अशन:—सवगभक्षी; महा-पाप्मा—महान पापी;
लवलद्ध—र्ानो; एनम्—इसे; इह—इस सुंसार में; र्ीव ने परमेश्वर से प्रेरणा िेने की याचना की
वैररणम्—महान शत्रु। हे अर्ुगन इसका कारण र्ी, परमेश्वर इन तेरह वाक्यों को र्ीव को प्रेरणा
रर्ोर्ुण के सम्पकग से उत्पन्न काम है, र्ो बाि में िी है। यह तेरह वाक्य ही लर्सकी चचाग हमने उपर
क्रोध का रूप धारण करता है और र्ो इस सुंसार की है। इनको ही 'सत्याकारास्त्रयोिश' सत्य के तेरह
का सवगभक्षी पापी शत्रु है। र्ब र्ीवात्मा भौलतक स्वरुप है। इस प्रेरणा को अपनाने वािा र्ीव उन्नती
सृलष्ट के सम्पकग में आता है तो उसका शाश्वत प्रभु पर् पर लनरुंतर आर्े बढ़ता हआ एक दिन परमेष्ठी
प्रेम रर्ोर्ुण की सुंर्लत से काम में पररणत हो र्ाता परम स्र्ान मे लस्र्त हो र्ाता है। यह प्रर्ा की रक्षा
है अर्वा िूसरे शब्िों में, ईश्वर-प्रेम का भाव काम में करने से प्रर्ापती कहिाता है। इस प्रकार से इस
उसी तरह बिि र्ाता है लर्स तरह इमिी के सुंसर्ग मुंत्र का परमेष्ठी प्रर्ापतीः होता है।
से िूध िही में बिि र्ाता है और र्ब काम की
परमेश्वर र्ीव के कल्याण के लिये उसकी
सुंतुलष्ट नहीं होती तो यह क्रोध में पररणत हो र्ाता
याचना को सुन कर तेरह वाक्यों को कहते है मुंत्र के
है, क्रोध मोह में और मोह इस सुंसार में लनरुं तर
द्वारा लर्समे से पहिा वाक्य है। यर्ुवेि के प्रर्म
बना रहता है। अत: र्ीवात्मा का सबसे बड़ा शत्रु
अध्याय का प्रर्म मुंत्र इस में सवग प्रर्म परमेंश्वर के
अलनयलरत्रत काम है और यह काम ही है र्ो लवशुद्ध
लवषय में उपिेश स्वयुं परमेंश्वर के द्वारा दकया र्ा
र्ीवात्मा को इस सुंसार में फुं सा रहने के लिए
रहा है। र्ैसा दक स्वामी ियानरि लर् ने बताया है
प्रेररत करता है। क्रोध तमोर्ुण का प्राकट्य है। ये
उसे अब हम लबस्तार से समझते की वास्तव में मुंत्र
र्ुण अपने आपको क्रोध तर्ा अरय रूपों में प्रकट
का भाव क्या-क्या है? इस प्रर्म मुंत्र में परमेंश्वर के
करते हैं। अत: यदि रहने तर्ा कायग करने की
सच्चे स्वरूप को अलभव्यक्त दकया र्ा रहा है। इस
लवलधयों द्वारा रर्ोर्ुण को तमोर्ुण में न लर्रने
मुंत्र के ऋलष परमश्रेष्ठ प्रर्ापती परमेंश्वर ही है और
िेकर सतोर्ुण तक ऊपर उठाया र्ाए तो मनुष्य को
इस मुंत्र के िेवता सलवता अर्ागत सब का र्ुरु
क्रोध में पलतत होने से आत्म आसलक्त के द्वारा
परमेंश्वर ही हैं। इस तरह से यह मुंत्र सवगश्रेष्ठ

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शब्ि ब्रह्म

परमेंश्वर के साक्षात्कार का मुंत्र है लर्सका करने की बात की र्ा रही है। प्राणायाम योर् के
साक्षात्कार स्वयुं परमेंश्वर स्वयुं कर रहा है यहा आठ अुंर्ों में से एक है। प्राणायाम = प्राण +
परमेंश्वर स्वयुं कताग और स्वयुं कमग भी है। इस मुंत्र आयाम। इसका का शालब्िक अर्ग है - 'प्राण (श्वसन)
के द्वारा स्वयुं परमेंश्वर अपना खुि का साक्षात्कार को िम्बा करना' या 'प्राण (र्ीवनीशलक्त) को िम्बा
कर रहा है या स्वयुं की अपनी ही तलस्वर बना रहा करना'। (प्राणायाम का अर्ग 'स्वास को लनयुंलत्रत
है । परम र्ुरु अपने साक्षात्कार के बारें में उसके करना' या कम करना नहीं है।) हठयोर्प्रिीलपका में
साधन के बारे में अपने लशष्यों मनुष्यों को उपिेश िे कहा र्या है-
रहा है।
चिे वाते चिुं लचत्तुं लनििे लनििुं भवेत्। योर्ी
१. वायवः स्र्= अर्ागत वायु के समान सुंसार स्र्ाणुत्वमाप्नोलत ततो वायुुं लनरोधयेत्॥२॥ अर्ागत
रूप शरीर में लस्र्त रहो। प्राणों के चिायमान होने पर लचत्त भी चिायमान
हो र्ाता है और प्राणों के लनिि होने पर मन भी
यहाुं पर वायु एक रूपक की तरह प्रयोर् दकया
स्वत: लनिि हो र्ाता है और योर्ी स्र्ाणु हो
र्ा रहा है। वायु का भौलतक उपयोर् तो हम सब
र्ाता है। अतः योर्ी को श्वाुंसों का लनयुंत्रण करना
र्ानते ही है इस के लिये ऋग्वेि कहता हैः- (ओ३म्
चालहये।
द्वालवमौ वातौ वात आलसरधोरा परावतः| िक्षुं ते
अरय आवतु परारयो वातु यिपः|| ऋग्वेि १० , यह भी कहा र्या हैः- यावद्वायुः लस्र्तो िेहे
१३७-२ तावज्जीवनमुच्यते। मरणुं तस्य लनष्क्रालरतः ततो
वायुुं लनरोधयेत् ॥ र्ब तक शरीर में वायु है तब तक
यहाुं िो प्रकार के वायु बहते है एक वायु भीतर
र्ीवन है। वायु का लनष्क्रमण (लनकिना) ही मरण
हृिय तक बहता है िूसरा बाहर वायुमुंडि में बहता
है। अतः वायु का लनरोध करना चालहये। प्राणायाम
है| उसमें एक तेरे अरिर तेरे लिये शक्ती बि को बहा
िो शब्िों के योर् से बना है- (प्राण+आयाम) पहिा
कर िाये िूसरा तेरे से बाहर तेरे रोर् लबमारी को
शब्ि "प्राण" है िूसरा "आयाम"। प्राण का अर्ग र्ो
बाहर बहा कर िे आवे |) वह परमेश्वर
हमें शलक्त िेता है या बि िेता है। आयाम का अर्ग
आनरिस्वरूप और आनरि कारक होने से चरिमा के
र्ानने के लिये इसका सुंलध लवच्छेि करना होर्ा
समान है। वही परमेश्वर शुक्रम शीघ्रकारी अर्वा
क्योंदक यह िो शब्िों के योर् (आ+याम) से बना है।
शुद्ध भाव से शुक्र लवयग के कण के समान है। वह
इसमें मूि शब्ि '"याम" ' है 'आ' उपसर्ग िर्ा है।
महान होने से ब्रह्मा सवगत्र व्यापक होने से प्रर्ापलत।
याम का अर्ग 'र्मन होता है और '"आ" ' उपसर्ग
भी कहिाता है। अर्ागत वायु मुख्यतः िो प्रकार की
'उिटा ' के अर्ग में प्रयोर् दकया र्या है अर्ागत
होती है, एक अरिर र्ो र्ाती है यह हमारा र्ीवन
आयाम का अर्ग उिटा र्मन होता है। अतः
है लर्से हम सब प्राण कहते है और एक वायु र्ो
प्राणायाम में आयाम को 'उिटा र्मन के अर्ग में
शरीर से बाहर लनकिती है र्ो अपान है अर्ागत यह
प्रयोर् दकया र्या है। इस प्रकार प्राणायाम का अर्ग
मृत्यु है। आध्यालत्मक भाषा में इसे प्राणायाम कहते
'प्राण का उिटा र्मन होता है। यहााँ यह ध्यान िेने
है यह र्ीवन को लवस्तार िेने वािा और मृत्यु को
दक बात है दक प्राणायाम प्राण के उिटा र्मन के
िूर करने वािा बताया र्या है। प्राणायाम यह
लवशेष दक्रया की सुंज्ञा है न दक उसका पररणाम।
बहत प्रालचन वायु लवज्ञान है यहाुं प्राण को लस्र्त
अर्ागत प्राणायाम शब्ि से प्राण के लवशेष दक्रया का

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शब्ि ब्रह्म

बोध होना चालहये। प्राणायाम के बारे में बहत से समय यह भावना करें दक हमारे िुर्ुगण, िुष्प्रवृलत्तयााँ,
ऋलषयों ने अपने-अपने ढुंर् से कहा है िेदकन सभी बुरे लवचार प्रश्वास के सार् बाहर लनकि रहे हैं। हम
के भाव एक ही है र्ैसे पतरर्लि का प्राणायाम सूत्र सााँस िेते है तो लसर्फग हवा नहीं खीचते तो उसके
एवुं र्ीता में लर्समें पतरर्लि का प्राणायाम सूत्र सार् ब्रह्मारड की सारी उर्ाग को उसमे खींचते है।
महत्वपूणग माना र्ाता है र्ो इस प्रकार है- तलस्मन अब आपको िर्ेर्ा की लसर्फग सााँस खीचने से ऐसा
सलत श्वासप्रश्वासयोर्गलतलवच्छेि:प्राणायाम॥ इसका कै सा होर्ा। हम र्ो सााँस फे फडो में खीचते है, वो
लहरिी अनुवाि इस प्रकार होर्ा- श्वास प्रश्वास के लसर्फग सााँस नहीं रहती उसमे सारे ब्रह्माण्ड की सारी
र्लत को अिर् करना प्राणायाम है। इस सूत्र के उर्ाग समायी रहती है। मान िो र्ो सााँस आपके पूरे
अनुसार प्राणायाम करने के लिये सबसे पहिे सूत्र शरीर को चिाना र्नती है, वो आपके शरीर को
की सम्यक व्याख्या होनी चालहये िेदकन पतुंर्लि के िुरुस्त करने की भी ताकत रखती है। प्राणायाम
प्राणायाम सूत्र की व्याख्या करने से पहिे हमे इस लनम्न मुंत्र (र्ायत्री महामुंत्र) के उच्चारण के सार्
बात का ध्यान िेना चालहये दक पतुंर्लि ने योर् की दकया र्ाना चालहये। ॐ भूः भुवः ॐ स्वः ॐ महः,
दक्रयाओं एवुं उपायें को योर्सूत्र नामक पुस्तक में ॐ र्नः ॐ तपः ॐ सत्यम्। ॐ तत्सलवतुवगरेण्युं
सूत्र रूप से सुंकलित दकया है और सूत्र का अर्ग ही भर्ो िेवस्य धीमलह लधयो यो नः प्रचोियात्। ॐ
होता है -एक लनलित लनयम र्ो र्लणतीय एवुं आपोज्योतीरसोऽमृत,ुं ब्रह्म भूभुगवः स्वः ॐ।
लवज्ञान सम्मत हो। यदि सूत्र की सही व्याख्या नहीं
प्राणायाम का योर् में बहत महत्व है। सबसे
हई तो उत्तर सत्य से िूर एवुं पररणाम शूरय होर्ा।
पहिे तीन बातों की आवश्यकता है,
यदि पतुंर्लि के प्राणायाम सूत्र के अनुसार
लवश्वास,सत्यभावना, िृढ़ता। प्राणायाम करने से
प्राणायाम करना है तो सबसे पहिे उनके प्राणायाम
पहिे हमारा शरीर अरिर से और बाहर से शुद्ध
सूत्र तलस्मन सलत
होना चालहए। बैठने के लिए नीचे अर्ागत भूलम पर
श्वासप्रश्वासयोर्गलतलवच्छेि:प्राणायाम॥ की सम्यक
आसन लबछाना चालहए। बैठते समय हमारी रीढ़ की
व्याख्या होनी चालहये र्ो शास्त्रानुसार, लवज्ञान
हलियााँ एक पुंलक्त में अर्ागत सीधी होनी चालहए।
सम्मत, तार्कग क, एवुं र्लणतीय हो। इसी व्याख्या के
सुखासन, लसद्धासन, पद्मासन, वज्रासन दकसी भी
अनुसार दक्रया करना होर्ा। इसके लिये सूत्र में
आसन में बैठें, मर्र लर्समें आप अलधक िेर बैठ
प्रयुक्त शब्िों का अर्गबोध होना चालहये तर्ा उसमें
सकते हैं, उसी आसन में बैठें। प्राणायाम करते समय
िी र्यी र्लत लवच्छेि की लवशेष युलक्त को र्ानना
हमारे हार्ों को ज्ञान या दकसी अरय मुिा में होनी
होर्ा। इसके लिये पतुंर्लि के प्राणायाम सूत्र में
चालहए। प्राणायाम करते समय हमारे शरीर में कहीं
प्रयुक्त शब्िो का अर्ग बोध होना चालहये। प्राणायाम
भी दकसी प्रकार का तनाव नहीं होना चालहए, यदि
प्राण अर्ागत् सााँस आयाम याने िो सााँसो मे िूरी
तनाव में प्राणायाम करें र्े तो उसका िाभ नहीं
बढ़ाना, श्वास और लन:श्वास की र्लत को लनयुंत्रण
लमिेर्ा। प्राणायाम करते समय अपनी शलक्त का
कर रोकने व लनकािने की दक्रया को कहा र्ाता है।
अलतक्रमण ना करें । हर सााँस का आना र्ाना
श्वास को धीमी र्लत से र्हरी खींचकर रोकना व
लबिकु ि आराम से होना चालहए। लर्न िोर्ो को
बाहर लनकािना प्राणायाम के क्रम में आता है।
उच्च रक्त-चाप की लशकायत है, उरहें अपना रक्त-
श्वास खींचने के सार् भावना करें दक प्राण शलक्त,
चाप साधारण होने के बाि धीमी र्लत से प्राणायाम
श्रेष्ठता श्वास के द्वारा अुंिर खींची र्ा रही है, छोड़ते

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शब्ि ब्रह्म

करना चालहये। यदि आाँप्रेशन हआ हो तो, छः महीने िाभः- हमारा हृिय सशक्त बनाने के लिये हैं।
बाि ही प्राणायाम का धीरे धीरे अभ्यास करें । हर हमारे फे फडों को सशक्त बनाने के लिये हैं। मलस्तष्क
सााँस के आने र्ाने के सार् मन ही मन में ओम् का से सम्बुंलधत सभी व्यालधओं को लमटाने के लिये भी
र्ाप करने से आपको आध्यालत्मक एवुं शारीररक यह िाभिायक है। पार्कग नसन, पैरालिलसस,
िाभ लमिेर्ा और प्राणायाम का िाभ िुर्ुना होर्ा। िूिापन इत्यादि स्नायुओं से सम्बुंलधत सभी व्यलधओं
सााँसे िेते समय दकसी एक चक्र पर ध्यान कें लरित को लमटाने के लिये। भर्वान से नाता र्ोडने के
होना चालहये नहीं तो मन कहीं भटक र्ायेर्ा, लिये।
क्योंदक मन बहत चुंचि होता है। सााँसे िेते समय
कपािभालत प्राणायामः- सुखासन, लसद्धासन,
मन ही मन भर्वान से प्रार्गना करनी है दक "हमारे
पद्मासन, वज्रासन में बैठें। और सााँस को बाहर
शरीर के सारे रोर् शरीर से बाहर लनकाि िें और
फें कते समय पेट को अरिर की तरफ धक्का िेना है,
हमारे शरीर में सारे ब्रह्माुंड की सारी ऊर्ाग, ओर्,
इस में लसफ्ग सााँस को छोडते रहना है। िो सााँसो के
तेर्लस्वता हमारे शरीर में डाि िें"। ऐसा नहीं है दक
बीच अपने आप सााँस अरिर चिी र्ायेर्ी र्ान-बूझ
के वि बीमार िोर्ों को ही प्राणायाम करना
कर सााँस को अरिर नहीं िेना है। कपाि कहते है
चालहए, यदि बीमार नहीं भी हैं तो सिा लनरोर्ी
मलस्तष्क के अग्र भार् को, भाती कहते है ज्योलत
रहने की प्रार्गना के सार् प्राणायाम करें ।
को, कालरत को, तेर् को; कपािभालत प्राणायाम
भलस्त्रका प्राणायामः- सुखासन लसद्धासन, करने िर्ातार करने से चहरे का िावण्य बढाता है।
पद्मासन, वज्रासन में बैठें। नाक से िुंबी सााँस कपािभालत प्राणायाम धरती की सरर्ीवलन
फे फडो में ही भरे , दफर िुंबी सााँस फे फडो से ही कहिाता है। कपािभाती प्राणायाम करते समय
छोडें| सााँस िेते और छोडते समय एकसा िबाव मुिाधार चक्र पर ध्यान के लरित करना है। इससे
बना रहे। हमें हमारी र्ितीयााँ सुधारनी है, एक तो मूिाधार चक्र र्ाग्रत हो के कु रडलिनी शलक्त र्ाग्रत
हम पुरी सााँस नहीं िेत;े और िुसरा हमारी सााँस पेट होने में मिि होती है। कपािभालत प्राणायाम करते
में चािी र्ाती है। िेलखये हमारे शरीर में िो रास्ते समय ऐसा सोचना है दक, हमारे शरीर के सारे
है, एक (नाक, श्वसन नलिका, फे फडे) और िूसरा नर्ेरटव तत्व शरीर से बाहर र्ा रहे है। खाना लमिे
(मुाँह, अन्ननलिका, पेट्)| र्ैसे फे फडोमें हवा शुद्ध ना लमिे मर्र रोर् कम से कम ५ लमलनट
करने की प्रणिी है, वैसे पेट में नहीं है। उसीके कपािभालत प्राणायाम करना ही है, यह दिढ
कारण हमारे शरीर में आाँक्सीर्न की कमी मेहसूस सुंक्िप करना है।
होती है। और उसेके कारण हमारे शरीर में रोर्
िाभः- बािो की सारी समस्याओाँ का समाधान
र्डते है। उसी र्िती को हमें सुधारना है। र्ैसे की
प्राप्त होता है। चेहरे की झुररयााँ, आाँखो के नीचे के
कु छ पाने की खुलश होलत है, वैसे लह खुलश हमे
डाकग सकग ि लमट र्ायेंर्े| र्ायरााँइड की समस्या लमट
प्राणायाम करते समय होलन चालहये। और क्यो न
र्ाती है। सभी प्रकार की चमग समस्या लमट र्ाती
हो सारर लर्रिलर् का स्वास्र् आपको मीि रहा है।
है। आखों की सभी प्रकार की समस्याऐं लमट र्ाती
आप के परचलवध प्राण सशक्त हो रहे है, हमारे
है, और आाँखो की रोशनी िौट आती है। िातों की
शरीर की सलभ प्रणालिया सशक्त हो रही है।
सभी प्रकार की समस्याऐं लमट र्ाती है और िातों
की खतरनाक पायररया र्ैसी बीमारी भी ठीक हो

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शब्ि ब्रह्म

र्ाती है। कपािभालत प्राणायाम से शरीर की बढ़ी बाये वािे से छोडें...यालन यह िााँया-िााँया बााँया-
चबी घटती है, यह इस प्राणायाम का सबसे बड़ा बााँया यह क्रम रखना, यह प्रदक्रया १०-१५ लमनट
फायिा है। कब्र्, ऐलसलडटी, र्ैलस्ट्क र्ैसी पेट की तक िुहराएुं| सााँस िेते समय अपना ध्यान िोंनों
सभी समस्याएाँ लमट र्ाती हैं। यूटरस (मलहिाओं) आाँखो के बीच में लस्र्त आज्ञा चक्र पर ध्यान
की सभी समस्याओाँ का समाधान होता है। एकलत्रत करना चालहए। और मन ही मन में सााँस
डायलबटीस सुंपूणगतया ठीक होता है। कोिेस्रोि को िेते समय ओउम-ओउम का र्ाप करते रहना
घटाने में भी सहायक है। सभी प्रकार की ऐिर्र्गयााँ चालहए। हमारे शरीर की ७२,७२,१०,२१०
लमट र्ाती हैं। सबसे खतरनाक काँ रसर रोर् तक सुक्ष्मािी सूक्ष्म नाड़ी शुद्ध हो र्ाती है। बायी नाड़ी
ठीक हो र्ाता है। शरीर में स्वतः हीमोग्िोलबन को चरि (इड़ा, र्रर्ा) नाड़ी और बायी नाडी को
तैयार होता है। शरीर में स्वतः कै िलशयम तैयार सूयग (पीरर्िा, यमुना) नाड़ी कहते है। चरि नाड़ी से
होता है। दकडनी स्वतः स्वच्छ होती है, डायिेलसस ठण्डी हवा अरिर र्ाती है और सूयग नाड़ी से र्रम
करने की र्रुरत नहीं पड़ती| नाड़ी हवा अरिर र्ाती है। ठण्डी और र्रम हवा के
उपयोर् से हमारे शरीर का तापमान सुंतुलित रहता
बाह्य प्राणायामः- सुखासन, लसद्धासन,
है। इससे हमारी रोर्-प्रलतकारक शलक्त बढ़ र्ाती
पद्मासन, वज्रासन में बैठें। सााँस को पूरी तरह बाहर
है। इनके अलतरीक्त एक और नाड़ी अन िोनो के
लनकािने के बाि सााँस बाहर ही रोके रखने के बाि
मध्य में होती है लर्सको सुशूम्ड़ा सरस्वती कहते है।
तीन बरध िर्ाते है। १) र्ािुंधर बरध :- र्िे को
लर्सकी चचाग ऋग्वेि के एक मुंत्र में करते है वह मुंत्र
पूरा लसकोड कर ठोडी को छाती से सटा कर रखना
इस प्रकार से हैः- येभ्यो माता मधुमलत्परवते पयः
है। २) उड़ड्यान बरध :- पेट को पूरी तरह अरिर
लपयूषुं द्योदिरलतरदिबहागः। उक्तशुष्मान्
पीठ की तरफ खीचना है। ३) मूि बरध :- हमारी
वृषभरारत्स्वप्नसस्तााँ आदित्यााँ अनु मिा स्वस्तये।।
मि लवसर्गन करने की र्र्ह को पूरी तरह ऊपर की
10,63,3 अर्ागत यह सब की माता माुं के सामन है
तरफ खींचना है।
मधु अमृत रूप मती ज्ञान रस को लपिाने पयः र्ो
िाभः- कब्र्, ऐलसलडटी, र्ाँसस्टीक, र्ैसी पेट प्राण रूप तत्व लपने योग्य पिार्ग है सूयग पृलर्वी और
की सभी समस्याऐं लमट र्ाती हैं। हर्नगया पूरी तरह ब्रह्माण्ड को धारण करने वािे अदिश्य ब्रह्मा र्ैसा
ठीक हो र्ाता है। धातु, और पेशाब से सुंबुंलधत की पहिे बताया र्या है शुष्मड़ा नाड़ी में लस्र्त
सभी समस्याएाँ लमट र्ाती हैं। मन की एकाग्रता वही सब में प्राण र्ो प्रण से बना है सुंकल्प को पैिा
बढ़ती है। व्युंधत्व (सुंतान हीनता) से छु टकारा करने वािा सामर्ग का श्रोत है लर्से पाकर िोर्
लमिने में भी सहायक है। परमआनरि को प्राप्त करते है। लर्ससे ही सभी र्ीव
र्रतुओं का कल्याण होता है। र्ैसा की अर्वेि का
अनुिोम-लविोम प्राणायामः- सुखासन,
एक मुंत्र कहता है अष्टलसलद्ध नवद्वारा पूरीअयोद्धा।।
लसद्धासन, पद्मासन, वज्रासन में बैठें। शुरुवात और
अर्ागत अष्ट लसलद्ध आठ चक्रों को र्ार्ृत करने से
अरत भी हमेशा बाये नर्ुने (नोलस्टरि) से ही करनी
लमिती है। आठ चक्र क्रमशः मूिाधार, स्वालधष्ठान,
है, नाक का िााँया नर्ुना बुंि करें व बाये से िुंबी
मलणपूर, अनाहत, लवशुद्ध, आज्ञा, सहस्रार, ब्रह्मररध्र
सााँस िें, दफर बाये को बुंि करके , िााँया वािे से
यह आठ चक्र र्ो इसी शुष्मड़ा नाड़ी में ही लस्र्त है।
िुंबी सााँस छोडें...अब िााँये से िुंबी सााँस िें और

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शब्ि ब्रह्म

भारतीय पारुं पररक औषलध लवज्ञान के है र्ो प्रमुख तुंलत्रका र्ैंर्लिया से लनकिकर मेरूिुंड
अनुसार, चक्र की अवधारणा का सुंबुंध पलहए-से में शाखाओं में बुंट कर आर्े बढ़ता है। सामारय तौर
चक्कर से हैं, माना र्ाता है इसका अलस्तत्व पर इनमें से छह चक्रों के लिए कहा र्ाता है दक यह
आकाशीय सतह में मनुष्य का िोर्ुना होता है। ऊर्ाग के एक स्तुंभ की तरह खड़ा होता है र्ो
कहते हैं दक चक्र शलक्त कें ि या ऊर्ाग की कुुं डिी है मेरूिुंड के आधार से उठता हआ मार्े के मध्य तक
र्ो कालयक शरीर के एक चबुंि ु से लनरुं तर वृलद्ध को लवस्तृत होता है। और सातवाुं कालयक क्षेत्र से बाहर
प्राप्त होनेवािे दफरकी के आकार की सुंरचना (पुंखे होता है। छह प्रमुख चक्र हैं र्ो चेतना के मूि
प्रेम हृिय का आकार बनाते हैं) सूक्ष्म िेह की परतों अवस्र्ाओं से परस्पर र्ुड़े होते हैं ...
में प्रवेश करती है। सूक्ष्म तत्व का घूमता हआ भुंवर
सुर्ैन शुमस्की (2003, पृ. 24) इस लवचार का
ऊर्ाग को ग्रहण करने या इसके प्रसार का कें ि चबुंि ु
समर्गन करती हैं: ऐसा माना र्ाता है दक आपके
है। ऐसा माना र्ाता है दक सूक्ष्म िेह के अुंतर्गत
मेरूिुंड का हरे क चक्र शारीररक कायगकिापों को
सात प्रमुख चक्र या ऊर्ाग कें ि (लर्से प्रकाश चक्र भी
मेरूिुंड के लनकट क्षेत्र को प्रभालवत और यहाुं तक
माना र्या) लस्र्त होते हैं। ब्रह्माुंड से अलधक
दक लनयुंलत्रत करता हैं। शव-परीक्षण में चक्रों का
मर्बूती के सार् ऊर्ाग खींचकर इन चबुंिओं
ु में
खुिासा नहीं होता, इसलिए अलधकाुंश िोर् यह
डािता है, इस मायने में यह ऊर्ाग कें ि है दक यह
सोचते हैं दक वे अनोखी उवगर कल्पना कर रहे हैं।
ऊर्ाग उत्पन्न और उसका भुंडारण करता है। मुख्य
िेदकन सुिरू पूवग की परुं पराओं में इसके अलस्तत्व
नालडयाुं इड़ा, चपुंर्िा और सुषुन्ना (सुंवेिी,
को अच्छी तरह प्रमालणत दकया र्या है। र्ैसा दक
सहसुंवेिी और कें िीय तुंलत्रका तुंर्) एक वक्र पर् से
ऊपर बताया र्या है, चक्र एक ऊर्ाग कें ि हैं र्ो
मेरूिुंड से होकर र्ाती है और कई बार एक-िूसरे
मेरूिुंड में अवलस्र्त होता है और मेरूिुंड के आधार
को पार करती हैं। प्रलतच्छेिन के चबुंि ु पर ये बहत
से ऊपर उठकर खोपड़ी के मध्य तक मानव तुंलत्रका
ही शलक्तशािी ऊर्ाग कें ि बनाती है र्ो चक्र
तुंत्र के लवलभन्न लहस्सों में बुंट र्ाता है। चक्र को
कहिाता है। मानव िेह में तीन प्रकार के ऊर्ाग कें ि
मानव िेह का प्राण या कालयक-र्ैलवक ऊर्ाग का
हैं। अवर अर्वा पशु चक्र की अवलस्र्लत खुर और
चबुंि ु या बुंधन माना र्या है। शुमस्की कहती हैं दक
श्रोलण के बीच के क्षेत्र में होती है र्ो प्राणी र्र्त में
"आपके सूक्ष्म िेह, आपकी ऊर्ाग क्षेत्र और सुंपूणग चक्र
हमारे लवकासवािी मूि की ओर इशारा करता है।
तुंत्र का आधार प्राण है।.. र्ो दक ब्रह्माुंड में र्ीवन
मानव चक्र मेरूिुंड में होते हैं। अुंत में, श्रेष्ठ या दिव्य
और ऊर्ाग का प्रमुख स्रोत है।" चक्र का अध्ययन कई
चक्र मेरूिुंड के लशखर और मलस्तष्क के शीषग पर
प्रकार की लचदकत्सा और लशक्षण के लिए के लरिक है।
होता है।
अरोमार्ेरापी, मुंत्र, रे की, प्रायोलर्क उपचार, पुष्प
एनोडा र्ूलडर् (1996, पृ. 5) ने चक्र की अकग , लवदकरण लचदकत्सा, ध्वलन लचदकत्सा,
आधुलनक व्याख्या िी है: चक्र को दक्रयाकिापों का रुं र्/प्रकाश लचदकत्सा और मलणभ/रत्न लचदकत्सा
कें ि माना र्ाता है र्ो र्ीवन शलक्त ऊर्ाग को ग्रहण र्ैसे कु छ अभ्यास हैं लर्नके माध्यम से सूक्ष्म ऊर्ाग
करता है, आत्मसात करता है और अलभव्यक्त करता का पता िर्ाया र्या है। वज्रयान और ताुंलत्रक शक्त
है। चक्र का शालब्िक अनुवाि चक्का या कुुं डि है और लसद्धाुंत के अनुसार एक्यूपुंक्चर, लशअत्सू, ताई ची
यह चक्कर काटते र्ैलवक ऊर्ाग दक्रयाकिापों का वृत्त और ची कुुं र् ऊर्ागवान पराकाष्ठा के सुंतुिन पर

