You are on page 1of 225

अथ श्री गजानन विजय

ग्रंथ प्रारं भ
(ह द
िं ी गद्य अनि
ु ाद )

मूल लेखक

ह. भ. प. संतकवि श्री दासगणू महाराज

॥ श्री गजानन विजय ग्रन्थ ॥


1
श्री गणेशाय नमः

श्री गजानन विजय (हहंदी) ग्रंथ प्रारं भ

पहला अध्याय १

श्री गणेशाय नमः। े गौरीपत्र


ु गणपती, मयरू े श्िर आपकी जय ो । आप प्रचिंड प्रतापी तथा उदारकीर्ति ै । आपका
स्मरण – कायािरिंभ में - साधप
ू रु
ु ष तथा विद्िान करते आये ै । े दयाघन जैसे अग्नन के सामने तण
ृ की कोई गणना
न ीिं िैसे ी आपकी कृपाशग्तत इतनी अगाध ै कक सारे विघ्न भस्म ो जाते ै । इसीलिये य दासगणू आपके
चरणों में िन्दना करता ै की ग्जससे उसके मख
ु से रसयत
ु त रचना ो । मझ
ु मे कोई काव्य प्रर्तभा न ीिं ै मैं
मर्तमिंद और अज्ञानी ूूँ । ककन्तु आपका हृदय में िास ोने पर मेरा कायि परू ा ोगा । अब मै ब्रह्म की प्रकृर्तस्िरुप
आहद माया- कवि श्रेष्ठों द्िारा ध्यात ब्रह्मकुमारी शारदा का ििंदन करता ूूँ । उस माता जगदिं बा को मेरा साष््ािंग
प्रणणपात । मैं अज्ञानी बािक ूूँ इस दृग्ष्् से मेरे सा स का अलभमान ि करे । े माता तुम् ारी कृपा से जो कक
अगाध ै , पिंगु प ाड़ पर चढ़ सकता ै, और गिंग ू ा धारा प्रिाह त भाषण सभा मे दे सकता ै । ऐसी जो आपकी

॥ श्री गजानन विजय ग्रन्थ ॥


2
मह मा ै उसमे न्यन
ू ता न आने पािे इसलिये दासगणू का इस ग्रिंथ रचना मे स ाय करें । े दीनबिंधो-परु ाणपरु
ु ष
पिंढरीनाथ मेरी रक्षा करें । आप सििसाक्षी और जगत के आश्रयभत
ू ैं।

आप सििव्यापी चराचर में र नेिािे सिेश्िर और कताि-धताि सब कुछ आप ी ैं। े मातावपता आप ी जगत जनता
जनादि न ैं। केिि आप ी पररपण
ू ि ैं। आप सगण
ु तथा र्नगण
ुि दोनो मे ैं। आपकी मह मा िेद शास्त्रों से भी न ीिं
जानी जाती। किर दासगणू की तया गगनती। ककिंतु राम की मह मा से मकि् अपार शग्ततशािी ो गये और कृष्णकृपा
से यमन
ु ातीर के ग़ोपाि अपररलमत बिशािी ो गये। किर आपकी कृपा के लिये धन की आिश्यकता न ीिं। अनन्य
शरणगर्त से आपकी कृपा स जतया प्राप्त ोती ैं, इसी भरोसे पर मैं आपके द्िार आया ूूँ और आप मझ ु े विन्मख

न करें । मैं य सिंत चररत्र लिखने के लिये प्रित्ृ त ु आ ूूँ सो े पिंढरीनाथ, आप इसे पण
ू ि करने मे स ायभत ू ो। े
भि भिान्तक भिानी पती र्निकिंठ; स्िगि से गीरनेिािी गिंगा को धारण करनेिािे गिंगाधर। ॐ कार स्िरुप त्र्यिंबकेश्िर।
आप अपना िरद स्त मेरे लसरपर रणखये, जो सबकुछ दे नेिािा ैं। आपकी स ायता ोने पर मझ
ु े काि का भी भय
न ीिं। तयोंकक पारस पत्थर िो े को भी सोना बना दे ता ैं। आपका ाथ ीिं पारस ैं और दासगणू िो ा ैं । अतः
इस बािक की स ायता करे । दरू मत ढकेलिये। आपके लिये कुछ भी असम्भि न ीीँ। सब कुछ आपके पास ैं। इस
बािक केँ लिये दौडकर आईये और इस ग्रिंथ रचना को स ाय कररये। कोल् ापरू र्निासीनी म ािक्ष्मी मेरी कुिदे िता
ै , ग्जसके चरणकमिोंमे मैं अपना मस्तक रखता ूूँ। ि मेरा मिंगि करे । े तुिजा भिानी मङ
ृ ानी ( रुद्रपत्नी )
अिंब,े अपणे -दग
ु े। इस दासगणू के मस्तक पर अपना िरद स्त रणखये। े दयाघन दत्तात्रेय आपके चरण कमिों
की मैं िन्दना करता ूूँ । आप प्रसन्न ोकर मझ
ु े गजानन चररत्र िेखन मेँ स ायता करें । इसके पश्चात ऋवषश्रेष्ठ

॥ श्री गजानन विजय ग्रन्थ ॥


3
शािंडडल्य (भग्तत के परमाचायि) िलसष्ठ गौतम -पाराशर (बादरायण व्यास ब्रह्मसत्र
ू म ाभारत - परु ाणकताि ) आहद को
िन्दन करता ूूँ ।

ज्ञान के आकाश में ग्जनका सय


ू ि के समान प्रकाश ैं ऐसे भगिान शिंकराचायि को मेरा नमस्कार। उसी तर सारे
सिंत म िं तो को दासगणू की ििंदना। िे सब मेरे इस ग्रिंथ रचना मे स ायता करे । ग नीनाथ र्निग्ृ त्तनाथ -ज्ञाननाथ
-दे ू र्निासी तक
ु ाराम - जो इस भिसागर तरने के लिये नौकारूप ै ऐसे सिंत रामदास को मेरा प्रणाम। े लशरडीके
र्निासी साईसमथि तथा पण् ु यिान िामनशास्त्री को मेरा प्रणाम। ये सब ये सब दासगणू को स ायक ो। आप िोगों
की कृपा से तथा स ायता से य कायि मैं कर सकूँू गा। दासगणू अज्ञानी बािक ै , उसकी इस उद्दिंडता के बारे मे
आप िोग कठोर न बने । आप िोगों का मेरा सम्बन्ध माता और पत्र
ु के समान ै । आदशि माता ी बािक को
बोिना लसखाती ै । िेखनी िेखन का र्नलमत्तमात्र ोती ै। उसका स्ियिं का कोई बि न ीिं ोता। े सिंतगण य
दासगणू िेखनी के सामान ै । आप िोग उसके द्िारा रसमय चररत्रका िेखन करे । अब श्रोतागण आप िोग सािधान
ोकर अपने कल्याण की कामना से सिंत चररत्रका श्रिण कीग्जये। इस भम
ू ीपर सिंत मर्ू तिमान चिते -बोिते ुए
ईश्िर ी ैं। िे िैरानय के सागर तथा मोक्षपद दाता ोते ैं। सत्य –नीती के मर्ु तिमान प्रर्तक तथा कल्याण -
मङ्गि के ा् ोते ैं। ऐसे सिंतचररत्र का आप िोग एकाग्र मनसे श्रिण करें । सिंत ककसीको धोखा न ीिं दे ते। सिंत
भगिन मागि के पथ प्रदशिक तथा ज्ञान के भिंडार ोते ै। ग्जन् ोंने सिंतों का आश्रय लिया। उनके ऋणी साक्षात
भगिान श्रीकृष्ण ोते ैं। इसलिये मनोविक्षेपाहद रह त सिंत चररत्रका श्रिण कीग्जए।

॥ श्री गजानन विजय ग्रन्थ ॥


4
इस भारतिषिमें अनेक सिंत ो गये और द्िीपान्तरों कप ऐसा सौभानय न ीिं प्राप्त ु आ। य जम्बद्
ु िीप प िे से ी
पण्
ु यिान -धन्य ै। य ाूँ पर ककसी प्रकारकी सख ु ोंकी न्यन
ू ता कभी न ीिं थी। य ी कारन ै कक इस भम ू ीपर
अनिंतकािसे सिंतचरणोंका स्पशि ोता र ा ै । नारद, ध्रि
ु , कयाधप
ू त्र
ु प्रल् ाद -परमभतत उद्धि सद
ु ामा, अजन
ुि , म ाबिी
अिंजनीपत्र
ु नम
ु ान, अजातशत्रु धमिराज। शरणागतोंके कल्पिक्ष
ृ अध्यात्मविद्याके म ामेरु जगद्गरु
ु शिंकराचायि इसी
दे शमेंु ये। द्िैतमत प्रस्थापक मध्िाचायि, विलशष््द्िैत मतप्रस्थापक रामानज ु ाचायि शद्ध
ु ाद्िैत मतप्रस्थापक
िल्िभाचायि आहद सिंप्रदाय प्रितिक इसी दे शमें ु ए ग्जनके ऋणी प्रत्यक्ष भगिान विष्णु ै । तयोंकक इन् ोने ी धमिप्रितिन
कर सनातन धमिकी रक्षा की। गज ु रातके प्रलसद्ध सिंत नरसी मे ता। मानसके रचयीता परमभतत सिंत ति ु सीदास।
कबीर -कमाि - सरु दास - मधरु ाभग्तत के प्रितिक म ाप्रभु -गौरािंग अथाित चैतन्यम ाप्रभु ग्जनकी िीिाओिंका िणिन
न ीिं ककया जा सकता, इसी दे शमें ु ये। राजकुिोत्पन्न प्रेम परायणा मीरा। ग्जसकी भततीकी चा न ीिं जानी जा
सकती। तयोंकक उसके लिये साक्षात भगिान विष्णुने विष पान ककया। योग -योगेश्िर गोरक्षनाथ -मग््छिं द्रनाथ
जाििंदरनाथ - आहदनाथोंकी िीिाका समग्र िणिन निनाथ भग्ततसार नामके ग्रिं थमें ै। ग्जन् ोंने केिि ररभग्ततका
आश्रय िेकर भगिान प्राप्ती की , ऐसे सिंत नामदे ि -नर री सोनार - जनाबाई -कान् ोपात्रा -सिंतसखब
ु ाई -चोखामेळा-
साितामाळी - कूमिदास -दामाजीपिंत, म ान पण्
ु यराशी सिंत थे ग्जनके लिये िेदिणणित भगिान पिंढरीनाथने विठू म ारका
रूप धारण करके उन् ें छुड़ाया। भततराज -मक
ु िंु दराज -जनादि न - इन सब सिंतोंका चररत्र म ीपतीने अपने ग्रिंथमे ककया
ै।

॥ श्री गजानन विजय ग्रन्थ ॥


5
मैं उन सबके नाम य ाूँ न ीिं दे ता, तयोंकक भग्ततविजय ग्रिंथमे सिंतोंका चररत्र म ीपती ने गाया ै। उसे आप िोग
पढ़ें । उसी प्रकार नाथादासजी ने अपने 'भततमािा ' ग्रिंथमे सिंत चररत्रोंका िणिन विस्तार से ककया ैं। इनके बारे मे
जो म ान सिंत ु ये उनके चररत्रोंका िणिन मैंने अपने तीन ग्रिंथोमें ककया ै आप िोग अििोकन करे । इन् ी सिंतोंकी
पिंग्ततमें सिंत श्री गजानन म ाराज ो गये। ग्जनका िोकोत्तरु प्रभाि था और िे अितारी परु
ु ष थे। मैंने ग्जन सिंत
चररत्रोंका गायन ककया उसका र्नदे श मात्र आप िोगोंके लिये ककया ै। मेरे सौभानयसे श्री सिंत गजानन म ाराजके
कथन योग आया ै। सो
े श्रोतागण ! उसे मैं विस्तारपि
ू क
ि क ूूँ गा, आप िोग अ्छी तर से सन
ु े। इस चररत्र
िेखनके समय मेरी ऐसी ग्स्थती ो गई ै कक ग्जन् े मैंने आको् के पास दे खा, उनका ी चररत्र पीछे र गया।
तयोंकक जैसे मािा गिंथ
ू ते समय अन्य मणी गिंथ
ू ने पर मेरुमणी मािाके शीषिस्थान में गूँथ
ू ा जाता ै। बराड़मे शेगाूँि
नामक एक प्रलसद्ध गाूँि ै । जो बि
ु डाना मिंडि में ै य ाूँ बड़ा व्यापार चिता ै और श्री गजानन म ाराजकी िज से
य परु े भारतिषि में प्रलसद्ध ो गया। इस शेगाूँिरूपी सरोिरमें श्री गजाननरूपी सग
ु िंगधत कमिसे सारे ब्रह्माण्डका
िक्ष्य इस तरि आकवषित ो गया। इस शेगाूँिरूपी खानका गजाननरूपी ीरा ग्जसका अप्रर्तम प्रकाश -प्रभाि ै ि
मई अपनी अल्प मर्तके अनस
ु ार िणिन करूूँगा। उसका आप िोग श्रिण करें और उनके चरणोंमें प्रेम ककग्जए
र्नश्चतया आप िोगोंका उद्धार ोगा। गजानन चररत्ररूपी म ामेघकी िषािसे आप सब मयरू गण षिसे नाचें गे , इसमें
कोई शिंका न ीिं। शेगाूँि के पौरगण (र्निासी ) अत्यिंत भानयिान ै ग्जन् े श्री गजानन रूपी श्री सिंत रत्नका िाभ
ु आ।

॥ श्री गजानन विजय ग्रन्थ ॥


6
राम से अगधक राम का दास ऐसा सिंत ति
ु सीदासने क ा ै . जब अत्यिंत पण्
ु य उहद्दत ोता ै तब सिंत चरणोंकी
प्राग्प्त ोती ै। रामचिंद्र पा्ीिने मझ
ु से पिंढरपरु में कार्तिकी यात्रा के समय सिंत चररत्र लिखने की प्राथिना की। मेरा
मनोदय प िेसे ी श्रीगजानन चररत्र गाना का था। ककन्तु उसकी सिंगती न ीिं जम र ी थी। उससे मेरी मनोकामनाकी
पत
ू ी करनेके लिये श्री समथि गजानन म ाराजने रामचिंद्र पा्ीिको प्रेररत ककया। श्री गजानन म ाराज सिंत चड़
ू ामणी
थे। सिंतोंका मनोदय कोई न ीिं जान सकता। इस म ापरु
ु षका इर्त ासकी दग्ॄ ष््से नाूँि -गाूँि -जार्त का कुछ पता
न ीिं ै। ग्जस प्रकार ब्रह्माजीका -स्थान -इत्याहद कोई बता न ीिं सकता - ब्रह्माजीको दे खकर ी उनके अग्स्तत्िका
ज्ञान ककया जा सकता ै। ग्जस प्रकार तेजस्िी ीरे को दे खकर ी उसके तेजस्िीता का ज्ञान ोता ै और द्रष््ा उस
तेजसे प्रभावित ोकर तल्िीन ो जाता ै। और ि ककस खानसे पैदा ु आ ै य जानने की जरुरत न ीिं र जाती,
उसी प्रकार सिंतोंका प्रभाि ी उनका पररचय ैं अन्य उपागधयाूँ गौण ोती ैं। माघ िदय सप्तमी शके १८०० के समय
श्रीगजानन म ाराज ग्राम मे अपनी तरुणािस्था में आये। कोई क ते ै िे श्री समथि रामदासजी के सज्जनगडसे
य ाूँ आये। यदयवप कोई सबि प्रमाण न ीिं किरभी िोकोततीका कुछ तो अथि ोता ै। सब िोग भ्रष्् ो गये।
अनेक यातनाओिंसे पीडड़त और त्रस्त थे। ऐसे समय में श्री समथिजीने ऐसा कौतक
ु ककया। िे जगतका उद्धार करने के
लिये श्रीगजाननरूपमे पन
ु ः अितीणि ु ए। योगी परु
ु ष ककसीभी - शरीर में प्रिेश कर सकता ै। तयोंकक ऐसा उद ारण
जगद्गुरु शिंकराचायिजीने ककया था। म ायोगी -गोरखनाथ -कूड़ाकरक् से प्रक् ु ये थे।

॥ श्री गजानन विजय ग्रन्थ ॥


7
कार्नफ़नाथ ाथी के कानसे और चािंगदे ि- नारायण- भूँिर से- अयोर्नज प्रग् ु ए थे । इसी प्रकार की िीिा
श्रीगजानन म ाराज के विषयमे ुई ोगी, तयोंकक उन् ें योग के सब अिंगोंका ज्ञान था। (यमर्नयमासिंन, प्राणायाम ,
प्रत्या ार , धारणाध्यान , समागधध्योsष््ािङगार्न ) योग की मह मा अगाध ै। उसकी ति
ु ना अन्य ककसी मागिसे
न ीिं की जा सकती। य सब आपको म ाराज के चररत्रसे ज्ञात ोगा। पदनतोंका उद्धार करने के लिये ज्ञानराशी
श्री गजानन माघ िदय सप्तमीको प्रक् ु ए। ि प्रसिंग मै आप िोगोंको बताता ूूँ । शेगाूँि में दे िीदास नामके
पातूरकर कुिोत्पन्न माध्यिंहदन शाखा के एक सज्जन मठागधपती थे। उनके िड़केकी ऋतुशािंर्तके र्नलमत्त उनके घर
भोजन का प्रयोजन था। िोगोने भोजनके बादमे जुठी पत्तिों को बा र िेंक दी थी। उसी जग पर समथि लसद्धयोगी
गजानन म ाराज एक ि्ी परु ानी कपडेकी बर्नयान प ने बैठे थे। अन्य काई सामग्री उनके पास न थी केिि -
पानी पीनेके लिये एक तिंब
ु ा था। और उनके साथ में र्नज -र्नलमित क्ची गचिम। जो ककसी कुम् ारके भ््ीमे पतकी
न ीिं थी। उनकी अिंगकािंर्त पि
ू ि हदशामें उहदत बािसय
ू ि
ि त थी -नासाग्र दग्ॄ ष््- यत
ु शािंत मद्र
ु ा और तपःपञ्
ु ज काग्न्तसे
िे यत
ु त थे ग्जसका मेरेसे िणिन न ीिं ककया जा सकता। म ाराज हदगिंबर अिस्थामें थे। ग्जसे आप -पर का भेद न ीिं
ोता - सिित्र सब प्राणीमात्र में समदृग्ष्् रखनेिािा ी हदगिंबर अिस्थामें र ता ै। म ाराज पत्तिोंके पास बैठकर
उनमें से बचे ु ए अन्नकणों का ग्र ण कर र े थे। य उनकी िीिा मात्र थी। भात का कण हदखते ी मुखमें डाि
दे ते थे। िस्तुतः म ाराज का य कायि अन्न परब्रह्म ै । य बतानेके े तु ी था।

तयोंकक उपर्नषद श्रर्ु त गजि कर बता र ी ै "अन्नम्ब्रह्मेर्त" य लसद्धान्त लसद्ध करनेके लिए ी दयाघन य िीिा
कर र े थे। सामान्य जनोंको इस बातका कोई ज्ञान न ीिं पत्ता चिा। बिंक्िाि अग्रिाि अपने एक लमत्र
दामोदरपिंतके साथ उस रास्तेसे जा र े थे। उन् ोंने य िीिा दे खी। दोनों म ाराजकी इस कियाको दे खकर आश्चयि

॥ श्री गजानन विजय ग्रन्थ ॥


8
चकीत ो गये। और आपसमें बातचीत करने िगे। इन मर्ू तिका य कायि पागिोंकी तर हदखता ै , तयोंकक अगर
िे क्षुधािान्त ोते तो दे िीदासके पास अन्नकी याचना करते और ि भी सज्जन ै।
आये ु ए अर्तगथको विन्मख

न ीिं कर सकता। इस कृर्तके बारे में कोई तकि न ीिं चिती। बिंक्िािने अपने लमत्रसे क ाूँ म िोग य ी खड़े ोकर
कायिका र्नरीक्षण करें गे। श्रीमत भागितमे व्यासजीका िचन ै कक स्चे साधु जगत में उन्मत्तित र ते ै । कृतीसे
य मर्ू ति पागिोंकी तर हदखती ै ककिंतु य प्रत्यक्ष ज्ञानयोगी ैं। जैसे ह रे को प चाननेके लिये रत्न -परखनेिािी
व्यग्तत ी चाह ये। रास्तेसे जारो िोग गये ककन्तु ककसीका ध्यान म ाराजकी ओर आकवषित न ीिं ु आ - ये दोनोका ी
िक्ष म ाराजकी ओर जानेका कारण सज्जन िोग ी जान सकते ैं ह रे तथा गार- पत्थर लमिाकर रख हदये जाय तो
रत्न परखनेिािा ह रोंको चन
ु कर गार -पत्थर छोड़ दे गा। इस प्रसिंगमे म ाराजको विनयपि
ू क
ि पछ
ू नेके लिये बिंक्िाि
अग्रिाि सामने आये। उन् ोंने प्राथिना की म ाराज - अन्नके लिये आप पत्तिोंको तयों ढूूँढ र े ैं ? अगर अन्नकी
इ्छा ो तो म उसका प्रबिंध कर दे ते ै। ऐसा बिंक्िािके पछ
ू नेपर म ाराजने उनके प्रश्नका कोई उत्तर न ीिं
हदया। केिि उपरकी ओर दे खकर उन दोनोंकी ओर दे खा। म ाराज विशाि -िक्ष
ृ स्थियत
ु त तथा तेजपज
िंु कािंर्तयत
ु त
सदृ
ु ढ़ स्नायि
ु ािे भज
ु दिं ड -र्नजानिंदमे िििीन योगी थे।

उनको मौन धारण करके बिंक्िािने गचत्तमेँ सिंतोष धारण कर प्रणाम ककया। और दे िीदाससे क ा - म ाराज एक
पत्ति आप लशघ्र ब ार परोलसये। दे िीदासने उनके कथनानस
ु ार एक पत्ति भरके म ाराजके सामने रख्खा। उस
परोसे ु ए पत्तिपर बैठकर म ाराज उसे पाने िगे। ग्जसको ककसी स्िादकी आकािंक्षा न ीिं उसे लमष््ान्नसे तया रूची
? जो ब्रह्मरस पी करके तप्ृ त ै तया िे राबको सेिन करे गा ? जो साििभौम राज्यका अगधपर्त ै तया ि जागीरकी
कामना करे गा? म ाराजने सब पतिान्न एकमे लमिाकर जठराग्नन शािंत की। य घ्ना सामान्यतः दस
ू रे प्र रके

॥ श्री गजानन विजय ग्रन्थ ॥


9
समय की ै । बिंक्िािने अपने लमत्रसे क ाूँ की म िोग इन् े उन्मत्त समझ र े ै ि मारी भि
ू ै । सभ
ु द्राको
पाने के लिये अजन
ुि िेषािंतर करके उन्मत्तित ितिन कर र ा था। ये ज्ञानसागर मोक्षरुपी सभ
ु द्राको प्राप्त करने के
लिये इस प्रकारका आचरण कर र े ै। मारा य शेगाूँि धन्य ै ग्जसे भगिान विष्णुने ऐसा र्नरर्छ योगीराज
हदया। सय
ू ि मध्यान् मे आगसे सब भभ
ू ाग तप्त ो गया और पक्षीगण आश्रयके लिये अपने अपने नीड़ में जा र्छपे।
ऐसे तप्त धाममे ये योगीराज आनिंदपि
ू क
ि ग्स्थत ै सो ये साक्षात ब्रह्म ै। इन् े ककसी प्रकारका भय न ीिं ै।
इन् ोने यथे्छ भोजन तो ककया ककिंतु तिंब
ु ोमे पानी न ीिं ै , सो म िोग इन् े जि िाकर दें गे। उस विषयमें उन् ोंने
म ाराजसे पछ
ू ा , "भगिन तया म िोग जि आपके लिये िे आये ?" तब म ाराज ूँ सकर क ने िगे," अगर आप
िोगोंको आिश्यकता ै तो िे आईये "। िस्तुतः आप िोगोंमें और ममें कोई भेद न ीिं ै। ककन्तु जगद्व्यि ार
की दृग्ष््से आप िोगोंकी किया सत्य ै।

दे ने अन्न ग्र ण ककया सो उसे जिकी आिश्यकता ै ी। अगर आप िोग चा ते ै तो जिकी व्यिस्था कीग्जये
ग्जससे कायिकी पत
ू त
ि ा ो जाय। य सन
ु कर बिंक्िािने पिंतसे क ा , पिंत अपना य सौभानय ै । ऐसा क कर
दामोदरपिंत जि िेने अिंदर गये। इतने में म ाराज समीपस्थ कुएूँ के साथ पशओ
ु िं के पीने के लिये किंु ड बना था उसी
मे जि पीने िगे। तब तक पिंत िो्ा भर जि िेकर सामने आये और म ाराज से क ने िगे ," म ाराज ि
पशओ
ु िंके लिये जि ै। उसे आप न वपये। मैं य िो्ा िेके आया ूूँ । य ी पीने योनय ै । इसमे उशीर औषगध
डािकर य लशति ककया गया ै। य सन
ु कर म ाराजने क ा, य व्याि ाररक बाते मसे न कह ये। य चराचर
जगत िस्तुजात ब्रह्मव्याप्त ै उसमे जिमें पिंङ्क यत
ु त - र्नमिि -सि
ु ालसत ऐसी कोई उपागध न ीिं ै । जि ब्रह्म ी
ै पिंङ्क यत
ु त - र्नमिि -सि
ु ालसत- दग
ु ध
ं यत
ु त भेद उपागधजन्य ै परमाथितः न ीिं। पीनेिािा उसके पथ
ृ क न ीिं ै।

॥ श्री गजानन विजय ग्रन्थ ॥


10
य ईशिीिा मानिके लिए अगाध ै । उसे न ीिं जान। उपागधसे य सब प्रतीत ोता ै ? य जगत ककससे ु आ।
ऐसे सन
ु नेपर दोनों भािगद्गद ोकर श्री चरणोमे िे्ने िगे। उनका े तु जानकर म ाराज ि ाूँसे पिायन कर गये।
उनकी िायग
ु र्तको भिा कौन रोक सकता ै ? अगिी कथा आप िोगों की दस
ू रे अध्याय मे र्निेदन करूूँगा। एकग्रता
से आप िोग सन
ु ें। य श्री गजानन विजयग्रिंथ – भाविकों को आनिंहदत करनेिािा ो ऐसी प्राथिना भगिानसे दासगणू
करता ै।

।। शभ
ु िंभितु ।। श्री रर रापिणमस्तु ।।
।। इर्त श्री गजानन विजयग्रन्थस्य प्रथमोध्याय समाप्तः।।

॥ श्री गजानन विजय ग्रन्थ ॥


11
॥ अध्याय २ ॥

श्री गणेशाय नमः । े चन्द्रभागा त्पर वि ार करनेिािे दीनबिंधू -अज - अग्जत -सिेश्िर पण
ू ब्र
ि ह्म- रूिग्तमणीके पर्त
आपकी जय ो। आपकी कृपाके बबना सब पररश्रम व्यथि ै । जैसे शरीरमें प्राण न र नेपर शरीर प्रेतमात्र ै । सरोिर
जिसे सश
ु ोलभत ोता ै। े पद्मनाभी ! बाह्य किचसे िि के अन्तरगत रसकी शोभा ोती ै । उसी प्रकार आपकी
कृपा शरणागतको सामर्थयि दे ती ै - पाप तथा बत्रविध -ताप और (आध्यग्त्मक -आगधभौर्तक -आगधदै विक ) दीनता
का र्निारण करे य ी मेरी प्राथिना ै । वपछिे अध्यायकी कथामे बताया की म ाराज ि ाूँसे चिे गयें। ग्जसकी व्यथा
बिंक्िािको दःु खी करने िगी। उन् ें भोजन और जि भी अ्छा न ीिं िगता था। उन् ें गजानन म ाराजके रुपका
सतत ध्यास -मनमें - आ र ा था। िे ग्जधर दे खते उधर म ाराजकी अनप
ु म मर्ू तिका भास ोता था। े श्रोतागण
इसे ी ध्यास क ते ै जो योगशास्त्रानस
ु ार धारणा क िाता ै। जैसे गायका बछड़ा अपनी अप्राप्त माताका ध्यास
करते र ता ै , ि ी अिस्था बिंक्िािजीकी ो गई। य अिंतव्यिथा बतानेके लिये उनके पास कोई स्थान न ीिं था।
ग्जसके पास ि व्यतत करते और अपने वपतासे क नेका धैयि उनमे न ीिं था। ऐसी अिस्थामे उन् ोँने समग्र शेगाूँिमें
म ाराजको ढूिंढ़ा ककन्तु क ीिं पता न ीिं चिा। घरमें आनेपर उनके वपता भिानीरामने उनसे पछ
ू ा, बे्ा,आज तुम् ारा
मख
ु मण्डि म्िान ो गया ै, तुम व्यग्रसे हदखाई पड़ र े ो, तया कारण ै ?तुम यि
ु ा ो, घरमें ककसी िस्तक
ु ी कमी
न ीिं ै किर तुम् े ककस बातकी गचन्ता ै, ग्जससे तुम् ारी य अिस्था ो गई ?

॥ श्री गजानन विजय ग्रन्थ ॥


12
तया तुम ककसी रोगसे पीडड़त ो तो लशघ्र बताओ तयोंकक वपतासे कुछ र्छपाना न ीिं चाह ये। ऐसा वपताके पछ
ू नेपर
बिंक्िािने इधर -उधरकी बात बताकर वपताका समाधान ककया और किरसे म ाराजको शेगाूँिमें ढूिंढना शरू
ु ककया।
बिंक्िािके पड़ोसमें एक जागीरदार रामाजीपिंत दे शमख
ु थे। िे बड़े सज्जन थे। उन् ें ककसी प्रकारका अलभमान न ीिं
था। बिंक्िािने उनसे सब कथा क ीिं। तब उन् ोंने उत्तर हदया, बिंक्िाि, तम्
ु ारे कथनसे पता िगता ै कक, िे
म ापरु
ु ष कोई योगी ै । ऐसे कमि और िक्षण, पि
ू स
ि क
ु ृ त प्राप्त योगी में ी ोते ै; अन्यथा इन िक्षणोंका अिंशात्मक
दशिनभी ोना दि
ु भ
ि ै । तुम् े ऐसे परु
ु षका दशिन
ु आ य तुम् ारा म ाभानय ै । तुम धन्य ो। तुम् े दशिन ोनेपर
साथ मझ
ु भ
े ी दशिनाथि िे चिना। ऐसी अिस्थामे बिंक्िाि के चार हदन और बीत गये ककन्तु म ाराजका ित ृ ान्त
र्तिभरभी मनसे न ीिं ्ा। श्री गोवििंदबि
ु ा ्ाकिीकर नामके उस समय एक बड़े कीतिनकार थे। ग्जनके कीतिनमे
साक्षात श्री भगिान विष्णु प्रसन्न गचत्त ोते थे। बरारमे उनकी बड़ी ख्यार्त थी। उनका कीतिन लशिमिंहदरमे र्नग्श्चत
ककया गया। िे दे शा्न करने शेगाूँि प ुूँ चे थे। गाूँिके सभी िोग स्त्री परु
ु ष कीतिन सनु नेकी इ्छासे मिंहदरमे इकठ्ठा
ु ए। बिंक्िाि उनका कीतिन सन
ु ने मिंहदरमे आ र े थे तब उन् ें रास्तेमें पीतािंबर नामका एक दजी लमिा। य पीतािंबर
बड़ा भाविक था। उसको बिंक्िािने म ाराजका समाचार सन
ु ाया। दोनों जब मिंहदरके वपछिे िरसीपर म ाराज बैठे
हदखाई पड़े।

कफ़र ककतिन का े का- ि दौडकर उनके समीप गया । जैसे कोई कृपण व्यग्तत धनके िं डक
े ो दे खकर दौड़ता ै । जैसे
चातक पक्षी स्िाती नक्षत्रके बादिोंको दे खकर वषित ोता ै। मेघके दशिनसे मोर-या चन्द्रमा के दशिनसे चकोर पक्षी
वषित ोता ै , ऐसेह बिंक्िाि म ाराजको दे खकर वषित ु आ। दोनों - म ाराजसे कुछ अिंतरपर खड़े ोकर विनयपि
ू क
ि
पिंछ
ू ने िगे। "म ाराज, तया म आपके लिये भोजन सामग्री िे आिे ?" तब म ाराजने उत्तर हदया " िगता ै तो

॥ श्री गजानन विजय ग्रन्थ ॥


13
बेसन रो्ी मािीन के घरसे िे आिो "। झ्से बिंक्िािने बेसन और आधी रो्ी िाकर योगेश्िरजीके ाथपर रख्खी।
बेसन रो्ी क ते समय म ाराज पीतािंबरसे बोिे,"य तिंब
ु ा-नालिसे भरकर िे आिो। सन
ु कर पीतािंबर ने उत्तर हदया,
म ाराज तिंब
ु ा डुबे इतना पानी नािेमे न ीिं ै। साथ जाने -आनेिािे िोग तथा पशओ
ु िंने य पानी खराब कर हदया
ै । "ि पेय न ीिं ै। मैं अन्य जग से पानी िे आता ूूँ । उसपर म ाराजने क ा," में दसू री जग का पानी न ीिं
चाह ये। य तिंुबा डुबाकर नािेका पानी िे आओ। अिंजुिीसे न ीिं भरना। " तत्काि पीतािंबर नािेपर गया ककन्तु तिंब
ु ा
भरे ऐसा जि उसे क ीिं न हदखा। पीतािंबरकी ग्स्थर्त बड़ी विगचत्र ो गई। नािेमे पैरके तिए
ु भी न ीिं डूबते थे।
म ाराजकी आज्ञानस
ु ार उसने धैयि धारणकर तिंब
ु ा सीधा पानीमें डुबोया। तुरिंत ि जिसे भर गया। ि ज ाूँ ज ाूँ तिंब
ु ा
डुबाता ि ी ि जिसे भर जाता। नािोका गिंदा पानी तिंब
ु े मे स्िह्कमणीके समान स्ि्छ र्नमिि ो जाया करता।
य दे खकर पीतािंबर आश्चयिचककत ो गया। उसने मनमें अनम
ु ान ककया की य योगेश्िरकी शग्ततसे ी ऐसा ोता
ै । इसमे कोई सिंदे की जग न ीिं। उसने तिंब
ु ा िाकर म ाराजको हदया और उन् ोंने भोजनके बाद उसका पान ककया।

इसके बाद म ाराजने बिंक्िािसे सप


ु ारी माूँगी और क ा की तया मािीन के बेसन रो्ीसे ी मेरी सेिा करता ै ?
णखसेमस
ेँ े सप
ु ारी र्नकािकर का् कर दो। य सन
ु कर बिंक्िािको बड़ी प्रसन्नता
ु ई। उन् ोंने सप ु ारीके साथ दद ु िं डी
तािंबक
े े दो पैसे म ाराजके ाथ पर रखे। उस समय बरारमे मस
ु िमानी लसतके - खड़कु - दद ु िं डी- व्याघ्रािंबरी आहद
व्यि ारमें प्रचलित थे। म ाराजको बिंक्िािने व्याघ्रािंबरी दद
ु िं डी लसतके हदये। उन् ें दे खकर म ाराज ूँ से और बोिे,
तया में व्यापारी समझते ो, जो ये लसतके अपिण कर र े ो? ये लसतके तुम् ारे व्यि ारके ै, में इनका कोई
प्रयोजन न ीिं। म तो भािभग्ततके लसतके चा ते
ैं। तुम् ारे पास भाि ै इलसिीये पन ु ःदशिन ु ए। अब जाकर तुम
िोग कीतिन सन
ु ो। मैं य ी नीमके पेड़के नीचे बैठकर कीतिन सन ु ता ूूँ । म ाराज के आदे शसे दोनों कीतिनमे आये।

॥ श्री गजानन विजय ग्रन्थ ॥


14
कीतिनमे गोवििंदबि
ु ा ने भागित के नयार िे स्किंध की िं सगीताका एक श्िोक र्नरूपणके लिये लिया था। आरिं भमे
जैसे ी बि
ु ाने श्िोक का पि
ू ािधि उ्चारण ककया उसके बाद म ाराजने झ्से उत्तराधि उ्चारण ककया। ि सन
ु कर
गोवििंदबि
ु ा मनमें साशङ्ककत ो गये। उन् ोंने िोगोसे क ाूँ उत्तराधि का उ्चारण करनेिािा ि व्यग्तत र्नग्श्चत ी
अगधकारी परु
ु ष ै। आपिोग उन् ें मिंहदरमें िे आईऐ। ये सन
ु ते ी बिंक्िाि -पीतािंबर इत्याहद िोग समथिको िाने के
लिये गये, ककन्तु प्राथिना करनेपरभी िे अपनी जग से ह िे न ीिं। स्ियिं गोवििंदबि
ु ा ्ाकिीकर ाथ जोड़कर म ाराजसे
प्राथिना करने िगे, म ाराज एक बार कीतिनके लिये आप मिंहदरमे पधाररये। आप साक्षात लशि ै। आपके बबना
मिंहदर शन्
ू य ै । आपका बा र बैठना ठीक न ीिं।

मेरा पि
ू ज
ि न्मका सक
ु ृ त उहदत ु आ, य ी कारण ै कक आपके चरणकमिोंका मझ ु े दशिन ु आ। आज मझ ु े कीतिनका
िि प्राप्त ो गया। गुरुदे ि, आप लशघ्र मग्न्दरमे मेरे साथ चिें। तब म ाराजने क ा," अरे गोवििंद, अपने प्रर्तपादन
और आचरणमे एक िातयता रखो। अभी तो तम
ु ने प्रर्तपादन ककया की सिित्र ईश्िर व्याप्त ै , किर अिंदर -बा र क ाूँ
र ा। किर य ठ ककसलिये ?ग्जसने जैसा प्रर्तपादन ककया उसे िैसा ी आचरण करना चाह ये। साधकको चाह ये कक
ि शब्दछि कदावप न करें । भागितके श्िोकका प्रर्तपादन करते ो और उसके विरुद्ध आचरण करते ो, य
कीतिनकारी पद्धती ठीक न ीिं। उदरभरण कीतिनकार तुम् े भम
ू ीपर न ीिं ोना था| जाओ, कीतिन समाप्त करो। मैं य ी
बैठकर सनु ता ूूँ । तब बि
ु ा मिंहदरमे आकर उ्चस्िरसे बोिे, श्रोताओिं, शेगाूँिमें य अनमोि रत्न प्राप्त ु आ ै । आप
िोग इन् े सम् ािो। य शेगाूँि ना र ा अवपतु साक्षात भगिान विठ्ठि के र्निाससे पिंढरपरू ो गया। इनकी दे खभाि
करो, सेिा करो, और इनकी आज्ञाको िेदिातय समझकर लशरोधायिकर पािन करो। इसीसे तुम् ारा र्नग्श्चत कल्याण
ोगा। य र्नगध अनायास तुम िोगोंको लमिी ैं इसे सम् ािो। कीतिन बड़ा अ्छा ु आ। बिंक्िािको बड़ा षि ु आ।

॥ श्री गजानन विजय ग्रन्थ ॥


15
घरपर आकर अपने वपताजीसे सारा ित
ृ ािंत क ा और क ा वपताजी म ाराजको अपने घर िे आओ। पत्र
ु का ित
ृ ान्त
सन
ु कर भिानीरामने क ा," बे्ा, तु ी जाकर म ाराजको िे आओ। "वपताजीकी अनज्ञ
ु ा लमिनेपर उन् ें बड़ी उत्किंठा
ु ई की कब और क ाूँ गरु
ु मर्ू ति लमिेगी, ग्जन् े मै घर िा सकूँू । चौथे हदन सद्गरुु नाथ माणणकचौकमे बिंक्िाि को
लमिे। उस समय सय ू ािस्त ो र ा था। इधर सय ू ािस्त ु आ और उधर ज्ञानसय ू क
ि ा उदय ु आ माणणक चौक रूपी
पग्श्चममे बिंक्िािके भानयसे। गोपाि िोग गौंअे िेकर गाूँिमें आने िगे। गौंअे श्री समथिके पास जमा ोने िगी।
मानो उनको ऐसा िगा कक निंदकुमार श्रीकृष्ण ि ाूँ आ गये ैं। उसी प्रकार िक्ष
ृ ोंपर पक्षीगण मधरु ककिबबि करने
िगे। दकु ानदार िोग हदया-बत्तीकी तैयारी कर र े थे। ऐसे समय बिंक्िािजी म ाराजको िेकर घर प ुूँ च।े मर्ू ति
दे खकर उनके वपताको अत्यानिंद ु आ। उन् ोंने म ाराजको साष््ािंग प्रणणपात ककया और पीढे पर बबठाया और ाथ
जोड़कर प्राथिना की, "म ाराज ! आप साक्षात पािितीपर्त शिंकर ी ै , जो प्रदोष कािमे य ाूँ पधारे । अतः आप मेरे
य ाूँ भोजन कररये। मैंने स्किंदपरु ाणमे कथा सन
ु ी ैं कक, ग्जसे प्रदोष कािमे लशिजीका पज
ू न करनेका अिसर प्राप्त
ोता ै ि भानयशािी ोता ैं। ऐसा क कर तत्काि एक बबल्िपत्र िाकर म ाराजके लसरपर परमभग्ततसे रखा। किर
मनमें विचार करने िगे। कक म ाराजको भोजनके लिये तो क हदया ककन्तु रसोईकी तो अभी कोई लसद्धता न ीिं
और रसोई बनने तक म ाराज रुकेंगे की न ीिं य शिंका भी ै। प्रदोषकािमें यहद भगिान लशि भोजन ककये बबना
िौ् जाते ै तो बड़ा अनथि ोगा। म ाराजको आया जानकर बड़ाभारी जनसमद
ु ाय -जमा ोने िगा। म ाराजको दे खने
एििं दशिन के लिये। बड़े धमि सिंक् की बात ै। अन्तमे र्नणिय लिया कक दोप रमे परु ी बनाई ु ई ैं ि बासी न ीिं
समझी जाती, दस
ू री परु ी पतकी रसोई ैं उसमे दोष न ीिं ऐसा विचार करके थािीमे परू रयाूँ रखकर म ाराजके सामने
रख्खी। मेरा भाि शद्ध
ु ै और र्नष्कप् भािसे भगिान शिंकर प्रसन्न ोते ैं। परु रयोंके साथ बादाम -खारीक, केिा
-मोसिंबी -तथा मि
ू क साथमे परोसे। म ाराजके ििा्पर -बत
ु का िगाया।

॥ श्री गजानन विजय ग्रन्थ ॥


16
गिेमें पष्ु पमािा अपिण की। म ाराज प्रसन्न ोकर सब पाने िगे। बड़े आनिंदसे सब पदाथोंका सेिन ककया जो जो
पदाथि थािमें परोसा जाता, लशघ्रतासे म ाराज उसका ग्र ण करते। इस प्रकार साधारण तीसरे प्र र अन्नका ग्र ण
म ाराजने ककया और रातको ि ी आराम ककया। दस
ू रे हदन बिंक्िािने म ाराजको प्रातः मङ्गिस्नान कराया। सौ
घड़े कदोष्ण जिके लसद्ध करके म ाराजको स्नान कराने िगे। ग्जसमे ग्स्त्रयाूँ भी थी। कोई म ाराजको लशकाकाई
िगाने िगे कोई साबन
ु शरीरपर िगाने िगे, कोई बड़े प्रेमसे म ाराजके चरणकमिको पकड़कर धोने िगे। कोई दनक
िगा र ा ै , कोई ीना अत्तर रगड़ र ा ै , कोई चमेिीका तेि िगा र ा ै। इस प्रकार अनेक प्रकारके अङ्गरागोसे
म ाराजको मिंगि स्नान करिाकर पीतािंबर प नाकर बड़े सन्मानसे आसान पर बबठाया। बिंक्िािके य ाूँ ईश्िरकृपासे
सिंपन्नता थी। ककसी प्रकारकी न्यन
ू ता न ीिं थीिं। इसके बाद योगगराजको आसनपर बबठाकर मस्तकमें केशरर्तिक
िगाया। अनेक पष्ु प ार गिेमें डािे। कुछ िोग म ाराजके मस्तकपर तुिसी मिंजरी चढाने िगे। म ाराजको अनेक
प्रकारके नैिेद्य अपिण ककये। इसप्रकार बिंक्िािका भानय उहदत ु आ। उसहदन बिंक्िािका घर मानो साक्षात
द्िारकानगरी ो गया । ककन्तु ि हदन लशिजीका सोमिार था। सब िोगोंने अपने मनोरथ परु े ककये। केिि
बिंक्िािके बिंधू इ्छारामजी शेष र गये। ये बिंक्िािके चचेरे भाई थे। ये भगिान शिंकरके भतत थे। ये बड़े भाविक
थे। प्रातःकािका उत्सि दे खकर इनके मनमें भाि जागत
ृ ु आ की आज सोमिार ै। साक्षात भगिान शिंकर ी य ाूँ
घरपर उपग्स्थत ु ए ैं सो अस्तके समय प्रदोष कािमे म ाराजकी यथासाङ्ग पज
ू ा करके पारणा करना चाह ये।

अस्तका समय ो गया। सय


ू ि भगिान अस्त ो गये। इधर ई्छारामने स्नान ककया। प्रदोषका समय दे खकर पज
ू नकी
सामग्री िेकर बड़े प्रेमसे म ाराजकी पज
ू ा की। और ाथ जोड़कर बबनती की - म ाराज। दोप रमे आपका भोजन ो
गया ै । ककिंतु सायिं आप थोड़ा तो भी ग्र ण करें । तयोंकक मेरा उपिास ै। जबतक आप कुछ ग्र ण न ीिं करें गे, मैं

॥ श्री गजानन विजय ग्रन्थ ॥


17
प्रसाद न ीिं पा सकता। आपने सब भततोंका मनोरथ पणू ि ककया। मैं ी एक भानय ीन बचा ूूँ सो मेरी मनोकामना पण
ू ि
कररये। सब िोग कुतू ि पि ू क
ि दे खने िगे की अब म ाराज तया करते ै। ऐसेमें ी इ्छाराम एक थाि परोसकर िे
आये। ग्जसमे बासमतीका भात दो ,कूर तथा नानाविध पकिान थे। जिेबी -राघिदास -मोतीचरू -गोझीया-अनारसे -
घीिर आहद लमष््ान्न थे ग्जनको मैं िणिन न ीिं कर सकता। अनेक प्रकारके अििे -अचार तथा द ी पास में रख्खा
था। पररपण
ू ि थािको दे खकर म ाराज अपने आपसे बोिे, भोजन -चाह ये भोजन चाह ये, ऐसा रातहदन घोकते ो, िो,
अब खाओ। अरे अघोरी, अब इसका अपमान न करो। तुम् ारा अघोरी कृत दे खनेके लिये ी ये सब िोग य ाूँ जमे
ु ऐ ैं। ऐसा र्नश्चयकर म ाराजने सब थाि खाकर समाप्त कर हदया। य ाूँ तक की नमक और नीिंबभ ू ी न ीिं छोड़ा।
म ाराजकी इस िीिाका दस ू रा उद्देश य था कक भोजनके लिये आिश्यकतासे अगधक आग्र कभी न ीिं करना चाह ये।
उसका पररणाम म ाराज िोगोंको बताना चा ते थे? भोजनोपरािंत म ाराजको ड्डडाकर उल््ी ो गई, ग्जससे सारा
अन्न बा र आ गया। इस प्रकारकी घ्ना एकबार श्री समथि रामदास के जीिनमें घ्ी थी। एक बार समथि रामदास
स्िामी को पायस खानेकी िासना ु ई।

जो साधक
ु े लिये ठीक न ीिं। तो उन् ोंने दिं डडत करनेके मनीषासे खीर का आकिंठ पान ककया। ग्जससे उन् ें िमन ो
गई तब किर िे उसे भी खाने िगे। ताकी पन
ु ः उसकी िासना न ो। इसी प्रकार गजानन म ाराजने िोकग्राह्के
र्नग्र के लिये य िीिा की, ताकक भािी पीढीको लशक्षारूपय ज्ञात ो, कक दरु ाग्र का पररणाम तया ोता ै। अस्तु।
िोगोंने िमनका स्थि साि ककया, म ाराजको स्नान करिाया और साि सथ
ु रे आसन पर बबठाया। जारो िोग
म ाराजके दशिनको आये। म ाराजकी आनिंदीिग्ृ त्त चलित न ीिं ु ई अथाित म ाराज चा ते तो सब अन्न योगसामर्थयि
से पचा जाते ककन्तु िोग लशक्षाके लिये य िीिा करनी पड़ी। उसी समय म ाराज के पास दो भजन मिंडिीयाूँ आयी

॥ श्री गजानन विजय ग्रन्थ ॥


18
और बड़े प्रेमसे ि ाूँ रातभर भजन करते र े । म ाराजभी अिंगुिी च्काकर अपना वप्रय भजन "गणगण गणािंते बोते
"आनिंदसे रातभर गाते र े । म ाराज सदै ि गणगण गणािंत बोते, ऐसा भजन करते थे। इसीलिये सब िोग उन् ें
गजानन नामसे पक
ु ारने िगे। िस्तत
ु ः नामरूपाहद उपागधयाूँ प्रकृर्तके आश्रयाधीन ै। जो स्ियिं ब्रह्म स्िरुप ै उसको
ये नामरूपकी उपागध कैसे िग सकती ै ? उपर्नषद इस बातका उद्घोष करता ै 'िाचारम्भणिं विकारो नाम धेयिं
मग्ृ त्तकेत्येि सत्यम " अथाित घ्की नाम -रूप -आिग्ृ त्त आहद उपागधयाूँ केिि प्राकृर्तक ै। िस्तुतः ि मग्ृ त्तका ी
ै । इसी प्रकार नाम रुपाहद उपागध ब्रह्मकक न ीिं ोती। इस तर म ाराज अपने र्नजानिंदमे िीन र ते थे। उन
योगेश्िरका - अग्स्त -भाती -प्रीय आहद प्रकृर्त विकारोंसे कोई सम्बन्ध न ीिं था। तयोंकक ये सब प्राकृर्तक उपागधयाूँ
ै। जैसे आषाढ़ी एकादशीको पिंढरपरू मे भततोंकी भीड़ ोती ै। लसिं स्थपिि किंु भमें गोदािरी त्स्थ नालसकक्षेत्र में
िैसी ी भीड़ ोती ै जो भीड़ ररद्िारमें ोती ै उसी प्रकार शेगाूँिमें बिंक्िािके घरमे दरू दशी आनेिािे दशिनागथियोंकी
भीड़ ोने िगी।

य ाूँ के श्रीमान स्िामी गजानन ये ी विठ्ठि थे और र्नश्चय रूपके इिं् ऊपर खड़े ोकर बिंक्िािके घरमे
जनसमद
ु ायको दशिन दे ने िगे। ग्जसने ब्रह्मपद प्राप्त कर लिया उसके लिये जार्त क ाूँ शेष र ती ै। जैसे सय
ू क
ि े
प्रकाशके लिये सब स्थि समान ै। शेगाूँिमें रोज नई यात्रा ोने िगी। जारो पज
ू ायें म ाराजकी ोने िगी, ग्जसका
िणिन भगिान शेषभी न ीिं कर सकते। िे भी श्रान्त ो जायेंगे। किर दासगणक
ू ी, जो एक क्षुद्र की्कके समान ै।
तया गगनती ै । गजानन म ाराज ी मेरे मख
ु को र्नलमत्त कारण बनाकर िीिाओिंका बखान कर र े ै। म ाराजकी
गाथा गानेका मझ
ु पामरमे सामर्थयि क ाूँ? जो अगाध
ै । किरभी यथामती हदनचयाि िणिन करनेका प्रयत्न करता ूूँ ।
कभी तो म ाराज मिंगिालभषेक करते, कभी कीचड़में िे् जाते। कभी गिंदा जि प्राशन करते। जैसे िायक ु ी गती

॥ श्री गजानन विजय ग्रन्थ ॥


19
बताई न ीिं जा सकती, उसी प्रकार म ाराजकी हदनचयािका कोई र्नग्श्चत र्नयम न ीिं था। म ाराजको गचिमसे बड़ा
प्रेम था। ि उन् ें बार बार िगती थी। ककन्तु उसपर भी आसग्तत न ीिं थी, केिि िौककक दृग्ष््से िे िीिा बताते
थे। अ्छा, अब अगिा अध्याय श्रिणके लिये एकाग्र ोईये। य गजानन म ाराजका चररत्र िोगोंके लिये आदशिभत

ो; ऐसी भगिान से दासगणू प्राथिना करता ै।

।। रर रापिणमस्तु ।। शभ
ु िंभितु ।।
।। इर्त श्री गजानन विजयग्रिंथस्य ग्व्दर्तयोध्याय समाप्तः।।

॥ श्री गजानन विजय ग्रन्थ ॥


20
॥ अध्याय ३ ॥

श्री गणेशाय नमः। े सग््चदानिंद श्री रर, आपकी जय ो। आपके चरण कमिों मे आगश्रत जनोंपर आप कभी कठोर
न ी ोते। आप करुणाके सागर ो। आप हदनजनोंके पाईक ो। भततजनोंके लिये आप कल्पिक्ष
ृ तथा गचिंतामणी ो।
ऐसी आपकी अगाध मह मा सिंतगण गाते ै सो े मयािदा परुषोत्तम राघि। आप लशघ्र प्राप्त ोईये विििंब न कीग्जये।
इसप्रकार साक्षत्कारी हदन -दब
ु ि
ि ोंके -रक्षक श्री गजानन म ाराज बिंक्िािके घर र ने िगे। दरू दरू से भततगण
म ाराजकी चरण ििंदनाको आते। जैसे -ज ाूँ मधु ोता ै ि ाूँ मक्षक्षका जमती ी ै उनको र्नमिंबत्रत करनेकी आिश्यकता
न ीिं पड़ती। एक हदन की कथा ै कक, म ाराज आनिंदपि
ू क
ि अपने आसनपर बैठे थे। ि प्रभातका समय था। पि
ू हि दशा
आरतत ो गई थी। पक्षीगण िक्ष
ृ ोंपर ककिबबिा ् कर र े थे। िध्
ृ दगण शय्यापर बैठकर नामस्मरण कर र े थे।
शीति -मिंद पिन ब र ी थी। कुतकु् उ्च स्िरसे ध्िर्न कर र े थे। उदयाचिपर भगिान नारायण को उहदत
ोता दे ख अिंधकारने गि
ु ाओिंकी शरण िी। ित्स -क्षीरपानके लिये गायोंकी ओर ुिं कार र े थे। सौभानयिती ग्स्त्रयाूँ -
सम्माजिनमें व्यस्त थी। ऐसे रम्य समयमें शेगाूँिमें एक साधू गजानन म ाराजके दशिनको आया।

य गुसाई सरपर कषाय गचिंधी िपे्े था, उसीप्रकार एक झोिी बायें काूँखमें थी। मग
ृ चमिका िपे्ा पीठपर बूँधा था।
ऐसा य गुसाई एक ककनारे बैठा था। म ाराजके दशिन के लिये अपार भीड़ िगी थी। ऐसी ग्स्थतीमें मझ
ु े म ाराज के
चरण कमिोंका दशिन असम्भि ै। ऐसा विचार इस गुसाईके मनमे आया। समथिजीकी कीर्ति मैंने िाराणसी में सन
ु ी
और म ाराजको भिंग चढानेका सिंकल्प ि ाूँ ककया था। िेककन य ाूँ मेरा सिंकल्प परू ा ोना कहठन िगता ै। य ाूँ सब

॥ श्री गजानन विजय ग्रन्थ ॥


21
धनिान और प्रर्तग्ष्ठत िोग ै । उसमें मेरी याद क ाूँ? य ाूँ शािंभिीका कोईभी प्रेमी न ीिं हदखता। सो मैं अपनी
मनोकामना ककससे क ूूँ ? सामान्यतः ग्जसको जो िस्तु वप्रय ोती ै ि अपने इष््को ि ी चढ़ानेका सिंकल्प करता
ै । ऐसे अनेक विचारोंसे गस
ु ाई म ाराजके दशिनको उत्किंहठत ो र ा था। उसका सिंकल्प म ाराजने जान लिया और
िोगोंसे बोिे, अरे उस िाराणसीके गस
ु ाईको िे आओ। य सन
ु उसे अत्यानिंद ु आ। उसने मनमें विचार ककया कक
ये बत्रकािज्ञ सिंत ै । मेरे मनका सिंकल्प इन् े ज्ञात ो गया। ज्ञानेश्िरीके छठे अध्यायमें ज्ञानेश्िर म ाराजने योगीकी
मह माका िणिन करते समय क ा ै कक स्िगि िोककी कथायें भी योगी जान िेता ै। इस बातकी प्रत्यक्षानभ
ु त
ू ी
आज मझ
ु े ो गई। ये बत्रकािज्ञ म ात्मा धन्य ैं। बताये बबना मेरा सिंकल्प ये जान जायेंगे। इसको स्पष्् ोनेमें अब
ब ु त थोड़ा समय बाकी ै। िोगों द्िारा गोसाईको िाकर म ाराजके सामने खड़ा करते ी म ाराजने क ा," झोिीकी
पडु ड़याूँ र्नकािो ग्जस पडु ड़योंका रक्षण आपने वपछिे तीन मह नेसे ककया, उसे आज साथिक ोने दो'। सन
ु ते ी गस
ु ाई
बािकोंकी तर गद्गद किंठसे म ाराजके चरणोंमें िो्ने िगा। म ाराजने क ा, 'ठीक ै। अब उठकर बैठो और
झोिीकी पडु ड़याूँ र्नकािो। जब तम
ु ने सिंकल्प ककया तब िज्जा न ीिं िगी और अब व्यथि अि े िना करनेसे तया
िाभ?' गस
ु ाई बड़ा धत
ू ि था। ाथ जोड़कर डरते डरते बोिा। भगिान, मैं झोिीकी पडु ड़याूँ र्नकािता ूूँ तथा सिंकल्पपर्ू ति
करता ूूँ ककन्तु उसके लिये आप एक िरदान मझ ु े दीग्जये। इस अज्ञानी बािकके ब् ु ीका सदै ि आपको स्मरण र े ।
ग्जससे इस बािकका स्मरण र े गा। मै जानता ूूँ आपको ब् ु ीसे कोई प्रयोजन न ीिं। ककन्तु इस बािकका स्मरणरूप
इस ब्
ु ीको स्िीकार िीग्जये। भतत ग्जसप्रकारकी इ्छा करते ै, दे िता उसकी पत
ू ी करते ै । आप अिंजनीका ित
ृ ान्त
स्मरण कीग्जये। अिंजनी िानरी थी। उसने इ्छा की, साक्षात भगिान शिंकर मेरे गभिसे जन्म िे। उसकी प्राथिना
स्िीकारकर भगिान शिंकर -अिंजनीके गभिसे म ारुद्र नमु ानके रूपमें प्रक् ु ए। ि ाूँ िानर भी आड़े न ीिं आया। आप
तो साक्षात कपरूि गौर भगिान शिंकर ी ै और य ब्
ू ी आपको वप्रय ै । अन्य जनोंको यद्यवप य व्यसन ै तथापी

॥ श्री गजानन विजय ग्रन्थ ॥


22
आपके लिये य ज्ञानिल्िी ै। य आपको भष
ू ण ै । आप इसकी अि े िना न करें । म ाराज ककिंगचत असमिंजस में
पड़े ककन्तु माता जैसे बािकके ्े ढ़ेमेढ़े ठको परू ा करती ै िैसे ी म ाराजने ूँ सकर क ा, ठीक ैं। गस
ु ाईने ब्
ु ी
र्नकाि कर म ाराजके ाथपर रखी। गस
ु ाईने उसे धोकर गचिममें भरकर एििं जिाकर म ाराजको वपिाई। इस प्रकार
कारण सह त मैंने ब्
ु ीकी कथा क ी। आप िोक उसका विचार करे (इसीलिये प्रर्तज्ञा -िश म ाराज गचिम पीते थे।
)कुछ हदन गुसाई शेगाूँिमे र ा और अपनेको कृतकृत्य मानकर रामेश्िर दशिनके लिये चिा गया। य ी कारण ै की
समथिको गािंजाकी प्रथा पड़ी। ककन्तु ि िरके कारण थी ना की व्यसनाधीनताके कारण। म ाराज म ान विभत
ू ी थे।
कमिपत्र जैसे जिमें र कर भी अलिप्त र ता ै (पद्मपत्रलमिाम्भसा गीतािं) िैसे ी म ाराज व्यि ारमें र ते
ु ऐ भी
अलिप्त थे। कभी कभी िे शद्ध
ु स्िरमे उदात्त -अनद
ु ात्त- स्िररत सह त िेद ऋचाओिंका उ्चारण करते थे। कभी
उसका नामभी न िेते थे। िेद ऋचाओिंको सन
ु कर िैहदक ब्राह्मण साशिंक ो जाते थे और अनम
ु ान करते थे, कक
गजानन म ाराज ब्राह्मण थे। कभी कभी कसे ु ये गायकके समान एक ी पद अनेक रागोंमें म ाराज गा कर बताते
थे। "चिंदन चािि बेि की पतीया " इन पदोंपर म ाराजको अत्यिंत प्रेम था। आनिंदमे आकर िे इन पदोंका गायन
करते। कभी गणगण का भजन करते, कभी मौन धारण करते और कभी र्नश्चेष्् ोकर शय्यापर पड़े र ते। कभी
पागि जैसे व्यि ार करते। कभी जिंगिोंमें भ्कते र ते। कभी अचानक ककसी घरमें घस
ु जाते। अस्तु। ।

शेगाूँिमें एक जानराि नामक प्रलसद्ध दे शमख


ु र ता था। उसका अग्न्तम समय आ गया शरीरमें रोगकी प्रबिता बढ़
गई। ि अत्यिंत दब
ु ि
ि ो गया। िैद्योंके अनेक प्रयत्न करनेपर भी कुछ िाभ न ीिं ु आ। िैद्योने उसकी नाड़ी दे खकर
सम्बिंधीयोंको सिंकेत कर हदया की इनका बचना असम्भि ै । म िोगोंने ब ु त प्रयत्न ककये ककन्तु उनकी तीिभरभी
व्यथा न ीिं गई। अब इन् े र्नचे कम्बिपर सि
ु ा दीग्जये य ी ठीक ोगा। य सन
ु कर सगेसिंबन्धी अत्यिंत दःु खमे डूब

॥ श्री गजानन विजय ग्रन्थ ॥


23
गये। िे िोग क ने िगे ाय- ाय रे दै ि! म िोगोंने कई दे ि दे िता मनाये िेककन जानरािको उसका कुछ िाभ न ीिं
ु आ।

आणखर आप म िोगोंको छोड़ कर जा र े ो। सब प्रयत्न बेकार गये। िैद्योने ाथ ्े क हदये ककन्तु एक अिंर्तम
उपाय सझ
ु र ा ै। ि करके दे खेंगे। बिंक्िािके घर एक साक्षात्कारी साधू ै । ग्जनकी िज से शेगाूँि पिंढरपरू क्षेत्र
बन गया ै। साधु के मनमें िानेपर उनके लिये कुछ असाध्य न ीिं। श्री ज्ञानेश्िर म ाराजने सग््चदानिंदको उठाया।
जल्दीसे, समय न ीिं ै जल्दीसे कोई जाकर म ाराजसे प्राथिना करो य सन
ु कर एक सम्बन्धी बिंक्िािके घर गया
और जानराि दे शमख
ु की अिस्था बतायी। आप कृपा करके म ाराजका चरणतीथि दीग्जये जो जानराि को अमत
ृ लसद्ध
ोगा। ऐसा में िगता ै । बिंक्िािने क ाूँ, य मेरे बसकी बात न ीिं, मेरे वपताजीसे प्राथिना कररये, तद्नस
ु ार उसने
भिानीरामजीसे कीकत बताई। िे बड़े सज्जन थे भिानीरामने तत्काि एक पात्रमे पानी भरकर म ाराजके चरणोंको
छुिाया और प्राथिना की, म ाराज य चरणतीथि जानराि को दे ता
ूूँ। म ाराजने गदि न ह िाकर सिंमर्त हदखाई।
सम्बन्धीने तीथि िेकर जानरािको वपिाया। ग्जससे उनके गिेकी घरु घरु ा ् बिंद ो गई। उन् ोंने ककिंगचत आूँखे खोिी
और ाथ ह िाया। तीथिके प्रभािसे जानरािकी प्रकृतीमे िरक पड़ने िगा। य प्रमाण दे खकर सारे नर -नारी आनिंहदत
ो गये और सबको सत्परू
ु षका अगधकार ज्ञात ु िा। उसके बाद सब औषगधयाूँ िेना बिंद करके केिि तीथि ी िेते र े ,
ग्जससे जानराि आरोनयसिंपन्न ो गये। आठ हदनमे जानराि प िे जैसा स्िस्थ ो गया और भिानीरामके घर
म ाराजके दशिनको आया। दे णखये, सिंतचरणतीथि साधनद्िारा साक्षात अमत
ृ ो गया। ये केिि सिंत न ीिं अवपतु
कलियग
ु के साक्षात दे िता ी थे। इस कथाको सन
ु नेंके बाद स जतया एक शिंका उद्भत
ू ोती ै कक सिंत गजानन म ाराज
जैसे सिंत शेगाूँिमें र नेपर कोईभी प्राणी यमिोक न ीिं जाना चाह ये।

॥ श्री गजानन विजय ग्रन्थ ॥


24
ककन्तु य कुतकि
ै, तयोंकक सिंत मत्ृ यक
ू ा र्निारण न ीिं करते, िे प्रकृर्तके र्नयमके अनस ु ार ी आचार करते ैं ककिंतु
आगिंतक
ु सिंक्ोंको जरूर दरू करते ैं। जैसे ज्ञानेश्िर म ाराजने मत्ृ यस ु े सग््चदानिंद को उठाया ककिंतु उन् ोंने कायि
समाप्तीके बाद आििंदी क्षेत्रमें समागध ग्र ण की। इसका तात्पयि इतना ी ै कक सिंत आये
ु ये गिंडातर दरू करते ै
जो उनके लिये अत्यिंत सामान्य िस्तु ै । योगेश्िरके लिये कुछ भी असिंभि न ीिं। आिश्यकता ै अनन्य शरण जानेकी
और दढ़
ॄ श्रद्धाकी। जैसे गीता के 'समोs िं सििभत
ू ेषू ….... मर्यते तेषु चाप्यs िं ॥ ' पर भगिान शिंकराचायिने अपने
भाष्यमें क ा ैं यथा अग्ननसमीपस्थानािं शीतिं र्निारयर्त अथाित शीतसे जो पीडड़त ोकर अग्ननकेपास जाता ै उसका
शीत र्निारण ोता, अन्योंका न ीिं। िैसे ी जो श्रद्धासे अनन्यशरण सिंतचरणका आश्रय ग्र ण करता ै उसे िि लमिता
ै । अस्त,ु सामान्यतः मत्ृ यक
ु े तीन प्रकार ै । (१) आगधभौर्तक (२) आगधदै विक और (३) आध्याग्त्मक। आध्याग्त्मक
मत्ृ यू ि ै , जो समागध -ध्यान -भजन भग्तत आहद सें आत्माका अग्स्तत्ि अपने रूपमें वििीन ो जाता ै । उसे
्ािनेका सिाि न ीिं। आगधभौर्तक कारण अथाित कुपर्थय आचरण -र्नसगि र्नयम विरुद्धाचरण आहदसे अनेक व्यागधयाूँ
उत्पन्न ोकर उनकी प्रबिता ोनेपर शरीर छु् जाता ै । यहद आयि
ु ेद शास्त्रमे तज्ज्ञ िैद्य उत्कृष्् औषगध तथा
तिंत्रमे र्नष्णात ो तो ि इस मत्ृ यू को ्ाि सकता ै । तयोंकक आयि
ु ेद शास्त्रानस
ु ार शतायि
ू प
ैं रु
ु षः उससे प िे
ोनेिािा मत्ृ यू अपमत्ृ यू -जो ्ािा जा सकता ै । आगधदै विक मत्ृ यू मानता -मिंत्र -जप शान्त्याहद कमिसे ्ािा जा
सकता ै।

ये मत्ृ यु भी दो प्रकार का ै । अचानक गिंडातर - और भौर्तक। सिंतोंमें अघ्न घ्ना सामर्थयि ोता ै ,िे इनको ्ाि
सकते ै । जैसे म ाराजने जानराि का मत्ृ यु ्ािा। ककन्तु इसमें श्रद्धा प्रधान ै । साधभ
ू ी स्चा ोना चाह ये, िेषधारी
न ीिं। अगर केिि िेषधारी साधु ै तो कुछ न ीिं कर सकता। जैसे मग्ृ त्तका कस्तरु ी न ीिं ो सकती। षड्विकार

॥ श्री गजानन विजय ग्रन्थ ॥


25
र्नित्ृ त ु ए बबना साधत्ु ि न ीिं प्राप्त ोता (काम -िोध -िोभ -मो -आशा और तष्ृ णा ) और साधत्ु िके बबना अघ्न
घ्ना सामर्थयि न ीिं प्राप्त ोता। वपतिका केिि वपिा िणि दे खकर उसे सोना न ीिं मानना चाह ये। िैसे ी केिि
बाह्य साधु िेषसे साधु मानना ठीक न ीिं ऐसे ब ु रूवपयोंसे सािधान र ना चाह ये। श्री गजानन म ाराज योगी और
साक्षत्कारी थे। य ी कारण ै कक उनके चरण तीथिसे जानराि स्िस्थ ो गया।

जानराि स्िस्थ ोनेपर उसने बिंक्िािके घर भोज का प्रयोजन ककया। जानराि दे शमख
ु तो स्िस्थ ो गया, ककन्तु
म ाराजके सामने समस्या खड़ी ो गयी। उन् ोंने सोचा, यहद इस प्रकारसे मैं करता र ा तो प्रापिंगचक िोग मेरा
दरु
ु पयोग कर सकते ैं। अतः उग्र स्िरुप धारण करना चाह ये। ऐसा सोचकर म ाराज उग्र ो गये। कठोरता बरतने
िगे। ग्जससे सिि सामान्य तो घबरा गये ककिंतु अनन्य भततोंको कुछ न ीिं िगा। जैसे भगिान नरलसिं अितार धारण
करनेपर सब भयभीत ो गये ककिंतु बािक प्रल् ादको कुछ न ीिं िगा। लसिं नीके लशशु उसके शरीरपर र्नभियतासे
उछिकुद करते ैं। उन् ें कोई भय न ीिं िगता अन्यजन घबराते ैं।

अस्त,ु अब मैं दस
ू री कथा क ता ुूँ । अगर लम््ी कस्तरु ीके साथ ो तो उसको भी क़ीमत ो जाती ै ।
चिंदन िक्ष
ृ के साथ बढे ु ए किं्कयत
ु त ह िर िक्ष
ृ भी थोड़ा सगु िंगधत ो जाता ै । ज ाूँ मधरु गन्ना ोता ै ि ी मोगरा,
वपिंगुि और से ुूँ डाभी ोता ै । ज ाूँ साधज
ु न ोते ै ि ी मिंदमती भी र ते ै । ह रा और पत्थर एकसाथ खानमें ोते
ैं। ककन्तु ह रोंके समान पत्थरोंकी ककमत न ीिं ोती। गारगो्ी पैरोंसे कुचिी जाती ै । ह रे की ऐसी ग्स्थती कभी न ीिं
ोती। ऐसे ी एक मिंदबवु द्ध परु
ु ष श्री गजानन म ाराजके साथ सेिाधारी करके र ता था। ग्जसे साधस
ु ेिाका बड़ा भारी
अ िं कार था। ि उपरसे तो म ाराजकी सेिाका भाि बताता, ककन्तु अन्तरमें भाि अन्य ी था। म ाराजके नामपर

॥ श्री गजानन विजय ग्रन्थ ॥


26
लमठाई -पेढ़े आहद जमा करता। सब भततोंसे क ता की मेरे बजाय म ाराजका कोई काम न ीिं ोता। मैं म ाराजको
रामदासजीके कल्याण लशष्यित ूूँ । मेरा िातय म ाराज कभी खािी न ीिं जाने दें गे। उनकी गचिम मैं ी भरता ूूँ ।
भोजनाहद व्यिस्था मैं ी करता ूूँ । मैं ी स्ियिं उनकी सेिा करता ूूँ और उनका वप्रय ूूँ । ऐसा ि सब िोगोंको बताता
था। और अपनी सरबराई करके प्रर्तग्ष्ठत ोनेका प्रयत्न करता था। ि मािीजार्तका था और उसका नाम था विठोबा
घा्ोळ। म ाराज स्ियिं शिंकर थे य उनका नग्न्दकेश्िर बन गया और आने जानेिािे भततोंपर गुरगुराने िगा।
अिंतज्ञािनसे म ाराजने इसका सबकुछ जानकर एकहदन ऐसा कौतुक ककया। एक रोज दस
ू रे गाूँिमें कुछ दशिनाथी
म ाराजके दशिनके लिये शेगाूँि आये। म ाराज सो र े थे और ककसीको उन् ें जगानेका या बोिनेका सा स न ीिं था।
उन िोगोने विठोबासे प्राथिना की। विठोबा, आप म ाराजके वप्रय लशष्य ो और धत
ू ि ो। में दशिन करके जल्दी ी
गाूँि िौ्ना ै । म ाराज तो सोये ु ये ै । कृपा करके आप मारा काम कर दीग्जये।

अपनी स्तत
ु ी सन
ु कर विठोबा िूि गया और जाकर म ाराजको जगाया। भतत मिंडिीको तो दशिन मीि गये, उनका
काम ो गया ककिंतु विठोबापर भारी सिंक् आ पड़ा। जैसे कमि ोता ै िैसा िि लमिता ै । एक बड़ा डिंडा म ाराजके
पास था। म ाराजने उठाकर उसकी पीठपर िगा हदया। म ाराज क ने िगे, य माज गया ै । अपनी जग भि

गया। मठमें घिंह्याूँ बािंधकर मको य उपागध िगा र ा ै। य तो स्पष््तया व्यापार ै । तेरेपर कृपा करनेसे मै
भगिानका अपराधी ोऊूँगा। क ते ै की सोम को सतकर समझना ठीक न ीिं। विषको कभी पास न ीिं रखना चाह ये।
चोरको अपने गिेका ार कभी न ीिं मानना चाह ये। ऐसा क कर म ाराजने विठोबाको खूब पी्ा। सो ि भाग खड़ा
ु आ। और पन ु ः िौ्कर कभी न ीिं आया। जो स्चे सिंत ोते ै िे ऐसा ी करते ैं और जो ढोंगी ोते ैं िो ऐसे
िोगोंके चिंगुिमे िस जाते ैं। अगधकार के बबना केिि िेष धारण करके जो बैठते ैं िो ििंचक ै । स्िाथी िोग उनकी

॥ श्री गजानन विजय ग्रन्थ ॥


27
बढ़ाई करते ै और असत्य -चमत्कार रचकर िोगोंको बताते ैं। ग्जससे दोनोंका काम ोकर विपि
ु सिंपग्त्त सिंग्र
करते ैं। ककन्तु धमिके नामका य व्यापार ठीक न ीिं
ै । इससे समाज रसाति को प ु चग े ा और धमिकी ानी ोगी।
सत्याचरणी सिंतोंको ऐसे षण्ढोंका साथ बबिकुि न ीिं चिता। जैसे पर्तव्रताको िेश्याका पड़ोस न ीिं चिता। सि
ु णिको
जस्ते के अििंकार कभी न ीिं जचते। सिंत मख
ू ोंका पोषण करते ै ककन्तु उसे म त्ि न ीिं दे ते। उनके दृग्ष््से पि
ू ि
जन्मके िि कमि भोगनेके लिये सिंसारमे एक व्यग्तत आया ै । ऐसा सोचकर उसके बारे में मौन धारण करते ैं। जैसे
भलू म अन्य सिि िक्ष
ृ ोंके साथ से ुिं डकोभी स्थान दे ती ै । मोगरा -से ुिं डा तथा शेर ये सब भम
ू ीपत्र
ु ै।

ककन्तु इनका मल्


ु य पथ
ृ क पथ
ृ क ै । मोगरे के सिंरक्षण के लिये ककनारे पर से ुूँ ड िगाये जाते ै । ताकी पशु उसकी
ानी न करें । काम ोनेके बाद उसे जिा दे ते ै । उसी प्रकार डािंस-म्छरोको दरू करनेके लिये शेरको द्िारपर बािंधते
ैं। उसी प्रकार सिंतगण रक्षण सबका करते ै ककन्तु उनके गुणानस
ु ार मल्
ू य भेद करते ै । विठोबा घा्ोळका दभ
ु ािनय
की उसे सिंत चरणोंका साग्न्नध्य प्राप्त ोकर भी दै ििशात दरू ोना पड़ा अगर ि ढोंग न करता तो उसकी
योनयतानस
ु ार उन्नर्त जरूर प्राप्त करता। उसने सिंतोंकी योनयता न ीिं जानी। कल्पिक्ष
ृ के नीचे बैठकर गार पत्थरकी
कामना की कामधेनु से खपरै िा माूँगी। इसीलिये मनष्ु यको चाह ये की सदै ि जागत
ृ र कर सिंतकृपा की आकािंक्षा करें ।
य दासगणू विरगचत ग्रिंथ सब भाविकोंके भिसागर पार करनेिािा ो ऐसी भगिानचरणमें प्राथिना ै । शभ
ु िं भितु ||

॥श्री रर रापिणमस्तु ॥
। । इर्त श्री गजानन विजयग्रन्थस्य तत
ृ ीयोsध्यायः समाप्तः। ।

॥ श्री गजानन विजय ग्रन्थ ॥


28
॥ अध्याय ४ ॥

श्री गणेशाय नमः। े सििसाक्षी- सिेश्िर नीिकिंठ -गिंगाधर -म ाकाि (काि के भी काि) त्र्यिंबकेश्िर - ॐकारे श्िर
मझ
ु को दशिन दीग्जये। आप और रुग्तमणीके पती एक ी तत्ि ो। जैसे जि को तोय कह ये या िारी कह ये उसमे
कोई भेद न ीिं ोता। आपकी ग्स्थर्त उसी प्रकार ैं। जैसी ग्जसकी भािना ोती ै आप उसे िैसे ी हदखते ै। जो
अनन्य भािसे आराधना करता ै उसे आप अिश्य प्राप्त ोते ै। जैसे माता अपने बािकके लिये कभी कठोर न ीिं
ोती। मैं आपका अज्ञानी बािक ूूँ । आप अपनी ममता कम न कीग्जये। े र ! आप साक्षात कल्पिक्ष
ृ ै । मेरी
इ्छा पण
ू ि कीग्जये।

स्िामी समथि जब बिंक्िािके घर थे तब एक अप्रत्याक्षक्षत घ्ना घ्ी। बरार के िोग िैशाख शत


ु ि पक्ष तत
ृ ीयाको
अक्षयतत
ृ ीया (अखातीज इसका अपभ्रष्् रूप ै ) क ते ै। य ाूँके िोग इस हदन श्राद्धपक्ष करके वपतरोंको उदक किंु भ
दे ते ै। बरारमें य बड़ा म त्िपण
ू ि पिि माना जाता ै । उस हदन म ाराज बािकोमें बैठकर िीिा कर र े थे। गजानन
म ाराजने बािकोंसे क ा, तुम िोग गचिममें तमाखु भरकर आग ऊपर रखकर मझ
ु े दो। य सन
ु कर बािक बड़े
आनिंहदत ु ये और तमाखु गचिममे भरकर आगके लिये विचार करने िगे तयोंकक पिि का हदन था। चल्
ू ा जिानेको
दे र थी।

॥ श्री गजानन विजय ग्रन्थ ॥


29
उनकी कहठनाई जानकर बिंक्िािने बािकोंसे क ा, अरे अपनी इसी गिी में जानकीराम सन
ु ारकी दक
ु ान ै । ि ाूँसे
आग िे आओ, तयोंकक सन
ु ारकी दक
ु ानमे प िे अग्नन पे्ाये बबना काम ी न ीिं चिता। य सन
ु कर सब बािक
दौड़कर जानकीरामकी दक
ु ानपर गये और म ाराजकी गचिमके लिये अग्नन माूँगा। सन
ु कर जानकीराम िोगधत ो गया
और बोिा, आज अक्षयतत
ृ ीयाका हदन ै । सनबार के हदन मैं आग न ीिं दूँ ग
ू ा। तब बािकोने ाथ जोड़कर क ा, आप
य अव्यि ाररक विचार कैसे कर र े ो? य आग गजानन म ाराजके गचिमके लिये चाह ये और साधू के कायिमें
अशभ
ु का क ाूँ अिसर ै? य तो पण्
ु यकायि ै । म िोग तो बािक ै । आप प्रौढ व्यग्तत ैं, तया इतनाभी आप न ीिं
जानते, जो ऐसी बात कर र े ै। यहद आप में अग्नन दें गे, ग्जससे गजानन म ाराज गचिम पीकर तप्ृ त ोंगे और
आपका कल्याण ोगा। ककन्तु जानकीरामने कुछ न सन
ु ी। क ाित ै कक डूबतेका पैर और खड्डेमें जाता ैं ि
बािकोसे उल््ी सीधी बात करते ु ए क ने िगा। अरे गजानन का े का पण्ु यिान और साध? ु ि गचिम ब ादर ै -
गािंजा -तमाखू वपता ै और पागिोंकी तर गाूँिमे निंगा घम
ू ता ै -गिंदी नालियोंका पानी पीता ै। न तो उसकी
जातका पता ै न कुिका ऐसे व्यग्ततको मै साधु मानने को तैयार न ीिं। बिंक्िाि तो बद्ध
ु ू ै उसके ध्यानमें िगा
ै । मैं आग न ीिं दे ता, उसकी गचिमके लिये। अगर िो साक्षात्कारी ै तो आग माूँगनेकी तया जरुरत ै । अपने
शग्ततसे आग तयों न ीिं िगा िेता। जाििंधरनाथ गचिम पीते थे ककन्तु आगके लिये िे घर घर न ीिं घम
ू े। जाि, य ाूँ
खड़े मत र ो, मै आग न ीिं दूँ ग
ू ा। मेरी नजरमे उस पागिकी कोई क़ीमत न ीिं। सब बािक म्िान मख
ु उदास ोकर
म ाराजके पास आये और जो िाताििाप ु आ था म ाराजको सब सन
ु ाया।

म ाराज य सन
ु कर बिंक्िािसे बोिे, बिंक्िाि गचिमपर काडी पकड़ो। सन
ु कर बिंक्िािने क ा। म ाराज काडी
घसकर मै गचिम जिा दे ता ु , बगैर घसे काडी पे्ती न ीिं। और अग्नन न ीिं ोता। सन
ु कर म ाराजने क ा, बकबक

॥ श्री गजानन विजय ग्रन्थ ॥


30
मत करो, ग्जतना क ता ूूँ िो करो, काडी बगैर र्घसे गचिम पर पकड़ो। म ाराजकी आज्ञा मानकर बिंक्िािने िैसा ी
ककया। गचिमपर काडी ऊपर पकड़ी तो श्रोतागण, तया चमत्कार ु आ सन ु ो -काडी गचिमपर पकड़ते ी अग्नननारायण
गचिममे प्रग् ो गये। गचिम जि गई। और आश्चयि य की काडी जैसी की िैसी र ी जिी न ीिं। य साक्षात
शतती ै । केिि पाखिंड न ीिं। इसको साधत्ु ि क ते ै । अब जानकीराम सन
ु ारके घर तया ु आ सो सन
ु ो।

बरार मे अक्षयतत
ृ ीयाको और पकिानोंके साथ एक -इमिी -गड
ु , इिायची आहद डािकर गचिंचिणी नामका सार
बनाया जाता ै । प्रायः उसके साथ और पकिानोंके परू णकी पडु ड़याूँ बनती ै। िे इसीसे खाते ै । जानकीरामके ि ाूँ
य गचिंचिणी बनाई गई थी। जैसे िषि प्रर्तपदा को र्नम पन्नोंका म त्ि ोता ै िैसे ी अक्षयतत
ृ ीयाको इस गचिंचिणीका
म त्ि ै । दोप रमे जब सन
ु ारके य ाूँ भोजनके लिये पिंग्ततयाूँ बैठीिं। सब पत्तिे परोसी गई और द्रोणोंमे य गचिंचिणी
भी परोसे गई। आश्चयिकी बात ऐ ी कीिं गचिंचिणी के द्रोणोंमे अल्िीयाूँ और असिंख्य की्क बज
ु बज
ु ाते हदखने िगे।
ग्जससे िोगोंको बड़ी घण
ृ ा ु ई और िोग तरु िं त उठकर चिे गये। सारा अन्न व्यथि ो गया। सब दे खकर जानकीराम
सन
ु ार अधोिदन ोकर णखन्न मनसे सोचने िगा। ऐसा तयों ु आ?

