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आषाढ़ का एक दन

इस नाटक का मंचन करने तथा इसको आंिशक या स पूण प से उ दृत करने के िलए िन िलिखत पते पर पूव अनुमित
लेना आव यक है:
ीमती अनीता औलक
ारा, राजपाल ए ड स ज़
क मीरी गेट, द ली-6

ISBN: 9788170284000
सं करण: 2016 © ीमती अनीता औलक
ASHADH KA EK DIN(Play) by Mohan Rakesh

राजपाल ए ड स ज़
1590, मदरसा रोड, क मीरी गेट- द ली-110006
फोनः 011-23869812, 23865483, फै सः 011-23867791
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दो श द
िह दी नाटक रं गमंच क कसी िवशेष पर परा के साथ अनु यूत नह है। पा ा य रं गमंच
क उपलि धयाँ ही हमारे सामने ह। पर तु न तो हमारा जीवन उन सब उपलि धय क
माँग करता है, और न ही यह स भव तीत होता है क हम उस रं गिश प को ापक प
से य का य अपने यहाँ िति त कर द।
िह दी रं गमंच के िवकास से िन स देह यह अिभ ाय नह है क अ याधुिनक
सुिवधा से स प रं गशालाएँ राजक य या अ राजक य सं था ारा जहाँ-तहाँ बनवा
दी जाएँ िजससे वहाँ िह दी नाटक का दशन कया जा सके । के वल आ थक सुिवधा
का ही नह , एक सां कृ ितक दृि का भी है। िह दी रं गमंच को िह दी-भाषी देश क
सां कृ ितक पू तय और आकाँ ा का ितिनिध व करना होगा, रं ग और रािशय के
हमारे िववेक को करना होगा। हमारे दैनं दन जीवन के राग-रं ग को तुत करने के
िलए, हमारे स वेद और प दन को अिभ करने के िलए, िजस रं गमंच क
आव यकता है, वह पा ा य रं गमंच से कह िभ होगा। इस रं गमंच का पिवधान
नाटक य योग के अ य तर से ज म लेगा और समथ अिभनेता तथा द दशक के हाथ
उसका िवकास होगा।
स भव है यह नाटक उन स भावना क खोज म कु छ योग दे सके ।
वस त, 1958
—मोहन राके श
पा
अि बका : ाम क एक वृ ा
मि लका : उसक पु ी
कािलदास : किव
द तुल : राजपु ष
मातुल : किव-मातुल
िन ेप : ाम-पु ष
िवलोम : ाम-पु ष
रं िगणी : नागरी
संिगनी : नागरी
अनु वार : अिधकारी
अनुनािसक: अिधकारी
ि यंगुमंजरी: राजक या—किव-प ी
अंतव तु

अंक एक

अंक दो

अंक तीन

प रिश

मोहन राके श : एक युगा तकारी नाटककार

आषाढ़ का एक दन : मू यांकन

आषाढ़ का एक दन: समी ा मक िव ेषण


अंक एक
परदा उठने से पूव ह का-ह का मेघ-गजन और वषा का श द, जो
परदा उठने के अन तर भी कु छ ण चलता रहता है। फर धीरे -
धीरे धीमा पड़कर िवलीन हो जाता है।
परदा धीरे -धीरे उठता है।

एक साधारण को । दीवार लकड़ी क ह, पर तु िनचले भाग म


िचकनी िम ी से पोती गई ह। बीच-बीच म गे से वि तक-िच ह
बने ह। सामने का ार अँधेरी ोढ़ी म खुलता है। उसके दोन
ओर छोटे -छोटे ताक ह िजनम िम ी के बुझे ए दीये रखे ह। बाय
ओर का ार दूसरे को म जाने के िलए है। ार खुला होने पर
उस को म िबछे त प का एक कोना ही दखाई देता है। ार के
कवाड़ भी िम ी से पोते गये ह और उन पर गे एवं ह दी से
कमल तथा शंख बनाये गये ह। दाय ओर बड़ा-सा झरोखा है,
जहाँ से बीच-बीच म िबजली क धती दखायी देती है।

को म एक ओर चू हा है। आस-पास िम ी और कांसे के बरतन


सहेजकर रखे ह। दूसरी ओर, झरोखे से कु छ हटकर तीन-चार बड़े-
बड़े कु भ रखे ह िजन पर कािलख और काई जमी है। उ ह कु शा से
ढक कर ऊपर प थर रख दए गये ह।

झरोखे से सटा एक लकड़ी का आसन है, िजस पर बाघ-छाल


िबछी है। चू हे के िनकट दो चै कयाँ ह। उ ह म से एक पर बैठी
अि बका छाज म धान फटक रही है। एक बार झरोखे क ओर
देखकर वह ल बी साँस लेती है फर त हो जाती है।

सामने का ार खुलता है और मि लका गीले व म काँपती-


िसमटती अ दर आती है। अि बका आँख झुकाये त रहती है।
मि लका ण-भर ठठकती है, फर अि बका के पास आ जाती है।
मि लका:आषाढ़ का पहला दन और ऐसी वषा माँ!...ऐसी धारासार वषा! दूर-दूर तक क
उप यकाएँ भीग गय ।...और म भी तो! देखो न माँ, कै सी भीग गयी !ँ
अि बका उस पर िसर से पैर तक एक दृि डालकर फर त हो
जाती है। मि लका घुटन के बल बैठकर उसके क धे पर िसर रख
देती है।
गयी थी क दि ण से उड़कर आती बकु ल-पंि य को देखूँगी, और देखो सब
व िभगो आयी ।ँ
उसके के श को चूमकर खड़ी होती ई ठ ड से िसहर जाती है।
सूखे व कहाँ ह माँ? इस तरह खड़ी रही तो जुड़ा जाऊँगी।...तुम बोलत
य नह ?
अि बका आ ोश क दृि से उसे देखती है।