10 | P a g e
शब्ि ब्रह्म

ध्यान िेता है, र्ो दक चक्र प्रणािी का एक अलभन्न लसलद्धयााँ िो प्रकार की होती हैं, एक परा और िूसरी
अुंर् हैं। अपरा। यह लसलद्धयाुं इुंदियों के लनयुंत्रण और
व्यापकता को िशागती हैं। सब प्रकार की उत्तम,
"नालभ" शब्ि पहिी बार चहुंि ू धमग के पलवत्र ग्रुंर्
मध्यम और अधम लसलद्धयााँ अपरा लसलद्धयाुं
अर्वग वेि में आया और इसका उपयोर् यह
कहिाती है । मुख्य लसलद्धयााँ आठ प्रकार की कही
पररभालषत करने के लिए दकया र्या दक िेह की
र्ई हैं। इन लसलद्धयों को पाने के उपराुंत साधक के
सभी नालड़याुं दकस तरह यहाुं आबद्ध होती हैं। और
लिए सुंसार में कु छ भी असुंभव नहीं रह र्ाता।
इसे यह नालभ चक्र के रूप में र्ाना र्ाता है और
लसलद्धयाुं क्या हैं व इनसे क्या हो सकता है इन सभी
इसके अिावा मूिाधार चक्र शब्ि भी पहिी बार
का उल्िेख माकां डेय पुराण तर्ा ब्रह्मवैवतगपुराण में
अर्वगवेि [लर्स वेि से आयुवेि की उत्पलत्त हई] में
प्राप्त होता है र्ो इस प्रकार है:- अलणमा िलघमा
वर्णगत दकया र्या। उपलनषि में चक्रों के वणगन
र्ररमा प्रालप्त: प्राकाम्युंमलहमा तर्ा। ईलशत्वुं च
अलधक लवस्तार से हैं, ब्रह्मोपलनषि में नालभ चक्र को
वलशत्वुंच सवगकामावशालयता:।।
अलि और सूयग के लनवास के रूप में वर्णगत दकया
र्या है। योर्रार् उपलनषि में नौ प्रकार के चक्रों - यह आठ मुख्य लसलद्धयााँ इस प्रकार हैं:- अलणमा
ब्रह्म, स्वालधष्ठान, नालभ, हृिय, कुं ठ, तािुका, भ्रू, लसलद्ध अपने को सूक्ष्म बना िेने की क्षमता ही
ब्रह्म रुं ध्र, व्योम चक्र का वणगन है योर् अलणमा है। यह लसलद्ध यह वह लसलद्ध है, लर्ससे युक्त
चूड़ामलणउपलनषि में षड चक्र का वणगन है, हो कर व्यलक्त सूक्ष्म रूप धर कर एक प्रकार से
पतुंर्लि योर् िशगन के लवभूलतपाि में षड चक्र का िूसरों के लिए अिृश्य हो र्ाता है। इसके द्वारा
वणगन है और र्ब पहिे सूत्र में इसे समझाया र्ाता आकार में िघु होकर एक अणु रुप में पररवर्तगत हो
है तब 12 चक्र के वणगन पाए र्ाते हैं। सकता है। अणु एवुं परमाणुओं की शलक्त से सम्पन्न
हो साधक वीर व बिवान हो र्ाता है। अलणमा की
यह आठ चक्र को र्ार्ृत करने से ही आठ लसलद्धया
लसलद्ध से सम्पन्न योर्ी अपनी शलक्त द्वारा अपार
उपिब्ध होती है वह आठ लसलद्धया इस प्रकार से है।
बि पाता है। मलहमा लसलद्धः- अपने को बड़ा एवुं
लसलद्ध अर्ागत पूणगता की प्रालप्त होना व सफिता की
लवशाि बना िेने की क्षमता को मलहमा कहा र्ाता
अनुभूलत लमिना। लसलद्ध को प्राप्त करने का मार्ग
है। यह आकार को लवस्तार िेती है लवशािकाय
एक करठन मार्ग हो ओर र्ो इन लसलद्धयों को प्राप्त
स्वरुप को र्रम िेने में सहायक है। इस लसलद्ध से
कर िेता है वह र्ीवन की पूणगता को पा िेता है।
सम्पन्न होकर साधक प्रकृ लत को लवस्ताररत करने में
असामारय कौशि या क्षमता अर्र्गत करने को
सक्षम होता है। लर्स प्रकार के वि ईश्वर ही अपनी
'लसलद्ध' कहा र्या है. चमत्काररक साधनों द्वारा
इसी लसलद्ध से ब्रह्माण्ड का लवस्तार करते हैं उसी
'अिौदकक शलक्तयों को पाना र्ैसे - दिव्यिृलष्ट,
प्रकार साधक भी इसे पाकर उरहें र्ैसी शलक्त भी
अपना आकार छोटा कर िेना, घटनाओं की स्मृलत
पाता है। र्ररमा लसलद्धः- इस लसलद्ध से मनुष्य अपने
प्राप्त कर िेना इत्यादि, 'लसलद्ध' इसी अर्ग में प्रयुक्त
शरीर को लर्तना चाहे, उतना भारी बना सकता है।
होती है। शास्त्रों में अनेक लसलद्धयों की चचाग की र्ई
यह लसलद्ध साधक को अनुभव कराती है दक उसका
है और इन लसलद्धयों को यदि लनयलमत और
वर्न या भार उसके अनुसार बहत अलधक बढ़
अनुशासनबद्ध रहकर दकया र्ाए तो अनेक प्रकार
सकता है लर्सके द्वारा वह दकसी के हटाए या
की परा और अपरा लसलद्धयााँ प्राप्त दक र्ा सकती है.

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शब्ि ब्रह्म

लहिाए र्ाने पर भी नहीं लहि सकता। िलघमा द्वारा र्ड़, चेतन, र्ीव-र्रतु, पिार्ग- प्रकृ लत, सभी
लसलद्धः- स्वयुं को हल्का बना िेने की क्षमता ही को स्वयुं के वश में दकया र्ा सकता है। इस लसलद्ध
िलघमा लसलद्ध होती है। िलघमा लसलद्ध में साधक से सुंपन्न होने पर दकसी भी प्राणी को अपने वश में
स्वयुं को अत्युंत हल्का अनुभव करता है। इस दिव्य दकया र्ा सकता है। शरीर में नव द्वार हैं। िशम
महालसलद्ध के प्रभाव से योर्ी सुिरू अनरत तक फै िे द्वार ब्रह्मररध्र का है। इड़ा चपुंर्िा और सुषुम्ना के
हए ब्रह्माण्ड के दकसी भी पिार्ग को अपने पास मेि होने पर ब्रह्मररध्र के द्वार से र्ीव के प्रयाण
बुिाकर उसको िघु करके अपने लहसाब से उसमें करने पर र्ीव मोक्ष को प्राप्त हो र्ाता है। िो नाक
पररवतगन कर सकता है। प्रालप्त लसलद्धः- कु छ भी के लछि, िो कान के लछि, िो आुंख के लछि, एक मुख
लनमागण कर िेने की क्षमता इस लसलद्ध के बि पर का एक र्ुिा का और एक चिुंर् का लछि है।
र्ो कु छ भी पाना चाहें उसे प्राप्त दकया र्ा सकता
२.सलवता िेवः वः श्रेष्ठतमाय कमगणे प्रापगयतु=
है। इस लसलद्ध को प्राप्त करके साधक लर्स भी दकसी
परमेश्वर की प्रार्गना उपाषना उसके सालनद्धय के
वस्तु की इच्छा करता है, वह असुंभव होने पर भी
सार् लवद्वानों के सहयोर् से यह सुंभव होर्ा। मनन
उसे प्राप्त हो र्ाती है। र्ैसे रे लर्स्तान में प्यासे को
करने से र्ो त्राण करे , उसे मुंत्र कहते हैं। मुंत्रलवद्या
पानी प्राप्त हो सकता है या अमृत की चाह को भी
का लवस्तार असीम है, उसमें अनेकानेक शब्िर्ुच्छक
पूरा कर पाने में वह सक्षम हो र्ाता है के वि इसी
हैं। अनेक शब्िों में मुंत्रों का लवस्तार हआ है। उनके
लसलद्ध द्वारा ही वह असुंभव को भी सुंभव कर
र्प तर्ा लसलद्धपरक अनेकानेक योर्ाभ्यास भी हैं,
सकता है। प्राकाम्य लसलद्धः- कोई भी रूप धारण कर
कमगकाुंड भी, ककुं तु उन सबके मूि में एक ही ध्वलन
िेने की क्षमता प्राकाम्य लसलद्ध की प्रालप्त है। इसके
आती है- वह है ओंकार। यही शब्िब्रह्म- नािब्रह्म की
लसद्ध हो र्ाने पर मन के लवचार आपके अनुरुप
धुरी है। शब्िब्रह्म यदि मुंत्र लवज्ञान की पृष्ठभूलम
पररवर्तगत होने िर्ते हैं। इस लसलद्ध में साधक
बनाता है तो नािब्रह्म की साधना नाियोर् का
अत्युंत शलक्तशािी शलक्त का अनुभव करता है। इस
आधार बनती है। ओंकार के लवराट ब्रह्माुंड में र्ुुंर्न
लसलद्ध को पाने के बाि मनुष्य लर्स वस्तु दक इच्छा
से ही सृलष्ट की उत्पलत्त हई है, यदि यह कहा र्ाए
करता है उसे पाने में कामयाब रहता है। व्यलक्त
तो कोई अत्युलक्त नहीं होर्ी। नाि या शब्ि से सृलष्ट
चाहे तो आसमान में उड़ सकता है और यदि चाहे
की उत्पलत्त व ताप, प्रकाश, आदि शलक्तयों का
तो पानी पर चि सकता है। ईलशता लसलद्धः- हर
आलवभागव उसके बाि होता चिा र्या। इस प्रकार
सत्ता को र्ान िेना और उस पर लनयुंत्रण करना ही
सृलष्ट का मूि- इस लनलखि ब्रह्माुंड में सुंव्याप्त ब्राह्मी
इस लसलद्ध का अर्ग है। इस लसलद्ध को प्राप्त करके
चेतना की धुरी यदि कोई है तो वह शब्ि का नाि
साधक समस्त प्रभुत्व और अलधकार प्राप्त करने में
ही है। परमपूज्य र्ुरुिेव ने इस अनूठे ककुं तु र्रटि
सक्षम हो र्ाता है। लसलद्ध प्राप्त होने पर अपने
लवषय पर लर्स सरिता से प्रलतपािन प्रस्तुत दकया
आिेश के अनुसार दकसी पर भी अलधकार र्माय
है, वह िेखकर उसे पढ़कर आियगचदकत होकर रह
र्ा सकता है। वह चाहे राज्यों से िेकर साम्राज्य ही
र्ाना पड़ता है। समस्त योर्ाभ्यासों का मूि ही-
क्यों न हो। इस लसलद्ध को पाने पर साधक ईश रुप
यहााँ तक दक परमात्मा तक पहाँचने के मार्ग का द्वार
में पररवर्तगत हो र्ाता है। वलशता लसलद्धः- र्ीवन
ही शब्िब्रह्म- नािब्रह्म है। इसे समझ कर उसे कै से
और मृत्यु पर लनयुंत्रण पा िेने की क्षमता को
आत्मसात् दकया र्ाए कै से अपने अुंिर लछपे पड़े
वलशता या वलशकरण कही र्ाती है। इस लसलद्ध के

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शब्ि ब्रह्म

प्रसुप्त के र्खीरे को र्र्ाया र्ाए यह सारा मार्ग मनोरुं र्न के रूप में सुंर्ीत का प्रयोर् बहिता से
िशगन वाड्मय के इस खुंड में है। शब्िब्रह्म- नािब्रह्म होता र्ा। सुंर्ीत में के वि र्ाना या बर्ाना ही
की लवधा भारतीय अध्यात्म की एक महत्त्वपूणग सलम्मलित नहीं र्ा, नृत्य भी इसी किा का अुंर् र्ा।
धारा है। र्हााँ शब्िब्रह्म में मुंत्र- र्प, नामोच्चारण, कर्ा, कीतगन, िोक-र्ायन और लवलभन्न धार्मगक एवुं
प्रार्गना, समूलहक साधना आदि की महत्ता है, वहााँ सामालर्क पवग-त्यौहार एवुं उत्सवों पर अरय
नािब्रह्म में नाियोर् एवुं सुंर्ीत की। यह तो मोटा कायगक्रमों के सार् सुंर्ीत अलनवायग रूप से र्ुड़ा
वर्ीकरण हआ। इस खुंड में शब्िब्रह्म की साधना व रहता र्ा। उससे व्यलक्त और समार् िोनों के र्ीवन
नािब्रह्म की साधना के र्रटि पक्षों को खोिा र्या में शाुंलत और प्रसन्नता, उल्िास और दक्रयाशीिता
है एवुं र्न-र्न के लिए उसे सुर्म बनाने का प्रयास का अभाव नहीं होने पाता र्ा। अक्षर परब्रह्म
दकया र्या है । पुराणों में एक आख्यालयका आती परमात्मा की अनुभूलत के लिए वस्तुतः सुंर्ीत
है। िेवर्षग नारि ने एक बार िुंबे समय तक यह साधना से बढ़कर अरय कोई अच्छा माध्यम नहीं,
र्ानने के लिए प्रव्रज्या की दक सृलष्ट में आध्यालत्मक यही कारण रहा है दक-यहाुं की उपासना पद्धलत से
लवकास की र्लत दकस तरह चि रही है? वे र्हााँ भी िेकर कमगकाुंड तक में सवगत्र स्वर सुंयोर्न अलनवायग
र्ए, प्रायः प्रत्येक स्र्ान में िोर्ों ने एक ही रहा है। मुंत्र भी वस्तुतः छुंि ही है। वेिों की प्रत्येक
लशकायत की भर्वान परमात्मा की प्रालप्त अलत ऋचा का कोई ऋलष कोई िेवता तो होता ही है,
करठन है। कोई सरि उपाय बताइये, लर्ससे उसे उसका कोई न कोई छुंि र्ैसे ऋयुष्टुप, अनुष्टुप,
प्राप्त करने, उसकी अनुभूलत में अलधक कष्ट साध्य र्ायत्री आदि भी होते हैं। इसका अर्ग ही होता है दक
लततीक्षा का सामना न करना पड़ता हो। नारि ने उस मुंत्र के उच्चारण की ताि, िय और र्लतयााँ भी
इस प्रश्न का उत्तर स्वयुं भर्वान् से पूछकर िेने का लनधागररत हैं। अमुक फ्रीक्वेरसी पर बर्ाने से ही
आश्वासन दिया और स्वर्ग के लिए चि पड़े। आपको अमुक स्टेशन बोिेर्ा, उसी तरह अमुक र्लत, िय
ढू ाँढ़ने में तप-साधना की प्रणालियााँ बहत कष्टसाध्य और ताि के उच्चारण से ही मुंत्र लसलद्ध होर्ी-यह
हैं, भर्वन्! नारि ने वहााँ पहाँचकर लवष्णु से प्रश्न उसका लवज्ञान है। कोिाहि और समस्याओं से
दकया-ऐसा कोई सरि उपाय बताइए, लर्ससे घनीभूत सुंसार में यदि परमात्मा का कोई उत्तम
भक्तर्ण सहर् ही में आपकी अनुभूलत कर लिया करें वरिान मनुष्य को लमिा है, तो वह सुंर्ीत ही है।
? सुंर्ीत से पीलड़त हृिय को शाुंलत और सुंतोष
लमिता है। सुंर्ीत से मनुष्य की सृर्न शलक्त का
नाहुं वसालम वैकुण्ठे योलर्नाुं हृिये न वा।
लवकास और आलत्मक प्रफु ल्िता लमिती है। र्रम से
मद्भक्ता: यत्र र्ायलरत तत्र लतष्ठालम नारि।। नारि
िेकर मृत्यु तक, शािी लववाहोत्सव से िेकर धार्मगक
सुंलहताः- हे नारि ! न तो मैं वैकुुंठ में रहता हूाँ और
समारोह तक के लिए उपयुक्त सुंर्ीत लनलध िेकर
न योलर्यों के हृिय में, मैं तो वहााँ लनवास करता हूाँ,
परमात्मा ने मनुष्य की पीड़ा को कम दकया,
र्हााँ मेरे भक्त-र्न कीतगन करते हैं, अर्ागत्
मानवीय र्ुणों से प्रेम और प्रसन्नता को बढ़ाया।
सुंर्ीतमय भर्नों के द्वारा ईश्वर को सरितापूवगक
शास्त्रकार कहते हैं- ‘‘स्वरेण सुंल्िीयते योर्ी’’
प्राप्त दकया र्ा सकता है। इन पुंलक्तयों को पढ़ने से
‘‘स्वर साधना द्वारा योर्ी अपने को तल्िीन करते
सुंर्ीत की महत्ता और भारतीय इलतहास का वह
हैं’’ और एकाग्र की हई, मनःशलक्त को लवद्याध्ययन
समय याि आ र्ाता है, र्ब यहााँ र्ााँव र्ााँव प्रेरक
से िेकर दकसी भी व्यवसाय में िर्ाकर चमत्काररक

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शब्ि ब्रह्म

सफिताएाँ प्राप्त की र्ा सकती हैं, इसलिए वह कर मनुष्य अपनी आलत्मक शलक्तयों को, दकतनी ही
मानना पड़ेर्ा दक सुंर्ीत िो वषग के बच्चे से िेकर तुच्छ हों-भर्वान् से लमिा सकता है। अब इस
लवद्यार्ी, व्यवासायी, दकसान, मर्िूर, स्त्री-पुरुष सुंबुंध में पािात्य लवद्वानों की मारयताएाँ भी
सबको उपयोर्ी ही नहीं आवश्यक भी है। उससे भारतीय िशगन की पुलष्ट करने िर्ी हैं। लविेशों में
मनुष्य की दक्रयाशलक्त बढ़ती और आलत्मक आनुंि लवज्ञान की तरह ही एक शाखा लवलधवत सुंर्ीत का
की अनुभूलत होती है। यह बात ऋलष मनीलषयों ने अनुसुंधान कर रही है और अब तक र्ो लनष्कषग
बहत पहिे अनुभव की र्ी और कहा र्ा- ‘‘अलभ लनकिे हैं, वह मनुष्य को इस बात की प्रबि प्रेरणा
स्वरलरत बहवो मनीलषणो रार्ानमस्य भुवनस्य िेते हैं दक यदि मानवीय र्ुणों और आलत्मक आनुंि
चनुंसते।’’ ऋग्वेि 6/85/3 अर्ागत्-अनेक मनीषी को र्ीलवत रखना है तो मनुष्य अपने आपको सुंर्ीत
लवश्व के महारार्ालधरार् भर्वान् की ओर से र्ोड़े रहे। सुंर्ीत की तुिना प्रेम से की र्ई है।
सुंर्ीतमय स्वर िर्ाते हैं और उसी के द्वारा उसे िोनों ही समान उत्पािक शलक्तयााँ हैं, इन िोनों का
प्राप्त करते हैं। एक अरय मुंत्र में बताया है दक ईश्वर ही प्रकृ लत (र्ड़ तत्त्व) और र्ीवन (चेतन तत्त्व)
प्रालप्त के लिए ज्ञान और कमगयोर् मनुष्य के लिए िोनों पर ही चमत्काररक प्रभाव पड़ता है। ‘‘सुंर्ीत
करठन है। भलक्त-भावनाओं से हृिय में उत्पन्न हई आत्मा की उन्नलत का सबसे अच्छा उपाय है,
अलखि करुणा ही वह सवग सरि मार्ग है, लर्ससे इसलिए हमेशा वाद्य युंत्र के सार् र्ाना चालहये।’’
मनुष्य बहत शीघ्र, परमात्मा की अनुभूलत कर यह पाइर्ार्ोरस की मारयता र्ी; पर डॉ. मैकफे डेन
सकता है और उस प्रयोर्न में भलक्त-भावनाओं के ने वाद्य अपेक्षा र्ायन को ज्यािा िाभकारी बताया
लवकास में सुंर्ीत का योर्िान असाधारण है- है। मानलसक प्रसन्नता की िृलष्ट से पाइर्ार्ोरस की
स्वरलरत त्वा सुते नरो वसो लनरे क उलक्र्नः। ऋग्वेि बात अलधक सही िर्ती है। मैकफे डेन ने िर्ता है,
8/33/2 हे लशष्य ! तुम अपने आलत्मक उत्र्ान की के वि शारीररक स्वास्र्थय को ध्यान में रखकर ऐसा
इच्छा से मेरे पास आये हो। मैं तुम्हें ईश्वर का लिखा है। इससे भी आर्े की कक्षा आलत्मक है, उस
उपिेश करता हूाँ, तुम उसे प्राप्त करने के लिए सुंर्ीत सुंबुंध में कलववर रवींिनार् टैर्ोर का कर्न
के सार् उसे पुकारोर्े तो वह तुम्हारी हृिय र्ुहा में उल्िेखनीय है। श्री टैर्ोर के शब्िों में स्वर्ीय सौंियग
प्रकट होकर अपना प्यार प्रिान करे र्ा। पौरालणक का कोई साकार रूप और सर्ीव प्रिशगन है, तो उसे
उपाख्यान है दक ब्रह्मा र्ी के हृिय में उल्िास सुंर्ीत ही होना चालहये। रलस्कन ने सुंर्ीत को
र्ार्ृत हआ तो वह र्ाने िर्े। उसी अवस्र्ा में उनके आत्मा के उत्र्ान, चररत्र की िृढ़ता किा और
मुख से र्ायत्री छुंि प्रािुभूगत हआ- र्ायत्री सुरुलच के लवकास का महत्त्वपूणग साधन माना है।
मुखािुिपतदिलत च ब्राह्मणम्। -लनरुक्त 7/12 र्ान लवलभन्न प्रकार की सम्मलतयााँ वस्तुतः अपनी-अपनी
करते समय ब्रह्मा र्ी के मुख से लनकिने के कारण तरह की लवशेष अनुभूलतयााँ हैं, अरयर्ा सुंर्ीत में
र्ायत्री नाम पड़ा। सुंर्ीत के अिृश्य प्रभाव को शरीर, मन और आत्मा तीनों को बिवान् बनाने
खोर्ते हए भारतीय योलर्यों को वह लसलद्धयााँ और वािे तत्त्व पररपूणग मात्रा में लवद्यमान हैं, इसी
अध्यात्म का लवशाि क्षेत्र उपिब्ध हआ, लर्से वणगन कारण भारतीय आचायों और मनीलषयों ने सुंर्ीत
करने के लिए एक पृर्क वेि की रचना करनी पड़ी। शास्त्र पर सवागलधक र्ोर दिया। साम वेि की स्वतुंत्र
सामवेि में भर्वान् की सुंर्ीत शलक्त के ऐसे रहस्य रचना उसका प्रणाम है। समस्त स्वर-ताि, िय,
प्रलतपादित और लपरोये हए हैं, लर्नका अवर्ाहन छुंि, र्लत, मुंत्र, स्वर, लचदकत्सा, रार्, नृत्य, मुिा,

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शब्ि ब्रह्म

भाव आदि साम वेि से ही लनकिे हैं। दकसी समय सधे हार् एवुं प्रलशलक्षत मलस्तष्क का भी योर्िान
इस दिशा में भी भारतीयों ने योर् लसलद्ध प्राप्त आवश्यक है। लर्व्हा से बोिे र्ये मरत्र वाद्य-यरत्र
करके , यह दिखा दिया र्ा दक स्वर साधना के समक्ष पर र्ैसे र्ैसे अुंर्ुिी चिाने की तरह है, उतने भर
सुंसार की कोई और िूसरी शलक्त नहीं। उसके से िीपक रार् या मेघ मल्हार र्ैसे प्रभावोत्पािक
चमत्काररक प्रयोर् भी सैकड़ों बार हए हैं। पररणामों की अपेक्षा नहीं की र्ा सकती । लर्व्हा से
उच्चररत शब्ि सामारयतया र्ानकाररयों के आिान
अकबर की राज्य- सभा में सुंर्ीत प्रलतयोलर्ता
प्रिान का उद्देश्य पूरा करते हैं। एक व्यलक्त शब्ि
रखी र्ई। प्रमुख प्रलतद्वुंद्वी र्े तानसेन और
माध्यम से अपनी अनुभूलत एवुं र्ानकारी िूसरे तक
बैर्ूबावरा। यह आयोर्न आर्रे के पास वन में
पहाँचा सकता है। इसमें भी आवश्यक नहीं दक
दकया र्या। तानसेन ने टोड़ी रार् र्ाया और कहा
लर्ससे र्ो कहा र्या है वह उसे उसी रूप में
र्ाता है दक उसकी स्वर िहररयाुं र्ैसे ही वन खुंड
स्वीकार कर िे। कारण दक आर्कि वचन छि का
में र्ुुंलर्त हईं, मृर्ों का एक झुुंड वहााँ िौड़ता हआ
िौर िौरा है। िोर् एक िूसरे को ठर्ने की िृलष्ट से
चिा आया। भाव-लवभोर तानसेन ने अपने र्िे
कपट वचन बोिने की किा में प्रवीण हो चिे है।
पड़ी मािा एक हररण के र्िे में डाि िी। इस दक्रया
अस्तु सुनने वािे को फूाँ क-फूाँ क कर किम रखना
से सुंर्ीत प्रवाह रुक र्या और तभी सब के सब
होता है और िेखना पड़ता है दक कर्न में छि,
सम्मोलहत हररण र्ुंर्ि में भार् र्ये। टोड़ी रार्
प्रपुंच की िुरलभसुंलधयााँ तो घुसी हई नहीं है। दकतना
र्ाकर तानसेन ने यह लसद्ध कर दिया दक सुंर्ीत
कर्न सुंदिग्ध हो सकता है, इसकी खोर् करने में
मनुष्यों की ही नहीं, प्रालणमात्र की आलत्मक-प्यास
सुनने वािा िर्ता है। लर्तना अुंश र्िे उतरता है,
है, उसे सभी िोर् पसुंि करते हैं। इसके बाि
उतने पर ध्यान िेकर शेष को उपेक्षा के र्तग में फें क
बैर्ूबाबरा ने मृर् रुंर्नी टोड़ी रार् का अिाप
िेता है। र्ब सामारय व्यवहार तक में वाणी की यह
दकया। तब के वि एक वह मृर् िौड़ता हआ राज्य-
िुर्गलत हो रही हो। उच्चारण को अलवश्वस्त और
सभा में आ र्या, लर्से तानसेन ने मािा पहनाई
अप्रमालणक मानने की परम्परा चि रही हो तो
र्ी। इस प्रयोर् से बैर्ूबावरा ने यह लसद्ध कर दिया
उससे व्यावहाररक आिान प्रिान तक की
दक शब्ि के सूक्ष्मतम कुं पनों में कु छ ऐसी शलक्त और
आवश्यकताएाँ पूरी नहीं होती। दफर आध्यालत्मक
सम्मोहन भरा पड़ा है दक उससे दकसी भी दिशा के
प्रयोर्न तो पूरे हो ही कै से सकें र्े । इस करठनाई को
दकतनी ही िूरस्र् दकसी भी प्राणी तक अपना सुंिश

