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मंत्रमहोदिध

प्रथम तरं ग

अररत्र

साम्बं सदाििवं देवं तन्त्त्रमागगप्रदिगकम् । मङ्गलाय च लोकानां भक्तानां रक्षणाय च ॥१॥

िवद्याप्रदं गणपतत सवगप्रत्यूहनािकम् । भक्तभीष्टप्रदातारं बुििजाड्यापहारकम् ॥२॥

तथा श्रेयस्करीं ितक्त नत्वा मन्त्त्रमहोदधेेः । भाषाटीकां िवतनुते मालवीयेः सुधाकरेः ॥३॥

नारोचकीं न वा िललष्टां नाव्यक्तां न च िवस्तृताम् । पदाक्षरानुगां स्पष्टां भावमात्रप्रबोिधनीम् ॥४॥

लक्ष्मी से युक्त श्रीनृतसह भगवान् , महागणपित एवं श्रीगुरु (श्रीनृतसहाश्रम ) को नमस्कार कर तथा अनेक तन्त्त्र ग्रन्त्थों का
आलोडन कर मन्त्त्र ही िजसमें महान् उदक हैं ऐसे मन्त्त्रमहोदिध नामक ग्रन्त्थ का (मैं महीधर ) िनमागण करता हूँ ॥१॥

मन्त्त्रवेत्ता ब्राह्ममुहतग में उठकर ििरेःप्रदेि में अपने श्रीगुरु के चरनकमलों का ध्यान करे । फिर आवश्यक िौचाफद फिया से
िनवृत्त होकर स्नान के िलए फकसी नदी तट पर जाए ॥२॥

सररता में श्रौतिविध से स्नान कर मन्त्त्रस्नान करे । तदन्त्तर स्मृितिास्त्रों में कही गयी िविध के अनुसार सन्त्ध्योपासन करे ॥३॥

िवमिग --- स्नान तीन प्रकार के कहे गये हैं - १ .काियकस्नान , २ . मन्त्त्रस्नान तथा ३ . मानस स्नान । काियक स्नान जल से ,
मन्त्त्रस्नान मन्त्त्र को पढते हुए भस्माफद द्वारा तथा मानस स्नान गुरु के चरणकमल से िनकली हुई अमृतधारा से करना चािहए ।
इसका वणगन पूजा तरङ्ग (२१ ) में आगे करें गे ॥३॥

द्वारपूजा --- तदनन्त्तर घर के दरवाजे पर आकर द्वार की पूजा करनी चािहए । उसकी िविध इस प्रकार है - प्रथमतेः साधक
द्वार की ’अस्त्र -मन्त्त्र ’ (अस्त्राय िट् ) से अिभमिन्त्त्रत जल से प्रोक्षण करे । तत्पश्चात् उसके ऊपर िस्थत श्रीगणेि देवता का
पूजन करना चािहए ॥४॥

पुनेः द्वार के दिक्षण भाग में महालक्ष्मी तथा वामभाग में महासरस्वती का पूजन करे । फिर दािहनो ओर िवघ्नेश्वर , गङ्गा
एवं यमुना का पूजन करे ॥५॥

तदनन्त्तर वाम भाग में क्षेत्रपाल (स्वगग ) िसन्त्धु तथा यमुना का पूजन कर दिक्षण भाग में धाता तथा वामभाग में िवधाता का
पूजन करे । तदनन्त्तर द्वार के दिक्षण में िङ्खिनिध और वामभाग में पद्मिनिध का पूजन कर आगे कहे जाने वाले द्वार िस्थत
तत्तद्देवता रुप द्वारपालों का पूजन करे ॥६ -७॥

प्राणायाम की िविध --- इस प्रकार द्वारपूजा संपादन कर पूजागृह में प्रवेि कर आसन पर बैठ कर गणेि , गुरु एवं इष्टदेवता
को प्रणाम करना चािहये । बत्तीस बार प्रणव का जप करते हुए प्राणावायु को ऊपर खींच कर पूरक , चौंसठ बार प्रणव का
जप करते हुए प्राणवायु को रोक कर कु म्भक तथा सोलह बार प्रणव का जप करते हुए प्राणवायु को छोडते हुए रे चक द्वारा
प्राणायाम करे । तदनन्त्तर देवाचगन की योग्यता प्राप्त करने के िलये ‘भूतिुिि ’ की फिया करे ॥६ -८॥

िवमिग --- ‘भूतिुिि ’ वह फिया है िजसके द्वारा िरीरगत पृथ्व्व्याफद पञ्च्याफद पञ्चतत्त्वों को िुि कर अव्यय परमात्मा के
अचगन की योग्यता प्राप्त की जाती है ॥९॥
भूतिुिि --- भूतिुिि की िविध इस प्रकार हैं - सवगप्रथम मूलाधार चि में िस्थत कमलनाल तन्त्तु के समान एवं सूक्ष्म िवद्युत
प्रभा के समान देदीप्यमान परदेवता -स्वरुप कु ण्डिलनी का एकाग्रिचत्त हो ध्यान करे । पुनेःउस कु ण्डिलनी का मूलाधार से
सुषुम्ना मागग द्वारा ऊपर ले जा कर हृदयकमल में स्थािपत करे । वहाूँ प्रदीप ििखा के आकार वाले जीव से संयुक्त कर पुनेः
ब्रह्मरन्त्र में िस्थत सहस्त्रार चि में ले जा कर स्थािपत कर् इस प्रकार ध्यान करना चािहए । यतेः वहाूँ परमात्मा परब्रह्म का
िनवास है , अतेः साधक को ‘हंसेः आफद ’ मन्त्त्र का जप करते हुए जीव सिहत कु ण्डिलनी को उस परमात्मा में संयुक्त कर देना
चािहए ॥१० -१२॥

इस िरीर में पञ्चतत्त्व अपने अपने वणग (रं ग ) आकृ ित (आकार ) एवं बीजाक्षर से युक्त हो कर पैर के तलवे से ले कर ब्रह्मरन्त्र
पयगन्त्त िस्थत हैं । अतेः उनके उन उन रं गों , आकृ ितयों एवं बीजाक्षरों का स्मरण कर भूतिुिि करनी चािहए । उसका िवधान
इस प्रकार है - ॥१३॥

पैर के तलवे से ले कर जानुपयगन्त्त पृथ्व्वी तत्त्व का स्मरण करे । इसकी आकृ ित चौकोर एवं वज्र के समान है । उसका भू बीज
(लं ) यह बीजाक्षर है तथा स्वणग के समान पीला है । इस प्रकार साधक को भू -तत्त्व का ध्यान करना चािहए ॥१४॥

जानु से ले कर नािभपयगन्त्त जल तत्त्व है । िजसकी आकृ ित अधगचन्त्राकार तथा उसका वणग श्वेत है । इसमें दो कमल के िचन्त्ह हैं
। इसका बीज ‘वम् ’ अक्षर है , इस प्रकार वहाूँ सोम - मण्डल का ध्यान करना चािहए ॥१५॥

नािभ से ले कर हृदय पयगन्त्त अिि तत्त्व है । इसकी आकृ ित स्विस्तकयुक्त ित्रकोणाकार है । वणग रक्त है तथा ‘रम् ’ यह बीजाक्षर
है । इस प्रकार वहाूँ अििमण्डल का ध्यान करना चािहए ॥१६॥

हृदय से ले कर भ्रूमध्य पयगन्त्त वायु तत्त्व है जो गोलाकार एवं षि‍बन्त्दओं


ु से युक्त हैं , इसका वणग धूम्र के समान है तथा ‘यम् ’
बीजाक्षर है । इस प्रकार वहाूँ वायुमण्डल का ध्यान करना चािहए ॥१७॥

भ्रूमध्य से ब्रह्मरन्त्र पयगन्त्त आकाि है जो अत्यन्त्त मनोहर एवं वृत्ताकार है । इसका वणग स्वच्छ है । यह ‘हम् ’ बीजाक्षर से युक्त
है । इस प्रका वहाूँ आकािमण्डल का ध्यान करना चािहए ॥१८॥

िवमिग --- इस प्रकार पञ्चमहाभूत के ध्यान से साधक को िुिि प्राप्त होती है ॥१८॥

पृथ्व्वी आफद मण्डलों में अपने गमन एवं आदान िवषयों के साध पाद , हस्त , पायु ,उपस्थ एवं वाक् - एन कमेिन्त्रयों का गन्त्ध ,
रस , रुप , स्पिग एवं िब्दाफद िवषयों का तथा १ . नािसका , २ . िजहवा , ३ . चक्षु , ४ . त्वक् ,एवं ५ . कणग -इन सभी पाूँच
ज्ञानेिन्त्रयों का िचन्त्तन करना चािहए ॥१९ -२०॥

इन तत्त्वों के िमिेः १ . ब्रह्मा , २ . िवष्णु , ३ . ििव , ४ . ईिान एवं , ५ . सदाििव देवता कहे गये हैं । इनकी १ . िनवृित्त
, २ . प्रितष्ठा , ३ . िवद्या , ४ . िािन्त्त एवं ५ . िान्त्त्यतीया -ये िमिेः कलायें हैं तथा १ . समान , २ . उदान , ३ . व्यान , ४
. अपान एवं ५ . प्राण इनके पञ्च वायु हैं । अतेः पृिथव्याफद मण्डलों में िमिेः इनका भी ध्यान करना चािहए ॥२१ -२३॥

िवमिग --- इस प्रकार से िनष्कषग हुआ फक पृथ्व्वी आफद मण्डलों में - पञ्चकमेिन्त्रयों , पाूँच िवषयों , पञ्चज्ञानेिन्त्रयों का िचन्त्तन
कर उन तत्त्वों के पाूँच देवता , पाूँच कलाएूँ और पञ्चवायु का भी ध्यान करे ॥२१ -२३॥

इस प्रकार पञ्चभूततत्त्वों का ध्यान कर भूिम को जल में , जल को अिि में , अिि को वायु में , वायु को आकाि में , आकाि
को अहङ्कार में , अहङ्कार को महत्तत्त्व में , महत्तत्त्व को प्रकृ ित में तथा प्रकृ ित को माया में एवं माया को आत्मा में िवलीन
कर देना चािहए ॥२४ -२५॥
इस प्रकार िुि सििदानन्त्दमय आत्मस्वरुप हो कर पापपुरुष का ध्यान करना चािहए । इसका स्वरुप इस प्रकार है -
पापपुरुष का िनवास वामकु िक्ष में है वह कृ ष्ण वणग का तथा अङ्गगुष्ठ मात्र पररणाम वाला है , उसके ििर ब्रह्महत्या है ,
सुवणगस्तेय उसके हाथ हैं , मफदरापान उसका हृदय है , गुरुतल्पगमन उसकी करट है , उसके दोनों पैर पापपुरुषों के संसगग से
युक्त हैं , उपपातक उसके रोम हैं । वह १ ख‍ग (अिववेक ) एवं २ चमग (अहङ्कार ) धारण फकये हुये हैं । वह दुष्ट है तथा मुख
नीचे फकये रहता है , जो अत्यन्त्त भयानक भी है ॥२६ -२८॥

अब उसके भस्म करने कर उपाय कहते हैं - वायु बीज ‘यं ’ का स्मरण कर पूरक िविध से उस पापपुरुष का िोषण करे । फिर
अिि बीज ‘रम् ’ का जप करते हुये साधक अपने िरीर के साध उसे भस्म कर देवे । तदनन्त्तर पुनेः वायु बीज (यं ) का जप कर
उस भस्मीभूत पापपुरुष को रे चक द्वारा बाहर िनकाल देवे ॥२९ -३०॥

तदनन्त्तर बुििमान साधक सुधा बीज ‘वम् ’ का जप करते हुए उस देह के भस्म को आप्लिवत (आरग ) करे । फिर भू बीज ‘लम्
’ इस मन्त्त्र का जप कर भस्म को घना सोने के अण्डे के समान कठोर बनावे । तदनन्त्तर िविुि दपगण के समान स्वच्छ आकाि
बीज ‘हम् ’ का जप करते हुए ििर से ले कर पैर तक के अङ्गों का िनमागण करे ॥३१ -३२॥

फिर िचत्स्वरुप आत्मा से आकािाफद पञ्चभूतों को उत्पन्न कर ‘सोऽहम् ’ इस मन्त्त्र का जप कर हृदयकमल में आत्मा को
स्थािपत करे । फिर उस परतत्त्व आत्मा से सुधामयी कु ण्डिलनी तथा जीव को ले कर जीव को हृदयकमल में और कु ण्डिलनी
को मूलाधार में स्थािपत कर उनका स्मरण करे ॥३३ -३४॥

प्राणप्रितष्ठा --- इस प्रकार भूतिुिि कर उसमें पुनेः प्राणप्रितष्ठा करे । उसके िविनयोग की िविध इस प्रकार है - ॎ अस्य
श्रीप्राणप्रितष्ठामन्त्त्रस्य अजेिपद्मजाऋषयेः ऋग्यजुेःसामािन छन्त्दांिस प्राणििक्तदेवता पाि (आं ) बीजं त्रपा (हीं ) ििक्तेः िौं
कीलकं प्राणप्रितष्ठापने िविनयोगेः ॥३५ -३६॥

तदनन्त्तर ऋिषयों के नाम ले कर ििर में , छन्त्द का नाम लेकर मुख में , देवता का नाम ले कर हृदय में , बीजाक्षर का
उिारण कर गुह्यस्थान में और ििक्त का नाम ले कर परर में न्त्यास कर फिर (वक्ष्यमाण रीित से ) षडङ्गन्त्यास करना चािहये
॥३७॥

िवमिग - ऋष्याफदन्त्यास --- १ . अजेिपद्मजाऋिषभ्यो नमेः ििरिस , २ . ऋग्यजुेःसामछन्त्दभ्े यो नमेः मुखे , ३ .


प्राणििक्तदेवतायै नमेः हृफद , ४ . आं बीजाय नमेः गुह्ये , ५ . ह्रीं िक्तये नमेः पादयोेः ६ .िौं कीलकाय नमेः सवागङ्गे ॥३७॥

कवगग एवं नभ आफद से हृदय में , चवगग एवं िब्दाफद से ििर में , टवगग एवं श्रोत्राफद से ििखा में , तवगग एवं वाक् आफद से
कवच में , पवगग एवं वक्तव्याफद से नेत्र में , यवगग एवं अतीिन्त्रयाफद से करतल में न्त्यास करना चािहए । फिर अपने हृदयाफद
अङ्गों में इन मन्त्त्रों का न्त्यास करना चािहए ॥३८ -३९॥

न्त्यास का प्रकार --- न्त्यास में पहले प्रत्येक वगग का पञ्चम वणग , फिर िमिेः प्रथम , िद्वतीय , चतुथग तदनन्त्तर तृतीय वणग , इन
सभी का अनुस्वार सिहत उिारण करना चािहए । यवगग में प्रथम िं यं रं वं लं इन पाूँच अक्षरों का उिारण कर नभ (हं ),
श्वेत (षं ),ितभं (क्षं ), भृगु (सं ) एवं िवमल (लं ) इन अक्षरों को सानुस्वार उिारण करना चािहए । श्लोक में नभ आफद का अथग
नभेः ‘वाय्वििवाभूगिम ’ है , िब्दाफद का अथग ‘िब्दस्पिगरुपरसगन्त्ध ’ है श्रोत्राफद का अथग ‘श्रोत्रत्वङ्नयन िजहवाघ्राण ’ हैं ,
वाक् आफद का अथग ‘वालपािण -पादपायोपस्थ ’ है , वक्तव्याफद का अथग ‘वक्तव्यादानगमिवसगागनन्त्द ’ है तथा अन्त्तररिन्त्रय का
अथग ‘बुििमनोहङ्कारिचत्त ’ है , इस प्रकार इन श्लोकों से षडङ्गन्त्यास का प्रकार बताया गया है ॥४० -४५॥

िवमिग --- इन श्लोकक का स्पष्टाथग िनम्निलिखत है -


ॎ ङं कं खं घं गं नभोवाय्वििवाभूगम्यात्मने हृदयाय नमेः ।

ॎ ञं चं छं झं जं िब्दस्पिगरुपरसगन्त्धात्मने ििरसे स्वाहा ।

ॎ णं टं ठं ढं डं श्रोत्रत्वङ् नयनिजहाप्राणात्मने ििखायै वषट् ।

ॎ नं तं थं धं दं वालपािणपादपायूपस्थात्मने कवचाय हुम् ।

ॎ मं पं िं भं बं वक्तव्यादानगमनिवसगागनन्त्दात्मने नेत्रत्रयाय वौषट् ।

ॎ िं यं रं वं लं हं षं क्षं लं बुििमनोहंकरािचत्तात्मने अस्त्राय िट् ॥४० -४५॥

षडङ्गन्त्यास के पश्चात् नािभ से ले कर पैर के तलवे तक पाि बीज (आं ) का न्त्यास करे । हृदय से नािभ तक ििक्तबीज (हीम्
) का न्त्यास करे , मस्तक से हृदय तक श्रृिण (िौम् ) का न्त्यास करे ॥४५ -४६॥

िवमिग --- तद् यथा - नाभेरारभ्य पादान्त्तं पािबीजं (आं ) न्त्यसािम । हृदयादारभ्य नाभ्यन्त्तं ििक्तबीजं (हीम् ) न्त्यसािम ।
मस्तकादारभ्य हृदयान्त्तं श्रिणबीजं (िौं ) न्त्यसािम ॥४५ -४६॥

त्वक् , असृज् , मांस मेद , अिस्थ ,मज्जा एवं िुि िब्द के आगे ‘आत्मने नमेः ’ लगाकर हृदय पदेि में न्त्यास करे । उनके आफद
में सानुस्वार यकाराफद सात वणों का उिारण कर तथा फिर सद्य (ओ ) से युक्त आकाि (ह ) को प्रारम्भ में उिारण कर
‘ओजात्मने नमेः ’ ख आकाि बीज (हं ) के आगे ‘प्राणात्मने नमेः ’ लगा कर तथा भृगु (स ) के आगे ‘जीवात्मने नमेः ’ लगा कर
हृदय में न्त्यास करे । फिर यकाराफद समस्त वणो को चन्त्र (अनुस्वार ) से भूिषत कर मूलमन्त्त्र से मूधागिप चरणाविध व्यापक
न्त्यास करके तब पीठदेवता का न्त्यास करे ॥४६ -४९॥

िवमिग --- यथा - ॎ यं त्वगात्मने नमेः हृफद , ॎ रं असृगात्मने नमेः हृफद , ॎ लं मांसात्मने नमेः हृफद , ॎ वं मेदसात्मने नमेः
हृफद , ॎ िं अस्थ्व्यात्मने नमेः हृफद , ॎ षं मज्जात्मने नमेः हृफद , ॎ सं िुिात्मेन नमेः हृफद , ॎ हां ओजात्मने नमेः हृफद , ॎ
हं प्राणात्मने नमेः हृफद , ॎ सं जीवात्मने नमेः हृफद । इस प्रकार उक्त मन्त्त्रों का उिारण कर हृदय में न्त्यास करे । तत्पश्चात्
‘ॎ यं रं लं वं िं षं सं हं क्षं मूधागफदचरणाविध व्यापकं करोिम ’ - पढ व्यापक न्त्यास करे ॥४९॥

अब पीठ देवता का न्त्यास कहते हैं - सानुस्वार अपने नाम के आद्यक्षर सिहत तत्तद् पीठ देवताओं का न्त्यास पीठ के मध्य में
करना चािहए -मण्डू क , कालाििरुर , आधारििक्त , कू मग , पृथ्व्वी , सुधािसन्त्धु (क्षीरसागर ), श्वेतद्वीप , कल्पवृक्ष , मिणमण्डप
, स्वणग तसहासन धमग , ज्ञान , वैराग्य , ऐश्वयग ,अधमग , अज्ञान , अवैराग्य , अवैराग्य ,अनैश्वयग ये पीठ के देवता हैं । िजसमें धमग
से लोकर अनैश्वयग पयगन्त्त पीठ के पाद कहे गये हैं , िेष पीठ के अङ्ग हैं पीठ के मध्य में रहने वाल अनन्त्त , पद्म , आनन्त्द ,
मयकन्त्दक , संिवन्नाल , िवकारमयके सर , प्रकृ त्यात्मकपत्र , पञ्चािद्वणग कर्णणका , सूयगमण्डल , चन्त्रमण्डल , अििमण्डल ,
सत्त्व , रजस् , तमस् ,आत्मा ,अन्त्तरात्मा ,परमात्मा ,ज्ञानात्मा ,मायातत्त्व ,कलातत्त्व ,िवद्यातत्त्व एवं परतत्त्व - ये सभी पीठ
देवता कहे हये हैं ॥५० -५५॥

िवमिग - न्त्यासिविध --- यथा - पीठ के मध्य में - मं मण्डू काय नमेः , कं कालाििरुराय नमेः , आं आधारिक्तये नमेः , कूं
कू मागय नमेः , पृं पृिथव्यै नमेः , क्षीं क्षीरसमुराय नमेः , श्वें श्वेतद्वीपाय नमेः , कं कल्पवृक्षाय नमेः , मं मिणमण्डलाय नमेः , स्वं
स्वणगतसहासनाय नमेः , इन मन्त्त्रों से तत्तद्देवताओं का न्त्यास करना चािहए ।
पुनेः पीठ के चारों कोणों में िमिेः आिेय कोण से प्रारम्भ कर - धं धमागय नमेः , ज्ञां ज्ञानाय नमेः , वैं वैराग्याय नमेः , ऐं
ऐश्वयागय नमेः - इन मन्त्त्रों से न्त्यास करना चािहए ।

पुनेः पीठ के चारों फदिाओं में पूवग फदिा से प्रारम्भ कर - अं अधमागय नमेः , अं अज्ञानाय नमेः , अं अवैराग्याय नमेः , अं
अनैश्वयागय नमेः - इन मन्त्त्रों से तत्तद्देवताओं का न्त्यास करना चािहए ।

पुनेः मध्ये में - अं अनन्त्ताय नमेः , पं पद्माय नमेः , आं आनन्त्दमयकन्त्दकाय नमेः , सं संिवन्नालाय नमेः , तव
िवकारमयके सरेभ्यो नमेः , प्रकृ त्यात्मकपत्रेभ्यो नमेः , पं पञ्चािद्वणगकर्णणकायै नमेः , सं सूयगमण्डलाय नमेः , चं चन्त्रमण्डलाय
नमेः , अं अििमण्डलाय नमेः , सं सत्त्वाय नमेः , रजसे नमेः कं कलातत्त्वाय नमेः , तव िवद्यातत्त्वाय नमेः , पं परं तत्त्वाय नमेः
इन मन्त्त्रो द्वारा तत्तद्देवताओं का न्त्यास करना चािहए ॥५० -५५॥

सभी देवताओं के पूजन में पीठ पर उपयुगक्त देवताओं का पूजन करना चािहए । बाह्यपूजा में िरीर में इन देवताओं का न्त्यास
स्थान पूजा तरङ्ग (२१ ) में आगे कहेंगे ॥५६ -५७॥

तदनन्त्तर हृदयकमल में देवताओं के नामों को सानुस्वार आद्यवणग से युक्त आठ दलों पर , आठ पीठ की ििक्तयों का पूजन
चािहए । इसी प्रकार कर्णणका में नवीं महाििक्त का पूजन करना चािहए । १ . जया , २ . िवजया , ३ . अिजता , ४ .
अपरािजता , ५ िनत्या , ६ . िवलािसनी , ७ . दोग्री , ८ .अघोरा एवं ९ . मङ्गला - ये नौ पीठ की ििक्तयाूँ हैं । तदनन्त्तर
पािाफद तीन बीजाक्षर (आं ह्रीं िौं ) पीठाय नमेः इस मन्त्त्र से पीठ की पूजा कर देहमय पीठ पर , नवयौवन के गवग से
इठलाती हुई , पुष्टस्तन से सुिोिभत प्राणििक्त का ध्यान करना चािहए ॥५७ -६०॥

िवमिग --- यथा - हृदयकमल में १ . जं जयायै नमेः , २ . तव िवजयायै नमेः , ३ . अं अिजतायै नमेः , ४ . अं अपरािजतायै
नमेः , ५ . तन िनत्यायै नमेः , ६ . तव िवलािसन्त्यै नमेः , ७ . दों दोग््यै नमेः , ८ . अं अघोरायै नमेः - इन मन्त्त्रों से पीठ की
आठ ििक्तयों का पूज कर कर्णणका में ‘ मं मङ्गलायै नमेः ’ से पूजन करना चािहए तदनन्त्तर ‘आं ह्रीं िौं पीठाय नमेः ’ इस
मन्त्त्र से पीठ का पूजन कर देहमय पीठ पर प्राणििक्त का ध्यान करना चािहए ॥५७ -६०॥

अब ध्यान के िलये प्राणििक्त का स्वरुप कहते हैं -

रक्तमय समुर में नौका पर लाल कमल के ऊपर बैठी बायें हाथ में पाि , धनुष , एवं िूलधारण फकये हये तथा दािहने में
कपाल , अंकुि एवं बाण धारण फकये हुये तीन नेत्रों वाली तथा छेः भुजाओं वाली प्राणििक्त का ध्यान करना चािहए ॥६१॥

अष्टदल के भीतर षट्कोण में िस्थत प्राणििक्त का इस प्रकार ध्यान कर पूवग , नैऋत्य एवं वायुकोण में िमिेः ब्रह्मा , िवष्णु
एवं ििव का तथा आिेय , पिश्चम एवं ईिान में िमिेः वाणी , लक्ष्मी एवं पावगती का पूजन करना चािहए । के िरों में - सं
संिवन्नालाय नमेः तव िवकारमयके सरे भ्यो नमेः , सं सूयगमण्डलाय नमेः चं चन्त्रमण्डलाय नमेः , अं अििमण्डलाय नमेः , मां
मायातत्त्वाय नमेः , कं कलातत्त्वाय नमेः (देिखये श्लोक ५ ) का पूजन कर पत्रों में अष्टमातृकाओं का पूजन करना चािहए । १ .
ब्राह्यी , २ . माहेश्वरी , ३ . कौमारी , ४ . वैष्णवी , ५ . वाराही , ६ . इन्त्राणी , ७ . चामुण्डा एवां ८ . महालक्ष्मी ये आठ
िवश्व की मातायें कही गई हैं । देवपूजा के कायग में पूज्य एवं पूजक के मध्य में पूवग फदिा होती है ॥६२ -६५॥

िवमिग --- षट्कोण एवं अष्टदल में िनर्ददष्ट फदिा में उनके अिधपित तत्तद्देवताओं के नाम के मन्त्त्रों से उनका पूजन करना
चािहए ॥६२ -६५॥
तदनन्त्तर अपनी अपनी फदिाओं में इन्त्र आफद फदलपालों का पूजन करना चािहए । १ . इन्त्र , २ . अिि , ३ . यम , ४ .
िनऋित , ५ . वरुण , ६ . वायु , ७ . सोम , ८ . ईिान , ९ . अनन्त्त एवं १० . ब्रह्मा - ये दि फदलपलाल हैं । १ . वज्र , २ .
ििक्त , ३ . दण्ड , ४ . ख‍ग , ५ . पाि , ६ . अंकुि , ७ . गदा , ८ . ित्रिूल , ९ . चि एवं १० . पद्म - इन फदलपालों के
िमिेः दि आयुध हैं । अतेः दिों फदिाओं में इन्त्राफद एवं दि फदलपालों का तथा उनके आयुधों का भी पूजन करना चािहए ।
इस प्रकार पाूँच आवरणों वाली (र .६१ -८ ) प्राण ििक्त का पूजन कर हृदय पर हाथ रख कर वक्ष्यमाण मन्त्त्र का तीन बार
जप करना चािहए ॥६६ -६९॥

िवमिग --- प्रयोग - पूवग ई इन्त्राय नमेः , आिेयाम् आं अिये नमेः , दिक्षणस्यां यं यमाय नमेः , आफद िमपूवगक पूवग आफद
फदिाओं के दस फदलपालों का पूजन कर पुनेः उसी िम से वं वज्राय नमेः िं िक्तये नमेः , दं दण्डाय नमेः इत्याफद मन्त्त्रोम से
उन उन फदलपालों के आयुधों का भी पूजन करना चािहए ॥६६ -६९॥

प्राणप्रितष्ठा मन्त्त्रोिार ---

अब ग्रन्त्धकार प्राणप्रितष्ठा मन्त्त्र का उिार कह रहे हैं , - िजसका ज्ञान साधक को सुख देने वाला है । सवगप्रथम पाि (आं
),माया (हीम् ),सृिण (िौम् ), इन बीजाक्षरों का उिारण कर सप्ताक्षर मन्त्त्र - ॎ क्षं सं हं सेः हीम् अन्त्त में अजपा (हंसेः ) का
उिारण करना चािहए । तदनन्त्तर ‘मम प्राणाेः इह प्राणाेः मम जीव इह िस्थतेः मम सवेंफरयािण इह िस्थतािन मम
वाङ्मनश्चक्षुेः श्रोत्रघ्राणप्राणाेः इहागत्य सुखं िचरं ितष्ठन्त्तु स्वाहा ’ का उिारण कर अन्त्त में सप्ताक्षर मन्त्त्र - ॎ क्षं सं हंसेः ह्रीं
ॎ - का पुनेः उिारण करणा चािहए । प्राणप्रितष्ठा के िलये यही मन्त्त्र कहा गया हैं । ‘मम ’ इत्याफद पद के पहले पािाफद (आं
ह्रीं िौं ) का उिारण करना चािहए । यन्त्त्र एवं प्रितमा आफद में प्राणप्रितष्ठा करते समय मम के स्थान में यन्त्त्र अथवा प्रितमा
के देवता नाम ले कर उस आगे देवतायाेः ऐसा षष्ठयन्त्त पद का प्रयोग करना चािहए । जैसे - ििवदेवतायाेः दुगागदव
े तायाेः
आफद ॥७० -७५॥

िवमिग --- यहाूँ मम पद के साथ प्राणप्रितष्ठा का मन्त्त्र उद्धृत करते हैं - ‘ॎ आं ह्रीं िौं यं रं लं वं िं षं सं हों ॎ क्षं सं हंसेः ह्रीं
ॎ हंसेः ’ पूवोक्त रीित (र . १ .६० .६१ .) से प्राण ििक्त का ध्यान करे । ‘ॎ आं ह्रीं िौं यं रं लं वं िं षं सं हों ॎ क्षं सं हंसेः
ह्रीं ॎ हंसेः मम प्राणाेः इह प्राणाेः ’ - मन्त्त्र का उिारणा कर प्राण की प्रितष्ठा करे ।

इसी प्रकर ‘ॎ आं ’ से ले कर ‘ह्रीं ॎ हंसेः ’ पयगन्त्त मन्त्त्र पढ कर ‘मम जीव इह िस्थतेः ’ पढ कर जीवात्मा की हृदय में प्रितष्ठा
करे । पुनेः ‘ॎ आं ’ से लेकर ‘ह्री ॎ हंसेः ’ पयगन्त्त मन्त्त्र पढ कर ‘मम सवेिन्त्रयािण इह िस्थतािन ’ से समस्त इिन्त्रयों की
स्थापना करे । इसी प्रकार पूवोक्त मन्त्त्र के उिारण के पश्चात् ‘मम वाङ् मनश्चचक्षुेः श्रोत्रघ्राणप्राणाेः इहागत्य सुखं िचरं ितष्ठस्तु
स्वाहा औं क्षं सं हंसेः ह्रीं ॎ ’ इतना उिारण कर समस्त ज्ञानेिन्त्रयों , मन एवं प्राण की भी प्रितष्ठो करे । यह फिया तीन बार
करनी चािहए ॥७० -७५॥

प्राण प्रितष्ठा के सप्ताक्षर मन्त्त्र का उिार कहते हैं - सानुस्वार मेरु (क्षं ) हंस (सं ) आकाि (हं ) के साधु भृगु (सेः ) एवं माया
बीज (ह्रीं ) इन सबको ॎ से सम्पुरटत करने पर सप्ताक्षर मन्त्त्र बन जाता है ॥७६॥

िवमिग --- मन्त्त्र का उिार इस प्रकार हैं - ॎ क्षं सं हंसेः ह्रीं ॎ ॥७६॥

पूवोक्त िविध से प्राणप्रितष्ठा के पश्चात् अब मातृकान्त्यास कहते हैं - अकार से ले कर क्षकार पयगन्त्त समस्त वणों की ‘मातृका ’
संज्ञा है । इस मातृका न्त्यास मन्त्त्र के प्रजापित रुिष , गायत्री छन्त्द , सरस्वती देवता और हल वणग बीज कहे गए हैं तथा स्वर
ििक्त कही गई है । स्वाभीष्ट के िलए िविनयोग का िवधान कहा गया है ॥७७ -७८॥
साधि ििर , मुख एवं हृदयाफद में िमिेः ऋिष , छन्त्द तथा देवताफद के द्वारा ऋष्याफद न्त्यास करे । यह न्त्यास ललीव वणो
(ऋ ऋ लृ लृ ) को छोडकर मात्र हस्व एवं दीघग वणों से संपुरटत होना चािहए । इसी प्रकार हस्व एवं दीघग वणों से संपुरटत
सानुस्वार कवगग , चवगग , तवगग , पवगग , यवगग से करन्त्यास एवं षडङ्गन्त्यास करे ।

िवमिग - मातृका न्त्यास का िविनयोग इस प्रकार है - ॎ अस्य श्रीमातृकान्त्यासमन्त्त्रस्य ब्रह्माऋिषेः गायत्रीछन्त्देः सरस्वतीदेवता
हलो बीजािन स्वराेः िक्तयेः (क्षं कीलकं ) अिखलाप्तये मातृकान्त्यासे िविनयोगेः ।

ऋष्याफद न्त्यास का प्रकार ---

१ . ॎ अं प्रजापतये नमेः आं ििरिस ,

२ . ॎ इं गायत्रीछन्त्दसे नमेः ईं मुखे ,

३ . ॎ उं सरस्वतीदेवतायै नमेः ऊं हृफद ,

४ . ॎ एं हल्बीजेभ्यो नमेः ऐं गुह्ये ,

५ . ॎ ओं स्वरििक्तभ्यो नमेः औं पादयोेः ,

६ . ॎ अं क्षं कीलकाय नमेः अेः सवागङ्गे

करन्त्यास एवं अङ्गन्त्यास ---

१ . ॎ अं कं खं गं घं ङं आं अङ् गुष्ठाभ्यां नमेः ।

२ . ॎ इं चं छं जं झं ञं ईं तजगनीभ्यां नमेः ।

३ . ॎ उं टं ठं डं ढं णं ऊं मध्यमाध्यां नमेः ।

४ . ॎ एं तं थं दं धं नं ऐं अनािमकाभ्यां नमेः ।

५ . ॎ ओं पं िं बं भं मं औं किनिष्ठकाभ्यां नमेः ।

६ . ॎ क्षं यं रं लं वं िं षं सं हं लं क्षं अेः करतलपृष्ठाभ्यां नमेः ।

इसी प्रकार उपरोक्त मन्त्त्रों से िमिेः हृदय , ििर , ििखा , कवच , नेत्र का स्पिग करे । फिर अिन्त्तम मन्त्त्र के आगे ‘अस्त्राय िट्
’ कह कर ताली बजावे ॥७७ -८०॥

अब सरस्वती का ध्यान कहते हैं ---

सोलह स्वरों एवं चौंतीस हलों इस प्रकर कु ल पचास वणो से िजनके िरीर की रचना है , जो मस्तक पर चन्त्रकला धारण की
हैं , जो कु मुद के समान अत्यन्त्त िुभ्र हैं , िजनके दािहने हाथों में १ . वरदमुरा , २ . अक्षमाला तथा बायें हाथों में ३ .
अभयमुरा एवं , ४ . पुस्तक सुिोिभत है , ऐसे समस्त वाणी को धारण करने वाली तीन नेत्रों वाली सरस्वती देवी का मैं
ध्यान करता हूँ ॥८१॥
पीठिलत्यचगन , पीठपूजा एवं आवणग पूजा --- इस प्रकार सरस्वती देवे के ध्यान के पश्चात् पूवोक्त पीठ देवताओं (र०१ . ५० -
५५ ) का एवं नौ पीठ ििक्तयों का पूजन करना चािहए । तदनन्त्तर सरस्वती का पूजन करना चािहए । १ . मेधा , २ . प्रज्ञा ,
३ . प्रभा , ४ . िवद्या , ५ . श्री , ६ . धृित , ७ . स्मृित , ८ . बुिि , एवं ९ . िवद्येश्वरी ये मातृकापीठ की नौ ििक्तयाूँ कही गई
हैं ॥८२ -८३॥

अब आसनपूजा का मन्त्त्र कहते हैं - िवयत् (ह ) भृगु (स ) के आगे मनु (औ ), पश्चात् िवसगग लगा कर तदनन्त्तर
‘मातृकायोगपीठाय नमेः ’ लगा कर उस मन्त्त्र से आसन का पूजन करना चािहए । (इसका स्वरुप इस प्रकार है - हसौेः
मातृकायोगपीठाय नमेः । ) तदनन्त्तर मूल मन्त्त्र से मूर्णत की कल्पना कर वाणी देवी (सरस्वती ) की पूजा करे नी चािहए ।
प्रथमावरण में अङ्गों का , िद्वतीयावरण में दो दो स्वरों का , तृतीय आवरण में कवगागफद अष्टवगों का , एवं चतुथं आवरण में
दो वगगििक्तयों का पूजन करना चािहए । व्यापनी , पािलनी , पावनी , ललेफदनी , धाररणी , मािलनी , हंिसनी तता ििखनी
- ये वगग की ििक्तयों के नाम हैं । इसके बाद में पञ्चम आवरण में ब्राह्यी आफद अष्टमातृकायें , षष्ठावरण में इन्त्राफददेवगण
सप्तमावरण में उनके वज्र आफद आयुधों के पूजन कर देवेिी का पूजन करना चािहए , तदनन्त्तर अपने िरीर में वणाग का न्त्यास
करना चािहए ॥८४ -८८॥

अब िरीर में मातृका न्त्यास की िविध कहते हैं --- ललाट , मुखवृत्त , दोनों नेत्र , दोनों कान , दोनों नासापुट , दोनों गण्डस्थल
, दोनों होठ , दोनों दन्त्तपिङलस , ििर एवं मुख में स्वरों का न्त्यास करना चािहए । दोनों बाहुओं के मूल , कू पगर , मिणबन्त्ध
अङ् गुिल मूल एवं अङ् गुल्यभाग में िमिेः कवगग एवं चवगग का न्त्यास करना चािहए । टवगग एवं तवगग का न्त्यास दोनों पैरों के
मूल , जानु , गुल्ि , पादाङ् गुिलमूल तथा पादाङ् गुिल के अग्रभाग में , पवगग का न्त्यास दोंनो पाश्वग , पीठ , नािभ एवं उदर में ,
यवगग के चार वणग य र ल व का न्त्यास ह्रुदय , दोंनो कन्त्धे , एवं ककु द में तथा ि , ष , स ह का न्त्यास दोंनो हाथ एवं दोंनो पैरों
में , ल और क्ष का न्त्यास उदर एं मुख में करना चािहए ॥८९ -९१॥

िवमिग - न्त्यस प्रयोग िविध - ‘तत्र प्रणपूवगकाेः माया लक्ष्मी वाग्भवाद्यो नमेः इत्यन्त्ते न्त्यस्तव्याेः ’ इस िनयम के अनुसार
सानुस्वार वणो के आफद में प्रणव , माया बीज , लक्ष्मीबीज एवं वाग्बीज लगा कर तथा अन्त्त में नमेः लगा कर िरीर में
समस्त वणों का न्त्यास करना चािहए । यहाूँ मूलाथागनुसार न्त्यासिविध इस प्रकार है --

ॎ अं नमेः ललाटे , ॎ आं नमेः मुखव्रुत्ते ,

ॎ इं नमेः दक्षनेत्रे , ॎ ईं नमेः वामनेत्रे ,

ॎ उं नमेः दक्षकणे , ॎ ऊं नमेः वामकणे ,

ॎ ऋं नमेः दक्षनासापुटे , ॎ ऋ नमेः वामनासापुटे ,

ॎ लृं नमेः दक्षगण्डे , ॎ लृं नमेः वामगण्डे ,

ॎ एं नमेः ऊध्वोष्ठे , ॎ ऐं नमेः अधरोष्ठे ,

ॎ ओं नमेः ऊध्वगदन्त्तपङ् क्तौ , ॎ औं नमेः अधेःदन्त्तपङ्क्तौ ,

ॎ अं नमेः मूर्णि , ॎ अेः नमेः मुखे ।


यहाूँ तक स्वरों का न्त्यास कहा गया । अब हल वणौं का न्त्यास कहते हैं

ॎ कं नमेः दक्षबाहुमूले , ॎ खं नमेः दक्षबाहुकू पगरे

ॎ गं नमेः दक्षबाहुमिणबन्त्धे , ॎ घं नमेः दक्षबाहुहस्ताङ् गुिलमूले ,

ॎ ङं नमेः दक्षबाहवङ् गुल्यग्रे , ॎ चं नमेः वामबाहमूले ,

ॎ छं नमेः वामबाहुकू पगरे , ॎ जं नमेः वामबाहुमिणबन्त्धे ,

ॎ झं नमेः वामवाहवङ् गुिलमूले , ॎ ञं नमेः वामवाहवङ् गुल्यग्रे ,

ॎ टं नमेः दिक्षणपादमूले , ॎ ठं नमेः दिक्षणपादजानूिन ,

ॎ डं नमेः दिक्षणगुल्िे , ॎ ढं नमेः दिक्षणपादाङ्गुिलमूले ,

ॎ णं नमेः दिक्षण पादाङ्गुल्यग्रे , ॎ तं नमेः वामपादगुल्िे ,

ॎ थं नमेः वामपादजानूिन , ॎ दं नमेः वामपादगुल्िे ,

ॎ धं नमेः वामपादाङ्गुिलमूले ॎ ॎ नं नमेः वामपादाङ्गुल्यग्रे ,

ॎ पं नमेः दिक्षणपाश्वे , ॎ िं नमेः वामपाश्वे ,

ॎ बं नमेः पृष्ठे , ॎ भं नमेः नाभौ ,

ॎ मं नमेः उदरे , ॎ यं त्वगात्मने नमेः हृफद ,

ॎ रं असृगात्मने नमेः दक्षांसे ॎ लं मांसात्मने नमेः ककु फद ,

ॎ वं मेदसात्मने नमेः वामांसे ,

ॎ िं अस्थ्व्यात्मने नमेः हृदयाफद दक्षहस्तान्त्तम् ,

ॎ षं मज्जात्मने नमेः हृदयाफद दक्षपादान्त्तम्

ॎ सं िुिात्मने नमेः हृदयाफद दक्षपादान्त्तम्

ॎ हं आत्मने नमेः हृदयाफदवामपादान्त्तम्

ॎ ळं परमात्मने नमेः जठरे , ॎ क्षं प्राणात्मने नमेः मुखे ,

यहाूँ तक सृिष्ट न्त्यास कहा गया ॥८९ -९१॥

इस प्रकार हृदय से ले कर दोनों हाथ दोंनों पैर जठर एवं मुख में सृिष्ट न्त्यास कर िस्थित न्त्यास करना चािहए ॥९२॥
अब िस्थित न्त्यास की िविध कहते हैं - िस्थित न्त्यास के ऋिष , छन्त्द आफद ( र० १ . ७ ) पूवोक्त हैं । िवश्वपािलनी देवता हैं ,
साधक को एकाग्रिचत्त से अपने िप्रयतम के गोद मेम बैठी हुई इस देवता का ध्यान करना चािहए । इनके दािहने हाथों में
वरमुरा , अक्षसूत्र , फदव्यमाला तथा बायें हाथों में मृगिावक , िवद्या , वणगमाला है , इस प्रकार की िवश्वपािलनी सरस्वती
देवी का ध्यान करना चािहए ॥९३ - ९४॥

िवमिग - िस्थित न्त्यास के िविनयोग िविध इस प्रकार है - ‘ॎ अस्य िस्थितमातृका -न्त्यासस्य प्रजपितऋिषेः गायत्रीछन्त्देः
िवश्वपािलनी देवता हलो बीजािन स्वरा िक्तयेः क्षं कीलकम् अभीष्टप्राप्तये िस्थितमातृकान्त्यासे िविनयोगेः ’ ॥९३ -०४॥

ध्यान करने के पश्चात् डकाराफदवणों से दिक्षणगुल्ि से वामजानुपयगन्त्त अङ्गों में न्त्यास करना चािहए । इसी को िस्थित न्त्यास
कहते हैं ॥९५॥

िवमिग - यथा ॎ डं नमेः दिक्षण गुल्िे , ॎ ढं नमेः दक्षपादाङ्गुिलमूले , ॎ णं नमेः दिक्षणपादाङ्गुल्यग्रे , ॎ तं नमेः
वामपादपूले , ॎ थं नमेः वामपादजानूिन , इस िम से दिक्षण गुल्ि से लेकर वामजानुपयगन्त्त िस्थित न्त्यास कहलाता है ॥९५॥

उक्त प्रकार से सृिष्ट न्त्यास करने के पश्चात् संहार न्त्यास करना चािहए । इस संहार न्त्यास के ऋिष एवं छन्त्द (र० १ .७८ )
पूवोक्त हैं तथा ित्रुप्रणाििनी िारदा देवी इसकी देवता मानी गई हैं ॥९६॥

इन ध्यान का प्रकार प्रकार है - जो रक्त कमल पर िवराजमान हैं , िजनके दािहने में अक्षमाला , परिु एवं बायें हाथों में
मृगिावक तथा िवद्या हैं , चन्त्रकला से सुिोिभत स्तनभार से झुकी तथा तीन नेत्रों वाली उन िारदा का मैं ध्यान करता हूँ
॥९७॥

िवमिग - संहारन्त्यास के िविनयोग की िविध ---

अस्य श्रीसंहारमातृकान्त्यास्य प्रजापितऋिषेः गायत्रीछन्त्देः ित्रुसंहाररणी िारदा देवता हलो बीजािन स्वरा िक्तयेः क्षं कीलकं
ममाभीष्टिसियथे न्त्यासे िविनयोगेः ॥९७॥

िविनयोग तथा ध्यान के अनन्त्तर क्षकाराफद वणो से अकार पयगन्त्त वणों का िवलोम रीित से ललाटफद स्थानों मे न्त्यास करना
चािहए ॥९८॥

सृिष्टन्त्यास में िवसगगयुक्त वणो से , िस्थितन्त्यास में िवसगग और अनुस्वार युक्त दोनों प्रकार के वणों से तथा संहारन्त्यास में मात्र
अनुस्वार युक्त वणों से ही न्त्यास करना चािहए । अङ्ग पूजन की प्रफिया में वणग के आफद में प्रणव तथा अन्त्त में नमेः लगा कर
न्त्यास करने की िविध है ॥९८ -९९॥

िवमिग --- यथा ॎ अं नमेः ॎ आं नमेः इत्याफद ॥९८ -९९॥

संहार न्त्यास के पश्चात् पुनेः प्रयत्नपूवगक सृिष्टन्त्यास तथा िस्थितन्त्यास करना चािहए । मातृका न्त्यास का िविेष िववरण पूजा
तरङ्ग (रष्टव्य २१वाूँ तरङ्ग ) में कहा जायगा ॥१००॥

वहीं पर हम मन्त्त्रस्नान आफद की िविध का भी फदग्दिगन कराएूँगे । इस प्रकार बुििमान् पुरुष सरस्वती की आराधना करने के
पश्चात् ही अपने इष्टदेव के मन्त्त्रों की आराधना करे । िवष्णु , ििव , गणेि , सूयग एवं दुगाग - पञ्चायतन के यही पाूँच देवता हैं ।
िसिि चाहने वाले पुरुष को उन उन मन्त्त्रों से िास्त्र में कही गई िविध के अनुसार इनकी आराधना करनी चािहए ॥१०१ -
१०२॥

पुरश्चरण के योग्य भूिम ---


प्रारम्भ में इष्टदेव को अपने वि में करने के िलए फकसी तीथग या िनजगन वन में फकसी पिवत्र भूिम का िनश्चय कर पुरश्चरण की
फिया प्रारम्भ करनी चािहए । पुरश्चरण के िलए अभीष्टभूिम को नव भागों में िवभक्त करना चािहए । पूवग से ले कर उत्तर तक
सात फदिाओं में सात वगग , ईिान कोण में ल क्ष वणग तथा मध्य में स्वरों को िलखना चािहए । पुरश्चरण स्थान के नाम का
आद्य अक्षर िजस कोष्ठक में हो , स्थान के उसी भाग में बैठ कर मन्त्त्र का जप चािहए , अन्त्यत्र दुेःखदायक स्थान पर नहीं
॥१०३ -१०५॥

िवमिग --- सुिवधा के िलए उसका स्वरुप प्रदर्णित करते हैं --

मान लीिजये फकसी साधक को पुरश्चरण के िलए कािी मे फकसी िनजगन स्थान को चुनना है । तब उपयुगक्त िविध से बनाये गये
नौ भाग वाले कोष्ठक में कािी का आद्य अक्षर ‘क ’ पूवगभागे में पडता है । अतेः कािी के पूवगभाग में फकसी िनजगन स्थान को
चुन कर मन्त्त्र का जप करना चािहए ॥१०३ -१०५॥

पुरश्चरण धमो का कथन ---

अब पुरश्चरण फिया में ग्रन्त्थकार जप का िवधान कहते हैं - बुििमान् साधक प्रातेःकाल से ले कर मध्याहनपयगन्त्तं उपांिु अथवा
मानस

जप करे । तीनों काल स्नान करे । तेल उबटन आफद न लगावे । व्यग्रता , आलस्य , थूकना , िोध , पैर िै लाना , अन्त्यों से
संभाषण एवं अन्त्य िस्त्रयों का तथा चाण्डालाफद का दिगन जप काल में वर्णजत करे । दूसरे की िनन्त्दा , ताम्बूल चवगण , फदन में
ियन , प्रितग्रह , नृत्य , गीत एवं कु रटलता न करे । पृथ्व्वी में ियन करे । ब्रह्मचयग के िनयमों का पालन करे । ित्रकाल देवाचगन
करे । नैिमित्तक कायो में देवाचगन एवं देवस्तुित करे और अपने इष्टदेवता में िवश्वास रख्खे । प्रितफदन एक समान संख्या में जप
करे । न्त्यूनािधक संख्या में नहीं । इस प्रकार िनिश्चत जप की संख्या समाप्त करने के पश्चात् ही दिांि से हवन करे ॥१०६ -
११०॥

िवमिग - उपांिु जप --- िजहवा और ओष्ठ का संचालन , पूवगक स्वयं सुनाई पडने वाले िब्दों के उिारण पूवगक जो जप फकया
जाता है वह ‘उपांिु ’ है । िजसमें ओठ और जीभ का भी संचालन न हो मात्र मन्त्त्र , मन्त्त्राथग तथा देवता का स्मरण कर जो
जप फकया जाता है , वह ‘मानस जप ’ है । इसके अितररक्त वािचक जप भी होता है िजसका पुरश्चरण में िनषेध है ।

हिवष्यान्न --- जौ , मूंग , चावल , गौ का दूध , दही , घी , कलखन , िक्कर , ितल , खोआ , नाररयल , के ला , िल , मेवा ,
आूँवला , सेन्त्धा नमक आफद हिवष्यान्न कहे गये हैं । साधक को इन्त्हीं का भोजन मात्र एक बार करना चािहए । भोजन दोष से
मन्त्त्रिसिि में बाधा होती है ॥१०६ -११०॥

तत्तत्कल्पोक्त ग्रन्त्थों में कहे गये हिवष्य रव्यों से दिांि हवन का िवधान कहा गया है । मन्त्त्रवेत्ता को सवगप्रथम मूल मन्त्त्र से
प्राणायाम एवं षडङ्गन्त्यास कर कु ण्ड या स्थिण्डल (वेदी ) पर चारों संस्कार करना चािहए । प्रथम मूलमन्त्त्र पढ कर देखे ,
फिर ‘अस्त्राय िट् ’ इस मन्त्त्र से प्रोक्षण करे । तदनन्त्तर कु िों से ताडन कर ‘हुम् ’ इस मन्त्त्र से मुिष्टका द्वारा उसका सेचन करे
॥१११ -११२॥

िवमिग --- ईक्षण , प्रोक्षण , ताडन एवं सेचन - ये चारों कु ण्ड के या स्थिण्डल के चार संस्कार होते हैं ॥१११ -११२॥

तदन्त्तर वेदी पर यन्त्त्र का लेखन इस प्रकार करे - ित्रकोण , उसके बाद षट्कोण , अष्टदल एवं चतुष्कोण यन्त्त्र बना कर उसके
मध्य में ‘ॎ ह्री ॎ ’ िलख कर पीठ पूजन करना चािहए । फिर मण्डू क से ले कर परतत्त्व पयगन्त्त तथा जया आफद पीठििक्तयों
(र०१ .५० -६० ) का पूजन करना
चािहए ॥११३ -११४॥

फिर ‘ॎ ह्रीं वागीििवागीश्वरयोयोगपीठात्मने नमेः ’ इस मन्त्त्र से उन्त्हें आसन देना चािहए । फिर तार (ॎ ), माया (हीम ,)
अथागत् ॎ ह्रीं इस मन्त्त्र से गन्त्धाफद उपचारों द्वारा उनका पूजन करना चािहए । यफद िवष्णु देवता का होम करना हो तो ‘ॎ
ह्रीं लक्ष्मी नारायणभ्यां नमेः ’ इस मन्त्त्र द्वारा लक्ष्मीनारायण का पूजन करना चािहए ॥११५ -११६॥

िवमिग - १ . गन्त्ध , २ . पुष्प , ३ . धूप , ४ .दीप एवं ५ . नैवेद्य - इन पाूँच उपचारों को गन्त्धाफद उपचार कहा जाता है
॥११५ -११६॥

अब अििस्थापन का प्रकार कहते हैं - सूयगकान्त्तमिण द्वारा , अरिणमन्त्थन द्वारा अथवा श्रोित्रय के घर (अिििाला ) से अिि
को फकसी पात्र में रख कर और उसे दूसरे पात्र से ढक कर लाना चािहए ॥११७॥

‘ अस्त्राय िट् ’ मन्त्त्र का उिारण कर अिि पात्र ग्रहण करे । ‘ हुम् ’ मन्त्त्र का उिारण कर उस पात्र को खोले । पुनेः अस्त्र मन्त्त्र
( अस्त्राय िट ) का उिारण कर उसका कु छ अंि मांसभोजी अिि के िलए नैऋत्यकोण में िें क देना चािहए ॥११८॥

पुनेः मूलमन्त्त्र का उिारण कर उस अििपात्र को अपने सामने रलखे , तथा उसे स्वल्प रुप से िसिञ्चत करके उसका ईक्षण आफद
पूवोक्त चार संस्कार (र०१ .११२ ) संपन्न करना चािहए ॥११९॥

फिर परमात्मा रुप अनल (अििवै रुरेः ) तथा जाठरािि एवं संमुख रलखी अिि में एकरुपता की भावना करती हुए ‘रम् ’ बीज
से उसमें चेतनला लानी चािहए ॥१२०॥

फिर मन्त्त्रवेत्ता ब्राह्मण तार मन्त्त्र (ॎ ) से अिि को अिभमिन्त्त्रत कर सुधाबीज (वूँ ) से धेनु मुरा प्रदर्णित करते हुए उसका
अमृतीकरण करे तथा अस्त्राय िट् मन्त्त्र से उसे संरिक्षत रखे ॥१२१॥

तदनन्त्तर कवच (हुम् ) मन्त्त्र पढते हुए अवगुण्ठन मुरा प्रदर्णित कर उसे अवगुिण्ठत कर प्रणव का तीन बार उिारण करते हुए
उस अिि को कु ण्ड अथवा वेदी पर तीन बार घुमाना चािहए ॥१२२॥

तत्पश्चात् घृटनों के बल पृथ्व्वी पर बैठ कर वक्ष्यामाण नवाणग मन्त्त्र का उिारण कर िय्या पर िस्थत ऋतुस्नाता ,
नीलकमलधीररणी अििदेव के द्वारा संभोग की जाती हुई अिि - पत्नी स्वाहा का स्मरण कर उसके योिनमण्डल स्थान में ििव
के वीयग की भावना करते हुए उस अिि को अपने सम्मुख स्थािपत करना चािहए ॥१२३ -१२४॥

िवमिग - धेनुमुरा - अन्त्योन्त्यािभमुखौ िश्लष्टौ किनष्ठानािमका पुनेः ।

तथा तु तजगनीमध्या धेनुमुरा प्रकीर्णतता ।

दोनों हाथों की किनष्ठा एवं अनािमका अङ् गुिलयों को उसी प्रकार तजगनी और मध्यमा अङ् गुिलयों को परस्पर िमला देने से
‘धेनुमुरा ’ होती है ।

अवगुण्ठन मुरा - सव्यहस्तकृ ता मुिष्टेः दीघागधोमुखतजगनी ।

अवगुण्ठनमुरय
े ािभतो भ्रािमता भवेत् ॥

दािहने हाथ की मुट्टी बाूँध कर तजगनी एवं मध्यमा को अधोमुख चारोम ओर घुमाने से अवगुठन मुरा होती है ॥१२३ -१२४॥
अििस्थापन मन्त्त्र - रे ि , अधेि = ऊ , इन्त्र ु = अनुस्वार से युक्त गगन (ह ) अथागत् हूँ , तदनन्त्तर विहन ‘चै ’, तदनन्त्तर
‘तन्त्याय ’ तदनन्त्तर हृदय = ‘नमेः ’ का उिारण करने से नवाणग होता है । यह मन्त्त्र अििस्थापन में प्रयुक्त होता है ॥१२५॥

िवमिे - मन्त्त्र का स्वरुप इस प्रकार है - हं विहनचैतन्त्याय नमेः ॥१२५॥

तदनन्त्तर उक्त दोनों देव एवं देिवयों को आचमन दे कर वक्ष्यमाण चौबीस अक्षरात्मक मन्त्त्र का जप करते हुये कण्डा , आफद से
अिि को प्रज्विलत करना चािहए ॥१२६॥

अब चतुर्ववित्यक्षर मन्त्त्र का स्वरुप कहते हैं -

सवगप्रथम िचित्पङ्गल ’ िब्द , तदनन्त्तर दो बार ‘हन ’ िब्द , तत्पश्चात् दो बार ‘दह ’ िब्द , फिर दो बार ‘पच ’ िब्द और
अन्त्त में ‘सवगज्ञा ज्ञापय स्वाहा ’ लगाने से चतुर्णविित अक्षर का मन्त्त्र बन जाता है ॥१२७॥

िवमिग - इस मन्त्त्र का स्वरुप इस प्रकार है - ‘िचित्पङ्ग्ल हन हन दह दह पच पच सवगज्ञाज्ञापय स्वाहा ’ ॥१२७॥

तदनन्त्तर आसन से उठकर हाथ जोडकर ज्वािलनी मुरा प्रदर्णित कर आगे कहे जाने वाले श्लोक रुप मन्त्त्र से अिि का
उपस्थापन करें ॥१२८॥

िवमिग - दोनों हाथ के मिणबन्त्ध स्थान को एक में िमलाकर अङ्गुिलयों को दोनों हाथ की किनष्ठा तथा अङ् गुष्ठा को परस्पर
एक में िमलाने से ज्वािलनीमुरा हो जाती है ॥१२९॥

अब अति प्रज्विलतं . . . िवश्वतोमुखम् आफद श्लोक रुप मन्त्त्र से अिि का उपस्थापन कहते हैं । सुवणग वणग के समान अमल एवं
देदीप्यमान , िवश्वतोमुख , जातवेद तथा हुतािन नाम वाले प्रज्विलत अिि की मै वन्त्दा करता हूँ ॥१२९॥

इसके अनन्त्तर अििमन्त्त्र का न्त्यास करना चािहए । उसकी िविध कह रहे हैं सवगप्रथम वैश्वानर , इसके बाद जातवेद , फिर
इहावह तत्पश्चात् लोिहताक्ष फिर सवगकमागिण तदनन्त्तर साधय और अन्त्त में स्वाहा लगाने से २६ अक्षरों का अििमन्त्त्र बनता
है ॥१३० -१३१॥

िवमिग - इस मन्त्त्र का स्वरुप इस प्रकार है - वैश्वानरजातवेद इहावह लोिहताक्ष सवगकमागिण साधय स्वाहा ॥१३० -१३१॥

अब अििमन्त्त्र का िविनयोग कहते हैं - इस मन्त्त्र भृगु ऋिष हैं , गायत्री छन्त्द है तथा पावक इसके देवता हैं , रं बीज है और
स्वाहा ििक्त है । इसका िविनयोग हवन कायग में फकया जाता है ॥१३२॥

अब सप्तिजहवामन्त्त्र एवं उनका कहते हैं - िलङ्ग , गुदा , ििर , मुख , नािसका , आूँख एवं सवागङ्ग में अपने अपने बीजमन्त्त्रों
के साथ नमेः लगाकर प्रत्येक अिि िजहवा नाम के आगे चतुथी एक वचन से न्त्यास करना चािहए । िहरण्या गगना , रक्ता ,
कृ ष्णा , सुप्रभा , बहुरुपा एवं अित रक्ता - ये सात अिि िजहवाओं के नाम हैं ॥ १३३ -१३४॥

दीिपका (ऊ )अनल (र ) वायु (य ) इन तीनों को एक में िमलाकर अथागत् ‘य्रू ’ के आफद में सकराफद सात वणो को िवलोम रुप
से (स् ष ि व् ल् र् य् ) एक एक में िमलाने से अिििजहवा के बीज मन्त्त्र बन जाते हैं ॥१३५॥

िवमिग - जैसे - स्र्यू , ष्र्यू , श्र्यू , व्य्य्रू , ल्र्यू , र्य्रू , य्य्रू ये सप्त िजहवाओं के िमिेः बीज मन्त्त्र हैं ।
प्रयोग िविध - ॎ स्यूूँ िहरण्यायै नमेः िलङ्गे , ॎ ष्र्यूं गगनायै नमेः पायौ ,
ॎ श्र्यूूँ रक्तायै नमेः ििरिस , ॎ व्रयूं कृ ष्णायै नमेः वलत्रे ,

ॎ ल्र्यूूँ सुप्रभायै नमेः नािसकायाम् , ॎ र्य्रूं अित रक्तायै नमेः नेत्रे ,

ॎ य्य्रूूँ बहुरुपायै नमेः सवागङे ।

रटप्पणी - इस न्त्यास के िम में बहुरुपा एवं अितररक्ता में व्यत्िम हुआ हैं , जो वक्ष्यमाण १३७ श्लोक के अनुरुप है । वहाूँ नेत्र
में अित रक्ता का तथा सवागङ्ग में बहुरुपा का न्त्यास कहा गया है ॥१३५॥

अब उपयुगक्त सात िजहवाओं के देवताओं द्वारा न्त्यास कहते हैं - सुर , िपतर , गन्त्धवग , यक्ष , नाग , िपिाच एवं राक्षस एन
िजहवओं के अिधदेवता कहे गये हैं । उनका भी िमिेः उक्त अङ्गो में न्त्यास में वह व्युत्िम हो जाता है ॥ इसीिलए नेत्र मं
प्रथम अित रक्ता का न्त्यास , तदनन्त्तर सवागङ्ग में बहुरुपा का न्त्यास प्रदर्णित फकया गया है (र १ .१३४ ) ॥१३६ -१३७॥

िवमिग - प्रयोग िविध - ॎ सुरेभ्यो नमेः िलङ्गे , ॎ िपतृभ्यो नमेः पायौ ,

ॎ गन्त्धवेभ्यो नमेः , मूर्णि , ॎ यक्षेभ्यो नमेः मुखे ,

ॎ नागेभ्यो नमेः नािसकायाम् , ॎ िपिाचेभ्यो नमेः नेत्रे ,

ॎ राक्षसेभ्यो नमेः सवागङे ॥१३६ - १३७॥

अब षडङ्गन्त्यास कहते हैं -

ॎ सहस्रार्णचषै हृदयाय नमेः , ॎ स्विस्तपूणागय ििरसे स्वाहा ,

ॎ उित्तष्ठपुरुषाय ििखायै वषट् , ॎ धूमव्यािपिनए कवचाय हुम् ,

ॎ सप्तिजहवाय नेत्रत्रयाय वौषट् ॎ धनुधगराय अस्त्राय िट्

इस प्रकार षडङ्गन्त्यास करना चािहए ॥१३८ -१३९॥

ििर , वामस्कन्त्ध , वाम पाश्वग , वाम करट , िलङ्ग पुनेः दिक्षण करट , दिक्षणपाश्वग दिक्षण स्कन्त्ध इन अङ्गो में अिि की आठ
मूर्णतयों से न्त्यास करना चािहए ॥१४०॥

प्रथम प्रणव (ॎ ), इसके अनन्त्तर ‘अिये ’ इसके बाद प्रत्येक मूर्णत नाम में चतुथी , तदनन्त्तर , ‘नमेः ’ पद से उक्त स्थानों
(र०१ .१४० ) में न्त्यास करना चािहए ।१ .जातवेदाेः , २ . सप्तिजहव , ३ . हव्यवाहन , ४ . अश्वोदरज , ५ . वैश्वानर , ६ .
कौमार - तेजस , ७ . िवश्वमुख तथा ८ . देवमुख - ये अिि की आठ मूर्णतयों के नाम हैं ॥१४१ -१४२॥

िवमिग - प्रयोगिविध - यथा - ॎ अिये जातवेदसे नमेः मूर्णि

ॎ अिये सप्तिजहवाय नमेः वामांसे , ॎ अिये हव्यवाहनाय नमेः वामपाश्वे ,

ॎ अिये अश्वोदरजाय नमेः वामकटौ , ॎ अिये वैश्वानराय नमेः िलङ्गे ,


ॎ अिये कौमारतेजसे नमेः दक्षकटौ , ॎ अिये िवश्वमुखाय नमेः दिपाश्वे ,

ॎ अिये देवमुखाय नमेः दक्षांसे ॥१४१ -१४२॥

पीठ देवता एवं ििक्तयों का न्त्यास - इसके बाद अपने िरीर में मण्डू क से लेकर अििमण्डल पयगन्त्त अिीपीठ के देवाताओं को
(र० १ .५० -५६ )) न्त्यास करना चािहए । पीता , श्वेता , अरुणा , कृ ष्णा रूम्रा , तीव्रा , स्िु िलङ्गनी , रुिचरा एवं ज्वािलनी
ये अििपीठ की ििक्तयाूँ हैं ॥१४३ -१४४॥

‘ ॎ रं वहन्त्यासनाय नमेः ’ यह पीठ का मन्त्त्र है इस प्रकार पीठ पयगन्त्त समस्त न्त्यास कर अपने िरीर में अिि का ध्यान करना
चािहए ॥१४५॥

अिि का ध्यान - तीन नेत्रों वाले , रक्तवणग िरीर वाले , िुभ्र वस्त्र से युक्त , सुवणग माला धारण फकए हुये , दािहने हाथों में
वरदमुरा एव्य्म स्विस्तक , तथा बायें हाथों में अभयमुरा एवं ििक्त धारण फकए हुये , आभूषणों से सुिोिभत कमलासन पर बैठे
हुये अििदेव का मैम ध्यान करता हूँ ॥१४६॥

इस प्रकार अििदेव का ध्यान कर िविधवत् सवोपचारों से मानस पूजन करना चािहए । फिर जल से कु ण्ड अथवा स्थिण्डल का
पररिषञ्चन करना चािहए ॥१४७॥

तदनन्त्तर पूवग एवं उत्तराग्रभाग वाले कु िाओं से उसका पूवग फदिा के िम से पररस्तरण करना चािहए । पुनेः पलाि एवं
िवल्ववृक्ष की िाखाओं से पिश्चम , दिक्षण एवं उत्तर में िमिेः तीन पररिध बनाकर उस पर ब्रह्मा , िवष्णु एवं ििव का पूजन
करना चािहए । अिि में उनके पीठस्थ देवताओं का पूजन कर अपने हृदय में अििदेव का आवाहन करना चािहए ॥१४८ -
१४९॥

फिर व्रती पुरश्चरणकताग गन्त्धाफद पूजनोपचारों से अििदेव का पूजन करें । षट्कोण में एवं मध्य में अिि की सप्तिजहवा (र० १
.१३४ ) का पूजन करना चािहए । उसकी िविध इस प्रकार है - ईिान से लेकर ऊध्वागधेः वायव्य पयगन्त्त षट्कोणों में िहरण्य से
लेकर अित रक्ता तक ६ अिििजहवाओं का तथा मध्य में बहुरुिपणी नामक अिि िजहवा का पूजन करना चािहए ॥१५० -
१५१॥

के सरों में अङ्गपूजा , अष्टदलों में अष्टमूर्णतयों की पूजा (र० १ . १४१ -१४२ ) तथा दलों के अन्त्त में अष्टमातृकाओं की पूजा
(र० ५ . ३९०४० ) और दलान्त्त के आगे अष्ट भैरवों की पूजा करनी चािहए ॥१५२॥

भूपुर में इन्त्राफद देवों की तथा उनके वज्राफद आयुधों की पूजा करनी चािहए । इस प्रकार सप्तावरण दे देवताओं के साथ -साथ
अििदेव का यजन करना चािहए ॥१५३॥

१ . अिसताङ्ग , २ . रुर , ३ . चण्ड , ४ . िोध , ५ . उन्त्मत्त , ६ . कपाली , ७ . भीषण और ८ . संहार - ये अष्ट भैरवों के
नाम हैं ॥१५४॥

अब पात्रासादन की िविध कहते हैं - अिि के वाम भाग में कु िाओं को िै ला कर उस पर प्रणीता एव्य्म प्रोक्षणीपात्र , आज्यपात्र
, स्रुवा एवं स्रुची आफद यज्ञ पात्र अधोमुख स्थािपत करना चािहए । उसी के साथ होमाथग रव्य घृत , कु िा , पलाि की पञ्च
सिमधायें एवं अन्त्य उपयोगी वस्तुयें भी रखनी चािहए ॥१५५ -१५६॥

तदनन्त्तर पिवत्री का िनमागण कर मूलमन्त्त्र द्वारा पिवत्र जल से उन वस्तुओं का प्रोक्षण करना चािहए । तदनन्त्तर सभी पात्रों
को सीधे रख कर प्रणीता पात्र में जल भरना चािहए । फिर तीथग मन्त्त्र -

गङ्गे च यमुने चैव गोदावरर सरस्वित ।


नमगदे िसन्त्धु कावेरर जलेऽिस्मन् सिन्नतध कु रु ॥

इस मन्त्त्र को पढते हुए अंकुि मुरा द्वारा उस जले में िवद्वान् साधक को तीथो का आवाहन करना चािहए । दो अक्षत (सम्पूणग
रुप वाले ) कु िाओं को उसमें छोडकर जल का उत्पवन करना चािहए । तदनन्त्तर प्रणीतापात्र को अिि के उत्तर भाग में रख
कर उसका जल प्रोक्षणी पात्र में डालना चािहए । फिर उस प्रोक्षणी के पिवत्र जल से समस्त हवनीय पदाथो का प्रोक्षण करना
चािहए ॥१५७ -१५९॥

अब ब्रह्मदेव के आवाहन एवं पूजन की िविध कहते हैं - अिि के दिक्षण में पीठ िनमागण कर उस पर मूलमन्त्त्र , गायत्रीमन्त्त्र से
अथवा हृदय मन्त्त्र (ॎ नमेः ) से उस पर पर ब्रह्मदेव का आवाहन करना चािहए ॥१६०॥

अिणमाफद आठ िसिियाूँ ब्रह्मपीठ की देवता हैं । तार (ॎ ) और हृद् (नमेः ) तदनन्त्तर ब्रह्मपद में चतुथी लगाकर ‘ॎ नमो
ब्रह्मणे ’ इस मन्त्त्र से उनकी पूजा करनी चािहए ॥१६१॥

िवमिग - प्रयोग िविध --- अिणमायै नमेः इत्याफद िसिियों के नाम मन्त्त्र से आठों िसिियों का आवाहन पूजन कर पीठ िनमागण
करें । फिर ‘ॎ नमो ब्रह्मणे ’ इस मन्त्त्र से उनकी पूजा करे ॥१६० -१६१॥

स्रुव एवं सुिच के संस्कार की िविध कहते हैं - दोनों हाथों में स्रुवा स्रुिच लेकर अधोमुखे कर तीन बार उन्त्हें अिि पार तपाना
चािहए । फिर उन दोनों को बायें हात में रखकर दािहने हाथ से कु िा लेकर उनका माजगन करना चािहए । तदनन्त्तर प्रणीता
के जल से िसञ्चन कर पुनेः उन्त्हें पूवव
ग त् तीन बार तपाकर , अिि के दािहनी ओर स्थािपत करना चािहए । माजगन कु िाओं को
अिि में डाल देना चािहए । तदनन्त्तर उन पर तीन -तीन ििक्तयों का न्त्यास करे ॥१६२ -१६३॥

इच्छा ज्ञान एवं फिया रुपा ििक्तयों के आगे चतुथ्व्यगन्त्त िवभिक्त लगाकर उसमेम नम्ह जोडे । आफद में िमिेः आ ई ऊ के सिहत
सानुस्वार आकाि (ह ) लगा कर ििक्तयों से स्रुव एवं सुिच के मूल , मध्य एव अन्त्त में इस प्रकार न्त्यास करे ॥१६४॥

िवमिग - तद् यथा - १ ॎ हां इच्छात्मने स्रुवमूले न्त्यसािम , २ . ॎ ह्रीं ज्ञानात्मने नमेः स्रुवमध्ये न्त्यसािम , ३ . ॎ हं
फियात्मने स्रुवाग्रे न्त्यसािम । इसी प्रकार सुिच में भी उपयुगक्त तीनों ििक्तयं द्वारा न्त्यास करना चािहए ॥१६४॥

पुनेः स्रुिच के हृदय में ििक्त तथा स्रुव में ििव का न्त्यास कर तीन रक्षा सूत्रों से उन्त्हें बाूँधकर पुष्पाफद से पूजाकर उन्त्हें कु िाओं
पर अिि के दािहनी ओर स्थािपत करना चािहए ॥१६५॥

िवमिग - न्त्यासिविध - स्रुिच हृदये ििक्त न्त्यसािम , स्रुवोपरर सम्भुं न्त्यसािम । यहाूँ तक स्रुवा तथा स्रुिच का संस्कार कहा गया
हैं ॥१६६॥

अब आज्य एवं आज्यथाली के संस्कार की िविध कहते हैं -

‘ अस्त्राय िट् ’ इस मन्त्त्र से प्रोिक्षत आज्यस्थाली में आज्य को उडेलना चािहए । फिर ईक्षण , प्रोक्षण , ताडन एवं सेचन आफद
चार संस्कार से सुसंस्कृ त कर धेनुमुरा प्रदर्णित करते हुये मूलमन्त्त्र से उसका अमृतीकरण करे । तदनन्त्तर वक्ष्यमाण छेः संस्कार
करना चािहए ॥१६६ - १६७॥

िवमिग - १ . अिि संस्थापन , २ . तापन , ३ . अिभद्योतन , ४ . सेचन , ५ . उत्पवन तथा ६ . संप्लवन - ये छेः संस्कार
आज्य स्थाली के होते हैं िजसका िमिेः वणगन आगे (र० १ . १६९ -७३ ) करे गें ॥१६६ -१६७॥
कु ण्ड से िनकाली गई अिि पर उस आज्य युक्त स्थाली को स्थािपत करे - इसे अिि संस्थापन कहते हैं । फिर ‘ॎ नमेः ’ मन्त्त्र से
उसे तपावे - इसे तापन कहते हैं । फिर दो कु िाओं को जला कर उसे घी में डाल देवें ॎ तदनन्त्तर ‘ॎ नमेः ’ मन्त्त्र से अिि में
उन दोनों कु िाओं को डाल देना चािहए ॥१६८ -१६९॥

फिर जलती हुई उन कु िाओं को ‘हुम् ’ मन्त्त्र पढ कर घी के चारोम ओर घुमा देना चािहए - इसे अिभद्योतन कहते हैं । पुनेः घी
में तीन कु िा डु बोकर ‘अस्त्रोय िट् ’ इस मन्त्त्र से जलाकर आज्यस्थाली में डाल देनी चािहए । पुनेः अङ्गार को उसी कु ण्ड में
डाल देना चािहए । तदनन्त्तर साधक को जल का स्पिग करना चािहए ॥१७० -१७१॥

पुनेः अनािमका और अंगुष्ठ इन दो अंगुिलयों से दो कु िा लेकर ‘अस्त्राय िट् ’ इस मन्त्त्र से घी को ३ बार ऊपर की ओर
उछालना चािहए - इसे उत्पवन कहते हैं ॥१७२॥

‘ ॎ नमेः ’ इस मन्त्त्र से उस आज्य को तीन बार अपने सम्मुख उच्छालने का नाम संप्लवन है । नीराजनाफद संस्कारों में अिि
में दभग को डाल देना चािहए ॥१७३॥

ग्रिन्त्थ युक्त दो कु िाओं को घी में डाल देना चािहए । फिर वाम एवं दिक्षण दोनों प्रकर के स्वरों का ध्यान कर ईडा , िपङ्गला
तथा सुषुम्ना एन तीनों नािडयों का ध्यान करे । साधक दिक्षण , वाम एवं मध्य भाग में ‘ॎ नमेः ’ मन्त्त्र से घी लेकर ‘ॎ अिये
स्वाहा ’ ‘ॎ सोमाय स्वाहा ’ इन दो मन्त्त्रों से अिि के दीनों नेत्रों में तथा ‘ॎ अिीषोमाभ्यां स्वाहा ’ इस मन्त्त्र से उनके तृतीय
नेत्र में आहुित देवे ॥१७४ -१७५॥

आहुित से िेष भाग का प्रणीत में डाल देना चािहए , फिर ‘ॎ नमेः ’ मन्त्त्र से दािहनी ओर से घी लेकर ‘ॎ अिये िस्वष्टकृ ते
स्वाहा ’ मन्त्त्र से एक आहुित अििदेव के मुख में देवे । ऐसा करने से उनके नेत्र उद्घाटन हो जाता है ॥१७६ -१७७॥

नृतसह को छोडकर िवष्णुके मन्त्त्रों से दोनों नेत्रों में दो आहुत देनी चािहए तथा नृतसह एवं अन्त्य देवताओं के मन्त्त्र के दिांि
हवन में अिि के तीनों नेत्रोम में आहुितयाूँ देनी चािहए ॥१७७ -१७८॥

महाव्याह्रितयों से पृथक् पृथक् (यथा ॎ भूेः स्वाहा , ॎ भुवेः स्वाहा , ॎ स्वेःस्वाहा तदनन्त्तर ॎ भूभुगवेः स्वेः स्वाहा ) ये
चार आहुितयाूँ देनी चािहए । फिर अििमन्त्त्र (ॎ वैश्वानर जातवेद इहावह लोिहताक्ष सवगकमागिण साधय स्वाहा ) से तीन
आहुित प्रदान करे । फिर घी की आठ आहुितयों से िमिेः एक -एक आहुित से अिि का एक -एक संस्कार करना चािहए
॥१७८ -१७९॥

अब अति के छह संस्कार कहते हैं - सवगप्रथम ‘ॎ अस्यािेेः गभागधानं संस्कारं करोिम स्वाहा ’ इस प्रकार मन्त्त्र से १ . गभागधान
संस्कार करे । इसी प्रकार २ . पुंसवन , ३ . सीमान्त्तोन्नयन , ४ . जातकमग तथा ५ . नालच्छेदन में िमिेः उक्त अििमन्त्त्र
पढकर पाूँच पलाि की सिमधाओं की एक -एक के िम से अिि में आहुित देवें ॥१८० -१८१॥

तदनन्त्तर अििदेवता का ६ . नामकरण इस प्रकार करें । यफद गणेि मन्त्त्र की आहुित देनी हो तो गणेिािि , राम और कृ ष्ण
की आहुित देनी हो तो रामािि एवं ‘कृ ष्णािि ’ ऐसा नामकरण ’ करें । एक प्रकार अिि के नामकरण के पश्चात् इनके माता
िपता वागीिी एवं वागीि को अपने हृदय में स्थािपत करे ॥१८२॥

तदनन्त्तर अन्नप्रािन , चौल ,म उपनयन एव िववाह संस्कार भी उक्त प्रकार के संकल्प से एक -एक आहुित देते हुये सम्पन्न
करना चािहए । िुभ कायो में िववाह पयगन्त्त ही संस्कार फकए हैं , फकन्त्तु िू र कमों में मृत्यु पयगन्त्त संस्कार करने की िविध है
॥१८३॥
तदनन्त्दर अिि की िजहवाओं (र० १ .१३४ ) एवं अिि की ही मूर्णतयों को पूवोक्त (र १ .१४२ ) मन्त्त्रों से प्रत्येक में चतुथी
िवभिक्त लगाकर अन्त्त में स्वाहा पद का उिारण कर एक -एक आहुित प्रदान करें । (यथा - िहरण्यायै स्वाहा , गगनायै स्वाहा
आफद। ) फिर इन्त्राफद देवों के िलए तथा उनके आयुधों के िलए चतुथ्व्यगन्त्त नाम मन्त्त्रों के आगे स्वाहा लगाकर आहुित प्रदान करें
। (यथा - इन्त्राय स्वाहा , वज्राय स्वाहा आफद ) ॥१८४॥

तदनन्त्तर स्रुवा से स्रुिच में चार बार घी डालकर स्रुवा से स्रिच को ढककर खडे हो कर उन्त्हें दोनों हाथों से पकडकर नािभ के
आगे कर उस पर पुष्प चढाना चािहए । फिर उनका मूल अपने बायें स्तन के पास लाकर अििमन्त्त्र से (यथा -वैश्वानर जातवेद
एहा वह लोिहताक्ष सवगकमागिण साधय स्वाहा वौषट् ) संपित्त प्रािप्त के िलए साधक जागरुक होकर एक आहुित प्रदान करे
॥१८५ -१८७॥

तदनन्त्तर महागणपित मन्त्त्र के दस िवभाग कर प्रत्येक भाग से एक -एक आहुित देनी चािहए । तदनन्त्तर गणपित के समस्त
मन्त्त्र को चार बार पढकर चार घृत की आहुितयाूँ प्रदान करनी चािहए । महागणपित मन्त्त्र के सवगप्रथम छेः बीजों स छेः
आहुित तदनन्त्तर ५ , ५ , ७ एवं ५ अक्षरों के मन्त्त्रों से एक -एक आहुित देने का िवधान है ॥१८७ -१८९॥

महागणपित मन्त्त्र इस प्रकार है - तारा (ॎ ), लक्ष्मी (श्रीं ), िगरर सुता (ह्रीं ), काम (ललीं ), भू (ग्लौं ), गणनायक (गं ) इसके
बाद गणपित का चतुथ्व्यगन्त्त (गणपतये ) फिर ‘वर ’ और ‘वरद ’ (वर वरद ), तदनन्त्तर ‘सवगजन ’ फिर ‘मे वि ’ तदनन्त्तर
‘मानय ’, तदनन्त्तर ‘स्वाहा ’ लगाने से अथाइस अक्षर का मन्त्त्र बन जाता है । इस प्रकार अिि का संस्कार कर देव - पीठ की
पूजा करनी चािहए ॥१८९ -१९१॥

िवमिग - महागणपित का मन्त्त्र इस प्रकार है - ‘ॎ श्रीं ह्रीं ललीं ग्लौं गं गणपतये वर वरद सवगजनं मे वि मानय स्वाहा ’ ।

हवन िविध - साधक को दस भागों में इस प्रकर हवन करना चािहए - यथा -

१ - ॎ स्वाहा ,

२ - ॎ श्री स्वाहा ,

३ - ॎ श्रीं ह्रीं स्वाहा ,

४ - ॎ श्री ह्री ललीं स्वाहा ,

५ - ॎ श्री ह्री ललीं ग्लौं स्वाहा ,

६ - ॎ श्री ह्री ललीं ग्लौं गं स्वाहा ,

७ - ॎ श्री ह्री लली ग्लौं गं गणपतये स्वाहा ,

८ - ॎ श्री ह्री लली ग्लौं गं गणपतये वर वरद स्वाहा ,

९ - ॎ श्री ह्री ललीं ग्लौं गं गणपतये वर वरद सवगजनं मे वि स्वाहा ,

१० - ॎ श्री ह्री ललीं ग्लौं गं गणपतये वर वरद सवगजनं मे विमानय स्वाहा ,


इन दस मन्त्त्रों से एक - एक आहुित प्रदान करनी चािहए । फिर सम्पूणग उपयुगक्त २८ मन्त्त्राक्षरों से घी की चार आहुित देनी
चािहए ॥१८७ -१९१॥

सवगप्रथम आवाहनाफद मुरा प्रदर्णित कर पीठ इष्टदेव का आवाहन करना चािहए । तदनन्त्तर अिि एवं इष्टदेव के मुख में मूल
मन्त्त्र से पििस संख्यक घी की आहुती प्रदान करनी चािहए । ऐसा करने से अिि के मुख का एवं देवता के मुख का एकीकरण
हो जाता है ॥१९२ -१९३॥

िवमिग - इष्ट देव के आवाहन में साधक िनम्न मुराओं का प्रदिगन करे - १ आवािहनी , २ . स्थापनी , ३ . सिन्नधान , ४
.सिन्नरोध , ५ . सम्मुखीकरण , ६ . सकलीकरण , ७ . अवगुष्ठन , ८ . अमृतीकरण और ९ . परमीकरण । इनका स्वरुप इस
प्रकार है -

१ . आवाहनी मुरा - "सम्यक् सम्पूिजतैेः पुष्पैेः कराभ्यां किल्पताञ्जिलेः । आवाहनी समाख्याता मुरदेििक सत्तमैेः ।
अनामामूलं संलिाङ्गगुष्ठग्राञ्जिलरीररता ॥ "

‘ ॎ पुष्पे पुष्पे महापुष्पे सुपुष्पे पुष्पसम्भवे पुष्पं च यवकीणग हुं िट् स्वाहा - इस मन्त्त्र से संिोिधत पुष्पों को लेकर दोनों हाथों
की अञ्जिल बनाने को आवाहनी मुरा कहते हैं ।

२ . स्थापनी मुरा - "अधोमुखी कृ ता सैव स्थापनीित िनगद्यते । " आवाहनी मुरा को अधोमुख करने से स्थापनी मुरा बन
जाती है ।

३ . सिन्नधान मुर - "आिश्लष्टमुिष्टयुगला प्रोन्नताङ्गष्ठयुमका । सिन्नधाने समुिच्छष्टा मुरयं तन्त्त्रेवेिधिभेः ॥ " अंगूठों को ऊपर
उठाकर दोनों मुरट्टयों को परस्पर िमलाने से सिन्नधान मुरा बनती है ।

४ . सिन्नरोध मुरा - "अङ्गगुष्ठगार्णभणी सैव सिन्नरोधे समीररता । अङ्गूठों को भीतर कर दोनों मुरट्टयों को परस्पर िमलाने से
सिन्नरोध मुरा बनती है ।

५ . सम्मुखीकरण मुरा - "बिाञ्जिल हृफद प्रोक्ता सम्मुखीकरणे बुधैेः । " हृदय प्रदेि में अञ्जिल बनाने को सम्मुखीकर मुरा
कहते हैं ।

६ . सकलीकरण मुरा - "देवाङ्गगेषु षडङ्गानां न्त्यासेः स्यात्सकलीकृ ितेः । " देवता के अङ्गों पर षडङ्गान्त्यास करना
सकलीकरण कहलाता है ।

७ . अवगुण्ठन मुरा - "सव्यहस्तकृ ता मुिष्टेः दीघागधोमुख तजगनी । अवगुण्ठमुरयमािभतो भ्रािमता भवेत् । दािहने हाथ की मुट्टी
बनाकर मध्यमा एवं तजगनी को अधोमुख कर चारों ओर घुमाने से अवगुण्ठन मुरा बनती है ।

८ . अमृतीकरण के िलए धेनुमुरा - " अन्त्योन्त्यािभमुखौ िश्लष्टौ किनष्ठानािमका पुनेः । तथा तु तजगनीभ्या धेनुमुरा प्रकीर्णतता ॥ "

दोनों हाथों की किनष्ठा एवं अनािमका को तथा मध्यमा को एक दूसरे से िमलाने पर धेनु मुरा बनती है ।

९ . परमीकरण के िलए महामुरा -

अन्त्योन्त्य ग्रिथताङ्गुष्ठौ प्रसाररतकराङ्गुिलेः । महामुरय


े मुफदता परमीकरणे बुधैेः ॥

अंगूठों को परस्पर ग्रिथत कर अङ्गुिलयां िै लाने से महामुरा बनती है । इसे परमीकरण मुरा कहते हैं ॥१९२ -१९३॥
पश्चात् अिि एव इष्टदेव के नाडीसंधान के िलए मूलमन्त्त्र से ग्यारह आहुित प्रदान करनी चािहए ॥१९४॥

पुनेः इष्टदेव के आवरण देवताओं को १ -१ आहुित देनी चािहए (आवरण देवता र० १ ५० -५५ ) फिर मूलमन्त्त्र से १०
संख्यक घृत की आहुित देनी चािहए ॥१६५॥

तदनन्त्तर तत्तत् कल्पों में प्रितपाफदत तत्तद्देव िविेषों के हिव से जप का दिांि होम कर होम का समापन करें । तदनन्त्तर
एकाग्रिचत्त से पूणागहुित करें ॥१९६॥

अब पूणागहुित का प्रकार प्रस्तुत करते हैं -

िवद्वान् साधक होमावििष्ट घृत से स्रुिच को भर कर उसमेम पुष्प एवं िल रखकर स्रुवा से ढक कर खडा हो मूलमन्त्त्र के अन्त्त
मं वौषट् लगाकर अिि में पूणागहुित करें , तथा िेष होमरव्य से आवरण देवताओं को पृथक -पृथक् आहुित प्रदान करें ॥१९७ -
९८॥

फिर अपने हृदय में इष्टदेव का िवसजगन कर अिि की सात िजहवाओं एवं आठ मूर्णतयों को आहुितयाूँ प्रदान करे । तदनन्त्तर
महाव्याहृितयों से हवन कर प्रोक्षणी के जल से अिि का प्रोक्षण (िसञ्चन ) करे ॥१९९॥

तदनन्त्तर - ‘भो भो वहने महािक्ते सवगकमगप्रसाधक ।

कम्रान्त्तरे ऽिप संप्राप्ते सािन्नध्यं कु रु सादरम् ’॥

इस मन्त्त्र से अििदेव की प्राथगना कर प्रणाम करणे के पश्चात् अपने हृदय में उनका िवसजगन करें ॥२०० -२०१॥

पिवत्री बनाये गये कु िाओं को अिि में प्रिक्षप्त कर प्रणीता का जल पृथ्व्वी पर िगरा देवें । तदनन्त्तर ब्रह्मदेव का िवसजगन कर
पाररिध बनाये गये कु िाओं को भी अिि में पिक्षप्त कर देना चािहए । इस प्रकार हो समाप्त कर जल में इष्ट देवता का तपणग
करें ॥२०१ -२०२॥

अब तपगण अिभषेक एवं ब्राह्मण भोजन की िविध कहते हैं - जल में देवता का आवाहन कर होम संख्या का दिांि तपगण तपगण
का दिांि माजगन (अिभषेक ) करना चािहए । मूलमन्त्त्र के बाद िद्वतीयान्त्त देव नाम , तदनन्त्तर ‘तपगयािम नमेः ’ लगाकर
तपगण करना चािहए । इसी प्रकर अिभषेक में मूलमन्त्त्र के बाद िद्वतीयान्त्त देव नाम लगाकर अन्त्त में ‘ऋिष िसञ्चािम ’ लगाकर
अिभषेक करना चािहए ॥२०३ -२०४॥

िवमिग - फकसी भी अनुष्ठान में साधक को चािहए फक वह मन्त्त्र की जप संख्या िजतनी हो उसके दसवें िहस्से से अथागत् दस
माला का दसवाूँ िहस्सा एक माला से हवन करे और हवन के दसवें से तपगण करे तथा दसवें िहस्से से माजगन (अिभषेक ) करे
और उसके दसवें िहस्से से ब्राह्मण भोजन की संख्या िनिश्चत करे । जैसे गणपित मन्त्त्र के एक लाख जप के पुरश्चरण में हवन की
संख्या दस हजार और तपगण की संख्या एक हजार एवं अिभषेक की संख्या एक सौ तथा ब्राह्मण भोजन की संख्या दस होनी
चािहए ।

तपगण िविध - तपगण करते समय साधक मूलमन्त्त्र के बाद देवता क िद्वतीयान्त्त नाम तथा अन्त्त में ‘तपगयािम नमेः ’ कहते हुए
तपगण करे । जैसे उिच्छष्ट गणपित के मन्त्त्र में तपगण इस प्रकार होगा - ‘ॎ हिस्त िपिािच िलखे स्वहा उिच्छष्टगणपतत
तपगयािम नमेः । ’
अिभषेक िविध - अिभषेक करते समय साधक मूलमन्त्त्र के बाद देवता का िद्वतीयान्त्त नाम तथा अन्त्त में ‘अिभिषञ्चािम कहते
हुए अिभषेक करे । जैसे उिच्छष्ट गणपित मन्त्त्र के पुरश्चरण में अिभषेक इस प्रकार होगा - ‘ॎ हिस्त िपिािच िलखे स्वाहा
उिच्छष्ट गणपितिभिषञ्चािम ’ ॥२०३ -२०४॥

तदनन्त्तर िविवध प्रकार के पक्वान्नों आफद से श्रेष्ठ ब्राह्मणों को भोजन कराना चािहए । अपने इष्टदेव के रुप में आगत उ ब्राह्मणों
का पूजन कर उन्त्हें दिक्षणा देनी चािहए लयोंफक ब्राह्मणों की आराधना से अनुष्ठान में होने वाली न्त्यूनता दूर हो जाता है ।
इससे देवता प्रसन्न हो जाते हैं तथा अपने सभी मनोरथों की िसिि हो जाती है ॥२०४ -२०६॥

िद्वतीय तरङ्ग
अररत्र
अब गणेि जी के सवागभीष्ट प्रदायक मन्त्त्रों को कहता हूँ - जल (व) तदनन्त्तर विहन (र) के सिहत चिी (क) (अथागत् ि् ),
कणेन्त्द ु के साध कािमका (तुं), दीघग से युक्तदारक (ड) एवं वायु (य) तथा अन्त्त में कवच (हुम्) इस प्रकार ६ अक्षरों वाला यह
गणपित मन्त्त्र साधकों को िसिि प्रदान करता है ॥१-२॥

िवमिग - इस षडक्षर मन्त्त्र स्वरुप इस प्रकार है - ‘वितुण्डाय हुम्’ ॥१-२॥

अब इस मन्त्त का िविनयोग कहते हैं - इस मन्त्त्र के भागगव ऋिष हैं, अनुष्टुप् छन्त्द है, िवघ्नेि देवता हैं, वं बीज है तथा यं ििक्त
है ॥३॥

िवमिग - िविनयोग का स्वरुप इस प्रकार है - अस्य श्रीगणेिमन्त्त्रस्य भागगव ऋिष - रनुष्टुप


ं ् छन्त्देः िवघ्नेिो देवता वं बीजं यं
ििक्तरात्मनोऽभीष्टिसिथे जपे िविनयोगेः ॥३॥

अब इस मन्त्त्र के षडङ्ग्न्त्यास की िविध कहते हैं -


उपयुगक्त षडक्षर मन्त्त्रों के ऊपर अनुस्वार लगा कर प्रथम प्रणव तथा अन्त्त में नमेः पद लगा कर षडङ्गन्त्यास करना चािहए
॥४॥

िवमिग - कराङ्गन्त्यास एवं षडङ्गन्त्यास की िविध -


ॎ वं नमेः अङ्गुष्ठाभ्यां नमेः,ॎ िं नमेः तजगनीभ्यां नमेः,
ॎ तुं नमेः मध्यमाभ्यां नमेः,ॎ डां नमेः अनािमकाभ्यां नमेः,
ॎ यं नमेः किनिष्ठकाभ्यां नमेः,ॎ हुूँ नमेः करतलकरपृष्ठाभ्यां नमेः,
इसी प्रकार उपयुगक्त िविध से हृदय, ििर, ििखा, कवच, नेत्रत्रय एवं ‘अस्त्राय िट्से षडङ्गन्त्यास करना चािहए ॥४॥

अब इसी मन्त्त्र से सवागङ्गन्त्यास कहते हैं - भ्रूमध्य, कण्ठ, हृदय, नािभ, िलङ्ग एवं पैरों में भी िमिेः इन्त्हीं मन्त्त्राक्षरों का
न्त्यास कर संपूणग मन्त्त्र का पूरे िरीर में न्त्यास करना चािहए, तदनन्त्तर गणेि प्रभु का ध्यान करना चािहए ॥५॥

िवमिग - प्रयोग िविध इस प्रकार है -


ॎ वं नमेः भ्रूमध्ये, ॎ िं नमेः कण्ठे , ॎ तुं नमेः हृदये, ॎ डां नम्ह नाभौ,
ॎ यं नमेः िलङ्गे, ॎ हुम् नमेः पादयोेः, ॎ वितुण्डाय हुम् सवागङ्गे ॥५॥

अब महाप्रभु गणेि का ध्यान कहते हैं -


िजनका अङ्ग प्रत्यङ्ग उदीयमान सूयग के समान रक्त वणग का है, जो अपने बायें हाथों में पाि एवं अभयमुरा तथा दािहने
हाथों में वरदमुरा एवं अंकुि धारण फकये हुये हैं, समस्त दुेःखों को दूर करने वाले, रक्तवस्त्र धारी, प्रसन्न मुख तथा समस्त
भूषणॊं से भूिषत होने के कारण मनोहर प्रतीत वाल गजानन गणेि का ध्यान करना चािहए ॥६॥

अब इस इस मन्त्त्र से पुरश्चरण िविध कहते हैं -


पुरश्चरण कायग में इस मन्त्त्र का ६ लाख जप करना चािहए । इस (छेःलाख) की दिांि संख्या (साठ हजार) से अष्टरव्यों का
होम करना चािहए । तदनन्त्तर मन्त्त्र के िल प्रािप्त के िलए संस्कार-िुि ब्राह्मणों को भोजन कराना चािहये ॥७॥

१. ईख, २. सत्तू, ३. के ला, ४. चपेटान्न (िचउडा), ५. ितल, ६. मोदक, ७. नाररके ल और, ८ . धान का लावा - ये अष्टरव्य
कहे गये हैं ॥८॥

अब पीठपूजािवधान करते हैं -


आधारििक्त से आरम्भ कर परतत्त्व पयगन्त्त पीठ की पूजा करनी चािहए । उस पर आठ फदिाओं में एवं मध्य में ििक्तयों की
पूजा करनी चािहए ॥९॥

१. तीव्रा, २. चािलनी, ३. नन्त्दा, ४. भोगदा, ५. कामरुिपणी, ६. उग्रा, ७. तेजोवती, ८. सत्या एवं ९. िवघ्ननाििनी - ये
गणेि मन्त्त्र की नव ििक्तयों के नाम हैं ॥१०-११॥

प्रारम्भ में गणपित का बीज (गं) लगा कर ‘सवगििक्तकम’ तदनन्त्तर ‘लासनाय’ और अन्त्त में हृत् (नमेः) लगाने से पीठ मन्त्त्र
बनता है । इस मन्त्त्र से आसन देकर मूलमन्त्त्र से गणेिमूर्णत की कल्पना करनी चािहए ॥११-१२॥

िवमिग - मन्त्त्र का स्वरुप इस प्रकार है - ‘गं सवगििक्तकमलासनाय नमेः’ ॥११-१२॥

उस मूर्णत में गणेि जी का आवाहन कर आसनाफद प्रदान कर पुष्पाफद से उनका पूजन कर आवरण देवताओं की पूजा करनी
चािहए ॥१३॥

गणेि का पञ्चावरण पूजा िवधान - प्रथमावरण की पूजा में िवद्वान् साधक आिेय कोणों (आिेय, नैऋत्य, वायव्य, ईिान) में
‘गां हृदयाय नमेः’ गीं ििरसे स्वाहा’, ‘गूं ििखायै वषट् ’, ‘गैं कवचाय हुम्’ तदनन्त्तर मध्य में ‘गौं नेत्रत्रयाय वौषट्तथा चारों
फदिाओं में ‘अस्त्राय िट् ’ इन मन्त्त्रों से षडङ्गपूजा करे ॥१४॥

िद्वतीयावरण में पूवग आफद फदिाओं में आठ ििक्तयों का पूजन करना चािहए । िवद्या, िवधात्री, भोगदा, िवघ्नघाितनी,
िनिधप्रदीपा, पापघ्नी, पुण्या एवं िििप्रभा - ये गणपित की आठ ििक्तयाूँ हैं ॥१५-१६॥

तृतीयावरण में अष्टदल के अग्रभाग में वितुण्ड, एकदंष्ट्र, महोदर, गजास्य, लम्बोदर, िवकट, िवघ्नराज एवं धूम्रवणग का पूजन
करना चािहए । फिर चतुथागवर में अष्टदल के अग्रभाग में इन्त्राफद देव तथा पञ्चावरण में उनके वज्र आफद आयुधों का पूजन
करना चािहए । इस प्रकार पाूँच आवरणों के साथ गणेि जी का पूजन चािहए । मन्त्त्र िसिि के िलए पुरश्चरण के पूवग पूवोक्त
पञ्चावरण की पूजा आवश्यक है ॥१५-१८॥

िवमिग - प्रयोग िविध - पीठपूजा करने के बाद उस पर िनम्निलिखत मन्त्त्रों से गणेिमन्त्त्र की नौ ििक्तयों का पूजन करना
चािहए ।
पूवग आफद आठ फदिाओं में यथा -
ॎ तीव्रायै नमेः,ॎ चािलन्त्यै नमेः,ॎ नन्त्दायै नमेः,
ॎ भोगदायै नमेः,ॎ कामरुिपण्यै नमेः,ॎ उग्रायै नमेः,
ॎ तेजोवत्यै नमेः, ॎ सत्यायै नमेः,
इस प्रकार आठ फदिाओं में पूजन कर मध्य में ‘िवघ्ननाििन्त्यै नमेः’ फिर ‘ॎ सवगििक्तकमलासनाय नमेः’ मन्त्त्र से आसन देकर
मूल मन्त्त्र से गणेिजी की मूर्णत की कल्पना कर तथा उसमें गणेिजी का आवाहन कर पाद्य एवं अध्यग आफद समस्य उपचारों से
उनका पूजन कर आवरण पूजा करनी चािहए ।
ॎ गां हृदाय नमेः आिेय,े ॎ गीं ििरसे स्वाहा नैऋत्ये,
ॎ गूं ििखायै वषट् वायव्ये,ॎ गैं कवचाय हुम् ऐिान्त्ये,
ॎ गौं नेत्रत्रयाय वौषट् अग्रे,ॎॎ गेः अस्त्राय िट् चतुर्ददक्षु ।
इन मन्त्त्रों से षडङ्पूजा कर पुष्पाञ्जिल लेकर मूल मन्त्त्र का उिारण कर ‘अभीष्टिसति मे देिह िरणागतवत्सले । भक्तयो
समपगये तुभ्यं प्रथमावरणाचगनम् ’ कह कर पुष्पाञ्जिल समर्णपत करे । फिर -
ॎ िवद्यायै नम्ह पूवे,ॎ िवधात्र्यै नमेः आिेय,े
ॎ भोगदायै नमेः दिक्षणे,ॎ िवघ्नघाितन्त्यै नमेः नैऋत्यै,
ॎ िनिध प्रदीपायै नमेः पिश्चमे,ॎ पापघ्नन्त्यै नमेः वायव्ये,
ॎ पुण्यायै नमेः सौम्ये,ॎ िििप्रभायै नमेः ऐिान्त्ये
इन ििक्तयों का पूवागफद आठ फदिाओं में िमेण पूजन करना चािहए । फिर पूवोक्त मूल मन्त्त्र के साथ ‘अभीष्टिसति मे देिह... से
िद्वतीयावरणाचगनम् ’ पयगन्त्त मन्त्त्र बोल कर पुष्पाञ्जिल समर्णपत करनी चािहए । तदनन्त्तर अष्टदल कमल में -
ॎ वितुण्डाय नमेः,ॎ एकदंष्ट्राय नमेः,ॎ महोदरय नमेः,
ॎ गजास्याय नमेः,ॎ लम्बोदराय नमेः,ॎ िवकटाय नमेः,
ॎ िवघ्नराजाय नमेः, ॎ धूम्रवणागय नमेः
इन मन्त्त्रों से वितुण्ड आफद का पूजन कर मूलमन्त्त्र के साथ ‘अिभष्टिसति मे देिह ... से तृतीयावरणाचगनम् ’ पयगन्त्त मन्त्त्र पढ
कर तृतीय पुष्पाञ्जिल समर्णपत करनी चािहए ।
तत्पश्चात् अष्टदल के अग्रभाग में - ॎ इन्त्राय नमेः पूवे,
ॎ अिये नमेः आिये,ॎ यमाय नमेः दिक्षने,ॎ िनऋतये नमेः नैऋत्ये,
ॎ वरुणाय नमेः पिश्चमे,ॎ वायवे नमेः वायव्य,ॎ सोमाय नमेः उत्तरे ,
ॎ ईिानाय नमेः ऐिान्त्ये,ॎ ब्रह्मणे नमेः आकािे,ॎ अनन्त्ताय नमेः पाताले
इन मन्त्त्रों से दि फदलपालोम की पूजा कर मूल मन्त्त्र पढते हुए ‘अिभष्टिसति...से चतुथागवरणाचगनम् ’ पयगन्त्त मन्त्त्र पढ कर
चतुथगपुष्पाञ्जिल समर्णपत करे ।
तदनन्त्तर अष्टदल के अग्रभाग के अन्त्त में
ॎ वज्राय नमेः,ॎ िक्तये नमेः,ॎ दण्डाय नमेः,
ॎ ख‍गाय नमेः,ॎ पािाय नमेः,ॎ अंकुिाय नमेः,
ॎ गदायै नमेः,ॎ ित्रिूलाय नमेः, ॎ चिाय नमेः,ॎ पद्माय नमेः
इन मन्त्त्रों से दिफदलपालों के वज्राफद आयुधों की पूजा कर मूलमन्त्त्र के साथ‘ अभीष्टिसति... से ले कर पञ्चमावरणाचगनम् ’
पयगन्त्त मन्त्त्र पढ कर पञ्चम पुष्पाञ्जिल समर्णपत करनी चािहए । इसके पश्चात् २.७ श्लोक में कही गई िविध के अनुसार ६ लाख
जप, दिांि हवन, दिांि अिभषेक, दिांि ब्राह्मण भोजन कराने से पुरश्चरण पूणग होता है और मन्त्त्र की िसिि हो जाती है
॥१५-१८॥
इस बाद मन्त्त्र िसिि हो जाने काम्य प्रयोग करना चािहए - यफद साधक ब्रह्मचयग व्रत का पालन करते हुये प्रितफदन १२ हजार
मन्त्त्रों का जप करे तो ६ महीने के भीतर िनिश्चतरुप से उसकी दरररता िवनष्ट हो सकती है । एक चतुथी से दूसरी चतुथी तक
प्रितफदन दि हजार जप करे और एकाग्रिचत्त हो प्रितफदन एक सौ आठ आहुित देता रहे तो भिक्तपूवगक ऐसा करते रहने से ६
मास के भीतर पूवोक्त िल (दरररता का िवनाि) प्राप्त हो
जाता है ॥१९-२१॥
घृत िमिश्रत अन्न की आहुितयाूँ देने से मनुष्य धन धान्त्य से समृि हो जाता है । िचउडा अथवा नाररके ल अथवा मररच से
प्रितफदन एक हजार आहुित देन ए से एक मिहने के भीतर बहुत बडी समित्त होती है । जीरा, सेंधा नमक एवं काली िमचग से
िमिश्रत अष्टरव्यों से प्रितफदन एक हजार आहुित देने से व्यिक्त एक ही पक्ष (१५ फदनों) में कु बेर के समान धनवान् है । इतना
ही नहीं प्रितफदन मूलमन्त्त्र से ४४४ बार तपगण करने से मनुष्यों को मनो वािछछत िल की प्रािप्त हो जाती है ॥२२-२५॥

अब साधकों के िलए िनिधप्रदान करने वाले अन्त्य मन्त्त्र को बतला रहा हूँ ॥२५॥
‘रायस्पोष’ िब्द के आगे भृगु (स) जो ‘य’ से युक्त हो (अथागत स्य), फिर ‘दफदता’, पश्चात इकार युक्त मेष (िन) तथा इकार युक्त
ध (िध) (िनिध), तत्पश्चात् ‘दो रत्नधातुमान् रक्षो’ तदनन्त्तर गगन (ह), सद्य (ओ) से युक्त रित (ण) (अथागत् हणो), फिर ‘बल’
तथा िाङ्गी (ग)खं(ह), तदनन्त्तर ‘नो’ फिर अन्त्त में षडक्षर मन्त्त्र (वितुण्डाय हुम्) लगाने से ३१ अक्षरों का मन्त्त्र बन जाता
है, जो मनोवािछछत िल प्रदान करता है ॥२६-२७॥

िवमिग - मन्त्त्र का स्वरुप इस प्रकार है - ‘रायस्पोषस्य दफदता िनिधदो रत्नधातुमान् रक्षोहणो बलगहनो वितुण्डाय हुम् ॥२६-
२७॥

इस मन्त्त्र के िमिेः ५, ३, ८, ४, ५, एवं षडक्षरों से षडङ्गन्त्यास कहा गया है । इसके ऋिष, छन्त्द, देवता, तथा पूजन का
प्रकार पूवगवत है; यह मन्त्त्र िनिध प्रदान करता है ॥१८-२९॥

िवमिग - िविनयोग की िविध - अस्य श्रीगणेिमन्त्त्रस्य भागगवऋिषेः अनुष्टुप्छन्त्देः गणेिो देवता वं बीजं यं ििक्तेः अभीष्टिसिये
जपे िविनयोगेः ।
ऋष्याफदन्त्यास की िविध - भागगवऋषये नमेः ििरिस, अनुष्टुप्छन्त्दसे नमेः मुखे, गणेिदेवतायै नमेः हृफद, वं बीजाय नमेः गुह्य,े
यं िक्तये नमेः पादयोेः ।
करन्त्यास एवं षडङ्गन्त्यास की िविध - रायस्पोषस्य अङ्गुष्ठाभ्यां नमेः, दफदता तजगनीभ्या नमेः, िनिधदो रत्नधातुमान्
मध्यमाभ्यां नमेः, रक्षोहणो अनािमकाभ्यं नमेः, बलगहनो किनिष्ठकाभ्यां नमेः, वितुण्डाय हुं करतलपृष्ठाभ्यां नमेः, इसी
प्रकार हृदयाफद स्थानों में षडङ्गन्त्यास करना चािहए ।
तदनन्त्तर पूवोक्त - २. ६ श्लोक द्वारा ध्यान करना चािहए ।
इस मन्त्त्र की भी जपसंख्या ६ लाख है । िनत्याचगन एवं हवन िविध पूवगवत् (२७.१९) िविध से करना चािहए ॥१८-२९॥

गणेि जी का अन्त्य षडक्षर मन्त्त्र इस प्रकार है -


पद्मनाभ (ए) से युक्त भानु म (मे), सद्य (ओ) के सिहत घ (घो), दीघग आकार के सिहत ल् और ककार (ल्का) फिर वायु (य)
और अन्त्त में पावकगेिहनी (स्वाहा) लगाने से िनष्पन्न होता है यह षडक्षर मन्त्त्र साधक के िलए सवागभीष्टप्रदाता कहा गया है ।
पुरश्चरण, अघग तथा होमाफद का िवधान पूवगवत् (२. ७-२०) है ॥२९-३१॥

िवमिग - इस षडक्षर मन्त्त्र का स्वरुप इस प्रकर है - ‘मेघोल्काय स्वाहा’ ॥३१॥

अब उिच्छष्ट गणपित मन्त्त्र का उिार कहते हैं - लकु ली (ह) ‘इ’ के साथ भृगु (स) एवं त अथागत् ‘िस्त’ सदृक ‘इ’ के सिहत
लोिहत ‘प’ अथागत् िप, दीघग के सिहत वक (ि) अथागत् ‘िा’ सािक्ष ‘इ’ से युक्त च (िच), फिर िलखे अन्त्त में ििर (स्वाहा)
लगाने से नवाक्षर िनष्पन्न होता है ॥३१-३२॥

िवमिग - मन्त्त्र का स्वरुप - ‘ॎ हिस्त िपिािच िलखे स्वाहा’ ॥३१-३२॥


इस मन्त्त्र के कङ्कोल ऋिष िवराट्छन्त्द उिच्छष्ट गणपित देवता कहे गये हैं । मन्त्त्र के दो, तीन दो, दो अक्षरोम से न्त्यास के
पश्चात् सम्पूणग मन्त्त्र से पञ्चाङ्गन्त्यास करना चािहए तदनन्त्तर उिच्छष्ट गणपित की पूजा करनी चािहए ॥३२-३४॥

िविनयोग - अस्योिच्छष्टगणपितमन्त्त्रस्य कङ्कोल ऋिषर्णवराट्छन्त्देः उिच्छष्टगणपितदेवता सवागभीष्टिसियथे जपे िविनयोगेः ।


पञ्चाङ्गन्त्यास - यथा - ॎ हिस्त हृदया नमेः, ॎ िपिाचेइ ििरसे स्वाहा, ॎ िलखे ििखायै वौषट् , ॎ स्वाहा कवचाय हुम्,
ॎ हिस्त िपिािच िलखे स्वाहा अस्त्राय िट् ॥३१-३४॥

पञ्चाङ्गन्त्यास करने के बाद उिच्छष्ट गणपित का ध्यान इस प्रकार करना चािहए - मस्तक पर चन्त्रमा को धारण करने वाले
चार भुजाओं एवं तीन नेत्रों वाले महागणपित का मैं ध्यान करता हूँ । िजनके िरीर का वणग रक्त है, जो कमलदल पर
िवराजमान हैं, िजनके दािहने हाथों में अङ्कु ि एवं मोदक पात्र तथा बायें हाथ में पाि एवं दन्त्त िोिभत हो रहे हैं, मैं इस
प्रकार के उन्त्मत्त उिच्छष्ट गणपित भगवान् का ध्यान करता हूँ ॥३४॥

अब उिच्छष्ट गणपित मन्त्त्र की पुरश्चरण िविध कहते हैं - इस मन्त्त्र का एक लाख जप करना चािहए, तदनन्त्तर ितलों से उसका
दिांि होम करना चािहए । पूवोक्त (२.६.२०) िवधान से पीठ पर उिच्छष्ट गणपित का पूजन करना चािहए ॥३५॥

सवगप्रथम अङ्गों का पूजन कर आठों फदिाओं में ब्राह्यी से ले कर रमा पयगन्त्त अष्टमातृकाओं का पूजन करना चािहए । ब्राह्यी,
माहेश्वरी, कौमारी, वैष्णवी, वाराही, इन्त्राणी, चामुण्डा एवं रमा ये आठ मातृकायें है । पुनेः दिफदिओं में वितुण्ड, एकदंष्ट्र,
लम्बोदर, िवकट, धूम्रवणग, िवघ्न, गजानन, िवनायक, गणपित एवं हिस्तदन्त्त का पूजन करना चािहए, तदनन्त्तर दो आवरणों
में इन्त्राफद दि फदलपालों का पूजन करना चािहए । इस प्रकार पुरश्चरण द्वारा मन्त्त्र िसि हो जाने पर साधक में कम्य - प्रयोग
की योग्यता हो जाती है ॥३६-४०॥

िवमिग - ३५ श्लोक में कहे गये पीठ पूजा के िलए आधारििक्त पूजा, मूल मन्त्त्र से देवता की मूर्णत की कल्पना, ध्यान, तदनन्त्तर
आवाहनाफद िविध २.९१८ के अनुसार करनी चािहए ।
पूवग आफद आठ फदिाओं में अष्टमातृका पूजा िविध
ॎ ब्राहम्यै नमेः,ॎ माहेश्वयै नमेःॎ क् ॎआयै नमेः,
ॎ वैष्णवै नमेः,ॎ वाराह्यै नमेः,ॎ इन्त्राण्यै नमेः,
ॎ चमुण्डायै नमेः,ॎ महालक्ष्म्यै नमेः ।

पुन पूवागफद दि फदिाओं में - ॎ वितुण्डाय नमेः,ॎ एकदंष्ट्राय नमेः,


ॎ लम्बोदराय नमेः,ॎ िवकटाय नमेः,ॎ धूम्रवणागय नमेः,
ॎ िवघ्नाय नमेः,ॎ गजाननाय नमेः,ॎ िवनायकाय नमेः,
ॎ गणपतये नमेः,ॎ हिस्तदन्त्ताय नमेः

इन मन्त्त्रों से दि फदग्दलों में पुनेः उसके बाहर इन्त्राफद दि फदलपालों तथा उनके आयुधों का पूजन करना चािहए (र० २.
१७-१८) । इस इस प्रकार उक्त िविध से मन्त्त्र िसि हो जाने पर साधक में िविवध काम्य प्रयोग करने की क्षमता आ जाती है
॥३६-४०॥

अब काम्य प्रयोग का िवधान करते हैं - साधक किप (रक्त चन्त्दन) अथवा िसतभानु (श्वेत अकग ) की अपने अङ्गुष्ठ मात्र
पररमाण वाली गणेि की प्रितमा का िनमागण करे । जो मनोहर एवं उत्तम लक्षणों से युक्त हो तदनन्त्तर िविधपूवगक उसकी
प्राणप्रितष्ठा कर उसे मधुसे स्नान करावे ॥४०-४१॥

कृ ष्ण पक्ष की चतुदि


ग ी से िुललपक्ष की चतुदि
ग ी पयगन्त्त गुड सिहत पायस का नैवेद्य लगा कर इस मन्त्त्र का जप करे ॥४२॥

यह फिया प्रितफदन एकान्त्त में उिच्छष्ट मुख एवं वस्त्र रिहत हो कर, ‘मैं स्वयं गणेि हूँ’ इस भावना के साथ करे । घी एवं ितल
की आहुित प्रितफदन एक हजार की संख्या में देता रहे तो इस प्रयोग के प्रभाव से पन्त्रह फदन के भीतर प्रयोगकताग व्यिक्त
अथवा राजकु ल में उत्पन्न हुआ व्यिक्त राज्य प्राप्त कर लेता है । इसी प्रकार कु म्हार के चाक की िमट्टी की गणेि प्रितमा बना
कर पूजन तथा हवन करने से राज्य अथवा नाना प्रकार की संपित्त की प्रािप्त होती है ॥४३-४४॥

बॉबी की िमट्टी की प्रितमा में उक्त िविध से पूजन एवं होम करने से अिभलिषत िसिि होती है; गौडी (गुड िनर्णमत) प्रितमा में
ऐसा करने से सौभाग्य की प्रािप्त होती है, तथा लावणी प्रितमा ित्रुओं को िवपित्त से ग्रस्त करती है ॥४५॥

िनम्बिनर्णमत प्रितमा में उक्त िविध से पूजन जप एवं होम करने से ित्रु का िवनाि होता है, और मधुिमिश्रत लाजा का होम
सारे जगत् को वि में करने वाला होता है ॥४६॥

िय्या पर सोये हुये उिच्छष्टावस्था में जप करने से ित्रु वि में हो जाते हैं । कटुतैल में िमले राजी पुष्पों के हवन से ित्रुओं में
िवद्वेष होता है ॥४७॥

द्युत, िववाद एवं युि की िस्थित में इस मन्त्त्र का जप जयप्रद होता है । इस मन्त्त्र के जप के प्रभाव से कु बेर नौ िनिधयों के
स्वामी हो गये। इतना ही नहीं, िवभीषण और सुग्रीव को इस मन्त्त्र का जप करने से राज्य की प्रािप्त हो गई । लाल वस्त्र धारण
कर लाल अङ्गराग लगा कर तथा ताम्बूल चवगण हुए राित्र के समय उक्त मन्त्त्र का जप करना चािहए ॥४८-४९॥

अथवा गणेि जी को िनवेफदत लड् डू का भोजन करते हुए इस मन्त्त्र का जप करना चािहए और मांस अथवा िलाफद फकसी
वस्तु की बिल देनी चािहए ॥५०॥

अब बिल के मन्त्त्र का उिार कहते हैं - सानुस्वार स्मृित (गं), इन्त्दस


ु िहत आकाि (हं), अनुस्वार एवं औकार युक्त ककार लकार
(ललौं), उसी प्रकार गकार लकार (ग्लौं), तदनन्त्तर ‘उिच्छष्टग’ फिर एकार युक्त ण (णे), फिर ‘िाय’ पद, फिर ‘महायक्षाया’
तदननत्र (यं) और अन्त्त में ‘बिलेः’ लगाने से १९ अक्षरों का बिलदान मन्त्त्र बनता है ।

िवमिग - मन्त्त्र का स्वरुप इस प्रकार है - गं हं ललौं ग्लौं उिच्छष्टगणेिाय महायक्षायायं बिलेः ॥५१-५२॥

अब उिच्छष्ट गणपित का अन्त्य मन्त्त्र कहते हैं - रुव (ॎ), माया (ह्रीं) तथा अनुस्वार युक्त िार्णङगेः (गं) ये तीन बीजाक्षर
नवाणगमन्त्त्र के पूवग जोड देने से द्वादिाक्षर मन्त्त्र बन जाता हैं, इसका िविनयोग न्त्यास ध्यान आफद नवाणगमन्त्त्र के समान ही
समझना चािहए (र० २. ३२-३९) ।

िवमिग - द्वादिाक्षर मन्त्त्र का स्वरुप इस प्रकार है - ॎ ह्रीं गं हिस्तिपिािच िलखे स्वाहा ॥५३॥
आफद में तार (ॎ) इसके पश्चात् नवणगमन्त्त्र लगा देने से, अथवा गं इसके पश्चात् नवाणग मन्त्त्र लगा देने से दो प्रकार का
दिाक्षर गणपित का मन्त्त्र िनष्पन्न होता है - उक्त दोनों मन्त्त्रों में भी नवाणग मन्त्त्र की तरह िविनयोग न्त्यास तथा ध्यान का
िवधान कहा गया है ॥५४॥

िवमिग - दिाक्षर मन्त्त्र - (१) ॎ हिस्तिपििचिलखे स्वाहा


(२) गं हिस्तिपििचिलखे स्वाहा ॥५४॥
अव एकोनतविाक्षर मन्त्त्र का उिार करते हैं - रुव (ॎ), हृद् (नमेः), फिर ‘उिच्छष्ट गणेिाय’ तदनन्त्तर नवाणगमन्त्त्र (२.३१)
लगा देने से उन्नीस अक्षरों का मन्त्त्र बनता है । इसके भी ऋिष, छन्त्द देवता आफद पूवोक्त नवाणगमन्त्त्र के समाह हैं ॥५५॥

िवमिग - इस मन्त्त्र का स्वरुप इस प्रकार है - ‘ॎ नमेः उिच्छष्टगणेिाय हिस्तिपिािच िलखे स्वाहा’ ॥५५॥
मन्त्त्र के ३, ७, २, ३, २ एवं २ अक्षरों से षडङ्गन्त्यास एवं अङ्गपूजा पूवगवत् करनी चािहए ॥५६॥

िवमिग - िविनयोग - ॎ अस्योिच्छष्टगणपितमन्त्त्रस्य कङ्कोलऋिषेः िवराट्छन्त्देः उिच्छष्टगणपितदेवता आत्मनेः


अभीष्टिसियथे उिच्छष्टगणपित मन्त्त्र जपे िविनयोगेः ।
षडङ्गन्त्यासेः -ॎ नमेः हृदयाय नमेः,ॎ उिच्छष्टगणेिाय ििरसे स्वाहा,
ॎ हिस्त ििखाय नमेः,ॎ िपिािच कवचाय हुम्,
ॎ िलखे नेत्रत्रयाय वौषट् ,ॎ स्वाहा अस्त्राय िट् ।
ध्यान - चतुभुगज रक्ततनुिमत्याफद .......... (र० २. ३४) ॥५६॥

अब अक्षरों का उिच्छष्ट गणपित का मन्त्त्र कहते हैं - तार (ॎ), तदनन्त्तर ‘ फिर िझण्टीि (ए), चतुरानन (क), फिर
‘दंष्ट्राहिस्तमु’ फिर ‘खाय’ ‘लम्बोदराय’ फिर ‘उिच्छष्टम’ तदनन्त्तर दीघगिवयत् (हा), फिर ‘त्मने’ पाि (आ), अङ्कु ि (िौं), परा
(ह्री) सेन्त्दि
ु ाङ्गीं (गं) भगसिहत िद्वमेघ (घ घे) इसके अन्त्त में विहनकािमनी (स्वाहा) लगाने से ३७ अक्षरों का मन्त्त्र िनष्पन्न
हो जाता है ॥५७-५८॥

इस मन्त्त्र के गणक ऋिषेः गायत्री छन्त्द एवं उिच्छष्ट गणपित देवता हैं । उिच्छष्टमुख से ही इनके जप का िवधान है । मन्त्त्र के
यथािम ७, १०, ५, ७, ४ एवं ४ अक्षरों से षडङ्गन्त्यास एवं अङ्गपूजा करनी चािहए ॥५९-६०॥

िवमिग - सैंितस अक्षरों के मन्त्त्र का स्वरुप इस प्रकार है - ॎ नमो भगवते एकदंष्ट्राय हिस्तमुखाय लम्बोदराय
उिच्छष्टमहात्मने आूँ िौं ह्रीं गं घे घे स्वाहा ।
िविनयोग - अस्योिच्छष्टगणपित मन्त्त्रस्य गणकऋिषगागयत्रीच्छन्त्देः उिच्छष्टगणपितदेवता आत्मनोऽभीष्टिसिये
उिच्छष्टगणपितमन्त्त्रजपे िविनयोगेः ।
ध्यान - उिच्छष्टगणपित का ध्यान आगे के श्लोक २. ६१ में देिखए ।
षडङ्गन्त्यास - ॎ नमो हृदयाय नमेः ॎ एकदंष्ट्राय हिस्तमुखाय ििरसे स्वाहा,
ॎ लम्बोदराय ििखायै वषट् ॎ उिच्छष्टमहात्मने कवचाय हुम्,
ॎ आूँ ह्रीं िौं गं नेत्रत्रयाय वौषट् ,ॎ घे घे स्वाहा अत्राय िट् ॥५७-६०॥

अब इस मन्त्त्र के पुरश्चरण के िलए ध्यान कह रहे हैं - बायें हाथों में धनुष एवं पाि, दािहने हाथों में िर एवं अङ् कु ि धारण
फकए हुए लाल कमल पर आसीन िववस्त्रा अपनी पत्नी संभोग में िनरत पावगती पुत्र उिच्छष्टगणपित का मैम आश्रय लेता हूँ
॥६१॥

अब इस मन्त्त्र से पुरश्चरणिविध कहते हैं - साधक अपनी अभीष्ट िसिि के िलए पूवोक्त पीठ पर उपयुगक्त िविध से पूजन कर
उक्त मन्त्त्र का एक लाख जप करे । फिर घी द्वारा उसका दिांि हवन करे ॥६२॥

कृ ष्ण पक्ष की अष्टमी से ले कर चतुदि


ग ी पयगन्त्त प्रितफदन आठ हजार पॉच सौ की संख्या में जप, इसका दिांि (८५० की संख्या
में) होम तथ उसका दिांि (८५ बार) से तपगण करना चािहए । ऐसा करने से यह मन्त्त्र िसिि प्रदान करता है, इतना ही नहीं
धन धान्त्य, पुत्र, पौत्र, सौभग्य एवं सुयि भी प्राप्त होता है ॥६३-६४॥

िुभ मुहतग में नीम की लकडी से गणेि जे की मूर्णत का िनमागण करना चािहए; तदनन्त्तर प्राण प्रितिष्ठत कर उसी मूर्णत के आगे
जप करना चािहए ॥६५॥

िजसका ध्यान कर जप फकया जात वै वह भी िनिश्चत रुप से वि में हो जाता है । इतना ही नहीं, नदी का जल ले कर २७ बार
इस से उसे अिभमिन्त्त्रत कर उस जले से मुख प्रक्षालन कर राजसभा में जाने पर साधक इस मन्त्त्र के प्रभाव से िजसे देखता है
या जो उसे देखता है वह तत्काल वि में हो जाता है ॥६६-६७॥

राजाओं को अथवा रामकमगचाररयों को अपने वि में करने के िलए उक्त मन्त्त्र के द्वारा चार हजार की संख्या में धतूरे का पुष्प
श्री गणेि जी को समर्णपत करना चािहए ॥६८॥

सुन्त्दरी स्त्री के बाएूँ पैर की धूिल ला कर उसे गणेि प्रितमा के नीचे स्थािपत करे , फिर उस स्त्री का ध्यान कर बारह हजार की
संख्या में इस मन्त्त्र का जप करे तो वह दूर रहने पर भी सिन्नकट आ जाती है । सिे द मन्त्दार की लकडी अथवा िनम्ब की
लकडी से गणेि जे की मूर्णत का िनमागण कर उसमें प्राणप्रितष्ठा करे । तदनन्त्तर चतुथी ितिथ को राित्र में लालचन्त्दन एवं लाल
पुष्पों से पूजन करे , तदनन्त्तर एक हजार उक्त मन्त्त्र का जप कर उसी राित्र में उस प्रितमा को फकसी नदी के फकनारे डाल दे तो
गणपित स्वयं साधक के अभीष्ट कायग को स्वप्न में बतला देते है । िनम्बकाष्ठ की लकिडयों की सिमधा से एक हजार उक्त मन्त्त्र
द्वारा आहुितयाूँ देने से ित्रु का उिाटन हो जाता है ॥६८-७२॥

वज्री सिमध द्वारा होम करने से ित्रु यमपुर चला जाता है वानर की हड्डी पर जप करने से उस हड्डी को िजसके घर में िें क
फदया जाता है उस घर में उिाटन हो जाता है ॥७३॥

यफद मनुष्य की हड्डी पर जप कर कन्त्या के घर में उसे िें क देवे तो वह कन्त्या उसे सुलभ हो जाती है । कु म्हार के चाक की िमट्टी
को स्त्री के बायें पैर की धूिल से िमला कर पुतला बनावे । फिर उसके हृदय पर प्राप्तव्य स्त्री का नाम िलखे । तदनन्त्तर उक्त
मन्त्त्र का जप कर उस पुतले को नीम की लकडी के साथ भूिम में गाड देवे तो वह स्त्री तत्काल उन्त्मत्त हो जाती है । फिर उस
पुतले को जमीन से िनकालने पर प्रकृ ितस्थ हो स्वस्थ हो जाती है । इसी प्रकार ित्रु का पुतला बना कर उसे लिुन के साथ
फकसी िमट्टी के पात्र में स्थािपत कर भली प्रकार से पूजन करे ॥ फिर ित्रु के दरवाजे पर उसे गाड देवे तो पक्ष फदन (१५ फदन)
में ित्रु का उिाटन हो जाता है ॥७४-७७॥

िवषम पररिस्थित उत्पन्न होने पर सिे द िविधवत् उसका पूजन करे , तदनन्त्तर उसे मद्य पात्र में रख कर जमीन में एक हाथ
नीच गाड कर उसके उपर बैठ कर फदन रात इस मन्त्त्र का जप करे तो एक सप्ताह के भीतर घोर से घोर उपरव नष्ट हो जाते हैं,
ित्रु वि में हो जाते हैं तथा धन संपित्त की अिभवृिि होती है ॥७८-८०॥

दुष्ट स्त्री के बायें पैर की धूल अपने िरीर के मल मूत्र िवष्टा आफद तथा कु म्हार के चाके की िमट्टी इन सबको िमला कर गणेि
जी की प्रितमा िनमागण करे । फिर उसे मद्य-पात्र में रख कर िविधवत पूजन करे । फिर जमीन में एक हाथ नीच गाड कर गड
को भर देवे । फिर उसके ऊपर अिि स्थिपत कर कनेर की पुष्पों की एक हजार आहुित प्रदान करे तो वह दुष्ट स्त्री दासी के
समान हो जाती है । उपरोक्त सारे प्रयोग नवाणग मन्त्त्र से भी फकए जा सकते हैं ॥८१-८४॥

अब २२ अक्षरों वाले गणपित के मन्त्त्र का उिार करते हैं -


तार (ॎ) उसके बाद ‘हिस्तमुखाय’ फिर िमिेः चतुथ्व्यगन्त्त लम्बोदर (लम्बोदराय) फिर ‘उिच्छष्ट’ के बा द चतुथ्व्यगन्त्त ‘माहात्मा’
पद (उिच्छष्टमहात्मने), फिर पाि (आं), अङ्कु ि (िौं), ििवा (ह्रीं), आत्मभूेः (ललीं) माया (ह्रीं), वमग (हुम्) फिर ‘घे घे
उिच्छष्टाय’ तदनन्त्तर दहनाङ्गना (स्वाहा) लगाने से बत्तीस अक्षरों का मन्त्त्र िनष्पन्न होता है ।

इस मन्त्त्र का पूजन आफद पूवोक्त िविध (र० २. ६०) से करना चािहए । मन्त्त्र के ६,५,७,६,६ एवं दो अक्षरों से अङ्गन्त्यास
कहा गया हैं ॥८४-८६॥

िवमिग - इस मन्त्त्र का स्वरुप इस प्रकार है - ॎ हिस्तमुखाय लम्बोदराय उिच्छष्टमहात्मने आं िौं ह्रीं ललीं ह्रीं हं घे हे
उिच्छष्टाय स्वाहा ।

िविनयोग - ‘ॎ अस्योिच्छष्टगणपितमन्त्त्रस्य गणकऋिषेः गायत्रीछन्त्देः उिच्छष्ट गणपितदेवता आत्मनोऽभीष्टिसदयथे जपे


िविनयोगेः (र० २. ५६) ।
षडङ्गन्त्यास - ॎ हिस्तमुखाय हृदया नमेः ॎ लम्बोदराय ििरसे स्वाहा, ॎ उिच्छष्टमाहात्मने ििखायै वषट् ॎ आं िौं ह्रीं
ललीं हुम् कवचाय हुम् घे घे उिच्छष्टाय नेत्रत्रयान वौषट् , स्वाहा अस्त्राय िट् । ध्यान - २ . ९२ में देिखये ।
इस प्रकार न्त्यासाफद कर पीठपूजा आवरण पूजा आफद पूवोक्त कायग संपादन कर इस मन्त्त्र का एक लाख जप दिांि हवन्
तद्दिांि तपगण तद्दिांि माजगन एवं तद्दिांि ब्राह्मण भोजन कराने से पुरश्चरण अथागत मन्त्त्र की िसिि होती है ॥८४-८६॥

अब उिच्छष्टगणपित मन्त्त्र की िविेषता कहते हैं - उिच्छष्टगणपित के मन्त्त्रों की िसिि के िलए फकसी संिोधन की आवश्यकता
नहीं है न तो िसिि के िलए िसििदायक चि की आवश्यकता है, न फकसी िुभ मासाफद का िवचार फकया जाता है । ये मन्त्त्र
गुरु से प्राप्त होते ही िसफद्दप्रद हो
जाते हैं ॥८७॥

इन मन्त्त्रों को सद गोपनीय रखना चािहए, और जैसे तैसे जहाूँ तहाूँ कभी इसको प्रकािित भी नहीं करना चािहए । भलीभॉित
परीक्षा करने के उपरान्त्त ही अपने ििष्य एवं पुत्र को इन मन्त्त्रों की दीक्षा देनी चािहए ॥८८॥

अब ििक्त िवनायक मन्त्त्र का उिार कहते हैं - प्रारम्भ में तार (ॎ) उसके बाद माया (ह्रीं), फिर ित्रमूर्णत ईकार चन्त्र
(अनुस्वार) से युक्त पञ्चान्त्तक गकार हुतािन रकार (ग्रीं) और अन्त्त में ििक्तबीज (ह्रीं) लगाने से चार अक्षरों का ििक्त
िवनायक मन्त्त्र िनष्पन्न होता है ॥८९॥

िवमिग - इस मन्त्त्र का स्वरुप इस प्रकार है - ॎ ह्रीं ग्रीं ह्रीं ॥८९॥

इसं मन्त्त्र के भागगव ऋिष हैं, िवराट् छन्त्द है, ििक्त से युक्त गणपित इसके देवता हैं । माया बीज (ह्रीं) ििक्त है तथा दूसरा ग्रीं
बीज कहा हैं, प्रणव सिहत िद्वतीय ग्र में अनुस्वार सिहत ६ दीघगस्वरो को लगा कर षडङ्गन्त्यास करना चािहए, फिर ध्यान
कर एकाग्रिचत्त हो कर प्रभु श्रीगणेि का जप करना चािहए ॥९०-९१॥

िवमिग - िविनयोग - अस्य श्रीििक्तिवनायकमन्त्त्रस्य भागगवऋिषेः िवराट्छन्त्देः ििक्त गणािधपो देवता ह्रीं ििक्तेः ग्रीं
बीजमात्मनोभीष्ट िसियथे जपे िविनयोगेः ।
ऋष्याफदन्त्यास - ॎ भागगवाय ऋषये नमेः ििरिस, िवराट्छन्त्दसे नमेः मुखे, ॎ ििक्तगणािधपदेवतायै नमेः हृदये, ॎ ग्रीं
बीजाय नमेः गुह्ये, ॎ ह्रीं िक्तये नमेः पादयोेः । ग्रैं कवचाय हुम् ॎ ग्रौं नेत्रत्रयाय वौषट् ॎ ग्रेः अस्त्राय िट् ॥९०-९१॥

अब इस मन्त्त्र के पुरश्चरण के िलए ध्यान कहते हैं - दािहने हाथों मे अङ्कु ि एवं अक्षसूत्र बायें हाथों में िवषाण (दन्त्त) एवं
पाि धारण फकए हुए तथा सूड
ूँ में मोदक िलए हुए, अपनी पत्नी के साथसुवणगिचत अलङ्कारों से भूिषत उदीयमान सूयग जैसे
आभा वाले गणेि की मैं वन्त्दना करता हूँ ॥९२॥

अब पुरश्चरण का प्रकार कहते हैं - इस प्रकार ध्यान कर उक्त मन्त्त्र का चार लाख जप करना चािहए । तदनन्त्तर मधुयुक्त
अपूपों से दिांि होम करना चािहए । फिर उसका दिांि तपगणाफद करना चािहए ॥९३॥

पूवोक्त पीठ पर तथा के सरों में अङ्देवताओम का पूजन करन चािहए । दलों में वितुण्ड आफद का तथा दल के अग्रभाग में
ब्राह्यी आफद मातृकाओं का, फिर दिों फदिाओं में दि फदलपालों का, तदनन्त्तर उनके आयुधों का पूजन करना चािहए । इस
प्रकार यन्त्त्र पर पूजन कर मन्त्त्र का पुरश्चरण करने से मन्त्त्र की िसिि होती है । (र० २. ८-१८) ॥९४-९५॥

अब गणेि प्रयोग में िविवध पदाथो के होम का िल कहते हैं - घृत सिहत अन्न की आहुितयॉ देन से साधक अन्नवान हो जाता
है, पायस के होम से तक्ष्मी प्रािप्त तथा गन्ने के होम से राज्यलक्ष्मी प्राप्त होती है । के ला एवं नाररके ल द्वारा हवन करने से
लोगों को वि में करने की ििक्त आती है । घी के हवन से धन प्रािप्त तथा मधु िमिश्रत लवण के होम से स्त्री वि में हो जाती है
। इतना ही नहीं अपूपों के होम से राजा वि में हो
जाता है ॥९५-९७॥

अब लक्ष्मी िवनायक मन्त्त्र कहते हैं - तार (ॎ), रमा (श्रीं) इसके बाद सानुस्वार ख के आगे वाला वणग (गं) फिर ‘सौम्या’ पद
तदनन्त्तर समीरण ‘य’ इसके बाद चतुथ्व्यगन्त्त गणपित िब्द (गणपतये), फिर तोय (व), फिर र (वर), इसके बाद पुनेः दान्त्त
वरिब्द (वरद), तदनन्त्तर ‘सवगजनं मे वि’ के बाद ‘मा’ दीघग (न), वायु (य) और अन्त्त में पावककािमनी (स्वाहा) लगाने से
२८ अक्षरों का मन्त्त्र बनता है जो धन की समृिि करता है ॥९८-९९॥

िवमिग - मन्त्त्र का स्वरुप इस प्रकार है - ॎ श्रीं गं सौम्याय वर वरद सवगजनं मे विमानय स्वाहा ॥९९-९९॥

इस मन्त्त्र के अन्त्तयागमी ऋिष हैं, गायत्री छन्त्द है, लक्ष्मीिवनायक देवता हैं रमा (श्रीं) बीज है तथा स्वहा ििक्त है । रमा (श्रीं)
गणेि (गं) में ६ वणो को लगा कर षडङ्गन्त्यास करना चािहए ॥१००॥

िवमिग - िविनयोग का स्वरुप - अस्य श्रीलक्ष्मीिवनायकमन्त्त्रस्य अन्त्तयागमीऋिषेः गायत्रीछन्त्देःे लक्ष्मीिवनायको देवता श्रीं बीजं
स्वाहा ििक्तेः आत्मनोभीष्टिसियथे जपे िविनयोगेः ।

ऋष्याफदन्त्यास - ॎ अन्त्तयागमीऋषये नमेः ििरिस, गायत्रीछन्त्दसे नमेः मुख, लक्ष्मीिवनायकदेवतायै नमेः हृफद, श्री बीजाय
नमेः गुह्य,े स्वाहा िक्तये नमेः पादयोेः ।

षडङ्गन्त्यास -ॎ श्रीं गां हृदयाय नमेः, ॎ श्रीं गीं ििरसे स्वाहा


ॎ श्रीं गूं ििखायैं वषट् ,ॎ श्रीं गैं कवचाय हुम्
ॎ श्री गौं नेत्रत्रयाय वौषट् ,ॎ श्रीं गेः अस्त्राय िट् ॥१००॥
अब इस मन्त्त्र का ध्यान कहते हैं - अपने दािहने हाथ में दन्त्त एवं िङ् ख तथा बायें हाथ में अभय एवं चि धारण फकये सूूँड के
अग्र भाग में सुवणग िनर्णमत घट िलए हुये हाथ में कमल धारण करणे वाली महालक्ष्मी द्वार अिलिङ्गत, तीनों नेत्रों वाले सुवणग
के समान आभा वाले लक्ष्मी गणेि की मैं वन्त्दना करता हूँ ॥१०१॥

अब उक्त मन्त्त्र के पुरश्चरण की िविध कहते हैं - उपयुगक्त २८ अक्षरों वाले लक्ष्मीिवनायक मन्त्त्र का चार लाख जप करना
चािहए । तदनन्त्तर िबल्ववृक्ष की लकडी में दिांि होम करना चािहए । पूवोक्त पीठ पर लक्ष्मीिवनायक का पूजन करना
चािहए । सवगप्रथम अङ्गपूजा करे । तदनन्त्तर इन आठ ििक्तयों कीं पूजा करनी चािहए; १. बलाका, २.िवमला, ३. कमला,
४. वनमािलका, ५ िवभीिषका, ६. मािलका, ७. िाङ्करी एवं ८. वसुबािलका - ये आठ ििक्तयाूँ हैं । तदनन्त्तर दािहने एवं
बायें भाग में िमिेः िंखिनिध एवं पद्मिनिध का पूजन करना चािहए । उनके बाहरे बाग में लोकपालों एवं उनके आयुधों का
पूजन करना चािहए । इस प्रकार पुरश्चरण करने के उपरान्त्त मन्त्त्र िसि हो जाने पर मन्त्त्रवेत्ता अन्त्य काम्य प्रयोगों को कर
सकता है ॥१०२-१०५॥

िवमिग - प्रयोग िविध - १०१ श्लोकोक्त ध्यान के अनन्त्तर मानसोपचारों से पूजन कर गणिोक्त पीठपूजा करे (र० २. ९-१०)
। तदनन्त्तर लक्ष्मी िवनायक के मूलमन्त्त्र का उिारण कर पीठ पर उनकी मूर्णत की कल्पना करनी चािहए । तदनन्त्तर ध्यान,
आवाहनाफद पञ्च पुष्पाञ्जिल समर्णपत कर आवरण पूजा इस प्रकार करनी चािहए -
सवगप्रथम ॎ श्रीं गां हृदयाय नमेः, ॎ ििरसे स्वाहा, ॎ श्रीं गूं ििखायै वषट् , ॎ श्री गैं कवचाय हम्प, ॎ श्रीं गौं नेत्रत्रयान
वौषट् , ॎ श्रीं गेः अस्त्राय िट् से षडङ्गन्त्यास कर अष्टदलों में पूवागफद फदिाओं के िम से बलाकायै नमेः से ले कर
वसुबािलकायै नमेः पयगन्त्त अष्टििक्तयों की पूजा करनी चािहए । तदनन्त्तर दािहनी ओर ॎ िङ्खिनधये नमेः तथा बाई ओर
ॎ पद्मिनधये नमेः इन मन्त्त्रों से अष्टदल के दोनों भाग में दोनों िनिधयों का पूजन कर दलागभाग में इन्त्राय नमेः इत्याफद
मन्त्त्रों से इन्त्राफद दिफदलपालों का फिर उसके भी अग्रभाग में वज्राय नमेः इत्याफद मन्त्त्रों से उनके आयुधों की पूजा करनी
चािहए । तदनन्त्तर मूल मन्त्त्र का जप एवं उत्तर पूजन की फिया करनी चािहए । जैसा की उपर कहा गया है मूल मन्त्त्र की जप
संख्या चार लाख है । उसका दिांि हवन िबल्ववृक्ष की सिमधाओं से करना चािहए । फिर दिांि तपगण, तद्दिांि माजगन,
फिर उसका दिांि ब्राह्मण भोजन कराने से मन्त्त्र िसि हो जाता है और मन्त्त्रवेत्ता काम्य प्रयोग का अिधकारी होता है
॥१०२-१०५॥

अब उक्त मन्त्त्र का काम्य प्रयोग कहते हैं - हृदय पयगन्त्त जल में खडे हो कर सूयगमण्डल में लक्ष्मी िवनायक का ध्यान कर तीन
लाख की संख्या में जप करे तो धन की अिभवृिि होती है यही िल िबल्ववृक्ष के मूलभाग में बैठ कर उतनी ही संख्या में जप
करने से प्राप्त होती है । अिोक की लकडी से प्रज्विलत अिि में घृताक्त चावलों कें होम से सारा िवश्व वि में हो जाता है ।
खाफदर की लकडी से प्रज्विलत िनमगल अिि में आक की सिमधाओं से होम करने से राजा भी वि में हो जाता है । उपयुगक्त
मन्त्त्र द्वारा पायस के होम से महालक्ष्मी प्रसन्न हो जाती है ॥१०६-१०८॥

अब त्रैलोलयमोहनगणपित मन्त्त्र कहते हैं -


वि फिर कणेन्त्द ु सिहत णकारान्त्त त अथागत् (तुण्) फिर ‘ऐकदंष्ट्राय’ यह पद तदनन्त्तर मन्त्मथ (ललीं) माया (ह्री), रमा (श्रीं)
गजमुख (गं), फिर ‘गणप’ तदनन्त्तर भगीहरर (ते) फिर ‘वर’ फिर बाल (व), अिि (र), सत्य (द) (वरद), फिर स, तदनन्त्तर
रे िारुढ जल (वग), तदनन्त्तर िस्थरा (ज), सेन्त्दम
ु ेष (नं) फिर ‘मे विमानय’ तदनन्त्तर उषबुगधफिया (स्वावा) लगाने से भक्तों को
िसििप्रदान करने वाल त्रैलालय मोहन मन्त्त्र िनष्पन्न हो जाता है । यह मन्त्त्र ३३ अक्षरों का होता है - इस मन्त्त्र के गणक ऋिष
हैं, गायत्री छन्त्द है तथा भक्तों को िसििप्रदान करने वाले एवं त्रैलालय को मोिहत करने वाले, श्री गणेि देवता है । इस मन्त्त्र
के िमिेः १२, ४, ५, ४, एवं ६ और २ अक्षरों से षडङ्गन्त्यास करना चािहए ॥१०९-११२॥

िवमिग - इस मन्त्त्र का स्वरुप इस प्रकार है - वितुण्डैकदंष्ट्राय ललीं ह्रीं श्रीं गं गणपते वरवरद सवगजनं मे विमानय स्वाहा ।
िविनयोग िविध - ॎ अस्य श्रीत्रैलोलयमोहनमन्त्त्रस्य गणकऋिषगागयत्री छन्त्दो भक्ते ष्ट िसििदायकत्रैलोलयमोहनकारको
गणपितदेवता आत्मनोभीष्टिसियथे जपे िविनयोगेः ।
षडङ्गन्त्यास - ॎ वितुण्डैकदंष्ट्राय ललीं ह्रीं श्रीं गं हृदयाय नमेः,
ॎ गणपते ििसे स्वाहा,ॎ वरवरद ििखायै वषट् ,
ॎ सवगजनं कवचाय हुम,ॎ मे विमानय नेत्रत्रयाय वौषट् ,ॎ स्वाहा अस्त्राय िट्
तदनन्त्तर आगे कहे गए ११३वें मन्त्त्र से ध्यान करना चािहए ॥१०९-११२॥

अब त्रैलोलयमोहन गणपित का ध्यान कहते हैं - अपने दािहने हाथों में गदा, बीजपूर, िूल, चि एवं पद्म तथा बायें हाथों में
धनुष, उत्पल, पाि, धान्त्यमञ्जरी (धान के अग्रभाग में रहने वाली बाल) एवं दन्त्त धारण फकए हुए िजन गणेि के िुण्डाग्रभाग
में मिणकलि िोिभत हो रहा है िजनका श्री अङ्ग कमल एवं आभूषणों से जगमगाित हुई अतएव उज्वल वणगवाली अपनी
गोद मेम बैठी हुई पत्नी ए आिलिङ्गत हैं - ऐसे ित्रनेत्र, हाथी के समान मुख वाले, िसर पर चन्त्दकला धारण फकए हुए, तीनों
लोकों को मोिहत करने वाले, रक्तवणग की कािन्त्त से युक्त श्री गणेिजी का मैं ध्यान
करता हूँ ॥११३-११४॥

अब इस मन्त्त्र से पुरश्चरण िविध कहते हैं - उक्त मन्त्त्र का चार लाख जप करना चािहए तथा अष्टारव्यों (र० २.८) से जप
का दिांि होम करना चािहए । इसके अनन्त्तर पूवोक्त पीठ पर (र. २.९) श्री गणेि जी की पूजा करनी चािहए ।
अङ्गन्त्यासका िवधान भी पूवगवत (र० २. १४) है । दलों पर ििक्तयों की पूजा करनी चािहए । १. वामा, २. ज्येष्ठा, ३. रौरी,
४. कलकाली, ५. बलिवकररणी, ६. बलप्रमिथनी, ७. सवगभूतदमनी और ८. मनोन्त्मनी ये आठ ििक्तयाूँ हैं । पुनेः आगे चारों
फदिाओं में पूवागफदिम से प्रमोद, सुमुख, दुमुगख, िवघ्ननािक, का पूजन करना चािहए । तदनन्त्तर आं ब्राह्ययै नमेः, ई माहेश्वयै
नमेः इत्याफद अष्टमातृकाओं के आफद में (र० २. ३६) ष‍दीघागक्षर लगा कर उनका पूजन करना चािहए । तदनन्त्तर इन्त्राफद
फदलपालों का, पुनेः उनके दज्र आफद आयुधों का पूजन करना चािहए । इस प्रकार पुरश्चरण द्वारा मन्त्त्र की िसिि हो जाने पर
अभीष्ट िसिि के िलए काम्य प्रयोग करना
चािहए ॥११५-११९॥

िवमिग - प्रयोग िविध - श्लोक ११३-११४ के अनुसार त्रैलोलयमोहन गणपित का ध्यान कर मानसोपचारों से पूजन कर अघ्नयग
स्थािपत करे । पश्चात पीठ एवं पीठदेवता का पूजन कर मूलमन्त्त्र से त्रैलोलयमोहन गणेि की मूर्णत की कल्पना कर उनका
ध्यान करते हुए आवाहनाफद से लेकर पुष्पाञ्जिल समपगण पयगन्त्त समस्त कायग करना चािहए । इस मन्त्त्र का अङ्गन्त्यास पूवग में
(र० २. ११२) में कहा जा चुका है । तदनन्त्तर आठ दलों पर वामायै नमेः से ले कर मनोन्त्मन्त्ये नमेः पयगन्त्त आठ ििक्तयों की
पूजा करनी चािहए । तदनन्त्तर पूवागफद चारों फदिाओं में प्रमोद सुमुख, दुमुगख और िवघ्ननािक इन चार नामों के अन्त्त में
चतुत्यगन्त्तयुक्त नमेः िब्द लगा कर पूजन करना चािहए । फिर दल के अग्रभाग में ब्राह्यी आफद अष्ट मातृकाओं की िमिेः आफद
में ६ दीघो से युक्त कर तथा अन्त्त में चतुथ्व्यगन्त्तयुक्तेः नमेः लगा कर पूजा करे (र० २.३६) । फिर दलों के बाहर इन्त्राफद दि
फदलपालों का तथा उनके वज्राफद आयुधों क (र० २. ३९) पूजन करना चािहए। इस प्रकार आवरण पूजा का धूप
दीपाफदिवसजगनान्त्त समस्त फिया संपन्न करनी चािहए, फिर जप करना चािहए । ऐसा प्रितफदन करते हुए जब चार लाख जप
पूरा हो जावे तब अष्टरव्यों से उसका दिांि होम, होम का दिांि तपगण, तपगण का दिांि माजगन तथा माजगन का दिांि
ब्राह्मण भोजन कराने पर मन्त्त्र िसि हो जाता है और साधक काम्य प्रयोग का अिधकारी हो जाता है ॥११५-११९॥

अब इस मन्त्त्र से काम्य प्रयोग कहते हैं - कमलों के हवन से राजा तथा कु मुद पुष्पं के होम से उसके मन्त्त्री को वि में फकया जा
सकता है । पीपल की सिमधाओं के हवन से ब्राह्यणों को, उदुम्बर की सिमधाओं के हवन से क्षित्रयों को, प्लक्ष सिमधाओं के
हवन से वैश्यों को तथा वट वृक्ष की सिमधाओं के हवन से िूरों को वि में फकया जा सकता है । इसी प्रकार क्षौर (मुनक्का) हे
होम से सुवणग, गो दुग्ध के हवन से गौवें, दिध िमिश्रत चरु के हवन से ऋिि, घी की आहुित से अन्न एव्य्म लक्ष्मी की तथा वेतस
की आहुितयों से सुवृिष्ट की प्रािप्त होती है ॥११९-१२१॥
अब हरररागणपित के मन्त्त्र उिार कहते हैं -
तार (ॎ), वमग (हुम्), गणेि (गं), भू (ग्लौं), इन बीजाक्षरों के अनन्त्तर ‘हरररागण’ पद, इसके बाद लोिहत (प), आषाढी (त),
तदनन्त्तर ‘ये’ फिर ‘वर वर’ के अनन्त्तर सत्य (द), फिर ‘सवगज’ पद, तदनन्त्तर तजगनी (न), फिर ‘हृदयं स्तम्भय स्तम्भय’, फिर
अन्त्त में अििवल्लभा (स्वाहा)लगाने से बत्तीस अक्षरों का हरररागणपित मन्त्त्र िनष्पन्न होता है ॥१२२-१२३॥

िवमिग - इस मन्त्त्र का स्वरुप इस प्रकार है - ‘ॎ हुं गं ग्लौं हरररागणपतअये वरवरद सवगजनहृदय्म स्तम्भय स्तम्भय स्वाहा’
॥१२२-१२३॥
इस मन्त्त्र के मदन ऋिष, अनुष्टुप् छन्त्द और हरररागणनायकदेवता कहे गये हैं । मन्त्त्र के िमिेः ४, ८, ५, ७, ६ और दो अक्षरों
से षडङ्गन्त्यास बतलाया गया है ॥१२४॥

िवमिग - िविनयोग िविध - ॎ अस्य श्रीहरररागणनायकमन्त्त्रस्य मदनऋिषेः अनुष्टुपछन्त्देः हरररागणनायको देवता


आत्मनोऽभीष्टिसियथे जपे िविनयोगेः ।

षडङ्गन्त्यास िविध - ॎ हुं गं ग्लौं हृदयाय नमेः, ॎ हरररागणपतये ििरसे स्वाहा, वरवरद ििखायै वषट् सवगजनहृदयं
कवचाय हुम्, स्तम्भय नेत्रत्रयाय वौषट् स्वाहा अस्त्राय िट् ॥१२४॥

अब हरररागणपित का ध्यान कहते हैं -


जो अपने दािहने हाथों में अङ्कु ि और मोदक तथा बायें हाथों में पाि एवं दन्त्त धारण फकये हुए सुवणग के तसहासन पर िस्थत
हैं - ऐसे हल्दी जैसी आभा वाले, ित्रनेत्र तथा पीत वस्त्रधारी हरररागणपित की मैं वन्त्दना करता हूँ ॥१२५॥

अब इस मन्त्त्र की पुरश्चरण कहते हैं -


हरररागणपित के मन्त्त्र का चार लाख जप कर िपसी हल्दी को चावलों में िमिश्रत करके दिांि का होम करना चािहए (तथा
होम के दिांि से तपगण और उसके दिांि से माजगन, फिर उसका दिांि) ब्राह्मण भोजन कराना चािहए ॥१२६॥
पूवोक्त िविध से पीठ पर अङपूजा, मातृका पूजन तथा फदलपाल आफद का पूजन करना चािहए । इस प्रकार पुरश्चरण करने पर
पूवोक्त
मन्त्त्र (र०. २. १२२.-१२३) समस्त मनोवािछछत वस्तु प्रदान करता है ॥१२७॥

िवमिग - प्रयोग िविध - सवगप्रथम १२५ श्लोक के अनुसार हरररागणेि का ध्यान करना चािहए । तदनन्त्तर मानसपूजा एवं
अघ्नयगस्थापन करना चािहए । तत्पश्चात् पीठपूजा एवं के िरों के मध्य में तीव्राफद पीठ देवताओं का पूजन कर मूल मन्त्त्र से
हरररागणपित की मूर्णत की कल्पना कर पुनेः ध्यान करन चािहए । तदनन्त्तर आवाहन से ले कर पञ्चपुष्पाञ्जिल पयगन्त्त पूजन
करना चािहए । फिर कर्णणकाओं में पूवागफद फदिाओं के िम से िमि ॎ गणािधपतये नमेः, ॎ गणेिाय नमेः, ॎ गननायकाय
नमेः, ॎ गणिीडाय नमेः - से पूजन करना चािहए । फिर के िरों में ‘ॎ हं गं ग्लौं हृदयाय नमेः’ इत्याफद मन्त्त्रों से षडङ्गन्त्यास
और अङ्गपूजा करनी चािहए । तदनन्त्तर पद्मदलों पर वितुण्ड आफद अष्टगणपितयों का पूजन करना चािहए । दलों के
अग्रभाग में ब्राह्यी आफद अष्टमातृकाओं का, फिर दलों के बिहभागग में इन्त्राफद दि फदलपालों का तथा उसके भे बाहर उनके
वज्राफद आयुधों का पूजन कर धूप दीपाफद पयगन्त्त समस्त फिया संपन्न करनी चािहए ॥१२७॥

अब हरररागणपित मन्त्त्र का काम्य प्रयोग कहते हैं -


िुलल पक्ष की चतुथी को कन्त्या द्वारा गई हल्दी से अपने िरीर में लेप करे । तदनन्त्तर जल में स्नान कर गणपित का पूजन करे
। फिर गणेि के आगे िस्थत हो तपगण करे और उनके सम्मुख १००८ की संख्या में जप करे । फिर घी और मालपूआ से १००
आहुितयाूँ देकर ब्रह्मचाररयों को भोजन करावे तथा कु माररयों एवं स्वगुरु को भी संतुष्ट करे तो साधक अपना अभीष्ट प्राप्त कर
लेता है ॥१२८-१३०॥
लाजाओं के होम से उत्तम वधू तथा कन्त्या को भी अनुरुप वर की प्रािप्त होती है । बन्त्ध्या स्त्री ऋतुस्नान के पश्चात् गणेि जी
का पूजन कर एक पल (चार तोला) गोमूत्र में दूधवच एवं हल्दी पीस कर उसे १००० बार हरररागणपित के मन्त्त्र से
अिभमिन्त्त्रत करे , फिर कन्त्या एवं वटुकों को लड् डू िखला कर स्वयं उस औषिध का पान करे तो उसे गुणवान् पुत्र की प्रािप्त
होती है । इतना ही नहीं इस मन्त्त्र की उपासना से वाणी स्तम्भन एवं ित्रुस्तम्भन भी हो जाता है तथा जल, अिि, चोर, तसह
एवं अस्त्र आफद का प्रकोप भी रोका जा सकता है ॥१३०-१३३॥

अब हरररागणेि का नय मन्त्त्र कहते हैं -


िाङ्गी (ग), मांसिस्थत (ल), इन दोनों में अनुस्वार लगाने से हरररागणपित का बीजमन्त्त्र (ग्लं) यह पूवग में बतलाया जा चुका
है । इस मन्त्त्र का पुरश्चरन भी पूवोक्त िविध से करना चािहए ॥१३४॥

िवमिग - िविनयोग - ‘ॎ अस्य श्रीहरररागणपितमन्त्त्रस्य वििष्टऋिषेः गायत्रीछन्त्देः हरररागणपितदेवता गं बीजं लं ििक्तेः


आत्मनोऽभीष्टिसियथे जपे िविनयोगेः ।
षडङ्गन्त्यास - ॎ गां हृदाय नमेः, ॎ गां ििरसे स्वाहा, ॎ गूं ििखायै वषट् , ॎ गैं कवचाय हुम्, ॎ गौं नेत्रत्रयाय वौषट् , ॎ
गेः अस्त्राय िट्।

हरररागणपित का ध्यान -हररराभं चतुबागहुं हरररावसनं िवभुम् ।


पािाङ् कु िधरं देवं मोदकं दन्त्तमेव च ॥

हल्दी के समान पीत वणग की आभा वाले, चार हाथों वाले, पीत वणग के वस्त्र को धारण करने वाले, व्याप्त, पाि एवं अङ् कु ि
अपने दािहने हाथों में धारण करने वाले तथा मोदक एवं दन्त्त अपने बाएूँ हाथों में धारन करने वाले हरररागणेि का मैं ध्यान
करता हूँ ।

इस प्रकार ध्यान करने के उपरान्त्त मानसोपचारपूजन, अघ्नयगस्थापन, पीठपूजा, तीव्राफद पीठििक्तयों की पूजा, अङ्गपूजा एवं
आवरण पूजाफद समस्त कायग पूवागक्त रीित से संपन्न करना चािहए । चार लाख जप पूणग करने के पश्चात् घी, मधु, िकग रा एवं
हरररा िमिश्रत तण्डु लों से दिांि होम, तद्दिांि तपगण, तद्दिांि माजगन और तद्दिांि ब्राह्मण भोजन करा कर पुरश्चरण
की फिया करनी चािहए ॥१३४॥

अब उपसंहार करते हुये ग्रन्त्थकार कहते हैं फक - मनोभीष्ट िल देने वाले गणेि जी के मन्त्त्रों को हमने कहा । ये मन्त्त्र दुष्ट जनों
सवगदा गोपनीय रखने चािहए तथा उन्त्हें कभी भी इनका उपदेि (कानो में मन्त्त्र देना) नहीं करना चािहए ॥१३५॥

मन्त्त्रमहोदिध - तृतीय तरङ्ग

उपलब्ध नहीं है ...

