You are on page 1of 174

प्रेमचिंद

मानसरोवर
भाग 3

ह द
िं ीकोश
www.hindikosh.in
Manasarovar – Part 3

By Premchand

य पुस्तक प्रकाशनाधिकार मुक्त ै क्योंकक इसकी प्रकाशनाधिकार अवधि


समाप्त ो चुकी ैं।

This work is in the public domain in India because its term of copyright
has expired.

यूनीकोड सिंस्करण: सिंजय खत्री. 2012

Unicode Edition: Sanjay Khatri, 2012

आवरण धचत्र: ववककपीडडया (प्रेमचिंद, मानसरोवर झील)

Cover image: Wikipedia.org (Premchand, Manasarovar Lake).

ह द
िं ीकोश

Hindikosh.in

http://www.hindikosh.in
Contents
ववश्वास ........................................................................................................ 4
नरक का मागग ............................................................................................ 25
स्त्री और पुरुष ............................................................................................ 34
उद्धार ......................................................................................................... 42
ननवागसन ..................................................................................................... 52
नैराश्य लीला .............................................................................................. 61
कौशल ....................................................................................................... 77
स्वगग की दे वी ............................................................................................. 83
आिार ....................................................................................................... 94
एक आिंच की कसर ................................................................................... 102
माता का ह्रदय.......................................................................................... 109
परीक्षा ...................................................................................................... 120
तें तर ........................................................................................................ 124
नैराश्य ..................................................................................................... 134
दिं ड .......................................................................................................... 148
धिक्कार (2) ............................................................................................. 165
विश्िास

उन हदनो ममस जोसी बम्बई सभ्य-समाज की राधिका थी। थी तो व एक


छोटी सी कन्या पाठशाला की अध्यावपका पर उसका ठाट-बाट, मान-सम्मान
बडी-बडी िन-राननयों को भी लज्जजत करता था। व एक बडे म ल में
र ती थी, जो ककसी जमाने में सतारा के म ाराज का ननवास-स्थान था। व ॉँ
सारे हदन नगर के रईसों, राजों, राज-कमचाररयों का तािंता लगा र ता था। व
सारे प्रािंत के िन और कीनतग के उपासकों की दे वी थी। अगर ककसी को खखताब
का खब्त था तो व ममस जोशी की खुशामद करता था। ककसी को अपने या
सिंबिी के मलए कोई अच्छा ओ दा हदलाने की िुन थी तो व ममस जोशी की
अरािना करता था। सरकारी इमारतों के ठीके; नमक, शराब, अफीम आहद
सरकारी चीजों के ठीके; लो े -लकडी, कल-परु जे आहद के ठीके सब ममस जोशी
ी के ाथो में थे। जो कुछ करती थी व ी करती थी, जो कुछ ोता था उसी के
ाथो ोता था। ज्जस वक्त व अपनी अरबी घोडो की कफटन पर सैर करने
ननकलती तो रईसों की सवाररयािं आप ी आप रास्ते से ट जाती थी, बडे
दक
ु ानदार खडे ो- ो कर सलाम करने लगते थे। व रूपवती थी, लेककन
नगर में उससे बढ़कर रूपवती रमखणयािं भी थी। व सुमशक्षक्षता थीिं, वक्चतुर
थी, गाने में ननपण
ु , िं सती तो अनोखी छवव से, बोलती तो ननराली घटा से,
ताकती तो बािंकी धचतवन से; लेककन इन गण
ु ो में उसका एकाधिपत्य न था।
उसकी प्रनतष्ठा, शज्क्त और कीनतग का कुछ और ी र स्य था। सारा नगर ी
न ी ; सारे प्रान्त का बच्चा जानता था कक बम्बई के गवनगर ममस्टर जौ री
ममस जोशी के बबना दामों के गुलाम ै ।ममस जोशी की आिंखो का इशारा
उनके मलए नाहदरशा ी ु क्म ै। व धथएटरो में दावतों में , जलसों में ममस
ॉँ
जोशी के साथ साये की भ नत र ते ै । और कभी-कभी उनकी मोटर रात के
सन्नाटे में ममस जोशी के मकान से ननकलती ुई लोगो को हदखाई दे ती ै।
इस प्रेम में वासना की मात्रा अधिक ै या भज्क्त की, य कोई न ी जानता ।
लेककन ममस्टर जौ री वववाह त ै और ममस जौशी वविवा, इसमलए जो लोग
उनके प्रेम को कलुवषत क ते ै , वे उन पर कोई अत्याचार न ीिं करते।
बम्बई की व्यवस्थावपका-सभा ने अनाज पर कर लगा हदया था और जनता की
ओर से उसका ववरोि करने के मलए एक ववराट सभा ो र ी थी। सभी
नगरों से प्रजा के प्रनतननधि उसमें सज्म्ममलत ोने के मलए जारो की
सिंख्या में आये थे। ममस जोशी के ववशाला भवन के सामने , चौडे मैदान में
री-भरी घास पर बम्बई की जनता उपनी फररयाद सन
ु ाने के मलए जमा थी।
अभी तक सभापनत न आये थे, इसमलए लोग बैठे गप-शप कर र े थे। कोई
कमगचारी पर आक्षेप करता था, कोई दे श की ज्स्थनत पर, कोई अपनी दीनता
पर—अगर म लोगो में अगडने का जरा भी सामर्थयग ोता तो मजाल थी कक
य कर लगा हदया जाता, अधिकाररयों का घर से बा र ननकलना मुज्श्कल ो
जाता। मारा जरुरत से जयादा सीिापन में अधिकाररयों के ाथों का खखलौना
बनाए ु ए ै। वे जानते ैं कक इन् ें ज्जतना दबाते जाओ, उतना दबते जायेगें,
मसर न ीिं उठा सकते। सरकार ने भी उपद्रव की आिंशका से सशस्त्र पुमलस
बुला ली।ैै उस मैदान के चारों कोनो पर मसपाह यों के दल डेरा डाले पडे थे।
उनके अफसर, घोडों पर सवार, ाथ में िं टर मलए, जनता के बीच में ननश्शिंक
भाव से घोंडे दौडाते कफरते थे , मानों साफ मैदान ै । ममस जोशी के ऊिंचे बरामदे
में नगर के सभी बडे-बडे रईस और राजयाधिकारी तमाशा दे खने के मलए
बैठे ु ए थे। ममस जोशी मे मानों का आदर-सत्कार कर र ी थीिं और ममस्टर
जौ री, आराम-कुसी परलेटे, इस जन-समू को घण
ृ ा और भय की दृज्ष्ट से दे ख
र े थे।

स सा सभापनत म ाशय आपटे एक ककराये के तािंगे पर आते हदखाई हदये। चारों


तरफ लचल मच गई, लोग उठ-उठकर उनका स्वागत करने दौडे और उन् ें ला
कर मिंच पर बेठा हदया। आपटे की अवस्था ३०-३५ वषग से अधिक न थी
; दब
ु ले-पतले आदमी थे, मुख पर धचन्ता का गाढ़ा रिं ग-चढ़ा ु आ था। बाल भी
पक चले थे, पर मुख पर सरल ास्य की रे खा झलक र ी थी। व एक
सफेद मोटा कुरता प ने थे, न पािंव में जत
ू े थे, न मसर पर टोपी। इस अद्धनगग्न,
दब
ु ल
ग , ननस्तेज प्राणी में न जाने कौल-सा जाद ू था कक समस्त जनता उसकी
पज
ू ा करती थी, उसके पैरों में न जाने कौन सा जाद ू था कक समस्त जरत
उसकी पज
ू ा करती थी, उसके पैरों पर मसर रगडती थी। इस एक प्राणी क ाथों
में इतनी शज्क्त थी कक व क्षण मात्र में सारी ममलों को बिंद करा सकता था,
श र का सारा कारोबार ममटा सकता था। अधिकाररयों को उसके भय से नीिंद
न आती थी, रात को सोते-सोते चौंक पडते थे। उससे जयादा भिंयकर जन्तु
अधिकाररयों की दृज्ष्टमें दस
ू रा नथा। ये प्रचिंड शासन-शज्क्त उस एक ड्डी के
आदमी से थरथर कािंपती थी, क्योंकक उस ड्डी में एक पववत्र, ननष्कलिंक, बलवान
और हदव्य आत्मा का ननवास था।

आपटे नें मिंच पर खडें ोकर प ले जनता को शािंत धचत्त र ने और अह स


िं ा-
व्रत पालन करने का आदे श हदया। कफर दे श में राजनननतक ज्स्थनत का वणगन
करने लगे। स सा उनकी दृज्ष्ट सामने ममस जोशी के बरामदे की ओर गई तो
उनका प्रजा-दख
ु पीडडत हृदय नतलममला उठा। य ािं अगखणत प्राणी अपनी
ववपज्त्त की फररयाद सुनने के मलए जमा थे और व ािं में जो पर चाय और
बबस्कुट, मेवे और फल, बफग और शराब की रे ल-पेल थी। वे लोग इन अभागों को
दे ख-दे ख िं सते और तामलयािं बजाते थे। जीवन में प ली बार आपटे की जबान
काबू से बा र ो गयी। मेघ की भािंनत गरज कर बोले—

‘इिर तो मारे भाई दाने-दाने को मु ताज ो र े ै , उिर अनाज पर कर लगाया


जा र ा ै , केवल इसमलए कक राजकमगचाररयों के लवे-परू ी में कमी न ो। म
जो दे श जो दे श के राजा ैं, जो छाती फाड कर िरती से िन ननकालते ैं , भूखों
मरते ैं; और वे लोग, ज्जन् ें मने अपने सुख और शानत की व्यवस्था करने
के मलए रखा ै , मारे स्वामी बने ु ए शराबों की बोतले उडाते ैं। ककतनी
अनोखी बात ै कक स्वामी भख
ू ों मरें और सेवक शराबें उडायें, मेवे खायें और
इटली और स्पेन की ममठाइयािं चलें ! य ककसका अपराि ै ? क्या सेवकों का?
न ीिं, कदावप न ीिं, मारा ी अपराि ै कक मने अपने सेवकों को इतना
अधिकार दे रखा ै । आज म उच्च स्वर से क दे ना चा ते ैं कक म य
क्रूर और कुहटल व्यव ार न ीिं स सकते।य मारें मलए असह्य ै कक म
और मारे बाल-बच्चे दानों को तरसें और कमगचारी लोग, ववलास में डूबें ुए
मारे करूण-क्रन्दन की जरा भी परवा न करत ु ए वव ार करें । य असह्य ै
कक मारें घरों में चूल् ें न जलें और कमगचारी लोग धथएटरों में कश करें ,
नाच-रिं ग की म कफलें सजायें, दावतें उडायें, वेश्चाओिं पर किंचन की वषाग करें ।
सिंसार में और कसा कौन कसा दे श ोगा, ज ािं प्रजा तो भख
ू ी मरती ो और
प्रिान कमगचारी अपनी प्रेम-कक्रडा में मग्न ो, ज ािं ज्स्त्रयािं गमलयों में ठोकरें
खाती कफरती ों और अध्यावपकाओिं का वेष िारण करने वाली वेश्याएिं आमोद-
प्रमोद के नशें में चूर ों...

एकाएक सशस्त्र मसपाह यों के दल में लचल पड गई। उनका अफसर ु क्म दे
र ा था—सभा भिंग कर दो, नेताओिं को पकड लो, कोई न जाने पाए। य
ववद्रो ात्मक व्याख्यान ै।

ममस्टर जौ री ने पुमलस के अफसर को इशारे पर बुलाकर क ा—और ककसी को


धगरफ्तार करने की जरुरत न ीिं। आपटे ी को पकडो। व ी मारा शत्रु ै।

पमु लस ने डिंडे चलने शुरु ककये। और कई मसपाह यों के साथ जाकर अफसर ने
अपटे का धगरफ्तार कर मलया।

जनता ने त्यौररयािं बदलीिं। अपने प्यारे नेता को यों धगरफ्तार ोते दे ख कर


उनका िैयग ाथ से जाता र ा।

लेककन उसी वक्त आपटे की ललकार सुनाई दी—तुमने अह स


िं ा-व्रत मलया ै ओर
अगर ककसी ने उस व्रत को तोडा तो उसका दोष मेरे मसर ोगा। मैं तम
ु से
सववनय अनरु ोि करता ूिं कक अपने-अपने घर जाओिं। अधिकाररयों ने व ी
ककया जो म समझते थे। इस सभा से मारा जो उद्देश्य था व परू ा ो
गया। म य ािं बलवा करने न ीिं , केवल सिंसार की नैनतक स ानुभूनत प्राप्त
करने के मलए जमा ु ए थे, और मारा उद्देश्य पूरा ो गया।

एक क्षण में सभा भिंग ो गयी और आपटे पमु लस की वालात में भेज हदए गये

ममस्टर जौ री ने क ा—बच्चा ब ु त हदनों के बाद पिंजे में आए ैं, राज-द्रो


कामुकदमा चलाकर कम से कम १० साल के मलए अिंडमान भें जूगािं।

ममस जोशी—इससे क्या फायदा?

‘क्यों? उसको अपने ककए की सजा ममल जाएगी।’

‘लेककन सोधचए, में उसका ककतना मूल्य दे ना पडेगा। अभी ज्जस बात को धगने-
धगनाये लोग जानते ैं , व सारे सिंसार में फैलेगी और म क ीिं मुिं हदखाने
लायक न ीिं र ें गें। आप अखबारों में सिंवाददाताओिं की जबान तो न ीिं बिंद
कर सकते।’

‘कुछ भी ो मैं इसे जोल में सडाना चा ता ूिं । कुछ हदनों के मलए तो चैन की
नीिंद नसीब ोगी। बदनामी से डरना ी व्यथग ै। म प्रािंत के सारे समाचार-पत्रों
को अपने सदाचार का राग अलापने के मलए मोल ले सकते ैं। म प्रत्येक
लािंछन को झूठ साबबत कर सकते ैं, आपटे पर ममर्थया दोषारोपरण का
अपराि लगा सकते ैं।’

‘मैं इससे स ज उपाय बतला सकती ूिं । आप आपटे को मेरे ाथ में छोड
दीज्जए। मैं उससे ममलूिंगी और उन यिंत्रों से, ज्जनका प्रयोग करने में मारी
जानत मसद्ध स्त ै , उसके आिंतररक भावों और ववचारों की था लेकर आपके
सामने रख दिं ग
ू ी। मैं कसे प्रमाण खोज ननकालना चा ती ूिं ज्जनके उत्तर में
उसे मिंु खोलने का सा स न ो, और सिंसार की स ानभ
ु नू त उसके बदले मारे
साथ ो। चारों ओर से य ी आवाज आये कक य कपटी ओर िूतग था और
सरकर ने उसके साथ व ी व्यव ार ककया ै जो ोना चाह ए। मुझे ववश्वास ै
कक व षिंड्यिंत्रकाररयों को मुखखया ै और मैं इसे मसद्ध कर दे ना चा ती ूिं ।
मैं उसे जनता की दृज्ष्ट में दे वता न ीिं बनाना चा तीिं ूिं , उसको राक्षस के
रुप में हदखाना चा ती ूिं ।

‘कसा कोई पुरुष न ीिं ै , ज्जस पर युवती अपनी मोह नी न डाल सके।’

‘अगर तुम् ें ववश्वास ै कक तुम य काम पूरा कर हदखाओिंगी, तो मुझे कोई


आपज्त्त न ीिं ै । मैं तो केवल उसे दिं ड दे ना चा ता ूिं ।’

‘तो ु क्म दे दीज्जए कक व इसी वक्त छोड हदया जाय।’

‘जनता क ीिं य तो न समझेगी कक सरकार डर गयी?’

‘न ीिं, मेरे ख्याल में तो जनता पर इस व्यव ार का ब ु त अच्छा असर पडेगा।


लोग समझेगें कक सरकार ने जनमत का सम्मान ककया ै।’

‘लेककन तुम् ें उसेक घर जाते लोग दे खेंगे तो मन में क्या क ें गे?’

‘नकाब डालकर जाऊिंगी, ककसी को कानोंकान खबर न ोगी।’

‘मुझे तो अब भी भय ै कक व तुम् े सिंदे की दृज्ष्ट से दे खेगा और तुम् ारे


पिंजे में न आयेगा, लेककन तुम् ारी इच्छा ै तो आजमा दे खों।’

य क कर ममस्टर जौ री ने ममस जोशी को प्रेम मय नेत्रों से दे खा, ाथ


ममलाया और चले गए।
आकाश पर तारे ननकले ु ए थे, चैत की शीतल, सख
ु द वायु चल र ी थी, सामने के
चौडे मैदान में सन्नाटा छाया ु आ था, लेककन ममस जोशी को कसा मालम
ू ुआ
मानों आपटे मिंच पर खडा बोल र ा ै । उसक शािंत, सौम्य, ववषादमय स्वरुप
उसकी आिंखों में समाया ु आ था।

प्रात:काल ममस जोशी अपने भवन से ननकली, लेककन उसके वस्त्र ब ु त सािारण
थे और आभूषण के नाम शरीर पर एक िागा भी नथा। अलिंकार-वव ीन ो
कर उसकी छवव स्वच्छ, जल की भािंनत और भी ननखर गयी। उसने सडक पर
आकर एक तािंगा मलया और चली।

आपटे का मकान गरीबों के एक दरू के मु ल्ले में था। तािंगेवाला मकान का


पता जानता था। कोई हदक्कत न ु ई। ममस जोशी जब मकान के द्वार पर
प ुिं ची तो न जाने क्यों उसका हदल िडक र ा था। उसने कािंपते ु ए ाथों से
किंु डी खटखटायी। एक अिेड औरत ननकलकर द्वार खोल हदय। ममस जोशी उस
घर की सादगी दे ख दिं ग र गयी। एक ककनारें चारपाई पडी ु ई थी, एक टूटी
आलमारी में कुछ ककताबें चुनी ु ई थीिं, फशग पर खखलने का डेस्क था ओर एक
रस्सी की अलगनी पर कपडे लटक र े थे। कमरे के दस
ू रे ह स्से में एक लो े
का चूल् ा था और खाने के बरतन पडे ुए थे। एक लम्बा-तगडा आदमी, जो
उसी अिेड औरत का पनत था, बैठा एक टूटे ु ए ताले की मरम्मत कर र ा था
और एक पािंच-छ वषग का तेजस्वी बालक आपटे की पीठ पर चढ़ने के मलए उनके
गले में ाथ डाल र ा था।आपटे इसी लो ार के साथ उसी घर में र ते थे।
समाचार-पत्रों के लेख मलखकर जो कुछ ममलता उसे दे दे ते और इस भािंनत
ग ृ -प्रबिंि की धचिंताओिं से छुट्टी पाकर जीवन व्यतीत करते थें।
ममस जोशी को दे खकर आपटे जरा चौंके, कफर खडे ोकर उनका स्वागत ककया
ओर सोचने लगे कक क ािं बैठाऊिं। अपनी दररद्रता पर आज उन् ें ज्जतनी लाज
आयी उतनी और कभी न आयी थी। ममस जोशी उनका असमिंजस दे खकर
चारपाई पर बैठ गयी और जरा रुखाई से बोली—मैं बबना बल
ु ाये आपके य ािं
आने के मलए क्षमा मािंगती ूिं ककिं तु काम कसा जरुरी था कक मेरे आये बबना पूरा
न ो सकता। क्या मैं एक ममनट के मलए आपसे एकािंत में ममल सकती ूिं ।

आपटे ने जगन्नाथ की ओर दे ख कर कमरे से बा र चले जाने का इशारा ककया।


उसकी स्त्री भी बा र चली गयी। केवल बालक र गया। व ममस जोशी की
ओर बार-बार उत्सुक आिंखों से दे खता था। मानों पूछ र ा ो कक तुम आपटे
दादा की कौन ो?

ममस जोशी ने चारपाई से उतर कर जमीन पर बैठते ु ए क ा—आप कुछ


अनुमान कर सकते ैं कक इस वक्त क्यों आयी ूिं ।

आपटे ने झेंपते ु ए क ा—आपकी कृपा के मसवा और क्या कारण ो सकता ै?

ममस जोशी—न ीिं, सिंसार इतना उदार न ीिं ु आ कक आप ज्जसे गािंमलयािं दें ,
व आपको िन्यवाद दे । आपको याद ै कक कल आपने अपने व्याख्यान में
मुझ पर क्या-क्या आक्षेप ककए थे? मैं आपसे जोर दे कर क ती ूिं ककवे
आक्षेप करके आपने मुझपर घोर अत्याचार ककया ै। आप जैसे सहृदय,
शीलवान, ववद्वान आदमी से मुझे कसी आशा न थी। मैं अबला ूिं , मेरी रक्षा करने
वाला कोई न ीिं ै ? क्या आपको उधचत था कक एक अबला पर ममर्थयारोपण
करें ? अगर मैं पुरुष ोती तो आपसे ड्यूल खेलने काक आग्र करती । अबला

ूिं , इसमलए आपकी सजजनता को स्पशग करना ी मेरे ाथ में ै । आपने मुझ
पर जो लािंछन लगाये ैं, वे सवगथा ननमल
ूग ैं।

आपटे ने दृढ़ता से क ा—अनुमान तो बा री प्रमाणों से ी ककया जाता ै।


ममस जोशी—बा री प्रमाणों से आप ककसी के अिंतस्तल की बात न ीिं जान सकते

आपटे —ज्जसका भीतर-बा र एक न ो, उसे दे ख कर भ्रम में पड जाना


स्वाभाववक ै।

ममस जोशी— ािं, तो व आपका भ्रम ै और मैं चा ती ूिं कक आप उस कलिंक को


ममटा दे जो आपने मुझ पर लगाया ै । आप इसके मलए प्रायज्श्चत करें गे?

आपटे —अगर न करूिं तो मुझसे बडा दरु ात्मा सिंसार में न ोगा।

ममस जोशी—आप मझ
ु पर ववश्वास करते ैं।

आपटे —मैंने आज तक ककसी रमणी पर ववश्वास न ीिं ककया।

ममस जोशी—क्या आपको य सिंदे ो र ा ै कक मैं आपके साथ कौशल कर


र ी ूिं ?

आपटे ने ममस जोशी की ओर अपने सदय, सजल, सरल नेत्रों से दे ख कर क ा—


बाई जी, मैं गिंवार और अमशष्ट प्राणी ूिं । लेककन नारी-जानत के मलए मेरे हृदय
में जो आदर ै, व श्रद्धा से कम न ीिं ै , जो मुझे दे वताओिं पर ैं। मैंने अपनी
माता का मुख न ीिं दे खा, य भी न ीिं जानता कक मेरा वपता कौन था; ककिं तु
ज्जस दे वी के दया-वक्ष
ृ की छाया में मेरा पालन-पोषण ु आ उनकी प्रेम-मनू तग
आज तक मेरी आिंखों के सामने ै और नारी के प्रनत मेरी भज्क्त को सजीव रखे

ुए ै। मै उन शब्दों को मुिं से ननकालने के मलए अत्यिंत द:ु खी और


लज्जजत ूिं जो आवेश में ननकल गये, और मै आज ी समाचार-पत्रों में
खेद प्रकट करके आपसे क्षमा की प्राथगना करुिं गा।

ममस जोशी का अब तक अधिकािंश स्वाथी आदममयों ी से साबबका पडा था,


ज्जनके धचकने-चुपडे शब्दों में मतलब छुपा ु आ था। आपटे के सरल ववश्वास
पर उसका धचत्त आनिंद से गद्गद ो गया। शायद व गिंगा में खडी ोकर
अपने अन्य ममत्रों से य क ती तो उसके फैशनेबल
ु ममलने वालों में से
ककसी को उस पर ववश्वास न आता। सब मुिं के सामने तो ‘ ािं- ािं’ करते, पर
बा र ननकलते ी उसका मजाक उडाना शुरु करते। उन कपटी ममत्रों के
सम्मुख य आदमी था ज्जसके एक-एक शब्द में सच्चाई झलक र ी थी,
ज्जसके शब्द अिंतस्तल से ननकलते ु ए मालूम ोते थे।

आपटे उसे चुप दे खकर ककसी और ी धचिंता में पडे ु ए थें।उन् ें भय ो र ा


था अब मैं चा े ककतना क्षमा मािंग,ू ममस जोशी के सामने ककतनी सफाइयािं
पेश करूिं, मेरे आक्षेपों का असर कभी न ममटे गा।

इस भाव ने अज्ञात रुप से उन् ें अपने ववषय की गुप्त बातें क ने की प्रेरणा


की जो उन् ें उसकी दृज्ष्ट में लघु बना दें , ज्जससे व भी उन् ें नीच समझने
लगे, उसको सिंतोष ो जाए कक य भी कलुवषत आत्मा ै । बोले—मैं जन्म से
अभागा ूिं । माता-वपता का तो मिंु ी दे खना नसीब न ु आ, ज्जस दयाशील
मह ला ने मझ
ु े आश्रय हदया था, व भी मझ
ु े १३ वषग की अवस्था में अनाथ
छोडकर परलोक मसिार गयी। उस समय मेरे मसर पर जो कुछ बीती उसे याद
करके इतनी लजजा आती े कक ककसी को मुिं न हदखाऊिं। मैंने िोबी का
काम ककया; मोची का काम ककया; घोडे की साईसी की; एक ोटल में बरतन
मािंजता र ा; य ािं तक कक ककतनी ी बार क्षुिासे व्याकुल ोकर भीख
मािंगी। मजदरू ी करने को बरु ा न ीिं समझता, आज भी मजदरू ी ी करता ूिं । भीख
मािंगनी भी ककसी-ककसी दशा में क्षम्य ै , लेककन मैंने उस अवस्था में कसे-कसे
कमग ककए, ज्जन् ें क ते लजजा आती ै —चोरी की, ववश्वासघात ककया, य ािं
तक कक चोरी के अपराि में कैद की सजा भी पायी।

ममस जोशी ने सजल नयन ोकर क ा—आज य सब बातें मुझसे क्यों कर र े


ैं? मैं इनका उल्लेख करके आपको ककतना बदनाम कर सकतीिं ूिं , इसका
आपको भय न ीिं ै?
आपटे ने िं सकर क ा—न ीिं, आपसे मझ
ु े भय न ीिं ै।

ममस जोशी—अगर मैं आपसे बदला लेना चा ूिं , तो?

आपटे —जब मैं अपने अपराि पर लज्जजत ोकर आपसे क्षमा मािंग र ा ूिं , तो
मेरा अपराि र ा ी क ााँ, ज्जसका आप मुझसे बदला लें गी। इससे तो मुझे भय
ोता ै कक आपने मुझे क्षमा न ीिं ककया। लेककन यहद मैंने आपसे क्षमा न
मािंगी तो मुझसे तो बदला न ले सकतीिं। बदला लेने वाले की आिंखें यो सजल
न ीिं ो जाया करतीिं। मैं आपको कपट करने के अयोग्य समझता ूिं । आप
यहद कपट करना चा तीिं तो य ािं कभी न आतीिं।

ममस जोशी—मै आपका भेद लेने ी के मलए आयी ूिं ।

आपटे —तो शौक से लीज्जए। मैं बतला चुका ूिं कक मैंने चोरी के अपराि में कैद
की सजा पायी थी। नामसक के जेल में रखा गया था। मेरा शरीर दब
ु ल
ग था, जेल
की कडी मे नत न ो सकती थी और अधिकारी लोग मझ
ु े कामचोर समझ
कर बेंतो से मारते थे। आखखर एक हदन मैं रात को जेल से भाग खडा ु आ।

ममस जोशी—आप तो नछपे रुस्तम ननकले!

आपटे — कसा भागा कक ककसी को खबर न ु ई। आज तक मेरे नाम वारिं ट जारी


ै और ५०० रु.का इनाम भी ै।

ममस जोशी—तब तो मैं आपको जरुर पकडा दिं ग


ू ी।

आपटे —तो कफर मैं आपको अपना असल नाम भी बता दे ता ूिं । मेरा नाम
दामोदर मोदी ै। य नाम तो पमु लस से बचने के मलए रख छोडा ै।
बालक अब तक तो चप
ु चाप बैठा ु आ था। ममस जोशी के मिंु से पकडाने की
बात सन
ु कर व सजग ो गया। उन् ें डािंटकर बोला— माले दादा को कौन
पकडेगा?

ममस जोशी—मसपा ी और कौन?

बालक— म मसपा ी को मालें गे।

य क कर व एक कोने से अपने खेलने वाला डिंडा उठा लाया और आपटे के


पास वीरोधचता भाव से खडा ो गया, मानो मसपाह यों से उनकी रक्षा कर र ा
ै।

ममस जोशी—आपका रक्षक तो बडा ब ादरु मालूम ोता ै।

आपटे —इसकी भी एक कथा ै । साल-भर ोता ै, य लडका खो गया था। मझ


ु े
रास्ते में ममला। मैं पछ
ू ता-पछ
ू ता इसे य ािं लाया। उसी हदन से इन लोगों से
मेरा इतना प्रेम ो गया कक मैं
इनके साथ र ने लगा।

ममस जोशी—आप अनम


ु ान कर सकते ैं कक आपका वत
ृ ान्त सन
ु कर मैं आपको
क्या समझ र ी ूिं ।

आपटे —व ी, जो मैं वास्तव में ूिं ....नीच, कमीना ित


ू .ग ...

ममस जोशी—न ीिं, आप मुझ पर कफर अन्याय कर र े ै । प ला अन्याय तो


क्षमा कर सकती ूिं, य अन्याय क्षमा न ीिं कर सकती। इतनी प्रनतकूल दशाओिं
में पडकर भी ज्जसका हृदय इतना पववत्र, इतना ननष्कपट, इतना सदय ो,
व आदमी न ीिं दे वता ै। भगवन ्, आपने मझ
ु पर जो आक्षेप ककये व
सत्य ैं। मैं आपके अनुमान से क ीिं भ्रष्ट ूिं । मैं इस योग्य भी न ीिं ूिं कक
आपकी ओर ताक सकिंू । आपने अपने हृदय की ववशालता हदखाकर मेरा असली
स्वरुप मेरे सामने प्रकट कर हदया। मझ
ु े क्षमा कीज्जए, मझ
ु पर दया
कीज्जए।

य क ते-क ते व उनके पैंरो पर धगर पडी। आपटे ने उसे उठा मलया और


बोले—ईश्वर के मलए मझ
ु े लज्जजत न करो।

ममस जोशी ने गद्गद किंठ से क ा---आप इन दष्ु टों के ाथ से मेरा उद्धार


कीज्जए। मुझे इस योग्य बनाइए कक आपकी ववश्वासपात्री बन सकिंू । ईश्वर
साक्षी ै कक मझ
ु े कभी-कभी अपनी दशा पर ककतना दख
ु ोता ै । मैं बार-
बार चेष्टा करती ूिं कक अपनी दशा सि
ु ारुिं ; इस ववलामसता के जाल को तोड
दिं ,ू जो मेरी आत्मा को चारों तरफ से जकडे ु ए ै , पर दब
ु ल
ग आत्मा अपने
ननश्चय पर ज्स्थत न ीिं र ती। मेरा पालन-पोषण ज्जस ढिं ग से ु आ, उसका य
पररणाम ोना स्वाभाववक-सा मालूम ोता ै । मेरी उच्च मशक्षा ने गहृ णी-
जीवन से मेरे मन में घण
ृ ा पैदा कर दी। मुझे ककसी परु
ु ष के अिीन र ने
का ववचार अस्वाभाववक जान पउ़ता था। मैं गहृ णी की ज्जम्मेदाररयों और
धचिंताओिं को अपनी मानमसक स्वािीनता के मलए ववष-तल्
ु य समझती थी। मैं
तकगबुवद्ध से अपने स्त्रीत्व को ममटा दे ना चा ती थी, मैं पुरुषों की भािंनत स्वतिंत्र
र ना चा ती थी। क्यों ककसी की पािंबद ोकर र ूिं ? क्यों अपनी इच्छाओिं को
ककसी व्यज्क्त के सािंचे में ढाल?ू क्यों ककसी को य अधिकार दिं ू कक तुमने
य क्यों ककया, व क्यों ककया? दाम्पत्य मेरी ननगा में तुच्छ वस्तु थी।
अपने माता-वपता की आलोचना करना मेरे मलए अधचत न ीिं , ईश्वर उन् ें
सद्गनत दे , उनकी राय ककसी बात पर न ममलती थी। वपता ववद्वान ् थे, माता
के मलए ‘काला अक्षर भैंस बराबर’ था। उनमें रात-हदन वाद-वववाद ोता र ता
था। वपताजी कसी स्त्री से वववा ो जाना अपने जीवन का सबसे बडा
दभ
ु ागग्य समझते थे। व य क ते कभी न थकते थे कक तुम मेरे पािंव की बेडी
बन गयीिं, न ीिं तो मैं न जाने क ािं उडकर प ुिं चा ोता। उनके ववचार मे सारा
दोष माता की अमशक्षा के मसर था। व अपनी एकमात्र पत्र
ु ी को मख
ू ाग माता से
सिंसगग से दरू रखना चा ते थे। माता कभी मुझसे कुछ क तीिं तो वपताजी उन
पर टूट पडते—तम
ु से ककतनी बार क चक
ु ा कक लडकी को डािंटो मत, व स्वयिं
अपना भला-बरु ा सोच सकती ै , तम्
ु ारे डािंटने से उसके आत्म-सम्मान का
ककतना िक्का लगेगा, य तुम न ीिं जान सकतीिं। आखखर माताजी ने ननराश
ोकर मुझे मेरे ाल पर छोड हदया और कदाधचत ् इसी शोक में चल बसीिं।
अपने घर की अशािंनत दे खकर मुझे वववा से और भी घण
ृ ा ो गयी। सबसे बडा
असर मुझ पर मेरे कालेज की लेडी वप्रिंमसपल का ु आ जो स्वयिं अवववाह त थीिं।
मेरा तो अब य ववचार ै कक यव
ु को की मशक्षा का भार केवल आदशग चररत्रों
पर रखना चाह ए। ववलास में रत, कालेजों के शौककन प्रोफेसर ववद्याधथगयों पर
कोई अच्छा असर न ीिं डाल सकते । मैं इस वक्त कसी बात आपसे क
र ी ूिं । पर अभी घर जाकर य सब भूल जाऊिंगी। मैं ज्जस सिंसार में ू ाँ,
उसकी जलवायु ी दवू षत ै । व ािं सभी मुझे कीचड में लतपत दे खना चा ते ै।,
मेरे ववलासासक्त र ने में ी उनका स्वाथग ै । आप व प ले आदमी ैं ज्जसने
मझ
ु पर ववश्वास ककया ै, ज्जसने मझ
ु से ननष्कपट व्यव ार ककया ै।
ईश्वर के मलए अब मुझे भूल न जाइयेगा।

आपटे ने ममस जोशी की ओर वेदना पूणग दृज्ष्ट से दे खकर क ा—अगर मैं


आपकी कुछ सेवा कर सकाँू तो य मेरे मलए सौभाग्य की बात ोगी। ममस
जोशी! म सब ममट्टी के पुतले ैं, कोई ननदोषग न ीिं। मनुष्य बबगडता ै तो
पररज्स्थनतयों से, या पूवग सिंस्कारों से । पररज्स्थनतयों का त्याग करने से ी
बच सकता ै , सिंस्कारों से धगरने वाले मनुष्य का मागग इससे क ीिं कहठन
ै। आपकी आत्मा सुन्दर और पववत्र ै , केवल पररज्स्थनतयों ने उसे कु रे की
भािंनत ढिं क मलया ै । अब वववेक का सूयग उदय ो गया ै , ईश्वर ने चा ातो
कु रा भी फट जाएगा। लेककन सबसे प ले उन पररज्स्थनतयों का त्याग
करने को तैयार ो जाइए।

ममस जोशी—य ी आपको करना ोगा।


आपटे ने चभ
ु ती ु ई ननगा ों से दे ख कर क ा—वैद्य रोगी को जबरदस्ती दवा
वपलाता ै।

ममस जोशी –मैं सब कुछ करुगीिं। मैं कडवी से कडवी दवा वपयूिंगी यहद आप
वपलायेंगे। कल आप मेरे घर आने की कृपा करें गे, शाम को?

आपटे —अवश्य आऊिंगा।

ममस जोशी ने ववदा दे ते ु ए क ा—भूमलएगा न ीिं, मैं आपकी रा दे खती र ूिं गी।
अपने रक्षक को भी लाइएगा।

य क कर उसने बालक को गोद मे उठाया ओर उसे गले से लगा कर बा र


ननकल आयी।

गवग के मारे उसके पािंव जमीन पर न पडते थे। मालम


ू ोता था, वामें उडी
जा र ी ै , प्यास से तडपते ु ए मनष्ु य को नदी का तट नजर आने लगा था।

दस
ू रे हदन प्रात:काल ममस जोशी ने मे मानों के नाम दावती काडग भेजे और
उत्सव मनाने की तैयाररयािं करने लगी। ममस्टर आपटे के सम्मान में पाटी दी
जा र ी थी। ममस्टर जौ री ने काडग दे खा तो मुस्कराये। अब म ाशय इस जाल
से बचकर क ािं जायेगे। ममस जोशी ने ने उन् ें फसाने के मलए य अच्छी
तरकीब ननकाली। इस काम में ननपण
ु मालम
ू ोती ै । मैने सकझा था, आपटे
चालाक आदमी ोगा, मगर इन आन्दोलनकारी ववद्राह यों को बकवास करने के
मसवा और क्या सूझ सकती ै।

चार ी बजे मे मान लोग आने लगे। नगर के बडे-बडे अधिकारी, बडे-बडे
व्यापारी, बडे-बडे ववद्वान, समाचार-पत्रों के सम्पादक, अपनी-अपनी मह लाओिं के
साथ आने लगे। ममस जोशी ने आज अपने अच्छे -से-अच्छे वस्त्र और
आभष
ू ण ननकाले ु ए थे, ज्जिर ननकल जाती थी मालम
ू ोता था, अरुण प्रकाश
की छटा चली आर ी ै । भवन में चारों ओर सग
ु िंि की लपटे आ र ी थीिं और
मिुर सिंगीत की ध्वनन वा में गूिंज र ीिं थी।

पािंच बजते-बजते ममस्टर जौ री आ प ुिं चे और ममस जोशी से ाथ ममलाते

ुए मस्
ु करा कर बोले—जी चा ता ै तम्
ु ारे ाथ चम
ू लिं।ू अब मझ
ु े ववश्वास
ो गया कक य म ाशय तुम् ारे पिंजे से न ीिं ननकल सकते।

ममसेज पेहटट बोलीिं—ममस जोशी हदलों का मशकार करने के मलए ी बनाई गई


ै।

ममस्टर सोराब जी—मैंने सुना ै , आपटे बबलकुल गिंवार-सा आदमी ै।

ममस्टर भरुचा—ककसी यूननवमसगटी में मशक्षा ी न ीिं पायी, सभ्यता क ािं से आती?

ममस्टर भरुचा—आज उसे खब


ू बनाना चाह ए।

म िं त वीरभद्र डाढ़ी के भीतर से बोले—मैंने सुना ै नाज्स्तक ै । वणागश्रम िमग


का पालन न ीिं करता।

ममस जोशी—नाज्स्तक तो मै भी ूिं । ईश्वर पर मेरा भी ववश्वास न ीिं ै।

म िं त—आप नाज्स्तक ों, पर आप ककतने ी नाज्स्तकों को आज्स्तक बना दे ती


ैं।

ममस्टर जौ री—आपने लाख की बात की क ीिं मिं त जी!

ममसेज भरुचा—क्यों म िं त जी, आपको ममस जोशी ी न आज्स्तक बनाया ै


क्या?
स सा आपटे लो ार के बालक की उिं गली पकडे ु ए भवन में दाखखल ु ए। व
परू े फैशनेबल
ु रईस बने ु ए थे। बालक भी ककसी रईस का लडका मालम
ू ोता
था। आज आपटे को दे खकर लोगो को ववहदत ु आ कक व ककतना सुदिंर,
सजीला आदमी ै । मुख से शौयग ननकल र ा था, पोर-पोर से मशष्टता
झलकती थी, मालूम ोता था व इसी समाज में पला ै । लोग दे ख र े थे कक
व क ीिं चूके और तामलयािं बजायें, क ी कदम कफसले और क क े लगायें पर
आपटे मिंचे ु ए खखलाडी की भािंनत, जो कदम उठाता था व सिा ु आ, जो
ाथ हदखलाता था व जमा ु आ। लोग उसे प ले तच्
ु छ समझते थे, अब उससे
ईष्याग करने लगे, उस पर फबनतयािं उडानी शुरु कीिं। लेककन आपटे इस कला में
भी एक ी ननकला। बात मुिं से ननकली ओर उसने जवाब हदया, पर उसके
जवाब में मामलन्य या कटुता का लेश भी न ोता था। उसका एक-एक शब्द
सरल, स्वच्छ , धचत्त को प्रसन्न करने वाले भावों में डूबा ोता था। ममस
जोशी उसकी वाक्यचातरु ी पर फुल उठती थी?

सोराब जी—आपने ककस यूननवमसगटी से मशक्षा पायी थी?

आपटे —यूननवमसगटी में मशक्षा पायी ोती तो आज मैं भी मशक्षा-ववभाग का


अध्यक्ष ोता।

ममसेज भरुचा—मैं तो आपको भयिंककर जिंतु समझती थी?

आपटे ने मुस्करा कर क ा—आपने मुझे मह लाओिं के सामने न दे खा ोगा।

स सा ममस जोशी अपने सोने के कमरे में गयी ओर अपने सारे वस्त्राभूषण
उतार फेंके। उसके मुख से शुभ्र सिंकल्प का तेज ननकल र ा था। नेंत्रो से दबी
जयोनत प्रस्फुहटत ो र ी थी, मानों ककसी दे वता ने उसे वरदान हदया ो।
उसने सजे ु ए कमरे को घण
ृ ा से दे खा, अपने आभष
ू णों को पैरों से ठुकरा हदया
और एक मोटी साफ साडी प नकर बा र ननकली। आज प्रात:काल ी उसने
य साडी मिंगा ली थी।
उसे इस नेय वेश में दे ख कर सब लोग चककत ो गये। कायापलट कैसी? स सा
ककसी की आिंखों को ववश्वास न आया; ककिं तु ममस्टर जौ री बगलें बजाने लगे।
ममस जोशी ने इसे फिंसाने के मलए य कोई नया स्वािंग रचा ै।

‘ममत्रों! आपको याद ै , परसों म ाशय आपटे ने मुझे ककतनी गािंमलयािं दी थी।
य म ाशय खडे ैं । आज मैं इन् ें उस दव्ु यगव ार का दण्ड दे ना चा ती ूिं । मैं
कल इनके मकान पर जाकर इनके जीवन के सारे गुप्त र स्यों को जान
आयी। य जो जनता की भीड गरजते कफरते ै , मेरे एक ी ननशाने पर धगर
पडे। मैं उन र स्यों के खोलने में अब ववलिंब न करुिं गी, आप लोग अिीर ो र े
ोगें । मैंने जो कुछ दे खा, व इतना भिंयकर ै कक उसका वत
ृ ािंत सुनकर शायद
आप लोगों को मूछाग आ जायेगी। अब मुझे लेशमात्र भी सिंदे न ीिं ै कक
य म ाशय पक्के दे शद्रो ी ै ....’

ममस्टर जौ री ने ताली बजायी ओर तामलयों के ल गूिंज उठा।

ममस जोशी—लेककन राज के द्रो ी न ीिं, अन्याय के द्रो ी, दमन के द्रो ी, अमभमान
के द्रो ी...

चारों ओर सन्नाटा छा गया। लोग ववज्स्मत ोकर एक दस


ू रे की ओर ताकने
लगे।

ममस जोशी—गुप्त रुप से शस्त्र जमा ककए ै और गुप्त रुप से त्याऍ िं की ैं...

ममस्टर जौ री ने तामलयािं बजायी और तामलयािं का दौगडा कफर बरस गया।

ममस जोशी—लेककन ककस की त्या? द:ु ख की, दररद्रता की, प्रजा के कष्टों की,
ठिमी की ओर अपने स्वाथग की।
चारों ओर कफर सन्नाटा छा गया और लोग चककत ो- ो कर एक दस
ू रे की
ओर ताकने लगे, मानो उन् ें अपने कानों पर ववश्वास न ीिं ै।

ममस जोशी—म ाराज आपटे ने डकैनतयािं की और कर र े ैं...

अब की ककसी ने ताली न बजायी, लोग सुनना चा ते थे कक दे खे आगे क्या


क ती ै।

‘उन् ोंने मुझ पर भी ाथ साफ ककया ै , मेरा सब कुछ अप रण कर मलया ै,


य ािं तक कक अब मैं ननरािार ूिं और उनके चरणों के मसवा मेरे मलए कोई
आश्रय न ीिं ै। प्राण्िार! इस अबला को अपने चरणों में स्थान दो, उसे डूबने
से बचाओ। मैं जानती ूिं तुम मुझे ननराश न करोंगें ।’

य क ते-क ते व जाकर आपटे के चरणों में धगर पडी। सारी मण्डली स्तिंमभत
र गयी।

एक सप्ता गज
ु र चक
ु ा था। आपटे पमु लस की ह रासत में थे। उन पर चार
अमभयोग चलाने की तैयाररयािं चल र ीिं थी। सारे प्रािं त में लचल मची ु ई थी।
नगर में रोज सभाएिं ोती थीिं, पुमलस रोज दस-पािंच आदममयािं को पकडती थी।
समाचार-पत्रों में जोरों के साथ वाद-वववाद ो र ा था।

रात के नौ बज गये थे। ममस्टर जौ री राज-भवन में में ज पर बैठे ु ए सोच र े


थे कक ममस जोशी को क्यों कर वापस लाएिं? उसी हदन से उनकी छाती पर
सािंप लोट र ा था। उसकी सरू त एक क्षण के मलए आिंखों से न उतरती थी।

व सोच र े थे, इसने मेरे साथ कसी दगा की! मैंने इसके मलएक्या कुछ न ीिं
ककया? इसकी कौन-सी इच्छा थी, जो मैने पूरी न ीिं की इसी ने मुझसे बेवफाई
की। न ीिं, कभी न ीिं, मैं इसके बगैर ज्जिंदा न ीिं र सकता। दनु नया चा े मझ
ु े
बदनाम करे , त्यारा क े , चा े मझ
ु े पद से ाथ िोना पडे, लेककन आपटे को
न ीिं छोडूगािं। इस रोडे को रास्ते से टा दिं ग
ू ा, इस कािंटे को प लू से ननकाल
बा र करुिं गा।

स सा कमरे का दरवाजा खल
ु ा और ममस जाशी ने प्रवेश ककया। ममस्टर जौ री
कबका कर कुसी पर से उठ खडे ु ए, य सोच र े थे कक शायद ममस जोशी
ने ननराश ोकर मेरे पास आयी ैं , कुछ रुखे, लेककन नम्र भाव से बोले—आओ
बाला, तुम् ारी याद में बैठा था। तुम ककतनी ी बेवफाई करो, पर तुम् ारी याद
मेरे हदल से न ीिं ननकल सकती।

ममस जोशी—आप केवल जबान से क ते ै ।

ममस्टर जौ री—क्या हदल चीरकर हदखा दिं ?ू

ममस जोशी—प्रेम प्रनतकार न ीिं करता, प्रेम में दरु ाग्र न ीिं ोता। आप मरे खून
के प्यासे ो र े ैं, उस पर भी आप क ते ैं , मैं तम्
ु ारी याद करता ूिं । आपने
मेरे स्वामी को ह रासत में डाल रखा ै, य प्रेम ै ! आखखर आप मझ
ु से क्या
चा ते ैं? अगर आप समझ र े ों कक इन सज्ख्तयों से डर कर मै आपकी
शरण आ जाऊिंगी तो आपका भ्रम ै । आपको अज्ख्तयार ै कक आपटे को काले
पानी भेज दें , फािंसी चढ़ा दें , लेककन इसका मुझ परकोई असर न ोगा।व मेरे
स्वमी ैं, मैं उनको अपना स्वामी समझती ूिं । उन् ोने अपनी ववशाल उदारता
से मेरा उद्धार ककया । आप मझ
ु े ववषय के फिंदो में फिंसाते थे, मेरी आत्मा को
कलुवषत करते थे। कभी आपको य खयाल आया कक इसकी आत्मा पर क्या
बीत र ी ोगी? आप मुझे आत्मशुन्य समझते थे। इस दे वपुरुष ने अपनी ननमगल
स्वच्छ आत्मा के आकषगण से मुझे प ली ी मुलाकात में खीिंच मलया। मैं
उसकी ो गयी और मरते दम तक उसी की र ूिं गी। उस मागग से अब आप टा
न ीिं सकते। मुझे एक सच्ची आत्मा की जरुरत थी , व मुझे ममल गयी।
उसे पाकर अब तीनों लोक की सम्पदा मेरी आिंखो में तच्
ु छ ै । मैं उनके ववयोग
में चा े प्राण दे दिं ,ू पर आपके काम न ीिं आ सकती।

ममस्टर जौ री—ममस जोशी । प्रेम उदार न ीिं ोता, क्षमाशील न ीिं ोता । मेरे
मलए तम
ु सवगस्व ो, जब तक मैं समझता ूिं कक तम
ु मेरी ो। अगर तम
ु मेरी
न ीिं ो सकती तो मझ
ु े इसकी क्या धचिंता ो सकती ै कक तम
ु ककस हदशा
में ो?