ध्यान में रखते हए ही मरत्राराधन में ‘वाणी’ मात्र
भेर्ा र्ा सकता है।
से सम्भव हो सकने वािे दक्रया-काण्डों को महत्त्व
शब्ि को ब्रह्म कहा र्या है। ‘शब्ि ब्रह्म-नाि नहीं दिया र्या है। र्ीभ से तो िोर् आये दिन
ब्रह्म’ शब्िों का उपयोर् शास्त्र में अनेक स्र्ानों पर कर्ा, कीतगन, भर्न, पाठ, र्प आदि के माध्यम से
आया है। यह उलक्त अिुंकार नहीं-वरन् यर्ार्ग है। तरह तरह के लचत्र लवलचत्र वचन बोिते रहते हैं।
हााँ, यदि ध्वलन मात्र को यह उपमा िी र्ाएर्ी तो यदि उतने भर से धमगचयाग के उद्देश्य पूरे हो र्ाया
उसे उपहासास्पि समझा र्ाएर्ा । लर्ह्वा स्वर करते तो दफर सरिता की अलत ही कही र्ाती।
यरत्र है। वाद्य यरत्र पर उिटी सीधी अुंर्ुिी से छोटे छोटे िाभ प्राप्त करने के लिए मनुष्य को कठोर
आघात िर्ाये र्ाएाँ तो आवार् भर होर्ी। क्रमबद्ध, श्रम करने, साधन र्ुटाने एवुं मनोयोर् िर्ाने की
तािबद्ध, रार्-रालर्नी लनकािनी हो तो उसके लिए आवश्यकता पड़ती है तब कहीं आधी अधूरी

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शब्ि ब्रह्म

सफिता का योर् बनता है। अध्यात्म क्षेत्र लर्तना दक्रया कृ त्यों को अनर्ढ़ नहीं-सुव्यवलस्र्त होना
उच्चस्तरीय है उतनी ही उसकी लवभूलतयााँ भी चालहए। भिे ही वह उच्चारण ही क्यों न हो? वाणी
बहमूल्य है। लनलित रूप से उसके लिए प्रयास भी को लशष्टाचार-सरतुिन सभ्यता का अुंर् माना र्ाता
अपेक्षाकृ त अलधक कष्ट साध्य ही होते हैं। यदि उतने है। र्ो ऐसे ही अण्ड-बण्ड बोिते रहते हैं वे असभ्य
बड़े िाभ मात्र लर्व्हा से अमुक शब्िाविी िुहरा कहिाते और लतरस्कार के पात्र बनते हैं। ऐसी िशा
िेने भर से प्राप्त हो र्ाया करते तो उरहें पाने से में मरत्र प्रयोर्नों में यदि उसके सार् र्ुड़े हए
कोई भी वुंलचत न रहता, पर इतना सस्तापन है व्यवस्र्ा लनयमों का पािन दकये र्ाने का लनिेश है
कहााँ ? महत्त्व की िृलष्ट से हर वस्तु का मूल्य तो उसका पािन होना ही चालहए। इसमें सतकग ता
लनधागररत है। अध्यात्म उपिलब्धयों में शब्ि शलक्त एवुं र्ार्रूकता अपनाये र्ाने की बात िृलष्टर्ोचर
की महत्ता बताई और मलहमा र्ाई र्ई है। होती है। यह दिशा उत्साहवधगक है। इससे प्रमाि पर
मरत्राराधन के फिस्वरूप लमिने वािे िाभों का अुंकुश िर्ने और व्यवस्र्ा अपनाने में उत्साह
वणगन लवस्तारपूवगक शास्त्रों में भरा पड़ा है, पर उसे उत्पन्न होने का बोध होता है, यह उलचत भी है और
शब्ि चमत्कार भर नहीं मान लिया र्ाना चालहए। आशार्नक भी। मरत्रों का उच्चारण शुद्ध हो। सही
यदि उच्चारण ही सब कु छ रहा होता तो साधन ग्ररर् हो। र्लत का ध्यान रहे। स्वर, िय, क्रम, लवराम
पढ़ने वािी से प्रेस कमगचारी और, पुस्तक लवक्रेता आदि को र्ाना माना र्ाय। यह अनर्ढ़पन से मरत्र
पहिे ही िाभालरवत हो िेते। पाठक को उनका चार की सभ्यता में प्रवेश करने का किम है। पूर्ा,
बचा-खुचा ही शायि कु छ हार् िर्ता। शब्िोच्चारण उपचार के अरय कमगकाण्डों में भी यह सतकग ता
में र्प के अलत सरि कमगकाण्ड के लिए र्ोड़ा-सा बरती र्ानी चालहए। आिसी प्रमादियों की तरह
सुंयम िर्ा िेने में दकसी को क्या कु छ असुलवधा आधी-अधूरी लचह्न पूर्ा करने की बेर्ार भुर्त िेने
होर्ी ? उतना तो कोई बािक नासमझ या वृद्ध से तो अश्रद्धा ही टपकती है। अरय मनस्कता एवुं
अशक्त भी कर सकता है, दफर समर्ग व्यलक्त तो उसे उपेक्षापूवगक दकये र्ये लनत्य कमग तक बेतुके बेढुंर्े
उत्साहपूवगक करते और भरपूर िाभ उठाते। ऐसा होते हैं, इस स्वभाव से तो आर्ीलवका उपार्गन र्ैसे
कहााँ होता है ? िाभों का महात्म्य लवस्तार पढ़ते काम तक असफि र्ैसे बने रहते हैं, दफर अध्यात्म
हए भी कु छ करने के लिए कहााँ दकसी का उत्साह मार्ग की उपिलब्धयों में तो उसका पररणाम
होता है। शब्ि ब्रह्म-शब्िों में र्ो र्हन रहस्य लछपा अवरोध उत्पन्न करने के अलतररक्त और कु छ हो ही
है वह यह है दक अध्यात्म प्रयोर्नों में प्रयुक्त होने क्या सकता है ?
वािी शब्िाविी को उच्चस्तरीय होना चालहए। वह
उच्चारण से िेकर लवलध-लवधान तक में
इतनी पररष्कृ त हो दक उसकी पलवत्रता,
सुव्यवस्र्ा एवुं सतकग ता बरती र्ानी चालहए दकरतु
प्रामालणकता एवुं क्षमता को ईश्वर के समतुल्य
इतने भर से ही यह नहीं मान िेना चालहए दक
ठहराया र्ा सके । इसके लिए कई िोर् स्वर
हमारे उच्चारण ‘मरत्र’ बन र्ये और उरहें शब्ि ब्रह्म
लवरयास की बात सोचते हैं और अनुमान िर्ाते हैं
की सुंज्ञा लमि र्ई। इसके लिए वाणी को ‘वाक् ’ के
दक मरत्रों में उच्चारण का र्ो स्वर क्रम बताया र्या
रूप में पररष्कृ त करना होर्ा। यह स्वर साधना नहीं
है, उसे र्ान िेने से काम बन र्ाएर्ा । यह मारयता
वरन् र्ीवन साधना के क्षेत्र में होने वािा प्रयोर् है।
भी तर्थय की दिशा में एक छोटा किम भर ही है।
इसके लिए समूचे व्यलक्तत्व को मन, वचन, कमग को,
इस लचरतन में इतनी सी र्ानकारी है दक हमारे

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शब्ि ब्रह्म

र्ुण कमग स्वभाव को, लचरतन एवुं चररत्र को, की सूक्ष्म शलक्त नष्ट होती है और उसके द्वारा
उच्चस्तरीय बनाने के भार्ीरर् प्रयत्न में र्ुटना होता उच्चररत शब्ि आध्यालत्मक प्रयोर्न पूरे कर सकने
है। मरत्रोच्चारण की लवलध-व्यवस्र्ा कु छ घण्टों में की क्षमता से रलहत ही बने रहते हैं। वाणी का
सीखी र्ा सकती है। उसका पररपूणग अभ्यास कु छ िूसरा कायग है वात्तागिाप। हमारे िैलनक र्ीवन में
दिनों में हो सकता है। दकरतु व्यलक्तत्व की मूि सत्ता वातागिाप का स्तर उच्चस्तरीय एवुं आिशग
का स्तर ऊाँचा उठाना काफी करठन है। उसके लिए परम्पराओं से युक्त होना चालहए। कटुता घृणा,
प्रबि पुरुषार्ग की आवश्यकता पड़ती है। िूसरों को लतरस्कार, छि, असत्य का पुट उसमें न रहे। िूसरों
सुधारने में लर्तनी करठनाई पड़ती है, अपने को को भ्रम में डािने, कु मार्ग पर चिने की प्रेरणा िेने
सुधारना उससे भी अलधक कष्ट साध्य और श्रम वािे, लहम्मत तोड़ने वािे शब्ि न बोिे। यह
साध्य है। लर्व्हा उच्चारण तरत्र है। अरय वाद्य यरत्रों लनयुंत्रण मात्र सतकग ता बरतने से नहीं हो सकता है।
की तरह उसका सही होना तो प्रार्लमक उपचार में भी बार-बार भूि होती रहती है।
आवश्यकता है। मरत्र की शब्िाविी शुद्ध हो। भाषा वस्तुतः हमारे भीतर सद्भावों का इतना र्हरा पुट
की अशुलद्धयााँ न हों। प्रवाह एवुं स्वर ठीक हो। इसके हो दक वाणी पर लनयरत्रण करने की आवश्यकता ही
अलतररक्त लर्व्हा साधना की िृलष्ट से सामारय न पड़े। र्ो भीतर होता है वही बाहर लनकिता है।
व्यवहार में उसके रसना प्रयोर्न एवुं वातागक्रम में यदि हमारे अरतःकरण में सद्भावनाएाँ भरी होंर्ी
साधकों र्ैसी रीलत नीलत का समावेश दकया र्ाय। िृलष्टकोण आिशगवािी होर्ा तो स्वभावतः वातागिाप
अलत की, हराम की कमाई न खाई र्ाय। पररश्रम में उच्चस्तरीय श्रेष्ठता भरी होर्ी। सद्भाव सम्पन्न
और रयाय के सहारे लर्तना कु छ कमाया र्ा सके मनुष्यों का सामारय वातागिाप भी शास्त्र वचन के
उतने में ही लमतव्यलयतापूवगक र्ुर्ारा दकया र्ाय। स्तर का होता है उनके मुख से लनकिने वािे वाक्य
चटोरे पन की बुरी आित से िड़ा र्ाय और सालत्वक ‘आप्त वाक्य’ कहिाने योग्य होते हैं। इस प्रकार का
सुपाच्य पिार्ों को औषलध भाव से उतनी ही मात्रा वाताग-अभ्यास लर्व्हा को िैवी प्रयोर्नों के उपयुक्त
में लिया र्ाय लर्तनी दक पेट की आवश्यकता एवुं बनाता चिा र्ाता है। उसके द्वारा लर्न मरत्रों की
क्षमता है। इस िृलष्टकोण को अपनाने वािे के लिए आराधना की र्ाती है वे सफि ही होते चिे र्ाते
मद्य, मााँस र्ैसे अभक्ष्य को ग्रहण करने की तो बात हैं। मरत्र को धीमे र्पा र्ाता है। शब्िाविी अस्पष्ट
ही क्या-उत्तेर्क मसािे और नशीिे पिार्ों-लमष्ठान्न एवुं धीमी रहती है। बहत बार तो वालचक से भी
पकवानों तक से परहेर् करने की र्रूरत स्पष्ट है। अलधक महत्त्व मानलसक और उपााँशु का होता है।
सालत्वक आहार से मनः क्षेत्र में सालत्वकता बढ़ती है उनमें तो वाणी नाम मात्र को ही होती है। दकरतु
और उससे अनेकों िोष−िुर्ुगण र्ो अभक्ष्य खाते इन मौन र्पों में भी मध्यमा, परा, पश्यरती,
रहने पर छु ट नहीं सकते र्े, अनायास ही घटते- वालणयााँ काम करती रहती है। यह तीनों वालणयााँ
लमटते चिे र्ाते हैं। अस्वाि व्रत पािन करने वािे मनुष्य के िृलष्टकोण, चररत्र एवुं आकाुंक्षा से
के लिए अरय इलरियों पर काबू रख सकना सरि हो सम्बलरधत रहती है। यदि व्यलक्त ओछा, घरटया और
र्ाता है। िुष्ट है। उसकी आकाुंक्षाएाँ लनकृ ष्ट, िृलष्टकोण लवकृ त
एवुं चररत्र भ्रष्ट है तो तीनों सूक्ष्म वालणयााँ
आहार की सालत्वकता का वाणी की पलवत्रता
लनम्नस्तरीय ही बनी रहेंर्ी और उनका समरवय
पर र्हरा असर पड़ता है। अभक्ष्य आहार से लर्व्हा
रहने में बैखरी वाणी तक प्रभावहीन सुंदिग्ध एवुं

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शब्ि ब्रह्म

अप्रामालणक बनी रहेर्ी उसका सााँसाररक उपयोर् काम करता है। इस ‘परावाक् ’ का स्तवन करते हए
कोई महत्त्वपूणग पररणाम उत्पन्न न कर सके र्ा दफर श्रुलत कहती है।
उसके द्वारा की र्ई मरत्र साधना तो सफि हो ही
िेवी वाचमर्नयरत िेवास्तााँ, लवश्वरूपाः पशवो
कै से सकती है ? मरत्र र्प की सरि लवलध के सार्
विलरत। सा नो मुंिष्े षमूर्ग िुहाना,
करठन साधना यह है दक उसके लिए लर्व्हा समेत
धेनुवागर्स्मानुपसुष्टुवैतु॥ प्रा वाक् िेवी है। लवश्व
समस्त उपकरणों का पररशोधन करना पड़ता है।
रूलपणी है। िेवताओं की र्ननी है। िेवता मरत्रात्मक
र्ो तर्थय को समझते हैं वे साधनाओं के लवलध-
ही है। यही लवज्ञान है। इसे कामधेनु हम बोिते और
लवधान तक सीलमत न रह कर र्ीवन-प्रदक्रया को
र्ानते हैं।
उच्चस्तरीय बनाने की सुलवस्तृत रूपरे खा तैयार
करते हैं। उस प्रयास में लर्से लर्तनी सफिता ३.आप्यायध्वम्= इस प्रकार तुम प्रलतदिन बढ़ो
लमिेर्ी उसके र्प तप उसी अनुपात में सफि होते और तुम्हार झुकाव श्रेष्ठ कमों में हो।
िेखे र्ा सकें र्े । शब्ि ब्रह्म का साक्षात्कार इसी मार्ग
“िृष््वा रूपे व्याकरोत् सत्यानृते प्रर्ापलतः ।
पर चिने से सम्भव होता है। समूची आत्मसत्ता को
अश्रद्धाममनृतेSधाच्रद्धाुं सत्ये प्रर्ापलतः ।।”
पररष्कृ त बनाने से वाणी की पररलणत ‘वाक् ’ शलक्त
(यर्ुवेिः–१९.७७)
में होती है। वाक् शलक्त का प्रभाव असीम है। उसकी
सहायता से असम्भव को भी सम्भव दकया र्ा सवगज्ञ और आदिस्रष्टा परमेश्वर ने अश्रद्धा को
सकता है। असत्य में तर्ा श्रद्धा को सत्य में स्र्ालपत दकया है ।
“श्रद्धा”–शब्ि श्रत् धा इन िो तत्त्वों के योर् से
शतपर् ब्राह्मण में शब्ि ब्रह्म का लववेचन करते
लनष्पन्न होता है । “श्रत्” का अर्ग है सत्य या ज्ञान
हए कहा र्या है। परा वाक् उसका ममगस्र्ि है।
और धा का तात्पयग धारण करना या भावना है ।
परा वाक् का रहस्योद्घाटन करते हए बताया है-वह
अतः के वि सहर् लवश्वास अर्वा अरधलवश्वास का
हृियस्पशी है प्रसुप्त को र्र्ाती है। स्वर्ग, मुलक्त और
नाम श्रद्धा नहीं है । सत्य को लनियपूवगक र्ानकर
लसलद्ध का आधार वही है। िेवताओं के अनुग्रह
उसे िृढता के सार् धारण करना श्रद्धा है । सत्य
वरिान का के रि उसी में है। इस लवश्व में र्ो कु छ
धारणा अर्वा लनष्ठा के सार् अभीष्ट की ओर उरमुख
श्रेष्ठता है वह वाक् की प्रलतध्वलन एवुं प्रलतदक्रया ही
रहना श्रद्धा है अर्वा हृि की र्हनतम भावना के
समझी र्ानी चालहए। वैखरी वाणी र्ब साधना
सार् साध्य की साधना करना श्रद्धा है ।श्रद्धा हृिय
सम्पन्न होकर ‘वाक् ’ बनती है तो उसका लवस्तार
की उत्कृ ष्टतम अनुभूलत है । अरय शब्िों में श्रेष्ठता की
श्रवण क्षेत्र तक सीलमत न रह कर तीनों िोकों की
प्रलत अटूट आस्र्ा का नाम ही श्रद्धा है । अरतःकरण
पररलध तक व्यापक होता है। वाणी में ध्वलन है
की दिव्यभूलम में र्ब श्रद्धा अुंकुररत होती है तो
ध्वलन में अर्ग। दकरतु वाक् शलक्त रूपा है। उसकी
व्यलक्त का समग्र र्ीवन प्रशस्त हो उठता है । श्रद्धा
क्षमता का उपयोर् करने पर वह सब र्ीता र्ा
आध्यालत्मक क्षेत्र की ऊर्ाग है । लर्स प्रकाप भौलतक
सकता है। र्ो र्ीतने योग्य है। कौत्स मुलन ने मरत्र
क्षेत्र में अलि या सूयग की शलक्त ऊर्ाग मानी र्ाती है,
अक्षरों के अर्ग की उपेक्षा होती है और कहा है दक
वैसे ही अध्यात्म के क्षेत्र में आरतररक ऊर्ाग श्रद्धा ही
उनकी क्षमता शब्ि र्ुाँर्न के आधार पर समझी
है । श्रद्धा ही सारे धार्मगक कृ त्यों और आयोर्नों का
र्ानी चालहए। उसमें ‘वाक् ’ तत्त्व ही प्रधान रूप से
प्राण है, उसके लबना मनुष्य के सब धमग लनष्फि है ।

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शब्ि ब्रह्म

धार्मगक कमगकाण्ड और मारयताएाँ श्रद्धा के अभाव में “श्रद्धया िेवो िेवत्वमश्नुते ।” (तैलत्तरीय-ब्राह्मण—
मूल्यहीन हो र्ाती है । अतः शलक्त या प्रभाव ३.२.३) मानव र्ीवन में ज्ञान का महत्त्व सवोच्च
आडम्बर की लवशािता में नहीं, श्रद्धा की शलक्त में है—“नलह ज्ञानेन सिृशुं पलवत्रलमह लवद्यते ।”
सलन्नलहत होता है । कमगकाण्ड की या साधन-लवधान (र्ीता–३.३८) अर्ागत् सुंसार में ज्ञान से बढकर
की उतनी महत्ता नहीं, लर्तनी उसके मूि में काम पलवत्र कु छ भी नहीं है तर्ा ज्ञान प्रालप्त के मार्ग में
करने वािा श्रद्धा की है । श्रद्धालवहीन कमग मनुष्य श्रद्धा का लवशेष महत्त्व है—“श्रद्धावाुंल्िभते
को िकीर का फकीर बना िेते हैं । श्रद्धा न हो तो ज्ञानम्।” (र्ीता–३.३९) श्रद्धावान् व्यलक्त को ही
यज्ञ की अलि और रसोई के चूल्हे की अलि, वेिमरत्रों ज्ञान-िाभ होता है । श्रद्धा से ही ज्ञानरूप अलि
और साधारण शब्िों तर्ा र्ाय और घोडे में कोई प्रज्वलित होती है । श्रद्धा होने पर ही सद्र्ुरु एवुं
अरतर नहीं रह र्ाएर्ा । इसीलिए श्रुलत का उद्घोष सद्ग्ररर् प्रभावी होते हैं । इसीलिए कहा र्या है दक
है- “श्रद्धयालिः सलमध्यते श्रद्धया हूयते हलवः ।” श्रद्धायुक्त कमों का उि अनरत होता है—
(ऋग्वेिः–१०.१५१.१) श्रद्धा के अलभलसञ्चन से
“श्रद्धालवलधसमायुक्तुं कमग यत् दक्रयते नृलभः ।
असाध्य कायग भी लसद्ध हो सकते हैं, पाषाण में भी
सुलवशुद्धन
े भावेन तिनरताय कल्पते ।।”
प्राणवानों र्ैसी दिव्य शलक्त का सञ्चार हो सकता है
(याज्ञवल्क्य-स्मृलतः) साधना के क्षेत्र में श्रद्धा की
। श्रद्धा के बि पर ही एकिव्य ने लमट्टी की
अपररलमत शलक्त ही काम करती है । श्रद्धा और
िोणाचायग की प्रलतमा से उतनी लशक्षा प्राप्त कर िी
लवश्वास होने पर ही परमात्मा की प्रालप्त होती है,
र्ी, लर्तनी पाण्डव साक्षात् िोणाचायग से भी प्राप्त
यह तकग से सुंभव नहीं है । हमारे शास्त्रकार स्वयुं
नहीं कर सके । श्रद्धा के कारण ही युलधलष्ठर का
यह घोषणा करते हैं दक र्ो हमारे अच्छे आचरण है,
लवशाि रार्सूय यज्ञ नेविे के आधे शरीर को
उरहीं का तुम्हे अनुसरण करना चालहए, अरय का
सुवणगमय नहीं बना सका, दकरतु लनधगन ब्राह्मण के
नहीं—“यारयस्माकुं सुचररतालन तालन
त्यार् ने उसे आधी कञ्चन काया प्रिान कर िी र्ी ।
त्वयोपास्यालन नो इतरालण ।” आर् हमारे समार् में
इसलिए नारिपुराण में कहा र्या है दक श्रद्धा से ही
नैलतक मूल्यों का सुंकट लवषम रूप में उपलल्र्त है ।
सब कु छ लसद्ध होता है और श्रद्धा से ही भर्वान्
एक ओर वैज्ञालनक प्रर्लत ने तर्ाकलर्त लशलक्षत
सरतुष्ट होते हैं । श्रद्धा की मलहमा प्रकट करते हए
मनुष्य को मानवीय र्ुणों से शूरय, यरत्रवत् बना
र्ीताकार ने भी कहा है— “सत्त्वानुरूपा सवगस्य
डािा है तो िूसरी ओर अलधसुंख्य अलशलक्षत र्न
श्रद्धा भवलत भारत । श्रद्धामयोSयुं पुरुषों यो
अरधश्रद्धा के र्ाि में र्कडे हए हैं । अतः इस बात
यच्छरग द्धः स एव सः ।।” (र्ीता–१७.३)
की महती आवश्यकता है दक “श्रद्धा” र्ैसे
अर्ग—लर्सकी र्ैसी श्रद्धा होती है, वह वैसा ही सावगकालिक, सावगभौलमक सद्र्ुणों के सत्य स्वरूप
बन र्ाता है । व्यलक्तत्व की श्रेष्ठता-लनकृ ष्टता की को र्नसाधारण तक पहाँचाया र्ाए, तादक
पहचान यही श्रद्धा ही है । श्रद्धा से ही सत्य की भारतीय सुंस्कृ लत के सनातन सरिेश सवगर्नग्राह्य
लसलद्ध होती है—“श्रद्धया सत्यमाप्यते” (यर्ुवेिः– हो सके । वैदिक ऋलष की यह कामना पूणग हो—
१९.३०) श्रद्धा से ही वसु की उपिलब्ध होती है— “श्रद्धाुं प्रातहगवामहे श्रद्धाुं मध्यलरिनुं परर । श्रद्धा
“श्रद्धया लवरिते वसु” (ऋग्वेिः–१०.१५१.४) तर्ा सूयगस्य लनम्रुलच श्रद्धे श्रद्धापयेह नः ।।” (ऋग्वेिः–
श्रद्धा से ही लवद्वान् र्न िेवत्व को प्राप्त करते हैं— १०.१५१.४)

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शब्ि ब्रह्म

शब्िाद्वैतवाि के अनुसार शब्ि ही ब्रह्म है। उसकी श्रवणेलरियों की मयागिा अपनी सीमा रे खा को चीर
ही सत्ता है। सम्पूणग र्र्त शब्िमय है। शब्ि की ही नहीं पाती। फिस्वरूप वे ध्वलनयााँ सुनाई नहीं
प्रेरणा से समस्त सुंसार र्लतशीि है। महती स्फोट पड़तीं। कान यदि सूक्ष्मातीत ध्वलन तरुं र्ों को
प्रदक्रया से र्र्त की उत्पलत्त हई तर्ा उसका पकड़ने िर्ें तो मािूम होर्ा दक सुंसार में नीरवता
लवनाश भी शब्ि के सार् होर्ा। इलरियों में सबसे कहीं और कभी भी नहीं है। कमरे में बरि आिमी
अलधक चुंचि तर्ा वेर्वान मन को माना र्या है। अपने को कोिाहि से िूर पाता है। पर सच्चाई यह
‘मन के तीन प्रमुख कायग हैं’- स्मृलत, कल्पना तर्ा है दक उसके चारों और कोिाहि का साम्राज्य है।
लचरतन। इन तीनों से ही मन की चुंचिता बनती है। समूचा अरतररक्ष ध्वलन तरुं र्ों से आिोलड़त है। उनमें
िेदकन यदि मन को शब्ि का माध्यम न लमिे तो से र्ोड़ी-सी ध्वलनयााँ मात्र मनुष्य के कानों तक
उसे चुंचिता नहीं प्राप्त हो सकती। उसकी र्लत पहाँच पाती हैं। प्रकृ लत की अर्लणत घटनाएाँ सूक्ष्म
शब्ि की बैसाखी पर लनभगर है। सारी स्मृलतयााँ, र्र्त में पकती रहती हैं। घरटत होने के पूवग भी
कल्पनाएाँ तर्ा लचरतन शब्ि के माध्यम से चिते हैं। उनकी सूक्ष्म ध्वलन तरुं र्ें सूक्ष्म अरतररक्ष में
िैनलरिन र्ीवन में काम आने वािे शब्िों को िो िोियमान रहती हैं। उरहें पकड़ा और सुना र्ा सके
भार्ों में बााँटा र्ा सकता है- व्यक्त और अव्यक्त। तो दकतनी ही प्रकृ लत की घटनाओं का पूवागनुमान
र्ैन पुंरर्ी इरहें अपनी भाषा में र्ल्प और अरतर्गल्प िर्ा सकना सम्भव है। मनुष्येत्तर दकतने ही र्ीव
कहते हैं। र्ो बोिा र्ाता है उसे र्ल्प कहते हैं। ऐसे हैं लर्रहें प्रकृ लत की घटनाओं का भूकम्प, तूफान
र्ल्प का अर्ग है- व्यक्त स्पष्ट मरतव्य। र्ो स्पष्टतः आदि लवभीलषकाओं का पूवागभास हो र्ाता है।
बोिा नहीं र्ाता, मन में सोचा अर्वा लर्सकी मात्र सूचना लमिते ही उनका व्यवहार बिि र्ाता है।
कल्पना की र्ाती है वह है- अरतर्गल्प। मुाँह बरि अपनी आित के लवरुद्ध वे अस्वाभालवक आचरण
होने होठ के लस्र्र होने पर भी मन के द्वारा बोिा करने िर्ते हैं। दकतने ही सुरक्षा के लिए सुरलक्षत
र्ा सकता है, र्ो कु छ भी सोचा र्ाता है, वह भी स्र्ानों की ओर िौड़ने िर्ते हैं। सूक्ष्म ध्वलन
एक प्रकार से बोिने की प्रदक्रया है तर्ा उतनी ही स्परिनों के आधार पर ही वे सम्भाव्य लवभीलषकाओं
प्रभावशािी होती है लर्तनी की व्यक्त वाणी। शब्ि का अनुमान िर्ा िेते हैं। र्ो कु छ भी बोिा अर्वा
अपनी अलभव्यलक्त के पूवग चचुंतन के रूप में होता है। सोचा र्ाता है वह तुररत समाप्त नहीं हो र्ाता,
अपनी उत्पलत्त काि में वह सूक्ष्म होता है पर बाहर सूक्ष्म रूप में अरतररक्ष में लवद्यमान रहता, तरुं लर्त
आते-आते वह स्र्ूि बन र्ाता है। र्ो सूक्ष्म है वह होता रहता है। हर्ारों-िाखों वषों तक ये कम्पन
हमारे लिये अश्रव्य है। र्ो स्र्ूि है वही सुनाई उसी रूप में रहते हैं। ऐसे प्रयोर् भी वैज्ञालनक क्षेत्र
पड़ता है। ध्वलन लवज्ञान ने ध्वलनयों को िो रूपों में में चि रहे हैं दक भूतकाि में र्ो कु छ भी कहा र्या
लवभक्त दकया है-श्रव्य और अश्रव्य। अश्रव्य- अर्ागत्- है ईर्र में लवद्यमान है उसे यर्ावत् पकड़ा र्ा सके ।
अल्रा साउण्ड- सुपर सोलनक। हमारे कान मात्र सदियों पूवग महा-मानवों ऋलष कल्प िेव पुरुषों ने
20000 कम्पन आवृलत्त को ही पकड़ सकते हैं। वे क्या कहा होर्ा, उसे प्रत्यक्ष सुना र्ा सके ऐसे
रयूनतम 20 कम्पन आवृलत्त प्रलत सेकेण्ड तर्ा अनुसरधान प्रयोर्ावलध में हैं। अभी सफिता तो
अलधकतम 20 हर्ार कम्पन आवृलत्त प्रलत सेकेण्ड नहीं लमि पायी है पर वैज्ञालनक आश्वस्त हैं दक आर्
को पकड़ने में सक्षम हैं। पर उनसे कम तर्ा अलधक नहीं तो कि वह लवद्या हार् िर् र्ायेर्ी।
आवृलत्त वािी ध्वलन तरुं र्ों का भी अलस्तत्व है। लनस्सरिेह यह उपिलब्ध मानव र्ालत के लिए