अि बका:सूखे व अ दर त प पर ह।
मि लका:तुमने पहले से ही िनकालकर रख दये?
अ दर को चल देती है।
तु ह पता था म भीग जाऊँगी। और म जानती थी तुम िचि तत होगी। पर तु
माँ...
ार के पास मुड़कर अि बका क ओर देखती है।
...मुझे भीगने का तिनक ख़ेद नह । भीगती नह तो आज म वंिचत रह जाती।
ार से टे क लगा लेती है।
चार ओर धुंआरे मेघ िघर आये थे। म जानती थी वषा होगी। फर भी म
घाटी क पगडंडी पर नीचे-नीचे उतरती गयी। एक बार मेरा अंशुक भी हवा
ने उड़ा दया। फर बूँद पड़ने लग ।
अि बका से आँख िमल जाती ह।
व बदल लूँ फर आकर तु ह बताती ।ँ वह ब त अ भुत अनुभव था माँ,
ब त अ भुत।
अ दर चली जाती है। अि बका उठकर फटके ए धान को एक
कु भ म डाल देती है और दूसरे कु भ से नया धान िनकाल लेती
है। अ दर के को से मि लका के श द सुनायी देते रहते ह।
बीच-बीच म उसक झलक भी दखायी दे जाती है।
नील कमल क तरह कोमल और आ , वायु क तरह ह का और व क
तरह िच मय! म चाहती थी उसे अपने म भर लूँ और आँख मूँद लूँ।...मेरा तो
शरीर भी िनचुड़ रहा है माँ! कतना पानी इन व ने िपया है! ओह! शीत
क चुभन के बाद उ णता का यह पश!
गुनगुनाने लगती है।
कु वलयदलनीलै तै तोयन ै...गीले व कहाँ डाल दूँ माँ? यह रहने दू?ँ
मृदपु वनिवधूतैम दम दं चलि द...अप तिमव चेत तोयदैः
से चापैः...पिथकजनवधूनां ति योगा कु लानाम्।
बाहर आ जाती है।
माँ, आज के वे ण म कभी नह भूल सकती। सौ दय का ऐसा सा ा कार
मने कभी नह कया। जैसे वह सौ दय अ पृ य होते ए भी माँसल हो। म
उसे छू सकती थी, देख सकती थी, पी सकती थी। तभी मुझे अनुभव आ क
वह या है जो भावना को किवता का प देता है। म जीवन म पहली बार
समझ पायी क य कोई पवत-िशखर को सहलाती मेघ-माला म खो
जाता है, य कसी को अपने तन-मन क अपे ा आकाश म बनते-िमटते
िच का इतना मोह हो रहता है।... या बात है माँ? इस तरह चुप य हो?
अि बका:देख रही हो म काम कर रही ।ँ
मि लका:काम तो तुम हर समय करती हो। पर तु हर समय इस तरह चुप नह रहत ।
अि बका के पास आ बैठती है। अि बका चुपचाप धान फटकती
रहती है। मि लका उसके हाथ से छाज ले लेती है।
म तु ह काम नह करने दूग ँ ी।...मुझसे बात करो।
अि बका: या बात क ँ ?
मि लका:कु छ भी कहो। मुझे डाँटो क भीगकर य आयी ।ँ या कहो क तुम थक गयी
हो, इसिलए शेष धान म फटक दू।ँ या कहो क तुम घर म अके ली थ ।,
इसिलए तु ह अ छा नह लग रहा था।
अि बका:मुझे सब अ छा लगता है।
छाज उससे ले लेती है।
और म घर म दुकेली कब होती ?ँ तु हारे यहाँ रहते म अके ली नह होती?
मि लका:म तु ह काम नह करने दूग ँ ी।
फर छाज उसके हाथ से ले लेती है और कु भ के पास रख आती
है।
मेरे घर म रहते भी तुम अके ली होती हो?...कभी तो मेरी भ सना करती हो
क म घर म रहकर तु हारे सब काम म बाधा डालती ,ँ और कभी कहती
हो...
पीठ के पीछे से उसके गले म बाँह डाल देती है।
मुझे बताओ तुम इतनी ग भीर य हो?
अि बका:दूध औटा दया है। शकरा िमला लो और पी लो...।
मि लका:नह , तुम पहले बताओ।
अि बका:और जाकर थोड़ी देर त प पर िव ाम कर लो। मुझे अभी...।
मि लका:नह माँ, िव ाम नह करना है। थक कहाँ ँ जो िव ाम क ँ ? मुझे तो अब भी
अपने म बरसती बूँद के पुलक का अनुभव हो रहा है। रोम अभी तक सीज
रहे ह। ...तुम बताती य नह हो? ऐसे करोगी तो म भी तुमसे बात नह
क ँ गी।
अि बका कु छ न कहकर आँचल से आँख प छती है और उसे पीछे
से हटाकर पास क चैक पर बैठा देती है। मि लका ण-भर
चुपचाप उसक ओर देखती रहती है।
या आ है, माँ! तुम रो य रही हो?
अि बका:कु छ नह मि लका! कभी बैठे-बैठे मन उदास हो जाता है।
मि लका:बैठे-बैठे मन उदास हो जाता है, पर तु बैठे-बैठे रोया तो नह जाता।...तु ह मेरी
सौग ध है माँ, जो मुझे नह बताओ।
दूर कु छ कोलाहल और घोड़ क टाप का श द सुनाई देता है।
अि बका उठकर झरोखे के पास चली जाती है। मि लका ण-भर
बैठी रहती है, फर वह भी जाकर झरोखे से देखने लगती है। टाप
का श द पास आकर दूर चला जाता है।
मि लका:ये कौन लोग ह माँ?
अि बका:स भवतः रा य के कमचारी ह।
मि लका:ये यहाँ या कर रहे ह?
अि बका:जाने या कर रहे ह!...कभी वष म ये आकृ ितयाँ यहाँ दखाई देती ह। और जब
भी दखाई देती ह, कोई न कोई अिन होता है। कभी यु क सूचना आती
है, कभी महामारी क ।
ल बी साँस लेती है।
िपछली महामारी म जब तु हारे िपता क मृ यु ई, तब भी मने ये
आकृ ितयाँ यहाँ देखी थ ।
मि लका िसर से पैर तक िसहर जाती है।
मि लका:पर तु आज ये लोग यहाँ कसिलए आए ह?
अि बका:न जाने कसिलए आये ह।
अि बका फर छाज उठाने लगती है, पर तु मि लका उसे बाँह से
पकड़कर रोक लेती है।
मि लका:माँ, तुमने बात नह बताई।
अि बका पल-भर उसे ि थर दृि से देखती रहती है। उसक आँख
झुक जाती ह।
अि बका:अि िम आज लौट आया है।
छाज उठाकर अपने थान पर चली जाती है। मि लका वह खड़ी
रहती है।
मि लका:लौट आया है? कहाँ से?
अि बका:जहाँ मने उसे भेजा था।
मि लका:तुमने भेजा था?
ह ठ फड़फड़ाने लगते ह। वह बढ़कर अि बका के पास आ जाती है।
क तु मने तुमसे कहा था, अि िम को कह भेजने क आव यकता नह है।
मशः वर म और उ ेजना आ जाती है।
तुम जानती हो म िववाह नह करना चाहती, फर उसके िलए य य
करती हो? तुम समझती हो म िनरथ क लाप करती ?ँ
अि बका धान को मु ी म ले-लेकर जैसे मसलती ई छाज म
िगराने लगती है।
अि बका:म देख रही ँ तु हारी बात ही सच होने जा रही है। अि िम स देश लाया है क
वे लोग इस स ब ध के िलए तुत नह ह। कहते ह...
मि लका: या कहते ह? या अिधकार है उ ह कु छ भी कहने का? मि लका का जीवन
उसक अपनी स पि है। वह उसे न करना चाहती है तो कसी को उस पर
आलोचना करने का या अिधकार है?
अि बका:म कब कहती ँ मुझे अिधकार है?
मि लका िसर झटककर अपनी उ ेजना को दबाने का य
करती है।
मि लका:म तु हारे अिधकार क बात नह कह रही।
अि बका:तुम न कहो, म कह रही ।ँ आज तु हारा जीवन तु हारी स पि है। मेरा तुम पर
कोई अिधकार नह है।
मि लका पास क चौक पर बैठकर उसके क धे पर हाथ रख देती
है।
मि लका:ऐसा य कहती हो?...तुम मुझे समझने का य य नह करत ?
अि बका उसका हाथ क धे से हटा देती है।
अि बका:म जानती ँ तुम पर आज अपना अिधकार भी नह है। क तु...इतना बड़ा
अपवाद मुझसे नह सहा जाता है। मि लका बाँह घुटन पर रखकर उन पर
िसर टका लेती है।
मि लका:म जानती ँ माँ, अपवाद होता है। तु हारे दुःख क बात भी जानती ।ँ फर भी
मुझे अपराध का अनुभव नह होता। मने भावना म एक भावना का वरण
कया है। मेरे िलए वह स ब ध और सब स ब ध से बड़ा है। म वा तव म
अपनी भावना से ेम करती ँ जो पिव है, कोमल है, अन र है...।
अि बका के चेहरे पर रे खाएँ खंच जाती ह।
अि बका:और मुझे ऐसी भावना से िवतृ णा होती है। पिव , कोमल और अन र! हँ!
मि लका:माँ, तुम मुझ पर िव ास य नह करत ?
अि बका:तुम िजसे भावना कहती हो वह के वल छलना और आ म- वंचना है।...भावना म
भावना का वरण कया है!...म पूछती ँ भावना म भावना का वरण या
होता है? उससे जीवन क आव यकताएँ कस तरह पूरी होती ह?...भावना
म भावना का वरण! हँ!
मि लका ण-भर छत क ओर देखती रहती है!
मि लका:जीवन क थूल आव यकताएँ ही तो सब कु छ नह ह, माँ! उनके अित र भी
तो ब त कु छ है।
अि बका फर धान फटकने लगती है।
अि बका:होगा म नह जानती।
मि लका कु छ ण अि बका क ओर देखती रहती है।
मि लका:सच तो यह है माँ, क ाम के अ य ि य क तरह तुम भी उ ह स देह और
िवतृ णा क दृि से देखती हो।
अि बका: ाम के अ य लोग उसे उतना नह जानते िजतना म जानती ।ँ
ण-भर दोन क आँख िमली रहती ह।
म उससे घृणा करती ।ँ
मि लका के चेहरे पर था, आवेश तथा िववशता क रे खाएँ एक
साथ खंच जाती ह।
मि लका:माँ!
अि बका:अ य लोग को उससे या योजन है! पर तु मुझे है। उसके भाव से मेरा घर
न हो रहा है।
ोढ़ी क ओर से कािलदास के श द सुनाई देने लगते ह। अि बका
के माथे क रे खाएँ गहरी हो जाती ह। वह छाज िलए उठ खड़ी
होती है। ण-भर ोढ़ी क ओर देखती रहती है, फर अ दर को
चल देती है।
मि लका:ठहरो माँ, तुम चल य द ?
अि बका:माँ का जीवन भावना नह , कम है। उसे घर म ब त कु छ करना है।
चली जाती है। कािलदास एक ह रणशावक को बाँह म िलए
पुचकारता आ आता है। ह रणशावक के शरीर से ल टपक रहा
है।
कािलदास:हम िजएँगे ह रणशावक! िजएँगे न? एक बाण से आहत होकर हम ाण नह
दगे। हमारा शरीर कोमल है, तो या आ? हम पीड़ा सह सकते ह। एक बाण
ाण ले सकता है, तो उँ गिलय का कोमल पश ाण दे भी सकता है। हम
नए ाण िमल जाएँगे। हम कोमल आ तरण पर िव ाम करगे। हमारे अंग
पर घृत का लेप होगा। कल हम फर वन थली म घूमगे। कोमल दूवा खाएँग।े
खाएँगे न?
मि लका अपने को सहेजकर ार क ओर जाती है।
मि लका:यह आहत ह रणशावक?...यहाँ ऐसा कौन ि है िजसने इसे आहत कया?
या दि ण क तरह यहाँ भी...?
कािलदास:आज ाम- देश म कई नयी आकृ ितयाँ देख रहा ।ँ ,
झरोखे के पास जाकर आसन पर बैठ जाता है।
रा य के कु छ कमचारी आये ह।
ह रणशावक को व से सटाकर थपथपाने लगता है।
हम सोएँगे? हाँ, हम थोड़ी देर सो लगे तो हमारी पीड़ा दूर हो जाएगी।
पर तु उससे पहले हम थोड़ा दूध पी लेना है।...मि लका, थोड़ा दूध हो तो
कसी भाजन म ले आओ।
मि लका:माँ ने दूध औटाकर रखा है। देखती ।ँ
चू हे के िनकट रखे बरतन के पास जाकर देखने लगती है।
अभी-अभी दो-तीन राज-कमचा रय को हमने घोड़ पर जाते देखा है। माँ
कहती ह क जब भी ये लोग आते ह, कोई न कोई अिन होता है। वषा के
रोमांच के बाद...मुझे यह सब ब त िविच लगा।
दूध का बरतन उठाकर दूध खुले बरतन म उँ डेलने लगती है।
माँ आज ब त ह।
कािलदास ह रणशावक को बाँह म झुलाने लगता है।
कािलदास:हम पहले से सुखी ह। हमारी पीड़ा धीरे -धीरे दूर हो रही है। हम व थ हो रहे
ह...न जाने इसके ई जैसे कोमल शरीर पर उससे बाण छोड़ते बना कै से?
यह कु लांच भरता मेरी गोद म आ गया। मने कहा, तुझे वहाँ ले चलता ँ जहाँ
तुझे अपनी माँ क -सी आँख और उसका-सा ही ेह िमलेगा।
मि लका क ओर देखता है। मि लका दूध िलए पास आ जाती है।
मि लका:सच, माँ आज ब त ह। माँ को अनुमान हो गया होगा क वषा म म तु हारे
साथ थी, नह तो इस तरह भीगकर न आती। माँ को अपवाद क ब त
िच ता रहती है...।
कािलदास:दूध मुझे दे दो और इसे बाँह म ले लो।
दूध का भाजन उसके हाथ से ले लेता है। मि लका ह रणशावक
को बाँह म लेकर उसका मुँह दूध के िनकट ले जाती है। कािलदास
भाजन को उसके और िनकट कर देता है।
हम दूध नह िपएँगे? नह हम ऐसा हठ नह करगे! हम दूध अव य िपएँगे।
राजपु ष द तुल ोढ़ी से आकर ार के पास क जाता है। ण-
भर वह उ ह देखता रहता है। कािलदास ह रण का मुँह दूध से
िमला देता है।
ऐसे...ऐसे।
द तुल बढ़कर उनके िनकट आता है।
द तुल:दूध िपलाकर इसके माँस को और कोमल कर लेना चाहते हो?
कािलदास और मि लका च ककर उसे देखते ह। मि लका
ह रणशावक को िलए थोड़ा पीछे हट जाती है। कािलदास दूध का
भाजन आसन पर रख देता है।
कािलदास:जहाँ तक म जानता ,ँ हम लोग प रिचत नह ह। तु हारा एक अप रिचत घर
म आने का साहस कै से आ?
द तुल एक बार मि लका क ओर देखता है, फर कािलदास क
ओर।
द तुल: कै सी आकि मक बात है क ऐसा ही म तुमसे पूछना चाहता था। हमारा कभी
का प रचय नह , फर भी मेरे बाण से आहत ह रण को उठा ले आने म तु ह
संकोच नह आ? यह तो कहो क ार तक र -िब दु के िच ह बने ह,
अ यथा इन बादल से िघरे दन म म तु हारा अनुसरण कर पाता?
कािलदास:देख रहा ँ क तुम इस देश के िनवासी नह हो।
द तुल ं या मक हँसी हँसता है।
द तुल:म तु हारी दृि क शंसा करता ।ँ मेरी वेश-भूषा ही इस बात का प रचय देती है
क म यहाँ का िनवासी नह ।ँ
कािलदास:म तु हारी वेश-भूषा को देखकर नह कह रहा।
द तुल:तो या मेरे ललाट क रे खा को देखकर? जान पड़ता है चोरी के अित र
सामु क का भी अ यास करते हो।
मि लका चोट खाई-सी कु छ आगे आती है।
मि लका:तु ह ऐसा लाँछन लगाते ल ा नह आती?
द तुल: मा चाहता ँ देिव? पर तु यह ह रणशावक, िजसे बाँह म िलए ह, मेरे बाण से
आहत आ है। इसिलए यह मेरी स पि है। मेरी स पि मुझे लौटा तो
दगी?
कािलदास:इस देश म ह रण का आखेट नह होता राजपु ष! तुम बाहर से आए हो,
इसिलए इतना ही पया है क हम इसके िलए तु ह अपराधी न मान।
द तुल:तो राजपु ष के अपराध का िनणय ामवासी करगे! ामीण युवक, अपराध और
याय का श दाथ भी जानते हो!
कािलदास:श द और अथ राजपु ष क स पि है, जानकर आ य आ।
द तुल:समझदार ि जान पड़ते हो। फर भी यह नह जानते हो क राजपु ष के
अिधकार ब त दूर तक जाते ह। मुझे देर हो रही है। यह ह रणशावक मुझे दे
दो।
कािलदास:यह ह रणशावक इस पाव य-भूिम क स पि है, राजपु ष! और इसी पाव य-
भूिम के िनवासी हम इसके सजातीय ह। तुम यह सोचकर भूल कर रहे हो क
हम इसे तु हारे हाथ म स प दगे।...मि लका, इसे अ दर ले जाकर त प पर
या कसी आ तरण पर...
अि बका सहसा अ दर से आती है।
अि बका:इस घर के त प और आ तरण ह रणशावक के िलए नह ह।
मि लका:तुम देख रही हो माँ...!
अि बका:हाँ, देख रही ।ँ इसीिलए तो कह रही ।ँ त प और आ तरण मनु य के सोने के
िलए ह, पशु के िलए नह ।
कािलदास:इसे मुझे दे दो, मि लका!
दूध का भाजन नीचे रख देता है और बढ़कर ह रणशावक को
अपनी बाँह म ले लेता है।
इसके िलए मेरी बाँह का आ तरण ही पया होगा। म इसे घर ले जाऊँगा।
ार क ओर चल देता है।
द तुल:और राजपु ष द तुल तु ह ले जाते देखता रहेगा!
कािलदास:यह राजपु ष क िच पर िनभर करता है।
िबना उसक ओर देखे ोढ़ी म चला जाता है।
द तुल:राजपु ष क िच-अ िच या होती है, स भवतः इसका प रचय तु ह देना
आव यक होगा।
कािलदास बाहर चला जाता है। के वल उसका श द ही सुनाई देता
है।
कािलदास:स भवतः।
द तुल:स भवतः?
तलवार क मूठ पर हाथ रखे उसके पीछे जाना चाहता है।
मि लका शी ता से ार के सामने खड़ी हो जाती है।
मि लका:ठहरो, राजपु ष! ह रणशावक के िलए हठ मत करो। तु हारे िलए अिधकार
का है, उनके िलए स वेदना का, कािलदास िनःश होते ए भी तु हारे श
क िच ता नह करगे।
द तुल:कािलदास?...तु हारा अथ है क म िजनसे ह रणशावक के िलए तक कर रहा था, वे
किव कािलदास ह?
मि लका:हाँ-हाँ। पर तु तुम कै से जानते हो क कािलदास किव ह?
द तुल:कै से जानता !ँ उ ियनी क रा य-सभा का येक ि 'ऋतु-संहार' के लेखक
किव कािलदास को जानता है।
मि लका:उ ियनी क रा य-सभा का येक ि उ ह जानता है?
द तुल:स ाट् ने वयं 'ऋतु-संहार' पढ़ा और उसक शंसा क है। इसिलए आज उ ियनी
का रा य 'ऋतु-संहार' के लेखक का स मान करना और उ ह राजकिव का
आसन देना चाहता है। आचाय वर िच इसी उ े य से उ ियनी से यहाँ आए
ह।
मि लका सुनकर ति भत-सी हो रहती है।
मि लका:उ ियनी का रा य उ ह स मान देना चाहता है? राजकिव का आसन...?
द तुल:मुझे खेद है मने उनके साथ अिश ता का वहार कया। मुझे जाकर उनसे मा
माँगनी चािहए।
चला जाता है। मि लका कु छ ण उसी तरह खड़ी रहती है। फर
सहसा जैसे उसक चेतना लौट आती है। अि बका इस बीच दूध
का भाजन उठाकर कोने म रख देती है। िजस पा म पहले दूध
रखा था, उसे देखती है। उसम जो दूध शेष है, उसे एक छोटे पा
म डालकर श र िमलाने लगती है। हाथ ऐसे अि थर ह जैसे वह
अ दर ही अ दर ब त उ ेिजत हो। मि लका िनचला ह ठ दाँत
म दबाए दौड़कर उसके िनकट आती है।
मि लका:तुमने सुना माँ...रा य उ ह राजकिव का आसन देना चाहता है?
अि बका हाथ से िगरते दूध के पा को कसी तरह सँभाल लेती
है।
अि बका:गीले व मने सूखने के िलए फै ला दये ह। थोड़ा-सा दूध शेष है, इसम शकरा
िमला दी है।
मि लका:तुमने सुना नह माँ, राजपु ष या कह रहा था?
अि बका:दूध पी लो। आशा करती ँ क अब यहाँ कसी और का आित य नह होना है।
मि लका:आित य?...म चाहती ँ आज इस घर म सारे संसार का आित य कर सकूँ ।
दूध का पा अि बका के हाथ से ले लेती है।
तु ह इस दूध से नहला दू,ँ माँ?
पा ऊँचा उठा देती है। अि बका पा उसके हाथ से ले लेती है।
अि बका:म दूध से ब त नहा चुक ।ँ
मि लका:तुम कतनी िन ु र हो, माँ! तुमने सुना नह , रा य उ ह स मान दे रहा है? फर
भी तुम...।
अि बका:दूध पी लो। और फर से वषा म भीगने का मोह न हो, तो म तु हारे िलए
आ तरण िबछा दू।ँ ...म जैसी िन ु र ,ँ रहने दो।
मि लका उसके गले म बाँह डाल देती है।
मि लका:नह , तुम िन ु र नह हो। मने कब कहा है तुम िन ु र हो?
अि बका:नह , तुमने नह कहा। दूध पी लो।
मि लका दूध का पा उसके हाथ से लेकर एक घूँट म दूध पी
जाती है और पा कोने म रख देती है। फर अि बका का हाथ
ख चकर उसे िबठा देती है और वयं उसक गोदी म लेट जाती है।
मि लका:माँ, तुम सोच सकती हो आज म कतनी स ?ँ
अि बका:मेरे पास कु छ भी सोचने क शि नह है। अब उठ जाने दो, मुझे ब त काम
करना है।
उठने का य करती है। मि लका उसे रोके रहती है।
मि लका:नह , उठो नह । इसी तरह बैठी रहो...रा य उ ह स मान दे रहा है, माँ! उ ह
राजकिव का आसन ा होगा...
सहसा अि बका क गोदी से हटकर बैठ जाती है ।
...उस ि को, िजसे उसके िनकट के लोग ने आज तक समझने का य
नह कया। िजसे घर म और घर से बाहर के वल लांछना और ताड़ना ही
िमली है। ...अब तो तुम िव ास करती हो माँ, क मेरी भावना िनराधार
नह है।
अि बका उठ खड़ी होती है।
अि बका:म कह चुक ,ँ मेरी सोचने-समझने क शि जड़ हो चुक है।
मि लका: य माँ? य तु ह इतना पूवा ह है? य तुम उनके स ब ध म उदारतापूवक
नह सोच सकत ?
अि बका:मेरी वह अव था बीत चुक है जब यथाथ से आँख मूँद कर िजया जाता है।
अ दर जाने लगती है। मि लका उठकर खड़ी हो जाती है।
मि लका:और तु हारी यथाथ दृि के वल दोष ही दोष देखती है?
अि बका मुड़कर पल-भर उसे देखती रहती है।
अि बका:जहाँ दोष है, वहाँ अव य वह दोष देखती है।
मि लका:उनम तु ह या दोष दखाई देता है?
अि बका:वह ि आ म-सीिमत है। संसार म अपने िसवा उसे और कसी से मोह नह है।
मि लका:इसीिलए क वे मातुल क गौएँ न हाँककर बादल म खोए रहते ह?
अि बका:मुझे मातुल से और उसक गौ से योजन नह है। म के वल अपने घर को
देखकर कहती ।ँ
मि लका:बैठ जाओ, माँ!
अि बका को हाथ से पकड़कर झरोखे के पास आसन पर ले जाती
है।
म तु हारी बात समझना चाहती ।ँ
अि बका:म भी चाहती ँ तुम आज समझ लो।...तुम कहती हो तु हारा उससे भावना का
स ब ध है। वह भावना या है?
मि लका:म उसे कोई नाम नह देती।
अि बका के पैर के पास बैठ जाती है।
अि बका:पर तु लोग उसे नाम देते ह।...य द वा तव म उसका तुमसे भावना का स ब ध
है, तो वह य तुमसे िववाह नह करना चाहता?
मि लका:तुम उनके ित सदा अनुदार रही हो, माँ! तुम जानती हो, उनका जीवन
प रि थितय क कै सी िवड बना म बीता है। मातुल के घर म उनक या
दशा रही है। उस साधन-हीन और अभाव- त जीवन म िववाह क क पना
ही कै से क जा सकती थी?
अि बका:और अब जब क उसका जीवन साधन-हीन और अभाव- त नह रहेगा?
मि लका कु छ ण चुप रहकर अपने पैर को देखती रहती है।
कसी स ब ध से बचने के िलए अभाव िजतना बड़ा कारण होता है, अभाव
क पू त उससे बड़ा कारण बन जाती है।
मि लका:यह तु हारी नह , िवलोम क भाषा है।
अि बका:म ऐसे ि को अ छी तरह समझती ।ँ तु हारे साथ उसका इतना ही स ब ध
है क तुम एक उपादान हो िजसके आ य से वह अपने से ेम कर सकता है,
अपने पर गव कर सकता है। पर तु तुम या सजीव ि नह हो? तु हारे
ित उसका या तु हारा कोई कत नह है? कल तु हारी माँ का शरीर नह
रहेगा, और घर म एक समय के भोजन क व था भी नह होगी, तो जो
तु हारे सामने उपि थत होगा, उसका तुम या उ र दोगी। तु हारी
भावना उस का समाधान कर देगी? फर कह दो यह मेरी नह , िवलोम
क भाषा है।
मि लका िसर झुकाए कु छ ण चुप बैठी रहती है। फर अि बका
क ओर देखती है।
मि लका:माँ, आज तक का जीवन कसी तरह बीता ही है। आगे का भी बीत जाएगा। आज
जब उसका जीवन एक नयी दशा हण कर रहा है, म उनके सामने अपने
वाथ क घोषणा नह करना चाहती।
बाहर से मातुल के श द सुनायी देने लगते ह।
मातुल:अि बका!...अि बका!...घर म हो क नह ?
अि बका और मि लका ोढ़ी क ओर देखती ह। मातुल अ त-
त-सा आता है।
मातुल:हो, हो, हो घर म ही हो! म आज सारे ाम म घोषणा करने जा रहा ँ क मेरा इस
कािलदास नामधारी जीव से कोई स ब ध नह है।
मि लका: या आ है, आय मातुल?
मातुल:मने इसे पाला-पोसा, बड़ा कया। या इसी दन के िलए क यह इस तरह कु ल ोही
बने?
मि लका:पर तु उ ह तो सुना है, रा य क ओर से स मािनत कया जा रहा है। उ ियनी
से कोई आचाय आए ह।
मातुल:यही तो कह रहा ।ँ उ ियनी से कोई आचाय आए ह।
मि लका:पर तु आप तो कह रहे ह।
मातुल:म ठीक कह रहा ।ँ आचाय कल ही इसे अपने साथ उ ियनी ले जाना चाहते ह।
मि लकाspan class="spp">: क तु...।
मातुल:दो रथ, रथवाह और चार अ ारोही उनके साथ ह। म तुमसे नह कहता था
अि बका, क हमारे िपतामह के एक दौिह का पु गु रा य क ओर से
शक से यु कर चुका है?
अि बका:तुम अपने भािगनेय क बात कर रहे थे।
मातुल:उसी क बात कर रहा ,ँ अि बका! तुम समझो क एक तरह से रा य क ओर से
हमारे वंश का स मान कया जा रहा है। और वे वंशावतंस कहते ह, 'मुझे यह
स मान नह चािहए...।'
मि लका सहसा उठकर खड़ी हो जाती है।
'म राजक य मु ा से त होने के िलए नह ।ँ
उ ेजना म एक कोने से दूसरे कोने तक टहलने लगता है। मि लका
कु छ ण िव मृत-सी खड़ी रहती है।
मि लका:वे राजक य स मान को वीकार नह करना चाहते?
मातुल:मेरी समझ म नह आता क इसम य-िव य क या बात है। स मान िमलता है,
हण करो। नह , किवता का मू य ही या है?
मि लका:किवता का कु छ मू य है आय मातुल, तभी तो स मान का भी मू य है।...म
समझती ँ क उनके दय म यह स मान कहाँ चुभता है।
अि बका कु छ सोचती-सी अपने अंशुक को उँ गिलय म मसलने
लगती है।
अि बका:म तु ह िव ास दलाती ,ँ क वह उ ियनी अव य जाएगा।
मातुल उसी तरह टहलता रहता है।
मातुल:अव य जाएगा! वे लोग इसके अनुचर ह जो अिभ तुित करके इसे ले जाएँगे!
अि बका:स मान ा होने पर स मान के ित कट क गयी उदासीनता ि के मह व
को बढ़ा देती है। तु ह स होना चािहए क तु हारा भािगनेय लोकनीित म
िन णात है।
मातुल सहसा क जाता है।
मातुल:यह लोकनीित है, तो म क ग ँ ा क लोकनीित और मूखनीित दोन का एक ही अथ