ममस जोशी—य आपका अिंनतम ननणगय ै?

ममस्टर जौ री—अगर मैं क दिं ू कक ािं, तो?

ममस जोशी ने सीने से वपस्तौल ननकाल कर क ा—तो प ले आप की लाश


जमीन पर फडकती ोगी और आपके बाद मेरी ,बोमलए। य आपका अिंनतम
ननणगय ननश्चय ै?

य क कर ममस जोशी ने जौ री की तरफ वपस्तौल सीिा ककया। जौ री कुसी


से उठ खडे ु ए और मुस्कर बोले—क्या तुम मेरे मलए कभी इतना सा स कर
सकती थीिं? जाओिं, तुम् ारा आपटे तुम् ें मुबारक ो। उस पर से अमभयोग उठा
मलया जाएगा। पववत्र प्रेम ी मे य सा स ै। अब मझ
ु े ववश्वास ो गया
कक तम्
ु ारा प्रेम पववत्र ै । अगर कोई परु ाना पापी भववष्यवाणी कर सकता ै
तो मैं क ता ूिं , व हदन दरू न ीिं ै , जब तम
ु इस भवन की स्वाममनी ोगी।
आपटे ने मुझे प्रेम के क्षेत्र में न ीिं, राजनीनत के क्षेत्र में भी परास्त कर हदया।
सच्चा आदमी एक मुलाकात में ी जीवन बदल सकता ै , आत्मा को जगा
सकता ै और अज्ञान को ममटा कर प्रकाश की जयोनत फैला सकता ै, य
आज मसद्ध ो गया।
***
नरक का मार्ग

रात “भक्तमाल” पढ़ते-पढ़ते न जाने कब नीिंद आ गयी। कैसे-कैसे म ात्मा थे


ज्जनके मलए भगवत ्-प्रेम ी सब कुछ था, इसी में मग्न र ते थे। कसी भज्क्त
बडी तपस्या से ममलती ै । क्या मैं व तपस्या न ीिं कर सकती? इस जीवन में
और कौन-सा सख
ु रखा ै ? आभष
ू णों से ज्जसे प्रेम ो जाने , य ािं तो इनको
दे खकर आिंखे फूटती ै ;िन-दौलत पर जो प्राण दे ता ो व जाने, य ािं तो इसका
नाम सुनकर जवर-सा चढ़ आता ैं। कल पगली सुशीला ने ककतनी उमिंगों से
मेरा श्रिंग
ृ ार ककया था, ककतने प्रेम से बालों में फूल गूिंथे। ककतना मना करती
र ी, न मानी। आखखर व ी ु आ ज्जसका मुझे भय था। ज्जतनी दे र उसके साथ
िं सी थी, उससे क ीिं जयादा रोयी। सिंसार में कसी भी कोई स्त्री ै , ज्जसका पनत
उसका श्रिंग
ृ ार दे खकर मसर से पािंव तक जल उठे ? कौन कसी स्त्री ै जो अपने
पनत के मिंु से ये शब्द सन े तम
ु — ु मेरा परलोग बबगाडोगी, और कुछ न ीिं, तम्
ु ारे
रिं ग-ढिं ग क े दे ते ैं ---और मनुष्य उसका हदल ववष खा लेने को चा े । भगवान ्!
सिंसार में कसे भी मनुष्य ैं। आखखर मैं नीचे चली गयी और
‘भक्तमाल’ पढ़ने लगी। अब वद
िं ृ ावन बब ारी ी की सेवा करुिं गी उन् ीिं को
अपना श्रिंग
ृ ार हदखाऊिंगी, व तो दे खकर न जलेगे। व तो मारे मन का ाल
जानते ैं।

भगवान! मैं अपने मन को कैसे समझाऊिं! तुम अिंतयागमी ो, तुम मेरे रोम-रोम
का ाल जानते ो। मैं चा ती ुिं कक उन् ें अपना इष्ट समझूिं, उनके चरणों की
सेवा करुिं , उनके इशारे पर चलिंू, उन् ें मेरी ककसी बात से, ककसी व्यव ार से
नाममात्र, भी द:ु ख न ो। व ननदोष ैं, जो कुछ मेरे भाग्य में था व ु आ, न
उनका दोष ै , न माता-वपता का, सारा दोष मेरे नसीबों ी का ै । लेककन य
सब जानते ु ए भी जब उन् ें आते दे खती ूिं , तो मेरा हदल बैठ जाता ै , मु
पर मुरदनी सी-छा जाती ै , मसर भारी ो जाता ै , जी चा ता ै इनकी सूरत न
दे खिंू, बात तक करने को जी न ी चा ता; कदाधचत ् शत्रु को भी दे खकर ककसी
का मन इतना क्लािंत न ीिं ोता ोगा। उनके आने के समय हदल में िडकन
सी ोने लगती ै । दो-एक हदन के मलए क ीिं चले जाते ैं तो हदल पर से बोझ
उठ जाता ै। िं सती भी ूिं , बोलती भी ूिं , जीवन में कुछ आनिंद आने लगता ै
लेककन उनके आने का समाचार पाते ी कफर चारों ओर अिंिकार! धचत्त की
कसी दशा क्यों ै, य मैं न ीिं क सकती। मुझे तो कसा जान पडता ै
कक पव
ू ज
ग न्म में म दोनों में बैर था, उसी बैर का बदला लेने के मलए उन् ोंने
मझ
ु स
े े वववा ककया ै , व ी परु ाने सिंस्कार मारे मन में बने ु ए ैं। न ीिं तो
व मुझे दे ख-दे ख कर क्यों जलते और मैं उनकी सूरत से क्यों घण
ृ ा करती?
वववा करने का तो य मतलब न ीिं ु आ करता! मैं अपने घर क ीिं इससे
सुखी थी। कदाधचत ् मैं जीवन-पयगन्त अपने घर आनिंद से र सकती थी।
लेककन इस लोक-प्रथा का बुरा ो, जो अभाधगन कनयाओिं को ककसी-न-ककसी
परु
ु ष के गलें में बािंि दे ना अननवायग समझती ै। व क्या जानता ै कक
ककतनी युवनतयािं उसके नाम को रो र ी ै , ककतने अमभलाषाओिं से ल राते ु ए,
कोमल हृदय उसके पैरो तल रौंदे जा र े ै ? युवनत के मलए पनत कैसी-कैसी
मिुर कल्पनाओिं का स्रोत्र ोता ै , पुरुष में जो उत्तम ै , श्रेष्ठ ै , दशगनीय ै,
उसकी सजीव मूनतग इस शब्द के ध्यान में आते ी उसकी नजरों के सामने
आकर खडी ो जाती ै ।लेककन मेरे मलए य शब्द क्या ै । हृदय में उठने
वाला शूल, कलेजे में खटकनेवाला कािंटा, आिंखो में गडने वाली ककरककरी,
अिंत:करण को बेिने वाला व्यिंग बाण! सुशीला को मेशा िं सते दे खती ूिं । व
कभी अपनी दररद्रता का धगला न ीिं करती; ग ने न ीिं ैं , कपडे न ीिं ैं, भाडे के
नन् ें से मकान में र ती ै , अपने ाथों घर का सारा काम-काज करती ै ,
कफर भी उसे रोते न ीिं दे खती अगर अपने बस की बात ोती तो आज अपने
िन को उसकी दररद्रता से बदल लेती। अपने पनतदे व को मुस्कराते ु ए घर में
आते दे खकर उसका सारा द:ु ख दाररद्रय छूमिंतर ो जाता ै , छाती गज-भर की ो
जाती ै । उसके प्रेमामलिंगन में व सुख ै , ज्जस पर तीनों लोक का िन
न्योछावर कर दिं ।ू
3

आज मझ
ु से जब्त न ो सका। मैंने पछ
ू ा—तम
ु ने मझ
ु से ककसमलए वववा ककया
था? य प्रश्न म ीनों से मेरे मन में उठता था, पर मन को रोकती चली आती
थी। आज प्याला छलक पडा। य प्रश्न सुनकर कुछ बौखला-से गये, बगलें
झाकने लगे, खीसें ननकालकर बोले—घर सिंभालने के मलए, ग ृ स्थी का भार
उठाने के मलए, और न ीिं क्या भोग-ववलास के मलए? घरनी के बबना य आपको
भूत का डेरा-सा मालम
ू ोता था। नौकर-चाकर घर की सम्पनत उडाये दे ते थे।
जो चीज ज ािं पडी र ती थी, कोई उसको दे खने वाला न था। तो अब मालम

ु आ कक मैं इस घर की चौकसी के मलए लाई गई ूिं । मझ


ु े इस घर की रक्षा
करनी चाह ए और अपने को िन्य समझना चाह ए कक य सारी सम्पनत मेरी
ै। मुख्य वस्तु सम्पज्त्त ै , मै तो केवल चौकी दाररन ूिं । कसे घर में आज ी
आग लग जाये! अब तक तो मैं अनजान में घर की चौकसी करती थी,
ज्जतना व चा ते ैं उतना न स ी, पर अपनी बुवद्ध के अनुसार अवश्य
करती थी। आज से ककसी चीज को भल
ू कर भी छूने की कसम खाती ूिं । य
मैं जानती ूिं । कोई परु
ु ष घर की चौकसी के मलए वववा न ीिं करता और इन
म ाशय ने धचढ़ कर य बात मुझसे क ी। लेककन सुशीला ठीक क ती ै , इन् ें
स्त्री के बबना घर सुना लगता ोगा, उसी तर जैसे वपिंजरे में धचडडया को न
दे खकर वपिंजरा सूना लगता ै। य म ज्स्त्रयों का भाग्य!

मालूम न ीिं, इन् ें मुझ पर इतना सिंदे क्यो ोता ै । जब से नसीब इस घर में
लाया ैं, इन् ें बराबर सिंदे -मूलक कटाक्ष करते दे खती ूिं । क्या कारण ै ? जरा
बाल गुथवाकर बैठी और य ोठ चबाने लगे। क ीिं जाती न ीिं, क ीिं आती न ीिं,
ककसी से बोलती न ीिं, कफर भी इतना सिंदे ! य अपमान असह्य ै । क्या मुझे
अपनी आबरु प्यारी न ीिं? य मझ
ु े इतनी नछछोरी क्यों समझते ैं, इन् ें
मुझपर सिंदे करते लजजा भी न ीिं आती? काना आदमी ककसी को िं सते दे खता
ै तो समझता ै लोग मुझी पर ाँस र े ै । शायद इन् ें भी य ी ब म ो
गया ै कक मैं इन् ें धचढ़ाती ूिं । अपने अधिकार के बा र से बा र कोई काम
कर बैठने से कदाधचत ् मारे धचत्त की य ी वज्ृ त्त ो जाती ै। मभक्षुक
राजा की गद्दी पर बैठकर चैन की नीिंद न ीिं सो सकता। उसे अपने चारों तरफ
शुत्र हदखायी दें गें। मै समझती ूिं , सभी शादी करने वाले बुड्ढ़ो का य ी ाल
ै।

आज सुशीला के क ने से मैं ठाकुर जी की झािंकी दे खने जा र ी थी। अब य


सािारण बुवद्ध का आदमी भी समझ सकता ै कक फू ड ब ू बनकर बा र
ननकलना अपनी िं सी उडाना ै , लेककन आप उसी वक्त न जाने ककिर से
टपक पडे और मेरी ओर नतरस्कापूणग नेत्रों से दे खकर बोले—क ााँ की तैयारी ै?

मैंने क हदया, जरा ठाकुर जी की झािंकी दे खने जाती ूिं ।

इतना सन
ु ते ी त्योररयािं चढ़ाकर बोले—तम्
ु ारे जाने की कुछ जरुरत न ीिं।
जो अपने पनत की सेवा न ीिं कर सकती, उसे दे वताओिं के दशगन से पुण्य के
बदले पाप ोता। मुझसे उडने चली ो । मैं औरतों की नस-नस प चानता ूिं ।

कसा क्रोि आया कक बस अब क्या क ूिं । उसी दम कपडे बदल डाले और प्रण कर
मलया कक अब कभ दशगन करने जाऊिंगी। इस अववश्वास का भी कुछ हठकाना
ै ! न जाने क्या सोचकर रुक गयी। उनकी बात का जवाब तो य ी था कक
उसी क्षण घरसे चल खडी ु ई ोती, कफर दे खती मेरा क्या कर लेत।े

इन् ें मेरा उदास और ववमन र ने पर आश्चयग ोता ै । मुझे मन-में कृतघ्न


समझते ै। अपनी
समणमें इन् ोने मरे से वववा करके शायद मुझ पर ए सान ककया ै । इतनी
बडी जायदाद और ववशाल
सम्पज्त्त की स्वाममनी ोकर मझ
ु े फूले न समाना चाह ए था, आठो प रइनका
यशगान करते र ना
चाह ये था। मैं य सब कुछ न करके उलटे और मिंु लटकाए र ती ूिं । कभी-
कभी बेचारे पर दया आती
ै। य न ीिं समझते कक नारी-जीवन में कोई कसी वस्तु भी ै ज्जसे दे खकर
उसकी आिंखों में स्वगग भी
नरकतुल्य ो जाता ै।

तीन हदन से बीमार ैं। डाक्टर क ते ैं , बचने की कोई आशा न ीिं, ननमोननया ो
गया ै। पर मझ
ु े न जाने क्यों इनका गम न ीिं ै । मैं इनती वज्र-हृदय कभी
न थी।न जाने व मेरी कोमलता क ािं चली गयी। ककसी बीमार की सरू त
दे खकर मेरा हृदय करुणा से चिंचल ो जाता था, मैं ककसी का रोना न ीिं सुन
सकती थी। व ी मैं ूिं कक आज तीन हदन से उन् ें बगल के कमरे में पडे
करा ते सुनती ूिं और एक बार भी उन् ें दे खने न गयी, आिंखो में आिंसू का
ज्जक्र ी क्या। मुझे कसा मालम
ू ोता ै , इनसे मेरा कोई नाता ी न ीिं मुझे
चा े कोई वपशाचनी क े , चा े कुलटा, पर मझ
ु े तो य क ने में लेशमात्र भी
सिंकोच न ीिं ै कक इनकी बीमारी से मझ
ु े एक प्रकार का ईष्यागमय आनिंद आ
र ा ै । इन् ोने मुझे य ािं कारावास दे रखा था—मैं इसे वववा का पववत्र
नाम न ीिं दे ना चा ती---य कारावास ी ै । मैं इतनी उदार न ीिं ूिं कक ज्जसने
मुझे कैद मे डाल रखा ो उसकी पूजा करुिं , जो मुझे लात से मारे उसक पैरो
का चूिंमू। मुझे तो मालूम ो र ा था। ईश्वर इन् ें इस पाप का दण्ड दे र े ै।
मै ननस्सकोंच ोकर क ती ूिं कक मेरा इनसे वववा न ीिं ु आ ै । स्त्री ककसी के
गले बािंि हदये जाने से ी उसकी वववाह ता न ीिं ो जाती। व ी सिंयोग वववा
का पद पा सकता ै । ज्जिंसमे कम-से-कम एक बार तो हृदय प्रेम से
पुलककत ो जाय! सुनती ूिं , म ाशय अपने कमरे में पडे-पडे मुझे कोसा करते
ैं, अपनी बीमारी का सारा बुखार मुझ पर ननकालते ैं, लेककन य ािं इसकी
परवा न ीिं। ज्जसका जी चा े जायदाद ले , िन ले, मुझे इसकी जरुरत न ीिं!
6

आज तीन हदन ु ए, मैं वविवा ो गयी, कम-से-कम लोग य ी क ते ैं। ज्जसका


जो जी चा े क े , पर मैं अपने को जो कुछ समझती ूिं व समझती ूिं । मैंने
चूडडया न ीिं तोडी, क्यों तोडू? क्यों तोडू? मािंग में सेंदरु प ले भी न डालती थी,
अब भी न ीिं डालती। बूढ़े बाबा का कक्रया-कमग उनके सुपुत्र ने ककया, मैं पास
न फटकी। घर में मुझ पर मनमानी आलोचनाएिं ोती ैं , कोई मेरे गुिंथे ु ए
बालों को दे खकर नाक मसिंकोडता ैं , कोई मेरे आभूषणों पर आिंख मटकाता ै,
य ािं इसकी धचिंता न ीिं। उन् ें धचढ़ाने को मैं भी रिं ग=-बबरिं गी साडडया प नती

ूिं , और भी बनती-सिंवरती ूिं , मझ


ु े जरा भी द:ु ख न ीिं ैं। मैं तो कैद से छूट
गयी। इिर कई हदन सुशीला के घर गयी। छोटा-सा मकान ै , कोई सजावट
न सामान, चारपाइयािं तक न ीिं, पर सुशीला ककतने आनिंद से र ती ै । उसका
उल्लास दे खकर मेरे मन में भी भािंनत-भािंनत की कल्पनाएिं उठने लगती ैं ---
उन् ें कुज्त्सत क्यों क ुिं , जब मेरा मन उन् ें कुज्त्सत न ीिं समझता ।इनके
जीवन में ककतना उत्सा ै ।आिंखे मस्
ु कराती र ती ैं , ओठों पर मिरु ास्य
खेलता र ता ै , बातों में प्रेम का स्रोत ब ता ु आजान पडता ै। इस आनिंद
से, चा े व ककतना ी क्षखणक ो, जीवन सफल ो जाता ै , कफर उसे कोई भूल
न ीिं सकता, उसी स्मनृ त अिंत क के मलए काफी ो जाती ै , इस ममजराब की
चोट हृदय के तारों को अिंतकाल तक मिुर स्वरों में किंवपत रख कती ै।

एक हदन मैने सुशीला से क ा---अगर तेरे पनतदे व क ीिं परदे श चले जाए तो
रोत-रोते मर जाएगी!

सुशीला गिंभीर भाव से बोली—न ीिं ब न, मरुगीिं न ीिं , उनकी याद सदै व
प्रफुज्ल्लत करती र े गी, चा े उन् ें परदे श में बरसों लग जाएिं।

मैं य ी प्रेम चा ती ूिं , इसी चोट के मलए मेरा मन तडपता र ता ै , मै भी कसी


ी स्मनृ त चा ती ूिं ज्जससे हदल के तार सदै व बजते र ें , ज्जसका नशा ननत्य
छाया र े ।
7

रात रोते-रोते ह चककयािं बिंि गयी। न-जाने क्यो हदल भर आता था। अपना
जीवन सामने एक बी ड मैदान की भािंनत फैला ु आ मालूम ोता था, ज ािं
बगूलों के मसवा ररयाली का नाम न ीिं। घर फाडे खाता था, धचत्त कसा चिंचल
ो र ा था कक क ीिं उड जाऊिं। आजकल भज्क्त के ग्रिंथो की ओर ताकने को
जी न ीिं चा ता, क ी सैर करने जाने की भी इच्छा न ीिं ोती, क्या चा ती ूिं
व मैं स्वयिं भी न ीिं जानती। लेककन मै जो जानती व मेरा एक-एक रोम-
रोम जानता ै , मैं अपनी भावनाओिं को सिंजीव मूनतग ैं, मेरा एक-एक अिंग
मेरी आिंतररक वेदना का आतगनाद ो र ा ै । मेरे धचत्त की चिंचलता उस अिंनतम
दशा को प िं च गयी ै , जब मनुष्य को ननिंदा की न लजजा र ती ै और न
भय। ज्जन लोभी, स्वाथी माता-वपता ने मझ
ु े कुएिं में ढकेला, ज्जस पाषाण-
हृदय प्राणी ने मेरी मािंग में सेंदरु डालने का स्वािंग ककया, उनके प्रनत मेरे मन में
बार-बार दष्ु कामनाएिं उठती ैं। मैं उन् े लज्जजत करना चा ती ूिं । मैं अपने मुिं
में कामलख लगा कर उनके मुख में कामलख लगाना चा ती ूिं मैअपने
प्राणदे कर उन् े प्राणदण्ड हदलाना चा ती ूिं ।मेरा नारीत्व लुप्त ो गया ै ,। मेरे
हृदय में प्रचिंड जवाला उठी ु ई ै।

घर के सारे आदमी सो र े ै थे। मैं चुपके से नीचे उतरी , द्वार खोला और


घर से ननकली, जैसे कोई प्राणी गमी से व्याकुल ोकर घर से ननकले और
ककसी खुली ु ई जग की ओर दौडे। उस मकान में मेरा दम घुट र ा था।

सडक पर सन्नाटा था, दक


ु ानें बिंद ो चुकी थी। स सा एक बुहढयािं आती ु ई
हदखायी दी। मैं डरी क ीिं य चुडल
ै न ो। बुहढया ने मेरे समीप आकर मुझे
मसर से पािंव तक दे खा और बोली --- ककसकी रा दे ख र ी ो

मैंने धचढ़ कर क ा---मौत की!


बहु ढ़या---तम्
ु ारे नसीबों में तो अभी ज्जन्दगी के बडे-बडे सख
ु भोगने मलखे ैं।
अिंिेरी रात गज
ु र गयी, आसमान पर सब
ु की रोशनी नजर आ र ी ैं।

मैने िं सकर क ा---अिंिेरे में भी तुम् ारी आिंखे इतनी तेज ैंकक नसीबों की
मलखावट पढ़ लेती ैं?

बुहढ़या---आिंखो से न ीिं पढती बेटी, अक्ल से पढ़ती ूिं , िूप में चूडे न ी सुफेद
ककये ैं। तुम् ारे हदन गये और अच्छे हदन आ र े ै। िं सो मत बेटी, य ी काम
करते इतनी उम्र गज
ु र गयी। इसी बहु ढ़या की बदौलत जो नदी में कूदने जा
र ी थीिं, वे आज फूलों की सेज पर सो र ी ै , जो ज र का प्याल पीने को
तैयार थीिं, वे आज दि
ू की कुज्ल्लयािं कर र ी ैं। इसीमलए इतनी रात गये
ननकलती ू कक अपने ाथों ककसी अभाधगन का उद्धार ो सके तो करुिं । ककसी से
कुछ न ीिं मािंगती, भगवान ् का हदया सब कुछ घर में ै, केवल य ी इच्छा ै
उन् े िन, ज्जन् े सिंतान की इच्छा ै उन् ें सिंतान, बस औरक्या क ूिं , व मिंत्र
बता दे ती ूिं कक ज्जसकी जो इच्छा जो व परू ी ो जाये।

मैंने क ा---मुझे न िन चाह ए न सिंतान। मेरी मनोकामना तुम् ारे बस की बात


न ीिं ै।

बुहढ़या िं सी—बेटी, जो तुम चा ती ो व मै जानती ूिं ; तुम व चीज चा ती ो


जो सिंसार में ोते ु ए स्वगग की ै , जो दे वताओिं के वरदान से भी जयादा
आनिंदप्रद ै , जो आकाश कुसुम ै , गुलर का फूल ै और अमावसा का चािंद ै।
लेककन मेरे मिंत्र में व शिंज्क्त ै जो भाग्य को भी सिंवार सकती ै । तम
ु प्रेम
की प्यासी ो, मैं तुम् े उस नाव पर बैठा सकती ूिं जो प्रेम के सागर में , प्रेम
की तिंरगों पर क्रीडा करती ु ई तुम् े पार उतार दे ।

मैने उत्किंहठत ोकर पछ


ू ा—माता, तम्
ु ारा घर क ािं ै।
बहु ढया---ब ु त नजदीक ै बेटी, तम
ु चलों तो मैं अपनी आिंखो पर बैठा कर ले
चलिं।ू

मुझे कसा मालम


ू ु आ कक य कोई आकाश की दे वी ै । उसेक पीछ-पीछे चल
पडी।

आ ! व बुहढया, ज्जसे मैं आकाश की दे वी समझती थी, नरक की डाइन ननकली।


मेरा सवगनाश ो गया। मैं अमत
ृ खोजती थी, ववष ममला, ननमगल स्वच्छ प्रेम की
प्यासी थी, गिंदे ववषाक्त नाले में धगर पडी व वस्तु न ममलनी थी, न ममली।
मैं सश
ु ीला का –सा सख
ु चा ती थी, कुलटाओिं की ववषय-वासना न ीिं।
लेककन जीवन-पथ में एक बार उलटी रा चलकर कफर सीिे मागग पर
आना कहठन ै?

लेककन मेरे अि:पतन का अपराि मेरे मसर न ीिं, मेरे माता-वपता और उस बढ़
ू े पर
ै जो मेरा स्वामी बनना चा ता था। मैं य पिंज्क्तयािं न मलखतीिं , लेककन इस
ववचार से मलख र ी ूिं कक मेरी आत्म-कथा पढ़कर लोगों की आिंखे खुलें; मैं
कफर क ती ूिं कक अब भी अपनी बामलकाओ के मलए मत दे खों िन, मत दे खों
जायदाद, मत दे खों कुलीनता, केवल वर दे खों। अगर उसके मलए जोडा का वर
न ीिं पा सकते तो लडकी को क्वारी रख छोडो, ज र दे कर मार डालो, गला घोंट
डालो, पर ककसी बढ़
ू े खूसट से मत ब्या ो। स्त्री सब-कुछ स सकती ै । दारुण
से दारुण द:ु ख, बडे से बडा सिंकट, अगर न ीिं स सकती तो अपने यौवन-
काल की उिं मगो का कुचला जाना।

र ी मैं, मेरे मलए अब इस जीवन में कोई आशा न ीिं । इस अिम दशा को भी
उस दशा से न बदलूिंगी, ज्जससे ननकल कर आयी ूिं ।

***
स्त्री और परु
ु ष

वववपन बाबू के मलए स्त्री ी सिंसार की सुन्दर वस्तु थी। व कवव थे और


उनकी कववता के मलए ज्स्त्रयों के रुप और यौवन की प्रशसा ी सबसे
धचिंताकषगक ववषय था। उनकी दृज्ष्ट में स्त्री जगत में व्याप्त कोमलता, मािुयग
और अलिंकारों की सजीव प्रनतमा थी। जबान पर स्त्री का नाम आते ी
उनकी आिंखे जगमगा उठती थीिं, कान खडें ो जाते थे, मानो ककसी रमसक ने गाने
की आवाज सुन ली ो। जब से ोश सिंभाला, तभी से उन् ोंने उस सुिंदरी की
कल्पना करनी शुरु की जो उसके हृदय की रानी ोगी; उसमें ऊषा की
प्रफुल्लता ोगी, पुष्प की कोमलता, किंु दन की चमक, बसिंत की छवव, कोयल
की ध्वनन—व कवव वखणगत सभी उपमाओिं से ववभूवषत ोगी। व उस कज्ल्पत
मनू तग के उपासक थे, कववताओिं में उसका गण
ु गाते, व हदन भी समीप आ गया
था, जब उनकी आशाएिं रे - रे पत्तों से ल रायेंगी, उनकी मरु ादें परू ी ो ोगी।
कालेज की अिंनतम परीक्षा समाप्त ो गयी थी और वववा के सिंदेशे आने लगे
थे।

वववा तय ो गया। बबवपन बाबू ने कन्या को दे खने का ब ु त आग्र ककया,


लेककन जब उनके मािंमू ने ववश्वास हदलाया कक लडकी ब ु त ी रुपवती ै , मैंने
अपनी आिंखों से दे खा ै , तब व राजी ो गये। िूमिाम से बारात ननकली
और वववा का मु ू तग आया। विू आभूषणों से सजी ु ई मिंडप में आयी तो
वववपन को उसके ाथ-पािंव नजर आये। ककतनी सुिंदर उिं गमलया थीिं, मानों दीप-
मशखाएिं ो, अिंगो की शोभा ककतनी मनो ाररणी थी। वववपन फूले न समाये। दस
ू रे
हदन विू ववदा ु ई तो व उसके दशगनों के मलए इतने अिीर ु ए कक जयों ी
रास्ते में क ारों ने पालकी रखकर मुिं - ाथ िोना शुरु ककया, आप चुपके से
विू के पास जा प ुिं च।े व घूिंघट टाये , पालकी से मसर ननकाले बा र
झािंक र ी थी। वववपन की ननगा उस पर पड गयी। य व परम सुिंदर रमणी
न थी ज्जसकी उन् ोने कल्पना की थी, ज्जसकी व बरसों से कल्पना कर र े
थे---य एक चौडे माँु , धचपटी नाक, और फुले ु ए गालों वाली कुरुपा स्त्री थी।
रिं ग गोरा था, पर उसमें लाली के बदले सफदी थी; और कफर रिं ग कैसा ी सुिंदर
ो, रूप की कमी न ीिं पूरी कर सकता। वववपन का सारा उत्सा ठिं डा पड गया---
ािं! इसे मेरे ी गले पडना था। क्या इसके मलए समस्त सिंसार में और कोई न
ममलता था? उन् ें अपने मािंमू पर क्रोि आया ज्जसने विू की तारीफों के पुल
बािंि हदये थे। अगर इस वक्त व ममल जाते तो वववपन उनकी कसी खबर
लेता कक व भी याद करते।

जब क ारों ने कफर पालककयााँ उठायीिं तो वववपन मन में सोचने लगा, इस स्त्री के


साथ कैसे मैं बोलग
ू ा, कैसे इसके साथ जीवन काटूाँगा। इसकी ओर तो ताकने
ी से घण
ृ ा ोती ै। कसी कुरुपा ज्स्त्रयााँ भी सिंसार में ैं, इसका मझ
ु े अब तक
पता न था। क्या माँु ईश्वर ने बनाया ै , क्या आाँखें ै ! मैं और सारे कबों की
ओर से आिंखे बिंद कर लेता, लेककन व चौडा-सा माँु ! भगवान ्! क्या तुम् ें
मुझी पर य वज्रपात करना था।

वववपन ो अपना जीवन नरक-सा जान पडता था। व अपने मािंमू से लडा।
ससुर को लिंबा खराग मलखकर फटकारा, मािं-बाप से ु जजत की और जब इससे
शािंनत न ु ई तो क ीिं भाग जाने की बात सोचने लगा। आशा पर उसे दया
अवश्य आती थी। व अपने का समझाता कक इसमें उस बेचारी का क्या
दोष ै , उसने जबरदस्ती तो मझ
ु से वववा ककया न ीिं। लेककन य दया और
य ववचार उस घण
ृ ा को न जीत सकता था जो आशा को दे खते ी उसके
रोम-रोम में व्याप्त ो जाती थी। आशा अपने अच्छे -से-अच्छे कपडे प नती;
तर -तर से बाल सिंवारती, घिंटो आइने के सामने खडी ोकर अपना श्रिंग
ृ ार
करती, लेकन वववपन को य शुतुरगमज-से मालूम ोते। व हदल से चा ती
थी कक उन् ें प्रसन्न करूाँ, उनकी सेवा करने के मलए अवसर खोजा करती थी;
लेककन वववपन उससे भागा-भागा कफरता था। अगर कभी भें ट ो जाती तो
कुछ कसी जली-कटी बातें करने लगता कक आशा रोती ु ई व ािं से चली जाती।

सबसे बुरी बात य थी कक उसका चररत्र भ्रष्ट ोने लगा। व य भूल जाने की
चेष्टा करने लगा कक मेरा वववा ो गया ै । कई-कई हदनों क आशा को
उसके दशगन भी न ोते। व उसके क -क े की आवाजे बा र से आती ु ई
सुनती, झरोखे से दे खती कक व दोस्तों के गले में ाथ डालें सैर करने जा र े ै
और तडप कर र े जाती।

एक हदन खाना खाते समय उसने क ा—अब तो आपके दशगन ी न ीिं ोतें । मेरे
कारण घर छोड दीज्जएगा क्या ?

वववपन ने मिंु फेर कर क ा—घर ी पर तो र ता ूिं । आजकल जरा नौकरी


की तलाश ै इसमलए दौड-िप
ू जयादा करनी पडती ै।

आशा—ककसी डाक्टर से मेरी सूरत क्यों न ीिं बनवा दे ते? सुनती ूिं , आजकल सूरत
बनाने वाले डाक्टर पैदा ु ए ै।

वववपन— क्यों ना क धचढ़ती ो, य ािं तुम् े ककसने बुलाया था?

आशा— आखखर इस मजग की दवा कौन करें गा ?

वववपन— इस मजग की दवा न ीिं ै । जो काम ईश्चर से ने करते बना उसे


आदमी क्या बना सकता ै?

आशा – य तो तुम् ी सोचो कक ईश्वर की भुल के मलए मझ


ु े दिं ड दे र े ो।
सिंसार में कौन कसा आदमी ै ज्जसे अच्छी सरू त बरु ी लगती ो,ककन तम
ु ने
ककसी मदग को केवल रूप ीन ोने के कारण क्वािंरा र ते दे खा ै , रूप ीन
लडककयािं भी मािं-बाप के घर न ीिं बैठी र तीिं। ककसी-न-ककसी तर उनका
ननवाग ो ी जाता ै ; उसका पनत उप पर प्राण ने दे ता ो, लेककन दि
ू की
मक्खी न ीिं समझता।

वववपन ने झुिंझला कर क ा—क्यों ना क मसर खाती ो, मै तुमसे ब स तो न ीिं


कर र ा ू ाँ। हदल पर जब्र न ीिं ककया जा सकता और न दलीलों का उस पर
कोई असर पड सकता ै । मैं तम्
ु े कुछ क ता तो न ीिं ूिं , कफर तम
ु क्यों मझ
ु से

ु जजत करती ो?

आशा य खझडकी सन
ु कर चली गयी। उसे मालम
ू ो गया कक इन् ोने मेरी ओर
से सदा के मलए ह्रदय कठोर कर मलया ै।

वववपन तो रोज सैर-सपाटे करते, कभी-कभी रात को गायब र ते। इिर आशा
धचिंता और नैराश्य से घल
ु ते-घल
ु ते बीमार पड गयी। लेककन वववपन भल
ू कर
भी उसे दे खने न आता, सेवा करना तो दरू र ा। इतना ी न ीिं, व हदल में
मानता था कक व मर जाती तो गला छुटता, अबकी खुब दे खभाल कर अपनी
पसिंद का वववा करता।

अब व और भी खल
ु खेला। प ले आशा से कुछ दबता था, कम-से-कम उसे य
िडका लगा र ता था कक कोई मेरी चाल-ढ़ाल पर ननगा रखने वाला भी ै।
अब व िडका छुट गया। कुवासनाओिं में कसा मलप्त ो गया कक मरदाने
कमरे में ी जमघटे ोने लगे। लेककन ववषय-भोग में िन ी का सवगनाश
ोता, इससे क ीिं अधिक बुवद्ध और बल का सवगनाश ोता ै । वववपन का चे रा
पीला लगा, दे भी क्षीण ोने लगी, पसमलयों की ड्डडयािं ननकल आयीिं आिंखों के
इदग -धगदग गढ़े पड गये। अब व प ले से क ीिं जयादा शोक करता, ननत्य तेल
लगता, बाल बनवाता, कपडे बदलता, ककन्तु मुख पर कािंनत न थी, रिं ग-रोगन से
क्या ो सकता?
एक हदन आशा बरामदे में चारपाई पर लेटी ु ई थी। इिर फ्तों से उसने वववपन
को न दे खा था। उन् े दे खने की इच्छा ु ई। उसे भय था कक व सन आयेंगे,
कफर भी व मन को न रोक सकी। वववपन को बुला भेजा। वववपन को भी
उस पर कुछ दया आ गयी आ गयी। आकार सामने खडे ो गये। आशा ने
उनके मुिं की ओर दे खा तो चौक पडी। व इतने दब
ु ल
ग ो गये थे कक प चनाना
मुमशकल था। बोली—तुम भी बीमार ो क्या? तुम तो मुझसे भी जयादा घुल
गये ो।

वववपन—उिं , ज्जिंदगी में रखा ी क्या ै ज्जसके मलए जीने की कफक्र करुिं !

आशा—जीने की कफक्र न करने से कोई इतना दब


ु ला न ीिं ो जाता। तुम अपनी
कोई दवा क्यों न ीिं करते?

य क कर उसने वववपन का दाह न ाथ पकड कर अपनी चारपाई पर बैठा


मलया। वववपन ने भी ाथ छुडाने की चेष्टा न की। उनके स्वाभाव में इस समय
एक ववधचत्र नम्रता थी, जो आशा ने कभी ने दे खी थी। बातों से भी ननराशा
टपकती थी। अक्खडपन या क्रोि की गिंि भी न थी। आशा का कसा मालुम

ु आ कक उनकी आिंखो में आिंसू भरे ुए ै।

वववपन चारपाई पर बैठते ु ए बोले—मेरी दवा अब मौत करे गी। मै तुम् ें जलाने
के मलए न ीिं क ता। ईश्वर जानता ै , मैं तुम् े चोट न ीिं प ुिं चाना चा ता। मै
अब जयादा हदनों तक न ज्जऊिंगा। मुझे ककसी भयिंकर रोग के लक्षण हदखाई दे
र े ै । डाक्टर नें भी व ी क ा ै । मझ
ु े इसका खेद ै कक मेरे ाथों तम्
ु े कष्ट
प ुिं चा पर क्षमा करना। कभी-कभी बैठे-बैठे मेरा हदल डूब हदल डूब जाता ै,
मूछाग-सी आ जाती ै।

य क तें -क ते एकाएक व कााँप उठे । सारी दे में सनसनी सी दौड गयी।


मूनछग त ो कर चारपाई पर धगर पडे और ाथ-पैर पटकने लगे।
माँु से कफचकुर ननकलने लगा। सारी दे पसीने से तर ो गयी।

आशा का सारा रोग वा ो गया। व म ीनों से बबस्तर न छोड सकी थी। पर


इस समय उसके मशधथल अिंगो में ववधचत्र स्फूनतग दौड गयी। उसने तेजी से उठ
कर वववपन को अच्छी तर लेटा हदया और उनके मख
ु पर पानी के छीिंटे दे ने
लगी। म री भी दौडी आयी और पिंखा झलने लगी। पर भी वववपन ने आिंखें न
खोलीिं। सिंध्या ोते- ोते उनका मुिं टे ढ़ा ो गया और बायािं अिंग शून्य पड
गया। ह लाना तो दरू र ा, मूिं से बात ननकालना भी मुज्श्कल ो गया। य मूछाग
न थी, फामलज था।

फामलज के भयिंकर रोग में रोगी की सेवा करना आसान काम न ीिं ै । उस पर
आशा म ीनों से बीमार थी। लेककन उस रोग के सामने व पना रोग भूल
गई। 15 हदनों तक वववपन की ालत ब ुत नाजुक र ी। आशा हदन-के-हदन
और रात-की-रात उनके पास बैठी र ती। उनके मलए पर्थय बनाना, उन् ें गोद में
सम्भाल कर दवा वपलाना, उनके जरा-जरा से इशारों को समझाना उसी जैसी
िैयश
ग ाली स्त्री का काम था। अपना मसर ददग से फटा करता, जवर से दे तपा
करती, पर इसकी उसे जरा भी परवा न थी।

१५ हदनों बाद वववपन की ालत कुछ सिंभली। उनका दाह ना पैर तो लिंज
ु पड
गया था, पर तोतली भाषा में कुछ बोलने लगे थे। सबसे बरु ी गत उनके सन्
ु दर
मुख की ु ई थी। व इतना टे ढ़ा ो गया था जैसे कोई रबर के खखलौने को
खीिंच कर बढ़ा दें । बैटरी की मदद से जरा दे र के मलए बैठे या खडे तो ो जाते
थे; लेककन चलने−कफरने की ताकत न थी।

एक हदनों लेटे−लेटे उन् े क्या ख्याल आया। आईना उठा कर अपना मुिं दे खने
लगे। कसा कुरुप आदमी उन् ोने कभी न दे खा था। आह स्ता से बोले−−आशा,
ईश्वर ने मुझे गरुर की सजा दे दी। वास्तव में मुझे य उसी बुराई का
बदला ममला ै , जो मैने तम्
ु ारे साथ की। अब तम
ु अगर मेरा माँु दे खकर घण
ृ ा
से माँु फेर लो तो मझ
ु से उस दव्ु यगव ार का बदला लो, जो मैने, तम्
ु ारे साथ
ककए ै।

आशा ने पनत की ओर कोमल भाव से दे खकर क ा−−मै तो आपको अब भी


उसी ननगा से दे खती ू ाँ। मझ
ु े तो आप में कोई अन्तर न ीिं हदखाई दे ता।

वववपन−−वा , बन्दर का−सा मुिं ो गया ै , तुम क ती ो कक कोई अन्तर ी


न ीिं। मैं तो अब कभी बा र न ननकलिंग
ू ा। ईश्वर ने मझ
ु े सचमच
ु दिं ड हदया।
ब ु त यत्न ककए गए पर वववपन का मिंु सीिा न ु आ। मख्
ु य का बायािं भाग
इतना टे ढ़ा ो गया था कक चे रा दे खकर डर मालूम ोता था। ािं, पैरों में
इतनी शज्क्त आ गई कक अब व चलने−कफरने लगे। आशा ने पनत की
बीमारी में दे वी की मनौती की थी। आज उसी की पुजा का उत्सव था।
मु ल्ले की ज्स्त्रयािं बनाव−मसिंगार ककये जमा थीिं। गाना−बजाना ो र ा था।

एक स े ली ने पुछा−−क्यों आशा, अब तो तुम् ें उनका मुिं जरा भी अच्छा न


लगता ोगा।

आशा ने गम्भीर ोकर क ा−−मुझे तो प ले से क ीिं मुिं जरा भी अच्छा न


लगता ोगा।

‘चलों, बातें बनाती ो।’

‘न ी ब न, सच क ती ू ाँ ; रूप के बदले मुझे उनकी आत्मा ममल गई जो रूप से


क ीिं बढ़कर ै ।’

वववपन कमरे में बैठे ु ए थे। कई ममत्र जमा थे। ताश ो र ा था।
कमरे में एक खखडकी थी जो आिंगन में खल
ु ती थी। इस वक्त व बन्द थी। एक
ममत्र ने उसे चप
ु के से खोल हदया। एक ममत्र ने उसे चप
ु के हदया और शीशे से
झािंक कर वववपन से क ा−− आज तो तुम् ारे य ािं पररयों का अच्छा जमघट
ै।

वववपन−−बन्दा कर दो।

‘अजी जरा दे खो तो: कैसी−कैसी सूरतें ै ! तुम् े इन सबों में कौन सबसे अच्छी
मालम
ू ोती ै?

वववपन ने उडती ु ई नजरों से दे खकर क ा−−मुझे तो व ीिं सबसे अच्छी मालूम


ोती ै जो थाल में फूल रख र ी ै।

‘वा री आपकी ननगा ! क्या सूरत के साथ तुम् ारी ननगा भी बबगड गई? मुझे
तो व सबसे बदसूरत मालम
ू ोती ै ।’

‘इसमलए कक तुम उसकी सूरत दे खते ो और मै उसकी आत्मा दे खता ूिं ।’

‘अच्छा, य ी ममसेज वववपन ैं ?’

‘जी ािं, य व ी दे वी ै।

***
उद्धार

ह द
िं ू समाज की वैवाह क प्रथा इतनी दवू षत, इतनी धचिंताजनक, इतनी भयिंकर ो
गयी ै कक कुछ समझ में न ीिं आता, उसका सुिार क्योंकर ो। बबरलें ी कसे
माता-वपता ोंगे ज्जनके सात पुत्रों के बाद एक भी कन्या उत्पन्न ो जाय तो
व स षग उसका स्वागत करें । कन्या का जन्म ोते ी उसके वववा की
धचिंता मसर पर सवार ो जाती ै और आदमी उसी में डुबककयााँ खाने लगता ै।
अवस्था इतनी ननराशमय और भयानक ो गई ै कक कसे माता-वपताओिं की
कमी न ीिं ै जो कन्या की मत्ृ यु पर ह्रदय से प्रसन्न ोते ै , मानों मसर से
बािा टली। इसका कारण केवल य ी ै कक दे ज की दर, हदन दन
ू ी रात
चौगुनी, पावस-काल के जल-गुजरे कक एक या दो जारों तक नौबत प ुिं च गई
ै । अभी ब ु त हदन न ीिं गज
ु रे कक एक या दो जार रुपये द ेज केवल बडे
घरों की बात थी, छोटी-छोटी शाहदयों पााँच सौ से एक जार तक तय ो
जाती थीिं; अब मामूली-मामूली वववा भी तीन-चार जार के नीचे तय न ीिं ोते
। खचग का तो य ाल ै और मशक्षक्षत समाज की ननिगनता और
दररद्रता हदन बढ़ती जाती ै । इसका अन्त क्या ोगा ईश्वर ी जाने। बेटे
एक दजगन भी ों तो माता-वपता का धचिंता न ीिं ोती। व अपने ऊपर
उनके वववा -भार का अननवायग न ीिं समझता, य उसके मलए ‘कम्पलसरी’
ववषय न ीिं, ‘आप्शनल’ ववषय ै। ोगा तों कर दे गें; न ी क दें गे--बेटा, खाओिं
कमाओिं, कमाई ो तो वववा कर लेना। बेटों की कुचररत्रता कलिंक की बात
न ीिं समझी जाती; लेककन कन्या का वववा तो करना ी पडेगा, उससे भागकर
क ािं जायेगें? अगर वववा में ववलम्ब ु आ और कन्या के पािंव क ीिं ऊाँचे नीचे
पड गये तो कफर कुटुम्ब की नाक कट गयी; व पनतत ो गया, टाट बा र
कर हदया गया। अगर व इस दघ
ु ट
ग ना को सफलता के साथ गप्ु त रख सका
तब तो कोई बात न ीिं; उसकों कलिंककत करने का ककसी का सा स न ीिं ;
लेककन अभाग्यवश यहद व इसे नछपा न सका, भिंडाफोड ो गया तो कफर
माता-वपता के मलए, भाई-बिंिुओिं के मलए सिंसार में मुिं हदखाने को न ीिं र ता।
कोई अपमान इससे दस्
ु स , कोई ववपज्त्त इससे भीषण न ीिं। ककसी भी व्याधि
की इससे भयिंकर कल्पना न ीिं की जा सकती। लत्ु फ तो य ै कक जो लोग
बेहटयों के वववा की कहठनाइयों को भोग चक
ु े ोते ै व ीिं अपने बेटों के
वववा के अवसर पर बबलकुल भूल जाते ै कक में ककतनी ठोकरें खानी पडी
थीिं, जरा भी स ानुभूनत न ी प्रकट करतें , बज्ल्क कन्या के वववा में जो
तावान उठाया था उसे चक्र-ववृ द्ध ब्याज के साथ बेटे के वववा में वसूल करने
पर कहटबद्ध ो जाते ैं। ककतने ी माता-वपता इसी धचिंता में ग्र ण करलेता ै,
कोई बढ़
ू े के गले कन्या का मढ़ कर अपना गला छुडाता ै , पात्र-कुपात्र के
ववचार करने का मौका क ािं, ठे लमठे ल ै।

मुिंशी गुलजारीलाल कसे ी तभागे वपताओिं में थे। यों उनकी ज्स्थनत बुरी न थी।
दो-ढ़ाई सौ रुपये म ीने वकालत से पीट लेते थे, पर खानदानी आदमी थे, उदार
ह्रदय, ब ु त ककफायत करने पर भी माकूल बचत न ो सकती थी। सिंबिंधियों
का आदर-सत्कार न करें तो न ीिं बनता, ममत्रों की खानतरदारी न करें तो न ी
बनता। कफर ईश्वर के हदये ुए दो पुत्र थे, उनका पालन-पोषण, मशक्षण का
भार था, क्या करते ! प ली कन्या का वववा टे ढ़ी खीर ो र ा था। य
आवश्यक था कक वववा अच्छे घराने में ो, अन्यथा लोग िं सेगे और अच्छे
घराने के मलए कम-से-कम पािंच जार का तखमीना था। उिर पत्र
ु ी सयानी
ोती जाती थी। व अनाज जो लडके खाते थे, व भी खाती थी; लेककन लडकों
को दे खो तो जैसे सूखों का रोग लगा ो और लडकी शुक्ल पक्ष का चािंद ो
र ी थी। ब ु त दौड-िूप करने पर बचारे को एक लडका ममला। बाप आबकारी के
ववभाग में ४०० रु० का नौकर था, लडका सुमशक्षक्षत। स्त्री से आकार बोले,
लडका तो ममला और घरबार-एक भी काटने योग्य न ीिं; पर कहठनाई य ी ै
कक लडका क ता ै , मैं अपना वववा न करुिं गा। बाप ने समझाया, मैने
ककतना समझाया, औरों ने समझाया, पर व टस से मस न ीिं ोता। क ता
ै , मै कभी वववा न करुिं गा। समझ में न ीिं आता, वववा से क्यों इतनी घण
ृ ा
करता ै । कोई कारण न ीिं बतलाता, बस य ी क ता ै , मेरी इच्छा। मािं बाप
का एकलौता लडका ै । उनकी परम इच्छा ै कक इसका वववा ो जाय, पर
करें क्या? यों उन् ोने फलदान तो रख मलया ै पर मुझसे क हदया ै कक
लडका स्वभाव का ठीला ै , अगर न मानेगा तो फलदान आपको लौटा हदया
जायेगा।

स्त्री ने क ा--तुमने लडके को एकािंत में बुलावकर पूछा न ीिं?