चतुथग तरङ्ग
अररत्र
अब हम तारा के मन्त्त्रों का वणगन करते हैं । जो सवगथा िसिि प्रदान करने वाले हैं, और िजन्त्हें गुरुपदेि से जान कर मनुष्य इस
लोक में कृ ताथग हो जाते हैं ॥१॥
सरात्रीि आप्यायनी (ॎ), अिीन्त्दि
ु ािन्त्तयुत् िवयत् (ह्रीं) पावक (रृ), गोिवन्त्द (ई), चन्त्रमा (अनुस्वार) के साथ हरर (त)
अथागत् त्रीं, अघीि (उ), ििाङग अनुस्वार के साथ ख (ह) अथागत् हुूँ, तदनन्त्तर िट् लगाने से तारा का पञ्चाक्षर मन्त्त्र िनष्पन्न
हो जाता है ।
यफद इस मन्त्त्र के आफद में आफद बीज (ॎ) हटा फदया जाय तो यह एक जटा नामक मन्त्त्र हो जाता है - ऐसा पूवागचायो ने कहा
है ॥२-३॥

इसी प्रकार आफद बीज ॎ और अन्त्त बीज िट् से रिहत कर देने पर यह नीलसरवस्ती का मन्त्त्र हो जाता है ॥४॥

िवमिग - (१) तारा पञ्चाक्षर मन्त्त्रोिार - ॎ ह्रीं त्री हुं िट् ।


(२) एक जटा - ह्रीं त्रीं हुं िट ।
(३) नीलसरस्वती - ह्रीं त्रीं हुं ।
वधू (स्त्रीं) बीज कहलाने की कथा इस प्रकार है -
तारावणग के अनुसार विसष्ठ ऋिष ने बहुत समय तक इस िवद्या की उपासना की, फकन्त्तु उन्त्हें िसिि नहीं िमली । पररणामतेः
िोिधत होकर उन्त्होंने देवी को िाप दे फदया और तब से यह िवद्या िल देने में अक्षम हो गयी ।
बाद में िान्त्त होने पर ऋिषप्रवर ने इसका िापोिार प्राप्त फकया । िापोिार करते समय ताराबीज (त्रीं) में सकार का योग
कर ॎ ह्रीं स्त्रीं हुं िट्’ इस िवद्या (मन्त्त्र) से साधना करने का िनदेि फदया । तब से यह िवद्या वधू के समान यििस्वनी हो गयी
तथा तारा का यह बीज (त्रीं) ‘वधू बीज’
कहलाने लगा ।

नीलतन्त्त्र के अनुसार सप्रणव मायाबीज, वधूबीज, कू चगबीज, एवं अस्त्र वाला यह (ॎ ह्रीं स्त्रीं हूँ िट्) पञ्चाक्षर फदव्य एवं अित
पिवत्र है । यह िवद्या साधकों को बुिि, ज्ञान, ििक्त, जय एवं श्री देने वाली तथा भय, मोह एवं अपमृत्यु का िनवारण करने
वाली मानी गयी है ।
महीधर के अनुसार तारा के मन्त्त्र उपयुगक्त हैं - फकन्त्तु, एकताराकल्प, िवश्वसारतन्त्त्र तथा नीलतन्त्त्र आफद ग्रन्त्थों में उक्त मन्त्त्रों में
तारा बीज (त्रीं) के स्थान पर वधू बीज (स्त्रीं) का िनदेि फकया गया है ॥४॥
ऊपर कहे गये तारा के सभी मन्त्त्रों के अक्षोभ्य ऋिष हैं, बृहती छन्त्द हैं और तारा देवता हैं । पञ्चाक्षर मन्त्त्र के िद्वतीय एवं
चतुथग वणग िमिेः (ह्रीं तथा हुं) िसििदायक बीज एवं ििक्तदायक माने गये हैं अथवा िोध (हुं) बीज, तथा अस्त्रमन्त्त्र (िट्)
ििक्त है - ऐसा भी कु छ आचायग मानते हैं । षड् दीघगयुक्त िद्वतीय मन्त्त्र (ह्रीं) से षडङ्गन्त्यास फकया जाता है । इसकी िविध
पूवोक्त है ॥४-६॥

िवमिग - िविनयोग का स्वरुप इस प्रकार है - ‘ॎ अस्य श्रीतारांमन्त्त्रस्य अक्षोभ्यऋिषेः बृहतीछन्त्देः तारादेवता ह्रीं बीजं हुं
ििक्तेः आत्मनोऽभीष्टिसियथग तारामन्त्त्रजपे िविनयोगेः ।
लयोंफक यह देवी उग्र िवपित्त से साधक का उिार करती हैं, अतेः इन्त्हें ‘उग्रतारा’ कहा गया हैं। यह राजद्वार, राजसभा,
राजकायग, िववाद, संग्राम एवं धूत आफद में साधक को िवजय प्राप्त कराती हैं । अतेः इस प्रकार के प्रयोगों में इन मन्त्त्रों का
िविनयोग करते समय ‘हुं’ बीज तथा िट् ििक्त माना जाता है लयोंफक वीरतन्त्त्र के अनुसार बीज एवं ििक्त चतुवगगगिल प्रािप्त
के िलए भी िविनयुक्त होते हैं ।

ऋष्याफदन्त्यास - ‘ॎ अक्षोभ्यऋषये नमेः ििरिस ॎ बृहतीछन्त्दसे नमेः मुखे,


ॎ तारादेवतायै नमेः हृफद, ॎ ह्रीं (हूँ) बीजाय नमेः गुह्ये,
ॎ हूँ (िट्) िक्तये नमेः पादयोेः ॎ स्त्रीं कीलकाय नमेः सवागङ्गे

कराङ्गन्त्यास - ॎ ह्रां अङ् गुष्ठाभ्यां नमेः, ॎ तजगनीभ्या नमेः,


ॎ ह्रूं मध्यमाभ्यां नमेः, ॎ ह्रैं अनकािमकाभ्यां नमेः,
ॎ ह्रौं किनिष्ठकाभ्यां नमेः ॎ ह्रेः करतलकरपृष्ठाभ्यां नमेः,

इसी प्रकार हृदयाफदन्त्यास भी कर लेना चािहए । मन्त्त्र का िविनयोग पूववगत् है । एकजटा तथा नीलसरस्वती के िलए इस
प्रकार का न्त्यास िसिसारस्वत तन्त्त्र के अनुसार करना चािहए -

ॎ ह्रां एकजटायै अगुंष्ठाभ्यां नमेः, ॎ ह्रीं ताररण्यै तजगनीभ्यां नमेः,


ॎ ह्रूं वज्रोदके मध्यमाभ्यां नमेः, ॎ ह्रैं उग्रजटे अनािमकाभ्यां नमेः,
ॎ ह्रौं महाव्रितसरे किनष्ठाभ्यां नमेः, ॎ िपङ्गोग्रैकजटे करतलकरपृष्ठाभ्यां नमेः

नीलसरस्वती के िलए न्त्यास इस प्रकार है -


ॎ ह्रां अिखलवाग्रुिपण्यै अङ् गुष्ठाभ्यां नमेः ।
ॎ ह्रीं अिखलवाग्रुिपण्यै तजगनीभ्यां नमेः ।
ॎ हूँ अिखलवग्रुिपण्यै मध्यमाभ्यां नमेः ।
ॎ हैं अिखलवग्रुिपण्यै अनािमकाभ्यां नमेः ।
ॎ ह्रौं अिखलवाग्रुिपण्यै किनष्ठाभ्यां नमेः ।
ॎ ह्रेः अिखलवाग्रुिपण्यै करतलकरपृष्ठाभ्यां नमेः।

इसी प्रकार हृदयाफदन्त्यास करना चािहए ।


वीरतन्त्त्र के मतानुसार काली एवं तारा का स्वरुप एक होने से तारा मन्त्त्र के जप में कालीन्त्यास में कहे गये वणगन्त्यास का
प्रयोग करना आवश्यक है । इसके िलए देिखए कालीन्त्यासोक्तवणगन्त्यास (र० ३. ७) ॥४-६॥

साधक को देवत्त्व भाव की िसिि के िलए षोढान्त्यास करना चािहए । इस न्त्यास की िविध अपने भक्त ििष्य को ही बतलानी
चािहए । दुष्ट को कदािप नहीं बतलानी चािहए ॥७॥

प्रथम रुरन्त्यास की िविध कहते हैं - माया बीज (ह्रीं), तृतीय बीज (त्रीं या स्त्रीं), तदनन्त्तर िोध बीज (हुं) के आगे मातृका वणग
िमिेः अं आं इत्याफद को लगाकर पुनेः चतुथ्व्यगन्त्त श्रीकण्ठाफद रुरों के नाम, तदनन्त्तर नमेः लगाकर पूवोक्त कहे गये (१.८९-
९१) मातृकान्त्यास के स्थानों में यह न्त्यास करना चािहए ।
इस न्त्यास के समय िवासन पर बैठी हुई िविवध आभूषणों से युक्त, नीले वणग की कािन्त्त से युक्त, तीन नेत्रों वाली अधग
चन्त्रकला धारण फकए हुये तारा देवी का ध्यान करते रहना चािहए ॥९-१०॥

िवमिग - छेः प्रकार के न्त्यास को षोढान्त्यास कहते हैं जो इस प्रकार हैं - १ - रुरन्त्यास, २ - ग्रहन्त्यास, ३ - लोकपालन्त्यास, ४ -
ििवििक्तन्त्यास, ५ - ताराफदन्त्यास तथा ६ - पीठन्त्यास । ताराणगव तन्त्त्र के अनुसार सुिल मनोरथ वाले साधक को तारा का
षोढान्त्यास अवश्य करना चािहए । तन्त्त्रिास्त्र में यह न्त्यास अत्यन्त्त गोपनीय ओर चमत्कारकारी िल देने वाला माना जाता है

रुरन्त्यास की िविध - रुरन्त्यास में देवी का ध्यान इस प्रकार है -
नीलवणाग ित्रनयनां िवासनसमायुताम् ।
िबभ्रतीं िविवधां भूषामधेन्त्दिु ेखरां वराम् ॥

‘तारा देवी का नीलवणग है, उनके तीन नेत्र हैं, वह िवासन पर िवराजमान हैं और िविवध अलङ्कारों से िवभूिषत तथा
चन्त्रकला से सुिोिभत है’ ऐसी देवी का ध्यान करते हुए िनम्न िविध से न्त्यास करना चािहए, यथा -

ह्रीं त्रीं (स्त्रीं) हुं अं श्रीकण्ठे िाय नमेः, ललाटे ।


ह्रीं त्रीं (स्त्रीं) हुं आं अनन्त्तेिाय नमेः, मुखवृत्ते ।
ह्रीं त्रीं (स्त्रीं) हुं इं सूक्ष्मेिाय नमेः, दक्षनेत्रं ।
ह्रीं त्रीं (स्त्रीं) हुं ई ित्रमूतीिाय नमेः, वामनेत्रे ।
ह्रीं त्रीं (स्त्रीं) हुं उं अमरे िाय नमेः, दक्षकणे ।
ह्रीं त्रीं (स्त्रीं) हुं ऊं अघीिाय नमेः, वामकणे ।
ह्रीं त्रीं (स्त्रीं) हुं ऋं भारभूतीिाय नमेः दक्षनासायाम् ।
ह्रीं त्रीं (स्त्रीं) हुं ऋं ितथीिाय नमेः, वामनासायाम् ।
ह्रीं त्रीं (स्त्रीं) हुं लृं स्थाण्वीिाय नमेः, दक्षगण्डे ।
ह्रीं त्रीं (स्त्रीं) हुं लृं हरेिाय नमेः वामगण्डे ।
ह्रीं त्रीं (स्त्रीं) हुं एं िझण्डीिाय नमेः, ऊध्वोष्ठे ।
ह्रीं त्रीं (स्त्रीं) हुं ऐं भौितके िाय नमेः, अधरोष्ठे ।
ह्रीं त्रीं (स्त्रीं) हुं ओं सद्योजाताय नमेः, ऊध्वगदन्त्तपंक्तौ ।
ह्रीं त्रीं (स्त्रीं) हुं औं अनुग्रहेिाय नमेः, अधोदन्त्तपंक्तौ ।
ह्रीं त्रीं (स्त्रीं) हुं अं अिू रे िाय नमेः, ब्रह्मरन्त्रे ।
ह्रीं त्रीं (स्त्रीं) हुं अेः महासेनेिाय नमेः, मुखे ।
ह्रीं त्रीं (स्त्रीं) हुं कं िोधीिाय नमेः, दक्षबाहुमूले ।
ह्रीं त्रीं (स्त्रीं) हुं खं चण्डेिाय - नमेः, दक्षकू पगरे ।
ह्रीं त्रीं (स्त्रीं) हुं गं पञ्चान्त्तके िाय नमेः, दक्षमिणबन्त्धे ।
ह्रीं त्रीं (स्त्रीं) हुं घं ििवोत्तमेिाय नमेः, दक्षकराङ् गुिलमूले ।
ह्रीं त्रीं (स्त्रीं) हुं डेः एकरुराय नमेः, दक्षकराङ्गुल्यग्रे ।
ह्रीं त्रीं (स्त्रीं) हुं चं कू मेिाय नमेः, वामबाहुमूले ।
ह्रीं त्रीं (स्त्रीं) हुं छं एकनेत्रेिाय नमेः, वामकू पगरे ।
ह्रीं त्रीं (स्त्रीं) हुं जं चतुराननेिाय नमेः, वाममिणबन्त्धे ।
ह्रीं त्रीं (स्त्रीं) हुं झं अजेिाय नमेः, वामकराङ् गुिलमूले ।
ह्रीं त्रीं (स्त्रीं) हुं ञं सवेिाय नमेः, वामकराङ् गुल्यग्रे ।
ह्रीं त्रीं (स्त्रीं) हुं टं सोमेिाय नमेः, दक्षोरुमूले ।
ह्रीं त्रीं (स्त्रीं) हुं ठं लाङ्गलीिाय नमेः, दक्षजानुमूले ।
ह्रीं त्रीं (स्त्रीं) हुं डं दारुके िाय नमेः, दक्षपादमूलसन्त्धौ ।
ह्रीं त्रीं (स्त्रीं) हुं ढं अघगनारीश्वराय नमेः, दक्षपादाङ् गुिलमूले ।
ह्रीं त्रीं (स्त्रीं) हुं णं उमाकान्त्तेिाय नमेः, दक्षपादाङ् गुल्यग्रे ।
ह्रीं त्रीं (स्त्रीं) हुं तं आषाढीिाय नमेः, वामोरुमूले ।
ह्रीं त्रीं (स्त्रीं) हुं थं दण्डीिाय नमेः, वामजघांमूले ।
ह्रीं त्रीं (स्त्रीं) हुं दं अन्त्त्रीिाय नमेः, वामपादमूलसन्त्धौ ।
ह्रीं त्रीं (स्त्रीं) हुं धं मीनेिाय नमेः, वामपादाङ् गुिलमूले ।
ह्रीं त्रीं (स्त्रीं) हुं नं मेषन
े ाय नमेः, वामपादाङु ल्यग्रे ।
ह्रीं त्रीं (स्त्रीं) हुं पं लोिहतेिाय नमेः, दक्षपाश्वे ।
ह्रीं त्रीं (स्त्रीं) हुं िं ििखीिाय नमेः, वामपाश्वे ।
ह्रीं त्रीं (स्त्रीं) हुं बं छगलण्डेिाय नमेः, पृष्ठे ।
ह्रीं त्रीं (स्त्रीं) हुं भं िद्वरण्डेिाय नमेः, नाभौ ।
ह्रीं त्रीं (स्त्रीं) हुं मं महाकालेिाय नमेः, उदरे ।
ह्रीं त्रीं (स्त्रीं) हुं यं बालीिाय नमेः, वक्षे ।
ह्रीं त्रीं (स्त्रीं) हुं रं भुजङ्गेिाय नमेः, दक्षस्कन्त्धे ।
ह्रीं त्रीं (स्त्रीं) हुं लं िपनाकीिाय नमेः, ककु फद ।
ह्रीं त्रीं (स्त्रीं) हुं वं खड् गीिाय नमेः, वामस्कन्त्दे ।
ह्रीं त्रीं (स्त्रीं) हुं िं बके िाय नमेः, हृदयाफददक्षहस्ते ।
ह्रीं त्रीं (स्त्रीं) हुं षं श्वेति
े ाय नमेः, हृदयाफदवामहस्ते ।
ह्रीं त्रीं (स्त्रीं) हुं सं भृग्वीिाय नमेः, हृदयाफददक्षपादे ।
ह्रीं त्रीं (स्त्रीं) हुं हं नकु लीिाय नमेः, हृदयाफदवामपादे ।
ह्रीं त्रीं (स्त्रीं) हुं लं ििवेिाय नमेः, हृदाफद उदरे ।
ह्रीं त्रीं (स्त्रीं) हुं क्षं सम्वतगकाय नमेः, हृदयाफदमुखे ।
॥ इित रुरन्त्यासेः ॥९-१०॥

अब ग्रहन्त्यास की िविध कहते हैं - उपयुगक्त प्रकार से देवी का स्मरण करते हुये इस प्रकार ग्रहन्त्यास करना चािहए - उक्त तीनों
बीजों के साथ स्वर, फिर रक्तवणग सूयग उिारण कर हृदय में, इसी प्रकार य वगग के साथ िुललवणग सोम का उिारण कर दोंनों
भ्रू में, कवगग के साथ रक्तवणग मङ्गल का उिारण कर तीनों नेत्रों में, चवगग के साथ श्यामवणग बुध का उिरण कर वक्षेःस्थल
में, टवगग के साथ पीतवणग बृहस्पित बोलकर कण्ठकू प में, तवगग के साथ श्वेतवणग भागगव को घिण्टका में, पवगग के साथ नीलवणग
िनैिर का उिारण कर नािभ में, िवगग के साथ धूम्रवणग राहु बोलकर मुख में तथा लवगग के साथ, धूम्रवणग के तु बोलकर पुनेः
नािभ में न्त्यास करना चािहए ॥१०-१५॥

ग्रहन्त्यास िविध - ग्रहन्त्यास में सभी वणों के प्रारम्भ में ह्रीं त्रीं हूँ इन तीन बीजाक्षरों को लगा कर न्त्यास करना चािहए ॥१५॥

िवमिग - १ - ॎ ह्रीं त्रीं (स्त्रीं) हुं अं आं इं ईं उं ऊं ऋं ऋं लं लृं ऐं ऐं ओं औं अं अेः रक्तवणग सूयं हृफद न्त्यसािम ।
२ - ॎ ह्रीं त्रीं (स्त्रीं) हुं यं रं लं वं िुललवणं सोमं भ्रुवद्वये न्त्यसािम ।
३ - ॎ ह्रीं त्रीं (स्त्रीं) हुं कं खं गं घं डं रक्तवणग मंगलं लोचनत्रये न्त्यसािम ।
४ - ॎ ह्रीं त्रीं (स्त्रीं) हुं चं छं जं झं ञं श्यामवणं बुघं वक्षस्थले न्त्यसािम ।
५ - ॎ ह्रीं त्रीं (स्त्रीं) हुं टं ठं डं ढं णं पीतवणं बृहस्पित कण्ठकू पे न्त्यसािम ।
६ - ॎ ह्रीं त्रीं (स्त्रीं) हुं तं थं दं धं नं श्वेतवरं भागगवं घिण्टकायाम् ।
७ - ॎ ह्रीं त्रीं (स्त्रीं) हुं पं िं बं भं मं नीलवणं िनैश्चरं नािभदेिे न्त्यासािम ।
८ - ॎ ह्रीं त्रीं (स्त्रीं) हुं िं षं सं हं धूम्रवणं राहुं मुखे न्त्यासािम ।
९ - ॎ ह्रीं त्रीं (स्त्रीं) हुं लं क्षं धूम्रवणं के तुं नाभौं न्त्यसािम ।
॥ इित ग्रहन्त्यासेः ॥१०-१५॥
तदनन्त्तर उक्त प्रकार से भगवती का ध्यान करते हुये प्रयत्न पूवगक तृतीय लोकपालन्त्यास करना चािहए । सवगिसिियाूँ प्राप्त
करने के िलए आरम्भ में माया बीजाफद तीन बीज, तदनन्त्तर हस्व दीघग स्वरों का िमिेः न्त्यास अपने मस्तक के ललाटाफद
प्रथम दो स्थानो और दो फदिाओं में, तदनन्त्तर आठ फदिाओं में आठ कवगागफद वणो का न्त्यास करना चािहए ॥१६-१७॥

लोकपालन्त्यास िविध -
ह्रीं त्रीं (स्त्रीं) हुं अं इं उं ऋं लृं अं ओं अं ललाटपूवे इन्त्राय नमेः ।
ह्रीं त्रीं (स्त्रीं) हुं आं इं ऊं ऋं लृं ऐं औं अेः ललाटािेय्यां अिये नमेः ।
ह्रीं त्रीं (स्त्रीं) हुं कं खं गं घं डं ललाटदिक्षणे यमाय नमेः ।
ह्रीं त्रीं (स्त्रीं) हुं चं छं जं झं ञं लालाटनैऋत्यां िनऋतये नमेः ।
ह्रीं त्रीं (स्त्रीं) हुं टं ठं डं ढं णं ललाटपिश्चमायां वरुणाय नमेः ।
ह्रीं त्रीं (स्त्रीं) हुं तं थं दं धं नं ललाट वायव्यां वायवे नमेः ।
ह्रीं त्रीं (स्त्रीं) हुं पं िं बं भं मं ललाटोत्तरस्यां सोमाय नमेः ।
ह्रीं त्रीं (स्त्रीं) हुं यं रं लं वं ललाटैिान्त्यां ईिानाय नमेः ।
ह्रीं त्रीं (स्त्रीं) हुं िं षं सं हं ललाटोध्वागयां ब्रह्मणे नमेः ।
ह्रीं त्रीं (स्त्रीं) हुं लं क्षं ललाटाधोफदिि अनन्त्ताय नमेः ।
॥ इित लोकपालन्त्यासेः तृतीयेः ॥१६-१७॥

लोकपालन्त्यास के अनन्त्तर ििव ििक्त संज्ञक चतुथग न्त्यास करना चािहए । प्रारम्भ में पूवोक्त तीनों बीजों को लगाकर फिर
चिस्थ वणग, फिर अपनी अपनी ििक्ततयों के साध ६ ििवों को िमिेः मूलाधार आफद ६ चिों में न्त्यस्त करना चािहए ।
उसकी िविध इस प्रकार है - चार दल वाले मूलाधार चि पर विराफद (व ि ष स) चार वणो के साथ डाफकनी सिहत
िद्वतीयान्त्त १. ‘ब्रह्मदेव’ को न्त्यस्त करना चािहए । तदनन्त्तर िलङ्गस्थान िस्थ ६ दलों वाले स्वािधष्ठान चि में बकराफद ६
वणो से राफकनी सिहत िद्वतीयान्त्त २. ‘िवष्णु’ का तदनन्त्तर नािभ देि में िस्थत दिदल वाले मिणपूर चि में डकार से लेकर
िकारान्त्त वणग पयगन्त्त लाफकनी सिहत िद्वतीयान्त्त ३. ‘रुर’ का, तदनन्त्तर हृदयस्थ द्वादि दल वाले अनाहतचि में क से ठ
पयगन्त्त वणो का तथा काफकनी सिहत िद्वतीयान्त्त ४. ‘ईश्वर’ का न्त्यास करना चािहए । इसी प्रकार कण्ठ स्थान में िस्थत १६
दल वाले िविुि चि में १६ स्वरों के साथ िाफकनी सिहत िद्वतीयान्त्त ५. ‘सदाििव’ का तथा भ्रूमध्य िस्थत दो दल वाले
आज्ञाचि में ‘ल’ ‘क्ष’ वणो के साथ हाफकनी सिहत िद्वतीयान्त्त ६. परििव ह्रीं त्रीं (स्त्रीं) हुं न्त्यास करना चािहए ॥१९-२४॥

िवमिग - इस न्त्यास की िविध इस प्रकार है -


ॎ ह्रीं त्रीं (स्त्रीं) हुं वं िं षं सं डाफकनीसिहतब्रह्यणे नमेः मूलाधारे ।
ॎ ह्रीं त्रीं (स्त्रीं) हुं बं भं मं यं रं लं राफकनीसिहतिवष्णवे नमेः स्वािधष्ठाने ।
ॎ ह्रीं त्रीं (स्त्रीं) हुूँ डं ढं णं तं थं दं धं नं पं िं लाफकनीसिहतरुराअय नमेः मिणपूरके ।
ॎ ह्रीं त्रीं (स्त्रीं) हुं कं खं गं घं ङं चं छं जं झं ञं टं ठं काफकनीसिहताय ईश्वराय नमेः अनाहते ।
ॎ ह्रीं त्रीं (स्त्रीं) हुं अं आं इं ईं उं ऊं ऋं ऋं लृं लृं अं ऐं ओं औं अं अेः िाफकनीसिहतसदाििवाय नमेः िविुिाख्ये ।
ॎ ह्रीं त्रीं (स्त्रीं) हुं लं (हं) क्षं हाफकनसिहतपरििवाय नमेः आज्ञाचिे ।
॥ इित ििवििक्तन्त्यासेः चतुथगेः ॥१९-२४॥

तत्पश्चात् अपनी अभीष्ट िसिि के िनिमत्त ताराफद पञ्चम न्त्यास करना चािहए । पूवोक्त तीन बीजों के अनन्त्तर दो दो स्वर,
तदनन्त्तर िमिेः उसके आगे एक एक वगग, तदनन्त्तर तारा आफद अष्ट मूर्णतयों को िमिेः ब्रह्यरन्त्रेः, ललाट, भ्रूमध्य, कण्ठ,
हृदय, नािभ, िलङ्गमूल एवं मूलाधार में न्त्यास करना चािहए । १. तारा, २. उग्रा, ३. महोग्रा, ४. वज्रा, ५. काली, ६.
सरस्वती, ७. कामेश्वरी तथा ८. चामुण्डा - ये तारा आफद अष्ट मूर्णत्तयाूँ कही गई हैं ॥२५-२८॥

िवमिग - इसकी िविध इस प्रकार है -


ह्रीं त्रीं (स्त्रीं) हुं अं आं कं खं गं घं ङं तारायै नमेः, ब्रह्मरन्त्रे ।
ह्रीं त्रीं (स्त्रीं) हुं इं ईं चं छं जं झं अं उग्रायै नमेः, ललाटे ।
ह्रीं त्रीं (स्त्रीं) हुं उं ऊं टं ठं डं ढं णं महोग्रायै नमेः, भ्रमूध्ये ।
ह्रीं त्रीं (स्त्रीं) हुं ऋं ऋं तं थं दे घं नं वज्रायै नमेः, कण्ठदेिे ।
ह्रीं त्रीं (स्त्रीं) हुं लृं लृं पं िं बं भं मं महाकाल्यै नमेः, हृफद ।
ह्रीं त्रीं (स्त्रीं) हुं एं ऐं यं रं लं वं सरस्वत्यै नमेः, नाभौ ।
ह्रीं त्रीं (स्त्रीं) हुं ओं औं िं षं सं हं कामेश्वयै नमेः, िलङ्गमूले ।
ह्रीं त्रीं (स्त्रीं) हुं अं अेः लं क्षं चामुण्डायै नमेः, मूलाधारे ।
॥ इित ताराफदन्त्यासेः ॥२५-२८॥

अब साधकों को िीघ्र िसिि प्रदान करने वाले षष्ठ पीठन्त्यास की िविध कहते हैं -
आधार में बीजित्रतय सिहत हृस्वस्वरों के साथ कामरुप पीठ का, हृदय में पूवगबीजोम के सिहत दीघगस्वरों का उिारण कर
जालन्त्धर पीठ का, ललाट में पूवगवत् तीनों बीजों के आगे कवगग का उिारण कर पूणगिगरर संज्ञक पीठ का, के िसिन्त्धयो में
पूवगवत् तीनों बीजों के साथ चवगग का उिारण कर वाराणसे पीठ का, कण्ठ में यवगग के साथ मथुरा पीठ का, नािभ में िवगग
के साथ अयोध्या पीठ का, तथा करट में (ल क्ष के साथ) दिम काञ्चीपुरी पीठ का न्त्यास करना चािहए । यहाूँ तक जो तारा के
पृष्ठ पीठ न्त्यास कहे गये हैं वे साधकों को सभी प्रकार की िसिि प्रदान करते हैं ॥२९-३४॥
िवमिग - षष्ठपीठन्त्यास िविध -
ॎ ह्रीं त्रीं (स्त्रीं) हुं अं इं उं ऋं ल्ुं एं ओं अं कामरुपपीठाय नमेः, आधारे ।
ॎ ह्रीं त्रीं (स्त्रीं) हुं आं ईं ऊं ऋं लृं ऐं औं अेः जालन्त्धरपीठाय नमेः हृफद ।
ॎ ह्रीं त्रीं (स्त्रीं) हुं कं खं गं घं ङं पूणगिगररपीठाय नमेः, ललाटे ।
ॎ ह्रीं त्रीं (स्त्रीं) हुं चं छं जं झं ञं उड्डीयानपीठाय नमेः, के िसंघौ ।
ॎ ह्रीं त्रीं (स्त्रीं) हुं टं ठं डं ढं ण वाराणसीपीठाय नमेः, भ्रुवोेः ।
ॎ ह्रीं त्रीं (स्त्रीं) हुं तं थं थं दं धं नं अविन्त्तपीठाय नमेः, नेत्रयोेः।
ॎ ह्रीं त्रीं (स्त्रीं) हुं पं िं बं भं मं मायापुरीपीठाय नमेः, मुखे ।
ॎ ह्रीं त्रीं (स्त्रीं) हुं यं रं लं व मथुरापीठाय नमेः, कण्ठे ।
ॎ ह्रीं त्रीं (स्त्रीं) हुं िं षं सं हं अयोध्यापीठाय नमेः, नाभौ ।
ॎ ह्रीं त्रीं (स्त्रीं) हुं लं क्षं काञ्चीपुरीपीठाय नमेः, कट्डाम् ।
॥ इित पीठन्त्यासेः ॥२८-३४॥
मायाबीज में िमिेः ६ दीघगवणों को आफद में लगाकर िमिेः एक जटा का हृदय में, ताररणी का ििर में, वज्रोदका का ििखा
में, उग्रतारा का कवच में, महापररसरा का नेत्रों में, तथा िपङ्गोग्रैजटा का अस्त्रन्त्यास करना चािहए । इसी प्रकर अङ्गगुष्ठाफद
अङ् गुिलयों में करन्त्यास कर तजगनी मध्यमा द्वारा तीन ताली बजा कर छोरटका मुरा से फदग्बन्त्धन करना चािहए । फिर प्रणव
से सम्पुरटत िवद्या (ॎ ह्री त्रीं (स्त्रीं) हुं िट् ॎ ) द्वारा सात बार व्यापक न्त्यास कर िीघ्र वाक् िसिि प्रदान करने वाली उग्रतारा
भगवती का आगे (४.३९-४०) कहे गये श्लोकों में ध्यान करना चािहए ॥३५-३८॥

िवमिग - षडङ्गन्त्यास िविध -


ॎ ह्रां एकजटायै हृदयाय नमेः, ॎ ह्रीं ताररण्यै ििरसे स्वाहा,
ॎ वज्रोदकायै ििखायै वषट् ॎ उग्रजटायै कवचाय हुम्,
ॎ महापररसरायै नेत्रत्रयाम वौषट् ॎ ह्रेः िपङ्गौग्रैकजटायै अस्त्राय िट् ।
इसी प्रकार करन्त्यास कर पूवोक्त रीित से ताली बजाकर व्यापक न्त्यास करना चािहए ॥३५-३८॥

अब उग्रतारा का ध्यान कहते हैं -


िवश्वव्यापक जल के मध्य में श्वेत कमल पर िवराजमान िजन भगवती के दािहने हाथों में खङ्ग एवं नीलकमल तथा बायें
हाथों में कत्तागररका (छु री) एवं कपाल (नरमुण्ड) हैं, िजनके िरीर की कािन्त्त नील वणग की हैं, तथा जो काञ्ची, कु ण्डली, हार,
कङ्कण, के यूर तथा मञ्जीर आफद आभूषणों से, एवं सुन्त्दर नागों से िवभूिषत हैं, ऐसे रक्त वणग वाले तीन नेत्रोम से सुिोिभत
रहने वाली िजन भगवते के िसर पर िपङ्गल वणग की एक जटा है । िजनकी िजहवा चञ्चल है, दन्त्तपिक्तयों के कारण िजनका
मुख महाभयानक प्रतीत हो रहा है । िजनके करट में व्याघ्र चमग, माथे पर श्वेतािस्थपरट्टका तथा ििर पर नागरुप धारी आक्षेभ्य
ऋिष िवराज रहे हैं ऐसी ईषिास्य से युक्त मुख कमल वाली, िव के हृदय पर आसन लगाये हुये कठोर स्तनों वाली ित्रलोक
जननी भगवती तारा का ध्यान करना चािहए ॥३९-४०॥

तारा भगवती का ध्यान करते हुये एक हिवष्यान्न अथवा अनेक दिध मधु अथवा मधु और मांस खाकर तथा ताम्बूल का चवणग
करते हुए तार मन्त्त्र का चार लाख जप करना चािहए । तदनन्त्तर दूध और घी िमलाकर रक्तकमलों से दिांि हवन करना
चािहए । जप स्थान पर महािंख (नर कपाल) स्थािपत कर जप का िवधान कहा गया है । स्त्री को देखते हुये स्पिग करते हुये
अथवा चलते हुये िनिीथ काल में बिल देनी चािहए । िस्त्रयों से कभी द्वेष नहीं करना चािहए, अिपतु सवगदा उनका पूजन
करना चािहए ॥४१-४३॥

तारा मन्त्त्र के जप में काल एवं स्थान का कोई िनयम नहीं है । सवगदा और सभी जगह जप करना चािहए । श्मिान में,
िून्त्यगृह में, देवस्थान (मिन्त्दर) में, एकान्त्त मे, पवगत पर या वन के मध्य में िव पर बैठकर साधक कहीं भी जप कर सकता है ।
युि में मारे गये ित्रु अथवा ६ महीन के मरे हुए बालक के िव पर इस िवद्या की िसिि करनी चािहए । िसिि की हुई यह
िवद्या मनुष्य को िीघ्र ही प्रिसिि प्रदान करती है ॥४४-४५॥

पीठििक्त एवं पीठ मन्त्त्र - १. मेघा, २. प्रज्ञा, ३. प्रभा, ४. िवद्या, ५. धी, ६. धृित, ७. स्मृित ८. बुिि एवं ९. िवद्येश्वरी - ये
पीठ की नव ििक्तयाूँ हैं । भृगम
ु िन्त्वन्त्दस
ु ंयुक्त सकार (सं), तदनन्त्तर औ िबन्त्द ु संयुक्त मेघवत्मग हकार (हौं) सरस्वतीयोगपीठात्मेन
नमेः - यह पीठ मन्त्त्र कहा गया है ॥४६-४८॥

िवमिग - पीठ मन्त्त्र का स्वरुप इस प्रकार है - ‘ सं हौं सरस्वती योगपीठात्मने नमेः’ ॥४६-४८॥

इस पीठ मन्त्त्र से आसन देकर मूल मन्त्त्र से मूर्णत की कल्पना करनी चािहए । तदनन्त्तरी देवी की िजस प्रकार पूजा करनी
चािहए उसकी िविध कहते हैं ॥४९॥
पूजा के बाद िनत्य बिलदान करना चािहए । उसका मन्त्त्र इस प्रकार कहा है - तार (ॎ) माया (ह्रीं), भग (ए), ब्रह्या (क), फिर
‘जटे’ पद । फिर सूयग ‘म’ सदीघग ख ‘हा’ फिर यक्षािधपतयें’ पद, इसके बाद तन्त्री (म), फिर ‘मोपनीतं बतल’ यह पद, फिर
गृहण गृहण, फिर ििवा (ह्रीं) एवं अन्त्त में स्वाहा पद - इतना बिल का मन्त्त्र कहा गया है । इस मन्त्त्र से अधगराित्र में चौराहे पर
बिल प्रदान करना चािहए ॥५०-५१॥

िवमिग - बिल मन्त्त्र का स्वरुप इस प्रकार है -


ॎ ह्रीं एकजटे यक्षािधपतये ममोपनीतं बतल गृहण गृहण ह्रीं स्वाहा’ - इस मन्त्त से िनत्य अधगराित्र में बिलप्रदान करना चािहए
॥५०-५१॥
इस अनन्त्तर जल ग्रहणाफद कायग इन १० मन्त्त्रों से करना चािहए ।
१. रुव (ॎ), फिर ‘वज्रोदके ’ पद, फिर वमग (हुं) अन्त्त में ‘िट् ’ । इस सात अक्षर के मन्त्त्र से जल ग्रहण करना चािहए ॥५२॥
२. माया बीज (ह्रीं) के आफद में तार (ॎ) तथा तन्त्त में विहनजाया (स्वाहा) लगाने से पादप्रक्षालन क मन्त्त्र बनता है ।
३. तार (ॎ), कणीभृगु (सु) फिर ‘िविुि धमग’ फिर ‘सवगपापिनिाम्यािे’ फिर श्वेत (ष), नेत्रयुत् जल (िव), फिर
‘कल्पानपनय स्वाहा’ इस छब्बीस अक्षर के मन्त्त्र से आचमन कराना चािहए ॥५३-५४॥
४. रुव (ॎ), फिर ‘मिणधरर’ यह पद, फिर अिक्षयुत मृत्यु (िि), फिर ‘खरर’ पद, फ्र नेत्रयुता रित (िण), फिर ‘सवग’ पद,
फिर व, तदनन्त्तर सेन्त्दव
ु क (िं) तथा कररिण पद, फिर सेन्त्द ु ििर (कं ) अर्णघखं (हुं), अस्त्र (िट्) तथा अन्त्त में विहनिप्रया
(स्वाहा) एक तेईस अक्षरों के मन्त्त्र से साधक को ििखाबन्त्धन करना चािहए ॥५५-५७॥
५. प्रणव (ॎ), तदनन्त्तर रक्ष युगल (रक्ष रक्ष), दीघग वमग (हं), अस्त्र (िट्) तदनन्त्तर ठ द्वय (स्वाहा), इस ९ अक्षर के मन्त्त्र से
भूिमिोधन करना चािहए ॥५७-५९॥
६. तार (ॎ) के बाद ‘सवगिवघ्नानुत्सारय’ फिर ‘हुं िट् स्वाहा’ इस तेरह अक्षरों के मन्त्त्र से िविों का िनवारण कर
पश्चात् भूतिुिि करनी चािहए ॥५२-५९॥

िवमिग - मन्त्त्रों का स्वरुप इस प्रकार है -


१. जल ग्रहण मन्त्त्र - ॎ वज्रोदके हुं िट् ।
२. पादप्रक्षालन मन्त्त्र - ॎ ह्रीं स्वाहा ।
३. आचमन मन्त्त्र - ॎ सुिविुिधमगसवगपापिनिाम्यािेषिवकल्पानपनय स्वाहा ।
४. ििखाबन्त्धन मन्त्त्र - ॎ मिणधरर विज्रिण ििखररिण सवगवङकररिण कं हुं िट् स्वाहा ।
५. भूिमिोधन मन्त्त्र - ॎ रक्ष रक्ष हं िट् स्वाहा ।
६. िवघ्न िनवारण मन्त्त्र - ॎ सवगिवघ्नानुत्सारयं हुं िट् स्वाहा ॥५२-५९॥

अब भूतिुिि का प्रकार कहते हैं - सवगप्रथम जपा कु सुम (ओङहुल) के समान लाल आभा वाले माया बीज (ह्रीं) का नािभस्थान
में ध्यान करना चािहए । तदनन्त्तर उससे िनकलने वाली अिि की लपटों से पाप सिहत अपने िरीर को जला देना चािहए ।
फिर सुवणग के समान पीत वणग वाले त्रीं या स्त्रीं का हृदय प्रदेि में ध्यान कर उससे उत्पन्न वायु द्वारा पापों को भस्म कर िरीर
से बाहर िनकाल कर पृथ्व्वी पर िें क देना चािहए । पश्चात् चन्त्रमा या कु न्त्द के समान श्वेत आभा वाले तुरीय बीज (हूँ) का
ललाट देि में ध्यान कर उससे उत्पन्न अमृत द्वारा देवता के समान अपने िनष्पाप िरीर की रचना करनी चािहए । इस प्रकार
की भूतिुिि की फिया से साधक स्वयं देवे के सदृि बन जाता है ॥६०-६३॥

िवमिग - भूतिुिि प्रयोगिविध - साधक को अपनी गोद में दोनों हाथोम को उत्तानमुरा में रखकर पद्मासन बाूँधकर एकान्त्त
एवं िान्त्त भाव से बैठ जाना चािहए । फिर ‘हंस’ मन्त्त्र से साधक कु ण्डिलिन को जीवात्मा एवं चौबीस तत्त्वों के साथ
सुषुम्नामागग से ऊध्वग गित से ले जाकर ििर में िस्थत सहस्रार पद्म में परमििव से उन्त्हें िमला दें ।
(१) तदनन्त्तर साधक नािभ में रक्तवणग ‘ह्रीं’ बीज का ध्यान कर सोलह बार जप करते हुए पूरक फिया द्वारा उस बीज से
उत्पन्न अिि की लपटों से पापसिहत िलङ्ग िरीर को जला दे ।
(२) तत्पश्चात हृदय में पीतवणग ‘स्त्रीं’ बीज का ध्यान कर चौंसठ बार जप करते हुए कु म्भक प्राणायाम से भस्म को इकटठा
कर साधक को रे चक फिया द्वारा उक्त भस्म को बाहर िनकाल कर िें क देना चािहए ।
(३) इसके बाद ििर में िुललवणग ‘हुं’ बीज का ध्यान कर बत्तीस बार जप करते हुए पूरक फिया द्वारा उत्पन्न अमृत से
आप्लािवत कर फदव्य िरीर की रचना करनी चािहए ।

िे त्काररणी तन्त्त्र के अनुसार साधक को भूतिुिि कर ‘आेः’वणग को रक्त कमल के समान ध्यान कर उसके ‘आूँ’ वणग को
श्वेतकमल के समान औइर उसके ऊपर ‘हुं’ बीज को नीलकमल के समान ध्यान कर उसके ऊपर ‘हुं’ बीज से उत्पन्न बीजभूिषत
कतगररका का ध्यान करना चािहए । कतगररका के ऊपर अपनी आत्मा का ताररणी (तारादेवी) के रुप में ध्यान करना चािहए ।
फिर ‘आं’ ह्रीं िौं स्वाहा’ इस मन्त्त्र का ग्यारह बार जप करते हुए हृदय में देवी की प्रानप्रितष्ठा करनी चािहए । इस प्रकार की
भूितिुििकी फिया से साधक स्वयंदव
े ी सदृि हो जाता है ॥६०६३॥

अब भूिमिनमन्त्त्रण आफद का मन्त्त्र कहते हैं -


७. तार (ॎ), फिर ‘पिवत्र वज्र’ पद, फिर भूिम, फिर अधीिेन्त्दय
ु ुत िवयत् (हूँ) इसके अन्त्त में विहनिप्रया (स्वाहा) यह
ग्यारह अक्षरों का भूिम अिभमन्त्त्रण का मन्त्त्र बन जाता है ॥६३-६४॥

८. तार (ॎ) अनन्त्त (आ), फिर कणी भृगु (सु) फिर पद्मनाभयुत बली (रे ), तदनन्त्तर ‘खे वज्र रे ख’े , फिर िोध बीज (हुं),
फिर अन्त्त में पावकवल्लभा (स्वाहा) लगाने से बारह अक्षरों का मण्डल रचना का मन्त्त्र िनष्पन्न होता है । साधक को इस मन्त्त्र
से िुभ मण्डल की रचना करनी चािहए ॥६४-६५॥

९. तार (ॎ), फिर ‘यथागता’ , फिर ‘सदृक् िनरा’ इकार युक्त भकार अथागत् (िभ), फिर ‘षेक’ पद, फिर भृगु (स),
सदीघगिवष (मा), सािक्ष स्मृित (िि) भगािन्त्वत महाकाल (मे), िोध (हुं), एवं अन्त्त में अस्त्र (िट्) लगाने से चौदह अक्षरों का
पुष्पाफदिोधन मन्त्त्र बनता है ।
१०. तार (ॎ), पािं (आं) परा (ह्रीं) उसके अन्त्त में स्वाहा लगाने से पाूँच अक्षरों का िचत्तिोधन मन्त्त्र बनता है -

इस प्रकार जल ग्रहण आफद के दि मन्त्त्र बतलाये गये । आगे अघ्नयग स्थापन की फिया का वणगन करे गें ॥६६-६७॥

िवमिग - मन्त्त्रों का स्वरुप इस प्रकार है -


७ - भूिम अिभमन्त्त्रण मन्त्त्र - ॎ पिवत्रवज्रभूम्रे हं स्वाहा ।
८ - मण्डल रचना मन्त्त्र - ॎ आसुरेखे वजगरेखे हुं स्वाहा ।
९ - पुष्पाफदिोधन मन्त्त्र - ॎ यथागतािभषेकसमािि मे हुं िट् ।
१० - िचत्तिोधन मन्त्त्र - ॎ आं ह्रीं स्वाहा ॥६६-६७॥

यहाूँ तक ग्रन्त्थकार ने दि मन्त्त्रों का वणगन फकया । अब आगे अध्यग स्थापन की िविध कहते हैं -

सेन्त्द ु (सानुस्वार) मांस (ल) तथा तोय व (अथागत् लं वं) मन्त्त्र पढकर भूिम िोधन करें । पश्चात् मण्डल मन्त्त्र (ॎ आसुरेखे
वज्ररे खे हुं स्वाहा ) पढकर वृत्त ित्रकोण और चतुष्कोणात्मक मण्डल की रचना कर उस पर आधार ििक्त ‘आधारिक्तये नमेः’
कच्छप (कच्छपाय नमेः) नागनायक िेष (िेषाय नमेः) का पूजन करें । तदनन्त्तर आफद में तार (ॎ) माया (ह्रीं) सिहत िडन्त्त
मन्त्त्र अथागत् ‘ॎ ह्रीं िट् ’ इस मन्त्त्र से मण्डल पर आधार पात्र स्थािपत करें । इसके पश्चात् ‘मं विहनमण्डलाय नमेः’ इस मन्त्त्र
से विहनमण्डल के पूजाकर वाम कणग (उकार) इन्त्द ु अनुस्वार से युक्त िवहायस ह (अथागत् हुं) उसके बाद िट् अथागत् ‘हुं िट’
इस मन्त्त्र से महािंख (नरकपाल) का प्रक्षालन कर भृगु (स), दण्डी तृ ित्रमृत्ती ई उस पर िबन्त्द ु (अथागत् स्त्रीं) इस बीज मन्त्त्र से
महािंख (नर कपाल) को आधार पात्र पर स्थािपत करना चािहए ॥६८-७१॥

तदनन्त्तर वक्ष्यमाण चार मन्त्त्रों को पढते हुए उस महािङ्ख की पूजा करनी चािहए । दीघगत्रयािन्त्वता माया (ह्रां ह्रीं हुं), फिर
‘काली’, सृिष्ट (क), दीघग सिहत प (पा) प्रितष्ठा युत् मांस (ला), तदनन्त्तर पवन (य), अन्त्त में हृदय (नमेः) लगाने से महािङ्ग
पूजा का ग्यारह अक्षर का प्रथम मन्त्त्र बनता है ॥७२-७३॥

िवमिग - मन्त्त्र का स्वरुप - (१) ‘ह्रा ह्रीं हं कालीकपालाय नमेः’ ।


अनुस्वार एवं दीघग त्रय सिहत हंस (स्), हरर (त् ), भुजङे ि (रृ) अथागत् स्त्रां स्त्रीं स्त्रृं फिर ‘ताररणी’ उसके अन्त्त में ‘कपालाय
नमेः’ लगाने से वाराह अक्षर का दूसरा मन्त्त्र बनता है ॥७४॥

िवमिग - (२) ‘स्त्रां स्त्रीं स्त्रृं ताररणीकपालय नमेः’ ।


िबन्त्द ु एवं दीघगत्रय समिन्त्वत ख (ह) अथागत् ह्रां ह्रीं हूँ, वामदृक सिहत मेष (नी), फिर ‘ला कपालाय’ उसके अन्त्त में हृदय
(नमेः) लगाने से ग्यारह अक्षरों का तृतीय मन्त्त्र बनता है ॥७५॥

िवमिग - मन्त्त्र का स्वरुप - (३) ‘हां हीं हं नीलाकपालाय नमेः’ तदनन्त्तर खाफदम (क), फिर ‘पालाय सवागधाराय’, फिर
चतुथ्व्यगन्त्त सवग, ‘सवोद्भव’ तथा ‘सवगिुििमय’ िब्द (सवोद्भवाय सवगिुििमयाय), फिर ‘सवागसुर; तब ‘रुिधरारु’ उसके
अनन्त्तर दीघगरित ‘णा’ फिर वायु य (सवागसुर रुिधरारुणाय), फिर ‘िुभ्रा’ पद फिर अिनल (य) (िुभ्राय) तदनन्त्तर
‘सुराभाजनाय’ , फिर भगीसत्य (दे), फिर ‘वीकपालाय’ पद (देवीकपालाय), तदनन्त्तर हृत् (नमेः) इस प्रकार रस ६ इषु ५
‘अङ्कानां वामतो गितेः’ के अनुस्वार ५६ अक्षरों का तुयग अथागत् चौथा महािंखापृजन का मन्त्त्र िनष्पन्न होता है ॥७६-७८॥

िवमिग - मन्त्त्र का स्वरुप - (४) ‘ह्रीं स्त्रीं हं स्वगगकपालाय सवागधाराय सवागय सवोद्भवाय सवगिुििमयाय सवागसुररुिधरारुणाय
िुभ्राय सुराभाजनाय देवीकपालाय नमेः ॥६७-७८॥

उस कपाल में ‘अं सूयगमण्डलाय नमेः’ मन्त्त्र से अकग मण्डल की पूजाकर मूलमन्त्त्र पढते हुए मद्य की भावना से उसमें जल भरे ,
तदनन्त्तर, गन्त्ध, पुष्प एवं अक्षत डालकर ित्रखण्डमुरा फदखाते हुए ‘ॎ सोममण्डलाय नमेः’ इस मन्त्त्र से जल में चन्त्रमण्डलं की
पूजा करनी चािहए ॥७८-८०॥

वाक् (ऐं) ििक्त (ह्रीं), पद्मा (श्रीं) रे िानुग्रह िबन्त्दस


ु िहत गगन (ह्रीं), फिर मूल मन्त्त्र (ॎ ह्रीं त्रीम हुं िट्) फिर स औ िवसगग से
युक्त ह अथागत् हसौेः, फिर अन्त्त में दीिपका एवं िबन्त्दस
ु िहत वरह (हूँ) लगाने से ग्यारह अक्षरों वाला मन्त्त्र बनता है ॥८१॥

िवमिग - यथा ऐं ह्रीं श्रीं ह्रीं ॎ ह्रीं त्रीं हुं िट हसौेः हं ॥८१॥
इस मन्त्त्र का आठ बार पढकर साधक जल को अिभमिन्त्त्रत कर । फिर मायाबीज (ह्रीं) मन्त्त्र से उसमें मफदर डालकर िंखमुरा
एवं योिनमुरा प्रदर्णित करें ॥८२॥

िवमिग - अध्यगस्थापन की िविध - साधक अपने बॉयीं ओर अघ्नयगस्थापन के िलए सवगप्रथम ‘लं वं,’ इन बीजों से भूिम साि एवं
िुि करके ‘ॎ आसुरेखे वजगरेखे हुं स्वाहा’ इस मन्त्त्र से वृत्त ित्रकोण एवं चतुष्कोण मण्डल बनावें । उस पर ‘ॎ आधारिक्तये
नमेः, ॎ कू मागय नमेः, ॎ िेषाय नमेः,’ इन मन्त्त्रों से आधारििक्त, कू मग एवं िेषनाग का पूजन कर ‘ॎ ह्रीं िट्’ मन्त्त्र से अघ्नयग
के आधार पात्र को स्थािपत करे ।

तत्पश्चात् ‘ॎ मं विहनमण्डलाय नमेः, - इस मन्त्त्र से आधार पात्र का पूजन कर ‘हुूँ िट् ’ मन्त्त्र से महािंख (नरकपाल) को
धोकर ‘स्त्रीं’ बीज पढते हुये आधार पात्र पर महािंख को स्थािपत करना चािहए ।
फिर िनम्निलिखत चार मन्त्त्रों से महािंख का पूजन करना चािहए ।
१ - ह्रां ह्रीं हं कालीकपालाय नमेः ।
२ - स्त्रां स्त्रीं स्त्रूं ताररणीकपालाय नमेः ।
३ - हां हीं हं नीलाकपालाय नमेः ।
४ - ह्रीं स्त्रीं हं स्वगगकपालाय सवागधाराय सवागय सवोद्भवाय सवगिुििमयाय सवागसुररुिधरुणाय िुभ्राय सुराभाजनाय
देवी कपालाय नमेः ।
इन मन्त्त्रों से महािंख का पूजन कर ‘अं सूयगमण्डलाय नमेः’ - इस मन्त्त्र से अकग मण्डल का पूजन कर मूलमन्त्त्र पढते हुए मफदरा
की भावना से उसमें जल भरकर गन्त्ध, पुष्प एवं अक्षत डालने चािहए तथा ित्रखंडा मुरा प्रदर्णित करनी चािहए ।

फिर ‘ॎ सोममण्डाय नमेः’ - इस मन्त्त्र से जल में चन्त्रमण्डल की पूजा कर ‘ऐं ह्रीं श्रीं ॎ ह्रीं त्रीं िट् ह्सौंह हम्’ इस मन्त्त्र
को पढते हुए आठ बार जल को अिभमिन्त्त्रत करना चािहए ॥८२॥

तत्पश्चात ‘ह्रीं’ से उस जल में तीथग (मफदरा) डालकर िंख मुरा एवं योिन मुरा प्रदर्णित करनी चािहए ।
उस अध्यग के जल में वृत्तेः अष्टदल एवं षटकोण रुपी यन्त्त्र कीं भावना एवं षटकोण रुपी यन्त्त्र की भावना कर पूवोक्त
(४.३९,४०) िविध से देवी का ध्यान कर मूल मन्त्त्र से उनका पूजन्त्म करना चािहए ॥८३॥

तदनन्त्तर तजगनी, मध्यमा, अनािमका, किनिष्ठका तथा अंगूठे को िमलाकर मूलमन्त्त्र द्वारा महाकपाल िस्थत अघ्नयग के जल से
४ बार देवी का तपगण करना चािहए ॥८४॥

फिर ख (ह), जो रे ि औ और िबन्त्द ु से युक्त हो (हौं) तथा िबन्त्द ु अनुस्वार भृगु स और से युक्त हकार (हसौं) एस प्रकार मन्त्त्र
के आफद में रुव (ॎ) लगाकर अन्त्त में ‘नमेः’ लगाकर अथागत् ‘ॎ ह्रौं हसौ नमेः’ इस मन्त्त्र से आनन्त्दभैरव का तपगण करना
चािहए ॥८५॥

तपगण करने के उपरान्त्त अध्यगपात्रस्थ जल से पूजा सामग्री का प्रोक्षण करें । फिर योिनमुरा फदखाकर भवताररणी भगवती
तारा को प्रणाम करना चािहए ॥८६॥

तारा पूजा के िवधान के मध्य में ग्रन्त्थकार ने पूवग में सवगिसिि प्रदान करने वाले पीठ का वणगन फकया है । उसी पूवोक्त (र०
४. ८३) षट्कोण, कर्णणका, अष्टदल कमल एवं भूपुर से वेिष्टत पीठ पर रम्य उपचारों से देवी का पूजन करना चािहए ।
तदनन्त्तर वक्ष्यमाण िविध से पीठ के चारोम ओर गणेिाफद का पूजन चािहए ॥८७-८८॥

अब भगवती के आवरण की पूजा का प्रकार कहते हैं


पीठ के पूवग फदिा के द्वार पर हाथोम में पाि, अंकुि कपाल तथा ित्रिूल धारण फकये हुए अनेक अलङ्कारो से सुिोिभत
गणेि जी का पूजन करना चािहए ॥८९॥

पीठ के दिक्षण द्वार पर हाथों में कपाल एवं ित्रिूल िलए हुये सपगरुप आभूषणों से सुिोिभत श्वानों के दल से िघरे हुये बटुक
भैरव की पूजा करनी चािहए ॥९०॥

पीठ के पिश्चमे वार पर तलवार, ित्रिूल, कपाल एवं डमरु हाथों में िलए हुये, कृ ष्णवणग, फदगंम्बर एवं िृ र आकृ ित वाले
क्षेत्रपाल का पूजन करना चािहए ॥९१॥

तदनन्त्तर पीठ के उत्तर द्वार पर कपाल, डमरु, पाि एवं िलङ्ग हाथों में धारण करने वाली और लाल वस्त्र धारण की हुई
तथा आतों के आभूषणों से भृिषत योिगिनयों की पूजा करनी चािहए ॥९२॥

पीठ के ऊपर देवी के मस्तक पर नागरुप से िवराजमान तारा मन्त्त्र के अक्षोभ्य ऋिष का ‘अक्षोभ्य वज्रपुष्पं प्रतीच्छ स्वाहा’
इस मन्त्त्र से पूजन करना चािहए । तदनन्त्तर षट्कोणों में षडङ्गपूजा करनी चािहए ॥९३॥

पूवागफद फदिाओं के अष्टदलों में िमिेः वैरोचन, अिमताभ, पद्मनाभ एवं पाण्डु िंख की पूजा करे म । अष्टदल के कोणों में
इष्टिसिि के िलए लामका, मामका, पाण्डु रा तथा तारका की पूजा करनी चािहए । संबोधन पूवगक नाम के आद्य में अनुस्वार
लगाकर, तदनन्त्तर ‘वज्रपुष्पं प्रतीच्छ स्वाहा’ इस मन्त्त्र से वैरोचन आफद की पूजा करनी चािहए । भूपुर के चारोम द्वारों पर
पद्मान्त्तक, यमान्त्तक, िवघ्नान्त्तक, तथा नारान्त्तक की पूजा करनी चािहए । फिर इन्त्राफद दिफदलपालों की तथा उनके वज्र
आफद आयुधोम की पूजा करनी चािहए ॥९४-९९॥

इस प्रकार देवी का पूजन करने से साधक अदभुत पािण्डत्य धन, पुत्र, पौत्र, सुख एवं कीर्णत्त प्राप्त करता है तथा जनसामान्त्य
को अपने वि में करने की ििक्त प्राप्त करता है ॥९९-१००॥

िवमिग - ऊपर ४.८८ से ४.९९ पयगन्त्त तारा के आवरण पूजा की िविध कही गई है उसका यथािम संक्षेप इस प्रकार है -
पूवोक्त (र० ४. ८३-८६) रीित से देवी की पूजा कर योिनमुरा प्रदर्णित कर ‘आवरण ते पूजयािम, देिव आज्ञापय’ मन्त्त्र
पढकर देवी से आज्ञा ले कर पूजा करनी चािहए ।
प्रथम पीठ के द्वार पर पािांकुिो (र० ४.८९) से गणपित का ध्यान कर ‘गणपतये नमेः गणपित’ इस मन्त्त्र से गणपित की
पूजा करे । पुनेः पीठ के दिक्षण द्वार पर ‘कपाल िूले’ (र० ४. ९०) आफद श्लोक से ध्यान कर ‘बटुक भैरवाय नमेः’ इस मन्त्त्र से
बटुक भैरव की पूजा करे ॥ पुनेः पीठ के पिश्चमे द्वार पर अिसिूलकपालािन’ (र० ४.९१) श्लोक से ध्यान कर ‘क्षेत्रपालाय नमेः’
इस मन्त्त्र से क्षेत्रपाल की पूजा करे , पुनेः पीठ के उत्तर फदिा में ‘कपालं डमरुं पािं’ (र ० ४.०२) इस श्लोक से ध्यान कर
‘योिगनीभ्यो नमेः’ इस मन्त्त्र से योिगिनयों की पूजा करनी चािहए ।
पुनेः पीठ के ऊपर ‘ॎ अक्षोभ्य वज्रपुष्पं प्रतीच्छ स्वाहा’ इस मन्त्त्र से अक्षोभ्य ऋिष का पूजन करना चािहए । तदनन्त्तर
के िरों के अिि कोण, ईिान कोण, वायव्य एवं नैऋत्य कोणों में तथा मध्य फदिा में इस प्रकार षडङ्ग पूजा करनी चािहए ।
यथा -
ॎ ह्रां एकजटायै नमेः, आिेये ।
ॎ ह्रीं ताररण्यै ििरसे स्वाहा, ईिान्त्ये ।
ॎ ह्रूं वज्रोदाकायै ििखायै वषट् वायव्ये ।
ॎ ह्रैं उग्रजटायै कवचाय हुं, नैऋत्ये ।
ॎ ह्रौं महापररसरायै नेत्रत्रयाय वौषट् , मध्ये ।
ॎ ह्रेः िपङ्गोग्रैकजटायै अस्त्राय िट् , चतुर्ददक्षु ।

इसके अनन्त्तर पूवागफद िस्थत दलों की फदिाओं में िस्थत अष्टदलों के कमलों मे वैरोचनाफद का तथा आिेयाफद कोणों में
िस्थत दलों में लामका आफद का इस प्रकार पूजन करना चािहए -

ॎ वं वैरोचन वज्रपुष्पं प्रतीच्छ स्वाहा ।


ॎ अं अिमताभ वज्रपुष्पं प्रतीच्छ स्वाहा ।
ॎ पं पद्मनाभ वज्रपुष्पं प्रतीच्छ स्वाहा ।
ॎ िं िंखनाभ वज्रपुष्पं प्रतीच्छ स्वाहा ।
ॎ लां लािमके वज्रपुष्पं प्रतीच्छ स्वाहा ।
ॎ मां मािमके वज्रपुष्पं प्रतीच्छ स्वाहा ।
ॎ पां पाण्डु रे वज्रपुष्पं प्रतीच्छ स्वाहा ।
ॎ तां तारके वज्रपुष्पं प्रतीच्छ स्वाहा ।
फिर भूपुर के चारों द्वारों पर यथािम पूवागफद फदिाओं में पूजन करे -
ॎ पं पद्मान्त्तक वज्रपुष्पं प्रतीच्छ स्वाहा ।
ॎ यं यमान्त्तकं वज्रपुष्पं प्रतीच्छ स्वाहा ।
ॎ तव िवघ्नात्मक वज्रपुष्पं प्रतीच्छ स्वाहा ।
ॎ नां नारान्त्तक वज्रपुष्पं प्रतीच्छ स्वाहा ।
तदनन्त्तर चतुरस्न के पूवग आफद फदिाओं में इन्त्राफद लोकपालों का यथािम पूजन करना चािहए -
ॎ लां इन्त्राय देवािधपतये नमेः, पूवग ।
ॎ रां अिये तेजािधपतये नमेः, आिेये ।
ॎ यां यमाय प्रेतिधपतये नमेः, दिक्षणे ।
ॎ क्षां िनऋतये रक्षोिधपतये नमेः, नैऋत्ये ।
ॎ वां वरुणाय जलािधपतये नमेः पिश्चमे ।
ॎ यां वायवे प्राणािधपतये नमेः, वायव्ये ।
ॎ सां सोमाय तारािधपतये नमेः, उत्तरे ।
ॎ हां ईिानाय गणािधपतये नमेः, ईिाने ।
ॎ आं ब्रह्मणे प्रजािधपतये नमेः, पूवेिानयोमगध्ये ।
ॎ ह्रीं अनन्त्ताय नागािधपतये नमेः, िनऋितवरुणयोमगध्ये ।
इसके बाद चतुरस्र के बाहर दि फदलपालों के आयुधों का पूजन पूवग आफद फदिाओम में करन चािहए -
ॎ वज्राय नम, पूवे, ॎ िक्तये नमेः, आिेये, ॎ दण्डाय नमेः, दिक्षणे,
ॎ खड् गाय नमेः, नैऋत्ये, ॎ पािाय नमेः, पिश्चमे, ॎ अंकुिाय नमेः, वायव्ये,
ॎ गदायै नमेः, उत्तरे , ॎ िूलाय नमेः, ईिाने, ॎ पदमाय नम, ऊध्वगम्,
ॎ चिाय नमेः अधेः ।
इस प्रकार पाूँच आवरणों की पूजा कर पाूँच पुष्पाञ्जिल भगवित को समर्णपत करे ।
अब पूजा के उपरान्त्त बिलदान मन्त्त्र का उिार कहते हैं -
तार (ॎ), माया (ह्रीं), फिर, ‘श्रीमदेकजटे नीलसरस्वित महोग्रतारे दे’ फिर सनेत्र वाल (िव) फिर गफदयुग्मक (ख ख), फिर
‘सवगभूतिपिा’, फिर कू मग (च), दीघग अिि (रा), मेरु (क्ष), फिर ‘सान्’, ‘ग्रस ग्र’ फिर भृगु (स), फिर ‘मम जाड्य’ फिर २ बार
छेदय िब्द, फिर रमा (श्रीं), माया (ह्रीं), अस्त्र (िट्) तथा अन्त्त में अिििप्रया (स्वाहा) लगाने से बावन अक्षरों का मन्त्त्र
िनष्पन्न होता है । इस मन्त्त्र से प्रितफदन पूजा के बाद भगवती को बिल समर्णपत करनी चािहए । इस प्रकार मन्त्त्र िसिि होने
पर साधक काम्य कमग का अिधकारी हो जाता है ॥१००-१०३॥

िवमिग - बिलदान मन्त्त्र का स्वरुप - ॎ ह्रीं श्रीमदेकजटे नीलसरस्वित महोग्रतारे देिव ख ख सवगभूतिपिाचराक्षसान् ग्रस
ग्रस मा जाड्यं छेदय छेदय श्री ह्रीं िट् स्वाहा ॥१००-१०३॥

अब काम्य प्रयोग कहते हैं -


नवजात िििु के उत्पन्न होने पर ३ फदनों के भीतर उसकी िजहवा पर िहद एवं घी (स्वणग िनर्णमत या श्वेत दूवाग िनर्णमत)
िलाका से तारा मन्त्त्र िलखाना चािहए । इस फिया के अनुष्ठान से ८ वषग व्यतीत हो जाने पर वह बालक िनिश्चत रुप से
महकिव बन जाता है तथा अन्त्य िवद्वानों से अपरािजत होकर राजपूिजत हो जाता है ॥१०४-१०६॥
ग्रहण के समय सरोवर में तैरते हुए काष्ठ की लेखनी बनावें फिर कमल के पत्ते पर तेल, मधु और मफदरा से तारा मन्त्त्र
िलखकर मातृका (इलयावन अक्षरों) वणो से उसे वेिष्ट कर चौकोर मेखला वाले कु ण्ड में उसे गाडकर अििस्थापन कर
तारामन्त्त्र से गोदुग्धिमिश्रत जल से आप्लुत रक्त कमलों से एक हजार आहुितयाूँ देवे । फिर िविवध अन्न और मांस स िविधवत्
भगवती तारा को बिलदान देना चािहए । बिलदान का मन्त्त्र इस प्रकार है ॥१०६-११०॥

तार (ॎ) फिर दो बार पद्मे िब्द (पद्मे पद्मे), फिर तन्त्री (म) दीघगवेयत् (हा) लोिहत (प) वृषभगारुढोऽित्रेः म ए से युक्त द
(अथागत् द्मे) फिर ‘पद्मावती’ फिर िझण्टीिाढयोऽिनलेः य् ए से युक्त ‘ये’ तदनन्त्तर ‘स्वाहा’ यह सोलह अक्षरों का बिल मन्त्त्र
िनष्पन्न होता है ॥११०-१११॥

मन्त्त्र का स्वरुप - ‘ॎ पद्मे पद्मे महापद्मे पद्मावतीये स्वाहा’ ॥११०-१११॥


फिर िनिीथ काल में भी पूवोक्त मन्त्त्र (र० ४.५०-५१) से बिल देनी चािहए । ऐसा करने से साधक पिण्डतों से अपराजेय
एवं महाकिव हो जाता है । उसमें स्वयं लक्ष्मी एवं सरस्वती दोनों िनवास करती हैं तथा वह समस्त जनसमूहों को प्रसन्न करने
में सक्षम हो जाता है ॥११२-११३॥

तारा मन्त्त्र का १०० बार जप कर जो व्यिक्त गोरोचन का ितलक अपने ललाट पर धारण करता है वह िजसे देखता है, वह
तत्काल उसका दास बन जाता है ॥११३-११४॥

मंगलवार के फदन राित्र के समय स्मिान से अङ्गार लाकर काले कपडे में उसे लपेट कर और लाल धागोम से उसे बाूँध कर
मूल मन्त्त्र से १०० बार जप कर ित्रु के घर में िें क दे तो एक सप्ताह के भीतर ित्रु का पररवार सिहत उिाटन हो जाता है
॥११४-११६॥

रिववार को राित्र में पुरुष की हड्डी पर सैन्त्धव एवं हल्दी से मूल मन्त्त्र िलखकर १००० मन्त्त्रों से उसे अिभमिन्त्त्रत कर ित्रु
के घर में िे क देने से वह पदच्युत हो जाता है और खेत में िे कने से वहाूँ िसल नहीं उगती तथा घोडसाल में िें क देने से घोडे
मर जाते हैं ॥११६-११८॥

भोजपत्र पर षट्कोण, अष्टदल, एवं भूपुर वाला यन्त्त्र लाक्षारस से िलखकर षट्कोण के मध्य में मूलमन्त्त्र अथा साध्य व्यिक्त
का नाम िलखें, के िरों पर स्वर िलखें तथा अष्टदलोम में कवगागफद आठ वगग िलखकर भूपुर से वेिष्टत करें । पुनेः इस मन्त्त्र को
पीले कपडे से लपेट कर पीले धागों से बाूँध देना चािहए । इस यन्त्त्र को बिोम के गले में बाूँधने से भूत प्रेताफदकों के भय से
उनकी रक्षा हो जाती है । िस्त्रयों को बाएूँ हाथ मे धारन करणे से पुत्र और सौभाग्य की वृिि होती है । पुरुषों को दािहनी
भुजा में धारण करने से िनधगन को धन और िजज्ञासुओं को ज्ञान, तथा राजा को िवजय प्राप्त होती है ॥११८-१२१॥
इस मन्त्त्र को पूवगकाल में गौतमाफद महर्णषयों ने धारण फकया था, िजससे उनको मुिक्त प्राप्त हुई । राजर्णषयों ने साम्राज्य प्राप्त
फकया । इस िवषय में िविेष लया कहें ? यह यन्त्त्र मनुष्योम की मनोवांिछत िसिि किवत्त्व, राजसम्मान, कीर्णत, आयु एवं
आरोग्य प्रदान करता है । किलयुग में तारा के समान सवगिसििदायक कोई अन्त्य देवता नहीं है । अतेः मनोिभलिषत चाहने
वालों को यह िवद्या गोपनीय रखनी चािहए ॥१२२-१२४॥

पञ्चम तरङ्ग
अररत्र
अब तारा के मन्त्त्रभेदों को कहता हूँ जो िीघ्र ही िसिि प्रदान करने वाले हैं -

विहन (र), दीघागिक्ष (ई) और िबन्त्द ु से युक्त कािमकास्त्र (अथागत् त्रीं) फिर भुवनेश्वरी (ह्रीं) एवं दो वमगबीजों के मध्य में
भुवनेिी (हुं ह्रीं हुं) इसके अन्त्त में िट् तथा आफद में प्रणम (ॎ) लगाने से ब्रह्योपािसत सप्ताक्षरी महािवद्या (तारा) का मन्त्त्र
िनष्पन्न होता है ॥१-२॥

िवमिग - (१) ब्रह्योपािसत तारा मन्त्त्र का स्वरुप इस प्रकार है - ॎ त्रीं ह्रीं हुं ह्रीं हुं िट् ॥१-२॥
वाक् । (ऐं), ििक्त (ह्रीं), कमला (श्रीं) काम (ललीं), अनुग्रह सगगवान् हंस (सौेः), वमग (हुं), ‘उग्रतारे ’ फिर वमग (हुं), इसके अन्त्त
में ‘िट् ’ लगाने से िवष्णु के द्वारा उपािसत १२ अक्षरों का तारा मन्त्त्र िनष्पन्न होता है ॥३॥

िवमिग - (२) िवष्णूपािसत तारा मन्त्त्र का स्वरुप इस प्रकार है - ऐं ह्रीं श्रीं ललीं सौेः हुं उग्रतारे हुं िट् ॥३॥
तार (ॎ), वमग (हुं), ििवा (ह्रीं), काम (ललीं) मनुसगगसिहत भृगु (सौेः) वमग (वमग) एवं अन्त्त में अस्त्र (िट्) लगाने से िसिि
प्रदान करने वाला िवष्णुसेिवत तारा का सप्ताक्षरी मन्त्त्र िनष्पन्न होता है ॥४॥

िवमिग - (३) िवष्णु द्वारा उपािसत िद्वतीय तारा मन्त्त्र का स्वरुप इस प्रकार है - ॎ हुं ह्रीं ललीं सौेः हुं िट् ॥४॥
ऊपर कहे गये िवष्णु से उपािसते द्वादिाक्षर एवं सप्ताक्षर इन दोनों िवद्याओं में पञ्चमं बीज (सौेः) के आफद में यफद ह लगा
फदया जाये तो प्रथम मन्त्त्र और उसके अन्त्त में ‘रे ि’ लगा फदया जाय तो वह ‘ब्रह्योपािसत’ तारा का दूसरा मन्त्त्र बन जाता है
॥५॥

िवमिग - (४) द्वादिाक्षर मन्त्त्र के पञ्चम (सौेः) के पहले ह लगाने से ब्रह्योपािसत तारा का प्रथम मन्त्त्र िनष्पन्न होता है ।
इसका स्वरुप इस प्रकार है - ‘ऐं ह्रीं श्रीं ललीं हसौेः हुं उग्रतारे हुं िट् ।
(५) सप्ताक्षर मन्त्त्र के पञ्चम (सौेः) के पहले (रृ) अन्त्त में है िजसके , ऐसा ह अथागत् ह लगाने से ब्रह्योपािसत तारा मन्त्त्र का
िद्वतीय मन्त्त्र बनता है । िजसका स्वरुप इस प्रकार होता है - ‘ॎ हुं ह्रीं ललीं ह्रसौेः हुं िट् ’ ॥५॥
इसका अनन्त्तर एकजटा के दो मन्त्त्र का प्रितपादन करते हैं -
तार (ॎ) माया (ह्रीं), वमग (हुं) फिर माया (ह्रीं) वमग (हुूँ) और इसके अन्त्त में अस्त्र (िट्) लगाने से षडक्षर मन्त्त्र बन जाता है
॥६॥

िवमिग - (६) एकजटा मन्त्त्र का स्वरुप इस प्रकार है - ॎ ह्रीं हुं ह्रीं हुं िट् । इस प्रकार तारा का अन्त्य (प्रथम एकजटा)
षटक्षर मन्त्त्र िनष्पन्न होता है ॥६॥

अिि (रृ) ित्रमूर्णत (इ), इन्त्द ु (अनुस्वार) के सिहत हरर (त ) अथागत् (त्रीं) वमगसंपुरटत अफरजा (ह्रु ह्रीं हुं) फिर अन्त्त में अस्त्र
(िट्) लगाने से पञ्चाक्षर मन्त्त्र बन जाता है । ये दोनों एकजटा के मन्त्त्र हैं ॥७॥

िवमिग - (७) एकजटा के दूसरे मन्त्त्र का स्वरुप इस प्रकार हैं - ‘त्रीं हुं ह्रीं हुं िट्’ । इस प्रकार एकजटा का िद्वतीय मन्त्त्र
बनता है । दोनों मन्त्त्र षडक्षर एकजटा के हैं ॥७॥

रे ि (र), िािन्त्त (ईकार) इन्त्द ु (अनुस्वार) से युक्त णान्त्त (अथागत् तिार त्रीं), वमग (हुं), अस्त्र (िट्) काम (ललीं) और अन्त्त में
वाग्भव (ऐं) लगाने से जो मन्त्त्र बनता है वह पञ्चाक्षरों से युक्त नारायणोप्रािसत तारा मन्त्त्र सवगिसिियों को देने वाला कहा
जाता है ॥८॥

िवमिग - (९) नारायणपािसत तारा मन्त्त्र का स्वरुप इस प्रकार है - ‘त्रीं हुं िट् ललीं ऐं’ ॥८॥

ऊपर कही गई इन आठों िवद्याओं के वििष्ठ पुत्र ििक्त ऋिष हैं । गायत्री छन्त्द तथा तारा देवता हैं । पूवोक्त िविध से न्त्यास
कर हृत्कमल पर इस मन्त्त्र में भगवती तारा का इस प्रकार ध्यान करना चािहए ॥८-९॥

िवमिग - इसके िविनयोग, ऋष्याफदन्त्यास तथा कराङ्गन्त्यास का स्वरुप इस प्रकार हैं-

िविनयोग - ॎ अस्यास्तारािवद्यायाेः वििष्टजो ििक्तऋििेः गायत्रीछन्त्देः तारादेवता ह्रीं बीजं हुं ििक्तेः स्त्रीं कीलकं
आत्मनोऽभीष्टिसियथे जपे िविनयोगेः ।
ऋष्याफदन्त्यासेः -
ॎ वििष्ठििक्तऋषये नमेः,ििरिस ॎ गायत्रीछन्त्दसे नमेः, मुखे ।
ॎ तारादेवतायै नमेः, हृफद । ॎ ह्रीं बीजाय नमेः, गुह्ये ।
ॎ हुं िलत्ये नमेः, पादयो। ॎ स्त्रीं कीलकाय नमेः, सवागङे ।

हृदयाफदन्त्यास -
ॎ ह्रां हृदयायं नमेः, ॎ ह्रीं ििरसे स्वाहा,
ॎ हं ििखायै वषट् , ॎ ह्रैं कवचाय हुं,
ॎ ह्रौं नेत्रत्रयाय वौषट् , ॎ हेः अस्त्राय िट् ।
इसी प्रकार कराङ्गन्त्यास - ॎ ह्रां अङ्गुष्ठाभ्यां नमेः, ॎ ह्रीं तजगनीभ्यां स्वाहा, ॎ ह्रूं मध्यमाभ्या वषट्, ॎ ह्रैं
अनािमकाभ्यां हुं, ॎ ह्र्ॎ किनिष्टकाभ्यां वौषट् ॎ हेः करतलकरपृष्ठाभ्या िट् भी कर लेना चािहए ॥८-९॥

अब तारा मन्त्त्र के जप के पूवग ध्यान कहते हैं - श्वेत वस्त्र धारण की हुई िारदीय चिन्त्रका के समान िरीर की आभा से
युक्त, चन्त्रकला को मस्तक पर धारण करने वाली, नाना प्रकार के आभूषणों से उल्लिसत, हाथों में कतागररका (कैं ची या चाकू )
तथा कपाल िलए हुये ित्रनेत्रा भगवती तारा का मैं अपनी अभीष्ट िसिि के िलए ध्यान करता हूँ ॥१०॥

प्रयोग कथन - इन िवद्याओं का जप, पूजन एवं होमाफद सवग कमग पूवोक्त तारा मन्त्त्र (४. ५०.१०३) के समान करना
चािहए । साधक मधु युक्त परमान्न के होम से िवद्यािनिध हो जाता है ॥११॥

वश्यकायग के िलए रक्तवणाग, स्तम्भकमग में स्वणगवणाग, मारणकमग में कृ ष्णवणाग, उिाटन में धूम्रवणाग तथा िािन्त्त कायो में
श्वेतवणाग भगवती का ध्यान करना चािहए ॥१२॥

िवषय में बहुत लया कहें - उक्त रीित से आराधना कराने पर ये िवद्यायें िनिश्चत रुप से साधकोम के समस्त अभीष्ट को पूणग
कर देती हैं ॥१३॥

अब पुनेः एकजटा मन्त्त्र कहते हैं - माया (ह्रीं), हृदय (नमेः), फिर भगवत्येकजटे मम, फिर जल (व), तदनन्त्तर
वहन्त्यासनगता िस्थरा (ज्र), फिर ‘पुष्पं प्रतीच्छ’ इसके अन्त्त में अनवल्लभा (स्वाहा) तथा आफद में तार (ॎ) लगाने से बाईस
अक्षरों का सवगिसिदायक एकजटा मन्त्त्र िनष्पन्न होता है ॥१४-१५॥

िवमिग - एकजटा मन्त्त्र का स्वरुप इस प्रकार है - ॎ ह्रीं नमो भगवत्येकजटे मम वज्रपुष्पं प्रतीच्छ स्वाहा ॥१४-१५॥
इस मन्त्त्र के पतञ्जिल ऋिष हैं, गायत्री छन्त्द है तथा एकजटा देवता हैं । इस मन्त्त्र के जप में ष‍दीघग युक्त माया बीज से
षडङ्गन्त्यास करना चािहए । ध्यान, पूजा एवं प्रयोगाफद पूवोक्त रीित से करना चािहए ॥१५-१६॥

िवमिग - मन्त्त्र का िविनयोग इस प्रकार - ॎ अस्य श्रीमदेजटामन्त्त्रस्य पतञ्जिलऋिषेः गायत्रीछन्त्देः


श्रीमदेकजटादेवतात्मनोऽभीष्टिसियथे जपे िविनयोगेः ।
षडङ्गन्त्यास - ॎ ह्रां एकजटायै हृदयाय नमेः, ॎ ह्रीं ताररण्यै ििरसे स्वाहा, ॎ ह्रूं वज्रोदके ििखायै वषट्, ॎ ह्रैं उग्रजटे
कवचाय हुं, ॎ ह्रौं महाप्रितसरे नेत्रत्रयाय वौषट् , ॎ ह्रेः अस्त्राय िट् ।
इसी प्रकार कराङगन्त्यास कर एकजटा मन्त्त्र की देवता तारा का ध्यान पूवोक्त ४. ३९-४० श्लोकों में वर्णणत स्वरुप से करें
॥१५-१६॥

अब नीलसरस्वती का मन्त्त्र कहते हैं - रमा (श्रीं), माया (ह्रीं), व्यािपनी (औ) एवं सवग (िवसगग) से युक्त हस् वणग (अथागत्
हसौेः), वमग (हुं), अस्त्र (िट), फिर ‘नील’ पद, तदनन्त्तर भृगु ‘स’ फिर ‘रस्वत्यै’ तथा उसके अन्त्त में दो ठ (स्वाहा) , तथा मन्त्त्र
के आफद में प्रणम (ॎ) लगाने से चौदह अक्षरों का नीलसरस्वती मन्त्त्र बन जाता है ॥१७-१८॥
इस मन्त्त्र के ब्रह्मा ऋिष, गायत्री छन्त्द तथा नीलसरस्वती देवता हैं । मन्त्त्र के िमि २, १, १, २, ६, एवं २ अक्षरों से
षडङ्गन्त्यास कर मनोरथपूणग करने वाली भगवती का ध्यान करना चािहए ॥१८-१९॥
िवमिग - नीलसरस्वती मन्त्त्र का स्वरुप इस प्रकार हैं - ॎ श्रीं ह्रीं हसौेः हुं िट् नीलसरस्वत्यै स्वाहा ।
िविनयोग - ॎ अस्य श्रीनीलसरस्वतीमन्त्त्रस्य ब्रह्मऋिषगागयत्रीछन्त्देः नीलसरस्वतीदेवतात्मनोऽभीष्टिसियथे जपे
िविनयोगेः ।
षडङ्गन्त्यास - ॎश्री हृदयाय नमेः, ह्रीं ििरिस स्वाहा,
हसौेः ििखायै वषट् हुं िट् कवचाय हुम्
नीलसरस्वत्यै नेत्रत्रयाय वौषट् स्वाहा, अस्त्राय िट् ।
इसी प्रकार कराङ्गन्त्यास कर भगवती का ध्यान करना चािहए ॥१८-१९॥

अब नीलसरस्वती का ध्यान कहते हैं - दािहने हाथोम में िूल एवं तलवार तथा बायें में घण्टा एवं मुण्ड करने वाली, ििर
पर चन्त्रकला धारण फकये हुये तथा अपने पैरों के नीचे उन पिुओं का प्रमन्त्थन करती हुई प्रसन्न मुरा वाली ईश्वरी भगवती
नीलसरस्वती का मैं ध्यान करता हूँ ॥२०॥
इस मन्त्त्र के जप पूजाफद का िवधान हम पूवग में कह आये हैं । यह िवद्या िसि हो जाने पर मनुष्योम को वाद-िववाद में
िविेष रुप से िवजय प्रदान करने वाली होती हैं ॥२१॥

अब अन्त्य तारा मन्त्त्र कहते हैं -


आफद में तारा (त्रीं), सानन्त्त आकार सिहत माया (ह्रां), वमग (हुं),

हृत (नमेः) उसके बाद चतुथगन्त्त तारा पद (तारायै), एवं महातारा पद (महातारायै), भृगु (स), ब्रह्या (क), अनलािन्त्तम (ल),
फिर दुस्तरां पद, फिर दो तारय पद (तारय तारय), दो तर पद (तर तर) तदनन्त्तर ठद्वय ‘स्वाहा’ लगाने से बत्तीस अक्षरों का
तारा मन्त्त्र बनता है । इस मन्त्त्र का पूजनाफद िवधान तारा मन्त्त्र के समान समझना चािहए ॥२२-२३॥

िवमिग - मन्त्त्र का स्वरुप इस प्रकार है - ॎ त्रीं ह्रां हुं नमस्तारायै महातारायै सकलदुस्तरांस्तारय तारय तर तर स्वाहा
॥२२-२३॥

अब िवद्याराज्ञी (महािवद्या मन्त्त्र) जो सुरेन्त्र के िलए भी दुलगभ है, उसे कहता हूँ िजसे प्राप्त कर देवी के पूजनाफद में तत्पर
रहने वाला साधक अपना सारा अभीष्ट प्राप्त कर लेता है ॥२४॥

वाग् (ऐं), माया (ह्रीं), श्री (श्रीं), मनोजन्त्मां (ललीं), अनुग्रह (औ), िबन्त्द ु सिहत हंस (सौं), फिर काम (ललीं), ििक्त (ह्रीं),
वाग्बीज (ऐं), मांस (ब), - अघी (ऊ), िबन्त्द ु (अनुस्वार) से युक्त िान्त्त (ल अथागत ब्लूं) स्त्रीबीज (स्त्रीं) फिर सम्बुियन्त्त
‘नीलतारे सरस्वित’ पद, रे ि (र्) िेष वामािक्ष से संयुक्त एवं अनुस्वार के सिहत अत्री दो बार (रां रीं), फिर काम बीज (ललीं)
मांसाघीिबन्त्द ु युक्त िान्त्त (ब्लूं), िवसगग युक्त भृगु स (अथागत् सेः), वाग् (ऐं), हृल्लेखा (ह्रीं), रमा (श्रीं), काम (ललीं), दो बार
िवसगागन्त्त सौ (सौेः सौेः), भुवनेिानी (ह्रीं) तथा अन्त्त में स्वाहा लगाने से बत्तीस अक्षरों का तारा मन्त्त्र िनष्पन्न होता है ॥२५-
२८॥

इस महािवद्या कहते हैं, जो साधक को भुिक्त तथा मुिक्त दोनों ही प्रदान करती है ।
इस मन्त्त्र के ब्रह्या ऋिष हैं, अनुष्टुप् छन्त्द है, सरस्वती देवता हैं । इस मन्त्त्र के िमिेः ५, ५, ८, ५, ५, एवं ४ वणो से
षडङ्गन्त्यास करना चािहए ॥२५-२९॥

िवमिग - िवद्याराज्ञी मन्त्त्र का स्वरुप इस प्रकार हैं - ऐं ह्रीं श्रीं ललीं सौं ललीं ह्रीं ऐं ब्लूं स्त्रीं नीलतारे सरस्वित रां रीं ललीं
ब्लूं सेः ऐं ह्रीं श्रीं ललीं सौेः सौेः ह्रीं स्वाहा ।

िविनयोग - ॎ अस्य श्रीमहािवद्यामन्त्त्रस्य ब्रह्माऋिषेः अनुष्टुप्छन्त्देः सरस्वितदेवता ममाभीष्टिसियथे जपे िविनयोगेः ।


षडङ्गन्त्यास -
ऐं ह्रीं श्री ललीं हृदयाय नमेः, ललीं ह्रीं ऐं ब्लू स्त्रीं ििरसे स्वाहा,
नीलतारे सरस्वित ििखायै वषट् , रां रीं ललीं ब्लूं सेः कवचाय हुं,
ऐं ह्रीं श्री ललीं सौेः नेत्रत्रयाय वौषट् , सौेः ह्रीं स्वाहा अस्त्राय िट् ,
इस प्रकार हृदयाफदन्त्यास कर कराङ्गन्त्यास भी करना चािहए ॥२५-२९॥

अब महािवद्या का ध्यान कहते हैं - िवासन पर आसीन सपो के भूषण से िवभूिषत अपने चारों हाथों में िमिेः कतगररका
(कैं ची), कपाल, चषक (पानपात्र) एवं ित्रिूल धारण फकये हुये तथा हाथों में चरमुण्डल्माला िलए हुये ित्रनेत्रा नीलसरस्वती
का मैम ध्यान करता हूँ ॥३०॥

पुरश्चरण - उक्त सरस्वती महािवद्या मन्त्त्र का चार लाख जप करना चािहए, तदनन्त्तर मधुिमिश्रत पलाि पुष्पों का श्रिा
एवं उत्साह सिहत अिि में दिांि होम करना चािहए ॥३१॥

पीठपूजािवधान - जपारम्भ के प्रथम पूवोक्त पीठ पर वक्ष्यमाण मन्त्त्र से देवी की पूजा करनी चािहए । सवगप्रथम ित्रकोण,
फिर षट् कोण, उसके बाद अष्टदल, फिर षोडिदल, तदनन्त्तर वत्तीसदल, फिर चौंसठ दल वाला कमल िनमाणग कर तीन
रे खाओं वाल भूपुर से वेिष्टत कर चतुरस्त्र बनाना चािहए । ऐसा यन्त्त्र िलखकर उसके वाह्य भाग से पूजन प्रारम्भ करना
चािहए ॥३२-३४॥

िवमिग - चौथे तरङ्ग में कही गई िविध के अनुसार भूतिुिि, षोढान्त्यास, फदग्बन्त्धन तथा अथगस्थापन कर ४. ८६-८८ में
बताई गई िविध के अनुसार पीठ पूजा, ध्यान एवं आवाहन कर षोडिोपचारों से नीलसरस्वती का पूजन कर योिन मुरा
प्रदर्णित कर - देिव आज्ञापय आवरणं ते पूजयािम - इस मन्त्त्र से देवी से आज्ञा लेकर आगे कही गई िविध के अनुसार आवरण
पूजा करनी चािहए ॥३२-३४॥

अब आवरण पूजा कहते हैं - चतुरस्त्र के बाहर अिि कोण में गणपित का, वायव्यकोण में क्षेत्रपाल का, ईिान कोण में भैरव
का तथा नैऋत्य कोण में योिगिनयों का पूजन करना चािहए और चतुरस्त्र के वामभाग में गुरु की पूजा करनी चािहए ॥३४-
३५॥

भूपुर की प्रथम रे खा में पूवागफद फदिाओं के िम से १. अिणमा, २. लिघमा, ३. मिहमा, ४. ईििता, ५. वििता, ६.
कामपूरणी, ७. गररमा एवं ८. प्रािप्त की पूजा करनी चािहए ॥३६-३७॥

पुनेः भूपुर की िद्वतीय रे खा में पूवागफद िम से - १. अिसताङ्ग, २. रुरु, ३. चण्ड, ४. िोध, ५. उन्त्मत्त, ६. कपाली, ७.
भीषण एवं ८. संहार - इन आठ भैरवों का पूजन करना चािहए । तथा भूपुर की तृतीय रे खा में १. ब्राह्यी, २.माहेश्वरी, ३.
कौमारी, ४. वैष्णवी, ५. वाराही, ६. इन्त्राणी, ७. चामुण्डा एवं ८. महालक्ष्मी - इन आठ मातृकाओं के नाम के आगे चतुथ्व्यगन्त्त
नमेः पद लगाकर पूवागफद िम से पूजा करनी चािहए । इस प्रकार प्रथम आवरण की पूजा कर योिन मुरा प्रदर्णित करनी
चािहए ॥३७-४१॥

अब सरस्वती की चौंसठ ििक्तयों को कहते हैं -


तदनन्त्तर चौंसठ दल वाले कमल में चौंसठ ििक्तयों की पूजा करनी चािहए -

१. कु लेिी, २. कु लनन्त्दा, ३. वागीिी, ४. भैरवी, ५. उमा, ६. श्री, ७. िान्त्तया, ८. चण्डा, ९. धूम्रा. १०. काली, ११.
करािलनी, १२. महालक्ष्मी, १३. कं काली, १४. रुरकाली, १५. सरस्वती, १६.सरस्वती, १७. नकु ली, १८. भरकाली, १९.
िििप्रभा, २०. प्रत्यिङ्गरा, २१. िसिलक्ष्मी, २२. अमृति
े ी, २३. चिण्डका, २४. खेचरी, २५. भूचरी, २६. िसिा, २७.
कामाक्षी, २८. तहगुला, २९. बला, ३०. जया, ३१. िवजया, ३२. अिजता, ३३. िनत्या, ३४. अपरािजता, ३५. िवलािसनी,
३६. घोरा, ३७. िचत्रा, ३८ मुग्धा, ३९. धनेश्वरी, ४०. सोमेश्वरी, ४१. महाचण्डा, ४२. िवद्या, ४३. हंसी, ४४. िवनाियका,
४५. वेदगभाग, ४६. भीमा, ४७. उग्रा, ४८. वैद्या, ४९. सद्गती, ५०. उग्रश्वरी, ५१. चन्त्रगभाग, ५२. ज्योत्स्ना, ५३. सत्या,
५४. यिोवती, ५५. कु िलका, ५६. कािमनी, ५७. ‘काम्या, ५८. ज्ञानवती, ५९. डाफकनी. ६०. राफकनी, ६१. लाफकनी, ६२.
काफकनी, ६३. िाफकनी एवं ६४. हाफकनी -- ये चौंसठ िसििदाियका सरस्वती की ििक्तयाूँ कहीं गई हैं । इस प्रकार चतुथ्व्यगन्त्त
नामों के आगे नमेः लगाकर इनकी पूजा कर खेचरी मुरा प्रदर्णित कर िद्वतीयावरण की पूजा समाप्त करनी चािहए ॥४१-४५॥

फिर बत्तीस दल वाले कमल पर बत्तीस ििक्तयों की पूजा करनी चािहए । उनके नाम इस प्रकार हैं - १. फकराता, २.
योिगनी, ३. वीरा, ४. वेताला, ५. यिक्षणी, ६. हरा, ७. ऊध्वगकेिी, ८. मातङ्गी, ९. मोिहनी, १०. वंिवर्णिनी, ११.
मािलनी, १२. लिलता, १३. दूती, १४. मनोजा, १५. पिद्मिन, १६. धरा, १७. ववगरी, १८. छत्रहस्ता, १९. रक्तनेत्रा, २०.
िवचर्णचका, २१. मातृका, २२. दूरदिींनी, २३. क्षेत्रेक्षी, २४. रिङ्गनी, २५. नटी, २६. िािन्त्त, २७. दीप्ता, २८. वज्रहस्ता,
२९. धूम्रा, ३०. श्वेता, ३१, सुमङ्गला (एवं ३२. सवेश्वरी) - इनके नामों में चतुथ्व्यगन्त्त िवभिक्त युक्त नमेः लगाकर पूजा करने
के पश्चात् तृतीयवरण की पूजा बीज मुरा प्रदर्णित कर संपन्न करनी चािहए ॥४९-५३॥

इसके बाद सोलह दलों में इन सोलह ििक्तयों की पूजा करनी चािहए ।
१. मुग्धा, २. श्रीं, ३. कु रुकु ल्ला, ४. ित्रपुरा, ५. तोतला, ६. फिया, ७. रित, ८. प्रीित, ९. बाला, १०. सुमुखी, ११.
श्यामलािवला, १२. िपिाची, १३. िबदारी, १४. िीतला, १५ वज्रयोिगनी, १६, सवेश्वरी -- इन नामों में चतुथ्व्यगन्त्त सिहत
‘नमेः’ लगाकर पूजा करे और अंकुि मुरा प्रदर्णित कर चतुथागवरण की पूजा सम्पन्न करनी चािहए ॥५३-५५॥

(१) अब वागीश्वरी के मन्त्त्र का उिार करते हैं -


तार (ॎ), हृत् (नमेः), लोिहत (प), वैकुण्ठानन्त्त सिहत सत्य (द्या), भृगु (स), फिर ‘ने िब्दरुपे’ यह पद, फिर वाक् (ऐं),
माया (ह्रीं), काम (ललीं), इसके बाद दो बाद वर िब्द ( वद वद), फिर ‘वाग्वाफदनी’ इसके बाद अििकान्त्ता (स्वाहा) लगाने
से चौबीस अक्षरों का मन्त्त्र बनता है इस मन्त्त्र से पूवगफदिा के पत्र के पर वागीश्वरी का पूजन करना चािहए ॥५६-५८॥

िवमिग - वागीश्वरी के पूजन में िविनयुक्त २४ अक्षरों के मन्त्त्रो का स्वरुप इस प्रकार है - ‘ॎ नमेः पद्मासने िब्दरुपे ऐं ह्रीं
ललीं वद वद वाग्वाफदनी स्वाह’ ॥५६-५८॥

(२) अब िचत्रेश्वरी पूजन का मन्त्त्र कहते हैं - ‘वराह हंसचिीन्त्रसंयुक्ता भुवनेश्वरी अथागत् ‘ह्स कल ह्रीं’ फिर दो बार वद
िब्द (वद वद), फिर ‘िचत्रेश्वरर’ पद, इसके बाद वाग्बीज (ऐं), फिर अनलप्रभा (स्वाहा) लगाने से द्वादि अक्षर का मन्त्त्र बन
जाता है । इस बारह अक्षर वाले मन्त्त्र से साधक अििकोण में िचत्रेश्वरी की पूजा करें ॥५८-५९॥

िवमिग - िचत्रेश्वरी के मन्त्त्र का स्वरुप इस प्रकार है - ‘हसकलह्रीं वद वद िचत्रेश्वरी ऐं स्वाहा’ । ऊपर हकार में ६ अक्षरों का
मेल होने से १ अक्षर समझना चािहए ॥५८-५९॥

(३) इसके बाद कु लजा का मन्त्त्र कहते हैं - वाग्बीज (ऐं), फिर ‘कु लजे’ पद, फिर वाग्बीज (ऐं), फिर सरस्वती पद, तदनन्त्तर
अनलाङ्गना (स्वाहा) लगाने से ग्यारह अक्षरों का कु लजा मन्त्त्र बनता है, इससे दिक्षण में कु लजा का पूजन करना चािहए
॥६०॥

िवमिग - मन्त्त्र का स्वरुप का प्रकार हैं - ‘ऐं कु लजे ऐं सरस्वित स्वाहा’ ॥६०॥

(४) अब कीतीश्वरी का मन्त्त्र कहते हैं -


वाग् (ऐं), माया (ह्रीं), श्री (श्रीं), दो बार ‘वद’ पद (वद वद) फिर कीतीश्वरर और अन्त्त में वसुिप्रया (स्वाहा) लगाने से तेरह
अक्षरों का मन्त्त्र बनता हैं । इससे नैऋत्यकोण में कीतीश्वरी का पूजन करना चािहए ॥६१॥

िवमिग - मन्त्त्र का स्वरुप इस प्रकार है - ‘ऐं ह्रीं श्रीं वद वद कीतींश्वरर स्वाहा ॥६१॥

(५) अब अन्त्तररक्षसरस्वती मन्त्त्र कहते हैं -


वाग (ऐं), माया (ह्रीं), फिर ‘अन्त्तररक्षसरस्वित’ यह पद, इसके अन्त्त में ‘ठद्वय’ (स्वाहा) लगाने से बारह अक्षरों का मन्त्त्र
िनष्पन्न होता है । इससे पिश्चम के दल में अन्त्तररक्ष सरस्वती का पूजन करना चािहए ॥६२॥

िवमिग - मन्त्त्र का स्वरुप इस प्रकार है - ‘ऐं ह्रीं अन्त्तररक्षसरस्वित स्वाहा ॥६२॥

(६) अब घटसरस्वती मन्त्त्र कहते हैं - वराह हंस चण्डीि जनादगनकृ िानुयुक् (ह्ं स् ष् ि र ) सेन्त्द ु (ह्रष्फ्रं,) लकु लीभृगुवहनी
(ह स् र्) और इन्त्द ु से युक्त मन (ओं) अथागत् ह्स्त्रों अरुण भृगु ििख्यििसंयुत इन्त्द ु युक् िािन्त्त अथागत् अरुण (ह ), भृगु (स),
ििखी (ि), अिि (र् ) इससे युक्त सिबन्त्द ु िािन्त्त (ह्स्फ्रों), फिर वाग्बीज (ऐं), माया (ह्रीं), श्री (श्रीं) इषु बीज (रां रीं ललीं ब्लूं
सेः) फिर ‘घ्रीं घटसरस्वती घटे’ पद, फिर दो बार ‘वद’ पद (वद वद) एवं ‘तर’ पद (तर तर), टा युता (तृतीयान्त्ता) रुराज्ञा
(रुराज्ञया), फिर ‘मामािभलाषं’, फिर दो बार ‘कु रु’ िब्द (कु रु कु रु), तदनन्त्तर कृ ष्णवत्मागप्रेयसी (स्वाहा) लगाने से ितरािलस
अक्षरों का मन्त्त्र िनष्पन्न होता है । इस मन्त्त्र से वायव्य दल में घटसरस्वती का पूजन करना चािहए ॥६३-६६॥

िवमिग - मन्त्त्र का स्वरुप इस प्रकार है - ‘ह्स्ष्फ्रं हंस्नों ह्स्फ्रों ऐं ह्रीं श्रीं रां रीं ललीं ब्लूं सेः घ्रीम घटसरस्वती घटे वद वद तर
तर रुराज्ञया ममािभलाषं कु रु कु रु स्वाहा’ (४३) ॥६३-६६॥

िवमिग - ‘मन्त्त्र का स्वरुप इस प्रकार है - ‘ह्स्ष्फ्रं ह्स्रों हस्िों ऐं ह्रीं श्रीं रां रीं ललीं ब्लूं सेः घ्रीं घटसरस्वती घटे वद वद तर
तर रुराज्ञया ममािभलाषं कु रु कु रु स्वाहा (४३) ॥६३-६६॥

(८) अब नीलसरस्वती का मन्त्त्र कहते हैं -


भूधरे न्त्र युत् िबन्त्द ु सिहत अघीि (ब्लूं), फिर िबन्त्द ु सिहत (वें), तदनन्त्तर दो बार वद पद (वद वद), फिर ‘त्रीं हुं िट् लगाने
से ९ अक्षरों का मन्त्त्र िनष्पन्न होता है । इससे उत्तर के दल में नीलसरस्वती का पूजन करना चािहए ॥६६-६७॥

िवमिग - नीलसरस्वती मन्त्त्र का स्वरुप इस प्रकार है - ‘ब्लूं वें वद वद त्रीं हुं िट् ’ (९) ॥६६-६७॥

(९) अब फकिणसरस्वती का मन्त्त्र कहते हैं -


वाग्बीज (ऐं), अधरािान्त्त सिबन्त्द ु नकु ली (हैं), िािन्त्तचन्त्राढ्य आकाि (हीं), दो बार फकिण िब्द (फकिण फकिण),
सदृक् इकार सिहत जल व् (अथागत् िव), भगािान्त्त कू मगद्वय (िे) यह ९ अक्षर का मन्त्त्र िनष्पन्न होता है । इससे ईिानकोण में
फकिण सरस्वित का पूजन चािहए । इस प्रकार अष्टदलों में आठ सरस्वितयों का पूजन कर पञ्चमावरण की पूजा समाप्त कर
क्षोभमुरा प्रदर्णित करनी चािहए ॥६७-६८॥

िवमिग - मन्त्त्र का स्वरुप इस प्रकार हैं - ‘ऐं हैं हीं फकिण फकिण िविें’ ॥६७-६९॥

षट् कोण में पूवोक्त १. डाफकनी, २. राफकनी, ३. लाफकनी, ४. काफकनी, ५. िाफकनी एवं ६. हाफकनी का पूजन कर
षष्ठावरण की पूजा समाप्त कर रािवणीमुरा प्रदर्णित करनी चािहए ॥७०॥

तदनन्त्तर ित्रकोण में परा, बाला एवं भैरवी का पूजन कर सप्तमावरण की पूजा समाप्त कर आकषगणी मुरा प्रदर्णित करनी
चािहए । इस प्रकार सप्तावरण युक्त तारा देवी तारे िी का पूजन करने से समस्त मनोरथों की पूर्णत होती है ॥७१-७२॥

िवमिग - आवरण पूजा प्रयोग इस प्रकार हैं - नाम मन्त्त्रों में चतुथी लगाकर ततत्स्थानों में आवरण पूजा करनी चािहए ।
पूवोक्त िविध से देवी की पूजा करने के बाद उनकी आज्ञा लेकर प्रथम आवरण पूजा करनी चािहए । सवगप्रथम चतुरस्त्र के
बाहर अििकोण में िविधवत् ध्यान कर ‘ॎ ह्रीं गं गणपतये नमेः’ मन्त्त्र से गणेिजी का पूजन करना चािहए । इसी प्रकार
वायव्य में ‘ॎ ह्रीं क्षं क्षेत्रपालाय नमेः’ क्षेत्रपाल का, ईिान कोण में ‘ॎ ह्रीं बें बटुकाय नमेः’ से बटुकभैरव का तथा
नैऋत्यकोण में ‘ॎ ह्रीं यं योिगनीभ्यो नमेः’ मन्त्त्र से योिगनीयोम का पूजन करना चािहए ।
भूपुर की प्रथम रे खा में पूवग आफद फदिाओं में -
ॎ अिणमायै नमेः,‘ ॎ लिघमायै नमेः, ॎ मिहमायै नमेः,
ॎ ईिित्यै नमेः, ॎ विितायै नमेः, ॎ कामपूरण्यै नमेः,
ॎ गररमायै नमेः तथा प्राप्त्यै नमेः - इन मन्त्त्रों से िमिेः
अिणमा आफद का पूजन करन चािहए ।
भूपुर की िद्वतीय रे खा में पूवग आफद आठ फदिाओं में िनम्निलिखत मन्त्त्रों से आठ भैरवों का पूजन करना चािहए-
ॎ अिसताङ्गभैरवाय नमेः, ॎ रुरुभैरवाय नमेः,
ॎ चण्डभैरवाय नमेः, ॎ िोधभैरवाय नमेः,
ॎ उन्त्मत्तभैरवाय नमेः, ॎ कपालीभैरवाय नमेः,
ॎ भीषणभैरवाय नमेः एवं ॎ संहारभैरवाय नमेः ।
भूपुर की तृतीय रे खा में पूवग आफद फदिाओं में -
ॎ ब्राह्ययै नमेः, ॎ माहेश्वयै नमेः, ॎ कौमायै नमेः,
ॎ वैष्णव्यै नमेः, ॎ वाराह्यै नमेः, ॎ इन्त्राण्यै नमेः,
ॎ चामुण्डायै नमेः, ॎ महालक्ष्म्यै नमेः,
इन मन्त्त्रों से अष्टमातृकाओं का पूजन करना चािहए । इस प्रकार प्रथम आवरण का पूजन कर योिनमुरा प्रदर्णित करनी
चािहए ।
िद्वतीय आवरण मे चौंसठ दलों पर िनम्निलिखत मन्त्त्रों से चौंसठ ििक्तयों का पूजन करना चािहए -

१. ॎ कु लेश्यै नमेः २. ॎ कु लनन्त्दायै नमेः ३. ॎ वागीश्वयै नमेः


४. ॎ भैरव्यै नमेः ५. ॎ उमायै नमेः ६. ॎ िश्रयै नमेः
७. ॎ िान्त्ततायै नमेः ८. ॎ चण्डायै नमेः ९. ॎ धूम्रायै नमेः
१०. ॎ काल्यै नमेः ११. ॎ करािलन्त्यै नमेः १२. ॎ महालक्ष्म्यै नमेः
१३. ॎ कड् काल्यै नमेः १४. ॎ रुरकाल्यै नमेः १५. ॎ सरस्वत्यै नमेः
१६. ॎ वाग्वाफदन्त्यै नमेः १७ ॎ नकु ल्यै नमेः १८. ॎ भरकाल्यै नमेः
१९. ॎ िििप्रभायै नमेः २०. ॎ प्रत्यिङ्गरायै नमेः २१. ॎ िसिलक्ष्म्यै नमेः
२२. ॎ अमृतेश्वै नमेः २३. ॎ चिण्डकायै नमेः २४. ॎ खेचयै नमेः
२५. ॎ भूचयै नमेः २६. ॎ िसिायै नमेः २७. ॎ कामाख्ये नमेः
२८. ॎ तहगुलायै नमेः २९. ॎ बलायै नमेः ३०. ॎ जयायै नमेः
३१. ॎ िवजयायै नमेः ३२. ॎ अिजतायै नमेः ३३. ॎ िनत्यायै नमेः
३४. ॎ अपरािजतायै नमेः ३५. ॎ िवलािसन्त्यै नमेः ३६. ॎ घोरायै नमेः
३७. ॎ िचत्रायै नमेः ३८. ॎ मुग्धायै नमेः ३९. ॎ धनेश्वयै नमेः
४०. ॎ सोमेश्वयै नमेः ४१. ॎ महाचण्डायै नमेः ४२. ॎ िवद्यायै नमेः
४३. ॎ हंस्यै नमेः ४४. ॎ िवनायकायै नमेः ४५. ॎ वेदगभागयै नमेः
४६. ॎ भीमायै नमेः ४७. ॎ उग्रायै नमेः ४८. ॎ वैद्यायै नमेः
४९. ॎ सद्गत्यै नमेः ५०. ॎ उग्रेश्वयै नमेः ५१. ॎ चन्त्रगभागयै नमेः
५२. ॎ ज्योत्स्नायै नमेः ५३. ॎ सत्यायै नमेः ५४. ॎ यिोवत्यै नमेः
५५. ॎ कु िलकायै नमेः ५६. ॎ कािमन्त्यै नमेः ५७. ॎ काम्यायै नमेः
५८. ॎ ज्ञानवत्यै नमेः ५९. ॎ डाफकन्त्यै नमेः ६०. ॎ राफकन्त्यै नमेः
६१. ॎ लाफकन्त्यै नमेः ६२. ॎ काफकन्त्यै नमेः ६३. ॎ िाफकन्त्यै नमेः
६४. ॎ हाफकन्त्यै नमेः

इस प्रकार िद्वतीय आवरण की पूजा कर खेचरी मुरा प्रदर्णित करनी चािहए ।


तृतीय आवरण में बत्तीस दलों पर िनम्निलिखत मन्त्त्रों से बत्तीस ििक्तयों का पूजन करना चािहए ।
१. ॎ फकरातायै नमेः २. ॎ योिगन्त्यै नमेः ३. ॎ बीरायै नमेः
४. ॎ बेतलायै नमेः ५. ॎ दृत्यै नमेः ६. ॎ यिक्षण्यै नमेः
७. ॎ हरायै नमेः ८. ॎ ऊध्वगकेश्यै नमेः ९. ॎ मातंग्यै नमेः
१०. ॎ िवचर्णचकायै नमेः ११. ॎ मोिहन्त्यै नमेः १२. ॎ वंिवर्णिन्त्यै नम
१३. ॎमािलन्त्यै नमेः १४. ॎ लिलतायै नमेः १५. ॎ दीप्तायै नमेः
१६. ॎ मनोजायै नमेः १७. ॎ पफदमन्त्यै नमेः १८. ॎ धरायै नमेः
१९. ॎ बवगयै नमेः २०. ॎ छत्रहस्तायै नमेः २१. ॎ रक्ते नेत्रायै नमेः
२२. ॎ मातृकायै नमेः २३. ॎ दूरदश्यैं नमेः २४. ॎ क्षेत्रेश्यै नमेः
२५. ॎ रिङ्गन्त्यै नमेः २६. ॎ नट् यै नमेः २७. ॎ िान्त्त्यै नमेः
२८. ॎ वज्रहस्तायै नमेः २९. ॎ धूम्रायै नमेः ३०. ॎ श्वेतायै नमेः
३१. ॎ सुमङ्गलायै नमेः ३२. ॎ सवेश्वयै नमेः

इस प्रकार तृतीय आवरण में उक्त मन्त्त्रों से ३२ ििक्तयों का पूजन कर बीजमुरा प्रदर्णित करनी चािहए ।
चतुथग आवरण में १६ दलों पर िनम्निलिखत मन्त्त्रों से १६ ििक्तयों का पूजन करना चािहए, यथा-
१. ॎ मुग्धायै नमेः, २. ॎ िश्रयै नमेः, ३. ॎ कु रुकु ल्लायै नमेः,
४. ॎ ित्रपुरायै नमेः, ५. ॎ तोतलायै नमेः, ६. ॎ फियायै नमेः,
७. ॎ रत्यै नमेः, ८. ॎ प्रीत्यै नमेः, ९. ॎ बालायै नमेः,
१०. ॎ सुमुख्यै नमेः, ११. ॎ श्यामलािवलायै नमेः, १२. ॎ िपिाच्यै नमेः,
१३. ॎ िवदायै नमेः, १४. ॎ िीतलायै नमेः, १५. ॎ वज्रयोिगन्त्यै नमेः,
१६. ॎ सवेश्वयै नमेः ।
इस प्रकार चतुथग आवरण में उक्त मन्त्त्रों से १६ ििक्तयों का पूजन कर अंकुि मुरा फदखलानी चािहए ।

पञ्चम आवरण में पूवग आफद आठ फदिाओं के कमल दलों पर िनम्निलिखत मन्त्त्रों से अष्टसरस्वितयों का पूजन करना चािहए,
यथा -
१. पूवगफदिा दल पर - ॎ नमेः पद्मासने िब्दरुपे ऐं ह्रीं ललीं वद वद वाग्वाफदनी स्वाहा’ मन्त्त्र से वागीश्वरी का पूजन
करना चािहए ।
२. अििकोण दल पर - ‘ललीं वद वद िचत्रेश्वरी ऐं स्वाहा’ मन्त्त्र से िचत्रेश्वरर का पूजन करना चािहए ।
३. दिक्षण दल पर - ऐं कु िलजे ऐं सरस्वित स्वाहा’ मन्त्त्र से कु लजा का पूजन करना चािहए ।
४. नैऋत्यकोण दल पर - ‘ऐं ह्रीं श्रीं वद वद कीतीश्वरी स्वाहा’ मन्त्त्र से कीतीश्वरी का पूजन करना चािहए ।
५. नैऋत्यकोण दल पर - ‘ऐं ह्रीं अन्त्तररक्षसरस्वित स्वाहा’ मन्त्त्र से अन्त्तररक्षसरस्वती का पूजन करना चािहए ।
६. वायव्य कोण दल पर - ‘ह्स्ष्फ्रं ह्सौं ह्स्फ्रों ऐं ह्रीं श्रीं रां रीं ललीं ब्लूं सेः घ्रीं घटसरस्वित घटे वद वद तर तर रुराज्ञया
ममािभलाषं कु रु कु रु स्वाहा’ मन्त्त्र से घटसरस्वती का पूजन करना चािहए ।
७. उत्तर के दल पर - ‘ब्लूं वें वद वद त्रीं िट् ’ मन्त्त्र से नीलसरस्वती का पूजन करना चािहए ।
८. ईिान कोण के दल पर - ऐं हैं ह्रीं फकिण फकिण िविे’ मन्त्त्र से फकिण का पूजन करना चािहए ।
इस िविध से पञ्चम आवरण पूजा में आठ दलों पर उक्त मन्त्त्रों से वागीश्वरो आफद का पूजन कर क्षोभमुरा प्रदर्णित करनी
चािहए ।
षष्ठ आवरण पूजा में षट् कोण में िनम्निलिखत मन्त्त्रों से डाफकनी आफद का पूजन करना चािहए यथा -
१. ॎ डाफकन्त्यै नमेः २. ॎ राफकण्यै नमेः ३. ॎ लाफकन्त्यै नमेः
४. ॎ काफकन्त्यै नमेः ५. ॎ िाफकन्त्यै नमेः ६. ॎ हाफकन्त्यै नमेः
इस िविध से षष्ठ आवरण पूजा में ६ कोणों में िनर्ददष्ट मन्त्त्रों से डाफकनी आफद का पूजन कर रािवणी मुरा प्रदर्णित करनी
चािहए ।
सप्तम आवरण पूजा में ित्रकोण में अपने - अपने मन्त्त्रो से परा, वाला एवं भैरवी का पूजन करना चािहए, यथा -
ह्रीं परायै नमेः, ऐं ललीं सौेः बालायैेः नमेः,
हसैं ह्ललीं हसौेः भैरव्यै नमेः ।
इन मन्त्त्रों से ित्रकोण के तीनों कोणों में िमिेः परा, बाला एवं भैरवी का पूजन कर आकषगणी मुरा प्रदर्णित करनी चािहए

इस प्रकार आवरण पूजा कर पाूँच पुष्पाञ्जिलयाूँ देकर िविधवत् मन्त्त्र का जप (पुरश्चरण) करना चािहए ॥७१-७२॥
प्रितफदन चौराहे पर गणेि, क्षेत्रपाल योिगनी, भैरवी एवं तारा देवी की बिलप्रदान करना चािहए । मांस से तथा उडद से
बनी हुई वस्तु और िाक, घी, खीर एवं मालपूआ आफद पदाथग बिल रव्य होते हैं । इस प्रकार के बिल रव्यों के प्रदान से वह
देवी साधक को अभीष्ट िसिि प्रदान करती है ॥७२-७४॥

िवमिग - चौथे तरङ्ग के ५०-५१ श्लोक में िनर्ददष्ट मन्त्त्र से िविधपूवगक बिलदान करना चािहए ॥७२-७४॥

महािवद्या के तीन ध्यानों का वणगन -


सत्त्वाफद गुणों के भेद से अब हम महािवद्या का तीन प्रकार का ध्यान कहते हैं । सवगप्रथम ‘साित्त्वक ध्यान’ कहते हैं - श्वेत
वस्त्र, धारण फकये हुए हंस पर आसीन, मोती के आभूषणों से िवभूिषत, चार मुखों वाली एवं अपनी आठ भुजाओं में िमिेः १.
कमण्डल, २. कमल, ३. वर, ४. अभय मुरा, ५. पाि, ६. ििक्त, ७. अक्षमाला एवं ८. पुष्पमाला धारण फकये हुये िब्द समुर
में िस्थत महािवद्या का ध्यान करना चािहए । इस प्रकार इसे ‘सृिष्ट ध्यान’ कहते हैं ॥७४-७६॥
अब रजोगुणाित्मका भगवती का ध्यान कहते हैं - रक्त वस्त्र धारण फकये हुये, रक्त वणग के तसहासन पर आसीन, सुवणग
िनर्णमत्त आभूषणों से सुिोिभत, एक मुख वाली, अपने चार भुजाओं में १. अक्षमाला, २. पानपात्र, ३. अभय एवं ४. वरमुरा
धारण फकये हुये श्वेतद्वीप िनवािसनी भगवती का ध्यान करना चािहए । इस प्रकार इसे ‘िस्थित’ ध्यान कहते हैं ॥७७-७८॥

अब तामस ध्यान कहते हैं - कृ ष्ण वणग का वस्त्र धारण फकये हुये, नौका पर िवराजमान, हड्डी के आभूषणों से िवभूिषत, नौ
मुखों वाली, अपने अट्टारह भुजाओं में १. वर. २. अभय, ३. परिु, ४. दवी, ५. खड् ग, ६. पािुपत, ७. हल, ८. िभिण्द, ९.
िूल, १०. मुिल, ११. कतृगका (कैं ची), १२. ििक्त, १३. ित्रिूल, १४. संहार अस्त्र, १५. पाि, १६. वज्र, १७. खट् वाङ्ग एं
१८ गदा धारण करने वाली रक्त-सागर में िस्थत देवी का ध्यान करना चािहए । इस प्रकार इसे ‘संहार ध्यान’ कहते हैं ॥७९-
८१॥

मन्त्त्रवेत्ता को मारणाफद िू र कमो में संहार ध्यान, उिाटन एवं विीकरण में िस्थित ध्यान तथा िािन्त्तक-पौिष्टक आफद
कायो में सृिष्ट ध्यान करना चािहए । इस प्रकार प्रयोग तथा पुरश्चरण द्वारा मन्त्त्र के िसि हो जाने पर साधक वाणी में
वाचस्पित के समान हो जाता है ॥८२॥

अब काम्य प्रयोग कहते हैं -


बालक के नालच्छेदन होने से पहले उसकी िजहवा पर दूवाग की लेखनी गथा गोरोचन के रस से इस मन्त्त्र को िलखे तो वह
८ वषग का होते होते संपूणग िास्त्रोम का पारं गत िवद्वान् हो जाता है ॥८३-८४॥

पूवोक्त रीित से बिलदान कर उक्त मन्त्त्र से अिभमिन्त्त्रत वचा नामक औषिध बालक के कण्ठ में बाूँध देवें । फिर १२ वषग बीत
जाने पर उसे वह भक्षण कर ले तो उत्तम किवता करने वाला हो जाता है, ॥८४-८५॥

एक कषग अथागत् ४ तोला ज्योितष्मती का तेल ग्रहण के समय जल में िस्थत हो इस मन्त्त्र से अिभमिन्त्त्रत कर जो साधक पीता
है वह वाचस्पित हो जाता है ॥८६॥

चौराहे पर अथवा श्मिान में लज्जा एवं भंय का त्याग कर िव के ऊपर बैठ कर एकाग्रिचत्त से मध्यराित्र में जप में तल्लीन
हुये व्यिक्त को ऐसा सुनाई पडता है ‘फक िवद्याओम में पारङगत हो जाओ और समस्त िसिियाूँ प्राप्त करो’ ॥८७-८८॥

िवद्वत्कु ल में उत्पन्न आठ वषग के दो िििुओं को बैठा कर उनके ििर पर हाथ रखकर इस मन्त्त्र का जप करें तो वे दोनों ही
वेदान्त्त एवं न्त्यायिास्त्र में प्रितपाफदत तकों से िास्त्राथग करने लगते है । िजसे इस िवषय में कु तूहल हो वह अवश्य इस िवद्या के
आश्चयग को देखें ॥८९-९०॥

फकसी िनजगन के ले के वन में सुन्त्दर वेफदका बना कर उस पर बैठकर िविधवत् बारह लाख की संख्या में जप करें ॥९१॥

फिर दािसयों द्वारा ढोई जाती हुई ढोला (डोली) में बैठी हुई मन्त्द-मन्त्द हास करती हुई पुन्नाग, अिोक एवं के ले के वन में
िस्थत भगवती का ध्यान करते हुए जप के अन्त्त में बिल देनी चािहए ॥९२-९३॥

िलस्त्रुित कथन -
इस प्रकार पूजा अचगना करने से साधक िीघ्र ही अपना अभीष्ट प्राप्त कर लेता है ॥९३॥
कृ ष्ण पक्ष की चतुदि
ग ी को नङ्गा हो कर, के िों को खोल कर प्रेतभूिम (श्मिान) में बैठकर दक्ष हजार जप करें तो साधक
को वाक् िसिि प्राप्त हो जाती है ॥९४॥

िवद्या, सौख्य, धन, पुिष्ट, आयु, कािन्त्त, बल, स्त्री एवं रुप की कामना रखने वाले साधकों को िनरन्त्तर भगवती तारा की
आराधना करनी चािहए ॥९५॥

षष्ठ तरङ्ग
अररत्र
अब िीघ्र िसिि प्रदान वाले िछन्नमस्ता के मन्त्त्रों को मै कहता हूँ-
िछन्नमस्तामन्त्त्रोिार - पद्मासना (श्रीं), ििवायुग्म (ह्रीं ह्रीं), ििििेखर (सिवन्त्द)ु , भौितक (ऐं) फिर ‘वज्रवैरोचनी’ पद,
तदनन्त्तर ‘पद्मनाभ’ युक्त सदागित (ये), फिर मायायुग्म (ह्री ह्रीं), फिर अस्त्र (िट्), उसके अन्त्त में दहनिप्रया (स्वाहा) तथा
प्रारम्भं में प्रणव (ॎ) लगाने से १७ अक्षरों वाला िछनमस्ता मन्त्त्र िनष्पन्न होता है ॥१-२॥

िवमिग - इस मन्त्त्र का स्वरुप इस प्रकार है - ‘ॎ श्रीं ह्रीं ह्रीं वज्रवैरोचनीये ह्रीं ह्रीं िट् स्वाहा’ ॥१-२॥
सप्तदिाक्षर वाले इस मन्त्त्र के भैरव ऋिष हैं, सम्राट् छन्त्द हैं, तथा िछन्नमस्ताभुवनेश्वरी देवता हैं ॥३॥

आफद में प्रणव (औ) तथा अन्त्त में दो माया बीज (ह्रींह्रीं), अस्त्रबीज, ‘आं खड् गाय’ से हृदय में, इसी प्रकार ‘ईं खड् गाय’ से ििर
में, ‘ॎ वज्राय’ से ििखा में, ‘ऐं पािाय’ से कवच में ‘ॎ अंकुिाय’ से नेत्र में, तथा ‘अेः वसुरक्ष’ से अस्त्राय िट् करे । इस प्रकर
से अङ्गन्त्यास करे तथा प्रत्येक अङ्ग में न्त्यास के समय ‘स्वाहा’ िब्द का उिारण करे । इस प्रकार अङ्गन्त्यास करके भगवती
िछन्नमस्ता का ध्यान करना चािहए ॥४-५॥

िवमिग - िविनयोग - ॎ अस्य श्रीिछन्नमस्तामन्त्त्रस्य भैरवऋिषेः सम्राट् छन्त्देः िछन्नमस्तादेवता हं हं बीजं


स्वाहाििक्तरात्मनोऽभीष्टिसद्ध्यथं जपे िविनयोगेः ।
ऋष्याफदन्त्यास - ॎ भैरवाय ऋषये नमेः, ििरिस,
ॎ सम्राट् छान्त्दसे नमेः, मुखेिछन्नमस्तादेवतायै नमेः, हृफद,
हं हं बीजाय नमेः, गुह्य,े िक्तये नमेः, पादयोेः

अङ्गन्त्यास -
ॎ आं खड् गाय ह्रीं ह्रीं िट् हृदयाय स्वाहा,
ॎ ईं सुखड् गाय ह्रीं ह्रीं िट् ििरसे स्वाहा,
ॎ ऊं वज्राय ह्रीं ह्रीं िट् ििखायै स्वाहा,
ॎ ऐं पािाय ह्रीं ह्रीं िट् कवचाय स्वाहा,
ॎ औं अंकुिाय ह्रीं ह्रीं िट् नेत्रत्रयाय स्वाहा,
ॎ अेः वसुरक्षाय ह्रीं ह्रीं िट् अस्त्राय िट् स्वाहा,

इसी प्रकार कराङ्गन्त्यास भी करना चािहए ॥४-५॥


अब िछन्नमस्ता देवी का ध्यान कहते हैं -
सूयगमण्डल के मध्य में िवराजमान, बायें हाथ में अपने कटे मस्तक को धारण करने वाली, िबखरे के िों वाली, अपने कण्ठ से
िनकलती हुई रक्त धारा का पान करने वाली, मैथुन में आसक्त, रित तथा काम के ऊपर िनवास करने वाली, डाफकनी एवं
वर्णणनी नामक अपनी दोनों सिखयों को देखकर प्रसन्न रहने वाली िछन्नमस्ता देवी का मैं ध्यान करता हूँ ॥

इस प्रकार िछन्नमस्ता का ध्यान कर मूल मन्त्त्र का ४ लाख जप करना चािहए और पलाि या बेल के पुष्पों एवं िलों से दिांि
होम करना चािहए ॥७॥

आधारििक्त से लेकर परतत्त्वपयगन्त्त पूिजत पीठ पर ८ फदिाओं में पूवागफदिम से १. जया, २. िवजया, ३. अिजता, ४.
अपरािजता, ५. िनत्या, ६. िवलािसनी, ७,. दोग्री, ८. अधोरा का तथा मध्य में ९. मङ्ग्ला का, इस प्रकार पीठ की ९
ििक्तयों का पूजन करना चािहए (र० ३. ११-१२) ॥८-९॥

‘सवगबुििप्रदे वणगनीये सवग’ के बाद सदृक् भृगु (िस), फिर ‘ििप्रदे डाफकनीये’ फिर तार (औं), फिर ‘वज्र’ के बाद सदृक् (िस),
फिर ‘ििप्रदे डाफकनीये’ फिर तार (ॎ), फिर ‘वज्र’ पद, फिर फिर सभौितक ऐ से युक्त खड् गीि (व अथागत्), फिर ‘रोचनीये’
पद, फिर भग ‘ए’ इसके बाद ‘ह्योहे’ तदनन्त्तर ‘नमेः’ तथा मन्त्त्र के प्रारम्भ में प्रणव्य्म लगाने से चौंितस अक्षरों का पीठ मन्त्त्र
िनष्पन्न होता है ॥१०-११॥

िवमिग - मन्त्त्र का स्वरुप इस प्रकार है - ‘ॎ सवगबुििप्रदे वणगनीये सवगिसििप्रदे डाफकनीये ॎ वज्रवैरोचनीय एह्येिह नमेः’ १०-
११॥
इस मन्त्त्र से आसन समर्णपत कर देवी की पूजा करनी चािहए ॥१२॥

िवमिग - िछन्नमस्ता पूजािविध - ६. ६ के अनुसार िछन्नमस्ता का ध्यान कर मानसोपचार से देवी का पूजन कर, तारा पिित
के िम से अघ्नयगस्थापनाफद फिया करे (र० ४. ६८-८२) । फिर पीठ िनमागण कर उसकी भी पूजा करे । यथा - ॎ आधारिक्तये
नमेःॎ प्रकृ तये नमेः,
ॎ कू मागय नमेः,ॎ अनन्त्ताय नमेः,
ॎ पृिथव्यै नमेः,ॎ क्षीरसमुराय नमेः,
ॎ रत्नद्वीपाय नमेः,ॎ कल्पवृक्षाय नमेः,
ॎ स्वणगतसहासनाय नमेः,ॎ आनन्त्दकन्त्दाय नमेः,
ॎ संिवन्नालाय नमेः,ॎ सवगतत्त्वात्मकपद्माय नमेः,
ॎ सत्त्वाय नमेः,ॎ रं रजसे नमेः,
ॎ तमसे नमेः,ॎ आं आत्मने नमेः,
ॎ अं अन्त्तरात्मनेेः,ॎ पं परमात्मने नमेः,
ॎ ह्रीं ज्ञानात्मने नमेः,ॎ रितकामाभ्यां नमेः ।
इन मन्त्त्रों से पीठ पूजा कर पूवागफद ८ फदिाओं के िम से तदनन्त्तर मध्य में नवििक्तयों के नाममन्त्त्रों से इस प्रकार पूजा करनी
चािहए । यथा-
ॎ जयायै नमेः, पूव,े ॎ िवजयायै नमेः, आिेय,े
ॎ अिजतायै नमेः, दिक्षणे,ॎ अपरािजतायै नमेः नैऋत्ये,
ॎ िनत्यायै नमेः पिश्चमे,ॎ िवलािसन्त्यै नमेः वायव्ये,
ॎ दोग््यै नमेः उत्तरे ,ॎ अघोरायै नमेः ऐिान्त्ये ।
ॎ मङ्गलायै नमेः, मध्ये, इस प्रकार ८ ििक्तयों का पूजन करना चािहए ।
इसके बाद ‘सवगबुििप्रदे वणगनीये सवगिसिप्रदे डाफकनीये ॎ वज्रवैरोचनीये एह्येिह नमेः’, इस पीठ मन्त्त्र से वणगनी एव डाफकनी
सिहत िछन्नमस्ता देवे को आसन उनका पूजन चािहए ॥१०-१२॥
ित्रकोण, षट्कोण, अष्टदल एवं भूपुर से युक्त यन्त्त्र पर प्रितलोम िम से वाह्य आवरण से प्रारम्भ कर इनकी पूजा करनी चािहए
॥१२-१३॥

आवरणपूजा िविध इस प्रकार है -


भूपुर बाह्यभाग में वज्राफद आयुधों का, उसके भीतर इन्त्राफद दि फदलपालों का, फिर भूपुर के चारों पर १. कराल, २.
िवकराल, ३. अितकाल्य एवं ४. महाकाल - इस प्रकार चार द्वारपालों का पूजन करना चािहए ॥१३-१५॥

इसके बाद अष्टदल में १. एकिलङ्गा, २. योिगनी, ३. डाफकनी, ४. भैरवी, ५. महाभैरवी, ६. के न्त्राक्षी, ७. अिसताङ्गी एवं
८. संहाररणी इन आठ ििक्तयों का पूजन करना चािहए । तदनन्त्तर षट् कोण में ६ खड् गाफद अङ्गमूर्णत्तयों की, (र० ६. ४-५)
फिर ित्रकोण के मध्य में वाग्बीज के साथ िछन्नमस्ता की, तथा वाग्बीज (ऐं) के साथ तार से दोनों पाश्वगभाग में डाफकनी और
वर्णणनी इन दो सिखयों का पूजन करना चािहए । इस प्रकार पूजनाफद द्वारा मन्त्त्र िसि हो जाने पर साधक के समस्त मनोरथ
पूणग हो जाते हैं ॥१६-१८॥

िवमिग - इस प्रकार पूजाफद कमग से िछन्नमस्ता की पूजा के िलए ित्रकोण उसके बाद षट् कोण फिर अष्टदल फिर भूपुर युक्त यन्त्त्र
बनाना चािहए ।
पीठ पूजन एवं देवी पूजन करने के पश्चात देवी से ‘आज्ञ्पय आवरणं ते पूजयािम’ - कहकर आज्ञा माूँगे फिर िवलोम िम से
बाह्य आवरण से पूजा प्रारम्भ करे ।

भूपुर के बाहर पूवागफद आठ फदिाओं में -


ॎ वज्राय नमेः, पूव,े ॎ िक्तये नमेः, आिेय,े
ॎ दण्डाय नमेः, दिक्षणे,ॎ खड् गाय नमेः, नैऋत्ये,
ॎ पािाय नमेः, पिश्चमेॎ अंकुिाय नमेः, वायव्ये,
ॎ गदायै नमेः, उत्तरे ,ॎ िूलाय नमेः, ऐिान्त्याम्,
ॎ पदाय नमेः, ऊध्वगम,ॎ चिाय नमेः, अधेः ।
इस प्रकार वज्राफद आयुधों के पूजन के पश्चात् भूपुर के भीतर पूवागफद फदिाओं में इन्त्राफद दि फदलपालों की पूजा करे । यथा -
ॎ इन्त्राय नमेः, पूव,े ॎ अिये नमेः, अिेये,ॎ यमाय नमेः, दिक्षणे
ॎ िनऋतये नमेः, नैऋत्येॎ वरुणाय नमेः, पिश्चमे,ॎ वायवेम नमेः, वायव्ये,
ॎ सोमाय नमेः, उतरे ,ॎ ईिानाय नमेः, ऐिान्त्ये,ॎ ब्रह्मणे नमेः, ऊध्वगम्,
ॎ अनन्त्ताय नमेः, अध,

फदलपालों की पूजा के पश्चात् भूपुर के चारों द्वारों पर पूवागफद िम से कराल आफद द्वारपालों की पूजा करनी चािहए । यथा -
ॎ करालाय नमेः, पूवे,ॎ िवकरालाय नमेः, दिक्षणे,
ॎ अिलकालाय नमेः, पिश्चमे, ॎ महाकालाय नमेः, उत्तरे ।
द्वारपालोम के पूजन के पश्चात् अष्टदल कमल में एकिलङ्गा आफद आठ ििक्तयों की पूजा करनी चािहए । यथा -
ॎ एकिलङ्गायै नमेः, पूवागफददलपत्रे,ॎ योिगन्त्यै नमेः, आिेयकोणदलपत्रे
ॎ डाफकन्त्यै नमेः, दिक्षणीग्दलपत्रे,ॎ भैरव्ये नमेः, नैऋत्यकोणदलपत्रे,
ॎ महाभैरव्यै नमेः, पिश्चमफदग्दलपत्रे, ॎ के न्त्राक्ष्यै नमेः, वायव्यकोणफदग्दलपत्रे,
ॎ अिसतांग्यै नमेः, उत्तर फदग्दलपत्रे,ॎ संहाररण्यै नमेः ईिानकोणफदग्दलपत्रे,
तपश्चात् षट्कोण में षडङ्गों की पूजा करनी चािहए । यथा -
ॎ आं ख‍गाय ह्रीं ह्रीं हृदयाय स्वाहा,
ॎ ई सुखड् गाय ह्रीं ह्रीं िट् ििरसे स्वाहा,
ॎ ऊं वज्राय ह्रीं ह्रीं िट् ििखायै स्वाहा,
ॎ ऐं पािाय ह्रीं ह्रीं िट् कवचाय स्वाहा,
ॎ औं अंकुिाय ह्रीं ह्रीं िट् नेत्रत्रयाय वौषट् स्वाहा,
ॎ अेः वसुरक्ष ह्रीं ह्रीं िट् अस्त्राय िट् स्वाहा ।
तदनन्त्तर ित्रकोण में िछन्नमस्ता देवी का पूजन डाफकनी एवं वर्णणनी सिहत करना चािहए । यथा -
ॎ ऐं िछन्नमस्तायै नमेः, ॎ ऐं डाफकन्त्यै नमेः, ॎ ऐं वर्णणन्त्यै नमेः
इन मन्त्त्रों से मध्य में िछन्नमस्ता का तथा दिक्षण पाश्वग के िम से उक्त दोनों सिखयों का दोनों पाश्वग में पूजन करना चािहये ।
पूजा समाप्त कर छ पुष्पाञ्जिलयाूँ भगवती िछन्नमस्ता को समर्णपत करनी चािहए ॥१६-१८॥

इस प्रकार पूजन पुरश्चरणाफद के पश्चात् मन्त्त्र िसि हो जाने पर साधक िीघ्र ही उनकी प्रसन्नता से अपने दुलगभ मनोरथों को
प्राप्त करने में समथग हो जाता हैं । श्री पुष्पों के होम से लक्ष्मी तथा लक्ष्मी के प्राप्त होने से सारा मनोरथ पूणग करता है ॥१९॥

मालती पुष्पों के होम से वािलसिि, चम्पा पुष्पों के हवन से सुख िमलता है । इस प्रकार जो व्यिक्त १ मास पयगन्त्त घी िमिश्रत
छाग मांस की १-- आहुितयाूँ देता है सभी राजा उसके वि में ही जाते हैं ॥२०-२१॥

सिे द कनेर के पुष्पों से जो व्यिक्त १ लाख आहुितयाूँ देता है वह रोग जाल से मुक्त होकर १०० वषग पयगन्त्त जीिवत रहता है
॥२१-२२॥

लाल वणग के कनेर के िू लों से एक लाख आहुित देने से साधक व्यिक्त राजाओं और उसके मिन्त्त्रयों को वि में कर लेता है
॥२२॥

उदुम्बर एवं पलाि के िलों द्वारा होम करने वाला व्यिक्त लक्ष्मीवान् हो जाता है । गोमायु (िसयार) के मांस से भी होम करने
से लक्ष्मी प्राप्त हो जाती है । पायास एवं अन्न के होम से किवत्त्व ििक्त प्राप्त होती है ॥२३॥

बन्त्धूक पुष्पों के होम से भाग्याभ्युदय होता है । ितल एवं चावलों के होम से सभी लोग वि में हो जाते हैं । स्त्री के रज से होम
करने पर आकषगण, मृगमांस के होम से मोहन, मिहष मांस के होम से स्तम्भन और इसी प्रकार घी िमिश्रत कमल के हम से भी
स्तम्भन होता है ॥२४-२५॥

िचतािि में कोयल के पखों का होम करने से ित्रु की मृत्यु तथा धतूरे की लकडी से प्रज्विलत अिि में कौवों के पखों के होम से
भी ित्रु मर जाता है ॥२६॥

जुआ, जंगल राजद्वार, संग्राम एवं ित्रुसंकट में िछन्नमस्ता देवी का ध्यान कर मन्त्त्र का जप करने से िवजय प्रािप्त होती है
॥२७॥

भुिक्त एवं मुिक्त के िलए श्वेत वणग वाली देवी का, उिाटन के िलए नीलवणग वाली देवी का, विीकरण के िलए रक्तवणग वाली
देवी का, मारण के िलए धूम्रवणग वाली देवी का तथा स्तम्भन के िलए सुवणगवणाग देवी का ध्यान करना चािहए ॥२८॥
अब सवगिसििदायक एवं अत्यन्त्त गोपनीय प्रयोग कहता हूँ-
कृ ष्ण पक्ष की चतुदि
ग ी ितिथ को मध्यराित्र में जब घनघोर अन्त्धकार हो उस समय स्नान कर लाल वस्त्र, लाल माला एवं लाल
चन्त्दन लगाकर नवयुवती सुन्त्दरी, पञ्चपुरुषोपभुक्ता, स्मेरमुखी (हास्यवदना), और खुले के िों वाली फकसी स्त्री को लाकर उसमें
िछन्नमस्ता की भावनाकर आभूषणाफद प्रदान कर प्रसन्न करें । तदनन्त्तर उसे नंगी कर उसका पूजन कर दक्ष हजार मन्त्त्रों का
जप करे ॥२९-३२॥

फिर बिल देकर राित्र िबताकर धन से उसे संतुष्ट कर उसे उसके घर भेज दे । फिर दूसरे फदन देवता की भावना से ब्राह्मणों को
िविवध प्रकार का भोजन करावें ॥२३॥

इस प्रकार का प्रयोग करने वाला व्यिक्त लक्ष्मी पुत्र, पौत्र, यि, सुख, स्त्री, दीघागयु एवं धमग से पूणग हो मनोिभलिषत िल प्राप्त
करता है ॥३४॥

िवद्या की कामना वाले साधक को उस राित्र में व्रत करना चािहए तथा अन्त्य प्रकार के िल चाहने वाले मन्त्त्रवेता को मन्त्त्र का
जप करते हुये उसके साथ संभोग करना चािहए ॥३५॥

िवमिग - इन प्रयोगों को जनसाधारण को नहीं करना चािहए । िबना गुरु के इन्त्हें करने से िनिश्चत नुकसान होता है ॥३५॥

िविेष लया कहें, इस िवद्या के ज्ञान मात्र से िनिश्चत रुप से िास्त्रों का ज्ञान तथा पापों का सवगनाि होकर सभी प्रकार के सुखों
की प्रािप्त होती है ॥३६॥

उषेः काल में उठकर िय्या पर बैठकर १०० बार प्रितफदन इस मन्त्त्र का जप करने वाला व्यिक्त ६ महीने के भीतर अपनी
किवत्व ििक्त से िुिाचायग को जीत लेता है ॥३७॥

अब मन्त्त्र के उत्कीलन का िवधान करते हैं -


इस िवद्या को भगवान् ििव ने कीिलत कर फदया है । अतेः अब उसका उत्कीलन कहता हूँ । मन्त्त्रवेत्ता मन्त्त्र जप के पहले तथा
अन्त्त में इसका १०८ बार जप करे तो उत्कीलन हो जाता है और यह िवद्या िसििदायक हो जाती है ।
उत्कीलन का मन्त्त्र इस प्रकार है - प्रणव (ॎ), उससे संपुरटत माया बीज (ॎ ह्रीं ॎ) । िसिि की कामना रखने वाले व्यिक्त को
यह िविध िनिश्चत रुप से गुप्त रखनी चािहए । इस प्रकार किल में िीघ्र ही मनोऽभीष्टिल देने वाली िछन्नमस्ता िवद्या के
िवषय्त में हमने कहा है ॥३८-४०॥

रे णुका िबरी िवद्या भी िछन्नमस्ता के समान ही होती है । अब मै उस िवद्या को कह रहा हूँ -


प्रणव (ॎ), कमला (श्रीं), माया (ह्रीं), सृिण (िों), एवं इन्त्दय
ु ुत् अधर पंिक्त छन्त्द, एवं रेणुकािबरी देवता हैं । इन्त्हीं पाूँच
बीजाक्षरों से तथा समस्त मन्त्त्र से इसका षडङ्गान्त्यास करन चािहए ॥४०-४२॥

िवमिग - मन्त्त्र का स्वरुप - ॎ श्रीं ह्रीं िों ऐं ।


िविनयोग - ॎ अस्य श्रीरे णुकािबरीमन्त्त्रस्य भैरवऋिषेः पंिक्तछन्त्देः

रे णुकािबरीदेवता आत्मनोऽभीष्टिसियथे जपे िविनयोगेः ।


षडङ्गन्त्यास - ॎ हृदयाय नमेः,ॎ श्रीं ििरसे स्वाहा,
ॎ ह्रीं ििखायै वषट् ,ॎ िों कवचाय हुम्,
ॎ ऐं नेत्रत्रयाय वौषट् , ॎ श्री ह्रीं िों ऐं अस्त्राय िट् ।
इसी प्रकार करन्त्यास भी करना चािहए ॥४०-४२॥
अब रे णुकािबरी का ध्यान कहते हैं -
मेरु ििखर पर अनेक वृक्षों से मिण्डत उद्यान में रत्नमण्डप के मध्य िस्थत वेफदका पर िवराजमान देवी का ध्यान इस प्रकार
करना चािहए ॥४३॥

जो देवी गुञ्जािलों से िनर्णमत हार धारण करने से मनोहर हैं, कानों में मोरपखं का कु ण्डल धारण फकये हुये हैं िजनके दोनों
हाथों में धनुष और वाण है ऐसी िबरी देवी का मैं ध्यान करता हूँ ॥४४॥

इस प्रकार रे णुका िबरी देवी का ध्यान कर उक्त मन्त्त्र का ५ लाख जप करना चािहए तथा िवल्व वृक्ष की लकडी से प्रज्विलत
अिि में िबल्विलों से उसका दिांि होम करना चािहए ॥४५॥

अब पीठपूजा और आवरणपूजा का िवधान कहते हैं -


पूवोक्त पीठ पर की पूजा करनी चािहए । प्रथमावरण में षडङ्गपूजा और िद्वतीयावरण में िबरी की आठ ििक्तयों की पूजा
करनी चािहए । १. हुंकरी, २. खेचरी, ३. चण्डास्या, ४. छेफदनी, ५. क्षेपणा, ६. अस्त्री. ७. हुंकारीं तथा ८ क्षेमकरी - ये
िबरी की ८ महाििक्तयाूँ कही गई हैं । तृतीयावरण में दि फदलपालों की तथा चतुथागवरण मे उनके वज्राफद आयुधों की पूजा
करनी चािहए । इस प्रकार मन्त्त्र िसि हो जाने पर काम्य प्रयोग चािहए ॥४६-४९॥

िवमिग - प्रयोग िविध - षट् कोण, अष्टदल एवं भूपुर से युक्त यन्त्त्र पर देवी की पूजा करनी चािहए । पुनेः ६. ९-११ के िवमिग
में कही गई रीित से ‘ॎ आधारिक्तये नमेः’ से लेकर ‘ॎ रितकाभ्यां नमेः’ पयगन्त्त मन्त्त्र से से पीठ पूजन कर उस पर जयाफद नौ
ििक्तयों का पूजन करे । तदनन्त्तर उसी पीठ पर मूल मन्त्त्र से िविधवत् रे णुका िबरी का पूजन करे । ‘आज्ञापय आवरणं ते
पूजयािम’ से इस मन्त्त्र से भगवती की आज्ञा ले आवरण पूजा प्रारम्भ करनी चािहए ।
प्रथमावरण में षडङ्ग पूजन करे उसकी िविध इस प्रकार है -
ॎ हृदयाय नमेः, श्रीं ििरसे स्वाहा, ह्रीं ििखायै वषट् , िों कवचाय हुम्, ऐं नेत्रत्रयाय वौषट् , ॎ श्रीं ह्रीं िों ऐं अस्त्राय िट् ।
िद्वतीयावरण में अष्टदलों के पूवागफद फदिाओं के िम से हुंकारी आफद ििक्तयों का पूजन इस प्रकार करना चािहए -
ॎ हुंकयै नमेः, अष्टदल पूवगफदलपत्रे,ॎ खेचयै नमेः आिेयकोणस्थपत्रे,
ॎ चण्डालास्यायै नमेः, दिक्षणफदलपत्रे, ॎ छेफदन्त्यै नमेः नैऋत्यकोणस्थपत्रे,
ॎ क्षेपणायै नमेः, पिश्चमफदलपत्रे,ॎ अस्त्र्यै नमेः, वायव्यकोणस्थपत्रे,
ॎ हुंकायै नमेः, उत्तरथ फदलपत्रे,ॎ क्षेमकयै नमेः, ईिानकोणस्थत्रे ।
िद्वतीयावरण की पूजा के पश्चात् भूपुरे के भीतर दिों फदिाओं में पूवागफद िम से तृतीयावरण में इस प्रकार पूजा करे ।
ॎ इन्त्राय नमेः, पूव,े ॎ अिये नमेः, आिेयकोण,
ॎ यमाय नमेः, दिक्षणे,ॎ िनऋतयेेः,नमेः नैऋत्ये,
ॎ वरुणाय नमेः, पिश्चमे ॎ वायवे नमेः, वायव्ये,
ॎ सोमाय नमेः, उत्तरे,ॎ ईिानाय नमेः, ऐिान्त्ये,
ॎ ब्रह्मणे नमेः, पूवेिानयोमगध्ये,ॎ अनन्त्तराय नमेः, नैऋत्यपिश्चमयोमगध्ये ।
इस प्रकार तृतीयावरण की पूजा समाप्त कर भूपुर के बाहर वज्राफद आयुधों की चतुथागवरण पूजा करे , यथा -
ॎ वज्राय नमेः, पूव,े ॎ िक्तये नमेः, आिेय,े
ॎ दण्डाय नमेः, दिक्षणे ॎ पािाय नमेः, नैऋत्ये,
ॎ गदायै नमेः, पिश्चमे,ॎ पद्माय नमेः, वायव्ये,
ॎ खड् गाय नमेः, उत्तरे,ॎ अङ् कु िाय नमेः, ऐिान्त्ये
ॎ ित्रिूलाय नमेः, पूवेिानयोमगध्ये,ॎ चिाय नम्ह, नैऋत्यपिश्चमयोमगध्ये ।
इस प्रकार चतुथागवरण की पूजा कर पुनेः देवी का पूजन कर पुष्पाञ्जिलयाूँ समर्णपत करे ॥४६-४८॥

अब काम्य प्रयोग कहते हैं - मिल्लका पुष्पों द्वारा हवन करने से लोग वि में हो जाते हैं । ऊख के टुकडों के होम से धन लाभ
होता है । पञ्चगव्य के होम से साधक के गोधन की वृिि होती है और अिोक के िू लों के हवन से पुत्र प्रािप्त होती है । कमल
पुष्पों के होम से रानी वि में होती है । अन्न के होम से अन्न की प्रािप्त होती है । मधूक के होम से सभी मनोभलिषत कायग
संपन्न होते हैं, किलयुग में िसिि देने वाली िबरी िवद्या यहाूँ तक कही गई ॥४९-५०॥

अब इसके बाद िववाह के िलए स्वयंवर कला िवद्या का मन्त्त्र कहते हैं -
तार (ॎ), माया (ह्रीं), तदनन्त्तर दो बार ‘योिगिन’ पद (योिगिन योिगिन),उसके बाद २ बार ‘योगेश्वरी’ (योगेश्वरी योगेश्वरर),
फिर योग तदनन्त्तर िनरा (भ), फिर ‘यङ्करर सकलस्थावरजङ्गमस्य मुखं’ फिर ‘हृदय मम’, फिर ‘विमाकषगयाकषग’, फिर
पवन (य), तदनन्त्तर विहनसुन्त्दरी (स्वाहा) लगाने से ५० अक्षरों का स्वयंवर कला मन्त्त्र बनता है ॥५१-५३॥

िवमिग - इस मन्त्त्र का स्वरुप इस प्रकार है - ‘ॎ ह्रीं योिगिन योिगिन योगेश्वरर योगेश्वरर योगभयंकरर सकलस्थावरजङ्गमस्य
मुखं हृदयं मम विमाकषगयाकषगक स्वाहा’ ॥५१-५३॥

पचास अक्षरों वाली इस िवद्या के िपतामहं ब्रह्या ऋर्णष हैं, अितजग्ती छन्त्द है तथा िगररपुत्री स्वयंवरा इसकी देवता कही गयीं
हैं ॥५४॥

अब मन्त्त्र का षडङ्गन्त्यास कहते हैं -


आफद में तार (ॎ), माया (ह्रीं) को प्रारम्भ में तथा अन्त्त में ‘वश्य मोिहन्त्यै’ पद लगाकर, मध्य में िमिेः ‘जगत्त्रय’ से हृदय,
‘त्रैलोलय’ से ििर, ‘उरग’ से ििखा, ‘सवगराज’ से कवच, ‘सवगस्त्रीपुरुष’ से अिक्ष (नेत्र), तथा ‘सवग’ से अस्त्रन्त्यास करना चािहए ।
यहाूँ तक तो षङङ्गन्त्यास कहा गया । इसके बाद मूल मन्त्त्र पढकर व्यापक न्त्यास करना चािहए । फिर महादेव का वरण करने
के िलए आयी हुई िगररराजपुत्री िगररजा का ध्यान करना चािहए ॥५५-५७॥

िवमिग - िविनयोग - ‘ॎ अस्य श्रीस्वयंवरकलामन्त्त्रस्य ब्रह्माऋिषेः अितजगतीछन्त्देः


देवीिगररपुत्रीस्वयंवरादेवतात्मनोऽभीष्टिसिये मन्त्त्रजपे
िविनयोगेः ।
षडङ्गन्त्यास -ॎ ह्रीं जगत्त्रयवश्यमोिहन्त्यै हृदयाय नमेः,
ॎ ह्रें त्रैलोलयवश्यमोिहन्त्यै ििरसे स्वाहा,
ॎ ह्रीं सवगराजवश्यमोिहन्त्यै कवचाय हुम्,
ॎ ह्रीं सवगस्त्रीपुरुषवश्यमोिहन्त्यै नेत्रत्रयाय वौषट् ,
ॎ ह्रीं सवगश्यमोिहन्त्यै अस्त्राय िट् ।
ॎ ह्रीं योिगिन योिगिन योगेश्वरर योगेश्वरर योगभयङ्करर सकलस्थावरजङ्गमस्य मुखं हृदयं मम विमाकषगयाकषगय स्वाहा
इित सवागङ्गे ॥५५-५७॥

िगररराजपुत्री का ध्यान-
भगवान सदाििव के जगन्त्मोहन पररपूणगरुप को देखकर संकोच से लजाती हुई मन्त्द मन्त्द मुस्कान् से युक्त, अपने सिखयों के
साथ वर वरणाथग मधूक पुष्प की माला िलए हुये िगररराजपुत्रीं का मैम ध्यान करता हूँ ॥५८॥
इस प्रकार ध्यान कर चार लाख उक्त मन्त्त्र का जप करना चािहए, फिर उसका दिांि पायस से हवन करना चािहए ।
तदनन्त्तर पूवोक्त पीठ पर देवी का पूजन करना चािहए ॥५९॥

प्रथम ित्रकोण, उसके बाद चतुष्कोण, उसके बाद षट्कोण, तदनन्त्तर अष्टदल, फिर दिदल, पुनेः दिदल, फिर षोडिदल, फिर
बत्तीस दल, फिर चौंसठ दल, इसके बाद तीन वृत्त, उसके बाद चार द्वार वाला भूपुर - इस प्रकार का यन्त्त्र बनाकर उस पर
देवी का पूजन करना चािहए ॥६०-६१॥
(१) ित्रकोण में पावगतो का पूजन कर चतुरस्र (२) में मेधा, िवद्या, लक्ष्मी एवं महालक्ष्मी इन चारों का पूजन करना चािहए
॥६२॥
षट्कोण (३) में ष‍ङपूजा (र० ६. ५५-५७) तथा अष्टदलों (४) में २ के िम से १६ की, दोनों (५-६) दि दलों में िमिेः
इन्त्राफद दि फदलपालों का तथा उनके वज्रफद आयुधों का पूजन करना चािहए ॥६३॥

षोडिदलोम (७) में ‘श्रीरमायै नमेः’ इस मन्त्त्र से रमा का, बत्तीस (८) दलों वाले कमल में ‘आं ह्रीं िी ििवायै नमेः’ मन्त्त्र से
ििवा का पूजन करना चािहए ॥६४॥
६४ दल वाले कमल में ‘श्री ह्रीं ललीं ित्रपुरायै नमेः’ से ित्रपुरा का, तदनन्त्तर तीनों वृतों में िमिेः महालक्ष्मी,भवानी और
कामेश्वरी का, तथा भूपुर मे पूवागफद चारों द्वारों पर िमि गणेि, क्षेत्रपाल, भैरव एवं योिगिनयों का पूजन कर ९ आवरणों की
पूजा समािप्त करनी चािहए ॥६५-६६॥

इस रीित से जो व्यिक्त देवी की आराधना करता है उसके वि में सभी लोग हो जाते हैं । जो व्यिक्त ित्रमधु (घी, मधु, दुग्ध)
िमिश्रत लाजा के साथ इस मन्त्त्र से होम करता हैं, वह धन एवं मान सिहत अिभलिषत कन्त्या प्राप्त करता है । यहाूँ तक
स्वयंवरा िवद्या कही गई अब आगे मधुमती िवद्या कही जायेगी ॥६७-६८॥

िवमिग - प्रयोग िविध - (६. ५८) के अनुसार देवी का ध्यान कर मानसोपचार से पूजा सम्पादन कर िविधवत अध्यग स्थापन
पीठ पूजा करे (र० ६. ८) पीठ पर मूलमन्त्त्र (र ० ५१-५३) से देवी की पूजा कर ‘आज्ञापय आवरणं पूजयािम’ इस मन्त्त्र से
देवी की आज्ञा ले आवरण पूजा प्रारम्भ करे ।

प्रथमावरण में ६. ६०-६१ के अनुसार बनाये गये यन्त्त्र पर भीतर ित्रकोण में ‘ह्रीं पावगत्यै नमेः’ इस मन्त्त्र से पावगती का पूजन
करे । फिर िद्वतीयावरण में चतुरस्त्र पर -
ॎ मेधायै नमेः,ॎ िवद्यायै नमेः,
ॎ लक्ष्म्यै नमेः,ॎ महालक्ष्म्ये नमेः,
आफद मन्त्त्रों से पूजा करे । फिर षट् कोण पर तृतीयावरण में िमिेः
ॎ ह्रीं जगत्त्रयवश्यमोिहन्त्यै हृदयाय नमेः,
ॎ ह्रीं त्रैलोलयवश्यमोिहन्त्यै ििरसे स्वाहा,
ॎ ह्रीं उरगवश्यमोिहन्त्यै ििखायै वषट् ,
ॎ ह्रीं सवगराजवश्यमोिहन्त्यै कवचाय हुम्
ॎ ह्रीं सवगस्त्रीपुरुषवश्यमोिहन्त्यै नेत्रत्रयाय वौषट् ,
ॎ सवगवश्यमोिहन्त्यै अस्त्राय िट् ,
तथा मूलमन्त्त्र से यन्त्त्र के ऊपर पूजा करे । फिर चतुथागवरण में अष्टदल कमलों का िमिेः दो दो स्वरों के साथ ‘ॎ प्रं प्रां नमेः’
‘ॎ इ ईं नमेः’ इत्याफद िम से चतुथागवरण की पूजा करे ।
दि दल वाले कमल पर पञ्चावरण में इन्त्र आफद दि फदलपालों की पूजा करनी चािहए । यथा -
ॎ इन्त्राय नमेः, पूव,े ॎ अिये नमेः, आिेय,े
ॎ यमाय नमेः, दिक्षने,ॎ िनऋतये नमेः, नैऋत्ये,
ॎ वरुणाय नमेः, पिश्चमेॎ वायवे नमेः, वायव्ये,
ॎ सोमाय नमेः, उत्तरे,ॎ ईिानाय नमेः, ऐिान्त्ये,
ॎ ब्रह्मणे नमेः, पूवेिानयोमगध्ये, ॎ अनन्त्ताय नमेः, िनऋित पिश्चमयोमगध्ये, फिर षष्ठावरण में दूसरे दि कमल पत्रों पर दि
फदलपालों के आयुधों की पूजा करे । यथा -
ॎ वज्राय नमेः, पूव,े ॎ िक्तये नमेः, आिेय,े
ॎ दण्डाय नमेः, दिक्षणे,ॎ पािाय नमेः, नैऋत्ये,
ॎ गदायै नमेः, पिश्चमे,ॎ पद्माय नमेः, वायव्ये,
ॎ खड् गाय नमेः उत्तरे ॎ अड् कु िाय नमेः, ऐिान्त्ये
ॎ ित्रसूलाय नमेः, पूवेिानयोमगध्ये, ॎ चिाय नमेः, नैऋत्यपिश्चमयोमगध्ये ।
सत्यमावरण में षोडिदलोम पर ‘ॎ श्री रमायै नमेः’ से, तदनन्त्तर अष्टमावरण में बत्तीस दलों पर ‘ॎ आं ह्रीं िों ििवायै नमेः’
मन्त्त्र से, फिर नवमावरण में ६४ दलों पर ‘ॎ श्रीं ह्रीं ललीं ित्रपुरायै नमेः’ मन्त्त्र से ित्रपुरा का पूजन करे ।
इस प्रकार नवमावरणों की पूजा कर तीन वृत्तों में िमिेः महालक्ष्मी, भवानी एवं कामेश्वरी का िनम्निलिखत मन्त्त्रों से पूजन
करना चािहए-
ॎ श्री महालक्ष्म्यै नमेः, ॎ ह्रीं भवान्त्यै नमेः, ॎ ललीं कामेश्वयै नमेः,
अन्त्त में भूपुर में पूवागफद चारोम फदिाओम में गणेि, क्षेत्रपाल, भैरव एवं योिगिनयोम का पूजन करना चािहए । यथा -
ॎ ह्रीं गं गणेिाय नमेः, पूवगद्वारे ,
ॎ ह्रीं वं वटुकाय नमेः, दिक्षणद्वारे ,
ॎ ह्रीं क्षं क्षेत्रपालाय नमेः, पिश्चमद्वारे ,
ॎ ह्रीं यं योिगनीभ्यों नमेः, उत्तरद्वारे ।
इस प्रकार आवरण पूजा कर देवी को ९ पुष्पाञ्जिल समर्णपत कर, िविधवत् जप करना चािहए ॥६२-६८॥
अब पूवग प्रितज्ञात (र ० ६. ६८) मधुमती मन्त्त्र का उिार कहते हैं-
िबन्त्द ु सिहत नारायण (आं) हृल्लेखा (ह्रीं), अंकुि (िों), मन्त्मथ (ललीं) दीघगवमग (हं), फिर रुव (ॎ), तथा अन्त्त में विहए प्रेयसी
(स्वाहा) लगाने से ८ अक्षरों का मधुमती मन्त्त्र िनष्पन्न होता है ॥६९॥

िवमिग - मन्त्त्र का स्वरुप इस प्रकार है - ‘आं ह्रीं िों ललीं हं ॎ स्वाहा’ ॥६९॥
इस मन्त्त्र के मधु ऋिष हैं, ित्रष्टु प् छन्त्द है तथा मधुमती देवता हैं ॥ पाूँच बीजों से पाूँच अगों का तथा स्वहान्त्त प्रणव से अस्त्र
न्त्यास कर िवद्वान् साधक को देवी ध्यान करना चािहए ॥७०-७१॥

िवमिग - िविनयोग - ॎ अस्य श्रीमधुमतीमन्त्त्रस्य मधुऋिषेः ित्रष्टु प्छ्नन्त्देः मधुमतीदेवता आत्मनोऽभीष्टिसियथे


मधुमतीमन्त्त्रजपे िविनयोगेः ।
षडङ्गन्त्यास - ॎ हृदयाय नमेः,ॎ ह्रीं ििरसे स्वाहा,
ॎ िों ििखायै वषट् ,ॎ ललीं कवचाय हुं,
ॎ हुं नेत्रत्रयाय वौषट् ,ॎ स्वाहा अस्त्राय िट् ॥७०-७१॥

अब मधुमती देवी का ध्यान कहते हैं -


अनेक वृक्ष एवं लताओं से िघरे कै लाि पवगत के गहन वन में मिण जरटत काञ्चन पीठ पर िवराजमान, अपने दोनों हाथों में
िमिेः दािहने हाथ में नागलता एवं बायें में नीलकमल धारण फकये हुये देवाङ्गना एवं नागपित्नयों से सेिवत
सवागथगिसििदायक मधुमती का ध्यान करता हूँ ॥७२॥
उक्त मन्त्त्र का आठ लाख जप करना चािहए । जप पूणग होने पर िवल्ब पत्रोम से उसका दिांि होम करना चािहए और पीठ
पर जयाफद ििक्तयों का पूजन करना चािहए ॥७३॥
कर्णणका में षडङ्गन्त्यास, एवं अष्टदलों में ििक्तयों का पूजन करना चािहए ।
१. िनरा, २. छाया, ३. क्षमा, ४. तृष्णा, ५. कािन्त्त, ६. आयाग, ७. श्रुित एवं ८. स्मृित ये आठ मधुमती की ििक्तयाूँ हैं । इसके
बाद इन्त्राफद दि फदलपालों का, तदनन्त्तर उनके वज्राफद आयुधों का सुख प्रािप्त के िलए पूजन करना चािहए । जो इस प्रकार
मधुमती देवी की उपासना करता है वह समृिि प्राप्त करता है ॥७४-७५॥

िवमिग - प्रयोग िविध - वृत्ताकार कर्णणका के ऊपर िमिेः अष्टदल एवं भूपुर बना कर उस यन्त्त्र में मधुमती का मूल मन्त्त्र से
आवाहन कर पूजन करना चािहए ।
फिर ‘आज्ञापय आवरणं ते पूजयािम’ इस मन्त्त्र से आज्ञा लेकर आवरन पूजा प्रारम्भ करना चािहए ।
प्रथमावरण में वृत्ताकर कर्णणका में िनम्न मन्त्त्रों षडङ्गपूजा करनी चािहए -
ॎ आं हृदाय नमेः,ॎ ह्रीं ििरसे स्वाहा,ॎ िों ििखायै वषट्
ॎ ललीं कवचाय हुम्,ॎ हं नेत्रत्रया वौषत्, ॎ स्वाहा अस्त्राय िट् ,
इसके अनुसार अष्टदल कमल में पूवागफद फदिाओम के िम से -
ॎ िनरायै नमेः,ॎ छायायै नमेः,ॎ क्षमायै नमेः,
ॎ तृष्णायै नमेः,ॎ कान्त्त्यै नमेः,ॎ आयागयै नमेः,
ॎ श्रुत्यै नमेः,ॎ स्मृत्यै नमेः,
पयगन्त्त मन्त्त्रों से िद्वतीयावरण की पूजा करनी चािहए ।
इसके बाद भूपुर के द्िों फदिाओं में -
ॎ इन्त्राय नमेः, पूव,े ॎ अिये नमेः, आिेय,े
ॎ यमाय नमेः, दिक्षणे,ॎ िनऋतये नमेः, नैऋत्ये,
ॎ वरुणाय नमेः, पिश्चमे,ॎ वायवे नमेः, वायव्ये,
ॎ सोमाय नमेः, उत्तरे, ॎ ईिानाय नमेः, ऐिान्त्ये,
ॎ ब्रह्मणे नमेः पूवेिानयोमगध्ये,ॎ अनन्त्ताय नमेः पिश्चमनैऋत्यमध्ये,
इस प्रकार तृतीयावरण की पूजा करनी चािहए । तदनन्त्तर भूपुर के बाहर पूवागफद िम से उनके वज्राफद आयुधों की पूजा करनी
चािहए यथा-
ॎ वज्राय नमेः पूवे,ॎ िक्तये नमेः,आिेय,े ॎ दण्डाय नमेः दिक्षणे,
ॎ खड् गाय नमेः वायव्य,ॎ गदायै नमेः, उत्तरे ,ॎ पािाय नमेः पिश्चमे,
ॎ अड् कु िाय नमेः वायव्ये,ॎ ित्रिूलाय नमेः पिश्चमनैऋत्ययोमगध्ये,
ॎ पद्माय नमेः पूवगिानयोमगध्ये,ॎ चिाय नमेः पिश्चमनैऋत्ययोमगध्ये,
इस प्रकार चतुथागवरण की पूजाकर गन्त्धाफद उपचारों से देवी का पूजन कर चार पुष्पाञ्जिलयाूँ समर्णपत करना चािहए ।
तदनन्त्तर िविधवत् जप कायग करना चािहए ॥७४-७५॥

अब काम्य प्रयोग कहते हैं - लाल कमलों के होम से साधक राजा एवं राजमन्त्त्री को अपने वि में कर लेता है । पायस के होम
से अनेक भोगों की प्रािप्त होती है ताम्बूल के होम से िस्त्रयाूँ वि में हो जाती हैं ॥७६॥

अब मधुमती का अन्त्य मन्त्त्र कहते हैं - िबन्त्द ु सिहत दामोदर (ऐं) यह मधुमती का अन्त्य मन्त्त्र हैं । पूवोक्त रीित से इसका
अनुष्ठान करन चािहए । इस मन्त्त्र के अनुष्ठान में कु माररका देवी का ध्यान तथा पूजन करना चािहए । इस मन्त्त्र के अनुष्ठान में
कु माररका देवी का ध्यान तथा पूजन करना चािहए । आधा करोड (अथागत् ५० लाख) जप करने से साधक सभी िवद्याओं में
पारं गत हो जाता हैं । इस प्रकार नाना प्रकार के सुखों एवं भोगों को प्रदान करने वाला मधुमती के समान अन्त्य कोई मन्त्त्र
नहीं है ॥७७-७८॥

िवमिग - इस मन्त्त्र का स्वरुप - (ऐं), एक अक्षर मात्र है ॥७७-७८॥


अब प्रमदा देवी का मन्त्त्र कहते हैं - माया (ह्रीं), वहन्त्यासन िूर (प्र), फिर ‘मदे’ पद, तदनन्त्तर पावकसुन्त्दरी (स्वाहा), लगाने
से ६ अक्षरों का प्रमदामन्त्त्र बनता हैं ॥७९॥

िवमिग - इस मन्त्त्र का स्वरुप इस प्रकार है - ‘ह्रीं प्रमदे स्वाहा’ ॥७९॥


इस मन्त्त्र के ििक्त ऋिष हैं, गायत्री छन्त्द तथा प्रमदा देवता हैं । षड् दीघग सिहत माया मन्त्त्र से इसका षडङ्गान्त्यास करना
चािहए ॥८०॥
षडङ्गन्त्यास - ॎ ह्रां हृदयाय नमेः,ॎ ह्रीं ििरसे स्वाहा,
ॎ ह्रूं ििखायै नमेः,ॎ ह्रैं कवचाय हुं,
ॎ ह्रौं नेत्रत्रयाय वौषट् ,ॎ ह्रेः अस्त्राय िट् ॥८०॥
अब प्रमदा देवी का ध्यान कहते हैं -
के यूर आफद समस्त प्रधान आभूषणों से अलंकृत, अपने दोनों हाथों में वर और अभय मुरा धारण करणे वाली, इन्त्राफद
देवताओम से सेव्यमान पादों वाली,उत्तम सुवणग के समान देदीप्यमा कािन्त्त वाली प्रमदा देवे का मै ध्यान करता हूँ ॥८१॥

अब अनुष्ठान का प्रकार कहते हैं -


उक्त मन्त्त्र का ६ लाख जप करे , उसका दिांि घी से होम करे , जप से पूवग पूवोक्त पीठ पर देवी का पूजन करे तथा कर्णणका में
षडङ्गपूजा, फदलपालों की पूजा एवं आयुधोम की पूजा करे । फकसी िनजगन वन में राित्र के समय िनयमपूवगक दि हजार जप
करना चािहए तथा पायस से एक हजार आहुितयाूँ देन के बाद ियन करना चािहए । २१ फदनों तक लगातार राित्र में ऐसा
करने अप देवी साक्षात् दृिष्टगोचर होकर साधक की समस्त मनोकामनायें पूणग कर देती हैं ॥८२-८४॥

अब प्रमोदा का मन्त्त्र एवं प्रयोग कहते हैं -


माया (ह्रीं), फिर ‘प्रमोदे’ यह पद, इसके अन्त्त में ठद्वय (स्वाहा) लगाने से ६ अक्षरों का प्रमोदा का श्रेष्ठ मन्त्त्र िनष्पन्न होता है ।
इस मन्त्त्र के ऋिष, छन्त्द, देवता तथा पूजा िविध प्रमदा के समान ही कहे गए हैम ॥८५॥
अनुष्ठान िविध - नदी के िनजगन तट पर चन्त्दन से मण्डल िनमागण करे । पूवोक्त रीित से पूजा, जप और होम करने से साधक
िनिश्चत रुप से प्रमोदा देवी का दिगन पा जाता है ॥८६॥

िवमिग - मन्त्त्र का स्वरुप इस प्रकार है - ‘ह्रीं प्रमोदे स्वाहा; ।


िविनयोग एवं षडङ्गन्त्यास आफद के प्रयोग प्रमदा के मन्त्त्रों में देिखये । (र०
अब बन्त्दी मन्त्त्र का उिार करते हैं-
तार (ॎ), फिर िहिलयुग्म (िहिल िहिल), फिर ‘बन्त्दी देवी’ पद का चतुथ्व्यगन्त्त (बन्त्दी देव्यै), तदनन्त्तर नमेः लगाने से ग्यारह
अक्षरों का बन्त्दी मन्त्त्र बनता है ॥८७॥
िवमिग - मन्त्त्र का स्वरुप - ‘ॎ िहिल िहिल बन्त्दीदेव्यै नमेः’ ८७॥
इस मन्त्त्र के भैरव ऋिष हैं, ित्रष्टु प् छन्त्द है तथा बन्त्दी देवता हैं । मन्त्त्र के एक तदनन्त्तर २, २, २, २, २, अक्षरों से
षडङ्गन्त्यास करना चािहए । फिर रत्न तसहासन पर िवराजमान बन्त्दी देवी का ध्यान करना चािहए ॥८७-८८॥

िविनयोग - ॎ अस्य श्रीबन्त्दीमन्त्त्रस्य भैरवऋिषेः ित्रष्टु पछन्त्देः बन्त्दीदेवता भवबन्त्धक्तये बन्त्दीमन्त्त्र जपे िविनयोगेः ।
षडङ्गान्त्यस - ॎ हृदया नमेः,ॎ िहिल ििरसे स्वाहा,
ॎ िहिल ििखािय वषट् ,ॎ बन्त्दी कवचाय हुम्
ॎ देव्यै नेत्रत्रयाय वौषट् ,ॎ नमेः अस्त्राय िट् ॥८७-८८॥
अब बन्त्दी देवी ध्यान कहते हैं -
जलधर मेघ के समान कािन्त्त वाली, हाथोम में कमल एवं मृत कलि िलए हुये एवं देवाङ्गनाओम से सेव्यमान चरणों वाली
बन्त्दी देवी का मैम बन्त्धन से मुिक्त पाने हेतु ध्यान करता हूँ ॥८९॥
अब पुरश्चरण िविध कह्ते हैं -
उपयुगक्त बन्त्दी मन्त्त्र का दो लाख जप तथा तद्दिांि पायस से होम करना चािहए । सभी प्रकार के बन्त्धनों से मुिक्त पाने के
िलए पूवोक्त पीठ पर देवी का पूजन करना चािहए ॥९०॥

१. काली, २. तारा, ३. भगवती, ४. कु ब्जा, ५. िीतला, ६. ित्रपुरा, ७. मातृका एवं ८. लक्ष्मी ये आठ बन्त्दी देवी की ििक्तयाूँ
है । कमल के के िरों में अंगपूजा तथा कमलदलों के मध्य ििक्तयों का पूजना करना चािहए । आठ ििक्तयों की पूजा के पश्चात्
फदलपालों एवं उनके आयुधों का पूजन करना चािहए । इस प्रकार की आराधना से प्रसन्न होकर बन्त्दी देवी मनुष्यों को अभीष्ट
िल देती हैं ॥९०-९१॥

साधक को ब्रह्मचयग वतग का पालन करते हुये २१ फदन पयगन्त्त गणेि पूजन पूवगक प्रित फदन दि हजार मन्त्त्रों का जप करना
चािहए । ऐसा करने से कारागार में बन्त्दी व्यिक्त कारागार से मुक्त हो जाता है ॥९३-९४॥

िवमिग - प्रयोग िविध - (अनुष्ठान के िलए ६. १९-३७ श्लोक रष्टव्य है।) अनुष्ठान के प्रारम्भ में गणपित का सिविध पूजन करे ।
फिर ६. ८९ श्लोकानुसार देवी का ध्यान कर मानसोपचारों से उनकी पूजा करे । पुनेः सुसम्पन्न मण्डल रचना कर अघग
स्थािपत करे । तीथागिभिमिश्रत अध्यग के जल को प्रोक्षणी में डाल देवे । फिर उस जल से पूजन सामग्री का प्रोक्षण करे ।
तदनन्त्तर पीठ पूजा कर उस पर षट् कोण, अष्टदल एवं भूपुर युक्त यन्त्त्र का िनमागण कर, उसमें देवी का ध्यान कर, पुनेः उनका
पूजन करे । तदनन्त्तर षडङ्गपूजा सिहत देवी के आवरणों की पूजा करे ।
प्रथमावरण में षट् कोण में -
ॎ हृदयाय नमेः, ॎ िहिल ििरसे स्वाहा, ॎ िहिल ििखायै वषट् ,
ॎ बन्त्दी कवचाय हुम्, ॎ देव्यै नेत्रत्रयाय वौषट् , ॎ नमेः अस्त्राय िट् ।

यहाूँ तक प्रथमावरण की पूजा कही गई । इसके बाद िद्वतीयावरण की पूजा हेतु दलों के मध्य में पूवागफद फदिाओं के िम से
काली आफद ििक्तयों का पूजन करना चािहए । यथा - ॎ काल्यै नमेः ॎ तारायै नमेः,
ॎ भगवत्यै नमेः, ॎ कु ब्जायै नमेः, ॎ िीतलायै नमेः,
ॎ ित्रपुरायै नमेः, ॎ मातृकायै नमेः, ॎ लक्ष्म्यै नमेः ।
फिर भूपुर के भीतर पूवोक्त रीित से पूवाफद फदिाओं के िम से पूवोक्त इन्त्राफद दि फदलपालों की पूजा कर तृतीयावरण की
पूजा सम्पन्न करे । फिर बाहर पूवागफद फदिाओं के िम से पूवोक्त इन्त्राफद दि फदलपालों के वज्राफद आयुधों की पूजा कर
चतुथागवरण की पूजा सम्पन्न कर जप करना चािहए । जप की समािप्त हो जाने पर पायस से दिांि होम करना चािहए ॥९०-
९४॥

अब कारागार से बिन्त्दयों को छु डाने का एक अन्त्य प्रयोग कहते हैं -


अपूप (माल पूआ) पर घी से चतुरस्त्र के भीतर ठकार िलखकर िजसे छु डाना हो उस साध्य का नाम िलखकर (अमुकं) मोचय
िलखना चािहए । फिर चतुरस्त्र के चारों फदिाओं में माया बीज (ह्रीं) िलखकर उसे अष्टादिाक्षर मन्त्त्र से (प्रितलोम िम से)
पररवेिष्टत करे ॥९५॥

वाग्बीज (ऐं), भुवनेिानी (ह्रीं), रमा (श्रीं), फिर ‘बन्त्दी’ पद, उसके बाद के िव (अ), फिर ‘मुष्य बन्त्ध’, तदनन्त्तर ‘मोक्षं’ फिर
दो बार कु रु (कु रु कु रु), फिर ठद्वय (स्वाहा) लगाने से अष्टादिाक्षर मन्त्त्र िनष्पन्न होता है, जो बिन्त्दयों को िीघ्र मोक्ष देने
वाला है ॥९६-९७॥

िवमिग - अष्टादिाक्षर मन्त्त्र का उिार - ‘ऐं ह्रीं श्रीं बिन्त्द अमुष्य बन्त्ध मोक्षं कु रु स्वाहा’ (१८) । इसका प्रयोग िचत्र में स्पष्ट है
॥९७॥
इस प्रकार १८ अक्षरों से पररवेिष्टत साध्यनाम वाल अपूप पर देवी की पूजा कर िजस अपने िमत्र को कारागार से मुक्त करना
हो उसे िखला दे । बन्त्दी रहने वाला साध्य िुि होकर मौन हो उस अपूप को खा जावे तो उसके भक्षण करने से वह िीघ्र ही
कारागार से मुक्त हो जाता है । यह बन्त्दी देवी ऐसी हैं फक स्मरण मात्र से बन्त्धन से मुक्त कर देती हैं ॥९७-९९॥

सप्तम तरङ्ग
अररत्र
अब सभी मनोरथों की िसिि के िलए वटयिक्षणी मन्त्त्र कहता हूँ -
पद्मनाभ (ए) िझण्टीिस्थ (ए) िवयद् और वायु ह्य (ह्यो) सदृक् (एकारसिहत) िवयत् (ह) अथागत अथागत् िह तदनन्त्तर ‘यिक्ष
यिक्ष महायिक्ष वट’ पद फिर सनािसक ऋकार सिहत तोय व् (अथागत् वृ) तदनन्त्तर ‘क्षिनवािसनी िीघ्रं मे सवगसौख्यं’ इतना पद
फिर दो बार कु रु (कु रु कु रु) इसके अन्त्त में ‘स्वाहा’ लगाने से सवगसमृििदायक बत्तीस अक्षरों का मन्त्त्र िनष्पन्न होता है ॥१-३॥

िवमिग - वटयिक्षणी मन्त्त्र का स्वरुप इस प्रकार है - ‘एह्येिह यिक्ष यिक्ष महायिक्ष वटवृक्षिनवािसनी िीघ्रं मे सवगसौख्यं कु रु कु रु
स्वाहा’ (३२) ॥१-३॥
इस मन्त्त्र के िवश्रवा ऋिष हैं, अनुष्टुप छन्त्द है, तथा यिक्षणी देवता हैं ॥३॥

िवमिग - िविनयोग िविध - ‘ॎ अस्य श्रीवटयिक्षणीमन्त्त्रस्य िवश्रवाऋिषरनुष्टुप्छन्त्देः यिक्षणीदेवतात्मनोऽभीष्टिसियथं जप


िविनयोगेः’ ॥१-३॥

मन्त्त्र के िमिेः ३, ४, ४, ८, ७, एवं ६ अक्षरों से अङ्गन्त्यास करना चािहए । फिर मस्तक, दोनों नेत्र, मुख, नािसकाद्वय,
दोनों कान, दोनों कन्त्धे, दोनों स्तन, दोनों पाश्वगभाग, हृदय-नािभ, िलङ्ग, उदर, करट, ऊरु, नािभ, दोनों जंघा, दोनों जानु,
दोनों मिणबन्त्ध, दोनों हाथ तथा ििर में मन्त्त्र के प्रत्येक वणों से न्त्यास कर वटवृक्ष में िस्थत देवी का ध्यान करना चािहए ॥४-
६॥

िवमिग - प्रयोग िविध - ‘एह्येिह हृदयाय नमेः, यिक्ष यिक्ष ििरसे स्वाहा, महायिक्ष ििखायै वषट् , वटवृक्षिनवािसिन कवचाय
हुं, िीघ्रं में सवगसौख्य नेत्रत्रयाय वौषट् , कु रु कु रु स्वाहा अस्त्राय िट् ।

सवागङ्गन्त्यास - ॎ ऐं नमेः मस्तके , ह्यें नमेः दक्षनेत्र,े तह नमेः वामनेत्रे,


यं नमेः मुखे, तक्ष नमेः दक्षनासायाम्, यं नमेः वामसायाम,
तक्ष नमेः दक्षकणे, में नमेः वामकणे, हां नमेः दक्षांसे,
यं नमेः वामांसे, िक्ष नमेः दिक्षणस्तने वं नमेः वामस्तने,
टं नमेः दिक्षणपाश्वे वृं नमेः वामपाश्वे, क्ष्म नमेः हृफद,
तन नमेः नाभौ, वां नमेः िलङ्गे तस नमेः उदरे ,
तन नमेः दिक्षणकट्डाम्, िीं नमेः वामकट्डाम्, घ्रं नमेः दिक्षणउरौ,
में नमेः वामउरौ, सं नमेः नाभौ, वं नमेः दिक्षणजंघायाम्,
सौं नमेः वामजंघायाम् ख्यं नमेः दिक्षणजानौ, कुं नमेः वामजानौ,
रुं नमेः दिक्षणमिणबन्त्धे, कुं नमेः वाममिणबन्त्धे, रुं नमेः दिक्षणहस्ते
स्वां नमेः वामहस्ते हां नमेः ििरिस ॥४-६॥
अब देवी का ध्यान कहते हैं - लाल चन्त्दन एवं लाल वस्त्रों से िवभूिषत िरीर वाली, िविाल जलधर के समान कािन्त्त वाली,
मदमत्त हररणी के समान चञ्चल नेत्रों वाली, अपने दो हाथों में पूगींिल एवं नागवल्ली दल िलए हुये वटयिक्षणी का मैं ध्यान
करता हूँ ॥७॥

इस मन्त्त्र का २ लाख जप करना चािहए अथा बन्त्धूक पुष्पों से उसका दिांि होम करना चािहए । अब पीठििक्तयों का वणगन
करता हूँ ॥८॥

१. कामदा, २. मानदा, ३. नक्ता, ४. मधुरा, ५. मधुरानना, ६. नमगदा, ७. भोगदा, ८. नन्त्दा और ९. प्राणदा ये पीठ की नव
ििक्तयाूँ कहीं गही हैं । ‘मनोहराय यिक्षणी योगपीठाय नमेः’ यह पीठ मन्त्त्र है, इसी पूिजत पीठ पर वटयिक्षणी का पूजन
करना चािहए ॥९-१०॥

िवमिग - प्रयोग िविध - पूवोक्त श्लोक (७) के अनुसार देवी का ध्यान कर मानसोपचार से पूजन करने के अनन्त्तर अघ्नयगपत्र इस
प्रकार स्थािपत करना चािहए । यथा - ‘िट्’ से अघ्नयगपात्र प्रक्षिलत कर ॎ से, जल, गन्त्ध, पुष्पाफद डाल कर ‘गंगे च यमुने चैव’
इस मन्त्त्र से उस जले में तीथग का आवाहन करना चािहए । तदनन्त्तर धेनुमुरा प्रदर्णित कर अघ्नयगपात्र पर हाथ रखकर मूल मन्त्त्र
का दि बार जप करना चािहए फिर अघ्नयगपात्र से कु छ जल प्रोक्षणी पात्र में डालकर मूलमन्त्त्र पढकर वृत्ताकार कर्णणका, उसके
बाद अष्टदल कमल, तदनन्त्तर भूपुर इस प्रकार का यन्त्त्र बनाकार यिक्षणी देवी का पूजन करना चािहए ।

इसके बाद पीठ पूजा इस प्रकार करनी चािहए - ॎ आधार िक्तये नमेः,
ॎ प्रकृ तये नमेः, ॎ कू मागय नमेः, ॎ अनन्त्ताय नमेः,
ॎ पृिथव्यै नमेः, ॎ क्षीरसमुराय नमेः, ॎ रत्नद्वीपाय नमेः,
ॎ कल्पवृक्षाय नमेः, ॎ स्वणगतसहासनाय नमेः, ॎ आनन्त्दकन्त्दाय नमेः,
ॎ संिवन्नालाय नमेः, ॎ सवगतत्त्वात्मकपद्माय नमेः, ॎ सं सत्त्वाय नमेः,
ॎ रं रजसे नमेः, ॎ तं तमसे नमेः, ॎ आं आत्मने नमेः,
ॎ अं अन्त्तरात्मने नमेः, ॎ परमात्मने नमेः, ॎ ह्रीं ज्ञानात्मने नमेः ।

इसके बाद पूवागफदफदिाओं के िम से नव ििक्तयों की पूजा करनी चािहए ।


यथा - ॎ कामदायै नमेः, ॎ मानदायै नमेः, ॎ नक्ताय नमेः,
ॎ मधुरायै नमेः, ॎ मधुराननायै नमेः, ॎ नमगदायै नमेः,
ॎ भोगदायै नमेः, ॎ नन्त्दायै नमेः, ॎ प्राणदायै नमेः ।

तदनन्त्तर ‘ॎ मनोहराय यिक्षणी योगपीठाय नमेः,’ इस मन्त्त्र से पीठ पूजा कर, देवी के यन्त्त्र में देवी की कल्पना कर श्लोक ७ में
वर्णणत देवी के स्वरुप का ध्यान कर, पूजोपचार से उनका पूजन कर, ‘आज्ञापय आवरणं ते पूजयािम’ इस मन्त्त्र से आज्ञा ले
आवरण पूजन करनी चािहए ॥९-१०॥
अब आवरण पूजा िवधान करते हैं -
कर्णनका में षडङ्गपूजा तथा पत्रों में १. सुनन्त्दा, २. चिन्त्रका, ३. हासा, ४. सुलापा, ५. मदिवहवला, ६. आमोदा, ७. प्रमोदा
एवं ८. वसुदा एन आठ ििक्तयों का पूजन करना चािहए । इसके बाद भूपुर में इन्त्राफद दि फदलपालों का तथा भूपुर से बाहर
उनके वज्राफद आयुधों का पूजन करने से साधक सुख प्राप्त करता हैं ॥११-१२॥

िवमिग - आवरण पूजा प्रयोग - प्रथमावरण में वृत्ताकार कर्णणका में


एह्येिह हृदयाय नमेः, यिक्षयिक्ष ििरसे स्वाहा,
महायिक्ष ििखायै वषट् वटवृक्षिनवािसिन कवचाय हुम्
िीघ्रं में सवगसौख्य नेत्रत्रयाय वौषट् कु रु कु रु स्वाहा अस्त्राय िट् ।
िद्वतीयवरण में अष्टदलों में - ॎ सुनन्त्दायै नमेः, ॎ चिन्त्रकायै नमेः,
ॎ हासायै नमेः, ॎ सुलापायै नमेः, ॎ महिवहवलायै नमेः,
ॎ आमोदायै नमेः, ॎ प्रमोदायै नमेः, ॎ वसुदायै नमेः,

इसके बाद तृतीयावरण में भूपुर के भीतर पूवागफद फदिाओं के िम से


ॎ इन्त्राय नमेः, पूव,े ॎ अिये नमेः, आिेये,
ॎ यमाय नमेः, दिक्षणे, ॎ िनऋतये नमेः, नैऋत्ये,
ॎ वरुणाय नमेः, पिश्चमे, ॎ वायवे नमेः, वायव्ये,
ॎ सोमाय नमेः, उत्तरे ॎ ईिानाय नमेः, ऐिान्त्ये,
ॎ ब्रह्मणे नमेः, पूवेिानयोमगध्ये, ॎ अननताय नमेः, पिश्चमनैऋत्ययोमगध्ये
इसके बाद चतुथागवरण में भूपुर के बाहर वज्राफद आयुधों का पूजन करना चािहए-
ॎ वज्राय नमेः, पूव,े ॎ िक्तये नमेः, आिेये,
ॎ दण्डाय नमेः, दिक्षणे, ॎ खड् गाय नमेः, नैऋत्येम
ॎ पािाय नमेः पिश्चमे ॎ अकुं िाय नमेः वायव्ये,
ॎ गदायै नमेः पूवेिानयोमगध्ये ॎ ित्रिूलाय नमेः ऐिान्त्ये,
ॎ चिाय नमेः िनऋितपिश्चमयोमगध्ये ।

इस प्रकार आवरण पूजा कर पञ्चोपचारों से देवी का पूजन कर चार पुष्पाञ्जिल समर्णपत कर िविधवत् जप प्रारम्भ करना
चािहए ॥११-१२॥

इस प्रकार आराधना करने से साधक काम्य प्रयोग का अिधकारी हो जाता है । फकसी िनजगन वन में जाकर वट वृक्ष के नीचे
प्रितफदन राित्र में संयम पूवगक जप करना चािहए । तदनन्त्तर सातवें फदन चन्त्दन से मण्डल बनाकर उसमें घी का दीपक
प्रज्विलत कर मण्डल में वटयिक्षणी का पूजन करना चािहए । अत्यन्त्त सावधानी से मध्य राित्रपयगन्त्त उसके सामने जप करते
रहने से साधक को नूपुर की ध्विन सुनाई पडने लगती है । िब्द को सुनते हुये साधक को देवी का स्मरण करते हुये जप में
िनभगय होकर लगे रहना चािहए । ऐसा करते रहने से कु छ क्षणों के बाद मदिवहवला यिक्षणी देवी रित की इच्छा करती हुई
साधक के सामने प्रत्यक्ष फदखलाई पडने लगती है । साधक द्वारा उसकी कामना पूर्णत फकये जाने पर वह उसे वर प्रदान करती
है इस िवषय में बहुत लया कहें, वह साधकों के सारे मनोरथों को पूणग कर देती हैं ॥१३-१७॥

अब वटयिक्षणी का अन्त्य मन्त्त्र कहते हैं -


पद्माद्वय (श्रीं श्रीं) फिर ‘यिक्षणी’ पद फिर सचन्त्र गगनत्रय (हं हं हं) इसके बाद वैश्वानर िप्रया (स्वाहा) लगाने से वटयिक्षणी
का दूसरा दिाक्षर मन्त्त्र िनष्पन्न जो जाता है ॥१८-१९॥
िवमिग - वटयिक्षणी देवी के इस दिाक्षर मन्त्त्र का स्वरुप इस प्रकार है -
‘श्रीं श्रीं यिक्षणी हं हं हं स्वाहा’ ।
इस मन्त्त्र के पूवोक्त िवश्रवा ऋिष, हैं, पंिक्त छन्त्द है तथा यिक्षणी देवता हैं ॥१९॥
मन्त्त्र के १, १, ३, ३ और २ अक्षरों से न्त्यास करे तथा समस्त मन्त्त्राक्षरों से षडङ्गन्त्यास करना चािहए ॥२०॥
अब यिक्षणी देवी का ध्यान कहते हैं -
चम्पक वन में रत्नतसहासन पर िवराजमान सुवणग के समान कािन्त्तवाली, रत्निनर्णमत आभूषणों से सुिोिभत जपा, कु सुम के
समान लाल वणग के युगल वस्त्र धारण करने वाली दािसयों द्वारा चारों फदिाओं में सेव्यमान चरणयुगलों वाली एवं अपने
साधकों को समस्त सुख प्रदान करने वाली यिक्षणी देवी का ध्यान करता हूँ ॥२०-२१॥
इस प्रकार ध्यान कर उक्त दिाक्षर मन्त्त्र का एक लाख जप करना चािहए । फिर जपा कु सुम से दिांि होम करना चािहए ।
पुनेः पूवोक्त पीठ पर देवी का पूजन करना चािहए ॥२२॥
िवमिग - प्रयोग िविध - ‘ॎ अस्य श्रीवटयिक्षणीमन्त्त्रस्य िवश्रवाऋिषेः, पतक्तश्छन्त्देः वटयिक्षणीदेवता आत्मनोऽभीष्टिसिये
मन्त्त्रजपे िविनयोगेः ।
षडङ्गन्त्यास - श्री हृदयाय नमेः, श्रीं ििरसे स्वाहा, यिक्षणी ििखायै वषट् हं हं हं कवचाय हुम्, स्वाहा नेत्रत्रयाय वौषट् श्रीं
श्रीं श्रीं यिक्षणी हं हं हं स्वाहा अस्त्राय िट् । आगे की पूजा िविध ७-८-१२ के अनुसार करनी चािहए ॥२१-२२॥

अब मेखला यिक्षणी मन्त्त्र कहते हैं -


औ एवं िबन्त्द ु युक्त िोधीि एवं विहन (िौं) तदनन्त्तर ‘मदनमेखले’ यह पद फिर हृद (नमेः) अन्त्त में अिििप्रया (स्वाहा) तथा
आफद में तार (ॎ) लगाने से १२ अक्षरों का मन्त्त्र िनष्पन्न होता है ॥२३॥

िवमिग - मेखलायिक्षणी मन्त्त्र का स्वरुप इस प्रकार है - ‘ॎ िौं मदन मेखले नमेः स्वाहा’ ॥२३॥

यह मेखलायिक्षणों मन्त्त्र है । इसके भी पूजन का िवधान पूवगवत् है ।


महुआ के वृक्ष के नीचे िनरन्त्तर १४ फदन पयगन्त्त १० हजार की संख्या में प्रितफदन के िम से जप करना चािहए तथा महुए की
लकडी से प्रज्विलत अिि में मधुिमिश्रत महुये के िू लों की एक हजार आहुितयाूँ देनी चािहए । इस प्रकार जब साधक यिक्षणी
को संतुष्ट करता है तब देवी एक फदव्य अञ्जन साधक को प्रदान करती हैं, िजसे आूँखो में लगाने से जमीन में गडे हुये सारे
खजाने िनिश्चत रुप से फदखाई पडने लगते हैं ॥२४-२६॥

अब िविालायिक्षणी मन्त्त्र कहते हैं -


प्रणव (ॎ), वाग (ऐं), फिर ‘तविाले’ पद, फिर माया (ह्र), पदमा (श्रीं), मनोरथ (ललीं), तदनन्त्तर ठद्वय (स्वाहा) लगाने १०
अक्षरों का िविालायिक्षणी मन्त्त्र िनष्पन्न होता है ॥२७॥
िवमिग - दिाक्षर िविालायिक्षणी मन्त्त्र का स्वरुप इस प्रकार हैं - ‘ॎ ऐं िविाले ह्रीं श्रीं ललीं स्वाहा’ ॥२७॥
अब प्रयोग िविध कहते हैं - इस मन्त्त्र के िविनयोग से लेकर पूजा पयगन्त्त समस्त िवधान पूवोक्त समझना चािहए ॥२८॥
िचञ्चा नामक वृक्ष के नीचे बैठकर पिवत्रता पूवगक िनयमतेः एक लाख जप करना चािहए । तदनन्त्तर ितपत्र से दिांि होम
करना चािहए । ऐसा करने से संतुष्ट हुई देवी रस प्रदान करती हैं िजसके पीने से साधक िनरोग रह करे आयुष्मान् होता है
॥२८-२९॥

अब वात्तागली (वाराही अथवा ित्रुघाती) मन्त्त्र कहते हैं -


वाक् (ऐं) मनुिस्थतौ चन्त्रिेखरौ (ओ िबन्त्दय
ु ुतौ) िाङी िपनाकीि (ग्ल) अथागत् ग्लौं, सेन्त्दल
ु ाङ्गिलत्रयं (ठं ठं ठं ) दीघग वमग (हूँ)
तथा अन्त्त में िुिचिप्रया (स्वाहा) इस प्रकार आठ अक्षरों का यह मन्त्त्र िनष्पन्न होता है ॥३०-३१॥
इस ित्रुघाती मन्त्त्र के किपल ऋिष हैं, अनुष्टुप छन्त्द है, तथा वाराही वातागली देवता हैम ॥३१॥
िवमिग - मन्त्त्र का स्वरुप इस प्रकार है -‘ऐं ग्लौ ठं ठं ठं हूँ स्वाहा’ ।
िविनयोग िविध - ‘ॎ अस्य श्रीित्रुघाितनेः मन्त्त्रस्य किपलऋिषरनुष्टुप्छन्त्देः वाराहीवात्तागलीदेवताऽत्मनोऽभीष्टिसियथे मन्त्त्र
जपे िविनयोगेः’ ॥३०-३१॥
इस मन्त्त्र के २, १, १, १, १, एवं २ वणों से षडङ्गन्त्यास करना चािहए ।
तदनन्त्तर ित्रुिनग्रहकाररणी वात्तागली देवता का ध्यान करना चािहए ।
िवमिग - षडङ्गन्त्यास िविध - ॎ एं ग्लौं हृदयाय नमेः, ठं ििरसे स्वाहा, ठं ििखायै वषट् , ठं कवचाय हुम्, हं नेत्रत्रयाय
वौषट् , स्वाहा अस्त्राय िट् ॥३२॥
अब वात्तागली का ध्यान कहते हैं -
िवद्युत के समान कािन्त्तवाली अपने चारों करकमलों में िमिेः पाि, ििक्त मुदगर
् एवं अंकुि धारण फकये हुये ित्रनेत्रा वाराही
देवी हमारे ित्रुओं को अपने नेत्रों से िनकलने वाली अिि से भस्म कर दें ॥३३॥
उक्त मन्त्त्र का ८ लाख जप करना चािहए । तदनन्त्तर िवल्वपत्र, कनेर, आूँवला भृङराज एवं कु िाओं से दिांि होम करना
चािहए ॥३४॥
अब प्रयोग िविध कहते हैं - पूवोक्त पीठ पर षडङ्ग फदलपाल एवं उनके आयुधों का पूजन करना चािहए । इस प्रकार मन्त्त्र
िसि हो जाने पर, साधक इस मन्त्त्र का ित्रुिनग्रह के िलए जपे करें । अंकुि से ित्रु को पकड कर उसे पाि से दृढतापूवगक
बाूँधकर, गदा से ित्रु के ििर पर बार बार प्रहार करती हुई वात्तागली का ध्यान कर १० दि हजार जप करना चािहए । इस
प्रकार जप करने के पश्चात् वन में सूखे गोबर के कण्डों से १० हजार की संख्या में हवन करना चािहए । फिर हवन के भस्म
को वापी कूूँ ओं आफद के जल में िें क देना चािहए । इस प्रकार के पानी को पीने वाले ित्रु िनिश्चत रुप से मर जाते हैं । अथवा
वे आपस में लड झगड कर उस स्थान को छोडकर अन्त्यत्र भाग जाते हैं ॥३५-३८॥
यह देवी साधक द्वारा स्मरण करने मात्र से ित्रु िवनाि के िलए उद्यत हो जाती हैं । यहाूँ तक हमने ित्रुघाितनी वाराही के
िवषय में बतलाया अब धूमावती के िवषय में बतलाता हूँ ॥३९॥

अब धूमावती (ज्येष्ठा) मन्त्त्र का स्वरुप कहते हैं -


सर्णध (ऊकार से युक्त), सात्वित्रतयधकार (धू धू धू), इसके आफद में रहने वाले दो धू पर दो चन्त्रिेखर (धूं धूं धूं), फिर अनन्त्तर
संयुक्त वैकुण्ठ (मा), फिर जल (व), फिर नेत्रयुत हरर (ित), तदनन्त्तर विहनजाया (स्वाहा) लगाने से आठ अक्षरों का
ित्रुिवनािक धूमावती मन्त्त्र िनष्पन्न होता है ॥४०॥
िवमिग - धूमावती (ज्येष्ठा) मन्त्त्र का स्वरुप इस प्रकार है - ‘ धूूँ धूूँ धूमावित स्वाहा’ ॥४०॥

इस मन्त्त्र के िपप्लाद ऋिष हैं, िनचृद ् छन्त्द है तथा ज्येष्ठा देवता है ॥४१।

जप के प्रारम्भ में मन्त्त्र के आफद में रहने वाले मात्र दो वणो से षडङ्गन्त्यास करना चािहए । फिर श्मिान में वायस (कौआ)
पर िवराजमान ज्येष्ठा देवी का ध्यान करना चािहए ॥४२॥

िवमिग - िविनयोग िविध - ‘ॎ अस्य श्रीधूमावतीमन्त्त्रस्य िपप्पलाद ऋिषर्णनचृच्छदेः ज्येष्ठदेवता ित्रुिवनािाथे जपे
िविनयोगेः’ ॥४१-४२॥
षडङ्गन्त्यास िविध - धूं धूं हृदयाय नम्ह, धूं धूं ििरसे स्वाहा, धूं धूं ििखायै वषट् धूं धूं कवचाय हुं, धूं धूम नेत्रत्रयाय वौषट् ,
धूं धूं अस्त्राय िट् ॥४१-४२॥
अब ध्यान िविध कहते हैं - जो कद में बहुत ऊूँची (लम्बी) हैं मैला कु चैला वस्त्र धारण करने वाली िजस देवी के दिगन मात्र से
मनुष्य उिद्वि हो जाता है । िखन्न मन वाली िजस देवी के तीन रुखे (िोध युक्त) नेत्र हैं, दाूँत बहुत बडे बडे हैं सूयग के समान
िजनका पेट बहुत गोल एवं बडा है, जो स्वभावतेः चञ्चल हैम, पसीने से लथपथ कृ ष्णवणाग िजन देवी के िरीर की कािन्त्त
अत्यन्त्त रुक्ष है । भूख से तडपती हुई सवगदा कलहकाररणी, िविीणग के िो वाली ऐसी धूमावती देवी का ध्यान साधक को करना
चािहए ॥४३॥

इस प्रकार देवी का ध्यान करते हये श्मिान स्थल में िववस्त्र (नंगा) होकर राित्र में भोजन करते हुये एक लाख जप करना
चािहए । तदनन्त्तर उसका दिांि ितलों से होम करना चािहए ॥४४॥

ित्रुनाि के िलए पूवोक्त पीठ पर ज्येष्ठा देवी का पूजन करना चािहए । के िरों में षडङ्गों की पूजा चािहए, तथा पत्रों में आठ
ििक्तयों की पूजा करनी चािहए ॥४५॥

१. क्षुधा, २. तृष्णा, ३. रित, ४. िनऋित, ५. िनरा, ६. दुगगित, ७. रुषा और ८. अक्षमा ये अष्ट ििक्तयाूँ हैं, तदनन्त्तर इन्त्राफद
दि फदलपालों की, फिर उनके वज्राफद आयुधों की पूजा करे । इस प्रकार ज्येष्ठा (धूमावती) की आराधना कर साधक िीघ्र ही
िसिि प्राप्त कर लेता है ॥४६-४७॥
अब ज्येष्ठा की आराधना िविध कहते हैं -
ज्येष्ठा मास के कृ ष्ण पक्ष में चतुदि
ग ी ितिथ को उपवास करते हुए निावस्था में ििर के बालों को िवकीणे िवखरा हुआ कर
फकसी िून्त्य घर में, श्मिान में, फकसी गहन वन में अथवा फकसी गुिा में देवी (धूमावती) का ध्यान कर राित्र में भोजन करते
हुए प्रितफदन िनयतसंख्या में जप करें । साधक इस प्रकार एक लाख जप कर लेने पर िीघ्र ही अपने ित्रुओं का िवनाि कर
देता है । फकन्त्तु उसे वह िल तब होता है जब वह राित्र के समय नमक युक्त राई का प्रितफदन हवन करे ॥४७-४९॥
अब कणगिपिािचनी मन्त्त्र का उिार कहते हैं -
तार (ॎ), माया (ह्री), फिर ‘कणगिपिा’, फिर सदृक् कू मगघािन्त्तम (िचिन), फिर ‘कणे’ ‘मे’, फिर िविध (क), दण्डी (थ), फिर इ
(य) और अन्त्त में ठद्वय (स्वाहा) लगाने से सोलह अक्षरों का मन्त्त्र िनष्पन्न होता है ॥५०॥

िवमिग - मन्त्त्र का स्वरुप इस प्रकार हैं - ‘ॎ ह्रीं कणगिपिािचिन कणे मे कथय स्वाहा’ ॥५०॥
इस मन्त्त्र के ऋिष छन्त्द पूवोक्त (र० ७-४१) हैं तथा कणगिपिािचनी देवता हैं । इस मन्त्त्र के १, १, ६, ३, और दो इन
मन्त्त्राक्षरों से षडङ्गन्त्यास करना चािहए ॥५१॥

िवमिग - िविनयोग - अस्य श्रीकणगिपिािचनीमन्त्त्रस्य िपप्लादऋिषेः िनचृदछन्त्देः कणगिपिािचनीदेवता अभीष्टिसियथग मन्त्त्र


जपे िविनयोगेः ।
षडङ्गन्त्यास - ॎ हृदयाय नमेः, ॎ ह्रीं ििरसे स्वाहा,
ॎ कणगिपिािचिन ििखायै वषट् , ॎ कणे में कवचाय हुम्
ॎ कथय नेत्रत्रयाय वौषट् ॎ स्वाहा अस्त्राय िट् ॥५१॥

अब कणगिपिािचिन देवी का ध्यान कहते हैं -


िचता पर आसन लगाकर कर बैठी हुई नर मुण्ड माला से िवभूिषत अपने कर कमलों में अिस्थ की मिणयों को धारण की हुई
मनुष्य की आूँतो से प्रसन्न रहने वाली मैला, कु चैला, िटा कु लस्त्र धारण करने वाली कणगिपिािचनी का मै ध्यान करता हूँ
॥५२॥

श्मिान में अथवा िव पर बैठकर एकाग्र मन से िपिािचनी मन्त्त्र का एक लाख जप करें । तदनन्त्तर िबभीतक (बहेडा) की
सिमधाओं से दिांि हवन करें ॥५३॥
पूवोक्त पीठ पर ष‍ङ्ग पूजा, फदलपाल एवं उनके वज्राफद आयुधों सिहत देवी का पूजन करना चािहए । इस प्रकार मन्त्त्र िसि
हो जाने पर बेर के पेड के नीचे अपिवत्रतापूवगक लक्ष संख्या में जप करना चािहए । इस फिया से संतुष्ट िपिािचनी दूसरों की
मन की बातें तथा भावी घटनाओं को काम में बतला देती हैम ॥५४-५५॥
अब िीतला देवी के मन्त्त्र का उिार कहते हैं -
घ्रुव (ॎ)ििवा (ह्रीं) रमा (श्रीं) फिर िीतलायै इसके अन्त्त में हृदय (नमेः) लगाने से नवाक्षर िीतला मन्त्त्र िनष्पन्न होता है
॥५६॥

िवमिग - इस मन्त्त्र का स्वरुप इस प्रकार है - ॎ ह्रीं श्रीं िीतलायै नमेः । व दीघ्रवणग से युक्त ििवा माया बीज और लक्ष्मीबीज
(श्रीं) से षडङ्गन्त्यास करना चािहए ॥५६॥
िवमिग - ॎ ह्रा श्रीं हृदयाय नमेः ॎ ह्रीं श्रीं कवचाय हुं,
ॎ हूँ श्रीं ििखायै वषट् , ॎ हृेः श्रीं अस्त्राय िट् ॥५६॥

अब िीतला देवी का ध्यान कहते हैं -


फदगम्बरा (निा) अपने दोनों हाथों में िमिेः झाडू और सूप िलए हुये बादलों के समान काले आभा वाली, रक्तवणग का
अङ्गराग तथा रक्तवणग की मालाधारण की हुई श्री िीतला देवा का समस्त रोगों के िवनाि के िलए मैं ध्यान करता हूँ ॥५७॥

िीतला मन्त्त्र का दि हजार की संख्या में जप करना चािहए । तदनन्त्तर खीर की एक हजार आहुितयाूँ देनी चािहए । यह देवी
स्िोट (िोटका) की जाित के समस्त घावों को अच्छा कर देने वाली मानी गई है ॥५८॥

जो व्यिक्त नािभ मात्र जल में िस्थत होकर इस मन्त्त्र का एक हजार जप करता है उस व्यिक्त के द्वारा संस्मार्णजत कु िा से सभी
प्रकार के भयानक स्िोट (िोटका) आफद तत्काल नष्ट हो जाते हैं ॥५९॥

अब स्वप्नेश्वरी का मन्त्त्रोिार कहते हैं -


प्रणव (ॎ), कमला (श्रीं), फिर ‘स्वप्नेश्वरी कायं में वद,’ इसके बाद स्वाहा लगाने से तेरह अक्षरों का स्वप्नेश्वरी मन्त्त्र िनष्पन्न
होता हैं - इसके मुिन आफद पूवगवत हैं ॥६०॥
िवमिग - मन्त्त्र का स्वरुप इस प्रकार है - ‘ॎ श्रीं स्वप्नेश्वरी काय्मग में वद स्वाहा’।

िविनयोग - ‘अस्य श्रीस्वप्नेश्वरीमन्त्त्रस्य उपमन्त्युऋिषेः बृहतीछन्त्देः स्वप्नेश्वरीदेवता ममाभीष्टिसियथे जपे िविनयोगेः ॥६०॥
इस मन्त्त्र के २, ४, २, १, २ और २ अक्षरों से षडङ्गान्त्यास करना चािहए । न्त्यास करने के पश्चात स्वप्नेश्वरी का ध्यान करना
चािहए ॥६१॥

िवमिग - षडङ्गन्त्यास - ॎ श्रीं हृदयाय नमेः, ॎ स्वप्नेश्वरर ििरसे स्वाहा,


ॎ कायं ििखायै वषट् मे कवचाय हुं, वद नेत्रत्रयाय वौषट् ,
ॎ स्वाहा अस्त्राय िट् ॥६१॥
अब स्वप्नेश्वरी देवी का ध्यान कहते हैं -
अपने चारों हाथोम में वर, अभय एवं दो कमलों को धारण की हुई स्वणगरिचत आसन पर िवराजमान, श्वेत वस्त्र धारण करने
वाली तथा िरत्कालीन चन्त्रमा के समान कािन्त्तमती, िविवध आभूषणों से अलंकृत भगवती स्वप्नेश्वरीए का मैं ध्यान करता हूँ
॥६२॥

इस मन्त्त्र का एक लाख जप करें तथा िवल्वपत्रों से तद्दिांि हवन करना चािहए । पूवोक्त पीठ पर षडङ्ग फदलपाल एवं
उनके आयुधोम का पूजन करें ॥६३॥

इस प्रकार पुरश्चरण द्वारा मन्त्त्र िसि हो जाने पर राित्र में देवी की पूजाकर उनके आगे दि हजार करना चािहए । जप काल
में ब्रह्यचयग व्रत का पालन करते हुये कु िाओं पर मृगचमग िबछा कर सोना चािहए । सीते समय देवी को अपने हृदय की बात
िनवेदन करना चािहये । ऐसा करने से वह स्वप्न में उसका उत्तर अवश्य दे देती हैं । यहाूँ तक यिक्षणी के िवषय में कहा अब
मातङ्गी के िवषय में कहता हूँ ॥६४-६५॥

अब मातङ्गी मन्त्त्र का उिार कहते हैं -


तार (ॎ), माया (ह्रीं), वाग् (ऐं), लक्ष्मी (श्रीं), हृद (नमेः), िनरा (भ), स्मृित (ग), लािन्त्तम (व), नेत्रो हरर (ित), फिर
‘उिच्छष्ट चाण्डा’ फिर नेत्रायुत फिया (िल), फिर ‘श्रीमातंगेश्वरर सवग’ पद, इसके बाद िूली (ज), फिर न, फिर लान्त्त (व), फिर
‘िङ्करर’, इसके बाद विहनिप्रया (स्वाहा) लगाने से बत्तीस अक्षरों का मन्त्त्र िनष्पन्न होता है ॥६६-६७॥

िवमिग - इस मन्त्त्र स्वरुप इस प्रकार है - ‘ॎ ह्रीं ऐं श्रीं नमो भगवित उिच्छिष्टछाण्डािल श्रीमातंगेश्वरर सवगजनविंकरर स्वाहा
॥६६-६७॥
इस मन्त्त्र के मतङ्ग ऋिष हैं, अनुष्टुप् छन्त्द है तथा सब लोगोम को वि में करने में तत्पर मातङ्गी देवता है । मन्त्त्र के ४, ६,
६, ८ एवं २ वणो से ष‍ङ्गन्त्यास करे देवी का ध्यान करना चािहए ॥६८-६९॥

िवमिग - िविनयोग - ‘अस्य श्रीमातङीमन्त्त्रस्य मतङ्गऋिषरनुष्टुपछन्त्देः श्रीमातङीदेवता ममाऽभीष्टिसियथं िविनयोग ।


षडङ्गन्त्या - ‘ॎ ह्रीं ऐं श्रीं हृदयाय नमेः, ॎ नमो भगवित ििरसे स्वाहा,
ॎ उिच्छष्टचान्त्डािल ििखायै वषट् ॎ श्री मातङे श्वरर कवचाय हुम्,
ॎ सवगजनविङ्करर नेत्रत्रयाय वौषट् ॎ स्वाहा अस्त्राय िट् ॥६९-६९॥

अब मातङ्गी देवी का ध्यान कहते हैं -


मेघ के समान श्याम वणो वाली रत्नपीठ पर िवराजमान, िुक की बोली सुनने में तत्पर, रक्त वस्त्र धारण करने वाली सुरापान
से उन्त्मत्त सरोज पर िस्थत वल्लकी वीणा बजाती हुई श्रीं मातङ्गी का मैं ध्यान करता हूँ ॥७०॥

उपयुगक्त मन्त्त्र का १० हजार जप करना चािहए, तथा मधु सिहत मधूक (महुआ) के पुष्पों से एक हजार आहुितयाूँ देनी चािहए
। तदनन्त्तर पूवोक्त पीठ पर वक्ष्यमाण रीित से देवी का पूजन करना चािहए ॥७१॥

अब मातङ्गी यन्त्त्र का प्रकार कहते हैं - ित्रकोण के बाद दो अष्ट दल कमल फिर १६ दल का कमल उसके , ऊपर चतुरस्त्र और
भूपुर युक्त पीठ रचना कर उस पर अभीष्टदाियनी नौ ििक्तयों की पूजा करनी चािहए ॥७२॥

१. िवभूित, २. उन्नित, ३. कािन्त्त, ४. सृिष्ट, ५. कीर्णत, ६. सन्नित, ७. व्युिष्ट, ८. उत्कृ िष्टऋिि और ८. मातङ्गी ये नौ
ििक्तयाूँ कही गई हैं ॥७३॥

‘सवगििक्तकम् इस पद पद के बाद ‘लासनाय नमेः’ तथा प्रारम्भ में तार (ॎ), माया (ह्री), वाग (ऐं), तथा रमा (श्रीं), लगाने से
सोलह अक्षर का ‘ॎ ह्रीं ऐं श्रीम सवगििक्तकमलासनायै नमेः’ यह मन्त्त्र बनता है । इस मन्त्त्र से देवी को आसन देकर मूल मन्त्त्र
से मूर्णत की कल्पना कर पाद्य आफद सपयाग के बाद पुष्पाञ्जिल समर्णपत करनी चािहए । फिर अनुज्ञा लेकर आवरण पूजा
प्रारम्भ करना चािहए ॥७४-७५॥

िवमिग - पीठ पूजा िविध - (र० ७. ९-१-) । इसके बाद िनम्निलिखत िविध से पूवग आफद फदिाओं मे आठ ििक्तयों की तथा
मध्य में मातङ्गी की इस प्रकार की पूजा करनी चािहए - ॎ िवभूत्यैेः, पूव,े
ॎ उन्नत्यै नमेः, आिेये, ॎ कान्त्त्यै नमेः, दिक्षणे, ॎ सृष्टयै नमेः नैऋत्ये,
ॎ कीत्यै नमेः, पिश्चमे, ॎ सन्नत्यै नमेः, वायव्ये, ॎ व्युष्ट्यै नमेः, उत्तरे ,
ॎ उत्कृ िष्टऋििभ्यां नमेः, ईिान, ॎ मातङ्गयै नमेः, मध्ये ॥७४-७५॥

अब आवरण पूजा का िवधान कहते हैं -


ित्रकोण में रित, प्रीित एवं मनोभवा इन तीन देिवयों का अचगन करें , के िरों में षडङ्ग, तदनन्त्तर प्रथम अष्टदल मे मातृकाओं
की और दूसरे अष्टदल में आिसताङ्गफद अष्ट भैरवों की पूजा करनी चािहए । फिर षोडि दल में -१. वामा, २. ज्येष्ठा, ३.
रौरी, ४. प्रिािन्त्तका, ५. श्रिा, ६. माहेश्वरी, ७. फियाििक्त, ८.सुलक्ष्मी, ९. सृिष्ट. १० मोिहनी, ११. प्रमथा, १२. श्वािसनी,
१३. िवद्युल्लता, १४. िचच्छिक्त, १५. नन्त्दसुन्त्दरी, एवं १६. नन्त्दबुिि - इन सोलह ििक्तयों का प्रयत्न पूवगक पूजन करना
चािहए ॥७६-७९॥

चतुरस्त्र में चारोम फदिाओं में १. महामातङ्गी, २. महालक्ष्मी, ३. महािसिि एवं ४. महादेवी का, तथा आिेयाफद चार
कोणों में १. िवघ्नेि, २. दुगाग, ३. बटुक एवं ४. क्षेत्रपाल का पूजन करना चािहए । उसके बाद फदलपाल, उनके वज्राफद
आयोधों का पूजन करना चािहए । इस प्रकार पूजन करने से मन्त्त्र िसि हो जाता है ॥८१॥

समस्त आवरण देवताओं के आफद में रुव (ॎ), भवानी (ह्रीं), वाग् (ऐं), राम (श्रीं) तथा अन्त्त में चतुथ्व्यगन्त्त मातङ्गी पद
लगाकर पूजनमन्त्त्रों की कल्पना करनी चािहए ॥८२॥

िवमिग - आवरण पूजािविध - प्रथमावरण ित्रकोण में - ॎ ह्रीं ऐं श्रीं रत्यै मातङ्ग्यै नमेः, ॎ ह्रीं ऐं श्रीं प्रीत्यै मातङ्गी नमेः,
ॎ ह्रीं ऐं श्रीं मनोभवायै मातङ्ग्यै नमेः ।

इसके बाद प्रथम अष्टदल में पूवागफदिम से अष्टमातृकाओं का इस प्रकर पूजन करना चािहए -
१ - ॎ ह्रीं ऐं श्रीं ब्राह्मयै मातङ्ग्यै नमेः, पूवे
२ - ॎ ह्रीं ऐं श्रीं माहेश्वयै मातङ्ग्यै नमेः, आिेये
३ - ॎ ह्रीं ऐं श्रीं कौमायै मातङ्ग्यै नमेः, दिक्षणे
४ - ॎ ह्री ऐं श्री वैष्णव्ये मातङ्ग्यै नमेः, नैऋत्ये
५ - ॎ ह्रीं ऐं श्री वाराह्यै मातङ्ग्यै नमेः, पिश्चमे
६ - ॎ ह्रीं ऐं श्रीं इन्त्रायै मातङ्ग्यै नमेः, वायव्ये
७ - ॎ ह्रीं ऐं श्रीं चामुण्डायै मातङ्ग्यै नमेः, उत्तरे
८ - ॎ ह्रीं ऐं श्रीं महालक्ष्म्यै मातङ्ग्यै नमेः ऐिान्त्यै

इसके बाद िद्वतीय अष्टदल में पूवागफद फदिाओं के िम से अिसताङ्गाफद भैरवों का इस प्रकार पूजन करना चािहए -
१ - ॎ ह्रीं ऐं श्रीं अिसताङ्गभैरवाय मातङ्गीरुपाय नमेः पूवे
२ - ॎ ह्रीं ऐं श्रीं रुरुभैरवाय मातङ्गीरुपाय नमेः आिेये
३ - ॎ ह्रीं ऐं श्रीं चण्डभैरवाय मातङ्गीरुपाय नमेः दिक्षणे
४ - ॎ ह्रीं ऐं श्रीं िोधभैरवाय मातङ्गीरुपाय नमेः नैऋत्ये
५ - ॎ ह्रीं ऐं श्रीं उन्त्मत्तभैरवाय मातङ्गीरुपाय नमेः पिश्चमे
६ - ॎ ह्रीं ऐं श्रीं कपालीभैरवाय मातङ्गीरुपाय नमेः वायव्ये
७ - ॎ ह्रीं ऐं श्रीं भीषणभैरवाय मातङ्गीरुपाय नमेः उत्तरे
८ - ॎ ह्रीं ऐं श्रीं संहारभैरवाय मातङ्गीरुपाय नमेः ऐिान्त्यै

इसके अनन्त्तर सोलह दलों में प्रदिक्षण िम से वामा आफद सोलह ििक्तयों की इस प्रकार पूजा करें -
१ - ॎ ह्रीं ऐं श्रीं वामायै मातङ्गीस्वरुिपण्यै नमेः,
२ - ॎ ह्रीं ऐं श्रीं ज्येष्ठायै मातङ्गीस्वरुिपण्यै नमेः,
३ - ॎ ह्रीं ऐं श्रीं रोरायै मातङ्गीस्वरुिपण्यै नमेः,
४ - ॎ ह्रीं ऐं श्रीं प्रिािन्त्तकायै मातङ्गीस्वरुिपण्यै नमेः,
५ - ॎ ह्रीं ऐं श्रीं श्रिायै मातङ्गीस्वरुिपण्यै नमेः,
६ - ॎ ह्रीं ऐं श्रीं माहेश्वयै मातङ्गीस्वरुिपण्यै नमेः,
७ - ॎ ह्रीं ऐं श्रीं फियािलत्यै मातङ्गीस्वरुिपण्यै नमेः,
८ - ॎ ह्रीं ऐं श्रीं सुलभ्यै मातङ्गीस्वरुिपण्यै नमेः,
९ - ॎ ह्रीं ऐं श्रीं सृष्टयै मातङ्गीस्वरुिपण्यै नमेः,
१० - ॎ ह्रीं ऐं श्रीं प्रमथायै मातङीस्वरुिपण्यै नमेः,
११ - ॎ ह्रीं ऐं श्रीं मोिहन्त्यै मातङ्गीस्वरुिपण्यै नमेः,
१२ - ॎ ह्रीं ऐं श्रीं स्वािसन्त्यै मातङ्गीस्वरुिपण्यै नमेः,
१३ - ॎ ह्रीं ऐं श्रीं िवद्युल्लतायै मातङ्गीस्वरुिपण्यै नमेः,
१४ - ॎ ह्री ऐं श्रीं िचच्छलत्यै मातङ्गीस्वरुिपण्यै नमेः,
१५ - ॎ ह्रीं ऐं श्री नन्त्दसुन्त्दयै मातङ्गीस्वरुिपण्यै नमेः,
१६ - ॎ ह्रीं ऐं श्रीं नन्त्दबुियै मातङ्गीस्वरुिपन्त्य़ै नमेः,

इसके बाद चतुरस्त्र भूपुर से पूवागफद फदिाओं के िम से महामातङ्गी आफद का पूजन करना चािहए ।
१ - ॎ ह्रीं ऐं श्रीं महामातङ्गी मातङ्ग्यै नमेः, पूवे
२ - ॎ ह्रीं ऐं श्रीं महालक्ष्म्यै मातङ्ग्यै नमेः, दिक्षणे
३ - ॎ ह्रीं ऐं श्रीं महािसियै मातङ्ग्यै नमेः, पिश्चमे
४ - ॎ ह्रीं ऐं श्री महादेव्यै मातङ्ग्यै नमेः, उत्तरे

इसके बाद पुनेः चतुरस्र में आिेयाफद ित्रकोणों में िम से िवघ्नेिाफद का पूजन करना चािहए -
१ - ॎ ह्रीं ऐं श्रीं िविेिाय मातङ्गीस्वरुपायै नमेः, आिेये
२ - ॎ ह्रीं ऐं श्रीं दुगागयै मातङ्गीस्वरुपायै नमेः, नैऋत्ये
३ - ॎ ह्रीं ऐं श्रीं बटुकाय मातङ्गीस्वरुपायै नमेः, वायव्ये
४ - ॎ ह्री ऐं श्रीं क्षेत्रपालाय मातङ्गीस्वरुपायै नमेः, ऐिान्त्ये ।

इसके बाद पुनेः भूपुर में पूवागफद फदिाओं िम में, इन्त्र आफद दि फदलपालों की पूजा करनी चािहए -
१ - ॎ ह्रीं ऐं श्रीं इन्त्राय मातङ्गीरुपाय नमेः, पूवे
२ - ॎ ह्रीं ऐं श्रीं अिये मातङ्गीरुपाय नमेः, अिेये
३ - ॎ ह्रीं ऐं श्रीं यमाय मातङ्गीरुपाय नमेः, दिक्षणे
४ - ॎ ह्रीं ऐं श्रीं िनऋतये मातङ्गीरुपाय नमेः, नैऋत्ये
५ - ॎ ह्रीं ऐं श्रीं वरुणाय मातङ्गीरुपाय नमेः, पिश्चमे
६ - ॎ ह्रीं ऐं श्रीं वायवे मातङ्गीरुपाय नमेः, वायव्ये
७ - ॎ ह्रीं ऐं श्रीं सोमाये मातङ्गीरुपाय नमेः, उत्तरे
८ - ॎ ह्रीं ऐं श्रीं ईिानाय मातङ्गीरुपाय नमेः, ईिाने
९ - ॎ ह्रीं ऐं श्रीं ब्रह्मणे मातङ्गीरुपाय नमेः, पूवेिानयोमगध्ये
१० - ॎ ह्रीं ऐं श्रीं अनन्त्ताय मातङ्गीरुपाय नमेः, नैऋत्य पिश्चमयोमगध्ये

पुनेः अन्त्त में भूपुर के बाहर पूवागफद फदिाओं के िम से वजागफद आयुधों की पूजा करनी चािहए -
१ - ॎ ह्रीं ऐं श्रीं वज्राय मातङ्गीरुपाय नमेः, पूवे
२ - ॎ ह्रीं ऐं श्रीं िक्तये मातङ्गीरुपाय नमेः, आिेये
३ - ॎ ह्रीं ऐं श्रीं दण्डाय मातङ्गीरुपाय नमेः, दिक्षणे
४ - ॎ ह्रीं ऐं श्रीं खड् गाय मातङ्गीरुपाय नमेः, नैऋत्ये
५ - ॎ ह्रीं ऐं श्रीं पािाय मातङ्गीरुपाय नमेः, पिश्चमे
६ - ॎ ह्रीं ऐं श्रीं अंकुिाय मातङ्गीरुपाय नम्, वायव्ये
७ - ॎ ह्रीं ऐं श्रीं गदायै मातङ्गीरुपाय नमेः, उत्तरे
८ - ॎ ह्रीं ऐं श्रीं िूलायै मातङ्गीरुपाय नमेः, वायव्ये
९ - ॎ ह्रीं ऐं श्रीं पद्मान्त्य मातङ्गीरुपाय नमेः, पूवेिानयोमगध्ये
१० - ॎ ह्रीं ऐं श्रीं चिाय मातङ्गीरुपाय नमेः, पिश्चमनैऋत्ययोमगध्ये
इस प्रकार प्रत्येक आवरण पूजा के अनन्त्तर एक एक पुष्पाञ्जिल समर्णपत कर यन्त्त्र में देवी की िविधवदुपचारों से पूजा कर उक्त
मन्त्त्र का जप करना चािहए ॥८१-८२॥

अब काम्य प्रयोग में होम की िविध कहते हैं -


मिल्लका पुष्पों के होम से भोग, िवल्वपत्रों के होम से राज्य, ब्रह्मवृक्ष के पत्र या िल के होम से सभी लोग वि में हो जाते हैं ।
अमृता (गुरुचा) के टुकडो के होम से रोगों का िवनाि, नीम या चावल के होम से लक्ष्मी, लोण के होम से आकषगण, तगर तथा
बेतस के होम से जल, िनम्ब के तेल में डु बोये गये लोण के होम से ित्रु का नाि, भात के होम से उत्तम भोजन, हरदी के
चूणगयुत लोण के होम से मनुष्यों का स्तम्भन हो जाता है ॥८३-८५॥

लाल चन्त्दन, कचूगर, जटामाूँसो, कुं कु म, गोरोचन, चन्त्दन, अगरु, कपूगर - ये गन्त्धाष्टक कहे गये हैं । इनके होम से सारा जगत्
उस साधक के वि में हो जाता है । इस गन्त्धाष्टक को पीसकर उक्त मन्त्त्र का जप कर ितलक लगावे तो व्यिक्त सवगलोक िप्रय हो
जाता है । कदलीिल के होम से व्यिक्त अपना समस्त अभीष्ट प्राप्त कर लेता है । इस िवषय में िविेष लया कहें - मातङ्गी देवी
की उपासना से साअरी कामनायें पूणग हो जाती है ॥८६-८८॥
मध्वक्तलोण से बनी पुतली को प्रदिक्षण िम से खैर की प्रज्विलत अिि में राित्र के समय मूल मन्त्त से १०८ बार होम करें तो
विीकरण प्राप्त होता है । चावल के आूँटे की बनी पुतली को, स्त्री को वि में करने के इस मन्त्त्र का जप कर िजस स्त्री को
िखलावे तो वह वि में हो जाती है ॥८८-९०॥

कृ ष्णपक्ष की चतुदि
ग ी की राित्र में समुरी नमक कौवे के पेट में िखलाकर काले धागे से लपेटकर िचता की अिि में उसे जला दे
। फिर उस भस्म को इस मन्त्त्र से एक सहस्त्र बार अिभमािन्त्त्रत, करें , तो िजसे वह भस्म फदया जाता है वह दास के समान हो
जाता है ॥९०-९१॥

अब बाणेिी मन्त्त्र का उिार कहते हैं -

अनन्त्त (आकार) इन्त्र अनुस्वार सिहत सत्य (दकार) एवं अििरकार (अथागत् रां) यह बाणेिी का प्रथम बीज है इस बीज मन्त्त्र
में अनन्त्त के स्थान में िािन्त्त (ईकार) लगाने से िद्वतीय बीज पुनेः इन्त्र िािन्त्त एवं िबन्त्द ु सिहत ब्रह्या (ललीं) यह तृतीय बीज,
वसुधा अघीि चन्त्रसिहता भूधर अथागत् ब्लूूँ यह चतुथ्व्यग बीज हे । सगी हंसेः िवसगग सिहत सकार (सेः) यह पाूँचवाूँ बीज हैं ।
इस प्रकार पञ्च बीजात्मक मन्त्त्र बनता है ॥९२-९३॥

िवमिग - मन्त्त्र का स्वरुप इस प्रकार है - ‘रां रीं ललीं ब्लूूँ सेः’ ॥९२-९३॥
इस मन्त्त्र के सम्मोहन ऋिष हैं, गायत्री छन्त्द है तथा बाणेिी देवता हैं । मन्त्त्र के बीजों के िवलोमिम से तदनन्त्तर समस्त मन्त्त्र
से षडङ्गन्त्यास करना चािहए । फिर षडङ्गन्त्यास के अनन्त्तर उक्त पाूँच बीजों के साथ रािवणी, क्षोिभणी, विीकरणी,
आकषगणी एवं सम्मोिहनी इन पाूँच देवताओं को िमिेः िसर पैर मुख गुप्ता एवं हृदय में इस प्रकार न्त्यास करना चािहए ॥९४-
९६॥

िवमिग - िविनयोग - ‘ॎ अस्य श्रीबाणेिीमन्त्त्रस्य सम्मोहनऋिषगागयत्रीछन्त्देः बाणेिीदेवता ममाऽभीष्टिसियथे जपे िविनयोगेः



षडङ्गन्त्यास - सेः हृदयाय नमेः, ब्लूूँ ििरसे स्वाहा, ब्लीं ििखायै वषट् , रीं कवचाय हुम्, रां नेत्रत्रयाय वौषट् रां रीं ब्लीं ब्लूूँ
सेः अस्त्राय िट् ।
सवागङ्गन्त्यास - रां रािवन्त्य़ै नमेः, मूर्णि रीं िक्षिबण्यै नमेः पादयोेः,
ब्लीं विीकररण्यै नमेः, मुखे, ब्लूूँ आकर्णषण्यै नमेः, गुह्य,े
सेः सस्म्मोिहन्त्यै नमेः, हृफद ॥९४-९६॥

अब बाणेिी देवी का ध्यान कहते हैं-


बाणेिी का ध्यान उदीयमान सूयग के समान आभावाली रक्त वस्त्र धारण की हुई, अनेक प्रकार के रत्नजरटत आभूषणॊं से
जगमगाती हाथों में िमिेः पाि, अंकुि, धनुष, एवं बाण धारण की हुई बाणेिी हमारी मनोकामना पूणग करें ॥९७॥

इस प्रकार ध्यान कर प्रितफदन िनयमतेः उक्तमन्त्त्र का ५ लाख जप करना चािहए । फिर तद्दिांि हवन करना चािहए ।
तदनन्त्तर वाणेिी का िविध पूवगक पूजन करना चािहए ॥९८॥

१. मोिहनी, २. क्षोिभणी, ३. त्रासी, ४. स्तिम्भनी, ५. आकर्णषणी, ६. रािवणी, ७. आहलाफदनी, ८. िललन्ना तथा ९.


