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ग्रंथ प्रारं भ
(ह द
िं ी गद्य अनि
ु ाद )
मूल लेखक
पहला अध्याय १
आप सििव्यापी चराचर में र नेिािे सिेश्िर और कताि-धताि सब कुछ आप ी ैं। े मातावपता आप ी जगत जनता
जनादि न ैं। केिि आप ी पररपण
ू ि ैं। आप सगण
ु तथा र्नगण
ुि दोनो मे ैं। आपकी मह मा िेद शास्त्रों से भी न ीिं
जानी जाती। किर दासगणू की तया गगनती। ककिंतु राम की मह मा से मकि् अपार शग्ततशािी ो गये और कृष्णकृपा
से यमन
ु ातीर के ग़ोपाि अपररलमत बिशािी ो गये। किर आपकी कृपा के लिये धन की आिश्यकता न ीिं। अनन्य
शरणगर्त से आपकी कृपा स जतया प्राप्त ोती ैं, इसी भरोसे पर मैं आपके द्िार आया ूूँ और आप मझ ु े विन्मख
ु
न करें । मैं य सिंत चररत्र लिखने के लिये प्रित्ृ त ु आ ूूँ सो े पिंढरीनाथ, आप इसे पण
ू ि करने मे स ायभत ू ो। े
भि भिान्तक भिानी पती र्निकिंठ; स्िगि से गीरनेिािी गिंगा को धारण करनेिािे गिंगाधर। ॐ कार स्िरुप त्र्यिंबकेश्िर।
आप अपना िरद स्त मेरे लसरपर रणखये, जो सबकुछ दे नेिािा ैं। आपकी स ायता ोने पर मझ
ु े काि का भी भय
न ीिं। तयोंकक पारस पत्थर िो े को भी सोना बना दे ता ैं। आपका ाथ ीिं पारस ैं और दासगणू िो ा ैं । अतः
इस बािक की स ायता करे । दरू मत ढकेलिये। आपके लिये कुछ भी असम्भि न ीीँ। सब कुछ आपके पास ैं। इस
बािक केँ लिये दौडकर आईये और इस ग्रिंथ रचना को स ाय कररये। कोल् ापरू र्निासीनी म ािक्ष्मी मेरी कुिदे िता
ै , ग्जसके चरणकमिोंमे मैं अपना मस्तक रखता ूूँ। ि मेरा मिंगि करे । े तुिजा भिानी मङ
ृ ानी ( रुद्रपत्नी )
अिंब,े अपणे -दग
ु े। इस दासगणू के मस्तक पर अपना िरद स्त रणखये। े दयाघन दत्तात्रेय आपके चरण कमिों
की मैं िन्दना करता ूूँ । आप प्रसन्न ोकर मझ
ु े गजानन चररत्र िेखन मेँ स ायता करें । इसके पश्चात ऋवषश्रेष्ठ
तयोंकक उपर्नषद श्रर्ु त गजि कर बता र ी ै "अन्नम्ब्रह्मेर्त" य लसद्धान्त लसद्ध करनेके लिए ी दयाघन य िीिा
कर र े थे। सामान्य जनोंको इस बातका कोई ज्ञान न ीिं पत्ता चिा। बिंक्िाि अग्रिाि अपने एक लमत्र
दामोदरपिंतके साथ उस रास्तेसे जा र े थे। उन् ोंने य िीिा दे खी। दोनों म ाराजकी इस कियाको दे खकर आश्चयि
उनको मौन धारण करके बिंक्िािने गचत्तमेँ सिंतोष धारण कर प्रणाम ककया। और दे िीदाससे क ा - म ाराज एक
पत्ति आप लशघ्र ब ार परोलसये। दे िीदासने उनके कथनानस
ु ार एक पत्ति भरके म ाराजके सामने रख्खा। उस
परोसे ु ए पत्तिपर बैठकर म ाराज उसे पाने िगे। ग्जसको ककसी स्िादकी आकािंक्षा न ीिं उसे लमष््ान्नसे तया रूची
? जो ब्रह्मरस पी करके तप्ृ त ै तया िे राबको सेिन करे गा ? जो साििभौम राज्यका अगधपर्त ै तया ि जागीरकी
कामना करे गा? म ाराजने सब पतिान्न एकमे लमिाकर जठराग्नन शािंत की। य घ्ना सामान्यतः दस
ू रे प्र रके
दे ने अन्न ग्र ण ककया सो उसे जिकी आिश्यकता ै ी। अगर आप िोग चा ते ै तो जिकी व्यिस्था कीग्जये
ग्जससे कायिकी पत
ू त
ि ा ो जाय। य सन
ु कर बिंक्िािने पिंतसे क ा , पिंत अपना य सौभानय ै । ऐसा क कर
दामोदरपिंत जि िेने अिंदर गये। इतने में म ाराज समीपस्थ कुएूँ के साथ पशओ
ु िं के पीने के लिये किंु ड बना था उसी
मे जि पीने िगे। तब तक पिंत िो्ा भर जि िेकर सामने आये और म ाराज से क ने िगे ," म ाराज ि
पशओ
ु िंके लिये जि ै। उसे आप न वपये। मैं य िो्ा िेके आया ूूँ । य ी पीने योनय ै । इसमे उशीर औषगध
डािकर य लशति ककया गया ै। य सन
ु कर म ाराजने क ा, य व्याि ाररक बाते मसे न कह ये। य चराचर
जगत िस्तुजात ब्रह्मव्याप्त ै उसमे जिमें पिंङ्क यत
ु त - र्नमिि -सि
ु ालसत ऐसी कोई उपागध न ीिं ै । जि ब्रह्म ी
ै पिंङ्क यत
ु त - र्नमिि -सि
ु ालसत- दग
ु ध
ं यत
ु त भेद उपागधजन्य ै परमाथितः न ीिं। पीनेिािा उसके पथ
ृ क न ीिं ै।
।। शभ
ु िंभितु ।। श्री रर रापिणमस्तु ।।
।। इर्त श्री गजानन विजयग्रन्थस्य प्रथमोध्याय समाप्तः।।
श्री गणेशाय नमः । े चन्द्रभागा त्पर वि ार करनेिािे दीनबिंधू -अज - अग्जत -सिेश्िर पण
ू ब्र
ि ह्म- रूिग्तमणीके पर्त
आपकी जय ो। आपकी कृपाके बबना सब पररश्रम व्यथि ै । जैसे शरीरमें प्राण न र नेपर शरीर प्रेतमात्र ै । सरोिर
जिसे सश
ु ोलभत ोता ै। े पद्मनाभी ! बाह्य किचसे िि के अन्तरगत रसकी शोभा ोती ै । उसी प्रकार आपकी
कृपा शरणागतको सामर्थयि दे ती ै - पाप तथा बत्रविध -ताप और (आध्यग्त्मक -आगधभौर्तक -आगधदै विक ) दीनता
का र्निारण करे य ी मेरी प्राथिना ै । वपछिे अध्यायकी कथामे बताया की म ाराज ि ाूँसे चिे गयें। ग्जसकी व्यथा
बिंक्िािको दःु खी करने िगी। उन् ें भोजन और जि भी अ्छा न ीिं िगता था। उन् ें गजानन म ाराजके रुपका
सतत ध्यास -मनमें - आ र ा था। िे ग्जधर दे खते उधर म ाराजकी अनप
ु म मर्ू तिका भास ोता था। े श्रोतागण
इसे ी ध्यास क ते ै जो योगशास्त्रानस
ु ार धारणा क िाता ै। जैसे गायका बछड़ा अपनी अप्राप्त माताका ध्यास
करते र ता ै , ि ी अिस्था बिंक्िािजीकी ो गई। य अिंतव्यिथा बतानेके लिये उनके पास कोई स्थान न ीिं था।
ग्जसके पास ि व्यतत करते और अपने वपतासे क नेका धैयि उनमे न ीिं था। ऐसी अिस्थामे उन् ोँने समग्र शेगाूँिमें
म ाराजको ढूिंढ़ा ककन्तु क ीिं पता न ीिं चिा। घरमें आनेपर उनके वपता भिानीरामने उनसे पछ
ू ा, बे्ा,आज तुम् ारा
मख
ु मण्डि म्िान ो गया ै, तुम व्यग्रसे हदखाई पड़ र े ो, तया कारण ै ?तुम यि
ु ा ो, घरमें ककसी िस्तक
ु ी कमी
न ीिं ै किर तुम् े ककस बातकी गचन्ता ै, ग्जससे तुम् ारी य अिस्था ो गई ?
कफ़र ककतिन का े का- ि दौडकर उनके समीप गया । जैसे कोई कृपण व्यग्तत धनके िं डक
े ो दे खकर दौड़ता ै । जैसे
चातक पक्षी स्िाती नक्षत्रके बादिोंको दे खकर वषित ोता ै। मेघके दशिनसे मोर-या चन्द्रमा के दशिनसे चकोर पक्षी
वषित ोता ै , ऐसेह बिंक्िाि म ाराजको दे खकर वषित ु आ। दोनों - म ाराजसे कुछ अिंतरपर खड़े ोकर विनयपि
ू क
ि
पिंछ
ू ने िगे। "म ाराज, तया म आपके लिये भोजन सामग्री िे आिे ?" तब म ाराजने उत्तर हदया " िगता ै तो
मेरा पि
ू ज
ि न्मका सक
ु ृ त उहदत ु आ, य ी कारण ै कक आपके चरणकमिोंका मझ ु े दशिन ु आ। आज मझ ु े कीतिनका
िि प्राप्त ो गया। गुरुदे ि, आप लशघ्र मग्न्दरमे मेरे साथ चिें। तब म ाराजने क ा," अरे गोवििंद, अपने प्रर्तपादन
और आचरणमे एक िातयता रखो। अभी तो तम
ु ने प्रर्तपादन ककया की सिित्र ईश्िर व्याप्त ै , किर अिंदर -बा र क ाूँ
र ा। किर य ठ ककसलिये ?ग्जसने जैसा प्रर्तपादन ककया उसे िैसा ी आचरण करना चाह ये। साधकको चाह ये कक
ि शब्दछि कदावप न करें । भागितके श्िोकका प्रर्तपादन करते ो और उसके विरुद्ध आचरण करते ो, य
कीतिनकारी पद्धती ठीक न ीिं। उदरभरण कीतिनकार तुम् े भम
ू ीपर न ीिं ोना था| जाओ, कीतिन समाप्त करो। मैं य ी
बैठकर सनु ता ूूँ । तब बि
ु ा मिंहदरमे आकर उ्चस्िरसे बोिे, श्रोताओिं, शेगाूँिमें य अनमोि रत्न प्राप्त ु आ ै । आप
िोग इन् े सम् ािो। य शेगाूँि ना र ा अवपतु साक्षात भगिान विठ्ठि के र्निाससे पिंढरपरू ो गया। इनकी दे खभाि
करो, सेिा करो, और इनकी आज्ञाको िेदिातय समझकर लशरोधायिकर पािन करो। इसीसे तुम् ारा र्नग्श्चत कल्याण
ोगा। य र्नगध अनायास तुम िोगोंको लमिी ैं इसे सम् ािो। कीतिन बड़ा अ्छा ु आ। बिंक्िािको बड़ा षि ु आ।
जो साधक
ु े लिये ठीक न ीिं। तो उन् ोंने दिं डडत करनेके मनीषासे खीर का आकिंठ पान ककया। ग्जससे उन् ें िमन ो
गई तब किर िे उसे भी खाने िगे। ताकी पन
ु ः उसकी िासना न ो। इसी प्रकार गजानन म ाराजने िोकग्राह्के
र्नग्र के लिये य िीिा की, ताकक भािी पीढीको लशक्षारूपय ज्ञात ो, कक दरु ाग्र का पररणाम तया ोता ै। अस्तु।
िोगोंने िमनका स्थि साि ककया, म ाराजको स्नान करिाया और साि सथ
ु रे आसन पर बबठाया। जारो िोग
म ाराजके दशिनको आये। म ाराजकी आनिंदीिग्ृ त्त चलित न ीिं ु ई अथाित म ाराज चा ते तो सब अन्न योगसामर्थयि
से पचा जाते ककन्तु िोग लशक्षाके लिये य िीिा करनी पड़ी। उसी समय म ाराज के पास दो भजन मिंडिीयाूँ आयी
य ाूँ के श्रीमान स्िामी गजानन ये ी विठ्ठि थे और र्नश्चय रूपके इिं् ऊपर खड़े ोकर बिंक्िािके घरमे
जनसमद
ु ायको दशिन दे ने िगे। ग्जसने ब्रह्मपद प्राप्त कर लिया उसके लिये जार्त क ाूँ शेष र ती ै। जैसे सय
ू क
ि े
प्रकाशके लिये सब स्थि समान ै। शेगाूँिमें रोज नई यात्रा ोने िगी। जारो पज
ू ायें म ाराजकी ोने िगी, ग्जसका
िणिन भगिान शेषभी न ीिं कर सकते। िे भी श्रान्त ो जायेंगे। किर दासगणक
ू ी, जो एक क्षुद्र की्कके समान ै।
तया गगनती ै । गजानन म ाराज ी मेरे मख