गुलजारीलाल--बुलाया था। बैठा रोता र ा, कफर उठकर चला गया। तुमसे क्या
क ूिं , उसके पैरों पर धगर पडा; लेककन बबना कुछ क े उठाकर चला गया।

स्त्री--दे खो, इस लडकी के पीछे क्या-क्या झेलना पडता ै?

गल
ु जारीलाल--कुछ न ीिं, आजकल के लौंडे सैलानी ोते ैं। अिंगरे जी पस्
ु तकों में
पढ़ते ै कक ववलायत में ककतने ी लोग अवववाह त र ना ी पसिंद करते ै ।
बस य ी सनक सवार ो जाती ै कक ननद्गवद्व र ने में ी जीवन की सुख
और शािंनत ै । ज्जतनी मुसीबतें ै व सब वववा ी में ै । मैं भी कालेज में
था तब सोचा करता था कक अकेला र ूिं गा और मजे से सैर-सपाटा करुिं गा।

स्त्री-- ै तो वास्तव में बात य ी। वववा ी तो सारी मुसीबतों की जड ै । तुमने


वववा न ककया ोता तो क्यों ये धचिंताएिं ोतीिं ? मैं भी क्वािंरी र ती तो चैन
करती।

इसके एक म ीना बाद मुिंशी गल


ु जारीलाल के पास वर ने य पत्र मलखा--

‘पज
ू यवर,

सादर प्रणाम।

मैं आज ब ु त असमिंजस में पडकर य पत्र मलखने का सा स कर र ा ूिं । इस


िष्ृ टता को क्षमा कीज्जएगा।
आपके जाने के बाद से मेरे वपताजी और माताजी दोनों मझ
ु पर वववा करने के
मलए नाना प्रकार से दबाव डाल र े ै । माताजी रोती ै , वपताजी नाराज ोते ैं।
व समझते ै कक मैं अपनी ज्जद के कारण वववा से भागता ूिं । कदाधचता
उन् े य भी सन्दे ो र ा ै कक मेरा चररत्र भ्रष्ट ो गया ै । मैं वास्तववक
कारण बताते ु ए डारता ूिं कक इन लोगों को द:ु ख ोगा और आश्चयग न ीिं
कक शोक में उनके प्राणों पर ी बन जाय। इसमलए अब तक मैने जो बात गुप्त
रखी थी, व आज वववश ोकर आपसे प्रकट करता ूिं और आपसे साग्र
ननवेदन करता ूिं कक आप इसे गोपनीय समखझएगा और ककसी दशा में भी उन
लोगों के कानों में इसकी भनक न पडने दीज्जएगा। जो ोना ै व तो ोगा
ै , प ले ी से क्यों उन् े शोक में डुबाऊिं। मुझे ५-६ म ीनों से य अनुभव ो
र ा ै कक मैं क्षय रोग से ग्रमसत ूिं । उसके सभी लक्षण प्रकट ोते जाते ै ।
डाक्टरों की भी य ी राय ै। य ािं सबसे अनुभवी जो दो डाक्टर ैं, उन दोनों ी
से मैने अपनी आरोग्य-परीक्षा करायी और दोनो ी ने स्पष्ट क ा कक तम्
ु े
मसल ै । अगर माता-वपता से य क दिं ू तो व रो-रो कर मर जायेगें। जब
य ननश्चय ै कक मैं सिंसार में थोडे ी हदनों का मे मान ूिं तो मेरे मलए वववा
की कल्पना करना भी पाप ै । सिंभव ै कक मैं ववशेष प्रयत्न करके साल दो
साल जीववत र ूिं , पर व दशा और भी भयिंकर ोगी, क्योकक अगर कोई
सिंतान ु ई तो व भी मेरे सिंस्कार से अकाल मत्ृ यु पायेगी और कदाधचत ्
स्त्री को भी इसी रोग-राक्षस का भक्ष्य बनना पडे। मेरे अवववाह त र ने
से जो बीतेगी, मुझ पर बीतेगी। वववाह त ो जाने से मेरे साथ और कई जीवों
का नाश ो जायगा। इसमलए आपसे मेरी प्राथगना ै कक मुझे इस बन्िन में
डालने के मलए आग्र न कीज्जए, अन्यथा आपको पछताना पडेगा।

सेवक
‘ जारीलाल।’

पत्र पढ़कर गल
ु जारीलाल ने स्त्री की ओर दे खा और बोले--इस पत्र के ववषय में
तुम् ारा क्या ववचार ैं।
स्त्री--मुझे तो कसा मालूम ोता ै कक उसने ब ाना रचा ै।

गल
ु जारीलाल--बस-बस, ठीक य ी मेरा भी ववचार ै । उसने समझा ै कक
बीमारी का ब ाना कर दिं ग
ू ा तो आप ी ट जायेंगे। असल में बीमारी कुछ
न ीिं। मैने तो दे खा ी था, चे रा चमक र ा था। बीमार का मुिं नछपा न ीिं
र ता।

स्त्री--राम नाम ले के वववा करो, कोई ककसी का भाग्य थोडे ी पढ़े बैठा ै।

गल
ु जारीलाल--य ी तो मै सोच र ा ूिं ।

स्त्री--न ो ककसी डाक्टर से लडके को हदखाओिं । क ीिं सचमुच य बीमारी ो


तो बेचारी अम्बा क ीिं की न र े ।

गुलजारीलाल-तुम भी पागल ो क्या? सब ीले- वाले ैं। इन छोकरों के हदल


का ाल मैं खुब जानता ूिं । सोचता ोगा अभी सैर-सपाटे कर र ा ूिं , वववा
ो जायगा तो य गुलछरे कैसे उडेगे!

स्त्री--तो शुभ मु ू तग दे खकर लग्न मभजवाने की तैयारी करो।

जारीलाल बडे िमग-सिंदे में था। उसके पैरों में जबरदस्ती वववा की बेडी डाली
जा र ी थी और व कुछ न कर सकता था। उसने ससुर का अपना कच्चा
धचट्ठा क सन
ु ाया; मगर ककसी ने उसकी बालों पर ववश्वास न ककया। मााँ-बाप
से अपनी बीमारी का ाल क ने का उसे सा स न ोता था। न जाने उनके
हदल पर क्या गुजरे , न जाने क्या कर बैठें? कभी सोचता ककसी डाक्टर की
श दत लेकर ससूर के पास भेज दिं ,ू मगर कफर ध्यान आता, यहद उन लोगों को
उस पर भी ववश्वास न आया, तो? आजकल डाक्टरी से सनद ले लेना कौन-सा
मज्ु श्कल काम ै । सोचें गे, ककसी डाक्टर को कुछ दे हदलाकर मलखा मलया ोगा।
शादी के मलए तो इतना आग्र ो र ा था, उिर डाक्टरों ने स्पष्ट क हदया
था कक अगर तुमने शादी की तो तुम् ारा जीवन-सुत्र और भी ननबगल ो जाएगा।
म ीनों की जग हदनों में वारा-न्यारा ो जाने की सम्भावाना ै।

लग्न आ चक
ु ी थी। वववा की तैयाररयािं ो र ी थीिं, मे मान आते-जाते थे और
जारीलाल घर से भागा-भागा कफरता था। क ािं चला जाऊिं? वववा की कल्पना ी
से उसके प्राण सूख जाते थे। आ ! उस अबला की क्या गनत ोगी ? जब उसे
य बात मालूम ोगी तो व मुझे अपने मन में क्या क े गी? कौन इस पाप
का प्रायज्श्चत करे गा ? न ीिं, उस अबला पर घोर अत्याचार न करुिं गा, उसे वैिव्य
की आग में न जलाऊिंगा। मेरी ज्जन्दगी ी क्या, आज न मरा कल मरुिं गा, कल
न ीिं तो परसों, तो क्यों न आज ी मर जाऊिं। आज ी जीवन का और उसके
साथ सारी धचिंताओिं को, सारी ववपज्त्तयों का अन्त कर दिं ।ू वपता जी रोयेंगे,
अम्मािं प्राण त्याग दें गी; लेककन एक बामलका का जीवन तो सफल ो जाएगा,
मेरे बाद कोई अभागा अनाथ तो न रोयेगा।

क्यों न चलकर वपताजी से क दिं ?ू व एक-दो हदन द:ु खी र ें गे, अम्मािं जी दो-
एक रोज शोक से ननरा ार र जायेगीिं, कोई धचिंता न ीिं। अगर माता-वपता के
इतने कष्ट से एक युवती की प्राण-रक्षा ो जाए तो क्या छोटी बात ै?

य सोचकर व िीरे से उठा और आकर वपता के सामने खडा ो गया।

रात के दस बज गये थे। बाबू दरबारीलाल चारपाई पर लेटे ु ए ु क्का पी र े थे।


आज उन् े सारा हदन दौडते गुजरा था। शाममयाना तय ककया; बाजे वालों को
बयाना हदया; आनतशबाजी, फुलवारी आहद का प्रबन्ि ककया। घिंटो ब्रा मणों के
साथ मसर मारते र े , इस वक्त जरा कमर सीिी कर र ें थे कक स सा
जारीलाल को सामने दे खकर चौंक पडें। उसका उतरा ु आ चे रा सजल आिंखे
और किंु हठत मुख दे खा तो कुछ धचिंनतत ोकर बोले--क्यों लालू, तबीयत तो अच्छी
ै न? कुछ उदास मालम
ू ोते ो।
जारीलाल--मै आपसे कुछ क ना चा ता ूिं ; पर भय ोता ै कक क ीिं आप
अप्रसन्न न ों।

दरबारीलाल--समझ गया, व ी पुरानी बात ै न ? उसके मसवा कोई दस


ू री बात ो
शौक से क ो।

जारीलाल--खेद ै कक मैं उसी ववषय में कुछ क ना चा ता ूिं ।

दरबारीलाल--य ी क ना चा ता ो न मुझे इस बन्िन में न डामलए, मैं इसके


अयोग्य ूिं , मै य भार स न ीिं सकता, बेडी मेरी गदग न को तोड दे गी, आहद या
और कोई नई बात ?

जारीलाल--जी न ीिं नई बात ै । मैं आपकी आज्ञा पालन करने के मलए सब


प्रकार तैयार ूिं ; पर एक कसी बात ै , ज्जसे मैने अब तक नछपाया था, उसे भी
प्रकट कर दे ना चा ता ूिं । इसके बाद आप जो कुछ ननश्चय करें गे उसे मैं
मशरोिायग करुिं गा।

जारीलाल ने बडे ववनीत शब्दों में अपना आशय क ा, डाक्टरों की राय भी बयान
की और अन्त में बोलें --कसी दशा में मुझे पूरी आशा ै कक आप मुझे वववा
करने के मलए बाध्य न करें गें। दरबारीलाल ने पुत्र के मुख की और गौर से दे खा,
क े जदी का नाम न था, इस कथन पर ववश्वास न आया; पर अपना अववश्वास
नछपाने और अपना ाहदग क शोक प्रकट करने के मलए व कई ममनट तक
ग री धचिंता में मग्न र े । इसके बाद पीडडत किंठ से बोले --बेटा, इस इशा में तो
वववा करना और भी आवश्यक ै । ईश्वर न करें कक म व बुरा हदन दे खने
के मलए जीते र े , पर वववा ो जाने से तुम् ारी कोई ननशानी तो र जाएगी।
ईश्वर ने कोई सिंतान दे दी तो व ी मारे बुढ़ापे की लाठी ोगी, उसी का मुिं
दे खरे ख कर हदल को समझायेंगे, जीवन का कुछ आिार तो र े गा। कफर आगे
क्या ोगा, य कौन क सकता ै ? डाक्टर ककसी की कमग-रे खा तो न ीिं पढ़ते,
ईश्वर की लीला अपरम्पार ै , डाक्टर उसे न ीिं समझ सकते । तम
ु ननज्श्चिंत
ोकर बैठों, म जो कुछ करते ै , करने दो। भगवान चा ें गे तो सब कल्याण
ी ोगा।

जारीलाल ने इसका कोई उत्तर न ीिं हदया। आिंखे डबडबा आयीिं , किंठावरोि के
कारण मुिं तक न खोल सका। चुपके से आकर अपने कमरे मे लेट र ा।

तीन हदन और गज
ु र गये, पर जारीलाल कुछ ननश्चय न कर सका। वववा की
तैयाररयों में रखे जा चक
ु े थे। मिंत्रेयी की पज
ू ा ो चक
ू ी थी और द्वार पर बाजों
का शोर मचा ु आ था। मु ल्ले के लडके जमा ोकर बाजा सुनते थे और
उल्लास से इिर-उिर दौडते थे।

सिंध्या ो गयी थी। बरात आज रात की गाडी से जाने वाली थी। बरानतयों
ने अपने वस्त्राभूष्ण प नने शुरु ककये। कोई नाई से बाल बनवाता था और
चा ता था कक खत कसा साफ ो जाय मानों व ािं बाल कभी थे ी न ीिं , बुढ़े
अपने पके बाल को उखडवा कर जवान बनने की चेष्टा कर र े थे। तेल ,
साबुन, उबटन की लूट मची ु ई थी और जारीलाल बगीचे मे एक वक्ष
ृ के
नीचे उदास बैठा ु आ सोच र ा था, क्या करुिं ?

अज्न्तम ननश्चय की घडी मसर पर खडी थी। अब एक क्षण भी ववल्म्ब करने का


मौका न था। अपनी वेदना ककससे क ें , कोई सुनने वाला न था।

उसने सोचा मारे माता-वपता ककतने अदरू दशी ै , अपनी उमिंग में इन् े इतना
भी न ी सझ
ू ता कक विु पर क्या गज
ु रे गी। विू के माता-वपता ककतने अदरू दशी
ै , अपनी उमिंग मे भी इतने अन्िे ो र े ै कक दे खकर भी न ीिं दे खते , जान
कर न ीिं जानते।
क्या य वववा ै ? कदावप न ीिं। य तो लडकी का कुएिं में डालना ै , भाड मे
झोंकना ै , किंु द छुरे से रे तना ै । कोई यातना इतनी दस्
ु स , कर अपनी पत्र
ु ी का
वैिव्य के अज्ग्न-किंु ड में डाल दे ते ै। य माता-वपता ै ? कदावप न ीिं। य
लडकी के शत्रु ै , कसाई ै , बधिक ैं, त्यारे ै । क्या इनके मलए कोई दण्ड न ीिं
? जो जानबूझ कर अपनी वप्रय सिंतान के खून से अपने ाथ रिं गते ै , उसके
मलए कोई दिं ड न ीिं? समाज भी उन् े दिं ड न ीिं दे ता, कोई कुछ न ीिं क ता। ाय !

य सोचकर जारीलाल उठा और एक ओर चुपचाप चल हदया। उसके मुख पर


तेज छाया ु आ था। उसने आत्म-बमलदान से इस कष्ट का ननवारण करने का
दृढ़ सिंकल्प कर मलया था। उसे मत्ृ यु का लेशमात्र भी भय न था। व
उस दशा का प ुिं च गया था जब सारी आशाएिं मत्ृ यु पर ी अवलज्म्बत ो
जाती ै।

उस हदन से कफर ककसी ने जारीलाल की सूरत न ीिं दे खी। मालूम न ीिं जमीन
खा गई या आसमान। नाहदयों मे जाल डाले गए, कुओिं में बािंस पड गए, पमु लस
में ु मलया गया, समाचार-पत्रों मे ववज्ञज्प्त ननकाली गई, पर क ीिं पता न चला ।

कई फ्तो के बाद, छावनी रे लवे से एक मील पज्श्चम की ओर सडक पर कुछ


ड्डडयााँ ममलीिं। लोगो को अनम
ु ान ु आ कक जारीलाल ने गाडी के नीचे दबकर
जान दी, पर ननज्श्चत रूप से कुछ न मालुम ु आ।

भादों का म ीना था और तीज का हदन था। घरों में सफाई ो र ी थी।


सौभाग्यवती रमखणयािं सोल ो श्रिंग
ृ ार ककए गिंगा-स्नान करने जा र ी थीिं। अम्बा
स्नान करके लौट आयी थी और तुलसी के कच्चे चबूतरे के सामने खडी विंदना
कर र ी थी। पनतग ृ में उसे य प ली ी तीज थी, बडी उमिंगो से व्रत रखा
था। स सा उसके पनत ने अन्दर आ कर उसे स ास नेत्रों से दे खा और
बोला--मुिंशी दरबारी लाल तुम् ारे कौन ोते ै , य उनके य ािं से तुम् ारे मलए
तीज पठौनी आयी ै । अभी डाककया दे गया ै।
य क कर उसने एक पासगल चारपाई पर रख हदया। दरबारीलाल का नाम सन
ु ते
ी अम्बा की आिंखे सजल ो गयीिं। व लपकी ु यी आयी और पासगल
स्मनृ तयािं जीववत ो गयीिं, ह्रदय में जारीलाल के प्रनत श्रद्धा का एक
उद्गार-सा उठ पडा। आ ! य उसी दे वात्मा के आत्मबमलदान का पुनीत फल
ै कक मुझे य हदन दे खना नसीब ु आ। ईश्वर उन् े सद्गनत दें । व
आदमी न ीिं, दे वता थे, ज्जसने अपने कल्याण के ननममत्त अपने प्राण तक
समपगण कर हदए।

पनत ने पूछा--दरबारी लाल तुम् ारी चचा ैं।

अम्बा-- ााँ।

पनत--इस पत्र में जारीलाल का नाम मलखा ै, य कौन ै?

अम्बा--य मुिंशी दरबारी लाल के बेटे ैं।

पनत--तुम् ारे चचरे भाई?

अम्बा--न ीिं, मेरे परम दयालु उद्धारक, जीवनदाता, मझ


ु े अथा जल में डुबने से
बचाने वाले, मझ
ु े सौभाग्य का वरदान दे ने वाले।

पनत ने इस भाव क ा मानो कोई भूली ु ई बात याद आ गई ो--आ ! मैं


समझ गया। वास्तव में व मनष्ु य न ीिं दे वता थे।
***
ननिागसन

परशुराम –व ीिं—व ीिं दालान में ठ रो!

मयागदा—क्यों, क्या मझ
ु में कुछ छूत लग गई!

परशुराम—प ले य बताओिं तुम इतने हदनों से क ािं र ीिं, ककसके साथ र ीिं, ककस
तर र ीिं और कफर य ािं ककसके साथ आयीिं? तब, तब ववचार...दे खी जाएगी।

मयागदा—क्या इन बातों को पूछने का य ी वक्त ै ; कफर अवसर न ममलेगा?

परशुराम— ािं, य ी बात ै । तुम स्नान करके नदी से तो मेरे साथ ी ननकली
थीिं। मेरे पीछे -पीछे कुछ दे र तक आयीिं भी; मै पीछे कफर-कफर कर तुम् ें दे खता
जाता था,कफर एकाएक तुम क ािं गायब ो गयीिं?

मयागदा – तुमने दे खा न ीिं, नागा सािुओिं का एक दल सामने से आ गया। सब


आदमी इिर-उिर दौडने लगे। मै भी िक्के में पडकर जाने ककिर चली गई।
जरा भीड कम ु ई तो तुम् ें ढूिंढ़ने लगी। बासू का नाम ले-ले कर पुकारने लगी,
पर तुम न हदखाई हदये।

परशुराम – अच्छा तब?

मयागदा—तब मै एक ककनारे बैठकर रोने लगी, कुछ सझ


ू ी न पडता कक क ािं
जाऊिं, ककससे क ूिं , आदममयों से डर लगता था। सिंध्या तक व ीिं बैठी रोती र ी।ैै

परशुराम—इतना तूल क्यों दे ती ो? व ािं से कफर क ािं गयीिं?

मयागदा—सिंध्या को एक युवक ने आ कर मुझसे पूछा, तुम् ारे क घर के लोग क ीिं


खो तो न ीिं गए ै ? मैने क ा— ािं। तब उसने तुम् ारा नाम, पता, हठकाना पूछा।
उसने सब एक ककताब पर मलख मलया और मझ
ु से बोला—मेरे साथ आओ, मै
तम्
ु ें तम्
ु ारे घर भेज दिं ग
ू ा।

परशुराम—व आदमी कौन था?

मयागदा—व ािं की सेवा-सममनत का स्वयिंसेवक था।

परशुराम –तो तम
ु उसके साथ ो लीिं?

मयागदा—और क्या करती? व मुझे सममनत के कायगलय में ले गया। व ािं एक


शाममयाने में एक लम्बी दाढ़ीवाला मनष्ु य बैठा ु आ कुछ मलख र ा था। व ी
उन सेवकों का अध्यक्ष था। और भी ककतने ी सेवक व ािं खडे थे। उसने
मेरा पता-हठकाना रज्जस्टर में मलखकर मुझे एक अलग शाममयाने में भेज
हदया, ज ािं और भी ककतनी खोयी ु ई ज्स्त्रयों बैठी ु ई थीिं।

परशुराम—तम
ु ने उसी वक्त अध्यक्ष से क्यों न क ा कक मझ
ु े प ुिं चा दीज्जए?

मयागदा—मैने एक बार न ीिं सैकडो बार क ा; लेककन व य क ते र े , जब तक


मेला न खत्म ो जाए और सब खोयी ु ई ज्स्त्रयािं एकत्र न ो जाएिं, मैं भेजने
का प्रबन्ि न ीिं कर सकता। मेरे पास न इतने आदमी ैं , न इतना िन?

परशुराम—िन की तुम् े क्या कमी थी, कोई एक सोने की चीज बेच दे ती तो


काफी रूपए ममल जाते।

मयागदा—आदमी तो न ीिं थे।

परशुराम—तुमने य क ा था कक खचग की कुछ धचन्ता न कीज्जए, मैं अपने ग ने


बेचकर अदा कर दिं ग
ू ी?
मयागदा—सब ज्स्त्रयािं क ने लगीिं, घबरायी क्यों जाती ो? य ािं ककस बात का डर
ै। म सभी जल्द अपने घर प ुिं चना चा ती ै ; मगर क्या करें ? तब मैं भी चप

ो र ी।

परशुराम – और सब ज्स्त्रयािं कुएिं में धगर पडती तो तम


ु भी धगर पडती?

मयागदा—जानती तो थी कक य लोग िमग के नाते मेरी रक्षा कर र े ैं , कुछ मेरे


नौकरी या मजूर न ीिं ैं, कफर आग्र ककस मुिं से करती? य बात भी ै कक
ब ु त-सी ज्स्त्रयों को व ािं दे खकर मझ
ु े कुछ तसल्ली ो गईग ् परशुराम— ािं,
इससे बढ़कर तस्कीन की और क्या बात ो सकती थी? अच्छा, व ािं के हदन
तस्कीन का आनन्द उठाती र ी? मेला तो दस
ू रे ी हदन उठ गया ोगा?

मयागदा—रात- भर मैं ज्स्त्रयों के साथ उसी शाममयाने में र ी।

परशुराम—अच्छा, तुमने मुझे तार क्यों न हदलवा हदया?

मयागदा—मैंने समझा, जब य लोग प ुिं चाने की क ते ी ैं तो तार क्यों दिं ?ू

परशुराम—खैर, रात को तम
ु व ीिं र ी। यव
ु क बार-बार भीतर आते र े ोंगे?

मयागदा—केवल एक बार एक सेवक भोजन के मलए पूछने आयास था, जब म


सबों ने खाने से इन्कार कर हदया तो व चला गया और कफर कोई न
आया। मैं रात-भर जगती र ी।

परशुराम—य मैं कभी न मानूिंगा कक इतने युवक व ािं थे और कोई अन्दर न


गया ोगा। सममनत के युवक आकाश के दे वता न ीिं ोत। खैर, व दाढ़ी वाला
अध्यक्ष तो जरूर ी दे खभाल करने गया ोगा?

मयागदा— ािं, व आते थे। पर द्वार पर से पूछ-पूछ कर लौट जाते थे। ािं, जब
एक मह ला के पेट में ददग ोने लगा था तो दो-तीन बार दवाएिं वपलाने आए थे।
परशुराम—ननकली न व ी बात! मै इन िूतों की नस-नस प चानता ूिं ।
ववशेषकर नतलक-मालािारी दहढ़यलों को मैं गुरू घिंटाल ी समझता ूिं । तो वे
म ाशय कई बार दवाई दे ने गये ? क्यों तुम् ारे पेट में तो ददग न ीिं ोने लगा
था?

मयागदा—तुम एक सािु पुरूष पर आक्षेप कर र े ो। व बेचारे एक तो मेरे बाप


के बराबर थे, दस
ू रे आिंखे नीची ककए र ने के मसवाय कभी ककसी पर सीिी
ननगा न ीिं करते थे।

परशुराम— ािं, व ािं सब दे वता ी दे वता जमा थे। खैर, तुम रात-भर व ािं र ीिं।
दस
ू रे हदन क्या ु आ?

मयागदा—दस
ू रे हदन भी व ीिं र ी। एक स्वयिंसेवक म सब ज्स्त्रयों को साथ में
लेकर मुख्य-मुख्य पववत्र स्थानो का दशगन कराने गया। दो प र को लौट कर
सबों ने भोजन ककया।

परशुराम—तो व ािं तुमने सैर-सपाटा भी खूब ककया, कोई कष्ट न ोने पाया।
भोजन के बाद गाना-बजाना ु आ ोगा?

मयागदा—गाना बजाना तो न ीिं, ािं, सब अपना-अपना दख


ु डा रोती र ीिं, शाम तक
मेला उठ गया तो दो सेवक म लोगों को ले कर स्टे शन पर आए।

परशुराम—मगर तम
ु तो आज सातवें हदन आ र ी ो और व भी अकेली?

मयागदा—स्टे शन पर एक दघ
ु ट
ग ना ो गयी।

परशुराम— ािं, य तो मैं समझ ी र ा था। क्या दघ


ु ट
ग ना ु ई?
मयागदा—जब सेवक हटकट लेने जा र ा था, तो एक आदमी ने आ कर उससे
क ा—य ािं गोपीनाथ के िमगशाला में एक आदमी ठ रे ुए ैं , उनकी स्त्री खो
गयी ै , उनका भला-सास नाम ै , गोरे -गोरे लम्बे-से खूबसूरत आदमी ैं, लखनऊ
मकान ै , झवाई टोले में । तुम् ारा ु मलया उसने कसा ठीकबयान ककया कक
मुझे उसस पर ववश्वास आ गया। मैं सामने आकर बोली, तुम बाबूजी को जानते
ो? व िं सकर बोला, जानता न ीिं ूिं तो तुम् ें तलाश क्यो करता कफरता ूिं ।
तम्
ु ारा बच्चा रो-रो कर लकान ो र ा ै । सब औरतें क ने लगीिं , चली
जाओिं, तम्
ु ारे स्वामीजी घबरा र े ोंगे। स्वयिंसेवक ने उससे दो-चार बातें
पूछ कर मुझे उसके साथ कर हदया। मुझे क्या मालूम था कक मैं ककसी नर-
वपशाच के ाथों पडी जाती ूिं । हदल मैं खुशी थी ककअब बासू को दे खूिंगी तुम् ारे
दशगन करूिंगी। शायद इसी उत्सुकता ने मुझे असाविान कर हदया।

परशुराम—तो तुम उस आदमी के साथ चल दी? व कौन था?

मयागदा—क्या बतलाऊिं कौन था? मैं तो समझती ूिं , कोई दलाल था?

परशुराम—तुम् े य न सूझी कक उससे क तीिं, जा कर बाबू जी को भेज दो?

मयागदा—अहदन आते ैं तो बुवद्ध भ्रष्ट ो जाती ै।

परशुराम—कोई आ र ा ै।

मयागदा—मैं गुसलखाने में नछपी जाती ूिं ।

परशुराम –आओ भाभी, क्या अभी सोयी न ीिं, दस तो बज गए ोंगे।

भाभी—वासद
ु े व को दे खने को जी चा ता था भैया, क्या सो गया?

परशुराम— ािं, व तो अभी रोते-रोते सो गया।


भाभी—कुछ मयागदा का पता ममला? अब पता ममले तो भी तम्
ु ारे ककस काम
की। घर से ननकली ज्स्त्रयािं थान से छूटी ु ई घोडी ैं। ज्जसका कुछ भरोसा
न ीिं।

परशुराम—क ािं से क ािं लेकर मैं उसे न ाने लगा।

भाभी— ोन ार ैं, भैया ोन ार। अच्छा, तो मै जाती ूिं ।

मयागदा—(बा र आकर) ोन ार न ीिं ूिं , तुम् ारी चाल ै । वासद


ु े व को प्यार करने
के ब ाने तुम इस घर पर अधिकार जमाना चा ती ो।

परशुराम –बको मत! व दलाल तम्


ु ें क ािं ले गया।

मयागदा—स्वामी, य न पूनछए, मुझे क ते लजज आती ै।

परशुराम—य ािं आते तो और भी लजज आनी चाह ए थी।

मयागदा—मै परमात्मा को साक्षी दे ती ूिं , कक मैंने उसे अपना अिंग भी स्पशग


न ीिं करने हदया।

पराशुराम—उसका ु मलया बयान कर सकती ो।

मयागदा—सािंवला सा छोटे डील डौल काआदमी था।नीचा कुरता प ने ु ए था।

परशुराम—गले में ताबीज भी थी?

मयागदा— ािं,थी तो।

परशुराम—व िमगशाले का मे तर था।मैने उसे तुम् ारे गुम ो जाने की चचाग की


थी। व उस दष्ु ट ने उसका व स्वािंग रचा।
मयागदा—मझ
ु े तो व कोई ब्रह्मण मालम
ू ोता था।

परशुराम—न ीिं मे तर था। व तुम् ें अपने घर ले गया?

मयागदा— ािं, उसने मुझे तािंगे पर बैठाया और एक तिंग गली में , एक छोटे - से
मकान के अन्दर ले जाकर बोला, तुम य ीिं बैठो, मुम् ारें बाबूजी य ीिं आयेंगे।
अब मुझे ववहदत ुआ कक मुझे िोखा हदया गया। रोने लगी। व आदमी
थोडी दे र बाद चला गया और एक बुहढया आ कर मुझे भािंनत-भािंनत के
प्रलोभन दे ने लगी। सारी रात रो-रोकर काटी दस
ू रे हदन दोनों कफर मझ
ु े समझाने
लगे कक रो-रो कर जान दे दोगी, मगर य ािं कोई तम्
ु ारी मदद को न आयेगा।
तुम् ाराएक घर डूट गया। म तुम् े उससे क ीिं अच्छा घर दें गें ज ािं तुम सोने
के कौर खाओगी और सोने से लद जाओगी। लब मैने दे खा ककक य ािं से
ककसी तर न ीिं ननकल सकती तो मैने कौशल करने का ननश्चय ककया।

परशुराम—खैर, सुन चुका। मैं तुम् ारा ी क ना मान लेता ूिं कक तुमने अपने
सतीत्व की रक्षा की, पर मेरा हृदय तुमसे घण
ृ ा करता ै , तुम मेरे मलए कफर व
न ीिं ननकल सकती जो प ले थीिं। इस घर में तुम् ारे मलए स्थान न ीिं ै।

मयागदा—स्वामी जी, य अन्याय न कीज्जए, मैं आपकी व ी स्त्री ूिं जो


प ले थी। सोधचए मेरी दशा क्या ोगी?

परशुराम—मै य सब सोच चक
ु ा और ननश्चय कर चक
ु ा। आज छ: हदन से य
सोच र ा ूिं । तुम जानती ो कक मुझे समाज का भय न ीिं। छूत-ववचार को
मैंने प ले ी नतलािंजली दे दी, दे वी-दे वताओिं को प ले ी ववदा कर चुका:पर
ज्जस स्त्री पर दस
ू री ननगा ें पड चुकी, जो एक सप्ता तक न-जाने क ािं और
ककस दशा में र ी, उसे अिंगीकार करना मेरे मलए असम्भव ै। अगर अन्याय
ै तो ईश्वर की ओर से ै , मेरा दोष न ीिं।

मयागदा—मेरी वववशमा पर आपको जरा भी दया न ीिं आती?


परशुराम—ज ािं घण
ृ ा ै , व ािं दया क ािं? मै अब भी तुम् ारा भरण-पोषण करने
को तैयार ूिं ।जब तक जीऊगािं, तुम् ें अन्न-वस्त्र का कष्ट न ोगा पर तुम मेरी
स्त्री न ीिं ो सकतीिं।

मयागदा—मैं अपने पुत्र का मु न दे खूिं अगर ककसी ने स्पशग भी ककया ो।

परशुराम—तम्
ु ारा ककसी अन्य परू
ु ष के साथ क्षण-भर भी एकान्त में र ना
तुम् ारे पनतव्रत को नष्ट करने के मलए ब ु त ै। य ववधचत्र बिंिन ै , र े तो
जन्म-जन्मान्तर तक र े : टूटे तो क्षण-भर में टूट जाए। तुम् ीिं बताओिं, ककसी
मुसलमान ने जबरदस्ती मुझे अपना उज्च्छट भोलन खखला हदया ोता तो मुझे
स्वीकार करतीिं?

मयागदा—व .... व .. तो दस
ू री बात ै।

परशुराम—न ीिं, एक ी बात ै । ज ािं भावों का सिंबिंि ै , व ािं तकग और न्याय


से काम न ीिं चलता। य ािं तक अगर कोई क दे कक तुम् ारें पानी को मे तर
ने छू ननया ै तब भी उसे ग्र ण करने से तुम् ें घण
ृ ा आयेगी। अपने ी
हदन से सोचो कक तुम् ारें साथ न्याय कर र ा ूिं या अन्याय।

मयागदा—मै तुम् ारी छुई चीजें न खाती, तुमसे पथ


ृ क र ती पर तुम् ें घर से तो
न ननकाल सकती थी। मुझे इसमलए न दत्ु कार र े ो कक तुम घर के स्वामी
ो और कक मैं इसका पालन करता ूिं ।

परशुराम—य बात न ीिं ै । मै इतना नीच न ीिं ूिं ।

मयागदा—तो तम्
ु ारा य ीिं अनतमिं ननश्चय ै?

परशुराम— ािं, अिंनतम।


मयागदा-- जानते ो इसका पररणाम क्या ोगा?

परशुराम—जानता भी ूिं और न ीिं भी जानता।

मयागदा—मुझे वासुदेव ले जाने दोगे?

परशुराम—वासद
ु े व मेरा पत्र
ु ै।

मयागदा—उसे एक बार प्यार कर लेने दोगे?

परशुराम—अपनी इच्छा से न ीिं, तुम् ारी इच्छा ो तो दरू से दे ख सकती ो।

मयागदा—तो जाने दो, न दे खिंग


ू ी। समझ लिंग
ू ी कक वविवा ूिं और बािंझ भी। चलो
मन, अब इस घर में तम्
ु ारा ननबा न ीिं ै । चलो ज ािं भाग्य ले जाय।

***
नैराश्य लीला

पिंडडत हृदयनाथ अयोध्या के एक सम्माननत पुरूष थे। िनवान तो न ीिं लेककन


खाने वपने से खुश थे। कई मकान थे, उन् ी के ककराये पर गुजर ोता था।
इिर ककराये बढ गये थे, उन् ोंने अपनी सवारी भी रख ली थी। ब ु त ववचार
शील आदमी थे, अच्छी मशक्षा पायी थी। सिंसार का काफी तरजरु बा था, पर
कक्रयात्मक शककत ् से व्रधचत थे, सब कुछ न जानते थे। समाज उनकी आिंखों में
एक भयिंकर भूत था ज्जससे सदै व डरना चाह ए। उसे जरा भी रूष्ट ककया तो
कफर जाने की खैर न ीिं। उनकी स्त्री जागेश्वरी उनका प्रनतबबम्ब, पनत के
ववचार उसके ववचार और पनत की इच्छा उसकी इच्छा थी, दोनों प्राखणयों में
कभी मतभेद न ोता था। जागेश्चरी खखव की उपासक थी। हृदयनाथ वैष्णव
थे, दोनो िमगननष्ट थे। उससे क ीिं अधिक , ज्जतने समान्यत: मशक्षक्षत लोग

ुआ करते ै। इसका कदाधचत ् य कारण था कक एक कन्या के मसवा उनके


और कोई सनतान न थी। उनका वववा तेर वें वषग में ो गया था और माता-
वपता की अब य ी लालसा थी कक भगवान इसे पुत्रवती करें तो म लोग नवासे
के नाम अपना सब-कुछ मलख मलखाकर ननज्श्चत ो जायें।

ककन्तु वविाता को कुछ और ी मन्जूर था। कैलाश कुमारी का अभी गौना भी न

ु आ था, व अभी तक य भी न जानने पायी थी कक वववा का आश्य क्या ै


कक उसका सो ाग उठ गया। वैिव्य ने उसके जीवन की अमभलाषाओिं का
दीपक बुझा हदया।

माता और वपता ववलाप कर र े थे, घर में कु राम मचा ु आ था, पर


कैलाशकुमारी भौंचक्की ो- ो कर सबके मुिं की ओर ताकती थी। उसकी समझ
में य न आता था कक ये लोग रोते क्यों ैं। मािं बाप की इकलौती बेटी थी।
मािं-बाप के अनतररक्त व ककसी तीसरे व्यज्क्त को उपने मलए आवश्यक न
समझती थी। उसकी सख
ु कल्पनाओिं में अभी तक पनत का प्रवेश न ु आ था।
व समझती थी, स्त्रीयािं पनत के मरने पर इसमलए राती ै कक व उनका और
बच्चों का पालन करता ै। मेरे घर में ककस बात की कमी ै ? मझ
ु े इसकी
क्या धचन्ता ै कक खायेंगे क्या, प नेगें क्या? मढ
ु रे ज्जस चीज की जरूरत ोगी
बाबूजी तुरन्त ला दें गे, अम्मा से जो चीज मागूिंगी व दे दें गी। कफर रोऊिं
क्यों?व अपनी मािं को रोते दे खती तो रोती, पती के शोक से न ीिं, मािं के
प्रेम से । कभी सोचती, शायद य लोग इसमलए रोते ैं कक क ीिं मैं कोई
कसी चीज न मािंग बैठूिं ज्जसे व दे न सकें। तो मै कसी चीज मािंगूगी ी
क्यो? मै अब भी तो उन से कुछ न ीिं मािंगती, व आप ी मेरे मलए एक न
एक चीज ननत्य लाते र ते ैं ? क्या मैं अब कुछ और ो जाऊगीिं? इिर माता का
य ा ाल था कक बेटी की सूरत दे खते ी आिंखों से आिंसू की झडी लग जाती।
बाप की दशा और भी करूणाजनक थी। घर में आना-जाना छोड हदया। मसर
पर ाथ िरे कमरे में अकेले उदास बैठे र ते। उसे ववशे ष द:ु ख इस बात का था
कक स े मलयािं भी अब उसके साथ खेलने न आती। उसने उनके घर लाने की
माता से आज्ञा मािंगी तो फूट-फूट कर रोने लगीिं माता-वपता की य दशा दे खी
तो उसने उनके सामने जाना छोड हदया, बैठी ककस्से क ाननयािं पढा करती।
उसकी एकािंतवप्रयता का मािं-बाप ने कुछ और ी अथग समझा। लडकी शोक
के मारे घुली जाती ै, इस वज्राघात ने उसके हृदय को टुकडे-टुकडे कर डाला ै।

एक हदन हृदयनाथ ने जागेश्वरी से क ा—जी चा ता ै घर छोड कर क ीिं भाग


जाऊिं। इसका कष्ट अब न ीिं दे खा जाता।

जागेश्वरी—मेरी तो भगवान से य ी प्राथनाग ै कक मझ


ु े सिंसार से उठा लें। क ािं
तक छाती पर पत्थर कीस मसल रखूिं।

हृदयनाथ—ककसी भानतिं इसका मन ब लाना चाह ए, ज्जसमें शोकमय ववचार आने


ी न पायें। म लोंगों को द:ु खी और रोते दे ख कर उसका द:ु ख और भी
दारूण ो जाता ै।

जागेश्वरी—मेरी तो बुवद्ध कुछ काम न ीिं करती।


हृदयनाथ— म लोग यों ी मातम करते र े तो लडिंकी की जान पर बन जायेगी।
अब कभी कभी धथएटर हदखा हदया, कभी घर में गाना-बजाना करा हदया। इन
बातों से उसका हदल ब लता र े गा।

जागेशवरी—मै तो उसे दे खते ी रो पडती ूिं । लेककन अब जब्त करूिंगी तम्


ु ारा
ववचार ब ु त अच्छा ै । ववना हदल ब लाव के उसका शोक न दरू ोगा।

हृदयनाथ—मैं भी अब उससे हदल ब लाने वाली बातें ककया करूगािं। कल एक


सैरबीिं लाऊगा, अच्छे -अच्छे दृश्य जमा करूगािं। ग्रामोफोन तो अज ी मगवाये
दे ता ूिं । बस उसे र वक्त ककसी न ककसी कात में लगाये र ना चाह ए।
एकातिंवास शोक-जवाला के मलए समीर के समान ै।

उस हदन से जागेश्वरी ने कैलाश कुमारी के मलए ववनोद और प्रमोद के समान


लमा करने शरू ककये। कैलासी मािं के पास आती तो उसकी आिंखों में आसू की
बूिंदे न दे खती, ोठों पर िं सी की आभा हदखाई दे ती। व मुस्करा कर क ती
–बेटी, आज धथएटर में ब ु त अच्छा तमाशा ोने वाला ै , चलो दे ख आयें। कभी
गिंगा-स्नान की ठ रती, व ािं मािं-बेटी ककश्ती पर बैठकर नदी में जल वव ार
करतीिं, कभी दोनों सिंध्या-समय पाकै की ओर चली जातीिं। िीरे -िीरे स े मलयािं भी
आने लगीिं। कभी सब की सब बैठकर ताश खेलतीिं। कभी गाती-बजातीिं।
पज्ण्डत हृदय नाथ ने भी ववनोद की सामधग्रयािं जुटायीिं। कैलासी को दे खते
ी मग्न ोकर बोलते—बेटी आओ, तुम् ें आज काश्मीर के दृश्य हदखाऊिं: कभी
ग्रामोफोन बजाकर उसे सुनाते। कैलासी इन सैर-सपाटों का खूब आन्नद उठाती।
अतने सुख से उसके हदन कभी न गुजरे थे।

इस भािंनत दो वषग बीत गये। कैलासी सैर-तमाशे की इतनी आहद ो गयी कक एक


हदन भी धथएटर न जाती तो बेकल-ससी ोने लगती। मनोरिं जन नवीननता का
दास ै और समानता का शत्रु। धथएटरों के बाद मसनेमा की सनक सवार ु ई।
मसनेमा के बाद ममस्मेररजम और ह पनोहटजम के तमाशों की सनक सवार

ु ई। मसनेमा के बाद ममस्मेररजम और ह प्नोहटजम के तमाशों की। ग्रामोफोन


के नये ररकाडग आने लगे। सिंगीत का चस्का पड गया। बबरादरी में क ीिं उत्सव
ोता तो मािं-बेटी अवश्स्य जातीिं। कैलासी ननत्य इसी नशे में डूबी र ती, चलती
तो कुछ गुनगुनती ु ई, ककसी से बाते करती तो व ी धथएटर की और मसनेमा
की। भौनतक सिंसार से अब कोई वास्ता न था, अब उसका ननवास कल्पना
सिंसार में था। दस
ू रे लोक की ननवामसन ोकर उसे प्राखणयों से कोई स ानभ
ु नू त
न र ीिं, ककसी के द:ु ख पर जरा दया न आती। स्वभाव में उच्छृिंखलता का
ववकास ु आ, अपनी सुरूधच पर गवग करने लगी। स े मलयों से डीिंगे मारती, य ािं
के लोग मूखग ै , य मसनेमा की कद्र क्या करे गें। इसकी कद्र तो पज्श्चम
के लोग करते ै । व ािं मनोरिं जन की सामाधग्रयािं उतनी ी आवश्यक ै
ज्जतनी वा। जभी तो वे उतने प्रसनन-धचत्त र ते ै , मानो ककसी बात की धचिंता
ी न ीिं। य ााँ ककसी को इसका रस ी न ीिं। ज्जन् ें भगवान ने सामर्थयग भी
हदया ै व भी सरिं शाम से मु ढािंक कर पडे र मे ैं। स े मलयािं कैलासी की
य गवग-पूणग बातें सुनतीिं और उसकी और भी प्रशिंसा करतीिं। व उनका
अपमान करने के आवेश में आप ी ास्यास्पद बन जाती थी।

पडोमसयों में इन सैर-सपाटों की चचाग ोने लगी। लोक-सम्मनत ककसी की


ररआयत करती। ककसी ने मसर पर टोपी टे ढी रखी और पडोमसयों की आिंखों में
खुबा कोई जरा अकड कर चला और पडोमसयों ने अवाजें कसीिं। वविवा के मलए
पूजा-पाठ ै , तीथग-व्रत ै , मोटा खाना प नना ै , उसे ववनोदऔर ववलास, राग
और रिं ग की क्या जरूरत? वविाता ने उसके द्वार बिंद रर हदये ै । लडकी
प्यारी स ी, लेककन शमग और या भी कोई चीज ोती ै । जब मािं-बाप ी उसे
मसर चढाये ु ए ै तो उसका क्या दोष? मगर एक हदन आिंखे खुलेगी
अवश्य।मह लाएिं क तीिं, बाप तो मदग ै , लेककन मािं कैसी ै । उसको जरा भी
ववचार न ीिं कक दनु नयािं क्या क े गी। कुछ उन् ीिं की एक दल
ु ारी बेटी थोडे ी ै,
इस भािंनतमन बढाना अच्छा न ीिं।
कुद हदनों तक तो य खखचडी आपस में पकती र ी। अिंत को एक हदन
कई मह लाओिं ने जागेश्वरी के घर पदापगण ककया। जागेश्वरी ने उनका बडा
आदर-सत्कार ककया। कुछ दे र तक इिर-उिर की बातें करने के बाद एक
मह ला बोली—मह लाएिं र स्य की बातें करने में ब ु त अभ्यस्त ोती ै —ब न,
तुम् ीिं मजे में ो कक िं सी-खुसी में हदन काट दे ती ो। मुिं तो हदन प ाड ो
जाता ै । न कोई काम न ििंिा, कोई क ािं तक बातें करें ?