ललेफदनी - ये पीठ की ९ ििक्तयाूँ कहीं गई हैं ॥९९॥

‘बाणेिीयोगपीठाय नमेः’ इस मन्त्त्र के प्रारम्भ में मूलमन्त्त्र लगाने से पीठ मन्त्त्र िनष्पन्न हो जाता है । प्रारम्भ में पीठ पूजा कर
इस मन्त्त्र से आसन देकर साधक पीठ पूजा करे ॥१००॥

यन्त्त्र िनमागण - वृत्ताकार कर्णणका अष्टदल एवं भूपुर सिहत यन्त्त्र का िनमागण करें फिर (७.८-१०) के अनुसार पीठ पूजा करें ।
इसके बाद यन्त्त्र पर मोिहनी आफद पीठ ििक्तयों की तथा मध्य में ललेफदनी ििक्त की इस प्रकार पूजा करें -
१ - ॎ मोिहन्त्यै नमेः, पूवग
२ - ॎ िक्षिभण्यै नमेः, आिेये
३ - ॎ त्रास्यै नमेः, दिक्षणे
४ - ॎ स्तिम्भन्त्यै नमेः, नैऋत्ये
५ - ॎ आकर्णषण्यै नमेः, पिश्चमे
६ - ॎ रािवण्यै नमेः, वायव्ये
७ - ॎ आहलाफदन्त्यै नमेः, उत्तरे
८ - ॎ िललन्नायै नमेः, ऐिान्त्ये
९ - ॎ ललेफदन्त्यै नमेः, मध्ये

तदनन्त्तर ‘रां रीं ब्लीं ब्लूूँ सेः बाणेिीयोगपीठाय नमेः’ मन्त्त्र से बाणेिी देवी को आसन देकर श्लोक ९७ में वर्णणत देवी के स्वरुप
का ध्यान कर मूलमन्त्त्र से पुष्पाञ्जिल दे । तदनन्त्तर िनम्न मन्त्त्र पढकर प्राथगना करनी चािहए ।
‘देवेिि भिक्तसुलभे पररवारासमिन्त्वते ।
यावत्त्वां पूजियष्यािम तावत्त्वं सुिस्थरा भव’ ॥९९-१००॥

यन्त्त्र में सवगप्रथम षडङ्गपूजा कर, तदनन्त्तर पूवागफद फदिाओं में १. रािवणी आफद का एवं २., क्षोिभणी, ३. विीकरणी, ४.
आकषगणी का तथा मध्य में ५. सम्मोिहनी का बीज मन्त्त्र के एक एक अक्षर को आफद में लगाकर पूजन करना चािहए ।
तदनन्त्तर अष्टदल में १. अनङ्गरुपा, २. अनङ्गमदना, ३. अनङ्गन्त्मथा, ४. अनङ्गकु सुमा, ५. अनङ्गवदना, ६.
अनङ्गििििरा, ७. अनङ्गमेखला, ८. अनङ्गदीिपका आफद आठ देिवयों का, फिर इन्त्राफद दि फदलपालों का, फिर उनके
वज्राफद आयुधों का पूजन करना चािहए । इस प्रकार मन्त्त्र िसि हो जाने पर साधक को अन्त्य काम्य प्रयोगों में उसका
िविनयोग करना चािहए ॥१०१-१०३॥

िवमिग - आवरण पूजा - सवगप्रथम वृत्ताकार कर्णणका में िवलोम रीित से सेः हृदयाय नमेः,
ब्लूूँ ििरसे स्वाहा, ब्लीं ििखायै वषट् ,
रां कवचाय हुम्, रां नेत्रत्रयाय वौषट् रां रीं ब्लीं ब्लूं सेः अस्त्राय िट्

तदनन्त्तर पूवागफद फदिाओं में - रां रािवण्यै नमेः पूवे,


रीं क्षोिभण्यै नमेः दिक्षणे, ब्लीं विीकरण्यै नमेः पिश्चमे,
ब्लूूँ, आकषगण्यै नमेः उत्तर, सेः सम्मोिहन्त्यै नमेः अग्रे ।

तदनन्त्तर अष्टदल में पूवागफद फदिओं के िम से इस प्रकार पूजा करें -


ॎ अनङ्गरुपायै नमेः, पूवे ॎ अनङ्गमदनायै नमेः आिेये,
ॎ अनङ्गमन्त्मथायै नमेः, दिक्षणे, ॎ अनङ्गकु सुमायै नमेः नैऋत्ये,
ॎ अनङ्गमदनायै नमेः, पिश्चमे, ॎ अनङ्गििििरायै नमेः वायव्ये,
ॎ अनङ्गमेखालायै नमेः वायव्ये, ॎ अनङ्गिपकायै नमेः ऐिान्त्ये ।

तत्पश्चात् भूपुर के भीतर पूवग आफद फदिाओं में पूववगत् इन्त्राफद दि फदलपालों की, तथा भूपुर के बाहर उनके वज्राफद आयुधों
की पूवागवत् पूजा करें । उपयुक्त
ग रीित से देवी के आवरणों की पूजा कर मूलमन्त्त्र से यथोपलव्य्ध उपचारों द्वारा देवी की पूजा
कर जप प्रारम्भ करें पुरश्चरण करने से मन्त्त्र िसि हो जाने पर साधक काम्य प्रयोगों के िलए उसका उपयोग करे ॥१०१-१-
३॥
अब काम्य प्रयोग कहते हैं - जो व्यिक्त ३ फदन तक दिधिमिश्रत अिोक पुष्पों से प्रितफदन १००० आहुितयाूँ देता है, उसके वि
में समस्त प्राणी हो जाते हैं ॥१०४॥

दही सिहत लाजा के होम से उतनी ही संख्या में होम करने से साधक को पत्नी प्राप्त होती है, तथा कन्त्या भी इसके प्रयोग से दो
मास के भीतर उत्तम वर प्राप्त करती हैं ॥१०५॥
गोघृत से संपात हुत िेष स्रुविस्थत धी का प्रोक्षणी पात्र में िगराना पूवगक १०८ आहुितयाूँ देकर िेष संस्रव वाले घृत को
दिक्षणा लेकर स्त्री को दे देवें, वह स्त्री उस संस्रव को अपने पित को िखलावे तो पित वि में हो जाता है । सुगिन्त्धत पुष्पों के
होम से साधक मिनवािछछत िल प्राप्त कर लेता
है ॥१०६-१०७॥

अब कामेिी मन्त्त्र का उिार कहते हैं -


माया (ह्रीं), मन्त्मथ (लली), वाग्वीज (ऐं), फिर ब्लूूँ, तदनन्त्तर स्त्रीं लगाने ५ अक्षरों का कामेिी मन्त्त्र बनता है । इस मन्त्त्र के
ऋिष और छन्त्द पूवोक्त
(र० ७.४९) कामेिी देवता हैं ॥१०९॥
िवमिग - मन्त्त्र का स्वरुप इस प्रकार हैं - ‘ह्रीं ललीं ऐं ब्लूूँ स्त्री’ ।
िविनयोग िविध - अस्य श्रीकामेिीमन्त्त्रस्य सम्मोहनऋिषगागयत्रीछन्त्देः कामेिीदेवता ममाऽभीष्टिसियथे जपे िविनयोगेः ।
मन्त्त्र के िवलोम िम से षडङन्त्यास करना चािहए -
षडङ्गन्त्यास - ॎ हृदयाय नमेः, ॎ ब्लूूँ ििरसे स्वाहा,
ॎ ऐं ििखायै वषट् , ॎ ललीं कवचाय हुम्,
ॎ ह्रीं नेत्रत्रयाय वौषट् , ॎ ह्रीं लली ऐं ब्लूं अस्त्राय िट् ॥१०९॥
अब कामेिी देवी का ध्यान कहते हैं -
अपने चारों हाथो में िमिेः पाि, अंकुि, इक्षुचाप एवं बाण धारण की हुई, लाल वणग का वस्त्र हुये, उदीयमान सूयग के समान
कािन्त्त वाली, रत्नों से िवभूिषत महासुन्त्दरी कामेश्वरी को मैम प्रणाम करता हूँ ॥१०९॥
इस मन्त्त्र का पाूँच लाख पर करे । पलाि के िू लों से ५० हजार की संख्या में आहुित देवे तथा पूवोक्त पीठ पर इनकी पूजा करे
॥११०॥

फिर पूवागफद फदिाओं में १. मनोभव, २. मकरध्वज, ३. कन्त्दपग, ४. मन्त्मथ एवं मध्य में ५. कामदेव का पूजन करें ॥१११॥

फिर अनङ्गरुपा आफद ििक्तयों का, तदनन्त्तर इन्त्राफद दि फदलपालोम काम तथा भूपुर के बाहर उनके वज्राफद आयुधों का
पूजन करना चािहए । इस प्रकार मन्त्त्र के िसि हो जाने साधक पूवोक्त काम्य प्रयोगों को करे ॥११२॥

िवमिग - आवरण पूजा िविध - वृत्ताकार कर्णणका उसके ऊपर चतुदल


ग कमल फिर अष्टदल कमल एवं भूपुर से बने यन्त्त्र पर
कामेिी का पूजन करें ।

१०९ श्लोक में वर्णणत कामेिी का ध्यान करें तथा मानसोपचार से पूजन करें । फिर उपयुगक्त पीठ पर श्लोक ७-९९-१०० में
बतलायी गई रीित से पीठ पूजन तथा देवी का पूजन कर उनकी अनुज्ञा प्राप्त कर इस प्रकार आवरण पूजा करें ।

सवगप्रथम वृत्ताकार कर्णणका में षडङ्गपूजन िनम्न रीित से करें । यथा -


ॎ श्रीं हृदयाय नमेः, ॎ ब्लूूँ ििरसे स्वाहा, ॎ ऐं ििखायै वषट् ,
ॎ ललीं कवचाय नमेः, ॎ ह्रीं नेत्रत्र्याय वौषट्,
ॎ ह्रीं ललीं ऐं ब्लूं स्त्रें अस्त्राय िट् ।

तदनन्त्तर चतुदल
ग में पूवग आफद फदिाओम के िम से मनोभाव आफद का पूजन इस प्रकार करना चािहए । यथा -
ॎ मनोभवाय नमेः, पूवगदले, ॎ मकरध्वजाय नमेः दिक्षणफदग्दले,
ॎ कन्त्दपागय नमेः पिश्चमाफदग्दले, ॎ मन्त्मथाय नमेः उत्तरदले,
ॎ कामदेवाय नमेः मध्ये,
पुनेः ७. २०१-२०३ में बतलायी गई िविध से अनङ्गरुपा आफद ८ ििक्तयों का पूजन कर भूपुर के भीतर इन्त्राफद दि
फदलपालों का तथा बाहर उनके वज्राफद आयुधोम का पूववगत् पूजन कर पुष्पाञ्जिल समर्णपत करें । फिर कामेिी देवी का
यथोपलब्ध उपचारों से पूजन कर जप प्रारम्भ करें ॥१११-११२॥

अष्टम तरङ्ग
अररत्र
अब बाला के िवषय में बतलाता हूँ उपासना कर साधक िीघ्र ही िवद्या में बृहस्पित के समान तथा धन में कु बेर के समान हो
जाता है ॥१॥

अब बाला मन्त्त्र का उिार कहते हैं -


चन्त्र (अनुस्वार) के सिहत दामोदर (ऐ) अथागत् ऐं यह प्रथम वाग्बीज, वासव (ल), िािन्त्त (ई) तथा इन्त्र (अनुस्वार) से युक्त
िविध (क् ) अथागत् लली यह दूसरा कामबीज सङ्गषगण (औ) तथा िवसगग युक्त भृगु (सेः) अथागत् सौेः यह तृतीय बीज इस प्रकार
‘ऐं ललीं सौेः’ इन तीनों बीजों से युक्त बाला का मन्त्त्र है जो तीनों लोकों का मोहन करने वाली है ॥२-३॥

इस मन्त्त्र के दिक्षणामूर्णत ऋिष, पंिक्त छन्त्द एवं ित्रपुरा बाला देवता हैं । मन्त्त्र का मध्य वणग (ललीं) ििक्त तथा अिन्त्तम (सौेः)
‘बीज’ कहा गया है ॥४॥

िवमिग - िविनयोग - ‘अस्य श्रीित्रपुराबालामन्त्त्रस्य दिक्षणामूर्णत्तऋिषेः पंिक्तछन्त्देः ित्रपुराबालादेवता ललीं ििक्तेः सौेः बीजं
ममाऽभीष्टिसद्ध्यथे जपे िविनयोगेः ॥४॥
िरीर के नािभ से लेकर पाद पयगन्त्त प्रथम बीज का, हृदय से लेकर नािभपयगन्त्त िद्वतीय बीज का, तथा ििर से आरम्भ कर
हृदय पयगन्त्त तृतीय बीज का न्त्यास करना चािहए ॥५॥

इसके बाद बायें हाथ में प्रथम बीज का, िद्वतीय हाथ में िद्वतीय बीज का तदनन्त्तर दोनों हाथों में तृतीय बीज का न्त्यास करना
चािहए । फिर मस्तक् , गुह्यस्थान एवं वक्षेःस्थल में िमिेः एक एक के िम से तीनों बीजों का न्त्यास करना चािहए ॥६॥

िवमिग - प्रथम न्त्यास िविध - ॎ ऐं नमेः, नाभेेः पादान्त्तम्,


ॎ ललीं नमेः, हृदयान्नािभपयगन्त्तम्, ॎ सौेः नमेः, मूर्णि, हृदयान्त्तम् ।

िद्वतीय न्त्यास िविध - ॎ ऐं नमेः, वामकरे ,


ॎ ललीं नमेः, दिक्षण करे , ॎ सौेः नमेः, उभयोेः करयोेः ।

तृतीय न्त्यास िविध - ॎ ऐं नमेः मूर्णि,


ॎ ललीं नमेः, गुह्य,े ॎ सौेः नमेः, वक्षिस ।

अब नवयोिन संज्ञक न्त्यास कहते हैं -


इस न्त्यास में एक एक मन्त्त्र को नौ बार न्त्यस्त करन चािहए । १. दोनों कान एवं दोनों िचबुलम २. दोनों गण्ड एवं मुख, ३.
दोनों नेत्र एवं नािसका, ४. दोनों कन्त्धे एवं उदर, ५. दोनों कू पगर एवं नािभ - ६. दोनों जानु एवं िलङ्ग, ७. दोनों पैर एवं
गुप्ताङ्ग, ८. दोनों पाश्वग एवं हृदय, तदनन्त्तर ९. दोनों स्तन एवं कण्ठ में न्त्यास करें । इसमें वामाङ्गिम से न्त्यास करना
चािहए ॥७-९॥

िवमिग - नव योिन न्त्यास िविध इस प्रकार है -


ॎ ऐं नमेः, वामकणे ॎ ललीं नमेः, दिक्षण कणे ॎ सौेः नमेः, िचबुके
ॎ ऐं नमेः, वाम िचबुके ॎ ललीं नमेः, दिक्षण िचबुके ॎ सौेः नमेः, मुखे
ॎ ऐं नमेः, वाम नेत्रे ॎ ललीं नमेः, दिक्षण नेत्रे ॎ सौेः नमेः, नािसकायाम्
ॎ ऐं नमेः, वाम स्कन्त्धे ॎ ललीं नमेः, स्कन्त्धे ॎ सौेः नमेः, उदरे
ॎ ऐं नमेः, वाम कू पगरे ॎ ललीं नमेः, कू पगरे ॎ सौेः नमेः, नाभौ
ॎ ऐं नमेः, वाम जानौ ॎ ललीं नमेः, जानौ ॎ सौेः नमेः, िलङ्गोपरर
ॎ ऐं नमेः, वाम पादे ॎ ललीं नमेः, पादे ॎ सौेः नमेः, गुह्ये
ॎ ऐं नमेः, वाम पाश्वे ॎ ललीं नमेः, पाश्वे ॎ सौेः नमेः, हृफद
ॎ ऐं नमेः, वाम स्तने ॎ नमेः, दिक्षण स्तने ॎ सौेः नमेः, कण्ठे

अब रितन्त्यास कहते हैं -


वाग्भव बीज सिहत रित को मूलाधार में, अिन्त्तम बीज सिहत प्रीित को हृदय में, कामबीज सिहत मनोभवा को भ्रूमध्य में
न्त्यस्त करना चािहए । इसी प्रकार वाग काम को आफद में कर अन्त्त्य बीज कर अमेतंिी योिगनी तथा िवश्वयोिन को न्त्यास
करना चािहए ॥१०-११॥

िवमिग - रितन्त्यास िविध इस प्रकार है -


ऐं रत्यै नमेः, गुह्य,े ॎ सौेः प्रीत्यै नमेः, हृफद,
ॎ ललीं मनोभवायै नमेः, भ्रूमध्ये ॎ ऐं अमृतेश्यै नमेः, गुह्ये,
ॎ ललीं योगेश्यै नमेः, हृफद, ॎ सौेः िवश्वयोन्त्यैेः, भ्रूमध्ये ॥१०-११॥

अब मूर्णतन्त्यास कहते हैं -


रत्याफदन्त्यास के बाद कामेिी के पाूँचों बीजों (र० - ७. १०९)) के साथ मनोभव आफद पाूँच कामदेवों का न्त्यास िमिेः ििर् ,
मुख, हृदय, गुप्ताङ्ग और पैरों पर करना चािहए ॥१२॥

िवमिग - मूर्णतन्त्यास की िविध इस प्रकार है - ॎ ह्रीं मनोभवाय नमेः, ििरिस,


ॎ ललीं कमरध्वजाय नमेः, गुह्य,े ॎ ऐं कन्त्दपागय नमेः, हृफद,
ॎ ब्लूं मन्त्मथाय नमेः, गुह्ये, ॎ स्त्रीम कामदेवाय नमेः, चरणयोेः ॥१२॥

अब कामेिी का न्त्यास कहकर बाणेिी के न्त्यास का प्रकार कहते हैं ।


बाणेिी के बीजों को प्रारम्भं में लगाकर रािवणी आफद का िमिेः ििर, परर, मुख, गुप्ताङ्ग एवं हृदयं में न्त्यास करे ॥१३॥

िवमिग - बाणन्त्यास िविध इस प्रकार है -


रां रािवण्यै नमेः, ििरिस, रीं िक्षिभण्यै नमेः, पादयोेः,
ललीं विीकरण्यै नमेः, मुखे ब्लूं आकिगण्यै नमेः, गुह्ये,
सेः सम्मोहन्त्यै नमेः, हृफद ॥१३॥

अब षडङ्गन्त्यास कहते हैं - तातीय (सौेः) वाग्भव (ऐं) इन दोनों के मध्य में ६ दीघग संयुक्त काम बीज (ललीं) से षडङ्गन्त्यास
करना चािहए ॥१४॥

िवमिग - षडङ्गन्त्यास िविध इस प्रकार है -


सौेः ललां ऐं हृदयाय नमेः, सौ ललीं ऐं ििरसे स्वाहा,
सौेः ललूं ऐं ििखायै वषट् , सौेः ललैं ऐं कवचाय हुम्,
सौं ललौं ऐं नेत्रत्रयाय वौषट्, सौेः ललेः ऐं अस्त्राय िट् ॥१४॥
अब बाला देवी का ध्यान कहते हैं -
लाल वस्त वाली मस्तक पर चन्त्रकला से सुिोिभत, उदीयमान सूयग के समान आभा से युक्त चारों हाथों में िमिेः पुस्तक,
अक्षमाला, अभय एवं वरद मुरा धारण की हुई रक्त कमल पर िवराजमान बाला देवी का मैं ध्यान करता हूँ ॥१५॥

इस मन्त्त्र का तीन लाख जप करना चािहए तथा मधु सिहत पलाि या कनेर के पुष्पों से दिांि होम करना चािहए ॥१६॥

अब बाला यन्त्त्र िनमागण िविध कहते हैं - िवद्वान् साधक नव योिन वाले यन्त्त्र के बाहर अष्टदल को भूपुर से वेिष्टत कर पूजा के
िलए यन्त्त्र िलखे ।
मध्य योिन में तृतीय (सौेः) बीज तथा िेष आठ योिनयों में काम बीज (ललीं) के िरों में स्वर एवं आठ दलों में आठ वगग
िलखाअ चािहए । दलों के अग्रभाग में त्रूसूलाफद पद्म आफद िलखकर अष्टदल के चारों ओर मातृका (वणगमाला) से घेर देना
चािहए । इस प्रकार से बने यन्त्त्र पर पीठ ििक्तयों का पूजन करना चािहए ॥१७-१९॥

अब पीठििक्तयाूँ कहते हैं-


१. इच्छा, २. ज्ञान, ३. फिया, ४. कािमनी, ५. कामदाियनी, ६. रित, ७. रितिप्रया ८. नन्त्दा एवं ९. मनोन्त्मनी इन नौ पीठ
ििक्तयों की के िरों पर पूवागफद िम से चतुथ्व्यगन्त्त नमेः लगाकर आठ फदिाओं में पूजा करें तथा मध्य में ‘ॎ मनोन्त्मन्त्यै नमेः’ से
पूजा करें - पूजा कर पीठ मन्त्त्र से देवी को आसन देना चािहए ॥२०-२१॥

व्योम (ह) पूवगक तृतीय बीज ‘सौ’ अथागत् (हसौेः) फिर ‘सदाििव महा’, तदनन्त्तर चतुथ्व्यगन्त्त प्रेतपद्मासन (सदाििव
महाप्रेतपद्मासनाय)उसमें ‘नमेः’ लगाने से सोलह अक्षरों का पीठ मन्त्त्र बनता है । फिर मूल मन्त्त्र से मूर्णत की कल्पना कर देवी
की आवाहनाफद द्वारा िवधान से पूजा करनी चािहए ॥२१-२३॥

देवी की पूजा के अनन्त्तर मध्य योिन के ित्रकोण में रित आफद का पूजन इस प्रकार करना चािहए । वामकोण मे रित दिक्षण में
प्रीित तथा अग्रभाग में मनोभवा का पूजन करना चािहए ॥२३-२४॥

अब अङ्गपूजा कहते हैं - मध्य योिन के मध्य में एवं अिििनऋित वायव्य ईिान कोण में िमिेः हृदय, ििर, ििखा तथा
कवच का पूजन कर पुनेः आिेय, वायव्य और ईिान में अस्त्र का पूजन करना चािहए । मध योिन के बाहर पूवागफद फदिाओं में
एवं अग्रभाग में कामदेवों का पूजन करे और इसी प्रकार बाणदेिवयों (रािवणी आफद) का भी पूजन करना चािहए ॥२४-२५॥

फिर आठ योिनयोंण मे आठ ििक्तयों १. सुभगा, २. भगा, ३, भगसर्णपणी, ४. भगमाली, ५. अनङ्गा, ६. अनङ्गकु सुमा, ७.
अनङमेखला एवं ८. अनङ्गमदना आफद का पूजन करना चािहए ॥२५-२७॥

पद्म के सर पर ब्राह्यी आफद देिवयों का, तथा पत्रों पर अिसताङ्गफद भैरवों का, पूजन करना चािहए । आफद में अनुस्वार तथा
दीघग स्वर लगाकर मातृकाओं का, तथा आफद सानुस्वार हृस्व स्वर लगा कर आठ भैरवों का पूजन करना चािहए ॥२७-२८॥

दल के अग्रभाग पर आठ पीठ १. कामरुप, २. मलय, ३. कोल्लिगरर, ४. चोहार. ५. कु लान्त्तक, ६. जालन्त्धर, ७. उ‍ड्यान,


एवं ८. कोट्ट का पूजन करना चािहए ॥२८-२९॥

भूपुर के दि फदिाओं में १. हेतुक, २. ित्रपुरान्त्तक, ३. वेताल, ४. अिििजहवा, ५. कालान्त्तक, ६. कपाली, ७. एकपाद, ८.
भीमरुप. ९. मलय एवं १०. हाटके श्वर का पूजन करना चािहए ॥३०-३१॥

इसी प्रकर वज्राफद आयुधों के साथ इन्त्राफद दि फदलपालों का अपनी अपनी फदिाओं में पूजन करना चािहए । इसके बाद
फदिाओं में वटु क, योिगनी, क्षेत्रपाल एवं गणेि का तथा चारों कोणों में वसु, सूयग, ििवा एवं भूतों का पूजन करना चािहए ।
इस प्रकार धन और िवद्या की स्वािमनी बाला की पूजा करनी चािहए ॥३१-३३॥

िवमिग - आवरण पूजा िविध - पीठ की पूजा कर मूल मन्त्त्र से देवी की मूर्णत की कल्पना कर ध्यान करें । तदनन्त्तर
आवाहनाफद उपचार से आरम्भ कर पुष्पाञ्जिल दान पूवगक उनकी पूजा करें । तदनन्त्तर सवगप्रथम मध्ययोिन में ित्रकोण में रित
आफद की पूजा करें । यथा -
ऐं रत्यै नमेः, वामकोणे, ललीं प्रीत्यै नमेः, दिक्षण कोणे,
सौेः मनोभवायै नमेः, अग्रे ।

पुनेः मध्य योिन के आिेय कोण से प्रारम्भ कर ईिान कोण तक मध्य में एवं फदिाओं में षडङ्ग पूजा इस प्रकार करें -
सौेः ललां ऐं हृदयाय नमेः, सौेः ललीं ऐं ििरसे स्वाहा,
सौेः ललूं ऐं ििखायै वषट् , सौेः ललैं ऐं कवचाय हुम्,
सौेः ललौं ऐं नेत्रत्रया वौषट् पुनेः सौेः ललेः ऐं अस्त्राय िट् ।(चतुेःकोणेषु)

तपश्चात् मध्य योिन के बाहर पूवागफद चारों फदिाओं में तथा अग्रभाग में इस प्रकार पूजा करें - ह्रीं कामाय नमेः, ललीं
मन्त्मथाय नमेः,
ऐं कन्त्दपागय नमेः, ब्लूं मकरध्वजाय नमेः, स्त्रीं मीनके तने नमेः,

प्रकार पूजा करें - ह्रीं कामाया नमेः, ललीं मन्त्मथाय नमेः,


ऐं कन्त्दपागय नमेः, ब्लूं मकरध्वजाय नमेः, स्त्रीं मीनके तने नमेः,

पुनेः उन्त्हीं स्थानो में रािवणी आफद देिवयों की पूजा करे -


रां रािवण्यै नमेः, रें क्षोिभण्यै नमेः, ललीं विीकरण्यै नमेः,
ब्लूं आकषगन्त्यै नमेः, सेः सम्मोहन्त्यै नमेः,।

तदनन्त्तर अष्टयोिनयों में सुभगा आफद आठ ििक्तयों की पूजा करे -


१ - ॎ ऐं ललीं ब्लूं स्त्रीं सेः सुभगायै नमेः,
२ - ॎ ऐं ललीं ब्लूं स्त्रीं सेः भगयायै नमेः,
३ - ॎ ऐं लली ब्लूं स्त्रीं सेः भगसर्णपण्यै नमेः,
४ - ॎ ऐं ललीं ब्लूं स्त्रीं सेः भगमािलन्त्यै नमेः,
५ - ॎ ऐं ललीं ब्लूं स्त्रीं सेः अनङ्गायै नमेः,
६ - ॎ ऐं ललीं ब्लूं स्त्रीं सेः अनङ्गसुमायै नमेः,
७ - ॎ ऐं ललीं ब्लूं स्त्रीं सेः अनमेखलायै नमेः,
८ - ॎ ऐं ललीं ब्लूं स्त्री सेः अनङ्गमदनायै नमेः,

तदनन्त्तर पद्मके िरों में पूवागफद फदिाओं के िम से ब्राह्यी आफद मातृकाओं की -


ॎ आं ब्राह्ययै नमेः ॎ ईं माहेश्वयै नमेः ॎ ऊं कौमायै नमेः
ॎ ऋं वैष्णव्यै नमेः ॎ लृं वाराह्यै नमेः ॎ ऐं इन्त्राण्यै नमेः,
ॎ औं चामुण्डायै नमेः, ॎ अेः महालक्ष्म्यै नमेः,

तत्पश्चात् दलों में उसी प्रकार पूवागफद िम से अिसताङ्गाफद अष्ट भैरवों का -


१. ॎ अं अिसताङ्गभैरवाय नमेः, २. ॎ इं रुरुभैरवाय नमेः,
३. ॎ उं चण्डभैरवाय नमेः, ४. ॎ ऋं िोधभैरवाय नमेः,
५. ॎ लृूँ उन्त्मत्तभैरवाय नमेः, ६. ॎ एं कपालीभैरवाय नमेः,
७. ॎ ओं भीषणभैरवाय नमेः, ८. ॎ अेः संहारभैरवाय नमेः,

इसके बाद दलों के अग्रभाग में पूवागफद िम से आठ पीठों का-


१ - ॎ कामरुपपीठाय नमेः, २ - ॎ मलयिगररपीठाय नमेः,
३ - ॎ कोल्लािगररपीठाय नमेः, ४ - ॎ चौहारपीठाय नमेः,
५ - ॎ कु लान्त्तपीठाय नमेः ६ - ॎ जानन्त्धरपीठाय नमेः,
७ - ॎ उड्डयानपीठाय नमेः, ८ - ॎ कोट्टपीठाय नमेः,

इसके पश्चात् भूपुर में पूवग आफद फदिाओं के िम से दि फदिाओं में हेतुक आफद दि गणों का यथा -
ॎ हेतुकाय नमेः, ॎ ित्रपुरान्त्तकाय नमेः,
ॎ वेतालाय नमेः, ॎ अिििजहवाय नमेः, ॎ कालान्त्तकाय नमेः,
ॎ कपािलने नमेः, ॎ एकपादाय नमेः, ॎ भीमरुपाय नमेः,
ॎ मलयाय नमेः, ॎ हाटके श्वराय नमेः,

पुनेः भूपुर के पूवागफद फदिाओं में वज्राफद आयुधों के सिहत इन्त्राफद दि फदलपालों का यथा -
ॎ वज्रसिहताय इन्त्राय नमेः, पूव,े ॎ ििक्तसिहताय अिये नमेः, आिेये,
ॎ दण्डसिहताय यमाय नमेः, दिक्षणे, ॎ खड् गसिहताय िनऋतये नमेः, नैऋत्ये,
ॎ पािसिहताय वरुणाय नमेः, पिश्चमे, ॎ अंकुिसिहताय वायवे नमेः, वायव्ये,
ॎ गदासिहताय सोमाय नमेः, उत्तरे ॎ िूलसिहताय ईिानाय नमेः, ऐिान्त्ये,
ॎ पद्मसिहताय ब्रह्मणे नमेः, पूवेिानयोमगध्ये, ॎ चिसािहताय अनन्त्ताय नम्ह िनऋित पिश्चमयोमगध्ये ।
भूपुर के बाहर पूवागफदफदिाओं के िम से बटुक आफद का
ॎ बं बटुकाय नमेः, पूवे, ॎ क्षं क्षेंत्रपालाय नमेः, दिक्षणे,
ॎ यं योिगनीभ्यो नमेः, पिश्चमे, ॎ गं गणपतये नमेः, उत्तरे ,
पुनेः
ॎ वसुभ्यो नमेः, आिेये, ॎ ििवाभ्यो नमेः, नैऋत्ये,
ॎ आफदत्येभ्यो नमेः, वायव्ये, ॎ भूतेभ्यो नमेः, ऐिान्त्ये ।

इस प्रकार आवरण पूजा कर पुष्पाञ्जिल समर्णपत करें । तदनन्त्तर देवी की षोडिोपचार से पूजा करनी चािहए । नैवद्य

समर्णपत करत समय श्री िवद्यापिित के अनुसार चारो बिल उसी सम्य देनी चािहए । इस िविध से पूजन कर यथाििक्त
प्रितफदन जप करना चािहए ॥२३-३३॥

अब काम्य प्रयोग कहते हैं - लाल कमलों के होम से िस्त्रयाूँ वि मे हो जाती हैं तथा सरसों के होम से राजा वि में हो जाते हैं
॥३३॥

तगर, राजवृक्ष, कु न्त्द, गुलाब या चम्पा के िू लों से अथवा िवल्व िलों से होम करने से लक्ष्मी िस्थर रहती हैं ॥३४॥

दूध वाली गुडूची होम करने से साधक अपमृत्यु पर िवजय प्राप्त कर लेता है । दूध में डु बोई गई दूवाग के होम से साधक िनरोग
रहकर अपनी आयु व्यतीत करता है ॥३५॥

चन्त्दन, अगर एवं गुग्गुलं के होम के ज्ञान ईवं किवत्वििक्त प्राप्त होता है तथा अपरािजता नामक लता के पुष्पों के होम से श्रेष्ठ
ब्राह्मण वि में हो जाते हैं । कल्हार पुष्पों के हवन से क्षित्रय तथा कर्णणकार के होम से क्षित्रयोम की िस्त्रयाूँ, कु रण्ट पुष्पों के
होम से वैश्य तथा गुलाब के होम से िूर व्य्ि में हो जात है ॥३६-३७॥

पलाि पुष्प के होम से वािलसिि तथा भात के होम से अन्न प्रािप्त होती है । मधु, दूध, एवं दही लाजा होम से समस्त रोग दूर
हो जाते हैं ॥३८॥

एक भाग लाल चन्त्दन १ भाग कपूर, १ भग कचूगर, ९ भाग अगर, ४ भाग गोरोचन, १० भाग चन्त्दन, ७ भाग के िर तथा ४
भाग जटामांसी एक में िमला लेना चािहए । फिर कृ ष्णपक्ष की चतुदि
ग ी को श्मिािन या चौराहे पर ओस के जल से कु मारी
कन्त्या द्वारा िपसवा कर उसके उक्त मन्त्त्र द्वारा अिभमिन्त्त्रत कर ितलक लगावे तो मनुष्य की कौन कहे हाथी, तसह, भूत,
राक्षस एवं िाफकनी आफद सभी उसके वि में हो जाते हैं ॥३९-४२॥

अब िविवध प्रयोगों में िसिि के िलए देवी के िविवध ध्यानों क िमिेः िनदेि करते हैं ॥४२॥

लक्ष्मी प्रािप्त के िलए ध्यान - अपने दोनों हाथों में बीजपूर तथा कमल धारण करने वालो सुवणग के समान जगमगाती हुई
पद्मासन पर िवराजमान बाला का लक्ष्मी प्रािप्त के िलए ध्यान करना चािहए ॥४३॥

ज्ञान प्रािप्त के िलए ध्यान - अपने चारों हाथों में वरद मुरा, अमृत कलि, पुस्तक एवं अभयमुरा धारण करने वाली, अमृत की
धारा बहाने वाली (ित्रपुरा) बाला का ज्ञानप्रािप्त के िलए ब्रह्मरन्त्र में ध्यान करन चािहए ॥४४॥

रोगनाि के िलए ध्यान - िुलल वणग का अम्बर धारण की हुई, चन्त्रमा के समान कािन्त्तमती, अकार से लेकर क्षकार पयगन्त्त
वणगरुप अङ्गावयवों वाली ित्रपुरा बालाम्बा का रोगनाि के िलए ध्यान करन चािहए ॥४५॥
विीकरण के िलए ध्यान - दोनों हाथों में अंकुि एवं पाि धारण फकये हुए, रत्नों के आभूषणों से देदीप्यमान, प्रसन्नवदना,
अरुण कािन्त्त वाली बाला का विीकरण के िलए ध्यान करना चािहए ॥४६॥

अब एक एक बीज के जप एवं ध्यान की िविध कहते हैं तथा िापोिार का प्रकार एवं बीजोम की उद्दीपन िविध कहते हैं
॥४७॥

वाग्बीज का ध्यान - पुस्तक अक्षमाला, न्त्टकपाल एवं ज्ञानमुरा से सुिोिभत चतुभुगजा, कु न्त्दपुष्प के समान कािन्त्तमती, मोती
के अलङ्गारों से सुिोिभत अङ्गों वाली ित्रपुरा बाला वाङ्गमय िसिि के िलए ध्यान करना चािहए ॥४८॥

श्वेत वस्त्र पहन कर, श्वेत चन्त्दन लगाकर, मुक्ता िनर्णमत आभूषण धारण कर, साधल बाला का ध्यान कर वाग्भव बीज (ऐं)
का तीन लाख जप करें तथा जप के अनन्त्तर मधुिमिश्रत नवीन पालाि पुष्पों से जप के दिांि से होम करें तो वह श्रेष्ठ किव
एवं समस्त युवितयों का िप्रय हो जाता है ॥४९-५०॥

अब कामबीज का ध्यान कहते हैं - कल्पवृक्ष ल्के नीचे देदीप्यमान रत्नतसहासन पर िवराजमान मद के कारण मदमत्त नेत्रों
वाली, अपने छेः हाथों में वीजपूर (िवजौरा) कपाल, धनुष, बाण तथा पाि और अंकुि धारण करने वाली रक्तवणाग देवी का
मैं ध्यान करता हूँ ॥५१॥

लाल वस्त्र और लाल आभूषण धारण कर एवं रक्तचन्त्दन का ितलक लगाकर देवी के उक्त स्वरुप का ध्यान कर जो साधक काम
बीज का तीन लाख जप करता है तथा कपूर एवं लाल चन्त्दन िमिश्रत मालती पुष्पों से दिांि होम करता है उसके वि में
ित्रलोकी के समस्त जीव अपने आप हो जाते हैं ॥५२-५३॥

अब तृतीय बीज का ध्यान कहते हैं - चारोम हाथों में िमिेः व्याख्यान मुरा, अमृतकलि, पुस्तक और अक्षमाला धारण की
हुई, िरिन्त््म के समान आभा वाली तथा मुक्ताभरण मिण्डत श्री बाला का ध्यान करना चािहए ॥५४॥

श्वेत वस्त्र पहन कर, श्वेत चन्त्दन का अनुलेप कर, अपने को स्वयं देवता मानते हुये जो साधक देवी के उक्त स्वरुप का ध्यान कर
बाला के तृतीय बीज का तीन लाख जप करता हैं तदनन्त्तर श्वेत चन्त्दन िमिश्रत मालती पुष्पों से दिांि होम करता है वह
िीघ्र ही लक्ष्मी, िवद्या और कीर्णत का सप्तात्र हो जाता है ॥५५-५६॥

अतेः यह िवद्या (मन्त्त्र) देवी के द्वारा िापग्रस्त एवं कीिलत है । इस कारण यह िसििदायक नहीं है । इसिलए जप करने से पूवग
इसका िापोिार एवं उत्कीलन अवश्य कर लेना चािहए ॥५७॥

अब िापोिार का प्रकार कहते हैं - प्रथम बीज के आगे वराह (ह), भृगु (स) एवं पावक (र) जोड देना चािहए । इस प्रकार
प्रकार यह बीज ‘हस्नौं’ बना जाता हैं, मध्यम िद्वतीय बीज के आगे नम (ह) हंस (स्) तथा मध्यमा के अन्त्त में पावक (र्) जोड
देना चािहए । इस प्रकार िद्वतीय बीज ‘हंस्कल रीम’ कू ट बन जाता है । तुतीय बीज के आफद में ख (ह) तथा अन्त्त में धूमके तन
(र्) लगाना चािहए । इस प्रकार यह बीज ह्स्रौ’ बन जाता है । इस मन्त्त्र का १०० बार जप कर अबाला का िाप दूर करना
चािहए ॥५८-५९॥

अथवा आद्य एवं अन्त्त्य बीज से रे ि् िनकाल देना चािहए और मध्यम बीज को यथावत् रखना चािहए । इस प्रकार िनष्पन्न
मन्त्त्र का जप बाला के िाप का उिार कर देता है ऐसा िवद्वानों ने कहा है ॥६०॥
आद्य (ऐं), आद्य (ऐं) तातीय (सौेः), काम (ललीं), काम (ललीं), तदनन्त्तर वाग्भव (ऐं), अन्त्त्य (सौेः), तथा अनङ्ग (ललीं), इन
९ अक्षरों से िनष्पन्न मन्त्त्र (ऐं ऐं सौेः ललीं ललीं ऐं सौेः सौेः ललीं) को १०० बार जप करने से बाला का िाप दोर हो जाता है
॥६१-६२॥

िवमिग - िापोिार के िलए कहे गये मन्त्त्र का िनष्कषग - ‘हस्रौ हृ स्वलरौ हस्रौेः’ ित्रपुर भैरवी के इस मन्त्त्र का १००० बार जप
करने से बाला का िाप नहीं लगता अथवा हसौं, हस्व्य्ल्ीं हसौं’ इस मन्त्त्र का १०० बार जप बाला के िाप को दूर कर देता है ।
तृतीय मन्त्त्र स्वरुप है ॥६१-६२॥

चेतनी एवं आहलाफदनी मन्त्त्रों का जप करने से इस िवद्या का उत्कीलन हो जाता है । अधर (ऐं) िािन्त्त (ई) अनुग्रह (औ) इस
प्रकार ित्रस्वर ‘ऐं ई औं’ यह चेतनी मन्त्त्र है । आफद में तार (ॎ) तथा अन्त्त में हृदय (नमेः) के सिहत काम बीज (ललीं) लगाने
से आहलाफदनी मन्त्त्र बन जाता है ॥६२-६३॥

िवमिग - मन्त्त्र का स्वरुप इस प्रकार है -


१. ॎ ऐं औं - चेतनी मन्त्त्र है ।
२. ॎ ललीं नमेः - आहलाफदनी मन्त्त्र है ॥६२-६३॥

इस प्रकार ६०-६३ श्लोक पयगन्त्त िपोिार, फिर चेतनी और आहलाफदनी दो मन्त्त्रों से उत्कीलन िविध कहकर मूल मन्त्त्र के
उद्दीपन का िवधान कहते हैं ।

जप से पहले आगे वक्ष्यमाण तीन दीपन मन्त्त्रों से तीनों बीजोम को उद्दीिपत कर फिर अभीष्ट िसिि के िलए मूल मन्त्त्र का
जप करना चािहए ॥६४॥
वायुग्म (वद वद), सदीघागम्बु (वा), अनन्त्तग स्मृित एवं बाला (ग्वा) पुनेः सनेत्र सत्य (फद) पुनेः तादृि ‘न’ (िन) तदनन्त्तर (ऐं)
लगाने से ‘वद वद वाग्वाफदनी ऐं’ - यह नौ अक्षरों का बाला के आद्य बीज (वाग्भवबीज) का उद्दीपक मन्त्त्र बनता है ॥६५॥

‘िललन्ने ललेफदिन’, फिर वैकुण्ठ (म), दीघग ख (हा), सद्यग (क्षो), सचन्त्रा िनरा (भं) और कु रु इस प्रकार ‘िललन्ने ललेफदिन
महाक्षोभं कु रु’ यह ग्यारह अक्षरों का मन्त्त्र (मध्य काम बीज) का उद्दीपक है ॥६६॥

तार (ॎ) मोक्षं कु रु इस प्रकार ‘ॎ मोक्षं कु रु’ यह पाूँच अक्षरों का मन्त्त्र अिन्त्तम बीज उद्दीपक हैं । उक्त उद्दीपनी मन्त्त्रों के
िबना आराधना करने पर भी बाला िसि नहीं होता हैं ॥६७॥ िवमिग - अतेः तीनों बीजों के साथ उक्त तीनों दीपनी
(प्रकािक) मन्त्त्रों का प्रारम्भ में ७, ७ बार जप करना आवश्यक है ॥६७॥

कृ तघ्न, धूत्तग एवं िठ व्यिक्त को ऊपर कहे गये मन्त्त्र, चेतनी, उत्कीलन तथा उद्दीपन मन्त्त्रों का उपदेि नहीं करना चािहए ।
के वल परीिक्षत ििष्य को ही यह रहस्य वतलाना चािहए । अन्त्यथा बतलाने वाला पाप का भागी होता है ॥६९॥

कामना के भेद से मन्त्त्रों का स्वरुप - ित्रु नाि के िलए प्रथम वाग्भव, तदनन्त्तर तृतीय, फिर काम बीज ‘ऐं सौेः ललीं’ का जप
करना चािहए । तीनों लोकों को वि में करने के िलए प्रथम बीज, तदनन्त्तर वाग्भव, फिर तृतीय बीज ‘ललीं ऐं सौेः’ का जप
करना चािहए । मुिक्त के िलए पहले कामबीज, फिर तृतीय बीज, तदनन्त्तर वाग्भव बीज ‘ललीं ऐं सौेः’ का जप करना चािहए
॥६९-७०॥
अब बाला के अनुष्ठान में गुरुपूजन का िवधान कहते हैं - फदव्यौघ, िसिौघ और मानवौघ भेद से गुरु तीन प्रकार के कहे गये हैं
। १. पारप्रकािानन्त्द, २. परमेिानानन्त्द, ३. परििवानन्त्द, ४. कामेश्वरानन्त्द, ५.मोक्षानन्त्द, ६. कामानन्त्द एवं ७. अमृतानन्त्द
- ये सात फदव्यौघ नाम के गुरु कहे गये हैं ॥७०-७२॥

िवद्वानों ने पाूँच िसिौघगुरु इस प्रकार बतलाए हैं - १.ईिान, २.तत्पुरुष, ३. घोर, ४. वामदेव और ५. सद्योजात । इसके
अितररक्त अपने गुरु के सम्प्रदायानुसार मानवौघ गुरुओं के नामों को जानना चािहए ॥७३-७४॥

िवमिग - गुरुओं के नाम के आगे चतुथ्व्यगन्त्त लगाकर पश्चात् नमेः उिारण करने से गुरु मन्त्त्र िनष्पन्न होता है । यथा -
‘परप्रकािाननदाय नमेः’ इत्याफद ।
िारदाितलक के अनुसार पीठ पूजा के बाद पूवग योिन एवं मध्य योिन के बीच गुरुपूजन करना चािहए । श्रीिवद्याणगव तत्र के
अनुसार गुरु पंिक्त का पूजन कर वहीं फदव्यौघ, िसिौघ एवं मानवौघ गुरुओं का पूजन करना चािहए ॥७३-७४॥

अब धारण करन के िलए बाला यन्त्त्र का िवधान कहते हैं -


नवयोन्त्यात्मक यन्त्त्र में उत्तम साधक को मध्य योिन से प्रदिक्षण िम से, प्रारम्भ कर तीन आवृित्तयों में तीन बीजों को िलखना
चािहए । फिर अष्टदल में ित्रपुरा गायत्री के तीन तीन अक्षरों को िलखकर तत्पश्चात् अष्टदल के बाहर िलिखत वणगमाला से उसे
वेिष्टत करें । फिर परस्पर िवलोम रुप में िलखे दो चतुरस्र भूपुर के कोणों में आठ बार काम बीज िलखे । यह ित्रपुरा यन्त्त्र कहा
जाता है । इसे ित्रपुरा के होम के आहुित िेष घृत द्वारा संयोिजत कर भुजा में धारण करने से धन, कीर्णत , सुख एवं पुत्र प्राप्त
होता है ॥७४-७७॥

अब ित्रपुरा गायत्री मन्त्त्र का उिार कहते हैं -


काम (ललीं) उसके बाद बाद ‘ित्रपुरा देिव िवद्महे का’ यह पद, फिर भिग िवष (मे), फिर खड् गीि वक (श्व), फिर सनेत्र
अिि,फिर ‘धीमिह’, तदनन्त्तर ‘तन्नेः िललन्ने प्रचोदयात्’ इसी को बुििमानों ने सुरसेिवत सवगिसििप्रदा ित्रपुरागायत्री कहा है
॥७८-७९॥

िवमिग - इस मन्त्त्र का स्वरुप इस प्रकार है - ‘ललीं ित्रपुरादेिव िवद्महे कामेश्वरर धीमिह । तन्नेः िललन्ने प्रचोदयात् ॥७८-७९॥
इसके बाद मैं आगम िास्त्र में अत्यन्त्त गोपनीय माने जाने वाले बाला मन्त्त्रों के भेद कहता हूँ - मया (ह्रीं), काम (ललीं), तथा
अम्बरारुढ तातीय बीज (हसौेः) इन तीन अक्षरों का प्रथम भेद है । यथा - ‘ह्रीं ललीं हसौेः’ ॥८०॥

अनुलोम एवं िवलोम िम से बाला मन्त्त्र छेः अक्षरों का बन जाता है यथा - ‘ऐं ललीं सौेः सौेः ललीं ऐं’ यह षडक्षर िद्वतीय भेद
है । पुनेः बाला मन्त्त्र को श्रीबीज, कामबीज एवं मायाबीज से सम्पुरटत करने पर नौ अक्षरों का तीसरा भेद बन जाता है - यथा
- ‘श्रीं ललीं ह्रीं - ऐं ललीं सौेः - ह्रीं ललीं श्रीं’ ॥८१॥

बाला मन्त्त्र के बाद ‘बालाित्रपुरे स्वाहा’ लगाने से दि अक्षरों का चतुथग भेद बन जाता है । यथा - ‘ऐं ललीं सौेः बाला ित्रपुरे
स्वाहा’ । वाग्बीज (ऐं) कामबीज (ललीं) व्योम इन्त्दय
ु ुक् भृगु (हसौेः) दीघगयुक्त भूधर (वा) दीघगयुक्त िपनाकी (ला) फिर ‘ित्रपुरे
िसति देिह’ इसके अन्त्त में हृदय (नमेः) लगाने से चौदह अक्षरों का पञ्चम भेद बन जाता है । यथा - ‘ऐं ललीं हसौ बालित्रपुरे
िसिें देिह नमेः’ यह पञ्चम भेद है ॥८२-८३॥

लक्ष्मी बीज (श्रीं) पावगती बीज (ह्रीं), कामबीज (ललीं) के बाद ‘ित्रपुराभारती किवत्वं देिह’ के बाद ठद्वय ‘स्वाहा’ लगाने से
सोलह अक्षरों का षष्ठ भेद िनष्पन्न होता है । यथा - ‘ह्रीं श्रीं ललीं ित्रपुराभारती किवत्वं देिह स्वाहा’ ।

लक्ष्मी बीज (श्रीं), पावगती बीज (ह्रीं), कामबीज (ललीं) के बाद ‘ित्रपुरामालती महयं सुखं देिह स्वाहा ‘लगाने से सत्रह अक्षरों
का सप्तम भेद होता है । यथा - ‘श्रीं ह्रीं ललीं ित्रपुरामालती मह्यं सुखं देिह स्वाहा’ यह सप्तम भेद है ॥८३-८५॥

अब आठवाूँ भेद कहते हैं - भृगु (स्) ब्रह्या (क् ) फिया (ल्) एवं विहन (र्) से युक्त िािन्त्त ईकार सराित्रया स िवन्त्देःु (स्व्य्ल्ीं),
फिर दहन (र), अन्त्त्य (क्ष्), महाकालो (म्) भुजङ्ग (र्), पुरुषोत्तम (य), मनु अघीि इन्त्र से संयुक्त (औ) क्ष्म्यरों यह िद्वतीय
बीज हुआ । फिर वाग्बीज (ऐं), तदनन्त्तर ‘ित्रपुरे सवगवािछछतं देिह’ इसके बाद ‘नमेः’ एवं स्वाहा लगाने से सत्रह अक्षरों का
अष्टम भेद बनता है । यथा ‘स्वल्ीं क्ष्य्रौं ऐं ित्रपुरे सवगवािछछतं देिह नमेः स्वाहा’ ॥८५-८७॥

हृल्लेखा ित्रतय (ह्रीं ह्रीं ह्रीं), फिर ‘पौढ ित्रपुरे’ के बाद अनन्त्त (आ), फिर ‘रोग्यमैश्वयं देिह’ फिर विहनिप्रया (स्वाहा), यह
अष्टादिाक्षर बाला का नवम भेद िनष्पन्न होता है । यथा ‘ह्रीं ह्रीं ह्रीं पौढित्रपुरे आरोग्यमैश्वयं देिह स्वाहा’ ॥८८॥

अब दिम भेद कहते हैं - माया (ह्रीं), रमा (श्रीं), मन्त्मथ (ललीं) के बाद ‘ित्रपुरामदने सवंिुभं साधय’ के बाद अिििप्रया
(स्वाहा) लगाने से अष्टादिाक्षर दिम भेद हो जाता है । यथा - ‘ह्रीं श्रीं ललीं ित्रपुरामदने सवगिुभं साधय स्वाहा’ ॥८८-८९॥

अब एकादि भेद कहते हैं - हृल्लेखा (ह्रीं), कमला (श्रीं), अनङ्ग (ललीं) के बाद ‘बालाित्रपुरे’ यह पद, फिर ‘मदायत्तां िवद्यां
कु रु’, तदनन्त्तर हृत् (नमेः) फिर विहनवल्लभा (स्वाहा) लगाने से बीस अक्षरों का ग्यारहवाूँ भेद होता है यथा - ‘ह्रीं श्रीं ललीं
बालाित्रपुरे मदायत्तां िवद्यां कु रु नमेः स्वाहा’ ॥९०॥

अब द्वादि भेद कहते हैं - माया (ह्रीं), पद्मा (श्रीं), मनोभव (ललीं) के बाद ‘परापरे ित्रपुरे सवगमीिप्सतं साधय’ के बाद
अनलकान्त्ता (स्वाहा) यह बीस वणग का बारहवाूँ भेद है ।
यथा - ‘ह्रीं श्रीं ललीं परापरे ित्रपुरे सवगमीिप्सतं साधय स्वाहा’ ॥९१-९२॥
अब तेरहवाूँ भेद कहते हैं - काम द्वन्त्द्व (ललीं ललीं), रमायुग्म (श्रीं श्रीं), मायायुग्म (ह्रीं ह्रीं), फिर ‘ ित्रपुरा लिलते मदीिप्सतां
योिषतं देिह वािछछतं कु रु’, इसके बाद ‘ज्वलन कािमनी स्वाहा’ लगाने से बाला का अठठाइस अक्षरों का तेरहवाूँ भेद िनष्पन्न
होता है । यथा - ‘ललीं ललीं श्रीं श्रीं ह्रीं ह्रीं ित्रपुरालिलते मदीिप्सतां योिषतं देिह वािछतं कु रु स्वाहा’ ॥९२-९३॥

अब चौदहवाूँ भेद कहते हैं - कामबीज, पद्मबीज और अफरपुत्री बीज का तीन, तीन बीज (ललीं ललीं ललीं श्रीं श्रीं श्रीं ह्रीं ह्रीं
ह्रीं ) इसके बाद ‘ित्रपुरसुन्त्दरर सवगजगत्’ के बाद इन द्वय (मम) ‘विं’, तदनन्त्तर कु रु द्वय (कु रु कु रु), फिर मह्यं बलं देिह, के
बाद अनलाङ्गना (स्वाहा) लगाने से समस्त अभीष्टदायक पैंतीस अक्षरों का चौदहवाूँ भेद बनता है । यथा - ‘ललीं ललीं ललीं
श्रीं श्रीं श्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं ित्रपुरसुन्त्दरर सवगजगन्त्मम वंि कु रु मह्यं बलं
देिह स्वाहा’ ॥९४-९५॥

इस प्रकार इन चौदह बाला के मन्त्त्रों के भेदों को कहा है ॥९६॥

इन सभी चौदह मन्त्त्रों के दिक्षणामूर्णत ऋिष हैं, गायत्री छन्त्द है तथा ित्रपुरा बाला देवता हैं, इनका षडङ्गन्त्यास मातृका के
समाह है ॥९६-९७॥
िवमिग - ॎ अस्य श्रीबालामन्त्त्रस्य दिक्षणमूर्णतऋिषेः गायत्रीछन्त्देः ित्रपुराबालादेवता ऐं बीजं सौेः ििक्तेः ललीम कीलकं
ममाभीष्टिसिथे जपे िविनयोगेः ॥९७॥

अब इनके अनुष्ठान के िलए ध्यान कहते हैं - अपने चारोम हाथों में पाि अंकुि, पुस्तक तथा अक्षसूत्र धारण करने वाली,
रक्तवणग वाली, ित्रनेत्रा, मस्तक पर चन्त्रकला धारण फकये ित्रपुरा बाला का समस्त अभीष्ट िसिि के िलए ध्यान करना चािहए
॥९८॥

उक्त मन्त्त्रों का एक लाख जप करना चािहए । फिर हयाररज (कनेर) के िू लों से दिांि होम करना चािहए । पूवोक्त पीठ पर
षडङ्गपूजा, रत्याफद की, पञ्चबाणदेवताओं की, मातृकाओं की, फदलपालों एवं उनके अस्त्रों की पूजा कर देवी का पूजन पूवोक्त
रीित से करना चािहए । इसी प्रकार इनका प्रयोग भी पूवग की भाूँित करना चािहए ॥९९-१००॥

अब स्मरण मात्र से मनोकामनाओं को पूणग करने वाली लघुश्यामा का मन्त्त्र कहता हूँ ॥१००॥

वाग्वीज (ऐं), हृदय (नमेः), कणग (उ), सनेत्र एक नेत्र (च्छे), मुकुन्त्दारुढ वृष (ष्ट), दीघेन्त्द ु संयुत कू मग (चां), दीघगनन्त्दी (डा), फिर
‘िलमातिङ्ग’ ‘सवगविंकरर’ यह पद, तदनन्त्तर वैश्वानर िप्रया (स्वाहा) लगाने से बीस अक्षरों का लघुश्यामा मन्त्त्र िनष्पन्न होता
है ॥१०१-१०२॥

िवमिग - इस मन्त्त्र का स्वरुप इस प्रकार है - ‘ऐं नमेः उिच्छष्टचाण्डिल मातिङ्ग सवगविंकरर स्वाहा’ ॥१०१-१-२॥

इस मन्त्त्र के मदन ऋिष हैं, िनचृद गायत्री छन्त्द है तथा लघु श्यामा देवता हैं, वाग्भवबीज (ऐं) एवं विहनवल्लभा (स्वाहा)
ििक्त है । समस्त अभीष्ट साधन में इसका िविनयोग फकया जाता है ॥१०३-१०४॥

प्रारम्भ में वाग्भीज लगाकर रित का ििर में, माया बीज सिहत प्रीित का हृदय में, कामबीज सिहत मनोभवा का पैर में न्त्यास
करना चािहए, फिर वाग्बीज सिहत इच्छाििक्त का मुख में, मायाबीज सिहत ज्ञानििक्त का कण्ठ में दोनों ओर कामबीज
सिहत फियाििक्त का िलङ्ग में न्त्यास करना चािहए ॥१०४-१०५॥

िवमिग - िविनयोग - अस्य श्रीलघुश्यमामनत्रस्य मदनऋिषेः िनचृदगायत्रीछन्त्देः लघुश्यामादेवता ऐं बीजं स्वाहाििक्तेः


ममाभीष्टिसियथे जपे िविनयोगेः ।

रत्याफदन्त्यास िविधेः-
ॎ ऐं रत्यै नमेः, मूर्णि, ॎ ह्रीं प्रीत्यै नमेः, हृफद,
ॎ ललीं मनोभवायै नमेः, पादयोेः, ॎ ऐं इच्छािलत्यै नमेः, मुखे,
ॎ ह्रीं ज्ञानिलत्यै नमेः, कण्ठे , ॎ ललीं फियािलत्यै नमेः, िलङ्गे ॥१०४-१०५॥

अब वाणन्त्यास कहते हैं - वाणेिी के बीजों को प्रारम्भ में लगाकर रावण, िोषण, तापन, मोहन एवं उन्त्मादन इन ५ बाणों का
िमिेः ििर, मुख, हृदय, गुह्याङ्ग एवं पैरों पर न्त्यास करना चािहए । यथा - ॎ रां रावणवाणाय नमेः, ििरिस,
ॎ रीं िोषणवाणाय नमेः, मुखे, ॎ ललीं तापबाणाय नमेः, हृदये,
ॎ ब्लूं मोहनबाणाय नमेः, गुह्ये, ॎ सेः उन्त्मादन बाणाय नमेः, पादयोेः ।
इसके बाद मूल के ३, ३, ३, ३,६ एवं २ वणो से इस प्रकार षडङ्गन्त्यास करना चािहए ॥१०७॥
िवमिग - ॎ ऐं नमेः, हृदयाय नमेः, ॎ उिच्छष्टे ििरसे स्वाहा,
ॎ चाण्डािल ििखायै वषट् , ॎ मातिङ्ग कवचाय हुम्
ॎ सवगविङ्करर नेत्रत्रयाय वौषट् ॎ स्वाहा अस्त्राय िट् ॥१०६-१०९॥

तनन्त्तर दीघग अष्टस्वर सिहत िवलोम िम से दीघग आकार सिहत क्षकार आफद अष्टक वणो को चतुथ्व्यगन्त्त ब्राह्यीकन्त्यका आफद इष्ट
मातृकाओं के साथ लगाकार मूधाग, वामांस, वामपाश्वग नािभ, दक्षपाश्वग, दक्षांस तथा हृदय में न्त्यास करें ॥१०८-११०॥

िवमिग - मातृकान्त्यास - यथा -


ॎ आं क्षां बाह्यीकन्त्यकायै नमेः, मूर्णि,
ॎ ईं लां माहेश्वरीकन्त्यकायै नमेः, वामांसे,
ॎ हां कौमारीकन्त्यकायै नमेः, वामपाश्वे,
ॎ ऋं सां वैष्णवीकन्त्यकायै नमेः, नाभौ,
ॎ लृं षां वाराहीकन्त्यकायै नमेः, दक्षपाश्वे
ॎ ऐं िां इन्त्राणीकन्त्यकायै नमेः, दक्षांसे,
ॎ ओं वां चामुण्डाकन्त्यकायै नमेः, ककु फद,
ॎ अेः लां महालक्ष्मीकन्त्यकायै नमेः, हृफद ॥१०८-११०॥

तार (ॎ) वाग्बीज (ऐं) प्रारम्भ में लगाकर अष्ट िसियों के नाम को चतुथ्व्यगन्त्त कन्त्यका के साथ जोडकर अन्त्त में ‘लगाकर ‘क’
(ििर), अिलक (ललाट), िचिल्ल (भ्रू), कण्ठ, हृदय, नािभ, मूलाधार और िलङ्ग के ऊपर न्त्यास करें ॥११०-१११॥

१. अिणमा, २. मिहमा, ३. लिघमा, ४. गररमा, ५. ईििता, ६.; वििता, ७. प्राकाम्य एवं ८. प्रािप्त - ये आठ िसिियाूँ कही
गयीं हैं ॥११२॥

िवमिग - अष्टिसिियों का न्त्यास इस प्रकार हैं -


ॎ ऐं अिणमािसििकन्त्यकायै नमेः, ििरिस,
ॎ ऐं मिहमािसििकन्त्यकायै नमेः, ललाटे,
ॎ ऐं लिघमािसििकन्त्यकायै नमेः, भ्रुवो,
ॎ ऐं गररमािसििकन्त्यकायै नमेः, कण्ठे ,
ॎ ऐं ईििआिसििकन्त्यकायै नमेः, हृदये,
ॎ ऐं विितािसििकन्त्यकायै नमेः, नाभौ,
ॎ ऐं प्राकाम्यिसििकन्त्यकायै नमेः, मूलाधारे ,
ॎ ऐं प्रािप्तिसििकन्त्यकायै नमेः, िलङ्गोपरर ॥११०-११२॥

अब अप्सरान्त्यास कहते हैं-


प्रारम्भ में कामबीज लगाकर प्रसन्न िचत्त वाली उवगिी आफद आठ अप्सराओं को चतुथ्व्यगन्त्त कन्त्यका िब्द के साथ जोडकर
(ििर) भाल (ललाट), दिक्षण नेत्र, वामनेत्र, मुख, दिक्षण कणग, वामकणग, एवं ककु द स्थानों में न्त्यास करें ॥११३॥
१. उवगिी, २. मेनका, ३. रम्भा, ४. घृताची, ५. पुंजकस्थला, ६. सुकेिी, ७. मछजुघोषा एवं ८. महारङ्गवती ये आठ
अप्सरायें कहीं गई हैं ॥११४॥

िवमिग - अप्सरान्त्यास िविध - लली उवगिीकन्त्यकायै नमेः, मूिि,


ललीं मेनकाकन्त्यकायै नमेः, ललाटे, ललीं रम्भाकन्त्यकायै नमेः, दिक्षणनेत्र,े
ललीं घृताचीकन्त्यकायै नमेः, वामनेत्रे ललीं सुकेिीकन्त्यकायै नमेः, दिक्षणकणे
ललीं मछजुघोषाकन्त्यकायै नमेः, वामकणे, ललीं महारङ्गतीकन्त्यकायै नमेः, ककु फद ॥११३-११४॥

तदनन्त्तर यक्षकन्त्या, गन्त्धवगकन्त्या, िसिकन्त्या, नरकन्त्या, नागकन्त्या, िवद्याधरकन्त्या, ककपुरुषकन्त्या और िपिाचकन्त्या को


चतुथ्व्यगन्त्त कर अन्त्त में नमेः, तथा प्रारम्भ में काम बीज लगाकर दोनों कन्त्धे, हृदय, दोनों स्तन, जठर, गुह्य एवं मूलाधार में
न्त्यास करें ॥११५-११६॥

िवमिग - यथा - १. ॎ ललीं यक्षकन्त्यकायै नमेः, दक्षांसे


२. ॎ ललीं गन्त्धवगकन्त्यकािय नमेः, वामांसे ३. ॎ ललीं िसिकन्त्यकायै नमेः, हृफद
४. ॎ ललीं नरकन्त्यकायै नमेः, दिक्षणस्तने ५. ॎ ललीं नागकन्त्यकायै नमेः, वामस्तने
६. ॎ ललीं िवद्याधरकन्त्यकायै नमेः, जठरे ७. ॎ ललीं नागकन्त्यकायै नमेः, गुह्ये
८. ॎ ललीं िपिाचाकन्त्यकायै नमेः, मूलाधारे ॥११५-११६॥

अब मन्त्त्र वणग का न्त्यास कहते हैं - प्रारम्भ में तार (ॎ) तथा अन्त्त में ‘नमेः’ लगाकर सानुस्वार मूल मन्त्त्र के प्रत्येक वणग से हाथ
एवं पैरों की संिधयों में तथा अग्रभाग में न्त्यास करे ॥११७॥

िवमिग - यथा - ॎ ऐं नमेः, दक्षांसे ॎ नं नमेः दक्षकू पगरे,


ॎ मं नमेः, दक्षमिणबन्त्धे, ॎ उं नमेः, दक्षाङ्गगुिलमूले,
ॎ तच्छ नमेः, वामकू पगरे, ॎ ष्टं नमेः, वामांसे
ॎ चा नमेः, वामकू पगरे, ॎ डां नमेः, वाममिणबन्त्धे,
ॎ तल नमेः, वामाङ् गुिल मूले, ॎ मां नमेः, वामाड् गुल्यग्रे,
ॎ तं नमेः, दक्षपादमूले, ॎ तङ्ग नमेः, दक्षजंघायाम्,
ॎ सं नमेः, दक्षपादाङ् गुल्यग्रे, ॎ वं नमेः, दक्षपादाङ् गुिलमूले,
ॎ वं नमेः, दक्षपादाङ् गुल्यग्रे, ॎ िं नमेः, वामपादमूले,
ॎ कं नमेः, वामजंघायाम्, ॎ रर नमेः, वामगुल्िे ,
ॎ स्वां नमेः, वामपादाङ् गुिलमूले, ॎ हां नमेः, वामपादागुल्यग्रे ॥११७॥

अब मातङ्गी देवी ध्यान -


इस प्रकार उपरोक्त सभी न्त्यास कर मातङ्गी का ध्यान उनके आसन पर इस प्रकार करें जो सुरा के सागर के मध्य में िस्थत
द्वीप में रत्नमिन्त्दर के मध्य में तसहासन पर िवराज रही हैं, मािणलय के आभूषणों से सुिोिभत मन्त्द मन्त्द हास करती हुई नील
कमल के कमल कािन्त्तमती हैं,िजसके िरीर पर नीले वस्त्र तथा चरणकमलों में अलक्तक सुिोिभत हो रहे हैं, ऐसी ित्रनेत्रा,
वीणावादन में तत्पर, देवताओं द्वारा विन्त्दत, तोता के पंखो के समान नील वणगवाली, मस्तक पर चन्त्र धारण फकये, पान का
बीडा मुख में िलए मातङ्गी भगवती का मैम ध्यान करता हूँ ॥११८-११९॥
उक्त मन्त्त्र का एक लाख जप करना चािहए तथा महुये के पुष्प या िल से दि हजार आिहितयाूँ देनी चािहए । पूवोक्त
मातङ्गी पीठ पर लघुश्यामा का पूजन करना चािहए (र० ७. ७३-७४) ॥१२०॥

अब पूजन यन्त्त्र का िवधान कहते हैं - ित्रकोण पञ्चकोण अष्टदल एवं षोडिदल को चार द्वार वाले भूपुर से वेिष्टत करें । इस
प्रकार िनर्णमत मन्त्त्र पर लघुश्यामा का पूजन करें ॥१२१॥

देवी के अग्रभाग में एवं दोनों पाश्वगभाग में रित, प्रीित एवं मनोभाव का, ित्रकोण के अग्र ित्रभाग में इच्छाििक्त, ज्ञानििक्त
और फियाििक्त का पूजन करना चािहए ॥१२२॥

पञ्चकोण के पाूँच कोणों में रावण, िोषण, तापन, मोहन एवं उन्त्माद इन पाूँच बाणों का तथा के िरों में षडङ्ग पूजन करना
चािहए । अष्टदल में ब्राह्यी आफद ििक्तयों का तथा दलाग्रभाग में अिणमफदिसिियों का पूजन करना चािहए ॥१२३॥

तदनन्त्तर षोडिदलों में उवगिी आफद अप्सराओं का तथा यक्षाफद आठ कन्त्याओं का पूजन करना चािहए । रित आफद के पूजन
में न्त्यासवत् प्रयोग करना चािहए ॥१२४॥

तदनन्त्तर भूपुर के चारों फदिाओं में १६, १६ योिगिनयों के िम से पूजन करना चािहए ।
पूवग फदिा में -
१. गजानन, २. तसहमुखी, ३. गृघ्रास्या, ४.काकतुिण्डका,
५. उष्ट्रग्रीवा, ६. हयग्रीवा, ७. वाराही, ८. िरभानना,
९. उलूफकका, १०. ििवारावा, ११. मयूरी, १२. िवकटानना,
१३. अष्टवलत्रा, १४. कोटराक्षी १५. कु ब्जा एवं १६. िवकटलोचना

दिक्षण फदिा में -


१. िुष्कोदरी, २. ललिज्जहवा, ३. श्वदंष्ट्रा ४. वानरानना,
५. ऋक्षाक्षी, ६. के कराक्षी, ७. बृहतुण्डा, ८. सुरािप्रया,
९. कपालहस्ता, १०. रक्ताक्षी, ११. िुकी, १२. श्येनी,
१३. कपोितका, १४. पािहस्ता, १५. दण्डहस्ता एवं १६. प्रचण्डा

पिश्चम फदिा में -


१. चण्डिविमा, २. ििििघ्नी, ३. पापहन्त्त्री, ४ काली,
५ रुिधरपाियनी, ६ वसाधया, ७ गभगभक्षा, ८ िवहस्ता,
९ अन्त्त्रमािलनी, १० स्थूलनािसका, ११ वृहत्कु क्षी, १२ सपागस्या,
१३ प्रेतवाहना, १४ दन्त्तिूककरा १५ िौञ्ची एवं १६ मृगिीषाग

उत्तर फदिा में -


१ वृषानना, २ व्यात्तास्या, ३ धूमिनश्वासा, ४ व्योमैकचरणा,
५ ऊध्वगदक
ृ ्, ६ तापनी, ७ िोषणी, ८ दृिष्ट,
९ कोटरी १० स्थूलनािसका, ११ िवद्युत्प्रभा, १२ वलाकास्या,
१३ माजागरी १४ कटपूतना १५ अट्टाट्टहासा एवं १६ कामाक्षी
इन योिगिनयों का नाम सुनते ही भूतगण तथा िाफकिनयाूँ नष्ट हो जाती हैं ॥१२५-१३५॥

पुनेः भूपुर के आिेयाफद कोणों में िमिेः तत्तन्त्मन्त्त्रों से बटुकेः गणेि, क्षेत्रपाल एवं दुगाग का पूजा करना चािहए । भूपरु के
बाहर पूवागफद फदक् िम से इन्त्राफद दि फदलपालों का तथा उनके वज्राफद आयुधों का भी पूजन करना चािहए ॥१३५-१३६॥

पुनेः भूपुर के चारों फदिाओं में १. वीणा, २. िवतत, ३. घन एवं ४. सुिषर आफद चारों वाद्यों का पूजन करना चािहए । जो
व्यिक्त इस प्रकार बारह आवरणों के साथ लघुश्यामा का पूजन करता है वह िीघ्र ही समस्त स्मित्तयों का आश्रय बन जाता है
॥१३७-१३८॥

िवमिग - आवरण पूजा िवधान - प्रथमतेः ११८-११९ श्लोक में वर्णणत देवी का ध्यान कर मानसोपचार से पूजन करें । ७. ७३-
७३ श्लोक में बतलाई गई िविध से मूल मन्त्त्र से पीठ पूजन कर उस पीठ पर मूल मन्त्त्र से देवी की मूर्णत्त की कल्पना कर उनका
िविधवत् पूजन करें । फिर पुष्प समपगण के उपरान्त्त उनकी अनुज्ञा ले कर यन्त्त्र में इस प्रकार आवरण पूजा करें -

प्रथम आवरण में देवी के आगे तथा दोनों पाश्वग में िनम्न मन्त्त्रो से पूजन करना चािहए- ऐं रत्यै नमेः, अग्रे,
ह्रीं प्रीत्यै नमेः, दिक्षणपाश्वे, ललीं मनोभवायै नमेः, वामपाश्वे,

िद्वतीय आवरण में ित्रकोण के अग्रभाग से प्रारम्भ कर प्रदिक्षणा िम से इच्छाििक्त, ज्ञानििक्त और फियििक्त का पूजन िनम्न
मन्त्त्रों से करना चािहए-
ऐं इच्छािलत्यै नमेः, ह्रीं ज्ञानिलत्यै नमेः, ललीं फियािलत्यै नमेः,

तृतीयावरण में पञ्चमोन में रावण आफद पञ्चबाणों की पूजा करनी चािहए-
रां रावणबाणाय नमेः, रीं िोषणबाणाय नमेः,
ललीं तापनबाणाय नमेः, ब्लूं मोहनबाणाय नमेः,
सेः उन्त्मादनबाणाय नमेः, ।

चतुथागवरण में के िरों में षडङ्ग पूजा करनी चािहए -


ऐं नमेः हृदयाय नमेः, उिच्छष्ट ििरसे स्वाहा,
चाण्डािल ििखायै वषट् , मातङ्गी कवचाय हुम्,
सवगविङ्करर नेत्रत्रयय वौषट् , स्वाहा अस्त्राय िट्

पञ्चम आवरण में अष्टदल में पूवागफद िम से ब्राह्यी आफद आठ मातृकाओं का पूजन करना चािहए -
आं क्षां ब्राह्यीकन्त्यकायै नमेः, ईं लां माहेश्वरीकन्त्यकायै नमेः,
ऊं हां कौमारीकन्त्यकायै नमेः, ऋं सां वैष्णवीकन्त्यकायै नमेः,,
लृं षां वाराहीकन्त्यकायै नमेः, ऐं िां इन्त्राणीकन्त्यकायै नमेः,
औं वां चामुण्डाकन्त्यकायै नमेः, अेः लां महालक्ष्मीकन्त्यकायै नमेः, ।

षष्ठ आवरण में अष्टदल के अग्रभाग में वाग्बीज पूवगक अष्टिसिियों की पूजा करनी चािहए ।
१ - ॎ ऐं अिणमािसििकन्त्यकायै नमेः, २ - ॎ ऐं मिहमािसििकन्त्यकायै नमेः,
३ - ॎ ऐं लिघमािसििकन्त्यकायै नमेः, ४ - ॎ ऐं गररमािसििकन्त्यकायै नमेः,
५ - ॎ ऐं ईिितािसििकन्त्यकायै नमेः, ६ - ॎ ऐं विितािसििकन्त्यकायै नमेः,
७ - ॎ ऐं प्राकाम्यिसििकन्त्यकायै नमेः, ८ - ॎ ऐं प्रािप्तिसििकन्त्यकायै नमेः,

सप्तम आवरण में कामबीजपूवगक उवगिी आफद आठ अप्सराओं की िनम्न नाममन्त्त्रों से पूजा करनी चािहए -
१ - ॎ ललीं उवगिीकन्त्यकायै नमेः, २ - ॎ ललीं मेनकाकन्त्यकायै नमेः
३ - ॎ ललीं रम्भाकन्त्यकायै नमेः, ४ - ॎ ललीं घृताचीकन्त्यकायै नमेः
५ - ॎ ललीं पुञ्जकस्थलाकन्त्यकायै नमेः, ६ - ॎ ललीं सुकेिीकन्त्यकायै नमेः,
७ - ॎ ललीं मछजुघोषाकन्त्यकायै नमेः, ८ - ॎ ललीं महारङ्गवतीकन्त्यकायै नमेः,

इसी प्रकार सप्तम आवरण में ही यक्षाफद आठ कन्त्यकाओं की पूजा भी तत्तन्नामन्त्मन्त्त्रों से करनी चािहए-
१ - ॎ ललीं यक्षकन्त्यकायै नमेः २ - ॎ ललीं गन्त्धवगकन्त्यकायै नमेः
३ - ॎ ललीं िसिकन्त्यकायै नमेः ४ - ॎ ललीं नरकन्त्यकायै नमेः
५ - ॎ ललीं नागकन्त्यकायै नमेः ६ - ॎ ललीं िवद्याधरकन्त्यकायै नमेः
७ - ॎ ललीं ककपुरुषकन्त्यकायै नमेः ८ - ॎ ललीं िपिाचकन्त्यकायै नमेः

अष्टम आवरण में भूपुर के चारोम फदिाओं में १६, १६ योिगिनयों की पूजा करनी चािहए ।
भूपुर के पूवगफदिा में -
१. ॎ गजाननायै नमेः, २. ॎ तसहमुख्यै नमेः, ३. ॎ ग्रुरास्यायै नमेः
४. ॎ काकतुण्टायै नमेः, ५. ॎ उष्ट्रग्रीवायै नमेः, ६. ॎ हयग्रीवायै नमेः
७. ॎ वाराह्यै नमेः ८. ॎ िरभाननायै नमेः, ९. ॎ उलूफककायै नमेः
१०. ॎ ििवारावायै नमेः ११. ॎ मयूयै नमेः १२. िवकटाननायै नमेः
१३. ॎ अष्टवलत्रायै नमेः १४. ॎ कोटराक्ष्यै नमेः १५. ॎ कु ब्जायै नमेः
१६. ॎ िवकटलोचनायै नमेः

भूपुर के दिक्षणफदिा में -


१. ॎ िुष्कोदयै नमेः, २. ॎ ललिज्जहवायै नमेः, ३. ॎ श्वदंष्ट्रायै नमेः
४. ॎ वानराननायै नमेः ५. ॎ ऋक्षाक्ष्यै नमेः, ६. ॎ के कराक्ष्यै नमेः
७. ॎ बृहत्तुण्डायै नमेः ८. ॎ सुरािप्रयायै नमेः ९. ॎ कपालहस्तायै नमेः
१०. ॎ रक्ताक्ष्यै नमेः ११. ॎ िुलयै नमेः १२. श्येन्त्यै नमेः
१३. ॎ कपोितकायै नमेः १४. ॎ पािहस्तायै नमेः १५. दण्डहस्तायै नमेः
१६. ॎ प्रचण्डायै नमेः

भूपुर के पिश्चमे फदिा में -


१. ॎ चण्डिविमायै नमेः, २. ॎ िििुघ्नन्त्यै नमेः ३. ॎ पापहन्त्त्रयै नमेः
४. ॎ काल्यै नमेः ५. ॎ रुिधपाियन्त्यै नमेः ६. ॎ वसाधयायै नमेः
७. ॎ गभगभक्षायै नमेः ८. ॎ िवहस्तायै नमेः ९. ॎ अन्त्त्रमािलन्त्यै नमेः
१०. ॎ स्थूलके श्ये नमेः ११. ॎ बृहत्कु क्ष्यै नमेः १२. ॎ सपागस्यायै नमेः
१३. ॎ प्रेतवाहनायै नमेः १४. ॎ दन्त्तिूककरायै नमेः १५. ॎ िौञ्च्यै नमेः
१६. ॎ मृगिीषागयै नमेः

भूपुर के उत्तर फदिा में -


१. ॎ वृषाननायै नमेः, २. ॎ व्यात्तास्यायै नमेः ३. ॎ धूमिनश्वासायै नमेः
४. ॎ व्योमैकचरणायै नमेः ५. ॎ ऊध्वगदि
ृ े नमेः ६. ॎ तािपन्त्यै नमेः
७. ॎ िोिषण्यै नमेः ८. ॎ दृष्ट्ये नमेः ९. ॎ कोटयै नमेः
१०. ॎ स्थूलनािसकायै नमेः ११. ॎ िवद्युत्प्रभायै नमेः १२. बलाकास्यायै नमेः
१३. ॎ माजागयै नमेः १४. ॎ कटपूतनायै नमेः १५. अट्टाटटहासकायै नमेः
१६. ॎ कामाक्ष्यै नमेः

तदनन्त्तर नवम आवरण में पुनेः भूपुर के चारों फदिाओं में पूवागफद से बटुक्, गणपित, क्षेत्रपाल और दुगाग की पूजा करनी
चािहए ।
ॎ बं बटुकाय नमेः, पूवे ॎ गं गणपतये नमेः, दिक्षणे
ॎ क्षं क्षेत्रपालाय नमेः, पिश्चमे ॎ दुं दुगागयै नमेः, उत्तरे

इस बाद दिम आवरण में भूपुर के बाहर इन्त्राफद दि फदलपालों की पूजा करनी चािहए ।
१ - ॎ इन्त्राय नमेः, पूवे २ - ॎ अिये आिेये
३ - ॎ यमाय नमेः, दिक्षणे ४ - ॎ िनऋतये नमेः, नैऋत्ये
५ - ॎ वरुणाय नमेः, पिश्चमे ६ - ॎ वायवे नमेः, वायव्ये
७ - ॎ सोमाय नमेः, उत्तरे ८ - ॎ ईिानाय नमेः, ऐिान्त्ये
९ - ॎ ब्रह्मणे नमेः, पूवेिानयोमगध्ये, १० - ॎ अनन्त्ताय नमेः, पिश्चमनैऋत्ययोमगध्ये,

इसके बाद एकादि आवरण में पुनेः भूपुर के बाहर दि फदलपालों के समीप उनके वज्राफद आयुधों की पूजा करनी चािहए ।
१ - ॎ वज्राय नमेः, पूवे २ - ॎ िक्तये नमेः, आिेये
३ - ॎ दण्डाय नमेः, दिक्षणे ४ - ॎ खड् गाय नमेः, नैऋत्ये
५ - ॎ पािाय नमेः, पिश्चमे ६ - ॎ अंकुिाय नमेः, वायव्ये
७ - ॎ गदायै नमेः, उत्तरे ८ - ॎ ित्रिूलाय नमेः, ऐिान्त्ये
९ - ॎ पद्माय नमेः, पूवेिानयोमगध्ये, १० - ॎ चिाय नमेः, पिश्चमनैऋत्योमगध्ये,

पुनेः बारहवें आवरण में भूपुर के बाहर पूवागफद फदिाओं में वाद्यों की पूजा करे -
ॎ वीणाय नमेः, पूवे ॎ िवतताय नमेः, दिक्षणे,
ॎ घनाय नमेः, पिश्चमे, ॎ सुिषराय नमेः, उत्तरे,

इस प्रकार आवरण पूजा सम्पादन कर धूप दीपाफद उपचारों से देवी का पूजन कर पुनेः जप करना चािहए ॥१२५-१३८॥

अब मातङ्गी गायत्री का उिार कहते हैं -


वाणी (ऐं) चतुथ्व्यगन्त्त िुकिप्रया (िुकिप्रयायै), फिर ‘िवद्महे’ तदनन्त्तर मीनके तन कामबीज (ललीं), फिर ‘कामेश्वरीं धीमिह’
इसके बाद ‘तन्नेः श्यामा प्रचोदयात्’ लगाने से सवागभीष्टप्रदाियनी मातङ्गी गायत्री िनष्पन्न होती है । मातङ्गी की अचगना में
इसी गायत्री से समस्त यज्ञ सामग्री अिभिषिञ्चत करें ॥१३९-१४०॥

िवमिग - मन्त्त्र का स्वरुप इस प्रकार है -


ऐं िुकिप्रयायै िवद्महे ललीं कामेश्वरीं धीमिह । तन्नेः श्यामा प्रचोदयात ।
सप्तम तरङ्ग (६६-६९) में हमने मातङ्गी के मन्त्त्र तथा उसके समस्त प्रयोगों को ७. ८३-९१ में कहा है ।
राजा, राजपुत्र, मदिवहवला, िस्त्रयाूँ ये सभी मातङ्गी की उपासना करने वाले साधक के मन वचन और कायग से वि में हो
जाते हैं । कक बहुना िाफकनी अथवा प्रेत या भूत आफद उसे फकसी प्रकार भयभीत नहीं कर सकते ॥१४१-१४२॥

इस िवषय में िविेष कहने की आवश्यकता नही है, यह देवी अपने उपासकों के सारे अभीष्ट पूणग करती है । इन देवी के मन्त्त्र के
स्मरण मात्र से मनुष्य देवता के समान बन जाता है ॥१४३॥

देवी के उपासकों को कभी फकसी भी हालत में स्त्री िनन्त्दा नहीं करनी चािहए । अपना अभीष्ट चाहने वालों को उनका सत्कार
देवी की तरह ही करना चािहए ॥१४४॥

नवम तरङ्ग
अररत्र
अब अभीष्ट िल देने वाले अन्नपूणेश्वरी के मन्त्त्रों को कहता हूँ, िजनकी उपासना से कु बेर ने िनिधपितत्व, सदाििव से िमत्रता,
फदगीित्त्व एवं कै लािािधपितत्त्व प्राप्त ॥१-२॥

अब भगवती अन्नपूणेश्वरी का मन्त्त्रोिार कहते हैं -


वेदाफद (ॎ), िगररजा (ह्रीम), पद्मा (श्रीं), मन्त्मथ (ललीं), हृदय (नमेः), तदनन्त्तर ‘भगवित माहेश्वरर अन्नपूणे’ पद, फिर अन्त्त
में दहनाङ्गना (स्वाहा), लगाने से बीस अक्षरों का अन्नपूणाग मन्त्त्र बनता है ॥२-३॥

इस मन्त्त्र से रुिहण (ब्रह्मा) ऋिष हैं, कृ ित छन्त्द हैं तथा अन्नपूणेिी देवता कही गई हैं । षड् दीघग सिहत हृल्लेखा बीज से
षडङ्गन्त्यास करना चािहए ॥३-४॥

िवमिग - मन्त्त्र का स्वरुप इस प्रकार है - ‘ॎ श्रीं ललीं भगवित माहेश्वरर अन्नपूणग स्वाहा’ ।

िविनयोग - ‘अस्य श्रीअन्नपूणागमन्त्त्रस्य रुिहणऋिषेः कृ ितश्छन्त्देः अन्नपूणेिी देवता ममाभीष्टिसियथे जपे िविनयोगेः ’।

षडङ्गन्त्यास - ह्रां हृदाय नमेः, ह्रीं ििरसे स्वाहा, हूँ ििखायै वषट् ,
ह्रैं कवचाय हुं, ह्रौं नेत्रत्रयाय वौषट् , ह्रेः अस्त्राय िट् ॥३-४॥

मुख दोनों नािसका, दोनों नेत्र, दोनों कान, अन्त्धु (िलङ्ग) और गुदा में मन्त्त्र के १, १, १, १, २, ४, ४, ४ एवं २ वणो से
नवपदन्त्यास कर सुरेश्वरी का ध्यान करना चािहए ॥५-६॥

िवमिग - नव पदन्त्यास िविध - ॎ नमेः मुखे, ह्रीं नमेः दक्षनासायाम,


श्रीं नमेः वामनासायाम्, ललीं नमेः दिक्षणनेत्र, नमेः, नमेः वामनेत्र,े
भगवित नमेः दक्षकणे, माहेश्वरर नमेः वामकणे, अन्नपूणे नमेः अन्त्धौ (िलङ्गे),
स्वाहा नमेः मूलाधारे ॥५-६॥

अब अन्नपूणाग भगवती का ध्यान कहते हैं - तपाये गये सोने के समान कािन्त्तवाली, ििर पर चन्त्दकला युक्त मुकुट धारण फकये
हुये, रत्नों की प्रभा से देदीप्यमान, नाना वस्त्रोम स अलंकृत, तीन नेत्रों वाली, भूिम और रमा से युक्त, दोनों हाथ में दवी एवं
स्वणगपात्र िलए हुये, रमणीय एवं समुन्नत स्तनमण्डल से िवरािजत तथा नृत्य करते हुये सदाििव को देख कर प्रसंन्न रहने
वाली अन्नपूणेश्वरी का ध्यान करना चािहए ॥७॥

िवमिग - मेरुतत्र के अनुसार भगवती अन्नपूणाग का ध्यान इस प्रकार है -


तप्तकाञ्चनसंकािां बालेन्त्दक ु ृ तिेखराम् ।
नवरत्नप्रभादीप्त मुकुटां कु ङ् कु मारुणाम् ॥
िचत्रवस्त्रपरीधानां मीनाक्षीं कलिस्तनीम् ।
सानन्त्दमुखलोलाक्षीं मेखलाढ्यिनतिम्बनीम् ।
अन्नदानरतां िनत्यां भूिमश्रीभ्यां नमस्कृ तात् ॥
दुग्धान्नभररतं पात्रं सरत्नं वामहस्तके ।
दिक्षणे तु करं देव्या दवी ध्यायेत् सुवणगजाम् ॥

‘तपाए हुए सुवणग के समान कािन्त्त वाली, मुकुट में बालचन्त्र धारण फकए हुए, नवीन रत्न की प्रभा से प्रदीप्त मुकुट फकए हुए,
कु ड् कु म सी लाली युक्त, िचत्र-िविचत्र वस्त्र पहने हुए, मीनाक्षी एवं कलि के समान स्तनों वालीम नृत्य करते हुए ईि को
देखकर आनिन्त्दत परा भगवती अन्नपूणाग का ध्यान करना चािहए ।
आनन्त्द युक्त मुख वाली एवं चञ्चल नेत्रों वाली, िनतम्ब पर मेखाला बाूँध हुए, अन्न दान में तल्लीन भूिम एवं लक्ष्मी दोनों से
िनत्य नमस्कृ त देवी अन्नपूणग का ध्यान करना चािहए ।
दुग्ध एवं अन्न से पररपूणग पात्र और रत्न से युक्त पात्रों को वाम हाथों में धारण करने वाली और दािहने हाथ में सूप िलए हुए
सुवणग के समान प्रभा वाली देवी का ध्यान करना चािहए ॥७॥

पुरश्चरण - अन्नपूणाग मन्त्त्र का एक लाख जप करना चािहए तथा घृत िमिश्रत चरु से दि हजार आहुितयाूँ देनी चािहए ।
जयाफद नव ििक्तयों से युक्त पीठ पर इनकी पूजा करनी चािहए ॥८॥

पूजा यन्त्त्र - ित्रकोण - चतुदल


ग , अष्टदल, षोडिदल एवं भूपुर सिहत िनर्णमत्त यन्त्त्र पर मायाबीज से आसन देवी को देना
चािहए ॥९॥

िवमिग - पीठ पूजा - प्रथमतेः ९. ७ में वर्णणत देवे के स्वरुप का ध्यान करे और फिर मानसोपचारों से उनका पूजन करे तथा
िंख का अघ्नयगपात्र स्थािपत करे । फिर ‘आधारिक्तये नमेः’ से ‘ह्रीं’ ज्ञानात्मने नमेः’ पयगन्त्त मन्त्त्रों के पीठ देवताओं का पूजन कर
पीठ के पूवागफद फदिाओं एवं मध्य में जयाफद ९ ििक्तयों का इस प्रकार पूजन करे -

ॎ जयायै नमेः, ॎ िवजयायै नमेः, ॎ अिजत्ययै नमेः,


ॎ अपरािजतायै नमेः, ॎ िवलािसन्त्यै नमेः, ॎ दोमगध्ये नमेः,
ॎ अघोरायै नमेः, ॎ मङ्गलायै नमेः, ॎ िनत्यायै नमेः, मध्ये,

इसके पश्चात् मूल से मूर्णत किल्पत कर ‘ह्री सवगििक्तकमलासनाय नमेः’ से देवी को आसन देकर िविधवत् आवाहन एवं पूजन
कर पुष्पाञ्जिल प्रदार करे , फिर अनुज्ञा ले आवरण पूजा करे ॥९॥

सवगप्रथम ित्रकोण में आिेयकोण से प्रारम्भ कर तीनों कोणों में ििव, वाराह और माधव की अपने अपने मन्त्त्रों से पूजा करे ।
अब उन मन्त्त्रों को कहता हूँ ॥१०॥

अब ििव मन्त्त्र कहता हूँ -


प्रणव (ॎ), मनुचन्त्राढ्य गगन (हौं), हृद (नमेः), फिर ‘ििवा’ इदके बाद मारुत(य), लगाने से सात अक्षरों का ििव मन्त्त्र
िनष्पन्न होता है ॥१०-११॥

िवमिग - मन्त्त्र का स्वरुप इस प्रकार हैं - ‘ॎ हौं नमेः ििवाय’ ॥१०-११॥

अब वराह मन्त्त्र कहते हैं - तार (ॎ) , फिर ‘नमो भगवते वराह’ पद, फिर अघीियुग्वसु (रु), फिर ‘पाय भृभूगवेः स्वेः’ फिर िूर
(प), कािमका (त), फिर ‘ये मे भूपितत्वं देिह ददापय’ पद, इसके अन्त्त में िुिचिप्रया (स्वाहा) लगाने से तैंतीस अक्षरों का
वराह मन्त्त्र िनष्पन्न होता है ॥१२-१३॥

िवमिग - मन्त्त्र का स्वरुप इस प्रकार है - ‘ॎ नमो भगवते वराहरुपाय भूभुगवेः स्वेःपतये भूपितत्त्वं में देिह ददापय’ स्वाहा’
(३३)॥१२-१३॥

अब नारायणाचगन मन्त्त्र कहते हैं - प्रणव (ॎ), हृदय (नमेः), फिर ‘नारायणाय’ पद् लगाने से आठ अक्षरों का नारायण मन्त्त्र
िनष्पन्न होता है । तीनों देवों के पूजन के बाद षडङ्गपूजा करनी चािहए ॥१४॥

िवमिग - मन्त्त्र का स्वरुप इस प्रकार है - ‘ॎ नमो नारायणाय’ (९) ॥१४॥

इसके बाद वाम भाग में धरा (भूिम) तथा दािहने भाग में महालक्ष्मी का अपने अपने मन्त्त्रों से पूजन करचा चािहए । ‘अन्नं
मह्यन्नं’ के बाद, ‘मे देिह अन्नािधप’, इसके बाद ‘तये ममान्नं प्र’, फिर ‘दापय’ इसके बाद अनलसुन्त्दरी (स्वाहा) लगाकर बाईस
अक्षरों के इस (औं) से युक्त करने पर ग्लौं यह भूिम का बीज है ॥१५-१७॥

िवमिग - भूिम पूजन हेतु मन्त्त्र का स्वरुप - ‘ग्लौ अन्नं मह्यन्नं मे देह्यन्निधपतये ममान्नं प्रदापय स्वाहा ग्लौं (२२)
लक्ष्मी पूजन में उक्त मन्त्त्र को लक्ष्मी बीज से संपुरटत करना चािहए ॥१७॥
‘विहन (र), िािन्त्त (ई), िबन्त्द ु सिहत वक (ि) इस प्रकार श्रीं यह श्री बीज बनता है ॥१७॥

श्रीबीज संपुरटत श्रीपूजन मन्त्त्र का स्वरुप इस प्रकार है - ‘श्रीं अन्नं मह्यन्नं मे देह्यनािधपतये ममान्नं प्रदापय स्वाह श्रीं ॥१७॥

आद्य वेदास्र (चतुरस्र) चतुदल


ग में आफद के चार बीज लगाकर कर चार ििक्तयों का पूजन करना चािहए । १. परा, २.
भुवनेश्वरी, ३. कमला एवं ४. सुभगा ये चार ििक्तयों हैं । अष्टदल में ब्राह्यी आफद अष्टमातृकाओं का पूजन करना चािहए ।
तदनन्त्तर षोडिदल में मूल मन्त्त्र के िेष वणो को आफद में लगाकर १. अमृता, २. मानदा, ३. तुिष्ट, ४. पुिष्ट, ५. प्रीित, ६.
रित, ७. ह्रीं (लज्जा), ८. श्री, ९. स्वधा, १०. स्वाहा, ११. ज्योत्स्ना, १२. हैमवती, १३. छाया, पूर्णणमा १४. पूर्णणमा, १५.
िनत्या एवं १६. अमावस्या का ‘अन्नपूणागयै नमेः’ लगा कर पूजन करना चािहए । तदनन्त्तर भूपुर के भीतर लोकपालों की तथा
उसके बाहर उनके अस्त्रों की पूजा करनी चािहए ॥१८-२१॥

िवमिग - आवरण पूजा िविध-


प्रथमावरण में ित्रकोणाकर कर्णणका में आिेय कोण से ईिान कोण तक ििव, वाराह एवं नारायण की पूजा यथा - ॎ नमेः
ििवाय, आिेये, ॎ नमो भगवते वराहरुपाय भूभुगवेःस्वेःपतये भूपितत्त्वं मेम देिह ददापय स्वाहा (अग्रे) पुनेः ॎ नमो
नारायणाय,ईिाने ।

िद्वतीयावरण में के सरों में षडङ्गपूजा इस प्रकार करनी चािहए -


ॎ ह्रां हृदयाय नमेः, ॎ ह्रीं ििरसे स्वाहा, ॎ ह्रूूँ ििखायै वषट् ,
ॎ ह्रैं कवचाय नमेः, ॎ ह्रौं नेत्रत्रयाय वौषट्, ॎ ह्रेः अस्त्राय िट्

फिर ऊपर कहे गये भूिमबीज संपुरटत मन्त्त्र से देवी के वाम भाग में भूिम का, मध्य में िुि अन्नपूणाग से अन्नपूणाग का तथा
उपयुगक्त श्रीबीजसंपुरटत मन्त्त्र से महाश्री का दिक्षण भाग में पूजन चािहए । यथा - ग्लौं अन्नं मह्यन्नं देह्यन्नािधपतये ममान्नं
प्रदापय स्वाहा ग्लौं भूम्यै नमेः । वामभागे - यथा - ‘श्रीं अन्नं मह्यन्नं मे देह्यन्निधपतये ममान्न प्रदापय स्वाहा श्रीं िश्रयै नमेः’ से
श्री का । फिर मध्य में अन्नपूणाग का यथा - ‘अन्न मह्यन्नं मेम देह्यन्नािधपतये ममान्नं प्रदापय स्वाहा अन्नपूणागयै नमेः ।

तृतीयावरण में पूवग से आरम्भ कर उत्तर पयगन्त्त चारों फदिाओं में परा आफद चार ििक्तयों का पूजन करना चािहए । यथा -
ॎ ऐं परायै नमेः, पूव,े ॎ ह्रीं भुवनेश्वयै नमेः दिक्षणे,
ॎ श्रीं कमलायै नमेः पिश्चमे, ॎ ललीं सुभगायै नमेः उत्तरे ।

चतुथागवरण में अष्टदल पर पूवागफद अष्ट फदिाओं में ब्राह्यी आफद अष्टमातृकाओं का पूजन करनी चािहए । यथा -
ॎ ब्राह्ययै नमेः, ॎ माहेश्वयै नमेः, ॎ कौमायै नमेः,
ॎ वैष्णव्यै नमेः, ॎ वाराह्यै नमेः, ॎ इन्त्राण्यै नमेः,
ॎ चामुण्डायै नमेः, ॎ महालक्ष्म्यै नमेः,

पञ्चमावरण में षोडिदलों में प्रदिक्षण िम से अमृता आफद सोलह ििक्तयों का पूजन करना चािहए । यथा -
ॎ नं अमृतायै अन्नपूणागयै नमेः ॎ श्वं स्वधायै अन्नपूणागयै नमेः
ॎ मों मानदायै अन्नपूणागयै नमेः ॎ रर स्वाहायै अन्नपूणागयै नमेः
ॎ भं तुष्ट्यै अन्नपूणागयै नमेः ॎ अं ज्योत्स्नायै अन्नपूणागयै नमेः
ॎ गं पुष्ट्यै अन्नपूणागयै नमेः ॎ न्नं हैमवत्यै अन्नपूणागयै नमेः
ॎ वं प्रीत्यै अन्नपूणागयै नमेः ॎ पूं छायायै अन्नपूणागयै नमेः
ॎ तत रत्यै अन्नपूणागयै नमेः ॎ णें पूर्णणमायै अन्नपूणागयै नमेः
ॎ मां िहयै अन्नपूणागयै नमेः ॎ स्वां िनत्यायै अन्नपूणागयै नमेः
ॎ हें िश्रयै अन्नपूणागयै नमेः ॎ हां अमावस्यायै अन्नपूणागयै नमेः

षष्ठावरण में भूपुर के भीतर अपने अपने फदिाओं में इन्त्राफद दि फदलपालों का पूजन करना चािहए - ॎ इन्त्राय नमेः पूवे, ॎ
अिये नमेः आिेय,े ॎ यमाय नमेः दिक्षणे, ॎ िनऋत्ये नमेः, नैऋत्ये, ॎ वरुणाय नमेः पिश्चमे, ॎ वायवे नमेः वायव्ये, ॎ
सोमाय नमेः उत्तरे , ॎ ईिानाय नमेः ऐिान्त्ये, ॎ ब्रह्यणे नमेः पूवेिानयोमगध्ये, ॎ अनन्त्ताय नमेः पिश्चमनैऋत्ययोमगध्ये ।
सप्तमावरण में भूपुर के बाहर पूवागफद फदिाओं में वज्राफद आयुधों की पूजा करे
ॎ वज्राय नमेः पूवे, ॎ िक्तये नमेः आिेये, ॎ दण्डाय नमेः दिक्षणे,.
ॎ खडगाय नमेः नैऋत्ये, ॎ पािाय नमेः पिश्चमे, ॎ अकुं िाय नमेः वायव्ये,
ॎ गदायै नमेः उत्तरे , ॎ ित्रिूलाय नमेः ऐिान्त्ये, ॎ पदमाय नमेः पूवेिानयोमगध्ये
ॎ चिाय नमेः पिश्चमनैऋत्ययोमगध्ये ।
इस प्रकार यथोपलब्ध उपचारों से आवरण पूजा करने के पश्चात् जप प्रारम्भ करना चािहए ॥१९-२१॥

इस प्रकार जपाफद से मन्त्त्र िसिि हो जाने पर साधक धन संचय में कु बेर के समान धनी होकर लोकविन्त्दत हो जाता है ॥२२॥

अब अन्नपूणाग का अन्त्य मन्त्त्र कहते हैं - रमा (श्रीं) और कामबीज (ललीं) से रिहत पूवोक्त मन्त्त्र अष्टादि अक्षरों का होकर अन्त्य
मन्त्त्र बन जाता है । इस मन्त्त्र के दो, दो, चार, चार, एवं दो अक्षरों से षडङ्गन्त्यास की िविध कही गई है ॥२३॥

िवमिग - मन्त्त्र का स्वरुप इस प्रकार है - ‘ॎ ह्रीं नमेः भगवित माहेश्वरर अन्नपूणे स्वाहा’ (१९) । इसका िविनयोग एवं ध्यान
पूवगमन्त्त्र के समान है ।

षडङ्गन्त्यास इस प्रकार है - ॎ ह्रीं हृदयाय नमेः, ॎ नमेः ििरसे स्वाहा, ॎ भगवित ििखायै वषट् , ॎ माहेश्वरर कवचाय
हुम, ॎ अन्नपूणे नेत्रत्रयाय वौषट् , ॎ स्वाहा अस्त्राय िट् ।

िारदाितलक १०. १०९-११० में मन्त्त्र और ध्यान इस प्रकार हैं -


माया हृद्भगवत्यन्त्ते माहेश्वररपदं ततेः । अन्नपूणग ठयुगलं मनुेः सप्तदिाक्षरेः ॥
अङ् गािन मायया कु यागत् ततो देवीं िविचन्त्तयेत् ।
मन्नप्रदनिनरतां स्तनभारनम्राम् ।
नृत्यन्त्तिमन्त्दि
ु कलाभरणं िवलोलय
हृष्टां भजे भगवतीं भवदुेःखहत्रीम् ॥

मन्त्त्र - माया (हीम्), हृत् (नमेः), तदनन्त्तर ‘भगवित माहेश्वरर अन्नपूणे, तीन पद, तदनन्त्तर दो ठकार (स्वाहा) िलखे । इस
प्रकार १७ अक्षरों का अन्नपूणाग मन्त्त्र का उिार कहा गया । इसका स्वरुप - ‘ह्रीं नमेः भगवित माहेश्वरर अन्नपूणे स्वाहा’ हुआ ॥

ध्यान - िजनका िरीर रक्तवणग है, िजन्त्होने नाना प्रकार क िचत्र िविचत्र वस्त्र धारण फकए हैं, िजनके ििखा में नवीन चन्त्रमा
िवराजमान है, जो िनरन्त्तर त्रैलोलयवािसयों को अन्न प्रदान करने में िनरत हैं - स्तमभार से िवनम्र भगवान् सदाििव को अपने
सामने नाचते देख कर प्रसन्न रहने वाली संसार के समस्त पाप तापों को दूर करने वाली भगवती अन्नपूणाग का इस प्रकार
करना चािहए ॥२३॥

अन्नपूणाग देवी का अन्त्य मन्त्त्र - पूवोक्त तवित्यक्षर मन्त्त्र में चौदह अक्षर के बाद ‘ ‘ममािभमतमन्नं देिह देिह अन्नपूणे स्वाहा’
यह सत्रह अक्षर िमला देने से कु ल इकत्तीस अक्षरों का एक अन्त्य अन्नपूणाग मन्त्त्र बन जाता है । इस मन्त्त्र के ४, ६, ४, ७, ४,
एवं ६ अक्षरों से षडङ्गन्त्यास करना चािहए ॥२४-२५॥

िवमिग - मन्त्त्र का स्वरुप इस प्रकार है - ‘ॎ ह्रीं श्रीं ललीं नमेः भगवित माहेश्वरर ममािभमतमन्नं देिह देिह अन्नपूणे स्वाहा’
॥३१)।
इसका िविनयोग एवं ध्यान पूवगवत् समझना चािहए ।

षडङन्त्यास - ॎ ॎ ह्रीं श्री ललीं हृदयाय नम्ह, ॎ नमो भगवित ििरसे स्वाहा, ॎ माहेश्वरर ििखायै वषट, ॎ ममािभमतमन्नं
कवचाय हुं, ॎ देिह देिह नेत्रत्रयाय वौषट् , ॎ अन्नपूणे स्वाहा अस्त्रायु िट् ॥२४-२५॥

अन्नपूणाग देवी का अन्त्य मन्त्त्र - प्रणव (ॎ), कमला (श्रीं), ििक्त (ह्रीं), फिर ‘नमो भगवित प्रसन्नपररजातेश्वरर अन्नपूणे, फिर
अनलाङ्गना (स्वाहा) लगाने से अभीष्ट साधक चौबीस अक्षरों का अन्नपूणाग मन्त्त्र बनता हैं - इस मन्त्त्र के ३, २, ४, ९, ४ एवं
२ अक्षरों से षडङ्गन्त्यास करना चािहए ॥२५-२७॥

िवमिग - मन्त्त्र का स्वरुप इस प्रकार है - ‘ॎ श्रीं ह्रीं नमो भगवित प्रसन्नपाररजातेश्वरर अन्नपूणे स्वाहा’ ।
षडङ्गन्त्यास - ॎ श्रीं ह्रीं हृदयाय नमेः, ॎ नमेः ििरसे स्वाहा,
ॎ भगवित ििखायै वषट् , ॎ प्रसन्नपाररजातेश्वरर कवचाय हुम्,
ॎ अन्नपूणे नेत्रत्रयाय वौषट् , ॎ स्वाहा अस्त्राय िट्

अन्त्य मन्त्त्र - तार (ॎ) श्री (श्रीं) ििक्त (ह्रीं), हृदय (नमेः), फिर ‘भग’, फिर अम्भ (ब), फिर सदृक् कािमका (ित), फिर
‘महेश्वरर प्रसन्नवरदे’ तदनन्त्तर ‘अन्नपूणे’ इसके अन्त्त में अििपत्नी (स्वाहा) लगाने से पििस अक्षरों का अन्नपूणाग मन्त्त्र िनष्पन्न
होता है ॥२७-२८॥

मन्त्त्र के राग षट्युग षड् वेद, नेत्र ३, ६, ४, ६, ४, एवं २ अक्षरों से षडङ्गन्त्यास करना चािहए । उपयुगक्त चार मन्त्त्रों का
िविनयोग और ध्यान आफद समस्त कृ त्य पूवगवत् हैं ॥२९॥

िवमिग - मन्त्त्र का स्वरुप इस प्रकार है - ‘ॎ श्री ह्रीं नमो भगवित माहेश्वरर प्रसन्नवरदे अन्नपूणे स्वाहा’ ।
षडङ्गन्त्यास - ॎ ॎ श्रीं ह्रीं हृदयाय नमेः, ॎ नमो भगवित ििरसे स्वाहा
ॎ महेश्वरर ििखायै वषट् , ॎ प्रसन्न वरदे कवचाय हुम्
ॎ अन्नपूणे नेत्रत्रयाय वौषट् , ॎ स्वाहा अस्त्राय षट् ॥२७-२९॥

अब त्रैलोलयमोहन गौरी मन्त्त्र कहते हैं - माया (ह्रीं), उसके अन्त्त में ‘नमेः’ पद, फिर ‘ब्रह्म श्री रािजते राजपूिजते जय’, फिर
‘िवजये गौरर गान्त्धारर’ फिर ‘ित्रभु’ इसके बाद तोय ((व), मेष (न), फिर ‘विङ्गरर’, फिर ‘सवग’ पद, फिर ससद्यल (लो), फिर
‘क विङकरर’, फिर ‘सवगस्त्रीं पुरुष’ के बाद ‘विङ्गरर’, फिर ‘सु द्वय’ (सु सु), दु द्वय (दु दु), घे युग् (घे घे), वायुग्म (वा वा),
फिर हरवल्लभा (ह्रीं), तथा अन्त्त में ‘स्वाहा’ लगाने से ६१ अक्षरों का यह मन्त्त्रराज कहा गया है ॥३०-३३॥

िवमिग - मन्त्त्र का स्वरुप इस प्रकार है - ‘ ह्रीं नमेः ब्रह्मश्रीरािजते राजपूिजते जयिवजये गौरर गान्त्धारर ित्रभुवनविङ्गरर,
सवगलोकविङ्गरर सवगस्त्रीपुरुषविङ्करर सु सु दु दु घे घे वा वा ह्रीं स्वाहा’ ॥३०-३३॥

अब इसका िविनयोग कहते हैं - इस मन्त्त्र के अज ऋिष हैं, िनच्द गायत्री छन्त्द है, त्रैलोलयमोिहनी गौरी देवता है, माया बीज
ऐ एवं स्वाह ििक्त है ।षड् दीघगयुक्त मायाबीज से युक्त इस मन्त्त्र के १४, १०,८, ८,१० एवं ११ अक्षरों से षडङ्गन्त्यास करना
चािहए । फिर मूलमन्त्त्र से व्यापक कर त्रैलोलयमोिहनी का ध्यान करना चािहए ॥३३-३५॥
िवमिग - िविनयोग - ‘अस्य श्रीत्रैलोलयमोहनगौरीमन्त्त्रस्य अजऋिषर्णनचृदगायत्री
् छन्त्देः त्रैलोलयमोिहनीगौरीदेवता ह्रीं बीजं
स्वाहा ििक्त ममाऽभीष्टिसियथग जप िविनयोगेः ।

षडङ्गन्त्यास - ह्रां ह्रीं नमो ब्रह्यश्रीरािजते राजपूिजते हृदयाय नमेः, ह्रीं जयिवजये गौरीगान्त्धारर ििरसे स्वहा, हूँ
ित्रभुवनिङ्गरर ििखायै वषट् , ह्रैं सवगलोक विङ्गरर कवचाय हुं, ह्रौं सवगस्त्रीपुरुष नेत्रत्रयाय विङ्गरर वौषट् , सुसु दुद ु घेघे
वावा ह्रीं स्वाहा, ह्रीं नमोेः ब्रह्मश्रीरािजते राजपूिजते जयिवजये गौररगान्त्धारर ित्रभुवनविङ्गरर सवगलोकविङ्गरर सवगस्त्री
पुरुष विङ्गरर सुसु दुद ु घेघे वावा ह्रीं स्वाहा, सवागङ्गे ॥३३-३५॥

अब उक्त मन्त्त्र का ध्यान कहते हैं देव समूहों से अर्णचत पाद कमलों वाली, अरुण वणाग, मस्तक पर चन्त्र कला धारण फकये हुये,
लाल चन्त्दन , लाल वस्त्र एवं लाल पुष्पों से अलंकृत अपने दोनों हाथों में अंकुिं एवं पाि िलए हुये ििवा (गौरी) हमारा
कल्याण करें ॥३६॥

उक्त मन्त्त्र का दि हजार जप करे , तदनन्त्तर घृत िमिश्रत पायस (खीर) से उसका दिांि होम करे , अन्त्त में पूवोक्ती पीठ पर
श्रीिगररजा का पूजन करे ॥३७॥

अब आवरण पूजा कहते हैं - के िरों पर षडङ्गपूजा कर अष्टदलों में ब्राह्यी आफद मातृकाओं की, भूपुर में लोकपालों की तथा
बाहर उनके आयुधों की पूजा करनी चािहए ॥३८॥

िवमिग - पीठ देवताओं एवं पीठििक्तयों का पूजन कर पीठ पर मूलमन्त्त्र से देवी की मूर्णत की कल्पना कर आवाहनाफद उपचारों
से पुष्पाञ्जिल समर्णपत कर उनकी आज्ञा से इस प्रकार आवरण पूजा करे ।

सवगप्रथम के िरों में षडङ्गमन्त्त्रों से षडङ्गपूजा करनी चािहए । यथा -


ह्रीं ह्रीं नमो ब्रह्मश्रीरािजते राजपूिजते हृदयाय नमेः,
ह्रीं जयिवजये गौरर गान्त्धारर ििरसे स्वाहा,
ह्रूूँ ित्रभुवनविङ्गरर ििखायै वषट् ,
ह्रैं सवगलोकविङ्गरर कवचाय हुम्,
ह्रौं सवगस्त्रीपुरुषविङ्गरर नेत्रत्रयाय वौषट् ,
ह्रेः सुसु दुद ु घेघे वावा ह्रीं स्वाहा अस्त्राय िट् ,

फिर अष्टदल में पूवागफद फदिाओं के िम से ब्राह्यी आफद का पूजन करनी चािहए ।
१. ॎ ब्राह्ययै नमेः, पूवगदले २. ॎ माहेश्वयै नमेः, आिेये
३. ॎ कौमायै नमेः, दिक्षणे ४. ॎ वैष्णव्यै नमेः, नैऋत्ये
५. ॎ वाराह्यै नमेः, पिश्चमे ६. ॎ इन्त्राण्यै नमेः, वायव्ये
७. ॎ चामुण्डायै नमेः, उत्तरे ८. ॎ महालक्ष्म्यै नमेः, ऐिान्त्ये

तत्पश्चात् भूपुर के भीतर अपनी अपनी फदिाओं में इन्त्राफद दि फदलपालों की पूजा करनी चािहए । इन्त्राय नमेः, पूवे, अिये
नमेः, आिेय,े यमाय नमेः, दिक्षणे नैऋत्याय नमेः, नैऋत्ये वरुणाय नमेः, पिश्चमे, वायवे नमेः, वायव्ये, सोमाय नमेः, उत्तरे ,
ईिानाय नमेः, पिश्चमनैऋत्योमगध्ये ।

पुनेः भूपुर के बाहर वज्राफद आयुधों की पूजा करनी चािहए ।


वज्राय नमेः, पूवे, िक्तये नमेः, आिेय,े दण्डाय नमेः दिक्षणे,
खडगाय नमेः, नैऋत्ये, पािाय नमेः, पिश्चमे, अंकुिाय नमेः, वायव्ये,
गदायै नमेः, उत्तरे ित्रिूलाय नमेः, ऐिान्त्ये, पद्माय नमेः, पूवेिानयगमगध्ये,
चिाय नमेः, पिश्चमनैऋत्ययोमगध्ये ॥३८॥

अब काम्य प्रयोग कहते हैं -


इस प्रकार आराधना करने से देवी सुख एवं संपित्त प्रदान करती हैं ितल िमिश्रत तण्डु ल (चावल), सुन्त्दर िल, ित्रमधु (घी,
मधु, दूध) से िमिश्रत लवण और मनोहर लालवणग के कमलों से जो व्यिक्त तीन फदन तक हवन करता है, उस व्यिक्त के
ब्राह्यणाफद सभी वणग एक महीने के भीतर वि में जो जाते हैं ॥३९-४०॥

सूयगमण्डल में िवराजमान देवी के उक्त स्वरुप का ध्यान करते हुये जो व्यिक्त जप करता है अथवा १०८ आहुितयाूँ प्रदान करता
है वह व्यिक्त सारे जगत् को अपने वि में कर लेता है ॥४१॥

अब गौरी का अन्त्य मन्त्त्र कहते हैं - हंस (स्), अनल (र), ऐकारस्थ ििांकयुत् (ऐं) उससे युक्त नभ (ह) इस प्रकार हस्त्रैं, फिर
वायु (य्), अिि (र), एवं कणेन्त्द ु (ऊ) सिहत तोय (व्) अथागत् ‘व्यरुूँ ’ , फिर ‘राजमुिख’, ‘राजािधमुिखवश्य’ के बाद ‘मुिख’ ,
फिर माया (ह्रीं), रमा (श्रीं), आत्मभूत (ललीं), फिर ‘देिव देिव महादेिव देवाधैदिे व सवगजनस्य मुखं’ के बाद मम विं’ फिर दो
बार ‘कु रु कु रु’ और इसके अन्त्त में विहनिप्रया (स्वाहा) लगाने से अङातािलस अक्षरों का मन्त्त्र िनष्पन्न होता है ॥४२-४३॥

िवमिग - मन्त्त्र का स्वरुप इस प्रकार है - ‘ह्स्त्रैं व्य्रुूँ राजमुिख राजािध मुिख वश्यमुिख ह्रीं श्रीं ललीं देिव महादेिव देवािधदेिव
सवगजनस्य मुखं मम विं कु रु कु रु स्वाहा’ ॥४२-४३॥

इस मन्त्त्र के ऋिष छन्त्द देवत आफद पूवग में कह आये हैं मन्त्त्र के ग्यारह वणो से हृदय सात वणो से ििर चार वणो से ििखा
चार वणो से कवच पाूँच वणो से नेत्र तथा सत्रह वणो से अस्त्र न्त्यास करना चािहए । पूवगवत् जप ध्यान एवं पूजा भी करनी
चािहए । षड् दीघगयुत माया बीज प्रारम्भ में लगाकर षडङ्गन्त्यास के मन्त्त्रों की कल्पना कर लेनी चािहए । इस प्रकार मन्त्त्र
िसि हो जाने पर साधक काम्य प्रयोग का अिधकारी होता है ॥४४-४७॥

िवमिग - िविनयो - ‘अस्य श्रीगौरीमन्त्त्रस्य अजऋिषर्णनचृदगायत्रीछन्त्


् देः गौरीदेवता, ह्रीं बीजं स्वाहा ििक्तेः
ममािखलकामनािसियथे जपे िविनयोगेः’ ।

षडङ्गन्त्यास - ह्रां ह्स्त्रैं व्य्रुूँ राजमुिख राजािधमुिख हृदयाय नमेः,


ह्रीं वश्यमुिख ह्रीं श्रीं ललीं ििरसे स्वाहा,
ह्रूूँ देिव देिव ििखायै वषट् , ह्रै महादेिव कवचाय हुम्,
ह्रौं देवािधदेिव नेत्रत्रयाय वौषट् , ह्रेः सवगजनस्य मुखं मम विं कु रु कु रु स्वाहा अस्त्राय िट् ।

पूजािविध - पहले श्लोक ९ - ३६ में वर्णणत देवीए के स्वरुप का ध्यान करे । अघ्नयग स्थापन, पीठििक्तपूजन, देवी पूजन तथा
आवरण देवताओं के पूजन का प्रकार पूवोक्त है ॥४५-४७॥
अब विीकरण के कु छ मन्त्त्र कहते हैं -
विीकरण मन्त्त्र के पूजन जप होम एवं तपगण में मूल मन्त्त्र के ‘सवगजनस्य’ पद के स्थान पर िजसे अपने वि में करना हो उस
साध्य के षष्ठन्त्त रुप को लगाना चािहए । सात फदन तक सहस्र-सहस्र की संख्या में संपातपूवगक (हुताविेष स्रुवाविस्थत घी का
प्रोक्षणी में स्थापन) घी से होमकर उस संपात (संस्रव) घृत को साध्य व्यिक्त को िपलाने से वह वि में हो जाता है ॥४५-४९॥

साध्य व्यिक्त के जन्त्म नक्षत्र सम्बन्त्धी लकडी लेकर उसी से साध्य की प्रितमा िनमागण करावे, फिर उसमें प्राणप्रितष्ठा कर उस
प्रितमा को आूँगन में गाड देवे ॥५०॥

पुनेः उसके ऊपर अििस्थापन कर मध्य राित्र में सात फदन तक रक्तचन्त्दन िमिश्रत जपा कु सुम के िू लों से प्रितफदन इस मन्त्त्र से
एक हजार आहुितयाूँ प्रदार करे । इसके बाद उस प्रितमा को उखाड कर फकसी नदी के फकनारे गाड देनी चािहए, ऐसा करने से
साध्य िनिश्चत रुप से वि में हो कर दासवत् हो जाता है ॥५०-५२॥

िवमिग - जन्त्म नक्षत्रों के वृक्षों की तािलका-

नक्षत्र वृक्ष
१ - अिश्वनी कारस्कर
२ - भरणी धात्री
३ - कृ ित्तका उदुम्बर
४ - रोिहणी जम्बू
५ - मृगििरा खफदर
६ - आराग कृ ष्ण
७ - पुनवगसु वंि
८ - पुष्य िपप्पल
९ - आश्लेषा नाग
१० - मघा रोिहणी
११ - पू.िा. पलाि
१२ - उ.िा. प्लक्ष
१३ - हस्त अम्बष्ठ
१४ - िचत्रा िवल्व
१५ - स्वाती अजुगन
१६ - िविाखा िवकं कत
१७ - अनुराधा वकु ल
१८ - ज्येष्ठा सरल
१९ - मूल सजग
२० - पू.षा. वछजुल
२१ - उ.षा. पनस
२२ - श्रवण अकग
२३ - धिनष्ठा िमी
२४ - ितिभषा कदम्ब
२५ - पू.भा. िनम्ब
२६ - उ.भा. आम्र
२७ - रे वती मधूक

अब ज्येष्ठा लक्ष्मी का मन्त्त्रोिार कहते हैं -


वाग्बीज (ऐं), भुवनेिी (ह्रीं), श्रीं (श्रीं), अनन्त्त (आ), फिर ‘द्यलिक्ष्म’, फिर ‘स्वयंभुवे’, फिर िम्भुजाया (ह्रीं), तदनन्त्तर
‘ज्येष्ठायै’ अन्त्त में हृदय (नमेः) लगाने से सत्रह अक्षरों का धन को वृिि करने वाला मन्त्त्र बनता है ॥५३-५४॥

िवमिग - मन्त्त्र का स्वरुप इस प्रकार है - ‘ऐं ह्रीं श्रीं आद्यलिक्ष्म स्वयंभुवे ह्रीं ज्येष्ठायै नमेः’ ॥५३-५४॥

अब िविनयोग कहते हैं - इस मन्त्त्र के ब्रह्या ऋिष हैं, अिष्ट छन्त्द है, ज्येष्ठा लक्ष्मी देवता हैं, श्री बीज है तथा माया ििक्त है ।
मूल मन्त्त्र से हस्त् प्रक्षालन कर बाद में अङ्गन्त्यास करना चािहए ॥५४-५५॥

िवमिग - िविनयोग का स्वरुप इस प्रकार है -


‘अस्य श्रीज्येष्ठालक्ष्मीमन्त्त्रस्य ब्रह्याऋिषिष्टच्छन्त्देः ज्येष्ठालक्ष्मीदेवता ममाभीष्ट-िसियथे जपे िविनयोगेः’ ॥५४-५५॥

मन्त्त्र के ३, ४, ४, १, ३, एवं २ वणो से षडङ्गन्त्यास करना चािहए तथा १, १, १, ४, ४, १, ३, एवं दो वणो से ििर
भूमध्य, मुख, हृदय, नािभ मूलाधार जानु एवं पैरों का न्त्यास करना चािहए ॥५६-५७॥

िवमिग - षडङ्गन्त्यास - ऐं ह्रीं श्रीं हृदयाय नमेः, आद्यलक्ष्मी ििरसे स्वाहा,


स्वयंभुवे ििखायै वषट् ह्रीं कवचाय हुम् ज्येष्ठायै वौषट् ,
नमेः अस्त्राय िट् ।

सवागङगन्त्यास यथा - ऐं नमेः ििरिस ह्रीं नमेः भ्रूमध्ये,


श्रीं नमेः मुखे, आद्यलिक्ष्म नमेः हृफद स्वयंभुवे नमेः नाभौ
ह्रीं नमेः मूलाधारे , ज्येष्ठायै नमेः जान्त्वो, नमोेः नमेः पादयोेः ॥५६-५७॥

अब ज्येष्ठा लक्ष्मी का ध्यान कहते हैं - उदीयमान सूयग के समान लाल आभावाली, प्रहिसतमुखीम, रक्त वस्त्र एवं रक्त वणग के
अङ्गरोगीं से िवभूिषत, हाथों में कु म्भ धनपात्र, अंकुिं एवं पाि को धारण फकये हुये, कमल पर िवराजमान, कमलनेत्रा, पीन
स्तनों वाली, सौन्त्दयग के सागर के समान, अवणगनीय सुन्त्दराअ से युक्त, अपने उपासकों के समस्त अिभलाषाओम को पूणग करने
वाली श्री ज्येष्ठा लक्ष्मी का ध्यान करना चािहए ॥५८॥

उक्त मन्त्त्र का एक लाख जप करे तथा घी िमिश्रत खीर से उसका दिांि होम करे फिर वक्ष्यमाण पीठ पर महागौरी का पूजन
करना चािहए ॥५९॥

१. लोिहताक्षी, २. िवरुपा, ३. कराली, ४. नीललोिहता, ५. समदा, ६. वारुणी, ७. पुिष्ट, ८. अमोघा, एवं ९. िवश्वमोिहनी -
ये ज्येष्ठपीठ की नवििक्तयाूँ कही गयी हैं । इनका पूजन आठ फदिाओं में तथा मध्य में करना चािहए । तदनन्त्तर वक्ष्यमाण
गायत्री मत्र से को आसन देना चािहए ॥६०-६१॥

प्रणव (ॎ) फिर ‘रक्तज्येष्ठायै िवद्महे’ तदनन्त्तर ‘नीलज्येष्ठा’ पद के पश्चात् ‘यै धीमिह’ उसके बाद ‘तन्नो लक्ष्मी’ पद, फिर
‘प्रचोदयात," - यह ज्येष्ठा का गायत्री मन्त्त्र कहा गया है ॥६२-६३॥

के िरों में अङ्गपूजाम, अष्टपत्रों पर मातृकाओं की, फिर उसके बाहर लोकपालों एवं उनके अस्त्रों की पूजा करनी चािहए । इस
प्रकार जप आफद से िसि मन्त्त्र मनोवािछछत िल देता है (र० ९.३८) ॥६३-६४॥

िवमिग - पीठ पूजा िविध - साधक ९ -५८ में वर्णणत ज्येष्ठा लक्ष्मी के स्वरुप का ध्यान करे , फिर मानसोपचार से पूजन कर
प्रदिक्षण िम से पीठ की ििक्तयों का पूवागफद आठ फदिाओं में एवं मध्य में इस प्रकार पूजन करे ।
ॎ लोिहताक्ष्यै नमेः पूवे, ॎ फदव्यायै नमेः आिेय,े
ॎ कराल्यै नमेः दिक्षणे, ॎ नीललोिहतायै नमेः नैऋत्ये,
ॎ समदायै नमेः पिश्चमे, ॎ वारुण्यै नमेः वायव्ये,
ॎ पुष्ट्डै नमेः उत्तरे , ॎ अमोघायै नमेः ऐिान्त्ये,
ॎ िवश्वमोिहन्त्यै नमेः मध्ये

तदनन्त्तर ‘ॎ रक्तज्येष्ठायै िवद्महे नीलज्येष्ठायै धीमिह । तन्नो लक्ष्मी प्रचोदयात् ’ इस गायत्री मन्त्त्र से उक्त पूिजत पीठ पर
देवी को आसन देवे । फिर यथोपचार देवी का पूजन कर पुष्पाञ्जिल प्रदान कर उनकीं अनुज्ञा ले आवरण पूजा करें । सवग प्रथम
के िरों में षडङ्गपूजा -

ॎ ऐं ह्रीं श्री हृदयाय नमेः, आद्यलिक्ष्म ििरसे स्वाहा, स्वयंभुवे ििखायै वषट् , ह्रीं कवचाय हुम् ज्येष्ठायै नेत्रत्रयाय वौषट् ,
स्वाहा अस्त्राय िट् । तदनन्त्तर अष्टदल में ब्राह्यी आफद देवताओं की, भूपुर के भीतर इन्त्राफद दि फदलपालों की तथा बाहर
उनके वज्राफद आयुधों की पूवगवत् पूजा करनी चािहए (र. ९. ३८) । आवरण पूजा के पश्चात् देवी का धूप दीपाफद से उपचारों
से पूजन कर जप प्रारम्भ करे ।
इस प्रकार पूजन सिहत पुरश्चरण करने से मन्त्त्र िसि होता है और साधक को अिभमन्त्त िल प्रदान करता है ॥६३-६४॥
अब अन्नपूणाग के अन्त्य मन्त्त्र को कहता हूँ - अन्नपूणाग के आवरण पूजा में भूिम एवं श्री के पूजनाथग बाइस अक्षरों का मन्त्त्र हम
पहले कह चुके हैं (र. ९. १६-१७) ॥६५॥

उसी को तार (ॎ), भू (ग्लौं) , एवं श्री (श्रीं) से संपुरटत कर जप करना चािहए । इस अन्नदायक मन्त्त्र की साधना का प्रकर
कहते हैं । इस मन्त्त्र के ब्रह्या ऋिष हैं, िनचृद ् गायत्री छन्त्द हैं, श्री एवं वसुधा इसके देवता हैं, ग्लौं इसका बीज है तथा श्रीं ििक्त
है ॥६६-६७॥

िवमिग - मन्त्त्र का स्वरुप इस प्रकार हैं - ‘ॎ ग्लौं श्रीं अन्नं मह्यन्नं मे देह्यन्नािधपतये ममान्नं प्रदापय स्वाहा श्रीं ग्लौं ॎ ।’

िविनयोग - ‘ॎ अस्य श्रीज्येष्ठालक्ष्मीमन्त्त्रस्य ब्रह्याऋिषर्णनचृदगायत्रीछन्त्


् देः वसुधािश्रयौ देवते ग्लौं बीजं श्रीं ििक्तेः
मनोकामनािसियथे जपे िविनयोगेः ’ ॥६६-६७॥

अब न्त्यास िविध कहते हैं - ‘अन्नं मिह’ से हृदय, ‘अन्नं मे देिह’ से ििर, ‘अन्नािधपतये’ से ििखा, ‘ममान्नं प्रदापय’ से कवच तथा
‘स्वाहा’ से अस्त्र का न्त्यास करना चािहए । इन मन्त्त्रों के प्रारम्भ में रुव (ॎ) तथा अन्त्त में षड् दीघग सिहत भूिमबीज एवं श्री
बीज लगाना चािहए । यह न्त्यास नेत्र को छोडकर मात्र पाूँच अङ्गों में फकया जाता है । न्त्यास के बाद क्षीरसागर में स्वणगद्वीप
में वसुधा एवं श्री का ध्यान वक्ष्यमाण (९.७०) श्लोक के अनुसार करे ॥६८-६९॥

िवमिग - पञ्चाङ्गन्त्यास िविध - ‘पञ्चा‍गािन मनोयगत्र तत्र नेत्रमनुं त्यजेत् जहाूँ पञ्चाङ्गन्त्यास कहा गया हो वहाूँ नेत्रन्त्यास न
करे । इस िनयम के अनुसार नेत्र को छोडकर इस प्रकार पञ्चाङ्गन्त्यास करना चािहए ।
ॎ अन्नं मिह ग्लां श्रीं हृदयाय नमेः, ॎ अन्नं मे देिह ग्लीं ििरसे स्वाहा,
ॎ अन्नािधपतये ग्लूं श्रीं ििखायै वषट् , ॎ ममान्नं प्रदापय ग्लैं श्रीं कवचाय हुं,
ॎ स्वाहा ग्लौं ग्लेः श्रीं अस्त्राय िट् ॥६८-६९॥

अब भूिम एवं श्री ध्यान कहते हैं -


कल्परुम के नीचे मिणवेफदकापर ज्येष्ठा लक्ष्मी के बायें एवं दािहने भाग में िवराजमान वस्त्र एवं आभूषणों से अलंकृत तथा
देवता एवं मुिनगणों से विन्त्दत भूिम का एवं श्री का ध्यान करना चािहए ॥७०॥

उक्त मन्त्त्र का एक लाख जप करना चािहए तथा घी िमिश्रत अन्न से उसका दिांि होम करना चािहए । तदनन्त्तर वैष्णव पीठ
पर वसुधा एवं श्री का पूजन करना चािहए ॥७१॥

१. िवमला, २. उत्कर्णषणी, ३. ज्ञाना, ४. फिया, ५. योगा, ६. प्रहवी, ७. सत्या, ८. ईिाना एवं ९. अनुग्रहा ये नव
पीठििक्तयाूँ हैं ॥७२॥

तार (ॎ), फिर ‘नमो भगवते िवष्णवे सवग’ के बाद ‘भूतात्मसंयोग’ पद, फिर ‘योगपदम’ पद, तदनन्त्तर ‘पीठात्मने नमेः’ यह
पीठ पूजा का मन्त्त्र कहा गया है । इस मन्त्त से आसन देकर मूल मन्त्त्र से आवाहनाफद पूजन करना चािहए ॥७३-७४॥

िवमिग - पीठ पर आसन देने के मन्त्त्र का स्वरुप इस प्रकार है - ‘ॎ नमो भगवते िवष्णवे सवगभूतात्मसंयोगयोगपद्पीठात्मने
नमेः’ ।

पीठ पूजा करने के बाद उसके के िरों में पूवागफद आठ फदिाओं के प्रदिक्षण िम से आठ पीठ्ग ििक्तयोम की तथा मध्य में नवम
अनुग्रह ििक्त की इस प्रकार पूजा करे ।
१ - ॎ िवमलायै नमेः पूवे
२ - ॎ उत्कर्णषण्यै नमेः आिेये
३ - ॎ ज्ञानायै नमेः दिक्षणे
४ - ॎ फियायै नमेः नैऋत्ये
५ - ॎ योगायै नमेः पिश्चमे
६ - ॎ प्रहव्यै नमेः वायव्ये
७ - ॎ सत्यायै नमेः उत्तरे
८ - ॎ ईिानायै नमेः ऐिान्त्ये
९ - ॎ अनुग्रहायै नमेः मध्ये

इस प्रकार पीठ के आठों फदिाओं में तथा मध्य में पूजन करने के बाद ॎ नमो भगवते िवष्णवे
सवगभूतात्मसंयोगयोगपद्पीठात्मने नमेः इस मन्त्त्र से भूिम और श्री इन दोनों को उक्त पूिजत पीठ पर आसन देवे । फिर
(९.७०) में वर्णणत उनके स्वरुप का ध्यान कर, मूलमन्त्त्र से आवाहन कर, मूर्णत की कल्पना कर, पाद्य आफद उपचार संपादन
कर, पुष्पाञ्जिल प्रदान कर उनकी अनुज्ञा ले आवरण पूजा प्रारम्भ कर, प्रदिक्षणा िम से प्रथम के िरों में अङ्गपूजा करे ॥७३-
७४॥

प्रथम के िरों में अङ्गपूजा करने के पश्चात् पूवागफद फदिाओं में प्रदिक्षणे िम से भूिम, अिि, जल और वायु की वायु करे ।
तदनन्त्तर चारों कोणों में िनवृित्त, प्रितष्ठा, िवद्या और िािन्त्त की पूजा करे ॥७५॥

फिर १. बलाका, २. िवमला. ३. कमला, ४. वनमाला, ५. िवभीषा, ६. मािलका, ७. िाकं री और ८. वसुमािलका की पूवागफद
फदिाओं में िस्थत अष्टदल में
पूजा करे ।

तदनन्त्तर भूपुर के भीतर आठों फदिाओं में इन्त्राफद दि फदलपालों की और भूपुर के बाहर आठों फदिाओं में उनके वज्राफद
आयुधोम की पूजा करनी चािहए ॥७६-७७॥

िवमिग - आवरण पूजा िविध - सवगप्रथम के िरों में अङ्ग्पूजा यथा -


१ - ॎ अन्नं मिह ग्लां श्रीं हृदाय नमेः
२ - ॎ अन्नं देिह ग्लूं श्रीं ििखायै नमेः
३ - ॎ अन्नं देिह श्रीं ििरसे स्वाहा
४ - ॎ ममान्नं प्रदापय ग्लौ श्रीं कवचाय हुम्
५ - ॎ स्वाहा ग्लौं ग्लेः श्रीं अस्त्राय िट् ।

फिर यन्त्त्र के पूवागफद फदिाओं में भूिम आफद की पूजा यथा -


ॎ लं भूम्यै नमेः पूवे ॎ रं अिेये नमेः दिक्षणे
ॎ वं अद्भ्यो नमेः पिश्चमे ॎ यं वायवे नमेः उत्तरे

तत्पश्चात् आिेयाफद कोणों में िनवृित्त आफद की यथा -


ॎ िनवृत्त्यै नमेः आिेये, ॎ प्रितष्ठायै नमेः नैऋत्ये,
ॎ िवद्यायै नमेः वायव्ये, ॎ िान्त्त्यै नमेः ऐिान्त्ये।

इसके बाद अष्टदलों में पूवागफद फदिाओं के िम से बलाका आफद की पूजा करनी चािहए । यथा -
१ - ॎ बलाकायै नमेः पूवे
२ - ॎ िवमलायै नमेः आिेये
३ - ॎ कमलायै नमेः दिक्षणे
४ - ॎ वनमालायै नमेः नैऋत्ये
५ -ॎ िवभीषायै नमेः पिश्चमे
६ -ॎ मािलकायै नमेः वायव्ये
७ - ॎ िाङ्गयै नमेः उत्तरे
८ - ॎ वसुमािलकायै नम्ह ऐिान्त्ये

इसके बाद भूपुर के भीतर पूवागफद फदिाओं के प्रदिक्षण िम से इन्त्राफद दि फदलपालोम को तथा बाहर उनके वज्राफद आयुधों
की पूजा कर गन्त्ध धूपाफद द्वारा व्य्सुधा और महाश्री की पूजा करे (फिर जप करे ) ॥७६-७७॥

इस प्रकार जो व्यिक्त अपने पररवार के साथ वसुधा एवं महालक्ष्मी का जप पूजनाफद के द्वारा आराधना करता है वह पयागप्त
धनधान्त्य प्राप्त करता है ॥७८॥
श्री की प्रािप्त के िलए साधक घृत िमिश्रत ितलों से िबल्व वृक्ष की सिमधाओं से घी िमिश्रत खीर से तथा िबल्वपत्र एवं बेल के
गुदद् से हवन करे ॥७९॥

अब कु बेर के िवषय में कहते हैं - कु बेर का मन्त्त जपते हुये प्रितफदन कु बेर मन्त्त्र से वटवृक्ष की सिमधाओं में दि आहुितयाूँ
प्रदान करे ॥८०॥

तार (ॎ), फिर ‘वैश्रवणाय’, फिर अन्त्त में अिििप्रया (स्वाहा) लगा देने पर आठ अक्षरों का कु बेर मन्त्त्र बनता हैं । यथा - ‘ॎ
वैश्रवणाय स्वाहा’ ॥८१॥

होम करते समये अिि के मध्य में कु बेर का इस प्रकार ध्यान करे -
अपने दोनों हाथो से धनपूणग स्वणगकुम्भ तथा रत्न करण्डक (पात्र) िलए हुये उसे उडेल रहे है । िजनके हाथ एवं पैर छोटे छोटे
हैं, तुिन्त्दल (मोटा) है जो वटवृक्ष के नीचे रत्नतसहासन पर िवराजमान हैं और प्रसन्नमुख हैं । इस प्रकार ध्यान पूवगक होम करने
से साधक कु बेर से भी अिधक संपित्तिाली हो जाता है ॥८२-८४॥

अब ित्रुओं के द्वारा प्रयुक्त कृ त्या (मारण के िलए फकये गये प्रयोग िविेष) को नष्ट करने वाली प्रत्यिङ्गरा के िवषय में कहता
हूँ ॥८४॥

दीघेन्त्दय
ु ुक् मरुत् (दीघग आ, इन्त्र अनुस्वार उससे युक्त मरुत् य्) ‘यां;, फिर ब्रह्या (क) लोिहत संिस्थत मांस (ल्प),फिर ‘यिन्त्त,
नोऽरयेः’ यह पद, इसके बाद ‘िू रां कृ त्यां’ उिारण करना चािहए । फिर ‘वधूिमव’ यह पद, फिर ‘तां ब्रह्य’ उसके बाद सदीघग
ण (णा), फिर ‘अपिनणुगदम् के पश्चात ‘प्रत्यक् कत्तागरमृच्छतु’ इस मन्त्त्र को तार (ॎ) माया (ह्रीं) से संपुरटत करने पर सैंतीस
अक्षरों का प्रत्यिङ्गरा मन्त्त्र िनष्पन्न होता है ॥८५-८७॥

िवमिग - मन्त्त्र का स्वरुप इस प्रकार है -


‘ॎ ह्रीं यां कल्पयिन्त्त नोरयेः िू रां कृ त्यां वधूिमव तां ब्रह्यणा अपिनणुगदम् प्रत्यक्कत्तागरमृच्छतु ह्रीं ॎ’ ॥८५-८७॥

इस मन्त्त्र के ब्रह्या ऋिष हैं, अनुष्टुप् छन्त्द है, देवी प्रत्यिङ्गरा इसके देवता हैं,प्रणव बीज हैं, माया (ह्रीं) ििक्त है, पर कृ त्या
(ित्रु द्वारा प्रयुक्त मारण रुप िविेष अिभचार) के िवनाि के िलए इसका िविनयोग है ॥८७-८८॥

िवमिग - िविनयोग - ‘अस्य श्रीप्रत्यिङ्गरामन्त्त्रस्य ब्रह्याऋिषरनुष्टुपछन्त्देः देवी प्रत्यिङ्गरा देवता ॎ बीजं ह्री ििक्तेः परकृ त्या
िनवारणे िविनयोगेः ’ ॥८७-८८॥

अब उक्त मन्त्त्र का न्त्यास कहते हैं -


मन्त्त्र के ८, तोयिनिध, ४, युग, ४,वेद ४ फिर ५ फिर वसु (८) अक्षरों से प्रारम्भ में प्रणव एवं अन्त्त में ६ दीघगयुक्त पावगती
(माया ह्रीं) लगाकर जाित (हृदयाय नमेः) आफद षडङ्गन्त्यास करन चािहए ॥८८-८९॥

अब मन्त्त्र का पदन्त्यास कहते हैं -


साधक तार (ॎ)तथा माया से संपुरटत मन्त्त्र के चौदह पदों का ििर, भ्रूमध्य, मुख, कण्ठ, दोनों बाहु, हृदय, नािभ, दोनो ऊरु,
दोनों जानु तथा दोनों पैरों में इस प्रकार कु ल चौदह स्थानों में िमपूवगक उक्त न्त्यास करे ॥८९-९०॥
िवमिग - षडङ्गन्त्यास इस प्रकार करे । यथा -
ॎ यां कल्पयािन्त्त नोरयेः ह्रां हृदयाय नमेः, ॎ िू रां कृ त्यां ह्रीं ििरसे स्वाहा,
ॎ वधूिमव ह्रों ििखायै वषट् , ॎ तां ब्रह्मणां ह्रैं कवचाय हुम्
ॎ अपिनणुगदम्ेः ह्रौं नेत्रत्रयाय वौषट् ॎ प्रत्यक्कत्तागरमृच्छतु ह्रेः अस्त्राय िट् ।

मन्त्त्र का पदन्त्यास इस प्रकार करे -


ॎ ह्रीं यां ह्रीं ििरिस, ॎ ह्रीं कल्पयिन्त्त ह्रीं भूमध्ये,
ॎ ह्रीं नो ह्रीं मुखे, ॎ ह्रीं अरयेः ह्रीं कण्ठे ,
ॎ ह्रीं िू रां दिक्षण वाहौ, ॎ ह्रीं कृ त्यां ह्रीं वामबाहौ,
ॎ ह्रीं वधूम् ह्रीं हृफद, ॎ ह्रीं एवं ह्रीं नाभौ,
ॎ ह्रीं तां ह्रीं दिक्षण उरौ, ॎ ह्रीं ब्रह्मणा ह्रीं वाम उरौ,
ॎ ह्रीं अपिनणुगदमेः ह्रीं दिक्षणजानौ, ॎ ह्रीं प्रत्यक् ह्रीं वामजानौ,
ॎ ह्रीं कत्तागरम् ह्रीं दिक्षणपादे ॎ ह्रीं ऋच्छतु ह्रीं वामपादे ॥८८-९०॥

अब महेश्वरी का ध्यान कहते हैं - िजस फदगम्बरा देवी के के ि िछतराये हैं, ऐसी मेघ के समान श्याम वणग वाली, हाथोम में
ख‍ग चौर चमग धारण फकये, गले में सपो की माला धारण फकये, भयानक दाूँतो से अत्यन्त्त उग्रमुख वाली, ित्रु समूहों को
कविलत करने वाली, िंकर के तेज से प्रदीप्त, प्रत्यिङ्गरा का ध्यान करना चािहए ॥९१॥

इस प्रकार मन्त्त्र का ध्यान करते हुये दि हजार मन्त्त्रों का जप करे तथा अपामागग (िचिचहडी) की लकडी, घृत िमिश्रत राजी
(राई) से उनका दिांि होम करे ॥९२॥

अन्नपूणाग पीठ पर अङ्गपूजा लोकपाल एवं उनके आयुधोम की पूजा करनी चािहए । इस प्रकार िसि मर का काम्य प्रयोगों में
१०० बार जप करे । फिर उतनी ही संख्या में होम भी करे । तदनन्त्तर वक्ष्यमाण दि मन्त्त्रों से दिो फदिाओं में बिल देवे
।९३-९४॥

िवमिग - प्रयोगिविध - (९.९) श्लोक में बतलाई गई िविध से पीठ देवता एवं पीठििक्तयों की पूजा कर पीठ पर देवी पूजा करे ।
फिर उनकी अनुज्ञा लेकर इस प्रकार आवरण पूजा करे । कर्णणका में षडङ्गपूजा (र० ९. ९०९) फिर अन्नपूणाग के षष्ठ एवं
सप्तम आवरण में बतलाई गई िविध से इन्त्राफद लोकपालों एवं उनके , आयुधों की पूजा करे । (र० ९. २१) ॥९३-९४॥

पूवग फदिा में ‘यो मे पूवगगतेः पाप्पा पापके नेह कमगणा इन्त्रस्तं देव’ इतना कहकर ‘राजो’ फिर ‘ अन्त्त्रयतु’ फिर ‘अञ्जयुत’ कह कर
‘मोहयतु’ ऐसा कहें, फिर ‘नाियतु’ ‘मारयतु’ ‘बतल तस्मै प्रयच्छतु’ इसके बाद ‘कृ तं मम’, ‘ििवं मम’ फिर ‘िािन्त्तेः स्वस्त्ययनं
चास्तु’ कहने से बिल मन्त्त्र बन जाता है ॥ आफद में प्रणव लगाकर अडगठ अक्षरों से बिल प्रदान करना चािहए ॥९४-९७॥

तत्पश्चात् बिल देने के समय इस मन्त्त्र में पूवग के स्थान में आिेये आफद फदिाओं का नाम बदलते रहना चािहए, और इन्त्र के
स्थान में अिि इत्याफद फदलपालों के नाम भी बदलते रहना चािहए । इस प्रकार करने से ित्रु द्वारा की गई ‘कृ त्या’ िीघ्र नष्ट हो
जाती है ॥९८-९९॥

िवमिग - बिल मन्त्त्र का स्वरुप इस प्रकार है -‘ॎ यो मे पूवगगतेः पाप्पापाके नेह कमगणा इन्त्रस्तं देवराजो भञ्जयतु, अञ्जयतु,
मोहयतु, नाियतु मारयतु बतल तस्मै प्रयच्छतु कृ तं मम ििवं मम िािन्त्तेः स्वस्त्ययनं चास्तु’ यह अदसठ अक्षर का बिलदान
मन्त्त्र है ।
दिो फदिाओं में बिलदान का प्रकार -
यो में पूवगगतेः पाप्मा पापके नेह कमगणा इन्त्रस्तं देवराजो भञ्जस्तु इत्याफद
यो में आिेयगतेः पाप्मा पापके नेह कमगणा अििस्तं तेजोराजो भञ्जयतु इत्याफद
यो में दिक्षणगतेः पाप्मा पापके नेह कमगणा यमस्तं प्रेतराजों भञ्जयतु इत्याफद
यो में में नैऋत्यगतेः पाप्मा पापके नेह कमगणा िनऋितस्तं रक्षराजो भञ्जयतु इत्याफद
यो में पिश्चमगतेः पाप्मा पापके नेह कमगणा वरुणस्तं जलराजो भञ्जयतु इत्याफद
यो में वायव्यगतेः पाप्मा पापके नेह कमगणा वायुस्तं प्राणराजो भञ्जयतु इत्याफद
यो में उत्तरगतेः पाप्मा पापके नेह कमगणा सोमस्तं नक्षत्रराजो भञयतु इत्याफद
यो में ईिानगतेः पाप्मा पापके नेह कमगणा ईिानस्तं गणराजो भञ्जतु इत्याफद
यो में ऊध्वगगतेः पाप्मा पापके नेह कमगणा ब्रह्या तं प्रजाराजो भञ्जतु इत्याफद
यो में अधोगतेः पाप्मा पापके नेह कमगणा अनन्त्तस्त्म नागराजो भञ्जयतु इत्याफद ॥९८-९९॥

अब प्रत्यिङ्गरामाला मन्त्त्र का उिार बतलाते हैं -


तार (ॎ), माया (ह्रीं), फिर ‘नमेः कृ ष्णवाससे ित वणग’ फिर ‘सहस्त्र तहिसिन’ पद, फिर ‘सहस्त्रवदने’ पुनेः ‘महाबले’, फिर
‘अपरािजते’, फिर ‘प्रत्यिङ्गरे ’, फिर ‘परसैन्त्य परकमग’ फिर सदृक् जल (िव), फिर ‘ध्वंिसिन परमन्त्त्रोत्साफदिन सवग’ पद, फिर
उसके अन्त्त में’ ‘भूत’ पद, फिर ‘दमिन’, फिर ‘सवगदव
े ान्’, फिर ‘बन्त्ध युग्म (बन्त्ध बन्त्ध),
फिर ‘सवगिवद्या’, फिर ‘िछिन्त्ध’ युग्म (िछिन्त्ध, िछिन्त्ध), फिर ‘क्षोभय’ युग्म (क्षोभय क्षोभय), फिर ‘ परमन्त्त्रािण’ के बाद
‘स्िोटय’ युग्म् (स्िोटय स्िोटय), फिर ‘सवगश्रृङ्खलां’ के बाद ‘त्रोटय’ युग्म (त्रोटय त्रोटय), फिर ‘ज्वलज्ज्वाला िजहवे
करालवदने प्रत्यिङ्गरे ’ िपर माया (ह्रीं), तथा अन्त्त में ‘नमेः लगाने से १२५ अक्षरों का प्रत्यंिगरा माला मन्त्त्र बनता है ॥१००-
१०५॥

िवमिग - प्रत्यङ्गिगरा माला मन्त्त्र का स्वरुप इस प्रकार है -


‘ॎ ह्रीं नमेः कृ ष्ण वाससे ितसहस्रतहिसिन सहस्रवदने महाबले अपरािजते प्रत्यिङ्गरे परसैन्त्य परकमगिवध्वंिसिन
परमन्त्त्रोत्साफदिन सवगभूतदमिन सवगदव
े ान् बन्त्ध बन्त्ध सवगिवद्यािश्छिन्त्ध िछिन्त्ध िछिन्त्ध क्षोभय क्षोभय परयन्त्त्रािण स्िोटय
स्िोटय सवगश्रृङ्खलास्त्रोटय त्रोटय ज्वलज्ज्वालािजहवे करालवदन प्रत्यिङ्गरे ह्रीं नमेः’ ॥१००-१०५॥

इस मन्त्त्र के ऋिष छन्त्द तथा देवता पूवग में कह आये हैं । इस मन्त्त्र के माया बीज से षडङ्गन्त्यास करना चािहए । तदनन्त्तर
समस्त ित्रुओं को नाि करने वाली प्रत्यिङ्गरा का ध्यान करना चािहए ॥१०६॥

िवमिग - िविनयोग - ‘अस्य श्रीप्रत्यिङ्गरामन्त्त्रस्य ब्रह्याऋिषरनुष्टुपछन्त्देः प्रत्यिङ्गरादेवता ॎ बीजं ह्रीं ििक्तेः


ममाभीष्टिसद्ध्यथे (परकृ त्यिनवारणे वा) जपे िविनयोगेः ।

प्रत्यङ्गन्त्यास - ॎ ह्रां हृदाय नमेः, ॎ ह्रीं ििरसे स्वाहा,


ॎ ह्रूं ििखायै वषट् , ॎ ह्रैं कवचाय हुम्
ॎ ह्रौं नेत्रत्रयाय वौषट् , ॎ ह्रेः अस्त्राय िट् ॥१०६॥

तसहारुढ, अत्यन्त्त कृ ष्णवणाग, ित्रभुवन को भयभीत करने वाले रुपकों को धारण करने वाली, मुख से आग की ज्वाला उगलती
हुई, नवीन दो वस्त्रों को धारण फकये हुये, नीलमिण की आभा के समान कािन्त्त वाली, अपने दोनों हाथों में िूल तथा खड् ग
धारण करने वाली, स्वभक्तोम की रक्षा में अत्यन्त्त सावधान रहने वाली, ऐसी प्रत्यिङ्गरा देवी हमारे ित्रुओं के द्वारा फकये गये
अिभचारों को िवनष्ट करे ॥१०७॥

इस मन्त्त्र का दि हजार जप करना चािहए तथा ितल एवं राई का होम एक हजार की संख्या में िनष्पन्न कर मन्त्त्र िसि करना
चािहए । फिर काम्य प्रयोगों में मात्र १०० की संख्या में जप करना चािहए ॥१०८॥

ग्रह बाधा, भूत बाधा आफद फकसी प्रकार की बाधा होने पर इस मन्त्त्र का जप करते हुए से रोगी को अिभिसिञ्चत करना
चािहए । इसी प्रकार ित्रुद्वारा यन्त्त्र मन्त्त्राफद द्वारा अिभचार भी िविनष्ट करना चािहए ॥१०९॥

अब षोडिाक्षर वाला िित्रिवनािक मन्त्त्र बतलाता हूँ -


प्रणवं (ॎ), सेन्त्द ु के िव (अं), सेन्त्द ु पञ्चवगो के आफद अक्षर (कं चं टं तं पं ), चन्त्रािन्त्वत िवयत् (हं), सद्योजात (ओ), ििांक
(अनुस्वार), उससे युक्त रान्त्त (ल), इस प्रकार (लों), माया (ह्रीं), कणग (उकार), चन्त्र (अनुस्वार), इससे युक्त अित्र (द्) (अथागत्
दु)ं , सगी (िवसगगयुक्त), भृग,ु (स), इस प्रकार (सेः), वमग (हुं) फिर ‘िट् ’ इसके अन्त्त में अन्त्त में ‘स्वाहा’ लगाने से उक्त मन्त्त्र
िनष्पन्न होता है ॥११०-११२॥

िवमिग - मन्त्त्र का स्वरुप इस प्रकार - ‘ॎ अं कं चं टं तं पं हं लों ह्रीं दुं सेः हुं िट् स्वाहा’ ॥११०-१११॥

इस मन्त्त्र के िवधाता ऋिष हैम, अिष्ट छन्त्द हैं १, २, ३, ४, ५, ६, ७, ८, ९, ११ महाअिि, महापवगत, महासमुर, महावायु,
महाधरा तथा महाकाि देवता कहे गये हैं, हुं बीज है, पावगती (ह्रीं) ििक्त है । षड् दीघग सिहत माय बीज से इसके षडङगन्त्यास
का िवधान कहा गया है ॥११२-११३॥

िवमिग - िविनयोग - ‘अस्य िवरोिधिामकमन्त्त्रस्य ब्रह्याऋिषरिष्टच्छगन्त्देः


महापावगताब्ध्याििवायुधराकाि देवताेः हुं बीज्म ह्रीं ििक्तेः ित्रुिमनाथग जपे िविनयोगेः ।

षडङ्गन्त्यास - ॎ हां हृदाय नमेः, ॎ ह्रीं ििरसे स्वाहा,


ॎ ह्रूं ििखायै वषट् , ॎ ह्रैं कवचाय हुम् ,
ॎ ह्रौं नेत्रत्रयाय वौषट् , ॎ हेः अस्त्राय िट् ॥११२-११३॥

अब उन छेः देवताओं का ध्यान कहते हैं -


(१) अनेक रत्नों की प्रभा से आिान्त्त वृक्ष झरनों एवं व्याघ्राफद महाभयानक पिुओं से व्याप्त अनेक ििखर युक्त महापावगत का
ध्यान कराना चािहए ॥११४॥

(२) मछली एवं कछा रुपी बीजों वाला, नव रत्न समिन्त्वत, मेघ के समान कािन्त्तमान् कल्लोलों से व्याप्त महासमुर का स्मरण
करना चािहए ॥११५॥

(३) अपने ज्वाला से तीनों लोकों को आिान्त्त करने वाले अद्भुत एवं पीतवणग वाले महािि का ित्रुनाि के िलए स्मरण करना
चािहए ॥११६॥
(४) पृथ्व्वी की उडाई गई धूलरािि से द्युलोक एवं भूलोक को मिलन एवं उनकी गित को अवरुि करने वाले प्राण रुप से सारे
िवश्व को जीवन दान करने वाले महापवन का स्मरण करना चािहए ॥११७॥
(५) नदी, पवगत, वृक्षाफद, रुप दलों वाली, अनेक प्रकार ग्रामों से व्याप्त समस्त जगत् की आधारभूता महापृथ्व्वी तत्त्व का स्मरण
करना चािहए ॥११८॥

(६) सूयागफद ग्रहों, नक्षत्रों एवं कालचि से समिन्त्वत, तथा सारे प्रािणयों को अवकाि देने वाले िनमगल महाआकाि का ध्यान
करना चािहए ॥११९॥

इस प्रकार उक्त छेः देवताओं का ध्यान कर सोलह हजार की संख्या में उक्त मन्त्त्र का जप करना चािहए । तदनन्त्तर षड् रव्यों से
दिांि होम करना चािहए ॥१२०॥

१. धान, २. चावल. ३. घी, ४. सरसों, ५. जौ एवं ६. ितल - इन षड् रव्यों में प्रत्येक से अपने अपने भाग के अनुसार २६७,
२६७ आहुितयाूँ देकर पूवोक्त पीठ पर इनका पूजन करना चािहए ॥१२१॥

फिर अङ्गपूजा, फदलपाल पूजा एवं वज्राफद आयुधों की पूजा करने पर इस मन्त्त्र की िसिि होती है । ित्रु के उपरवों से उिद्वि
व्यिक्त को ित्रुनाि के िलए इस मन्त्त्र का प्रयोग करना चािहए ॥१२२॥

अकार का ध्यान - पवगत के समान आकृ ित वाले ित्रु संमुख दौडते हुये एवं उस पर झपटते हुये अकार का पूवगफदिा में ध्यान
चािहए ॥१२३॥

समुर के समान आकृ ित वाले अपने तरङ्गों से सारे पृथ्व्वी मण्डल को बहाते हुये भयङ्ग्कर रुप धारी ककार का पिश्चम फदिा
में स्मरण करना चािहए ॥१२४॥