ु को र्नलमत्त कारण बनाकर िीिाओिंका बखान कर र े ै। म ाराजकी
गाथा गानेका मझ
ु पामरमे सामर्थयि क ाूँ? जो अगाध
ै । किरभी यथामती हदनचयाि िणिन करनेका प्रयत्न करता ूूँ ।
कभी तो म ाराज मिंगिालभषेक करते, कभी कीचड़में िे् जाते। कभी गिंदा जि प्राशन करते। जैसे िायक ु ी गती
।। रर रापिणमस्तु ।। शभ
ु िंभितु ।।
।। इर्त श्री गजानन विजयग्रिंथस्य ग्व्दर्तयोध्याय समाप्तः।।
श्री गणेशाय नमः। े सग््चदानिंद श्री रर, आपकी जय ो। आपके चरण कमिों मे आगश्रत जनोंपर आप कभी कठोर
न ी ोते। आप करुणाके सागर ो। आप हदनजनोंके पाईक ो। भततजनोंके लिये आप कल्पिक्ष
ृ तथा गचिंतामणी ो।
ऐसी आपकी अगाध मह मा सिंतगण गाते ै सो े मयािदा परुषोत्तम राघि। आप लशघ्र प्राप्त ोईये विििंब न कीग्जये।
इसप्रकार साक्षत्कारी हदन -दब
ु ि
ि ोंके -रक्षक श्री गजानन म ाराज बिंक्िािके घर र ने िगे। दरू दरू से भततगण
म ाराजकी चरण ििंदनाको आते। जैसे -ज ाूँ मधु ोता ै ि ाूँ मक्षक्षका जमती ी ै उनको र्नमिंबत्रत करनेकी आिश्यकता
न ीिं पड़ती। एक हदन की कथा ै कक, म ाराज आनिंदपि
ू क
ि अपने आसनपर बैठे थे। ि प्रभातका समय था। पि
ू हि दशा
आरतत ो गई थी। पक्षीगण िक्ष
ृ ोंपर ककिबबिा ् कर र े थे। िध्
ृ दगण शय्यापर बैठकर नामस्मरण कर र े थे।
शीति -मिंद पिन ब र ी थी। कुतकु् उ्च स्िरसे ध्िर्न कर र े थे। उदयाचिपर भगिान नारायण को उहदत
ोता दे ख अिंधकारने गि
ु ाओिंकी शरण िी। ित्स -क्षीरपानके लिये गायोंकी ओर ुिं कार र े थे। सौभानयिती ग्स्त्रयाूँ -
सम्माजिनमें व्यस्त थी। ऐसे रम्य समयमें शेगाूँिमें एक साधू गजानन म ाराजके दशिनको आया।
य गुसाई सरपर कषाय गचिंधी िपे्े था, उसीप्रकार एक झोिी बायें काूँखमें थी। मग
ृ चमिका िपे्ा पीठपर बूँधा था।
ऐसा य गुसाई एक ककनारे बैठा था। म ाराजके दशिन के लिये अपार भीड़ िगी थी। ऐसी ग्स्थतीमें मझ
ु े म ाराज के
चरण कमिोंका दशिन असम्भि ै। ऐसा विचार इस गुसाईके मनमे आया। समथिजीकी कीर्ति मैंने िाराणसी में सन
ु ी
और म ाराजको भिंग चढानेका सिंकल्प ि ाूँ ककया था। िेककन य ाूँ मेरा सिंकल्प परू ा ोना कहठन िगता ै। य ाूँ सब
आणखर आप म िोगोंको छोड़ कर जा र े ो। सब प्रयत्न बेकार गये। िैद्योने ाथ ्े क हदये ककन्तु एक अिंर्तम
उपाय सझ
ु र ा ै। ि करके दे खेंगे। बिंक्िािके घर एक साक्षात्कारी साधू ै । ग्जनकी िज से शेगाूँि पिंढरपरू क्षेत्र
बन गया ै। साधु के मनमें िानेपर उनके लिये कुछ असाध्य न ीिं। श्री ज्ञानेश्िर म ाराजने सग््चदानिंदको उठाया।
जल्दीसे, समय न ीिं ै जल्दीसे कोई जाकर म ाराजसे प्राथिना करो य सन
ु कर एक सम्बन्धी बिंक्िािके घर गया
और जानराि दे शमख
ु की अिस्था बतायी। आप कृपा करके म ाराजका चरणतीथि दीग्जये जो जानराि को अमत
ृ लसद्ध
ोगा। ऐसा में िगता ै । बिंक्िािने क ाूँ, य मेरे बसकी बात न ीिं, मेरे वपताजीसे प्राथिना कररये, तद्नस
ु ार उसने
भिानीरामजीसे कीकत बताई। िे बड़े सज्जन थे भिानीरामने तत्काि एक पात्रमे पानी भरकर म ाराजके चरणोंको
छुिाया और प्राथिना की, म ाराज य चरणतीथि जानराि को दे ता
ूूँ। म ाराजने गदि न ह िाकर सिंमर्त हदखाई।
सम्बन्धीने तीथि िेकर जानरािको वपिाया। ग्जससे उनके गिेकी घरु घरु ा ् बिंद ो गई। उन् ोंने ककिंगचत आूँखे खोिी
और ाथ ह िाया। तीथिके प्रभािसे जानरािकी प्रकृतीमे िरक पड़ने िगा। य प्रमाण दे खकर सारे नर -नारी आनिंहदत
ो गये और सबको सत्परू
ु षका अगधकार ज्ञात ु िा। उसके बाद सब औषगधयाूँ िेना बिंद करके केिि तीथि ी िेते र े ,
ग्जससे जानराि आरोनयसिंपन्न ो गये। आठ हदनमे जानराि प िे जैसा स्िस्थ ो गया और भिानीरामके घर
म ाराजके दशिनको आया। दे णखये, सिंतचरणतीथि साधनद्िारा साक्षात अमत
ृ ो गया। ये केिि सिंत न ीिं अवपतु
कलियग
ु के साक्षात दे िता ी थे। इस कथाको सन
ु नेंके बाद स जतया एक शिंका उद्भत
ू ोती ै कक सिंत गजानन म ाराज
जैसे सिंत शेगाूँिमें र नेपर कोईभी प्राणी यमिोक न ीिं जाना चाह ये।
ये मत्ृ यु भी दो प्रकार का ै । अचानक गिंडातर - और भौर्तक। सिंतोंमें अघ्न घ्ना सामर्थयि ोता ै ,िे इनको ्ाि
सकते ै । जैसे म ाराजने जानराि का मत्ृ यु ्ािा। ककन्तु इसमें श्रद्धा प्रधान ै । साधभ
ू ी स्चा ोना चाह ये, िेषधारी
न ीिं। अगर केिि िेषधारी साधु ै तो कुछ न ीिं कर सकता। जैसे मग्ृ त्तका कस्तरु ी न ीिं ो सकती। षड्विकार
जानराि स्िस्थ ोनेपर उसने बिंक्िािके घर भोज का प्रयोजन ककया। जानराि दे शमख
ु तो स्िस्थ ो गया, ककन्तु
म ाराजके सामने समस्या खड़ी ो गयी। उन् ोंने सोचा, यहद इस प्रकारसे मैं करता र ा तो प्रापिंगचक िोग मेरा
दरु
ु पयोग कर सकते ैं। अतः उग्र स्िरुप धारण करना चाह ये। ऐसा सोचकर म ाराज उग्र ो गये। कठोरता बरतने
िगे। ग्जससे सिि सामान्य तो घबरा गये ककिंतु अनन्य भततोंको कुछ न ीिं िगा। जैसे भगिान नरलसिं अितार धारण
करनेपर सब भयभीत ो गये ककिंतु बािक प्रल् ादको कुछ न ीिं िगा। लसिं नीके लशशु उसके शरीरपर र्नभियतासे
उछिकुद करते ैं। उन् ें कोई भय न ीिं िगता अन्यजन घबराते ैं।
अस्त,ु अब मैं दस
ू री कथा क ता ुूँ । अगर लम््ी कस्तरु ीके साथ ो तो उसको भी क़ीमत ो जाती ै ।
चिंदन िक्ष
ृ के साथ बढे ु ए किं्कयत
ु त ह िर िक्ष
ृ भी थोड़ा सगु िंगधत ो जाता ै । ज ाूँ मधरु गन्ना ोता ै ि ी मोगरा,
वपिंगुि और से ुूँ डाभी ोता ै । ज ाूँ साधज
ु न ोते ै ि ी मिंदमती भी र ते ै । ह रा और पत्थर एकसाथ खानमें ोते
ैं। ककन्तु ह रोंके समान पत्थरोंकी ककमत न ीिं ोती। गारगो्ी पैरोंसे कुचिी जाती ै । ह रे की ऐसी ग्स्थती कभी न ीिं
ोती। ऐसे ी एक मिंदबवु द्ध परु
ु ष श्री गजानन म ाराजके साथ सेिाधारी करके र ता था। ग्जसे साधस
ु ेिाका बड़ा भारी
अ िं कार था। ि उपरसे तो म ाराजकी सेिाका भाि बताता, ककन्तु अन्तरमें भाि अन्य ी था। म ाराजके नामपर
अपनी स्तत
ु ी सन
ु कर विठोबा िूि गया और जाकर म ाराजको जगाया। भतत मिंडिीको तो दशिन मीि गये, उनका
काम ो गया ककिंतु विठोबापर भारी सिंक् आ पड़ा। जैसे कमि ोता ै िैसा िि लमिता ै । एक बड़ा डिंडा म ाराजके
पास था। म ाराजने उठाकर उसकी पीठपर िगा हदया। म ाराज क ने िगे, य माज गया ै । अपनी जग भि
ू
गया। मठमें घिंह्याूँ बािंधकर मको य उपागध िगा र ा ै। य तो स्पष््तया व्यापार ै । तेरेपर कृपा करनेसे मै
भगिानका अपराधी ोऊूँगा। क ते ै की सोम को सतकर समझना ठीक न ीिं। विषको कभी पास न ीिं रखना चाह ये।
चोरको अपने गिेका ार कभी न ीिं मानना चाह ये। ऐसा क कर म ाराजने विठोबाको खूब पी्ा। सो ि भाग खड़ा
ु आ। और पन ु ः िौ्कर कभी न ीिं आया। जो स्चे सिंत ोते ै िे ऐसा ी करते ैं और जो ढोंगी ोते ैं िो ऐसे
िोगोंके चिंगुिमे िस जाते ैं। अगधकार के बबना केिि िेष धारण करके जो बैठते ैं िो ििंचक ै । स्िाथी िोग उनकी
॥श्री रर रापिणमस्तु ॥
। । इर्त श्री गजानन विजयग्रन्थस्य तत
ृ ीयोsध्यायः समाप्तः। ।
श्री गणेशाय नमः। े सििसाक्षी- सिेश्िर नीिकिंठ -गिंगाधर -म ाकाि (काि के भी काि) त्र्यिंबकेश्िर - ॐकारे श्िर
मझ
ु को दशिन दीग्जये। आप और रुग्तमणीके पती एक ी तत्ि ो। जैसे जि को तोय कह ये या िारी कह ये उसमे
कोई भेद न ीिं ोता। आपकी ग्स्थर्त उसी प्रकार ैं। जैसी ग्जसकी भािना ोती ै आप उसे िैसे ी हदखते ै। जो
अनन्य भािसे आराधना करता ै उसे आप अिश्य प्राप्त ोते ै। जैसे माता अपने बािकके लिये कभी कठोर न ीिं
ोती। मैं आपका अज्ञानी बािक ूूँ । आप अपनी ममता कम न कीग्जये। े र ! आप साक्षात कल्पिक्ष
ृ ै । मेरी
इ्छा पण
ू ि कीग्जये।
म ाराज य सन
ु कर बिंक्िािसे बोिे, बिंक्िाि गचिमपर काडी पकड़ो। सन
ु कर बिंक्िािने क ा। म ाराज काडी
घसकर मै गचिम जिा दे ता ु , बगैर घसे काडी पे्ती न ीिं। और अग्नन न ीिं ोता। सन
ु कर म ाराजने क ा, बकबक
बरार मे अक्षयतत
ृ ीयाको और पकिानोंके साथ एक -इमिी -गड
ु , इिायची आहद डािकर गचिंचिणी नामका सार
बनाया जाता ै । प्रायः उसके साथ और पकिानोंके परू णकी पडु ड़याूँ बनती ै। िे इसीसे खाते ै । जानकीरामके ि ाूँ
य गचिंचिणी बनाई गई थी। जैसे िषि प्रर्तपदा को र्नम पन्नोंका म त्ि ोता ै िैसे ी अक्षयतत
ृ ीयाको इस गचिंचिणीका
म त्ि ै । दोप रमे जब सन
ु ारके य ाूँ भोजनके लिये पिंग्ततयाूँ बैठीिं। सब पत्तिे परोसी गई और द्रोणोंमे य गचिंचिणी
भी परोसे गई। आश्चयिकी बात ऐ ी कीिं गचिंचिणी के द्रोणोंमे अल्िीयाूँ और असिंख्य की्क बज
ु बज
ु ाते हदखने िगे।
ग्जससे िोगोंको बड़ी घण
ृ ा ु ई और िोग तरु िं त उठकर चिे गये। सारा अन्न व्यथि ो गया। सब दे खकर जानकीराम
सन
ु ार अधोिदन ोकर णखन्न मनसे सोचने िगा। ऐसा तयों ु आ?