केिि अन्न ी न ीिं व्यथि ु आ। ककन्तु वपतरोंका श्राध्द -उपोवषत ु आ। उसने अनम
ु ान िगाया की म ाराज की गचिम
को अग्नन मैने नकारा और बरु ा भिा क ा उसीका य िि ै । इसकेलिये मै ी दोषी ूूँ । बिंक्िािने उसका समाधान
करते ु ए समझाया कक आपने जो इमिी िी शायद उसके बीज कीडेिािे ोंगे। सन ु कर जानकीरामने क ािं, शेठजी,
आप ऐसा कैसे क ते ैं? मैंने नई और शद्ध
ु इमिी िी थी। बीज अभीभी कूड़े में पड़े ै , दे ख िीग्जये क ीिं की्कका
नाम न ीिं। अब आप ऐसा करें कक मझ
ु े म ाराजके पास िे चलिये, मैं चरण पकड़कर अपराधके लिये क्षमा माूँगना

॥ श्री गजानन विजय ग्रन्थ ॥


31
चा ता ूूँ । सिंत दयाघन ोते ै, मझु े अिश्य क्षमा करें गे। ऐसा क कर जानकीराम डरते डरते म ाराजके पास गया।
उनके चरणोंमें साक्षात दिं डित करते बोिा, दयाघन, मैंने बड़ा अपराध ककया ै । अनेक अपराध ककये ै । आप मझ ु े
क्षमा कीग्जये। आप साक्षात पािितीपर्त भगिान शिंकर ै । जो मेरा भ्रम था उसका आज र्निारण ो गया। मेरे अपराध
तण
ृ ोको आप अपनी कृपाsग्ननसे भस्म कीग्जये। इसके बाद मैं कभी अि े िना न ीिं करूूँगा। ग्जतना दिं ड आज हदया
ै उतना ी बस ै । आप अनाथोंके नाथ ै मझ
ु पर कृपा कीग्जये, मेरा अिंत न दे णखये। य सन
ु कर म ाराज बोिे, 'अरे
तीि प्रमाणभी झठ
ू मत बोि। तुम् ारे उस गचिंचिणी सारमे क ाूँ कीड़े ै? ि तो मधरु और उत्तम स्िाहदष्् ै।
अकारण मपर दोष मढ़ता ै ।' सन
ु कर िोगोंने जाकर पात्र दे खा तो सार स्ि्छ और की्क रह त था। प िा दश्ॄ य
एकदम बदि चक
ु ा था। शामका समय ो गया था। य आश्चयिकारक ित्ृ त िायू समान सब गाूँि में फ़ैि गया,
जैसे कस्तरु ीका सि
ु ास फ़ैि जाता ै।

ग्जस उसके मूँु से य चमत्काररक समाचार कथन ककया जा र ा था। शेगाूँि में चिंद ु मक
ु ीन नामका एक समथिका
परम भतत था। जेठका मह ना था। अनेक भतत म ाराजके चारो ओर बैठे थे। कोई आम का् र ा था। कोई आमकी
िाूँके म ाराज के ाथपर दे र े थे। कुछ ाथ जोड़े म ाराजके पदकमिोंमे दग्ॄ ष्् िगाये बैठे थे। कोई लमश्रीका प्रसाद
बाूँ् र े थे। कोई म ाराजके गिेमें पष्ु प ार प ना र े थे। कोई म ाराजके अिंगमे चिंदनका िेप िगा र े थे। तब
म ाराजने चिंदस
ू े क ा, मझ
ु े ये आम न ीिं चाह ये। तेरे घरमें म्के में दो गुझीया ैं सो िाकर दे । तब चिंद ू ाथ
जोड़कर बोिा, म ाराज! इस समय गुणझया का े की? अगर इ्छा ो तो मैं नये तिकर िे आताूूँ । म ाराज ने
क ािं, अरे मझ
ु े ताजे न ीिं चाह ये जो ै िो िाओ। बबना कामके समय व्यथिमें मत बबता, ब ाने मत बना - गरु ु से
झठ
ू न ीिं बोिना चाह ये। अन्य िोगोने चिंद ू से क ाूँ अरे , जाकर घरमें दे खो, म ाराज क र े ै ि झठ
ू न ीिं ोता।

॥ श्री गजानन विजय ग्रन्थ ॥


32
चिंद ू अपने घर जाकर पग्त्नसे पछ
ू ने िगा, अरे ! घरमे गुणझयाूँ ै तया? उसकी पत्नीने क ा मैंने अक्षयतत
ृ ीयाको
गणु झयाूँ बनाई थीिं ि उसी रोज समाप्त ो गई। इस बातको एक म ीना बीत गया। अब घरमे गणु झयाूँ क ािंसे र े गी?
िेककन अपने घरमे गणु झयाूँका सामान लसद्ध ै , मैं झ्से ताजे तैयार कर दे ती ूूँ । तब चिंद ू ने क ा, म ाराज को ताजी
गणु झयाूँ न ीिं चाह ये। म्कोंकी चढ़ान में जो रखी ै ि चाह ये। सन ु कर उसने कुछ स्मरण कर क ा। म ाराजकी
िाणी सत्य ै , दो गुणझयाूँ बची थी। सो मैंने म्केमें रख दी और इस बातका मझ
ु े बबिकुि स्मरण न ीिं र ा। ऐसा
क कर उसने म्कोंकी चढ़ान उतारकर ढूिंढना शरू
ु ककया। आश्चयिकी बात ये कक एक बीचके म्केमें दो गुणझयाूँ रखी
पायी, जो ककिंगचत सख
ु गई थी ककन्तु विकृत न ी ु ई थी। उनमे बरु शी इत्याहद न ीिं िगी थी। सत्य, ै , सिंतोंकी बाते
कभी व्यथि न ीिं ोती। गुणझयाूँ पाकर पर्त पग्त्न दोनों बड़े वषित ु ऐ। और क ने िगे, िस्तुतः ये सििज्ञ योगीराज
ै । चिंदन
ू े िो दोनों गुणझयाूँ िाई और म ाराजने बड़े प्रेमसे खाई। जैसे भगिान रामने शबरी लभल्िीनीके बेर खाये थे।
य िीिा दे खकर सब िोग क ने िगे ककिं म ाराज बत्रकािज्ञानी ै । उन् ें भत
ू -भविष्य -ितिमान सब पता िगता ै ।
शेगाूँिसे दक्षक्षण में गचिंचोिी नामक एक छो्ासा दे ात ै । उस गाूँिका र नेिािा माधि नामक एक ब्राह्मण था।
तरुणािस्थामे प्रपिंच ी उसका दै ित था। प्रारब्धके आगे कोई न ीिं जा पाता। जैसे विधी िेख ोता ै ि ी ोता ै।
माधिके पग्त्न पत्र
ु ाहद परिोक लसधार गये, उसके पास कोई न ीिं बचा। ग्जससे उग्व्दनन ो ि सिंसारसे विरतत ो
गया। उसने सारी िस्तुए बेच डािी और विचार करने िगा कक यि
ु ािस्थामे मैं सिंसारमें व्यग्र र ा। दीनबिंधो आपका
स्मरण कभी न ीिं ककया। अब सब सिंसार शािंत ो गया। अब आपके बबना मेरा रक्षण कौन करता ै ? ऐसा पश्चाताप
दनध ोकर ि शेगाूँि आया और गजानन म ाराजके द्िारपर ठ करके बैठ गया। मूँु से नारायण नामका स्मरण
करते ु ये उसने अन्नजि छोड़कर उपिास करना प्रारिं भ कर हदया। इस अिस्थामें एक हदन बीत गया। म ाराजने
उसे िैसा करनेसे रोकनेका प्रयत्न ककया और क ाूँ ऐसा करना ठीक न ीिं ै । य ी नारायणका नाम प िे तयों न ीिं

॥ श्री गजानन विजय ग्रन्थ ॥


33
स्मरण ककया? प्राण र्नकि जानेपर िैद्य बि
ु ाकर कोई िाभ न ीिं। तारुण्य अिस्थामे ब्रह्मचयिका पािन कर
िध्
ृ दािस्थामें स्त्री करनेसे कोई िाभ न ीिं। जो ग्जस समय करना ै ि उसी समय करना चाह ये। घर जिनेपर
कुिाूँ खोदनेसे तया िाभ? ग्जस कन्या पत्र
ु ोंके लिये आजन्म पचते र े , अन्तमें िो सब तम्
ु े छोड़कर चिे गये।
शाश्ितको छोड़कर अशाश्ितका पररपोष करता र ा, अब कृत कमिका िि तो तम्
ु ें भग
ु तना ी पड़ेगा। य सन
ु कर
भी माधिने ठ न ीिं छोड़ा। िोगोंके उसे उपिाससे पराड्मख
ु करनेके सब प्रयत्न व्यथि ो गये। कुिकणी नामक एक
सज्जनने भी घर िे जाकर भोजन करानेका प्रयत्न ककया ककन्तु माधिने ककसी की न सन
ु ी। ि नारायण स्मरण
करते ि ी ड्ा र ा। इस अिस्थामें रातके दोप्र र बीत गये। आकाश अिंधकारसे आ्छाहदत ो गया। रात्री का डरािना
ध्िर्न ोने िगा। पासमें कोई न ीिं ै ऐसा दे खकर म ाराज ने एक कौतक
ु ककया। यमसदश
ॄ भयानक रूप धारण कर
िे माधिकी ओर मख
ु पसार कर दौड़े। ि दे खकर माधि जीि िेकर डरकर भागा। मूँु मे िेस आ गया, शब्द न ीिं
िू्ता था, ऐसा दे खकर म ाराज सौम्य रूपमें आकर माधिसे बोिे, अरे तया य ी तुम् ारा धैयि ै । तुम काि के भक्ष्य
ो, ऐसे ी तम्
ु े काि खायेगा। य मैंने केिि आगामी सिंकेत मात्र बताया। तब माधिने क ा, ' भगिान ! अब
यमिोककी िाताि न कररये, मझ
ु े ि ाूँ जानेसे बचाईये, िैकिंु ठ िोक में भेग्जये। मेरे पातक राशीको भस्म करना आपके
लिये असम्भि न ीिं। जब पि
ू ज
ि न्मके पण्
ु य उदय ोता ै तभी सिंत समागम ोता ै । तब म ाराजने ूँ सकर क ाूँ,"माधि
! तुम् ारा अिंतकाि समीप आया ै । नारायण -नारायण भजो। असािधान मत र ो। अगर चा ते ो तो मैं तुम् ारी
आयू बढ़ा दे ता ुूँ । सन
ु कर माधिने क ा दयाघन आयू बढाकर पनु ः इसी िौकीक प्रपिंचमे मझ ु े न ढकेलिये। म ाराजने
क ा, "तथास्त,ु जो तुम चा ते ो ि ी ोगा, अब तुम इस भम ू ीपर पनु ः जन्म न ीिं िोगे'।

॥ श्री गजानन विजय ग्रन्थ ॥


34
य गुप्त सिंिाद
ु िा, ग्जसका िणिन मैं न ीिं कर सकता। माधि इ िोकके परु े कायोंसे विरतत ो गया। सो िोग
उपिासके कारण य उन्मत ो गया ऐसा क ने िगे। माधिका दे ािसान ो गया और ि समथि सग्न्नगध तथा
उनके िरदानसे मत
ु त ो गया। एक बार म ाराज अपने लशष्योंसे बोिे, की िैहदक ब्राह्मणोंको बि
ु ाकर य ाूँ मिंत्रघोष
करिाओ। ग्जससे दे िागधदे ि प्रसन्न ोते ै । कैरीका पना -पेड़ा -बरिी -खोिा -भीजी -नमकयत
ु त -चनादाि इसका
उप ार दे कर एक एक रूपीया दक्षक्षणा दो। ब्राह्मण धनपाठी ोने चाह ऐ। सन
ु कर लशष्योंने क ा," म ाराज, शेगाूँिमें
िैहदक ब्राह्मण न ीिं ै । आप क ें गे सो खचाि म करने को तैयार ै ककन्तु ब्राह्मण लमिना मग्ु श्कि ै । य सन
ु कर
म ाराज बोिे," आप िोग तैयारी कररये, भगिान ब्राह्मण भेज दें गे।' य सब बड़े प्रसन्न
ु ए और थोड़ी दे रमें सौ
रूपया जमा ो गया। उन् ोंने सब सामान िाया चिंदन घीसकर केशर लमिाई। कपरू लमिाया। सामान्यतः दो
प्र र के समय ब्राह्मण आये, जो पद -पाठ -ज्ा -घनपाठ जानते थे। बड़े िैभिपि
ू क
ि िसिंतपज
ू ा की गई। ब्राह्मणोने
िेद पाठ ककया -दक्षक्षणा पाकर आनिंहदत ो कर अन्य ग्राम गये। जो भी सिंतके मनमे आता ि सब पण
ू ि ोता ै।
ऐसा सिंतोंका प्रभाि ै , बिंक्िाि तथा उसके ििंशज आज भी य उपिम शेगाूँिमें कर र े ै। य दासगणू
विरगचतग्रिंथ साधकोंको शद्ध
ु ररभग्तत मागि प्रदलशित करे ; य प्राथिना।

॥ शभ
ु िं भितु ॥श्री रर रापिणमस्तु ॥
।। इर्त श्री गजानन विजय ग्रन्थस्य चतुथोsध्याय समाप्त ।।

॥ श्री गजानन विजय ग्रन्थ ॥


35
॥ अध्याय ५ ॥

श्री गणेशाय नमः। े अज (जो जन्मता न ी) अग्जत अव्दय (सिित्र व्याप्त, ग्जसके लसिा दस
ु रा तत्ि न ी) सग््चदानिंद
-करुणाके धाम दासगणू आपकी चरणिन्दना करता ै, उसे अभय करो। े दे िागधदे ि। मैं दीन- ीन तथा पापी ूूँ मझ ु े
ककसी प्रकारका अगधकार न ीिं। सब तर से दब
ु ि
ि ूूँ । ककन्तू जो अत्यिंत ीन ोते ै श्रेष्ठ िोग उन् ीपर कृपा करते
ै । दे णखये अत्यिंत ीन जो विभर्ू त (भस्म) ै उसे शिंकर शरीरपर धारण करते ैं। सो ीन जनोंकी ीनता श्रेष्ठोंको
न्यन
ू ता न ीिं िाती। ि उनका विभष
ू ण बन जाती ै । जैसे भगिान शिंकरके शरीर की विभर्ू त उनको भष
ू ण स्िरुप ै
(उनके अिंगपर ोनेसे) िैसे ी आप इस दासगणक
ू ो अपने सिंग्र में रणखये। जैसे माता बािककेँ सब िाड़ परु े करती ै
िैसे ी दासगणक
ू ा सब बोझ आपके लसरपर ै । आपको जैसा करना ो िैसा कररये। तयोंकक मै तो आपपर ी र्नभिर
ूूँ ककिंतु दयाघन मेरे प्रर्त मनमें दया रणखये। आप के भरोंसे ी मैं कूदता ूूँ। म ाराजके शेगाूँिमें र नेपर रोज र्नत
नई यात्रा जमा ोने िगी ग्जसका मैं िणिन न ीिं कर सकता। म ाराजकी मह मा अपार रूपसे बढ़ गयी। अथाित
योगेश्िर को य उपागध ी थी। कोई भी स्चा साध-ू िौककक उपागध में न ीिं िूँसता। ऐसा विचार कर उसे दरू करनेके
लिये म ाराज जिंगिोमें भ्कने िगे।

मह ना-मह ना बा र र ते। क ी भी बैठकर एकान्तमें समय बबताते अपना पररचय ककसीको न िगने दे ते। श्रोतागण
ऐसे ी भ्कते ु ए एक बार म ाराज वपिंपिगाूँि प ुूँ च।े ि ाूँका ित
ृ ान्त आप िोग सन
ु े। वपिंपिगाूँिके बा र जिंगिमें
एक े माडपिंथी -धतीका परु ाना लशिािय था। उस मिंहदरके गभिग ृ में म ाराज पद्मासन िगाकर बैठ गये। गािंिके
चरिा े अपनी अपनी गौएूँ िेकर अस्त समय गाूँिको िौ्ने िगे। मिंहदरके पास एक छो्ासा झरना ब ता था। ग्जसमें

॥ श्री गजानन विजय ग्रन्थ ॥


36
सभी पशू जि पीते थे। गौएूँ जि पी र ी थीिं सो कुछ चरिा े भगिान लशि के दशिनाथि मिंहदरमें गये। ि ाूँपर पद्मासनमें
समागधस्थ तेजपज
िंु म ाराजको दे खकर आश्चयिचककत ो गये। अस्त के समय इसप्रकार कोई योगी इन गोपलशशओ
ु ीँ ने
कभी न ीिं दे खा था। सो उन् ें बड़ा आश्चयि ु आ। उनमें से कुछ बा र आकर अपने साथीयोंको बि
ु ाने िगे। कुछ
म ाराजके सामने बैठ गये। य साधू न तो आूँखे खोिता ै, न बोिता ै, ग्जसका कारण गोप बािक न समझ
पाये। कुछ क ने िगे य अत्यिंत श्रमीत ो गया ै और दब
ु ि
ि ो गया ै, य ी कारण ै की आूँखे बिंद करके तिान्त
बैठा ै । कुछ क ने िगे कक, कई हदनोंसे य क्षुधािान्त ै , सो म िोगोंको इन् े थोड़ी रो्ी णखिानी चाह ये। क कर
म ाराज के मख
ु के सामने कौर दे ने िगे, ककन्तु म ाराज ककसी प्रकार की िचि न ीिं कर र े थे। कुछ बोिे भी
न ीिं, दे खकर चरिा े बािक बड़े असमिंजमे पड़ गये। तकि करने िगे कक अगर मत
ृ माने तो शरीर गरम ै , श्िास
चि र ी ै , बैठे ग्स्थती में ै । कुछ क ने िगे, ो सकता ै ये कोई मायािी वपशाच ो, तब अन्य जनोंने प्रर्तकार
ककया कक लशिमिंहदरमे वपशाच कैसे आ सकता ै ?

कई क ने िगे अरे य स्िगििोकसे कोई दे िता य ाूँपर प्रक् ु आ ै ! म िोगोंको इनका पज


ू न करना चाह ये। जाकर
झरनेका जि िे आओ। सन ु कर कुछ गोपबािक जि िाने को गये। और खपरै ि में पानी िाकर म ाराजके चरणोंपर
बड़े भािसे डािा। कुछ बािकोंने िन्य पष्ु प िाकर मािा गूँथ
ू कर गिेमें डािी। कुछ्ने प्याज और रो्ी ि्पत्र पर
सामने रखी। सबने नमस्कार करके सामने बैठकर भजन ककया। इसप्रकार आनिंदोत्सि करते ु ए एक चरिा े ने
क ा,"भाई, अब सय
ू ािस्त ो गया ै, सो घर चिना चाह ये, तयोंकक इतनी दे र ो गई, किरभी पशओ
ु िंको िेकर चरिा े
तयों न ीिं आये ऐसा तकि ग्रामस्थ करें गे। म िोग य समाचार गाूँिके बड़े बढ
ु ोंको बतायेंगे ग्जससे सत्यका पता
िगेगा। ऐसा विचार कर चरिा े गाूँिमें गये और सब िोगोंसे ित
ृ ािंत क ा। श्रोतागण प्रातःकाि गाूँिके िोग चरिा ोंके

॥ श्री गजानन विजय ग्रन्थ ॥


37
साथ म ाराजको दे खने लशिमिंहदर पर आये। म ाराज जैसे कि बैठे थे उसी ग्स्थर्तमें आज भी बैठे ै। अन्नको
बबिकुि स्पशि न ीिं ककया ै उनमें से कुछ बोिे, ये योगी ै, लशिमिंहदरमे बैठे ै , चलिये इन् े त्रस्त करना ठीक न ीिं।
कुछ बोिे, अरे भाई ये साक्षात भगिान शिंकर वपिंडसे बा र में दशिन दे नक
े ो प्रग् ु अे ै, य मारा म त्भानय ै ।
चलिये इन् े गाूँिमें िे चिते ैं। जब इनका समाधीसे उत्थान ोगा तब ये अिश्य बोिेंगे। बिंगाि दे शमें जाििंदारनाथ
बार िषितक कूपकी गतिमेँ समागधस्थ थे (निनाथ भग्ततसार में कथा ै कक जाििंदरनाथको बिंगाि दे शके राजा
गोपीचिंदने कुएूँ में तोप हदया था ।बार िषि बाद उन् े र्नकािा गया)

इस प्रकार ा ना करते ु एूँ एक पािकी िाई गई, उसमें म ाराजको उठाकर बबठाया गया। बड़े उत्सा के साथ बजनीयाूँ
बजाते ु एूँ अबीर-गुिाि उड़ाते ु एूँ उसीप्रकार ग्रामस्थ नर-नारी तुिसीपत्र। पष्ु प अपिण करते ु एूँ घिं्ी घडड़याि
शिंख नाद करते ु एूँ योगीराजकी जय ो, का उद्घोष करते ु ऐ सब िोग म ाराजको नम ु ानजीके मिंहदरमें िे आये।
म ाराजका शरीर गि
ु ािसे िाि ो गया था। म ाराजको बड़े था्से मिंहदरमे एक आसनपर बबठाया गया। य सब
ोने तक म ाराजकी समागध िगी ी थी। उन् ोंने जाना की, म ाराज योगगयोंके मक
ु ु ्मणी सद्गुरु मर्ू तिरूप ै । सब
िोग चरणरत ोने िगे। नैिेद्य चढ़ानेकी धम
ू मची। अनेक पात्र परोसकर िाये गये। म ारज शरीरमे उतरे और
चैतन्यमय िातािरण ो गया। म ाराजने अन्न ग्र ण ककया। आसपास के गाूँिोंमें भी य िाताि फ़ैि गई।
मिंगििारको शेगाूँि का बजार िगता ै , सो कररबन सब दे ातोंसे िोग य ाूँ आते ै। वपिंपिगाूँि के िोग भी य ाूँ
आये और अपने गाूँि का म ाराज विषयक समाचार य ाूँ सन
ु ाया। बताया कक साक्षात श्री री एक योगी अििीया
मारे गाूँिमें आया ै। म िोग अब उन् ें क ी जाने न दें गे। सारे बजार में य समाचार फ़ैि गया। बिंक्िािको
जब य पता चिा तो ि सपग्त्नक वपिंपिगाूँि गये और ाथ जोड़कर अनेक प्रकारकी प्राथिना करने िगे। 'अभी आता

॥ श्री गजानन विजय ग्रन्थ ॥


38
ूूँ बोिकर भगिान आप चिे आये, ग्जसको पिंद्र हदन बीत गये। गुरुदे ि आपके बबना घर सन
ू ा-सन
ू ा िगता ै।
शेगाूँिके सब िोग गचिंर्तत ो गये ै ।

मैं गाड़ी िाया


ूूँ, उसमें बैठकर आप चलिये -माता पत्र
ु का बबछोड न कररये। आपका र्नत्यदशिन करनेिािे भाविक
जन -उपिास कर र े ैं। आप अगर शेगाूँि न ीिं चिेंगे तो मैं य ी शरीर त्याग करूूँगा। बिंक्िािके ऐसा क ने पर
म ाराज गाड़ीपर बैठकर शेगाूँि के लिये चिे। जैसे भगिान कृष्ण को िेकर ब्रजसे अिुर चिनेपर सारे व्रजिासी
व्यगथत और दःु खी ु ये थें। िैसे ी म ाराजको बिंक्िाि शेगाूँि िाने िगे। तो वपिंपिगाूँिके िोग दःु खी ु ये। तब
बिंक्िािने उन् ें समझाया कक म ाराज शेगाूँिमे ी ै, आप िोग दशिनाथि कभी भी आ सकते ै । इस अमल् ू य मर्ू ति
को ज ाूँकी ि ाूँ र ने दो, ्ाओ मत। बिंक्िाि वपिंपिगाूँिके सा ू कार भी थे, इसी कारण ककसीको भी उनको रोकने
का सा स न ीिं ु आ। गाडीमें म ाराज बिंक्िाि से क ने िगे, 'अरे , तेरी य अ्छी सा ु कारी ै । दस
ू रे की धरो र
जबरदस्ती अपने घर िे जाते ो। मझ
ु े तो तम्
ु ारे घर आने मे डर प्रतीत ोता ै। तयोंकक िोकमाता िक्ष्मी -जो
भगिान विष्णक
ू ी पत्नी ै, ग्जसकी सत्ता अगाध-अततयि ै उसको भी घरमे बिंद कर रखा ै सो मेरी तया गर्त? इस
प्रकार जगदिं बा का ाि दे खकर मै भाग खडा ु आ" । य सन ु कर बिंक्िाि ूँ स पड़े और बड़ी नम्रतासे बोिे,"म ाराज,
मेरे कुिप
ु से माता डरी न ीिं, आपका र्निास ि ाूँ ै इसलिये ि ाूँ ग्स्थर ै। अन्यथा मेरी तया गगनती। ज ाूँ बािक
ि ाूँ माता ोती ी ै , दस
ू रे का ि ाूँ हठकाना कैसे। आपके चरणोंके आगे मझ
ु े धनकी कोई परिा न ीिं, ये चरणकमि ी
मेरा श्रेष्ठ धन ै । इसीलिये य ाूँ आया। अब य घर मेरा न ीिं सििस्ि आपका ै , आप उसके स्िामी ै और स्िामीको
सेिक कैसे रोक सकता ै ?

॥ श्री गजानन विजय ग्रन्थ ॥


39
मेरी इतनी ी प्राथिना ै कक गौ कानन में चरने जाती ै ककन्तु सायिं समय आने बछड़ेके लिये पन
ु ः घर आती ै।
ऐसा ी आप कररये क ी भी जाईये ककिंतु शेगाूँिको न बबसाररये। इसप्रकार प्राथिना करके बिंक्िाि म ाराजको शेगाूँि
िे आया।

म ाराज कुछ हदन शेगाूँि में र े और एक हदन किर िो र्नकि पड़े। बरारमे अड़गाूँि नाम का दे ात ै। म ाराज
ि ाूँ जानेके लिये चि पड़े। शेगाूँि िासीयोंकी नजर बचाकर प्रातः ी चि पड़े। म ाराजकी गती िायक
ू े समान थी।
उनकी गर्त दे खकर साक्षात नम
ु ानजी पन
ु ः अितररत ु ये तया ऐसा प्रतीत ोता था। ि िैशाखका म ीना था।
भगिान सय
ू ि सोि किाओिंसे तप र े थे। इस प्रचिंड तापसे क ीिं भी जि का अिशेष न ीिं था। मध्यान् के समयमें
म ाराज अकोिी नामक एक दे ात के पास प ुूँ च।े इन िोग योगेश्िरकी य िीिा आप िोग सन ु े। म ाराज को तष
ृ ा
िगी, सो उन् ोंने चारों ओर दग्ॄ ष्् दौड़ाई, ककन्तु जि का क ीिं पता न ीिं था। जिके बबना म ाराजके ोंठ सख ु गये।
सब शरीर चिनेकी िज से स्िेद धारओिं से गीिा ो गया। ऐसी दप
ु रीिं में ि ाूँ भास्कर नामक ककसान अपने
खेतमें काम कर र ा था। ककसान की ग्स्थर्त दे खकर ऐसा िग र ा था कक, ककसान ी सब जगतका अन्नदाता ै।
य श्रेष्ठ
ोते ु एूँ भी अपार यातना स ता ै । आतप -िषाि -शीत ऋतुओिंकी यातनाएूँ स कर ि कृवष सिंपन्न करता
ै । इस अकोिीके आसपास जिका बड़ा दलु भिक्ष था। भास्करने पीनेके लिये एक म्का भरकर घरसे िाया था, तथा
एक िक्ष
ृ की छाूँिमें रखा था। ि ाूँ म ाराज प ुूँ चे और भास्करसे बोिे।

मझ
ु े बड़ी तष्ृ णा िगी ै, सो पीनेके लिये जि दे , न ीिं न बोिना। पानीके बबना प्राण रक्षण ोना बड़ा कहठन ोता
ै , इसीलिये जिदान म ान पण्
ु यकारक माना जाता ै। य सन
ु कर भास्करने क ा। तम
ु जैसे धष््पष्ु ्को जि वपिाना

॥ श्री गजानन विजय ग्रन्थ ॥


40
का े का पण्
ु य ै? यहद अनाथ ै -पिंगु ै -दीन ै, तो बात अिग। जो समाजह तके लिये कुछ कायि करता ै उसे
स ाय करना हठक ै । तम
ु जैसे धष््पष्ु ्को जि दे ना उि्ा पाप ै । भत
ू दयाके तत्िको पािनेके लिये तया कोई साूँप
का पोषण करता ै? अथिा चोर को तया कोई घरमें जग दे ता ै । तम
ु ने भीक माूँगकर अपना शरीर पष्ु ् ककया ै ।
कुछ पररश्रम न करके खानेिािे तम
ु इस धराको भारभत
ू ो। मैंने अपने पीनेके लिये लसरपर म्का ढोकर िाया ै।
तुम् ारे जैसे र्नठल्िोके लिये न ीिं। पीसे वपसानपर िकीर न मारो य ाूँसे चिते पड़ो। अरे चािंडाि, य ाूँसे अपना मूँू
कािा करो, मैं तुम् ारी प्राथिना से झक
ु ने िािा न ीिं। तुम् ारे जैसे र्नकम्मेने मारे य ाूँ जन्म लिया इसलिये सारे
जगत में म िोग दभ
ु ािगी ो गये। भास्करका व्याख्यान श्रिण कर म ाराज ग्स्मत िदन कर ि ाूँसे चि हदे ये। थोड़ी
दरू ीपर एक कुआूँ था, उसकी ओर म ाराज जब चि पड़े तो भास्कर बोिा," अरे पागि, उधर ककसलिये जा र ा ै,
ि कुआूँ सख
ू ा पड़ा ै, जिका नाम न ीिं। य ाूँसे एक कोसके इदि गगदि क ीिंपर भी जि न ीिं ै।
सन
ु कर म ाराज बोिे, 'तुम जो क ते ो सो ठीक ै, किरभी मैं प्रयत्न करता ूूँ। तुम् ारे जैसे बवु द्धमान यहद जिके
लिये त्रस्त ैं। तो मसे स्िस्थ कैसे बैठा जा सकता ै? यहद कतािका े तू शद्ध
ु ो तो जगग्न्नयिंता परमेश्िर स ाय
करते ैं।

और किर समाज के लिये कुछ मझ


ु े करना चाह ये ऐसा अभी ी तुमने क ा' । क कर म ाराज कुएूँके पास आये,
ग्जसमें जिका एक बूँद
ू भी न ीिं था। य दे खकर िक्ष
ृ के नीचे एक पत्थर पर ताश जैसे बैठ गये। आूँख मिंद
ू कर
ध्यानस्थ बैठकर भगिान विष्णक
ु ा स्मरण करने िगे। जो जो सग््चदानिंद ै, दयाघन ै । हदनोंका उद्धार करनेिािे
तथा जगद्गुरु ै? ( ससिेषािंगुरुकािेनsि्छे दात) समथि क ने िगे, ' े दे िागध दे ि िामन िासद
ु े ि -प्रद्यम्
ु न -राघि -
विठ्ठि -नर री य अकोिी गाूँि जिके अभािसे त्रस्त ै । ककसीभी कुएूँमें गीिापन भी न ीिं ै । भगिन, मानिी प्रयत्न

॥ श्री गजानन विजय ग्रन्थ ॥


41
सब असिि ो गये। इसीलिये आपकी प्राथिना कर र ा ूूँ । इस कुएूँको पानी दीग्जये। आपकी करनी अघ्न घ्ना
पररयसी ै । जो घ् न ीिं सकता ि भी आपकी कृपासे घ् जाता ै । जिते आम्रिक्ष ृ में े पािंडुरिं ग, आपने बबल्िीके
लशशओ
ु िंका रक्षण ककया। भतत प्रल् ादका रक्षण करनेके लिये आप स्तिंभसे प्रग् ो गये। गोकुिके गौिोंका रक्षण
करनेके लिये आपने बारािं गाूँिका अग्ननपान ककया। इन्द्रके कोपसे बचाने के लिये नखाग्रपर आपने गोिधिन पिित
धारण ककया। थानेदार दामजीपिंतको छुड़ानेके लिये आपने विठु म ारका रूप धारण ककया। चोखामेिाके लिये ढोर
खीिंच।े सािता मािीके खेतोंकी रक्षा करनेके लिये आपने गध्दे ाूँके। उपमन्यक
ू ो दध
ू का सागर प्रदान ककया, उसी प्रकार
नामदे िको मारिाड़मे तष
ृ ा िगी तो सख
ू े कुएूँमें जि भर हदया। म ाराज इसप्रकार प्राथिना कर र े थे कक म ान आश्चयि
ु आ। कुएूँमें झरना ि् पड़ा और क्षणभरमें कुआ जिसे पररपण
ू ि ो गया। ग्जसके जगन्नाथ स ाय ोते ै उसके
लिये तया न ीिं ोता।

सत्य ै कक ईश्िरी सत्ता अगाध ै । अघ्न घ्ना घ् सकती ै । उछिता जि म ाराज पीकर तप्ृ त ु ए। जो भास्कर
ने दे खा, ग्जससे उसका गचत्त चककत ो गया। उसका तकि न ी चि र ा था। जो कुआूँ बार िषिसे सख ू ा पडा था
उसे इन् ोने क्षणभर में जिपण
ू ि कर हदया- ो न ो ये म ान साक्षात्कारी परु
ु ष ै। कृवषका काम छोड़कर भास्कर
ि ाूँ दौड़ते आया और म ाराजके चरण कमि दढ
ॄ तासे पकड़कर प्राथिना करने िगा। े मानि शरीर धारी भगिान! मै
आपका अबोध लशशु ुूँ। मझु े क्षमा करो, आपके प्रभािसे अनलभज्ञ मैंने आपको ब ु त कुछ भिाबरु ा क ा। सो कृपार्नधान
िो मेरे अपराध कृपा करके क्षमा कररये। गोपीओिंके क्ु िचन भगिान कृष्णने ध्यानमें न लिये। आपके बाह्य िेषसे
मै ठग गया। ग्जसका प्रत्यक्ष कृर्त द्िारा आपने भ्रम र्नरास ककया।
े सद्गुरुनाथ अब मैं ये चरण न ीिं छोड़ूग
िं ा य
सब प्रपिंच लमर्थया ै । आज मझ
ु े य पता िगा, अब इस अज्ञानी बािकको दरू न कीग्जये। सन ु कर म ाराज बोिे,'अरे

॥ श्री गजानन विजय ग्रन्थ ॥


42
अब दःु खी ोनेका कारण न ीिं पीने के पानी के लिये लसरपर ढोकर म्का िाने की आिश्यकता न ीिं। तुम् ारी
आिश्यकताके लिये य जि य ाूँ र्नमािण ककया। अब प्रपिंच ककसलिये छोड़ते ो। इस कुएूँसे बाग र्नमािण करो,
भरपरू जि ै'। सन
ु कर भास्कर बोिा 'भगिान' अब य िोभ मझ
ु े न िगाओ। मेरा र्नश्चय ी कुआूँ ै, सो सख
ू ा
पड़ा था, आपकी कृपासे आपने उसे साक्षात्कार रूपी सरु िं ग िगाकर िोड़ हदया, ि िू्कर उसमेसे भाि रूपी जि
ब ने िगा। सो अब मैं बाग अिश्य िगाऊिंगा, िेककन भग्तत का ग्जसमें िग्ृ त्तरूपी -भलू म सग्न्नतीरूपी ििके िक्ष

िगाऊूँगा।

सत्कमि य ी उसके पष्ु पिक्ष


ृ ोंगे, जो र्नत्य ोंगे। य क्षणणक बाग अब मझ
ु े न ीिं चाह ये। श्रोतागण, अब आप िोग
सिंगर्त िाइये। भास्कर को केिि एक क्षणकी सिंतसिंगतीसे उसका उदधार ो गया, जीिन सिि ो गया, स्चे
साधओ
ु िंकी सिंगर्त सब बिंधनोंसे श्रेष्ठ ै । जैसे तुकाराम म ाराजने क ा ै , सिंत चरणरज अभिंग में, अपने ह तके लिये
उस अभिंगका मनन -गचिंतन कररये। पानी िगानेके बाद सब िोग म ाराजके दशिनके लिये दौड़ पड़े। जैसे मधु
मक्षक्षका मधक
ु े लिये दौड़ती ै और शतकर कणके लिये गच्ीयाूँ दौड़ती ै , िैसे ी साधक
ू े लिये जन समद
ु ाय दौड़े। बड़ा
जनसमद
ु ाय ि ाूँ आया और कूपजि पीकर दे खा, जो र्नमिि -शीति और अमत
ृ के समान मधरु था। सब िोग गजानन
म ाराजका जयजयकार करने िगे। पश्चात गजानन म ाराज भास्करके साथ आगे अड़गाूँि न जाकर शेगाूँि में िौ्
आये। श्रीगजनन म ाराज लसद्धयोगी थे।

॥ श्री गजानन विजय ग्रन्थ ॥


43
स्िस्ती य गजानन विजयग्रिंथ जगतके लिये सिंतमह मा जतानेका आदशिभत
ू ो

॥शभ
ु िं भित।ु श्री रर रापिणमस्तु ॥
।। इर्त श्री गजानन विजयग्रन्थस्य पिंचमोsध्यायः समाप्तः ॥

॥ श्री गजानन विजय ग्रन्थ ॥


44
|| अध्याय ६ ||

श्री गणेशाय नमः| े परमिंगि श्री री आपकी कृपा ोने पार सारे अशभ
ु दरू ोते ैं ऐसा सिंतोका अनभ
ु ि ै | उन
सिंतोके िचनोंपर विश्िास धारण कर मैं मिंगि कामनासे आपके द्िार पार आया ूूँ| यहद आप मझ
ु े विन्मख
ु िौ्ाते
ैं तो उसमें आपको दोष तो िगेगा ी ककिंतु सिंत िचन लमर्थया ोनेका दोष ोगा| अत: े माधि (मा- िक्ष्मी उनके
पर्त) आप मेरा अलभमान धारण करके अज्ञानी बािक पर रुष्् न ो| बािक का ीनपना माताको दोष कारक ोता
ै | (िोग माता को दोष दे ते ै कक, इसकी मा ठीक न ी, बािकको न ीिं) ऐसा विचार कर आपको जो करना ो सो
कररये|

इस प्रकार म ाराज बिंक्िािके घर र र े थे| इस समय एक घ्ना ु ई| गाूँि के दक्षक्षण में बिंक्िाि का एक बाग
था| ि ाूँ कई िोगों के साथ म ाराज मकाईके भट्ट
ु े खाने के लिये गये| एक कुएूँ के पास भट्ट
ु े भिंज
ू ने की तैयारी िोगोंने
की| कुआूँ बडा ग रा था| अपार जि भरा था| पास ी एक इमिीका बडा घना पेड़ था| मकई भिंज
ू ने के लिये जग
जग अद रे जिाये गये| जो करीब दस बार थे| ग्जससे किंडो का बडा धआ
ु ूँ ोने पर झिंड
ु के झिंड
ु िैि गई| उनके
उठनेपर सब िोग मकई छोडकर भागने िगे| तयोंकक, प्राण सबको वप्रय ोते ैं| कुछ कम्बि ओढकर भागे कुछ िैसे
ी भागे|

॥ श्री गजानन विजय ग्रन्थ ॥


45
य सब गडबड चि र ी थी| तब म ाराज आसन पर स्िस्थ ोकार बैठे थे| िे अपने मन विचार करने िगे ये
मधम
ु क्षक्षकायें मेरा ी रूप ै | इनका छत्ता भी मैं ी ूूँ | भट्ट
ु े खाने मैं ी आया ूूँ भट्ट
ु े भी मैं ी ूूँ (सिि रिग्ल्ििंद
ब्रह्मा), (अ िं ब्रह्माऽग्स्म) ऐसा विचार करते आनिंद मनन थे| इतनेमे उनके शरीर पर असिंख्य मधम
ु क्षक्षकायें आकार
बैठी| ऐसा िगता था की म ाराजने मधम
ु क्षक्षकाओिंका दस
ु ािा ी ओढा ै | अथाित उन ब्रह्मर्नष्ठ की योनयाताका िणिन
मैं न ीिं कर सकता| मधम
ु क्षक्षकायें म ाराजको का्ती थी, ककन्तु िे उनकी परिा न करके र्नश्चि बैठे र े | असिंख्य
कािं्े म ाराज के शरीर में थे| इस तर एक प्र र बीत गया| बिंक्िाि बडा द:ु खी ु आ| सोचने िगा क ाूँ से य
बग्ु ध्द मझ
ु े उपजी| मैंने ी म ाराज को भट्ट
ु े खानेको सब के साथ िाया| सो मैं ी इस दद
ु ि शा का कारण ूूँ | य कैसी
दद
ु ि शा और कैसा लशष्यत्ि! बिंक्िाि ि ाूँ आने िगे तब म ाराज ने एक कौतक
ु ककया| मधम
ु क्षक्षकाओिंको म ाराज ने
आदे श हदया, कक तुम सब अपने छत्ते पर चिी जाओ| मेरे बिंक्को मत का्ना| इस सब िोगोमे बिंक् ी मेरा
र्नग्स्सम भतत ैं जो मेरी तरि दौडकर आ रा ा ै| ि मधम
ु क्षक्षयाूँ अपने छत्ते पर चिी गई| जो बिंक्िाि ने
अपने आखोंसे दे खा| उसको दे खकर म ाराज िं सकर बोिे, 'बिंक्िाि, य भिी सरबराई की मक्षक्षकाओिंकी| दे खा, ये
मेरे शरीर पर आते ी भोजन भतत भाग खडे ु ए| सो बिंक्िाि य स्मरण रखो, सिंक् काि में ईश्िर ी स ाय
ोता ै , अन्य कोई न ीिं| पेडा-बिी िाडू खाने के लिये ये आगे ोते ै | सो ये सब भोजन भतत ै|'

बिंक्िािने मधरु िाणी में पछ


ू ा, ‘म ाराज, ये मधम
ु क्षक्षकाओके कािं्े र्नकािने के लिए मैं सन
ु ारको बि
ु ा िाता ूूँ |
म ाराज मैं म ापापी ूूँ | जो य ाूँ िा कर आपको कष्् हदया| आपके शरीर पर तमाम गािंठे उठ आई ैं| उसका परर ार

॥ श्री गजानन विजय ग्रन्थ ॥


46
आप मझ
ु े बतिाइये| ये सन
ु कर म ाराज बोिे, ‘अरे , इसमें तया विशेष ै | का्ना तो मधम
ु क्षक्षयों का स्िभाि ै|
उसकी मझ
ु े कोई बाधा न ीिं, ये भी सग््चदानिंदका ी स्िरुप ै| मधम
ु क्षक्षकाएूँ मेरा ी रूप ैं| सो पानी को पानी से
बाधा कैसे ोगी?’ य सन
ु कर बिंक्िाि ने सन
ु ारोंको बि
ु ाया, जो गचम्े िेकर आये| और म ाराजके शरीरके कािं्े ढूूँढने

िगे| सो म ाराज बोिे! ‘अरे ! इस बन्ध्यामैथन


ु से तया िाभ? तुम् े कािं्े न ीिं हदखेंगे| िो र्नकािनेके लिए गचम्ों की

जरूरत न ीिं, इसकी साक्षी में तम्


ु े बताता ूूँ ’| ऐसा क कर म ाराजने अन्तःमख
ुि कुम्भकसे िायक
ु ा अिरोध ककया,

ग्जससे सब कािं्े-चभ
ु े ु ए स्थािोंसे बा र र्नकि आये| य योगकिया दे खकर सब िोक बड़े आनिंहदत ु ए| बादमें
मकईके भट्ट
ु े भूँज
ू कर सबने खाए और सय
ू ािस्त के समय घर पर िौ् आये|

एक बार म ाराज अपने बिंधु नरलसिंगजीको लमिने अको् गए| जो भग्तत बिसे भगिान विठ्ठि के किंठमणण थे| इन

नरलसिंग जी म ाराजका समग्र चररत्र मैंने आपने भततिीिामत


ृ ग्रिंथमें इत्थिंभत
ू गाया ै, सो य ाूँ द ु ारने की आिश्यकता

न ीिं| य आको् गाूँि शेगाूँि के इशान्य हदशामें अठर कोस पर ै | पदनतोके कल्पतरु श्रीगजानन म ाराज मनोिेगसे

जानेको र्नकिे| अको्के पास एक जिंगिमें ये नरलसिंगजी म ाराज एकािंत की दृग्ष्् से र ते थे|

य र्नजिन कानन था, ज ाूँ अश्ित्थ तथा रातािंजन के िक्ष


ृ थे । ि ािं पर अनेक जाती की िताएिं थीिं | जो िक्ष
ृ ों से
लिप्ी ु ई थी | जमीन पर घास उगी ु ई थी । और जग जग सािंप की बािंबीयाूँ थीिं |ऐसे इस जिंगि में नरलसिंगजी

॥ श्री गजानन विजय ग्रन्थ ॥


47
जाकर बैठते, उनसे लमिने अचानक गजानन म ाराज आ गए ।सिंयोग समसमान का ोता ै |विजातीय द्रव्य का न ीिं |
पानी पानी से ी लमिता ै ,अन्य द्रव्य से न ीिं |

गजानन म ाराज को दे खकर नरलसिंगजी का मन आनिंहदत ो गया |ि प्रेम मझ


ु से क ा न ीिं जा सकता |उनमें से एक
साक्षात ् री (विष्ण)ु तो एक साक्षात ् र (म ादे ि) ,मानो एक भगिन दशरथनिंदन राम और एक िासद
ु े ि दे िकी निंदन कृष्ण |
एक िलशष्् मर्ु न तो दस
ु रे साक्षात ् पराशर |एक साक्षात ् गिंगा का ककनारा तो दस
ू रा गोदािरी त् |एक कोह नरू ीरा तो दस
ू रा
कौस्तुभ मणण |एक विनता के पत्र
ु गरुड़ तो दस
ु रे अिंजनी कुमार नम
ु ान |दोनों परस्पर लमिे और अत्यानिंहदत ोकर एक आसन
पर बैठे |अपने अपने अनभ
ु िों का दोनों ने कथन ककया |म ाराज बोिे' ,नलसंगजी आप प्रपिंच में र े ये बड़ा अ्छा ककया |मैनें
योगमागि का अनस
ु रण कर उसका त्याग ककया और सग््चदानिंद तत्ि का विमशि ककया |इस योग की किया में अनेक अघह्त
घ्नाएिं ोती ैं ग्जसका ज्ञान सामान्य जनों को न ीिं ो पाता ै |उन घ्नाओिं को छुपाने के लिए ठात में उन्मत का रूप
धारण कर मैं जगत में विचरण करता ूूँ |तत्ि जानने के सिंसार में तीन मागि ैं |कमि भग्तत और योग ऐसा शास्त्रकारों ने
शास्त्रों में बताया ै |इनका परम िक्ष्य िि एक ी ै |

ककन्तु उनका बाह्य स्िरुप लभन्न लभन्न ै |यहद योगी योग किया का अलभमान रखे तो उसे सत्य तत्ि का बोध न ीिं
ोगा |योग पररपति कियािान उसके अलभमान से अलिप्त र ता ै |जि में र ने िािा कमिपत्र जि से अलिप्त ोता ै ,तो
ी उसे तत्ि ज्ञान ोगा |इसी प्रकार प्रापिंगचक प्रपिंच में र े ु ए भी कन्या पत्र
ु की आसग्तत न ीिं रखनी चाह ए |जैसे गार पत्थर
पानी में र ता ै पर लभजता न ीिं ै |इस प्रकार आपको अपेक्षा रह त र ना चाह ए |उसी प्रकार सग््चदानिंद ब्रह्मा का विस्मरण

॥ श्री गजानन विजय ग्रन्थ ॥


48
कभी न ीिं ोना चाह ए |आप और में लभन्न न ीिं ैं | मसे भगिान विष्णु लभन्न न ीिं ै |(तत्िमलस ) जनता जनादिन लभन्न
न ीिं ै "|नलसंगजी बोिे ,बिंधरु ाज आप मसे लमिने आये ये अनप
ु म प्रसिंग ै |आपकी म ान दया ै |प्रपिंच मि
ू तः आशाश्ित
ै दोप र की छाया समान ै |उसको सत्य कौन मानेगा ?आपके कथन अनस
ु ार ी मेरा ितिन ोगा ,ककन्तु आप सदे ि लमिते
रह एगा |ग्जसका जैसा दे प्रारब्ध ै िैसा ी ोगा |आपको मको ग्जस कायि के लिए परम वपता परमेश्िर ने भेजा ै ,उसे
आिस्य रह त करना ी ै |प्राथिना इतनी ी ै की सदे ि लमिते र ो ,भरत निंदीग्राम में जैसे भगिान राम की रा दे खते र्निास
करते थे िैसे ी में आपकी य ाूँ आको् में रा दे खता र ूूँ गा |आपका य ाूँ आना अत्यिंत सि
ु भ ै |तयिंकू क सारी योगकियाएिं
आपको ज्ञात ैं |योग्नसवद्धयाूँ आपको प्राप्त ै |जैसे जि का स्पशि पैरों से न ोते ु ए योगी क्षण भर में बत्रभि
ु न का क्षोध िे
सकता ै ,िैसे आप ो |ऐसा रात भर दोनों का गूढ़ वििाप ोता र ा |दोनों के सिंयोग से मानों आनिंद में भरती आ गयी थी |जो
स्चे सिंत ोते ैं उनका इस प्रकार सिंयोग ोता ै |

ककन्तु जो दाग्म्भक ोते ैं उनका परस्पर कि ोता ै |दाग्म्भक गुरु का िैसे ी उपयोग न ीिं ोता जैसे नदी की बाढमें
्ू्ी ु ई नौका का |सिंतत्ि मठ में न ीिं ै |विद्व्ता में न ीिं ै |कवित्ि में न ीिं ै तयोंकक सिंतत्ि के लिए स्िानभ
ू त
ू ी की आिश्यकता
ोती ै |मि
ु ामा चढ़ाया ु आ सोने का कोई उपयोग न ीिं जैसे िैश्यों को घर में पत्नी करके रखने में उपयोग न ीिं ै |ये दोनों
स्चे सिंत थे |य ाूँ सन्नर्त और सदाचार का र्निास था |गजानन म ाराज नलसंगजी को लमिने आको् आये ैं ,ऐसा समाचार
एक चरिा े गोपाि ने गाूँि में हदया |जो सन
ु कर गाूँि के िोग बड़े आनिंहदत ु ए और नाररयि िेकर जिंगि की तर जाने िगे |
परस्पर म ाराज का आगमन बताने िगे |चिो ,गिंगा ,गोदािरी का सिंगम ु आ ै |सो म िोग पििणी पर सिंत समागम रूपी

॥ श्री गजानन विजय ग्रन्थ ॥


49
प्रयाग में स्नान करें गे |अब इधर ऐसा ु आ की म ाराज नलसंगजी अनज्ञ
ु ा िेकर ि ािं से र्नकि गए |ग्जससे ग्राम िासीयों को
उनका दशिन न ीिं ु आ|

एक बार म ाराज अपने लशष्यों के साथ भ्रमण करते ु ए दयािपरु के पास प ुिं चे |ि ािं दयािपरु के पास एक छो्ा सा लशिर
गाूँि नाम का दे ात था, जो चिंद्रभागा नामक नदी के ककनारे था |श्रोतागण ये चिंद्रभागा पिंढरपरु की चिंद्रभागा न ीिं, अवपतु दयािपरु
के पास एक छो्ी सी नदी ै जो पयोष्णी नदी को लमिती ै |इस लशिर गाूँि में िज्रभष
ु ण नामक पिंडडत र ता था |ि भगिन
स स्रग्श्म भास्कर का एकर्नष्् भतत था |ग्जसके विव्दत्ता की गररमा सारे बरार में िैिी थी |य प्रर्तहदन चिंद्रभागा पर
विगधपि
ू क
ि स्नान करके उदयमान भगिन भास्कर को अध्यि प्रदान करता था|

ब्राह्म्य मु ू ति में उठकर उष:काि में िज्रभष


ु ण प्रातः विगध से र्नित
ृ ोकर शीति जि से स्नान करता |इस प्रकार कमिठ ोने
पर भी पिंचकोसी में उसकी विद्िता की मान्यता विद्धानों में थी |

योगीराज भ्रमण करते ु ए इस लशिर गाूँि में आये |मानो िज्रभष


ु ण को उसकी तपस्या का िि दे ने को े ि ािं आ गए ैं |
चिंद्रभागा के ककनारे बाकुि में ज्ञानयोगी बैठे थे |सामने नदी ककनारे िज्रभष
ु ण प्रातः काि ि ािं आया |उषः काि के समय दसो
हदशायें प्रकाशमान ो र ी थीिं |बीच बीच में कुतकु् का उ्च स्िर सुनायी पड़ र ा था |चातक तथा भारद्िाज पक्षीगण रात्री
समाप्त ोने से जाने िगे |िे भगिान भास्कर की ओर पि
ू ि हदशा में मानों उनका स्िागत करने जा र े ो |भगिान भास्कर का
उदय ोते ी िैसे ी अिंधकार नष्् ो गया, जैसे सभा में पिंडडतगण आने पर मख
ु ि उठ कर चिे जाते ैं | ऐसे इसी ब्रह्ममु ु ति में
गुरुदें ि ् ब्रह्मानिंद में डोि र े थे |अपार लशष्यगण मिंडिाकार बैठे थे| मानो िे श्री गजानन रुपी भास्कर की ककरण ो |ऐसे समय

॥ श्री गजानन विजय ग्रन्थ ॥


50
में िज्रभष
ु ण िस्तुतः सय
ू ि को अध्यि दे ने के लिए आया |सो सामने ज्ञान सय
ू ि का दशिन ु आ |सय
ू ि के समान तेजस्िी कािंती |
आजानब
ु ा ू मत
ू ी और जीकी द्रष््ी नालसका के ऊपर ग्स्थर थी |ऐसे म ापरु
ु ष को दे खते ी िज्रभष
ु ण म ान आनिंहदत ु आ |
सिंध्या की सामग्री िेकर उनके सामने आया |म ाराज के चरणों पर अध्यि हदया प्रदक्षक्षणा की और लमत्राय नम: :भानिे नम :,:
सय
ू ािय नम :, :खगाय नम :आहद मन्त्रों के उ्चारण सह त म ाराज को बार बार नमस्कार ककये |अिंत में साष््ािंग दिं डित
करके बोिा ,भगिन !आप के चरण कमिों का दशिन कर आज मेरा जीिन कृताथि ो गया |

य मेरे तपाचरण का िि आज प्रत्यक्ष प्राप्त ो गया |आकाशस्थ भास्कर को मैं रोज़ अध्यि प्रदान करता था |ककन्तु
आज प्रत्यक्ष ज्ञान्भास्कर को दे खकर अध्यि प्रदान करके मैं धन्य ो गया | े योगेश्िर पण
ू ि ब्रह्मा ज्ञान राशी यग
ु ानय
ु ग
ु में आप
अितार धारण करते ो | े जगा्चािक !आपके दशिन से भिरोगरूपी गचिंता का नाश ो जाता ै | ै गजानन गरु
ु !आप
मझ
ु पर कृपा कररए ऐसी प्राथिना की |तब योगेश्िर म ाराज ने उसे दोनों बा ू िैिाकर दृड़ आलििंगन ककया |मस्तक के ऊपर ाथ
रखा और बोिे ,सििदा तुम् ारी विजय ोगी |कमिम्राग न ीिं छोड़ना |ये कमिमागि की विगध र्नरथिक मत मानो ,ककन्तु उनमें
आसग्तत न ीिं रखना |कमों का आचरण करके जो कमि िि की आशा न ीिं रखता ,उसे त्याग दे ता ै , उसे अिश्य घन:श्याम
के दशिन ोते ैं |और कमि का मि उसे कभी न ीिं िपे्ता |ब्रह्मण्याद्याय कमािणणसङगत्यकत्त्िा करोर्तयः |लिप्यते न स
पापेन पद्मपत्रलमिाम्भसा ||गतायत
ु तः कमििििंत्यतत्िा शािंर्तमान्पोर्त नैग्ष्ठककम ||

अब तुम अपने घर जाओ मेरा िचन सदा ध्यान में रखना |प्रर्तहदन तुम् ें ध्यान में मेरे दशिन ोंगे |ऐसा क कर प्रसादरूप
में उसे श्रीिि हदया |बाद में म ाराज शेगाूँि आगये |

॥ श्री गजानन विजय ग्रन्थ ॥


51
इस शेगाूँि की ख्याती ब ु त ै |प्राचीन काि में िस्तुतः इसका नाम लशिगाूँि था |ग्जसका अपभ्रष्् रूप शेगाूँि ै |बरार
में इस काि य ी नाम प्रचलित था |इस गाूँि में प िे १७ (सतर ) प्े ि थे |म ाराज शेगािंि आये थे ककन्तु ग्स्थर न ीिं र े ,
सदे ि मन में आये ि ािं भ्रमण करते ैं|

आको्, आकोिा मिकापरू आहद में क ाूँ तक नाम बताऊूँ? तारों की गगनती तया कभी ो सकती ै |ज्येष्ठ म ीना तथा आषाढ़
म ीना समाप्त ोकर श्रािण मास शरू
ु था |इस समय नम
ु ान जी के मिंहदर में उत्सि शरू
ु था |ये भव्य मिंहदर था और प्े ि
िोग उन् ें इष्् मानकर भग्तत करते थे |जैसे पल्
ु िी का बिंधन ोता ै ,िैसे प्े ि गाूँि के लिए बिंधन ोता ै (सबको एकत्र जोड़ता
ै ) जो कुछ उसे वप्रय ोता ै ि ी सब िोग करते ैं |इस श्रिण मास में अलभषेक, परु ाणपठन कीतिन इत्याहद य ाूँ ोते थे और
अन्नसिंतपिण की तो मनो बाड़ ी आ जाती थी |सब िोग तप्ृ त ो जाते थे |श्रोतागण प्े ि की य व्याघ्र चमि धरने के समान
ै |जो धारण करता ै उससे िोग डरने िगते ैं |मराठी में एक क ाित ै के जो 'राजा न ीिं कर पाता ि गाूँि कर सकता ै
|'उस नम
ु ानजी के मिंहदर में पण्
ु यपिंज
ु गजानन म ाराज आये |बिंक्िाि से क ा, श्रािण म ीने में उत्सि वप्रत्यथि मैं मिंहदर
में ी र ूूँ गा |ग्जसकी गचिंता न करना |गुसाई सन्यासी को सदे ि प्रापिंगचक के घर में र ना ठीक न ीिं |में परम िं स सन्यासी ूूँ |
अब मिंहदर में र ूूँ गा, ग्जस हदन तुम बि
ु ाओगे उस हदन केिि आऊूँगा |ऐसी अन्दर की गुप्त बात तुम् ें बताई |साथ ी बताया
की भगिान ् शिंकराचायि को भी सन्यास ग्र ण करने के बाद भ्रमण करना पड़ा था |मर्छन्दरनाथ, जाििंधरनाथ आहद सन्यासी
भी प्रापिंगचकों का ग ृ छोड़कर सिंगत में िक्ष
ृ ति र्निास करते थे |छत्रपर्त लशिाजी म ाराज ग्जन् ोनें अपने शौयि से ,रणप्ुत्ि

॥ श्री गजानन विजय ग्रन्थ ॥


52
से ह न्दिी राज्य की स्थापना की ,ह न्दओ
ु िं का रक्षण ककया ,यिनों का दमन ककया ऐसे लशिाजी समथि रामदास म ाराज के
लशष्य थे|

उनपर अ्ू् श्रद्धा थी |िे रामदास सज्जनगढ़ जिंगि में र ते थे |ऐसा विचार करके ठ बबिकुि न करना |मेरा क ना मानने
में ी तम्
ु ारा कल्याण ै |य सन
ु कर र्नरुतर ोकर बिंक्िाि ने म ाराज की इ्छा को सिंमती दी|

मिंहदर में म ाराज के र्निास के लिए आने पर सबको बड़ा षि ु आ और भास्कर पाह्ि सेिा के लिए र्नरिं तर पास
र ने िगा |य दासगणू विरगचत श्री गजानन विजय नामक ग्रन्थ मम
ु क्ष
ु ु जनों को सिंतचरण सेिा का मागि बताये |

||शुभिंभितु ||श्री रर रापिणमस्तु ||

||इर्त श्री गजानन विजय ग्रिंथस्य षष्ठोऽध्यायः समाप्तः ||

॥ श्री गजानन विजय ग्रन्थ ॥


53
॥ अध्याय ७ ॥

श्री गणेशाय नमः। े सीतापर्त राघिेन्द्र, सिंत जनोंके विश्राम मेघशाम, दाशरथी राम ,आपकी जय ो भगिन !
आपकी कृपासे बिंदर भी बििान ो गये और ििंकागधपर्तका ििंकामे नाश ककया। आपकी कृपा ोनेपर मनष्ु य विजयी
ोता ै । जो जो इ्छा करता ै ि कायि पण
ू ि ोते ै। ग्जसपर राजाकी कृपा ोती ै, ि मिंत्रीकोभी वप्रय ोता,
भिे ी ि ककतनाभी छो्ा ो। े प्रभो , ऐसी अमोघ कृपाकी पात्रता तया मझ
ु में ै ? ऐसा विचार करनेपर मझ
ु े
िगता ै कक न तो मझ
ु को ज्ञान ै न र्नग्स्सम भग्तत। सो ऐसी अिस्थामे े पािंडुरिं ग ! मझ
ु पर ऐसी कृपा कैसे ोगी
? ककन्तु सदै ि इस प्रकारके मनोरथ करता र ता ै कक जगत्पाि ! मझ
ु पर कृपा कैसे ोगी ?ककन्तु आशा ऐसी ै
की आपका पापीजन उद्धरण का ब्रीद ी ऐसी परु ाणमे साक्ष ै। पण्
ु यिान िोगोंका उद्धार करना तो खास बात ै ी
न ीिं। जो पातकी िोगोंका उद्धार करता ै ि ी श्रेष्ठ ै । आप पातककयोंका उद्धार करते ै य ी आपकी श्रेष्ठता ै ।
मेरे जैसा कोई पातकी न ीिं सो उसका (दासगणक
ू ा ) उद्धार करके आप अपने ब्रीद का रक्षण कीग्जये। े नारायण !
मै आपकी अनन्य शरण ूूँ ! परु ाण क ते ै ,'नारायणो नाम नरो नराणािं प्रलसद्धचौराः कगथतः पर्थ
ृ िीव्याम। नारायण
नाम प्रलसद्ध चोर आज पर्थ
ृ िीपर ै , जो जनोंके र्नशेष पापोंकी चोरी करता ै । अस्तु। य नम
ु ानजीका श्रािण म ीनेका
उत्सि गणेश कुिोत्पन्न पा्ीि के नेतत्ृ िमें ोता था।

य पा्ीिोंका घराना अर्त प्राचीन ै । तथा कनक धनसिंपन्न भी ै । कृवषका भी ब ु त विस्तार ै। प िेसे ी इनके
घरानेमें सिंत सेिा थी। उसपर पा्ीिकी प्राप्त ो गई, सो कुछ पछ
ू ना ी न ीिं। म ादजी पा्ीि को दो पत्र
ु थे, ग्जसमें
बड़ेका नाम था कडताजी और छो्े पत्र
ु का नाम था कुकाजी, जो भगिान पिंढरीनाथ का भतत था। इस घरानेको