अपने ज्वाला समूहों से आकाि मण्डल को व्याप्त करते हुए सारे जगत् को जलाने वाले प्रलयािि के समान चिार का पृथ्व्वी
रुप में एवं पञ्चम वगग के प्रथमाक्षर पकार का गगन रुप में िजतेिन्त्रय साधक की ध्यान करना चािहए ॥१२५॥

सारे जगत् को प्रकिम्पत करने वाले युगान्त्त कालीन पवन के समान आकृ ित वाले तृतीय वगग का प्रथमाक्षर टकार का उत्तर
फदिा में ध्यान करना चािहए ॥१२६॥

ित्रुवगग को बािधत करने वाले चतुथग वगग के प्रथमाक्षर तकार का पृथ्व्वी रुप में एवं पञ्चम वगग के प्रथमाक्षर पकार का गगन रुप
में िजतेिन्त्रय साधक को ध्यान करना चािहए ॥१२७॥

ित्रु की श्वास प्रणाली को अवरुि कर उसे व्याकु ल करते हुये आगे के अिग्रम दो वणो (हं लों) का ध्यान करना चािहए ॥१२८॥

फिर श्रेष्ठ साधक को ित्रु के नेत्र, मुख एवं को अवरुि करने वाले माया आफद तीन वणो का (ह्रीं दुं सेः) ध्यान करना चािहए ।
फिर वमग (हुङ्कार) से संक्षोिभत तथा अस्त्र (िट्) से ित्रु को मूलाधार से उठा कर अिि में िे क कर उनके िरीर को जलाते
हुये दो अक्षर हुं िट् का ध्यान करना चािहए ॥१२९-१३०॥

इस प्रकार मन्त्त्र के सब वणो का आफद के ॎ कार तथा अन्त्त में स्वाहा इन तीन वणो को छोडकर (मात्र तेरह वणो का) ध्यान
करने वाला मािलक एक हजार की संख्या में िनरन्त्तर जप करे तो तीन मण्डलों (उन्त्चास फदन) के भीतर ही वह अपने ित्रु को
मार सकता हैं ॥१३१॥
िजसे ित्रुमारण कमग करना हो उस साधक को प्राणायाम तथा इष्टदेवता के मन्त्त्र के जप से िनत्य आत्मिुिि कर लेनी चािहए
तथा अपनी रक्षा के िलए भगवान् िवष्णु का स्मरण करते रहना चािहए ॥१३२॥

दिम तरङ्ग
अररत्र
अब ित्रुओं के मुख पीठ िजहवा आफद का स्तम्भन करने वाले बगलामुखी का मन्त्त्र बतलाता हूँ ।

प्रणव (ॎ), िािन्त्त (ई) एवं िबन्त्द ु (अनुस्वार) के सिहत गगन (ह), अथागत् (ह्रीं), फिर ‘बगलामु’, फिर साक्ष इकार युक्त गदी
(ख) अथागत् (िख), फिर ‘सवगदष्ट
ु ानां वा’, इन्त्द ु (अनुस्वार) युक् हली (च) अथागत् (चं), फिर ‘मुखं पदं स्तम्भय’ के बाद ‘िजहवां
कीलय बुति िवनािय’, फिर बीज (ह्रीं), तार (ॎ), फिर अििसुन्त्दरी (स्वाहा) लगाने से छित्तस अक्षरों का मन्त्त्र िनष्पन्न होता
है ॥१-३॥

िवमिग - इस मन्त्त्र का स्वरुप इस प्रकार है - ‘ॎ ह्रीं बगलामुिख सवगदष्ट


ु ानां वाचं मुखं पदं िजहवां कीलय बुति िवनािय ह्रीं ॎ
स्वाहा; ॥१-३॥

इस मन्त्त्र के नारद ऋिष हैं, बृहती छन्त्द है, बगलामुखी देवता हैं, मन्त्त्र के २, ५, ५, ९, ५, एवं १० अक्षरों से षडङ्गन्त्यास
करना चािहए ॥३-४॥

िवमिग - िविनयोग - ‘ॎ अस्य श्रीबगलामुखीमन्त्त्रस्य नारदऋिषेः बृहतीछन्त्देः बगलामुखीदेवता ित्रूणां स्तम्भनाथे जपे
िविनयोगेः ।

षडङ्गन्त्यास - ॎ ह्रीं हृदयाय नमेः, ॎ बगलामुिख ििरसे स्वाहा,


ॎ सवगदष्ट
ु ानां ििखायै वषट् , ॎ वाचं मुखं पदं स्तम्भय कवचाय हुम्
ॎ िजहवां कीलय नेत्रत्रयाय वौषट् ॎ बुति िवनािय ह्रीं,
ॎ स्वाहा अस्त्राय िट् ॥३-४॥

अब बगलामुखी देवी का ध्यान कहते हैं -


सुवणग िनर्णमत तसहासन पर िवराजमान, तीन नेत्रों वाली पीत वस्त्र से उदीप्त सुवणग के समान आभा वाली, चन्त्रकला युक्त
मुकुट धारण की हुई, चम्पक की माला पहने हुये, अपने हाथोम में मुदगर,
् पाि वज्र एवं ित्रु की जीभ िलए हुये, अपने समस्त
अङ्गों में भूषण धारण फकये हुये, तीनों लोकों को स्तिम्भत करने वाली बगलामुखी का ध्यान करना चािहए ॥५॥

इस प्रकार ध्यान कर के मन्त्त्र का एक लाख जप करना चािहए । चम्पा के िू लों से दि हजार आहुितय़ाूँ देनी चािहए, तथा
पूवोक्त पीठ पर इनका पूजन करना चािहए । (र० ९.९) ॥६॥

अब बगलामुखी का पूजन यन्त्त्र कहते हैं - ित्रकोण, षड् दल, अष्टदल षोडिदल एवं भूपुर से संयुक्त पूजायन्त्त्र को चन्त्दन, अगरु,
कपूर आफद अष्टगन्त्ध के रव्यों से िनमागण करना चािहए ॥७॥

अब यन्त्त्र पूजा की िविध कहते है - मध्य में देवी की पूजा तथा ित्रकोण सत्त्व, रज, तम आफद तीनों गुणों की, षट्कोण में
षडङ्गपूजा तथा अष्टदल में भैरवों कें साथ मातृकाओं का पूजन करना चािहए ॥८॥
सोलह दल में १. मङ्गला, २. स्तिम्भनी, ३. जृिम्भणी, ४. मोिहनी, ५. वश्या, ६. चला, ७. बलाका, ८. भूधरा, ९. कल्मषा,
१०. धात्री, ११. कलना, १२. कालकर्णषणी, १३. भ्रािमका, १४. मन्त्दगमना, १५. भोगस्था एवं १६. भािवका - इन सोलह
ििक्तयों की पूजा करनी चािहए ॥९-११॥

भूपुर के पूवागफद चारों फदिाओं में गणेि, बटुक, योिगनी एवं क्षेत्रपाल का पूजन करें । फिर उसके बाहर अपने अपने आयुधों के
सिहत इन्त्राफद दि फदलपालों का पूजन करना चािहए । इस प्रकार मन्त्त्र िसि हो जाने पर साधक, देवता, भूत, प्रेत,
िपिाचाफद सभी को स्तिम्भत कर देता है ॥११-१३॥

िवमिग - आवरण पूजा - १०. ५ में वर्णणत स्वरुप का साधक ध्यान कर मानसोपचार से िविधवत् पूजन कर िंख का अघ्नयगपात्र
स्थािपत करे । फिर ९-९ की रीित से पीठ पूजा कर मूल मन्त्त्र से देवी की मूर्णत्त की कल्पना कर पुष्प, धूपाफद उपचार समर्णपत
कर पुष्पाञ्जिल समर्णपत करे । तदनन्त्तर उनकी अनुज्ञा ले कर यन्त्त्र पर आवरण पूजा करे ।

सवगप्रथम ित्रकोण में मूलमन्त्त्र द्वारा देवी बगलामुखी की पूजा करे । फिर ित्रकोण में सत्त्व रज और तम इन तीनों गुणों की
यथा -
ॎ सं सत्त्वाय नमेः, ॎ रं रजसे नमेः, ॎ तं तमसे नमेः ।

इसके पश्चात् षट् कोण में षडङ्गन्त्यास - यथा -


ॎ ह्रीं हृदयाय नमेः ॎ बगलामुिख ििरसे स्वाहा,
ॎ सवगदष्ट
ु ानां ििखायै वषट् ॎ वाचंमुखं पदं स्तम्भय कवचाय हुं,
ॎ िजहवां कीलय नेत्रत्रयाय वौषट् , ॎ बुति िवनािय ह्रीं
ॎ स्वाहा अस्त्राय िट् ।

इसके बाद अष्टदल में अष्ट भैरवों सिहत ब्राह्यी आफद अष्टमातृकाओं की पूजा करनी चािहए-

१ - ॎ अिसताङ्गब्राह्यीभ्यां नमेः
२ - ॎ रुरुमाहेश्वरीभ्या नमेः
३ - ॎ चण्डकौमारीभ्या नमेः
४ - ॎ िोधवैष्णवीभ्यां नमेः
५ - ॎ उन्त्मत्तवाराहीभ्या नमेः
६ - ॎ कपालीन्त्राणीभ्यां नमेः
७ - ॎ भीषणचामुण्डाभ्यां नमेः
८ - ॎ संहारमहालक्ष्मीभ्यां नमेः

इसके बाद षोडिल में मङ्गला आफद ििक्तयों की पूजा करनी चािहए ।
१ . ॎ मङ्गलायै नमेः
२. ॎ स्तिम्भन्त्यै नमेः,
३. ॎ जृिम्भण्यै नमेः
४. ॎ मोिहन्त्यै नमेः,
५. ॎ वश्यायै नमेः,
६. ॎ चलायै नमेः,
७. ॎ बलाकायै नमेः,
८. ॎ भूधरायै नमेः,
९. ॎ कल्मषायै नमेः,
१०. ॎ धात्र्यै नमेः,
११. ॎ कलनायै नमेः,
१२. ॎ कालकर्णषण्यै नमेः,
१३. ॎ भ्रािमकायै नमेः,
१४. ॎ मन्त्दगमनायै नमेः,
१५. ॎ भोगस्थायै नमेः,
१६. ॎ भािवकायै नमेः,

फिर भूपुर के पूवागफद चारों फदिाओं में िमिेः गणेि, बटुक, योिगनी एवं क्षेत्रपाल की पूजा करनी चािहए -
ॎ गं गणपतये नमेः, पूव,े ॎ बं बटुकाय नमेः दिक्षणे,
ॎ यं योिगनीभ्यो नमेः, पिश्चमे, ॎ क्षं क्षेत्रपालाय नमेः, उत्तरे ,

इसके पश्चात भूपुर के बाहर अपनी अपनी फदिाओं में इन्त्राफद दि फदलपालों की पूजा करनी चािहए -
ॎ इन्त्राय नमेः पूवे, ॎ अिये नमेः आिेय,े ॎ यमाय नमेः दिक्षणे,
ॎ िनऋतये नमेः, नैऋत्ये, ॎ वरुणाय नमेः पिश्चमे, ॎ वायवे नमेः वायव्ये,
ॎ सोमाय नमेः,उत्तरे , ॎ ईिानाय नमेः ऐिान्त्यां, ॎ ब्रह्मणे नमेः पूवेिानयोमगध्ये,
ॎ अनन्त्ताय नमेः पिश्चमनैऋत्ययोमगध्ये

फिर फदलपालों के पास उनके अपने अपने वज्राफद आयुधों की


इन्त्रसमीपे वज्राय नमेः, अििसमीपे िक्तये नमेः,
वरुनसमीपे दण्डाय नमेः, वायुसमीपे आकिाय नमेः,
सासमीपे गदायै नमेः, ईिानसमीपे िूलाय नमेः,
ब्रह्यणेःसमीपे पद्माय नमेः अनन्त्तसमीपे चिाय नमेः ॥१२॥

इस प्रकार आवरण पूजा कर धूपदीपाफद उपचारों से िविधवत् देवी की पूजा कर यथासंख्य िनयिमत जप करना चािहए ॥११-
१३॥

अब बगलामुखी के जप के िलए िविेष प्रकार कहते हैं -


साधक पीला वस्त्र पहन कर, पीले आसन पर बैठकर, पीली माला धारण कर, पीला चन्त्दन लगाकर, पीले पुष्पों से देवी की
पूजा करे , तथा पीतवणाग देवी का ध्यान भी करे , काम्य प्रयोगों में हल्दी की माला का प्रयोग करे तथा १० हजार की संख्या में
जप करे ॥१३-१४॥

ित्रमधु (िहद्, िकग रा,दूध) िमिश्रत ितलों के होम से मनुष्यों को वि में फकया जाता है । ित्रमधु िमिश्रत लवण के होम से
िनिश्चत रुप से आकषगण होता है । तेलाभ्यक नीम के पत्तों के होम से िवद्वेषण होता है । लाल लोण एवं हरररा के होम से ित्रु
वगग का स्तम्भन होता है, श्मिान की अिि में राित्र के समय अङ्गार,धूप, राजी (राई) मैंसा, गुग्गुल की आहुितयाूँ देने से
ित्रुओं का नाि होता है । िचता की अिि में िगि एवं कौवे के पंख का, सरसों का तेल तथा बहेडा एवं गृहधूम का होम करने
से ित्रु का उिाटन होता है । मधुरत्रय िमिश्रत दूवाग, गुडूची एवं लाजा का जो व्यिक्त होम करता है उसके दिगन मात्र से रोग
ठीक हो जाते हैं । पवगत के ििखर पर, घोर जङ्गल में, नदी के सङ्गम पर तथा ििवालय में ब्रह्यचयग व्रत पूवगक एक लाख
बगलामुखी मन्त्त्र का जप करने से सारी िसिियाूँ प्राप्त होती हैं ॥१५-२०॥

एक वणाग गाय के दूध में िकग रा एवं मधु िमलाकर ३०० की संख्या में मूल मन्त्त्रािभमिन्त्त्रत कर उसे पीने से ित्रु के द्वारा
पराभव नही होता है । सिे द पलाि की लकडी से बनी मनोहर पादुकाओं को आलता से रं ग देवे । फिर इस मन्त्त्र से एक लाख
बार अिभमिन्त्त्रत करे । इस प्रकार की पादुका पिहन कर चलने से मनुष्य क्षण मात्र में सौ योजन की दूरी पार कर लेता है ।
मधु युक्त पारा, मैनिसल एवं ताल को पीस कर इस मन्त्त्र से एक लाख बार अिभमिन्त्त्रत कर उसे अपने सवागङ्ग में लेप करे तो
वह व्यिक्त मनुष्यों के बीच में रहकर भी उन्त्हें फदखाई नहीं देता, िजसे इच्छा हो वह ऐसा करके देख सकता है ॥२१-२४॥

हररताल एवं हल्दी के चूरे में धतूरे का रस िमलाकर उससे िनर्णमत षट् कोण में उसी से ह्रीं बीज िलखकर िजस ित्रु का स्तम्भन
करना हो उसका िद्वतीयान्त्त (अमुकं) नाम िलखकर पुनेः ‘स्तम्भय’ िलखे । िेष मन्त्त्राक्षरों को भूपुर ल्में िलखकर चारोम ओर
उसे भूपुर से घेर देवें । उसमें प्राण प्रितष्ठा कर पीले धागे से उसे घेर देवें । पुनेः धूमती हुई कु म्हार की चाक से िमट्टी लेकर
सुन्त्दर बैल बनावे तथा उसके पेट में उस यन्त्त्र को रखकर, उस पर हरताल का लेप कर, प्रितफदन उस बैल की पूजा करता रहे
तो ऐसा करने से ित्रुओं की वाणी, गित और समस्त कायग की परम्परा स्तिम्भत हो जाती है ॥२५-२८॥

श्मिान स्थान िस्थत फकसी खपडे को बायें हाथ में लेकर उस पर िचता के अंगार से बगलामुखी यन्त्त्र बनावे । पुनेः बगलामुखी
मन्त्त्र से अिभमिन्त्त्रत कर उसे ित्रु की जमीन में गाड देवे तो उसकी गित स्तिम्भत हो जाती है । किन पर िचता के अङ्गार से
यन्त्त्र िनमागण करे । फिर उसे यन्त्त्र को मेढक के मुख में रखकर उसे पीले कपडे से बाूँध देवे । तदनन्त्तर पीले पुष्पो से पूिजत
करे , तो ित्रुवगग की वाणी स्तिम्भत हो जाती है ॥२९-३१॥

जो भूिम फदव्य (उत्तम देवसम्बन्त्धी) हो, वहाूँ इस यन्त्त्र को िलखें, फिर वृषापत्र (अडू से) के पत्तों से उसे मार्णजत करे तो वह
देवता लोगों को भी स्तिम्भत कर देता है ॥३२॥

इन्त्र वारुणी नामक लता के मूल को सात बार इस मन्त्त्र से अिभमिन्त्त्रत करे और उसे फकसी देवस्थान के जल में अथवा फदव्य
नदी में डाल देवें तो उससे जल का स्तम्भन हो जाता है ॥३३॥

िविेष लया कहें साधक के द्वारा सम्यगुपािसत होने पर यह मन्त्त्र ित्रुओं की गितिविध एवं उनकी बुिि को स्तिम्भत करे देता
है इसमें संदह
े नहीं ॥३४॥

अब जनसमूहों को वि में करने वाली स्वप्न वाराही का मन्त्त्र कहते हैं -


वेदाफद (ॎ), मायाबीज (ह्रीं), हृद (नमेः), फिर दीघग युक्त जल एवं पावक (वारा), तदनन्त्तर सदृक् ख (िह), सद्ययुक् मेधा
(घो), फिर ‘रे स्वप्न’, फिर िवसगग सिहत दो ठ (ठेः ठेः), इसके अन्त्त में कृ िानुवल्लभा (स्वाहा) लगा देने से १५ अक्षरों का मन्त्त्र
िनष्पन्न होता है ॥३५-३६॥

िवमिग - मन्त्त्र का स्वरुप इस प्रकार - ‘ॎ ह्रीं नमेः वारािह घोरे स्वप्नं ठेः ठेः स्वाहा’ (१५) ॥३५-३६॥

इस मन्त्त्र के ईश्वर ऋिष हैं, जगती छन्त्द है, स्वप्नवाराही देवता हैं,प्रणव (ॎ) बीज है, हृल्लेखा (ह्रीं) ििक्त है ठकार द्वय कीलक
है ॥३७॥
िविनयोग - ॎ अस्य श्री स्वप्न वाराही मन्त्तस्य ईश्वर ऋिष हैं जगती छन्त्द हैं स्वप्न वाराही देवता ॎ बीजं ह्रीं ििक्त ठेः ठेः
कीलकं स्वाभीष्ट िसियथग जपे िविनयोग ॥३७॥

अब स्वप्नवाराही का षडङ्गन्त्यास कहते हैं - िद्व (२), पञ्च (५), नेत्र (२), हस्त (२) अिक्ष (२), युग्म (२) अक्षरों से
षडङ्गन्त्यास करना चािहए । फिर पैर, िलङ्ग, करट, कण्ठ, गाल, नेत्र, कान, नािसका, एवं ििर - इन १५ स्थानों में मन्त्त्र के
प्रत्येक वणो का न्त्यास करना चािहए, तदनन्त्तर महादेवी का ध्यान करना चािहए ॥३९॥

िवमिग - षडङ्गन्त्यास -
ॎ ह्रीं हृदयाय नमेः, ॎ नमो वारािह ििरसे स्वाहा,
ॎ घोरे ििखायै वषट् , ॎ स्वप्नं कवचाय हुं,
ॎ ठेः ठेः नेत्रत्रयाय वौषट् ॎ स्वाहा अस्त्राय िट् ।

अब वणगन्त्यास की िविध कहते हैं -


ॎ नमेः दक्षपादे, ह्रीं नमेः वामपादे, नं नमेः िलङ्गे
मों नमेः दक्षकटौ, वां नमेः वामकटौ, रां नमेः कण्ठे ,
तह नमेः दक्षगण्डे घों नमेः वामगण्डे, रें नमेः दक्षनेत्रे,
स्वं नमेः वामनेत्रे, प्नं नमेः दक्षकणे, ठेः नमेः वामकणे
ठेः नमेः दक्षनासायाम् स्वां नमेः वामनासायाम् ह्रीं नमेः मूर्णि ॥३८॥

अब वाराही देवी का ध्यान कहते हैं -


काले मेघ के समान श्याम वणग वाली, मनोहर कु चों से युक्त, अपने तीन नेत्रों से प्रदीप्त,वाराही जैसे मुख वाली, अपने मस्तक
पर चन्त्रकला धारण फकये हुये, पृथ्व्वी को अपने दाूँत से धारण करने के कारण िोभा युक्त तथा हाथों में तलवार, ढाल, पाि
एवं अंकुि धारण फकये, घोडे पर सवार, नाना अलङ्कारों से सुिोिभत इस प्रकार के वाराही का ध्यान करना चािहए ॥३९॥

उक्त मन्त्त्र का एक लाख जप करना चािहए । अत्यन्त्त कल्याणकारी नीलपदम् िमिश्रत ितलों से दिांि होम करना चािहए
तथा पूवोक्त पीठ पर इनका पूजन करना चािहए ॥४०॥

ित्रकोण में देवी की पूजा करे । फिर ६ कोणों में अङ्ग्पूजा करे और षोडिदलों में वक्ष्यमाण १६ ििक्तयों की पूजा करनी
चािहए । १. उिाटनी, २. उिाटनीश्वरी, ३. िोषणी, ४. िोषणीश्वरी, ५. मारणी, ६. मारणीश्वरी, ७. भीषणी, ८.
भीषणीश्वरी, ९. त्रासनी, १०. त्रासनीश्वरा, ११. कम्पनी, १२. कम्पनीश्वरी, १३. आज्ञािववर्णत्तनी, १४.
आज्ञािववर्णत्तनीश्वरी, १५. वस्तुजातेश्वरी एवं १६. सवगसप
ं ादनीश्वरी इन १६ ििक्तयों को चतुथ्व्यगन्त्त िवभिक्त लगाकर अन्त्त में
‘नमेः’ तथा आफद में प्रणव लगाकर पूजा करना चािहए ॥४१-४४॥

अष्टदल में भैरव सिहत, ८ मातृकाओं की, दि दल में इन्त्राफद दि फदलपालों की,तथा िद्वतीय दिदल में उनके आयुधों की पूजा
करनी चािहए ॥४५॥

िवमिग - पूजा प्रयोग - प्रथम १०.३९ में बताये गये स्वरुप के अनुसार देवी का ध्यान करे । मानसोपचार से उनका पूजन करे
। इसके बाद िंख का अघ्नयगपात्र स्थािपत कर ९. ९ में बताई गई रीित से पीठदेवता और पीठििक्तयों का पूजन कर ‘ॎ ह्रीं
सवगििक्तकमलासनायै नमेः’ मन्त्त्र से देवी को आसन रखे । पुनेः मूलमन्त्त्र से देवी की मूर्णत की कल्पना कर धूपदीपाफद समर्णपत
कर पुष्पाञ्जिल प्रदान करे । तदनन्त्तर उनकी आज्ञा ले यन्त्त्र पर आवरण पूजा प्रारम्भ करे ।

आवरण पूजा िविध - सवगप्रथम ित्रकोण में मूलमन्त्त्र से देवी का पूजन करे । फिर षट् कोण में १०.३९ में बताई गई रीित से
षडङ्गन्त्यास करे । इसके बाद षोडिदलों में १६ ििक्तयों की पूवागफद फदिाओं के िम से इस प्रकार पूजा करे ।

ॎ उिाटन्त्यै नमेः, ॎ उिाटनीश्वयै नमेः, ॎ िोिषण्यै नमेः,


ॎ िोषणीश्वयै नमेः, ॎ मारण्यै नमेः, ॎ मारणीश्वयै नमेः,
ॎ भीषण्यै नमेः, ॎ भीषणीश्वयै नमेः, ॎ त्रािसन्त्यै नमेः,
ॎ त्रासनीश्वयै नमेः, ॎ किम्पन्त्यै नमेः, ॎ किम्पनीश्वयै नमेः,
ॎ आज्ञािववर्णत्तन्त्यै नमेः, ॎ आज्ञािववर्णत्तनीश्वयै नमेः, ॎ वस्तुजातेश्वयै नमेः,
ॎ सवगसम्पादनीश्वयै नमेः,

फिर अष्टदलों में पूवागफद फदिाओं के िम से अिसताङ्गाफद ८ भैरवों के साथ ब्राह्यी आफद आठ मातृकाओं की पूजा करनी
चािहए ।
ॎ अिसताङ्गब्राह्यीभ्यां नमेः, ॎ रुरुमाहेश्वरीभ्यां नमेः,
ॎ चण्डकौमारीभ्यां नमेः, ॎ िोधवैष्णवीभ्यां नमेः,
ॎ उन्त्मत्तवाराहीभ्यां नमेः, ॎ कपालीइन्त्राणीभ्यां नमेः,
ॎ भीषणचामुण्डाभ्यां नमेः, ॎ संहारमहालक्ष्मीभ्यां नमेः ।

तदनन्त्तर दि दलों में पूवागफद फदिाओं के िम से इन्त्राफद दि फदलपालों को तथा िद्वतीय दि दलों में उनके वज्राफद आयुधों की
पूवगवत् करे (र ० १०. १२) इस प्रकार आवरण पूजा कर धूपदीपादे समस्त उपचारों से देवी का पूजन कर पुरश्चरण िविध से
जप करे । पुरश्चरण हो जाने पर मन्त्त्र िसि हो जाता है । तदनन्त्तर काम्य प्रयोग करना चािहए ॥४१-४५॥

मन्त्त्र िसि हो जाने पर साधक अपनी सभी कामनाओं एवं मनोरथ की सिलता के िलए नाररयल के जल अथवा तीथोदक से
इस मन्त्त्र द्वारा देवी का तपगण करे और तरुणीजनों का सम्मान करे ॥४६-४७॥

अब इस मन्त्त्र का काम्य प्रयोग कहते हैं - साधक कृ ष्णपक्ष की अष्टमी अथवा चतुदि
ग ी को व्रत रहकर चौराहे से नदी के दोनों
फकनारों से और कु म्भकार के घर से िमट्टी लावें । उसमें धतूरे का रस िमलाकर उसी सी साध्य (िजसे वि में करना हो उस )
की पुतली बनावें और उसमें प्राणप्रितष्ठा करे । फिर किन पर नर काक ओर मेष के खून से एवं िचता के अङ्गार से योिन
(ित्रकोण), फिर षट् कोण तदनन्त्तर भूपुर युक्त मन्त्त्र बनावें । उसके बीच में स्वप्नवाराही का मन्त्त्र िलखकर उस भूपुर युक्त यन्त्त्र
को ७७ अक्षरों वाले इस मन्त्त्र से वेिष्टत करे ॥४७-५०॥

‘साध्य (नाम), उिाटय उिाटय, िोषय िोषय, मारय मारय, भीषय भीषय, नािय नािय के बाद, फिर ‘स्वाहा’ और ‘कम्पय
कम्पय’ फिर ‘ममाज्ञावर्णत्तनं’ के बाद ‘कु रु, फिर ‘सवागिभम’ तथा ‘तवस्तु जातं’, फिर ‘संपादय संपादय’ के बाद ‘सवं कु रु कु रु,’
तथा अन्त्त में ‘स्वाहा’ लगाने से ७७ अक्षरों का मन्त्त्र िनष्पन्न होता है ॥५१-५३॥

िवमिग - मन्त्त्र का स्वरुप - ‘साध्य (नाम), उिाटय उिाटय, िोषय िोषय, मारय मारय, भीषय भीषय, नािय नािय, के
बाद, फिर ’स्वाहा’ और ’कम्पय कम्पय’ फिर ’ममाज्ञावर्णत्तनं’ के बाद ’कु रु’, फिर ’सवागिभम’ तथा ’तवस्तु जातं’, फिर ’संपादय
संपादय’ के बाद ’सवग कु रु कु रु’, तथा अन्त्त में ’स्वाहा’ लगाने से ७७ अक्षरों का मन्त्त्र िनष्पन्न होता है ॥५१-५३॥

इस मन्त्त्र से वेिष्टत यन्त्त्र में देवी की प्राण प्रितष्ठा कर यन्त्त्र की पुत्तली के हृदय में रखकर, पूवोक्त िविध से आवरण पूजा करे ।
तदनन्त्तर राित्र के समय फकसी एकान्त्तस्थान में उसे अपने अपने रखकर उक्त मन्त्त्र का एक हजार आठ जप करे । जप के पश्चात्
एकाग्रिचत हो पुनेः पुत्तली का पूजन करे तो नर एवं नाररयाूँ, राजा, राजा के िप्रयजन, तसह, हाथी मृगाफद िृ र जन्त्तु भी
िनिश्चत रुप से उसके वि में वि में हो जाते हैं ॥५४-५६॥

िचत्त में अपने काम का ध्यान कर साधक व्रत रहकर फकसी एकान्त्त िनजगन स्थान में सो रहे तो देवी स्वप्न में साधक के भावी के
िवषय में बता देती हैं ॥५७॥

अब मनुष्यों को िसिि देने वाली स्वप्नवाराही का एक महायन्त्त्र कहता हूँ -


ित्रकोण, षट्कोण, षोडिदल्, अष्टदल, फिर दो दिदल, फिर पञ्चदिदल बनाकर, उसके बाद दो भूपुर बनाना चािहए ।
ित्रकोण के प्रत्येक कोण में काम बीजयुक्त बाग्बीज िलखें । षट् कोणों में िमिेः वाग्बीज (ऐं), पाि (आं), माया (ह्रीं), सृिण
(िों), श्रीं (श्रीं), एवं दीघगकवच (हूँ) िलखना चािहए । षोडिदलों में पूवोक्त (१०.४१-४३) उिाटनी आफद ििक्तयों को तथा
अष्टदल में अष्टभैरवों सिहत अष्टमातृकाओं को (र० १०.८) दिदल में यथािम अपने अपने बीजों के साथ फदलपालों को
िलखना चािहए ॥५८-६१॥

अब दि फदलपालोम के बीज समूहों को कहते हैं - १. िबन्त्द ु युक्त मांस (लं), २. रक्त (रं ).३. िवष (मं). ४. मेरु (क्षं), ५. जल
(वं), ६. वायु (यं), ७. भृगु (सं), ८. िवयत् (हं), ९. पाि (आं) तथा १०. माया (ह्रीं) ॥६२-६३॥

फिर िद्वतीय दल में िविधवत् वज्राफद आयुधों को िलखना चािहए । तदनन्त्तर पञ्चदिदल में मूलमन्त्त्र के वणो को गायत्री वणो
के साथ, दोनों भूपुर के कोणों में वायु (यं) और अिि (रं ) िलखना चािहए । यह यन्त्त्र होमावििष्ट संस्रव घृत से भोजपत्राफद पर
िलखकर मूलमन्त्त्र का जप कर भुजा आफद में धारण करने से मनुष्यों को कीर्णत्त, धन एवं सुख प्राप्त होता हैं । िविेष लया कहें
इस प्रकार से उपासना करने पर वाराही देवी साधक को मनोवािछछत िल देती हैं ॥६३-६६॥

अब वात्तागली मन्त्त्र का उिार कहते हैं - वाग्बीज पुरटत भूिम (ऐं ग्लौं ऐं), फिर ‘नमो’ के बाद, ‘भगवित वात्तागिलवारा’, उसके
बाद सदृग् गगन (िह), फिर ‘वाराफद वाराहमुिख’ फिर पूवोक्त बीजत्रय (ऐं ग्लौ ऐं), फिर ‘अन्त्धे अिन्त्धिन’ और हृत् (नमेः),
उसके बाद ‘रुन्त्धे रुिन्त्धिन’ एवं हृत् (नमेः), फिर ‘जम्भे जिम्भिन’ हृत (नमेः), फिर ‘मोहे मोिहिन’, हृत् (नमेः) फिर ‘स्तम्भे
स्तिम्भिन’ एवं हृत् (नमेः) फिर बीज त्रय (ऐं ग्लौं ऐं) तदनन्त्तर ‘सवगदष्ट
ु प्रदुष्टानां सवेषां सवगवािलचतचक्षुमुगख गितिजहवां
स्तम्भं’ फिर कु रु द्वय (कु रु कु रु), फिर ‘िीघ्र वश्यं’ कु रु द्वय (कु रु कु रु), फिर पूवोक्त ित्रबीज (ऐं ग्लौं ऐं), फिर ‘सगागढ्य ठ
चतुष्टय (ठेः ठेः ठेः ठेः ), वमग (हुं), एवं अन्त्त में िट् (स्वाहा), तथा प्रारम्भ में ॎ लगाने से ११४ अक्षरों का वात्तागली मन्त्त्र
िनष्पन्न होता है । इस मन्त्त्र के ििव ऋिष हैं, अितजगती छन्त्द है तथा वात्तागली देवता कही गई हैं ॥६६-७२॥

िवमिग - मन्त्त्र का स्वरुप इस प्रकार हैं - ‘ॎ ऐं ग्लौ ऐं नमो भगवित वात्तागिल वारािह वारािह वारािहमुख, ऐं ग्लौं ऐं अन्त्धे
अिन्त्धिन नमो रुन्त्धे रुिन्त्धिन नमो जम्भे जिम्भिन नमेः, मोहे नमेः, मोिहिन नम्ह, स्तम्भे स्तिम्भिन नमेः, ऐं ग्लौं ऐं
सवगदष्ट
ु प्रदुष्टानां सवेषा सवगवािलचत्तचक्षुमुगखगितिजहवां स्तम्भं कु रु िीघ्रवश्य कु रु कु रु ऐं ग्लौं ऐं ठेः ठेः ठेः ठेः हुं िट् स्वाहा
॥६६-७२॥
वात्तागली से हृदय, वारािह से ििर, वाराहमुिख से ििखा, अन्त्धे अिन्त्धिन से कवच, रुन्त्धे रुिन्त्धिन से नेत्र तथा जम्भे जिम्भिन से
अस्त्र - इस प्रकार षडङ्गन्त्यास कहा गया है । इसके बाद वातागली देवता का ध्यान करना चािहए ॥७२-७३॥

िवमिग - िविनयोग - ॎ अस्य श्रीवात्तागलीमन्त्त्रस्य ििवऋिषरितजगतीछन्त्देः वात्तागलीदेवता ममािखलकायगिसियथे जपे


िविनयोगेः ॥७२-७३॥

अब वात्तागली का ध्यान कहते हैं -


लाल कमल की कर्णणका पर िस्थत िवासन पर िवराजमान, हृदय में मुण्डमाला धारण फकये हुये, नीलमिण के समान
कािन्त्तमती, अपने करकमलों में मुिल, हल, अभय एवं वरदमुरा धारण फकये हुए, सुन्त्दर स्तनोम से युक्त, ित्रनेत्रा, लालवणं
का वस्त्र धारण फकये हुये, वाराहमुखी भगवती वात्तागली की मैं वन्त्दना करता हूँ ॥७४॥

उक्त मन्त्त्र का सत्रह हजार जप करना चािहए । मधुरत्रय (मधु, िकग रा और घृत) से िमिश्रत ितल एवं बन्त्धूक पुष्पों से उसका
दिांि होम करना चािहए ॥७५॥

अब वातागली पूजा यन्त्त्र कहते हैं - सुवणग, चाूँदी, ताूँबा, भोजपत्र अथवा लकडी पर गोरोचन, हल्दी, लालचन्त्दन, अगुरु एवं
कुं कु म से योिन (ित्रकोण), पञ्चकोण, षट् कोण,अष्टदल, ितदल सहस्रदल तथा चारद्वारों वाले भूपुर से युक्त ‘जपादी-
नवििक्तक-यन्त्त्र’ का िनणागण करना चािहए ॥७६-७९॥

कै लािपवगत के मध्य में िस्थत पीठ का ध्यान करना चािहए तथा उक्त पीठ पर देवी का मनोहर उपचारों से पूजन करना
चािहए ॥७८-७९॥

अब आवरण पूजा कहते हैं - ित्रकोण के िबन्त्द ु में देवेिी की पूजा, ईिान पूवग के मध्य में कर उनके अग्न्त्याफद कोणों में
अङ्गपूजा करनी चािहए । ित्रकोण के तीनों आिेय, नैऋत्ये, नैऋत्ये-पिश्चम के मध्य वायव्य-ईिान कोणों में िमिेः वात्तागली,
वाराही एवं वाराहमुखी का पूजन करना चािहए
॥७९-८०॥

इसके बाद पञ्चकोणों में १. अिन्त्धनी, २. रुिन्त्धनी, ३. जिम्भनी, ४. मोिहनी एवं ५. स्तिम्भनी का, फिर षट् कोण में १.
डाफकनी २. राफकनी, ३. लाफकनी, ४. काफकनी ५. िाफकनी एवं ६. हाफकनी का, फिर षट् कोण के दोनों ओर स्तिम्भनी एवं
िोिधनी का पूजन करना चािहए ॥८०-८२॥

स्तिम्भनी के दोनों हाथों में िमिेः मुिल एवं वर है तथा िोिधनी के दोनों हाथों में कपाल एवं हल हैं, षट् कोण के अग्रभाग में
देवी के उत्तम पुत्र, चण्ड और उिण्द का पूजन करना चािहए, िजनके हाथों में िूल, नाग, डमरु एवं कपाल हैं,

िजनके िरीर की आभा नीलमिण जैसी है ये िववस्त्र तथा जटामिण्डत हैं, इस प्रकार के चण्डोिण्ड का ध्यान कर उनका पूजन
करना चािहए ॥८३-८४॥

अष्टदल में वात्तागली आफद (वात्तागली, वाराही, वाराहमुखी, अिन्त्धनी, रुिन्त्धनी, जिम्भनी, मोिहनी एवं स्तिम्भनी) ८ देिवयों
का पूजन करना चािहए । पुनेः ितदल में वीरभराफद एकादि एवं धात्राफद द्वादि, वसु अष्ट, सत्य एवं दस्र इन ३३ देवताओं
का तीन-तीन पत्रों पर एक-एक देवता के िम से, इस प्रकर ९९ देवों का पूजन करे । िेष अिन्त्तम एक पत्र पर जिम्भनी एवं
स्तिम्भनी का एक साथ पूजन करना चािहए । ितकोण के अग्रभाग में मिहष युक्त तसह का पूजन करना चािहए ॥८५-८६॥

सहस्रदल में वाराहीमन्त्त्र से एक हजार बार वाराही देवी का पूजन करना चािहए । अंकुि (िों) चतुथ्व्यगन्त्त वाराही (वाराह्यै)
एव अन्त्तं में ‘नमेः’ लगाने पर ‘िों वाराह्यै नमेः’ ऐसा वाराही मन्त्त्र पूजन के िलए बतलायाय गया है ॥८७॥

भूपुर के चारों द्वारों पर बटुक, क्षेत्रपाल, योिगनी एवं गणपित का उनके मन्त्त्रों से पूजन करना चािहए ॥८८॥

१. सिबन्त्द ु िान्त्त (बं), फिर बटुक का चतुथ्व्यगन्त्त ‘बटुकाय’, फिर ‘नमेः’, इस प्रकार ‘बं बटुकाय नमेः’ यह ७ अक्षरों का बटुक
मन्त्त्र बनता है ॥८९॥

२. ििि सिहत मेरु (क्षं), फिर ‘क्षेत्रपालाय नमेः’ इन आठ अक्षरों का क्षेत्रपाल पूजन मन्त्त्र बनता है ॥८९-९०॥

३. सचन्त्द िेषयुक् वायु (यां), फिर ‘योिगनीभ्यो नमेः’ इन ७ अक्षरों का योिगनी पूजन मन्त्त्र कहा गया है ॥९०॥

४. चन्त्रािन्त्वत खान्त्त (गं), फिर ‘गणपतये’ फिर हृद (नमेः) इस प्रकार ‘गं गणपतये नमेः’ - कु ल ८ अक्षरों का गणपित मन्त्त्र
उनकी पूजा में प्रयुक्त होता है ॥९०-९१॥

इसके बाद आयुग्ध युक्त फदलपालों का अपनी अपनी फदिाओं में पूजन करना चािहए ॥९१॥

िवमिग - आवरण पूजा - सवगप्रथम ित्रकोण के मध्य में मूलमन्त्त्र से वात्तागली का पूजन कर आिेय नैऋत्ये पिश्चमे नैऋत्य के
मध्य, वायव्य, ईिान तथा पूवेिान के मध्य इन छेः कोणों में िमिेः षडङ् न्त्यास कर पूजन करे । यथा -
वात्तागली हृदयाय नमेः, वाराही ििरसे स्वाहा,
वाराहमुखी ििखायै वौषट्, अन्त्धेअिन्त्धिन कवचाय हुम्,
रुन्त्धे रुिन्त्धिन नेत्रत्रयाय वौषट् , जम्भे जिम्भिन अस्त्राय िट ।

इसके बाद ित्रकोण के एक-एक कोणों में िमिेः -


ॎ वात्तागल्यै नमेः, ॎ वाराह्यै नमेः, ॎ वाराहमुख्यै नमेः ।

तत्पश्चात् पञ्चकोणों में अिि आफद का उनके नाम मन्त्त्र से िमिेः -


ॎ अिन्त्धन्त्यै नमेः, ॎ रुिन्त्धन्त्यै नमेः, ॎ जिम्भन्त्यै नमेः,
ॎ मोिहन्त्यै नमेः, ॎ स्तािम्भन्त्यै नमेः ।

फिर षट् कोण में डाफकनी आफद का नाम मन्त्त्र से िमिेः -


ॎ डाफकन्त्यै नमेः, ॎ िाफकन्त्यै नमेः, ॎ लाफकन्त्यै नमेः,
ॎ काफकन्त्यै नमेः, ॎ राफकन्त्यै नमेः, ॎ हाफकन्त्यै नमेः ।

तदनन्त्तर षट् कोण के दोनों ओर स्तिम्भनी और िौिधनी का तथा षट् कोण के अग्रभाग में देवी के पुत्र चण्ड और उिण्ड का
नाम मन्त्त्र से
पूजन करे ।
यथा - ॎ स्तिम्भन्त्यै नमेः दक्षपाश्वे, ॎ िोिधन्त्यै नमेः वामपाश्वे,
ॎ चण्डोिण्डाय देवीपुत्रस्य नमेः अग्रे,

इसके बाद अष्टदल में वात्तागली आफद ८ देिवयों का पूवागफददलों में नाम मन्त्त्र से
ॎ वात्तागल्यै नमेः, ॎ वाराह्यै नमेः, ॎ वाराहमुख्यै नमेः,
ॎ अिन्त्धन्त्यै नमेः, ॎ रुिन्त्धन्त्यै नमेः, ॎ जिम्भन्त्यै नमेः,
ॎ मोिहन्त्यै नमेः, ॎ स्तिम्भन्त्यै नमेः,

फिर ितदल में वीरभर आफद एकादिा रुरों का, धात्राफद द्वादिाफदत्यों का, धर आफद आठ असुओं का, दस्न एवं नासत्य आफद
दो अिश्वनी कु मारों का, कु ल ३३ देवताओं का ९९ पत्रों पर एक एक का तीन पत्रों के िम से पूजन कर अिन्त्तम पत्र पर
‘जिम्भनीस्तिम्भनीभ्या नमेः’ से जिम्भनी एवं स्तिम्भनी का पूजन करे । ितकोण के अग्रभाग में मिहष युक्त तसह का पूजन
करना चािहए ।

तदनन्त्तर भूपुर के चारों द्वारों पर पूवागफदिम से बटुक आफद का -


बं बटुकाय नमेः, क्षं क्षेत्रपालाय नमेः,
यां योिगनीभ्या नमेः, गं गणपतये नमेः,

से पूजन करना चािहए । फिर १०. ४५ में कहे गये मन्त्त्रोम से भूपुर के बाहर अपनी अपनी फदिाओं में फदलपालों का तथा
उनके भी बाहर उनके वज्राफद आयुधों की पूजा करनी चािहए ॥८८-९१॥

इस प्रकार आवरण पूजा कर लेने के बाद बटुक आफद को उनके बिलदान मन्त्त्रों से सवगिसििदायक बिलदान देना चािहए
॥९२॥

अब बिलदान का मन्त्त्र कहते हैं -


‘एह्येिह’, यह पद कहकर ‘देवीपुत्र’ कहें, फिर ‘बटुक’ एवं ‘नाथिपलजटाभारसुरित्रनेत्रज्वाला’, फिर ‘मुखसवग’, सदृक् जल (िव),
फिर ‘घ्नान्’ फिर ‘नािय’ पद दो बार (नािय नािय), फिर ‘सवोपचारसिहतं बतल’, फिर ‘गृहण द्वय’ (गृहण गृहण) , अन्त्त में
विहनपत्नी (स्वाहा) का उिारण करने से यह पचपन अक्षरों का बटुक मन्त्त्र बनता है । इस मन्त्त्र से श्रिा से युक्त हो कर बटुक
को बिल देनी चािहए ॥९३-९५॥

िवमिग - इस मन्त्त्र का स्वरुप इस प्रकार हैं - ‘एह्येिह देवीपुत्र बटुकनाथ किपलजटाभारसुरित्रनेत्रज्वालामुख सवगिवघ्नान् नािय
नािय सवोपचारसिहतं बतल गृहण गृहण स्वाहा’ (५५) ॥९३-९५॥

अब क्षेत्रपाल के बिलदान का मन्त्त्रोिार कहते हैं - षड् दीघग सिहत मेरु क्षां क्षीं क्षूं क्षैं क्षौं क्षेः फिर वमग (हुं), फिर
‘स्थानक्षेत्रपालेि सवगकामं पूरय’ कहकर अनलवल्लभा (स्वाहा), लगाने से २३ अक्षरों का क्षेत्रपाल बिलदान मन्त्त्र बनता है
॥९६-९७॥

िवमिग - इस मन्त्त्र का स्वरुप इस प्रकार है - ‘क्षां क्षीं क्षूं क्षै क्षौं क्षेः हुं स्थानक्षेत्रपालेि सवगकामं पूरय स्वाहा’ (२३) ॥९६-९७॥

अब योिगिनयों का प्रद्ममय बिलमन्त्त्र कहते हैं -


‘ऊध्वग ब्रह्याण्दतो वा....’ इस पद्य के बाद ‘योिगनीभ्य स्वाहा’ लगाने से ९१ अक्षरों का योिगनी बिलदान मन्त्त्र बनता है । इस
मन्त्त्र से िविधवत् योिगिनयों को बिल देना चािहए ॥९८-९९॥

िवमिग - इस मन्त्त्र का स्वरुप इस प्रकार है -


‘ऊध्वगब्रह्याण्डतो वा फदिवगगनतले भूतले िनष्कले वा
पाताले वातले वा सिलसपवनयोयगत्र कु त्र िस्थता वा
क्षेत्रे पीठोपपीठाफदषु च कृ तपदाधूपदीपाफदके न
प्रीता देव्याेः सदानेः िुभबिलिविधना पान्त्तु वीरे न्त्रवन्त्द्याेः
यां योिगनीभ्येः स्वाहा’ ॥९८-९९॥

अब गणेि बिलदान मन्त्त्रोिार कहते हैं -


दीघगत्रयेन्त्द ु युक् तथा सेन्त्द ु िागी गां गीं गूूँ गं, फिर ‘गणपत’, फिर ‘भगवान् मारुत’ ये, फिर तोय (व) एवं ‘रवर दसवग जनं मे
विमानय’ के बाद ‘सवो’, फिर लोिहत (प), दीघग हली (चा), फिर ‘र सिहतं’ फिर ‘बतल गृहण गृहण’ फिर अन्त्त में ििर
(स्वाहा), लगाने से ४० अक्षरों का गणेि बिलदान मन्त्त्र बनता हैं ॥१००-१०२॥

िवमिग - इस मन्त्त्र का स्वरुप इस प्रकार हैं - ‘गां गीं गूं गं गणपतये वरवरद सवगजनं में विमानय सवोपचारसिहतं बतल गृहण
गृहण स्वाहा’ ॥१००-१०२॥

इस प्रकार बिलदान देने के बाद उन्त्हें उनकी अपनी-अपनी मुरायें फदखलानी चािहए ॥१०२॥

१. बटुक के बिलदान में अङ् गूठा और तजगनी िमलाकर फदखाना चािहए ।

२. क्षेत्रपाल के बिलदान में बायें हाथ का अङ् गुष्ठ और अनािमका फदखलाना चािहए ।

३. गणपित के बिलदान में मध्यमा को कु छ टेढी कर फदखानी चािहए । तथा

४. योिगिनयों के बिलदान के अनन्त्तर अनािमका, मध्यमा और अङ् गुष्ठ फदखाना चािहए ॥१०३-१०४॥

इस प्रकार वात्तागली देवी का सावरण पूजन संपन्न कर साधक उन्त्हें अपने हृदय में स्थान देकर उनका िवसजगन करे । तदनन्त्तर
मन्त्त्र के िसि हो जाने पर भगवान् सदाििव के द्वारा उपफदष्ट काम्यप्रयोगों को करे ॥१०५॥

अपनी अभीष्ट िसिि के िलए हल्दी, चन्त्दन, लाह, अगर, गुग्गुल और िविवध मांसों से होम करना चािहए ॥१०६॥

स्तम्भन कमग में हल्दी की माला से जप करना चािहए तथा िुभ कायो में जैसे िािन्त्तक पौिष्टक कमो में, स्िरटक, कमलगट्टा
अथवा रुराक्ष की माला का प्रयोग करे ॥१०७॥

साधक अपनी कामनापूर्णत के िलए स्वणागफद पात्रों से बन्त्धूक पुष्प और ितलों से युक्त सुरा द्वारा वाराही का तपगण करे ॥१०८॥

स्तम्भन की इच्छा से साधक तमाल पुष्पों की ४०० आहुितयाूँ दे ॥१०९॥


लावा के चूणग में ितल, गदगभ एवं भेड का रक्त िमलाकार एक सुन्त्दर िपण्ड बनाना चािहए । फिर उसी िपण्ड का िविधवत्
पूजन एवं तपगण भी करे । फिर उसी िपण्ड को अपने ित्रु का सारा घर समर्णपत कर देना चािहए । तदनन्त्तर उस िपण्ड को
कु ण्ड में रखकर २१ राित्र पयगन्त्त रक्त िमिश्रत लाजाओं से १०,००० आहुितयाूँ देनी चािहए । ऐसा करने से योिगिनयाूँ उस
ित्रु के समूह को खा जाती हैं ॥१०९-११२॥

अब महादेवी के िकट संज्ञक यन्त्त्र को बतलाते हैं - ॎ इस अक्षर के मध्य में साध्यक नाम िलखकर उसे भू बीज (ग्लौं) से
वेिष्टत करे , फिर उसे भी उकार से वेिष्टत कर उसके ऊपर अष्टवज्र सिहत भूपुर िलखना चािहए ॥११२-११४॥

अष्टवज्र के प्रान्त्त में प्रणव िलखना चािहए, वज्रों के मध्य में साध्य नाम एवं उसके उिाटनाफद िविेष कायग िलखना चािहए ।
यथा - उिाटनकमग में ‘अमुकं उिाटय’ स्तम्भनकमग में ‘अमुकं स्तम्भय’ िवद्वेषणकमग में ‘अमुकं िवद्वेषय’ इत्याफद िलखना चािहए
॥११४॥

फिर भूपुर को धरा बीज (ग्लौं) से वेिष्टत करे । फिर उसे (ॎ ऐं ग्लौं ऐं नमो भगवित वातागलीवाराही वाराही वाराहमुिख
अन्त्धे अिन्त्धिन नमो रुन्त्धे रुिन्त्धिन नमो जम्भे जिम्भिन नमो मोहे मोिहिन नमेः स्तम्भे स्तिम्भिन नम ऐं ग्लौं ऐं सवगदष्ट

प्रदुष्टानां सवेषां सवगवाक् िचत्तक्षुमुगख गित िजहवा स्तम्भं कु रु कु रु िीघ्र वश्यं कु रु कु रु ऐं ग्लौं ऐं ठेः ठेः ठेः ठेः हुं िट् स्वाहा’ -
इस) मूलिवद्या से वेिष्टत करे । फिर उनके बाहर पुनेः (िों) से वेिष्टत कर िझण्टीि (ऐं) से वेिष्टत करना चािहए ॥११५॥

इस यन्त्त्र को कु लाल द्वारा िनर्णमत्त नवीन खपगर कसोरा पर िलखकर पुनेः काले पुष्पों से पूजन कर अपने ित्रु के घर में डाल
देना चािहए । ऐसा करने से यह मन्त्त्र अपने घर में सैकडों वषो से रहने वाले ित्रु का उिाटन कर देता है ॥११६-११७॥

इस यन्त्त्र को बाजे पर िलखकर युि के बीच उस बाजा को बजाने से उसके िब्द को सुनते ही ित्रु मैदान छोडकर भाग जाते हैं
॥११७-११९॥

पाषाण पर हल्दी से इस यन्त्त्र को िलखकर िविधवत् पूजा कर पुनेः इसे अधोमुख कर पीले िू लों के बीच में डाल देना चािहए ।
ऐसा करने से वह ित्रु की वाणी को स्तिम्भत कर देता है । यफद उसे अिि में डाल फदया जाये तो उस ित्रु को ताप (ज्वर) चढ
जाता है जल में डाल फदया जाय तो उसे कलंक लगता है ॥११८-११९॥

साध्य व्यिक्त के जन्त्म नक्षत्र की वृक्ष की लकडी (र ९. ५०) के भीतर इस यन्त्त्र को रखने से वह ित्रुओं के िलए दुेःखदायी बन
जाता है । इस िवषय में बहुत लया कहें इस मन्त्त्र िसिि से मनुष्य अपने सारे अभीष्टों को पूरा कर सकता है ॥१२०॥

एकादि तरङ्ग
अररत्र
श्री िवद्या के प्रारम्भ में ग्रन्त्थकार मङ्गलाचरण कहते हैं -
चन्त्रकला को धारण करने वाले ित्रनेत्र चन्त्रिेखर तथा कमलापित भगवान् नृतसह को प्रणाम कर (त्रैलोलय के ) समस्त मन्त्त्रों
की स्वािमनी श्री िवद्या के िवषय में संक्षेप में बतलाता हूँ ॥१॥

िजसके उिारण मात्र से पापरािि का नाि हो जाता है, वह श्रीिवद्या अपरीिक्षत ििष्य को कभी भी नहीं देनी चािहए ॥२॥

अब षोडिी मन्त्त्र का उिार कहते हैं -


(कू टत्रय) के आफद में तार (ॎ), माया (ह्रीं), एवं कमला (श्रीं), इन तीनों बीजों का प्रथम उिारण करना चािहए । ब्रह्या (क),
िझण्टीि (ए),गोिवन्त्द (ई), धरा (ल) एवं माया (ह्रीं) इस प्रकार ‘कएईलहीं’ यह प्रथम कू ट है । आकाि (ह) भृगु (स्) चिी (क)
अभ्र (ह) मांस (ल) तथा माया (ह्रीं) इस प्रकार ‘हसकहल’, ह्री यह िद्वतीय कू ट है । हंस (स) धाता (क) क्षमा (ल), माया (ह्रीं)
अथागत् ‘सकलह्रीं’ तृतीय कू ट है । इन तीनों कू टों में प्रथम वाग्बीज हैं, िद्वतीय काम बीज है तथा तृतीय ििक्तबीज कहलाता है
। इस षडक्षरा (ॎ ह्रीं श्री कएअईलह्रीं हसकहलह्रीं सकलह्रीं) िवद्या को श्री, माया, काम, वाग् और ििक्त इन पाूँच बीजों से
संपुरटत करने पर अनेक पुण्यों से प्राप्त होने वाली षोडिाक्षरी श्रीिवद्या का मन्त्त्र िनष्पन्न होता है ॥३-५॥

िवमिग - षोडिी मन्त्त्र का स्वरुप इस प्रकार हैं - श्रीं ह्रीं ललीं ऐं सौेः ॎ ह्रीं श्रीं कएईलह्रीं ह्सकहलह्रीं सकलहीं सौेः ऐं ललीं ह्रीं
श्रीं ॥३-५॥

इस मन्त्त्र के दिक्षणामूर्णत, ऋिष हैं, पंिक्तछन्त्द है, जगत् की आफद कारण श्रीमित्त्रपुरसुन्त्दरी देवता हैं, ऐं बीज, सौेः ििक्त तथा
कामबीज (ललीं) कीलक है । इस ऋष्याफद से ििर मुख, हृदय, गुहय, पाद तथा नािभ स्थान में न्त्यास करना चािहए ॥६-८॥

िवमिग - िविनयो - ॎ अस्य श्रीमित्त्रपुरसुन्त्दरीमन्त्त्रस्य दिक्षणमूर्णतऋिषेः पंिक्तछन्त्देः श्रीमित्त्रपुरसुन्त्दरी देवता ऐं बीजेः सौेः
ििक्तेः ललीं कीलकं ममाभीष्ट िसद्ध्यथे जपे िविनयोगेः ।

ऋष्याफदन्त्यास - ॎ दिक्षणामूत्तगये नमेः, मूर्णि, ॎ पतक्तश्छन्त्दसे नमेः, मुख,


ॎ ित्रपुरसुन्त्दयै देवतायै नमेः, हृफद, ॎ ऐं बीजाय नमेः, गुह्ये,
ॎ सौेः िक्तये नमेः पादयोेः, ॎ ललीं कीलकाय नमेः, नाभौ ॥६-८॥

इस महािवद्या के सभी न्त्यास प्रारम्भ में माया (ह्रीं), श्री बीज (श्रीं), लगाकर करना चािहए । िबन्त्द ु सिहत श्री कण्ठ एवं
अनन्त्त (अं आं) सगग सिहत सौ वणग अथागत् (सौेः), इन वणों के अन्त्त में नमेः लगाकर िमिेः मध्यमा, अनािमका, किनिष्ठका,
अङ् गुष्ठ और तजगनी तथा करतल मध्य में न्त्यास करे । इस न्त्यास को करिुििन्त्यास कहते हैं ॥८-१०॥

िवमिग - करिुििन्त्यास यथा -


ह्रीं श्रीं अं मध्यमाभ्यां नमेः, ह्रीं श्रीं आं अनािमकाभ्यां नमेः,
ह्रीं श्रीं सौेः किनिष्ठकाभ्यां नमेः, ह्रीं श्रीं अं अगुष्ठाभ्या नमेः,
ह्रीं श्रीं आं तजगनीभ्या नमेः, ह्रीं श्रीं सौेः करतकरपृष्ठाभ्यां नमेः ॥८-१०॥

सवगप्रथम देव्यासन फिर िमिेः चिासन सवगमन्त्त्रासन एवं साध्यिसिासन को चतुथ्व्यगन्त्त कर अन्त्त में ‘नमेः’ लगा कर, पुनेः
आफद में अपने-अपने बीजाक्षरों को लगाकर पैर. जंघा, जानु और िलङ्ग स्थानोम में न्त्यास करना चािहए ॥११-१२॥

१. प्रथमासन से पूवग माया (ह्रीं), काम (ललीं) और ििक्त (सौेः) लगाना चािहए । २. िवयदारुढ वाग् (हैं), काम (ललीं), और
ििक्त (सौेः) को िद्वतीय आसन के साथ लगाकर, इन्त्हीं बीजों को तृतीय आसन के प्रारम्भ में लगाकर तथा माया (ह्रीं), काम
(ललीं) और फिर भग तथा िबन्त्द ु सिहत िान्त्त मांस (ब्लें) को चतुथग आसन से पूवग में लगाकर आसन न्त्यास करना चािहए
॥१२-१४॥

िवमिग - आसनन्त्यास यथा - ह्रीं श्रीं ह्रीं ललीं सौेः देव्यासनाय नमेः, पादयोेः ।
ह्रीं श्रीं हैं ललीं सौेः चिासनाय नमेः, जंघयोेः ।
ह्रीं श्रीं हैं ललीं सौेः सवगमन्त्त्रासनाय नमेः जान्त्वोेः, ।
ह्रीं श्रीं ह्रीं ललीं ब्लें साध्यिसिासनाय नमेः, िलङ्गे ॥११-१४॥

मन्त्त्र के िमिेः ५, ३, १, १, १ और ५ वणो से िवद्वान् साधक इस प्रकार षडङ्गान्त्यास करे ॥१५॥

िवमिग - षडङ्गन्त्यास - श्रीं ह्रीं ललीं ऐं सौेः हृदयाय नमेः,


ॎ ह्रीं श्रीं ििरसे स्वाहा, कएईलह्रीं ििखायै वषट्,
ह्सकहलह्रीं कवचाय हुम् सकलहीं नेत्रत्रयाय वौषट्
सौेः ऐं ललीं ह्रीं श्रीं अस्त्राय िट् ॥१५॥

जगद्विीकरण न्त्यास - मूल मन्त्त्र के आफद में प्रणव (ॎ) तथा अन्त्त में ‘नमेः० लगाकर, मध्यमा और अनािमका अङ् गुिलयों से
अमृत की वषाग करती हुई और उसी से अपने िरीर को आप्लािवत करती हुई, ब्रह्यरन्त्र में िस्थत प्रदीप कािलका के समान
आकार वाली, सौभाग्यदा देवी का ध्यान करते हुये ििर में न्त्यास करना चािहए ॥१६-१७॥

तदनन्त्तर बायें कान में परसौभाग्यदिण्डनी मुरा कर, बायीं ओर के ििर से पैर तक प्रणवाफद नमोन्त्त मूलमन्त्त्र का न्त्यास करना
चािहए ॥१८॥

फिर ‘सभी लोकों का कत्ताग मैं हुूँ’ ऐसा ध्यान कर ित्रखण्डमुरा फदखाकर प्रणवाफद नमोन्त्त मूल मन्त्त्र का ललाट में न्त्यास करना
चािहए ॥१९॥

फिर ‘मैं अपने सभी ित्रुओं का िनग्रह कर रहा हैं’, इस प्रकार की भावना कर ररपुिजहवाग्रहामुरा फदखाते हुये प्रणवाफद
नमोन्त्त मूल मन्त्त्र का पादमूल में न्त्यास करना चािहए ॥२०॥

प्रणवाफद नमोन्त्त मूल मन्त्त्र का न्त्यास उसी प्रकार मुख के ऊपर घुमाते हुये दािहने कान से बायें कान तक करे तथा उसी प्रकार
कण्ठ से मुख तक पुनेः प्रणव संपुरटत िवद्या का सवागङ्ग में न्त्यास करना चािहए । तदनन्त्तर मुख पर योिन मुरा बाूँधकर
ित्रपुरसुन्त्दरी देवी को प्रणाम करना चािहए । यहाूँ तक जदििीकरणन्त्यास कहा गया ॥२१-२२॥

अब सम्मोहन न्त्यास कहते हैं - ब्रह्यरन्त्र में, मिणबन्त्ध में तथा ििर में अङ्ग्गुष्ठ एवं अनािमका अङ् गुलोयों से मूल मन्त्त्र का
उिारण कर देवी की आभा से लालवणग वाले िवश्व का ध्यान करते हुये न्त्यास करना चािहए । इस न्त्यास का नाम सम्मोहन हैं
। जगद्विीकरण न्त्यास इसके पहले कहा जा चुका है ॥२३-२४॥

अब संहारन्त्यास कहते हैं - दोनों पैर, जंघा, जानु, करटभाग, िलङ्ग, पीठ, नािभ, पाश्वग स्तन, कन्त्धे, कान, ब्रह्यरन्त्र, मुख,
नेत्र, कान, और कणगिष्कु ली इन सोलह स्थानों में यथािमेण षोडिक्षर मन्त्त्र के एक एक अक्षर का न्त्यास करना चािहए । यह
संहारन्त्यास कहा गया है । इसके बाद वाग्देवता नामक न्त्यास करना चािहए ॥२५-२६॥

संहारन्त्यास - १. श्रीं नमेः पादयोेः


२. ह्रीं नमेः, जघयोेः
३. ललीं नमेः, जान्त्वोेः
४. ऐं नमेः, करटभागयोेः
५. सौेः नमेः, िलङ्गे
६. ॎ नमेः, पृष्ठे
७. ह्रीं नमेः, नािभदेिे
८. श्रीं नमेः, पाश्वगयोेः
९. कएईलह्रीं नमेः, स्तन्त्योेः
१०. हसकहलह्रीं नमेः, अंसयोेः
११. सकलह्रीं नमेः, कणगयोेः
१२. सौं नमेः ब्रह्यरन्त्रे
१३. ऐं नमेः, मुखे
१४. ललीं नमेः, नेत्रयोेः
१५. ह्रीं नमेः, कणगयोेः
१६. श्री नमेः, कणगिष्कु ल्योेः
अब वाग्देवता के बीज एवं स्थानों का नाम बतलाता हूँ ॥२७॥

अिि (र), भूधर (व), मांस (ल) एवं ििांक अनुस्वार सिहत अघीि (दीघग ऊकार), इस प्रकार (रब्लूूँ) यह प्रथम वाग्बीज
िनष्पन्न होता है, इसके पहले १६ स्वरों को लगाकर अन्त्त में वििनी लगाकर ििर में न्त्यास करना चािहए ॥२८॥

िोधीि (क), मांस (ल) के साथ माया (ह्रीं), इस प्रकार ‘कलह्रीं’ यह दूसरा वाग्बीज बनता है । इसके पहले क वगग लगाकर
तथा अन्त्त में कामेश्वरी लगाकर ललाट में न्त्यास करना चािहए ॥२९॥

दीघग (नकार) खड् गीि (ब) एवं रान्त्त (ल) से युक्त िािन्त्त दीघग इकार’ एवं िवन्त्द ु लगाने पर (न्त्ब्लीं) यह तृतीय वाग्बीज बनता
है । इसके पहले च वगग तथा अन्त्त में मोिहनी लगाकर भ्रूमध्य में न्त्यास करे ॥३०॥

अघीि (ऊ) वायु (य) मांस (ल) और िवन्त्द ु से युक्त जो हों इस प्रकार (य्लूूँ) यह चतुथग वाग्बीज बनता है । इसके पूवग में ट वगग
तथा िवमला लगाकर कण्ठ में न्त्यास करना चािहए ॥३१॥

वामनेत्र (ई) िूली (ज) वैकुण्ठ (म) तथा रे ि जो सिवन्त्द ु हों इस प्रकार ‘ज्म्रीं’ पञ्चम वाग्बीज बनता है । इसके पहले त वगग
तथा अन्त्त में अरुणा लगाकर हृदय में न्त्यास करना चािहए ॥३२॥

िवयद् (ह) हंस (स) मांस (ल) बाल (व) एवं अिनल ‘य’ के साथ सिवन्त्द ु कणग ऊकार इस प्रकार ‘ह्स्ल्व्यू’ूँ यह षष्ठ वाग्बीज
बनता है । इसके पहले पवगग तथा ‘जियनी’ लगाकर नािभ में न्त्यास करना चािहए ॥३३॥

पािी (झ) तन्त्री (म) रे ि वायु (य) उससे संयुक्त इन्त्र (अनुस्वार) और दीिपका (ऊकार) इस प्रकार ‘र्झ्म्यूं’ यह सप्तम वाग्बीज है
। इसके पहले य वगग तथा अन्त्त में ‘सवेश्वरी’ लगाकर कर मूलाधार में न्त्यास करना चािहए ॥३४॥

संवत्तगक (क्ष), ‘महाकाल’ (म) एवं रे ि के साथ स िवन्त्द ु िािन्त्त इस प्रकार ‘क्ष्म्री’ यह अष्टम वाग्बीज बनता है । इसके पूवग में ि
वगग तथा अन्त्त में ‘कौिलनी’ लगाकर ऊरु से पैरों तक न्त्यास करना चािहए ॥३५॥
उपयुक्त सभी न्त्यासोम के अन्त्त में वाग्देवतायै तथा नमेः सवगत्र जोडना चािहए इस प्रकार वाग्देवता का न्त्यास कहा गया है ।
इसके बाद सृिष्टन्त्यास करना चािहए ॥३६॥

िवमिग - वाग्देवता न्त्यास -


१. अं आं इं ईं उं ऊं ऋं ऋं लृं लृं अं ऐं ओं औं अं अेः ब्लूं
२. कं खं गं घं ङं कलह्रीं कामेश्वरी वाग्देवयायै नमेः, ललाटे ।
३. चं छं जं झं ञं न्त्ब्लीं मोिहनी वाग्देवतायै नमेः, भूमध्ये ।
४. टं ठ्म डं ढं ण य्लूं िवमला वाग्देवतायै नमेः, कण्ठे ।
५. तं थं दं धं नं ज्म्रीं अरुणा वाग्देवतायै नमेः, नाभौ ।
६. पं िं बं भं मं हरस्ल्व्यूूँ जियनी वाग्देवयायै नमेः, नाभौ ।
७. यं रं लं वं र्झ्म्रयूूँ सवेश्वरी वाग्देवतायै नमेः, मूलाधारे ।
८. िं षं सं हं लं क्षं क्ष्म्रें कोिलनी वाग्देवतायै नमेः, उवागफदपादान्त्तम् ।

सृिष्टन्त्यास - ब्रह्यरन्त्र, ललाट, नेत्र, कान, नािसका, गण्डस्थल, दाूँत, होठ, िजहवा, मुख, पीठ, सवांङ्ग, हृदय, स्तन, कु िक्ष,
एवं िलङ्ग पर िमिेः मन्त्त्र के एक एक अक्षर का न्त्यास करना चािहए । तदनन्त्तर समस्त मन्त्त्र से व्यापक करना चािहए
॥३७-३९॥

िवमिग - सृिष्टन्त्यास िविध - १. श्रीं नमेः ब्रह्यरन्त्र,े


२. ह्रीं नमेः ललाटे,
३. ललीं नमेः नेत्रयोेः,
४. ऐं नमेः कणगयोेः
५. सों नमेः नासोेः,
६. ॎ नमेः गण्डयोेः,
७. ह्रीं नमेः दन्त्तेषु,
८. श्रीं नमेः ओष्ठयोेः
९. कएईलह्रीं नमेः िजहवायाम्
१०. हसकहलह्रीं नमेः मुखमध्ये,
११. सकलह्रीं नमेः पृष्ठ,े
१२. सौं नमेः सवांङ्गे
१३. ऐं नमेः हृफद,
१४. ललीं नमेः स्तनयोेः,
१५. ह्रीं नमेः कु क्षौ
१६. श्रीं नमेः िलङ्गे ॥३७-३८॥
इस प्रकार सृिष्टन्त्यास करने के बाद साधक को िस्थितन्त्यास इस प्रकार करना चािहए - अङ् गूठे सिहत पाूँचों अंगुिलयों,
ब्रह्मरन्त्र, मुख, हृदय, फिर नािभ से परर तक, कण्ठ से नािभ तक, ब्रह्मरन्त्र से कण्ठ,फिर पैरों की पाूँचों अङ् गुिलयों में िमिेः
मन्त्त्र के १-१ वणग का न्त्यास करना चािहए ॥३९-४०॥

िवमिग -
१. श्रीं नमेः, अङ् गुष्ठयोेः
२. ह्रीं नमेः तजगन्त्योेः
३. ललीं नमेः, मध्यमयोेः
४. ऐं नमेः अनािमकयोेः
५. सौेः नमेः, किनिष्ठकयोेः
६. ॎ नमेः, ब्रह्मरन्त्रे
७. ह्रीं नमेः मुखे
८. श्रीं नमेः हृफद
९. कएईलह्रीं नमेः नाम्याफद पादान्त्तम्
१०. ह्सकहलह्रीं नमेः, कण्ठफदनाभ्यन्त्तम्
११. सकलह्रीं नमेः, ब्रह्मरन्त्घ्रात् कण्ठान्त्तम्
१२. सौेः नमेः, पादागुष्ठयोेः
१३. ऐं नमेः पादतजगन्त्योेः
१४. ललीं नमेः, पादमध्ययोेः
१५. ह्रीं नमेः, पादानािमकयोेः
१६. श्रीं नमेः, पादकिनष्ठयोेः ॥३९-४०॥

अब सम्पूणग अभीष्टों को देने वाले पञ्चवृित्त रुप पञ्चिवध न्त्यास कहता हूँ िजसके करने से साधक तद्रुपता प्राप्त कर लेता है
॥४१॥

ििर मुख, दोनो नेत्र, दोनों कान, दोनों नािसका, दोनों गाल, दोनों ओष्ठ, मुखकू प, दोनों दन्त्त पिक्तयाूँ तथा मुख में िवद्या के
एक-एक वणग से न्त्यास करना चािहए । यह प्रथम न्त्यास है ॥४२-४३॥

ििखा, ििर, ललाट, भ्रू, नािसका और मुख में मन्त्त्र के ६ वणो का तथा दोनों हाथों की सिन्त्ध एवं अग्रभाग में िेष वणो का
न्त्यास करना चािहए । यह िद्वतीय न्त्यास कहा जाता है ॥४३-४४॥

ििर, ललाट, दोनों नेत्र, मुख और िजहवा पर मन्त्त्र के ६ वणग का तथा दोनों पैरों की सिन्त्धयों और उनके अग्रभाग पर िेष
वणो का न्त्यास करना चािहए यह तृतीय न्त्यास है ॥४४-४५॥

मातृकाओं में बतलाये गये स्वरस्थानों में (र १.८९) मन्त्त्र के १६ वणो का न्त्यास करना चािहए । यह चतुथग न्त्यास है ॥४५॥

ललाट कण्ठ, हृदय, नािभ, मूलाधार, ब्रह्यरन्त्र, मुख, गुदा, मूलाधार, हृदय, ब्रह्मरन्त्र, दोनों हाथ, दोनों परर तथा हृदय में
मन्त्त्र के एक एक अक्षर का न्त्यास करना चािहए । यह पञ्चम न्त्यास है ॥४५-४६॥

इस प्रकार न्त्यास करने के बाद प्रणव संपुरटत िवद्या के संपूणग मन्त्त्रों से सभी अङ्गों में व्यापक न्त्यास करना चािहए । पुनेः मूल
िवद्या में नमेः लगाकर हृदय में न्त्यास करना चािहए ॥४७॥

िवमश्यग - पञ्चावृित्त नामक न्त्यास का प्रथम न्त्यास -


१. ॎ नमेः, मूर्णि
२. ह्रीं नमेः, वलत्रे
३. ललीं नमेः, दिक्षणनेत्रे
४. ऐं नमेः, वामनेत्रे
५. सौेः नमेः, दिक्षणकणे
६. ॎ नमेः, वामकणे
७. ह्रीं नमेः, दक्षनासायाम्
८. श्रीं नमेः, वामसायाम्
९. कएईलह्रीं नमेः, दिक्षण गण्डे
१०. हसकलह्रीं नमेः, वामगण्डे
११. सकलह्रीं नमेः, ऊध्वोष्ठे
१२. सौेः नमेः, ऊध्वगदन्त्तपङ् क्तौं
१३. ऐं नमेः, वलत्रमध्ये
१४. ललीं नमेः, ऊध्वगदन्त्तपङ् क्तौं
१५. ह्रीं नमेः, अधोदन्त्तपङ् क्तौ
१६. श्री नमेः, वदने

िद्वतीयन्त्यास -
१. श्रीं नमेः ििखायाम्
२. ह्रीं नमेः ििरिस,
३. ललीं नमेः नासायाम्,
४. ऐं नमेः भुवोेः
५. सौेः नमेः नासायाम्,
६. ॎ नमेः वलत्रे
७. ह्रीं नमेः दिक्षण बाहुमूले,
८. श्रीं नमेः दिक्षणा कू पगरे
९. कएईलह्रीं नमेः दिक्षणमिणबन्त्धे
१०. हसकहलह्रीं नमेः अङ् गुिलमूले
११. सकलह्रीं नमेः अङ् गुल्यग्रे
१२. सौेः नमेः वामबाहुमूले
१३. ऐं नमेः वामकू पगरे
१४. ललीं नमेः वाममिणबन्त्धे
१५. ह्रीं नमेः अङ् गुिलमूले
१६. श्रीं नमेः अंगुल्यग्रे

तृतीयन्त्यास
१. श्रीं नमेः ििरिस
२. ह्रीं नमेः ललाटे
३. ललीं नमेः दिक्षणनेत्रे
४. ऐं नमेः वामनेत्रे
५. सौेः नमेः मुखे
६. ॎ नमेः िजहवायाम्
७. ह्रीं नमेः पदक्षपादमूले
८. श्रीं नमेः दक्षग्रल्िे
९. कएईलह्रीं नमेः दक्षजंघायाम्
१०. हसकहलह्रीं नमेः दक्षपादांगुिल
११. सकलह्रीं नमेः दक्षपादांगुल्यग्रे
१२. सौेः नमेः वामपादमूले
१३. ऐं नमेः वामगुल्िे
१४. ललीं नमेः वामजघायाम्
१५. ह्रीं नमेः वामपादागुिलमूले
१६. श्रीं नमेः वामपादागुल्यग्रे

चतुथगन्त्यास
१. श्रीं नमेः ललाटे
२. ह्रीं नमेः मुखवृत्रे
३. ललीं नमेः दक्षनेत्रे
४. ऐं नमेः वामनेत्रे
५. सौेः नमेः दक्षकणे
६. ॎ नमेः वामकणे
७. ह्रीं नमेः दक्षनासायाम्
८. श्रीं नमेः दक्षनासायाम्
९. कएईलह्रीं नमेः गण्डे
१०. हसकहलह्रीं नमेः वामगण्डे
११. सकलह्रीं नमेः ऊध्वोष्ठे
१२. सौेः नमेः अधरे
१३. ऐं नमेः ऊध्वगदन्त्तपंक्तौ
१४. ललीं नमेः अधेःदन्त्तपंक्तौ
१५. ह्रीं नमेः ब्रह्मरन्त्रे
१६. श्रीं नमेः मुखे

पञ्चमन्त्यास
१. श्रीं नमेः ललाटे
२. ह्रीं नमेः कण्ठे
३. ललीं नमेः हृफद
४. ऐं नमेः नाभौ
५. सौेः नमेः मूलाधारे
६. ॎ नमेः ब्रह्मरन्त्रे
७. ह्रीं नमेः मुखे
८. श्रीं नमेः गुदे
९. कएईलह्रीं नमेः मूलाधारे
१०. हसकहलह्रीं नमेः हृफद
११. सकलह्रीं नमेः ब्रह्मरन्त्रे
१२. सौेः नमेः दिक्षणमुखे
१३. ऐं नमेः वामहस्ते
१४. ललीं नमेः दिक्षणपादे
१५. ह्रीं नमेः वामपादे
१६. श्रीं नमेः हृफद

इस प्रकार पाूँच बार में पञ्चवृित्त न्त्यास कर ‘ॎ श्रीं ह्रीं ललीं ऐं सौेः, ॎ ह्रीं श्रीं कएईलह्रीं हसकहलह्रीं सकलहीं सौेः ऐं ललीं ह्रीं
श्री मन्त्त्र द्वारा सभी अङ्गों में व्यापक न्त्यास करे । फिर इसी मन्त्त्र के अन्त्त में ‘नमेः’ लगाकर हृदय में न्त्यास करे ॥४२-४७॥
सौभाग्य की इच्छा करने वाले साधक को षोढान्त्यास आफद सभी न्त्यास और ध्यान चािहए । ग्रन्त्थ िवस्तार के भय से हम यहाूँ
उनको नहीं िलख रहे हैं तथा प्रिसि होने के कारण यहाूँ उनके बतलाने की आवश्यकता भी नहीं है ॥४८॥

फिर प्रणायाम कर षडङ्गन्त्यास करने के बाद मुरायें प्रदर्णित करनी चािहए । १. संिक्षिभणी २. रावणी, ३. आकषगणी, ४.
वश्या, ५. उन्त्माद, ६. महाड् कु िा, ७. खेचरी, ८. बीज एवं ९. महायोिन - ये ९ मुरायें देवी की िप्रय मुरायें हैं । मुरा फदखाने
के बाद श्रीमित्त्रपुरसुन्त्दरी का ध्यान ११. ५१ श्लोक के अनुसार करना चािहए ॥४९॥

अब महाश्रीित्रपुरसुन्त्दरी देवी का ध्यान कहते हैं -


उदीयमान सूयगमण्डल के समान कािन्त्त वाली, ित्रनेत्रा, लालवणग के वस्त्र से सुिोिभत, अनेक आभूषणों से अलंकृत, देहवाली
िद्वतीया के चन्त्रमा को अपने ििर पर धारण फकये हुये, अपने चारों हाथों में िमिेः इक्षुधनु, अंकुि, पुष्पबाण एवं पाि धारण
करने वाली श्री चि पर िवराजमान एवं तीनों लोकों की आधारभूता भगवती श्रीमित्त्रपुरसुन्त्दरी देवी का ध्यान करना चािहए
॥५१॥

श्रीमित्त्रसुद्नरी के मन्त्त्र का एक लाख जप करना चािहए तथा ित्रमधुर (िकग रा,मधु,घृत) िमिश्रत कनेर के िू लों से िविधवत्
पूिजत अिि में होम करना चािहए ॥५२॥

अब पूजा करने के िलए श्रीचि यन्त्त्र का उिार कहते हैं -

गभगस्थ िबन्त्द ु सिहत िलखकर उसके ऊपर अष्टदल कमल िलखना चािहए । फिर उसके ऊपर दिदल कमल िलखना चािहए ।
फिर उसके ऊपर िमिेः एक दिदल, चतुदि
ग दल, अष्टदल एवं षोडिदल िलखना चािहए । तत्पश्चात् तीन रे खायुक्त भूपुर से
इसे वेिष्टत करना चािहए ॥५३-५४॥

अब पात्र स्थापन पूवगक श्रीिवद्या के पूजन की िविध कहता हूँ -


जो स्वर चल हो उस हाथ से अपने आगे वक्ष्यमाण यन्त्त्र िलखें - प्रथम ित्रकोण बनाकर उसके ऊपर षट्कोण िलखें । फिर वृत्त,
तदनन्त्तर भूपुर का िनमागण करे । ित्रकोण के मध्य बाला मन्त्त्र से पूजन करना चािहए । तदनन्त्तर उसके तीनों कोणों की पूजा
बाला के तीनों बीजों से करनी चािहए । तदनन्त्तर इन्त्हीं बीजों के अनुलोम तथा िवलोम िम से षट् कोणों की पूजा करनी
चािहए ॥५५-५७॥

फिर उस यन्त्त्र पर ‘अस्त्राय िट् ’ मन्त्त्र से प्रक्षािलत पात्राधार को स्थािपत करना चािहए । तदनन्त्तर ३१ अक्षरों वाले वक्ष्यमाण
मन्त्त्र से उस आधार की पूजा करनी चािहए ॥५७-५८॥

दीघगयेन्त्दय
ु ुक् विहन (रां रीं रुूँ ), फिर ‘र’ तथा भान्त्त (म), फिर ‘ल व र’ एवं अिनल (य) ये सभी वामकणेन्त्द ु (ऊ) के साथ
अथागत् (र्म्ल्व्यूं), फिर सेन्त्द ु र (रं ), फिर ‘अििमण्डला’ पद, फिर वायु (य), फिर चतुथ्व्यगन्त्त ‘धमगप्रददिकलात्मा’ फिर वाग्बीज
(ऐं), कलािाधारा, फिर पवन (य) तथा अन्त्त में ‘नमेः’ तथा प्रारम्भ में प्रणव लगाने से ३१ अक्षरों का आधारपात्रं की पूजा का
मन्त्त्र बनता है ॥५९-६०॥

िवमिग - मन्त्त्र का स्वरुप इस प्रकार है - ‘ॎ राूँ रीं रुूँ र्म्ल्व्यूं रं अििमण्डलाय धमगप्रददिकलात्मने ऐं कलिाधाराय नमेः ॥५९-
६०॥

पुनेः उस आधारपत्र के ऊपर प्रदिक्षण िम से अिि की दि कलाओं का पूजन करना चािहए, १. धूम्रार्णच, २. ऊष्मा, ३.
ज्विलनी, ४. ज्वािलनी, ५. िवस्िु िलिङ्गनी, ६. सुश्री, ७. सुरुपा, ८. किपला, ९. हव्यवहा,एवं १०. कव्यवहा ये सिवन्त्द ु
यकार आफद दिवणो के साथ अिि की कलायें कहीं गई हैं । इनके नाम के बाद ‘कलाश्री पादुकां पूजयािम’ इतना पद िमलाकर
पूजन करना चािहए इसके बाद उसमें प्राणप्रितष्ठा करनी चािहए ॥६१-६३॥

यहाूँ तक आधार पात्र की पूजा कही गई । अब आधार पर रखे जाने वाले कलिाफद का पूजन कहते हैं - प्रथम अस्त्राय िट् इस
मन्त्त्र से उस सुवणागफद िनर्णमत्त कलि को प्रक्षािलत करे । तदनन्त्तर उसे आधारपात्र पर रखकर वक्ष्यमाण ३० अक्षरों वाले
मन्त्त्र पूजन करना चािहए ॥६४॥

दीघगत्रयेन्त्द ु सिहत िवयत् (हां हीं हूँ) फिर ‘ह मेः’ मांस (ल) ‘व र’ अिनल (य) ये सभी अघीि िवन्त्द ु सिहत (ह्म्व्रयूूँ), फिर सेन्त्द ु
ख (हं), फिर ‘सूयगमण्डला’, फिर वायु (य), फिर ‘वसुप्रदद्वादिकलात्मने’ पद, फिर मन्त्मथ (ललीं), फिर ‘कलिाय नमेः’ इस
मन्त्त्र क ए आफद में प्रणव लगाने से ३० अक्षरों का कलि पूजन मन्त्त्र बनता है ॥६४-६६॥

िवमिग - मन्त्त्र का स्वरुप इस प्रकार है - ॎ हां हीं हं ह्म्ल्व्य्रयूूँ हं सूयगमण्डलाय वसुप्रदद्वािकलात्मने ललीं कलिाय नमेः ॥६४-
६६॥

तदनन्त्तर कलि के ऊपर सूयग की द्वादि कलाओं का पूजन करना चािहए । १. तिपनी, २. तिपनी, ३. धूम्रा, ४. मरीिच, ५.
ज्विलनी, ६. रुिचर, ७. सुषम्न
ु ा, ८. भोगदा, ९. िवश्वा, १०. बोिधनी, ११. धाररणी एवं १२. क्षमा इन कलाओं की अनुलोम
ककाराफद तथा िवलोम भकराफद िमों से युक्तकर पूजन करना चािहए ॥६७-६९॥

इस प्रकार सूयग की द्वादि कलाओं के पूजन के पश्चात् मातृका वणो के साथ मूलमन्त्त्र बोलकर कलि को जल से पूणग करना
चािहए । फिर बित्तस अक्षरों से युक्त वक्ष्यमाण मन्त्त्र से कलि का पूजन करना चािहए ॥६९-७०॥

दीघगयत्र एवं िबन्त्द ु से युक्त भृगु (स), स म् ल् अम्बु (व्), अिि (र्) एवं वायु (य्), इन्त्हें अघीिेन्त्द ु से युक्त स्म्ल्व्रयू,ूँ फिर हंस
(सं), ‘सोमामण्डलाय कामप्रद षोडि’ के बाद चतुथ्व्यगन्त्त ‘कलात्मा’ पद (कलात्मने), फिर ‘मनुिवसगागढ्य भृगु सौेः’ फिर
चतुथ्व्यगन्त्त कलिामृत (कलिामृताय), इस प्रकार िनष्पन्न मन्त्त्र के आफद में तार (ॎ) तथा अन्त्त में हृदय ‘नमेः’ लगाने पर ३२
अक्षर का मन्त्त्र बनता है ॥७०-७२॥

िवमिग - मन्त्त्र का स्वरुप इस प्रकार है - ॎ सां सीं सूं स्म्ल्व्रयूूँ सं सोममण्डलाय कामप्रदषोिकलात्मने सौेः कलिामृताय नमेः
॥७०-७२॥

फिर कलि के जल में १६ स्वरों के साथ चान्त्री कलाओं का पूवगवत् पूजन करना चािहए । १. अमृता, २. मानदा, ३. पूषा,
४. तुिष्ट, ५. पुिष्ट, ६. रित, ७. धृित, ८. िििनी, ९. चिन्त्रका, १०. कािन्त्त, ११. ज्योत्स्ना, १२. श्री, १३. प्रीित, १४.
अङ्गदा, १५, पूणाग एवं १६. पूणागमृता ये चान्त्री कलाओं के नाम हैं ॥७३-७४॥

इसी प्रकार भैरव तथा सुधा देवी का अपने अपने मन्त्त्रों से पूजन करना चािहए । ह स् क्ष् म् ल्, पानीय (विहन) (र्) इन्त्हें
अघीि िबन्त्द ु से युक्त करने पर ‘ह्स्क्ष्म्ल्व्रु’ यह बीज, बाद ‘आनन्त्दभैरवाय वौषट् ’ यह १० अक्षरों बाला भैरव मन्त्त्र है, तथा
पूवोक्त बीज में इस ७ अक्षरों हस का िवपयगय करने से ‘ह्क्ष्म्गल्व्रु’ फिर ‘सुधा देव्यै वौषट् ’ यह सुधा देवी का मन्त्त्र बनता है । इस
प्रकार पूजन करने के बाद मत्स्य, अस्त्र, कवच एवं धेनु मुरायें प्रदर्णित करनी चािहए । फिर सिन्नरोिधनी मुरा से सिन्नरोध कर
कलि के जल में मुिल, चि, महामुराअ एवं योिन मुरायें प्रदर्णित करनी चािहए ॥७५-७९॥
इस प्रकार कलि स्थापन कर उसके दिक्षणभाग में पूवोक्त रीित से िंख एवं िविेषाघ्नयग भी करना चािहए। पुनेः अघ्नयग में
अकाराफद, ककाराफद और थकराफद रे खाओं से तथा मध्य में ह क्ष वणो से सुिोिभत ित्रकोण का ध्यान कर उसमें ‘ऐं ललीं सौेः
मन्त्त्र से बाला का पूजन करना चािहए ॥७९-९०॥

तदनन्त्तर अष्टाक्षर मन्त्त्र से ज्योितमगयी देवी का पूजन करना चािहए । तार (ॎ) माया (ह्रीं) इन्त्र युक्त व्योम (हं) सगी भृगु
(सेः) ससद्य भृगु सौेः िबन्त्द ु युक् वराह (हं) एवं ‘स्वाहा’ लगाने से अष्टाक्षर मन्त्त्र बनता है ॥८१॥

िवमिग - मन्त्त्र का स्वरुप इस प्रकार है - ‘ॎ ह्रीं हंसेः सोेः हं स्वाहा’ ॥८१॥

फिर मूल मन्त्त्र को तीन बार जप कर मत्स्य आफद पूवोक्त ९ मुरायें प्रदर्णित करनी चािहए । िंख एवं अघ्नयग स्थापन में कलि
िब्द के स्थान में उनका अथागत् िङ् ख पद और अघ्नयग पद का नाम लेना चािहए ॥८२-८३॥

इस प्रकार पात्रों के स्थापन के बाद अघ्नयगपात्र का जल लेकर उस जल से पूजा सामग्री पर और अपने ऊपर जल िछडके ,
तदनन्त्तर मानसोपचार से देवी का पूजन एवं उनकी पीठ पूजा करनी चािहए ॥८३-८४॥

िवमिग - पात्रस्थान िविध संक्षेप में इस प्रकार है - पात्रस्थापन के िलए सवगप्रथम दिक्षण या वाम जो स्वर चल रहा हो उस
हाथ से ित्रकोण, उसके ऊपर षट् कोण वृत्त एवं भूपुर युक्त यन्त्त्र िलखना चािहए । उसके मध्य भाग की ‘ऐं ललीं सौेः’ मन्त्त्र से
पूजा करे तथा बाला के तीन बीजों से ित्रकोण के एक एक कोणों की, फिर इन्त्हीं बीजों को अनुलोम एवं िवलोम ‘ऐं ललीं सौेः’
एवं ‘सौेः ऐं ललीं’ इन ६ बीजों से पूजा करे ।

तदनन्त्तर अस्त्राय िट् इस मन्त्त्र से प्रक्षािलत पात्राधार को उक्त यन्त्त्र के मध्य मे रख कर ‘ॎ रां रीं म्ल्ब्यूं रं अििमण्डलाय
धमगप्रददिकलात्मने ऐं पात्राधार के ऊपर अिि की दिकलाओं का इस प्रकार पूजन करे -

१. यं धूम्रार्णचषे नमेः धूम्रार्णचकला श्रीपादुकां पूजयािम नमेः ।


२. रं ऊष्मायै नमेः ऊष्मार्णचकला श्रीपादुकां पूजयािम नमेः ।
३. लं ज्विलन्त्यै नमेः ज्विलनीकला श्रीपादुकां पूजयािम नमेः ।
४. वं ज्वािलन्त्यै नमेः ज्वािलनीकला श्रीपादुकां पूजयािम नमेः ।
५. िं िवस्िु तलिगन्त्यै नमेः िवस्िु तलिगनीकला श्रीपादुकां पूजयािम नमेः ।
६. षं सुिश्रयै नमेः सुश्रीकला श्रीपादुकां पूजयािम नमेः ।
७. सं सुरुपायै नमेः सुरुपाकला श्रीपादुकां पूजयािम नमेः ।
८. हं किपलािय नमेः किपलाकला श्रीपादुकां पूजयािम नमेः ।
९. ळं हव्यवहायै नमेः हव्यवहाकला श्रीपादुकां पूजयािम नमेः ।
१०. क्षं कव्यवहायै नमेः कव्यवहाकला श्रीपादुकां पूजयािम नमेः ।

इसके बाद इन कलाओं पर अस्यै प्राणा प्रितष्ठन्त्तु इत्याफद मन्त्त्र से प्रत्येक की प्राणप्रितष्ठा करनी चािहए ।

इतना करने के बाद आधार पर अस्त्राय िट् इस मन्त्त्र से प्रक्षािलत स्वणागफद िनर्णमत कलि रख कर ‘ॎ हां हीं हूँ ह्म्ल्रयूूँ हं
सूयगमण्डलाय वसुप्रद द्वादिकलात्मने ललीं कलिाय नमेः’ मन्त्त्र से कलि का पूजन करना चािहए । फिर उस कलि पर तिपनी
आफद सूयग की द्वादि कलाओं का इस प्रकार पूजन करनी चािहए ।
कं भं तिपन्त्यै नमेः तिपनीकला श्रीपादुकां पूजयािम नमेः ।
खं बं तािपन्त्यै नमेः तािपनीकला श्रीपादुकां पूजयािम नमेः ।
गं िं धूम्रायै नमेः धूम्राकला श्रीपादुकां पूजयािम नमेः ।
घं पं मरीच्यै नमेः मरीिचकला श्रीपादुकां पूजयािम नमेः ।
डं नं ज्वािलन्त्यै नमेः ज्वािलनीकला श्रीपादुकां पूजयािम नमेः ।
चं धं रुच्यै नमेः रुिचकला श्रीपादुकां पूजयािम नमेः ।
छं दं सुषुम्णायै नमेः सुषम्ु णाकला श्रीपादुकां पूजयािम नमेः ।
जं थं भोगदायै नमेः भोगदाकला श्रीपादुकां पूजयािम नमेः ।
झं तं िवश्वायै नमेः िवश्वाकला श्रीपादुकां पूजयािम नमेः ।
ञं णं बोिधन्त्यै नमेः बोिधनीकला श्रीपादुकां पूजयािम नमेः ।
टं ढं धाररण्यै नमेः धाररणीकला श्रीपादुकं पूजयािम नमेः ।
ठं डं क्षमायै नमेः क्षमाकला श्रीपादुकां पूजयािम नमेः ।

तत्पश्चात् अं .... क्षं पयगन्त्त स्वरुअव्यञ्जनान्त्त ५१ मातृकाओं के साथ मूल मन्त्त्र बोलकर कलि को जल से पूणग करे । फिर ‘ॎ
सां सीं सूं स्म्ल्व्रुं सं सोममण्डलाय कामप्रदषोडिकलात्मने सौेः कलिामृताय नमेः’ मन्त्त्र से कलिोदक का पूजन करे । फिर
कलि के जल में अमृता आफद १६ चन्त्र कलाओं का इस प्रकार पूजन करे ।
अं अमृतायै नमेः अमृताकला श्रीपादुकां पूजयािम नमेः ।
आं मानदायै नमेः मानदाकला श्रीपादुकां पूजयािम नमेः ।
इं पूषायै नमेः पूषाकला श्रीपादुकां पूजयािम नमेः ।
ईं तृष्ट्यै नमेः तुिष्टकला श्रीपादुकां पूजयािम नमेः ।
उं पुष्ट्यै नमेः पुिष्टकला श्रीपादुकां पूजयािम नमेः ।
ऋं धृत्यै नमेः धृितकला श्रीपादुकां पूजयािम नमेः ।
ऋं िििन्त्यै नमेः िििनीकला श्रीपादुकां पूजयािम नमेः ।
लृं चिन्त्रकायै नमेः चिन्त्रकाकला श्रीपादुकां पूजयािम नमेः ।
एं ज्योतस्नायै नमेः ज्योत्स्नाकला श्रीपादुकां पूजयािम नमेः ।
ओं प्रीत्यै नमेः प्रीितकला श्रीपादुकां पूजयािम नमेः ।
औं अङ्गदायै नमेः अङ्गदाकला श्रीपादुकां पूजयािम नमेः ।
अं पूणागयै नमेः पूणाकलाग श्रीपादुका पूजयािम नमेः ।
अेः पूणागमृतायै नमेः पूणागमृताकला श्रीपादुकां पूजयािम नमेः ।

इसके बाद जल मे ‘हस्क्ष्म्ल्व्रूँ आनन्त्दभैरवाय वौषट् ’ मन्त्त्र से तथा ‘श्क्ष्म्ल्व्रुूँ सुधादेव्यै नमेः’ इस मन्त्त्र से रे खा बना कर उस पर
भैरव तथा सुधा देवी का पूजन करे । तदनन्त्तर मत्स्य, अस्त्र, कवच, धेन,ु सिन्नरोध, मुसल, चि, महामुरा एवं योिनमुरायें देवे
को प्रसन्न करने के िलए प्रदर्णित करनी चािहए ।

कलि स्थापन करते समय उसकी दािहनी ओर िंख तथा अघ्नयग भी उसी रीित से स्थािपत करना चािहए । फकन्त्तु वहाूँ िविेष
यह है फक मन्त्त्र में जहाूँ कलि पद आया है वहाूँ िंख तथा िविेषाघ्नयग पद बोलकर स्थािपत करना चािहए ।

तप्तश्चात् अघ्नयगपात्र में अकाराफद १६ स्वरों से ककाराफद १६ एवं थकाराफद १६ वणों से तीन रे खा बनाकर मध्य में ‘ह क्ष’ वणग
िलखे । इस प्रकार िनर्णमत ित्रकोण के मध्य मे - ‘ॎ ह्रीं हं सेः सौ हं स्वाहा’ इस ८ अक्षर के मन्त्त्र से बाला का पूजन करे । फिर
तीन बार मूलमन्त्त्र का जप कर पूवोक्त ९ मत्स्याफद मुरायें प्रदर्णित करे ।

इस प्रकार पात्रों को िविधवत् स्थािपत कर अघ्नयग पात्र से जल लेकर मूल मन्त्त्र पढकर पूजा सामग्री एवं स्वयं अपने ऊपर जल
िछडके । तदनन्त्तर ११, ५१ में वर्णणत देवी के स्वरुप का ध्यान कर िनम्निलिखत मन्त्त्रों से मानसी पूजा सम्पन्न करनी चािहए -
ॎ लं पृिथ्व्वव्यात्मलम महादेव्यै गन्त्धं समपगयािम नमेः अङ् गुष्ठकिनष्ठाभ्याम् ।
ॎ हं आकािात्मलम महादेव्यै पुष्पािण समपगयािम नमेः अङ् गुष्ठानािमकाभ्याम् ।
ॎ वं वाय्वात्मकं महादेव्यै धूपं अघ्रापयािम नमेः अङ् गुष्ठामध्यमाभ्यम् ।
ॎ रं वह्यात्मकं महादेव्यै दीपं दिगयािम नमेः अङ् गुष्ठतजगनीभ्याम् ।
ॎ वं अमृतात्मकं महादेव्यै नैवेद्य िनवेदयािम नमेः अङ् गुष्ठानािभकाम्यम् ॥८३-८४॥

अब पीठपूजा का िवधान कहते हैं -


मण्डू क, कालाििरुर, मूलप्रकृ ित, आधारििक्त, कमग, िेष, वराह, मेफदनी सुधाम्बुिध, रत्नद्वीप, मेरु, नन्त्दवन और कल्पवृक्ष का
पीठ पर पूजन करना चािहए । फिर मध्य में िविचत्रानन्त्द भूिम, श्री रत्नमिन्त्दर, रत्नवेफदका, छत्र, और तसहासन का पूजन कर
तसहासन के पादभूत, धमग (ज्ञान वैराग्य एवं ऐश्वयो का तथ अधमग,अज्ञान, अवैराग्य एवं अनैश्वयग आफद) का पूजन करना
चािहए । फिर पद्म आनन्त्दकन्त्द एवं ज्ञाननाल का कर्णणका में पूजन कर ॎकार के तीनो स्वरों (अं उं मं) के साथ सूयग, सोम और
अििमण्डलों का अपनी कलाओं के साथ यजन करना चािहए । इसी प्रकार अपने नाम के आद्याक्षर से युक्त सत्त्व, रज, और
तमोगुण का भी पूजन करे । तदनन्त्तर पूवोक्त तीन स्वरों के साथ आत्मा, अन्त्तरात्मा एवं परमात्मा का, मायाबीज के साथ
ज्ञानात्मा का तथा अपने अपने वणो के साथ मायातत्त्व, कलातत्त्व, िवद्यातत्त्व, एवं परतत्त्व का पूजन करना चािहए । फिर
अपने अपने नाम के आद्याक्षर को आफद में लगा कर ब्रह्या, िवष्णु, रुर, ईश्वर और सदाििव इन ५ (प्रेतों) देवों का पूजन करना
चािहए ॥८५-९१॥

फिर सुधाणगवासन, प्रेताम्बुजासन, फदव्यासन, चिासन, सवगमन्त्त्रासन और साध्य िसिासन का पूजन कर चिराज का पूजन
करना चािहए ॥९२-९३॥

उसकी िविध इस प्रकार है - चिराज के ८ फदिाओं में तथा मध्य में वरद और अभय मुरा धारण करने वाली पीठििक्तयों का
पूजन करे । १. इच्छा, २. ज्ञान, ३. फिया, ४. कािमनी, ५. कामदाियनी, ६. रित, ७. रितिप्रया, ८. नन्त्दा एवं ९. मनोन्त्मनी -
ये नौ पीठििक्तयाूँ हैं । इसके बाद आसन मन्त्त्र से चिराज का पूजन करना चािहए ॥९३-९५॥

अब चिराज मन्त्त्र का उिार कहते हैं --


वाग् (ऐं), फिर ‘परायै’ पद, फिर के िव (अ), फिर ‘अपरायै’ पद, फिर ‘परापरा’ और दामोदरारुढ वाली (यै), फिर तातीय
बीज ह्सौेः , फिर ‘सदाििवमहाप्रेत’ फिर ‘पद्मासनाय’ पद, उसके अन्त्त में हृदय (नमेः) लगाने से २९ अक्षरों का आसन मन्त्त्र
सम्पन्न होता है ॥९५-९७॥

िवमिग - मन्त्त्र का स्वरुप इस प्रकार है - ऐं परायै अपरािय, परापरायै ह्सौेः सदाििवमहाप्रेतपद्मासनाय नमेः ।
उपयुगक्त पीठपूजा का सारांि - अघ्नयग पात्र स्थापन के पश्चात् देवी का िविधवत् ध्यान कर मानसोपचार से पूजन करे । फिर
श्रीचिात्मक यन्त्त्रराज के पीठ - देवताओं एवं पीठििक्तयों का पूजन इस प्रकार करे -

कर्णणका में -
ॎ मण्डू काय नमेः, ॎ कालाििरुराय नमेः, ॎ मूलप्रकृ त्यै नमेः,
ॎ आधारिलत्यै नमेः, ॎ कू मागय नमेः, ॎ िेषाय नमेः,
ॎ वराहाय नमेः, ॎ पृिथव्यै नमेः, ॎ सुधाम्बुधये नमेः,
ॎ रत्नद्वीपाय नमेः, ॎ मेरवे नमेः, ॎ नन्त्दवनाय नमेः,
ॎ कल्पवृक्षाय नमेः ।
तदन्त्तर कर्णणका के मध्य में - ॎ िविचत्रानन्त्दभूम्यै नमेः,
ॎ श्रीरत्नमिन्त्दराय नमेः, ॎ रत्नवेफदकायै नमेः,
ॎ छत्राय नमेः, ॎ रत्नतसहासनाय नमेः,

फिर पीठ के चारों फदिाओं में पूवागफदिम से - ॎ धमागय नमेः,


ॎ ज्ञानाय नमेः, ॎ वैराग्याय नमेः, ॎ ऐश्वयागय नमेः,

फिर पीठ के चारों फदिाओं में पूवागफदिम से - ॎ धमागय नमेः,


ॎ ज्ञानाय नमेः, ॎ वैराग्याय नमेः, ॎ ऐश्वयागय नमेः,

फिर पीठ के चारोम कोणों में - ॎ अधमागय नमेः,


ॎ अज्ञानाय नमेः, ॎ अवैरग्याय नमेः, ॎ अनैश्वयागय नमेः,

पुनेः मध्य में - ॎ आनन्त्दकन्त्दाय नमेः, ॎ संिवन्नालाय नमेः,


ॎ सवगतत्त्वात्मकपद्माय नमेः, ॎ प्रकृ ितमयपत्रेभ्यो नमेः, ॎ िवकारमयके सरे भ्यो

नमेः, ॎ पञ्चािद्बीजाड्यकर्णणकाय नमेः का पूजन करना चािहए । पुनेः तत्रैव -


ॎ अं द्वादिकलात्मने सूयगमण्डलाय नमेः,
ॎ उं षोडिकलात्मने सोममण्डलाय नमेः,
ॎ मं दिकलात्मने विहनमण्डलाय नमेः,
ॎ सं सत्त्वाय नमेः, ॎ रं रजसे नमेः, ॎ तं तमसे नमेः,
ॎ अं आत्मने नमेः, ॎ उं अन्त्तरात्मने नमेः, ॎ मं परमात्मने नमेः,
ॎ ह्रीं ज्ञानात्मने नमेः,

पुनेः तत्रैव - ॎ मां मायातत्त्वाय नमेः, ॎ कं कलातत्त्वाय नमेः,


ॎ तव िवद्यातत्त्वाय नमेः, ॎ पं परतत्त्वाय नमेः,

पुनेः वहीं पर - ॎ बं ब्रह्यप्रेताय नमेः, ॎ तव िवष्णुप्रेताय नमेः,


ॎ रुं रे रप्रेताय नमेः, ॎ ईश्वरप्रेताय नमेः, ॎ सं सदाििवप्रेताय नमेः,

पुनेः तत्रैव -
ॎ सुधाणगवासनाय नमेः, ॎ प्रेताम्बुजासनाय नमेः, ॎ फदव्यासनाय नमेः,
ॎ चिासनाय नमेः ॎ सवगमन्त्त्रासनाय नमेः, ॎ साध्यिसििसनाय नमेः,

तदनन्त्तर चिराज का इस प्रकार पूजन करे - प्रथम आठों फदिाओं में तथा मध्य में इच्छाफद नौ पीठ ििक्तयोम का, पूवागफद
फदिाओं के िम से, यथा -
ॎ इं इच्छायै नमेः, ॎ ज्ञां ज्ञानायै नमेः, ॎ कि फियायै नमेः
ॎ कां कािमन्त्यै नमेः, ॎ कं कामदाियन्त्यै नमेः, ॎ रं रत्यै नमेः
ॎ रं रितिप्रयायै नमेः, ॎ नं नन्त्दायै नमेः

पुनेः मध्य में - ॎ मं मनोन्त्मन्त्यै नमेः ।


तदनन्त्तर ‘ऐं परायै अपरायै परापरायै ह्सौेः सदाििव महाप्रेत पद्मासनाय नमेः’ मन्त्त्र से चिराज की पूजा करनी चािहए
॥९५-९७॥

इस प्रकार पीठपूजा करने के बाद पुष्पाञ्जिल समर्णपत करनी चािहए ॥९७॥

पुष्पाञ्जिल के मन्त्त्र का उिार इस प्रकार हैं -


प्रथम प्रकट गुप्ततर के बाद ‘सम्प्रदाय’ कु ल के बाद नेत्रयुक्त मेष (िन) फिर ‘गभग र’ बोलना चािहए, फिर ‘हस्य’ ‘अित रहस्य’
परापर रहस्य संज्ञक श्री चिगतयोिगनीपादुका’ फिर ‘भ्यो’ ‘नमेः’ बोलना चािहए । प्रारम्भ में माया (ह्रीं) एवं रमा (श्रीं) बीज
लगाने से इलयावन अक्षरों का सवगिसििदायक पुष्पाञ्जिल देने का मन्त्त्र बनता है ॥९८-१००॥

िवमिग - मन्त्त्र का स्वरुप - ‘ह्रीं श्रीं प्रकटगुप्तगुप्ततरसंप्रदायकु लिनगभग -


रहस्याितरहस्यपरापररहस्यसंज्ञकश्रीचिगतयोिगनीपादुकाभ्यो नमेः’ ॥९७-१००॥

पुष्पाञ्जिल देने के िलए प्रथम ित्रखण्दा मुरा बनावे । फिर अञ्जिल में पुष्प लेकर ११. ५१ में वर्णणत देवी के स्वरुप का ध्यान
कर उपयुगक्त मूलमन्त्त्र का उिारण कर पुष्पाञ्जिल देनी चािहए । तदनन्त्तर हृदयकमल से, नािसका रन्त्र से िनगगत एवं ब्रह्यरन्त्र
मागग से योिजत चैतन्त्य को पुष्पाञ्जिल में लेकर उस चैतन्त्य तेज को श्रीचिराज पर स्थािपत कर िनम्निलिखत दो श्लोकों से देवी
का आवाहन करना चािहए ।

यह देवी का आवाहन हुआ । फिर उनकी स्थापना करनी चािहए - यथा प्रथम भैरवी मन्त्त्र (ह्स्त्रैं ह्रवल्ीं) बोलकर
‘श्रीमित्त्रपुरसुन्त्दरर चिे िस्मन् कु रु सािन्नध्यं नमेः’ यह स्थापना का मन्त्त्र है । इस प्रकार स्थािपत कर स्थापनी मुरा प्रदर्णित
करनी चािहए । इसके बाद मन्त्त्रवेत्ता साधक सिन्निध, सिन्नरोध एवं संमुखीकरण की मुरा प्रदर्णित कर देवी के अङ्गों में
षडङ्गन्त्यस करे । इस प्रकार की प्रफिया को ‘सकलीकरण’ कहते हैं ॥१०४-१०५॥

इसके बाद अवगुण्ठन, अमृतीकरण,परमीकरण की मुरा प्रदर्णित कर तीन बार मूल मन्त्त्र का उिारण करते हुए पाद्य आफद
उपचारों से पुष्पाञ्जिल लेकर िविधवत् देवी का ध्यान कर आवरण पूजा के िलए देवी से आज्ञा माूँगनी चािहए ॥१०९-१११॥

िवमिग - संक्षेप में पूजा पिित - पीठ पूजा करने के अनन्त्तर ‘ह्रीं श्रीं प्रगट गुप्ततर संप्रदाय कु ल िनगमग रहस्यितरहस्य
परापरहस्य संज्ञक श्री चिगत योिगनी पादुकाभ्यो नमेः’ मन्त्त्र से पुष्पाञ्जिल देकर ित्रखण्दामुरा बाूँधकर पुण पुष्पाञ्जिल लेकर
देवी से अपने को अिभन्न समझते हुए ‘बालाकग मण्डलाभासां चतुबागहुं ित्रलोचनाम् । पािाकु ििरांश्चापं धारयन्त्ती ििवां भजे’
से ध्यान कर स्थापना आफद मुरा इस प्रकार प्रदर्णित करनी चािहए ।

स्थापनामुरा - अधोमुखी कृ ता सैव स्थापनीित िनगद्यते ।


सिन्नधान - आिश्लष्ट मुिष्टयुगला प्रोन्नताङ् गुष्ठयुग्मका ।
सिन्नधाने समुफदष्टा मुरय
े ं तन्त्त्रवेफदिभेः ।
सिन्नरोध - अङ् गुष्तगिभणी सैव सिन्नरोधे समीररता ।
समुखीकरण - हृफद बिाञ्जिलमुगरा सम्मुखीकरणे मताेः ।
सकलीकरण - देवाङ् गेषु षडङ्गानां न्त्यासेः स्यात्सकलीकृ ितेः ।
अवगुण्ठनमुरा - सव्यहस्तकता मुिष्टेः दीघागधोमुखतजगनी ।
अवगुण्ठनमुरय
े यिमतो भ्रािमता भवेत् ।
अमृतीकरण - अन्त्योन्त्यािभमुखौ िश्लष्टौ किनष्ठानािमका पुनेः ।

तथा तु तजगनीमध्या धेनुमुरा प्रकीर्णत्तता अमृतीकरणं कु यागत्तया देििकसत्तमेः ।


परमीकरण - अन्त्योन्त्यग्रिथतांगुष्ठौ प्रसाररतकराङ् गुिलेः ।
महामुरय
े मुफदता परमीकरण बुधै ।

अब संक्षेप में तन्त्त्रान्त्तर प्रदर्णित पूजापिित िलखते हैं - िजसमें


१. आवाहन एवं स्थापन की िविध पूवग (र० ११.१०६-१०७) में कह आये हैं । अब आसनाफद का प्रकार कहते हैं -

२. आसन - मूलमन्त्त्र का उिारण कर -


ॎ सवागन्त्तयागिमिन देिव सवगबीजमयं िुभम् । स्वात्मस्थाप्यपरं िुिमासनं कल्पयाम्यहम ॥
श्रीमित्त्रपुरसुन्त्दरर आसनं गृहाण नमेः’ - इस मन्त्त्र से देवी को आसन समर्णपत करना चािहए ।

३. उपवेिन - मूलमन्त्त्र पढ कर - ‘ॎ अिस्मन्त्वरासने देिव सुखासीनाक्षराित्मके ।


प्रितिष्ठता भवेिि त्वं प्रसीद परमेश्वरर ।
श्रीमित्त्रपुरसुन्त्दरर भगवित अत्रोपिवष्टा भव नमेः’ - इस मन्त्त्र से देवी को आसन पर बैठाना चािहए ।

४. सिन्निधकरण - मूलमन्त्त्र का उिारण कर -


‘ॎ अनन्त्यं तव देवेिि यन्त्त्रं ििक्तररदं वरे । सािन्नध्यं कु रु तिस्मस्त्वं भक्तानुग्रहतप्तरे ॥
भगवित श्रीमित्त्रपुरसुन्त्दरर इह सिन्नधेिह’ - ऐसा पढ कर सिन्नधान मुरा द्वारा सिन्निधकरण करना चािहए ।

५. संमुखीकरण - मूलमन्त्त्रकहकर्ॎ अज्ञानात् दुमगनस्ताद्वा वैकल्यात् साधनस्य च ।


यदा पूणं भवेत्कृ त्यं तदप्यिभमुखी भव ॥
श्रीमित्त्रपुरसुन्त्दरर इह संमुखीभव’ - इस मन्त्त्र को पढ कर पूवोक्त सम्मुखी मुरा द्वारा सम्मुखीकरण करना चािहए ।

६. सिन्नरोधन - मूल मन्त्त्र को पढ कर -


ॎ आज्ञया तव देवेिि कृ पाम्भोधे गुणाम्बुधे । आत्मानदैकतृप्तां त्वां िनरुणिध्म िपतगुगरौ ।
श्रीमित्त्रपुरसुन्त्दरर सिन्नरुियस्व मन्त्त्र से सिन्नधानमुरा द्वारा देवी का सिन्नरोध करना चािहए ।
कु छ आचायों के मत में सिन्निधकरण, सिन्नरोधन एवं सम्मुखीकरण की फिया मात्र मुरा प्रदर्णित कर करनी चािहए । जैसा फक
स्वयं ग्रन्त्थकार ने पहले कहा है (र० ११.१०७)

७. सकलीकरण - देवी के अङ्गो में षडङ्गन्त्यास कर सकलीकरण करे । यथा -


श्रीं ह्रीं ऐं सौेः हृदयाय नमेः, ॎ ह्रीं श्रीं ििरसे स्वाहा,
कएईलह्रीं ििखायै नमेः, हसकहलह्रीं कवचाय हुम्,
सकलह्रीं नेत्रत्रयाय वौषट् , सौेः ऐं ललीं ह्रीं श्री अस्त्राय िट् ।
८. अवगुण्ठमुरा - मूलमन्त्त्र पढ कर -
‘ॎ अव्यक्तवाड् मन्त्श्चक्षुेः श्रोत्रप्रज्विलतद्युते । स्वतेजेः पुञ्जके नािुवेिष्टता भव सवगतेः ।
श्रीमित्त्रपुरसुन्त्दरर हुम्’ - मन्त्त्र से पूवोक्त अवगुण्ठन मुरा प्रदर्णित कर अवगुण्ठन करे तथा छोरटका मुरा द्वारा फदग्बन्त्धन करे ।

९. अमृतीकरण आफद - धेनम


ु ुरा से अमृतीकरण, महामुरा से परमीकरण करने के बाद मूलमन्त्त्र से तीन बार देवी का पूजनकर
इस प्रकार स्वागत करना चािहए । यस्याेः दिगनिमच्छिन्त्त देवाेः स्वाभीष्टिसिये । तस्मै ते परमीिायै स्वागतं स्वागतं च ते ।
कृ ताथोऽनुगृहीतोऽिस्म सकलं जीिवतं मम । आगता देिव देवेिि सुस्वागतिमदं पुनेः ॥

१०. पाद्य - जल में श्यामाक, िवष्णुकान्त्ता, कमल और दूवाग डाल कर मूल मन्त्त्र से ‘एतत्पाद्यं’ श्रीमित्त्रसुद्नयै नमेः’ इस मन्त्त्र से
पाद्य देना चािहए ।

११. अघ्नयग - अघ्नयग पात्र में दूवाग, ितल, दभागग्र, सरसों, जौ, पुष्प, गन्त्ध एवं अक्षत लेकर ‘इदमघ्नयं श्रीमित्त्रपुरसुन्त्दयै स्वाहा’ -
मन्त्त्र से अघ्नयग प्रदान करना
चािहए ।

१२. आचमन - आचमन के जल में लौंग, जालिल एवं कं कोल चािहए ।


‘मूलिमदमाचमनीयं स्वधा’ - यह मन्त्त्र पढ कर आचमन करना चािहए ।

१३, स्नान - स्नानीय, जल में चन्त्दन, अगर एव्य्म सुगिन्त्धत रव्य डाल कर ‘मूलं स्नानीयं जलं िनवेदयािम’, मन्त्त्र से स्नान कराना
चािहए । फिर पञ्चामृत िुिोदक एवं गन्त्धोदक से स्नान करा कर सवांग स्नान कराना चािहए । तदनन्त्तर जल द्वारा अिभषेक
करना चािहए ।

१४. वस्त्राभूषण - इसके बाद पुनेः आचमन करा कर देवी को वस्त्र और उत्तरीय समर्णपत करना चािहए । तदनन्त्तर पुनेः
आचमन करा कर अलंकराफद समर्णपत करना चािहए ।

१५. गन्त्ध - ‘मूलं एवं गन्त्धे नमेः’ - इस मन्त्त्र से गन्त्धमुरा (किनष्ठाङ् गुष्ठ योगेन गन्त्धमुरां प्रदिगयेत् ) द्वारा सुगािन्त्धत इत्र
चन्त्दनाफद रव्य लगाना चािहए ।
इसके बाद नाना प्रकार के पररमल सौभाग्य रव्य समर्णपत कर अक्षत चढाना चािहए ।

१६. पुष्प - ‘मूलमेतािन पुष्पािण वौषट् ’ यह मन्त्त्र पढ कर पुष्पमुरा (अङ्गुष्ठा-नािमकाभ्यां पुष्पमु्फ़ा प्रकीत्तगता) द्वारा
ऋतुकालोद्भव पुष्प समर्णपत करना चािहए ।
इसके बाद तीन पुष्पाञ्जिलयाूँ समर्णपत कर िविधवद्देवी का ध्यान कर पररवार के पूजनाथग उनसे आज्ञा माूँगनी चािहए ।

द्वादि तरङ्ग
अररत्र
अब श्रीिवद्या के आवरण पूजा की िविध कहता हूँ - िजसके करने से साधक अपनी इच्छा से अिधक िल प्राप्त करता है ॥१॥

िुललपक्ष में कामेश्वरी से िविचत्रा पयगन्त्त तथा कृ ष्ण पक्ष में िविचत्र से ले कर कामेश्वरी पयगन्त्त १५ िनत्याओं का (ित्रकोण की
प्रत्येक रे खाओं पर ५, ५, के िम से वामावतग) पूजन करना चािहए । फिर मध्य िबन्त्द ु पर षोडिी का मूलमन्त्त्र से पूजन करना
चािहए ॥२-३॥

अब उन िनत्याओं के पूजन का िम बतलाता हूँ - प्रथम एक एक स्वर फिर, वक्ष्यमाण िनत्याओं का एक एक मन्त्त्र, फिर
कामेश्वरी आफद का नाम, तदनन्त्तर ‘िनत्या श्रीपादुकां पूजयािम तपगयािम नमेः’ लगाकर पूजन करना चािहए ॥२-४॥

मध्य िबन्त्द ु के ऊपर ित्रकोण में आरम्भ से लेकर अिन्त्तम िबन्त्द ु पयगन्त्त वामावतग िम से इनकी कल्पना चािहए । दािहने हाथ से
‘पूजयािम’ कहकर पुष्प समर्णपत करे और बायें हाथ से ‘तपगयािम’ कह कर जल या गाय का दूध चढाना चािहए । कु छ आचायो
का कहना है फक अदरख के साध जल चढाना चािहए । इस प्रकार ित्रकोण की प्रत्येक रेखा पर ५, ५, के िम से वामावतग इन
िनत्याओं का पूजन करना चािहए ॥५-६॥

अब पूजन के प्रयोग में लाय जाने वाले सभी िनत्याओं के मन्त्त्रों का उिार कहता हूँ, जो स्मरण मात्र से इष्टिसियों को प्रदान
करते हैं -

(१) कामेश्वरी मन्त्त्र का उिार - बाला (ऐं ललीं सौेः) तार (ॎ) और ‘नमेः कामेश्वरर’, दृक् और दीघग आफद (इच्छा), फिर
‘कामिलप्रदे’, फिर ‘सवगसत्त्वव’, फिर िंकरर’, फिर ‘सवगज्गत्क्षोभणकरर’, फिर वमगत्रय (हुं हुं हुं), फिर पञ्चबाण (रां रीं ब्लूं
सेः), और इसके अन्त्त में प्रितलोमा बाला (सौेः ललीं ऐं) लगाने से ४६ अक्षरों का कामेश्वरी मन्त्त्र बनता है ॥७-९॥

िवमिग - मन्त्त्र का स्वरुप इस प्रकार है - (अं) ‘ऐं ललीं सोेः ॎ नमेः कामेश्वरर, इच्छाकाम िलप्रदे सवग सत्त्विंकरर
सवगजगत्क्षोभणकरर हुं हुं हुं रां रीं ललीं ब्लूं स सौेः ललीं ऐं ’ । इसके बाद ‘कामेश्वरी िनत्या श्रीपादुकां पूजयािम तपगयािम नमेः’
लगाकर कामेश्वरी को पुष्प तथा जल समर्णपत करे ॥७-९॥

(२) भगमािलनी मन्त्त्र का उिार - वाग्बीज (ऐं), फिर ‘भग’, फिर कणागख्या िनरा (भु), फिर ‘गे भिगिन’, िपर ‘भगोदरर
भगमाले भगगुह्ये भग’ के बाद ‘योने भगिनपाितिन’, सवगभग’, ‘विंकररभग’, भगमाले भगावहे भगगुह्ये भग’ के बाद ‘योने
भगिनपाितिन’, सवगभग’, विंकररभग’, रुपे िनत्य’, िललन्ने भगस्व’, तदनन्त्तर सदीपक अिि (रु), फिर ‘पे सवगभ’ तदनन्त्तर
दीघगस्मृित (गा), फिर ‘न मे ह्यानय व’, एवं अिि (र), फिर ‘दे रे तसु’, एव सिझण्टीि पावक (रे ), फिर ‘ते भग’, िललन्ने
िललन्नरवे ललेदय रावय’, एवं के िव (अ) फिर ‘मोघे भग’, ‘िविे’, ‘क्षुभ क्षोभय सवग’, सत्वान् फिर वाक् (ऐं), ‘ब्लूं जं ब्लू’ं ‘भे
ब्लूं हें ब्लूं हों’, िललन्ने सवागिणभ’, गािन मे विमान’ एवं मारुत (य), फिर ‘स्त्रीं हर’, ‘ब्ले’ और अन्त्त माया (ह्रीं) लगाने से एक
सौ छत्तीस अक्षरों वाला भगमािलनी मन्त्त्र िनष्पन्न होता है ॥१०-१६॥

िवमिग - मन्त्त्र का स्वरुप इस प्रकार है - (आं) ‘ऐं भगभुगे भिगिन भगोदरर भगमाले भगावहे भगगुह्ये भगयोने भगिनपाितिन
सवगभगविंकरर भगरुपे िनत्यिललन्ने भगस्वरुपे सवगभगािन मे ह्यानय वरदे रेते सुरेते भगिललन्ने िललन्नरवे ललेदय रावय अमोघे
भगिविे क्षुभक्षोभय सवगस्त्वान् भगेश्वरर ऐं ब्लूं जं ब्लूं भे ब्लूं मों ब्लूं हें ब्लूं हों िललअन्ने सवागिण भगािन मे विमानय स्त्रीं हर
ब्लें ह्रीं (१३६) । इसके बाद ‘भगमािलनी िनत्या श्रीपादुकां तपगयािम नमेः’ लगाकर भगमािलनी का पूजन करना चािहए
॥१०-१६॥

(३) अब िनत्यिललन्ना मन्त्त्र का उिार करते हैं - ‘िनत्यिललन्ने मदर’ के बाद पद्माय सिहत जल (वे) इसके प्रारम्भ में माया
तथा अन्त्त में अिििप्रया (स्वाहा) लगाने से ११ अक्षरों का िनत्यिललन्ना मन्त्त्र िनष्पन्न होता है ।
िवमिग - मन्त्त्र का स्वरुप इस प्रकार है - (इं) ‘ह्रीं िनत्यिललन्ने मदरवे स्वाहा’ । इसके बाद ‘िनत्यिललन्ना िनत्या श्रीपादुकां
पूजयािम तपगयािम नमेः’ लगाकर िनत्यिललन्ना का पूजन करना चािहए ॥१६॥

(४) अब भेरुण्डा मन्त्त्र का उिार करते हैं - तार संयुक्त रेिासन वान्त्त (भ्रों) जो अंकुि (िों) से संपुरटत हो (िों भ्रों िों), फिर
विहन, मनु एवं िबन्त्द ु संयुक्त च वगग के ४ वणग (च्रौं छ्रौं ज्रौं झ्रौं), इसके अन्त्त में अिििप्रया (स्वाहा) तथा आरम्भ में तार (ॎ)
लगाने से १० अक्षरों का भेरुण्डा मन्त्त्र िनष्पन्न होता है ॥१७-१८॥

िवमिग - मन्त्त्र का स्वरुप - इस प्रकार है - (ईं) ‘ॎ िों भ्रों िों च्रौं छ्रौं ज्रौं झ्रौं स्वाहा’ । इसके बाद ‘भेरुण्दा िनत्या श्रीपादुकां
पूजयािम तपगयािम नमेः’ लगाकर भेरुण्डा का पूजन करना चािहए ॥१७-१८॥

(५) विहनवािसनी मन्त्त्र का उिार - माया (ह्रीं), उसके बाद विहनवािसन्त्यै , अन्त्त में नमेः’ तथा प्रारम्भ में प्रणव (ॎ) लगाने
से ९ अक्षरों का विहनवािसनी मन्त्त्र िनष्पन्न होता है ॥१९॥

िवमिग - मन्त्त्र का स्वरुप इस प्रकार है - (उं ) ‘ॎ ह्रीं विहनवािसन्त्यै नमेः’ । इसके बाद ‘विहनवािसनी िनत्या श्रीपादुकां
पूजयािम तपगयािम नमेः’ लगाकर विहनवािसनी का पूजन करना चािहए ॥१९॥

(६) अब महिवद्येश्वरी मन्त्त्र का उिार कहते है - तार (ॎ), माया (ह्रीं), विहन पद्मनाभ एवं इन्त्दस
ु िहत ििखी (फ्रें), फिर
िवसगग सिहत भृगु (सेः), फिर िनत्यिललन्ने मदरवे, और अन्त्त मे स्वाहा लगाने से १४ अक्षरों का महािवद्येश्वरी मन्त्त्र िनष्पन्न
होता है ॥२०-२१॥

िवमिग - मन्त्त्र का स्वरुप इस प्रकार है - (ऊं) ‘ॎ ह्रीं फ्रें सेः िनत्यिललन्ने मदरवे स्वाहा’ (१४) । इसके बाद ‘महािवद्येश्वरी
िनत्या श्रीपादुकां पूजयािम तयगयािम नमेः’ लगाकर महािवद्येश्वरी का पूजन करना चािहए ॥२०-२१॥

(७) अब ििवदूती मन्त्त्र का उिार कहते हैं - चतुथ्व्यगन्त्त ििवदूती (ििवदूत्यै) के प्रारम्भ में माया (ह्रीं), तथा अन्त्त में हृदय
(नमेः) लगाने से ७ अक्षरों का सवागभीष्टप्रद ििवदूती मन्त्त्र िनष्पन्न होता है ॥२१-२२॥

िवमिग - मन्त्त्र का स्वरुप इस प्रकार है - (ऋं) ‘ह्रीं ििवदूत्यै नमेः ििवदूती िनत्या श्रीपादुकां पूजयािम नमेः’ ॥२१-२२॥

(८) अब त्वररता मन्त्त्र का उिार कहते हैं - तार (ॎ), परा(ह्रीं) वमग (हुं) फिर खेच छे क्षेः स्त्री फिर वामकणग एवं ििि सिहत
गगन (हं), फिर भगयुक्त मेरु (क्षे), अफरजा (ह्रीं), तथा अन्त्त में िट् लगाने से त्वररता का १२ अक्षरों का मन्त्त्र िनष्पन्न होता है
॥२२-२३॥

िवमिग - मन्त्त्र का स्वरुप इस प्रकार है - (ऋं) ‘ॎ ह्रीं हुं खे च छे क्ष स्त्रीं हुं क्षे ह्रीं िट्’ इसके बाद ‘त्वररता िनत्या श्रीपादुका
पूजयािम तपगयािम नमेः’ लगा कर पूजा करनी चािहए ॥२२-२३॥

(९) अब कु लसुन्त्दरी मन्त्त्र का उिार कहते हैं - िबन्त्दय


ु ुत दामोदर (ऐं), िािन्त्त इन्त्द ु सिहत क् ल् (ललीं), मनु (औ) एवं िवसगग
सिहत भृगु (सौेः) इस प्रकार तीन अक्षरों का कु लसुन्त्दरी मन्त्त्र िनष्पन्न होता है ।
िवमिग - मन्त्त्र का स्वरुप - (लृं) ‘ऐं ललीं सौेः इसके बाद ‘कु लसुन्त्दरी िनत्याश्रीपादुकां पूजयािम तपगयािम नमेः’ से कु लसुन्त्दरी
का पूजन करना चािहए ॥२४॥

(१०) अब िनत्या मन्त्त्र का उिार कहते है - आगे िम एवं पीछे उत्िम से बालामन्त्त्र (ऐं ललीं सौेः) से संपुरटत ित्रपुरभैरवी
इसके बाद पञ्चबाणबीज मन्त्त्र इस प्रकार कु ल १४ अक्षरों का िनत्या मन्त्त्र िनष्पन्न होता है ॥२५॥

िवमिग - मन्त्त्र का स्वरुप इस प्रकार है - (लृं) ‘ऐं ललीं सौेः ह्सौेः ह्स्व्य्लरीं हसौेः सौेः ललीं ऐं रां रीं ललीं ब्लूं सेः (१४) िनत्या
श्रीपादुका पूजयािम तपगयािम नमेः’ ॥२५॥

(११) इसके बाद नीलपताफकनी मन्त्त्र का उिार कहते हैं - तार (ॎ), माया (ह्रीं), िझटीि एवं ििी सिहत ि एवं रेि (फ्रें)
अिि, अधीि एवं िबन्त्द ु सिहत हंस (स्त्रं), फिर हृल्लेखा (ह्रीं), अंकुि (िों) तथा ‘िनत्य मदरवे’, फिर वमग (हं) तथा अन्त्त में
सृिण (िौं) लगाने से १४ अक्षरों का समस्त ित्रलोकी को आकर्णषत करने वाला नीलपताफकनी का मन्त्त्र कहा गया है ॥२६-
२७॥

िवमिग - मन्त्त्र का स्वरुप इस प्रकार है - (एं) ‘ॎ ह्रीं फ्रें स्त्रं ह्रीं िों िनत्यमदरवे हं िों नीलपताफकनी िनत्या श्रीपादुकां
पूजयािम तपगयािम नमेः’ ॥२६-२७॥

(१२) अब िवजया मन्त्त्र का उिार कहते हैं - पद्मनाभ (ए), एवं इन्त्दस
ु िहत वराह (ह), हंस (स), चण्डीि (ख), जनादगन (फ्रं),
एवं कृ िानु र ह्स्ख्फ्रें), फिर ‘िवजयायै नमेः’ यह ७ अक्षरों का सवगदायक िवजयामन्त्त्र िनष्पन्न होता है ॥२८-२९॥

िवमिग - मन्त्त्र का स्वरुप इस प्रकार है - (ऐं) ‘ह्स्ख्फ्रें िवजयायै नमेः (७) िवजय िनत्या श्रीपादुकां पूजयािम तपगयािम नमेः;
॥२८-२९॥

(१३) अब सवगमङ्गला मन्त्त्र का उिार कहते हैं - तार (ॎ) सिहत भृगु एवं खड् गीि स्वों फिर चतुथ्व्यगन्त्त सवगमङ्गला
(सवगमङ्गलायै) इसके अन्त्त में ‘नमेः’ लगाने से ९ अक्षरों का सवगमङ्गला मन्त्त्र िनष्पन्न होता है ॥२९-३०॥

िवमिग - मन्त्त्र का स्वरुप इस प्रकार है - (ओं) ‘खों सवगमङ्गलायै नमेः सवगमङ्गलािनत्या श्रीपादुकां पूजयािम, तपगयािम नमेः’
यह पूजन का मन्त्त्र है ॥२९-३०॥

(१४) अब ज्वालामािलनी मन्त्त्र का उिार कहते हैं - तार (ॎ), फिर नमो भगवित ज्वालामािलिन के बाद देिव
सवगभूतसंहारकाररके जातवेदिस ज्वलिन्त्त प्रज्वलिन्त्त, इसके बाद दो बार ज्वल (ज्वल ज्वल), फिर ‘प्रज्वल’ फिर कवच (हुं) के
बाद दो बार पावक (रं रं ), फिर वमग (हुं), इसके अन्त्त में अस्त्र (िट्) लगाने से ४९ अक्षरों का ज्वालामािलनी मन्त्त्र िनष्पन्न
होता है ॥३०-३२॥

िवमिग - मन्त्त्र का स्वरुप इस प्रकार है - (औं) ‘ॎ नमोभगवित ज्वालामािलिन देिव सवगभूतसंहारकाररके जातवेदिस ज्वलिन्त्त
प्रज्वलिन्त्त ज्वल ज्वल प्रज्वल हुं रं रं हुं िट् (४९) ज्वालामािलनी िनत्या श्रीपादुकां पूजयािम तपगयािम नमेः’ ॥३०-३२॥
(१५) अब िविचत्रा मन्त्त्र का उिार कहते है - मनु (औ), िबन्त्द ु सिहत कू मग (चकर), एवं िोधीि क (च्कौं), यह िविचत्रा का
एकाक्षर मन्त्त्र है इस प्रकार कु ल १५ िनत्याओं का पूजन प्रकार कहा गया ।

िवमिग - मन्त्त्र का स्वरुप इस प्रकार है - (अं) च्क् ॎ िविचत्रा िनत्या श्रीपादुकां पूजयािम नमेः यह िविचत्रा के पूजन का मन्त्त्र है
॥३३॥

ित्रकोण में कु ल १५ िनत्याओं का पूजन कर मध्य िबन्त्द ु में मूल मन्त्त्र से १६ वीं महाित्रपुरसुन्त्दरी का पूजन करना चािहए ।
फिर िबन्त्द ु और ित्रकोण के मध्य की तीन पंिक्तयों में गुरुओं का पूजन करना चािहए ॥३४॥

िवमिग - षोडिी के िलए मन्त्त्र - (अेः) ‘मूलं महाित्रपुरसुन्त्दरी िनत्या श्रीपादुकां पूजयािम तपगयािम नमेः ॥३४॥

अब ित्रिवध गुरुओं का िनदेि कहते हैं - फदव्यौघ िसिौघ, और मानवौघ भेद से गुरु तीन प्राकर के कहे गये है । १. परप्रकाि,
२. परििव, ३. परििक्त, ४. कौलेि, ५. िुललादेवी, ६. कु लेश्वर और ७. कामेश्वरी ये ७ परम फदव्यौघ गुरु हैं । १. भोग, २.
िीड, ३. समय, ४. सहज ये चार परावर िसिौध्घ गुरु बतलाये गये हैं ॥३५-३७॥

१. गगन, २. िवश्व, ३. िवमल, ४. मदन, ५. भुवन, ६. लीला, ७. स्वात्मा और ८. िप्रया ये आठ अपर मानवीय गुरु कहे गये
हैं ॥३८॥

अब गुरुओं के पूजन का मन्त्त्र कहते हैं - पुरुष, गुरुओं के नाम के आगे ‘आनन्त्दनाथ’ तथा स्त्री गुरुओं के नाम के बाद अम्बा िब्द
लगाकर पूजन करना चािहए । फदव्यौघ गुरुओं में परििक्त िुलला देवी और कामेश्वरी - ये तीन िस्त्रयाूँ है । तथा मानवीय
गुरुओं में लीला और िप्रया ये दो िस्त्रयाूँ है ।

इन गुरुओं के नाम के आगे ‘श्रीपादुकां पूजयािम तपगयािम नमेः’ लगाकर पूजन करना चािहए । यथा - परप्रकािानन्त्दनाथ
श्रीपादुकां पूजयािम तपगयािम नमेः इत्याफद ॥३९-४१॥

फिर िबन्त्द ु के चारों फदिाओं में पूवागफद फदिओं के दािहने िम से आिाय देवताऔं का पूजन करना चािहए ॥४१-४२॥

िवमिग - उसकी िविध इस प्रकार है-


ह्रीं श्री पूवागम्नाय देवता श्रीपादुकां पूजयािम तपगयािम नमेः,
ह्रीं श्रीं दिक्षणाम्नाय श्रीपादुकां पूजयािम तपगयािम नमेः,
ह्रीं श्रीं पिश्चमाम्नाय श्रीपादुकां पूजयािम तपगयािम नमेः,
ह्रीं श्रीं उत्तराम्नाय श्रीपादुकां पूजयािम तपगयािम नमेः ॥४१-४२॥

पञ्चपिञ्चकाओं का पूजन - इसके बाद मध्य में तथा पूवागफद चारों फदिाओं में पञ्च पिञ्चकाओम का पूजन करना चािहए । मध्य
में आद्या का तथा पूवागफद चारोम फदिाओं में अन्त्य चारों का पूजन करना चािहए । पिञ्चकाओं के पाूँच वगो में आद्या श्रीिवद्या
ही बतलाई गई है ।

(१) १. श्रीिवद्या, २. लक्ष्मी, ३. महालक्ष्मी, ४. ित्रििक्त और ५. सवगसाम्राज्य ये ५ महालक्ष्मी कहीं गई है । यह आद्य पञ्चक
लक्ष्मी संज्ञक है ।
(२) १. श्रीिवद्या, २. परज्योित, ३. परिनष्कलिाम्भवीं, ४. अजया और ५. मातृका इन पाूँचों की पञ्चकोि संज्ञा है ।

(३) १. श्रीिवद्या, २. त्वररता, ३. पाररजातेश्वरी, ४. ित्रपुटा और ५. पञ्चबाणेिी इन पाूँचों की कल्पलता संज्ञा है ।

(४) १. श्रीिवद्या, २. अमृतपाटेिी, ३. सुधाश्री, ४. अमृतेश्वरी, और ५. अन्नपूणाग इन पञ्चक की कामधेनु संज्ञा है ।

(५) १. श्रीिवद्या, २. िसिलक्ष्मी, ३. मातङ्गी ४. भुवनेश्वरी और ५. वाराही इन पञ्चक को मुिनयों ने रत्नसंज्ञक कहा है
॥४२-४५॥

श्रीिवद्या का मध्य में मूल मन्त्त्र से तथा अन्त्यों का िमिेः पूवग आफद चारों फदिाओं में पूजन करना चािहए ॥४९॥

अब इनके पूजामन्त्त्रों को कहता हूँ - महालक्ष्मी पञ्चम नाम प्रथम पञ्चक के मन्त्त्रों का उिार - वामनेत्र एवं इन्त्दस
ु िहत विहयुत्
(श्रीं) यह एक अक्षर का लक्ष्मी पूजन का मन्त्त्र है । इससे लक्ष्मी का पूवग में पूजन करना चािहए ॥४९-५०॥

तार (ॎ), पद्म (श्रीं), ििक्त (ह्रीं), एवं कमला (श्रीं), फिर ‘कमले कमलालये’ तदनन्त्तर दो बार प्रसीद (प्रसीद प्रसीद), फिर
लक्ष्मी (श्रीं), माया (ह्रीं), पद्म (श्री), और रुव (ॎ), और अन्त्त में ‘लक्ष्म्यै नमेः’ यह २८ अक्षरों का महालक्ष्मी मन्त्त्र है इससे
श्रीिवद्या के दिक्षण में महालक्ष्मी का पूजन करना चािहए ॥५१-५२॥

लक्ष्मीं (श्रीं), माया (ह्रीं), और मनोजन्त्मा (ललीं), ये तीन अक्षर ित्रििक्त के पूजन के मन्त्त्र हैं । इससे श्रीिवद्या के पिश्चमे में
ित्रििक्त का पूजन करना चािहए ।

भृगु (स), आकाि (ह), फिर क ल और माया (ह्रीं), इस प्रकार ि्लल्ह्रीं इस कू ट कोइ पद्मालया (श्रीं), से संपुरटत करने पर तीन
अक्षरों का सवगसाम्राज्या का मन्त्त्र बनता है । इस मन्त्त्र से श्रीिवद्या के उत्तर में िस्थत सवगसाम्राज्या का पूजन चािहए ॥५३-
५४॥

िवमिग - १. लक्ष्मी मन्त्त्र - श्रीं । २. महालक्ष्मी मन्त्त्र ॎ श्रीं ह्रीं श्रीं कमलालये प्रसीद प्रसीद श्रीं ह्रीं श्रीं ॎ महालक्ष्म्यै नमेः ।
३. ित्रििक्त मन्त्त्र - श्रीं ह्रीं ललीं । ४. सवगसाम्राज्या मन्त्त्र - श्री ि्लल्ह्रीं श्री ।
पूजन का प्रकार -
मध्य में मूल मन्त्त्र ‘महाित्रपुरसुद्नरी श्रीपादुकां पूजयािम तयगपािम नमेः; ।
पूवग में ‘श्रीं लक्ष्मी श्रीपादुकां पूजयािम तपगयािम नमेः’ ।
दिक्षण में ‘ॎ श्रीं ह्रीं श्रीं महालक्ष्मी श्रीपादुकां पूजयािम तपगयािम नमेः’ ।
पिश्चमे में ‘श्रीं ह्रीं ललीं ित्रििक्त पादुकां पूजयािम तपगयािम नमेः’ ।
उत्तर में ‘श्रीं िलल्ह्रीं सवगसामाज्रा श्रीपादुकां पूजयािम तपगयािम नमेः’ ॥४९-५४॥

अब िद्वतीय कोिपञ्च्क नामक देिवयों के मन्त्त्रों का उिार कहते हैं -


तार (ॎ), माया (ह्रीं) फिर हंसेः सोहं इसके में विहनिप्रया (स्वाहा) लगाने से आठ अक्षरों का परं ज्याित मन्त्त्र बनता है - इससे
पूवग में पूजा करनी चािहए ॥५५॥

तार (ॎ) फिर परिनष्िलिाम्भवी यह ९ अक्षर का परिनष्िल िाम्भवी मन्त्त्र बनता है । इससे दिक्षण में पूजा करनी चािहए
। स िबन्त्द ु नभ (हं), िवसगागढ्य भृगु (सेः) यह दो अक्षर का अजपा का मन्त्त्र है । इससे पिश्चम मे उनका पूजन करना चािहए
॥५६॥

अकार से क्षकार पयगन्त्त सानुस्वार वणगमाला मातृका का मन्त्त्र कहा गया है । इससे मातृकाओं का पूजन करना चािहए ॥५७॥

िवमिग - १. परं ज्याित मन्त्त्र - ॎ ह्रीं हंसेः सोहं स्वाहा । २. परिनष्किाम्भवी मन्त्त्र - ॎ परिनष्कलिाम्भवी । ३. अजपा मन्त्त्र
- हंसेः । ४. मातृका मन्त्त्र - अं आं इं ईं उं ऊं ... हं लं क्षं ।
पूजन िविध -
ॎ ह्रीं हंसेः सोहं स्वाहा परं ज्योितेः श्रीपादुकां पूजयािम तपगयािम नमेः, पूवे,
ॎ परिनष्कलिाम्भवी परिनष्िल श्रीपादुकां पूजयािम तपगयािम नमेः, दिक्षणै,
हंसेः अजया श्रीपादुकाम पूजयािम तपगयािम नमेः, पिश्चमे,
अं आं ... क्षं मातृका श्रीपादुकां पूजयािम तपगयािम नमेः, उत्तरे ॥५५-५७॥

अब तृतीय कल्पलता पञ्चक देिवयोम के मन्त्त्रों का उिार कहते है -


प्रणव (ॎ), भुवनेिानी (ह्रीं), फिर ‘खेच छे क्षेः’ फिर ‘स्त्रीं हुं’ तथा सिझण्टीि मेरु (क्षे), माया (ह्रें), तथा अन्त्त में ‘अस्त्र िट्’
लगाने से १२ अक्षरों का त्वररता का मन्त्त्र िनष्पन्न होता है । इससे पूवग में त्वररता का पूजन करना चािहए ॥५७-५८॥

इन्त्र के साथ आकाि (हं), हंस (सं), िोधीि (कं ), िपनाकी (लं), फिर धरा िबन्त्द ु के साथ हर (हैं), इस कू ट को तार (ॎ), तथा
माया (ह्रीं) से संपुरटत कर चतुथ्व्यगन्त्त सरस्वती (सरस्वत्यै), फिर हृदय (नमेः) लगाने से ११ अक्षरों का पाररजातेश्वरी मन्त्त्र
बनता है । इससे दिक्षण फदिा में पाररजातेश्वरी का पूजन करना चािहए ॥५९-६०॥

रमा (श्रीं) माया (ह्रीं) एवं मनोभूिम (ललीं) यह तीन अक्षर का ित्रपुटा मन्त्त्र बनता है । इससे पिश्चमे फदिा में ित्रपुटा का पूजन
करना चािहए ॥६१॥

रां रें ललीं ब्लूं तथा सगीभृगु (सेः) यह ५ अक्षर का पञ्चबाणेिी मन्त्त्र कहा गया है । इससे उत्तर में पञ्चबाणेिी का पूजन करना
चािहए ॥६२॥

िवमिग - १. त्वररता मन्त्त्र - ॎ ह्रीं हुं खेच छे क्षेः स्त्रीं हुं क्षे ह्रीं िट् । २. पाररजातेश्वरी मन्त्त्र - ॎ ह्रीं हं सं कं लं ह्रै ह्रीं उं
सरस्वत्यै नमेः । ३. ित्रपुटा मन्त्त्र - श्रीं ह्रीं ललीं । ४. पञ्चबाणेषी मन्त्त्र - रां रीं ललीं ब्लुं सेः ।

पूजा िविध - १. ॎ ह्रीं हु खे च छे क्षेः स्त्रीं हुं क्षे ह्रीं त्वररता श्रीपादुका पूजयािम तपगयािम नमेः, पूवे ।
२. ॎ ह्रीं हंसं कं लं ह्रैं ह्रीं ॎ सरस्वत्यै नमेः पाररजातेश्वरी श्रीपादुकां पूजयािम तपगयािम नमेः, दिक्षणे,
३. श्रीं ह्रीं ललीं ित्रपुटा श्रीपादुकां पूजयािम तपगयािम नमेः, पिश्चमे ।
४. रां री ललें ब्लूं सेः पञ्चबाणेिी श्रीपादुकां पूजयािम तपगयािम नमेः, उत्तरे ॥५७-६२॥

अब चतुथग कामधेनु पञ्चक देिवयों के मन्त्त्रों का उिार कहते हैं -


वाक् (ऐं), काम (ललीं), तदनन्त्तर औ िवसगग सिहत भृगु (सौेः), यह तीन अक्षर का अमृत पीठिी मन्त्त्र बनता है । इस मन्त्त्र से
पूवग में उनका पूजन करना चािहए ॥६२॥
नभ (ह), भृगु (स), अिि (र्), इन तीनों को वामनेत्र (ई) एवं िबन्त्द ु से युक्त कर (हस्त्रीं) कू ट बनता है । पुनेः इसके आफद में
सकार सिहत भुवनेिी (श्रीं), फिर ‘श्रीं’, इसके अन्त्त में कल अक्षरों वाली भुवनेिी (ललीं) लगाने से ४ अक्षरों का सुधाश्री मन्त्त्र
बनता है । इससे दिक्षण में उनका पूजन करना चािहए ॥६३-६४॥

अनुग्रही एवं सगी सकार (सौेः) काम (ललीं) तथा अभ्रपूवगक वाक् हैं इन तीन अक्षरों से अमृतेश्वरी का पिश्चम में पूजन करना
चािहए ॥६५॥

बीस अक्षरों का अन्नपूणाग मन्त्त्र मैने९वें तरङ्ग में कहा है (र० ९, २-३) उक्त - ‘ॎ ह्रीं श्रीं ललीं नमो भगवित माहेश्वरर अन्नपूणे
स्वाहा’ मन्त्त्र से अन्नपूणाग का उत्तर में पूजन करना चािहए ॥६६॥

िवमिग - १. अमृतपाठे िी मन्त्त्र - ऐं लली सौेः । २ सुधाश्री मन्त्त्र - हस्त्रीं श्रीं श्रीं ललीं । ३. अमृतेश्वरी मन्त्त्र - सौेः ललीं है । ४.
अन्नपूणाग मन्त्त्र - ॎ ह्रीं श्रीं ललीं नमो भगवित माहेश्वरर अन्नपूणग स्वाहा

पूजािविध - पूवगवत ‘श्रीपादुकां पूजयािम तपगयािम नमेः’ लगाने से पूजन मन्त्त्र िनष्पन्न होते हैं । उनसे ऊहापोह कर पूजा कर
लेनी चािहए । यथा ऐं ललीं सौेः अमृतपाठे िी श्रीपादुकां पूजयािम तपगयािम नमेः, इत्याफद ॥६६॥

अब पञ्चम रत्नपञ्चक संज्ञक देिवयों के मन्त्त्र का उिार कहते हैं -


वाणीबीज (ऐं), फिर ‘िललन्ने’, फिर कामबीज (ललीं), तदनन्त्तर ‘मदरवे’ ‘कु ले’ फिर औ एवं िवसगग सिहत वराह (ह), हंस (स),
एवं अिि (र) इससे बना कू ट (हस्त्रौेः) इस प्रकार ग्यारह अक्षरों का (ऐं िललन्ने ललीं मदरव कु ले हस्त्रौेः ) िसि लक्ष्मी मन्त्त्र कहा
गया है । इससे पूवग फदिा में िसिलक्ष्मी का पूजन करना चािहए । इसके दिक्षण में मातङ्गी का पूजन करना चािहए ॥६७-
६८॥

अब मातङ्गी मन्त्त्र का उिार कहते हैं - वाक् (ऐं), काम (ललीं), सौेः, फिर वाणी (ऐं), माया (ह्रीं), लक्ष्मी (श्रीं), तथा रुव
(ॎ), फिर ‘नमो भगवित मातङ्गीश्वरर सवगजनमनोहरर’ फिर ‘सवगरसजिंकरर सवगमुखरिज’ फिर नेत्र सिहत मेष (िन), फिर
‘सवगस्त्रीपुरुष’ ‘विंकरर’, ‘सवगदष्ट
ु मृगविंकरर’, फिर ‘सवगलोकवश्म्करर’, फिर माया (ह्रीं), रमा (श्रीं), फिर अङ्गज (ललीं), यथा
वाक् (ऐं) लगाने से ७३ अक्षरों का मातङगी मन्त्त्र बनता है । इससे दिक्षण में उनका पूजन करना चािहए ॥६९-७१॥

वामनेत्रे (ई), इन्त्दस


ु िहत गगन (ह) एवं विहन (र) अथागत् (ह्रीं), यह भुवनेश्वरी का मन्त्त्र कहा गया है । इससे पिश्चमे में उनका
पूजन करना चािहए ॥७२॥

दिम तरङ्ग में बतलाये गये ११४ अक्षर वाले (र० १०. ६६-७०) वाराही के मन्त्त्र से वाराही देवी का उत्तर फदिा में पूजन
करना चािहए ॥७३॥

िवमिग - १. िसिलक्ष्मी मन्त्त्र - ऐं िललन्ने ललीं मदरवे कु ले ह्स्त्रौेः (१०)। २. मातङ्गी मन्त्त्र - ऐं ललीं सौेः ऐं ह्रीं श्रीं ॎ नमो
भगवित मातङ्गीश्वरर सवगजन मनोहरर सवगराजिंकरर, सवगमुखरिञ्जिन सवगस्त्रीपुरुषविंकरर सवगदष्ट
ु मृगविंकरर
सवगलोकविंकरर ह्रीं श्रीं ललीं ऐं (७३) । ३. भुवनेश्वरी मन्त्त्र - ह्रीं । ४. वाराही मन्त्त्र - ‘ॎ ऐं ग्लौं ऐं नमो भगवित वात्तागली
वारािह वारािह वरािहमुिख, ऐं ग्लौं ऐं अन्त्धे अिन्त्धिन नमो रुन्त्धे रुिन्त्धिन नमो जम्भे जिम्भिन नमेः, मोहे मोिहिन नमेः, स्तम्भे
स्तिम्भिन नमेः, ऐं ग्लौं ऐं सवगदष्ट
ु प्रदुष्टानां सवेषां सवगवािलचचक्षुमुगखगितिजहवां स्तम्भं कु रु कु रु िीघ्रवश्य्म कु रु कु रु ऐं ग्लौं ऐं
ठेः ठेः ठेः ठेः ठेः हुं िट् स्वाहा )(११४)।
पूजा िविध - ‘ऐं िललन्ने ललीं मदरवे कु ले ह्स्त्रौेः िसिलक्ष्मीेः श्रीपादुकां पूजयािम तपगयािम नमेः’ इत्याफद ॥६७-७३॥

इस प्रकार पञ्चपिञ्चकाओं का पूजन कर षड् दिगनोम की पूजा करनी चािहए । उसकी िविध इस प्रकार है - प्रथमदिगन का मध्य
में, फिर चारों फदिाओं में अिग्रम चार दिगनों का, तदनन्त्तर अिन्त्तम दिगन का अग्रभाग में पूजन करना चािहए । १. िैव, २.
िाक्त, ३. ब्राह्य, ४. वैष्णव, ५. सौर एवं ६. सौगत ये ६ दिगन कहे गये हैं । इस प्रकार से दिगनों की पूजा कर मूल मन्त्त्र से
तीन बार उनका करना चािहए ॥७४-७५॥

िवमिग - पूजािविध - िैवदिगनश्रीपादुकां पूजयािम तपगयािम नमेः मध्ये,


िाक्तदिगनश्रीपादुकां पूजयािम तपगयािम नमेः पूवे,
ब्रह्यादिगनश्रीपादुकां पूजयािम तपगयािम नमेः दिक्षणे,
वैष्णवदिगनश्रीपादुकां पूजयािम तपगयािम नमेः पिश्चमे,
सौरदिगनश्रीपादुकां पूजयािम तपगयािम नमेः उत्तरे ,
सौगतदिगनश्रीपादुकां पूजयािम तपगयािम नमेः’ अग्रभागे,

इसके अनन्त्तर अन्त्त में ‘महाित्रपुरसुन्त्दरी श्रीपादुकां पूजयािम तपगयािम नमेः’ इस मन्त्त्र से तीन बार तपगण करना चािहए ॥७४-
७५॥

ऐसे तो श्रीमित्त्रपुरसुन्त्दरी भगवती को अङ् गुष्ठ एवं अनािमका द्वारा पुष्पाफद समपगण करना चािहए, फकन्त्तु समस्त दिगनों को
ज्ञान मुरा द्वारा पुष्पाफद समर्णपत करने की िविध कही गई है । यह मुरा अङ् गुष्ठ और तजगनी को िमलाने से बनती है ॥७६॥

इस प्रकार वैन्त्दव चि में िस्थत श्रीमित्त्रसुन्त्दरी देवी का िविधवत् पूजन करने के बाद अङ्गाफद वृित्तयोम की आवरण पूजा
प्रारम्भ करनी चािहए ॥७७॥

अब आवरणपूजा कहते हैं -


भूपुर से प्रारम्भ कर िबन्त्द ु पयगन्त्त प्रितलोम िम से नौ आवरणों की पूजा करनी चािहए । आवरण देवताओं के नाम से प्रथम
मायाबीज, श्रीबीज, तथा अन्त्त में ‘श्रीपादुकां पूजयािम नमेः’ यह सवगत्र लगाना चािहए ॥७८-७९॥

आिेय, ईिान, नैऋत्य, वायव्य, अग्रभाग एवं फदिाओं में षडङ्गपूजा करनी चािहए ॥७९॥
भूिबम्ब के आद्यरे खा के ८ फदिाओं में तथा ऊध्वग एवं अधोभाग में दि िसिियों का पूजन करना चािहए । १. अिणमा, २.
मिहमा, ३. लिघमा, ४. ईििता, ५. वििता, ६. प्राकाम्य, ७. भुिक्त, ८. इच्छा. ९. प्रािप्त एवं १० प्राकाम्या ये १० िसिियाूँ
कही गई है ॥८०-८१॥

तप्त सुवणग के समान आभावली, पाि एवं अंकुि धारण फकए हुये, साधकोम को रत्न का ढेर देती हुई िसिियों का ध्यान करना
चािहए ॥८२॥

भूपुर की मध्य रे खाओं में एवं पिश्चमाफद ८ फदिाओं में १. ब्राह्यी, २. माहेश्वरी, ३. कौमारी, ४. वैष्णवी, ५. वाराही, ६.
इन्त्रािण, ७. चामुण्डा एवं ८. महालक्ष्मी का पूजन करना चािहए ॥८३-८४॥
सम्पूणग आभूषणों से िवभूिषत, अपने हाथों मे िमिेः पुस्तक, िूल, ििक्त चि, गदा वज्र, दण्ड एवं कमल िलए हुये संपूणग
मनोरथों को पूणग करने वाली ऐसी इन महाििक्तयों का ध्यान करना चािहए ॥८४-८५॥

इसके बाद भूपुर की तृतीय रेखा में १० मुराओं का पूजन करना चािहए १. क्षोभण, २. रावण, ३. आकषगण, ४. वश्य, ५.
उन्त्माद, ६. महांकुिा, ७. खेचरी, ८. बीज, ९. योिन एवं १०. ित्रखण्डा ये दि मुरायें कही गई है ।
इस प्रकार प्रथम आवरण में भूपुर का पूजन कर क्षोभ मुरा प्रदर्णित करनी चािहए ॥८६-८७॥

त्रैलोलय मोहन चि मोहन चि में प्रगट हुई ये योिगिनयाूँ पूजन एव्य्म तपगण से अभीष्ट िल प्रदान करे - ऐसी प्राथगना करनी
चािहए । फिर मूल मन्त्त्र से िबन्त्द ु पर पुष्पाञ्जिल चढानी चािहए ॥८८-८९॥

िवमिग - प्रथमावरण पूजा िविध - यन्त्त्र के आिेय आफद कोणों में यथािम से षडङ्गपूजा इस प्रकार करनी चािहए - यथा -
श्रीं ह्रीं ललीं ऐं सौेः हृदयाय नमेः, आिेय,े
ॎ ह्रीं श्रीं ििरसे स्वाहा ऐिान्त्ये, कएईलह्रीं ििखायै वौषट् नैऋत्ये,
हसखलह्रीं कवचाय हुम्, वायव्ये सकलह्रीं नेत्रत्रयाय वौषट् अग्रे,
सौेः ऐं ललीं ह्रीं श्रीं अस्त्राय िट् , चतुर्ददक्षु ।
इसके अनन्त्तर तप्तहेमसमानाभाेः (र १२. ८२) श्लोक के अनुसार ध्यान कर भूपुर प्रथम रे खा में पूवग आफद फदिाओं में
अिणमाफद १० िसिियों का इस प्रकार पूजन करे । यथा -
ह्रीं श्रीं अिणमािसिि श्रीपादुकां पूजयािम नमेः, पूवे,
ह्रीं श्रीं मिहमािसिि श्रीपादुकां पूजयािम नमेः, आिेये,
ह्रीं श्रीं लिघमािसिि श्रीपादुकां पूजयािम नमेः, दिक्षण,
ह्रीं श्रीं ईिितािसिि श्रीपादुकां पूजयािम नमेः, नैऋत्ये,
ह्रीं श्रीं विितािििि श्रीपादुकां पूजयािम नमेः, पिश्चमे,
ह्रीं श्रीं प्रकाम्यािसिि श्रीपादुकां पूजयािम नमेः, वायव्ये,
ह्रीं श्रीं भुिक्तिसिि श्रीपादुका पूजयािम नमेः, उत्तरे,
ह्रीं श्रीं इच्छािसिि श्रीपादुका पूजयािम नमेः ऐिान्त्ये,
ह्री श्रीं प्रािप्तिसिि श्रीपादुकां पूजयािम नमेः ऊध्वगभागे,
ह्रीं श्रीं सवगकामािसिि श्रीपादुकां पूजयािम नमेः, अधोभागे ।

तत्पश्चात् भूपुर की िद्वतीय रेखा में - पिश्चमाफद फदिाओं में ८ मातृकाओं का इस प्रकार पूजन करना चािहए । यथा -
ह्रीं श्रीं ब्राह्मीमातृका श्रीपादुकां पूजयािम पिश्चमे,
ह्रीं श्रीं माहेश्वरीमातृका श्रीपादुकां पूजयािम, वायव्ये,
ह्रीं श्रीं कौमारीमातृका श्रीपादुकां पूजयािम, उत्तरे,
ह्रीं श्रीं वैष्णवीमातृका श्रीपादुकां पूजयािम, ऐिान्त्ये,
ह्रीं श्रीं वाराहीमातृका श्रीपादुकां पूजयािम, पूव,े
ह्रीं श्रीं इन्त्राणीमातृका श्रीपादुकां पूजयािम, आिेय,े
ह्रीं श्रीं चामुण्डामातृका श्रीपादुकां पूजयािम, दिक्षणे,
ह्रीं श्रीं महालक्ष्मीमातृका श्रीपादुकां पूजयािम, नैऋत्ये ।
इसके बाद भूपुर की तृतीय रेखा के ८ फदिाओं एवं ऊध्वग अधोभाग में १० मुराओं का इस प्रकार पूजन करना चािहए । यथा -
ह्रीं श्रीं क्षोभणमुरा श्रीपादुकां पूजयािम,
ह्रीं श्रीं रावणमुरा श्रीपादुकां पूजयािम,
ह्रीं श्रीं आकषगणमुरा श्रीपादुकां पूजयािम,
ह्रीं श्रीं वश्यमुरा श्रीपादुकां पूजयािम,
ह्रीं श्रीं उन्त्मादमुरा श्रीपादुकां पूजयािम,
ह्रीं श्रीं महांकुिामुरा श्रीपादुकां पूजयािम,
ह्रीं श्रीं खेचरे मुरा श्रीपादुकां पूजयािम,
ह्रीं श्रीं बीजमुरा श्रीपादुकां पूजयािम,
ह्रीं श्रीं योिनमुरा श्रीपादुकां पूजयािम,
ह्रीं श्रीं ित्रखण्डामुरा श्रीपादुकां पूजयािम, ।

इस प्रकार प्रथमावरण का पूजन कर क्षोभमुरा फदखाते हुए ‘त्रैलोलयमोहन चिे ’ (र० १२. ८८) श्लोक पढकर प्राथगना करे ,
तदनन्त्तर मूलमन्त्त्र से िबन्त्द ु पर पुष्पाञ्जिल देनी चािहए ।
क्षोभमुरा का लक्षण इस प्रकार है -
मध्यमा मध्यमे कृ त्त्वा किनष्ठाङ् गुष्ठरोिधते ।
तजगन्त्यौ दण्डवत् कृ त्वा मध्यमोपयगनािमके ।
क्षोभािभधानमुरय
े ं सवगक्षोभणकाररणी ॥७८-८६॥

अब िद्वतीयावरण के पूजन का िवधान कहते हैं - षोडिदल में पिश्चमे से िवलोम िम से १६ ििक्तयों का पूजन करना चािहए
- १ कामाकषगिणका, २. बुियाकषगिणका, ३. अहंकाराअकर्णषणी ४. िब्दाकषगिणका, ५. स्पिगकषगिणकाअ, ६. रुपाकषगिणका,
७. रसाकषगिणका, ८. गन्त्धाकषगिणका, ८. िचत्ताकषगिणका, १०. धैयागकषगिणका, ११. नामाकषगिणका, १२. बीजाकषगिणका,
१३. अमृताकषगिणका, १४. स्मृत्याकषगिणका, १५. िरीरकषगणी, १६. आत्माकषगिणका ये १६ ििक्तयाूँ हैं ॥८९-९३॥

िवमिग - ह्रीं श्रीं कामाकर्णषणीििक्त श्रीपादुकां पूजयािम’ पिश्चमे इत्याफद ।


रािवणी मुरा का लक्षण - ‘क्षोभािभधानमुराया मध्यमे सरले यदा ।
फियते परमेिािन तदा िवरािवणी मता’ ॥९०-९५॥

अब तृतीयावरण के पूजन का िवधान कहते हैं - क वगग आफद ८ वगो से युक्त अष्टदल में पूवागफद फदिाओं में अनुलोम िम से
बन्त्धूक पुष्प के समान आभा वाली हाथों मेम पाि, अंकुि धारण फकए हुये कु सुमा आफद ८ ििक्तयों का पूजन करना चािहए -
१, अनङ्गकु सुमा २. अनङ्गमेखला ३. अनङ्गमदना ४, अनङ्गमदनातुरा ५, अनङ्गरे खा, ६. अनङ्गवेगा ७, अनङ्गांकुिा,
८, अनङमािलिन ये ९ ििक्तयाूँ हैं । फिर ‘सवगसंक्षोभणे चिे एता अष्टौ गुप्ततरा योिगन्त्येः पूिजताेः सन्त्तु’ ऐसा कहकर आकषगण
मुरा प्रदर्णित करना चािहए ॥९५-९९॥

िवमिग - पूजा िविध - तृतीय आवरण में अष्टदल में पूवागफद फदिाओं के अनुलोम िम से अनङ्गकु सुमा आफद ८ महायोिगिनयों
का ध्यान कर इस प्रकार पूजन करना चािहए । ध्यान मन्त्त्र - ‘सवगसंक्षोभणे चिे - बन्त्धूककु सुमप्रभाेः । अनङ्ग कु सुमाद्यष्टौ
पािांकुिलसत्कराेः’ । इस प्रकार ध्यान कर - ‘ह्रीं श्रीं अनङ्गकु सुमा श्रीपादुकां पूजयािम’ इत्याफद, इस िविध से तृतीय आवरण
में ८ ििक्तयों का पूजन कर - ‘सवगक्षोभणे चिे एता अष्टौ गुप्ततरा योिगन्त्येः पूिजताेः सन्त्तु’ से प्राथगना कर पुष्पाञ्जिल प्रदान करे
। पश्चात् आकर्णषणी मुरा प्रदर्णित करे ।

आकर्णषणीमुरा का लक्षण - ‘मध्यमाततजगनीभ्यां तु किनष्ठानािमके समे ।


अंकुिाकाररुपाभ्यां मध्यमे परमेश्वरर ।
इयमाकर्णषणी मुरा त्रैलोलयाकरषेणे क्षमा ॥९५-९९॥

अब चतुथग आवरण के पूजन का िवधान कहते है - ककार से ढकार तक वणो से सुिोिभत चतुदि
ग दल में पिश्चमे फदिा से
प्रारम्भ कर िवलोम िम से इन्त्रगोप (लाल बीलबहटी) सदृि आभावाली, मदोन्त्मत्त, आभूषणों से अलंकृत, हाथों में िमिेः
दपगण, पान-पात्र, पाि और अंकुि िलए हुये इन १४ ििक्तयों का पूजन करना चािहए -
१. सवगसंक्षोिभणी २. सवगिवरािवणी ३. सवागकषगिणका ४. सवागहलादकरे ५. सवगसम्मोिहनी ६. सवगस्तम्भनकाररणी ७.
सवगजृम्भिणका ८. सवगविंकरी, ९. सवगरिञ्जिनका, १०. सवोन्त्माफदिनका, ११. सवागथस
ग ािधनी १२. सवगसंपत्पूररणी १३.
सवगमन्त्त्रमयी और १४. सवगद्वन्त्द्वक्षयंकरी ये १४ ििक्तयाूँ है ॥९९-१०४॥

फिर मूलमन्त्त्र से पुष्पाञ्जिल देकर वश्यमुरा प्रदर्णित करे , तथा ‘सवगसौभाग्यप्रदे चिे इमाश्चतुदि
ग संप्रदाययोिगन्त्येः पूिजताेः
सन्त्तु तृप्ताेः सन्त्तु ए मङ्गलािन फदिन्त्तु’ ऐसी प्राथगना करनी चािहए ॥१०५-१०६॥

िवमिग - पूजा िविध - इन्त्रगोपिनभा (र ० १२.१००) के अनुसार ध्यान कर चतुथागवरण में चतुदि
ग दल में पिश्चमे फदिा से
िवलोम िम से सवगसक्ष
ं ोिभणी सवगसंक्षोिभणीििक्त श्रीपादुका पूजयािम’ । इसी प्रकार प्रारम्भ में माया पद बीजाक्षर के आगे
एक-एक वणग, तदनन्त्तर महाििक्तयों के नाम के अन्त्त में ‘ििक्त श्रीपादुकाम पूजयािम’ कहकर चतुदि
ग ििक्तयों की पूजा करे ,
फिर ‘सवगसौभाग्यप्रदे चिे इमाश्चतुदि
ग संप्रदाययोिगन्त्येः पूिजताेः सन्त्तु’ से प्राथगना कर पुष्पाञ्जिल समर्णपत कर वश्यमुरा
प्रदर्णित करनी चािहए ।

वश्यमुरा के लक्षण - पुटाकारौ करौ कृ त्वा तजगन्त्यावंकुिाकृ ित ।


पररवायग िमेणैव मध्यमे तदधोगते ।
िमेण देिव तेनैव किनष्ठनािमका हृदेः ॥
संयोज्य िनिवडाेः सवाग अङ् गुष्ठावग्रदेितेः ।
मुरय्े म परमेिािन सवगवश्यकरी मता ॥९९-१०६॥

अब पञ्चम आवरण के पूजा का िवधान कहते हैं - णकार से भकार तक वणो से सुिोिभत दिदल में जपाकु सुम के समान
आभावाली, जगमगाते आभूषणों से अलंकृत तथा हाथों में पाि और अंकुि धारण फकए हुये दि कु ल-योिगिनयों का पिश्चम से
प्रारम्भ कर िवलोम रीित से पूजन करना चािहए ॥१०६-१०८॥

१. सवगिसििप्र्दा, २. सवगसम्पप्रदा, ३. सवगिप्रयंकरी, ४. सवगमङ्गलकाररणी, ५. सवगकामप्रदा, ६. सवगदेःु खिवमोिचनी, ७.