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शब्ि ब्रह्म

महत्वपूणग तर्ा अलद्वतीय होर्ी अब तक की रूपारतरण- लवचारों में पररवतगन उसके प्रभाव से
वैज्ञालनक उपिलब्धयों में वह सवोपरर होर्ी। ही होता है। यों तो वेिों के हर मरत्र एवुं छरि का
सम्भवतः इसी आधार पर कृ ष्ण द्वारा कही र्यी अपना महत्व है। िेखने में र्ायत्री महामरत्र भी अरय
र्ीता, एवुं राम रावण सुंवािों को अपने ही कानों से मरत्रों की तरह सामारय ही िर्ता है, र्ो नौ शब्िों
सुनना सम्भव हो सके र्ा। रे लडयो, टेिीलवर्न, तर्ा 24 अक्षरों से लमिकर बना है। पर लर्न
राडार की भााँलत प्राचीन काि के आलवष्कारों में कारणों से उसकी लवलशष्टता आाँकी र्ई है वे हैं- मरत्र
सबसे अलधक महत्वपूणग तर्ा चमत्कारी खोर् र्ी- के लवलशष्ट क्रम में अक्षरों एवुं शब्िों का र्ुाँर्न प्रवाह,
मरत्र लवद्या। मरत्र ध्वलन लवज्ञान का सूक्ष्मतम उनका चक्र-उपलत्यकाओं पर प्रभाव तर्ा उसकी
लवज्ञान र्ा। इसके अनुसार र्ो कायग आधुलनक यरत्रों महान प्रेरणाएाँ। हर अक्षर एक लवलशष्ट क्रम में
के माध्यम से हो सकते हैं वे मरत्र के प्रयोर् से भी र्ुड़कर असीम शलक्तशािी बन र्ाता है। 24 रत्नों के
सम्भव हैं। पिार्ग की तरह अक्षरों तर्ा अक्षरों से रूप में अक्षरों के नवनीत का एक मलणमुक्तक बना
युक्त शब्िों में अकू त शलक्त का भाण्डार्ार मौर्ूि है। तर्ा आदिकाि में प्रकट हआ। ब्रह्म की स्फु रणा के
मरत्र कु छ शब्िों के र्ुच्छक मात्र होते हैं पर ध्वलन रूप में र्ायत्री मरत्र का प्रािुभागव हआ तर्ा आदि
शास्त्र के आधार पर उनकी सुंरचना बताती है दक मरत्र कहिाया। सामर्थयग की िृलष्ट से इतना लविक्षण
एक लवलशष्ट ताि, क्रम एवुं र्लत से उनके उच्चारण से एवुं चमत्कारी अरय कोई भी मरत्र नहीं है। दिव्य
लवलशष्ट प्रकार की ऊर्ाग उत्पन्न होती है। प्राचीन प्रेरणाओं की उसे र्ुंर्ोत्री कहा र्ा सकता है। सुंसार
काि में ऋलषयों ने शब्िों की र्हराई में र्ाकर के दकसी भी धमग में इतना सुंलक्षप्त, पर इतना अलधक
उनकी कारण शलक्त की खोर्-बीन के आधार मरत्रों सर्ीव एवुं सवाांर्पूणग कोई भी प्रेरक िशगन नहीं है
एवुं छरिों की रचना की र्ी। लपछिे दिनों ध्वलन र्ो एक सार् उन सभी प्रेरणाओं को उभारे लर्नसे
लवज्ञान पर अमेररका पलिम र्मगनी में दकतनी ही महानता की ओर बढ़ने तर्ा आत्मबि सम्पन्न बनने
महत्वपूणग खोर्ें हई हैं। साउण्ड र्ैरेपी एक नयी का पर्-प्रशस्त होता है। ब्रह्म की अनुभूलत शब्ि
उपचार पद्धलत के रूप में लवकलसत हई है। ध्वलन ब्रह्म-नाि ब्रह्म के रूप में भी होती है लर्सकी सूक्ष्म
कम्पनों के आधार पर मारक शस्त्र भी बनने िर्े हैं। स्फु रणा हर पर सूक्ष्म अरतररक्ष में हो रही है।
ब्रेन वाचशुंर् के अर्लणत प्रयोर्ों में ध्वलन लवद्या का र्ायत्री महामरत्र नाि ब्रह्म तक पहाँचने का एक
प्रयोर् होने िर्ा है। अरतररक्ष की यात्रा करने वािे सशक्त माध्यम है। प्राचीन काि की तरह सामारय
राके टों, स्पेस शटिों के लनयरत्रण सुंचािन में भी व्यलक्त को भी अलतमानव- महामानव बना िेने की
शब्ि लवज्ञान का महत्वपूणग योर्िान है। पर सामर्थयग उसमें मौर्ूि है। आवश्यकता इतनी भर है
वैज्ञालनक क्षेत्र में ध्वलन लवद्या का अब तक लर्तना दक र्ायत्री मरत्र की उपासना के लवलध-लवधानों तक
प्रयोर् हआ है, वह स्र्ूि है, सूक्ष्म और कारण ही सीलमत न रहकर उसने लनलहत िशगन एवुं
स्वरूप अभी भी अलवज्ञात अप्रयुक्त है र्ो स्र्ूि की प्रेरणाओं को भी हृियुंर्म दकया र्ाय और तद्नुरूप
तुिना में कई र्ुना अलधक सामर्थयगवान है। मरत्रों में अपने व्यलक्तत्व को ढािा र्ाय। पूरी श्रद्धा के सार्
शब्िों की स्र्ूि की अपेक्षा सूक्ष्म एवुं कारण शलक्त मरत्र का अविम्बन लिया र्ा सके तो आर् भी वह
का अलधक महत्व है। मानवी व्यलक्तत्व की र्हरी पुरातन काि की ही तरह चमत्कारी सामर्थयगिायी
परतों- मन एवुं अरतःकरण को मरत्र की सूक्ष्म एवुं लसद्ध हो सकता है।
कारण शलक्त ही प्रभालवत करती है। व्यलक्तत्व का

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शब्ि ब्रह्म

रार्कु मार और उसके पुत्र के बलििान की पीछे नर्र से बाहर र्या और वीरवर ने र्ा कर उस
कहानीः- दकसी समय शूिक नामक रार्ा राज्य रोती हई, रुप तर्ा यौवन से सुुंिर और सब
दकया करता र्ा। उसके राज्य में वीरवर नामक आभूषण पलहने हए दकसी स्री को िेखा और पूछा -
महारार्कु मार दकसी िेश से आया और रार्ा की तू कौन है ? दकसलिये रोती है ? स्री ने कहा - मैं इस
ड्योढ़ी पर आ कर द्वारपाि से बोिा, मैं रार्पुत्र हूाँ, शूिक की रार्िक्ष्मी हूाँ। बहत काि से इसकी
नौकरी चाहता हूाँ। रार्ा का िशगन कराओ। दफर भुर्ाओं की छाया में बड़े सुख से लवश्राम करती र्ी।
उसने उसे रार्ा का िशगन कराया और वह बोिा-- अब िूसरे स्र्ान में र्ाऊाँर्ी। वीरवर बोिा - लर्समें
महारार्, र्ो मुझ सेवक का प्रयोर्न हो तो मुझे नाश का सुंभव है, उसमें उपाय भी है। इसलिए कै से
नौकर रलखये, शूिक बोिा - तुम दकतनी तनख्वाह दफर यहााँ आपका रहना होर्ा ? िक्ष्मी बोिी - र्ो
चाहते हो ? वीरवर बोिा -- लनत्य पााँच सौ मोहरें तू बत्तीस िक्षणों से सुंपन्न अपने पुत्र शलक्तधर को
िीलर्ये। रार्ा बोिा -- तेरे पास क्या- क्या सामग्री सवगमुंर्िा िेवी की भेंट करे , तो मैं दफर यहााँ बहत
है ? वीरवर बोिा -- िो बााँहें ओर तीसरा खड्र्। काि तक रहूाँ। यह कह कर वह अुंतधागन हो र्ई।
रार्ा बोिा यह बात नहीं हो सकती है। यह सुनकर दफर वीरवर ने अपने घर र्ा कर सोती हई अपनी
वीरवर चि दिया। दफर मुंलत्रयों ने कहा-- हे स्री को और बेटे को र्र्ाया। वे िोनों नींि को छोड़,
महारार्, चार दिन का वेतन िे कर इसका स्वरुप उठ कर खड़े हो र्ये। वीरवर ने वह सब िक्ष्मी का
र्ान िीलर्ये दक यह क्या उपयोर्ी है, र्ो इतना वचन उनको सुनाया। उसे सुन कर शलक्तधर आनुंि
धन िेता है या उपयोर्ी नहीं है। दफर मुंत्री के वचन से बोिा - मैं धरय हूाँ, र्ो ऐसे, स्वामी के राज्य की
से बुिवाया और वीरवर को बीड़ा िेकर पााँच सौ रक्षा के लिए मेरा उपयोर् प्रशुंसनीय है। इसलिए
मोहरें िे िी। और उसका काम भी रार्ा ने छु प कर अब लविुंब का क्या कारण है ? ऐसे काम में िेह का
िेखा। वीरवर ने उस धन का आधा िेवताओं को त्यार् प्रशुंसनीय है।
और ब्राह्मणों को अपगण कर दिया। बचे हए का
धनालन र्ीलवतुं चैव परार्े प्राज्ञ उत्सृर्त
े ।
आधा िुलखयों को, उससे बचा हआ भोर्न के तर्ा
सलन्नलमत्ते वरुं त्यार्ो लवनाशे लनयते सलत।। अर्ागत,
लविासादि में खचग दकया। यह सब लनत्य काम करके
पलण्डत को परोपकार के लिए धन और प्राण छोड़
वह रार्ा के द्वार पर रातदिन हार् में खड्र् िेकर
िेने चालहए, लवनाश तो लनित होर्ा ही, इसलिये
सेवा करता र्ा और र्ब रार्ा स्वयुं आज्ञा िेता, तब
अच्छे कायग के लिए प्राणों का त्यार् श्रेष्ठ है।
अपने घर र्ाता र्ा। दफर एक समय कृ ष्णपक्ष की
शलक्तधर की माता बोिी - र्ो यह नहीं करोर्े तो
चौिस के दिन, रात को रार्ा को करुणासलहत रोने
और दकस काम से इस बड़े वेतन के ॠण से उनुंतर
का शब्ि सुना। शूिक बोिा - यहााँ द्वार पर कौन-
होर्े ? यह लवचार कर सब सवगमुंर्िा िेवी के स्र्ान
कौन है ? उसने कहा - महारार्, मैं वीरवर हूाँ।
पर र्ये। वहााँ सवगमुंर्िा िेवी की पूर्ा कर वीरवर
रार्ा ने कहा - रोने की तो टोह िर्ाओं। र्ो
ने कहा - हे िेवी, प्रसन्न हो, शूिक महारार् की र्य
महारार् की आज्ञा, यह कहकर वीरवर चि दिया
हो, र्य हो। यह भेंट िो। यह कह कर पुत्र का लसर
और रार्ा ने सोचा- यह बात उलचत नहीं है दक इस
काट डािा। दफर वीरवर सोचने िर्ा दक - लिये
रार्कु मारों को मैंने घने अुंधेरे में र्ाने की आज्ञा िी।
हए रार्ा के ॠण को तो चुका दिया। अब लबना पुत्र
इसलिये मैं उसके पीछे र्ा कर यह क्या है, इसका
के र्ीलवत दकस काम का ? यह लवचार कर उसने
लनिय करूगाँ। दफर रार्ा भी खड्र् िेकर उसके

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अपना लसर काट दिया। दफर पलत और पुत्र के शोक वािे को ियारलहत नहीं होना चालहये। यह
से पीलड़त स्री ने भी अपना लसर काट डािा, तब महापुरुष का िक्षण इसमें सब है। बाि में रार्ा ने
रार्ा आियग से सोचने िर्ा, प्रातःकाि लशष्ट िोर्ों की सभा करके और सब
वृत्ताुंत की प्रशुंसा करके प्रसन्नता से उसे कनागटक का
र्ीवलरत च लम्रयरते च मलद्वधा: क्षुिर्रतवः।
राज्य िे दिया।
अनेन सिृशो िोके न भूतो न भलवष्यलत।।
एक समय की बात है । एक नर्र में एक कुं र्ूस
अर्ागत, मेरे समान नीच प्राणी सुंसार में र्ीते हैं
रार्ेश नामक व्यलक्त रहता र्ा । उसकी कुं र्ूसी
और मरते भी हैं, परुं तु सुंसार में इसके समान न
सवगप्रलसद्ध र्ी । वह खाने, पहनने तक में भी कुं र्ूस
हआ और न होर्ा। इसलिए ऐसे महापुरुष से शूरय
र्ा । एक बात उसके घर से एक कटोरी र्ुम हो र्ई
इस राज्य से मुझे भी क्या प्रयोर्न है बाि में शूिक
। इसी कटोरी के िुःख में रार्ेश ने 3 दिन तक कु छ
ने भी अपना लसर काटने को खड्र् उठाया। तब
न खाया । पररवार के सभी सिस्य उसकी कुं र्ूसी से
सवगमुंर्िा िेवी ने रार्ा का हार् रोका और कहा- हे
िुखी र्े । मोहल्िे में उसकी कोई इज्जत न र्ी,
पुत्र, मैं तेरे ऊपर प्रसन्न हूाँ, इतना साहस मत करो।
क्योंदक वह दकसी भी सामालर्क कायग में िान नहीं
मरने के बाि भी तेरा राज्य भुंर् नहीं होर्ा। तब
करता र्ा । एक बार उस रार्ेश के पड़ोस में
रार्ा साष्टाुंर् िुंडवत और प्रणाम करके बोिा -- हे
धार्मगक कर्ा का आयोर्न हआ । वेिमुंत्रों व्
िेवी, मुझे राज्य से क्या है या र्ीन से भी क्या
उपलनषिों पर आधाररत कर्ा हो रही र्ी । रार्ेश
प्रयोर्न है ? र्ो मैं कृ पा के योग्य हूाँ तो मेरी शेष
को सद्बुलद्ध आई तो वह भी कर्ा सुनने के लिए
आयु से स्री पुत्र सलहत वीरवर र्ी उठे । नहीं तो मैं
सत्सुंर् में पहाँच र्या । वेि के वैज्ञालनक लसद्धाुंतों को
अपना लसर काट डािूाँर्ा। िेवी बोिी"-- हे पुत्र,
सुनकर उसको भी रस आने िर्ा क्योंदक वैदिक
र्ाओ तुम्हारी र्य हो। यह रार्पुत्र भी पररवार
लसद्धारत व्यावहाररक व् वास्तलवकता पर आधाररत
सलहत र्ी उठे । यह कह कर िेवी अरतध्र्यान हो र्ई।
एवुं सत्य-असत्य का बोध कराने वािे होते है ।
बाि में वीरवर अपने स्री- पुत्र सलहत घर को र्या।
कुं र्ूस को ओर रस आने िर्ा । उसकी कोई किर न
रार्ा भी उनसे छु प कर शीघ्र रनवास में चिा
करता दफर भी वह प्रलतदिन कर्ा में आने िर्ा ।
र्या। इसके उपराुंत प्रातःकाि रार्ा ने ड्योढ़ी पर
कर्ा के समाप्त होते ही वह सबसे पहिे शुंका पूछता
बैठे वीरवर से दफर पूछा और वह बोिा- हे
। इस तरह उसकी रूलच बढती र्ई । वैदिक कर्ा के
महारार्, वह रोती हई स्री मुझे िेखकर अुंतध्र्यान
अुंत में िुंर्र का आयोर्न र्ा इसलिए कर्ावाचक
हो र्ई, और कु छ िूसरी बात नहीं र्ी। उसका वचन
ने इसकी सूचना िी दक कि िुंर्र होर्ा । इसके
सुन कर रार्ा सोचने िर्ा -""इस महात्मा की दकस
लिए र्ो श्रद्धा से कु छ भी िाना चाहे या िान
प्रकार बड़ाई करूगाँ।''
करना चाहे तो कर सकता है । अपनी-अपनी श्रद्धा
लप्रयुं ब्रूयािकृ पणः शूरः स्यािलवकत्र्नः। िाता के अनुसार सभी िोर् कु छ न कु छ िाए । कुं र्ूस के
नापात्रवषी च प्रर्ल्भः स्यािलनष्ठु रः। हृिय में र्ो श्रद्धा पैिा हई वह भी एक र्ठरी बाुंध
सर पर रखकर िाया । भीड़ काफी र्ी । कुं र्ूस को
क्योंदक, उिार पुरुष को मीठा बोिना चालहये,
िेखकर उसे कोई भी आर्े नहीं बढ़ने िेता । इस
शूर को अपनी प्रशुंसा नहीं करनी चालहये, िाता को
प्रकार सभी िान िेकर यर्ास्र्ान बैठ र्ए । अब
कु पात्र में िान नहीं करना चालहए और उलचत कहने

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कुं र्ूस की बारी आई तो सभी िोर् उसे िेख रहे र्े । सवगभूतानामनलभिोह: - व्यासभाष्य, योर्सूत्र 2।
कुं र्ूस को लवद्वान की ओर बढ़ता िेख सभी को हुंसी 30)। अचहुंसा के भीतर इस प्रकार सवगकाि में के वि
आ र्ई क्योंदक सभी को मािूम र्ा दक यह कमग या वचन से ही सब र्ीवों के सार् िोह न करने
महाकुं र्ूस है । उसकी र्ठरी को िेख िोर् तरह- की बात समालवष्ट नहीं होती, प्रत्युत मन के द्वारा
तरह के अनुमान िर्ते ओर हाँसते । िेदकन कुं र्ूस भी िोह के अभाव का सुंबुंध रहता है। योर्शास्त्र में
को इसकी परवाह न र्ी । कुं र्ूस ने आर्े बढ़कर लनर्िगष्ट यम तर्ा लनयम अचहुंसामूिक ही माने र्ाते
लवद्वान ब्राह्मण को प्रणाम दकया । र्ो र्ठरी अपने हैं। यदि उनके द्वारा दकसी प्रकार की चहुंसावृलत्त का
सार् िाया र्ा, उसे उसके चरणों में रखकर खोिा उिय होता है तो वे साधना की लसलद्ध में उपािेय
तो सभी िोर्ों की आाँखें फटी-की-फटी रह र्ई । तर्ा उपकार नहीं माने र्ाते। "सत्य" की मलहमा
कुं र्ूस के र्ीवन की र्ो भी अमूल्य सुंपलत्त र्हने, तर्ा श्रेष्ठता सवगत्र प्रलतपादित की र्ई है, परुं तु यदि
र्ेवर, हीरे -र्वाहरात आदि र्े उसने सब कु छ को कहीं अचहुंसा के सार् सत्य का सुंघषग घरटत हाता है
िान कर दिया। उठकर वह यर्ास्र्ान र्ाने िर्ा तो तो वहााँ सत्य वस्तुत: सत्य न होकर सत्याभास ही
लवद्वान ने कहा, “महारार्! आप वहााँ नहीं, यहााँ माना र्ाता है। कोई वस्तु र्ैसी िेखी र्ई हो तर्ा
बैरठये ।” कुं र्ूस बोिा, “पुंलडत र्ी! यह मेरा आिर र्ैसी अनुलमत हो उसका उसी रूप में वचन के द्वारा
नहीं है, यह तो मेरे धन का आिर है, अरयर्ा मैं तो प्रकट करना तर्ा मन के द्वारा सुंकल्प करना "सत्य"
रोर् आता र्ा और यही पर बैठता र्ा, तब मुझे कहिाता है, परुं तु यह वाणी भी सब भूतों के
कोई न पूछता र्ा।” ब्राह्मण बोिा, “नहीं, महारार्! उपकार के लिए प्रवृत्त होती है, भूतों के उपघात के
यह आपके धन का आिर नहीं है, बलल्क आपके लिए नहीं। इस प्रकार सत्य की भी कसौटी अचहुंसा
महान त्यार् (िान) का आिर है । यह धन तो र्ोड़ी ही है। इस प्रसुंर् में वाचस्पलत लमश्र ने "सत्यतपा"
िेर पहिे आपके पास ही र्ा, तब इतना आिर- नामक तपस्वी के सत्यवचन को भी सत्याभास ही
सम्मान नहीं र्ा लर्तना की अब आपके त्यार् माना है, क्योंदक उसने चोरों के द्वारा पूछे र्ाने पर
(िान) में है इसलिए आप आर् से एक सम्मालनत उस मार्ग से र्ानेवािे सार्ग (व्यापाररयों का समूह)
व्यलक्त बन र्ए है। लशक्षा :- मनुष्य को कमाना भी का सच्चा पररचय दिया र्ा। चहुंि ू शास्त्रों में अचहुंसा,
चालहए और िान भी अवश्य िेना चालहए । इससे सत्य, अस्तेय (न चुराना), ब्रह्मचयग तर्ा अपररग्रह,
उसे समार् में सम्मान और इष्टिोक तर्ा परिोक इन पााँचों यमों को र्ालत, िेश, काि तर्ा समय से
में पुण्य लमिता है । अनवलच्छन्न होने के कारण समभावेन सावगभौम
तर्ा महाव्रत कहा र्या है (योर्वूत्र 2। 31) और
४. अघ्रयाः= तुम अचहुंसक बनोः-
इनमें भी, सबका आधारा होने से, "अचहुंसा" ही
अचहुंसक बनने से पहिे हमें यह र्ानना होर्ा की
सबसे अलधक महाव्रत कहिाने की योग्यता रखती
अचहुंसा है क्या? “अचहुंसा परमो धमगः धमग चहुंसा
है। अुंतध्यागन – अुंचहुंसा क्या है ? अचहुंसा का एक
तर्ैव च: l (अर्ागत् यदि अचहुंसा मनुष्य का परम
साधारण अर्ग र्ो हमें बताया र्ाता है – “चहुंसा न
धमग है और धमग की रक्षा के लिए चहुंसा करना उस
करना” ही अचहुंसा है । चहुंसा नहीं करनी चालहए
से भी श्रेष्ठ है) "अचहुंसा" का अर्ग है सवगिा तर्ा
क्योंदक चहुंसा करना पाप है र्बदक अचहुंसा परम
सवगिा (मनसा, वाचा और कमगणा) सब प्रालणयों के
धमग है । क्या सही में अचहुंसा का वही अर्ग है र्ो
सार् िोह का अभाव। (अुंलहसा सवगर्ा सवगिा
हमें बताया र्ा रहा है, र्ो हमें लसखाया र्ा रहा है,

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र्ो हम सुनते आ रहे हैं । ये लवचार मेरे दिमार् में अकारण नुक्सान न पहाँचाना ही अचहुंसा है, चाहे
इसलिए आया क्योंदक अर्र अचहुंसा ही परम धमां मानलसक हो या शारीररक क्योंदक चहुंसा मानलसक
होता तो क्या कृ ष्ण र्ी ने पूरी र्ीता में अर्ुगन को भी हो सकती है । हााँ, यदि आपके पास कारण है,
हलर्यार उठाने और युद्ध के लिए प्रेररत करके अधमग यदि सामने कोई आताताई है, यदि कोई दकसी स्त्री
दकया र्ा ? वो र्ित र्ा या हमारे समझने में कु छ का शोषण कर रहा है, यदि कोई आपके कु टुुंब पर
फे र है ? क्योंदक अर्र अचहुंसा का अर्ग चहुंसा न आघात करता हो, यदि कोई आपकी मातृभूलम पर
करना होता और अचहुंसा ही परम धमग होता तो कब्ज़ा करने का प्रयास करता है तो चहुंसा आवश्यक
क्या महाराणा प्रताप, महाराणा साुंर्ा, लशवा र्ी, है और परम पुण्य की प्रालप्त कराने वािी है। समय
रानी िक्ष्मीबाई, ये सब अधमी र्े क्या ? क्या के सार् बहत सी बातें और बहत सा ज्ञान लविुप्त हो
अपनी मातृभूलम की रक्षा के लिए इरहोने र्ो युद्ध रहा है, ऐसा इसलिए नहीं दक कलियुर् है या
दकये वो के वि अधमग का ही अनुसरण र्ा ? फिाना है या दढकाना है, वरन इसलिए क्योंदक
रामायण में कहा र्या है –“र्ननी धमग भूलमि, हमने शब्िों के अर्ग बिि दिए हैं। हम शब्िों के
स्वर्ागिलप र्रीयसी”, तो उस मातृभूलम की रक्षा के अर्ों पर उतना मनन नहीं करते लर्तना आवश्यक
लिए र्ो चहुंसा की र्ाए, वो अधमग कै से हो सकती है है क्योंदक ये कायग तो हमने लवचारकों के लिए छोड़
। र्रूर कहीं कु छ र्ड़बड़ है, या तो र्ीता और दिया है। र्ो बाबा र्ी ने स्टेर् पर से बता दिया
रामायण र्ित बता रहे हैं या दफर “अचहुंसा परमो वही सही है, क्यों सही है ? अरे िेखो दकतने िोर्
धमगः” को समझने में कु छ भूि है । स्करि पुराण में इनको करते है । ये क्या र्ित कहेंर्े ? इरहोने इतने
लिखा है दक एक ब्राहमण भी यदि स्त्री रक्षा, र्ौ शास्त्रों का अध्ययन दकया है, ये क्या र्ित बात
रक्षा और कु टुुंब की रक्षा के लिए शस्त्र उठा िे और बोिेंर्े ? ये र्ो खुि की बुलद्ध को प्रयोर् न करने
िड़ते िड़ते मारा र्ाए तो उसकी र्लत उन परम वािी र्ो प्रवुलत्त है, ये र्ो खुि को लवचार न करने
तपलस्वओं के फि से भी कहीं अलधक होती हैं र्ो िेने की प्रवृलत्त है, ये खतरनाक है। इसने ही धमग का
हर्ारों वषों से तपस्या कर रहे हैं । मैंने र्ब और नाश दकया है। आप के वि बाबाओं के भाषण मत
ढू ाँढा तो मैंने मनुस्मृलत का वो श्लोक पढ़ा लर्समें धमग सुलनए, उनसे प्रश्न कीलर्ये । र्ुरु-लशष्य परम्परा
के िस िक्षण बताये र्ए हैं –“धृलत क्षमा िमोस्तेयुं, कभी प्रचवन वािी नहीं रही। उसमें लशष्य अपने
शौचुं इलरियलनग्रहः । धीर्वगद्या सत्युं अक्रोधो, िसकुं अज्ञान को लमटाने के लिए अपने र्ुरु से लवलभन्न प्रश्न
धमग िक्षणम।। इसमें धमग के िस िक्षण हैं पर कहीं करता है और र्ुरु उन प्रश्नों का समाधान करते हैं।
भी अचहुंसा नहीं है, हााँ, अक्रोध अवश्य है । पर आप भी प्रश्न कीलर्ये। पूलछए अपने र्ुरुओं से,
अक्रोध और अचहुंसा तो अिर् अिर् है ।दफर बाबाओं से, डररये मत दक िोर् क्या कहेंर्े ? कहने
अचहुंसा परम धमग कै से हआ ? क्या ये सारे शास्त्र, िीलर्ये िोर् र्ो कहते हैं, यदि आप को सही में
पुराण धमग के बारे में कु छ र्ित कह रहे हैं या हम ज्ञान चालहए तो आपको खड़े हो कर सवाि करने
अचहुंसा को कु छ र्ित समझ रहे हैं ? इन सारी पड़ेंर्े। चीर्ो को सही में समझना होर्ा। धमग क्या है
बातों पर बहत लवचार करने पर एक लनष्कषग इसके अुंत तक र्ाना पड़ेर्ा। यदि आप धमग को
लनकिा दक अचहुंसा का अर्ग “चहुंसा न करना” नहीं सझते हैं तो आपका र्ीवन ऊध्वगर्ामी होर्ा अरयर्ा
है अलपतु अुंचहुंसा का र्ो सुंभव अर्ग हो सकता है – र्ो बाबा र्ी कह रहे हैं उसे कीलर्ये और दकसी भी
“अकारण चहुंसा न करना” । दकसी र्ीव को बात को मान कर के उसे अपने र्ीवन में उताररये।