॥ श्री गजानन विजय ग्रन्थ ॥


54
नागझरीके गोमाजी म ाराज का उपदे श था। कड़ताजी पा्ीि को छः पत्र
ु थे। कुकाजी भानयिान जरूर था ककन्तु
उसे पत्र
ु न ीिं था। कडताजीके म्रत्ु यु के कुकाजीने सभी पत्र
ु ोंका पािन, जन्मदाता वपता के समान ककया ।कुकाजी के
कायिकाि में अत्यिंत समद्ध
ृ ािस्था प्राप्त ो गई। ग्जससे उनके घरमे अष््लसवद्ध प्राप्त ो गई। कुकाजी पा्ीि के
बाद खिंडु पा्ीि जो छ ोमें बड़ा था , कारभार दे खने िगा। ग्जसके आगे ककसीकी कुछ न ीिं चिती थी। इसके
अन्य पाूँच भाइयोंके नाम इस प्रकार थे। गणपती , नारायण, मारुती, री और कृष्णाजी। प िे ी पा्ीि, किर ाथमे
सत्ता और घरमें िक्ष्मीका र्निास किर तया क ना ? सब भाई अखाडा िो्ते थे और समयानस
ु ार दािंडपट्टा इत्याहद
सीखते तथा मल्ियद्ध
ु करते। ग्जसमें री पा्ीि को मल्ियद्ध
ु का प्रेम जादा था। नम
ु ानके उत्सि के समय जो
कुछ ये बोिते ि ी गाूँिमें ोता था। गािमे प्रायः मारपी् और अन्य कि ोते ी र ते थे, जो इनके कारण थे।
पा्ीि सबको एक ी तराजूमें तौिता, छो्ा , बड़ा कुछ न ीिं गगनते। मनमें आता सो बोिते। न साधु सज्जन
जानते न सामान्य। ये पा्ीि बिंधग
ु न मिंहदर में आकर म ाराजकी कुचेष््ा करने िगे। क ते , गण्या -पागि !
तया छाछकनी खाओगे ? ऐसी ीनताकी बाते म राजसे करते।

उनमेसे एकाद क ता, चि मसे मल्ियद्ध


ु कर। िोक तुझे योग योगेश्िर कह्ते ै सो मभी दे खें तु कैसा ै ? यातो
इसकी प्रर्तर्त लसद्ध करो या मार खाओ । म छोड्नेिािे न ीिं। म ाराज मौन धारण करके रह्ते, कुछ न ी बोिते।
इस प्रकारका अ िं कारी ितिन िे म ाराजके साथ सदै ि करते । म ाराज -सकर ्ाि दे ते । भास्कर पा्ीिने म ाराजसे
क ा, म ाराज चलिये, अकोिी चिे चिते ै । य ाूँ मिंहदरमें न रह ये । ये गििके कारण उद्दिंड ो गये ैं । धनसे
मदमत्त ो गये ैं । पा्ीि ोनेसे इनकी सत्ता ै , ककसीका कुछ चिता न ीिं । गजानन म ाराजने भास्कर पा्ीिसे
क ा," थोडा धैयि धारण करो, ये सब मेरे परमभतत ै ककन्तु इनमें नम्रता न ीिं ै ककन्तु इनका अिंतरशोध करो तो

॥ श्री गजानन विजय ग्रन्थ ॥


55
तुम् ें पता चिेगा । इनके कुिपर सिंत कृपा ै । ये सब मेरे पत्र
ु ै । उद्दिंडता ी सत्ताकी प चान ैं अन्यथा गायके
घर िाघका तया प्रभाि पडेगा? य ी इनका भष
ु ण ै । अगर तििार नरम ोगी तो उसका तया उपयोग? य इनकी
उद्दिंडता चिी जायेगी, जरा ठ रो जैसे िषािका जि शरद ऋतम
ु े र्नमिि ो जाता ै "। एक रोज रर पा्ीि मिंहदरमे
आया और म ाराजका ाथ पकडकर क ने िगा मसे मल्ियद्ध
ु करो। केिि ’गण गणगणािंत बोते’ बोिते मत बैठो।
मैं तुमको मल्ियद्ध
ु में पराग्जत करूूँगा। तुम् ारा बडा बोिबािा ो गया ै , ग्जसकी प्रगचती आज करें गे। ग्जससे सत्या
सत्यका पता िग जायेगा। य समथिने मानकर दोनों अखाडेमें गये। ि ाूँ म ाराजने तया कौतक
ु ककया सो सन
ु ो।
म ाराज भलू मपर बैठ गये और रर पा्ीिसे क ा ’अगर तुम िास्तविकमें मल्ि ो तो मको भलू म से उठाओिं ।
य सन
ु कर रर पा्ीि म ाराज को भलू मपरसे उठानेका प्रयत्न करने िगा, ककन्तु व्यथि।

कई दाूँिपेच िगाये, बडी ताकतसे उठानेका प्रयत्न ककया ककन्तु म ाराज तीिभर न ह िे। य पलसनेसे न ा गया
और सोचने िगा की य कृश जरुर ै ककन्तु म ान शग्ततशािी ै अचि पिितके समान अडडग ै। मारी अनेक
कुचेष््ायें इन् ोने स िी, य इनका बडप्पन ै । अन्यथा ये म ान शग्ततशािी ै । म िोग लसयारके समाने ै और
ये गजराजके समान बििान ै । य ी कारण ै कक , इन् ोंने मारे तरि ध्यान न ी हदया। जैसे श्िान भूँक
ू ते र ते
ै ककिंतु लसिं उसकी परिा न ीिं करता। अब इनके चरणोंमें मस्तक रखाना ी योनय ै । आजतक मैंने
ककसीको लसर न ीिं नमाया। म ाराज रर पा्ीिसे बोिे 'अब में परु स्कार दो न ीिं तो मल्ल्यद्ध
ु में
पराग्जत करो। बिराम और कृष्णने मल्ियद्ध
ु ककया था। किंसके दे रक्षक मग्ु ष््क और चाणरू को
बिराम और कृष्णने मल्ियद्ध
ु करके मारा था। तुम् ारे समान पत
ू नाका शत्रु एक पा्ीि यमन
ु ा त्पर
था। ग्जसने गोकुिके सारे बािक बििान ककये थे। यातो तुम िैसा करो अन्यथा पा्ीि नाम छोड़

॥ श्री गजानन विजय ग्रन्थ ॥


56
दो। य ी मारा परु स्कार ै" । य सुनकर रर पा्ीि बोिे, 'म ाराज! आपकी कृपा यहद ोगी तो शेगाूँिके सब
ब्चोंको मै बििान बनाऊूँगा। और उसहदन से रर पा्ीिने उददिं डता और म ाराजको उल््ासीधा बोिना त्याग
हदया।

य रर पा्ीिकी कृती दे खकर उनके अन्य भाई बोिे, "भैया, इस जोगडेसे आप तयों डरते ैं । समझ न ीिं पडता।
म िोग पा्ीिकुमार ै , गाूँिके सत्ताधारी ै , किर आप उसके चरणोंमें माथा ककसलिये ्े कते ो? इस पागि
का पाखिंड ब ोत बढ गया ै । उसका कोई रास्ता र्नकािना चाह ये ।

िोगोंको इसी पाखिंडसे बचाना चाह ये। अगर मिोग ऐसा न ीीँ करते तो अपने कतिव्यसे ्यत
ु ोते ैं।
मिंद िोग साधक
ू ा िेष िेते ैं, ्े ढी कियायें करते ैं। औरतोंको िूँसाते ैं, इसका विचार करो। सोना
जबतक कसौ्ीपर कसा न ीिं जाता तब तक उसकी परख न ीिं ोती। तक
ु ाराम म ाराजकी शािंर्त गण
ु ोंसे पता
चिी। ज्ञानेश्िर म ाराजने भैंसासे िेद पठन करिाकर परीक्षा दी,सो जबतक परीक्षा न िी जाय तब तक अस्थानमें
मान दे ना ठीक न ीिं ै । आज म िोग इनकी परीक्षा िेंगे। एक गन्नेका भारा िाते। इस तर िे गन्नेका भारा िेकर
मिंहदर मेँ प ुूँ चे और म राजसे बोिे ,अरे पागि ! गन्ना खाना ै तया ?अगर खाना ै तो मारी एक प्रतीज्ञा ै । म
िोग गन्नोसे तुम् ारे ऊपर प्र ार करें गे अगर तुम् ारे शरीरपर उसके गचन् न प्रग् ो तो म मानेंगे कक ,तम
ु योगी
ो। ''य सन
ु कर म ाराज कुछ न ी बोिे ,सज
ु ान जन बािक चेष््ा कक और िक्ष्य केन्द्रीत न ीीँ करते'उनमें से मारोतीने
क ा ,'अरे ,य डर गया ै और गन्नोके प्र ार स नेको तैय्यारन ीीँ। उसपर गणपतीने क ा ,'मक
ु ता ी सम्मर्त ै सो
अब दे खते तया ो ,िगाओ। य सन
ु कर दोनो -तीनोनें गन्ने िेकर दौड़कर म ाराजको मारनेके लिये समीप आये।

॥ श्री गजानन विजय ग्रन्थ ॥


57
य दे खकर मिंहदरमे आये
ु ए स्त्री -परु
ु ष भाग\खड़े ु ए। म ाराजके पास अकेिा भास्कर र गया। उसने ब्चोंको
क ा ,अरे म ाराजको गन्नेसे मारना ठीक न ीिं। तम ु िोग पा्ीि कुिोत्पन्न ो,तम्
ु ारे हृदयमे दया ोनी चाह ये किर
ये तो म ासाधू ै , किरभी इन् े दीन - ीन जानकर तम्
ु ें छोड़ दे ना चाह ये। जो उत्तम अ े री ोते ै िे िाघकी लशकार
करते ै ,गचड़ठे की न ीिं। नम
ु ानजीने रािणकी ििंका जिाई, दीन दब
ु ि
ि ोके झोपड़े न ीिं।

य सन
ु कर ब्चोंने उत्तर हदया, हठक ै , मने आपका सब कथन सन
ु ा । गाूँिमें सब िोग इनको योगयोगेश्िर क ते
ैं । सो इनका योग दे खने के लिये म िोग आये ैं ।आप दरू खडे रह्कर केिि गम्मत दे णखये। ऎसा कह्कर गन्ने
ाथमें िेकर म ाराजपर प्र ार करने िगे । जैसे खरी ान में ककसान गे ू ूँकी बािीयाूँ पी्ते ैं । ककन्तु म ाराज अचि
बैठे र े । ब्चोकों दे खकर ॅसते र े और उनके शरीरपर क ीिं भी ककसी प्रकारकी चो्का गचन् न ीिं र्नकिा । य
दे खकर सब बािकगण डर गये और र्नश्चय ककया कक िास्तिमें ये योगयोगेश्िर ैं ।अब इनके चरण पकडे । किर
म ाराज बोिे, ’अरे बािकों तम ु ने ब ु त पररश्रम ककया, मझ
ु े मारते-मारते तम्
ु ारे ाथ दख
ु गये ोगे, बैठो, मैं तम्
ु े
इक्षुरस वपिाता ू ूँ, ऐसा क कर म ाराजने ाथ से ी दबाकर एक पात्रमें इक्षुरस र्नकािा ।सब भारे के गन्नोंका रस
ाथ से र्नकािकर र्नचोडकर बािोंको वपिाया । ग्जससे उन् े बडा आनिंद ु िा ।सब िोग क ने िगे, य योगशग्तत
ैं । जो योगकियासे प्राप्त ोती ै इसको क्षीणता न ीिं ै यद्यवप पष्ु ्ीकर पदाथोसेभी शग्तत प्राप्त ोती ै ककन्तु
ि इसीतर सदै ि न ीिं रह्ती । यहद राष््को बििान बनाना ै तो योगका अििम्बन करो । इस तत्िकी सच
ू ना
दे नेके लिये ी म ाराजने ाथसे गन्नोंका रस र्नचोडा ।इसके बाद सब बािक म ाराजकी चरण ििंदनाकर चिे गये ।
य सारी बातें पा्ीि बिंधओ
ु िंने जाकर अपने ज्येष्ठ बिंधु खिंडू पा्ीि से बतायी कक,अपने गाूँिमें साक्षात ईश्िर आया
ै ।

॥ श्री गजानन विजय ग्रन्थ ॥


58
य म िोगोने प्रत्यक्ष अनभ
ु त
ू ककया । ि भी आश्चयिचककत ो गया । इस के बाद ि भी म ारजके दशिन को
आने िगा ।ि बडी खडी बोिी बोिता था उसके िाणीमें बबिकुि मादि ि (नम्रता) न ीिं थी ।ि म ाराज को ’गज्या-
गण्या’ ऐसा तु करके सिंबोगधत करता था ।य तक
ु े री के दो कारण ोते ैं ।ज ाूँ अत्यिंत प्रेम ोता ै ि ाूँ सन्मान
दशिक भाषा दरु ािसी प्रतीत ोती ैं ।जैसे माता पत्र
ु में िाताििप ।अब दस
ु रा कारण ै आदत, पा्ीि िोग सदै ि नोकर-
चाकरसे तुकेरीमें ी बात करते ैं । सो ि ी आदतसे ग्जस ककसीसे भी िे बोिते ै तो तुकेरी शब्द ी र्नकि पडते ैं
।उसमे उनका ेत ीनता बतिानका न ी ोता बस य ी कारण य ा ठीक बैठता ै यद्यवप आदतके अनस
ु ार ि
म ाराज को गण्या-गण्या क ता ककिंतु हृदयमें अत्यिंत प्रेम उनके प्रर्त था ।जैसे नाररयि का बाह्रयकिच अत्यिंत कठोर
ोता ै ककन्तु अन्दर रसाि मीठा जि तथा मधरु नरम गुझा ोता ै । य ाूँ य ी प्रकार था। (इसीको साह त्यमें
नारीयि पाक कह्ते ै)

कुकाजी बढ
ु े ो गये थे । सो खिंडु कायििह्न करता था । एक रोज कुकाजीने खिंडुसे क ा “अरे , तिंु प्रर्तहदन म ाराजके
पास दशिन को जाता ै ,किर ि ाूँ तेरी िाचा कैसे मक
ू ो जाती ै ।तुम् े बािब्चे न ीिं सो मैं नाती दे खना चाह्ता ूूँ
। आज म ाराजसे प्राथिना करो, िे सम्रथि ै और करुणा मािंगो कक एकाद सिंतती प्रदान कीग्जये ।यहद िे स्चे साधु
ै तो मेरे मनोरथको अिश्य पण
ु ि करें गे । साधप
ु रु
ु षके लिए, तीनो िोकोमें कोइ कायि असम्भि न ीिं ।सो सिंतो के ोने
का कुछ िाभ उठाओ । य खिंडु ने सन
ु लिया और एक हदन नम
ु ानजीके मिंहदरमें म ाराजसे बोिा, अरे गण्या- मेरे
काका बढ
ु े ो गये, उन् े नाती दे खने की इ्छा ै ।

॥ श्री गजानन विजय ग्रन्थ ॥


59
तुम को सब िोग साधु कह्ते ै और तुम् ारे दशिनसे सब मनोरथ पण
ु ि ोते ै ऐसा िोग क ते ै । उसकी प्रचीती
जल्दीसे बताअओिं दे र मत करो ।मेरा लशर तम्
ु ारे चरणों में ै किर भी मैं र्नपबु त्रक तयों? य सन
ु कर म ाराजने
क ा, "य अ्छाु आ की, आज तमु ने मसे याचना की । सत्ता-धन सबकुछ तेरे पास ै और तू तो प्रयत्निादी
भी ै , अथाित सबकुछ यत्न साध्य ै , ऐसा तझ
ू े िगता ै , कफ़र मसे प्राथिमरे ीना करनेका तया कारण, धन और
बिसे सबकुछ ोथा ैं किर य कयों न ीिं? तुम् ारी बडी खेती ै , दक
ु ानें ै , कारखाने ै और पेहढ़याूँ ै । तुम् ारा क ा
सब िोग सन
ु ते ै । किर ब्रम् ाज़ीको तयों पत्र
ु के लिये आज्ञा न ी दे त,े य ी समस्या मेरे सामने ै "।

तब खिंडू पा्ीिने क ा,"य यत्नाधीन न ीिं ै । कृवषमे अनाज पानीसे पैदा ोता ै ककिंतु पानी गगराना मानिके ाथ
न ीिं ि दै िाधीन ै । तयोंकक िषाि न ोने पर कृषी र ते भी अनाज न ी पकता और अकाि पड जाता ै । ि ाूँ मानि
यत्न काम न ीिं आता। य सन
ु कर म ाराज ने क ा, ठीक ै , तुमने मझ
ु से याचना की और याचना करना भीख
माूँगना ी ै सो तम्
ु े जो बािक ोगा उसका नाम लभखाजी रखना । िस्तत
ु ः पत्र
ु दे ना मेरे ाथमे न ीिं किर भी मैं
भगिानसे तम्
ु ारे लिये प्राथिना करुिं गा । मेरी अभ्यथिना भगिान अिश्य सन
ु ेंगे, उनके लिये ये कोई बडी बात न ीिं ।
तुम घरके सिंपन्न ो । सो ब्राम्ह्णोंको आम के रसका भोजन दो । मेरा य िचन प्रमाण ै । तुम् ें पत्र
ु अिश्य ोगा
और तुम प्रर्तिषि ब्राम्ह्णोंको आम्ररस का भोजन ककया करना" घर आिर खिंडुजीने कुकाजी को मिंहदरका िाताििाप
बताया । य सन
ु कर कुकाजीको बडा आनिंद ु आ ।

कुछ हदन बबतनेके बाद खिंडू पा्ीिकी पग्त्न ग्जसका नाम गिंगाबाई था, गभििती ु ई। तथा नौ मास पणू ि ोनेपर
उसको पत्र
ु जन्मा। जो सन
ु कर कुकजीको अपार षि ु आ। उसने ब ु त दान धमि ककया, गऱीब जनोंको गळु तथा गे ूूँ

॥ श्री गजानन विजय ग्रन्थ ॥


60
दान में हदया। गाूँिके ब्चोंको पेड़ा- बिी बाूँ्ी। बड़ी धम
ू धामसे उस पत्र
ु का नामकरण सिंस्कार ु आ। सो म ाराजके
आदे शानसु ार उसका नाम भीकू रखा। ततपश्चात ब्राह्मणोंको आमरस की पिंग्तत दी, जो परिं परा शेगाूँिमें आज भी चि
र ी ै। य भीकु शत
ु ि पक्षके चन्द्रमा के समान बढ़ने िगा। म ाराजकी कृपा से सिंद
ु र बािक पा्ीि के आूँगन
में िीड़ा करने िगा। य पा्ीि का िैभि दे शमख
ु ोंको अ्छा न िगा। शेगाूँिमें प िेसे ी पा्ीि तथा दे शमख
ु में
िैमनस्य था। दोनोंके ह्रदय एक दस
ु रे के लिये किवु षत थे। र कोई अपने अपने दाूँिपेच में र ता था। सिंगध लमिनेपर
एकमेकका घात करनेका प्रयत्न करते थे। दो शास्त्री, दो मिंत्री, दो तिंत्री तथा दो श्िान जब सामने आते ैं तो अिश्य
एकमेक पर गुरािते ैं। ऐसा ी कुछ बनाि शेगाूँि था। ये परस्पर विरुद्ध थे उनमे एकता कभी न ीिं ु ई।

बादमे कुकाजी पिंढरपरु मे भीमात् के उपर नातीका मख


ु दे खकर स्िगििासी ो गये। ग्जससे खिंडू पा्ीि बड़ा उद्विनन
ो गया, सोचने िगा ककिं मेरा छत्र ी ्ू् गया। ग्जस काकाके बिपर मै र्नभिय था, उसीको भगिानने र लिया।
इस सिंगधमे दे शमख
ु मिंडिीको पा्ीि पर कीचड़ उछािनेका अिसर लमि गया। ग्जसका िणिन मै अगिे अध्याय में
करूूँगा।

श्रोतागण सत्तास्थि सदै ि विद्िेष का कारण ोता ै। य दासगणू विरगचत श्रीगजानन विजय नामक ग्रन्थ आप
िोग कुतकि छोड़कर सािध गचत्तसे श्रिण करे । य उपर्नषद िातय ै , "नैषाकतेण मर्तरापर्नया" तयोंकी जो अगचन्त्य
विषय ोते ै उसमे तकिकी गर्त न ीिं ोती। किर कुतकिका प्रश्न ी न ीिं। य सदै ि िज्यि ै । "अगचन्त्याखुियेभािा
नतानकणेन साधयेत " ।

॥ श्री गजानन विजय ग्रन्थ ॥


61
॥शभ
ु िं भितु। श्री रर रापिणमस्तु ॥
।। इर्त श्री गजानन विजयग्रन्थस्य सप्तमोsध्यायः समाप्तः ॥

॥ श्री गजानन विजय ग्रन्थ ॥


62
|| अध्याय-८ ||

श्री गणेशाय नमः| े िासद


ु े ि दे िकीके निंदन| गोप-गोवपयोंके मनका रिं जन करनेिािे| दष्ु ् दानिोंका दमन करनेिािे
भगिान श्रीकृष्ण, मझ
ु े आपकी प्राग्प्त ो| आपके प्रग्प्तके जो साधन, कमािहदकोंका अनष्ु ठान और पराभग्तत आहद ै |
िो करनेका सामर्थयि मझ
ु में न ीिं| आपके विषयका ज्ञान करानेिािे सब शस्त्र गीिािण िाणीमें ै सो बतिाईये कक मैं
उनका अििोकन कैसे कर सकता ूूँ | तयोंकक, मझ
ु े गीिािण का गिंध भी न ीिं ै | किर मैं ठ रा मिंदमती, में ढकको भिा
कमि पराग सि
ु ास कैसे प्राप्त ो सकता ै ? अन्नदान से आपकी प्राग्प्त ोती ै, सो उसके द्िारा प्राप्त करूूँ तो
ि सामर्थयि भी मझ
ु में न ीिं ै | दस
ू रे तीथियात्रा आहद करने का विचार भी न ीिं कर सकता, तयोंकक, शरीरके अियि
लशगथि ै तथा दृष््ी में भी अिंधत्ि आ गया ै | इस प्रकारसे े चिपाणी! मैं सब तर से दीन ीन ूूँ | ग्जससे मेरे
मनोरथ क्षीण ो जाते ैं| व्यि ाररक दृग्ष््से यद्यवप य सत्य ै | किर भी आप जैसे मेघजिके लिए दाम दे नक
े ी
आिश्यकता न ीिं ोती, मेघ कृपा से तािाब-कुएूँ भर जाते ैं| उसी प्रकार पत्थर भी वपघिने िगते ैं| झरने ब ने
िगते ैं| ऐसी कृपा का ी य दासगणू भख
ू ा ै | उस अ ै तक
ु ी कृपाकी एकाद भी बूँद
ू इस दासके मूँु में डालिए| ग्जससे
मैं तप्ृ त ो जाऊूँगा सारे सख
ु उसमें मझ
ु े प्राप्त ोंगे| तयोंकक अमत
ृ का एक भी बूँद
ू समस्त रोगोंको दरू करनेमें समथि
ोता ै|

॥ श्री गजानन विजय ग्रन्थ ॥


63
अस्त!ु वपछिे अध्यायमें मैंने बतायाकक, दे शमख
ु तथा पा्ीिोंमे बड़ा दरु ािा था| ज ाूँ ज ाूँ दरु ािा ोता ै , ि ाूँ ि ाूँ
सख
ु नष्् ोते ै | उपर्नषदोंमें भी क ा ै , ‘द्वितीयाद्िै भयिं भिर्त’, शरीर के लिए जैसे क्षयरोग ोता ै उसी प्रकार
समाजके िी दरु ािा ोता ै और ि अिश्य यमिोक को िे जाता ै | ि ाूँ सब प्रयत्न असिि ोते ैं|

दे शमख
ु का एक म ार तिाि के ककनारे खिंडू पा्ीिसे ब स करने िगा| पा्ीि गाूँि के अगधकारी थे| ककसी कारणसे
दोनों में वििाद ो गया| िो मऱ्या नामका म ार था, ग्जसको दे श्मख
ु ों का समथिन था| इसीलिए खिंडु पा्ीि से मूँु
जोरी ककया| पा्ीि ने उससे क ा की, “य तुम् ारा व्यि ार ठीक न ीिं ै | व्यग्ततको अपनी जग कभी न ीिं छोडनी
चाह ए| दे शमख
ु मझ
ु से मूँु ामूँु ी कर सकते ै , तुम न ीिं|” “अरे कम जादा बोिनेका आगधकार दे श्मख
ु ोंको ै , तुम जैसे
नक्ोका न ीिं|” मयाि अनेक प्रकारकी चेष््ाएूँ करने िगा, ग्जससे खिंडू पा्ीि िुद्ध ो गए| इस वििाद का कारण
िस्तत
ु ः अत्यिंत मामि
ु ीसा था| कारण य था कक एक म त्िपण
ू ि कागद पत्र त सीि कायाििय अकोिा भेजने का था|
सो उन् ोंने उसे तरु िं त िे जानेको क ा| उसके उत्तरमें उस म ारने क ाकक मैं तुम् ारे अधीन न ीिं ूूँ , मैं दे शमख
ु ोंके
अधीन ूूँ, सो मैं य काम न ीिं करूिंगा| तम्
ु ारी आज्ञाको मैं ोिी की ु रदिं ग मानता ूूँ और िैसे ािभाि भी उसने
ककए| उसकी उस चचािपर खिंडू पा्ीि िुद्ध ो गए और ाथमें जो बेत था उससे ाथपर प्र ार ककया| पा्ीि थे भी
बििान किर िोध में आकर प्र ार करनेसे उसका ाथ ्ू् गया और ि मर्ू छि त ोकर भलू म पर गगर पड़ा| पा्ीि
ने दस
ू रे म ार द्िारा कागदपत्र भेज हदए| अब य ाूँ तया ित्ृ तािंत ु आ सो सर्ु नये|

॥ श्री गजानन विजय ग्रन्थ ॥


64
उस म ारके सगे सम्बग्न्धयोंने उसे उठाकर दे शमख
ु के द्िारपर डािा| ाथ ्ू्ा जान कर िो िोग अत्यिंत सिंतुष्् ु ए|
तयोंकक उन् ोंने सोचा, पा्ीि को नीचा हदखानेके लिए य अ्छा सिंयोग ै | उन् ोंने उसे तत्काि कचेरी िे जाकर
अगधकाररओिंको उल््ी सीधी पट्टी पढाई, ग्जससे अगधकाररयों ने तत्काि पा्ीि को पकडकर िानेका आदे श हदया| उस
म ारकी लशकायत रग्जस््रमें लिख िी| सारे गाूँि में य बात फ़ैि गयी| कि प्रातः पा्ीि को थकड़ी प नाई
जाएगी| य जब खिंडू पा्ीि ने सन
ु ा तो उसके मूँु का पानी सख
ू गया और ि बड़ा गचिंतातरु ो गया| सोचने िगा,
भगिन! ग्जस शेगाूँि में लसिं के समान विचरण करता था, ि ाूँ मझ
ु े बेडड़याूँ िगनेिािा प्रसिंग आया| य तो बड़ी
अपककर्तिकी बात ै | सिंभावित की अपकीर्ति मरणसे भी अगधक दख
ु दायी ोती ै | (सम्भावितस्यचाकीर्ति
मरणादर्तरर्यते) – गीता|
खिंडू ताश ो गये| उस समय उसे एक उपाय सझ
ू ा कक श्रीगजानन म ाराज को शरण जाना चाह ए| दस
ू रा
कोई इस सिंक्का र्निारण न ीिं कर सकता| िौककक यत्न करनेके लिए भाई िोग आकोिा गए थे, सो खिंडू पा्ीि
रात्रीको म ाराजके पास आये| उनके चरणोंपर मस्तक रखकर क ा, “म ाराज, मझ
ु पर बड़ा कहठन प्रसिंग आ पड़ा ै|
मैंने सरकारी कामसे एक म ारको भेजना चा ा उसने नाकारा और आूँयबाूँय बका, सो मैंने उसे िकड़ी मारी, ग्जससे
उसका ाथ ्ूथ गया| दे शमख
ु ों ने ििंु सी का िोड़ा बना हदया| िो िोग मेरा अह त करनेपर तुिे ुए ै | इस बारे में
मझ
ु े कैद करनेका प्रयत्न चि र ा ै | जो मेरी बड़ी अपकीर्ति ै | गुरुदे ि! मेरा गिा भिे ी का् दीग्जये ककन्तु य
प्रसिंग न ीिं आना चाह ए|

॥ श्री गजानन विजय ग्रन्थ ॥


65
इसमें मेरा अपराध अत्यल्प ै ! े दयाि!ु य बात का बतिंगड़ बना हदया| राईका प ाड़ खड़ा कर हदया ै | जयद्रथ को
मारनेकी प्रर्तज्ञा करके अजन
ुि जब अग्ननकाष्ठ भक्षण करने िगा तब भगिान श्रीकृष्ण ने उसकी अपकीर्ति भगिानने
बचाई| सो मेरी कीर्ति रूप य पािंचािी को दे शमख
ु िोग ननन करना चा ते ैं| भगिान उसकी िाज बचाईये| ऐसा
क कर पा्ीि अश्रध
ु ारा ब ाने िगे| घर के िोग प िे ी शोकाकुि थे| य दे खकर उनकी दशा और भी बबगड़ गयी|
उसका िणिन मैं शब्दों में न ीिं कर सकता| समथि ने खिंडु पा्ीि को दोनों ाथ से उठाकर आलििंगन हदया और क ा,
‘अरे , कायिकताि परु
ु ष को अनेक सिंक्ों का सामना करना पड़ता ै | तू इसकी बबिकुि गचिंता मत कर| स्िाथि दृग्ष््
बढ़ जाने पर ऐसा ी ोता ै | पा्ीि और दे शमख
ु तम
ु िोग एक जार्तके ोते ु ए भी एक दस
ू रे की ार्न करना
चा ते ैं| य स्िाथि परायणता के कारण ै | कौरि, पािंडिों का म ाभारत यद्ध
ु स्िाथि के कारण ी ु आ| ग्जसमें न्याय
की दृग्ष््से पािंडिों का पक्ष सत्य था इसीलिए भगिान ने उनकी स ायता की और कौरिों को उन् ें मरना पड़ा| दे शमख

ककतना भी जोर िगाये किर भी तम्
ु ें थकड़ी न ीिं प ननी पड़ेगी| इसमें र्तिमात्र शिंका न करो|” आगे जाकर म ाराज
का कथन सत्य ु आ| इस प्रकरण में खिंडु पा्ीि बबिकुि र्नदोष छु् गए| सिंतोंके मख
ु से र्नकिी िाणी कभी असत्य
न ीिं ोती|

आगे चिकर पा्ीि िोग म ाराजके भग्तत में िीन ो गए| भिा अमत
ृ का सेिन ककसे अ्छा न ीिं िगता|

॥ श्री गजानन विजय ग्रन्थ ॥


66
इसके बाद खिंडु पा्ीि ने बबनर्त करके म ाराज को अपने घर र ने के लिए िे गया| उस समय अचानक पा्ीि के
य ाूँ दस-पाूँच तेिग
िं े ब्राह्मण आ प ुूँ च|े तेििंगे ब्रा मण विद्िान ् ोते ैं| कमिठ ोते ैं| िेदोंपर उनका प्रेम ोता ै|
ककन्तु ये िोग धन के िोभी ोते ैं| सो कुछ धन प्राप्त ोगा इस आशा से समथि के पास आये| उस समय म ाराज
ओढकर सोये ु ए थे| उनको जगानेके दृग्ष््से िो िोग ऊूँचे स्िरसे िेदमिंत्रों का ज्ा पाठ करने िगे| (िेद पठन की
छः विकृर्तयाूँ ैं जैसे िमपाठ, पदपाठ ज्ा-रथ-मािा और घनपाठ) उस ज्ापाठ में िो िोग कुछ अशद्ध
ु बोिे और
उसको शद्ध
ु न ीिं ककया| आगे पढने िगे सो म ाराज तरु िं त आसनपर उठकर बैठ गए और उससे बोिे, “अरे ! तम
ु िोग
का े को िैहदक ु ए? इसी प्रकारसे िेदविद्या को ीनता मत िाओ, य पे् भरनेकी विद्या न ीिं, अवपतु मोक्षदात्री ै|
प ने ु ए शाि की कुछ तो कीमत रखो, केिि शाि धारण करने से िैहदक न ीिं ो जाता| मैं उ्चारण करता ूूँ,
िैसा स्िरों का उ्चारण करो, िैहदकोंका ढोंग िाकर कुछ भी उ्चारण करके सामान्य जनों को ठगों मत| इतना
क कर ब्राह्मणों में जो ऋचायें पढ़ीिं थीिं उनका अस्खलित सस्िर उ्चारण समग्र अध्यायको पढो| पाठ में न तो क ीिं
अशद्ध
ु ता थी और न स्िर ीनता| स्पष्् उ्चार पढ़ा, मानो, साक्षात ् िलशष्् ी िेदो्चारण कर र े ों| (शायद िलशष्ठ
का सत
ू त म ाराज ने पढ़ा ो, तयोंकक िलशष्ठ ऋनिेदों के कई सत
ू तों के दृष््ा ैं| य दे खकर तेिग
िं े ब्राह्मण अधोिदन
ोकर बैठे थे, उन् ें सामने दे खने का सामर्थयि न ीिं था) ये साक्षात ् ब्रह्माजी ी ैं, ग्जनके चारों मख
ु से चार िेदोंका
उ्चारण ु आ ै | इसमें कोई शिंका न ीिं र ी| ये परम िं स दीक्षािािे बिंधनमत
ु त, जीिनमत
ु त लसद्ध योगी ै|

॥ श्री गजानन विजय ग्रन्थ ॥


67
म िोगोंको कुछ पि
ू स
ि क
ु ृ त था ग्जससे मको म ाराज का दशिन ु आ| ये िामदे ि ी ैं| इनको दस
ू री उपमा न ीिं दी
जा सकती| बादमें पा्ीि के ाथ से म ाराज ने उन ब्राह्मणों को एक एक रूपया दक्षक्षणा रूप में हदया| उसके बाद
ब्राह्मण अन्य गाूँि चिे गए| म ाराज उपागध से ऊब गए| श्रोतागण स्चे सिंत को उपागध ठीक न ीिं िगती| दाग्म्भक
उपगधको भष
ू ण समान धारण ककए र ते ैं| गाूँि के उत्तर हदशा में एक बगीचा था| ि ा साग, भाजी ब ु त पैदा ोती
थी| एक लशि मिंहदर भी था| नीम की शीति छाया थी| य कृष्णा जी पा्ीि का मल्िा था| य कृष्णाजी खिंडू
पा्ीि का सबसे छो्ा भाई था| म ाराज इस मल्िे में नीम के झाड की छाया में एक ओ्े पर आकर बैठ गए|
म ाराज कृष्णाजी से बोिे, “मैं इसी मल्िेमें लशि साग्न्नध्य कुछ हदन र ना चा ता ूूँ | ये कपरूि गौर, नीि किंठ, पाििती
के पर्त, राजराजेश्िर भोिेनाथ ै | ये तुम् ारे मल्िे में र े ैं सो मेरा भी य ाूँ र ने का विचार ो आया| सो य ाूँ
छाया का प्रबिंध करो| सो सन
ु ते ी कृष्णाजी पा्ीि ने तत्काि छः पत्रे मूँगिाकर उस ओ्े के ऊपर छप्पर बना हदया|
समथिने ि ाूँ र्निास ककया, इसीलिए य मल्िा आज तीथि क्षेत्र बन गया (नारद भग्तत सत्र
ू में क ा ै, ‘र्तगथि कुििग्न्त
र्तथािर्न’) ज ाूँ राजा जाता ै ि ी राजधानी ो जाती ै | म ाराजके साथ में सेिाके लिए भास्कर पा्ीि थे और
तुकाराम कोकाट्या नामक सेिक था| खाने-पीने की सब व्यिस्था कृष्णाजी पा्ीि करता था और म ाराज के भोजन
के बाद िे प्रसाद पाते थे| अस्तु||

एक बार बड़ी अद्भत


ु घ्ना ु ई| म ाराज जब मल्िेमे थे तब किरते किरते दस बीस गोसाई िोग ि ाूँ आए| सिित्र
म ाराजकी कीर्ति थी| उन िोगोंने भी सन
ु रखा था| सो िो िोग भी मल्िे में रुक गए|

॥ श्री गजानन विजय ग्रन्थ ॥


68
गोसाईंयोने पा्ीि से क ा, “ म िोग तीथि करनेके उद्देश से र्नकिे ै | गिंगाजि िेकर मिोग रामेश्िर जा र े ैं|
गिंगोत्री-जमनोत्री, केदारनाथ, ह ग
िं िाज, गीरनार, डाकोर ऐसे अपार क्षेत्र म िोगों ने यात्रा की ै| म िोग ब्रह्मगगरी
म ाराजके लशष्य ै िो भी मारे साथ ै | ये ब्रह्मगगरी म ाराज साधू ैं, साक्षात श्री रर ग्जनकी सेिामें ै | तुम् ारे
पि
ू ि पण्
ु य से य ाूँ आये ैं| म िोगों को परू ी- ििा चाह ए| और शािंभिी भी िगती ै , उसकी व्यिस्था कीग्जये| म
िोग केिि तीन हदन य ाूँ र ें गे| चौथे हदन चिे जाएूँगे सो आप कष््ी न ो| बड़े भानय से आपको य अिसर प्राप्त

ु आ ै | पा्ीि, अपने मल्िेमें तम


ु ने एक निंगा पागि रखा ै और म िोगों को अयागचत दान दे नेमे आनाकानी कर
र े ो, य ठीक न ीिं| गधे को जो पािते ैं और गौ को िाथ से मारते ैं| तया उन् ें सन्मतीिािे क ा जा सकता
ै? म िोग िैरानय िान गोसाई ै | सब िेदािंत का ज्ञान मको ै | इ्छा ै तो मल्िेमे सन
ु ने को आईये तब
कृष्णाजी पा्ीि ने क ा, मैं आप िोगोंको ििा परु ी कि दूँ ग
ू ा, आज केिि रोह्याूँ ै िो िे जाईये| गािंजा ग्जतना
चाह ए उतना ि ाूँ लमि जाएगा| साक्षात ् नीिकिंठ भगिान लशि ि ाूँ विराज र े ैं| दस
ू रे प्र र के समय गोसाई िोग
मल्िेमें प ुूँ चे और कूएूँ के ऊपर बैठकर बेसन, रो्ी खाने िगे| छपरीके एक तरि म ाराज के सामने गोसाईओिंने
अपने कडासन िगाए|

इन गोसाईयों का जो म िं त था ब्रह्मगगरी, ि अस्त, समय भगिद्गीता पढने िगा| गोसाई िोग तथा गाूँि के अन्य
िोग भी सन
ु ने को ि ाूँ आये थे| भगिद्गीता का ‘नैनिं र्छदिं र्त’ य श्िोक उसने र्नरूपणके लिए लिया| य ब्रह्मगगरी
बडा दाग्म्भक था| उसे अनभ
ु ि िेश मात्र भी न ीिं था|

॥ श्री गजानन विजय ग्रन्थ ॥


69
उसका र्नरूपण गाूँि के िोगोंने सन
ु ा और क ा, य केिि शब्द्छि ै , ठीक न ीिं| सब िोग केिि पोथी समाप्त
ोने पर म ाराज के दशिनाथि पत्रोंके भीतर आकर बैठे ैं| िोग क ने िगे ये केिि र्नरूपण था स्िानभ
ु िी परु
ु ष
म ाराज य ाूँ बैठे ैं| य सन
ु कर गोसाई को िोध आ गया| सब गोसाई गािंजा पीनेके लिए ि ाूँ बैठे थे| पत्रे के नीचे
पििंग के ऊपर म ाराज बैठे थे| ग्जन् ें भास्कर गचिम बनाकर दे ता था| उस गचिीम से अग्नन का एक स्िुग्ल्ििंग
पििंगपर गगरा| ग्जसपर ककसीकी र्नगा न ीिं गई| थोड़े समयके बाद धआ
ु ूँ र्नकािने िगा| और ि पििंग जिने िगा|
आग चारों तरि िगी थी| भास्कर म ाराज्से बोिा म ाराज, “जल्दी से पििंग से नीचे आईये, य िकड़ी का पििंग
ै , पानीके बबना न ीिं बझ
ु ग
े ा|” य सन
ु कर म ाराजने क ा, “अरे भास्कर, आग बझ
ु ाने का कोई प्रयोजन न ीिं, पानी
िाने का कारण न ीिं| ब्रह्मगगरी म ाराज! आप तो भगिद्गीता यथाित जानते ैं, आकर इस पििंग पर बैहठये| अभी
तो आपने ‘नैनिंर्छन्दग्न्त’ श्िोक का र्नरूपण ककया, उसकी परीक्षा का समय भगिानने प्रत्यक्ष िा हदया| ब्रह्मको
अग्नन जिाता न ीिं इसका प्रत्यय बताईये| आप पििंग पर बैठने से तयों डरते ैं| अरे भास्कर, जल्दी से जाकर
ब्रह्मगगरी को आदर से िाकर इस जिते पििंग पर बबठाओ|’ भास्कर उत्तम बिदिं ड शरीरी था| गोसाई उसके सामने
म्छर सा था| म ाराज की आज्ञा पाकर भास्कर दौडकर गया और ब्रह्मगगरी का दाह ना ाथ पकडकर उधर िे गया|
ि पििंग चारों ओरसे जि र ा था, ककन्तु म ाराज जरा भी विचलित न ीिं ु ए ज्िािाओिं के बीचमें बैठे र े |
श्रीमद्भागित परु ाण में कयाधस
ु ्
ु प्र िाद की कथा ै, की उसको जब अग्नन में खड़ा ककया तो अग्नन उसके लिए
चिंदनसा शीति था| ऐसा भगिान व्यासजीने लिखा ै|

॥ श्री गजानन विजय ग्रन्थ ॥


70
म ाराज ने इस परु ाण कथा से सत्य प्रस्थावपत करने के लिए ी मानो य िीिा की| ब्रह्मगगरी भास्कर से प्राथिना
करने िगा, कक मझ
ु े पििंग के पास मत िे जाओ| मैंने म ाराजका अगधकार न ीिं जाना था| ककन्तु भास्कर ने उसे
घसी्कर सदगुरु की आज्ञानस
ु ार सामने िेकर खड़ा ककया| म ाराज बोिे, ‘नैनिंद र्त’ िातयों को अब सत्य करके
बताओ”| सो सन
ु कर ब्रह्मगगरी बड़ा घबरा गया और डरते बोिा, “म ाराज मिोग पे्ु गोसाई ैं| परु ी ििा खाने के
लिए म िोगोंने गोसाईंका भेष लिया ै | कृपाि,ू मारे अपराधोंको क्षमा कररए| बबना कारण केिि शाग्ब्दक गीताका
प्रपिंच म िोग करते ैं| मैंने आपको पागि क ा| अब उसका मझ
ु े बड़ा पश्चाताप ो र ा ै | मैं दातोतिे र्तनका
दबाकर गौके समान आपकी शरण में आया ूूँ | य सन
ु कर शेगाूँि के िोगोंने म ाराजसे प्राथिना की, भगिन, आपको
अग्ननसे कोई भय न ीिं य म िोगों ने प्रत्यक्ष दे ख लिया| कृपाकर म िोगोंके लिए आप पििंग से नीचे आ जाईये|
ऐसी अिस्था में आपको दे खकर मारे ह्रदय की धड़कने बढ़ गयी ैं| य दे खकर गोसाई बड़ा िग्ज्जत ु आ और कुछ
बोिा न ीिं| िोगोंकी बबनातीको मान दे कर म ाराज जैसे ी नीचे उतारे , ि पििंग भ राकर ढे र ो गया, ग्जसको एक
क्षण भी न ीिं िगा| पििंग सब जि गया था| जो थोडा कुछ बचा उसे िोगोंने साक्षी के लिए बझ
ु ाकर रखा| ब्रह्मगगरी
म ाराज के चरणों पर गगर पड़ा, गिंगा जि का स्पशि ोनेपर भिा तया पाप शेष र जाते ैं| इसके बाद म ाराज ने
मध्य रात्रीको ब्रह्मगगरी को उपदे श हदया, कक आजसे इस प्रकारकी चेष््ा कभी ना करना| ग्जन् ोंने शरीर पर भस्म
धारण ककया उनको चाह ए कक उपागध को दरू रखे, उसमे लिप्त न ो| बबना अनभ
ु ि के र्नथिक कोई कथा न ीिं क नी
चाह ए|

॥ श्री गजानन विजय ग्रन्थ ॥


71
इसी िज से मारी सिंस्कृर्त का ह्रास ुआ ै | मर्छन्द्रनाथ, जािन्धरनाथ, गोरखनाथ, ग नीनाथ, गोसाई ो गए
ग्जन् ोंने सन्यास मागि का प्रत्यक्ष आचरण करके उसे दृढ़ ककया| ग नीनाथ ने ज्ञानेश्िर म ाराज जैसे लशष्य तैयार
ककए, ग्जनका ज्ञान प्रकाश सारे ब्रह्माण्ड में व्याप्त ैं| श्री शिंकराचायि जैसे अनभ
ु र्ू तिािे सन्यािंसी ो गए| उसी प्रकार
प्रपिंच में र कर ब्रह्मानभ
ु र्ू त एकनाथ म ाराजने प्राप्त की| स्िानी समथि रामदास- जो आजन्म ब्रह्मचयि का पािन
करके ब्रह्म साक्षात्कारी इस भलू म पर ो गए| उनके चररत्रोंका स्मरण करो| बेकामके पर्थ
ृ िीपर मत भ्को और केिि
ििा परु ी पर र्नगा मत रखो, न ीिं तो केिि उतना ी लमिेगा, अथाित केिि पे् भरे गा| इसप्रकार का बोध रात
को म ाराजने ब्रह्मगगरी को ककया| सो प्रातःकाि ोते ी बबना ककसीसे लमिे ि चिा गया, अपने लशष्योंके साथ|
य बात गाूँि में दस
ू रे हदन पता चिी सो उस जिे ु ए पििंग को दे खने के लिए- िोग आये| अस्त|ु

य दासगणू विरगचत श्री गजानन विजयनामक ग्रन्थ भाविक जनोंको भिसागर से पार करे य ी इ्छा ै|

|| शभ
ु िं भितु || श्री रर रापिणमस्तु ||

|| इर्त श्री गजानन विजय ग्रिंथस्थ अष््मोऽध्याय समाप्त ||

॥ श्री गजानन विजय ग्रन्थ ॥


72
॥ अध्याय 9 ॥

श्रीगणेशाय नमः | े सगुणरूपधारी रुग्तमणीके पर्त | चन्द्रभागा के त्पर वि ार करनेिािे, सिंत को िरदान दे ने
िािे, पर्तत पािन दयार्नगध | शिंकर धनष
ु धारण करने िािे भगिान | जबतक छो्े िोग न ीिं र ें गे तब तक बड़ों
का बड़प्पन कैसे लसद्ध ोगा? पर्तत न ीिं ोंगे तो आपको पर्ततपािन बबरुद क ाूँ से प्राप्त ोगा? ये आप मत भलू िये
कक म पर्तत ै इसीलिए आपको पर्ततपािन बबरुदाििी ै | पारस िो े को सोना बनाता ै इसीलिए भलू मपर
उसका म त्ि ै| छो्े झरनोंको अपने प्रिा में सग्म्मलित कर िेती ै इसीलिए गोदािरी को तीथि क ाूँ जाता ै|
अपने मनमें य सब विचार करके े भगिान ! े माधि ! डूबते ु ए दासगणूको स ारा दीग्जए, उसे क ी डूबने न
दो | अस्तु |

गोवििंदबि
ू ा ्ाकळीकर नाम के बड़े कीतिनकार उस समय शेगाूँि आये | शेगाूँिमें ितिमान मिंहदर के पि
ू ि - दक्षक्षण
कोने में एक प्राचीन लशि मिंहदर था, ग्जसका जीणोद्धार मो्े नामके सा ु कारने ककया था | आधर्ु नक िोग मो्र -
तिब - सायकि आहदके लिए धन खचि करते ै | मिंहदर जीणोद्धार आहदका उन् ें कोई िगन न ीिं र गया ै | ये
मो्े सा ु कार इस पिंग्तत के न ीिं थे। बड़े भाविक थे। और उन् ोंने लशिमिंहदरका जीणोद्धार ककया था। इसीलिए इस
लशि मिंहदर को मो्े मिंहदर ी िोग क ते थे | अब आगे तया ु िा सर्ु नए | इस मो्े मिंहदर में ्ाकळीकर उतरे और
उनका घोडा मिंहदर के सामने की जग में बूँधा था |

॥ श्री गजानन विजय ग्रन्थ ॥


73
घोडा बड़ा उपद्रिी था | ककसीको भी दि
ु ग्त्तया झाड़ता था| अगर कोई सामने से आता तो श्िानके समान मूँु से
का्ता था | बार बार रग्स्सयाूँ तोड़ डािता था, एक क्षणभर भी शािंत न ीिं र ता था | कभी कभी रस्सी तुड़ाकर जिंगि
में भाग जाता था| रात हदन ह नह नाता र ता था | ऐसी अनेक उपागधया उसमे थी| इसीलिए उसे बाूँधने को िोखिंडी
सिंकिे थी| ये सिंतिे ्ाकिी में ी कीतिनकार भि
ू आये थे | कैसे तो भी रस्सीयो को बािंधकर कीतिनकार रात को
सोने गए| दो प्र ार रात ो गई, सारा आकाश अिंधकारमय ो गया| हदनको डरनेिािे उल्िू पक्षी धत्ु कार करने िगे|
ह्् री पक्षी ्ी्ी शब्द करने िगी | चमगादड़ भक्ष की खोज में र्नकि पड़े | और वपिंगि पक्षी झाड़पर बैठकर
ककिककिा शब्द करने िगे| सभी तरि शािंत िातािरण ो गया| घरो के दरिाजे बािंध ो गये | एक भी व्यग्तत
रास्तेपर न ीिं हदख पड़ र ा था| ऐसे समय में श्रीगजानन म ाराज ज ॉ घोडा बिंधा था ि ाूँ आ प ुिं चे | जो जो दष्ु ्
स्िभाििािे - दरु ाचारी ोते ै उन् े सध
ु ारने के लिये ी साधु परु
ु ष ईश्िर की प्रेरणा से जन्म िेते ै | जैसे रोग
र्निारण करने के लिये औषध का प्रयोजन ककया जाता ै | िैसे ी दष्ु ्ोंका दोष र्निारण ी सिंतो का प्रयोजन ै
|गजानन म ाराज घोड़े के पास आकर उस रात्री के समय बड़े आनिंद के साथ उस घोड़ेके चारों पैरो के बीच सो गए
| मूँु से िे 'गण गण गणात बोते' मात्र का जप करते जा र े थे| य सत्र
ू सािंकेर्तक मिंत्र ै | ग्जसका अथि भिा
समथिके बजाय कौन जान सकता ै ? मेरे दृग्ष््से इस भजन का अथि ऐसा िगता ै , 'गणी' इस शब्द का अथि
मोजना-गगनना ऐसा ै | दस
ू रा शब्द 'गण' ै | ग्जसका अथि ै जीिात्मा अथाित जीिात्मा ी गण ै , जैसे विष्णग
ु ण,
लशिगण आहद |

॥ श्री गजानन विजय ग्रन्थ ॥


74
अथि ु िा गण-गण गणात अथाित ये सब जीिात्मायें ब्रह्मका ी स्िरुप ै , उससे लभन्न न ीिं ै | |'बा' य सििनाम ै
| ग्जसका अथि ै मन| बोते य शब्द 'बा्े ' शब्दका अपब्रष्् रूप प्रतीत ोता ै | सब लमिकर अथि ु आ | अरे , मन
य जीि ब्रह्म ी ै | उसे पथृ क मत समझ | शेगाूँिमें इस भजनके बारे में दो प्रिा ै | कुछ िोगोका क ना ै
कक म ाराज 'गगण गगण गगणात बोते ' भजते थे और कुछ क ते ै गणी गण गणात बोते' उससे मारा कोई प्रयोजन
न ीिं | अपना केिि कथा से प्रयोजन ै | म ाराज घोड़े के चारों पैरो के बीच आकर सो गये | उपरोतत भजन अखिंड
रूप से चािू था| मनो उस भजनरूप श्रिंख
ृ िा से घोड़ेके पैर बिंधे थे | कीतिनकार गोवििंदबि
ू ा के मन में घोड़े क़ी उद्दिंडता
शिंका थी ी इसीलिये िो बीच बीचमे उठकर घोड़े को दे खते र ते थे | जब उन् ोंने खुंटेपर घोडा शािंत खड़ा दे खा तो
उन् ें बड़ा आश्चयि ु आ | उसके मनमें किर दस
ू री शिंका उठी कक क ी घोडा व्यागधग्रस्त तो न ीिं ो गया| जो इतना
चपु चाप खड़ा ै | तयोकक ि कभी ग्स्थर नथी र ता था| ि दे खने जब िे घोड़े के समीप गये तो कोई मनष्ु य
घोड़ेके पैरोके बीच सोता नजर आया| जब िे अर्त समीप गये तो कैिल्य दे नेिािे ( मोक्ष दे नेिािे) म ाराज सोये
हदखाई पड़े| अपने हदिमें उन् ोंने घोड़े कक शािंर्त का कारण जान लिया | समथि श्रीगजानन म ाराज के साग्न्नध्य से
घोडा शािंत ो गया था | जैसे कस्तरू ी के सि
ु ास के आगे दग
ु न्
ि धका हठकाना न ीिं र ता | य दे खकर गोवििंदबि
ू ा ने
म ाराज के चरणकमिपर अपना शीर रख हदया और िे रोमािंगचत अष््भािसे गद्गद ो गये | मख
ु से म ाराज कक
स्तुर्त करने िगे | भगिन ! आप साक्षात गजानन ै , य प्रत्यय आज मझ
ु े मािम
ु ो गया | गजानन विघ्न ताि ै
| भगिन इस घोड़ी सब डरते ै , इसकी उद्दिंडता शमन करनेके लिये ी आप आये |

॥ श्री गजानन विजय ग्रन्थ ॥


75
य बड़ा उद्दिंड ै | चिते चिते उछि पड़ता ै | र क्षण वपछिी दि
ु त्ती झड़ता र ता ै | उसकी इस उद्दिंडता से
त्रस्तोकर मै इसे बेचने गया िेककन कोई िेनेको तैयार न ीिं ु आ | इतना ी न ीिं, मै इसे बबनामल्
ु य दे ने को तैयार
था तो भी कोई इसे िेनेको तैयार न ीिं ु आ | इस दष्ु ् जीिपर आपने दया कक य बड़ा अ्छा ु आ | म जैसे
कीतिनकारो का घोडा गरीब ोना चाह ए, जैसे गडररयाूँ के य ाूँ िाघका उपयोग न ीिं | इस प्रकार ि घोडा एक़द्म शािंत
गरीब ो गया तयोकक जड़ जीिोंका उद्धार करनेको ी स्िामी का अितार था | म ाराज घोड़े से बोिे, 'अरे भाई, अब
तुम बबिकुि उद्दिंडता न करना, तुम भगिन शिंकरके सामने ो, सो उनके ि ािं निंदीके समान सरि ो जाओ '| ऐसा
बोिकर म ाराज ि ाूँ से चिे गये | श्रोतागण दस
ू रे हदन म ाराज मल्िेमे थे तो गोवििंदबि
ु ा उस घोड़े पर बैठकर
म ाराज के दशिन को ए | ये दे खकर सब िोग भयभीत ो गये | तयोकक घोड़े का स्िाभाि सारे शेगाूँि को पता था
| सब िोग क ने िगे इस दष्ु ् घोड़े को य ाूँ ककसलिए िाये? य ाूँ ब्चे, बढ़
ू े , ग्स्त्रयाूँ किरती ै, सो ककसीको भी
ार्न पिं ु चा सकता ै , सन
ु कर गोबबिंदबि
ु ाने क ा, म ाराजने इसको शािंत कर हदया | अब इससे कोई भय न ीिं | अब
य गरीब गाय के सदृश्य ो गया ै | उसके बाद उन् ोंने उसे इमिी के पेड़ के नीचे खड़ा कर हदया | जो एक
घिं्ा तक बबना बाूँधे खड़ा र ा | मल्िेमे भाजीपािा तथा घास भी था जो रा था - ककन्तु उसको घोड़ेने मु तक
न ीिं िगाया | दे णखये सिंतो का प्रभाि ककतना अलमत ै , कक पशु भी उनकी आज्ञा कस पािन करते ै | (अह स
िं ा
प्रर्तष्ठायािंतत्सग्न्नधौ िैर त्यागः) ऐसा क कर ्परीमे म ाराज का स्तिन प्रारिं भ ककया |

॥ श्री गजानन विजय ग्रन्थ ॥


76
अतत अगाध प्रभु कृपा तम्
ु हारी | सध
ु रहह खलहु होही सतचारी ||
पारस परसस कृपा करे लेशा | धरहुिरद दयाि मम सीसा ||

ऐसी स्तुर्त करके गोवििंदबि


ू ा धोड़े को िेकर चिे गये | िे ्ाकळी के र ने िािे थे | सो ि ाूँ चिे गये | ति
ु सीदासने
अपने मानसमे क ा ै , ' खिसध
ु ार ी सत्सिंगर्त पाई ' || य म ाराज कक इस िीिा से प्रत्यक्षतया लसद्ध ोता ै |
े श्रोतागण, म ाराज के दशिन को रोज शेगाूँि में भीड़ ोने िगी | सब िोग अपने मन में कोई न कोई सकाम े तु
से म ाराज के दशिन को आते | ऐसे ी यात्रा में बिपरु जो अकोिा मिंडिीकक एक त सीि ै, ि ाूँ के दो व्यग्तत
विलशष्् सिंकल्पके साथ श्रीसमथि के दशिन को आये | िापस िौ्ते समय दोनों आपसमे बातचीत करते जा र े थे
कक, अगिी बार म िोग सख
ु ा गािंजा म ाराजके लिये िाएिंगे | तयोकक, म ाराज को गािंजा बड़ा वप्रय ै | सो पाकर
म ाराज प्रसन्न ोकर म पर कृपा करें गे | िोग मािा - बिी इत्याहद िाते ै म िोग गािंजा िे आएिंगे, धोती
गहठयािो न ीिं तो विस्मरण ो सकता ै | दस
ू री बार िो िोग दशिन को तो आये, ककन्तु गािंजा िाना भि
ू गये |
म ाराज के चरणो पर सर रखने के बाद उसे गािंजा न िेन का स्मरण ु आ | मनमें सोचा ठीक ै , अगिी बार िे
आएिंगे | अबकी बार दग
ु ना गािंजा िे आएिंगे, ऐसा क कर दशिन िेकर चिे गये | जब तीसरी बार आये तो ि ी
अिस्था ु ई | िो िोग किर गािंजा भि
ू गये | ाथ जोड़कर म ाराज के सामने बैठे ककन्तु गाूँजेका उन् ें स्मरण भी
न ीिं ु आ | य दे खकर म ाराज भास्कर से बोिे," भास्कर कैसे िोग ै इस जगत में जो धोती गहठयाने के बाद भी
िस्तु िाना भि
ू जाते ै | जार्तसे ये िोग ब्राह्मण ै ककन्तु स्ियिं ी असत्य भाषण करते ै |

॥ श्री गजानन विजय ग्रन्थ ॥


77
ब्राह्मणो ने ब्राह्मणत्ि छोड़ हदया, आचार - विचार भी छोड़ हदए य ी कारण ै उनके पतन का| मन ी मन सिंकल्प
करते ै और ाथ ह िाते िैसे ी आते ै | तया इसी से इनका मनोरथ पण
ू ि ो सकता ै ? बोिने में ताितिंत्र ोना
चाह ए | गचत्त र्नमिि ोना चाह ए | तभी घनश्याम कक कृपा ो सकती ै |"य सन
ु कर दोनो व्यग्तत समझ गये
कक म ाराज सििज्ञ ै , अगाध ज्ञानी ै | जैसे सय
ू ि से कुछ र्छपा न ीिं ै , िैसे ी इनसे कुछ र्छपा न ीिं तयोकक, म
िोगोने ी ऐसा सिंकिप ककया था | य ाूँ गाूँिमें जाकर गािंजा िे आएिंगे | ऐसा बबचार कर जैसे िे दोनों उठकर जाने
िगे तब म ाराज बोिे, 'अरे ! अब बसी कढ़ी गरम करने से तया िाभ? मझ
ु े गाूँजेकक बबिकुि आकािंक्षा न ीिं ै |
अब गाूँजा िेने बाजार में जाने कक आिश्यकता न ीिं | तुम िोगो कक मनोकामना पण
ू ि ोने पर िे आना | ककन्तु
एक बात का स्मरण रखो कक िबाड़ कक मनोकामना पण
ू ि न ीिं ोती मेश कृर्तमे और िाणी में सामज्जस्य ोने
चाह ए | अगिे सप्ता मे तुम् ारा काम पण
ू ि ो जायेगा | य उत्तमतासे ोगा, ककन्तु नेम न चक
ू ना य ाूँ पाूँच बार
आना, तयोकक य ाूँ मड
ृ ाणीपर्त कपरूि गौर शिंकर य ाूँ ग्स्थत ै , ग्जनकी कृपा से दे िताओ के कोषाध्यक्ष कुबेर स्ियिं
धनिान ु ए ै |जाओ, उन् ें नमस्कार करो | और अगिी बार गाूँजा िेन को न भि ू ना | परमाथी को असत्याचरण
कभी न ीिं करना चाह ए'" | ऐसा उपदे श सनु कर िो दोनों म ाराज कक चरण ििंदन कर भगिान शिंकर के दशिन करके
अपने गाूँि बािापरु गये | अगिे सप्ता में उनका कायि सिि ो गया, सो सिंकल्पानस
ु ार िो िोग गाूँजा िेकर
म ाराज के पास आये, अस्तु | श्रोतागण इस बािापरु कक दस
ू री कथा आप िोगो को सन
ु ाता ुूँ | बािापरु में बािकृष्ण
नामक एक रामदासी था |

॥ श्री गजानन विजय ग्रन्थ ॥


78
उसकी पत्नी का नाम था पत
ु िाबाई जो बड़ी धालमिक थी और प्रर्तिषि ये दोनों पर्त-पग्त्न पैदि सज्जनगडकी पौष
म ीनेमें िारी करते थे | दोनों पर्त - पग्त्न एक विचार के थे | भारिा न के लिए एक घोडा िेते थे | रामदासी
सिंप्रदायक साह त्य कुबड़ी किंथा और दासबोध ग्रन्थ िेकर जाते थे | इनको अपने साधत्ु ि का कोई अ िं कार न था |
मागिमे प्रर्तहदन झोिी िािंदकर गॉि में लभक्षा माूँगकर भगिन रामचन्द्रजी को भोग िगाकर भोजन करते | पौषिैद्य
निमी को बािापरु छोड़ते बािकृष्ण के ाथ में चन्दन के करताि और पत
ु िाबाई के ाथ में झाूँज ोती थी सम्पण
ू ि
मागि में र्नरिं तर रघन
ु ाथजी का नाम सिंकीतिन करते मागि िमण करते थे | शेगाूँि से खामगाूँि मे े कर – दे ििगाूँिराजा,
जािना में आनिंदस्िामी को ििंदन करके जािंबनगरी जो की, समथि रामदास स्िामी का जन्मस्थि ै, तीन हदन र्निास
करते थे | उसके बाद बीड आिंबेजोगाई का दशिन और मो ोरीमें बेिेश्िर का दशिन करते | डोमगाूँि में समथिके पट्टलशष्य
कल्याणस्िमी का दशिन करते, उसके बाद नरलसिंगपरु - पिंढरपरू - नातेपत िं णापरु - िाई और सातारा
ु े - लशग ोते ु ए
सज्जनगढ़की ति ्ी में प ुूँ चते | माघ िैद्य प्रर्तपदा को िे दोनों सज्जनगढ़ प ोच जाते तयोकक माघ िैद्य प्रर्तपदा
से निमी तक दासनिमी का उत्सि ि ाूँ मनाया जाता ै यथाशग्तत ि ाूँ ब्रह्मभोज की व्यिस्था भी िो करते | इस
तर के एकर्नष्ठ श्रद्धािान रामदासी ोना कहठन ै | दसनिमीका उत्सि ो जानेपर उसी मागि से िो बािापरु िापस
िौ्ते थे | माघ िैद्य द्िादशी को सज्जनगढ़ से पैदि जाने को र्नकिते| एक बार िद्य एकादशी को ि रामदासजी
की समागधके पास बैठे तब दःु ख के कारण उसके नेत्र भर आये | किंठ रुिं ध गया | िाणीसे शब्दो्चार भी कहठन ो
गया ि प्राथिना िकरने िगा, े पण्
ु यपिंज
ु गुरुदे ि रामदास स्िामी समथि !

॥ श्री गजानन विजय ग्रन्थ ॥


79
अब मेरा शरीर लशगथि ो गया ै | इस कारण अब मझ
ु मे पैदि िारी न ीिं जा सकती | इतना ी न ीिं िा नपर
बैठकर आने की भी क्षमता अब मेरे शरीर में न ीिं ै | आजतक यश र्नयम नैने पिा, अब आगे य असम्भि जान
पड़ता ै | तयोकक परमाथिके लिए शरीर सदृ
ु ढ़ ोना चाह ये 'शरीरमाद्यिं खिु धमिसाधनम ् ' े रामदास ! आप ी मेरी
माता ै | आप सब कुछ जानते ै | इस प्रकार की प्राथिना करके ि शय्या पर िे् गया | उसको ब्राह्म मु ू तम ि े
स्िामी समथि रामदासजी ने स्िप्ने में आकर क ा, अरे ! ऐसा ताश ोने का कोई कारण न ीिं, तुम् े य ाूँ सज्जनगढ़
आनेकी आिश्यकता न ीिं | ि ाूँ बािापरु में सपने घर में य दसनिमी का उत्सि इतःपर मनाओ मेरी तुमपर पण
ू ि
कृपा ै | में दासनिमी को आऊिंगा, तुम् े दशिन दे ने के लिये| परमाथि का आचरण शरीर सामर्थयािनस
ु ार ी करना
चाह ये| स्िप्न में इस प्रकार का आदे श सन
ु कर बािकृष्ण्को अत्यिंत आनिंद
ु आ | ि सपालिक बािापरु अपने घर
आ गया | े श्रोतागण, इसके बाद दस ू रे िषि तया ु आ ि में बताता ु | सािधान ोकर सन ु ो | माघ िैद्य प्रर्तपदा
को बािकृष्ण बि
ु ाने अपने घरमे दसनिमीका उत्सि प्रारम्भ ककया | रोज दासबोध का पठन तथा राबत्र को रर ककतिन
ोता था |उसके मन में य विचार आता की दे खे रामदास स्िामी निमी को कैसे आते ै ? दोप रमे ब्रह्मभोज के
उत्सक के लिये चिंदा इकठ्ठा ककया | इस प्रकार बड़ी धम
ू धाम से निमी का उत्सि सिंपन्न ु िा | निमीकी दस
ू रे प्र ार
अघह्त घ्ना ु ई | साक्षात्कारी श्रीगजनन म ाराज दोप रमे निमी को बािकृष्ण के द्िार पर खड़े ो गए |

॥ श्री गजानन विजय ग्रन्थ ॥


80
अिंदर भगिान रामचन्द्रजी का अलभषेक ककया जा र ा था | सब िोक विग्स्मत ोकर बािकृष्णजी को क ने िगे,
आपके य ाूँ दासनिमी को गजानन द्िारपर उपग्स्थत ै | सन
ु कर बाककृष्ण क ने िगा सिंत गजानन म ाराज के
चरणकमि मेरे घर में आये, य अ्छा ी ु आ | ककन्तु में िस्तत
ु ः समथि रामदासजी की बा् जो र ा ु |
उन् ोंने स्िप्न में िचन हदया था कक में दासनिमी को जरूर आऊिंगा, ि असत्य कैसे ो सकता ै ? इधर स्िामी
गजानन दरिाजेपर खड़े ोकर 'जय जय रघि
ु ीर समथि ' का घोष करने िगे और गौतम ऋवषकी पग्त्न अ ल्योद्धार
का प्रसिंग श्िोक में उ्चारण करने िगे |

जजन चरण के स्पशश से शीला नारी भई हदव्य | श्री राघि महहमा असमत जानीन सक रवि कव्य ||
य समथि िातय सन
ु कर बािकृष्ण द्िारपर आये, तो ि ाूँ हदगिंबर श्री गजाननिं म ाराज खड़े थे | ि उसको
नमस्कार करने गया, सो ाथमे कुबड़ी, मस्तक पर बत्रपण्
ु ड रे खा तथा गोपीचिंद की मस्तकपर ज्ा सिंभार, जो पीठ
पर ि्के र ा था, कषाय िस्त्रोंका ििंगो् प ने ु ए रामदास स्िामी हदखाई पड़े जो दशिन दे खकर बािकृष्ण के नेत्रोंसे
आनन्दाश्रु ब ने िगे | किर ऊपर र्नगा करके दे खा, तो श्री गजानन म ाराज खड़े ै , ग्जसके मस्तकपर न तो ज्ा
थी न तो बत्रपण्
ु ड, न कुबड़ी, सो दे खकर ि पन
ु ः र्नराश ो गया | दस
ू रे क्षण पन
ु ः समथि रामदास हदखाई पड़े | किर
सक्ष्
ू मता से र्नररक्षण करनेपर श्री गजानन ऐसा चिगचत्रित दृश्य दे खकर ि भ्रािंत सा ो गया | समस्या का ि
न ीिं िग र ा था | य दे खकर श्री गजानन म ाराज बोिे, 'अरे ! इस तर तयों चौगधयाूँ र े ो | में ी तुम् ारा समथि
ु | पीछे में सज्जनगढ़ पे था | अब य ाूँ शेगाूँि में मल्िे में आ गया ु | तुमको सज्जनगढ़ पर मैंने िचन हदया
था दासनिमी को उसे परू ा करने के े तु आया ु |

॥ श्री गजानन विजय ग्रन्थ ॥


81
सब शिंका छोड़ दो मैं ी रामदास ूूँ | तम
ु केिि बाह्य शरीर को म त्ि दे ते ो और उसके अन्तरगत आत्मा का
विस्मरण करते ो |तया य ठीक ै ? गीता में श्रीकृष्ण ने श्िोक पढ़ा ै | 'िासािंलस जीणािर्न' उसका बबचार करो |
चिो, मझ
ु े पीढे पर बबठाओ ऐसा क कर बािकृष्ण का ाथ पकड़कर घरमे आये श्रीसमथि गजानन म ाराज के आने
की िाताि फ़ैि गई | सो सब िोक दशिन के लिये दौड़ने िगे | रामदासी सब हदनभर बबचार करते र े | रातमे तीसरे
प्र रमे स्िप्न पड़ा की, समथि रामदास क र े ै अरे ! "गजानन मेरा ी रूप ै जो आजकि बरार में ै | शिंका मत
करो तयोकक " सिंशयात्मात विनश्यर्त " | गजानन का पज
ू न करो | य स्िप्न दे खकर बािकृष्ण बड़ा सिंतष्ु ् ु ए |
उसने गजानन म ाराज के चरणकमिों पर अपना लसर रखा, े भगिन! आपकी िीिा मैं न ीिं समझ सकता आपने
स्िप्न में मेरी शिंका का र्निारण ककया ग्जससे मेरी निमी -साथिक ो गई | और में कृताथि ो गया | अब कृपािु
कुछ हदन बािापरु में रह ये | ग्जसपर म ाराज ने उत्तर हदया की , कुछ हदनों के बाद में बािापरु आऊिंगा तब
र ूूँ गा | इसके बाद भोजन करके िे र्नकि गए, ककन्त,ु रस्ते में ककसीको जाते ु ए नजर न ीिं आये | क्षणभरमे िे
शेगाूँि में प ुूँ च गए | ( य कथा ी उनके समथािितार ोनेका प्रमाण ै )' य श्री गजानन विजय ग्रन्थ श्रोतागणोंको
सख
ु दे ने िािा ो ऐसी दासगणूकी इ्छा ै |

॥शभ
ु िं भितु। श्री रर रापिणमस्तु ॥
|| इर्तश्री गजानन विजय ग्रन्थस्य निमोध्यायः समाप्त ||

॥ श्री गजानन विजय ग्रन्थ ॥


82
॥ अध्याय-१० ॥

श्री गणेशाय नम:। े पिंढरीराय! आप अरूप (र्नगण


ुि ) पण
ू ब्र
ि म और अव्यय (अनिंत) ो। आप सज्जनों के विश्रामधाम
ो। मझ
ु े दरू ना ढकेलिए। े भगिान! मेरे पातकों का विचार मत कीग्जये, मझ
ु े पराया मत समणझए। और तो तया
मैं आपको मूँु हदखाने िायक भी न ीिं ूूँ । मेरे ाथ से कोई पण्
ू यकमि न ीिं ु आ ै। यद्यवप ऐसी ग्स्थर्त ै किर भी
आप कृपा करके मझ
ु े अपना िीग्जये। गोदािरी नदी छो्े - गिंदे नािों को भी अपने उदर में समा िेती ै । ि न उसकी
अशद्ध
ु ता का कोई लस र न ीिं करती। आपकी दया दृग्ष्् ोने पर र्नधिन, राजा बन जाता ै।

एक बार पण्
ु यरालश गजानन अमरािती गए। ि ाूँ आत्माराम भीका जी के घर ठ रे । य आत्माराम लभकाजी
अमरािती प्रािंतका अगधकारी था। उसकी बड़ी सत्ता थी। य कायस्थ प्रभु जार्त का था। सिंतो का अलमत प्रेमी था।
सदाचार सम्पन्न ग्र स्थ था। इनके य ाूँ म ाराज ठ रे । सो उसने उष्णोदक से म ाराज को मिंगिस्नान करिाया।
अनेक प्रकार के उब्न िगाए। सिंत स िास, के कारण उसकी गचत्त व्रग्त्तयाूँ आल् ाहदत ो गयी। म ाराज को उमरे ड
काबड़ी ककनार की धोती प नायी। गिे में पष्ु प ार डािे। अनेक प्रकार का नेिेद्द्य भोग िगाया और दक्षक्षणा स्िरूप
में सौ रुपए चढ़ाये। धप
ू -दीप आरती यथासािंग पज
ू न के बाद पष्ु पािंजलि समवपित की। म ाराजके दशिनके लिए अपार
जनो की भीड़ ो गयी।

॥ श्री गजानन विजय ग्रन्थ ॥


83
सबकी मनोकामना म ाराज को अपने घर िे जाकर यथासािंग पज
ू न की ु ई, ककन्तु ब ु त थोड़े िोगो को य भानय
प्राप्त ु आ। तयोंकक ऐसे पण्
ू यपरु
ु ष के चरण घर में पड़ने के लिए भी पि ू ज
ि न्म के सक ु ृ त चाह ए। ऐसा पिू प
ि ण्
ू य ग्जनका
था उनके य ाूँ म ाराज गए तयोंकक िे तो अिंतरज्ञानी थे, उन् े सबके हृदय का पता था। अमरािती में गणेश श्रीक़ृष्ण
खापडे नामक बड़े प्रख्यात िकीि थे। ग्जनकी ख्यार्त कायदा तज़्ज्ज्ञो में थे और उनके य ाूँ मानो धन की िषाि ोती
थी। इनको सब िोग दादासा े ब क ा करते थे। ये बड़े भाविक सज्जन थे। ये शत
ु ियजुिेदी ब्राह्मण थे। उन् ोने
म ाराज से उनके घर पधारने की प्राथिना की, तदनस
ु ार म ाराज ि ाूँ गए सो खापडेने यथासािंग पज
ू न ककया।
गणेश अप्पा नामक एक लििंगायत बर्नया था। उसकी पत्नी का नाम चिंद्राबाई था। ि भी बड़ी भािक
ु थे।
उसने अपने पर्त से क ा कक ऐसे साधु अपने घर िे जा कर ऐसे ी पज
ू न करना चाह ए आप प्राथिना करके दे णखये।
य सन
ु कर गणेश अप्पा ने अपनी पत्नी से क ा, “अरे , तयो तम
ु पागि ो गयी ो, इनको घर िे जाने के लिए
बड़ा िजन चाह ए। खापडे जैसे व्यग्तत को भी बड़ा पररश्रम करना पड़ा, सो म ककस झाड की पत्ती ै । इस पर
चिंद्राबाई ने पर्त से क ा, “नाथ! आपका क ना मझ
ु े ठीक न ीिं िगता मेरी मनोदे िता क ती ै , कक अिश्य मारे
य ाूँ पधारें गे। साधज
ु न- र्नधिनों पर दीनों पर अगधक प्रेम करते ै । इनके चरण से मारा घर न केिि पवित्र ोगा
अवपतु म िोग कृताथि ो जाएिंगे, आप प्राथिना करके तो दे णखये। ककन्तु अप्पा का धैयि न ीिं ोता था कक ि म ाराज
से घर पधारने की प्राथिना करे अिंतत: श्री गजानन म ाराज ने स्ियिं उनका ाथ पकड़कर उससे पछ
ू ा ‘अरे , तम्
ु ारा
घर ककतनी दरू ै?