दस
ू री दे वी ने आिंखें मटकाते ु ए क ा—अरे , तो य तो बदे की बात ै । सभी के
हदन िं सी-खुिंशी से कटें तो रोये कौन। य ािं तो सुब से शाम तक चक्की-चूल् े
से छुट्टी न ीिं ममलती: ककसी बच्चे को दस्त आ र ें तो ककसी को जवर चढा

ुआ ै : कोई ममठाइयों की रट क ा ै: तो कोई पैसो के मलए म ानामथ


मचाये ुए ै। हदन भर ाय- ाय करते बीत जाता ै। सारे हदन
कठपुतमलयों की भािंनत नाचती र ती ूिं ।

तीसरी रमणी ने इस कथन का र स्यमय भाव से ववरोि ककया—बदे की बात


न ीिं, वैसा हदल चाह ए। तम्
ु ें तो कोई राजमसिं ासन पर बबठा दे तब भी तस्कीन
न ोगी। तब और भी ाय- ाय करोगी।

इस पर एक वद्ध
ृ ा ने क ा—नौज कसा हदल: य भी कोई हदल ै कक घर में
चा े आग लग जाय, दनु नया में ककतना ी उप ास ो र ा ो, लेककन आदमी
अपने राग-रिं ग में मस्त र । व हदल ै कक पत्थर : म गहृ णी क लाती
ै , मारा काम ै अपनी ग ृ स्थी में रत र ना। आमोद-प्रमोद में हदन काटना
मारा काम न ीिं।

और मह लाओिं ने इन ननदग य व्यिंग्य पर लज्जजत ो कर मसर झुका मलया। वे


जागेश्वरी की चटुककयािं लेना चा ती थीिं। उसके साथ बबल्ली और चू े की
ननदग यी क्रीडा करना चा ती थीिं। आ त को तडपाना उनका उद्देश्य था। इस खुली

ु ई चोट ने उनके पर-पीडन प्रेम के मलए कोई गुिंजाइश न छोडी: ककिं तु


जागेश्वरी को ताडना ममल गयी। ज्स्त्रयों के ववदा ोने के बाद उसने जाकर पनत
से य सारी कथा सन
ु ायी। हृदयनाथ उन परू
ु षों में न थे जो प्रत्येक
अवसर पर अपनी आज्त्मक स्वािीनता का स्वािंग भरते ै , ठिमी को आत्म-
स्वातन्त्रय के नाम से नछपाते ै। व सधचन्त भाव से बोले ---तो अब क्या
ोगा?

जागेश्वरी—तम्
ु ीिं कोई उपाय सोचो।

हृदयनाथ—पडोमसयों ने जो आक्षेप ककया ै व सवथाग उधचत ै । कैलाशकुमारी


के स्वभाव में मझ
ु ें एक सववधचत्र अन्तर हदखाई दे र ा ै । मझ
ु े स्विंम ज्ञात ो
र ा ै कक उसके मन ब लाव के मलए म लोंगों ने जो उपाय ननकाला ै
व मुनामसब न ीिं ै । उनका य कथन सत्य ै कक वविवाओिं के मलए आमोद-
प्रामोद वज्जगत ै । अब में य पररपाटी छोडनी पडेगी।

जागेश्वरी—लेककन कैलासी तो अन खेल-तमाशों के बबना एक हदन भी न ीिं र


सकती।

हृदयनाथ—उसकी मनोवज्ृ त्तयों को बदलना पडेगा।

शनै:शैने य ववलोसोल्माद शािंत ोने लगा। वासना का नतरस्कार ककया जाने


लगा। पिंडडत जी सिंध्या समय ग्रमोफोन न बजाकर कोई िमग-ग्रिंथ सुनते।
स्वाध्याय, सिंसम उपासना में मािं-बेटी रत र ने लगीिं। कैलासी को गुरू जी ने
दीक्षा दी, मु ल्ले और बबरादरी की ज्स्त्रयािं आयीिं, उत्सव मनाया गया।

मािं-बेटी अब ककश्ती पर सैर करने के मलए गिंगा न जातीिं, बज्ल्क स्नान करने
के मलए। मिंहदरो में ननत्य जातीिं। दोनािं एकादशी का ननजगल व्रम रखने लगीिं।
कैलासी को गुरूजी ननत्य सिंध्या-समय िमोपदे श करते। कुछ हदनों तक तो
कैलासी को य ववचार-पररवगतन ब ुत कष्टजनक मालूम ु आ, पर िमगननष्ठा
नाररयों का स्वाभाववक गण
ु ै , थोडे ी हदनो में उसे िमग से रूची ो गयी। अब
उसे अपनी अवस्था का ज्ञान ोने लगा था। ववषय-वासना से धचत्त आप ी
आप खखिंचने लगा। पनत का यथाथग आशय समझ में आने लगा था। पनत ी
स्त्री का सच्चा पथ प्रदशगक और सच्चा स ायक ै । पनतवव ीन ोना ककसी
घोर पाप का प्रायज्श्चत ै। मैने पूव-ग जन्म में कोई अकमग ककया ोगा।
पनतदे व जीववत ोते तो मै कफर माया में फिंस जाती। प्रायज्श्चत कर अवसर
क ािं ममलता। गरू
ु जी का वचन सत्य ै कक परमात्मा ने तम्
ु ें पव
ू ग कमों के
प्रायज्श्चत का अवसर हदया ै । वैिव्य यातना न ीिं ै , जीवोद्धर का सािन ै।
मेरा उद्धार त्याग, ववराग, भज्क्त और उपासना से ोगा।

कुछ हदनों के बाद उसकी िाममगक वज्ृ त्त इतनी प्रबल ो गयी, कक अन्य प्राखणयों
से व पथ
ृ क् र ने लगी। ककसी को न छूती, म ररयों से दरू र ती, स े मलयों से
गले तक न ममलती, हदन में दो-दो तीन-तीन बार स्नान करती, मेशा कोई न
कोई िमग-ग्रन्थ पढा करती। सािु –म ात्माओिं के सेवा-सत्कार में उसे आज्त्मक
सुख प्राप्त ोता। ज ािं ककसी म ात्मा के आने की खबर पाती, उनके दशगनों
के मलए कवकल ो जाती। उनकी अमत
ृ वाणी सुनने से जी न भरता। मन सिंसार
से ववरक्त ोने लगा। तल्लीनता की अवस्था प्राप्त ो गयी। घिंटो ध्यान और
धचिंतन में मग्न र ती। समाज्जक बिंिनो से घण
ृ ो गयी। घिंटो ध्यान और
धचिंतन में मग्न र ती। हृदय स्वाधिनता के मलए लालानयत ो गया: य ािं
तक कक तीन ी बरसों में उसने सिंन्यास ग्र ण करने का ननश्चय कर मलया।

मािं-बाप को य समाचार ज्ञात ु आ ता ोश उड गये। मािं बोली—बेटी, अभी


तुम् ारी उम्र ी क्या ै कक तुम कसी बातें सोचती ो।

कैलाशकुमारी—माया-मो से ज्जतनी जल्द ननवज्ृ त्त ो जाय उतना ी अच्छा।

हृदयनाथ—क्या अपने घर मे र कर माया-मो से मुक्त न ीिं ो सकती ो?


माया-मो का स्थान मन ै , घर न ीिं।
जागेश्वरी—ककतनी बदनामी ोगी।

कैलाशकुमारी—अपने को भगवान ् के चरणों पर अपगण कर चुकी तो बदनामी क्या


धचिंता?

जागेश्वरी—बेटी, तुम् ें न ो , मको तो ै। में तो तुम् ारा ी स रा ै।


तुमने जो सिंयास मलया तो म ककस आिार पर ज्जयेंगे?

कैलाशकुमारी—परमात्मा ी सबका आिार ै । ककसी दस


ू रे प्राणी का आश्रय लेना
भूल ै।

दस
ू रे हदन य बात मु ल्ले वालों के कानों में प ुिं च गयी। जब कोई अवस्था
असाध्य ो जाती ै तो म उस पर व्यिंग करने लगते ै । ‘य तो ोना ी था,
नयी बात क्या ु ई, लडडककयों को इस तर स्वछिं द न ीिं कर हदया जाता, फूले न
समाते थे कक लडकी ने कुल का नाम उजजवल कर हदया। पुराण पढती
ै , उपननषद् और वेदािंत का पाठ करती ै , िाममगक समस्याओिं पर कसी-कसी
दलीलें करती ै कक बडे-बडे ववद्वानों की जबान बिंद ो जाती ै तो अब क्यों
पछताते ै ?’

भद्र पुरूषों में कई हदनों तक य ी आलोचना ाती र ी। लेककन जैसे अपने बच्चे
के दौडते-दौडते –िम से धगर पडने पर म प ले क्रोि के आवेश में उसे
खझडककयािं सन
ु ाते ै , इसके बाद गोद में बबठाकर आिंसू पोछतें और फुसलाने
का लगते ै : उसी तर इन भद्र पुरूषों ने व्रग्य के बाद इस गुत्थी के
सुलझाने का उपाय सोचना शुरू ककया। कई सजजन हृदयनाथ के पास आये और
मसर झुकाकर बैठ गये। ववषय का आरम्भ कैसे ो?

कई ममनट के बाद एक सजजन ने क ा –ससुना ै डाक्टर गौड का प्रस्ताव


आज ब ु मत से
स्वीकृत ो गया।
दस
ू रे म ाश्य बोले—य लोग ह द
िं -ू िमग का सवगनाश करके छोडेगें। कोई क्या
करे गा, जब मारे सािु-म ात्मा, ह द
िं -ू जानत के स्तिंभ ै , इतने पनतत ो गए ैं कक
भोली-भाली युवनतयों को ब काने में सिंकोच न ीिं करते तो सवगनाश ोनें में र
ी क्या गया।

हृदयनाथ—य ववपज्त्त तो मेरे मसर ी पडी ु ई ै । आप लोगों को तो मालूम


ोगा।

प ले म ाश्य –आप ी के मसर क्यों, म सभी के मसर पडी ु ई ै।

दस
ू रो म ाश्य –समस्त जानत के मसर कह ए।

हृदयनाथ—उद्धार का कोई उपाय सोधचए।

प ले म ाश्य—अपने समझाया न ीिं?

हृदयनाथ—समझा के ार गया। कुछ सन


ु ती ी न ीिं।

तीसरे म ाश्य—प ले ी भूल ु ई। उसे इस रास्ते पर उतरना ी न ीिं चाह ए था।

प ले म ाशय—उस पर पछताने से क्या ोगा? मसर पर जो पडी ै , उसका


उपाय सोचना चाह ए। आपने समाचार-पत्रों में दे खा ोगा, कुछ लोगों की सला
ै कक वविवाओिं से अध्यापको का काम लेना चाह ए। यद्यवप मैं इसे भी ब ु त
अच्छा न ीिं समझता,पर सिंन्यामसनी बनने से तो क ीिं अच्छा ै । लडकी
अपनी आिंखों के सामने तो र े गी। अमभप्राय केवल य ी ै कक कोई कसा
काम ोना चाह ए ज्जसमें लडकी का मन लगें । ककसी अवलम्ब के बबना मनुष्य
को भटक जाने की शिंका सदै व बनी र ती ै । ज्जस घर में कोई न ीिं र ता
उसमें चमगादड बसेरा कर लेते ैं।
दस
ू रे म ाशय –सला तो अच्छी ै । मु ल्ले की दस-पािंच कन्याएिं पढने के मलए
बल
ु ा ली जाएिं। उन् े ककताबें, गडु डयािं आहद इनाम ममलता र े तो बडे शौक से
आयेंगी। लडकी का मन तो लग जायेगा।

हृदयनाथ—दे खना चाह ए। भरसक समझाऊगािं।

जयों ी य लोग ववदा ु ए: हृदयनाथ ने कैलाशकुमारी के सामने य


तजवीज पेश की कैलासी को सुन्यस्त के उच्च पद के सामने अध्यावपका
बनना अपमानजनक जान पडता था। क ािं व म ात्माओिं का सत्सिंग , व
पवगतो की गफ
ु ा, व सरु म्य प्राकृनतक दृश्य व ह मरामश की ज्ञानमय जयोनत,
व मानसरावर और कैलास की शुभ्र छटा, व आत्मदशगन की ववशाल कल्पनाएिं ,
और क ााँ बामलकाओिं को धचडडयों की भािंनत पढाना। लेककन हृदयनाथ कई हदनों
तक लगातार से वा िमग का मा ातम्य उसके हृदय पर अिंककत करते र े । सेवा
ी वास्तववक सिंन्यस ै । सिंन्यासी केवल अपनी मुज्क्त का इच्छुक ोता ै , सेवा
व्रतिरी अपने को परमाथग की वेदी पर बमल दे दे ता ै। इसका गौरव क ीिं
अधिक ै । दे खो, ऋवषयों में दिीधच का जो यश ै , ररश्चिंद्र की जो कीनतग ै , सेवा
त्याग ै , आहद। उन् ोंने इस कथन की उपननषदों और वेदमिंत्रों से पुज्ष्ट की य ािं
तक कक िीरे -िीरे कैलासी के ववचारों में पररवतनग ोने लगा। पिंडडत जी ने
मु ल्ले वालों की लडककयों को एकत्र ककया, पाठशाला का जन्म ो गया।
नाना प्रकार के धचत्र और खखलौने मिंगाए। पिंडडत जी स्विंय
कैलाशकुमारी के साथ लडककयों को पढाते। कन्याएिं शौक से आतीिं। उन् े य ािं
की पढाई खेल मालूम ोता। थोडे ी दनों में पाठशाला की िूम ो गयी,
अन्य मु ल्लों की कन्याएिं भी आने लगीिं।

कैलास कुमारी की सेवा-प्रवज्ृ त्त हदनों-हदन तीव्र ोने लगी। हदन भर लडककयों
को मलए र ती: कभी पढाती, कभी उनके साथ खेलती, कभी सीना-वपरोना
मसखाती। पाठशाला ने पररवार का रूप िारण कर मलया। कोई लडकी बीमार ो
जाती तो तरु न्त उसके घर जाती, उसकी सेवा-सश्र
ु षू ा करती, गा कर या
क ाननयािं सन
ु ाकर उसका हदल ब लाती।

पाठशाला को खुले ु ए साल-भर ु आ था। एक लडकी को, ज्जससे व ब ुत प्रेम


करती थी, चेचक ननकल आयी। कैलासी उसे दे खने गई। मािं-बाप ने ब ु त मना
ककया, पर उसने न माना। क ा, तरु न्त लौट आऊिंगी। लडकी की ालत खराब
थी। क ािं तो रोते-रोते तालू सख
ू ता था, क ािं कैलासी को दे खते ी सारे कष्ट
भाग गये। कैलासी एक घिंटे तक व ािं र ी। लडकी बराबर उससे बातें करती
र ी। लेककन जब व चलने को उठी तो लडकी ने रोना शुरू कर हदया। कैलासी
मजबूर ोकर बैठ गयी। थोडी दे र बाद व कफर उठी तो कफर लडकी की य
दशा ो गयी। लडकी उसे ककसी तर छोडती ी न थी। सारा हदन गज
ु र
गया। रात को भी रात को लडकी ने जाने न हदयािं। हृदयनाथ उसे बल
ु ाने को
बार-बार आदमी भेजते, पर व लडकी को छोडकर न जा सकती। उसे कसी शिंका
ोती थी कक मैं य ािं से चली और लडकी ाथ से गयी। उसकी मािं ववमाता थी।
इससे कैलासी को उसके ममत्व पर ववश्वास न ोता था। इस प्रकार तीन
हदनों तक व व ािं रा ी। आठों प र बामलका के मसर ाने बैठी पिंखा झ्लती
र ती। ब ु त थक जाती तो दीवार से पीठ टे क लेती। चौथे हदन लडकी की
ालत कुछ सिंभलती ु ई मालूम ु ई तो व अपने घर आयी। मगर अभी स्नान
भी न करने पायी थी कक आदमी प ुिं चा—जल्द चमलए, लडकी रो-रो कर जान दे
र ी ै।

हृदयनाथ ने क ा—क दो, अस्पताल से कोई नसग बुला लें।

कैलसकुमारी-दादा, आप व्यथग में झुझलाते ैं। उस बेचारी की जान बच जाय, मै


तीन हदन न ीिं, जीन मह ने उसकी सेवा करने को तैयार ूिं । आखखर य दे
ककस काम आएगी।

हृदयनाथ—तो कन्याएिं कैसे पढे गी?


कैलासी—दो एक हदन में व अच्छी ो जाएगी, दाने मरु झाने लगे ैं, तब तक
आप लरा इन लडककयों की दे खभाल करते रह एगा।

हृदयनाथ—य बीमारी छूत फैलाती ै।

कैलासी—( िं सकर) मर जाऊिंगी तो आपके मसर से एक ववपज्त्त टल जाएगी।


य क कर उसने उिर की रा ली। भोजन की थाली परसी र गयी।

तब हृदयनाथ ने जागेश्वरी से क ा---जान पडता ै, ब ुत जल्द य पाठशाला


भी बन्द करनी पडेगी।

जागेश्वरी—बबना मािंझी के नाव पार लगाना ब ु त कहठन ै । ज्जिर वा पाती ै,


उिर ब जाती ै।

हृदयनाथ—जो रास्ता ननकालता ूिं व ी कुछ हदनों के बाद ककसी दलदल में फिंसा
दे ता ै। अब कफर बदनामी के समान ोते नजर आ र े ै । लोग क ें गें , लडकी
दस
ू रों के घर जाती ै और कई-कई हदन पडी र ती ै । क्या करूिं, क दिं ,ू
लडककयों को न पढाया करो?

जागेश्वरी –इसके मसवा और ो क्या सकता ै।

कैलाशकुमारी दो हदन बाद लौटी तो हृदयनाथ ने पाठशाला बिंद कर दे ने की


समस्या उसके सामने रखी। कैलासी ने तीव्र स्वर से क ा—अगर आपको
बदनामी का इतना भय ै तो मझ
ु े ववष दे दीज्जए। इसके मसवा बदनामी
से बचने का और कोई उपाय न ीिं ै।

हृदयनाथ—बेटी सिंसार में र कर तो सिंसार की-सी करनी पडेगी।

कैलासी तो कुछ मालूम भी तो ो कक सिंसार मुझसे क्या चा ता ै । मुझमें जीव


ै , चेतना ै , जड क्योंकर बन जाऊ। मुझसे य न ीिं ो सकता कक अपने को
अभा गन, दखु खया समझिंू और एक टुकडा रोटी खाकर पडी र ूिं । कसा क्यों
करूिं? सिंसार मझ
ु े जो चा े समझे, मै अपने को अभाधगनी न ीिं समझती। मै
अपने आत्म-सम्मान की रक्षा आप कर सकती ूिं । मैं इसे घोर अपमान समझती

ूिं कक पग-पग पर मुझ पर शिंका की जाए, ननत्य कोई चरवा ों की भािंनत मेरे
पीछे लाठी मलए घूमता र े कक ककसी खेत में न जाने बूडू। य दशा मेरे मलए
असह्य ैं।

य क कर कैलाशकुमारी व ािं से चली गयी कक क ीिं मुिं से अनगगल शब्द न


ननकल पडें। इिर कुछ हदनों से उसे अपनी बेकसी का यथागथ ज्ञान ोने लगा
था स्त्री पुरूष की ककतली अिीन ै , मानो स्त्री को वविाता ने इसमलए बनाया
ै कक परू
ु षों के अधिन र िं य सोचकर व समाज के अत्याचार पर दािंत
पीसने लगती थी।

पाठशाला तो दस
ू रे हदन बन्द ो गयी, ककन्तु उसी हदन कैलाशकुमारी को पुरूषों
से जलन ोने लगी। ज्जस सख
ु -भोग से प्रारब्ि में विंधचत कर दे ता ै उससे
मे द्वेष ो जाता ै। गरीब आदमी इसीलए तो अमीरों से जलता ै और
िन की ननन्दा करता ै। कैलाशी बार-बार झुिंझलाती कक स्त्री क्यों पुरूष पर
इतनी अवलज्म्बत ै ? पुरूशष क्यों स्त्री के भग्य का वविायक ै ? स्त्री क्यों
ननत्य पुरूषों का आश्रय चा े , उनका मुिं ताके? इसमलए न कक ज्स्त्रयों में
अमभमान न ीिं ै , आत्म सम्मान न ीिं ै । नारी हृदय के कोमल भाव, उसे कुत्ते
का दम
ु ह लाना मालम
ू ोने लगे। प्रेम कैसा। य सब ढोग ै , स्त्री परू
ु ष के
अधिन ै , उसकी खुशमद न करे , सेवा न करे , तो उसका ननवाग कैसे ो।

एक हदन उसने अपने बाल गथ


ूिं े और जूडे में एक गुलाब का फूल लगा मलया। मािं
ने दे खा तो ओठिं से जीभ दबा ली। म ररयों ने छाती पर ाथ रखे।

इसी तर एक हदन उसने रिं गीन रे शमी साडी प न ली। पडोमसनों में इस पर
खूब आलोचनाएाँ ु ईं।
उसने एकादशी का व्रत रखनाउ छोड हदया जो वपछले आठ वषों से रखमी आयीिं
थी। किंघी और आइने को व अब त्याजय न समझती थी।

स ालग के हदन आए। ननत्य प्रनत उसके द्वार पर से बरातें ननकलतीिं । मु ल्ले
की ज्स्त्रयााँ अपनी अटाररयों पर खडी ोकर दे खती। वर के रिं ग-रूप, आकर-
प्रकार पर हटकाएिं ोती, जागेश्वरी से भी बबना एक आख दे खे र ा न
जाता। लेककन कैलाशकुमारी कभी भूलकर भी इन जालूसो को न दे खती।
कोई बरात या वववा की बात चलाता तो व मु िं फेर लेती। उसकी दृज्ष्ट में
व वववा न ीिं, भोली-भाली कन्याओिं का मशकार था। बरातों को व
मशकाररयों के कुत्ते समझती। य वववा न ीिं बमलदान ै।

तीज का व्रत आया। घरों की सफाई ोने लगी। रमखणयािं इस व्रत को


तैयाररयािं करने लगीिं। जागेश्वरी ने भी व्रत का सामान ककया। नयी-नयी
साडडया मगवायीिं। कैलाशकुमारी के ससुराल से इस अवसर पर कपडे ,
ममठाईयािं और खखलौने आया करते थे।अबकी भी आए। य वववाह ता ज्स्त्रयों
का व्रत ै । इसका फल ै पनत का कल्याण। वविवाएिं भी अस व्रत का यथेधचत
रीनत से पालन करती ै । नत से उनका सम्बन्ि शारीररक न ीिं वरन ्
आध्याज्त्मक ोता ै । उसका इस जीवन के साथ अन्त न ीिं ोता, अनिंतकाल
तक जीववत र ता ै । कैलाशकुमारी अब तक य व्रत रखती आयी थी। अब
उसने ननश्चय ककया मै व्रत न रखूिंगी। मािं ने तो माथा ठोंक मलया। बोली—
बेटी, य व्रत रखना िमग ै ।

कैलाशकुमारी-पुरष भी ज्स्त्रयों के मलए कोई व्रत रखते ै ?

जागेश्वरी—मदों में इसकी प्रथा न ीिं ै।


कैलाशकुमारी—इसमलए न कक परू
ु षों की जान उतनी प्यारी न ी ोती ज्जतनी
ज्स्त्रयों को परू
ु षों की जान?

जागेश्वरी—ज्स्त्रयािं पुरूषों की बराबरी कैसे कर सकती ैं? उनका तो िमग ै अपने


परू
ु ष की सेवा करना।

कैलाशकुमारी—मै अपना िमग न ीिं समझती। मेरे मलए अपनी आत्मा की रक्षा के
मसवा और कोई िमग न ीिं?

जागेश्वरी—बेटी गजब ो जायेगा, दनु नया क्या क े गी?

कैलाशकुमारी –कफर व ी दनु नया? अपनी आत्मा के मसवा मझ


ु े ककसी का भय
न ीिं।

हृदयनाथ ने जागेश्वरी से य बातें सन


ु ीिं तो धचन्ता सागर में डूब गए। इन
बातों का क्या आश्य? क्या आत्म-सम्मान को भाव जाग्रत ु आ ै या नैरश्य
की क्रूर क्रीडा ै ? िन ीन प्राणी को जब कष्ट-ननवारण का कोई उपाय न ीिं र
जाता तो व लजजा को त्याग दे ता ै। ननस्सिंदे नैराश्य ने य भीषण
रूप िारण ककया ै । सामान्य दशाओिं में नैराश्य अपने यथाथग रूप मे आता
ै , पर गवगशील प्राखणयों में व पररमाज्जगत रूप ग्र ण कर लेता ै । य ािं पर
हृदयगत कोमल भावों को अप रण कर लेता ै —चररत्र में अस्वाभाववक
ववकास उत्पन्न कर दे ता ै —मनष्ु य लोक-लाज उपवासे और उप ास की ओर
से उदासीन ो जाता ै , नैनतक बन्िन टूट जाते ै। य नैराश्य की अनतिंम
अवस्था ै।

हृदयनाथ इन् ीिं ववचारों मे मग्न थे कक जागेश्वरी ने क ा –अब क्या करनाउ


ोगा?

जागेश्वरी—कोई उपाय ै?
हृदयनाथ—बस एक ी उपाय ै , पर उसे जबान पर न ीिं ला सकता

***
कौशल

पिंडडत बलराम शास्त्री की िमगपत्नी माया को ब ुत हदनों से एक ार की


लालसा थी और व सैकडो ी बार पिंडडत जी से उसके मलए आग्र कर चुकी
थी, ककन्तु पिंडडत जी ीला- वाला करते र ते थे। य तो साफ-साफ ने क ते
थे कक मेरे पास रूपये न ी ै —इनसे उनके पराक्रम में बट्टा लगता था—
तकगनाओिं की शरण मलया करते थे। ग नों से कुछ लाभ न ीिं एक तो िातु
अच्छी न ीिं ममलती, उस पर सोनार रुपसे के आठ-आठ आने कर दे ता ै और
सबसे बडी बात य ै कक घर में ग ने रखना चोरो को नेवता दे न ै । घडी-भर
श्रग
ृ ािंर के मलए इतनी ववपज्त्त मसर पर लेना मूखो का काम ै । बेचारी माया
तकग –शास्त्र न पढी थी, इन युज्क्तयों के सामने ननरूत्तर ो जाती थी।
पडोमसनो को दे ख-दे ख कर उसका जी ललचा करता था, पर दख
ु ककससे क े ।
यहद पिंडडत जी जयादा मे नत करने के योग्य ोते तो य मज्ु श्कल आसान ो
जाती । पर वे आलसी जीव थे, अधिकािंश समय भोजन और ववश्राम में
व्यनतत ककया करते थे। पत्नी जी की कटूज्क्तयािं सुननी मिंजूर थीिं, लेककन
ननद्रा की मात्रा में कमी न कर सकते थे।

एक हदन पिंडडत जी पाठशाला से आये तो दे खा कक माया के गले में सोने का


ार ववराज र ा ै। ार की चमक से उसकी मुख-जयोनत चमक उठी थी।
उन् ोने उसे कभी इतनी सुन्दर न समझा था। पूछा –य ार ककसका ै?

माया बोली—पडोस में जो बाबूजी र ते ैं उन् ी की स्त्री का ै।

आज उनसे ममलने गयी थी, य ार दे खा , ब ु त पसिंद आया। तम्


ु ें हदखाने के
मलए प न कर चली आई। बस, कसा ी एक ार मझ
ु े बनवा दो।

पिंडडत—दस
ू रे की चीज ना क मािंग लायी। क ीिं चोरी ो जाए तो ार तो
बनवाना ी पडे, उपर से बदनामी भी ो।
माया—मैं तो कसा ी ार लग
ू ी। २० तोले का ै।

पिंडडत—कफर व ी ज्जद।

माया—जब सभी प नती ैं तो मै ी क्यों न प नूिं?

पिंडडत—सब कुएिं में धगर पडें तो तम


ु भी कुएिं में धगर पडोगी। सोचो तो, इस
वक्त इस ार के बनवाने में ६०० रुपये लगेगे। अगर १ रु० प्रनत सैकडा ब्याज
रखमलया जाय ता – वषग मे ६०० रू० के लगभग १००० रु० ो जायेगें। लेककन ५
वषग में तुम् ारा ार मुज्श्कल से ३०० रू० का र जायेगा। इतना बडा नुकसान
उठाकर ार प नने से क्या सुख? स ार वापस कर दो , भोजन करो और
आराम से पडी र ो। य क ते ु ए पिंडडत जी बा र चले गये।

रात को एकाएक माया ने शोर मचाकर क ा –चोर,चोर, ाय, घर में चोर ,


मुझे घसीटे मलए जाते ैं।

पिंडडत जी कबका कर उठे और बोले –क ा, क ािं? दौडो,दौडो।

माया—मेरी कोठारी में गया ै । मैनें उसकी परछाईं दे खी ।

पिंडडत—लालटे न लाओिं, जरा मेरी लकडी उठा लेना।

माया—मुझसे तो डर के उठा न ीिं जाता।

कई आदमी बा र से बोले—क ािं ै पिंडडत जी, कोई सेंि पडी ै क्या?

माया—न ीिं,न ीिं, खपरै ल पर से उतरे ैं। मेरी नीदिं खुली तो कोई मेरे ऊपर
झुका ुआ था। ाय रे , य तो ार ी ले गया, प ने-प ने सो गई थी। मुए ने
गले से ननकाल मलया । ाय भगवान,

पिंडडत—तुमने ार उतार क्यािं न हदया था?


माया-मै क्या जानती थी कक आज ी य मुसीबत मसर पडने वाली ै , ाय
भगवान ्,

पिंडडत—अब ाय- ाय करने से क्या ोगा? अपने कमों को रोओ। इसीमलए क ा


करता था कक सब घडी बराबर न ीिं जाती, न जाने कब क्या ो जाए। अब
आयी समझ में मेरी बात, दे खो, और कुछ तो न ले गया?

पडोसी लालटे न मलए आ प ुिं च।े घर में कोना –कोना दे खा। कररयािं दे खीिं, छत
पर चढकर दे खा, अगवाडे-वपछवाडे दे खा, शौच ग ृ में झाका, क ीिं चोर का पता न
था।

एक पडोसी—ककसी जानकार आदमी का काम ै।

दस
ू रा पडोसी—बबना घर के भेहदये के कभी चोरी न ीिं ोती। और कुछ तो न ीिं
ले गया?

माया—और तो कुड न ीिं गया। बरतन सब पडे ु ए ैं। सन्दक


ू भी बन्द पडे ै।
ननगोडे को ले ी जाना था तो मेरी चीजें ले जाता । परायी चीज ठ री।
भगवान ् उन् ें कौन मिंु हदखाऊगी।

पिंडडत—अब ग ने का मजा ममल गया न?

माया— ाय, भगवान ्, य अपजस बदा था।

पिंडडत—ककतना समझा के ार गया, तम


ु न मानीिं, न मानीिं। बात की बात में
६००रू० ननकल गए, अब दे खूिं भगवान कैसे लाज रखते ैं।

माया—अभागे मेरे घर का एक-एक नतनका चन


ु ले जाते तो मझ
ु े इतना द:ु ख
न ोता। अभी बेचारी ने नया ी बनावाया था।
पिंडडत—खब
ू मालम
ू ै , २० तोले का था?

माया—२० ी तोले को तो क ती थी?

पिंडडत—बधिया बैठ गई और क्या?

माया—क दिं ग
ू ी घर में चोरी ो गयी। क्या लेगी? अब उनके मलए कोई चोरी
थोडे ी करने जायेगा।

पिंडडत तुम् ारे घर से चीज गयी, तुम् ें दे नी पडेगी। उन् े इससे क्या प्रयोजन
कक चोर ले गया या तम
ु ने उठाकर रख मलया। पनतययेगी ी न ी।

माया –तो इतने रूपये क ािं से आयेगे?

पिंडडत—क ीिं न क ीिं से तो आयेंगे ी,न ीिं तो लाज कैसे र े गी: मगर की तुमने
बडी भूल ।

माया—भगवान ् से मिंगनी की चीज भी न दे खी गयी। मझ


ु े काल ने घेरा था, न ीिं
तो इस घडी भर गले में डाल लेने से कसा कौन-सा बडा सख
ु ममल गया? मै ूिं
ी अभाधगनी।

पिंडडत—अब पछताने और अपने को कोसने से क्या फायदा? चप


ु ो के बैठो,
पडोमसन से क दे ना, घबराओिं न ीिं, तुम् ारी चीज जब तक लौटा न दें गें, तब
तक में चैन न आयेगा।

पिंडडत बालकराम को अब ननत्य ी धचिंता र ने लगी कक ककसी तर ार बने।


यों अगर टाट उलट दे ते तो कोई बात न थी । पडोमसन को सन्तोष ी करना
पडता, ब्राह्मण से डाडिं कौन लेता, ककन्तु पिंडडत जी ब्राह्मणत्व के गौरव को
इतने सस्ते दामों न बेचना चा ते थे। आलस्य छोडिंकर िनोपाजगन में
दत्तधचत्त ो गये।

छ: म ीने तक उन् ोने हदन को हदन और रात को रात न ीिं जाना। दोप र
को सोना छोड हदया, रात को भी ब ु त दे र तक जागते। प ले केवल एक
पाठशाला में पढाया करते थे। इसके मसवा व ब्राह्मण के मलए खल
ु े ु ए एक
सौ एक व्यवसायों में सभी को ननिंदननय समझते थे। अब पाठशाला से आकर
सिंध्या एक जग ‘भगवत ्’ की कथा क ने जाते व ािं से लौट कर ११-१२ बजे
रात तक जन्म किंु डमलयािं, वषग-फल आहद बनाया करते। प्रात:काल मज्न्दर में
‘दग
ु ाग जी का पाठ करते । माया पिंडडत जी का अध्यवसाय दे खकर कभी-कभी
पछताती कक क ािं से मैने य ववपज्त्त मसर पर लीिं क ीिं बीमार पड जायें
तो लेने के दे ने पडे। उनका शरीर क्षीण ोते दे खकर उसे अब य धचनता
व्यधथत करने जगी। य ािं तक कक पािंच म ीने गुजर गये।

एक हदन सिंध्या समय व हदया-बज्त्त करने जा र ी थी कक पिंडडत जी आये ,


जेब से पडु डया ननकाल कर उसके सामने फेंक दी और बोले—लो, आज तम्
ु ारे
ऋण से मुक्त ो गया।

माया ने पडु डया खोली तो उसमें सोने का ार था, उसकी चमक-दमक, उसकी
सुन्दर बनावट दे खकर उसके अन्त:स्थल में गुदगदी –सी ोने लगी । मुख पर
आन्नद की आभा दौड गई। उसने कातर नेत्रों से दे खकर पूछा—खुश ो कर
दे र े ो या नाराज ोकर1.

पिंडडत—इससे क्या मतलब? ऋण तो चुकाना ी पडेगा, चा े खुशी ो या


नाखुशी।

माया—य ऋण न ीिं ै।

पिंडडत—और क्या ै , बदला स ी।


माया—बदला भी न ीिं ै।

पिंडडत कफर क्या ै।

माया—तुम् ारी ..ननशानी?

पिंडडत—तो क्या ऋण के मलए कोई दस


ू रा ार बनवाना पडेगा?

माया—न ीिं-न ीिं, व ार चोरी न ीिं गया था। मैनें झठ


ू -मठ
ू शोर मचाया था।

पिंडडत—सच?

माया— ािं, सच क ती ूिं ।

पिंडडत—मेरी कसम?

माया—तुम् ारे चरण छूकर क ती ूिं ।

पिंडडत—तो तमने मुझसे कौशल ककया था?

माया- ािं?

पिंडडत—तुम् े मालूम ै , तुम् ारे कौशल का मुझे क्या मूल्य दे ना पडा।

माया—क्या ६०० रु० से ऊपर?

पिंडडत—ब ु त ऊपर? इसके मलए मझ


ु े अपने आत्मस्वातिंत्रय को बमलदान करना
पडा।

***
स्त्िर्ग की दे िी

भाग्य की बात ! शादी वववा में आदमी का क्या अज्ख्तयार । ज्जससे ईश्वर
ने, या उनके नायबों –ब्रह्मण—ने तय कर दी, उससे ो गयी। बाबू भारतदास
ने लीला के मलए सुयोग्य वर खोजने में कोई बात उठा न ी रखी। लेककन जैसा
घर-घर चा ते थे, वैसा न पा सके। व लडकी को सख
ु ी दे खना चा ते थे,
जैसा र एक वपता का िमग ै ; ककिं तु इसके मलए उनकी समझ में सम्पज्त्त ी
सबसे जरूरी चीज थी। चररत्र या मशक्षा का स्थान गौण था। चररत्र तो ककसी के
माथे पर मलखा न ी र ता और मशक्षा का आजकल के जमाने में मूल्य ी क्या
? ािं, सम्पज्त्त के साथ मशक्षा भी ो तो क्या पूछना ! कसा घर ब ु त ढढा पर
न ममला तो अपनी ववरादरी के न थे। बबरादरी भी ममली, तो जायजा न ममला!;
जायजा भी ममला तो शते तय न ो सकी। इस तर मजबरू ोकर
भारतदास को लीला का वववा लाला सन्तसरन के लडके सीतासरन से करना
पडा। अपने बाप का इकलौता बेटा था, थोडी ब ु त मशक्षा भी पायी थी,
बातचीत सलीके से करता था, मामले-मुकदमें समझता था और जरा हदल का
रिं गीला भी था । सबसे बडी बात य थी कक रूपवान, बमलष्ठ, प्रसन्न मुख,
सा सी आदमी था ; मगर ववचार व ी बाबा आदम के जमाने के थे। पुरानी
ज्जतनी बाते ै , सब अच्छी ; नयी ज्जतनी बातें ै , सब खराब ै । जायदाद के
ववषय में जमीिंदार सा ब नये -नये दफों का व्यव ार करते थे, व ािं अपना कोई
अज्ख्तयार न था ; लेककन सामाज्जक प्रथाओिं के कटटर पक्षपाती थे। सीतासरन
अपने बाप को जो करते या क ते व ी खुद भी क ता था। उसमें खुद सोचने
की शज्क्त ी न थी। बुद्वव की मिंदता ब ु िा सामाज्जक अनुदारता के रूप में
प्रकट ोती ै।

लीला ने ज्जस हदन घर में व वॉँ रखा उसी हदन उसकी परीक्षा शुरू ु ई। वे सभी
काम, ज्जनकी उसके घर में तारीफ ोती थी य ािं वज्जगत थे। उसे बचपन से
ताजी वा पर जान दे ना मसखाया गया था, य ािं उसके सामने मिंु खोलना भी
पाप था। बचपन से मसखाया गया था रोशनी ी जीवन ै , य ािं रोशनी के
दशगन दभ
ु भ
ग थे। घर पर अह स
िं ा, क्षमा और दया ईश्वरीय गुण बताये गये थे,
य ािं इनका नाम लेने की भी स्वािीनता थी। सिंतसरन बडे तीखे , गुस्सेवर आदमी
थे, नाक पर मक्खी न बैठने दे त।े िूतत
ग ा और छल-कपट से ी उन् ोने
जायदाद पैदा की थी। और उसी को सफल जीवन का मिंत्र समझते थे। उनकी
पत्नी उनसे भी दो अिंगल
ु ऊिंची थीिं। मजाल क्या ै कक ब ू अपनी अिंिेरी
कोठरी के द्वार पर खडी ो जाय, या कभी छत पर ट ल सकें । प्रलय आ
जाता, आसमान मसर पर उठा लेती। उन् ें बकने का मजग था। दाल में नमक का
जरा तेज ो जाना उन् ें हदन भर बकने के मलए काफी ब ाना था । मोटी-
ताजी मह ला थी, छीिंट का घाघरे दार लिं गा प ने, पानदान बगल में रखे, ग नो
से लदी ु ई, सारे हदन बरोठे में माची पर बैठी र ती थी। क्या मजाल कक घर
में उनकी इच्छा के ववरूद्व एक पत्ता भी ह ल जाय ! ब ू की नयी-नयी आदतें
दे ख दे ख जला करती थी। अब का े की आबरू ोगी। मुिंडरे पर खडी ो कर
झािंकती ै । मेरी लडकी कसी दीदा-हदलेर ोती तो गला घोंट दे ती। न जाने
इसके दे श में कौन लोग बसते ै ! ग नें न ी प नती। जब दे खो निंगी-बुच्ची
बनी बैठी र ती ै। य भी कोई अच्छे लच्छन ै । लीला के पीछे सीतासरन पर
भी ॉँ
फटकार पडती। तुझे भी च दनी में सोना अच्छा लगता ै , क्यों ? तू भी
अपने को मदग क ता क े गा ? य मदग कैसा कक औरत उसके क ने में न र े ।
हदन-भर घर में घुसा र ता ै । मुिं में जबान न ी ै ? समझता क्यों न ी ?

सीतासरन क ता---अम्मािं, जब कोई मेरे समझाने से माने तब तो?

मािं---मानेगी क्यो न ी, तू मदग ै कक न ी ? मदग व चाह ए कक कडी ननगा से


दे खे तो औरत कािंप उठे ।

सीतासरन -----तुम तो समझाती ी र ती ो ।


मािं ---मेरी उसे क्या परवा ? समझती ोगी, बहु ढया चार हदन में मर जायगी
तब मैं मालककन ो ी जाउाँ गी

सीतासरन --- तो मैं भी तो उसकी बातों का जबाब न ी दे पाता। दे खती न ी ो


ककतनी दब
ु ल
ग ो गयी ै। व रिं ग ी न ी र ा। उस कोठरी में पडे-पडे उसकी
दशा बबगडती जाती ै।

बेटे के मुिं से कसी बातें सुन माता आग ो जाती और सारे हदन जलती; कभी
भाग्य को कोसती, कभी समय को।

सीतासरन माता के सामने तो कसी बातें करता ; लेककन लीला के सामने जाते
ी उसकी मनत बदल जाती थी। व व ी बातें करता था जो लीला को अच्छी
लगती। य ािं तक कक दोनों वद्
ृ वा की िं सी उडातें । लीला को इस में ओर
कोई सख
ु न था । व सारे हदन कुढती र ती। कभी चल्
ू े के सामने न बैठी
थी ; पर य ािं पसेररयों आटा थेपना पडता, मजूरों और ट लुओिं के मलए रोटी
पकानी पडती। कभी-कभी व चूल् े के सामने बैठी घिंटो रोती। य बात न थी
कक य लोग कोई म ाराज-रसोइया न रख सकते ो; पर घर की पुरानी प्रथा
य ी थी कक ब ू खाना पकाये और उस प्रथा का ननभाना जरूरी था। सीतासरन
को दे खकर लीला का सिंतप्त ह्रदय एक क्षण के मलए शान्त ो जाता था।

गमी के हदन थे और सन्ध्या का समय था। बा र वा चलती, भीतर दे फुकती


थी। लीला कोठरी में बैठी एक ककताब दे ख र ी थी कक सीतासरन ने आकर
क ा--- य ािं तो बडी गमी ै , बा र बैठो।

लीला—य गमी तो उन तानो से अच्छी ै जो अभी सुनने पडेगे।

सीतासरन—आज अगर बोली तो मैं भी बबगड जाऊिंगा।

लीला—तब तो मेरा घर में र ना भी मज्ु श्कल ो जायेगा।


सीतासरन—बला से अलग ी र ें गे !

लीला—मैं मर भी लाऊिं तो भी अलग र ूिं । व जो कुछ क ती सुनती ै , अपनी


समझ से मेरे भले ी के मलए क ती-सुनती ै । उन् ें मुझसे कोई दश्ु मनी
थोडे ी ै। ािं, में उनकी बातें अच्छी न लगें , य दस
ू री बात ै ।उन् ोंने खद

व सब कष्ट झेले ै , जो व मझ
ु े झेलवाना चा ती ै। उनके स्वास्र्थय पर
उन कष्टो का जरा भी असर न ी पडा। व इस ६५ वषग की उम्र में मुझसे क ीिं
टािंठी ै । कफर उन् ें कैसे मालम
ू ो कक इन कष्टों से स्वास्र्थय बबगड सकता ै।

सीतासरन ने उसके मरु झाये ु ए मख


ु की ओर करुणा नेत्रों से दे ख कर क ा—
तुम् ें इस घर में आकर ब ु त द:ु ख स ना पडा। य घर तुम् ारे योग्य न था।
तुमने पूवग जन्म में जरूर कोई पाप ककया ोगा।

लीला ने पनत के ाथो से खेलते ु ए क ा—य ािं न आती तो तम्


ु ारा प्रेम कैसे
पाती ?

पािंच साल गज
ु र गये। लीला दो बच्चों की मािं ो गयी। एक लडका था, दस
ू री
लडकी । लडके का नाम जानकीसरन रखा गया और लडकी का नाम काममनी।
दोनो बच्चे घर को गुलजार ककये र ते थे। लडकी लडकी दादा से ह ली थी,
लडका दादी से । दोनों शोख और शरीर थें। गाली दे बैठ ना, मुिं धचढा दे ना तो
उनके मलए मामूली बात थी। हदन-भर खाते और आये हदन बीमार पडे र ते।
लीला ने खुद सभी कष्ट स मलये थे पर बच्चों में बुरी आदतों का पडना उसे
ब ुत बरु ा मालम
ू ोता था; ककन्तु उसकी कौन सन
ु ता था। बच्चों की माता
ोकर उसकी अब गणना ी न र ी थी। जो कुछ थे बच्चे थे, व कुछ न थी।
उसे ककसी बच्चे को डाटने का भी अधिकार न था, सािंस फाड खाती थी।
सबसे बडी आपज्त्त य थी कक उसका स्वास्र्थय अब और भी खराब ो गया था।
प्रसब काल में उसे वे भी अत्याचार स ने पडे जो अज्ञान, मख
ू त
ग ा और अिंि
ववश्वास ने सौर की रक्षा के मलए गढ रखे ै । उस काल-कोठरी में, ज ॉँ न
वा का गुजर था, न प्रकाश का, न सफाई का, चारों और दग
ु न्
ग ि, और सील
और गन्दगी भरी ु ई थी, उसका कोमल शरीर सूख गया। एक बार जो कसर
र गयी व दस
ू री बार पूरी ो गयी। चे रा पीला पड गया, आिंखे घिंस गयीिं। कसा
मालूम ोता, बदन में खन
ू ी न ी र ा। सरू त ी बदल गयी।

गममगयों के हदन थे। एक तरफ आम पके, दस


ू री तरफ खरबूजे । इन दोनो फलो
की कसी अच्छी फसल कभी न ु ई थी अबकी इनमें इतनी ममठास न जाने
क ा से आयी थी कक ककतना ी खाओ मन न भरे । सिंतसरन के इलाके से
आम औरी खरबज
ू े के टोकरे भरे चले आते थे। सारा घर खब
ू उछल-उछल
खाताथा। बाबू सा ब पुरानी ड्डी के आदमी थे। सबेरे एक सैकडे आमों का
नाश्ता करते, कफर पसेरी-भर खरबूज चट कर जाते। मालककन उनसे पीछे र ने
वाली न थी। उन् ोने तो एक वक्त का भोजन ी बन्द कर हदया। अनाज
सडने वाली चीज न ी। आज न ी कल खचग ो जायेगा। आम और खरबूजे
तो एक हदन भी न ी ठ र सकते। शुदनी थी और क्या। यों ी र साल दोनों
चीजों की रे ल-पेल ोती थी; पर ककसी को कभी कोई मशकायत न ोती थी।
कभी पेट में धगरानी मालूम ु ई तो ड की फिंकी मार ली। एक हदन बाबू
सिंतसरन के पेट में मीठा-मीठा ददग ोने लगा। आपने उसकी परवा न की ।
आम खाने बैठ गये। सैकडा पूरा करके उठे ी थे कक कै ु ई । धगर पडे कफर तो
नतल-नतल करके पर कै और दस्त ोने लगे। ै जा ो गया। श र के डाक्टर
बल
ु ाये गये, लेककन आने के प ले ी बाबू सा ब चल बसे थे। रोना-पीटना
मच गया। सिंध्या ोते- ोते लाश घर से ननकली। लोग दा -कक्रया करके आिी
रात को लौटे तो मालककन को भी कै दस्त ो र े थे। कफर दौड िूप शुरू

ु ई; लेककन सूयग ननकलते-ननकलते व भी मसिार गयी। स्त्री-पुरूष जीवनपयंत


एक हदन के मलए भी अलग न ु ए थे। सिंसार से भी साथ ी साथ गये , सूयागस्त
के समय पनत ने प्रस्थान ककया, सूयोदय के समय पत्नी ने ।
लेककन मुशीबत का अभी अिंत न ु आ था। लीला तो सिंस्कार की तैयाररयों मे
लगी थी; मकान की सफाई की तरफ ककसी ने ध्यान न हदया। तीसरे हदन दोनो
बच्चे दादा-दादी के मलए रोते-रोते बैठक में जा पिं ु चे। व ािं एक आले का
खरबज
ू ज कटा ु आ पडा था; दो-तीन कलमी आम भी रखे थे। इन पर मज्क्खयािं
मभनक र ी थीिं। जानकी ने एक नतपाई पर चढ कर दोनों चीजें उतार लीिं
और दोंनों ने ममलकर खाई। शाम ोत- ोते दोनों को ै जा ो गया और दोंनो
मािं-बाप को रोता छोड चल बसे। घर में अिंिेरा ो गया। तीन हदन प ले ज ािं
चारों तरफ च ल-प ल थी, व ािं अब सन्नाटा छाया ु आ था, ककसी के रोने की
आवाज भी सुनायी न दे ती थी। रोता ी कौन ? ले-दे के कुल दो प्राणी र गये
थे। और उन् ें रोने की सधु ि न थी।

लीला का स्वास्र्थय प ले भी कुछ अच्छा न था, अब तो व और भी बेजान ो


गयी। उठने-बैठने की शज्क्त भी न र ी। रदम खोयी सी र ती, न कपडे-लत्ते
की सुधि थी, न खाने-पीने की । उसे न घर से वास्ता था, न बा र से । ज ािं
बैठती, व ी बैठी र जाती। म ीनों कपडे न बदलती, मसर में तेल न डालती बच्चे
ी उसके प्राणो के आिार थे। जब व ी न र े तो मरना और जीना बराबर
था। रात-हदन य ी मनाया करती कक भगवान ् य ािं से ले चलो । सख
ु -द:ु ख सब
भग
ु त चक
ु ी। अब सख
ु की लालसा न ी ै ; लेककन बल
ु ाने से मौत ककसी को
आयी ै ?