है।
फर टहलने लगता है।
जो ि कु छ देता है, धन हो या स मान हो, वह अपना मन बदल भी
सकता है और बदल गया तो बदल गया।
फर क जाता है।
तुम सोचो क स ाट् भी तो हो सकते ह क एक साधारण किव ने उनका
स मान वीकार नह कया।
िन ेप बाहर से आता है।
िन ेप:मातुल, आप अभी तक यहाँ ह, और आचाय आपक ती ा कर रहे ह।
मातुल:और तुम यहाँ या कर रहे हो? मने तुमसे नह कहा था क जब तक म लौटकर न
आऊँ, तुम आचाय के पास रहना?
िन ेप:पर तु यह भी तो कहा था क आचाय िव ाम कर चुक तो तुर त आपको सूचना दे
दू।ँ
मातुल:यह भी कहा था। क तु वह भी तो कहा था। यह कहा तु हारी समझ म आ गया,
वह नह आया?
िन ेप: क तु मातुल...।
मातुल: क तु या? मातुल मूख है? बताओ तुम मुझे मूख समझते हो?
िन ेप:नह मातुल...।
मातुल:म मूख नह , तो िन य ही तुम मूख हो।...आचाय ने या कहा है?
िन ेप:उ ह ने कहा है क वे आपके साथ इस सारे ाम- देश म घूमना चाहते ह...
मातुल के मुख पर गव क रे खाएँ कट होती ह।
...िजस देश ने कािलदास क किवता को ज म दया है।
मातुल के मुख क रे खाएँ िवतृ णा क रे खा म बदल जाती ह।
मातुल:कािलदास क किवता!
फर टहलने लगता है।
न जाने इतने बड़े आचाय को इसक किवता म या िवशेषता दखायी देती
है!
ककर अि बका क ओर देखता है।
इस को सामा य लोक- वहार तक का तो ान नह , और तुम
लोकनीित क बात कहती हो।...आप एक ह रणशावक को गोदी म िलए घर
क ओर आ रहे थे। सौभा यवश मने बाहर ही देख िलया। मने ाथना क क
किवकु लगु , यह समय इस प म घर म जाने का नह है। उ ियनी से एक
ब त बड़े आचाय आए ह। आप सुनते ही लौट पड़े। जैसे रा ते म साँप देख
िलया हो।
मि लका अि बका के पास आसन पर बैठ जाती है। मातुल फर
टहलने लगता है।
अि बका:मि लका, मातुल के िलए अ दर से आसन ला दो।
मि लका उठने लगती है, पर तु मातुल उसे रोक देता है।
मातुल:नह , मुझे आसन नह चािहए। आचाय मेरी ती ा कर रहे ह।
िन ेप अि बका क ओर देखकर मु कराता है। मातुल कोने तक
जाकर लौटता है।
मने कहा, 'किववय, आचाय आपको साथ उ ियनी ले जाने के िलए आये ह।
रा य क ओर से आपका स मान होगा।'
क जाता है।
सुनकर के । ककर जलते अंगारे क -सी दृि से मुझे देखा।-"म राजक य
मु ा से त होने के िलए नह ।ँ "-ऐसे कहा जैसे राजक य मु ाएँ आपके
िवरह म घुली जा रही ह , और चल दये।...मेरे िलए धम-संकट खड़ा हो
गया क अनुनय करता आ आपके पीछे-पीछे जाऊँ, या अ यागत को देख।ूँ
अब इस िन ेप से आचाय के पास बैठने को कहकर आया था, और यह
धुरीहीन च क तरह मेरे पीछे-पीछे चला आया है।
िन ेप: क तु मातुल, म तो समाचार देने आया था क...।
मातुल:और म समाचार देने के िलए तुमसे ध यवाद कहता ।ँ ब त अ छा कया!
अ यागत वहाँ बैठे ह और आप समाचार देने यहाँ चले आये ह!...अब इतना
क िजए क वे किवकु ल-िशरोमिण जहाँ भी ह , उ ह ढू ँढ़कर ले आइये।
बाहर क ओर चल देता है।
मेरा कत कहता है, जैसे भी हो उसे आचाय के सामने तुत क ँ ।...और
मन कहता है क उसे जहाँ देखूँ वह चोटी से पकड़कर...।
चला जाता है।
िन ेप:मातुल का तीसरा ने हर समय खुला रहता है।
मि लका:पर तु कािलदास इस समय ह कहाँ?
िन ेप:कािलदास इस समय जगद बा के मि दर म ह।
मि लका:आपने उ ह देखा है?
िन ेप:देखा है।
मि लका:पर तु आपने मातुल से नह कहा?
िन ेप:म नह चाहता था क मातुल इस समय वहाँ जाएँ?
मि लका: य ? या आप भी नह चाहते क कािलदास...?
िन ेप:म चाहता ँ क कािलदास उ ियनी अव य जाएँ। इसीिलए मने मातुल का इस
समय उनके पास जाना उिचत नह समझा।...मातुल को अपने मुँह के श द
सुनने म ऐसा रस ा होता है क वे बोलते ही जाते ह, प रि थित को
समझना नह चाहते।...कािलदास हठ कर रहे ह क जब तक उ ियनी से
आए अितिथ लौट नह जाते, वे जगद बा के मि दर म ही रहगे, घर नह
जाएँगे।
अि बका:कै सी िवच णता है!
िन पे :िवच णता?
अि बका:िवच णता ही तो है।
िन प े :इसम िवच णता या है अि बका!
अि बका तीखी दृि से िन ेप को देखती है।
अि बका:रा य किव का स मान करना चाहता है। किव स मान के ित उदासीन जगद बा
के मि दर म साधनािनरत है। रा य के ितिनिध मि दर म आकर किव क
अ यथना करते ह। किव धीरे -धीरे आँख खोलता है।. ..इतना बड़ा नाटक
करना िवच णता नह है?
िन ेप:कािलदास नाटक नह कर रहे, अि बका! मुझे िव ास है क उ ह राजक य स मान
का मोह नह है। वे सचमुच इस पवत-भूिम को छोड़कर नह जाना चाहते।
अि बका अपने थान से उठकर उस ओर जाती है िजधर बरतन
आ द पड़े ह।
अि बका:नह चाहता!... !ँ
एक थाली लाकर कु भ से उसम चावल िनकालने लगती है।
िन ेप:मातुल का या कसी का भी आ ह उनका हठ नह छु ड़ा सकता।
मि लका को अथपूण दृि से देखता है। मि लका क आँख झुक
जाती ह।
के वल एक ि है, िजसके अनुरोध से स भव है वे यह हठ छोड़ द।
अि बका िन ेप क अथपूण दृि को और फर मि लका को
देखती है।
अि बका:हमारे घर म कसी को उसके हठ छोड़ने या न छोड़ने से कोई योजन नह है।
थाली िलए चू हे के िनकट चली जाती है और उन दोन क ओर
पीठ कये अपने को त रखने का य करती है।
िन ेप:कािलदास अपनी भावुकता म भूल रहे ह क इस अवसर का ितर कार करके वे
ब त कु छ खो बैठगे। यो यता एक चैथाई ि व का िनमाण करती है। शेष
पू त ित ा ारा होती है। कािलदास को राजधानी अव य जाना चािहए।
अि बका त रहने का य करती ई भी त नह हो पाती।
अि बका:तो उसम बाधा या है?
िन ेप:मने अनुभव कया है क उनके हठ के मूल म कह गहरी कटु ता क रे खा है।
मि लका:म जानती ,ँ वह रे खा कहाँ है।...कु छ समय पहले एक राजपु ष से उनका
सामना हो चुका है।
िन ेप:उस कटु ता को के वल तु ह दूर कर सकती हो, मि लका! अवसर कसी क ती ा
नह करता। कािलदास यहाँ से नह जाते ह, तो रा य को कोई हािन नह
होगी। राजकिव का आसन र नह रहेगा। पर तु कािलदास जो आज ह,
जीवन-भर वही रहगे-एक थानीय किव! जो लोग आज 'ऋतु-संहार' क
शंसा कर रहे ह, वे भी कु छ दन म उ ह भूल जाएँगे।
मि लका अपने म खोई सी उठ खड़ी होती है।
मि लका:नह , उ ह इस स मान का ितर कार नह करना चािहए। यह स मान उनके
ि व का है। उ ह अपने ि व को उसके अिधकार से वंिचत नह
करना चािहए। चिलए, म आपके साथ जगद बा के मि दर म चलती ।ँ
अि बका सहसा खड़ी हो जाती है।
अि बका:मि लका!
मि लका ि थर दृि से अि बका को देखती है।
मि लका:माँ!
अि बका:मुझे एक बाहर के ि के सामने कहना होगा क म इस समय तु हारे वहाँ
जाने के प म नह ?ँ
िन ेप:िन ेप बाहर का ि नह है, अि बका!
मि लका:यह एक मह वपूण ण है, माँ! मुझे इस समय अव य जाना चािहए। आइये,
आय िन ेप!
(िबना अि बका क ओर देखे बाहर को चल देती है। अि बका क
आँख म ोध क लहर उठती है, जो पराजय के भाव म बदल
जाती है। िन ेप अि बका के भाव को ल य करता ण-भर का
रहता है।)
िन ेप: मा चाहता ,ँ अि बका!
मि लका के पीछे चला जाता है। अि बका कु छ ण आँख मूँदे
खड़ी रहती है। फर घर क व तु को एक-एक करके देखती है,
और जैसे टू टी-सी, चैक पर बैठकर थाली के चावल को मसलने
लगती है। आँख से आँसू उमड़ आते ह, िज ह वह आँचल से प छ
लेती है। काश कम हो जाता है। अि बका के कं ठ से ँ धा-सा वर
िनकलता है-
अि बका:भावना!...ओह!
आँचल म मुँह िछपा लेती है। काश कु छ और ीण हो जाता है।
तभी ोढ़ी के अँधेरे म अि का क लौ चमक उठती है। िवलोम
अि का हाथ म िलये बाहर से आता है। अि बका को इस तरह
बैठे देखकर ण-भर का रहता है। फर पास चला आता है।
िवलोम:िघरे ए मेघ ने आज अ धकार कर दया है अि बका, या तु ह समय का ान नह
रहा?
अि बका आँचल से मुँह उठाती है। अि का के काश म उसके
मुख क रे खाएँ गहरी और आँख धँसी-सी दखायी देती ह।
आ य है, तुमने दीपक नह जलाया!
अि बका:िवलोम!...तुम यहाँ य आए हो?
िवलोम बाय ओर के दीपक के िनकट चला जाता है।
िवलोम:दीपक जला दू?ँ
अि का से छू कर दीपक जला देता है।
िवलोम का आना ऐसे आ य का िवषय नह है।
जाकर सामने के दीपक जलाने लगता है। अि बका उठ खड़ी होती है।
अि बका:चले जाओ िवलोम! तुम जानते हो क तु हारा यहाँ आना...
िवलोम:मि लका को स नह है।
दीपक जलाकर अि बका क ओर देखता है।
जानता ,ँ अि बका! मि लका ब त भोली है। वह लोक जीवन के स ब ध म
कु छ नह जानती।
दीवार म बने आधार म अि का ितरछा लगा देता है।
वह नह चाहती क म इस घर म आऊँ, य क कािलदास नह चाहता।
घूमकर अि बका के पास आता है।
और कािलदास य नह चाहता? य क मेरी आँख म उसे अपने दय का
स य झाँकता दखायी देता है। उसे उलझन होती है।... क तु तुम तो जानती
हो अि बका, मेरा एकमा दोष यह है क म जो अनुभव करता ,ँ प कह
देता ।ँ
अि बका:म इस समय तु हारे दोष-अदोष का िववेचन नह करना चाहती।
िवलोम:देख रहा ँ इस समय तुम ब त दुःखी हो।...और तुम दुःखी कब नह रह ,
अि बका? तु हारा तो जीवन ही पीड़ा का इितहास है। पहले से कह दुबली
हो गयी हो?...सुना है कािलदास उ ियनी जा रहा है।
अि बका:म नह जानती।
िवलोम जैसे उसक बात न सुनकर झरोखे के पास चला जाता है।
िवलोम:रा य क ओर से उसका स मान होगा! कािलदास राजकिव के प म उ ियनी म
रहेगा। म समझता ँ उसके जाने से पहले ही उसका और मि लका का िववाह
हो जाना चािहए। इस स ब ध म तुमने सोचा तो होगा?
अि बका:म इस समय कु छ भी सोचना नह चाहती।
िवलोम:तुम, मि लका क माँ, इस िवषय म सोचना नह चाहत ? आ य है!
अि बका:मने तुमसे कहा है िवलोम, तुम चले जाओ।
िवलोम:कािलदास उ ियनी चला जाएगा! और मि लका, िजसका नाम उसके कारण सारे
ा तर म अपवाद का िवषय बना है, पीछे यहाँ पड़ी रहेगी? य , अि बका?
अि बका कु छ न कहकर आसन पर बैठ जाती है। िवलोम घूमकर
उसके सामने आ जाता है।
य ? तुमने इतने वष सारी पीड़ा या इसी दन के िलए सही है? दूर से
देखने वाला भी जान सकता है, इन वष म तु हारे साथ या- या बीता है!
समय ने तु हारे मन, शरीर और आ मा क इकाई को तोड़कर रख दया है।
तुमने ितल-ितल करके अपने को गलाया है क मि लका को कसी अभाव का
अनुभव न हो। और आज, जब क उसके िलए जीवन-भर के अभाव का
सामने है, तुम कु छ सोचना नह चाहत ?
अि बका:तुम यह सब कहकर मेरा दुःख कम नह कर रहे, िवलोम! म अनुरोध करती ँ क
तुम इस समय मुझे अके ली रहने दो।
िवलोम:म इस समय अपना तु हारे पास होना ब त आव यक समझता ,ँ अि बका! म ये
सब बात तुमसे नह , उससे कहने के िलए आया ।ँ आशा कर रहा ँ क वह
मि लका के साथ अभी यहाँ आएगा। मने मि लका को जगद बा के मि दर
क ओर जाते देखा है। म यह उसक ती ा करना चाहता ।ँ
ोढ़ी से कािलदास और उसके पीछे मि लका आती है।
कािलदास:अिधक ती ा नह करनी पड़ेगी, िवलोम!
िवलोम को देखकर मि लका क आँख म ोध और िवतृ णा का
भाव उमड़ आता है, और वह झरोखे क ओर चली जाती है।
कािलदास िवलोम के पास आ जाता है।
म जानता ँ क तुम कहाँ, कस समय, और य मेरे सा ा कार के िलए
उ सुक होते हो।...कहो, आजकल कस नये छ द का अ यास कर रहे हो?
िवलोम:छ द का अ यास मेरी वृि नह है।
कािलदास:म जानता ँ तु हारी वृि दूसरी है।
ण-भर उसक आँख म देखता रहता है।
उस वृि ने स भवतः छ द का अ यास सवथा छु ड़ा दया है।
िवलोम:आज िनःस देह तुम छ द के अ यास पर गव कर सकते हो।
अि का के पास जाकर उसे सहलाने लगता है। काश उसके मुख
पर पड़ता है।
सुना है, राजधानी से िनम ण आया है।
कािलदास:सुना मने भी है। तु ह दुःख आ?
िवलोम:दुःख? हाँ-हाँ, ब त। एक िम के िबछु ड़ने का कसे दुःख नह होता? ...कल ा
मु म ही चले जाओगे?
कािलदास:म नह जानता।
िवलोम:म जानता ।ँ आचाय कल ा मु त म ही लौट जाना चाहते ह। राजधानी के
वैभव म जाकर ाम- ा तर को भूल तो नह जाओगे?
एक दृि मि लका पर डालकर फर कािलदास क ओर देखता है।
सुना है, वहाँ जाकर ि ब त त हो जाता है। वहाँ के जीवन म कई
तरह के आकषण ह—रं गशालाएँ, म दरालय और तरह-तरह क िवलास-
भूिमयाँ!
मि लका के भाव म ब त कठोरता आ जाती है।
मि लका:आय िवलोम, यह समय और थान इन बात के िलए नह है। म इस समय
आपको यहाँ देखने क आशा नह कर रही थी।
िवलोम:म जानता ँ तुम इस समय मुझे यहाँ देखकर स नह हो। पर तु म अि बका से
िमलने आया था। ब त दन से भट नह ई थी। यह कोई ऐसी अ यािशत
बात नह है।
कािलदास:िवलोम का कु छ भी करना अ यािशत नह है। हाँ, कई कु छ न करना
अ यािशत हो सकता है।
िवलोम:यह वा तव म स ता का िवषय है कािलदास, क हम दोन एक-दूसरे को इतनी
अ छी तरह समझते ह। िनःस देह मेरे वभाव म ऐसा कु छ नह है, जो तुमसे
िछपा हो।
ण-भर कािलदास क आँख म देखता रहताहै।
िवलोम या है? एक असफल कािलदास। और कािलदास? एक सफल
िवलोम। हम कह एक-दूसरे के ब त िनकट पड़ते ह।
अि का के पास से हटकर कािलदास के िनकट आ जाता है।
कािलदास:िनःस देह। सभी िवपरीत एक-दूसरे के ब त िनकट पड़ते ह।
िवलोम:अ छा है, तुम इस स य को वीकार करते हो। म उस िनकटता के अिधकार से
तुमसे एक पूछ सकता ?ँ ...स भव है फर कभी तुमसे बात करने का
अवसर ही ा न हो। एक दन का वधान तु ह हमसे ब त दूर कर देगा
न!
कािलदास:वष का वधान भी िवपरीत को िवपरीत से दूर नह करता।...म तु हारा
सुनने के िलए उ सुक ।ँ
िवलोम ब त पास आकर उसके क धे पर हाथ रख देता है।
िवलोम:म जानना चाहता ँ क तुम अभी तक वही कािलदास हो न?
अथपूण दृि से अि बका क ओर देख लेता है।
कािलदास:म तु हारा अिभ ाय नह समझ सका।
उसका हाथ अपने क धे से हटा देता है।
िवलोम:मेरा अिभ ाय है क तुम अभी तक वही ि हो न जो कल तक थे?
मि लका झरोखे के पास से उधर को बढ़ आती है।
मि लका:आय िवलोम, म इस कार क अनगलता य नह समझती। िवलोम:
अनगलता?
अि बका के िनकट आ जाता है। कािलदास दो-एक पग दूसरी ओर
चला जाता है।
इसम अनगलता या है? म ब त साथक पूछ रहा ।ँ य कािलदास?
मेरा साथक नह है? ... य अि बका?
अि बका अ वि थत भाव से उठ खड़ी होती है।
अि बका:म इस स ब ध म कु छ नह जानती, और न ही जानना चाहती ।ँ अ दर क ओर
चल देती है।
िवलोम:ठहरो, अि बका!
अि बका ककर उसक ओर देखती है।
आज तक ाम- ा तर म कािलदास के साथ मि लका के स ब ध को लेकर
ब त कु छ कहा जाता रहा है।
मि लका एक पग और आगे आ जाती है।
मि लका:आय िवलोम, आप...!
िवलोम:उसे दृि म रखते ए या यह उिचत नह क कािलदास यह प बता दे क उसे
उ ियनी अके ले ही जाना है या...
मि लका:कािलदास आपके कसी भी का उ र देने के िलए बा य नह ह।
िवलोम:म कब कहता ँ क बा य है? पर तु स भव है कािलदास का अ तःकरण उसे उ र
देने के िलए बा य करे । य कािलदास?
कािलदास मुड़ पड़ता है। दोन एक-दूसरे के सामने आ जाते ह।
कािलदास:म तु हारी शंसा करने के िलए अव य बा य ।ँ तुम दूसर के घर म ही नह ,
उनके जीवन म ही अनिधकार वेश कर जाते हो।
िवलोम:अनिधकार वेश...? म? य अि बका, तु ह कािलदास क यह बात कहाँ तक
संगत तीत होती है क म, िवलोम, दूसर के जीवन म अनिधकार वेश कर
जाता ?ँ
अि बका:म कह चुक ,ँ मुझे इस स ब ध म कु छ भी नह कहना है।
अ दर चली जाती है।
िवलोम:बस, चल ही द ...? अ छा कािलदास, तु ह बताओ,
तु ह अपनी यह बात कहाँ तक संगत तीत होती है? मने कसके जीवन म
अनिधकार वेश कया है? चलो, ाम- ा तर म चलकर कसी से भी पूछ
ल...।
िवद ध दृि से उसे देखता है। फर अि का के पास जाकर उसे
आधार से हाथ म ले लेता है।
तो तुम अपने अ तःकरण से भी मेरे का उ र देने के िलए बा य नह हो!
स भवतः ही ऐसा है...!
कािलदास:तुम कु छ भी अनुमान लगाने के िलए वत हो। म इतना ही जानता ँ क मुझे
ाम- ा तर छोड़कर उ ियनी जाने का तिनक मोह नह है।
िवलोम उ मुक कािलदास के मुख के िनकट ले आता है।
िवलोम:िनःस देह! तु ह ऐसा मोह य होगा? साधारण ि
को हो सकता है, तु ह य होगा? पर तु म के वल इतना जानना चाहता था
क य द ऐसा हो— ण-भर के िलए वीकार कर िलया जाए क तुम जाने
का िन य कर लो—तो उस ि थित म या यह उिचत नह क...
मि लका उसके और कािलदास के बीच म आ जाती है। अि का
का काश उसके मुँह पर पड़ने लगता है।
मि लका:आय िवलोम, आप अपनी सीमा से आगे जाकर बात कर रहे ह। म ब ी नह ,ँ
अपना भला-बुरा सब समझती ।ँ ...आप स भवतः यह अनुभव नह कर रहे
क आप यहाँ इस समय एक अनचाहे अितिथ के प म उपि थत ह।
िवलोम:यह अनुभव करने क मने आव यकता नह समझी।
तुम मुझसे घृणा करती हो, म जानता ।ँ पर तु म तुमसे घृणा नह करता।
मेरे यहाँ होने के िलए इतना ही पया है।
अि का का काश फर कािलदास के चेहरे पर डालता है।
और एक बात कािलदास से भी करना चाहता था।
अथपूण दृि से कािलदास को देखकर फर मि लका क ओर
देखता है।
तुम कािलदास के ब त िनकट हो, पर तु म कािलदास को तुमसे अिधक
जानता ।ँ
पुनः एक-एक करके दोन क ओर देखता है और ोढ़ी क ओर
चल देता है। ोढ़ी के पास से मुड़कर फर कािलदास क ओर
देखता है।
तु हारी या ा शुभ हो, कािलदास! तुम जानते हो, िवलोम तु हारा ही
शुभिच तक है।
कािलदास:यह मुझसे अिधक कौन जान सकता है?
िवलोम के क ठ से ितर कारपूण वर िनकलता है और वह
मि लका क ओर देखता है।
िवलोम:अनचाहा अितिथ स भवतः फर भी कभी आ प च ँ ।े तब के िलए भी मा चाहते
ए...।
ं य के साथ मु कराकर चला जाता है। कािलदास ण-भर
मि लका क ओर देखता रहता है। फर झरोखे के पास चला
जाता है।
मि लका: फर उदास हो गए?
कािलदास झरोखे से बाहर देखता रहता है।
देखो, तुम मुझे वचन दे चुके हो।
कािलदास लौटकर उसके पास आ जाता है।
कािलदास: फर एक बार सोचो, मि लका! स मान और रा या य
वीकार करने का ही नह है। उससे कह बड़ा एक मेरे सामने है।
मि लका: और वह म .ँ .. ँ न?
उसे बाँह से पकड़कर आसन पर िबठा देती है।
यहाँ बैठो। तुम मुझे जानते हो। हो न? कािलदास उसक ओर देखता रहता
है। तुम समझते हो क तुम इस अवसर को ठु कराकर यहाँ रह जाओगे, तो
मुझे सुख होगा?
उमड़ते आँसु को दबाने के िलए आँख झपकती और ऊपर क
ओर देखने लगती है।
म जानती ँ क तु हारे चले जाने से मेरे अ तर को एक र ता छा लेगी।
बाहर भी स भवतः ब त सूना तीत होगा। फर भी म अपने साथ छल नह
कर रही।
मु कराने का य करती है।
म दय से कहती ँ तु ह जाना चािहए।
कािलदास:चाहता ँ तुम इस समय अपनी आँख देख सकत ।
मि लका:मेरी आँख इसिलए गीली ह क तुम मेरी बात नह समझ रहे।
उसके पैर के पास बैठकर उसके घुटन पर कु हिनयाँ रख देती है।
तुम यहाँ से जाकर भी मुझसे दूर हो सकते हो...? यहाँ ाम- ा तर म रहकर
तु हारी ितभा को िवकिसत होने का अवसर कहाँ िमलेगा? यहाँ लोग तु ह
समझ नह पाते। वे सामा य क कसौटी पर तु हारी परी ा करना चाहते ह।
कु हिनय पर ठोड़ी भी रख लेती है।
िव ास करते हो न क म तु ह जानती ?ँ जानती ँ क कोई भी रे खा तु ह
घेर ले, तो तुम िघर जाओगे। म तु ह घेरना नह चाहती। इसिलए कहती ,ँ
जाओ।
कािलदास:तुम पूरी तरह नह समझ रही, मि लका। तु हारे घेरने का नह है।
मि लका श द क चुभन अनुभव करके भी अपनी मु ा
वाभािवक बनाए रखने का य करती है। कािलदास जैसे
सोचता-सा उठ खड़ा होता है और टहलने लगता है।
म अनुभव करता ँ क यह ाम- ा तर मेरी वा तिवक भूिम है। म कई सू
से इस भूिम से जुड़ा ।ँ उन सू म तुम हो, यह आकाश और ये मेघ ह, यहाँ
क ह रयाली है, ह रण के ब े ह, पशुपाल ह।
ककर मि लका क ओर देखता है।
यहाँ से जाकर म अपनी भूिम से उखड़ जाऊँगा।
मि लका आसन पर कु हनी रखे उससे टे क लगा लेती है।
मि लका:यह य नह सोचते क नयी भूिम तु ह यहाँ से अिधक स प और उवरा
िमलेगी। इस भूिम से तुम जो कु छ हण कर सकते थे, कर चुके हो। तु ह आज
नयी भूिम क आव यकता है, जो तु हारे ि व को अिधक पूण बना दे।
कािलदास:नयी भूिम सुखा भी तो सकती है!
फर टहलने लगता है।
मि लका:कोई भूिम ऐसी नह िजसके अ तर म कोमलता न हो। तु हारी ितभा उस
कोमलता का पश अव य पा लेगी। कािलदास: और उस जीवन क अपनी
अपे ाएँ भी ह गी...
मि लका उठकर उसके पास आ जाती है और उसके हाथ अपने
हाथ म ले लेती है।
मि लका: यह य आव यक है क तुम उन अपे ा का पालन करो? तुम
दूसर के िलए नयी अपे ा क सृि कर सकते हो। कािलदास: फर भी
कई-कई आशंकाएँ उठती ह। मुझे दय म उ साह का अनुभव नह होता।
मि लका: मेरी ओर देखो।
कािलदास कु छ ण उसक आँख म देखता रहता है।
अब भी उ साह का अनुभव नह होता...? िव ास करो तुम यहाँ से जाकर
भी यहाँ से अलग नह होओगे। यहाँ क वायु, यहाँ के मेघ और यहाँ के
ह रण, इन सबको तुम साथ ले जाओगे...। और म भी तुमसे दूर नह होऊँगी।
जब भी तु हारे िनकट होना चा ग ँ ी, पवत-िशखर पर चली जाऊँगी और
उड़कर आते मेघ म िघर जाया क ँ गी।
िबजली क धती है और मेघ-गजन सुनाई देता है। कािलदास उसके
हाथ पकड़े रहता है। मि लका पलक झपककर अपने आँसू सुखाती
है।
लगता है फर वषा होगी। यूँ भी ब त अँधेरा हो गया है। आचाय तु हारी
ती ा कर रहे ह गे।
कािलदास:मुझे जाने के िलए कह रही हो?
मि लका:हाँ! देखना म तु हारे पीछे स र ग ँ ी, ब त घूमूँगी और हर स या को
जगद बा के मि दर म सूया त देखने जाया क ँ गी...।
कािलदास:इसका अथ है तुमसे िवदा लू।ँ
मि लका:नह ! िवदा तु ह नह दूग ँ ी। जा रहे हो, इसिलए के वल ाथना क ँ गी क
तु हारा पथ श त हो।
उसके हाथ छोड़ देती है।
जाओ।
कािलदास पल-भर आँख मूँद रहता है। फर झटके से चला जाता
है। मि लका हाथ म मुँह िछपाए आसन पर जा बैठती है। ती
मेघ-गजन सुनाई देता है और साथ वषा का श द सुनाई देने
लगता है। मि लका अपने को रोकने का य करती ई भी
िससक उठती है। अि बका अ दर से आकर उसके िसर पर हाथ
रखती है और उसका मुँह ऊपर उठाती है।
अि बका:मि लका!
मि लका आसन से उठ खड़ी होती है और झरोखे के पास जाकर
उससे िसर टका लेती है।
अि बका:तुम व थ नह हो मि लका, चलो अ दर चलकर िव ाम कर लो।
मि लका अपनी िसस कयाँ दबाने का य करती ई उसी तरह
खड़ी रहती है।
मि लका:मुझे यह रहने दो माँ! म अ व थ नह ।ँ देखो माँ, चार ओर कतने गहरे मेघ
िघरे ह! कल ये मेघ उ ियनी क ओर उड़ जाएँगे...!
पुनः हाथ म मुँह िछपाकर िससक उठती है। अि बका पास जाकर
उसे अपने से सटा लेती है।
अि बका: रोओ नह , मि लका!
मि लका:म रो नह रही ,ँ माँ! मेरी आँख से जो बरस रहा है, यह दुःख नह है। यह सुख
है माँ, सुख...!
अि बका के व म मुँह िछपा लेती है। पुनः मेघ-गजन सुनाई देता
है और वषा का श द ऊँचा हो जाता है।
अंक दो