केिि अन्न ी न ीिं व्यथि ु आ। ककन्तु वपतरोंका श्राध्द -उपोवषत ु आ। उसने अनम
ु ान िगाया की म ाराज की गचिम
को अग्नन मैने नकारा और बरु ा भिा क ा उसीका य िि ै । इसकेलिये मै ी दोषी ूूँ । बिंक्िािने उसका समाधान
करते ु ए समझाया कक आपने जो इमिी िी शायद उसके बीज कीडेिािे ोंगे। सन ु कर जानकीरामने क ािं, शेठजी,
आप ऐसा कैसे क ते ैं? मैंने नई और शद्ध
ु इमिी िी थी। बीज अभीभी कूड़े में पड़े ै , दे ख िीग्जये क ीिं की्कका
नाम न ीिं। अब आप ऐसा करें कक मझ
ु े म ाराजके पास िे चलिये, मैं चरण पकड़कर अपराधके लिये क्षमा माूँगना
ग्जस उसके मूँु से य चमत्काररक समाचार कथन ककया जा र ा था। शेगाूँि में चिंद ु मक
ु ीन नामका एक समथिका
परम भतत था। जेठका मह ना था। अनेक भतत म ाराजके चारो ओर बैठे थे। कोई आम का् र ा था। कोई आमकी
िाूँके म ाराज के ाथपर दे र े थे। कुछ ाथ जोड़े म ाराजके पदकमिोंमे दग्ॄ ष्् िगाये बैठे थे। कोई लमश्रीका प्रसाद
बाूँ् र े थे। कोई म ाराजके गिेमें पष्ु प ार प ना र े थे। कोई म ाराजके अिंगमे चिंदनका िेप िगा र े थे। तब
म ाराजने चिंदस
ू े क ा, मझ
ु े ये आम न ीिं चाह ये। तेरे घरमें म्के में दो गुझीया ैं सो िाकर दे । तब चिंद ू ाथ
जोड़कर बोिा, म ाराज! इस समय गुणझया का े की? अगर इ्छा ो तो मैं नये तिकर िे आताूूँ । म ाराज ने
क ािं, अरे मझ
ु े ताजे न ीिं चाह ये जो ै िो िाओ। बबना कामके समय व्यथिमें मत बबता, ब ाने मत बना - गरु ु से
झठ
ू न ीिं बोिना चाह ये। अन्य िोगोने चिंद ू से क ाूँ अरे , जाकर घरमें दे खो, म ाराज क र े ै ि झठ
ू न ीिं ोता।
॥ शभ
ु िं भितु ॥श्री रर रापिणमस्तु ॥
।। इर्त श्री गजानन विजय ग्रन्थस्य चतुथोsध्याय समाप्त ।।
श्री गणेशाय नमः। े अज (जो जन्मता न ी) अग्जत अव्दय (सिित्र व्याप्त, ग्जसके लसिा दस
ु रा तत्ि न ी) सग््चदानिंद
-करुणाके धाम दासगणू आपकी चरणिन्दना करता ै, उसे अभय करो। े दे िागधदे ि। मैं दीन- ीन तथा पापी ूूँ मझ ु े
ककसी प्रकारका अगधकार न ीिं। सब तर से दब
ु ि
ि ूूँ । ककन्तू जो अत्यिंत ीन ोते ै श्रेष्ठ िोग उन् ीपर कृपा करते
ै । दे णखये अत्यिंत ीन जो विभर्ू त (भस्म) ै उसे शिंकर शरीरपर धारण करते ैं। सो ीन जनोंकी ीनता श्रेष्ठोंको
न्यन
ू ता न ीिं िाती। ि उनका विभष
ू ण बन जाती ै । जैसे भगिान शिंकरके शरीर की विभर्ू त उनको भष
ू ण स्िरुप ै
(उनके अिंगपर ोनेसे) िैसे ी आप इस दासगणक
ू ो अपने सिंग्र में रणखये। जैसे माता बािककेँ सब िाड़ परु े करती ै
िैसे ी दासगणक
ू ा सब बोझ आपके लसरपर ै । आपको जैसा करना ो िैसा कररये। तयोंकक मै तो आपपर ी र्नभिर
ूूँ ककिंतु दयाघन मेरे प्रर्त मनमें दया रणखये। आप के भरोंसे ी मैं कूदता ूूँ। म ाराजके शेगाूँिमें र नेपर रोज र्नत
नई यात्रा जमा ोने िगी ग्जसका मैं िणिन न ीिं कर सकता। म ाराजकी मह मा अपार रूपसे बढ़ गयी। अथाित
योगेश्िर को य उपागध ी थी। कोई भी स्चा साध-ू िौककक उपागध में न ीिं िूँसता। ऐसा विचार कर उसे दरू करनेके
लिये म ाराज जिंगिोमें भ्कने िगे।
मह ना-मह ना बा र र ते। क ी भी बैठकर एकान्तमें समय बबताते अपना पररचय ककसीको न िगने दे ते। श्रोतागण
ऐसे ी भ्कते ु ए एक बार म ाराज वपिंपिगाूँि प ुूँ च।े ि ाूँका ित
ृ ान्त आप िोग सन
ु े। वपिंपिगाूँिके बा र जिंगिमें
एक े माडपिंथी -धतीका परु ाना लशिािय था। उस मिंहदरके गभिग ृ में म ाराज पद्मासन िगाकर बैठ गये। गािंिके
चरिा े अपनी अपनी गौएूँ िेकर अस्त समय गाूँिको िौ्ने िगे। मिंहदरके पास एक छो्ासा झरना ब ता था। ग्जसमें
इस प्रकार ा ना करते ु एूँ एक पािकी िाई गई, उसमें म ाराजको उठाकर बबठाया गया। बड़े उत्सा के साथ बजनीयाूँ
बजाते ु एूँ अबीर-गुिाि उड़ाते ु एूँ उसीप्रकार ग्रामस्थ नर-नारी तुिसीपत्र। पष्ु प अपिण करते ु एूँ घिं्ी घडड़याि
शिंख नाद करते ु एूँ योगीराजकी जय ो, का उद्घोष करते ु ऐ सब िोग म ाराजको नम ु ानजीके मिंहदरमें िे आये।
म ाराजका शरीर गि
ु ािसे िाि ो गया था। म ाराजको बड़े था्से मिंहदरमे एक आसनपर बबठाया गया। य सब
ोने तक म ाराजकी समागध िगी ी थी। उन् ोंने जाना की, म ाराज योगगयोंके मक
ु ु ्मणी सद्गुरु मर्ू तिरूप ै । सब
िोग चरणरत ोने िगे। नैिेद्य चढ़ानेकी धम
ू मची। अनेक पात्र परोसकर िाये गये। म ारज शरीरमे उतरे और
चैतन्यमय िातािरण ो गया। म ाराजने अन्न ग्र ण ककया। आसपास के गाूँिोंमें भी य िाताि फ़ैि गई।
मिंगििारको शेगाूँि का बजार िगता ै , सो कररबन सब दे ातोंसे िोग य ाूँ आते ै। वपिंपिगाूँि के िोग भी य ाूँ
आये और अपने गाूँि का म ाराज विषयक समाचार य ाूँ सन
ु ाया। बताया कक साक्षात श्री री एक योगी अििीया
मारे गाूँिमें आया ै। म िोग अब उन् ें क ी जाने न दें गे। सारे बजार में य समाचार फ़ैि गया। बिंक्िािको
जब य पता चिा तो ि सपग्त्नक वपिंपिगाूँि गये और ाथ जोड़कर अनेक प्रकारकी प्राथिना करने िगे। 'अभी आता
म ाराज कुछ हदन शेगाूँि में र े और एक हदन किर िो र्नकि पड़े। बरारमे अड़गाूँि नाम का दे ात ै। म ाराज
ि ाूँ जानेके लिये चि पड़े। शेगाूँि िासीयोंकी नजर बचाकर प्रातः ी चि पड़े। म ाराजकी गती िायक
ू े समान थी।
उनकी गर्त दे खकर साक्षात नम
ु ानजी पन
ु ः अितररत ु ये तया ऐसा प्रतीत ोता था। ि िैशाखका म ीना था।
भगिान सय
ू ि सोि किाओिंसे तप र े थे। इस प्रचिंड तापसे क ीिं भी जि का अिशेष न ीिं था। मध्यान् के समयमें
म ाराज अकोिी नामक एक दे ात के पास प ुूँ च।े इन िोग योगेश्िरकी य िीिा आप िोग सन ु े। म ाराज को तष
ृ ा
िगी, सो उन् ोंने चारों ओर दग्ॄ ष्् दौड़ाई, ककन्तु जि का क ीिं पता न ीिं था। जिके बबना म ाराजके ोंठ सख ु गये।
सब शरीर चिनेकी िज से स्िेद धारओिं से गीिा ो गया। ऐसी दप
ु रीिं में ि ाूँ भास्कर नामक ककसान अपने
खेतमें काम कर र ा था। ककसान की ग्स्थर्त दे खकर ऐसा िग र ा था कक, ककसान ी सब जगतका अन्नदाता ै।
य श्रेष्ठ
ोते ु एूँ भी अपार यातना स ता ै । आतप -िषाि -शीत ऋतुओिंकी यातनाएूँ स कर ि कृवष सिंपन्न करता
ै । इस अकोिीके आसपास जिका बड़ा दलु भिक्ष था। भास्करने पीनेके लिये एक म्का भरकर घरसे िाया था, तथा
एक िक्ष
ृ की छाूँिमें रखा था। ि ाूँ म ाराज प ुूँ चे और भास्करसे बोिे।
मझ
ु े बड़ी तष्ृ णा िगी ै, सो पीनेके लिये जि दे , न ीिं न बोिना। पानीके बबना प्राण रक्षण ोना बड़ा कहठन ोता
ै , इसीलिये जिदान म ान पण्
ु यकारक माना जाता ै। य सन
ु कर भास्करने क ा। तम
ु जैसे धष््पष्ु ्को जि वपिाना
सत्य ै कक ईश्िरी सत्ता अगाध ै । अघ्न घ्ना घ् सकती ै । उछिता जि म ाराज पीकर तप्ृ त ु ए। जो भास्कर
ने दे खा, ग्जससे उसका गचत्त चककत ो गया। उसका तकि न ी चि र ा था। जो कुआूँ बार िषिसे सख ू ा पडा था
उसे इन् ोने क्षणभर में जिपण
ू ि कर हदया- ो न ो ये म ान साक्षात्कारी परु
ु ष ै। कृवषका काम छोड़कर भास्कर
ि ाूँ दौड़ते आया और म ाराजके चरण कमि दढ
ॄ तासे पकड़कर प्राथिना करने िगा। े मानि शरीर धारी भगिान! मै
आपका अबोध लशशु ुूँ। मझु े क्षमा करो, आपके प्रभािसे अनलभज्ञ मैंने आपको ब ु त कुछ भिाबरु ा क ा। सो कृपार्नधान
िो मेरे अपराध कृपा करके क्षमा कररये। गोपीओिंके क्ु िचन भगिान कृष्णने ध्यानमें न लिये। आपके बाह्य िेषसे
मै ठग गया। ग्जसका प्रत्यक्ष कृर्त द्िारा आपने भ्रम र्नरास ककया।
े सद्गुरुनाथ अब मैं ये चरण न ीिं छोड़ूग
िं ा य
सब प्रपिंच लमर्थया ै । आज मझ