सीतासरन भी प ले तो ब ु त रोया-िोया; य ािं तक कक घर छोडकर भागा जाता


था; लेककन जयों-जयो हदन गज
ु रते थे बच्चों का शोक उसके हदल से ममटता था;
सिंतान का द:ु ख तो कुछ माता ी को ोता ै । िीरे -िीरे उसका जी सिंभल
ॉँ ममत्रों के
गया। प ले की भ नत साथ िं सी-हदल्लगी ोने लगी। यारों ने और
भी चिंग पर चढाया । अब घर का मामलक था, जो चा े कर सकता था, कोई
उसका ाथ रोकने वाला न ी था। सैर’-सपाटे करने लगा। तो लीला को रोते दे ख
उसकी आिंखे सजग ो जाती थीिं, क ािं अब उसे उदास और शोक-मग्न दे खकर
झुिंझला उठता। ज्जिंदगी रोने ी के मलए तो न ी ै । ईश्वर ने लडके हदये थे ,
ईश्वर ने ी छीन मलये। क्या लडको के पीछे प्राण दे दे ना ोगा ? लीला य
बातें सुनकर भौंचक र जाती। वपता के मुिं से कसे शब्द ननकल सकते ै।
सिंसार में कसे प्राणी भी ै।

ोली के हदन थे। मदागना में गाना-बजाना ो र ा था। ममत्रों की दावत का


भी सामान ककया गया था । अिंदर लीला जमीिंन पर पडी ु ई रो र ी थी त्या ोर
के हदन उसे रोते ी कटते थें आज बच्चे बच्चे ोते तो अच्छे - अच्छे कपडे
प ने कैसे उछलते कफरते! व ी न र े तो क ािं की तीज और क ािं के
त्यो ार।

स सा सीतासरन ने आकर क ा – क्या हदन भर रोती ी र ोगी ? जरा कपडे


तो बदल डालो , आदमी बन जाओ । य क्या तम
ु ने अपनी गत बना रखी ै ?

लीला—तुम जाओ अपनी म कफल मे बैठो, तुम् े मेरी क्या कफक्र पडी ै।

सीतासरन—क्या दनु नया में और ककसी के लडके न ी मरते ? तुम् ारे ी मसर पर
मुसीबत आयी ै ?

लीला—य बात कौन न ी जानता। अपना-अपना हदल ी तो ै । उस पर ककसी


का बस ै ?

सीतासरन मेरे साथ भी तो तम्


ु ारा कुछ कतगव्य ै ?

लीला ने कुतू ल से पनत को दे खा, मानो उसका आशय न ी समझी। कफर मुिं
फेर कर रोने लगी।
सीतासरन – मै अब इस मन ू सत का अन्त कर दे ना चा ता ूिं । अगर तम्
ु ारा
अपने हदल पर काबू न ी ै तो मेरा भी अपने हदल पर काबू न ी ै । मैं अब
ज्जिंदगी – भर मातम न ी मना सकता।

लीला—तम
ु रिं ग-राग मनाते ो, मैं तम्
ु ें मना तो न ी करती ! मैं रोती ूिं तो क्यिंू
न ी रोने दे त।े
सीतासरन—मेरा घर रोने के मलए न ी ै ?

लीला—अच्छी बात ै , तम्


ु ारे घर में न रोउिं गी।

लीला ने दे खा, मेरे स्वामी मेरे ाथ से ननकले जा र े ै । उन पर ववषय का भूत


सवार ो गया ै और कोई समझाने वाला न ीिं। व अपने ोश मे न ी ै । मैं
क्या करुिं , अगर मैं चली जाती ूिं तो थोडे ी हदनो में सारा ी घर ममट्टी में
ममल जाएगा और इनका व ी ाल ोगा जो स्वाथी ममत्रो के चिंग
ु ल में
फिंसे ु ए नौजवान रईसों का ोता ै । कोई कुलटा घर में आ जाएगी और
इनका सवगनाश कर दे गी। ईश्वा ! मैं क्या करूिं ? अगर इन् ें कोई बीमारी ो
जाती तो क्या मैं उस दशा मे इन् ें छोडकर चली जाती ? कभी न ी। मैं तन
मन से इनकी सेवा-सुश्रूषा करती, ईश्वर से प्राथगना करती, दे वताओिं की
मनौनतयािं करती। माना इन् ें शारीररक रोग न ी ै , लेककन मानमसक रोग
अवश्य ै । आदमी रोने की जग िं से और िं सने की जग रोये, उसके दीवाने
ोने में क्या सिंदे ै ! मेरे चले जाने से इनका सवगनाश ो जायेगा। इन् ें
बचाना मेरा िमग ै ।

ािं, मझ
ु ें अपना शोक भल
ू जाना ोगा। रोऊिंगी, रोना तो तकदीर में मलखा ी
ै —रोऊिंगी, लेककन िं स- िं स कर । अपने भाग्य से लडूग
िं ी। जो जाते र े उनके
नाम के मसवा और कर ी क्या सकती ूिं , लेककन जो ै उसे न जाने दिं ग
ू ी। आ, क
टूटे ु ए ह्रदय ! आज तेरे टुकडों को जमा करके एक समाधि बनाऊिं और अपने
शोक को उसके वाले कर दिं ।ू ओ रोने वाली आिंखों, आओ, मेरे आसिंओ
ु िं को अपनी
वव िं मसत छटा में नछपा लो। आओ, मेरे आभष
ू णों, मैंने ब ु त हदनों तक तम्
ु ारा
अपमान ककया ै , मेरा अपराि क्षमा करो। तुम मेरे भले हदनो के साक्षी ो,
तुमने मेरे साथ ब ु त वव ार ककए ै , अब इस सिंकट में मेरा साथ दो ; मगर
दे खो दगा न करना ; मेरे भेदों को नछपाए रखना।

वपछले प र को प कफल में सन्नाटा ो गया। ू - ा की आवाजें बिंद ो गयी।


लीला नेसोचा क्या लोग क ी चले गये , या सो गये ? एकाएक सन्नाटा क्यों छा
गया। जाकर द लीज में खडी ो गयी और बैठक में झािंककर दे खा, सारी दे
में एक जवाला-सी दौड गयी। ममत्र लोग ववदा ो गये थे। समाज्जयो का पता न
था। केवल एक रमणी मसनद पर लेटी ु ई थी और सीतासरन सामने झक
ु ा

ु आ उससे ब ु त िीरे -िीरे बातें कर र ा था। दोनों के चे रों और आिंखो से उनके


मन के भाव साफ झलक र े थे। एक की आिंखों में अनुराग था, दस
ू री की आिंखो
में कटाक्ष ! एक भोला-भोला ह्रदय एक मायाववनी रमणी के ाथों लुटा जाता
था। लीला की सम्पज्त्त को उसकी आिंखों के सामने एक छमलनी चुराये
जाती थी। लीला को कसा क्रोि आया कक इसी समय चलकर इस कुल्टा को आडे
ाथों लिंू, कसा दत्ु कारूिं व भी याद करें , खडे-,खडे ननकाल दिं ।ू व पत्नी भाव जो
ब ु त हदनो से सो र ा था, जाग उठा और ववकल करने लगा। पर उसने जब्त
ककया। वेग में दौडती ु ई तष्ृ णाएिं अक्समात ् न रोकी जा सकती थी। व उलटे
पािंव भीतर लौट आयी और मन को शािंत करके सोचने लगी—व रूप रिं ग में ,
ाव-भाव में, नखरे -नतल्ले में उस दष्ु टा की बराबरी न ी कर सकती। बबलकुल
चािंद का टुकडा ै , अिंग-अिंग में स्फूनतग भरी ु ई ै , पोर-पोर में मद छलक र ा
ै । उसकी आिंखों में ककतनी तष्ृ णा ै । तष्ृ णा न ी, बज्ल्क जवाला ! लीला उसी
वक्त आइने के सामने गयी । आज कई म ीनो के बाद उसने आइने में
अपनी सूरत दे खी। उस मुख से एक आ ननकल गयी। शोक न उसकी
कायापलट कर दी थी। उस रमणी के सामने व कसी लगती थी जैसे गुलाब के
सामने जू ी का फूल
6

सीतासरन का खम
ु ार शाम को टूटा । आखें खल
ु ीिं तो सामने लीला को खडे
मस्
ु कराते दे खा। उसकी अनोखी छवव आिंखों में समा गई। कसे खश
ु ु ए मानो
ब ु त हदनो के ववयोग के बाद उससे भें ट ु ई ो। उसे क्या मालूम था कक य
रुप भरने के मलए ककतने आिंसू ब ाये ै ; कैशों मे य फूल गूिंथने के प ले आिंखों
में ककतने मोती वपरोये ै । उन् ोनें एक नवीन प्रेमोत्सा से उठकर उसे गले
लगा मलया और मुस्कराकर बोले—आज तो तुमने बडे-बडे शास्त्र सजा रखे ै,
क ािं भागिंू ?

लीला ने अपने ह्रदय की ओर उिं गली हदखकर क ा –-य ा आ बैठो ब ु त भागे


कफरते ो, अब तुम् ें बािंिकर रखूगीिं । बाग की ब ार का आनिंद तो उठा चुके,
अब इस अिंिेरी कोठरी को भी दे ख लो।

सीतासरन ने जज्जजत ोकर क ा—उसे अिंिेरी कोठरी मत क ो लीला व प्रेम


का मानसरोवर ै !

इतने मे बा र से ककसी ममत्र के आने की खबर आयी। सीताराम चलने लगे तो


लीला ने ाथ उनका पकडकर ाथ क ा—मैं न जाने दिं ग
ू ी।

सीतासरन-- अभी आता ूिं ।

लीला—मझ
ु े डर ै क ीिं तम
ु चले न जाओ।

सीतासरन बा र आये तो ममत्र म ाशय बोले –आज हदन भर सोते ो क्या ?


ब ु त खुश नजर आते ो। इस वक्त तो व ािं चलने की ठ री थी न ?
तम्
ु ारी रा दे ख र ी ै।

सीतासरन—चलने को तैयार ूिं , लेककन लीला जाने न ीिं दे गीिं।


ममत्र—ननरे गाउदी ी र े । आ गए कफर बीवी के पिंजे में ! कफर ककस बबरते पर
गरमाये थे ?

सीतासरन—लीला ने घर से ननकाल हदया था, तब आश्रय ढूढता – कफरता था।


अब उसने द्वार खोल हदये ै और खडी बल
ु ा र ी ै।

ममत्र—आज व आनिंद क ािं ? घर को लाख सजाओ तो क्या बाग ो जायेगा ?

सीतासरन—भई, घर बाग न ी ो सकता, पर स्वगग ो सकता ै । मुझे इस वक्त


अपनी क्षद्रता पर ज्जतनी लजजा आ र ी ै, व मैं ी जानता ूिं । ज्जस सिंतान
शोक में उसने अपने शरीर को घुला डाला और अपने रूप-लावण्य को ममटा
हदया उसी शोक को केवल मेरा एक इशारा पाकर उसने भुला हदया। कसा भुला
हदया मानो कभी शोक ु आ ी न ी ! मैं जानता ूिं व बडे से बडे कष्ट
स सकती ै । मेरी रक्षा उसके मलए आवश्यक ै । जब अपनी उदासीनता के
कारण उसने मेरी दशा बबगडते दे खी तो अपना सारा शोक भल
ू गयी। आज मैंने
उसे अपने आभूषण प नकर मुस्कराते ुिं ए दे खा तो मेरी आत्मा पुलककत ो
उठी । मुझे कसा मालूम ो र ा ै कक व स्वगग की दे वी ै और केवल मुझ
जैसे दब
ु ल
ग प्राणी की रक्षा करने भेजी गयी ै । मैने उसे कठोर शब्द क े , वे अगर
अपनी सारी सम्पज्त्त बेचकर भी ममल सकते, तो लौटा लेता। लीला वास्तव में
स्वगग की दे वी ै!

***
आधार

सारे ग वॉँ मे मथुरा का सा गठीला जवान न था। कोई बीस बरस की उमर थी ।
मसें भीग र ी थी। गउएिं चराता, दि
ू पीता, कसरत करता, कुश्ती लडता था और
सारे हदन बािंसुरी बजाता ाट मे ववचरता था। ब्या ो गया था, पर अभी
कोई बाल-बच्चा न था। घर में कई ल की खेती थी, कई छोटे -बडे भाई थे। वे

ु कर खेती-बारी करते थे। मथरु ा पर सारे ग वॉँ को गवग था, जब उसे


सब ममलचल
ॉँ
ज नघये -लिंगोटे , नाल या मुग्दर के मलए रूपये-पैसे की जरूरत पडती तो तुरन्त दे
हदये जाते थे। सारे घर की य ी अमभलाषा थी कक मथुरा प लवान ो जाय
और अखाडे मे अपने सवाये को पछाडे। इस लाड – प्यार से मथुरा जरा टराग ो
गया था। गायें ककसी के खेत मे पडी ै और आप अखाडे मे दिं ड लगा र ा ै।
कोई उला ना दे ता तो उसकी त्योररयािं बदल जाती। गरज कर क ता, जो मन मे
आये कर लो, मथरु ा तो अखाडा छोडकर ािंकने न जायेंगे ! पर उसका डील-डौल
दे खकर ककसी को उससे उलझने की ह म्मत न पडती । लोग गम खा जाते

ू ी पडी थी। जोरों की लू चलने लगी थी। ग वॉँ


गममगयो के हदन थे, ताल-तलैया सख
में क ीिं से एक सािंड आ ननकला और गउओिं के साथ ो मलया। सारे हदन
गउओिं के साथ र ता, रात को बस्ती में घुस आता और खट
ूिं ो से बिंिे बैलो को
सीिंगों से मारता। कभी-ककसी की गीली दीवार को सीिंगो से खोद डालता, घर का
कूडा सीिंगो से उडाता। कई ककसानो ने साग-भाजी लगा रखी थी, सारे हदन
सीिंचते-सीिंचते मरते थे। य सािंड रात को उन रे -भरे खेतों में प ुिं च जाता और
खेत का खेत तबा कर दे ता । लोग उसे डिंडों से मारते, ग वॉँ के बा र भगा
आते, लेककन जरा दे र में गायों में प ुिं च जाता। ककसी की अक्ल काम न करती
थी कक इस सिंकट को कैसे टाला जाय। मथुरा का घर गािंव के बीच मे था,
इसमलए उसके खेतो को सािंड से कोई ानन न प ुिं चती थी। गािंव में उपद्रव मचा

ुआ था और मथुरा को जरा भी धचन्ता न थी।


आखखर जब िैयग का अिंनतम बिंिन टूट गया तो एक हदन लोगों ने जाकर मथरु ा
को घेरा और बौले—भाई, क ो तो गािंव में र ें , क ीिं तो ननकल जाएिं । जब
खेती ी न बचेगी तो र कर क्या करे गें .? तुम् ारी गायों के पीछे मारा
सत्यानाश ु आ जाता ै , और तुम अपने रिं ग में मस्त ो। अगर भगवान ने
तुम् ें बल हदया ै तो इससे दस
ू रो की रक्षा करनी चाह ए, य न ी कक
सबको पीस कर पी जाओ । सािंड तुम् ारी गायों के कारण आता ै और उसे
भगाना तम्
ु ारा काम ै ; लेककन तम
ु कानो में तेल डाले बैठे ो, मानो तम
ु से
कुछ मतलब ी न ी।

मथुरा को उनकी दशा पर दया आयी। बलवान मनुष्य प्राय: दयालु ोता ै।
बोला—अच्छा जाओ, म आज सािंड को भगा दें गे।

एक आदमी ने क ा—दरू तक भगाना, न ी तो कफर लोट आयेगा।

मथुरा ने किंिे पर लाठी रखते ु ए उत्तर हदया—अब लौटकर न आयेगा।

धचलधचलाती दोप री थी। मथुरा सािंड को भगाये मलए जाता था। दोंनो पसीने से
तर थे। सािंड बार-बार गािंव की ओर घूमने की चेष्टा करता, लेककन मथुरा उसका
इरादा ताडकर दरू ी से उसकी रा छें क लेता। सािंड क्रोि से उन्मत्त ोकर
कभी-कभी पीछे मड
ु कर मथरु ा पर तोड करना चा ता लेककन उस समय मथरु ा
सामाना बचाकर बगल से ताबड-तोड इतनी लाहठयािं जमाता कक सािंड को
कफर भागना पडता कभी दोनों अर र के खेतो में दौडते, कभी झाडडयों में ।
अर र की खूहटयों से मथुरा के पािंव ल ू -लु ान ो र े थे, झाडडयों में िोती फट
गई थी, पर उसे इस समय सािंड का पीछा करने के मसवा और कोई सुि न थी।
गािंव पर गािंव आते थे और ननकल जाते थे। मथुरा ने ननश्चय कर मलया कक
इसे नदी पार भगाये बबना दम न लिंग
ू ा। उसका किंठ सख
ू गया था और आिंखें
लाल ो गयी थी, रोम-रोम से धचनगाररयािं सी ननकल र ी थी, दम उखड गया
था ; लेककन व एक क्षण के मलए भी दम न लेता था। दो ढाई घिंटो के बाद
जाकर नदी आयी। य ी ार-जीत का फैसला ोने वाला था, य ी से दोनों
खखलाडडयों को अपने दािंव-पें च के जौ र हदखाने थे। सािंड सोचता था, अगर नदी
में उतर गया तो य मार ी डालेगा, एक बार जान लडा कर लौटने की कोमशश
करनी चाह ए। मथुरा सोचता था, अगर व लौट पडा तो इतनी मे नत व्यथग ो
जाएगी और गािंव के लोग मेरी िं सी उडायेगें। दोनों अपने – अपने घात में थे।
सािंड ने ब ु त चा ा कक तेज दौडकर आगे ननकल जाऊिं और व ािं से पीछे को
कफरूिं, पर मथुरा ने उसे मुडने का मौका न हदया। उसकी जान इस वक्त
सुई की नोक पर थी, एक ाथ भी चूका और प्राण भी गए, जरा पैर कफसला और
कफर उठना नशीब न ोगा। आखखर मनुष्य ने पशु पर ववजय पायी और सािंड
को नदी में घुसने के मसवाय और कोई उपाय न सूझा। मथुरा भी उसके पीछे
नदी मे पैठ गया और इतने डिंडे लगाये कक उसकी लाठी टूट गयी।

अब मथुरा को जोरो से प्यास लगी। उसने नदी में मुिं लगा हदया और इस तर
ौंक- ौंक कर पीने लगा मानो सारी नदी पी जाएगा। उसे अपने जीवन में
कभी पानी इतना अच्छा न लगा था और न कभी उसने इतना पानी पीया
था। मालूम न ी, पािंच सेर पी गया या दस सेर लेककन पानी गरम था, प्यास
न बुिंझी; जरा दे र में कफर नदी में मुिं लगा हदया और इतना पानी पीया कक
पेट में सािंस लेने की जग भी न र ी। तब गीली िोती किंिे पर डालकर घर
की ओर चल हदया।

लेककन दस की पािंच पग चला ोगा कक पेट में मीठा-मीठा ददग ोने लगा।
उसने सोचा, दौड कर पानी पीने से कसा ददग अकसर ो जाता ै , जरा दे र में दरू
ो जाएगा। लेककन ददग बढने लगा और मथुरा का आगे जाना कहठन ो
गया। व एक पेड के नीचे बैठ गया और ददग से बैचन
े ोकर जमीन पर
लोटने लगा। कभी पेट को दबाता, कभी खडा ो जाता कभी बैठ जाता, पर ददग
बढता ी जाता था। अन्त में उसने जोर-जोर से करा ना और रोना शुरू ककया;
पर व ािं कौन बैठा था जो, उसकी खबर लेता। दरू तक कोई गािंव न ी, न आदमी
न आदमजात। बेचारा दोप री के सन्नाटे में तडप-तडप कर मर गया। म
कडे से कडा घाव स सकते ै लेककन जरा सा-भी व्यनतक्रम न ी स सकते।
व ी दे व का सा जवान जो कोसो तक सािंड को भगाता चला आया था, तत्वों
के ववरोि का एक वार भी न स सका। कौन जानता था कक य दौड उसके
मलए मौत की दौड ोगी ! कौन जानता था कक मौत ी सािंड का रूप िरकर
उसे यों नचा र ी ै । कौरन जानता था कक जल ज्जसके बबना उसके प्राण
ओठों पर आ र े थे, उसके मलए ववष का काम करे गा।

सिंध्या समय उसके घरवाले उसे ढूिंढते ु ए आये। दे खा तो व अनिंत ववश्राम में
मग्न था।

एक म ीना गुजर गया। गािंववाले अपने काम-ििंिे में लगे । घरवालों ने रो-िो
कर सब्र ककया; पर अभाधगनी वविवा के आिंसू कैसे पिंछ
ु ते । व रदम रोती
र ती। आिंखे चािं े बन्द भी ो जाती, पर ह्रदय ननत्य रोता र ता था। इस घर
में अब कैसे ननवाग ोगा? ककस आिार पर ज्जऊिंगी? अपने मलए जीना या तो
म ात्माओिं को आता ै या लम्पटों ी को । अनूपा को य कला क्या मालूम?
उसके मलए तो जीवन का एक आिार चाह ए था, ज्जसे व अपना सवगस्व
समझे, ज्जसके मलए व मलये, ज्जस पर व घमिंड करे । घरवालों को य
गवारा न था कक व कोई दस
ू रा घर करे । इसमें बदनामी थी। इसके मसवाय
कसी सुशील, घर के कामों में कुशल, लेन-दे न के मामलो में इतनी चतुर और रिं ग
रूप की कसी सरा नीय स्त्री का ककसी दस
ू रे के घर पड जाना ी उन् ें
असह्रय था। उिर अनूपा के मैककवाले एक जग बातचीत पक्की कर र े थे।
जब सब बातें तय ो गयी, तो एक हदन अनूपा का भाई उसे ववदा कराने आ
प ुिं चा।
अब तो घर में खलबली मची। इिर क ा गया, म ववदा न करे गें । भाई ने
क ा, म बबना ववदा कराये मानेंगे न ी। गािंव के आदमी जमा ो गये , पिंचायत
ोने लगी। य ननश्चय ुआ कक अनूपा पर छोड हदया जाय, जी चा े र े ।
य ािं वालो को ववश्वास था कक अनूपा इतनी जल्द दस
ू रा घर करने को
राजी न ोगी, दो-चार बार कसा क भी चुकी थी। लेककन उस वक्त जो पूछा
गया तो व जाने को तैयार थी। आखखर उसकी ववदाई का सामान ोने लगा।
डोली आ गई। गािंव-भर की ज्स्त्रया उसे दे खने आयीिं। अनप
ू ा उठ कर अपनी
सािंस के पैरो में धगर पडी और ाथ जोडकर बोली—अम्मा, क ा-सन
ु ाद माफ
करना। जी में तो था कक इसी घर में पडी र ूिं , पर भगवान को मिंजूर न ी
ै।

य क ते-क ते उसकी जबान बन्द ो गई।

सास करूणा से ववहृवल ो उठी। बोली—बेटी, ज ािं जाओिं व ािं सुखी र ो। मारे
भाग्य ी फूट गये न ी तो क्यों तम्
ु ें इस घर से जाना पडता। भगवान का
हदया और सब कुछ ै , पर उन् ोने जो न ी हदया उसमें अपना क्या बस ; बस
आज तुम् ारा दे वर सयाना ोता तो बबगडी बात बन जाती। तुम् ारे मन में
बैठे तो इसी को अपना समझो : पालो-पोसो बडा ो जायेगा तो सगाई कर
दिं ग
ू ी।

य क कर उसने अपने सबसे छोटे लडके वासुदेव से पूछा—क्यों रे ! भौजाई से


शादी करे गा?

वासुदेव की उम्र पािंच साल से अधिक न थी। अबकी उसका ब्या ोने वाला था।
बातचीत ो चुकी थी। बोला—तब तो दस
ू रे के घर न जायगी न?

मा—न ी, जब तेरे साथ ब्या ो जायगी तो क्यों जायगी?

वासुदेव-- तब मैं करूिंगा


मािं—अच्छा, उससे पूछ, तुझसे ब्या करे गी।

वासद
ु े व अनप
ू की गोद में जा बैठा और शरमाता ु आ बोला— मसे ब्या
करोगी?

य क कर व िं सने लगा; लेककन अनप


ू की आिंखें डबडबा गयीिं, वासद
ु े व को
छाती से लगाते ु ए बोली ---अम्मा, हदल से क ती ो?

सास—भगवान ् जानते ै !

अनूपा—आज य मेरे ो गये ?

सास— ािं सारा गािंव दे ख र ा ै ।

अनूपा—तो भैया से क ला भैजो, घर जायें, मैं उनके साथ न जाऊिंगी।

अनूपा को जीवन के मलए आिार की जरूरत थी। व आिार ममल गया।


सेवा मनुष्य की स्वाभाववक वज्ृ त्त ै । सेवा ी उस के जीवन का आिार ै।

अनूपा ने वासुदेव को लालन-पोषण शुरू ककया। उबटन और तैल लगाती, दि


ू -रोटी
मल-मल के खखलाती। आप तालाब न ाने जाती तो उसे भी न लाती। खेत में
जाती तो उसे भी साथ ले जाती। थौडे की हदनों में उससे ह ल-ममल गया कक
एक क्षण भी उसे न छोडता। मािं को भूल गया। कुछ खाने को जी चा ता तो
अनप
ू ा से मािंगता, खेल में मार खाता तो रोता ु आ अनप
ू ा के पास आता।
अनप
ू ा ी उसे सल
ु ाती, अनप
ू ा ी जगाती, बीमार ो तो अनप
ू ा ी गोद में लेकर
बदलू वैि के घर जाती, और दवायें वपलाती।

गािंव के स्त्री-परू
ु ष उसकी य प्रेम तपस्या दे खते और दािंतो उिं गली दबाते। प ले
बबरले ी ककसी को उस पर ववश्वास था। लोग समझते थे , साल-दो-साल में
इसका जी ऊब जाएगा और ककसी तरफ का रास्ता लेगी; इस दि
ु मिंु े बालक
के नाम कब तक बैठी र े गी; लेककन य सारी आशिंकाएिं ननमल
ू ग ननकलीिं।
अनूपा को ककसी ने अपने व्रत से ववचमलत ोते न दे खा। ज्जस ह्रदय मे सेवा
को स्रोत ब र ा ो—स्वािीन सेवा का—उसमें वासनाओिं के मलए क ािं स्थान
? वासना का वार ननमगम, आशा ीन, आिार ीन प्राखणयों पर ी ोता ै चोर की
अिंिेरे में ी चलती ै , उजाले में न ी।

वासुदेव को भी कसरत का शोक था। उसकी शक्ल सूरत मथुरा से ममलती-


जुलती थी, डील-डौल भी वैसा ी था। उसने कफर अखाडा जगाया। और उसकी
बािंसुरी की तानें कफर खेतों में गूजने लगीिं।

इस भााँनत १३ बरस गुजर गये। वासुदेव और अनूपा में सगाई की तैयारी ोने
लगीिं।

लेककन अब अनूपा व अनूपा न थी, ज्जसने १४ वषग प ले वासुदेव को पनत भाव


से दे खा था, अब उस भाव का स्थान मातभ
ृ ाव ने मलया था। इिर कुछ हदनों से
व एक ग रे सोच में डूबी र ती थी। सगाई के हदन जयो-जयों ननकट आते
थे, उसका हदल बैठा जाता था। अपने जीवन में इतने बडे पररवतगन की
कल्पना ी से उसका कलेजा द क उठता था। ज्जसे बालक की भ नत पाला-
पोसा, उसे पनत बनाते ु ए, लजजा से उसका मिंख
ु लाल ो जाता था।

द्वार पर नगाडा बज र ा था। बबरादरी के लोग जमा थे। घर में गाना ो र ा


था! आज सगाई की नतधथ थी :

स सा अनूपा ने जा कर सास से क ा—अम्मािं मै तो लाज के मारे मरी जा र ी

ूिं ।

सास ने भौंचक्की ो कर पूछा—क्यों बेटी, क्या ै?


अनूपा—मैं सगाई न करूिंगी।

सास—कैसी बात करती ै बेटी? सारी तैयारी ो गयी। लोग सन


ु ेंगे तो क्या
क े गें?

अनप
ू ा—जो चा े क ें , ज्जनके नाम पर १४ वषग बैठी र ी उसी के नाम पर अब
भी बैठी र ूिं गी। मैंने समझा था मरद के बबना औरत से र ा न जाता ोगा।
मेरी तो भगवान ने इजजत आबरू ननबा दी। जब नयी उम्र के हदन कट गये
तो अब कौन धचन्ता ै ! वासुदेव की सगाई कोई लडकी खोजकर कर दो। जैसे
अब तक उसे पाला, उसी तर अब उसके बाल-बच्चों को पालूिंगी।

***
एक आंच की कसर

सारे नगर में म ाशय यशोदानन्द का बखान ो र ा था। नगर ी में न ी,


समस्त प्रान्त में उनकी कीनतग की जाती थी, समाचार पत्रों में हटप्पखणयािं ो र ी
थी, ममत्रो से प्रशिंसापूणग पत्रों का तािंता लगा ु आ था। समाज-सेवा इसको क ते ै !
उन्नत ववचार के लोग कसा ी करते ै । म ाशय जी ने मशक्षक्षत समद
ु ाय का
मख
ु उजजवल कर हदया। अब कौन य क ने का सा स कर सकता ै कक मारे
नेता केवल बात के िनी ै , काम के िनी न ी ै ! म ाशय जी चा ते तो अपने
पुत्र के मलए उन् ें कम से कम बीज तार रूपये द े ज में ममलते, उस पर
खुशामद घाते में ! मगर लाला सा ब ने मसद्वािंत के सामने िन की रत्ती
बराबर परवा न की और अपने पुत्र का वववा बबना एक पाई द े ज मलए स्वीकार
ककया। वा ! वा ! ह म्मत ो तो कसी ो, मसद्वािंत प्रेम ो तो कसा ो, आदशग-
पालन ो तो कसा ो । वा रे सच्चे वीर, अपनी माता के सच्चे सपत
ू , तन
ू े व
कर हदखाया जो कभी ककसी ने ककया था। म बडे गवग से तेरे सामने मस्तक
नवाते ै ।

म ाशय यशोदानन्द के दो पत्र


ु थे। बडा लडका पढ मलख कर फाज्जल ो चक
ु ा
था। उसी का वववा तय ो र ा था और म दे ख चुके ै , बबना कुछ द े ज मलये।

आज का नतलक था। शा ज ािंपरु स्वामीदयाल नतलक ले कर आने वाले थे। श र


के गणमान्य सजजनों को ननमन्त्रण दे हदये गये थे। वे लोग जमा ो गये थे।
म कफल सजी7 ु ई थी। एक प्रवीण मसताररया अपना कौशल हदखाकर लोगो को
मुग्ि कर र ा था। दावत को सामान भी तैयार था ? ममत्रगण यशोदानन्द को
बिाईयािं दे र े थे।

एक म ाशय बोले-तुमने तो कमाल कर हदया !


दस
ू रे -कमाल ! य कह ए कक झण्डे गाड हदये। अब तक ज्जसे दे खा मिंच पर
व्याख्यान झाडते ी दे खा। जब काम करने का अवसर आता था तो लोग दम

लगा लेते थे।

तीसरे -कैसे-कैसे ब ाने गढे जाते ै -सा ब में तो द े ज से सख्त नफरत ै य


मेरे मसद्वािंत के ववरुद्व ै , पर क्या करुिं क्या, बच्चे की अम्मीजान न ीिं मानती।
कोई अपने बाप पर फेंकता ै , कोई और ककसी खरागट पर।

चौथे-अजी, ककतने तो कसे बे या ै जो साफ-साफ क दे ते ै कक मने लडके को


मशक्षा - दीक्षा में ज्जतना खचग ककया ै, व में ममलना चाह ए। मानो उन् ोने
य रूपये उन् ोन ककसी बैंक में जमा ककये थे।

पािंचवें -खब
ू समझ र ा ूिं , आप लोग मझ
ु पर छीिंटे उडा र े ै।

इसमें लडके वालों का ी सारा दोष ै या लडकी वालों का भी कुछ ै।

प ले-लडकी वालों का क्या दोष ै मसवा इसके कक व लडकी का बाप ै।

दस
ू रे -सारा दोष ईश्वर का ज्जसने लडककयािं पैदा कीिं । क्यों?

पािंचवे-मैं य न ी क ता। न सारा दोष लडकी वालों का ैं , न सारा दोष लडके


वालों का। दोनों की दोषी ै । अगर लडकी वाला कुछ न दे तो उसे य मशकायत
करने का कोई अधिकार न ी ै कक डाल क्यों न ी लायें , सिंद
ु र जोडे क्यों न ी
लाये, बाजे-गाजे पर िम
ू िाम के साथ क्यों न ी आये ? बताइए !

चौथे- ािं, आपका य प्रश्न गौर करने लायक ै । मेरी समझ में तो कसी दशा में
लडकें के वपता से य मशकायत न ोनी चाह ए।

पािंचवें ---तो यों कह ए कक द े ज की प्रथा के साथ ी डाल, ग नें और जोडो की


प्रथा भी त्याजय ै । केवल द े ज को ममटाने का प्रयत्न करना व्यथग ै ।
यशोदानन्द----य भी Lame excuse ै । मैंने द े ज न ी मलया ै ।, लेककन क्या
1

डाल-ग ने ने ले जाऊिंगा।

प ले---म ाशय आपकी बात ननराली ै । आप अपनी धगनती म दनु नयािं वालों के
साथ क्यों करते ैं ? आपका स्थान तो दे वताओिं के साथ ै।

दस
ू रा----20 जार की रकम छोड दी? क्या बात ै।

यशोदानन्द---मेरा तो य ननश्चय ै कक में सदै व principles पर ज्स्थर र ना


2

चाह ए। principle के सामने money की कोई value न ी ै । द े ज की कुप्रथा


2 3 4

पर मैंने खद
ु कोई व्याख्यान न ी हदया, शायद कोई नोट तक न ी मलखा। ािं,
conference में इस प्रस्ताव को second कर चुका ूिं । मैं उसे तोडना भी चा ूिं तो
5 6

आत्मा न तोडने दे गी। मैं सत्य क ता ूिं , य रूपये लूिं तो मुझे इतनी मानमसक
वेदना ोगी कक शायद मैं इस आघात स बच ी न सकिंू ।

पािंचवें ---- अब की conference आपको सभापनत न बनाये तो उसका घोर


5

अन्याय ै।

यशोदानन्द-मैंने अपनी duty कर दीउसका recognition ो या न ो, मझ


ु े
7 8

इसकी परवा न ी।

थोथी दलील
1

मसद्धािंतों
2

िन
3

मूल्य
4

सभा
5

अनुमोदन
6

कतगव्य
7

कदर
8
इतने में खबर ु ई कक म ाशय स्वामीदयाल आ पिं ु चे । लोग उनका अमभवादन
करने को तैयार ु ए, उन् ें मसनद पर ला बबठाया और नतलक का सिंस्कार
आरिं म्भ ो गया। स्वामीदयाल ने एक ढाक के पत्तल पर नाररयल, सुपारी, चावल
पान आहद वस्तुएिं वर के सामने रखीिं। ब्राहृम्णों ने मिंत्र पढें वन ु आ और वर
के माथे पर नतलक लगा हदया गया। तुरन्त घर की ज्स्त्रयो ने मिंगलाचरण गाना
शुरू ककया। य ािं प कफल में म ाशय यशोदानन्द ने एक चौकी पर खडे ोकर
द े ज की कुप्रथा पर व्याख्यान दे ना शुरू ककया। व्याख्यान प ले से मलखकर
तैयार कर मलया गया था। उन् ोनें द े ज की कनत ामसक व्याख्या की थी।

पूवक
ग ाल में द े ज का नाम भी न थ। म ाशयों ! कोई जानता ी न था कक द े ज
या ठ रोनी ककस धचडडया का नाम ै । सत्य माननए, कोई जानता ी न था कक
ठ रौनी ै क्या चीज, पशु या पक्षी, आसमान में या जमीन में , खाने में या पीने
में । बादशा ी जमाने में इस प्रथा की बुिंननयाद पडी। मारे युवक सेनाओिं में
सज्म्ममलत ोने लगे । य वीर लोग थें , सेनाओिं में जाना गवग समझते थे।
माताएिं अपने दल
ु ारों को अपने ाथ से शस्त्रों से सजा कर रणक्षेत्र भेजती थीिं।
ॉँ युवकों की सिंख्या कम
इस भ नत ोने लगी और लडकों का मोल-तोल शुरू ु आ।
आज य नौवत आ गयी ै कक मेरी इस तच्
ु छ -म ातच्
ु छ सेवा पर पत्रों में
हटप्पखणयािं ो र ी ै मानों मैंने कोई असािारण काम ककया ै । मै क ता ूिं ;
अगर आप सिंसार में जीववत र ना चा ते ो तो इस प्रथा क तुरन्त अन्त
कीज्जए।

एक म ाशय ने शिंका की----क्या इसका अिंत ककये बबना म सब मर जायेगें ?

यशोदानन्द-अगर कसा ोता ै तो क्या पूछना था, लोगो को दिं ड ममल जाता और
वास्तव में कसा ोना चाह ए। य ईश्वर का अत्याचार ै कक कसे लोभी, िन पर
धगरने वाले, बुदाग-फरोश, अपनी सिंतान का ववक्रय करने वाले नरािम जीववत ै।
और समाज उनका नतरस्कार न ी करता । मगर व सब बुदग-फरोश ै ------
इत्याहद।
व्याख्यान ब ुिं तद लम्बा ओर ास्य भरा ु आ था। लोगों ने खब
ू वा -वा की ।
अपना वक्तव्य समाप्त करने के बाद उन् ोने अपने छोटे लडके परमानन्द को,
ज्जसकी अवस्था ७ वषग की थी, मिंच पर खडा ककया। उसे उन् ोनें एक छोटा-सा
व्याख्यान मलखकर दे रखा था। हदखाना चा ते थे कक इस कुल के छोटे बालक
भी ककतने कुशाग्र बुद्वव ै । सभा समाजों में बालकों से व्याख्यान हदलाने की
प्रथा ै ी, ककसी को कुतू ल न ु आ।बालक बडा सुन्दर, ोन ार, िं समुख था।
मस्
ु कराता ु आ मिंच पर आया और एक जेब से कागज ननकाल कर बडे गवग के
साथ उच्च स्वर में पढने लगा---

वप्रय बिंिुवर,

नमस्कार !

आपके पत्र से ववहदत ोता ै कक आपको मझ


ु पर ववश्वास न ी ै । मैं ईश्वर को
साक्षी करके िन आपकी सेवा में इतनी गुप्त रीनत से प ुिं चेगा कक ककसी को
लेशमात्र भी सन्दे न ोगा । ािं केवल एक ज्जज्ञासा करने की िष्ृ टता करता

ूिं । इस व्यापार को गुप्त रखने से आपको जो सम्मान और प्रनतष्ठा - लाभ


ोगा और मेरे ननकटवती में मेरी जो ननिंदा की जाएगी, उसके उपलक्ष्य में मेरे
साथ क्या ररआयत ोगी ? मेरा ववनीत अनरु ोि ै कक २५ में से ५ ननकालकर
मेरे साथ न्याय ककया जाय...........।

म ाशय श्योदानन्द घर में मे मानों के मलए भोजन परसने का आदे श करने गये
थे। ननकले तो य बाक्य उनके कानों में पडा-२५ में से ५ मेरे साथ न्याय ककया
कीज्जए ।‘ चे रा फक ो गया, झपट कर लडके के पास गये, कागज उसके ाथ
से छीन मलया और बौले--- नालायक, य क्या पढ र ा ै, य तो ककसी
मुवज्क्कल का खत ै जो उसने अपने मुकदमें के बारें में मलखा था। य तू क ािं
से उठा लाया, शैतान जा व कागज ला, जो तुझे मलखकर हदया गया था।
एक म ाशय-----पढने दीज्जए, इस त रीर में जो लत्ु फ ै, व ककसी दस
ू री तकरीर
में न ोगा।

दस
ू रे ---जाद ू व जो मसर चढ के बोलें !

तीसरे -अब जलसा बरखास्त कीज्जए । मैं तो चला।

चौथै-य ािं भी चलतु ु ए।

यशोदानन्द-बैहठए-बैहठए, पत्तल लगाये जा र े ै।

प ले-बेटा परमानन्द, जरा य ािं तो आना, तुमने य कागज क ािं पाया ?

परमानन्द---बाबू जी ी तो मलखकर अपने मेज के अन्दर रख हदया था। मझ


ु से
क ा था कक इसे पढना। अब ना क मुझसे खफा र े ै।

यशोदानन्द---- व य कागज था कक सअ
ु र ! मैंने तो मेज के ऊपर ी रख
हदया था। तन
ू े ड्राअर में से क्यों य कागज ननकाला ?

परमानन्द---मुझे मेज पर न ी ममला ।

यशोदान्नद---तो मुझसे क्यों न ी क ा, ड्राअर क्यों खोला ? दे खो, आज कसी खबर


लेता ूिं कक तुम भी याद करोगे।

प ले य आकाशवाणी ै।

दस
ू रे ----इस को लीडरी क ते ै कक अपना उल्लू सीिा करो और नेकनाम भी
बनो।

तीसरे ----शरम आनी चाह ए। य त्याग से ममलता ै , िोखेिडी से न ी।


चौथे---ममल तो गया था पर एक आिंच की कसर र गयी।

पािंचवे---ईश्वर पािंखिंडडयों को यों ी दण्ड दे ता ै

य क ते ु ए लोग उठ खडे ु ए। यशोदानन्द समझ गये कक भिंडा फूट गया, अब


रिं ग न जमेगा। बार-बार परमानन्द को कुवपत नेत्रों से दे खते थे और डिंडा तौलकर
र जाते थे। इस शैतान ने आज जीती-ज्जताई बाजी खो दी, मुिं में कामलख लग
गयी, मसर नीचा ो गया। गोली मार दे ने का काम ककया ै।

उिर रास्ते में ममत्र-वगग यों हटप्पखणयािं करते जा र े थे-------

एक ईश्वर ने मिंु में कैसी कामलमा लगायी कक यादार ोगा तो अब सरू त न


हदखाएगा।

दस
ू रा--कसे-कसे िनी, मानी, ववद्वान लोग कसे पनतत ो सकते ै । मझ
ु े य ी
आश्चयग ै । लेना ै तो खल
ु े खजाने लो, कौन तम्
ु ारा ाथ पकडता ै; य क्या
कक माल चुपके-चुपके उडाओिं और यश भी कमाओिं !
तीसरा--मक्कार का मुिं काला !

चौथा-यशोदानन्द पर दया आ र ी ै । बेचारी ने इतनी ित


ू गता की, उस पर भी
कलई खुल ी गयी। बस एक आिंच की कसर र गई।

***
माता का ह्रदय

मािवी की आिंखों में सारा सिंसार अिंिेरा ो र ा था । काई अपना मददगार


हदखाई न दे ता था। क ीिं आशा की झलक न थी। उस ननिगन घर में व अकेली
पडी रोती थी और कोई आिंसू पोंछने वाला न था। उसके पनत को मरे ु ए २२
वषग ो गए थे। घर में कोई सम्पज्त्त न थी। उसने न- जाने ककन तकलीफों से
अपने बच्चे को पाल-पोस कर बडा ककया था। व ी जवान बेटा आज उसकी गोद
से छीन मलया गया था और छीनने वाले कौन थे ? अगर मत्ृ यु ने छीना ोता तो
व सब्र कर लेती। मौत से ककसी को द्वेष न ीिं ोता। मगर स्वाधथगयों के ाथों
य अत्याचार असहृ ो र ा था। इस घोर सिंताप की दशा में उसका जी र -र
कर इतना ववफल ो जाता कक इसी समय चलूिं और उस अत्याचारी से इसका
बदला लिंू ज्जसने उस पर ननष्ठुर आघात ककया ै । मारूिं या मर जाऊिं। दोनों ी
में सिंतोष ो जाएगा।

ककतना सुिंदर, ककतना ोन ार बालक था ! य ी उसके पनत की ननशानी, उसके


जीवन का आिार उसकी अम्रिं भर की कमाई थी। व ी लडका इस वक्त जेल मे
पडा न जाने क्या-क्या तकलीफें झेल र ा ोगा ! और उसका अपराि क्या था ?
कुछ न ी। सारा मु ल्ला उस पर जान दे ता था। वविालय के अध्यापक उस पर
जान दे ते थे। अपने-बेगाने सभी तो उसे प्यार करते थे। कभी उसकी कोई
मशकायत सुनने में न ीिं आयी।कसे बालक की माता ोन पर उसे बिाई दे ती थी।
कैसा सजजन, कैसा उदार, कैसा परमाथी ! खुद भूखो सो र े मगर क्या मजाल
कक द्वार पर आने वाले अनतधथ को रूखा जबाब दे । कसा बालक क्या इस योग्य
था कक जेल में जाता ! उसका अपराि य ी था, व कभी-कभी सन
ु ने वालों को
अपने दख
ु ी भाइयों का दख
ु डा सुनाया करता था। अत्याचार से पीडडत प्राखणयों की
मदद के मलए मेशा तैयार र ता था। क्या य ी उसका अपराि था?