कु छ वष के अन तर
वही को ।

को क ि थित म पहले से कह अ तर आ गया है। िलपाई कई


थान से उखड़ रही है। गे से बने वि तक, शंख और कमल अब
बुझे-बुझे-से ह। चू हे के पास पहले से ब त कम बरतन ह। कु भ
के वल दो ह और उन पर ऊपर तक काई जमी है। आसन पर कु छ
भोजप िबखरे ह, कु छ एक रे शमी व म बँधे ह। आसन के िनकट
एक टू टा मोढ़ा है, िजस पर भोजप सीकर बनाया एक थ रखा
है।

चू हे के िनकट कोने म र सी बँधी है िजस पर कु छ व सूखने के


िलए फै लाए गए ह। अिधकांश व फटे ह और उन पर जगह-
जगह टा कयाँ लगी ह।

एक टू टा मोढ़ा ोढ़ी के ार के पास रखा है। चौक एक ही है


िजस पर बैठी मि लका खरल म औषध पीस रही है। अ दर िबछे
त प का कोना उसी तरह दखाई देता है। अि बका त प पर लेटी
है। बीच-बीच म वह करवट बदल लेती है। िन ेप बाहर से आता
है। मि लका अपना अंशुक ठीक करती है।
िन ेप:अब कै सा है अि बका का वा य?
मि लका:वैसे ही वर आता है अभी।
िन ेप:पहले से कु छ भी अ तर नह पड़ा?
मि लका:लगता तो नह ।
िन ेप:दो वष से िनर तर एक-सा वर!
मि लका ठं डी साँस भरकर पीसी ई औषधप थर से कटोरे म
डालने लगती है। िन ेपमोढ़ा ख चकर उसके पास आ बैठता है।
वा तव म अि बका ब त िच ता करती ह।
मि लका:औषध भी ठीक से नह खात ।
औषध म दूध और शहद िमलाकर िहलाने लगती है। िन ेप अपनी
उँ गिलयाँ उलझाए उसे देखता रहता है।
िन ेप:तु हारा वा य कै सा है?
मि लका:ठीक है।
िन ेप:दुबली होती जा रही हो।...ब त दन से राजधानी क ओर से कोई ि नह
आया।
मि लका आँख बचाती ई अिधक भाव से औषध िहलाती
रहती है।
कभी-कभी सोचता ,ँ एक बार उ ियनी जाकर उनसे िमल आऊँ।
मि लका: य ?
िन ेप:कई बात करना चाहता ।ँ कई बार लगता है क दोष मेरा ही है।
मि लका ग भीर भाव से उसक ओर देखती है।
मि लका: कस बात का?
िन ेप ल बी साँस लेता है।
िन ेप:बात तुम जानती हो।...मने आशा नह क थी क उ ियनी जाकर कािलदास इस
तरह वहाँ के हो जाएँगे।
मि लका:और मुझे स ता है क वे वहाँ रहकर इतने त ह। यहाँ उ ह ने के वल 'ऋतु-
संहार' क रचना क थी। वहाँ उ ह ने कई नये का क रचना क है। दो
वष पहले जो वसायी आए थे, उ ह ने 'कु मारस भव' और 'मेघदूत' क
ितयाँ मुझे ला दी थ । बता रहे थे, उनके एक और बड़े का क ब त चचा
है, पर तु उसक ित उ ह नह िमल पायी।
िन ेप:यूँ तो सुना है, उ ह ने कु छ नाटक क भी रचना क है जो उ ियनी क रं गशाला
म खेले गए ह। फर भी...।
मि लका: फर भी या?
िन ेप:मुझे कहते दुःख होता है। उ ह वसाियय के मुँह से और भी तो कई बात सुनी
थ ...।
मि लका: ि उ ित करता है, तो उसके नाम के साथ कई तरह के अपवाद जुड़ने लगते
ह।
िन ेप:म अपवाद क बात नह कर रहा।
उठकर टहलने लगता है।
सुना यह भी तो था न क गु वंश क राज-दुिहता से उनका िववाह हो
गया।
मि लका:तो इसम बुरा या है?
िन ेप:एक तरह से देख, तो बुरा नह भी है। पर तु यहाँ रहते उनका जो आ ह था क
जीवन-भर िववाह नह करगे?
ककर उसक ओर देखता है।
उस आ ह का या आ? उ ह ने यह नह सोचा क उनके इसी आ ह क
र ा के िलए तुमने...?
मि लका:उनके संग म मेरी बात कह नह आती। म अनेकानेक साधारण ि य म से
।ँ वे असाधारण ह। उ ह जीवन म असाधारण का ही साथ चािहए
था।...सुना है राज-दुिहता ब त िवदुषी ह।
िन ेप:हाँ, सुना है। ब त शा -दशन पढ़ी ह। मने कहा है न क एक तरह से देख, तो इसम
कु छ बुरा नह है। पर तु दूसरी तरह से देखने पर ब त लािन होती है।
मि लका:इसके िवपरीत मुझे अपने से लािन होती है, क यह, ऐसी म, उनक गित म
बाधा भी बन सकती थी। आपके कहने से म उ ह जाने के िलए े रत न
करती, तो कतनी बड़ी ित होती?
िन ेप:यह तो दुःख है क मेरे कहने से तुम ऐसा न करत , तो आज तु हारे जीवन का प
यह न होता।
मि लका:मेरे जीवन म पहले से या अ तर आया है? पहले माँ काम करती थ । अब वे
अ व थ ह, म काम करती ।ँ
िन ेप:बाहर से तो इतना ही अ तर लगता है।
मि लका:के वल इतना ही अ तर है।
औषध िलए उठ खड़ी होती है।
माँ को औषध दे दू,ँ अभी आती ।ँ
अ दर चली जाती है और अि बका को सहारे से उठाकर औषध
िपलाती है। अि बका पीकरिसर िहलाती है। िन ेप टहलता आ
झरोखे के पास चला जाता है। बाहर घोड़े क टाप का श द
सुनायी देता है जो पास आकर दूर चला जाता है। िन ेप झरोखे से
सटा देखता रहता है। अि बका औषध पीकर लेट जाती है।
मि लका बाहर आ जाती है, और कवाड़ के पास ककर अि बका
क ओर देखती है।
मि लका:माँ, ठं ड लगती हो तो कवाड़ ब द कर दू?ँ
अि बका िसर िहलाती है। मि लका कवाड़ ब द कर देती है।
िन ेप झरोखे के पास से हट आता है।
िन ेप:लगता है आज फर कु छ लोग बाहर से आए ह।
मि लका:कौन लोग?
िन ेप:स भवतः रा य के कमचारी ह। दो वैसी ही आकृ ितयाँ मने देखी ह, जैसी तब देखी
थ , जब आचाय कािलदास को लेने आए थे।
मि लका थोड़ा िसहर जाती है।
मि लका:वैसी आकृ ितयाँ?
अपने भाव को दबाकर हँसने का य करती है।
जानते ह, माँ इस स ब ध म या कहती ह? कहती ह क जब भी ये
आकृ ितयाँ दखाई देती ह, कोई न कोई अिन होता है। कभी यु , कभी
महामारी!.. .पर तु िपछली बार तो ऐसा कु छ नह आ।
िन ेप:नह आ?
मि लका आँख बचाती ई गीले व को देखने म त हो जाती
है।
मि लका: या आ?...और जो आ, वह तो अ छा ही था।
दो-एक व को उतारकर फर र सी पर फै ला देती है।
हवा म आजकल इतनी नमी रहती है, क व घ ट नह सूखते।
फर टाप का श द सुनाई देता है। िन ेप फर झरोखे के पास
चला जाता है। सहसा उसके मुँह से आ य क विन िनकल
पड़तीहै।
िन ेप:ह-ह?...नह ?...पर तु नह कै से?
टाप का श द दूर चला जाता है। िन ेप उ ेिजत-सा झरोखे के
पास से हटकर आता है।
मि लका:सहसा उ ेिजत य हो उठे , आय िन ेप?
िन ेप:मने अभी एक और आकृ ित को घोड़े पर जाते देखा है ।
मि लका:तो या आ? आपको भी माँ क तरह अिन क आशंका हो रही है?
िन ेप:वह एक ब त प रिचत आकृ ित है, मि लका!
मि लका:प रिचत आकृ ित?
िन ेप:मुझे िव ास है, वे वयं कािलदास ह।
मि लका हाथ के व को पकड़े ति भत-सी हो रहती है।
मि लका:कािलदास?...यह कै से स भव है?
िन ेप:मने अपनी आँख से देखा है। वे घोड़ा दौड़ाते पवत-िशखर क ओर गए ह। इस
राजसी वेश-भूषा म और कोई उ ह न पहचान पाये, िन ेप क आँख
पहचानने म भूल नह कर सकत ।...म अभी जाकर देखता ।ँ रा य-
कमचारी भी अव य उ ह के साथ आए ह गे।
उसी उ ेजना म चला जाता है।
मि लका:वे आए ह और पवत-िशखर क ओर गये ह?
अपनी उँ गली को दाँत से काटती है और पीड़ा का अनुभव होने पर
य -चािलत-सी झरोखे के पास चली आती है। ोढ़ी से रं िगणी
और संिगनी अ दर आती ह। मि लका आ य से उनक ओर
देखती है रं िगणी संिगनी को आगे करती है।
रं िगणी:इससे पूछ, हम अ दर आ सकती ह ?
संिगनी उसे आगे करके वयं पीछे हट जाती है।
संिगनी:तू पूछ।
मि लका उनके पास आ जाती है।
रं िगणी:अ छा, म पूछती ।ँ ...सुनो, यह तु हारा घर है ?
मि लका:हाँ-हाँ। आइये...आप मेरे यहाँ आयी ह?
रं िगणी और संिगनी अ दर आ जाती ह और खोजती दृि से इधर-
उधर देखती ह।
रं िगणी:हम िवशेष प से कसी के यहाँ नह आय । समझ
लो क यूँ ही आयी ह- ाम- देश म घूमती ई।
संिगनी:हम यहाँ के घर देखना चाहती ह।
रं िगणी:यहाँ के जीवन का अ ययन करना चाहती ह।
संिगनी:और पहले म प रचय दे दू।ँ यह है रं िगणी। उ ियनी
के ना के म नृ य का अ यास करती है। नाटक िलखने म भी इसक िच
है। रं िगणी: और यह संिगनी-उसी के म मृदगं और वीणा-वादन सीखती है।
ब त सु दर णय-गीत िलखती है। अब ग क ओर आ रही है। और
तु हारा प रचय?
मि लका कु छ भी उ र न देकर आ य से
उनक ओर देखती रहती है।
संिगनी:तुमने अपना प रचय नह दया।
मि लका:मेरा प रचय कु छ भी नह है। आइए, यहाँ आसन पर बै ठए।
संिगनी:हम बैठने के िलए नह , अ ययन करने के िलए आयी
ह। इस थान को आप लोग या कहते ह ?
मि लका: कस थान को ?
रं िगणी:इसका अिभ ाय इस सारे थान से है जहाँ इस समय
हम ह। उ ियनी म हम इसे को कहते ह। यहाँ तुम लोग या कहते हो?
मि लका: को ।
रं िगणी: को को तुम लोग भी को कहते हो? और...
कु भ के िनकट जाकर एक कु भ को छू ती है।
इसे?
मि लका:कु भ।
रं िगणी:कु भ? को को को और कु भ को कु भ?
िनराशा से क धे िहलाती है।
संिगनी:देखो, यहाँ के कु छ थानीय श द नह ह?
मि लका हत भ-सी उनक ओर देखती रहती है।
मि लका: थानीय श द?
संिगनी:हाँ, आँचिलक श द। जैसे पत िल ने िलखा है न क
य ा को कु छ लोग यवा बोलते ह और त ा को तवा। यवाण तवाणः ऋषयो
बभूवुः। मि लका: मुझे इतना ान नह है ।
संिगनी कु छ िनराश-सी आसन पर बैठ जाती
है। रं िगणी घूमकर को क एक-एक व तुका िनरी ण करती है।
मि लका संिगनी के पास चली जाती है।
संिगनी:देखो, हम कु छ ऐसी बात जानना चाहती ह िजनका स ब ध यहाँ के और के वल
यहाँ के जीवन से हो। तु हारे घर और व तो लगभग हमारे जैसे ह। यहाँ के
जीवन क अपनी िवशेषता या है?
मि लका:यहाँ के जीवन क अपनी िवशेषता?
पल-भर झरोखे क ओर देखती रहती है।
म नह जानती। हमारा जीवन हर दृि से ब त साधारण है।
संिगनी:यह म नह मान सकती। इस देश ने कािलदास जैसी
असाधारण ितभा को ज म दया है। यहाँ क तो येक व तु असाधारण
होनी चािहए।
रं िगणी चू हे के आसपास क सब व तु को अ छी तरह देखकर
तथा एक बार अ दर झाँककर उसके पास आ जाती है।
रं िगणी:देखो, म तु ह समझाती ।ँ बात यह है क राजक य िनयोजन से हम दोन किव
कािलदास के जीवन क पृ भूिम का अ ययन कर रही ह। तुम समझ सकती
हो क यह कतना बड़ा और मह वपूण काय है। पर तु यहाँ घूमकर हम तो
लगभग िनराश हो चुक ह, यहाँ कु छ साम ी है ही नह ।
संिगनी:अ छा, यहाँ क कु छ वन पितय के नाम बताइये।
मि लका:कै सी वन पित?
संिगनी:कै सी वन पित?
सोचने लगती है।
जैसे कािलदास ने 'कु मारस भव'म िलखा है-'भा वि त र ािन महौषध '।
ये काश देने वाली ओषिधयाँ कौन-सी ह?
मि लका:ओषिधयाँ काश नह देत ।
संिगनी उठ खड़ी होती है।
संिगनी:ओषिधयाँ काश नह देत ? तु हारा अिभ ाय है क कािलदास ने जो िलखा है,
वह झूठ है?
मि लका:उ ह ने कु छ भी झूठ नह िलखा। उ ह ने तो िलखा है क...
रं िगणी:रहने दे संिगनी! यह यहाँ के स ब ध म िवशेष कु छ नह जानती।
संिगनी भी िनराशा से मुँह िबचकाकर उठ खड़ी होती है।
संिगनी:अ छा, तु हारा ब त समय न कया। मा करना। चल, रं िगणी!
दोन चली जाती ह। मि लका ोढ़ी का कवाड़ ब द कर देती
है। आसन के पास जाकर नीचे बैठ जाती है और िबखरे पृ पर
िसर टका देती है। उसक आँख मुँद जाती ह।
मि लका:आज वष के बाद तुम लौटकर आए हो! सोचती थी तुम आओगे तो उसी तरह
मेघ िघरे ह गे, वैसा ही अँधेरा-सा दन होगा, वैसे ही एक बार वषा म
भीगूँगी और तुमसे क ग ँ ी क देखो मने तु हारी सब रचनाएँ पढ़ी ह...
कु छ पृ हाथ म ले लेती है।
उ ियनी क ओर जाने वाले वसाियय से कतना- कतना कहकर मने
तु हारी रचनाएँ मँगवायी ह।...सोचती थी तु ह 'मेघदूत' क पंि याँ गा-
गाकर सुनाऊँगी। पवत-िशखर से घ टा- विनयाँ गूँज उठगी और म अपनी
यह भट तु हारे हाथ म रख दूग ँ ी...
मोढ़े पर रखा थ उठा लेती है।
क गँ ी क देखो, ये तु हारी नई रचना के िलए ह। ये कोरे पृ मने अपने
हाथ से बनाकर िसए ह। इन पर तुम जब जो भी िलखोगे, उसम मुझे
अनुभव होगा क म भी कह ,ँ मेरा भी कु छ है।
िनः ास छोड़कर थ रख देती है।
पर तु आज तुम आये हो, तो सारा वातावरण ही और है। और...और नह
सोच पा रही क तुम भी वही हो या..?
कोई कवाड़ खटखटाता है। वह अपने को
झटककर उठ खड़ी होती है और जाकर कवाड़ खोल देती है।
ोढ़ी म अनु वार और आनुनािसक साथ-साथ खड़े दखाई देते
ह।मि लका उ ह देखकर असमंजस म पड़ जाती है।
अनु वार:मुझे िव ास है म इस समय देवी मि लका के सामने खड़ा ।ँ
मि लका:किहये।
अनु वार:देव मातृगु के अनुचर का अिभवादन वीकार क िजए।
दोन झुककर अिभवादन करते ह। मि लका भौच -सी उ ह
देखती रहती है।
मि लका:देव मातृगु ? देव मातृगु कौन ह ?
अनु वार:'ऋतुसंहार, 'कु मारस भव', 'मेघदूत' एवं 'रघुवंश' के णेता कवी , राजनीित-
िन णात आचाय तथा का मीर के भावी शासक। देव मातृगु क राजमिहषी
गु वंश-दुिहता परम िवदुषी देवी ि यंगुमंजरी आपके सा ा कार के िलए
उ सुक ह और शी ही यहाँ आया चाहती ह। हम उनके अनुचर आपको
इसक पूव-सूचना देने के िलए उपि थत ह।
मि लका:'ऋतुसंहार' और 'मेघदूत' आ द के णेता तो कािलदास ह और आप कह रहे ह
क...।
अनु वार:वे गु रा य क ओर से का मीर का शासन सँभालने
जा रहे ह। मातृगु उ ह का नया नाम है।
मि लका:वे का मीर का शासन सँभालने जा रहे ह? और...और उनक राजमिहषी मुझसे
िमलने के िलए आ रही ह?
अनुसवार:मुझे िव ास है क इस गौरवपूण अवसर पर आप अपने उपवेश-गृह के व तु-
िव यास म कु छ प रवतन आव यक समझगी। इसे आपका आदेश समझते ए
हम यह काय अभी अपने हाथ म स प कये देते ह। आओ, अनुनािसक।
दोन को म आकर िनरी ण करने क
दृि से सब व तु को देखने लगते ह। मि लका एक ओर हट
जाती है। अनुनािसकआसन के पास चला जाता है।
अनुनािसक:म समझता ँ यह आसन ार के िनकट होना चािहए।
अनु वार:देवी ार से वेश करगी और आसन ार के िनकट होगा?
अनुनािसक:उस ि थित म इसे इसक वतमान ि थित से सात अंगुल दि ण क ओर हटा
देना चािहए।
अनु वार:दि ण क ओर ?
नकारा मक भाव से िसर िहलाता है।
म समझता ँ इसक ि थित पाँच अंगुल उ र क ओर होनी चािहए। गवा
से सूय क करण सीधी इस पर पड़ती ह।
अनुनािसक:म तुमसे सहमत नह ।ँ
अनु वार:म तुमसे सहमत नह ।ँ
अनुनािसक: तो?
अनु वार:तो िववादा पद िवषय होने से आसन को यह रहने
दया जाए।
अनुनािसक:अ छी बात है। इसे यह रहने दया जाए। और ये कु भ?
कु भ के पास चला जाता है।
अनु वार:म समझता ँ एक कु भ इस कोने म और दूसरा उस
कोने म होना चािहए।
अनुनािसक:पर म समझता ँ क कु भ यहाँ होने ही नह चािहए।
अनु वार: य ?
अनुनािसक: य का कोई उ र नह ।
अनु वार:म तुमसे सहमत नह ।ँ
अनुनािसक: म तुमसे सहमत नह ।ँ
अनु वार:तो?
अनुनािसक: तो कु भ को भी यह रहने दया जाए।
दोन उधर जाते ह िजधर र सी पर व सूखने के िलए फै लाए
गए ह। मि लका आसन के पास जाकर िबखरे प को समेटती है
और उ ह मोढ़े पर रखकर चुपचाप अ दर चली जाती है।
अनु वार गीले व को छू ता है।
अनु वार:ये व ?
अनुनािसक:व अभी गीले ह, इसिलए इ ह नह हटाना चािहए।
अनु वार: य ?
अनुनािसक: शा ीय माण ऐसा है।
अनु वार:कौन-सा माण है?
अनुनािसक:यह तो मुझे याद नह ।
अनु वर: यह याद है क ऐसा माण है?
अनुनािसक: हाँ।
अनु वार:तो?
अनुनािसक: तो सं द ध िवषय है।
अनु वार:हाँ, तब तो अव य सं द ध िवषय है।
अनुनािसक: सं द ध िवषय होने से व को भी रहने दया जाए।
अनु वार:अ छी बात है। व को भी रहने दया जाए।
अनुनािसक: पर तु यह चू हा अव य यहाँ से हटा देना चािहए।
अनु वार:चू हा हटाने का अथ होगा आस-पास क सब व तु
को हटाया जाए। इसके िलए ब त समय चािहए।
अनुनािसक: समय के अित र ब त धैय चािहए।
अनु वार:धैय के अित र ब त प र म चािहए।
अनुनािसक: म समझता ँ क भाजन को हाथ लगाना हमारी ि थित के अनुकूल नह है।
अनु वार:म भी यही समझता ।ँ
अनुनािसक: तो इस बात म हम दोन सहमत ह क चू हे को न हटाया जाए?
अनु वार: म समझता ँ हम दोन सहमत ह।
अनुनािसक चार ओर देखता है।
अनुनािसक: और तो कु छ शेष नह ?
अनु वार भी चार ओर देखता है।
अनु वार:मेरे िवचार म कु छ भी शेष नह ।
अनुनािसक: नह , अभी शेष है।
अनु वार: या?
अनुनािसक: यह चौक यहाँ रा ते म पड़ी है। इसे यहाँ से हटा देना
चािहए।
अनु वार:म इससे सहमत ।ँ

अनुनािसक: तो?