सवगमृत्युप्रिमनी, ८. सवगिविािनवाररणी ९. सवागङ्गसुन्त्दरी तथा १०. सवगसौभाग्यप्रदाियनी ये १० कु ल योिगिनयाूँ कही गई
हैं । िबन्त्द ु पर पुष्पाञ्जिल समर्णपत कर उन्त्मादमुरा प्रदर्णित करनी चािहए तथा ‘सवागथस
ग ाधक चिे इमा दि कु लयोिगन्त्येः
पूिजताेः मेऽभीष्टिसििदाेः च सन्त्तु’ से प्राथगना करनी चािहए ॥१०८-११२॥

िवमिग - पूजा िविध - ९१२. १०७ श्लोक के अनुसार ध्यान कर पिश्चम फदिा से िवलोम िम द्वारा ‘ह्रीं श्रीं णं
सवगिसििप्रदादेवी श्रीपादुकां पूजयािम नमेः’ से दिो का पूजन करे , इसी प्रकार प्रथम माया, फिर लक्ष्मीबीज, तदनन्त्तर भकार
तक के मातृकावणो के एक-एक अक्षर, फिर नाम, उसके आगे देवी, फिर ‘श्रीपादुकां पूजयािम नमेः’ कह कर दि दलों में
दिोम देिवयों का पूजन करना चािहए । इस प्रकार कु लयोिगिनयों का पूजन कर ‘सवागथगसाधक चि इमा दि कु लयोिगन्त्येः
पूिजताह सन्त्त’ु मन्त्त्र पढते हुये पुष्पाञ्जिल समर्णपत कर उन्त्मादमुरा प्रदर्णित करनी चािहए ।

उन्त्मादमुरा का लक्षण - सम्मुखौ तु करौ कृ त्वा मध्यमामध्यमेनुजे


अनािमके तु सरले तदघस्तजगनीद्वयम्
दण्डाकारी ततोङ् गुष्टौ मध्यमानस्वदेिगौ
मुरष
ै ान्त्माफदनी नाम ललेफदनी सवगयोिषताम’ ॥१०८-११२॥

अब षष्ठावरण का पूजन कहते हैम - मकार से क्षकार पयगन्त्त १० वणो से सुिोिभत िद्वतीय दिदल में, उदीयमान सूयग के
समान आभावाली, हाथ में ज्ञानमुरा, टंक, पाि और वरमुरा धारण की हुई सवगज्ञा आफद दि योिगिनयों का पिश्चमे फदिा से
प्रारम्भ कर िवलोम िम द्वारा पूजा करनी चािहए ॥११२-११३॥

१. सवगज्ञा, २. सवगििक्त, ३. सवैश्यगिलप्रदा, ४. सवगज्ञानमयी, ५. सवगव्यािधिवनाििनी, ६. सवागधारस्वरुपा, ७. सवगपापहरा,


८. सवागनन्त्दमयी ९. सवगरक्षास्वरुिपणी, १०. सवेिप्सताथगिलदा - ये दि योिगिनयाूँ हैं ।

इनका पूजन कर मूल मन्त्त्र से पुष्पाञ्जिल समर्णपत कर महांकुिामुरा प्रदर्णित करनी चािहए तथा ‘सवगरत्नाकरे चिे इमा दि
िनगभाग योिगन्त्येः पूिजताेः सन्त्तु तर्णपताेः सन्त्तु ममाभीष्ट िलप्रदाेः सन्त्तु’ से प्राथगना करनी चािहए ॥११४-११७॥

िवमिग - पूजा िविध - ‘सवगरत्नाकरे चिे ’ (र ० १२. ११३) श्लोक के अनुसार देिवयों का ध्यान कर सवगज्ञा आफद १० िनगभाग
योिनयों का पूजन करना चािहए । यथा - ‘ह्रीं श्रीं मं सवगज्ञादेवी श्रीपादुका पूजयािम’ । इसी प्रकार आफद में ‘ह्रीं श्रीं’ तथा आगे
का वणग लगाकर देिवयों के नाम के आगे ‘श्रीपादुकां पूजयािम’ से उपयुगक्त १० योिगिनयों का पूजन करना चािहए । फिर मूल
मन्त्त्र से पुष्पाञ्जिल चढाकर ‘सवगरत्नाकरे चिे इमा दिािनगबगहयोिगन्त्येः पूिजताेः सन्त्तु’ इस प्रकार प्राथगना कर महांकुिामुरा
प्रदर्णित करनी चािहए ।

महांकुिा का लक्षण - अस्यास्त्वनािमका युग्ममघेः कृ त्वांकुिाकृ ित ।


तजगन्त्याविप तेनैव िमेण िविनयोजयेत् ।
इयं महांकुिामुरा सवगकामाथगसािधनी ॥११२-११७॥

अब सप्तम आवरण के पूजन का िवधान कहते हैं - अनार के पुष्प जैसी आभा वाली, लाल रं ग के वस्त्रों से अलृकृत, हाथों में
धनुष, बाण, िवद्या और वर धारण फकए हुये, न्त्यासोक्त वििनी आफद ८ देिवयों का ध्यान कर, अकराफद ८ वणो से सुिोिभत
अष्टदल में पूवोक्त बीजों के साथ उक्त ८ देिवयों का पिश्चमे से िवलोम िम द्वारा पूजन करना चािहए ॥११८-११९॥

वििनी, कौमारी, मोफदनी, िवमला, अरुणा, जियनी, सवेिी और कौिलनी ये ८ देिवयाूँ हैं । इनके पूजन के पश्चात् ‘सवगरोगहरे
चिे अष्टारे इमा रहस्ययोिगन्त्येः पूिजताेः तर्णपताेः सन्त्त’ु से प्राथगना कर पुष्पाञ्जिल अर्णपत करनी चािहए । तदनन्त्तर खेचरीमुरा
प्रदर्णित करना चािहए । तदनन्त्तर ित्रपुरसुन्त्दरी को संतुष्ट करना चािहए ॥१२०-१२१॥

िवमिग - पूजािविध - ‘सवगरोगहरे अष्टारे चिे (र ० १२. ११८) इस श्लोक के अनुसार देिवयों का ध्यान कर अकाराअफद
िवभूिषत अष्टदल में वििनी आफद ८ योिगिनयों का पूवगवत् पूजन करना चािहए । यथा - ह्रीं श्रीं अं आं वििनीवग्देवता
श्रीपादुकां पूजयािम नमेः, ह्रीं श्रीं इ ईं कौमारीवाग्देवता श्रीपादुकां पूजयािम नमेः, इत्याफद । इस प्रकार पूवोक्त रीित से उक्त
योिगिनयों का पूजन कर मूलमन्त्त्र से पुष्पाञ्जिल समर्णपत कर ‘सवगरोगहरे चिे अष्टारे इमा रहस्य योिगन्त्येः पूिजताेः सन्त्तु’ ऐसी
प्राथगना कर खेचरीमुरा प्रदर्णित करनी चािहए ।

खेचरीमुरा का लक्षण - सव्यं दिक्षणहस्ते तु सव्यहस्ते तु दिक्षणम् ।


वाह कृ त्वा महादेिव हस्तौ संपररवत्यग च ॥
किनष्ठानािमके देिव युक्ता तेन िमेण तु ।
तजगनीभ्या समािान्त्ते सवोध्वगमिप मध्यमे ॥
अङ् गुष्ठो तु महादेिव सरलाविप कारयेत् ।
इयं सा खेचरी नाम मुरा सवोत्तमोत्तमा ॥१२०-१२१॥

अब अष्टम आवरण के पूजन का िवधान कहते हैं - अ क थ इन तीन वणो से िवभूिषत, ित्रकोण में पिश्चमाफद अनुलोम िम से,
चारों फदिाओं में स्वस्थ िचत्त हो कर, अपने अपने बीजोम के साथ जम्भ, मोह, वि और स्तम्भ संज्ञक वाले कामेश्वर और
कामेश्वरी के बाण, धनुष, पाि और अंकुि की पूजा करनी चािहए । बाण के पहले पञ्चबाण बीज, धनुष के पहले सानुस्वार
मीनकृ ष्ण (धं थं), पाि के पहले पाि और मायाबीज (आं ह्रीं) तथा अंकुि के पहले अंकुि बीज (िौं) लगाना चािहए ॥१२२-
१२५॥

अनेक रत्नों से सुिोिभत, अपने अपने आयुधों से युक्त, िवद्युत के समान देदीप्यमान अङ्गो वाली तथा यौवन के उन्त्माद से
इठलाती हुई चाल वाली, उक्त आयुध देिवयों का ध्यान करना चािहए ॥१२६॥

आिेयाफद तीन कोणों में कू टत्रय कामेश्वरी, वज्रेिी और भगमािलनी का पूजन करना चािहए ॥१२७॥

कामेिी का ध्यान - िरत्कालीन चन्त्रमा जैसी स्वच्छ कािन्त्तवाली, अपने हाथों में पुस्तके , वर और माला धारण की हुई, रुर
की ििक्त, कामेश्वरी का ध्यान करना चािहए ॥१२८॥

वज्रेिी का ध्यान - उदीयमान सूयग के समान आभा वाली, इक्षु का चाप, वर, अभय और पुष्पबाण अपने हाथों में िलए हुये,
िवष्णु की ििक्त, वज्रेश्वरी देवी का ध्यान करना चािहए ॥१२९॥

उत्तप्त सुवणग के समान जगमगाती हुई, हाथों में ज्ञानमुरा, वर, एवं अंकुि िलए हुये, ब्रह्मदेव की ििक्त, भगमािलनी का ध्यान
करना चािहए ॥१३०॥

इस प्रकार ित्रकोण में उक्त देिवयों का पूजन कर पुष्पाञ्जिल प्रदान करनी चािहए । तदनन्त्तर बीजमुरा प्रदर्णित करते हुये
‘सवगिसिप्रदे चिे इमा अितरहस्या योिगन्त्येः पूिजताेः सन्त्तु मे िनरन्त्तरं मङ्गलं फदिन्त्तु’ ऐसी प्राथगना ित्रपुरसुन्त्दरी से करनी
चािहए ॥१३१-१३२॥

िवमिग - पूजािविध - ‘नानारन्त्त०’ (र० १२.१२६) श्लोक के अनुसार आयुध देिवयों का ध्यान कर, अ क थ वणों से संयुक्त
ित्रकोण के चारों ओर, पिश्चम से प्रारम्भ कर, अनुलोम िम से, अपने अपने बीजमन्त्त्रों के साथ कामेश्वर और कामेश्वरी के
बाण, धनुष, आफद का इस प्रकार पूजन करे । यथा -
यां रां लां वां िां रां रीं ललीं ब्लूं सेः कामेश्वरकामेश्वरी जम्भबाण श्रीपादुकां पूजयािम पिश्चमे,
धं थं कामेश्वरकामेश्वरी मोहनधनुेः श्रीपादुकां पूजयािम उत्तरे ,
आं ह्रीं कामेश्वरकामेश्वरी विीकरणपाि श्रीपादुकां पूजयािम पूवे,
िों कामेश्वरकामेश्वरी स्तम्भनांकुि श्रीपादुकां पूजयािम दिक्षण,

इसके बाद ित्रकोण के आिेयाफद कोणों में (१२.१२५) श्लोक के अनुसार कामेश्वरी रुरििक्त का, (१२. १२९) श्लोक के अनुसार
िवष्णुििक्त वज्रेश्वरी का तथा (१२.१३०) श्लोक के अनुसार ब्रह्मििक्त भगमािलनी का ध्यान कर इस प्रकार पूजन करना
चािहए । यथा-
कएईलह्रीं कामेश्वरीपीठे कामेश्वरीरुरििक्त श्रीपादुकां पूजयािम,
हसकहलह्रीं पूणगिगररपीठे वज्रेश्वरीिवष्णुििक्त श्रीपादुकां पूजयािम,
सकलह्रीं जालन्त्धरपीठे भगमािलनीब्रह्माििक्त श्रीपादुकां पूजयािम,

इस प्रकार पूजन करने के पश्चात् मूलमन्त्त्र से पुष्पाञ्जिल समर्णपत कर ‘सवगिसििप्रदे चिे इमा अितरहस्या योिगन्त्येः पूिजताेः
सन्त्तु िनरन्त्तरं मङ्गलं फदिन्त्तु’ ऐसी प्राथगना बीजमुरा प्रदर्णित करनी चािहए ।

बीजमुरा का लक्षण - पररवत्यग करौ स्पष्टाविगचन्त्राकृ ती िप्रये । तजगन्त्यङ् युगले युगपत्कारयेत्ततेः ॥ अघेः किनष्ठावष्टब्धे मध्यमे
िविनयोजयेत । तथैव कु रटले योज्ये सवागधस्तादनिमके । बीजमुरय े मुफदता सवगिसििप्रदाियनी ॥१२२-१३२॥

अब नवम आवरण की पूजन िविध कहते हैं - इसके बाद िबन्त्द ु पर िविधवत् ध्यान कर पूवोक्त िविध से मूलिवद्या मन्त्त्र
बोलकर श्रीमित्त्रपुरसुन्त्दरी का पूजन करना चािहए । तदनन्त्तर ‘स्वानन्त्दमये चिे सवागभीष्टिवधाियनीं परात्पररहस्य योिगनी
श्रीमित्त्रपुरसुन्त्दरी पूिजतास्तु’ ऐसी प्राथगना कर योिनमुरा प्रदर्णित कर ३ बार तपगण करना चािहए । तदनन्त्तर धूप, दीप,
आफद तथा अनेक प्रकार के भोज्य पदाथो का नैवद्य
े भगवती को िनवेफदत करना चािहए ॥१३३-१३५॥

िवमिग - पूजािविध - ११ ५१ श्लोक द्वारा भगवती के स्वरुप का ध्यान कर िबन्त्द ु पर मूल मन्त्त्र - ‘श्रीमित्त्रपुरसुन्त्दरी श्रीपादुकां
पूजयािम’ से श्री श्रीिवद्या का पूजन कर पुष्पाञ्जिल समर्णपत करे । फिर ‘सवागनन्त्दमये चिे श्रीमित्त्रपुरसुन्त्दरी पूिजतास्तु’ ऐसी
प्राथगना कर महायोिनमुरा प्रदर्णित करना चािहए ।

महायोिनमुरा का लक्षण - मध्यमे कु रटले कृ त्वा तजगनुपरर संिस्थते ।


अनािमका मध्यगते तथैव िह किनिष्ठके ॥
सवाग एकत्र संयोज्या अङ् गुष्ठ पररपीिडता ।
एषा तु प्रथमा मुरा महायोन्त्यिमधा मता ॥
फिर मूल मन्त्त्र - ‘श्रीमित्त्रपुरसुन्त्दरीं तपगयािम’ से तीन बार तपगण कर धूप दीपाफद उपचारों से देवी का पूजन कर िविवध
नैवेद्य समर्णपत करे ॥१३३-१३५॥

इसके बाद पूवोक्त िविध (र० १. १२९) से अििदेव की पूजा कर उसमें ित्रपुरसुन्त्दरी का आवाहन कर हव्यरव्यों से २५
आहुितयाूँ (मूलमन्त्त्र द्वारा) प्रदार करे ॥१३६॥

फिर श्रीचिे के ईिान, आिेय, नैऋत्य और वायव्य कोणों में हुतिेष रव से, अपने अपने मन्त्त्रों एव मुराओं से िमिेः बटुक,
योिगनी, क्षेत्रपाल और गणपित को पूवोक्त रीित से बिल प्रदान करनी चािहए ॥१३७-१३८॥
तदनन्त्तर प्रदािक्षणा और नमस्कार कर मूलिवद्या का जप करना चािहए । इस प्रकार िजतेिन्त्रय साधक प्रितफदन ९ आवरणों
के साथ श्रीमित्त्रपुरसुन्त्दरी का पूजन का अपने समस्त मनोरथों को पूणग करता है ॥१३९-१४०॥

िवमिग - बिलदान िविध - ‘एह्येिह देवीपुत्र बटुकनाथ किपलजटाभार भासुर ित्रनेत्रज्वालामुख सवगिवघ्नान्नािय नािय
सवोपचार सिहतं इमं बतल गृहण गृहण स्वाहा’ इस मन्त्त्र से तजगनी और अङ् गुष्ठ िमलाकर बटुकमुरा प्रदर्णित कर हुतिेष रव्यों
की बिल ईिान कोण में बटुक को देनी चािहए ।
तदनन्त्तर ‘ऊध्वं ब्रह्माण्डतो वा फदििगगनतले भूतले िनष्कले वा
पाताले वा तले वा सिललपानयोयगत्र कु त्र िस्थतां वा ।
प्रीता देव्येः सदा नेः िुभबिलिविधना पातु वीरे न्त्रवन्त्द्याेः ॥
यां योिगनीभ्यो नमेः’

इस मन्त्त्र से अनािमका, किनष्ठा एवं अङ् गुष्ठ को िमलाने से िनष्पन्न मुरा द्वारा हुतिेष रव्य से योिगिनयों को बिल देनी चािहए

तदनन्त्तर ‘क्षां क्षीं क्षूं क्षे क्षौं क्षेः हुं स्थानक्षेत्रपालेि सवगकामं पूरय स्वाहा’ इस मन्त्त्र से बायें हाथ का अङ् गुष्ठ और अनािमका को
िमलाने से िनष्पन्न मुरा प्रदर्णित कर हुतिेष रव्य से श्रीचि के नैऋत्यकोण में क्षेत्रपाल को बिल प्रदान करना चािहए ।

फिर ‘गां गीं गूं गं गणपतये वर वरद सवगजनं में विमानय सवोपचार सिहतं बतल गृहण गृहण स्वाहा’ इस मन्त्त्र से पढकर
थोडी वि की हुई मध्यमा की मुरा प्रदर्णित कर हुत िेष रव्य से श्रीचि के वायव्यकोण में गणपित को बिलप्रदान करना
चािहए ॥१३७-१४०॥

इस मन्त्त्र का ९ लाख जप करने से साधक रुर स्वरुप प्राप्त कर लेता है । इस मन्त्त्र के द्वारा मिल्लका(बेला) और मालती के
िू लों के होम से साधक को वागीिता प्राप्त होती है ॥१४१॥

इतना ही नहीं कनेर और जपाकु सुम के होम से साधक सारे जगत् को मोिहत कर लेता है । कपूर, कुं कु म और कस्तूरी के होम
से व्यिक्त कामदेव से भी आिधक रुप संपन्न हो जाता है । चम्पा एवं गुलाब के होम से व्यिक्त िीघ्र ही िवश्व को अपना विवती
बना लेता है ॥१४२-१४३॥

लाजा के होम से राज्य प्रािप्त होती है, मधु के होम से समस्त उपरव नष्ट हो जाते है, राित्र के समय छागमांस के होम से ित्रु
सेना नष्ट हो जाती है । दही के होम से आरोग्य, घी के होम से संपित्त, दूध के होम से ग्राम, तथा मधु के होम से धन प्राप्त होता
है । कमलों के होम से धन संपित्त िमलती है तथा अनार के होम से राजा विवती हो जाता है । िबजौरा के होम से िक्ष्त्रय,
नारं गी के होम से वैश्य, तथा पेठा के होम से वैश्य, तथा पेठा के होम से िूर िीघ्र ही वि में हो जाते है ॥१४३-१४६॥

कटहल से एक लाख आहुितयाूँ देने पर चिवती राजा वि में हो जाता है, अंगूर के होम से इष्टिसिि, बेला के होम से मन्त्त्री
वि में हो जाता है । नाररयल के होम से संपित्त तथा ितल के होम से सभी अभीष्ट पदाथग प्राप्त होते हैं ॥१४७-१४९॥

गुग्गुलु के होम से दुेःख नाि, चिवड एवं गुड के होम से मनोरथ पूणग होते हैं । खीर के होम से धन धान्त्य िमलता है । बन्त्धूक
(दुपिहरया) के िू लों के होम से प्राणी वि में हो जाते हैं ॥ पक्व आमों की एक लाख आहुितयाूँ देने से पृथ्व्वी पर रहने वाले सारे
प्राणी वि में हो जाते हैं ॥१४८-१४९॥
राई िमिश्रत लवण के होम से दुष्टों का नाि होता है । कपूर के होम से िीघ्र किवत्व की प्रािप्त होती है । करञ्ज िल के होम से
भूत प्रेत आफद वि में हो जाते हैं ॥१५०-१५१॥

िबल्विल के होम से अतु लक्ष्मी तथा ईख खण्ड के होम से सुख िमलता है । घी के होम से अभीष्ट वस्तु की प्रािप्त तथा ितल
तन्त्दल
ु के होम से िािन्त्त प्राप्त होती है । हे देवेिि - िविेष लया कहें इस मन्त्त्र द्वारा मनुष्य अपने समस्त अभीष्टों को प्राप्त कर
लेता हैं ॥१५१-१५२॥

कू टित्रतय के मध्य में अन्त्य वणो के लगाने से इस ‘श्रीिवद्या के अनेक भेद हो जाते हैं । ग्रन्त्थ िवस्तार के भय से यहाूँ उनका
िनदेि नहीं कर रहा हूँ ॥१५३॥

िवमिग - षोडिी मन्त्त्र के मध्य के तीनों कू टो में वणगिवपयगय द्वारा कु बेरोपािसता आफद बत्तीस भेद बनते हैं, िजनका आचायग ने
‘नौका’ में वणगन फकया है ।

इसके अलावा आगम िास्त्र में षोडिी िवद्या के कु छ और भी भेद कहे गये हैं जो िनम्निलिखत हैं -
कामराजिवद्या - कएलईह्रीं, हसकहलह्रीं सकलह्रीं ।
प्रथमलोपामुरा - हसकलह्रीं, हसकलह्रीं सकलह्रीं ।
मनुपूिजता - कहएअईलह्रीं, हकएईलह्रीं, सकएईलह्रीं ।
चन्त्रपूिजता - सहकएलईलह्रीं, सहकहईलह्रीं, सहकएईलह्रीं ।
कु बेरपूिजता - हसकएईलह्रीं हसकएईलह्रीं हसकएईलह्रीं ।
िद्वतीयलोपामुरा - कएईलह्रीं, हसकहलह्रीं, सहसकलह्रीम ।
निन्त्दपूिजता - सएईलह्रीं, सहकलह्रीं, सकलह्रीं ।
सूयगपूिजतेः - कएईलह्रीं, हसकलह्रीम, सकलह्रीं ।
िंकरपूिजता - कएईलह्रीं, हसकलह्रीं, सहसकलह्रीं, कएईलहसकहलसकसकलह्रीं,
िवष्णुपूिजता - कएईलह्रीं, हसकलह्रीं, सहसकलह्रीं, सएलह्रीं, सहकहलह्रीं, सकलह्रीं ।
दुवासागपूिजता - कएईलह्रीं, हसकहलह्रीं, सकलह्रीं ॥१५३॥

यह श्रीिवद्या अपरीिक्षत ििष्य को कभी नहीं देनी चािहए । अभीष्ट िल दाियनी यह िवद्या अपने पुत्र एवं सुपरीिक्षत ििष्य
को ही देनी चािहए ॥१५४॥

अब भोग मोक्षदाियनी गोपालसुन्त्दरी मन्त्त्र का उिार कहता हूँ -


माया (ह्रीं), रमा (श्रीं), िचत्तजन्त्मा (ललीं), फिर ‘कृ ष्णाय’ इस प्रथम वालकू ट का उिारण कर ‘गोिवन्त्दाय’ यह िद्वतीय कू ट,
फिर गोपीजनवल्लभाय तृतीय कू ट बोलना चािहए । इसके अन्त्त में स्वाहा लगाने से २० अक्षरों का गोपालसुन्त्दरी मन्त्त्र
िनष्पन्न होता है ॥१५५-१५७॥

िवमिग - मन्त्त्र का स्वरुप इस प्रकार है - ‘ह्रीं श्रीं ललीं कृ ष्णाय गोिवन्त्राय गोपीजनवल्लभाय स्वाहा’ ॥१५५-१५७॥

िविनयोग तथा षडङ्गन्त्यास - इस गोपालसुन्त्दरी िवद्या के िवधात्रा तथा आनन्त्दभैरव दो ऋिष हैं, देवी गायत्री छन्त्द है,
गोपालसुन्त्दरी देवता है, कामबीज ललीं तथा स्वाहा ििक्त है । माया (ह्रीं), श्री (श्रीं), कामबीज (ललीं) से हृदय में,‘कृ ष्णाय’ से
ििर में, ‘गोिवन्त्दाय’ से ििखा, ‘गोपीजन’ से कवच, ‘वल्लभाय’ से नेत्र तथा ‘स्वाहा’ से अस्त्रन्त्यास करना चािहए ॥१५८-
१५९॥

िवमिग - िविनयोग - अस्य श्रीगोपालसुन्त्दरीमन्त्त्रस्य िवधात्रानन्त्दभैरवी ऋिष देवी गायत्रीछन्त्देः गोपालसुन्त्दरी देवता
ललींबीजं स्वाहाििक्तेः ममाभीष्टिसियथे जपे िविनयोगेः ।

षडङ्गन्त्यास - ह्रीं श्री ललीं हृदयाय नमेः, कृ ष्णाय ििरसे स्वाहा,


गोिवन्त्दाय ििखाय वषट् , गोपीजन कवचाय हुम्
वल्लभाय नेत्रत्रयाय वौषट् , स्वाहा अस्त्राय िट् ॥१५८-१५९॥

सृिष्ट िस्थित तथा संहारन्त्यास - ििर, ललाट, भौंह, नेत्र, कान, नािसका, मुख, िचबुक, कण्ठ, कन्त्धा, हृदय, उदर, नािभ, िलङ,
गुदा, कमर, जानु, जंघा, सृिष्ट न्त्यास कहा जाता है । हृदय से कन्त्धों तक का न्त्यास िस्थितन्त्यास तथा पैरों से ििर तक का
न्त्यास संहारन्त्यास होता है । इसके बाद पुनेः सृिष्टन्त्यास करना चािहए ॥१६०-१६३॥

िवमिग - सृिष्टन्त्यास -
ह्रीं नमेः मूर्णि, श्रीं नमेः ललाटे, ललीं नमेः भ्रुवो,
िुं नमेः नेत्रयोेः ष्णां नमेः कणगयो, यं नमेः नािसकयोेः,
गों नमेः मुखे, तव नमेः िचबुके, न्त्दां नमेः कण्ठे ,
यं नमेः बाहुमूले, गों नमेः हृफद, पीं नमेः उदरे ,
जं नमेः नाभौ, नं नमेः िलङ्ग, वं नमेः गुद,े
ल्लं नमेः कटयां भां नमेः जान्त्वोेः, यं नमेः जंघयोेः,
स्वां नमेः गुल्ियोेः, हां नमेः पादयोेः,

िस्थितन्त्यास - ह्रीं नमेः हृफद, श्रीं नमेः उदरे ,


ललीं नमेः नाभौ कृं नमेः िलङ्गे ष्णां नमेः मूलाधारे
यं नमेः कटयां गों नमेः जान्त्वोेः तव नमेः जंघयोेः
न्त्दां नमेः गुल्ियोेः यं नमेः पादयोेः गों नमेः मूर्णि
पीं नमेः ललाटे जं नमेः भ्रुवोेः नं नमेः नेत्रयोेः
वं नमेः कणगयोेः ल्लं नमेः नसोेः भां नमेः मुखे
यं नमेः िचबुके स्वां नमेः कण्ठे हां नमेः बाहुमूले

संहारन्त्यास - ह्रीं नमेः पादयोेः श्रीं नमेः गुल्ियोेः,


ललीं नमेः जंघयोेः कृं नमेः जान्त्वोेः ष्णां नमेः कटयां
यं नमेः गुदे गों नमेः िलङ्गे तव नमेः नाभौ
न्त्दां नमेः उदरे यं नमेः हृफद गों नमेः बाहुमूले
पी नमेः कण्ठे जं नमेः िचबुके नं नमेः मुखे
वं नमेः नसोेः ल्लं नमेः कणगयोेः भां नमेः नेत्रयोेः
यं नमेः भ्रुवोेः स्वां नमेः ललाटे हां नमेः मूर्णि ।

गोपालसुन्त्दरी मन्त्त्र द्वारा इस रीित से सृिष्ट, िस्थित तथा संहारन्त्यास कर पुनेः सृिष्टन्त्यास और िस्थितन्त्यास करना चािहए
॥१६०-१६३॥

फिर पूवोक्त रीित से करिुििन्त्यास (र० ११. ८-१४) तथा वाग्देवतान्त्यास आसनन्त्यास (र० ११. २७-३६) कर तीनों कू टों से
ििर, मुख एवं हृदय में न्त्यास करना चािहए । पुनेः तीनों कू टों की दो आवृित से षडङ्गन्त्यास करना चािहए । इसके बाद
श्रीचि में िस्थत कमला और वसुधा के साथ श्री हरर का ध्यान करना चािहए ॥१६४-१६५॥

िवमिग - ित्रकू टन्त्यास - ११ तरङ्ग में वर्णणत िविध से करिुििन्त्यास, आसनन्त्यास, वाग्देवतान्त्यास कर, ित्रकू ट द्वारा इस
प्रकार न्त्यास करना चािहए -

षडङ्गन्त्यास - कृ ष्णाय हृदयाय नमेः, गोिवन्त्दाय ििरसे स्वाहा,


गोपीजनवल्लभाय ििखायै वषट् , कृ ष्णाय कवचाय हुम्
गोिवन्त्दाय नेत्रत्रयाय वौषट् गोपीजनवल्लभाय अस्त्राय िट् ॥१६४-१६५॥

अब गोपालसुन्त्दरी मन्त्त्र का ध्यान कहते हैं - क्षीरसागर के मध्य में िस्थत कल्पवृक्ष के वन में, िोभायमान रत्नमण्डप के भीतर,
श्रीपीठ पर आसीन, अपनी आठों भुजाओं में िमिेः पद्म, चि, इक्षुचाप, बाण, अंकुि, पाि, वीणा, एवं वेणु धारण फकए हुये,
रिक्तम, प्रभा वाले धरा एवं लक्ष्मी से सुिोिभत तथा ब्रह्मा आफद देवताओं से स्तूयमान गोपालनन्त्दन का ध्यान करना चािहए
॥१६६॥

इस प्रकार गोपाल का ध्यान कर उक्त गोपालसुन्त्दरी मन्त्त्र एक लाख जप करना चािहए । तदनन्त्तर खीर से उसका दिांि होम
करना चािहए । फिर वैष्णव पीठ पर गोपालसुन्त्दरी का पूजन करना चािहए ॥१६७॥

सवगप्रथम अङ्गपूजा कर पूवागफद फदिाओं में वासुदव


े , संकषगण, प्रद्युम्न एवं अिनरुि का पूजन करे । फिर आिेय आफद कोणों में
िािन्त्त, श्री सरस्वती एवं रित का पूजन करना चािहए । पुनेः पूवागफद फदिाओं में रुिलमणी, सत्यभामा, कािलन्त्दी, जाम्बवती,
िमत्रिवन्त्दा, सुनन्त्दा, सुलक्षणा, एवं नािििजती - इन आठ पट्ट्रािनयोम का पूजन करना चािहए । इसके बाद नव िनिधयों का
भी पूजन करना चािहए । महापद्म, पद्म, िंख, मकर, कच्छप, कु न्त्द, नील और खवग ये नव िनिधयाूँ हैं । (र० १२. ७८-१३५))
। इसके बाद ित्रपुरसुन्त्दरी के प्रयोग में कहे गये ९ आवरणों की पूजा करनी चािहए, और अपनी अभीष्ट िसिि के िलए वहीं
बतलाये गये प्रयोगोम के अनुसार अनुष्ठान भी करना चािहए - (र० १२.१४०-१५२) ॥१६८-१७२॥

िविध - गोपालसुन्त्दरी के आवरण पूजा के िलए वृत्ताकार कर्णणका अष्टदल एवं भूपुर सिहत यन्त्त्र का िनमागण करना चािहए ।
उस यन्त्त्र पर सामान्त्य पूजा पिित के अनुसार पीठ देवताओम एवं िवमला आफद वैष्णवी पीठििक्तयों का पूजन कर
(१२.१६६) श्लोक के अनुसार ध्यान कर आवाहनाफद उपचारों ध्यान कर आवाहनाफद उपचारों से पुष्पाञ्जिल पयगन्त्त पूजन कर,
इस प्रकार आवरण पूजा करे । सवगप्रथम आिेयाफद कोणों में षडङ्गन्त्यास पूजा करे । यथा-
ह्रीं श्रीं ललीं हृदयाय नमेः, आिेये, कृ ष्णाय ििरसे स्वाहा नैऋत्ये,
गोिवन्त्दाय ििखायै वषट् , अग्रे, स्वाहा अस्त्राय िट् , चतुर्ददक्षु,

फिर पूवग आफद चारोम फदिाओं में -


ॎ वासुदव
े ाय नमेः, पूवग, ॎ संकषगणाय नमेः दिक्षणे,
ॎ प्रद्युम्नाय नमेः,पिश्चमे, ॎ अिनरुिाय नमेः, उत्तरे ।

इसके बाद आिेयाफद चारो कोणों में - िान्त्त्यै नमेः आिेये,


िश्रयै नमेः नैऋत्ये, सरस्वत्यै नमेः वायव्ये, रत्यै नमेः ऐिान्त्ये ।

तत्पश्चात् अष्टदलों में पूवागफद फदिाओं के िम से रुिलमणी आफद का -


ॎ रुिलमण्यै नमेः, पूवग, ॎ सत्यभामायै नमेः, आिेये
ॎ कािलन्त्द्यै नमेः, दिक्षणे ॎ जाम्बवत्यै नमेः, नैऋत्ये
िमत्रिबन्त्दायै नमेः, पिश्चमे सुनन्त्दायै नमेः, वायव्ये
सुलक्षणायै नमेः, उत्तरे नािििजत्यै नमेः ऐिान्त्ये

इसके बाहर पूवागफद फदिाओं तथा मध्य में नव िनिधयों की इस प्रक पूजा करे -
महापद्माय नमेः पूवे, पद्माय नमेः आिेये, िंखाय नमेः दिक्षणे
मकराय नमेः नैऋत्ये, कच्छपाय नमेः, ऐिान्त्ये, मुकुन्त्दाय नमेः वायव्य
कु न्त्दाय नमेः उत्तरे , नीलाय नमेः ऐिान्त्ये, खवागय नमेः मध्ये,

इसके बाद ित्रपुरसुन्त्दरी के पूजा के प्रसङ्ग में कही गयी िविध के अनुस्व नव आवरणों की पूजा करनी चािहए । आवरण पूजा
बाद धूप दीप उपचारों से गोपालसुन्त्दरी का पूजन करना चािहए ॥१६८-१७२॥

इस प्रकार जो साधक प्रितफदन गोपालसुन्त्दरी की उपासना करता उसकी समस्त कामनायें पूरी होती हैं और अन्त्त में वह ब्रह्य
स्वरुप प्राप्त करता है ॥१७३॥

त्रयोदि तरङ्ग
अररत्र
अब सवेष्टिसिि के िलए हनुमान जी के मन्त्त्रों को कहता हूँ -
इन्त्र स्वर (औं) और इन्त्द ु (अनुस्वार) इन दोनों के साथ वराह (ह) अथागत् (हौं), यह प्रथम बीज है । फिर िझण्टीि (ए) िबन्त्द ु
(अनुस्वार) सिहत ह स् ि् और अिि (र्) अथागत (ह्स्फ्रें), यह िद्वतीय बीज कहा गया है । रुर (ए) एवं िबन्त्द ु अनुस्वार सिहत
गदी (ख्) पान्त्त (ि् ) तथा अिि (र्) अथागत् (ख्फ्रें), यह तृतीय बीज है । मनु (औ), चन्त्र (अनुस्वार) सिहत ह स् र् अथागत्
(ह्स्त्रौं), यह चतुथग बीज है । ििव (ए) एवं िबन्त्द ु (अनुस्वार) सिहत ह स् ख् ि् तथा र अथागत (ह्ख्फ्रें), यह पञ्चम बीज है । मनु
(औ) इन्त्द ु अनुस्वार सिहत ह तथा स् अथागत् (ह्सौं), यह षष्ठ बीज है । इसके बाद चतुथ्व्यगन्त्त हनुमान् (हनुमते) फिर अन्त्त में
हादग (नमेः) लगाने से १२ अक्षरों का मन्त्त्र बनता है ॥१-२॥

द्वादिाक्षर हनुमत् मन्त्त्र का स्वरुप इस प्रकार है - १. हौं २. ह्स्फ्रें, ३. ख्फ्रें, ४. ह्स्त्रौं ५. ह्स्ख्फ्रें ६., हनुमते नमेः (१२) ॥३॥

इस मन्त्त्र के रामचन्त्र ऋिष हैं, जगती छन्त्द है, हनुमान् देवता है तथा षष्ठ ह्सौं बीज है, िद्वतीय ह्स्फ्रें ििक्त माना गया है ॥४-
५॥
िविनिग - िविनयोग का स्वरुप इस प्रकार है - ‘ॎ अस्य श्रीहनुमन्त्मन्त्त्रस्य रामचन्त्र ऋिषेः जगतीछन्त्देः हनुमान् देवता ह्स्ॎ
बीजं ह्स्फ्रें ििक्तेः आत्मनोऽभीष्ट िसियथे जपे िविनयोगेः; ॥४-५॥

अब षडङ्ग एवं वणगन्त्यास कहते हैं - ऊपर कहे गये मन्त्त्र के छेः बीजाक्षरों से षडङ्गन्त्यास करना चािहए । फिर मन्त्त्र के एक
एक वणग का िमिेः १. ििर, २. ललाट, ३. नेत्र, ४. मुख, ५. कण्ठ, ६. दोनो हाथ, ७. हृदय, ८. दोनों कु िक्ष, ९. नािभ, १०.
िलङ्ग ११. दोनों जानु, एवं १२. पैरों में, इस प्रकार १२ स्थानों में १२ वणों का न्त्यास करना चािहए ॥५-६॥

िवमिग - षडङ्गन्त्यास का प्रकार -


हौं हृदयाय नमेः, ह्स्फ्रें ििरसे स्वाहा, ख्फ्रें ििखायै वषट् ,
ह्स्त्रौं कवचाय हुम्, ह्स्ख्फ्रें नेत्रत्रयाय वौषट, ह्स्ॎ अस्त्राय िट् ।

वणगन्त्यास -
हौं नमेः मूर्णि, ह्ख्फ्रें नमेः ललाटे, ख्फ्रें नमेः नेत्रयोेः,
हं नमेः हृफद, नुं नमेः कु क्ष्योेः मं नमेः नाभौ,
ते नमेः िलङ्गे नं नमेः जान्त्वोेः, मं नमेः पादयोेः ॥५-६॥

अब पदन्त्यास कहते हैं - ६ बीजों एवं दोनों पदों का िमिेः ििर, ललाट, मुख, हृदय, नािभ, ऊरु जंघा, एवं पैरों में न्त्यास
करना चािहए ॥७॥

िवमिग - हौं नमेः मूर्णि, हस्फ्रें नमेः ललाटे, ख्फ्रें नमेः मुखे,
ह्स्त्रौ नमेः हृफद, ह्स्ख्फ्रें नमेः नाभौ, ह्सौं नमेः ऊवोेः,
हनुमते नमेः जंघयोेः, नमेः नमेः पादयोेः ॥७॥

अब ध्यान कहते है - उदीयमान सूयग के समान कािन्त्त से युक्त, तीनों लोको को क्षोिभत करने वाले, सुन्त्दर, सुग्रीव आफद समस्त
वानर समुदायोम से सेव्यमान चरणों वाले, अपने भयंकर तसहनाद से राक्षस समुदायों को भयभीत करने वाले, श्री राम के
चरणारिवन्त्दों का स्मरण करने वाले हनुमान् जी का मैं ध्यान करता हूँ ॥८॥

इस प्रकार ध्यान कर अपने मन तथा इिन्त्रयों को वि में कर साधक बारह हजार की संख्या में जप करे तथा दूध, दही, एवं घी
िमिश्रत व्रीिह (धान) से उसका दिांि होम करे ॥९॥

िवमला आफद ििक्तयों से युक्त पीठ पर श्री हनुमान् जी का पूजन करना चािहए ॥१०॥

िवमिग - प्रथम वृत्ताकारकर्णणका,फिर अष्टदल एवं भूपुर सिहत यन्त्त्र का िनमागण करे । फिर १३. ८ श्लोक में वर्णणत हनुमान् जी
के स्वरुप का ध्यान कर मानसोपचार से पूजन कर अघ्नयग स्थािपत करे । फिर ९. ७२.७८ में वर्णणत िविध से वैष्णव पीठ पर
उनका पूजन करे । यथा - पीठमध्ये-
ॎ आधारिक्तये नमेः, ॎ प्रकृ त्यै नमेः, ॎ कू मागय नमेः,
ॎ अनन्त्ताय नमेः, ॎ पृिथव्यै नमेः, ॎ क्षीरसमुराय नमेः,
ॎ मिणवेफदकायै नम्ह, ॎ रत्नतसहासनाय नमेः,
तदनन्त्तर आिेयाफद कोणों में धमग आफद का तथा फदिाओं में अधमग आफद का इस प्रकार पूजन करना चािहए । यथा -
ॎ धमागय नमेः, आिेये, ॎ ज्ञानाय नमेः, नैऋत्ये,
ॎ वैराग्याय नमेः वायव्ये, ॎ ऐश्वयागय नमेः ऐिान्त्ये,
ॎ अधमागय नमेः पूवे, ॎ अज्ञानाय नमेः, दिक्षणे,
ॎ अवैराग्याय नमेः पिश्चमे, ॎ अनैश्वयागय नमेः, उत्तरे ,

पुनेः पीठ के मध्य में अनन्त्त आफद का-


ॎ अनन्त्ताय नमेः,
ॎ पद्माय नमेः,
ॎ अं सूयगमण्डलाय द्वादिकलात्मने नमेः
ॎ उं सोममण्डलाय षोडिकलात्मने नमेः,
ॎ रं विहनमण्डलाय दिकलात्मने नमेः
ॎ सं सत्त्वाय नमेः,
ॎ रं रजसे नमेः,
ॎ तं तमसे नमेः,
ॎ आं आत्मने नमेः,
ॎ अं अन्त्तरात्मने नमेः,
ॎ पं परमात्मने नमेः,
ॎ ह्रीं ज्ञानात्मने नमेः, पूवे

के िरों के ८ फदिाओं में तथा मध्य में िवमला आफद ििक्तयों का इस प्रकार पूजन करना चािहए -
ॎ िवमलायै नमेः, ॎ उत्कर्णषण्यै नमेः, ॎ ज्ञानायै नमेः,
ॎ फियायै नमेः, ॎ योगायै नमेः, ॎ प्रहव्यै नमेः,
ॎ सत्यायै नमेः, ॎ ईिानायै नमेः ॎ अनुग्रहायै नमेः ।

तदनन्त्तर ‘ॎ नमो भगवते िवष्णवे सवगभूतात्मसंयोगयोगपद्पीठात्मने नमेः’ (र० ९. ७३-७४) इस पीठ मन्त्त्र से पीठ को
पूिजत कर पीठ पर आसन ध्यान आवाहनाफद उपचारों से हनुमान् जी का पूजन कर मूलमन्त्त्र से पुष्पाञ्जिल समर्णपत करनी
चािहए । तदनन्त्तर उनकी अनुज्ञा ले आवरण पूजा प्रारम्भ करनी चािहए ॥१०॥

अब आवरण पूजा का िवधान कहते हैं - सवगप्रथम के सरों में अङ्गपूजा तथा दलों पर तत्तन्नामोम द्वारा हनुमान् जी का पूजन
करना चािहए । रामभक्त महातेजा, किप राज, महाबल, दोणाफरहारक, मेरुपीठकाचगनकारक, दिक्षणािाभास्कर तथा
सवगिवघ्निनवारक ये ८ उनके नाम हैं । नामों से पूजन करने बाद दलों के अग्रभाग में सुग्रीव, अंगद, नील, जाम्बवन्त्त, नल,
सुषेण, िद्विवद और मयन्त्द ये ८ वानर है । तदनन्त्तर फदलपालोम का भी पूजन करना चािहए ॥१०-१३॥

िवमिग - आवरण पूजा िविध - प्रथम के सरों में आिेयाफद िम से


अङ्ग्पूजा यथा - हौं हृदयाय नमेः, ह्स्फ्रें ििरसे स्वाहा, ख्फ्रें ििखायै वषट् ,
ह्स्त्रौं कवचाय हुम्, हस्ख्फ्रें नेत्रत्रयाय वौषट् , ह्स्ॎ अस्त्राय िट् ,
फिर दलों में पूवागफद फदिाओं के िम से नाम मन्त्त्रों से -
ॎ रामभक्ताय नमेः, ॎ महातेजसे नमेः, ॎ किपराजाय नमेः,
ॎ महाबलाय नमेः, ॎ रोणाफदहारकाय नमेः, ॎ मेरुपीठकाचगनकारकाय नमेः,
ॎ दिक्षणािाभास्कराय नमेः, ॎ सवगिवघ्निनवारकाय नमेः ।

तदनन्त्तर दलों के अग्रभाग पर सुग्रीवाफद की पूवागफद िम से यथा -


ॎ सुग्रीवाय नमेः, ॎ अंगदाय नमेः, ॎ नीलाय नमेः,
ॎ जाम्बवन्त्ताय नमेः, ॎ नलाय नमेः, ॎ सुषेणाय नमेः,
ॎ िद्विवदाय नमेः, ॎ मैन्त्दाय नमेः,

फिर भूपुर में पूवागफद िम से इन्त्राफद फदलपालों की यथा -


ॎ लं इन्त्राय नमेः, पूव,े ॎ रं अियेेः आिेय,े
ॎ यं यमाय नमेः दिक्षणे ॎ क्षं िनऋत्ये नमेः, नैऋत्ये,
ॎ वं वरुणाय नमेः, पिश्चमे, ॎ यं वायवे नमेः वायव्ये,
ॎ सं सोमाय नमेः उत्तरे ॎ हं ईिानाय नमेः ऐिान्त्ये,
ॎ आं ब्रह्मणे नमेः पूवैिानयोमगध्ये,
ॎ ह्रीं अनन्त्ताय नमेः पिश्चमनैऋत्ययोमगध्ये

इस प्रकार आवरण पूजा कर मूलमन्त्त्र से पुनेः हनुमान् जी का धूप, दीपाफद उपचारों से पूजन करना चािहए ॥१०-१३॥

अब काम्य प्रयोग कहते है - इस प्रकार मन्त्त्र िसि हो जाने पर साधक अपना या दूसरों का अभीष्ट कायग करे ॥१४॥

के ला, िबजौरा, आम्रिलों से एक हजार आहुितयाूँ दे और २२ ब्रह्मचारी ब्राह्मणों को भोजन करावे । ऐसा करने से महाभूत,
िवष, चोरों आफद के उपरव नष्ट हो जाते हैं । इतना ही नहीं िवद्वेष करने वाले, ग्रह और दानव भी ऐसा करने नष्ट हो जाते है
॥१४-१६॥

१०८ बार मन्त्त्र से अिभमिन्त्त्रत जल िवष को नष्ट कर देता है । जो व्यिक्त राित्र में १० फदन पयगन्त्त ८०० की संख्या में इस
मन्त्त्र का जप करत है उसका राजभय तथा ित्रुभय से छु टकारा हो जाता है । अिभचार जन्त्य तथा भूतजन्त्य ज्वर में इस मन्त्त्र
से अिभमिन्त्त्रत जल या भस्म द्वारा िोधपूवगक ज्वरग्रस्त रोगी को प्रतािडत करना चािहए । ऐसा करने से वह तीन फदन के
भीतर ज्वरमुक्त हो कर सुखी हो जाता है । इस मन्त्त्र से अिभमिन्त्त्रत औषिध खाने से िनिश्चत रुप से आरोग्य की प्रािप्त हो
जाती है ॥१६-१९॥

इस मन्त्त्र से अिभमिन्त्त्रत जल पीकर तथा इस मन्त्त्र को जपते हुये अपने िरीर में भस्म लगाकर जो व्यिक्त इस मन्त्त्र का जप
करते हुये रणभूिम में जाता हैं,युि में नाना प्रकार के िस्त्र समुदाय उस को कोई बाधा नहीं पहुूँचा सकते ॥२०॥

चाहे िस्त्र का घाव हो अथवा अन्त्य प्रकार का घाव हो, िोध अथवा लूता आफद चमगरोग एवं िोडे िु िन्त्सयाूँ इस मन्त्त्र से ३ बार
अिभमिन्त्त्रत भस्म के लगाने से िीघ्र ही सूख जाती हैं ॥२१॥

अपनी इिन्त्रयों को वि में कर साधक को सूयागस्त से ले कर सूयोदय पयगन्त्त ७ फदन कील एवं भस्म ले कर इस मन्त्त्र का जप
करन चािहए । फिर ित्रुओं को िबना जनाये उस भस्म को एवं कीलों को ित्रु के दरवाजे पर गाड दे तो ऐसा करने से ित्रु
परस्पर झगड कर िीघ्र ही स्वयं भाग जाते हैं ॥२२-२३॥

अपने िरीर पर लगाये गये चन्त्दन के साथ इस मन्त्त्र से अिभमिन्त्त्रत जल एवं भस्म को खाद्यान्न के साथ िमलाकर िखलाने से
खाने वाला व्यिक्त दास हो जाता है । इतना ही नहीं ऐसा करने से िू र जानवर भी वि में हो जाते हैं ॥२४-२५॥

करञ्ज वृक्ष के ईिानकोण की जड ले कर उससे हनुमान् जी की प्रितमा िनमागण कराकर प्राणप्रितष्ठा कर िसन्त्दरू से लेपकर इस
मन्त्त्र का जप करते हुये उसे घर के दरवाजे पर गाड देनी चािहए । ऐसा करने से उस घर में भूत, अिभचार, चोर, अिि, िवष,
रोग, तथा नृप जन्त्य उपरव कभी भी नहीं होते और घर में प्रितफदन धन, पुत्राफद की अिभवृिि होती हैं ॥२५-२८॥

मारण प्रयोग - राित्र में श्मिान भूिम की िमट्टी या भस्म से ित्रु की प्रितमा बनाकर हृदय स्थान में उसक नाम िलखना
चािहए । फिर उसमें प्राण प्रितष्ठा कर, मन्त्त्र के बाद ित्रु का नाम, फिर िछिन्त्ध िभिन्त्ध एवं मारय लगाकर उसका जप करते
हुये िस्त्र द्वारा उसे टुकडे -टुकडे कर देना चािहए । फिर होठों को दाूँतों के नीचे दबा कर हथेिलयों से उसे मसल देना चािहए ।
तदनन्त्तर उसे वहीं छोडकर अपन घर आ जाना चािहए । ७ फदन तक ऐसा लगातार करते रहने से भगवान् ििव द्वारा रिक्षत
भी ित्रु मर जाता है ॥२९-३२॥

श्मिान स्थान में अपने के िों को खोलकर अधगचन्त्राकृ ित वाले कु ण्ड में अथवा स्थािण्डल (वेदी) पर राई नमक िमिश्रत धतूर के
िल, उसके पुष्प, कौवा उल्लू एवं गीध के नाखून, रोम और पंखों से तथा िवष से िलसोडा एवं बहेडा की सिमधा में
दिक्षणािभमुख हो रात में एक सप्ताह पयगन्त्त िनरन्त्तर होम करने से उित ित्रु भी मर जाता है ॥३२-३५॥

इसके बाद बेताल िसिि का प्रयोग कहते हैं - श्मिान में राित्र के समय लगातार तीन फदन तक प्रितफदन ६०० की संख्या में
इस मूल मन्त्त्र का जप करते रहने से बेताल खडा हो कर साधक का दास बन जाता है और भिवष्य में होने वाले िुभ अथवा
घटनाओम को तथा अन्त्य प्रकार की िंकाओं की भी साि साि कह देता है ॥३५-३६॥

साधक हनुमान् जी की प्रितमा के सामने साध्य का िद्वतीयान्त्त नाम, फिर ‘िवमोचय िवमोचय’ पद, तदनन्त्तर, मूल मन्त्त्र िलखे
। फिर उसे बायें हाथ से िमटा देवे, यह िलखने और िमटाने की प्रफियाेः पुनेः पुनेः करते रहना चािहए । इस प्रकार एक सौ
आठ बार िलखते िमटाते रहने से बन्त्दी िीघ्र ही हथकडी और बेडी से मुक्त हो जाता है । हनुमान् जी के पैरों के नीचे ‘अमुकं
िवद्वेषय िवद्वेषय’ लगाकर िवद्वेषण करे , ‘अमुकं उिाटय उिाटय’ लगाकर उिाटन करे तथा ‘मारय मारय’ लगाकर मारण का
भी प्रयोग फकया जा सकता है ॥३७-३९॥

िवमिग - िबना गुरु के मारन एवं िवद्वेषण आफद प्रयोगों को करने से स्वयं पर ही आघात हो जाता है ॥३७-३९॥

अब िविवध कामनाओं में होम का िवधान कहते हैं - वश्य कमग में सरसों से, िवद्वेष में कनेर के पुष्प, लकिडयों से, अथवा जीरा
एवं काली िमचग से भी होम करना चािहए ॥४०॥

ज्वर में दूवाग, गुडूची, दही, घृत, दूध से तथा िूल में कु वेराक्ष (षांढर) एवं रे डी की सिमधाओं से अथवा तेल में डु बोई गई
िनगुगण्डी की सिमधाओं से प्रयत्नपूवगक होम करना चािहए । सौभाग्य प्रािप्त के िलए चन्त्दन, कपूर, गोरोचन, इलायची, और
लौंग से वस्त्र प्रािप्त के िलए सुगिन्त्धत पुष्पों से तथा धान्त्य वृिि के िलए धान्त्य से ही होम करना चािहए । ित्रु की मृत्यु के िलए
उसके परर की िमट्टी राई और नमक िमलाकर होम करने से उसकी मृत्यु हो जाती है ॥४१-४३॥

अब इस िवषय में हम बहुत लया कहें - िसि फकया हुआ यह मन्त्त्र मनुष्योम को िवष, व्यािध, िािन्त्त, मोहन, मारण, िववाद,
स्तम्भन, द्यूत, भूतभय संकट, विीकरण, युि, राजद्वार, संग्राम एवं चौराफद द्वारा संकट उपिस्थत होने पर िनिश्चत रुप से
इष्टिसिि प्रदान करता है ॥४४-४५॥

अब धारण के िलए हनुमान जी के सवगिसििदायक यन्त्त्र को कहता हूँ -


पुच्छ के आकार समान तीन वलय (घेरा) बनाना चािहए । उसके बीच में धारण करन वाले साध्य का नाम िलखकर दूसरे घेरे
में पाि बीज (आं) िलखकर उसे वेिष्टत कर देना चािहए । फिर वलय के ऊपर अष्टदल बनाकर पत्रों में वमग बीज (हुम्) िलखना
चािहए । फिर उसके बाहर वृत्त बनाकर उसके ऊपर चौकोर चतुरस्त्र िलखना चािहए । फिर चतुरस्त्र के चारो भुजाओं के
अग्रभाग में दोनों ओर ित्रिूल का िचन्त्ह बनाना चािहए । तत्पश्चात भूपुर के अष्ट वज्रों (चारों फदिाओं, चारोम कोणों) में ह्सौं
यह बीज िलखना चािहए । फिर कोणों पर अंकुि बीज (िों) िलखकर उस चतुरस्त्र को वक्ष्यमाण मालामन्त्त्र से वेिष्टत कर देना
चािहए । तत्पश्चात सारे मन्त्त्रों को तीन वलयोम (गोलाकार घेरों) से वेिष्टत कर देना चािहए ॥४६-५०॥

यह यन्त्त्र, वस्त्र, ििला, काष्ठिलक, ताम्रपत्र, दीवार, भोजपत्र या ताडपत्र पर गोरोचन, कस्तूरी एवं कुं कु म (के िर) से िलखना
चािहए । साधक उपवास तथा ब्रह्मचयग का पालन करते हुये मन्त्त्र में हनुमान् जी की प्राणप्रितष्ठा कर िविधवत् उसका पूजन
करे । सभी प्रकार के दुेःखों से छु टकारा पाने के िलए यह यन्त्त्र स्वयं भी धारण करना चािहए ॥५०-५२॥

उक्त िलिखत यन्त्त्र ज्वर, ित्रु, एवं अिभचार जन्त्य बाधाओं को नष्ट करता है तथा सभी प्रकार के उपररवों को िान्त्त करता है ।
कक बहुना िस्त्रयों तथा बिों द्वारा धारण करने पर यह उनका भी कल्याण करता है ॥५३॥

िवमिग - इस धारण यन्त्त्र को िचत्र के अनुसार बनाना चािहए । तदनन्त्तर उसमें हनुमान् जी की प्राणप्रितष्ठा कर िविधवत्
पूजन कर पहनना चािहए ॥५३॥

अब ऊपर प्रितज्ञात माला मन्त्त्र का उिार कहते हैं - प्रथम प्रणव (ॎ), वाग् (ऐं), हररिप्रया (श्रीं), फिर दीघगत्रय सिहत माया
(ह्रां ह्रीं ह्रूं), फिर पूवोक्त पाूँच कू ट (ह्स्फ्रें ख्फ्रें ह्स्त्रौं ह्स्ख्फ्रें ह्सौं) तथा तार (ॎ), फिर ‘नमो हनुमते प्रकट’ के बाद ‘परािम
आिान्त्तफदङ् मण्डलयिो िव’ फिर ‘तान’ कहना चािहए, फिर ‘ध्वलीकृ त’ पद के बाद ‘जगित्त्रतय और ‘वज्र’ कहना चािहए ।
फिर ‘देहज्वलदििसूयगकोरट’ के बाद ‘समप्रभतनूरुहरुरवतार’, इतना पद कहना चािहए । फिर ‘लंकापुरी दह’ के बाद
‘नोदिधलंघन’, फिर ‘दिग्रीवििरेः कृ तान्त्तक सीताश्वासनवायु’, के बाद ‘सुत’ं िब्द कहना चािहए ॥५४-५८॥

फिर ‘अञ्जनागभगसंभूत श्री रामलक्ष्मणानन्त्दक’, फिर ‘रकिप’, ‘सैन्त्यप्राकार’, फिर ‘सुग्रीवसख्यका’ के बाद ‘रणबािलिनबहगण
कारण रोणपवग’ के बाद ‘तोत्पाटन’ इतना कहना चािहए । फिर ‘अिोक वन िव’ के बाद, ‘दारणाक्षकु मारकच्छेदन’ के
बाद फिर ‘वन’ िब्द, फिर ‘रक्षाकरसमूहिवभञ्जन’, फिर ‘ब्रह्मारस्त्र ब्रह्मििक्त ग्रस’ और ‘न लक्ष्मण’ के बाद
‘ििक्तभेदिनवारण’ तथा ‘िविलौषिध’ वणग के बाद ‘समानयन बालोफदतभानु’, फिर ‘मण्डलग्रसन’ के बाद ‘मेघनाद होम’ फिर
‘िवध वंसन’ यह पद बोलना चािहए । फिर ‘इन्त्रिजद्वधकार’ के बाद, ‘णसीतारक्षक राक्षसीसंघ’, िवदारण’, फिर
‘कु म्भकणागफदवध’ िब्दो के बाद, ‘परायण’, यह पद बोलना चािहए । फिर ‘श्री रामभिक्त’ के बाद ‘तत्पर-समुर-व्योम रुमलंघन
महासामघगमहातेजेःपुञ्जिवराजमान’ स्बद, तथा ‘स्वािमवचसंपाफदताजुगन’ के बाद ‘संयग
ु सहाय’ एवं ‘कु मार ब्रह्मचाररन्’ पद
कहना चािहए । फिर ‘गम्भीरिब्दो’ के बाद अित्र (द), वायु(य) , फिर ‘दिक्षणािा’, पद, तथा ‘मातगण्डमेरु’ िब्न्त्द के बाद
‘पवगत’ िब्द कहना चािहए । फिर ‘पीठे काचगन’ िब्द के बाद ‘सकल मन्त्त्रागमाचागय मम सवगग्रहिवनािन सवगज्वरोिाटन और
‘सवगिवषिवनािन सवागपित्त िनवारण सवगदष्ट
ु ’ इतना पढना चािहए । फिर ‘िनबहगण’ पद, तथा ‘सवगव्याघ्राफदभय’, उसके बाद
‘िनवारण सवगित्रुच्छेदन मम परस्य च ित्रभुवन पुंस्त्रीनपुंसकात्मकं सवगजीव’ पद के बाद ‘जातं’, फिर ‘विय’ यह पद दो बार,
फिर ‘ममाज्ञाकारक’ के बाद दो बार ‘संपादय’, फिर ‘नाना नाम’ िब्द, फिर ‘धेयान् सवागन् राज्ञेः स" इतना पद कहना चािहए
। फिर ‘पररवारन्त्मम सेवकान्’ फिर दो बार ‘कु रु’, फिर ‘सवगिस्त्रास्त्र िव’ के बाद ‘षािण’, तदनन्त्तर दो बार ‘िवध्वंसय’ फिर
दीघगत्रयािन्त्वता माया (ह्रां ह्रीं ह्रूूँ), फिर हात्रय (हा हा हा) एिह युग्म (एह्येिह), िवलोमिम से पञ्चकू ट (ह्सौं ह्स्ख्फ्रें ह्स्त्रौं ख्फ्रें
ह्स्फ्रें) और फिर ‘सवगित्रून’, तदनन्त्तर दो बार हन (हन हन), फिर ‘परद’ के बाद ‘लािन परसैन्त्यािन’, फिर क्षोभय यह पद दो
बार (क्षोभय क्षोभय), फिर ‘मम सवगकायगजातं’ तथा २ बार कीलय (कीलय कीलय), फिर घेत्रय (घे घे घे), फिर हात्रय (हा हा
हा), वमग ित्रतय (हुं हुं हुं), फिर ३ बार िट् और इसके अन्त्त में विह्रिप्रया, (स्वाहा) लगाने से सवागभीष्टकारक ५८८ अक्षरों का
हनुन्त्माला मन्त्त्र बनता है । महान् से महान् उपरव होने पर मन्त्त्र के जप से सारे दुेःख नष्ट हो जाते हैं ॥५४-७९॥

िवमिग - हनुमन्त्माला मन्त्त्र का स्वरुप इस प्रकार है - ‘ॎ ऐं श्रीं ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्स्फ्रें ह्स्रौं ह्स्ख्फ्रें ह्सौं ॎ नमो हनुमते
प्रकटपराकरम आिान्त्त फदङ्मण्डलयिोिवतान धवलीकृ तजगित्त्रतय वज्रदेह ज्वलदिन्त्ग सूयगकोरट समप्रभतनूरुह रुरावतार
लंकापुरीदहनोदिधलंघन दिग्रीवििरेःकृ तान्त्तक सीताश्वासन वायुसत ु अञ्जनागभगसंभत ू श्रीरामलक्ष्मणानन्त्दकर
किपसैन्त्यप्राकार सुग्रीवसख्यकारण बािलिनबहगण-कारण रोणपवगतोत्पाटन अिोकवनिवदारण अक्षकु मारकच्छेदन
वनरक्षाकरसमूहिवभञ्जन ब्रह्यास्त्रब्रह्यििक्तग्रसन लक्ष्मणििक्तभेदिे नवारण िविल्यौषिधसमानयन बालोफदतभानुमण्डलग्रसन
मेघनादहोमिवध्वंसन इन्त्रािजद्वधकाराण सीतारक्षक राक्षासंघिवदारण कु म्भकणागफद-वधपरायण श्रीरामभिक्ततत्पर
समुरव्योमरुमलंघन महासामघ्नयग महातेजेःपुञ्जिवराजमान स्वािमवचनसंपाफदत अजुगअनसंयुगसहाय कु मारब्रह्मचाररन्
गम्भीरिब्दोदय दिक्षणािामातगण्ड मेरुपवगतपीठे काचगन सकलमन्त्त्रागमाचायग मम सवगग्रहिवनािन सवगज्वरोिाटन
सवगिवषिवनािन सवागपित्तिनवारण सवगदष्ट ु िनबहगण सवगव्याघ्राफदभयिनवारण सवगित्रुच्छेदन प्रम परस्य च ित्रभुवन
पुंस्त्रीनपुंसकात्मकसवगजीवजातं विय विय मम आज्ञाकारलम संपादय संपादय नानानामध्येयान् सवागन् राज्ञेः सपररवारान्
मम सेवकान् कु रु कु रु सवगिस्त्रास्त्रिवषािण िवध्वंसय िवध्वंसय ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रां ह्रां एिह एिह ह्सौं ह्स्ख्फ्रें ह्स्त्रौं ख्फ्रें ह्सफ्रें
सवगित्रून हन हन परदलािन परसैन्त्यािन क्षोभय क्षोभय मम सवगकायगजातं साधय साधय सवगदष्ट ु दुजगनमुखािन कीलय कीलय घे
घे घे हा हा हा हुं हुं हुं िट् िट् िट् स्वाहा - मालामन्त्त्रोऽयमष्टािीत्यािधक पञ्चितवणगेः; ॥५४-७९॥

पूवग में कहे गये द्वादिाक्षर मन्त्त्र (र० १३. १ - ३) के अिन्त्तम ६ वणों को (हनुमते नमेः) तथा प्रारम्भ के एक वणग हौ को
छोडकर जो पञ्च कू टात्मक मन्त्त्र बनता है वह साधक के सवागभीष्ट को पूणग कर देता है ॥८०॥

िवमिग - पञ्चकू ट का स्वरुप - ह्स्फ्रें ख्फ्रें ह्स्त्रौं ह्स्ख्फ्रें ह्सौं ॥८०॥

इस मन्त्त्र के राम ऋिष, गायत्री छन्त्द तथा कपीश्वर देवता हैं ॥८१॥

िवमिग - िविनयोगेः - अस्य श्रीहनुमत पञ्चकू ट मन्त्त्रस्य रामचन्त्रऋिषेः गायत्रीच्छन्त्देः कपीश्वरो देवता आत्मनोऽभीष्टिसियथे
जपे िविनयोगेः ॥८१॥

पञ्चकू टात्मक बीज तथा समस्त मन्त्त्रों के िमिेः - हनुमते रामदूताय लक्ष्मण प्राणदात्रे अञ्जनासुताय सीतािोकिवनािाय,
लंकाप्रासादभञ्जनाय रुप चतुथ्व्यगन्त्त िब्दों को प्रारम्भ में लगाने से इस मन्त्त्र का षडङ्गन्त्यास मन्त्त्र बन जाता है । इस मन्त्त्र का
ध्यान (र०१३. ८) तथा पूजापिित (र १३. १०-१३) पूवगवत् है ॥८१-८३॥

िवमिग - षडङ्गन्त्यासं- ह्स्फ्रें हनुमते हृदयाय नमेः,


ख्िें रामदूताय ििरसे स्वाहा, ह्स्त्रौं लक्ष्मणप्राणदात्रे ििखायै वषट् ,
ह्स्ख्फ्रें अञ्जनासुताय कवचाय हुम्, ह्सौं सीतािोक िवनािाय नेत्रत्रयाय वौषट् ,
ह्स्फ्रें ख्फ्रें ह्स्त्र्ॎ ह्स्ख्फ्रें ह्सौं लंकाप्रासादभञ्जनाय अस्त्राय िट् ॥८१-८३॥

तार (ॎ), वाक् (ऐं), कमला (श्रीं), माया दीघगत्रयाद्या (ह्रां ह्रीं हूँ), तथा पञ्चकू ट (ह्स्फ्रें ख्फ्रें ह्स्त्र्ॎ ह्सौं) लगाने से ११ अक्षरों
का अभीष्ट िसििदायक मन्त्त्र बनता है । इस मन्त्त्र का ध्यान तथा पूजा पिित (१३. ८, १३. १०-१३) पूवगवत हैं ॥८४-८५॥

िवमिग - मन्त्त्र का स्वरुप इस प्रकार है - ‘ॎ ऐं श्रीं ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्स्फ्रें ख्फ्रें ह्स्त्र्ॎ ह्स्ख्फ्रें ह्स्ॎ (११) ॥८४-८५॥

अब इस मन्त्त्र के अितररक्त अन्त्य मन्त्त्र कहते हैं - नम, फिर भगवान् आञ्जनेय तथा महाबल का चतुथ्व्यगन्त्त (भगवते, आञ्जनेयाय
महाबलाय), इसके अन्त्त में विहनिप्रया (स्वाहा) लगाने से अष्टादिाक्षर अन्त्य मन्त्त्र बन जाता है ॥८५-८६॥

अष्टादिाक्षार मन्त्त्र का स्वरुप इस प्रकार है - नमो भगवते आञ्जनेयाय महाबलाय स्वाहा ॥८५-८६॥

िविनयोग एवं न्त्यास - उपयुगक्त अष्टादिाक्षर मन्त्त्र के ईश्वर ऋिष हैं, अनुष्टुप् छन्त्द है, और हनुमान् देवता हैम, हुं बीज तथा
अिििप्रया (स्वाहा) ििक्त हैं ॥८६-८७॥

आञ्जनेय, रुरमूर्णत, वायुपुत्र, अििगभग, रामदूत तथा ब्रह्मस्त्रिविनवारन इनमें चतुथ्व्यगन्त्त लगाकर षडङ्गन्त्यास कर कपीश्वर का
इस प्रकार ध्यान करना चािहए ॥८७-८८॥

िवमिग - िविनयोग- अस्य श्रीहनुमन्त्मन्त्त्रस्य ईश्वरऋिषरनुष्टुप् छन्त्देः हनुमान् देवता हुं बीजं स्वाहा ििक्तरात्मनोऽभीष्टिसियथं
जप िविनयोगेः ।

षडङ्गन्त्यास िविध - ॎ आञ्जनेयाय हृदयाय नमेः,


रुरमूतगये ििरसे स्वाहा, ॎ आञ्जनेयाय हृदयाय नमेः, अििगभागय कवचाय हुम्
रामदूताय नेत्रत्रयाय वौषट् ब्रह्मास्त्रिविनवारणाय अस्त्राय िट् ॥८७-८८॥

अब उक्त मन्त्त्र का ध्यान कहते हैं - मैम तपाये गये सुवणग के समान, जगमगाते हुये, भय को दूर करने वाले, हृदय पर अञ्जिल
बाूँधे हुये, कानों में लटकते कु ण्डलों से िोभायमान मुख कमल वाले, अद्भुत स्वरुप वाले वानरराज को प्रणाम करता हूँ
॥८९॥

पुरश्चरण - इस मन्त्त्र का १० हजार जप करना चािहए । तदनन्त्तर ितलों से उसका दिांि होम करना चािहए । वैष्णव पीठ
पर कपीश्वर का पूजन करना चािहए । पीठ पूजा तथा आवरण पूजा (१३.१०-०१३) श्लोक में रष्टव्य है ॥९०॥

अब काम्य प्रयोग कहते हैं - साधक इस मन्त्त्र के अनुष्ठान करते समय इिन्त्रयों को वि में रखे । के वल राित्र में भोजन करे । जो
साधक व्यवधान रिहत मात्र तीन फदन तक उस १०९ की संख्या में इस का जप करता है वह तीन फदन मे ही क्षुर रोगों से
छु टकारा पा जाता है । भूत, प्रेत एवं िपश्चाच आफद को दूर करने के िलए भी उक्त मन्त्त्र का प्रयोग करना चािहए । फकन्त्तु
असाध्य एवं दीघगकालीन रोगों से मुिक्त पाने के िलए प्रितफदन एक हजार की संख्या में जप आवश्यक है ॥९१-९२॥

िनयिमत एक समय हिवष्यान्न भोजन करते हुये जो साधक राक्षस समूह को नष्ट करते हुये कपीश्वर का ध्यान कर प्रितफदन
१० हजार की संख्या में जप करता है वह िीघ्र ही ित्रु पर िवजय प्राप्त कर लेता है ॥९३॥

सुग्रीव के साथ राम की िमत्रता कराये हुये कपीश्वर का ध्यान करते हुये इस मन्त्त्र का १० हजार की संख्या में जप करने से
ित्रुओं के साथ सिन्त्ध करायी जा सकती है ॥९४॥
लंकादहन करते हुये कपीश्वर का ध्यान करते हुये जो साधक इस मन्त्त्र का दि हजार करता है, उसके ित्रुओं के घर अनायास
जल जाते हैं ॥९५॥

जो साधक यात्रा के समय हनुमान् जी का ध्यान कर इस मन्त्त्र का जप करता हुआ यात्रा करता है वह अपना अभीष्ट कायग पूणग
कर िीघ्र ही घर लौट आता है ॥९६॥

जो व्यिक्त अपने घर में सदैव हनुमान् जी की पूजा करता है और इस मन्त्त्र का जप करता है उसकी आयु और संपित्त िनत्य
बढती रहती है तथा समस्त उपरव अपने आप नष्ट हो जाते है ॥९७॥

इस मन्त्त्र के जप से साधक की व्याघ्राफद तहसक जन्त्तुओं से तथा तस्कराफद उपरवी तत्त्वों से रक्षा होती है । इतना ही नहीं सोते
समय इस मन्त्त्र के जप से चोरों से रक्षा तो होती रहती ही है दुेःस्वप्न भी फदखाई नहीं देते ॥९८॥

अब प्लीहाफदउदररोगनािक मन्त्त्र का उिार कहते हैं - रुव (ॎ), फिर सद्योजात (ओ) सिहन पवनद्वय (य) अथागत् ‘यो यो’,
फिर ‘हनू’ पद, फिर ‘ििांक’ (अनुस्वार) सिहत महाकाल (मं), कािमका (त) तथा ‘िलक’, पद, फिर सनेत्रा फिया (िल),
णान्त्त (त), मीन (ध) एवं ‘ग’ वणग, फिर ‘सात्वत’ (ध) तथा ‘िगत आयु राष’ फिर लोिहत (प) तथा रुडाह लगाने से २४ अक्षरों
का मन्त्त्र बनता है ॥९९-१००॥

िवमिग - मन्त्त्र का स्वरुप इस प्रकार है - ‘ॎ यो यो हनूमन्त्तं िलििलत धग धिगतायुराषपरुडाह’ (२४) ॥९९-१००॥

प्रयोग िविध - इस मन्त्त्र के ऋिष आफद पूवोक्त मन्त्त्र के समान है । प्लीहा वाले रोगी के पेट पर पान रखे । उसको उसका आठ
गुना कपडा िै लाकर आच्छाफदत करे , फिर उसके ऊपर हनुमान् जी का ध्यान करते हुये बाूँस का टुकडा रखे, फिर जंगल के
पत्थर पर उत्पन्न बेर की लकिडयोम से जलायी गई अिि में मूलमन्त्त्र का जप करते हुये ७ बार यिष्ट को तपाना चािहए । उसी
यिष्ट से पेट पर रखे बाूँस के टुकडे को सात बार संतािडत करना चािहए । ऐसा करने से प्लीहा रोग िीघ्र दूर हो जाता है
॥१०१-१०४॥

अब िवजयप्रद प्रयोग कहते हैं - पूूँछ जैसी आकृ ित वाले वस्त्र पर कोयल के पंखे से अष्टगन्त्ध द्वारा हनुमान् जी की मनोहर मूर्णत
िनमागण करना चािहए । उसके मध्य में ित्रु के नाम से युक्त अष्टादिाक्षर मन्त्त्र िलखाना चािहए । फिर उस वस्त्र को इसी मन्त्त्र
से अिभमिन्त्त्रत कर राजा ििर पर उसे बाूँधकर युिभूिम में जावे, तो वह अपने ित्रुओं को देखते देखते िनिश्चत ही जीत लेता
है (अष्टादिाक्षर मन्त्त्र र० १३. १८) ॥१०५-१०७॥

अब िवजयप्रदध्वज कहते हैं - युि में अपने ित्रुओं पर िवजय चाहने वाला राजा ित्रु के नाम एवं अष्टादिाक्षर मन्त्त्र के साथ
पूवगवत् हनुमान् जी का िचत्र ध्वज पर िलखे । उस ध्वज को लेकर ग्रहण के समय स्पिगकाल से मोक्षकाल पयगन्त्त मातृकाओं का
जप करे , तथा ितलिमिश्रत सरसों से स्पिगकाल से मोक्षकालपयगन्त्त दिांि होम करे , फिर उस ध्वज को हाथी के ऊपर लगा देवे
तो हाथी के ऊपर लगे उस ध्वज को देखते ही ित्रुदल िीघ्र भाग जात है ॥१०७-१०९॥

अब रक्षक यन्त्त्र कहते हैं - अष्टदल कमल बनाकर उसकी कर्णणका में साध्य नाम (िजसकी रक्षा की इच्छा हो) िलखना चािहए ।
तदनन्त्तर दलों में अष्टाक्षर मन्त्त्र िलखना चािहए । तदनन्त्तर वक्ष्यमाण माला मन्त्त्र से उसे पररवेिष्टत करना चािहए । उसको
भी महाबीज (ह्रीं) से पररवेिष्टत कर इसमें प्राण प्रितष्ठा करनी चािहए ॥११०-१११॥

िुभ कमलदल को भोजपत्र पर सुवगण की लेखनी से गोरोचन और कुं कु म िमलाकर उक्त यन्त्त्र िलखना चािहए । संपात सािधत
होम द्वारा िसि इस यन्त्त्र को स्वणग अफद से पररवेिष्टत (सोने या चाूँदी का बना हुआ गुटका में डालकर) भुजा या मस्तक पर
उसे धारण करना चािहए ॥११२-११३॥
इसकें धारण करने से मनुष्य युि व्यवहार एवं जूए में सदैव िवजयी रहता है ग्रह, िवघ्न, िवष, िस्त्र, तथा चौराफद उसका कु छ
िबगाड नहीं सकते । वह भाग्यिाली तथा नीरोग रहकर दीघगकालपयगन्त्त जीिवत रहता है ॥११३-११४॥

अब अष्टाक्षर मन्त्त्र का उिार करते हैं - अिि (र्) सिहत िवयत् (ह), इनमें दीघग षट् क (आं ईं ऊं ऐं औं अेः) लगाकर उसे तार से
संपुरटत कर देने पर अष्टाक्षर मन्त्त्र िनष्पन्न हो जाता है ॥११५॥

िवमिग - मन्त्त्र का स्वरुप - ‘ॎ ह्रीं ह्रीं ह्रूूँ ह्रैं ह्रौं ह्रेः औ’ ॥११५॥

अब मालामन्त्त्र का उिार कहते हैं - वज्रकाय वज्रतुण्ड किपल, फिर िपङ्गल ऊध्वगकोष महावणगबल रक्तमुख तिडिज्जहव
महारौरदंष्ट्रोत्कटक, फिर दो बार ह (ह ह), फिर ‘करािलने महादृढप्रहाररन्’ ये पद, फिर ‘लंकेश्वरवधाय’ के बाद ‘महासेत’ु एवं
‘बन्त्ध’, फिर ‘महािैल प्रवाह गगने चर एह्येिह भगवान्’ के बाद ‘महाबलपरािम भैरवाज्ञापय एह्येिह महारौरदीघगपुच्छेन
वेष्टय वैररणं भञ्जय भञ्जय हुं िट् ’, इसके प्रारम्भ में प्रणव लगाने से १५ अक्षरों का सवगथगदायक माला मन्त्त्र िनष्पन्न होता है
॥११६-१२१॥

िवमिग - इस मन्त्त्र का स्वरुप इस प्रकार है - ॎ वज्रकाय बज्रतुण्डकिपल िपङ्गल ऊध्वगकेि महावणगबल रक्तमुख तिडिज्जहव
महारौर दंष्टोत्कटक ह ह करािलने महादृढ प्रहाररन् लंकेश्वरवधाय महासेतुबन्त्ध महािैलप्रवाह गगनेचर एह्येतह भगवन्
महाबल परािम भैरवाज्ञापय एह्येिह महारौर दीघगपुच्छेन वेष्टय् वैररणं भञ्जय भञ्जय हुं िट् । रक्षायन्त्त्र के िलए िविध स्पष्ट है
॥११६-१२१॥

युि काल में मालामन्त्त्र का जप िवजय प्रदान करता है तथा रोग में जप करने से रागों को दूर करता है ॥१२१॥

अष्टाक्षर एवं मालामन्त्त्र के ऋिष छन्त्द तथा देवता पूवगवत् हैं पूजा तथा प्रयोग की िविध पूवगवत् है । इनके िवषय में बहुत कहने
की आवश्यकता नहीं है । कपीश्वर हनुमान् जी सब कु छ अपने भक्तों को देते हैं ॥१२२॥

चतुदिग तरङ्ग
अररत्र
अब सवागथगसाधक महािवष्णु के मन्त्त्रों को कहता हूँ । िजनकी उपासना कर ब्रह्माफद देवताओम ने िविवध प्रजाओं की सृिष्ट की
॥१॥

सवगप्रथम नृतसह मन्त्त्र का उिार कहते हैं - मेरु (क्ष) एवं कृ िानु (र्) इन दोनों को अनुग्रह (औ) तथा इन्त्द ु (अनुस्वार) से
समिन्त्वत करने पर नृतसह का एकाक्षर (क्ष्रौं) मन्त्त्र िनष्पन्न होता हैं जो साधकों को कल्पपृक्ष के समान िलदायी है । वही माया
बीज (ह्रीं) अथवा प्रणव से संपुरटत करने पर तीन तीन अक्षर के मन्त्त्र बन जाते हैं ॥२-३॥

िवमिग - एकक्षर मन्त्त्र - क्ष्रौं । प्रथम तीन अक्षर का मन्त्त्र - ह्रीं क्ष्र्ॎ ह्रीं । िद्वतीय तीन अक्षर का मन्त्त्र - ॎ क्ष्रौं ॎ ॥२॥

अब िविनयोग तथा न्त्यास कहते हैं - उक्त तीनों मन्त्त्रों के अित्र ऋिष हैं । गायत्री छन्त्द है तथा नृतसह देवता है । एकाक्षर मन्त्त्र
में षड् दीघग सिहत बीज से षडङ्गन्त्यास करना चािहए । तीन अक्षर वाले नृतसह मन्त्त्र में माया बीज या प्रणव से संपुरटत् षड्
दीघग सिहत एकाक्षर नृतसह बीज मन्त्त्र से षडङ्गन्त्यास करना चािहए ॥३-४॥
िवमिग - िविनयोग - अस्य श्रीनृतसहमन्त्त्रस्य अित्रऋिष गायत्रीछन्त्देः श्रीनृतसहो देवता आत्मनोऽभीष्टिसियथे जपे िविनयोगेः ।
एकाक्षर मन्त्त्र के प्रयोग में षडङ्गन्त्यास -
क्ष्राूँ हृदयाय नमेः क्ष्रीं ििरसे स्वाहा, क्ष्रुूँ ििखायै वषट् ,
क्ष्रैं कवचाय हुम् क्ष्रौं नेत्रत्रयाय वौषट् क्ष्रेः अस्त्राय िट् ।

प्रथम त्र्यक्षर मन्त्त्र के प्रयोग में षडङ्गन्त्यास-


ह्रीं क्ष्रां ह्रीं हृदयाय नमेः, ह्रीं क्ष्रीं ह्रीं ििरसे स्वाहा,
ह्रीं क्ष्रूं ििखायै वषट् , ह्रीं क्ष्रैं ह्रीं कवचाय हुम्,
ह्रीं क्ष्र्ॎ ह्रीं नेत्रत्रयाय वौषट् , ह्रीं क्ष्रेः ह्रीं अस्त्राय िट्

िद्वतीय त्र्यक्षर मन्त्त्र के प्रयोग में षडङ्गन्त्यास -


ॎ क्ष्रां ॎ हृदयाय नमेः, ॎ क्ष्री ििरसे स्वाहा,
ॎ क्ष्रूं ॎ ििखायै वषट् ॎ क्ष्रैं ॎ कवचाय हुम्,
ॎ क्ष्रौं ॎ नेत्रत्रयाय वौषट् , ॎ क्ष्रेः ॎ अस्त्राय िट् ॥३-४॥

अब श्रीं नृतसह मन्त्त्र का ध्यान कहते हैं - तपन (सूयग) सोम (चन्त्रमा) और अििरुपी नेत्रों वाले, िरत्कालीन चन्त्रमा के समान
कािन्त्तमान् अपनी चार भुजाओं में िमिेः अभय, चि, धनुष एवं वर मुरा धारण करने वाले तथा मस्तक पर चन्त्रकला से
िवराजमान श्री नृतसह मैं भजन करता हूँ ॥५॥

उक्त मन्त्त्र का एक लाख जप करना चािहए । तदनन्त्तर घृत एवं खीर से उसका दिांि होम करना चािहए तथा िवमला आफद
ििक्तयों से युक्त पीठ पर इनका पूजन करना चािहए ॥६॥

िवमिग - पीठ पूजा का प्रकार - प्रथम वृत्ताकार कर्णणका, उसके बाद अष्टदल, फिर बत्तीस दल तथा भूपुर युक्त बने मन्त्त्र पर
भगवान् नृतसह का पूजन करना चािहए । सामान्त्य िविध के अनुसार १४, ५ श्लोक में वर्णणत श्री नृतसह के स्वरुप का ध्यान
कर, मानसोपचार से िविधवत् पूजन कर, अघ्नयग के िलए िंख स्थािपत करे । फिर १३. १० की भाषा टीका में वर्णणत ‘पीठ
मध्ये’ से ले कर ‘पूवागफद फदक्षु’ पयगन्त्त ‘ॎ िवमलायै नमेः’ से ले कर ‘पीठ मध्ये अनुग्रहायै नमेः’ पयगन्त्त पीठ ििक्तयों का पूजन
करे ।

इस प्रकार पूिजत पीठ पर आसन देकर, ध्यान, आवाहन आफद उपचारों से श्रीनृतसह की पूजा कर, पञ्चपुष्पाञ्जिल समर्णपत
कर, आवरण पूजा की आज्ञा लेकर, आवरण पूजा प्रारम्भ करनी चािहए ॥६॥

अब नृतसह के आवरण पूजा की िविध कहते हैं - के िरों में षडङ्गन्त्यास तदनन्त्तर चारों फदिाओं के पत्रों में खगेश्वर
(गरुड),िंकर, िेषनाग एवं ितानन्त्द (ब्रह्मा), का पूजन करना चािहए ॥७॥

फिर चारों कोनों के पत्रों में श्रीं, घृित एवं पुिष्ट का पूजन करना चािहए । इसके बाद ३२ दलों में ३२ नामों से श्रीनृतसह
भगवान् की पूजा करनी चािहए ॥८॥

कृ ष्ण, रुर, महाघोर, भीम, भीषण, उज्ज्वल, कराल, िवकराल, दैत्यान्त्तक, मधूसूदन, रक्ताक्ष, िपङ्गलाक्ष, आञ्जन, दीप्ततेज,
सुघोण, हनू, िवश्वाक्ष, राक्षसान्त्त, िविाल, धूम्र, के िव, हयग्रीव, घनस्वर, मेघनाद, मेघवणग, कु म्भकणग, कृ तान्त्तक, तीव्रतेजा,
अिि वणग, महोग्र, िवश्वभूषण, िविक्षम एवं महासेन ये नृतसह जी के ३२ नाम हैं ॥९-१३॥

फिर इन्त्राफद फदलपालों का तदनन्त्तर उनके वज्राफद आयुधोम का चतुरस्र में पूजन करना चािहए ॥१३॥

िवमिग - नृतसह यन्त्त्र में आवरण पूजा - सवगप्रथम आिेयाफद चारों कोणों, मध्य तथा फदिाओम में षडङ्गपूजा इस प्रकार करे -
क्ष्रां हृदयाय नमेः, आिेये, क्ष्रीं ििरसे स्वाहा, नैऋत्ये,
क्ष्रूं ििखायै वषट् , वायव्ये, क्ष्रैं, कवचाय हुम्, ईिान्त्ये,
क्ष्र्ॎ नेत्रत्रयाय वौषट् मध्ये क्ष्रेः अस्त्राय िट् चतुर्ददक्षु ।

फिर अष्टदल में पूवागफद चारों फदिाओं के दलें में गरुड आफद की यथा -
ॎ गरुडाय नमेः, पूवग ॎ िंकराय नमेः, दिक्षणे,
ॎ िेषनागाय नमेः, पिश्चमे, ॎ ब्रह्मणे नमेः, उत्तरे ,

फिर अष्टदल के चारों कोणों में आिेयाफद िम से श्री आफद की यथा -


ॎ िश्रयै नमेः आिेये, ॎ िह्रयै नमेः नैऋत्ये,
ॎ घृत्यै नमेः वायव्ये, ॎ पुष्टयै नमेः ऐिान्त्ये

इसके बाद ३२ दलों में नृतसह के ३ नामीं से - यथा


ॎ कृ ष्णाय नमेः ॎ रुराय नमेः ॎ महाघोराय नमेः,
ॎ भीमाय नमेः ॎ भीषणाय नमेः ॎ उज्ज्वलाय नमेः,
ॎ करालाय नम्ह, ॎ िवकरालाय नमेः ॎ दैत्यान्त्तकाय नमेः,
ॎ मधुसूदनाय नमेः, ॎ रक्ताक्षाय नमेः, ॎ िपङ्गलाक्षाय नमेः,
ॎ अञ्जनाय नमेः ॎ दीप्ततेजसे नमेः, ॎ सुघोणाय नमेः
ॎ हनवे नमेः ॎ िवश्वाक्षाय नमेः ॎ राक्षसान्त्ताय नमेः,
ॎ िविालाय नमेः ॎ धूम्रके िवाय नमेः ॎ हयग्रीवाय नमेः
ॎ घनस्वराय नमेः ॎ मेघनादाय नमेः ॎ मेघवणागय नमेः
ॎ कु म्भवणागय नमेः, ॎ कृ तान्त्तकाय नमेः ॎ तीव्रतेजसे नमेः
ॎ अििवणागय नमेः, ॎ महोग्राय नमेः, ॎ िवश्वभूषणाय नमेः
ॎ िवघ्नक्षमाय नमेः, ॎ महासेनाय नमेः ।

इसके पश्चात् भूपुर में पूवागफद फदिाओं के िम से इन्त्राफद द्ि फदलपालों का


ॎ लं इन्त्राय नमेः, पूवे ॎ रं अिये, ॎ यं यमाय नमेः दिक्षणे,
ॎ क्षं िनऋतये नमेः, नैऋत्ये ॎ वं वरुणाय नमेः पिश्चमे,
ॎ यं वायवे नमेः, वायव्ये, ॎ सं सोमाय नमेः उत्तरे , ॎ हं ईिानाय नमेः ऐिान्त्ये

फिर भूपुर के बाहर वज्राफद आयुधों का यथा पूवागफदिम से-


ॎ वज्राय नमेः ॎ िक्तये नमेः, ॎ दण्डाय नमेः,
ॎ खड् गाय नमेः, ॎ पािाय नमेः, ॎ अंकुिाय नमेः,
ॎ गदायै नमेः, ॎ िूलाय नमेः, ॎ पद्माय नमेः,
ॎ चिाय नमेः,
आवरण पूजा करने के बाद धूप दीपाफद उपचारों से नृतसह भगवान् का पूजन करना चािहए ॥९-१३॥

इस प्रकार के पुरश्चरण करने से िसि फकया गया मन्त्त्र काम्य प्रयोग करने के योग्य होता है ॥१४॥

तीन गाूँठ वाली (तीन पत्तों वाली) दूवाग से जो साधक १००८ आहुितयाूँ देता है वह सभी उपरवों से मुक्त हो जाता है । इस
प्रकार से फकया गया होम महान् उत्पातों को िान्त्त करता है यथा मनुष्यों को अभीष्टिसिि देता है ॥१५॥

िविधपूवगक कलि स्थािपत कर १००८ बार उक्त नृतसह मन्त्त्र का जप करे फिर उस कलि के जल से िवष पीिडत व्यिक्त का
अिभषेक करे तो रोगी की िवषजन्त्य पीडा दूर हो जाती है ॥१६॥

इस मन्त्त्र का जप करते हुये मनुष्य व्याघ्र, सपागफद से संकुल घोर अरण्य में िवचरण करते हुये भी भयभीत नहीं होता ॥१७॥

यफद राित्र में दुेःस्वप्न फदखाई पड जाय तो इस मन्त्त्र का जप करते हुये जागरण पूवगक राित्र व्यतीत कर देने से दुेःस्वप्न िनिश्चत
ही सुस्वप्न का िल देता है ॥१८॥

यह नृतसह मन्त्त्र कणगरोग, नेत्ररोग, ििरोरोग तथा कण्ठगत रोगों को िवनष्ट कर देता है । इस मन्त्त्र से अिभमिन्त्त्रत भस्म का
उिोलन अिभचार जिनत पीडा को दूर कर देता है ॥१९॥

स्वयं को नृतसह तथा ित्रु को मृगिावक मानते हुये उसे पकडकर िजस फदिा में िें क फदया जाय वह अपने पररवार को
छोडकर उसी फदिा में चला जाता है और फिर कभी नहीं लौटता ॥२०-२१॥

िववाद में ित्रु को मारणे के िलए नृतसह मन्त्त्र का जप करना चािहए । फकन्त्तु उसके मर जाने पर पाप को दूर करने के िलए
पुनेः इस मन्त्त्र का १० हजार जप करना चािहए ॥२१-२२॥

अपनी इच्छानुसार श्री समृिि के िलए बेल के िू ल एवं उसकी लकडी से इस मन्त्त्र द्वारा एक हजार आहुितयाूँ देनी चािहए
॥२२-२३॥

पुत्र के दीघागयुष्य के िलए तथा पुत्र रुप संपित्त प्राप्त करने के िलए िवल्व की लकडी में िबल्व िल से होम करना चािहए ॥२३॥

ब्राह्यी अथवा वचा को इस मन्त्त्र से १०० बार अिभमिन्त्त्रत कर एक वषग तक प्रातेःकाल लगाकार खाने वाला व्यिक्त िवद्या में
पारङ्गत हो जाता है ॥२४॥

इस िवषय में िविेष लया कहें भगवान् नृतसह का मन्त्त्र साधकोम के समस्त मनोरथों को पूणग करता है ॥२५॥

अब भयनािक श्री नृतसह मन्त्त्र का उिार कहते हैं - दो बार जय (जय जय) फिर श्री नृतसह लगाने से ८ अक्षरों का मन्त्त्र
िनष्पन्न होता है ॥२५-२६॥

िवमिग - मन्त्त्र का स्वरुप इस प्रकार है - जय जय श्रीनृतसह (८)-॥२६॥


इस मन्त्त्र के ब्रह्मा ऋिष है, गायत्री छन्त्द है तथा नृतसह देवता है । अनुस्वार सिहत नेत्र (इं) तथा अनुस्वार िवयत् (हं) िमिेः
ििक्त एव्य्णं बीज है । अनुस्वार एवं षड् दीघगसिहत िवयत् (ह) वणो से षडङ्गन्त्यास करना चािहए ॥२६-२७॥

िवमिग - िविनयोग - अस्य जयनृतसहमन्त्त्रस्य ब्रह्माऋिषेः गायत्रीछन्त्देः श्री नृतसहो देवता आत्मनोऽभीष्टिसियथे जप
िविनयोगेः ।

षडङ्गन्त्यास - हां हृदयाय नमेः, हीं ििरसे स्वाहा, हूँ ििखायै वषट् ,
हैं कवचाय हुम् हौं नेत्रत्रयाय वौषट् , हेः अस्त्राय िट् ॥२६-२७॥

अब इस जयनृतसह मन्त्त्र का ध्यान कहते हैं - हे नर और तसह रुप उभयात्मक िरीर वाले, हे जगत् के एक मात्र बन्त्धो, हे
नीलकण्ठ, हे करुणासागर, हे सामगान से प्रसन्न होने वाले, हे चन्त्र, सूयग तथा अिि स्वरुप तीन नेत्रों वाले, हे धनुधरग , हे
चन्त्रकला को मस्तक पर धारण करने वाले, हे रमा के स्वामी श्री िवष्णो मेरी रक्षा कीिजये ॥२८॥

इसं प्रकार ध्यान कर उक्त मन्त्त्र का ८ लाख की संख्या में जप करना चािहए । तदनन्त्तर िविधवत् स्थािपत अिि में खीर का
होम करना चािहए । इनके पूजा आफद की िविध पूवगवत् हैं ॥२९॥

अब लक्ष्मी नृतसह मन्त्त्र का उिार कहते हैं - तार (ॎ), पद्म (श्रीं), हृल्लेखा (ह्रीं), फिर ‘जयलक्ष्मी िप्रयाय िनत्यप्रमुफदत’ इतने
पद के बाद ‘चेतसे’ कहना चािहए । फिर ‘लक्ष्मीिश्रतािगदह
े ाय’ कहकर रमा बीजं (श्रीं), माया बीज (ह्रीं), इसके अन्त्त में ‘नमेः’
पद लगाने से ३१ अक्षर का मन्त्त्र बनता है ॥३०-३१॥

िवमिग - मन्त्त्र का स्वरुप इस प्रकार हैम - ॎ श्रें ह्रीं जयलक्ष्मीिप्रयाय िनत्यप्रमुफदतचेतसे लक्ष्मीिश्रतािगदह
े ाय श्रीं ह्रीं नमेः
(३१) ॥३०-३१॥

इस मन्त्त्र के पद्मभव ऋिष हैं अितजगित छन्त्द हैं, श्रीनरके सरी देवता हैं, रमा बीज है तथा अफरजा (ह्रीं) ििक्त है । षट् दीघग
युक्त श्री बीज से षडङ्गन्त्यास करना चािहए ॥३२॥

िवमिग - िविनयोग - ॎ अस्य श्रीलक्ष्मीनृतसहमन्त्त्रस्य पद्मोभवऋिषेः अितजगतीछन्त्देः श्रीनृकेसरीदेवता श्रीं बीजं ह्रीं ििक्तेः
आत्मनोऽभीष्टिसद्ध्यथे जपे िविनयोगेः ।

षडङ्गन्त्यास - श्रां हृदाय नमेः, श्रीं ििरसे स्वाहा, श्रूं ििखायै वौषट् ,
श्रैं कवचाय हुम्, श्रौं नेत्रत्रयाय वौषट् , श्रेः अस्त्राय िट् ॥३२॥

अब लक्ष्मीनृतसह मन्त्त्र का ध्यान कहते हैं - क्षीरसागर में िस्थत श्वेत द्वीप में वसु, रुर, आफदत्य एवं िवश्वेदव
े ों से िमिेः
अग्रभाग में, दािहनी ओर, पीछे पिश्चम में तथा बाईं ओर से उनसे िघरे हुये, अपने चारों हाथों में िमिेः िंख, चि, गदा एवं
पद्म धारण करने वाले, तीन नेत्रों से युक्त, िेषनाग के िण रुप छत्रों से सुिोिभत पीताम्बरालंकृत, लक्ष्मी से आिलिङ्गत
िरीर वाले श्रीनीलकण्ठ नृतसह भगवान् हमें हषग प्रदान करे ॥३३॥

ऐसा ध्यान कर उक्त मन्त्त्र का तीन लाख साठ हजार जप करे तदनन्त्तर घी, िकग रा एवं मधुिमिश्रत मालती के िू लों से अिि में
तीन हजार छेः सौ आहुितयाूँ प्रदान करे । पूवोक्त (र० १३ . १० श्लोक) वैष्णव पीठ पर इनका भजन करे ॥३४-३५॥
प्रथमावरण में अङ्गपूजा िद्वतीयावरण में इन ििक्तयों का पूजन करना चािहए । १. भास्वती, २. भास्करी, ३. िचन्त्ता, ४.
द्युित, ५. उन्त्मीिलिन, ६. रमा, ७. कािन्त्त और ८. रुिच - ये ८ ििक्तयाूँ है । तदनन्त्तर अपने अपने आयुधों के साथ इन्त्राफद
फदलपालों का पूजन करना चािहए ॥३५-३६॥

िवमिग - आवरण पूजा - वृत्ताकार कर्णणका,अष्टदल एवं भूपुर युक्त बने यन्त्त्र पर श्री सिहत नृतसह का पूजन करना चािहए ।
सवगप्रथम के सरों के आिेयाफद कोणों के मध्य में तथा चारों फदिाओं में षडङ्गपूजा यथा -
श्रां हृदयाय नमेः आिेय,े श्रीं ििरसे स्वाहा, नैऋत्ये,
श्रूं ििखायै वषट् वायव्ये, श्रैं कवचाय हुम्, ऐिान्त्ये,
श्रौं नेत्रत्रयाय वौषट् मध्ये, श्रेः अस्त्राय िट् चतुर्ददक्षु,

फिर अष्टदल में पूवागफद फदिाओं के िम से भास्वती आफद ििक्तयों की पूजा करनी चािहए । यथा -
ॎ भास्वत्यै नमेः, पूवगदले, ॎ भास्कयै नमेः आिेयदले,
ॎ िचन्त्तायै नम दिक्षणदले, ॎ द्युत्यै नमेः नैऋत्यदले,
ॎ उन्त्मीिलन्त्यै नमेः, पिश्चमदले, ॎ रमायै नमेः वायव्यदले,
ॎ कान्त्त्यै नमेः उत्तरदले, ॎ रुच्यै नमेः ईिानदले ।

इसके बाद भूपुर में १४, ७ की भाषा टीका में िलखी गई रीित से फदलपालों एवं उनके आयुधों का पूजन करना चािहए । इस
प्रकार आवरण पूजा समाप्त कर मन्त्त्र पर धूप दीपाफद उपचारों से श्रीलक्ष्मीनृतसह का पूजन कर जप प्रारम्भ करना चािहए
॥३५-३६॥

इस प्रकार पुरश्चरण से मन्त्त्र िसि हो जाने पर साधक िनग्रह और अनुग्रह में सक्षम हो जाता है । मालती के पुष्पों से इस मन्त्त्र
द्वारा आहुित देने से साधक अपना अभीष्ट प्राप्त कर लेता है ॥३७॥

अब दिावतार श्रीनृतसह मन्त्त्र का उिार कहते हैं - प्रणव (ॎ), फिर नृतसह बीज (क्ष्रौं), फिर‘नमो भगवते नरतसहाय’ फिर
प्रणव एवं नृतसह बीज, उसके बाद १. मत्स्यरुपाय, फिर प्रणव एवं उक्त बीज के बाद २. कू मगरुपाय, फिर प्रणव एवं उक्त बीज
के बाद ३. वराहरुपाय, फिर प्रणव एवं बीज उसके बाद ४. नृतसहरुपाय, फिर प्रणव एवं बीज के बाद ५. वामन रुपाय, फिर
तीन बार प्रणव के साथ तीन बार बीज मन्त्त्र उसके बाद ६. रामाय, फिर प्रणव एवं बीज के बाद ७. कृ ष्णाय, फिर प्रणव एवं
बीज के बाद ८. ‘किल्कने’, फिर दो बार ‘जय’ पद (जय जय) िालग्रा, सनेत्र दीघाग (िन), फिर ‘वािसने’, फिर ‘फदव्य तसहाय’ के
बाद चतुथ्व्यगन्त्त स्वयम्भू (स्वयंभुवे), फिर ‘पुरुषाय नमेः’, तथा अन्त्त में पुनेः तार (ॎ) और बीज (क्ष्रौं) लगाने से ९९ अक्षरों का
दिावतार मन्त्त्र िनष्पन्न होता है ॥३८-४२॥

िवमिग - दिावतार मन्त्त्र का स्वरुप - ॎ क्ष्रौं नमो भगवते नरतसहाय, ॎ क्ष्रौं मत्स्यरुपाय, ॎ क्ष्रौं कू मगरुपाय, ॎ क्ष्रौ
वराहरुपाय, ॎ नृतसहरुपाय, ॎ क्ष्रौ वामनरुपाय, ॎ क्ष्रौं ॎ क्ष्र् ॎ क्ष्रौं रामाय, ॎ क्ष्रौं कृ ष्णाय ॎ क्ष्रौं किल्कने, जय जय
िालग्रामिनवािसने फदव्यतसहाय स्वयंभुवे पुरुषाय नमेः ॎ क्ष्र्ॎ ॥३८-४२॥

९९ अक्षर वाले इस मन्त्त्र के अित्र ऋिष हैं, अितजगित छन्त्द है तथा अवतारवान् नृतसह देवता हैं । पूवोक्त क्ष्र् ॎ बीज तथा
आद्या (ॎ) ििक्त हैं ॥४३-४४॥
षड् दीघगसिहत पूवोक्त बीज से षडङ्गन्त्यास कर क्षीरसागर में िस्थत श्रीनृतसह भगवान् का ध्यान करना चािहए ॥४४॥

िवमिग - िविनयोग - अस्य दिावतारश्रीनृतसहमन्त्त्रस्य अित्रऋिषेः अितजगतीछन्त्देः अवतारवान्त्श्रीनृतसहो देवता क्ष्र्ॎ बीजं
ॎििक्तेः आत्मनोऽभीष्टिसियथे जपे िविनयोगेः ।

षडङ्गन्त्यास - ॎ क्ष्रां हृदयाय नमेः, ॎ क्ष्रीं ििरसे स्वाहा,


ॎ क्ष्रूं ििखायै वषट् , ॎ क्ष्रैं कवचाय हुम्
ॎ क्ष्रौं नेत्रत्रयाय वौषट् ॎ क्ष्रेः अस्त्राय िट् ॥४४॥

अब दिावतार श्रीनृतसह मन्त्त्र का ध्यान कहते हैं - अगिणत चन्त्र समूहों के समान कािन्त्तपुञ्ज से युक्त, दयालु स्वभाव वाले,
लक्ष्मी का मुख देखने के िलए पुनेः पुनेः आकु ल नेत्रों वाले, चारों ओर से दिावतारों से िघरे हुये भगवान् नृतसह हमारा मङ्गल
करें ॥४५॥

उक्त मन्त्त्र का १० हजार की संख्या में जप करना चािहए । खीर से उसका दिांि होम करना चािहए । पूवोक्त पीठ पर प्रथम
अङ्गपूजा, फिर मत्स्याफद दि अवतारों की पूजा, तदनन्त्तर फदलपालोम एवं उनके आयुधों का पूजन करना चािहए ।
सवगिसििदायक इस मन्त्त्र के काम्यप्रयोग पूवोक्त मन्त्त्र के समान हैं ॥४६-४७॥

अब अभयप्रद श्रीनृतसह मन्त्त्र कहते हैं - तार (ॎ), फिर ‘नमो भगवते नरतसहाय’ के बाद हॄदय (नमेः), फिर ‘तेजस्तेजसे
आिवरािवभगव वज्रनख’, के बाद ‘वज्रदंष्ट्रकमागियान्’, िोर दो बार ‘रन्त्धय’ पद (रन्त्धय रन्त्धय), फिर ‘तमो’ के बाद दो बार
‘ग्रस’ पद (ग्रस ग्रस), फिर विहनपत्नी (स्वाहा) तथा ‘अभयमात्मिन भूियष्ठा’ फिर तार (ॎ) तथा बीज (क्ष्र् ॎ) लगाने से ६२
अक्षरों का अभयप्रद मन्त्त्र बनता है ॥४९-५०॥

इस मन्त्त्र के िुक ऋिष हैं, देवता अभयनरतसह हैं, अितजगती छन्त्द है तथा न्त्यास, ध्यान एवं पूजा आफद पूवोक्त मन्त्त्र के समान
समझना चािहए ॥५०-५१॥

िवमिग - िविनयोग - अस्याभयनरतसहमन्त्त्रस्य िुकऋिषरितजगतीछन्त्देः अभयप्रद नरतसहो देवता आत्मनोऽभीष्टिसियथेजपे


िविनयोगेः । षडङ्गन्त्यासाफद पूवगवत् है ॥५०-५१॥

अब अपना समस्त अभीष्ट िसि करने वाले श्रीगोपालकृ ष्ण के मन्त्त्रों को कहता हूँ - ‘गोपीजन’ इस पद के कहने के बाद
‘वल्लभाय’, फिर अििसुन्त्दरी (स्वाहा) लगाने से मनोवािछछत िल देने वाला दि अक्षरों का मन्त्त्र बनाता हैं ॥५१-५३॥

िवमिग - मन्त्त्र का स्वरुप - गोपीजनवल्लभाय स्वाहा (१०) ॥५१-५२॥

इस मन्त्त्र के नारद ऋिष हैं, िवराट् छन्त्द है, श्रीकृ ष्ण देवता हैं, काम (ललीं) बीज तथा अनलिप्रया (स्वाहा) ििक्त कही गई हैं
॥५३॥

िवमिग - िविनयोग - अस्य श्रीगोपालमन्त्त्रस्य नारऋिषर्णवराट् छन्त्देः श्रीकृ ष्णो देवता ललीं बीजं स्वाहा
ििक्तरात्मनोऽभीष्टिसियथे जपे िविनयोगेः ॥५३॥
अब पञ्चाङ्गन्त्यास कहते हैं - आचिाय से हृदय, िवचिाय से ििर, सुचिाय से ििखा, फिर त्रैलोलयरक्षणचिाय से कवच,
तथा असुरान्त्तकचिाय से अस्त्रन्त्यास करना चािहए । (पञ्चाङ्गन्त्यास में नेत्रन्त्यास वर्णजत है) ॥५४-५५॥

िवमिग - पञ्चाङ्गन्त्यास िविध - आचिाय हृदयाय नमेः,


िवचिाय ििरसे स्वाहा, सुचिाय ििखायै वषट,
त्रैलोलयरक्षणचिाय कवचाय हुम् असुरान्त्तकचिाय अस्त्राय िट् ॥५४-५५॥

मूलमन्त्त्र को तीन बार पढकर तीन बार सवागङ्गन्त्यास करना चािहए । फिर मस्तक, नेत्र, कान, नािसका, मुख, हृदय, उदर,
िलङ्ग जानु एवं दोनों पैरों में प्रणव संपुरटत नमेः सिहत सानुस्वार मन्त्त्र के एक एक वणो से उक्त दिोम स्थानोम पर न्त्यास
करना चािहए ॥५६-५७॥

िवमिग - वणगन्त्यास - ‘ॎ गों ॎ नमेः मस्तके , ॎ पीं ॎ नमेः नेत्रयोेः


ॎ जं ॎ नमेः कणगयोेः ॎ नं ॎ नमेः नसोेः,
ॎ वं ॎ नमेः मुखे, ॎ ल्लं ॎ नमेः, हृफद,
ॎ भां ॎ नमेः जठरे , ॎ यं ॎ नमेः िलङ्गे
ॎ स्वां ॎ नमेः जान्त्वोेः ॎ हां ॎ नमेः पादयोेः ॥५६-५७॥

अब गोपाल का ध्यान कहते हैं - वृन्त्दावन में कल्पवृक्ष के नीचे िनर्णमत्त सुन्त्दर मिणपीठ पर, रक्तवणग के अष्टदल कमल पर
िवराजमान, पीताम्बरालंकृत, बादलोम के समान कािन्त्त वाली, अनेक आभूषणों को धारण फकए हुये, गो, गोप एवं गोिपयों
से िघरे हुये, कामदेव से भी अिधक सुन्त्दर, मुिनगणों से संयुक्त वंिी बजाते हुये श्रीगोिवन्त्द का स्मरण करना चािहए ॥५८॥

इस प्रकार गोपाल का ध्यान कर एक लाख जप करना चािहए । फिर कमल पुष्पों से उसका दिांि होम करना चािहए तथा
पूवोक्त वैष्णव पीठ पर नन्त्दनन्त्दन श्रीगोपालकृ ष्ण का पूजन करना चािहए ॥५९॥

आिेयाफद चार कोणों में हृदय आफद चार अङ्गो की, फिर फदिाओं में अस्त्र का पूजन करना चािहए । इस प्रकार पञ्चाङ्ग पूजा
कर अष्टदल में गोपाल की ८ मिहिषयों का पूजन करना चािहए । १. रुिलमणी, २. सत्यभामा, ३. नाििजती, ४. कािलन्त्दी,
५. िमत्रिवन्त्दा, ६. लक्ष्मणा. ७. जाम्बवती तथा ८. सुिीला ये आठों श्री गोपाल जी की मिहषी हैं, जो सुवणग जैसी आभावाली
तथा िविचत्र आभूषण एवं िविचत्र मालाओं से अलंकृत रहती हैं । अष्टदल के अग्रभाग में वसुदव
े , देवकी, गोपित, श्रीनन्त्द,
यिोदा, बलभर, सुभरा, गोप एवं गोिपयों का पूजन करना चािहए ॥६०-६३॥

तदनन्त्तर इन्त्राफद फदलपालोम का तथा उनके वज्राफद आयुधों का पूजन करना चािहए ॥६३॥

िवमिग - वृत्ताकार कर्णणका, अष्टदल एवं भूपुर सिहत गोपाल यन्त्त्र का िनमागण करना चािहए ।

पूजा की िविध - सवगप्रथम १४, ५८ में वर्णणत श्रीगोपाल के स्वरुप का ध्यान कर मानसोपचार से पूजा करे । फिर िंख का
अघ्नयगपात्र स्थािपत कर उक्त मन्त्त्र पर पूवोक्त रीित से पीठ देवताओं एवं पीठ ििक्तयों का पूजन (र० १३. १०) । फिर आसन,
आसन, ध्यान, आवाहनाफद से लेकर पञ्च पुष्पाञ्जिल समपगण पयगन्त्त धूप, दीपाफद उपचारों से गोपालनन्त्दन का पूजन कर,
पुष्पाञ्जिल समर्णपत कर, आवरण पूजा की आज्ञा माूँगे । सवगप्रथम के सरों के आिेयाफद कोणों में पञ्चाङ्गपूजा इस प्रकार करे -
आचिाय स्वाहा, आिेय,े िवचिाय स्वाहा नैऋत्ये,
सुचिाय स्वाहा, वायव्ये, त्रैलोलयरक्षणचिाय स्वाहा, ऐिान्त्ये,
असुरान्त्तकाचिाय स्वाहा, चतुर्ददक्षु ।

इसके बाद अष्टदल में पूवागफद दलों के िम से अश्टमिहिषयों की यथा -


ॎ रुिलमण्यै नमेः, पूवगदले, ॎ सत्यभामायै नमेः, आिेयदले,
ॎ नाििजत्यै नमेः, दिक्षनदले, ॎ कािलन्त्द्यै नमेः नैऋत्यदले,
ॎ िमत्रिवन्त्दायै नमेः, पिश्चमदले, ॎ सुलक्षणायै नमेः, वायव्यदले,
ॎ जाम्बवत्यै नमेः, उत्तरदले, ॎ सुिीलायै नम्ह, ईिानदले

तपश्वात पूवागफद दलों के अग्रभाग में वसुदव


े आफद की पूजा करे । यथा -
ॎ वसुदव
े ाय नमेः ॎ देवलयै नमेः, ॎ नन्त्दाय नमेः,
ॎ यिोदायै नमेः ॎ बलभरायै नमेः, ॎ सुभरायै नमेः,
ॎ गोपेभ्यो नमेः, ॎ गोपीभ्यो नमेः

फिर पूवगवत् इन्त्राफद फदलपालों की तथा उनके वज्राफद आयुधोम की पूजा करनी चािहए ॥६०-६३॥

इस प्रकार के अनुष्ठान से मन्त्त्र िसि हो जाने पर साधक अपने सारे मनोरथों को पूणग करे ॥६४॥

काम्य प्रयोग - ज्वर से मुक्त होने के िलए गुडूची (िगलोय) के टुकडों से होम करे ॥६४॥

दो िमत्रों में द्वेष कराने के िलए कृ ष्णद्वेषी तथा महाजुआरी रुलम तथा बलभर का ध्यान कर गोवर के गोल गोल कण्डो से होम
करना चािहए ॥६५-६६॥

ित्रु को िान्त्त करने के िलए नीम के तेल में डु बोई बहेडे की लकडी से राित्र में १० हजार की संख्या में होम करना चािहए
॥६६-६७॥

िवद्वान् साधक स्वयं में कृ ष्ण की भावना कर तथा ित्रु में मञ्च से िगराये गये, चोटी पकडकर खींचे जाते हुये गतप्राण कं स की
भावना करते हुये इस मन्त्त्र का १० हजार की संख्या में जप करे तथा राित्र में ित्रु के जन्त्मक्षत्र के वृक्ष की सिमधाओं से होम
करना चािहए । ऐसा करने से उग्रतम ित्रु भी मर जाता हैं ॥६८-६९॥

िवद्या प्रािप्त हेतु पलाि के िू लों से एक लाख आिहितयाूँ देनी चािहए । राई िमिश्रत चावल एवं श्वेत पुष्पाफद द्वारा लगातार
७ फदन तक हवन कर उसका भ्सम मस्तक में लगावे तो वह मनुष्य युवितयों के समूहों को तथा पुरुषों को अपने वि में कर
लेता हैं ॥७०-७१॥

इस मन्त्त्र से एक हजार बार अिभमिन्त्त्रत कर िू ल, वस्त्र, अञ्जन, ताम्बूल या चन्त्दन िजस व्यिक्त को फदया जाय वह सपुत्र पिु
एवं बान्त्धव सिहत िीघ्र ही विवती हो जाता है ॥७१-७२॥

जो व्यिक्त वृन्त्दावन में गोिपयों द्वारा गुणगान् फकए जाने वाले श्रीकृ ष्ण का स्मरण कर अपामागग की सिमधाओं से हवन करता
है वह सारे जगत् को अपने वि में कर लेता है ॥७३॥
जो व्यिक्त भिक्त में तत्पर हो रास लीली के मध्य में भगवान् श्रीकृ ष्ण का ध्यान कर उक्त मन्त्त्र का १० हजार जप करता है वह
६ महीनों के भीतर अपनी चाही कन्त्या से िववाह करता है ॥७४॥

जो कन्त्या कदम्ब वृक्ष पर बैठे श्रीकृ ष्ण का ध्यान कर प्रितफदन एक हजार की संख्या में जप करती है । वह ४९ फदन ए भीतर
मनोनूकूल पित प्राप्त करती है ॥७५॥

मधु सिहत िवल्व वृक्ष का पत्र, िल या सिमधाओं से अथवा िकग रा युक्त कमल पुष्पों का होम करने से व्यिक्त धनवान् हो
जाता हैं, इस िवषय में िविेष लया कहें भगवान् गोपालकृ ष्ण का यह मन्त्त्र मनुष्यों की सारी कामनायें पूणग करता हैं ॥७६-
७७॥

अब मनुष्यों को अभीष्टिलदायक गोिवन्त्द का एक और मन्त्त्र कहता हूँ-

गोिवन्त्द मन्त्त्र का उिार - काम (ललीं), रे िचका सिहत िवयत् (हृ), वामािक्ष (इ), संवृत पीता (षी), िझण्टीि सिहत चिी (के ),
अनन्त्त सिहत बक (िा), मरुत् (य) तथा अन्त्त में हृदय ‘नमेः’ लगाने से ८ अक्षर का सवागभीष्टप्रद मन्त्त्र िनष्पन्न होता है ॥७७-
७९॥

िवमिग - मन्त्त्र का स्वरुप इस प्रकार है- ललीं हृषीके िाय नमेः ॥७७-७९॥

इस मन्त्त्र के संमोहन नारद ऋिष हैं, गायत्री छन्त्द है तथा त्रैलोलयमोहन देवता हैं । षड् दीघग सिहत काम बीज से षडङ्गन्त्यास
करना चािहए ॥७९-८०॥

िवमिग - िविनयो- अस्य श्रीगोिवन्त्रमन्त्त्रस्य त्रैलोलयमोहनाख्य ऋिषगागयत्री छन्त्देः त्रैलोलयमोहनो देवताऽभीष्टिसियथे जपे
िविनयोगेः ।

षडङ्गन्त्यास - ॎ ललां हृदयाय नमेः, ॎ ललीं ििरसे स्वाहा,


ॎ ललूूँ ििखायै वौषट् ॎ ललैं कवचाय हुम्
ॎ ललौं नेत्रत्रयाय वौषट् ॎ ललेः अस्त्राय िट् ॥७९-८०॥
अब त्रैलोलयमोहन का ध्यान कहते हैं - कल्पवृक्ष के नीचे गरुड के ऊंचे कन्त्धे पर िवराजमान, अपने आठों हाथों में िमिेः
पुष्पबाण, इक्षुचाप, कमल, पाि, अंकुि, चि, िंख, और गदा धारण फकए हुये, लक्ष्मी से आिलङ्गत िरीर वाले, अनेकानेक
आभूषणों से िवभूिषत, रक्त चन्त्दन, पुष्प एवं पीताम्बरालंकृत श्री गोिवन्त्दगोपाल का ध्यान करना चािहए ॥८१॥

इस प्रकार ध्यान कर उक्त मन्त्त्र का १२ लाख जप करना चािहए । तदननतर, मधु, घी, िकग रा िमिश्रत पलाि पुष्पों से १२
हजार की संख्या में अिि में आहुितयाूँ देनी चािहए ॥८२॥

फिर जल से १२ हजार तपगण करना चािहए । पूवोक्त पीठ पर पिक्षराजाय स्वाहा मन्त्त्र से गरुड का पूजन करना चािहए
॥८३॥

िवमिग - पूवोक्त िवमलाफद पीठ पर ििक्तयों का पूजन कर ‘पिक्षराजाय स्वाहा’ इस पीठ मन्त्त्र से गरुड को स्थािपत कर पूजन
करे । फिर गरुड पर श्रीगोिवन्त्द का आवाहनाफद उपचारों से लेकर पुष्पाञ्जिल समपगण पयगन्त्त िविधवत् पूजन कर पुनेः
पुष्पाञ्जिल प्रदार कर उनसे आवरण पूजा की आज्ञा ले आवरण पूजा प्रारम्भ करे ॥८२-८३॥

ििर पर मुकुट का पूजन कर कानों में कु ण्डलों का पूजन करना चािहए । इसी प्रकार हाथों में चिाफद अस्त्रों का हृदय में
श्रीवत्स और कौस्तुभमिण का, गले में वनमाला का तथा करट में पीताम्बर की पूजा करनी चािहए ॥८४-८५॥

बायीं ओर महालक्ष्मी का पूजन कर आिेयाफद कोणों में, मध्य में तथा फदिाओं में अङ्गपूजा करनी चािहए । फदिाओं में चार
बाणों की तथा कोणों में पञ्चम बाण का पूजन करना चािहए । फिर लक्ष्मी, आफद ििक्तयों का, इन्त्राफद दि फदलपालों का तथा
उनके वज्राफद आयुधों का पूजन करना चािहए ॥१. लक्ष्मी, २. सरस्वती, ३. रित, ४. प्रीित, ५. कीर्णत, ६. कािन्त्त, ७. तुिष्ट
और ८. पुिष्ट - ये आठ उनकी ििक्तयाूँ कही गई हैं ॥ ८५-८७॥

िवमिग - आवरण पूजा के िलए वृत्ताकार कर्णणका अष्टदलं एवं भूपुर सिहत यन्त्त्र िलखकर पूवोक्त िवमलाफद ििक्तयों से युक्त
पीठ पर भगवान् के आसनभूत गरुड को ‘पिक्षराजाय नमेः’ इस मन्त्त्र से आवाहन तथा पूजन कर, गोिवन्त्द के मूल मन्त्त्र से
श्रीगोिवन्त्द के िवग्रह की भावना कर पूजा करनी चािहए । फिर उनके ििर आफद अङ्गों में िस्थत मुकुटाफद का इस प्रकार
पूजन करे । यथा - ॎ मुकुटाय नमेः, ििरिस, ॎ कु ण्डलाभ्यां नमेः, कणगयोेः, ॎ िंखया नमेः, ॎ चिाय नमेः, ॎ गदायै नमेः,
ॎ पद्माय नमेः, ॎ पािाय नमेः, ॎ अंकुिाय नमेः, ॎ इक्षुधनुषे नमेः, ॎ पुष्पिरे भ्यो नमेः, अष्टभुजासु । श्रीवत्साय नमेः,
कौस्तुभाय नमेः, हृफद, वनमालायै नमेः, कण्ठे , पीताम्बराय नमेः, करटप्रदेिे, िश्रयै नमेः, वामाङ्गे,

इसके पश्चात् आिेयाफद कोणों में मध्य में तथा चतुर्ददक् में षडङ्गपूजा करे ।
ललां हृदयाय नमेः आिेय,े ललीं ििरसे स्वाहा नैऋत्ये,
ललूं ििखायै वषट् वायव्ये, ललैं कवचाय हुम् ऐिान्त्ये,
ललौं नेत्रत्रयाय वौषट् मध्ये, ललेः अस्त्राय िट् चतुर्ददक्षु,

तदनन्त्तर पूवोफद चारों फदिाओं तथा कोणों में पञ्चवाणों की यथा -


रां िोषणबाणाय नमेः, पूवे, रीं मोहनबाणाय नमेः, दिक्षणे,
ललीं सन्त्दीपनबाणाय नमेः, पिश्चमे, ब्लूं तापनबाणाय नमेः उत्तरे ,
सेः मादनबाणाय नमेः, कोणेषु ।

फिर अष्टदल में पूवागफद अनुलोम िम से लक्ष्मी आफद ििक्तयों की यथा -


ॎ लक्ष्म्यै नमेः पूवगदले, ॎ सरस्वत्यै नमेः आिेयदले,
ॎ रत्यै नमेः दिक्षणदले, ॎ प्रीत्यै नमेः नैऋत्यदले,
ॎ कीत्यै नमेः पिश्चमदले, ॎ कान्त्त्यै नमेः वायव्यदले,
ॎ तुष्टयै नमेः उत्तरदले, ॎ पुष्टयै नमेः ऐिान्त्यदले,

इसके बाद भूपुर में इन्त्राफद दि फदलपालों की तथा उसके बाहर उनके वज्राफद आयुधों की पूवगवत् पूजा करनी चािहए । इस
प्रकार आवरण पूजा करने के पश्चात पुनेः त्रैलोलयमोहन श्रीगोिवन्त्द का धूप दीपाफद उपचारों से पूजन करना चािहए ॥८५-
८७॥

अब इस मन्त्त्र से काम्य प्रयोग कहते हैं - साधक प्रितफदन प्रातेः काल में िवजयापुष्प िमिश्रत जल से १०८ बार एक महीना
पयगन्त्त तपगण करता है, उसे वािछछत िल की प्रािप्त होती है ॥८८॥
िविधवत् स्थािपत अिि में इस मन्त्त्र द्वारा १० हजार आहुितयाूँ देवे तथा हुत िेष घृत को प्रोक्षणी पात्र में छोडता रहे, पुनेः
उस संस्रव घृत को १० हजार बार इस मन्त्त्र से अिभमिन्त्त्रत कर, पत्नी उस घृत को अपने पित को िखला दे, तो ऐसा करने से
उसका पित वि में हो जाता है ॥८९॥

‘ललीं’ इस एकाक्षर मन्त्त्र के पूजन आफद की िविध उक्त मन्त्त्रों के समान है । यह मन्त्त्र िविेष रुप से स्त्री समुदाय को मोिहत
करने वाला है ॥९०॥

अब द्वादिाक्षर गोपाल मन्त्त्र कहते हैं - रमा (श्रीं), भवानी (ह्रीं), कन्त्दपग (ललीं), फिर ‘कृ ष्णाय’, इसके बाद ओ से युक्त स्मृित
(गो), फिर ‘िवन्त्दाय’ और अन्त्त में विहनजाया (स्वाहा) लगाने से १२ अक्षरों का गोपाल मन्त्त्र बनता है ॥९१॥

िवमिग - इस मन्त्त्र का स्वरुप इस प्रकार है - श्रीं ह्रीं ललीं कृ ष्णाय गोिवन्त्दाय स्वाहा (१२) ॥९१॥

इस द्वादिाक्षर मन्त्त्र के ब्रह्मा ऋिष, गायत्रीछन्त्द तथा भगवान् श्रीकृ ष्ण देवता हैं । १, १, १, ३, ४, एवं २, वणो से
षडङ्गन्त्यास करना चािहए । इस मन्त्त्र की पुरश्चरणाद िविध पूवगवत् हैं ॥९२-९३॥

िवमिग - िविनयोग - अस्य द्वादिाणग श्रीगोपालमन्त्त्रस्य ब्रह्माऋिषेः गायत्रीछन्त्देः श्रीकृ ष्णो देवताऽऽत्मनोभीष्टिसियथे जपे
िविनयोगेः ।

षडङ्गन्त्यास - श्री हृदयाय नमेः, ह्रीं ििरसे स्वाहा


ललीं ििखायै वषट् , कृ ष्णाय कवचाय हुम्
गोिवन्त्दाय नेत्रत्रयाय वौषट् , स्वाहा अस्त्राय िट् ॥९२-९३॥

अब समस्त लोको को सम्मोिहत करने वाले १६ अक्षरों के रुिलमणीवल्लभ मन्त्त्र को कहता हूँ -

तार (ॎ), हृद् (नमेः) फिर ‘रुिलमणी’, उसके बाद चतुथ्व्यगन्त्त ‘वल्लभ’ (वल्लभाय) और अन्त्त में ठद्वय (स्वाहा) लगाने से १६
अक्षरों वाला मन्त्त्र िनष्पन्न होता है । इस मन्त्त्र के नारद ऋिष, अनुष्टुप् छन्त्द तथा रुिलमणीवल्लभ देवता हैं । मन्त्त्र के १, २,
४, ७, और दो अक्षरों से पञ्चाङ्गन्त्यास करना चािहए ॥९३-९५॥

िवमिग - मन्त्त्र का स्वरुप इस प्रकार है - ॎ नमो भगवते रुिलमणीवल्लभाय स्वाहा ।

िविनयोग - अस्य श्रीरुिलमणीवल्लभमन्त्त्रस्य नारदऋिषनुष्टुप्छन्त्देः रुिलमणीवल्लभहररदेवतात्मनोऽभीष्टिसियथे जपे


िविनयोगेः ।

पञ्चाङ्गन्त्यास - ॎ हृदयाय नमेः, नमेः ििरसे स्वाहा, भगवते ििखायै वषट्


रुिलमणीवल्लभाय कवचाय हुम् स्वाहा अस्त्राय िट् ॥९३-९५॥

अब उक्त षोडिाक्षर मन्त्त्र का ध्यान कहते हैं - िचन्त्तामिण धारण फकए हुये अपने हाथों से अपनी रुिलमणी देवी का आिलङ्गन
करते हुये तथा अपने हाथ में कमल धारण की हुई अपनी पत्नी रुिलमणी देवी से आतलिगत, अपेन हाथ में सुवणग िनर्णमत्त
यिष्टका (छडी) िलए हुये अनेकानेक आभूषणों एवं पीताम्बर से िोभायमान भगवान् श्रीकृ ष्ण का स्वकीयाभीष्ट िसिि हेतु
ध्यान करना चािहए ॥९६॥

उक्त मन्त्त्र का एक लाख जप करना चािहए तथा उसके दिांि की संख्या में कमलों से होम करना चािहए । अङ्गो एवं
नारदाफद, इन्त्राफद तथा वज्राफद के साथ भगवान् का पूजन करना चािहए । १. नारद, २. पवगत, ३. िवष्णु, ४. िनिठ, ५.
उद्वव. ६. दारुक, ७. िवष्वलसेन तथा ८. िैनेय का फदिाओं में तथा गरुड का अग्रभाग में पूजन करना चािहए ॥९७-९८॥

िवमिग - आवरण पूजा िविध - साधक सवगप्रथम १४. ९६ में वर्णणत रुिलमणीवल्लभ के स्वरुप का ध्यान करे , फिर
मानसोपचार से उनका पूजन कर िविधवत् िंखपात्र में अघ्नयग स्थािपत करे । फिर पूवोक्त मन्त्त्रों पर १४. ६ के िवमिग में कही
गई रीित से पीठपूजा कर आवाहनाफद उपचारों से पुनेः भगवान् की िविधवत् पूजा कर, आवरण पूजा की अनुज्ञा लेकर
आवरण पूजा प्रारम्भ करे । सवगप्रथम के िर के आिेयाफद कोणो में पञ्चाङ्ग पूजा करे । यथा -
ॎ हृदयाय नमेः, ॎ नमेः ििरसे स्वाहा,
ॎ भगवते ििखायै वषट् , ॎ रुिलमणीवल्लभाय कवचाय हुम्,
ॎ स्वाहा अस्त्राय िट् ।

फिर अष्टदलों के पूवागफद फदिाओं में नारदाफद की यथा -


ॎ नारदाय नमेः, ॎ पवगताय नमेः, ॎ िवष्णवे नमेः,
ॎ िनिठाय नमेः, ॎ उिवाय नमेः, ॎ दारुकाय नमेः,
ॎ िवष्वलसेनाय नमेः, ॎ िैनेयाय नमेः,

तदनन्त्तर पूवोक्त (र० १४. ७-१३) िविध से भूपुर में इन्त्राफद फदलपालों की तथा उसके बाहर उनके वज्राफद आयुधों की पूजा
करे ॥९७-९८॥

अब अष्टाक्षरी मन्त्त्र का उिार कहते हैं - काम (ललीं), फिर चतुथ्व्यगन्त्त ‘गोवल्लभ’ (गोवल्लभाय), इसके अन्त्त में ‘स्वाहा’ लगाने
से अष्टाक्षरी मन्त्त्र बनता है । इस मन्त्त्र के ब्रह्मा ऋिष हैं, गायत्री छन्त्द है तथा कृ ष्ण देवता है मन्त्त्र के दो दो वणो से तथा
समस्त मन्त्त्र से पञ्चाङ्गन्त्यास करना चािहए ॥९९॥

िवमिग - मन्त्त्र का स्वरुप इस प्रकार है - ललीं गोवल्लभाय स्वाहा ।


िविनयोग - अस्याष्टाक्षरमन्त्त्रस्य ब्रह्माऋिषगागयत्रीच्छन्त्देः श्रीकृ ष्णो परमात्मा देवताऽऽत्मनोऽभीष्टिसियथे जपे िविनयोगेः ।

पञ्चाङ्गन्त्यास - ललीं गों हृदयाय नमेः वल्ल ििरसे स्वाहा


भाय ििखायै वषट् स्वाहा कवचाय हुम्
ललीं गोवल्लभाय स्वाहा अस्त्राय िट् ॥९९॥

पाूँच वषग की आयु वाले, ब्रज में िीडा करते हुये अपने सौन्त्दयग से अप्सराओं को मोिहत करते हुये, तथा ब्रजाङ्गनाओं से देखी
जाने वाले िीडा वाले, नूपुर आफद आभूषणों से अलंकृत यधोदानन्त्दन श्रीकृ ष्ण का ध्यान करना चािहए ॥१००॥

इस मन्त्त्र का ५ लाख जप करना चािहए तथा घृताक्क पलाि की सिमधाओं से ८ हजार आहुितयाूँ देनी चािहए ॥१०१॥

फिर अङ्गपूजा कर फदिाओं में वासुदव


े संकषगण प्रद्युम्न एवं अिनरुि का तथा कोणों में रुिलमणी , सत्यभामा, लक्ष्मणा और
जाम्बवती का पूजन करना चािहए ॥१०२॥

फिर इन्त्राफद फदलपालों का तथा उनके बज्राफद आयुधों का पूजन करना चािहए । इस प्रकार पूजन से िसिि प्राप्त साधक महान्
संपित्तिाली हो जाता है ॥१०३॥

िवमिग - आवरण पूजा - प्रथम इस मन्त्त्र के पञ्चाङ्ग कां कर्णणका के मध्य तथा चारों फदिाओं में इस प्रकार पूजा करनी चािहए
। यथा -
ललीं गो हृदयाय नमेः मध्ये, वल्ल ििरसे स्वाहा पूव,े
भाय ििखाय वषट् दिक्षणे स्वाहा कवचाय हुम् पिश्चमे,
ललीं गोवल्लभय स्वाहा उत्तरे ।

पुनेः पूवागफद चारों फदिाओं में वासुदव


े आफद की पूजा करे । यथा -
ॎ वासुदव
े ाय नमेः, पूवे, ॎ संकषगणाय नमेः, दिक्षणे,
ॎ प्रद्युम्नाय नमेः, पिश्चमे, ॎ अिनरुिाय नमेः, उत्तरे ,

पुनेः आिेयाफद कोणो में रुिलमणी आफद की पूजा करे । यथा -


ॎ रुिलमण्यै नमेः, ॎ सत्यभामायै नमेः, नैऋत्ये,
ॎ लक्ष्मणायै नमेः, वायव्ये, ॎ जाम्बवत्यै नमेः ऐिान्त्ये ।

इसके बाद (१४.७-१३) में प्रदर्णित िविध से भूपुर में इन्त्राफद दि फदलपालों का तथा उसके बाहर उनके वज्राफद आयुधों का
पूजन करे ॥१०१-१०३॥

काम (ललीं) से संपुरटत ‘कृ ष्ण" पद यह ४ अक्षरों क मन्त्त्र है । इस मन्त्त्र के नारद ऋिष, गायत्रीछन्त्द तथा श्रीकृ ष्ण परमात्मा
देवता हैं । षड् दीघग सिहत काम बीज से षडङ्गन्त्यास करना चािहए ॥१०४-१०५॥

िवमिग - इस मन्त्त्र का स्वरुप इस प्रकार है - ललीं कृ ष्ण ललीं ।


िविनयोग - अस्य श्रीकृ ष्णमन्त्त्रस्य नारदऋिष गायत्रीछन्त्देः श्रीकृ ष्णपरमात्मा देवताऽऽत्मनोऽभीष्टिसियथे जपे िविनयोगेः ।

षडङ्गन्त्यास - ललां हृदयाय नमेः, ललीं ििरसे स्वाहा, ललूं ििखायै वषट् ,
ललैं कवचाय हुम्, ललौं नेत्रत्रयाय वौषट् , ललेः अस्त्राय िट् ॥१०४-१-५॥

कल्पवृक्ष के नीचे पद्मदल पर िवराजमान श्रीकृ ष्ण का ध्यान करे । कल्पवृक्ष के अितरमणीय पल्लवों से होने वाली रत्नवृिष्ट से
अिभिषक्त तथ सुवणग के समान जगमगाते वस्त्र धारण फकए हुये, दही, मलखन और खीर का भोजन करते हुये श्रीकृ ष्ण
परमात्मा का ध्यान करना चािहए ॥१०५-१०६॥

इस मन्त्त्र का चार लाख करना चािहए । तदनन्त्तर िवल्विलों का अिि में उसका दिांि होम करना चािहए तथा पूवगवत्
अङ्ग पूजन करना चािहए ॥१०७॥

फिर फदिाओं में महापद्म, िंख, मकर, कच्छप, मुकुन्त्द, कु न्त्द एवं नील इन िनिधयों का पूजन करना चािहए । फिर इन्त्र आफद
दि फदलपालों का तथा उनके बज्राफद आयुधों का पूजन करना चािहए ॥१०८-१०९॥
इस प्रकार के पूजन के बाद फकए जपाफद से मन्त्त्र िसिि प्राप्त कर व्यिक्त िनिध संपन्न हो जाता है॥१०९॥

िवमिग - आवरण पूजा प्रथम यन्त्त्र के आिेयाफद कोणों में मध्य में तथा चारों फदिाओं में षडङ्गपूजा करे । यथा -
ललां हृदयाय नमेः आिेय,े ललीं ििरसे स्वाहा, नैऋत्ये,
ललूं ििखायै वषट् , वायव्ये, ललै कवचाय हुम् ऐिान्त्ये,
ललौं नेत्रत्रयाय वौषट् , मध्ये, ललेः अस्त्राय िट् चतुर्ददक्षु ।

फिर पूवागफद फदिाओं में िनिधयों की पूजा करे -


ॎ महापद्माय नमेः पूवे, ॎ पद्माय नमेः आिेये,
ॎ िंखाय नमेः दिक्षणे ॎ मकराय नमेः नैऋत्ये,
ॎ कच्छपाय नमेः पिश्चमे ॎ मुकुन्त्दाय नमेः वायव्ये
ॎ कु न्त्दाय नमेः उत्तरे , ॎ नीलाय नमेः ऐिान्त्ये ।

इसके बाद पूवोक्त िविध से इन्त्राफद दि फदलपालों का तथा उनके वज्राफद आयुधों का पूजन करना चािहए ॥१०९॥

दिाक्षर मन्त्त्र के सन्त्दभग में कहे गये सभी काम्य प्रयोग इस मन्त्त्र से करने चािहए ॥११०॥

अब सन्त्तानदायक श्रीकृ ष्ण मन्त्त्र कहता हूँ - यह अनुष्टुप छन्त्द में इस प्रकार है - प्रथम ‘देवकी सुत’, इसके बाद ‘गोिवन्त्द’ पद,
फिर ‘वासुदव
े ’ पद बोलकर संबुियन्त्त जगत्पित (जगत्पते) ऐसा कहाना चािहए । इसके बाद तीसरे चरण में ‘देिह में तनयं’,
तदनन्त्तर पद, फिर ‘त्वामहं’, बोलकर अन्त्त में ‘िरणागतेः’, ऐसा बोलना चािहए ॥११०-११२॥

िवमिग - संतानगोपाल मन्त्त्र का स्वरुप इस प्रकार है - देवकीसुत गोिवन्त्द वासुदव


े जगत्पते । देिह मे तनयं कृ ष्ण त्वामहं िरणं
गतेः ॥११०-११२॥

इस मन्त्त्र के नारद ऋिष, अनुष्टुप छन्त्द तथा सुतप्रद श्रीकृ ष्नदेवता कहे गये हैं । श्लोक के चार पादों में तथा संपूणग श्लोकों से
पञ्चाङ्गन्त्यास करना चािहए ॥११३॥

िवमिग - िविनयोग - ॎ अस्य सन्त्तानप्रदमन्त्त्रस्य नारऋिषरनुष्टुप्छन्त्देः सुतप्रद श्रीकृ ष्णपरमात्मादेवताऽऽत्मनोऽभीष्टिसियथे


जपे िविनयोगेः ।
पञ्चाङ्गन्त्यास - देवकीसुत गोिवन्त्द हृदयाय नमेः,
वासुदव
े जगत्पते ििरसे स्वाहा, देिह मे तनयं कृ ष्ण ििखायै वषट्
त्वामहं िरणं गतेः कवचाय हुम्, देवकीसुत गोिवन्त्द वासुदव
े जगत्पते ।
देिह मे तनयं त्वामह्म िरणं गतेः अस्त्राय िट् ॥११३॥

अजुगन के साथ रथ पर बैठे हुये, हठात् समुर में प्रिवष्ट हो कर वहाूँ से ब्राह्मण पुत्र को ला कर, उसके िपता को समर्णपत करते
हुये भगवान् वासुदव
े का ध्यान करना चािहए ॥११४॥

इस मन्त्त्र का एक लाख जप करे । फिर मधु, घी, और िकग रा िमिश्रत ितलों से १० हजार की संख्या में होम करे । इस मन्त्त्र के
जप में भी पूवग प्रितपाफदत िविध से भगवान् का पूजन करना चािहए । ऐसा करने से यह मन्त्त्र मनुष्यों को पुत्र प्रदान करता है
॥११५॥

अब िवषनािक गरुड मन्त्त्र का उिार कहते हैं - माधवारुढ नृतसह (िक्ष), फिर लोिहत (प), फिर िनगमाफद (ॎ), फिर अन्त्त में
कृ षानुभायाग (स्वाहा) लगाने से िवष नािक मन्त्त्र बनता है ॥११६॥

िवमिग - मन्त्त्र का स्वरुप इस प्रकार है - िक्षप ॎ स्वाहा (५) ॥११६॥

उक्त मन्त्त्र के अनन्त्त ऋिष, पंिक्त छन्त्द तथा पक्षीन्त्र गरुड देवता कहे गये हैं । तार (ॎ) बीज तथा विहनिप्रया (स्वाहा) यह
ििक्त कही गई है ॥११७॥

िवमिग - िविनयोग - अस्य गरुडमन्त्त्रस्य अनन ऋिषेः पंिक्तच्छन्त्देः पक्षीन्त्रो गरुड देवतात्मनोऽभीष्टिसियथे जपे िविनयोगेः
॥११७॥

अब इस मन्त्त्र का षडङ्गन्त्यास कहते हैं - ‘ज्वल ज्वल महामित स्वाहा’ यह हृदय का मन्त्त्र है । ‘गरुड’ के बाद ‘चूडानन’ एवं
िुिचिप्रया (स्वाहा) यह ििर का मन्त्त्र है । ‘गरुड’ के बाद ‘ििखे स्वाहा’ यह ििखा का मन्त्त्र है । ‘गरुड’ कहकर दो बार
‘प्रभञ्जय’, दो बार ‘प्रभेदय’ फिर दो - दो बार ‘िवत्रासय’ एवं ‘िवमदगय’, और फिर ‘स्वाहा’ यह कवच का मन्त्त्र है । ‘उग्ररुपधर’
के बाद ‘सवग’ िवषहर’, दो बार ‘भीषय’ फिर ‘सवग दहदह’ भस्मी कु रुकु रु’ तथा ‘स्वाहा’ - यह नेत्र मन्त्त्र कहा गया है ।
‘अप्रितहत पद के बाद बलाप्रितहत’ फिर ‘िासन’ एवं ‘हुम् िट् स्वाहा’ यह अस्त्र मन्त्त्र बतलाया गया है ॥११८-१२२॥

िवमिग - ज्वलज्वलमहामित स्वाहा हृदयाय नमेः, गरुड चूडानन स्वाहा ििरसे स्वाहा, गरुड ििखे स्वाहा ििखायै वषट् , गरुड
प्रभञ्जय प्रभञ्जय प्रभेदय प्रभेदय िवत्रासय िवत्रासय िवमगदय िवमदगय स्वाहा कवचाय हुम्, उग्ररुपधर सवग िवषहर भीषय
भीषय सवं दह दह भस्मी कु रु कु रु स्वाहा नेत्रत्रयाय वौषट् , अप्रितहत बलाप्रितहतिासन हुं िट् स्वाहा अस्त्राय िट् ॥११८-
१२३॥

पैर, करटप्रदेि, हृदय, मुख एवं ििर में मन्त्त्र के प्रत्येक वणो का न्त्यास करना चािहए ॥१२३॥

िवमिग - यथा - ॎ तक्ष नमेः पादयोेः ॎ पं नमेः कटयां, ॎ ॎ नमेः हृफद ॎ स्वां नमेः मुखे ॎ हां नमेः मूर्णि ॥१२३॥

अब उक्त मन्त्त्र का ध्यान कहते हैं - िजनके श्री अङ्गों की कािन्त्त तपाये गये सुवणग के सदृष जगमगा रही हैं, िजनके अङ्ग,
प्रत्यङ्ग सपग के के आभूषणों से व्याप्त हैं, जो स्मरण मात्र से मनुष्यों के िवष को िीघ्र हर लेते हैं तथा िजनके चोंच के अग्रभाग
में चञ्ज्चल सपग और हाथों में अभय एवं वर मुरा िवराज रही है । इस प्रकार के गरुड का जो अपने पंखो से सामवेद का गान
कर रहे हैं मैं ध्यान करता हूँ ॥१२४॥

इस मन्त्त्र का पाूँच लाख जप करना चािहए । फिर ितलों से दिांि होम करना चािहए । मातृका पद्म पर वेदमूर्णत गरुड का
पूजन करना चािहए । ‘पिक्षराजाय स्वाहा’ यह पिक्षराज पीठ मन्त्त्र है ॥१२५-१२६॥

कर्णणका के मध्य में अङ्ग पूजन, दलों पर आठ नागों का पूजन करे । १. अनन्त्त, २. वासुफक, ३. तक्षक, ४. ककोटक, ५. पद्म,
६. महापद्म, ७. िंखपाल एवं ८. कु िलक - ये आठ नागों के नाम हैं । फिर फदलपालों एवं उनके आयुधोम का पूजन करना
चािहए । इस प्रकार की अनुष्ठानिसिि से साधक स्थावर एवं जङ्गम दोनों प्रकार के िवषों को नष्ट कर देता है ॥१२६-१२८॥

िवमिग - आवरण पूजा िविध - सवग प्रथम कर्णणका के मध्य में षडङ्गपूजा यथा - ज्वलज्वलमहामितस्वाहा हृदयाय नमेः,
गरुडचूडान्न स्वाहा ििरसे स्वाहा गरुड ििखे स्वाहा, ििखायै वषट् , गरुड प्रभञ्जय कवचाय हुम् उग्ररुपधर सवगिवषहर,
नेत्रत्रयाय वौषट् अप्रितहत बलाप्रितहत ० अस्त्राय िट ।

इसके बाद अष्टदल में पूवागफद िम से अष्ट नागों के नाम मन्त्त्र से यथा -
ॎ अनन्त्ताय नमेः पूवगदले, ॎ वासुकाये नमेः आिेय दले,
ॎ तक्षकाय नमेः, दिक्षणदले, ॎ ककोटकाय नमेः नैऋत्यद्ले,
ॎ पद्माय नमेः पिश्चम दले, ॎ महापद्माय नमेः वायव्यदले,
ॎ पालाय नमेः उत्तर दले ॎ कु िलकाय नमेः ईिान दले ।

इसके बाद भूपुर में दिो फदिाओं में इन्त्राफद फदलपालों की तथा उसके बाहर उनके वज्राफद आयुधों की पूजा करनी चािहए
॥१२६-१२८॥

जो व्यिक्त िवष्णुभिक्त में सदैव तत्पर हो कर पिक्षराज गरुड की उपासना करता है वह सब ित्रुओं को परास्त कर सुख भोग
समिन्त्वत सौ वषो तक भूपितयों से सेिवत हो कर जीिवत रहता है । फिर मरने के बाद िवष्णु सायुज्य प्राप्त करता है ॥१३०-
१२९॥

पञ्चदि तरङ्ग
अररत्र
अब रोग एवं दारररता को नष्ट करने वाले रिव मन्त्त्र को कहता हूँ -
प्रणव (ॎ), भुवनेश्वरी (ह्रीं), रे िचका सिहत मेधा (घृ), अिक्ष सिहत सगी उमाकान्त्त (िणेः), फिर ‘सूयग आफदत्येः’ पद, इसके
अन्त्त एं इिन्त्दरा (श्रीं), लगाने से दि अक्षरों का दारररय नािक मन्त्त्र िनष्पन्न होता है ॥१-२॥

इस मन्त्त्र के भृगु ऋिष हैं, गायत्री छन्त्द तथा सूयग देवता कहे गये हैं । माया (ह्रीं) बीज है, रमा (श्रीं) ििक्त हैं । अभीष्टिसिि हेतु
इसका िविनयोग फकया जाता है ॥२-३॥

िवमिग - दारररय नािक मन्त्त्र का स्वरुप इस प्रकार है - ॎ ह्रीं घृिणेः पूयग आफदत्येः श्रीं (१०) ।
िविनयोग - अस्य श्रीसूयगमन्त्त्रस्य भूगृऋिषेः गायत्रीछन्त्देः भगवान् फदवाकरो देवता ह्रीं बीजं श्री ििक्तरात्मनोऽभीष्टिसियथे
जपे िविनयोगेः ॥२-३॥

(१) अब षडङ्गन्त्यास कहते हैं - सत्य से हृदय, ब्रह्मा से ििर, िवष्णु से ििखा, रुर से कवच, अिि से नेत्र तथा सवग से
अस्त्रन्त्यास करना चािहए । अङ्गन्त्यास में कहे गये सभी मन्त्त्रों के अन्त्त में ‘तेजोज्वालामणे’ हुं िट् स्वाहा’ इतना और जोड देना
चािहए ॥४-५॥

िवमिग - षडङ्गन्त्यास िविध -


सत्यतेजोज्वालामणे हुं िट् स्वाहा हृदयाय नमेः,
ब्रह्मातेजोज्वालामणे हुं िट् स्वाहा ििरसे स्वाहा,
िवष्णुतेजोज्वालामणे हुं िट् स्वाहा ििखायै वषट् ,
रुरतेजोज्वालामणे हुं िट् स्वाहा कवचाय हुम्,
अिितेजोज्वालामणे हुं िट् स्वाहा नेत्रत्रयाय वौषट् ,
सवगतेजोज्वालामणे हुं िट् स्वाहा अस्त्राय िट् ॥४॥

(२) अब अष्टाङ्गन्त्यास कहते हैं - इसके बाद िमिेः ििवा (ह्रीं) तथा श्री (श्रीं) के बीच में मन्त्त्र के ७ वणों में एक एक को
रखकर पुनेः षडङ्गन्त्यास करना चािहए । िेष वणों से पुनेः उसी प्रकार उदर और पृष्ठ में चतुथ्व्यगन्त्त ‘नमेः’ लगाकर उदर पृष्ठ में
न्त्यास करना चािहए ॥५-६॥

िवमिग - अष्टाङ्गन्त्यास िविध - ह्रीं ॎ श्रीं हृदयाय नमेः,


ह्रीं घृं श्रीं ििरसे स्वाहा, ह्रीं ॎ श्रीं हृदयाय नमेः,
ह्रीं सूं श्रीं कवचाय हुम्, ह्रीं तण श्रीं ििखायै वषट् ,
ह्रीं आं श्रीं अस्त्राय िट्, ह्रीं कद श्रीं उदराय नमेः उदरे ,
ह्रीं त्यं श्रीं पृष्ठाय नमेः पृष्ठे ॥५॥

(३) अब पञ्चमूर्णतन्त्यास कहते हैं - आफदत्य, रिव, भानु, भास्कर एवं सूयग के नाम के आगे चतुथ्व्यगन्त्त तथा नमेः लगाकर तथा
आफद में प्रणवयुक्त िवलोमिम से पञ्च ह्रस्व (लृ ऋं उं इं अं) लगाकर, िमिेः ििर, मुख, हृदय, िलङ्ग, एवं पैरों में न्त्यास करे
॥६-७॥

िवमिग - पञ्चमूर्णतन्त्यास - ॎ लृं आफदत्याय नमेः ििरिस,


ॎ ऋं रवये नमेः मुखे, ॎ उं भानवे नमेः हृफद,
ॎ इं भास्कराय नमेः िलङ्गे ॎ अं सूयागय नमेः पादयोेः ॥६-७॥

(४) अब वणगन्त्यास कहते हैं - माया (ह्रीं) और रमा (श्रीं) के मध्य में उक्त मन्त्त्र के आठो वणों को एक एक के िम से स्थािपत
कर अन्त्त मे नमेः लगाकर ििर, मुख, कण्ठ, हृदय, कु िक्ष, नािभ, जंघा एवं पैरों में इस प्रकार न्त्यास करना चािहए ॥८॥

िवमिग - वणगन्त्यास की िविध -


ॎ ह्रें श्रीं नमेः मूर्णि, ॎ ह्रीं घृं श्रीं नमेः मुख,े
ॎ ह्रीं तण श्रीं नमेः कण्ठे , ॎ ह्रीं सूं श्री नमेः हृफद
ॎ ह्रीं यग नमेः कु क्षौ, ॎ ह्रीं आं श्रीं नमेः नाभौ
ॎ ह्रीं कद श्री नमेः जंघ्यो ॎ ह्रीं त्यं श्रीं नमेः पादयोेः ॥८॥

(५) अब मण्डन्त्यास कहते हैं - चन्त्रमा का स्मरण करते हुये सानुस्वार षोडिस्वरों का उिारण कर नमेः िब्दान्त्त चतुथ्व्यगन्त्त
सोममण्डल का ििखा से कण्ठ पयगन्त्त न्त्यास करना चािहए ॥९॥

इसके बाद सूयग का ध्यान करते हुये सानुस्वार २५ व्यञ्जनों का उिारण कर ‘नमेः’ िब्द’ िब्द में चतुथ्व्यगन्त्त सूयगमण्डल का कण्ठ
से नािभपयगन्त्त न्त्यास करना चािहए ॥१०॥
पुनेः अिि का स्मरण करते हुये सानुस्वार यकाराफद १० व्यञ्जन वणों का उिारण करते हुये नमेः िब्दान्त्त चतुथ्व्यगन्त्त
विहनण्डल का नािभ से पैर पयगन्त्त न्त्यास करना चािहए । इस प्रकार से फकया गया मण्डत्रयन्त्यास तेजोविगक बताया गया है
॥११-१२॥

िवमिग-मण्डलन्त्यास िविध - अं आं ....अेः सोममण्डलाय नमेः ििखाफद कण्ठान्त्तम्,


कं खं ....... मं सूयगमण्डलाय नमेः कण्ठाफद नाभ्यन्त्तम्,
यं रं ..... क्षं विहनमण्डलाय नमेः नाभ्याफद पादान्त्तम ॥११-१२॥

(६) अब अिीषोमात्मक न्त्यास कहते हैं - सानुस्वार अकराफद ठान्त्त समुदायात्मक वणो के साथ नमेः िब्दान्त्त चतुथ्व्यगन्त्त सोम
मण्डल का ििर से पैर पयगन्त्त न्त्यास करना चािहए । डकाराफद क्षान्त्त सानुस्वार व्यञ्जन वणों को प्रारम्भ में लगाकर नमेः
िब्दान्त्त चतुथगन्त्त विहनमडल का हृदय स पैर तक न्त्यास करना चािहए । इस प्रकार फकया गया अिीषोमात्मक न्त्यास
सवगिसििप्रद माना गया है ॥१२-१४॥

िवमिग - न्त्यास िविध - अं आं इं ...टं ठं सोममण्डलाय नमेः मूधागफद पादान्त्तम् डं ढं णं ...क्षं विहनमण्डलाय नमेः हृदयाफद
पादान्त्तम् ॥१३-१४॥

(७) अब हंसन्त्यास कहते हैं - स िबन्त्द ु (सानुस्वार), मातृका वणग, फिर अजपा (हंस), पुरुषात्मने और अन्त्त में नमेः लगाकर
व्यापक न्त्यास करना चािहए । इसे हंसन्त्यास कहा गया है ॥१५॥

िवमिग - यथा अं आं ई ... क्षं हंस पुरुषात्मने नमेः इित सवागङ्गे ॥१५॥

(८) अब ग्रहन्त्यास कहते हैं, आठ आठ स्वरों से दो ग्रह, पाूँच वणों से ५ ग्रह तथा िेष ४, ४ वणों से २ ग्रहों का भगवते
नमोन्त्त मन्त्त्रों से िमिेः आधार, िलङ्ग, नािभ, हृदय कण्ठ, मुख, भ्रूमध्य ललाट एवं ब्रह्मरं र मे न्त्यास करना चािहए ॥१६-
१८॥

िवमिग - ग्रहन्त्यास िविध - अं आं .... ऋं आफदत्याय भगवते नमेः आधारे ,


लृं लृं ... अेः सोमाय भगवते नमेः िलङ्गे,
कं खं गं घं डं अंगारकाय नमेः नाभौ,
चं छं जं झं नं बुधाय भगवते नमेः हृफद,
टं ठं डं ढं णं बृहस्पतये भगवते नमेः कण्ठे ,
तं थं दं धं नं िुिाय भगवते नमेः मुखमध्ये,
पं िं बं भं मं िनैश्चराय भगवते नमेः, भूमध्ये,
यं रं लं वं राहवे भगवते नमेः भाले,
िं षं सं हं के तवे भगवते नमेः ब्रह्मरन्त्रे ॥१६-१८॥

इसके बाद पुनेः हंसन्त्यास, अिीषोमात्मकन्त्यास तथा मण्डलन्त्यास करके मूलमन्त्त्र से व्यापक न्त्यास करना चािहए ॥१८॥

अब ध्यान कहते हैं - रक्त वणग के कमल पर आसीन, ित्रनेत्र, वेदत्रयमूर्णत अपने चारों हाथो में िमिेः दान, कमल, पद्म एवं
अभय धारण करन एवं अभय धारण करन वाले, प्रवाल जैसी कािन्त्त से युक्त, के यूर, अङ्गद, हार, और कं कण धारण फकए
हुये, कानों में कु ण्डल से उल्लिसत सारे जगत् के उत्पित्त, िस्थित, तथा पालन कताग गुणागार भगवान् सूयग की उपासना करता
हूँ ॥१९॥

उक्त प्रकार का ध्यान करते हुये दि लाख जप करना चािहए । कमल अथवा ितलों से दिांि हवन करना चािहए । तदनन्त्तर
दिांि तपगण कर ब्राह्मण भोजन कराना चािहए ॥२०॥

पीठ पूजा करते समय धमागफद अष्टक के स्थान पर, कोणो में प्रभृत, िवमल सार एवं समाराध्य का, तथा मध्य में परममुख -
इन पाूँच का पूजन करना चािहए ॥२१॥

फिर पूवोक्त (१ तरं ग) िविध से अनन्त्ताफद का पूजन करना चािहए । फिर सोमििमण्डल की अचगना कर रिवमण्डल की अचगना
करे । तदनन्त्तर आठो फदिाओं में तथा मध्ये में १. दीप्ता, २. सूक्ष्मा, ३. जया, ४. भरा, ५. िवभूित, ६. िवमला, ७. अमोघा,
८. िवद्युता तथा ९. सवगतोमुखी इन ९ पीठ ििक्तयों का पूजन करे ॥२२-२४॥

ह्रस्वत्रय (अ इ उ) तथा ललीव (ऋ ऋ लृ लृ) स्वरों को छोडकर िेष स्वरों को अनुस्वार तथा विहन (र) से युक्त करने पर इन
ििक्तयों के (रां रीं रं रें रैं म रों रौं रं रेः ) बीज मन्त्त्र बन जाते हैं । इन्त्हें प्रारम्भ में लगाकर उनका पूजन करना चािहए ॥२४-
२५॥

‘ब्रह्मिवष्णुििवात्म’ के बाद ‘काय सौराय यो’, फिर स्मृित ‘ग’ पीठात्मने नमेः, इसके प्रारम्भ में तार (ॎ) लगाने से सूयग का
पीठ मन्त्त्र बन
जाता है ॥२५-२६॥

तार (ॎ), सेन्त्द ु िवयत् (हं), िबन्त्द ु सिहत कान्त्त (खं), िबन्त्द ु रिहत कान्त्ता (ख), फिर ‘खोल्काय’ फिर हृदय (नमेः) इस नवाणग
मन्त्त्र से सूयग मूर्णत की कल्पना कर लेनी चािहए । तदनन्त्तर भगवान् सूयग का पूजन करना चािहए ॥२६-२७॥

िवमिग - सूयग पीठ पूजा िविध - सवगप्रथम १५. १९ में वर्णणत सूयग के स्वरुप का ध्यान कर मानसोपचार से पूजन कर ताम्रपात्र
में अघ्नयग स्थािपत करे । फिर िविधवत् गुरुपंिक्तत का पूजन कर वृत्ताकार कर्णणका, अष्टदल, और भूपुर सिहत यन्त्त्र िलखे ।
तदनन्त्तर नाम मन्त्त्रों से पीठ देवताओं का इस प्रकार पूजन करे । यथा -
प्रथम पीठ मध्ये-
ॎ मं मण्डू काय नमेः, ॎ कं कालाििरुराय नमेः ॎ आधारिक्तये नमेः,
ॎ प्रकृ त्यै नमेः, ॎ कू मागय नमेः, ॎ िेषाय नमेः,
ॎ पृिथव्यै नमेः ॎ क्षीरसमुराय नमेः, ॎ श्वेतद्वीपाय नमेः,
ॎ मिणमण्डपाय नमेः, ॎ कल्पवृक्षाय नमेः, ॎ मिणवेफदकायै नमेः,
ॎ रत्नतसहासनाय नमेः,

फिर आिेयाफद कोणों में तथा मध्य में प्रभूत आफद की यथा -
प्रभूताय नमेः आिेय,े िवमलाय नमेः नैऋत्ये, साराय नमेः वायव्ये
समाराध्याय नमेः, ऐिान्त्ये परमसुखाय नमेः मध्ये,

पुनेः पीठ के मध्य में अनन्त्ताफद नाम मन्त्त्रों से यथा -


ॎ अनन्त्ताय नमेः, ॎ पद्माय नमेः आनन्त्दकन्त्दाय नमेः,
ॎ संिवन्नालाय नमेः, ॎ पञ्चादिद्वनग कर्णणकायै नमेः, ॎ प्रकृ त्यात्मकपत्रेभ्यो नमेः,
ॎ पञ्चादिद्वणग कर्णणकायै नमेः

पुनस्तत्रैव - ॎ उं षोडिकलात्मने सोममण्डलाय नमेः,


ॎ रं दिकलात्मनेेः सोममण्डलाय नमेः,
ॎ अं द्वादिकलात्मने सूयगमण्डलाय नमेः

इसके बाद के िरों में तथा मध्य में पूवागफद फदिाओं के िम से नवं ििक्तयों की यथा - रां दीप्तायै नमेः, रीं सूक्ष्मायै नमेः, रुं
जयायै नमेः
रें भरायै नमेः, रैं िवभूत्यै नमेः रों िवमलायै नमेः,
रौं अमोघायै नमेः रं िवद्युतायै नमेः रेः सवगतोमुख्यै नमेः (मध्ये)

फिर ‘ब्रह्मिवष्णुििवात्मकाय सौराय योगपीठात्मने नमेः’ मन्त्त्र से सूयग की आसन देकर ‘ॎ हं खं खखोल्काय नमेः’ इस मन्त्त्र से
मूर्णत की कल्पना कर उसी में िविधवत् आवाहनाफद उपचारों से जगत्पित सूयग की पूजा करनी चािहए । तदनन्त्तर उनकी आज्ञा
लेकर आवरण पूजा प्रारम्भ करनी चािहए ॥२१-२७।

अब आवरण पूजा कहते हैं - पूवोक्त िविध से के िरों में (र ० १५. ४) षडङ्गपूजा कर फदिाओं में अष्टाङ्ग (र० १५.५) पूजन
करे । आफद में प्रणव, सद्य (लृ), आफद पञ्च ह्रस्व लगाकर आफदत्य का मध्य में, तदनन्त्तर रिव भानु, भास्कर, और सूयग का
पूवागफद फदिाओं मे पूजन करे ॥२८-२९॥

तदनन्त्तर िवफदिाओं (कोणों) में अपने आद्य वणग सिहत उषा, प्रज्ञा, प्रभा, और संध्या का पूजन करे । तदनन्त्तर पूवागफद फदिाओं
के दलों पर ब्राह्यी आफद अष्ट मातृकाओं की पूजा करे । के वल महालक्ष्मी के स्थान पर अरुण की पूजा करे । पुनेः फदिाओं में
सोम, बुध, गुरु और िुि का तथा कोणों में मङ्गल, ििन, राहु और के तु का पूजन करना चािहए । फिर आयुध सिहत इन्त्राफद
फदलपालों का तथा रिव के पाषगदों का पूजन करना चािहए ॥२९-३१॥

िवमिग - संक्षेप में आवरण पूजा िविध - सवगप्रथम के िरों के आिेयाफद कोणों में, मध्यम में, तथा चारों फदिाओं में षडङगपूजा
करे । यथा -
ॎ सत्यतेजोज्वालामणे हुं िट् स्वाहा हृदयाय नमेः,
ॎ ब्रह्मतेजोज्वालांमणे हुं िट् स्वाहा ििरसे स्वाहा,
ॎ िवष्णुतेजोज्वालामणे हुं िट् स्वाहा ििखायै वषट् ,
ॎ रुरतेजोज्वालामणे हुं िट् स्वाहा कवचाय हुम्
ॎ अिितेजोज्वालामणे हुं िट् स्वाहा नेत्रत्रयाय वौषट,
ॎ सवगतेजोज्वालामणे हुं िट् स्वाहा अस्त्राय िट,

इसके बाद पूवागफद फदिाओं में अनुलोम िम से अष्टाङ्गपूजा यथा -


ह्रीं ॎ श्रीं हृदयाय नमेः, ह्रीं घृं श्रीं ििरसे स्वाहा,
ह्रीं तण श्रीं ििखायै वषट् , ह्रीं सूं श्रीं कवचाय हुम्,
ह्रीं यं श्रीं नेत्रत्रयाय वौषट्, ह्रीं आं श्रीं अस्त्राय िट्,
ह्रीं कद श्रीं उदराय नमेः उदरे , ह्रीं त्यं श्रीं पृष्ठाय नमेः पृष्ठ,े
तत्पश्चात् मध्य में आफदत्य का, पूवागफद चारोम फदिाओं के दलों में रिव आफद का तथा आिेयाफद कोणों के दलों में उषा आफद
का - यथा -
ॎ लृं आफदत्याय नमेः मध्ये, ॎ ऋ रवये नमेः पूवगदले,
ॎ उं भानवे नमेः दिक्षणदले, ॎ इं भास्कराय नमेः पिश्चमदले,
ॎ अं सूयागय नमेः उत्तरदले, ॎ उं उषायै नमेः आिेयदले,
ॎ प्रं प्रज्ञायै नमेः नैऋत्यदले, ॎ प्रं प्रभायै नमेः वायव्यदले,
ॎ सं सन्त्ध्यायै नमेः ईिानदले ।

फिर अष्टदल के अग्रभाग में पूवागफद फदिाओं के अनुलोम िम से ब्राह्यी आफद का यथा -
ॎ ब्राह्ययै नमेः, ॎ माहेश्वयै नमेः,
ॎ कौमायै नमेः, ॎ वैष्णव्यै नमेः ॎ वाराह्यै नमेः,
ॎ इन्त्राण्यै नमेः, ॎ चामुण्डायै नमेः, ॎ अरुणाय नमेः

तत्पश्चात मण्डल के बाहर पूवागफद फदिाओं में सोमाफद चार ग्रहो का तथा आिेयाफद चार कोणो में अङ्गाकाफद ग्रहों का यथा -
ॎ सों सोमाय नमेः पूवे, ॎ बुं बुधाय नमेः दिक्षणे,
ॎ गुं गुरवे नमेः पिश्चमे, ॎ िुं िुिाय नमेः उत्तरे ,
ॎ अं अङ्गारकाय नमेः आिेये, ॎ िं िनये नमेः नैऋत्ये,
ॎ रां राहवे नमेः वायव्ये, ॎ कें के तवे नमेः ऐिान्त्ये,

तदनन्त्तर भूपुर में अपनी अपनी फदिाओं में इन्त्राफद दि फदलपालों का


ॎ लं इन्त्राय नमेः, ॎ रं अिये नमेः, ॎ मं यमाय नमेः,
ॎ क्षं िनऋतये नमेः ॎ वं वरुणाय नमेः ॎ यं वायवे नमेः
ॎ सं सोमाय नमेः ॎ हं ईिानाय नमेः, ॎ आं ब्राह्मणे नमेः,
ॎ ह्रीं अनन्त्ताय नमेः, पुनेः रिवपाषगदभ्े यो नमेः

फिर भूपुर के बाहर बज्राफद आयुधों का - ॎ वं वज्राय नमेः,


ॎ िं िक्तये नमेः, ॎ दं दण्डाय नमेः, ॎ वं वज्राय नमेः,
ॎ पां पािाय नमेः, ॎ अं अंकुिाय नमेः, ॎ गं गदायै नमेः,
ॎ िूं िूलाय नमेः, ॎ पं पद्माय नमेः, ॎ चं चिाय नमेः,

इस प्रकार आवरण पूजन कर धूप दीप आफद उपचारों से भगवान् सूयग का पूजन करे ॥२८-३१॥

इस प्रकार मन्त्त्र िसि हो जाने पर साधक को उस फदन भगवान् भास्कर के िलए अघ्नयग प्रदान करना चािहए । उसकी िविध इस
प्रकार हैं - प्राणायाम षडङ्गन्त्यास तथा पूवोक्त अन्त्य सभी न्त्यास कर साधक को अपने मण्डल में भगवान् सूयग का
मानसोपचारों से पूजन करना चािहए ॥३२-३३॥

प्रथम सुन्त्दर ताूँबे का पात्र, िजसमें लगभग १ प्रस्थ (६४ तोला) जल अूँट सके , उस मनोहर पात्र को रक्त चन्त्दन से िवभूिषत
कर मण्डल में स्थािपत करना चािहए । फिर िवलोम िम से मातृकाओम तथा िवलोम ि से मूल मन्त्त्र को पढते हुये जल में
रिव मण्डल से िनकलते हुई अमृत धारा की भावना कर उस ताम्र पात्र में उस जल को भर देना चािहए ॥३३-३५॥

फिर मूल मन्त्त्र पढते हुये उसमें १. ितल, २. तण्डु ल. ३. कु िाग्रभाग, ४. िािल (साठी धान), ५. श्यामाक, ६. राई, ७. लाल
कनेर का पुष्प, ८. लालचन्त्दन, ९. श्वेत चन्त्दन, १०. गोरोचन, ११. कुं कु म, १२. जौ और १३. वेणुजव ये १३ वस्तुयें छोडनी
चािहए ॥३५-३७॥

फिर उसे जल में पीठ पूजा (र० १५. २११-२७) कर अपने मण्डल से उसमें बाह्य सूयग का आवाहन कर समस्त उपचारों से
उनका पूजन करना चािहए । तदनन्त्तर ३ बार प्राणायाम कर षडङ्गन्त्यास करे ॥३७-३८॥

चन्त्दन से सुधाबीज (वं) का दािहने हाथ पर न्त्यास करे । बायें हाथ में अघ्नयगपात्र लेकर दािहने से उसे ढंक कर १०९ बार
मूलमन्त्त्र से उस जल को अिभमिन्त्त्रत कर पुनेः मूलमन्त्त्र से पञ्चोपचार पूजन करे ॥३९-४०॥

फिर अघ्नयग पात्र को दोनो हाथों में लेकर घुटनों के बल पृथ्व्वी पर बैठ कर पात्र का ििर पयगन्त्त ऊूँचा उठाकर रिवमण्डल में
अपनी दुिष्ट लगाकर आवरण सिहत सूयग का ध्यान कर मानसोपचारों से सूयग का पूजन करे ॥४१-४२॥

फिर रक्त चन्त्दन से िवभूिषत मण्डल में सूयग नारायण को अघ्नयग प्रदा बैठकर एक सौ आठ मूल का जप करे ॥४२-४३॥

प्रितफदन प्रातेः काल के समय जो व्यिक्त इस िविध से सूयग नारायण को अघ्नयग देता है वह लक्ष्मी, यि, पुत्र, िवद्या, और ऐश्वयग
से पूणग हो जाता है ॥४४॥

गायत्री की िनरन्त्तर उपासना करने वाला, सन्त्ध्यावन्त्दन में तत्पर और इस दिाक्षर मन्त्त्र का जप करने वाला ब्राह्मण कभी
दुेःखी नहीं होता ॥४५॥

अब पुत्र और धनदायक मङ्गल के मन्त्त्र का उिार कहता हूँ -


तार (ॎ), दीघग िबन्त्द ु सिहत िवयत् (हां), फिर चन्त्रांफकत िवयत् (हं), िवसगी भृगु (स), फिर रात्रीि और िवसगग सिहत दो
चण्डीि (ख), अथागत खं खेः यह ६ अक्षरों वाला अभीष्टिलदायक तथा ऋणनािक मङगल का मन्त्त्र कहा गया है - िवमिग -
मन्त्त्र का स्वरुप ॎ हां हंसेः खं खेः ॥४६-४७॥

इस मन्त्त्र के िवरुपा मुिन हैं, गायत्री छन्त्द है तथा धरात्मज (मङ्गल) देवता हैं । साधक को मन्त्त्र के ६ वणों से िमिेः एक एक
द्वारा षडङ्गन्त्यास करना चािहए ॥४९॥

िवमिग - िविनयोग िविध - अस्य श्रीमङ्गलमन्त्त्रस्य िवरुपाऋिषगागयत्रीच्छन्त्देः धरात्मजो मङ्गलदेवताऽऽत्मनोऽभीष्टिसद्ध्यथे


जपे िविनयोगेः ।

षडङ्गन्त्यास - ॎ हृदयाय नमेः, हां ििरसे स्वाहा, हं ििखायै वषट् ,


अब इस मन्त्त्र का ध्यान कहते हैं - ििव के स्वेद से उत्पन्न िजन मङ्गल के िरीर की कािन्त्त जपा कु सुम के समान है, जो अपने
चारों हस्तकमलों में िमिेः गदा, िूल, ििक्त और वरमुरा धारन फकए हुये हैं, अविन्त्तका देि में उत्पन्न मनोहर मेष पर सवार,
रक्त वस्त्र पहने हुये, ऐसे भूिमपुत्र मङ्गल की मैं वन्त्दना करता हूँ ॥४९॥
उक्त मन्त्त्र का ६ लाख जप करना चािहए तथा खैर की लकडी से उसका दिांि होम करना चािहए । िैव-पीठ पर भौम की
पूजा करनी चािहए और सवगप्रथम अङ्गपूजा करनी चािहए ॥५०॥

तदन्त्तर २१ कोष्ठों में बने यन्त्त्र पर मङ्गल के िभन्न िभन्न नामों से पूजा करनी चािहए । फिर उसके बाहर इन्त्राफद दि
फदलपालों की तथा उनके बज्राफद आयुधों की पूजा करनी चािहए । इस प्रकार से मन्त्त्र िसि कर अपने काम्य प्रयोगों में इसका
उपयोग करना चािहए ॥५१-५२॥

िवमिग - पीठ पूजा िविध - साधक को २१ कोष्ठात्मक ित्रकोण और उसके भूपुर का िनमागण करना चािहए । उसी पर मङ्गल
का पूजन करना चािहए । श्लोक १५. ४९ में वर्णणत मङ्गल के स्वरुप का ध्यान कर, मानसोपचार से पूजन कर, िविधवत्
अघ्नयग स्थािपत करे । फिर ‘आधारिक्तये नमेः’ से ‘ह्रीं ज्ञानात्मने नमेः’ पयगन्त्त सामान्त्य पीठ पूजा के मन्त्त्रों से पीठ देवतओं का
पूजन करे । फिर पूवाफद आठ फदिाओं में तथा मध्य में वामाफद ९ ििक्तयों का इस प्रकार पूजन करे -
ॎ वामायै नमेः पूवे ॎ ज्येष्ठायै नमेः आिेय,े
ॎ रौरयै नमेः दिक्षणे ॎ काल्यै नमेः नैऋत्ये,
ॎ कलिवकरण्यै नमेः पिश्चमे ॎ बलिवकरण्यै नमेः वायव्ये
ॎ बलप्रमिथन्त्यै नमेः उत्तरे , ॎ सवगभूतदमन्त्यै नमेः ऐिान्त्ये,
ॎ मनोन्त्मन्त्यै नमेः मध्ये (र० १६. २२-२४) ।

फिर ‘ॎ नमो भगवते सकलगुणात्मििक्तयुक्तानन्त्ताय योगपीठात्मने नमेः’ (र० १६. २५) इस मन्त्त्र से मन्त्त्र पर आसन देकर,
मूल मन्त्त्र से मूर्णत की कल्पना कर, ध्यान आफद उपचारों से पुष्पाञ्जिल समपगण पयगन्त्त िविधवत् मङ्गल देवता का पूजन करचा
चािहए । इसके बाद आवरण की अनुज्ञा ले आवरण पूजा प्रारम्भ करनी चािहए ।

आवरण पूजा - प्रथम आिेयाफद कोणों में मध्य में तथा चारों फदिाओं में यथा -
ॎ हृदयाय नमेः, आिेय,े हां ििरसे स्वाहा, नैऋत्ये,
हं ििखायै वषट् , वायव्ये, सेः कवचाय हुं, ऐिान्त्ये
खं नेत्रत्रयाय वौषट् , मध्ये, खेः अस्त्राय िट् , चतुर्ददक्षु ।

इसके बाद ित्रकोणान्त्तगगत २१ कोष्ठकों में मङ्गल के नाम मन्त्त्रों से यथा -


ॎ मङ्गलाय नमेः ॎ भूिमपुत्राय नमेः, ॎ ऋणहत्रे नमेः,
ॎ धनप्रदाय नमेः, ॎ िस्थरासनाय नमेः, ॎ महाकायाय नमेः,
ॎ सवगकमागवरोधकाय नमेः ॎ लोिहताय नमेः ॎ लोिहताक्षाय नमेः,
ॎ सामगानां कृ पाकराय नमेः ॎ धरात्मजाय नमेः, ॎ कु जाय नमेः,
ॎ भौमाय नमेः, ॎ भूितदाय नमेः, ॎ भूिमनन्त्दनाय नमेः,
ॎ अङ्गारकाय नमेः, ॎ यमाय नमेः ॎ सवगरोगोपहारकाय नमेः,
ॎ वृिष्टकत्रे नमेः, ॎ विष्टहत्रे नमेः, ॎ सवगकामिलप्रदाय नमेः,

फिर ित्रकोण के बाहर भूपुर में इन्त्राफद दि फदलपालों की तथा उसके बाहर उनके बज्राफद आयुधोम की पूजा करना चािहए ।
इस प्रकार धूप, दीप आफद उपचारों से मङ्गल का पूजन सम्पन्न करना चािहये ॥५०-५२॥

अब पुत्रदायक भौमव्रत कहते हैं - पुत्र चाहने वाली स्त्री को मङ्गलवार का व्रत करना चािहए । मागगिीषग अथवा वैिाख से
इस व्रत का आरम्भ श्रेयस्कर माना गया हैं ॥५२-५३॥
अरुणोदय काल में उठकर मुह धोकर मौन हो कर अपामागग की दातृन से मुख प्रक्षालन करना चािहए । तदनन्त्तर नदी आफद के
जल में स्नान कर दो रक्त वलत्र, एक पहनने के िलए दूसरा उत्तरीय के िलए धारण करना चािहए । तदनन्त्तर लाल पुष्प, लाल
नैवेद्य, लाल आलेपनाफद एकित्रत कर िविधवेत्ता ब्राह्मण बुला कर उसकी आज्ञा से मङ्गल देवता की अचगना करनी चािहए
॥५३-५५॥

लाल वणग वाली गौ के गोबर से िलपे पुते िुिच स्थान पर लाल रङ्ग के आसन पर बैठकर अपने िरीर पर मङ्गल आफद नामों
का न्त्यास (र० १५.५१) इस प्रकार करना चािहए । दोनो पैरों में मङ्गल का, दोनो जानुमें भूिमपुत्र का, दोनों उरु प्रदेि में
ऋणहताग का, करट में धनप्रद का, िस्थरासन का गुह्यप्रदेि में तथा महाकाय का हद्देि में न्त्यास करना चािहए ॥५६-५९॥

तदनन्त्तर सवगकमागवरोधक का बायें हाथ में, लोिहत का दािहने हाथ में, लोिहताक्ष का कण्ठ में न्त्यास करना चािहए । फिर
साध्वी स्त्री को मुख में सामगानकृ पाकर का, नािसका में धरात्मज का, नेत्रों में कु ज का, ललाट में भौम का, भ्रूमध्य में
भूितदायक का, मस्तक में भूिमनन्त्दन का, ििखाप्रदेि में अङ्गारक का, तदनन्त्तर सवागङ्ग में यम का न्त्यास करना चािहए ।
फिर दोनों हाथों में सवगरोगापहारक का, ििर से पैर तक वृिष्टकताग का, पैरों से ििर तक वृिष्टहताग का तथा फदिाओं में २१ वें
सवगकामप्रद का न्त्यास करना चािहए । फिर आर का नािभ स्थान में, वि का वक्षेःस्थल में तथा भूिमज का मूध्दाग में न्त्यास
करना चािहए ॥५६-६३॥

िवमिग - न्त्यास िविधेः -


ॎ मङ्गलाय नमेः, पादयोेः, ॎ भूिमपुत्राय नमेः, जानुनोेः,
ॎ ऋणत्रे नमेः, ॎ धनप्रदाय नमेः, करटप्रदेिे,
ॎ िस्थरासनाय नमेः, गुह्ये, ॎ महाकायाय नमेः, उरिस,
ॎ सवगकामावरोधकाय नमेः वामबाहौ, ॎ लोिहताय नमेः, दिक्षणबाहौ,
ॎ लोिहताक्षाय नमेः, कण्ठे ेः, ॎ सामगानाम कृ पाकराय नमेः, गुह्य,े
ॎ धरात्मजाय नमेः, नसोेः, ॎ कु जाय नमेः, नेत्रोेः,
ॎ भौमाय नमेः, ललाटे, ॎ भूितदाय नमेः, भ्रूमध्ये,
ॎ भूिमनन्त्दाय नमेः, मस्तके , ॎ अङगारकाय नमेः ििखाप्रदेिे,
ॎ यमाय नमेः, सवागङ्गे ॎ सवगरोगापहारकाय नमेः, हस्तद्वये,
ॎ वृिष्टकत्रे नमेः मूधागफदपादान्त्तम, ॎ वृिष्टहत्रे नमेः पादफदमूधागन्त्तम्
ॎ सवगकामिलप्रदाय नमेः, फदक्षु, ततश्च ॎ आराय नमेः, नाभौ,
ॎ विाय नमेः, वक्षेःस्थले ॎ भूिमजाय नमेः मूर्णि ॥५६-६३॥

अब पूजा िविध कहते हैं - इस प्रकार नाम मन्त्त्रों का िरीर पर न्त्यास कर साश्वी मङ्गल का ध्यान करे , तथा अघ्नयग स्थािपत
कर िविवध उपचारों से उनका पूजन भी करे । उसकी िविध इस प्रकार है - २१ कोष्ठात्मक ित्रकोण युक्त ताम्रपात्र पर लाल
पुष्पों से मङ्गल देव का आवाहन करे । लाल पुष्प एवं रक्त चन्त्दनाफद से प्रथम उनके अक्षरों को पूजन करे । फिर २१ कोष्टकों
में मङ्गल के २१ नामों का, फिर ित्रकोण में चि, आर और भूिमज का पूजन करना चािहए । ित्रकोण के बाहर ब्राह्यी आफद
मातृकाओं का, इन्त्राफद दि फदलपालोम का, फिर उनके बज्राफद आयुधोम का धूप, दीपाफद तथा गोधूम िनर्णमत वस्तुओं का
नैवेद्य िनवेफदत कर पूजा करनी चािहए ॥६४-६७॥
इस प्रकार पूजनोपरान्त्त भूिमपुत्र को इस प्रकार अघ्नयग दान देवे । ताम्र पात्र में जल भर कर उसमें गन्त्ध, पुष्प और अक्षत तथा
िल डालकर-
‘भूिमपुत्र महातेजेः स्वेदोद्भविपनाफकन ।
सुतार्णथनी प्रपन्नां त्वां गृहानाघ्नयं नमोऽस्तु ते ॥’
‘रक्तप्रवालसंकाि जपाकु सुमसिन्नभ ।
महीसुत महाबाहो गृहाणाघ्नयं नमोऽस्तु ते ॥’
इन दो मन्त्त्रों से मङ्गल को अघ्नयग िनवेफदत करे ॥६८-७०॥

इस प्रकार अघ्नयगदान दे कर पूवोक्त (र० १५. ५६-६२) २१ नामोम में चतुथ्व्यगन्त्त िवभिक्त तथा अन्त्त में ‘नमेः’ लगाकर २१
बार उन्त्हे प्रणाम कर उतनी ही प्रदिक्षणा करनी चािहए ॥७१॥

फिर खैर की लकडी के अङ्गारे से तीन रे खायें समान रुप में खींचनी चािहए । और उसे -
‘दुेःखदौभागग्यनािाय पुत्रसन्त्तानहेतवे ।
कृ तं रे खात्रयं वामपादेनैतत् प्रमाज्म्यगहम् ॥
ऋणदुेःखिवनािाय मनोऽभीष्टाथगिसिये ।
माजगयाम्यिसतारे खािस्तस्त्रो जन्त्मत्रयोद्भवाेः ॥’

इन दो मन्त्त्रों को पढकर बायें पैर से िमटा देना चािहए ॥७२-७४॥

तदनन्त्तर वह साध्वी स्त्री हाथोम में पुष्पाञ्जिल लेकर पूजा की साङ्गतािसिि के िलए मङ्गल के चरणों का ध्यान कर
‘धरणीगभगसंभूत’ं से ‘धनं यिेः’ पयगन्त्त ५ श्लोकों से प्राथगना करे ॥७५॥

भूिम के गभग से उत्पन्न - िबजली के तेज के समान जगमगाते सदैव कु मारावस्था में रहने वाले, ििक्त धारन करने वाले मङ्गल
को मैं प्रणाम करती हूँ ॥७६॥

ऋण को नष्ट करने वाले प्रभो । आप को नमस्कार हैं । दुेःख एवं दारररय के नािक आकाि में देदीप्यमान सबका कल्याण
करने वाले आप मङ्गल को नमस्कार हैं ॥७७॥

िजनकी कृ पा प्राप्त कर देव, दानव, गन्त्धवग, यक्ष, राक्षस एवं नाग सुखी हो जाते हैं उन भूिमपुत्र को हमारा नमस्कार है ॥७८॥

जो विगित होने पर समस्त जनों का दुेःख प्रदान करते है तथा पूिजत होने पर सुख सौभाग्य प्रदान करते हैं उन धरापुत्र को
नमस्कार है ॥७९॥

हे मङ्गलप्रद मङ्गल, हे नाथ, हे रुरात्मन्, हे मेष वाहन, मुझ पर प्रसन्न होइये तथा पुत्र, धन, एवं यि प्रदान कीिजये ॥८०॥

इस प्रकार मङ्गल की पूजा तथा प्राथगना करने के बाद ब्राह्मण का आिीवागद ग्रहण करना चािहए । इसके बाद गुरु को दिक्षणा
देकर भोग लगाये गये नैवेद्य का स्वय्म भक्षण करना चािहए ॥८१॥

इस व्रत को िनरन्त्तर एक वषग पयगन्त्त प्रित मङ्गलवार को अनुिष्ठत करना चािहए । उसके बाद ितलों से होम करना चािहए
तथा ५० ब्राह्मणों को भोजन कराना चािहए । गोलाकार चौके पर सुत एवं सौभाग्याफद प्रािप्त के िलए कलि स्थािपत कर उस
पर सुवणगमयी ताम्र प्रितमा का पूजन कर आचायग को दान करना चािहए । ऐसा करने से व्रत परायणा साध्वी स्त्री
सौभाग्यिाली पुत्रों को प्राप्त करती है । धन प्रािप्त एवं ऋण के अपाकारण के िलए पुरुषो को भी यह व्रत करना चािहए ॥८२-
८४॥

अब मङ्गल का वैफदक मन्त्त्र एवं उनकी गायत्री कहते हैं -


ब्राह्मण को मङ्गल ग्रह की िािन्त्त के िलए ‘अििमूगधाधागफदवेः’ इस मन्त्त्र का जप करना चािहए तथा समस्त अभीष्ट िसिि हेतु
अङ्गारक गायत्री का जप करना चािहए ॥८५॥

‘अङ्गारकाय’ इस पद के बाद ‘िवद्महे’, फिर ‘ििक्तहस्ताय’ बोलकर ‘धीमिह’ बोलना चािहए । फिर ‘तन्नो भौमेः प्रचोदयात्
यह बोलना चािहए । यह अङ्गारक गायत्री जप करने पर अभीष्ट िल देती है ॥८६-८७॥

िवमिग - वैफदक मन्त्त्र - ॎ अििमूध्दाग फदवेः ककु त्पितेः पृिथव्यामयम् अपां रे तांिस िजन्त्वित । गायत्री - ॎ अङ्गारकाय िवद्महे
ििक्तहस्ताय धीमिह । तन्नो भौमेः प्रचोदयात् ॥८६-८७॥

यहाूँ तक हमने मङ्गल ग्रह की उपासना कही । अब गुरु (बृहस्पती) मन्त्त्र का उिार कहता हूँ -

भारभूितस्थ दो ऋकार वणग से युक्त खड् गीिौ, दो वकार िजसमें प्रथम िू र से युक्त अथागत् बृं, बृ, इसके बाद नभ (ह), फिर
लोहतस्थ भृगु पकार से युक्त सकार (स्प), फिर हरर (त), भगािन्त्वत वायु (ये) और अन्त्त में हृदय लगाने से ८ अक्षरों का गुरु
मन्त्त्र बनता है ।

िवमिग - मन्त्त्र का स्वरुप िनम्न है - बृं बृहस्पतये नमेः ॥८८-८९॥

इस मन्त्त्र के ब्रह्या ऋिष हैं, अनुष्टुप् छन्त्द है तथा सुराचायग बृहस्पित देवता हैं । आद्य बृं बीजु है । षड् दीघग युक्त वकार रकार से
षडङ्गन्त्यास करना चािहए ॥९०॥

िविनयोग - अस्य श्रीबृहस्पितमन्त्त्रस्य ब्रह्माऋिषरनुष्टुप्च्छपेः सुराचायो बृहस्पितदेवता बृं बीजमात्मनोऽभीष्टिसद्ध्यथे जपे


िविनयोगेः ॥

न्त्यास - व्रां हृदयाय नमेः व्रीं ििरसे स्वाहा, व्रूं ििखायै वषट् ,
व्रैं कवचाय हुम्, व्रौ नेत्रत्रयाय वौषट् , व्रेः अस्त्राय अस्त्राय िट् ॥९०॥

अब बृहस्पित का ध्यान कहते हैं - अपने दािहने हाथ से रत्न, सुवणग तथा वलत्रों की रािि देते हुये तथा बायें हाथ को रत्नाफद
रािियों पर रखते हुये, बाजार में आसीन, पीले वस्त्र तथा पीला आलेपन लगाये हुये, पीत पुष्प एवं पीत आभूषणों से अलंकृत,
िवद्यारुपी सागर के पारगामी िवद्वान् और सुवणग की तरह देदीप्यमान् देवगुरु की मैं वन्त्दना करता हूँ ॥९१॥

उक्त मन्त्त्र का ८० हजार जप करे । फिर उसका दिांि अन अथवा घी से होम करे । धमग और अधमागफद ििक्ततयोम वाले पीठ
पर अङ्ग एवं फदलपालोम के साथ उनका पूजन करे ॥९२॥

िवमिग - पूजा िविध - (१५.९१) श्लोक में वर्णणत गुरु के स्वरुप का ध्यान कर मानसोपचार से उनका पूजन कर अघ्नयग स्थािपत
करे । सामान्त्य पूजा पिित के अनुसार ‘आधारिक्तये नमेः’ इत्याफद मन्त्त्रों से पीठ देवताओं का पूजन करे । फिर धमागफद पीठ
ििक्तयों का इस प्रकार पूजन करे - यथा
ॎ धमागय नमेः, ॎ ज्ञानाय नमेः, ॎ वैराग्याय नमेः,
ॎ ऐश्वयागय नमेः, ॎ अधमागय नमेः, ॎ अज्ञानाय नमेः,
ॎ अवैराग्याय नमेः, ॎ अनैश्वयागय नमेः ।

फिर पीठ मन्त्त्र से आसन देकर पीठ पर आवाहनाफद उपचारों से पञ्च पुष्पाञ्जिल समपगण पयगन्त्त बृहस्पित की पूजा कर आवरण
पूजा करनी चािहए ।

प्रथम आिेयाफद कोणों में मध्य में, तथा चारों फदिाओं में षडङ्ग मन्त्त्रों से षडङगपूजा करनी चािहए । यथा -
व्रां हृदयाय नमेः, व्रीं ििरसे स्वाहा, व्रूं ििखायै वषट् ,
व्रैं कवचाय हुम्, व्रौं नेत्रत्रयाय वौषट् , व्रेः अस्त्राय िट्

इसके बाद पूवगवत् फदलपालों का एवं उनके आयुधों का पूजन कर पुनेः धूप दीपाफद उपचारों से बृहस्पित की िविधवत् पूजा
करनी चािहए ॥९२॥

इस प्रकार मन्त्त्र िसि कर लेने पर अभीष्टिसिि हेतु काम्य प्रयोग करना चािहए । घी िमिश्रत हल्दी एवं कुं कु म से िनरन्त्तर ३
फदन पयगन्त्त १२० की संख्या में आहुितयाूँ देने से साधक मिणयोम और वस्त्रों को प्राप्त करता है ॥९३-९४॥

ित्रु तथा रोग जन्त्य पीडा होने पर अथवा स्वजनों में कलह होने पर उसकी िनवृित्त के िलए पीपल की सिमधाओं से होम
करना चािहए ॥९४-९५॥

अब िुि मन्त्त्र का उिार कहते हैं - तार (ॎ), फिर ‘वस्त्रं पद’, फिर भगी सूयग (ए से युक्त म) अथागत् ‘मे’ के बाद ‘देिह’ िुिाय’
पद, फिर ठ द्वय (स्वाहा) लगाने से ११ अक्षरों का सुवणग एवं वस्त्रदायक िुि मन्त्त्र िनष्पन्न हो जाता है ॥९५-९६॥

िवमिग - इस मन्त्त्र का स्वरुप इस प्रकार है - ॎ वस्त्रं में देिह िुिाय स्वाहा’ ॥९५-९६॥

इस मन्त्त्र के ब्रह्या ऋिष हैं । िवराट् छन्त्द है । दैत्य पूिजत िुि देवता है ।

प्रणव बीज तथा स्वाहा ििक्त कही गई है । मन्त्त्र के १, २, १, २, ३ और २ अक्षरों से षडङ्गन्त्यास कर िवद्या िनधान िुि का
ध्यान करना चािहए ॥९६-९७॥

िवमिग - िविनयोग - अंस्य श्रीिुिमन्त्त्रस्य ब्रह्माऋिषर्णवराट् छन्त्देः दैत्यपूिजत िुिो देवता ॎ बीजं
स्वाहाििक्तरात्मनोऽभीष्टिसियथे जपे िविनयोगेः ।

षडङ्गन्त्यास - ॎ हृदयाय नमेः, वस्त्रं ििरसे स्वाहा,


मे ििकायै वषट् देिह कवचाय हुम् िुिाय नेत्रत्रयाय वौषट् ,
स्वाहा अस्त्राय िट् ॥९६-९७॥

अब िुि का ध्यान कहते हैं - बाजार के फकसी एक स्थान (दुकान) में सिे द वणग के कमल पर बैठे हुये, श्वेत वस्त्र एवं श्वेत
चन्त्दन से अलंकृत, अपने बायें हाथ से भक्त जनों को वस्त्र, मिण तथा सुवणग देते हुये तथा दािहने हाथ में व्याख्यान मुरा धारण
फकए, दैत्यराज से पूिजत प्रसन्न, मुख तथा श्वेत कािन्त्त वाले िुि की मैं वन्त्दना करता हूँ ॥९८॥

इस मन्त्त्र का दि हजार जप करना चािहए । फिर घी से उसका दिांि होम करना चािहए तथा धमागफद ििक्तयों वाले पीठ
पर अङ्गपूजा, फदलपाल पूजा एवं उनके आयुधों की पूजा कर िुि का पूजन करना चािहए ॥९९॥

िवमिग - आवरण पूजा िवधान - श्लोक १५. ९८ में वर्णणत िुि के स्वरुप का ध्यान कर मानसोपचार से पूजन कर अघ्नयगपात्र
स्थािपत करे । फिर १५. ९२ के िवमिग में कही गई रीित से पीठ देवताओं एवं धमागफद ििक्तयों का पूजन कर पीठ मन्त्त्र से
आसन देकर उस पर ध्यान आवाहन से पुष्पाञ्जिल प्रदान प्रयगत्न िुि का पूजन कर आवरण पूजा करनी चािहए ।
सवगप्रथम षडङ्गन्त्यास मन्त्त्रों , फिर फदिाओं में इन्त्राफद दि फदलपालों की तथा उनके आयुधों का पूजन करे । फिर िुि का
िविधवत् पूजन करे ॥९९॥

काम्य प्रयोग - सुगिन्त्धत श्वेत पुष्पों से जो व्यिक्त २१ िुिवारों को हवन करता है अवश्य ही वस्त्र एवं मिणयों को प्राप्त करता
है ॥१००॥

अब व्यास मन्त्त्र का उिार कहते हैं - बाल (व), दीघेयुत् पवन (यां) अथागत् (व्यां), फिर िझण्टीि (ए) सिहत जल (व) अथागत्
(वे), फिर अित्र (द), फिर ‘व्यासाय’ पद, उसमें हृदय (नमेः) जोडने से ८ अक्षरों का व्यास मन्त्त्र िनष्पन्न होता है ॥१०१॥

िवमिग - इस मन्त्त्र का स्वरुप िनमन है - व्यां वेदव्यायाय नमेः ॥१०१॥

इस व्यास मन्त्त्र के ब्रह्या ऋिष हैं अनुष्टुप् छन्त्द है, सत्यवती सुत व्यास देवता हैं, व्यां बीज तथा नमेः ििक्त है । षड् दीघग सिहत
आद्य बीज से षडङ्गन्त्यास करना चािहए ॥१०२॥

िवमिग - िविनयोग - अस्य श्रीव्यासमन्त्त्रस्य ब्रह्यािषरनुष्टुप्छन्त्देः सत्यवतीसुतो देवता व्यां बीजं नमेः
ििक्तरात्मनोऽभीष्टिसियथे जपे िविनयोगेः ।

षडङ्गन्त्यास - व्यां हृदयाय नमेः, व्यीं ििरसे स्वाहा, व्येः ििखायै वषट्
व्यै कवचाय हुम्, व्यौं नेत्रत्रयाय वौषट् व्येः अस्त्राय िट् ॥१०२॥

अब व्यास देव का ध्यान कहते हैं - व्याख्यान मुरा से िजनके करतल सुिोिभत हैं, जो मनोहर योगपीठ पर आसीन हैं, वाम
जानु पर अपना दूसरा हाथ रखे हुये जो िवद्यािनधान िवप्रसमुदायों से पररवेिष्टत हैं, िजनका मुख मण्डल प्रसन्न है एवं िजनके
िरीर की कािन्त्त नील वणग की है, ऐसे पुण्यात्मा पुण्य चररत्र परािर के पुत्र भगवान् व्यास का िसिि प्रािप्त हेतु स्मरण करना
चािहए ॥१०३॥

इस मन्त्त्र का आठ हजार जप करना चािहए । तदनन्त्तर खीर से उसका दिांि होम करना चािहए ।

पूवोक्त पीठ पर प्रथम व्यास के षडङ्गोम की पूजा करनी चािहए । फिर पूवागफद फदिाओं में पैल, वैिम्पायन, जैिमिन और
सुमन्त्तु का तथा कोणों में श्रीिुक, रोमहषगण, उग्रश्रवस् और अन्त्य मुनीरों का, पुनेः इन्त्राफद दि फदलपालोम का तथा उनके
वज्राफद आयुधोम का पूजन करना चािहए ॥१०४-१०६॥
इस प्रकार मन्त्त्र िसि हो जाने पर साधक को सुन्त्दर किवत्व ििक्त, उत्तम सन्त्तान, व्याख्यान- ििक्त, कीर्णत एवं सम्पित्त का
खजाना प्राप्त होता हैं ॥१०६-१०७॥