दस
ू रो की सेवा करना भी अपराि ै ? ककसी अनतधथ को आश्रय दे ना भी अपराि
ै ?
इस युवक का नाम आत्मानिंद था। दभ
ु ागग्यवश उसमें वे सभी सद्गुण थे जो जेल
का द्वार खोल दे ते ै । व ननभीक था, स्पष्टवादी था, सा सी था, स्वदे श-प्रेमी था,
नन:स्वाथग था, कतगव्यपरायण था। जेलल जाने के मलए इन् ीिं गुणो की जरूरत ै।
स्वािीन प्राखणयों के मलए वे गण
ु स्वगग का द्वार खोल दे ते ै , परािीनो के मलए
नरक के ! आत्मानिंद के सेवा-कायग ने, उसकी वक्तत
ृ ताओिं ने और उसके
राजनीनतक लेखो ने उसे सरकारी कमगचाररयों की नजरों में चढा हदया था। सारा
पुमलस-ववभाग नीचे से ऊपर तक उससे सतगक र ता था, सबकी ननगा ें उस पर
लगीिं र ती थीिं। आखखर ज्जले में एक भयिंकर डाके ने उन् े इज्च्छत अवसर प्रदान
कर हदया।

आत्मानिंद के घर की तलाशी ु ई, कुछ पत्र और लेख ममले, ज्जन् ें पुमलस ने डाके


का बीजक मसद्व ककया। लगभग २० युवकों की एक टोली फािंस ली गयी।
आत्मानिंद इसका मुखखया ठ राया गया। श ादतें ु ई । इस बेकारी और धगरानी
के जमाने में आत्मा सस्ती और कौन वस्तु ो सकती ै । बेचने को और ककसी
के पास र ी क्या गया ै । नाम मात्र का प्रलोभन दे कर अच्छी-से-अच्छी
श ादतें ममल सकती ै , और पुमलस के ाथ तो ननकृष्ट-से- ननकृष्ट गवाह यािं भी
दे ववाणी का म त्व प्राप्त कर लेती ै । श ादतें ममल गयीिं , म ीनें -भर तक
मुकदमा क्या चला एक स्वािंग चलता र ा और सारे अमभयुक्तों को सजाएिं दे दी
गयीिं। आत्मानिंद को सबसे कठोर दिं ड ममला ८ वषग का कहठन कारावास। मािवी
रोज कच री जाती; एक कोने में बैठी सारी कायगवाई दे खा करती।
मानवी चररत्र ककतना दब
ु ल
ग , ककतना नीच ै , इसका उसे अब तक अनुमान भी न

ु आ था। जब आत्मानिंद को सजा सुना दी गयी और व माता को प्रणाम करके


मसपाह यों के साथ चला तो मािवी मूनछग त ोकर धगर पडी । दो-चार सजजनों ने
उसे एक तािंगे पर बैठाकर घर तक प ुिं चाया। जब से व ोश में आयी ै उसके
हृदय में शूल-सा उठ र ा ै । ककसी तर िैयग न ी ोता । उस घोर आत्म-वेदना
की दशा में अब जीवन का एक लक्ष्य हदखाई दे ता ै और व इस अत्याचार
का बदला ै।
अब तक पत्र
ु उसके जीवन का आिार था। अब शत्रओ
ु िं से बदला लेना ी उसके
जीवन का आिार ोगा। जीवन में उसके मलए कोई आशा न थी। इस अत्याचार
का बदला लेकर व अपना जन्म सफल समझगी। इस अभागे नर-वपशाच बगची
ने ज्जस तर उसे रक्त के आसूिं रॅ लाये ैं उसी भािंनत य भी उस रूलायेगी।
नारी-हृदय कोमल ै लेककन केवल अनुकूल दशा में : ज्जस दशा में पुरूष दस
ू रों
को दबाता ै , स्त्री शील और ववनय की दे वी ो जाती ै । लेककन ज्जसके ाथों में
अपना सवगनाश ो गया ो उसके प्रनत स्त्री की परू
ु ष से कम घ्ज्ञृणा ओर क्रोि
न ीिं ोता अिंतर इतना ी ै कक परू
ु ष शास्त्रों से काम लेता ै , स्त्री कौशल से ।

रा भीगती जाती थी और मािवी उठने का नाम न लेती थी। उसका द:ु ख


प्रनतकार के आवेश में ववलीन ोता जाता था। य ािं तक कक इसके मसवा उसे
और ककसी बात की याद ी न र ी। उसने सोचा, कैसे य काम ोगा? कभी घर
से न ीिं ननकली।वैिव्य के २२ साल इसी घर कट गये लेककन अब ननकूलूिंगीिं।
जबरदस्ती ननकलूिंगी, मभखाररन बनूगीिं, ट लनी बनूगी, झूठ बोलूिंगी, सब कुकमग
करूिंगी। सत्कमग के मलए सिंसार में स्थान न ीिं। ईश्वर ने ननराश ोकर कदाधचत ्
इसकी ओर से मुिं फेर मलया ै । जभी तो य ािं कसे-कसे अत्याचार ोते ै । और
पावपयों को दडिं न ीिं ममलता। अब इन् ीिं ाथों से उसे दिं ड दग
ू ी।

सिंध्या का समय था। लखनऊ के एक सजे ु ए बिंगले में ममत्रों की म कफल जमी

ु ई थी। गाना-बजाना ो र ा था। एक तरफ आतशबाज्जयािं रखी ु ई थीिं। दस


ू रे
कमरे में मेजों पर खना चन
ु ा जा र ा था। चारों तरफ पमु लस के कमगचारी नजर
आते थें व पुमलस के सुपररिंटेंडेंट ममस्टर बगीची का बिंगला ै । कई हदन ु ए
उन् ोने एक माके का मुकदमा जीता था।अफसरो ने खुश ोकर उनकी तरक्की
की दी थी। और उसी की खुशी में य उत्सव मनाया जा र ा था। य ािं आये
हदन कसे उत्सव ोते र ते थे। मुफ्त के गवैये ममल जाते थे, मुफ्त की
अतशबाजी; फल और मेवे और ममठाईयािं आिे दामों पर बाजार से आ जाती थीिं।
और चट दावतो ो जाती थी। दस
ू रों के ज ों सौ लगते, व ािं इनका दस से काम
चल जाता था। दौड-िप
ू करने को मसपाह यों की फौज थी ीिं। और य माके का
मक
ु दमा क्या था? व ज्जसमें ननरपराि यव
ु कों को बनावटी श ादत से जेल में
ठूस हदया गया था।

गाना समाप्त ोने पर लोग भोजन करने बैठें। बेगार के मजदरू और पल्लेदार
जो बाजार से दावत और सजावट के सामान लाये थे , रोते या हदल में गामलयािं
दे ते चले गये थे; पर एक बुहढ़या अभी तक द्वार पर बैठी ु ई थी। और अन्य
मजदरू ों की तर व भूनभुना कर काम न करती थी। ु क्म पाते ी खुश-हदल
मजदरू की तर ु क्म बजा लाती थी। य मिवी थी, जो इस समय मजूरनी का
वेष िारण करके अपना घतक सिंकल्प पूरा करने आयी थी।

मे मान चले गये। म कफल उठ गयी। दावत का समान समेट हदया गया। चारों
ओर सन्नाटा छा गया; लेककन मािवी अभी तक व ीिं बैठी थी।

स सा ममस्टर बागची ने पूछा-बुड्ढी तू य ािं क्यों बैठी ै ? तुझे कुछ खाने को


ममल गया?

मािवी- ािं ु जरू , ममल गया। बागची-तो जाती क्यों न ीिं?

मािवी-क ािं जाऊिं सरकार , मेरा कोई घर-द्वार थोडे ी ै । ु कुम ो तो य ीिं पडी
र ूिं । पाव-भर आटे की परवस्ती ो जाय ु जरु ।

बगची -नौकरी करे गी?

मािवी-क्यो न करूिंगी सरकार, य ी तो चा ती ूिं ।

बागची-लडका खखला सकती ै?

मािवी- ािं जूर, व मेरे मन का काम ै।


बगची-अच्छी बात ै । तु आज ी से र । जा घर में दे ख, जो काम बतायें, व ा
कर।

एक म ीना गुजर गया। मािवी इतना तन-मन से काम करती ै कक सारा घर


उससे खश
ु ै । ब ू जी का मीजाज ब ु म ी धचडधचडा ै। व हदन-भर खाट पर
पडी र ती ै और बात-बात पर नौकरों पर झल्लाया करती ै । लेककन मािवी
उनकी घुडककयों को भी स षग स लेती ै । अब तक मुज्श्कल से कोई दाई एक
सप्ता से अधिक ठ री थी। मािवी का कलेजा ै कक जली-कटी सुनकर भी
मुख पर मैल न ीिं आने दे ती।

ममस्टर बागची के कई लडके ो चुके थे, पर य ी सबसे छोटा बच्चा बच र ा था।


बच्चे पैदा तो हृष्ट-पष्ृ ट ोते, ककन्तु जन्म लेते ी उन् े एक -न एक रोग लग
जाता था और कोई दो-चार म ीनें , कोई साल भर जी कर चल दे ता था। मािं-बाप
दोनों इस मशशु पर प्राण दे ते थे। उसे जरा जुकाम भी ो तो दोनो ववकल ो
जाते। स्त्री-परू
ु ष दोनो मशक्षक्षत थे, पर बच्चे की रक्षा के मलए टोना-टोटका ,
दआ
ु ता-बीच, जन्तर-मिंतर एक से भी उन् ें इनकार न था।

मािवी से य बालक इतना ह ल गया कक एक क्षण के मलए भी उसकी गोद से


न उतरता। व क ीिं एक क्षण के मलए चली जाती तो रो-रो कर दनु नया मसर
पर उठा लेता। व सल
ु ाती तो सोता, व दि
ू वपलाती तो वपता, व खखलाती तो
खेलता, उसी को व अपनी माता समझता। मािवी के मसवा उसके मलए सिंसार
में कोई अपना न था। बाप को तो व हदन-भर में केवल दो-नार बार दे खता
और समझता य कोई परदे शी आदमी ै । मािं आलस्य और कमजारी के मारे
गोद में लेकर ट ल न सकती थी। उसे व अपनी रक्षा का भार सिंभालने के
योग्य न समझता था, और नौकर-चाकर उसे गोद में ले लेते तो इतनी वेददी से
कक उसके कोमल अिंगो मे पीडा ोने लगती थी। कोई उसे ऊपर उछाल दे ता था,
य ािं तक कक अबोि मशशु का कलेजा मुिं को आ जाता था। उन सबों से व
डरता था। केवल मािवी थी जो उसके स्वभाव को समझती थी। व जानती थी
कक कब क्या करने से बालक प्रसन्न ोगा। इसमलए बालक को भी उससे प्रेम
था।

मािवी ने समझाया था, य ािं किंचन बरसता ोगा; लेककन उसे दे खकर ककतना
ववस्मय ु आ कक बडी मज्ु श्कल से म ीने का खचग परू ा पडता ै । नौकरों से एक-
एक पैसे का ह साब मलया जाता था और ब ु िा आवश्यक वस्तुएिं भी टाल दी
जाती थीिं। एक हदन मािवी ने क ा-बच्चे के मलए कोई तेज गाडी क्यों न ीिं
मिंगवा दे तीिं। गोद में उसकी बाढ़ मारी जाती ै।

ममसेज बागजी ने कुहठिं त ोकर क ा-क ािं से मगवािं दिं ?ू कम से कम ५०-६० रुपयिं
में आयेगी। इतने रुपये क ािं ै?

मािवी-मलककन, आप भी कसा क ती ै!

ममसेज बगची-झूठ न ीिं क ती। बाबू जी की प ली स्त्री से पािंच लडककयािं और


ै । सब इस समय इला ाबाद के एक स्कूल में पढ र ी ैं। बडी की उम्र १५-१६
वषग से कम न ोगी। आिा वेतन तो उिार ी चला जाता ै । कफर उनकी शादी
की भी तो कफक्र ै । पािंचो के वववा में कम-से-कम २५ जार लगें गे। इतने रूपये
क ािं से आयेगें। मै धचिंता के मारे मरी जाती ूिं । मुझे कोई दस
ू री बीमारी न ीिं ै
केवल धचिंता का रोग ै।

मािवी-घूस भी तो ममलती ै।

ममसेज बागची-बढ़
ू ी, कसी कमाई में बरकत न ीिं ोती। य ी क्यों सच पछ
ू ो तो
इसी घस
ू ने मारी य दग
ु त
ग ी कर रखी ै । क्या जाने औरों को कैसे जम ोती
ै । य ािं तो जब कसे रूपये आते ै तो कोई-न-कोई नुकसान भी अवश्य ो जाता
ै । एक आता ै तो दो लेकर जाता ै । बार-बार मना करती ूिं , राम की कौडी
घर मे न लाया करो, लेककन मेरी कौन सुनता ै।
बात य थी कक मािवी को बालक से स्ने ोता जाता था। उसके अमिंगल की
कल्पना भी व न कर सकती थी। व अब उसी की नीिंद सोती और उसी की
नीिंद जागती थी। अपने सवगनाश की बात याद करके एक क्षण के मलए बागची
पर क्रोि तो ो आता था और घाव कफर रा ो जाता था; पर मन पर कुज्त्सत
भावों का आधिपत्य न था। घाव भर र ा था, केवल ठे स लगने से ददग ो जाता
था। उसमें स्विंय टीस या जलन न थी। इस पररवार पर अब उसे दया आती थी।
सोचती, बेचारे य छीन-झपट न करें तो कैसे गुजर ो। लडककयों का वववा क ािं
से करे गें! स्त्री को जब दे खो बीमार ी र ती ै । उन पर बाबू जी को एक बोतल
शराब भी रोज चाह ए। य लोग स्वयिं अभागे ै । ज्जसके घर में ५-५क्वारी
कन्याएिं ों, बालक ो- ो कर मर जाते ों, घरनी दा बीमार र ती ो, स्वामी शराब
का तली ो, उस पर तो यों ी ईश्वर का कोप ै । इनसे तो मैं अभाधगन ी
अच्छी!

दब
ु ल
ग बलकों के मलए बरसात बुरी बला ै । कभी खािंसी ै , कभी जवर, कभी दस्त।
जब वा में ी शीत भरी ो तो कोई क ािं तक बचाये। मािवी एक हदन आपने
घर चली गयी थी। बच्चा रोने लगा तो मािं ने एक नौकर को हदया, इसे बा र
ब ला ला। नौकर ने बा र ले जाकर री- री घास पर बैठा हदया,। पानी बरस
कर ननकल गया था। भूमम गीली ो र ी थी। क ीिं-क ीिं पानी भी जमा ो गया
था। बालक को पानी में छपके लगाने से जयादा प्यारा और कौन खेल ो सकता
ै । खूब प्रेम से उमिंग-उमिंग कर पानी में लोटने लगािं नौकर बैठा और आदममयों
के साथ गप-शप करता घिंटो गुजर गये। बच्चे ने खूब सदी खायी। घर आया तो
उसकी नाक ब र ी थीिं रात को मािवी ने आकर दे खा तो बच्चा खािंस र ा
था। आिी रात के करीब उसके गले से खुरखुर की आवाज ननकलने लगी।
मािवी का कलेजा सन से ो गया। स्वाममनी को जगाकर बोली-दे खो तो बच्चे
को क्या ो गया ै । क्या सदी-वदी तो न ीिं लग गयी। ािं, सदी ी मालम
ू ोती
ै।

स्वाममनी कबका कर उठ बैठी और बालक की खुरखरा ट सुनी तो पािंव


तलेजमीन ननकल गयीिं य भिंयकर आवाज उसने कई बार सन
ु ी थी और उसे
खब
ू प चानती थी। व्यग्र ोकर बोली-जरा आग जलाओ। थोडा-सा तिंग आ गयी।
आज क ार जरा दे र के मलए बा र ले गया था, उसी ने सदी में छोड हदया ोगा।

सारी रात दोंनो बालक को सेंकती र ीिं। ककसी तर सवेरा ु आ। ममस्टर बागची
को खबर ममली तो सीिे डाक्टर के य ािं दौडे। खैररयत इतनी थी कक जल्द
ए नतयात की गयी। तीन हदन में अच्छा ो गया; लेककन इतना दब
ु ल
ग ो गया
था कक उसे दे खकर डर लगता था। सच पछ
ू ों तो मािवी की तपस्या ने बालक
को बचायािं। माता-वपता सो जाता, ककिं तु मािवी की आिंखों में नीिंद न थी। खना-
पीना तक भूल गयी। दे वताओिं की मनौनतयािं करती थी, बच्चे की बलाएिं लेती थी,
बबल्कुल पागल ो गयी थी, य व ी मािवी ै जो अपने सवगनाश का बदला लेने
आयी थी। अपकार की जग उपकार कर र ी थी।ववष वपलाने आयी थी, सुिा
वपला र ी थी। मनुष्य में दे वता ककतना प्रबल ै!
प्रात:काल का समय था। ममस्टर बागची मशशु के झल
ू े के पास बैठे ु ए थे। स्त्री
के मसर में पीडा ो र ी थी। व ीिं चारपाई पर लेटी ु ई थी और मािवी समीप
बैठी बच्चे के मलए दि
ु गरम कर र ी थी। स सा बागची ने क ा-बूढ़ी, म जब
तक ज्जयेंगे तुम् ारा यश गयेंगे। तुमने बच्चे को ज्जला मलयािं

स्त्री-य दे वी बनकर मारा कष्ट ननवारण करने के मलए आ गयी। य न ोती


तो न जाने क्या ोता। बूढ़ी, तुमसे मेरी एक ववनती ै । यों तो मरना जीना
प्रारब्ि के ाथ ै , लेककन अपना-अपना पौरा भी बडी चीज ै । मैं अभाधगनी ूिं ।
अबकी तुम् ारे ी पुण्य-प्रताप से बच्चा सिंभल गया। मुझे डर लग र ा ै कक
ईश्वर इसे मारे ाथ से छीन ने ले। सच क तीिं ूिं बूढ़ी, मझ
ु े इसका गोद में लेते
डर लगता ैं। इसे तम
ु आज से अपना बच्चा समझो। तम्
ु ारा ोकर शायद बच
जाय। म अभागे ैं, मारा ोकर इस पर ननत्य कोई-न-कोई सिंकट आता र े गा।
आज से तम
ु इसकी माता ो जाआ। तम
ु इसे अपने घर ले जाओ। ज ािं चा े ले
जाओ, तुम् ारी गोंद मे दे र मुझे कफर कोई धचिंता न र े गी। वास्तव में तुम् ीिं
इसकी माता ो, मै तो राक्षसी ूिं ।

मािवी-ब ू जी, भगवान ् सब कुशल करे गें, क्यों जी इतना छोटा करती ो?

ममस्टर बागची-न ीिं-न ीिं बूढ़ी माता, इसमें कोई रज न ीिं ै । मै मज्स्तष्क से तो
इन बािंतो को ढकोसला ी समझता ूिं ; लेककन हृदय से इन् ें दरू न ीिं कर सकता।
मझ
ु े स्वयिं मेरी माता जीने एक िाबबन के ाथ बेच हदया था। मेरे तीन भाई मर
चुके थे। मै जो बच गया तो मािं-बाप ने समझा बेचने से ी इसकी जान बच
गयी। तुम इस मशशु को पालो-पासो। इसे अपना पुत्र समझो। खचग म बराबर
दे ते र ें गें। इसकी कोई धचिंता मत करना। कभी -कभी जब मारा जी चा े गा,
आकर दे ख मलया करे गें। में ववश्वास ै कक तुम इसकी रक्षा म लोंगों से क ीिं
अच्छी तर कर सकती ो। मैं कुकमी ूिं । ज्जस पेशे में ूिं , उसमें कुकमग ककये
बगैर काम न ीिं चल सकता। झठ
ू ी श ादतें बनानी ी पडती ै , ननरपरािों को
फिंसाना ी पडता ै । आत्मा इतनी दब
ु ल
ग ो गयी ै कक प्रलोभन में पड ी जाता

ूिं । जानता ी ूिं कक बुराई का फल बुरा ी ोता ै ; पर पररज्स्थनत से मजबूर ूिं ।


अगर न करूिं तो आज नालायक बनाकर ननकाल हदया जाऊिं। अग्रेज जारों भूलें
करें , कोई न ीिं पूछता। ह नदस्
ू तानी एक भूल भी कर बैठे तो सारे अफसर उसके
मसर ो जाते ै । ह द
िं स्
ु ताननयत को दोष ममटाने केमलए ककतनी ी कसी बातें
करनी पडती ै ज्जनका अग्रें ज के हदल में कभी ख्याल ी न ीिं पैदा ो सकता।
तो बोलो, स्वीकार करती ो?

मािवी गद्गद् ोकर बोली-बाबू जी, आपकी इच्छा ै तो मझ


ु से भी जो कुछ बन
पडेगा, आपकी सेवा कर दिं ग
ू ीिं भगवान ् बालक को अमर करें , मेरी तो उनसे य ी
ववनती ै।
मािवी को कसा मालम
ू ो र ा था कक स्वगग के द्वार सामने खल
ु े ैं और स्वगग
की दे ववयािं अिंचल फैला-फैला कर आशीवागद दे र ी ैं, मानो उसके अिंतस्तल में
प्रकाश की ल रें -सी उठ र ीिं ै । स्ने मय सेवा में कक ककतनी शािंनत थी।

बालक अभी तक चादर ओढ़े सो र ा था। मािवी ने दि


ू गरम ो जाने पर उसे
झल
ू े पर से उठाया, तो धचल्ला पडी। बालक की दे ठिं डी ो गयी थी और मिंु पर
व पीलापन आ गया था ज्जसे दे खकर कलेजा ह ल जाता ै , किंठ से आ ननकल
आती ै और आिंखों से आसूिं ब ने लगते ैं। ज्जसने इसे एक बारा दे खा ै कफर
कभी न ीिं भूल सकता। मािवी ने मशशु को गोंद से धचपटा मलया, ालाककिं नीचे
उतार दोना चाह ए था।

कु राम मच गया। मािं बच्चे को गले से लगाये रोती थी; पर उसे जमीन पर न
सुलाती थी। क्या बातें ो र ी र ी थीिं और क्या ो गया। मौत को िोखा दोने में
आन्नद आता ै। व उस वक्त कभी न ीिं आती जब लोग उसकी रा दे खते
ोते ैं। रोगी जब सिंभल जाता ै , जब व पर्थय लेने लगता ै , उठने-बैठने लगता
ै , घर-भर खमु शयािं मनाने लगता ै , सबकों ववश्वास ो जाता ै कक सिंकट टल
गया, उस वक्त घात में बैठी ु ई मौत मसर पर आ जाती ै । य ी उसकी ननठुर
लीला ै।

आशाओिं के बाग लगाने में म ककतने कुशल ैं। य ािं म रक्त के बीज बोकर
सुिा के फल खाते ैं। अज्ग्न से पौिों को सीिंचकर शीतल छािं में बैठते ैं। ािं,
मिंद बुवद्ध।

हदन भर मातम ोता र ा; बाप रोता था, मािं तडपती थी और मािवी बारी-बारी से
दोनो को समझाती थी।यहद अपने प्राण दे कर व बालक को ज्जला सकती तो
इस समया अपना िन्य भाग समझती। व अह त का सिंकल्प करके य ािं आयी
थी और आज जब उसकी मनोकामना पूरी ो गयी और उसे खुशी से फूला न
समाना चाह ए था, उस उससे क ीिं घोर पीडा ो र ी थी जो अपने पुत्र की जेल
यात्रा में ु ई थी। रूलाने आयी थी और खद
ु राती जा र ीिं थी। माता का हृदय
दया का आगार ै । उसे जलाओ तो उसमें दया की ी सग
ु ि
िं ननकलती ै , पीसो
तो दया का ी रस ननकलता ै। व दे वी ै । ववपज्त्त की क्रूर लीलाएिं भी उस
स्वच्छ ननमगल स्रोत को ममलन न ीिं कर सकतीिं।

***
परीक्षा

नाहदरशा की सेना में हदल्ली के कत्लेआम कर रखा ै । गमलयों मे खून की


नहदयािं ब र ी ैं। चारो तरफ ा ाकार मचा ु आ ै । बाजार बिंद ै । हदल्ली के
लोग घरों के द्वार बिंद ककये जान की खैर मना र े ै । ककसी की जान सलामत
न ीिं ै । क ीिं घरों में आग लगी ुई ै , क ीिं बाजार लट
ु र ा ै ; कोई ककसी की
फररयाद न ीिं सन
ु ता। रईसों की बेगमें म लो से ननकाली जा र ी ै और उनकी
बे ु रती की जाती ै । ईरानी मसपाह यों की रक्त वपपासा ककसी तर न ीिं बुझती।
मानव हृदया की क्रूरता, कठोरता और पैशाधचकता अपना ववकरालतम रूप िारण
ककये ुए ै । इसी समया नाहदर शा ने बादशा ी म ल में प्रवेश ककया।

हदल्ली उन हदनों भोग-ववलास की केंद्र बनी ु ई थी। सजावट और तकल्लुफ के


सामानों से रईसों के भवन भरे र ते थे। ज्स्त्रयों को बनाव-मसगािंर के मसवा कोई
काम न था। पुरूषों को सुख-भोग के मसवा और कोई धचन्ता न थी। राजीननत का
स्थान शेरो-शायरी ने ले मलया था। समस्त प्रन्तो से िन खखिंच -खखिंच कर हदल्ली
आता था। और पानी की भािंनत ब ाया जाता था। वेश्याओिं की चादीिं थी। क ीिं
तीतरों के जोड ोते थे, क ीिं बटे रो और बल
ु बल
ु ों की पमलयािं ठनती थीिं। सारा
नगर ववलास -ननद्रा में मग्न था। नाहदरशा शा ी म ल में प ुिं चा तो व ािं का
सामान दे खकर उसकी आिंखें खुल गयीिं। उसका जन्म दररद्र-घर में ु आ था।
उसका समसत जीवन रणभूमम में ी कटा था। भोग ववलास का उसे चसका न
लगा था। क ािं रण-क्षेत्र के कष्ट और क ािं य सुख-साम्राजय। ज्जिर आिंख
उठती थी, उिर से टने का नाम न लेती थी।

सिंध्या ो गयी थी। नाहदरशा अपने सरदारों के साथ म ल की सैर करता और


अपनी पसिंद की सचीजों को बटोरता ु आ दीवाने-खास में आकर कारचोबी
मसनद पर बैठ गया, सरदारों को व ािं से चले जाने का ु क्म दे हदया, अपने
सब धथयार रख हदये और म ल के दरागा को बल
ु ाकर ु क्म हदया-मै शा ी
बेगमों का नाच दे खना चा ता ूिं । तुम इसी वक्त उनको सुिंदर वस्त्राभूषणों से
सजाकर मेरे सामने लाओिं खबरदार, जरा भी दे र न ो! मै कोई उज्र या इनकार
न ीिं सन
ु सकता।

दारोगा ने य नाहदरशा ी ु क्म सुना तो ोश उड गये। व मह लएिं ज्जन पर


सय
ू ग की दृहट भी न ीिं पडी कैसे इस मजमलस में आयेंगी! नाचने का तो क ना
ी क्या! शा ी बेगमों का इतना अपमान कभी न ु आ था। ा नरवपशाच! हदल्ली
को खून से रिं ग कर भी तेरा धचत्त शािंत न ीिं ु आ। मगर नाहदरशा के सम्मुख
एक शब्द भी जबान से ननकालना अज्ग्न के मुख में कूदना था! मसर झुकाकर
आदाग लाया और आकर रननवास में सब वेगमों को नादीरशा ी ु क्म सुना
हदया; उसके साथ ी य इत्त्ला भी दे दी कक जरा भी ताम्मुल न ो , नाहदरशा
कोई उज्र या ह ला न सन
ु ेगा! शा ी खानदोन पर इतनी बडी ववपज्त्त कभी न ीिं
पडी; पर अस समय ववजयी बादशा की आज्ञा को मशरोिायग करने के मसवा
प्राण-रक्षा का अन्य कोई उपाय न ीिं था।

बेगमों ने य आज्ञा सन
ु ी तो तबवु द्ध-सी ो गयीिं। सारे रननवास में मातम-सा
छा गया। व च ल-प ल गायब ो गयीिं। सैकडो हृदयों से इस स ायता-याचक
लोचनों से दे खा, ककसी ने खुदा और रसूल का सुममरन ककया; पर कसी एक
मह ला भी न थी ज्जसकी ननगा कटार या तलवार की तरफ गयी ो। यद्यपी
इनमें ककतनी ी बेगमों की नसों में राजपूताननयों का रक्त प्रवाह त ो र ा था;
पर इिंहद्रयमलप्सा ने जौ र की पुरानी आग ठिं डी कर दी थी। सुख-भोग की लालसा
आत्म-सम्मान का सवगनाश कर दे ती ै । आपस में सला करके मयागदा की रक्षा
का कोई उपाया सोचने की मु लत न थी। एक-एक पल भाग्य का ननणगय कर
र ा था। ताश का ननणगय कर र ा था। ताश ोकर सभी ललपाओिं ने पापी के
सम्मुख जाने का ननश्चय ककया। आिंखों से आसूिं जारी थे, अश्रु-मसिंधचत नेत्रों में
सुरमा लगाया जा र ा था और शोक-व्यधथत हृदयािं पर सुगिंि का लेप ककया जा
र ा था। कोई केश गुिंथतीिं थी, कोई मािंगो में मोनतयों वपरोती थी। एक भी कसे
पक्के इरादे की स्त्री न थी, जो इश्वर पर अथवा अपनी टे क पर, इस आज्ञा का
उल्लिंघन करने का सा स कर सके।

एक घिंटा भी न गुजरने पाया था कक बेगमात पूरे-के-पूरे, आभूषणों से जगमगातीिं,


अपने मख
ु की कािंनत से बेले और गल
ु ाब की कमलयों को लजातीिं, सग
ु िंि की
लपटें उडाती, छमछम करती ु ई दीवाने-खास में आकर दनाहदरशा के सामने
खडी ो गयीिं।

नाहदर शा ने एक बार कनखखयों से पररयों के इस दल को दे खा और तब


मसनद की टे क लगाकर लेट गया। अपनी तलवार और कटार सामने रख दी।
एक क्षण में उसकी आिंखें झपकने लगीिं। उसने एक अगडाई ली और करवट
बदल ली। जरा दे र में उसके खरागटों की अवाजें सुनायी दे ने लगीिं। कसा जान पडा
कक ग री ननद्रा में मग्न ो गया ै । आि घिंटे तक व सोता र ा और बेगमें
जयों की त्यों मसर ननचा ककये दीवार के धचत्रों की भािंनत खडी र ीिं। उनमें दो-एक
मह लाएिं जो ढीठ थीिं, घघ
ू िंट की ओट से नाहदरशा को दे ख भी र ीिं थीिं और
आपस में दबी जबान में कानाफूसी कर र ी थीिं-कैसा भिंयकर स्वरूप ै! ककतनी
रणोन्मत आिंखें ै ! ककतना भारी शरीर ै ! आदमी का े को ै , दे व ै।

स सा नाहदरशा की आिंखें खुल गई पररयों का दल पव


ू व
ग त ् खडा था। उसे जागते
दे खकर बेगमों ने मसर नीचे कर मलये और अिंग समेट कर भेडो की भािंनत एक
दस
ू रे से ममल गयीिं। सबके हदल िडक र े थे कक अब य जामलम नाचने -गाने
को क े गा, तब कैसे ोगा! खुदा इस जामलम से समझे! मगर नाचा तो न
जायेगा। चा े जान ी क्यों न जाय। इससे जयादा ज्जल्लत अब न स ी जायगी।

स सा नाहदरशा कठोर शब्दों में बोला-क खुदा की बिंहदयो, मैने तुम् ारा इम्त ान
लेने के मलए बुलाया था और अफसोस के साथ क ना पडता ै कक तुम् ारी
ननसबत मेरा जो गुमान था, व फग-ब- फग सच ननकला। जब ककसी कौम की
औरतों में गैरत न ीिं र ती तो व कौम मरु दा ो जाती ै।

दे खना चा ता था कक तम
ु लोगों में अभी कुछ गैरत बाकी ै या न ीिं। इसमलए
मैने तुम् ें य ािं बुलाया था। मै तुम ारी बे ु रमली न ीिं करना चा ता था। मैं
इतना कश का बिंदा न ीिं ूिं , वरना आज भेडो के गल्ले चा ता ोता। न इतना
वसपरस्त ूिं , वरना आज फारस में सरोद और मसतार की तानें सुनाता ोता,
ज्जसका मजा मै ह द
िं स्
ु तानी गाने से क ीिं जयादा उठा सकता ूिं । मुझे मसफग
तम्
ु ारा इम्त ान लेना था। मझ
ु े य दे खकर सचा मलाल ो र ा ै कक तम
ु में
गैरत का जौ र बाकी न र ा। क्या य मम
ु ककन न था कक तम
ु मेरे ु क्म को
पैरों तले कुचल दे तीिं? जब तुम य ािं आ गयीिं तो मैने तुम् ें एक और मौका हदया।
मैने नीिंद का ब ाना ककया। क्या य मुमककन न था कक तुममें से कोई खुदा की
बिंदी इस कटार को उठाकर मेरे ज्जगर में चुभा दे ती। मै कलामेपाक की कसम
खाकर क ता ूिं कक तुममें से ककसी को कटार पर ाथ रखते दे खकर मुझे बे द
खश
ु ी ोती, मै उन नाजक
ु ाथों के सामने गरदन झक
ु ा दे ता! पर अफसोस ै कक
आज तैमरू ी खानदान की एक बेटी भी य ािं कसी न ीिं ननकली जो अपनी ु रमत
बबगाडने पर ाथ उठाती! अब य सल्लतनत ज्जिंदा न ीिं र सकती। इसकी
सती के हदन धगने ु ए ैं। इसका ननशान ब ु त जल्द दनु नया से ममट जाएगा।
तुम लोग जाओ और ो सके तो अब भी सल्तनत को बचाओ वरना इसी तर
वस की गुलामी करते ु ए दनु नया से रुखसत ो जाओगी।

***
तें तर

आखखर व ी ु आ ज्जसकी आिंशका थी; ज्जसकी धचिंता में घर के सभी लोग और


ववषेशत: प्रसूता पडी ु ई थी। तीनो पुत्रो के पश्चात ् कन्या का जन्म ु आ। माता
सौर में सूख गयी, वपता बा र आिंगन में सूख गये, और की वद्ध
ृ माता सौर द्वार
पर सख
ू गयी। अनथग, म ाअनथग भगवान ् ी कुशल करें तो ो? य पत्र
ु ी न ीिं
राक्षसी ै । इस अभाधगनी को इसी घर में जाना था! आना था तो कुछ हदन
प ले क्यों न आयी। भगवान ् सातवें शत्रु के घर भी तें तर का जन्म न दें ।

वपता का नाम था पिंडडत दामोदरदत्त। मशक्षक्षत आदमी थे। मशक्षा-ववभाग ी में


नौकर भी थे; मगर इस सिंस्कार को कैसे ममटा दे ते, जो परम्परा से हृदय में जमा

ु आ था, कक तीसरे बेटे की पीठ पर ोने वाली कन्या अभाधगनी ोती ै , या वपता
को लेती ै या वपता को, या अपने कों। उनकी वद्ध
ृ ा माता लगी नवजात कन्या
को पानी पी-पी कर कोसने, कलमुिं ी ै , कलमु ी! न जाने क्या करने आयी ैं
य ािं। ककसी बािंझ के घर जाती तो उसके हदन कफर जाते!

दामोदरदत्त हदल में तो घबराये ु ए थे, पर माता को समझाने लगे-अम्मा तें तर-
बेंतर कुछ न ीिं, भगवान ् की इच्छा ोती ै, व ी ोता ै । ईश्वर चा ें गे तो सब
कुशल ी ोगा; गानेवामलयों को बुला लो, न ीिं लोग क ें गे, तीन बेटे ु ए तो कैसे
फूली कफरती थीिं, एक बेटी ो गयी तो घर में कु राम मच गया।

माता-अरे बेटा, तुम क्या जानो इन बातों को, मेरे मसर तो बीत चुकी ैं, प्राण न ीिं
में समाया ु आ ैं तें तर ी के जन्म से तुम् ारे दादा का दे ािंत ु आ। तभी से
तें तर का नाम सन
ु ते ी मेरा कलेजा कािंप उठता ै।

दामोदर-इस कष्ट के ननवारण का भी कोई उपाय ोगा?

माता-उपाय बताने को तो ब ु त ैं, पिंडडत जी से पूछो तो कोई-न-कोई उपाय बता


दें गे; पर इससे कुछ ोता न ीिं। मैंने कौन-से अनुष्ठान न ीिं ककये, पर पिंडडत जी
की तो महु ट्ठयािं गरम ु ईं, य ािं जो मसर पर पडना था, व पड ी गया। अब टके
के पिंडडत र गये ैं , जजमान मरे या ज्जये उनकी बला से, उनकी दक्षक्षणा ममलनी
चाह ए। (िीरे से) लकडी दब
ु ली-पतली भी न ीिं ै । तीनों लकडों से हृष्ट-पुष्ट ै।
बडी-बडी आिंखे ै , पतले-पतले लाल-लाल ओिंठ ैं, जैसे गुलाब की पत्ती। गोरा-
धचट्टा रिं ग ैं, लम्बी-सी नाक। कलमु ी न लाते समय रोयी भी न ीिं, टुकुरटुकुर
ताकती र ी, य सब लच्छन कुछ अच्छे थोडे ी ै।

दामोदरदत्त के तीनों लडके सािंवले थे, कुछ ववशेष रूपवान भी न थे। लडकी के
रूप का बखान सुनकर उनका धचत्त कुछ प्रसन्न ु आ। बोले-अम्मा जी, तुम
भगवान ् का नाम लेकर गानेवामलयों को बुला भेजों, गाना-बजाना ोने दो। भाग्य
में जो कुछ ैं, व तो ोगा ी।

माता-जी तो ु लसता न ीिं, करूिं क्या?

दामोदर-गाना न ोने से कष्ट का ननवारण तो ोगा न ीिं , कक ो जाएगा? अगर


इतने सस्ते जान छूटे तो न कराओ गान।

माता-बल
ु ाये लेती ूिं बेटा, जो कुछ ोना था व तो ो गया। इतने में दाई ने
सौर में से पुकार कर क ा-ब ू जी क ती ैं गानावाना कराने का काम न ीिं ै।

माता-भला उनसे क ो चप
ु बैठी र े , बा र ननकलकर मनमानी करें गी, बार ी
हदन ैं ब ु त हदन न ीिं ै ; ब ु त इतराती कफरती थी-य न करूिंगी, व न करूिंगी,
दे वी क्या ैं, मरदों की बातें सन
ु कर व ी रट लगाने लगी थीिं, तो अब चुपके से
बैठती क्यो न ीिं। मैं तो तें तर को अशुभ न ीिं मानतीिं, और सब बातों में मेमों की
बराबरी करती ैं तो इस बात में भी करे ।

य क कर माता जी ने नाइन को भेजा कक जाकर गानेवामलयों को बुला ला,


पडोस में भी क ती जाना।
सवेरा ोते ी बडा लडका सो कर उठा और आिंखे मलता ु आ जाकर दादी से
पछ
ू ने लगा-बडी अम्मा, कल अम्मा को क्या ु आ?

माता-लडकी तो ु ई ै।

बालक खुशी से उछलकर बोला-ओ- ो- ो पैजननयािं प न-प न कर छुन-छुन


चलेगी, जरा मुझे हदखा दो दादी जी?

माता-अरे क्या सौर में जायगा, पागल ो गया ै क्या?

लडके की उत्सक
ु ता न मानीिं। सौर के द्वार पर जाकर खडा ो गया और बोला-
अम्मा जरा बच्ची को मझ
ु े हदखा दो।

दाई ने क ा-बच्ची अभी सोती ै।

बालक-जरा हदखा दो, गोद में लेकर।

दाई ने कन्या उसे हदखा दी तो व ािं से दौडता ु आ अपने छोटे भाइयें के पास
प ुिं चा और उन् ें जगा-जगा कर खुशखबरी सुनायी।

एक बोला-नन् ीिं-सी ोगी।

बडा-बबलकुल नन् ीिं सी! जैसी बडी गुडडया! कसी गोरी ै कक क्या ककसी सा ब
की लडकी ोगी। य लडकी मैं लूिंगा।

सबसे छोटा बोला-अमको बी हदका दो।

तीनों ममलकर लडकी को दे खने आये और व ािं से बगलें बजाते उछलते-कूदते


बा र आये।

बडा-दे खा कैसी ै!
मिंझला-कैसे आिंखें बिंद ककये पडी थी।

छोटा- में में तो दे ना।

बडा-खूब द्वार पर बारात आयेगी, ाथी, घोडे, बाजे आतशबाजी। मिंझला और छोटा
कसे मग्न ो र े थे मानो व मनो र दृश्य आिंखो के सामने ै , उनके सरल नेत्र
मनोल्लास से चमक र े थे।

मिंझला बोला-फुलवाररयािं भी ोंगी।

छोटा-अम बी पूल लें गे!

छट्ठी भी ु ई, बर ी भी ु ई, गाना-बजाना, खाना-वपलाना-दे ना-हदलाना सब-कुछ ु आ;


पर रस्म पूरी करने के मलए, हदल से न ीिं, खुशी से न ीिं। लडकी हदन-हदन दब
ु ल

और अस्वस्थ ोती जाती थी। मािं उसे दोनों वक्त अफीम खखला दे ती और
बामलका हदन और रात को नशे में बे ोश पडी र ती। जरा भी नशा उतरता तो
भूख से ववकल ोकर रोने लगती! मािं कुछ ऊपरी दि
ू वपलाकर अफीम खखला
दे ती। आश्चयग की बात तो य थी कक अब की उसकी छाती में दि
ू न ीिं उतरा।
यों भी उसे दि
ू दे से उतरता था; पर लडकों की बेर उसे नाना प्रकार की
दि
ू वद्धगक औषधियािं खखलायी जाती, बार-बार मशशु को छाती से लगाया जाता, य ािं
तक कक दि
ू उतर ी आता था; पर अब की य आयोजनाएिं न की गयीिं। फूल-
सी बच्ची कुम् लाती जाती थी। मािं तो कभी उसकी ओर ताकती भी न थी। ािं,
नाइन कभी चुटककयािं बजाकर चुमकारती तो मशशु के मुख पर कसी दयनीय, कसी
करूण बेदना अिंककत हदखायी दे ती कक व आिंखें पोंछती ु ई चली जाती थी। ब ु
से कुछ क ने-सन
ु ने का सा स न पडता। बडा लडका मसद्धु बार-बार क ता-अम्मा,
बच्ची को दो तो बा र से खेला लाऊिं। पर मािं उसे खझडक दे ती थी।
तीन-चार म ीने ो गये। दामोदरदत्त रात को पानी पीने उठे तो दे खा कक
बामलका जाग र ी ै । सामने ताख पर मीठे तेल का दीपक जल र ा था, लडकी
टकटकी बािंिे उसी दीपक की ओर दे खती थी, और अपना अिंगूठा चूसने में मग्न
थी। चुभ-चुभ की आवाज आ र ी थी। उसका मुख मुरझाया ु आ था, पर व न
रोती थी न ाथ-पैर फेंकती थी, बस अिंगूठा पीने में कसी मग्न थी मानों उसमें
सुिा-रस भरा ु आ ै। व माता के स्तनों की ओर मुिं भी न ीिं फेरती थी, मानो
उसका उन पर कोई अधिकार ै न ीिं , उसके मलए व ािं कोई आशा न ीिं। बाबू
सा ब को उस पर दया आयी। इस बेचारी का मेरे घर जन्म लेने में क्या दोष
ै ? मुझ पर या इसकी माता पर कुछ भी पडे, उसमें इसका क्या अपराि ै? म
ककतनी ननदग यता कर र े ैं कक कुछ कज्ल्पत अननष्ट के कारण इसका इतना
नतरस्कार कर र े ै । मानों कक कुछ अमिंगल ो भी जाय तो क्या उसके भय से
इसके प्राण ले मलये जायेंगे। अगर अपरािी ै तो मेरा प्रारब्ि ै । इस नन् ें -से
बच्चे के प्रनत मारी कठोरता क्या ईश्वर को अच्छी लगती ोगी? उन् ोनें उसे
गोद में उठा मलया और उसका मुख चूमने लगे। लडकी को कदाधचत ् प ली बार
सच्चे स्ने का ज्ञान ु आ। व ाथ-पैर उछाल कर ‘गूिं-गूिं’ करने लगी और दीपक
की ओर ाथ फैलाने लगी। उसे जीवन-जयोनत-सी ममल गयी।

प्रात:काल दामोदरदत्त ने लडकी को गोद में उठा मलया और बा र लाये। स्त्री ने


बार-बार क ा-उसे पडी र ने दो। कसी कौन-सी बडी सुन्दर ै , अभाधगन रात-हदन
तो प्राण खाती र ती ैं , मर भी न ीिं जाती कक जान छूट जाय; ककिं तु दामोदरदत्त
ने न माना। उसे बा र लाये और अपने बच्चों के साथ बैठकर खेलाने लगे।
उनके मकान के सामने थोडी-सी जमीन पडी ु ई थी। पडोस के ककसी आदमी की
एकबकरी उसमें आकर चरा करती थी। इस समय भी व चर र ी थी। बाबू
सा ब ने बडे लडके से क ा-मसद्धू जरा उस बकरी को पकडो, तो इसे दि
ू वपलायें,
शायद भूखी ै बेचारी! दे खो, तुम् ारी नन् ीिं-सी ब न ै न? इसे रोज वा में
खेलाया करो।
मसद्धु को हदल्लगी ाथ आयी। उसका छोटा भाई भी दौडा। दोनो ने घेर कर
बकरी को पकडा और उसका कान पकडे ु ए सामने लाये। वपता ने मशशु का मिंु
बकरी थन में लगा हदया। लडकी चुबलाने लगी और एक क्षण में दि
ू की िार
उसके मुिं में जाने लगी, मानो हटमहटमाते दीपक में तेल पड जाये। लडकी का
मुिं खखल उठा। आज शायद प ली बार उसकी क्षुिा तप्ृ त ु ई थी। व वपता की
गोद में ु मक- ु मक कर खेलने लगी। लडकों ने भी उसे खूब नचाया-कुदाया।

उस हदन से मसद्धु को मनोंरजन का एक नया ववषय ममल गया। बालकों को


बच्चों से ब ु त प्रेम ोता ै । अगर ककसी घोंसनले में धचडडया का बच्चा दे ख
पायिं तो बार-बार व ािं जायेंगे। दे खेंगें कक माता बच्चे को कैसे दाना चुगाती ै।
बच्चा कैसे चोंच खोलता ैं। कैसे दाना लेते समय परों को फडफडाकर कर चें -चें
करता ै । आपस में बडे गम्भीर भाव से उसकी चरचा करें गे , उपने अन्य
साधथयों को ले जाकर उसे हदखायेंगे। मसद्धू ताक में लगा दे ता, कभी हदन में दो-
दो तीन-तीन बा वपलाता। बकरी को भूसी चोकर खखलाकार कसा परचा मलया कक
व स्वयिं चोकर के लोभ से चली आती और दि
ू दे कर चली जाती। इस भािंनत
कोई एक म ीना गुजर गया, लडकी हृष्ट-पुष्ट ो गयी, मुख पुष्प के समान
ववकमसत ो गया। आिंखें जग उठीिं, मशशुकाल की सरल आभा मन को रने लगी।

माता उसको दे ख-दे ख कर चककत ोती थी। ककसी से कुछ क तो न सकती; पर


हदल में आशिंका ोती थी कक अब व मरने की न ीिं , मीिं लोगों के मसर जायेगी।
कदाधचत ् ईश्वर इसकी रक्षा कर र े ैं , जभी तो हदन-हदन ननखरती आती ै , न ीिं,
अब तक ईश्वर के घर प ुिं च गयी ोती।

मगर दादी माता से क ीिं जयादा धचिंनतत थी। उसे भ्रम ोने लगा कक व बच्चे
को खब
ू दि
ू वपला र ी ैं, सािंप को पाल र ी ै । मशशु की ओर आिंख उठाकर भी
न दे खती। य ािं तक कक एक हदन क बैठी-लडकी का बडा छो करती ो? ािं
भाई, मािं ो कक न ीिं, तम
ु न छो करोगी, तो करे गा कौन?

‘अम्मा जी, ईश्वर जानते ैं जो मैं इसे दि


ू वपलाती ोऊिं?’

‘अरे तो मैं मना थोडे ी करती ूिं , मुझे क्या गरज पडी ै कक मुफ्त में अपने
ऊपर पाप ल,िंू कुछ मेरे मसर तो जायेगी न ीिं।’

‘अब आपको ववश्वास ी न आये तो क्या करें ?’

‘मुझे पागल समझती ो, व वा पी-पी कर कसी ो र ी ै ?’

‘भगवान ् जाने अम्मा, मझ


ु े तो अचरज ोता ै ।’

ब ू ने ब ु त ननदोवषता जतायी; ककिं तु वद्ध


ृ ा सास को ववश्वास न आया। उसने
समझा, व मेरी शिंका को ननमल
ूग समझती ै , मानों मुझे इस बच्ची से कोई बैर
ै । उसके मन में य भाव अिंकुररत ोने लगा कक इसे कुछ ो जोये तब य
समझे कक मैं झठ
ू न ीिं क ती थी। व ज्जन प्राखणयों को अपने प्राणों से भी
अधिक समझती थीिं। उन् ीिं लोगों की अमिंगल कामना करने लगी, केवल इसमलए
कक मेरी शिंकाएिं सत्य ा जायिं। व य तो न ीिं चा ती थी कक कोई मर जाय;
पर इतना अवश्य चा ती थी कक ककसी के ब ाने से मैं चेता दिं ू कक दे खा, तुमने
मेरा क ा न माना, य उसी का फल ै । उिर सास की ओर से जयो-जयों य
द्वेष-भाव प्रकट ोता था, ब ू का कन्या के प्रनत स्ने बढ़ता था। ईश्वर से
मनाती र ती थी कक ककसी भािंनत एक साल कुशल से कट जाता तो इनसे
पूछती। कुछ लडकी का भोला-भाला चे रा, कुछ अपने पनत का प्रेम-वात्सल्य
दे खकर भी उसे प्रोत्सा न ममलता था। ववधचत्र दशा ो र ी थी, न हदल खोलकर
प्यार ी कर सकती थी, न सम्पूणग रीनत से ननदग य ोते ी बनता था। न िं सते
बनता था न रोते।
इस भािंनत दो म ीने और गज
ु र गये और कोई अननष्ट न ु आ। तब तो वद्ध
ृ ा
सासव के पेट में चू ें दौडने लगे। ब ू को दो-चार हदन जवर भी न ीिं जाता कक
मेरी शिंका की मयागदा र जाये। पुत्र भी ककसी हदन पैरगाडी पर से न ीिं धगर
पडता, न ब ू के मैके ी से ककसी के स्वगगवास की सुनावनी आती ै । एक हदन
दामोदरदत्त ने खुले तौर पर क भी हदया कक अम्मा, य सब ढकोसला ै , तें तरे
लडककयािं क्या दनु नया में ोती ी न ीिं, तो सब के सब मािं-बाप मर ी जाते ै ?
अिंत में उसने अपनी शिंकाओिं को यथाथग मसद्ध करने की एक तरकीब सोच
ननकाली। एक हदन दामोदरदत्त स्कूल से आये तो दे खा कक अम्मा जी खाट पर
अचेत पडी ु ई ैं, स्त्री अिंगीठी में आग रखे उनकी छाती सेंक र ी ैं और कोठरी
के द्वार और खखडककयािं बिंद ै । घबरा कर क ा-अम्मा जी, क्या दशा ै?
स्त्री-दोप र ी से कलेजे में एक शूल उठ र ा ै , बेचारी ब ु त तडफ र ी ै।

दामोदर-मैं जाकर ड क्टर सा ब को बुला लाऊिं न.? दे र करने से शायद रोग बढ़
जाय। अम्मा जी, अम्मा जी कैसी तबबयत ै?
माता ने आिंखे खोलीिं और करा ते ु ए बोली-बेटा तुम आ गये?