ु े य पता िगा, अब इस अज्ञानी बािकको दरू न कीग्जये। सन ु कर म ाराज बोिे,'अरे
॥शभ
ु िं भित।ु श्री रर रापिणमस्तु ॥
।। इर्त श्री गजानन विजयग्रन्थस्य पिंचमोsध्यायः समाप्तः ॥
श्री गणेशाय नमः| े परमिंगि श्री री आपकी कृपा ोने पार सारे अशभ
ु दरू ोते ैं ऐसा सिंतोका अनभ
ु ि ै | उन
सिंतोके िचनोंपर विश्िास धारण कर मैं मिंगि कामनासे आपके द्िार पार आया ूूँ| यहद आप मझ
ु े विन्मख
ु िौ्ाते
ैं तो उसमें आपको दोष तो िगेगा ी ककिंतु सिंत िचन लमर्थया ोनेका दोष ोगा| अत: े माधि (मा- िक्ष्मी उनके
पर्त) आप मेरा अलभमान धारण करके अज्ञानी बािक पर रुष्् न ो| बािक का ीनपना माताको दोष कारक ोता
ै | (िोग माता को दोष दे ते ै कक, इसकी मा ठीक न ी, बािकको न ीिं) ऐसा विचार कर आपको जो करना ो सो
कररये|
इस प्रकार म ाराज बिंक्िािके घर र र े थे| इस समय एक घ्ना ु ई| गाूँि के दक्षक्षण में बिंक्िाि का एक बाग
था| ि ाूँ कई िोगों के साथ म ाराज मकाईके भट्ट
ु े खाने के लिये गये| एक कुएूँ के पास भट्ट
ु े भिंज
ू ने की तैयारी िोगोंने
की| कुआूँ बडा ग रा था| अपार जि भरा था| पास ी एक इमिीका बडा घना पेड़ था| मकई भिंज
ू ने के लिये जग
जग अद रे जिाये गये| जो करीब दस बार थे| ग्जससे किंडो का बडा धआ
ु ूँ ोने पर झिंड
ु के झिंड
ु िैि गई| उनके
उठनेपर सब िोग मकई छोडकर भागने िगे| तयोंकक, प्राण सबको वप्रय ोते ैं| कुछ कम्बि ओढकर भागे कुछ िैसे
ी भागे|
ग्जससे सब कािं्े-चभ
ु े ु ए स्थािोंसे बा र र्नकि आये| य योगकिया दे खकर सब िोक बड़े आनिंहदत ु ए| बादमें
मकईके भट्ट
ु े भूँज
ू कर सबने खाए और सय
ू ािस्त के समय घर पर िौ् आये|
एक बार म ाराज अपने बिंधु नरलसिंगजीको लमिने अको् गए| जो भग्तत बिसे भगिान विठ्ठि के किंठमणण थे| इन
न ीिं| य आको् गाूँि शेगाूँि के इशान्य हदशामें अठर कोस पर ै | पदनतोके कल्पतरु श्रीगजानन म ाराज मनोिेगसे
जानेको र्नकिे| अको्के पास एक जिंगिमें ये नरलसिंगजी म ाराज एकािंत की दृग्ष्् से र ते थे|
ककन्तु उनका बाह्य स्िरुप लभन्न लभन्न ै |यहद योगी योग किया का अलभमान रखे तो उसे सत्य तत्ि का बोध न ीिं
ोगा |योग पररपति कियािान उसके अलभमान से अलिप्त र ता ै |जि में र ने िािा कमिपत्र जि से अलिप्त ोता ै ,तो
ी उसे तत्ि ज्ञान ोगा |इसी प्रकार प्रापिंगचक प्रपिंच में र े ु ए भी कन्या पत्र
ु की आसग्तत न ीिं रखनी चाह ए |जैसे गार पत्थर
पानी में र ता ै पर लभजता न ीिं ै |इस प्रकार आपको अपेक्षा रह त र ना चाह ए |उसी प्रकार सग््चदानिंद ब्रह्मा का विस्मरण
ककन्तु जो दाग्म्भक ोते ैं उनका परस्पर कि ोता ै |दाग्म्भक गुरु का िैसे ी उपयोग न ीिं ोता जैसे नदी की बाढमें
्ू्ी ु ई नौका का |सिंतत्ि मठ में न ीिं ै |विद्व्ता में न ीिं ै |कवित्ि में न ीिं ै तयोंकक सिंतत्ि के लिए स्िानभ
ू त
ू ी की आिश्यकता
ोती ै |मि
ु ामा चढ़ाया ु आ सोने का कोई उपयोग न ीिं जैसे िैश्यों को घर में पत्नी करके रखने में उपयोग न ीिं ै |ये दोनों
स्चे सिंत थे |य ाूँ सन्नर्त और सदाचार का र्निास था |गजानन म ाराज नलसंगजी को लमिने आको् आये ैं ,ऐसा समाचार
एक चरिा े गोपाि ने गाूँि में हदया |जो सन
ु कर गाूँि के िोग बड़े आनिंहदत ु ए और नाररयि िेकर जिंगि की तर जाने िगे |
परस्पर म ाराज का आगमन बताने िगे |चिो ,गिंगा ,गोदािरी का सिंगम ु आ ै |सो म िोग पििणी पर सिंत समागम रूपी
एक बार म ाराज अपने लशष्यों के साथ भ्रमण करते ु ए दयािपरु के पास प ुिं चे |ि ािं दयािपरु के पास एक छो्ा सा लशिर
गाूँि नाम का दे ात था, जो चिंद्रभागा नामक नदी के ककनारे था |श्रोतागण ये चिंद्रभागा पिंढरपरु की चिंद्रभागा न ीिं, अवपतु दयािपरु
के पास एक छो्ी सी नदी ै जो पयोष्णी नदी को लमिती ै |इस लशिर गाूँि में िज्रभष
ु ण नामक पिंडडत र ता था |ि भगिन
स स्रग्श्म भास्कर का एकर्नष्् भतत था |ग्जसके विव्दत्ता की गररमा सारे बरार में िैिी थी |य प्रर्तहदन चिंद्रभागा पर
विगधपि
ू क
ि स्नान करके उदयमान भगिन भास्कर को अध्यि प्रदान करता था|
य मेरे तपाचरण का िि आज प्रत्यक्ष प्राप्त ो गया |आकाशस्थ भास्कर को मैं रोज़ अध्यि प्रदान करता था |ककन्तु
आज प्रत्यक्ष ज्ञान्भास्कर को दे खकर अध्यि प्रदान करके मैं धन्य ो गया | े योगेश्िर पण
ू ि ब्रह्मा ज्ञान राशी यग
ु ानय
ु ग
ु में आप
अितार धारण करते ो | े जगा्चािक !आपके दशिन से भिरोगरूपी गचिंता का नाश ो जाता ै | ै गजानन गरु
ु !आप
मझ
ु पर कृपा कररए ऐसी प्राथिना की |तब योगेश्िर म ाराज ने उसे दोनों बा ू िैिाकर दृड़ आलििंगन ककया |मस्तक के ऊपर ाथ
रखा और बोिे ,सििदा तुम् ारी विजय ोगी |कमिम्राग न ीिं छोड़ना |ये कमिमागि की विगध र्नरथिक मत मानो ,ककन्तु उनमें
आसग्तत न ीिं रखना |कमों का आचरण करके जो कमि िि की आशा न ीिं रखता ,उसे त्याग दे ता ै , उसे अिश्य घन:श्याम
के दशिन ोते ैं |और कमि का मि उसे कभी न ीिं िपे्ता |ब्रह्मण्याद्याय कमािणणसङगत्यकत्त्िा करोर्तयः |लिप्यते न स
पापेन पद्मपत्रलमिाम्भसा ||गतायत
ु तः कमििििंत्यतत्िा शािंर्तमान्पोर्त नैग्ष्ठककम ||
अब तुम अपने घर जाओ मेरा िचन सदा ध्यान में रखना |प्रर्तहदन तुम् ें ध्यान में मेरे दशिन ोंगे |ऐसा क कर प्रसादरूप
में उसे श्रीिि हदया |बाद में म ाराज शेगाूँि आगये |
आको्, आकोिा मिकापरू आहद में क ाूँ तक नाम बताऊूँ? तारों की गगनती तया कभी ो सकती ै |ज्येष्ठ म ीना तथा आषाढ़
म ीना समाप्त ोकर श्रािण मास शरू
ु था |इस समय नम
ु ान जी के मिंहदर में उत्सि शरू
ु था |ये भव्य मिंहदर था और प्े ि
िोग उन् ें इष्् मानकर भग्तत करते थे |जैसे पल्
ु िी का बिंधन ोता ै ,िैसे प्े ि गाूँि के लिए बिंधन ोता ै (सबको एकत्र जोड़ता
ै ) जो कुछ उसे वप्रय ोता ै ि ी सब िोग करते ैं |इस श्रिण मास में अलभषेक, परु ाणपठन कीतिन इत्याहद य ाूँ ोते थे और
अन्नसिंतपिण की तो मनो बाड़ ी आ जाती थी |सब िोग तप्ृ त ो जाते थे |श्रोतागण प्े ि की य व्याघ्र चमि धरने के समान
ै |जो धारण करता ै उससे िोग डरने िगते ैं |मराठी में एक क ाित ै के जो 'राजा न ीिं कर पाता ि गाूँि कर सकता ै
|'उस नम
ु ानजी के मिंहदर में पण्
ु यपिंज
ु गजानन म ाराज आये |बिंक्िाि से क ा, श्रािण म ीने में उत्सि वप्रत्यथि मैं मिंहदर
में ी र ूूँ गा |ग्जसकी गचिंता न करना |गुसाई सन्यासी को सदे ि प्रापिंगचक के घर में र ना ठीक न ीिं |में परम िं स सन्यासी ूूँ |
अब मिंहदर में र ूूँ गा, ग्जस हदन तुम बि
ु ाओगे उस हदन केिि आऊूँगा |ऐसी अन्दर की गुप्त बात तुम् ें बताई |साथ ी बताया
की भगिान ् शिंकराचायि को भी सन्यास ग्र ण करने के बाद भ्रमण करना पड़ा था |मर्छन्दरनाथ, जाििंधरनाथ आहद सन्यासी
भी प्रापिंगचकों का ग ृ छोड़कर सिंगत में िक्ष
ृ ति र्निास करते थे |छत्रपर्त लशिाजी म ाराज ग्जन् ोनें अपने शौयि से ,रणप्ुत्ि
उनपर अ्ू् श्रद्धा थी |िे रामदास सज्जनगढ़ जिंगि में र ते थे |ऐसा विचार करके ठ बबिकुि न करना |मेरा क ना मानने
में ी तम्
ु ारा कल्याण ै |य सन
ु कर र्नरुतर ोकर बिंक्िाि ने म ाराज की इ्छा को सिंमती दी|
मिंहदर में म ाराज के र्निास के लिए आने पर सबको बड़ा षि ु आ और भास्कर पाह्ि सेिा के लिए र्नरिं तर पास
र ने िगा |य दासगणू विरगचत श्री गजानन विजय नामक ग्रन्थ मम
ु क्ष
ु ु जनों को सिंतचरण सेिा का मागि बताये |
श्री गणेशाय नमः। े सीतापर्त राघिेन्द्र, सिंत जनोंके विश्राम मेघशाम, दाशरथी राम ,आपकी जय ो भगिन !