अनु वार:तो?
अनुनािसक: तो इसे हटा देना चािहए।
अनु वार:हाँ, अव य हटा देना चािहए।
अनुनािसक: तो?
अनु वार:तो?
अनुनािसक: हटा दो।
अनु वार:म?
अनुनािसक: हाँ।
अनु वार:तुम नह ?
अनुनािसक: नह ।
अनु वर: य ?
अनुनािसक: य का कोई उ र नह ।
अनु वार: फर भी!
अनुनािसक: पहले मने तुमसे कहा है।
अनु वर: पर तु चौक देखी पहले तुमने है।
अनुनािसक: तो?
अनु वार: तो?
अनुनािसक: हटा दो।
अनु वार: तुम हटा दो।
अनुनािसक: तो रहने दो।
अनु वार:रहने दो।
अनुनािसक: अब?
अनु वार: हाँ, अब?
अनुनािसक: चार ओर एक दृि और डाल ल।
अनु वार: हाँ, चार ओर एक दृि और डाल ल।
मातुल उ ेिजत-सा बाहर से आता है।
मातुल: अिधकारी-वग, आपका काय यहाँ पूरा हो गया।
अनुनािसक: य अनु वार?
अनु वार: हाँ, पूरा हो गया। हो गया न? य अनुनािसक?
अनुनािसक: हाँ, हो गया। के वल एक दृि डालना शेष है।
अनु वार: हाँ, के वल एक दृि डालना शेष है।
मातुल: तो वह दृि अब रहने दीिजए। देवी ि यंगुमंजरी बाहर प चँ गयी ह।
अनुनािसक: देवी बाहर प च ँ गयी ह! तो चलो अनु वार।
अनु वार: चलो।
दोन साथ-साथ बाहर चले जाते ह। मातुल भी पीछे -पीछे चला
जाता है और कु छ ण बाद ि यंगुमंजरी को माग दखलाता
वापस आता है।
मातुल: वह इस सारे देश म सबसे सुशील, सबसे िवनीत और सबसे भोली लड़क है...।
मि लका अ दर से आती है।
आओ-आओ, मि लका! म देवी से तु हारी ही शंसा कर रहा था ।
चाटु का रता क हँसी हँसता है।
देवी जब से आयी ह, तु हारे ही स ब ध म पूछ रही ह।...तो यही है हमारी
मि लका, इस देश क राजहंिसनी अ...अ...मि लका, देवी के िलए कौन-सा
आसन िनि त कया गया है?
मि लका ि यंगुमंजरी को अिभवादन करती है। ि यंगुमंजरी
मुसकराकर अिभवादन क वीकृ ित देती है।
ि यंग:ु आय मातुल, आप अब जाकर िव ाम कर। अनुचर मेरे लौटने तक बाहर ती ा
करगे।
मातुल:पर तु आपके िलए आसन...?
ि यंग:ु उसक िच ता न कर। मुझे असुिवधा नह होगी।
मातुल:असुिवधा तो होगी। आप असुिवधा को असुिवधा न मान, यह दूसरी बात है। और
वा तव म कु लीनता कहते इसी को ह। बड़े कु ल क िवशेषता ही यह होती है
क...
ि यंग:ु आप िव ाम कर। मने पहले ही आपको ब त थकाया है।
मातुल:मुझे थकाया है? आपने?
फर चाटु का रता क हँसी हँसता है।
आपके कारण म थकूँ गा? मुझे आप दन-भर पवत-िशखर से खाई म और
खाई से पवत-िशखर पर जाने को कहती रह, तो भी म नह थकूँ गा। मातुल
का शरीर लोहे का बना है, लोहे का। आ म- ाघा नह करता, पर तु हमारे
वंश म के वल ितभा ही नह , शारी रक-शि भी ब त है। म पशु के पीछे
दन म दस-दस योजन घूमा ।ँ म कहता ँ संसार म सबसे क ठन काम कोई
है तो पशु-पालन का। एक भी पशु माग से भटक जाए, तो...।
ि यंग:ु देिखए, आज भी आपके पशु भटक रहे ह गे। जाकर एक बार उ ह देख लीिजए।
मातुल:अब म पशु को देखता ?ँ गु वंश के साथ स ब ध, और पशु क देख-रे ख? मने
तो अपने सब पशु वष पहले ही बेच दए। और सच क ,ँ तो उसम भी मुझे
लाभ ही रहा य क...
ि यंगु क दृि मि लका से िमल जाती है। वह बढ़कर मि लका के
हाथ अपने हाथ म ले लेती है।
ि यंग:ु सचमुच वैसी ही हो जैसी मने क पना क थी।
मि लका कु छ अ वि थत होकर उसे देखती रहती है।
मातुल: य क...अ...अ...अ छा, तो मुझे अनुमित दीिजए। घर म कई कु छ िबखरा पड़ा है।
कई तरह क व था करनी है। तो अनुचर आपक ती ा करगे।... फर भी
मेरे िलए कोई आदेश हो, तो कहला दीिजएगा...मि लका, देवी के बैठने क
कु छ तो व था कर दो। नह , ये तो ऐसे ही खड़ी रहगी। अ छा, म चल रहा
।ँ कोई आदेश हो तो कहला दीिजएगा।
ि यंग:ु आप चल। यहाँ के िलए िच ता करने क आव यकता नह ।
मातुल:अ छा-अ छा...!
चल देता है।
मुझे िच ता करने क या आव यकता है? िच ता करने के िलए यहाँ
मि लका है, अि बका है।... फर भी कोई काम हो, तो कहला दीिजएगा...।
चला जाता है। ि यंगुमंजरी ण-भर मि लका को देखती रहती
है। फर उसक ठोड़ी को हाथ से छू लेती है।
ि यंग:ु सचमुच ब त सु दर हो। जानती हो, अप रिचत होते ए भी तुम मुझे अप रिचत
नह लग रह ?
मि लका:आप बैठ जाइए न।
ि यंग:ु नह , बैठना नह चाहती। तु ह और तु हारे घर को देखना चाहती ।ँ उ ह ने ब त
बार इस घर क और तु हारी चचा क है। िजन दन 'मेघदूत' िलख रहे थे,
उन दन ायः यहाँ का मरण कया करते थे।
दृि चार ओर घूमकर फर मि लका के चेहरे पर ि थर हो जाती
है।
आज इस भूिम का आकषण ही हम यहाँ ले आया है। अ यथा दूसरे माग से
जाने से हम अिधक सुिवधा थी।
मि लका:म समझ नह पा रही कस प म आपका आित य क ँ । आप आसन ले ल, तो म
आपके िलए...।
ि यंग:ु आित य क बात मत सोचो। म तु हारे यहाँ अितिथ के प म नह आयी
।ँ ...स भव था ये न भी आते, पर तु म ही िवशेष आ ह के साथ इ ह लायी
।ँ म वयं एक बार इस देश को देखना चाहती थी। इसके अित र ...
गले से ह का िवद धतापूण वर िनकल पड़ता है।
इसके अित र एक और भी कारण था। चाहती थी क इस देश का कु छ
वातावरण साथ ले जाऊँ।
मि लका:इस देश का वातावरण ?
ि यंगुमंजरी मु कराकर उसे देखती है। फर टहलती ई झरोखे के
पास चली जाती है।
ि यंग:ु यहाँ से ब त दूर तक क पवत-शृंखलाएँ दखायी देती ह।... कतनी िन ाज
सु दरता है। मुझे यहाँ आकर तुमसे प दा हो रही है।
मि लका दो-एक पग उस ओर को बढ़ आती है।
मि लका:हमारा सौभा य होगा क आप कु छ दन इस देश म रह जाएँ। यहाँ आपको
असुिवधा तो होगी, पर तु...।
ि यंगुमंजरी फर िवद ध भाव से उसे देखती है।
ि यंग:ु इस सौ दय के सामने जीवन क सब सुिवधाएँ हेय ह। इसे आँख म ा करने के
िलए जीवन-भर का समय भी पया नह ।
झरोखे के पास से हट आती है।
पर तु इतना अवकाश कहाँ है? का मीर क राजनीित इतनी अि थर है क
हमारा एक-एक दन वहाँ से दूर रहना कई-कई सम या को ज म दे सकता
है।...एक देश का शासन ब त बड़ा उ रदािय व है। हम पर तो और भी
बड़ा उ रदािय व है य क का मीर क ि थित इस समय ब त संकटपूण
है। यूँ वहाँ के सौ दय क ही इतनी चचा है, पर तु हम उसे देखने का अवकाश
कहाँ रहेगा?
बाँह पीछे टकाए आसन पर बैठ जाती है।
इसिलए तुमसे प दा होती है। सौ दय का यह सहज उपभोग हमारे िलए
के वल एक सपना है।...बैठ जाओ।
आसन पर अपने सामने बैठने के िलए संकेत करती है। मि लका
नीचे बैठने लगती है तो वह उसे रोक देती है।
यहाँ मेरे पास बैठो।
मि लका:म दूसरा आसन ले लेती ।ँ
कोने से मोढ़ा उठाकर आसन के पास रख लेती है और उस पर रखे
भोजप आ द गोदी म रखकर बैठ जाती है।
ि युंग: लगता है यहाँ ाम- देश म रहकर भी तु ह सािह य से अनुराग है।
मि लका क आँख झुक जाती ह।
कसक रचनाएँ ह ये?
मि लका:कािलदास क ।
ि यंगु क भ ह कु छ संकुिचत हो जाती ह।
ि यंग:ु अब वे मातृगु के नाम से जाने जाते ह। यहाँ भी उनक रचनाएँ िमल जाती ह?
मि लका:ये ितयाँ मने उ ियनी से आने वाले वसाियय से ा क ह।
ि यंगुमंजरी के होठ पर ह क ं या मक मु कराहट कट होती
है
ि यंग:ु म समझ सकती ।ँ उनसे जान चुक ँ क तुम बचपन से उनक संिगनी रही हो।
उनक रचना के ित तु हारा मोह वाभािवक है।
जैसे कु छ सोचती-सी छत क ओर देखने लगती है।
वे भी जब-तब यहाँ के जीवन क चचा करते ए आ मिव मृत हो जाते ह।
इसीिलए राजनीितक काय से कई बार उनका मन उखड़ने लगता है।
फर उसक आँख मि लका के मुख पर ि थर हो जाती ह।
ऐसे अवसर पर उनके मन को स तुिलत रखने के िलए ब त य करना
पड़ता है। राजनीित सािह य नह है। उसम एक-एक ण का मह व है। कभी
एक ण के िलए भी चूक जाएँ, तो ब त बड़ा अिन हो सकता है।
राजनीितक जीवन क धुरी म बने रहने के िलए ि को ब त जाग क
रहना पड़ता है।...सािह य उनके जीवन का पहला चरण था। अब वे दूसरे
चरण म प च ँ चुके ह। मेरा अिधक समय इसी आयास म बीतता है क
उनका बढ़ा आ चरण पीछे न हट जाए। ...ब त प र म पड़ता है इसम।
मु कराने का य करती है।
तुम ऐसा नह समझत ?
मि लका:म राजनीितक जीवन के स ब ध म कु छ भी नह जानती।
ि यंग:ु य क तुम ाम- देश म ही रही हो।
उठ खड़ी होती है। मि लका भी उठने लगती है, तो क धे पर हाथ
रखकर वह उसे िबठा देती है।
बैठी रहो।
िनचले ह ठ को थोड़ा चबाती ई टहलने लगती है।
मने तुमसे कहा था क म यहाँ का कु छ वातावरण साथ ले जाना चाहती ।ँ
यह इसिलए क उ ह अभाव का अनुभव न हो। उससे कई बार ब त ित
होती है। वे थ म धैय खो देते ह, िजसम समय भी जाता है, शि भी।
उनके समय का ब त मू य है। म चाहती ँ उनका समय उस तरह न न
आ करे ।
मि लका के सामने आकर क जाती है।
इसीिलए म यहाँ से कई कु छ अपने साथ ले जा रही ।ँ कु छ ह रणशावक
जाएँगे, िजनका हम अपने उ ान म पालन करगे। यहाँ क ओषिधयाँ उ ान
के ड़ा-शैल पर तथा आसपास के देश म लगवा दी जाएँगी। हम यहाँ के -
से कु छ घर का भी वहाँ िनमाण करगे। मातुल और उनका प रवार भी साथ
जाएगा। यहाँ से कु छ अनाथ ब को वहाँ ले जाकर हम िश ा दगे। म
समझती ँ इससे अ तर पड़ेगा।
फर टहलती ई को के दूसरे भाग म चली जाती है।
देख रही ँ तु हारा घर ब त जजर ि थित म है। इसका प रसं कार
आव यक है। चाहो, तो म इस काय के िलए आदेश दे जाऊँगी। उ ियनी के
दो कु शल थपित हमारे साथ आये ह। य ?
मि लका उठकर उसक ओर आती है।
मि लका:आप ब त उदार ह। पर तु हम ऐसे ही घर म रहने का अ यास है, इसिलए
असुिवधा नह होती।
ि यंग:ु फर भी चा ग ँ ी क इस घर का प रसं कार हो जाए। उनके जीवन के आरि भक
वष का इस घर के साथ भी स ब ध रहा है। मातुल के घर के थान पर मने
नये भवन के िनमाण का आदेश दया है। थपितय से कहा है क वे
उ ियनी से ण िशलाएँ लाकर काय आर भ कर। खेद है क काय के
िनरी ण के िलए म वयं यहाँ नह रह पाऊँगी। कल ही हम आगे क या ा
आर भ कर देनी होगी।...तुम भी हमारे साथ य नह चलत ?
मि लका िवमूढ़-सी उसक ओर देखती रहती है।
मि लका:म?
ि यंगु पास आकर उसके कँ धे पर हाथ रख देती है।
ि यंग:ु हाँ! इसम बाधा या है? यहाँ तुम कसी ऐसे सू से तो बँधी नह हो क...
मि लका: मेरी माँ यहाँ है।
ि यंग:ु यह कोई बाधा नह है। तु हारी माँ के भी साथ चलने क व था हो सकती है।
हमारे थपित इस घर का प रसं कार करते रहगे, तुम वहाँ मेरे साथ मेरी
संिगनी के प म रहोगी।
मि लका के चेहरे पर आहत अिभमान क रे खाएँ कट होती ह।
पर तु वह अपने को दबाये रखती है।
मि लका: मा चाहती ।ँ म अपने को ऐसे गौरव क अिधका रणी नह समझती।
ि यंग:ु पर तु म तु ह इससे कह अिधक क अिधका रणी समझती ।ँ ...मेरे आने से पहले
रा य के दो अिधकारी यहाँ आये थे।
ह ठ पर फर िवद ध मु कान आ जाती है।
मने उ ह औपचा रकता के िलए ही नह भेजा था। तुमने उन दोन को देखा
है?
मि लका उसका अथ समझने का य करती ई अिनि त-सी
उसक ओर देखती रहती है।
मि लका:देखा है।
ि यंग:ु तुम उनम से िजसे भी अपने यो य समझो, उसी के साथ तु हारे िववाह का ब ध
कया जा सकता है। दोन यो य अिधकारी ह।
मि लका:देिव!
भोजप को व से सटाए कु छ पग आसन क ओर हट जाती है।
ि यंगुमंजरी उसे सीधी दृि से देखती ई धीरे -धीरे उसके पास
चली जाती है।
ि यंग:ु स भवतः तुम दोन म से कसी को भी अपने यो य नह समझत । पर तु रा य म ये
दो ही नह , और भी अनेक अिधकारी ह। मेरे साथ चलो। तुम िजससे भी
चाहोगी..."
मि लका आसन पर बैठ जाती है और ँ धे आवेश से अपना ह ठ काट लेती है।
मि लका:इस िवषय क चचा छोड़ दीिजए।
गला ँ ध जाने से श द प विनत नह होते। अ दर का ार
खुलता है और अि बका रोग और आवेश के कारण िशिथल और
काँपती-सी बाहर आकर जैसे अपने को सहेजने के िलए कती है।
ि यंग:ु य ? तु हारे मन म क पना नह है क तु हारा अपना घर-प रवार हो?
अि बका धीरे -धीरे उनक ओर बढ़ती है।
अि बका:नह । इसके मन म यह क पना नह है।
ि यंगु घूमकर उसक ओर देखती है। मि लका अ वि थत भाव
से उठ खड़ी होती है।
मि लका:माँ!
अि बका:इसके मन म यह क पना नह है य क यह भावना के तर पर जीती है। इसके
िलए जीवन म...
साँस फू ल जाने से श द गले म अटक जाते ह। मि लका हाथ के पृ
आसन पर रख देती है और पास जाकर अि बका को पीठ से
सहारा देती है।
मि लका: तुम उठ य आय , माँ? तु हारा वा य ठीक नह है। चलो, चलकर लेट रहो।
उसे वापस अ दर ले जाना चाहती है, पर तु अि बका उसका हाथ
अपनी पीठ से हटा देती है।
अि बका: म कसी आनेवाले से बात भी नह कर सकती? दन, मास, वष मुझे घुटते ए
बीत गए ह। मेरे िलए यह घर घर नह , एक काल-गुफा है िजसम म हर समय
ब द रहती ।ँ और तुम चाहती हो, म कसी से बात भी न क ँ ?
चलने क चे ा म िगरने को हो जाती है।
मि लका उसे सँभाल लेती है।
मि लका:पर तु माँ, तुम व थ नह हो।
अि बका:तु हारी अपे ा म फर भी अिधक व थ ।ँ
ि यंगु के पास जाकर उसे िसर से पैर तक देखती है।
यह घर सदा से इस ि थित म नह है, राजवधू! मेरे हाथ चलते थे, तो म
ित दन इसे लीपती-बुहारती थी। यहाँ क हर व तु इस तरह िगरी-टू टी
नह थी। पर तु आज तो हम दोन माँ-बेटी भी यहाँ टू टी-सी पड़ी रहती ह।
यह सब इसिलए क...।
फर साँस फू ल जाने से आगे नह बोल पाती। ि यंगुमंजरी को
पर दृि डालने के बहाने उसके पास से हट जाती है।
ि यंग:ु म देख रही ँ घर क ि थित अ छी नह है। मि लका
मेरे साथ चल सकती, तो सम या वैसे ही सुलझ जाती। पर तु अब...
ह ठ काटती ई जैसे सोचने के िलए ण भर कती है।
अब भी जो कु छ स भव है, म कर जाऊँगी। थपितय को आदेश दे जाऊँगी
क इस घर को िगराकर इसके थान पर..."
मि लका िच ँक जाती है।
मि लका:ऐसा मत क िजए। इस घर को िगराने का आदेश मत दीिजए।
ि यंगुमंजरी फर सीधी दृि से उसे देखती है।
ि यंग:ु म तु हारी सुिवधा के िलए ही कह रही थी। तु ह इसम असुिवधा है, तो...ठीक है।
म ऐसा आदेश नह दूग ँ ी। फर भी चाहती ँ क तु हारे िलए कु छ न कु छ कर
सकूं ...। इस समय और नह क सकती। कल क या ा से पहले कई आव यक
काय पूरे करने ह। यूँ तो इस समय भी अवकाश नह था। पर मने आना
आव यक समझा। वे पवत-िशखर क ओर घूमने गये थे। म उस बीच इधर
चली आयी। अ छा...!
मि लका क उँ गिलयाँ उलझ जाती ह और आँख झुक जाती ह।
अि बका अपने आवेश म दो-एक पग ि यंगु क ओर बढ़ जाती है।
अि बका:म तुमसे कु छ कहना चाहती थी, राजवधू! तु ह बताना चाहती थी क हम
लोग...हम लोग...।
खाँसने लगती है और श द खाँसी म डू ब जाते ह। ि यंगुमंजरी ार
के पास से मुड़कर उसक ओर देखती है।
ि यंग:ु म आपका क समझ रही ।ँ जो भी सहायता मुझसे बन पड़ेगी, अव य क ँ गी।
इस समय अनुचर ती ा कर रहे ह, इसिलए..."
ग भीर मु कराहट के साथ मि लका को देखकर िसर िहलाती है
और चली जाती है। अि बका आवेश से िशिथल उस ओर देखती
रहती है। फर िगरती-सी आसन पर बैठ जाती है और कु छ प े
उठाकर मि लका क ओर बढ़ा देती है।
अि बका:लो, 'मेघदूत' क पंि याँ पढ़ो। इ ह म न कहती थ उसके अ तर क कोमलता
साकार हो उठी है? आज इस कोमलता का और भी साकार प देख िलया?
मि लका ठगी-सी उसक ओर देखती रहती है।
आज वह तु ह तु हारी भावना का मू य देना चाहता है, तो य नह
वीकार कर लेती। घर क िभि य का प रसं कार हो जाएगा और तुम
उनके यहाँ प रचा रका बनकर रह सकोगी। इससे बड़ा और या सौभा य
तु ह चािहए?
मि लका:राजक या क अपनी जीवन-दृि है माँ! उसके िलए और कोई कै से उ रदायी है?
अि बका:पर तु राजक या के यहाँ आने के िलए कौन उ रदायी है? िनःस देह वह उस
कसी क इ छा के िबना यहाँ नह आयी। रा य के थपित से घर क
िभि य का प रसं कार कर दगे! आज वह शासक है, उसके पास स पि है।
उस शासन और स पि का प रचय देने के िलए इससे अ छा और या
उपाय हो सकता था?
मि लका:पर तु माँ...।
अि बका:माँ कु छ नह जानती। कु छ नह समझती। माँ भावना क गहराई तक नह जाती।
माँ...?
फर खाँसी उठ आने से आगे नह बोल पाती।
िवलोम बाहर से आता है।
िवलोम:इस तरह ु ध य हो अि बका...? आज तो सारा ाम तु हारे सौभा य पर तुमसे
प दा कर रहा है।
अथपूण दृि से मि लका क ओर देखता है। मि लका आँख
बचाकर दूसरी ओर हट जाती है।
राजक य पगधूिल घर म पड़ती है, तो लोग गौरव का अनुभव करते ह। ऐसा
अवसर हर कसी के जीवन म कहाँ आता है?
अि बका: यह अवसर देखने के िलए ही तो मने आज तक का जीवन-िजया है। इतना बड़ा
सौभा य हमारे ु जीवन म कहाँ समा सकता है!
उठ खड़ी होती है।
चलो, म वयं चलकर सारे ाम म इस सौभा य क घोषणा क ँ गी। हमारे
वष के अभाव और दुःख का कतना बड़ा फल लाए ह क रा य के थपित
हमारे घर क िभि य का प रसं कार कर दगे!
िवलोम:बैठ जाओ, अि बका! आज ाम के पास तु हारी बात सुनने का आवकाश नह है।
टहलता आ झरोखे के पास चला जाता है।
ाम के लोग आज त ह। उ ह बाहर से आए अितिथय के िलए कई तरह
क साम ी जुटानी है। अितिथ आज यहाँ के प थर तक बटोरकर ले जाना
चाहते ह। यहाँ के प थर आज ब त मू यवान् समझे जाने लगे ह।
मि लका:यहाँ के प थर पहले भी मू यवान् थे, आय िवलोम! यह और बात है क पहले
कसी ने उनका मू य समझा नह है।
अि बका आवेश म कई पग उसक ओर बढ़
जाती है।
अि बका:तो जाकर तुम भी बटोर य नह लेत ? स भव है फर लोग यहाँ कोई प थर
शेष न रहने द और तु हारी भावना के िलए कोई आधार ही न रह जाए!
मि लका:बैठ जाओ, माँ तु हारा वा य ठीक नह है।
उसे बाँह से पकड़कर आसन पर िबठा देती है।
िवलोम: ाम म चार ओर ब त उ साह है। यह दन इस देश के जीवन का सबसे बड़ा
उ सव है। लोग आज अपने पशु क िच ता नह कर रहे। वे अितिथय के
िलए भोजन और पान क साम ी जुटाने म त ह। उस साम ी म कु छ
ह रणशावक भी ह गे जो राजक या के िवशेष आदेश पर एकि त कये जा
रहे ह।
मि लका:यह सच नह है।
िवलोम:सच नह है ? इ वमा और िव णुद को राजक या ने वयं आदेश दया है क...।
मि लका:उस आदेश का कु छ और अथ भी हो सकता है।
िवलोम:और अथ? या और अथ हो सकता है? या राज-क या ह रणशावक से खेला
करगी? या उ ियनी के कलाकार उनक अनुकृितयाँ बनाएँग?े यह भी एक
मनोरं जक िवषय है क राज-प रवार के साथ आए राजधानी के कलाकार
आज यहाँ क हर व तु क अनुकृितयाँ बनाते घूम रहे ह। यहाँ का कोई पेड़,
प ा, ितनका शेष नह रहेगा िजनक वे अनुकृित बनाकर नह ले जाएँग।े
मि लका:इसका भी कु छ दूसरा अथ हो सकता है।
िवलोम झरोखे के पास से हटकर उसक ओर आता है।
िवलोम: म कब कहता ँ क दूसरा अथ नह है? अथ ब त प है। वे यहाँ क हर व तु को
िविच के प म देखते ह और उस वैिच य को यहाँ से जाकर दूसर को
दखाना चाहते ह। तुम, म, यह घर, ये पवत, सब उनके िलए िविच के
उदाहरण है। म तो उनक सू म और समथ दृि क शंसा करता ँ जो यहाँ
वैिच य नह , वहाँ भी िविच य देख लेती है। एक कलाकार को मने यहाँ क
धूप म अपनी छाया क अनुकृित बनाते देखा है।
अि बका:यहाँ क धूप म उ ह अपनी छायाएँ अव य और-सी लगती ह गी!...वह कौन
रा सी थी जो िजस कसी जीव को उसक छाया से पकड़ लेती थी?
बोलते-बोलते फर हाँफने लगती है।
म चाहती ँ म ही वह रा सी होती िजससे आज म...आज म...।
खाँसी उठ आने से श द डू ब जाते ह। मि लका पास जाकर उसके
क ध को सहारा देती है।
मि लका:तुमसे कहा है माँ, तुम िव ाम करो। बात मत करो।. ..आय िवलोम, माँ का
वा य ठीक नह है। इ ह इस समय िव ाम करने दीिजए।
िवलोम:हाँ, अि बका को तुम अ दर ले जाओ। ाम का उ सव कोलाहल अि बका के मन
को और अशा त करे गा। म तो के वल उ सव क सूचना देने आया
था।...आ य है क कािलदास ने यहाँ आना उिचत नह समझा। कल तो
सुनते ह वे लोग चले भी जाएँग।े
अि बका:उसने आना उिचत नह समझा, य क वह जानता है अि बका अभी जीिवत है।
िवलोम:पर तु म समझता ँ वह एक बार आएगा अव य। उसे आना चािहए। ि कसी
स ब ध को ऐसे नह तोड़ता।
फर टहलता आ झरोखे के पास चला जाता है।
और िवशेष प से वह, िजसे एक किव का कोमल दय ा हो। तुम या
सोचती हो, मि लका? उसे एक बार आना नह चािहए?
मि लका:मने आपसे अनुरोध कया है आय िवलोम, क इस समय माँ को िव ाम करने
दीिजए। आपक बात से माँ का मन िव ु ध होता है।
िवलोम:मेरी बात से अि बका का मन िव ु ध होता है? म समझता ँ उसके कारण दूसरे
ह। अि बका जानती है कन कारण से उसका मन िव ु ध होता है।
झरोखे से बाहर देखने लगता है।
म भी उन कारण को समझता ।ँ इसिलए ब त-सी बात, जो अि बका के
मन म रहती ह, म मुँह से कह देता ।ँ
मुड़कर मि लका क ओर देखता है।
तु ह मेरा यहाँ होना अखर रहा है, म जानता ।ँ यह कोई नयी बात नह ।
पर तु म कु छ देर और यहाँ रहना चाहता ।ँ
फर बाहर देखने लगता है।
पवत-िशखर क ओर से एक अ ारोही को आते देख रहा ।ँ स भव है इस
बार कु छ ण के िलए वह यहाँ कना चाहे ! उस ि थित म म भी उससे
कु शल- ेम पूछ लूँगा। मेरी उससे पुरानी िम ता है।
मि लका जैसे आपे से बाहर होने लगती है।
मि लका:आय िवलोम, उस ि थित म आपका यहाँ होना कसी भी दृि से उिचत नह है।
आप उनसे िमलना चाह, तो उसके िलए यही एक थान नह है।
िवलोम उसी तरह बाहर देखता रहता है।
िवलोम: पर तु यही थान या बुरा है? उसके जाने के दन भी हम यह पर िमले थे। वष
के बाद उसी थान पर िमलने से अ तराल का अनुभव नह होगा।
मि लका िवलोम के पास चली जाती है और उसे बाँह से पकड़कर
झरोखे से हटा देना चाहती है।
मि लका:म अनुरोध करती ँ आप इस समय यहाँ ठहरने का हठ न कर।
िवलोम अपने थान से नह िहलता। दूर से घोड़े क टाप का
श द सुनायी देने लगता है।
...म कह रही ँ आप चले जाएँ। यह मेरा घर है। म नह चाहती, आप इस
समय मेरे घर म ह ।
िवलोम फर भी उसी तरह खड़ा रहता है। टाप का श द पास
आता जाता है। मि लका उधर से हटकर अि बका के पास आ
जाती है।
माँ, इनसे कहो यहाँ से चले जाएँ। म नह चाहती इस समय यहाँ कोई
अयािचत ि थित उ प हो। तुम व थ नह हो, और म नह चाहती क
कोई भी ऐसी बात हो िजसका तु हारे वा य पर िवपरीत भाव पड़े।
अि बका उसके िहलाने से इस तरह िहलती है जैसे वह जड़ हो
गयी हो। उसके माथे पर यो रयाँ पड़ी ह और आँख िबना पलक
झपके सामने देख रही ह। टाप का श द ब त पास आ जाता है
मि लका फर िवलोम के पास चली जाती है।
मि लका:आय िवलोम, मने आपसे कहा है आप यहाँ से चले जाएँ। आप नह जानते क...।
टाप का श द पास आकर दूर जाने लगता है। मि लका ऐसे त ध
हो रहती है जैसे उसे काठ मार गया हो। िवलोम धीरे से मुड़कर
उसक ओर देखता है।
िवलोम: चला जाता ँ
क ठ से ह का ं या मक वर िनकलता है।
म नह चाहता मेरे कारण यहाँ कोई अयािचत ि थित उ प हो। पर तु या
अयािचत ि थित उ प हो सकती है, जान सकता ?ँ
झरोखे से हटकर को के बीच म आ जाता है।
य अि बका, मेरे यहाँ रहने से या अयािचत ि थित उ प हो सकती है?
अि बका:म जानती थी। आज नह , तब से ही जानती थी। वह आता, तो मुझे आ य होता।
अब मुझे आ य नह है।
वर ऊँचा उठता जाता है। मि लका जैसे सारी शि खोकर,
धीरे -धीरे आसन पर बैठ जाती है।
कोई आ य नह है। स ता है क म उसके स ब ध म ठीक सोचती थी।
जीवन एक भावना है! कोमल भावना! ब त-ब त कोमल भावना!
िवलोम:पर तु मुझे खेद है। वष से इस दन क ती ा थी। अपनी िम ता पर भरोसा भी
था...!
अथपूण दृि से मि लका क ओर देखता है।
पर तु अब भरोसा नह रहा। स भवतः यह िम ता एक ओर से ही थी। उसने
कभी हम अपनी िम ता के यो य नह समझा। फर समान क समान से
िम ता होती है...।
मि लका सहसा उठ खड़ी होती है। उसक आँख से हताशा क
कठोरता झलक रही है।
मि लका:आय िवलोम!
िवलोम ऐसी दृि से उसे देखता है, जैसे
कसी ब े से खेल रहा हो।
म फर कह रही ँ आप चले जाएँ। अ यथा वा तव म ही यहाँ एक अयािचत
ि थित उ प हो जाएगी।
िवलोम:ऐसा?...
मु कराकर अि बका क ओर देखता है।
तब तो मुझे अव य चले जाना चािहए।...अ छा अि बका! तु हारे वा य
क मुझे ब त िच ता रहती है। जहाँ तक स भव हो, घृत और मधु का सेवन
करो। मने अभी-अभी नया मधु िनकाला है। आव यकता हो, तो म तु हारे
िलए....
मि लका:हम मधु क आव यकता नह है। हमारे घर म मधु पया मा ा म है।
िवलोम:ऐसा?...अ छा, अि बका!
ण-भर दोन क ओर देखता रहता है, फर चल देता है। ार के
पास प ँचकर फर क जाता है।
...पर कभी मधु क आव यकता पड़ ही जाए, तो संकोच मत करना।
फर चला जाता है। मि लका ण-भर िसर झुकाए दबी-सी खड़ी
रहती है। फर अपने को सँभाल पाने म असमथ, अ दर को चल
देती है। अि बका का भाव आवेश म हताशा और हताशा से क णा
म बदल जाता है।
अि बका:मि लका!
मि लका क जाती है। पर कु छ भी उ र न देकर मुँह हाथ म
िछपा लेती है। अि बका उठकर धीरे -धीरे उसके पास आ जाती है
और उसे बाँह म ले लेती है। मि लका अि बका के व म मुँह
िछपा लेती है। सारा शरीर लाई से काँपता रहता है, पर गले से
वर नह िनकलता। अि बका क आँख भर आती ह और वह
उसके काँपते शरीर को अपने सेसटाए उसक पीठ पर हाथ फे रती
रहती है। फर ह ठ और गाल से उसके िसर को दुलारने लगती
है।
अि बका:अब भी रोती हो? उसके िलए? उस ि के िलए िजसने...?
मि लका:उनके स ब ध म कु छ मत कहो माँ, कु छ मत कहो...।
िससकने लगती है। अि बका उसे सहारे से वह िबठा लेती है और
उसक िससकती पीठ पर झुक जाती है।
अंक तीन