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आप समझ रहे हैं दक आप धमग कर रहे हैं, पुण्य कायग तो लबना चचुंतन के लबना मनन के आ ही नहीं
कर रहे हैं दकरतु वास्तव में आपके र्ीवन में लसवाय सकता। आपको ऐसा चचुंतन करना पड़ेर्ा। एक एक
कष्टों के कु छ नहीं है। इस बात को समझना होर्ा वाक्य पर, एक एक शब्ि पर, आपके दिमार् में प्रश्न
दक लतिक छापे िर्ाने वािा आवश्यक नहीं दक आयेंर्े, आप उनका समाधान ढू ुंदढए, प्रश्न पूलछए
पुंलडत हो, पुंलडत का अर्ग तो है ग्यानी, लर्सने वेि अपने आप से, अपने र्ुरु से तभी आपको आर्े का
का, पुराणों का, शास्त्रों का अध्ययन दकया हो और रास्ता सार्फ दिखाई िेर्ा।|
न के वि अध्ययन दकया हो वरन अध्ययन के बाि
अचहुंसा परमो धमगः, अचहुंसा परमो िमः।
चचुंतन भी दकया हो। हर कोई इतना अध्ययन नहीं
अचहुंसा परम िानुं, अचहुंसा परम तपः॥ अचहुंसा
कर सकता, इसलिए समार् में ब्राह्मण की
परम यज्ञः अचहुंसा परमो फिम्।
पररकल्पना की र्यी लर्सका कायग के वि समार् में
ज्ञान का प्रचार और प्रसार र्ा (ब्राहमणों में कई अचहुंसा परमुं लमत्रः अचहुंसा परमुं सुखम्॥
टाइप होते र्े, लर्नमें सभी कायग ज्ञान का प्रचार महाभारत/अनुशासन पवग (११५-२३/११६-२८-
प्रसार नहीं होता र्ा)। यदि आप को अपने र्ीवन २९) याि रखने वािी बात है अचहुंसा का अर्ग है
में कोई कष्ट है, कोई समस्या है तो राह चिते दकसी अकारण चहुंसा न करना। र्ीव हत्या पाप है यदि
लतिक छापे वािे से मत पूलछए, दकसी भी बाबा से अकारण हो दकरतु यदि वही र्ीव आप पर आक्रमण
मत पूलछए बलल्क अपने चारों ओर ऐसे व्यलक्त को कर िे तो उसका वध करना ही उलचत है। यदि कोई
ढू ुंदढए र्ो सही में ग्यानी हो। ऐसे व्यलक्त को, ऐसे आपको या आपकी स्त्री को, कु टुुंब को, र्ाय को और
र्ुरु को ढू ुंढना पड़ता है, वो आसानी से नहीं लमिते। अरयारय प्रालणयों को कष्ट पहुंचता है तो आपको भी
वो तम्बू डेरा िर्ा कर भाषण िेने नहीं आते। पहिे चहुंसा करनी पड़ेर्ी और उस समय वह धमग होर्ा।
खुि को लशष्य बनाना पड़ेर्ा, सौम्य बनाना पड़ेर्ा, बस आपकी ओर से चहुंसा शुरू नहीं होनी चालहए
ये मानना पड़ेर्ा दक र्ो मुझे र्ो आता है, र्ो मैंने वो भी अकारण। तब ये अचहुंसा ही धमग बन र्ाती
सीखा है वो पूणग नहीं है क्योंदक र्ब तक आपका है।
खुि का लर्िास खािी नहीं होर्ा, तब तक उसमें
अचहुंसा की कामना या चहुंसा की वासना से मुक्त
और र्ि नहीं भरा र्ा सकता। र्ब आप ये मान
हो र्ाने का क्या अर्ग है? बहत मर्े की बात है दक
िेंर्े, र्ुरु आपको लमिेर्ा और र्ब तक आप ये नहीं
ये सारे लभन्न-लभन्न मार्ग बहत र्हरे में कहीं एक ही
मानेर्,े यकीन मालनए वो आपके सामने आकर
मूि से र्ुड़े होते हैं। र्ब तक मनुष्य के मन में
लनकि र्ाएर्ा और आप अपने अहुंकार में ही डू बे
इुंदियों का िोभ है, तब तक चहुंसा से मुलक्त असुंभव
रहेंर्े दक मैंने तो इतना अध्ययन दकया है, मैंने तो
है। र्ब तक आिमी इुंदियों को तृप्त करने के लिए
र्ीता पढ़ी है, मैंने तो फिाने र्ुरु र्ी से ज्ञान प्राप्त
लवलक्षप्त है, तब तक चहुंसा से मुलक्त असुंभव है।
दकया है, मुझे तो सब पता है। र्ाने दकतने पड़े हैं
इुंदियाुं पूरे समय चहुंसा कर रही हैं। र्ब आपकी
र्ीता पढ़ने वािे, र्ाने दकतने पड़े हैं पुराण पढने
आुंख दकसी के शरीर पर वासना बन र्ाती है, तब
वािे लर्रहें पूरी पूरी र्ीता कुं ठस्र् है दकरतु वो र्टू
चहुंसा हो र्ाती है। तब आपने बिात्कार कर लिया।
तोते से ज्यािा कु छ नहीं…. वो के वि शब्िों का अर्ग
अिाित में नहीं पकड़े र्ा सकते हैं आप, क्योंदक
र्ानते हैं, बता सकते हैं दक कौन से पेर् पर, कौन से
अिाित के पास आुंखों से दकए र्ए बिात्कार को
श्लोक में, क्या लिखा है िेदकन ये ज्ञान नहीं है, ज्ञान

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शब्ि ब्रह्म

पकड़ने का अब तक कोई उपाय नहीं है। िेदकन र्ब र्ाना प्रलतक्रमण, आुंख र्ई आप पर आक्रमण करने
आुंख दकसी के शरीर पर पड़ी और आुंख माुंर् बन को, तो चहुंसा हो र्ई। और मैंने आुंख को वापस
र्ई, काम बन र्ई, वासना बन र्ई; और आुंख ने िौटा लिया उसकी पूरी कामना के सार् अपने
एक क्षण में उस शरीर को चाह लिया, पर्ेस कर भीतर, अपने भीतर, र्हरे में वहाुं, र्हाुं से उठती है
लिया; एक क्षण में उस शरीर को भोर्ने की कामना कामना, वहीं उसे िे र्या वापस–तो यह हआ
का धुआुं चारों तरफ फै ि र्या–बिात्कार हो र्या। प्रलतक्रमण। और र्ब प्रलतक्रमण हो, तभी ध्यान हो
आुंख से हआ, आुंख शरीर का लहस्सा है। आुंख से सकता है, अरयर्ा ध्यान नहीं हो सकता। क्योंदक
हआ, आुंख के पीछे आप खड़े हैं। आुंख से हआ, आक्रमण करने वािी इुंदियों के सार् ध्यान कै सा?
आपने दकया; चहुंसा हो र्ई। चहुंसा लसफग छु रा भोंकने प्रलतक्रमण करने वािी इुंदियों के सार् ध्यान फलित
से नहीं होती, आुंख भौंकने से भी हो र्ाती है। हो सकता है। कृ ष्ण कहते हैं, अचहुंसा के मार्ग से भी,
इुंदियाुं र्ब तक आतुर हैं भोर्ने को, तब तक चहुंसा अर्ागत आक्रमण र्ो नहीं कर रहा। अब ध्यान रखें,
र्ारी रहती है। इुंदियाुं र्ब भोर्ने को आतुर नहीं अर्र ठीक से समझें, तो दकसी भी ति पर आक्रमण
रहतीं, तभी चहुंसा से छु टकारा है। लर्से हम चहुंसा की कामना चहुंसा है–दकसी भी ति पर। सूक्ष्म से
कहते हैं, वह कब पैिा होती है? यह सूक्ष्म चहुंसा सूक्ष्म ति पर भी आक्रमण की इच्छा चहुंसा है।
छोड़ें; लर्से हम चहुंसा कहते हैं, स्र्ूि, वह कब पैिा अनाक्रमण, प्रलतक्रमण, शलक्तयों को िौटा िेना
होती है? वह तभी पैिा होती है, र्ब आपकी दकसी वापस अपने में–आुंख िौट र्ाए आुंख के मूि में;
कामना में अवरोध आ र्ाता है, अटकाव आ र्ाता कान िौट र्ाए कान के मूि में; स्वाि िौट र्ाए
है। तभी पैिा होती है। अर्र आप दकसी के शरीर स्वाि के मूि में; फै िाव बुंि हो; सब लसकु ड़ आए
को भोर्ना चाहते हैं और कोई िूसरा बीच में आ अपने मूि में–र्ब ऐसा प्रलतक्रमण फलित हो, तब
र्ाता है; या लर्सका शरीर है, वही बीच में आ व्यलक्त ध्यान को उपिब्ध हो पाता है। अचहुंसा का
र्ाता है दक नहीं भोर्ने िेंर्े–तब चहुंसा शुरू होती अर्ग है, प्रलतक्रमण, िौटना, चहुंसा का मतिब है,
है। र्ब भी आपकी इुंदियाुं भोर्ने के लिए कहीं र्ाना िूसरे के ऊपर, दकसी भी रूप में िूसरे के ऊपर
कब्र्ा माुंर्ती हैं और कब्र्ा नहीं लमि पाता, तभी र्ाना। िूसरे पर र्ाना! यह चहुंसा शत्रुतापूणग भी हो
चहुंसा शुरू हो र्ाती है। स्र्ूि चहुंसा शुरू हो र्ाती सकती है, लमत्रतापूणग भी हो सकती है। र्ो नासमझ
है। सूक्ष्म चहुंसा पहिे, भाव चहुंसा पहिे, दफर चहुंसा हैं, वे शत्रुता के ढुंर् से िूसरे पर र्ाते हैं; र्ो
सदक्रय होती और स्र्ूि बन र्ाती है। कृ ष्ण कहते हैं, होलशयार हैं, वे लमत्रतापूणग ढुंर् से िूसरों के ऊपर
अचहुंसा के मार्ग से भी, अर्ागत इुंदियों से लर्सने अब र्ाते हैं। िेदकन र्ब तक कोई िूसरे पर र्ाता है,
माुंर्ना छोड़ दिया, इुंदियाुं लर्सके लभक्षापात्र न तब तक चहुंसा है। और र्ब कोई िूसरे पर र्ाता ही
रहीं; इुंदियों से लर्सने छेिना छोड़ दिया, इुंदियाुं नहीं, अपने र्ाने को ही वापस िौटा िेता है, तब
लर्सके शस्त्र न रहीं; इुंदियों से लर्सने आक्रमण छोड़ अचहुंसा है। इस अचहुंसा के क्षण में भी वही हो र्ाता
दिया। ध्यान में र्ाना हो, तो पहिे प्रलतक्रमण। है, र्ो योर्ालि में र्िकर होता है।
कभी आपने सोचा है दक प्रलतक्रमण का मतिब
होता है, आक्रमण से उिटा! आक्रमण का मतिब है,
िूसरे पर हमिा। प्रलतक्रमण का मतिब है, आक्रमण ५. इरिाय भार्म्= परमेश्वर के सालनध्य में
की सारी शलक्तयों को अपने में वापस िौटा िे रहो।

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शब्ि ब्रह्म

मेरे लप्रय आत्म मन मैं अपना अनुभव तुम सब कभी भी सामुंर्स्य आपसे में नहीं बना पाये।
के सार् बाट रहा हूुं। मैंने अपने र्हन अनुभव और उरहोने अपने घर को छोड़ दिया बाहर परिेश में
शोध से यह र्ाना है दक इस सुंसार में रहना है। रहने िर्े िेदकन अत्यलधक शारत स्वभाव के कारण
और सफिता को हालसि करना है, और अपने लिये वह िोर्ों की नर्र में कायर और लनकम्मे मुखग ही
अच्छा कु छ श्रेष्ठ करना चाहते हो, तो तुम्हें कु छ एक समझ में आये वह कही स्वयुं को व्यवलस्र्त नहीं कर
वस्तुओं का र्ीवन में अस्र्ान नही िेना चालहये। सके । उरहोंने अपने र्ीवन की परे शालनयों और
पहिी सबसे खतरनाक वस्तु है शारती, िूसरी तनावों से मुक्ती पाने के लिये वह कई प्रकार के नशे
सरिता, तीसरी सज्जनता। यह के वि शब्ि कोश में का सेवन करने िर्े और लधरे लधरे वह नशें के
ही रहें तो बहत अच्छा है। यिी इनका अस्र्ान लशकार हो र्ये वह अपनी परे शालनयों से उभर नहीं
र्ीवन में हो र्या तो र्ीवन का रहना बहत कठीन पाये, र्ीवन चिता रहा पहिे से बढ़ कर र्ीवन ने
और िुस्कर होर्ा। र्ो िोर् शारती, सरिता और उनके लिये नई नई चुनौलतयों को खड़ा दकया इसी
सज्जनता लनिोषता की बातें करते है। वह सारे धुतग बीच उनकी शािी भी र्ई। एक र्रीब पररवार की
के चहुंसक और बहत खतरनाक दकस्म के व्यक्ती है। िड़की के सार्, और वह अपने उसी घर में रहने
इनसे तुम्हे सावधान रहना चालहये। अब सुंसार िर्े लर्समें उनका लपता ही उनका सबसे बड़ा शत्रु
बिि र्या है आर् के सुंसार मे एक सरि शारत र्ा। उसनें हमारे सज्जन शाुंत लमत्र के लिये रोर् नई
और सज्जन लनिोष आिमी का र्ीवन र्ीना एक एक परे शालनयाुं खड़ी करने िर्े। लर्ससे पूणगतः मुक्त
आत्मा हत्या के समान है। और कौन बुलद्धमान हो पाते की उनके यहाुं एक पुत्र का र्रम हआ। र्ो
आिमी स्वयुं की आत्म हत्या करना चाहता होर्ा? एक बहत बड़ी लर्म्मेिारी र्ी उनके लिये, िेदकन
मेरे एक लमत्र है र्ो बहत शारत और सज्जन दकस्म हमारें लमत्र इसके लिये लबल्कु ि तैयार नहीं र्े। ना
के व्यक्ती है। वह हमेशा हर दकसी के सार् बहत पत्नी की िेख भाि करने में नाही उसकी आवश्यक्ता
सरिता से और प्रेम भाव से ही पेश आते है। लर्सके की पुती करने में ही, इसमें एक नव र्ात का आना
कारण उनके र्ीवन में कोई भी व्यक्ती उनके सार् और उसकी िेखभाि करना उनके लिये असुंभव
नहीं है हर आिमी उनको मुखग समझता है हिाुंदक लसद्ध हआ लर्सके कारण बच्चा असमय लबमार हो
वह बहत इमानिार और बुलद्धमान व्यक्ती है। िेदकन कर मृत्यु को प्राप्त हआ। यही नहीं इसके कु छ समय
उनकी वुद्धीमानी उनके लिये हमेशा एक नये सुंकट बाि उनकी पत्नी भी उनसे अत्यलधक तुंर् आ कर
को ही खड़ी करती। उनके लपता भी उनसे खुश नहीं उनका सार् छोड़ कर चिी र्ई और िूसरी िूलनया
रहते क्योंदक वह अपनी शारती के कारण ही र्रुरत बसा लिया अर्ागत दकसी और से शािी कर िी।
से अलधक सहन शक्ती उनके लपता की िृष्टी में वह इसके बाि वह पहिे ऐसे ही नौकररया करते और
मुखग और बेकार समझे र्ाते है और हमेशाुं उनको छोड़ते रहें। सैकड़ो नौकररयाुं दकया िेदकन कहीं पर
तरह तरह यातना बचपन से िेते रहे। लर्सके कारण ज्यािा समय तक टीक नहीं पाये। तो उरहोंने अपना
वह अक्सर मानलसक रूप से लवलक्षप्त र्ैसे रहने िर्े स्वयुं का एक छोटा व्यापार शुरु दकया र्ो र्ोड़े
वह कोई कायग सही ढुंर् से नहीं दकया। उनकी पढ़ाई समय तक ठीक रहा िेदकन उसने भी बहत बुरी
लिखाई भी पुरी नहीं हो सकी। वह अपने पीता के तरह से उनके परास्र् कर दिया। वह अपने धरधे को
िुव्यगवहार को िेकर हमेशा चचुंलतत और परे शान आर्ें नहीं चिा सके । वह दफर भी लहम्मत नहीं हारे
रहे। िोनों के सुंबुंध बहत कटुता पूणग बने रहें र्ो उनके शाहस की मैं सराहना करता हूुं की उरहें किम

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शब्ि ब्रह्म

किम पर हार का सामना करना पड़ा दफर भी वह करना तो बहत कु छ चाहते है िेदकन उसके
उरहोंने लहम्मत नहीं हारा आर्े एक नई योर्ना पर लिये उनके पास ना ही साधन है। और ना ही िोर्
काम एक नये उत्साह के सार् शुरु कर दिया। उनका सार् ही िेना चाहते है उस स्र्ाना पर।
उरहोंने एक लवद्यािय चिाने का लनणगय दकया कु छ इसलिये उरहोंने वह स्र्ान छोड़ने का लनिय दकया
दिन चिाया भी िेदकन उनके िुभागग्य ने उनका और वहाुं से अपनी र्ान बचाने के लिये एक शहर
सार् नहीं छोड़ा और पहिे से अलधक र्ोर से उनको में चिे र्ये र्हाुं पर उरहोंने पहिे अपनी सेवा िी
पटका उनको एक एक रुपये के लिये परे शान कर र्ी। उस सुंस्र्ान के मालिक को उन पर िया आ र्ई
दिया। उनका सब कु छ डु ब र्या। यहाुं तक उनका और उसने उनको इस लबमारी की हाित में काम
र्ीवन भी बचाना उनके लिये सुंकट पूणग हो र्या, पर रख लिया। र्हाुं पर वह काम कर करके आपना
उनके लिये खाने पीने रहने की मुलसबत आ कर इिार् कराने िर्े उनका सारा पैसा उनके इिार् में
खड़ी हो र्ई। वह सरयासी बन र्ये और भीछाटन ही खचग हो रहा है। िेदकन वह स्वस्र् नहीं हए।
करने िर्े उस पर भी उनका र्ुर्ारा नहीं हो सका। इसलिये कहता हूुं की इस शारती से िूर ही रहने में
क्योदक उनको कोई भीछा िेने के लिये रार्ी नहीं समझिारी है।
र्ा र्ैसे पुरी कायनात ही उनका शत्रु बन र्ई हो।
६. प्रार्ावतीः= श्रेष्ठ सुंतानों वािे बनो।
वह वेचारे ना र्ी पा रहे र्े ना मर ही पारे र्े।
मुलस्किे तो सब पर आती है िेदकन उनके उपर तो सुंबुंध क्या है, सुंबुंधों पर ही यह िूनीया खड़ी
एक से बढ़ एक मुलसबतों के पहाड़ ही लर्रने िर्े। है। सुंबुंध दकतने प्रकार के होते है। पती पलत्न का
उनको एक बहत भुंयकर लबमारी ने पकड़ लिया सुंबुंध र्ो लर्से हम र्ृहस्र् र्ीवन कहते है र्ो सभी
लर्सका इिार् करा पाना उनके लिये । आसान सुंबुंधों का आधार है। आर् के समय में सुंबुंधों का
नहीं र्ा दफर भी वह उस लबमारी से उभरने के मतिब बिि र्या है। पहिे िोर् एक िूसरें के लिये
लिये र्ी र्ान से र्ुटे रहे, और दकसी तरह से र्ो ही लर्ते मरते र्े एक िूसरें की इच्छा को ही अपनी
अपने कु छ पररचीत चाहने वािे कु छ अुंलतम िोर् र्े इच्छा बना िेते र्े। एक िूसरे के मन को वह र्ानने
पैसे का ऋण िेकर इिार् कराने के लिये। िेदकन वािे र्े उनके एक िूसरे के लवचार, हृिय औप लचत्त
उनको आशा र्नक सफिता नहीं लमिी। उनकी एक समान रहने वािे र्े। लर्स प्रकार से एक
लबमारी बढ़ती ही र्ई लर्सका उरहोंनें आपरे शन भी हाईड्रोर्न और आलक्सर्न के परमाणु आपस में
कराया मर्र उसमें सफिता नहीं मीिी। अर्ागत वह लमि कर एक पानी के परमाणु को बनाते है। र्ो
लबमारी नहीं ठीक हई। उसी हाित में उनको अपने र्ीवन का मुि आधार है र्ीवन का सवगप्रर्म
लिये खाना बनाना और अपना सब काम अके िे ही लवकास र्ि में ही हआ र्ा ऐसा माना र्ाता है। यह
िेख भाि करना पड़ता, एकारत र्ुंर्ि की एक कु टी र्ि िो अणुओं के मेि से बनता है। वह िो अणु ही
में रह कर करना पुंड़ता र्ा। र्हाुं पर आयें दिन स्त्री पुरुष के समान है। र्ीनको हम पती पत्नी कहते
चोर बिमाश िुटेरें उनके पास आते और उनको है यह भिे ही िो अिर् शरीर है िेदकन उनकी
परे शान करते र्े। उनका वहाुं र्ीना मुलस्कि िर्ने मानलसक लस्र्ती एक समान होती है। िोनों के
िर्ा। र्ब उनको लनलित हो र्या की यिी यहाुं रहे शरीर में अरतर है पुरुष शरीर आक्रामक है र्बकी
तो उनकी मृत्यु होना लनलित होर्ा। और वह मरना स्त्री शरीर शारत है। लर्स प्रकार से सूयग है पुरुष के
नहीं चाहते र्े। र्ैसा की कोई भी नहीं चाहता है। समान और स्त्री पृलर्वी के समान है। इसी प्रकार से

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शब्ि ब्रह्म

पानी में र्ो िो अणु है उसमें हाइड्रोर्न आर् के इससे भौलतक पररवतगन शाररक रूप से नहीं हो रहा
समान र्रम और ज्वनिन शीि है, र्बलत है िेदकन रासायलनक पररवतगन हो रहा है र्ो बहत
आलक्सर्न सरि शारत और ठरडा है। इन िोनों सुक्ष्म है इससे र्ो तीसरा तत्व उत्तपन्न र्ीवन का
लवपरीत तत्वों में र्ब रासायलनक अलभदक्रया होती हो रहा है उसमें र्ीवरतता कम हो रही है। वह
है तो एक नया पिार्ग उत्तपन्न होता है। िदकन र्ब लनरुं तर मृत्यु को उपिब्ध हो रहा है, र्ो उत्तपन्न हो
िो भौलतक पिार्ग लमिते है तब उनके द्वारा कोई रहा वह पहिे से ही मृत्यु तत्व की अलधकता के
तीसरा नया पिार्ग उतपन्न नहीं होता है। पहिे सार् हो रहा है। अर्ागत यह र्ो र्ीव उत्तपन्न हो
ऐसा नहीं र्ा। रहा इन र्ृहस्र्ों के द्वारा यह सुंक्रलमत चुका है इसके
अरिर से र्ीवन का ज्ञान पूणगतः िुप्त हो चुका है।
यह र्ृहस्र् र्ीवन र्ो सुंसार के सभी वणों का
यह बहत र्ुंलभर और खतरनाक लस्र्ती है इस
मुख्य श्रोत है इन र्ृहस्र्ों के द्वारा ही और सभी
र्ीवन के लिये र्ो स्वभाव से ही पहिे ज्ञान वान
सुंबुंधों का आधार भुत स्तम्भ खड़ा होता है। यह
र्ा। वह अब अज्ञान का वाहक बन चुका है। र्ैसा
र्ब तक सच्चे और वफािार रहते तो इनके द्वारा ही
की पहिे िोर् र्ीवन से भरपुर होते र्े वह बहत
और भी सुंबुंध में ररस्तो में पलवत्रता और सच्चाई
अलधक लशक्षीत या शब्ि ज्ञान वािे नहीं होते र्े।
रहती है। लर्स प्रकार से यदि सूयग अपना स्वभाव
इसके बाि भी वह िोर् र्ो आलवस्कार कर चुके र्े
बिि िे तो क्या होर्ा, र्ो वह र्रमी िेने वािा है
लर्सका आर् के युर् में वैज्ञालनकों पूणगतः ज्ञान नहीं
वह ठण्डी िेने कायग करने िर्े तो क्या यहाुं पृर्थवी
है। उिाहरण के लिये ऐसे कइ प्रमाण लमिे है र्ो
पर र्ीवन का लवकास सुंभव है। या दफर पृर्थवी र्ब
यह लसद्ध करते है की पहिे के िोर्ों के पास हमारी
र्रम होने िर्े सूयग के समान तो क्या होर्ा, क्या
तरह ज्ञान लवज्ञान का साधन नहीं र्ा इसके
यहाुं पर र्ीवन का रहना सुंभव होर्ा। िोनो ही
वावर्ुि उन िोर्ों ने र्ीवन को िम्बा र्ीया और
लस्र्ती में र्ीवन का ही सवगनाष होर्ा या सूयग ठुं डा
लवमारीयों से मुक्त रहते र्े। वह एक ग्रह से िूसरे
हो र्ाये या दफर पृर्थवी र्रम हो र्ाये। इन िोनों के
ग्रह पर आते र्ाते र्े और पहिे बहत ग्रहों पर िोर्
मध्य रासायलनक अभीदक्रया होर्ी लर्सके द्वारा
रहते र्े। वह ब्रह्माण्ड की यात्रा करने में सक्षम र्े।
एक नया तत्व उत्तपन्न होर्ा लर्सका कायग होर्ा
वह पृर्थवी और िूसरें ग्रहों से आलत्मक सुंबुंध स्र्ालपत
मृत्यु की सृर्न, यही बात र्ि के अणुओं के सार्
कर िेते र्े। वह सूयग पर भी यात्रा करने में समर्ग र्े।
भी है र्ो अाालक्सर्न का स्वभाव शारत है वह
वह प्रत्येक वस्तु लर्से हम भौलतक वस्तु कहते है
र्रम हो र्ाये, और हाईड्रोर्न शारत ठुं डा हो र्ाये
उनसे भी सुंबुंध बना िेते र्े और उनके अपने मन के
तो भी र्ीवन का सवगनाश ही होना लनलित है। र्ि
मुतालबक ढाि िेते र्े। र्ैसे एक पुस्पक लवमान र्ा
नहीं होर्ा अिी होर्ी र्ो र्ीवन उत्पािन के लिये
लर्सका वणगन हमारे प्रालचन ऐलतहालसक शास्त्रों में
सहयोर्ी तत्व नहीं है। इसी प्रकार से र्ब पुरुष का
लमिता है। वह लवशेष प्रकार का लवमान र्ा र्ो मन
स्वभाव बििता है वह शारत होता र्ा रहा है और
की इच्छ से चिता र्ा। उसमें दकतने ही आिमी वैठ
स्त्री र्रम होती र्ा रही है। र्ो आर् के युर् के में हो
र्ाये दफर भी उसमें एक बैठने के लिये स्र्ान हमेशा
रहा है आधुलनकता के नाम पर औरते आक्रमक बन
खािी ही रहता र्ा। वह आिमीयोंाुं के आधार पर
रही है। पुरष शारत और मरिवुलद्ध होते र्ा रहे है
अपने को बड़ा और हल्का कर सकता र्ा। वह
लनरुं तर। लर्सका प्रभाव र्ीवन पर पड़ रहा है।
प्रकाश की र्ती से यात्रा करके एक ग्रह से िूसरे