आपकी कृपासे बिंदर भी बििान ो गये और ििंकागधपर्तका ििंकामे नाश ककया। आपकी कृपा ोनेपर मनष्ु य विजयी
ोता ै । जो जो इ्छा करता ै ि कायि पण
ू ि ोते ै। ग्जसपर राजाकी कृपा ोती ै, ि मिंत्रीकोभी वप्रय ोता,
भिे ी ि ककतनाभी छो्ा ो। े प्रभो , ऐसी अमोघ कृपाकी पात्रता तया मझ
ु में ै ? ऐसा विचार करनेपर मझ
ु े
िगता ै कक न तो मझ
ु को ज्ञान ै न र्नग्स्सम भग्तत। सो ऐसी अिस्थामे े पािंडुरिं ग ! मझ
ु पर ऐसी कृपा कैसे ोगी
? ककन्तु सदै ि इस प्रकारके मनोरथ करता र ता ै कक जगत्पाि ! मझ
ु पर कृपा कैसे ोगी ?ककन्तु आशा ऐसी ै
की आपका पापीजन उद्धरण का ब्रीद ी ऐसी परु ाणमे साक्ष ै। पण्
ु यिान िोगोंका उद्धार करना तो खास बात ै ी
न ीिं। जो पातकी िोगोंका उद्धार करता ै ि ी श्रेष्ठ ै । आप पातककयोंका उद्धार करते ै य ी आपकी श्रेष्ठता ै ।
मेरे जैसा कोई पातकी न ीिं सो उसका (दासगणक
ू ा ) उद्धार करके आप अपने ब्रीद का रक्षण कीग्जये। े नारायण !
मै आपकी अनन्य शरण ूूँ ! परु ाण क ते ै ,'नारायणो नाम नरो नराणािं प्रलसद्धचौराः कगथतः पर्थ
ृ िीव्याम। नारायण
नाम प्रलसद्ध चोर आज पर्थ
ृ िीपर ै , जो जनोंके र्नशेष पापोंकी चोरी करता ै । अस्तु। य नम
ु ानजीका श्रािण म ीनेका
उत्सि गणेश कुिोत्पन्न पा्ीि के नेतत्ृ िमें ोता था।
य पा्ीिोंका घराना अर्त प्राचीन ै । तथा कनक धनसिंपन्न भी ै । कृवषका भी ब ु त विस्तार ै। प िेसे ी इनके
घरानेमें सिंत सेिा थी। उसपर पा्ीिकी प्राप्त ो गई, सो कुछ पछ
ू ना ी न ीिं। म ादजी पा्ीि को दो पत्र
ु थे, ग्जसमें
बड़ेका नाम था कडताजी और छो्े पत्र
ु का नाम था कुकाजी, जो भगिान पिंढरीनाथ का भतत था। इस घरानेको
कई दाूँिपेच िगाये, बडी ताकतसे उठानेका प्रयत्न ककया ककन्तु म ाराज तीिभर न ह िे। य पलसनेसे न ा गया
और सोचने िगा की य कृश जरुर ै ककन्तु म ान शग्ततशािी ै अचि पिितके समान अडडग ै। मारी अनेक
कुचेष््ायें इन् ोने स िी, य इनका बडप्पन ै । अन्यथा ये म ान शग्ततशािी ै । म िोग लसयारके समाने ै और
ये गजराजके समान बििान ै । य ी कारण ै कक , इन् ोंने मारे तरि ध्यान न ी हदया। जैसे श्िान भूँक
ू ते र ते
ै ककिंतु लसिं उसकी परिा न ीिं करता। अब इनके चरणोंमें मस्तक रखाना ी योनय ै । आजतक मैंने
ककसीको लसर न ीिं नमाया। म ाराज रर पा्ीिसे बोिे 'अब में परु स्कार दो न ीिं तो मल्ल्यद्ध
ु में
पराग्जत करो। बिराम और कृष्णने मल्ियद्ध
ु ककया था। किंसके दे रक्षक मग्ु ष््क और चाणरू को
बिराम और कृष्णने मल्ियद्ध
ु करके मारा था। तुम् ारे समान पत
ू नाका शत्रु एक पा्ीि यमन
ु ा त्पर
था। ग्जसने गोकुिके सारे बािक बििान ककये थे। यातो तुम िैसा करो अन्यथा पा्ीि नाम छोड़
य रर पा्ीिकी कृती दे खकर उनके अन्य भाई बोिे, "भैया, इस जोगडेसे आप तयों डरते ैं । समझ न ीिं पडता।
म िोग पा्ीिकुमार ै , गाूँिके सत्ताधारी ै , किर आप उसके चरणोंमें माथा ककसलिये ्े कते ो? इस पागि
का पाखिंड ब ोत बढ गया ै । उसका कोई रास्ता र्नकािना चाह ये ।
िोगोंको इसी पाखिंडसे बचाना चाह ये। अगर मिोग ऐसा न ीीँ करते तो अपने कतिव्यसे ्यत
ु ोते ैं।
मिंद िोग साधक
ू ा िेष िेते ैं, ्े ढी कियायें करते ैं। औरतोंको िूँसाते ैं, इसका विचार करो। सोना
जबतक कसौ्ीपर कसा न ीिं जाता तब तक उसकी परख न ीिं ोती। तक
ु ाराम म ाराजकी शािंर्त गण
ु ोंसे पता
चिी। ज्ञानेश्िर म ाराजने भैंसासे िेद पठन करिाकर परीक्षा दी,सो जबतक परीक्षा न िी जाय तब तक अस्थानमें
मान दे ना ठीक न ीिं ै । आज म िोग इनकी परीक्षा िेंगे। एक गन्नेका भारा िाते। इस तर िे गन्नेका भारा िेकर
मिंहदर मेँ प ुूँ चे और म राजसे बोिे ,अरे पागि ! गन्ना खाना ै तया ?अगर खाना ै तो मारी एक प्रतीज्ञा ै । म
िोग गन्नोसे तुम् ारे ऊपर प्र ार करें गे अगर तुम् ारे शरीरपर उसके गचन् न प्रग् ो तो म मानेंगे कक ,तम
ु योगी
ो। ''य सन
ु कर म ाराज कुछ न ी बोिे ,सज
ु ान जन बािक चेष््ा कक और िक्ष्य केन्द्रीत न ीीँ करते'उनमें से मारोतीने
क ा ,'अरे ,य डर गया ै और गन्नोके प्र ार स नेको तैय्यारन ीीँ। उसपर गणपतीने क ा ,'मक
ु ता ी सम्मर्त ै सो
अब दे खते तया ो ,िगाओ। य सन
ु कर दोनो -तीनोनें गन्ने िेकर दौड़कर म ाराजको मारनेके लिये समीप आये।
य सन
ु कर ब्चोंने उत्तर हदया, हठक ै , मने आपका सब कथन सन
ु ा । गाूँिमें सब िोग इनको योगयोगेश्िर क ते
ैं । सो इनका योग दे खने के लिये म िोग आये ैं ।आप दरू खडे रह्कर केिि गम्मत दे णखये। ऎसा कह्कर गन्ने
ाथमें िेकर म ाराजपर प्र ार करने िगे । जैसे खरी ान में ककसान गे ू ूँकी बािीयाूँ पी्ते ैं । ककन्तु म ाराज अचि
बैठे र े । ब्चोकों दे खकर ॅसते र े और उनके शरीरपर क ीिं भी ककसी प्रकारकी चो्का गचन् न ीिं र्नकिा । य
दे खकर सब बािकगण डर गये और र्नश्चय ककया कक िास्तिमें ये योगयोगेश्िर ैं ।अब इनके चरण पकडे । किर
म ाराज बोिे, ’अरे बािकों तम ु ने ब ु त पररश्रम ककया, मझ
ु े मारते-मारते तम्
ु ारे ाथ दख
ु गये ोगे, बैठो, मैं तम्
ु े
इक्षुरस वपिाता ू ूँ, ऐसा क कर म ाराजने ाथ से ी दबाकर एक पात्रमें इक्षुरस र्नकािा ।सब भारे के गन्नोंका रस
ाथ से र्नकािकर र्नचोडकर बािोंको वपिाया । ग्जससे उन् े बडा आनिंद ु िा ।सब िोग क ने िगे, य योगशग्तत
ैं । जो योगकियासे प्राप्त ोती ै इसको क्षीणता न ीिं ै यद्यवप पष्ु ्ीकर पदाथोसेभी शग्तत प्राप्त ोती ै ककन्तु
ि इसीतर सदै ि न ीिं रह्ती । यहद राष््को बििान बनाना ै तो योगका अििम्बन करो । इस तत्िकी सच
ू ना
दे नेके लिये ी म ाराजने ाथसे गन्नोंका रस र्नचोडा ।इसके बाद सब बािक म ाराजकी चरण ििंदनाकर चिे गये ।
य सारी बातें पा्ीि बिंधओ
ु िंने जाकर अपने ज्येष्ठ बिंधु खिंडू पा्ीि से बतायी कक,अपने गाूँिमें साक्षात ईश्िर आया
ै ।
कुकाजी बढ
ु े ो गये थे । सो खिंडु कायििह्न करता था । एक रोज कुकाजीने खिंडुसे क ा “अरे , तिंु प्रर्तहदन म ाराजके
पास दशिन को जाता ै ,किर ि ाूँ तेरी िाचा कैसे मक
ू ो जाती ै ।तुम् े बािब्चे न ीिं सो मैं नाती दे खना चाह्ता ूूँ
। आज म ाराजसे प्राथिना करो, िे सम्रथि ै और करुणा मािंगो कक एकाद सिंतती प्रदान कीग्जये ।यहद िे स्चे साधु
ै तो मेरे मनोरथको अिश्य पण
ु ि करें गे । साधप
ु रु
ु षके लिए, तीनो िोकोमें कोइ कायि असम्भि न ीिं ।सो सिंतो के ोने
का कुछ िाभ उठाओ । य खिंडु ने सन
ु लिया और एक हदन नम
ु ानजीके मिंहदरमें म ाराजसे बोिा, अरे गण्या- मेरे
काका बढ
ु े ो गये, उन् े नाती दे खने की इ्छा ै ।
तब खिंडू पा्ीिने क ा,"य यत्नाधीन न ीिं ै । कृवषमे अनाज पानीसे पैदा ोता ै ककिंतु पानी गगराना मानिके ाथ
न ीिं ि दै िाधीन ै । तयोंकक िषाि न ोने पर कृषी र ते भी अनाज न ी पकता और अकाि पड जाता ै । ि ाूँ मानि
यत्न काम न ीिं आता। य सन
ु कर म ाराज ने क ा, ठीक ै , तुमने मझ
ु से याचना की और याचना करना भीख
माूँगना ी ै सो तम्
ु े जो बािक ोगा उसका नाम लभखाजी रखना । िस्तत
ु ः पत्र
ु दे ना मेरे ाथमे न ीिं किर भी मैं
भगिानसे तम्
ु ारे लिये प्राथिना करुिं गा । मेरी अभ्यथिना भगिान अिश्य सन
ु ेंगे, उनके लिये ये कोई बडी बात न ीिं ।
तुम घरके सिंपन्न ो । सो ब्राम्ह्णोंको आम के रसका भोजन दो । मेरा य िचन प्रमाण ै । तुम् ें पत्र
ु अिश्य ोगा
और तुम प्रर्तिषि ब्राम्ह्णोंको आम्ररस का भोजन ककया करना" घर आिर खिंडुजीने कुकाजी को मिंहदरका िाताििाप
बताया । य सन
ु कर कुकाजीको बडा आनिंद ु आ ।
कुछ हदन बबतनेके बाद खिंडू पा्ीिकी पग्त्न ग्जसका नाम गिंगाबाई था, गभििती ु ई। तथा नौ मास पणू ि ोनेपर
उसको पत्र
ु जन्मा। जो सन
ु कर कुकजीको अपार षि ु आ। उसने ब ु त दान धमि ककया, गऱीब जनोंको गळु तथा गे ूूँ
श्रोतागण सत्तास्थि सदै ि विद्िेष का कारण ोता ै। य दासगणू विरगचत श्रीगजानन विजय नामक ग्रन्थ आप