कु छ और वष के बाद
वषा और मेघ गजन का श द। परदा उठने पर वही को । एक
दीपक जल रहा है। को क ि थित म पहले से ब त अ तर
दखाई देता है। सब कु छ जजर और अ त त है। कु भ के वल
एक है और उसका भी कोना टू टा है। आसन अपने थान से हटा
आ है और उस पर अब बाघ-छाल नह है। दीवार पर से
वि तक आ द के िच ह लगभग बुझ चुके ह। चू हे के पास के वल
दो-एक बरतन ह, िजन पर याही चढ़ी है। एक कोने म फटे -मैले
व एकि त ह। को म कोई नह है। मातुल भीगे व म
बैसाखी के सहारे चलता आ आता है। चार ओर दृि डालकर
एक ल बी साँस लेता है, नकारा मक ढंग से िसर िहलाता है। और
को के बीच -बीच आ जाता है।
मातुल:मि लका!
मि लका का वर अ दर से सुनायी देता है।
मि लका:कौन है?
मातुल:म ,ँ मातुल। देखो, वषा ने मातुल क या दुगित क है!
िसर से और व से पानी िनचोड़ने लगता है मि लका अ दर से
आती है। उसके व फटे ह, रं ग पहले से काला पड़ गया है और
आँख का भाव भी िविच -सा लगता है। उसके ि व म भी
को क -सी ही जीणता है। कवाड़ खुलने पर अ दर का जो
भाग दखाई देता है वहाँ अब त प के थानपर एक टू टा पालना
रखा है। मि लका बाहर आकर कवाड़ ब द कर देती है।
मि लका:आय मातुल, आप इस वषा म?
मातुल:वषा से बचने के िलए तु हारे घर के िसवा कोई शरण नह थी। सोचा, जो हो,
मातुल के िलए आज भी तुम वही मि लका हो।...यह आषाढ़ क वषा तो मेरे
िलए काल हो रही है। पहले जब दो पैर पर चल लेता था, तो मने कभी
भारी से भारी वषा क िच ता नह क । पर तु अब यह ि थित है क बैसाखी
आगे रखता ँ तो पैर पीछे को फसल जाता है और पैर आगे रखता ँ तो
बैसाखी पीछे को फसल जाती है। यह जानता क राज- ासाद म रहकर
पाँव तोड़-बैठँू गा तो कभी ाम छोड़कर वहाँ न जाता। अब पीछे से मेरा घर
भी उन लोग ने ऐसा कर दया है क कह पैर टकता ही नह । इन िचकने
िशला-खंड से तो वह िम ी ही अ छी थी जो पैर को पकड़ती तो थी। म तो
अब घर के रहते बेघर हो रहा ।ँ न बाहर रहते बनता है न अ दर। उन ेत
िशला-ख ड के दशन से ही मुझे ासाद का मरण हो आता है। जहाँ रहकर
एक पाँव तोड़ आया ।ँ
मि लका:खड़े रहने म क होगा। आसन ले लीिजए।
मातुल आसन के पास जाकर बैसाखी रख देता है और जमकर बैठ
जाता है।
मातुल:मुझसे कोई पूछे तो म क ग ँ ा क राज- ासाद म रहने से अिधक क कर ि थित
संसार म हो ही नह सकती। आप आगे देखते ह, तो ितहारी जा रहे ह। पीछे
देखते ह, तो ितहारी आ रहे ह। सच कहता ,ँ मुझे कभी पता ही नह चल
पाया क ितहारी मेरे पीछे चल रहे ह या म ितहा रय के पीछे चल रहा
।ँ ...और इससे भी क कर ि थित यह थी क िजन ि य को देखकर मेरा
आदर से िसर झुकाने को मन करता था, वे मेरे सामने िसर झुका देते थे। मेरे
सामने...।
हाथ से अपनी ओर संकेत करता है।
बताओ मातुल म ऐसा या है िजसके आगे कोई िसर झुकाएगा? मातुल न
देवी है न देवता, न पि डत है, न राजा है। तो फर य कोई िसर झुकाकर
मातुल क व दना करे ? पर तु नह । लोग मातुल क तो या मातुल के शरीर
से उतरे व तक क व दना करने को तुत थे। और म बार-बार अपने को
छू कर देखता था क मेरा शरीर हाड़-माँस का ही है या िचकने प थर का हो
गया है, जैसे मि दर म देवी-देवता का होता है।...यहाँ आकर सबसे बड़ा
सुख यही है क न कोई झुककर मेरी व दना करता है और न ही मुझे म
होता है क म आगे चल रहा ँ या ितहारी आगे चल रहे ह। के वल यह वषा
मुझसे नह सही जाती।
मि लका:व सुखाने के िलए आग जला दू?ँ
मातुल चू हे क ओर देखता है, फर चार ओर दृि डालता है।
मातुल:तुमने घर क या अव था कर रखी है! अि बका के न रहने से घर क व था ही
नह रही।...यह ठीक है क ि यंगुमंजरी ने तु हारे िलए कु छ व और वण-
मु ाएँ िभजवायी थ जो तुमने लौटा द ?
मि लका:मुझे उनक आव यकता नह थी।
मैले व के पास जाकर उनके नीचे से भोजप का बना थ
िनकाल लेती है। और उसक धूल झाड़ने लगती है।
मातुल:और इस घर के प रसं कार के िलए भी उसने थपितय से कहा था।
मि लका:मने कसी प रसं कार क आव यकता नह समझी।
थ रखने के िलए इधर-उधर थान देखती है। फर उसे मातुल
के पास आसन पर रख देती है।
आग जला दू।ँ
मातुल:नह , वषा थम रही है।
बैसाखी िलए ए झरोखे के पास चला जाता है।
ह क -ह क बूँद ह। कसी तरह िघसटता आ घर प च ँ जाऊँ, तो वह व
सुखाऊँगा। कह फर धारासार बरसने लगा तो बस...।
झरोखे से हटकर मि लका के पास आ जाता है।
तुमने का मीर का कु छ समाचार सुना है?
मि लका ग भीर और ि थर दृि से उसक ओर देखती रहती है।
मि लका: म हर समय घर म ही रहती ।ँ कह का भी समाचार कै से सुन सकती ?ँ
मातुल:मने सुना है। िव ास नह होता, पर तु होता भी है। राजनीित म कु छ भी अस भव
नह है। िजतना स भव है क ऐसा न हो, उतना ही स भव है क ऐसा हो।
और यह भी स भव है क जो हो, वह न हो...।
मि लका अ ितभ-सी उसक ओर देखती रहती है।
मि लका:पर तु समाचार या है?
मातुल:समाचार यह है क स ाट् का िनधन हो गया है। का मीर म िव ोही शि याँ िसर
उठा रही ह। वह से आए एक आहत सैिनक का कहना है क... क कािलदास
ने का मीर छोड़ दया है।
मि लका:उ ह ने का मीर छोड़ दया है?
वैसे ही अ ितभ-सी आसन पर बैठ जाती है।
और अब पुनः उ ियनी चले गये ह?
मातुल:नह । उ ियनी नह गया। वहाँ के लोग का तो कहना है क उसने सं यास ले
िलया है और काशी चला गया है। पर तु मुझे िव ास नह होता। उसका
राजधानी म इतना मान है। य द का मीर म रहना स भव नह था, तो उसे
सीधे राजधानी चले जाना चािहए था। पर तु अस भव भी नह है। एक
राजनीितक जीवन दूसरे कािलदास। म आज तक दोन म से कसी क भी
धुरी नह पहचान पाया। म समझता ँ क जो कु छ म समझ पाता ,ँ स य
सदा उसके िवपरीत होता है। और म जब उस िवपरीत तक प च ँ ने लगता ,ँ
तो स य उस िवपरीत से िवपरीत हो जाता है। अतः म जो कु छ समझ पाता
,ँ वह सदा झूठ होता है। इससे अब तुम िन कष िनकाल लो क स य या हो
सकता है क उसने सं यास ले िलया है, या नह िलया। म समझता ँ क
उसने सं यास नह िलया, इसिलए स य यही होना चािहए क उसने सं यास
ले िलया है और काशी चला गया है।
मि लका आसन से थ उठाकर व से लगा लेती है।
मि लका:नह , यह स य नह हो सकता। मेरा दय इसे वीकार नह करता।
मातुल:मने तुमसे या कहा था? क म जो क ग ँ ा, वह कभी स य नह हो सकता! इसिलए
म कु छ नह कहता। वह काशी गया है, तो भी म झूठा ।ँ नह गया, तो भी
झूठा ।ँ ...यह तो ठीक है?
बैसाखी पटकता आ चला जाता है। मि लका गुमसुम-सी आसन
पर बैठी रहती है।
मि लका:नह , तुम काशी नह गये। तुमने सं यास नह िलया। मने इसिलए तुमसे यहाँ से
जाने के िलए नह कहा था। ...मने इसिलए भी नह कहा था क तुम जाकर
कह का शासन-भार सँभालो। फर भी जब तुमने ऐसा कया, मने तु ह
शुभकामनाएँ द —य िप य तुमने वे शुभकामनाएँ हण नह क ।
थ को हाथ म िलये जैसे अिभयोगपूण दृि से उसे देखती है।
म य िप तु हारे जीवन म नह रही,पर तु तुम मेरे जीवन म सदा बने रहे
हो। मने कभी तु ह अपने से दूर नह होने दया। तुम रचना करते रहे, और म
समझती रही क म साथक ,ँ मेरे जीवन क भी कु छ उपलि ध है।
थ को घुटन पर रख लेती है।
और आज तुम मेरे जीवन को इस तरह िनरथक कर दोगे?
थ को आसन पर रखकर उि दृि से उसक ओर देखती
रहती है।
तुम जीवन से तट थ हो सकते हो, पर तु म तो अब तट थ नह हो सकती।
या जीवन को तुम मेरी दृि से देख सकते हो? जानते हो मेरे जीवन के ये
वष कै से तीत ए ह? मने या- या देखा है? या से या ई ?ँ
उठकर अ दर का कवाड़ खोल देती है और पालने क ओर संकेत
करती है।
इस जीव को देखते हो? पहचान सकते हो? यह मि लका है जो धीरे -धीरे
बड़ी हो रही है और माँ के थान पर अब म उसक देख-भाल करती ।ँ ...यह
मेरे अभाव क स तान है। जो भाव तुम थे, वह दूसरा नह हो सका, पर तु
अभाव के को म कसी दूसरे क जाने कतनी- कतनी आकृ ितयाँ ह! जानते
हो मने अपना नाम खोकर एक िवशेषण उपा जत कया है और अब म
अपनी दृि म नाम नह , के वल िवशेषण ।ँ
कवाड़ ब द करके आसन क ओर लौट पड़तीहै।
वसायी कहते थे, उ ियनी म अपवाद है, तु हारा ब त-सा समय
वारांगणा के सहवास म तीत होता है।...पर तु तुमने वारांगणा का यह
प भी देखा है? आज तुम मुझे पहचान सकते हो? म आज भी उसी तरह
पवत-िशखर पर जाकर मेघ-माला को देखती ।ँ उसी तरह 'ऋतुसंहार'
और 'मेघदूत' क पंि याँ पढ़ती ।ँ मने अपने भाव के को को र नह
होने दया। पर तु मेरे अभाव क पीड़ा का अनुमान लगा सकते हो?
कु हिनयाँ आसन पर रखकर बैठ जाती है। और थ हाथ म उठा
लेती है।
नह , तुम अनुमान नह लगा सकते। तुमने िलखा था क एक दोष गुण के
समूह म उसी तरह िछप जाता है, जैसे चाँद क करण म कलंक; पर तु
दा र य नह िछपता। सौ-सौ गुण म भी नह िछपता। नह , िछपता ही
नह , सौ-सौ गुण को छा लेता है—एक-एक करके न कर देता है।
बोलती-बोलती और अ तमुख हो जाती है।
पर तु मने यह सब सह िलया। इसिलए क म टू टकर भी अनुभव करती रही
क तुम बन रहे हो। य क म अपने को अपने म न देखकर तुमम देखती थी।
और आज यह सुन रही ँ क तुम सब छोड़कर सं यास ले रहे हो? तट थ हो
रहे हो? उदासीन? मुझे मेरी स ा के बोध से इस तरह वंिचत कर दोगे?
िबजली क धती है और मेघ-गजन सुनायी देता है।
वही आषाढ़ का दन है। उसी तरह मेघ गरज रहे ह। वैसे ही वषा हो रही है।
वही म ।ँ उसी घर म ।ँ क तु...!
पुनः िबजली क धती है, मेघ-गजन सुनायी देता है और ोढ़ी का
ार धीरे -धीरे खुलता है। कािलदास त-िव त-सा, ार खोलकर
ोढ़ी म ही खड़ा रहता है। मि लका कवाड़ खुलने के श द से
उधर देखती है और सहसाउठ खड़ी होती है। कािलदास अ दर
आता है। मि लका जड़-सी उसे देखती रहती है।
कािलदास:स भवतः पहचानती नह हो।
मि लका उसी तरह देखती रहती है। कािलदास को म इधर-
उधर देखता है, फर मि लका पर िसर से पैर तक एक दृि
डालकर आसन क ओर चला जाता है।
और न पहचानना ही वाभािवक है, य क म वह ि नह ँ िजसे तुम
पहले पहचानती रही हो। दूसरा ि ।ँ
बाँह पीछे टकाकर आसन पर बैठ जाता है।
और सच क ँ तो वह ि ँ िजसे म वयं नह पहचानता!...तुम इस तरह
जड़-सी य खड़ी हो? मुझे देखकर ब त आ य आ?
मि लका कवाड़ ब द कर देती है। फर खोयी-सी उसक ओर बढ़
आती है।
मि लका:आ य?...मुझे िव ास ही नह हो रहा क तुम तुम हो, और म जो तु ह देख रही
,ँ वा तव म म म ही !ँ
कािलदास:देख रहा ँ क तुम भी वह नह हो। सब कु छ बदल गया है। या स भव है क
प रवतन के वल मेरी दृि म आ है।
मि लका:मुझे िव ास नह होता क यह व नह है...।
कािलदास:नह , व नह है। यथाथ है क म यहाँ ।ँ दन क या ा करके थका, टू टा-
हारा आ यहाँ आया ँ क एक बार यहाँ के यथाथ को देख लूँ।
मि लका:ब त भीग गये हो। मेरे यहाँ सूखे व तो नह ह, पर म...।
कािलदास: मेरे भीगे होने क िच ता मत करो।...जानती हो, इस तरह भीगना भी जीवन
क एक मह वाकां ा हो सकती है? वष के बाद भीगा ।ँ अभी सूखना नह
चाहता। चलते-चलते ब त थक गया था। कई दन वर आता रहा। पर तु
इस वषा से जैसे सारी थकान िमट गयी है...।
मि लका उसके और पास चली जाती है।
मि लका: ब त थक गये हो?
कािलदास:थक गया था। अब भी थका ँ पर तु वषा ने थकान कम कर दी है।
मि लका:तुम सचमुच पहचाने नह जाते।
कािलदास ण-भर उसे देखता रहता है। फर उठकर झरोखे के
पास चला जाता है।
कािलदास:और तु ह कहाँ पहचानी जाती हो? यह घर भी कतना बदल गया है! और म
आशा कर रहा था क सब कु छ वैसा ही होगा, य का य , यथा थान।...पर
कु छ भी तो यथा थान नह है।
चार ओर देखता है।
तुमने सब कु छ बदल दया है। सभी कु छ बदल दया है।
मि लका: मने नह बदला।
कािलदास उसक ओर देखता है, फर टहलने लगता है।
कािलदास:जानता ँ तुमने नह बदला। पर तु मि लका...।
उसके पास आ जाता है।
मने नह सोचा था क यह घर कभी मुझे अप रिचत भी लग सकता है। यहाँ
क येक व तु का थान और िव यास इतना िनि त था। पर तु आज सब
कु छ अप रिचत लग रहा है, और...
उसक आँख म देखता है।
...और तुम भी। तुम भी अप रिचत लग रही हो। इसिलए कहता ँ क
स भव है दृ य उतना नह बदला िजतना मेरी दृि बदल गयी है।
मि लका:थके हो, बैठ जाओ। आँख से लगता है, तुम अब भी व थ नह हो।
कािलदास: ब त दन इधर-उधर भटकने के बाद यहाँ आया ।ँ का मीर जाते ए िजस
कारण से नह आया था, आज उसी कारण से आया ।ँ
ण-भर दोन क आँख िमली रहती ह।
मि लका: आय मातुल से आज ही पता चला था क तुमने का मीर छोड़ दया है।
कािलदास:हाँ, य क स ा और भुता का मोह छू ट गया है। आज म उस सबसे मु ँ जो
वष से मुझे कसता रहा है। का मीर म लोग समझते ह क मने सं यास ले
िलया है। पर तु मने सं यास नह िलया। म के वल मातृगु के कलेवर से मु
आ ँ िजससे पुनः कािलदास के कलेवर म जी सकूँ । एक आकषण सदा मुझे
उस सू क ओर ख चता था िजसे तोड़कर म यहाँ से गया था। यहाँ क एक-
एक व तु म जो आ मीयता थी, वह यहाँ से जाकर मुझे कह नह िमली। मुझे
यहाँ क एक-एक व तु के प और आकार का मरण है।
फर को म आसपास देखता है।
कु भ, बाघ-छाल, कु शा, दीपक, गे क आकृ ितयाँ.. .और तु हारी आँख।
जाने के दन तु हारी आँख का जो प देखा था, वह आज तक मेरी मृित म
अं कत है। म अपने को िव ास दलाता रहा ँ क कभी भी लौटकर आऊँ,
यहाँ सब कु छ वैसा ही होगा।
कोई ार खटखटाता है। मि लका अ वि थत होकर उस ओर
देखती है। कािलदास ार क ओर जाना चाहता है, पर वह उसे
रोक देती है।
मि लका: ार ब द रहने दो। तुम जो बात कर रहे हो, करते जाओ।
कािलदास:देख तो लो कौन आया है।
मि लका:वषा का दन है। कोई भी हो सकता है। तुम बात करते रहो। वह चला जाएगा।
बाहर से आग तुक नशे के वर म झ लाता आ लौट जाता
है...हर समय ार ब द...ह? हर समय ार ब द!'
कािलदास:कौन था यह?
मि लका:कहा है न कोई भी हो सकता है। वषा म िजस कसी को आ य क आव यकता
पड़ सकती है।
कािलदास:पर तु मुझे इसका वर ब त िविच -सा लगा।
मि लका:तुम यहाँ के स ब ध म बात कर रहे थे।
कािलदास:लगा जैसे म इस वर को पहचानता ।ँ जैसे यहाँ क हर व तु क तरह यह भी
कसी प रिचत वर का बदला आ प है।
मि लका:तुम थके ए हो और अ व थ हो। बैठकर बात करो।
कािलदास एक िनः ास छोड़कर आसन पर बैठ जाता है।
मि लका घुटन पर बाँह रखकर कु छ दूर नीचे बैठ जाती है।
कािलदास:मने ब त बार अपने स ब ध म सोचा है मि लका, और हर बार इस िन कष
पर प च ँ ा ँ क अि बका ठीक कहती थी।
बाँह पीछे क ओर फै ल जाती ह और आँख छत क ओर उठ जाती
ह।
म यहाँ से य नह जाना चाहता था? एक कारण यह भी था क मुझे अपने
पर िव ास नह था। म नह जानता था क अभाव और भ सना का जीवन
तीत करने के बाद ित ा और स मान के वातावरण म जाकर म कै सा
अनुभव क ँ गा। मन म कह यह आशंका थी क वह वातावरण मुझे छा लेगा
और मेरे जीवन क दशा बदल देगा...और यह आशंका िनराधार नह थी।
आँख मि लका क ओर झुक आती ह।
तु ह ब त आ य आ था क म का मीर का शासन सँभलाने जा रहा ?ँ
तु ह यह ब त अ वाभािवक लगा होगा। पर तु मुझे इसम कु छ भी
अ वाभािवक तीत नह होता। अभावपूण जीवन क वह एक वाभािवक
ित या थी। स भवतः उसम कह उन सबसे ितशोध लेने क भावना भी
थी िज ह ने जब-तब मेरी भ सना क थी, मेरा उपहास उड़ाया था।
ह ठ काटकर उठ पड़ता है और झरोखे के पास
चला जाता है।
पर तु म यह भी जानता था क म सुखी नह हो सकता। मने बार-बार अपने
को िव ास दलाना चाहा क कमी उस वातावरण म नह मुझम है। म
अपने को बदल लूँ, तो सुखी हो सकता ।ँ पर तु ऐसा नह आ। न तो म