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शब्ि ब्रह्म

स्र्ान पर आ र्ा सकता र्ा। पहिे िोर् अपने िूसरें के सार् र्ोड़ने के बर्ाय तोड़ने का कायग कर
शरीर को मन के मुतालबक बड़ा और छोटा कर रहे है।
सकते र्े। वह आकाश में उड़ सकते र्े र्लमन में
यहाुं र्ो पृर्थवी पर मनुष्य बनाने की प्रकृ या र्ब
प्रवेश कर सकते र्े। मन के सुंकल्प मात्र से वह
से प्रारम्भ हई है यह र्ित है इससे मनुष्य अभी
अपनी शरीर को दकसी िूसरे शरीर के रूप में
तक एक भी नहीं बन पाया यद्यपी र्ानवरों की
पररवर्तगत कर सकते र्े। र्ैसा की हम आर् िेखते है
सुंख्या में लनरुं तर इर्ाफा हो रहा है। तो सबाि यह
की र्ो मानव लर्स शरीर के सार् र्रम िेता है
उठता है की आलखर सच्चा और वास्तलवक मनव कै से
उसी शरीर के सार् वह मरते समय तक रहता है।
उत्तपन्न होर्ा क्या इसकी कोई सुंभावना है? के वि
र्बकी पहिे िोर् अपनी शरीर को पक्षी के समान
एक सुंभावना है वह है की हम स्वयुं मनुष्य बने हमे
या दकसी और प्राणी के शरीर के समान कर िेते र्े।
बनाने विे हमेशा हमसे िूसरे है वह हमें नहीं
और बहत कु छ र्ो हम सब आर् शब्ि ज्ञान के
र्ानते है वह स्वयुं को भी पुरी तरह से नहीं र्ानते
चिते दफरते इनसाक्िोलपडीया के समान है दफर
है। उनका सुंबुंध स्वयुं से नहीं है तो वह हमारा
भी अपुंर् और परे शान पशु के समान र्ीवन र्ीने के
सुंबुंध स्वयुं से कै से करायेर्े?
लिये लववश है।
७. अनलमवाः= लनरोर् रहने का प्रयाश करो
सुंबुंध का मतिब हम र्ित लनकाि रहें है आर्
सिा स्वस्र् रहो।
के युर् में, सुंबुंध का मतिब है िो अब िो नहीं रहे
वह एक हो र्ये है। अपने मन और आत्मा के स्तर र्ब मैं कहता हूुं की मै ही इस ब्रह्मारड का के ि हूुं
पर लर्स प्रकार से पानी के िो अणु एक र्ीवन रूप तो सबसे पहिे एक बात का ध्यान रखना है की
र्ि की बुुंि को बनाते है। लर्से को योर् कहते है मुझे के वि शरीर मत समझना शरीर का स्वामी मैं
यह एक सुंबुंध है। इस योर् के आलवस्कार की चेतन आत्मा के रूप में एक ब्रह्माण्डीय प्राण उर्ाग
र्रुरत का मुख्य श्रोत प्राण हूुं। मेरा कोई कोई रूप आकार
या नाम नहीं है, मैं ही अनरत नामों से र्ाना र्ाता
योर् ऋलष को क्यों पड़ी,इसके लपछे कारण है दक
हूुं
मानव अपने र्ीवन और ज्ञान के स्र्र से लनरुं तर
लनचे र्ीरता र्ा रहा है। उसके ज्ञान के लवकास के हर वस्तु मुझसे ही शुरु होती है, और मुझमे ही
लिये, िदकन इससे मा नव का लवकास नहीं हआ वह वस्तु लवलिन हो र्ाती है। मेरा कभी ना र्रम
उसका लनरुं तर हाराश ही होता रहा। आर् का होता है ना ही मैं कभी मरता ही हूुं । र्ो र्रम िेता
मानव स्वयुं को भौलतक लवकास के सार् समृद्ध और है या मरता है वह हमारी शरीर है। र्ो मेरा र्ोड़े
सुंपन्न करने की आकाुंक्षा रखता है, र्ैसा की उसको समय तक रहने का स्र्ान घर के समान है, इसको
लशक्षीत दकया र्या है। यद्यलप यह अधुरी समृद्धी है समय के सार् बििता रहता हूुं और कभी ऐसा भी
क्योदक इस समृद्धी ने मानव को मानव से र्ोड़ने होता है की इस शरीर के लबना भी रहता हूुं। मुझे
का काम नहीं दकया हिाुंकी मानव और मानव के शरीर की र्रुरत िृश्य मय र्र्त में रहने के लिये
लबच में िूरीयाुं अवश्य बढ़ा िी है। यह योर् नहीं है और कु छ लवशेष कायग करने के लिये पड़ती है।
यह लवयोर् कहा र्ायेर्ा इसका मतिब यह की लर्ससे मैं उनके द्वारा अपने प्रमुख कायो को लसद्ध
आर् लर्से हम सुंबुंध कहते है वह िोर्ों को एक कर सकु , यिी सभी प्रालणयों को सत्य का ज्ञान हो

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शब्ि ब्रह्म

र्ायेर्ा तो सभी प्रालण इस िृश्य मय सुंसार और तारे सौयगमुंडि इत्यादि बनते और नष्ट होते रहते है।
शरीर से मुक्त हो र्ायेर्े। लर्सके कारण यह र्ीवन यह मेरा कायग अनरत काि से ऐसा ही चिता
रूप सुंसार का अरत हो सकता है। लर्सको मैं रोक आरहा है और ऐसा ही चिता रहेर्ा। इसका ना
कर रखता हूुं सभी प्रालणयों को मोह, माया, काम, कही प्रारुं भ है और ना ही कहीं पर इसका अुंत ही है
क्रोध िोभ आिी वृलत्तयों में उिझा कर रखता हूुं। लर्सके कारण ही िोर् मुझे अनरत भी कहते है।
लर्सके कारण यहाुं सुंसार से मुक्त होना बहत कठीन और यह कायग लनरुं तर सिा से होता ऐसा ही आरहा
और िुस्कर है। उसी प्रकार से र्ैसे की सूयग को ठुं डा है। कभी भी इस ब्रह्माण्ड से मानव या सम्पूणग
करना दकसी र्ीव के लिये मुलस्कि ही नहीं असुंभव र्ीवन का पूणग अरत नहीं हूआ है। मैं हमेशा इस
है। क्योंदक यिी वह अपनी िुष्ट वृलत्तयों के वशी भूत र्ीवन को आर्े बढ़ाता रहता हूुं। इस पृर्थवी पर
होकर ठुं डा करने का प्रयाश करता है तो अपने र्ीवन के बीर् को बोने से पहिे मैंने मुंर्ि आिी
र्ीवन के लिये ही भुंयकरतम सुंकटो को खड़ा ग्रहों पर र्ीवन को पैिा कर चुका हूुं। इसके
करता है। मैं यह र्ानता हूुं की हर प्राणी अपने आप अलतरीक्त भी अनरत ग्रहों की यात्रा यह र्ीवन यहाुं
से बहत अलधक प्रेम करता है दकसी भी दकमत पर पृर्थवी पर आने से पहिे कर चुका है। र्ो कहते है की
वह मरना नहीं चाहता है। इसी भाव का सबसे र्ीवन प्रर्म लवकास यहाुं पृर्थवी पर हआ है यह
अलधक फायिा उठा कर िूसरे प्रालणयों को र्ुमराह र्ित है। र्ीव लसफग शरीर को ही नहीं बििता
करने के लिये और उनके सामने बड़ी बड़ी भयुंकर यद्यपी वह ग्रहों को भी बििता रहता है। समय के
चुनौलतयों को खड़ी करके उसको पररस्कृ त और सार् लनरुंतर र्ब उस ग्रह का िोहन पुरी तरह हो
नलवनी करण करता हूुं। मेरे द्वारा इततने बड़े बड़े र्ाता है तो मैं िूसरे ग्रहों का लनवागण करता हूुं
सुंकटो को प्रालणयों के सामने खड़ी करने बाि भी लर्ससे की यह र्ीवन उस ग्रह पर अपना लनवास
कु छ ऐसे पुरष होते रहते है समय के सार् र्ो इस बना सके । लर्स प्रकार से कोई प्राणी अपनी शरीर
िृश्मय र्र्त से मुक्त हो र्ाते है। और मुझे उपिब्ध का त्यार् करता है और पुनः नई शरीर को धारण
कर िेते है। वास्तव मैं अशररर ही हूुं शरीर से र्ो मैं करके अपने कमों के अनुसार नये र्ीवन के
मुख्य कायग करता हूुं वह यह है की शुद्ध शब्िों का सुंसकारों का सृर्न करता है। ऐसा यह ग्रह और
उच्चारण ब्रह्मज्ञान का लवस्तार करता हूुं लर्ससे ही नक्षत्र आिी भी करते है यह भी अपने शरीर का
ब्रह्म अर्ागत मैं ज्ञान मतिब मेरी र्ान मेरा र्ीवन त्यार् करते है। पुनः नये शरीरों को धारण अपनी
र्ो इस ब्रह्माण्ड रूपी शरीर के कारण ही है। मैं यही तपस्या और शहन शक्ती की योग्यता के अनुसार
हूुं इसे मैं र्ानता हूुं। लर्ससे लनरुंतर शब्ि के सार् करते है इस लिये तैलतस िेवता में सवग प्रर्म आठ
उर्ाग का लनस्तारण मेरें द्वारा अनरत प्राणी रूप वसु है र्ो र्ीव को हर इलस्र्ती में स्वयुं पर बसाते
शरीर से होता रहता है यह लसफग प्राणीयों के द्वारा है और उनका अपने र्ीवन के अरत तक हर प्रकार
ही नहीं होता है इसके सार् यह अनरत ग्रह, अनरत से पािन पोषण करते है। इरही र्ुणो को धारण
तारें और अनरत ब्रह्माण्ड के सार् अनरत आकाश करके मानव भी और िूसरे र्ीव भी स्वयुं का उद्धार
र्ुंर्ाये भी शब्िोंच्चारण करती है। लर्ससे अनरत करने मे और स्वयुं को लवकसीत करके मुझ में
प्रकार की उर्ागये लनस्कालसत होती रहती है लर्ससे समालहत हो र्ाते है।
अनरत प्रकार के परमाणु लनरुं तर लवकसीत होते
८. अयक्ष्माः= यक्ष्मादि रोर् से मुक्त रहो।
रहते है। इसके सार् अनरत र्ीवन के वाहक ग्रह

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शब्ि ब्रह्म

हम ही इस िृश्य मय हर्ारों ब्रह्माण्डों के मुख्य है वह हमेशा अपने प्रत्येक कमग से अपने लिये नये
के रि या ब्रह्मालण्डय मानव है हमारे अरिर ही वह नये िुःखो का लनरुंतर सृर्न करते है। इसके उपरारत
अनरत ब्रह्माण्डों का स्वामी लवद्यमान हो कर वह वह दकतनी ही प्रार्गना या उपासना करते रहे, इससे
त्रीकाि िशी हर पि शाुंशे िे रहा है। सम्पूणग िृश्य उरहे कोई फयािा नही होता है शीवाय इनकी
अिृश्य चरा चर र्र्त का लनयुंत्रण करता है। हमारे परे शानी और बढ़ र्ाती है। हमारी प्रार्गना या
अरिर ही वह वीर् वैंर् की घटना घट रही है और उपासाना हमे ताकत वर बनाते है और हमारे
हमारे अरिर ही वह ब्िैकहोि भी लवद्यामान हो सुंकल्प मनोबि की िृढ़ इच्छा शक्ती को बढ़ाते है,
कर हर पि घट रहा है। वह हमारे द्वारा ही लर्ससे हम अपनी मुसबतों से पार बाहर लनकिने
ब्रह्माण्डों का सृर्न कराता है और हमारें द्वारा ही में समर्ग होते है। इसमे उस परमेश्वर का कोई योर्
ब्रह्माण्डों को नष्ट भी कराता है। वह स्वयुं कु छ भी िान नहीं है। परमेश्वर कभी भी दकसी का ना ही
नहीं करता है वह सारा कायग हमारे द्वारा ही पूणग पक्ष में होता है नाही वह कभी लवपक्ष ही दकसी के
कराता है चाहे वह कायग दकसी के लवकास के लिये होता है। वह हमेशा लनस्पक्ष होता है। वह ना दकसी
उत्र्ान के लिये हो दकसी के पतन या नाश करने के को र्रम ही िेता है ना ही वह दकसी को मारता ही
लिये भी वह हमारा ही उपयोर् करता है हम सब है। ना ही वह दकसी को अलमर बनाता है ना ही वह
उस अिृश्य सत्ता हमारे कमग के मात्र मोहरे के दकसी को र्रीब ही बनाता है ना ही वह दकसी को
अलतरीक्त कु छ भी नहीं है। हम स्वतरत्र नहीं है हम लवद्वान बनाता है, नाही वह दकसी को मुखग ही
सब उसकी परतुंत्रता में ही अपना सम्पूणग र्ीवन बनाता है। हम सब ही अपने पूणग मालिक है हमने
र्ीते है। यदि कोई कहे की वह हमारे कमो का फि ही अपने आप को ऐसा बनाया है र्ैसा की हम आर्
िेता है यह सत्य नहीं है हम र्ैसा कमग करते है है। हम स्वयुं की मृत्यु के स्वयुं के र्ीवन के स्वयुं के
उसका फि भी हम स्वयुं ग्रहण कर िेते है इसमें लवकास के स्वयुं के पतन के सब का सब िारोमिार
उसका कोई अलधकार नहीं है वह दकसी को कभी अपना ही है। हम सब को र्ित बनाया र्या है, हम
ना ही प्रसन्न कर सकता है ना ही वह उसे िुःखी ही सब र्ैर र्ीम्मेिार दकस्म के है अपनी कलमयों और
कर सकता है। हम मृत्यु के भयुंकर लनिगयी पुंर्ों में त्रुरटयों का कारण िूसरो को घोलषत करते है लर्ससे
फुं स चुके है तो उसमें हमारे स्वयुं के कमग ही कारण हमें िूसरों की नर्र में उुं चा उठने में सहायता
है उसमें वह परमेश्वर कु छ भी नहीं कर सकता है, लमिती है और स्वयुं के अहुंकार को बि लमिता है।
वह हमें मृत्यु के घातक खतरनाक पुंर्ो से मुक्त नहीं हमारा कमग र्ब हमारे स्वार्ग के वशी भुत हो कर
कर सकता है। हमने स्वयुं के सवगनाश में ही रस दकया र्ाता है तो वह हमे अपने वश में कर िेता
िेकर बहत अलधक पररश्रम दकया है। हमारे द्वार है। हमारा स्वार्ग दकतना क्षुि है र्ो दकसी परमाणु
दकये र्ाने विे कमग के पररणाम का ज्ञान ना होने के या अणु के समान हो सकता है। या दफर हमारा कमग
कारण या िापरवाही के कारण र्ो कमग दकये र्ाते और उसका स्वार्ग इतना बड़ा हो सकता है लर्तना
है। लर्सका पररणाम हमारे लिये लवनाश कारक बड़ा यह ब्रह्माण्ड है। यह हमारे स्वार्ग की िो
लसद्ध होता है। मान लिया कोई एक पुरुष या स्त्री है श्रेलणयाुं है एक परमाणु अणु की तरह बहत सुक्ष्म
र्ो लनयम सुंयम से नहीं रहते है व्यभीचार करते है र्ुप्त है क्षुि रूप है लर्सके पररणाम से हम अनलभज्ञ
शरीर का लनरुं तर िोहन करते है कामुक्ता पूणग होते है। इसका पररणाम बहत खतरनाक होता है
र्ीवन र्ीते है, उनका र्ीवन हमेशा िुःख मय होता ठीक उसी प्रकार से लर्स प्रकार से परमाणु बम

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शब्ि ब्रह्म

कायग करता है हमें हमारे अरिर से ही पूरी तरह से पररश्रम कर रहा है। यह पृर्थवी भी अब ठीक मनुष्य
लनस्त नाबुत कर िेता है। वहाुं दकसी वस्तु का कभी की तरह है इसे भी अपने अलस्तत्व पर खतरा नर्र
सृर्न नहीं होता है। वहाुं चारो तरफ हमेशा मृत्यु आ रहा है। ऐसा ही ब्रह्माण्ड के सार् भी हो रहा है।
ही अपने परों को फै िा कर ही रखती है। और एक र्ीतना र्ीवन का लवकास होर्ा उतना ही ब्रह्माण्ड
िूसरे प्रकार का कमग होता है र्ो बहत लबशाि का लवकास होर्ा, लर्सको लवर् वैर्ुं के नाम से
उद्देश्य को ध्यान में रख कर दकया र्ाता है। लर्से र्ानते है। और लर्तना र्ीवन का हराश होर्ा
हम परमेश्वर के समान कायग करने वािे र्ो सभी उतना ही उतना ही पृर्थवी का भी नाश होर्ा, इसके
परमाणुओं का सुंग्रह यह ब्रह्माण्ड र्ैसा कायग है। र्ो सार् ब्रह्माण्ड का भी पतन नाश होर्ा। लर्सको
प्रकृ ती करती है लर्सको लनयुंलत्रत करने के लिये यह ब्िैक होि कहते है। यह लवर् वैर् की घटना एक
मानव प्रयाश रत है कु छ हि तक कर लिया है कु छ परीवतगन है र्ो हर परमाणु मे घट रही है, यह ब्िैक
अभी भी बाकी है, लर्सके लिये प्रयाश रत है। एक होि भी हर परमाणु में भी लवद्य मान है। यह नया
तीसरे परकार का कमग है लर्स पर हमरे भरलतय नहीं है यही र्ीवन और मृत्यु है। र्ब र्ीवन से भरे
मलनषों ने बहत र्ोर िीया है। वह है लनस्काम कमग है तो आपका लवकास हो रहा है लर्स वैज्ञालनक
करने के लिये। लनस्काम करम् का मतिब है लर्सके भाषा में लवर् वैर्ुं कहते है। िेदकन र्ब आप मृत्यु के
लपछे हमार व्यक्तीर्त कोई स्वार्ग ना हो र्ो करम्म साये को अपने चारों तरफ महशुष करते है तो यह
करना यहा र्र्त में बहत िुिगभ हो चुका है। वैज्ञालनक भाषा में ब्िैक होि है र्ो आपको लपघिा
कर आपका र्ो र्ीवन रस है उसे चुस रहा है। र्ो
९. मा वः स्तेनः ईशत= श्तेन अर्ागत चोर
एक बार इस शरीर से मुक्त करके िूसरे शरीर के
िुटेरें तुम्हारें स्वामी ना बनने पाये।
लिये तैयार कर रहा है।
र्ब मै कहता हू की परमेश्वर का कोई योर् िान
इस लवश्व ब्रह्माण्ड के प्रारुं भ में सवगप्रर्म सबका
नहीं है, हमारे र्ीवन में ऐसा इसलिये है क्योदक
ज्ञात सबको र्ानने वािा और सबका उत्पािक सब
हम ही परमेश्वर है और हमारे र्ैसे ही र्ीतने
को पैिा करने वािा, सबको लवस्तायुक्त लवस्तार
र्ीवन के लबरिु है उतने ही परमेश्वर भी है। इन सब
कताग सब को फै िाने वािा, र्ो सब प्रकार के
के द्वारा र्ो उर्ाग का लवसर्गन हो रहा है उससे लसफग
सद्र्ुण को धारण कताग सब का अलद्वलतय प्रकाशका
हमार ही र्ीवन ही नहीं बनता है यद्यपी हमारे
सूयग के समान तेर्स्वी है। सबसे श्रेष्ठ लर्समें सभी
अलतरीक्त र्ो हमारा ब्रह्माण्ड है वह भी लनरुंतर बढ़
रुची िेते है र्ो अिौदकक अद्भुत प्रकाशयुक्त
रहा है। इसको हम पृर्थवी के सात घटा कर िेख
लवषयों सबसे बहमुल्य लवषय है। लर्सको प्राप्त
सकते है र्ैसा यह मानव है उसके अनुरुप ही पृर्थवी
करने की योग्यता प्रत्येक मनुष्य र्रमर्ात धारण
भी स्वयुं को ढािती र्ा रही है। ह भी बन रहीं है
करता है। लर्सको सबने पहिे से ही प्राप्त ही कर
यह मानव के अनुकुि बनने के लिये हर पि प्रयाश
रखा है, लर्स परमेश्वर के प्रेम पूणग सामर्ग के वशी
रत है। यहाुं रहने वािा मानव अपने र्ीवन को िे
भूत होकर सभी आकाशर्ुंर्ा, ब्रह्माण्ड, सौयगमुंडि,
कर अत्यलधक सुंकट में दिखाई िे रहा है। इसका
ग्रह आदि अपना अपनी धुरी पर लनरुंतर यर्ा स्र्ान
र्ीवन खतरे में यहा पृर्थवी पर नर्र आ रहा है इस
लनलित र्ती कर रहे है। र्ो ईश्वर ज्ञान का िृष्टारत
लिये यह यहा से कही और िूसरे दकसी ग्रह पर
िोक और अपने व्याप्ती से सब को आच्छादित कर
अपना लनवास अस्र्ान बनाने के लिये िर्ातार

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शब्ि ब्रह्म

रहा है, वह ईश्वर मयागिा से िेखने योग्य अव्यक्त नहीं है। और ना लह हर व्यक्ती हर प्रकार का लवशेष
अिृश्यता के कारण र्ो आकाश स्र्ान को ग्रहण कायग ही कर सकता है। इसके लिये कु छ लवशेष
करता है। व्यलक्तयों का ही वह परम पुरुष लनलित करता है।
मानवों में अत्यलधक मानव िेवर दकस्म के कायग का
१०. मा अघ शुंसः = पापात्मा पुरुष के लवचार
सुंपािन करते है। लर्स प्रकार से हर व्यक्ती ना ही
तुम पर शासन ना करें ।
दकसी िेश का प्रधान मुंत्री बनता है ना ही राष्ट्रपती
लर्स ब्रह्मा के ब्रह्मज्ञान को र्ानने के लिये ही बनता है। ना ही हर व्यक्ती र्र्, लचदकत्सक ना
प्रलसद्ध और अप्रलसद्ध सब िोक िृष्टारत के समान है। ही हर व्यक्ती वैज्ञालनक ही बनते है। यह बात अिर्
र्ो सवगत्र व्यापक सबका आवरण सबका प्रकाशक है दक यह सुंभावन सब के अरिर है। यद्यपी यह
और सबका सुरिर अनुशाशन कताग है। लर्सने सभी पुरुष के पररश्रम और उसकी पररलस्र्ती पर भी
को उनको लनयम के सार् लनयमन करके सभी छात्रों काफी कु छ लनलित करता है। यदि वह मानव यह
को र्ो िोकों के समान है िोकपाि है। उनको अपने प्रारुं लभक र्ीवन में एक लवशेष उद्देश्य बना
रखता है। वहीं परमेश्वर हम सब के अरतमगन में कर लनलित उस िक्ष्य को प्राप्त करने के लिये
अरतयागमी रूप में लवद्यमान है र्ो लनरुं तर हम सब पुरुषार्ग करें तो अवश्यमेव वह एक दिना अपने
की हर कामना में सवग श्रेष्ठ और उपसना करने के लनलित िक्ष्य पर पहुंच र्ायेर्ा। इसके लिये वह
योग्य है। इसके अलतरीक्त कोई िूसरा पिार्ग इसके अपना कमग करने के लिये लबल्कु ि स्वतरत्र है, यही
स्र्ान पर सेवन के योग्य करने नहीं है। और र्ो यह इस स्वतरत्रता का र्ित उपयोर् ही इस मानव को
अद्भुत और अिौदकक कायग करता है वही ब्राह्मण बहत सारे ना करने योग्य करम करता लर्सके
है लर्सके लिये उसका ब्रह्मज्ञान सब कु छ है, लर्स कारण ही उसे बुंधन को उपिब्ध होना पड़ता है
ब्राह्मण के पास ब्रह्मज्ञान नहीं है वह ब्राह्मण नहीं है लर्सके लिये वह अपने भाग्य, दकस्मत और अपने
वह कु छ और इसके अलतरीक्त है। यह ब्रह्मज्ञान सभी भर्वान को िोष िेता है। और बार बार उिाहना
मनुष्यों को सुंतती के रूप में नहीं लमिता है यह करता है की परमेश्वर तुमने हमें यह क्यों नहीं
अनुवाुंलसक वुंस परम्परा का सम्वाहक नहीं है। दिया, मुझे ऐसा क्यो बनाया? ऐसा ही मानवों की
इसके लिये के वि एक मार्ग है वह है पुरषार्ग के सुंख्या इस भुमुंडि पर सबसे अलधक है र्ो स्वयुं से
चरम उत्कषग को उपिब्ध होना ही ब्राह्मज्ञान है। र्ो और स्वयुं के कमो से और लमिने वािे कमों से
सबसे बड़ा ब्रह्मज्ञानी है वहीं सबका उत्पािक अत्यलधक अतृप्त है उनका र्ीवन साक्षात मृत्यु के
सबका माता लपता और सबका सच्चा लनस्वार्ग समान है कहिे को वह र्ीवीत होते है वास्तव में
लनस्पक्ष र्ुरु है। वही यह सब लनलित करता है दक उनमे र्ीवन र्ैसा कु छ भी नही है, वह अपने अुंिर
कौन सा छात्र दकस प्रकार की योग्यता रखता है। पुरी तरह से टुट चुके होते है उनके सामने हर तरफ
उसकी योग्यता के सामर्ग के अनुरुप ही वह से के वि लनराश के बािि ही दिखाई िेते है उनके
ब्रह्मज्ञानी पुरुष उस छात्र को उसके लिये उपयुक्त र्ीवन में कोई आशा की दकिण नहीं दिखाई िेती
शीक्षा का ज्ञान िे कर शीलक्षत करता है। और उस है। वह अपने र्ीवन में वस्तव मेंकभी र्ीवन को
लवशेष कायग के लिये इस भुमुंडि पर लनयुक्त करता अनुभव ही नही करते है। सिा उरहें मृत्यु ही दिखाई
है। क्योदक हर दकसी के लिये हर प्रकार का लवशेष िेती है। इसके लपछे मुख्य कारण है की वह लर्स
ज्ञान उपिब्ध करना इस छोटे से र्ीवन में सुंभव समार् में रहते वह समार् और वह पररवार उनको