॥ श्री गजानन विजय ग्रन्थ ॥


84
तुम् ारे घर चिकर थोड़ी दे र बैठने की इ्छा ै । अरे , अकारण भय तयों करते ो? मन में जो सिंकल्प ोता ै उसे
र्नसिंकोच, ककसी का भय न रख कर, स्पष्् करना चाह ए। य सन
ु कर गणेश अप्पा को जो षि ु आ उसका िणिन
न ीिं ककया जा सकता। उन दोनों ने म ाराज को अपने घर िे जा कर विगधित पज
ू ा की और अपना परू ा सिंसार
म ाराज को समवपित कर हदया। इस प्रकार अमरािती में अनेकों पादय पज
ू ाये म ाराज की ु ई।

अमरािती की इन पज
ू ा में एक व्यग्तत र पज
ू ा में उपग्स्थत था, जो आत्माराम भीकाजी का भािंजा था। उसका नाम
था बािाभाऊ। य बिंबई में तार मास््र था और अिकाश िेकर अपने मामाजी से लमिने अमरािती आया था। उसी
समय म ाराज ि ाूँ थे। ि म ाराज की ओर इतना आकवषित ु आ कक अब इन साधू चरणों को छोड़ क ीिं न ीिं
जाना, ऐसा उसे िगने िगा। य प्रपिंच अशाश्ित ै । इतने हदन इसमें र ा य ी ब ु त ै । आज से अब मैं ये चरण
न ीिं छोड़ूूँगा। तया कोई अमत
ृ छोड़कर विष का सेिन कर सकता ै? य ी कारण था कक ि र पज
ू ा में उपग्स्थत
र ा। कुछ हदनो के बाद शेरगाूँि आ गए और मल्िे में न जाकर मो्े लशिमिंहदर में ठ रे । उस मिंहदर में परू ब की
ओर एक जग थी। म ाराज ि ी बैठे। कृष्ण जी पा्ीि को म ाराज के आने का समाचार लमिा और य भी पता
चिा कक म ाराज मिंहदर में ठ रे ैं। मल्िे में न ीिं गए। सो ि दौड़कर म ाराज के पास आया और दिं डप्रणाम करके
मूँु ि्काकर म ाराज के सामने बैठ गया। उसकी आूँखों से सतत अश्रध
ु ाराए ब र ी थी ग्जससे उसके िक्षस्थि
का कपड़ा भीग गया। म ाराज ने उससे पछ
ू ा, ‘अरे ! तया कर र े ो, तुम् ें ककसका शोक ै?’

॥ श्री गजानन विजय ग्रन्थ ॥


85
तब उसने उत्तर हदया, म ाराज! मझ
ु से ऐसा कौन सा अक्षम्य अपराध ो गया, ग्जससे आपने मल्िे को छोड़ा।
भगिान य दे शमख
ु िोगो के पास की जग ै और एक मािी के ताबे में ै । य ाूँ आप मत रह ए। यहद मल्िे में
र ने की आपकी इ्छा न ीिं तो अपना र्निास में आपके लिए खािी कर दे ता ूूँ । ि ाूँ रह ए। े दयाधान, आपसे
ज्यादा मझ
ु े वप्रयिस्तु न ीिं ै। य ितिमान सन
ु कर री पाह्ि और नारायण पा्ीि भी ि ाूँ आये और म ाराज को
अपने घर आने की प्राथिना करने िगे। इस पर म ाराज ने उत्तर हदया, अरे ! मैं जो य ाूँ आकर बैठा ूूँ ि तुम
िोगो के ह त के लिए ै। य बाद में पता िगेगा अभी कोई वििाद मत करो, तम
ु िोगो का जो िाद ै उसका
र्नमि
ूि न मैं करूिंगा य मत भि
ू ो। जगत में ग्जतने धनी तथा जमीिंदार ोते ै िो कभी आगे पीछे का विचार न ीिं
करते, य ी उनकी न्यन
ू ता ै । जाओ, जाकर बिंक्िाि को ढूिंढ िे आओ और उससे पछ
ू ो कक जब मैंने उसका घर
छोड़ा तो ि िोगधत न ीिं ु आ। मेरी तुम सब पर कृपा ै, ि कभी विचलित न ीिं ोगी। इतने में बिंक्िाि भी
ि ाूँ आ प ुिं चे और उसने उन पा्ीिों को समझाया की म ाराज कक इ्छा के विरुद्ध उन् े मल्िे में मत िे जाओ।
ये सबके लिए समदशी ै। म िोग सब इनके बािक ै। य जग सखाराम आसोिकर की ै। ि बड़ा उदार मन
का ै सो य जग दे ने से ना करे गा न ीिं। इस प्रकार सबकी सम्मर्त ो गयी और सान िोगो ने लमिकर उस
जग मठ का र्नमािण ककया। ग्जससे परशराम सािजी नामक व्यग्तत ने विशेष पररश्रम ककए। समथि के साथ चार
एकर्नष्ठ भतत थे। िे थे भास्कर, बािाभाऊ, पीताम्बर और अमरािती के गणेश अप्पा । साथ में ि ाूँ का रामचन्द्र
गरु ि भी र ता था। इस प्रकार इन पाूँच पािंडिो के मध्य श्री गजानन भगिान श्री कृष्ण के समान सश
ु ोलभत ो र े
थे।

॥ श्री गजानन विजय ग्रन्थ ॥


86
बािाभाऊ की िग्ृ त्त अत्यिंत विरतत ो गयी थी, उसने नौकरी की कोई परिा न ीिं की। उसी प्रकार उसे घर आने के
लिए बार बार पत्र आते थे। ककन्तु ि अपने र्नणिय पर अ्ि था। मन से उसका पररणाम न ीिं ोता था। एक बार
भास्कर ने म ाराज को क ा, गरु
ु दे ि ि बािभौ पेढ़े खाने को च्क गया ै इसलिए आपका साथ न ीिं छोड़ता।
इसको आप ताड़न कररए तो ये घर चिा जाएगा। बिंदर िकड़ी के बगैर सीधा न ीिं ोता। बड़े बड़े प ाड़ िज्र से डरते
ै । एक बार बािाभाऊ को ठात भेज हदया तो उसने सेिा का त्याग करके किर म ाराज के पास प ुूँ च गया। जैसे
रे चारे को, बैि मारने पर भी दौड़ता ै । ऐसे ी तू च्क गया ै ग्जसको पण
ू ि विरग्तत ो गयी ै उसने ी य ाूँ
र ना ै। ऐसा सन
ु कर म ाराज ने एक कायि ककया, जो भास्कर का अज्ञान नष्् करने के लिए उन् ोने ककया। एक
व्यग्तत के ाथ में बड़ी छड़ी थी, ि िेकर गजानन म ाराज बािाभाऊ को उससे तोड़ने िगे। य दे खकर बाकी िोग
मठ छोड़कर भाग खड़े ु ए। ककन्तु बािाभाऊ म ाराज के सामने पड़ा र ा। िोगो ने सोचा इस प्रकार मार से शायद
ि मर गया ोगा। भास्कर भी बड़ा गचिंर्तत ो गया। िेककन बािाभाऊ की मार दे ख कर उसका सा स म ाराज के
सामने आने का न ी ु आ ि िकड़ी भी ्ू् गयी। तब थककर म ाराज पैरों से उसे रौंदने िगे। मठ में य प्रसिंग
चि र ा था। तब लशष्यगण दौड़कर म ाराज के वप्रय िोगो को बि
ु ाने के लिए गए। सन
ु कर बिंक्िाि कृष्णाजी
दौड़कर मठ में आए, ककन्तु म ाराज को रोकने की उनकी ह म्मत न ीिं पड़ी।

॥ श्री गजानन विजय ग्रन्थ ॥


87
डरते डरते बिंक्िाि ने क ा, “भगिान! य आपका भतत ै! अब ब ु त ो गया। इस पर कृपा कररए” य सन
ु कर
म ाराज िं स कर बोिे,”अरे ! मैंने इसको न ीिं मारा ै ! जरा ठीक से दे खो तो तुम िोग समझोगे” किर बािाभाऊ से
बोिे, “ित्स उठो और इन् े अपना शरीर हदखाओ” ऐसी आज्ञा सन
ु कर बािाभाऊ उठकर खड़ा ु आ और सब िोग
उसका शरीर दे खने िगे, ककन्तु आश्चयि की बात य थी कक क ीिं भी उसके शरीर पर चो् न ीिं िगी थे, पि
ू ि
ि त
उसका शरीर था। ि प िे जैसा ी प्रसन्न था विशेषत: भास्कर बड़ा िग्ज्जत ु आ और उसे बािाभाऊ की योनयता
का ज्ञान ो गया तत्पश्चात उसने बािाभाऊ को कभी कुछ न ीिं क ा। सोने को जब कसौ्ी पर कसा जाता ै तभी
उसका मल्
ू य पता चिता ै।

बािापरू में सक
ु िाि अग्रिाि नामक व्यग्तत र ते थे। उनके य ाूँ एक बड़ी उद्दिंड गाय थी। ि गाूँि में घम
ू ती, आदमी
और ब्चो को रौंद दे ती। सशतत परु
ु षो को सीिंग से उछिती। ककसी भी दक
ु ान में घस
ु कर अनाज में मूँु डािती,
भरपे् खाकर बचा ु आ बबखेर दे ती, तेि तथा घी के डब्बे धतके दे कर गगरा दे ती। रग्स्सयों से बािंधकर रखने पर
तोड़कर चि पड़ती। इतना ी न ीिं सािंकिे भी उसके सामने ह्क न ीिं पाती। य गाय न ीिं बार्घन थी। ग्जससे
बािापरु के िोग त्रस्त ो गए थे। न तो गालभन र ती न बबयाती। िोक सक
ु िाि को क ते कक या तो उसको कसाई
को बेच दो, या खुद गोिी से मार डािो। तब अग्रिाि उनसे क ता, “भाई, मझ
ु से तो य न ीिं ोगा। आप िोग ी

॥ श्री गजानन विजय ग्रन्थ ॥


88
मार डािो। एक पठान उसको मारने के लिए बिंदक
ू िेकर बैठा था, िेककन उस गाय को कैसे पता िगा पता न ीिं, तो
उसने सीिंग से उछिकर गचत्त कर हदया।

मैंने इसको दस
ू रे गाूँि में भी िे जाकर छोड़ा, िेककन किर ि य ाूँ चिी आई। अब आप िोग बताइये मैं तया करूूँ?
ऐसा सन
ु कर िोगो ने उससे क ा भाई आपको एक उपाय बताते ै आप इसे िेकर शेरगाूँि में गजानन म ाराज को
अपिण कर दो। म ाराज ने ऐसा े गोवििंदबि
ु ा का उद्दिंड घोडा ठीक ककया था। ग्जसमे दग
ु ना िाभ ै। एक तो साधु
को गौ दान का पण्
ु य, दस
ू रा म िोगो को पीड़ासे से छु्कारा। य मत सबको भाया और गाय को शेरगाूँि गजानन
के पास िे जाने का र्नश्चय ककया गया। ककन्तु उसको पकड़कर बािंधने के सारे प्रयास असिि ो गए। अिंत में एक
मैदान में ररयािी तथा सरकी रखी गयी जो खाने के लिए ि गाय दौड़कर ि ाूँ आई। गाय ि ाूँ आते ी िाूँसा
डािकर उसे बािंध हदया, दस बीस िोगो ने पकड़कर सािंकि गिे में दाि दी। किर एक गाड़ी पर चढ़ा उसे गजानन
म ाराज को दे ने को शेरगाूँि िाया गया। जैसे जैसे शेरगओन नजदीक आता िैसे िैसे गाय के स्िभाि में िरक पड़ता
गया। समथि के सामने आते ी गाय दीन ो गयी। म ाराज को दे खते ी उसकी आूँखों से अश्रध
ु ारा ब ने िगी। य
दे ख कर म ाराज उन सबसे बोिे। अरे य तया मख
ू त
ि ा ै? गो माता को इस तर पीड़ा दे ना मन
ु ालसब न ीिं। इसके
चारो पैर बािंध हदये ै । नाररयि की रस्सी से सीिंग बािंधे ै , इस प्रकार का बिंदोबस्त तो बार्घन के लिए ठीक ै गाय
के लिए न ीिं। अरे पागिो, य गौ सब जगत की माता ै। उसकी ऐसी दद
ु ि शा की आप िोगो ने। इसको तुरिंत छोड़
दो, य ककसी को न ीिं मारे गी िेककन ककसी का सा स उसको छोड़ने का न ीिं ोता था। जो भी सामने आता ि

॥ श्री गजानन विजय ग्रन्थ ॥


89
दे खकर वपछड़ जाता था। म ाराज ने स्ियिं आगे बढ़कर गौ के बिंधन- तोड़ हदये बिंधन छू्ते ी गाय गाड़ी से नीचे
आई और अगिे दोनों पैर जोड़कर ििंदन ककया।

नीचे मूँु डाि कर म ाराज को तीन प्रदक्षक्षनाए की और जीभ से म ाराज की चरण कमि चा्ने िगी, य दे खकर
सब िोग आश्चयिचककत ो गए। म ाराज के प्रभाि का शेषनाग भी िणिन न ीिं कर सकते। ग्जन े सौ जीव् ा ै किर
मेरे जैसे को तया। म ाराज ने उस गाय से क ा, ‘ े गौ माता! अब ककसी को पीड़ा न दे ना और मठ छोड़कर क ीिं
न जाना’ य सब दे खकर अपग्स्थत िोगो ने म ाराज का जय जयकार ककया और बािपरु के िोग िौ्कर चिे गए।
और गाय मठ में र ने िगी। उस हदन से उसको कभी दािा न ीिं पड़ा, एक अ्छी गौ के सब िक्षण उसमे आ गए।

कारिं जा में र ने िािा िक्ष्मण घड़


ु े नामक िाजसनेयी माध्यग्न्दन यजुिेद शाखा का धनकनक सम्पन्न ब्राह्मण
था। उसके उदर में कोई व्यागध उत्पन्न ु ई। जो अनेक उपाय करने पर भी ठीक न ीिं ु ई। श्रीसमथि गजानन म ाराज
की कीर्ति कानोकान उसने सन
ु ी थी, सो जल्दी से ि शेरगाूँि म ाराज के पास आया। रोगव्यिस्था के कारण ि
चि न ीिं सकता था सो दो- तीन िोगो ने उठाकर उसे मठ में िाये। ि म ाराज को उठकर नमस्कार भी न ीिं कर
सकता था सो उसकी पत्नी ने म ाराज के सामने आूँचि पसारकर प्राथिना की े दयाधन! मैं आपकी धरम कन्या

ूूँ , मेरे पर्त की यातना का रण करके मेरे सौभानय का रक्षण कररए। अमत
ृ का दशिन ोने के बाद भिा मत्ृ यु कैसे
ो सकती ै? य मेरी प्राथिना ै । उस समय म ाराज आम खा र े थे। ि ी िक्ष्मण की पत्नी के अिंग पर िेंक कर
बोिे, ‘जाओ, य तम्
ु ारे पर्त को णखिाओ, उसकी व्यागध का नाश करने के लिए। इतना क कर म ाराज चप
ु ो

॥ श्री गजानन विजय ग्रन्थ ॥


90
गए और गचिम पीने िगे। जब ि पास में खड़ी ो गयी तो भास्कर ने क ा,”ब न जी अपने पर्त को कारिं जा िे
जाओ और म ाराज ने जो आम का प्रसाद हदया ै ि णखिाओ।

इससे तुम् ारा पर्त ठीक ो जाएगा। ि बाई आम िेकर पर्त के साथ कारिं जा प ुिं ची, और प्रसाद के रूप में पाया

ु आ आम पर्त को णखिा हदया। उनको घर पर आया दे खकर सब िोग पछ


ू ने िगे “ अरे ! शेगाूँि में तया ु आ, तब
िक्ष्मण की पत्नी ने विस्तारपि
ू क
ि घ्ना िोगो को सन
ु ाई। जब ि ाूँ के िैद्यों ने य बात सन
ु ी तो क ने िगे, “अरे
ब न जी, ये आपने तया ककया? आम तो उदार रोगो में कुपर्थय ोते ै ऐसे िैद्यक सश्र
ु त शारिं गधर और र्नघिं्
ु मे
क ा ै । म ाराज ने जो प्रसाद हदया था सो अधांगी ोने के नाते आपको ि खाना चाह ए था ग्जसमे ििस्िरूप
पर्त की व्यागध ठीक ोती। य तो विपरीत ो गया। य सन
ु कर िक्ष्मण के सारे सगे सिंबिंधी घबरा गए और िक्ष्मण
की पत्नी को उिा ना दे ने िगे। आश्चयिकारक घ्ना ऐसी ु ए, कक िक्ष्मण को विरे चन ोने िगा ग्जससे उसका पे्
जो प िे कहठन था, नरम ो गया । सारा दोष विरे चन द्िारा साि ो गया। धीरे धीरे उसमे पि
ू ि
ि त शग्ततसिंचार
भी ो गया। िैद्यक शास्त्र र्नसगि र्नयमो पर आधाररत ोने र्नसगि से बा र कुछ न ीिं कर सकता। सिंतकृपा के एक
ऐसी शग्तत ै, जो सबका उल्ििंघन करती कर सकती ै । स्िस्थ ोने पर िक्ष्मण जल्दी से से शेर गाूँि आया और
म ाराज से प्राथिना करने िगा। म ाराज, मझ
ु े र्नराश न कररए। कारिं जा चिकर मेरा घर आपके चरणराज से पवित्र
कररए। ब ु त आग्र करने पर म ाराज उसके साथ कारिं जा गए। उनके स्सथ शिंकरभाऊ, पीतािंबर भी थे। म ाराज को
घर िे जाकर िक्ष्मण ने यथाविगध पज
ू ा की और दक्षक्षणास्िरूप में अपना सििस्ि म ाराज को अपिण ककया। किर भी

॥ श्री गजानन विजय ग्रन्थ ॥


91
थािी में थोड़े रुपए रख कर म ाराज के सामने रखे जो दे खकर म ाराज बोिे, ‘ अरे तूने सििस्ि अपिण करने का
सिंकल्प ककया किर ये रुपए क ाूँ से िाये?

इस प्रकार का आडिंबर मत करो, सारे तािे खोिकर सब सिंपग्त्त मत


ु तव्दार करके बाूँ् दो। तुम् ारी कथनी और करनी
में ऐसा िरक तयों? िक्ष्मण मौन ोकर बैठ गया, कुछ न ीिं बोिा, ककन्तु म ाराज ने र्तजोरी खोिने का आग्र
ककया। आणखर डरते डरते िक्ष्मण ने र्तजोरी खोि दे और दरिाजे पर बैठकर बोिा, “म ाराज जो भी िगता ै िे
िीग्जये। म ाराज तो सििज्ञ ठ रे उसके अिंतर का भाि जान गए। भिा ब रूपी का सोंग राजा ोने कब ह्क सकता
ै । करे िा ऊपर से ककतना भी अ्छा हदखे खाने में कड़िा ् े दे ता ै। य दे खकर म ाराज बबना भोजन ककए े
उसके घर से र्नकाि पड़े तयोंकक, दालभकों के अन्न से भिा सिंत कैसे त्रग्प्त पा सकते ै । उसके घर से अथिा धन
से भिा िैरानय के सागर म ाराज को तया प्रयोजन? ककन्तु उसने जो क ा था उसकी सत्यता की परीक्षा िेने कक
दृग्ष्् से म ाराज ने य िीिा की। जाते समय म ाराज बोिे ‘ अरे ! मैं तो तेरे पर कृपा करने और उससे दग
ु ुना दे ने
की इ्छा से य ाूँ आया था, ककन्तु तुम अपनी करनी का िि भोगो” आगे चिकर म ाराज का कथन सत्या ु आ।
िक्ष्मण की सब सिंपग्त्त नष्् ो गयी और उसे “भिर्त लभक्षा दे ी” की शरण िेनी पड़ी। श्रोतागण, परमाथि में असत्य
तथा, आडिंबर का स्थान न ीिं ोता। इस दृग्ष्् से म ाराज ने य िीिा की। श्री गजन तो गचिंतामणण ै , भिा गारगो्ी
तया मणण को शोभा िा सकती ै य दासगणू विचररत श्री गजानन विजय नामक ग्रिंथ भाविकगण सदै ि अपने
कल्याण के लिए श्रिण करें ।

॥ श्री गजानन विजय ग्रन्थ ॥


92
|| शभ
ु िं भितु । श्री रर रापिणमस्तु ||

|| इर्त श्री गजानन विजय ग्रिंथस्य दशमोsध्याय: समाप्त ||

॥ श्री गजानन विजय ग्रन्थ ॥


93
|| अध्याय – ११ ||

श्रीगणेशाय नमः े ॐकारस्िरूप पशप


ु र्त! े भिानी के िर दक्षक्षणामर्ू ति! इस ब्रह्माण्ड में ग्जतनी विभत
ू ीयाूँ ै , ि सब आपके
ी रूप ैं। आपका अव्यतत र्नराकार रूप ै , जो सििव्यापी ै । चराचर में आप ी व्याप्त ो! जो आपका य स्िरूप ै ि ी माया-
अविद्या-प्रकृर्त - का अगधष्ठान ै । ऐसा आपका अव्यतत र्नराकार रूप जानना असम्भि ै । इसीलिये आप दया करके सगण
ु रूप
धारण करते ो। जैसा ग्जसका भाि ोता ै ि उस भाि से आपकी भग्तत करता ै , किर भी नाम उपागधयों की लभन्नता आपकी
अलभन्नता को बागधत न ीिं कर सकती। शैि पिंथी आपको लशिरूप में दे खते ैं। िेदान्तीयों के आप ब्रह्मा ो। विलशष््व्दै र्त
रामानज
ु ीयों के आप सीतापर्त रामचन्द्र ो। िैष्णिजन आपको भगिान विष्णु के रूप में भजते ैं। उपासना भेद के अनस
ु ार
आपको अनेक नाम हदये गये ैं ककिंतु आप अलभन्नातया सबको प्राप्त ोते ो। आप विश्िेश्िर ो। ह मािय के केदारनाथ -

ॐकारे श्िर - क्षीप्रात्िर्ति म ाूँकािेश्िर - व्दारका के सोमनाथ नागनाथ-िैजनाथ, िेरूिके घष्ृ णेश्िर - गोरािरीत् के
न्न्यिंबकेश्िर - आप ी क िाते ैं। आप ी भीमाशिंकर और सेतुबिंधिं के रामेश्िर, श्रीशैि के मल्िीकाजन
ुि , गोकणि के म ाबळे क्ष्िर
िं णापरू के म ादे ि आप ी ो। इन सब आपके स्िरूपों को मेरा साष््ािंग दिं डित। आप मेरे तापत्रय (आध्याग्त्मक -
तथा लशखरलशग
आगधदै विक और आगधभौर्तक) का रण कीग्जये। े दीनबिंधो! आपने एक क्षण में कुबेर को दे िों का धनागधपर्त बना हदया, किर
मेरे विषय में आपको सामने कौन सा प्रश्न उपग्स्थत ु आ।

दस
ू रे िषि दासनिमी के अिसर पर श्रीसमथि बािापरू में बािकृष्ण के घर आये। बािापरू में बािकृष्ण और सक
ु िाि समथि के दो
र्नग्स्सम भतत थे। इनकी समता दस
ू रे ककसी से न ीिं ो सकती। इस समय म ाराज के साथ बािाभाऊ - वपतािंबर - गणू - जगदे ि

॥ श्री गजानन विजय ग्रन्थ ॥


94
तथा हदिंडोरकार थे। दासनिमी उत्सि यथासािंग पार ो गया। ककिंतु ि ी भास्कर का दै ियोग उहदत ु आ। एक पागि कुत्ते ने
भारकर को का् लिया। ग्जससे सब िोग घबरा गये कक अब य भी पागि ोकर िोगों को का्े गा। सारे िौककक उपाय कर चक
ु े,
कुछ बोिे, डॉत्र को बि
ु ा िाओ।’य सन
ु कर भास्कर ने क ा, ‘क ा ककसी िैद्य या डॉत्र को बि
ु ाने की आिश्यकता न ीिं।
मेरा डॉत्र य ािं आसन पर बैठा ै । मझ
ु े म ाराज के पास िे चिो, िो जैसा क ें गे, करो। अकारण अपना ् मत चिाओ। ’
य सन
ु कर भास्कर पा्ीि को श्रीसमथि गजानन म ाराज के सामने िाया गया और बािा भाऊ ने म ाराज को सब ित्ृ तािंत
बताया। सब सन
ु कर म ाराज िं सकर बोिे, ‘अरे भाई! त्या-शत्रत
ु ा और ऋण चक
ु ता न ीिं उसे िेडना ी पड़ता ै । के भास्कर ने
सक
ु िाि की गािंय की उद्दण्डता का रण करने की प्राथिना की। भास्कर स्िाथी ै । इसे गाय का दध
ू पीने को लमिे इस कारण इसने
ऐसी प्राथिना की। दध
ू पीने में मीठा िगा। अब तयों आनाकानी करते ो? य उसका िि ै । अस्त,ु अब स्पष््तया बताओ, कोई
सिंदे न ीिं रखना। तया और जीना चा ते ो? इससे तुम् ारी रक्षा करूिं तया? अगर इससे मैं तुम् ारी रक्षा करता ुूँ , तो य उधार िी

ु ई आयु ोगी, तयोंकक तम्


ु ारा मत्ृ यि
ु ोक से प्रयाण करने का समय आ गया ै । जन्म-मत्ृ यु की उधारी इस आशाश्ित सिंसार में
चिती र ती ै । अगर कुछ हदन और जीना चा ते ो, तो मैं य समय ्ाि सकता ुूँ , ककिंतु ऐसा अिसर किर न ीिं लमिेगा, जल्दी
से र्नणिय िेकर मझ
ु े बताओ। य सन
ु कर भास्कर पा्ीि ने उत्तर हदया, ‘भगिन, मैं तो अज्ञानी बािक ूिं । आप मेरी माता ो।
माता बािक का ह त अनह त सब जानती ै ।

ऐसे ी आपको जो भाता ो सो कररये। आप ज्ञानसागर ो, आपको सबकुछ पता ै, सो मैं तयों प्राथिना करूिं? भास्कर के विधान
सन
ु कर म ाराज को बड़ी प्रसन्नता ु ई। उनमें से कुछ बोिे, गुरुदे ि, भास्कर आपका वप्रय भतत ै , उसे श्िान विष से बचा िीग्जये।

॥ श्री गजानन विजय ग्रन्थ ॥


95
’ सन
ु कर म ाराज बोिे, पागि! ‘जन्म-मरण य ी भ्राग्न्त ै । न कोई जन्म िेता ै , न कोई मरता ै । य ज्ञान प्राप्त करने के
लिए ी परमाथि पिंथ ै । शास्त्रकारों ने जो क ा ै उसका उपयोग करना चाह ए। मो का समि
ू र्नमि
ूि न करना चाह ए। प्रारब्ध
भोग शािंत गचत से भोगना चाह ए। प्रारब्ध, सिंगचत और कियमाण कमि बद्ध जीिों को भोगना ी पड़ता ै , ककसी को चक
ु ता न ीिं।
म इस जन्म में जो करते ैं, उसका िि अगिे जन्म में भग
ु तना पड़ता ी ै । ििभोग भोगने के लिए ी पन
ु जिन्म िेना पड़ता
ै । भास्कर के पि
ू ि जन्म के कमि कुछ भी शेष न ीिं ै । सो य मोक्ष का अगधकारी ै । इसलिए इसका रास्ता मत रोको। तया भास्कर
जैसा मेरा भतत पन
ु जिन्म िेगा? कुत्ते का पि
ू ज
ि न्म का बैर था सो उसने िे लिया। अगर भास्कर के मन में य द्िेष शेष र ा तो
ि उसके पन
ु जिन्म का कारण ोगा। वपछिे जन्म का बैर कि् गया। अब भास्कर की सारी उपागधयािं नष्् ो गई। अब मैं इतना
करता ूिं कक य श्िान विष से पागि न ीिं ोगा और दो मह ने जीयेगा। अगर मैं य न ीिं करता, तो इसे पन
ु जिन्म िेना ोगा।’
य सन
ु कर कुछ िोग तो आनग्न्दत ु ए और कुछ िोगों को य ी न ीिं जचािं। इसके बाद सब िोग शेगाूँि आ गये। भास्कर ने बड़ी
मधरु भाषा में शेगाूँि के भततों को बािपरू का ित्ृ तािंत बताया। और भास्कर ने उनसे क ा कक, ‘म ाराज, आप िोगों के लिए एक
अनमोि र्नगध ैं, इन् ें सम् ािकर रखीये। इन् ें स्मारक की आिश्यकता न ीिं ककिंतु अगिी पीढ़ी के ज्ञान के लिए ि जरूरी ै ।
जैसे ज्ञानेश्िर ने आििंदी, सज्जनगढ रामदासजी ने और दे ू गािंि तुकाराम म ाराज ने तीथिस्मारक कर हदया। उस दृग्ष्् से आप
िोग अभी से ी प्रयत्नशीि रह ये।’ भास्कर सबको य क ता र ा।

ककिंतु एक बारिं उसके मन में आया, ये िोग मेरे सामने तो ािंमी भरते ैं। तया िस्तुतः ये ऐसा प्रयत्न करें गे? ऐसा विचार करते
उसने सबको एक बार मठ में बि
ु ाया। ग्जसमें बिंक्िाि- री पा्ीि-मारोती पा्ीि-चन्द्रभान कारभारी - जो खिंडु पा्ीि की दक
ु ान

॥ श्री गजानन विजय ग्रन्थ ॥


96
पर था, श्रीपतिार बािीकर - ताराचिंद सा ु कार ऐसे अनेक िोग जमा ु ए। ऐसा उसने मा राज के अपरोक्ष में ककया। उन सबको
इकट्ठा कर भास्कर ने क ा अब आप िोगों से मेरा सम्बन्ध केिि दो म ीने ै । मेरी ऐसा मनोकामना ै कक य ािं शेगाूँि में म ाराज
का विशाि मिंहदर ो। आप िोग यहद ऐसा िचन मझ
ु े दे ते ैं तो मैं सख
ु पि
ू क
ि बैकुण्ड को जाऊिंगा। य स्मरण रखा कक सिंतों की सेिा
कभी विशाि न ीिं ोती। ग्जसकी जो मनोकामना ोती ै ि पण
ू ि ोती ै । मिंहदर ऐसा ो की जो सारे बराड प्रािंत में विशाि और
प्रशिंसनीय ो। य मेरी अिंर्तम प्राथिना ै । सब िोगों ने म ाराज की शपथ ग्र ण कर िचन हदया, कक य कायि म िोग पण
ू ि करें गे।
ग्जससे भास्कर का मन ग्स्थर ो गया। मन की आशिंका नष्् ो गई और ि प्रर्तहदन आनिंहदत ोता जाता था। जैसे बािकगण
आनेिािे उत्सि के वप्रत्यथि आनिंहदत ोते ैं।

माघ िद्य त्रयोदशी को म ाराज भास्कर से बोिे, ‘भास्कर! म िोग लशिराबत्र के अिसर पर त्र्यिंबकेश्िर दशिन को जायेंगे।
गोदािरी के ककनारे कपरूि गौर भि और भिानी के पर्त त्र्यिंबक ग्स्थर ैं। य सिंद
ु र ज्योर्तलिंग ै । जो सब पातकपज
िंु को नाश
करते ैं इसलिए विििंब मत करो, शीघ्र तैयारी करके चिो। पास ी ब्रह्मागगरी पिित ै । ज ािं पर विपि
ु प्रमाण में िनौषगधयािं
उपिब्ध ै । य ािं गिंगा स्नान भी ोगा। इस ब्रह्मगगरी पर ग नीनाथ म ाराज ै , उनको औषगधयों के गुणधमि ज्ञात ैं। उनमें
पािग कुत्ते के ज र पर औषगध ै , इसका उपयोग म िोग जल्दी से करें गे।’ उस पर भास्कर ने उत्तर हदया, ‘गुरुदे ि, आपकी
सत्ता अगाध ै , जो औषगध से लभन्न ै । आपकी कृपा से विष का प्रभाि तो बािापरू में ी नष्् ो गया।

॥ श्री गजानन विजय ग्रन्थ ॥


97
अब मेरी आयु के केिि दो म ीने शेष ै , सो मझ
ु े ऐसा िगता ै कक म िोग शेगाूँि में ी र े । म सबके लिए आप साक्षात ्
त्र्यिंबकेश्िर ो। आपका चरण तीथि गोदािरी ै । उसी से म स्नान करते ैं अन्य तीथि का अब कोई प्रयोजन मझ
ु े न ीिं। ऐसी
ु कर म ाराज िं सकर बोिे, ‘य सत्य ै ककिंतु किर भीतीथि मह मा तो मानना ी चाह ए। चिो, अब दे र मत
भास्कर की िाणी सन
करो, न्न्यिंबकेश्िर का दशिन करें गे ी। साथ में बािाभाऊ, वपतािंबर को भी िे िो।’ ऐसा र्नश्चर करके शेगाूँि से ये सब िोग
र्नकिकर त्र्यिंबकेश्िर प ुिं च।े ि ािं कुशािति क्षेत्र में स्नान करके त्र्यिंबकेश्िर के दशिन ककये। गिंगाद्िार पर जाकर गौतमी का पज
ू न
ककया। र्निािंबबका माता का दशिन ककया, ग नीनाथ का दशिन करके किर ये सब नालसक गोपािकदास को लमिने आये। म िं त
गोपािदास कािे राम मिंहदर के द्िारपर धर्ु न िगाकर बैठा था। राममिंहदर के सामने एक पीपि का ओ्ा था। ि ीिं पर अपने लशष्यों
सह त म ाराज बैठे। य दे खकर गोपािदास को अत्यिंत आनन्द ु आ। ि सब िोगों से बोिे, ‘आज मेरे बिंधु शेगाूँि य ािं आये ैं,
जाकर अनन्यभाि से उनका दशिन करो और मेरी ओर से नाररयि - शतकर उन् ें भें ् करो। य ार उनके गिे में डािो, म दोनों
एक ैं। अथाित ् अद्िैत ै , शरीर लभन्न ै , इसलिए उन् ें आप लभन्न न समझे, सन
ु कर उनके लशष्य ज ािं म ाराज बैठे थे ि ािं आये,
दशिन करके गिे में पष्ु पमािा प नाई, नाररयि और लमश्री स्िामी समथि के सामने रखी य दे खकर गरु
ु दे ि भास्कर से बोिे,
‘भास्कर, इसी पिंचि्ी में मारे बिंधु कक भें ् ो गई, ये प्रसाद सबको दो, िेककन स्मरण र े , कक भीड़ न ोने पाये। मेरा य ािं का
काम ो गया िेककन धुमाि िकीि के य ािं जाना ै । ि काम बाकी ै । म ाराज नालसक में र े और उनके छो्ी मो्ी घ्नाएिं ि ािं

ु ई ग्जनका विस्तार भय से सम्पण


ू ि िणिन न करके केिि सिंक्षेप में क ता ूिं । म ाराज के दशिन को बडी गदी ोने िगी थोडे हदन
म ाराज नालसक र कर शेगाूँि िापस आ गएूँ ।

॥ श्री गजानन विजय ग्रन्थ ॥


98
आने के बाद झ्यामलसिंग म ाराज को अडगािंि िे जाने को आया। उसने चिने का ब ु त आग्र ककया, तो म ाराज ने उसको उत्तर
हदया, कक म रामनिमी ोने के बाद अडगािंि आयेंगे। झ्यामलसिंग म ाराज का र्नग्स्सम भतत था। ि जैसे आया था िैसे ी
खािी ाथ िौ्कर अडगािंि गया। बाद में ि किर रामनिमी को शेगाूँि आया। शेगाूँि में रामनिमी का उत्सि सम्पन्न करके ि
लशष्य पररिार सह त म ाराज को अडगािंि िे गया। उसका मानस नम
ु ान जयिंती के लिए था। अडगािंि में अनेक चमत्कार ु ए।
ू में लि्ा हदया और उसकी छाती पर बैठकर उसे मारने िगे। सब िोग दे ख र े थे ककिंतु ककसी
एक हदन म ाराज ने भास्कर को धि
की छुडाने की ह म्मत न ीिं ोती थी। बािाभाऊ पास में था ि बोिा सद्गरु
ु नाथ! य धप
ू और वप्ाई के कारण तिािंत ो गया ै ,
बस कीग्जये इसको छोड़ दीग्जये। य सन
ु कर भास्कर बोिे, भैय्या बािाभाऊ ये मेरे परमेश्िर ैं, जो करते ैं, करने दो, रोककये
मत। ये थप्पड़ मझ
ु े गुदगुदी कर र े ैं। ये अनभ
ु र्ू त की बातें ैं, अनभ
ु ि से ी जानी जा सकती ैं। बाद में भास्कर को िेकर अडगािंि
में ज ािं म ाराज ठ रे थे ि ािं आये। बािाभाऊ से म ाराज ने क ा, ‘बािाभाऊ आज जो मैंने य काम ककया उसका मगथताथि तुम् ें
पता ोगा। इस भास्कर ने शगािंि में तम्
ु ें मेरे द्िारा छत्री से वप्िाया था, उस कियमाण सिंचय को नष्् करने के लिए मझ
ु ेय
कृत्य करना पड़ा।’ भास्कर के जाने में अब दो हदन बाकी ै । नम
ु ान जयिंती का उत्सि समाप्त ोने पर अडगािंि में तया ु आ सो
आप िोग सर्ु नये। उत्सि का पारणा ु आ। िद्य पिंचमी को एक प्र र बीतने पर म ाराज बोिे, ‘भास्कर! आज तुम् ें प्रयाण करना
ै सो पद्मासन िगाकर परू ब की ओर मिंु करके बैठो। गचत ग्स्थर करके भगिान का ध्यान करें । अिंर्तम समय आ गया ै । सािधान
ो जाओ। इतर जनों को म ाराज बोिे, तुम् ारा य बिंधू आज िैकिंु ठको जानेिािा ै ।

॥ श्री गजानन विजय ग्रन्थ ॥


99
इसका यथािश पज
ू न करें ।’ और उ्च स्िर से ‘विठ्ठि विठ्ठि नारायण की ध्िर्न करो’। भास्कर ने पद्मासन िगाया,
नासाग्रभागपे दृग्ष्् ग्स्थर ै , सारी िग्ृ त्तयों को अिंतमख
ुि िीन ककया और भगिान के ध्यान में मनन ो गया। सब िोगों ने उन् ें
मािायें प नाईं, गुिाि, बक
ु ा िगाया। समथि दरू बैठकर सब दे ख र े थे। एक प्र र तक भजन ोता र ा, भगिान भास्कर मध्य में
आये। म ाराज ने उ्च स्िर से ‘ र र’ शब्दों का उ्चारण ककया। उसी समय भततभास्कर के प्राण अनिंत में वििीन ो गये।
भास्कर बैकुण्ठ चिा गया। ग्जसका ाथ सिंत पकड़ िेते ैं ि भगिान विष्णु का अर्तगथ ो जाता ै । िोग म ाराज से पछ
ू ने िगे,
‘म ाराज, भास्कर का य शरीर क ािं रखा जाये? समागध क ािं पर बािंधी जाये। तब सबको समथि ने क ा, ‘द्िारकेश्िर में ज ािं
पशप
ु र्त और सती का स्थान ै ि ी इसका किेिर रखा जाये।’ य सन
ु कर िोगों ने विमान तैयार ककया, उसमें केिे के खिंबे बािंधे
उसके अिंदर भस्कर का शरीर रखा और भजन कीतिन के साथ घम
ु ते ु ए द्िारकेश्िर में ज ािं म ाराज ने क ा था ि ीिं यथाविगध
समागध सम्पन्न की। सब िोग बड़े शोकाकुि ु ए क ने िगे, ‘म ाराज का परमभतत गया। समागध के दस
ू रे हदन से ि ािं दीन-
दणु खयों को अन्नदान ककया गया। द्िारकेश्िर य स्थान अडगािंि से करीबन एक मीि दरू ै । य ािं पर पररसर बडा ी रमणीय ै ।
य उत्तर की ओर ै य ािंपर इमिी के पेड ब ु त ैं। उसी प्रकार नीम-पीपि-मिंदार-आम-बड़-गुिर इत्याहद पेड़ ब ु तायत ैं। अनेक
प्रकार के पष्ु प िक्ष
ृ भी ैं। अडगािंि और अकोिी के बीच में य स्थान ै , ि ी म ाराज ने भास्कर को समागध दी। य ािं सिंतों को
भोज दस हदन तक ोता र ा। इमिी के पेड के नीचे जब भोजन के लिए िोग पिंग्तत में बैठते तो कौए बड़ा उपद्रि करते। केिि
काि! काि! का कोिा ि ी न ीिं, अवपतु पत्ति में से दाने उठा िे जाते और भोज के लिए बैठे िोगों के शरीर पर विष्ठा कर दे ते।
िोग उनसे त्रस्त ोकर उन् ें उड़ाने िगे। इतना ी न ीिं भि तीर कमठा िेकर उनको मारने के लिए उद्यत ु ए।

॥ श्री गजानन विजय ग्रन्थ ॥


100
य दे खकर म ाराज बोिे, ‘अरे ! इन् ें मारो मत इनका कोई अपराध न ीिं ै , य ािं आने का इनका े तु य ै कक सब िोगों के समान
इन् ें भी भास्कर का प्रसाद लमिे। तयोंकक भास्कर सीधा बैकिंु ठ िोक चिा गया। वपति
ृ ोक में न ीिं र ा। मनष्ु य के मरणोपरािंत
उसकी आत्मा दस हदन तक अिंतररक्ष भ्कती र त ै और वपिंडदान के बाद ि आगे जाती ै । इसलिए नयार िें हदन काकबिी
दे ते ैं। जब वपिंड को कौिे स्पशि करते ैं, तब आत्मा आगे जाती ै यार्न वपति
ृ ोक चिी जाती ै । इसलिए मत
ृ क-कमि का म त्ि
शास्त्रों में बताया ै भास्कर का दसवपिंड कायि न ीिं ु आ इसलिए कौिे शायद भाग न पाकर िुद्ध ो गये ैं, मैं उन् ें समझा दे ता ूिं ।
भास्कर बैकुण्ठ िोक चिे जाने से सोमिोक (वपति
ृ ोक) तथा सय
ू ि
ि ोक (दे ििोक) का कोई कारण न र ा, तथा वपिंडदान का भी
प्रयोजन न र ा। ग्जनका ऐसी गर्त न ीिं प्राप्त ोती िे वपिंड रखकर कौओिं की रा दे खते ैं। किर म ाराज कौओिं से बोिे, ‘पक्षक्षगण
आज तुम प्रसाद ग्र ण करो, िेककन कि से य ािं बबल्कुि मत आना! न ीिं तो मेरे भास्कर का नाम बदनाम ोगा’। अब पिंगत में
जो कुचाि बैठे थे, िो आपस में बात करने िगे कक म ाराज भी खूब ैं, भिा क ीिं पिंछी मनष्ु य की आज्ञा में र ते ैं। ये पागि िोक
कुछ भी बोिते ैं। जो शोभा दे ऐसा ी आचरण करना चाह ए, व्यथि के आडम्बर से तया िाभ? अस्त!ु कि सच और झठ
ू का पता
चि जाएगा। दस
ू रे हदन ये कुचािी ि ािं दे खने के लिये आये, सो आश्चयि की बात ये कक दस
ू रे हदन से एक भी कौआ ि ािं नजर न ीिं
आया। ये दे खकर िो िोग म ाराज की शरण आये। श्रोतागण इसी जग पर बार िषि तक कौए न ीिं आये। चैद हदन ोने पर
म ाराज अपने उििररत लशष्यों के साथ शेगाूँि िापस िौअ आये। इसी प्रकार शेगाूँि में एक अद्भत
ु िीिा ु ई, आप िोगों को सन
ु ाता

ुूँ । आप िोग सािधान गचत्त से श्रिण कीग्जये। ि अकाि का िषि था। काम क ीिं न ीिं था, उस समय शेगाूँि में एक कुआूँ खोदा
जा र ा था।

॥ श्री गजानन विजय ग्रन्थ ॥


101
कुआूँ खोदते समय सरु िं ग िगाये जाते ैं। खोदते समय कािा पत्थर िग गया ग्जसमें सब्बि या कुदाि से काम न ीिं चिा उसमें
सरु िं ग िगानी पड़ती े । पत्थरों में छो्े छो्े र्छद्र बनाकर उसे गिंधक भरा जाता ै । ग्जसमें बत्ती के लिए एक धागा िगाया जाता
ै । इस प्रकार इस कुएूँ में भी चारों और र्छद्र बनाकर बारुद भरी गई ऊपर से एरिं ड के पिंग
ु लियों के जिाकर धागे द्िारा नीचे छोड़ा
ककिंतु ि बीच में अ्क गईं। बीच में गािंठ थी ि ािं अ्क गई, पानी भरता जा र ा था तो सरु िं ग तक प ुिं चने िािा था। अगर सरु िं ग
को पानी िगा तो बारुद व्यथि चिी जाती ै । लमस्त्री ने जब य ाित दे खी तो गणू जिन्या नामक एक मजदरू को नीचे उतरकर
पिंग
ु िी सरकाने को क ा। ककसी को सा स न ीिं ो र ा था सो गणू को लमस्त्री ने द्ाया। बेचारा गरीब था तया करता, तयोंकक मेशा
यज्ञ में आजपत्र
ु को ी बिी चढाया जाता ै , तयोंकक ि गरीब ोता ै । तात्पयि य ै कक गरीब व्यग्तत ी आगे ढकेिा जाता ै ।
य गणू जिरे म ाराज का र्नष्ठािान भतत था। उसकी उन पर र्नतािंत श्रद्धा थी। ि लमस्त्री के आदे शानस
ु ार नीचे उतरा और एक
पग
ु िंिी सरकाई ि तत्काि बारुद के पास प ुिं च गई और गणू जिरे अिंदर ी था, र्नकि न ीिं पाया। दस
ू री को सरकाने के लिए ाथ
िगाया, सो प िी सरु िं ग िू् पड़ी। किर तया पछ
ू ना, य प्रसिंग दे खकर गणु ने म ाराज से प्राथिना की, भगिान! अब आप ी मेरी
रक्षा कर सकते ैं, जल्दी से दौड़कर आईये। कुएूँ में प्रचिंड धिंआ
ु भर गया। दस
ू रा सरु िं ग िू्ने को थोड़ा समय था। इतने में गणू
जिन्या के ाथ में एक कपार िगी ि उसमें बैठ गया। एक के पीछे तक ऐसी चारों सरु िं ग उडे और पत्थरों से कुआूँ भर गया। बा र
भी बडी दरू तक पत्थर उडे सब िोगों ने सोचा कक बडा बरु ा ु आ आज गणू जिरे को इस कुएूँ में मग्ु तत लमि गई ोगी। उसका शरीर

ु ष कुएूँ में झाूँक कर गणू को दे खने िगे ककिंतु ि क ीिं हदखाई न ीिं पड र ा था।
र्छन्न ो गया ोगा। सब स्त्री परु

॥ श्री गजानन विजय ग्रन्थ ॥


102
िोग अनेक प्रकार की कल्पना करने िगे। कईंओिं ने क ाूँ अरे पत्थरों के साथ ि भी बा र िेंका गया ोगा। पास में क ीिं तो भी
उसका शि ोगा, ढूिंढो। लमस्त्री की आिाज सन
ु कर अिंदर से गणू बोिा लमस्त्री जी गणू मरा न ीिं अिंदर ै , गजानन म ाराज कक कृपा
से बाि बाि बच गया। य ािं कपार में छुपा बैठा ूूँ । कपार के मिंु पर एक पत्थर पड़ा ै ्िाईये इस कारण मैं र्नकि न ीिं पा र ा

ूूँ । गणू की आिाज सन


ु कर िोगों के आनन्द का हठकाना न र ा। कईं िोग पत्थर र्नकािने के लिए नीचे उतरे । दस पािंच आदलमयों
ने ि पत्थर कपार के मिंु से ्ाया और गणु को ऊपर िे आये। ऊपर आते ी गणू दौड़ते ु ए म ाराज के दशिन के लिए मठ में
गया। गणू को दे खते ी म ाराज बोिे, ‘अरे गण्या, कपार के अिंदर बैठकर तन
ू े ककतने पत्थर उडाये, उनमें से बड़ा पत्थर तेरी रक्षा
करने के लिए कपार के मिंु पर बैठा, ग्जससे तू बच गया। पन
ु ः ऐसा सा स कभी न करना। पिंग
ु िी एक बार छु्ने पर उसे अिंदर
जाकर ाथ से कभी न ढकेिना। जा! तुम् ारा सिंक् ्ि गया। गणू को दे खने गािंि के िोग आये। गणू म ाराज से बोिे,
‘सद्गुरुनाथ! चारों सरु िं ग चि जाने पर आप ी ने मझ
ु े कपार में बैठाया। इसलिए आपके चरण पकड़ने मैं आया ूूँ न ीिं तो मैं कुएूँ
में ी मर जाता। ऐसी श्रीगजानन म ाराज की मह मा अपार ै उसका िणिन करने का सामथ्र्य मझ
ु में न ीिं ै । श्री दासगणू विरगचत
ग्रिंथ श्रीगजानन विजय नामक श्रोतागण को ग्रिंथ आल् ाद दे नेिािा ो। य दासगणक
ु ी इ्छा ै ।

|| शभ
ु िंभितु | श्री रर रापिणमस्तु ||

|| इर्त श्रीगजानन विजय ग्रन्थस्य एकादशोऽध्यायः समाप्तः||

॥ श्री गजानन विजय ग्रन्थ ॥


103
|| अध्याय १२ ||

श्रीगणेशाय नम: । े गणागधश - गणपती मयरु े श्िर विशद


ु ध ककतीिािे प्रभो ! मेरे दयमें र्निास करके य
ग्रिंथ पण
ू ूँ करो । े गणो के राजा आप बग्ु ध्ध और ज्ञान के दाता ो । भकतजनो के मनोरथ पण
ू ूँ करनेिािे, विध्नो
के पिितो का विध्ििंस करनेिािे, आप ी ो । परु ाण ऐसा के ता ै की आप भकतजनो कक गचिंता रानेिािे अथॉत ्
अभीष््पण
ू ि करनेिािे गचिंतामणी ो । भकत दय कक बात आप जानते ो । े लसिंदरू राक्षश का नाश करनेिािे, चिंद्र
मा ग्जसके भािपर ै , ऐसे भािचिंद्र सारे ब्र मािंडोंका उदर मे समािेश करनेिािे िम्बोदर, पािितीपत्र
ु , एकदिं त मेरी
गचिंता का नाश करो । अस्तु ।
ब्चि
ु ाि अग्रिाि नामक एक धन-कनक सिंपन्न व्यककत अकोिा मे र ती थी । य मन का भी बडा उदार
था । उसने कानोकान करिं जिािे िक्ष्मणपिंत घड़
ु े की स्ची घ्ना सन
ु ी । ग्जससे ि शिंकायक
ु त ो गया । उस घ्ना
की सत्यता असत्चता की नापतौि की द्रग्ष्् से ि विचार करने िगा । ऐसे समयमें एक बार अपना भततजन
साक्षात्कारी गजानान य ाूँ अकोिा आये और ब्चि
ु ाि के घर के ओ्े पर बेठ गये । ब्चि
ु ाि को बडा आनिंद ुआ
। उसने म ाराज से क ा , 'गुरुदे ि! आज आपकी पज
ु ा करने की मनीषा ै । सन
ु कर म ाराज ने सम्मतीदशिक गदि न
ह िाई । ब्चि
ु ाि ने सब तैयारी करके षोडशोपचार से पज
ू ा आरम्भ की । प िे मिंगि स्नान करिाया, अनेक प्रकार
के उब्न िगाये और स्नान के बाद किर जरी का पीतािंबर म ाराज को प नाया ।

दो कालशपरु ी शािें किंधोपर दािी जरी का एक कपडा लशरोभष


ू ण करके बाूँधा । गिेमे सोनेकी गोिे डािी । उसी तर
ाथमे सोनेकक सिंकि और दस अिंगलु ियाूँमे दस सि
ु णूँ महु द्रकायें प नायी । ह रा जडी ु ई सि
ु णूँकी बाजूबिंद प नायी।

॥ श्री गजानन विजय ग्रन्थ ॥


104
रत्नजडडत किंठा गिेमें डािा जो अत्यिंत सभ
ु ोवषत ो र ा था । जिेबी, राघिदास का नैिेद्य थािीमें रखा । त्रयोदशगण
ु ी
पान का बीडा सामने पात्र में रखा । अष््गिंध, अगिज और अत्तर िगाया । सब शरीरपर गि
ु ाबजि र्छडका । एक
सोनेके थािीमें ब ु तसे रुपये और सोनेके ोन दक्षक्षणाके रुपमें सामने रखे । गगनती करनेपर ि दस जार के कररब
ोगी । ग्जसको मैं कैसे िणिन करुूँ ? श्रीिि सामने रखकर, विनयपि ू क
ि ाथ जोडकर म ाराज से क ा,"म ाराज मेरी
इ्छा राममिंहदर बािंधनेकी ै । गुरुदे ि । मिंडप दािनेपर भी उत्सि के लिये इस ओ्े पर तखलिप ोती ै । ें ज्ञान
र्नधान । मेरा य मनोरथ पण
ू ि कररये । ऐसा क कर म ाराज के चरणोंपर माथा रखा । उसकी ऐसी अन्नय भािकी
प्राथिना करनेपर म ाराज बोिे, 'जानकीजीिन भगिान श्रीराम तुम् ारा मनोरथ पण
ू ि करें गे । ऐसा मेरा आशीिॉद ै ।य
तो हठक ै िेककन आज तुमने मझ
ु े पोिेके बैि के जैसे तयों सजाया ै ? न तो मै पोिेका बैि ुूँ, न दसरे का घोडा,
ग्जसको इसप्रकार सजाया जाता ै । इन सब अििंकारों का मझ
ु े तया उपयोग ै ? मारे लिये य सब विष ै । ये
सब उपागध मेरे पीछे मत िगाओ । क ीिं तुम बडे धनिान ो, य सब बतानेके लिये तो य सब न ीिं ककया? जो
ग्जसको अ्छा िगता ै ि ि ी करता ै । मैं उन्मत्त सिंन्यासी-निंगा-अिधत
ु ूूँ । मझ
ु े इससे कोई प्रयोजन न ीिं ।
तम
ु प्रापिंगचक िोगोंको इस सबकी जरुरत ै।

मेरा यजमान भीमाके तीरपर ईं्के ऊपर खडा ै , जो विश्िकताि, र्नयिंता ै । तया ि मझ
ु े य सब न ीिं दे सकता?'
ऐसे बोिकर सब अििंकार म ाराज ने र्नकाि कर चारो औिंर िेंक हदये। दो पेडे खाकर म ाराज ि ाूँ से चि हदये ।
य दे खकर आकोिा र्निासी बडे द:ु खी ु एूँ । उसमें कुछ कारिं जा के िोग थे । िे िोग क ने िगे , मारा िक्ष्मण
अभागी था । उसने ब्चि ु ाि जैसी पज
ू ा तो की परिं तु मनमे धनका मो रखकर आशिंककत ु आ । ऊपरसे बडा त्याग
बतानेका प्रयत्न ककया तो तया म ाराज को य पता न ी िग सकता था , िे तो सििज्ञ ै । जैसे दािंलभक िोगोंकी
पज
ू ा अक्षतासे ोती ै । नैिेदय समपूँण मिंत्र तो पढते ै 'शकिराखिंडखादया र्न' और सामने रखते सडी ु ई मूँग
ु ििी ।

॥ श्री गजानन विजय ग्रन्थ ॥


105
ऐसे दािंलभक पज
ू न का िि भी किर िैसा ी ककया र्तिमात्र भी अिंतर न ी रखा । अब इसको कभी भी न्यन
ु ता न ीिं
ोगी । िैभि सदै ि िग्ृ ध्गत ी ोगा, तयोंकक ग्जसपर सिंत की कृपा ोती ै ि सदा सख
ु ी र ता ै । ब्चि
ु ािने
आकोिामें तिाश ककया, िेककन म ाराज का क ीिं पता न चिा ।

शेगाूँि में एक वपतािंबर नामका दजी म ाराज का भतत मठमें र ता था । ि एक ि्ी परु ानी धोती प ने
र ता था । ि बडे अनन्य भाि से म ाराज की सेिा करता था । जो एक हदन ििद्रप
ु ो गयी । उसकी ि्ी परु ानी
धोती दे खकर म ाराज मस्
ु कराकर बोिे, 'अरे तेरा नाम तो वपतािंबर ै , िेककन तू ि्ी-धोती प नकर र ता ै , ग्जससे
तेरे गप्ु तािंग हदखाई पडतें ै, जो सब स्त्री-परु
ु ष दे खते ै । नाम तो 'सोनीया' और ाथ में कथीिके भी किंगन न ीिं ।
जैसे नाम तो गिंगाबाई और प्यास के मारे मरती ै । तेरी ऐसी ी ाित ै । ि्ी धोती प नकर िोगोंको ढुिंगन
बताते बैठता ो । य दप
ु ््ा िो और प न िो । वपतािंबर ने भी कोई प्रकार का विचार करके दप
ु ््ा प न लिया
। जो औरों को अ्छा न ीिं िगा । स्िाथि की और दृग्ष्् रखकर भाई ी भाई का शत्रु ोता ै । य तेढा-मेढा कथन
मैं न ीिं करता तयोंकक गन्दी-नािी का मूँु खोिनेपर दि ग
ु न्ध ी फ़ैिाती ै । श्री गजानन म ाराज के िैसे तो असिंख्य
लशष्य थे, ककन्तु उनमें अगधकारी दोनो ाथ की अिंगलु ियाूँ ग्जतने ी थे । श्रोतागण जिंगिमे असिंख्यात िक्ष
ृ ोते ै ।
ककन्तु चन्दन एकाद ी ोता ै । इस प्रकार के लशष्य वपतािंबर को ताने कसने िगे । "अरे । समथि के प नने योनय
िस्त्र तु प नता ै ? इससे ी तुम् ारी भककत हदखाई पडती ै । तुम वििासी ो । तम
ु य ाूँ अपमान करने मत र ो
। " इसपर वपतािंबर ने उत्तर हदया की , " इसमे मेने गरु
ु का कोई अपमान न ीिं ककया , उनकी आज्ञा मानकर हदया
ु आ िस्त्र मैंने प ना । तया य उनकी अिज्ञा ै ? ऐसा वििाद लशष्यो में जब बढा तो म ाराज ने उसका र्निारण
करनेके लिये उससे क ा ! " वपतािंबर, बािक सज्ञान ोनेपर माता उसे दरू कर दे ती ै । मेरी तम
ु पर पण
ू ूँ कृपा ै,
तुम पर्थ
ृ िीपर घम
ू कर शरणागतो का कल्याण करो । " ऐसी आज्ञा सन
ु कर वपतािंबर अश्रय
ु क
ु त नयनों से म ाराज को

॥ श्री गजानन विजय ग्रन्थ ॥


106
साष््ािंग दण्डित करके जानेके लिये उधत ु आ । ि बार बार मड ु कर मठकी और दे खता । शेगाूँिसे र्नकिकर
वपतािंबर कोंडोिी में प ुूँ चा और जिंगिमें एक आम्रिक्ष
ृ के नीचे अपने गरु
ु का स्मरण करते बैठ गया । रातभर झाड के
नीचे बैठा और गचिं्ीओकी तकलििसे प्रात: सय ु ोदय के समय ज्ञाडपर चढकर बैठा ।

परू े आम्रिक्ष
ृ पर गचिं्े और गचिं्े थे । छो्ी बडी सब शाखाओिंपर वपतािंबर जा आया िेककन क ी पर भी उसे शािंर्त न ीिं
लमिी । सब झाड पर गचिं्ी और गचिं्े थी। गोपाि िोगोंने जब उसका य कृत्य दे खा तो, आश्चयि करने िगे ।
आपसमें िो बोिने िगे, 'य बन्दरके समान उछिकुद तयों कर र ा ै ?य र्नभियता से छो्ी-बडी शाखाओपर
किरकर आया ककिंतु नीचे न ी गगरा । य बडे आश्र्यूँकक बात ै । दस
ु रे ने क ा,' इसमें आश्र्चयि करनेकक कोई बात न ीिं
। गजानन म ाराज के लशष्यमें य सामिर्थय ोता ै । र्नग्श्र्चत ी य गजानन म ाराज का लशष्य ै । इसके य ाूँ
आनेका ित्ृ तान्त म िोग गाूँिमें बतायेंगे । गोपािके मूँु से ित्ृ तान्त जानकर गाूँिके िोग आम्रिक्ष
ृ के पास आये और
वपतािंबर को दे खकर क ने िगे, अरे , य ढोंगी जान पडता ै । जो गजानन म ाराज के लशष्यके समान पागिपन
बतानेका प्रयत्न कर र ा ै । गजानन म ाराज का स्चा लशष्य भास्कर पा्ीि था, जो आडगाूँि मे मे ािमें ी
समागधस्त ो गया । भिा समथिका लशष्य पेडा, बिी छोडकर य ाूँ उपिास करने तयों आयेगा ? एक मनष्ु य आगे
आकर वपतािंबरसे पछ
ु ने िगा । 'अरे भाई, तुम कौन ो ?य ाूँ ककसलिए आये ो ? तुम् ारा गुरु कौन ै ? इसपर
वपतािंबरने उत्तर हदया, " मैं शेगाूँि का र ने िािा
ूूँ । मैं दजी ूूँ और गजानन म ाराज का लशष्य ूूँ । म ाराज ने
मझु े पयि्न करने की आज्ञा दी ै । इसीलिये मौं य ाूँ आम्रिक्ष
ृ के नीचे आकर बेठा । आम्रिक्ष
ृ के जड में ब ु त गचिं्ें
ै सो मैं ऊपर चढकर बेठा । य सन ु कर िोग बडे िोगधत ो गये और क ने िगे, 'अरे बडोंको नाम िेकर छि
करनेका प्रयत्न मत करो ।

॥ श्री गजानन विजय ग्रन्थ ॥


107
जैसे कोई स्त्री क े कक मैं रानी
ूूँ और पे् भरने के लिये य ाूँ मज़दरू ी करने आई ूूँ । ऐसा तुम् ारा य कथन ै ।
शामराि नामक उसगाूँि के दे शमख ु ने क ा, "अरे ब ु रुपीये! गजानन म ाराज प्रत्यक्ष भगिान ै , उनका नाम िेकर
उनकी मह मा मत घ्ाओ । एक बार उन् ोंने बबना ऋतक ु े आम्रिक्ष
ृ को िि िगाये थे, अगर तम
ु में सामर्थयि े तो तम

केिि पत्ते िगाकर हदखाओ अन्यथा तम्
ु ारी दग
ु र्ि त कर डािेंगे । य बिीराम पा्ीि का सख
ु ा झाड ै । इसको
म सबके सामने पत्ते िगाकर बताओ न ीिं तो मार खाओगे । अगर तुमने य करके हदखाया तो म सबके लिये
पज
ू नीय ोगे । तयोंकक सदगुरुके लशष्य सिंसार में उन् ीके समान ोते े । ऐसा सिंसारमें र्नयम ै । अब विििंब मत
करो, य आम्रिक्ष
ृ रा करो । य सन
ु कर वपतािंबर घबरा गया और क ने िगा । एसा क कर मझ
ु े त्रस्त न करो ।
प िे मेरी कथा तो सन
ु िो जैसे एक ी खदान मैं ीरा और गार पत्थर र्नकिते ै । िैसे ी मैं गजानन म ाराज
ूूँ, इसमें ककिंगचतभी असत्य न ी ै । गार पत्थरसे खदानको दोष न ी िगता । किर मैं
के लशष्यों में गार पत्थर
अपने गुरुका नाम तयों छुपाऊूँ ? इसपर शमरािने क ा, " व्यथिकी बात मत बढाओ । लशष्यपर सिंक् पडनेपर ि
अपने सदगुरु का आिा न करते ै । इसपर यहद लशष्य अगधकारी न भी ो तो भी सदगरु
ु उसे स ाय करते ैं ।
य सन
ु कर वपतािंबर कक ग्स्थर्त एक तरि गड ी और दस
ू री और कुआ, जैसी ो गयी । वपतािंबर बडा गचिंतातरु ु आ ।
उसको कुछ न ीिं सझ
ू ा । उस सख ु े ु ए आम्रिक्ष
ृ के पास सब परु िासी जमा ो गये । उनमें ग्स्त्रयाूँ और बािक भी थे
। सबको उत्सक
ु ता थी कीिं, अब तया ोगा?

अन्तमें र्नरूपाय ोकर वपतािंबर ाथ जोडकर अपने सदगुरु कक अपार स्तर्ु त करने िगा," े समथि स्िामी गजानन
। ज्ञानकोश के सय
ू ि । पदनतों के रक्षक । अब इस समय दौडडये । े भततजनो के पािन करनेिािे । मेरी िज
से आपपर दोष आना चा ता ै । अपना ब्रीड रक्षण करनेके लिये इस आम्रिक्ष
ृ को पल्िि िाईये । मेरा तुमपर ी

॥ श्री गजानन विजय ग्रन्थ ॥


108
भरोसा ै । शीघ्र मझ
ु े प्राप्त ो । न ीिं तो य ाूँ मेरा मरण आ गया ै । प्र िाद को सत्य करनेके लिये खिंबस
े े नरलसिं
प्रगत ु ए । जनाबाई को सिु ीपर चढ़ाने कारण उसका पानी ो गया । जनाबाई का बोज भगिानपर था । ककन्तु
मेरा तम
ु पर ै । सिंतोमें और दे िता में कोई अन्तर न ीिं । दे िता सिंत ोते ैं और सिंत दे िता ोते ैं । ै गजानन
प्रभो । िोग मझ
ु े आपका लशष्य क ते ै । मेरा तो कोई मा ात्म्य न ीिं-मा ात्म्य सब आपके सग्न्नध ै । जैसे मािा
के िुिों से धागे कक ककमत ोती ै । आप पष्ु प ै और मैं धागाूूँ । आप कस्तूरी ो मैं मग्ृ त्तका ूूँ । आपके
मह माके कारण य सिंक् मझ
ु पर आया ै । अब आप मेरा अिंत न दे णखये । े गुरुदे ि ! इस सख ु े िक्ष
ृ पर पल्िि
िाइये । इस प्रकार प्राथिना करके वपतािंबरने िोगों से क ा, ' भाईयों ! आप िोग सदगरु
ु गजानन के नाम का जयघोष
कररये । सब िोग म ाराज के नाम का जयघोष करने िगे । इतनेमें अगाध कौतक
ु ु आ । सख
ू े झाड पर न ि नई
कोपिों- पल्िि िू् आये, जो सब िोगों ने अपनी आूँखोंसे प्रत्यक्ष दे खा ! उनमेसे कुछ क ने िगे, की च्ु की िेकर
दे खो, शायद म िोग स्िप्न दे ख र ेो । गच ुिं ्ी िेकर तो स्िप्न कक भ्रािंर्त नष्् ो गयी । कुछ िोग क ने िगे
की, 'गरोडडके खेि सद्रश क ी नजरबिंदी तो न ीिं ै ? तयोंकक उसमें चमडे की बादी साप ो जाती ै और खपरै ि के
्ुकडे रुपये हदखाई दे ने िगते ै ।

िोगोंका ि भ्रम भी नष्् ो गया तयोंकक िोगोंने पत्ते तोडकर दे खे तो उसमें दध


ू आने िगा । तब सब क ने िगे
की गजानन िास्तिमें म ान सिंत ै। अब वपतािंबर के बारे में म िोगोंको शिंका करनेका कोई कारण न ीिं ैं । य
उनका लशष्य ै । इनमे कोई सिंदे न ीिं ै । अब इसको गाूँिमें िेकर चिो - सो गजानन म ाराज कभी तो इसके
लिये कोंडोिी आयेंगे । जैसे गौ अपने ित्सके लिये आती ै । य सबको भा गया और िे सब वपतािंबरको िेकर
कोंडोिी गाूँिमें गये । जब ऐसा हदव्य कायि ु आ तो स्िाभाविक भाि का उदय ो गया । जैसे समथि रामदास स्िामी

॥ श्री गजानन विजय ग्रन्थ ॥


109
का कल्याण नामक लशष्य रामदास ने डोमगाूँि भेजा था िैसे ी समथि गजानन म ाराज ने य वपतािंबर मारे य ाूँ
भेजा ैं अब कोंडोिी का भानय उहदत
ु आ ै । ै श्रोतागण कोंडोिी गाूँि में ि आम्रिक्ष
ृ अभी तक ै और अन्य
सब िक्ष
ृ ोंसे अगधक उसमें असिंख्य िि आते ै । सब गाूँि वपतािंबर के भजन में िग गया । तयोंकक ह रकणी ज ाूँ
भी ोती ै उसका मल्
ू य तो ोता ी ै । आज भी वपतािंबर का मठ कोंडोिी गाूँि में ै । उसका अिंत भी ि ाूँ ु आ
। अस्तु ।।
य ाूँ शेगाूँि में गजानन म ाराज मठ में एक हदन बडे उदास मन से णखन्न बैठे थे । सब लशष्य ाथ
जोडकर म ाराज को पछ
ू ने िगे, "म ाराज आपका मन तयों अग्स्थर ै ? “तब म ाराजने उत्तर हदया ,'भाई! तया
बताऊूँ ? मारा कृष्णा पा्ीि चिा गया, ि मको रोज गचकनी सप
ु ारी िाकर दे ता था । आज उसका स्मरण ो
आया । उसका िडका राम अभी छो्ा ै सो गचकनी सप
ु ारी य ाूँ कौन िायेगा ? राम बडा ोनेपर मेरी सेिा करे गा,
सो अब मैं इस मठ में र नेको तैयार न ी ।

म ाराज के ऐसा बोिनेपर सबको गचिंता ो गई कक म ाराज का य ाूँ से जानेका विचार हदखता ै । कुछ भी ो, म
िोग चरण पकडकर बबनती करें गे कक, 'म ाराज ! य ाूँसे न जाय ! सब िोग म ाराज के चरण पकडकर प्राथिना करने
िगे, 'भगिन ! आप म िोगोंको छोडकर अन्यत्र क ीिं न जाइिंये । इनमे श्रीपती बिंक्िाि, मारोती और ताराचिंद थे
। म ाराजसे बोिे, 'आपकी ज ाूँ इ्छा ो ि ाूँ रह ये ककन्तु शेगाूँि न छोडडये ।' तब म ाराज ने क ा, ' तुम् ारे गाूँि मैं
पा्ीि और दे शमख
ु दो दि ै । िू् ै । मझ
ु े ककसी कक जग न ीिं चाह ये । मैं शेगाूँि में जो जग ककसीकी भी
न ो, ि ाूँ र ूूँ गा ।' म ाराज का िततव्य सन
ु कर सब िोग गचिंता में पड गये । बडी कहठन समस्या ै । य विदे लशयों

॥ श्री गजानन विजय ग्रन्थ ॥


110
का राज्य ै , भिा-एेेसी सरकार म ाराजके लिये जग कैसे दे गी ? धालमिक कारण के लिये सरकार से जग लमिना
कहठन ै । सबने म ाराजसे क ा ! ' म ाराज ममें से ककसकी जग में आप र े , म दे नेको तैयार ै ।" सन
ु कर
म ाराज ने क ा "अरे य सब तुम िोगोंका अज्ञान ै । जमीन तो सब सग््चनानिंद कक ै आजतक ककतने ी राजा
ो गये किर भी भलू म तो पािंडुरिं ग के स्िालमत्ि में ै । जब सब भलू म गोपाि की याने अ्क क ाूँ । व्यि ार की
दृग्ष्् से सरकार को स्िालमत्ि प्राप्त ोता ै । जाओ आप िोग प्रयत्न करो, जग जरूर लमिेगी, अब आगे बात मत
करो । री पा्ीि के ाथों यश आयेगा ।' सन
ु कर सब री पा्ीि के पास आये और उनकी सिा से अजी करके
जग माूँगी । उस समय 'करी' नामक सिािगधकारी बि
ु ढाणे में था ।ग्जसने अजि के अनस
ु ार एक एकर भलू म दी ।

उसने य भी क ा ककिं आप िोगों ने दो एकर भलू म के लिये अजि ककया था । मैंने एक एकर दी ै अगर एक बरस
में आप िोग विकलसत करते ै तो में एक एकर और भी दूँ ग
ू ा । इस प्रकार का प्रस्ताि सरकारी रे कोडिमे ै । ऐसा
म ाराज कक िाणी का प्रभाि था । किर बिंक्िाि और री पा्ीि िगिणीके लिये गये । अल्प समय में द्रव्य इकट्ठा
ो गया और काम शरू
ु ो गया । ि सारा ित
ृ ान्त अगिे अध्याय में आयेगा । सत्परु
ु षों कक मनोकामना परू ी करनेके
लिये जगदीश सदै ि तैयार र ते ैं । डोंगर गाूँि का विठठि पा्ीि िाडेगाूँि का िक्ष्मण पा्ीि और शेगाूँि का जगू
आबा ये िगिणी के पढ
ु ारी थे । य दासगणु विरगचत श्री गजानन विजय ग्रन्थ अपने कल्याणके लिये सािधान
गचत्तसे सन
ु े ।

॥ श्री गजानन विजय ग्रन्थ ॥


111
।। शभ
ु िं भितू श्री रर रापणिमस्तु ।।
।। इर्त श्री गजानन विजय ग्रन्थस्य व्दादशोडध्याय समाप्त : ।।

॥ श्री गजानन विजय ग्रन्थ ॥


112
|| अध्याय – १३ ||

श्रीगणेशाय नम: | े सिंतोंको िर दे नेिािे| दया के सागर-गोप और गोवपजनों के वप्रय,तमािनीि िणि री, आप मझ
ु े
प्राप्त ो| जब आप के ईश्िरत्िाकक पररक्षाके लिये विधाताने गौयों और बछड़ों को रके ब्रम् ािोकमें िे जाकर रखा
था| जमन
ु ा के ककनारे गोकुिसे तब आप ने गोप बािके – गौयों-तथा बछड़ों का रूप धारण करके अपना ईश्िरत्ि
लसद्ध कर हदखाया था| गोपों को र्नभिय करनेके लिये कािीिंदी डो के कािीया नागको कुचिकर रमणक द्विप भेज
हदया| उसी प्रकार दासगणु के दद
ु ै िको कुचिकर र्नभिय कररयें | भगिान! मैं यदयवप अनगधकारी-अज्ञानी – और आप
की कृपा के योनय न ीिं ूूँ , य सत्य ै | ककन्तु भगिान मेरा अन्त न दे णखये, आपकी कृपा क्ाक्ष से मेरी गचिंता दरू
कररये |

अब श्रोतागण सािधान ो कर अगिी कथा सर्ु नये | बिंक्िाि, री पा्ीि,िक्ष्मण विठू-जगदे ि आदी सब
िोग लमिकर चिंदा इकठ्ठा करने िगे | भाविक िोगोंने िगिनी दी ककन्तु कुह्ि जनोंने र्निंदा की | क ने िगे; तम्
ु ारे
साधू को चिंदेकक आिश्यकता तयों पड़ी ? आप िोग गजानन को म ासिंत बतिाते ो और अघ्न-घ्ना-करनेिािे
मानते ो, तो किर उनके मठ के लिये चिंदे कक तया जरुरी ? उनका कोषाध्यक्ष तो कुबेर ै | किर प्रर्तद्िार लभक्षा
माूँगने कक तया आिश्यकता ?