िोग कुतकि छोड़कर सािध गचत्तसे श्रिण करे । य उपर्नषद िातय ै , "नैषाकतेण मर्तरापर्नया" तयोंकी जो अगचन्त्य
विषय ोते ै उसमे तकिकी गर्त न ीिं ोती। किर कुतकिका प्रश्न ी न ीिं। य सदै ि िज्यि ै । "अगचन्त्याखुियेभािा
नतानकणेन साधयेत " ।
दे शमख
ु का एक म ार तिाि के ककनारे खिंडू पा्ीिसे ब स करने िगा| पा्ीि गाूँि के अगधकारी थे| ककसी कारणसे
दोनों में वििाद ो गया| िो मऱ्या नामका म ार था, ग्जसको दे श्मख
ु ों का समथिन था| इसीलिए खिंडु पा्ीि से मूँु
जोरी ककया| पा्ीि ने उससे क ा की, “य तुम् ारा व्यि ार ठीक न ीिं ै | व्यग्ततको अपनी जग कभी न ीिं छोडनी
चाह ए| दे शमख
ु मझ
ु से मूँु ामूँु ी कर सकते ै , तुम न ीिं|” “अरे कम जादा बोिनेका आगधकार दे श्मख
ु ोंको ै , तुम जैसे
नक्ोका न ीिं|” मयाि अनेक प्रकारकी चेष््ाएूँ करने िगा, ग्जससे खिंडू पा्ीि िुद्ध ो गए| इस वििाद का कारण
िस्तत
ु ः अत्यिंत मामि
ु ीसा था| कारण य था कक एक म त्िपण
ू ि कागद पत्र त सीि कायाििय अकोिा भेजने का था|
सो उन् ोंने उसे तरु िं त िे जानेको क ा| उसके उत्तरमें उस म ारने क ाकक मैं तुम् ारे अधीन न ीिं ूूँ , मैं दे शमख
ु ोंके
अधीन ूूँ, सो मैं य काम न ीिं करूिंगा| तम्
ु ारी आज्ञाको मैं ोिी की ु रदिं ग मानता ूूँ और िैसे ािभाि भी उसने
ककए| उसकी उस चचािपर खिंडू पा्ीि िुद्ध ो गए और ाथमें जो बेत था उससे ाथपर प्र ार ककया| पा्ीि थे भी
बििान किर िोध में आकर प्र ार करनेसे उसका ाथ ्ू् गया और ि मर्ू छि त ोकर भलू म पर गगर पड़ा| पा्ीि
ने दस
ू रे म ार द्िारा कागदपत्र भेज हदए| अब य ाूँ तया ित्ृ तािंत ु आ सो सर्ु नये|
आगे चिकर पा्ीि िोग म ाराजके भग्तत में िीन ो गए| भिा अमत
ृ का सेिन ककसे अ्छा न ीिं िगता|
इन गोसाईयों का जो म िं त था ब्रह्मगगरी, ि अस्त, समय भगिद्गीता पढने िगा| गोसाई िोग तथा गाूँि के अन्य
िोग भी सन
ु ने को ि ाूँ आये थे| भगिद्गीता का ‘नैनिं र्छदिं र्त’ य श्िोक उसने र्नरूपणके लिए लिया| य ब्रह्मगगरी
बडा दाग्म्भक था| उसे अनभ
ु ि िेश मात्र भी न ीिं था|
य दासगणू विरगचत श्री गजानन विजयनामक ग्रन्थ भाविक जनोंको भिसागर से पार करे य ी इ्छा ै|
|| शभ
ु िं भितु || श्री रर रापिणमस्तु ||
श्रीगणेशाय नमः | े सगुणरूपधारी रुग्तमणीके पर्त | चन्द्रभागा के त्पर वि ार करनेिािे, सिंत को िरदान दे ने
िािे, पर्तत पािन दयार्नगध | शिंकर धनष
ु धारण करने िािे भगिान | जबतक छो्े िोग न ीिं र ें गे तब तक बड़ों
का बड़प्पन कैसे लसद्ध ोगा? पर्तत न ीिं ोंगे तो आपको पर्ततपािन बबरुद क ाूँ से प्राप्त ोगा? ये आप मत भलू िये
कक म पर्तत ै इसीलिए आपको पर्ततपािन बबरुदाििी ै | पारस िो े को सोना बनाता ै इसीलिए भलू मपर
उसका म त्ि ै| छो्े झरनोंको अपने प्रिा में सग्म्मलित कर िेती ै इसीलिए गोदािरी को तीथि क ाूँ जाता ै|
अपने मनमें य सब विचार करके े भगिान ! े माधि ! डूबते ु ए दासगणूको स ारा दीग्जए, उसे क ी डूबने न
दो | अस्तु |
गोवििंदबि
ू ा ्ाकळीकर नाम के बड़े कीतिनकार उस समय शेगाूँि आये | शेगाूँिमें ितिमान मिंहदर के पि
ू ि - दक्षक्षण
कोने में एक प्राचीन लशि मिंहदर था, ग्जसका जीणोद्धार मो्े नामके सा ु कारने ककया था | आधर्ु नक िोग मो्र -
तिब - सायकि आहदके लिए धन खचि करते ै | मिंहदर जीणोद्धार आहदका उन् ें कोई िगन न ीिं र गया ै | ये
मो्े सा ु कार इस पिंग्तत के न ीिं थे। बड़े भाविक थे। और उन् ोंने लशिमिंहदरका जीणोद्धार ककया था। इसीलिए इस
लशि मिंहदर को मो्े मिंहदर ी िोग क ते थे | अब आगे तया ु िा सर्ु नए | इस मो्े मिंहदर में ्ाकळीकर उतरे और
उनका घोडा मिंहदर के सामने की जग में बूँधा था |
जजन चरण के स्पशश से शीला नारी भई हदव्य | श्री राघि महहमा असमत जानीन सक रवि कव्य ||
य समथि िातय सन
ु कर बािकृष्ण द्िारपर आये, तो ि ाूँ हदगिंबर श्री गजाननिं म ाराज खड़े थे | ि उसको
नमस्कार करने गया, सो ाथमे कुबड़ी, मस्तक पर बत्रपण्
ु ड रे खा तथा गोपीचिंद की मस्तकपर ज्ा सिंभार, जो पीठ
पर ि्के र ा था, कषाय िस्त्रोंका ििंगो् प ने ु ए रामदास स्िामी हदखाई पड़े जो दशिन दे खकर बािकृष्ण के नेत्रोंसे
आनन्दाश्रु ब ने िगे | किर ऊपर र्नगा करके दे खा, तो श्री गजानन म ाराज खड़े ै , ग्जसके मस्तकपर न तो ज्ा
थी न तो बत्रपण्
ु ड, न कुबड़ी, सो दे खकर ि पन
ु ः र्नराश ो गया | दस
ू रे क्षण पन
ु ः समथि रामदास हदखाई पड़े | किर
सक्ष्
ू मता से र्नररक्षण करनेपर श्री गजानन ऐसा चिगचत्रित दृश्य दे खकर ि भ्रािंत सा ो गया | समस्या का ि
न ीिं िग र ा था | य दे खकर श्री गजानन म ाराज बोिे, 'अरे ! इस तर तयों चौगधयाूँ र े ो | में ी तुम् ारा समथि
ु | पीछे में सज्जनगढ़ पे था | अब य ाूँ शेगाूँि में मल्िे में आ गया ु | तुमको सज्जनगढ़ पर मैंने िचन हदया
था दासनिमी को उसे परू ा करने के े तु आया ु |
॥शभ
ु िं भितु। श्री रर रापिणमस्तु ॥
|| इर्तश्री गजानन विजय ग्रन्थस्य निमोध्यायः समाप्त ||
एक बार पण्
ु यरालश गजानन अमरािती गए। ि ाूँ आत्माराम भीका जी के घर ठ रे । य आत्माराम लभकाजी
अमरािती प्रािंतका अगधकारी था। उसकी बड़ी सत्ता थी। य कायस्थ प्रभु जार्त का था। सिंतो का अलमत प्रेमी था।
सदाचार सम्पन्न ग्र स्थ था। इनके य ाूँ म ाराज ठ रे । सो उसने उष्णोदक से म ाराज को मिंगिस्नान करिाया।
अनेक प्रकार के उब्न िगाए। सिंत स िास, के कारण उसकी गचत्त व्रग्त्तयाूँ आल् ाहदत ो गयी। म ाराज को उमरे ड
काबड़ी ककनार की धोती प नायी। गिे में पष्ु प ार डािे। अनेक प्रकार का नेिेद्द्य भोग िगाया और दक्षक्षणा स्िरूप
में सौ रुपए चढ़ाये। धप
ू -दीप आरती यथासािंग पज
ू न के बाद पष्ु पािंजलि समवपित की। म ाराजके दशिनके लिए अपार
जनो की भीड़ ो गयी।
अमरािती की इन पज
ू ा में एक व्यग्तत र पज
ू ा में उपग्स्थत था, जो आत्माराम भीकाजी का भािंजा था। उसका नाम
था बािाभाऊ। य बिंबई में तार मास््र था और अिकाश िेकर अपने मामाजी से लमिने अमरािती आया था। उसी
समय म ाराज ि ाूँ थे। ि म ाराज की ओर इतना आकवषित ु आ कक अब इन साधू चरणों को छोड़ क ीिं न ीिं
जाना, ऐसा उसे िगने िगा। य प्रपिंच अशाश्ित ै । इतने हदन इसमें र ा य ी ब ु त ै । आज से अब मैं ये चरण
न ीिं छोड़ूूँगा। तया कोई अमत
ृ छोड़कर विष का सेिन कर सकता ै? य ी कारण था कक ि र पज
ू ा में उपग्स्थत
र ा। कुछ हदनो के बाद शेरगाूँि आ गए और मल्िे में न जाकर मो्े लशिमिंहदर में ठ रे । उस मिंहदर में परू ब की
ओर एक जग थी। म ाराज ि ी बैठे। कृष्ण जी पा्ीि को म ाराज के आने का समाचार लमिा और य भी पता
चिा कक म ाराज मिंहदर में ठ रे ैं। मल्िे में न ीिं गए। सो ि दौड़कर म ाराज के पास आया और दिं डप्रणाम करके
मूँु ि्काकर म ाराज के सामने बैठ गया। उसकी आूँखों से सतत अश्रध
ु ाराए ब र ी थी ग्जससे उसके िक्षस्थि
का कपड़ा भीग गया। म ाराज ने उससे पछ
ू ा, ‘अरे ! तया कर र े ो, तुम् ें ककसका शोक ै?’
बािापरू में सक
ु िाि अग्रिाि नामक व्यग्तत र ते थे। उनके य ाूँ एक बड़ी उद्दिंड गाय थी। ि गाूँि में घम
ू ती, आदमी
और ब्चो को रौंद दे ती। सशतत परु
ु षो को सीिंग से उछिती। ककसी भी दक
ु ान में घस
ु कर अनाज में मूँु डािती,
भरपे् खाकर बचा ु आ बबखेर दे ती, तेि तथा घी के डब्बे धतके दे कर गगरा दे ती। रग्स्सयों से बािंधकर रखने पर
तोड़कर चि पड़ती। इतना ी न ीिं सािंकिे भी उसके सामने ह्क न ीिं पाती। य गाय न ीिं बार्घन थी। ग्जससे
बािापरु के िोग त्रस्त ो गए थे। न तो गालभन र ती न बबयाती। िोक सक
ु िाि को क ते कक या तो उसको कसाई
को बेच दो, या खुद गोिी से मार डािो। तब अग्रिाि उनसे क ता, “भाई, मझ
ु से तो य न ीिं ोगा। आप िोग ी
मैंने इसको दस
ू रे गाूँि में भी िे जाकर छोड़ा, िेककन किर ि य ाूँ चिी आई। अब आप िोग बताइये मैं तया करूूँ?