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शब्ि ब्रह्म

बनाता हे वह स्वयुं के मालिक नहीं होते है यद्यपी ११. ध्रुवा अलस्मन् र्ोपतौ स्यात = अपनी
वह सब िाश क समान होते है। र्ो वस्तु लर्तनी इलरियों का के रि परमेश्वर को बना के रखो।
िुिगभ या बहमुल्य है या लर्तनी बड़ी है या लर्तनी
र्ीवन क्या है? यह इस िुलनया में बहत बड़ा
क्षुि है, उसको उपिब्ध करने वािे भी उसी प्रकार
और बहत ही र्रटि लवषय है, इस प्रश्न का उत्तर
के व्यक्ती होते है। बहत कम और िुिगभ व्यक्ती ही
िेने से पहिे हमारे पास कई महान लवद्वान हैं, हर
होते है। र्ीवन के चरम उत्कशग अपने र्ीवन में
दकसी ने अपनी शैिी में प्राचीन कलव की तरह
उपिब्ध कर पाते है। लर्तनी क्षुि या छोटी वस्तु है
समझाया है दक र्ीवन में बहत ििग है, और पलिमी
उसको चाहने वािे भी बहत अधीक मात्रा में
िेशों के कु छ महान लवद्वान इसके बारे में कई प्रकार
उपिब्ध होते है, यह सब लनम्न स्तर के व्यक्ती होते
के लववरण िेते हैं। हािाुंदक मुझे िर्ता है दक हर
है। यहाुं दकसी को मुफ्त में कोई वस्तु नहीं लमिती
र्वाब पूरी तरह से उलचत या सुंतुष्ट नहीं िते है
है हर दकसी व्यक्ती को उस वस्तु की उपयुक्त दकमत
क्योंदक कु छ र्ानकार और प्रबुद्ध मानव ने हमेशा
अवश्य चुकानी पड़ती है। र्ो मुफ्त में दकसी वस्तु
कहा है दक र्ीवन एक रहस्यमय की तरह है। हमारे
को प्राप्त कर िेते है वह उसकी उपयोलर्ता और
र्ीवन का यह अनुभव है र्ब हम लनस्वार्ग भाव से
बहमुल्यता से अरर्ान ही रहते है। र्ैसा दक हर
सत्य का अनवेषण करते है। तब यह वास्तव मे सत्य
व्यक्ती को नहीं पता है दक सूयग की दकमत क्या है?
लसद्ध होता है की र्ीवन एक महान ििग या आपिा
हवा की दकमत क्या है? पृर्थवी की दकमत क्या है?
और लवनाशकारी अज्ञात र्हरे समुि समान है आर्
र्ि की दकमत क्या है? आकाश की दकमत क्या?
तक इसके आतुंक से कोई भी मुक्त हो पाया है। चाहे
इन पाुंच तत्वों का मेि ह यह शरीर है या दफर वह
वह रार्ा हो या रुं क हो िोनो को ही यह र्ीवन
परममेश्वर हमारें र्ीवन के लिये दकतना बहमूल्य
अपनी तरह से प्रतालणत करता है। तरह तरह के
है। िोर् इसको भुि कर हमेंशा दकसी ना दकसी
रूप और आकार बिि कर यह हमारे र्ीवन की
प्रकार से येन के न प्रकारे ण के वि हर समश्या का
शाश्वत सच्चाई है। र्ब हम र्ीवन की सुंपूणगता में
सामाधान के रूप रूपये को िेखते है और इसको ही
र्ीवन की हर पररलस्र्लत में हर पहिु से िेखते है
उपिब्ध करना अपने र्ीवन का परम उद्देश्य
तो इस बात पर ठहरते है की र्ीवन का स्वरूप ििग
समझते है। लर्सके कारण वह उस वस्तु का सही
मय ही है। र्ीवन को आनरि भी कहते है र्ीवन में
उलचत उपयोर् नहीं कर पाते इसके लवपरीत वह
सुख भी दिखाई पड़ता है िेदकन आर् तक दकसी को
उसका अलधकतर िुप्रगयोर् ही करते है। इस र्र्त में
सुख लमिा नहीं है यिी दकसी को वह सुख लमिा
र्ो अ नाम का कोई एक प्राणी है लर्सको ब्रह्मज्ञान
होता तो वह ठहर र्ाता अपने र्ीवन के सफर में,
हो र्या है, लवज्ञान के माध्यम से उसने स्वयुं के
और पूकार पुकार कर कहता की मै सुखी हो र्या।
र्ीवन में कु छ लवशेष प्रयोर् करके ब्रह्मज्ञान प्राप्त
िेदकन ऐसा िेखने में कभी नहीं आता है अपवाि में
कर लिया। लर्सके माता लपता स्वयुं लशव है और
कोई एकाक कहीं दिखाई िे तो उसको हम सब पर
लर्सकी माता स्वयुं पावगती है र्ो स्वयुं साक्षात
एक सामान नहीं िार्ु कर सकते है। इसका मतिब
अधगनारे श्वर है र्ो ना स्त्री है ना पुरुष है वह िोनों से
यह नहीं है की र्ीवन में सुख या आनरि नहीं है
उपर उठ चुका है। वह उस र्र्त में रहता है र्हाुं
इसका मतिब यह है की र्ीवन र्ीने का ढुंर् र्ित
र्र्त र्ार्ते ह र्ती करता है।
है लर्सका पररणाम ही र्ीवन में िुःख और लपड़ा है

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शब्ि ब्रह्म

यह प्रमाण है की हमने र्ित दिशा में स्वय के कामना के लिये स्वयुं को लमटा उनके स्वप्नो को
र्ीवन को िेकर स्वयुं की यात्रा कर रहे है। और लसद्ध करों। वह तुम्हे अपने लिये उपयोर् करना
यहाुं र्ीवन के बारे में र्ो लशक्षा दिया र्ा रहा है चाहते है उनको तुमसे या तुम्हारे अलस्तत्व से कोई
वह र्ित है इस पुरानी लशक्ष लवधी को बििना िेना िेने नहीं है। इस लिये तो इस र्र्त में कोई
होर्ा। यिी हम र्ीवन में सुख और आनरि की बाप अपने बेटे से खश नीं है ना कोई माुं ही अपनी
कामना करते है र्ीवन का सुख दकसी वस्तु के बेटी से खुशी है। ऐसा ही वेटों और वेरटयों के सार्
आलश्रत नहीं है। इसके लिये क्रारतीकारी मार्ग का भी है। र्ो यह दिखाने का प्रयाश करते है दक वह
अनुसरण करना होर्ा । यह एक क्रारतीकारी के अपने वेटे और वेटीयों से बहत खुश है तो यह समझ
लिये सुंभव है, िोर्ों को यह वेवश और वेसहारा िेना की यह सब भ्रष्ट और झुझे िोर् है। यह उसी
िाचार अपुंर् बनाने पर र्ोर लर्या र्ा र्ारहा है। प्रकार से है र्ैसे मुह में राम और बर्ि में छु री वह
िोर्ों के पास आुंखे है िेदकन वह मुख्य तत्व को तुम्हे िुटने तुम्हे धुतग झुठा बनाने के प्रयाश में िर्े है
िेखने मे असमर्ग है। यह पत्र्र की आुंखें के पत्र्र उनको इसी में रस आता है। वह तुम्हारे सुख को
को ही िेखने में समर्ग है यह अपाद्शी नहीं दकसी आनरि को दकसी सतग पर लस्वकारना नहीं चाहते है।
वस्तु के आऱ पार िेखने में समर्ग नहीं है। इनको वह तुम रुची िे रहे है की तुम उनके र्ैसे बनावटी
ऐसा बनाने के लिये ही िम्बे काि से प्रलशक्षीत बनो लर्समें उनको फायिा है। लर्से शभ्य लशक्षीत
दकया र्ा रहा है लर्समें हमारी लशक्षा का सबसे समार् और आधुलनक पररवार कहते है। लर्समें हर
बड़ा योर् िान है। प्रकार की धुतत
ग ा र्ो उरहोंने सभी लहरसक र्ानवरों
लसख कर अपने र्ीवन में धारण कर लिया है। और
यह सत्य है दफर यह सत्य सब पर प्रकालशत
अपने मानव र्ीवन के मुख्य परमतत्व परमेश्वर को
क्यों नहीं होता है, और इसके लपछ कारण क्या है?
त्यार् कर के तुम्हे भी वह सी प्रकार का चाहते है।
यह सत्य है िेदकन हम इसको लस्वकार नहीं कर लर्स प्रकार शराबीयों के ब्च में एक र्ैर शराबी उन
पाते हमें इस प्रकार से सुंसाकाररत दकया र्ीता है शरालबयों के लिये शत्रु दिखाई िेता है। र्ैसे सभी
दक सुख आने वािा है िुःख के बाि र्बदक सत्य यह लवद्वानों को मुखो से शत्रुता है। र्ैसे सूयग को अुंधकार
है की वह सुख कभी आता नहीं है वह भवीष्य में से शत्रुता है। र्ैसे पानी को आर् से खतरा है। र्ैसे
होने वािी एक घटना है र्ो र्ीवन में कभी घटती लमट्टी के बतगन को िोहे के बतगन से शत्रुता है।
नहीं है, यह पूणगतः काल्पलनक है। र्ो िुःख स्वप्न को
और ताकत वर शक्ती शािी बनाता है। हमारे सर्े यह र्ीवन क्रारती का मार्ग उन पुरुषों के लिये है

सुंबुंधी पररवार माता लपता र्ुरु आिी हमें र्ित र्ो पुरुषार्ग को अपना अस्त्र बनाने वािा उद्यमी

लशक्षा िेते है। हमें आक्रमण कारी बनाते है हममें पुरुष के समान प्रयत्न लशि और शीघ्र वेर् के सार्

लवद्वेश की भावन भरते है, हमें र्रीब बनाते है हमें अपने शत्रु पर हमिा करने वािे पराक्रमी योद्धा के

अलमर बनने के लिये प्रोत्सालहत उत्सालहत करते है समान है। शत्रु िो प्रकार के है एक आरतररक

और कहते है सुंघषग करो तुम अवश्य तुम्हारी लवर्य अज्ञानता को धारण करने वािा अज्ञान है। और

होर्ी। र्बकी सत्य यह है की उनके सुंघषग ने स्वयुं िूसरें बाहरी सुंसारीक शत्रु है, र्ो रार् द्वेश को
उनको कभी सफि नहीं दकया है। इसलिये वह धारण करने वािे है। र्ो पराक्रमी योद्धा अपने शत्रु
चाहते है की तुम अपने र्ीवनको िर्ा कर उनकी का नाश लशघ्र करता है, लर्स प्रकार से अन्न को

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शब्ि ब्रह्म

भुनने वािा मनुष्य अन्न को लशध्रता से भुनता है। तरह से ईश्वर र्ीव प्रकृ ती है इसी तरह से ज्ञान
उसी प्रकार पराक्रमी योद्धा अपने शत्रुओं की सेना लवज्ञान ब्रह्मज्ञान है। र्ो एक परमाणु में तीन अणुओं
को लशघ्रता से भुनता है। लर्स प्रकार से आर् पानी की तरह है। सवग प्रर्म हमारी चेतना है र्ो हमारे
को वास्प में पिक झपकते ही बिि िेती है। लर्स शर में सवगप्रर्म उपलस्र्त होती है, वही से यह
प्रकार से कािा रुं र् हर रुं र् पर बहत र्ल्िी चढ़ हमारे सारे शरीर को एक पीण्ड के रूप में सभी
र्ाता है ठीक इसी प्रकार से अपने लवरोधी ताकतों अुंर्ों का िेखभाि करती है। इसमें इसके िो सहायक
को अपने वश में कर िेते है। र्ो ऐसा नहीं कर है एक परमेश्वर िूसरा प्रकृ ती है। र्ैसा की मुंत्रों में
पाता है उसे दफर वह उन अपने शत्रुओं को सम्हिने आता है दक यह मानव शरीर एक प्रकृ ती रूपी वृक्ष
का समय िेता है लर्ससे उभरना समय के सार् की तरह है लर्समें िो प्रकार से सुवणग सुरिर पक्षी
मुलस्कि और कठीन हो र्ाता है। र्ैसे र्ब हमारी रहते है एक तो स्वयुं की चेतना हा र्ो शरीर मन
इलरियों में शक्ती होती है तभी उनको लनयुंलत्रत और इलरियों से एकात्म अस्र्ालपत करके सुंसारीक
करके अपने र्ीवन उद्देश्य को उपिब्ध कर िेते है। लवषयों का लनरुं तर भोर् करती है लर्सका पाप पुण्य
र्ब इलरियाुं कमर्ोर हो र्ाती है और स्वयुं के आत्मा को भोर्ना पड़ता है र्ब तक वह शरीर में
लनयुंत्रण करना असुंभव हो र्ाता है। इस लिये कहा लनवास करती है। िूसरा पक्षी स्वयुं परमेश्वर है र्ो
र्या है की र्ीवन के प्रारम्भ में ही र्ल्िी र्ल्िी आत्मा रुपी पक्षी के कमों का साक्षात्कार करता है
अपनी त्रुरटयों को र्ीवन से िूर करके स्वयुं पररपूणग और उसके दकये कमों का उसको फि िे कर प्रसन्न
करों और सोम रस का पान करो अर्ागत र्ीवन रस और प्रतालणत भी करता है। र्ब आत्मा को
के परम आनरि का भोर् करो, अर्ागत सौम्य र्ुण सुंसाररक लवषयों का ज्ञान हो र्ाता है की इसमें
वािे पेय शक्ती को बढ़ाने वािी परम िैलवय लशवाय िुःख के कु छ नहीं है तो वह लवषयों का
औषलधयों का सेवन करों है। क्योंदक वह परम तत्व त्यार् करके परमेश्वर में अपना लचत्त िर्ाता है
एक रसायन ही है। तिुपरारत हर्षगत और उत्सालहत लर्ससे परमेश्वर के र्ुण उस चेतना में भी उतरने
होकर अपनी िुष्ट वृलत्तयाुं र्ो शत्रु के समान है, िर्ते है र्ैसे िोहा आर् के सम्पकग करने से आर् की
उनको परास्र् करके इनसे हमेशा के लिये मुक्त हो र्मी को प्राप्त करता है उसी प्रकार से आत्मा
र्ाओ। परमात्मा के र्ुणों को प्राप्त करता है। लर्ससे वह
शरीर रूपी सुंसार से मुक्त होने िर्ता है। र्ब तक
१२. बह्वी = एक से अनेक बनो आत्मके लरित
वह परमेश्वर के सालनध्य में रहता है तब तक वह
मत बनो।
आनलरित रहता है और र्ब उसके पुण्य कमग क्षीण
हे मनुष्यों र्ैसे एक अके िा अणु र्ो ऋतु के हो र्ाते है तो वह पुनः श्रेष्ठ मानव के समृद्ध
समान शास्वत शोभायमान प्रकट हो रहा है। र्ो पररवार में र्रम िेता है।
लनरुं तर र्लत कर रहा है घोड़े के समान लवशेष कर
अब सुनो र्ो र्ीवन में परम आनरि पाने का
रूपादि का भेि पैिा करने वािा है। र्ो िो प्रकार के
और सत्य को प्राप्त करने का नीयम है। र्ो अपने
लनयमों को बनाने वािा है। र्ो हमारें अुंर्ों को ऋतु
बि को बढ़ाने वािा है लर्सने अपनी त्रुरटयों को िूर
सुंबुंधी पिार्ों को अनुकुि बनाने विा है, अलि के
करना र्ान लिया है, और र्ो पुरु सद्र्ुणों को
माध्यम से चेतना को शुद्ध और उसको लनयम में
धारण करने वािा है। ऐसा पुरष ही हमेंशा िूसरों
करने वािा है। एक ईश्वर िूसरा प्रकृ ती है लर्स

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शब्ि ब्रह्म

को उत्तम उपिेश कर सकता है। र्ो अपने बि शक्ती सामर्ग पराक्रम, बि, र्ीवन, श्रवण, िशगन और
सामर्ग को धटाने वािा है वह बुरे और लनकृ ष्ट पररपािन इन शलक्तयों से युक्त है। र्ो वैरी, शत्रु,
लवचारों की प्रेरणा से अपने मन को िुषीत करता है। कुं र्ुस ,खुन चुस और आसुरी वृत्ती वािे इनसे बचने
ऐसे व्यक्ती पापी और िुष्ट वृलत्तयो वािे र्ो र्न है की शक्ती तेरे अरिर है। यह शक्ती मुझमें लस्र्र कर,
उनको पकड़ कर बरधन में रखना चालहये। अर्ागत मै अपने आपकोतेरे लिये अपगण करता हूुं। यह
कड़े अनुशासन में लनरुं तर उस पर नर्र रखनी मनुष्य परमात्मा के द्वारा बनाया र्या है, और
चालहये,उनके लिये यर्ा योग्य िण्ड की व्यवस्र्ा भी र्ुरुओं के द्वारा लशक्षीत दकया र्या है। वीरों के द्वारा
िेने की समार् में होनी चालहये। र्ो वृलत्तया मन का उत्सालहत दकया र्या है इस लिये यह शुर वीर
नाश करती और उसे बेकार बना कर के नष्ट भ्रष्ट योद्धा बन कर हमारे अरिर आया है, और सभी
कर िेती है, उसका सुंहार या हत्या करना योग्य है। कायग करता है मात्री भूमी की उपासना करने वािा
उस ग्ररर्ी को र्ो बार बार लपड़ा और क्िेश का यह वीर भुख और प्यास कसे कभी कष्ट को प्राप्त ना
कारण बनता है उसे ऐसे ही काट िेना चालहये। र्ैसे है। र्ो ज्ञानी पुरुष अपने मन और आखों से बद्ध
कु ल्हाड़ी से वृक्षों का काटते है। लस्र्त में रहते हए, सभी प्रालणयों को अनुकम्पा की
िृष्टी से िेखते है। उनको ही लवश्व का लनमागण करने
र्ो घमुंडी और अहुंकारी मनुष्य अपने आप को
वािा और प्रर्ावों में रमने वािे है उनको ही
ही सवोपरी सबसे महान मानता है, इतना ही नहीं
प्रकाश मय िेव सबसे पहिे मुक्त करता है। र्ो
हम र्ो ज्ञान का सुंग्रह करते है, उसकी भी वह
ज्ञानी पुरुष सब शरीर में सुंचार करने वािे प्राण को
लनरिा करता है। उसके सभी कमग उसके लिये कष्टप्रि
सब अुंर्ों और अवययों से इकट्ठा करके अपने
होते है। क्योदक र्ो सत्य ज्ञान का लवरोध करता है
अलधकार में िाते है। वे ही ज्ञानी पुरुष शरीर से
उसको दिव्य िोर् र्ो ज्ञान का है, उसे बहत प्रकार
सुिढ़ृ होते है। वे ही र्मन करते हए सीधे दिव्य मार्ग
का कष्ट िेता है। लर्स प्रकार घोड़ा अपना पाुंव र्ब
से स्वर्ग को र्ाते है, और प्रकाश का स्र्ान प्राप्त
उठाता है तो वह अपने प्रापतव्य स्र्ान को प्राप्त
करते है। और र्ो अन्न खाते हये भी श्रेष्ठ कतगव्यों को
करने के बाि ही रुकता है। उसी प्रकार इन सब
नहीं करते है, लर्सके कारण उनके वुलद्धयों में रहने
लवपलत्तयों के मुख्य श्रोत को िेख कर ज्ञान लवज्ञान
वािी अत्मा रूपी अलि बड़ा पिाताप करती है और
ब्रह्मज्ञान के माध्यम से उन मुख्य कारण के श्रोतों
िुःखों को उपिब्ध करती है। उनके र्ो िोष है वह
को अपने में से अिर् कर िेना चालहये। हर प्रकार
सुधर र्ाये और लवश्वकताग परमेश्वर की कृ पा से वे
की र्ीवन की किह और क्िेश में अपनी लवर्य
हमारे सत्त कमो में सलम्ित हो। इस र्र्त में अपना
लनित हो ऐसी अपनी तैयारी हमेंशा करनी
सुंरक्षण मनुष्य को स्वयुं करना चालहये यह बात
चालहये। और हर एक र्ीवन के युद्ध सुंग्राम में
पुकार – पुकार कर सभी श्रेष्ठ और आप्त पुरुष करते
र्ाग्रत रहते हए लवर्य प्राप्त करने से ही र्ीवन की
सब लपड़ायें हट सकती है। है। हे मनुष्य तुम अलिवत तेर्स्वी बनो औरअपना
प्रकाश र्र्त में फै िावो, यह तभी सुंभव होर्ा र्ब
लवश्वव्यापक पुरष र्ो अपनी दिव्य शलक्तयों के ज्ञान लवज्ञान ब्रह्मज्ञान को धारण करने में सक्षम
द्वारा तर्ा लवश्वम्भर इश्वर अपनी पोषण शलक्तयों होर्े। हे मनुष्यों ! र्ो वेि वाणी को धारण करने
के द्वारा हमेंशा मेरी रक्षा करता है। मै अपने आपको वािा लवद्वान पुंलडत नाश रलहत दिव्य ज्ञान को
उसकी रक्षा में समर्पगत करता हू क्योदक परमेश्वर

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शब्ि ब्रह्म

लवषेश रूप से अपनी वुद्धी में धारण करता है, वही उसी के अनेक अलि आदि सम्पूणग अरय िेवों के नाम
मुक्ती का श्रेष्ठ साधन के बारे में, और उस लनत्य प्राप्त होते है। अर्ागत उसी को दिये र्ाते है, लर्ज्ञासु
चेतन ब्रह्म का लशघ्र र्ुण कमग स्वभावो के सलहत र्न उसी के लवषय में बारम्बार प्रश्न पुछते है, और
उपिेश करता है। औऱ र्ो इस ब्रह्मज्ञान में कल्याण अरत में उसी को प्राप्त होते है।
दक भावना के लहतार्ग लस्र्त र्ानने योग्य तीन
पृर्थवी सूयग समेत अनरत ब्रह्माण्डों के अरिर र्ो
उत्पत्ती, लस्र्ती, प्रिय, भुत, भलवष्य ,वतगमान
अनरत पिार्ग है उन सब का लनरीक्षण करने के बाि
काि है। उनको अच्छी प्रकार से र्ानता है। वही
पता िर्ता है दक अटि शाश्वत लनयमों का पहिा
लपता स्वरूप सवगरक्षक परमेश्वर का ज्ञान िेने का
प्रवतगक एक ही परमात्मा है। इसलिये मै उसी
आलस्तक्ता से रक्षक बनता है।
परमात्मा की प्रार्गना और उपासना करता हूुं। लर्स
द्युिोक , पृलर्वीिोक, दिन, रात्री, सूय,ग प्रका वक्ता में वाणी लवद्यमान रहती है, उसी प्रका
चरि,नक्षत्र, ब्रह्मज्ञानी, योद्धा, सत्य, अनृत, भुत र्र् के सभी पिार्ों में अर्वा सभी प्रालणयों में
भलवष्य आदि सब दकसी से भा डरते नहीं है इसी उपलस्र्त हो कर सबका धारण पािन पोषण कताग
लिये यह लवनाश कभी प्राप्त नही होते है। इससे के रूप में एक आत्म रहता है। उसको अलि भी कहते
कै वल्य ज्ञान लमिता है की हम लनभगय वृलत्त से रह है, लर्स प्रकार अलि िकड़ी में र्ुप्त रूप से लवद्यमान
कर ही अपने लवनाश से बचने की सुंभावन है। अतः रहती है, उसी प्रकार से वह परमेश्वर र्ुप्त रूप से
हे प्राण तू इस शरीर में लनभगय वृत्ती के सार् रह सभी पिार्ो में अिृश्य हो कर व्यापता है।
और अप मृत्यु के भय को िूर कर।
लर्स एक परमेश्वर में अलि, वायु, सूयागदि िेव
लर्स प्रकार से यह र्र्त र्ो र्ार्ते हए लनरुंतर समान रीलत से आलश्रत है, और लर्सकी अमृत मई
र्ती कर रहा है। अपनी लवलवधता को त्यार् कर शक्ती सम्पूणग उक्त िेवों में कायग कर रही है। वही
एक रुपपता को धारण करता है। और लर्स परम एक सवगत्र फै िा हआ व्यापक काि र्ई सत्य है।
तत्व का लनवास हृिय में है। उस परम तत्व को उसी का साक्षात्कार करने के लिये मैने सब वस्तु का
मानव भाव से ही अपने हृिय में साक्षात िेखता लनरीक्षण दकया। लर्सके पिात मैने पाया की वह
है,इस प्रकृ ती ने उसी एक आत्मा की लवलवध सबके अरिर एक सूत्र की तरह फै िा हआ है लर्स
शलक्तयों को लनचोड़ कर उत्पन्न होने वािे लवलवध तरह से एक मािा में फु ि कई प्रकार के होते है
र्र्त का लनमागण दकया है। इसलिये आत्मज्ञानी यद्यपी उनको एक सार् र्ोड़ने वािा तार्ा एक ही
मनुष्य सिा उस आत्मा की ही र्ुण र्ान करते है। है। इसको मैने अनुभव दकया, इसके सार् र्ीवन की
लर्स प्रकार से अपने हृिय में उपलस्र्त उस परम अनरत किायें भी है। इन सब का लनवस स्र्ान मध्य
अमृत तत्व के परम धाम का वणगन के वि िोक अरतरीक्ष है, र्हाुं यह सब शलक्तयाुं प्रकट होती
आत्मज्ञानी सुंयमी वक्ता ही कर सकता है। लर्सके है, और वहीं पर यह अिृश्य भी हो र्ाती है।
तीन पाि है ज्ञान लवज्ञान ब्रह्मज्ञान हृिय में र्ुप्त है
१३. यज्ञमानस्य पशुन पाचहुं = काम क्रोधादि
र्ो उनको र्ानता है, वही ब्रह्मज्ञानी होता है। वहीं
वाशनाओं पर लनयुंत्रण बना के रखों।
हम सब का लपता, र्रम िाता और भाई के समान
है। वही सभी प्रालणयों को सभी अवस्र्ाओं में लर्स प्रकार से यह ईख नामक वनस्पलत्त स्वभाव
यर्ावत र्ानता है। वह के वि अके िा ही एक है से मधुर मीठी है, उसका िर्ाने वािा और उखाड़ने

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शब्ि ब्रह्म

वािा भी मधुरता की भावना से ही उसको िर्ाता प्रकाश और अुंधकार की आते र्ाते रहते है। कोई
और उखाड़ता है। लर्स प्रकार यह वनस्पलत्त फु िों के िािाइत है तो कोई काटों से भार्ना
परमात्मा से यह लमठास अपने सार् िे कर आती है। चाहता है।
उसी प्रकार से हम सब भी अपने र्ीवन में
कभी भी इनको िेख कर भार्ना मत इनको
परमात्मा से लमठास और मधुरता को प्राप्त कर के
भोर्ना र्ो भी हो सुख या िुःख तुम्हारे लहस्सें में र्ो
अपने र्ीवन को मीठा और मधुर बनाये। मेरी
भी आये यह एक कषौटी तुम्हारे धैयग के असिी
र्ीभ्भा के मुख्य भार् में मधुरता रहे, र्ीभ्भा के अग्र
परीक्षा की। र्ो िोनों को सहने के लिए तैयार है
भार् में और र्ीभ्भा के मध्य भार् में भी मधुरता
परमेश्वर का पुरुष्कार मान कर और अपने कमों का
हमेंशा बनी रहे। मेरे कमग में मधुरता रहे, मेरा लचत्त
फि समझ कर, वहीं र्ीवन का सच्चा सुख पाता है।
मधुर लवचारों का ही लचरतन और मनन हमेशा
लर्सने स्वयुंको पत्र्र के समान िृढ़ और मर्बुत
करता रहे। मेरा चाि चिन हमेशा मधुर और लमठा
और फौिाि र्ैसा स्वयुं को बना लिया है। यह
हो, मेरा आना र्ाना लमठा हो, मेरे इसारे और भाव
र्ीवन उसी को प्रसन्न करता है लर्सने एक-एक
तर्ा मेरें शब्ि भी मीठे िूसरे को सुख िेने वािे हो।
किम मृत्यु को अपने सामर्ग से लपछे धके ि िेता है।
ऐसा होने से मै अरिर बाहर से लमठास की मुती
बनुर्ाुं। मै शहि से भी लमठा बनता हू मै लमठाई से ब्रह्म र्ो लवद्युत से सुक्ष्म लवद्युत के समान है। र्ो
भी लमठा बनता हूुं, इस प्रकार र्ीस प्रकार से मधुर अपनी वाणी से ही ब्रह्माण्ड की उत्पत्ती करता है।
फि वािी शाखा को पक्षी प्रेम करते है तू भी मुझ और अपनी इसी वाणी से िुष्ट व़लत्तयों वािों र्ीवों
से प्रेम कर। कोई दकसी का द्वेष ना करें इस उद्देश्य को सुंतप्त करता है। लर्स प्रकार से आकालशय
से व्यापक मधुर लवचारों की की चार दिवारी चारों लवर्िी की मात्र भयुंकर आवार् को सुन कर दकतने
ओर बनाता हूुं लर्ससे इस चार दिवारी में सब ओर प्रालणयों का हृिय भय व्याप्त हो र्ाता और वह
मधुरता ही बढ़े सब एक िूसरे से हमेंशा प्रेम करें कापुंने िर्ता है। उसी प्रकार वह परमेश्वर मानव
और लवद्वेष से कोई दकसी से लवमुख ना हो। मन में भय, िज्जा, शोक, मातम र्ैसी वेिनाओं
आदि के भावों को उत्पन्न कर के उनको र्ित कायों
र्ो लवद्युत के समान है लर्स तरह से बल्ब
को करने से लनरुं तर रोकता है। र्ो सज्जनो के आिर
फ्युर् होता है। मर्र लवद्युत लनलित रहती है। उसी
सत्कार नमस्कार के योग्य है। र्ो हमारें लिये
प्रकार से हमारी शरीर बल्ब के समान फ्युर् होती
बलभन्न प्रकार के सुख और ऐश्वयों को प्रकट करता
है मर्र र्ो इसकी चेतना लवद्युत के समान है वह
है। लर्सको प्राप्त करने के लिये र्ो सज्जन लवद्वान
हमेंशा उपलस्र्त रहती है। यह एक बात लनलित
पुरुष है वह अपने र्ीवन में सुंयम को धारण करके
र्ान िे दक मेरे आत्म मन र्ो भी तुम्हे लमिता है
उसको प्राप्त करने के लिये लनरुं तर उसकी उपासना
इसको तुमने बहत पररश्रम से कमाया है, मुफ्त में
प्रार्गना स्तुती करते है। उसको मै बारम्बार
तुम्हे यहाुं कु छ भी नहीं लमिता है। काुंटों के समान
नमस्कार करता हूुं।
लपड़ा िेने वािे अर्ाह िुःख, ताप , सुंस्कार या दफर
फु िों के समान हल्के सुख और आनरि िेने वािे मेरे हृिय के मन मीत तुम दकसी भी समय
पररणाम र्ुण सुंस्कार यहीं िो कोरट हैं । दकसी भी अपने आप को स्वयुं से ताकत वर दकसी को मत
मनुष्य को िोनो कभी सार् में नहीं लमिते यह समझना ना ही तुम दकसी को अपने से कमर्ोर ही