॥ श्री गजानन विजय ग्रन्थ ॥


113
कुबेर को एक पत्र लिख दीग्जये, बस काम ो जायेगा | य सन
ु कर जगदे ि ने क ा, इस लभक्षा का प्रयोजन आप
िोगों के कल्याण के लिये ै | श्री गजानन म ाराज के लिये मठ महठयाकी आिश्यकता न ीिं ै |य आप िोगोंके
कल्याण के लिये ककया जा र ा ै | स्िामी गजानन म ाराज का पयािडक य पर्थ
ृ िी ै | सब बन बगीचा ै और
तीनों िोक ी मठ ै | अष्् लसवद्धयाूँ उनकी दासी ैं, जो उनकी सेिा में िगी ु ई ै | इसीलिए िो आप कक परिा
न ीिं करते | उनका िैभि लभन्न् ी ै | भगिानसय
ू न
ि ारायण को भिा अिंधकार दरू करने के लिये दीपक के प्रकाश की
अिश्यकता ोती ै ? ि स्ितः मि
ु में ी प्रकाशमय ै | उनके लिये दीपक जरुरी न ीिं | क ी िकारा साििभौम रजा
बन सकता ै ? इस िोकके ऐह क ऐश्ियािककइ्छा मानि को ोती ै | गजानन जैसे सिंतों को न ीिं | प्रपिंगचकोंकी
ऐह क कामनायें इस सत्िुत्यसे पण
ू ि ोंगी | जैसे शारीररक व्यागध दरू करनेके लिये औषगधयों कक योजना कक जाती
ै | आत्मा के लिये न ीिं | रोगभय शररर को ोता ै न कक प्राणोंको | जन्म-मरणाहद विकार शरीरके ैं आत्मा के
न ीिं | िैसे ी आप िोगों की सस
ु िंपन्नताकी रक्षण करने के लिये य पण्
ु यरूप औषगध ै | आप िोगोंकी सस
ु िंपन्नता
य ाूँ शररर सदद्
ु श ै और अनाचार रोग रूप ै उस रोग का इस पण्
ु य कृत्यसे नाश ोगा | इसीलिए कुतकि त्यागकर
इस कमि द्िारा पण्
ु य सिंचय कीग्जये | इस भलू ममें पण्
ु य रूप य ाूँ बीज बोइये | यहद बीज पत्थरपर बोया जाय तो
उसका कोई उपयोग न ीिं ोता| सिेद कीड़े उसे खा जाते ै | सिंत सेिा के जैसा कोई पण्
ु य न ीिं ै और सिंत गजानन
म ाराज सिंतोंके मक
ु ु ्मणी ै | सिंतकायिको हदया ु आ धन गुणोत्तरों से बढ़ता ै , जैसे एक दाना बोनेपर जारो
दानेिािा भट्ट
ु ा आता ै |

॥ श्री गजानन विजय ग्रन्थ ॥


114
इसी प्रकार पण्
ु य की ग्स्थर्त ै | ऐसा बतानेपर कु्ीि कुचािी र्नरुत्तर ो गए | तयोंकक सत्यत्ि र नेपर तकि की
गर्त किंु हठत ो जाती ै | यहद प्रर्तग्ष्ठत व्यग्तत ो तो चिंदेका कायि समीगचन ोता ै | क्षुद्र व्यग्ततयोंसे य सम्भि
न ीिं | इसके बाद लमिी ु ई जग में जल्दीसे परको्ा बािंधा गया| सब गाूँि के िोग काम में िग गए | किर न्यन
ू ता
क ाूँकी| परको्े का र्नमािण ो र ा था | उस समय पत्थर चन
ु ा, रे र्तके लिये बैिगाडड़याूँ िगीिं थी | उस समय समथि
जून मठ में थे | उन् ोंने मनमें ऐसा विचार ककया , कक मारे उस जग बैठेबबना ठीक तर से काम न ीिं चिेगा |
ऐसा र्नश्चय कर एक रे ती की बैि गाडीपर समथि बैठ गये| गाड़ी ाूँकनेिािा म ार था | सो झ्से दरू ो गया |
तब म ाराजने उसे क ा ! ‘अरे नीचे तयों उतर गया? म परमिं स ै, मको छुआछुत की कोई बाधा न ीिं ोती |
तब उसने उत्तर हदया, ‘म ाराज! आपके साथ बैठने की मेरी योनयता न ीिं ै | मेरा आपकी बगि मे बैठना उगचत
न ीिं | नम
ु ानजी यद्यवप राममय ो गए थे, किरभी िे भगिान रामचिंद्र के बगिमें न ीिं बैंठे | ाथ जोड़कर सामने ी
खड़े र े | तब म ाराज बोिे, ठीक ै जैसी तम्
ु ारी मजी मझ
ु े कोई आपग्त्त न ी| तब म ाराज बैिोसे बोिे, ‘आप िोग
गाडीके पीछे चिो| बैि आदे शनस
ु ार चिते र े बगैर ककसी उद्दिंड़ताके और सिंकेताथि स्थिपर आकर खड़े ो गए |
म ाराज गाड़ी’ से उतरकर बीचमें आकर बैठ गए| ज ाूँ अभी गोपरु खड़ा ै | य ी म ाराज की समागध ै | य जमी
दो सिे निंबरमें थी, तैतालिस और पैतािीस | सिे ने था सातसौ| म ाराज ज ाूँ बैठे थे, ि ी जमीन िेनी चाह ये |
इसीलिए य करना पड़ा | उन दो निंबरोंसे थोड़ी थोड़ी जग चतरु ाईसे कायिकताि िोगोंने िी |

॥ श्री गजानन विजय ग्रन्थ ॥


115
आदे श एक एकर का था | ककन्तु समागधमध्य साधन के लिए थोड़ी जग कम पड़ी | उसके लिए नयार गिंठ
ु ा जग
िेकर र्नमािण कायि शरू
ु ककया | तयोंकक अगधकारी िगिने आश्िासन हदया था, की काम दे खकर आगे एक एकर भलू म
और दें गे, कच दष्ु ् िोगोंकी चग
ु िी से नयार गिंठ
ु ोका मामिा बड़ा विकृत ो गया | ग्जससे नेतागण मनमें थोड़े
घबराये | री पा्ीि समथिसे बोिे की जोशी नामक एक अगधकारी जग के प्रकरण के तिालसके लिए आया ै |
ग्जसपर म ाराजने ूँसकर उत्तर हदया की जग के लिए ककया ु आ दिं ड माफ़ ो जायेगा |’ य सन
ु कर री पा्ीि
िुिा न समाया | तयोंकक अनभ
ु ि ो चक
ू ा था | म ाराजकी प्रेरणासे जोशीने इसप्रकार र्नदे श हदया की मैंने स्ियिं
जाकर पछ
ू ताछ की ै और गजानन सिंस्थान को जो दिं ड ककया गया ै ि ा अनगु चत ै | उसे िौ्ा हदया जाय | दिं ड
माफ़ ोनेपर री पा्ीि को बड़ा आनिंद ु आ | समथििातय कभी व्यथि न ीिं ोता अब इस नई जग में म ाराज की
जो िीिायें ु ई उसका िणिन करता ूूँ | मे े कर के पास सिडद नामक एक दे ात ै | ि ाूँ र नेिािा गिंगाभारती
नामक एक गोसािंई शेगाूँि आया | इसको गलितकुष्् था | साराशरीर िाि चकत्तों से भरा था | सारा शरीर कन्द्डूयत
ु त
ो गया था | गिंगाभारती इस गलितकुष्् से त्रस्त ो गया था समथि की कीर्ति सन
ु कर ि म ाराज के दशिनके लिए
शेगाूँि आया | सब िोगों ने उसे रोका और क ा की तुम् ारा सिांग गलितकुष्् से पीडड़त ै | तुम म ाराज के दशिन
को मत जाओ | ज ाूँ पर म ाराज हदखें ऐिंसे स्थिपर बैठो | उनके साग्न्नध जाकर चरण स्पशि करने का प्रयत्न न
करना |

॥ श्री गजानन विजय ग्रन्थ ॥


116
य सिंसगिजन्य रोग ै | ऐसे िैद्यािोग तथा डॉत्रिोग क ते ै | ककन्तु एक रोज गिंगाभारती िोगोंकी नजर बचाकर
प्रत्यक्ष दशिन के लिए म ाराज के पास प ुूँ च गया | मस्तक म ाराज के चरणोंपर रखा तो म ाराजने एक थप्पड़
उसके लसरपर बड़ी जोरसे िगाया | इस कारन ि म ाराज के सामने पासमें खड़ा ो कर म ाराज की ओर दे खने
िगा | तब म ाराज ने उसके गिोंपर दोनों ाथों से कई थप्पड़ उसके लसरपर बड़ी जोरसे मारे | इस प्रकार खाकर
कर उसने कि उसके अिंगपर थक
िंू हदया | उसने ि ा कििेकर सिांग पर मदि न ककया, जैसे कोई िेप िगाया जाता
ै | य दे खकर एक कुचिी ने उससे क ा, ‘अरे प िेसे ी तम्
ु ारा शरीर साड गया ै | उसपर य गिंदा कि म ाराज
ने दि हदया | तन
ू े उसे प्रसाद मानकर सरे शरीरपर मि हदया सो ठीक न ीिं | जािो, साबन
ू िगाकर सारा शरीर धो
डािो | ऐसे पागि भलू मपर विचरण करने िगे ै एयर अिंधश्रध्दा के कारन सरे िोग उन् ें साधू मानते ैं | उसका
पररणाम ऐसा ोता ै की अविगधकायि बढ़ जाता ै | ग्जसमे समाज रसाति में डूब जाता ै | तुम अपनी ी बात िो
| अपने रोग का नाश करने के लिए औषगध सेिन छोड़कर तम
ु ऐसे पागि के पास दौड़कर आये ो |’ य सन
ु कर
गस
ु ाईं सने िगा और उसने क ा, ‘यह पर आप गिती कर र े ै |अरे ! साधक
ु े पास आनेसे कुछ भी न ीिं ोता, भिा
कस्तूरी के पे्में कभी दग
ु ध
ं र ती ै | तुम् े ि खकार कि हदखाई हदया ककिंतु ि प्रत्यक्ष कस्तूरी के समान
सग
ु िंगधत ै | यहद सिंशय ै तो मेरे शरीरको सिंघ
ू कर दे खो | ाथ िगाकर दे खो, मैं कि को मिम मानु इतना पागि
न ीिं ूूँ, य साक्षात ् औषगध ै |

॥ श्री गजानन विजय ग्रन्थ ॥


117
तुम् ारा उससे कोई सम्बन्ध न ीिं था इसीलिए तुम् े खकार कि हदखाई हदया | िस्तत
ु ः तुम् े समथि की मह मा का
ज्ञान न ीिं ै | इसकी प्रगचती िेने के लिए चिो,मैं बताता ूूँ,की ज ाूँपर म ाराज रोज स्नान करते ै ि ािंकी गीिी
लम््ी मैं रोज शरीरपर िगाता ूूँ | ऐसा बतानेपर दोनों स्नान के जग गए | तो कुचिी था उसको गुसाईं के जैसा
ी अनभ
ु ि आया | दोनोंने ाथ में मग्ृ त्तका िी, तो ाथ की मग्ृ त्तका औषगध रूप ो गई और कुचािी के ाथ की
मग्ृ त्तका गीिी की गीिी र ी और ककिंगचत दग
ु ध
ं भी आ र ी थी | य दे खकर ि ा घबरा गया और कुग्त्सत कल्पना
छोड़कर म ाराज के शरण गया | इस गस
ु ाईं को कोई पास न ीिं बैठने दे ता था | य दरू बैठकर स्िामी के सामने
भजन करता था | इसकी आिाज बड़ी मधरु और प ाड़ी थी | इसको गायन का भी अभ्यास था | इस प्रकार पिंद्र
हदन बीत गए | तब उसके शरीर के िािी चिी गई और उसका रूप बदि गया | जैसे चिंपा का रिं ग ोता ै ऐसा
उसका िनाि ो गया | पैरकी दरारें नष्् ो गई, दग
ु ध
ं भी चिी गई और ि पि
ू ि
ि त ो गया | गोसाईं का भजन
सन
ु कर समथि के मनको बड़ा सिंतोष ोता था | सामान्यतः गायन सब जीिों को वप्रयिगता ै | अब तो विज्ञानिं लसद्ध
ो गया ै , कीगयनसे िनस्पर्त, िक्ष
ृ भी प्रिुग्ल्ित ोकर अगधक पष्ु पके िि दे ते ै | गोसाईं का पग्त्नका नाम
अनस
ु य
ू ा था और सिंतोष भारती नामाक एक पत्र
ु भी था | िे दोनों गिंगाभारती को िेने शेगाूँि आये | दोनोंने ाथ
जोड़कर प्राथिना की, अब आपकी व्यागध नष्् ो गई ै | सो अपने गाूँि चलिये | पत्र
ु ने भी ऐसे ी क ा की गजानन
म ाराज से पछ
ू कर आपने गाूँि चलिये | य ाूँ र ना बस ो गया |’ य सन
ु कर गिंगाभारती बोिा की, ‘ आप िोग
ाथ मत जोडीये | आजसे मेरा आप िोगोंसे कोई सम्बन्ध न ीिं ै |

॥ श्री गजानन विजय ग्रन्थ ॥


118
ये अनाथों की माता समथि गजानन य ाूँ बैठी ै , उन् ोंने थप्पड़ मारकर मेरा गिि नष्् कर हदया | शरीर पर राख
िगाकर और गचत्त सिंसार में रखकर इन कषाय िस्त्रोंकी तम
ु ने ब ु त विडिंबना की ग्जसका सिंकेत थप्पड़ मारकर
म ाराज ने हदया और मेरे नेत्र खुि गए | अब सिंसार का सम्बन्ध न ीिं चाह ये | और सिंतोष भारतीसे ि ा बोिा,
य तुम् ारी माता ै | इसको सिडि िे जािो और इनकी सेिा करो, ककसी प्रकार का दरु ाि न करना | मातस
ृ ेिा
करनेिािा भगिान को वप्रय ोता ै | पिंड
ु लिक का उदा रण सामने ै | मैं अगर सिडि आया तो रोग पि
ू ि
ि त ो
जायेगा | इसीलिए ि ाूँ चिनेका आग्र मत करो | आजतक मैं तम
ु िोगों का था, अबभगिान का ो गया | आब
मैं नरजन्म की साथिकता का प्रयत्न करूूँगा यहद नरजन्म के आकर प्रयत्न ककया जय तो चौरासी योर्नयों का चतकर
छु् जाता ै ऐसा शास्त्रिचन ै | सिंत की कृपा से आब मच
ु े सिंसार से विरग्तत ो गई ै | इसीलिए पन
ु ः परमाथि रूप
पायस में सिंसाररूपी मग्ृ त्तका मत डािो, ऐसा समझाकर उन दोनोंको उसने सिडद भेज हदया और ि शेगाूँि में र
गया | ि म ाराज का स्तिन अनेक राग रागगर्नयों में गता था | तयोंकक उसे गायन किा के स्िरोंका अ्छा ज्ञान
था | प्रर्तहदन ि ा अस्त समय म ाराज के पास एकतारी िेकर बैठ जाता और बड़े प्रेमसे भजन करता | जो सन
ु कर
अन्यजन भी बड़े प्रसन्ना ोते | तयोंकक गायन किा ी ऐसी िस्तु ै, जो सबको वप्रय ै | इस तर य गिंगाभारती
म ाराज की कृपासे व्यागधमत
ु त ो गया और बादमे ि म ाराज की अज्ञासे मिकपरु चिा गया | अस्तु| एक बार
पौष म ीने में झ्यामलसिंग शेगाूँि आया |

॥ श्री गजानन विजय ग्रन्थ ॥


119
और म ाराज से क ने िगा कक, ‘म ाराज! आप अडगािंि चलिये | मैं जब अपने भािंजे के घर िे जाने आपके पास
आया था, तब आपने िचन हदया था | य सन
ु कर समथि बोिे, िथ
ृ ा आग्र न करो | इस समय न ीिं आता | पीछे
बादमें कभी आऊिंगा | तब उसने क ा कक मैं आपका भतत ूूँ | मेरीइ्छा पण
ू ि कररये, आप मिंड
ु गाूँि चलिये | मिंड
ु गाूँि
चिकर कुछ हदन मेरे घरमें र्निास कररये | मैं सब तैयारी करके आया ूूँ | य सन
ु कर साधश्र
ु ेष्् समथि झ्यग्म्सिंग
के साथ मिंड
ु गाूँि गए | सो ि ािंके सब स्त्री-परु
ु ष म ाराज के दशिन को आये| उनके आनिंद की सीमा न र ी |
झ्यामलसिंग ने ि ा भोजन का प्रबिंध ककया | मूँड़
ु गाि मानो गोदािरी त् का पैठण ी ो गया | पैठण में सिंत एकनाथ
और मिंड
ु गाूँि में सिंत गजानन| सो ि ाूँपर अनेक भजन मिंडलिया ि ाूँ मिंड
ु गाूँि आयीिं | अचारी िोग भोजन लसद्ध करने
िगे | आधी लसद्धता ोनेपर म ाराज झ्यामलसिंगसे बोिे, ‘झ्यामलसिंग आज तो ररतत र्तगथ चतुदिशी ै | भोजन का
प्रयोजन पणू णिमा को रखो’ | तब झ्यामलसिंग ने क ा, म ाराज, भोजनलसद्ध ो गया ै | आपके दशिन को अपार िोग
जमा ो गए ै , आपका प्रसाद ग्र ण करने को | तब म ाराजने क ा! “ झ्यामलसिंग व्याि ाररक दृष््ी से तेरा क ना
ठीक ै, ककन्तु जगदीश्िर को य मान्य न ीिं ै | तम
ु प्रापिंगचक िोगोंको ऐसा िगता ै की सब तम्
ु ारे मन जैसा
ो | ककन्तु य अन्न उपयोग में न ीिं आयेगा | इसके बाद भोजिंके लिए पिंगते बैठ गई, तब अचानक आकाश
मेघा्छाहदत ो गया | माथेपर बबजलियाूँ चमकने िगी | बड़ी जोरसे पिन ब ने िगा, ग्जससे जिंगि के, अनेक िक्ष

उखड़कर गगरने िगे | िषाि ोंने िगी | घड़ीभर सिित्र पानी ी पानी ो गया | य दे खकर विमनस्क-झ्यामलसिंग
म ाराज से बोिे |

॥ श्री गजानन विजय ग्रन्थ ॥


120
भगिान! कि तो इस तर न ो | इस पजिन्य का र्निारण कीग्जये ये बरसात का समय तो न ीिं ै| य अपना
नाश करने अचानक ी आ गया| अगर इस समय िषाि ोगी तो खेती का बड़ा नक
ु सान ोगा | तब सब िोग क ें गे
कक, “झ्यामलसिंग के भोजन का प्रयोजन में पीड़ाकारक ो गया | य अ्छा पण्
ु य सिंचय ै |” इसपर म ाराज बोिे,
“ झ्यामलसिंग गचन्ता न करो, य पजिन्य कि तम्
ु े धोखा न दे गा | अभीमैं उसे रोकता ूूँ |” ऐसा क कर पन्
ु यराशी
आकाश की ओर दे खने िगे तो आकाश र्नरभ्र ो गया | सिित्र धप
ु हदखने िगी | य सब क्षणभर में ो गया |
सिंतोकी मह मा अगाध ोती ै | दस
ु रे हदन पणू णिमा को भोजन ु आ | य र्नयम आज भी मिंड
ु गाूँि में चि र ा ै |
झ्यामलसिंगने अपनी सिंपग्त्त म ाराजके चरणों में समवपित कर दी | मिंड
ु गाूँि के सब िोग समथि भतत ो गए |उनमें
पिंड
ु लिक भोकरे नामक तरुण यि
ु क म ाराज का भतत था | य उकीरड्या नामक कुनबी का पत्र
ु था, जो यि
ु ािस्थामे ी
म ाराज का भतत ो गया | बराड़ में उककडाि नाम प्रलसद्ध ै | इसकी व्यत्ु पग्त्त इस प्रकार ै की, जब सिंतर्त जीवित
न ीिं र ती तो ‘उकीडािनाम‘ रखा जाता ै | तेििंगन में इसी प्रकार पें ्य्या नाम रखा जाता ै | य पिंड
ु लिक िाद्यपक्ष
में र्नयलमत रूपसे म ाराज के दशिन को शेगाूँि आया करता था | जैसे िारकरी सिंप्रदाय के िोग िाद्यपक्ष में दे ु
आििंदी दशिन को जाते ै , जो इिंद्रायणी के ककनारे ै | िैसे ी य भग्ततभाि से िाद्य पक्ष शेगाूँि की िारी करता था
| एक बार बराड़ में ग्रिंगथक सग्न्नपात (प्िेग) बड़ी जोरसे िैि गया, ग्जससे िोग गाूँिसे बा र र ने िगे |

॥ श्री गजानन विजय ग्रन्थ ॥


121
इस रोग में प िे बाधा ोनेके बाद में शरीर ज्िरसे सिंतप्त ो जाता ै | नेत्र रततिणि ो जाते ै | सिंगधस्थान में
ग्रिंगथ उठ आती ै और उसपर िात का प्राबल्य ोता ै | रोग बढ़ जाता ै | चेतना िप्ु त ोने िगती ै | प्राचीन
समय सें य व्यागध भारत िषिमें न थी | पश्चात्य दे शोमें य विपि
ु प्रमाण में थी | पाश्चात्यों के सिंपकि सिंसगि से
य य ािंपर फ़ैि गयी| उसके प्रर्तकार के लिए िोग घर द्िार छोड़कर कु्ी बनाकर जिंगि में र ते | ऐसे विक्
रोगका सिंिमण मिंड
ु गािंिमे भी आया | इस समय पिंड
ु लिक की िाररका समय था | सो ि शेगाूँि के लिए चि पड़ा |
चिते समय ी उसे ककिंगचत ज्िर था | ककन्तु उसने ककसीसे क ा न ीिं | छुपकर शेगाूँि की ओर अपने वपता के साथ
चि पड़ा | पािंच कोस चिनेपर उसे तेजीसे ज्िर चढ़ आया और एक पैर भी आगे रखना असम्भि ो गया | उसकी
कािंखमे एक गाूँठ उभर आई और ि त्रस्त ो गया | उसके िक्षण दे खकर वपताने उससे पछ
ू ा, “अरे पिंड
ु लिक ऐसा
तयों कर र ा ै ?’ तब पिंड
ु लिकने उत्तर हदया, “वपताजी, मझ
ु े ज्िर आ गया ै और कािंख में एक गाूँठ भी उठ आई
ै | सब शग्तत क्षीण ो गई ै, मझ
ु से अब बबिकुि चिा न ीिं जाता | मेरा दभ
ु ािनय ै की य िारी न ीिं जा पाऊूँगा
|’ उसनेप्राथिना शरू
ु की, ‘ े दयाधन’ स्िामी गजानन ! इस िारी का खिंड मत पड़ने दीग्जये | अपने हदव्या चरणों
का दशिन दीग्जये | े भततित्सि कृपार्नधान ! िारी पण
ू ि ोनेपर भिे ी ज्िर आये या शरीर छु्े तो मझ
ु े परिा न ीिं
ककन्तु िारी अिश्य पण
ू ि कीग्जये | य िरर ी मेरा पण्
ु य सिंचय ै | ग्जसका नाश करनेके लिये य व्यागध-शत्ररू
ु प ो
गयी ै | शास्त्रोंका क ना ै तथा िैसे भी जबतक शरीर सदृ
ु ढ़ ोता ै तबतक परमाथि कर सकते ै , अन्यथा न ीिं |

॥ श्री गजानन विजय ग्रन्थ ॥


122
जैसे की आचायि शिंकरने क ा ै,

यािात्सिस्थामीदिं किेिरग ृ िं | याि्च दरु े जरा |

यािहदहद्रयािं शग्तत रप्रर्ू त ता याितगतिंन यष


ु िं ||

आत्म श्रेयलस तािदे ि परु


ु षा कायिः प्रयत्नों म ान |

प्रोहदप्ते भिने तू कुपखननिं प्रत्यध


ु म
ू : ककद्श: ||

अथाित जब तक शरीर स्िस्थ ै जब तक बढ़


ु ापा शरीर को क्षीण न ीिं करता | जब तक इग्न्द्रयों में अथक शग्तत ै,
जब तक आयु शेष ै, तबतक आत्म कल्याणके लिये परु
ु षको म ान प्रयत्न करना चाह ये अन्यथा जैसे घर जिने
िगने पर कुआूँ खोदना व्यथि ो जाता ै िैसे ी परमाथि की गर्त ोती ै | अथाित जो िोग क ते ै बढ
ु ापेमें ईश्िर
भजन करें गे, ि ा बड़ी भि
ू ै, अस्त|ु पिंड
ु लिक की अिस्था दे खकर उसका वपता बड़ा गचिंताचरु ो गया| द:ू खसे कारन
ि ा रोने िगा और क ने िगा, ‘ े भगिन ! मेरे य एकमात्र पत्र
ु ै | य ी कुिदीपक ै , सो मेरे ििंश का हदया न
बझ
ु ने पाये |’ उककड़ािने अपने पत्र
ु से पछ
ू ा, ‘बे्े, तुम् ारे बैठनेके लिए गाड़ी या घोडा िे आऊिं तया? इसपरपिंड
ु लिकने
उत्तर हदया, ‘बाबा! िारी पैदि ी ोनी चाह ये उठते बैठते चिे चिते ै | अब आपसे इतनी ी प्राथिना ै की, अगर
मेरी रास्ते में मत्र
ृ ू ो जाय तो मेरा शि जरुर शेगाूँि िे जाना | ककसी प्रकारका शोक मत करना | इस प्रकार उठते
बैठते पिंड
ु लिक शेगाूँि प ुिं चा और समथिको दे खते ी दिं डित प्रणाम ककया |

॥ श्री गजानन विजय ग्रन्थ ॥


123
उसे दे खकर म ाराज ने एक िीिा की, उन् ोंने एक ाथसे उसकी काूँख जोरसे दबाई और पिंड
ु लिकसे बोिे, ‘पिंड
ु लिक,
तम्
ु ारा विघ्न दरू ो गया | आब तम्
ु े र्तिभर भी शिंका करनेकी जरुरत न ीिं | ऐसे म ाराज पिंड
ु लिक को बोिते ी
पिंड
ु लिक के काूँख की गाूँठ जग पर बैठ गई और ज्िर भी उतर गया | अशग्तत के कारन शरीर में किंप ो र ा था
| तबतक पिंड
ु लिक की माताने पिंड
ु लिक के ाथों में नैिेद्य िाकर हदया जो उसने म ाराज के सामने रखा | उसमें से
तो कौर उठाकर म ाराज के मख
ु में डािे | ग्जसमे पिंड
ु लिक का किंप भी बिंद ो गया और पि
ू ि
ि त ो गया | थोड़ी
अशततता बाकक थी | अरे अन्धो! य गरु
ु भग्तत का साक्षात ् िि दे खा | आिंखे खोिो | योनय गरु
ु र नेपर की ुई
सेिा कभी व्यथि न ीिं ोती | कामधेनु यहद घरपर ो तो तया इ्छाये अपण
ू ि र सकती ै ? विगधित िारी करके
पिंड
ु लिक मिंड
ु गाूँि गया| जो इस चररत्र का पठान करे गा उसके विघ्न नष्् ो जाएूँगे | सिंत चररत्र केिि कथा-क ानी
न ीिं ै अवपतु अनभ
ु र्ू त की खदान ोती ै | ककन्तु मनमे सिंत कथाका अविश्िास न ीिं आना चाह ये | य दासगणु
विरगचत गजानन विजय ग्रन्थ भाविकोको सख
ु दायी ो, य ी भगिानसे प्रथिना ै |

।। शभ
ु िंभितु ।। श्री रर रापिणमस्तु ।।
। । इर्त श्री गजानन विजयग्रन्थस्य त्रयोदशोध्याय: समाप्तः। ।

॥ श्री गजानन विजय ग्रन्थ ॥


124
|| अध्याय -१४ ||

श्रीगणेशाय नमः। े कौशल्या के पत्र


ु रामचिंद्र! े रघक
ु ु ि भष
ू ण। करुणा के आिय! सीतापती! इस बािकपर
दया करो। आपने ताड का उद्धार ककया। लशिारूप अह ल्या को सजीि ककया ै । दाशरथी! आपने लभल्िनी शबरी की
मनोकामना को परू ा ककया। भततों की रक्षा करने के लिए प्रभो, आपने राजलसिं ासन का त्याग ककया। केिि अपनी
कृपा से बिंदरों को बििान बनाया। े रािणारी, आपके नाम से लशिायें भी समद्र
ु तैरीिं। आपने भतत विलभषण
ू को
ििंका का राजलसिं ासन हदया। े आनिंदकिंद, जो जो आपके शरण आया, उसकी दीनता-दख
ु तथा आपग्त्त का र्निारण
आपने ककया। य मन में िाइये और दासगणु का पािन कीग्जये। तयोंकक बािक, माता को छोड़कर क ािं दौड़ेगा?
आप माता-वपता तथा सद्गरु
ु ो। भततें के कल्पिक्ष
ृ ो। सिंसार सागर की नौका ो। अस्तःु े विद्िज्जन! मे े कर
त लसि में एक दे ात का र नेिािा बिंडुतात्या नामक ब्राह्मण था। य ब्राह्माण सदाचार सम्पन्न - उदार मन का
तथा उत्तम प्रापिंगचक था। इस बिंडुतात्या के य ािं सदै ि अर्तगथ आते र ते और ग ृ स्थ ोने के कारण ि उनकी
सरबराई सदै ि दत्तगचत ोकर करता। य िम के कारण उसका सिंगचत धन समाप्त ो गया और उसे ऋण िेने की
नौबत आ गई। सा ू कार के य ािं उसका घर-द्िार सभी ग ने रखना पड़ा और अपार ऋण ो गया। घर के बरतन
गचजिस्तु सब बबक गए तथा बेचने के लिए कुछ भी न बचा।

ऐसी विपग्त्त आ पड़ी। सा ू कार िोग नौकरों को भेजकर िसि


ु ी मािंगते थे। कहठनाई य ािं तक प ुिं ची कक
मध्यान् का भोजन भी ज्
ु ाना कहठन ो गया। उसे कोई उधार न ीिं दे ता था। ऐसी अिस्था आने पर ि आत्म त्या

॥ श्री गजानन विजय ग्रन्थ ॥


125
के लिए तैयार ो गया, तयोंकक धन समाप्त ोने पर प्रपिंच का कोई मल्
ू य न ीिं र जाता। जो प्रपिंच सख
ु का स्थान
प्रतीत ोता ै , ि ी धन समाप्त ोने पर दख
ु रूप ो जाता ै । य सामान्य न्याय ै । बिंडुतात्या सोचने िगा जीिन
कैसे और क ािं हदया जाए? अकिम खाकर मरने को भी पैसा न ीिं। कुएिं में गगरता ूिं , तो कोई न कोई आकर र्नकाि
िेगा। सो न तो जी जायेगा और न िाभ ोगा। सब िोगों में अपकीर्ति ोगी और आत्म त्या के अपराध में सरकार
दिं डडत करे गी सो अिग। ऐसा विचार करके प्रपिंच को अिंर्तम नमस्कार करके ि घर से चि पड़ा। ह मािय में जाकर
आत्म त्या करने पर न तो अपकीर्ति ोगी न आत्म त्या का दोष िगेगा। अपनी प चान छुपाने के लिए उसने एक
ििंगो् प नकर शरीर पर भभर्ू त िगा िी। श्रोतागण सिंभावित को जनर्निंदा का भय सदै ि र ता ै । ‘सम्भाविततस्य
चाकीर्ति मरणदर्तविक्ष्यते’ऐसा गीता िचन ै । अपने मन में ि सोचने िगा, े चि धारण करने िािे भगिान
विष्ण!ु मझ
ु पर ऐसी अिकृपा तयों की? े अधोक्षज। मेरा आप पर पण
ू ि विश्िास ै । आप लभक्षुक को राजा कर सकते
ैं, ऐसा मैंने परु ाणों में सन
ु ा ै। े नारायण! मझ
ु े िगता ै कक य व्यथि ी आपका चररत्र रिं गाया ै, तयोंकक मझ
ु े
तो य असत्य प्रतीर्त प्राप्त ु ई। े श्री रर!अब मैं जीिन दे ता ूिं । ककिंतु इस त्या का पाप अपने मत िेना। ऐसा
मन में विचार कर ह्क् िेने रे ल्िे स््े शन पर गया। ि ािं उसे एक ब्राह्मण लमिा उसने क ा, अभी रद्िार का
ह्क् मत िो, प िे सिंत दशिन कर िो किर रद्िार जाना।

बरार प्रािंत में श्रीगजानन म ासिंत ैं, उनके दशिन के लिए तुम जाओ। आज तक भलू म पर सिंतदशिन कभी व्यथि
न ीिं ु आ। त्रस्त ोकर जल्दबाजी मत करो। जब ब्राह्मण ने ऐसा क ा तो ि बडूत
िं ात्या चैधीया गया। सोचने िगा

॥ श्री गजानन विजय ग्रन्थ ॥


126
कक अचानक य कौन मनष्ु य लमिा ै ? तया इसने मझ
ु े बिंडुतात्या करके प चान लिया? इससे पछ
ू ा भी कैसे जाए?
कुछ भी ो। शेगाूँि जाकर म ाराज की चरण ििंदना करूिंगा, ऐसा र्नश्चय कर ि शेगाूँि प ुिं चा। जब ब्राह्मण
म ाराज के दशिन को गया तो िं सकर म ाराज ने उसे पछ
ू ा, ‘अरे बिंडुतात्या! ह मािय में जाकर तयों प्राण दे ते ो?
अरे आत्म त्या कभी न ीिं करनीचाह ए, तयोंकक श्रर्ु त क ती ै ‘अन्धन्तमः प्रविशािंर्तयेके चात्म नोजनाः’अथाित ्
आत्म त्या करनेिािे घोर नरक में पड़ते ैं। अरे , कभी ताश न ीिं ोना चाह ए। और इष््लसद्ध के लिए कभी भी
प्रयत्न न ीिं छोड़ना चाह ए। अभी अगर प्रपिंच से त्रस्त ोकर आत्म त्या करे गा, तो किर ये सिंगचत भोगने के लिए
तझ
ु े पन
ु जिन्म िेना ी पड़ेगा। भोग भोगने से ी नष्् ोते ैं। गिंगाजी में प्राण दे ने के लिए ह मािय में मत जा।
शीघ्र अपने घर को िौ् जा। ह्क् िेते समय तुझे लमिनेिािा ब्राह्मण कौन था? तया उसे प चाना? अब एक
क्षण भर भी य ािं मत ठ रो, शीघ्र घर िौ् जा। तुम् ारे मल्िे में एक मह षासरु ै। उसके पि
ू ि हदशा में बबि
ू के
झाड के पास रात को दस
ू रे प र भलू म खोदो। तम
ु अकेिे य सब करना। तीन िू् नीचे तम्
ु ें द्रव्य लमिेगा। उसे
दे कर ऋण मत
ु त ो जाओ। स्त्री पत्र
ु ाहद का त्याग न करो। झठ
ू ा िैरानय न धारण करो।’ ऐसा सन
ु कर ि ब्राह्मण
बड़ा आनिंहदत ु आ और शरीर की भभर्ू त पोंछकर अपने दे ात आया।

रात्री के समय म ाराज के कथनानस


ु ार मल्िे में मह षासरु के पि
ू ि में बबि
ु के नीचे खोदने िगा। े श्रोतागण!
तीन िू् खोदने पर उसे एक तािंबे का िं डा ग्जसका मिंु बिंद था, प्राप्त ु आ। उस ताम्रपात्र में चार सौ स्िणि मु रें

॥ श्री गजानन विजय ग्रन्थ ॥


127
थीिं। जो िेकर ‘जय जय सद्गुरु गजानन’करके ि नत्ृ य करने िगा। उस द्रव्य से उसने सारा ऋण चक
ु ता कर हदया।
मल्िा गगरिे पड़ा था ि छुड़ा लिया। गजानन म ाराज की कृपा से प्रपिंच की अिस्था किर से ठीक ो गईं।

दख
ु के हदन बीत गये। बाद में ि शेगाूँि आयाऔर य ािं बड़े प्रमाण में दानधमि ककया। गजानन म ाराज के
चरणों में अनन्य भाि से िीन ो गया। तब म ाराज ने उसे क ा, ‘अरे , मझ
ु े तयों ििंदन करता ै । ग्जसने धन हदया
उसको ििंदन करो। अब आगे से सम् ािकर र ो। सदै ि खचि करना चाह ए। सब िोग सख
ु की सिंगती ोते ैं। दख

में केिि श्रीपर्त ी स ारा दे ते ै अन्य कोई न ीिं। अतः उनका विस्मरण कभी न ीिं ोना चाह ए। य उपदे श सन
ु कर
तात्या बड़ा प्रसन्न ु आ, म ाराज को ििंदन करके आनिंहदत ोता ु आ अपने गािंि िौ् आया।

एक बार सोमिती अमािस्या का पिि आया। सोमिार को अमािस्या आने पर उसे सोमिती क ते ैं और ि
बड़ा पिि माना जाता ै । इस सोमिती अमािस के हदन नमिदा स्नान करने का बड़ा म ात्म ै परु ाणों में क ा गया
ै । इस हदन नमिदास्नान अिश्य करना चाह ए। इसलिए शेगाूँि के ब ु त से भततगण नमिदा स्नान के लिए उद्यत

ु ए। तदनस
ु ार उन् ोंने सब साधन सामग्री ज्
ु ाई। ग्जसमें बिंक्िाि, मातंड पा्ीि, मारुती पा्ीि, चन्द्रभान पा्ीि,
बजरिं गिाि, इत्याहद इकट्ठे ोकर ॐकारे श्िर जाने का र्नश्चय ककया।

बिंक्िाि ने क ा, ‘ म िोग नमिदा स्नान के लिए जा र े ैं, सो म ाराज को भी िे चिते ैं।’ चारों मठ में
आकर म ाराज से प्राथिना करने िगे, म ाराज! म िोगों के साथ नमिदा स्नान को चलिये। आपके साथ र ने पर

म िोगों को कािका भी भय न ीिं िगता। आप चिकर में ॐकारे श्िर के चरणों पर डालिये। य अगधकार माता

॥ श्री गजानन विजय ग्रन्थ ॥


128
को छोड़कर अन्य को न ीिं। मारी य ी प्राथिना कक आप में नमिदा िे चलिये, आपके बबना म य ािं से न ीिं ह िेंगे।
माता ी बािकों का ठ पण
ू ि करती ै । तब म ाराज ने क ा, ‘अरे नमिदा मेरे पास मठ में ै । मठ में बैठकर नमिदा
स्नान करूिंगा। तुम सब िोग जाओ।’ ि ीिं पर प्राचीन काि में बिशािी मान्धाता राजा ो गया ै । ग्जसकी कीर्ति
हदगिंत ै । य ीिं पर जगद्गुरु श्री शिंकराचायि जी ने जगउद्धार करने के लिए अपने गुरु पज्
ू यपाद गोवििंदजी से सिंयास
दीक्षा प्राप्त थी। तुम िोग जाकर मेरी नमिदा से लमिो, ककिंतु ठ करके मझ
ु े मत िे चिो। अब मेरे लिए पिि का
कोई प्रयोजन न ीिं र ा।’य सन
ु कर चारों ने म ाराज के चरण पकड़ लिए, ‘म ाराज! कुछ भी ो ि ािं तक आप चिो,
झ् से स्नान करके म िौ् आयेंगे।’ म ाराज ने क ा, ‘ठीक ै , तम
ु िोग बड़े दािंलभक िगते ो। इस कुएिं में नमिदा
ै । यहद इसको छोड़कर म नमिदा स्नान को जाते ैं, तो स्िाभाविक य िुद्ध ोगी। इसलिए क ता ूिं कक तुम िोग
जाओ, मेरे लिए आग्र न करो, इसी में तुम् ारा कल्याण ै ।’ तब मारुती और चन्द्रभान क ने िगे, ‘आपके बगैर
म िोग न ीिं जायेंगे।’ तब म ाराज ने क ा, ‘मेरे ि ािं जाने पर यहद कुछ विपरीत ु आ तो मझ
ु े दोष न दे ना।’ किर
भी उन् ोंने आग्र करके म ाराज को साथ िेकर ॐकारे श्िर प ुिं च।े ि ािं पर पिि के लिए स्त्री-परु
ु षों की अपार भीड
थी, कक चीिं्ी को जाने की जग न ीिं थी।

नमिदा के सब घा् खचाखच भरे थे। र मिंहदर जाने को अपार भीड़ थी। कुछ िोग स्नान को उतरे , कुछ
सिंकल्प सन
ु ने िगे। कुछ बबल्ि पत्र िेकर दशिनाथि मिंहदर जाने िगे। कुछ बिी-पेड़ा-मािा खाने िगे। जत्थे के जत्थे
भजन में िगे थे। पिि समाग्प्त तक मिंहदर में बड़ी भीड थी। ककसी का शब्द ककसी को न सन
ु ाई दे ता था। अत्यिंत

॥ श्री गजानन विजय ग्रन्थ ॥


129
रमणीय ऐसे उस ॐकारे श्िर में नमिदा ककनारे पद्मासन िगाकर म ाराज बैठ गए। अलभषेक करनेिािों की बड़ी भीड
थी। चारों दशिन करके आए और म ाराज से बोिे, ‘म ाराज! अब म िोग सड़क से जाने के विचार छोड़कर जिमागि
से ी भेडाघा् चिेंगे, तयोंकक बड़ी भीड ै । बैिगाड़ीयािं भी रास्ते में ब ु त ैं। आप थे इसलिए म िोग प िे प ुिं च,े
अन्य गाडी के बैि बडे उद्दण्ड थे। अतः गाडी में जाना र्नभिय न ीिं, इसलिए म िोग नौका से ी शािंर्तपि
ू क
ि स्थान
जायेंगे। ि दे णखये नौकायें चि र ी ैं।’ इस पर म ाराज ने क ा, ‘मझ
ु े कुछ मत पछ
ू ो। मैं िचनबद्ध ूिं । तुम जैसे
जाओगे, मझ
ु े ज ािं बबठाओगे, ि ािं बैठूिंगा।’ उनके ऐसा क ने पर सब िोग म ाराज के साथ नाि पर बैठकर भेडाघा्
स्थान की ओर नदी में जाने िगे। नदी में बीच में नौका एक चट्टान से ्करा गई, ग्जससे एक प्री में छे द ो
गया। उस र्छद्र से नौका में पानी आने िगा। य दे खकर मल्िा िोग नदी में छिािंग िगा गये। ककिंतु म ाराज
र्नभियता से बैठे ु ए ‘गण गण गणािंत बोिे’, ऐसा भजन अखिंडतया करते र े । मातंड पा्ीि, बजरिं गिाि, मारुती
पा्ीि ब ु त घबरा गए, उनकी छाती उड़ने िगी। चारों समथि से बोिे, ‘ े दयाि!ू म िोग अपराधी ैं। आपका क ना
न ीिं माना, इसलिए नमिदा ी मको डुबाने के लिए कािरूप ो गई। गरु
ु दे ि, इससे आगे म िोग आपकी िाणी
िेदित प्रमाण मानकर चिेंगे।

इस सिंक् से बचाकर में शेगाूँि हदखाईये, इतनी बात करते ु ए नौका एक ििांग चिी गई और आधी डूब
गई। ककनारे के िोग नौका की अिस्था दे खकर क ने िगे कक ये पािंच व्यग्तत अिश्य डूबकर मर जायेंग,े तयोंकक

॥ श्री गजानन विजय ग्रन्थ ॥


130
नमिदा में अथािंग पानी ै । तब गजानन म ाराज ने क ा, घबराओ मत, नमिदा तुम् ारे जीिन को धतका न ीिं िगायेंगी।
ऐसा क कर म ाराज ने नमिदा का स्तिन ककया और चारों जने ाथ जोड़कर बैठे र े ।’

श्िोक अनष्ु ्प छिं द:

‘नमिदे मिंगिे दे िी। रे िे अशभ


ु नालशनी।

क्षमस्िाअपराधिं चैषािं। दयािं करु मनग्स्िर्न।।’

ऐसी स्तुर्त कर र े थे, इतने में नौका के अिंदर का जि र्नकि गया और नौका जि के ऊपर आ गई। कारण
उस नौका के साथ लभिनी के रूप में प्रत्यक्ष नमिदा थी ग्जसके कह्प्रदे शतक के िस्त्र गीिे ो गये थे। नौका ककनारे
िगने पर सबने आश्चयि यत
ु त मद्र
ु ा से उस स्त्री को तथा नौका के र्छद्र को दे खा। ि स्त्री थी इसलिए म िोगों
की प्राण रक्षा ु ई, किर उससे िो िोग पछ
ू ने िगे, ‘ े बािा! आप कौन ो? क ािं की ो? य बताइये। ये गीिे िस्त्र
उतारकर म िोग नये िस्त्र दे ते ैं, उन् ें प र्नये।’ सन
ु कर नमिदा ने क ा, मैं ॐकार नामक मल्िा की कन्या ूिं ।
मेरा नाम नमिदा ै । गीिा िस्त्र प नने की में आदत ी ै । मैं सदै ि गीिी ी र ती ूिं । नीर ी मेरा स्िरूप ै ।’
ऐसा क कर गजानन म ाराज को नमस्कार करके ि क्षणभर में अदृश्य ो गई। जैसे घर की विद्यत
ु क्षण में उसी
में िीन ो जाती े । य दे खकर चारों जने बड़े आनिंहदत ु ए और प्रत्यक्ष नमिदा, म ाराज के दशिन को आई, ग्जससे

॥ श्री गजानन विजय ग्रन्थ ॥


131
म ाराज के अगधकार का पता चिा। बिंक्िाि खोंच कर पछ
ू ने िगा, म ाराज! य स्त्री कौन थी? में बताइये कुछ
छुपाइये न ीिं। तब म ाराज ने क ा, ‘तम
ु िोग जो पछ
ू र े ो, ि सब स्ियिं नमिदा ने ी स्पष्् ककया ै । ओमकार
जो मल्िा ै ि ी ॐकारे श्िर ै और य जि मेरा ी रूप ै य नमिदा ने स्ियिं स्पष्् ककया ै । इसमें शिंका का
कोई स्थान न ीिं। य अपने भततों को सदै ि सिंक् काि में स ायता दे ती ै । इसलिए एक बार इसके नाम का उ्च
स्िर से जयजयकार करो। जय जय नमिदे अिंब!े मारी सदै ि इसी तर रक्षा करो।’ य सन
ु कर बिंक्िाि सह त
चारोंजन बारबार म ाराज की चरण ििंदना करने िगे और शेगाूँि में िौ्कर आने पर सभी िोगों को य कथा
बताने िगे।

एक बार सदालशि रिं गनाथ िानिळे नाम के ग ृ स्थ एक व्यग्तत के साथ शेगाूँि में म ाराज के दशिन को
आये। इन सदालशि का उपनाम ‘तात्या’ था। ये गचत्रकू् र्निासी माधिनाथ के छात्रगणों में से थे। माधिनाथ को
सब योगाड़ग अिगत थे। ये लसद्ध योगी थे। ग्जनका बड़ा लशष्यिगि माििा प्रािंत में ै । ग्जस समय सदालशि दशिन
को आये उस समय म ाराज भोजन करने बैठे थे। सदालशि को दे खकर उन् ें माधिनाथ का सिंस्मरण ो आया,
तयोंकक सिंतों को सिंत का पररचय ोता ै । िानिळे आये बराबर म ाराज ने उ्च स्िर से क ा, ‘अरे , नाथ के लशष्य
को िाकर मेरे समख
ु बबठाओ इनके गरु
ु माधिनाथ ाि ी में भोजन करके गए। यहद ये थोडा प िे आते तो इनका
सग्म्मिन गुरु से मठ में ो जाता।

॥ श्री गजानन विजय ग्रन्थ ॥


132
अब ये बाद में आये ैं इनके गुरु चिे गए, ककिंतु िे पान का बीड़ा िेना भि
ु गए, अ्छा ु आ ि इनके लशष्य
के साथ भेज दें गे।’ ऐसा क कर िानिळे का यथोगचत सत्कार करके उसका बिंधक
ु ा पत्र
ु जानकर बड़े प्रेम से आलििंगन
हदया और जाते समय पान का बीडा दे कर उनसे क ा, ‘मेरा सिंदेश शब्दशः सीधे गुरु के पास जाकर क ना। माधिनाथ
से क ना कक साथ भोजन ु आ बबडा तुम् ारा य ीिं र ा। सो मने आपको दे ने के लिए िाया ै’ य सन
ु कर िानिळे
दो पान के बीडे िेकर िापस आया। माधिनाथ से जाकर सारा इत्थिंभत
ू ित्ृ तािंत क ािं और पछ
ू ा म ाराज, आप उस
हदन तयों शेगाूँि आये थे? सो सन
ु कर उन् ोंने उत्तर हदया कक भोजन समय मैं सिंस्मरण ककया ि ी मारी भें ् ै।
म दोनों के शरीर लभन्न ोने पर भी आत्मा दोनों का एक ैं। इस प्रकार की भें ् म दोनों की सदै ि ोती र ती
ै। य अत्यिंत गूढ और ग न ज्ञान ै । इसे अगधकार के बबना तुम िोग न ीिं जान सकते। ठीक ु आ की जो बीडा
शेगाूँि र गया था, उसे तुम िोग िे आये। िानिळे ने दोनों बीडे हदये जो म ाराज खिबत्ते में कू्कर चबाये और
उसको थोडा प्रसाद हदया। श्री ज्ञानेश्िर म ाराज ने अपने ग्रिंथ चािंगदे ि पासग्ष्् में सिंतों का लमिाप कैसे ोता ै,
इसका अ्छा िणिन ककया ै । य ािं तकि का अिििंबन न करके पासग्ष्् का अध्ययन करो, ग्जससे स्िानभ
ु र्ू त के
िक्षण पता चिेंगे। योगीगण बैठे स्थान में एकमेक से लमिते ैं, य उनका कौतुक ै । शेखमिं मद श्रीगोंदा में और
तुकाराम दे ू में , बैठकर बझ
ु ाई। ऐसा म ीपर्त ने अपने भग्ततविजय ग्रिंथ में लिख रखा ै।

॥ श्री गजानन विजय ग्रन्थ ॥


133
उसी प्रकार माणणक प्रभु ने ळी नामक दे ात में कुएिं में डूबा ु आ एक पा्ीि का पत्र
ु ाथ दे कर डूबने से
बचाया। स्चा योगी ु ए बबना ये सब असिंभि ै । य दाग्म्भक को न ीिं सधता उन् ोंने केिि गप्पा ी मारना। अगर
राष्र का उद्धार करना ै तो योग का अििम्बन करना चाह ए। तयोंकक सब मागों में ि ी ििित्तर ै , जैसे
भगिदगीता में भगिान ने छठे अध्याय में क ा ै।

‘तपग्स्िभ्योऽवप मतोऽगधकः।

कलमिभ्याश्िगधको योगी तस्माद्योगी भिाजन


ुि ।। (६-४६)

अथाित ् तपस्िी, ज्ञानी और कमियोगी से भी श्रेष्ठ ै अतः े अजन


ुि ! तुम योगी बनो। य दासगणू विरगचत श्री
गजाननविजय नामक ग्रिंथ र्नष्ठा रखकर प्रेमी भतत श्रिण करें ।।

।।शभ
ु िं भितु श्री रर रापिणमस्त।ु ।

।। इर्त श्री गजानन विजय ग्रिंथस्य चतद


ु ि शोऽ ध्यायः समाप्तः।।

॥ श्री गजानन विजय ग्रन्थ ॥


134
|| अध्याय-१५ ||

श्री गणेशाय नमः े ब्ुरूपधारी-नारायण! आप ब ु रुपीये ो - आपने काश्यप पत्र


ु -िामन ोकर बिीसे दान

ु ोक का राज्य दान रूप में उससे लिया। ककिंतु इससे श्रेष्ठ सम्पन्न
िेकर उसको कृताथि ककया। यद्यवप आपने मत्ृ यि
पाताि िोक का राज्य उसे हदया। उस पण्
ु यशािी बिी से आिंििा िेकर उसे नाररयि हदया, इतना ी न ीिं उसकी
भग्तत से प्रसन्न ोकर आपने उसका द्िारपाि ोना स्िीकार ककया। आपका िरदान ै कक इस मन्िन्तर के बाद
बिी ी दे िराज इन्द्र बनेगा। े अनिंत! एक घ्ी में चारों िेद सिंह ताओिं का पाठ आपने ककया, ग्जससे आपकी अगाध
बवु द्धमता स्पष्् ोती ै। े श्री री! आपके सब अितारों में य ी एक शगु चभत
ूि अितार ै, ग्जसमें आपने ककसी का
िध न ीिं ककया। इतना ी न ीिं दे िता तथा दानि दोनों के घर में दीप जिाकर अपने शत्रलु मत्रत्ि समभाि की रक्षा
की। इतने पर भी आपका आगधपत्य स्थावपत ककया। दोनों का अथाित ् दे िता और दानिों को आप समान भाि से
ििंदनीय ो गय। े िामन भगिान, आपको मैं बार-बार प्रणाम करता ूिं । इस दासगणू के लसर पर अपना िरद स्त
रणखये।

म ाराष्र के लिए जो कोह नरू रत्न के समान दै हदप्यमान, दीघिदृष््ी के मानो समद्र
ु , राजकारण धरु िं धर, बाि
गिंगाधर र्तिक सबके जाने, प चाने और विख्यात ैं। िे भीष्मवपताम के समान सत्यप्रर्तज्ञ ग्जनका बड़ा धैयि और
स्िातिंत्र्य प्राग्प्त के लिए ककए ु ए अथक प्रयत्नों का मझ
ु से िणिन न ीिं ककया जाता।

॥ श्री गजानन विजय ग्रन्थ ॥


135
िे सर्त के जैसे दृढ र्नश्चय और ककसी की परिा न करनेिािे ब ृ स्पर्त के समान िातचतुर थे। उनकी िेखनी से
आिंनि शासक घबरा गए थे। िोकमान्य य उपागध उनकी कमिजन्य थी, ककसी ने उनको दी न ीिं थी। ऐसे िोकमान्य
र्तिक एक बार अकोिा में लशिजयिंर्त के उत्सि के समय िोकाग्रा के कारण व्याख्यान दे ने को पधारे । उस समय
उत्सि की तैयारी अकोिा में बडी जोर-शोर से की गई और बड़े बड़े विद्िान चैंगधया गये। उनमें दाम िे, कोल् ्कर,
दादा सा े ब खापडे र्तिक भवू षत करनेिािे थे। ग्जससे सब बराड आनिंहदत ोकर उमड़ पड़ा था। िस्तुतः लशिजयिंती
इसे प िे ी य ािं ोनी चाह ए थे। तयोंकक लशिजी की जन्मदात्री माता ग्जजाबाई इस बराड प्रािंत के लसिंदखेडकी थी।
इस सती ने लशिाजी जैसे िीर परु
ु ष को जन्म दे कर बराड और म ाराष्र को एकसिंघ करने का म िं तकायि ककया। माता
बराडकी और वपता श ाजी म ाराष्र के सब दम्पर्तयों में ये पर्त-पत्नी अनप
ु म थे। प िे ी िो म ाराष्र का हृदय,
किर उस पर सभा का अध्यक्ष, ऐसे बाि गिंगाधर र्तिक आनेिािे थे, इसलिए एक मा से तैयाररयािं की जा र ी
थी। अध्यक्ष, अपाध्यक्ष का चयन ो गया। स्ियिंसेिक सभा के लिए चन
ु लिए गए। तब कईं िोगों ने ऐसा क ा कक
सभा में सिंत गजानन म ाराज को िाया जाए। शेगाूँि के सिंत श्री गजानन म ाराज को इस उत्सि के लिए िाना
घी में शतकर डािने जैसा योग ोगा।

तयोंकक लशिाजी को स्िामी समथि का आशीिािद था। इसलिए िे स्िराज्य की स्थापना कर सके। सो विद्िाज्जनों
र्तिक लशिाजी सद्दश ी प्रयत्न में ैं। अतः गजानन म ाराज का आशीिािद कायि सििता के लिए आिश्यक ै । य
सच
ू ना कईयों को जिंची और कईयों को न ीिं जिंची। ग्जनको पसिंद न ीिं पडी िे इस प्रकार बोिे, ‘अरे ! ि शेगाूँि का
अिलिया (निंगा अिधत
ू ) य ािं ककस लिए िाते ो? ि कुछ विगचत्र पररग्स्थर्त पैदा कर सकते ै । िे ननन ‘गगणगगण
गणात बोते’ गाते ु ए सभा में घस
ु ेंगे और ो सकता ै कक िे र्तिकजी को भी मारे ।’ ककिंतु कुछ िोगों का क ना था

॥ श्री गजानन विजय ग्रन्थ ॥


136
कक न ीिं गजानन म ाराज के चरण इस सभा में पड़ने ी चाह ए/उनका जो पागिपन ै ि केिि पागिों को ी
हदखता ै । विद्िज्जन उन् ें पागि न ीिं मानते। र्तिक यहद िास्ति में राष्रोद्धारक ै तो म ाराज अिश्य सभा में
आयेंगे। सत्यसासत्य की परीक्षा केिि साधू ी कर सकते ैं। ऐसा वििाद ोने पर कुछ िोग म ाराज को र्नमिंत्रण
दे ने शेगाूँि आये। उनमें दादा खापडे भी थे। उनको दे खते ी म ाराज बोिे, ‘ म तम्
ु ारी सभा में अिश्य आयेंगे। इस
लशिजयिंत्यत्ु सि की सभा में म कोई अलशष््ाचार न ीिं करें गे, तयोंकक उसमें सध
ु ारकों का मनोभिंग ोगा। म शािंत
गचत्तसे सभामें बैठेंगे |’ दस
ू रा कारण य ै कक राष्रोद्धार कायि के लिए बाि गिंगाधर र्तिक योनय परु
ु ष ैं। उसके
जैसा परु
ु ष भविष्य में ोना असिंभि ै । र्तिक का स्ने ी अण्णा प्िधिन ै , जो आििंदी के नरलसिं सरस्िती के
लशष्य ैं। सो इन दोनों परु
ु षों को दे खने म अिश्य अकोिा आयेंगे।’ य सन
ु कर दादा खापडे को म ान आनिंद ु आ।
उन् ोंने अपने साथ आये कोल् ्कर से क ा दे खो।

िस्तत
ु ः ये बराड प्रािंत का ज्ञान ीरा ै । अकोिा में जो ित्ृ तािंत ु आ ि इन् ोंने जानकर मारे बताने के पि ू ि ी
सबकुछ क हदया। इससे सिंतों का ज्ञान ककतना अगाध ोता ै य लसद्ध ोता ै । मारे र्नमिंत्रण के प िे ी स्ियिं
म आयेंगे ऐसा क हदया। इस उत्सि को बड़ा अ्छा मु ू ति लमिा ै । चलिये सिंत चरणों की ििंदना करके म िोग
अकोिा चिे। ऐसा क कर म ाराज की चरण ििंदना करके खापडे तथा कोल् ्कर अकोिा चिे गए। उत्सि आठ हदन
पर आ गया। सब िोग र्तिक के दशिन को उत्सक
ु थे। य सभा िैशाख म ीने में शके अठरा सो तीस को आयोग्जत
की गई थी। सभा के लिए अकोिा में सभा मिंडप बनाया गया था। िस्तुतः उस रोज अक्षयतत
ृ ीया थी। जो बराड में
बडा पिि माना जाता ै । किर भी ि अिंर्तम समापन हदन ोने के कारण प्रचिंड जन समद
ु ाय सभा में िोकमान्य
र्तिक को दे खने के लिए उपग्स्थत था। साथ उसी हदन गजानन म ाराज सभा में आनेिािे थे। मिंडप मनष्ु यों में

॥ श्री गजानन विजय ग्रन्थ ॥


137
खचाखच भर गया। सब िोग बार-बार दे ख र े थे और क र े थे, ‘अरे अभी तक म ाराज न ीिं आये।’ ककिंतु सभा
भरने के प िे ी म ाराज मिंडप में आकर बैठ गए, तयोंकक साधु कभी अपनी िाणी असत्य न ीिं ोने दे ते। जीिनमत
ु त
कैिल्यदानी साधु ऊपर गद्दी पर तकीया िगाकर बैठे थे। लस ािंसन में अग्र भाग में र्तिक जी की जग थी। उसके
पास में अण्णासा ब प्िधिन बैठे थे। र्तिकजी के एक तरि श्रीकृष्ण के पत्र
ु - खापडे कुिभष
ू ण, गणेश ग्जनका
नाम था - िो बैठे थे। दामिे, कोल् ्कर, भािे, व्यिंक्राि दे साई आहद सभा के नेतागण प्रकाश बबखेर र े थे और
भी कईं विद्िान व्याख्याता सभा में बैठे थे, ग्जनका िणिन मैं अपने एक मिंु से कैसे कर सकता ूिं ?