ऐसा सन
ु कर िोगो ने उससे क ा भाई आपको एक उपाय बताते ै आप इसे िेकर शेरगाूँि में गजानन म ाराज को
अपिण कर दो। म ाराज ने ऐसा े गोवििंदबि
ु ा का उद्दिंड घोडा ठीक ककया था। ग्जसमे दग
ु ना िाभ ै। एक तो साधु
को गौ दान का पण्
ु य, दस
ू रा म िोगो को पीड़ासे से छु्कारा। य मत सबको भाया और गाय को शेरगाूँि गजानन
के पास िे जाने का र्नश्चय ककया गया। ककन्तु उसको पकड़कर बािंधने के सारे प्रयास असिि ो गए। अिंत में एक
मैदान में ररयािी तथा सरकी रखी गयी जो खाने के लिए ि गाय दौड़कर ि ाूँ आई। गाय ि ाूँ आते ी िाूँसा
डािकर उसे बािंध हदया, दस बीस िोगो ने पकड़कर सािंकि गिे में दाि दी। किर एक गाड़ी पर चढ़ा उसे गजानन
म ाराज को दे ने को शेरगाूँि िाया गया। जैसे जैसे शेरगओन नजदीक आता िैसे िैसे गाय के स्िभाि में िरक पड़ता
गया। समथि के सामने आते ी गाय दीन ो गयी। म ाराज को दे खते ी उसकी आूँखों से अश्रध
ु ारा ब ने िगी। य
दे ख कर म ाराज उन सबसे बोिे। अरे य तया मख
ू त
ि ा ै? गो माता को इस तर पीड़ा दे ना मन
ु ालसब न ीिं। इसके
चारो पैर बािंध हदये ै । नाररयि की रस्सी से सीिंग बािंधे ै , इस प्रकार का बिंदोबस्त तो बार्घन के लिए ठीक ै गाय
के लिए न ीिं। अरे पागिो, य गौ सब जगत की माता ै। उसकी ऐसी दद
ु ि शा की आप िोगो ने। इसको तुरिंत छोड़
दो, य ककसी को न ीिं मारे गी िेककन ककसी का सा स उसको छोड़ने का न ीिं ोता था। जो भी सामने आता ि
नीचे मूँु डाि कर म ाराज को तीन प्रदक्षक्षनाए की और जीभ से म ाराज की चरण कमि चा्ने िगी, य दे खकर
सब िोग आश्चयिचककत ो गए। म ाराज के प्रभाि का शेषनाग भी िणिन न ीिं कर सकते। ग्जन े सौ जीव् ा ै किर
मेरे जैसे को तया। म ाराज ने उस गाय से क ा, ‘ े गौ माता! अब ककसी को पीड़ा न दे ना और मठ छोड़कर क ीिं
न जाना’ य सब दे खकर अपग्स्थत िोगो ने म ाराज का जय जयकार ककया और बािपरु के िोग िौ्कर चिे गए।
और गाय मठ में र ने िगी। उस हदन से उसको कभी दािा न ीिं पड़ा, एक अ्छी गौ के सब िक्षण उसमे आ गए।
ूूँ , मेरे पर्त की यातना का रण करके मेरे सौभानय का रक्षण कररए। अमत
ृ का दशिन ोने के बाद भिा मत्ृ यु कैसे
ो सकती ै? य मेरी प्राथिना ै । उस समय म ाराज आम खा र े थे। ि ी िक्ष्मण की पत्नी के अिंग पर िेंक कर
बोिे, ‘जाओ, य तम्
ु ारे पर्त को णखिाओ, उसकी व्यागध का नाश करने के लिए। इतना क कर म ाराज चप
ु ो
इससे तुम् ारा पर्त ठीक ो जाएगा। ि बाई आम िेकर पर्त के साथ कारिं जा प ुिं ची, और प्रसाद के रूप में पाया
ॐकारे श्िर - क्षीप्रात्िर्ति म ाूँकािेश्िर - व्दारका के सोमनाथ नागनाथ-िैजनाथ, िेरूिके घष्ृ णेश्िर - गोरािरीत् के
न्न्यिंबकेश्िर - आप ी क िाते ैं। आप ी भीमाशिंकर और सेतुबिंधिं के रामेश्िर, श्रीशैि के मल्िीकाजन
ुि , गोकणि के म ाबळे क्ष्िर
िं णापरू के म ादे ि आप ी ो। इन सब आपके स्िरूपों को मेरा साष््ािंग दिं डित। आप मेरे तापत्रय (आध्याग्त्मक -
तथा लशखरलशग
आगधदै विक और आगधभौर्तक) का रण कीग्जये। े दीनबिंधो! आपने एक क्षण में कुबेर को दे िों का धनागधपर्त बना हदया, किर
मेरे विषय में आपको सामने कौन सा प्रश्न उपग्स्थत ु आ।
दस
ू रे िषि दासनिमी के अिसर पर श्रीसमथि बािापरू में बािकृष्ण के घर आये। बािापरू में बािकृष्ण और सक
ु िाि समथि के दो
र्नग्स्सम भतत थे। इनकी समता दस
ू रे ककसी से न ीिं ो सकती। इस समय म ाराज के साथ बािाभाऊ - वपतािंबर - गणू - जगदे ि
ऐसे ी आपको जो भाता ो सो कररये। आप ज्ञानसागर ो, आपको सबकुछ पता ै, सो मैं तयों प्राथिना करूिं? भास्कर के विधान
सन
ु कर म ाराज को बड़ी प्रसन्नता ु ई। उनमें से कुछ बोिे, गुरुदे ि, भास्कर आपका वप्रय भतत ै , उसे श्िान विष से बचा िीग्जये।
ककिंतु एक बारिं उसके मन में आया, ये िोग मेरे सामने तो ािंमी भरते ैं। तया िस्तुतः ये ऐसा प्रयत्न करें गे? ऐसा विचार करते
उसने सबको एक बार मठ में बि
ु ाया। ग्जसमें बिंक्िाि- री पा्ीि-मारोती पा्ीि-चन्द्रभान कारभारी - जो खिंडु पा्ीि की दक
ु ान
माघ िद्य त्रयोदशी को म ाराज भास्कर से बोिे, ‘भास्कर! म िोग लशिराबत्र के अिसर पर त्र्यिंबकेश्िर दशिन को जायेंगे।
गोदािरी के ककनारे कपरूि गौर भि और भिानी के पर्त त्र्यिंबक ग्स्थर ैं। य सिंद
ु र ज्योर्तलिंग ै । जो सब पातकपज
िंु को नाश
करते ैं इसलिए विििंब मत करो, शीघ्र तैयारी करके चिो। पास ी ब्रह्मागगरी पिित ै । ज ािं पर विपि
ु प्रमाण में िनौषगधयािं
उपिब्ध ै । य ािं गिंगा स्नान भी ोगा। इस ब्रह्मगगरी पर ग नीनाथ म ाराज ै , उनको औषगधयों के गुणधमि ज्ञात ैं। उनमें
पािग कुत्ते के ज र पर औषगध ै , इसका उपयोग म िोग जल्दी से करें गे।’ उस पर भास्कर ने उत्तर हदया, ‘गुरुदे ि, आपकी
सत्ता अगाध ै , जो औषगध से लभन्न ै । आपकी कृपा से विष का प्रभाि तो बािापरू में ी नष्् ो गया।
ुूँ । आप िोग सािधान गचत्त से श्रिण कीग्जये। ि अकाि का िषि था। काम क ीिं न ीिं था, उस समय शेगाूँि में एक कुआूँ खोदा
जा र ा था।
ु ष कुएूँ में झाूँक कर गणू को दे खने िगे ककिंतु ि क ीिं हदखाई न ीिं पड र ा था।
र्छन्न ो गया ोगा। सब स्त्री परु
|| शभ
ु िंभितु | श्री रर रापिणमस्तु ||
मेरा यजमान भीमाके तीरपर ईं्के ऊपर खडा ै , जो विश्िकताि, र्नयिंता ै । तया ि मझ
ु े य सब न ीिं दे सकता?'
ऐसे बोिकर सब अििंकार म ाराज ने र्नकाि कर चारो औिंर िेंक हदये। दो पेडे खाकर म ाराज ि ाूँ से चि हदये ।
य दे खकर आकोिा र्निासी बडे द:ु खी ु एूँ । उसमें कुछ कारिं जा के िोग थे । िे िोग क ने िगे , मारा िक्ष्मण
अभागी था । उसने ब्चि ु ाि जैसी पज
ू ा तो की परिं तु मनमे धनका मो रखकर आशिंककत ु आ । ऊपरसे बडा त्याग
बतानेका प्रयत्न ककया तो तया म ाराज को य पता न ी िग सकता था , िे तो सििज्ञ ै । जैसे दािंलभक िोगोंकी
पज
ू ा अक्षतासे ोती ै । नैिेदय समपूँण मिंत्र तो पढते ै 'शकिराखिंडखादया र्न' और सामने रखते सडी ु ई मूँग
ु ििी ।
शेगाूँि में एक वपतािंबर नामका दजी म ाराज का भतत मठमें र ता था । ि एक ि्ी परु ानी धोती प ने
र ता था । ि बडे अनन्य भाि से म ाराज की सेिा करता था । जो एक हदन ििद्रप
ु ो गयी । उसकी ि्ी परु ानी
धोती दे खकर म ाराज मस्
ु कराकर बोिे, 'अरे तेरा नाम तो वपतािंबर ै , िेककन तू ि्ी-धोती प नकर र ता ै , ग्जससे
तेरे गप्ु तािंग हदखाई पडतें ै, जो सब स्त्री-परु
ु ष दे खते ै । नाम तो 'सोनीया' और ाथ में कथीिके भी किंगन न ीिं ।
जैसे नाम तो गिंगाबाई और प्यास के मारे मरती ै । तेरी ऐसी ी ाित ै । ि्ी धोती प नकर िोगोंको ढुिंगन
बताते बैठता ो । य दप
ु ््ा िो और प न िो । वपतािंबर ने भी कोई प्रकार का विचार करके दप
ु ््ा प न लिया
। जो औरों को अ्छा न ीिं िगा । स्िाथि की और दृग्ष्् रखकर भाई ी भाई का शत्रु ोता ै । य तेढा-मेढा कथन
मैं न ीिं करता तयोंकक गन्दी-नािी का मूँु खोिनेपर दि ग
ु न्ध ी फ़ैिाती ै । श्री गजानन म ाराज के िैसे तो असिंख्य
लशष्य थे, ककन्तु उनमें अगधकारी दोनो ाथ की अिंगलु ियाूँ ग्जतने ी थे । श्रोतागण जिंगिमे असिंख्यात िक्ष
ृ ोते ै ।
ककन्तु चन्दन एकाद ी ोता ै । इस प्रकार के लशष्य वपतािंबर को ताने कसने िगे । "अरे । समथि के प नने योनय
िस्त्र तु प नता ै ? इससे ी तुम् ारी भककत हदखाई पडती ै । तुम वििासी ो । तम
ु य ाूँ अपमान करने मत र ो
। " इसपर वपतािंबर ने उत्तर हदया की , " इसमे मेने गरु
ु का कोई अपमान न ीिं ककया , उनकी आज्ञा मानकर हदया
ु आ िस्त्र मैंने प ना । तया य उनकी अिज्ञा ै ? ऐसा वििाद लशष्यो में जब बढा तो म ाराज ने उसका र्निारण
करनेके लिये उससे क ा ! " वपतािंबर, बािक सज्ञान ोनेपर माता उसे दरू कर दे ती ै । मेरी तम
ु पर पण
ू ूँ कृपा ै,
तुम पर्थ
ृ िीपर घम
ू कर शरणागतो का कल्याण करो । " ऐसी आज्ञा सन
ु कर वपतािंबर अश्रय
ु क
ु त नयनों से म ाराज को
परू े आम्रिक्ष
ृ पर गचिं्े और गचिं्े थे । छो्ी बडी सब शाखाओिंपर वपतािंबर जा आया िेककन क ी पर भी उसे शािंर्त न ीिं
लमिी । सब झाड पर गचिं्ी और गचिं्े थी। गोपाि िोगोंने जब उसका य कृत्य दे खा तो, आश्चयि करने िगे ।
आपसमें िो बोिने िगे, 'य बन्दरके समान उछिकुद तयों कर र ा ै ?य र्नभियता से छो्ी-बडी शाखाओपर
किरकर आया ककिंतु नीचे न ी गगरा । य बडे आश्र्यूँकक बात ै । दस
ु रे ने क ा,' इसमें आश्र्चयि करनेकक कोई बात न ीिं
। गजानन म ाराज के लशष्यमें य सामिर्थय ोता ै । र्नग्श्र्चत ी य गजानन म ाराज का लशष्य ै । इसके य ाूँ
आनेका ित्ृ तान्त म िोग गाूँिमें बतायेंगे । गोपािके मूँु से ित्ृ तान्त जानकर गाूँिके िोग आम्रिक्ष
ृ के पास आये और
वपतािंबर को दे खकर क ने िगे, अरे , य ढोंगी जान पडता ै । जो गजानन म ाराज के लशष्यके समान पागिपन