िवमिग - पूजा िविध सवगप्रथम वृत्ताकार कर्णणका, अष्टदल तथा भूपुर सिहत मन्त्त्र का िनमागण करना चािहए । उसी पर
भगवान् वेदव्यास का इस प्रकार पूजन करना चािहए ।

१५. १०३ में वर्णणत व्यास के स्वरुप का ध्यान कर मानसोपचारों से उनका पूजन कर अघ्नयग स्थािपत करे । फिर १५. ९२ में
कही गई िविध से पीठ देवताओं का, तदनन्त्तर धमागफदकों का पूजन कर पीठ मन्त्त्र से यन्त्त्र पर आसन देकर, मूल मन्त्त्र से उस
पर मूर्णत की कल्पना कर ध्यान, आवाहन से पुष्पाञ्जिल समपगण पयगन्त्त उपचारों से भगवान् व्यास का पूजन कर आवरण पूजन
की आज्ञा ले इस प्रकार आवरण पूजा प्रारम्भ करे ।

कर्णणका के आिेयाफद कोणों में मध्य में तथा चतुर्ददक्षु षडङ्गपूजा इस प्रकार करनी चािहए । यथा -
व्यां हृदयाय नमेः आिेय,े व्यीं ििरसे स्वाहा, नैऋत्ये,
व्यूं ििखायै वषट् वायव्ये, व्यैं कवचाय हुम्, ऐिान्त्यै,
व्यौं नेत्रत्रयाय वौषट् , मध्ये, व्येः अस्त्राय िट् चतुर्ददक्षु ।

इसके बाद पूवागफद चारों फदिाओं में पैल आफद की िनम्निलिखत मन्त्त्रों से पूजन करनी चािहए । यथा -
ॎ पैलाय नमेः पूवे, ॎ वैिम्पायनाय नमेः दिक्षणे,
ॎ जैिमन्त्यै नमेः पिश्चमे, ॎ सुमन्त्तवे नमेः दिक्षणे,

इसके बाद आिेयाफद चारों कोणों में श्रीिुकाफद की पूजा करे । यथा -
ॎ श्रीिुकाय नमेः, आिेये, ॎ श्रीरोमहषगणाय नमेः, नैऋत्ये,
ॎ उग्रश्रवसे नमेः, वायव्ये, ॎ अन्त्यमुनीन्त्रभ्े यो नमेः ऐिान्त्ये

इसके बाद भूपुर में इन्त्राफद दि फदलपालों की । यथा -


ॎ लं इन्त्राय नमेः, पूव,े ॎ रं अिये नमेः, आिेय,े
ॎ मं यमाय नमेः, दिक्षणे, ॎ क्षं िनऋतये नमेः, नैऋत्ये,
ॎ वं वरुणाय नमेः पिश्चमे ॎ यं वायवे नमेः, वायव्ये
ॎ सं सोमाय नमेः, उत्तरे ॎ हं ईिानाय नमेः, ऐिान्त्ये,
ॎ ब्रह्मणे नमेः पूवेिानयोमगध्ये, ॎ ह्रीं अनन्त्ताय नमेः िनऋितपिश्चमयोमगध्ये

फिर भूपुर के बाहर पूवागफद फदिाओम के िम से वज्राफद आयुधोम की िनम्निलिखत मन्त्त्रोम से पूजा करनी चािहए -
ॎ वं वज्राय नमेः, ॎ िं िक्तये नमेः, ॎ दं दण्डाय नमेः,
ॎ खं ख‍गाय नमेः, ॎ पां पािाय नमेः, ॎ अं अंकुिाय नमेः
ॎ गं गदायै नमेः, ॎ िूं िूलाय नमेः, ॎ पं पद्माय नमेः,
चं चिाय नमेः,

इस प्रकार आवरण पूजा कर धूप दीपाफद उपचारों से िविधवत् भगवान् वेदव्यास की पूजा करनी चािहए ॥१०४-१०७॥
अब मृत्युजय संपुरटत व्यास मन्त्त्र की मिहमा कहते हैं -
जो व्यिक्त मृत्युजय मन्त्त्र से संपुरटत व्यास मन्त्त्र का जप करता है वह सभी उपरवों से मुक्त होकर वािछछत िल प्राप्त करता हैं
॥१०७-१०९॥

िवमिग - मृत्युञ्जय व्यास मन्त्त्र का स्वरुप इस प्रकार है - ॎ जूं सेः व्यां वेदव्यासाय नमेः सेः जूं ॎ ॥१०७-१०८॥
मृत्युञ्जय मन्त्त्र का उिार - तार (ॎ), वामकणग (ऊकार) एवं िबन्त्द ु अनुस्वार सिहतेः िूली (ज), इस प्रकार (जूं), इसके आगे
िवसगग सिहत सकार (सेः) , यह तीन अक्षर का मृत्युनािक मृत्युञ्जय मन्त्त्र है ॥१०८-१०९॥

के वल इसका ही जप करने से मनुष्य इष्ट िसिि प्राप्त कर लेता है, फिर इससे संपुरटत व्यास मन्त्त्र का जप फकया जाय तो इसके
िल के िवषय में लया कहना है ? ॥१०९॥

िवमिग - मृत्युञ्जय मन्त्त्र का स्वरुप इस प्रकार है - ॎ जूं सेः ॥१०९॥

िविनयोग - अस्य श्रीमृत्युञ्जयमन्त्त्रस्य कहोलऋिषदैवीगायत्रीछन्त्देः मृत्युञ्जयो देवता जूम बीजं सेः ििक्तरात्मनोऽभीष्टिसियथे
जपे िविनयोगेः ।

षडङ्गन्त्यास - सां हृदयाय नमेः सीं ििरसे स्वाहा सूं ििखायै वषट्
सैं कवचाय हुम् सौं नेत्रत्रयाय वौषट् सेः अस्त्राय िट्

ध्यान - चन्त्राकागिििवलोचनं िस्मतमुखं पद्मद्वयान्त्तेःिस्थतं


मुरापािमृगाक्षसूत्रिवलसत् पातण िहमांिुप्रभम् ।
फकरीटन्त्दग ु लत्सुधाप्लुततनुं हाराफद भूिोञ्ज्वलं
कान्त्त्या िवश्विवमोहनं पिुपतत मृत्यञ्जयं भावयेत॥

िजनके सूय,ग चन्त्द और अिि स्वरुप तीन नेत्र हैं, िजनका मुखमण्डल िस्मत से युक्त है, िजनके ििरोभाग दो कमलों के मध्य
िस्थत हैं अथागत् एक ऊध्वगमुफकह एवं उसके ऊपर िवद्यमान दूसरा कमल अधोमुख रुप से िवद्यमान हैं । िजन्त्होंने अपने हाथों में
मुरा, पाि, मृग, अक्षमाला धारण फकया है, िजनके िरीर की कािन्त्त चन्त्रमा के समान उज्ज्वल है, िजनका िरीर फकरीट में
जरटत चन्त्र मण्डल से चूते हुए अमृतकणों से आप्लािवत है और हाराफद नाना प्रकार के भूषणों से उज्ज्वल है - ऐसे
महामृत्युञ्जय पिुपित का ध्यान करना चािहए जो अपनी कािन्त्त से िवश्व को मोिहत कर रहे हैं ॥१०८-१०९॥

षोडि तरङ्ग
अररत्र
अब पाप तथा िवपित्तयों को दूर करने वाले महामृत्युञ्जय मन्त्त्र को कहता हूँ, िजसे िुिाचायग ने भगवान् िंकर से प्राप्त कर मरे
हुये दैत्यों को िजलाया था ॥१॥

महामृत्युञ्जय मन्त्त्र का उिार - तार (ॎ), व्यािपनी चन्त्र युक्त (औ), िबन्त्द ु सिहत खं (ह), अथागत् (हौं), फिर तार (ॎ), फिर
अधीि (ऊकार), िबन्त्द ु (अनुस्वार) से युक्त चतुरानन ‘ज’ अथागत् (जूं), सगी हंसेः (सेः) इसके बाद ‘भूभुगवेः फिर वाल (ब) िवसगग
युक्त सकार अथागत् (स्वेः), फिर ‘त्र्यम्बकं यजामहे० यह वैफदक मन्त्त्र, फिर ‘भूभुगवेः स्वेः’, तारयुक्त भुजङे ि रों जू,ं फिर सगगवान्
भृगु (मनु और िबन्त्द ु सिहत आकाि (ह) अथागत हौं, पुनेः प्रणव जोडने से पचास अक्षरों का महामृत्युञ्जय संज्ञक श्रेष्ठतम मन्त्त्र
बनता है ॥२-४॥
िवमिग - महामृत्युञ्जय मन्त्त्र का स्वरुप इस प्रकार है - ॎ हौं ॎ जूं सेः भूभुगवेः स्वेः त्र्यम्बकं यजामहे सुगतन्त्ध पुिष्टवधगनम् ।
उवागरुकिमव बन्त्धनान् मृत्योमुगक्षीय मामृतात् भूभुगवेः स्वरों जूं सेः हौं ॎ (५०) ॥२-४॥

इस मन्त्त्र के वामदेव, कहोल एवं वििष्ठ ऋिष हैं, भगवान् रुर से इस मन्त्त्र का पंिक्त, गायत्री और अनुष्टुप् छन्त्द कहा है ।
सदाििव महामृत्युञ्जय रुर इसके देवता हैं । माया (ह्रीं) ििक्त है, रमा (श्रीं) बीज है । अभीष्ट िसिि हेतु इसका िविनयोग
फकया जाता है ॥५-६॥

िविनयोग - अस्य श्रीमहामृत्युञ्जयामन्त्त्रस्य वामदेवकहोलवििष्ठा ऋषयेः पंिक्तगागयत्र्यनुष्टुप्छन्त्दांिस सदाििवमहामृत्युञ्जयरुरो


देवता हीं ििक्तेः श्रीं बीजमात्मनोऽभीष्टिसियथे जपे िविनयोगेः ।

ऋष्याफदन्त्यास - ििर, मुख, हृदय, िलङ्ग, एवं पैरों पर ऋष्याफदन्त्यास करना चािहए ॥७॥

िवमिग - यथा- वामदेवहोलवििष्ठऋिषभ्यो नमेः ििरिस,


पंिक्तगागयत्र्यनुष्टुप्छन्त्दोभ्येः नमेः मुखे,
सदाििवमहामृत्युञ्जरुराख्यदेवतायै नमेः हृफद,
ह्रीं िक्तये नमेः िलङ्गे श्रीं बीजाय नमेः पादयोेः ॥७॥

अब षडङ्गन्त्यास कहते हैं - अनुष्टुप् छान्त्द के ३, ४, ५, ९, ५, तथा ३ वणों से षडङ्गन्त्यास करना चािहए । उसकी िविध इस
प्रकार है - प्रारम्भ में मूलमन्त्त्र के ९ अक्षरों के बाद त्र्यबकाफद अक्षर लगाकर, फिर तार (ॎ), फिर ‘नमो भगवते रुराय’ पद,
फिर िमिेः ‘िूलपाणये स्वाहा’ पद से हृदय में, फिर ‘अमृतमूतगये मां जीवय’ से ििर में, फिर ‘चन्त्दििरसे जरटने स्वाहा’ से
ििखा में, फिर ‘ित्रपुरान्त्तकाय हां हीं’ से कवच में, फिर ‘ित्रलोचनाय ऋग्यजुेःसाममन्त्त्राय’ से नेत्र में, फिर ‘अिित्रयाय ज्वल
ज्वल मां रक्ष रक्ष ॎ अघोरास्त्राय’ से अस्त्र में लगाकर न्त्यास करे ॥७-१२॥

िवमिग - यथा - १. ॎ हौ ॎ जूं सेः भूभुगवेः स्वेः त्र्यम्बकं ॎ नमो भगवते रुराय िूलपाणये स्वाहा हृदयाय नमेः, २. ॎ हौं ॎ
जूूँ सेः भूभुगवेः स्वेः यजामहे ॎ नमो भगवते रुराय अमृतमूतगये मां जीवय ििरसे स्वाहा, ३. ॎ हौं ॎ जूं सेः भूभुगवेः स्वेः
सुगतन्त्ध पुिष्टवधगनम् ॎ नमो भगवते रुराय चन्त्रििरसे जरटने स्वाहा ििखायै वषट् , ४. ॎ हौं जूं सेः भूभुगवेः स्वेः उवागरुकिमव
बन्त्धनत् ॎ नमो भगवते रुराय ित्रपुरान्त्तकाय हां ह्रीं कवचाय हुम्, ५. ॎ हौं ॎ जूं सेः भूभुगवेः स्वेः मृत्योमुगक्षीय ॎ नमो
भगवते रुराय ित्रलोचनाय ऋग्यजुेः साममन्त्त्राय नेत्रत्रयाय वौषट् , ६. ॎ हौं ॎ जूं सेः भूभुगवेः स्वेः मामृतात् ॎ नमो भगवते
रुराय अिित्रयाय ज्वल ज्वलं माम रक्ष रक्ष ॎ अघोरास्त्राय अस्त्राय िट् ॥७-१२॥

अब उक्त मन्त्त्र का वणगन्त्यास कहते है - प्रारम्भ में मूल मन्त्त्र के ९ वणग लगाकर फिर त्र्यम्बकाफद ३२ अक्षरों के एक एक वणग पर
िबन्त्द ु तथा अन्त्त में नमेः लगाकर पूवग, पिश्चमे, दिक्षण, उत्तर पूवगक मुख में, फिर उरेःस्थल कण्ठ, पुख, नािभ, हृदय, पीठ,
कु िक्ष, िलङ्ग और गुदा में न्त्यास करना चािहए । फिर दोनो ऊरुओं के मूल और मध्य में, दोनों जानुओं में एवं दोनों जानुवृत्त
में, स्तनोम में, पाश्वो में, पैरो में, हाघों में, नािसका, रन्त्रों में तथा ििर इन ३२ स्थानोम में इस प्रकार न्त्यस करना चािहए
॥१३-१५॥

िवमिग - वणगन्त्यास की िविध -


(१) ॎ हौं ॎ जूं सेः भूभुगवेः स्वेः त्र्यं नमेः पूवगमुखे,
(२) ॎ हौं ॎ जूं सेः भूभुगवेः स्वेः वं नमेः पिश्चममुखे,
(३) ॎ हौं ॎ जूं सेः भूभुगवेः स्वेः कं नमेः दिक्षणमुखे,
(४) ॎ हौं ॎ जूं सेः भूभुगवेः स्वेः यं नमेः उत्तरमुखे,
(५) ॎ हौं ॎ जूं सेः भूभुगवेः स्वेः जां नमेः उरिस,
(६) ॎ हौं ॎ जूं सेः भूभुगवेः स्वेः मं नमेः कण्ठे ,
(७) ॎ हौं ॎ जूं सेः भूभुगवेः स्वेः हें नमेः मुखे,
(८) ॎ हौं ॎ जूं सेः भूभुगवेः स्वेः सुं नमेः नाभौ,
(९) ॎ हौं ॎ जूं सेः भूभुगवेः स्वेः गं नमेः हृफद,
(१०) ॎ हौं ॎ जूं सेः भूभुगवेः स्वेः तध नमेः पृष्ठ,े
(११) ॎ हौं ॎ जूं सेः भूभुगवेः स्वेः पुं नमेः कु क्षौ,
(१२) ॎ हौं ॎ जूं सेः भूभुगवेः स्वेः तष्ट नमेः िलङ्गे,
(१३) ॎ हौं ॎ जूं सेः भूभुगवेः स्वेः वं नमेः गुद,े
(१४) ॎ हौं ॎ जूं सेः भूभुगवेः स्वेः धं नमेः दिक्षणोरुमूले,
(१५) ॎ हौं ॎ जूं सेः भूभुगवेः स्वेः नं नमेः वामोरुमूले,
(१६) ॎ हौं ॎ जूं सेः भूभुगवेः स्वेः ॎ नमेः दिक्षणोरुमध्ये,
(१७) ॎ हौं ॎ जूं सेः भूभुगवेः स्वेः वाग नमेः वामोरुमध्ये,
(१८) ॎ हौं ॎ जूं सेः भूभुगवेः स्वेः सं नमेः दिक्षणजानुवृत्ते,
(१९) ॎ हौं ॎ जूं सेः भूभुगवेः स्वेः कं नमेः वामजानुिन,
(२०) ॎ हौं ॎ जूं सेः भूभुगवेः स्वेः तम नमेः दिक्षणजानुवृत्ते,
(२१) ॎ हौं ॎ जूं सेः भूभुगवेः स्वेः वं नमेः वामजानुवृत्ते,
(२२) ॎ हौं ॎ जूं सेः भूभुगवेः स्वेः बं नमेः दिक्षणस्तने,
(२३) ॎ हौं ॎ जूं सेः भूभुगवेः स्वेः न्त्धं नमेः वामस्तने,
(२४) ॎ हौं ॎ जूं सेः भूभुगवेः स्वेः नां नमेः दिक्षणपाश्वे,
(२५) ॎ हौं ॎ जूं सेः भूभुगवेः स्वेः मृं नमेः वामपाश्वे,
(२६) ॎ हौं ॎ जूं सेः भूभुगवेः स्वेः त्यों नमेः दिक्षणपादे,
(२७) ॎ हौं ॎ जूं सेः भूभुगवेः स्वेः मुं नमेः वामपादे,
(२८) ॎ हौं ॎ जूं सेः भूभुगवेः स्वेः क्षीं नमेः दिक्षणकरे ,
(२९) ॎ हौं ॎ जूं सेः भूभुगवेः स्वेः यं नमेः वामकरे ,
(३०) ॎ हौं ॎ जूं सेः भूभुगवेः स्वेः मां नमेः दिक्षणनासापुटे,
(३१) ॎ हौं ॎ जूं सेः भूभुगवेः स्वेः मृं नमेः वामनासापुटे,
(३२) ॎ हौं ॎ जूं सेः भूभुगवेः स्वेः तां नमेः मूर्णि ॥१३-१५॥

तदनन्त्तर ग्यारह पदों का ििर, भौह, नेत्र, मुख, गण्डस्थल, हृदय, उदर, िलङ्ग, ऊरु, जानु और दोनो पैरो में न्त्यास करना
चािहए । ‘त्र्यम्बकं यजामहे’ इत्याफद मन्त्त्र के ३, ४, ३, ५, ४, २, ३, २, ३, १ और ३ वणों से िवद्वान् एक एक पद बना लें ।
फिर मूल मन्त्त्र से व्यापक न्त्यास कर भगवान् िंकर का ध्यान करना चािहए ॥१६-१८॥
िवमिग - एकादि पदन्त्यास । यथा - १. त्र्यम्बकं ििरिस, २. यजामहे भ्रुवोेः ३. सुगतन्त्ध नेत्रयो. ४. पुिष्टवधगनम् मुखे, ५.
उवागरुकं गण्डयोेः, ६. एव हृदये, ७, बन्त्धनात् जठरे , ८. मृत्योेः िलङ्गे, ९. मुक्षीय उवोेः, १०. मा जान्त्वोेः, ११. अमृतात्
पादयोेः ॥१६-१८॥

अब भगवान िंकर द्वारा उपयोग में लाये गये हाथोम का वणगन करते हुए ध्यान कहते हैं - अपने अङ्गास्थ दो करों में अमृत
कु म्भ धारण फकए हुये, उसके ऊपर वाले दो हाथों से उस अमृत कु म्भ से सुधामय जल िनकालते हुये, उसके ऊपर के दोनों
हाथों से उस अमृत जल को ििर पर अिभिषक्त करते हुये, िेष दो हाथो में िमिेः मृग और अक्षमाला धारण फकए हुये,
ििरेःिस्थत चन्त्रमण्डल से स्त्रिवत अमृत धारा से अपने िरीर को आप्लािवत करते हुये, पावगती सिहत ित्रनेत्र सदाििव
मृत्युञ्जय का मैं ध्यान करता हूँ ॥१९॥

मुिष्ट सारङ्ग, ििक्त, िलङ्ग, एवं पञ्चमुख मुरायें प्रदर्णित कर एक लाख की संख्या में इस मन्त्त्र का जप करना चािहए ॥२०॥

िवमिग - मुिष्ट मुरा - दािहने हाथ की हथेली से मुिष्टका बना कर ऊपर की ओर प्रदर्णित करने से मुिष्ट मुरा बनती है । यह मुरा
सभी िवघ्नों का िवनाि करने वाली कही गई है ।

मृगमुरा - दिहने हाथ की अनािमका और अूँगूठे को िमलाकर उस पर मध्यमा को भी रख्खे । िेि दो उूँ गिलयों को ऊपर की
ओर सीधा खडा करे । यह मृग मुरा है ।

ििक्त मुरा - दोंनों हाथों से मुट्ढी बन कर बॉये हाथ की मुट्ढी के ऊपर दािहने हाथ की मुट्ढी को रख कर ििर के ऊपर संयोजन
करने से ििक्त मुरा िनष्पन्न होती है ।

िलङ्गमुरा - दािहने हाथ के अूँगूठे को ऊपर उठाकर उसे बायें अूँगूठे से बाूँधे । उसके बाद दोंनो हाथों की उूँ गिलयों को
परस्पर बाूँधे । यह ििवसािन्नध्यकारक िलङ्गमुरा है ।

पञ्चमुख मुरा - दोनों हाथों के मिणबन्त्धों को िमलाकर आगे की अंगुिलयों को परस्पर िमलाना चािहए । ििव को संतुष्ट करने
वाली यह पञ्चमुख मुरा कही गई है ॥२०॥

जप करने के बाद दि रव्योम से दिांि होम करना चािहए । १. िबल्विल २. ितल, ३. खीर, ४. घी, ५. दूध, ५. दही, ७.
दूवाग, ८. वट की सिमधा, ९. पलाि की सिमधा एवं १०. खैर की सिमधायें दि रव्य कहे गये हैं । इन तीनों सिमधाओं को
घी, िहद और िक्कर में डु बोकर होम करना चािहए ॥२१-२२॥

अब पीठ ििक्तयाूँ कहते हैं - वामाफद ििक्तयोम के साथ िैव पीठ पर ििव का पूजन करना चािहए । १. वामा, २. ज्येष्ठा, ३.
रौरी, ४. काली चौथी ििक्त कही गई है । इसके बाद ५. कलिवकरणी, ६. बलिवकरणी, ७. बलप्रमथनी, ८. सवगभत
ू दमनी, ९
ििक्तयाूँ कही गई हैं ॥२२-२४॥

तार (ॎ), फिर ‘नमो भगवते सकल’, फिर ‘गुणात्मििक्तयुक्ताय अनन्त्ताय’ पद, फिर ‘योगपीठात्मने ’ पद और ‘नमेः’ इस मन्त्त्र
से पीठ पर पुष्पाञ्जित देकर मूल मन्त्त्र से मूर्णत की कल्पना करे यह पीठ मन्त्त्र कहा है ॥२५-२६॥

िवमिग - पीठपूजा िविध - वृत्ताकार कर्णणका अष्टदल फिर भूपुर िलख कर यन्त्त्र बनाना चािहए । उसी पर महामृत्युञ्जय
भगवान् का पूजन करना चािहए । सवगप्रथम (१६. १९ में वर्णणत) भगवान् मृत्युञ्जय के स्वरुप का ध्यान कर, मानसोपचार से
पूजन कर, उनके िलए िविधवत् अघ्नयग स्थािपत कर पीठदेवतओं का पीठ के मध्य में इस प्रकार पूजन करना चािहए - ॎ
आधारिक्तयै नमेः, ॎ प्रकृ त्यै नमेः, ॎ कूं मागय नमेः,
ॎ िेषाय नमेः, ॎ पृिथव्यै नमेः, ॎ क्षीरसमुराय नमेः,
ॎ श्वेतद्वीपाय नमेः, ॎ मिणमण्डपाय नमेः, ॎ कल्पवृक्षाय नमेः,
ॎ मिणवेफदकायै नमेः ॎ रत्नतसहासनाय नमेः,

फिर आिेयाफद कोणों में धमग आफद का तथ पूवागफद फदिाओम में अधमग आफद का पूजन करना चािहए । यथा -
ॎ धमागय नमेः, आिेये, ॎ ज्ञानाय नमेः नैऋत्ये,
ॎ वैराग्याय नमेः वायव्ये, ॎ ऐश्वयागय नमेः ऐिान्त्ये,
ॎ अधमागय नमेः पूवे, ॎ अज्ञानाय नमेः दिक्षणे,
ॎ अवैराग्याय नमेः पिश्चमे, ॎ अनैश्वयागय नमेः उत्तरे ।

पुनेः पीठ के मध्य में अनन्त्त आफद का इस प्रकार पूजन करना चािहए -
ॎ अनन्त्ताय नमेः, ॎ पदम्नाभाय नमेः,
ॎ अं द्वादिकलात्मने सूयगमण्डलाय नमेः, ॎ उं षोडिकलात्मने सोममण्डलाय नमेः,
ॎ रं दिकलात्मने विहनण्डलाय नमेः, ॎ सं सत्त्वाय नमेः,
ॎ रं रजसे नमेः, ॎ तं तमसे नमेः,
ॎ आं आत्मने नमेः, ॎ पं परमात्मने नमेः
ॎ ह्रीं ज्ञानात्मने नमेः ।

तत्पश्चात् के िरों में पूवागफद ८ फदिाओं में तथा मध्य मे वामाफद ििक्तयोम की पूजा करनी चािहए । यथा -
ॎ वामायै नमेः, पूवे ॎ ज्येष्ठायै नमेः, आिेय,े
ॎ रौद्र्य नमेः, दिक्षणे, ॎ काल्यै नमेः नैऋत्ये,

ॎ कलिवकरण्यै नम्ह पिश्चमे ॎ बलिवकरण्यैेः, वायव्ये,
ॎ बलप्रमिथन्त्यै नमेः, उत्तरे , ॎ सवगभूतदमन्त्यै नमेः, (पीट्णमध्ये),

फिर ‘ॎ नमो भगवते सकलगुणात्मििक्तयुक्ताय अनन्त्ताय योगपीठात्मने नमेः’ इस मन्त्त्र से आसन देकर, मूल मन्त्त्र से मूर्णत का
ध्यान कर, आवाहनाफद उपचारों से पुष्पाञ्जिल पयगन्त्त महामृत्युञ्जय का पूजन कर, उनकी अनुज्ञा ले आवरण पूजा प्रारम्भ
करनी चािहए ॥२२-२६॥

पाद्याफद उपचारों से आरम्भ कर पुष्पाञ्जिल समपगण पयगन्त्त मृत्युञ्जय का पूजन करने के बाद आवरण पूजा करनी चािहए
॥२७॥

प्रथम आवरण में ‘ईिानेः सवगिवद्यानाम०" (तैितरीय संिहतोक्त) मन्त्त्र से ईिान कोण में ईिान का, फिर ‘तत्पुरुषाय िवद्महे०’
‘अघोरभ्योथ घोरे भ्यो०’ ‘वामदेवाय नमेः’ तत्पुरुष, अघोर, वामदेव, और सद्योजात का पूजन कनाग चािहए ॥२७-२८॥

िद्वतीय आवरण में पुनेः ईिानाफद के समीप में िमि िनवृित्त आफद कलाओं का पूजन करना चािहए । िनवृित्त, प्रितष्ठा, िवद्या,
िािन्त्त एवं िान्त्त्यतेता ये पाूँच कलायें है । फिर षडङ्गन्त्यास पूजा करनी चािहए ॥२९-३०॥
सूयग, चन्त्र, पृथ्व्वी, जल, अिि, पवन, आकाि एवं वायु, वायु, तृतीयावरण में िस्थत इन आठ देवताओं का पूजन करना चािहए
॥३०-३१॥

चतुथग आवरण में श्वेत आभा वाली रमा, रमा, राका, प्रभा, ज्योत्स्ना, पूणाग, उषा, पूरणी एवं सुधा - इन ८ ििक्तयों का पूजन
करना चािहए ॥३१-३२॥

पञ्चम आवरण में िवश्वा, वन्त्द्या, िसता, प्रहवा, सारा, सन्त्ध्या, ििवा एवं िनिा इन श्याम िरीर वाली ८ ििक्तयों का पूजन
करना चािहए ॥३२-३३॥

षष्ठ आवरण में अरुण आभावाली आयाग, प्रज्ञा, प्रभा, मेघा, िािन्त्त, कािन्त्त घृित तथा मित - इन ८ ििक्तयों का पूजन करना
चािहए ॥३३-३४॥
सप्तम आवरण में सोने जैसी आभा वाली धरा, उमा, पावनी, पद्मा, िान्त्ता, अमोघा, जया तथा अमला - इन आठ ििक्तयों का
पूजन करना चािहए ।

फिर अनन्त्त, सूक्ष्म, ििवोत्तम, एकनेत्र, एकरुर, ित्रमूर्णत, श्रीकण्ठ तथा ििखण्डी, का अष्टम आवरण में पूजन करना चािहए
॥३४-३६॥

फिर नवम आवरण में उत्तर आफद फदिाओम के िम से उमा एवं चण्डेश्वर का, निन्त्द एवं महाकाल का, गणेि एं वृषभ का,
भृिङ्गरररट एवं स्कन्त्द का पूजन करना चािहए ।

तत्पश्चात दिम आवरण में ब्राह्यी अष्ट मातृकाओं का पूजन करना चािहए । फिर इन्त्राफद दि फदलपालों का तथा उनके वज्राफद
आयुधों का पूजन करना चािहए । इस प्रकार के पूजन से यह मन्त्त्र िसि होता है ॥२७-३९॥

िवमिग - आवरण पूजा - सवगप्रथम कर्णणका के ईिान कोण में ‘ॎ ईिान सवगिवद्यानामीश्वरेः सवगभूतानां ब्रह्यािधपित
ब्रह्मणोिधपितब्रगह्माििवो मे अस्तु सदाििवोम्’ इस वैद्क मन्त्त्र् से प्रथम आवरण में ईिान देव का पूजन करना चािहए ।

फिर पूवग में -‘ॎ तत्पुरुषाय िवद्महे महादेवाय धीमिह । तन्नो रुरेः प्रचोदयात्’ इस वैफदक मन्त्त्र से तत्पुरुष का, इसके बाद
दिक्षण फदिा में - ‘अघोरे भ्यो अथ घोरे भ्या घोरघोरतरेभ्येः । सवेभ्येः सवगसवेभ्यो नमस्ते अस्तु रुररुपेभ्येः’ इस वैफदक मन्त्त्र से
अघोर का, तत्पश्चात् ‘ॎ वामदेवाय नमो बलिवकरणाय नमेः’ इस वैफदक मन्त्त्र से पिश्चमे फदिा में वामदेव का, तदनन्त्तर ‘ॎ
अद्योजातं प्रपद्यािम सद्योजाताय वै नमेः । भवेभवे नाितभवे भवस्य मां भवदेवाय नमेः’ इस वैफदक मन्त्त्र से सद्योजात का
उत्तर फदिा में पूजन करना चािहए । फिर ईिानाफद देवों के पास िनवृित्त आफद ५ कलाओं का िनम्न मन्त्त्रों से पूजन करना
चािहए ।-
ॎ िनवृत्यै नमेः, ॎ प्रितष्ठायै नमेः, ॎ िवद्यायै नमेः,
ॎ िान्त्त्यै नमेः ॎ िान्त्त्यतीतायै नमेः ।

इस प्रकार प्रथम आवरण का पूजन कर िद्वतीयावरण में षडङ्ग मन्त्त्रों का आिेयाफद कोणो में, मध्य में तथा फदिाओं में िनम्न
मन्त्त्रों से पूजन करना चािहए । ॎ ह्रौं ॎ जूं सेः भूभुगवेः स्वेः त्र्यम्बकं ॎ नमो भगवते रुराय िूलपाणये स्वाहा हृदयाय नमेः,
ॎ हौं ॎ जूं भूभुगवेः स्वेः यजामहे ॎ रुराय अमृत मूतगये याजीवय ििरसे स्वाहा, ॎ हौ ॎ जूं सेः भूभुगवेः स्वेः सुगतन्त्ध
पुिष्टवधगनं ॎ रुराय चन्त्र ििरसे जरटने स्वाहा ििखायै वषट् , ॎ हौं ॎ जूं सेः भूभुगवेः स्वेः उवागरुकिमव बन्त्धनात् ॎ रुराय
ित्रपुरान्त्तकाय हां हीं कवचाय हुम्, ॎ हौं ॎ जूं सेः भूभुगवेः स्वेः मृत्योमुगक्षीय ॎ रुराय ित्रलोचनाय० नेत्रत्रया वौषट्, ॎ हौं
ॎ जूं सेः भूभुगवेः स्वेः मामृतात् ॎ रुराय अििनत्रयाय ज्वल० अस्त्राय िट् ।

फिर तृतीय आवरण में अष्टपत्र में पूवग आफद फदिाओं में नाम मन्त्त्रों से सूयग आफद अष्टमूर्णतयों का इस प्रकार पूजन करना चािहए
। यथा -
ॎ सूयगमूतगये नमेः, ॎ चन्त्रमूतगये नमेः, ॎ िक्षितमूतगये नमेः,
ॎ जलमूतगये नमेः, ॎ अििमूतगये नमेः, ॎ वायुमूतगये नमेः,
ॎ आकािमूतगये नमेः, ॎ यज्ञमूतगये नमेः,

चतुथग आवरण में पूवागफद ८ फदिाओं के िम से श्वेत आभावाली रमा आफद का िनम्न प्रकार से पूजन करना चािहए । यथा -
ॎ रमायै नमेः, ॎ राकायै नमेः, ॎ प्रभायै नमेः,
ॎ ज्योत्स्नायै नमेः, ॎ पूणागयै नमेः, ॎ उषायै नमेः,
ॎ पूरण्यै नमेः, ॎ सुधायै नमेः,

पञ्चम आवरण में पूवागफद फदिाओं के िम से श्याम वणग वाली िवश्वा आफद का िनम्न मन्त्त्रों से पूजन करना चािहए । यथा -
ॎ िवश्वायै नमेः, ॎ वन्त्द्यायै नमेः, ॎ िसतायै नमेः,
ॎ प्रहवायै नमेः, ॎ सारायै नमेः, ॎ सन्त्ध्यायै नमेः,
ॎ ििवायै नमेः, ॎ िनिायै नमेः,

षष्ठ आवरण में पूवागफद फदिाओं में अरुण आभा वाली आयाग आफद का िनम्न मन्त्त्रों से पूजन करना चािहए । यथा -
ॎ आयागयै नमेः, ॎ प्रज्ञायै नमेः, ॎ प्रभायै नमेः,
ॎ मेधायै नमेः, ॎ िान्त्त्यै नमेः, ॎ काल्यै नमेः,
ॎ धृत्यै नमेः, ॎ मत्यै नम्ह

सप्तम आवरण में पूवागफद फदिाओं के िम से स्वणग जैसी आभा वाली धरा आफद की इस प्रकार पूजा करनी चािहए । यथा -
ॎ धरायै नमेः, ॎ उमायै नमेः, ॎ पावन्त्यै नमेः,
ॎ पद्मायै नमेः, ॎ िान्त्तायै नमेः, ॎ अमोघायै नमेः,
ॎ जयायै नमेः, ॎ अमलायै नमेः,

अष्टम आवरण में पूवागफद फदिओं के िम से अनन्त्त आफद ८ रुरों की िनम्न मन्त्त्रों से पूजा करनी चािहए । यथा -
ॎ अनन्त्ताय नमेः, ॎ सूलश्माय नमेः, ॎ ििवोत्तमाय नमेः
ॎ एकनेत्राय नमेः, ॎ एकरुराय नमेः, ॎ ित्रमूतगये नमेः,
ॎ श्रीकण्ठाय नमेः, ॎ ििखिण्डने नमेः,

नवम आवरण में उत्तर फदिा से िवलोग िम द्वारा उमा आफद की िनम्न मन्त्त्रों से पूजा करनी चािहए । यथा -
ॎ उमायै नमेः, उत्तरे , ॎ चण्डेश्वराय नमेः वायव्ये,
ॎ निन्त्दने नमेः पिश्चमे, ॎ महाकालाय नमेः, नैऋत्ये,
ॎ गणेिाय नमेः दिक्षणे, ॎ वृषभाय नमेः आिेय,े
ॎ भृङ्गरररटने नमेः पूवे, ॎ स्कन्त्दाय नमेः ऐिान्त्ये,

फिर दिम आवरण में पूवग आफद फदिाओं में ब्राह्यी आफद मातृकाओं का िनम्न मन्त्त्रों से पूजन करना चािहए । यथा -
ॎ ब्राह्ययै नमेः, ॎ माहेश्वयै नमेः, ॎ कौमायै नमेः,
ॎ वैष्णव्यै नमेः ॎ वाराह्यै नमेः ॎ इन्त्राण्यै नमेः,
ॎ चामुण्डायै नमेः, ॎ महालक्ष्म्यै नमेः, ।

इसके बाद भूपुर में अपनी अपनी फदिाओं में इन्त्राफद दि फदलपालोम का िनम्न मन्त्त्रों से पूजन करना चािहए । यथा - ॎ लं
इन्त्राय नमेः
ॎ रं अिये नमेः ॎ मं यमाय नमेः ॎ लं इन्त्राय नमेः
ॎ वं वरुणाय नमेः ॎ यं वायवे नमेः ॎ क्षं िनऋत्ये नमेः
ॎ ईिानाय नमेः, ॎ आं ब्रह्मणे नमेः, ॎ ह्रीं अनन्त्तयाय नमेः

फिर भूपुर के बाहर पूवागफद फदिाओं में वज्राफद आयुधों की इस प्रकार पूजा करनी चािहए । यथा -
ॎ िं िक्तये नमेः, ॎ दं दण्डाय नमेः, ॎ वं वज्राय नमेः,
ॎ पां पािय नमेः, ॎ अं अंकुिाय नमेः, ॎ गं गदायै नमेः,
ॎ िूं िूलाय नमेः, ॎ चं चिाय नमेः, ॎ पं पद्माय नमेः,

इस प्रकार आवरण पूजा करने के बाद धूप दीपाफद उपचारों से िविधवत् भगवान् महामृत्युञ्जय का पूजन करना चािहए ॥२६-
३९॥

काम्य प्रयोग - जन्त्म नक्षत्र से १० वें नक्षत्र में अथवा २१ में गुडूची की चार अंगुल वाली सिमधाओं से जो व्यिक्त हवन करता
है वह अपने रोग एवं ित्रुओं का िवनाि कर संपित्त प्राप्त करता है और पुत्र पौत्रों के साथ आमोद पूवगक सौ वषग तक जीिवत
रहता है ॥३९-४१॥

संपित्त प्राप्त करने के िलए श्रीिल की सिमधाओं से हवन करना चािहए । ब्रह्मवचगस् वृिि के िलए पलाि वृक्ष की लकडी से
होम करना चािहए । धन प्रािप्त के िलए बरगद की सिमधाओं से तथा कान्त्त बढाने के िलए खफदर की सिमधाओं से हवन
करना चािहए ॥४१-४२॥

अधमग नाि के िलए ितलों से और ित्रुनाि के िलए सररों का होम करना चािहए । खीर का होम करने कािन्त्त, लक्ष्मी तथा
कीर्णत प्राप्त होती है । दही का होम परप्रयुक्त कृ त्या एवं अपमृत्यु का नाि करता है तथा िववाद में सिलता है ॥४२-४४॥

इन सभी आहुितयों में होम की संख्या दि हजार कही गई है ॥४४॥

तीन पत्तों वाले तीन तीन दूवागओं के १०८ होम से रोग नष्ट होते है । जो व्यिक्त अपने वषगगांठ के फदन ित्रमधुर (घी, मधु और
िकग रा) िमिश्रत खीर से होम करता है जीवन में उसकी लक्ष्मी, आरोग्य एवं कीर्णत का िवस्तार होता है ॥४५-४६॥

जन्त्म नक्षत्र से तीन नक्षत्र पयगन्त्त गुडूची एवं बकु ल (माल श्रीं) की सिमधाओं से होम करने से मनुष्यों का रोग एवं अपमृत्यु दूर
हो जाता है ॥४६-४७॥
अपमृत्यु को नष्ट करने के िलए प्रितफदन दूवागओं का होम करना चािहए । इस िवषय में हम िविेष लया कहें भगवान् ििव
उपासना से मनुष्यों को समस्त अभीष्ट िल देते हैं ॥४७-४९॥

ज्वर नष्ट करने के िलए अपामागग की सिमधाओं का होम करना चािहए । तथा समस्त अिभलिषत प्रािप्त हेतु दुग्ध में डु बोये गये
िगयोय के टुकडो से एक मास पयगन्त्त होम करना चािहए ॥४८-४९॥

अब महामृत्युञ्जय के दिाक्षर मन्त्त्र का उिार कहते हैं -


तार (ॎ) हृत् (नमेः) चतुथ्व्यगन्त्त भगवच्छन्त्द (भगवते), फिर ‘रुराय’ - यह दिाक्षर मन्त्त्र है ।

िवमिग - मन्त्त्र का स्वरुप इस प्रकार है - ‘ॎ नमो भगवते रुराय’ ॥४९॥

इस मन्त्त्र के बोधायन ऋिष हैं, पंिक्त छन्त्द तथा महारुर देवता है ॥४९॥

इस मन्त्त्र में आये हुये, अपने उन उन रुर स्वरुपों को बनाने के िलए यजुवेद में आये हुये मन्त्त्रों से िरीर के इकत्तीस स्थानोम
पर इस प्रकार पञ्च न्त्यास करना चािहए ॥५०-५१॥

(१) ‘याते रुर०’ मन्त्त्र का ििखा पर, ‘अिस्मन महित०’ का भौं पर, ‘त्र्यम्बकं यहामहे०’ का नेत्रों पर, ‘नमेः स्त्रुत्यायच०’ का
कणग पर, ‘मानस्तोके ०’ का नाक पर, ‘अवतत्यं धनुेः०’ का मुख पर, ‘नीलग्रीवा०’ इन दो ऋचाओं का कण्ठ पर न्त्यास करना
चािहए । ‘नमस्तेअस्त्वायुिध०’ इस मन्त्त्र का दोनों कन्त्घों पर, ‘यात हेित०’ इस मन्त्त्र से दोनों बाहु में, ‘ये तीथागिन०’ इस मन्त्त्र
का दोनों हाथों में, ‘संद्योजातं प्रपद्यािम०’ इस मन्त्त्र का दोनों अंगूठो में, ‘वामदेवाय०’ इस मन्त्त्र का दोनो तजगनी में,
‘अघोरे भ्य०’ इस मन्त्त्र का दोनों मध्यमा में, ‘तत्पुरुषाय०’ इस मन्त्त्र का दोनों अनािमका में, ईिानेः०’ इस मन्त्त्र का दोनों
किनष्ठा में, ‘नमो वेः फकररके भ्येः०’ इस मन्त्त्र का हृदय में, ‘नमो गणेभ्येः०’ इस मन्त्त्र का पृष्ठ में, ‘नमो िहरण्यबाहवे०’ इस मन्त्त्र
का दोनों पाश्वगभाग में, ‘िहरण्यगभगेः०’ इस मन्त्त्र का नािभ में, ‘मीढु ष्टम०’ इस मन्त्त्र का दोनों करटभाग में, ‘ये भूता नाम०’ इस
मन्त्त्र का गुह्यस्थान में, ‘जातवेद’ से लेकर दो ऋचाओं का ििरेः युक्त अपान में, ‘मानो महान्त्तं०’ इस मन्त्त्र का दोनो ऊरुप्रदेि
में ‘एष ते रुरभगेः०’ इस मन्त्त्र का दोनो जानुओं में, ‘ये पथामृ०’ दोनों पैरो में, ‘अध्यवोचदिधवक्ता०’ का कवच में, ‘नमो
िविल्मने च कविचने०’ इस मन्त्त्र का उपकवच में, ‘नमोस्तु नीलग्रीवाय०’ नेत्रत्रय में, ‘प्रमुञ्चधन्त्वनेः०’ का अस्त्र में न्त्यास करना
चािहए । इस प्रकार से उक्त अंगों में मन्त्त्रों का न्त्यास करना प्रथम न्त्यास कहा है ॥५१-६२॥

िवमिग - १. ॎ या ते रुर... चाकिीिह (यजु०. १६. २) ििखायाम्,


२. ॎ अिस्मन् महित ... तन्त्मिस, (यजु०. १६. ५५)) ििरस,
३. ॎ सहस्त्रािण... कृ िध, (यजु०. १६. ५३) भाले,
४. ॎ हंसेः... िुिचषद्, (यहु०. १०. २४) भ्रुवोेः,
५. ॎ त्र्यम्बकं ... मामृतात्, (यजु०. ३. ६०) नेत्रयाेः,
६. ॎ नमेः स्त्रुत्याय ... नमेः, (यजु०. १६. ३७) कणगयोेः,
७. ॎ मानस्तोके ... हवामहे, (यजु०. १६. १६) नसोेः,
८. ॎ अवतत्य ... भवेः, (यजु०. १६. १३) मुख,े
९. ॎ नीलग्रीवाेः... क्षमाचराेः (यजु०. १६. ५६, ५७) कण्ठे ,
१०. ॎ नमस्ते ... पररभुज (यजु०.१६. १४) स्कन्त्धयोेः,
११. ॎ या ते ... पररभुज, (यजु०. १६. ११) बाहोेः,
१२. ॎ ये तीथागिन ... तन्त्मिस, (यजु०. १६. ६१) हस्तयोेः,
१३. ॎ सद्योजातं ....नमेः, (तै० आ०. १०. ४३. १) अंगुष्टयोेः,
१४. ॎ वामदेवाय ... नमेः, (तै० आ०. १०. ४४. १) तजगन्त्यो,
१५. ॎ अघोरे भ्येः ... रुररुपेभ्येः, (तै० आ०. १०. ४५.१) मध्यमयोेः,
१६. ॎ तत्पुरुषाय ... प्रचोदयात्, (तै० आ०. १०. ४६. १) अनािमकयोेः,
१७. ॎ ईिानेः ... सदाििवोम् (तै आ०. १०. ४७. १) किनष्ठयोेः,
१८. ॎ नमो वेः ... नम आिनहंतभ्े येः, (यजु० १६. ४६) हृदये,
१९. ॎ नमो गणेभ्यो ... नमो नमेः, (यजु. १६. २५) पृष्ठ,े
२०. ॎ नमो िहरण्यबाहवे ... पतये नमेः, ((यजु०. १६. १७.) पाश्वगयोेः,,
२१. ॎ िहरण्यगभगेः... िवधेम (यजु०. १३. ४.) नाभौं,
२२. ॎ मीढु ष्टम ... गिह, (यजु०. १६. ५१) कट् योेः,
२३. ॎ ये भूतानाम ... तन्त्मिस, (यजु० १६. ५९) गुह्य,े
२४. ॎ जातवेदसे .... दुररतात्यििेः, (तै० आ०. १०. १. १६) तामाििवणागम्० नमेः ... (तै० आ०. १०. १. १) दो ऋचाओं
से ििरोयुक्त अपाने,
२५. ॎ मानो महान्त्तं ... रीररषेः, (यजु०. १६. १५.) उवोेः,
२६. ॎ एष ते ... पिुेः, (यजु०. ३. ५७) जान्त्वाेः,
२७. ॎ ये पथां ... तन्त्मिस, (यजु०. १६. ६०) पादयोेः,
२८. ॎ अध्यवोचदिधवक्ता ... परासुव, (यजु०. १६. ५) कवचे,
२९. ॎ नमो िबिल्मने ... चाहन्त्याच च, (१६. ३५) उपकवचे,
३०. ॎ नमोस्तु ... नम, (यजु०. १६ ८) तृतीय नेत्रे,
३१. ॎ नमोस्तु ... भगवोवप, (यजु. १६. ८) अस्त्रे,

उक्त मन्त्त्रों से िरीर के ३१ अङ्गों पर न्त्यास करन के बाद ‘एतअवन्त्तश्च भूयांसश्च फदिो रुरािन्त्वतिस्थरे ०’ (यजु०. १६. ६३)
मन्त्त्र से फदग्बन्त्ध करना चािहए यहाूँ तक प्रथमन्त्यास कहा गया ॥५१-६२॥

(२) अब दिाक्षर मन्त्त्र का अक्षरन्त्यास कहते हैं - मूल मन्त्त्र के वणो से िमिेः मस्तक, नािसका, ललाट, मुख, कण्ठ, हृदय,
दािहन हाथ, बाया हाथ, नािभ एवं पैरों पर इस प्रकार कु ल १० अङ्गों पर न्त्यास िद्वतीय न्त्यास कहा जाता है ॥६३-६४॥

िवमिग - यथा - ॎ नमेः मूर्णि, नं नमेः नािसकायाम्


मों नमेः ललाटे, भं नमेः मुखे, गं नमेः कण्ठे ,
वं नमेः हृदये, तें नमेः दिक्षणहस्ते, रुं नमेः वामहस्ते,
रां नमेः नाभौ, यं नमेः पादयोेः ॥६३-६४॥

(३) अब इस दिाक्षर मन्त्त्र का तृतीय न्त्यास कहते हैं -


सद्योजातं प्रपद्यािन से लेकर - ईिानेः सवगिवद्यानां पयगन्त्त ५ ऋचाओं से िमिेः पैर, ऊरु, हृदय, मुख और ििर पर न्त्यास
करते समय साधक प्रत्येक ऋचा के अन्त्त में हंस हंस का उिारण करे । यह तृतीय न्त्यास है । इसके करने से वह साधक ििव
स्वरुप बन जाता है ॥६४-६५॥

िवमिग - न्त्यास िविध -


ॎ सद्योजातं प्रपद्यािन ... नमेः, हंस हंस (तै० आ० १०. ४३. १) पादयोेः,
ॎ वामदेवाय ... नमेः, हंस हंस (तै० आ० १९. ४. ४१) ऊवोेः,
ॎ अघोरे भ्यो ... रुररुपेभ्येः, हंस हंस (तै० आ० १०. ४५. १) हृफद,
ॎ तत्पुरुषाय ... प्रचोदयात् हंस हंस (तै० आ० १० ४६. १) मुखे,
ॎ ईिान ... ििवोम् हंस हंस (तै० आ० १०. ४०. १) मूर्णि, यहाूँ तक तृतीय न्त्यास कहा गया ॥६४-६५॥

इस प्रकार तीनों न्त्यासों को करने के बाद संपुटीकरण करना चािहए । फदिाओं में इन्त्राफद मुख्य देवताओं का न्त्यास संपुट न्त्यास
कहा जाता है ॥६६॥

‘त्रातारिमन्त्र०
ं ’ मन्त्त्र से पूवग में इन्त्र का, त्वन्ने अिे०’ इस मन्त्त्र से अििकोण में अिि का, ‘सुगन्नु पन्त्था०’ इस मन्त्त्र से दिक्षण में
यम का न्त्यास, ‘असुन्त्वन्त्तं०’ इस मन्त्त्र से िनऋित का, ‘तत्त्वायािम०’ इस मन्त्त्र से पिश्चम में वरुण का, आनो िनयुफदभेः०’ इस
मन्त्त्र से वायव्य में वायु का, ‘वयं सोम०’ इस ऋचा से उत्तर में सोम का, ‘तमीिानम्०’ इस ऋचा से ईिान में ईिानदेव का
न्त्यास करना चािहए । ‘अस्मे रुरमेहना०’ मन्त्त्र से ऊपर ब्रह्यदेव का तथा ‘स्योना पृिथवी०’ इस मन्त्त्र से नीचे पृथ्व्वी का न्त्यास
करना चािहए ॥६७-६९॥

इस प्रकार जो साधक संपुटन्त्यास करता है वह पाप रिहत हो जाता है । उसके तेज से प्रेत और चौराफद उपरवी तत्त्व उसे
धर्णषत नहीं कर सकते । फकन्त्तु स्वयं पराभूत हो कर उससे दूर भाग जाते हैं ॥७०-७१॥

िवमिग - सम्पुटीकरण प्रयोग-


ॎ त्रातारिमन्त्र ... मधवाधाित्वन्त्रेः (यजु०. २०. ५०) पूवे इन्त्रं न्त्यसािम,
ॎ त्वन्नो ... रक्षमाणस्तव्य्वृत,े (यजु०. ३४. १३) आिेये अिि न्त्यसािम,
ॎ सुगन्नु पन्त्थां ... कृ णोतु, (का० सं० २. १५) दिक्षणे यम न्त्यसािम,
ॎ असुन्त्वन्त्तं ... तुभ्यस्तु, (यजु० १२. ६२) नैऋत्ये िनऋतत न्त्यसािम,
ॎ तत्त्वायािम ... प्रमोषी (यजु० १९. ४९) पिश्चमे वरुणं न्त्यसािम,
ॎ आनो िनयुफदभेः... सदानेः (यजु०. २७. २८) वायव्ये वायुं न्त्यसािम,
ॎ वयं ... सचेमिह (यजु०. ३. ५६) उत्तरे सोमं न्त्यसािम,
ॎ तमीिानं ... स्वस्तये (यजु०. २५. १८) ऐिान्त्ये ईिानं न्त्यसािम,
ॎ अस्मे रुरा ... अवन्त्तु देवाेः, (यजु०. ३३.५०) ऊध्वे ब्रह्मणं न्त्यसािम,
ॎ स्योना ... िम्मगसप्प्रथाेः, (यजु०. ३५. २१) अघेः पृथ्व्वीं न्त्यसािम ॥६७-७१॥

(४) अब चतुथग न्त्यास कहते हैं - ‘मनोजूितर’ इस ऋचा का गुह्य में, ‘अबोध्यिि’ इस ऋचा का उदर में, ‘मूधागनं फदवो’ इस
ऋचा का हृदय में, ‘ममागिण ते’ इस ऋचा का मुख में तथा ‘जातवेदाेः फदवा’ इस ऋचा का ििर पर न्त्यास करना चािहए । यज
चतुथगन्त्यास कहा जाता है ॥७१-७२॥

िवमिग - यथा - ॎ मनोजूितर ... प्रितष्ठ (यजु०. २. १३) गुह्य,े


ॎ अबोध्यिि ... (यजु०. १५-२४) उदरे ,
ॎ मूिाग ... देवाेः (यजु०. ७. २४) हृफद,
ॎ मम्मागिण ... मदन्त्तु (यजु०. ७. ४९) मुख,े
ॎ जातवेदाय ... (तै ब्रा. ३. १०. ५. ९) ििरिस ॥७१-७२॥

(५) अब पञ्चमन्त्यास कहते हैं - ‘यज्जाग्रतो०’ इत्याफद ििवसंकल्प के ६ सूत्रों का हृदय पर, ‘सहस्त्रिीषागेः... देवाेः’ इत्याफद १६
पुरुष सूक्तों का ििर पर, ‘अदभ्येः संभृत’ं इत्याफद ६ मन्त्त्रों का ििखा पर, ‘आिुेः िििानेः’ इत्याफद १२ मन्त्त्रों का कवच पर,
‘िवभ्राट०’ इत्याफद १७ मन्त्त्रों का नेत्र पर तथा ‘नमस्ते रुरमन्त्यवे’ इत्याफद ितरुफरय अध्याय का अस्त्राय पर न्त्यास करना
चािहए । यह सवागभीष्टसाधक पञ्चम न्त्यास कहा गया है ॥७३-७४॥

िवमिग - षडङ्गन्त्यास - ॎ यज्जाग्रतो०, येनकमागिण०, यत्प्रज्ञान०, येनेदम्भूत०, यिस्मन्नृचेः०, सुषारिथेः०, (यजु०. १. ५-


१०) हृदयाय नमेः ।

ॎ सहस्त्रिीषाग०, पुरुषऽएवेद०, एतावानस्त०, ित्रपादूध्वग०, ततोिव्य्वराड०, तस्माद्यज्ञात् सवग०, तस्माद्यज्ञात्सवग०


तस्मादश्वा०, तं य्यज्ञं०, तत्पुरुषं०, ब्राह्यणो०, चन्त्रमा मनसो०, नाभ्याऽआसीद०, यत्पुरुषेण०, सप्तास्यासन्०, यज्ञेन०,
(यजु०. २. १-१६) ििरसे स्वाहा ।

ॎ अद्भयेः संभृतं०, त्वेदाहमेतं०, प्रजापितश्चरित०, यो देवेभ्यो०, रुचंम्ब्राह्य०, श्रीश्चते०, (यजु०. २. १७-२२) ििखायै
वषट् ।

आिुेः िििानो०, संिन्त्दनेना०, सऽइषुहस्तै०, बृहस्पते पररदीया०, बल०, गोत्रिमदं०, अिभगोत्रािण०, इन्त्रऽआसान्नेता०,
इन्त्रस्य०, उिषगयम०, अस्माकिमन्त्रेः०, अमीषां िचत्त०, (यजु०, ३. १-१२) कवचाय हुम् ।

ॎ िव्य्वभ्राट् वृहत्०, उदुत्यञ्जातवेद सं०, येनापावक०, देव्याविवयग०, तम्प्रत्नवा पूवग ० अयंव्य्वेनश्चोदय०, िचत्रं देवाना०, आ
इडािभ० यदद्य०, तरिण०, तत्सूयगस्य०, तिन्त्मत्रस्य०, वण्णमहार०, वट सूयग०, आयन्त्त एव०, अद्यादेवा०, आकृ ष्णेन०, (र,१-
१७) नेत्रत्रयाय वौषट् ।

‘ॎ नमस्ते रुरमन्त्यव तमेिाञ्जभेदद्ध्मेः’ (यजु०. ५. १-६६) अस्त्राय िट् । यहां रुराष्टाध्यायी की संख्या दी गई है ॥७३-७४॥

इस प्रकार षडङ्गन्त्यास कर प्रणाम करने के बाद अपनी आत्मा में भगवान् िंकर का ध्यान करना चािहए ॥७५॥

इस मन्त्त्र के अनुष्ठान में ध्यान का स्वरुप कहते हैं - कै लाि पवगत पर िवराजमान ित्रनेत्र, पञ्चमुख, नीलकण्ठ, दिभुजाओं से
युक्त पावगती सिहत परम ििव की मैं वन्त्दना करता हूँ, जो सपों की माला धारण फकए हुये हैं, व्याघ्रचमग का पररधान लपेटे हुये
हैं, हाथों में िमिेः अक्षमाला, वर, कु िण्डका, अभय मुरा और मस्तके पर चन्त्रकला धारण फकए हुये, तथा जटाओं में िस्थत
गङ्गाजल से िोिभत हो रहे हैं ॥७६॥

इस मन्त्त्र का दि लाख जप करना चािहए । खीर एवं घी की १० हजार आहुितयाूँ देनी चािहए तथा पूवोक्त पीठ पर पूजन
करना चािहए (र० १६. २२-२५) ॥७७॥
अब मैं भगवान् रुर के पूजा यन्त्त्र तथा आवरण देवताओं को कहता हूँ -
सवगप्रथम कार्णणका में अष्टदल, उसके ऊपर षोडिदल, पुनेः चतुर्णविित दल, द्वातत्रिदल एवं चत्वाररिदल बनाकर उसके
बाहर भूपुर िनमागण कर रुर का पूजन करे ॥७८-७९॥
कर्णणका के मध्य में भगवान् रुर का पूजन कर चारों फदिाओं में तथा मध्य में िमिेः सद्योजात, वामदेव, अघोर तत्पुरुष और
ईिान देव का पूजन करें । फिर अष्टदल में उनके ८ सेवक नन्त्दी आफद का पूजन करे । १. नन्त्दी, २. महाकाल, ३. गणेि, ४.
वृषभ, ५. भृङ्गीररटी, ६. स्कन्त्द. ७. उमा और ८. चण्डीश्वर - ये आठ उनकें सेवकगण कहे जाते हैं ॥८०-८१॥

फिर िद्वतीय आवरण में षोडिदल िस्थत देवताओं का पूजन करे । अनन्त्त, सूक्ष्म, ििव, एकपाद, एकरुर, ित्रमूर्णत, श्रीकण्ठ,
वामदेव, ज्येष्ठ, रुर, काल, कलिवकरण, बल, बलिवकरण एवं बलप्रमथन ये १६ देव कहे गये हैं ॥८२-८४॥

इसके बाद तृतीय आवरण में २४ दलों में िस्थत २४ देवताओं का पूजन करे । आिणमा आफद ८ िसिियाूँ, ब्राह्यी आफद ८
मातृकायें तथा अष्टभैरव - ये २४ तृतीय आवरण के देवता हैं ॥८४-८५॥

इसके बाद चतुथग आवरण में ३२ दलों में िस्थत भव आफद ३२ देवताओं का, नागों, नृपों और पवगतों का पूजन करना चािहए ।
भव आफद ८ ििव, अनन्त्त आफद ८ नाग, वैन्त्य आफद ८ नृप तथा िहमवान् आफद ८ पवगतों के नाम इस प्रकार हैं -

अष्ट ििव - १. भव, २. िवग, ३. ईिान, ४. पिुपित, ५. रुर, ६. उग्र, ७. भीम, एवं ८. महादेव । अष्ट नाग - १- अनन्त्त, २.
वासुफक, ३. तक्षक, ४. कु लीरक, ५. ककोटक, ६. िंखपाल, ७. कम्बल तथा ८. अश्वतर - ये ८ नाग हैं । अष्ट नृप - १. वैन्त्य,
२. पृथु, ३. हैहय, ४. अजुगय, ५. िाफकन्त्तलेय, ६. भरत, ७. नल और ८. राम ये ८ राजा हैं । अष्ट पवगत १. िहमवान्,
२.िनषधेः, ३. िवन्त्ध्य, ४. माल्यवान्, ५. पाररयात्र, ६. मलय, ७. हेमकू ट और ८. गन्त्धमादन ये ८ पवगत हैं ॥८५-९०॥

अब पञ्चम आवरण में पूजा के योग्य ४० देवताओं के नाम कहते हैं - इन्त्राफद ८ फदलपाल, इन्त्राणी आफद ८ उनकी ििक्तयाूँ,
वज्राफद उनके ८ आयुध, ऐरावत आफद उनके ८ वाहन तथा ८ फदग्गज ये ४० देवता हैं ॥९०॥

इन्त्र, अिि, यम, िनऋित्य, वरुण, वायु, कु बेर एवं ईिान ये ८ फदलपाल है । िची, स्वाहा, वराहजा, खड् इगनी, वारुणी,
वायवी, कु बेरजा एवं ईिानी ये ८ उनकी ििक्तयाूँ कही गई हैं । वज्र, ििक्त, दण्ड, खड् ग, पाि अंकुि, गदा एवं िूलेय ८
उनके आयुध है । ऐरावत् , अज, मिहष, प्रेत, मीन, पृषद् नर एवं वृषभ ये ८ उनके सुप्रतीक ये ८ फदग्गज है ॥९१-९४॥

इस प्रकार पञ्चावरण में तत्तदेवताओं की पूजा कर भूपुर में फदिाओं में िवद्वान् साधक को पुनेः पञ्चावरण की पूजा करनी
चािहए । यहाूँ तक षष्ठ आवरण का पूजन कहा गया ॥९५॥

इसके बाद भूपुर के अिि कोण में िवरुपाक्ष की, नैऋत्ये में िवश्वरुप की, वायव्य में पिुपित की तथा ईिान कोण में ऊध्वगिलङ्ग
का पूजन करना चािहए । फिर भूपुर के बाहर ८ फदिाओं में आठ नागों का पूजन करना चािहए । इस िविध से सप्तम आवरण
की पूजा करनी चािहए ॥९१-९७॥

िेष, तक्षक, अनन्त्त, वासुफक, िंखपाल, महायज्ञ, कम्बल और ककोटगक ये ८ नागों के नाम है । इन नागों का वणग िमिेः श्वेत,
नीला, कुं कु म जैसा, पीला, काला तथा िेष तीनोम का उज्ज्वल है ॥९८-९९॥
अब उन नागों की जाित तथा िणों की संख्या कहता हूँ - पूजा में िेष आफद नागों की जाित िमिेः १. ब्राह्यण, २. वैश्य, ३.
ब्राह्मण, ४. क्षित्रय, ५. वैश्य, ६. िूर, ७. तथा दो िूर हैं । उनके िणों की संख्या िमिेः १. हजार, ५ सौ, एक हजार, ७ सौ,
७ सौ, ५ सौ, ३० तथा पुनेः ३० बतलाई गई है ॥९९-१०१॥

िवमिग - आवरण पूजा िविध - सवगप्रथम १६. ७६ में वर्णणत भगवान् महामृत्युञ्जय के स्वरुप का ध्यान कर मानसोपचारों से
उनका पूजन करे , पुनेः िविधवत् अघ्नयग स्थािपत कर पूवगवत् पीठ ििक्तयों का पूजन कर (र० १६. २१, २६) पीठ पर आसन
देकर भगवान् महामृत्युञ्जय का धूप दीपाफद उपचारों से पूजन करे । पुनेः उनकी अनुज्ञा लेकर आवरणपूजा प्रारम्भ करे ।
आवरणपूजा के प्रारम्भ में १६.५१-७४ पयगन्त्त वर्णणत पाूँचों न्त्यास करे । तदनन्त्तर इस प्रकार आवरण पूजा करे -

कर्णणका के मध्य में मूल मर भगवान् रुर का पूजन करे । फिर फदिाओं तथ मध्य में सद्योजात आफद पूजन करे । यथा - ॎ
अघोराय नमेः, पिश्चमे
ॎ वामदेवाय नमेः, दिक्षणे ॎ अघोराय नमेः, पिश्चमे,
ॎ तत्पुरुषाय नमेः, उत्तरे, ॎ ईिानाय नमेः मध्ये

इसके बाद प्रथमावरण में अष्टदल में पूवागफद दल के िम से नन्त्दी आफद का िनम्न प्रकार से पूज्न करना चािहए - ॎ निन्त्दने नमेः
पूवे,
ॎ महाकालाय नमेः, आिेये, ॎ गणेिाय नमेः, दिक्षणे,
ॎ वृषभाय नमेः, नैऋत्यदले, ॎ भृङ्गीरररटने नमेः, पिश्चमदले,
ॎ स्कन्त्दाय नमेः, वायव्ये, ॎ उमायै नमेः, उत्तरे ,
ॎ चण्डीश्वराय नमेः ऐिान्त्ये

इसके पश्चात् िद्वतीयावरण में षोडि दल में पूवागफददल के िम से अनन्त्ताफद की पूजा करनी चािहए-
ॎ अनन्त्ताय नमेः, ॎ सूक्ष्माय नमेः, ॎ ििवाय नमेः,
ॎ एकपादाय नमेः, ॎ एकरुराय नमेः, ॎ ित्रमूतगये नमेः,
ॎ श्रीकण्ठाय नमेः, ॎ वामदेवाय नमेः, ॎ ज्येष्ठायै नमेः,
ॎ श्रेष्ठाय नमेः, ॎ रुराय नमेः, ॎ कालाय नमेः,
ॎ कलिवकरणाय नमेः, ॎ बलाय नमेः, ॎ बलिवकरणाय नमेः,
ॎ बलप्रमथनाय नमेः,

तदनन्त्तर तृतीयावरण में चतुर्वविित दलों में पूवागफद दलों में अनुलोम िम से अिणमाफद अष्ट िसिियों की, ब्राह्यी आफद अष्ट
मातृकाओं की तथा अष्टभैरवों की िनम्निलिखत मन्त्त्रों से पूजा करनी चािहए -
ॎ अिणमायै नमेः, ॎ मिहमायै नमेः, ॎ लिघमायै नमेः,
ॎ गररमायै नमेः, ॎ प्राप्त्यै नमेः, ॎ प्राकाम्यै नमेः,
ॎ ईिितायै नमेः, ॎ विितायै नमेः, ॎ ब्राह्ययै नमेः,
ॎ माहेश्वयै नमेः, ॎ कौमायै नमेः ॎ वैष्णव्यै नमेः,
ॎ वाराह्यै नमेः, ॎ इन्त्राण्यै नमेः ॎ चामुण्डायै नमेः,
ॎ चिण्डकायै नमेः, ॎ अिसताङ्गभैरवाय नमेः, ॎ रुरुभैरवाय नमेः,
ॎ चण्डभैरवाय नमेः, ॎ िोधभैरवाय नमेः, ॎ उन्त्मत्तभैरवाय नमेः,
ॎ कालभैरवाय नमेः, ॎ भीषणभैरवाय नमेः, ॎ संहारभैरवाय नमेः ।

फिर चतुथग आवरण में ३२ दलों में भव आफद ८ ििवों की अनन्त्त आफद ८ नागों की वैन्त्य आफद ८ नृपों की तथा िहमवान् आफद
८ पवगतों की पूजा करनी चािहए-
ॎ भवाय नमेः, ॎ िवागय नमेः, ॎ ईिानाय नमेः,
ॎ पिुपतये नमेः, ॎ रुराय नमेः, ॎ उग्राय नमेः,
ॎ भीमाय नमेः, ॎ महादेवाय नमेः ॎ अनन्त्ताय नमेः,
ॎ वासुकये नमेः, ॎ तक्षकाय नमेः, ॎ कु लीरकाय नमेः,
ॎ ककोटकाय नमेः, ॎ िंखपालाय नमेः, ॎ कम्बलाय नमेः,
ॎ अश्वतराय नमेः, ॎ वैन्त्याय नमेः, ॎ पृथवे नमेः,
ॎ हैहयाय नमेः, ॎ अजुगनाय नमेः, ॎ िाकु न्त्तलेयाय नमेः,
ॎ भरताय नमेः, ॎ नलाय नमेः, ॎ रामाय नमेः,
ॎ िहमवते नमेः, ॎ िनषधाय नमेः, ॎ िवन्त्ध्याय नमेः,
ॎ माल्यवते नमेः, ॎ पाररयात्राय नमेः, ॎ मलयाचलाय नमेः,
ॎ हेमकू टाय नमेः ॎ गन्त्धमादनाय नमेः,

इसके बाद पञ्चम आवरण में चत्वाररिदल में ८ फदलपाल, उनकी ८ ििक्तयाूँ उनके ८ आयुध आठ वाहन तथा अष्ट फदग्गजोम
का पूजन करना चािहए -
ॎ इन्त्राय नमेः, ॎ अिये नमेः, ॎ यमाय नमेः,
ॎ िनऋतये नमेः, ॎ वरुणाय नमेः, ॎ वायवे नमेः,
ॎ कु बेराय नमेः, ॎ ईिानाय नमेः, ॎ ििै नमेः,
ॎ स्वाहायै नमेः, ॎ वराहजायै नमेः, ॎ खिडगन्त्यै नमेः,
ॎ वारुण्यै नमेः, ॎ वायव्ये नमेः, ॎ कु बेरजायै नमेः,
ॎ ईिान्त्ये नमेः, ॎ वज्राय नमेः, ॎ िलत्यै नमेः,
ॎ दण्डाय नमेः, ॎ खड् गाय नमेः, ॎ पािाय नमेः,
ॎ अंकुिाय नमेः, ॎ गदायै नमेः, ॎ िूलाय नमेः,
ॎ ऐरावताय नमेः, ॎ अजाय नमेः, ॎ मिहषाय नमेः,
ॎ प्रेताय नमेः, ॎ मीनाय नमेः, ॎ पृषदे नमेः,
ॎ नराय नमेः, ॎ वृषभाय नमेः, ॎ ऐरावताय नमेः,
ॎ पुण्डरीकाय नमेः, ॎ वामनाय नमेः, ॎ कु मुदाय नमेः,
ॎ अञ्जनाय नमेः, ॎ पुष्पदन्त्ताय नमेः, ॎ सावगभौमाय नमेः,
ॎ सुप्रतीकाय नमेः ।

फिर षष्ठ आवरण में भूपुर में पूवग आफद फदिाओम के िम से इन्त्राफद की िनम्न मन्त्त्रों से पूजा करनी चािहए -
ॎ रं अिये नमेः, ॎ मं यमाय नमेः, ॎ लं इन्त्राय नमेः,
ॎ वं वरुणाय नमेः, ॎ यं वायवे नमेः, ॎ क्षं िनऋतये नमेः,
ॎ हं ईिानाय नमेः, ॎ आं ब्रह्मणे नमेः, ॎ ह्रीं अनन्त्ताय नमेः ।

फिर सप्तम आवरण में भूपुर के आिेयाफद कोणो में िवरुपाक्ष आफद का पूजन करना चािहए - ॎ िवरुपाक्षाय नमेः आिेये, ॎ
िवश्वरुपाय नमेः नैऋत्ये, ॎ पिुपतये नमेः वायव्ये, ॎ ऊध्वगिलङ्गाय नमेः ऐिान्त्ये,

इसके बाद भूपुर के बाहर पोवग आफद ८ फदिाओं में िेष आफद ८ नागोम का उनके वणग, जाित, और िणो को आफद में लगाकर
िनम्न रीित से पूजन करना चािहए -
ॎ श्वेताय िवप्रवणागय सहस्त्रिणाय िेषाय नमेः,
ॎ नीलाय वैश्यवणागय पञ्चितिणाय अनन्त्ताय नमेः,
ॎ कुं कु माभाय िवप्रवणागय सहस्त्रिणाय अनन्त्ताय नमेः,
ॎ पीताय क्षित्रयवणागय सप्तितिणाय वासुकये नमेः,
ॎ कृ ष्णाय वैश्यवणागय सप्तितिणाय िंखपालाय नमेः,
ॎ उज्ज्वलाय िूरवणागय पञ्चितिणाय महापद्माय नमेः,
ॎ उज्ज्वलाय िूरवणागय तत्रिद्िणाय कम्बलाय नमेः,
ॎ उज्ज्वलाय िूरवणागय ित्रिद्िणाय ककोटकाय नमेः ।

इस प्रकार आवरण पूजा िनष्पन्न कर धूप दीपाफद उपचारों से पुनेः भगवान् रुर का पूजन करे ॥१०१॥

इस प्रकार पञ्चाङ्गन्त्यास कर महादेव का पूजन करने वाला तथा दिाक्षर मन्त्त्र का जप करने वाला ब्राह्मण िबना कष्ट के
अपनी इष्टिसिि कर लेता है । वह भगवान् सदाििव की आराधना से सुन्त्दर मकान, साध्वी, पितव्रत स्त्री तथा यथेष्ट धन प्राप्त
करता है ॥१०२-१०३॥

अब काम्य प्रयोग कहते हैं - इस दक्षाक्षर मन्त्त्र में भी महामृत्युञ्जय के अनुष्ठान में बताये गये काम्य प्रयोगों की तरह काम्य
प्रयोग अनुिष्टत करना चािहए । ब्राह्मण को दिाक्षर मन्त्त्र का जप करते हुये रुरजापी बनना चािहए ॥१०४॥

अब सब प्रकार की िसिि देन वाले कु बेर के मन्त्त्र को कहता हूँ -


‘यक्षाय’ पद बोलकर, ‘कु बेराय’, फिर ‘वैश्रवणाय धन’ इन पदों का उिारण कर ‘धान्त्यािधपतये धनधान्त्य समृििम में देिह
दांपय’, फिर ठद्वय (स्वाहा) लगासे से यह ३५ अक्षरों का कु बेर मन्त्त्र िनष्पन्न होता है ॥१०५-१०६॥

इस मन्त्त्र के िवश्रवा ऋिष हैं, बृहती छन्त्द है तथा ििव के िमत्र कु बेर इसके देवता ॥१०७॥

िवमिग - कु बेरमन्त्त्र का स्वरुप इस प्रकार है - यक्षाय कु बेराय वैश्रवणाय धनधान्त्यािधपतये धनधान्त्यसमृििम मे देिह दापय
स्वाहा (३५)।

िविनयोग - अस्य श्रीकु बेरमन्त्त्रस्य िवश्रवाऋिषबृगहतीच्छन्त्देः ििविमत्रं धनेश्वरो देवताऽत्मनोऽभीष्टिसियथे जपे िविनयोगेः
॥१०५-१०७॥

मन्त्त्र के ३, ४, ५, ८, ८, एवं ७ वणों से षडङ्गन्त्यास करे । फिर अलकापुरी में िवराजमान कु बेर का इस प्रकार ध्यान करे
॥१०८॥
िवमिग - न्त्यास िविध - यक्षाय हृदयाय नमेः, कु बेराय ििरसे स्वाहा,
वैश्रवणाय ििखायै वषट् , धनधान्त्यिधपतये कवचाय हुम्,
धनधान्त्यसमृििम मे नेत्रत्रयाय वौषट् , देिह दापय स्वाहा अस्त्राय िट् ॥१०८॥

अब अलकापुरी में िवराजमान कु बेर का ध्यान कहते हैं - मनुष्य श्रेष्ठ, सुन्त्दर िवमान पर बैठे हुये, गारुडमिण जैसी आभा वाले,
मुकुट आफद आभूषणों से अलंकृत, अपने दोनो हाथो में िमिेः वर और गदा धारण फकए हुये, तुिन्त्दल िरीर वाले, ििव के
िमत्र िनधीश्वर कु बेर का मैं ध्यान करता हूँ ॥१०९॥

इस मन्त्त्र का एक लाख जप करना चािहए । ितलों से उसका दिांि होम करना चािहए तथा धमागफद वाले पूवोक्त पीठ पर
षडङ्ग फदलपाल एवं उनके आयुधों का पूजन करना चािहए ॥११०॥

अब काम्य प्रयोग कहते हैं - धन की वृिि के िलए ििव मिन्त्दर में इस मन्त्त्र का दि हजार जप करना चािहए । बेल के वृक्ष के
नीचे बैठ कर इस मन्त्त्र का एक लाख जप करने से धन-धान्त्य रुप समृिि प्राप्त होती है ॥१११॥

अब कु बेर का सवगदारररयनािक अन्त्य मन्त्त्र कहते हैं -


सवगप्रथम तार (ॎ) से संपुरटत लक्ष्मी(श्रीं) अथागत् (ॎ श्रीं ॎ), फिर माया बीज से संपुरटत रमा (श्रीं) (ह्रीं श्रीं ह्रीं) । तत्पश्चात्
काम (ललीं) बीज से पुरटत लक्ष्मी (श्रीं) फिर चतुथ्व्यगन्त्त िवत्तेश्वर िब्द (िवत्तेश्वराय) और अन्त्त में नमेः जोडने से १६ अक्षरों का
कु बेर का अन्त्य मन्त्त्र बनता है । ३, २, २, २, ५, और २ वणों से षडङ्गन्त्यास करना चािहए । इस मन्त्त्र का िविनयोग, ध्यान
एवं पूजनाफद की िविध पूवगवत् है ॥११२-११३॥

िवमिग - मन्त्त्र का स्वरुप इस प्रकार है - ॎ श्रीं ह्रीं श्रीं ह्रीं ललीं श्रीं ललीं िवत्तेश्वराय नमेः (१६) ।

िविनयोग - अस्य श्रीकु बेरमन्त्त्रस्य िवश्रवाऋिषबृगहतीच्छन्त्देः ििविमत्रधनेश्वरी देवताऽत्मनोऽभीष्टिसियथे जपे िविनयोगेः ।

षडङ्गन्त्यास - ॎ ॎ नमेः हृदयाय नमेः, ॎ ििवायै ििरसे स्वाहा,


ॎ नारायण्यै ििखायै वषट् , ॎ दिहरायै कवचाय हुम्,
ॎ गङ्गायै नेत्रत्रयाय वौषट् , ॎ स्वाह अस्त्राय िट् ॥११५॥

अब मन्त्त्र का ध्यान कहते हैं - िू ले हुये अत्यन्त्त स्वच्छ कमल के समान मनोहर अंगो वाली, िवष्णो, सदाििव एवं
ब्रह्यस्वरुिपणी, अपेन हाथों में कु म्भ, वर, अभय, एवं कमल धारण फकए हुये, श्वेत वस्त्रों से िवभूिषत, प्रसन्नवदना, मस्तक पर
चन्त्रकलाओं से सुिोिभत, मगर पर िवराजमान, समस्त नफदयों से आरािधत, पापों को िवनष्ट करने वाली भगवती भागीरतेहे
का साधकोम को ध्यान करना चािहए ॥११६॥

उक्त मन्त्त्र का एक लाख जप करना चािहए तथा ितलों से दिांि होम करना चािहए । जया आफद से युक्त पीठ पर भगवती
भागीरथी की पूजा करनी चािहए । के सरों में अङ्गपूजा तथा अष्टदलोम में १. रुर, २. हरर, ३. ब्रह्या, ४. सूय,ग ५. िहमालय,
६. मेना, ७. भगीरथ एवं ८. सागर का पूजन करना चािहए ॥११७-११८॥

दलों के अग्रभाग पर १. मीन, २. कू मग, ३. मण्डू क, ४. मकर, ५. हंस ६. कारण्डव, ७. चिवाक और ८. सारसों का पूजन
करना चािहए । भूपुर में इन्त्राफद दि फदलपालों का उनके आयुधों के साथ पूजन करना चािहए । इस प्रकार उपासना फकया
गया मन्त्त्र साधकों को अभीष्ट िल देता है ॥११९-१२०॥

िवमिग - पूजा िविध - वृत्ताकार कर्णणका, अष्टदल एवं भूपुर सिहत यन्त्त्र का िनमागण करना चािहए । सवगप्रथम १६. ११६ में
वर्णणत भगवती गङ्गा के स्वरुप का ध्यान कर मानसोपचार से उनका पूजन कर अघ्नयग स्थािपत कर पीठ पर पीठ देवताओं का
इस प्रकार पूजन करे । यथा - पीठमध्ये -
ॎ आधारिक्तये नमेः, ॎ प्रकृ त्यै नमेः,
ॎ कू मागय नमेः, ॎ िेषाय नमेः, ॎ पृिथव्यै नमेः,
ॎ क्षीरसमुराय नमेः, ॎ श्वेतद्वीपाय नमेः ॎ मिणमण्डपाय नमेः
ॎ कल्पवृक्षाय नमेः, ॎ मिणवेफदकायै नमेः ॎ रत्नतसहासनाय नमेः ।

तदनन्त्तर आिेयाफद चारोम कोणो में धमग आफद का पूजन करना चािहए -
ॎ धमागय नमेः, आिेये, ॎ ज्ञानाय नमेः, नैऋत्ये,
ॎ वैराग्याय नमेः वायव्ये, ॎ ऐश्वयागय नमेः, ऐिान्त्ये,

फिर पूवागफद चारों फदिाओं में अधमग आफद का िनम्न िविध से पूजन करना चािहए
ॎ अधमागय नमेः पूवे, ॎ अज्ञानाय नमेः, दिक्षणे,
ॎ अवैराग्याय नमेः पिश्चमे ॎ अनैश्वयागय नमेः, उत्तरे ,

फिर पीठ के मध्य में अनन्त्त आफद देवताओं का पूजन करना चािहए । यथा -
ॎ अनन्त्ताय नमेः ॎ पद्माय नमेः, ॎ द्वादिकलात्मने सूयगमण्डलाय नमेः,
ॎ षोडिकलात्मने सोममण्डलाय नमेः, ॎ दिकलात्मने विहनमण्डलाय नमेः,
ॎ सं सत्वाय नमेः, ॎ रं रजसे नमेः, ॎ तं तमसे नमेः,
ॎ आं आत्मने नमेः ॎ अं अन्त्तरात्मने नमेः, ॎ पं परमात्मने नमेः,
ॎ ह्रीं ज्ञानात्मने नमेः

फिर के सरों मे पूवागफद फदिाओं में तथा मध्य में जयाफद पीठििक्तयों की पूजा करनी चािहए -
ॎ जयायै नमेः, ॎ िवजयायै नमेः, ॎ अिजतायै नमेः,
ॎ अपरािजतायै नमेः, ॎ िनत्यायै नमेः, ॎ िवलािसन्त्यै नमेः,
ॎ दोग््यै नमेः, ॎ अघोरायै नमेः, ॎ मङ्गलायै नमेः पीठमध्ये

फिर १६. ११६ में वर्णणत भगवती भागीरथी के स्वरुप का ध्यान कर, मूल मन्त्त्र से मूर्णत की कल्पना कर ‘ॎ
सवगििक्तकमलासनाय नमेः’, इस मन्त्त्र से पीठ पर आसन देकर, सामान्त्य उपचारों से आवाहन से लेकर पुष्पाञ्जिल पयगन्त्त
िविधवत् पूजा करे , आवरण पूजा की अनुज्ञा लेकर आवरण पूजा प्रारम्भ करनी चािहए ।

आवरण पूजा िविध - सवगप्रथम के सरों में षडङ्गन्त्यास के मन्त्त्रों से आिेयाफद चारोम कोणो में, मध्य में तथा चतुर्ददक्
अङ्गपूजा करनी चािहए । यथा-
ॎ नमेः हृदयाय नमेः, आिेय,े ॎ ििवायै ििरसे स्वाहा नैऋत्ये
ॎ नारायण्यै ििखायै वषट् ,वायव्ये ॎ दिहरायै कवचाय हुम् ऐिान्त्ये,
ॎ गङ्गायै नेत्रत्रयाय वौषट् , पीठ मध्ये, ॎ स्वाहा अस्त्राय िट् चतुर्ददक्षु,,

फिर भूपुर के बाहर फदलपालों के पास वज्राफद आयुधोम की िनम्निलिखत मन्त्त्रों से पूजा करनी चािहए । यथा -
ॎ वं वज्राय नमेः
ॎ िं िक्तये नमेः, ॎ दं दण्डाय नमेः, ॎ खं खड् गाय नमेः,
ॎ पां पािाय नमेः, ॎ अं अंकुिाय नमेः, ॎ गं गदायै नमेः,
ॎ िूं िूलाय नमेः, ॎ पं पद्माय नमेः, ॎ चं चिाय नमेः ।

इस प्रकार आवरण पूजा कर पुनेः धूप दीप नैवेद्याफद उपचारों से भगवती भागीरथी का िविधवत् पूजन करना चािहए
॥११९-१२०॥

गङ्गापूजन में दिहरा का िविेष महत्त्व प्रितपाफदत करते हुये ग्रन्त्थकार कहते हैं -
िवद्वान् साधक ज्येष्ठ िुलल दिमी (दिहरा( को िविेष रुप से भगवती भागीरथी की उपासना करे । इसे फदन १० ब्राह्मणों को
१० प्रस्थ ितल का दान करे । दि सहस्त्र उक्त मन्त्त्र का जप कर १ हजार की संख्या में ितलो की आहुित दे तथा उपवास करे ।
ऐसा करने से वह िनष्पाप हो जाता है और संसार में सभी भोगों को प्राप्त करता है ॥१२१-१२२॥

(२) अब गङ्गा के अन्त्य मन्त्त्रों का उिार कहते हैं -


तार (ॎ), फिर ‘नमो भगवित’ फिर वाक् (ऐं), सदृग् इ से युक्त गगन और फिया (िहिल िहिल), तत्पश्चात सूक्ष्म (इ) सिहत
तन्त्री (म), िपनाकीि (ल), िवष (म) और ल, (िमिल िमिल), फिर ‘गङ्गे मां’ के बाद दो बार ‘पावय’ (पावय पावय), और
अन्त्त में हुतवहाङ्गना (स्वाहा) जोडने से २७ अक्षरों का पातकसंघों को नष्ट करने वाला गङ्गा का अन्त्य अन्त्य िनष्पन्न होता है
॥१२३-१२४॥

िवमिग - गङ्गा मन्त्त्र का स्वरुप इस प्रकार है - ॎ नमो भगवित ऐं िहिल िहिल िमिल िमिल गङ्गे मां पावय पावय स्वाहा
(२७) ॥१२३-१२४॥

मन्त्त्र के ३, ४, ६, ३, ९ एवं दो वणों से षडङ्गन्त्यास करना चािहए ॥१२५॥

िवमिग - षडङ्गन्त्यास - ॎ नमो हृदयाय नमेः,


भगवित ििरसे स्वाहा ऐं िहिल िहिल िम ििखायै वषट,
िल िमिल कवचाय हुम् गङ्गे मां पावय पावय नेत्रत्रयाय वौषट्
स्वाहा अस्त्राय िट् ॥१२५॥

(३) इस मन्त्त्र के आफद के ७ अक्षरों को िनकाल देने से २० अक्षरों का अन्त्य गङ्गा मन्त्त्र बनता है ॥१२५॥

िवमिग - गङ्गा मन्त्त्र का स्वरुप इस प्रकार है - ऐं िहिल िहिल िमिल िमिल गङ्गे मा पावय पावय स्वाहा (२०) ॥१२५॥

इस मन्त्त्र के ५, ४, ३, ३, ३, और २ वणों से षडङ्गन्त्यास का िवधान है ॥१२६॥

िवमिग - यथा - ऐं िहिल िहिल हृदयाय नमेः, िमिल िमिल ििरसे स्वाहा,
गङ्गे मां ििखायै वषट् , पावय कवचाय हुम्,
पावय नेत्रत्रयाय वौषट् स्वाहा अस्त्राय िट् ॥१२६॥

(४) तार (ॎ), फिर ‘िहिल िमिल’ दो बार, फिर ‘गङ्गे देिव नमेः’, यह १५ अक्षरों का एक अन्त्य गङ्गा का मन्त्त्र बनता है
॥१२६-१२७॥

मन्त्त्र के ३, २, २, २, ४ एवं २ वणों से षडङ्गन्त्यास करना चािहए ॥१२७॥

िवमिग - मन्त्त्र का स्वरुप इस प्रकार है - ॎ िहिल िहिल िमिल िमिल गङ्गे देिव नमेः (१५)।

षडङ्गन्त्याअस - ॎ िहिल हृदयाय नमेः िहिल ििरसे स्वाहा, िमिल ििखायै वषट् िमिल कवचाय हुम् गङ्गे देिव नेत्रत्रयाय
वौषट् नमेः अस्त्राय िट् ॥१२६-१२७॥

(५) गङ्गा का अन्त्य मन्त्त्र कहते हैं -


तार (ॎ), माया (ह्रीं), रमा (श्रीं), हादग (नमेः) फिर ‘भगवित गं’ , फिर स्मृित (ग), अित्र (द), सदृग् वायु (िय), ते, फिर ‘नमो’,
फिर वमग (हुं) तथा अन्त्त में िट् लगाने से १८ अक्षरों का गङ्गा मन्त्त्र िनष्पन्न होता है । मन्त्त्र के ३, २, ४, ५, २ और २ अक्षरों
से षडङ्गन्त्यास करना चािहए । इन चारों मन्त्त्रों की उपासना पिित पूवोक्त है ॥१२७-१२९॥

िवमिग - मन्त्त्र का स्वरुप इस प्रकार है - ॎ ह्रीं श्रीं नमो भगवित गङ्गदियते नमो हुं िट् (१८) ।

षडङ्गन्त्यास - ॎ ह्रीं श्री हृदयाय नमेः, नमो ििरसे स्वाहा, भगवित ििखायै वषट् , गङ्गियते हुम् नमो नेत्रत्रयाय वौषट् , हुं
िट् अस्त्राय िट । ऊपर कहे गये चारों मन्त्त्रों की साधना िविध के िलए (र० १६. ११७-१२०) ॥१२७-१२९॥

अब मिणकर्णणका मन्त्त्र का उिार कहते हैं - वाग् (ऐं) माया (ह्रीं), कमला (श्रीं), काम (ललीं) तथा वेदाफद (ॎ), फिर इन्त्दय
ु ुत्
िवष (मं), फिर ‘मिणकिण’ पद, फिर ब्रह्मा (के ), तदनन्त्तर हृदय (नमेः) इसे प्रणव से संपुरटत करने पर १५ अक्षरों का
मिणकर्णणका मन्त्त्र िनष्पन्न होता है ॥१२९-१३०॥

िवमिग - मिणकर्णणका का मन्त्त्र - ॎ ऐं ह्रीं श्रीं ललीं ॎ मं मिणकर्णणके नमेः ॎ (१५) ॥१२९-१३०॥

इस मन्त्त्र के वेद व्यास ऋिष हैं, अितिक्वरी छन्त्द है, श्रीमिणकणी देवता हैं जो मनुष्यों को सुख तथा पुत्र देती है ॥१३०-
१३१॥

िवमिग - िविनयोग - अस्य श्रीमिणकर्णणकामन्त्त्रस्य वेदव्यास ऋिषरितिक्वरीच्छदेः श्रीमिणकर्णणका देवतात्मनोऽभीष्टिसियथे


जपे िविनयोगेः ।
मन्त्त्र के िमिेः चन्त्र १, नेत्र २, अिक्ष २, नेत्र २, ईषू ५, एवं विहन ३ अक्षरों से षडङ्गन्त्यास करना चािहए ॥१३१॥

षडङ्गन्त्यास - ॎ हृदयाय नमेः, ॎ ऐं ह्रीं ििरसे स्वाहा,


ॎ श्रीं ललीं ििखायै वषट् , ॎ मं कवचाय हुम्,
ॎ मिणकर्णणके नेत्रत्रयाय वौषट् नमेः, ॎ नमेः ॎ अस्त्राय िट् ॥१२९-१३१॥
अब मिणकर्णणका भगवती का ध्यान कहते हैं -
िू ले हुये कमलों से बनी माला अपने दािहने हाथ में तथा िवजौरा का िल अपने बायें में िलए, श्वेत कमलोम की माला अपने
गले में धारण फकए, श्वेत वस्त्रों से अलंकृत, िरत्कालीन चन्त्रमा के समान िरीर की आभा वाली, ित्रनेत्रा, सूयग के समान
तेजिस्वनी पिश्चमािभमुखी अञ्जिल बाूँधे हुई श्रीमिणकर्णणका भगवती का ध्यान करना चािहए ॥१३२॥

उक्त का ३ लाख जप तथा ित्रमधुर (िहद् घी एवं िकग रा) िमिश्रत कमलों का दिांि होम करना चािहए । गङ्गा के समान
इनकी भी आवरण पूजा करनी चािहए (र० १६. ११७ - १२०) ॥१३३॥

मनुष्यों के द्वारा इस मन्त्त्र की साधना करने पर वह उन्त्हे मोक्ष, लक्ष्मी, समस्त सौभाग्य एवं सन्त्तानाफद सभी सौख्य तथा
अपार धन प्रदान करता है ॥१३४॥

अब मिणकर्णणका देवी का अन्त्य मन्त्त्र कहते हैं - प्रणव (ॎ) िबन्त्द ु युग म (मं) फिर ‘मिण’ के बाद ‘कर्णणके प्रण वाित्मके ’ अन्त्त में
हृदय (नमेः) लगाने से १४ अक्षरों का मिणकर्णणका का एक अन्त्य मन्त्त्र िनष्पन्न होता है ॥१३५॥

िवमिग - मन्त्त्र का स्वरुप - ॎ ,मिणकर्णणके प्रणवाित्मक नमेः ॥१३५॥

मिणकर्णणका की उपासना की मिहमा - सभी लोगों को मिणकर्णणका की उपासना करनी चािहए । लयोंफक इनकी उपासना के
प्रभाव से मगध आफद िनिन्त्दत प्रदेि में मृत्यु होने पर भी साधक अमल, अव्यय तथा ब्रह्यत्व प्राप्त करता है ॥१३६॥

सप्तदि तरङ्ग
अररत्र
िंकराचायग आफद आचायो के द्वार अब तक अप्रकािित अभीष्ट िलदायक कातगवीय के मन्त्त्रों का आख्यान करत हूँ । जे
कातगवीयागजुगन भूमण्डल पर सुदिगन चि के अवतार माने जाते हैं ॥१॥

अब कातगवीयागजुगन मन्त्त्र का उिार कहते हैं - विहन (र) एवं तार सिहत रौरी (ि) अथागत् (फ्रो), इन्त्द ु एवं िािन्त्त सिहत लक्ष्मी
(व) अथागत् (व्रीं),धरा, (हल) इन्त्द,ु (अनुस्वार) एवं िािन्त्त (ईकार) सिहत वेधा (क) अथागत् (ललीं), अधीि (ऊकार), अिि (र)
एवं िबन्त्द ु (अनुस्वार) सिहत िनरा (भ) अथागत् (भ्रूं), फिर िमिेः पाि (आं), माया (ह्रीं), अंकुि (िों), पद्म (श्रीं), वमग (हुं),
फिर अस्त्र (िट्), फिर ‘कातगवी; पद, वायवासन,(य्), अनन्त्ता (आ) से युक्त रे ि (र) अथागत् (याग), कणग (उ) सिहत विहन (र)
और (ज्) अथागत् (जुग) सदीघग (आकार युक्त) मेष (न) अथागत् )(ना), फिर पवन (य) इसमें हृदय (नमेः) जोडने से १९ अक्षरों का
कातगवीयगजुगन मन्त्त्र िनष्पन्न होता है । इस मन्त्त्र के प्रारम्भ में तार (ॎ) जोड देने पर यह २० अक्षरों का हो जाता है ॥२-४॥

िवमिग - ऊनतविितवणागत्मक मन्त्त्र का स्वरुप इस प्रकार है - (ॎ) फ्रों व्रीं ललीं भ्रूं आं ह्रीं फ्रों श्रीं हुं िट् कातगवीयागजुगनाय नमेः
॥२-४॥

इस मन्त्त्र के दत्तात्रेय मुिन हैं, अनुष्टुप छन्त्द है, कातगवीयागजन


ु देवता हैं, रुव (ॎ) बीज है तथा हृद (नमेः) ििक्त है ॥५॥

बुििमान पुरुष, िेष (आ) से युक्त प्रथम दो बीज आं फ्रों व्रीं हृदयाय नमेः, िािन्त्त (ई) से युक्त चतुथग बीज भ्रूं िजसमें काम बीज
(ललीं) भी लगा हो, उससे ििर अथागत् ईं ललीं भ्रूं ििरसे स्वाहा, इन्त्द ु (अनुस्वार) वामकणग उकार के सिहत अघीि माया (ह)
अथागत् हुं से ििखा पर न्त्यास करना चािहए । वाक् सिहत अंकुश्य (िैं ) तथा पद्म (श्रैं) से कवच का, वमग और अस्त्र (हुं िट्) से
अस्त्र न्त्यास करना चािहए । तदनन्त्तर िेष कातगवीयागजन
ुग ाय नमेः - से व्यापक न्त्यास करना चािहए ॥६-८॥

िवमिग - न्त्यासिविध - आं फ्रों व्रीं हृदयाय नमेः, ई ललीं भ्रूं ििरसे स्वाहा,
हुं ििखायै वषट् िैं श्रैं कवचाय हुम्, हुूँ िट् अस्त्राय िट् ।

इस प्रकार पञ्चाङ्गन्त्यास कर कातगवीयागजन


ुग ाय नमेः’ से सवागङ्गन्त्यास करना चािहए ॥६-७॥

अब वणगन्त्यास कहते हैं - मन्त्त्र के १० बीजाक्षरों को प्रणव से संपुरटत कर यथािम, जठर, नािभ, गुह्य, दािहने पैर बाूँये पैर,
दोनो सिलथ दोनो ऊरु, दोनों जानु एवं दोनों जंघा पर तथा िेष ९ वणों में एक एक वणों का मस्तक, ललाट, भ्रूं कान, नेत्र,
नािसका, मुख, गला, और दोनों कन्त्धों पर न्त्यास करना चािहए ॥८-१०॥

तदनन्त्तर सभी अङ्गो पर मन्त्त्र के सभी वणों का व्यापक न्त्यास करने के बाद अपने सभी अभीष्टों की िसिि हेतु राज कातगवीयग
का ध्यान करना चािहए ॥११॥

िवमिग - न्त्यास िविध - ॎ फ्रों ॎ हृदये, ॎ व्रीं ॎ जठरे ,


ॎ ललीं ॎ नाभौ ॎ भ्रूं ॎ गुह्ये, ॎ आम ॎ दक्षपादे,
ॎ ह्रीं ॎ वामपादे, ॎ फ्रों ॎ सलथ्व्नोेः ॎ श्रीं ॎ उवोेः,
ॎ हुं ॎ जानुनोेः ॎ िट् ॎ जंघयोेः ॎ कां मस्तके ,
ॎ त्तग ललाटें ॎ वीं भ्रुवोेः, ॎ यां कणगयोेः
ॎ जुं नेत्रयोेः ॎ नां नािसकायाम् ॎ यं मुखे,
ॎ नं गले, ॎ मेः स्कन्त्धे

इस प्रकार न्त्यास कर - ॎ फ्रों श्रीं ललीं भ्रूं आं ह्रीं फ्रों श्रीं हुं िट् कातगवीयागजन
ुग ाय नमेः सवागङ्गे- से व्यापक न्त्यास करना
चािहए ॥८-११॥

अब कातगवीयागजुगन का ध्यान कहते हैं -


उदीयमान सहस्त्रों सूयग के समान कािन्त्त वाले, सभी राजाओं से विन्त्दत अपने ५०० हाथों में धनुष तथा ५०० हाथो में वाण
धारण फकए हुये सुवणगमयी माला से िवभूिषत कण्ठ वाले, रथ पर बैठे हुये, साक्षात् सुदिगनावतार कायगवीयग हमारी रक्षा करें
॥१२॥

इस मन्त्त्र का एक लाख जप करना चािहए । ितलों से तथा चावल होम करे , तथा वैष्णव पीठ पर इनकी पूजा करे । वृत्ताकार
कर्णणका, फिर वक्ष्यमाण दक्ष दल तथा उस पर बने भूपुर से युक्त वैष्णव यन्त्त्र पर वैष्णवी ििक्तयों का पूजन कर उसी पर
इनका पूजन करना चािहए ॥१३-१४॥

िवमिग - कातगवीयग की पूजा षट् कोण युक्त यन्त्त्र में भी कही गई है । यथा - षट् कोणेषु षडङ्गािन... (१७. १६) तथ दिदल युक्त
यन्त्त्र में भी यथा - फदलपत्रें िविलखेत् (१७. २२) । इसी का िनदेि १७. १४ ‘वक्ष्यमाणे दिदले’ में ग्रन्त्थकार करते हैं ।

के सरों में पूवग आफद ८ फदिाओं में एवं मध्य में वैष्णवी ििक्तयोम की पूजा इस प्रकार करनी चािहए-
ॎ िवमलायै नमेः, पूवे ॎ उत्कर्णषण्यै नमेः, आिेये
ॎ ज्ञानायै नमेः, दिक्षणे, ॎ फियायै नमेः, नैऋत्ये,
ॎ भोगायै नमेः, पिश्चमे ॎ प्रहव्यै नमेः, वायव्ये
ॎ सत्यायै नमेः, उत्तरे , ॎ ईिानायै नमेः, ऐिान्त्ये
ॎ अनुग्रहायै नमेः, मध्ये

इसके बाद वैष्णव आसन मन्त्त्र से आसन दे कर मूल मन्त्त्र से उस पर कातगवीयग की मूर्णत की कल्पना कर आवाहन से पुष्पाञ्जिल
पयगन्त्त िविधवत् उनकी पूजा कर उनकी अनुज्ञा ले आवरण पूजा प्रारम्भ करनी चािहए ॥१३-१४॥

मध्य में आिेय, ईिान, नैऋत्ये, और वायव्यकोणों में हृदयाफद चार अंगो की पुनेः चारों फदिाओं में अस्त्र का पूजन करना
चािहए ॥१५॥

तदनन्त्तर ढाल और तलवार िलए हुये चन्त्रमा की आभा वाले षडङ्ग मूर्णतयों का ध्यान करते हुये षट् कोणों में षडङ पूजा
करनी चािहए ।

इसके बाद पूवागफद चारोम फदिाओं में तथा आिेयाफद चारों कोणो में १. चोरमदिवभञ्जन, २. मारीमदिवभञ्जन, ३.
अररमदिवभञ्जन, ४. दैत्यमदिवभञ्जन, ५. दुेःख नािक, ६. दुष्टनािक, ७. दुररतनािक, एवं ८. रोगनािक का पूजन करना
चािहए । पुनेः पूवग आफद ८ फदिाओं में श्वेतकािन्त्त वाली ८ ििक्तयोम का पूजन करना चािहए ॥१६-१८॥

१. क्षेमंकरी, २. वश्यकरी, ३. श्रीकरी, ४. यिस्करी ५. आयुष्करी, ६. प्रज्ञाकरी, ७. िवद्याकारे , तथा ८. धनकरी ये ८


ििक्तयाूँ है । फिर आयुधों के साथ दि फदलपालों का पूजन करना चािहए । इस प्रकार की साधना से मन्त्त्र के िसि जो जाने
पर वह काम्य के योग्य हो जाता है ॥१९-२०॥

िवमिग - आवरण पूजा िविध - सवगप्रथम कर्णणका के आिेयाफद कोणों मे पञ्चाग पूजन यथा - आं फ्रों श्रीं हृदयाय नमेः आिेय,े
ई ललीं भ्रूम ििरसे स्वाहा ऐिान्त्ये, हु ििखायै वषट् नैऋत्ये,
िैं श्रैं कं वचाय हुम् वायव्ये, हुं िट् अस्त्राय सवगफदक्षु ।

षडङ्गपूजा यथा - ॎ फ्रां हृदयाय नमेः,


ॎ फ्रीं ििरसे स्वाहा, ॎ फ्रां ििखाये वषट् ॎ फ्रै कवचाय हुम्,
ॎ फ्रौं नेत्रत्रयाय वौषट् , ॎ फ्रेः अस्त्राय िट् ,

फिर अष्टदलों में पूवागफद चारों फदिाओं में चोरिवभञ्जन आफद का, तथा आिेयाफद चारों कोणो में दुेःखनािक इत्याफद चार
नाम मन्त्त्रों का इस प्रकर पूजन करना चािहए - यथा -
ॎ चोरमदिवभञ्जनाय नमेः पूवे, ॎ मारमदिवभञ्जनाय नमेः दिक्षणे,
ॎ अररमदिवभञ्जनाय नमेः पिश्चमे, ॎ दैत्यमदिवभञ्जनाय नमेः उत्तरे ,
ॎ दुेःखनािाय नमेः आिेये, ॎ दुष्टनािाय नमेः नैऋत्ये,
ॎ दुररतनािानाय वायव्ये, ॎ रोगनािाय नमेः ऐिान्त्ये ।

तत्पश्चात् पूवागफद फदिाओं के दलोम अग्रभाग पर श्वेत आभा वाली क्षेमंकरी आफद ८ ििक्तयोम का इस प्रकार पूजन करना
चािहए । यथा -
ॎ क्षेमंकयै नमेः, ॎ वश्यकयै नमेः, ॎ श्रीकयै नमेः,
ॎ यिस्कयै नमेः ॎ आयुष्कयै नमेः, ॎ प्रज्ञाकयै नमेः,
ॎ िवद्याकयै नमेः, ॎ धनकयै नमेः,

तदनन्त्तर भूपुर में अपनी अपनी फदिाओं में इन्त्राफद दि फदलपालों का इस प्रकार पूजन करना चािहए । यथा -
ॎ लं इन्त्राय नमेः पूवे, ॎ रं अिये नमेः आिेय,े
ॎ मं यमाय नमेः दिक्षणे ॎ क्षं िनऋतये नमेः नैऋत्ये,
ॎ वं वरुणाय नमेः पिश्चमें ॎ यं वायवे नमेः वायव्ये,
ॎ सं सोमाय नमेः उत्तरे , ॎ हं ईिानाय नमेः ऐिान्त्ये,
ॎ आं ब्राह्यणे नमेः पूवेअिानयोमगध्ये, ॎ ह्रीं अनन्त्ताय नमेः पिश्चमनैऋत्ययोमगध्ये ।

फिर भूपुर के बाहर उनके वज्राफद आयुधोम की पूजा करनी चािहए । यथा -
ॎ िूं िूलाय नमेः, ॎ पं पद्माय नमेः, ॎ चं चिाय नमेः, इत्याफद ।

इस प्रकार आवरण पूजा कर लेने के बाद धूप, दीप एवं नैवेद्याफद उपचारों से िविधवत् कातगवीयग का पूजन करना चािहए
॥१५-२०॥

अब कातगवीय की पूजा के िलए यन्त्त्र कहता हूँ । काम्यप्रयोगों में कातगवीयगस्य काम्यप्रयोगाथग पूजनयन्त्त्रम् कातगवीयगपूजन यन्त्त्रेः
-
वृत्ताकार कर्णणका में दिदल बनाकर कर्णणका में अपना बीज (फ्रों), कामबीज (ललीं), श्रुितबीज (ॎ) एवं वाग्बीज (ऐं) िलखे,
फिरे प्रणव से ले कर वमगबीज पयगन्त्त मूल मन्त्त्र के १० बीजों को दि दलों पर िलखना चािहए । िेष सह सिहत १६ स्वरों को
के िर में तथा िेष वणों से दिदल को वेिष्टत करना चािहए । भूपुर के कोणा में पञ्चभूत वणों को िलखना चािहए । यह
कातगवीयागजुगन पूजा का यन्त्त्र कहा गया हैं ॥२१-२२॥
अब काम्य प्रयोग में अिभषेक िविध कहते है :-
िुि भूिम में श्रिा सिहत अष्टगन्त्ध से उक्त यन्त्त्र िलखकर उस पर कु भ की प्रितष्ठा कर उसमें कातगवीयागजन
ुग का आवाहन कर
िविधवत् पूजन करना चािहए ॥२३॥

फिर अपनी इिन्त्रयों ओ वि में कर साधक कलि का स्पिग कर उक्त मुख्य मन्त्त्र का एक हजार जप करे । तदनन्त्तर उस कलि
के जल से अपने समस्त अभीष्टों की िसिि हेतु अपना तथा अपने िप्रयजनों का अिभषेक करे ॥२३-२४॥

अब उस अिभषेक का िल कहते हैं - इस प्रकार अिभषेक से अिभिषक्त व्यिक्त पुत्र, यथ, आरोग्य आयु अपने आत्मीय जनों से
प्रेम तथा उपरव्य होने पर उनके भय को दूर करने के िलए कातगवीयग के इस मन्त्त्र को संस्थािपत करना चािहए ॥२५-२६॥

िविवध कामनाओं में होम रव्य इस प्रकार है - सरसों, लहसुन एवं कपास के होम से ित्रु का मारन होता है । धतूर के होम से
ित्रु का स्तम्भन, नीम के होम से परस्पर िवद्वेषण, कमल के होम से विीकरण तथा बहेडा एवं खैर की सिमधाओं के होम से
ित्रु का उिाटन होता है । जौ के होम से लक्ष्मी प्रािप्त, ितल एवं घी के होम से पापक्षय तथा ितल तण्डु ल िसध्दाथग (श्वेत
सषगप) एवं लाजाओं के होम से राजा वि में हो जाता है ॥२७-२९॥

अपामागग, आक एवं दूवाग का होम लक्ष्मीदायक तथा पाप नािक होता है । िप्रयंतु का होम िस्त्रयों को वि में करता है । गुग्गुल
का होम भूतों को िान्त्त करता है । पीपर, गूलर, पाकड, बरगद एवं बेल की सिमधाओं से होम कर के साधक पुत्र, आयु, धन
एवं सुख प्रप्त करता है ॥३०-३१॥

साूँप की कें चुली, धतूरा, िसिाथग (सिे द सरसों ) तथा लवण के होम से चोरों का नाि होता है । गोरोचन एवं गोबर के होम
से स्तंभन होता है तथा िािल (धान) के होम से भूिम प्राप्त होती है ॥३२॥

मन्त्त्रज्ञ िवद्वान् को कायग की न्त्यूनािधकता के अनुसार समस्त काम्य प्रयोगों में होम की संख्या १ हजार से १० हजार तक
िनिश्चत कर लेनी चािहए । कायग बाहुल्य में अिधक तथा स्वल्पकायग में स्वल्प होम करना चािहए ॥३३॥

िवमिग - सभी कहे गय काम्य प्रयोगों में होम की संख्या एक हजार से दि हजार तक कही गई है, िवद्वान् जैसा कायग देखे वैसा
होम करे ॥३३॥

अब िसिियों को देने वाले कातगवीयागजुगन के मन्त्त्रों के भेद कहे जाते हैं -


अपने बीजाक्षर (फ्रों) से युक्त कातगवीयागजुगन का चतुथ्व्यगन्त्त, उसके बाद नमेः लगाने से १० अक्षर का प्रथम मन्त्त्र बनता है । अन्त्य
मन्त्त्र भी कोई ९ अक्षर के तथा कोई ११ अक्षर के कहे गये हैं ॥३४-३५॥

उक्त मन्त्त्र के प्रारम्भ में दो बीज (फ्रों व्रीं) लगाने से यह िद्वतीय मन्त्त्र बन जाता है । स्वबीज (फ्रों) तथा कामबीज (ललीं) सिहत
यह तृतीय मन्त्त्र स्वबीज एवं वाग्बीज (ऐं) सिहत नवम मन्त्त्र और आफद में वमग (हुं) तथा अन्त्त में अस्त्र (िट्) सिहत दिम मन्त्त्र
बन जाता है ॥३४-३७॥

िवमिग - कातगवीयागजन
ुग के दि मन्त्त्र - १, फ्रों कातगवीयागजुगनाय नमेः २. फ्रों व्रीं कातगवीयागजुगनाय नमेः, ३. फ्रों ललीं
कातगवीयागजुगनाय नमेः, ४. फ्रों भ्रूं कातगवीयागजुगनाय नमेः ५. फ्रों आं कातगवीयागजन
ुग ाय नमेः, ६. फ्रों ह्रीं कातगवीयागजन
ुग ाय नमेः, ७.
फ्रों िों कातगवीयागजन
ुग ाय नमेः, ८. फ्रों श्रीं कातगवीयागजुगनाय नमेः, ९. फ्रों ऐं कातगवीयागजुगनाय नमेः, १०. हुं कातगवीयागजन
ुग ाय
नमेः िट् ॥३४-३७॥

िद्वतीय मन्त्त्र से लेकर नौवें मन्त्त्र तक बीजों का व्युत्िम से कथ है और दसवें मन्त्त्र में वमग (हुं) और अस्त्र (िट्) के मध्य नौ वणग
रख्खे गए हैं ॥३८॥

इन मन्त्त्रों मे से जो भी िसिाफद िोधन की ररित से अपने अनुकूल मालूम पडे उसी मन्त्त्र की साधना करनी चािहए ॥३९॥

इन मन्त्त्रों में प्रथम दिाक्षर का िवराट् छन्त्द है तथा अन्त्यों का ित्रष्टु प छन्त्द है ॥३९॥

िवमिग - दिाक्षर मन्त्त्र का िविनयोग- अस्य श्रीकातगवीयागयुगनमन्त्त्रस्य दत्तात्रेयऋिषिवराट् छन्त्देः कातगवीयागजुगनी


देवतात्मनोऽभीष्टिसिये जपे िविनयोगेः ।

अन्त्य मन्त्त्रों क िविनयोग - अस्य श्रीकातगवीयागजुगनमन्त्त्रस्य दत्तात्रेऋिष िस्त्रष्टु प छन्त्देः कातगवीयागजुनी देवतात्मनोऽभीष्टिसियथे
जपे िविनयोगेः ।

पूवोक्त १० मन्त्त्रों के प्रारम्भ में प्रणव लगा देने से प्रथम दिाक्षर मन्त्त्र एकादि अक्षरों का तथा अन्त्य ९ द्वादिाक्षर बन जाते है
। इस प्रकार कातगवीयग मन्त्त्र के २० प्रकार के भेद बनते है । इनकी साधना पूवोक्त मन्त्त्रों के समान है । उक्त िद्वतीय दि संख्यक
मन्त्त्रों में पहले ित्रष्टु प तथा अन्त्यों का जगती छन्त्द है । इन मन्त्त्रों की साधना में षड् दीघग सिहत स्वबीज से षडङ्गन्त्यास करना
चािहए ॥४०-४१॥

िविनयोग - अस्य श्रीएकादिाक्षरकातगवीयगमन्त्त्रस्य दत्तात्रेयऋिषिस्त्रष्टु प् छन्त्देः कातगवीयागजुगनों देवतात्मनोऽभीष्टिसियथं जपे


िविनयोगेः ।

अन्त्य नवके - अस्य श्रीद्वादिाक्षरकातगवीयगमन्त्त्रस्य दत्तात्रेयऋिषजगगतीच्छदेः कातगवीयागजुनी देवतात्मनोऽभीष्टिसियथे जपे


िविनयोगेः ।

षडङ्गन्त्यास - फ्रां हृदयाय नमेः, फ्रीं ििरसे स्वाहा, फ्रूम ििखायै वषट् ,
फ्रैं कवचाय हुम्, फ्र्ॎ नेत्रत्रयाय वौषट् , फ्रेः अस्त्राय िट् ॥४१॥

तार (ॎ), हृत् (नमेः), फिर ‘कातगवीयागजुगनाय’ पद, वमग (हुं), अ (िट्), तथा अन्त्त में ठद्वय (स्वाहा) लगाने से १४ अक्षर का
मन्त्त्र बनता है इसकी साधना पूवोक्त मन्त्त्र के समान है ॥४२॥

िवमिग - चतुदि
ग ाणग मन्त्त्र का स्वरुप इस प्रकार है - ॎ नमेः कातगवीयागजुगनाय हुं िट् स्वाहा (१४) ॥४२॥

मन्त्त्र के िमिेः १, २, ७, २, एवं २ वणों से पञ्चाङ्गन्त्यास करना चािहए ॥४३॥

िवमिग - पञ्चाङ्गन्त्यास - ॎ हृदयाय नमेः, नमेः ििरसे स्वाहा,


कातगवीयागजुगनाय ििखायै वषट् , हुं िट् कवचाय हुम्, स्वाहा अस्त्राय िट ॥४३॥

तार (ॎ), हृत् (नमेः), तदनन्त्तर चतुथ्व्यगन्त्त भगवत् (भगवते), एवं कातगवीयागजुगन (कातगवीयागजुगनाय), फिर वमग (हुं), अस्त्र (िट्)
उसमें अिििप्रया (स्वाहा) जोडने से १८ अक्षर का अन्त्य मात्र बनता है ॥४३-४४॥

िवमिग - मन्त्त्र का स्वरुप इस प्रकार है - ॎ नमो भगवते कातगवीयागजुगनाय हुं िट् स्वाहा (१८) ॥४४॥
इस मन्त्त्र के िमिेः ३, ४, ७, २ एवं २ वणों से पञ्चाङ्गन्त्यास करना चािहए ॥४४॥

पञ्चाङ्गन्त्यास - ॎ हृदयाय नमेः, भगवते ििरसे स्वाहा, कातगवीयागजुगनाय ििखायै वषट् , हुं िट कवचाय हुम्, स्वाहा अस्त्राय
िट् ॥४४॥

नमो भगवते श्रीकातगवीयागजन


ुग ाय, फिर सवगदष्ट
ु ान्त्तकाय, फिर ‘तपोबल परािम पररपािललसप्त’ के बाद, ‘द्वीपाय सवगराजन्त्य
चूडामण्ये सवगििक्तमते’, फिर ‘सहस्त्रबाहवे’, फिर वमग (हुं), फिर अस्त्र (िट्), लगाने से ६३ अक्षरों का मन्त्त्र बनता हैं , जो
स्मरण मात्र से सारे िविों को दूर कर देता है ॥४५-४७॥

िवमिग - मन्त्त्र का स्वरुप इस प्रकार है - नमो भगवते श्रीकातगवीयागजुगनाय सवगदष्ट


ु ान्त्तकाय
तपोबलपरािमपररपािलतसप्तद्वीपाय सवगराजन्त्यचूडाणये सवगििक्तमते सहस्त्रबाहवे हुं िट् (६३) ॥४५-४७॥

१. राजन्त्यचिवती, २. वीर, ३. िूर, ४. मिहष्मपित, ५. रे वाम्बुपररतृप्त एवं, ६. कारागेहप्रबािधतदिास्य - इन ६ पदों के


अन्त्त में चतुथी िवभिक्त लगाकर षडङ्गन्त्यास करना चािहए ॥४८-४९॥
िवमिग - षडङ्गन्त्यास का स्वरुप - राजन्त्यचिवर्णतने हृदयाय नमेः, वीराय ििरसे स्वाहा, िूराय ििखायै वषट् ,
मिहष्मतीपतये कवचाय हुम्, रे वाम्बुपररतृप्ताय नेत्रत्रयाय वौषट् , कारागेहप्रबािधतिास्याय अस्त्राय िट् ॥४८-४९॥

नमगदा नदी में जलिीडा करते समय युवितयों के द्वारा अिभिषच्यमान तथा नमगदा की जलधारा को अवरुि करने वाले
नृपश्रेष्ठ कातगवीयागजुगन का ध्यान करना चािहए ॥५०॥

इस प्रकार ध्यान कर उक्त मन्त्त्र का १० हजार जप करना चािहए तथा हवन पूजन आफद समस्त कृ त्य पूवोक्त किथत मन्त्त्र की
िविध से करना चािहए । इस मन्त्त्र साधना के सभी कृ त्य पूवोक्त मन्त्त्र के समान कहे गये हैं ॥५१॥

अब कातगवीयागजुगन के अनुष्टुप मन्त्त्र का उिार कहता हूँ -


‘कातगवीयागजुगनो’ पद के बाद, नाम राजा कहकर ‘बाहुसहस्त्र’ तथा ‘वान्’ कहना चािहए । फिर ‘तस्य सं’ ‘स्मरणादेव’ तथा ‘हृतं
नष्टं च’ कहकर ‘लभ्यते’ बोलना चािहए । यह ३२ अक्षर का मन्त्त्र है ।
इस अनुष्टुप् के १-१ पाद से, तथा सम्पूणग मन्त्त्र से पञ्चाङ्गन्त्यास करना चािहए । इसका ध्यान एवं पूजन आफद पूवोक्त मन्त्त्र के
समान है ॥५२-५३॥

िवमिग - मन्त्त्र का स्वरुप इस प्रकार है -


कातगवीयागजुनी नाम राजा बाहुसहस्त्रावान् ।
तस्य संस्मरणादेव हृतं नष्टं च लभ्यते ॥

िविनयोग - अस्य श्रीकातगवीयागजुगनमन्त्त्रस्य दत्तात्रेयऋिषरनुष्टुप्छन्त्देः श्रीकातगवीयागजुगनी देवतात्मनोऽभीष्टिसियथे जपे


िविनयोगेः ।

पञ्चाङ्गन्त्यास - कातगवीयागजन
ुग ो नाम हृदयाय नमेः, राजा बाहुसहस्त्रवान् ििरसे स्वाहा, तस्य संस्मरणणादेव ििखायै वषट् ,
हृतं नष्टं च लभ्यते कवचाय हुम्, कातगवीयागजन
ुग ी० अस्त्राय िट् ॥५२-५३॥

‘कातगवीयागय’ पद दे बाद ‘िवद्महे’, फिर ‘महावीयागय’ के बाद ‘धीमिह’ पद कहना चािहए । फिर ‘तन्नोऽजुगनेः प्रचोदयात्’
बोलना चािहए । यह कातगवीयागजुगन का गायत्री मन्त्त्र है । कातगवीयग के प्रयोगों को प्रारम्भ करते समय इसका जप करना
चािहए ॥५४-५६॥

राित्र में इस अनुष्टुप् मन्त्त्र का जप करने से चोरों का समुदाय घर से दूर भाग जाता हैं । इस मन्त्त्र से तपगण करने पर अथवा
इसका उिारण करने से भी चोर भाग जाते हैं ॥५६-५७॥

अब दीपिप्रयेः आतगवीयगेः’ इस िविध के अनुसार कातगवीयग को प्रसन्न करने वैिाख, श्रावण, मागगिीषग, कार्णतक, आिश्वन, पौष,
माघ एवं िाल्गुन में दीपदान करना प्रिस्त माना गया है ॥५७-५८॥

चौथ, नवमी तथा चतुदि


ग ी - इन (ररक्ता) ितिथयों को छोडकर, फदनों में मङ्गल एवं ििनवार छोडकर, हस्त, उत्तरात्रय,
आिश्वनी, आराग, पुष्य, श्रवण, स्वाती, िविाखा एवं रोिहणी नक्षत्र में कातगवीयग के िलए दीपदान का आरम्भ प्रिस्त कहा गया
है ॥५९-६०॥

वैघृित, व्यितपात, धृित, वृिि, सुकमाग, प्रीित, हषगण, सौभाग्य, िोभन एवं आयुष्मान् योग में तथा िविष्ट (भरा) को छोडकर
अन्त्य करणों में दीपारम्भ करना चािहए । उक्त योगों में पूवागहण के समय दीपारम्भ करना प्रिस्त है ॥६०-६२॥

कार्णतक िुलल सप्तमी को िनिीथ काल में इसका प्रारम्भ िुभ है । यफद उस फदन रिववार एवं श्रवण नक्षत्र हो तो ऐसा बहुत
दुलगभ है । आवश्यक कायो में महीने का िवचार नहीं करना चािहए ॥६२-६३॥

साधक दीपदान से प्रथम फदन उपवास कर ब्रह्यचयग का पालन करते हुये पृथ्व्वी पर ियन करे । फिर दूसरे फदन प्रातेः काल
स्नानाफद िनत्यकमग से िनवृत्त होकर गोबर और िुि जल से हुई भूिम में प्राणायाम कर, दीपदान का संकल्प एवं पूवोक्त
न्त्यासोम को करे ॥६४-६५॥

फिर पृथ्व्वी पर लाल चन्त्दन िमिश्रत चावलों से षट्कोण का िनमागण करे । पुनेः उसके भीतर काम बीज (ललीं) िलख कर
षट्कोणों में मन्त्त्रराज के कामबीज को छोडकर िेष बीजो को (ॎ फ्रों व्रीं भ्रूं आं ह्रीं) िलखना चािहए । सृिण (िों) पद्म (श्रीं)
वमग (हुं) तथा अस्त्र (िट्) इन चारों बीजों को पूवागफद चारों फदिाओं में िलखना चािहए । फिर ९ वणों (कातगवीयागजुगनाय नमेः)
से उन षड् कोणों को पररवेिष्टत कर देना चािहए । तदनन्त्तर उसके बाहर एक ित्रकोण िनमागण करना चािहए ॥६५-६७॥

अब दीपस्थापन एवं पूजन का प्रकार कहते हैं -


इस प्रकार से िलिखत मन्त्त्र पर दीप पात्र को स्थािपत करना चािहए । वह पात्र सोने, चाूँदी या ताूँबे का होना चािहए । उसके
अभाव में काूँसे का अथवा उसके भी अभाव में िमट्टी का या लोहे का होना चािहए । फकन्त्तु लोहे का और िमट्टी का पात्र किनष्ठ
(अधम) माना गया है ॥६८-६९॥

िािन्त्त के और पौिष्टक कायो के िलए मूूँगे के आटे का तथा फकसी को िमलाने के िलए गेहूँ के आूँटे का दीप-पात्र बनाकर जलाना
चािहए ॥६९॥

ध्यान रहे फक दीपक का िनचला भाग (मूल) एवं ऊपरी भाग आकृ ित में समान रुप का रहे । पात्र का पररमाण १२, १०, ८,
६, ५, या ४ अंगुल का होना चािहए ॥७०॥

सौ पल के भार से बने पात्र में एक हजार पल घी, ५०० पल के भार से बन पात्र में १० हजार पल घी, ६० पल के भार से
बनाये गये पात्र में ७५ पल घी, १२५ पल भार से बनाये गये पात्र में ३ हजार पल घी, ११५ पल भार से बनाये गये दीप-
पात्र में २ हजार पल घी, ३० पल भार से बनाये गये पात्र में ५० पल घी तथा ५२ पल भार से से बनाये गये पात्र में १००
पल घी डालना चािहए । इस प्रकार िजतना घी जलाना हो अनुसार पात्र के भार की कल्पना कर लेनी चािहए ॥७१-७३॥

िनत्यदीप में ३ पल के भार का पात्र तथा १ पल घी का मान बताया गया है । इस प्रकार दीप-पात्र संस्थािपत कर सूत की
बनी बित्तयाूँ डालनी चािहए । १. ३, ५, ७, १५ या एक हजार सूतों की बनी बित्तयाूँ डािलनी चािहए । ऐसे सामान्त्य
िनयमानुसार िवषम सूतों की बनी बित्तयाूँ होनी चािहए ॥७४-७५॥

दीप-पात्र में िुि-वस्त्र से छना हुआ गो घृत डालना चािहए । कायग के लाघव एवं गुरुत्व के अनुसार १० पल से लेकर १०००
पल पररमाण पयगन्त्त घी की मात्रा होनी चािहए ॥७६॥

सुवणग आफद िनर्णमत्त पात्र के अग्रभाग में पतली तथा पीछे के भाग में मोटी १६, ८ या ४ अंगुल की एक मनोहर िलाका
बनाकार उक्त दीप पात्र के , भीतर दािहनी ओर से िलाका का अग्रभाग कर डालना चािहए । पुनेः दीप पात्र से दिक्षण फदिा
में ४ अंगुल जगह छोडकर भूिम में अधोमुख एक छु री या चाकू गाडना चािहए । फिर गणपित का स्मरण करते हुये दीप की
जलाना चािहए ॥७७-७९॥
दीपक से पूवग फदिा में सवगतोभर मण्डल या चावलों से बने अष्टदल पर िमट्टी का घडा िविधवत् स्थािपत करना चािहए । उस
घट पर कातगवीयग का आवाहन कर साधक को पूवोक्त िविध से उनका पूजन करना चािहए । इतना कर लेने के बाद हाथ में
जल और अक्षत लेकर दीप का संकल्प करना चािहए ॥८०-८१॥

अब १५२ अक्षरों का दीपसंकल्प मन्त्त्र कहते हैं - यह (िद्व २ इषु ५ भूिम १ अंकाना वामतो गितेः) एक सौ बावन अक्षरों का
माला मन्त्त्र है ।

प्रणव (ॎ), पाि (आं), माया (ह्रीं), ििखा (वषट् ), इसके बाद ‘कात्तग’ इसके बाद ‘वीयागजुगनाय’ के बाद ‘मािहष्मतीनाथाय
सहस्त्रबाहवे’ इन वणों के बाद ‘सहस्त्र’ पद बोलना चािहए । फिर ‘ितुदीिक्षतहस्त दत्तात्रेयिप्रयाय आत्रेयानुसूयागभगरत्नाय’,
फिर वाम कणग (ऊ), इन्त्द(ु अनुस्वार) सिहत नभ (ह) एवं अिि (र्) अथागत् (हूँ) पाि आं, फिर ‘इमं दीपं गृहाण अमुकं रक्ष रक्ष
दुष्टानािय नािय’, फिर २ बार ‘पातय’ और २ बार ‘घातय’ (पातय पातय घातय घातय), ‘ित्रून जिह जिह’, फिर माया
(ह्रीं) तार (ॎ) स्वबीज (फ्रो), आत्मभू (ललीं) और फिर वािहनजाया (स्वाहा), फिर ‘अनेन दीपवयेण पिश्चमािभमुखेन अमुकं
रक्ष अमुकं वर प्रदानाय’, फिर वामनेत्रे (ई), चन्त्र (अनुस्वार) सिहत २ बार आकाि (ह) अथागत् (हीं हीं), ििवा (ह्रीं), वेदाफद
(ॎ), काम (ललीं) चामुण्डा (व्रीं), ‘स्वाहा’ फिर सानुस्वर तवगग एवं पवगग (तं थं दं धं नं पं िं बं भं मं), फिर प्रणव (ॎ) तथा
अिििप्रया स्वाहा लगाने से १५२ अक्षरों का दीपदान मन्त्त्र बन जाता है ॥८२-८९॥

िवमिग - दीप संकल्प के मन्त्त्र का स्वरुप इस प्रकार है - ॎ आं ह्रीं वषट् कातगवीयागजुगनाय मािहष्मतीनाथाय सहस्त्रबाहवे,
सहस्त्रितुदीिक्षतहस्ताय दत्तात्रेयिप्रयाय आत्रेयानुसूयागभगरत्नाय ह्रूं आं इमं दीपं गृहाण अमुकं रक्ष रक्ष दुष्टान्नािय नािय पातय
पातय घातय घातय ित्रून जिह जिह ह्रीं ॎ फ्रों ललीं स्वाहा अनेन दीपवयेण पिश्चमािभमुखेन अमुकं रक्ष अमुकवरप्रदानाय हीं
हीं ह्रीं ॎ ललीं व्रीं स्वाहा तं थं दं धं नं पं िं बं भं मं ॎ स्वाहा (१५२) ॥८२-८९॥

इस मालामन्त्त्र के दत्तात्रेय ऋिष, अिमत छन्त्द तथा कातगवीयागजुगन देवता हैं । षड् दीघगसिहत चामुण्डा बीज से षडङ्गन्त्यास
करना चािहए ॥८९-९०॥

िवमिग िविनयोग - अस्य श्रीकातगवीयगमालमन्त्त्रस्य दत्तात्रेऋिषरिमतच्छन्त्देः कातगवीयागजुनी देवतात्मनोऽभीष्टिसियथे जपे


िविनयोगेः ।

षडङ्गन्त्यास - ॎ व्रां हृदयाय नमेः, व्रीं ििरसे स्वाहा, व्रूं ििखायै वषट् ,
व्रैं कवचाय हुम्, व्रौं नेत्रत्रयाय वौषट् व्रेः अस्त्राय िट् ॥८९-९०॥

दीप संकल्प के पहले कातगवीयग का ध्यान करे । फिर हाथ में जल ले कर उक्त संकल्प मन्त्त्र का उिारण कर जल नीचे भूिम पर
िगरा देना चािहए । इसके बाद वक्ष्यमाण नवाक्षर मन्त्त्र का एक हजार जप करना चािहए ॥९१॥

नवाक्षर मन्त्त्र का उिार - तार (ॎ), िबन्त्द ु (अनुस्वार) सिहत अनन्त्त (आ) (अथागत् आं), माया (ह्रीं), वामनेत्र सिहत स्वबीज
(फ्रीं), फिर िािन्त्त (ई) और चन्त्र (अनुस्वार) सिहत कू मग (व) और अिि (र) अथागत् (व्रीं), फिर विहननारी (स्वाहा), अंकुि
(िों) तथा अन्त्त में रुव (ॎ) लगाने से नवाक्षर मन्त्त्र बनता है । यथा - ॎ आं ह्रीं फ्रीं स्वाहा िों ॎ ॥९२॥

इस मन्त्त्र के पूवोक्त दत्तानेत्र ऋिष हैं । अनुष्टुप् छन्त्द है तथा इसके देवता और न्त्यास पूवोक्त मन्त्त्र के समान है ।(र० १७. ८९-
९०) इस मन्त्त्र का एक हजार ज्प कर कवच का पाठ करना चािहए । (यह कवच डामर तन्त्त्र में हुं के साथ कहा गया है )
॥९३॥
िवमिग - िविनयोग- अस्य नवाक्षरकातगवीयगमन्त्त्रस्य दत्तानेत्रऋिषेः अनुष्टुप्छन्त्देः कातगवीयागजुगनी देवतात्मनोऽभीष्टिसियथे जपे
िविनयोगेः ।

षडङ्गन्त्यास - व्रां हृदयाय नमेः व्रीं ििरसे स्वाहा, व्रूं ििखायै वषट् ,
व्रैं कवचाय हुम्, व्रौं नेत्रत्रयाय वौषट् व्रेः अस्त्राय िट् ॥९३॥

इस प्रकर दीपदान करने वाला व्यिक्त अपना सारा अभीष्ट पूणग कर लेता है । दीप प्रज्विलत करते समय अमाङ्गिलक िब्दों
का उिारण वर्णजत है ॥९४॥
अब दीपदान के समय िुभािुभ िकु न का िनदेि करते हैं -
दीप प्रज्विलत करते समय ब्राह्मण का दिगन िुभावह है । िूरों का दिगन मध्यम िलदायक तथा म्लेच्छ दिगन बन्त्धदायक
माना गया है । चूहा और िबल्ली का दिगन अिुभ तथा गौ एवं अश्व का दिगन िुभकारक है ॥८४-८६॥

दीप ज्वाला ठीक सीधी हो तो िसिि और टेढी मेढी हो तो िवनाि करने वाली मानी गई है । दीप ज्वाला से चट चट का िब्द
भय कारक होता है । ज्योितपुञ्ज उज्ज्वल हो तो कताग को सुख प्राप्त होता है । यफद काला हो तो ित्रुभयदायक तथा वमन कर
रहा हो तो पिुओं का नाि करता है । दीपदान करन के बाद यफद संयोगविात् पात्र भि हो जावे तो यजमान १५ फदन के
भीतर यमलोक का अितिथ बन जाता है ॥९६-९८॥

अब दीपदान के िुभािुभ कतगव्य कहते हैं - दीप में दूसरी बत्ती डालने से कायग िसि में िवलम्ब है, उस दीपक से अन्त्य दीपक
जलाने वाला व्यिक्त अन्त्धा हो जाता है । अिुि अिुिच अवस्था में दीप का स्पिग करने से आिध व्यािध उत्पन्न होती है । दीपक
के नाि होने पर चोरों से भय तथा कु त्ते, िबल्ली एवं चूिह आफद जन्त्तुओं के स्पिग से राजभय उपिस्थत होता है ॥९९-१००॥

यात्रा करत समय ८ पल की मात्रा वाला दीपदान समस्त अभीष्टों को पूणग करता है । इसिलए सभी प्रकार के प्रयत्नों से
सावधानी पूवगक दीप की रक्षा करनी चािहए िजससे िवघ्न न हो ॥१०१॥

दीप की समािप्त पयगन्त्त कताग ब्रह्मचयग का पालन करते हुये भूिम पर ियन करे तथा स्त्री, िूर और पिततो से संभाषण भी न
करे ॥१०२॥

प्रत्येक दीपदान के समय से ले कर समािप्त पयगन्त्त प्रितफदन नवाक्षर मन्त्त्र (र० १७. ९२) का १ हजार जप तथा स्तोत्र का पाठ
िविेष रुप से राित्र के समय करना चािहए ॥१०३॥

िनिीथ काल में एक पैर से खडा हो कर दीप के संमुख जो व्यिक्त इस मन्त्त्रराज का १ हजार जप करता है वह िीघ्र ही अपना
समस्त अभीष्ट प्राप्त कर लेता है ॥१०४॥

इस प्रयोग को उत्तम फदन में समाप्त कर श्रेष्ठ ब्राह्मणों को भोजन कराने के बाद कु म्भ के जल से मूलमन्त्त्र द्वारा कताग का
अिभषेक करना चािहए ॥१०५॥

कताग साधक अपने गुरु को संतोषदायक एवं पयागप्त दिक्षणा दे कर उन्त्हें संतुष्ट करे । गुरु के प्रसन्न हो जाने पर कृ तवीयग पुत्र
कातगवीयागजुगन साधक के सभी अभीष्टों को पूणग करते हैं ॥१०६॥

यह प्रयोग गुरु की आज्ञा ले कर स्वयं करना चािहए अथवा गुरु को रत्नाफद दान दे कर उन्त्हीं से कातगवीयागजुन को दीपदान
कराना चािहए । गुरु की आज्ञा िलए िबना जो व्यिक्त अपनी इष्टिसिि के िलए इस प्रयोग का अनुष्ठान करता है उसे कायगिसिि
की बात तो दूर रही, प्रत्युत वह पदे पदे हािन उठाता है ॥१०७-१०८॥

कृ तघ्न आफद दुजगनों को इस दीपदान की िविध नहीं बतानी चािहए । लयोंफक यह मन्त्त्र दुष्टों को बताये जाने पर बतलाने वाले
को दुेःख देता है । दीप जलाने के िलए गौ का घृत उत्तम कहा गया है, भैंस का घी मध्यम तथा ितल का तेल भी मध्यम कहा
गया है । बकरी आफद का घी अधम कहा गया है । मुख का रोग होने पर सुगिन्त्धत तेलों से दीप दान करना चािहए । ित्रुनाि
के िलए श्वेत सवगप के तेल का दीप दान करना चािहए । यफद एक हजार पल वाले दीओ दान करने से भी कायग िसिि न हो तो
िविध पूवगक तीन दीपों का दान करना चािहए । ऐसा करने से करठन से भी करठन कायग िसि हो जाता है ॥१०९-११२॥

िजस फकसी भी प्रकार से जो व्यिक्त अपने घर में कातगवीयग के िलए दीपदान करता है, उसके समस्त िवघ्न और समस्त ित्रु
अपने आप नष्ट हो जाते हैं । वह सदैव िवजय प्राप्त करता है तथा पुत्र, पौत्र, धन और यि प्राप्त करता है । पात्र, घृत, आफद
िनयम फकए िबना ही जो व्यिक्त फकसी प्रकार से प्रितफदन घर में कातगवीयागजुगन की प्रसन्नता के िलए दीपदान करता है वह
अपना सारा अभीष्ट प्राप्त कर लेता है ॥११३-११५॥

तत्तदेवताओं की प्रसन्नता के िलए फियमाण कतगव्य का िनदेि करते हुये ग्रन्त्थकार कहते हैं -
कातगवीयागजुगन को दीप अत्यन्त्त िप्रय है, सूयग को नमस्कार िप्रय है, महािवष्णु को स्तुित िप्रय है, गणेि को तपगण, भगवती
जगदम्बा को अचगना तथा ििव को अिभषेक िप्रय है । इसिलए इन देवताओं को प्रसन्न करने के िलए उनका िप्रय संपादन
करना चािहए ॥११६-११७॥

अष्टादि तरङ्ग
अररत्र
अब ित्रुसमुदाय को नष्ट करने वाली कालराित्र के मन्त्त्रों को कहता हूँ - तार (ॎ), वाक् (ऐं), ििक्त (ह्रीं), कन्त्दपग (ललीं) तथा
रमा (श्रीं), फिर सवगदष्ट
ु िनदगलिन सवगस्त्रीपुरुषा’, इतने वणो के बाद ‘कर्णषिण’ फिर ‘बन्त्दीश्रृंखलास्’ के बाद दो बार त्रोटय
(त्रोटय त्रोटय), फिर ‘सवगित्रून’, के बाद दो बार ‘भञ्जय भञ्जय’, फिर ‘द्वेष्टुन’ के बाद दो बार िनदगल्य पद (िनदगलय िनदगलय),
फिर ‘सवग’ के बाद दो बार स्तम्भय (स्तम्भय स्तम्भय), फिर ‘मोहनास्त्रेण’ के बाद ‘द्वेिषणेः’ पद का उिारण कर दो बार
उिाटय (उिाटय उिाटय), फिर ‘सवग विं’ के बाद दो बार कु रु (कु रु कु रु), फिर ‘स्वाहा’, इसके बाद दो बार देिह पद (देिह
देिह), फिर ‘सवग कालराित्र कािमिन’ एवं ‘गणेश्वरर’ के बाद अन्त्त में नमेः जोडने से १३३ अक्षरों की महािवद्या िनष्पन्न होती
है ॥१-६॥

िवमिग - इस मन्त्त्र का स्वरुप इस प्रकार है - ॎ ऐं ह्रीं ललीं श्रीं काहनेश्वरर सवगजनमनोहरर, सवगमुखस्तिम्भिन सवगराजविंकरर
सवगदष्ट
ु िनदगलिन, सवगस्त्रीपुरुषाकर्णषिण बन्त्दीश्रृंखलास्त्रोटय त्रोटय सवगित्रून भञ्जय भञ्जय द्वेष्टृन् िनदगलय िनदगलय सवगस्तम्भय
स्तम्भय मोहनास्त्रेण द्वेिषणेः उिाटय उिाटय सवगविं कु रु कु रु स्वाहा देिह देिह सवगकालराित्र कािमिन गणेश्वरर नमेः ॥१-६॥

इस मन्त्त्र के दक्ष ऋिष, अितजगती छन्त्द, अलकग िनवािसनी कालरात्री देवता, कािलका (िीं) बीज तथा मायाराज्ञी (ह्रीं) ििक्त
है तथा अपनी अभीष्टिसिि के िलए इस मन्त्त्र का उपयोग करना चािहए ॥७-८॥

िवमिग - िविनयोग - अस्य कालराित्रमहािवद्यामन्त्त्रस्य दक्षऋिषरितजगतीच्छन्त्देः अलकग िनवािसिन कालराित्रदेवता िीं बीजं
मायाराज्ञीं ह्रीं ििक्तेः आत्मनोऽभीष्टिसियथे जपे िविनयोगेः ।

ऋष्याफदन्त्यासेः - ॎ दक्षाय ऋषये नमेः ििरिस, ॎ अितजगतीच्छन्त्द से नमेः मुखे, ॎ कालराित्रदेवतायै नमेः हृफदेः िीं
बीजाय नमेः गुह्ये ॎ मायाराज्ञीिलत्यै नमेः पादयोेः ॥७-९॥
पञ्चाङ् गुिलयों में िमिेः प्रणवाफद पाूँच बीजों का एक एक िम से न्त्यास करना चािहए । फिर मन्त्त्र के २४ वणों का हृदय पर,
उसके बाद के २५ वणों का हृदय पर, फिर बाद के २१ वणों का ििखा पर, उसके बाद के १० वणों का कवच पर, २६ वणों
का नेत्र पर िेष १९ वणों का अस्त्र पर न्त्यास करना चािहए । इस प्रकार न्त्यास कर लेने के बाद िवश्वमािहनी कालराित्र
महािवद्या का ध्यान करना चािहए ॥८-१०॥

िवमिग - न्त्यास िविध - ॎ अगुष्ठाभ्यां नमेः, ऐं तजगनीभ्यां नमेः,


ह्रीं मध्यमाभ्यां नमेः, ललीं अनािमकांभ्या नमेः, श्रीं किनिष्ठकाभ्यां नमेः

इस प्रकार पाूँचों अंगुिलयों पर ५ बीज मन्त्त्रों का न्त्यास कर हृदयाफद षडङगन्त्यास करे । यथा -
ॎ ऐं ह्रीं ललीं श्रीं काहनेश्वरर सवगजनमनोहरर सवगमुखस्तिम्मिन हृदयाय नमेः,
सवगराजविंकरर सवगदष्ट
ु िनदगलिन, सवगस्त्रीपुरुषाकर्णषिण ििरसे स्वाहा,
बन्त्दीश्रृंखलास्त्रोटय त्रोटय सवगित्रून भञ्जय भञ्जय ििखायै वषट् ,
द्वेष्टृन् िनदगलय िनदगलय सवगस्तम्भयं स्तम्भय कवचाय हुम्,
मोहनास्त्रेण द्वेिषणेः उिाटय उिाटय सवं विं कु रु कु रु स्वाहा नेत्रत्रयाय वौषट,
देिह देिह सवगकालराित्र कािमिन गणेश्वरर नमेः अस्त्राय िट् ॥८-१०॥

अब मायारािज्ञ कालराित्र का ध्यान कहते हैं - उदीयमान सूयग के समान देदीप्यमान आभा वाली िबखरे हुये के िों वाली, काले
वस्त्र से आवृत िरीर वाली, हाथों में िमिेः दण्ड, िलङ्ग वर तथा भुवनों को धारण करने वाली ित्रनेत्रा,
िविवधाभारणभूिषता, प्रसन्नमुखकमल वाली, देवगणों से सुसेिवता कामबाण से िवकल िरीरा मायाराज्ञी कालराित्र स्वरुपा
महािवद्या का मैं ध्यान करता हूँ ॥११॥

इन मन्त्त्र का दि हजार जप करना चािहए । ितलों से अथवा कमलों से दिांि होम कर श्रेष्ठ ब्राह्मणों को भोजनाफद से संतुष्ट
करना चािहए । ऐसा करने से साधक श्रेय प्राप्त करता है ॥१२॥

कािलका पीठ पर देवी का पूजन करना चािहए । अब पूजा के िलये यन्त्त्र कहता हूँ -

िबन्त्द,ु उसके बाद ित्रकोण, उसके बाद षट् कोण, फिर वृत्त, अष्टदल, तदनन्त्तर पुनेः वृत्त, तत्पश्चात् षोडिदल, पुनेः वृत्त और
उसके बाद तीन रे खा, िजसमें चार द्वार जों ऐसे चतुष्कोण, को भूपुर से आवृत कर देना चािहए ॥१३-१४॥

ऐसा यन्त्त्र िलखकर मध्य िबन्त्द ु में देवी का पूजन करना चािहए । यह यन्त्त्र भोजपत्र पर अथवा दूध वाले वृक्ष जैसे पीपल,
पाकड गूलर या बरगद के पत्ते पर बनाना चािहए । िािन्त्तक तथा पौिष्टक कमग के िलये यन्त्त्र को अष्टगन्त्ध से तथा चम्पा की
कलम द्वारा िलखना चिहए ॥१४-१५॥

कचूगर अगुरु, कपूर, गोरोचन, रक्त चन्त्दन, कुं कु म, श्वेत चन्त्दन और कस्तूरी यह अष्टगन्त्ध कहा गया है ॥१६॥

विीकरण के िलए िसन्त्दरू द्वारा तहगुल (वनभण्टा) के कमल से िलखना चािहए तथा स्तम्भन के िलये यह मन्त्त्र हरताल एवं
हल्दी द्वारा कोयल के पंख से िलखना चािहए । मारणकमग, के िलये धत्तूर, आक और िनगुगण्डी (िसन्त्दव
ु ार) के रस में गदहा,
घोडा तथा मिहष के रक्त को िमिश्रत कर कौए के पंखों से िलखना चािहए ॥१७-१८॥
िवमिग - पीठ पूजा - सवगप्रथम १८. ११ में उिल्लिखत कालराित्र के स्वरुप का ध्यान कर मानसोपचार से उनका पूजन कर
अघ्नयग स्थािपत करे ।
फिर पीठ देवताओं का इस प्रकार पूजन करे । यथा - पीठमध्ये -
ॎ आधारिलत्यै नमेः ॎ प्रकृ त्यै नमेः ॎ कू मागय नमेः,
ॎ मिणद्वीपाय नमेः, ॎ पृिथव्यै नमेः, ॎ सुधाम्बुधये नमेः,
ॎ श्मिानाय नमेः, ॎ िचन्त्तामिणगृहाय नमेः, ॎ श्मिानाय नमेः,
ॎ पाररजाताय नमेः,

तदनन्त्तर कर्णणका में - ॎ रत्नवेफदकायै नमेः, चतुर्ददक्षु,


ॎ मुिनभ्यो नमेः, ॎ देवेभ्यो नमेः, ॎ ििवाभ्यो नमेः,
ॎ ििवकर्णणकोपरर नमेः, ॎ मिणपीठय नमेः ।

पुनेः चतुष्कोण में और चतुर्ददक्षु में - ॎ धमागय नमेः, आिेये,


ॎ ज्ञानाय नमेः नैऋत्ये ॎ वैराग्याय नमेः, वायव्ये,
ॎ ऐश्वयागय नमेः, ऐिान्त्ये, ॎ अधमागय नमेः, पूवे,
ॎ अज्ञानाय नमेः, दिक्षणे, ॎ अवैराग्याय नमेः, पिश्चमे,
ॎ अनैश्वयागय नमेः उत्तरे ,

इसके बाद के सरो में पूवागफद फदिाओ में तथा मध्य में जयाफद ििक्तयों की िनम्न मन्त्त्रों से पूजा करनी चािहए । यथा - ॎ
जयायै नमेः,
ॎ िवजयायै नमेः ॎ अिजतायै नमेः ॎ अपरािजतायै नमेः,
ॎ िनत्यायै नमेः ॎ िवलािसन्त्यै नमेः ॎ रोग््यै नमेः
ॎ अघोरायै नमेः, ॎ मङ्गलायै नमेः ।

इसके बाद ‘ह्रीं कािलकायोगपीठात्मने नमेः’ मन्त्त्र से आसन देकर मूल मन्त्त्र से मूर्णत की कल्पना कर ध्यान से के कर पुष्पाञ्जिल
समपगण पयगन्त्त कालराित्र की िविधवत् पृजाकर उनकी आज्ञा से आवरण पूजा प्रारम्भ करे ॥१३-१८॥

उक्त प्रकार से िलिखत मन्त्त्र पर आवरण पूजा इस प्रकार करनी चािहए । प्रथम ित्रकोण में सम्मोिहनी, मोिहनी और
िवमोिहनी इन ३ देवताओं की वामावतग से पूजा करनी चािहए ॥१९-२०॥

फिर षट्कोण में आिेयाफद कोणों के िम से षडङ्गन्त्यास वृत्त में अकाराफद १६ स्वरों का तथा अष्टदल में ब्राह्यी आफद
अष्टमातृकाओं का पूजन करना चािहए । िद्वतीय वृत्त में अकार से लेकर क्षकार पयगन्त्त ३४ व्यञ्जनो का, पुनेः षोडिदल में १.
उवगिी, २. मेनका, ३. रम्भा, ४. घृताची, ५. मछजुघोषा के साध ६ सहजनी, ७. सुकेिी और अष्टम ८. ितलोत्तमा, ९.
गन्त्धवीए, १०. िसिकन्त्या, ११. फकन्नरी, १२. नागकन्त्या, १३. िवद्याधरी, १४. ककपुरुषो, १५. यिक्षणी और १६.
िपिािचका का पूजन करना चािहए ॥२०-२३॥

फिर तृतीय वृत्त में ५ बीजों का अपने अपने देवताओं के साथ तथा अपने अपने बीजों के साथ पञ्चबाणोम का इस प्रकार कु ल
१० देवताओं का पूजन करना चािहए ॥२४-२५॥
फिर भूपुर के भीतर अिणमाफद अष्टिसिियों का तथा भूपुर की तीनों रे खाओं में ९ देवताओं का पूजन करना चािहए । पहली
रे खा में इच्छाििक्त, फकयागििक्त और ज्ञानििक्त का, दूसरी रे खा में रुर, िवष्णु और ब्रह्मदेव का तथा तीसरी रे खा में सत्त्व, रज
एवं तमो गुण का पूजन करना चािहए ॥२५-२७॥

फिर मन्त्त्र के पूवागफद चारों फदिाओं में िमिेः गणेि, क्षेत्रपाल, बटुक और योिगिनयों का पूजन करना चािहए । फिर इन्त्राफद
फदलपालों का भी पूजन करना चािहए । इस रीित से ब्राह्य पूजा करने के पश्चात् देवी के पास चारोम फदिाओ में तीन तीन के
िम से १२ देिवयों का पूजन करना चािहए ॥२८-२९॥

१. माया, २. कालराित्र, ३. वटवािसनी, ४. गणेश्वरी, ५. काहना, ६. व्यािपका, ७. अलकग वािसनी, ८. मायाराज्ञी, ९.


मदनिप्रया, १०. रित, ११. लक्ष्मी एवं १२. काहनेश्वरी - ये १२ देिवयाूँ है । इन देिवयों को नैवद्य
े समपगणान्त्त पूजन कर अन्त्त
में मद्य आफद की बिल देनी चािहए । इस रीित से पूजन करने पर कालराित्र साधक को अभीष्ट िल देती है ॥३०-३२॥

िवमिग - आवरण पूजा िविध - सवगप्रथम ित्रकोण में वामावतग िम से सम्मोिहनी आफद का िनम्निलिखत रीित से पूजन करना
चािहए । यथा -
ॎ सम्मोिहन्त्यै नमेः, ॎ मोिहन्त्यै नमेः, ॎ िवमोिहन्त्यै नमेः

फिर षट् कोण में आिेयाफद कोणों के िम से िनम्न मन्त्त्रों से षडङ्गपूजा करनी चािहए । यथा -
ॎ ऐं ह्रीं ललीं श्रीं काहनेश्वरर सवगजन मनोहरर सवगमुखस्तिभ्भिन हृदयाय नमेः,
सवगराजविंकरर सवगदष्ट
ु िनदगिलिन सवगस्त्रीपुरुषाकर्णषिण ििरसे स्वाहा,
बन्त्दी श्रृखंलास्त्रोटय त्रोटय सवगित्रून भञ्जय भञ्जय ििखायै वषट् ,
द्वेष्टृन् िनदगलय िनदगलय सवगस्तम्भयं स्तम्भय कवचाय हुम्,
मोहनास्त्रेण द्वेिषणेः उिाटय उिाटय सवग विं कु रु कु रु स्वाहा नेत्रत्रयाय वौषट्
देिह देिह सवग कालराित्र कािमिन गणेश्वरर नमेः अस्त्राय िट्
तत्पश्चात् वृत्त में १६ स्वरों का पूजन करना चािहए । यथा -
ॎ अं नमेः, ॎ आं नमेः, ॎ इं नमेः ॎ ई नमेः,
ॎ उं नमेः, ॎ ऊ नमेः, ॎ एं नमेः ॎ ऐं नमेः,
ॎ ओं नमेः, ॎ औं नमेः ॎ अं नमेः ॎ अेः नमेः ।

फिर अष्टदल में ब्राह्यी आफद आठ अष्टमातृकाओं की नाममन्त्त्रों से पूवागफद दलों के िम से पूजा करनी चािहए । यथा -
ॎ ब्राह्ययै नमेः, ॎ माहेश्वयै नमेः, ॎ कौमायै नमेः,
ॎ वैष्णव्यै नमेः, ॎ वाराह्यै नमेः, ॎ इन्त्राण्यै नमेः,
ॎ चामुण्डायै नमेः, ॎ महालक्ष्म्यै नमेः,

फिर िद्वतीय वृत्त में कं नमेः, खं नमेः इत्याफद मन्त्त्रों से ककार से ले कर क्षकार पयगन्त्त व्यञ्जनोम का पूजन कर षोडिदल में
उवगिी आफद का िनम्न मन्त्त्रों से पूजन करना चािहए । यथा - ॎ उवगश्यै नमेः,’
ॎ मेनकायै नमेः, ॎ रम्भायै नमेः, ॎ घृताच्यै नमेः,
ॎ मछजुघोषायै नमेः, ॎ सहजन्त्यायै नमेः, ॎ सुकेश्यै नमेः,
ॎ ित्रलोत्तमायै नमेः, ॎ गन्त्धव्यै नमेः, ॎ िसिकान्त्यायै नमेः,
ॎ फकन्नयै नमेः, ॎ नागकन्त्यायै नमेः, ॎ िवद्याधयै नमेः,
ॎ कक पुरुषायै नमेः, ॎ यिक्षण्यै नमेः, ॎ िपिािचकायै नमेः,

इसके बाद तृतीय वृत्त में मूलमन्त्त्र के ५ बीजों में के एक एक बीज और उनके एक एक देवता देवता का पूजन करना चािहए ।
यथा - ॎ परमात्मने नमेः,
ऐं सरस्वत्यै नमेः, ह्रीं गौयै नमेः, ललीं कामायै नमेः,
श्रीं रमायै नमेः, रां रावणबाणय नमेः, रीं क्षोभणबाणाय नमेः,
ललीं विीकरणबाणाय नमेः, ब्लूं आकषगणबाणाय नमेः, सेः उन्त्मादन बाणाय नमेः,

तत्पश्चात् भूपुर के भीतर अिणमा आफद ८ िसिियों का पूजन करना चािहए । यथा - ॎ अिणमायै नमेः, ॎ मिहमायै
नमेः,
ॎ लिघमायै नमेः, ॎ गररमायै नमेः, ॎ प्राप्त्यै नमेः,
ॎ प्राकाम्यायै नमेः, ॎ ईिितायै नमेः, ॎ विितायै नमेः

तदनन्त्तर भूपुर के तीन रे खाओं में िमिेः प्रथम रे खा से तीन रे खाओं पर तीन-तीन देवताओं का िनम्न रीित से पूजन करना
चािहए । यथा -
आद्यरे खा - ॎ इच्छािलत्यै नमेः, ॎ फियािलत्यै नमेः, ॎ ज्ञानिलत्यै नमेः,
िद्वतीयरे खा - ॎ रुराय नमेः, ॎ िवष्णवे नमेः, ॎ ब्रह्मणे नमेः,
तृतीयरे खा - ॎ सं सत्त्वाय नमेः, ॎ रं रजसे नमेः, ॎ तं तमसे नमेः,

फिर पूवग आफद चारों फदिाओं में िमिेः गणेि, क्षेत्रपाल, बटुक एवं योिगिनयों का पूजन करना चािहए । यथा -
ॎ गं गणपतये नमेः, ॎ क्षं क्षेत्रपालाय नमेः,
ॎ वं वटुकाय नमेः, ॎ यं योिगनीभ्यो नमेः,

इसके बाद पूवग आफद अपनी फदिाओं में सायुध इन्त्राफद का िनम्निलिखत मन्त्त्रों से पूजन करना चािहए । यथा -
ॎ लं इन्त्राय सायुधाय नमेः, ॎ रं अिये सायुधाय नमेः,
ॎ मं यमाय सायुधाय नमेः, ॎ क्षं िनऋतये सायुधाय नमेः,
ॎ वं वरुणाय सायुधाय नमेः ॎ यं वायवे सायुधाय नमेः,
ॎ सं सोमाय सायुधाय नमेः ॎ हं ईिानाय सायुधाय नमेः,
ॎ आं ब्रह्मणे सायुधाय नमेः ॎ ह्रीं अनन्त्तयाय सायुधाय नमेः

इस रीित से बाह्य पूजा समाप्त कर देवी के समीप पूवागफद चारों फदिाओं में तीन तीन के िम से १२ देिवयों का उनके नाम
मन्त्त्रों से पूजन करना चािहए । यथा -
पूवे - ॎ मायायै नमेः, ॎ कालरात्र्यै नमेः ॎ वटवािसन्त्यै नमेः,
दिक्षण - ॎ गणेश्वयै नमेः, ॎ काहनायै नमेः, ॎ व्यािपकायै नमेः,
पिश्चमे - ॎ अलकग वािसन्त्यै नमेः, ॎ मायाराज्ञयै नमेः, ॎ मदनिप्रयायै नमेः,
उत्तरे - ॎ रत्यै नमेः ॎ लक्ष्म्यै नमेः, ॎ काहनेश्वयै नमेः,
इस प्रकार आवरण पूजा के पश्चात् धूप, दीप, नैवेद्यािप से िविधवत् देवी का पूजन कर मद्याफद पदाथो से उन्त्हें बिल देनी
चािहए । इस प्रकार के पूजन से कालराित्र प्रसन्न होकर साधक को अभीष्ट िल देती है ॥१९-३२॥

अब काम्यप्रयोग कहते है - सवगप्रथम विीकरण का प्रयोग साधक ििनवार के फदन सांयकाल फकसी रमणीक सरोवर पर जावे
। इसके बाद हल्दी, अक्षत एवं पुष्पों से तार (ॎ), फिर ‘नमो’ पद, फिर दो बार जलौकायै, फिर ‘सवग’ पद के बाद ‘जनं विं’
कह कर २ बार ‘कु रु कु रु’, फिर अन्त्त में हुं, अथागत् - ‘ॎ नमो जलौकायै जलौकायै सवगजनं विं कु रु कु रु हुं’ इस मन्त्त्र से सरोवर
का पूजन करे ॥३३-३४॥

फिर घर जा कर राित्र में देवी का स्मरण करते हुये सो जावे । पुनेः प्रातेः उसी सरोवर पर जा करे वहाूँ से २ जलौका (जोंक)
ला कर छाया में सुखा कर उसका चूरा बना लें । इस चूरे का काले कपास की रुई में िमलाकर, बत्ती बना कर, कु ह्यार के चाक
पर से लाई गई िमट्टी का दीप बनाकर, उसमें वह बत्ती डाल देवे । फिर चलते हुये कोल्ह से िनमगल एवं िुि तेल लाकर उसमें
डाल देवे । तत्पश्चात् (वारस्त्री) के घर से अिि लाकर कु िचला की लकडी जलाकर उसी से दीपक को प्रज्विलत करे ॥३५-३९॥

फिर हल्दी के रस से ित्रकोण षट् कोण एवं भूपुर से बने यन्त्त्र पर बीच में लाज रखकर उस दीपक को स्थािपत करे देना चािहए
। ऐसा कर लेने के बाद उसी दीपक पर कालराित्र का आवाहन कर आवरण सिहत उनकी पूजा करे । फिर दीपक पर नवीन
खप्पर रखकर दीपक की ज्योित से उत्पन्न काजल ले कर साधक पिश्चमािभमुफकह बैठकर तीन सौ बार उक्त वक्ष्यमाण मन्त्त्र
द्वारा उस काजल को अिभमिन्त्त्रत करे ॥३९-४२॥

अब अञ्जनािभमन्त्त्रण मन्त्त्र कहते हैं -


तार (ॎ), वाग् (ऐं), मदन (ललीं), माया (ह्रीं), रमा (श्रीं), भूिम (ग्लौं), फिर ‘ब्लूं ह्सोेः नमेः’ काहनेश्वरर के बाद ‘सवागन्त्मोहय
मोहय कृ ष्ण’, इसके बाद ‘कृ ष्णवणे’, फिर ‘कृ ष्णाम्बरसमिन्त्वते सवागनाकषगय आकषगय’, फिर ‘िीघ्रं विं’ तथा २ बार कु रु कु रु,
फिर वाग् (ऐं), िगररजा (ह्रीं), काम (ललीं) एवं उसके अन्त्त में श्री बीज (श्रीं) लगाने से ५८ अक्षरों का अञ्जनािभमन्त्त्रण का
महामन्त्त्र बन जाता है ॥४३-४५॥

िवमिग - इस मन्त्त्र का स्वरुप इस प्रकार है - ॎ ऐं ललीं ह्रीं श्रीं ग्लौं ब्लूं ह्सौेः नमेः काहनेश्वरर सवागन्त्मोहय मोहय कृ ष्णे
कृ ष्णवणे कृ ष्णाम्बरसमिन्त्वते सवागनाकषगय आकषगय िीघ्रं विं कु रु कु रु ऐं ह्रीं ललीं श्रीं ॥४३-४५॥

इसके पश्चात् दीपक से दीप देवता को अपनी आत्मा में स्थािपत कर, मङ्गलवार के फदन पुनेः देवी एवं अञ्जन का पूजन करे
अञ्जन को मलखन से मर्ददत करना चािहए । तदनन्त्तर सुसंस्कृ त अिि में मूल मन्त्त्र से १०८ आहुती, फिर मूल मन्त्त्र से महुआ के
िू लों से एक सौ आठ आहुितयों द्वारा होम कर कु मारी, वटुकं एवं िस्त्रयों को िमष्ठान्न का भोजन कराना चािहए ॥४६-४९॥

इस प्रकार िनष्पन्न हुये अञ्जन का ितलक लगाकर साधक अपने दुिष्टपात मात्र से नर, नारी कक बहुना राजा को भी विीभूत
कर लेता है । दूध में िमलाकर िपलाने से पीने वाला पुरुष विीभूत हो जाता है । कक बहुना ऐसा साधक िजसका स्पिग करता
है वह पुरुष सदैव उसकअ दास बना रहता है ॥४८-५०॥

यहाूँ तक विीकरण की िविध कही गई । अब स्तम्भनमन्त्त्र कहा जा रहा है - हल्दी, गोरोचन कू ट एवं तगर को गोमूत्र में पीस
कर उससे हल्दी में रं गे वस्त्र पर अष्टदल िनमागण करना चािहए । फिर उसकी कर्णणका में ित्रु का नाम (अमुकं स्तम्भय) तथा
दलों में २ बार प्रणव तथा भूबीज (ग्लौं) दो बार और चार दलों में दो बार ‘चट’ िब्द िलखना चािहए । फिर उस मन्त्त्र को
पीले वस्त्र से वेिष्टत करना चािहए ॥५०-५३॥
उसके बाद कु िचला की लकडी की सात कीलों से उसे िविकर आक के पत्ते में लपेट कर, उस यन्त्त्र को वल्मीक (बाूँबी) में
रखकर, उस बाूँबी को भेंडे के मूत्र से भर देना चािहए । फिर बाूँबी के उपर पत्थर रखकर उस पर बैठकर साधक नैऋत्य कोण
की ओर मुख कर हरररा से िनर्णमत माला द्वारा वक्ष्यमाण मन्त्त्र का एक हजार की संख्या में जप करे ॥५३-५६॥

अब जप का मन्त्त्र कहते हैं - प्रणव (ॎ), चन्त्र एवं दीघगत्रय सिहत गगन एवं क्षोणी (ह्रां ह्रीं ह्रूं), फिर ‘कामािक्षमाया’ एवं
‘रुिपिण’ पद के बाद ‘सवग एवं ‘मनोहाररिण’ पद, फिर दो बार ‘स्तम्भय’, फिर दो बार ‘रोधय’, फिर दो बार ‘मोहय’, फिर
दीघगत्रय सिहत कामबीज (ललां ललीं ललूं), फिर ‘कामा’ पद, फिर भगी, अिन्त्तम (क्षे), फिर काहनेश्वरर, तदनन्त्तर अन्त्त में
वमगत्रय (हुं हुं हुं) लगाने से ५० अक्षरों का (स्तम्भक) जप मन्त्त्र बनता है । इस मन्त्त्र का उपयुगक्त संख्या में जप करने से ित्रु का
स्तम्भन होता है ॥५६-५९॥

िवमिग - इस मन्त्त्र का स्वरुप इस प्रकार है - ‘ॎ ह्रां ह्रीं ह्रूं कामािक्ष मायारुिपिण सवगमनोहाररिण स्तम्भय स्तम्भय रोधय
रोधय मोहय मोहय ललां ललीं ललूं कामाक्षे काहनेश्वरर हुं हुं हुम्" ॥५६-५९॥

अब मोहन का िवधान कहते हैं - रिववार के फदन हल्दी ला कर उसे स्त्री के दूध में पीसकर बने रस से भोजपत्र पर के वृत्त
बनाकर उसमें कामबीज िलखना चािहए । पुनेः उस वृत्त को १० कामबीजों से वेिष्टत करना चािहए । इसके बाद उसके ऊपर
एक वृत्त बनाकर उसे १२ कामबीज (ललीं) से वेिष्टत करना चािहए । फिर उसके ऊपर एक वृत्त और बना कर उसे सोलह
कामबीजोम से वेिष्टत करना चािहए । पुनेः उसके ऊपर षट्कोण िलखकर उसके कोणों में काम बीज (ललीं) िलखना चािहए ।
फिर इस संपूणग यन्त्त्रको वाग्बीज (ऐं) के मध्य में करने से वह यन्त्त्र मोहन करने वाला हो जाता है ॥६०-६३॥

इसके बाद उस यन्त्त्र पर बैठकर िु ि मन से ५ फदन पयगन्त्त सह्स्त्र-सह्स्त्र की संख्या में दिाक्षर मन्त्त्र का जप करे । चतुथ्व्यगन्त्त
काम (कामाय) फिर कामबीज (ललीं) तदनन्त्तर काम सम्पुरटत ‘कािमन्त्यै’ पद और प्रारम्भ में तार (ॎ ) अथागत् - ॎ कामाय
ललीं ललीं कािमन्त्यै ललीं’ यह जगत् को मोिहत करने वाला दिाक्षर मन्त्त्र बनता है ।

तदनन्त्तर घृत िमिश्रत ितलों से दिांि हवन करना चािहए । इस प्रकार िलये गये भस्म का ितलक लगाकर या उस यन्त्त्र को
धारण कर साधक सारे िवश्व को मोिहत कर लेता है ॥६३-६६॥

यहां तक मोहन का िवधान कहा गया । अब आकषगण का िवधान कहते हैं -


कृ ष्णपक्ष की अष्टमी या चतुदि
ग ी को मङ्गल या रिववार का फदन होने पर प्रातेः नािभपयगन्त्त जल में खडे होकर मूलमन्त्त्र का
११ सौ जप करना चािहये । फिर घर आ कर िरीर में तेल लगाकर पीठ पर अञ्जन से स्त्री की आकृ ित अथवा पुरुष की आकृ ित
बनाकर उसकी लज्जावती के पत्तों से पूजा कर उसकी जड के रस से उस आकृ ित का प्रोक्षण करना चािहए ॥६७-६९॥

फिर उसके आगे बैठकर वक्ष्यमाण ४४ अक्षरों वाले इस मन्त्त्र का जप करना चािहए -
तार (ॎ), फिर ‘नमेः कािलकायै सवोत्कषग’, उसके आगे भौितकस्थ रित एवं वायु (ण्यै), फिर अम्रकीं, दो बार आकषगय, उसके
बाद पुनेः दो बार िीघ्रमानय, फिर पाि (आं), माया (ह्रीं), अंकुि (िों), ‘भरकाल्यै’ पद तथा अन्त्त में हृद (नमेः) जोड देने से
४४ अक्षरों का आकषगण मन्त्त्र िनष्पन्न होता है ॥७०-७२॥

िवमिग - आकषगण मन्त्त्र का स्वरुप - ॎ नमेः कािलकायै सवोकषगण्यै अमुकीं अमुकं साध्य (स्त्री या पुरुष के नाम में िद्वतीयान्त्त)
आकषगय आकषगय िीघ्रमानय िीघ्रमानय आं ह्रीं िों भरकाल्यै नमेः ॥७०-७२॥

इस मन्त्त्र का एक सो साठ बार जप कर साधक ५० लाल कनेर के पुष्पों से पूवगिलिखत आकृ ित का पूजन करे । फिर वणगमाला
के एक-एक अक्षर का उिारण करते हुये साध्य का िद्वतीयान्त्त नाम फिर २ बार ‘आकषगय’ िब्द तथा अन्त्त में उसके आगे ‘नमेः’
जोड कर बने मन्त्त्रों से एक एक पुष्प चढाना चािहए ॥७३-७४॥

िवमिग - पुष्प चढाने का मन्त्त्र - ॎ अं अमुकीं अमुकं वा (साध्य स्त्री या पुरुष का िद्वतीयान्त्त नाम) आकषगय आकषगय नमेः ॎ
आं अमुकीं अमुकं वा आकषगय आकषगय नमेः इत्याफद ॥७३-७४॥

फिर धूप, दीप, नैवेद्याफद से उस आकृ ित का पूजन कर आकषगण मन्त्त्र से घी िमिश्रत चनों की १०० आहुितयाूँ प्रदान करनी
चािहए । तत्पश्चात् कु मारी द्वारा काते गये काले सूतों के २८ धागे िजसमें एक एक अपने िरीर की लम्बाई के तुल्य हो उसमें
आकषगण मन्त्त्र से १०८ ग्रिन्त्थ लगनी चािहए । इस प्रकार के िनर्णमत्त गण्डे को धारण करने से अपने गाूँव या नगर में रहने
वाली स्त्री अथवा पुरुष ३ फदन के भीतर अन्त्यत्र रहने वाले स्त्री या पुरुष ९ फदन के भीतर िीघ्र आ जाते है ॥७५-७९॥

यहाूँ तक आकषगण प्रयोग कहा गया । अब उिाटन की िविध कहता हूँ -


कृ ष्णपक्ष की चतुदि
ग ी के फदन फकसी िनजगन मकान में दिक्षण की ओर मुख कर ििखा खोले, नीला वस्त्र पहन कर साधक
कु लकु टासन से बैठे । फिर िबरी देवता का स्मरण कर ग्रिन्त्थयुक्त मूञ्च की रस्सी की माला से वक्ष्यमाण मन्त्त्र का दो हजार जप
करे ॥७९-८०॥

तार (ॎ), फिर िमिेः भूधर (व), भृगु (स), अकग (मेः) संवतग (क्ष), इन चारों को प्रत्येक से फिया (लकार) से संयुक्त, कर, फिर
दीिपका (ऊकार) और चन्त्र (िबन्त्द)ु से संयुक्त, कर िनष्पन्न ४ बीजाक्षरों (ब्लूं स्लूं म्लूं क्षूं) के बाद ‘कालराित्र महाध्वांिक्ष’ पद के
बाद, अमुकं (साध्य नाम के आगे िद्वतीयान्त्त) फिर दो बार ‘आिूिाटय’ पद, फिर दो बार िछिन्त्ध, फिर िभिन्त्ध, तदनन्त्तर
िुिचिप्रया (स्वाहा), फिर प्रसादबीज (हौं), फिर ‘कामािक्ष’ पद इसके अन्त्त में सृिण (िों) लगाने से ३६ अक्षरों का मन्त्त्र
िनष्पन्न होता है जो िीघ्र ही ित्रुओं का उिाटन कर देता है ॥८१-८३॥

िवमिग - मन्त्त्र का स्वरुप - ॎ ब्लूं स्लूं म्लूं क्ष्लूं कालराित्र महाध्वांिक्ष अमुक-मािूिाटय आिूिाटय िछिन्त्ध, िछिन्त्ध िभिन्त्ध
स्वाहा हीं कामाक्षी िों ॥८१-८३॥

जप के बाद राित्र में सरसों से दिांि होम करना चािहए । फिर सरसों की खली तथा सरसों के तेल को जल में िमलाकर उक्त
मन्त्त्र से अपनी ििखा खोलकर भूिम में बिल देनी चािहए । इस फिया को ७ रात पयगन्त्त लगातार करते रहने से ित्रु देि
छोडकर अन्त्यत्र भाग जाता है ॥८४-८५॥

िजन दो व्यिक्तयों में िवद्वेष करना हो उनके जन्त्म नक्षत्र वाले वृक्ष की लकडी (र० ९. ५२) के दो िलक बना कर उस पर गधी
के दूध में िवषाष्टक (र० २५. ५७) िमलाकर उसी से उन दोनों के नाम सिहत आकृ ित बनानी चािहए । फिर उनका स्पिग
करते हुये अिगराित्र में वक्ष्यमाण मन्त्त्र का एक हजार जप करना चािहए ॥८६-८७॥

पावक (र), मनु(औ), इन्त्द ु (िबन्त्द)ु सिहत िवयत् (ह), इस प्रकार (ह्रौं), फिर ग्लौ, फिर खं (ह), फिर इन्त्द ु एवं मनु सिहत हंस
(सौं), अथागत हसौं, फिर अिि, मनु एवं िबन्त्दस
ु िहत िनरा (भ्रौ), फिर ‘भगव’ पद के बाद ‘ितदण्डधाररणी पद, फिर अमुकमुकं
(साध्य नाम का िद्वतीयान्त्त), फिर िीघ्रं, फिर दो बार ‘िवद्वेषय’, फिर दो बार ‘रोधय’, फिर २ बार ‘भञ्जय’, फिर रमा (श्रीं),
माया (ह्रीं) फिर चतुथ्व्यगन्त्त राज्ञी (राज्ञयै), प्रणव (ॎ) और इसके अन्त्त में ३ बार कवच (हुं), और इस मन्त्त्र के मन्त्त्र के प्रारम्भ
में तार (ॎ) लगाने से ५० अक्षरों का सवगिसििदायक मन्त्त्र िनष्पन्न होता है ॥८८-९०॥

िवमिग - िवद्वेषण मन्त्त्र का स्वरुप - ॎ ह्रौं ग्लौं हसौं भ्रौं भगवित दण्डधाररिण अमुकमुकं िीघ्रं िवद्वेषय िवद्वेषय रोधय रोधय
भञ्जय भञ्जय श्रीं ह्रीं राज्ञ्यै ॎ हुं हुं हुं ॥८८-९०॥
जप करने के बाद उन दोनों िलकों को गदहा, भैसं, तथा घोडे की पूूँछ के बालों से बनी रस्सी बाूँधकर बाूँवी के भीतर गाङकर
एक हजार की संख्या में जप करना चािहए । ऐसा करने से उन दोनों में परस्पर प्रेम नष्ट होकर आपस में ित्रुता हो जाती है
॥९१-९२॥

मारण का प्रयोग तभी करना चािहए जप ब्राह्मणोतर ित्रु हो, ब्राह्मण पर कभी मारण प्रयोग न करे , िास्त्र से िनिषि है ।
मारण प्रयोग करने पर िुिि के िलये मूल मन्त्त्र का एक सौ आठ बार जप करना चािहए ॥९३॥

कृ ष्णपक्ष की चतुदि
ग ी को जप मङ्गलवार का फदन जो तो गोपुर, चतुष्पथ या श्मिान से िमट्टी ला कर उसमें बायिबडङ्ग
कनेर और आक (मन्त्दार) का िू ल िमला कर उससे पुतली का िनमागण करना चािहए ॥९४-९५॥

फिर राित्र के समय श्मिान में अथवा फकसी िून्त्य घर में ििखा खोल कर, नीला वस्त्र पहन कर, बैठ कर पुतली की छाती पर
ित्रु का नाम िलख कर, उसमें प्राण प्रितष्ठा करनी चािहए । फिर उसको किन से ढूँक कर तेल में डु बो कर उसका पूजन करना
चािहए ॥९५-९६॥

तदनन्त्तर उस पुतली को गदहा, घोडा, और भैंस के रक्त से स्नान कराना चािहए । फिर लालचन्त्दन और धतूरे के िू ल चढा कर
मारण मन्त्त्र से होम कर पुनेः उसका पूजन करना चािहए ॥९७-९८॥

प्रथम मारण मन्त्त्र का उिार कहते है - दीघगत्रय अिि (र) और रात्रीि (िबन्त्द)ु सिहत तन्त्री (म्) अथागत् म्रां म्रीं म्रूं, फिर
‘मृतीश्वरर; पद एवं ‘कृं कृ त्ये’ पद के पश्चात अमुकं (साध्य का िद्वतीयान्त्त नाम), फिर ‘िीघ्रं’ पद, फिर दो बार ‘मारय’ पद तथा
अन्त्त में सृिण (िों) और मन्त्त्र के प्रारम्भ में रुव (ॎ) लगाने से २३ अक्षरों का मारण मन्त्त्र िनष्पन्न होता है ॥९९-१००॥

िवमिग - मारण मन्त्त्र का स्वरुप - ॎ म्रां, म्रीं म्रूं मृतीश्वरर कृं कृ त्ये अमुकं िीघ्रं मारय मारय िोम्(२३) ॥९४-१००॥

इस मन्त्त्र से पूजन वचा, सरसों, िभलावां और धतूरे के बीजोम को एक में िमलाकर श्मिानािि में १०१ आहुितयाूँ देनी
चािहए । फिर पुतली का ििर काट कर उसी अिि में डाल देना चािहए । तदनन्त्तर पूणागहुित करना चािहए ॥२१ फदन पयगन्त्त
इस फिया को िनरन्त्तर करते रहने से ित्रु मर जाता है ॥१००-१०२॥

मारण प्रयोग करने के पहले उडद से बन पदाथग, मांस और मद्य आफद की बिल भैरव को देनी चािहए । ऐसा करने से कायग
िनिश्चत रुप से िसि हो जाता है । जो मािन्त्त्रक ऐसे कृ त्यों का अनुष्ठान कर उसे अपनी रक्षा के िलये भगवान् नृतसह अथवा
ििव की उपासना अवश्य करनी चािहए ॥१०३-१०४॥

िवमिग - िबना गुरु के मारण आफद िवनािकारी प्रयोगों को करने से स्वयं पर आघात हो जाता है । अतेः मारणप्रयोग नहीं ही
करन चािहए ॥९३-१०४॥

अब चण्डी िवधान कहते हैं - सवगप्रथम चण्डी के अनुष्ठान में प्रयुक्त होने वाले नवाणग मन्त्त्र का उिार कहता हूँ -
वाक् (ऐं), माया (ह्रीं), मदन (ललीं), फिर दीघागलक्ष्मी (चा), श्रुित उकार इन्त्र ु (िबन्त्द)ु सिहत तिन्त्र (म) अथागत् (मुं), फिर
‘डायै’ पद, फिर सदृक्जले (िव), तदनन्त्तर िझण्टीि सिहत कू मग द्वय (िे), यह नवाणग मन्त्त्र कहा गया है ॥१०५-१०६॥

िवमिग - मन्त्त्र का स्वरुप - ऐं ह्रीं ललीं चामुण्डायै िविे ॥१०५-१०६॥


अब िविनयोग कहते है - इस नवाणग मन्त्त्र के ब्रह्मा, िवष्णु और महेश्वर ऋिष है । गायत्री, उिष्णग् और अनुष्टुप् छन्त्द मुिनयों ने
कहा है तथा महाकाली महालक्ष्मी एवं महासरस्वती ये देिवयाूँ इसकी देवता हैं, नन्त्दा, िाकम्भरी और भीमा इसकी ििक्तयाूँ
है । रक्तदिन्त्तका दुगाग और भ्रामरी बीज है । अिि, वायु और सूयग तत्त्व है । वेदत्रय से उत्पन्न इसका िल है । इस प्रकार
सवागभीष्ट िसिियों का हेतु इसका िविनयोग कहा गया है ॥१०६-१०९॥

अब ऋष्याफदन्त्यास कहते हैं - ऋिषयों का ििर, छन्त्दों का मुख तथा देवताओं का हृदय, पर, ििक्त और बीज का िमिेः दोनो
स्तन पर तथा तत्त्वों का पुनेः हृदय पर न्त्यास करना चािहए ॥११०॥

िवमिग - ऋष्याफदन्त्यास - ब्रह्मािवष्णुरुरऋिषभ्यो नमेः, ििरसे,


गायत्र्युिष्ण्गनुष्टुप्छन्त्दभ्े यो नमेः, मुखे,
महाकालीमहालक्ष्मीमहारसरस्वतीदेवताभ्यो नमेः, हृफद,
नन्त्दािाकम्भरीबेहम
े ाििक्तभ्यो नमेः, दिक्षणस्तने,
रक्तदिन्त्तकादुगागभ्रामरीबीजेभ्यो नमेः, वामस्तने,
अिीवायुसूयगतत्त्वेभ्यो नमेः, हृफद ॥११०॥

एकादिन्त्यास - (१) िुिमातृकान्त्यास - इसकी बाद समस्त अभीष्ट िल देने वाले एकादि न्त्यासों को करना चािहए ।
सवगप्रथम पूवोक्त मागग से मातृकान्त्यास करना चािहए िजसके करने से मनुष्य देवसदृि हो जाता है ॥१११-११२॥

िवमिग - ॎ अं नमेः ििरिस, ॎ आं नमेः मुखे, इत्याफद मातृकान्त्यास के िलये रष्टव्य िविध - १. ८९-९१ पृ० १८॥१११-
११२॥

(२) सारस्वतन्त्यास - इसके बाद सारस्वत संज्ञक िद्वतीय न्त्यास करना चािहए । उसकी िविध इस प्रकार है - मूल मन्त्त्र के
प्रारिम्भक ३ बीजोम के प्रारम्भ में प्रणव तथा अन्त्त में ‘नमेः’ लगाकर किणिष्ठका आफद पाूँच अंगुिलयों करतल, करपृष्ठ,
मिणबन्त्ध एवं कोिहनी पर िमिेः न्त्यास करना चािहए । फिर हृदय आफद ६ अंगो पर जाित सिहत न्त्यास करना चािहए । इस
सारस्वत न्त्यास के करने से जडता नष्ट हो जाती है ॥११२-११५॥

िवमिग - सारस्वतन्त्यास िविध ॎ ऐं ह्रीं ललीं नमेः किनिष्ठकयोेः,


ॎ ऐं ह्रीं ललीं नमेः अनािमकयोेः,

इसी प्रकार मध्यमा, तजगनी, अंगुष्ठ, करतल, करपृष्ठ, मिणबन्त्ध एवं कू पगर स्थानों में िद्ववचन का उहापोह कर न्त्यास कर लेना
चािहए । पुनेः ॎकार सिहत तीनोम बीजों से हृदयाफद स्थानोम पर न्त्यास करना चािहए । यथा -
ॎ ऐं ह्रीं ललीं हृदयाय नमेः, ॎ ऐं ह्रीं ललीं ििरसे स्वाहा,
ॎ ऐं ह्रीं ललीं ििखायै वषट् , ॎ ऐं ह्रीं ललीं कवचाय हुम्
ॎ ऐं ह्रीं ललीं नेत्रत्रयाय वौषट् , ॎ ऐं ह्रीं ललीं अस्त्राय िट् ॥११२-११५॥