सभा का प्रारिं भ ु आ। प्रथम सभा का प्रयोजन बताया गया। बाद में व्याख्यान लसिं र्तिक जी बोिने के लिए खड़े
ु ए। श्रोतागण! आज का हदन बड़ा धन्य ै, तयोंकक ग्जन् ोंने स्िातिंत्र्य प्राग्प्त के लिए अपना सम्पण
ू ि जीिन समवपित
ककया ऐसे म ान ् योद्धा श्री लशिाजी का आज जन्महदन ै । लशिाजी को स्िामी रामदास ने आशीिािद हदया, ग्जससे
उनकी सम्पण
ू ि भरतखिंड में कीर्ति पता का िराई। िैसा ी प्रसिंग आज भी प्राप्त
ु आ ै, तयोंकक श्रेष्ठ साधु श्री
गजानन म ाराज इस सभा को आशीिािद दे ने उपग्स्थत ै । इसलिए लशिाजी के उद्यम के समान ी मारी सभा का
उद्यम र्नग्श्चत सिि ोगा। इस समय इस प्रकार की सभा की राष्र को आिश्यकता ै । भारत का स्िातिंत्र्य न ीिं,
ि ािं का समाज प्रेतित ोता ै । अतः इस सभा का प्रयोजन राष्रप्रेम बढ़ाने का ी ै । राष्र प्रेम की लशक्षा की
आिश्यकता ै । तया विदे शी शासन आनेिािी पीढ़ी को राष्रप्रेम की लशक्षा दे सकती ै? र्तिक जी के ऐसा क ने
पर म ाराज आसन पर उठ बैठ और गरजकर बोिे, ‘न ीिं-न ीिं कदावप न ीिं।’ अपने व्याख्यान अलभर्निेश में र्तिक
जी ने शासन को चभ
ु नेिािी बातें बोिी। उस भाषण का सिंकेत म ाराज समझ गये और िं सते िं सते बोिे, ‘अरे ! ऐसे
िततव्य से ी दिं डर्नग्र ोता ै ।’ ऐसा क कर ‘गण गणािंत’ भजन करने िगे। सभा र्नवििघ्न समाप्त ु ई। र्तिक

॥ श्री गजानन विजय ग्रन्थ ॥


138
जी की बड़ी प्रशिंसा ु ई। और उसी िषि म ाराज की भविष्यिाणी सत्य ु ई। र्तिक जी को शासन ने एक सौ चैविस
किम िगाकर दिं ड में रग्स्सयािं िगाई और उन् ें सजा दी गई।

राजसत्ता के आगे ककसी का कुछ न ीिं चिता। बड़े बड़े िकीि र्तिक जी के लिए प्रयत्न करने िगे। कुछ िोग
दै विक उपायों का भी आश्रय िेने िगे, तयोंकक र्तिक जी सभी के वप्रय स्ने ी थे। दादासा ब खापडे जो उस समय
धरु िं धर विगधज्ञ माने जाते थे, िे र्तिक जी का अलभयान िड़ने के लिए अमरािती से बम्बई जा र े थे। उन् ोंने
अकोिा रे ििे स्थान पर भी कोल् ्कर जी से क ा, कक आप सीधे शेगाूँि जाकर म ाराज से र्तिक जी के लिए
प्राथिना कीग्जये, कक उनका सिंक् दरू करें । मैं स्ियिं म ाराज के पास जाता ककिंतु मेरा बम्बई जाना अर्निायि ै । अतः
मेरी ओर से आप चिे जाइये। य सन
ु कर कोल् ्कर तुरिंत गाडी में बैठकर म ाराज के पास आए, तयोंकक उनकी
र्तिक जी पर बड़ी श्रद्धा थी। शेगाूँि
आने पर िो म ाराज के पास सीधे मठ प ुिं च।े उस समय गजानन म ाराज
अपने आसन पर सो र े थे, तीन हदन तक थोड़ा भी उठे न ीिं। तब तक कोल् ्कर भी मठ से ह िे न ीिं, तयोंकक
र्तिक जी की वििेचना के प्रर्त उनका बड़ा र्नश्चय था। मराठी में एक क ाित ै कक ‘अग्नन के बबना आिंच न ीिं,
ममता बीना आिंस न ीिं’। चैथे हदनम ाराज उठे और कोल् ्कर जी से क ा, ‘आप िोग चा े ग्जतना यत्न कीग्जये
उसका िि न ीिं प्राप्त ोगा। छत्रपर्त लशिाजी के समय रामदास जी का छत्र ोते ु ए भी लशिाजी को औरिं गजेब ने
कैद ककया था। सज्जन त्रस्त ु ये बबना राजिािंर्त न ीिं ोती। किंस का इर्त ास स्मरण करो तो पता चिेगा। य रो्ी
मैं दे ता ूिं , ि र्तिक को खाने के लिए दीग्जये, इसे अिंतर न करना। इस रो्ी के बि से ि य कायि करे गा।

॥ श्री गजानन विजय ग्रन्थ ॥


139
यद्यवप उनको ब ु त दरू जाना ै , ककिंतु इिाज न ीिं।’ ऐसा उत्तर सन
ु कर कोल् ्कर शिंककत ो गए। म ाराज को
नमस्कार करके रो्ी ाथ में िेकर बम्बई िे जाकर र्तिक जी को णखिाई और अथसे इर्ततक सब ित्ृ तािंत भी
सन
ु ाया। यसन
ु कर र्तिक जी ने िोगों से घबराते ु ए क ा कक स्िामीजी का ज्ञान अगाध ै । आप िोगों के प्रयत्न
को यश लमिना कहठन ै । तयोंकक अपनी बाजू सम् ािने के लिए तया शासन न्याय दे गा? ज ािं स्िाथि का सम्बन्ध
ोता ै , ि ािं न्याय न ीिं ोता। ज ािं स्िाथि का सम्बन्ध न ीिं ोता, ि ािं न्याय का स्मरण ोता ै। य सिंसार का
र्नयम ै । मेरे ाथ से एक म ान ् कायि ोनेिािा ै । ऐसा समथि िचन गूढ़ ी ै । ककिंतु भत
ू -भविष्य, ितिमान साधज
ु नों
को ज्ञात ोता ै । अतः आगे तया ोता ै , सो दे खेंगे। र्तिक जी को जो रो्ी म ाराज ने दी थी, यद्यवप उनके
दािंत न ीिं थे, किर भी उसका चरु ा करके र्तिक जी ने खाई। तयोंकक ि म ाराज का प्रसाद था। बाद में र्तिक जी
को सजा दी गई और मिंडािा भेजा गया। ि ािं सजाकाि में उन् ोंने ‘गीतार स्य’ जैसा म ान ् ग्रिंथ लिखा। य उनकी
म ान ् कृत्ती थी। इस गीता ग्रिंथ पर अपार ह्काएिं ैं, ग्जनका मैं िणिन न ीिं कर सकता। इतनी बवु द्ध मझ
ु में न ीिं ै ।
विद्िजनों, जगउद्धार करने के लिए आचायों ने अपने समय कािानस
ु ार गीताथि का मिंथन ककया ै । ककसी ने अद्िैत
पर, ककसी ने द्िैत पर और ककसी ने कमि पर अथि िगाया ै । र्तिक जी ने उसका अथि कमि पर ी िगाया ै,
ग्जसकी तुिना और ककसी से न ीिं ो सकती।

य ‘कमियोग’ गीता र स्य ी बािगिंगाधर र्तिक जी का यश सारे विश्ि में िैिायेगा। अगर स्िातिंत्र्य भी लमिता
तो भी इतनी कीर्ति न ीिं ोती। स्िातिंत्र्य य िौककक व्यि ार ै । गीताशास्त्र समाज की अिस्था ग्स्थर कर मोक्ष की
ओर िे जाती ै । इसलिए र्तिक जी याि्चिंद्रहदिाकरः कीर्तिरूप से र ें गे।

॥ श्री गजानन विजय ग्रन्थ ॥


140
कोल् ापरू में गचत्तपािन ब्राह्मण जार्त का श्रीधर गोवििंद काळे नाम का एक गरीब ब्राह्मण र ता था। उसने
अिंग्रेजी शािा में आिंनि विद्या प्राप्त करते ु ए मैहरक पास ककया। बाद में म ाविद्यािय में पढ़ने िगा, िेककन
परीक्षा में ि अनर्ु तणि ो गया। ि समाचार पत्र आहद पढ़ता था। एक बार ‘केसरी’ समाचार पत्र में ‘ओयामा ्ोगो’
का चररत्र पढ़ा। ग्जससे उसके मन में विचार आया कक इनिैण्ड जाकर मैं यिंत्र विद्या तयों न सीख ििं?
ू मेरा जीिन
अकारण भलू म पर भार स्िरूप ै । ्ोगो और यामा दोनों ने यिंत्रविद्या का ज्ञान सिंपादन करके अपने मातभ
ृ लू म जापान
का नाम उज्जिि ककया। िैसे ी मैं भी तिंत्रज्ञान साधन कर मातभ
ृ लू म का उद्धार कर सकता ूिं । ऐसा विचार तो आया,
ककिंतु द्रव्य अभाि के कारण उसका कोई इिाज न ीिं था। य घर का अत्यिंत गरीब था। द्रव्य सा ाय्य कोई करता
न ीिं था। सो भिंडारा में अपने एक लमत्र से लमिने के लिए गया। उसका य लमत्र भिंडारा में मिंत्रों विद्यािय में लशक्षक
था। उसको अपना मनोगत बताया तो उसने भी य ी क ा कक, ‘लमत्र! द्रव्य की व्यिस्था के बबना दररद्र कक मनोकामना
मन में ी वििीन ो जाती ै । ‘उत्पद्यन्ते वििीयन्ते दररद्राणािं मनोरथाः’। चिो म करिीर कोल् ापरू जायें, तयोंकक
य ािं ग्रीष्म ताप अत्यागधक ै ।’

दोनों गाड़ी में बैठ और समथि गजानन म ाराज की कीर्ति सन


ु कर उनके दशिन के लिए शेगाूँि उतर पड़े। पोष््
मास्तर के य ािं सामान रखकर जल्दी से म ाराज के दशिन को गये, तयोंकक उनको दशिन की अत्यगधक उत्सक
ु ता
थी। दोनों मठ में आये समथि को साष््ािंड्ग
िं प्रणाम ककया और स्िामी के सामने ाथ जोड़कर बैठ गए। श्रीधर का
मनोभाि स्िामी ने समझ लिया और बोिे ‘अरे पागि! परदे स गमन का विचार छोड़ दे । य ािं सबकुछ ै भौर्तक

॥ श्री गजानन विजय ग्रन्थ ॥


141
शास्त्रों में कोई अथि न ीिं। अध्यात्म विद्या में रस िे, ग्जससे तू कृताथि ो जायेगा।’ इससे श्रीधर के मन से विचार
िािंर्त ु ई और उस समय उसको कोल् ापरू के एक व्यग्तत का स्मरण ो आया। को ार गल्िी के एक व्यग्तत का
क ना इसी प्रकार का था। िैसे ी गुरुमर्ू ति बोिते ैं, इस बात का स्पष््ीकरण मेरे मन में न ीिं ोता। ऐसा विचार
करते ी म ाराज किर जोर से बोिे, ‘भारत छोड़कर क ीिं मत जा। अगणणत पण्
ु य के ििस्िरूप भारत में जन्म ोता
ै । ये भौर्तक शास्त्रों से योगशास्त्र अगधक समथि ै । ग्जसका योगशास्त्र का अभ्यास ै, ि भी भौर्तक शास्त्र को
कभी न ीिं मानता और योगशास्त्र से अध्यात्मक विचार श्रेष्ठ ै । अगर ि समझ में आता ै , तो करके दे ख।’ समथि
के ऐसा बोिने पर श्रीधर के मन में बड़ा आनिंद ु आ। पग्श्चम का विचार सय
ू ि अस्त ोकर ि श्रीधर को सख
ु ी करने
पि
ू ि में उहदत ु आ। सिंत ी सत्य जानते ैं और पग्श्चम का विचार सय
ू ि अस्त ोकर ि श्रीधर को सख
ु ी करने पि
ू ि
में उहदत ु आ। सिंत ी सत्य जानते ैं और विचार का पररितिन सिंतों के बबना दस
ू रा कोई न ीिं करस कता और इस
समय म ाराज ने क ा, ‘तेरा अभ्यद
ु य ो गया। जा तेरी पत्नी कोल् ापरू में बािं् दे ख र ी ै । अब लमत्र के साथ
कोल् ापरू जा।’

म ाराज की य िाणी सत्य ु ई, श्रीधर आगे बड़े सम्पन्न ो गए, उन्नत ो गए। िो बी.ए., एम.ए. ोकर

ु त ककए गए। य ािं लशदिं े का राज्य था। सिंत चिते किरते ईश्िर का
लशिपरु ी में पदपर म ाविद्यािय प्राचायि के र्नयत
स्िरूप ी ोते ैं। उनकी कृपा का आश्रय ग्जसको लमिता ै ि श्रेष्ठ ोता ै । श्रीधर को दशिन का योग आया।
ग्जससे उसकी ित्ृ ती में िरक पड गया और ि सत्यशोध कर सका। य सिंतों की उपज केिि इस भारत भलू म में

॥ श्री गजानन विजय ग्रन्थ ॥


142
ी ै , तयोंकक नन्दनिन के िक्ष
ृ अन्यत्र न ीिं िगते। य दासगुण द्िारा विरगचत ग्रिंथ भािक
ु ों को सदा सन्मागि
हदखाये य ी प्राथिना ै।

।।शभ
ु िं भितु!! श्री रर रापिणमस्तु।।

||इर्त श्री गजानन विजयग्रिंथस्य पिंचदशोऽध्यायः समाप्त।।

॥ श्री गजानन विजय ग्रन्थ ॥


143
|| अध्याय – १६ ||

श्री गणोशाय नमः! े परशध


ु र जमदग्ननकुमार परशरु ाम! आपकी जय ो! अब उपेक्षा न कीग्जये। ब्राह्माण का अपमान
आपसे स न न ु आ और तदथि आपने स स्त्राजनुि को दिं डडत ककया। ब्राह्मणों का सरिं क्षण ककया। अब इस समय
ब्राह्मणों के विषय में आपको कैसे नीिंद िग गई? उनकी तरि से तयों आिंख मिंद ू र े ैं। आप आिंखें न मिंहू दये। ऐसे
र्नग्श्चिंत न बैहठये। ितिमान समय बडा कहठन ै । सारे प्रयत्न आपकी कृपा के बबना असिि ै । आयि सिंस्कृर्त की
रक्ष आपकी कृपा के बबना असिंभि ै । गजानन म ाराज की माया बडी अिौककक ै । मिंड
ु गाूँिमें पिंड
ु िीक नाम एक
गजानन म ाराज का भतत र ता था। उसकी म ाराज पर अ्ू् श्रद्धा थी। ि शेगाूँिर्नयलमत रूप से आया करता
तथा सदै ि म ाराज का गचिंतन करता र ता था। उसी गाूँिकी एक भागाबाई नाम की ठकुराईन थी। उसकी र्नष्ठा
क ीिं पर न ह्कती थी। बडी दािंलभक थी। दिं भका आडिंबर भराकर स्त्री-परु
ु ष को ठगना ी उसका धिंधा था। ि एक
बार पिंड
ु िीक से बोिी, ‘अरे तेरा जन्म व्यथि चिा गया, तयोंकक तूने सद्गुरु की शरण न ीिं िी। गजानन के दशिन
को तू र्नयलमत जाता ै । उन् ें सद्गुरु मानता ै । तया उन् ोंने कभी तुम् ारे कान में मिंत्र दीक्षा दी? अरे विगध के
बबना कभी गुरु न ीिं ोता ै ? शेगाूँिका गजानन तो पागि ै । तेरा ज्िर ठीक ो गया, इसलिए तू उसे मानता ै।
य तू काकतािीय ’ न्याय की बिी मत चढ (झाड की शाखा पर बैठना और उसी शाखा का ्ू्ना इसी को
काकतािीय न्याय क ते ैं। िस्तत
ु ः शाखा के ्ू्ने का तथा काक के बैठने का कोई कायि कारण सम्बन्ध न ीिं ोता)
‘गगण गगण गणात बोते’ य जो भजन िो करते ैं ि वपशाचित आचरण ै। ि ककसी का भी भोजन कर िेता
ै , ऐसा भ्रष्् ै । इसलिए तुम् ें क ती ूिं कक अिंजनगाूँि चिो, ि ािं के जाजी के लशष्य को म दोनों गुरु करें गे। कि
प्रातः अिंजनगाूँि म िोग जायेंगे, तयोंकक कि ि ािं उनका कीतिन ै , ि सन ु ेंगे। गुरु म ाज्ञानी ोना चाह ए। चतुर
और शास्त्र पारड्गत ोना चाह ए। परम गुण सम्पन्न तथा भग्ततमागि का दशिन करानेिािा चाह ए।

॥ श्री गजानन विजय ग्रन्थ ॥


144
इनमें से एक भी िक्षण तुम् ारे गजानन में न ीिं ै , इसलिए दे र मत कर अिंजनगाूँि चि।’ य पिंड
ु िीक भोकरे
बडा भाविक मन का था। भागाबाई के िततव्य से उसका मन ककिंगचत विचलित ो गया। उसने विचार ककया कक
कि प्रातः अिंजनगाूँि कीतिन सन
ु ने जायेंगे, अगिा विचार आगे दे खेंगे। ऐसा विचार करके उसने भागी से क ा, ‘चिो
मैं अिंजनगाूँि तुम् ारे सिंग आता ूिं । इस प्रकार दोनों का विचार ो गया। पिंड
ु िीक रात को घोर र्नद्रा में सोया था।
तीन प र रात के समय समथि के समान एक हदगिंबर परु
ु ष खडा ु आ और बोिा, ‘अरे पिंड
ु िीक, तू उस भागी के
साथ गरु
ु करने अिंजनगाूँि जानेिािा ै तया? कोई बात न ीिं, जाना ै तो शीघ्र जाओ। उसका नाम काशीनाथ ै।
पागि! ि ािं प ुिं चने पर तम्
ु ारा भ्रम दरू ो जाएगा। अरे ब ु त िोग परस्पर कान में िगकर बात करते ैं तो तया
िो एकमेक के गुरु ो जाते ैं? दिं भाचार में न ीिं पडना चाह ए। तू इधर कान कर, तुझे मैं मिंत्र दे ता ूिं ।

‘गण गण’ ऐसा बोिकर म ाराज स्तब्ध ो गये। तेरी और कुछ इ्छा ै तो ि भी मैं पण
ू ि करूिंगा।’ य
सन
ु कर पिंड
ु िीक बडा आनग्न्दत ु आ। स्िप्न में सक्ष्
ू म र्नरीक्षण करने िगा तो जाना कक िे साक्षात शेगाूँिके गजानन
स्िामी ैं। तब उसने क ा, ‘गुरुदे ि! ये आपकी पादक
ु ायें मझ
ु े र्नत्य पज
ू न के लिए दीग्जये, उसके अर्तररतत मेरी और
कोई मनोकामना न ीिं ै ।’ य सन
ु कर म ाराज ने क ा, ‘तथास्त,ु ि तुम् ें दीया। तुम उन् ें िेिो और कि दोप र
के समय उनका पज
ू न करना।’ सो पादक
ु ा िेने के लिए पिंड
ु िीक जैसे ी उठा तो श्रोतागण! उनकी नीिंद झ् खि

गई। उठकर चारों ओर दे खा तो कोई न ीिं हदखाई पडा और पादक
ु ाओिं भी पता न ीिं। ि बडा असमिंजस में पडा।
अपनी शिंका का समाधान उससे न ीिं ो र ा था। मन में विचार ककया कक म ाराज की िाणी कभी व्यथि न ीिं ोती।

॥ श्री गजानन विजय ग्रन्थ ॥


145
मझ
ु े साक्षात ् दशिन दे कर भागी ठकुराईन कैसी ै ि भी बताया। दस
ू रे प्र र पादक
ु ाओिं की पज
ू ा कर ऐसा भी क ा।
इसका अथि तया? तया नई पादक
ु ाएिं बनाकर उनके पज
ू न का सिंकेत हदया। य कुछ समझ न ीिं पड़ता? मैंने चरणों
की पादक
ु ाएिं मािंगी ि उन् ोंने दी किर मैं नई तयों बनिाऊिं? इस प्रकार के अनेक तकि पिंड
ु िीक कर र ा था। उसी
समय उसके घर ठकुराईन भागाबाई उसे बि
ु ाने आई और क ने िगी, ‘पिंड
ु लिक अब अरूणोदय ो गया ै । रास्ता
हदखाई पडने िगा ै सो मोक्षगुरु करने अिंजनगाूँि चिो।’ इस पर पिंड
ु िीक ने क ा, ‘भागाबाई! मैं अिंजनगाूँि न ीिं
आता, तम्
ु ारी मजी ो तो तम
ु जाओ। मैंने जो एक बार गरु
ु कर लिया, श्री गजानन म ाराज, ि मैं न ीिं छोडूग
िं ा
ऐसा मेरा र्नश्चय ै ।’ य सन
ु कर भागाबाई अिंजनगाूँि गई। अब मिंड
ु गाूँिमें तया ु आ िो आप िोग सन
ु े।

झ्यामलसिंग राजपज
ू स्िामी का दशिन करने शेगाूँि आया था। ि दो हदन प िे आया था। जब िो मिंड
ु गाूँिजाने
को उदत ु आ तब म ाराज ने बािाभाऊ से क ा, ‘ये पादक
ु ायें इसके पास पिंड
ु िीक को दे ने को दे दो।’ समथि की
आज्ञानस
ु ार बािाभाऊ ने िैसा ी ककया। बािाभाऊ ने झ्यामलसिंग से क ा, ‘तुम् ारे गाूँिमें जो पिंड
ु िीक भोंकरे ैं, उसे
ये पज
ू न करने के लिए दो।’ य सन
ु कर झ्यामलसिंग पादक
ु ा िेकर मिंड
ु गाूँिआया तो पिंड
ु िीक उसे गाूँिकी सर द पर
लमि गया और पिंड
ु िीक ने म ाराज को कुशि ित्ृ तािंत उससे पछ
ू ा और क ा कक ‘म ाराज ने तया मेरे लिए कुछ
प्रसाद भेजा ै ?’ य सन
ु कर झ्यामलसिंग को बडा आश्चयि ु आ और ि बार बार खोद खोदकर पिंड
ु िीक से पछ
ू ने
िगा। तब पिंड
ु िीक ने उसे स्िप्न का सारा ित्ृ तािंत बताया। य सन
ु कर झ्यामलसिंग की भ्रािंर्त दरू ो गई और उसने
तुरिंत पादक
ु ायें र्नकािकर पिंड
ु िीक के ाथ में दी। आज भी िे पादक
ु ाेाएिं मिंड
ु गाूँिमें पिंड
ु िीक के घर में ै । पिंड
ु िीक

॥ श्री गजानन विजय ग्रन्थ ॥


146
ने उन प्रसादी पादक
ु ाओिं को दस
ू रे प्र र पज
ू न ककया। श्रोतागण! इस प्रकार सिंतजन अपने भततों का प्रर्तपािन करते
ैं। उन् ें िाममागि में जाने से बचाते ैं। इस कथा से समथि अपने भततों के मनोरथ कैसे पण
ू ि करते ै, य लसद्ध
ोता ै।

अकोिा में िाजसनेयी शाखा का राजाराम किंिर नामक ब्राह्मण था। ि सोना-चािंदी तथा ककराना माि का
धिंधा करता था। मध्यम श्रेणी का सा ू कार था। य राजाराम, म ाराज का भतत था। इसलिए इसके पत्र
ु भी म ाराज
के भतत थे। इसके दो पत्र
ु थे। गोपाि और त्र्यिंबक, जो िि-कुश के समान थे। छो्ा पत्र
ु जो था उसे व्याि ाररक
भाऊ नाम से पक
ु ारते थे, ि डात्री पढने के लिए ै दराबाद गया।

बाल्यकाि से ी त्र्यिंबक को दे िध्यान था और कोई भी सिंक् पडने पर ि समथि का स्मरण करता था। ि
भागानगरी में मस
ु ा नदी के ककनारे बैठकर म ाराज का ध्यान करता। इस प्रकार भाऊ बचपन से ी समथि गजानन
का भतत था। एक बार विद्यािय के अिकाश में ि घर आया तो उसे म ाराज को भोजन कराने की इ्छा ु ई।
उनको वप्रय पदाथि बनाकर िे जाने का विचार आया ककिंतु य सब कैसे ोगा? मन में ि बोिा, ‘गरु
ु दे ि अब मैं
तया करूिं? मेरी माता मर गई ै । बचपन से ी मेरे घर पर और कोई न ीिं ै । नानी नामक मेरी भौजाई ै , ककिंतु
ि बडी िोधी ै । मेरी ऐसी मनोकामना ै कक आपके सब वप्रय पदाथि बनाकर आपको भोजन कराऊिं। जिार की
रो्ी, अिंबाडी की भाजी, प्याज तथा गरम बेसन, री लमचि इत्याहद। ककिंतु मेरे भौजाई का स्िभाि जानकर भिा ये
सब पदाथि बनाने मैं कैसे क ूिं ? तयोंकक बािक का ठस्थान केिि माता ी ोती ै अन्य न ीिं। ऐसा सोचते ुए

॥ श्री गजानन विजय ग्रन्थ ॥


147
भाऊ शािंर्तगचत एकािंत में बैठा था, सो ककसी काम के लिए उसकी भौजाई, नानी ि ािं आई। उसको दे खकर ि अपने
दे िर से बोिी, ‘दे िरजी! आपका मिंु तयों उतर गया ै ? का े की गचिंता कर र े ो?’ य सन
ु कर भाऊ दीनता से
बोिा, ‘भौजी, तुम् ें तया बताऊिं जो मेरे मन में विचार ै ? पण
ू ि अगधकार र े बबना मनोरथ पण
ू ि न ीिं ोते। किर तुम
पर तो मेरी पण
ू ि सत्ता न ीिं अतः तुम् ें बताकर तया िायदा? सन
ु कर नानी ने क ा, ‘अरे तुम मेरे छो्े दे िर ो।’
बडी भौजाई माता के समान ोती ै , सो कोई परदा न रखकर तुम् ें गचिंता ै सो बताओ।’ य सन
ु कर भाऊ िं सा
और अपनी भौजाई नानी से बोिा, ‘नानी! आज मझ
ु े ऐसा िगता ै कक गजानन म ाराज के वप्रय पदाथि बनाकर
शेगाूँि िे जाऊिं और उन् ें भोजन कराऊिं। अगर आप करोगी तो आपको भी इसका पण्
ु य िगेगा और मेरा काम भी
ोगा।’ य सन
ु कर नानी िं सकर बोिी, ‘बस, इतनी सी बात के लिए तुम कुम् िाकर गचिंर्तत थे? बताओ, तया तया
बनाना ै ? गजानन म ाराज की कृपा से अपने घर में ककसी भी चीज की कमी न ीिं ैं।’ सन
ु कर भाऊ ने सब बताया
और ि नानी भी बडे प्रसन्न मन से जल्दी से रसोई बनाने में िग गई। भाजी-रो्ी-बेसन तथा एक अिंजिभ
ु र री
लमचि अपने दे िर के सामने िाकर रखी। तीन रो्ी तीन प्याज-चनादाि का बेसन (म ाराष्र में इसको झण
ु का क ते
ैं।) तथा उसके ऊपर-मतखन र रो्ी को िगाया और दे िर को दे कर बोिी, ‘अब आप शेगाूँिजाओ। तयोंकक समय
थोडा ै , गाडी जानेिािी ै । ये गाडी अगर न ीिं लमिी तो सब भोजन सामग्री व्यथि ो जाएगी। भोजन के समय ी
प ुिं चना चाह ए।’ नानी ने जब ऐसा क ा तो भाऊ अपने वपता को पछ
ू कर जब रे ल्िे स््े शन पर प ुिं चा तो बार बजे
की गाडी जा चक
ु ी थी। जो जानकर भाऊ बडा विकि गचत्त ो गया। ि विमनस्क ो गया। नेत्रों में जि भरा आया
और क ा, ‘म ाराज! इस समय आपने मेरा त्याग तयों ककया? मैं मि
ू तः दीन ीन ूिं , किर म ाराज को भोजन

॥ श्री गजानन विजय ग्रन्थ ॥


148
कराने का पण्
ु य मझ
ु े कैसे लमि सकता ै ? जैसे काग को मानस सरोिर का िाभ न ीिं ो सकता। मझ
ु से कौन सी
अक्षम्य गिती ो गई, ग्जससे य गाडी छू् गई। ाय रे दद
ु ै ि! तम
ु ने अ्छा दािंि साधा। य स्िल्प सेिा भी गरु
ु दे ि
कक मेरे ाथ से न ोने दी। य मेरा पाथेय यहद ऐसी ी र ी तो मैं भी भोजन न करूिंगा। य िचन बत्रिार सत्य
ै । किर म ाराज की प्राथिना करने िगा!

े कृपा के सागर गरु


ु दे ि! इस बािक की उपेक्षा मत कररये। इस पाथेय का सेिन करने शीघ्र पधाररये। आप
का अगधकार ब ु त बड़ा ै । एक क्षण में आप केदारनाथ के दशिन को प ुिं च जाते ैं। किर इतनी सी दरू आने को
तयों आनाकानी कर र े ो। मैं आज्ञा न ीिं कर र ा ूिं । प्रेम से आह्िा न कर र ा ूिं । इसमें आपका ककिंगचत भी
अपमान न ीिं ै । दस
ू री गाडी को अभी तीन घिं्े दे र ै , तब तक आपका भोजन ो जाएगा। ऐसा विचार करते ुए
ि ि ी भख
ू ा बैठा र ा। चैथे प र तीन की गाडी से शेगाूँिआया। जब किंिर दशिन करने मठ में गया तो योगीराज
अपने आसन पर बबना भोजन ककए बैठे थे। पास में अनेक पतिानों से भरे नैिद्
ै य के थाि रखे थे, ग्जनका मझ
ु से
िणिन न ीिं ककया जाता। ककसी में जिेबी, घेिर, तो ककसी में मोतीचरू , ककसी में पायस तो ककसी में श्रीखिंड परू ीयािं
थी, ककिंतु इनमें से ककसी को भी स्पशि म ाराज ने न ीिं ककया था। बािाभाऊ थािीयािं िाकर रखता और क ता,
‘म ाराज, एक बज चक
ु ा ै , जब आप भोजन न ीिं करें गे, तब तक भततों को प्रसाद न ीिं ग्र ण ोता। उसकी िे बा्
दे ख र े ैं। आपसे प्राथिना करने की ककसी में ह म्मत न ीिं, इसलिए मैं य क र ा ूिं ।’ तो म ाराज ने क ा, ‘इस
समय आग्र न करो, थोडा रुको। आज मारा भोजन चौथे प्र र में ोगा। यहद इ्छा ै तो रुको अन्यथा तुम खाओ

॥ श्री गजानन विजय ग्रन्थ ॥


149
ना नैिेद्य पीछे घर िे जाने दो, उसकी परिा मझ
ु े न ीिं ै ।’ इस प्रकार य घ्ना चि र ी थी। इतने में भाऊ आ
प ुिं चा। समथि को दे खकर उसे अत्यानिंद ु आ। जैसे दरू गई ु ई माता बािक की दृग्ष्् में पडने पर उसे बािक की
जो अिस्था ोता ै ि ी किंिर की ु ई। उस भाऊ को दे खकर म ाराज िं सकर बोिे, ‘अरे ! अ्छा न्योता हदया? तया
य भोजन की िेिा ै ? तुम् ारे िचन में बद्ध ो गया और मैं भख
ू ा र गया। िा जल्दी से ि पाथेय।’ य सन
ु कर
किंिर बोिा, ‘गुरुदे ि, बारा बजे की गाडी चक
ू गई। सो किंिर को बािाभाऊ ने क ा, ‘चिो दख
ु ी मत ोओ। तया िाए
ो सो जल्दी से र्नकािो, समथि के भोजन के लिए।’ य सन
ु कर किंिर ने रो्ी-भाजी और प्यार सामने रख हदया,
स्िामी गजानन के सामने। उनमें से दो रोह्यािं समथि ने खाई और एक प्रसाद रूप में सब भततों को दी। य घ्ना
दे खकर सब िोगों को बड़ा आश्चयि ु आ और म ाराज के अगधकार का पता चिा। म ाराज िास्ति में भतत ित्सि
ै। य घ्नादे खकर सब िोगों को भतत विदरु की स्तीनापरू की घ्ना याद ो आई, ग्जसमें भगिान श्रीकृष्ण ने
दय
ु ोधन के पतिानों को छोडकर विदरु घर कुित्थ का सेिन ककया था। िैसे ी म ाराज ने पकिानों का स्पशि न ीिं
ककया। किंिर की रोह्यािं पर स्िामीजी का गचत्त ररझा था। भाऊ ने शेगाूँिमें समथि का प्रसाद ग्र ण ककया। तयोंकक
सद्भाि उहदत ोने पर ऐसा ी ोता था। इसके बाद समथि ने किंिर से क ा, ‘अब तुम अकोिा जाओ! अगिे िषि
डात्री पास ो जाओगे।’ तब किंिर ने क ा, ‘गुरुदे ि! आपकी दया मझ
ु पर ो, बस इसके लसिा मझ
ु े और कुछ न ीिं
चाह ए। ये आपके हदव्य चरण ी मेरी र्नगध ै । आपकी हदव्य मर्ू ति का गचिंतन सदै ि ो य ी मेरी प्राथिना ै ।’ ऐसा
बोिकर किंिर अकोिा चिा गया। समथि अपने भतत की उपेक्षा कभी न ीिं करते।

॥ श्री गजानन विजय ग्रन्थ ॥


150
शेगाूँिमें र नेिािा तक
ु ाराम शेगोकार नामक एक ककसान म ाराज का भतत था। ि खेती का काम करता था।
घर में बडी गरीबी थी। खेती का काम सय
ू ािस्त तक करके बाद में ि म ाराज के दशिन को आता।

कुछ दे र बैठ कर किर खेत में चिा जाता। ि म ाराज की गचिम भरकर दे ता और चरणों का दशिन िेकर
चिा जाता। इस प्रकार का िम कईं हदनों तक चिता र ा। भानयचि बडा विगचत्र ोता ै, ि ककसी को न ीिं
छोड़ता। जो ििा् में लिखा ोता ै ि ोकर ी र ता ै । एक रोज एक आखे्क बिंदक
ु कािंधे पर रखकर मग
ृ या
के खोज में उसके खेत में आया। तुकाराम अपने खेत में काम से र्नमनन था। ि प्रातः की िेिा थी। सद्यः सय
ू ोदय

ु आ था। तुकाराम अपने खेत में अिंगीठी सेकते बैठा था।

उसके पीछे धप
ू के झरु मु में एक ससा बैठा था। ि आखे्क ने दे खा और उसको मारने के लिए िक्ष

ू चिाई। ग्जससे ससा तो मर गया ककिंतु छरों में से एक छराि तुकाराम के कान के पीछे िगा। छराि
सिंधानकर बिंदक
बडी गती से िगने से अिंदर मग्स्तष्क में प्रविष्् ो गया। तुकाराम को दिाखाने िाया गया। डात्रों के अथक प्रयत्न
करने पर भी ि छराि र्नकि न ीिं पाया। तक
ु ाराम को भयानक लसरों िेदना ोने िगी। रात को यग्ततगचिंत र्निंद्रा न ीिं
िगती थी। सब प्रकार के दै िी-सिंकल्प इत्याहद करने पर भी उसको कोई िाभ न ीिं ु आ। इस अिस्था में भी ि मठ
में जाता और र्नत्य पररचयाि करता। ऐसे में एक भतत ने उसे क ा, ‘अरे तुकाराम! डात्र बैद्य छोड़ दे , इस सिंसार
में साधस
ु ेिा जैसा दख
ु नाश का और उपाय न ीिं ै । उनकी कृपा ोने पर तुम् ारी य पीडा अिश्य नष्् ो जाएगी।
तम
ु र्नत्य मठ के आसपास सिाई ककया करो, ग्जससे म ाराज की सेिा भी ोगी और तम्
ु ें पण्
ु यिाभ भी ोगा।

॥ श्री गजानन विजय ग्रन्थ ॥


151
ककिंतु अपने वपता के समान दािंलभकता से य काम न करना। सदै ि शद्ध
ु भाि धारण करना। य सन
ु कर
तक
ु ाराम ने मठ का पररसर झाडकर आयने के समान स्ि्छ र्नमिि रखना शरु
ु ककया। इस अिस्था में ि चैद िषि
तक सेिा करता र ा। एक रोज बडी आश्चयिकारक घ्ना घ्ी। झाडते झाडते उसके कान में से छराि झ्ककर जमीन
पर गगर पडा। जैसे िसोडे को दब
ु ाने पर उसका बीज बा र गगर पड़ता ै । कान में से छराि गगरने के बाद उसकी लसर
ददि की विकृत बिंद ो गई। ऐसा सेिा का प्रभाि ोता ै। य बु ारने का काम ि अपने अिंर्तम समय तक करता
र ा। प्रगचर्त के बबना परमथि मागि में कभी र्नष्ठा न ीिं ोती। ि एक बार ोने पर ग्स्थर ो जाती ै । इस तर
भािक
ु जानते ैं कक सिंतसेिा अत्यिंत श्रेष्ठ ै , म ान ै। य अिंधश्रद्धा के साक्षात ् उत्तर ै जो क ते ैं। अिंधश्रद्धा ै
ि अत्यिंत भ्रािंर्त ै ‘अिंधश्रद्धा’ शब्द ी गित ै , तयोंकक य दासगणू म ाराज ने स्पष्् शब्दों में क ा ै , प्रचीर्त के
बगैर परमाथि मागि में कभी श्रद्धा न ीिं ोती और प्रगचर्त ोने पर ि श्रद्धा दृढ ोती ै । श्री दासगणू विरगचत श्री
गजानन विजय नामक ग्रिंथ भाविकों का भिसागर तारनेिािा ै।

||शभ
ु िं भितु श्री रर रापिणमस्तु||

||इर्त श्री गजानन विजय ग्रिंथस्य षोडषोऽध्यायः समाप्तः||

॥ श्री गजानन विजय ग्रन्थ ॥


152
|| अध्याय १७ ||

श्रीगणेशाय नमः । े म ामिंगि, भततोंका पािन करनेिािे - तमािानीििणि-पर्तत पिन नर री । आपकी जय ो


। ह रण्यकश्यप बड़ा िूर था - सज्जनोका शत्रु था - उसका उदर गचर कर के आपने उसे मारा । भतत प्रह्िाद की
रक्षा करने लिए अपने स्तिंभ िाड़कर जन्म लिया । य आपका अनप
ु म रूप था। भयानक दाढ़े , गदि नपर केश सिंभार
खहदरािंगार के समान नेत्र जो मानो ब्रह्माण्ड का दा कर दें गे। ऐसे आपके भयिंकर रूप के दशिन का डर भततोंको
न ीिं ोता तयोंकक बार्घनके ब्चे बार्घनके के शरीर पर खेि कूद करते ैं । ऐसा भयानक रूप दे ख कर माता
िक्ष्मी भी आपके सग्न्नध सामने आने से डरी, ककन्तु भतत प्रह्िाद ने आपकी चरण ििंदना र्नभिय ो कर की ।
िक्ष्मीकािंत ! आपका भतत ित्सि ो-ऐसा सिंतगण क ते आये ैं । आप भततों के मनोरथ पण
ू ि करते ो, उन् ें कभी
नकारते न ीिं । उस आपके बब्रद को आप रखी ये । े हृषीकेश ! य दासगणू आपकी चरण ििंदना करता ै । उसे
अभयदान दीग्जये ।
अकोिा में गजानन म ाराज के कुछ परम भतत थे । म ाराज उनके घर सदै ि जाते र ते थे । चापड़ गाूँि के बापु
कृष्णा ख्ाऊ सेठका पररिार गोंडुिािा का पत्र
ु , ग्जसका नाम ब्चि
ु ाि था, जीजीबाई पिंडडत और ऐसे अनेक भतत
थे, ग्जनके नाम मैं क ाूँतक बताऊूँ ? एक बार गजानन म ाराज ने ख्ाऊ के कारखाने में अपना र्निास स्थान
र्नग्श्चत ककया । मिकापरू का विष्णुसा नामक भतत था । उसके मनमें इ्छा ु ई, कक म ाराज को मिकापरू िे
जाया जाय ।

॥ श्री गजानन विजय ग्रन्थ ॥


153
उसने भास्कार द्िारा अपनी इ्छा प्रग् की । आगे य ी भास्कर आड़गाूँि में समागधस्थ ु आ । इस समय ि
म ाराज के साथ अकोिा में था । ि सब म ाराज के कायि करते थे और भास्कर का बि विष्णु को था । भास्करने
म ाराज से क ा," म ाराज, विष्णस
ु ा बि
ु ाने आया ै, सो उसके घर मिकापरू चलिये । ि ाूँके भततोंके मनोरथ पण
ू ि
कररये । मिकापरू के िोग आपकी रा दे ख र े ै । तब म ाराजने उत्तर हदया," भास्कर इस समय म मिकापरू
न ीिं जाना चा ते,तुम आग्र मत करो । अगर ज्यादा आग्र करोंगे तो दद
ु ि शा ोगी। मैं अकारण न ीिं बोिता इसका
सक्ष्
ु म विचार करो । रज्जु को अगधक तानने पर ि ्ू् जाती ै । मैं य ाूँ से ह िग
िंू ा न ीिं । तुम इस झिंझ्में मत
पड़ो । " इसपर भस्कार ने क ा," गुरुदे ि ् ! कुछ भी ो, मिकापरू विष्णुसा के घर अिश्य चलिए । मैंने उसे िचन
हदया ै और मैं आपका वप्रय लशष्य ूूँ, मेरा अनादर मत कररये । य मेरी प्रर्तज्ञा परू ी कररये । आज रे ल्िे स््े शनपर
चलिये, म गाडीसे जायिंगे । इस प्रकार आग्र करके भास्कर ने म ाराज को स््े शनपर िाया और स््े शन अगधक्षकको
प्राथिना करके बार िोगोंको लिए एक डड खािी करिाया,म ाराज को बैठनेके लिए । म ाराज िैसे ी बैठे र े ,कुछ
बोिे न ीिं, गाड़ी छु्ने तक कुछ न ीिं बोिे1 । जौसे ी गाडी छु्ने की घिं्ी बजी तो भास्कर की र्नग बचाकर
म ाराज ने एक िीिा की, जो डडब्बा खािी ककया था ि उन् ोंने छोड़ हदया और ये योगीराज ग्स्त्रयों के डब्बेमें घस

पडे । प िे ी विशाि काय मर्ू ति उस पर हदगिंबर । जो दे खकर ग्स्त्रयाूँ घबरा गईं और उन् ोंने पलू िस में सच
ु ना दी
। पलु िस अगधकारी जल्दीसे ि ाूँ प ुूँ चे और ि म ाराज का ाथ पकड़कर उन् े नीचे खीचने िगे ।

अरे पागि निंगे- तुम् ारी बवु द्ध क ाूँ गई,जो इस अिस्थामें ग्स्त्रयोंके डडब्बे मे आ कर बैठ गये ो । उसने ाथको
झ्का हदया । ककन्तु म ाराज ्ससे मस न ु ए और र्नभियतासे ि ी बैठे र े । बादमें ि अगधकारी स््े शन अधीक्षक
के पास गया और उसने क ा की," आप मेरे साथ ग्स्त्रयोंके डडब्बेके पास चलिये ।" तद्नस
ु ार दोनो ि ाूँ प ु चे तो

॥ श्री गजानन विजय ग्रन्थ ॥


154
स््े शन अगधक्षकने योगीराज को ग्स्त्रयों के डडब्बेमें बैठा दे खा । उसने पलु िस अगधकारी से क ा," आप इन् े इसी
डडब्बेमें बैठकर जाने दीग्जये, य म ान श्रेष्ठ सिंत ै । साक्षात ईश्िर ै , इनके द्िारा ककसी प्रकार का अिैध कायि
कभी न ीिं ो सकता । य सन
ु कर उस पलु िस अगधकारी ने उत्तर हदया कक," मैंने अपने िररष्् अगधकारी को
तारयिंत्रद्िारा इस घ्ना की सच
ु ना दे दी ै सो आप जो चाह ये सो कररये ।" तब स््े शन अगधक्षकने अपनी ्ोपी
उतारकर बड़ी नम्रतापि
ू क
ि म ाराज से प्राथना की," म ाराज ! आप मेरी प्राथना को स्िीकार कर इस डडब्बेमेसे उतरकार
अपने डडब्बेमें बैठाये । विगधर्नयम तथा मेरा क ना मार्नये ।" य सन
ु कर म राज उतरे । बादमें इस प्रकार के लिए
म ाराज के ऊपर आयोग चिाया गया । ग्जस कमि के लिये जठार नामक अगधकारी शोगाूँिमें र्नयत
ु त ककया गया,
उस समय व्यिंक्राि दे साई, जो अकोिा के थे, ककसी काम से य ाूँ आये थे । म ाराजपर न्यायािय में ख्िा
चिनेिािा ै इसके अलभयान की गाूँि में दिं डी दी गई थी । उसके करण गाूँिके भी ब ु त िोग - विश्राम ग ृ पर इकट्ठे
ु ए थे । तब दे साईने जठार को पछ
ु ा , " आज कौन सा विशेष अलभयान ै , जो इतने िोग जमा ै । तब जठार ने
क ा," बड़े आश्चयि की बात ै , की तम्
ु ें इस सन
ु िाई की सच
ु ना न ीिं ै । तम्
ु ारे स्िामी गजानन ननन किरते ैं
इसीलिए पलु िस य केस चिाया ै । उसकी आज सन
ु िाई ै । शायद इसीलिए ये सब िोग जमा ै ।" तब
व्यिंक्राि ने ाथ जोड़ कर उसने क ा की," य केस न चिाइये । गजानन म ाराज की योनयता ब ु त बड़ी ै । ये
योगगयों के योगागधपती ै , सबसे िन्दनीय ैं ।" तब जठारने क ा कक," आप विगधज्ञ ै , विगध का ज्ञान आपको ै
। इसका विचार पलु िस िोगोंने करना चाह ये था । "बादमें अपने लिवपकसे उन् ोंने क ा की," गजानन म ाराज को
बि
ु िाओ ।" य सन
ु कर उसने एक यि
ु ा पलु िस म ाराज को बि
ु ाने भेजा । ि समथि से बोिा कक ," आप सीधे
से कच री चलिये तयोंकक अगधकारीने मझ
ु े आपकी िानेके लिए भेजा ै , अन्यथा दग
ु त
ि ी से जाना पड़ेगा । आपका
ाथ पकड़ कर मझ
ु े आपको खीचकर िे जाना पड़ेगा ।" तब गजानन म ाराज बोिे," म य ा से न ीिं उठिं गे । तुम् ारा

॥ श्री गजानन विजय ग्रन्थ ॥


155
लसपा ी पना दे खना ै , आओ, मारा ाथ पकड़ो ।' ऐसा क कर उन् ोंने पलु िस का ाथ पकड़ लिया, ि इतनी
जोरोसे की उसका रततप्रिा बिंद ो गया । उस दबाि के कारण उसके ाथमें िेदना ोने िगी । ि घबराकर तड़पने
िगा । पलु िस को ज्यादा समय बीत गया । इसीलिए ि ाूँ व्यिंक्राि दे साई िकीि को भेजा और जठार ने क ा,"
आप जाकर म ाराज को िाईये और िोगोंको व्यथि भीड करने से रोककये । इतनेमें समाचार लमिा की म ाराज पलु िस
को ाथ पकड़कर उसे ि ी बबठा हदया । तब दे साई ि ाूँ आये और भततोंसे बोिे की, इस समय म ाराज को धोती
प नानी चाह ये । सो भततोंने उन् ें धोती प नायी ककन्तु म ाराजने ि उतारकर िेंक दी । निंगे ी कच री गए ।
साथमें भास्कर भी था । म ाराज को दे खकर जठारने उन् ें बैठने के लिए कुसी दी और क ा," म ाराज आप निंगे
तयों घम
ू ते ैं ? य ठीक न ीिं ैं । तयोंकक ितिमान विगध के अनस
ु ार गाूँि में निंगा घम
ू ना र्नवषद्ध ै और गुना ै
। इसीलिए आपसे प्राथना ै , की आप निंगे र ना छोड़ दीग्जये । जठार का व्यततव्य सन
ु कर म ाराज ूँ से और
बोिे,"तुम् े इससे तया करना ै? व्यथि बाते मत करो और गचिम भरकर दो।“ य सन
ु कर जठार द्रवित ो गये ।
जनरीर्तका उन् ें भान न र ा । सोचने िगे, की ो न ो, ये भागितमे िणणित ऋषभदे ि अथिा परम िं स भागित के
ितता शक
ु ाचायि या जीिन्मत
ु त िामदे ि का ी अितार जान पड़ते ै । ये जीिन्मत
ु त ै और आत्मानिंद में िीन र ते
ै अतः िौककक आचार विचार इनके लिये व्यथि ै | इसीलिए इनपर य िौककक आचार के आश्रय से ककया ुआ
आक्षेप िगाया न ीिं जा सकता । जैसे अग्नन अपनी उष्णता कभी न ीिं त्यागती, तयोंकक ि उसका स्िभाि ै ।
इसीलिए अग्नन ोत्री िोग उसे यज्ञकिंु डमे रखते ैं अन्यथा घरका ी दा कर दे गा । य उसका दोष न ीिं। िैसे ी
इनकी जीिन्मत
ु त नननता अग्नन के समान ी ै, इसीलिए इनके लशष्य इसके लिए दोषी ै , ग्जन् ों ने इन् ें िस्त्र
प नाकर न ीिं रखा, यहद िस्त्र रूपी अग्ननकिंु ड से इनका शरीर आ्छाहदत करते, तो सबको सख
ु द ोता, ऐसा विचार
करके जठारजी ने इस प्रकार आज्ञा दी । मि
ु तः म ाराज जीिन मत
ु त ै इनको व्यिग्स्थत रखना भास्कर का काम

॥ श्री गजानन विजय ग्रन्थ ॥


156
था, उसने ि न ीिं ककया इसीलिये मैं भास्कर को पाूँच रुवपया दिं ड करताूूँ । इस प्रकार जठार की उपग्स्थर्त में
केस का र्नणिय शेगाूँि में ु आ । इस पर समथि ने भास्कर क ाूँ !" दे खा किरसे ऐसा आग्र अपनी दद ु ि शा कराने मझ
ु े
कभी न करना ।

भास्करने कोई उत्तर न हदया । तब शेगाूँि के िोगोंने र्नश्चय ककया की, म ाराज को अग्ननरथ में कभी न बबठाया
जाय, तयोंकक उसमे ऐसी विपग्त्तयाूँ ोती ैं ।' तबसे भततगण म ाराज को अपनी बैिगाड़ी में ी बबठाकर िे
जाते,ऐसा िम कई हदन तक चिा ।

एक बार पण्
ु यराशी अकोिा के बापु राि के घर इस समय म े ताबशा नाम का एक मस
ु िमान साधु मर्ु तिजापरु के
पासिािे कुरुम नामक गाूँि में र ता था। उसने बपरु ािसे क रखा था की, "म ाराज अकोिा आये तो मको सच
ू ना
दे ना। " तदनस
ु ार म ाराजके अकोिा आनेपर बापन
ू े एक आदमी जल्दीसे कुरुम सिंदेशा िेकर भेजा। इधर म े ताबशा
म ारजसे लमिने कुरुमसे र्नकि पड़े थे। आधे रस्तेमे उन् ें ि व्यग्तत लमिा जो उन् ें िेने कुरुम जा र ा था।
मधरु भाषी म े ताबशा ने उससे क ाूँ,"अरे कुरुम जानेकी जरुरत न ीिं, मैं ी म े ताबश ा ूूँ । चिो, मारी बैिगाड़ीमे
बैठो और स््े शन चिो, श्रोतागण सिंत बत्रकािज्ञ ोते ै उनकी मह मा अपरिं पार ोती ै। सिंत के आनेकी िाताि सिंत
को ज्ञान ो गयी थी। म े ताबशा के साथ दो-चार मस
ु िमान थे। सब आकर बापरू ाि के घर उतरे । दस
ू रे हदन
प्रातःकाि म ाराज ज ाूँ म े ताबशा बैठा था ि ाूँ आये और उसके बाि पकड़कर उसे ताड़ने िगे। विद्िजनों
म ाराजके ताडन करनेका र स्य य था, की यिन जातीमे जन्म िेकर उनका कुछ भी कल्याण तुमने न ीिं ककया।
उि्े हदनपर हदन उनकी उद्दिंडता बढ़ती जा र ी ै। तुम उद्दाम ो गये ो। इससे धमितत्िोंका विनाश ोगा और

॥ श्री गजानन विजय ग्रन्थ ॥


157
मत्ृ यि
ु ोकके सब प्राणी गचग्न्तत ोंगे। तुम् ारा नाम मे ताब (चिंद्रमा ) ै , ग्जसका काम ै अिंधकार का नाश करना,
उनकी तो मयािदा का स्मरण रखो।

ऐसा सिंकेत लमिनेपर म े ताबशा को बड़ा सिंतोष ु आ, तयोंकक साधु ी साधु को प चान सकते ै । जब म े ताबशा को
ताडन ककया तब साथके यिन िोग ि दे खकर घबरा गये। तब उनको म े ताबशा ने क ाूँ ," तम ु िोग मारे साथ
न र कर कुरुम चिे जाओ, य ी ठीक ोगा।शेख कडू को छोड़कर बाकी सब यिन कुरुम िापस चिे गये। इस समय
ब्चि
ू ाि म ाराजको र्नमिंबत्रत करने ि ाूँ आया। उसने क ाूँ," दयार्नधान, कि मेरे य ाूँ भोजन करने पधाररये।
दसू रे हदन तािंगेमे बबठाकर म ाराजको बड़े जुिस ू के साथ घम ु ाते ु ए उसने उन् ें अपने घर िाया। ककिंतु समथि तािंगेसे
र्नचे न ीिं उतरे ग्जससे िोग बड़े गचग्न्तत ु ए। तािंगा िैसे ी पीछे िे गये। सब िोग बबचार करने िगे की म ाराजने
कि र्नमिंत्रण स्िीकार ककया और आज तािंगेसे न ीिं उतरे , तया कारण ै ? तब उनमेसे एक बवु द्धमान व्यग्तत था,
उसने उसका कारण इस प्रकार बताया की, म े ताबशा को म ाराजके साथ न ीिं बि
ु ाया य ी कारण ै। सबको य
जूँ च गया तब दोनोंको एक तािंगेमे बबठाकर घम ु ाते ु ए िाया गया और म े ताबशा को मिंहदरके पास एक ना्कग ृ में
उतारा और म ाराज श्रीरामके मिंहदर में उतरे । बादमे िो भी उठकर नाट्यग ृ में चिे गये। सबने भोजन ककया तब
म े ताबशा ने िोगोंसे क ाूँ कक," पिंजाब का ह्क् क्ा दो। " तब कडुने क ाूँ," आप भिा कुरुमकी मग्स्जदको छोड़कर
तयों जाते ो ? तब म े ताबशा शेख क़डूसे क ने िगे," मझ
ु े गजानन म ाराजकी आज्ञा पिंजाब जानेकी ो गई ै
सो मैं एक क्षण भी अब य ाूँ न ीिं र ूूँगा, व्यथि का आग्र न करो।

॥ श्री गजानन विजय ग्रन्थ ॥


158
सिंतोंके पास धमिविषयक द्िैत कभी न ीिं ोता। िे सब धमोंको समान मानते ै । मिंहदर और मग्स्जदका व्यथिका
वििाद तम
ु िोग मत बढ़ाओ, उसके बढनेसे ी दोनोंको ानी ोगी। मिंहदर और मग्स्जद बनानेकी सामग्री एक ी ोती
ै , केिि आकर लभन्नतासे, लभन्नता मानकर झगड़ा करना व्यथि ै । यिन मात्र ख़द
ु ाका ै तो तया ह द
िं ू भत
ू का ै
? मानिता ग्स्थर करनेके लिये स्िस्थ विचार आिश्यक ै । ह द
िं ू और मस
ु िमान एक ी ईश्िर की सिंतान ै । ग्जसका
ु ार चिना चाह ये ककिंतु विधमि पर भी प्रेम करना चाह ये।
धमि प्राणोंसेभी वप्रय मानकर तदनस ऐसा सोचें गे तो ी
दोनोंका कल्याण ै। जाओ, गजानन म ाराज की कृपासे मसग्जद का काम पण
ू ि ोगा। " ऐसा क कर म े ताबशा
पिंजाब चिे गये और किर िौ्कर इधर कभी न ीिं आये। इस कथा का तात्पयि य ी ै की म ाराजने म े ताबशा की
ताड़ना की ककिंतु उनपर अतू् प्रेम भी था। अतः म ाराजका परधमिपरभी प्रेम था। िे अकेिे मे ताबशा को छोड़कर
भोजन करने न ीिं गये। ये सब प्रमाणोंका विचार आिश्यक ै। अस्तु।

इधर बापरू ाि की पत्नीको भानामतीकी बाधा थी। घड़ीमे उसके लसरपर मि पड़ता कभी गिा तप्त ोता। घड़ीमे
कपडे जि उठते थे। कभी भल्िातक तैि की िकीर पीठ तक उठ आती। कभी अ्ारीपर रखा चीर जि जाता। ऐसी
अनेक भयानक यातनाएूँ ोती थी। इस भानामतीके तक़िीफ़से ि बापरू ाि की पग्त्न बड़ी त्रस्त थी, व्यगथत थी।
उसे अन्नपान, भोजनाहद में रूची न ीिं र गयी थी। बापरु ािने एक ओझा और जानकार िोगोंको बताया, ककन्तु कोई
िाभ न ीिं ु आ। अन्तमे उसने गजानन म ाराज की शरण िी। क ने िगा, "म ाराज मेरी पत्नी भानामतीके
तक़िीफ़से त्रस्त ै । उपाय करके मैं थक गया ूूँ । आपके चरण मेरे घर पर आनेके बाद भिा भानामती य ाूँ कैसे
र सकती ै ? ज ॉ कस्तरू रका पररमि पररिालसत ो, ि ाूँ दग
ु ध
ं कैसी ?"य प्राथिना सन
ु कर म ाराजने कृपा करके
बापरू िकी पत्नीको भानामतीसे मत
ु त कर हदया। भिा केसरीके सामने मकि् र सकता ै?

॥ श्री गजानन विजय ग्रन्थ ॥


159
एक बार म ाराज घमू ते ु ए नरलसिंगजी से लमिने आको् प ुूँ च।े उनके मठ के पास एक कुआूँ था। म ाराज उसपर
जाकर बैठ गए। पैर अिंदर डाि हदये और झक ु कर अिंदर झाूँकने िगे। िे अिंदरके जिको बारबार दे खते। उनकी इस
प्रकारकी कृती दे खकर सब िोग आशिंककत ो गये और नरलसिंग म ाराजने पछ
ू ा,"अरे , ये तया कर र े ो?"उसपर
म ाराजने उत्तर हदया की गोदािरी और जमन
ु ा आपके लिये य ाूँ ै और इसमे ककतने तीथि ै ि दे ख र ा
ूूँ ।
आपको इनका र्नत्य स्नान लमिता ै । किर मैं तयों ििंगचत र ूूँ?इन तीथोने मझ ु भ
े ी आज स्नान कराना चाह ये। उसमे
स्नान ककये बबना मैं य ाूँसे न ीिं ह िूँ ग
ू ा। य सन
ु कर कई िोग बोिे," अरे य िास्तिमे पगिा िगता ै शेगाूँि कैसे
इनके पीछे पड़ा ै ? ठ रो, दे खते ै , आगे तया करता ै ।" थोड़ी दे रमें चमत्कार ऐसा ु आ की कूँु ए का पानी बढ़कर
उपरकी ओर बढ़ने िगा। क्षणभरमें कुआूँ पानीसे मूँु तक भर गया। जारो िु ारे गजानन म ाराजपर पड़ने िगे।
तब गजानन म ाराज सब िोगोंसे बोिे," अरे स्नानके लिये आये ो अब स्नानके लिये कूँु ए में उतरनेकी जरूरत
न ीिं। गिंगा, जमन
ु ा, गोदािरी ये ऊपर आई ै , सो स्नान करके पण्
ु य िाभ िो। इन पण्
ु य सररताओिंका िाभ िो।
भाविकोने स्नान ककया और र्निंदकोंकी गदिन शमिसे झक
ु गई। सिंतजन जो मनमें सोचते ै, ि उनकी मनोकामना
चिपाणी भगिान पण
ू ि करते ै। उनकी िाणी कभी असत्य न ीिं ोती। स्नान ोनेपर समथि ि ाूँसे उठे और कूँु एका
पानी किरसे पि
ू ि
ि त ो गया। उबाि िु ारे बिंद ो गई। नरलसिंगजी को लमिकर दयाघन िायि
ु ग
े से मनरूपी अश्िपर
बैठकर शेगाूँि चिे आये। य दासगणू विरगचत श्री गजानन विजय ग्रन्थ सिंसाररूपी समद्र
ु से भविकोंको तारनेिािा
ो।

॥शभ
ु िं भितु। श्री रर रापिणमस्तु ॥
|| इर्तश्री गजानन विजय ग्रन्थस्य सप्तदशोध्याय समाप्त ||

॥ श्री गजानन विजय ग्रन्थ ॥


160
|| अध्याय – १८ ||

श्री गणोशाय नमः! े गोवििंद, श्रीर्निास, परे श, आनिंदकिंद, गचद्वििास, दीनबिंध!ु आपकी जय ो। े केशि केशरी
असरु को मारनेिािे माधि (मा-नाम िक्ष्मी के धि-नाम पर्त) मधस
ु द
ू न (मधु दै त्य का नाश करनेिािे) पत
ू ना के
प्राण का शोषण करनेिािे, रुग्तमणीपती पािंडुरिं ग, मेरे मन में तया ै ि आप जानते ो। तया ि मझ
ु े बोिकर
बताना ोगा? े पद्मनाभ! (पद्भ-नाम कमि ग्जसकी नालभ से र्नकिा ै ।) भतत जो इ्छा करता ि आप पण
ू ि करते
ैं, ऐसा ब ु तायत िणिन परु ाणों में ै । इसलिए मन की कठोरता छोडकर इस दासगणू के मनोरथ पण ू ि कररये। ि
तम्ु ारा ी ै । आको् के पास में मिंड ु गाूँि एक दे ात ै । ि ािं पर बायजा नामक एक तरुणी म ाराज की भतताणी
थी। िदी मािी के ििंश में इसका जन्म ु आ था। इसके वपता का नाम लशिराम और माता का नाम भि ु ाबाई था।
बायजा का वििा तत्कािीन प्रथा के अनस ु ार बाल्यकाि में ी ो गया था। जब ि तरुण ु ई तब उसके वपताने
उसे जामात के घर िे जाकर प ुिं चा हदया। ककिंतु जामात नपिंस
ु क था, जो जानकर बायजा के माता वपता को म ान ्
शोक ु आ। बायजा कक ओर दे खकर भि ु ाबाई रुदन करती थी कक मेरी पत्र
ु ी की तरुणाई व्यथि ै , य बाझ ी र े गी।
ऐसा दे खकर भि
ु ाबाई ने लशिराम से क ा, ‘बायजा को ऐसे ी मत रखो, इसको दस ू रा पर्त दे खकर वििा कर दो।
लशराम ने क ा, धैयि मत छोड़ो, परु
ु षत्ि का मामिा जल्दी न ीिं समझ सकता। कुछ हदन रास्ता दे खेंगे, ऐसी अधीर
मत बनो। कुछ हदन बायजा को ससरु ाि में रखकर दे खेंगे। इसका नपिंस
ु कत्ि यहद व्यागधजन्य ै तो औषगधयों से
ठीक ो सकता ै।

॥ श्री गजानन विजय ग्रन्थ ॥


161
दोनों ने ऐसा र्नश्चय करके बायजा को उसके ससरु ाि रखकर िो दोनों मिंड
ु गाूँि िौ् गये। बायजा सोि िषि की थी।
िणि तो उसका श्यामि था, ककिंतु बडी आकषिक और तारुण्य-िािण्यत
ु त थी। नेत्र और नालसका बडे पानीदार, सभी
अियि बडे सिंद
ु र और पररपष्ु ् थें उसको दे खते ी कामक
ु व्यग्तत में उसके प्रर्त िासना प्रबि ो जाती। बायजा को
दे खकर उसके जेठ का मन उससे सिंभोग के लिए विचलित ो उठा। उसने नाना प्रकार के प्रयत्न ककये। उसका मन
ब काने के लिए बार-बार उससे क ने िगो, ‘अरे ऐसी ताश मत ो, मैं तुम् ें पर्त के रूप में ूिं और आमरण तुम् ारा
पािन, पोषण करूिंगा। व्यथि की गचिंता छोड दो, प्रसन्न ोकर मझ
ु े ी अपना पर्त समझो। इस प्रकार अनेक यग्ु तत
प्रयग्ु तत से िोभ बताकर उसका मन पि्ाने का प्रयत्न ककया। ककिंतु उसका कुछ उपयोग न ीिं ोता था। बायजा
अपने मन में क ती े भगिान! मैंने बचपन से ी आपका आश्रय लिया ै , किर य दै न्य कैसा? तया मेरे भग्तत
का य ी िि ै ? मैंने ग्जससे पाणणग्र ण ककया ि परु
ु ष न ीिं ै अथाित ् मेरे भानय में सिंसार न ीिं ै। य ठीक ी
ु आ, अब आपके चरणों में गचत्त सदाके लिए रमण करे गा। ककिंतु शेषशायी ऐसी कृपा कररये कक अब मेरे शरीर को
परुु ष का स्पशि न ो। एक हदन उसका जेठ रात्री के समय अपना े तु बताने बायजा के पास गया, तो बायजा ने
उसे नकार हदया और क ा, तया तम्ु ें र्तिभर भी िज्जा न ीिं आती? मैं तम्
ु ारी ब ु त के समान ूिं , तम
ु मेरे वपता
के समान ो। ऐसा अविचार छोड दो। इस प्रकार बायजा के क ने पर भी ि अपने कुकमि से पराित्ृ त न ु आ।
उसके मन में प्रबि काम िासना थी, सो जब ि उस पर ाथ डािने का प्रयत्न करने िगा, उसी समय उसका बडा
पत्र
ु िेिी से गगर पडा।

॥ श्री गजानन विजय ग्रन्थ ॥


162
उसके मस्तक में बडा घाि ो गया, तब बायजा ने उसे अपनी गोद में उठाकर उसे औषगध िगाने िगी। तथा अपने
जेठ से बोिी, इस घ्ना पर विचार करो, परस्त्री की अलभिाषा का पररणाम बरु ा ोता ै । िडका गगरने के कारण
ि डर गया और अपने कम का उसे पश्चाताप ोने िगा। उसने उसका पीछा छोड़ हदया। कुछ हदनों के बाद लशिराम
अपनी कन्या बायजा को मिंड
ु गाूँि िे आया, तब भि
ु ाबाई अपने पर्त से बोिी, चलिये, म िोग शेगाूँि जायेंगे और
ि ािं गजानन म ाराज से अपनी इस पत्र
ु ी का भविष्य पछ
ू ें गे। य लशिराम के मन भा गया और ि अपनी पत्र
ु ी और
पत्नी के साथ शेगाूँि आया। बायजा को म ाराज के चरणों पर डािकर, प्राथिना की, ‘म ाराज! इस कन्या को पत्र
ु -
पौत्राहद ोने का आशीिािद दीग्जये।’ य सन
ु कर समथि िं से और बोिे, ‘अरे ! विधाता ने इसके भानय में पत्र
ु न ीिं लिखा
ै । सिंसार में ग्जतने परु
ु ष ैं ि सब इसके वपता ै , अतः इसकी शादी करने के झिंझ् में मत पडो। य सन
ु कर
लशिराम को बडा दख
ु ु आ और ि बायजा को िेकर िापस मिंडु गाूँि आ गया, ककिंतु म ाराज के िचनों से बायजा
को बडा आनिंद ु आ और उन िचनों के कारण उसके मन में म ाराज केतब से दृढ र्नष्ठा ो गई। समथि का एक
भतत पिंड
ु िीक नामक मिंड
ु गाूँि में र ता था और ि प्रर्तपक्ष शेगाूँि आया करता था, म ाराज के दशिनाथ। उसी के
साथ बायजा शेगाूँि आने िगी। प िी बार बायजा के माता वपता ने पिंड
ु िीक के साथ शेगाूँि जाने का कोई विरोध
न ीिं ककया। उनके मन में भािना ु ई की साधु के चरणों को इसने आश्रय लिया ै , सो ि ी इनका कल्याण करें गे।
ो सकता ै कक िे अपने जामाता को परु
ु षत्ि प्रदान करें , तयोंकक सिंतों के लिए कोई असम्भि कायि न ीिं।

य विचार कर िे स्िस्थ र े । अब बार बार पिंड


ु िीक के साथ बायजा शेगाूँि आने िगी, तो सिित्र ऐसा प्रिाद िैिा।
अरे , शेगाूँि का र्नलमत ै । यि
ु ािस्था में मनष्ु य का मन परमाथि मागी न ीिं ोता। बायजा भी तरुण ै । पिंड
ु िीक पण
ू ि
यि
ु ा ै । इनकी बारी केिि विषयभोग के लिए ै और कुछ न ीिं। परस्पर प्रेम ो गया। विषयसख
ु का चस्का िग

॥ श्री गजानन विजय ग्रन्थ ॥


163
गया, सो ि सख
ु भोगने के लिए दोनों ने िारी का र्नलमत्त ककया ै । पिंड
ु िीक यद्यवप कुणबी जार्त का ै , सो
बायजा का ाथ पकडने का अथाित ् वििा सम्बन्ध के योनय था, ककिंतु य मािी जार्त की ै , सो जार्त सम्बन्ध
की दृग्ष्् से इनको अिग करना ी चाह ए। िास्ति में दोनों का अिंतःकरण शद्ध
ु था। उसमें काम िासना जागत
ृ न ीिं
ु ई थी। भि
ु ाबाई बायजा से बोिी, ‘अरे तू रात हदन उस पिंड
ु िीक के घर तयों जाती ै ? इस तरुण अिस्था में भिा
तुम िोगों का परमाथि के साथ तया काम? ईख के खेत के पास र कर लसयार भख ू ा र सकता ै ? रा कडबा दे खकर
भिा बैि कभी खायें बबना र सकता ै ? अरे , मारे मिंु में कािीख मत िगा। भि
ु ाई ने अपने पर्त से क ा, इसको
इस अिस्था में मत रखो। कोई मािी का छोकरा दे खकर इसका पन
ु विििा कर दो। य इस पिंड
ु िीक के घर जाती
ै । सदा उससे बात करती ै , परस्पर दे खने पर इन दोनों का प्रेम उमड चिता ै । िो िोग सदाचार और सग्न्नर्त
के प्रेमी ोते ैं | भिा कभी चिंदन से दग
ु ध
ं र्नकि सकती ै ? इस प्रकार क कर भि
ु ाबाई, लशिराम बायजा और
पिंड
ु िीक भोकरे चारों जनें शेगाूँि म ाराज के पास आये और उसकी चरण ििंदना की।

पिंड
ु लिक को दे खकर दयार्नधान क ने िगे, ‘अरे , बायजा पि
ू ि जन्म की तम्
ु ारी ब न ै । यद्यवप िोक र्निंदा करते ैं
किर भी उसकी परिा न करके तुम दोनों सग््चदानिंद की भग्तत करो, उस बायजा का दरु ाि न करना, किर भि
ु ाबाई
से बोिा, ‘भि
ु े, इन पर व्यथि का दोषारोपण मत करो, ये पि
ू ज
ि न्म के भाई-ब न ै तथा इस बायजा को कोई पर्त
न ीिं ै , य इस सिंसार में प्रपिंच के लिए न ीिं आई ै । य इसी तर ब्रह्मचारी र े गी, जन्मभर, जैसे जनाबाई पिंढरपरू
में थी। इसको त्रस्त मत करो।’ जनाबाई ने नामदे ि को गुरु ककया था। य मारे शरण आई ै । मारी जनाबाई को
कोई भी कप् छि मत करो। इस प्रकार की म ाराज की बाणी सन
ु कर लशिराज का किंठ रुिं ध गया। उससे शब्द न ीिं
िू्ा। बाद में िो बायजाबाई को िेकर मिंड
ु गाूँि आया और कभी भी बारी के लिए प्रर्तरोध न ीिं ककया।

॥ श्री गजानन विजय ग्रन्थ ॥


164
म ाराज अपने भततों की सदै ि रक्षा करते ैं। इसकी कथा बताता ूिं । खामगाूँि में राजाराम किंिर नाम का एक
डात्र दिाखाने में अगधकारी था। उसको एक बडा व्रण ो गया। उसकी गचककत्सा के लिए बि ु ढाणा, अकोिा,
अमरािती बडे बडे ख्यार्तिािे गचककत्सक उस पर शस्त्र किया करने के लिए िाये गए। अनेक प्रकार की औषगधयािं
और िेप िगाये गये, ककिंतु ि व्रण शस्त्र किया के बाद भी बढता ी गया। उनके ज्येष्ठ बिंधु बडे गचिंर्तत ो गए।
उनका बिंधु शय्या पर व्यागध व्रण से तडप र ा था। व्रण-पीडा असह्या ो गई, अिंत में उसने विचार ककया कक अब
सद्गुरु शरण के बबना दस
ू रा कोई उपाय न ीिं हदखता। ि शय्या पडे पडे ाथ जोडकर प्राथिना करता। े सद्गुरुनाथ!
शीघ्र दौडकर आइये, अब इस बात का अिंत न दे णखये। श्रोतागण। ि इस प्रकार से अनन्य भाि से प्रर्तक्षण प्राथिना
करता।

रात के एक बजने के समय अिंधकारमय रात्री के जब रात्रजिंतु ककरि रि र े थे। लसयार जिंगि में भूँक
ू र े थे। ऐसे समय
में एक आ्छाहदत दमनी-ग्जसको बड़े उत्तम बैि जड़
ु े थे। ग्जनके किंठ में घिंघ
ु रू और घिं्ी थे, ग्जनका ध्िर्न ो र ा
था। दमनी के आगे पीछे पडदे पडे थे। ग्जनके किंठ में घिंघ
ु रू और घिं्ी थे, ग्जनका ध्िर्न ो र ा था। दमनी के आगे
पीछे पडदे पडे थे। दिाखाने के दरिाजे पर जब ि
दमनी आकर खडी ु ई तो डात्र शय्या में पडे पडे दे ख र ा था।
उस दमनी से एक ब्राह्मण उतरा और डात्र के घर का दरिाजा ख्ख्ाने िगा। डात्र के भाई ने दरिाजा खोिा
और आगन्तक
ु से प्रश्न ककया, ‘आप क ािं से आ र े ो?’ तब ब्राह्मण ने उत्तर हदया, मेरा नाम गजा ै और मैं
शेगाूँि से भभत
ू ी और तीथि िेकर आया ूिं । भाऊ किर को जो व्रण ो गया ै , ि विभर्ू त िगाकर तीथि वपिाइये।
अब बडी दे र ो गई ै , मैं िापस जाता ूिं , ठ रने को मझ ु े समय न ीिं ै । इस प्रकार तीथि और भभत
ू ी दे कर ब्राह्मण
चिा गया। बाद में भाऊ ने उसे ढूिंढने के लिए आदमी भेजा, ककिंतु गाडी तथा ब्राह्मण का कोई पता न चिा। भाऊ

॥ श्री गजानन विजय ग्रन्थ ॥


165
मन में गडबडा गया, तयोंकक घ्ना में कोई तकि न ीिं काम दे ता था। व्रण को भभत
ू ी िगा ते ी ि तत्काि िू्कर
उसमें से पीब ब ने िगा। एक घडी बीतने पर उस व्रण से सब पीब परू ा ब गया। दे णखये समथि की विभर्ू त का
प्रभाि ककतना ै ? भाऊ को नीिंद आ गई। आगे चिकर व्यागधव्रण ठीक ो गया और धीरे -धीरे अशग्तत नष्् ो कर
ि पि
ू ि
ि त ो गया। अब ि म ाराज के दशिन को शेगाूँि गया तब म ाराज उसे बोिे, ‘अरे ! तन
ू े मेरे गाडी के बैिों
को घास न ीिं णखिाई?’ य सािंकेर्तक भाषण सन
ु कर भाऊ गद्गहदत ो गया। ि जान गया कक रात को आनेिािा
ब्राह्मण मेरे गुरुदे ि गजानन ी थे, जो मेरे लिए खामगाूँि आये। उस व्यागध के शमन वप्रत्यथि किंिर ने अन्नदान
ककया। ऐसे सिंत अिंतज्ञािनी ोते ैं। गजानन म ाराज इस तर अपने भततों का कल्याण करते थे।

एक बार समथि स्िामी श्री गजानन चिंद्रभागा तीर के भगिान विठ्ठि को लमिने पिंढरपरू गए। साथ में कईं
भततगण थे। िारी का समय था, सो विशेष गाडडयािं छू् र ी थीिं। म ाराज के साथ जगु आबा, री पा्ीि, बापन
ु ा
काळे और कईं िोग थे। ये सब िोग शेगाूँि से र्नकिकर नागझरी प ुिं च।े य नागझरी शेगाूँि के पास ै । ि ािं एक
भू वििर में गोमाजी नामक साधु ने समागध ग्र ण की ै । य ािं पर सदै ि ब नेिािे स्त्रोत (झरने) ैं। इसलिए इस
गाूँि का नागझरी पडा। ये गोमाजी म ाराज म ाद जी पा्ीि के गुरु थे और इन् ोंने शेगाूँि के पा्ीि ििंश को
आशीिािद हदया। इसलिए शेगाूँि के पा्ीिगोमाजी की ििंदना करके पिंढरपरू जाते ैं। इस प्रकार पररपा्ी के अनस
ु ार
सब िोग नागझरी जाकर गोमाजी म ाराज को ििंदन करके रे न में बैठकर पिंढरपरू के लिए चिे। रर पा्ीि के साथ
स्िामी समथि थे और दस
ू रे पािंच पचास आदमी थे। आषाढ शद्ध
ु निमी का ि हदन था। ब ु त से िारकरी िोग पिंढरपरू

॥ श्री गजानन विजय ग्रन्थ ॥


166
में जमा ोने िगे। श्रोतागण, आकाश में मेघ छाकर क ीिं क ीिं िषाि ो र ी थी। भ-ू बैकिंू ठ पिंढरपरु में जन समद
ु ाय
उमड पडा था। जैसे समद्र
ु में ज्िारभा्ा उमड पडता ै । प्रदक्षक्षणा मागि में बडी भीड थी। ताि की नाद में भततगण
‘जय जय रामकृष्ण री’ की धन
ु बडे उ्च स्िर में गा र े थे। ककसी का शब्द ककसी को सन
ु ाई न ीिं पडता था। ऐसे
अत्यानिंद व्याप्त था ग्जसका मैं क ािं तक िणिन करूिं? र्नित्ृ तीनाथ, ज्ञाननाथ, सािंिता, तुकाराम - गोरा किंु भार - तथा
सोपान दे ि और मत
ु ताबाई आहद की पािकीयािं पिंढरपरू में प्रविष्् ु ई और भततों के उडाये ु ए अबीर - गुिाि से
अिंबर में िािी छा गई थी। सि
ु ास सिित्र िैि र ा था।

तुिसी और िूिों की ब ु तायत थी। ऐसे समय में म ाराज पढिं रपरू प ुिं चे और कुकाजी पा्ीि के बाडे में ठ रे । य
बाडा प्रदक्षक्षणा मागि चै रास्ते पर ै । मिंहदर में बडी भीड थी। एक एक ाथ पर पलु िस िोग बिंदोबस्त के लिये खड़े
थे। भततगण भगिानका भजन करते दशिनको जा र े थे। एकादशीके हदन बापन
ु ा को छोड अन्य सब िोग दशिन
करने चिे गए। बाद में बापन
ू ा भी जल्दी से दशिन के लिए दौडा। मिंहदर में इतनी भीड थी कक गचिं्ी का भी प्रिेश
कठीन था। बापन
ू ा कैसे दशिन को जाए किर गरीब भी था। मन में ि क ने िगा, ‘ े ऋवषकेश (हृवषका नाम-इिंहद्रयािं
उनका ईश अथाित ् स्िामी) विठ्ठि, आप तयों कठोर ो गए? मझ
ु े दशिन दो। तुम सािंिता मािी के लिए जिंगि में
दौडकर गए उसी प्रकार इस गरीब को मिंहदर से मझ
ु े दशिन दीग्जए। े पािंडुरिं ग ‘अरण’ तो आठ कोस था। य मिंहदर
तो अत्यिंत समीप ै और मैं रास्ते में खडा ूिं । िोग क ते ैं, तम
ु अनाथों के नाथ ो। किर मझ
ु अनाथ से तयों मिंु
मोड लिया। ऐसी बडी प्राथिनास की और अिंत में बापन ु ा ताश ोकर अस्त समय डेरे पर िौ् आया। मख ु कािंती
मलिन ो गई थी। मन मिंहदर के चतकर िगा र ा था। ध्यान विठ्ठि के दशिन में िगा था। शरीर य बाडे में था।
बापन
ु ा को दे खकर िोग िं सने िगे और क ने िगे, ‘य पिंढरपरू दशिन को आया और गाूँि से किरकर ी िौ् गया।

॥ श्री गजानन विजय ग्रन्थ ॥


167
कैसा दद
ु ैि ै ! य ािं आकर भी श्रीपर्त के दशिन न ीिं कर पाया, य दािंलभक ै ।’ कुछ बोिे, ‘बापन
ु ा को सब िेदािंत
ज्ञान ै सो ि ककस लिए मिंहदर में दशिन को जायेगा? उनका भगिान सदै ि हृदयग्स्थत ै । मिंहदर के पत्थर के दे ि
में दे ि क ािं? ऐसा िेदािंत का मत ै। म सब िोग पागि ैं, जो कष्ठ उठाकर दशिन को जाते ैं। बापन
ु ा का दे ि
रास्ते में खडा ै ।’

तब एक ने क ा! “‘किर य ािं ये ककसलिए आया ? तया शेगाूँि में उसका ईश्िर न ीिं लमिता। अरे , ये िेदािंती
िोग अन्य िोगों को ज्ञान का उपदे श दे ते ैं, ककिंतु इनको स्ियिं को कोई अनभ
ु र्ू त न ीिं ोती। सगुणोपासना पण
ू ि ोने
पर किर ज्ञान ोता ै , तयोंकक बाल्यािस्था के बबना तया तरुणािस्था आ सकती ै ?’ इस प्रकार से िोग उसका
उप ास करने िगे। सब िोगों के सामने बेचारा अकेिा तया करता? बापन
ु ा मिंु बिंद करके भख
ू ा ी बैठा था। म ाराज
िे्े ु ए सब दे ख र े थे। सन
ु कर म ाराज बोिे, ‘बापन
ु ा आओ, मैं तम्
ु ें रुग्तमणण रमण से लमिाता ूिं ।’ तयोंकक गरीब
जनों कक दया साधु को ी ोती ै । ग्जनको सत्यसिंगर्त प्राप्त ोती ै िो ी िास्ति में भानयिान ैं। ऐसा बोिकर
म ाराज कमर पर ाथ रखकर, पैर जोड कर खडे ु ए! तुिसी और िूि की मािायें गिे में सिंद
ु र कृष्णिणि मर्ू ति
बापन
ु ा को हदखाई पडी। उसने चरणों पर मस्तक रखा। किर ऊपर दृग्ष्् उठाकर दे खता ै तो समथि हदखाई पडे,
ग्जससे बापन
ु ा को बडा आनिंद ु आ। वपतािंबर जो बापन
ू ा को हदखा मिंहदर से जाने पर उसे ि ी िेष हदखाई पडा। बाकी
और िोग म ाराज से बोिे, ‘म ाराज! बापन
ु ा के समान म िोगों को भी दशिन करिाइये।’ सन
ु कर म ाराज ने क ा,
‘अरे , प िी बापन
ु ा के समान मन बनाओ तो दशिन करिाऊिंगा। तया दशिन बाजार में बबकता ै ? मन र्नष्पाप करो

॥ श्री गजानन विजय ग्रन्थ ॥


168
तो अिश्ि दशिन ोगा।’ दे णखये, बापन
ु ा को म ाराज ने कुकाजी के बाडे में साक्षात ् विठ्ठि के दशिन करिाये, सिंतत्ि
खेि न ीिं ै । सिंत तथा भगििंत अिग न ीिं ै , जैसे मधरु ता और गड
ु पथ
ृ क न ीिं ककये जा सकते। कािा िेकर सब
िोग पीछे आये, बापन
ु ा के अिंतर में श्यामि मर्ू ति बस गई। बाद में उन् ें पिंढरी के कृपा प्रसाद से चतुर-रलसक और
विद्िान पत्र
ु उत्पन्न ु आ, ग्जसका नाम बापन
ु ा ने नामदे ि रखा।

मन नदी के ककनारे शेगाूँि से उत्तर की ओर किठा ब ादरू नामक एक दे ात ै । ि ािं का र नेिािा एक


मािाधारी-िारकरी बरार का ोने से कुकाजी के बाडे में पिंढरपरू में उतरा। उस समय आषाढी द्िादशी को ि ािं (कॉिरा)
प्रकोप था। तब पछ
ू ो मत प्रेम के पीछे प्रेम जाने िगे। र घर में जाकर डात्रों के ु कुम से पलु िस िोग याबत्रयों
को गाूँि से र्नकािने िगे। याबत्रअयों को खोजकर जबरदस्ती गाडडयों में बैठाते और चिंद्रभागा नदी के पार करते
कुडुि
ि ाडी के तरि जाने को! य किठे ब ादरु का िारकरी विषगू चक से आिािंत ो गया, तयोंकक य सिंसगिजन्य रोग
ैं उसको रे चे और उि्ी ोने िगी जो रुकती न ीिं थी। उसके ाथ-पैरों से िात आने िगा। शेगाूँि के िोग जाने के
लिए उद्यत ो गए। पलु िस के डर के मारे ककसी ने य ित्ृ तािंत उन् ें न ीिं बताया। एक घडी में सारा बाडा खािी ो
गया। सिंक् समय में कोई काम न ीिं आता। सारे जन सख
ु के सिंगी ोते ैं। दख
ु में बबल्कुि त्याग दे ते ैं। ऐसे
समय केिि ईश्िर या सिंत ी स ायता करते ैं। य दे खकर गजानन म ाराज बोिे, ‘य ओ्े पर सोया ै इसे िे
चिो।’ तब िोगों ने क ा, ‘गुरुदे ि! य प्रायः मर गया ै । इसको साथ िेने पर सिंक् आ सकता ै । अपने साथ
पचास आदमी ैं, पिंढरपरू में कॉिरा बडी जोर से िैिी ै , अतः ठ रना खतरे से खािी न ीिं। जल्दी से चलिये,

॥ श्री गजानन विजय ग्रन्थ ॥


169
चिंद्रभागा के आसपास चिे जायें।’ तब म ाराज बोिे, ‘अरे , तम
ु िोग बौरा गये ो, तया अपने दे शबिंधु को ऐसी
अिस्था में छोडकर जाते ो?’ ऐसा क कर म ाराज उसके पास गये, उसको उठाकर बबठाया और मधरु िाणी से
बोिे, ‘भैय्या, चिो, उठो अब में अपने गाूँि बराड जाना ै ।’ तब िारकरी ने उत्तर हदया, ‘गुरुदे ि! अब का े का
बराड जाना?