बदल सका, न सुखी हो सका। अिधकार िमला, स मान ब त िमला, जो कु छ
मने िलखा उसक ितिलिपयाँ देश -भर म प च ँ गय , पर तु म सुखी नह
आ। कसी और के िलए वह वातावरण और जीवन वाभािवक हो सकता
था, मेरे िलए नह था। एक रा यािधकारी का काय े मेरे काय े से िभ
था। मुझे बार-बार अनुभव होता क मने भुता और सुिवधा के मोह म
पड़कर उस े म अनिधकार वेश कया है, और िजस िवशाल म मुझे
रहना चािहए था उससे दूर हट आया ।ँ जब भी मेरी आँख दूर तक फै ली
ि ितज-रे खा पर पड़त , तभी यह अनुभूित मुझे सालती क म उस िवशाल
से दूर हट आया ।ँ म अपने को आ ासन देता क आज नह तो कल म
प रि थितय पर वश पा लूँगा और समान प से दोन े म अपने को
बाँट दूग
ँ ा। पर तु म वयं ही प रि थितय के हाथ बनता और चािलत होता
रहा। िजस कल क मुझे ती ा थी, वह कल कभी नह आया और म धीरे -
धीरे खि डत होता गया, होता गया। और एक दन ...एक दन मने पाया क
म सवथा टू ट गया ।ँ म वह ि नह ँ िजसका उस िवशाल के साथ कु छ
भी स ब ध था।
ण-भर वह चुप रहता है। फर टहलने लगता है।
का मीर जाते ए म यहाँ से होकर नह जाना चाहता था। मुझे लगता था
क यह देश, यहाँ क पवत-शृंखला और उप यकाएँ मेरे सामने एक मूक
का प ले लगी। फर भी लोभ का संवरण नह आ। पर तु उस बार यहाँ
आकर म सुखी नह आ। मुझे अपने से िवतृ णा ई। उनसे भी िवतृ णा ई
िज ह ने मेरे आने के दन को उ सव क तरह माना। तब पहली बार मेरा मन
मुि के िलए ाकु ल आ था। पर तु उस समय मु होना स भव नह था।
म तब तुमसे िमलने के िलए नह आया य क भय था तु हारी आँख मेरे
अि थर मन को और अि थर कर दगी। म इससे बचना चाहता था। उसका
कु छ भी प रणाम हो सकता था। म जानता था तुम पर उसक या या
होगी, दूसरे तुमसे या कहगे। फर भी उस स ब ध म िन ंत था क तु हारे
मन म कोई वैसा भाव नह आएगा। और म यह आशा िलए ए चला गया
क एक कल ऐसा आएगा जब म तुमसे यह सब कह सकूँ गा और तु ह अपने
मन के का िव ास दला सकूँ गा। ...यह नह सोचा क एक ही
ि तक सीिमत नह होता, प रवतन एक ही दशा को ा नह करता।
इसिलए आज यहाँ आकर ब त थता का बोध हो रहा है।
फर झरोखे के पास चला जाता है।
लोग सोचते ह मने उस जीवन और वातावरण म रहकर ब त कु छ िलखा है।
पर तु म जानता ँ क मने वहाँ रहकर कु छ नह िलखा। जो कु छ िलखा है
वह यहाँ के जीवन का ही संचय था। 'कु मारस भव' क पृ भूिम यह िहमालय
है और तपि वनी उमा तुम हो। 'मेघदूत' के य क पीड़ा मेरी पीड़ा है और
िवरह-िवम दता यि णी तुम हो-य िप मने वयं यहाँ होने और तु ह नगर
म देखने क क पना क । 'अिभ ान शाकु तल' म शकु तला के प म तु ह
मेरे सामने थ । मने जब-जब िलखने का य कया तु हारे और अपने
जीवन के इितहास को फर- फर दोहराया। और जब उससे हटकर िलखना
चाहा, तो रचना ाणवान् नह ई। 'रघुवंश' म अज का िवलाप मेरी ही
वेदना क अिभ ि है और...।
मि लका दोन हाथ म मुँह िछपा लेती है। कािलदास सहसा
बोलते-बोलते क जाता है और ण-भर उसक ओर देखता रहता
है।
चाहता था, तुम यह सब पढ़ पात , पर तु सू कु छ इस प म टू टा था क...।
मि लका मुँह से हाथ हटाकर नकारा मक भाव
से िसर िहलाती है।
मि लका: वह सू कभी नह टू टा।
उठकर व म िलपटे प े कोने से उठा लाती है और कािलदास के
हाथ म रख देती है। कािलदास प े पलटकर देखता है।
कािलदास: 'मेघदूत'! तु हारे पास 'मेघदूत' क ितिलिप कै से प च ँ गयी?
मि लका:मेरे पास तु हारी सब रचनाएँ ह। 'रघुवंश' और 'शाकु तलम्' क ितयाँ कु छ ही
मास पहले मुझे िमल पायी ह।
कािलदास:तु हारे पास मेरी सब रचनाएँ ह? पर तु वे यहाँ कै से उपल ध ? या...?
मि लका:उ ियनी के वसायी कभी-कभी इस माग से होकर भी जाते ह।
कािलदास:और उनके पास ये ितिलिपयाँ िमल जाती ह?
मि लका:मने कहकर मँगवायी थ । वष-दो वष म कह एक ितिलिप िमल पाती थी।
कािलदास:और इनके िलए धन?
मि लका:वष-दो वष म एक ित िमल पाती थी। धन एकि त करने के िलए ब त समय
रहता था।
कािलदास िसर झुकाए आसन पर आ बैठता है।
कािलदास:जो अभाव वष से मुझे सालते रहे ह, वे आज और बड़े तीत होते ह, मि लका!
मुझे वष पहले यहाँ लौट आना चािहए था ता क यहाँ वषा म भीगता,
भीगकर िलखता—वह सब जो म अब तक नह िलख पाया और जो आषाढ़
के मेघ क तरह वष से मेरे अ दर घुमड़ रहा है।
िनः ास छोड़कर आसन पर रखे थ को उठा लेता है और उसके
प े पलटने लगता है।
पर तु बरस नह पाता। य क उसे ऋतु नह िमलती। वायु नह
िमलती।...यह कौन-सी रचना है? ये तो के वल कोरे पृ ह।
मि लका:ये प े अपने हाथ से बनाकर िसये थे। सोचा था तुम राजधानी से आओगे, तो म
तु ह यह भट दूग ँ ी। क ग
ँ ी क इन पृ पर अपने सबसे बड़े महाका क
रचना करना। पर तु उस बार तुम आकर भी नह आये और यह भट यह
पड़ी रही। अब तो ये प े टू टने भी लगे ह, और मुझे कहते संकोच होता है क
ये तु हारी रचना के िलए ह।
कािलदास प े पलटता जाता है।
कािलदास:तुमने ये पृ अपने हाथ से बनाए थे क इन पर म एक महाका क रचना
क ँ!
प े पलटते ए एक थान पर क जाता है।
थान- थान पर इन पर पानी क बूँद पड़ी ह जो िनःस देह वषा क बूँद नह
ह। लगता है तुमने अपनी आँख से इन कोरे पृ पर ब त कु छ िलखा है।
और आँख से ही नह , थान- थान पर ये पृ वेद-कण से मैले ए ह,
थान- थान पर फू ल क सूखी पि य ने अपने रं ग इन पर छोड़ दए ह।
कई थान पर तु हारे नख ने इ ह छीला है, तु हारे दाँत ने इ ह काटा है।
और इसके अित र ये ी म क धूप के ह के -गहरे रं ग, हेम त क प धूिल
और इस घर क सीलन...ये पृ अब कोरे कहाँ ह मि लका? इन पर एक
महाका क रचना हो चुक है...अन त सग के एक महाका क ।
थ रख देता है।
इन पृ पर अब नया कु छ या िलखा जा सकता है?
उठकर झरोखे के पास चला जाता है। कु छ ण बाहर देखता
रहता है। फर मि लका क ओर मुड़ आता है।
पर तु इसके आगे भी तो जीवन शेष है। हम फर अथ से आर भ कर सकते
ह।
अ दर से ब ी के कु नमुनाने और रोने का श द सुनायी देता है।
मि लका सहसा उठकर उि भाव से उस ओर चल देती है।
कािलदास हत भ-सा उसे जाते देखता है।
कािलदास: मि लका!
मि लका ककर उसक ओर देखती है।
कािलदास: कसके रोने का श द है यह?
मि लका:यह मेरा वतमान है।
अ दर चली जाती है। कािलदास ति भत-सा को के बीच -
बीच आ जाता है।
कािलदास:तु हारा वतमान?
कोई ार खटखटाता है। फर पैर क चोट से ार अपने आप खुल
जाता है। ोढ़ी म िवलोम ार को कोसता खड़ा है। व क चड़
से लथपथ ह। वह झूलता-सा अ दर आता है।
िवलोम: भीगे दन म फसलकर िगरे और िगरे खाई म।... कतनी बार कहा है भैया
िवलोम, ब त ऊँचे मत चढ़ा करो। पर तु भैया िवलोम य मानने लगे?
पहले आये, तो ार ब द। लौटकर गये और फसल गये। फर आये, तो ार
ब द। फर लौटकर जाते, तो या होता? आज का दन ही ऐसा है क...।
कािलदास को देखकर बोलते-बोलते क जाता है। दृि का भाव
ऐसा हो जाता है जैसे कसी ब त सू म व तु का अ ययन कर रहा
हो।
न जाने आँख को या हो गया है? कभी अप रिचत आकृ ितयाँ ब त प रिचत
जान पड़ती ह और कभी प रिचत आकृ ितयाँ भी प रिचत नह लगत ।...अब
यह इतनी प रिचत आकृ ित है और म इसे पहचान ही नह रहा। आकृ ित
जानी ई है और ि नया-सा लगता है।... य ब धु, तुम मुझे पहचानते
हो?
मि लका अ दर से आती है और िवलोम को देखकर ार के पास
जड़ हो जाती है।
कािलदास:आकृ ित ब त बदल गयी है, पर तु ि आज भी वही हो।
िवलोम: वर भी प रिचत है और श द भी।
आँख ि थर करके देखने का य करता है। फर सहसा हँस उठता
है।
तो तुम हो, तुम?...िगरने और चोट खाने का सारा क दूर हो गया! कतने
दन से तु ह देखने क लालसा मन म थी। आओ...।
उसक ओर बाँह बढ़ाता है, पर तु कािलदास उसके सामने से हट
जाता है।
गले नह िमलोगे? मेरा शरीर मैला है, इसिलए? या मुझी से घृणा है? पर तु
इस तरह मेरा-तु हारा स ब ध नह टू ट सकता। तुमने कहा था न क हम
एक-दूसरे के ब त िनकट पड़ते ह। नह कहा था? मने इन वष म उस
िनकटता म अ तर नह आने दया। म तो समझता ँ क अब हम एक-दूसरे
के और भी िनकट पड़ते ह।
मि लका क ओर मुड़ता है।
य मि लका, म ठीक नह कहता?...तुम वहाँ ति भत-सी य खड़ी हो?
िवलोम इस घर म अब तो अयािचत अितिथ नह है। अब तो वह अिधकार से
आता है। नह ? अब तो वह इस घर म कािलदास का वागत और आित य
कर सकता है। नह ?
फर कािलदास क ओर मुड़ता है।
कहोगे कतनी आकि मक बात है क तब भी मुझसे इसी घर म भट ई थी
और आज भी यह ई है। पर तु सच मानो, यह आकि मक बात नह है। तुम
जब भी आते, हमारी भट यह होती।
मि लका क ओर मुड़ता है।
तुमने अब तक कािलदास के आित य का उप म नह कया? वष के बाद
एक अितिथ घर म आए और उसका आित य न हो? जानती हो? कािलदास
को इस देश के ह रणशावक का कतना मोह है...?
फर कािलदास क ओर मुड़ता है।
एक ह रणशावक इस घर म भी है।...तुमने मि लका क ब ी को नह देखा?
उसक आँख कसी ह रणशावक से कम सु दर नह ह। और जानते हो
अ ाव या कहता है? कहता है...।
मि लका सहसा आगे बढ़ जाती है।
मि लका:आय िवलोम!
िवलोम हँसता है।
िवलोम:तुम नह चाहत क कािलदास यह जाने क अ ाव या कहता है। पर तु मुझे
उसक बात पर िव ास नह होता। म इसिलए कह रहा था क स भव है
कािलदास ही देखकर बता सके क अ ाव क बात कहाँ तक सच है। या
ब ी क आकृ ित सचमुच िवलोम से िमलती है या...?
मि लका हाथ म मुँह िछपाये आसन पर जा बैठती है। िवलोम
कािलदास के पास चला जाता है।
चलो, देखोगे?
कािलदास:यहाँ से चले जाओ िवलोम।
िवलोम:चला जाऊँ?
हँसता है।
इस घर से या ाम- ा तर से ही? सुना है शासन ब त बली होता है। भुता
म ब त साम य होती है।
कािलदास:म कह रहा ँ इस समय यहाँ से चले जाओ।
िवलोम: य क तुम यहाँ लौट आये हो?... य क वष से छोड़ी ई भूिम आज फर तु ह
अपनी तीत होने लगी है?. .. य क तु हारे अिधकार शा त ह?
हँसता है।
जैसे तुमसे बाहर जीवन क गित ही नह है। तु ह तुम हो और कोई नह है।
पर तु समय िनदय नह है। उसने और को भी स ा दी है। अिधकार दये ह।
वह धूप और नैवे िलए घर क देहली पर का नह रहा। उसने और को
अवसर दया है! िनमाण कया है। ...तु ह उसके िनमाण से िवतृ णा होती
है? य क तुम जहाँ अपने को देखना चाहते हो, नह देख पा रहे?
कई ण उसक ओर देखता रहता है। फर हँसता है।
...तुम चाहते हो इस समय म यहाँ से चला जाऊँ। म चला जाता ।ँ इसिलए
नह क तुम आदेश देते हो। पर तु इसिलए क तुम आज यहाँ अितिथ हो,
और अितिथ क इ छा का मान होना चािहए।
ार क ओर चल देता है। ार के पास ककर मि लका क ओर
देखता है।
देखना मि लका, आित य म कोई कमी न रहे। जो अितिथ वष म एक बार
आया है वह आगे जाने कभी आएगा या नह ।
अथपूण दृि से दोन क ओर देखता है और चला जाता है।
मि लका मुँह से हाथ हटाकर कािलदास क ओर देखती है। कु छ
ण दोन चुप रहते ह।
मि लका: या सोच रहे हो?
कािलदास झरोखे के पास चला जाता है।
कािलदास:सोच रहा ँ क वह आषाढ़ का ऐसा ही दन था। ऐसे ही घाटी म मेघ भरे थे
और असमय अँधेरा हो आया था। मने घाटी म एक आहत ह रणशावक को
देखा था और उठाकर यहाँ ले आया था। तुमने उसका उपचार कया था।
मि लका उठकर उसके पास चली जाती है।
मि लका: और भी तो कु छ सोच रहे हो!
कािलदास: और सोच रहा ँ क उप यका का िव तार वही है। पवत-िशखर क ओर
जाने वाला माग भी वही है। वायु म वैसी ही नमी है। वातावरण क विनयाँ
भी वैसी ही ह।
मि लका: और?
कािलदास: और क वही चेतना है िजसम क पन होता है। वही दय है िजसम आवेश
जागता है। पर तु...।
मि लका चुपचाप उसक ओर देखती रहती है। कािलदास वहाँ से
हटकर आसन के पास आ जाता है और वहाँ से थ उठा लेता है।
पर तु यह कोरे पृ का महाका तब नह िलखा गया था।
मि लका: तुम कह रहे थे क तुम फर अथ से आर भ करना चाहते हो।
कािलदास िनः ास छोड़ता है।
कािलदास:मने कहा था क म अथ से आर भ करना चाहता ।ँ यह स भवतः इ छा का
समय के साथ था। पर तु देख रहा ँ क समय अिधक शि शाली है
य क..।
मि लका: य क?
फर अ दर से ब ी के रोने का श द सुनायी देता है। मि लका झट
से अ दर चली जाती है। कािलदास थ आसन पर रखता आ
जैसे अपने को उ र देता है।
कािलदास: य क वह ती ा नह करता।
िबजली चमकती है और मेघ-गजन सुनायी देता है। कािलदास
एक बार चार ओर देखता है, फर झरोखे के पास चला जाता है।
वषा पड़ने लगती है। वह झरोखे के पास आकर थ को एक बार
फर उठाकर देखता है और रख देता है। फर एक दृि अ दर क
ओर डालकर ोढ़ी म चला जाता है। ण-भर सोचता-सा वहाँ
का रहता है। फर बाहर से दोन कवाड़ िमला देता है। वषा
और मेघ-गजन का श द बढ़ जाता है। कु छ ण के बाद मि लका
ब ी को व से सटाए अ दर आती है और कािलदास को न
देखकर दौड़ती-सी झरोखे के पास चली जाती है।
मि लका:कािलदास!
उसी तरह झरोखे के पास से आकर ोढ़ी
के कवाड़ खोल देती है।
कािलदास!
पैर बाहर क ओर बढ़ने लगते ह पर तु ब ी
को बाँह म देखकर जैसे वह जकड़ जाती है। फर टू टी-सी आकर
आसन पर बैठ जाती है और ब ी को और साथ सटाकर रोती ई
उसे चूमने लगती है। िबजली बार-बार चमकती है और मेघ-गजन
सुनाई देता रहता है।)
प रिश
* मोहन राके श
एक युगा तकारी नाटककार
* मू यांकन
अनेक रं गक मय तथा
आलोचक के िवचार;
नाटक का मंचन
* समी ा मक िव ेषण
नेिमच जैन का आलेख
* क ठन श द के अथ
* छा के िलए कु छ
मोहन राके श: एक युगा तकारी नाटककार
मोहन राके श ने अनेक नाटक क रचना क है, िजनम 'आषाढ़ का एक दन', 'लहर के
राजहंस', 'आधे अधूरे' और 'पैर तले क जमीन'आ द ह। इन नाटक क िवशेषता यह है क
पाठक उ ह पढ़ कर आनि दत तो होता ही है पर तु रं गमंच पर इनका दशन देखकर
नाटककार क रचना-ध मता से भी भािवत ए िबना नह रहता। कसी नाटक क यह
िवशेषता होती है क वह रं गमंच के यो य हो और उस पर खरा उतरे । इस दृि से 'आषाढ़
का एक दन' े तम िस आ है।
राके श जी के नाटक भारत के अनेक मह वपूण नगर म तो मंिचत ए ही ह, उनका
मंचन अँ ेजी मा यम से िवदेश म भी आ है। और सभी थान पर इनका रं गमंचीय
दशन काफ सराहा गया है।
मोहन राके श ने अपने नाटक के मूल कथन, काल बोध, िब ब और ऐितहािसकता के
मा यम से ाचीन काल क शंसा क बजाय वतमान सम या को उठाने का, उ ह
उजागर करने का य कया—और इस बात क सभी िव ान , वयं रं गक मय ,
िनदशक , अिभनेता और समी क ने शंसा क है। इनम िवशेष प से नेिमच जैन,
अलकाज़ी रामगोपाल, क त जैन, डॉ. सुरेश अव थी, स यदेव दुब,े कलक ा क ितभा
अ वाल, िगरीश र तोगी, सुधा िशवपुरी, क हैयालाल न दन, ओम िशवपुरी, ि पुरारी
शमा, इ ाहीम अलकाज़ी, सुशील चौधरी, अ माल अ लाना तथा अ य अनेक रं गमंच से
स बि धत ि और िव ान् समी क आते ह।
मोहन राके श के िलखे नाटक को पढ़कर और उनका मंचन देखकर यह प हो जाता
है क वे कथा मक और ना िवधा दोन पर समान अिधकार रखते ह—दोन िवधा पर
उनक गहरी पकड़ है। वे कह भी कथा मकता के च र म ना िवधा को पीछे नह
छोड़ते। उ ह ने दोन का समान िनवाह कया है।
स भवतः मोहन राके श को अपने संि जीवनकाल म जो याित ा ई, उसका
कारण उनके नाटक ही थे—िजसके कारण वे एक युगा तकारी नाटककार िस ए।
स भवतः ऐसा सौभा य अ य नाटककार को ा नह हो सका। इनके नाटक से कथा
सािह य म एक नवीनता के दशन ए और िह दी रं गमंच के िवकास म भारी सहायता
िमली।
नाटककार के प म मोहन राके श को याित इसिलए भी ा ई क वे अपने
नाटक के मंचन से स बि धत सभी बात का िववरण देते थे। यह बात उनक डायरी के
प से प होती है। इन बात से रचना-ध मता के ित उनक समपण भावना का पता
चलता है।
कहानीकार के पम