(३) इसके बाद मातृकागण संज्ञक तृतीयन्त्याय करना चािहए । उसकी िविध इस प्रकार है प्रारम्भ में मायाबीज (ह्रीं) लगाकर
‘ब्राह्यी पूवगतेः मां पातु’ से पूवग, ‘माहेश्वरी आिेयां मां पातु’ से आिेय, ‘कौमारे दिक्षण मां पातु’ से दिक्षण, ‘वैष्णवी नैऋत्ये मां
पातु’ से नैऋत्य में, वाराही पिश्चमे मां पातु’ से पिश्चम में, ‘इन्त्रािण वायव्ये मां पातु’ से वायव्य में, ‘चामुण्डा उत्तरे मां पातु’ से
उत्तर में, ‘महालक्ष्मी ऐिान्त्ये मां पातु’ से ईिान में, ‘व्योमेश्वरी ऊध्वग मां पातु’ से ऊपर, ‘सप्तद्वीपेश्वरी भूमौ मां पातु’ से भूिम
पर तथा ‘कामेश्वरी पाताले मां पातु’ से नीचे न्त्यास करना चािहए । इस तृतीयन्त्यास के करने से साधक त्रैलोलय िवजयी जो
जाता है ॥११५-११९॥

िवमिग - इसका न्त्यास ‘ह्रीं ब्रह्मी पूवगतेः मां पातु पूवे’ , ‘ह्रीं माहेश्वरी आिेयां मां पातु’ इत्याफद प्रकार से करना चािहए ॥११५-
११९॥

(४) षड् वीन्त्यास - नन्त्दजा आफद पदों से युक्त मन्त्त्रों द्वारा चतुथगन्त्यास इस प्रकार करना चािहए -
‘कमलाकु िमिण्डता नन्त्दजा पूवागङ्गं मे पातु’ इस मन्त्त्र से पूवागङ्ग पर, ‘खड् गपात्रकरा रक्तदिन्त्तका दिक्षणाङ्गं मे पातु’ से
दिक्षणाङ्ग पर, ‘पुष्पपल्लवसंयुता िाकम्भरी पृष्ठाङ्गं मे पातु’ से पृष्ठ पर, ‘धनुबागणकरा दुगाग वामाङ्ग मे पातु’ से वामाङ्ग
पर, ‘ििरेःपात्रकराभीमा मस्तकाफद चरणान्त्तं मे पातु’ से मस्तक से पैरों तक तथा ‘िचत्रकािन्त्तभृत् भ्रामरी पादाफद मस्तकान्त्त्म
मे पातु’ से पादाफद मस्तक पयगन्त्त न्त्यास करना चािहए । इस चतुथगन्त्यास के करने से मनुष्य वृिावस्था और मृत्यु से मुक्त हो
जाता है ॥११९-१२२॥

(५) इसके बाद न्त्यासों में उत्तम ब्रह्मसंज्ञक पञ्चमन्त्यास करना चािहए । उसकी िविध इस प्रकार है -

‘ॎ सनातनेः ब्रह्या पादाफदनािभपयगन्त्तेः मां पातु’ से पैरों से नािभ पयगन्त्त,


‘ॎ जनादगनेः नाभेर्णविुििपयगन्त्तं िनत्यं मां पातु’ से नािभ से िविुिि चि पयगन्त्त,
‘ॎ रुरिस्त्रलोचनेः िविुिब्र
े ह्मरं रान्त्तं मां पातु’ से िविुििचि से ब्रह्मरन्त्र पयगन्त्त,
‘ॎ हंसेः पदद्वद्वं में पातु’ से दोनों पैरों पर, ‘ॎ वैनतेयेः करद्वय्म मे पातु’ से दोनों हाथों पर ‘ॎ वृषभेः चक्षुषी मे पातु’ से नेत्रों
पर, ‘ॎ गजाननेः सवागङ्गािन मे पातु’ से सभी अंगोम पर और ‘ॎ अनन्त्दमयो हररेः परापरौ देहभागौ मे पातु से िरीर के
दोनोम भागों पर न्त्यास करना चािहए । इस पञ्चमन्त्यास को करने से साधक के सभी मनोरथपूणग जो जाते है ॥१२३-१२७॥

(६) इसके बाद महालक्ष्मी आफद पद से संयुक्त मन्त्त्रों द्वारा षष्ठन्त्यास करना चािहए । उसकी िविध इस प्रकार है -

षष्ठन्त्यास िविध - ‘ॎ अष्टादिभुजािन्त्वता महालक्ष्मी मध्यं मे पातु’ - इस मन्त्त्र से मध्य भाग पर, ‘ॎ अष्टभुजोर्णजता सरस्वती
ऊध्वे मे पातु’ इस मन्त्त्र से ऊध्वग भाग पर, ‘ॎ दिबाहुसमिन्त्वता महाकाली अधेः मे पातु’ - इस मन्त्त्र से अधो भाग पर, ‘ॎ
तसहो हस्तद्वय्म मे पातु’ - इस मन्त्त्र से दोनों हाथों पर, ‘ॎ परं हस
ं ो अिक्षयुग्मं मे पातु’ - इस मन्त्त्र से दोनों नेत्रों पर, ‘ॎ फदव्यं
मिहषमारुढो यमेः पदद्वयं मे पातु’ - इस मन्त्त्र से दोनों पैरों पर, ‘ॎ चिण्डकायुक्तो महेिेः सवागङ्गािन मे पातु’ - इस मन्त्त्र से
सभी अङ्गों पर न्त्यास करना चािहए । इस षष्ठ न्त्यास के करने से मनुष्य सद्गित प्राप्त करत है ॥१२७-१३१॥

(७) अब इसके बाद मूल मन्त्त्र के एक एक वणों से सप्तम न्त्यास करना चािहए । इसे मूलाक्षर न्त्यास कहते है । इसके िविध इस
प्रकार है -

वणगन्त्यास िविध - ब्रह्मरन्त्र, दोनो नेत्र,े दोनों कान, दोनो नासापुट मुख और गुदा पर एक एक वणों के आफद में प्रणव तथा
अन्त्त में ‘नमेः’ लगाकर न्त्यास करना चािहए । इस सप्तमन्त्यास के करने से साधक के सारे रोग नष्ट हो जाते है ॥१३१-१३३॥

िवमिग - सप्तमन्त्यास िविध - ॎ ऐं नमेः ब्रह्मरन्त्रे, ॎ ह्रीं नमेः दिक्षणनेत्रे,


ॎ ललीं नमेः वामनेत्रे, ॎ चां नमेः दिक्षणकणे, ॎ म्रं नमेः वामकणे,
ॎ डाूँ नमेः दक्षनासापुटे, ॎ यै नमेः वामनासापुटे, ॎ तव नमेः मुखे,
ॎ िें नमेः मूलाधारे ॥१३१-१३३॥

(८) अब िवलोमिम वणगन्त्यास नामक अष्टमन्त्यास कहते हैं - इस न्त्यास में िवलोम िम से गुदा से ब्रह्माररान्त्त पयगन्त्त स्थानोम
पर िवलोम पूवगक मन्त्त्र के एक एक वणों के न्त्यास का िवधान है । इस न्त्यास से साधक के समस्त दुेःख दूर हो जाते है ॥१३३-
१३४॥

िवमिग - िवलोमवणगन्त्यास िविध - ॎ िें नमेः, मूलाधारे ॎ तव नमेः,मुखे, ॎ यैं नमेः, वामनासापुटे, ॎ डां नमेः
दिक्षणनासापुटे, ॎ मुं नमेः, वामकने, ॎ चां नमेः, दिक्षणकणे, ॎ ललीं नमेः वामनेत्रे, ॎ ह्रीं नमेः, दिक्षण नेत्रे, ॎ ऐं नमेः
ब्रह्यरन्त्रे ॥१३३-१३४॥

(९) अब मन्त्त्रव्यािप्तरुप नामक नवमन्त्यास कहते हैं - उसकी िविध इस प्रकार है -


ििर से पाद पयगन्त्त मूलमन्त्त्र का न्त्या आठ बार करे । इसी प्रकार िमिेः आगे, दािहने भाग में एवं पृष्ठभाग में तथा उसी प्रकार
वामभाग में मस्तक से पैरों तक तथा पैरों से मस्तक पयगन्त्त प्रत्येक भाग में आठ बार मूल मन्त्त्र का न्त्या करना चािहए । इस
नवम न्त्यास करने से साधक को देवत्व की प्रािप्त होती है ॥१३४-१३६॥

िवमिग - नवमन्त्यास िविध - ‘ॎ ऐं ह्रीं ललीं चामुण्डायै िविे मस्तकािरणान्त्त’ं पूणागङ्गे (अष्टवारम्), ‘ऐं ह्रीं ललीं चामुण्डायै
िविे पादािच्छरोन्त्तम्’ दिक्षणाङ्गे (अष्टवारम्), ‘ॎ ऐं ह्रीं ललीं चामुण्डायै िविे’ पृष्ठे (अष्टवारम्) ‘ॎ ऐं ह्रीं ललीं चामूण्डायै
वामाङ्गे (अष्टवारम्)’, ॎ ऐं ह्रीं ललीं चामुण्डायै िविे मस्तकािरणात्नम्’ (अष्टवारम्), ‘ॎ ऐं ह्रीं ललीं चामुण्डायै िविे
चरणात् मस्तकाविध’ (अष्टवारम्) ॥१३४-१३६॥

(१०) इसके बाद दिम षडङ्गन्त्यास रुपी करना चािहए । मूल मन्त्त्र का जाित के साथ हृदयाफद ६ अङ्गो पर न्त्यास करना
चािहए । इस दिम न्त्यास को करने से तीनों लोक साधक के वि में हो जाते हैं ॥१३६-१३७॥

िवमिग - दिमन्त्यास िविध - ‘ॎ ऐं ह्रीं ललीं चामुण्डायै िविे हृदयाय नमेः, ‘ॎ ऐं ह्रीं ललीं चामुण्डयै िविे ििरसे स्वाहा’,
(ििरिस), ‘ॎ ऐं ह्रीं ललीं चामुण्डायै िविे ििखायै वषट् ’ (ििखायाम्), ‘ॎ ऐं ह्रीं ललीं चामुण्डायै िविे कवचाय हुम्’ (बाहौ),
‘ॎ ऐं ह्रीं ललीं चामुण्डायै िविे नेत्रत्रयाय वौषट् ’ (नेत्रयोेः), ‘ॎ ऐं ह्रीं ललीं चामुण्डायै िविे अस्त्राय िट् ॥१३६-१३७॥

(११) इन उक्त दि न्त्यासों को कर लेने के पश्चात् िलदायी एकादि न्त्यास इस प्रकार करना चािहए -
‘खिडगनी िूिलनी घोरा’ इत्याफद ५ श्लोकों को पढकर आद्य कृ ष्णतर बीज (ऐं) का ध्यान कर सवागङ्ग में न्त्यास करना चािहए ।
‘िूलेन पािह नो देिव’ इत्याफद ४ श्लोकों का उिारन कर सूयग सदृि आभा िद्वतीय बीज (ह्रीं) ५ श्लोकों को पढकर स्िरटक जैसी
आभा वाले तृतीय बीज (ललीं) का ध्यान अर सवागङ्ग में न्त्यास करना चािहए ॥१३८-१४१॥

िवमिग - अथैकादिन्त्यास िविध -


तृतीयं ललीं बीजं स्िरटककाभं ध्यात्वा सवागङ्गे न्त्यसािम ॥१३८-१४१॥

िवद्वान् साधक को इस के बाद मूलमन्त्त्र के १, १, १, ४, २, वणों से तथा समस्त वणों से षडङ्गन्त्यास करना चािहए ॥१४१-
१४२॥
िवमिग - मूलमन्त्त्र के वणों से षडङ्गन्त्यास िविध इस प्रकार है । यथा -
ऐं हृदयाय नमेः, ह्रीं ििरसे स्वाहा, ललीं ििखायै वषट्
चामुण्डायै कवचाय हुम् िविे नेत्रत्रयाय वौषट्
ऐं ह्रीं ललीं चामुण्डायै िविे अस्त्राय िट् ॥१४१-१४२॥

अक्षरन्त्यास - ििखा, दोनो नेत्र, दोनों कान, दोनों नासापुट, मुख एवं गुह्य स्थान में मन्त्त्र के एक एक अक्षर का न्त्यास करना
चािहए । फिर समस्त मन्त्त्र से आठ बार व्यापक न्त्यास करना चािहए ॥१४३॥

िवमिग - अक्षर न्त्यास िविध - ऐं नमेः ििखायाम्, ह्रीं नमेः दिक्षणनेत्रे, ललीं नम्ह, वामनेत्रे चां नमेः दिक्षणकणे, मुं नमेः
वामकणे, डां नमेः दिक्षणनासापुटे, यै नमेः वामनासायाम् तव नमेः मुखे, नमेः गुह्ये, ऐं ह्रीं ललीं चामुण्डायै नमेः सवागगें
॥१४३॥

अब महाकाली महालक्ष्मी तथा महासरस्वती का ध्यान कहते हैं -


िजन्त्होने अपने १० भुजाओं में िमिेः खड् ग, चि, गदा, बाण, धनुष, पररध, ित्रिूल, भुिुण्डी मुण्ड एवं िंख धारण फकया है,
ऐसी ित्रनेत्रा, सभी अंगोम में आभूषणों से िवभूिषत, नीलमिण जैसी आभा वाली, दिमुख एवं दि पैरों वाली महाकाली का
ध्यान करता हूँ िजनकी स्तुित मधु कै टभ का वध करने के िलये भगवान् िवष्णु के सो जाने पर ब्रह्मदेव ने की थी ॥१४४॥

अपनी १८ भुजाओं में िमिेः अक्षमाला, परिु, गदा, बाण, वज्र, कमल, धनुष, कमण्डलु, दण्ड ििक्त, तलवार, ढाल, िंख,
घण्टा, पानपात्र, ित्रिुल , पाि एवं सुदिगन धारन करने वाली, प्रवाल जैसी िरीर की कािन्त्तवाली कमल पर िवराजमान
मिहषासुरमर्ददनी महालक्ष्मी का ध्यान करता हूँ ॥१४५॥

अपनी ८ भुजाओं में िमिेः घण्टा, िूल, हल, िंख, मुषल, चि, धनुष एवं बाण धारण फकये हुये, बादलों से िनकलते हुये
चन्त्रमा के समान आभा वाली, गौरी के देह से उत्पन्न ित्रलोकी की आधारभूता, िुम्भाफद दैत्यों का मदगन करने वाली श्री
महासरस्वती का ध्यान करत हूँ ॥१४६॥

इस प्रकार ध्यान कर उपयुगक्त नवाणग मन्त्त्र का ४ लाख जप करना चािहए । तदनन्त्तर िविधवत् पूिजत अिि में खीर का दिांि
होम करना चािहए ॥१४७॥

इसके बाद जयाफद ििक्तयों वाले पीठ पर तथा ित्रकोण, षट् कोण, अष्टदल एवं चतुर्णविित दल, तदनन्त्तर भूपुर वाले यन्त्त्र पर
देवी का पूजन करना चािहए ॥१४८॥

िवमिग - पीठ पूजा िविध - (१८.१४४-१४५) में वर्णणत चण्डी के तीनों स्वरुपों का ध्यान कर मानसोपचारों से उनका पूजन
कर अघ्नयग स्थािपत करे । फिर पीठ देवताओं का इस प्रकार पूजन करे । पीठमध्ये-
ॎ आधारिक्तये नमेः,
ॎ प्रकृ तये नमेः,
ॎ कू मागय नमेः
ॎ िेषाय नमेः,
ॎ पृिथव्यै नमेः,
ॎ सुधाम्बुधये नमेः,
ॎ मिणद्वीपाय नमेः,
ॎ िचन्त्तामिण गृहाय नमेः,
ॎ श्मिानाय नमेः,
ॎ पाररजात्याय नमेः,
ॎ रत्नवेफदकायै नमेः कर्णणकायाेः मूले
ॎ मिणपीठाय नमेः कर्णणकोपरर

ततश्चतुर्ददक्षु- ॎ नानामुिनभ्यो नमेः,


ॎ नानादेवेभ्यो नमेः, ॎ िवेभ्यो नमेः, ॎ सवगमुण्डेभ्यो नमेः,
ॎ ििवाभ्यो नमेः ॎ धमागय नमेः, ॎ ज्ञानाय नमेः
ॎ वैराग्याय नमेः ॎ ऐश्वयागय नमेः,

चतुष्कोणेष-ु ॎ अधमागय नमेः, ॎ अज्ञानाय नमेः,


ॎ अवैराग्याय नमेः, ॎ अनैश्वयागय नमेः ।

मध्ये - ॎ आनन्त्दकन्त्दाय नमेः, ॎ संिवन्नालाय नमेः


ॎ सवगतत्त्वात्मकपद्माय नमेः ॎ प्रकृ तमयपत्रेभ्यो नमेः,
ॎ िवकारमयके सरेभ्यो नमेः, ॎ पञ्चिद्बीजाद्यकर्णणकायै नमेः,
ॎ अं द्वादिकलात्मने सूयगमण्डल नमेः, ॎ वं षोडिकलात्मने सोममण्डलाय नमेः
ॎ सं दिकलात्मने विहनमण्डलाय नमेः, ॎ सं सत्त्वाय नमेः,
ॎ रं रजसे नमेः, ॎ तं तमसे नमेः,
ॎ आं आत्मने नमेः, ॎ अं अन्त्तरात्मने नमेः,
ॎ पं परमात्मने नमेः, ॎ ह्रीं ज्ञानात्मने नमेः ।

इसके बाद पूवागफद आठ फदिाओं में तथा मध्य में जयाफद ििक्तयोम की इस प्रकार पूजा करनी चािहए - ॎ जयायै नमेः पूवे,
ॎ िवजयायै नमेः, आिेय,े
ॎ अिजतायै नमेः दिक्षणे, ॎ अपरािजतायै नमेः, नैऋत्ये,
ॎ िनत्यायै नमेः पिश्चमे, ॎ िवलािसन्त्यै नमेः, वायव्ये,
ॎ दोग््यै नमेः उत्तरे , ॎ अधोरायै नमेः ऐिान्त्ये
ॎ मङ्गलायै नमेः मध्ये ।

इसके बाद ‘ह्रीं चिण्डकायोगपीठत्मने नमेः’ इस पीठ मन्त्त्र से आसन देकर मूल मन्त्त्र से मूर्णत किल्पत कर ध्यान आवाहनाफद
उपचारों से पञ्चपुष्पाञ्जिल समपगण पयगन्त्त चण्डी की िविधवत् पूजा कर उनकी आज्ञा ले आवरण पूजा करनी चािहए ॥१४८॥

अब आवरण पूजा का िवधान कहते है -


ित्रकोण के मध्य िबन्त्द ु में देवी का ध्यान कर मूलमन्त्त्र से उनकी पूजा करनी चािहए । फिर ित्रकोण के पूवग वाले कोण में
सरस्वती के साथ ब्रह्मा का, नैऋत्य वाले कोण में महालक्ष्मी के साथ िवष्णु का तथा वायव्य कोण में उमा के साथ ििव का
पूजन करना चािहए । उत्तर एवं दिक्षण फदिा में िमिेः तसह एवं मिहष का पूजन करना चािहए ॥१४९-१५०॥
षट्कोण में पूवागफद ६ कोणों में िमिेः नन्त्दजा, रक्तदिन्त्तका, िाकम्भरी, दुगाग, भीमा एवं भ्रामरी का पूजन करना चािहए ।
नन्त्दजा आफद ििक्तयों के प्रारम्भ में प्रणव लगाकर उनके नामों के आफद अक्षर में अनुस्वार लगाकर अन्त्त में नमेः लगाकर
िनष्पन्न मन्त्त्रों से पूजन करना चािहए ॥१५१-१५२॥

फिर अष्टदल में ब्रह्माणी, माहेश्वरी, कौमारी, वैष्णवी, वाराही, नारतसही, ऐन्त्री तथा चामुण्डा का पूजन करना चािहए
॥१५३-१५४॥

तदनन्त्तर चतुर्वविित दलों में, िवष्णुमाया चेतना, बुिि, िनरा, क्षुधा, छाया, ििक्त, तृष्णा, क्षािन्त्त, जाित, लज्जा, िािन्त्त,
श्रिा कािन्त्त, लक्ष्मी, धृित, वृित्त, श्रुित, स्मृित, तुिष्ट, पुिष्ट, दया, माता एवं भ्रािन्त्त का पूजन करना चािहए ॥१५४-१५६॥

भूपुर के बारह कोणो में गणेि, क्षेत्रपाल, बटुक और योिगिनयों का, तदनन्त्तर पूवागफद फदिाओं में इन्त्राफद फदलपालों का भी
पूजन करना चािहए । इस प्रकार मन्त्त्र के िसि हो जाने पर साधक सौभाग्यिाली बन जाता है ॥१५६-१५७॥

िवमिग - आवरण पूजा िविध - ित्रकोण के मध्य िबन्त्द ु पर देवी का ध्यान कर मूल मन्त्त्र से पूजन करने के बाद पुष्पाञ्जिल लेकर
‘ॎ संिवन्त्मये परे देिव परामृतरसिप्रये अनुज्ञां चिण्डके देिह पररवाराचगनाय में’ इस मन्त्त्र से पुष्पाञ्जिल चढाकर देवी की आज्ञा
ले इस प्रकार आवरण पूजा करनी चािहए । आवरण पूजा में सवगप्रथम षडङ्गपूजा का िवधान है । अतेः ित्रकोण के बाहर
आिेयाफद कोणों में मध्य में तथा चतुर्ददक्षु इस प्रकार प्रथमावरण में षडङ्ग पूजा करनी चािहए-
ऐं हृदयाय नमेः, आिेये, ह्रीं ििरसे स्वाहा, ऐिान्त्ये,
ललीं ििखायै वषट् , नैऋत्ये, चामुण्डायै कवचाय हुम्, वायव्ये,
िविे नेत्रत्रयाय वौषट् , मध्ये, ऐं ह्रीं ललीं चामुण्डायै िविे अस्त्राय िट् चतुर्ददक्षु

इसके बाद पुष्पाञ्जिल लेकर ‘अभीष्टिसति’ में देिह िरनागतवत्सले भलत्या समपगये तुभ्य्म प्रथमावरणाचगनम’ - इस मन्त्त्र से
पुष्पाञ्जिल देनी चािहए ।
िद्वतीयावरण में ित्रकोण के पूवागफद कोणों में सरस्वती ब्रह्माफदक की पूजा िनम्न रीित से करनी चािहए । यथा - ॎ
सरस्वतीब्रह्माभ्यां नमेः पूवगकोणे,
ॎ लक्ष्मीिवष्णुभ्यां नमेः, नैऋत्यकोणे ॎ गौरीरुराभ्यां नमेः, वायव्यकोणे,
ॎ तस तसहाय नमेः, उत्तरे , ॎ मं मिहषाय नमेः दिक्षणे,
फिर पुष्पाञ्जिल पयागन्त्त मन्त्त्र पढकर िद्वतीय पुष्पाञ्जिल समर्णपत करनी चािहए ।

इसके बाद तृतीयावरण में षट् कोणो में नन्त्दजा आफद ६ ििक्तयोम की िनम्मिलिखत मन्त्त्रों से पूजा करनी चािहए । यथा - ॎ
नं नन्त्दजायै नमेः पूवे, ॎ रं रक्तदिन्त्तकायै नमेः आिेये, ॎ िां िाकम्भ्यै नमेः, दिक्षणे, ॎ दुं दुगागयै नमेः, नैऋत्ये, ॎ भीं
भीमायै नमेः, पिश्चमे, ॎ भ्रां भ्रामणै नमेः, वायव्ये ।

तदनन्त्तर पुष्पाञ्जिल दे कर मूल मन्त्त्र के साथ ‘अभीष्टिसति ... तृतीयावरणाचगनम’ पयगन्त्त मन्त्त्र बोल कर तृतीय पुष्पाञ्जिल
समर्णपत करनी चािहए ।

चतुथग आवरण में अष्टदल में पूवागफद दल के िम से ब्रह्माणी आफद ८ मातृकाओं की िनम्न नाम मन्त्त्रों से पूजा करनी चािहए ।
यथा -
ॎ ब्रं ब्रह्मण्यै नमेः पूवोदले, ॎ मां माहेश्वयै नमेः आिेयदले,
ॎ कीं कौमायै नमेः दिक्षणदले, ॎ वैं वैष्णव्यै नमेः नैऋत्यदले,
ॎ वां वाराह्यै नम्ह पिश्चमदले, ॎ नां नारतसहयै नमेः वायव्यदले,
ॎ ऐं ऐन्त्रयै नमेः उत्तरदले, ॎ चां चामुण्डायै नमेः, ऐिान्त्य दल

इसके पश्चात् पुष्पाञ्जिल लेकर मूल मन्त्त्र के साथ ‘अभीष्टिसति...चतुथगवरणाचगनम्’ पयगन्त्त मन्त्त्र पढकर चतुथग पुष्पाञ्जिल
समर्णपत करनी चािहए ।

पञ्चम आवरण में चतुर्वविित दल में पूवागफद िम से िवष्णु माया आफद २४ ििक्तयों की इस प्रकार पूजा करनी चािहए । यथा -
ॎ तव िवष्णुमायायै नमेः, ॎ चे चेतनायै नमेः ॎ बुं बुियै नमेः,
ॎ तन िनरायै नमेः ॎ क्षुं क्षुधायै नमेः, ॎ छां छायायै नमेः
ॎ िं िलत्यै नमेः ॎ तृं वृष्णायै नमेः, ॎ क्षां क्षान्त्त्यै नमेः,
ॎ जां जात्यै नमेः ॎ लं लज्जायै नमेः ॎ िां िान्त्त्यै नमेः
ॎ श्रं श्रिायै नमेः, ॎ कां कान्त्त्यै नमेः ॎ लं लक्ष्म्यै नमेः
ॎ धृं धृत्यै नमेः, ॎ वृं वृत्यै नमेः ॎ श्रुं श्रुत्यै नमेः
ॎ स्मृं स्मृत्यै नमेः ॎ तुं तुष्टयै नमेः ॎ पु पुष्टयै नमेः
ॎ दं दयायै नमेः ॎ मां मात्रे नमेः ॎ भ्रां भ्रान्त्त्यै नमेः

इसके बाद पुष्पाञ्जिल लेकर मूलमन्त्त्र के साथ ‘अभीष्टिसति ... षष्ठावरणाचगनम्’ पयगन्त्त मन्त्त्र पढकर षष्ठ पुष्पाञ्जिल समर्णपत
करनी चािहए ।

षष्ठ आवरण में भूपुर के बाहर आिेयाफद कोणों में िनम्न मन्त्त्रों से गणेि आफद का पूजन करना चािहए । यथा -
गं गणपतये नमेः, आिेये, क्षं क्षेत्रपालाय नमेः, नैऋत्ये,
बं बटुकाय नमेः, वायव्ये, यों योिगनीभ्यो नमेः, ऐिान्त्ये,
इसके बाद पुष्पाञ्जिल लेकर मूल मन्त्त्र के साथ ‘अभीष्टिसति...षष्ठावरणाचगनम्’ पयगन्त्त मन्त्त्र पढकर षष्ठ पुष्पाञ्जिल समर्णपत
करनी चािहए ।

सप्तम आवरण में भूपुर के पूवागफद अपनी अपनी फदिाओं में इन्त्राफद फदलपालों का िनम्निलिखत मन्त्त्रों से पूजन करना चािहए ।
यथा -
ॎ लं इन्त्राय नमेः पूवे, ॎ रं अिये नमेः आिेय,े
ॎ म यमाय नमेः दिक्षणे, ॎ क्षं िनऋतये नमेः नैऋत्ये,
ॎ वं वरुणाय नमेः, पिश्चमे ॎ यं वायवे नमेः, वायव्ये,
ॎ सं सोमाय नमेः उत्तरे , ॎ हं ईिानाय नमेः ऐिान्त्ये,
ॎ अं ब्रह्मणे नमेः पूवगिानयोमगध्ये, ॎ ह्रीं अनन्त्ताय नमेः नैऋत्यपिश्चमयोमगध्ये

तदनन्त्तर पुष्पाञ्जिल लेकर मूलमन्त्त्र के साथ ‘अभीष्टिसति... सप्तमावरणाचगनम’ पयगन्त्त मन्त्त्र बोल कर सत्पम् पुष्पाञ्जिल
चढानी चािहए ।

अष्टम आवरण में भूपुर के बाहर पूवागफद फदिाओं में फदलपालोम के वज्राफद आयुधों की पूजा करनी चािहए । यथा - वं वज्राय
नमेः,
ॎ िं िक्तये नमेः, ॎ दं दण्डाय नमेः, ॎ खं खड् गाय नमेः,
ॎ पां पािय नमेः, ॎ अं अंकुिाय नमेः, ॎ गं गदायै नमेः,
ॎ िूं िूलाय नमेः, ॎ चं चिाय नमेः, ॎ पं पद्माय नमेः

फिर पुष्पाञ्जिल लेकर मूल मन्त्त्र के साथ ‘अभीष्टिसति... अष्टमावरणाचगनम्’ मन्त्त्र से अष्टम पुष्पाञ्जिल समर्णपत करनी चािहए
। इस प्रकार आवरण पूजा के बाद महाकाली, महालक्ष्मी और महासरस्वती देवताओं की धूप दीपाफद उपचारों से िविधवत्
पूजा करनी चािहए ॥१४९-१५७॥

साधक मूलमन्त्त्र से संपुरटत माकग ण्डेय पुराणोक्त चण्डी पाठ को करने से तथा नवाणग मन्त्त्र का जप करने से अभीष्ट िसिि प्राप्त
करता है ॥१५८॥

आिश्वन िुलल प्रितपद से अष्टमी पयगन्त्त मूल मन्त्त्र का एक लाख जप तथा उसका दिांि होम करना चािहए ॥१५९॥

प्रितफदन देवी का पूजन तथा सप्तिती आ पाठ और साधक को अन्त्त में ब्राह्यण भोजन कराना चािहए । ऐसा करने से वह िीर
ही मनोवािछछत िल प्राप्त करता है ॥१६०॥

अब प्रकरण प्राप्त सप्तिती के तीनोम चररत्रों का िविनयोग कहते है - सप्तिती के प्रथम चररत्र के ब्रह्मा ऋिष है, गायत्री छन्त्द
तथा महाकाली देवता हैं । वाग्बीज (ऐं) अिि तत्त्व तथा धमाथग इसका िविनयोग फकया जाता है ॥१६१-१६२॥

मध्यम चररत्र के िवष्णु ऋिष, उिष्णक् छन्त्द तथा महालक्ष्मी देवता कही गई है । अफरजा (ह्रीं) बीज तथा वायुतत्त्व है तथा
धन प्रािप्त हेतु इसका िविनयोग होता है ॥१६२-१६३॥

उत्तर चररत्र के रुर ऋिष कहे गये हैं, ित्रष्टु प् छन्त्द और महासरस्वती देवता हैं । काम (ललीं) बीज तथा सूयग तत्त्व हैं काम प्रािप्त
हेतु इसका िविनयोग होता है ॥१६४-१६५॥

िवमिग - िविनयोग िविध १. अस्य श्रीप्रथमचररत्रस्य ब्रह्माऋिषेः गायत्रीछन्त्देः महाकालीदेवता ऐं बीजमििस्तत्त्वं धमाथे जपे
िविनयोगेः ।
२. अस्य श्रीमध्यमचररत्रस्य िवष्णुऋिषरुिष्णकछन्त्देः महालक्ष्मीदेवता ह्रीं बीज्म वायुस्तत्त्वं धनप्राप्त्यै जपे िविनयोगेः ।
३. अस्य श्रीउत्तरचररत्रस्य रुरऋिषिस्त्रष्टु प्छन्त्देः महासरस्वतीदेवता ललीं बीजं सूयगस्तत्त्व्य्म कामप्रदायै जपे िविनयोगेः ॥१६१-
१६५॥

अब ऋष्याफदन्त्यास तथा सप्तिती के पाठ का िवधान कहते हैं -


इस प्रकार सप्तिती के ऋिष देवता तथा छन्त्दाफद का िविनयोग कर पूवोक्त (र० १८. १४४-१४६) मागग से देवी का ध्यान
कर, उसके अथग का स्मरण करते हुये, पद एवं अक्षरों का स्पष्टरुप में उिारण करते हुये, सप्तितीस्तव का पाठ करना चािहए ।
पाठ की समािप्त में महालक्ष्मी का ध्यान षडङ्गान्त्यास तथा मूलमन्त्त्र का १०८ बार जप करना चािहए । फिर देवी को सारा
जप िनवेदन कर देना चािहए ॥१६५-१६७॥

इस िविध से जो व्यिक्त सप्तिती का पाठ करता है वह कभी भी दुेःख नहीं प्राप्त करता है । चिण्डका की उपासना करने वाला
व्यिक्त धन, धान्त्य, यि, पुत्र पौत्र और आरोग्य सिहत बहुत वषो तक जीिवत रहता है ॥१६७-१६९॥
मनुष्यों के कल्याण के िलये ितचण्डी का िवधान कहता हूँ -
िास्त्रोक्त िवधान से ितचण्डी का अनुष्ठान करने से राजा के द्वारा उपरव दुर्णभक्ष, भूकम्प, अितवृिष्ट, अनावृिष्ट, ित्रु का
आिमण तथा िनरन्त्तर होने वाला िवनाि ये सारे उपरव नष्ट हो जाते हैं । रोगं एवं ित्रुओं का िवनाि तो हो जाता है धन
और पुत्राफद की अिभवृिि भी होती है ॥१६९-१७१॥

अब ितचण्डी अनुष्ठान का प्रयोग कहते है -


िास्त्रोक्त िविध के अनुसार ििवालय अथवा फकसी देवी मिन्त्दर के सिन्नकट ध्वज एवं तोरण, वन्त्दनवारों से सजे हुए सुन्त्दर
मण्डप, द्वार एवं मध्य में वेदी का और पिश्चम फदिा में अथवा मध्य में कु ण्ड का िनमागण करे ॥१७१-१७२॥

फिर स्नानाफद िनत्यफिया कर (मण्डप में पधार कर ‘अमुक कामोऽहं ितचण्डी िवधानमहं कररष्ये’ इस प्रकार का संकल्प कर
गणेि पूजनाफद मातृस्थापन, नान्त्दीश्राि, स्विस्त वाचनाफद कमग कर) िजतेिन्त्दय, सदाचारी, कु लीन, सत्यवादी, चण्डीपाठ में
व्युत्पन्न लज्जालु, दयावान् एवं िीलवान् दि ब्राह्मणों का मधुपकग िवधान से वस्त्र, स्वणग और जप के िलये आसन और माला दे
कर वरण करे और उन्त्हें भोजन कराए ॥१७३-१७५॥

वे ब्राह्मण भी यजमान द्वारा प्रदत्त आसन पर बैठकर समािहत िचत्त से देवी को स्मरण कर, सप्तिती के मूलमन्त्त्र से वेदी पर
कलि स्थािपत कर, उस पर देवों का आवाहन कर, षोडिोपचार से पूजन करे , उसी कलि के आगे बैठकर पूजन करें । उन
ब्राह्मणों को हिवष्यान्न का भोजन कराते हुए और भूिम में ब्रह्मचयगपूवगक ियन करते हुए मन्त्त्रों के अथों में मन लगाकर दि
दि की संख्या में माकग ण्डेय पुराणोक्त सप्तिती का पाठ करना चािहए (तथा प्रत्येक दि दि की संख्या में पृथक् पृथक् नवाणग
मन्त्त्र का जप करे तथा अस्पृश्य का स्पिग न करना आफद समस्त वर्णजत िनयमों का भी पालन करे ॥१७५-१७७॥

अब कु मारी पूजन का िवधान कहते हैं - इसके बाद यजमान अिधकाङ्ग हीनाङ्गाफद दुलगक्षणो से रिहत २ वषग से लेकर १०
वषग की आयु वाली बटुक सिहत १० कन्त्याओं का पूजन करे ॥१७७॥

कु ण्ठ रोग ग्रस्त, व्रत, अन्त्धी, कानी, के कराक्षी, कु रुपा, रोगयुक्ता दासी पुत्री और दुष्टा कन्त्या का पूजन वर्णजत है । अभीष्ट िसिि
हेतु ब्राह्मणकन्त्या, यिोवृिि के िलये क्षित्रय कन्त्या, धनलाभ के िलये वैश्य कन्त्या तथा पुत्र प्रािप्त के िलये िूर कन्त्या का पूजन
करना चािहए ॥१७९-१८०॥

दो वषग की कन्त्या - कु मारी, ३ वषग की - ित्रमूर्णत, ४ वषग की - कल्याणी, ५ वषग की - रोिहणी, ६ वषग की - कािलका, ७ वषग की
- चिण्डका, ८ वषग की - िाम्भवी, ९ वषग की - दुगाग तथा १० वषग की कन्त्या सुभरा कही जाती है । इनका मन्त्त्रों के द्वारा पूजन
करना चािहए ॥१८१-१८३॥

१ वषग की कन्त्या में प्रीित का अभाव होने से पूजन मे अयोग्य तथा ११ वषग वाली कन्त्या पूजन में वर्णजत है ॥१८३-१८४॥

अब उनके आवाहनाफद के िलये िंकराचायग द्वारा संप्रोक्त मन्त्त्र कहता हूँ...

‘मन्त्त्राक्षरमयीं’ से लेकर ‘कन्त्यामावाह्याम्यहम् पयगन्त्त (र० १८. १८४-१८५) मन्त्त्र का उिारण करते हुये उन कु माररयों का
आवाहन करना चािहए ॥१८५॥

फिर १. ‘ॎ जगत्पुज्ये... नमोस्तुत’े पयगन्त्त मन्त्त्र (र०. १९. १८६) से कु मारी का, २. ‘ॎ ित्रपुरा ित्रपुराधाराम्’ से ित्रमूर्णत का,
३. ‘ॎ कालाित्मकाकलातीता’ से कल्याणी कां, ४, ४. ‘ॎ अिणमािणफदगुणाधराम्’ से रोिहणी का, ५. ‘ॎ कामचारां िुभां
कान्त्ताम्’ स कािलका का, ६. ‘ॎ चण्डवीरां चण्डमाया०’ से चिण्डका का, ७. ‘ॎ सदानन्त्दकरीम िान्त्ताम्०’ से िाम्भई का,
८. ‘ॎ दुगगमे दुस्तरे काये०’ से दुगाग का, ९, ‘ॎ सुन्त्दरीं स्वणगवणागभां०’ से सुभरा का पूजन करना चािहए ॥१८६-१९४॥

पुराणोक्त इन इन मन्त्त्रों से स्नान की हुई कन्त्याओं का गन्त्ध, पुष्प, भक्ष्य, भोज्य, वस्त्र एवं आभूषणों से पूजन करना चािहए
॥१९५॥

अब सवगतोभरमण्डल पर घटस्थापन, पूजन एवं हवन का िवधान कहते हैं -


वेदी पर बनाये गये परम रमणीय सवगतोभरमण्डल पर घटस्थापन कर भगवती का िविधवत् आवाहन एवं पूजन करना
चािहए । उसके आगे यथोपलब्ध िविवध उपचारों से कन्त्या एवं ब्राह्मणों का िविधवत् पूजन करना चािहए । तदनन्त्तर पूवोक्त
(र०, १८, १४६-१५७) आवरण पूजा करनी चािहए ॥१९६-१९७॥

इस िविध से ४ फदन तक अनुष्ठान कर ५ वें फदन होम करना चािहए । सप्तिती १० आवृित्तयों से प्रत्येक श्लोक से मधुरत्रय
(घृत, िक्कर, मधु) सिहत खीर, अंगूर, के ला, िबजौरा, उख के टुकडे नाररयल, ितल, आम और अन्त्य मधूर वस्तुओं से होम
करना चािहए ॥१९८-१९९॥

इसी प्रकार िविधवत् स्थािपत अिि में नवाणग मन्त्त्र से १० हजार आहुितयाूँ भी देनी चािहए । फिर आवरण देवताओम का
उनके नाम मन्त्त्रों के आरम्भ में प्रणव तथा अन्त्त में ‘स्वाहा’ लगाकर एक एक आहुित देनी चािहए । फिर पूणागहुित कर
िविधवत् देवताओं और अिि का िवसजगन करना चािहए । कु म्भस्थ देवी का पूजन बिलदान प्रदान कर प्रत्येक ऋित्वजों को
िनष्क अथवा अिक्त होने पर सुवणग दिक्षणा देवे ॥२००-२०१॥

अब अिभषेक िवधान एवं ब्राह्मण भोजन का प्रकार कहते है -


होम के अनन्त्तर समस्त वरण फकए गए ब्राह्मणो को चािहए फक कलि के जल से यजमान का अिभषेक कर आिीवागद प्रदान
करें । यजमान भी प्रत्येक ब्राह्मणोम को िनष्क अथवा सुवणग दिक्षणा देवे और िविवध भक्ष्य भोज्याफद पदाथों से सौ की संख्या
में ब्राह्मणों को भोजन करावे । उन्त्हें भी यथाििक्त दिक्षणा देवे और उनका आिीवागद भी ग्रहण करे ॥२०२-२०३॥

ऐसा करने से संसार वि में हो जाता है । सारे उपरव नष्ट हो जाते हैं तथा राज्य, धन, यि, पुत्र की प्रािप्त एवं सारे मनोरथों
की पूर्णत भी हो जाती है ॥२०४॥

अब सहस्त्रचण्डी का िवधान कहते हैं -


सह्स्त्र चण्डी िवधान में ितचण्डी िवधान का दि गुना कायग (पाठ, जप, होम, दिक्षणा, कन्त्या पूजन, ब्राह्यण वरण, और
ब्राह्मण भोजन) करना चािहए । इस अनुष्ठान में िवद्वान् और सदाचारी १०० ब्राह्मणों का वरण करना चािहए ॥२०५॥

उनमें से प्रत्येक को १०-१० चण्डी पाठ तथा १०-१० हजार नवाणग मन्त्त्र का जप करना चािहए ॥२०६॥

इसी प्रकार पूवोक्त िुभ लक्षण वाली (र०, १८. १७७-१८३) सौ कन्त्याओं का पूवोक्त मन्त्त्रों से (र० १८. १८४-१९४) पूजन
करना चािहए । इस प्रकार १० फदन पयगन्त्त कायग करने के बाद िविधवत् होम करन चािहए ॥२०७॥

सप्तिती की १०० आवृित्तयों से, एक-एक श्लोक द्वारा तथा एक लाख नवाणग मन्त्त्रों द्वारा िविधपूवगक पूवोक्त रव्यों से हवन
करना चािहए । फिर ऋित्वजों को दिक्षना देने के बाद पूवोक्त लक्षण युक्त (र० १८. १७३-१७६) एक हजार सज्जन और देवी
की आराधना में तत्पर ब्राह्मणों को भोजन कराना चािहए ।२०८-२०९॥
इस प्रकार िविधवत् सह्स्त्रचण्डी करने पर उपासक की सारी कामनायें पूरी होती है तथा समस्त दुेःख और पाप नष्ट हो जाते
है ॥२१०॥

सह्स्त्रचण्डी के पाठ से महामारर, दुर्णभक्ष, रोग तथ सभी प्रकार के दुव्यगसनाफद नष्ट हो जाते है । चण्डी का िवधान दुष्ट, खल,
चोर, गुरुरोही को नहीं बताना चािहए ॥२११॥

सज्जन, िजतेिन्त्रय और संयमी को ही इस िविध का उपदेि करना चािहए । इस प्रकार सत्पात्र को उपदेि करने से भगवती
चिण्डका वक्ता और और श्रोता दोनों की रक्षा करती हैं ॥२१२॥

एकोनतवि तरङ्ग
अररत्र
अब चरणायुध मन्त्त्र का िवधान कहता हूँ िजस ए करने से मन्त्त्रवेत्ता उस िविध से अनुष्ठान कर अपना सारा मनोरथ पूणग कर
सकता है ॥१॥

अब चरणायुध मन्त्त्र का उिार कहते हैं -


अघीि (ऊकार) एवं िबन्त्द ु (अनुस्वार) सिहत तीक्ष्ण (य), अथागत (यूूँ०, संद्योजात (ओ) के साध िविध (क) अथागत् (को), सूक्ष्म
(इकार) सिहत िपनाकी (ल) अथागत् (िल), इन तीनों (यू को िल) वणों को दो बार उिारण करना चािहए । फिर दीघग (आ)
संयुक्त उत्कारी (व) अथागत् वां इसके बाद मायाबीज (ह्रीं), फिर दो बार (यूं को िल यूूँ को िल), फिर सकणग (उकार सिहत) कू मग
च अथागत् (चु) दीघग व (वा) इस मन्त्त्र के प्रारम्भ में पाि (आ) तथा अन्त्त में अंकुि (िों) लगाने से १८ अक्षर का चरणायुध
मन्त्त्र बनता है ॥२-४॥

िवमिग - मन्त्त्र का स्वरुप इस प्रकार - ‘आं यूूँकोिल यूूँकोिल वा ह्रीं यूूँकोिल यूक
ूँ ोिल चु वा िों (१८) ॥२-४॥

इस मन्त्त्र के महारुर ऋिष हैं, अित जगित छन्त्द है, माया (ह्रीं) बीज है, सृिण (िों) ििक्त है तथ चरणायुध देवता हैं ॥५॥

िविनयोग िविध - अस्य चरणायुधमन्त्त्रस्य महारुरऋिषरितजगतीच्छन्त्देः चरणायुधो देवता ह्रीम बीजं िो ििक्तरभीष्टिसिये
जपे िविनयोगेः ॥५॥

अब इस मन्त्त्र का षडङ्गन्त्यास तथा वणगन्त्यास कह्ते हैं - मन्त्त्र ए वेद ४ , राम ३, अिक्ष २, राम, ३. अिि ३ तथा विह ३ वणों
से षडङ्गन्त्यास कर मन्त्त्र के एक वणग से िमिेः ििर, भाल, दोनों भ्रू, दोनों कान, दोनों नािसका, मुख, कण्ठ, कु िक्ष, नािभ,
िलङ्ग, गुदा, जाघूँ और दोनों पैरों पर न्त्यास कर चरनायुध का ध्यान करना चािहए ॥६-७॥

िवमिग - षडङ्गन्त्यास - आं यूूँ कोिल हृदयाय नमेः,


यूूँ कोिल ििरसे स्वाहा, वा ह्रीं ििखायै वषट् ,
यूूँ कोिल कवचाय हुम् यूूँ कोिल नेत्रत्रयाय वौषट,

वणगन्त्यास - ॎ आं नमेः मूर्णि, ॎ यूं नमेः ललाटॆ,


ॎ कों नमेः भ्रुिव, ॎ िल नमेः वामभ्रुिव,
ॎ यूं नमेः दिक्षणेनेत्रे, ॎ कों नमेः वामनेत्रे,
ॎ तल नमेः दिक्षनकणे, ॎ वां नमेः वामकणे,
ॎ ही नमेः दिक्षणनासपुटे, ॎ यूं नमेः वामनासापुटे,
ॎ कों नमेः मुख,े ॎ िल नमेः कण्ठे , ॎ यूूँ नमेः कु क्षै,
ॎ कों नमेः नाभौ, ॎ तल नमेः िलगै, ॎ चुं नमेः गुद,े
ॎ वां नमेः जान्त्वो, ॎ िों नमेः पादयोेः ॥६-७॥

अब ध्यान कहते हैं -


िजनके कण्ठ और चर सभी प्रकार के अलंकारो से जगमगा रहे हैं, तथा िजनके िरीर की कािन्त्त सुवणग की आभा के समान है,
जो अपने दोनों पंखों के िै लाने में अत्यन्त्त कु िल हैम तथा समस्त देव वगों से पूिजत गौरी के हाथ में िस्थत हैं । लाल कमल
जैसी आभा के समान ििखा से युक्त, रक्त चछचु वाले, चञ्चल पैरों को धारण करने वाले हैं, ऐसे अपने साधकों के समस्त
मनोरथों को पूणग करने वाले चरनायुध देवता अपने भक्तों की रक्षा करे ॥८॥

अब उक्त मन्त्त्र की साधना के िलए स्थान का िनदेि करते हैं -


उक्त प्रकार से ध्यान कर, पवगत के ििखर पर, नदी के फकनारे या जहाूँ वृषभाफदउ न हो, पिश्चम फदिा में अथवा फकसी
ििवालय में मन्त्त्र की साधना करनी चािहए ॥९॥

अब जप संख्या, होम तथा पूजा िविध कहते हैं -


इस मन्त्त्र का एक लाख की संख्या में जप करना चािहए और ितलों से उसका दिांि होम करना चािहए । िैव पीठ पर, गौरी
के हाथ में िस्थत ताम्रचूड का पूजन करना चािहए ॥१०॥

उसकी िविध इस प्रकार है --


सवगप्रथम षडङ्ग पूजा कर, अष्टदल में िम्भु, गौरी, गणपित, कार्णतके य, मन्त्दार, पाररजात, महाकाल एवं बर्णह (मयूर) - इन
देवताओं का पूजन करना चािहए ।
दलाग्र में इन्त्राफद फदलपालों क, तदनन्त्तर उनके आयुधों का पूजन करना चािहए । ऐसा करने से यह मन्त्त्ररात्र काम्य प्रयोगों के
योग्य हो जाता है ॥११-१३॥

िवमिग - यन्त्त्र िनमागण िविध - वृत्ताकार कर्णणका, अष्टदल एवं भूपुर सिहत यन्त्त्र का िनमागण करना चािहए । उसी पर
चरणायुध का पूजन करना चािहए ।

पीठ पूजा िविध - सवगप्रथम (१९. ८ श्लोक में वर्णणत चरणायुध का ध्यान कर मानसोपचार से उनका पूजन कर अध्यग स्थािपत
करे । फिर िैव पीठ पर देवताओं का पूजनाफद िम. १६. २२-२५ पयगन्त्त श्लोकों की टीका की अनुसार करना चािहए । फिर
‘ॎ नमो भगवते सकलगुणात्मकििक्त युक्तायानन्त्ताय योगपीठात्मने नमेः’ इस मन्त्त्र से पुष्पाञ्जिल पयगन्त्त िविधवत् चरणायुध
का पूजन कर उनकी अनुज्ञा ले आवरण पूजा इस प्रकार करनी चािहए ।

आवरण पूजा िविध - सवगप्रथम आिेयाफद कोणों में चतुर्ददक्षु तथा मध्य में षडङ्गन्त्यास प्रोक्त मन्त्त्रों से अङ्गपूजा करनी
चािहए । यथा -
आं यूं कों तल हृदयाय नमेः, नैऋत्ये यू कों तल ििरसे स्वाहा,
वा ह्रीं ििखायै वषट् वायव्यं, वायव्ये, यूूँ कों तल कवचाय हुम् ऐिान्त्ये,
यूं को तल नेत्रत्रयाय वौषट् चतुर्ददक्षु । चुं वां िों अस्त्राय िट् पीठमध्ये,
फिर अष्टदल में पूवागफद फदिाओं के िम से िम्भु आफद ८ देवताओं की िनम्न रीित से पूजा करनी चािहए । यथा -
ॎ िम्भवे नमेः पूवगदले ॎ गौयै नमेः आिेयदले,
ॎ गणपतये नमेः दिक्षणदले, ॎ कार्णतके याय नमेः नैऋत्यदले,
ॎ मन्त्दाराय नमेः पिश्चमदले, ॎ पाररजाताय नमेः वायव्यदले,
ॎ महाकालाय नमेः उत्तरदले, ॎ वर्णहणे नमेः ईिानदले,

तत्पश्चाद्दलों के अग्रभाग में अपनी अपनी फदिाओं में इन्त्राफद फदलपालों की िनम्निलिखत मन्त्त्रों से पूजा करनी चािहए । यथा
-
ॎ इन्त्राय सायुधाय नमेः पूवै, ॎ रं अिये सायुधाय नमेः आिेये,
ॎ मं यमाय सायुधायनमेः दिक्षणे, ॎ क्षं िनऋतये सायधाय नमेः नैऋत्ये,
ॎ वं वरुणाय सायुधायनमेः पिश्चमे, ॎ यं वायवे सायुधाय नमेः वायव्ये,
ॎ सं सोमाय सायुधायनमेः उत्तरे , ॎ हं ईिानाय सायुधाय नमेः ऐिान्त्ये,
ॎ आं ब्रह्मणे सायुधायनमेः ऊध्वगम्, ॎ ही अनन्त्ताय सायुधाय नमेः अघेः,

इस रीित से आवरण पूजा करने के बाद धूप, दीप, नैवेधाफद उपचारों से सिविध चरणायुध की पूजा करनी चािहए ॥११-
१२॥

काम्य-प्रयोगोम में इस मन्त्त्र का दस हजार दो सौ १०२०० की संख्या में जप करना चािहए । फिर दूध, दही, मधु, और िक्कर
िमिश्रत पदाथो की पान और खीर के साथ वक्ष्यमाण बिलमन्त्त्र से बिल देनी चािहए । िवद्वान पुरुष लक्ष्मी प्रािप्त की इच्छा से
भोजन के आफद तथा समािप्त में बिल देवे । इसी बै देने के प्रभाव से कु बेर धनाध्यक्ष हो गए । सािन्त्तक तथा पौिष्टक कमों में
भी इसी प्रकार की बिल देनी चािहए ॥१३-१६॥

अब पूवगचर्णचत वक्ष्यमाण मन्त्त्र को कहता हूँ - वामकणग (ऊं), इन्त्द ु (िबन्त्द)ु सिहत िूर (यूं), सानुस्वार चरम (क्षं), फिर अफरजा
(ह्रीं), फिर दो बार कु लकु ट एह्येिह इयं बतल, फिर दो बार गृहण फिर ‘गृहणापय सवागन्त्माकांश्च देिह’ फिर सचन्त्र वायु (यं) कणग
(उकार) इन्त्द ु सिहत चिी (क) अथागत् (कुं ) िगररनिन्त्दनी (ह्रीं) तथा अन्त्त में यू नमेः कु लकु टाय जोडने से ४० अक्षर का बिल
मन्त्त्र बनता हैं इसी मन्त्त्र से साधक को पूवग तथा वक्ष्यमाण प्रयोगोम में कु लकु टेश्वर को बिल देनी चािहए ॥१६-१९॥

िवमिग - मन्त्त्र का स्वरुप - यूं क्ष ह्रीं कु लकु ट कु लकु ट एह्येिह इयं बतल गृहण गृहण गृहनापय सवागन्त्कामन्त्दिे ह यं कुं ह्रीं यूं नमेः
कु लकु टाय (४०) ॥१६-१९॥

िविवध प्रयोगों में बिलदान की िविध - राित्र में ित्रमधुर (घी दूध िक्कर) िमिश्रत लावाओम की बिल देकर साधक सारे िवश्व
को वि में कर लेता हैं ॥२०॥

तीन फदन पयगन्त्त भात की बिल देने से राजा विीभूत हो जाता है । दुग्धिमिश्रत गेहूँ के आटे का मालपूआ बनाना चािहए,
उसमें घी और कपूर िमला कर तीन फदन पयगन्त्त राित्र में बिल देने से साधक सुखी हो जाता है तथा जगत् को वि में कर लेता
है ॥२०-२२॥

एक एक हजार कनेर के िू ल, िबल्वपत्र तथा सुगिन्त्धत पीले िू लों से पूजन कर एक सप्ताह पयगन्त्त राित्र में एक एक हजार इस
मन्त्त्र का जप करना चािहए । साधक िजस व्यिक्त का मन में ध्यान कर यह प्रयोग करता है वह व्यिक्त मनसा वचसा और
कमगणा उसके वि में हो जाता है ॥२२-२४॥

प्रितफदन मूलमन्त्त्र का एक एक हजार जप एक सप्ताह पयगन्त्त कर बकरा और लावक (गौरे या) पक्षी के मांस की बिल देने से
साधक सारे जगत् को अपने वि में कर लेता है ॥२३-२५॥

राजभय, ित्रुभय, संकट या अन्त्य आपित्त प्राप्त होने पर सुख प्रािप्त हेतु इस प्रकार की बिल देनी चािहए । बिलदान के िलए
बताई गई यह िविध अत्यन्त्त गोपनीय है इसे दुष्टों को नहीं बताना चािहए ॥२५-२६॥

राित्र के समय ििखा खोल कर उत्तरािभमुख हो कर जो साधक िजस व्यिक्त का ध्यान कर लगातार ८ फदन तक प्रितफदन १२
हजार की संख्या में जप करता है वह व्यिक्त चाहे दूर हो अथवा सिन्नकट अवश्य ही साधक के वि में हो जाता है ॥२७-२८॥

जायिल और इलायची को एक में पीस कर, उसमें कपूर और िसन्त्दरू िमला कर बारह हजार मूल मन्त्त्र से अिभमिन्त्त्रत कर
आग पर तपावे । फिर गङ्गाजल से आरग कर लोहपात्र में रखना चािहए तो उसे स्पिग करने वाला व्यिक्त स्तिम्भत हो जाता है
॥२८-३०॥

लोहार के घर से अिि लाकर, लोह पात्र में रखकर, कनेर की लकडी से उसे प्रज्विलत कर, उसमें सरसों के तेल तथा िवषचूणग
िमिश्रत धतूरे के बीजों से १०० आहुितयाूँ देनी चािहए । एक सप्ताह पयगन्त्त इस प्रयोग को करने से ित्रु का अपने स्थान से
िनश्चय ही उिाटय हो जाता है ॥३०-३२॥

िनरन्त्तर पन्त्रह फदन पयगन्त्त इस प्रयोग को करने से ित्रु देि छोड कर भाग जाता है और एक मास तक इस प्रयोग को करने से
वह मृत्यु को प्राप्त करता है ॥३३॥

ताड पत्र से मनुष्य की आकृ ित बना कर, उसमें ित्रु की प्राण प्रितष्ठा कर, िभलावे के तेल का लेप कर आठ हजार मन्त्त्र का जप
करे । फिर उसका ५० टुकडा कर धतूरे की लकडी से प्रज्विलत श्मिान की अिि में होम करना चािहए । इस प्रकार िनरन्त्तर
३ फदन पयगन्त्त करते रहने से साधक ित्रु को मार देता है अथवा उसे मोिहत कर लेता है (अथवा पागल बना देता है) ॥३३-
३५॥

साध्य व्यिक्त के जन्त्म नक्षत्र के वृक्ष की लकडी (र० ९. ५२) की सुन्त्दर प्रितमा बना कर, उसमें ित्रु की प्राण प्रितष्ठा कर,
िचता के काष्ठ की बनी कील से उसे स्पिग करते हुये श्मिान में एक हजार जप करना चािहए । फिर उस प्रितमा का जो अङ्ग
ित्र से काटा जाता है ित्रु का वही अङ्ग नष्ट हो जाता है ॥३६-३७॥

ित्रु के मूत्र से िमली िमट्टी और उसके परर की िमट्टी दोनों की कु म्भकार की िमट्टी में िमला कर पुतली बनानी चािहए, उस
पुतली के हृदय, पैर और ििर पर िमिेः साध्य का नाम और कमग का नाम मूल मन्त्त्र पढकर िचता के कोयले से िलखना
चािहए । फिर उसमें प्राण प्रितष्ठा कर िभलावे के तेल का लेप कर एक हजार की संख्या में जप करने के बाद िस्त्र से उस
पुतली के १०० टुकडे कर, बहेडा ल्की लकडी से प्रज्विलत श्मिनािि में राित्र के समय दिक्षणािभमुख हो होम करना चािहए
। यह कमग ित्रु के िनधन नक्षत्र (जन्त्म नक्षत्र से ७वें, १६वें अथवा २५वें नक्षत्र) के फदन करे तो वह ित्रु मर जाता है ॥३८-
४१॥

भूिम में गोमय रखकर उससे ित्रु की प्रितमा का िनमागण करना चािहए । फिर ताडपत्र पर ित्रु के नाम के सिहत मूल मन्त्त्र
िलखकर उसे प्रितमा के हृदय स्थान पर स्थािपत कर देना चािहए । फिर उस पर गोबर और जल से भरा हुआ िमट्टी या चाूँदी
का कलि रखना चािहए ॥४२-४३॥
उसमें भी ताडपत्र पर ित्रु के नाम के साध मन्त्त्र िलखकर डाल देना चािहए । फिर कु म्भ में ित्रु के प्राणों की प्रितष्ठा कर
प्रितफदन तीनों काल की सन्त्ध्याओं में कु म्भ का स्पिग करते हुये मूल मन्त्त्र का १०० बार जप करना चािहए ॥४३-४४॥

गोबर िमले जल में ित्रु की आकृ ित फदखलाई पडते ही साधक कु म्भ के नीचे बनी उसकी प्रितमा का स्वािभलिषत अङ्ग िस्त्र
से काट देवे । ऐसा करने से ित्रु का वह अङ्ग नष्ट हो जाता है ॥४५-४६॥

कक बहुना प्रितमा का हृदय, गला काटने पर ित्रु मर जाता हे । प्रितमा के ििर में काूँटा चुभाने से ित्रु के ििर में भी पीडा
होती है । हृदय में काूँटा चुभाने से मानिसक पीडा तथा पैर में काूँटा चुभाने से पैर में ददग होता है ॥४६-४७॥

लकडी का कु लकु ट बनाकर उसमें प्राण प्रितष्ठा करनी चािहए । फिर उसका स्पिग कर पूवगवत् (र० १९. ८) ध्यान कर १२
हजार जप करना चािहए । फिर िविवध उपचारों से उन चरणायुध का पूजन कर लाल कपडे से उसे ढूँक देना चािहए । फिर
देव को रथ में स्थािपत कर उनके चारों ओर कवचधारी अश्वारोही ४ योिाओं को िनयुक्त कर उसे साथ लेकर ित्रु की जीतने
के िलए रणभूिम में जाना चािहए ॥४८-५०॥

फिर तो वीरों से िघरे उस कु लकु ट को देखते ही ित्रु सेना भयभीत होकर चारों ओर भाग जाती है जैसे तसह को देख कर
हाथोयों के झुण्ड भाग जाता है ॥५१॥

ताम्रचूड मन्त्त्र से अिभमिन्त्त्रत मोदक िजसे फदया जाय वह मािलक के वि में हो जाता है । गोरोचन, चन्त्दन, कुं कु म, कस्तूरी
एवं कपूगर से बने चन्त्दन का इस मन्त्त्र् से १०८ बार अिभमिन्त्त्रत कर ितलक लगाने से उसे देखने वाले विीभूत जो जाते हैं
॥५२-५३॥

अब उपासकों को समृिि प्रदान करने वाला िास्ता मन्त्त्र को कहता हूँ-

उिार - ‘िास्तारं मृगया’ कहकर’ ‘श्रान्त्तमश्वा’ कहे, फिर ऊकार युक्त अिि (र) अथागत् रु, फिर ‘ढं गणावृतम्’, फिर ‘पानीयाथं
वना’, फिर ‘देत्य िास्त्रे ते’, फिर ‘रै वते नमेः’ कहने से मन्त्त्र िनष्पन्न होता है ॥५४-५५॥

िवमिग - मन्त्त्र का स्वरुप - िास्तारं मृगयाश्वारुढं गणावृतम् ।


पानीयाथं वनादेत्य िास्त्रे ते रे वते नमेः ॥५४-५५॥

यह ३२ अक्षरों को मन्त्त्र हैं, इसके ऋिष रै वत माने गये है, इसका छन्त्द पिडक्त है तथा सवागभीष्टदायक महािास्ता महािास्त
इसके देवता हैं ॥५६॥

िवमिग - िविनयोग - अस्य श्रीिास्तामन्त्त्रस्य रै वतऋिषेः पंिक्तछन्त्देः महािास्तादेवता स्वकीयाऽभीष्टिसियथे जपे िविनयोगेः
॥५६॥

उक्त श्लोक के एक एक चरणों से तथा समस्त मन्त्त्र से पञ्चाङ्ग न्त्यास करे । फिर अपनी आत्मा में िास्ता प्रभु का इस प्रकार
ध्यान करे ।
जो साध्य को अपने पाि में जकड कर साधक के पैरों में िगराने वाले हैं ऐसे दण्डधारी ित्रनेत्र प्रभु का अभीष्टिसिि हेतु मैं
ध्यान करता हूँ ॥५७॥
िवमिग - पञ्चाङ्गन्त्यास - िस्तारं मृगयाश्रान्त्तं हृदयाय नमेः, अश्वारुढं गणावृत् ििरसे स्वाहा, पानीयाथं वनादेत्य ििखायै
वषट्. िास्त्रे ते रै वते नमेः कवचाय हुम् िस्तारं ... रै वते नमेः अस्त्राय िट् ॥५७॥

इस मन्त्त्र का एक लाख जप तथा ितलों से उसका दिांि होम करना चािहए । िैव पीठ पर िास्ता का पूजन करना चािहए ।
आवरण पूजा में सवगप्रथम पञ्चाङ्ग का पूजन, फिर अष्टदल में गोप्ता, तपगलाक्ष, वीरसेन, िाम्भव, ित्रनेत्र, िूली, दक्ष एवं
भीमरुप का पूजन करे । तदनन्त्तर आयुधों के साथ फदलपालों का पूजन करना चािहए । इस िविध से िसि फकया गया मन्त्त्र
साधक को समस्त अभीष्टदल प्रदान करता है ॥५८-६०॥

िवमिग - यन्त्त्र - वृत्ताकार कर्णणका अष्टदलं एवं भूपुर युक्त यन्त्त्र पर महािास्ता का पूजन करना चािहए । इनका पूजन मन्त्त्र
चरणायुध पूजन के समान है । महािास्ता की पीठ पूजा िविध - पूवोक्त है । र० १६. २२-२५ की टीका है ।

आवरणपूजािविध - प्रथम आिेयाफद कोणों में पञ्चाङ्ग पूजा करनी चािहए । यथा - िस्तारं मृगयाश्रान्त्तं हृदयाय नमेः आिेये,
अश्वारुढं गणावृतं ििरसे स्वाहा, नैऋत्ये,
पानीयाथं वनोदत्य ििखायै वषट् , वायव्ये,
िास्त्रे ते रै वते नमेः, ऐिान्त्ये,
िास्तारं ... िास्त्रे ते रै वते नमेः, चतुर्ददक्षु ।

इसके बाद अष्टदल में पूवागफददल के िम से योिा आफद की पूजा करनी चािहए । यथा -
ॎ गोप्त्रे नमेः पूवगदले, ॎ िपङ्गलाय नमेः आिेयदले,
ॎ वीरसेनाय नमेः दिक्षणदले, ॎ िाम्भवाय नमेः नैऋत्यदले,
ॎ ित्रनेत्राय नमेः पिश्चमदले, ॎ िूिलने नमेः वायव्यदले,
ॎ दक्षाय नमेः उत्तरदले, ॎ भीमरुपाय नमेः ऐिान्त्ये,

इसके बाद भूपुर में इन्त्राफद सायुध फदलपालों की पूवागफद फदिाओं के िम से पूवगवत् पूजन करना चािहए (र०. १९. १०-१२) ।
इस प्रकार आवरण पूजा पूणग करनी चािहए । ॥५८-६०॥

मध्याह्न काल होने पर िपपािसत िास्ता देव को अञ्जिल से जल देना चािहए । फिर गोप्ता आफद उनके ८ गणों को भी ८
अञ्जिल जल प्रदान करना चािहए । इस प्रकार जल से तर्णपत गणों के सिहत िास्ता अभीष्ट प्रदान करते हैं ॥६१॥

राित्र के समय वक्ष्यमाण िास्ता गायत्री मन्त्त्र से अिभमिन्त्त्रत बिल भी देनी चािहए । इसके बाद बुििमान साधक को मूल
मन्त्त्र का १०८ की संख्या में जप करना चािहए । ‘भूतािधपाय’ के बाद ‘िवद्महे’, फिर ‘महादेवाय’ के बाद ‘धीमिह’ पद
बोलना चािहए । तदनन्त्तर ‘तन्नेः िास्ता प्रचोदयात्’, कहना चािहए । इस प्रकार का महािास्त गायत्री मन्त्त्र समस्त
अभीष्टदायक कहा गया है ॥६२-६५॥

िवमिग - मन्त्त्र का स्वरुप इस प्रकार है - भूतािधपाय िवद्महे महादेवाय धीमिह । तन्नेः िास्ता प्रचोदयात् ॥६२-६४॥

अब पार्णथवेश्वर के पूजन की िविध कहता हूँ -


बुििमान् साधक स्नान आफद िनत्य फिया करने के पश्चात् फकसी िुिभूिम पर जा कर ऊपर से ८ अंगुल िमट्टी हटाकर
वक्ष्यमाण षडक्षर मन्त्त्र से भूिम को आमिन्त्त्रत करे । पृथ्व्वी (ल), िेष (आ) एवं िबन्त्द ु से युक्त आकाि (ह) अथागत् (हलां), फिर
पृथ्व्वी का चतुथगन्त्त पृिथव्यै, इसके बाद नमेः लगाने से षडक्षर मन्त्त्र िनष्पन्न होता है ॥६५-६७॥
िवमिग - मन्त्त्र का स्वरुप - हलां पृिथव्यै नमेः ॥६५-६७॥

इस प्रकार िमट्टी लेकर से कू ट पीसकर ताम्र पात्र में रख लेना चािहए । पार्णथव पूजन के िलए साधक को फकसी उत्तम मूहतग में
सद्गुरु के पास जा कर गणेि, कु मार तथा हर आफद के वक्ष्यमाण ७ मन्त्त्रों की दीक्षा लेनी चािहए ॥६८-६९॥

फकसी िुभ मुहत्तग में इष्ट िसिि के िलए पार्णथवेश्वर का पूजन प्रारम्भ करना चािहए । िनत्य कमग करने के बाद िुि होकर
पार्णथव पूजन से पहले साधक को पूवोक्त िविध से सूयग नारायण को अध्यग देना चािहए (र० १५. ३२-४४) । फिर िमट्टी ले कर
सुधा बीज (वं) से अिभमिन्त्त्रत जल से आरग कर अपेिक्षत मात्रा में (अंगुष्ठ मात्र) िमट्टी का गोला बना बना कर फकसी पात्र में
रख देवे ॥७०-७१॥

उसके बाद देि काल और मानिसक कामना का स्मरण करते हुये ‘अमुक संख्यकं पार्णथवििविलङमचगियष्ये’ इस प्रकार का
संकल्प करना चािहए ॥७२॥

िवमिग - संकल्पिविध - ॎ अद्येत्याफद देिकालो संकीत्यागमक


ु गोत्रोत्पन्नोऽमुक िमाग वमाग गुप्तांहममुक कामनयाऽमुक
कालपयगन्त्तमुकसंख्यकािन पार्णथवििविलङ्गािन अचगियष्ये ॥७०-७२॥

इस प्रकार संकल्प करने के बाद साधक िमट्टी के गोले से थोडी िमट्टी लेकर वक्ष्यमाण एकादिाक्षर मन्त्त्र से बालगणेश्वर की
मूर्णत बनावे ॥७३॥

बालगणेश्वर मन्त्त्र का उिार - माया (ह्रीं), फिर गणेि (गं) तथा भू बीज (ग्लौं) इन तीन बीजों से संपुरटत चतुथ्व्यगन्त्त गणपती
इस प्रकार कु ल ११ अक्षरों का बाल गणेि मन्त्त्र बनता है ॥७४॥

िवमिग - बालगणेश्वरमन्त्त्र का स्वरुप - ‘ह्रीं गं ग्लौं गणपतये ग्लौं गं ह्रीं ॥७४॥

वर और अभय मुरा हाथों में धारण करने वाले गणेश्वर की मूर्णत बनाकर पूजा पीठ पर स्थािपत करना चािहए । फिर िलङ्ग
िनमागण करना चािहए ॥७५॥

हर मन्त्त्र (ॎ नमो हराय) से वहेडे के िल से कु छ अिधक पररमाण की िमट्टी लेकर माहेश्वर मन्त्त्र (ॎ नम महेश्वराय) मन्त्त्र से
अंगुष्ठ मात्र से लम्बाई में अिधक तथा िबतिस्त से स्वल्प (१२ अंगुल) पररमाण का सुन्त्दर िलङ्ग िनमागण करना चािहए ।
पार्णथवेश्वर के समस्त िलङ्ग की एक समान आकृ ित होनी चािहए, न्त्यूनािधक नहीं ॥७६-७७॥

फिर ‘ॎ िूलपाणये नमेः’ इस िूलपािण मन्त्त्र से िलङ्ग को पीठ पर स्थािपत करना चािहए । इसी प्रकार संकल्पोक्त अन्त्य
सभी िलङ्गों का िनमागण कर पीठ पर स्थािपत करना चािहए ॥७८॥

ऊपर बालगणेश्वर और पािथवेश्वर ििव िलङ्ग के िनमागण तथा पीठ पर स्थापन प्रकार कह कर कु मार रचना का प्रकार कहते
हैं ।

िेष िमट्टी से वक्ष्यमामाण कु मार मन्त्त्र द्वार ष्ण्मुख कु मार का िनमागण करना चािहए । फिर उन्त्हें िलङ्ग की पंिक्त के अन्त्त में
स्थािपत कर उनके मन्त्त्र से उनक पूजन करना चािहए ॥७९॥
कु मार कार्णतके य मन्त्त्र का उिार - वाग् (ऐं) वमग (हुं) कणग एवं िबन्त्द ु सिहत चरम (क्षुं) फिर मीनके तन (ललीं) अन्त्त में ‘कु माराय
नमेः’ यह १० अक्षर का कु मार मन्त्त्र मन्त्त्र कहा गया है ॥७९-८०॥

िवमिग - मन्त्त्र का स्वरुप - ऐं हुं क्षुं ललीं कु माराय नमेः ॥७९-८०॥

‘ॎ नमेः िपनाफकने’ इस मन्त्त्र से प्रत्येक िलङ्ग में ििव का आवाहन कर िलङ्ग में िस्थत प्रसन्न मुख भगवान् सदाििव का इस
प्रकार ध्यान करना चािहए ॥८१॥

दािहनी गेद में िस्थत गणपित के मुख को अपनी दािहनी भुजा से तथा वामाङ्ग मे िवराजमान पावगती की गोद में बैठे कु मार
को अपनी बायीं भुजा से स्पिग करते हुये अन्त्य दोनों हाथों में वर एवं अभयमुरा धारण फकए हुये, चरमा जैसी गौर आभा
वाले, ित्रलोक पूिजत, नीलकण्ठ भगवान् सदाििव हमारी रक्षा करें ॥८२॥

इस प्रकार ध्यान कर पिुपित मन्त्त्र - ‘ॎ नमेः पिुपतये नमेः’ इस मन्त्त्र सं ििव को स्नान कराना चािहए । तदनन्त्तर - ‘ॎ नमेः
ििवाय’ इस ििवमन्त्त्र से गन्त्ध, पुष्प, धूप, दीप, एवं नैवेद्य आफद उपचारों से भगवान् सदाििव का पूजन करना चािहए
॥८३॥

पूवागफद ८ फदिाओं में वामावत्तग के िम से िक्षत्याफद मूर्णतयों वाले िवग आफद ८ देवताओं का पूजन करना चािहए ।

१. िवग, २. भव, ३. रुर, ४. उग्र, ५. भीम, ६. पिुपित, ७. महादेव एवं यजमान, ७. इन्त्र और ८. भास्कर की मूर्णत्तयां हैं ।
इनके पूजन के पश्चात् इन्त्राफद फदलपालों का पूजन करना चािहए ॥८४-८६॥

िवमिग - श्लोक १९. ८२ में वर्णणत पार्णथव ििव का कर पाद्याफद उपचारों से पुष्पाञ्जिल पयगन्त्त िविधवत् िलङ्ग पूजन कर
आवरण पूजा करनी चािहए । आवरण पूजा में पूवागफद फदिाओं में वामावतग िम से िवागफद अष्ट मूर्णतयों की पूजा करनी चािहए

आवरण पूजा - ॎ िवागय िक्षितमूतगये नमेः पूवे,


ॎ भवाय जलमूतगये नमेः ईिाने, ॎ रुराय तेजोमूतय
ग े नमेः उत्तरे ,
ॎ उग्राय वायुमूतगये नमेः वायव्ये, ॎ भीमाय आकािमूतगये नमेः पिश्चमे,
ॎ पिुपतये यजमानमूतगये नमेः नैऋत्ये, ॎ महादेवाय चन्त्रमूतगये नमेः दिक्षणे,
ॎ ईिानाय सूयगमूतगये नमेः आिेये,

तत्पश्चात इन्त्राफद फदलपालों का पूवागफद िम से पूवगवत् पूजन करना चािहए (र० १९. १२ की टीका) ॥८६॥

अब उत्तरपूजा तथा िवसजगन िविध कहते हैं - आवरण पूजा के बाद धूप, दीप, नैवेद्य, नमस्कार एवं प्रदिक्षणा आफद करनी
चािहए । फिर सदाििव मन्त्त्र (ॎ नमेः ििवाय) का जप कर महादेव मन्त्त्र (ॎ नमो महादेवाय) से िवसगजन करना चािहए
॥८६-८७॥

िवमिग - िविनयोग - ॎ अस्य श्रीसदाििवमन्त्त्रस्य वामदेवऋिषेः पिङक्तश्छन्त्देः श्रीसदाििवो देवता ॎ बीजं नमेः ििक्तेः
ििवायेित कीलकं आत्मनोऽभीष्टिसियथे जपे िविनयोगेः ।
ऋष्याफदन्त्यास - ॎ वामदेवाय ऋषये नमेः ििरिस,
ॎ पङ् िक्तश्छन्त्दसे नमेः मुखे, ॎ श्रीसदाििवदेवतायै नमेः हृफद
ॎ बीजाय नमेः गुहये ॎ नमेः िक्तये नमेः पादयोेः
ॎ ििवाय कीलकाय नमेः सवागङ्गे ।

कराङ्गन्त्यास - ॎ अङ् गुष्ठाम्यां नमेः, ॎ नं तजगनीभ्यां नमेः,


ॎ मं मध्यमाभ्यां नमेः ॎ ति अनािमकाभ्यां नमेः ॎ वां किनिष्ठकाभ्या नमेः,
ॎ यं करतलकरपृष्ठाभ्यां नमेः । एवमेव हृदयाफद न्त्यासं कु यागत्
इसके बाद सदाििव का ध्यान इस प्रकार करे -
ध्यायेिन्नत्यं महेिं रजतिगररिनभं चारुचन्त्रावतंसं
पद्मासीनं समन्त्तात्स्तुममरगणैव्यागधकृ तत्त वसानं
िवश्वाद्यं िवश्ववन्त्द्यं िनिखलभयहरं पञ्चवलत्रं ित्रनेत्रम ॥८६-८७॥

हर आफद के ७ मन्त्त्र - प्रारम्भ में प्रणव, फिर ‘नमेः’ उसके बाद हर आफद का चतुथ्व्यगन्त्त रुप (हराय) लगासे से पार्णथवेश्वर पूजन
में प्रयुक्त ७ मन्त्त्र िनष्पन्न होते हैं ॥८७॥

िवमिग - मन्त्त्र का स्वरुप - १. ॎ नमो हराय, २. ॎ नमो महेिाय, ३. ॎ नमेः िूलपाणये, ४. ॎ नमेः िपनाफकने, ५. ॎ
नमेः पिुपतये, ६. ॎ नमेः ििवाय, ७. ॎ नमो महादेवाय ॥८७॥

प्रत्येक िलङ्ग का इस िविध से पूजन करे अथवा समस्त िलङ्गो का एक साथ उक्त िविध से पूजन करे । बालगणेश्वर एवं
कु मार कार्णतके य का भी उनके पूजन के बाद िवसगजन कर देवे ॥८८॥

अब िविवध कामनाओं के िलए िविवध पार्णथवेश्वर का ध्यान कहते हैं -


धन एवं पुत्राफद की कामना करने वाले लोगों को पूवोक्त िविध से ििव का पूजन करना चािहए । िवद्या की कामना वालों को
वट कं मूल में िस्थत अपने चारों हाथों में परिु, हररण, वर एवं ज्ञान मुरा धारण करने वाले भगवान् दिक्षणामूर्णत का ध्यान
करना चािहए ॥८९-९०॥

दो िवरोिधयों में सिन्त्ध कराने के िलए नदी के दोनों फकनारों की िमट्टी लाकर, उससे ििव िलङ्ग बनाकर, उसका पूजन करना
चािहए । इस प्रयोग में िंख, पद्म, सपग एवं िूलधारी हररहर की उभयात्मक मूर्णत का ध्यान करना चािहए ॥९०-९१॥

इन्त्रनीज जैसी आभा वाले श्री हरर तथा िरिन्त्र के समान हर का ध्यान करना चािहए । आभूषणों से अलंकृत इन दोनों में
ऐलय की भावना करते हुये ििविलङ्ग पूजन करना चािहए ॥९२॥

पित और पत्नी में अिवरोध के िलए (प्रेम संपादनाथग) अिगनारीश्वर का ध्यान कर पार्णथव पूजा करनी चािहए। िजनके चारों
हाथों में िमिेः अमृतकु म्भ, पूणगकम्भ, पाि एवं अंकुि है ॥९३॥

उिाट्न, मारण एवं िवद्वेषण आफद में काली के कर का अवलम्बन कर अपने ित्रिूल से प्रचण्डं ित्रु समूह को िछन्न-िछन्न करते
हुये मुण्डमाला धारी अपने प्रचण्ड अट्टाहस से सबको भयभीत करते हुये भगवान् सदाििव का ध्यान कर िलङ्ग पूजा करनी
चािहए । इस प्रकार िविध कामनाओं के भेद से िभन्न िभन्न ध्यान बतलाए गए हैं ॥९३-९५॥
छोटे एवं बडे कायो के भेद से १००० से लेकर एक लाख तक की संख्या मे पार्णथव पूजन करना चािहए ॥९५॥

एक लाख की संख्या मे ििव िलङ्ग पूजन करने से पृथ्व्वी पर मनुष्य मुिक्त प्राप्त कर लेता है । गुड िनर्णमत एक लाख िलङ्गों के
पूजन से साधक राजा बन जाता है ॥९६॥

जो स्त्री पाितव्रत्य धमग का पालन करते हुये गुड िनर्णमत एक हजार िलङ्गों की पूजा करती है, वह पित का सुख तथा अखण्ड
सौभाग्य प्राप्त कर अन्त्त में पावगती के स्वरुप में िमल जाती है ॥९७॥

नवनीत िनर्णमत्त िलगों का पूजन कर मनुष्य अभीष्ट वस्तुओं को प्राप्त कर लेता है । भस्म, गोमय एवं बालुका बने िलङ्गो के
पूजन का भी यही िल कहा गया है ॥९८॥

जो लडके धूिल का िलङ्ग बनाकर उससे खेलते है एवं िवनोद में उसकी पूजा करते हैं । वे इसके प्रभाव से राजा हो जाते हैं
॥९९॥

अब धन के िलए िलङ्ग पूजन प्रयोग कहते हैं -


जो व्यिक्त प्रातेःकाल तीन महीने तक गोमय िनर्णमत तीन िलङ्गो का पूजन करता है और उस पर भटकटैया तथा िबल्वपत्र
चढाकर गुड का नैवेद्य अर्णपत करता है वह प्रचुर संपित्त प्राप्त करता है ॥१००-१०१॥

जो व्यिक्त गोमय िनर्णमत एकादि िलङ्गो का छेः मास पयगन्त्त प्रातेः मध्याहन सायंकाल और अधगराित्र - इस प्रकार काल-
चतुष्टय में िनरन्त्तर पूजन करता है वह सब प्रकार की संमृिि प्राप्त कर लेता है ॥१०१-१०२॥

अब पापरािि को नष्ट करने के िलए प्रयोग कहते हैं -


जो साठी के चावल िपष्ट का एकादि िलङ्ग बनाकर एक मास पयगन्त्त िनत्य (िबना व्यवधान के ) पूजन करता है, वह अपनी
सारी पापरािि जला देता है ॥१०३॥

स्िरटक के िलङ्ग की पूजा से साधक के सभी पाप दूर हो जाते हैं । तांबे से बना िलङ्ग साधक की सभी मनोकामनाओं को
पूणग करता है । नमगदश्व
े र िलङ्ग के पूजन से सारी िसिियाूँ प्राप्त होती हैं तथा सारे दुेःखों का नाि होता है । चाहे िजसे फकसी
भी प्रकार से हो प्रितफदन िलङ्ग का पूजन अभीष्टिलदायक कहा गया है ॥१०४-१०५॥

जो व्यिक्त गोबर का ििविलङ्ग बनाकर िु ि महेश्वर का ध्यान करते हुये नीम की पित्तयों से उनका पूजन करता है वह ित्रुओं
का िवनाि कर देता है ॥१०६॥

जो व्यिक्त भगवान् ििव की भिक्त में तत्पर हो कर प्रितफदन िलङ्ग का पूजन करता है उसके सुमेरु तुल्य भी महान् पाप नष्ट
हो जाते हैं ॥१०७॥

जो व्यिक्त वेदपारठयों को एक लाख दुधारु सवत्सा गौ का दान करे और जो दूसरा साधक पार्णथवििविलङ्ग का पूजन करे तो
उन दोनों मे पार्णथवििविलङ्ग का पूजन करने वाला व्यिक्त श्रेष्ठ है ॥१०९॥

चतुदि
ग ी, अष्टमी, पौणगमासी तथा अमावस्या को दुग्ध से ििव िलङ्ग को स्नान कराने वाला व्यिक्त पृथ्व्वीदान के समान िल
प्राप्त करता है ॥१०९॥
अब िलङ्ग पूजन के बाद का उत्तर कमग कहते हैं -
िलङ्ग पूजा के बाद उनके संमुख यजुवेदोक्त ‘नमस्त रुर’ इत्याफद फकसी स्तोत्र का अथवा, ितरुफरय इत्याफद का पाठ करना
चािहए । फिर स्वयं को भगवान् सदाििव में अपने को समर्णपत कर देना चािहए ॥११०॥

िजतनी संख्या में िलङ्गो का पूजन करे , उतनी ही संख्या में घृत िमिश्रत ितलों से, अथवा घृत से, अथवा मात्र पायस से,
िविधवत् स्थािपत अिि में - ॎ नमेः ििवाय - इस मन्त्त्र से होम करना चािहए । इसके बाद १०० ब्राह्मणों को भोजन कराना
चािहए । ऐसा करने साधक के सभी मनोरथ िनिश्चत रुप से पूणग हो जाते हैं ॥१११-११२॥

अब धमगराज मन्त्त्र का उिार कहते हैं -


प्रणव (ॎ), अङ् कु ि (िों), हृल्लेखा (ह्रीं), पाि (आं), कं जलबीज (वं), जो भौितक ए और िबन्त्द ु से युक्त हो अथागत् (वैं) फिर
‘वैवस्वताय धमग; पद के बाद ‘राजा’ पद तथा प्रभञ्जन (य) फिर ‘भक्तानुग्रह’ िब्द के बाद कृ ते नमेः’ जोडने से २४ अक्षरों का
धमगराजमन्त्त्र िनष्पन्न हो जाता है ॥११३-११४॥

िवमिग - मन्त्त्र का स्वरुप - ॎ िों ह्रीं आं वैं वैवस्वताय धमगराजाय भक्तानुग्रकृ ते नमेः (२४) ॥११३-११४॥

अब षडङ्गन्त्यास कहते हैं - मन्त्त्र के ३, २, ५, ५, अफर ७ एवं २ वणों से षडङ्गान्त्यास करना चािहए । तदनन्त्तर मनोयोग
पूवगक धमगराज का ध्यान करना चािहए ॥११५॥

िवमिग - िविनयोग - अस्य श्रीधमगराजमन्त्त्रस्य वामदेवऋिषगागयत्रीच्छन्त्देः िमनादेवता ममाभीष्टिसद्ध्यथे जपे िविनयोगेः ।

षडङ्गन्त्यास - ॎ िों ह्रीं हृदाय नमेः, आं वैं ििरसे स्वाहा,


वैवस्वताय ििखायै वषट् , धमगराजाय कवचाय हुम्,
भक्तानुग्रकृ ते नेत्रत्रयाय वौषट्, नमेः अस्त्राय िट् ।

ध्यान - िजन सूयगपुत्र का सजलमेघ के समान श्याम िरीर है, जो पुण्यात्माओं को सौम्य रुप में तथा पािपयों को दुेःखदायक
भयानक रुप में फदखाई पडते हैं, जो ऐश्वयग सम्पन्न दिक्षणाफदिा के अिधपित, मिहष पर सवारी करने वाले, अनेक आभूषणों
से अलंकृत संयिमनी नगरी के तथा िपतृगणों के स्वामी, प्रािणयों का िनयमन करने वाले तथा दण्ड धारण करने वाले हैं इस
प्रकार के धमगराज का ध्यान करना चािहए ॥११६॥

अभ्यास करने से िसि हुआ यह मन्त्त्र साधक की सारी आपित्तयों का नाि करता है, नरक जाने से रोकता है तथा ित्रुभय का
िनवतगक है ॥११७॥

अब िचत्रगुप्त के मन्त्त्र का उिार कहते हैं - प्रणव (ॎ), फिर हृद् (नमेः), फिर ‘िविचत्राय धमग’ लेखकाय यमवािहकािधकाररणे’
पद का उिारण करना चािहए । फिर क्षुधा (य), तन्त्री (म), फिया (ल), उत्कारी (ब), विहन (र) एवं (य) इन वणों में अघीि
एवं इन्त्द ु लगाने से िनष्पन्न य्म्ल्व्गयूं, फिर ‘जन्त्म सम्पत्लयं’ पद का उिारण कर २ बार कथय और अन्त्त में ‘स्वाहा’ जोडने से
३८ अक्षरों का िचत्रगुप्त मन्त्त्र बनता है जो सारे पापों एवं दूेःखों को दूर करने वाला है ॥११८-१२०॥

िवमिग - मन्त्त्र का स्वरुप इस प्रकार - ॎ नमेः िविचत्राय धमगलेखकाय यमवािहकािधकाररणे य्म्ल्ब्गयूं जन्त्मसंपत्प्रलयं कथय
कथय स्वाहा (३८) ।
षडङ्गन्त्यास - मन्त्त्र के ७, ६, ९, ८, ६, एवं २ वणों से षडङ्गन्त्यास करना चािहए । फिर सबके कमों का लेखा जोखा रखने
वाले िचत्रगुप्त का इस प्रकार ध्यान करना चािहए ॥१२१॥

िवमिग - िविनयोग पूवगवत् है के वल ‘धमगराजमन्त्त्रस्य’ के स्थान पर ‘िचत्रगुप्तमन्त्त्रस्य’ कहना चािहए ।

षडङ्गन्त्यास िविध - ॎ नमेः िविचत्राय हृदयाय नमेः,


धमगलेखकाय ििरसे स्वाहा यमवािहकािधकाररणे ििखायै वषट्
य्म्ल्ब्गयूं जन्त्मसंपत्प्रलयं कवचाय हुम्
कथयं कथय नेत्रत्रयाय वौषट् स्वाहा अस्त्राय िट् ॥१२१॥

ध्यान - फकरीट के प्रकाि से उज्ज्वल तथा वस्त्र एवं आभूषण से मनोहर, चिन्त्रका के समान प्रसन्न मुख वाले, िविचत्र आसन पर
बैठ कर सारे मनुष्यों के पाप और पुण्यों को बही के पत्र पर िलखते हुये, यमराज के सखा िचत्रगुप्त का मैं भजन करता हूँ
॥१२२॥

इस िसिमन्त्त्र का जप करने वाले मनुष्यों से प्रसन्न हुये िचत्रगुप्त के वल उनके पुण्यों का ही लेखा जोखा करते हैं पापो का नहीं
॥१२३॥

अब अथगववेदोक्त आसुरी िवद्या के प्रयोगों की श्रेष्ठतम िविध कहता हूँ -


‘कटुके कटुके’ के बाद ‘पत्रे सुभगे’, फि अनन्त्त (आ), फिर ‘सुरररक्ते ’ के बाद ‘रक्तवाससे अथवगणस्य दुिहते, पद, तदनन्त्तर के िव
(अ), फिर ‘घो’ भगी बली (रे) तथा ‘अधोम कमग’ पद के बाद ‘काररके ’ ‘अमुकस्य’ साध्य नाम षष्ठयन्त्त, फिर ‘गतत’, फिर २
बार दह, फिर कणग (उ), फिर ‘पिवष्टस्य गुद’ं , फिर दो बार दह, फिर ‘सुप्तस्य’, फिर तन्त्री (म), ‘नो’ तथा २ बार ‘दह’ फिर
‘प्रबुि’ स बाली भृगु (स्य) हृदयं, फिर २ बार ‘दह’, २ बार ‘हन’ तथा दो बार ‘पच’, फिर ‘तावत्’ ‘दह’ ‘तावत्’ ‘पच’ यावन्त्मे
विमायित, फिर वमग (हुं), अस्त्र (िट्) तथा अन्त्त में विहनवल्लभा (स्वाहा) और प्रारम्भ में तार (ॎ) लगाने से ११० अक्षरों
का आसुरी मन्त्त्र िनष्पन्न होता है ॥१२४-१२९॥

िवमिग - मन्त्त्र का स्वरुप - ॎ कटुके कटुकपत्रे सुभगे आसुरररक्ते रक्तवाससे अथवगणस्य दुिहते अघौरे अघोरकमगकाररके अमुकस्य
गतत दह दह उपिवष्टस्य गुदं दह दह सुप्तस्य मनो दह दह प्रबुिस्य हृदयं दह दह हन हन पच पच तावद्दह तावत्पच यावन् मे
विमायाित हुं िट् स्वाहा । (आसुरी दुगाग की संज्ञा है) ॥१२४-१२९॥

िविनयोग एवं षडङ्गन्त्यास - इस मन्त्त्र के अंिगरा ऋिष हैं, िवराट् छन्त्द तथा आसुरी दुगाग देवता है, प्रणव बीज तथा स्वाहा
ििक्त ॥१२९-१३०॥

िवमिग - िविनयोग िविध - ॎ अस्य आसुरीमन्त्त्रस्य अंिगरा ऋिषर्णवराट् छन्त्देः आसुरीदुगागदव


े ता ॎ बीजं स्वाहा
ििक्तरात्मनोऽभीष्टिसद्ध्यथग जपे िविनयोगेः ॥१२९-१३०॥

मन्त्त्र के ९ वणों से हृदय पर, ६ वणों से ििर, ७ वणों से ििखा, ८ वणों से कवच, ११ वणोम से नेत्र तथा ६५ वणों से अस्त्र
पर न्त्यास करना चािहए । सभी अङ्गो पर न्त्यास करते समय साधक को मन्त्त्र के अन्त्त में ‘हुं िट् स्वाहा’ इतना और पढना
चािहए ॥१३०-१३१॥

िवमिग - ऋष्याफदन्त्यास - ॎ अिङ्गरसे ऋषये नमेः, ििरिस,


ॎ िवराट् छन्त्दसे नमेः मुखे, ॎ आसुरीदुगागदव
े तायै नमेः हृफद,
ॎ ॎ बीजाय नमेः गुह्ये ॎ स्वाहा िक्तये नमेः पादयोेः

ष‍ङन्त्यास - ॎ कटुके कटुकपत्रे हुं िट् स्वाहा हृदाय नमेः,


सुभगे आसुरर हुं िट् स्वा ििरसे स्वाहा,
रक्ते रक्तवाससे हुं िट् स्वाहा ििखायै वषट् ,
अथवगणस्य दुिहते हुं िट् स्वाहा कवचाय हुम्,
अघोरे अघोरकमगकाररके हुं िट् स्वाहा नेत्रत्रयाय वौषट् ,
अमुकस्यं गित ... यावन्त्मेविमायाित हुूँ िट् स्वाहा, अस्त्राय िट् ॥१३०-१३१॥

अब अथवागपुत्री भगवती आसुरी दुगाग का ध्यान कहते हैं -


िजनके िरीर की आभा िरत्कालीन चन्त्रमा के समान िुभ है, अपने कमल सदृि हाथों में िजन्त्होंने िमिेः वर, अभय, िूल
एवं अंकुि धारण फकया है । ऐसी कमलासन पर िवराजमान, आभूषणों एवं वस्त्रों से अलंकृत, सपग का यज्ञोपवीत धारण करने
वाली अथवाग की पुत्री भगवती आसुरी दुगाग मुझे प्रसन्न रखें ॥१३२॥

इस मन्त्त्र का दि हजार जप करना चािहए । तदनन्त्तर घी िमिश्रत राई से दिांि होम करने पर यह मन्त्त्र िसि हो जाता है ।
(जयाफद ििक्त युक्त पीठ पर दुगाग की एवं फदिाओं में सायुध िििक्तक इन्त्राफद की पूजा करनी चािहए) ॥१३३॥

अब काम्य प्रयोग का िवधान कहते हैं - राई के पञ्चाङ्गो (जड िाखा पत्र पुष्प एवं िलों) को लेकर साधक मूलमन्त्त्र से उसे
१०० बार अिभमिन्त्त्रत करे , तदनन्त्तर उससे स्वयं को धूिपत करे तो जो व्यिक्त उसे सूूँघता है वही वि में हो जाता है । मधु
युक्त राई की उक्त मन्त्त्र से एक हजार आहुित देकर साधक जगत् को अपने वि में कर सकता है ॥१३४-१३५॥

अब विीकरण आफद अन्त्य प्रयोग कहते हैं -


स्त्री या पुरुष िजसे वि में करना हो उसकी राई की प्रितमा बना कर पुरुष के दािहने पैर के मस्तक तक, स्त्री के बायें पैर से
मष्टक तक, तलवार से १०८ टुकडे कर, प्रितफदन िविधवत् राई की लकडी से प्रज्विलत अिि में िनरन्त्तर एक सप्ताह पयगन्त्त इस
मन्त्त्र से हवन करे , तो ित्रु भी जीवन भर स्वयं साधक का दास बन जाता है । स्त्री को वि में करने के िलए साध्य में
(देवदत्तस्य उपिवष्टस्य के स्थान पर देवदत्तायाेः उपिवष्टायाेः इसी प्रकार देवदत्तायाेः सुदामा आफद) िब्दों को ऊह कर
उिारण करना चािहए ॥१३६-१३८॥

सरसों का तेल तथा िनम्ब पत्र िमला कर राई से ित्रु का नाम लगा कर मूलमन्त्त्र से होम करने से ित्रु को बुखार आ जाता है
॥१३८-१३९॥

इसी प्रकार नमक िमला कर राई का होम करने से ित्रु का िरीर िटने लगता है । आक के दूध में राई को िमिश्रत कर होम
करने से ित्रु अन्त्धा हो जाता है ॥१३९-१४०॥

पलाि की लकडी से प्रज्विलत अिि में एक सप्ताह तक घी िमिश्रत राई का १०८ बार होम करने से साधक ब्राह्मण को,
गुडिमिश्रत राई का होम करने से क्षित्रय को, दिधिमिश्रत राई के होम से वैश्य को तथा नमक िमली राई के होम से िूर को
वि में कर लेता है । मधु सिहत राई की सिमधाओं का होम करने से व्यिक्त को जमीन में गडा हुआ खजाना प्राप्त होता है
॥१४०-१४२॥
जलपूणग कलि में राई के पत्ते डाल कर उस पर आसुरी देवी का आवाहन एवं पूजन कर साधक मूलमन्त्त्र से उसे १०० बार
अिभमिन्त्त्रत करे । फिर उस जल से साध्य व्यिक्त का अिभषेक करे तो साध्य की दरररता, आपित्त, रोग एवं उपरव उसे
छोडकर दूर भाग जाते है ॥१४३-१४४॥

राई का िू ल, िप्रयंगु, नागके िर, मैनिसल एवं तगार इन सबको पीसकर मूलमन्त्त्र से १०८ बार अिभमिन्त्त्रत करे । फिर उस
चन्त्दन को साध्य व्यिक्त के मस्तक पर लगा दे तो साधक उसे अपने वि में कर लेता है ॥१४५-१४६॥

नीम की लकडी ल्से प्रज्विलत अिि में एक सप्ताह तक दिक्षणािभमुख सरसोम िमिश्रत राई की प्रितफदन १०० आहुितयाूँ देकर
साधक अपने ित्रुओं को यमलोक का अिथिथ बना देता है ॥१४६-१४७॥

यफद इस आसुरी िवद्या की िविधवत् उपासना कर ली जाय तो िु ि राजा समस्त ित्रु फकम बहुना िु ि काल भी उसका कु छ
नहीं िबगाड सकता है ॥१४८॥

मन्त्त्र िास्त्र के अनेक ग्रन्त्थों का अवलोकर कर मैने िवद्वानोम के िहत के िलए गुप्ततम मन्त्त्र इस अध्याय में कहे हैं । ग्रन्त्थ
िवस्तार के भय से अब आगे न कर यहीं उपसंहार करता हूँ ॥१४९॥

तवि तरङ्ग
अररत्र
अब यन्त्त्रों के िवषय में कहने के िलये उपिम आरम्भ करते है । अब सदाििव ने िजन यन्त्त्रों का आख्यान भगवती गौरी से
फकया था उन यन्त्त्रों को कहता हूँ -

साधक िुभ मुहतग में अपने इष्टदेव का पूजन कर उनके यन्त्त्रोम को स्मरण करते हुये हिवष्यान्न भोजन करते हुये तीन फदन
पयगन्त्त लगातार भूिम पर ियन करते हुये इष्टदेव से इस प्रकार प्राथगना करे फक-

हे प्रभो ! मेरे द्वारा िलखा गया अमुक यन्त्त्र कै सा होगा? - इष्टदेव को स्वप्न आता है, िजसमें यन्त्त्र के िसि, साध्य, सुिसि और
अरर िवषयक स्वप्न होते हैं ॥१-४॥

ित्रु यन्त्त्र को नहीं िलखना चािहए । इसके अितररक्त अन्त्य िसि, साध्य एवं सुिसि िलखना चािहए । स्वप्न के न आने पर भी
ित्रु यन्त्त्र को छोडकर अन्त्य यन्त्त्र िलखना चािहए ॥४-५॥

अब सभी देवताओं के यन्त्त्रों के िलखने के िलये सामान्त्यतया की जाने वाली प्रफिया कहता हूँ -
स्नान कर िुि वस्त्र धारण कर अपने को चन्त्दन और पुष्प माला से िवभूिषत कर यन्त्त्र िलखने के िलये िनर्ददष्ट स्यािह एवं
भोजपत्राफद वस्तुओं को लेकर सवगथा एकान्त्त स्थल में बैठकर यन्त्त्र क लेखन करे ॥५-६॥

यन्त्त्र मे मध्य बीज के ऊपर साधक का षष्ठन्त्त नाम, फिर नीचे साध्य के नाम के आगे िद्वतीयान्त्त िवभिक्त लगातर साध्य
(व्यिक्त या उसका कायग) का नाम, तदनन्त्तर दोनों ओर दो बार कु रु िब्द िलखना चािहए ॥७॥

िवमिग - यथा - साधकस्य (देवदत्तस्य इष्टं कु रु कु रु) साध्यं (यज्ञदत्तं विं कु रु कु रु इत्याफद )॥७॥

औ तथा िवसगग सिहत िवयत् (ह), भृगु (स) अथागत् ह्सौेः इस बीज को जो यन्त्त्र का बीज कहा गया है, उसे मध्य भाग से नीचे
की ओर िलखना चािहए । फिर ‘हंसेः सोऽहं’ जो यन्त्त्र का प्राण माना गया है, उसे ईिानाफद चारों कोणोम में िलखान चािहए
॥८॥

यन्त्त्र के दोनों ओर िमिेः नेत्र (इ ई), श्रोत्र (उ ऊ) िलखने चािहए । फिर यन्त्त्र के दिो फदिाओं में दि फदलपालोम के बीज लं
रं मं क्षं वं यं सं हं आं ह्रीं िलखना चािहए । यन्त्त्र गायत्री के ३, ३, वणो को आठों फदिाओं में िलखना चािहए ॥९॥

अब यन्त्त्र गायत्री बतलाते हैं -


‘यन्त्त्रराजाय’ पद के बाद ‘िवद्महे’ पद, फिर ‘प्रदाय धीमिह’ पद तथा अन्त्त में ‘तन्नो यन्त्त्रेः प्रचोदयात्’ लगाने से यन्त्त्र गायत्री
िनष्पन्न होती है, जो स्मरण करन मात्र से सारे अभीष्ट प्रदान करती है ॥१०-१२॥

िवमिग - मन्त्त्र का स्वरुप - ‘यन्त्त्रराजाय िवद्महे वरप्रदाय धीमिह तन्नो यन्त्त्रेः प्रचोदयात्’ ॥१०-११॥

यन्त्त्र के बाहर प्राण प्रितष्ठा के मन्त्त्र िलखकर उसे वेिष्टत करना चािहए । िजन यन्त्त्रों को िलखने के िलये वस्तुओं का िनदेि
नहीं फकया गया है उन यन्त्त्रों को भोजपत्र, रे िमी वस्त्र अथवा ताडपत्र पर िलखकर उसे समेटकर चारोम ओर धागे से बाूँध
देना चािहए ॥११-१२॥

िजसे देवता का यन्त्त्र िलखा जाय उस देवता के बीज अक्षर से युक्त मातृकाओं द्वारा उसका पूजन कर, उस देवता के मन्त्त्र का
जप कर, हुतिेष घी में उस यन्त्त्र को डु बोकर, फिर उसे सोने चाूँदी या ताूँबे के बने ताबीज में रखकर उसके मुख पर लाख
िचपका देना चािहए । इस प्रकार िनर्णमत यन्त्त्र को अपने उद्देश्य की िसिि के िलये ििर, भुजा या गले में धारण करना
चािहए ॥१३-१४॥

यन्त्त्र के बनाने वाले को अथवा धारण करने वाले को पराभूतिलिप की उपासना करनी चािहए । िजसकी उपासना मात्र से
समस्त यन्त्त्र िसि जो जाते हैं ॥१५॥

िवमिग - भूतिलिपेः िारदाितलके यथा - इस भूतिलिप में नववगग तथा ४२ अक्षर होते हैं - इसका िववरण इस प्रकार है - पाूँच
ह्रस्व ( अ इ उ ऋ लृ) यह प्रथम वगग, पञ्च सिन्त्ध वणग (ए ऐ ओं औ) चार िद्वतीयवगग, (ह य र व ल ) यह तृतीय वगग (ङ क ख घ
ग) यह चतुथग वगग इसी प्रकार (ञ च छ झ ज) यह पञ्चम वगग ण (ट ठ ढ ण) यह षष्ठ वगग (न त थ ध द) यह सप्तम वगग, (म प ि
भ ब) यह अष्टमवगग वान्त्त (ि) श्वेत (ष) इन्त्र (स) यह नवमवगग है ।

िविनयोग - अस्या भूतिलपेदिग क्षणामूर्णतऋिषेः गायत्रीच्छन्त्देः वणेश्वरदेवता आत्मनोअभीष्टिसियथे जपे िविनयोगेः ।

भूतािलिप - अं इं उं ऋं लृं ऐं ऐं ओं औं हं यं रं वं लं ङं कं खं घं गं ञं चं छं झं जं णं टं ठं डं नं तं थं धं दं मं पं िं भं बं िं षं सं ।

षडङ्गन्त्यास - १. हं यं रं वं लं हृदयाय नमेः,


२. डं कं खं घं गं ििरसे स्वाहा
३. चं छं झं जं ििखायै वषट्,
४. णं टं ठं ढं कवचाय हुम्
५. नं तं थं धं दं नेत्रत्रयात् वौषट्
६. मं पं िं बं अस्त्राय िट् ।

वणगन्त्यास - ॎ अं नमेः गुद,े ॎ इं नमेः िलङ्गे


ॎ उं नमेः नाभौ ॎ ऋं नमेः हृफद, ॎ लृं नमेः कण्ठे
ॎ ऐं नमेः भ्रूमघ्नये, ॎ ऐं नमेः ललाटे ॎ ओं नमेः ििरिस,
ॎ औं नमेः ब्रह्मरन्त्रे, ॎ हं नमेः ऊध्वगमुखे, ॎ यं नमेः पूवगमुखे,
ॎ रं नमेः दिक्षणमुखे, ॎ वं नमेः उत्तरमुखे, ॎ लं नमेः पिश्चतामुखे,
ॎ ङं नमेः हस्त्राग्रे ॎ कं नमेः दक्षहस्तमूल,े ॎ खं नमेः दक्षकू परे ,
ॎ घं नमेः हस्ताङ् िलसन्त्धी, ॎ गं नमेः दक्षमिणबन्त्धे,
ॎ ञं नमेः वामहस्ताग्रे, ॎ चं नमेः वामहस्तमूले
ॎ छं नमेः दक्षकू पगरे ॎ झं नमेः वामहस्ताङ् गुिल सन्त्धौ,
ॎ जं नमेः वाममिणबन्त्धे ॎ णं नमेः दक्षपादाग्रे,
ॎ टं नमेः दक्षपादमूले ॎ ठं नमेः दिक्षणजानौ
ॎ ढं नमेः दक्षपादाङ् गुिलसन्त्धौ, ॎ डं नमेः दिक्षणपादगुल्िे ,
ॎ नं नमेः वामपादाग्रे, ॎ तं नमेः वामपादागुल्िे ,
ॎ थं नमेः वामजानौ, ॎ धं नमेः वामपादाङ् गुिलसन्त्धौ,
ॎ दं नमेः वामगुल्िे , ॎ मं नमेः उदरे
ॎ पं नमेः दिक्षणपाश्वे ॎ िं नमेः वामपाश्वे,
ॎ भं नमेः नाभौं ॎ बं नमेः पृष्ठ,े
ॎ िं नमेः गुह्ये, ॎ षं नमेः हृफद, ॎ सं नमेः भ्रूमध्ये’ ।

ध्यान - अक्षरस्त्रजं हररणपोतमुदग्रटंकं,


िवद्यां करैरिवरतं दधतीं ित्रनेत्राम् ।
अधेन्त्दम
ु ौिलमरुणामरिवन्त्दरामां
वणेश्वरीं प्रणमतस्तनभारनम्राम् ॥

इस भूतिलिप की एक लाख का संख्या में जप करना चािहए । तत्पश्चात ितलों की १० हजार आहुितयाूँ देने से भूतिलिप िसि
हो जाती है । भूतिलिप को िसि कर लेने पर बनाये गये सारे यन्त्त्र अपना प्रभाव पूणगरुप से फदखलाते हैं । इसिलये यन्त्त्र
िनमागणकत्ताग िवद्वानोम को यन्त्त्र िसिि हेतु सवगप्रथम भूतिलिप की उपासना करनी चािहए । इसकी िसिि के िबना बनाये गये
कोई भी यन्त्त्र अपना चमत्कार या प्रभाव का िल नहीं प्रगट करते ॥१५॥

(१) अब िीघ्र िसििप्रद विीकरण यन्त्त्र कहता हूँ -


राख आफद से िुि फकये गये कॉसे के पात्र में गोरोचन एवं कुं कु म से चमेली की लेखनी द्वारा अष्टदल िलखना चािहए । उसकी
कर्णणका में साध्य का नाम (िजसे वि में करना हो ) तथा आठों दलों में िमिेः आठो वगागक्षरों को िलखना चािहए ॥१६-१७॥

इस प्रकार िलखे गये अष्टदलों को िमिेः षोडिदलों से पररवेिष्टत करना चािहए, और उस पर १६ स्वर वणग िलखना चािहए ।
उसे भी ३ वृत्तों से वेिष्टत करना चािहए । इस प्रकार बने यन्त्त्र का मातृकामन्त्त्र से ७ पयगन्त्त पूजना करना चािहए ॥१८॥

इस प्रकार उक्त मोहन संज्ञक महायन्त्त्र पर पूजन करने से राजा आफद सभी पुरुष एवं िस्त्रयाूँ िनिश्चत रुप से वि मेम हो जाती
है इसमें संिय नहीं है ॥१९॥

उक्त यन्त्त्र भोजपत्र आफद पर िलख कर ित्रलौह (सोने, चाूँदी एवं ताूँबे) के बने ताबीज में डालकर ििर पर धारण करने से
राजा एवं दुष्टजनों को भी वि में कर देता है ॥२०॥

(२) अब बीज संपुट विीकरण यन्त्त्र कहते हैं -


सवगप्रथम मायाबीज से संपुरटत साध्यनाम फिर उसके ऊपर और नीचे ४, ४ माया बीज िलखना चािहए । फिर उसे दो रे खाओं
वाले भूपुर से पररवेिष्टत करना चािहए । उक्त यन्त्त्र गोरोचन, चन्त्दन एवं के िर से भोजपत्र पर चमेली की कलम से िलखकर
अनािमका के रक्त से िमिश्रत कुं कु माफद द्वारा गौरे मन्त्त्र या उसके बीजाक्षरों से उसकी पूजा करनी चािहए, तो वह विीकरण
हो जाता है ॥२१-२३॥

फिर कु मारी, ब्राह्मण एवं िस्त्रयों को भोजन, कराकर विीकरण की िसिि के िलए लाल पुष्प, अन्न तथा मांस की बिल देनी
चािहए ॥२३-२४॥

राजा द्वारा सवगस्व अपहरण की िस्थित में, अथवा उसके कारागार में डाले जाने की िस्थित में इस यन्त्त्र को भुजा में धारण कर
साधक यफद राजा के पास जावे तो अत्यन्त्त िु ि भी राजा िान्त्त हो कर उसका आदर करता है । मनीिषयों ने इस यन्त्त्र को
बीजसम्पुटयन्त्त्र कहा है ॥२४-२६॥

(३) अब स्वामी विीकरण यन्त्त्र कहते हैं -


दिक्षणोत्तर िम से दो रे खाओम को िलखकर उसके बीच में तार (ॎ), पद्मालया (श्रीं) से संपुरटत साध्य व्यिक्त का नाम िलखे ।
रे खाओं के अग्रभाग के िमलने से बने दो कोष्ठों में िवसगग सिहत अिन्त्तम वणग (क्षेः) िलखना चािहए । फिर दोनों रे खाओं के ऊपर
तथा नीचे ३, ३ कोष्ठक बनाकर मध्य के कोष्ठ में िवसगग सिहत क्ष (क्षेः) तथा उसके पाश्वगवती दोनो कोष्ठकों में श्री बीज (श्रीं)
िलखना चािहए ॥२६-२८॥

इस यन्त्त्र को भोजपत्र पर गोरोचन से चमेली की कलम द्वारा िलख कर, दो सकोरें के मध्य स्थािपत कर, अिि में जला देना
चािहए । इस प्रकार जलाये गये यन्त्त्र का भस्म दूध में िमलाकर पीने से स्वामी को िनिश्चत रुप से वह दूध साधक के वि में में
कर देता है । इसके देवता श्री हैं ॥२९-३०॥

(४) अब फदव्यस्तम्भन यन्त्त्र कहते हैं - षट् कोण के मध्य में साध्य नाम और उसके चारों ओर ४ माया बीजों (ह्रीं) को िलखना
चािहए । फिर कोणों के ६ कोणों में तथा उसके बीज में ६, ६ माया बीजोम को िलखना चािहए ॥३०-३१॥

यह यन्त्त्र मनोहर भोजपत्र पर, गोरोचन एवं कुं कु म से चमेली की कलम द्वारा िलख कर, उसे सकोरे में स्थािपत कर, उसका
िविधवत् पूजन करना चािहए । फिर उसके आगे बैठकर, माया बीज (ह्रीं) का जप करना चािहए । फिर सकोरे से उसे
िनकालकर साधक अपने िसर में बाूँधे तो वह अिि, जल आफद में न जल सकता है और न डू बे सकता है, उस रात में वह उस
फदव्य यन्त्त्र के प्रभाव से चाहे पापी भी लयों न हो सवगत्र िवजय प्राप्त करता है । यह फदव्य स्तम्भन यन्त्त्र कहा गया है । (इसके
गौरी देवता हैं ) ॥३१-३४॥

(५) अब राजमोहन यन्त्त्र कहते हैं - अष्टदल के मध्य में मायाबीज (ह्रीं) तथा िवसगग सिहत स अथागत् (सेः) इन दो बीजाक्षरों से
पुरटत साध्य नाम िलखकर आठों दलों में माया से पुरटत िवसगग सिहत दो स अथागत् (ह्रीं सेः सेः ह्रीं) िलखना चािहए । फिर
भूपुर से इसे वेिष्टत कर देना चािहए ॥३४-३५॥

भोजपत्र पर गोरोचन एवं कुं कु म से उक्त यन्त्त्र िलखकर, दो सकोरों में रखकर, सात रात तक मायाबीज (ह्रीं) का जप करते
हुये उसका पूजन करते रहना चािहए ॥३५-३६॥
राजमोहन नामक यह यन्त्त्र धारण करने से राजा या मनुष्य की कठोरता को दूरकर उनको साधक के वि में कर देता है
॥(इसके गौरी देवता हैं) ॥३७॥

(६) अब िु ि एवं हत्यारे राजा से आत्मरक्षाथग मृत्युञ्जय यन्त्त्र कहता हूँ - सवगप्रथम द्वादिदल युक्त कमल का िनमागण करे ।
उसके भीतर सात चतुभुगज रेखाओम से आहत चतुष्कोण में फिया सिहत साध्य नाम अथागत् उसके आगे ‘मृत्युं वंिय’ यह
िलखना चािहए । फिर उससे ऊपर द्वादि दल में ईिान कोण से लेकर (ऋ ऋ लृ लृ) इत्याफद ललीव स्वरों को छोडकर अन्त्य
स्वरों के साथ कणग (लकार अथागत ल ला िल ली इत्याफद बारह स्वर) िलख कर उस दल को भी चतुस्त्र से वेिष्टत कर देना
चािहए तथा उस चतुरस्त्र के कोणों पर भी ित्रिूल िनमागण करना चािहए ॥३७-४०॥

इस यन्त्त्र को दो भोजपत्रों पर पृथक् पृथक् चमेली की कलम से अष्टगन्त्ध द्वारा िलखकर, पुनेः उन्त्हे आमने सामने से िमला कर
उत्तरािभमुख हो पृथ्व्वी में गाड देना चािहए ॥४१॥

उसके ऊपर ििला रख कर उस पर बैठ कर मातृका मन्त्त्र का जप करना चािहए (इस यन्त्त्र की मातृका देवता हैं) ॥४२॥

ऐसा करने से साधक मृत्यु के भय से तथा सभी प्रकार के रोगों के भय से भी मुक्त हो जाता है, फिर राजा के भय की बात तो
दूर रही ॥४२-४३॥

(७) अब िववाद में िवजयप्रद यन्त्त्र कहते हैं -


भोजपत्र पर गोरोचन एवं कुं कु म द्वारा चार दल वाला पद्म िलख कर उसकी कर्णणका में साध्य व्यिक्त का नाम (िजससे िववाद
हो ) िलखना चािहए । पद्म के चारों दलों पर मायाबीज (ह्रीं) िलखकर िनष्पन्न उस यन्त्त्र को दूध में डालकर मुकदमें में वादी
के साथ िववाद करना चािहए ॥४३-४४॥

इस यन्त्त्र के प्रभाव से साधक िववाद में वादी पर िवजय प्राप्त कर लेता है । इसे िववाद-िवजयप्रद यन्त्त्र कहते हैं । (इसके भी
गौरी देवता हैं) ॥४५॥

(८) अब धिनकविीकरण यन्त्त्र


कहते हैं - जो प्रथम ऋण लेकर अधमणग हो चुका है, ऐसे उपकृ त धनी से माूँगने पर धन न देने पर उसे वि में करने के िलये
वक्ष्यमाण यन्त्त्र भोजपत्र पर िलखना चािहए ॥४५-४६॥

गोरोचन एवं कुं कु म से भोजपत्र पर चमेली की कलम से षट्कोण िलखकर उसकी कर्णणका में साध्य व्यिक्त का नाम िलखना
चािहए । फिर षट्कोणों में तथा कोणोम के मध्य में एक एक के िम से १२ कामबीजों (ललीं) को िलखना चािहए । तदनन्त्तर
उसे वृत्त से वेिष्टत कर उस वृत्त को भी माया बीज (ह्री) से वेिष्टत कर देना चािहए ॥४६-४७॥

फिर उन माया बीजों को भी वृत्त से वेिष्टत कर ७ फदन तक उसका पूजन करते रहना चािहए । प्रितफदन सप्तिती का पाठ भी
करते रहना चािहए । अिन्त्तम फदन नवाणग मन्त्त्र से १०८ आहुितयाूँ देकर कन्त्याओं को भोजन कराना चािहए ॥४८-४९॥

इस प्रकार बने यन्त्त्र को अपने गले में धारण करने से धिनक साधक के विीभूत होकर िबना माूँगे ही धन देता है और उसके
वि में हो जाता है । (इसके भी गौरी देवता हैं) ॥४९॥

(९) अब दुष्ट मोहन यन्त्त्र कहते हैं -


राजा के समीप वाले दुष्ट कमगचारी यफद िपिुनता (चुगुलखोरी) करें तो इस दुष्ट मोहन यन्त्त्र को बनाना चािहए ॥५०॥

भोजपत्र पर गदगभ के खून से चमेली के कलम द्वारा अष्टदल कमल बनाकर उसकी कर्णणका में साध्य का नाम, फिर पूवागफद
चारों फदिाओं के दलों में मायाबीज (ह्रीं) तथा कोणोम के चारों दलों में सगागन्त्तभृगु (सेः) िलख कर उसे दो वृत्तों से वेिष्टत कर
देना चािहए । फिर इस यन्त्त्र में प्राण प्रितष्ठा कर िविधवत् (त्रैलोलय मोहन गौरी मन्त्त्र) से पूजन कर उसे (काले पात्र में िस्थत)
दूध में छोड देना चािहए । ऐसा करते रहने से २१ फदन के भीतर िपिुनकारी दुष्ट वि में हो जाता है ॥५१-५३॥

(१०) अब िवजयप्रद यन्त्त्र का िवधान करते हैं - गोरोचन से भोजप्त्रे पर चतुभुगज के मध्य में िवष (म) अनन्त्त (अ) सिहत भृगु
स् अथागत् (स्मेः) इसे माया से संपुरटत कर (ह्रीं स्मेः ह्रीं) िलखे, फिर चारों कोणों में ‘ह्रीं सेः ह्रीं’ िलखकर उसके ऊपर अष्टदल
बनाना चािहए । उसके फदिाओं के दलोम में िमिेः रोहेः, स्तम्भेः एवं क्षोभेः िलखना चािहए । फिर कोणों के दलों में सगी
िवसगग सिहत चरम (क्ष) अथागत् ‘क्षेः’ िलखकर उसी भोजपत्र पर गोरोचन से चतुभुगज मध्य में साध्य नाम िलखे । इसे दो
सकोरोम के मध्य में स्थािपत कर गन्त्ध पुष्पाफद उपचारों से पूजन करे । फिर फदलपालों को (उनके मन्त्त्रों से ) बिल देवे ॥५३-
५६॥

यह िवजयप्रद यन्त्त्र व्यवहार एवं िववाद में िवजय देता है और राजद्वार पर मान-समान बढाता है ॥५७॥

िवमिग - िवजयप्रद यन्त्त्र को भोजपत्र पर अनार की कलम से िलखना चािहए । त्रैलोलयमोहन गौरी मन्त्त्र से इसके पूजन का
िवधान कहा गया है ॥५३-५७॥

(११) अब गणेि यन्त्त्र कहते हैं, जो जीवन भर मनुष्य को वि में करने वाला है -
भोजपत्र पर अनािमका का खून, गजमद, गोरोचन एवं आलता से, चमेली िीं कलम से चतुभुगज बनाकर मध्य में प्रथम पंिक्त
में सात माया बीज (ह्रीं) तथा िद्वतीय पंिक्त में िमिेः सृिण (िों), माया (ह्रीं), काम (ललीं), एवं गं से संपुरटत साध्य नाम
िलखना चािहए । फिर तृतीय पंिक्त में िो से संपुरटत मायाबीज तथा माया बीज (ह्रीं) से संपुरटत काम (ललीं) िलख कर चतुथग
पंिक्त में ४ माया बीज (ह्रीं) िलखना चािहए । फिर चतुरस्त्र के बाहर दिक्षण फदिा में छोडकर अन्त्य फदिाओं में १०-१० की
संख्या में गणेि बीज (गं) िलखकर उस पर पुनेः भूपुर बनाना चािहए ॥५७-६१॥

तदनन्त्तर फकसी पिवत्र स्थान ले लायी गई काली िमट्टी िनर्णमत गणेि प्रितमा के पेट में इस यन्त्त्र को रखकर, पञ्चोपचार से
श्रीगणेि की ‘गं गणपतये नमेः’ इस मन्त्त्र से पूजन कर वक्ष्यमाण मन्त्त्र पढना चािहए ॥६२॥

‘देवदेव गणाध्यक्ष सुरासुर नमस्कृ त । देवदत्त मयायत्तं यावज्जीवं कु रु प्रभो" उक्त श्लोक में कहे गये देवदत्त के स्थान पर साध्य
नाम उिारण करना चािहए । फिर पृथ्व्वी में एक हाथ लम्बा चौडा गड् ढा खोदकर उसमें गणेि प्रितमा स्थाओिपत कर िमट्टी
से उस गढ् ढे को भर देना चािहए । ऐसा करने साध्य के वि में हो जात है ॥६३-६४॥

(१२) राजा को वि में करने का यन्त्त्र - चार दल वाले कमल को िलखकर कर्णणका में इ तथा साध्य नाम िलखना चािहए ।
फिर चारों पद्मदलोम में पूवग पिश्चम के दलों में ‘ॎ नमेः’ िलखना चािहए । िेष उत्तर और दिक्षण दलों में ‘ॎ नमेः’ के बाद
‘अिजते’ इतना और अिधक िलखना चािहए ॥६५-६६॥

भोजपत्र पर गोरोचन, कपूर, के िर एवं अगर से उक्त यन्त्त्र िलखकर ३ फदन पयगन्त्त (अिजता मन्त्त्र से) िविधवत् पूजन कर,
चौथे फदन फकसी श्रेष्ठ ब्राह्मण को भोजन कराने के बाद, इस यन्त्त्र को सुवणग िनर्णमत ताबीज में भर कर, अपनी भुजा पर धारण
करना चािहए । इस यन्त्त्र का ऐसा प्रभाव है फक राजा भी उस व्यिक्त को देखते है वि में ही जाता है । (इसके अिजता देवता
है) ॥६५-६८॥

(१३) अब सेवक को वि में करने का यन्त्त्र कहते हैं - चतुदल


ग कमल के भीतर (कर्णणका), भृत्य नाम एवं फिया (विय) िलखना
चािहए । तदनन्त्तर चारों दलों में माया बीज (ह्रीम) िलखना चािहए । साधक गोरोचन से भोज पत्र पर िलखकर इस यन्त्त्र को
दही में डाल देवे तो सेवक आज्ञाकारी हो जाता है । (इसके गौरी देवता है) ॥६८-६९॥

(१४) अब दुष्टों को वि में करने वाला यन्त्त्र कहते हैं - चतुरस्त्र के मध्य में माया बीज (ह्रीं) के भीतर (ह्र के बाद फकन्त्तु ई के
पहले ) साध्य का नाम िलखना चािहए । दुष्ट राजा को वि में करने के िलये भोजपत्र पर गोरोचन से चमेली की कलम द्वारा
इस यन्त्त्र को िलखना चािहए । उस दुष्ट व्यिक्त के परर की धूिल में, राई का चूणग िमलाकर, उसकी प्रितमा बनाकर, उस प्रितमा
के हृदय स्थान में उक्त मन्त्त्र को रखना चािहए ॥७०-७१॥

फिर उस प्रितमा का (त्रैलोलय मोहन गौरी मन्त्त्र से) पूजन कर उसे चूल्हे के पाद गुड देना चािहए । इसके बाद कृ ष्णपक्ष की
चतुदक्ष
ग ी ितिथ को बकरी के खून से िमिश्रत चरु से लाल पुष्प तथा घी से महाकाल एवं फदलपालों को बिल देनी चािहए । ऐसा
करने से दुष्ट राजा सद्येः विीभूत हो जाता है । (इसके गौरी देवता हैम) ॥७२-७३॥

(१५) दुभागग्यनािक तथा पित को वि में करने वाला लिलता यन्त्त्र - अब दुभागग्यनािक पित को वि में करने वाला, तस्त्रयों
को अिभमत िलदायक एवं सौभाग्यवधगक यन्त्त्र कहता हूँ । चतुभुगज कर्णणक सिहत अष्टदल कमल को िलखकर चतुभुगज के मध्य
में ३ मायाबीज (ह्रीम) िलखकर अपने पित का नाम िलखें, फिर ३ मायाबीजोम को िलखे । फदिाओम के चारो दलोम पर
तीन-तीन मायाबीज तथा कोणों के दलों पर १-१ माया बीज िलखें । यह यन्त्त्र िुलल पक्ष की त्रयोदिी ितिथ को भोजपत्र पर
गोरोचन, कस्तूरी एवं कुं कु म से अनार की कलम द्वारा िलखना चािहए ।

फिर राित्र में ७ फदन पयगन्त्त उत्तरािभमुख होकर लिलता मन्त्त्र से उसका पूजन करना चािहए । इसके बाद लािलता की
प्रसन्नाता हेतु एवं पुत्रवती सात िस्त्रयों को भी भोजन कराला चािहए । तदनन्त्तर उक्त यन्त्त्र को सोने, चाूँदी या ताूँबे की
ताबीज में डाल कर कण्ठ या भुजा में धारण करना चािहए । इस यन्त्त्र के धारण करने से िस्त्रयों को रुप, सौभाग्य एवं संपित्त
प्राप्त होती है तथा पित विवती हो जाता है । इस प्रकार का लिलता यन्त्त्र िस्त्रयों को अिभलिषत िल देने वाला कहा गया है
॥७४-७९॥

(१६) पित को वि में करने वाला यन्त्त्र - गोरोचन एवं कुं कु म से भोजपत्र पर चमेली की कलम से अष्टदल िलखना चािहए ।
फिर उसकी कर्णणका में ‘सा’ से संपुरटत पित का नाम तथा दलों पर माया बीज िलखना चािहए ॥८०॥

दो फदन तक िनरन्त्तर राित्र में माया बीज से इसका पूजनकर ३ िस्त्रयों को भोजन करावे । इस प्रकार बने श्रेष्ठ यन्त्त्र को धारण
करने से स्त्री का पित उसके वि में हो जाता है । (इसके गौरी देवता हैं) ॥८१॥

(१७) सौभाग्यप्रद एवं दुभागग्यनािक बीजमन्त्त्र - भृगु (स्), आकाि (ह), िविध (क), क्ष्मा (ल्) ख (ह) विहन (र्) इन वणो को
िािन्त्त (ई) इन्त्द ु अनुस्वार से युक्त करे इस प्रकार िनष्पन्न कू ट ‘सीं हीं कीं लीं हीं रीं’ इन ६ वणो को अष्टदल की कार्णणका में
तथा उसके प्रत्येक दलों पर भी िलखना चािहए ॥८२॥

भोजपत्र पर गोरोचन एवं चन्त्दन से चमेली की कलम द्वारा यह यन्त्त्र िलखना चािहए । तदनन्त्तर (सुन्त्दरी मन्त्त्र से) इस यन्त्त्र
की तीन फदन पयगन्त्त िविधवत् पूजा करनी चािहए । फिर सोने की ताबीज में इसे डालकर स्त्री अपने कण्ठ में तथा पुरुष अपनी
भुजा में धारण करे तो यह बीज यन्त्त्र सौभाग्य देता है और दुभागग्य का नाि करता है ( इस यन्त्त्र के सुन्त्दरी देवता हैं) ॥८२-
८४॥

(१८) अब आकषगण के िलये यन्त्त्र कहता हूँ -


अपने रक्त से िमिश्रत लाल चन्त्दन से भोजपत्र पर चतुदल
ग कमल का िनमागण करे । उसकी कर्णणका में साध्य का नाम िलखे
तथा चारों दलों में िोध बीज (हुूँ) िलखे ॥८४-८५॥

फिर (दक्षाकर रुर मन्त्त्र से ) उसकी पूजा कर उसे घी में डाल देवे तो यह साध्य को अवश्य आकृ ष्ट करता है (इसके रुर देवता
हैं) ॥८४-८५॥

(१९) अब आकषगणकारक ित्रपुरा यन्त्त्र कहते है - षट् कोण के भीतर वाग् बीज (ऐं) एवं कामबीज (ललीं) के बीच में साध्य का
नाम तथा षट्कोणों में साध्य का नाम तथा षट् कोणों में औ एवं िवसगग सिहत भृगु (सौेः) िलखना चािहए ।
उक्त यन्त्त्र भोज पत्र पर गोरोचन से िलखि, ित्रपुरा बाला अथवा ित्रपुरा भैरवी मन्त्त्र (र० ८. २-३) से इसका पूजन करने के
बाद इसे घी में डाल देना चािहए । ऐसा करने एक सप्ताह के भीतर अभीष्ट व्यिक्त आकर्णषत हो जाता है ॥८६-८७॥

(२०) अब मुखमुरण यन्त्त्र का िवधान करते हैं -


ििला पर हल्दी से ित्रकोणगर्णभत अष्टदल बनाना चािहए । ित्रकोण के भीतर साध्य नाम तथा ओठो दलों में भूबीज (ग्लौं)
िलखना चािहए ॥८८॥

फिर भूबीज से उसका पूजन कर फकसी दूसरी ििला से उसे ढूँक कर भूिम में गाड देना चािहए । ऐसा करने से वाद-िववाद में
प्रितवाफद का मुख बन्त्द हो जाता है । (भूिम देवता हैं) ॥८९॥

(२१) अब अििभयहरण यन्त्त्र िलखने का िवधान करते हैं -


वृत्त के भीतर नाम कमग फिया (यथा देवदत्तस्य अििभयं हर) िलख कर वृत्त के बाहर चारों ओर चार ‘वकार’ िलखना चािहए ।
फिर इस यन्त्त्र को चतुरस्त्र से वेिष्टत कर देना चािहए ॥९०-९१॥

भोजपत्र पर गोरोचनं एवं चन्त्दन से उक्त यन्त्त्र को िलख कर (मातृका मन्त्त्र से) पूजा कर ित्रलौह (सोने,चाूँदी एवं ताूँबे) से बने
ताबीज में रखकर भुजा पर धारण करने से न के वल घर की प्रत्युत् अन्त्य स्थान में भी लगी अिि का भय दूर हो जाता है ।
(मातृका देवता हैं) ॥९१-९२॥

(२२) अब दो व्यिक्तयों में परस्पर िवद्वेषण के हेतु यन्त्त्र कहते हैं - भोजपत्र पर ित्रु के खून से, कौवे के पंख की लेखनी बनाकर
चतुदलग िलखे । फिर उसके भीतर तथा चतुदल
ग ों में मायाबीज से सम्पुरटत अकार अथागत (ह्रीं अं ह्रीं) िलखकर साध्य नाम तथा
कमग (अमुकौ िवद्वेषय) िलखना चािहए ।
फिर राित्र में (मायाबीज) से इसका िविधवत् पूजन कर, बकरी के खून से िमिश्रत भात का भोग लगाकर, एक स्त्री को भोजन
कराना चािहए । फिर श्मिान, िनजगन स्थान अथवा ििवालय में इसे गाड देवे तो िनेःसन्त्दह
े उन दोनो िमत्र व्यिक्तयों में िीघ्र
ही परस्पर िवद्वेष हो जाता है ॥९३-९६॥

(२३) यहाूँ तक िवद्वेषण की िविध कही गई । अब मारण (और उिाटन) यन्त्त्र कहता हूँ -
अष्टदल के भीतर वमग और अस्त्र अथागत् (हुं िट) से संपुरटत साध्य नाम िलखना चािहए । फिर चारों फदिाओं के चारोम दलों
में वमग (हुं) तथा कोणोम के चारों दलों मे अस्त्र (िट्) िलखना चािहए । फिर अष्टदल को वृत्त से वेिष्टत कर उसे वमग (हुं) िलख
कर वेिष्टत कर देना चािहए ॥९६-९८॥

यह यन्त्त्र कौवे के पंख की लेखनी से तथा िचअता के अङ्गार भेंड के खून एवं िवष िमिश्रत स्याही से नर-कपाल पर िलखना
चािहए । फिर अस्त्र बीज (हुं) से इसका पूजन कर कपाल को भस्म में रखकर उसके ऊपर अिि प्रज्विलत कर देनी चािहए ।
इस प्रकार २० फदन तक थोडे-थोडे इन्त्धन से उसे थोडा-थोडा जलाते रहना चािहए । २० वें फदन उसे संपूणग जला देना चािहए
। ऐसा करने से ित्रु भी बीज फदन के भीतर मर जाता है ॥९८-१००॥

(२४) अब उिाटन यन्त्त्र का प्रकार कहते हैं -


कृ ष्ण पक्ष की चतुदि
ग ी के फदन राित्र में, साधक लाल वस्त्र पहन कर, मस्तक में लाल चन्त्दन लगाकर तथा गले में लाल पुप्पों
की माला धारण कर, भोजपत्र पर उल्लू और कौवे के पंख के खून से चतुदल
ग पद्म के भीतर साध्य नाम तथा चारों दलों में
िवसगग सिहत मारुत (येः) िलखे ॥१०१-१०२॥

इस यन्त्त्र को बना कर लाल चन्त्दन और लाल िू लों से (वायुबीज यं से) प्रितफदन उसका पूजन करे और प्रितफदन एक-एक
कु मारी को भोजन करा कर उसे दिक्षणा भी देता रहे । इस प्रकार िनरन्त्तर २० फदन पयगन्त्त पूजन तथा कु मारी को भोजन करा
कर, अिन्त्तम फदन उस यन्त्त्र के टुकडे-टुकडे कर, जूठे भात में िमलाकर कौओं को िखला दे तो ित्रु का उिाटन हो जाता है
॥१०२-१०४॥

(२५) अब िािन्त्तकारक यन्त्त्र कहते हैं -


फकसी िुभ मुहतग में गोरोचन, कस्तूरी, कपूर और कुं कु म से चमेली की कलम से भोजपत्र पर यह यन्त्त्र इस प्रकार िलखे - पूवग से
पिश्चम तथा दिक्षण से उत्तर ८, ८ रे खाएं बनानी चािहए । ऐसा करने से ४९ कोष्ठक बनते हैं । फिर ईिान कोण से आरम्भ
कर पुनेः ईिान पयगन्त्त कोष्ठकों में अकार से ले कर जकार पयगन्त्त सानुस्वार चौबीस वणों को िलखना चािहए ॥१०५-१०७॥

फिर उसके नीचे वाली पंिक्तयों के कोष्ठकों में अनुस्वार सिहत झकार से भकार पयगन्त्त १६ वणों को िलखे तथा उससे नीचे की
पंिक्तयो के कोष्ठकों में अनुस्वार सिहत मकार से सकार पयगन्त्त ८ वणों को िलखना चािहए । तदनन्त्तर िेष मध्य कोष्टक में
सानुस्वार हकार वणग िलखना चािहए । पुनेः रे खाओं के अग्रभाग में ३२ ित्रिूल बनाने चािहए । फिर पूवग और पिश्चम फदिा के
ित्रिूलों में सात-सात मायाबीज (ह्रीं) िलखना चािहए ॥१०८-१०९॥

इस प्रकार यन्त्त्र का िनमागण कर साधक तीन फदन पयगन्त्त चण्डीपाठ और ब्राह्मण भोजन कराते हुये पर ियन करे तथा प्रितफदन
उक्त मन्त्त्र का पूजन करता रहे । फिर लौहत्रये (सोना, चाूँदी या ताूँबे) से बने ताबीज में इस यन्त्त्र को रखकर भुजा या गले में
धारण करे तो सभी कार के उप्व, ललेि एवं परकृ त अिभचार, कृ त्या आफद िान्त्त हो जाते हैं । (इसके मातृका देवता हैं)
॥१०५-१११॥

(२६) अब िाफकनीिनवतगक यन्त्त्र के िनमागण का प्रकार कहते हैं -


अष्टदल पद्म के भीतर साध्य नाम िजस पर िाफकनी का उपरव हो तथा दलों पर िवसगग युक्त सकार (सेः) पूवोक्त िविध से
भोजपत्र पर गोरोचन, कस्तूरी, कपूर, के िर और चन्त्दन से चमेली की कलम द्वारा िलखना चािहए ॥११२॥

फिर पूवोक्त िविध से चण्डीपाठ, ब्राह्मण भोजन तथा भूिम पर ियन करते हुये िविधवत् यन्त्त्र का पूजन करते रहना चािहए ।
तीन फदन पयगन्त्त िलस िविध का संपादन करे । फिर िििु के गले में अथवा उसकी भुजा में उक्त यन्त्त्र को बाूँधना चािहए । इस
यन्त्त्र के प्रभाव से िाफकनी, भूत, वेताल और बालग्रहाफद सारी बाधायें दूर हो जाती हैं ॥११३॥
(२७) अब ज्वरिनवगगक यन्त्त्र कहते हैं -
कृ ष्णपक्ष की अष्टमी वा चतुदि
ग ी ितिथ में श्मिान के वस्त्र पर धतूरे के रस से परस्पर िवरुि फदिा में दो चतुभुगज िलख कर
उनके आठ कोणों में तथा चारों फदिा के कोणों एवं उसके दोनो ओर कु ल सोलह ‘रं ’ िलख कर, मध्य में रं वेिष्टत साध्य नाम
िलखे । तदनन्त्तर (अिि बीज से) उसका पूजन कर श्मिान में उसे गाड देवे तो ज्वर िान्त्त हो जाता है । (इसके अिि देवता हैं)
॥११४-११५॥

(२८) अब सपगभयनािक यन्त्त्र का िवधान करते हैं -


भोजपत्र पर गोरोचन आफद सुगिन्त्धत अष्टगन्त्ध से अष्टदल िलखना चािहए । उसके मध्य में साध्य नाम तथा दलों पर अजपा
मन्त्त्र (हंसेः) िलखना चािहए ॥११६-११७॥

फिर (अजपा मन्त्त्र से ) इसका िविधवत् पूजन कर भुजा पर धारण करे तों यह यन्त्त्र सपग से होने वाली बाधा को दूर कर देता
है । (इसके हंस देवता हैं) ॥११६-११७॥

(२९) अब बन्त्दीमोचन यन्त्त्र कहते हैं -


गोरोचन, चन्त्दन , कपूर एवं के िर से षोडिदल कमल िलखकर दलों में सोलह स्वरों को तथा कर्णणका में मायबीज (ह्रीं) िलखे
। फिर उसके ऊपर बित्तस दलों का पद्म बनाकर ककार से सकार पयगन्त्त ३२ व्यञ्जन वणों को िलखना चािहए । फिर इस पद्म
के चारों ओर बने भूपुर के भीतर चारों फदिाओं में िमिेः ह और चारों कोणों में क्ष िलखना चािहए ।
इस यन्त्त्र को काूँसे की थाली पर िलखना चािहए तथा (मातृका मन्त्त्र) से ७ फदन पयगन्त्त पूजन करे अथवा भोजपत्र पर िलखकर
भुजा पर धारन करे तो बन्त्दी कारागार आफद बन्त्धन से िीघ्र मुक्त हो जाता है ॥११८-१२०॥

अब यन्त्त्रिसिि की उपासना िविध कहते हैं -


पूवोक्त समस्त यन्त्त्रों की िसिि चाहने वाले साधकों को मातृको देवी या भूत िलिप की उपासना करनी चािहए (र० २०. १५)
अथवा यन्त्त्र िलखते समय स्वणागकषगण भैरव की उपासना करनी चािहए ॥१२१-१२२॥

अब प्रकरण प्राप्त स्वणागकषगण भैरव मन्त्त्र का उिार कहते हैं -


प्रणव (ॎ), वाग्भव (ऐ), फिर दीघगत्रय सिहत कामबीज (ललां ललीं ललूं), तथा दीघगत्रय सिहत ििक्तबीज (ह्रां ह्रीं ह्रूँ), फिर
सगी िवसगग सिहत भृगु (सेः), इन्त्द ु सिहत भया (वं), फिर ‘आपदुिारणाय’, ‘अजामल’, ‘ब्िाय’, फिर चतुथ्व्यगन्त्त लोके श्वर
(लोके श्वराय), ‘स्वणागकणगणभैर’, फिर दीघगबाल (वा), फिर प्रभञ्जन (य), फिर ‘मम दारररय िवद्वेषणाय’ के बाद प्रणव (ॎ),
रमा (श्रीं), फिर चतुथ्व्यगन्त्त महाभैरव (महाभैरवाय) और अन्त्त में हृदय (नमेः) जोडने से ५८ अक्षरों का स्वणागकषगण भैरव
िनष्पन्न होता है ॥१२२-१२५॥

िवमिग - मन्त्त्र का स्वरुप - ॎ ऐं ललां ललीं ललूं ह्रां ह्रीं ह्रूम सेः वं आपदुिारणाय अजामलबधाय लोके श्वराय
स्वणागकषगणभैरवाय मम दारररयिवद्वेषणाय ॎ श्रीं महाभैरवाय नमेः (५८) ॥१२२-१२५॥

िविनयोग एवं न्त्यास - इस मन्त्त्र के ब्रह्मा ऋिष हैं, पंिक्त छन्त्द है तथा स्वणगकषगण भैरव देवता हैं । मन्त्त्र के िमिेः ९, ८, १२,
९, १०, ॎ १० वणों से षडङ्गन्त्यास कहा गया है अथवा षड् दीघग सिहत कामबीज (ललीं) और ििक्त बीज (ह्रीं) से
षडङ्गन्त्यास करना चािहए ॥१२५-१२७॥

िविनयोग - अस्य श्रीस्वणगकषगभैरवमन्त्त्रस्य ब्रह्माऋिषेः पंिक्तच्छन्त्देः स्वणागकषगणभैरवो देवताऽभीष्टिसियथे जपे िविनयोगेः ।


षडङ्गन्त्यास - ॎ ऐं ललां ललूं ह्रां ह्रीं ह्रूम सेः हृदयाय नमेः,
वं आपदुिारणाय ििरसे स्वाहा, अजामलविाय लोके श्वराय ििखायै वषट् ,
स्वणागकषगण भैरवाय कवचाय हुम्, मम दारररयिवद्वेषणाय नेत्रत्रयाय वौषट् ,
ॎ श्रीं महाभैरवाय नमेः अस्त्राय िट् ,

ष‍ङ्गन्त्यास की दूसरी िविध - ललां ह्रां हृदयाय नमेः,


ललीं ह्रीं ििरसे स्वाहा, ललूं ह्रूं ििखायै वषट् ,
ललैं ह्रें कवचाय हुम् ललौं ह्रौं नेत्रत्रयाय वौषट्,
ललाेः ह्रेः अस्त्राय िट् -१२७॥

अब स्वगीकषगण भैरव का ध्यान कहते हैं -


पाररजात वृक्षों के वन में िस्थत मािणलय िनर्णमत मण्डप में रत्न तसहासन पर िवराजमान स्वणग प्रदान करने वाले स्वणग भैरव
का ध्यान करना चािहए ॥१२७॥

अपने चारों हाथों में िमिेः गाङ्गेय पात्र (स्वणगपात्र) डमरु, ित्रिूल और वर धारण फकये हुये, ित्रनेत्र, तत्पसुवणग जैसी आभा
वाले, अपनी देवी के साथ िवराजमान स्वनागकषगण भैरव का मैम आश्रय लेता हूँ ॥१२८॥

पुरश्चरण - िवद्वान् साधक उक्त स्वणागकषगण मन्त्त्र का एक लाख जप करे । फिर खीर से दिांि होम करे । िैव पीठ पर अङ्ग
पूजा, फदलपालों और उनके आयुधों के साथ आवरण पूजा करे ॥१२९॥

िवमिग - यन्त्त्र िनमागण िविध - स्वणागकषगण भैरव के पूजन के िलये षट् कोण कर्णणका तथा भूपुर सिहत यन्त्त्र का िनमागण करना
चािहए ।

पीठ-पूजािविध - सवगप्रथम २०. १२७-१२८ में वर्णणत स्वणागकषगण भैरव का ध्यान कर मानसोपचार से पूजन कर िविधवत्
अघ्नयगस्थापन कर ‘ॎ आधारिक्तये नमेः’ से ‘ह्रीं ज्ञानात्मने नमेः’ से ‘ह्रीं ज्ञानात्मने नमेः’ पयगन्त्त सामान्त्य िविध से पीठ
देवताओम का पूजन कर ‘वामा’ आफद पीठ ििक्तयों का पूजन करना चािहए । (र० १६. २२-२६) इसके बाद ‘ॎ नमो
भगवते सकलगुणात्मकििक्तयुक्तायानन्त्ताय योगपीठात्मने नमेः’ इस पीठ मन्त्त्र से आसन देकर मूलमन्त्त्र से मूर्णत स्थािपत कर
ध्यान आवाहनाफद उपचारों से पूजन कर पुष्पाञ्जिल समपगण पयगन्त्त सारी िविध संपादन करनी चािहए ।

अब आवरण पूजा का िवधान कहते हैं - सवगप्रथम कर्णणका के आिेयाफद कोणोम में मध्य में तथा चतुर्ददक्षु में षडङ्गपूजा करनी
चािहए । यथा -
ललां ह्रां हृदयाय नमेः ललीं ह्रीं ििरसे स्वाहा,
ललूं ह्रू ििखायै वषट् ललैं ह्रैम कवचाय हुम्
ललौं ह्रौं नेत्रत्रयाय वौषट्, ललेः ह्रेः अस्त्राय िट्

पश्चात भूपुर के पूवागफद फदिाओं में इन्त्राफद लोकपालों की िनम्न रीित से पूजा करनी चािहए । यथा - ॎ लं इन्त्राय नमेः
पूवे
ॎ रं अिये नमेः आिेय,े ॎ लं इन्त्राय नमेः पूवे
ॎ क्षं िनऋत्यये नमेः नैऋत्ये, ॎ मं यमाय नमेः दिक्षणे,
ॎ यं वायवे नमेः वायव्ये, ॎ वं वरुणाय नमेः पिश्चमे
ॎ हं ईिानाय नमेः ऐिान्त्ये, ॎ सं सोमाय नमेः उत्तरे
ॎ ह्रीं अनन्त्ताय नमेः अधेः ।

फिर भूपुर के बाहर पूवागफद फदिाओं में फदलपालोम के आयुधों की पूजा करनी चािहए - यथा - ॎ वं वज्राय नमेः, ॎ िं
िक्ततये नमेः,
ॎ दं दण्डाय नमेः, ॎ खं खड् गाय नमेः, ॎ पां पािाय नमेः,
ॎ अं अंकुिाय नमेः, ॎ गं गदायै नमेः, ॎ िूं िूलाय नमेः
ॎ चं चिाय नमेः ॎ पं पद्माय नमेः

इस प्रकार आवरन पूजा कर पुनेः धूप, दीपाफद उपचारों से स्वणागकषगण भैरव की िविधवत् पूजा कर पुष्पाञ्जिल समर्णपत करनी
चािहए ॥१२९॥

उक्त िविध से जो साधक ४९ फदन पयगन्त्त ३०० की संख्या में जप करता है उसकी दरररता दूर जो जाती है तथा वह कु बेर
तुल्य वैभविाली बन जाता है ॥१३०॥

जप आफद के द्वारा यन्त्त्रों के िसि जो जाने पर यन्त्त्रों से भी िसि प्राप्त हो जाती है । भैरवाकषगण यन्त्त्र के जप के प्रभाव से घर
में सुवणग की वृिि होती है तथा ित्रु से कभी पराभव नहीं प्राप्त होता ॥१३१॥

एकतवि तरङ्ग
अररत्र
यहाूँ तक मन्त्त्र समूहों का तथा कामना िविेष में प्रयुक्त फकये जाने वाले मन्त्त्रों का िनरुपण कर ग्रथकार सवगदव
े साधारण पूजा
िवधान कहने का उपिम करते हैं । अब मैं देवताओं की सामान्त्य रुप से की जाने वाली पूजा िविध को कहता हूँ -
बुििमान साधक ब्राह्म मुहतग में उठ कर िौचाफद फिया से िनवृत्त होकर िुि वस्त्र धारण कर, मन्त्त्र स्नान करके देव पूजा गृह में
प्रवेष करे और देवतागार का सम्माजगन आफद कायग करे । तदनन्त्तर मङ्गला आरती करके िनमागल्य को हटा कर दूर करे । फिर
देवता को पुष्पाञ्जिल समर्णपत कर उन्त्हें दन्त्तधावन तथा आचमनाथग जल प्रदान करे ॥१-३॥

फिर अपने इष्टदेव को नमस्कार कर िुि आसन पर बैठकर अपने गुरु का स्मरण करे । प्रसन्नता की मुरा में ििरेःस्थ श्वेत
कमल पर आसीन दो भूजा और दो नेत्रों ‘अहं ब्रह्मािस्म’ इस प्रकार की भावना में लीन, िनत्यमुक्त सवगथा िोकरिहत गुरुदेव
का स्मरण कर पुनेः उनके स्वरुप में अपनी एकता की भावना कर उनका पूजन करे ॥४-५॥

तदनन्त्तर - त्रैलोलयचैतन्त्याम्याफददेव श्रीनाथ िवष्णो भवदाज्ञयैव ।


प्रातेः समुत्थाय तविप्रयाथग संसारयात्रामनुवतगियष्ये ॥
जानािम धमग न च मे प्रवृित्तजागनाम्यधमग न च मे िनवृित्तेः ।
के नािप देवेन हृफदिस्थतेन यथािनयुक्तोऽिस्म तथा करोिम ॥

इन दो श्लोकों से अपने इष्टदेव की प्राथगना करे । प्राथगना में िजसके इष्टदेव िवष्णु हों उसे इसी प्रकार की प्राथगना करनी चािहए
॥६-८॥

फकन्त्तु ििवोपासक को ‘श्रीनाथिवष्णो" की जगह ‘िवश्वेि िम्भो भवदाज्ञयैव’ दुगोपासक को ‘भगवािन दुगे भवदाज्ञयैव’ इसी
प्रकार छन्त्दोनुकूल ऊह कर अपने इष्टदेव का संबुियन्त्त तत्त्त्पदों का उिारण कर प्राथागन करनी चािहए ॥८॥
इसके बाद अपने इष्टदेव के नाम और गुणों का स्मरण करते हुये स्नानाथग नदी, कू प, अथवा तडागाफद में जाना चािहये ।
िवद्वानों ने आभ्यन्त्तर और बाह्य भेद से स्नान दो भेद कहे हैं ॥९॥

प्रथम आभ्यन्त्तर स्नान का िवधान कहते हैं - करोडो सूयग के समान तेजस्वी अपने फदव्य आभूषणों एवं आयुधों को धारण फकये
ििरेःस्थ सहस्त्रदल पर आसीन अपने इष्टदेव का स्मरण करते हुये ब्रह्मरन्त्र से आती हुई उनके चरणोदक की धारा से अपने
िरीर के समस्त पापों को धो कर बहा देना और पाप रिहत हो जाना यह आन्त्तर स्नान कहा जाता है ॥१०-११॥

इस प्रकार आम्यन्त्तर स्नान कर वैफदक मागग से अपनी अपनी िाखा के अनुसार बाह्य स्नान करे । फिर जल में अघमषगण सूक्त
का जप करे ॥१२॥

िवमिग - वैफदक िाखाओं के अनेक भेद होने से उस प्रकार के स्नान के अनेक भेद हैं । अतेः ग्रन्त्थ िवस्तार के भय से उसका
िनदेि आवश्यक नहीं है ।

संकल्प - जल में तीथागवाहन, मृित्तका प्राथगना, मृित्तका द्वारा अङ्ग लेपन ‘ॎ आपो िहष्ठा मयो भुवेः’ इत्याफद मन्त्त्रों से जल
द्वारा ििरेः प्रोक्षण, तदनन्त्तर सूयागिभमुख नािभ मात्र जल में स्नान, पुनेः ‘ॎ िचत्पितमाग पुनातु’ इत्याफद मन्त्त्रो से िरीर का
पिवत्रीकरण करने के पश्चात् अघमषगण सूक्त का जप करना चािहये ।

अघमषगण का िविनयोग - ॎ अघमषगणसूक्तस्य अघमषगणऋिषनुष्टुप्छन्त्देः भाववृतो देवता अघमषगणे िविनयोगेः ।

अघमषगण सूक्त - यथा - ॎ ऋतं च सत्य्म चाभीिात्तपसोध्यजायत ततो रात्र्यजायत, ततेः समुरो अणगवेः समुरादणगवादिध
संवत्सरो अजायत, अहोरात्रािण िवद्वधिद्वश्वस्थ िमषतो विी सूयागिन्त्रमसौ धाता यथापूवगमकल्पयत् फदवञ्ज
पृिथवीञ्चान्त्तररक्षमथो स्वेः ॥१२॥

अघमषगण सूक्त के बाद मन्त्त्र स्नान करना चािहये वह इस प्रकार है - प्रथम प्राणायाम करे फिर मूल मन्त्त्र से षडङ्गन्त्यास करे
॥१३॥

फिर अंकुि मुरा फदखा कर िनम्न तीन मन्त्त्रों से जल में तीथों का आवाहन करना चािहये -
ब्रह्माण्डोदरतीथागिन करै ेः स्पृष्टािन ते रवे ।
तेन सत्येन मे देव तीथं देिह फदवाकार ॥
गङ्गे च यमुने चैव गोदावरर सरस्वित ।
नमगदे िसन्त्धुकावेरर जलेिस्मन्त्सिन्नतध कु रु ।
आवाहयािम त्वा देिव स्नानाथगिमहसुन्त्दरर ।
एिह गङ्गे नमस्तुभ्यं सवगतीथगसमिन्त्वते ॥१४-१७॥

तत्पश्चात् ‘वं’ इस सुधाबीज को पढकर उस तीथगजल में िमला देना चािहये । तदनन्त्तर उस जले में अिि, सूयग और ग्लौं अथागत्
चन्त्रमण्डलों का उस जल में ध्यान करना चािहये । फिर ‘वं’ इस मन्त्त्र को १२ बार पढकर उस जल में िमलाकर कवच (हुं) इस
मन्त्त्र से जल को गोठं देना चािहये, तदनन्त्तर अस्त्र मन्त्त्र (िट्) इस मन्त्त्र से जल की रक्षा करनी चािहये ॥१८-१९॥

फिर मूल मन्त्त्र से ११ बार उस जल का अिभमन्त्त्रण कर नमन करे और ‘आधारेः’ इस वक्ष्यमाण मन्त्त्र से जल देवता की आकॄ ित
का ध्यान कर उन्त्हें प्रणाम करना चािहये ॥२०-२१॥
फिर उस जल में देवताओं का स्मरण करते हुये मूल मन्त्त्र से स्नान करना चािहये । तदनन्त्तर जल से ऊपर आ कर कलि मुरा
फदखाकर ७ बार अपने ििर पर अिभषेक करना चािहये ॥२२॥

िवमिग - कलिमुरा - यथा - हस्तद्वयेन सावकििकमुिष्टकरेण कु म्भमुरा ॥


दोनों हाथ की मुट्ठी में अवकाि रखकर एक में िमलाने से कलि मुरा िनष्पन्न होती है ॥२२॥

फिर मूल मन्त्त्र के साथ िनम्न चार मन्त्त्रों को पढकर अपने िरीर पर जल का अिभषेक करना चािहये । आचायग िंकर द्वारा कहे
गए इन चारों मन्त्त्रों को अब कहते हैं - िससृक्षोर्णनिखलं िवश्वं मुहुेः िुिं प्रजापतेेः ।
मातरेः सवगभूतानामापो देव्येः पुनन्त्तु माम् ॥१॥
अलक्ष्मीं मलरुण्म या सवगभूतेषु संिस्थताम् ।
क्षालयिन्त्त िल्नजस्पिागदापो देव्येः पुनन्त्तु माम् ॥२॥
यन्त्मे के षेषु दौभ्यागग्यं सीमन्त्ते यि मूििग न ।
ललाटॆ कणगयोरक्ष्णोरापस्तद् घ्नन्त्तु वो नमेः ॥३॥

आयुरारोग्यमैश्वयगमररपक्षक्षयेः सुखम् ।
सन्त्तोषेः क्षािन्त्तरािस्तलयं िवद्या भवतु वो नमेः ॥४॥ ॥२३-२७॥

फिर ब्राह्मण का चरणोदक िािलग्रामििला चरणामृत पीकर िंख िस्थत जल को िािलग्राम ििला के चारों ओर ३ बार
घुमाकर अपने ििर को अिभिषक्त करना चािहये ॥२८॥

फिर देवमनुष्य एवं िपतरों का संक्षेप में तपगण करना चािहये । फिर स्नान फकये गये वस्त्र का प्रक्षालन कर उसे िनचोङ्ग ल्कर
रख देना चािहए और दोनों घृटनों तक धौत वस्त्र धारण कर पश्चात् उत्तरीय वस्त्र धारण करना चािहये ॥२९॥

िवमिग - संक्षेप में तपगण िविध - नािभमात्र जल में खडे हो कर ‘ॎ ब्रह्मादयो देवास्तृप्यन्त्ताम्’ से देवताओं का, ‘गौतमादयो
ऋषयस्तृप्यन्त्ताम्’ से एक एक अञ्जिल जल देकर, ‘सनकादयेः मनुष्यास्तृप्यन्त्ताम्’ इस मन्त्त्र से दो अञ्जिल जल प्रदान कर
देवता, ऋिष और मनुष्यों का तपगण करे । फिर ‘कव्यवाडनलादयो देविपतरस्तृप्यन्त्ताम्’ अमुक गोत्राेः
अस्माित्पतािपतामहप्रिपतामहाेः सपत्नीकास्तृप्यन्त्ताम् अमुकगोत्राेः अस्मन्त्मातामह-प्रमातामह-वृिप्रमातामहाेः सपत्नीका
तृप्यन्त्ताम् - से देव िपतरों एवं स्विपतरों को तीन तीन अञ्जिल जल प्रदान कर -
‘आब्रह्यस्तम्बपयगन्त्तं देवर्णषिपतृमानवाेः ।
तृप्यन्त्तु िपतरेः सवे मातृमातामहादयेः ॥

श्लोक से समस्त िपतरों को तीन तीन अञ्जिल जल प्रदान करे । इस प्रका संक्षेप में िपतृतपगण िविध कही गई ॥२९॥

यफद तीथग न िमल सके तो घर पर ही गमग जल से स्नान करना चािहये । घर पर स्नान करते समय यथोिचत स्वल्प मन्त्त्र का ही
प्रयोग करना चािहये तथा हाथ में जल लेकर अघमषगण मन्त्त्र पढना चािहये (र० २१. १२) ज्वराफद रोगों के कारण स्नान
करन में असमथग होने पर भस्म अथवा गोधूिल से ही स्नान कर लेना चािहये ॥३०-३१॥

तदनन्त्तर बुििमान साधक आसन पर बैठकर आचमन करे , फिर के श्वर आफद १२ नामों से िरीर के १२ अङ्गो पर ितलक
लगावे । ललाट, उदर, हृदय, कण्ठ, दिक्षणपाश्वे, दािहना कन्त्धा, वामपाश्वग, बाया कन्त्धा, दािहना कान, वाूँया कान पीठ एवं
ककु द् - ये १२ अङ्ग ितलक लगाने के िलये कहे गये हैं । ललाट पर गदा, हृदय पर खड् ग दोनों भुजाओं पर िंख एवं चि,
ििर पर धनुष बाण की आकृ ित इस प्रकार वैष्णवों को ितलक लगाने का िवधान कहा गया है ॥३२-३४॥
िैवों के ित्रपुण्ड लगाने का िवधान इस प्रकार है - ‘अििररित भस्म, वायुररित भस्म, जलिमित भस्म, स्थलिमित भस्म,
व्योमेित भस्म सवं ह वा इदं भस्मम् एतािन चक्षूंिष तस्माद् व्रतमेतत्पािुपतं यद् भस्मनाङ्गिन संस्पृिेत्’ इस मन्त्त्र से अििहोत्र
की भस्म लेकर ‘ॎ त्र्यम्बकं यजामहे सुगतन्त्ध पुिष्टवधगनम् ।
उवागरुकिमव बन्त्धनान्त्मृत्योमुगक्षीय मामृतात्’-
इस मन्त्त्रसे अिभमिन्त्त्रत करे । पश्चात् ‘तत्पुरुषाय नमेः’ इस मन्त्त्र से मस्तक में,’ अघोराय नमेः’ इस मन्त्त्र से दािहने कन्त्धे में,
‘सद्योजाताय नमेः’ इस मन्त्त्र से बायें कन्त्धे में ’, वामदेवाय नमेः’ इस मन्त्त्र से जथर में’, ‘ईिानाय नमेः’ इस मन्त्त्र से वक्षेःस्थल
में ित्रपुण्ड लगाये अथवा उपयुगक्त नामों के स्थान पर तत्पुरुषाय िवद्महे अधोरे म्येः सद्योजातं प्रपद्यािम० वामदेवाय नमेः०,
ईिानेः सवगिवद्यानाम् ० इन पाूँच ऋचाओम से उपयुगक्त पाूँचों स्थानोम में ित्रपुण्ड लगावे । फिर अपनी िाखा के अनुसार
वैफदकसन्त्ध्या करके मन्त्त्रसन्त्ध्या करनी चािहये ॥३५-३७॥

अब मन्त्त्र संध्या की िविध कहते है -


प्राणायाम एवं षडङ्गन्त्यास कर हाथ में जल लेकर मूल मन्त्त्र का जप करते हुए तीन बार आचमन करना चािहये । पुनेः
दािहने हाथ से जल लेकर बायें हाथ में रखकर उसे दािहने हाथ से ढककर, उससे िगरते हुये जल िबन्त्दओं
ु से मूल मन्त्त्र पढते
हुये ७ बार िरीर का माजगन कर िेष जल को पुनेः दािहने हाथ में लेकर उसे नािसका के पास ले जाना चािहये ॥३८-४०॥

पश्चात् ईडा नाडी से उसे भीतर खींच कर उसके द्वारा देहगत पापों को धो कर कृ ष्णवणग पाप पुरुष के साथ िपङ्गला द्वारा
िनकलने की भावना कर अपने सामने किल्पत वज्र ििला पर ‘िट् ’ इस अस्त्र मन्त्त्र से िें क देना चािहये । इस प्रकार से फकया
गया अघमषगण साधक के सारे सिञ्चत पापों को दूर कर देता है ॥४१-४२॥

इतना कर लेने के पश्चात् अञ्ज्चिल में जल ले कर मूल मन्त्त्र साथ षोडिाणग मन्त्त्र का उिारण कर अघ्नयग देना चािहये ।
‘रिवमण्डल्संस्थाय देवायाध्यं कल्पयािम’ यह षोडिाक्षर मन्त्त्र है ॥४३-४४॥

अघ्नयगदान के पश्चात् साधक अपने इष्टदेव का सूयगमण्डल में एकाग्रिचत्त से ध्यान कर गायत्री मन्त्त्र तथा मूल मन्त्त्र का एक सौ
आठ बार जप करे और २८ बार जल से तपगण करे । इस प्रकार भगवान् सूयग को अघ्नयग देने के बाद संहारमुरा से समस्त तीथो
का िवसजगन कर सूयगदव े एवं लोकपालों को प्रणाम कर अपने इष्टदेव की स्तुित करे । पश्चात् यज्ञिाला में जा कर पैर धोकर
आचमन करे । फिर सिविध गाहगपत्य अिि में होम कर सभी अिियों का उपस्थान करे , और देव मिन्त्रर में जाकर यथािविध
आचमन है करे ॥४५-४८॥

अब आचमन का प्रकार कहते हैं -


वैष्णव आचमन िविध - ॎ के िवाय नमेः, ॎ नारायणाय नमेः, ॎ माधवाय नमेः’ - इन तीन मन्त्त्रों से हाथ का प्रक्षालन कर
‘मधुसूदनाय नमेः’, ित्रिविमाय नमेः’ - इन दो मन्त्त्रों से ओष्ठ प्रक्षालन करे । फिर ‘वामनाय नमेः, श्रीधराय नमेः’ - इन दो
मन्त्त्रों से मुख, फिर ‘हृषीके िाय नमेः’ से दािहना हाथ, फिर ‘पद्मनाभाय नमेः’ इस मन्त्त्र से पादप्रक्षालन करना चािहये ॥४९-
५०॥

फिर ‘दामोदराय नमेः’ से मस्तक का प्रोक्षण कर संकषगणाफद के चतुथ्व्यगन्त्त रुपों के प्रारम्भ में वेदाफद (ॎ) तथ अन्त्त में ‘नमेः’
लगाकर हाथ की अङ् िगिलयों से मुख आफद अङ्गो पर िमिेः इस प्रकार न्त्यास करना चािहये ।

‘ॎ संकषगणाय नमेः’ से मुख पर, ‘ॎ वासुदव


े ाय नमेः, ॎ प्रद्युम्नाय नमेः’ से दोनो नािसका पर, ‘ॎ अिनरुिाय नमेः, ॎ
पुरुषोत्तमय नमेः’ से दोनो नेत्रों पर, ‘ॎ अधोक्षजाय नमेः ॎ नृतसहाय नमेः’ से दोनों कानों पर, ‘ॎ अच्युताय नमेः’ से नािभ
पर, ‘ॎ जनादगनाय नमेः’ से हृदय पर, ‘ॎ उपेन्त्राय नमेः’ से ििर पर तथा ‘ॎ हरये नमेः ॎ िवष्णवे नमेः’ से दोनों कन्त्धों पर
न्त्यास करना चािहये । यह वैष्णव आचमन की िविध है ॥५१-५४॥

के िवाफद चतुथ्व्यगन्त्त नामों के प्रारम्भ में प्रणव तथा अन्त्त में नमेः लगाकर मुख नािसका पर प्रदेििनी से, नेत्र एवं कानोम पर
अनािमका से, नािभ पर किनिष्ठका से तथा सभी अङ् गुिलयों से अङ् गुिलयों से अङ् गूठा िमलाकर सवगत्र न्त्यास करना चािहये ।
हृदय पर हथेली से तथा मस्तक तथा दोनों कन्त्धों पर सभी अङ् गुिलयों से न्त्यास करन चािहये ॥५४-५६॥

अब िैवों की आचमन िविध कहते हैं -


‘हां आत्मतत्त्वाय स्वाहा, हीं िवद्यातत्त्वाय स्वाहा, हं ििवतत्त्वाय स्वाहा’ इन मन्त्त्रों से िैवोम को तीन बार आचमन करना
चािहये तथा ‘ऐं आत्मतत्त्वाय स्वाहा, ह्रीं िवद्यातत्त्वाय स्वाहा, ललीं ििवतत्त्वाय स्वाहा’ इन मन्त्त्रों से िाक्तों को आचमन
करना चािहये । हाथों का प्रक्षालन तथा अङ् गुिलयों से अङ् गों के स्पिग की प्रफिया उपांिु (िबना मन्त्त्र के मौन हो कर ) करनी
चािहये ॥५५-५७॥

इस प्रकार आचमन कर लेने के पश्चात् सामान्त्य अघ्नयग (पूजा सामग्री) से देवतागार के द्वार का पूजन करना चािहये ॥५८॥

तार (ॎ), िवसगग सिहत विहन (र) और ख (ह) अथागत् (ह्रेः) फिर द्वाराघ्नयग साधयािम’ इतना कह कर अस्त्र मन्त्त्र (िट्) से अघ्नयग
पात्र का प्रक्षालन करना चािहये । फिर हृद (नमेः) मन्त्त्र से जल भर कर ‘गङ्गे च यमुने चैव’ इत्याफद मन्त्त्र से उसमें तीथोम क
आवाहन करन चािहये । तदनन्त्तर िनगम (प्रणव) मन्त्त्र से उसमें गन्त्धाफद डालना चािहये । फिर धेनुमुरा फदखाकर मूलमन्त्त्र से
उसे अिभमिन्त्त्रत करन चािहये ॥५९-६०॥

यहाूँ तक सामान्त्याघ्नयग की िविध कही गई । इस प्रकार के अघ्नयग से द्वारदेवताओं का पूजन कर द्वारपालों का पूजन करना
चािहये । ये द्वारपाल सांप्रदियक दिष्ट से िभन्न-िभन्न कहे गये है ॥६०-६१॥

नन्त्द, सुनन्त्द, चण्ड, प्रचण्ड, बल, प्रबल, बलभरा तथा सुभरा - ये िवष्णु के द्वारपाल कहे गये हैं । नन्त्दी, महाकाल, गणेि,
वृषभ, भृंिगरररट, स्कन्त्द, पावगतीि एवं चण्डेश्वर - ये ििव के द्वारपाल हैं । ब्राह्यी आफद अष्टमातृकायें ििक्त की द्वारपाल कही
गई हैं । वितुण्ड, एकदंष्ट्र, महोदर, गजानन, लम्बोदर, िवकट, िवघ्नराज एवं धूम्रराज - ये गणपित के द्वारपाल हैं । इन्त्र, यम,
वरुण, कु बेर, ईिान, अिि, िनऋित एवं वायु- ये ित्रपुरा के द्वारपाल कहे गये हैं ॥६१-६६॥

इस िम से सांप्रदाियक द्वारपूजा करने के बाद फदव्य, अन्त्तररक्ष एवं भौम इन ित्रिवध िवघ्नों का उत्सारण करना चािहये ॥६६॥

अब िवघ्नोत्सारण का िवधान कहते हैं -


स्वयं को धानस्थ िंकर मानकर फदव्य दृिष्ट से िवघ्नों का, अघ्नयग जल से अन्त्तररक्षस्थ िवघ्नों का तथा पैर से भूिमगत िवघ्नों का
उत्सारण
करना चािहये ।
तदनन्त्तर - अपसपगन्त्तु ते भूता ये भूता भूिमसंिस्थताेः ।
ये भूता िवघ्नकतागरस्ते नश्यन्त्तु ििवाज्ञया ॥१॥
अपिामन्त्तु भूतािन िपिाचाेः सवगतो फदिम् ।
सवेषामिवरोधेन ब्रह्माकमगसमारभे ॥२॥
इन दो मन्त्त्रों को पढकर सभी प्रकार के िवघ्नों का उत्सारण करना चािहये । जाते हुये िवघ्नों को अवकाि देने के िलये अपना
वामाङ्ग संकुिचत कर लेना चािहये ।
फिर दािहना पैर आगे रख कर गृह में प्रवेि करना चािहये तथा नैऋत्य कोण में क्षेत्रपाल एवं िवधाता का पूजन करना चािहये
॥६७-७१॥

अब आसन पर बैठने का िवधान कहते हैं -


प्रथम कु िासन उसके ऊपर व्याघ्रचमग उसके ऊपर रे िमी वस्त्र इस िम से रखकर साधक - अनन्त्तासनाय नमेः, िवमलासनाय
नमेः पद्मासनाय नमेः - इन तीन मन्त्त्रों को पढकर तीन कु िा स्थािपत करे । काष्ठ, पत्ता एवं करठन बाूँस, पत्थर, तृणगोिकृ त्
एवं िमट्टी से बन आसन िवषम होते हैं । अतेः पीडादायक होने के कारण इन आसनों को वर्णजत कर देना चािहये ॥७२-७३॥

ॎ पृथ्व्वी त्वया घृता लोका देिवत्वं िवष्णुनाधृता ।


त्वं च धारय मां देिव पिवत्रं कु रु चासनम् ॥

इस मन्त्त्र को िविनयोगपूवगक पढकर पूवग या उत्तर की ओर मुख कर स्विस्तक, पद्मासन अथवा वीरासन से बैठना चािहये ।

िवमिग - आसन पर बैठने का िविनयोग - - ॎ पृथ्व्वीितमन्त्त्रस्य मेरुपृष्ठ ऋिषेः सुतल्म छन्त्देः कू मो देवता आसनोपवेिेने
िविनयोगेः ।
आसनों के लक्षण इस प्रकार हैं -
स्वािस्तकासन - पैर दोनों जानु और ऊरु के बीज दोनों पादतल को अथागत् दिक्षण पाद के जानु और ऊरु के मध्य वाम पादतल
एवं वामपाद के जानु और ऊरु के मध्य दिक्षण पादतल को स्थािपत कर िरीर को सीधे कर बैठने का नाम स्विस्तकासन है ।

पद्मासन - दोनों ऊरु के ऊपर दोनों पादतल को स्थािपत कर व्युत्िम पूवगक (हाथों को उलट कर) दोनों हाथोम से दोनों हाथ
के अंगूठे को बीधं लेने का नाम पद्मासन कहा गया है ।

वीरासन - एक पैर को दूसरे पैर के िनतम्ब के नीचे स्थािपत करे तथा दूसरे पादतल को िनतम्ब के नीचे स्थािपत फकए गए पैर
के ऊरु पर रलखे तथा िरीर को सीधे तो वह वीरासन कहा जाता है ॥७४॥

अघ्नयग, पाद्य, आचमनीय, मधुपकग एवं पुनराचमनीय के पाूँचों पात्र तथा पुष्पाफद अपनी दिहनी ओर रखान चािहये और
जलपात्र, व्यजन (पंखा), छत्र, लादिग (िीिा) एवं चमर बायीं ओर स्थािपत करना चािहये ॥७५-७६॥

साधक अञ्जिल बाूँध कर अपनी बायीं ओर गुरु को तथा दािहनी ओर गणपित को प्रणाम करे । दोनों हाथ पर अस्त्र (िट) मन्त्त्र
से न्त्यास कर तीन बार ताली बजाकर अङ् गूठा एवं तजगनी से िब्द करते हुये सदिगन मन्त्त्र पढकर फदग्बन्त्धन करना चािहये
॥७६-७७॥

प्रणव (ॎ), हृदय (नमेः), चतुथ्व्यगन्त्त सुदिगन (सुदिगनाय), और फिर ल‘अस्त्राय िट् ’, यह १२ अक्षरों का मन्त्त्र कहा गया है
॥७८॥

इस मन्त्त्र से अपने चारों ओर अिि का प्राकार बनाकर साधक भूतों से अजेय हो जाता है । इसके पश्चात भूतिुिि, प्राणप्रितष्ठा
एवं पञ्चिवध (सृिष्ट, िस्थित, संहार, सृिष्ट, िस्थित) मातृकान्त्यासों को करन चािहये । तदनन्त्तर अन्त्य मातृका न्त्यास करना
चािहये ॥७९-८०॥
यथा - िैवों को श्रीकण्ठ मातृकान्त्यास, वैष्णवों को के िवाफद कीर्णतन्त्यास, गाणपत्योम को गणेिकलान्त्यास तथा िाक्तों को
ििक्तकलान्त्यास करना चािहये ॥८०-८१॥

अब इन न्त्यासों के ऋिष आफद को िमिेः कहता हूँ -


प्रथम श्रीकण्ठ न्त्यास का िविनयोग एवं षडङ्गन्त्यास कहते हैं - इस श्रीकण्ठ मातृकान्त्यास के दिक्षणामूर्णत ऋिष हैं, गायत्री छन्त्दं
हैं और अिगनारीश्वर देवता हैं । सब िसिियोम के िलये इसका िविनयोग फकया जात है । हल बीज है तथा स्वर ििक्त है ।
इससे िमिेः गुप्ताङ्गं एव्य्म पैरों पर न्त्यास करन चािहये । षड् दीघग सिहत (ह्स) से ष‍ङन्त्यास कर िंकर का ध्यान करना
चािहये ॥८१-८३॥

िवमिग - िविनयोग - अस्य श्रीकण्ठमातृकामन्त्त्रस्य दिक्षणमूर्णतऋिष गायत्रीच्छन्त्देः अिगनारीश्वरों देवता हलो बीजािन स्वरा
िक्तयेः सवगकायग िसियथे न्त्यासे िविनयोगेः ।

ऋष्याफदन्त्यास - ॎ दिक्षणामूर्णत ऋषये नमेः, ििरसे,


ॎ गायत्रीछन्त्दसे नमेः, मुखे, ॎ अिगनारीश्वरो देवतायै नमेः, हृफद,
ॎ िविनयोगाय नमेः सवागङ्गे ।

षडङ्गन्त्यास - ह्सां हृदयाय नमेः, ह्सीं ििरसे स्वाहा,


ह्सूम ििखायग वषट् , ह्सैं कवचाय हुम्,
ह्सौं नेत्रत्रयाय वौषट्, ह्सेः अस्त्राय िट् ॥८२-८३॥

अब अिगनारीश्वर का ध्यान कहते हैं -


िजनके चार हाथों में पाि, अंकुश्य, वर और अक्षमाला िोिभत हो रहे हैं मस्तक पर चन्त्रकला धारण फकये हुये ित्रनेत्र ऐसे
सुवणग की कािन्त्त वाले भगवान् अिगनारीश्वर का ध्यान करना चािहये ॥८४॥
अब श्रीकण्ठ मातृकान्त्यास का प्रकार कहते हैं -
उक्त प्रकास से अिगनारीश्वर भगवान् का ध्यान कर ििववििक्त के चतुथ्व्यगन्त्त िद्ववचन रुपों के आगे नमेः लगा कर प्रारम्भ में
ह्सौं मातृकावणो को लगाकर यथा िमेण मातृका स्थलों में न्त्यास करना चािहये ॥८५॥

श्रीकण्ठ एवं पूणागदरी, अनन्त्त एवं िवरजा, सूक्ष्मेि एवं िाल्मली, ित्रमूतीि एवं लोलिक्ष, अमरे ि एवं वतुगलाक्षी, अघीि एवं
दीघगघोणा, भारभूित एवं दीघगमुखी, ितथीि एवं गोमुखी, स्थाण्वीि एवं दीघगिजहवा, हर एवं कु म्भोदरी, िझण्टीि एवं
ऊध्वगकेिी, भौितके ि एवं िवकृ तमुखी, सद्योजात एवं ज्वालामुखी, अनुग्रहेि एवं उल्कामुखी, अिू रे ि एवं श्रीमुखी, महासेनेि
एवं िवद्यामुखी, िोधीि अनुग्रहेि एवं उल्कामुखी, अिू रेि एवं श्रीमुखी, महासेनेि एवं िवद्यामुखी, िोधीि एं महाकाली,
चण्डेि एवं सरस्वती, पञ्चान्त्तक एवं सवगिसििगौरी, ििवोत्तमेि एवं त्रैलोलयिवद्या, एकरुर एवं मन्त्त्रििक्त, कू मेि एवं
आत्मििक्त, एकनेत्रेि एवं भूतमातृ, चतुराननेि एवं लम्बोदरी, अजेि एवं रावणी, सवेि एवं नागरी, सोमेि एवं खेचरी,
लाङ्गलीि एवं मञ्जरी, दारके ि एवं रुिपणी, अधगनारीि एवं वाररणी, उमाकान्त्त एवं काकोदरी, आषाढीि एवं पूतना,
चण्डीि एवं भरकाली, अन्त्त्रीि एवं योिगनी, मीनेि एवं िंिखिन, मेषेि एवं तजगनी, लोिहतेि एवं कालराित्र, ििखीि एवं
कु िब्जनी, छगलण्डेि एवं कपर्ददनी, िद्वरण्डेि एवं रे वती, िपनाकीि एवं माधवी, खड् गीि एवं वारुणी, बके ि एवं वायवी,
श्वतेि एवं रक्षोिवदाररणी, भृग्वीि एवं सहजा, नकु लीि एवं लक्ष्मी, ििवेि एवं व्यािपनी तथा संवतगक एवं महामाया - इतने
श्रीकण्ठाफद तथा मातृकायें कही गई हैं ॥८६-९९॥

श्रीकण्ठ आफद नामों में जहाूँ ईि पद नहीं कहा गया है वहाूँ सवगत्र ईि पद जोड लेना चािहये । जैसे श्री कण्ठे ि, अनन्त्तेि आफद
। ििक्त के अन्त्त में चतुथ्व्यगन्त्त िद्ववचन बोल कर नमेः पद जोड देना चािहये ॥१००॥

अन्त्त के यकाराफद द्ि वणो के साथ, त्वग्, असृङ् मांस, मेद, अिस्थ, मज्जा, िुि, प्राण, ििक्त एवं िोध के साथ आत्मभ्यां जोड
देना चािहये । तथा सवगत्र आफद में ह्सौं हय बीज जोड देना चािहये । इसका स्पष्टीकरण आगे वक्ष्यमाण न्त्यास में रष्टव्य हैं
॥१०१॥

िवमिग - न्त्यास िविध -


ॎ ह्सौं अं श्रीकण्ठे िपूणोदरीभ्यां नमेः ललाटे । ॎ हसौं आं अनन्त्तेििवरजाभ्यां नमेः मुखवृत्ते । ॎ ह्स्ॎ इं
सूक्ष्मेििाल्मलीभ्यां नमेः, दक्षनेत्रे । ॎ ह्सौं ईं ित्रमूतीिलोलाक्षीभ्यां नमेः, वामनेत्रे । ॎ हसौं उं अमरे िवतुगलाक्षीभ्यां नमेः
दक्षकणे, ॎ ह्सौं ऊं अघीिदीधगघोणाभ्यां नमेः वामकणे, ॎ ह्सौं ऋं भारभूतएिदीघगमुखाभ्यां नमेः दक्षनासापुटे, ॎ ह्सौं ऋं
ितथीिगोमुखीभ्यां नमेः वामनासापुटे, ॎ ह्सौं लृं स्थाण्वीिदीघगिजहवाभ्यां नमेः दक्षगण्डे, ॎ हसौं लृं हरे िकु ण्डोदरीभ्यां
नमेः वामगण्डे , ॎ ह्सौं एं िझण्टीिऊध्वगकेिीभ्यां नमेः ऊध्वोष्ठे, ॎ ह्सौं ऐं भौितके ििवकृ तमुखीभ्यां नमेः अधरोष्ठे, ॎ ह्सौं
ओं सद्योजातज्वालामुखीभ्यां नमेः, ऊध्वगदन्त्तपंक्तौ, ॎ ह्सौं कं िोधीिमहकालीभ्यां नमेः िजहवाग्रे, ॎ ह्सौं खं
चण्डीिसरस्वतीभ्यां नमेः कण्ठदेिे, ॎ ह्सौं गं पञ्चान्त्तके िसवगिसििगौरीभ्यां नमेः दक्षबाहुमूले, ॎ ह्सौं घं
ििवोत्तमेित्रैलोलयिवद्याभ्यां नमेः दक्षकू पगरे, ॎ ह्सौं ङं एकरुरेिमन्त्त्रििक्तभ्यां नमेः दक्षमिणबन्त्धे, ॎ ह्सौं चं
कू मेिाआत्मििक्तभ्या नमेः दक्षहस्ताङ् गुिलमूल,े ॎ ह्सौं छं एकनेत्रेिभूतमातृभ्यां नमेः दक्षहस्ताङ्गुल्यग्रे, ॎ ह्सौं जं
चतुराननेिलम्बोदारीभ्यां नमेः वामबाहुमूले, ॎ ह्सौं झं अजेिरावणीभ्या नमेः वामकू पगरे, ॎ ह्सौं ञं सवेिनागरीभ्यां नमेः
वाममिणबन्त्धे, ॎ ह्सौं टं सोमेिखेचरीभ्यां नमेः वामहस्ताङ् गुिलमूले, ॎ ह्सौं ठं लाङ्गलीिमञ्जरीभ्यां नमेः
वामहस्ताङ् गुल्यग्रे, ॎ हसौं डं दारके िरुिपणीभ्या, ॎ हसौं ठं लाङ्गलीिमञ्जरीभ्यां नमेः वामहस्तागुल्यग्रे , ॎ ह्सौं डं
दारके िरुिपणीभ्या नमेः दक्षपादमूले, ॎ ह्सौं ढं अधगनारीिवीररणीभ्यां नमेः दक्षजानूिन, ॎ ह्सौं णं
उमाकान्त्तेिकाकोदरीभ्या नमेः दक्षगुल्िे , ॎ ह्सौं तं आषाढीिपूतनाभ्यां नमेः दक्षपादाङ् गुिलमूले, ॎ ह्सौं थं
चण्दीिभरकालीभ्यां नमेः दक्षपादाङ् गुल्यग्रे, ॎ ह्सौं दं अन्त्त्रीियोिननीभ्यां नमेः वामपादमूले, ॎ ह्सौं धं मीनेििंिखनीभ्यां
नमेः वामजानौ, ॎ ह्सौं नं मेषेितजगनीभ्यां नमेः वामगुल्िे , ॎ ह्स्ॎ पं लोिहतेिकालरात्रीभ्यां नमेः वामपादाङ् गुिलमूले, ॎ
ह्सौं िं ििखीिकु िब्जनीभ्यां नमेः वामपादाङ् गुल्यग्रे, ॎ ह्सौं बं छागलण्डेिकपररनीभ्यां नमेः दक्षपाश्वे, ॎ ह्सौं भं
िद्वरण्डेिवज्राभ्या नमेः वामपाश्वे, ॎ ह्सौं मं महाकालेिजयाभ्या नमेः पृष्ठ,े ॎ ह्सौं यं त्वगात्मभ्यां बालीिसुमुखेश्वरीभ्या
नमेः उदरे , ॎ ह्सौं रं असृगात्मभ्यां भुजङ्गेिरे वतीभ्यां नमेः हृफद, ॎ ह्सौं लं मांसात्मभ्यां िपनाकीिमाधवीभ्यां नमेः दक्षांसे,
ॎ ह्सौं वं मेदात्मभ्यां खड् गीिवारुणीभ्यां नमेः ककु फद, ॎ ह्स्ॎ िं अस्थ्व्यात्मभ्यां बके िवायवीभ्यां नमेः वामांसे, ॎ ह्सौं षं
मज्जात्मभ्यां श्वेतेिरिक्षिवदाररणीभ्यां नमेः हृदयाफददक्षहस्तान्त्तम्, ॎ हसौं सं िुिात्मभ्यां भृग्वीिसहजाभ्यां नमेः
हृदयाफदवामहस्तान्त्तम, ॎ ह्सौं हं प्राणात्मभ्यां नकु लीिलक्ष्मीभ्यां नमेः हृदयाफदक्षपादान्त्तम, ॎ ह्सौं लं िलत्यात्मभ्यां
ििवेिव्यािपनीभ्यां नमेः हृदयाफदवामपादान्त्तम्, ॎ ह्सौं क्षं िोधात्मभ्यां संवतगकेिमाहामायाभ्यां नमेः हृदयाफदमस्तकान्त्तम्
॥८६-१०१॥