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शब्ि ब्रह्म

समझने का भुि पािना। र्ो र्ीवन के इस भाव को लर्सको हम लसधा परमेश्वर के साक्षात्कार ही प्राप्त
र्ानता है और समझता है। र्ो लनयमीत इसका कर सकते है। वेिों में तीन प्रकार का ज्ञान है
अभ्यास करता है। र्ीवन एक लनलित धुरी पर र्ीसको त्रयी लवद्या कहते है। ज्ञान, कमग,उफासना।
काम करता है। लर्स प्रकार से िीपक का प्रकाश है यहीं तीन सत्ताये है सवग प्रर्म प्रकृ ती िूसरी र्ीव
उसके लपछे एक लवज्ञान है लर्स प्रकार लवद्युत का तीसरी सत्ता परमेश्वर की है। ईश्वर ज्ञान मय है
एक लसद्धारत है। लवद्युत दिखाइ नहीं िेती है यद्यपी र्ीव लवज्ञान मय है और प्रकृ ती ब्रह्मज्ञान मय है।
उसके दक्रया शक्ती का सही उपयोर् करके उसको इसी प्रकार से तीन प्रकार की िूरी भी होती है
लसद्ध दकया र्ा सकता है। लर्स दिन भी मानव को पहिी िूरी ज्ञान की िूरी है, िूसरी समय की
यह समझ में आ र्ायेर्ा दक यह ज्ञान लवज्ञान िूरी,तीसरी धन की िूरी। ईश्वर को प्राप्त करने में
ब्रह्मज्ञान एक शाश्वत सत्य है उसी िीन यह मानव सबसे बड़ी िूरी ज्ञान की िूरी बताई र्ई है। इसी
मृत्यु से मुक्त हो र्ायेर्ा, सम्पूणग मानवता और यह तीन तत्व को भौलतक वैज्ञालनक इिेक्रान, रयुरान,
र्ीवन स्वर्ग की स्र्ापना यही भुमुंडि पर ही कर प्रारान के नाम से पुकारते है। इन तीन तत्वों के
िेर्ा, और सभी को अमृत तत्व उपिब्ध होर्ा। र्ैसा रहस्य और इनका दकतने प्रकार का रूप है वह आर्
की मुंत्र कहता है की अमृत तत्व मनुष्यों के लिये ही तक पूरी तरह से व्यक्त नहीं दकया र्ा सका है।
है। वह मनुष्य कै से है र्ो अमृत तत्व को उपिब्ध मुख्य रूप से तीन प्रकार के िुःख भी है। शारीररक,
होते है? तीन प्रकार के मुख्य कष्ट, बरधन या िुःख मानलसक,आध्यालत्मक िुःख, यह तीन का आकड़ा
माना र्या है। लर्नसे मुक्त होने के लिये इस त्रयी अद्भुत है।इन तीन प्रकार के िुःखों से मुक्त होने के
लवद्या वेि का ज्ञान होता है, अर्ागत ज्ञान लवज्ञान लिये के वि एक मार्ग है, लर्से पुरुषार्ग कहते है।
ब्रह्मज्ञान का लर्सको मुक्ती का साधन के रूप मे लर्स प्रकार से अन्न एक है िेदकन र्ब यह हमारे
लवद्वान र्न प्रकट करते है। शरीर में र्ाता है तो इससे सात धातुयें बनती है।
सबसे पहिे रस बनता है, दफर रस से खुन बनता है,
ज्ञान लवज्ञान ब्रह्मज्ञान एक परमाणु के तीन अणु
खुन से मारस बनता है, मारस से मज्जा बनता है,
के समान है। इसको समय के सार् सबने अपनी -
मज्जा से मेि बनता है, मेि से हिी बनती है, और
अपनी तरह से पररभालषत दकया है। इसका मुख्य
हिी से लवयग बनता है लर्ससे दकसी मानव समेत
श्रोत प्रालचन वेि है। और इरही को समझाने के लिये
दकसी भी प्राणी का शरीर बनती है। शरीर का
परमेश्वर ने वेिों की रचना की है। र्ैसा दक ऋलषयों
सुंबुंध भौतीक ज्ञान से है यह एक यरत्र की तरह है,
की मारयता है की यह ज्ञान लवज्ञान ब्रह्मज्ञान
मन का सुंबुंध लवज्ञान से है लर्स पर लनयुंलत्रत करने
अद्भुत सामर्ग वान है। इनके लिये ही शब्िों को
के लिये ही मुंत्रों को इर्ात दकया र्या है। यह मुंत्र
ब्रह्म कहा र्या है, वेिों में ज्ञान को तीन भार्ों में
र्ब मन के द्वारा बार - बार स्मरण दकये र्ाते है तो
लवभालर्त दकया र्या है। पहिा ज्ञान र्ो पशुओं को
उससे एक प्रकार का कुं पन पैिा होता है। लर्ससे
लमिता है दकसी के प्रेरण से, लर्से इड़ा कहते है।
मन को लनकृ ष्ट लवषय से हटा कर श्रेष्ठ लवषय
िूसरा ज्ञान र्ो शाश्त्रों और लवद्वानों से लमिता है,
परमेश्वर में तलल्िन दकया र्ाता है। आत्मा का
लर्सको सरस्वती कहते है। तीसरा र्ो सबसे श्रेष्ट
सुंबुंध ब्रह्मज्ञान से है, लर्सके लिये पुंतर्िी अष्टाुंर्
ज्ञान है उसे मही कहते है। इसलिये वेिों के र्ुरु मुंत्र
योर् का लनधागरण करते है। इस अष्टाुंर् योर् में िो
र्ायत्री में मही रुपी ज्ञान की कामना की र्यी है।
अुंर् है एक बाहरी है लर्समें यम, लनयम, आसन,

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शब्ि ब्रह्म

प्राणायाम,, प्रत्याहार है। और अष्टाुंर् योर् के तीन शरीर में ही रहती है। पाुंच कमग इलरियाुं है पाुंच
अुंत रुं र् है लर्से धारणा, ध्यान, समालध कहते है। ज्ञान इलरिया है ग्यारहवाुं मन है। यह आत्मा के वश
यह र्ो धारणा , ध्यान, समालध है इसी को मै ज्ञान में अर्ागत इरि का इनके उपर अलधकार है। यह सब
लवज्ञान ब्रह्मज्ञान कहता हू। यह अरतयागत्रा के प्रर्म इलरिया आत्मा की सहर्ामी है लमत्र तरमात्रायें के
अिौदक सोपान है। मन, वचन, कमग अर्ागत शरीर सार् वरुण अर्ागत र्ि इसके भी सात रूप है अलि
को ज्ञान से समझ कर लववेक से धारण करना है, भी अपने साुंत रूपों में है और यह दिव्य सुवणग
मन से मनन करना है सत्य का अर्ागत मुंत्रों का चमकने वािे पिार्ग के समान र्रुत्मान र्ो अपना
स्मरण करना है। लर्ससे आत्मा स्वयुं की समस्यायों कायग आत्मा और मन के सार् लमि कर अुंधकार में
का समाधान करने के लिये समालध को उपिब्ध कर करते है। यम अर्ागतत र्ो मृत्यु का िेवता यमरार्
सके । है। चेतना र्ो कभी मरती नहीं र्ो मृत्युिोक पर ही
अपना राज्य करता है। मात ररस्वा अर्ागत सब का
ईश्वर अर्ागत इसमें र्ो ऐश्वयग है या दफर इसमें
र्रम िाता, मात ररस्वा माता के समान र्ो सारे
र्ो स्वर है, स्वर को भी तीन भार्ों में लबभक्त दकया
रसों की माता है। रस भी कई प्रकार के होते है
र्या है ह्रस्व, िीघग, प्िुत। र्ीव भी तीन प्रकार की
लर्सको हम सि् र्ुणो के नाम से भी र्ानते है। र्ो
वृलत्तयों वािा है लर्सके सालत्वक , रार्लसक,
सारे खर्ाने का मुख्य श्रोत है उसे मनुष्य कहते है।
तामलसक कहा र्या है। मनुष्य शरीर पाुंच तत्वो से
र्ो इस ब्रह्माण्ड का स्वामी है, मनुष्यों में भी चार
बनी है (क्षीत र्ि पावक र्र्न सलमरा पुंच तत्व से
प्रकार के मनुष्य होते है। प्रर्म कोटी के मनुष्यों को
बना शरीरा) छठा मन है सातवा आत्मा है। हर
ब्राह्मण कहते है लर्सके लर्म्मे ब्रह्माण्ड की रक्षा का
परमाणु में यह मुख्य तीन तत्व है लर्से हम ईश्वर,
िाइत्व दिया र्या है। लर्सको ब्रह्मज्ञान हो र्या है
र्ीव, प्रकृ ती कहते है। एक परमाणु के पहिे तीन
र्ो ब्रह्म को र्ानता है। और लर्सके लिये यह
अणु है यह अब यह एक - एक सात कणों के रूप में
आवश्यक है दक वह ब्रह्म का उपिेश िे कर िोर्ों में
हो र्ये, पहिे एक अणु का लर्ससे अन्न बनता है
दिव्य ज्ञान का प्रसार लनरुं तर करता रहें। वही इस
और अन्न से लवयग बनता है। िूसरे अणु के सात कणों
ब्रह्माण्ड में ब्रह्म का िान करके सम्पूणग ब्रह्माण्ड की
से प्रकृ ती के पाुंच भुत बनते है छठाुं आत्मा सातवा
सहायता के सार् पािन पोषण सुंहार करता है।
परमात्मा बनता है। तीसरे अुंतीम अणु के सात
अर्ागत यह ब्राह्मण र्ो इस ब्रह्माण्ड में मनुष्यों में
लहस्सों से सात ज्ञान के ऋलष बनते है। र्ो सात
सवोपरर उच्य कोटी का मनुष्य है। लर्नके कमों पर
ज्ञानेलरियों के रूप में है पाुंच ज्ञानेदिय क्रमशः आुंख,
ही इस ब्रह्माण्ड को सुरक्षीत रखने की र्लम्भर
कान, नाक, र्ीभ, त्वचा, आत्मा और परमात्मा यह
र्ीम्मेिारी है। वह यदि अपनी र्ीम्मे िाररयों का
मुख्य एदक्कस लवभार् परमाणु के है।
उलचत तररके से वहन नहीं कर सके तो यह नष्ट भी
इस एक परमाणु तत्व को अनेक नामों से हो सकता है और इसका िण्ड उन ब्रह्मणों को ही
र्ानते है। र्ैसा की वेि कहता है (एकुं सलद्वलवप्रा भोर्ना पड़ेर्ा। िूसरें कोटी के मनुष्य को क्षत्रीय
विरती) इन परमाणुओ के योर् से ही सम्पूणग कहते है अर्ागत र्ो छात्र शक्तीाी है र्ो अमृत रूपी
ब्रह्माण्ड बन रहा है। और इसमें लवद्यमान हर वस्तु छाया के समान है र्ो क्षेत्रों अर्ागत र्ो सारी र्मीन
का अुंलतम इकाई परमाणु ही है। र्ैसे वैदिक भाषा का पृलर्वी के रक्षक है। तीसरे कोटी का मनुष्य
में इरि अर्ागत इलरियों का स्वामी र्ो इस मानव व्यापारी है लर्से वैश्य कहते लर्सके लर्म्मे सम्पूणग

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भुमुंडि के प्रालणयों का भोर्न उफिब्ध कराने की बना है। कार , बाइक, प्िेन, रेन, कम्प्युटर, ग्रह,
र्ीम्मे िारी िी र्इ है और एक िूसरे के लवच उपग्रह, पृलर्वी, सूयग, ब्रह्माण्ड सब कु छ इसी
व्यापार िेन िेन काराय सम्पन्न करने के लिये लर्म्मे परमाणुओं से लमि कर ही बना है। यह परमाणु
िार है। चौर्ी कोटी का मनुष्य शुि कहा र्या है र्ो लवद्युत उर्ाग से बना है और यह लवद्युत उर्ाग ध्वनी
सबसे अलधक सहनलशि है पृलर्वी के समान है र्ो उर्ाग शब्िों की शक्ती से बना है। इस प्रकार से यह
सबकी सेवा करता है सबके कायग भार का वहन लवश्व ब्रह्माण्ड का मुख्य श्रोत यह शब्ि ही है इसी
करता है। र्ो मुखग है लर्सका प्रमुख र्ुण मुखगता है लिये शब्ि को ब्रह्म कहते है। इस परमाणु को र्ब
इसी र्ुण को वह धारण करके वह स्वयुं को इस तोण दिया र्ाता है तो यह परमाणु बमा बन र्ाता
शरीर रूपी सुंसार से मुक्त कर िेता है और परमेश्वर है। र्ो इस पृलर्वी को लिये एक बहत बड़ा
को उपिब्ध हो र्ाता है। वह सब पर अलधकार कर अलभश्राप बन र्ाता है। परमाणु बम ठीक उसी
िेता है क्योदक वह सब का कायग करता है। बहत प्रकार से काम करता है लर्स पकागर से एक आर् का
र्ोड़ा कर िेकर लर्स प्रकार से यह पृलर्वी सम्पूणग तीनका िूसरें तीनके को अपने में समेट कर स्वयुं को
मानव र्ाती समेत सभी प्रालणयों का बहत प्रकार और अलधक शक्ती शािी बना िेता है। लर्स प्रकार
का उपकार करती है और बििे में वह उन सब से से एक आर् का कण लहमािय र्ैसे िकड़ी के ढेर को
बहत र्ोड़ा कर के रूप में उनके सि् र्ुणों को ग्रहण कु छ समय में ही उनको र्िा कर राख का ढेर बना
कर िेती है। यही कायग ब्रह्माण्ड भी करता है अर्ागत िेता है। ऐसे ही इस मानव शरीर में एक अलि का
ब्राह्मण से उसके सद्र्ुण और तपस्या का फि िे अणु है र्ो अपने सात कणों के रूप में सप्त ऋलष
िेता है। र्ो इसके र्ीने के लिये र्ीवन उर्ाग खाद्य सात चक्रों पर पहरा िेते है। और वही पूरे शरीर से
के समान है लर्सको ही हम यहाुं पर ज्ञान लवज्ञान दक्रया किापों को लनयुंलत्रत करते है। लर्नके िेख
ब्रह्मज्ञान कहते है। इसको िाशीलनक एक शब्ि में रे ख में शरीर के सात चक्रों की रीफाइनरी मलसन में
सुंयम कहते है, र्ो सभी प्रकार की लसलद्धयों का अन्न को शुद्ध करके उससे लवयग बनाते है। और इस
मुख्य श्रोत है। सुंयम को ही धारणा ध्यान समालध लवयग से ही नयें मानव की शरीर का लनमागण होता
कहा र्या है इसी को अष्टाुंर् योर् का अुंतरुं र् कहा है। यह भी शरीर की सात धातुओं में सबसे प्रमुख
र्या है। धातु है। यह र्ो लवयग का कण है लर्से अुंडाणु और
शुक्राणु के रीप में र्ानते है। इन िोनों का चसुंचन माुं
ज्ञान लवज्ञान ब्रह्मज्ञान एक परमाणु के समान है
के र्भग मे होता है। लर्सका एक अस्तर तक लवकास
लर्स प्रकार एक परमाणु में लतन अणु होते है। उसी
होता है दफर उनका पतन होने िर्ता है।
प्रकार से एक अणु में सात कण होते है। इस प्रकार
से कु ि एलक्सस कण लमि कर ही इस श्रृष्टी की इसी प्रकार से इस लवयग से तेर् उत्पन्न होता है
रचना करते है। इस श्रृष्टी में हम सब मानव है और लर्से आत्मा धारण करती है। यह आत्मा भी एक
हम सब मानव की शरीर है र्ो एक प्रकार अलि ही है र्ो परमात्मा के सार् शरीर में लवद्यमान
परमाणुओं से लमि कर ही बनी है। परमाणुओं से ही रहती है। यह अलि सुक्ष्म से सुक्ष्मतर होती र्ाती है।
इस र्र्त का सारी वस्तु बनी है। उसमे सुरिर तार् र्ो परमात्मा रुपी प्रमुख अलि है उसके पास ही
महि भी है दिल्िी का िाि दकिा भी है अमेररका सम्पूणग ब्रह्माण्ड को उत्पन्न करने का सामर्ग
ह्वाइट हाउस भी इरही परमाणुओं से मीि कर लवद्यमान है। और इस ब्रह्माण्ड को नषट करने का

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सामार्ग भी उसी परमात्मा में ही है। लर्स प्रकार से वह स्वयुं एक लसद्ध पुरुष लवश्व श्रवा का पुत्र और
परमाणुओं के र्ोड़ योर् से मानव शरीर समेत ऋलष पुिूस्त का पोता र्ा। राम ग्यारह सौ साि
ब्रह्माण्ड की लनवाणग करता है। ठीक इसी प्रकार से तक र्ीरिा र्ा क्योंदक राम ने ग्यारह अश्वमेध यज्ञ
परमाणुओं का लवयोर् करके वह ब्रह्माण्ड का नामों दकया र्ा अपने र्ीवन में, पहिे समय में कोई अपने
लनशान लमटा िेता है। यह र्ुण मनुष्यों में भी उसकी सौ साि के र्ीवन में कोई एक बार ही अश्वमेध यज्ञ
योग्यता के आधार पर हस्तारतररत हो र्ाता है। कर सकता र्ा। राम के र्ीवन का मुि उद्देश्य के वि
एक समय ऐसा भी होता है र्ब इस ब्रह्माण्ड की एक र्ा की वह रावण को मारना चाहते र्े।
रक्षा और सुंहार मानव के द्वारा परमेश्वर कराता है। महाभारत कालिन भी लवर योद्धा तीन सौ से
इसमें िो बातें है परमेंश्वर की भावना हमेशा अलधक सािों तक र्ीरिा रहते र्े। महाभारत के
कल्याण की होती है। सुंहार में भी वह कल्याण ही रचना कार और वेिों के लवभार्न कताग ऋलष वेि
करता है। मानव के सार् ऐसा नहीं है इश्याग वश भी व्यास भी तीन सौ से अलधक र्ीरिा र्े। वह वेिों के
सुंहार करने के लिये िोभ में आकर भी िूसरें के र्ानकार र्े वेिों में भी तीन सौ से चार सौ साि
अलस्तत्व को समाप्त करने के लिये मानव उताविा तक र्ीने की बात कही र्ा रही है।
हो र्ाता है। लर्स प्रकार से मानव शरीर का एक
इस ज्ञान की सहायता से ही अर्ागत ज्ञान
लनलित समय है। इसमें एक सतग भी है र्ब वह
लवज्ञान ब्रह्माज्ञान से ही द्युिोक अरतररक्षिोक
स्वयुं के मन और इलरियों के सुंयम को धारण करने
पृलर्वीिोक के अरतर्गत सम्पूणग पिार्ग र्ि अलि
में सामर्ग होता है। अर्ागत र्ब वह अत्यलधक
औषलधयाुं सोम वायु सब दिशाओं में रहने वािे सब
लवयगवान होता है तो वह अपने र्ीवन को लनयुंलत्रत
पिार्ग सूयग आदि सब िेव लहत कारक सुखकारक
करता है और िम्बा र्ीवन र्ीता है। ऐसा नहीं होने
सुख वधगक होते है। आरोग्य बढ़ाकर व्यालधयों से
पर मानव का र्ीवन अल्प होता है और अल्प काि
होने वािे कष्टों को िूर करते है।
में हर प्रकार का ज्ञान लवज्ञान ब्रह्मज्ञान को धारण
नहीं कर सकता है इसलिये उसे कइ र्रम िेना ज्ञान लवज्ञान ब्रह्मज्ञान के द्वारा ही तुम्हे मै वृद्धा
पड़ता है। इस तरह से वह एक तरफ र्रम िेता है वस्र्ा की पूणग आयु तक िे र्ाता हूुं। इसी ज्ञान से
िूसरी तरफ वह मृत्यु में समाने िर्ता है। उसमें इस तेरे पास से सभी रोर् िूर भार् र्ाते है। यह
र्र्त में लस्र्त रहने के लिए र्ो सामर्ग चालहये लचदकत्सा का कायग र्ो र्ानते है वही इसे प्रलवणता
नहीं होता है। लर्स प्रकार से तपते तावें पर पानी से लनभा सकता है। बारम्बार लचदकत्सा करते रहने
की कु छ बुिें र्ोड़े ही पि में वास्प बन र्ाती है। से र्ो प्रारम्भ में साधारण लचदकत्सक रहता है आर्े
और र्ब पानी की मात्रा अलधक होर्ी भिे ही वह चि कर कर वहीं कु शि लवशेषज्ञ लचदकत्सक बन
र्िते तावें पर ही क्यो ना हो उसे समय लमि ही र्ाता है। ऐसा श्रेष्ट लचदकत्सक अरय लचदकत्सको की
र्ाता है पयागप्त मात्रा में इस भुमुंडि पर रहने के सम्मती से उत्तम प्रकार की िूिगभ लचदकत्सा करने में
लिये। लर्स प्रकार से रावण का नाम आता है दक सफि होता है।
वह इस पृलर्वी पर चार हर्ार सिों तक लर्रिा
तृणादि मनुष्य पयगरत श्रृष्टी की माता यह पृर्थवी
रहा। उसने चार चौकणी रार््इय दकया र्ा अर्ागत
है, और लपता पर्गरय लमत्र,वरूण, चरि, सूयग यह
चार हर्ार साि तक इसके लपछे मुि कारण र्ा की
पाुंच है। अर्ागत पुंच तत्व की सहायता से ही लवयग
वह बहत बड़ा लवयगवान और ब्रह्मचारी पुरष र्ा।

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बनता है। इसमें अनरत बि है इसके बिों का उलचत बहती है, वायु लमि कर बहते है, पक्षी लमि कर
उपयोर् करने से ही मानव महामानव बन र्ाता उड़ते है। उसी प्रकार दिव्य र्न भी मेरे ज्ञान लवज्ञान
है। और इसके कारण ही मानव शरीर में आरोग्यता ब्रह्मज्ञान रूपी यज्ञ से लमि कर सलम्ित हो क्योदक
लस्र्र रहती है। मनुष्य का र्ीवन िीघग होता है और मै सुंर्टन के बढ़ाने वािों के अपगण से ही यह सुंर्ठन
उसके शरीर से सब िोष बाहर आर्ाते है। यह का महा यज्ञ कर रहा हूुं। लसधे मेरे इस ज्ञान लवज्ञान
प्राकृ लतक इिार् है इस औषधी का नाम ज्ञान ब्रह्मज्ञान सुंघटन के महा यज्ञ में आवो, और हे
लवज्ञान ब्रह्मज्ञान है। र्ि उनके लिए माुं बहन के सुंर्ठन के साधक वक्ता िोर्ों। तुम अपने उत्तम
समान लहत कारक होता है। र्ो इसका उत्तम सुंर्ठन बढ़ाने वािे व्यक्तृ त्व से इस सुंर्ठन महा यज्ञ
उपयोर् करना र्ानते है। र्ि की नदियाुं बह रहीं को फै िा िो। र्ो हम सब में पशु भाव हो वह यहाुं
है मानो वह िुध में शहि लमिा रही है। र्ो र्ि सूयग इस इस ज्ञान यज्ञ में आवे, और हम सब में धरयता
की क्रणों से शुद्ध बनता है। अर्वा लर्सकी पलवत्रता का भाव लचर काि तक लनवास करे । र्ो नदियों के
स्वयुं सूयग शुद्ध करता है। वह र्ि हमारा आरोग्य अक्षय आश्रय श्रोत इस सुंर्ठन महा यज्ञ में बह रहे
लसद्ध करें र्िो में अमृत है। र्ि के शुभ र्ुण से है। उन सब श्रोतो से हम अपना धन सुंर्ठन द्वारा
मानव बिवान बनता है। लर्स प्रकार माुं का िुध बढ़ावे।
उसके पुत्र के लिये सबसे बड़ी औषलध के समान है
लसर पर अर्वा शरीर पर र्ो कु िक्षण हो
उसी प्रकार र्ि से हम सब को उसके अरिर
उनको िूर करना चालहये तर्ा अरत करण में कुं र्ुसी
लवद्यमान सुख वधगक रस हमें प्राप्त होता है। यह सूयग
आदि र्ो िूर्ुगण है उनको भी िूर करना चालहये, और
आदि िेवताओं को शारती प्रिान करने वािा है। प्रभु
र्ो सुिक्षण है उनका अपने तर्ा सुंतानो के पास
ईश्वर सब र्र्त में लवरार्ता है सबका सवोपरी
लस्र्त करना अर्वा बढ़ाना चालहये। तुम्हारी
शाशक वहीं है। इसलिए उसकी इच्छा ही सवगिा
आत्मा, मन, और शरीर के वस्त्रों िृष्टी में र्ो बुरे
सत्य लसद्ध होती है। अर्ागत उसकी आज्ञा के
लनकृ ष्ट भाव र्ो कु िक्षण हो र्ो कु छ िूर्ुगण हो
लवपरीत कोई भी नहीं र्ा सकता र्ो र्ाने का
उनको हम वचन से हटाते है। परमेश्वर तुम्हे उत्तम
प्रयश करता है उसके वह अपने िण्ड से लनयलरत्रत
और शुभ िक्षणों से हमेशा युक्त करें ।
करता है। तर्ा ज्ञान के र्ानने वािा मै ज्ञान लवज्ञान
ब्रह्मज्ञान की सहायता से तुम्हे उस परमेश्वर के क्रोध कोई भी हमारा लमत्र या शत्रु हमारी र्ाती
से छु ड़ाता हूुं। लर्स प्रकार मन वेर् से दकसी लवषय वािा या पर र्ाती वािा बडा या छोटा कोई भी
में लर्रता है लर्स प्रकार वायु और पक्षी वेर् से क्यों नाहो? यदि वो हमे िाश बनाने का प्रयाश
आकाश में चिते है। उसी प्रकार अ नाम की चेतना करता है, या हमारा नाश करने की चेष्टा करता है
का हृिय ज्ञान लवज्ञान ब्रह्मज्ञान से युक्त हो। वायु तो उसका नाश शस्त्रों से करना योग्य है। र्ो प्रकट
और बाििों को लचर कर के उसके आवरण से प्रर्म या छु पा हआ हमारा शत्रु है और वह हमरा नाश
बाहर लनकिा तेज्स्वी सूयग वाररष और िहाड़ता करने चाहता है, या हमें बुरे ओर कड़वे शब्ि बोिता
हआ मेघ र्र्गना के सार् आ रहा है वह अपनी लसधी है। सब सज्जन उस िुष्ट वृत्ती के मनुष्य को समार् से
र्ती से िोषों और रोर्ों को िूर करता है। वह िूर करें । मेरा आरतररक कवच मेरा सत्य ज्ञान ही है
हमारी शरीर की लनरोर्ता को बढ़ाता हैऔर हमे अर्ागत ब्रह्मज्ञान ही है।
सुख को िेता है। लर्स प्रकार नदियाुं लमि कर

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