अब न बचूिंगी, ाय भगवान ्, अब न बचूिंगी। जैसे कोई कलेजे में बरछी चुभा र ा


ो। कसी पीडा कभी न ु ई थी। इतनी उम्र बीत गयी, कसी पीडा कभी न ु ई।

स्त्री-व कलमु ी छोकरी न जाने ककस मन ू स घडी में पैदा ु ई।

सास-बेटा, सब भगवान करते ै , य बेचारी क्या जाने! दे खो मैं मर जाऊिं तो उसे


कश्ट मत दे ना। अच्छा ु आ मेरे मसर आयीिं ककसी कके मसर तो जाती ी, मेरे ी
मसर स ी। ाय भगवान, अब न बचूिंगी।

दामोदर-जाकर ड क्टर बुला लाऊिं? अभ्भी लौटा आता ूिं ।

माता जी को केवल अपनी बात की मयागदा ननभानी थी, रूपये न खच्र कराने थे,
बोली-न ीिं बेटा, ड क्टर के पास जाकर क्या करोगे? अरे , व कोई ईश्वर ै । ड क्टर
के पास जाकर क्या करोगें ? अरे , व कोई ईश्वर ै । ड क्टर अमत
ृ वपला दे गा, दस-
बीस व भी ले जायेगा! ड क्टर-वैद्य से कुछ न ोगा। बेटा, तम
ु कपडे उतारो, मेरे
पास बैठकर भागवत पढ़ो। अब न बचूिंगी। अब न बचूिंगी, ाय राम!

दामोदर-तें तर बरु ी चीज ै । मैं समझता था कक ढकोसला ै।

स्त्री-इसी से मैं उसे कभी न ीिं लगाती थी।

माता-बेटा, बच्चों को आराम से रखना, भगवान तुम लोगों को सुखी रखें। अच्छा

ु आ मेरे ी मसर गयी, तुम लोगों के सामने मेरा परलोक ो जायेगा। क ीिं ककसी
दस
ू रे के मसर जाती तो क्या ोता राम! भगवान ् ने मेरी ववनती सुन ली। ाय!
ाय!!
दामोदरदत्त को ननश्चय ो गया कक अब अम्मा न बचें गी। बडा द:ु ख ु आ।
उनके मन की बात ोती तो व मािं के बदले तें तर को न स्वीकार करते। ज्जस
जननी ने जन्म हदया, नाना प्रकार के कष्ट झेलकर उनका पालन-पोषण ककया,
अकाल वैिव्य को प्राप्त ोकर भी उनकी मशक्षा का प्रबिंि ककया, उसके सामने
एक दि
ु मु ीिं बच्ची का कया मूल्य था, ज्जसके ाथ का एक धगलास पानी भी व
न जानते थे। शोकातुर ो कपडे उतारे और मािं के मसर ाने बैठकर भागवत की
कथा सन
ु ाने लगे।
रात को ब ू भोजन बनाने चली तो सास से बोली-अम्मा जी, तुम् ारे मलए थोडा
सा साबूदाना छोड दिं ?ू

माता ने व्यिंग्य करके क ा-बेटी, अन्य बबना न मारो, भला साबद


ू ाना मझ
ु से खया
जायेगा; जाओिं, थोडी पूररयािं छान लो। पडे-पडे जो कुछ इच्छा ोगी, खा लूिंगी,
कचौररयािं भी बना लेना। मरती ूिं तो भोजन को तरस-तरस क्यों मरूिं। थोडी
मलाई भी मिंगवा लेना, चौक की ो। कफर थोडे खाने आऊिंगी बेटी। थोडे-से केले
मिंगवा लेना, कलेजे के ददग में केले खाने से आराम ोता ै।
भोजन के समय पीडा शािंत ो गयी; लेककन आि घिंटे बाद कफर जोर से ोने
लगी। आिी रात के समय क ीिं जाकर उनकी आिंख लगी। एक सप्ता तक
उनकी य ी दशा र ी, हदन-भर पडी करा ा करतीिं बस भोजन के समय जरा
वेदना कम ो जाती। दामोदरदत्त मसर ाने बैठे पिंखा झलते और मातवृ वयोग के
आगत शोक से रोते। घर की म री ने मु ल्ले-भर में एक खबर फैला दी;
पडोमसनें दे खने आयीिं, तो सारा इलजाम बामलका के मसर गया।

एक ने क ा-य तो क ो बडी कुशल ु ई कक बुहढ़या के मसर गयी; न ीिं तो तें तर


मािं-बाप दो में से एक को लेकर तभी शािंत ोती ै । दै व न करे कक ककसी के घर
तें तर का जन्म ो।

दस
ू री बोली-मेरे तो तें तर का नाम सुनते ी रोयें खडे ो जाते ै । भगवान ् बािंझ
रखे पर तें तर का जन्म न दें ।

एक सप्ता के बाद वद्ध


ृ ा का कष्ट ननवारण ु आ, मरने में कोई कसर न थी, व
तो क ों पुरूखाओिं का पुण्य-प्रताप था। ब्राह्मणों को गोदान हदया गया। दग
ु ाग-पाठ

ु आ, तब क ीिं जाके सिंकट कटा।

***
नैराश्य

बाज आदमी अपनी स्त्री से इसमलए नाराज र ते ैं कक उसके लडककयािं ी क्यों


ोती ैं, लडके क्यों न ीिं ोते। जानते ैं कक इनमें स्त्री को दोष न ीिं ै , या ै तो
उतना ी ज्जतना मेरा, कफर भी जब दे खखए स्त्री से रूठे र ते ैं , उसे अभाधगनी
क ते ैं और सदै व उसका हदल दख
ु ाया करते ैं। ननरुपमा उन् ी अभाधगनी
ज्स्त्रयों में थी और घमिंडीलाल बत्रपाठी उन् ीिं अत्याचारी परु
ु षों में । ननरुपमा के
तीन बेहटयािं लगातार ु ई थीिं और व सारे घर की ननगा ों से धगर गयी थी।
सास-ससुर की अप्रसन्नता की तो उसे ववशेष धचिंता न थी, व पुराने जमाने के
लोग थे, जब लडककयािं गरदन का बोझ और पूवज
ग न्मों का पाप समझी जाती थीिं।
ािं, उसे द:ु ख अपने पनतदे व की अप्रसन्नता का था जो पढ़े -मलखे आदमी ोकर
भी उसे जली-कटी सन
ु ाते र ते थे। प्यार करना तो दरू र ा, ननरुपमा से सीिे मिंु
बात न करते, कई-कई हदनों तक घर ी में न आते और आते तो कुछ इस तर
खखिंचे-तने ु ए र ते कक ननरुपमा थर-थर कािंपती र ती थी, क ीिं गरज न उठें । घर
में िन का अभाव न था; पर ननरुपमा को कभी य सा स न ोता था कक ककसी
सामान्य वस्तु की इच्छा भी प्रकट कर सके। व समझती थी, में यथाथग में
अभाधगनी ूिं , न ीिं तो भगवान ् मेरी कोख में लडककयािं ी रचते। पनत की एक मद
ृ ु
मस्
ु कान के मलए, एक मीठी बात के मलए उसका हृदय तडप कर र जाता था।
य ािं तक कक व अपनी लडककयों को प्यार करते ु ए सकुचाती थी कक लोग
क ें गे, पीतल की नथ पर इतना गुमान करती ै । जब बत्रपाठी जी के घर में आने
का समय ोता तो ककसी-न-ककसी ब ाने से व लडककयों को उनकी आिंखों से
दरू कर दे ती थी। सबसे बडी ववपज्त्त य थी कक बत्रपाठी जी ने िमकी दी थी
कक अब की कन्या ु ई तो घर छोडकर ननकल जाऊिंगा, इस नरक में क्षण-भर न
ठ रूिंगा। ननरुपमा को य धचिंता और भी खाये जाती थी।

व मिंगल का व्रत रखती थी, रवववार, ननजगला एकादसी और न जाने ककतने व्रत
करती थी। स्नान-पूजा तो ननत्य का ननयम था; पर ककसी अनुष्ठान से
मनोकामना न परू ी ोती थी। ननत्य अव े लना, नतरस्कार, उपेक्षा, अपमान स ते-
स ते उसका धचत्त सिंसार से ववरक्त ोता जाता था। ज ािं कान एक मीठी बात
के मलए, आिंखें एक प्रेम-दृज्ष्ट के मलए, हृदय एक आमलिंगन के मलए तरस कर र
जाये, घर में अपनी कोई बात न पूछे, व ािं जीवन से क्यों न अरुधच ो जाय?
एक हदन घोर ननराशा की दशा में उसने अपनी बडी भावज को एक पत्र मलखा।
एक-एक अक्षर से असह्य वेदना टपक र ी थी। भावज ने उत्तर हदया-तुम् ारे
भैया जल्द तुम् ें ववदा कराने जायेंगे। य ािं आजकल एक सच्चे म ात्मा आये ुए
ैं ज्जनका आशीवाद कभी ननष्फल न ीिं जाता। य ािं कई सिंतान ीन ज्स्त्रयािं उनक
आशीवाद से पत्र
ु वती ो गयीिं। पण
ू ग आशा ै कक तम्
ु ें भी उनका आशीवाद
कल्याणकारी ोगा।

ननरुपमा ने य पत्र पनत को हदखाया। बत्रपाठी जी उदासीन भाव से बोले -सज्ृ ष्ट-
रचना म ात्माओिं के ाथ का काम न ीिं, ईश्वर का काम ै।

ननरुपमा- ािं, लेककन म ात्माओिं में भी तो कुछ मसवद्ध ोती ै।

घमिंडीलाल- ािं ोती ै , पर कसे म ात्माओिं के दशगन दल


ु भ
ग ैं।

ननरुपमा-मैं तो इस म ात्मा के दशगन करुिं गी।

घमिंडीलाल-चली जाना।

ननरुपमा-जब बािंखझनों के लडके ु ए तो मैं क्या उनसे भी गयी-गुजरी ूिं ।

घमिंडीलाल-क तो हदया भाई चली जाना। य करके भी दे ख लो। मझ


ु े तो कसा
मालूम ोता ै , पुत्र का मुख दे खना मारे भाग्य में ी न ीिं ै।

कई हदन बाद ननरुपमा अपने भाई के साथ मैके गयी। तीनों पबु त्रयािं भी साथ
थीिं। भाभी ने उन् ें प्रेम से गले लगाकर क ा, तम्
ु ारे घर के आदमी बडे ननदग यी
ैं। कसी गल
ु ाब -फूलों की-सी लडककयािं पाकर भी तकदीर को रोते ैं। ये तम्
ु ें
भारी ों तो मझ
ु े दे दो। जब ननद और भावज भोजन करके लेटीिं तो ननरुपमा ने
पूछा-व म ात्मा क ािं र ते ैं ?

भावज-कसी जल्दी क्या ै , बता दिं ग


ू ी।

ननरुपमा- ै नगीच ी न?

भावज-ब ु त नगीच। जब क ोगी, उन् ें बुला दिं ग


ू ी।

ननरुपमा-तो क्या तम
ु लोगों पर ब ु त प्रसन्न ैं?

भावज-दोनों वक्त य ीिं भोजन करते ैं। य ीिं र ते ैं।

ननरुपमा-जब घर ी में वैद्य तो मररये क्यों? आज मुझे उनके दशगन करा दे ना।

भावज-भें ट क्या दोगी?

ननरुपमा-मैं ककस लायक ूिं ?

भावज-अपनी सबसे छोटी लडकी दे दे ना।

ननरुपमा-चलो, गाली दे ती ो।

भावज-अच्छा य न स ी, एक बार उन् ें प्रेमामलिंगन करने दे ना।

ननरुपमा-चलो, गाली दे ती ो।

भावज-अच्छा य न स ी, एक बार उन् ें प्रेमामलिंगन करने दे ना।

ननरुपमा-भाभी, मुझसे कसी िं सी करोगी तो मैं चली आऊिंगी।


भावज-व म ात्मा बडे रमसया ैं।

ननरुपमा-तो चूल् े में जायिं। कोई दष्ु ट ोगा।

भावज-उनका आशीवाद तो इसी शतग पर ममलेगा। व और कोई भें ट स्वीकार ी


न ीिं करते।

ननरुपमा-तम
ु तो यों बातें कर र ी ो मानो उनकी प्रनतननधि ो।

भावज- ािं, व य सब ववषय मेरे ी द्वारा तय ककया करते ैं। मैं भें ट लेती ूिं ।
मैं ी आशीवाद दे ती ूिं , मैं ी उनके ह ताथग भोजन कर लेती ूिं ।

ननरुपमा-तो य क ो कक तुमने मुझे बुलाने के मलए य ीला ननकाला ै।

भावज-न ीिं, उनके साथ ी तुम् ें कुछ कसे गुर दिं ग


ू ी ज्जससे तुम अपने घर आराम
से र ा।

इसके बाद दोनों सखखयों में कानाफूसी ोने लगी। जब भावज चप


ु ु ई तो
ननरुपमा बोली-और जो क ीिं कफर क्या ी ु ई तो?भावज-तो क्या? कुछ हदन तो
शािंनत और सुख से जीवन कटे गा। य हदन तो कोई लौटा न लेगा। पुत्र ु आ तो
क ना ी क्या, पुत्री ु ई तो कफर कोई नयी युज्क्त ननकाली जायेगी। तुम् ारे घर
के जैसे अक्ल के दश्ु मनों के साथ कसी ी चालें चलने से गुजारा ै।

ननरुपमा-मुझे तो सिंकोच मालम


ू ोता ै।

भावज-बत्रपाठी जी को दो-चार हदन में पत्र मलख दे ना कक म ात्मा जी के दशगन

ु ए और उन् ोंने मुझे वरदान हदया ै । ईश्वर ने चा ा तो उसी हदन से तुम् ारी
मान-प्रनतष्ठा ोने लगी। घमिंडी दौडे ु ए आयेंगे और तम् ारे ऊपर प्राण ननछावर
करें गे। कम-से-कम साल भर तो चैन की विंशी बजाना। इसके बाद दे खी जायेगी।
ननरुपमा-पनत से कपट करूिं तो पाप न लगेगा?

भावज-कसे स्वाधथगयों से कपट करना पुण्य ै।

तीन चार म ीने के बाद ननरुपमा अपने घर आयी। घमिंडीलाल उसे ववदा कराने
गये थे। सल ज ने म ात्मा जी का रिं ग और भी चोखा कर हदया। बोली-कसा तो
ककसी को दे खा न ीिं कक इस म ात्मा जी ने वरदान हदया ो और व पूरा न ो
गया ो। ािं, ज्जसका भाग्य फूट जाये उसे कोई क्या कर सकता ै।

घमिंडीलाल प्रत्यक्ष तो वरदान और आशीवाद की उपेक्षा ी करते र े , इन बातों


पर ववश्वास करना आजकल सिंकोचजनक मालूम ोता ; पर उनके हदल पर
असर जरूर ु आ।

ननरुपमा की खानतरदाररयािं ोनी शुरू ु ईं। जब व गभगवती ु ई तो सबके हदलों


में नयी-नयी आशाएिं ह लोरें लेने लगी। सास जो उठते गाली और बैठते व्यिंग्य से
बातें करती थीिं अब उसे पान की तर फेरती-बेटी, तुम र ने दो, मैं ी रसोई बना
लिंग
ू ी, तम्
ु ारा मसर दख
ु ने लगेगा। कभी ननरुपमा कलसे का पानी या चारपाई
उठाने लगती तो सास दौडती-ब ू ,र ने दो, मैं आती ूिं , तम
ु कोई भारी चीज मत
उठाया करा। लडककयों की बात और ोती ै , उन पर ककसी बात का असर न ीिं
ोता, लडके तो गभग ी में मान करने लगते ैं। अब ननरुपमा के मलए दि
ू का
उठौना ककया गया, ज्जससे बालक पुष्ट और गोरा ो। घमिंडी वस्त्राभूषणों पर
उतारू ो गये। र म ीने एक-न-एक नयी चीज लाते। ननरुपमा का जीवन इतना
सख
ु मय कभी न था। उस समय भी न ीिं जब नवेली विू थी।

म ीने गुजरने लगे। ननरूपमा को अनुभूत लक्षणों से ववहदत ोने लगा कक य


कन्या ी ै ; पर व इस भेद को गुप्त रखती थी। सोचती, सावन की िूप ै,
इसका क्या भरोसा ज्जतनी चीज िप
ू में सख
ु ानी ो सख
ु ा लो, कफर तो घटा
छायेगी ी। बात-बात पर बबगडती। व कभी इतनी मानशीला न थी। पर घर में
कोई चिंू तक न करता कक क ीिं ब ू का हदल न दख
ु ,े न ीिं बालक को कष्ट ोगा।
कभी-कभी ननरुपमा केवल घरवालों को जलाने के मलए अनुष्ठान करती, उसे उन् ें
जलाने में मजा आता था। व सोचती, तुम स्वाधथगयों को ज्जतना जलाऊिं उतना
अच्छा! तुम मेरा आदर इसमलए करते ो न कक मैं बच्च जनूिंगी जो तुम् ारे कुल
का नाम चलायेगा। मैं कुछ न ीिं ूिं , बालक ी सब-कुछ ै । मेरा अपना कोई
म त्व न ीिं, जो कुछ ै व बालक के नाते। य मेरे पनत ैं! प ले इन् ें मझ
ु से
ककतना प्रेम था, तब इतने सिंसार-लोलप
ु न ु ए थे। अब इनका प्रेम केवल स्वाथग
का स्वािंग ै । मैं भी पशु ूिं ज्जसे दि
ू के मलए चारा-पानी हदया जाता ै । खैर,
य ी स ी, इस वक्त तो तुम मेरे काबू में आये ो! ज्जतने ग ने बन सकें बनवा
लूिं, इन् ें तो छीन न लोगे।

इस तर दस म ीने पूरे ो गये। ननरुपमा की दोनों ननदें ससुराल से बुलायी


गयीिं। बच्चे के मलए प ले ी सोने के ग ने बनवा मलये गये , दि
ू के मलए एक
सुन्दर दि
ु ार गाय मोल ले ली गयी, घमिंडीलाल उसे वा खखलाने को एक छोटी-
सी सेजगाडी लाये। ज्जस हदन ननरूपमा को प्रसव-वेदना ोने लगी, द्वार पर
पिंडडत जी मु ू तग दे खने के मलए बल
ु ाये गये। एक मीरमशकार बिंदक
ू छोडने को
बुलाया गया, गायनें मिंगल-गान के मलए बटोर ली गयीिं। घर से नतल-नतल कर
खबर मिंगायी जाती थी, क्या ु आ? लेडी ड क्टर भी बुलायी गयीिं। बाजे वाले ु क्म
के इिंतजार में बैठे थे। पामर भी अपनी सारिं गी मलये ‘जच्चा मान करे निंदलाल
सों’ की तान सुनाने को तैयार बैठा था। सारी तैयाररयािं; सारी आशाएिं, सारा उत्सा
समारो एक ी शब्द पर अवलज्म्ब था। जयों-जयों दे र ोती थी लोगों में
उत्सक
ु ता बढ़ती जाती थी। घमिंडीलाल अपने मनोभावों को नछपाने के मलए एक
समाचार -पत्र दे ख र े थे, मानो उन् ें लडका या लडकी दोनों ी बराबर ैं। मगर
उनके बूढ़े वपता जी इतने साविान न थे। उनकी पीछें खखली जाती थीिं, िं स- िं स
कर सबसे बात कर र े थे और पैसों की एक थैली को बार-बार उछालते थे।

मीरमशकार ने क ा-मामलक से अबकी पगडी दप


ु ट्टा लूिंगा।
वपताजी ने खखलकर क ा-अबे ककतनी पगडडयािं लेगा? इतनी बेभाव की दिं ग
ू ा कक
सर के बाल गिंजे ो जायेंगे।

पामर बोला-सरकार अब की कुछ जीववका लूिं।

वपताजी खखलकर बोले-अबे ककतनी खायेगा; खखला-खखला कर पेट फाड दिं ग


ू ा।

स सा म री घर में से ननकली। कुछ घबरायी-सी थी। व अभी कुछ बोलने भी


न पायी थी कक मीरमशकार ने बन्दक
ू फैर कर ी तो दी। बन्दक
ू छूटनी थी कक
रोशन चौकी की तान भी नछड गयी, पामर भी कमर कसकर नाचने को खडा ो
गया।
म री-अरे तुम सब के सब भिंग खा गये ो गया?

मीरमशकार-क्या ु आ?

म री- ु आ क्या लडकी ी तो कफर ु ई ै?

वपता जी-लडकी ु ई ै?

य क ते-क ते व कमर थामकर बैठ गये मानो वज्र धगर पडा। घमिंडीलाल
कमरे से ननकल आये और बोले-जाकर लेडी डाक्टर से तो पछ
ू । अच्छी तर दे ख
न ले। दे खा सुना, चल खडी ु ई।

म री-बाबज
ू ी, मैंने तो आिंखों दे खा ै!

घमिंडीलाल-कन्या ी ै?

वपता- मारी तकदीर ी कसी ै बेटा! जाओ रे सब के सब! तुम सभी के भाग्य
में कुछ पाना न मलखा था तो क ािं से पाते। भाग जाओ। सैंकडों रुपये पर पानी
कफर गया, सारी तैयारी ममट्टी में ममल गयी।
घमिंडीलाल-इस म ात्मा से पूछना चाह ए। मैं आज डाक से जरा बचा की खबर
लेता ूिं ।

वपता-िूतग ै , िूत!ग

घमिंडीलाल-मैं उनकी सारी ित


ू गता ननकाल दिं ग
ू ा। मारे डिंडों के खोपडी न तोड दिं ू तो
कह एगा। चािंडाल क ीिं का! उसके कारण मेरे सैंकडों रुपये पर पानी कफर गया।
य सेजगाडी, य गाय, य पलना, य सोने के ग ने ककसके मसर पटकिंू । कसे ी
उसने ककतनों ी को ठगा ोगा। एक दफा बचा ी मरम्मत ो जाती तो ठीक
ो जाते।

वपता जी-बेटा, उसका दोष न ीिं, अपने भाग्य का दोष ै।

घमिंडीलाल-उसने क्यों क ा कसा न ीिं ोगा। औरतों से इस पाखिंड के मलए ककतने


ी रुपये किंठे ोंगे। व सब उन् ें उगलना पडेगा, न ीिं तो पमु लस में रपट कर
दिं ग
ू ा। कानून में पाखिंड का भी तो दिं ड ै । मैं प ले ी चौंका था कक ो न ो
पाखिंडी ै ; लेककन मेरी सल ज ने िोखा हदया, न ीिं तो मैं कसे पाज्जयों के पिंजे में
कब आने वाला था। एक ी सअ
ु र ै।

वपताजी-बेटा सब्र करो। ईश्वर को जो कुछ मिंजूर था, व ु आ। लडका-लडकी


दोनों ी ईश्वर की दे न ै , ज ािं तीन ैं व ािं एक और स ी।

वपता और पत्र
ु में तो य बातें ोती र ीिं। पामर, मीरमशकार आहद ने अपने-अपने
डिंडे सिंभाले और अपनी रा चले। घर में मातम-सा छा गया, लेडी ड क्टर भी
ववदा कर दी गयी, सौर में जच्चा और दाई के मसवा कोई न र ा। वद्ध
ृ ा माता तो
इतनी ताश ु ई कक उसी वक्त अटवास-खटवास लेकर पड र ीिं।

जब बच्चे की बर ी ो गयी तो घमिंडीलाल स्त्री के पास गये और सरोष भाव से


बोले-कफर लडकी ो गयी!
ननरुपमा-क्या करूिं, मेरा क्या बस?

घमिंडीलाल-उस पापी ित
ू ग ने बडा चकमा हदया।

ननरुपमा-अब क्या क ें , मेरे भाग्य ी में न ोगा, न ीिं तो व ािं ककतनी ी औरतें
बाबाजी को रात-हदन घेरे र ती थीिं। व ककसी से कुछ लेते तो क ती कक िूतग
ैं, कसम ले लो जो मैंने एक कौडी भी उन् ें दी ो।

घमिंडीलाल-उसने मलया या न मलया, य ािं तो हदवाला ननकल गया। मालूम ो


गया तकदीर में पत्र
ु न ीिं मलखा ै । कुल का नाम डूबना ी ै तो क्या आज
डूबा, क्या दस साल बाद डूबा। अब क ीिं चला जाऊिंगा, ग ृ स्थी में कौन-सा सख

रखा ै।
व ब ु त दे र तक खडे-खडे अपने भाग्य को रोते र े ; पर ननरुपमा ने मसर तक न
उठाया।

ननरुपमा के मसर कफर व ी ववपज्त्त आ पडी, कफर व ी ताने, व ी अपमान, व ी


अनादर, व ी छीछालेदार, ककसी को धचिंता न र ती कक खाती-पीती ै या न ीिं,
अच्छी ै या बीमार, दख
ु ी ै या सुखी। घमिंडीलाल यद्यवप क ीिं न गये, पर
ननरूपमा को य ी िमकी प्राय: ननत्य ी ममलती र ती थी। कई म ीने यों ी
गज
ु र गये तो ननरूपमा ने कफर भावज को मलखा कक तम
ु ने और भी मझ
ु े
ववपज्त्त में डाल हदया। इससे तो प ले ी भली थी। अब तो काई बात भी न ीिं
पूछता कक मरती ै या जीती ै । अगर य ी दशा र ी तो स्वामी जी चा े
सिंन्यास लें या न लें , लेककन मैं सिंसार को अवश्य त्याग दिं ग
ू ी।

भाभी य पत्र पाकर पररज्स्थनत समझ गयी। अबकी उसने ननरुपमा को बल


ु ाया
न ीिं, जानती थी कक लोग ववदा ी न करें गे, पनत को लेकर स्वयिं आ प ुिं ची।
उसका नाम सक
ु े शी था। बडी ममलनसार, चतरु ववनोदशील स्त्री थी। आते ी आते
ननरुपमा की गोद में कन्या दे खी तो बोली-अरे य क्या?

सास-भाग्य ै और क्या?

सुकेशी-भाग्य कैसा? इसने म ात्मा जी की बातें भुला दी ोंगी। कसा तो ो ी


न ीिं सकता कक व मुिं से जो कुछ क दें , व न ो। क्यों जी, तुमने मिंगल का
व्रत रखा?

ननरुपमा-बराबर, एक व्रत भी न छोडा।

सक
ु े शी-पािंच ब्राह्मणों को मिंगल के हदन भोजन कराती र ी?

ननरुपमा-य तो उन् ोंने न ीिं क ा था।

सुकेशी-तुम् ारा मसर, मुझे खूब याद ै , मेरे सामने उन् ोंने ब ु त जोर दे कर क ा
था। तुमने सोचा ोगा, ब्राह्मणों को भोजन कराने से क्या ोता ै। य न
समझा कक कोई अनुष्ठान सफल न ीिं ोता जब तक ववधिवत ् उसका पालन न
ककया जाये।

सास-इसने कभी इसकी चचाग ी न ीिं की;न ीिं;पािंच क्या दस ब्राह्मणों को ज्जमा
दे ती। तुम् ारे िमग से कुछ कमी न ीिं ै।

सुकेशी-कुछ न ीिं, भूल ो गयी और क्या। रानी, बेटे का मुिं यों दे खना नसीब
न ीिं ोता। बडे-बडे जप-तप करने पडते ैं, तुम मिंगल के व्रत ी से घबरा गयीिं?

सास-अभाधगनी ै और क्या?

घमिंडीलाल-कसी कौन-सी बडी बातें थीिं, जो याद न र ीिं? व म लोगों को जलाना


चा ती ै।
सास-व ी तो क ूिं कक म ात्मा की बात कैसे ननष्फल ु ई। य ािं सात बरसों ते
‘तल
ु सी माई’ को हदया चढ़ाया, जब जा के बच्चे का जन्म ु आ।

घमिंडीलाल-इन् ोंने समझा था दाल-भात का कौर ै!

सुकेशी-खैर, अब जो ु आ सो ु आ कल मिंगल ै , कफर व्रत रखो और अब की


सात ब्राह्मणों को ज्जमाओ, दे खें, कैसे म ात्मा जी की बात न ीिं पूरी ोती।

घमिंडीलाल-व्यथग ै , इनके ककये कुछ न ोगा।

सक
ु े शी-बाबज
ू ी, आप ववद्वान समझदार ोकर इतना हदल छोटा करते ैं। अभी
आपककी उम्र क्या ै । ककतने पत्र
ु लीज्जएगा? नाकों दम न ो जाये तो कह एगा।

सास-बेटी, दि
ू -पूत से भी ककसी का मन भरा ै।

सुकेशी-ईश्वर ने चा ा तो आप लोगों का मन भर जायेगा। मेरा तो भर गया।

घमिंडीलाल-सन
ु ती ो म ारानी, अबकी कोई गोलमोल मत करना। अपनी भाभी से
सब ब्योरा अच्छी तर पूछ लेना।

सक
ु े शी-आप ननज्श्चिंत र ें , मैं याद करा दिं ग
ू ी; क्या भोजन करना ोगा, कैसे र ना
ोगा कैसे स्नान करना ोगा, य सब मलखा दिं ग
ू ी और अम्मा जी, आज से
अठार मास बाद आपसे कोई भारी इनाम लूिंगी।

सक
ु े शी एक सप्ता य ािं र ी और ननरुपमा को खब
ू मसखा-पढ़ा कर चली गयी।

ननरुपमा का एकबाल कफर चमका, घमिंडीलाल अबकी इतने आश्वामसत से रानी

ु ई, सास कफर उसे पान की भािंनत फेरने लगी, लोग उसका मुिं जो ने लगे।
हदन गज
ु रने लगे, ननरुपमा कभी क ती अम्मािं जी, आज मैंने स्वप्न दे खा कक वद्ध

स्त्री ने आकर मझ
ु े पक
ु ारा और एक नाररयल दे कर बोली, ‘य तम्
ु ें हदये जाती

ूिं ; कभी क ती,’अम्मािं जी, अबकी न जाने क्यों मेरे हदल में बडी-बडी उमिंगें पैदा
ो र ी ैं , जी चा ता ै खूब गाना सुनूिं, नदी में खूब स्नान करूिं, रदम नशा-सा
छाया र ता ै । सास सुनकर मुस्कराती और क ती-ब ू ये शुभ लक्षण ैं।

ननरुपमा चुपके-चुपके माजूर मिंगाकर खाती और अपने असल नेत्रों से ताकते ु ए


घमिंडीलाल से पूछती-मेरी आिंखें लाल ैं क्या?

घमिंडीलाल खश
ु ोकर क ते-मालम
ू ोता ै , नशा चढ़ा ु आ ै । ये शुभ लक्षण ैं।

ननरुपमा को सुगिंिों से कभी इतना प्रेम न था, फूलों के गजरों पर अब व जान


दे ती थी।

घमिंडीलाल अब ननत्य सोते समय उसे म ाभारत की वीर कथाएिं पढ़कर सुनाते,
कभी गुरु गोवविंदमसिं कीनतग का वणगन करते। अमभमन्यु की कथा से ननरुपमा को
बडा प्रेम था। वपता अपने आने वाले पत्र
ु को वीर-सिंस्कारों से पररपरू रत कर दे ना
चा ता था।

एक हदन ननरुपमा ने पनत से क ा-नाम क्या रखोगे ?

घमिंडीलाल-य तो तुमने खूब सोचा। मुझे तो इसका ध्यान ी न र ा। कसा नाम


ोना चाह ए ज्जससे शौयग और तेज टपके। सोचो कोई नाम।

दोनों प्राणी नामों की व्याख्या करने लगे। जोरावरलाल से लेकर ररश्चन्द्र तक


सभी नाम धगनाये गये, पर उस असामान्य बालक के मलए कोई नाम न ममला।
अिंत में पनत ने क ा तेगब ादरु कैसा नाम ै।

ननरुपमा-बस-बस, य ी नाम मुझे पसन्द ै?


घमिंडी लाल-नाम ी तो सब कुछ ै । दमडी, छकौडी, घरु ू , कतवारू, ज्जसके नाम
दे खे उसे भी ‘यथा नाम तथा गण
ु ’ ी पाया। मारे बच्चे का नाम ोगा
तेगब ादरु ।

प्रसव-काल आ प ुिं चा। ननरुपमा को मालूम था कक क्या ोने वाली ै ; लेककन


बा र मिंगलाचरण का पूरा सामान था। अबकी ककसी को लेशमात्र भी सिंदे न
था। नाच, गाने का प्रबिंि भी ककया गया था। एक शाममयाना खडा ककया गया था
और ममत्रगण उसमें बैठे खश
ु -गज्प्पयािं कर र े थे। लवाई कडाई से परू रयािं और
ममठाइयािं ननकाल र ा था। कई बोरे अनाज के रखे ु ए थे कक शुभ समाचार
पाते ी मभक्षुकों को बािंटे जायें। एक क्षण का भी ववलम्ब न ो, इसमलए बोरों के
मुिं खोल हदये गये थे।

लेककन ननरुपमा का हदल प्रनतक्षण बैठा जाता था। अब क्या ोगा? तीन साल
ककसी तर कौशल से कट गये और मजे में कट गये, लेककन अब ववपज्त्त मसर
पर मिंडरा र ी ै। ाय! ननरपराि ोने पर भी य ी दिं ड! अगर भगवान ् की इच्छा
ै कक मेरे गभग से कोई पुत्र न जन्म ले तो मेरा क्या दोष! लेककन कौन सुनता
ै । मैं ी अभाधगनी ूिं मैं ी त्याजय ूिं मैं ी कलमुिं ी ूिं इसीमलए न कक परवश

ूिं ! क्या ोगा? अभी एक क्षण में य सारा आनिंदात्सव शोक में डूब जायेगा, मझ

पर बौछारें पडने लगें गी, भीतर से बा र तक मझ
ु ी को कोसेंगे, सास-ससरु का भय
न ीिं, लेककन स्वामी जी शायद कफर मेरा मुिं न दे खें, शायद ननराश ोकर घर-बार
त्याग दें । चारों तरफ अमिंगल ी अमिंगल ैं मैं अपने घर की, अपनी सिंतान की
दद
ु ग शा दे खने के मलए क्यों जीववत ूिं । कौशल ब ु त ो चुका, अब उससे कोई
आशा न ीिं। मेरे हदल में कैसे-कैसे अरमान थे। अपनी प्यारी बज्च्चयों का लालन-
पालन करती, उन् ें ब्या ती, उनके बच्चों को दे खकर सख
ु ी ोती। पर आ ! य
सब अरमान झाक में ममले जाते ैं। भगवान ्! तुम् ी अब इनके वपता ो, तुम् ीिं
इनके रक्षक ो। मैं तो अब जाती ूिं ।
लेडी ड क्टर ने क ा-वेल! कफर लडकी ै।

भीतर-बा र कु राम मच गया, वपट्टस पड गयी। घमिंडीलाल ने क ा-ज न्नम


ु में
जाये कसी ज्जिंदगी, मौत भी न ीिं आ जाती!

उनके वपता भी बोले-अभाधगनी ै , वज्र अभाधगनी!

मभक्षुकों ने क ा-रोओ अपनी तकदीर को म कोई दस


ू रा द्वार दे खते ैं।

अभी य शोकादगार शािंत न ोने पाया था कक ड क्टर ने क ा मािं का ाल


अच्छा न ीिं ै। व अब न ीिं बच सकती। उसका हदल बिंद ो गया ै।

***
दं ड

सिंध्या का समय था। कच री उठ गयी थी। अ लकार चपरासी जेबें खनखनाते


घर जा र े थे। मे तर कूडे टटोल र ा था कक शायद क ीिं पैसे ममल जायें।
कच री के बरामदों में सािंडों ने वकीलों की जग ले ली थी। पेडों के नीचे
मु ररग रों की जग कुत्ते बैठे नजर आते थे। इसी समय एक बूढ़ा आदमी, फटे -
पुराने कपडे प ने, लाठी टे कता ु आ, जिंट सा ब के बिंगले पर प ुिं चा और
सायबान में खडा ो गया। जिंट सा ब का नाम था ममस्टर जी0 मसन ा।
अरदली ने दरू ी से ललकारा—कौन सायबान में खडा ै ? क्या चा ता ै।

बूढ़ा—गरीब बाम् ान ूिं भैया, सा ब से भें ट ोगी?

अरदली—सा ब तुम जैसों से न ीिं ममला करते।

बूढ़े ने लाठी पर अकड कर क ा—क्यों भाई, म खडे ैं या डाकू-चोर ैं कक


मारे मिंु में कुछ लगा ु आ ै?

अरदली—भीख मािंग कर मुकदमा लडने आये ोंगे?

बूढ़ा—तो कोई पाप ककया ै ? अगर घर बेचकर न ीिं लडते तो कुछ बुरा करते ैं?
य ािं तो मुकदमा लडते-लडते उमर बीत गयी; लेककन घर का पैसा न ीिं खरचा।
ममयािं की जूती ममयािं का मसर करते ैं। दस भलेमानसों से मािंग कर एक को
दे हदया। चलो छुट्टी ु ई। गािंव भर नाम से कािंपता ै । ककसी ने जरा भी
हटर-वपर की और मैंने अदालत में दावा दायर ककया।

अरदली—ककसी बडे आदमी से पाला न ीिं पडा अभी?

बूढ़ा—अजी, ककतने ी बडों को बडे घर मभजवा हदया, तूम ो ककस फेर में ।
ाई-कोटग तक जाता ूिं सीिा। कोई मेरे मुिं क्या आयेगा बेचारा! गािंव से तो
कौडी जाती न ीिं, कफर डरें क्यों? ज्जसकी चीज पर दािंत लगाये, अपना करके
छोडा। सीिे न हदया तो अदालत में घसीट लाये और रगेद -रगेद कर मारा,
अपना क्या बबगडता ै ? तो सा ब से उत्तला करते ो कक मैं ी पुकारूिं?

अरदली ने दे खा; य आदमी यों टलनेवाला न ीिं तो जाकर सा ब से उसकी


इत्तला की। सा ब ने ु मलया पछ
ू ा और खश
ु ोकर क ा—फौरन बल
ु ा लो।

अरदली— जूर, बबलकुल फटे ाल ै।

सा ब—गुदडी ी में लाल ोते ैं। जाकर भेज दो।

ममस्टर मसन ा अिेड आदमी थे, ब ु त ी शािंत, ब ु त ी ववचारशील। बातें ब ु त


कम करते थे। कठोरता और असभ्यता, जो शासन की अिंग समझी जाती ैं ,
उनको छु भी न ीिं गयी थी। न्याय और दया के दे वता मालूम ोते थे। डील-
डौल दे वों का-सा था और रिं ग आबनूस का-सा। आराम-कुसी पर लेटे ु ए पेचवान
पी र े थे। बूढ़े ने जाकर सलाम ककया।

मसन ा—तुम ो जगत पािंड!े आओ बैठो। तुम् ारा मुकदमा तो ब ु त ी कमजोर


ै। भले आदमी, जाल भी न करते बना?

जगत—कसा न क ें जूर, गरीब आदमी ूिं , मर जाऊिंगा।

मसन ा—ककसी वकील मख्


ु तार से सला भी न ले ली?

जगत—अब तो सरकार की सरन में आया ूिं ।

मसन ा—सरकार क्या मममसल बदल दें गे; या नया कानून गढ़ें गे? तुम गच्चा खा
गये। मैं कभी कानून के बा र न ीिं जाता। जानते ो न अपील से कभी मेरी
तजवीज रद्द न ीिं ोती?
जगत—बडा िरम ोगा सरकार! (मसन ा के पैरों पर धगज्न्नयों की एक
पोटली रखकर) बडा दख
ु ी ूिं सरकार!

मसन ा—(मुस्करा कर) य ािं भी अपनी चालबाजी से न ीिं चूकते? ननकालो अभी
और, ओस से प्यास न ीिं बझ
ु ती। भला द ाई तो परू ा करो।

जगत—ब ु त तिंग ूिं दीनबिंिु!

मसन ा—डालो-डालो कमर में ाथ। भला कुछ मेरे नाम की लाज तो रखो।

जगत—लट
ु जाऊिंगा सरकार!

मसन ा—लुटें तुम् ारे दश्ु मन, जो इलाका बेचकर लडते ैं। तुम् ारे जजमानों का
भगवान भला करे , तुम् ें ककस बात की कमी ै।

ममस्टर मसन ा इस मामले में जरा भी ररयायत न करते थे। जगत ने दे खा


कक य ााँ काइयािंपन से काम चलेगा तो चुपके से 4 धगज्न्नयािं और ननकालीिं।
लेककन उन् ें ममस्टर मसन ा के पैरों रखते समय उसकी आिंखों से खून ननकल
आया। य उसकी बरसों की कमाई थी। बरसों पेट काटकर, तन जलाकर, मन
बािंिकर, झठ
ु ी गवाह यािं दे कर उसने य थाती सिंचय कर पायी थी। उसका
ाथों से ननकलना प्राण ननकलने से कम दख
ु दायी न था।

जगत पािंडे के चले जाने के बाद, कोई 9 बजे रात को, जिंट सा ब के बिंगले
पर एक तािंगा आकर रुका और उस पर से पिंडडत सत्यदे व उतरे जो राजा सा ब
मशवपुर के मुख्तार थे।

ममस्टर मसन ा ने मस्


ु कराकर क ा—आप शायद अपने इलाके में गरीबों को न
र ने दें गे। इतना जल्
ु म!
सत्यदे व—गरीब परवर, य कह ए कक गरीबों के मारे अब इलाके में मारा
र ना मज्ु श्कल ो र ा ै । आप जानते ैं , सािी उिं गली से घी न ीिं ननकलता।
जमीिंदार को कुछ-न-कुछ सख्ती करनी ी पडती ै , मगर अब य ाल ै कक
मने जरा चूिं भी की तो उन् ीिं गरीबों की त्योररयािं बदल जाती ैं। सब
मुफ्त में जमीन जोतना चा ते ैं। लगान मािंधगये तो फौजदारी का दावा
करने को तैयार! अब इसी जगत पािंडे को दे खखए, गिंगा कसम ै ु जूर सरासर
झठ
ू ा दावा ै । ु जरू से कोई बात नछपी तो र न ीिं सकती। अगर जगत पािंडे
मक
ु दमा जीत गया तो में बोररयािं-बिंिना छोडकर भागना पडेगा। अब ु जरू ी
बसाएिं तो बस सकते ैं। राजा सा ब ने ु जूर को सलाम क ा ै और अजग की
ै क इस मामले में जगत पािंडे की कसी खबर लें कक व भी याद करे ।

ममस्टर मसन ा ने भवें मसकोड कर क ा—कानन


ू मेरे घर तो न ीिं बनता?

सत्यदे व—आपके ाथ में सब कुछ ै।

य क कर धगज्न्नयों की एक गड्डी ननकाल कर मेज पर रख दी। ममस्टर


मसन ा ने गड्डी को आिंखों से धगनकर क ा—इन् ें मेरी तरफ से राजा सा ब को
नजर कर दीज्जएगा। आखखर आप कोई वकील तो करें गे। उसे क्या दीज्जएगा?

सत्यदे व—य तो ु जूर के ाथ में ै । ज्जतनी ी पेमशयािं ोंगी उतना ी खचग


भी बढ़े गा।

मसन ा—मैं चा ूिं तो म ीनों लटका सकता ूिं ।

सत्यदे व— ािं, इससे कौन इनकार कर सकता ै।


मसन ा—पािंच पेमशयािं भी ु यीिं तो आपके कम से कम एक जार उड जायेंगे।
आप य ािं उसका आिा पूरा कर दीज्जए तो एक ी पेशी में वारा-न्यारा ो
जाए। आिी रकम बच जाय।
सत्यदे व ने 10 धगज्न्नयािं और ननकाल कर मेज पर रख दीिं और घमिंड के साथ
बोले— ु क्म ो तो राजा सा ब क दिं ,ू आप इत्मीनान रखें , सा ब की कृपादृज्ष्ट
ो गयी ै।

ममस्टर मसन ा ने तीव्र स्वर में क ा ‘जी न ीिं, य क ने की जरूरत न ीिं।


मैं ककसी शतग पर य रकम न ीिं ले र ा। मैं करूिंगा व ी जो कानन
ू की मिंशा
ोगी। कानून के खखलाफ जौ-भर भी न ीिं जा सकता। य ी मेरा उसूल ै । आप
लोग मेरी खानतर करते ैं, य आपकी शरारत ै । उसे अपना दश्ु मन समझूिंगा
जो मेरा ईमान खरीदना चा े । मैं जो कुछ लेता ूिं , सच्चाई का इनाम समझ
कर लेता ूिं ।‘

जगत पािंडे को पूरा ववश्वास था कक मेरी जीत ोगी; लेककन तजबीज सुनी तो
ोश उड गये! दावा खाररज ो गया! उस पर खचग की चपत अलग। मेरे साथ
य चाल! अगर लाला सा ब को इसका मजा न चखा हदया, तो बाम् न
न ीिं। ैं ककस फेर में ? सारा रोब भल
ु ा दिं ग
ू ा। व ािं गाढ़ी कमाई के रुपये ैं। कौन
पचा सकता ै ? ाड फोड-फोड कर ननकलें गे। द्वार पर मसर पटक-पटक
कर मर जाऊिंगा।

उसी हदन सिंध्या को जगत पािंडे ने ममस्टर मसन ा के बिंगले के सामने


आसन जमा हदया। व ािं बरगद का घना वक्ष
ृ था। मक
ु दमेवाले व ीिं सत्तू, चबेना
खाते ओर दोप री उसी की छािं में काटते थे। जगत पािंडे उनसे ममस्टर
मसन ा की हदल खोलकर ननिंदा करता। न कुछ खाता न पीता, बस लोगों को
अपनी रामक ानी सुनाया करता। जो सुनता व जिंट सा ब को चार खोटी-खरी
क ता—आदमी न ीिं वपशाच ै , इसे तो कसी जग मारे ज ािं पानी न ममले । रुपये
के रुपये मलए, ऊपर से खरचे समेत डडग्री कर दी! य ी करना था तो रुपये का े
को ननकले थे? य ै मारे भाई-बिंदों का ाल। य अपने क लाते ैं! इनसे तो
अिंग्रेज ी अच्छे । इस तर की आलोचनाएिं हदन-भर ु आ करतीिं। जगत पािंडे के
आस-पास आठों प र जमघट लगा र ता।

इस तर चार हदन बीत गये और ममस्टर मसन ा के कानों में भी बात प ुिं ची।
अन्य ररश्वती कमगचाररयों की तर व भी े कड आदमी थे। कसे ननद्गविंद्व र ते
मानो उन् ें य बीमारी छू तक न ीिं गयी ै । जब व कानून से जौ-भर भी न
टलते थे तो उन पर ररश्वत का सिंदे ो ी क्योंकर सकता था, और कोई
करता भी तो उसकी मानता कौन! कसे चतुर खखलाडी के ववरुद्ध कोई जाब्ते की
कारग वाई कैसे ोती? ममस्टर मसन ा अपने अफसरों से भी खुशामद का व्यव ार
न करते। इससे ु क्काम भी उनका ब ु त आदर करते थे। मगर जगत पािंडे ने
व मिंत्र मारा था ज्जसका उनके पास कोई उत्तर न था। कसे बािंगड आदमी से
आज तक उन् ें साबबका न पडा था। अपने नौकरों से पछ
ू ते—बड्
ु ढा
क्या कर र ा ै । नौकर लोग अपनापन जताने के मलए झूठ के पुल बािंि दे त—

ु जूर, क ता था भूत बन कर लगूिंगा, मेरी वेदी बने तो स ी, ज्जस हदन मरूिंगा


उस हदन के सौ जगत पािंडे ोंगे। ममस्टर मसन ा पक्के नाज्स्तक थे ; लेककन ये
बातें सुन-सुनकर सशिंक ो जाते, और उनकी पत्नी तो थर-थर कािंपने लगतीिं। व
नौकरों से बार-बार क ती उससे जाकर पछ
ू ो, क्या चा ता ै । ज्जतना रुपया चा े
ले, मसे जो मािंगे व दें गे, बस य ािं से चला जाय, लेककन ममस्टर मसन ा
आदममयों को इशारे से मना कर दे ते थे। उन् ें अभी तक आशा थी कक भूख-
प्यास से व्याकुल ोकर बुड्ढा चला जायगा। इससे अधिक भय य था कक
मैं जरा भी नरम पडा और नौकरों ने मुझे उल्लू बनाया।

छठे हदन मालूम ु आ कक जगत पािंडे अबोल ो गया ै , उससे ह ला तक न ीिं


जाता,चुपचाप पडा आकाश की ओर दे ख र ा ै । शायद आज रात दम ननकल
जाय। ममस्टर मसन ा ने लिंबी सािंस ली और ग री धचिंता में डूब गये। पत्नी
ने आिंखों में आिंसू भरकर आग्र पूवग क ा—तुम् ें मेरे मसर की कसम, जाकर
ककसी इस बला को टालो। बड्
ु ढा मर गया तो म क ीिं के न र ें गे। अब रुपये
का मिंु मत दे खो। दो-चार जार भी दे ने पडें तो दे कर उसे मनाओ। तम
ु को जाते
शमग आती ो तो मैं चली जाऊिं।

मसन ा—जाने का इरादा तो मैं कई हदन से कर र ा ूिं ; लेककन जब दे खता ूिं


व ािं भीड लगी र ती ै , इससे ह म्मत न ीिं पडती। सब आदममयों के सामने तो
मझ
ु से न जाया जायगा, चा े ककतनी ी बडी आफत क्यों न आ पडे। तम

दो-चार जार की क ती ो, मैं दस-पािंच जार दे ने को तैयार ूिं । लेककन व ािं
न ीिं जा सकता। न जाने ककस बुरी साइत से मैंने इसके रुपये मलए। जानता
कक य इतना कफसाद खडा करे गा तो फाटक में घुसने ी न दे ता। दे खने में तो
कसा सीिा मालूम ोता था कक गऊ ै । मैंने प ली बार आदमी प चानने में
िोखा खाया।

पत्नी—तो मैं ी चली जाऊिं? श र की तरफ से आऊिंगी और सब आदममयों को


टाकर अकेले में बात करुिं गी। ककसी को खबर न ोगी कक कौन ै । इसमें तो
कोई रज न ीिं ै?