अब के िवाफद मातृकाओं का िविनयोग कहते हैं -


के िवमातृका मन्त्त्र के नारायण ऋिष हैं, अमृतगायत्री छन्त्द हैं तथा लक्ष्मी एवं हरर देवता हैं । ििक्तबीज, श्रीबीज एवं
कामबीज की दो आवृित्तयाूँ कर षडङ्गन्त्यास करना चािहए ॥१०२-१०३॥

िवमिग - िविनयोग - अस्य के िवमातृकान्त्यासस्य नारायण ऋिषरमृतगायत्रीछान्त्देः लक्ष्मीहरीदेवते न्त्यासे िविनयोगेः ।


षडङ्गन्त्यास - ह्रीं हृदयाय नमेः, श्रीं ििरसे स्वाहा, ललीं ििखायै वषट् , ह्रीं कवचाय हुम्, श्रीं नेत्रत्रयाय वौषट, ललीं अस्त्राय
िट् ॥१०२-१०३॥

अब लक्ष्मी और हरर का ध्यान कहते हैं - अपने हाथों में िंख, चि, गदा, पद्म, कु म्भ, आदिग, कमल एवं पुस्तक धारण फकये
हुये, मेघ एवं िवद्युत जैसी कािन्त्त वाले लक्ष्मी और हरर का मैं ध्यान करता हूँ ॥१०३-१०४॥

इस प्रकार ध्यान कर ििक्त (ह्रीं) श्री (श्रीं) तथा काम (ललीं) से संपुरटत अकाराफद वणग, फिर िवष्णु एवं उनकी ििक्त के नाम के
अन्त्त में चतुथी िद्ववचन तथा अन्त्त में नमेः तथा प्रारम्भ में प्रणम लगा कर न्त्यास करना चािहए ॥१०४-१०५॥

के िव मातृकाएं - के िव एवं कीर्णत्त, नारायण एवं कािन्त्त, माधव एवं तुिष्ट, गोिवन्त्द एवं पुिष्ट, िवष्णु एवं धृित, मधुसूदन एवं
िािन्त्त, ित्रिविम एवं फिया, वामन एवं दया, श्रीधर एवं मेधा, हृषीके ि एवं हषाग, पद्मनाभ एवं श्रिा, दामोदर एवं लज्जा,
वासुदव
े एवं लक्ष्मी, संकषगण तथा सरस्वती, प्रद्युम्न और प्रीित, अिनरुि एवं रित, चिी एवं जया, गदी एवं दुगाग िाड् गी एवं
प्रभा, खड् गी एवं सत्या, िंखी एवं चण्ड, हली एवं वाणी, मुसली एवं िवलािसनी, िूली एवं िवजया, पािी एवं िवरजा,
अंकुिी एवं िवश्वा, मुकुन्त्द एवं िवनदा, नन्त्दज एवं सुनदा, नन्त्दी एवं सत्या, नर एवं ऋिि, नरकिजत् एवं समृिि, हरर एवं
िुिि, कृ ष्ण एवं बुिि, सत्य एवं भुिक्त सात्त्वत एवं मित, सोरर एवं क्षमा, िूर एवं रमा, जनादगन एवं उमा, भूधर एवं
ललेफदनी, िवश्वमूर्णत्त एवं िललन्ना, वैकुण्ठ एवं वसुधा, पुरुषोत्तम एवं वसुदा, बली एवं परा, बलानुज एवं परायणा, बाल एवं
सूक्ष्मा, वृषघ्न एवं सन्त्ध्या वृष एवं प्रज्ञा, हंस एवं प्रभा, वराह एव िनिा, िवमल एवं मेघा तथा नृतसह एवं िवद्युता, - इतनी
के िव मातृकाएं कही गई हैं ॥१०५-११७॥

िवमिग - इस के िवमातृका न्त्यास में भी अिन्त्तम यकाराफद दि वणो के साथ त्वगात्मभ्यािमत्याफद पूवोक्त रीित के अनुसार
लगाकर न्त्यास करना चािहये ।

न्त्यास िविध - न्त्यास िविध -


ॎ ह्रीं श्रीं ललीं अं ललीं श्रीं ह्रीं के िवकीर्णतभ्यां नमेः ललाटे,
ॎ ह्रीं श्रीं ललीं आं ललीं श्रीं ह्रीं नारायणकािन्त्तभ्यां नमेः, मुखवृत्ते,
ॎ ह्रीं श्रीं ललीं इं ललीं श्रीं ह्रीं माधवतुिष्टभ्यां नमेः, दक्षनेत्र,े
ॎ ह्रीं श्रीं ललीं ई ललीं श्रीं ह्रीं गोिवन्त्दपुिष्टभ्यां नमेः, वामनेत्र,े
ॎ ह्रीं श्रीं ललीं उं ललीं श्रीं ह्रीं िवष्णुधृितभ्यां नमेः, दक्षकणे,
ॎ ह्रीं श्रीं ललीं ऊं ललीं श्रीं ह्रीं मधुसूदनिािन्त्तभ्या नमेः, वामकणे,
ॎ ह्रीं श्रीं ललीं ऋं ललीं श्रीं ह्रीं ित्रिविमफियाभ्या नमेः, दक्षनासायाम,
ॎ ह्रीं श्रीं ललीं ऋं ललीं श्रीं ह्रीं वामनदयाभ्यां नमेः, दक्षनासायाम,
ॎ ह्रीं श्रीं ललीं लृं ललीं श्रीं ह्रीं वामनदयाभ्या नमेः, वामनासायाम्,
ॎ ह्रीं श्रीं ललीं लृं ललीं श्रीं ह्रीं हृषीके िहषागभ्यां नमेः, वामगण्डे,
ॎ ह्रीं श्रीं ललीं एं ललीं श्रीं ह्रीं पद्नाभश्रिाभ्यां नमेः, ओष्ठे,
ॎ ह्रीं श्रीं ललीं ऐं ललीं श्रीं ह्रीं दामोदरलज्जाभ्यां नमेः, अधरे ,
ॎ ह्रीं श्रीं ललीं ओं ललीं श्रीं ह्रीं वासुदव
े लक्ष्मीभ्यां नमेः, ऊध्वगदन्त्तपंक्तौ,
ॎ ह्रीं श्रीं ललीं औं ललीं श्रीं ह्रीं संकषगणसरस्वतीभ्यां नमेः, अधोदन्त्तपंक्तौ,
ॎ ह्रीं श्रीं ललीं अं ललीं श्रीं ह्रीं प्रद्युम्नप्रीितभ्यां नमेः, मस्तके ,
ॎ ह्रीं श्रीं ललीं अेः ललीं श्री ह्रीं अिनरुिरितभ्यां नमेः, मुखे,
ॎ ह्रीं श्रीं ललीं कं लली श्रीं ह्रीं चिीजयाभ्यां नमेः, दक्षबाहुमूले,
ॎ ह्रीं श्रीं ललीं खं ललीं श्रीं ह्रीं गदीदुगागभ्यां नमेः, दक्षकू पगरे,
ॎ ह्रीं श्रीं ललीं गं लली श्रीं ह्रीं िाङ् गीप्रभाभ्यां नमेः, दक्षमिणबन्त्धे,
ॎ ह्रीं श्रीं ललीं घं ललीं श्रीं ह्रीं खड् गीसत्याभ्यां नमेः, दक्षाड् गुिलमूले
ॎ ह्रीं श्रीं ललीं ङं ललीं श्री ह्रीं िंखीचण्डाभ्या नमेः, दक्षाड् गुल्यग्रे,
ॎ ह्रीं श्रीं ललीं चं ललीं श्रीं ह्रीं हलीवाणीभ्यां नमेः, वामबाहुमूले,
ॎ ह्रीं श्रीं ललीं छं ललीं श्रीं ह्रीं मुसलीिवलिसनीभ्यां नमेः, वामकू पगरे,
ॎ ह्रीं श्रीं ललीं जं ललीं श्रीं ह्रीं िूलीिवजयाभ्यां नमेः, वाममिणबन्त्धे,
ॎ ह्रीं श्रीं ललीं झं ललीं श्रीं ह्रीं पािीिवरजाभ्यां नमेः, वामाड् गुिलमूले,
ॎ ह्रीं श्रीं ललीं ञं ललीं श्रीं ह्रीं अंकुिीिवश्वाभ्या नमेः, वामाड् गुल्यग्रे,
ॎ ह्रीं श्रीं ललीं टं ललीं श्रीं ह्रीं मुकुन्त्दिवनदाभ्या नमेः, दक्षपादमूले,
ॎ ह्रीं श्रीं ललीं ठं ललीं श्रीं ह्रीं नन्त्दजसुनदाभ्यां नमेः, दक्षजानुिन,
ॎ ह्रीं श्रीं ललीं डं ललीं श्रीं ह्रीं नन्त्दीसत्याभ्यां नमेः, दक्षगुल्िे ,
ॎ ह्रीं श्रीं ललीं ढं लली श्रीं ह्रीं नरऋििभ्यां नमेः, दक्षपादाड् गुिलमूले,
ॎ ह्रीं श्रीं ललीं णं ललीं श्रीं ह्रीं नरकिजत्समृििभ्यां नमेः दक्षपादाड् गुल्यग्रे,
ॎ ह्रीं श्रीं ललीं तं ललीं श्रीं ह्रीं हरिुििभ्यां नमेः वामपादमूले,
ॎ ह्रीं श्रीं ललीं थं ललीं श्रीं ह्रीं कृ ष्णबुििभ्यां नमेः, वामजानुिन,
ॎ ह्रीं श्रीं ललीं दं ललीं श्रीं ह्रीं सत्यमुिक्तभ्यां नमेः, वामगुल्िे ,
ॎ ह्रीं श्रीं ललीं धं ललीं श्रीं ह्रीं सात्वतमितभ्यां नमेः, वामपादाड् गुिलमूले,
ॎ ह्रीं श्रीं ललीं नं ललीं श्रीं ह्रीं सौररक्षमाभ्यां नमेः, वामपादाड् गुल्यग्रे,
ॎ ह्रीं श्रीं ललीं पं ललीं श्रीं ह्रीं िूररमाभ्यां नमेः, दक्षपाश्वे,
ॎ ह्रीं श्रीं ललीं िं ललीं श्रीं ह्रीं जनादगनोमाभ्यां नमेः, वामपाश्वे,
ॎ ह्रीं श्रीं ललीं बं ललीं श्रीं ह्रीं भूधरललेफदनीभ्यां नमेः, पृष्ठ,े
ॎ ह्रीं श्रीं ललीं भं ललीं श्रीं ह्रीं िवश्वमूर्णतिललन्नाभ्यां नमेः, नाभौ,
ॎ ह्रीं श्रीं ललीं मं ललीं श्रीं ह्रीं वैकुण्ठवसुधाभ्यां नमेः, उदरे ,
ॎ ह्रीं श्रीं ललीं यं ललीं श्रीं ह्रीं त्वगात्मभ्यां पुरुषोत्तवसुदाभ्यां नमेः, हृफद,
ॎ ह्रीं श्रीं ललीं रं ललीं श्रीं ह्रीं असृगात्मभ्यां बलीपराभ्यां नमेः, दक्षांस,े
ॎ ह्रीं श्रीं ललीं लं ललीं श्रीं ह्रीं मांसात्मभ्यां बालानुपरायणाभ्यां नमेः, कु कु फद,
ॎ ह्रीं श्रीं ललीं वं ललीं श्रीं ह्रीं मेदसात्मभ्यां बालसूक्ष्माभ्यां नमेः, वामांसे,
ॎ ह्रीं श्रीं ललीं िं ललीं श्रीं ह्रीं अस्थ्व्यात्मभ्यां वृषघ्नध्याभध्याभ्यां नमेः, हृदाफदक्षकरान्त्तम,
ॎ ह्रीं श्रीं ललीं षं ललीं श्री ह्रीं मज्जात्मभ्यां वृषप्रज्ञाभ्या नमेः, हृदयाफद वामकरान्त्तम,
ॎ ह्रीं श्रीं ललीं सं ललीं श्रीं ह्रीं िुिात्मभ्यां हंसप्रभाभ्यां नमेः, हृदाफददक्षपादान्त्तम,
ॎ ह्रीं श्रीं ललीं हं ललीं श्रीं ह्रीं प्राणात्मभ्यां वराहिनिाभ्यां नमेः, हृदाफदवामपादान्त्तम,
ॎ ह्रीं श्रीं ललीं ळं ललीं श्रीं ह्रीं िलत्यात्मभ्यां िवमलमेघाभ्यां नमेः, हृदाफदउदरात्नम्,
ॎ ह्रीं श्रीं ललीं क्षं ललीं श्रीं ह्रीं िोधात्मभ्यां नृतसहिवद्युताभ्यां नमेः, हृदाफदमुखपयगन्त्तम् ॥१०४-११७॥

अब गणेि मातृका न्त्यास का िविनयोग एवं न्त्यास का प्रकार कहते हैं -


इस गणेिमातृकान्त्यास मन्त्त्र के गणक ऋिष िनचृदगायत्री
् छन्त्द तथा ििक्त िवनायक देवता है । षड् दीघग सिहत गकार से
ष‍ङ्ग न्त्यास करने के पश्चात् ‘गणेि’ का ध्यान करना चािहये ॥११७-११८॥

िवमिग - िविनयोग - अस्य श्रीगणेिमातृकान्त्यासमन्त्त्रस्य गणकऋिषर्णनचृद ् गायत्रीच्छन्त्देः ििक्तिवनायको देवता न्त्यासे


िविनयोगेः ।

षडङ्गन्त्यास - ॎ गां हृदयाय नमेः, ॎ गीं ििरसे स्वाहा,


ॎ गूं ििखायै वषट् , ॎ गैं कवचाय हुम्
ॎ गौं नेत्रत्रायाय वौषट् ॎ गं अस्त्राय िट् ॥११७-११८॥

अब गणपित का ध्यान कहते हैं - अपने हाथों में ित्रिूल, अंकुि, वर और अभय धारण फकये हुये, अपनी िप्रयतमा द्वारा
रक्तवणग के कमलों के समान हाथोम से आतलिगत, ित्रनेत्र गणपित का मैम ध्यान करता हूँ ॥११९॥

गणेि मातृकाएं - उक्त प्रकार से ध्यान कर लेने के पश्चात् अपने बीजाक्षरों को पहले लगाकर तदनन्त्तर ‘िवघ्नेि ह्रीं’ आफद में
चतुथ्व्यगन्त्त िद्ववचन, फिर ‘नमेः’लगा कर गणेि मातृका न्त्यास करना चािहये ॥१२०॥

िवघ्नेि एवं ह्रीं, िवघ्नराज एवं श्रीं, िवनायक एवं पुिष्ट, ििवोत्तम एवं िािन्त्त, िवघ्नकृ त् एवं स्विस्त, िवघ्नहताग एवं सरस्वती,
गण एवं स्वाहा, ’ मोिहनी, कपदी एवं नटी, दीघगिजहव एवं पावगती, िंकुकणग एवं ज्वािलनी, वृषभध्वज्क एवं नन्त्दा, सुरेि एं
गणनायक, गजेन्त्र एव्य्म कामरुिपणी, सूपगकणग और उमा, ित्रलोचन और तेजोवती, लम्बोदर एवं सत्या, महानन्त्द एवं िवघ्नेिी,
चतुमूगर्णत एवं सुरुिपणी, सदाििव एवं कामदा, आमोद एवं मदिजहवा, दुमुगख एवं भूित, सुमुख एवं भौितक, प्रमोद एवं िसता,
एकपाद एवं रमा, िद्विजहवा एवं मिहषी, िूर एवं भिञ्जनी, वीर एवं िवकणाग, षन्त्मुखं एवं भृकुटी, वरद एवं लज्जा, वामदेव
एवं दीघगघोण वितुण्ड एवं धनुधगरा, िद्वरद एवं यािमनी, सेनानी एवं राित्र, कामान्त्ध एव्य्म ग्रामणी, मत्त एवं िििप्रभा, िवमत्त
एवं लोललोचन, मत्तवाहन एवं चंचला, जटी एवं दीिप्त, मुण्डी एवं सुभगा, खड् गी एवं दुभगगा, वरे ण्य एवं ििवा, वृषके तन
एवं भगा, भक्तिप्रय एवं भिगनी, गणेि एवं भोिगनी, मेघनाद एवं सुभगा, व्यासी एवं कालराित्र और गणेश्वर एवं कािलका -
इतनी (५१) गणेिमातृकाये हैं ॥१२०-१३३॥

यकाराफदवणो के साथ त्वगात्मभ्यािमत्याफद का योग पूवोक्त रीित से कर लेना चािहए ॥१३३॥

िवमिग - न्त्यास िविध-


ॎ अं िवघ्नेिह्रींभ्यां नमेः ललाटे, ॎ आं िवघ्नराजश्रीभ्यां नमेः मुखवृत्ते, ॎ इं िवनायकपुिष्टभ्यां नमेः दक्षनेत्र,े ॎ ई
ििवोत्तिािन्त्तभ्यां नमेः वामनेत्रे, ॎ उं िवघ्नकृ त्स्विस्तभ्यां नमेः दक्षकणे, ॎ ऊं िवघ्नहतृस
ग रस्वतीभ्यां नमेः वामकणे, ॎ ऋं
गणस्वाहाभ्या नमेः दक्षनासायाम्, ॎ ऋं एकदन्त्तसुमेधाभ्यां नमेः वामनासायाम्, ॎ लृं िद्वदन्त्तकािन्त्तभ्यां नमेः दक्षगण्डे, ॎ
लृं गजवलत्रकािमनीभ्यां नमेः, वामगणे , ॎ एं िनरञ्जनमोिहनीभ्यां नमेः ओष्ठे, ॎ ऐं कपदीनटीभ्यां नम्ह अधरे , ॎ ओं
दीघगिजहवपावगतीभ्यां नमेः ऊध्वगदन्त्तपड् क्तौ, ॎ औं िड् कु कणगज्वािलनीभ्यां नमेः अधेः दन्त्तपंक्तौ, ॎ अं वृषमध्वजनन्त्दाभ्यां
नमेः ििरिस, ॎ अेः सुरेिगणनायकाभ्यां नमेः मुखे ॎ कं गजेन्त्रकामरुिपणीभ्यां नमेः दक्षबाहमूले, ॎ खं सूपगकणोमाभ्यां नमेः
दक्षकू पगरे, ॎ गं ित्रलोचनतेजोवतीभ्यां नमेः दक्षमिणबन्त्धे, ॎ घं लम्बोदरसत्याभ्यां नमेः दक्षाङ् गुिलमूले, ॎ ङं
महानन्त्दिवघ्नेिीम्यां नमेः दक्षहस्ताड् गुल्यग्रे, ॎ चं चतुमूगर्णतसुरुिपणीभ्यां नमेः वामबाहमूले, ॎ छं सदाििवकामदाभ्यां नमेः
वाकमूपगरे, ॎ जं आमोदमदिजहवाभ्यां नमेः वाममिणबन्त्धे, ॎ झं दुमुगहभूितभ्यां नमेः वामबाहु अड् गुल्यगे, ॎ ञं
सुमुखभौितकाभ्यां नमेः वामबाहु अड् गुल्यग्रे, ॎ टं प्रमोदिसताभ्यां नमेः, दक्षपादमूले, ॎ ठं एकपादरमाभ्यां नमेः दक्षजानौ
ॎ डं िद्विजहवमिहषीभ्यां नमेः दक्षगुल्िे , ॎ ढं िूरभञ्जनीभ्यां नमेः दक्षपाड् गुिलमूले, ॎ णं वीरिवकणागभ्यां नमेः
दक्षपादाड् गुल्यग्रे, ॎ तं षण्मुख भ्रुकुटीभ्यां नमेः वामपादमूल,े ॎ थं वरदलज्जाभ्या नमेः वामजानौ, ॎ दं
वामदेवदीघगघोणाभ्यां नमेः वामगुल्िे , ॎ धं वितुण्डधनुधरग ाभ्यां नमेः वामपदाड् गुिलमूले, ॎ नं िद्वरदयािमनीभ्यां नमेः
वामपादाड् गुल्यग्रे, ॎ पं सेनानीराित्रभ्यां नमेः, पृष्ठ,े ॎ भं िवमललोललोचनाभ्यां नमेः नाभौ, ॎ मं मत्तवाहनचञ्ज्चलाभ्यां
नम्ह उदरे , ॎ यं त्वगात्मभ्याञ्जटीदीिप्तभ्यां नमेः हृफद, ॎ रं असृगात्मभ्यां मुण्डीसुभगान्त्यां नमेः दक्षांस,े ॎ लं मांसात्मभ्यां
खड् गीदुभगगाभ्यां नमेः ककु फद, ॎ वं मेदात्मभ्यां वरे ण्यििवाभ्यां नमेः वामांस,े ॎ िं अस्थ्व्यात्मभ्यां वृषके तनभगाभ्यां नमेः
हृदयाफददक्षहस्तानाम्, ॎ षं मज्जात्मभ्यां भक्तिप्रयभिगनीभ्यां नमेः हृदयाफदवामहस्तान्त्तम्, ॎ सं िुिात्मभ्यां
गणेिभोिगनीभ्यां नमेः हृदयाफददक्षपादान्त्तम, ॎ हं प्राणात्मभ्यां मेघनादसुभगाभ्यां नमेः हृदयाफदवामपादात्नम्, ॎ ळं
िलत्यात्मभ्यां व्यािसकालराित्रभ्यां नमेः हृदयाफदउदरात्नम् ॎ क्षं िोधात्मभ्यां गणेश्वरकािलकाभ्यां नमेः हृदयाफदमस्तकान्त्तम्
॥१२०-१३३॥

अब कलामातृका का िविनयोगाफद कहते हैं -


कलामातृका मन्त्त्र के प्रजापित ऋिष हैं, गायत्री छन्त्द है तथा ‘िारदा’ देवता हैं ॥१३४॥

प्रणव के प्रारम्भ में तथा अन्त्त में दोनो ओर ह्स्व तथा दीघगस्वरों को लगाकर षडङ्गन्त्यास का िवधान फकया गया है ॥१३५॥

िवमिग - िविनयोग - अस्य श्रीकलामातृकान्त्यासस्य प्रजापितऋिषेः गायत्री छन्त्देः िारदादेवता हलोबीजािन स्वरा िक्तयेः
न्त्यासे िविनयोग ।

ऋष्याफदन्त्यास - ॎ प्रजापितऋषये नमेः, ििरिस,


ॎ गायत्रीछन्त्दसे नमेः मुखे, ॎ िारदादेवतायै नमेः हृफद,
ॎ ह्ल्भ्यो बीजेभ्यो नमेः गुहये, ॎ स्वरििक्तभ्यो नमेः पादयोेः
ॎ िविनयोगाय नमेः सवागङ्गे ।

षडङ्गन्त्यास - अं ॎ आ हृदयाय नमेः इं ॎ ईं ििरसे स्वाहा,


उं ॎ ऊं ििखायै वषट् , एं ॎ ऐं कवचाय हुम्
ओं ॎ औं नेत्रत्रयाय वौषट् अं ॎ अेः अस्त्राय िट् ॥१३४-१३५॥

अब िारदा देवी का ध्यान कहते हैं -


अपने हाथों में िंख, चि, परिु, कपाल, अक्षमाला, पुस्तक, अमृतकु म्भ और ित्रिूल धारण की हुई श्वेत, पीत, कृ ष्ण, श्वेत तथा
रक्त वणग के पञ्चमुखों से युक्त ित्रनेत्रा तथा चन्त्रमा जैसी िरीर की आभा वाली िारदा देवी का मैं ध्यान करता हूँ ॥१३५-
१३७॥

इस प्रकार ध्यान कर प्रारम्भ में प्रणव फिर चतुथ्व्यगन्त्त कला लगा कर कलान्त्यास करना चािहये ॥१३७॥
अब कलामातृकाओं का न्त्यास का प्रकार कहते हैं -
िनवृित्त, प्रितष्ठा िवद्या, िािन्त्त, इिन्त्घका, दीिपका, रे िचका, मोिचका, परािभधा, सूक्ष्मा, सूक्ष्मामृता, ज्ञानामृता, आप्यायनी,
व्यािपनी, व्योमरुपा, अनन्त्ता, सृिष्ट, ऋििका, स्मृित, मेधा, कािन्त्त, लक्ष्मी, द्युित, िस्थरा, िस्थित, िसिि, जरा, पािलनी,
क्षािन्त्त, ईश्वाररका, रित, कािमका, वरदा, आहलाफदनी, प्रीित, दीघाग, तीक्ष्णा, रौरी, भया, िनरा, तिन्त्रका, क्षुधा, िोिधनी,
फिया, उत्कारी समृत्युका पीता, श्वेता, अरुणा िसता और अनन्त्ता ये ५१ कलाएं कही गई हैं ॥१३८-१४२॥

िवमिग - न्त्यासिविध - ॎ अं िनवृत्यै नमेः ललाटे,


ॎ आं प्रितष्ठायै नमेः मुखवृत्ते, ॎ इं िवद्यायै नमेः दक्षनेत्रे,
ॎ ई िान्त्त्यै नमेः वामनेत्रे ॎ उं इिन्त्धकायै नमेः दक्षकणे,
ॎ ऊं दीिपकायै नमेः वामकणे ॎ ऋं रे िचकायै नमेः दक्षनासापुटे
ॎ ऋं मोिचकायै नमेः वामनासापुटे, ॎ लृं परािभधायै नमेः दक्षगण्डे
ॎ लृं सूक्ष्मायै नमेः वामगण्डे, ॎ एं सूक्ष्मामृतायै नमेः ओष्ठे,
ॎ ऐं ज्ञानामृतायै नमेः अधरे , ॎ ओं आप्याियन्त्यै नमेः ऊध्वगदन्त्तपंक्तौ,
ॎ औं व्यािपन्त्यै नमेः अधेःदन्त्तपंक्तौ ॎ अं व्योमरुपायै नमेः ििरिस,
ॎ अेः अनन्त्तायै नमेः मुखे ॎ कं सृष्टयै नमेः िजहवाग्रे,
ॎ खं ऋििकायै नमेः कण्ठदेिे ॎ गं स्मृत्यै नमेः दक्षबाहुमूले,
ॎ घं मेधायै नमेः दक्षकू पगरे ॎ ङं कान्त्त्यै नमेः दक्षमिणबन्त्धे,
ॎ चं लक्ष्म्यै नमेः दक्षहस्ताड् गुिलमूले, ॎ छं द्युत्यै नमेः दक्षहस्ताड् गुल्यग्रे,
ॎ जं िस्थरायै नमेः वामबाहुमूले, ॎ झं िस्थत्यै नमेः वामकू पगरे,
ॎ ञं िसियै नमेः वाममिणबन्त्धे ॎ टं जरायै नमेः वामहस्तांगुिलमूले,
ॎ ठं पािलन्त्यै नमेः वामहस्ताड् गुल्यग्रे ॎ डं क्षान्त्त्यै नमेः दक्षपादमूले,
ॎ ढं ईश्वररकायै नमेः दक्षजानौ ॎ णं रत्यै नमेः दक्षगुल्िे ,
ॎ तं कािमकायै नमेः दक्षपाड् गुिलमूले ॎ थं वरदायै नमेः दक्षपाड् गुल्यग्रे,
ॎ दं आहलाफदन्त्यै नमेः वामपादमूले, ॎ धं प्रीत्यै नमेः वामजानौ,
ॎ नं दीघागयै नमेः वामगुल्िे , ॎ पं तीक्ष्णायै नमेः वामपादा‍गुिलमूले,
ॎ िं रौरयै नमेः वामपादाड् गुल्यग्रे ॎ बं भयायै नमेः दक्षपाश्वे,
ॎ भं िनरायै नमेः वामपाश्वे ॎ मं तिन्त्रकायै नमेः पृष्ठ,े
ॎ यं क्षुधायै नमेः वामपाश्वे ॎ रं िोिधन्त्यै नमेः हृफद,
ॎ लं फियायै नमेः दक्षांस,े ॎ वं उत्कायै नमेः ककु फद,
ॎ िं समृत्युकायै नमेः वामांसे,
ॎ षं पीतायै नमेः हृदयाफददक्षहस्तान्त्तम्
ॎ सं श्वेतायै नमेः हृदयाफदवामहस्तान्त्तम्
ॎ हं अरुणायै नमेः हृदयाफददक्षपादन्त्तम्
ॎ ळं िसतायै नमेः हृदयाफदवामपादान्त्तम्,
ॎ क्षं अनन्त्तायै नमेः हृदयाफदमस्तकान्त्तम् ॥१३७-१४२॥

इस प्रकार िविवध देवताओं का कलामातृका न्त्यास कहा गया । अतेः कही गई िविध के अनुसार साधकों को अपने अपने इष्ट
देवताओं का कलान्त्यास करना चािहये । तदनन्त्तर कल्पग्रन्त्थों में कही गई िविध के अनुसार अपने अपने मूलमन्त्त्र के न्त्यासों को
भी करना चािहये ॥१४३॥

अब ऋष्याफदन्त्यास कहते हैं -


मूल मन्त्त्र के ऋिष का ििर, पर, छन्त्द का मुख पर, देवता का हृदय पर, बीज का गुह्य में तथा ििक्त का पैरों पर न्त्यास करना
चािहये । फिर अङ्गन्त्यास तथा करन्त्यास भी करना चािहये ॥१४४॥

अब करन्त्यास िविध कहते हैं -


अड् गुष्ठाफद अड् गुिलयों पर तथा करतल करपृष्ठ पर न्त्यास करते समय अड् गुष्ठाभ्यां नमेः, तजगनीभ्यां नमेः, मध्यमाभ्यां नमेः,
अनािमकाभ्यां नमेः, किनष्ठाभ्यां नमेः एवं करतलपृष्ठाभ्यां नमेः ऐसा कहना चािहये ॥१४५॥

अब अङ्गन्त्यास का िवधान करते हैं -


अपनी अपनी मुरा एवं जाितयों के साथ हृदाफद अङ्गों पर न्त्यास करना चािहये । अब उन उन मुराओं को तथा जाितयों को
कहा जा रहा है ॥१४६॥

हृदयाय नमेः ििरसे स्वाहा, ििखायै वषट् कवचाय हुम्, नेत्रत्रयाय वौषट् तथा अस्त्राय िट् से ६ जाित कही जाती है । दो
नेत्रवाले देतवा के न्त्यास में ‘नेत्रभ्यां वौषट् ’ ऐसा कहना चािहये । जहाूँ पञ्चागन्त्यास करना हो वहाूँ नेत्रन्त्यास वर्णजत हैं ॥१४७-
१४९॥

अब अङ्गन्त्यास की मुरायें कहते हैं -


अड् गूठे के अितररक्त िेष तजगनी आफद ४ अड् गुिलयों को िै ला कर हृदय और ििर पर पुनेः अड् गूठा रिहत मुट्ठी से ििखा पर
तथा कन्त्धे से लेकर नािभ पयगन्त्त, दि अड् गुिलयों से कवच पर, तीन नेत्र वाले देवता के न्त्यास में तजगनी आफद ३ अड् गुिलयाूँ
तथा दो नेत्र वाले देवता के न्त्यास में तजगनी और मध्यमा इन दो अड् गुिलयों से न्त्यास करना चािहये । हाथ को िै लाकर ३ बार
ताली बजाकर साधक तजगनी और अड् गूठे के अग्रभाग को िै लाते हुये फदग्बधन करे - यह अस्त्र मुरा कही गई है । िवष्णु के
अङ्गन्त्यास की मुरायें कही गई हैं ॥१४९-१५२॥

तजगनी आफद तीन अङ्गगुिलयों को िै लाकर हृदय पर, दो अड् गुिलयों से ििर पर, अड् गूठे से ििखा पर, दिों अड् गुिलयों से
वमग पर, हृदय के समान हो नेत्र पर तथा पूवगवत् िवष्णु के न्त्यास के समान अस्त्र पर न्त्यास करना चािहये । यहाूँ तक ििक्त
न्त्यास की मुरायें कही गई ॥१५३-१५४॥

अड् गूठे को बाहर िनकाल कर बनी मुिष्ट की मुरा से हृदय पर, तजगनी और अड् गूठा के अितररक्त िेष अड् गुिलयों को िमलाकर
मुट्ठी बनाकर ििर पर न्त्यास करना चािहये । अ‍गूठा और किनष्ठा रिहत मुरटठयों से ििखा पर, अङ्गूठा और तजगनी रिहत
मुरटठयों से कवच पर तथा तजगनी आफद ३ अङ् गुिलयों से नेत्र पर न्त्यास करन चािहये । दोनो हथेली को बजा देने से अस्त्र मुरा
बन जाती है ये ििव के षङ्गन्त्यास की मुरायें कही गई ॥१५४-१५७॥

इसके बाद वणगन्त्यास करना चािहये । न्त्यास फकये िबना मन्त्त्र का जप िनष्िल और िवघ्नदायक कहा गया है ॥१५७॥

पीठ देवताओं के न्त्यास करने के िलये अपेन िरीर को ही पीठ मान लेना चािहए । साधक को मूलाधार पर मण्डू क का,
स्वािधष्ठान पर कालािि का, नािभ पर कच्छप का तथा हृदय में आधार ििक्त से आरम्भ कर (कू मग, अनन्त्त,पृथ्व्वी, सागर,
रत्नद्वीप, प्रासाद एवं) हेमपीठ तक का न्त्यास करना चािहये (र० १.५०-५६) ॥१५८-१५९॥
फिर दािहने कन्त्धे, बायें कन्त्धे, वाम ऊरु एवं दिक्षण ऊरु पर िमिेः धमग, ज्ञान, वैराग्य और ऐश्वयग का न्त्यास करना चािहये
और मुख, वाम पाश्वग नािभ एवं दिक्षण पाश्वग पर िमिेः अधमग, अज्ञान, अवैराग्य, और अनैश्वयग का न्त्यास करना चािहये
॥१६०-१६१॥

इसके बाद पुनेः हृदय में (अनन्त्त से पद्म तक तल्पाकार अनन्त्त, आनन्त्दकन्त्द, सिवन्नाल, पद्म, प्रकृ ितमय, पत्र, िवकारमय के सर
तथा रत्नमय पञ्चािद्बीजाढ्य कर्णणका का) न्त्यास कर, पद्म पर सूयग की (तिपनी आफद १२) कलाओं का, चन्त्रमण्डल की
(अमृता आफद १६) कलाओं का तथा विहनमण्डल की (धूम्रार्णचष् आफद १०) कलाओं का नाम तथा उन कलाओं के आफद में
वणो के प्रारम्भ के अक्षरों को लगाकर न्त्यास करना चािहये । फिर अपने नाम के आद्यक्षर सिहत सत्त्वाफद तीन गुणों का न्त्यास
करना चािहये । तत्पश्चात् अपने नाम के आफद वणग सिहत आत्मा अन्त्तराल और परमात्मा का तथा आफद में परा (ह्रीं) लगाकर
ज्ञानात्मा का न्त्यास करना चािहये ॥१६१-१६३॥

पुनेः माया तत्त्व, कलातत्त्व, िवद्यातत्त्व और परतत्त्व का भी अपने नाम के आफद वणग सिहत न्त्यास करना चािहये । तदनन्त्तर
पीठ ििक्तयों का न्त्यास कर अपने पीठ मन्त्त्र का भी न्त्यास करना चािहये । हृदय में अनन्त्त आफद देवों को उत्तरोत्तर एक दूसरे
का आधार माना गया हैं (र०. १. ५०-५६) लयोंफक सज्ज्नों ने पूवग पूवग का उत्तरोत्तर आधार कहा है ॥१६३-१६५॥

िवमिग - पीठन्त्यास - प्रयोगिविध - अपने संप्रदाय में (वैष्णव िैव, िाक्त, गाणपत्य एवं सौर) कल्पोक्त करन्त्यास, अङ्गन्त्यास
तथा वणगन्त्यासों के करने के बाद अपने िरीर को इष्टदेवता का पीठ मानकर उसके िविध अङ्गों पर पीठ देवताओं का इस
प्रकार न्त्यास करना चािहये - ॎ मण्डू काय नमेः मूलाधारे , ॎ कालाििरुराय नमेः स्वािधष्ठाने, ॎ कच्छपाय नमेः नाभौ, ॎ
आधारिक्तयै नमेः हृफद, ॎ प्रकृ तये नमेः हृफद, ॎ कू मागय नमेः हृफद, ॎ अनन्त्ताय नमेः हृफद, ॎ पृिथव्यै नमेः हृफद ॎ
क्षीरसागराय नमेः हृफद ॎ रत्नद्वीपाय नमेः हृफद ॎ मिणमण्डपाय नमेः हृफद, ॎ कल्पवृक्षाय नमेः हृफद, ॎ मिणवेफदकयै नमेः
हृफद, ॎ हेमपीठाय नमेः हृफद ।

पुनेः धमग अफद का तत्तस्थानों में इस प्रकार न्त्यास करना चािहए । यथा -
ॎ धमागय नमेः दिक्षणस्कन्त्धे, ॎ ज्ञानाय नमेः वामस्कन्त्धे, ॎ वैराग्याय नमेः वामोरी, ॎ ऐश्वयागय नमेः दिक्षणोरीेः ॎ
अधमागय नमेः मुखे, ॎ अज्ञानाय नमेः वामपाश्वे, ॎ अवैराग्याय नमेः नाभौ, ॎ अनैश्वयागय नमेः दिक्षणपाश्वे ।

तदनन्त्तर हृदय में अनन्त्त आफद देवताओम का िनम्निलिखत मन्त्त्रों से न्त्यास करना चािहए । यथा - ॎ तल्पाकारायानन्त्ताय
नमेः हृफद,
ॎ आनन्त्तकन्त्दाय नमेः हृफद ॎ संिवन्नालाय नमेः हृफद,
ॎ सवगतत्त्वात्मकपद्माय नमेः हृफद, ॎ प्रकृ तमयपत्रेभ्यो नमेः हृफद
ॎ िवकारमयके सरेभ्यो नमेःहृफद, ॎ पञ्चािद्बीजाढ्यकर्णणकायै नम्ह हृफद
ॎ अं सूयगमण्डलाय द्वादिकलात्मने नमेः
पुनेः हृत्पद्म पर - ॎ कं भं तिपन्त्यै नमेः ॎ खं बं तािपन्त्यै नमेः
ॎ गं िं धूम्रायै नमेः ॎ घं पं मरीच्यै नमेः ॎ ङं नं ज्वािलन्त्यै नमेः,
ॎ चं धं रुच्यै नमेः, ॎ छं दं सुषुम्णायै नमेः, ॎ जं थं भोगदायै नमेः,
ॎ झं तं िवश्वायै नमेः ॎ ञं णं बोिधन्त्यै नमेः,
ॎ टं ढं धाररण्यै नमेः ॎ ठं डं क्षमयै नमेः ।

पुनस्तत्रैव - ॎ उं सोममण्डलाय षोडिकलात्मने नमेः


ॎ अं अमृतायै नमेः, ॎ आं मानदायै नम्ह, ॎ इं पूषायै नमेः
ॎ ईं तुष्टयै नमेः ॎ उं पुष्टयै नमेः ॎ ऊं रत्यै नमेः
ॎ ऋं धृत्यै नमेः ॎ ऋं िििन्त्यै नमेः ॎ लृं चिण्डकायै नमेः
ॎ ल्ुं कान्त्त्यै नमेः ॎ एं ज्योत्स्नायै नमेः ॎ ऐं िश्रयै नमेः
ॎ ओं प्रीत्यै नमेः ॎ औं अङ्गदायै नमेः ॎ अं पूणागयै नमेः
ॎ अेः पूणागमृतायै नमेः ।

पुनस्तत्रैव - ॎ रं विहनमण्डलाय दिकलात्मने नमेः,


ॎ यं धूम्रार्णचषे नमेः, ॎ रं ऊष्मायै नमेः, ॎ लं ज्विलन्त्यै नमेः
ॎ वं ज्वािलन्त्यै नमेः ॎ िं िवस्िु िलिङ्गन्त्यै नमेः, ॎ षं िुिश्रयै नमेः,
ॎ सं स्वरुपायै नमेः ॎ हं किपलायै नमेः, ॎ ळं हव्यवाहनायै नमेः

पुत्रस्तत्रैव - ॎ सं सत्त्वाय नमेः, ॎ रं रजसे नमेः,


ॎ तं तमसे नमेः ॎ आं आत्मने नमेः, ॎ अं अन्त्तरात्मने नमेः,
ॎ पं परमात्मने नमेः, ॎ ह्रीं ज्ञानात्मने नमेः, ॎ मां मायातत्त्वाय नमेः,
ॎ कं कलातत्त्वाय नमेः, ॎ तव िवद्यातत्त्वाय नमेः, ॎ पं परतत्त्वाय नमेः ।

उपयुगक्त रीित से सभी न्त्यास सभी देवताओं की उपासना में िविहत है । इसके बाद हृत्पद्म के पूवागफद के सरों पर तत्तद्देवताओं
की कल्पोक्त पीठ ििक्तयों का न्त्यास करना चािहये । तदनन्त्तर पुनेः हृदय के मध्य में पीठमन्त्त्र से न्त्यास करना चािहये ॥१५९-
१६५॥

इस प्रकार अपने देहमय पीठ पर अपने इष्ट देवता का ध्यान करना चािहये । तदनन्त्तर उनकी मुरायें प्रदर्णित कर मानस पूजा
भी करनी चािहये ॥१६६॥

मानस पूजा करते समय तन्त्मय हो कर इन मन्त्त्रों से इष्टदेव का पूजन भी करन चािहये ।
इसी प्रकार अन्त्य देवताओं के मानस पूजन में के िव के स्थान में िंकर, पावगती, गणेि, फदनेि, आफद पद का ऊह कर के
उिारण करना चािहये ॥१६७-१६८॥

मानस पूजा िविध - सवगप्रथम अपने इष्टदेव के स्वरुप का ध्यान कर उनकी मुरा प्रदर्णित करे । तदनन्त्तर तन्त्मय हो कर
‘स्वागत’ आफद मन्त्त्र से उनका स्वागत कर सिन्निधकरण करे । फिर मानसोपचारों से उनका पूजन करे । इस प्रकार मानस
पूजा करने के बाद साधक कु छ क्षणों के िलये तन्त्मय हो इष्टदेव के मूल मन्त्त्र का १०८ बार जप करे ॥१६९॥

तदनन्त्तर देवता को जप समर्णपत कर िविेषाघ्नयग भी स्थािपत करन चािहये । यहाूँ तक मानस पूजा का प्रकार कहा गया । अब
बाह्य पूजा के िलये उसकी िविध िनरुपण करता हूँ ॥१७०॥

द्वातवि तरङ्ग
अररत्र
अब पूवगप्रितज्ञात अघ्नयगस्वरुप कहते हैं - अपने वामाग्र भाग में ित्रकोण, उसके बाद षट्कोण, फिर वृत्त तदुपरर चतुरस्त्र रुप
मन्त्त्र िलखकर ि‍खमुरा से उसे स्तिम्भत करना चािहए ॥१॥
िवमिग - ि‍खमुरा का लक्षण - बायें हाथ के अंगूठे को दािहनी मुट्ठी में रलखें, दािहनी मुट्ठी को ऊध्वगमुख रखकर उसके अंगूठे
को िै लाए । बायें हाथ की सभी उं गािलयों को एक दूसरे के साथ सटा कर िै ला दे । अब बायें हाथ की िै ली उं गिलयों को
दािहनी ओर घुमा कर दािहने हाथ के अंगूठे का स्पिग करे तब यह िड् ख मुरा कहलाती हैं ॥१॥

उस यन्त्त्र के आिेयाफद कोणों में पुष्प तथा अक्षतों ष‍ङ्ग पूजा करनी चािहए । फिर ‘िट् ’ इस अस्त्र मन्त्त्र से प्रक्षािलत आधार
पात्र को वक्ष्यमाण मन्त्त्र का उिारण करते हुये ित्रकोण पर स्थािपत कर देना चािहए । ‘(ॎ) मं विहनमण्डलाय दिकलात्मने
देवाघ्नयगपात्रासनाय नमेः’ । यह २४ अक्षर का आधारपात्र स्थािपत करने का मन्त्त्र है ॥२-४॥

तदनन्त्तर आधारपात्र पर पूवागफदफदिाओम में (धूम्रार्णचष् आफद) अििकलाओं का तत्तनामों द्वारा पूजन करना चािहए । फिर
आधारपात्र के ऊपर अस्त्र मन्त्त्र से प्रक्षािलत िड् ख को ‘(ॎ) अं सूयगमण्डलाय द्वादिकलात्मने देवाघ्नयगपात्राय नमेः’, इस २३
अक्षरों के मन्त्त्र से स्थािपत करना चािहए ॥४-६॥

अमुक देव के स्थान पर अपने इष्ट देवता का चतुथ्व्यगन्त्त नाम (राम, कृ ष्ण, दुगाग, गणेि, ििव आफद का चतुथ्व्यगन्त्त) उिारण
करना चािहए । पुनेः तार (ॎ), काम (ललीं), एवं ‘माहाजलचराय हुं िट् स्वाहा पाञ्चजन्त्याय नमेः’, इस २० अक्षर के मन्त्त्र से
िड् ख को प्रक्षािलत कर देना चािहए ॥६-७॥
तदनन्त्तर िड् ख के ऊपर (तािपनी आफद) द्वादि सूयगकलाओं का पूजन करना चािहए । पश्चात् िवलोम मातृकाओं एवं िवलोम
मन्त्त्र ‘ॎ सोममण्डलाय षोडिकलात्मने देवाघ्नयागमृताय नमेः’ बोलते हुये उसमें जल भर कर इस मन्त्त्र से जल का पूजन कर
उसमें चन्त्रमा की अमृताफद १६ कलाओं का पूजन करना चािहए ॥८-९॥

पुनेः पाऊस अघ्नयागफदप में अंकुि मुरा प्रदर्णित कर ‘गङ्गे च यमुने चैव’ इस मन्त्त्र से तीथो का आवाहन करना चािहए । फिर
जल का स्पिग करते हुये एकाग्रिचत्त हो ८ बार मूलमन्त्त्र का जप करना चािहए । पश्चात् जल में अङ्गन्त्यास कर हृदय (नमेः)
मन्त्त्र से पुनेः उसका पूजन करना चािहए । फिर मत्स्य मुरा से उसे आच्छाफदत कर १०८ बार मूल मन्त्त्र का करना चािहए
॥१०-१२॥

फिर अस्त्र (िट् ) मन्त्त्र से मुरा द्वारा रक्षा करनी चािहए । वमग (हुं) मन्त्त्र से अवगुण्ठनी मुरा द्वारा उसे गोंठ देना चािहए । पुनेः
धेनुमुरा से अमृतीकरण करने के बाद अमृत बीज (वं) मन्त्त्र से संरोिधनी मुरा प्रदर्णित करते हुये संरोधन कर िड् ख, मुिल एवं
चि मुरायें कर महामुरा से परमीकरण करना चािहए । तदनन्त्तर योिन मुरा प्रदर्णित करनी चािहए ॥१३-१५॥

कृ ष्ण मन्त्त्र के अनुष्ठान में गािलनी मुरा तथा राम मन्त्त्र के अनुष्ठान में गरुड मुरा प्रदर्णित करनी चािहए ॥१६॥

िड् ख के दिक्षण फदिा में प्रोक्षणी पात्र में जल भर कर अघ्नयग पात्र से उसमें थोडा जल डाल कर अपने िरीर का तीन बार
प्रोक्षण करना चािहए । फिर मूलमन्त्त्र एवं गायत्री मन्त्त्र का उिारण करते हुये पूजा सामग्री को भी प्रोिक्षत करना चािहए ।
उस स्थािपत की उत्तर फदिा में पाद्य एवं आचमन पात्र स्थािपत करना चािहए ॥१६-१८॥

यहाूँ तक सभी देवताओं के पूजन में प्रयुक्त िविेषाघ्नयग स्थापन की सामान्त्य िविध मैने कही ॥१८॥

भगवान् िंकर एवं सूयगदव


े को छोडकर अन्त्य समस्त देवताओं के अघ्नयग के िलए िड् ख पात्र प्रिस्त माना गया है ॥१९॥

िवमिग - अघ्नयग पात्र स्थापन की संक्षेप िविध -


पूवग में आधार पात्र स्थापन की िविध २२. १-३ में कह आये हैं । उस स्थािपत आधार पात्र के पूवागफद दि फदिाओं में अिि की
१० कलाओं का इस प्रकार पूजन करना चािहए । यथा - ॎ रं विहनमण्डलाय दिकलात्मने नमेः । ॎ यं धूम्रार्णचषे नमेः, ॎ रं
रुष्मायै नमेः, ॎ लं ज्विलन्त्यै नमेः,
ॎ वं ज्वािलन्त्यै नमेः, ॎ िं िवस्िु तलिगन्त्यै नमेः, ॎ षं सुिश्रयै नमेः
ॎ स्म स्वरुपायै नमेः, ॎ हं किपलायै नमेः, ॎ ळं हव्यवाहायै नमेः

फिर ‘ॎ ललीं महाजलचराय हुं िट् स्वाहा पाञ्चजन्त्याय नमेः’ इस मन्त्त्र से सामान्त्याघ्नयगक जल से िड् ख को प्रक्षािलत करना
चािहए । तदनन्त्तर ‘अं सूयगमण्डलाय द्वादिकलात्मने अमुकाघ्नयगपात्राय नमेः’ इस मन्त्त्र से आधार पात्र पर ि‍ख को स्थािपत
करना चािहए ।

फिर उस िड् ख पर सूय्र की द्वादि कलाओं का तत्तन्नामों से इस प्रकार पूजन करना चािहए । यथा - ॎ कं भं तिपन्त्यै नमेः, ॎ
खं बं तािपन्त्यै नमेः,
ॎ गं िं धूम्रायै नमेः ॎ घं पं मरीच्यै नमेः,
ॎ डं नं ज्वािलन्त्यै नमेः ॎ चं धं रुच्यै नमेः,
ॎ छं दं सुषुम्णायै नमेः ॎ जं थं भोगदायै नमेः
ॎ झं तं िवश्वायै नमेः, ॎ ञं णं बोिधन्त्यै नमेः,
ॎ टं ढं धाररण्यै नमेः ॎ ठं डं क्षमायै नमेः

तत्पश्चात् क्षं ळं हं िं ... आं अं पयगन्त्त िवलोग मातृका से तथा िवलोम मूलमन्त्त्र बोलते हुये ि‍ख में जल भर कर ‘ॎ
सोममण्डलाय षोडिकलात्मने अमुकाघ्नयागमृताय नमेः’, मन्त्त्र से लाल चन्त्दन एवं पुष्पाफद से उस जल का पूजन करना चािहए

फिर चन्त्रमा की १६ कलाओं का नाम उनके मन्त्त्रों से इस प्रकार पूजन करना चािहए । यथा - ॎ अं अमृतायै नमेः, ॎ आं
मानदायै नमेः,
ॎ इं पूषायै नमेः, ॎ ईं तुष्ट्यै नमेः, ॎ उं पुष्ट्यै नमेः,
ॎ ऊं रत्यै नमेः, ॎ ऋं धृत्यै नमेः, ॎ ऋं िििन्त्यै नमेः,
ॎ लृं चिण्डकायै नमेः, ॎ लृं कान्त्त्यै नमेः, ॎ एं ज्योत्स्नायै नमेः,
ॎ ऐं िश्रयै नमेः, ॎ ओं प्रीत्यै नमेः, ॎ औं अङ्गदायै नमेः,
ॎ अं पूणागयै नमेः, ॎ पूणागमृतायै नमेः

तदनन्त्तर - ॎ गङ्गे यमुने चैव गोदावरर सरस्वित ।


नमगदे िसन्त्धु कावेरर जलेऽिस्मन् सिन्नतध कु रु ॥
ॎ ब्रह्मण्डोदरतीथागिन करस्पृष्टािन ते रवे ।
तेम सत्येन मे देव तीथं देिह फदवाकर ॥

इस मन्त्त्र को पढकर अंकुि मुरा द्वारा सूयग मण्डल से अघ्नयोदक में तीथो का आवाहन कर हृदय में भी अपने इष्टदेवता का
आवाहन करना चािहए । फिर जल का स्पिग कर एकाग्रिचत्त से ८ बार मूलमन्त्त्र का जप कर जल में षडङ्गन्त्यास कर ‘नमेः’
मन्त्त्र से जल का पूजन करना चािहए ।
फिर मत्स्य मुरा से उसे आच्छाफदत कर मूलमन्त्त्र का १०८ बार जप करना चािहए । िेष श्लोकाथग में स्पष्ट है । अब िविेषाघ्नयग
स्थापन के प्रसङ्ग में आई हुई मुराओं का लक्षण प्रदर्णित करते हैं -

िड् ख मुरा का लक्षण - रष्टव्य २२. १-२।

अंकुिमुरा - दोनों मध्यमाओं को सीधा रखते हुए दोनों तजगिनयों को मध्य पोर के पस परस्पर बाूँधे । अब तजगिनयों को थोडा
झुकाकर एक दूसरे को खींचे । यह अंकुि मुरा है ।

मत्स्यमुरा - बाई हथेली को दािहने हाथ के पृष्ठ भाग पर रलखे और फिर दोनों अड् गुठों को हथेली को पार करते हुए िमलाए
। यह मत्स्य मुरा है ।

छोरटकामुरा - तजगनी एवं अङ् गूठे के घषगण से चुटकी बजाने को छोरटका मुरा कहते है ।

अवगुण्ठनमुरा - दायें हाथ की मुट्ठी बाूँध कर तजगनी को अधोमुख करके पुनेः उसे िनयिमत रुप से आगे-पीछे करने से
‘अवगुण्ठन मुरा’ बनती है ।

धेनुमुरा - बायें हाथ की मध्यमा को दािहने हाथ की तजगनी से और बायें हाथ की अनािमका को दािहने हाथ की किनिष्ठका से
िमलाये । इस प्रकार िमली अनािमका और किनष्ठा को अङ्गुठे से दबा कर उनसे बायें कन्त्धों का स्पिग करे । यह धेनु मुरा हैं ।

सिन्नरोधन मुर - दोनों हाथों की मुट्ठी को एक साथ आिश्लष्ट कर सिन्नधान में दोनों अङ् गूठों को ऊपर करना तन्त्त्रवेत्ताओं के
द्वारा सिन्नरोधन मुरा कही गई है । वही सिन्नरोधनी ‘अङ्गगुष्ठगर्णभणी’ भी कही गई है ।

मुसलमुरा - दोनों हाथों की मुठ्ठी बाूँधे फिर दािहनी मुट्ठी को बायें पर रलखे । इसे मुसल मुरा कहते हैं ।

चिमुरा - दोनों हाथों को इस प्रकार सम्मुख रलखे फक दोनों हथेिलयाूँ ऊपर हों । फिर दोनों हाथों की उं गिलयों को मोड कर
मुरटठयाूँ बना लेवे । अब दोनों अङ्ग्गूठों को झुका कर परस्पर स्पिग कराये और दोनों तजगिनयों को छोड कर दोनों हाथों की
उं गिलयों को िै ला दे । अंगूठे की ही भाूँित दोनों तजगिनयाूँ भी एक दूसरे का स्पिग करती है । इस चि मुरा कहते हैं ।

महामुरा - दोनों अंगूठों को एक दूसरे के साथ ग्रिथत करके दोनों हाथों की उूँ गिलयों को प्रसाररत कर देने से परमीकरण के
िलए िवद्वानों के द्वारा महामुरा कही गई है ।

योिगमुरा - दोनों किनिष्ठकाओम को, तथा तजगनी और अनािमकाओम को बाूँधे । अनािमका को मध्यमा से पहले फकिञ्चत
िमलाये और फिर उन्त्हें सीधा कर दे । अब दोनों अंगूठों को एक दूसरे पर रलखे । यह योिन मुरा है ।

गािलनीमुरा - दोनों हथेिलयों को एक दूसरे पर रलखे । किनिष्ठकाओं को इस प्रकार मोडे फक वे अपनी-अपनी हथेिलयों का
स्पिग करें । तजगनी, मध्यमा और अनािमका उूँ गिलयाूँ सीधी और परस्पर िमली रहें । यह िड् ख बजाने की गािलनी मुरा है ।

गरुडमुरा - दोनों हाथों के पृष्ठ भाग को एक दूसरे से िमला लें । अब नीचे की ओर लटके हुए दोनों हाथों की तजगनी और
किनिष्ठका को एक दूसरे के साथ ग्रिथत करे । इसी िस्थित में दोनों हाथों की अनािमका और मध्यमाओं को उल्टी फदिाओं में
फकसी पक्षी के पंखों की भाूँित ऊपर नीचे जब फकया जाय तब िवष्णु का सन्त्तोषवधगन करने वाली गरुड मुरा होती है ॥१९॥
अब पाद्याफद पात्रों का वणगन करते हैं -
सुवणग चाूँदी ताूँबा पीतल पलाि के पत्ते अथवा कमल मे पत्तों से बने पाद्य आफद के पात्र श्रेष्ठ कहे गये है । अिक्त होने पर पाद्य
पात्र अपने इष्ट देवता को िनवेदन करना चािहए ॥१९-२०॥

अब अन्त्तयागग की प्रफिया कहते हैं - िवद्वान् साधक को अपने देहमय पीठ पर अन्त्तयागग करना चािहए । पीठ न्त्यास में कहे गये
स्थानों पर (र० २१. १५८-१६५) मण्डू काफद देवताओं का गन्त्धाफद उपचारों से पूजन करना चािहए । फिर पीठ मन्त्त्र से
अपने हृदय में इष्ट देवता का पूजन करना चािहए ॥२१-२२॥

तदनन्त्तर आधार चि से कु ण्डिलनी को ऊपर उठाकर ब्रह्मरन्त्र में वतगमान परब्रह्म के पास ले जाना चािहए और वहाूँ से
टपकती हुई अमृत धारा से इष्टदेव को तृप्त करना चािहये, और जप कर उन्त्हें सारा जप समर्णपत करना चािहए । मन से उनका
कभी िवसगजन नहीं करना चािहए ॥२२-२३॥

फिर ििर, हृदय, पैर, गुदाङ्ग एवं समग्र िरीर पर पुष्पाञ्जिलयाूँ प्रत्यर्णपत करनी चािहए । इस तरह अन्त्तयागग करके
वाह्यपूजन करना चािहए । इस प्रकार गृहस्थ को अन्त्तयागग और बिहयागग दोनों करने का अिधकार है । फकन्त्तु ब्रह्मचारी,
वानप्रस्थ और यित को मात्र अन्त्तयागग ही करना चािहए ॥२४-२५॥

बाह्य पूजा िविध - सवगप्रथम साधक एकाग्र होकर अघ्नयागफदक का जल विगनी में डाले, फिर मूलमन्त्त्र से प्राणायाम कर अपनी
बायीं ओर गुरुपंिक्त को तथा दािहनी ओर गणपित को प्रणाम कर पीठ पूजा प्रारम्भ करे ॥२६-२७॥

स्वणग आफद से िनर्णमत अथवा चन्त्दन िलिखत यन्त्त्र पर मण्डू क से परतत्त्वान्त्त देवताओं का पूजन कर आठो फदिाओं में तथा
मध्य में पीठििक्तयों का पूजा करे ॥२७॥

लक्ष्मी के साथ िवष्णु पूजन करते समय क्षीर सागर का,गणेि पूजन काल में इक्षुसागर का तथा अन्त्य देवताओं के पूजन में
सागर का पूजन कर ॥२८-२९॥

फिर यन्त्त्र के आिेय, नैऋत्ये, वायव्य और ईिान कोणों में धमग, ज्ञान, वैराग्य और ऐश्वयग का पूजन करे तथा फिर पूवग, दिक्षण,
पिश्चम तथा उत्तर फदिाओं में अधमग, अज्ञान, अवैराग्य तथा अनैश्वयग का पूजन करना चािहए । साधक को धमागफद की पूजा
तथा आवरण पूजा में प्राची फदिा से आरम्भ करनी चािहए । ‘पूज्य पूजकयोमगघ्नये प्राचीकल्पेः’ - ऐसा धमगिास्त्र का वचन हैं,
िजस प्रकार इन्त्राफद फदलपालों की पूजा प्राची से प्रारम्भ होती है ॥२८-३१॥

फिर श्वेत, कृ ष्ण, अरुण, पीत, श्याम, रक्त, श्वेत, कृ ष्ण और रक्त वस्त्र धारण फकये हुये तथा अभय मुरा वाली पीठ ििक्तयों का
ध्यान करना चािहए ॥३१-३२॥

िालग्राम में. मिण में तथा में िनत्यपूजा का िवधान है । सुवणागफद िनर्णमत प्रितमा अथवा सिविध स्थािपत प्रितमा का भी
प्रितफदन पूजन करना चािहए। अंगूठे से लेकर १ बिलश्त की प्रितमा का घर में भी पूजन फकया जा सकता है । जली, टूटी,
उूँ ची - नीची दुिष्ट वाली तथा वि आकृ ित की प्रितमा का पूजन िनिषि है ॥३२-३४॥

सवगलक्षण संयुक्त ििव िल्ङ्ग का पूजन घर में करना चािहए और उसमें आवाहन भी करना चािहए ॥३४॥
मूल मन्त्त्र का उिारण करते हुये हृदय से सुषुम्ना मागग द्वारा ब्रह्मरन्त्र में िस्थत इष्टदेव को, नासारन्त्र से पुनेः उन्त्हें िनकाल कर,
मातृका यन्त्त्र पर स्थािपत पुष्पाञ्जिल में एकीकृ त कर उन्त्हें मूर्णत पर समर्णपत कर देना चािहए । इस फिया को आवाहन कहते
हैं ॥३५-३६॥

िालग्राम ििला में अथवा अचल प्रितिष्ठत मूर्णत में न तो आवाहन करना चािहए और न तो िवसगजन ही करना चािहए । मूर्णत
में आवाहनाफद उपचारों से पूजा करते समय िंकर जी द्वारा कहे गये इस श्लोक का उिारण करना चािहए - आत्मसंस्थमज्म
त्वामहं परमेश्वर् ।
अरण्यािमव हव्यांि मूतागवावाहयाप्यहम् ॥३७-३९॥

अब पञ्चायतन में देवताओम के स्थापन का िम कहते है -


पञ्चायतन के पक्ष में, मध्य में िवष्णु की पूजा होती है । फिर अिेय, नैऋत्य, वायव्य, और ईिान कोण में िमिेः गणेि, रिव,
ििक्त और ििव का स्थापन, कर पूजा करनी चािहए ॥३९-४०॥

मध्य में गणेि को स्थािपत कर पूजा करनी हो तो उक्त कोणों में िमिेः ििव, ििक्त, रिव और िवष्णु का, रिव मध्य में हो तो
उक्त कोणों में गणेि, िवष्णु, ििक्त और ििव का, ििक्त, मध्य में हो तो उक्त कोणों में ििव, गणेि, सूयग और िवष्णु का तथा
ििव मध्य में होने पर िमिेः रिव, गणेि, ििक्त और अच्युत का पूजन करना चािहए ॥४०-४१॥

सवगप्रथम मध्यगत देव का पूजन करने के बाद ही गणेिाफद की पूजा करनी चािहए । मध्य में गणेि होने पर उनका पूजन कर
पुनेः रिव आफद के पूजन का िवधा है । यहाूँ प्राचीन मनीिषयों ने काण्डानुसमय िविध से पूजा बतलाई है - एक देवता का
पूजाकाण्ड समाप्त कर दूसरे देवता का अचगनकाण्ड ‘काण्डानुसमय’ कहा जाता है ॥४२-४३॥

अब पूजा का िम कहते है -
आवाहनी मुरा से इस प्रकार इष्टदेव का आवाहन कर मूल मन्त्त्र के साथ
‘तवेयं मिहमामूर्णतस्तस्यां त्वां सवगगं प्रभो ।
भिक्तस्नेहसमाकु ष्टं दीपवत्स्थापयाम्यहम्’ ॥

इस श्लोक को बोलते हुये संस्थापनी मुरा से मूर्णत स्थािपत करनी चािहए । अपने इष्टदेव का पूजन करते समय आवाहनाफद के
िलए भवानी, गणेि, रिव तथा िवष्णु का ऊहापोह कर लेना चािहए ॥४३-४५॥

िवमिग - आवाहन मुरा - दोनों हाथों से अञ्जिल बाूँध कर दोनों अंगूठों को अपनी-अपनी अनािमकाओं के मूल पवों पर िनिक्षप्त
करना चािहए । िवद्वज्जन इसे आवाहनी मुरा कहते हैं ।

स्थापनी मुरा - उक्त आवाहनी मुरा बनाकर उसे अधोमुखे कर देने से स्थापनी मुरा िनष्पन्न होती है ॥४३-४५॥

अब आसनदान तथा उपवेिन कहते हैं - मूलमन्त्त्र के साथ ‘सवागन्त्तयागिमणे देव सवगबीजमय्म िुभम्, स्वात्मस्थाय पदं
िुिमासनं कल्पयाम्यहम्’ - यह श्लोक बोलकर, आसन देना चािहए । पुनेः मूलमन्त्त्र के साथ ‘अिस्मन्त्वरासने देव
सुखसीनोऽक्षरात्मक प्रितिष्ठतो भवेि त्वं प्रसीद परमेश्वर’ यह श्लोफक बोलकर उपवेिन कराना चािहए ॥४६-४७॥

सिन्नधान मूल मन्त्त्र के साथ - ‘अनन्त्या तव देवेि मूर्णतििक्तररयं प्रभो सािनध्यं कु रु तस्यां त्वं भक्तानुग्रहतत्परेः’ - इस श्लोक को
बोलकर सिन्नधान मुरा से सिन्नधान करना चािहए ॥४८-४९॥
िवमिग - सिन्नधानमुरा का लक्षण - तन्त्त्रवेत्ताओं के द्वारा दोनों मुरटठयोम को एकसाथ िमलाना और दोनों अंगूठों को ऊपर
उठाना सिन्नधान मुरा कही गई है ॥४८-४९॥

अब सिन्नरोधन कहते हैं - मूल मन्त्त्र के साथ’ आज्ञया तव ... िनरुणिघ्नम िपतगुगरौ पयगन्त्त श्लोक बोलते हुये सिन्नरोधमुरा द्वारा
सिन्नरोधन करना चािहए ॥५०॥

सम्मुखीकरण - मूलमन्त्त्र के साथ ‘अज्ञानाद् दुमगनस्त्वाद्वा ... भव’ पयगन्त्त श्लोक पढकर सम्मुखी मुरा द्वारा संम्मुखीकरण करना
चािहए ॥५१-५२॥

िवमिग - सम्मुखीकरणमुरा - हृदय पर बंधी हुई अञ्जली रखना सम्मुखीकरणमुरा कही गयी है ॥५१-५२॥

अब सकलीकरण कहते है - मूलमन्त्त्र के साथ ‘दृिापीयूष... महेश्वर; पयगन्त्त श्लोक पढते हुये प्रार्णथनी मुरा द्वारा इष्टदेव का पूजन
करना चािहए । देवता के अङ् गो में षडङ्गन्त्यास को िवद्वान् लोग सकलीकरण कहते हैं ॥५३-५४॥

अब अवगुण्ठन कहते हैं - मूलमन्त्त्र के साथ ‘अव्यक्त... सवगतेः’ पयगन्त्त श्लोक पढते हुये अवगुण्ठन करना चािहए ॥५५॥

िवमिग - अवगुण्ठन मुरा - (र० २२. १९) ॥५५॥

अमृतीकरण एवं परमीकरण - धेनुमुरा से अमृईकरण करने के बाद महामुरा प्रदर्णित करते हुये परमीकरण करना चािहए ।
फिर इष्टदेव का स्वागत करना चािहए ॥५६॥

िवमिग - धेनुमुरा, महामुरा - (र० २२. १९) ॥५६॥

स्वागत एवं सुस्वागत मूल मन्त्त्र के साथ ‘यस्य ... स्वागतं च तें’ पयगन्त्त श्लोक पढते हुये िनज इष्ट देव का स्वागत करना चािहये
। फिर मूल मन्त्त्र के साथ - ‘कृ ताथो... सुस्वागतिमदं पुनेः’ पयगन्त्त (र० ५९, ६०) श्लोक पढते हुये इष्टदेव का सुस्वागत करना
चािहए ॥५७-५९॥

पाद्यसमपगण िविध - श्यामाक, िवष्णुिान्त्ता (अप्रािजता), कमल एवं दूवाग पाद्य जल में िमलाना चािहए । फिर मूल मन्त्त्र के
साथ ‘यद्भिक्तलेििुिाय कल्पये पयगन्त्त (र० २२.६१) श्लोक पढ के अन्त्त में नमेः जोड कर इष्टदेव के चरण कमलोम में पाद्य
समर्णपत करना चािहए ॥६०-६२॥

आचमन िविध - लवंग, जायिल और कं कोल ये तीन वस्तुये, आचमनीय जल में िमलाना चािहए । फिर मूल मन्त्त्र पढकर
‘वेदानामिप...िुििहेतवे’ पयगन्त्त (र० २२. ६३) श्लोक कहकर इष्टदेव को आचमन देना चािहए ॥६२-६४॥

अध्यगदान िविध - अघ्नयगपात्र में दूवाग, ितल, कु िा का अग्रभाग, सषगप, यव, पुष्प, अक्षत एवं कुं कु म डालना चािहए । फिर मूल
मन्त्त्र के साथ ‘तापत्रहरं ’ से ‘कल्पयाम्यहम्’ (र० २२. ६६) पयगन्त्त श्लोक के अन्त्त में स्वाहा पढकर देवता को ििर पर अघ्नयग देना
चािहए ॥६४-६६॥
मधुपकग दान िविध - मधुपकग के पात्र में दही, घी एवं िहद डालना चािहए फिर मूल मन्त्त के साथ ‘सवगकालुष्य...प्रसीद में’ (र०
२२. ६८) पयगन्त्त श्लोक पढकर अन्त्त में ‘वं’यह सुधा बीज बोलते हुये इष्टदेव के मुख में मधुपकग समर्णपत करना चािहए ॥६७-
६९॥

पुनराचमन िविध - मूल मन्त्त्र के साथ ‘उिच्छष्टो...पुनराचमनीयकम्’ पयगन्त्त (र०२२. ६९-७०) श्लोक पढ्कर पुनराचमनीय
समर्णपत करना चािहए । इसी प्रकार स्नान, वस्त्र तथा यज्ञोपवीत एवं नैवेद्य के बाद भी पुनराचमनीय देना चािहए । पाद्य
आफद वस्तुओं के अभाव में उनका स्मरण कर मात्र अक्षत चढा देना चािहए ॥६९-७१॥

तैल उद्वतगन एवं स्नान िविध - मूल मन्त्त्र के साथ ‘स्नेहं गृहाण... स्नेहमुतमम्’ (र० २२. ७२) पयगन्त्त श्लोक पढकर सुगिन्त्धत तेल
लगाना चािहए ॥७१-७२॥

फिर हरररा लेपन करने के बाद िनज इष्टदेव को मूल मन्त्त्र के साथ ‘परमानन्त्द...कल्पयाम्यमीिते’ पयगन्त्त (र० २२.७३-७४)
श्लोक पढकर स्नान करना चािहए ॥७१-७३॥

अिभषेक िविध - इसके बाद एक हजार अथवा १ सौ अथवा यथा ििक्त िड् ख से सुगिन्त्धत जल से मूल मन्त्त्र बोलते हुये इष्ट
देवता का अिभषेक करना चािहए ॥७४॥

वस्त्र एवं उत्तरीय दान िविध - मूलमन्त्त्र के साथ ‘मायािचत्र’ से ‘कल्पयाम्यहम्’ पयगन्त्त (र० २२. ७६) श्लोक पढते हुये वस्त्र
प्रदान करना चािहए । फिर मूल मन्त्त्र के साथ यमािश्रत्य...उत्तरीयकम्’ पयगन्त्त (र० २२. ७७) श्लोक पढकर इष्टदेव को
उत्तरीय प्रदान करना चािहए । िवष्णु को पीतवणग का, सदाििव को श्वेत वणग का, गणपित, सूयग एवं ििक्त को रक्त वणग का
वस्त्र िप्रय है । िटा हुआ, मैला, पुराना एवं तैलाफद दूिषत वस्त्र पूजा में सवगथा त्याज्य हैं ॥७५-७९॥

उपवीत एवं आभूषण समपगण िविध - मूलमन्त्त्र के साथ ‘यस्य...यज्ञसूत्रं प्रकल्पये’ पयगन्त्त (र० २२. ७९-८०) श्लोक पढकर
यज्ञोपवीत चढाना चािहए । इसके बाद पुनेः मूलमन्त्त्र के साथ ‘स्वभाव...कल्पयाम्यमरार्णचतम्’ पयगन्त्त (र०२२. ८०-८१)
श्लोक पढकर इष्टदेव को िविवध आभूषण समर्णपत करना चािहए ॥७९-८०॥

लोकमोहन न्त्यास िविध - मूलमन्त्त्र से संपुरटत मातृकाक्षरों (वणगमाला) के एक एक अक्षर का देवता के अङ्गो पर न्त्यास करना
चािहए । इसे लोकमोहन न्त्यास कहते हैं ॥८१॥

गन्त्धदान िविध - मूल मन्त्त्र के साथ ‘परमानन्त्दसौभाग्य... कृ पया परमेश्वर’ पयगन्त्त (र० २२. ८३) श्लोक बोलते हुये किनष्ठा
अंगुली से पात्र में रखे गए गन्त्ध ले कर गन्त्ध समपगण करना चािहए । फिर किनष्ठा और अंगूठ िमलाकर गन्त्ध मुरा प्रदर्णित
करनी चािहए ॥९२-८४॥

पुष्पसमपगण िविध - मूल मन्त्त्र के साथ ‘तुरीयवन संभूतं ... गृह्यतािमदमुत्तम्म पयगन्त्त’ (र० २२. ८५) श्लोक पढकर नानािवध
पुष्प समर्णपत करना चािहए । फिर तजगनी एवं अंगूठे को िमलाकर पुष्प मुरा प्रदर्णित करनी चािहए ॥८४-८५॥

अब तत्त्द्देवताओं के पूजन में वर्णजत पुष्प कहते हैं - बुििमान साधक िवष्णु को अक्षत, आक एवं धतूरा का पुष्प न चढावे ।
बन्त्धूक (दुपहररया), के तकी, कु न्त्द, मौिलिसरी कु टज(कौरैय), जयपणग, मालती, एवं जूही के पुष्प ििव को न चढावे । दूब,
धतूरा, मन्त्दार, हरिसङार , बेल दुगाग पर नहीं चढाना चािहए । इसी प्रकार सूयग को तगर और गणपित को तुलसी पत्र कभी
भी न समर्णपत करे । श्वेत तथा पीत वणग के पुष्प िवष्णु को िप्रय है । रक्त वणग के पुष्प सूयग एवं गणेि जी के िलए प्रिस्त माने
गये हैं ॥८५-८९॥

अब िनिषि पुष्प कहते हैं - गन्त्धरिहत, के ि एवं कीट, दूिषत, उग्रगिन्त्ध, मिलन, नीच व्यिक्त से संस्पृष्ट आघ्रात, अपने प्रयन्त्त
से िवकास को प्राप्त, अिुिपात्र में रखे गये, स्नान कर आरग वस्त्र से लाये गये, यािचत, सूखे हुये, वासी, काले वणग के , पृथ्व्वी पर
नीचे िगरे हुये िू लों को देवता नहीं चढाना चािहए ॥८९-९१॥

चम्पा और कमल की किलयों को छोडकर अन्त्य पुष्पों की किलयाूँ पूजा में वर्णजत हैं । कु रण्टक, कचनार और दोनों प्रकार के
बृहती पुष्प भी पूजा में वर्णजत माने गये हैम । पुष्प, पत्र िल अधोमुख कर देवता को नहीं चढाना चािहए । पुष्पाञ्जिल में
पयुगिषत तथा अघोमुख पुष्पों, का दोष नही माना जाता ॥९१-९३॥

पूजा में ग्राह्य पत्र, तुलसी, मौलिसरी, चम्पा, कमिलनी, बेल, कल्हार (श्वेत कमल), दमनक, महुआ, कु िा, दूवाग, नागवल्ली,
अपामागग, िवष्णुकान्त्ता, अगस्त्य तथा आूँवला इनके पत्तों से देवताओं की पूजा प्रिस्त कही गई है ॥९३-९४॥

अब प्रिस्त िलों को कहते हैं - जामुन, अनार, नींबू, इमली, िबजौरा, के ला, आूँवला, वैर, आम तथा कटहल के िलों से देव
पूजा करनी चािहए । तुलसी तो िवष्णुिप्रया है, अतेः अमलतास का पुष्प तथा तुलसी ये दोनों कभी िनमागल्य नहीं होते ॥९५-
९७॥

अब आवरणाचगन का िवधान कहते हैं - इस प्रकार पुष्प पूजा करने के बाद षडङ्गपूजा से प्रारम्भ कर फदलपाल तथा उनके
आयुधों की पूजापयगन्त्त आवरण पूजा करनी चािहए । इसके बाद धूप, दीप आफद उपचारों से अपने इष्टदेव का पूजन करना
चािहए । आिेय, नैऋत्य, वायव्य तथा ईिान कोणों में हृदय, ििर, ििखा एवं कवच का पूजन कर अग्रभाग में नेत्र तथा
फदिाओं में अस्त्र पूजा करनी चािहए । अङ्गपूजा करते समय ३ श्वेत वणग वाली तथा ३ रक्तवणग वाली इस प्रकार कु ल ६
अङ्ग देिवयों का ध्यान करना चािहए । ये अङ्ग देिवयाूँ अत्यन्त्त मनोहर स्त्री वेष में सुिोिभत है और हाथों में वर तथा अभय
धारण फकये हुये हैं । इसके बाद अपनी अपनी फदिाओं में जाित (वाहन) और आयुधोम के साथ फदलपालों का पूजन करना
चािहए । इनके पूजा मन्त्त्रों के प्रारम्भ में तार (ॎ) तथा अपने अपने बीजाक्षरों (लं रं मं क्षं वं यं सं हं ह्रीं आं) को लगाना
चािहए ॥९७-१०१॥

उसकी प्रयोग िविध इस प्रकार है - तार (ॎ), फिर अपना बीजाक्षर, फिर इन्त्राय इत्याफद, फिर ‘अमुकािधपतये सायुधाय
सवाहनाय सपररवाराय सििक्तकाय’ के बाद ‘अमुक पदाय’, फिर ‘अमुकपाषगदाय’, इसके अन्त्त में नमेः लगाने से फदलपालों के
पूजा मन्त्त्र बन जाते है । इन्त्राय के बाद अन्त्य फदलपालों की पूजा करते समय उसके स्थान में आिेय आफद पद का ऊहापोह कर
लेना चािहए । अमुक पद के स्थान में उनकी जाित बोलनी चािहए । सुरतेज, प्रेत, रक्ष, जल, प्राण, नक्षत्र, भूत, नाग और
लोक ये १० फदलपालों की जाितयाूँ है । पाषगदाय के पहले आये अमुक के स्थान पर अपने इष्टदेव का नाम उिारन करना
चािहए । इनके बीज, वाहन और आयुध पहले कह आये हैं । िनऋित और वरुण के बीज में अनन्त्त का तथा पूवग और ईिान के
मध्य में ब्रह्मा के पूजन से दि फदलपाल संख्या पूणग हो जाती है ॥१०१-१०८॥
िवमिग - फदलपालोम की पूजा के मन्त्त्र - ॎ लं इन्त्राय सुरािधपतये सायुधाय सवाहनाय सपररवाराय सििक्तकाय
ममामुकेष्टदेवता पाषगदाय नमेः ।
ॎ रं अिये तेजोिधपतये सायु० सवाह० सपरर० सििक्त० ममामुकेष्टदेवता पाषगदाय नमेः । ॎ मं यमाय प्रेतािधपतये... नमेः
। ॎ क्षं िनऋतये रिक्षधिपतये... नमेः । ॎ वं वरुणाय जलािधपतये ... नमेः । ॎ यं वायवे प्राणािधपतये ... नमेः । ॎ सं
सोमाय नक्षत्रिधपतये... नमेः । ॎ हं ईिानाय भूतािधपतये ... नमेः । ॎ ह्रीं अनन्त्तयाय नागािधपतये... नमेः । ॎ आं ब्रह्मणे
लोकािधपतये... नमेः ॥९७-१०८॥
प्रत्येक देवता के आवाहनाफद प्रत्येक उपचार में जल तथा पुष्प चढाना चािहए । फिर हाथ धो कर अन्त्य उपचारों से पूजा
करनी चािहए ॥१०८॥

धूपदान िविध - धूप पात्र में िस्थत अङ्गार पर अगर तथ गुग्गुल रख कर ‘िट् ’ मन्त्त से पात्र का प्रक्षालन कर ‘नमेः’ मन्त्त्र से
पुष्प समर्णपत करना चािहए । फिर बायें हाथ की तजगनी से धूप पात्र का स्पिग करते हुये मूल मन्त्त्र के साध ‘वनस्पितरसोपेतो
गन्त्धाढयेः सुमनोहरेः’ । आघ्रेयेः सवगदव
े ानां धूपोऽयं प्रितगृह्यताम्’ - इस मन्त्त्र को पढकर ‘साङ्गाय’, ‘सपररवाराय; ‘अमुक
देवताय धूपं समगपयािम नमेः’ - इस मन्त्त्र को बोलते हुये िड् ख के जल को भूिम पर छोडना चािहए तथा दािहने हाथ की
तजगनी और अंगूठे को िमलाकर धूप मुरा प्रदर्णित करनी चािहए । फिर अपने मन्त्त्र से घण्टा का पूजन करना चािहए ।
तदनन्त्तर धूप देना चािहए ॥१०९-११३॥

‘जयध्विनमन्त्त्रमातेः स्वाहा’ - इस दिाक्षर मन्त्त्र से घण्टा का पूजन करना चािहए । फिर बायें हाथ से घण्टा बजाते हुये,
इष्टदेव की स्तुित करते हुये दािहने हाथ से देवता की नािभ के पास धूप देनी चािहए । फिर िड् ख का जल तथा पुष्पाञ्जिल
देनी चािहए । दीप दान में भी इसी प्रकार प्रोक्षणाफद फिया करनी चािहए ॥११४-११५॥

अब दीपदान में िविेष कहते हैं - बायें हाथ की मध्यमा अंगुिल से दीप स्पिग करते हुये मूल मन्त्त्र के साथ ‘सुप्रकािी महादीपेः
... प्रितगृह्यताम’ पयगन्त्त (र० २२. ११६-११७) मन्त्त्र पढकर, पूवोक्त धूप मन्त्त्र के धूप के स्थान पर ‘दीप पद लगाकर
‘साङ्गाय सपररवाराय ‘अमुक देवतायै दीपं दिगयािम नमेः’ से दीप प्रदर्णित करना चािहए । तदनन्त्तर मध्यमा और अंगूठे को
िमलाकर दीप-मुरा फदखानी चािहए । देवता के नेत्रों के पास तक दीप को उूँ चो उठाकर प्रदर्णित करने का िवधान है । दीपक
में अनेक बत्ती होने पर उनकी संख्या िवषम होनी चािहए । घृत का दीपक दािहने भाग में तथा तेल का दीपक बायें भाग में
स्थािपत करना चािहए । दिक्षण के दीप में सिे द बत्ती तथा बायें भाग के दीपक में रक्त वणग की बत्ती लगानी चािहए । इसमें
भी जल प्रक्षेपाफद सारर फिया धूप की ही तरह करनी चािहए । इसके बाद नैवद्य े समर्णपत करना चािहए ॥११६-१२०॥

नैवेद्य समपगण िविध - सुवणग आफद पात्र में यथाििक्त घी के साथ पायस और िकग राफद पदाथग परोस कर ‘िट् ’ मन्त्त्र से जल
द्वारा प्रोक्षण करना चािहए ॥१२०-१२१॥

फिर चिमुरा बना कर मूलमन्त्त्र से अिभमिन्त्त्रत िविेषाघ्नयग के जल से अिभमिन्त्त्रत कर वायुबीज (यं) से द्वादि बार जल से
पुनेः उस नैवेद्य का प्रोक्षण करना चािहए । इस प्रकार नैवद्य
े के दोषों का िोषण कर दिहने हाथ के तलवें पर अििबीज (रं ) का
ध्यान करना चािहए ॥१२१-१२२॥

फिर उस करतल पर अपना बायाूँ हाथ रखना चािहए । इस मुरा को फदखा कर उससे उत्पन्न अिि द्वारा नैवद्य
े के सारे दोषों
को जलाकर, फिर बायीं हथेली में अमृत बीज (वं) का ध्यान करना चािहए, तथा उस हथेली के पीछे हाथ रखकर, नैवेद्य
फदखाकर, उस अमृत बीज से उत्पन्न अमृतधारा से नैवेद्य को आप्लािवत करना चािहये ॥१२३-१२५॥

फिर ८ बार मूल मन्त्त्र का जप करते हुये, नैवेद्य का स्पिग कर, धेनुमुरा प्रदर्णित कर, गन्त्ध और पुष्प चढाना चािहए । इस
प्रकार इष्टदेव को पुष्पाञ्जिल समर्णपत कर, उनके मुख से िनकले हुये तेज का ध्यान कर, बायें अंगूठे से नैवेद्य पात्र का स्पिग
करना चािहए । अब दािहने हाथ में जल लेकर, मूल मन्त्त्र के साथ ‘सत्पात्र िसिं ... गृहाण तत्; पयगन्त्त (र० २२. १२५) श्लोक
पढकर ‘साङ्गाय सपररवाराय अमुकदेवतायै नैवेद्यं िनवेदयािम नमेः’ - कहकर, भूिम पर जल छोडकर, अंगूठा और अनािमका
िमलाकर नैवद्य
े मुरा प्रदर्णित करनी चािहए ॥१२५-१२९॥

फिर हाथ में िू ल ले कर नैवेद्य को ३ बार ऊपर उठाते हुये ‘िनवेदयािम भवते जुषाणेदं हिवहगरे’ इस षोडिाक्षर मन्त्त्र का
उिारण करते हुये बायें हाथ से कमल जैसी ग्रास मुरा और दािहने हाथ से प्राण आफद मुरायें प्रदर्णित करनी चािहए ॥१३०-
१३१॥

अब प्राणाफद मुराओं को कहते हैं - किनिष्ठका, अनािमका एवं अंगूठे को िमलाने से प्रानमुरा, तजगनी मध्यमा एवं अंगूठा
िमलाने से अपान मुरा, अनािमका, मध्यमा और अंगूठे को िमलाने से उदान मुरा, तजगनी, अनािमका मध्यमा, और अंगूठा को
िमलाने से समान मुरा बनती है, चतुथ्व्यगन्त्त प्राण आफद (प्राणय, अपानाय, उदानाय, व्यानाय तथा समानाय) के अन्त्त में स्वाहा
तथा प्रारम्भ में प्रणव लगाने से बने मन्त्त्रों का जप करते हुये प्राणाफद मुरायें प्रदर्णित करनी चािहए ॥१३२-१३४॥

फिर पदाग खींचकर ‘ब्रह्मेिाद्यैेः पररत ऊरुिभेः सूपिवष्टै समेतैलगक्ष्म्याििञ्जद्वलकरया सादरं वीज्यमानेः
लीलानमगप्रहसनमुखैव्यागप्नुवन्त्पंिक्त मध्य्म भुड्क्ते पात्रेकनकघरटते षड् रसं श्रीरमेि । िालेभगक्त सुपक्वं ििििरिसतं पायसापूपसूप्म
लेह्यं पेयं च चोष्यं िसतममृतिल्म पूररकाद्यं सुखाद्यम् आज्य्म प्राज्यं सभोज्यं नयनरुिचकरं रािजकै लामरीचे स्वादीयेः
िाकराजी पररकरममृताहार जोषछजुषस्व’ । इसके बाद पदाग ऊपर हटा कर ‘समस्त देव देवेि सवगतृिप्तकरं परम् । अखण्डानन्त्द
संपूणं गृहाण जलमुत्तमम्’ इस श्लोक से आचमनीय के िलए जल देना चािहए ॥१३५-१३७॥

स्थिण्डल (वेदी) पर अििस्थापन कर वैश्वदेव फिया करनी चािहए । मूल मन्त्त्र से अिि को देखकर अस्त्र (िट्) मन्त्त्र से प्रेक्षण
एवं कु िाओं से ताडन करना चािहए (र० १. १११-११२) ‘हुम्’ मन्त्त्र से सेचन कर पूवगवत् वहाूँ अिि की स्थापना करनी
चािहए (र० १. ११३. १२२-१२४) ॥१३७-१३८॥

उस ‘वैश्वानर’ मन्त्त्र से उनका पूजन करना चािहए (र० १. १२९) फिर इष्टदेव का आवाहन कर गन्त्ध एवं पुष्पों से उनका भी
पूजन करना चािहए । फिर महाव्याहृित से होम कर व्यस्त (अलग-अलग) और समस्त (एक साथ) व्याहृितयों से ४ आहुितयाूँ
देनी चािहए । इसकी बाद मूल मन्त्त्र से अन्न की २५ आहुितयाूँ देनी चािहए ॥१३९-१४०॥

फिर व्याहृितयों से होमकर इष्टदेव की मूर्णत में इष्टदेव को िनयोिजत करना चािहए फिर अिि का िवसजगन कर इष्टदेव को
आचमन के िलए जल देना चािहए ॥१४१॥

इष्टदेव के मुख से िनकले हुये तेज को नैवेद्य में संयोिजत कर उसका कु छ भाग उिच्छष्ट भोजी को दे देना चािहए ॥१४२॥

अब तत्त्द देवताओम के उिच्छष्ट भोिजयों का नाम कहते हैं -


िवष्णु के िवष्वक् सेन, ििव के चण्डेश्वर, रिव के चण्डांिु, गणेि के वितुण्ड और ििक्त के उिच्छष्टचाण्डाली उिच्छष्टभोजी कहे
गये हैम ॥१४३-१४४॥

आरती एवं ताम्बूल - इसके बाद साधक को आरती तन्त्मय होकर ‘बुिि सवासना ... तवोपकरणात्मना’ पयगन्त्त ४ श्लोक १४६-
१४८ पढकर देवािधदेव की स्तुित करनी चािहए ॥१४४-१४५॥

स्तुित श्लोकों का अथग - हे प्रभो मै बुििरुप दपगण तथा वासना रुप मङ्गल एवं अपने िविचत्र िविचत्र मनोवृित्तयों को नृत्यरुप
में आप को समर्णपत करता हूँ । िब्द रुपी बाजे के साथ िविवध ध्विन रुप गीत, नवीन िवकिसत पद्म रुप छत्र, सुषुम्ना रुप
ध्वज आप को तथा अपने पञ्च प्राणोम को देव रुप से आप को समर्णपत करता हूँ ॥१४६-१४८॥

अपने अहंकार रुप गज के मन के वेग रुपी रथ को िजसमें इिन्त्रयोम के घोडे जुते हुये है जो िब्दाफद रुप मागग में चलने वाले है
िजनमें मन का लगाम, तथा बुिि रुप सारथी जुडे हुये है उन्त्हे भी आप को समर्णपत करता हूँ । इसके अितररक्त और भी मेरा
जो सवगस्व है उन सभी को उपकरण रुप में आप को समर्णपत हूँ ॥१४८-१५०॥

इन श्लोकों से स्तुित करने के पश्चात् साधक तन्त्मय हो कर मूलमन्त्त्र का यथाििक्त जप कर देवता के दािहने हाथ में िविेषाघ्नयग
का जल देकर ‘गुह्याित ...त्विय िस्थितेः’ पयगन्त्त (र० २२. १५२) श्लोक पढकर जप िनवेदन करे । फिर पीछे की ओर अघ्नयग
देकर िड् ख का पूजन करना चािहए ॥१५१-१५३॥

प्रदिक्षणािविध - अपने इष्टदेव को दण्डवत् प्रणाम कर उनकी प्रदिक्षणा करनी चािहए । िवष्णु की चार्, ििव की आधी, ििक्त
की एक, गणेि की तीन एवं सूयगनारायण की सात पररिमायें सवगिसििलाभ के िलए करनी चािहए ॥१५४-१५५॥

इसके बाद स्तुित ब्रह्मपगण मन्त्त्र से आत्म िनवेदन करना चािहए । ‘इतेः पूव्य्मग प्राणबुििदेहधमागिधकारतेः जाग्रत्स्वसुषुप्त्यवस्थासु
मनसा वाचा हस्ताभ्यां पद्भ्यामुदरे ण ििश्ने’ के बाद अनन्त्तािन्त्वत (ए) से युक्त मेष ()न), फिर ‘यं यत्स्मृतं यदुक्तं तत्सव्य्मग
ब्रहमपगण भवतु स्वाहा’, फिर ‘मां मदीयं च सकलं हरये ते समपगये’ तथा अन्त्त में तार (ॎ) तथा तत्सत् एवं प्रारम्भ में प्रणव
लगाने से ८२ अक्षरों का ब्रह्मपगण मन्त्त्र देवता को आत्मसमपगण करने के िलए कहा गया है ॥१५५-१५९॥

िवमिग - ब्रह्मापगण मन्त्त्र का स्वरुप - ॎ इतेः पूवं प्राणबुििदेह धमागिधकारतो जाग्रत्स्वप्नसुषुप्त्यवस्थासु मनसा वाचा हस्ताभ्यां
पद्ब्यामुदरे ण ििश्नेन यत्स्मृतं यदुक्तं यत्कृ तं तत्सवं ब्रह्मापगणं भवतु स्वाहा मां मदीयं च सकलं हरये ते समपगये ॎ तत्सत् (८२
अक्षर न होकर ८४ है) ॥१५५-१५९॥

इसके बाद संहारमुरा फदखाकर, अपने इष्टदेव को हृदय में स्थािपत करे । अन्त्य देवता के ब्रह्मापगण में ‘हरये’ के स्थान पर उस
देवता का चतुथ्व्यगन्त्त ऊह कर लेना चािहए ॥१६०॥

इष्टदेव का पूजन करने के बाद ब्रह्म यज्ञ (वेदाध्ययन) करना चािहए । फिर योगक्षेम (व्यावसाियक एवं घर के कायग) करने के
बाद मध्याहन में स्नान करना चािहए ॥१६१॥

फिर पूवोक्त रीित से स्मात्तग एवं तािन्त्त्रक (स्नान र० १.३) सन्त्ध्या एवं तपगण बिल-वैश्वदेव आफद सारा कायग करना चािहए ।
तदनन्त्तर ब्राह्मणों को भोजन करा कर देवतािनवेफदत प्रसाद का स्वय्म भोजन करना चािहए । तत्पश्चात् आचमनाफद एवं देव
स्मरण कर पुराणों का पाठ एवं श्रवण करना चािहए ॥१६२-१६३॥

अब सायं पूजन का िवधान करते है -


सन्त्ध्याकाल का हवन संपादन कर पुनेः पूवोक्त िविध से इष्टदेव का पूजन कर, थोडा भोजन कर, देवता का स्मरण करे । फिर
िुि िय्या पर सो जाना चािहए ॥१६४॥

जो व्यिक्त इस प्रकार धमागचरण करते हुये ित्रकाल देव पूजन करता है वह कभी भी ित्रुओं एवं दुेःखों से पीिडत नहीं होता
उसके इष्टदेव स्वयम उसकी रक्षा करते है ॥१६५॥

ित्रकाल पूजा में असमथग होने पर व्यिक्त को मात्र प्रातेः एवं साय्म िद्वकाल ही देवता का पूजन करना चािहए । संिािन्त्त आफद
पवो पर िविेष रुप से ित्रकाल पूजन करना चािहए । असमथग व्यिक्त को दिोपचार अथवा पञ्चोपचार से पूजन करना चािहए
। अथवा सवगथा अिक्त होने पर उपचार सामग्री दूसरों दो देकर उसी से पूजा करा लेनी चािहए । यफद उपचार देने में भी
असमथग हो तो एकाग्रिचत्त हो दूसरे के द्वार पर होने वाली पूजा स्वयम देखना चािहए ॥१६६-१६९॥
िवमिग - दिोपचार - पाद्याघ्नयगचमनीय्म च मधुपकागचमनस्तथा ।
गन्त्धादयो नैवेद्यान्त्ता उपचारा दिात्मकाेः ॥

पञ्चोपचार - गन्त्धपुष्पं च धूप्म च दीपं नैवेद्यमेव च ।


प्रदद्यात्परमेिािन पूजा पञ्चोपचाररका ॥१६६-१६८॥

साधानाभेद और लक्षण - अभािवनी, त्रासी दौबोधी, सौितकी तथा आतुरी इन भेदों से साधना के ५ भेद कहे गये है । अब
इनके लक्षण कहते हैं -

१-२पूजा के उपकरणों के अभाव में मन से अथवा जल मात्र से जो पूजा की है उसे अभािवनी साधना कहते हैं । त्रस्त व्यिक्त
तत्कालोपलब्ध अथवा मानसोपचारों से जो पूजा करता है उसे त्रासी साधना कहते हैं । ऐसी साधना सब प्रकार की िसिि
देती है ॥१६९-१७१॥

३. बालक,वृि, स्त्री, मुखग एवं अनजान व्यिक्तयोम के द्वारा उनकी जानकारी के अनुसार यथाििक्त की जाने वाली पूजा
दौबौधी साधना कही जाती है । सूतक में पडा हुआ व्यिक्त स्नान कर के वल मानिसक सन्त्ध्या करे ॥१७१-१७२॥

४. सकाम होने पर मानिसक पूजन करे , िनष्काम होने पर सव कायग करे - यह सौितकी साधना है । रोगी व्यिक्त को स्नान एवं
पूजा दोनों वर्णजत है । वह देवता की मूर्णत अथवा सूयगमण्डल का दिगन कर एक बार मूल मन्त्त्र का जप कर के वल पुष्प चढा देवे
॥१७३-१७४॥

५. फिर रोग की समािप्त हाने पर स्नान कर पश्चात् गुरु एवं ब्राह्मणों की पूजा कर ‘पूजा िवच्छेद का दोष मुझे न लगे’ ऐसी
प्राथगना करनी चािहए । उन गुरुजनों से आिीवागद ग्रहण कर पूवोक्त िविध से अपने इष्टदेव का यजन करना चािहए । इस
साधना को आतुरी साधना कहते हैं । ये पाूँचों साधनायें ब्रह्मार्णष नारद के द्वारा कही गई है ॥१७५-१७६॥

पूजा की सारी सामग्री स्वय्म एकित्रत कर जो व्यिक्त तन्त्मय होकर अपने इष्टदेव की पूजा करता है उसे संपूणग िल प्राप्त होता
है । अन्त्य व्यिक्तयों द्वारा सड् गृिहत उपचारों से पूजा करने पर साधक को मात्र माधा िल प्राप्त होता है । इसिलए पूजा की
सारी सामग्री का संभार स्वयं ला कर पूजा करनी चािहए ॥१७७-१७८॥

लयोंफक देवपूजा न करने पर नरक की प्रािप्त होती है अतेः व्यिक्त को देवता के प्रित आस्था एवं श्रिा रख कर देव पूजन ही
चािहए ॥१७९॥

चतुर्ववि तरङ्ग
अररत्र
इसके बाद अब साधकों को िीघ्र िसिि की प्रािप्त के िलए मन्त्त्र िोधन का प्रकार कहता हूँ -
पूवोक्त िसिफद चिों में साधक को अपने नाम के प्रथमाक्षर से मन्त्त्र से प्रथमाक्षर पयगन्त्त गणना कर साधन में प्रवृत्त होना
चािहए । मन्त्त्र िोधन की प्रफिया में जन्त्म नक्षत्र के अनुसार नाम अथवा प्रिसि नाम ग्राह्य होता है ॥१-२॥

अब उसके िलए अकथह नामक चि कहते हैं -


५ ऊध्वागधर और फिर ५ ितयगक् रे खा खींचने से १६ कोष्ठक बनते हैं । फिर इनमें १, ३, ११, ९, २, ४, १२, १०, ६, ८, १६,
१४, ५, ७, १५, तथा १३, संख्या वाले कोष्ठक में िमिेः समस्त मातृका वणो को भर देना चािहए ॥३-५॥
इस चि में नाम के प्रथम अक्षर से मन्त्त्र से प्रथम अक्षर पयगन्त्त िमिेः िसि, साध्य, सुिसि, और अरर नामक योग जानना
चािहए ॥५॥

िजन चार कोष्ठकों में साधक के नाम का प्रथम अक्षर हो उन्त्हें िसिचतुष्टय, फिर प्रदिक्षण िम से उस नाम के के अगले वाले
िद्वतीय चार कोष्ठकों को साध्य यचतुष्ट्ड उसके आगे वाले तृतीय चार कोष्ठकों को सुिसिचतुष्टय, तदनन्त्तर अिन्त्तम चार
कोष्ठकों को िवद्वान् ित्रुचतुष्ठय नामक कोष्ठ कहते हैं ॥६-७॥

(१) साधक एवं मन्त्त्र इन दोनं के नाम का प्रथमाक्षर यफद एक ही कोष्ठक में हो तो िसिििसि योग कहलाता है । साधक के
नाम के प्रथमाक्षर वाले कोष्ठक से दूसरे कोष्ठक में मन्त्त्राक्षर पडने पर िसि साध्य, उससे तीसरे कोष्ठक में होने पर िसिसुिसि
तथा उससे चौथे कोष्ठक में मन्त्त्राद्याक्षर होने पर िसिारर योग कहा जाता है ॥७-८॥

नाम के अक्षर वाले ४ कोष्ठकों से अिग्रम ४ कोष्ठक पयगन्त्त मन्त्त्र का प्रथमाक्षर हो तो िजस कोष्ठक में नामाक्षर हो उसकी पंिक्त
वाले कोष्ठक से प्रारम्भ कर पूवगवत् गणना करनी चािहए ॥९-१०॥

(२) प्रथम कोष्ठक में मन्त्त्राक्षर होने पर साध्यिसि, िद्वतीय कोष्ठक में होने पर साध्यसाध्य, तृतीय में होने पर साध्युसिृ सि
और चतुथग कोष्ठक में मन्त्त्राक्षर होने पर पर उस मन्त्त्र को साध्यित्रु जानना चािहए । इसी प्रकार यफद तीसरे चौथे कोष्ठकों में
मन्त्त्राद्यक्षर पडे तो पूवोक्त िविध से ही िवद्वानों को गणना कर िवचार करना चािहए ॥१०-११॥

(३) तीसरे चारों कोष्ठकों में मन्त्त्राद्याक्षर होने पर िमिेः सुिसििसि, सुिसिासाध्य, सुिसिसुिसि तथा सुिसि ित्रु योग
कहा जाता है (४) इसी प्रकार चौथे चारों कोष्ठों में मन्त्त्राद्याक्षर होने पर वही िमिेः अररिसि, अररसाध्य य, अररसुिसि एवं
अरर-अरर योग होता है ॥१२॥

चारों प्रकार के योगो के िल - (१) इसके पश्चात मन्त्त्र िसिि के िवषय में इस प्रकार िवचार करना चािहए । िसििसि मन्त्त्र
यथोक्त काल में, िसिसाध्य मन्त्त्र उससे दूने काल में, िसिसुिसि मन्त्त्र िनधागररत संख्या से आधे जप करने पर िसि जो जाता
है । फकन्त्तु िसिारर योग साधक के समस्त बन्त्धु बान्त्धवों का िवनाि कर देता है ॥१३-१४॥

(२) साध्यिसि मन्त्त्र दूना जप करने पर िसि जो जाता है । साध्यसाध्य िनरथगक होता है । साध्यसुिसि भी दूने जप से िसि
होता है । फकन्त्तु साध्यारर मन्त्त्र योग साधक के अपने समस्त गोत्रों का िवनाि करने वाला होता है ॥१४-१५॥

(३) सुिसििसि आधे जप से, सुिसि साध्य दूने जप से, सुिसि एवं सुिसि मन्त्त्र साधक के दीक्षाग्रहण मात्र से िसि हो जाता
है फकन्त्तुइ सुिसिारर मन्त्त्र साधक के समस्त कु टुिम्बयों का िवनािक होता है ॥१५-१६॥

(४) अररिसि मन्त्त्र पुत्र का, अररसाध्य कन्त्या का, अररसुिसि पत्नी को तथा अरर-अरर मन्त्त्र का योग साधक का ही िवनाि
कर देता है ॥१६-१७॥

िवमिग - उदाहरणतेः यफद देवदत्त को ‘ऐं’ आद्याक्षर वाले फकसी मन्त्त्र को ग्रहण करना है । उक्त कोष्ठ में देवदत्त नाम का प्रथम
अक्षर द ३ संख्या के कोष्ठक में तथा मन्त्त्र का आद्य अक्षर ऐं १४ संख्या के कोष्ठक में पडता है जो गणना करने पर सुिसि
चतुष्टय के चतुथग कोष्ठक में पडने से सुिसिारर योग है, अतेः त्याज्य है ॥१७॥

अब अकथह चि में ही िसिफदिोधन की दूसरी िविध कहते हैं -


साधक का नाम तथा गुह्यमाण मन्त्त्र के एक-एक अक्षरों को िलख कर जब तक मन्त्त्र समाप्त्न हो िसिाफद गणना चािहए । यफद
मन्त्त्राक्षरों के पहले नाम के वणग समाप्त हो जाूँय तो पुनेः मन्त्त्र पयगन्त्त नाम िलख लेना चािहए ॥१७-१८॥

इस प्रकार संिोधन करने पर साध्य एवं ित्रु अिधक हो तथा िसि एवं सुिसि कम हो तो साधक के िलए मन्त्त्र अिुभ होता है
। इसके िवपरीत यफद िसि एवं सुिसि अिधक हो तथा साध्य एवं अरर कम हो तो वह मन्त्त्र सुभावह होता है ऐसा कु छ
तत्त्विवदों का मत है । प्राचीन तन्त्त्र के आचायो ने इसे स्वीकार भी फकया है ॥१९-२०॥

िवमिग - उदाहरणतेः यफद साधक देवदत्त गणेि के ‘वितुण्डाय हुम्’ इस मन्त्त्र को ग्रहण करना चाहतो है तो देवदत्त के नाम के
अक्षर - द व द त त, तथा मन्त्त्र के अक्षर - व क र ड य ह - हुए । यहाूँ साधक नाम के प्रथम अक्षर ‘द’ ३ कोष्ठक में है उससे
मन्त्त्र का प्रथम अक्षर ‘व’ से मन्त्त्र का दूसरा अक्षर ‘क’ िसि है । तीसरे अक्षर ‘द’ से मन्त्त्र का तीसरा अक्षर ‘र’ साध्य है । चौथे
वणग ‘त’ से मन्त्त्र का चौथा अक्षर ‘त’ िसि है, तथा पाूँचवो वणग ‘त’ से ‘ड’ सुिसि है । पुनेः ‘द’ से ‘य’ िसि तथा ‘व’ से ‘ह’ भी
िसि है ।
इस प्रका नाम एवं मन्त्त्र के वणो से करने पर साध्य एवं अरर की संख्या दो तथा िसि एवं सुिसिों की संख्या ५ (अथागत् ३
अिधक)) होने से उक्त मन्त्त्र देवदत्त के िलए िुभदायक होगा ॥१७-२०॥

अब अकडम चि कहते हैं - अकडम अथवा अन्त्य प्रकार से भी िसिाफदकों के िोधन का िवधान है ।
द्वादि दल चि में ऋ ऋ लृ लृ इन नपुंसक स्वरों को छोडकर अकार से हकार पयगन्त्त मातृका वणों को पूवोक्त िविध से
प्रदिक्षण िम से (र० २४. ४-५) िलखना चािहए ॥२१॥

इस चि के नाम के प्रथम अक्षर से मन्त्त्र के प्रथम अक्षर तक िसि, साध्य, सुिसि और अरर इस क्र्म से गणना करनी चािहए
तथा उसका िल इस प्रका कहना चािहए - िसि मन्त्त्र िनधागररत काल में, साध्य मन्त्त्र अिधक जप एवं होम करने से तथा
सुिसि मन्त्त्र दीक्षा मात्र से िसि हो जाता है । फकन्त्तु अरर मन्त्त्र साधक को खा जाता है ।
नाम के प्रथमाक्षर वाले कोष्ठ से १, ५, ९, कोष्ठक में पडने वाला मन्त्त्राद्याक्षर िसि है २, ६, १०वें कोष्ठक में पडने वाला
साध्य है ३, ७, ११वें कोष्ठक में पडने वाला सुिसि तथा ४, ८, १२वें कोष्ठक में पडने वाला मन्त्त्राद्याक्षर अरर होता है ॥२२-
२४॥

िवमिग - उदाहरणतेः देवदत्त नामक साधक को यफद यफद आफद में एकार वणग वाले फकसी मन्त्त्र की दीकाहा लेनी है, तो उक्त
चि में देवदत्त के नाम के प्रथ अक्षर ‘द’ से मन्त्त्राक्षर ‘ऐं’ तीसरे स्थान में पडता है इसिलए देवदत्त के िलए यह मन्त्त्र सुिसि
कोरट में आ गया, अतेः ग्राह्य है ॥२०-२४॥

अब िसिाफदिोधन की तीसरी िविध कहते है -


िसिाफदिोधन का एक और भी प्रकार है - चार कोष्ठकों में अकाराफद वणों को बराबर िलख लेना चािहए ।फिर नम के
प्रथमाक्षर से मन्त्त्र के प्रथमाक्षर तक िसि, साध्य, सुिसि और अरर योगों की गणना करनी चािहए ॥२५-२६॥

िवमिग - पूवोक्त उदाहरण के अनुसार देवदत्त को एकाराफद मन्त्त्र ग्रहन करना है । तो उक्त चि में देवदत्त के प्रथमाक्षर ‘द’ से
मन्त्त्राक्षर ‘ए’ तीसरे स्थान में पडता है । िनयमानुसार देवदत्त के िलए यह मन्त्त्र सुिसि हुआ जो दीक्षा ग्रहण मात्र से िसि हो
जायगा ॥२५-२६॥

अब िसिाफदिोधन की चौथी िविध कहते हैं -


िवद्वान् साधक को नाम एवं मन्त्त्र के वणों को जोडकर ४, का भाग देना चािहए । १ िेष होने पर मन्त्त्र िसि, २ िेष होने पर
साध्य, ३ िेष होने पर सुिसि तथा ४ िेष पर ित्रु समझना चािहए ॥२६-२७॥

िवमिग - उदाहरणतेः यफद देवदत्त को १६ अक्षरों वाले वागीश्वरी मन्त्त्र - ‘ऐं नमो भगवित वद वद वाग्देिव स्वाहा’ को ग्रहण
करना हैं । यहाूँ देवदत्त के नाम के ४ अक्षर तथा मन्त्त्र के १६ अक्षरों को जोडने से २० संख्या हुई, िजसमें ४ का भाग फदया तो
िेष ४ बचता हैं अतेः उक्त िनयमानुसार यह मन्त्त्र देवदत्त के िलए ित्रुयोग कारक होने से अग्राहय है ॥२७॥

यहॉ तक िसिाफदिोधन का प्रकार कहा गया । नक्षत्र िोधन की िविध कहते हैं ॥२८॥

अिश्वनी अ से लेकर रे वती तक के नक्षत्रों के २७ कोष्ठकों में अकाराफद, २, १, ३, ४, १, १, २, १, २, २, १, २, २, २, १, २,


३, १, ३, १, १, १, २, २, २, एवं ३ तथा रे वती में क्ष अं अेः व्यविस्थत रुप से िलखने चािहए ॥२८-३०॥

तदनन्त्तर अपने नाम नक्षत्र से प्रारम्भ कर अिग्रम नक्षत्र िमिेः जन्त्म, सम्पत्, िवपद्, क्षेम, प्रत्यरर, साधक, वध, िमत्र एवं
परमिमत्र संज्ञक समझना चािहए । इनमें िवपद् प्रत्यरर एवं वध योग सवगथा त्याज्य हैं । िेष नक्षत्र उत्तम कहे गए हैं ॥३१-
३२॥

िवमिग - उदाहरण स्वरुप यफद देवदत्त को ‘ऐं नमेः’ इत्याफद मन्त्त्र ग्रहण करना है तो नक्षत्रिोधन की रीित से देवदत्त का नक्षत्र
अनुराधा तथा मन्त्त्र का नक्षत्र आराग हुआ । अनुराधा से उन नक्षत्रों की गणना करने पर जन्त्म संज्ञक नक्षत्र हुआ जो सवगथा
ग्रहण करने योग्य हैं ॥२८-३२॥

अब िसििदायक ऋण धन िुिि का प्रकार कहते हैं -


७ ितरछी एवं १२ खडी रे खा िलखनी चािहए, िजससे ६६ कोष्ठक िनष्पन्न होते है । इसकी प्रथम पंिक्त में १४, २७, २, १२,
१५, ६, ४, ३, ५, ८, अंक तथा दूसरी पंिक्त में ५ दीघग स्वरों (आ ई ऊ ऋ एवं लृ) स्वरों को छोडकर िेष ११ स्वरों को
तीसरी पंिक्त में ककार से टकार पयगन्त्त ११ व्यञ्जन वणग चतुथग पंिक्त में ठकार से िकार तक ११ वणग पञ्जम पंिक्त में बकार से
हकार तक ११ वणग तथा षष्ठ पंिक्त में १०, १, ७, ४, ८, ३, ७, ५, ४, ६, एवं पुनेः ३ अंक के लेखन का प्रकार कहा गया है
॥३२-३८॥

इसके बाद मन्त्त्र के व्यञ्जनो और स्वरों को अलग-अलग कर लेना चािहए । फिर िजन िजन कोष्ठकों में जो जो अक्षर आवें
उनके , ऊपर वाले कोष्ठकों का अंक ग्रहण करना चािहए । मन्त्त्र में आये हुये ५ दीघग स्वरों के स्थान से ह्स्व स्वरों के अंक ग्रहण
करना चािहए ॥३८-४०॥

इस प्रकार सभी अक्षरों (स्वर व्यञ्जनों) के अंको को जो‍कार ८ का भाग देना चािहए । जो िेष बचता है उसे ‘मन्त्त्र की रािि’
कहते हैं । नाम के स्वर और व्यञ्जनो को इसी प्रकार पृथक् कर उसके नीचे वाली पंिक्त के अंक ग्रहण कर दोनोम का योग
करना चािहए । इस योग में ८ का भाग देने से जो िेष बचे वह ‘नाम रािि’ कही गई है ॥४०-४१॥

इसमें अिधक रािि वाला ऋणी तथा कम रािि वाला धनी कहा जाता है जब मन्त्त्र ऋणी हो तो उसे ग्रहण करना चािहए,
अन्त्यथा नहीं ॥४१-४२॥

िवमिग - उदाहरणतेः देवदत्त को यफद ‘लली गो वल्लभाय स्वाहा’ यह अष्टाक्षर मन्त्त्र ग्रहण करना है तो नामक्षर एवं अंक - द
७, ए ३, व७, अ १०, द७, अ१०, त्८, अ १० कु ल संख्याओं का योग ७० हुआ । इसमें ८ का भाग देने पर िेष ६ नामरािि
हुई । मन्त्त्राक्षर एवं अंक - क १४ ल ६, ई २७, म् २, ग् २, ओ ३, व्, १४, अ १४, ल् ६, ल ६, भ् २७, आ १४, य् १२, अ
१४, स् ८, व ४, आ १४ ह ८, आ १४, ल्कु ल योग २१० हुआ । इसमें ८ का भाग देने से २ बचे जो नाम रािि की अपेक्षा कम
होने से धनी योग में आता है । िलतेः अग्राह्य है ॥३२-४२॥

इस प्रकार ऋण धन िोधन की एक िविध बतलाई गई अब दूसरी िविध कहता हूँ -


नाम के प्रथम अक्षर से मन्त्त्र के प्रथम अक्षर वणग माला के िम से गणना करे । जो संख्या आवे, उसमें तीन का गुणा कर, सात
का भाग देवे, जो िेष बचे वह ‘नाम रािि’ कही जाती है ॥४३-४४॥

इसी प्रकार मन्त्त्र के प्रथम अक्षर से वणगमाला के िम से गणना कर िजतनी संख्या आवे, उसमें भी ३ का गुणा कर ७ का भाग
देव,े जो िेष आवे वह ‘मन्त्त्र रािि’ कही जाती है । पूवोक्त िनयमानुसार अिधक रािि वाला ऋणी’ तथा अलपरािि वाला
‘धनी’ कहा जाता है ॥४३-४६॥

िवमिग - उदाहरणतेः देवदत्त को यफद ‘ललीं गोवल्लभाय स्वाहा’ यह अष्टाक्षर मन्त्त्र ग्रहण करना है । देवदत्त के आद्याक्षर ‘द’ से
‘क’ तक वणग माला के गणना करने पर ३७ संख्या हुई । उसमें ३ का गुणा फकया, तो १११ हुआ । उसमें ७ का भाग फदया तो
६ िेष हुआ जो ‘नाम रािि’ हुई । इसी प्रकार मन्त्त्राद्याक्षर ‘क’ से ‘द’ तक गणना करने पर १८ हुआ । उसमें ३ का गुणाकर ७
का भाग फदया, जो िेि ५ बचे वो ‘मन्त्त्र रािि’ की संख्या हुई, जो नाम रािि की अपेक्षा स्वल्प होने से धनी योग में आता है ।
िलतेः अग्राह्य हैं ॥४३-४५॥

अब ऋण धन के प्रकार से संिोधन की तीसरी िविध कहते हैं -


मन्त्त्र के स्वर एवं व्यञ्जनों को पृथल-पृथक् कर उनका योग करे । फिर उसमें २ का गुणा कर, गुणनिल में साधक के नामाक्षरों
के भी स्वर व्यञ्जन को पृथक् कर, उसमें जोड देना चािहए । इस योगिल में ८ का भाग देने से जो िेि बचे वह ‘मन्त्त्र रािि’
हुई ॥४६-४७॥

इसी प्रकार नाम के स्वर व्यञ्जनों को पृथल-पृथक् कर, उनके योग में २ का गुणाकर गुणनिल में मन्त्त्र के स्वरु व्यञ्जनोम को
पृथल-पृथक् उस उसमें जोड देना चािहए । फिर योगिल में ८ का भाग देने से जो िेष बचे वह ‘नाम रािि’ हुई ॥४८॥

यहाूँ पर भी ऋिणता तथा धिनता की पूवोक्त िनयमानुसार ग्रहण करना चािहए । उक्त तीनोम प्रकारों में से फकसी एक रीित
से ऋण धन का िोधन करना चािहए ॥४९॥

िवमिग - उदाहरणतेः देवदत्त के नाम के स्वर और व्यञ्जनों का योग (द ए व द आ द अ त् त् अ) ९ है, तदनन्त्तर उसका दुगुना
१५ है, इस में मन्त्त्राक्षर का योग (क् ल् ई अं ग् ओं व् अ ल् ल् अ भ् आ य् अ स् व आ ह आ ) २० जोडने पर कु ल योग ३८
हुआ । इसमें ८ का भाग फदया । ६ िेष रहा । यह ‘नाम रािि’ हुई ।

इसी प्रकार मन्त्त्र के स्वर व्यञ्जनों का योग २० है । उसका िद्वगुिणत ४० है । उसमें नामाक्षरों का योग ९ जोडे देने पर ४९
हुआ । इसमें ८ का भाग देने से १ िेष रहा । यह ‘मन्त्त्र रािि’ हुई, जो नाम रािि की अपेक्षा स्वल्प होने से धािनक योग में
आता है अतेः अग्राह्य है ॥४६-४९॥

मन्त्त्रों के ऋणी और धनी होने की िलश्रुित करते हैं -


यफद पूवगजन्त्म में उपासना के समय पापािधलय होने के कारण साधक (उपासक) की आयु समाप्त हो गई और मन्त्त्र अपना िल
न दे सका, तो वह उपासक का ऋणी ही रहा । अतेः इस जन्त्म में वह मन्त्त्र ग्रहण करने पर साधक को अभीष्ट िल देने के िलए
उन्त्मुख है ॥५०-५१॥

यफद नाम रािि और मन्त्त्र रािि के अंग समान हो तो भी उपासक को उसकी उपासना का िल िमलेगा । इतना अवश्य है फक
धनी मन्त्त्र अत्यिधक साधना से िलोन्त्मुख होगा ॥५२॥

अब मन्त्त्र संिोधन की एक और िविध का प्रितपादन करते हैं -


षट्कोण चि में पूवग से आरम्भ कर नपुंसक (ऋ ऋ लृ लृ) स्वरों को छोडकर अकार से हकार पयगन्त्त एक एक वणों को िमिेः
िलखना चािहए । तदनन्त्तर नाम के प्रथम अक्षर से मन्त्त्र के प्रथम अक्षर तक इस प्रकार संिोधन करना चािहए ॥५३-५४॥

नाम के प्रथमाक्षर से मन्त्त्राक्षर पहले कोष्ठ में हो तो संपित्त का लाभ, दूसरे में हो तो धन हािन, तीसरे में हो तो धन लाभ,
चौथे में हो तो बन्त्धुओं से कलह, पाूँचवे में हो तो आिधव्यािध, छठें कोष्ठक में हो तो सवगस्वनाि होता है ॥५५-५६॥

मन्त्त्रवेत्ता गुरु को चािहए फक वह इस प्रकार से संिोिधत करके ही अपने ििष्य कोइ मन्त्त्र दे ॥५६॥

अब मन्त्त्र िोधन के अपवाद का प्रितवादन करते हैं -


अब िजन िजन मन्त्त्रों के िलए िसिाफदिोधन की आवश्यकता नहीं है उन्त्हे कहता हूँ - एकाक्षर, त्र्यक्षर, पञ्चाक्षर, षडक्षर,
सप्ताक्षर, नवाक्षर, एकादिाक्षर, द्वातत्रिदक्षर, अष्टाक्षर, हंस मन्त्त्र, कू ट मन्त्त्र, वेदोक्त मन्त्त्र, प्रणव, स्वप्न-प्राप्त मन्त्त्र, स्त्रीद्वारा
प्राप्त, माला मन्त्त्र, नरतसह मन्त्त्र, प्रसाद (हौं) रिव मन्त्त्र, वाराह मन्त्त्र, मातृका मन्त्त्र, परा (ह्रीं) ित्रपुरा काम मन्त्त्र, आज्ञािसि,
गरुडमन्त्त्र बौध एवं जै मन्त्त्र इन सभी मन्त्त्रों में िसिाफद िोधन नहीं फकया जाता ॥५७-६०॥

इनके अितररक्त अन्त्य सभी मन्त्त्रों में िसध्दाफदिोधन करना चािहए । िवद्या मन्त्त्र, स्तव, सूक्त तथा अरर मन्त्त्र हों तो उन्त्हें
िनिश्चत रुप में त्याग देना चािहए ॥६१॥

अब अररमन्त्त्र के त्याग का प्रकार कहते हैं -


यफद अज्ञान वि अरर मन्त्त्र दीक्षा ले ई गई तो उसके त्याग की िविध कहता हूँ -
िुभ मुहतग में सवगतोभरमण्डल पर कलि स्थािपत करना चािहए तथा िवलोम मन्त्त्र का जप करते हुये उसमें पिवत्र जल भरना
चािहए । फिर मन्त्त्र देवता का आवाहन कर आवरण सिहत उनका पूजन करना चािहए ॥६२-६४॥

उसके सामने स्थिण्डल बनाकर िविधवत् अिि की प्रितष्ठा कर िवलोम मन्त्त्र से घी की १०० आहुितयाूँ देना चािहए । फिर
खीर एवं घी िमिश्रत अन्न से फदलपालोम को बिल देकर पुनेः पूजन कर - ‘आनुकूल्य ... भिक्तरस्तुत’े (र० २४. ६६-६८) पयगन्त्त
मन्त्त्र पढकर प्राथगना करनी चािहए ॥६५-६८॥

इस प्रकार की प्राथगना कर ताडपत्र पर कपूर, अगर एवं चन्त्दन से िवलोम मन्त्त्र िलख कर, उसका पूजन कर, अपने ििर पर
बाूँध कर, कु म्भ जल से स्नान करना चािहए । तत्पश्चात् कु म्भ में पुनेः जल भर कर उसके भीतर मन्त्त्र िलखा हुआ ता‍पत्र डाल
कर, कु म्भ का पूजन कर, उसे नदी या तालाब में डाल देना चािहए । इसके बाद ब्राह्मणों को भोजन करा कर साधक
अररमन्त्त्र की बाधा से मुक्त हो जाता है ॥६८-७१॥

अनेक बार िोधन करने पर भी यफद िुि मन्त्त्र न िमले तो मन्त्त्र के पहले माया (ह्रीं) काम (ललीं) तथा श्रीं (श्रीं) बीज लगाकर
ग्रहण करने से मन्त्त्र का दोष समाप्त हो जाता है । अथवा सदोष मन्त्त्र को प्रणव से संपुरटत करने मात्र से वह िुि हो जाता है ।
अथवा िमपूवगक एवं व्युत्िमपूवगक वणगमाला से जप करने पर मन्त्त्र का संिोधन हो जाता है । िजस व्यिक्त की िजस मन्त्त्र में
िविेष िनष्ठा हो वह मन्त्त्र उसके िलए श्रेष्ठतम होता है । ऐसा मन्त्त्र अररवगग में होने पर भी साधक को िसििदायक होता है
॥७२-७४॥

अब सभी मन्त्त्रों के तीन प्रकार के भेदों का िनरुपण करते हैं -


आगमवेत्ता िवद्वानोम ने १. बीजमन्त्त्र, २. मन्त्त्र-मन्त्त्र तथा ३. माला मन्त्त्र - मन्त्त्रों के ये तीन भेद बतलाए हैं । दि अक्षर पयगन्त्त
मन्त्त्र ‘बीज मन्त्त्र’ , ११ से २० अक्षरों के ‘मन्त्त्र मन्त्त्र’ तथा बीस अक्षरों से अिधक मन्त्त्रों की ‘माला मन्त्त्र’ की संज्ञा है ॥७५-
७६॥

अब िविवध अवस्थाओम में िसििदायक मन्त्त्र कहते हैं - उपासक को बाल्यावस्था में ‘बीज मन्त्त्र’ िसि होते है । युवावस्था में
‘मन्त्त्र मन्त्त्र’ िसि होते हैं, तह्ता वृिावस्था में ‘माला मन्त्त्र’ िसि होते हैं । उक्त अवस्थाओम से िभन्न अवस्थाओं में अपनी
अभीष्ट िसिि के िलए साधक को तत्तद् बीज मन्त्त्राफद मन्त्त्रों का िद्वगुिणत जप करना चािहए ॥७७-७८॥

अब कु लाकु ल का िवचार कहते हैं - यतेः सारी प्रकृ ित पञ्चभूतात्मक है उनसे मातृकायें उत्पन्न हुई फिर उससे ५० वणोम की
उत्पित्त हुई । अतेः वे भी पञ्चभूतमय है । वगग के तृतीयाक्षर (गजडदब) कणग (उ ऊ), ओ ल एवं ळ वणग भूसंज्ञक हैं । नासा (ऋ
ऋ), औ वगग के चतुथग अक्षर (घ, झ, ध, ध, भ), व एवं स वणग जलसंज्ञक हैं । नेत्र (इ ई) वगों के िद्वतीय अक्षर ख,छ, ठ, थ, ि)
ए, र एवं क्ष - ये वणग अििसंज्ञक हैं ॥७९-८१॥

वगों के प्रथम अक्षर (क, च, ट, त, प), अनन्त्त अ िझण्टीि, ए और आ ये वणो वायवीय माने गये हैं ।
वगग के अिन्त्तम ड ञ, ण, न म और लृ लृ ि ह एवं िबन्त्द ु अं, ये वणग आकािात्मक है यतेः िवसगग प्रकृ ित की आत्मा है अतेः
सवगभूतात्मक है । प्राण (िवसगग) को छोडकर अन्त्य वणग कण्ठ आफद स्थानोम को स्पिग करते हुये ध्विन के रुप िनकलते हैं ॥८२-
८३॥

पृथ्व्वी आफद तत्त्वों के अपने अपने वणग स्वकु ल संज्ञक कहे गये हैं । पृथ्व्वी तत्त्व वाले वणों के िलए जल तत्त्व वाले िमत्र हैं
अिितत्त्व वाले वणग ित्रु तहा वायुतत्त्व वाले वणग उदासीन कहे गये हैं । जल तत्त्व वाले वणो के पृथ्व्वी तत्त्व वाल वणग िमत्र,
अिितत्त्व, वणग ित्रु तथा वायुतत्त्व वाले वणग उदासीन कहे गये हैं ॥८४-८५॥

तेज तत्त्व वाले वणों के वायुतत्त्व वणग िमर, जल तत्त्व वाले वणग ित्रु तथा पृथ्व्वी तत्त्व वाले वणग उदासीन हैं । वायुतत्त्व वाले
वणोम के तेज तत्त्व वाल वणग िमत्र, पृथ्व्वी तत्त्व वाल वणग ित्रु तथा जल तत्त्व वाले वणग उदासीन कहे गये हैं । पृथ्व्वी आफद
चारों तत्त्वो के आकाि तत्त्व वाले वणग सदैव िमत्र होते हैं । मन्त्त्र एवं साधक के नाम के जो आद्य अक्षर हों उनसे स्वकु ल आफद
का िवचार दीक्षा देने वाले गुरु को करना चािहए ॥८६-८९॥

अपने कु ल का मन्त्त्र ग्रहण करने से अभीष्ट िसिि होती है और िमत्र कु ल के मन्त्त्र लेने से भी िसिि होती है । ित्रुकुल का मन्त्त्र
लेने से रोग एवं मृत्यु होती है । फकन्त्तु उदासीन कु ल का मन्त्त्र लेने से कु छ भी नहीं होता । अतेः उदासीन एवं ित्रु कु ल के मन्त्त्रों
को दूर से ही पररत्यक्त कर देना चािहए ॥९०-९१॥

इष्ट िसिि चाहने वाले व्यिक्त को स्वकु ल एवं िमत्रकु ल के ही मन्त्त्र ग्रहण करना चािहए । इस सम्बन्त्ध में िविेष यह है फक नाम
एवं मन्त्त्र का एक नक्षत्र होने पर भी स्वकु ल मन्त्त्र कहा जाता है ॥९१-९२॥

अब पुरुष, स्त्री, और नपुंसक मन्त्त्रों को कहते हैं -


िवद्वानों ने पुरुष, स्त्री, और नपुंसक भेद से ३ प्रकार के मन्त्त्र कहे हैं । िजन मन्त्त्रों के अन्त्त में ‘वषट् ’ अथवा ‘िट् ’ हों वे पुरुष
मन्त्त्र हैं । ‘वौषट् ’ और ‘स्वाहा’ अन्त्त वाले मन्त्त्र् स्त्री, तथा ‘हुं’ एवं ‘नमेः’ वाले मन्त्त्र नपुंसक मन्त्त्र कहे गये हैं ॥९३-९४॥

वश्य, उिाटन एवं स्तम्भन में पुरुष मन्त्त्र, क्षुरकमग एवं रोग िवनाि में स्त्री मन्त्त्र िीघ्र िसिि प्रदान करते है और अिभचार
प्रयोग में नपुंसक मन्त्त्र िसििदायक कहे गये हैं । इस प्रकार मन्त्त्र के तीन ही भेद होते है ॥९४-९५॥

नक्षत्र िोधन में जन्त्म नक्षत्र का तथा अन्त्य िोधनोम मे जन्त्म काल से पुकारे जाने वाले प्रिसि नाम के नक्षत्र लेना चािहए ।
इसी प्रकार अच्छे प्रकरों से संिोिधत मन्त्त्र ििष्य को अभीष्ट िसिि प्रदान करते हैं ॥९५-९६॥

मन्त्त्रों के िछन्न, ििक्तहीनता आफद ५० दोष (‘िारदाितलक’ के िद्वतीय पटल में) कहे गये हैं । इन दोषों से सातों मन्त्त्र व्याप्त है
। अतेः इन दोषों की िािन्त्त के िलए वक्ष्यमाण दि संस्कार करना चािहए ॥९७-९८॥

िवमिग - रष्टव्य िारदा ितलक पटल २ (९७॥

(१) जनन संस्कार - भोजपत्र पर गोरोचन आफद से समित्रभुज बनाना चािहए । फिर पिश्चम के (वारुण) कोण से प्रारम्भ कर
उसे ७ समान भागों में प्रिवभक्त करना चािहए । इसी प्रकार ईिान एवं आिेय कोणों से भी सात सात समान भाग करना
चािहए । इस प्रकार उनके मध्य में छेः छेः रे खाओं के खींचने पर ४९ योिनयाूँ बनती है ॥९८-९९॥

इस चि में ईिान कोण से प्रारम्भ कर पिश्चम तक अकार से हकार तक समस्त ४९ वणों को िमिेः िलखकर उस पर मातृका
देवी का आवाहन कर, चन्त्दनाफद से उनकी पूजा करनी चािहए । फिर उसी से मन्त्त्र के एक एक वणो का उिार करना चािहए
अथागत् वहाूँ से अन्त्य पत्र पर िलखे । इसे मन्त्त्र का जनन संस्कार कहते हैं ।

(२) हंस मन्त्त्र से संपुरटत मूल मन्त्त्र का एक हजार जप करना ‘दीपन संस्कार’ कहा जाता है । यथा - ‘हंसेः रामाय नमेः सोहम्’
॥१००-१०१॥

(३) बोधन संस्कार -


नभ (ह) विहन् (र) एवं इन्त्द ु (अनुस्वार) सिहत अघीि (ऊ) अथागत् ‘हुं’ इस मन्त्त्र से संपुरटत मूल मन्त्त्र का ५ हजार जप करने से
‘बोधन संस्कार’ होता हैम । यथा - ‘ह्रुं रामाय नमेः ह्रुं ॥१०२॥

(४) ताडन संस्कार -


अस्त्र मन्त्त्र (िट् ) से संपुरटत मूल मन्त्त्र का एक हजार जप करने से ताडन संस्कार होता हैं । यथा - ‘िट् रामाय नमेः िट् ’
॥१०३॥

(५) अब अिभषेक संस्कार कहते हैं -


वाग् (ऐं), हंस (हं सेः ) तथा तार (ॎ) इस मन्त्त्र द्वारा १हजार बार अिभमिन्त्त्रत जल द्वारा पुनेः इसी मन्त्त्र से मूल मन्त्त्र को
अिभिषक्त करना अिभषेक संस्कार कहा जाता है ॥१०४॥

िवमिग - ‘ऐं हंसेः ॎ’ मन्त्त्र् से १ हजार बार अिभमिन्त्त्रत फकये गये जल से ताडपत्र पर उिल्लिखत मूल मो अश्वत्थ पत्र से पुनेः
‘ऐं हंसेः ॎ’ मन्त्त्र से अिभिषक्त करने को अिभषेक संस्कार कहते है ॥१०४॥
(६) िवमलीकरण संस्कार -
विहन ल(र), तार (ॎ) सिहत हरर (त्) अथागत् (त्रों) इसके अनत में ‘वषट् ’ तता आफद में रुव (ॎ) लगाने से िनष्पन्न (ॎ त्रों
वषट्) इस मन्त्त्र से संपुरटत मूल मन्त्त्र का एक हजाअर बार जप करने से मन्त्त्र का िवमलीकरण संस्कार हो जाता है । यथा - ॎ
त्रों वषट् रामाय नमेः वषट् त्रों आं ।१०५॥

(७) जीवन संस्कार के िलए स्वधा सिहत वषट् मन्त्त्र से संपुरटत मूल मन्त्त्र का एक हजार बार जप करने से मन्त्त्र का जीवन
संस्कार हो जाता है । यथा - स्वधा वषट् रामाय नमेः वषट् स्वधा ।

(८) दूध घी एवं जल से मूल मन्त्त्र द्वारा एक सौ बार तपगण करने से मन्त्त्र का तपगण संस्कार हो जाता है । तपगण संस्कार के िलए
गोरोचन आफद से ताडपत्र पर मूल मन्त्त्र िलखकर पश्चात् तपगण करने का िवधान है ।

(९) गोपन संस्कार - माया बीज (ह्रीं) से संपुरटत मूल मन्त्त्र का एक हजार बार जप करने से मन्त्त्र क गोपन संस्कार हो जाता
है । यथा - ह्रीं रामाय नमेः ह्रीं ॥१०५-१०७॥

(१०) बाला के तृतीय बीज मन्त्त्र के प्रारम्भ में गगन (ह्) अथागत् ह सौेः से संपुरटत मूलमन्त्त्र का एक हजार बार जप करने से
मन्त्त्र का आप्यायन संस्कार हो जाता है । यहाूँ तक मन्त्त्र के िछन्नत्वाफद ५० दोषों को दूर करने के िलए १० संस्कार कहे गये
॥१०७-१०८॥

अब किलयुग में िसििल्प्रद मन्त्त्रों का आख्यान करते हैं -


नृतसह का त्र्यक्षर, एकाक्षर, एवं अनुष्टुप् मन्त्त्र, (कातगवीयग) अजुगन के एकाक्षर और अनुष्टुप् दो मन्त्त्र, हयग्रीव, मन्त्त्र, िचन्त्तामिण
मन्त्त्र, क्षेत्रपाल, भैरव यक्षराज (कु बेर) गोपाल, गणपित, चेटकायिक्षणी, मातंगी सुन्त्दरी, श्यामा, तारा, कणग िपिािचनी,
िबरी, एकजटा, वामाकाली, नीलसरस्वती ित्रपुरा और कालराित्र के मन्त्त्र किलयुग में अभीष्टिलदायक माने गये है ॥११०-
११२॥

िवमिग - नृतसह का एकाक्षर मन्त्त्र - क्ष्रौं । अक्षर मन्त्त्र - ह्रीं क्ष्रौं ह्रीं । नृतसह का अनुष्टुप मन्त्त्र - उग्रं वीरं महािवष्णुं ज्वलन्त्तं
सवगतोमुख । नृतसह भीषणं भरं मृत्युं मृत्युं नमाम्यहम् । कातगवीयागजुगन का एकाक्षर मन्त्त्र - फ्रों । कातगवीयागजुगन का अनुष्टप् मन्त्त्र
- कातगवीयागजुनी नाम राज बाहुसहस्त्रवान् । तस्य स्मरभ्नमात्रेण गतं नष्टं च लभ्यते - हयग्रीव का एकाक्षर मन्त्त्र - ह्सूं ।
हयग्रीव का अनुष्टुप् मन्त्त्र - उद्िगरद् प्रणवोद्गीथ सवगवागीश्वरे श्वर । सवगदव े मय्तािचन्त्तय सवं बोधय बोधय । िचन्त्तामिण मन्त्त्र
- क्ष्म्न्त्यों ॥११०-११२॥

िवप्राफद ित्रवणों का दीक्षोिचत मन्त्त्र - अघोर, दिक्षणामूर्णत, उमामहेश्वर, (ॎ ह्रीं ह्रौं नमेः ििवाय) हयग्रीव, वराह,
लक्ष्मीनारायण मन्त्त्र, प्रणवाफद ४ वणग वाले अिि मन्त्त्र, सूयग के मन्त्त्र, प्रणव सिहत गणपित एवं हरररा गणपित, अष्टाक्षर सूयग
मन्त्त्र, षडक्षर राम मन्त्त्र, प्रणवाफद मन्त्त्रराज नृतसह, मन्त्त्र, प्रणव तथा वैफदक मन्त्त्र से सभी मन्त्त्र ब्राह्मण, क्षित्रय, वैश्य इन
त्रैवर्णणकों को ही देना चािहए िूरों को नही ॥११३-११५॥

सुदिगन, पािुपत, आिेयास्त्र और नृतसह के मन्त्त्र ब्राह्मण और क्षित्रय के वल दो वणों को ही देना चािहए । अन्त्य वणों को कभी
नही देना चािहए ॥११६-११७॥

चारों वणों के िलए देय मन्त्त्र -


िछन्नमस्ता मातंगी, ित्रपुरा, कािलका, ििव, लघुश्यामा, कालराित्र, गोपाज, जानकीपित राम, उग्रतारा और भैरव के मन्त्त्र
चारों वणों को देना चािहए । िस्त्रयों के िलए ये मन्त्त्र िविेषरुपेण िसििदायक कहे गये हैं ॥११७-११८॥

देवता, गुरु तथा िद्वजपूजा में श्रिावान् ब्राह्मण, क्षित्रय, वैश्य, िूर और िस्त्रयाूँ ये सभी अिधकाररणी ॥११९-१२०॥

अब िविवध वणों के िलए देय बीज मन्त्त्र कहते हैं -


माया (ह्रीं) काम (ललीं), श्री (श्रीं) तथा वाक् (ऐं) बीज ब्राह्मणों को ही देने का िवधान है । माया बीज (ह्रीं) को छोडकर िेष
तीन बीज (ललीं, श्रीं और ऐं) - ये क्षित्रयों को तथा श्रीं एवं ऐं बीज वैश्योम को, वाग्, बीज (ऐं) िूरों को तथा वमग (हुं), वषट्
और ‘नमेः’ अन्त्यों (प्रितलोमज अनुलोमज वणों) दो देना चािहए ॥१२०-१२१॥

अब सवगसाधारण कायों में िविहत रव्योम को कहता हूँ -


िलों के होम से सुख प्रािप्त, पलाि के होम से इष्टिसिि तथा कनेर के होम से िस्त्रयाूँ विीभूत हो जाती हैं । गुडूची (गुरुच) के
होम से रोगों का नाि, दूवाग के होम से बुिि की वृिि तथा गुड के होम से सामान्त्य जन वि में हो जाते है ॥१२२-१२३॥

िबल्वपत्र, घृत, कमल, गुलाब तथा चम्पा के िू लों का होम करने से लक्ष्मी िमलती है । िसिाथग (सिे द सरसोम) तथा चमेली
के होम से कीर्णत बढती है । जाित के पुष्पों के होम से वािलसिि प्राप्त होती है ॥१२४॥

व्रीिह (धान), जौ, प्लक्ष (पाकर), उदुम्बर (गूलर) और पीपल की सिमधा तथा ित्रमधु (िकग रा, घृत, मधु) सिहत ितलों के होम
से अभीष्ट संपित्त प्राप्त होती है ॥१२५॥

पलाि, कालमदग, (िलसोङ्गा), कृ तमाल, (राजवृक्ष) तथा गुलाब के होम से िमिेः ब्राह्मण आफद वणग विीभूत हो जाते हैं ।
कपूगर आफद सुगिन्त्धत रव्योम के होम से सौभाग्य समृिि होती है ॥१२६॥

कोदों के होम से ित्रुओं को व्यािध तथा बहेडा के होम से ित्रुओं को पागलपन का रोग, मोर के पंखों के होम से ित्रुओं को
भय, उडद के होम से ित्रुओं को मूकता, िाल्मली सिमधाओं के होम से ित्रुओं का िीघ्र िवनाि होता है ॥१२७-१२८॥

िविेष लया कहें िविध पूवगक उपासना से इष्टदेव अभीष्ट िल प्रदान करते हैं ॥१२८॥

यफद पूवग जन्त्म के प्रितबन्त्धक पापों से एक बार पुरश्चरण करने पर मन्त्त्र िसि न हों तो दूसरी बार भी पुरश्चरण करना चािहए
॥१२९॥

अब संिक्षप्त पुरश्चरण िविध कहते हैं -


चन्त्रग्रहण अथवा सूयगग्रहण के समय समु्गािमनी गंगा आफद नफदयोम के जल में खडा होकर स्पिगकाल से मोक्षकाल पयगन्त्त
जप कर उसके दिांि का होम तथा होम के दिांि संख्या में ब्राह्मणों को िविवध प्रकार का भोजन कराने से मन्त्त्र िसिि हो
जाती है । िनरन्त्तर जप करने वाले साधकों को िीघ्राितिीघ्र मन्त्त्र िसि हो जाते है ॥१३०-१३१॥

पञ्चतवि तरङ्ग
अररत्र
अब प्रयोग द्वारा िसिि प्रदान करने वाले षट्कमों को कहता हूँ -
१. िािन्त्त, २. वश्य, ३. स्तम्भन, ४. िवद्वेषण ५. उिाटन और ६. मारण - ये तन्त्त्र िास्त्र में षट् कमग कहे गए हैं ॥१॥
रोगाफदनाि के उपा को िािन्त्त कहते है । आज्ञाकाररता वश्यकमग हैं । वृित्तयों का सवगथा िनरोध स्तम्भन है । परस्पर
प्रीितकारी िमत्रों में िवरोध उत्पन्न करन िवद्वेषण है । स्थान नीचे िगरा देना उिाटन है, तथा प्राणिवयोगानुकूल कमग मारण है
। षट् कमों के यही लक्षण है ॥२-३॥
अब षट् कमों में ज्ञेय १९ पदाथो को कहते हैं -
१. देवता, २. देवताओम के वणग, ३. ऋतु, ४. फदिा, ५. फदन, ६. आसन, ७. िवन्त्यास ८. मण्डल ९. मुरा, १०. अक्षर, ११.
भूतोदय १२. सिमधायें १३. माला, १४. अिि, १५. लेखनरव्य, १६. कु ण्ड, १७. स्त्रुक्, १८. स्त्रुवा, तथा १९ लेखनी इन
पदाथों को भलीभाूँित जानकारी कर षट् कमों में इनका प्रयोग करना चािहए ॥४-५॥

अब िम प्राप्त (१) देवताओं और उनके (२) वणो को कहते हैं - १. रित, २. वाणी, ३. रमा, ४. ज्येष्ठा, ५. दुगाग, एवं ६. काली
यथािम िािन्त्त आफद षट्कमों के देवता कहे गए हैं । १. श्वेत, २. अरुण. ३. हल्दी जैसा पीला, ४. िमिश्रत, ५. श्याम (काला)
एवं ६. धूसररत ये उक्त देवताओं के वणग हैं । प्रत्येक कमग के आरम्भ में कमग के देवता के अनुकूल पुष्पों से उनका पूजन करना
चािहए ॥६-७॥

(३) एक अहोरात्र में प्रितफदन वसन्त्ताफद ६ ऋतुयें होती हैं । इनमें एक - एक ऋतु का मान १० - १० घटी माना गया है । १
हेमन्त्त, २. वसन्त्त, ३. ििििर, ४. ग्रीष्म, ५. वषाग और ६. िरद् इन छेः ऋतुओं का साधक को िािन्त्त आफद षट् कमों में
उपयोग करना चािहए । प्रितफदन सूयोदय से १० घटी (४घण्टी) वसन्त्त, उसके आगे दि घटी ििििर इत्याफद िम समझना
चािहए ॥७-९॥

(४) फदिाएं - ईिान-उत्तर-पूवग-िनऋित वायव्य और आिेय ये िािन्त्त आफद कमों के िलए फदिायें कही गई हैम । अतेः िािन्त्त
आफद कमोम के िलए उन उन फदिाओं की ओर मुख कर जपाफद कायग करना चािहए ॥९-१०॥

(५) अब षट्कमों में फियमाण ितिथ एवं वार का िनदेि करते हैं
िुलल पक्ष की िद्वतीया, तृतीया, पञ्चमी एवं सप्तमी ितिथ को बुधवार बृहस्पितवार आये तो िािन्त्तकमग करना चािहए ।
िुललपक्ष की चतुथी, षष्ठी, नवमी एवं त्रयोदिी को सोमवार बृहस्पितवार आने पर विीकरण कमग प्रिस्त होता है ॥१०-
१२॥

िवद्वेषण - में एकादिी, दिमी, नवमी और अष्टमी ितिथ को िुि या ििनवार का फदन हो तो िुभावह कहा गया है ॥१२-
१३॥

यफद कृ ष्णपक्ष की अष्टमी एवं चतुदि


ग ी को ििनवार हो तो िल िसिि के िलए उिाटन कमग करना चािहए । कृ ष्णपक्ष की
अष्टमी, चतुदि
ग ी एवं अमावस्या तथा िुलल पक्ष की प्रितपदा को रिव, मङ्गल ििनवार, का फदन हो तो स्तम्भन और मारण
कमग िसि हो जाता है ॥१३-१५॥

(६) िािन्त्त आफद षट् कमों में िमिेः पद्मासन, स्विस्तकासन, िवकटासन, कु लकु टासन, वज्रासन एवं भरासन का उपयोग
करना चािहए । गाय, गैंडा, हाथी, िसयार, भेड एवं भैसे के चमडे के आसन पर बैठ कर िािन्त्त आफद षट् कमों में जपाफद कायग
करना चािहए ॥१५-१७॥

िवमिग - पद्मासन का लक्षण - दोनों ऊरु के ऊपर दोनों पादतल को स्थािपत कर व्युत्िम पूवगक (हाथों को उलट कर) दोनों
हाथों से दोनों हाथ के अंगूठे को बींध लेने का नाम पद्मासन कहा गया है ।
स्विस्तकासन का लक्षण - पैर के दोनों जानु और दोनों ऊरु के बीच दोनों पादतल को अथागत् दिक्षण पद के जानु और ऊरु के
मध्य वाम पादतल एवं वामपाद के जानु और ऊरु के मध दिक्षण पादतल को स्थािपत कर िरीर को सीधे कर बैठने का नाम
स्विस्तकासन है ।

िवकटासन का लक्षण - जानु और जंघाओ के बीच में दोनों हाथों को जब लाया जाए तो अिभचार प्रयोग में इसे िवकटासन
कहते हैं ।

कु लकु टासन का लक्षण - पहले उत्कटासन करके फिर दोनों पैरों को एक साथ िमलावे । दोनों घुटनों के मध्य दोनों भुजाओं को
रखना कु लकु टासन कहा गया है ।

वज्रासन का लक्षण - पैर के परस्पर जानु प्रदेि पर एक दूसरे को स्थािपत् करे तथा हाथ की अंगुिलयों को सीधे ऊपर की ओर
उठाए रखे तो इस प्रकार के आसन को वज्रासन कहते हैं ।

भरासन का लक्षण - सीवनी (गुदा और तलग के बीचोबीच ऊपर जाने वाली एक रे खा जैसी पतली नाडी है) के दोनों तरि
दोनों पै के गुल्िों को अथागत् वामपाश्वग में दिक्षणपाद के गुल्ि को एवं दिक्षण पाश्वग में वामपाद के गुल्ि को िनश्चल रुप से
स्थािपत कर वृषण (अण्डकोि) के नीचे दोनों पैर की घुट्टी अथागत् वृषण के नीचे दािहनी ओर वामपाद की घृट्टॆए तथा बाूँई
ओर दिक्षण पाद की घुट्टी स्थािपत कर पूवगवत् दोनों हाथों से बींध लेने से भरासन हो जाता है ॥१५-१७॥

(७) इस प्रकार आसनों को कह कर अब िवन्त्यास कहता हूँ -


िािन्त्त आफद ६ कमोम में िमिेः १. ग्रन्त्थन, २. िवदभग, ३. सम्पुट, ४. रोधन, ५. योग और ६. पल्लव ये ६ िवन्त्यास कहे गए
हैं । इन छहों को िमिेः कहता हूँ ॥१७-१९॥

१. मन्त्त्र का एक अक्षर उसके बाद नाम का एक अक्षर फिर मन्त्त्र का एक अक्षर तदनन्त्तर नाम का एक अक्षर इस प्रकार मन्त्त्र
और नाम के अक्षरों का ग्रन्त्थन करना ‘ग्रन्त्थन िवन्त्यास’ है ।
२. प्रारम्भ में मन्त्त्र के दो अक्षर उसके बाद नाम का एक अक्षर इस प्रकार मन्त्त्र और नाम के अक्षरों के बारम्बार िवन्त्यास को
मन्त्त्र िात्रों को जानने वाले ‘िवदभग िवन्त्यास’ कहते हैं ॥१९-२१॥

३. पहले समग्र मन्त्त्र का उिारण, तदनन्त्तर समग्र नामाक्षरों का उिारण करना फिर इसके बाद िवलोम िम से मन्त्त्र बोलना
‘संपुट िवन्त्यास’ कहा जाता है ।४. नाम के आफद, मध्य और अन्त्त में मन्त्त्र का उिारण करना ‘रोधन िवन्त्यास’ कहा जाता है
॥२१-२२॥

५. नाम के अन्त्त मन्त्त्र बोलना ‘योग िवन्त्यास’ होता है ।

६. मन्त्त्र के अन्त्त में नामोिारण को ‘पल्लविवन्त्यास’ कहते हैं ॥२३॥

(८) अब मन्त्त्र के आठवें प्रकार, मण्डल का लक्षण कहते हैं -


दोनों ओर दो दो कमलोम से युक्त अिगचन्त्राकार िचन्त्ह को जल का मण्डल कहा गया है, यह िािन्त्तकमग में प्रिस्त कहा गया है
। ित्रकोण के भीतर उपयोग स्विस्तक का िचन्त्ह रखा अिि क मण्डल माना गया है, वश्यकमग में इसका उपयोग प्रिस्त कहा
गया है । वज्र िचन्त्ह से युक्त चौकोर भूिम का मण्डल कहा गया है जो स्तम्भन कायग के िलए प्रिस्त कहा गया है ॥२३-२५॥
आकाि मण्डल वृत्ताकार होता है । यह िवद्वेषण कायग में प्रिस्त है, छह िबन्त्दओं
ु से अंफकत वृत्त वायु मण्डल कहा गया है, जो
उिाटन फिया में प्रिस्त है । मारण में पूवोक्त विहनमण्डल का उपयोग करना चािहए ॥२५-२६॥

(९) अब मण्डल का लक्षण कह कर मुरा के िवषय में कहते हैं - िािन्त्त आफद षट्कमों में पदम्, पाि, गदा, मुिल, वज्र एवं
खड् ग मुराओं का प्रदिगन करना चािहए । अब आगे होम की मुरायें कहेगें ॥२६-२७॥

िवमिग - (१) पद्ममुरा - दोनों हाथों को सम्मुख करके हथेिलयां ऊपर करे , अंगुिलयों को बन्त्द कर मुट्ठी बॉधे । अब दोनों
ऐगूठों को अंगुिलयों के ऊपर से परस्पर स्पिग कराये । यह पद्म मुरा है ।

(२) पािमुरा - दोनों हाथ की मुरटठयां बांधकर बाईं तजगनी को दािहनी तजगनी से बांधे । फिर दोनोम तजगिनयों को अपने-
अपने अंगूठोम से दबाये । इसके बाद दािहनी तजगनी के अग्रभाग को कु छ अलग करने से पाि मुरा िनष्पन्न होती है ।

(३) गदामुरा - दोनों हाथों की हथेिलयों को िमला कर, फिर दोनोम हाथ की अंगुिलयाम परस्पर एक दूसरे से ग्रिथत करे ।
इसी िस्थित में मध्यमा उगिलयों को िमलाकर सामने की ओर िै ला दे । तब यह िवष्णु को सन्त्तुष्ट करने वाली ‘गदा मुरा’
होती है ।

(४) मुिलमुरा - दोनों हाथों की मुट्ठी बांधे फिर दािहनी मुट्ठी को बायें पर रखने से मुिल मुरा बनती है ।

(५) वज्रमुरा - किनष्ठा और अंगूठे को िमलाकर ित्रकोण बनाने को अििन (वज्रमुरा) कहते हैं अथागत् किनष्ठा और अंगूठे को
िमलाकर प्रसाररत कर ित्रक् बनाना वज्रमुरा है ।

(६) खड् गमुरा - किनिष्ठका और अनािमका उं गिलयों को एक दूसरे के साथ बांधकर अंगूठों को उनसे िमलाए । िेष उं गिलयों
को एक साथ िमला कर िै ला देने से खड् गमुरा िनष्पन्न होती है ॥२६-२७॥

मृगी, हंसी एवं सूकरी ये तीन होम की मुरायें हैं । मध्यमा अनािमका और अंगूठे के योग से मृगी मुरा, किनष्ठा को छोड कर
िेष सभी अङ्गगुिलयों का योग करने से हंसी मुरा और हाथ को संकुिचत कर लेने से सूकरी मुरा बनती है । इस प्रकार इन
तीन मुराओं का लक्षण कहा गया है । िािन्त्त कायग में मृगी वश्य में हंसी तथा िेष स्तम्भनाफद कायों में सूकरी मुरा का प्रयोग
फकया जाता है ॥२७-२८॥

(१०) अक्षर - िािन्त्त आफद षट् कमों में यन्त्त्र पर चन्त्र, जल, धरा, आकाि, पवन, और अनल वणो के बीजाक्षरों का िमिेः
लेखन करना चािहए । ऐसा मन्त्त्र िास्त्र के िवद्वानों ने कहा हैं ॥३०॥

सोलह, स्वर, स एवं ठ ये अठारह चन्त्र वणग के बीजाक्षर हैं, चन्त्रवणग से हीन पञ्चभूतो के अक्षर जलाफद तत्वों के बीजाक्षर
वश्याफद कमों के िलए उपयुक्त है । कु छ आचायो ने स व ल ह य एवं र को िमिेः चन्त्र जल, भूिम, आकाि और वायु एवं का
बीजाक्षर कहा है ॥३१॥

िािन्त्त आफद षट्कमों में मन्त्त्रिास्त्रज्ञों ने िमिेः नमेः, स्वाहा, वषट् , वौषट, हुम् एवं िट् इन छेः को जाितत्वेन स्वीकार फकया
है ॥३२॥
(११) अब मन्त्त के ग्यारहवें प्रकार, भूतों का उदय कहते हैं - जब दोनों नासापुटों के नीचे तक श्वास चलता हो तब जलतत्त्व
का उदय समझना चािहए, जो िािन्त्त कमग में िसििदायक होता है । नाक के मध्य में सीधे दण्ड की तरह श्वास गित होने पर
पृथ्व्वीतत्त्व का उदय समझना चािहए, यह स्तम्भन काम में िसििदायक होता है । नासा िछरों के मध्य में श्वास की गित होने
पर आकाितत्त्व का उदय समझना चािहए, जो िवद्वेषण में िसििदायक है । नासापुटों के ऊपर श्वास की गित होने पर
अिितत्त्व का उदय समझना चािहए ॥३३-३५॥

ऐसे समय में मारण एवं विीकरण दोनों कायो में सिलता िमलती है । श्वास की गित ितयगक् (ितरछी) होने पर वायुतत्त्व का
उदय समझना चािहए जो उिाटन फिया में िुभावह होता है ॥३६॥

(१२) अब मन्त्त्र के बारहवें प्रकार, िविभन्न सिमधाओं को कहते हैं - िािन्त्त कायग में गोघृत िमिश्रत दूवाग से, वश्य में बकरी के
घी से िमिश्रत अनार की सिमधा से स्तम्भन में भेंडी का घी िमला कर अमलतास वृक्ष की सिमधा से, िवद्वेषण में अतसी के
तेल िमिश्रत धतूरे की सिमधा से, उिाटन में सरसों के तेल से िमिश्रत आम की वृक्ष की सिमधा से तथा मारण में कटुतैल
िमिश्रत खैर की लकडी की सिमधा से होम करना चािहए ॥३७-३९॥

(१३) अब तेरहवें प्रकार में माला की िविध कहते हैं - िािन्त्त आफद षट्कमों में िंख की िािन्त्त में, कवलगद्दा की वश्य में, नींबू
की स्तम्भन में, नीम की िवद्वेषण में, घोडे के दाूँत उिाटन में तथा गदहे के दाूँत की जप माला मारण कमग में उपयोग करना
चािहए ॥४०॥

िािन्त्त, वश्य, पूिष्ट, भोग एवं मोक्ष के कमों में मध्यमा में िस्थत माला को अंगूठे से घुमाना चािहए । स्तम्भनाफद कायो के िलए
बुििमान साधक को अनािमका एवं अंगूठे से जप करना चािहए । िवद्वेषण एवं उिाटन में तजगनी एवं अंगूठे से जप करना
चािहए तथा मारण में किनिष्ठका एवं अंगूठे से जप करने का िवधान है ॥४१-४३॥

अब प्रसङ्ग प्राप्त माला की मिणयोम की गणना कहते हैं - िुभकायग के िलए माला में मिणयोम की संख्या १०८, ५४ या २७
कही गई है, फकन्त्तु अिभचार (मारण) कमग मे मिणयों की संख्या १५ कही गई है ॥४४॥

(१४) अब चौदहवें प्रकार वाले अिि के िवषय में कहते हैं -


िािन्त्त और विीकरण कमग में लौफकक अिि में, स्तम्भन में बरगद के काठ की बनी अिि में, िवद्वेषण में बहेडे की लकडी की
अिि में तथा उिाटन एवं मारण के प्रयोगोम में श्मिानािि में होम का िवधान है ॥४५॥

अिि प्रज्विलत करने के िलए सिमधाओं के िवषय में कहते हैं - िुभ कायो में वेल, आक, पलाि एवं दुधारु वृक्षों की
सिमधाओम से तथा अिुभ कमों में िवषकृ त कु िचला, बहेडा, नीबू, धतूरा एवं िलसोडे की सिमधाओं से मािन्त्त्रक को अिि
प्रज्विलत करनी चािहए ॥४६॥

अब अिि िजहवाओं का तत्तत्कमों में पूजन का िवधान कहते हैं - िािन्त्त कमग में अिि की सुप्रभा संज्ञक िजहवा का, वश्य में
रक्तनामक िजहवा का, स्तम्भन में िहरण्या नामक िजहवा का,िवद्वेषण में गगना नामक िजहवा का, उिाटन में अितररिक्तका
िजहवा का तथा मारण में कृ ष्णा नामक अिि िजहवा और सभी जगह बहुरुपा नामक अिििजहवा का पूजन करना चािहए
॥४७-४९॥
िान्त्त्याफद कमों में ब्राह्मण भोजन के िवषय में कु छ िविेषतायें हैं । िािन्त्त एवं वश्य में होम के दिांि संख्या मे ब्राह्मण भोजन
कराना चािहए, यह उत्तम पक्ष माना गया हैं ॥४९-५०॥

होम की संख्या के पिीसवें अंि की संख्या में ब्राह्मण भोजन मध्यम तथा ितांि संख्या में ब्राह्मण भोजन अधम पक्ष कहा गया
है । स्तम्भन कायग में िािन्त्त की संख्या से दूने ब्राह्मण भोजन कराना चािहए । इसी प्रकार िवद्वेषण एवं उिाटन में िािन्त्त
संख्या से तीन गुने ब्राह्मणों को तथा मारण में संख्या के तुल्य ब्राह्मण भोजन कराना चािहए ॥५०-५१॥

अब भोजनाहग ब्राह्मणों का स्वरुप कहते हैं -


अत्यन्त्त िविुि कु लों में उत्पन्न साङ् गवेद के िवद्वान पिवत्र िनमगल अन्त्तेःकरण वाले सदाचार परायण ब्राह्मणों को िविवध
प्रकार के मनोहर भोज्य पदाथो से भोजन कराना चािहए । उनमें देवबुिि रखकर पूजन करन चािहए तथा बारम्बार उन्त्हे
प्रणाम करना चािहए । मधुर वाणी से तथा सुवगणफद दे दान से उन्त्हे सन्त्तुष्ट करना चािहए । इस प्रकार के ब्राह्मणों द्वारा फदए
गए आिीवागद के प्राप्त करने से साधक के समस्त अिभचाराफद पाप नष्ट हो जाते हैं, तथा िीघ्र ही उसे मनोऽिभलिषत पदाथो
की प्रािप्त हो जाती है ॥५२-५५॥

(१५) अब लेखन रव्य के िवषय में कहते हैं -


चन्त्दन, गोरोचन, हल्दी, गृहधूम, िचता का अङ्गार तथा िवषाष्टक यन्त्त्र लेखन के रव कहे गए हैं । यन्त्त्र तरङ्ग (२०) में
पूवोक्त रव्याफद भी तत्तत्कामनाओम में लेखन रव्य कहे गए हैं । वे भी ग्राह्य हैं । १. िपप्पली, २. िमचग, ३. सोंठ, ४. बाज पक्षी
की िवष्टा, ५. िचत्रक (अण्डी), ६. गृहधूम, ७. धतूरे का रस तथा ८. लवण ये ८ वस्तुयें िवषाष्टक कही गई हैं ॥५५-५७॥

िािन्त्त और वश्य कमग में भोज पत्र पर, स्तम्भन में व्याघ्र चमग पर, िवद्वेष में गदहे की खाल पर, उिाटन में ध्वज वस्त्र पर, और
मारण में मनुष्य की हड्डी पर, मािन्त्त्रक को मन्त्त्र िलखना चािहए । यत्र तरङ्ग (२० में िविवध प्रयोगों में यन्त्त्र िलखने के जो
जो आधार कहे गए हैं वे भी यन्त्त्राधार में ग्राह्य हैं ॥५८-५९॥

(१६) अब मन्त्त्र के १६वें प्रकार, कु ण्ड के िवषय में कहते हैं -


िािन्त्त आफद षट्कमोम में िमिेः वृत्तकार, पद्माकार, चतुरस्त्र, ित्रकोण, षट् कोण और अिगचन्त्रकार कु ण्ड का िनमागण पिश्चम
उत्तर-पूवग नैऋत्य वायव्य और दिक्षण फदिा में करना चािहए ॥६०॥

(१७) स्त्रुवा और स्त्रुची - िािन्त्त में सुवणग की एवं वश्य में यज्ञवृक्ष की स्त्रुवा और स्त्रुची बनानी चािहए । िेष स्तम्भनाफद
कायोम में लौह की स्त्रुवा और स्त्रुची बनानी चािहए ॥६१॥

(१८) अब मन्त्त्र के उन्नीसवें प्रकार, लेखनी के िवषय में कहते हैं -


िािन्त्त कमग में सोने, चांदी, अथवा चमेली की, वश्य कमग में दूवाग की, स्तम्भन में अगस्त्य वृक्ष की अथवा अमलतास की,
िवद्वेषण में करञ्ज की, उिाटन में बहेडे की तथा मारण में मनुष्य की हड्डी की लेखनी से यन्त्त्र िलखना चािहए । िुभ कमग में
साधक को िुभमुहतग में अिुभ कायग में ररक्ता (चौथ, नवमी, चतुदि
ग ी) ितिथयों में मङ्गलवार के फदन तथा िवष्टी (भरा) में
लेखनी का िनमागण करना चािहए ॥६२-६५॥

अब उक्तकमों में भक्ष्यपदाथों को, तपगण रव्यों को तथा उपयोग में लाये जाने योग्य पात्रों के िवषय में कहता हूँ -
िािन्त्त और वश्य कमग करते समय हिवष्यान्न, स्तम्भन करते समय खीर, िवद्वेषण करते समय उडद एवं मूूँग, उिाटन करते
समय गेहूँ तथा मरण करते समय मािन्त्त्रक को मसूर एवं काली बेकरी के दूध में बने खीर का भोजन करना चािहए ॥६५-
६७॥
िािन्त्त कमग में तथा वश्य कमग में हल्दी िमला जल, स्तम्भन और मारण कमग में िमर िमला कु छ गुणगुना जल तथा िवद्वेषण एवं
उिाटन में भेद ् के खून से कमकश्रत जल तपगण रव्य कहा गया है ॥६८॥

िािन्त्त एवं वश्य कमग में सोने के पात्र में, स्तम्भन में िमट्टी के पात्र में, िवद्वेषण में खैर के पात्र में, उचाटन में लोहे के पात्र में
तथा मारण में मुगी ल्के अण्डे में तपगण करना चािहए ॥६८-७१॥

िािन्त्त एवं वश्य कमग में मृद ु आसन पर बैठकर तपगण करना चािहए । स्तम्भन में घुटनोम से उठकर तथा िवद्वेषण आफद में एक
पैर से खडे हो कर तपगण करना चािहए ॥७१॥

हमने मन्त्त्र साधकों के सन्त्तोष के िलए षट्कमोम (िािन्त्त, वश्य, स्तम्भन, िवद्वेषण उिाटन और मारण) की िविध बताई है ।
सवगप्रथम िविधवत् न्त्यास द्वारा आत्मरक्षा करने के बाद ही काम्य कमों का अनुष्ठान करना चािहए । अन्त्यथा हािन और
असिलता ही प्राप्त होती है ॥७२॥

जो व्यिक्त िुभ अथवा अिुभ फकसी भी प्रकार का काम्य कमग करता है मन्त्त्र उसका ित्रु बन जाता है इसिलए काम्यकमग न करे
। यही उत्तम है ॥७३-७४॥

अब प्रश्न होता है फक यफद काम्य कमग करने का िनषेध है तो इतनी बडी िविधयुक्त पुस्तक के िनमागण का लया हेतु है? इसका
उत्तर देते हैं - िवषयासक्त िचत्त वालों के सन्त्तोष के िलए प्राचीन आचायों ने काम्य कम की िविध का प्रितपादन फकया है
फकन्त्तु यह िहतकारी नहीं है । काम्य कमग वालों के िलए के वल कामना िसिि मात्र िल की प्रािप्त होती है ॥७४-७५॥

फकन्त्तु िनष्काम भाव से देवताओं की उपासना करने वालों की सारी िसिियाूँ प्राप्त हो जाती है । के वल सुख प्रािप्त के िलए
प्रत्येक मन्त्त्रों के िजतने भी प्रयोग बतलाये गए हैं उनकी आसिक्त का त्याग कर िनष्काम रुप से देवता की पूजा करनी चािहए
॥७६॥

वेदों में कमगकाण्ड, उपासना और ज्ञान तीन काण्ड बतलाये गए हैं । ‘ज्योितष्टोमेन यजेत्’ यह कमगकाण्ड है, ‘सूयो
ब्रह्मेत्युपासीत’ यह उपासना है, ये दोनों काण्ड ज्ञान के साधन हैं हैं ‘अयमात्मा ब्रह्म’ यह ज्ञान है जो स्वयं में साध्य है । यही
उक्त दोनों में ही वेदोक्त मागग के अनुसार प्रवृत्त होना चािहए । देवता की उपासना से अन्त्तेःकरण िुि हो जाता है । िजससे
उत्तम ज्ञान की प्रािप्त होती है । कायगकारणसंघात िरीर में प्रिवष्ट हुआ जीव ही परब्रह्म है । इसी ज्ञान से साधक मुक्त हो जाता
है । अतेः मनुष्य देह प्राप्त कर देवताओम की उपासना से मुिक्त प्राप्त कर लेनी चािहए । जो मनुष्य देह प्राप्त कर संसार बन्त्धन
से मुक्त नही होता, वही महापापी ॥८०॥

इसिलए उपासना और कमग से काम-िोधाफद ित्रुओं का नाि कर आत्मज्ञान की प्रािप्त के िलए सत्पुरुषों को सतत् प्रयत्न करते
रहना चािहए ॥७७-८१॥

देवता की उपासना करने वाले को अपना भिवष्य िवचार कर उसमें प्रवृत्त होना चािहए । उसकी िविध इस प्रकार है -
स्नान और दान आफद करने के बाद भगवान् िवष्णु के चरण कमलों का ध्यान कर कु ि की िय्या पर सोना चािहए । तथा
भगवान ििव से ‘भगवान देवदेवेि...... त्वत्प्रसादान्त्महेश्वर’ पयगन्त्त तीन श्लोकों से (र० २५. ८३. ८६) से प्राथगना कर िनिश्चन्त्त
हो सो जाना चािहए ॥८२-८६॥

प्रातेःकाल उठने पर देखा हुआ स्वप्न अपने गुरुदेव से बतला देना चािहए । उनके न होने पर स्वयं साधक को अपने स्वप्न के
भिवष्य के िवषय में िवचार कर लेना चािहए ॥८७॥

अब िुभािुभ स्वप्न के िवषय में कहते हैं -


िलङ्ग चन्त्र और सूयगकर िबम्ब, सरस्वती, गङ्गा, गुरु, लालवणग वाले समुर में तैरना, युि में िवजय, अिि का अचगन,
मयूरयुक्त, हंसयुक्त अथवा चियुक्त रथ पर बैठना, स्नान, संभोग, सारस की सवारी, भूिमलाभ, नदी, ऊचे ऊचे महल, रथ,
कमल, छत्र, कन्त्या, िलवान् वृक्ष, सपग अथवा हाथी, दीया, घोडा, पुष्प, वृषभ और अश्व, पवगत, िराब का घडा, ग्रह नक्षत्र,
स्त्री, उदीयमान सूयग अप्सराओं का दिगन, िलपे पोते स्वच्छ मकान पर, पहाड पर तथा िवमान पर चढना, आकाि यात्रा, मद्य
पीना, मांस खाना, िवष्टा का लेप, खून से स्नान, दही भात का भोजन, राज्यिभषेक होना (राज्य प्रािप्त), गाय, बैल और ध्वजा
का दिगन, तसह और तसहासन , िंख बाजा, गोरोचन, दिध, चन्त्दन तथा दपगण इनका स्वप्न में फदखलायी पडना िुभावह कहा
गया है ॥८८-९३॥

तैल की मािलि फकए पुरुष का, काला अथवा नि व्यिक्त का, गङ्गा, कौआ, सूखा वृक्ष, काूँटेदार वृक्ष, चाण्डाल बडे कन्त्धे
वाला पुरुष, तल (छत) रिहत पक्ता महल इनका स्वप्न में फदखलाई पडना अिुभ है ॥९४-९५॥

दुेःस्वप्न की िाित्न के उपाय - दुेःस्वप्न फदखई पडने पर उसकी िािन्त्त करानी चािहए । तदनन्त्तर एकाग्रमन से इष्टदेव के मन्त्त्र
को जप करना चािहए । ३ वषग तक जप करने वाले को िवघ्न की संभावना रहती है, अतेः िवघ्नसमूह की परवाह न कर अपने
जप में तत्पर रहना चािहए । अपने िचत्त में िवश्वस्त रहने वाला िसिपुरुष चौथे वषग में अवश्य ही िसिि प्राप्त कर लेता है
॥९५-९७॥

अब मन्त्त्र िसिि का लक्षण कहते हैं -


मन में प्रसन्नता आत्मसन्त्तोष, नगाङ्गे की ध्विन, गाने की ध्विन, ताल की ध्विन, गन्त्धवो का दिगन, अपने तेज को सूयग के
समान देखना, िनरा, क्षुधा, जप करना, िरीर का सौन्त्दयग बढना, आरोग्य होना, गाम्भीयग, िोध और लोभ का अपने में सवगथा
अभाव, इत्याफद िचन्त्ह जब साधक को फदखाई पडे ती मन्त्त्र की िसिि तथा देवता की प्रसन्नता समझनी चािहए ॥९७-१००॥

अब मन्त्त्र िसिि के बाद के कत्तगव्य का िनदेि करते हैं - मन्त्त्र िसिि प्राप्त कर लेने वाले साधक को ज्ञान प्रािप्त के िलए जप की
संख्या में िनरन्त्तर वृिि का यन्त्त करते रहना चािहए । जब वेदान्त्त प्रितपाफदत (अयमात्माब्रह्म, अहं ब्रह्मािस्म, तत्त्वामिस
श्वेतोके तो इत्याफद) तत्त्वों का ज्ञान प्राप्त है जाय तब साधक कृ ताथग हो जाता है और संसार बन्त्धन से छू ट जाता है ॥१००-
१०१॥

अब ग्रन्त्थ समािप्त में पुनेः मङ्गलाचरण करते हैं - सवगव्यापी ईश्वर परमात्मा की मैं वन्त्दना करता हूँ, जो अनेक देवताओं का
स्वरुप ग्रहण कर मनुष्यों के अभीष्टों को पूरा करते हैं ॥१०२॥

ग्रन्त्थ रचना का हेतु - श्रेष्ठ िवद्वान् ब्राह्मणों द्वारा प्राथगना फकये जाने पर अनेक तन्त्त्र ग्रन्त्थोम का अवलोकन कर अपनी बुिि के
अनुसार मैंने इस मन्त्त्र महोदिध नामक ग्रन्त्थ की रचना है । यही इस ग्रन्त्थ की रचना का हेतु है ॥१०३॥

अब प्रसङ्ग प्राप्त मन्त्त्रमहोदिध की अनुिमिणका कहते हैं -


इस मन्त्त्रमहोदिध में पिीस तरङ्ग हैं । मािन्त्त्रकों की सुिवधा के िलए अब उनकी अनुिमािणका कहता हूँ ॥१०४॥

प्रथम तरङ्ग में भूतसुिि, प्राणप्रितष्ठा, मातृकान्त्यास, पुरश्चरण और होम की िविध तथा तपगण का िवषय प्रितपादन फकया
गया है ॥१०५॥
िद्वतीय तरङ्ग में गणेि के िविवध मन्त्त्र और उनकी िसिि के प्रकार कहे गए हैं ।

तृतीय तरङ्ग में काली तथा काली नाम से अिभिहत दिक्षणाकाली आफद के अनेक मन्त्त्र एवं सुमुखी के मन्त्त्र का प्रितपादन एवं
काम्यप्रयोग कहा गया है ॥१०६॥

चतुथग तरङ्ग में तारा की उपासना तथा पञ्चम तरङ्ग में तारा के भेद कहे गए हैं ।

छठे तरङ्ग में िछन्नमस्ता, िबरी, स्वयम्बरा, मधुअमती, प्रमदा, प्रमोदा, बन्त्दी जो बन्त्धन से मुक्त करती हैं - उनके मन्त्त्रों को
बताया गया है ॥१०७-१०८॥

सप्तम तरङ्ग में वटयिक्षणी, वटयिक्षणी के भेद, वाराही, ज्येष्ठा, कणगिपिािचनी, स्वप्नेश्वरी, मातङ्गी, बाणेिी एवं कामेिी के
मन्त्त्रों को प्रितपाफदत फदया गया है ॥१०८-१०९॥

अष्टम तरङ्ग मे ित्रपुराबाला तथा उनके भेदों का िववेचन िवस्तार से फकया गया है ।

नवम तरङ्ग में अन्नपूणाग, उनके भेद त्रैलोलयमोहन गौरी एवं ज्येष्ठालक्ष्मी तथा उनके साथ ही प्रत्यंिगरा के भी मन्त्त्रों का
िनदेि फकया गया है ॥११०-१११॥

दिम तरङ्ग में बगलामुखी तथा वाराही को भी बतलाया गया है ॥१११॥

एकादि तरङ्ग में श्रीिवद्या तथा द्वादि तरङ्ग में उनके आवरण पूजा की िविध बताई गई है ।

त्रयोदि तरङ्ग में हनुमान् के मन्त्त्रों एवं प्रयोगों का िविद् रुप से प्रितपादन फकया गया है ॥११२॥

चतुदि
ग तरङ्ग में नृतसह, गोपाल एवं गरुड मन्त्त्रों का प्रितपादन है ।

पञ्चदि तरङ्ग में सूयग, भौम, बृहस्पित, िुि एवं वेदव्यास के मन्त्त्रों को बताया गया है ॥११३॥

षोडि तरङ्ग में महामृत्युञ्जय, रुर एवं गङ्गा तथा मिणकर्णणका के मन्त्त्र कहे गए हैं ।

सप्तदि तरङ्ग में कात्तगवीयागजुगन के मन्त्त्र, दीपदान िविध आफद का वणगन है ।

अष्टादि तरङ्ग में कालराित्र के मन्त्त्र, नवाणगमन्त्त्र ितचण्डी और सहस्त्रचण्डी िवधान का सिवस्तार वणगन फकया गया है
॥११४-११५॥

उन्नीसवें तरङ्ग में चरणायुध मन्त्त्र, िास्ता मन्त्त्र, पार्णथवाचगन, धमगराज, िचत्रगुप्त के मन्त्त्रों का प्रितपादन करते हुये आसुरी
(दुगाग) िविध का प्रितपादन फकया गया है ॥११५-११६॥
बीसवें तरङ्ग में िविवध यन्त्त्र, स्वणागकषगण भैरव की उपासना िविध तथा अनेक यन्त्त्रों का वणगन है ।

इक्कीसवें तरङ्ग में स्नान से लेकर अन्त्तगयाग तथा िनत्यकमग का वणगन है ।

बाइसवें तरङ्ग में अघ्नयगस्थापन से लेकर पूजन पयगन्त्त के कृ त्य तथा पूजा के भेद बतलाये गये हैं ॥११६-११७॥

त्रयोतविित तरङ्ग में दमनक तथा पिवत्रक से इष्टदेव के समगचन का िवधान कहा गया है ।

चौबीसवें तरङ्ग में मन्त्त्र िोधन की नाना प्रकार की प्रफिया कही गई है ।

पिीसवें तरङ्ग में षट् कमों के समस्त िवधान का िनदेि है ॥११८-११९॥

इस प्रकार मन्त्त्रमहोदिध के पिीस तरङ्गों में उक्त समस्त िवषयों का वणगन फकया गया है ॥११६-११९॥

अब ग्रन्त्थकार ग्रन्त्थ का उपसंहार कर िविेषज्ञों से प्राथगना करते हैम फक आवश्यकता पडने पर िविेषज्ञों को इसमें संिोधन
कर लेना चािहए, िजस प्रकार िपता अपने बालकों की चपलता क्षमा करता हैं उसी प्रकार मन्त्त्र के िवषय में फकए गए साहस
को भी िवज्ञपन क्षमा करें गे ॥१२०॥

अब ग्रन्त्थकार अपना स्ववंि पररचय देते हैं - अिहच्छत्र देि में िद्वजो के छत्र के समान वत्स में उत्पन्न, धरातल में अपनी
िवद्वत्ता से िवख्यात रत्नाकर नाम के ब्राह्मण हुये ॥१२१॥

उनके लडके िनूभट्ट, हुये, जो भगवान् श्री राम के प्रकाण्ड भक्त थे । उनके पुत्र श्रीमहीधर हुये, िजन्त्होने संसार की असारता
को जान कर अपना देि छोड कर कािी नगरी में आकर भगवान् नृतसह की सेवा करते हुये मन्त्त्रमहोदिध नामक इस तन्त्त्र
ग्रन्त्थ की रचना की ॥१२२-१२३॥

अनेक ग्रन्त्थों में िलखे गए नाना प्रकार के मन्त्त्रों के सार को फकसी एक ग्रन्त्थ में िनबि करने की इच्छा रखने वाले तथा आगम
ग्रन्त्थों के ममगज्ञ महामुिनयों, श्रेष्ठ ब्राह्मणोम एवं कल्याण नामक स्वकीय पुत्र के द्वारा प्राथगना फकए जाने पर मैंने अपनी बुिि के
अनुसार इस मन्त्त्रमहोदिध नामक ग्रन्त्थ की रचना की है ॥१२४-१२५॥

अब ग्रन्त्थकार ग्रन्त्थ के अन्त्त में आिीवगचन कहते हैं -


इस ग्रन्त्थ का अभ्यास करने वाले समस्त पाठकगण अपने धमग में परायण रहें । सवगदा कल्याण का दिगन करें । रोह से सवगथा
पराङ् मुख रहें और उनकी वंिपरम्परा अिविच्छन्न रुप से चलती रहे ॥१२६॥

अब जगदीश्वर से प्राथगना करते हुये ग्रन्त्थ की समािप्त करते हैं -


जगदीश्वर श्रीहरर सभी का कल्याण करें और जब तक वेद, सूयग तथा चन्त्रमा रहें तब तक इस ग्रन्त्थ का प्रचार प्रसार करते रहें
॥१२७॥

समस्त देवगणों की िवपित्त को दूर करने वाले, देवगणों से विन्त्दत लक्ष्मी सिहत श्रीनृतसह देव हमें िनरन्त्तर हषग प्रदान करते
रहें ॥१२८॥
क्षीर सागर के मध्य में िस्थत श्वेत द्वीप के मण्डप में अपनी गोद में िस्थत लक्ष्मी के साथ िवराजमान, प्रसन्नता से पूणग भगवान्
श्री नृतसह मेरी रक्षा करें , जो अञ्जिल आफद मुराओं से पूजा करने वाले अपने भक्तो को समस्त िसिियाूँ प्रदान करते हैं वह
भगवान् श्रीनृतसह मुझे रजोगुण रिहत सद्बुिि दें ॥१२७-१२९॥

भगवान् श्री लक्ष्मीनृतसह की जय हो । मैं परमकल्याणकारी श्री नृतसह की वन्त्दना करता हं, िजन नृतसह ने महबलवान् बडे
बडे दैत्योम का वध फकया उन नरहरर को मैम प्रणाम करता हूँ ।

लक्ष्मीनृतसह से बढ कर और कोई देवता नही है । इसिलए श्री नृतसह के चरण कमलों की सेवा करनी चािहए । यही सोंच कर
श्रीनृतसह मेरे मन में िनवास करें । यह मेरा मन कभी भी नृतसह से अलग न हो ॥१३०॥

बाबा िवश्वनाथ, भवानी अन्नपूणाग, िबन्त्दम


ु ाधव, मिणकर्णणका, भैरव, भागीरतेहे तथा दण्डपाणी मेरा सतत् कल्याण करें
॥१३१॥

िविम संवत् १६४५ में ज्येष्ठ िुलला अष्टमी को बाबा िवश्वनाथ के सािन्नध्य में यह मन्त्त्रमहोदिध नामक ग्रन्त्थ पूणग हुआ
॥१३२॥

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