अब तो मारा अिंतकाि समीप आ गया िगता ै ।’ तब म ाराज बोिे, ‘अरे पागि! डरते तयों ो? तम्
ु ारा
विघ्न ्ि गया।’ ऐसा क कर उसके लसर पर ाथ रखा। म ाराज का िरद स्त लसर पर िगते ी उसकी रे च और
उल््ी बिंद ो गई। ककिंगचत शग्तत मािम
ु पडी, सो ि उठकर खडा ु आ। तब म ाराज ने उसका ाथ पकडा, किर
भिा यमराज अपने मन से उसे कैसे िे जाता? घडी भर में ि स्िस्थ ो गया और सबके साथ चिंद्रभागा के पास
समथि आ गया। उसको अपार आनिंद ु आ। य म ाराज की चरण ििंदना करके क ने िगा, ‘दयाि!ु आपने मझ
ु े
यमराज की दाढ से र्नकाि लिया।’ ऐसा चमत्कार ोने पर सब भततगण म ाराज की जयजयकार करते ु ए र्नभियता
से कुडुब
ि ाडी प ुिं च गए। इस प्रकार श्री गजानन म ाराज के साथ सब िोग पिंढरपरू की िारी करके शेगाूँि प ुिं च।े एक
बार एक कमिठ ब्राह्मण गजानन म ाराज के दशिन को शेगाूँि आया। ि बडी दरू से म ाराज की कीर्ति सन
ु कर
दशिनाथि आया था। ि मध्िसिंप्रदायी था और उस सम्प्रदाय से छुआ छूत और सगु चता अशगु चता का बडा कडा र्नबंध
ै। ि म ाराज को दे खकर सोचने िगा, ‘मैं अकारण य ािं आया, इस पागि की ििंदना करने। ये तो भ्रष््ाचाररयों के
लशरोमणी मािम
ु पड़ते ैं। ककसी प्रकार की शगु चता, अशगु चता न ीिं। अनाचार का साम्राज्य ै ऐसे पागि को िोग

॥ श्री गजानन विजय ग्रन्थ ॥


170
साधु क ते ैं, बडे आश्चयि की बात ै । उस समय मठ में एक कािे श्िान का शि आने-जाने के मागि में पडा था।
उसको दे खकर ब्राह्मण और णखन्न ो गया। सोचा, अब मैं पानी कैसे िाऊिं? रास्ते में य श्िान मरा पडा ै । इसको
कोई उठाता न ीिं ै । सदा गािंजा ििंू कते ैं इस पागि की ििंदना करते ैं और म ाराज म ाराज क ते ैं।

ऐसे साधत्ु ि का नाश ो। मझ


ु े क ािं से बवु द्ध ु ई, इसके दशिन करने की? उसका सिंशय नष्् करने को म ाराज
उठकर ब्राह्मण ज ािं खडा था, ि ािं आये और क ने िगे, ‘अरे ! आप यथाित पज
ू ा कररये। य श्िान मरा न ीिं ै,
बबना िज शिंका न करो।’ तब ि िोगधत ोकर क ने िगा, ‘अरे ! मझ
ु े तुम जैसा पागिपन न ीिं ु आ ै । इस श्िान
को मरे एक प र ो गया ै , उसका शि रास्ते पर पडा ै । इसका कोई विचार तुम में न ीिं ै। य सन
ु म ाराज ने
उत्तर हदया, ‘भई! म िोग तो भ्रष्् ैं, मको आपके जैसा ज्ञान न ीिं ै , ककिंतु र्तिमात्र शिंका न करो, मेरे साथ
पानी िाने के लिए गगरी िेकर चिो।’ ऐसा क कर पण्
ु यराशी उस श्िान के पास गए और उसको चरणस्पशि ककया,
तो ि श्िान तुरिंत उठकर बैठ गया। य चमत्कार दे खकर ब्राह्मण र्नरुत्तर ो गया और म ाराज का अगधकार
अत्यिंत श्रेष्ठ ै , सो जान गया। ये दे िता ी ै । योनयता न जानकर मैंने व्यथि में र्निंदा की, ऐसा क कर म ाराज
के चरणों को पकड लिया, ‘गुरुियि! मेरे सारे अपराधों को क्षमा करो! मेरे शीश पर िरद स्त रणखये,मैंने अनिंत अपराध
ककए ैं। आप आचरण सह त शगु चभत
ूि ो। जगत का उद्धार करने के लिए आपने अितार धारण ककया ै । श्रोतागण
उसने यथाित म ाराज की अचिना की! उसके मन की शिंकाएिं नष्् ो गई। ि अत्यिंत िीनता से आराधना करके

॥ श्री गजानन विजय ग्रन्थ ॥


171
प्रसाद िेकर अपने दे श को िौ् गया। समथि साक्षात ् भगिान ैं, ऐसी प्रगचत्ती उसे ो गई। य दासगणू विरगचत
श्री गजासनन विजय नामक ग्रिंथ भाविकों को सन्मागि में िगाए य ी दासगणू की इ्छा ै।

।। शभ
ु िं भितु भी रर रापिणमस्तु।।

|| इर्त श्री गजानन विजय ग्रिंथस्य अष््दशोऽध्यायः समाप्तः।।

॥ श्री गजानन विजय ग्रन्थ ॥


172
॥ अध्याय़ - १९ ॥

श्री गणेशायनम: े आनिंद्किंद समभािदशी, मैं आपके चरणकमिोंमें अनन्य भािसे नमस्कार करता ूूँ । े
रघप
ु ती राघि! आणखर आप मेरी ककतनी परीक्षा दे खना चाह्ते ैं कुछ समझ न ीिं आता। जो म ान ोते ै उनको
कठोरता शोभा न ी दे ती। इसपर कुछ विचार कीग्जये। मैं दीनता से आपको पक
ु ार र ा ूूँ । े जगत्पर्त ! मझ
ु े धोखा
मत दीग्जये । एििं मझ
ु पर कृपा कीग्जये।
एक बार म ाराज शेगाूँि में थे। उस समय कालशनाथ गदे , जो खिंडरे ाि का पत्र
ु था म ाराज के दशिनको शेगाूँि
आया। मर्ू ति दे खकर उसको बडा आनिंद ु आ । उसने समथि चरणों को ििंदन ककया। उसने मन में विचार ककया कक
मेरे वपताजीने ग्जिन्मत
ु त के जो िक्षण अनभु ि से लिखे ैं उनकी साक्षात मर्ू ति म ाराज ैं । मेरा भानय धन्य ै ,
जो खामगाूँि से मैं म ाराज के दशिन को आया। ि साथिक ो गया । तब समथि ने िीिा की। उसपर कृपा करने
े तू कु नीसे उसकी पीठपर धतका हदया और बोिे, ’ जा तेरा मनोरथ पण
ू ि ोगा । तारिािा तेरी बािं् दे ख र ा ै ।’
इसका अथि तया ? य र स्य उसे सि
ु झा न ीिं और म ाराज को पछ्
ू ने का सा स उसे ू आ न ीिं सो चरणििंदना
करके खामगािंम चिा गया । उसे ि ाूँ प ुिं चते ी तारिािे ने तार उसके ाथ में दी। का े की तार ै ? ि खोिकर
दे खा तो पता चिा कक उसकी र्नयग्ु तत मोशी तािक ु े में मन
ु लसफ़ रूप में की गयी ै । य दे खकर उसे अत्यिंत आनिंद
ु आ और कु नी के धतकेका और म ाराज के कथन की मिंशा समज में आई, दे णखये, सिंतोंका ज्ञान ककतना अगाध
ोता ै !

॥ श्री गजानन विजय ग्रन्थ ॥


173
एक बार समथि गोपाि बट्ट
ु ी के आग्र से नागपरू से गये । नागपरू पि
ू क
ि ाि में भोसिे राज्य की राजधानी थी ।
ककन्तु आज उस नगर की दै न्यािस्था ो गई ै । स्िातिंत्र्यरूपी प्राण र्नकि गया, जो िास्ति में स्िामी थे िे याचक
ो गये और विदे शीयों की सता इस नगर ो गई । हठक ै ’कािायतस्मै नम:’ य काि की मह मा ै । गोपाि
ब्
ु ी का बाडा लसताबडी विभाग में था । उस विशाि भिन में म ाराज को िे जाकर बबठाया जैसे ककसी भाघ को
वपिंजडे में बिंद ककया जाता ै । ब्
ु ी का ऐसा विचार था, कक म ाराज को य ाूँ सीताबडी ी रखा जाय । शेगाूँि न
जाने हदया जाय । जैसा अिूर ने भगिान कृष्ण को व्रजसे मथरु ा िे जाकर रखा, ऐसा ी प्रसिंग य ाूँ ु आ । शेगाूँि
सन
ू ा पड गया । सब िोग री पा्ीि से प्राथना करने िगे कक, म ाराज को य ाूँ िाओ । जैसे शरीर में से प्राण
चिे जानेपर शरीर प्रेत ो जाता ै , ि ी अिस्था शेगाूँि की ोई गई । आप गाूँि के अगधकारी ो । ब्
ु ी बडा
सा ु कार ै, मारी दाि उसके सामने न ीिं गि सकती । तयोंकक ाथी ी ाथी से ट्तकर िे सकता ै । ि ाूँ लसयार
की गर्त न ीिं चिती । जैसे िन्का में जम्बम
ु ािीसे िड्नेके लिए नम
ु ानजी ी योनय थे और कणिको ग्जतने के लिये
अजन
ुि ी योनय था, सो आप नागपरू जाकर म ाराज को िाकर सबको आनिंहदत कररये । इधर म ाराज भी ब्
ु ी के
घर मे विमनस्क ी थे । जैसे ग्स्तनापरू में श्री कृश्ण प्रसन्न न ीिं था । म ाराज ब्
ु ीसे बोिे, " मे शेगाूँि जाने
दो । इस विशाि भिन में मत रोको" । ककन्तु ब्
ु ी उस बातकी ओर कोइ ध्यान न दे कर ्ािता जाता था। ि
भतत जरूर था ककन्तु उसका घमिंड गया न ीिं था । ि ि ाूँ पर प्रर्तहदन ब्रा म्ण को भोजन करिाता ।

शेगाूँि के िोग ि ाूँ दशिन को जाते तो उन् ें जाने न दे ता । तयोंकक धर्नकों के घर अनज्ञ
ु ा बबना कोई जा न ीिं
पाता । शेगाूँि के कई िोग म ाराज को िाने गये ककन्तु उनका कोई उपाये न चिा । इधर री पा्ीि कुछ िोगों
को साथ िेकर म ाराज को िाने शेगाूँि से र्नकिे । उसी समय नागपरू में म ाराज ब्
ु ीसे बोिे, " अरे गोपाि !

॥ श्री गजानन विजय ग्रन्थ ॥


174
रर पा्ीि शेगाूँि से मे िेने र्नकि पडा ै , उसके य ाूँ आनेसे प िे में जाने दो, य ाूँ आनेपर शािंती न ी
र े गी, तयोंकक ि ठ रा अगधकारी ि बा ु बि से िे जाय्गा" । रर पा्ीि ि ाूँ प ुिं चे तब प रीिािे लसपा ी ने उन् े
रोका ककन्तु उसकी परिा न करके ि म ि में प्रविष्् ो गया । उस समय ब्रा म्ण भोजनके लिये ब्रा म्ण िोग
ि ा म ि मे आये थे । सबको चािंदी की थािीयािं और द्रव्पदाथोंके लिये चािंदी की क्ोरीयािं रखी गई थीिं । बैठ्नेके
लिये लससम िकडेके पीढे डािे गये थे । नाना प्रकार के पदाथि भोजनमें थे । मध्यस्थान में म ाराज को पीढे पर
बबठाया था । इस प्रकार बहु ्की धनाढ्यता का िणिन मैं क ािंतक करूिं ? उस समय उसे नागपरू का कुबेर क ाूँ जाता
था । जब रर पा्ीि भिनमें म ाराज को िेने प ुिं चे तो म ाराज दौडते ु ये उससे लमिने दरिाजेपर आये । जैसे
गाय बछ्डेके लिये दौड्ती ै । और बोिे," री ! चिो शेगाूँि चिते ैं । य ाूँ मझ ु े बबल्कुि न ीिं र ना ै । तुम
मझ
ु े िे जाने आये , ये बडा अ्छा ु आ" ऎसा क कर समथि जाने िगे, जो दे खकर ब् ु ीने चरण पकड्कर प्राथिना
की, "गुरुदे ि ! इस प्रकार कायि का विक्षेप न करें । दो कौर भोजन करके किर इग््छत स्थि को जाय ।" और रर
पा्ीि से विनय पि
ू क
ि प्राथिना की " आप भी प्रसाद ग्र ण करके किर जािंय । आप ी मेरी िज्जा की रक्षा कर
सकते ैं । यहद समथि अभी ी चिे गये तो सब िोग बबना भोजनके चिे जायेंगे और परू े नागपरू में मेरी र्निंदा
ोगी ।" उस प्राथना को स्िीकारकर म ाराज भोजन ोने तक ि ाूँ रुके । म ाराज के साथ शेगाूँि के सब िोग
पिंगत में बैठे । भोजनोत्तर जाने की तैयारी की गई । उस समय दशिनाथीयों की बडी भीड ु ई । बहु ्की पग्त्न,
ग्जसका नाम जानकीबाई था, ि परमभाविक थी उस ने म ाराज के चरण पकडकर प्राथिना की, "म ाराज! मेरा
मनोरथ मन के मनमे ी र जाना चाह्ता ै ।" सन
ु कर म ाराज ने उसके मस्तक पर किंु कूम र्तिक ककया और क ाूँ
, " मैंने तेरा मनोरथ जान लिया । तुम् े एक परम सदगुणी पत्र
ु ोगा और अन्त मे तुम सौभानयिती ी िैकिंु ठ को
जाओगी । इस प्रकार का आशीिािद दे कर दयाधन लसताबडी से र्नकि कर रघज
ु ी भोसिे के य ाूँ जानेको र्नकिे ।

॥ श्री गजानन विजय ग्रन्थ ॥


175
य रघज
ु ी भोसिे बडा उदार मन का राजा था, ग्जसने अपने शद्ध
ु आचरण से भगिान राम को प्रसन्न रखा था ।
उसका िौककक राज्य जो की अशाश्व्त ोता ै , चिा गया था ककन्तु अिौककक सदगरू
ु भग्ततरूप राज्य शाश्ित उसके
घर था । उसके म ाराजका उत्तम प्रकार का सत्कार यथाित ककया । प ु नाई की । तदनन्तर म ाराज राम्े क को
गये । ि ाूँ श्रीरामचन्द्र का दशिन करके री पा्ीि के साथ शेगाूँि के मठ आ गये ।"

धार कल्याण के रिं ननाथ स्िामी जो मोगिाई के प्रलसद्ध सिंत थे, शेगाूँि मे म ाराज को लमिने आये । उन दोनोने
सािंकेर्तक रूपसे अध्यात्म चचाि की , जो जानना िौककक िोगोंको असम्भ्ि था। श्री िासद
ु े िानिंद सरस्िती, ग्जनकी
ककनारे पर बडी प्रलसद्धी ै । ग्जनका जन्म के माणगाूँि नामक स्थान मेंु आ था, उनके आनेके प िे म ाराज
बािाभाऊसे क ाूँ ! " अरे बािा ! कि प्रात: काि मेरे एक बिंधू मझ
ु से लमिने आ र े ै । उनका आदर करना ।
िो बडे ी कमिठ ै , सो मागि में गचिंधी न रख्नना सब पररसर स्ि्छ रखो । यहद क ी गचिंधी हदख गई तो िे िोगधत
ोंगे । िो साक्षात जमदग्ननकी की दस
ू री प्रर्तमा ै । ि बडा शगु चभत
ूि , ज्ञानसिंपन्न कन् ाडा ब्रा म्ण ै । कमिठता
ी उसका किच ै । " इस प्रकार का र्नदे श बािाभाऊ को प िे हदन ी म ाराज ने रखा था । साधारण एक प्र र
के समय िासद ु े िानिंद सरस्िती मठ में प ुिं चे । एक दसू रे को दे खकर दोनो िं से और दोनों को बडा आनिंद ु आ । एक
कमिकाण्ड का सागर तो दस ू रा योगयोगेश्िर । एक सिंदु र मोगरा तो दस ू रा गुिाब िक्ष
ृ । एक भागीरथी गिंगा तो दसू रा
गोदािरी । एक साक्षात पशप
ु र्त शिंकर तो दस
ू रा शेषशायी नारायण ।

जब स्िामी मठमें प ुिं चे तो गजानन म ाराज पििंगपर च् ु की बजाते ु ए बैठे थे । उनके आते ी च्
ु की रूक गई ।
दोनों की दृष््ादृष्् ु ई तो स्िामीने जाने की अनम
ु ती मािंगी । गजानन म ाराज ने सिंम ी सच
ू क गदि न ह िाई और

॥ श्री गजानन विजय ग्रन्थ ॥


176
सिंकेत पाकर स्िामी चिे गये । स्िामीके चिे जानेपर बाि भाऊ को बडा आश्रय्यि ु आ। उसने पछ
ू ािं, " गुरूदे ि !
य दे खकर मेरे मनमें शिंका र्नमािण ुई ै , ग्जसका र्नराकरण कररये । इन िासद
ु े िानिंद का मागि अत्यिंत लभन्न ै,
किर आप इन् ें बन्धु कैसे क ते ै ?" य प्रश्न सन
ु कर म ाराज बोिे," तन
ु े बडा अ्छा प्रश्न ककया ै । ईश्िर के
तरि जाने के तीन मागि ैं । ये तीनों मागि ज्ञानरूपी गाूँि में जाकर लमिते ै । े राजस ! दे ख्ननेिािे को ये तीनों
लभन्न हदखाई पड्ते ै । ि ीपर गडब्ड ोती ै । शगु चता शगु चता सिंध्या, स्नान-व्रत-अनष्ु ठान त्तथा उपिासाहद कृत्य
कमिमागि ै । इन अिंगोंका पािन करनेिािा पर्थ
ृ िीपर कमिठ ब्रम् ािेत्ता क िाता ैं । इनमें यहद न्यन
ू ागधक ोता ै
तो य मागि न ीिं साधता अत: बडी सािधानी से आचरण करना चाह ये ।

इसमें और सािधानी य ाूँ बतिनी ै, कक कभी दस


ू रे को दरू
ु त्तर न ीिं करना चा ीये । अब भग्ततमागि के िक्षण
बताता ूूँ, सो सन
ु ो । भग्ततमागि का आचरण करनेिािे का गचत शद्ध
ु ोना चाह ये । थोडा भी मन मािीन्य भग्ततमागि
में न ीिं चिता । तयोंकक यहद मन मिीन ो र्त भग्तत र स्य क पतन ो जाता ै । इसमें सब प्राणीओिंपर दया-
भगिदचरण में िीनता, श्रिण, पज
ू नमें श्रद्धा, मख
ु से भगिाननाम का जप, य सब भग्तत मागि के अिंग ैं । इनका
जो सािंग आचरण करते ै उन् ें ी भगित दशिन ोता ैं । य अत्यिंत सरि मागि ै । दस
ू रे ककसी मागि से इसकी
तुिना न ीीँ की जा सकती ककिंतू आचरण करना अत्यिंत कहठन े तयोंकक ये कमिमागि से भी कहठन ै । जैसे आकाश
का सार्नध्य नेत्रो को हदखता ै । पर ि सग्न्नध न ीिं । अब तीसरा योगमागि बताता ूूँ , सन
ु ो ! योगमागि का
विस्तार इन दोनों से अगधक ै । परिं तु ये विस्तार ज ािंके ि ाूँ र ता ै । योग साधना के लिये बा र से कुछ न ीीँ
िेना पड़ता । जो ब्रम् ाण्ड में ै ि ी वपण्ड में ै । सो वपण्ड के साह त्यसे ी योगसाधन करना चाह ये । आसन-
प्राणायाम के अिंग परू क-किंु भक-रे चक । इडा वपनडिंिा के भेद, धौती त्तथा मद्र
ु ाहद, त्राट्काहद जानना आिश्यक ै ।

॥ श्री गजानन विजय ग्रन्थ ॥


177
किंु ड्िीनी तथा सष
ु म्
ु णा मागि रथ चिों का ज्ञान योग के साधक को ो तो ी योग साधन ो सकता ै । इन तीनों
मागों का अग्न्तम िि ज्ञान ी ै । ककन्तु ि ज्ञान केिि शष्ु क ज्ञान न ीिं, बल्की प्रेमयत
ु त अथाित रसयत
ु त ोना
चाह ये भगिान व्यास भागित में क ते ैं" ।
"नैष्कम्यि मप्य्यत
ु भाि िग्जितम ।"
न शोभते ज्ञान मििंर्नरिं जनम ।

जो जो कृत्य प्रेमरह त ै ि केिि श्रम मात्र ैं अत: तीनों मागि मे प्रेम आिश्यक ै । कृष्ण-गौर-ऊिंचा-बौना-
सन्
ु दर, कुरूप आहद उपागधय़ािं शरीर कक े । आत्मा को इनकी बाधा न ीिं । इसी प्रकार इन तीनों की ग्स्थती ै ।
यद्यवप इनके बाह्य स्िरूप लभन्न ै परिं तु इनका मि
ू स्त्रोत एक ी
ै । जैसे गन्तव्य स्थानपर प ुिं चनेपर मागि का
विचार न ीिं र ता । मनष्ु य ग्जस मागि पर चिता ै उसे ि ी म त्िपण
ू ि िगता ै । पिंथ चिने िगा, ककन्तु िक्ष्यपर
न ी प ुिं चा ऐसे िोगोंका ी सिंप्रदायभीमान से-पिंथलभमानसे ोता ै । इन तीनों मागिपर चि कर िक्ष्य पर प ुूँ चने
िािे सिंत ोते ै । उनमें किर द्िैत न ीिं र जाता । जैसे पष्ु पदन्ताचायि अपने मह मन में क ते ै ।
"त्रर्यसािंख्ययोग: पशप
ु र्तमतिंिष्ै णिलमर्त ।
प्रलभन्ने प्रस्थाने पररलमद मद: पर्थयलमर्त च ॥
रूचीनािं िैगचत्र्याद्द्जक
ु ु ह्ि नाना पथजुषािं ।
नण
ृ ामेको गम्य त्िमलस पयसािंमणिि इि ॥"

॥ श्री गजानन विजय ग्रन्थ ॥


178
अथाित िेदन्नयसािंख्य पाशप
ु तमत-िैष्ण्िमत-इस प्रकार के लभन्न लभन्न प्रस्थान केिि लभन्न लभन्न मागि मात्र ै ।
लभन्न लभन्न रूगचिािे िोगों के सीधे और ्े ढे मागि रूची के कारण ै । ककन्तु सबका गन्तव्य स्थान एक ी ोता
ै । जैसे सरि और िि मागि से ब नेिािी नहदयाूँ अन्त में समद्र
ु में ी जाकर लमिती ै ।

िलसष्ठ, िामदे ि,जमदग्नन, अबत्र, पाराशर, शािंडडल्य ये म वष कमिमागि से गन्तव्य स्थानपर प ुिं चे । व्यास-नारद-
प्र िाद- नमु ान-शबरी, अिूर, उद्धि, सद ु ामा-अजुन
ि और विदरु ये भग्तत मागि से भगिान को प्राप्त ु ए । गरू ु ियि
शिंकराचायि-मर्छिं द्रनाथ - गोरखनाथ-जाििंदरनाथ- ये योगमागि से चढे । जो िाभ िलशष्ठ को ु आ ि ी विदरु को ु आ
। मर्छिं द्रने भी ि ी भोगा । अत: ििमें िरक न ीिं । इस प्रकार की प्रथा आगे चिी ि ी कमिमागि की प्रथा का रक्षण
श्रीपादिल्ल्भने ककया । यर्तिर नरलसिं सरस्िती ऐसे ी आचारयत
ु त ो गये ग्जनका स्थान गाणगापरू में ै । बाडी-
औिंदब
ु र जगद्विख्यात ै । नामदे ि-सािता-ज्ञानेश्िर सेना कान् ू चोखा म ार- थानेदार दामाजीपिंत भग्ततमागि से गये
। श्रीगोंदा में शेख म िं मद,जािना में आनिंद स्िामी, सज ु ी अिंजनगाूँि में दे िनाथ योगमागी ै । ऐसे ी िासदु े िानिंद
सरस्िती कमि मागि में रत ैं । मैंने और कई अन्य िोगोंने भग्तत मागि का आश्रय लिया ै । पळुसके धोंडडबाबा
सोनगीर का नाना-जािनाके यशििंतराि इनको भग्तत मागि साध्य ु आ । दे खो, चािंदरु तािक
ु े का िरखेड गाूँि का
आडकुजी नामक सिंत इसी मागि से गया । मऱ्ु ा गाूँि के सिंत लशरोमणी णझिंगाजी, उसी प्रकार नागपरू के ताजुद्दीनबाबा
भग्ततमागिसे गये । इन सब सिंतोंको आचरण लभन्न प्रकारका ै । ककन्तु ये सब कैिल्य के अगधकारी ु ए । मागि
चा े कोई भी ो, उसको म त्ि न ीिं ै । जो िक्ष्यको प्राप्त कर िेता ै ि कौतुकास्पद ै । म सब बिंधु पर्थ
ृ िीपर
भाविकों को कैिल्यमागि दशिनके लिये ी आये ैं । ग्जसको जो अ्छा िगेगा ि उधर से जाएगा और मोक्ष्ररूप िि
प्राप्त करे गा, उस पिंथ का आचरण करके अब कुछ मत पछ
ू ना । य ककसीको मत बताना । में शािंती से य ाूँ बैठने

॥ श्री गजानन विजय ग्रन्थ ॥


179
दे । पागिपनी आडमे ग्जनकी र्नष्ठा मझ
ु पर ोगी ि मेरा ोगा । उसीका कायि ोगा औरोकी मे आिश्यकता न ी
ै । ग्जसको िैरानय ु आ ै उसीको ब्रम् ज्ञान बताना चाह ये । चाि् और तकि् को बतानेमें कोई िाभ न ीिं । ककसी
को कुछभी बोिने दो स्ििंयिं शािंत बैठना चाह ये तभी जगदगरू
ु , जगदात्मा, जगन्नाथ लमिते ै ।" य उपदे श सनु कर
बािाभाऊ के नेत्रोंमे अश्रध
ु ारा ब ने िगी । सारा शरीर रोमािंगचत ो गया । प्रेमाश्रओ
ु िं की बाढ ब नेसे रोक न सका ।
अष्ट्भाि उत्प्न्न ो गये और मन ी मन उसने म ाराज को प्रणाम ककया और िैखरी िाणी का कायि समाप्त ो गया
। ि जान गया कक, सदगुरू गजानन बराड का उद्दार करनेके लिये प्रग् ु ए ै ।

काण्िशाखा की सािब
ु ाई नामक एक ब्रा म्णी म ाराज की भततानी थी । एक हदन म ाराजने उसे क ािं, ’साि,ु आ्ा
और बेसन िेकर तिंू रातहदन रसोई करके आनेिािों को भोजन कराओ । इसीसे तुम् ें भगिान नारायण प्राप्त ोंगे ।’
य सािब
ु ाई मठ में अभी तक ै । इसका मायका बैजा परू का ै । ि ाूँ पर उसके िाडे-घोडे ै । प्रल् ाद जोशी को
कृपाका योग आया था ककन्तु उसके दभ
ु ािनय से ि उसे न ीिं ििा ।

खामगाूँि के पास जिम नाम का गाूँि ै । तुिसीराम नामक एक व्यग्तत ि ाूँ का र नेिािा था । आत्माराम
नाम का उसका पत्र
ु बडा कुशाग्र बवु द्धका था । उसे िेदाध्ययन में बडी श्रद्धा थी । ि िेद िेदाङ्गके अध्ययन के
लिये भागीरथी ककनारे ग्स्थत धमिपीठ काशी गया । प्रर्तहदन भागीरथी का स्नान करता, माधक
ु री लभक्षान्न का सेिन
कर गुरूग ृ श्रर्ु तयों के अध्ययन को जाता था । श्रोतागण ! विधाथी प्राय: दे खा जाता ै , कक विद्याजिन लिये विदे श
जाते ै ओर ि ाूँ विद्या के बजाय वििास करते ैं और विद्या के बारे मे क ाूँ ै

॥ श्री गजानन विजय ग्रन्थ ॥


180
सख
ु ाथी िात्यजेद्विद्यािं |
विद्याथी िा त्यजेत्सख
ु म ॥

सख
ु भोगना ै तो विद्या छोड दो और विद्या िेना ै तो सख
ु छोड दो । तयोंकक वििास से भिा विद्या कैसे प्राप्त
ोती ै ? जैसे सडे आम से रस न ीिं ोता । ककन्तु आत्माराम उन विद्याथीयोंमें से न ी था । ि बडा वििेक सिंपन्न
था । उसने विद्याध्ययन पण
ू ि कर ि अपने दे श आया । य ाूँ आते ी ि शेगाूँि के म ाराज के पास अपनी
उपग्स्थती जताने आया । उसे बडा षि
ु आ, ि िेदविद था, तो म ाराज गजानन ज्ञान सविता थे । ि म ाराज
के सग्न्नध िेदसिंह ता का पारायण करता , ि क ीिं क ीिं त्र्
ु ी करता तो सदगरू
ु मर्ू ति तत्काि उसकी त्र्
ु ी सध
ु ारते
और आत्मारामके साथ िेद पारायण करते । म ाराज का िेदो्चारण सन
ु कर विद्िान तन्मय ो जाते तयोंकक जौ री
के बजाय ीरे की परख न ीिं ोती । विद्िान ी विद्िानकी मह्त्ता जानता ै । अन्तमें आत्माराम म ाराज के पास
ी आदरपि
ू क
ि र गया । भिा मधक
ु ोष छोडकर मधु मक्षक्षका क ीिं अन्यत्र जा सकती ै ? प्रर्तहदन सेिाके लिये ि
आता और एक हदन लभ त्र्
ु ी न ीिं कक ऐसा ि एकर्नष्ठ भतत था । समथि के समागधस्थ ोने के बाद समागधकी
पज
ू ा अचािका कायि मठमे बबना ककसी अपेक्षा से बबन िेतन करता र ा। अन्तमें उसने अपनी सिंपत्ती म ाराज को
समवपित की, अथाित सिंपग्त्त कुछ विशेष ने ीिं थी, थोडीसी जमीन और घर । य ाूँ मल्
ू य का सिाि न ीिं ै , मनकी
उदारता और वििेक का म त्ि ैं । जेसे शबरी लभिनीने भगिान रामको जिंठ
ु े बेर दे कर िश ककया, ि ी भाि य ाूँ
ै ।

॥ श्री गजानन विजय ग्रन्थ ॥


181
म ाराज को सििस्ि समपिण करने िािे भततोंमे दत्तात्रेय केदार स्िामी, दस
ू रा नारायण जामकर ग्जनका केिि
दध
ु ी आ ार था, ये स्िामीके एकर्नष्ठ भतत थे ।

इन् ोंने अपना तन मन धन स्िामीको समवपित ककया । बािापरू तािक


ु े मे मोरगाूँि भाकरे नामक गाूँि ै । ि ाूँ
का र नेिािा मारूती नामक पट्िारी था उसका थोडा ित्ृ तान्त बताता ूूँ । इस मोरोपिंत के खेत में पीकका सिंरक्षण
करनेके लिये र्तमाजी नामक रखिािी था । ि एक बार खिी ान में ग री नीिंद में सो गया । दोप र बीतनेपर
को ारके गधे दस बीस खिी ान में आकर अनाज की राशी में मु डािकर खाने िगे । ि जिारकी रास थी । य
मारोती पिंत , म ाराज का बडा भतत था । अत: सदगुरू को लििा करना आिश्यक थी । क्षणभरमें मोरगाूँि जाकर
उन् ोंने र्तमाजी को पक
ु ारा । ’ अरे रास में , गधे जिार खा र े ै , जल्दीमें उठो’ । ऐसा जोरसे बोिकर र्तमाजी को
उठाकर म ाराज अिंतध
ि ान ो गये । र्तमाजीने उठकर दे खो तो गधे रासमे िगे अनाज खा र े थे । सो बडा घबराया
की अब मालिक िोध करे गा । मझ
ु े रक्षाके लिये रखा ै और आज तो उसका विश्िासघात ो गया । मैं सो गया
और आधी रास गधे खा गये । अब मैं मालिक को केसे समझाऊिंगा । उस जमाने में सेिक नीर्तिान ाते थे । उन् ें
र्नतीका बिंधन था । आजके सेिक केिि िेतनधारी ै । नीर्तमान िििेश न ीिं । मालिकके िाभ ानीकी उन् े कोई
परिा न ीिं ोती । र्तमाजीने सोचा मालिक को सत्य र्निेदन करूिंगा और गिती के लिये क्षमा याचना करूिंगा ।
ऐसा सोचकर ि प्रात: गाूँि में आया और मोरोपिंत के पैर पकड कर क ने िगा । म ाराज , मझ
ु े नीिंद िग गई
उसमें बडा अनथि ो गया । दस बीस गधोंने रासमेसे अनाज खा लिया । ककतना नक
ु सान ु आ य चिकर दे णखये
तो मझ
ु े सन्तोष ोगा । य सन
ु कर मारोतीने क ाूँ ! इस समय खलि ान आनेके लिये मेरे पास र्तिभर भी समय

॥ श्री गजानन विजय ग्रन्थ ॥


182
न ीिं ै । मैं शेगाूँि म ाराज के दशिनाथि जा र ा ूूँ । सदगुरूके दशिन करूिंगा और कि सब
ु खलि ानमें आऊिंगा तब
दे खिंग
ू ा ।

ऐसा कह्कर मारोतीपिंत शेगाूँि आया और दशिनको मठ में गया । प्रात: दस नयार का समय था । म ाराज अपने
आसन पर बैठे थे, सामने जगू पा्ीि और उनके पासमें भगत बािाभाऊ ाथ जाडे बैठा था । मारूतीने जब दशिन
लिया तो म ाराज ने सकर क ाूँ ! ’अरे तुम् ारे लिये मझ
ु े रातको त्रस्त ोना पडा । तुम िोग मेरे भतत बनते ो
और मझ
ु े काम मे जोतते ो । सोनेिािा नोकर रखते ो और स्ियिं आराम से घर सोते ो । कि रात को र्तमाजी
रात को खलि ान मे सो गया । गधे रास खाने िगे तब मैने र्तमाजी को जगाया और रास रक्षा करने को कह्कर
शेगाूँि आया ।" य सन
ु कर मारोती ने म ाराज के चरणोंपर सीर रखकर क ाूँ," भगिन, म िोगों को तो आपका
ी आश्रय ै । बािपन में सब बोझ मातापर ोता ै । आपके बजाय दस
ू रे ककसीको सत्ता न ीिं ै । प्रभो ! जो कुछ
भी मारा ै ि सब आपका ी ै । खलि ान और ज्िार -तथा र्तमाजी रखिािा केिि व्यि ार दृग्ष्् से ै ।
आपतो सारे ब्र ाण्ड का सिंरक्षण करनेिािे
ो । माता बािकों का सिंरक्षण करती ै । मैं आपका बािक ूूँ इसी कारण
मोरगाूँि जाकर आपने खलि ान में रास का सिंरक्षण ककया । े स्िामी ऐसी ी कृपा मझु पर सदै ि रणखये । मैं उस
र्तमाजी को सेिा से र्नकाि दे ता ूूँ । मारोती के इस प्रकार क ने पर म ाराज जी बोिे, " अरे पागि ! र्तमाजी को
नौकरी से बबिकुि न ीिं र्नकािना । उसका र स्य य ै कक ि बडा र्नतीिान ै । ि खलि ान मै गधों को
दे खकर बडा द:ु खी ु आ, य मझु े तभी पता चिा था । प्रात: काि ि डरते डरते तुम् ें ित
ृ ािंत बताने आया तो तुमने
क ाूँ शेगाूँि से आनेपर खलि ान आऊिंगा" । य सन ु कर मारोतीको बडा सन्तोष ु आ । श्रोतागण दे णखये सिंत
अिंतरज्ञान से सब कुछ जान िेते ै ।

॥ श्री गजानन विजय ग्रन्थ ॥


183
शके अठारसौ साि में एक ित
ृ ािंत बािापरु में
ु आ सो बताता ूूँ । बािापरू में बग्न्सिाि सख ु िाि की एक बैठक थी
। उसके सामने म ाराज आिंनदपि
ू क
ि बैठे थे । शरीर पर िस्त्र न ीिं था , सम्पण
ू ि हदगम्बर थे । भाविक जन नमस्कार
कर के जा र े थे । ि प्रमख
ु मागि था - बज़ार का । उस मागि से एक पलु िस ििदार जा र ा था । उसका नाम
था नारायण आसराजी । समथि को दे ख कर उसका लसर् चकरा गया, ि क ने िगा ,'निंगा धत
ू बैठा ै , य साधू
न ीीँ भोंद ू ै, जानबज
ू कर रास्ते के बबच बैठा ै । ऐसा क कर ि म ाराज के सलमप गया और आूँयबाूँय बकने
िगा । निंगे बैठे
ो , तुम् ें िज्जा न ीिं आती ? इसका मजा मैं चखाता ूूँ , क कर म ाराज को छडीसे पी्ने िगा
। छडीमार के गचन् पीठ और पे् पर उठ आये ककन्तु ि िािदार मारने से न रुका। य दे खकर एक गह् ृ स्थ
दौड़कर ि ाूँ आया, ग्जसका नाम ुिं डीराम था। उसकी दक
ु ान ि ी थी। ि क ने िगा, " ििदार, बबना काम के
सत्परू
ु षपर ाथ उठाना ठीक न ीिं ै । इसका विचार करो । सिंतों का सिंरक्षण स्ििंय भगिान विष्णु करते ै । कया
तुम् ें मार के गचन् हदखाई न ीिं पडते ? इस कृत्यसे ऐसा िगता ै कक तुम् ारा अिंत समय आ गया ै, तयोंकक रोगी
मरण समय पर्थय का उल्ििंघन करता ै । आज जो भी तन
ु े ककया ै ि हठक न ी ककया, अब तो भी क्षमा प्राथिना
कर । तब ििदार ने उत्तर हदया की क्षमा याचना की कोई आिश्यकता न ीिं, कौएके शापसे क ी जानिर मरता ै
? य निंगाधत
ू बबच बजारमे बैठकर मु से िाचाि बात करता ै । ऐसे ढोंगीयों का यहद ईश्िर अपराध माने तो कफ़र
न्याय के लिये जग न ी र े गी । आगे य ी सत्य ु आ, ििदार बािापरू मे पिंचत्िको प्राप्त ु आ । इतना ी न ीिं
उसके ग्जतने आप्त थे िो भी एक पक्षमे भस्म ो गये ।

इसीलिये साधु की पह्चान ु ए बबना बडा सम् िकर व्यि ार करना चाह ये ।

॥ श्री गजानन विजय ग्रन्थ ॥


184
नगर ग्जिे में प्रिरा नदीके ककनारे सिंगमनेर नामक एक नगर ै । य बडा सिंद
ु र नगर ै । ग्जसका िणिन
मैं न ीिं कर सकता । य ाूँ पर अनिंत ििंदी नामक कवि ु ए । य ाूँ पर जाखडी नाम का माध्यिंहदन यजि ु द
े शाखा का
एक ब्राह्मण र ता था । ि गाूँि गाूँि मे किरकर अपना पे् पािता था । ि घम ू ते ु ए शेगाूँि आया और समथि
के दशिन के लिये मठ में गया । दशिन करके ि उनके चरणोंके पास बैठा । जारों िोग दशिन को आते । कोई
ब्राह्म्ण भोजन कराकर, कोई शतकर बाूँ् कर सिंकल्प परू ा करते । य दे खकर रर अपने मनमें सोचने िगा, ये
ज्ञान सागर ै । इनके चरणों के सग्न्नध आकर भी मझ
ु े विन्मख
ु जाना पडेगा, तयोंकक मेरा भानय कहठन ै । मेरा
दै ि ी पत्थर ै, किर उसपर दि
ू ाि क ाूँ से उग सकती ै ? आज भोजन प्राप्त ु आ , कि का भरोसा न ीिं ऐसी
अिस्थामें ी आजतक मेरा जीिन बीता । मेरेपास धनसिंग्र न ी , खेतीबाडी या मल्िा न ीिं । मैं विद्िान भी न ी
ूूँ , सो मझ
ु े कौन अपनी कन्या दे गा ? " े गजानन स्िामी, सग््चदानिंद, दयानिंद, मेरी सिंसार सख
ु की िासना बिित्तर
ो गई ै, ि आप परू ी करें । प िे मझ ु े पग्त्न लमिे, बाद मे उसे बािब्चे ो िे सब आज्ञाधारक ो । ऐसी इ्छा
करते ी म ाराज ने उसके ऊपर थक
ूूँ हदया । मनमें म ाराज ने सोचा, रसाि िक्ष
ृ खोदकर इसने मझ
ु से बािंिची
(किं्े री) मािंगी । इसीलिये इस मख
ू प
ि र थक
ूूँ ना पडा । िोग सिंसार के छु्नेपर मेरे पास आते ै, इसने य ाूँ आकर
सिंसार सख
ु मािंगा । तया उल््ी ररती ै सिंसारकी! सब सिंसार चा ते ै , सग््चदानिंद की प्राग्प्त कोई न ीिं चा ता ।
बादमे जाखडयासे बोिे,’ तुमने जो जो इ्छा की ि सब तुम् े प्राप्त ोगी, थोडा धन सिंग्र भी ोगा । पत्र
ु पौत्र ोंगे
। अब घरपर जाओ , सिंसार करो और सिंसार में परमेश्िरको स्मरण रखो उसे भि
ू ो मत' ऐसा क कर प्रसादरूपमें उसे
थोडा धन हदया। बादमें रर जाखडया सिंगमनेर में सख
ु ी सिंसारी ु आ । भिा सिंतिचन लमर्थया कैसे ो सकते ै ?

॥ श्री गजानन विजय ग्रन्थ ॥


185
ऐसे ी रामचिंद्र गोवििंद र्नमोणकर नामक ओिरसीयर थे । उनके साथ बासद
ु े ि बेन्द्रे नाम का सव् े अर था । ये दोनों
मक
ु ना नदी पर आये । य मक
ु ना नािा सह्याद्री प ाड़ में नालसक ग्जिे में ईगतपरु ी तािक
ु े में ै । य ाूँ की िनश्री
बड़ी सिंपन्न ै ।बड़ी सन्
ु दर ै । मैं उसका िणिन कैसे करू? मग
ृ शािक र्नभिय ोकर य ाूँ के जिंगिमे विचरते ै ।
ििों से िदे िक्ष
ृ झकु े ु ए ै । िन्य पश,ु चीते, लसयार तथा पक्षी य ाूँ विचरण करते ै । इस मक
ु ना नािे के एक
जि धाराको " कवपिा धारा" क ाूँ जाता ै । य ाूँ पर पिि काि में भाविक जन स्नान करने आते ै और आसपास
में य तीथिस्थि प्रलसद्ध ै । विद्िज्ज्न ऐसे ी एक पििणी में र्नमोणकर य ाूँ स्नान करने आये । इनको थोडा योग
का अभ्यास था । इनकी इ्छा ि पण
ू ि करने की थी सो ि ाूँ के जोगी बैरागीयों से ये योग का र स्य पछ
ू ने िगे ।
ग्जनसे पछ
ू ते ि नकार दे ता , ग्जससे र्नमोणकर ताश ो गये । मनमें सोचने िगे , े भगिान, ऐसा कौन लमिेगा,
जो मेरा योगाभ्यास पण
ू ि करायेगा । ऐसा विचार करते समय " कवपिाधारापर" उन् ें एक परू
ु ष दीख पडा, जो अगधकारी
जान पडता था, जो आजानब ु ा ु था । उिं चा तथा शािंतमद्र
ु ा यत
ु त था । ि ध्यानस्थ बैठा था । उसे दे खकर र्नमोणकर
ने दिं ड प्रणाम ककया । ब ु त समय बीत गया ककन्तु ि योगी कुछ बोिता न ी था ।

अस्त समय समीप आ गया । पे् में र्ति भर भी अन्न न ीिं था, डेरा तो बडी दरू था । ऐसे समय कवपिाधारा
मे तिंब
ु ा दब
ु ोकर जिभरकर गुसाईजी चिे । य दे खकर र्नमोणकर बोिे, म ाराज, मेरा ककतना अन्त दे खोगे ? यहद
आपको कुछ योगकिया का ज्ञान ै तो मझ
ु े लसखईये । सो अस्त समय कैिल्यदानी ने एक गचत्रप् दे खकर क ाूँ,"
ये िे जाकर अपना काम करो । इसपर षोडशाक्षरी मिंत्र लिखा ै , िाणी से उसका जप करते र ना । जप से तुम् ें
थोडा योग का ज्ञान ोगा । योगमागि सब मागों में अत्यिंत कहठन ै । तया घोंघा ह मािय को िेष्ट्नकर सकता ै
? शग्ु तत तया मेरु चढ सकती ै ? बडे कहठनता से यहद यत्न करोगे तो दस पाूँच आसन आयेंगे । ब्रम् ाचयि का

॥ श्री गजानन विजय ग्रन्थ ॥


186
पािन करोगे और नेती, धौती कियाये करोगे तो थोडी प्राप्ती ोगी । जाओ, अब जादा मझ
ु से न पछ
ु ो ।" ऐसा क कर
एक िाि पत्थर उसको हदया और िे अिंतधािन ो गये । िे ी बाद मे नालसक में गोदािरीपर लमिे, ग्जन् े दे खकर
र्नमोणकर ने चरणोपर मस्तक रखकर प्रश्न ककया," म ाराज, आपने इस प्रकार मझ
ु े तयों ्ािा? आपने अपना
नाूँिगाूँि कुछ न ीिं बताया । सन
ु कर आूँखें तरे रकर म ाराजने उत्तर हदया," अरे िाि पत्थर दे कर मैंने अपना नाम
तुम् ें बताया । नमिदाका गणपती िाि ोता ै । तू मि
ु त: जडबहु द्द ै ग्जससे र स्य न जान सका, इसी कारण तुम् ें
पता न ीिं चिा, मेरा नाम गजानन ै , मैं शेगाूँि का र नेिािा
ूूँ । धम
ु ाि के घर तक तुम मेरे साथ चिो । ि ाूँ
तुम् े मै किर लमििंग
ू ा" ऐसा कह्कर म ाराज अदृश्य ो गये । र्नमोणकर चारों ओर दे ख्नने िगा ककन्तु म ाराज क ीिं
भी हदखाई न ीिं हदये । अन्तमें श्रान्त ोकर धम
ु ाि के घर आये, तो दे खा कक गजानन म ाराज धम
ु ाि के घर के
बरामदे में बैठे ै । तब उन् ोंने मौनसे ी म ाराज की िन्दना की और धम
ु ाि को कवपिाधारासे य ाूँ तक का
ित्ृ तान्त बताया ।

सन
ु कर धमु ाि को बडा आनिंद ु आ और उसने क ाूँ की, म ाराज सिि सामर्थयि के सागर ै भिा इन योगीराज को
िस्तु कमी ै । इनकी सत्ता के आगे साििभौम सत्ता की भी कोई कीमत न ी । तुम् ें म ाराज ने जो िाि पत्थर
हदया ै उसको पीढे पर स्नान पज
ू न-अचिन सद॒ भािसे ककया करो उसके सामने ी योगाभ्यास ककया करो । उसकी
कृपा से थोडा ब ु त योगाभ्यास लसद्ध ोगा । आगे चिकर ि ी बात सत्य ु ई । गजानन म ाराजकी कृपा से
र्नमोणकरको योगाभ्यासमे थोडी ब ु त लसद्धी प्राप्त ु ई ।

॥ श्री गजानन विजय ग्रन्थ ॥


187
शेगाूँि मे तक
ु ाराम कोका्े नामक व्यग्तत थी । उसके ब्चे जन्म िेते ी मर जाते थे। य दे ख कर उसने
समथि के पास सिंकल्प ककया। गरू
ु दे ि, य ी आप दीघाियू सिंतती दोगे तो एक िड्का मैं आपको अपिण करूूँगा। गजानन
म ाराज ने उसका मनोरथ पण
ू ि ककया । उसको दो-तीन ब्चे ु ए और िे जीवित र े । ककन्तु कोका्े को अपने
सिंकल्प का स्मरण न र ा । दस
ू रे सिंतती का मो भी था । उसका नारायण नामक बडा िडका व्यागधग्र्सस्त ो गया
। ब ु त औषधी दे नेपरभी उसे स्िास्र्थय न ीिं लमिा । नाड़ी मिंद ोने िगी । नेत्रतेज क्षीण ो गया । उसकी छाती की
ककिंगचत धड्कन शेष थी अथाित ि मत ृ प्राय: ो गया । ऐसे समयमे तुकाराम को अपने ककये ु ए सिंकल्प का स्मरण
ो आया । उसने प्राथिना की , गुरूदे ि यदी य मेरा पत्र
ु अ्छा ो गया तो आपकी सेिामे इसे अपिण करूिंगा । ऐसा
िचन उ्चारते ी नाडी ठीक ो गई । उसने धीरे -धीरे नेत्र खोिे और ि दे खने िगा । उसकी व्यागध ठीक ो गई
। ि अ्छा ो जानेपर नारायणको मठापर िाकर सिंकल्पानस
ु ार उसे म ाराज को समवपित ककया ।

ये नारायण अलभतक मठ में सेिाधारी ै । सौ म ाराज के पास ककया ु आ सिंकल्प अिश्य परू ा करना चाह ये । य
बतानेके लिये ी नारायण अलभतक जीवित ै । य सिंत चररत्र ै , कग्ल्पत कादिं बरी न ीिं ।

आगे आषाढ मास में गजानन म ाराज विठ्ठि को लमिने पिंढरपरू रर पातीिके साथ गये । ि ी सब सिंतों का
ध्येय (ध्यान का विषय़) ै । भततों कल्पिक्ष
ृ ै । पिंढरपरू आनेपर चिंन्द्रभागा में स्नान करके विठ्ठि दशिन को गये
। जो जगतागधष्ठान जगत्पर्त ै । िेद ग्जसका र्निंरतर गण
ु गान करते ै , जो रूग्तमणी दयाधन सिंतोंके हृदय में
र ता ै , उसके दशिन करके म ाराज प्राथिना करने िगे, " े पिंढरीनाथ ! े अगचन्त्य अद्िय ! े भततों के परमेश
! मेरी बबनती सर्ु नये , आपकी आज्ञा से मैं आजतक भम
ू ीपर किरता र ा । जो जो भाविक जन थे उनके मनोरथ

॥ श्री गजानन विजय ग्रन्थ ॥


188
पण
ू ि ककये । अब मेरा अितार कायि पण
ू ि ो गया ै, सो मझ
ु े जानेकी आज्ञा दीग्जये, ये आप जानते ै । मैं भाद्रपद
मह नें में आपके चरणों के समीप अक्षय र्निास के लिये िैकिंु ठ को जाना चा ता ूूँ ।" ऐसी प्राथिना कके समथि ने
ाथ जोडे । विर अस ाय ोकर म ाराज के नेत्रों मे अश्रु आ गये । य दे खकर पास में खडे रर पा्ीि ने पछ ू , "
गरू
ु दे ि ! आपके आूँखों में आूँसु तयो आये ? तया मझ
ु से सेिामें कोई गिती ु ई ? ग्जससे आपको खेद ु आ ।"
इसपर रर पा्ीि का ाथ पकडकर म ाराज बोिे," चिो ! य ग न र स्य ै । तम्ु े बतिानेपरभी तुम समझ न
पाओगे । इतना ी बताता ूूँ कक, अब मेरा साथ थोडा ै । चिो, शेगाूँि चिो, ज ाूँ अपना स्थान ै । तुम् ारे पा्ीि
ििंश को कभी कमी न ीिं पडेगी"। इस प्रकार पिंढरपरू तीथि करके री पा््ीि के साथ म ाराज शेगाूँि आये । ककन्तु
रर पा्ीि का मन गचन्ताग्रस्त ो गया । ि सब िोगोंसे बोिा की ’ म ाराज ने मझ
ु े पिंढरपरू में क ाूँ ै कक,
विठ्ठिकी सिंगती अब थोडे हदनकी ै । आगे श्रािण मास समाप्त
ु आ । म ाराज के शरीर में थोडी क्षीणता आ गई
। भाद्रपद म ीने में म ाराज ने सबसे क ाूँ कक, गणेश चतुथी को गणपती विजसिनके लिये सब िोग मठ मे आओ
। गणेशपरु ाण में कथा ै कक, भाद्र्पद चतथ
ु ी को गणपती की मत
ू ी बनाकर उसकी यथाविगध पज
ू ा अचिना करनी
चाह ये । नैिद्
ै य समपिण करके दस
ू रे हदन उसका विजसिन करना चाह ये । ि चतथ
ु ी का हदन आज आ गया ै ।
ि सिंप्न्न करना चाह ये । इस पागथिि शरीर को तुम िोग आनिंद्पि ि विसग्जित करना । ककिंगचत भी द:ु ख न करना
ू क
। मैं तुम् ारा प्रर्तपािन करने के लिये य ी ग्स्थत ूूँ । मैं तुम् ें कभी भिू िंग
ू ा न ीिं य शरीर िस्त्रके समान ै । उसे
बदिना अर्निायि ै । ऐसा भगिान कृष्णने गीता में अजन ुि से क ाूँ ै ।

िािंसालसजीणािर्न यथावि ाय निार्न गण्ृ ार्त नरोऽपराणण ।


तथा शरीराणण वि ाय ग्जणािनन्यार्न गप्ृ तार्त निार्नदे ी ।

॥ श्री गजानन विजय ग्रन्थ ॥


189
( गीता -२-२२)

जोजो ब्रम् िेत्ता ु ए ैं उन् ोने ऐसा ी ककया ै । उसी तर मैने य शरीर बदिा ै , य मत भि
ू ो ।
चतथ
ु ी का सिंपण ू ि हदन बडे आनिंद से बबताया । बािाभाऊ का ाथ पकड्कर अपने आसन पर बैठकर म ाराज बोिे,
" मैं गया ऐसा न समझना, मैं य ीपर ूूँ । भततों को अन्तर मत दे ना, मेरा विस्मरण न करना।"

ऐसा क कर योगसे प्राण का र्नरोध करके म ाराज ने उसे मस्तके ग्स्थर ककया । जैसा गीता मे क ाूँ ै ।
प्रयाण कािे मनसा चिेन भतत्या यत
ु तो योगबिेनचैि ।
भ्रि
ु ोमिध्ये प्राणमािेश्य सम्यक॒ सिंत परिं परू
ु ष मप
ु र्ै त हदव्यम॒
( गीता-८-१८)
सिि द्िाराणण सिंयम्य मनो हृहदर्नरूध्य च ।
मध्
ू न्यां धायात्मन: प्राण माग्स्थतो योगधारणम ॥
( गीता-८-२०)
शके अठारसौ बतीस भाद्रपद शद्ध
ु पिंचमी गुरुिार के प्रथम प्र र मे प्राणरोधन करके " जय गजानन" ऐसा ध्िनी करके
ये म ापरू
ु ष सग््चदानिंद में िीन ो गये, शेगाूँि में । दे की िचि बिंद ो गई । स्िामी को समागधस्थ दे खकर
िोग बबव् ि ो गये, िाताि सारे गाूँि में फ़ैि गई, कक स्िामी स्मागधस्थ ो गये । य सन
ु कर स्त्री-परू
ु ष हृदय पीट्कर
रोने िगे । मारा चिता किरता श्री री, दीनजनों का रक्षणकताि, साक्षात्कारी चिा गया । म िोगों का विश्रािंर्तस्थान-
सख
ु का र्नधी, ज्ञान का दीपक , कािरूप िायु में बझ
ू गया । े गजानन स्िामीसमथि! अब मारी रक्षा कौन करे गा

॥ श्री गजानन विजय ग्रन्थ ॥


190
? े पण्
ु यशीि ! इतनी जल्दी आपने मको तयों छोड हदया ? मातंड पा्ीि , रर पा्ीि , विष्णुसा, बिंकट्िाि,
प्रेमी भतत ताराचिंद और श्रीपतराि कुिकणी सब मठ में आये । सबने लमिकर विचार ककया कक आज पिंचमी का
हदन ै । आज स्िामी को समागध न दी जाय। सब िोगों के दशिनाथि अस्त समयतक रा दे खी जाय । ग्जनके
नसीब में ोगा उन् ें दशिन ोगा।

सब तरफ़ िाताि भेज दी जाय । डोणगाूँि के एक विद्िान गोवििंद शास्त्री थे, उन् ोंने क ाूँ, म ाराज के वप्रय भततों
को दशिन अिश्य ोगे । तबतक म ाराज मस्तक मे प्राण रखेंगे । उसकी प्रगचती दे खने क ीिं दरू जानेकी आिश्यकता
न ीिं । म ाराज के मस्तकपर मख्खन रणखये । तद॒ नस
ु ार मस्तकपर िोनी रखा गया, तो वपघिने िगा । य दे खकर
सब िोग योगबि की प्रशिंसा करने िगे । तब गोबबिंदशास्त्री ने क ाूँ , एक हदन की तया बात ै ये एक िषिभर भी
इस अिस्था में र ें गे । स्िामीजी के सामने जार तािधारी भजन करने िगे ।दरू दरू के भततों को स्
ू ना ो गई ।
भजनिािों के कई जथ ु जमा ु ए । रास्तोंपर स्त्रीयोंने गोमयजिसे सिंमाजिन ककया । अनेक रिं ग की रिं गाििीयािं र्नकािी
गई । मर्ू तिरथ में बबठाई गई । बडे आनिंदपि ू क
ि जि ु स
ू र्नकािा गया । ि रातभर चिा, ग्जसका िणिन असम्भि ै
। जुथ के जुथ भजनिािे भजन करते और विठ्ठि
् क जयकार करते । तुिसी गुिाि-बत
ु का-उडाया गया । म ाराज
िूिोंसे आ्छाहदत ो गये । िोग बफ़ी-पेडे प्रसादरूपमें बािंट्ते, ग्जसकी कोई गणना न ीिं की जा सकती । कई िोगोंने
रूपये भी उछािे । इस प्रकार रातभर जुिस
ु किराकर सय
ू ोदय के समय मठ्में रथ प ुिं चा । समागध के जग पर मर्ू ति
रखी गई । उसपर रूद्रालभषेक ककया गया । पिंचोपकार से पजू ा की गई । आरती उतारी गई । भततोंने गजानन
म ाराज के नाम का ध्िनी ककया ।

॥ श्री गजानन विजय ग्रन्थ ॥


191
"जय जय अििीया गजानन े नरूपधारी नारायण! अविनाशी आनिंदघन। परात्पर जगत्पर्त, आप की जय ो। "

ऐसे भजन घोष के साथ आसनपर उत्तरालभमख


ु मर्ू ति रखी गई, शास्त्रर्नदे शानस
ु ार सबने अग्न्तम दशिन लिया," जय
स्िामी गजानन" का घोष ककया । नमक, अगिजा और अबीर से स्थान भर हदया गया । शीिा द्िारपर रखकर
समागधस्थि बिंद ककया । द्स हदन तक ि ाूँपर समाराधना की गई । असिंख्य िोगो ने म ाराज का प्रसाद ग्र ण
ककया । िस्तत
ु : सिंतों का अगधकार अत्यिंत श्रेष्ठ ोता ै । ग्जसके सामने साििभौम राजाकी भी कोई गगनती न ीिं ।
य ी श्री दासगणू विरगचत, श्रीगजानन विजय नामक ग्रिंथ भाविकोंको ररभग्तत का सन्मागि बताये, उन् े भग्तत
परायण करे ।
॥ शभ
ु िं भितु श्री रर रापिणमस्तु ॥
|| इर्त श्री गजानन विजय ग्रिंथस्य एकोनवििंशोsध्याय: समाप्त: ||

॥ श्री गजानन विजय ग्रन्थ ॥


192
|| अध्याय २० ||

श्रीगणेशाय नमः । े रुग्तमणीके पर्त! चन्द्रभागात् बब ारी भगिन। इस दासगणु के मस्तकपर अपना िरद स्त
रणखये। आप तो राजागधराज ो। सबकुछ आप के ाथमें ै। किर मेरी दद
ु ि शा तयों कर र े ो ?आपकी कृपारूप अग्नन
से मेरे पाप -तापों का द न कररये और य मेरा मन आपके भजन को सदा आनन्दयत
ु त र े ,ऐसा कररये। यदी
य न ी करोगे तो आपको ी दोष िगेिा। अपने नाम को िथ
ृ ादोष न िगने दो। े श्यामसिंद
ु र !रा ी रुग्तमणीपती
,परमउदार पािंडुरिं ग !मेरी इ्छा पण
ू ि करो। अस्तु।।श्री गजानन म ाराज समागधस्थ ो जानेपर ि ाूँ के स्त्रीपरु
ु ष क ने
िगे, अब शेगाूँि में तया रखा ै ?अब ि ाूँ तया लमट्टी समद्र
ु का जि सख
ु नेपर, पष्ु प िक्ष
ृ ों की ब ार नष्् ोनेपर
इस सिंसार में उसकी प्रशिंसा कौन करे गा ? मिंहदर में दे िता न र नेपर गभिग ृ को मािा चढ़ाना व्यथि ै । ककिंतु उनके
य सब तकि व्यथि लसद्ध ु ए। उनमें से कुछ क ते कक, तुम िोगो की य भ्राग्न्त ै । म ाराज की हदव्य ज्योर्त य ीिंपर
अदश्ॄ य रूपसे ग्स्थत ै ै । जैसे इिंद्रायणी के ककनारे ज्ञानेश्िर म ाराज समागधस्त ै और भततों को िे ि ी लमिते ै।
िैसे ी शेगाूँि मे श्रीस्िामी गजानन ग्जनका जैसा लसद्धान्त ै उन् े ि ी दशिन दे ते ै। इस सम्बन्ध में एक कथा
बताता ुूँ। शेगाूँि में गणपत कोठाडे नाम का एक ग ृ स्थ था। उसका र्नत्य दशिन का र्नयम था। ि उस समय
रायिी नामक एक किंपनी थी ,उसका प्रर्तर्नधी था। अस्त समय प्रर्तहदन ि दशिन के लिये जाता और समागध के
पास बैठकर एक र्नष्ठासे म ाराज की स्तर्ु त करता।

॥ श्री गजानन विजय ग्रन्थ ॥


193
एक बार उसने मनमें सिंकल्प िीया कक विजयादशमी को समागध को अलभषेक करके ब्राम् ण भोजन करायेंगे। उसनेसब
लसद्धता की। अलभषेक की सामग्री तथा ब्राम् णभोजन का विपि
ु लसधा मठमे भेजा। य दे खकर उसकी पग्त्नने
क ा,'प्राणनाथ !आप बड़े मत
ु त स्त ै। य आप तया करते ै ? मारे बाि ब्चे ै , उन् े कपड़े और अििंकार
बनाईये। इस प्रकार का अलभषेक और ब्राम् णभोजन बार बार करना हठक न ी। मेरे शरीर पर िू्ा ु आ मणी भी
न ी ै । मैं ििंकाकी पाििती ऐसी
ूूँ, जो सि
ु णि ििंका मे र करभी रुद्राक्ष प नती थी। तया य ग ृ स्थाश्रम की पद्धर्त
ै ? ग ृ स्थको धनसिंचय करना चाह ये। ि पग्त्नका य उपदे श गणपतराि को न ी जचा। उन् ोंने पग्त्नसे क ा कक,
वप्रये मैं परमाथि को प्रपिंच से अगधक मानता
ूूँ । ऐसे समयमे उसकी पग्त्नको स्िप्न ु आ ,उसमें म ाराज ने उससे
क ा,"पागि ! बीना अथिके पर्तको त्रस्त न करो, जो ि करता ै उसे करने दो। इसमें तुम् ारे बाप का तया जाता
ै ? अशाश्ित का प्रेम न ी रखना चाह ये। इस प्रपिंचमे कोई तत्ि न ी ै। धन भलू म का भम
ू ीपर ी र जाता ै।
ककया ु आ पाप -पण्
ु य प्राणीके साथ जाता ै। अलभषेक और ब्राम् ण भोजन य पारमागथिक पण्
ु य ै । इस के र्नलमत्त
खचि ु आ धन कभी व्यथि न ीिं ोता। जैसे भलू म में बोया ु आ बीज एक का जारो ोता ै ऐसे ी इस पण् ु य की
ग्स्थती ै, ि अनिंत ोता ै, इसीलिये उसे रोको मत"। इस स्िप्नकी बात उसने पर्तसे बताई, आज से प्रपिंच, बाि
ब्चे, धनसिंपग्त्त की गचन्ता छोड़ दो। य सब म ाराज का ै। अस्त,ु गणपतराि ने बड़े आनिंद से दसरे के मु ू तम
ि ें
पज
ू न ककया और खचि भी ककया ।

॥ श्री गजानन विजय ग्रन्थ ॥


194
प िेसे ी गणपतराि की दढ़
ॄ श्रद्धा समथि चरणों में थी। इसी प्रकारका एक अनभ
ु ि री िक्ष्मण जािंजािको बोरीबिंदर
स््े शनपर ु आ था, ि प्रसिंग मैं बताता ूूँ । ककसी कामके लिये िक्ष्मण बम्बई गया था। ि बोरीबिंदर स््े शनपर घर
जानो को आया, तो उसे एक परम िं स लमिे।उिं ची शरीरयग्ष््, आजानब ु ा ु और नासाग्रपर उनकी दग्ॄ ष्् ग्स्थर थी।मूँु से
ॐ कारका जप चि र ा था। िे िक्ष्मणसे बोिे "अरे ! तुम गजानन के लशष्य ोकर ऐसे र्नराश तयों ोते ै ?
जब तुमने अपने घरमें पण्
ु यर्तगथ के र्नलमत्त चारसौ पत्तिों की व्यिस्था कक थी, तब गोपािराि पेठकर और
बाप्मास््र तुम् ारे घर आये थे की न ीिं ? स्मरण करो। कैसे आये, उनके स्िप्नमें आकर गजानन म ाराज ने
उन् ें बि
ु ाया था। बाप् को पत्र
ु शोक पत्तिों की व्यिस्था के थी, बाप् को पत्र
ु शोक था किर भी ि तुम् ारे घर
प्रसाद के लिये आया था। तया सब भि
ू गये? "य सत्य घ्नाये सन
ु कर िक्ष्मण शिंककत ो गया। उसने आदरपि
ू क
ि
परम िं स को नमस्कार ककया। ककन्तु िे दे खते दे खते बोरीबिंदर स््े शनपर अदश्ॄ य ो गये। तब िक्ष्मण घरपर आया
और पि
ू ि
ि त व्यि ार करने िगा। प्रर्तिषि ि पण्
ु यर्तथी मनाने िगा। उसी प्रकार जयराम खेडकर को म ाराज रा ीत
-साह त गाूँि में सिंन्यासी के रूपमें लमिे। श्रोतागण एक मातंड माधि जोशी नामक ग ृ स्थ -कििंब कसरु ागाूँि में
जमीन मोजने के लिये आया। य सरकारी नौकर था और कृषी विभाग में मिंडि अगधकारी था। उसकी गजानन
म ाराज पर पण
ू ि श्रद्धा थी। हदनभर जमीन मोजने का काम करने के बाद अस्त समय उसकी शेगाूँि दशिन करनेकी
इ्छा ु ई। सोचा आज गुरुिार का हदन ै । चिकर समथि के दशंन करें गे सो अपने लसपा ी को आदे श हदया ,की
अपनी दमनी जोतो, शेगाूँि दशिन करने चिेंगे और रातको ि ी र ें गे।