ममस्टर मसन ा ने सिंहदग्ि भाव से क ा-ताडने वाले ताड ी जायेंगे, वा े


तुम ककतना ी नछपाओ।

पत्नी—ताड जायेंगे ताड जायें, अब ककससे क ािं तक डरुिं । बदनामी अभी क्या
कम ो र ी ै ,जो और ो जायगी। सारी दनु नया जानती ै कक तुमने रुपये
मलए। यों ी कोई ककसी पर प्राण न ीिं दे ता। कफर अब व्यथग किंथ क्यों करो?

ममस्टर मसन ा अब ममगवेदना को न दबा सके। बोले —वप्रये, य व्यथग की किंठ


न ीिं ै । चोर को अदालत में बेंत खाने से उतनी लजजा न ीिं आती, ज्जतनी
ककसी ाककम को अपनी ररश्वत का परदा खुलने से आती ै। व ज र खा
कर मर जायगा; पर सिंसार के सामने अपना परदा न खोलेगा। अपना सवगनाश
दे ख सकता ै ; पर य अपमान न ीिं स सकता, ज्जिंदा खाल खीिंचने, या कोल् ू
में पेरे जाने के मसवा और कोई ज्स्थनत न ीिं ै , जो उसे अपना अपराि स्वीकार
करा सके। इसका तो मझ
ु े जरा भी भय न ीिं ै कक ब्राह्मण भत
ू बनकर मको
सतायेगा, या में उनकी वेदी बनाकर पज
ू नी पडेगी, य भी जानता ूिं कक
पाप का दिं ड भी ब ु िा न ीिं ममलता; लेककन ह द
िं ू ोने के कारण सिंस्कारों की
शिंका कुछ-कुछ बनी ु ई ै । ब्रह्म त्या का कलिंक मसर पर लेते ुए
आत्मा कािंपती ै । बस इतनी बात ै । मैं आज रात को मौका दे खकर जाऊिंगा
और इस सिंकट को काटने के मलए जो कुछ ो सकेगा, करुिं गा। नतर जमा रखो।

आिी रात बीत चक


ु ी थी। ममस्टर मसन ा घर से ननकले और अकेले जगत पािंडे
को मनाने चले। बरगद के नीचे बबलकुल सन्नाटा था। अन्िकार कसा था
मानो ननशादे वी य ीिं शयन कर र ी ों। जगत पािंडे की सािंस जोर-जोर से चल
र ी थी मानो मौत जबरदस्ती घसीटे मलए जाती ो। ममस्टर मसन ा के रोएिं
खडे ो गये। बुड्ढा क ीिं मर तो न ीिं र ा ै ? जेबी लालटे न ननकाली और जगत
के समीप जाकर बोले—पािंडे जी, क ो क्या ाल ै?

जगत पािंडे ने आिंखें खोलकर दे खा और उठने की असफल चेष्टा करके बोला—


मेरा ाल पूछते ो? दे खते न ीिं ो, मर र ा ूिं ?

मसन ा—तो इस तर क्यों प्राण दे ते ो?

जगत—तम्
ु ारी य ी इच्छा ै तो मैं क्या करूिं?

मसन ा—मेरी तो य ी इच्छा न ीिं। ािं, तुम अलबत्ता मेरा सवगनाश करने पर तुले

ुए ो। आखखर मैंने तुम् ारे डेढ़ सौ रूपये ी तो मलए ैं। इतने ी रुपये के
मलए तम
ु इतना बडा अनष्ु ठान कर र े ो!

जगत—डेढ़ सौ रुपये की बात न ीिं ै । जो तुमने मुझे ममट्टी में ममला हदया।
मेरी डडग्री ो गयी ोती तो मुझे दस बीघे जमीन ममल जाती और सारे इलाके
में नाम ो जाता। तम
ु ने मेरे डेढ़ सौ न ीिं मलए, मेरे पािंच जार बबगाड हदये। परू े
पािंच जार; लेककन य घमिंड न र े गा, याद रखना क े दे ता ूिं , सत्यानाश ो
जायगा। इस अदालत में तुम् ारा राजय ै ; लेककन भगवान के दरवार में ववप्रों
ी का राजय ै । ववप्र का िन लेकर कोई सुखी न ीिं र सकता।

ममस्टर मसन ा ने ब ु त खेद और लजजा प्रकट की, ब ु त अनन


ु य-से काम
मलया और अन्त में पूछा—सच बताओ पािंडे, ककतने रुपये पा जाओ तो य
अनुष्ठान छोड दो।

जगत पािंडे अबकी जोर लगाकर उठ बैठे और बडी उत्सक


ु ता से बोले—पािंच
जार से कौडी कम न लूिंगा।

मसन ा—पािंच जार तो ब ु त ोते ैं। इतना जल्


ु म न करो।

जगत—न ीिं, इससे कम न लूिंगा।

य क कर जगत पािंडे कफर लेट गया। उसने ये शब्द ननश्चयात्मक भाव से क े


थे कक ममस्टर मसन ा को और कुछ क ने का सा स न ु आ। रुपये लाने घर
चले; लेककन घर प ुिं चते-प ुिं चते नीयत बदल गयी। डेढ़ सौ के बदले पािंच जार
दे ते कलिंक ु आ। मन में क ा—मरता ै जाने दो, क ािं की ब्रह्म त्या
और कैसा पाप! य सब पाखिंड ै । बदनामी न ोगी? सरकारी मल
ु ाज्जम तो
यों ी बदनाम ोते ैं, य कोई नई बात थोडे ी ै । बचा कैसे उठ बैठे थे ।
समझा ोगा, उल्लू फिंसा। अगर 6 हदन के उपवास करने से पािंच जार ममले
तो मैं म ीने में कम से कम पािंच मरतबा य अनुष्ठान करूिं। पािंच
जार न ीिं, कोई मुझे एक ी जार दे दे । य ािं तो म ीने भर नाक रगडता ूिं
तब जाके 600 रुपये के दशगन ोते ैं। नोच-खसोट से भी शायद ी ककसी
म ीने में इससे जयादा ममलता ो। बैठा मेरी रा दे ख र ा ोगा। लेना रुपये ,
मुिं मीठ ो जायगा।
व चारपाई पर लेटना चा ते थे कक उनकी पत्नी जी आकर खडी ो गयीिं।
उनक मसर के बाल खल
ु े ु ए थे। आिंखें स मी ु ई, र -र कर कािंप उठती थीिं।
मुिं से शब्द न ननकलता था। बडी मुज्श्कल से बोलीिं—आिी रात तो ो
गई ोगी? तुम जगत पािंडे के पास चले जाओ। मैंने अभी कसा बुरा सपना दे खा
ै कक अभी तक कलेजा िडक र ा ै , जान सिंकट में पडी ु ई ै। जाके ककसी
तर उसे टालो।

ममस्टर मसन ा—व ीिं से तो चला आ र ा ूिं । मुझे तुमसे जयादा कफक्र ै । अभी
आकर खडा ी ु आ था कक तुम आयी।

पत्नी—अच्छा! तो तुम गये थे! क्या बातें ु ईं, राजी ु आ।

मसन ा—पािंच जार रुपये मािंगता ै!

पत्नी—पािंच जार!

मसन ा—कौडी कम न ीिं कर सकता और मेरे पास इस वक्त एक जार से


जयादा न ोंगे।

पत्नी ने एक क्षण सोचकर क ा—ज्जतना मािंगता ै उतना ी दे दो, ककसी तर


गला तो छूट। तुम् ारे पास रुपये न ों तो मैं दे दिं ग
ू ी। अभी से सपने हदखाई
दे न लगे ैं। मरा तो प्राण कैसे बचें गे। बोलता-चालता ै न?

ममस्टर मसन ा अगर आबनस


ू थे तो उनकी पत्नी चिंदन; मसन ा उनके गल
ु ाम
थे, उनके इशारों पर चलते थे। पत्नी जी भी पनत-शासन में कुशल थीिं। सौंदयग
और अज्ञान में अपवाद ै। सुिंदरी कभी भोली न ीिं ोती। व पुरुष के
ममगस्थल पर आसन जमाना जानती ै!

मसन ा—तो लाओ दे ता आऊिं; लेककन आदमी बडा चग्घड ै , क ीिं रुपये लेकर
सबको हदखाता कफरे तो?
पत्नी—इसको य ािं से इसी वक्त भागना ोगा।

मसन ा—तो ननकालो दे ी दिं ।ू ज्जिंदगी में य बात भी याद र े गी।

पत्नी—ने अववश्वास भाव से क ा—चलो, मैं भी चलती ूिं । इस वक्त कौन


दे खता ै?

पत्नी से अधिक पुरुष के चररत्र का ज्ञान और ककसी को न ीिं ोता। ममस्टर


मसन ा की मनोवज्ृ त्तयों को उनकी पत्नी जी खूब जानती थीिं। कौन जान रास्ते
में रुपये क ीिं नछपा दें , और क दें दे आए। या क ने लगें , रुपये लेकर भी न ीिं
टलता तो मैं क्या करूिं। जाकर सिंदक
ू से नोटों के पमु लिंदे ननकाले और उन् ें
चादर में नछपा कर ममस्टर मसन ा के साथ चलीिं। मसन ा के मुिं पर झाडू-
सी कफरी थी। लालटे न मलए पछताते चले जाते थे। 5000 रु. ननकले जाते ैं।
कफर इतने रुपये कब ममलें गे; कौन जानता ै ? इससे तो क ीिं अच्छा था दष्ु ट
मर ी जाता। बला से बदनामी ोती, कोई मेरी जेब से रुपये तो न छीन लेता।
ईश्वर करे मर गया ो!

अभी तक दोनों आदमी फाटक ी तकम आए थे कक दे खा, जगत पािंडे लाठी


टे कता चला आता ै । उसका स्वरूप इतना डरावना था मानो श्मशान से कोई
मरु दा भागा आता ो।

पत्नी जी बोली—म ाराज, म तो आ ी र े थे, तुमने क्यों कष्ट ककया? रुपये ले


कर सीिे घर चले जाओगे न?

जगत— ािं- ािं, सीिा घर जाऊिंगा। क ािं ैं रुपये दे खूिं!

पत्नी जी ने नोटों का पमु लिंदा बा र ननकाला और लालटे न हदखा कर


बोलीिं—धगन लो। 5000 रुपये ैं!
पािंडे ने पमु लिंदा मलया और बैठ कर उलट-पल
ु ट कर दे खने लगा। उसकी आिंखें
एक नये प्रकाश से चमकने लगी। ाथों में नोटों को तौलता ु आ बोला—परू े
पािंच जार ैं ?

पत्नी—परू े धगन लो?

जगत—पािंच जार में दो टोकरी भर जायगी! ( ाथों से बताकर) इतने सारे पािंच
जार!

मसन ा—क्या अब भी तुम् ें ववश्वास न ीिं आता?

जगत— ैं- ैं, परू े ैं परू े पािंच जार! तो अब जाऊिं, भाग जाऊिं?

य क कर व पुमलिंदा मलए कई कदम लडखडाता ु आ चला, जैसे कोई शराबी,


और तब िम से जमीन पर धगर पडा। ममस्टर मसन ा लपट कर उठाने दौडे तो
दे खा उसकी आिंखें पथरा गयी ैं और मख
ु पीला पड गया ै । बोले—पािंड,े क्या
क ीिं चोट आ गयी?

पािंडे ने एक बार मिंु खोला जैसे मरी ु ई धचडडया मसर लटका चोंच खोल दे ती
ै । जीवन का अिंनतम िागा भी टूट गया। ओिंठ खल
ु े ु ए थे और नोटों का
पुमलिंदा छाती पर रखा ु आ था। इतने में पत्नी जी भी आ प ुिं ची और शव
को दे खकर चौंक पडीिं!

पत्नी—इसे क्या ो गया?

मसन ा—मर गया और क्या ो गया?

पत्नी—(मसर पीट कर) मर गया! ाय भगवान ्! अब क ािं जाऊिं?


य क कर बिंगले की ओर बडी तेजी से चलीिं। ममस्टर मसन ा ने भी
नोटो का पमु लिंदा शव की छाती पर से उठा मलया और चले।

पत्नी—ये रुपये अब क्या ोंगे ?

मसन ा—ककसी िमग-कायग में दे दिं ग


ू ा।

पत्नी—घर में मत रखना, खबरदार! ाय भगवान!

दस
ू रे हदन सारे श र में खबर मश ू र ो गयी—जगत पािंडे ने जिंट सा ब पर
जान दे दी। उसका शव उठा तो जारों आदमी साथ थे। ममस्टर मसन ा को
खल्
ु लम-खल्
ु ला गामलयािं दी जा र ी थीिं।

सिंध्या समय ममस्टर मसन ा कच री से आ कर मन मार बैठे थे कक नौकरों ने


आ कर क ा—सरकार, मको छुट्टी दी जाय! मारा ह साब कर दीज्जए। मारी
बबरादरी के लोग िमकते ैं कक तम
ु जिंट सा ब की नौकरी करोगे तो ु क्का-
पानी बिंद ो जायगा।

मसन ा ने झल्ला कर क ा—कौन िमकाता ै?

क ार—ककसका नाम बताएिं सरकार! सभी तो क र े ैं।

रसोइया— ु जूर, मझ
ु े तो लोग िमकाते ैं कक मज्न्दर में न घुसने पाओगे।

साईस— ु जरू , बबरादरी से बबगाड करक म लोग क ािं जाएिंगे ? मारा आज


से इस्तीफा ै । ह साब जब चा े कर दीज्जएगा।

ममस्टर मसन ा ने ब ु त िमकाया कफर हदलासा दे ने लगे; लेककन नौकरों ने


एक न सुनी। आि घण्टे के अन्दर सबों ने अपना-अपना रास्ता मलया। ममस्टर
मसन ा दािंत पीस कर र गए; लेककन ाककमों का काम कब रुकता ै?
उन् ोंने उसी वक्त कोतवाल को खबर कर दी और कई आदमी बेगार में
पकड आए। काम चल ननकला।

उसी हदन से ममस्टर मसन ा और ह द


िं ू समाज में खीिंचतान शुरु ु ई। िोबी ने
कपडे िोन बिंद कर हदया। ग्वाले ने दि
ू लाने में आना-कानी की। नाई ने
जामत बनानी छोडी। इन ववपज्त्तयों पर पत्नी जी का रोना-िोना और भी
गजब था। इन् ें रोज भयिंकर स्वप्न हदखाई दे त।े रात को एक कमरे से दस
ू रे
में जाते प्राण ननकलते थे। ककसी को जरा मसर भी दख
ु ता तो न ीिं में जान
समा जाती। सबसे बडी मुसीबत य थी कक अपने सम्बज्न्ियों ने भी आना-
जाना छोड हदया। एक हदन साले आए, मगर बबना पानी वपये चले गए। इसी
तर एक ब नोई का आगमन ु आ। उन् ोंने पान तक न खाया। ममस्टर
मसन ा बडे िैयग से य सारा नतरस्कार स ते जाते थे। अब तक उनकी
आधथगक ानन न ु ई थी। गरज के बावले झक मार कर आते ी थे और नजर-
नजराना ममलता ी था। कफर ववशेष धचिंता का कोई कारण न था।

लेककन बबरादरी से वैर करना पानी में र कर मगर से वैर करने जैसे ै।
कोई-न-कोई कसा अवसर ी आ जाता ै , जब मको बबरादरी के सामने मसर
झुकाना पडता ै। ममस्टर मसन ा को भी साल के अन्दर ी कसा अवसर आ
पडा। य उनकी पुत्री का वववा था। य ी व समस्या ै जो बडे-बडे े कडों
का घमिंड चरू कर दे ती ै । आप ककसी के आने-जाने की परवा न करें ,

ु क्का-पानी, भोज-भात, मेल-जोल ककसी बात की परवा न करे ; मगर लडकी का


वववा तो न टलने वाली बला ै । उससे बचकर आप क ािं जाएिंगे! ममस्टर
मसन ा को इस बात का दगदगा तो पह ले ी था कक बत्रवेणी के वववा में
बािाएिं पडेगी; लेककन उन् ें ववश्वास था कक द्रव्य की अपार शज्क्त इस
मुज्श्कल को ल कर दे गी। कुछ हदनों तक उन् ोंने जान-बूझ कर टाला कक शायद
इस आिंिी का जोर कुछ कम ो जाय; लेककन जब बत्रवेणी को सोल वािं साल
समाप्त ो गया तो टाल-मटोल की गुिंजाइश न र ी। सिंदेशे भेजने लगे; लेककन
ज ािं सिंदेमशया जाता व ीिं जवाब ममलता— में मिंजरू न ी। ज्जन घरों में साल-
भर प ले उनका सिंदेशा पा कर लोग अपने भाग्य को सरा ते , व ािं से अब
सूखा जवाब ममलता था— में मिंजूर न ीिं। ममस्टर मसन ा िन का लोभ दे त,े
जमीन नजर करने को क ते, लडके को ववलायत भेज कर ऊिंची मशक्षा
हदलाने का प्रस्ताव करते ककिं तु उनकी सारी आयोजनाओिं का एक ी
जवाब ममलता था— में मिंजूर न ीिं। ऊिंचे घरानों का य ाल दे खकर ममस्टर
मसन ा उन घरानों में सिंदेश भेजने लगे , ज्जनके साथ प ले बैठकर भोजन करने
में भी उन् ें सिंकोच ोता था;लेककन व ािं भी व ी जवाब ममला— में मिंजरू
न ी। य ािं तक कक कई जग वे खुद दौड-दौड कर गये। लोगों की ममन्नतें
कीिं, पर य ी जवाब ममला—सा ब, में मिंजूर न ीिं। शायद बह ष्कृत घरानों में
उनका सिंदेश स्वीकार कर मलया जाता; पर ममस्टर मसन ा जान-बूझकर मक्खी न
ननगलना चा ते थे। कसे लोगों से सम्बन्ि न करना चा ते थे ज्जनका बबरादरी
में काई स्थान न था। इस तर एक वषग बीत गया।

ममसेज मसन ा चारपाई पर पडी करा र ी थीिं, बत्रवेणी भोजन बना र ी थी और


ममस्टर मसन ा पत्नी के पास धचिंता में डूबे बैठे ु ए थे। उनके ाथ में एक खत
था, बार-बार उसे दे खते और कुछ सोचने लगते थे। बडी दे र के बाद रोधगणी ने
आिंखें खोलीिं और बोलीिं—अब न बचूिंगी पािंडे मेरी जान लेकर छोडेगा। ाथ में
कैसा कागज ै?

मसन ा—यशोदानिंदन के पास से खत आया ैं। पाजी को य खत मलखते ु ए


शमग न ीिं आती, मैंने इसकी नौकरी लगायी। इसकी शादी करवायी और आज
उसका ममजाज इतना बढ़ गया ै कक अपने छोटे भाई की शादी मेरी लडकी
से करना पसिंद न ीिं करता। अभागे के भाग्य खुल जाते!

पत्नी—भगवान ्, अब ले चलो। य दद
ु ग शा न ीिं दे खी जाती। अिंगूर खाने का
जी चा ता ै , मिंगवाये ै कक न ीिं?

मसना —मैं जाकर खद


ु लेता आया था।
य क कर उन् ोंने तश्तरी में अिंगूर भरकर पत्नी के पास रख हदये। व उठा-
उठा कर खाने लगीिं। जब तश्तरी खाली ो गयी तो बोलीिं—अब ककसके य ािं
सिंदेशा भेजोगे?

मसन ा—ककसके य ािं बताऊिं! मेरी समझ में तो अब कोई कसा आदमी न ीिं र
गया। कसी बबरादरी में र ने से तो य जार दरजा अच्छा ै कक बबरादरी के
बा र र ूिं । मैंने एक ब्राह्मण से ररश्वत ली। इससे मुझे इनकार न ीिं। लेककन
कौन ररश्वत न ीिं लेता? अपने गौं पर कोई न ीिं चक
ू ता। ब्राह्मण न ीिं खद

ईश्वर ी क्यों न ों, ररश्वत खाने वाले उन् ें भी चस
ू लें गे। ररश्वत दे ने वाला
अगर कोई ननराश ोकर अपने प्राण दे ता ै तो मेरा क्या अपराि! अगर कोई
मेरे फैसले से नाराज ोकर ज र खा ले तो मैं क्या कर सकता ूिं । इस पर भी
मैं प्रायज्श्चत करने को तैयार ूिं । बबरादरी जो दिं ड दे , उसे स्वीकार करने को
तैयार ूिं । सबसे क चुका ूिं मुझसे जो प्रायज्श्चत चा ो करा लो पर कोई
न ीिं सन
ु ता। दिं ड अपराि के अनक
ु ूल ोना चाह ए, न ीिं तो य अन्याय ै।
अगर ककसी मस
ु लमान का छुआ भोजन खाने के मलए बबरादरी मझ
ु े काले पानी
भेजना चा े तो मैं उसे कभी न मानूिंगा। कफर अपराि अगर ै तो मेरा ै।
मेरी लडकी ने क्या अपराि ककया ै। मेरे अपराि के मलए लडकी को दिं ड
दे ना सरासर न्याय-ववरुद्ध ै।

पत्नी—मगर करोगे क्या? और कोई पिंचायत क्यों न ीिं करते?

मसन ा—पिंचायत में भी तो व ी बबरादरी के मखु खया लोग ी ोंगे, उनसे मझ


ु े
न्याय की आशा न ीिं। वास्तव में इस नतरस्कार का कारण ईष्याग ै । मुझे दे खकर
सब जलते ैं और इसी ब ाने वे मुझे नीचा हदखाना चा ते ैं। मैं इन लोगों
को खूब समझता ूिं ।

पत्नी—मन की लालसा मन में र गयी। य अरमान मलये सिंसार से जाना


पडेगा। भगवान ् की जैसी इच्छा। तुम् ारी बातों से मुझे डर लगता ै कक मेरी
बच्ची की न-जाने क्या दशा ोगी। मगर तम
ु से मेरी अिंनतम ववनय य ी ै कक
बबरादरी से बा र न जाना, न ीिं तो परलोक में भी मेरी आत्मा को शािंनत न
ममलेगी। य शोक मेरी जान ले र ा ै। ाय, बच्ची पर न-जाने क्या ववपज्त्त
आने वाली ै।

य क ते ममसेज मसन ा की आिंखें में आिंसू ब ने लगे। ममस्टर मसन ा ने


उनको हदलासा दे ते ु ए क ा—इसकी धचिंता मत करो वप्रये, मेरा आशय केवल
य था कक कसे भाव मन में आया करते ैं। तुमसे सच क ता ूिं , बबरादरी के
अन्याय से कलेजा छलनी ो गया ै।
पत्नी—बबरादरी को बुरा मत क ो। बबरादरी का डर न ो तो आदमी न
जाने क्या-क्या उत्पात करे । बबरादरी को बरु ा न क ो। (कलेजे पर ाथ रखकर)
य ािं बडा ददग ो र ा ै । यशोदानिंद ने भी कोरा जवाब दे हदया। ककसी करवट
चैन न ीिं आता। क्या करुिं भगवान ्।

मसन ा—डाक्टर को बल
ु ाऊिं?

पत्नी—तुम् ारा जी चा े बुला लो, लेककन मैं बचूिंगी न ीिं। जरा नतब्बो को
बुला लो, प्यार कर लूिं। जी डूबा जाता ै । मेरी बच्ची! ाय मेरी बच्ची!!

***
धधक्कार (2)

ईरान और यूनान में घोर सिंग्राम ो र ा था। ईरानी हदन-हदन बढ़ते जाते थे
और यूनान के मलए सिंकट का सामना था। दे श के सारे व्यवसाय बिंद ो गये
थे, ल की मुहठया पर ाथ रखने वाले ककसान तलवार की मुहठया पकडने
के मलए मजबरू ो गये, डिंडी तौलने वाले भाले तौलते थे। सारा दे श आत्म-
रक्षा के मलए तैयार ो गया था। कफर भी शत्रु के कदम हदन-हदन आगे ी बढ़ते
आते थे। ज्जस ईरान को यूनान कई बार कूचल चुका था, व ी ईरान आज क्रोि
के आवेग की भािंनत मसर पर चढ़ आता था। मदग तो रणक्षे त्र में मसर कटा र े
थे और ज्स्त्रयािं हदन-हदन की ननराशाजनक खबरें सुनकर सूखी जाती थीिं।
क्योंकर लाज की रक्षा ोगी? प्राण का भय न था, सम्पज्त्त का भय न था,
भय था मयागदा का। ववजेता गवग से मतवाले ोकर यन
ू ानी ललनाओिं को घरू ें गे,
उनके कोमल अिंगों को स्पशग करें गे, उनको कैद कर ले जायेंगे! उस ववपज्त्त की
कल्पना ी से इन लोगों के रोयें खडे ो जाते थे।

आखखर जब ालत ब ु त नाजुक ो गयी तो ककतने ी स्त्री-परु


ु ष ममलकर
डेल्फी के मिंहदर में गये और प्रश्न ककया—दे वी, मारे ऊपर दे वताओिं की य
वक्र-दृज्ष्ट क्यों ै? मसे कसा कौन-सा अपराि ु आ ै ? क्या मने ननयमों
का पालन न ीिं ककया, कुरबाननयािं न ीिं कीिं, व्रत न ीिं रखे? कफर दे वताओिं ने क्यों
मारे मसरों से अपनी रक्षा का ाथ उठा मलया?

पुजाररन ने क ा—दे वताओिं की असीम कृपा भी दे श को द्रो ी के ाथ से न ीिं


बचा सकती। इस दे श में अवश्य कोई-न-कोई द्रो ी ै । जब तक उसका वि न
ककया जायेगा, दे श के मसर से य सिंकट न टलेगा।

‘दे वी, व द्रो ी कौन ै?


‘ज्जस घर से रात को गाने की ध्वनन आती ो, ज्जस घर से हदन को सग
ु िंि की
लपटें आती ों, ज्जस परु
ु ष की आिंखों में मद की लाली झलकती ो, व ी दे श का
द्रो ी ै ।‘

लोगों ने द्रो ी का पररचय पाने के मलए और ककतने ी प्रश्न ककये ; पर दे वी ने


कोई उत्तर न हदया।

यूनाननयों ने द्रो ी की तलाश करनी शुरू की। ककसके घर में से रात को गाने
की आवाजें आती ैं। सारे श र में सिंध्या ोते स्यापा-सा छा जाता था। अगर
क ीिं आवाजें सन
ु ायी दे ती थीिं तो रोने की; िं सी और गाने की आवाज क ीिं
न सुनायी दे ती थी।

हदन को सग
ु िंि की लपटें ककस घर से आती ैं? लोग ज्जिर जाते थे, ककसे इतनी
फुरसत थी कक घर की सफाई करता, घर में सग
ु िंि जलाता; िोबबयों का अभाव था
अधिकािंश लडने के मलए चले गये थे, कपडे तक न िुलते थे; इत्र-फुलेल कौन
मलता!

ककसकी आिंखों में मद की लाली झलकती ै ? लाल आिंखें हदखाई दे ती थी; लेककन
य मद की लाली न थी, य आिंसुओिं की लाली थी। महदरा की दक
ु ानों पर
खाक उड र ी थी। इस जीवन ओर मत्ृ यु के सिंग्राम में ववलास की ककसे
सूझती! लोगों ने सारा श र छान मारा लेककन एक भी आिंख कसी नजर न
आयी जो मद से लाल ो।

कई हदन गुजर गये। श र में पल-पल पर रणक्षेत्र से भयानक खबरें आती


थीिं और लोगों के प्राण सूख जाते थे।

आिी रात का समय था। श र में अिंिकार छाया ु आ था, मानो श्मशान ो।
ककसी की सूरत न हदखाई दे ती थी। ज्जन नाट्यशालाओिं में नतल रखने की
जग न ममलती थी, व ािं मसयार बोल र े थे। ज्जन बाजारों में मनचले
जवान अस्त्र-शस्त्र सजायें किंठते कफरते थे , व ािं उल्लू बोल र े थे। मिंहदरों में न
गाना ोता था न बजाना। प्रासादों में अिंिकार छाया ु आ था। एक बूढ़ा यूनानी
ज्जसका इकलौता लडका लडाई के मैदान में था, घर से ननकला और न-जाने
ककन ववचारों की तरिं ग में दे वी के मिंहदर की ओर चला। रास्ते में क ीिं प्रकाश न
था, कदम-कदम पर ठोकरें खाता था; पर आगे बढ़ता चला जाता। उसने ननश्चय
कर मलया कक या तो आज दे वी से ववजय का वरदान लिंग
ू ा या उनके चरणों पर
अपने को भें ट कर दिं ग
ू ा।

स सा व चौंक पडा। दे वी का मिंहदर आ गया था। और उसके पीछे की ओर


ककसी घर से मिरु सिंगीत की ध्वनन आ र ी थी। उसको आश्चयग ु आ। इस
ननजगन स्थान में कौन इस वक्त रिं गरे मलयािं मना र ा ै । उसके पैरों में पर लग
गये, मिंहदर के वपछवाडे जा प ुिं चा।

उसी घर से ज्जसमें मिंहदर की पज


ु ाररन र ती थी, गाने की आवाजें आती थीिं!
वद्ध
ृ ववज्स्मत ोकर खखडकी के सामने खडा ो गया। धचराग तले अिंिेरा! दे वी के
मिंहदर के वपछवाडे य अिंिेर?

बढ़
ू े ने द्वार झािंका; एक सजे ु ए कमरे में मोमबज्त्तयािं झाडों में जल र ी थीिं,
साफ-सथ
ु रा फशग बबछा था और एक आदमी मेज पर बैठा ु आ गा र ा था। मेज
पर शराब की बोतल और प्यामलयािं रखी ु ई थीिं। दो गुलाम मेज के सामने
ाथ में भोजन के थाल खडे थे , ज्जसमें से मनो र सुगिंि की लपटें आ र ी
थीिं।

बूढ़े यूनानी ने धचल्लाकर क ा—य ी दे शद्रो ी ै , य ी दे शद्रो ी ै!

मिंहदर की दीवारों ने द ु राया—द्रो ी ै!


बगीचे की तरफ से आवाज आयी—द्रो ी ै!

मिंहदर की पुजाररन ने घर में से मसर ननकालकर क ा— ािं, द्रो ी ै!

य दे शद्रो ी उसी पुजाररन का बेटा पासोननयस था। दे श में रक्षा के जो


उपाय सोचे जाते, शत्रुओिं का दमन करने के मलए जो ननश्चय ककय जाते, उनकी
सूचना य ईराननयों को दे हदया करता था। सेनाओिं की प्रत्येक गनत की खबर
ईराननयों को ममल जाती थी और उन प्रयत्नों को ववफल बनाने के मलए वे
प ले से तैयार ो जाते थे। य ी कारण था कक यन
ू ाननयों को जान लडा दे ने पर
भी ववजय न ोती थी। इसी कपट से कमाये ु ये िन से व भोग-ववलास
करता था। उस समय जब कक दे श में घोर सिंकट पडा ु आ था, उसने अपने
स्वदे श को अपनी वासनाओिं के मलए बेच हदया। अपने ववलास के मसवा
और ककसी बात की धचिंता न थी, कोई मरे या ज्जये, दे श र े या जाये, उसकी
बला से। केवल अपने कुहटल स्वाथग के मलए दे श की गरदन में गुलामी की
बेडडयािं डलवाने पर तैयार था। पज
ु ाररन अपने बेटे के दरु ाचरण से अनमभज्ञ थी।
व अपनी अिंिेरी कोठरी से ब ु त कम ननकलती, व ीिं बैठी जप-तप ककया करती
थी। परलोक-धचिंतन में उसे इ लोक की खबर न थी, मनेज्न्द्रयों ने बा र
की चेतना को शून्य-सा कर हदया था। व इस समय भी कोठरी के द्वार बिंद
ककये, दे वी से अपने दे श के कल्याण के मलए वन्दना कर र ी थी कक स सा
उसके कानों में आवाज आयी—य ी द्रो ी ै , य ी द्रो ी ै!

उसने तुरिंत द्वार खोलकर बा र की ओर झािंका, पासोननयम के कमरे से


प्रकाश की रे खाएिं ननकल र ी थीिं और उन् ीिं रे खाओिं पर सिंगीत की ल रें नाच
र ी थीिं। उसके पैर-तले से जमीन-सी ननकल गयी, कलेजा िक् -से ो गया।
ईश्वर! क्या मेरा बेटा दे शद्रो ी ै ? आप- ी-आप, ककसी अिंत:प्रेरणा से पराभत

ोकर व धचल्ला उठी— ािं, य ी दे शद्रो ी ै!

4
यन
ू ानी स्त्री-परू
ु षों के झिंड
ु -के-झिंड
ु उमड पडे और पासोननयस के द्वार पर खडे
ोकर धचल्लाने लगे-य ी दे शद्रा ी ै!

पासोननयस के कमरे की रोशनी ठिं डी ो गयी, सिंगीत भी बिंद था; लेककन


द्वार पर प्रनतक्षण नगरवामसयों का समू बढ़ता जाता था और र -र कर
स स्त्रों किंठो से ध्वनन ननकलती थी—य ी दे शद्रो ी ै!

लोगों ने मशालें जलायी और अपने लाठी-डिंडे सिंभाल कर मकान में घुस


पडे। कोई क ता था—मसर उतार लो। कोई क ता था—दे वी के चरणों पर
बमलदान कर दो। कुछ लोग उसे कोठे से नीचे धगरा दे ने पर आग्र कर र े थे।

पासोननयस समझ ् गया कक अब मुसीबत की घडी मसर पर आ गयी। तुरिंत जीने


से उतरकर नीचे की ओर भागा। और क ीिं शरण की आशा न दे खकर दे वी के
मिंहदर में जा घस
ु ा।

अब क्या ककया जाये? दे वी की शरण जाने वाले को अभय-दान ममल जाता था।
परम्परा से य ी प्रथा थी? मिंहदर में ककसी की त्या करना म ापाप था।

लेककन दे शद्रो ी को इसने सस्ते कौन छोडता? भािंनत-भािंनत के प्रस्ताव ोने लगे—
‘सूअर का ाथ पकडकर बा र खीिंच लो।’

‘कसे दे शद्रो ी का वि करने के मलए दे वी में क्षमा कर दें गी।’

‘दे वी, आप उसे क्यों न ीिं ननगल जाती?’

‘पत्थरों से मारों, पत्थरो से; आप ननकलकर भागेगा।’

‘ननकलता क्यों न ीिं रे कायर! व ािं क्या मुिं में कामलख लगाकर बैठा ु आ ै ?’
रात भर य ी शोर मचा र ा और पासोननयस न ननकला। आखखर य ननश्चय

ुआ कक मिंहदर की छत खोदकर फेंक दी जाये और पासोननयस दोप र की िप



और रात की कडाके की सरदी में आप ी आप अकड जाये। बस कफर क्या
था। आन की आन में लोगों ने मिंहदर की छत और कलस ढा हदये। अभगा
पासोननयस हदन-भर तेज िूप में खडा र ा। उसे जोर की प्यास लगी; लेककन
पानी क ािं? भूख लगी, पर खाना क ािं? सारी जमीन तवे की भािंनत जलने लगी;
लेककन छािं क ािं? इतना कष्ट उसे जीवन भर में न ु आ था। मछली की भािंनत
तडपता था ओर धचल्ला-धचल्ला कर लोगों को पक
ु ारता था; मगर व ािं कोई
उसकी पुकार सुनने वाला न था। बार-बार कसमें खाता था कक अब कफर
मुझसे कसा अपराि न ोगा; लेककन कोई उसके ननकट न आता था। बार-बार
चा ता था कक दीवार से टकरा कर प्राण दे दे ; लेककन य आशा रोक दे ती थी
कक शायद लोगों को मुझ पर दया आ जाये। व पागलों की तर जोर-जोर से
क ने लगा—मझ
ु े मार डालो, मार डालो, एक क्षण में प्राण ले लो, इस भािंनत
जला-जला कर न मारो। ओ त्यारों, तुमको जरा भी दया न ीिं।

हदन बीता और रात—भयिंकर रात—आयी। ऊपर तारागण चमक र े थे मानो


उसकी ववपज्त्त पर िं स र े ों। जयों-जयों रात बीतती थी दे वी ववकराल रूप
िारण करती जाती थी। कभी व उसकी ओर मुिं खोलकर लपकती, कभी उसे
जलती ु ई आिंखो से दे खती। उिर क्षण-क्षण सरदी बढती जाती थी,
पासोननयस के ाथ-पािंव अकडने लगे, कलेजा कािंपने लगा। घट
ु नों में मसर
रखकर बैठ गया और अपनी ककस्मत को रोने लगा। कुरते की खीिंचकर कभी
पैरों को नछपाता, कभी ाथों को, य ािं तक कक इस खीिंचातानी में कुरता भी फट
गया। आिी रात जाते-जाते बफग धगरने लगी। दोप र को उसने सोचा गरमी ी
सबसे कष्टदायक ै । ठिं ड के सामने उसे गरमी की तकलीफ भूल गयी। आखखर
शरीर में गरमी लाने के मलए एक ह मकत सूझी। व मिंहदर में इिर-उिर
दौडने लगा। लेककन ववलासी जीव था, जरा दे र में ािंफ कर धगर पडा।

5
प्रात:काल लोगों ने ककवाड खोले तो पासोननसय को भमू म पर पडे दे खा। मालम

ोता था, उसका शरीर अकड गया ै । ब ु त चीखने-धचल्लाने पर उसने आखें
खोली; पर जग से ह ल न सका। ककतनी दयनीय दशा थी, ककिं तु ककसी को
उस पर दया न आयी। यूनान में दे शद्रो सबसे बडा अपराि था और द्रो ी के
मलए क ीिं क्षमा न थी, क ीिं दया न थी।

एक—अभी मरा ै?

दस
ू रा—द्रोह यों को मौत न ीिं आती!

तीसरा—पडा र ने दो, मर जायेगा!

चौथा—मक्र ककये ुए ै?

पािंचवा—अपने ककये की सजा पा चक


ु ा ै , अब छोड दे ना चाह ए!

स सा पासोननयस उठ बैठा और उद्दण्ड भाव से बोला—कौन क ता ै कक


इसे छोड दे ना चाह ए! न ीिं , मुझे मत छोडना, वरना पछताओगे! मैं स्वाथी दिं ;ू
ववषय-भोगी ूिं , मझ
ु पर भल
ू कर भी ववश्वास न करना। आ ! मेरे कारण तम

लोगों को क्या-क्या झेलना पडा, इसे सोचकर मेरा जी चा ता ै कक अपनी
इिंहद्रयों को जलाकर भस्म कर दिं ।ू मैं अगर सौ जन्म लेकर इस पाप
का प्रायज्श्चत करूिं, तो भी मेरा उद्धार न ोगा। तुम भूलकर भी मेरा ववश्वास न
करो। मुझे स्वयिं अपने ऊपर ववश्वास न ीिं। ववलास के प्रेमी सत्य का पालन
न ीिं कर सकते। मैं अब भी आपकी कुछ सेवा कर सकता ूिं , मुझे कसे-कसे
गप्ु त र स्य मालम
ू ैं, ज्जन् ें जानकर आप ईराननयों का सिं ार कर सकते ै ;
लेककन मझ
ु े अपने ऊपर ववश्वास न ीिं ै और आपसे भी य क ता ूिं कक मझ

पर ववश्वास न कीज्जए। आज रात को दे वी की मैंने सच्चे हदल से विंदना की
ै और उन् ोनें मुझे कसे यिंत्र बताये ैं, ज्जनसे म शत्रुओिं को परास्त कर
सकते ैं, ईराननयों के बढते ु ए दल को आज भी आन की आन में उडा सकते
ै । लेककन मझ
ु े अपने ऊपर ववश्वास न ीिं ै । मैं य ािं से बा र ननकल कर इन
बातों को भल
ू जाऊिंगा। ब ु त सिंशय ैं, कक कफर ईराननयों की गप्ु त स ायता
करने लगूिं। इसमलए मुझ पर ववश्वास न कीज्जए।

एक यन
ू ानी—दे खो-दे खो क्या क ता ै?

दस
ू रा—सच्चा आदमी मालूम ोता ै।

तीसरा—अपने अपरािों को आप स्वीकार कर र ा ै।

चौथा—इसे क्षमा कर दे ना चाह ए और य सब बातें पछ


ू लेनी चाह ए।

पािंचवा—दे खो, य न ीिं क ता कक मुझे छोड दो। मको बार-बार याद हदलाता
जाता ै
कक मझ
ु पर ववश्वास न करो!

छठा—रात भर के कष्ट ने ोश ठिं डे कर हदये , अब आिंखे खुली ै।

पासोननयस—क्या तुम लोग मझ


ु े छोडने की बातचीत कर र े ो? मैं कफर क ता

ूिं , मैं ववश्वास के योग्य न ीिं ूिं । मैं द्रो ी ूिं । मुझे ईराननयों के ब ु त-से भेद
मालूम ैं, एक बार उनकी सेना में प ुिं च जाऊिं तो उनका ममत्र बनकर
सवगनाश कर दिं ,ू पर मुझे अपने ऊपर ववश्वास न ीिं ै । एक यूनानी—िोखेबाज
इतनी सच्ची बात न ीिं क सकता!

दस
ू रा—प ले स्वाथांि ो गया था; पर अब आिंखे खुली ैं!

तीसरा—दे खद्रो ी से भी अपने मतलब की बातें मालूम कर लेने में कोई ानन
न ीिं ै। अगर व अपने वचन पूरे करे तो में इसे छोड दे ना चाह ए।

चौथा—दे वी की प्रेरणा से इसकी कायापलट ु ई ै।


पािंचवािं—पावपयों में भी आत्मा का प्रकाश र ता ै और कष्ट पाकर जाग्रत ो
जाता ै। य समझना कक ज्जसने एक बार पाप ककया, व कफर कभी पण्
ु य कर
ी न ीिं सकता, मान-चररत्र के एक प्रिान तत्व का अपवाद करना ै।

छठा— म इसको य ािं से गाते-बजाते ले चलें गे। जन-समू को चकमा दे ना


ककतना आसान ै।

जनसत्तावाद का सबसे ननबगल अिंग य ी ै । जनता तो नेक और बद की तमीज


न ीिं रखती। उस पर ित
ू ों, रिं गे-मसयारों का जाद ू आसानी से चल जाता ै।
अभी एक हदन प ले ज्जस पासोननयस की गरदन पर तलवार चलायी जा
र ी थी, उसी को जलूस के साथ मिंहदर से ननकालने की तैयाररयािं ोने लगीिं,
क्योंकक व िूतग था और जानता था कक जनता की कील क्योंकर घुमायी जा
सकती ै।

एक स्त्री—गाने-बजाने वालों को बुलाओ, पासोननयस शरीफ ै।

दस
ू री— ािं- ािं, प ले चलकर उससे क्षमा मािंगो, मने उसके साथ जरूरत से जयादा
सख्ती की।

पासोननयस—आप लोगों ने पछ
ू ा ोता तो मैं कल ी कल ी सारी बातें आपको
बता दे ता, तब आपको मालम
ू ोता कक मझ
ु े मार डालना उधचत ै या जीता
रखना।

कई स्त्री-पुरूष— ाय- ाय मसे बडी भूल ु ई। मारे सच्चे पासोननयस!

स सा एक वद्ध
ृ ा स्त्री ककसी तरफ से दौडती ु ई आयी और मिंहदर के सबसे ऊिंचे
जीने पर खडी ोकर बोली—तुम लोगों को क्या ो गया ै? यूनान के बेटे
आज इतने ज्ञानशून्य ो गये ैं कक झूठे और सच्चे में वववेक न ीिं कर सकते?
तम
ु पासोननयस पर ववश्वास करते ो? ज्जस पासोननयस ने सैकडों ज्स्त्रयों और
बालकों को अनाथ कर हदया, सैकडों घरों में कोई हदया जलाने वाला न छोडा,
मारे दे वताओिं का, मारे परू
ु षों का, घोर अपमान ककया, उसकी दो-चार धचकनी-
चुपडी बातों पर तुम इतने फूल उठे । याद रखो, अब की पासोननयस बा र
ननकला तो कफर तुम् ारी कुशल न ी। यूनान पर ईरान का राजय ोगा और
यूनानी ललनाएिं ईराननयों की कुदृज्ष्ट का मशकार बनेंगी। दे वी की आज्ञा ै कक
पासोननयस कफर बा र न ननकलने पाये। अगर तुम् ें अपना दे श प्यारा ै , अपनी
माताओिं और ब नों की आबरू प्यारी ै तो मिंहदर के द्वार को धचन दों।
ज्जससे दे शद्रो ी को कफर बा र न ननकलने और तम
ु लोगों को ब काने का
मौका न ममले। य दे खो, प ला पत्थर मैं अपने ाथों से रखती ूिं । लोगों ने
ववज्स्मत ोकर दे खा—य मिंहदर की पुजाररन और पासोननयस की माता थी। दम
के दम में पत्थरों के ढे र लग गये और मिंहदर का द्वार चुन हदया गया।
पासोननयस भीतर दािंत पीसता र गया।

वीर माता, तुम् ें िन्य ै ! कसी ी माता से दे श का मुख उजजवल ोता ै , जो


दे श-ह त के सामने मात-ृ स्ने की िूल-बराबर परवा न ीिं करतीिं! उनके पुत्र दे श
के मलए ोते ैं, दे श पुत्र के मलए न ीिं ोता।

***

You might also like