मोहन राके श ने कहािनयाँ और उप यास भी िलखे ह। अपनी कहािनय के स ब ध म वे


वयं कहते ह—
"नये दौर क मेरी अिधकांश कहािनयाँ स ब ध क य णा को अके लेपन से झेलते
ए लोग क कहािनयाँ ह। यह अके लापन समाज से कटकर रहने का अके लापन नह ,वरन्
समाज के बीच म होने का अके लापन है।" उ ह ने अपने कथा और ना सािह य म ि
क मानिसक और सामािजक य णा को उजागर करने का य कया है।
राके श जी क एक िवशेषता यह थी क वे सदा डायरी िलखते थे। अनेक लेखक
डायरी नह िलखते य क उसम जीवन क सही और स ी बात िलखना क ठन होता है।
मोहन राके श क खास बात यह है क उ ह ने अपनी डायरी म बड़ी बेबाक से, बड़े खुलेपन
से अपने स ब ध म भी िलखा है। इसम दन ित दन क घटना के अित र अपने
आसपास क िज दगी, अपने िम —िजनम मिहला-िम भी ह, पर बड़ी प ता के साथ
सभी कु छ िलखा है। इसके अित र भला यह कै से स भव था क वह अपने लेखन और
लेखन से स बि धत गितिविधय के स ब ध म नह िलखते। मजा यही है क उ ह ने अपने
जीवन क घटनाएँ िलखते ए अपने आपको भी नह ब शा।
मोहन राके श का जीवन मु यतः तीन थान पर बीता था—जाल धर, द ली और
ब बई। जाल धर वास उनके ारि भक िनमाण और िवकास के काल से जुड़ा है। द ली
और ब बई लेखक के प म थािपत हो जाने के बाद उपलि धय का काल था।
राके श जी का ज म अमृतसर क एक तंग-सी गली के एक छोटे-से घर म आ था। पर तु
इस छोटे-से घर म ज म लेनेवाले ि ने सारे भारत को अपना घर बना िलया और
भारत के अनेक भाग म घूमा, गया और िवचरा। अमृतसर म उनके छोटे-से, तंग-से घर के
पास एक और घर था िजसका आँगन खुला था—अड़ोस-पड़ोस के ब े वहाँ खेलते, राके श
भी उनम होते—पर तु इन दो-चार ब के साथ बचपन म खेलनेवाले राके श ने भारत के
खुले आँगन म अपने समय के ायः सभी लेखक के साथ दन िबताए, शाम िबताय और
सािह य के िवशाल आँगन म खेला।
राके श जी ने अपने जीवन का कु छ समय कॉलेज के अ यापक के प म िबताया और
तभी िलखना भी आर भ कया। उनक कु छ पु तक काफ च चत रह —िजनम उनके
नाटक के अित र उनक डायरी भी है। इस डायरी का स ब ध अनेक थान क
घटना और ि य से है।
इसी दौरान उनका लेखन भी चलता रहा और लेखक राके श जीवन क , मन क ,
िम क और अपने खुलेपन क अनेक सम या से जूझता रहा। एक के बाद दूसरे अनेक
पड़ाव से गुजरती ई राके श जी क यह सािहि यक या ा आधुिनक िह दी सािह य का
मह वपूण द तावेज है।
आज वे हमम नह ह पर राके श अपने पीछे जो कथा और नाटक सािह य छोड़ गये ह,
उसके कारण उनका मह व, उनक याद िचरकाल तक बनी रहेगी।
आषाढ़ का एक दन: मू यांकन
'आषाढ़ का एक दन' ना लेखन के े म एक मह वपूण उपलि ध है। व तुतः िह दी के
िजन एक-दो लेखक ने नाटक म यथाथपरकता और का ा मकता का ीगणेश कया था,
'आषाढ़ का एक दन' उसक मह वपूण प रणित है।
इस नाटक क य िवषय-व तु कािलदास के जीवन से स बि धत है पर तु उसके
िसि को ा होने से पहले उसक ेयसी मि लका का यह नाटक है जो उसक अपनी
िनयित का ही िच है। वह सम पत लड़क उससे ेम ही नह करती, वरन् उसे अपने
जीवन म महान् होता भी देखना चाहती है। इसके िलए उसे अपना सव व देकर ती ा
करनी पड़ती है। कािलदास मि लका के िलए स पूण ि व और एकाकार व क
भाँित है तो मि लका कािलदास क एकमा ेरणा। मोहन राके श ने िजस एका ता,
ती ता और गहराई के साथ इन भावना को कया है वह िह दी नाटक के िलए
नई चीज़ है।
सु िस ना समालोचक नेिमच जैन का कहना है क—
"ना प क दृि से 'आषाढ़ का एक दन' सुग ठत यथाथवादी नाटक है। इसम
बा योरे क अपे ा प रि थित के का को अिभ करने का यास है। िह दी म यह
पहला यथाथवादी नाटक है जो बा और आंत रक यथाथ के अ त को संवेदनशीलता
के साथ देखता है। घटनाएँ, पा और भाव इसम इस कार रखे गये ह क वे अपने आप म
नाटक य भाव उ प करते ह।
िन स देह िह दी नाटक के प र े य म, भाव व तु और पब ध दोन के तर पर
'आषाढ़ का एक दन' ऐसा पया , सघन, ती और भावोदी लेखन तुत करता है जैसा
िह दी नाटक म कम ही आ है। इसम भाव और ि थित क गहराई म जाने का यास है
और पूरा नाटक एकसाथ कई तर पर भावकारी है। इसम बंब के भावी नाटक य
योग के साथ-साथ श द क अपूव िमत ियता भी है। भाषा म ऐसा नाटक य का है
जो िह दी नाटक य ग म अभूतपूव है।
िह दी के अ य ढेर तथाकिथत ऐितहािसक नाटक से 'आषाढ़ का एक दन' इसिलए
मौिलक प से िभ है क इसम अतीत का न तो पुन थानवादी गौरवगान है और न
भावुकतापूण अित नाटक य ि थितयाँ रचने का यास कया गया है। यह सही अथ म
आधुिनक िह दी नाटक क शु आत का सूचक है।"
'आषाढ़ का एक दन' नाटक का अनेक बार मंचन हो चुका है। िह दी के अित र
अँ ेज़ी म भी इसके अनुवाद और मंचन हो चुके ह। अनेक िस ना -समी क ,
िनदशक और अिभनेता ने इसे देखा, िनदिशत कया और सराहा।
िस िनदशक, अिभनेता और समी क रामगोपाल बजाज इस नाटक के स ब ध म
कहते ह—
"मेरा यह मानना है क सािह य और कला समसामियक होते ए भी जीवन के
ापक को उठाते ह। इस दृि से मोहन राके श का कथा सािह य एवं नाटक आटे-दाल
क महँगाई, दल-बदल क राजनीित का सािह य नह है। 'आषाढ़ का एक दन' म भी
मह वाकां ा, रचनाध मता, शरीरी और अशरीरी के बीच चेतना क वृि एवं पीड़न
ापक है। मि लका कृ ित एवं औदा य क तीक लगती है। कािलदास का आ ोश और
मोहभंग मा प रवेश से ही नह वयं अपनी समझ और कृ ित के ित भी है िजसके साथ
नाटक के अ त म वह एक और या ा का आर भ करता है। कािलदास के चाहे िबना
मि लका का औदा य आ मदान अके ला छू ट जाता है। अनजान मातुल बा सामािजक
सं ाि त के मू य क पंगुता का तीक बन सके ऐसी कोिशश है। म आभारी ँ क ी बंशी
कौल मेरी सोच से सहमत ह।
शैली क दृि से आधुिनक चा ुष िब ब के साथ भाषा के श द म जो ंजक िब ब
ह, वे ही सोना ह। राके श जी क रचना म मुझे इसक िसि के दशन ए ह।"
िस ना कम फै सल अलकाजी कहते ह—
"पहली बार एक पूणाकार नाटक का अपनी ना मंडली ' िचका' ारा मोहन
राके श के नाटक 'आषाढ़ का एक दन' का चुनाव कई कारण से कया—मुझे इस नाटक म
अपनी आयु के लोग के िलए कई ऐसी साथक चीज़ दखाई द िज ह म अपने ढंग से पेश
करना चाहता था। इसके साथ ही नाटक के सफल अँगे्रज़ी अनुवाद, उसक गढ़ी ई
बुनावट, िब ब क प ता और भाषा क सु दरता ने भी मुझे अपनी ओर आक षत कया।
नाटक म कु छ ऐसे िब ब ह जो मुझे काफ दन तक बाँधे रखगे—इनम आर भ म
िबजली क चमक के साथ अि बका का िचि तत प म वेश, कािलदास के पैर क दूर
होती आहट, मि लका का काले व पहने ए अके लापन और एक बार फर अलग होते दो
ेमी, कािलदास क धीमी चहलकदमी, मि लका का आँसु म डू बा आ चेहरा और
तूफान के दृ य अ य त भावकारी ह।"
वज िनया, अमरीका के मेरी वा शंगटन काँलेज म इस नाटक का मंचन आ। वहाँ के
ोफे सर जाज सट जुिलयन का कहना है—
"इस आधुिनक भारतीय नाटक क उ री अमरीका म पहली तुित थी। यह एक
ऐसे नाटक क सु दर तुित थी जो अमरीक अिभनेता के िलए ब त क ठन थी।"
उ ह ने अपने अिभनेता के काय क ा या करते ए अ त म 'आषाढ़ का एक
दन' के स ब ध म कहा है—"य द आप, नवीनतम ाडवे िहट क बजाय रं गकला के
शौक न ह तो 'आषाढ़ का एक दन' अव य देिखए—नह तो आपको एक दन पछताना
पड़ेगा।"
आषाढ़ का एक दन : समी ा मक िव ेषण
"िह दी नाटक क इस या ा म 'आषाढ़ का एक दन' कई कार सेएक मह वपूण पड़ाव तो
है ही, इस दौर क नाटक लेखन क े तम उपलि धय म िगनने यो य भी है। कु छ लेखक
ने नाटक म सहज वाभािवकता और नाटक यता के यथाथपरकता और का ा मकता के
िजस िम ण का सू पात कया था उसक मह वपूण प रणित 'आषाढ़का एक दन' म ई
है।"
"इसके साथ समकालीन अनुभव के और भी कई आयाम इस नाटक म ह, जो इसे
एकािधक तर पर साथक और रोचक बनाते ह।वना और कम, कलाकार और रा य आ द
कई तर को छू ता है। इसी कार काल के आयाम को बड़ी रोचक ती ता के साथ नाटक म
तुत कया गया है।"
" 'आषाढ़ का एक दन' म कािलदास और मि लका के अित र िवलोम भी एक पा
है। उसे खलनायक कहकर टाला नह जा सकता। वह कािलदास से भी अिधक िवकिसत
पा है। उसके िबना यह नाटक भावुकतापूण और िशिथल रह जाता। उसके तक म ही
नह , उसक पूरी जीवन दृि म एक ऐसी आव यकता और अिनवायता है क
उसक िगनती िह दी नाटक के कु छ अिव मरणीय पा म होगी। कई कार से िवलोम
मोहन राके श क एक अनुपम नाटक य च र -सृि है।"
पा म िवसदृशता के दो अ य रोचक प ह, इस नाटक म मि लका क माँ
अि बका, और कािलदास का मामा मातुल। दोन बुजूग ह, नाटक के दो मुख त ण पा
के अिभभावक। दोन ही अपने-अपने ितपािलत से अस तु , बि क िनराश ह। फर भी
दोन एक-दूसरे से एकदम िभ , बि क लगभग िवपरीत ह। दोन के बीच यह िभ ता
सं कार, जीवनदृि , वभाव, वहार, बोलचाल, भाषा आ द अनेक तर पर उके री गयी
है। इससे मि लका और कािलदास दोन के च र अिधक सू मता और रोचकता के साथ
पाियत हो सके ह। ऐसी ही दलच पिवसदृशता िन ेप और कािलदास तथा मि लका
और ि यंगुमंजरी के बीच भी रची गयी है।
इसी तरह ब त संयत और भावी ढंग से, ं य और सू म हा य के साथ,
समकालीन ि थितय क अनुगूंज पैदा क गयी है रं िगणी-संिगणी और अनु वार-
अनुनािसक क दो जोिड़य के ारा। यह थोड़ी ही देर के िलए आते ह पर बड़ी कु शलता से
कई बात ंिजत कर जाते ह। वा तव म 'आषाढ़ का एक दन' का लेखन और दशन दोन
ही तर पर ापक सफलता का आधार है उसक बेहद सधी ई, संयिमत और सु चंितत
पा -योजना। इसम कोई आ य क बात नह क 'आषाढ़ का एक दन' िपछले तीस-
ब ीस वष म देश क अनेक भाषा म, अनेक के म बार-बार खेला गया है और अब
भी उसका आकषण चुका नह है।
ना प क दृि से 'आषाढ़ का एक दन' सुग ठत यथाथवादी नाटक है, िजसम
बा यौरे क बात से अिधक प रि थित के का को अिभ करने का यास है।
शायद िह दी का यह पहला यथाथवादी नाटक है जो बा और आ त रक यथाथ क
समि वित और अ त व को स वेदनशीलता के साथ देखता और तुत करता है। नाटक
म काय- ापार के संयोजन म गित पया ती ही नह है, उस ती ता के भीतर लय क
िविवधता भी है; िविभ भाव और ि थितय को, िविभ पा को, इस कार-आमने-
सामने रखा गया है क वे अपने आप म नाटक य भाव उ प करते ह और परवत
प रणित को भी यथास भव अिनवाय और िव सनीय बनाते ह। फर भी तीसरे अंक म
मि लका के वगत-भाषण और कािलदास के ल बे एकालाप म गित का संयोजन ठीक नह
रहता। बि क कािलदास का वेश िजतना नाटक य है, उसका परवत भाषण उतना ही
उ ाटनमूलक होने के कारण ती ता को कम करता है। चरम-िब दु के इतने समीप प च
ँ कर
भाषण ारा ि थित का उ ाटन ब त अ छी नाटक य युि नह , िवशेषकर जब क बाक
नाटक म राके श काय- ापार के ारा ही सफलतापूवक उ ाटन करते रहे ह। पर तीसरे
अंक क यह दुबलता शी ही िनय ण म आ जाती है और ार खटखटाये जाने के बाद से
नाटक बड़ी दुद य और ती गित से चरम प रिणित क ओर अिनवायतापूवक चलता
जाता है।
िन स देह, िह दी नाटक के प र े य म, और भाव तु और पब धदोन के तर पर,
'आषाढ़ का एक दन' ऐसा पया सघन, ती और भावो ी लेखन तुत करता है जैसा
िह दी नाटक म ब त कम ही आ है। उसम भाव और ि थित क गहराई म जाने का यास
है और पूरा नाटक एकसाथ कई तर पर भावकारी है। िब ब के बड़े भावी नाटक य
योग के साथ-साथ उसम श द क अपूव िमत यता भी है और भाषा म ऐसा नाटक य
का है जो िह दी नाटक य ग के िलए अभूतपूव है।
एक बात और। िह दी के ढेर तथाकिथत नाटक से 'आषाढ़ का एक दन' इसिलए
मौिलक प म िभ है क उसम अतीत का न तो तथाकिथत िववरण है, न पुन थानवादी
गौरव-गान, और न ही वह कोई भावुकतापूण अितनाटक य ि थितयाँ रचने क कोिशश
करता है। उसक दृि कह यादा आधुिनक और सू म है िजसके कारण वह सही अथ म
आधुिनक िह दी नाटक क शु आत का सूचक है।
आषाढ़ का एक दन : क ठन श दाथ
कु भ : घड़ा
धारासार : मूसलाधार,लगातार
जुड़ा जाना: ठ ड लग जाना, सद से अकड़ जाना
त प : त त,पलंग
अंशुक : दुप ा, ओढ़नी
भ सना: िन दा, डाँट-फटकार
अपवाद : बदनामी, लाँछन
अन र : न न होने वाला, अमर
िवतृ णा : चाह का अभाव, उदासीनता
आ म- वंचना : अपने-आपको धोखा देना
आ तरण : िबछावन, िब तर
अनुसरण: पीछा, नकल
सामु क : योितष
पाव य भूिम : पहाड़ी े
पूवा ह : पहले से कोई धारणा बना लेना
आ मसीिमत : अपने तक ही के ि त
िवलोम : िवपरीत, उ टा
उपादान : कारण, योग म लाना
भािगनेय: भानजा
वंशावतंस : वंश का िचराग, वंश का नाम रोशन करनेवाला
त : खरीदा आ
िन णात : चतुर
अ यागत : अितिथ,पा ना
िवच णता : अनोखापन
वधान : फासला, अ तर
अनगलता : बेिसर-पैर क बात, बेमानी
िवद ध दृि : जलनपूण नज़र
भा वि त र ािन महौषधी : जहाँ र और औषिधयाँ चमकती ह
िन ाज : िबना बहाने के
आयास : मेहनत, क
थपित : वा तुकार, मकान आ द बनाने वाला, आ कटे ट
प रसं कार : सुधारना, ठीक करना
अनुकृितयाँ : नकल
अयािचत: िबना माँगे
हताशा : िनराशा
ितहारी : पहरे दार, अंगर क
िव यास : बनावट
उप यका : पहाड़ क तलहटी
'आषाढ़ का एक दन' छा के िलए कु छ
1.कािलदास क कस रचना से (ऋतुसंहार, मेघदूत अथवा अ य) इस नाटक का स ब ध
मानते ह?
2.आप नाटक का मु य पा कसे समझते ह और य ?
3.इस नाटक म मि लका क मु य भूिमका पर काश डाल?
4.मि लका का च र -िच ण कर।
5. या अि बका का पा के प म रहना आव यक समझते ह, य ?
6.कािलदास का च र -िच ण इस नाटक के आधार पर क िजए।
7.िवलोम के चोट खाकर लंगड़ाकर चलने क घटना का आप या कारण मानते ह?
8.िवलोम ने अपनी था-कथा कब और कससे कस स दभ म कट क ?
9.मातुल ि यंगु से कु लीनता क या ा या करता है?
10.नाटक म मातुल क भूिमका या है?
11.अनु वार और अनुनािसक श द के अथ या ह?
12. या िवलोम श द का अथ बताकर यह प करगे क उसक नाटक म या भूिमका है?
13.खलनायक कसे कहते ह? खलनायक मानव च र के कस प को तुत करता है?
14. थपित का मु य काय या होता है? या आप कसी भारतीय अथवा िवदेशी थपित
के स ब ध म जानते ह क उसने/उ ह ने इस भारत देश म या काय कया?
15.ि यंगुमंजरी का च र िच ण कर और बताएँ क या वह उसक ि थित के अनुकूल
है?
16.उसके च र म मि लका के ित कह ई या या िव ष े क -सी भावना तो कट नह
होती?
17.प रसं कार श द का अथ या है?
18.नाटककार मोहन राके श के स ब ध म कम से कम 15 पंि य म िलखकर प कर।
19.'आषाढ़ का एक दन' म मेघ गजन और वषा क आवाज़ सुनाई देने का अथ या है और
इससे या कट होता है?
20.मोहन राके श ने अ य कौन-कौन से नाटक िलखे ह?
21.उनके नाटक मंचन कहाँ-कहाँ और कन भाषा म हो चुका है?
22."यह लोक नीित है, म तो क ग ँ ा क लोक नीित और मूख नीित दोन का एक ही अथ
है।" उ वा य कसने कस स दभ म कससे कहा?
23."वष का वधान भी िवपरीत को िवपरीत से दूर नह कर सकता।" यह बात कसने
कससे कस स दभ म कही?
24.नाटक म ' वगत भाषण' से आप या समझते ह? कह -कह यह आव यक य हो
जाता है?
25."मेरे भीगे होने क िच ता मत करो।...जानती हो, इस तरह भीगना भी जीवन क एक
मह वाकां ा हो सकती है? वष के बाद भीगा ।ँ अभी सूखना नह चाहता।" उ
वा य कसने, कससे कस स दभ म कहा? या इसका कोई अ त निहत अथ भी हो
सकता है? य द है तो प कर।
26.'अथ से आर भ करना', इस मुहावरे का अथ प कर।
27. ाचीन काल म जब ं टंग ेस का आिव कार नह आ था तो भारतीय अपने थ
क रचना कै से करते थे?
28.कािलदास के एक अ य त मह वपूण और सु िस नाटक का नाम बताइए।
29."आ य?...मुझे िव ास ही नह हो रहा क तुम तुम हो, और म जो तु ह देख रही ँ
वा तव म म म ही ।ँ " यह कस पा का कथन है और कस स दभ म कहा गया है?
इस तरह क बात ि कब करता है? और उसका अथ या होता है?
30.िन श द , वा यांश का योग करके साथक वा य क रचना करो—टू टा-हारा,
अपवाद, िनरथक लाप, सौ दय का सा ा कार, को , आित य, िन ु र,
आ मसीिमत, थपित, त प, स ाट् , उ ियनी, अ यथना, आयपु , चाटु का रता
आ द।
31.'आषाढ़ का एक दन' नाटक को एक कहानी के प म िलख।
32.'लीपने-बुहारने' का या अथ है? इसका कस स दभ म योग होता है?
33.'लोकना ' कसे कहते ह? उदाहरण देकर बताएँ।
34.मोहन राके श के नाटक का मंचन सरल य माना जाता है?
35.'आषाढ़ का एक दन' नाटक क रं गमंच स ा के स ब ध म आपके या िवचार ह?
36.यविनका का या अथ है?
37.कु छ नाटक म सू धार भी होता है। उससे नाटक मंचन म या सहायता िमलती है?
38.अिभनय कला का या अथ है? रं गमंच पर अिभनेता से या अपे ा क जा सकती है?
39.मोहन राके श के नाटक 'आषाढ़ का एक दन' के स ब ध म कसी अमरीकन ने या
कहा है?
40.िब ब कसे कहते ह? इनके ज़ रए नाटककार या कट करना चाहता है?
41.मि लका के च र -िच ण म नाटककार ने या कट करने का य कया है?
42.कािलदास क उपि थित म मि लका के घर के अ दर से ब े के रोने क आवाज़ से
मि लका के च र का कौन-सा प प होता है।
43.'अयािचत ि थित' से आप या समझते ह, इसका अथ या है?
44. ाचीन काल म मिहलाएँ अपने पित को कस स बोधन से पुकारती थ ?
45."आज तु हारा जीवन तु हारी स पि है", इसका भावाथ या है? और यह बात
कसने कस स दभ म कससे कही है?

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