॥ श्री गजानन विजय ग्रन्थ ॥


195
प्रातःकाि िौ् आयेंगे। तब उनका लसपा ी कुतुबद्द
ु ीन नामका था उसने क ाूँ,"आपको ाथ जोड़कर क ता ूूँ, की
बादि छाये ु ए ै, इसका भी विचार कीग्जये। उसी तर मन नदीका पानीभी बढ़ र ा ै । सन
ु कर जोशीने क ाूँ, अरे ",
अभी नदी पार कर िेते ै ,बबना काम की ककिंतु परिं तु न बढ़ाओ, जाओ दमनी तैयार करो।" सन
ु कर ि दमनी जोतकर
िे आया। जोशी अिंदर बैठे और लसपह ने दमनी जैसे ी नदीमे घस
ु ाई िैसे ी अकस्मात नदीमे बाढ़ आ गई और उसपार
जानेका अिसर न र ा। जोरसे आूँधी चिी और मस
ु िाधार िषाि ोने िगी। कई ककसानोंके छप्पर उड़ गये। तब
कुतुबद्द
ु ीन लसपा ी जोशीसे बोिा,"सा े ब! अब म िोगोंका बचना मग्ु श्कि ै। य ी मरना ै । " सन
ु कर मातंड जोशी
अपने मनमे घबरा गये और करुणायत
ु त िचनोंसे समथि की याचना करने िगे," े समथि गजानन मारे प्राणोंकी रक्षा
कररये। आपके बबना दस
ू रा कोई में न ीिं बचा सकता। इस सिंक्मे आपके बबना और कोई त्राता न ीिं ै । आप
असामान्य सिंत ो। करुणा के र्नधान ो। ब्रह्मिेत्ता ो। मारी इस बाढसे रक्षा कीग्जये। दमनीमे पानी भर आया,
बैि घबरा गये तब जोशी आगे ोकर लसपाह से बोिे," तू अब पीछे बैठ अिलिया का भजन कर, िो ी बेडा पार करें गे
गचन्ता मत करो। "ऐसा क कर जोशीने बैिोंकी रस्सी छोड़ दी और समथिसे बोिे,"समथि आपकी सत्ता अगाध ै।
आपके मनमे ो िैसा कररये। ताररये चा े डूबाइये। " दोनोंने आूँखे मूँद
ू िी सो तया
ु आ ि सर्ु नये। ऐसे म ापरु मे
भी दमनी दस ू रे ककनारे पर आकर शेगाूँि के रास्तेपर खड़ी ु ई। य दे खकर दोनोंको अत्यानिंद ु आ। दे खो, अिलिया
बाबाकी सत्ता ककतनी अगाध ै। बाढ़ से म िोगोंकी रक्षा की, अपने भततको डूबने न ी हदया। एक घड़ी रात्री
बीतनेपर जोशी शेगाूँि आये। समागध को ििंदन ककया। पािकी का उत्सि दे खा और दस ू रे रोज ब ु तसा दान धमि
ककया। उसी प्रकार बािाभाऊ के पास ब्राम् ण भोजनके लिये कुछ रूपये हदये, सिंपण
ू ि ित्ृ तािंत बािाभाऊ से बताया और
क ा कक ,"य सिंकल्पना ब्राम् ण भोजन की आप मेरी ओरसे कररये। तयोंकक मझ
ु े अिकाश न ीिं ै, ऐसा क कर
जोशी जल्दी से चिे गये।

॥ श्री गजानन विजय ग्रन्थ ॥


196
ह ग
िं नी गाूँि का र नेिािा एक यादि गणेश सभ
ु ेदार नामक कपास का व्यापारी था। एक िषि उसको व्यापार में दस
जार रुपयों का घा्ा आ गया ,ग्जससे ि बड़ा गचिंर्तत ो गया। व्यापार तो छू् न ीिं सकता ,िायदा ोता न ीिं
और उसके बबना मन की गचिंता जाती न ी। ि ु ािा लमिाने का बड़ा प्रयत्न करता ,ककिंतु सििता न ीिं लमिती।
मन
एक बार ि ककसी काम से िधाि आया और विनायक अलसरकर के घरमे ठ रा। इतने में एक लभक्षुक ि ाूँ आया।
उसका िेष म ाराष्री था। जो दे खकर अलसरकर िोगधत ो गए। जा वपछ्िे दरिाजे में तुम् ें लभख लमिेगी ,छपरी की
सीढ़ी मत चढ़ो। िेककन लभक्षुकने उसकी बात न मानी और छपरीमें यादि के पास आकर बैठ गया, क ने िगा,"कुछ
तो भीख डाि।"ऐसा क कर लभक्षापात्र आगे बढ़ाया। यादिने मनमें सोचा, य लभखारी बड़ा िािची और धी् मािम

पड़ता ै, मना करनेपर भी छपरी में आ गया, ्ता न ीिं ै । ककन्तु जब उसने लभखारी को अ्छी तर से र्नरखा तो
ि उसे शेगाूँि का राजयोगी सा हदखने िगा। उसकी मद्र
ु ा तेजयत
ु त और आिाज समथिके समान थी। केिि किंप ी
असमानता थी। यादि सोचने िगा की, इसे गजानन मानू तो िे तो समागधस्थ ो गये ै, अब मारे दग्ु ष््पथ में
म ाराज कैसे आ सकते ै ?कुछ भी ो, दो पैसे दे दे ता
ूूँ गजानन समझकर, तकि वितकि करनेका कारण न ी।
लभखारीने पैसे िे लिये और क ा ,"गजानन म ाराज को प्रसाद बाूँ्ना ै सो और कुछ पैसे दो। तू बार बार िचन
दे ता ै और परू ा न ीिं करता। तुझे दस जार का घा्ा ु आ ै ना? ऐसा सोचकर जल्दी से पाकक् र्नकािकर मझ ु े
कुछ और पैसे दो। य सन
ु कर सभ
ु ेदार ने कुछ रूपये र्नकािकर हदये। इसपर पन
ु ः लभखारीने क ा,"आज मैं इतनेपर
सिंतुष्् न ीिं ो सकता। मझ
ु े और कुछ रूपये दो ।"सभ
ु ेदारने और रूपये र्नकािकर लभखारीको अपिण ककये। इतने में
अलसरकर घर के अिंदर गये। जब यादि अकेिे ो गये तो लभखारी बोिा ,"गजानन के विषयमें शिंका तयों करते ो
?इस समय कपड़े र्नकािकर मेरे सामने खड़े ो जाि। तुम् ारे सिांगपर दृष््ी पड़ने दो ग्जससे तुम् ारी व्याधी दरू ो
जायेगी। तुम मेरे पत्र
ु के समान ो। िजाते तयों ो?" ऐसा क कर वपठपर ाथ किराया और बाद में नखलशखािंत

॥ श्री गजानन विजय ग्रन्थ ॥


197
शरीरपर ाथ किराया। इतनेमें अलसरकर किरसे ि ाूँ आये और लभखारी दरिाजे से बा र ो गया। यादिने ब ु त पता
िगाया ककन्तु लभखारी का पता न चिा। सो उसने मनमें र्नश्चय ककया की ो न ो य गजानन म ाराज ी थे।
अपने हदिमें सोचा, अगर ये समथि ै तो आज अिश्य व्यापर में िाभ ोगा। इतनेमें उसकी कपासकी गाडड़याूँ िधे
के बजारिं में बबकने आई। बबिी ोनेपर उसे ब ु त ककिंमत लमिी, ग्जससे यादि बड़ा सिंतष्ु ् ु िा। उसका दृढ़ र्नश्चय
ो गया कक, लभखारी के रूपमें गजानन म ाराज ी लमिे। दृढ़ र्नष्ठा ोने पर समथि सदै ि रातहदन अपने भततो की
रक्षा करते ै।

भाऊ राजाराम किंिर नामक एक डॉत्र खामगाूँि में था। उसकी बदिी तेल् ारा नामक शेगाूँि से उत्तर मे गाूँि ै
ि ाूँ ो गई। ि तेल् ारा जानेके लिये स कु्ुिंब खामगाूँिसे र्नकिा और मठ में श्रीगजानन म ाराज का दशिन
करनेके बाद गाडीसे तेल् ारा जानेके लिये ि तैयार
ु आ। सायिं समय ो गया था ,सो मठागधपर्त बािाभाऊ उसे
क ने िगा ,कक "आप प्रसाद िेकर किर तेल् ारा जाइये। आप तो आज तक कभी भी प्रसाद ग्र ण ककये बबना न ीिं
गए ैं। किर आज ऐसे तयों ?ग्जसमें आज व्यर्तपात ै ,य सोगचये। "इसपर इसपर किरने क ा ,"आज रातको
प्रसाद ग्र णकर अगिी रातमें र्नकि जाऊॅंगा,तयों कक मझ
ु े जल्दी ै । आप आग्र मत कररये। "इस प्रकार क कर
ि दमनी जोतकर बाि ब्चोंके साथ तेल् ारा जानेको उद्द्त
ु आ। अिंधेरी रात थी और थिंडी भयिंकर िग र ी थी।
मानो ,रात्री अपने पतीके वियोग में शोक कर र ी थी। इस समय ऐसा चमत्कार ु आ ककिं ,गाड़ीिािा तेल् ाराका रास्ता
भि
ू गया। गाड़ी बड़े ी सिंकीणि रास्तेपर चि र ी थी। दोनों तरि काूँ्े थे। रातका समय ोनेसे रास्ता पछू नेके लिये
कोई था न ीिं, तया करे ? अन्तमे एक बड़े सरोिरपे गाड़ी खड़ी ु ई, तब गाडीिािेने क ाूँ,"सा ब रास्ता भि
ू गया, य
सन
ु कर किंिरको बड़ा आश्चयि ु आ। र्नचे उतरकर दे खा तो कुछ भी न हदखता था, सो ि गाडीिािेको ब ु त बात

॥ श्री गजानन विजय ग्रन्थ ॥


198
बोिने िगा और क ा की," तुम तेल् ारे के ो इसलिये मैंने तुम् ारी गाड़ी की , सो तुमने य ाूँ एकािंत जग िाकर
खड़ा ककया ै। तया तम
ु ने मद्यपान ककया था, ग्जससे तम्
ु े रास्ता न ीिं हदखा ? तेल् ाराका रास्ता बड़ा रास्ता ै
उसपर आिागमन सदै ि र ता ै। किर तम्
ु ारी गाड़ी य ाूँ कैसे आई ? इसपर गाड़ीिािा ाथ जोड़कर बोिा,"सा ब,
मझ
ु को गालियाूँ तयों दे ते ो ? मैं
मेशा भाडेपर गाड़ी चिाता ूूँ । रात, हदन का मेरा तेल् ाराका रास्ता पररगचत ै।
बैि भी क ी मड़
ु े न ी, लसधे य ीपर आये और सरोिर दे खकर रुक गये। य कैसे ु आ मैं न ी जानता। "तब किर
मनमें समझ गया की ो न ो य समथिका ी कृत्य ै । मैं प्रसाद ग्र ण करके न ीिं र्नकिा। बािाभाऊ का क ना
न ीिं माना इसीका ये पररणाम ै। मनमें प्राथिना करने िगा। " े गजानन !य तो भयानक जिंगि हदखाई पड़ र ा
ै । य ाूँ आपके बबना मेरी रक्षा कौन कर सकता ै ?इतनेमें तािाब के दस
ू री बाजूसे घग
िंु रू-घिं्ीकी ध्िर्न सन
ु ाई पड़ी,
तब डात्रने गाडीिानसे क ाूँ, इस सिंकेतपर बैिको ाूँको। प्रमख
ु रास्ता दरू न ीिं ै। " ि सन
ु कर उसी आिाजकी
हदशामें दमनी िेकर बढ़ा - कािं्े क्षुपोउमे बैि ाक कर प्रमख
ु रास्तेपर प ुूँ चा। डात्रने जब अन्य गाडीिािोंसे पछ
ू ा,
तो पता चिा की ि शेगाूँिका ी सीमान्त था। तो किंिरने गाडीिानसे क ा की,"शेगाूँि िापस चिो। सय ू ोदयके
समय किंिर शेगाूँि प ुूँ चा। उसने सारा ित
ृ ान्त बािाभाऊ से बताया। य सन
ु कर बािाभाऊने क ा,"व्यर्तपात मैं
आपको म ाराजने जाने न ीिं हदया, य ठीक ी ु आ। आज प्रसाद ग्र ण करके कि तेल् ारा जाओ। प्रसादका
पररत्याग कभी न ीिं करना चाह ये। आप समथिके भतत ो इसीलिये उन् ोंने तुम् े िापस िाया। मानिके सारे
प्रयत्न सिि ी ोंगे, ऐसा कोई र्नश्चय न ीिं। सिंतके मनमे जो ोगा ि ी ोकर र े गा। इसीलिये म ाराजके चरणोंमें
श्रद्धा रखकर स्िस्थ ो जाओ।" इसतर किंिर दस
ू रे हदन प्रसाद िेकर किर तेल् ारा गया, अस्तु।

॥ श्री गजानन विजय ग्रन्थ ॥


199
रतनसा नामक एक भािसार जार्तका ग ृ स्थ था। उसको हदनकर नामक एक िषि का एक िड़का था । उसको मड
ू दस

की बीमारी ो गई। य सख
ु िंडी रोग प्रायः बािकोंको ोता ै । म ाराष्री भाषामे इसको स्िी भी क ते ै।
ब्चा एकदम सख
ु गया। केिि त्िचा र गई , सारी अग्स्थयाूँ अपना अग्स्तत्ि त्िचाके बा र िे आने िगी। बड़े
बड़े िैद्य िाये ककन्तु कुछ िायदा न ीिं ु आ। उसे सतत ज्िर र ता और दधू , पानी भी उसका छू् गया। िैद्योने
रतनसासे क ा कक , "अब य तुम् ारे ाथ न ीिं िग सकता। इसे औषगध दे ना व्यथि ै । साध्य -असाध्यता का
विचार अिश्य करना चाह ये। भिा क ी समद्र
ु पर पि
ु बािंध सकता ै ? य सन
ु कर रतनसा रोने िगा। अन्तमे
उसने मनमें विचार ककया की आखरी उपाय करके दे खनेमें कोई जि न ीिं। उस ब्चेकी अिस्था दे खकर घरके िोग
रुदन करने िगे। उसके ाथ पैर ठिं डे पड गये, नाड़ी छु् गई और नेत्रतेज क्षीण ो गया। ऐसी अिस्थामें रतनसाने
ब्चा दो ाथोंपर उठाया, गजानन म ाराजके द्िारपर रखा और सिंकल्प ककया की, मेरा य बािक रोगमत
ु त ो गया
तो मैं पाूँच रुपयेका प्रसाद बा्ुूँगा। आपने सबको सििता दी, मैं आपका ी ूूँ , मेरी उपेक्षा मत कीग्जये। इस
बािकपर कृपा कररये। यहद मेरा य बािक आपके द्िारपर मर जाता ै तो सारे बराड़मे आपकी अपकीर्ति ोगी।
सारे िोग आजतक क ते आये ै कक ,"आपके चरण अमत
ृ ै , इस बािकपर कृपा कररये। मैंने र्नश्चय ककया ै कक
यहद मेरा य बािक न ीिं उठा तो मैं आपके चरणोंपर लसर प्ककर मर जाऊूँगा। े म ापरु
ु ष ! मझ
ु े इसके दःु खमे
कग्ष्् मत कररये। थोड़ी दे रमें चमत्कार ऐसा ु आ की ि बािक ाथ पैर चिाने िगा। उसकी नाड़ी व्यिग्स्थत ो
गई और ि रुदन करने िगा। य दे खकर सबको बड़ा आनिंद ु आ। भिा समथिकी कृपा ोनेपर दःु ख कैसे र
सकता ै भिा सरू जके सामने अिंधकार र ना सम्भि ै हदनकर थोड़े हदनोंमें पण
ू ि स्िस्थ ो गया। इस प्रकार म ाराज
सत्य सिंकल्प दाता ै।

॥ श्री गजानन विजय ग्रन्थ ॥


200
सिंतोंकी कृपा अनमोि ोती ै ।, उसका मल्
ू य न ीिं ककया जा सकता। राजा नामक कोल् ्करका पत्र
ु सिंतकृपा का ी
िि ै । रामचिंद्र पा्ीिकी चन्द्रभागा नामक एक कन्या थी, ग्जसकी ससरु ाि िाडेगाूँि में थी। ि अठरा िषिकी
थी, ि गभििर्त ु ई तो बड़ी अद्भत
ु घ्ना घ्ी। प्रसतू ीमे ग्स्त्रयाूँका दस
ू रा जन्म ी ोता ै । जनरीर्तके अनस ु ार
चन्द्रभागाको प्रसर्ू तके लिये मायके शेगाूँि िाया गया। ि ाूँपर प्रसर्ू तके बड़े कष््में थी और उसे प्रसर्ू तके ज्िरमे
आिािंत कर हदया। पा्ीिने कई डात्रोंसे इिाज करिाया ककन्तु उसके ज्िरमे कोई िाभ न ीिं ु आ। थोड़ा ब ु त
आराम ु आ तयोंकक व्यागध ककिंगचत कािको दबी ककन्तु र्नःशेष न ी ु ई। ग्जससे चन्द्रभागा बार बार बीमार पड़ने
िगी। एक बार उसे औषधोपचार को आकोिा िे गये। तो ि ाूँके कुछ िैद्य बोिे,"इसे निसिंग्र णी ो गई। कईयोने
क ा,"उसे राजयक्ष्मा ो गया। " इसतर ककलससेभी र्नग्श्चत र्नदान न ु आ। अन्तमे पा्ीि ने विचार ककया की अब
िैद्य गजानन ी ै । "औषधिं जान् िी तोयिं, िैद्यो नारायणो ररः "ऐसी क ाित ै । उन् ोंने क ा, "म ाराजकी भस्म
प्रर्तहदन िगाओ और म ाराजका चरण तीथि वपिाओ। चा े म ाराज तारे या मारे , दस
ू रा कोई उपाय न ीिं। वपता
रामचन्द्र पा्ीि म ाराजके बड़े र्नष्ठािान भतत थे। धीरे धीरे उस िडकीको िाभ ोने िगा। जो शय्यासे उठ न ीिं
सकती थी, ि चिकर पैदि मठ में म ाराजके दशिनको आई। ऐसा भस्मका अलमत प्रभाि ै । ग्जसकी दृढ़ र्नष्ठा
ै उसको अिश्य िि लमिता ै। उपास्य दे ितापर उपासक की दृढ़ श्रद्धा ोनी चाह ये। रामचन्द्र पा्ीि की पग्त्न
जानकीबाई, जो बड़ी सि
ु क्षणा थी ककन्तु दै ियोग ककसीको चक
ु ता न ीिं। बार बार उसके पे्में ददि ोता था। ि
िायश
ू ि
ू था। अनेक औषगधयाूँ दी ककन्तु तात्कालिक िाभ ोता और किर पे्में ददि ोता ी था। य ग्स्थती कई
हदन र ी। अन्तमे उसका पररणाम य ु आ कक ि िायू मग्स्तष्क में प्रविष्् ोकर उन्मादमे पररिर्तित ो गया।
ग्जससे ि उन्मत्तित आचरण करने िगी। कभी सो जाती तो कभी खाती ी र ती। कई िोग क ने िगे,"इसे
वपशा्चबाधा ो गई। कुछ क ने िगे की य करनी का प्रभाि ै। ककसीने करनी कर दी। जो सत्ताधीश ोते ै

॥ श्री गजानन विजय ग्रन्थ ॥


201
उनकी शत्रत
ु ा कईओिंसे ोती ै। सो दब
ु ि
ि शत्रु करनी ्ोना से अपना जोर बताते ै । "कई प्रकार के औषध हदये।
ओझा िोगोंको बि
ु ाकर झाड़ ििंू क की। कई प्रकार के धागे दोरे बाूँधे उस जानकीबाई के ाथ में, ककन्तु िाभ न ीिं
ु आ। पा्ीि धनिान थे और इस व्याधी से सिंक् में पड गये थे। उसका दािंलभक िोग, िाभ उठाकर उनसे धन
ि् ू ते थे। जो जैसा उपाय बताता पा्ीि अपनी पग्त्न के लिये ि ी करते ककन्तु ि ठीक न ीिं ु ई। अन्त में
पा्ीि ने विचार ककया कक, मैं गजानन पत्र
ु ूूँ और मेरी पग्त्न उनकी ब ू िगती ै । अब ओझा गजानन ी ै ,
दस
ू रे ओझाकी आिश्यकता न ीिं। उन् ोंने अपनी पत्नीसे क ा, किसे तुम मठमे जाकर समागधको प्रदक्षक्षणा करने
िगो। ि पतीका क ना मान गई। और प्रर्तहदन स्नान करके समागधको प्रदक्षणा करने िगी। सद्गुरुनाथको की
गई प्रदक्षक्षणाये सिि ु ई। उसका िातविकार नष्् ोकर ि र्नदोष ो गयी। स्चे सिंतोंकी सेिा कभी व्यथि न ीिं
ोती ककन्तु मनष्ु य की र्नष्ठा बैठना कहठन ोता ै ।

समथि के बाद बािाभाऊ गादीपर बैठे। म ाराजके प्रतापसे उनके भी कुछ थोड़े चमत्कार ु ए. ये िैशाख िद्य षग्ष्ठ
को शेगाूँि में ी बैकिंु ठ को प्राप्त ु ए। उनके बाद नारायण गादीपर बैठे। बािाभाऊ जब गये तो नारायण को नािंदरु ा
गाूँि में स्िप्न पड़ा था। ि कथा बताता ूूँ । स्िप्न में म ाराज बोिे,"अरे नारायण मािी ! तुम भाविक जनोंकी
रक्षा करने शेगाूँि जाओ। "ऐसा क कर गजानन म ाराज चिे गये। ि सन ु कर नारायण शेगाूँि आये। कुछ हदन
इन् ोनें भी अगधकार चिाया। ये चैत्र शद्ध
ु शग्ष्ठ को समागधस्थु ए। पि
ू ि स्िीकृर्तके बबना सिंतसेिा न ीिं लमिती।
सिंतसेिाके पण्
ु य का पार न ीिं। इस तर श्री गजानन की िीिा का कभी पार न ीिं िगेगा, जैसे गगन के तारकाओिंकी
गणना न ीिं ी सकती। मैं अज्ञानी
ूूँ, पामर ूूँ, बवु द्धतों मझ
ु मे र्तिमात्र न ीिं ै । किर भिा श्री गजानन िीिा के
समद्र
ु का मैं मख
ु से िणिन कैसे कर सकता ूूँ ? उन् ोंने जो कुछ क ििाया िा ी मैंने क ा, इसमे मेरा कुछ न ीिं।

॥ श्री गजानन विजय ग्रन्थ ॥


202
िेखनीने अक्षर लिखे ककन्तु ि उसका क ििाया, ि ी मैंने क ा, इसमे मेरा कुछ न ीिं। िेखनीने अक्षर लिखे ककन्तु
ि उसका सामर्थयि न ीिं। य िेखनी ग्जसके ाथमें ोती ै ि ी सारे अक्षर लिखता ै। िेखनी लिखनेमें केिि
र्नलमत्तकारण ोती ै।ि उसका सामर्थयि न ीिं। िैसे ी य ाूँ ु आ ै। मैंने िेखनीका काम ककया। लिखने -लिखानेिािे
स्िामी गजानन ै । उन् ीकी कृपासे मैंने य लिखा। विद्िज्जनों ! इसमें मेरा कोई बड़प्पन न ीिं। स्िग्स्त श्री
दासगणू विरगचत य श्री गजानन विजय ग्रन्थ अब किशके सलमप आ गया। अगिा अध्याय किशाध्याय ै।

॥शभ
ु िं भितु। श्री रर रापिणमस्तु ॥
|| इर्तश्री गजानन विजय ग्रन्थस्य वििंशर्ततमोsध्यायः समाप्त: ||

॥ श्री गजानन विजय ग्रन्थ ॥


203
||अध्याय २१||

श्री गणेशाय नमः। े अनिंतिेष अविनाशी! परे श ब्रम् ाण्डागधपर्त, आप की जय ो। े भगिन! आपका नाम पर्ततपािन
ै । इसका विचार कररये। े प्रभो! पापी जनोंपर आपका अलमत प्रेम ोता ै और पापीजनोनेँ ी आपकी म त्ता बढ़ाई
ै । पर्तत और पापी न ोते तो आपका पर्तत पािन ि ररनाम कैसे पड़ता? इसीलिये े ऋवषकेश !मेरे पातकोंकी
ओर न दे णखये। ज़ि से मि स्ि्छ ोता ै इसीलिये मैिा कपड़ा जिके पास जाता ै। े घननीि !पर्ततों का
र्तरस्कार मत कररये !तया भम
ू ी सौंदड िक्ष
ृ को त्याग दे ती ै । (सौंदड िक्ष
ृ में काूँ्े ोते ै )आप ी पर्ततपािन ो।
आप ी पण्
ु यपािन ो किर भी ये दोनो दोषोंसे आप अिग ो। जैसे सय
ू ि अिंधकार का नाश करता ै तो तया उसको
कुछ कष्् पड़ता ै ?उसको तमनाश के लिये कुछ न ीिं करना पड़ता। अिंधकार जैसे जैसे सय
ू ि से लमिने आता िैसे
ि स्ियिं प्रकाशरूप ो जाता ै और उसका तमस्िरूप चिा जाता ै , े नारायण !पापी और पण्
ु यात्मा आप ी अपना
श्रेष्ठत्ि रखने के लिये र्नमािण करते ो। कुछ भी ो, अब इस दासगणु को गचिंता रह त करके अपनी शरण में िे
िो। आपके बबना इस सिंसार में मेरा कोई आश्रय न ीिं ै। े पािंडुरिं ग !सब कुछ आपके ाथ में ै। श्रोतागण अब
सािधान ोकर इस किशाध्याय का श्रिण कर कररये। आप िोग म ान भानयशािी ै ,जो सिंतकथा का श्रिण कर
र े ो। ग्जसकी एकर्नष्ठ श्रद्धा गजानन म ाराज के चरणों में ो गई, ऊसकी दःु ख तथा सिंक्ों की ोिीका ी ोती
ै , इस में शिंका का कोई स्थि न ीिं ै।

॥ श्री गजानन विजय ग्रन्थ ॥


204
मिंहदर का लशखर बाूँधते समय गििंडी के ाथतिे एक मजूर काम कर र ा था। लमस्तरी को पत्थर दे ते समय उस का
तोि चिा गया और ि तीस िू् उूँ ची से नीचे तािंसे ु ये पत्थरपर गगर पड़ा। उस को गगरते ु ए िोगोने दे खा और
सोचा कीिं, इतनी ऊॅंचाईसे गगरनेपर इसकी मत्ृ यु र्नग्श्चत ै, बचना कहठन ै । ककन्तु आश्चयि की बात य ु ई कक
,उसे क ीपर भी चो् न ीिं आई। जैसे गें द झेिकर रखी जाती ै ,िैसे
ु आ। जैसे कोई सीहढ़यों से जमीनपर उतरता
ै िैसे ी उस मजदरू का ु आ। उसने िोगों से क ा कक, जब मेरा तोि गया तो ककसीने मेरा ाथ पकड़कर भलू मपर
खड़ा ककया। भलू मपर मेरे पैर िगते ी ि अदश्ॄ य ो गया। य ित्ृ तािंत सन ु कर िोगोंको अत्यानिंद ु आ। समथि
ककसीका अलभशाप न ीिं िेत।े दै ियोग से ी य तेरे पतन का योग आया। इस समय साक्षात समथि के ाथ का स्पशि
तुझे ु आ, भिा ऐसा ककसीका भानय क ाूँ ?

एक राजपत
ू नी जयपरू से शेगाूँि आई। उसको वपशा्च बाधा थी। उसको जयपरू में दत्तात्रयजीने सिा दी कक, इस
रामनिमीके हदन तम
ु शेगाूँि जाओ। ि ाूँपर सिंत गजानन म ाराज जागत
ृ दै ित ै, िे तेरे वपशा्च को मग्ु तत दें गे।
ऐसा दृष््ािंत ोनेपर अपने दो पत्र
ु ोंको िेकर ि राजपत
ू नी शेगाूँि आई। प्रर्तपदा से ी उत्सि का प्रारिं भ
ु आ और
निमी में अपार जन समद ु ाय इकठ्ठा ु आ। सभामिंडप का काम चि र ा था और बड़े घड़े ु ए स्तिंभ खड़े ककये थे। ये
सब सिंगमरिर के पत्थर के थे। जो रे क स्तिंभ पाूँच िू् ऊॅंचा और डेढ़ िू् चौड़ा था। उस्ति के कारण भततोंने
काम बिंद कर हदया था। स्तिंभ केिि खड़े ककये थे। श्रीरामचन्द्र का जन्म ु आ और और प्रसाद के लिये प्रचिंड जन
समद
ु ाय उमड़ पड़ा, ग्जसका िणिन मझ
ु से न ी ककया जाता।

॥ श्री गजानन विजय ग्रन्थ ॥


205
ऎसी भीड़ में ि राजपत
ु नी एक स्तिंभ के आश्रय से खड़ी थी ककन्तु उल््ा ीु आ। ि स्तिंभ उसके शरीरपर गगर
पड़ा और ि स्तिंभ के नीचे दब गई। सब िोग सोचने िगे ,कक ि दबकर मर गई। य स्त्री पि
ू ि
ि त स्िस्थ ोकर
जयपरु गई और आनिंदपि
ू क
ि प्रपिंच करने िगी। ऐसा स्िामी गजानन का अलमत प्रभाि ै । क ाूँकी ै ?कौन ै ?इसके
दो ब्चे भी नीचे दबे दीखते ै। दस-बीस जनोंने लमिकर स्तिंभ उठाकर और उसके मख
ु में जि डािा तथा उपचाराथि
मह िा गचककत्सािय में भेजा। उस समय सईबाई मो्े गचककत्सािय में 'िोबो 'नामक एक णिश्चन मह िा गचककत्सक
थी। उस काि में ि प्रलसद्ध शल्य गचककत्सक थी। उसने उस राजपत
ू नीपर सामान्य उपचार करके भेज हदया और
खा कक इसे क ी भी कोई चो् न ीिं आई ै, य स्िस्थ ै। य 'िोबो 'येशु णिस्त की बड़ी भतत थी। िास्ति में
य आश्चयिकारक घ्ना ै, कक इतना बड़ा िजनदार स्तिंभ उसपर गगरा और उसे बबल्कुि चो् न ी आई। उसका
शरीर कैसे सरु क्षक्षत र ा? उस घ्ना का कारण शायद य ै कक जो स्तिंभ गगरा ि उस वपशाच को मत
ु त करने के
लिये गजानन म ाराजने गगराया। यद्यवप िौककक िोगोंके दृग्ष््मे ि स्तिंभ राजपत
ू नीके शरीरपर गगरा ककन्तु ि
उसपर गगर ी न ीिं उसके शरीर में जो वपशा्च था उसपर गगरा और ि मत
ु त ो गया। ि स्त्री पि
ू ि
ि त स्िस्थ
ोकर जयपरु गई और आनिंदपि
ू क
ि प्रपिंच करने िगी। ऐसा स्िामी गजानन का अलमत प्रभाि ै।

ऐसे ी एक उस्ति के समय मिंडप खोिते समय नाईक निरे नामक व्यग्ततपर एक बड़ी बल्िी गगर पड़ी। ि बड़ी
बल्िी थी ककन्तु म ाराज की कृपासे नाईक निरे को बबल्कुि क ीिं भी चो् न ीिं आई, िे बाििंबाि बच गये।

॥ श्री गजानन विजय ग्रन्थ ॥


206
कृष्णाजी पा्ीि के पत्र
ु रामचिंद्र पा्ीि। जो म ाराज के परमभतत थे इन् ोंने अिंततक मिंहदर का कायिि न कर
म ाराज की सेिा की। इनके घरपर एक रोज मध्यान् के समय एक साक्षात्कारी गोसाूँई के रूपमें आये और रामचन्द्र
पा्ीि को आिाज दी कक ,मझ
ु े भक
ू िगी ै । कुछ अन्न खानेको दोगे तया? पा्ीि बड़े भाविक िग्ृ त्त के थे। गोसाूँई
की आिाज सन
ु कर बा र आये।

जब सक्ष्
ू मता से र्नरक्षण करके दे खा तो ि इस र्नश्चयपर प ुूँ चा कक ो न ो, ये गजानन म ाराज ी ै । गोसाूँई
का ाथ पकड़कर घरमें िा कर वपढे पर बबठाया और यथाविगध पज ू न ककया। गोसाूँईने पा्ीि से क ा,'ब्चा !आज मैं
जानबझ
ू कर तुम् ें कुछ बतानेके लिये आया ूूँ , ध्यान दे कर सन
ु ो। गग्रश्म काि में गोदािरी का जि थोड़ा सख
ु जाता
ै । िैसे ी य ुआ ै। तुम ऋण की गचिंता मत करों। ि समाप्त ो जायगा, सिंपन्नता की बाढ़ आयेगी। श्री रर
की कृपारूपी मेघिषाि से सब ोगा। ज ाूँपर मेरा जूठन गगरता ै ि ाूँ ककसी गचज की न्यन
ू ता न ीिं ोती। थाि परोस
कर िाओ। सग्र
ु ास भोजन दो और इ्छा ो तो एकाद िस्त्र शरीरपर डािो। याचककी की ु ई पज ू ा और दक्षक्षणा उसे
हदया ु आ अन्न साक्षात नारायण को प्राप्त ोता ै। तयोंकी श्रर्ु त क ती ै "अर्तथी दे िो भि "ककन्तु ि अर्तगथ
शद्ध
ु ोना चाह ये। उसके बबना य कौतकु असम्भि ै । पा्ीिने थाि परोसकर िाया और गोसाूँईने बड़े प्रेमसे भोजन
ककया। उसपर उसके ाथपर पा्ीिने दक्षक्षणा के रूपमे पाूँच रूपये रखे। तब गोसाईने क ाूँ, पा्ीि म बैरागी ै , य
दक्षक्षणा मझ
ु े न ी चाह ये, दक्षक्षणाके रूपमे आप िचन हदजीये की गजाननके मठ का कयिि न तुम करोंगे, य ी मेरी
दक्षक्षणा ै , इसे बतानेको ी मै आया
ूूँ । समथि सेिारूप दक्षक्षणा दे नेिािा तुम् ारे बबना दस
ु रा ितिमानमे कोई न ी ै ।
तुम् ारी पत्नी जो बारबार बबमार पड़ती ै ि भी इस दक्षक्षणा से व्यागधमत ु त ो जायेगी। तुम अपने पत्रु को बिु ाओ।
उसके गिेमे एक ताबीज़ बािंधग
ू ा ग्जससे उसे कोई बाधा न ी ोगी। तयोंकी सत्ता सिंसारमे बैरका मि
ू ै । पानी ी

॥ श्री गजानन विजय ग्रन्थ ॥


207
पानीका शत्रु ोता ै । तुम् ारी पा्ीिकी ितनदारी अिश्य सम् ािो ि एक प्रकारका किच ै । उसका उपयोग बड़ा
सम् ािकर करना। ककसीका द्िेष मत करना और सग्न्नर्त न ी छोड़ना। ितिमान शासनके विरुद्ध कभी न जाना।
उसी प्रकार दािंलभक और सिंतोकी प चान करके व्यि ार करना, ऐसा आचरण करनेपर साक्षात िक्ष्मीपती तम्
ु ारे ऋणी
र ें गे, य मेरा िचन सत्य समझो। आिकके अनस
ु ार खचि करो। सिंतका अपमान करनेपर ईश्िरका कोप ोता ै । सो
स्चे सिंतका कभी अपमान न करना। सिंत चरणोमे प्रेम करो। अपने ििंशजोकी न्यन
ु ता मनमे कभी न रखना। बा र
दे खनेको भिे ी िोध करो ककन्तु हृदयमे दया रखना जैसे क् िके ििपर उपर कािं्े ोते ै ककन्तु अिंदर मधरु और
पष्ु ् गगरर ोती ै । मै सदै ि तुम् ारे वपछे खड़ा
ूूँ " ऐसा क कर गिेमे ताबीज बािंधकर गोसाूँई रास्तेपर चि पड़ा।
और अदृश्य ो गया। पा्ीिने सोचा की स्ियिं गजानन म ाराज ी मझ ु े उपदे श दे ने गोसाूँई रूपमे आये थे। राबत्रको
स्िप्नमे आकर पा्ीिकी शिंकाका र्निारण ककया। ऐसे श्री गजानन म ाराज भततित्सि ै । य गजानन म ाराजका
चररत्र परम पवित्र तथा तारक ै ककन्तु दढ़
ॄ र्नष्ठा चाह ये। अब ग्रन्थकी अितरणीका दे ता ूूँ, पण
ू ि सािधान ोकर
सन
ु ो, समय मत बबताओ।

प िे अध्यायमे मिंगिाचरण और गुरु ििंदनाके पश्चात म ाराजके पि


ू ि चररत्रके बारे मे बताया और माघ िद्य सप्तमीको
दे िीदासके घरके पास प्रक् ोना और चाणाक्ष बिंक्िाि और दामोदर द्िारा उनका परीक्षण बताया।

दस
ू रे अध्यायमे गोवििंदबि
ु ा के कीतिन मे म ाराजका आकर बैठना। पीतािंबरका चमत्कार और म ाराजका बिंक्िािके
घर जाना िणिन ककया।

॥ श्री गजानन विजय ग्रन्थ ॥


208
र्तसरे अध्यायमे गोसाूँई द्िारा गािंजा अपिणका सिंकल्प, उसकी पत
ू ी और तबसे मठमे गािंजाकी प्रथका िणिन ककया।
जानराि दे शमख
ु का सिंक् ्ािना -तीथि द्िारा मत्ृ यु के प्रकार विस्तारपि
ू क
ि बताकर विठोबा घा्ोळ को म ाराज ने
ताड़न ककया ि कथा क ी।

चतुथि अध्याय में जानकीराम ने गचिीम के लिये अग्नन न ीिं हदया उनके गचिंचणीमे कीड़े पड़ना, अन्न का व्यथि ोना,
प्राथिना के बाद उसको क्षमा और पि
ू ि
ि त अन्न ोना तथा जानकीराम म ाराज का भतत ो गया उसी प्रकार घड़े में
रखे गोझीया की कथा का िणिन ककया। गचिंचोिी में माधि को यमिोक बताकर मत
ु त करना -लशष्योके द्िारा िसिंतपज
ू ा
इत्यहद का िणिन।

पाूँचिे अध्याय में म ाराज का वपिंपिगाूँि के लशिमिंहदर में बैठना, गोपािों का पज


ू न, म ाराज को वपिंपिगाूँि िे
जाना तथा बिंक्िाि का ि ाूँ जाकर म ाराज को िापस शेगाूँि िाना बताया। अकोिी में म ाराज का जाना, सख
ू े
कूँु एको जिपण
ू ि करके भास्कर की भ्राग्न्त नष्् करना, उसका म ाराज, साथ शेगाूँि आना बताया।

छठे अध्याय में मकईके भट्ट


ु े खानेके लिए म ाराजका जाना ,मधम
ु क्षक्षकाओिं का विक्षोभ, म ाराज को उसकी बाधा न
ोना, बिंक्िाि की लशष्यत्ि परीक्षा, योग सामथि से मधम
ु क्षक्षयो के काूँ्े र्नकािना। आको् के नरलसिंगजी को
म ाराज का लमिने जाना -उनसे िाताििाप चिंद्रभागा के ककनारे , ब्रजभष
ू णपर कृपा, नम
ु ानजी के मिंहदर में श्रािण
मास के उत्सि में म ाराज का र ने को आना इत्याहद का िणिन।

॥ श्री गजानन विजय ग्रन्थ ॥


209
सप्तमोध्याय में रर पा्ीि की उद्दामता, उसका गिि रण, रर पा्ीि को मल्ि विद्या का प्रत्यिंतर बताना। गन्नेका
चमत्कार बताकर खिंडू पा्ीि को लभका नाम का पत्र
ु दे ना बताया।

आठिे अध्याय में पा्ीि कक विरुद्ध दे शमख


ु ों के बैर का िणिन, पा्ीि के विरुद्ध दे शमख
ु ोने हद ु ई अजी, उसका
र्नदोष छू्ना और तैििंग ब्राम्ह्णों के िेद पठन की शवु द्ध बताकर, सिंकेतसे अपना पररचय दे ना। कृष्णाजीके मल्िे में
शिंकर मिंहदर के पास र्निास,'नैनिं र्छन्दग्न्त 'श्र्िोक का प्रात्यक्षक्षक ,ब्रम् गगरी गोसाूँई का गिि रण बताया जिते पििंग
की कथा का िणिन।

नििे अध्याय के उद्दाम घोड़ेको सरि करना। गािंजा की कथा, दासनिमी के, उत्सि में समथि के रूप में बािकृष्ण के
घर जाना, उसको समथिरूप में दशिन दे ना, आहद कथाए ै।

दसिे अध्याय में अमरािती की कथा ै । गणेश अप्पा चन्द्राबाई का म ाराजके चरणों में सिंसार का अपिण -बािाभाऊ
की उपरती, गणेश दादा खापडे को आशीिािद और बािाभाऊ को छाते से मारने की कथा। सख
ु िाि की उददिं ड गाय
को गरीब करना, घड़
ू े की दािंलभक भग्तत का िणिन।

नयार िे अध्याय में -भास्करको श्िान दिं श, त्र्यिंबकेश्िर दशिन को म ाराज का जाना। गोपािदासका लमिन, झ्यामलसिंग
की प्राथिना स्िीकारकर आड़गाूँि जाना। उसी प्रकार भास्कर का र्नजधाम गमन - द्िारकेश्िर के पास सतीबाई के

॥ श्री गजानन विजय ग्रन्थ ॥


210
पास उसके दे का रखना, कागोको आज्ञा और गणू जिरे की सरु िं ग उडनेपर कूँु एूँमें रक्षा करना आहद कथाएूँ क ी।
शेठ ब्चि
ु ाि की कथा इसी में ै।

बार िे अध्यायमे म ाराज की र्नरर्छ्ता -पीतािंबर स्िामीके िस्त्र प नना - उसका स्िे्छा से कोंडािी में जाना -
ि ाूँ उसका ग्स्थर ोना और ि ाूँ समाधी ग्र ण करना- उसके मठ की स्थापना आहद का िणिन, श्री गजानन
म ाराजका रे तीकी गाड़ीमे बैठकर नये मठ में आना।

तेर िे अध्यायमे गोसाइके गिीत कुष्ठ का नाश ककया, गजानन म ाराज ने बिंडुतात्या को धन बताकर उसको
ऋणमत
ु त करना, झ्यामलसिंग द्िारा म ाराजको मिंड
ु गाूँि िे जाया जाना -पजिन्य से भिंडार का विक्षेप, झ्यामलसिंग द्िारा
अपनी इस््े ् म ाराज को अपिण करना, पड
िंु लिक की सग्न्नपातीक ज्िर की ग्रग्न्थ का बैठना, आहदका िणिन ै।

चौद िे अध्यायमे सोमिती अमािस्याको नमिदा स्नान के लिये जाना - स्ियिं नमिदा द्िारा िू्ी नौका ककनारे िगाने
का िणिन ै। माधिनाथ का बीरा भेजने की कथा ै।

पिंद रिे अध्याय में लशि जयिंती र्नलमत्त आकोिा की सभामे बाि गिंगाधर र्तिकको आशीिािद, कोल् ्कर द्िारा
उन् ें रो्ी प्रसाद रूप में भेजने की कथा ै। श्रीधर कािे को वििायत जानेसे रोकना आहद कथाएूँ ै।

॥ श्री गजानन विजय ग्रन्थ ॥


211
सोि िे अध्यायमे पिंड
ु लिक को अन्य गुरु करनेसे रोकने का, अिंजनगाूँि में सपने में आदे श, पादक
ु ाओिंका प्रसाद दे ना,
किंिर की रो्ी- भाजी का भोजन करना, तक
ु ाराम के छरे का उसके कानमेसे गगरनेकी कथा का िणिन ै।

सतर िे अध्यायमे विष्णस


ु ा के घर मिकापरु जाते समय रे न के अिंदर ु आ ितृ ान्त, पलु िस द्िारा अलभयान और
नननता के लिये भास्कर को दिं ड , म े ताबशा को पिंजाब भेजना -ह द
िं ू -यिनोंकी एकता के लिये उपदे श - बापरू ाि के
पत्नीकी भानामती -बाधा का र्निारण।

अठरािे में आको् में गिंगाभारती की भे्, बायजा गौिन की कथा का समािेश ै। म ाराज का पिंढरपरू जाना,
बापन
ू ा कािे को विठ्ठि दशिन, किठे ब ादरू के िारकरी की विषगु चका से प्राण रक्षा आहद का िणिन ै।

उन्नीसिें अध्याय में काशीनाथपिंत को आशीिािद दे ना। नागपरु के गोपाि ब्


ु ी द्िारा म ाराज को नागपरु िे जाना,
म ाराज को ि ाूँ रखना, रर पा्ीि द्िारा म ाराजको िापस शेगाूँि िाना। धारकल्याण के रिं गनाथ साधू की भें ्,
िासद
ु े िानिंद सरस्िती की - शेगाूँि में म ाराज की भें ्, बािाभाऊ का सिंशय र्नराकरण, खिी ान की राशी का सिंरक्षण,
नारायण नाम िािदार का म ाराजको बािापरु मे ताडन करनेके कारण उसकी मत्ृ य,ू जाखडे का वििा , र्नमोणकरको
कवपिधारा पर दशिन, तुकाराम द्िारा अपना नारायण नामका पत्र
ु म ाराज के सेिाथि अपिण करनेकी कथा और
भाद्रपद मा मे आधर्ु नक काि के म वषि का समागधस्थ ोनेका िणिन ै।

॥ श्री गजानन विजय ग्रन्थ ॥


212
बीसिे अध्यायमे समागधग्र ण के बाद जो चमत्कार ु ए उनका िणिन ै। जो जो भाविक एकर्नष्ठा से म ाराजकी
सेिा करते ै उन् ें म ाराज अभी भी दशिन दे ते ै।

य एकविसािा अध्याय सबका किशरूप ै, जो सब अध्यायोंका सार रूप ै। भततोने बड़ी में नत से चिंदा जमा
करके इतना सिंद
ु र समाधी का काम ककया, जो भम
ू ी पर क ी न ीिं ै, चारों ओर धमिशािाये ै। इस भव्य कायि में
कईयोने स ायता की, उनके नाम गगनने पर ग्रन्थका ब ु त विस्तार बढ़े गा, ककन्तु जो प्रमख
ु थे उन थोड़ोंके नाम
बताता ूूँ ।

कुकाजी पा्ीि का पत्र


ु रर पा्ीि, सािंगिी गाूँि का बनाजी, उमरी गाूँि का गणाजी और मेसाजी ि्िाड़ी का,
िाडेगाूँि का गिंगाराम, भागु -निंद ू गज
ु ाबाई ,आकोिेकी बनाबाई जो सख
ु दे ि पा्ीि की माता थी , इन् ोने जारो रुपये
हदये। रामचिंद्र कृष्णजी पा्ीि, दत्तू भीकाजी पा्ीि, पिासखेड़का सख
ु दे ि जी और शेगाूँि का मातंड गणपती पा्ीि।
बािचिंद का रतनिाि और पिंचगव् ान का दत्ति
ू ाि उसी गाूँिका बबसनिाि और ्ाकळीगाूँि का अिंबरलसिंग ककसन
बेि मिंडिेकर। सनापरू का र नेिािा गिंगाराम विठोबा पा्ीि सािरे कर। इन दानशरू िोगोने बड़ी बड़ी रकमें दे कर
मठ का काम परू ा ककया। ये सब समथि के परम भतत थे।

कोठीया -कायाििय, रसोईघर इत्याहद समागध के चारो ओर बाूँधे ु ये ै । िोगोने जो चिंदा हदया था सो सब इन
कामोमे खचि ो गया और ब ु तसे काम अधरू े र े थे, सो इस प्रकार की यग्ु तत की, समथि के इस कायि के लिये
िगानपर एक आना धालमिक कर के रूप िगाया। िैसे ी बाजार में वििीके लिये आनेिािी गाडडयोंपर दो पैसे कर

॥ श्री गजानन विजय ग्रन्थ ॥


213
िगाया, जो अर्त सामान्य ोनेसे िोग बड़े षिसे दे ते थे। आज तक समागधके सामने जारो स्िा ाकार ो गये।
उनमे चार ब ु त बड़े और सििश्रत
ु ु ए। ककसनिाि शेठने ब्राह्मणोंके द्िारा एक शतचिंडी अनष्ु ठान भी करिाया।
शतचिंडी का अनष्ु ठान बड़ा कड़क और कहठन ोता ै , थोड़ी सी भी न्यन ू ता से विपरीत पररणाम ोते ै । तयोंकक
जगदिं बा कालिका को कमी जादा , बबल्कुि न ीिं चिता। ककसनिाि के वपता बिंक्िाि प िेसे ी म ाराज के परम
भतत थे। इस शतचिंडीके पण ू ाि ु र्त के हदन बिंक्िाि को बड़ी प्रणाग्न्तक व्यागध उत्पन्न ो गई। सब िोग घबरा
गये की पण
ू ाि ु र्त के हदन इस शतचिंडी अनष्ु ठान में विपरीत विघ्न कैसे ो गया ? बिंक्िािने, ककसनिाि, अपने
पत्र
ु से क ाूँ,"घबराने का कोई कारण न ीिं, मेरे रक्षक पण्
ु यराशी य ाूँ बैठे ै। "

ऐसा क कर य समागधके पास जाकर बैठ गया। पण ू ाि ु र्त का काम करो सब ठीक ो जायेगा। मेरे स्िामी गजानन
य ाूँ बैठे ै , िो भततोंका सिंरक्षण करते ै , कभी विघ्न न ीिं आने दें गे। आगे चिकर ि सत्य ु आ, व्यागध शािंत ो
गई, और इस शतचिंडीसे एक स्त्रीकी वपशा्च बाधा ठीक ो गई। बनाजी र्तडके करके सङ्गविके र नेिािे इन् ोने
य स्िा ाकार ककया। कसरू की गज
ु ाबाई नामक स्त्रीने भी स्िा ाकार कराया था। उसी प्रकार चापड़गाूँि के र नेिािे
िामन शामराि के पत्र
ु ने समागधके सामने यज्ञ करिाया था। ऐसे जारो धमिकृत्य समागधके सामने
ु ए- सत्य -
सत्य ै की गजानन म ाराज साक्षत्कारी ै। जबतक िोग र्नष्ठािान थे तब तक बराड़ सख
ु ी था। जैसे जैसे र्नष्ठािं
काम ोती गई िैसे िैसे बराड़को विपन्नािस्था आई और उस चािंडािी ने दाररद्र मािा बराड़ को प नाई। बराड़ की
उििराभलू मने पैदािार काम कर दी। नयी िा ब ाने िगी ग्जसमे श्रद्धा लशगथि ो गई और बराड़ दद
ु ि शा को प्राप्त
ु आ। म ाराजको य दःु ख असह्य ो गया इसलिये उन् ोंने अपनेको जिमे डुबो लिया, ग्जससे ऐसा िगता ै की
म ाराजने िोगधत ोकर य जि र्नमािण ककया। यहद बराड़ के िोगोंके मनमे पिू ि
ि त सख
ु सिंपन्नता ो ऐसी कामना

॥ श्री गजानन विजय ग्रन्थ ॥


214
ै , तो सबको म ाराजके चरणोमे दृढ़ र्नष्ठा रखकर उनकी सेिा करनी चाह ये। यहद ऐसा न ीिं करें गे तो इससे भी
ज्यादा विपन्नािस्था बराड़ की ोगी। इस गजानन रूपी भलू ममें जो जो आप बोयेंगे ि ी ब ु त ोकर आपको प्राप्त
ोगा। यहद पत्थर पर बीज डािा जाय तो तया ि झाड़ उत्पन्न ोंगे ? इसका विचार करो। जो जो प्रान्त सिंत
सेिा से विन्मख
ु ोता ै, ि ाूँ अकाि और आपत्ती पड़ती ै । धमिश्रद्धा ि बार्घन के सामान ै । यहद ि मनरूपी
कगार छोड़ दे ती ै तो ि ाूँ दि
ु ािसन रूपी लसयारोंका िास अिश्य ोगा।

भग्तत य पवित्र स्त्री ै। अभग्तत िारािंगना ै , ग्जसके साथसे भिा कभी ककसीका कल्याण ु आ ै ? साग्न्नर्त
मत छोडड़ये, धमिश्रद्धा मत छोडड़ये, परस्पर प्रेमभाि रणखये तो ी शग्तत बढ़े गी, यहद आप िोग इस प्रकारका आचरण
करोगे तो ी बराड़को अ्छे हदन प्राप्त ोंगे। िषिमें कमसेकम एक बार श्री गजानन म ाराजका दशिन िीग्जये। और
िषिमें कमसेकम एक बार गजानन चररत्र का पाठ कीग्जये। इस एकवििंशर्त अध्यायिािे गजानन चररत्ररूपी मोदकोंका
नैिेद्य श्री गजानन म ाराजको समवपित कररये। ये सब अध्याय एकविस डुबके ग्
ु छ पारायण करके म ाराजको
चढ़ाइये। मानि का जो सद्भाि ै ि ी चतगु थिका हदन ै, और प्रेमरूपी चिंद्र का उदय ो तो ी म ाराजको नैिेद्य
चढ़े गा। विद्ितजनों बादमे इस ग्रिंथ के एक एक अक्षर को डुबके अिंकुर समझकर पारायण रूपी व्रतसे म ाराजको
चढ़ाइये और इस ग्रन्थका जो अथि ै, ि ी मोदक ै सो अविििंब म ाराजको चढ़ाकर पिि साधन कररये। य ग्रन्थ
-कादिं बरी न ीिं ै। य श्री गजानन म ाराजकी सत्य िीिा ै। जो इसपर अविश्िास करे गा ि अिश्य डूबेगा।
इसमे कोई सिंदे न ीिं। य गजानन चररत्र जो र्नयमपि
ू क
ि पठान करे गा उसके सब मनोरथ गजानन कृपासे पण
ू ि
ोंगे। श्री गजानन चररत्र य ी ग्रिंथ ै, और इसके अन्तगित जो कथाये ै ि शीति पवित्र भागीरथी जि ै और
मराठी ओवियाूँ ी मानो तरिं ग ै। य स्िामी चररत्र कल्पिक्ष
ृ ै और अध्याय जो ै िे इस कल्पिक्ष
ृ की शाखाएूँ ै।

॥ श्री गजानन विजय ग्रन्थ ॥


215
पद्यरचना ि ी इसके पत्ते ै। जो इस कल्पिक्ष
ृ में भाि रखेगा उसे स्िामीदशिन ोंगे और सिंक् समय में उसका
रक्षण करने समथि अिश्य आयेंगे। ग्जस घरमें इस गजानन चररत्रका पाठ र्नत्य ोगा ि ाूँ गचरकाि िक्ष्मी का
र्निास र े गा। य ग्रन्थ साक्षात गचन्तामणण ै , जो भी आप गचिंतन करें गे िैसा िि आपको अिश्य लमिेगा।

ककन्तु मन में दढ़
ॄ तर विश्िास ोना चाह ये। दररद्र को धनप्राग्प्त ोगी, रोगगयोंका रोग नष्् ोगा, साध्िी स्त्री का
ििंध्यत्ि दरू ोकर पत्र
ु प्राप्ती ोगी। र्नपबु त्रक को पत्र
ु प्राग्प्त और र्नष्कप् पर लमत्रप्राप्ती ोगी। इस ग्रन्थ के पठन
से र्तिमात्र भी गचन्ता न ीिं र े गी। दशमी एकादशी द्िादशी को जो ग्रन्थ पठन करे गा उसको श्री गजानन कृपासे
अनप
ु म भानय प्राप्त ोगा। जो गुरुपष्ु प योगपर शगु चभत
ूि ोकर एकसान मे बैठकर पाठ करे गा उसकी सारी
मनोकामनायें पण
ू ि ोकर ककसी भी प्रकार की यातना ो, ि दरू ोगी। ग्जस घर में य ग्रन्थ रखा ोगा ि ा कभी
भी वपशा्च या ब्रह्मसमिंधका प्रिेश न ीिं ो सकता। ऐसा इस ग्रन्थ का मा ात्म्य ै । जो भाविक ै उनको अिश्य
प्रगचती प्राप्त ोगी, जो दष्ु ्ह्रदय या कुह्ि ै उनको इसकी अनभ
ु त
ू ी असम्भि ैं। जैसे मानससरोिर की उत्पग्त्त
रचना िं सोंके लिये ै , कौओिंको ि ाूँ प्रिेश न ीिं ोता। उसी प्रकार य स्िामी चररत्र मानस सरोिर ै , सिंतसज्जन
जो राज िं स ोते ै, उग्न् का इसमें प्रिेश ै । जैसे पि
ू क
ि ािमें ज्ञानेश्िर, मीराबाई, नरलसिं म े ता, कबीर, नामदे ि,
साूँिता मािी, चोखा म ार, गोरा कुम्भार, बोधिा और दामाजी, उिं बरखेड में एकनाथ, अमिनेर में सखाराम - नालसक
में दे ि मामिेदार, यशििंत और
ु मणाबादमे माणणक प्रभु ो गये, िैसे ी बराड़मे शेगाूँि में श्री गजानन म ाराज ो
गये। उनमे और इनमे कोई अिंतर न ीिं। अन्तमे आप सब भाविकोंसे य प्राथिना ै कक, श्री गजानन चरणोंमें अत्यिंत
प्रेम रणखये। ग्जससे आप सब का जन्म मरणका चतकर छू् जायेगा और आप िोग इस दस्
ु तर भिसागरसे पार

॥ श्री गजानन विजय ग्रन्थ ॥


216
ोंगे। े स्िामी दयाघन ! आपको मेरे लिये करुणा उत्पन्न ो और दासगणू की सब यातनायें कृपा करके र्निारण
कररये। मैं आपका भा् ो गया ूूँ।

मझ
ु े सन्मागि बताइये और मेरे मनमे दि
ु स
ि नाओिंके प्रर्त र्तरस्कार र्नमािण कीग्जये। आमरण िारी ोती र े । सिंत
चरणोंमें अखिंड प्रेम ो। सदै ि गोदािरीपर मेरा र्निास ो। मेरा अलभमान आप रणखये और दासगणको अन्य की
याचना करने का प्रसिंग न िाइये। मैं सब सिंतोंकी चरण धि ु ी ूूँ । मेरा िाज रणखये। पदर पसारकर मैं य िरदान
आपसे माूँगता ूूँ । जैसी आपने प्रेरणा की िैसे ी मैने लिखा, य आपका चररत्र लिखते समय शेगाूँि के मठमें जो
कागदपत्र उपिब्ध थे ि रतनसा ने मझ
ु े िाकर बताये। उन् ीके आधार पर मैंने य ग्रिंथ लिखा ै। क ी पर भी
कल्पना का आश्रय न ीिं लिया। इसलिये कम-जादा के लिये मैं कारण न ीिं ूूँ। यहद इसमे कुछ कम-जादा ु आ ो
तो े गजानन ! मझ
ु े क्षमा करें , य ी प्राथिना।

शके अठरासो एकसष्ठ प्रमागथ नाम सिंित्सर में चैत्र शद्ध


ु प्रर्तपदाको य ग्रन्थ किश को प ुूँ चा शेगाूँि मे । ि
समथि गजानन ने पण
ू ि ककया। बध
ु िार प्रथम प्र र को स्िग्स्त श्री दासगणू विरगचत य गजानन विजय ग्रन्थ
भविकोंके लिये नौका स्िरुप ो, इस भिसागर को तरने के लिये।

॥ शभ
ु िं भितु श्री रर रापिणमस्तु ॥
|| इर्त श्री गजानन विजय ग्रन्थस्य एकवििंशर्तअध्याय समाप्त: ||

॥ श्री गजानन विजय ग्रन्थ ॥


217
॥ पुिंडलिकिरदा री विठ्ठि ॥
॥ सीताकािंत स्मरण जयजयराम ॥
॥ पािितीपते र र म ादे ि ॥

॥ समाप्त ॥

॥ श्री गजानन विजय ग्रन्थ ॥


218
॥ भप
ू ािी ॥
जगाइये अपनों को, श्रीगुरुिर !
रात अब ख़तम ो
नेको ॥ दयाघन ॥
उषःकाि का य र ा पिन,
और कुतकु् का, य चिा किन ॥ ध्रु ॥
सय
ू ,ि सारथी अरुण दे खकर , प्राची र्नज गचत में ॥
प्रभत
ू पि
ु ककत िणिन करने, शब्द न सिंग्र में ॥ १॥
उिक
ू - वपिंगि दे ख अरुण को, भीर्त -ग्रस्त भये ॥
प्राची -प्रािंतर सदगुरु राय ! िाि गुिाि ो गये ॥ २ ॥
चििाक, चिंडोि द्विज सब, प्रभात -बेिा में ॥
सय
ू ि दरसने उत्सक
ु ोकर, मूँडरा र े नभ में ॥ ३ ॥
दशिनाथि तब आगत अनग
ु त आूँगन-आूँचि में ॥
कृपा -ककरण से कृताथि कररये, क े 'गणू 'भि में ॥ ४ ॥
अनि
ु ादक : श्री प. म.ु डािंगरे , पण
ु े

॥ श्री गजानन विजय ग्रन्थ ॥


219
॥ प्रभात - आरती ॥
सदगुरुराय श्री गजानन आरती प्रभाती उतारत ॥
उद्धाराथि ब ु आदर से श्रीचरण -द्िय पकडत ॥ ध्रु ॥
कृपा- ककरणसे ोर्नरस्त अब जड़ताकी रजनी ॥
आशा डाइन ्ी - ्ी करके नचा र ी अिनी ॥
उस कृत्या का बि ै माया -म ामो परू ा ॥
तुझ सम्मख
ु उनका िारा - न्यारा, ै विश्िास मारा ॥
षड्विकार ब ु न्ख् र्नत खड़े करत जिंगाि ॥
भूँिरािं में ैं दे त डुबो , और बढ़ा िेत भि- जाि ॥
भि-भूँिरों में तम
ु ी नौका, पाद -पद्य तारण ॥
सिार उसपर भतत तम्
ु ारे , ो उनका उद्धरण ॥
दासगणू की य विनती ै तुमको िारिं िार ॥
सख
ु मय जीिन जीि जनका ो, कभी न उनकी अबार ॥
अनि
ु ादक : श्री प. म.ु डािंगरे , पण
ु े

॥ श्री गजानन विजय ग्रन्थ ॥


220
आरती
जय दे ि जय दे ि स्िामी गणराय। भाि-आरती स्िीकारें जन-कल्याणाय ॥ ध्रु ॥
जय जय सत गचत स्िरुप स्िामी गजानन। भू पर अितरण ु आ जड़ मर्त उद्धरन
॥ जय दे ि जय दे ि ॥
र्नगण
ुि ब्रह्म सनातन अव्यय अविनाश। ग्स्थरचर व्याप्त जगत में मत
ू ि र ा शेष ॥
तत त्ििं सत्य असिंभय लशि सिंद
ु र नाम। िीिा शद्ध
ु विनोदन धत
ृ मानि धाम
॥ जय दे ि जय दे ि ॥
भान न ोने दे ता मायाित
ृ रखता। "गण गण गणािंत बोतें "र्नत भजन र ता ॥
धाता रर र गुरुिर तू ी सख
ु सदन दृग्ष्् ज ाूँ भी ठ रे तुम दे खत नयन ॥ जय दे ि जय दे ि ॥
िीिा अनिंत हदखायी बिंक् के भिन। सि
ु गा िी गचिम बबना अग्नन- ग न ॥
अिंधकूपमें िू्ा र्छन में मधु नीर। कृपा ब्रह्मगगरी - गरब खरब ककया चरू ॥ जय दे ि जय दे ि ॥
आगध -व्यागध र्निाररत ककये ब ु त सधन। कराये भततोंके ह त श्रीविठ्ठि-दशिन॥
भिसागर तरने नौका ति ् चरण । स्िामी दासगणू का मान्य करें किन ॥ जय दे ि जय दे ि ॥
जय दे ि जय दे ि स्िामी गणराय। भाि-आरती स्िीकारें जन-कल्याणाय ॥ ध्रु ॥
अनि
ु ादक : श्री प. म.ु डािंगरे , पण
ु े

॥ श्री गजानन विजय ग्रन्थ ॥


221
नमस्काराष््कम ्
िोकादभिोप त सिि विचारशग्ततन ्। अिंधाम ् च मोह्तमसामरण लभभत
ू ान ्।
उद्धत्तम
ुि ेि धत
ृ मानिविग्र िं तिं। श्रीमद् गजानन गुरु लशरसा नमालम ॥ १॥
शास्त्रैरनाकलितमग्स्त म ायदीयिं। सम्बोगधतिं श्रर्ु तगणै ििचनेनिं नेर्त |
आविबििभि
ू सगण
ु ाग्न्ित तत परिं तिं। श्रीमदगजाननगुरुमिं लशरसा नमालम || २ ॥
यद्ददशिनात ् भिर्त िुल्ल्तरिं हृदाब्जम ्। अन्तदि धात्यङ्
ु गणिं मदमो रूपिं।
अज्ञानघोरर्तलमरस्य हदिाकरिं तिं। श्रीमदगजाननगरु
ु मिं लशरसा नमालम || ३ ॥
कुण्ठिं मनो भिर्त यद्विषये विचारे । मक
ु ायते च रसना स्तिने प्रित्ृ ता।
्ी भग्ततगम्यमत
ृ िं बत्रगुणरै र्ततिं। श्रीमदगजाननगुरुमिं लशरसा नमालम || ४ ॥
सग््चत्सख
ु िं परममिंगिमात्मरूपिं। जागत्ृ सष
ु ग्ु प्तरह तिं सततिं तरु ीयिं।
ध्यानग्स्थतिं पदनता र्तिविनालशनिं तिं। श्रीमदगजाननगुरुमिं लशरसा नमालम || ५ ॥
पादोद्केन खिु येन सध
ु ामयेन। श्री गजानरािमरणिं कृपा र्नरस्तिं।
माकंङिंसन
ु ि
ु रदिं लशिरूवपणिं तिं। श्रीमदगजाननगुरुमिं लशरसा नमालम || ६ ॥
िापी जिेन रह तावप चकार पण
ू ाि। योिाररणा सम
ु धरु े ण र्नजप्रभािात ्।
भतत्या च शष्ु क हृदयिं सजििं करोत। श्रीमदगजाननगरु
ु मिं लशरसा नमालम || ७ ॥
भग्ततद्रि ढ
ु ास्तु सततिं हृदये महदये। मा में मनो भितु मो मयिं कदावप।
श्िोकैरतो िसलु मतैगण
ि द
ु ास लशष्यः। तिं श्रीमद्गजाननगरु
ु िं सदयिं स्तन
ु ोर्त ॥ ८॥
॥ इर्त शम ् ॥ सिंत रजचरण - अ. दा. आठििे

॥ श्री गजानन विजय ग्रन्थ ॥


222
ह. भ. प. संतकवि श्री दासगणू महाराज कृत
'गण गण गणात बोते' स्तो का स्तिराज (अभिंग)

गणी गण गण गणात बोते। वप्रय भजन सद्गुरु गाते।।


िरणीय गजानन गुरुको। सलु मरते र ो र्नतिं इनको ॥
य स्तोत्र न ीिं ै अमत
ृ । लसद्ध मिंत्र ऋवष -दलशित ॥
सिंजीिनी रसायन शद्ध
ु । सारण अथि न सिंबद्ध
ु ॥
मिंत्र का र स्य समझते। जो यथाथि मिंत्रविद ोते ॥
मिंत्र पाठसे दःु ख रता। साधक का र्नज सख
ु बढ़ता ॥
र्नग्श्चत य अनग्र
ु भारी। श्री गजाननके आभारी ॥
इस भजन - मिंत्र को साधो। मन भाि भग्ततसे शोधा ॥
कल्याण र्नरिं तर ोगा। दःु ख िििेख न र े गा ॥
प्रारब्ध रोग -भोग लम्ें गे। अलभलसप्त सकि लसद्ध ोंगे ॥
बाते घ्ीत ये स्िानभ
ु िकी। बतायी सबके मिंगि की ॥
शेगाूँि (=लशिगाूँि ) क्षेत्र में र कर। स्तोत्र की प्रतीती िो सख
ु कर ॥
दिं तकथा कदावप न समझो। श्री गजानन साक्ष को बझ
ू ो ॥
अनि
ु ादक : श्री पिं. म.ु डािंगरे , पण
ु े

॥ श्री गजानन विजय ग्रन्थ ॥


223
श्री सदगरु
ु गजानन स्तोत्रम ्
अव्यतत -व्यतत र्नणखिात्मक बोधरूपम ्। मायाश्रयिं -विहदत तत्ि मगाध बोधम ्। अज्ञान-मो र्नलशध्यिं सहदिाकरोयिं।
तस्मै नमालम गरु िे श्री गजाननाय॥१॥ अज्ञात -जार्त कुि ज्ञात पराश्च सता। तेजग्स्िनो नि विगचककत्स्य भिग्न्त
एतै :॥ हदव्यार्न यस्य चररतानी कथयग्न्त सत्यम ्। तस्मै नमालम गुरिे श्री गजाननाय॥२॥ बोते गणागण गणेतीर्त
सिंस्मरन्तम ्। यः र्नभियो परम िं स चचार भलू मम ् ॥ आतािन रुगान सग्ृ ज मिा द्यो उज्ज ार। तस्मै नमालम गुरिे
श्री गजाननाय॥३॥ जानस्य मत्ृ यप
ू द तीथि जिाद वि ाता। साक्षात्करो त्सदृ
ु द्य:मधम
ु क्षक्षकाहदन ॥ दष्ु ्ान ् -ताडन -
परोय : विगचनोत धमिम। तस्मै नमालम गुरिे श्री गजाननाय॥४॥ शष्ु किंच कूप पररपण
ू ि जिम ् करोद्य: । श्री
भास्कराय वप्रय लशष्य द्रगीक्षणाय ॥ मल्िाय लशक्ष्य कृग्न्मत्र -२ नलृ सिंग िराय। तस्मै नमालम गुरिे श्री गजाननाय
॥५॥ नैनिंर्छन्दग्न्त नद न्तीिं इमिं च श्िोकम ्। प्राग्त्यक्षकेकृत पररश्रम येन दृष््म ्। ब्रह्मगीरे र ज्िर: शमिं तप्तराय।
तस्मै नमालम गरु िे श्री गजाननाय ॥६॥ यस्य प्रभािमति
ु िं न वििङ्गयन्त: । ये िायसा बलि भज
ु ा च त्तत्याज
स्थानम ्। कृपेषु रक्षण परो यो जिाय स्िोरात। तस्मै नमालम गरु िे श्री गजाननाय ॥७॥ पीतािंबराय र्नज लशष्य
िराय येन। सरस : कृतम ् च जड़ काष्ठ यत
ु िं रसािम ् ॥ यो बािक
ु ा शक् िीिययािरो । तस्मै नमालम गुरिे श्री
गजाननाय ॥८॥ यो सििसाक्षक्ष कृत साक्षक्ष नप
ृ ोत्तमेन। स्त्रीणािं स्थिे र्नविश अग्ननरथिं सरोध्धम
ु । सन्यासीनिं विगत
कुण्ठ करोत्ययासम। तस्मै नमालम गुरिे श्री गजाननाय ॥९॥ या नमिदा जिमगाध ततार लशष्यान ्। सिंभेहदता च
पररपण
ू ि जिाच नािम ् ॥ यस्या लशषात र्तिक मान्यतरो बभि
ू ।तस्मै नमालम गुरिे श्री गजाननाय ॥१०॥ योsदात
भीषिं च कबराय भीषनिराय। साक्षात कृतिं परम दशिन बापन
ू ाय ॥ कट्याग्स्थत : स्थािरभज
ु : च कृपािु दे िम ्। तस्मै
नमालम गुरिे श्री गजाननाय ॥११॥ आरक्षयन च र्नशी धान्यक्षय : खरात : तस्मै कृपािु गुरूणािं कृपा करोs ग्स्तिं ॥
श्री पािंडुरिं ग द्रक
ु पथ यः परो दयाि।ु तस्मै नमालम गरु िे श्री गजाननाय ॥१२॥ यो कमि योग प्रग्ीकृत िीिया स्िः।

॥ श्री गजानन विजय ग्रन्थ ॥


224
अष््ािंग योग मगधगम्य च शास्त्र दृग्ष््म ् ॥ श्री भग्ततयोग मगधगम्य स्ि आचरन्तम ्। तस्मै नमालम गरु िे श्री
गजाननाय ॥१३॥ सिंसार पीडड़त जनान ् कृपया यो रक्षन। योsतारयन मर्त दरू
ु : जनान भिाग्ब्धम ् ॥ यस्या कृपैि
सततिं भि भेषजोsभत
ू । तस्मै नमालम गरु िे श्री गजाननाय ॥१४॥ उन्मत्ि्य जड़ि्य कृताच िीिा। यो पयि्न
भवू ि सदाङ्गम काग्न्तयत
ु तम ् यस्मात ् परु ातन पथ : दृगो्चरो s भत
ू । तस्मै नमालम गरु िे श्री गजाननाय ॥१५॥
नाना परु ाण र्नगमागम सम्मतिं यद्। िाण्यािं वपधाय सरििं ग निं विगचन्िन ्। यो आचरोर्त च गचनोर्त पदस्य मि
ू म ्।
तस्मै नमालम गुरिे श्री गजाननाय ॥१६॥ नानािं पथा: श्रर्ु तयत
ु ा इर्त अन्िविदन। यो भ्रामकः जनद्र ु ा: ब ु
जल्पर्यष्येत। नाना पथा श्रर्ु तऋचिं अकरोत लसद्धम ्। तस्मै नमालम गुरिे श्री गजाननाय ॥१७॥ े आतिरक्षक दयािु
पराथि विन्दक। े दीनबिंधु शरणागत बाि रक्षक॥ े रामचिंद्र पदिीन विराम काम। तस्मै नमालम गरु िे श्री
गजाननाय ॥१८॥ योगेश्िरो। परम िं स कृपािु सिंत: सन्मागि रक्षक कुमागि कुठार धारः ॥ मायापरो विगत दे सदे
िक्ष्यम ्। तस्मै नमालम गुरिे श्री गजाननाय ॥१९॥ त्िन्नाम नाम सद्द्शो न गुणों न कमि। आस्ते त्िदीय गुण
कीतिन दीप मागे ॥ सिंसार -ताप अलभतावपत माम ् रक्ष। तस्मै नमालम गरु िे श्री गजाननाय ॥२०॥ शेगाूँि ग्राम
अलभराम विराम नाम। यत्रा जना ति कथा श्रर्ु त सारिन्ता: ॥ त्ििंये प्रदीप भिन्तु सकिानभीष््ान ्। तस्मै नमालम
गुरिे श्री गजाननाय ॥२१॥ इत्येििाक -कुसम
ु गुग्म्ित पष्ु पमािा। शद्ध
ु ा सदा ति गिे च गश्रयम ् तनोतु ॥ ये स्तोत्र
पाठन परा तब पाद िनना। भतता भिन्तु सणु खनः च भित्प्रसादात ् ॥
॥ इर्त श्री सद्गुरु श्री गजानन स्तोत्रम ् सिंपण
ू म
ि ्॥
श्री अनिंतको्ी ब्रह्मािंडनायक म ाराजागधराज योगगराज परब्रह्म सग््चदानिंद
भततप्रर्तपािक शेगाूँि र्निासी समथि सद्गरु
ु श्री गजानन म ाराजकी जय
ॐ शािंर्तः शािंर्तः शािंर्तः

॥ श्री गजानन विजय ग्रन्थ ॥


225

You might also like