बतानेका प्रयत्न कर र ा ै । गजानन म ाराज का स्चा लशष्य भास्कर पा्ीि था, जो आडगाूँि मे मे ािमें ी
समागधस्त ो गया । भिा समथिका लशष्य पेडा, बिी छोडकर य ाूँ उपिास करने तयों आयेगा ? एक मनष्ु य आगे
आकर वपतािंबरसे पछ
ु ने िगा । 'अरे भाई, तुम कौन ो ?य ाूँ ककसलिए आये ो ? तुम् ारा गुरु कौन ै ? इसपर
वपतािंबरने उत्तर हदया, " मैं शेगाूँि का र ने िािा
ूूँ । मैं दजी ूूँ और गजानन म ाराज का लशष्य ूूँ । म ाराज ने
मझु े पयि्न करने की आज्ञा दी ै । इसीलिये मौं य ाूँ आम्रिक्ष
ृ के नीचे आकर बेठा । आम्रिक्ष
ृ के जड में ब ु त गचिं्ें
ै सो मैं ऊपर चढकर बेठा । य सन ु कर िोग बडे िोगधत ो गये और क ने िगे, 'अरे बडोंको नाम िेकर छि
करनेका प्रयत्न मत करो ।
अन्तमें र्नरूपाय ोकर वपतािंबर ाथ जोडकर अपने सदगुरु कक अपार स्तर्ु त करने िगा," े समथि स्िामी गजानन
। ज्ञानकोश के सय
ू ि । पदनतों के रक्षक । अब इस समय दौडडये । े भततजनो के पािन करनेिािे । मेरी िज
से आपपर दोष आना चा ता ै । अपना ब्रीड रक्षण करनेके लिये इस आम्रिक्ष
ृ को पल्िि िाईये । मेरा तुमपर ी
म ाराज के ऐसा बोिनेपर सबको गचिंता ो गई कक म ाराज का य ाूँ से जानेका विचार हदखता ै । कुछ भी ो, म
िोग चरण पकडकर बबनती करें गे कक, 'म ाराज ! य ाूँसे न जाय ! सब िोग म ाराज के चरण पकडकर प्राथिना करने
िगे, 'भगिन ! आप म िोगोंको छोडकर अन्यत्र क ीिं न जाइिंये । इनमे श्रीपती बिंक्िाि, मारोती और ताराचिंद थे
। म ाराजसे बोिे, 'आपकी ज ाूँ इ्छा ो ि ाूँ रह ये ककन्तु शेगाूँि न छोडडये ।' तब म ाराज ने क ा, ' तुम् ारे गाूँि मैं
पा्ीि और दे शमख
ु दो दि ै । िू् ै । मझ
ु े ककसी कक जग न ीिं चाह ये । मैं शेगाूँि में जो जग ककसीकी भी
न ो, ि ाूँ र ूूँ गा ।' म ाराज का िततव्य सन
ु कर सब िोग गचिंता में पड गये । बडी कहठन समस्या ै । य विदे लशयों
उसने य भी क ा ककिं आप िोगों ने दो एकर भलू म के लिये अजि ककया था । मैंने एक एकर दी ै अगर एक बरस
में आप िोग विकलसत करते ै तो में एक एकर और भी दूँ ग
ू ा । इस प्रकार का प्रस्ताि सरकारी रे कोडिमे ै । ऐसा
म ाराज कक िाणी का प्रभाि था । किर बिंक्िाि और री पा्ीि िगिणीके लिये गये । अल्प समय में द्रव्य इकट्ठा
ो गया और काम शरू
ु ो गया । ि सारा ित
ृ ान्त अगिे अध्याय में आयेगा । सत्परु
ु षों कक मनोकामना परू ी करनेके
लिये जगदीश सदै ि तैयार र ते ैं । डोंगर गाूँि का विठठि पा्ीि िाडेगाूँि का िक्ष्मण पा्ीि और शेगाूँि का जगू
आबा ये िगिणी के पढ
ु ारी थे । य दासगणु विरगचत श्री गजानन विजय ग्रन्थ अपने कल्याणके लिये सािधान
गचत्तसे सन
ु े ।
श्रीगणेशाय नम: | े सिंतोंको िर दे नेिािे| दया के सागर-गोप और गोवपजनों के वप्रय,तमािनीि िणि री, आप मझ
ु े
प्राप्त ो| जब आप के ईश्िरत्िाकक पररक्षाके लिये विधाताने गौयों और बछड़ों को रके ब्रम् ािोकमें िे जाकर रखा
था| जमन
ु ा के ककनारे गोकुिसे तब आप ने गोप बािके – गौयों-तथा बछड़ों का रूप धारण करके अपना ईश्िरत्ि
लसद्ध कर हदखाया था| गोपों को र्नभिय करनेके लिये कािीिंदी डो के कािीया नागको कुचिकर रमणक द्विप भेज
हदया| उसी प्रकार दासगणु के दद
ु ै िको कुचिकर र्नभिय कररयें | भगिान! मैं यदयवप अनगधकारी-अज्ञानी – और आप
की कृपा के योनय न ीिं ूूँ , य सत्य ै | ककन्तु भगिान मेरा अन्त न दे णखये, आपकी कृपा क्ाक्ष से मेरी गचिंता दरू
कररये |
अब श्रोतागण सािधान ो कर अगिी कथा सर्ु नये | बिंक्िाि, री पा्ीि,िक्ष्मण विठू-जगदे ि आदी सब
िोग लमिकर चिंदा इकठ्ठा करने िगे | भाविक िोगोंने िगिनी दी ककन्तु कुह्ि जनोंने र्निंदा की | क ने िगे; तम्
ु ारे
साधू को चिंदेकक आिश्यकता तयों पड़ी ? आप िोग गजानन को म ासिंत बतिाते ो और अघ्न-घ्ना-करनेिािे
मानते ो, तो किर उनके मठ के लिये चिंदे कक तया जरुरी ? उनका कोषाध्यक्ष तो कुबेर ै | किर प्रर्तद्िार लभक्षा
माूँगने कक तया आिश्यकता ?
।। शभ
ु िंभितु ।। श्री रर रापिणमस्तु ।।
। । इर्त श्री गजानन विजयग्रन्थस्य त्रयोदशोध्याय: समाप्तः। ।
बरार प्रािंत में श्रीगजानन म ासिंत ैं, उनके दशिन के लिए तुम जाओ। आज तक भलू म पर सिंतदशिन कभी व्यथि
न ीिं ु आ। त्रस्त ोकर जल्दबाजी मत करो। जब ब्राह्मण ने ऐसा क ा तो ि बडूत
िं ात्या चैधीया गया। सोचने िगा
दख
ु के हदन बीत गये। बाद में ि शेगाूँि आयाऔर य ािं बड़े प्रमाण में दानधमि ककया। गजानन म ाराज के
चरणों में अनन्य भाि से िीन ो गया। तब म ाराज ने उसे क ा, ‘अरे , मझ
ु े तयों ििंदन करता ै । ग्जसने धन हदया
उसको ििंदन करो। अब आगे से सम् ािकर र ो। सदै ि खचि करना चाह ए। सब िोग सख
ु की सिंगती ोते ैं। दख
ु
में केिि श्रीपर्त ी स ारा दे ते ै अन्य कोई न ीिं। अतः उनका विस्मरण कभी न ीिं ोना चाह ए। य उपदे श सन
ु कर
तात्या बड़ा प्रसन्न ु आ, म ाराज को ििंदन करके आनिंहदत ोता ु आ अपने गािंि िौ् आया।
एक बार सोमिती अमािस्या का पिि आया। सोमिार को अमािस्या आने पर उसे सोमिती क ते ैं और ि
बड़ा पिि माना जाता ै । इस सोमिती अमािस के हदन नमिदा स्नान करने का बड़ा म ात्म ै परु ाणों में क ा गया
ै । इस हदन नमिदास्नान अिश्य करना चाह ए। इसलिए शेगाूँि के ब ु त से भततगण नमिदा स्नान के लिए उद्यत
ु
ु ए। तदनस
ु ार उन् ोंने सब साधन सामग्री ज्
ु ाई। ग्जसमें बिंक्िाि, मातंड पा्ीि, मारुती पा्ीि, चन्द्रभान पा्ीि,
बजरिं गिाि, इत्याहद इकट्ठे ोकर ॐकारे श्िर जाने का र्नश्चय ककया।
बिंक्िाि ने क ा, ‘ म िोग नमिदा स्नान के लिए जा र े ैं, सो म ाराज को भी िे चिते ैं।’ चारों मठ में
आकर म ाराज से प्राथिना करने िगे, म ाराज! म िोगों के साथ नमिदा स्नान को चलिये। आपके साथ र ने पर
म िोगों को कािका भी भय न ीिं िगता। आप चिकर में ॐकारे श्िर के चरणों पर डालिये। य अगधकार माता
नमिदा के सब घा् खचाखच भरे थे। र मिंहदर जाने को अपार भीड़ थी। कुछ िोग स्नान को उतरे , कुछ
सिंकल्प सन
ु ने िगे। कुछ बबल्ि पत्र िेकर दशिनाथि मिंहदर जाने िगे। कुछ बिी-पेड़ा-मािा खाने िगे। जत्थे के जत्थे
भजन में िगे थे। पिि समाग्प्त तक मिंहदर में बड़ी भीड थी। ककसी का शब्द ककसी को न सन
ु ाई दे ता था। अत्यिंत
इस सिंक् से बचाकर में शेगाूँि हदखाईये, इतनी बात करते ु ए नौका एक ििांग चिी गई और आधी डूब
गई। ककनारे के िोग नौका की अिस्था दे खकर क ने िगे कक ये पािंच व्यग्तत अिश्य डूबकर मर जायेंग,े तयोंकक
ऐसी स्तुर्त कर र े थे, इतने में नौका के अिंदर का जि र्नकि गया और नौका जि के ऊपर आ गई। कारण
उस नौका के साथ लभिनी के रूप में प्रत्यक्ष नमिदा थी ग्जसके कह्प्रदे शतक के िस्त्र गीिे ो गये थे। नौका ककनारे
िगने पर सबने आश्चयि यत
ु त मद्र
ु ा से उस स्त्री को तथा नौका के र्छद्र को दे खा। ि स्त्री थी इसलिए म िोगों
की प्राण रक्षा ु ई, किर उससे िो िोग पछ
ू ने िगे, ‘ े बािा! आप कौन ो? क ािं की ो? य बताइये। ये गीिे िस्त्र
उतारकर म िोग नये िस्त्र दे ते ैं, उन् ें प र्नये।’ सन
ु कर नमिदा ने क ा, मैं ॐकार नामक मल्िा की कन्या ूिं ।
मेरा नाम नमिदा ै । गीिा िस्त्र प नने की में आदत ी ै । मैं सदै ि गीिी ी र ती ूिं । नीर ी मेरा स्िरूप ै ।’
ऐसा क कर गजानन म ाराज को नमस्कार करके ि क्षणभर में अदृश्य ो गई। जैसे घर की विद्यत
ु क्षण में उसी
में िीन ो जाती े । य दे खकर चारों जने बड़े आनिंहदत ु ए और प्रत्यक्ष नमिदा, म ाराज के दशिन को आई, ग्जससे
एक बार सदालशि रिं गनाथ िानिळे नाम के ग ृ स्थ एक व्यग्तत के साथ शेगाूँि में म ाराज के दशिन को
आये। इन सदालशि का उपनाम ‘तात्या’ था। ये गचत्रकू् र्निासी माधिनाथ के छात्रगणों में से थे। माधिनाथ को
सब योगाड़ग अिगत थे। ये लसद्ध योगी थे। ग्जनका बड़ा लशष्यिगि माििा प्रािंत में ै । ग्जस समय सदालशि दशिन
को आये उस समय म ाराज भोजन करने बैठे थे। सदालशि को दे खकर उन् ें माधिनाथ का सिंस्मरण ो आया,
तयोंकक सिंतों को सिंत का पररचय ोता ै । िानिळे आये बराबर म ाराज ने उ्च स्िर से क ा, ‘अरे , नाथ के लशष्य
को िाकर मेरे समख
ु बबठाओ इनके गरु
ु माधिनाथ ाि ी में भोजन करके गए। यहद ये थोडा प िे आते तो इनका
सग्म्मिन गुरु से मठ में ो जाता।
‘तपग्स्िभ्योऽवप मतोऽगधकः।
।।शभ
ु िं भितु श्री रर रापिणमस्त।ु ।
ु ोक का राज्य दान रूप में उससे लिया। ककिंतु इससे श्रेष्ठ सम्पन्न
िेकर उसको कृताथि ककया। यद्यवप आपने मत्ृ यि
पाताि िोक का राज्य उसे हदया। उस पण्
ु यशािी बिी से आिंििा िेकर उसे नाररयि हदया, इतना ी न ीिं उसकी
भग्तत से प्रसन्न ोकर आपने उसका द्िारपाि ोना स्िीकार ककया। आपका िरदान ै कक इस मन्िन्तर के बाद
बिी ी दे िराज इन्द्र बनेगा। े अनिंत! एक घ्ी में चारों िेद सिंह ताओिं का पाठ आपने ककया, ग्जससे आपकी अगाध
बवु द्धमता स्पष्् ोती ै। े श्री री! आपके सब अितारों में य ी एक शगु चभत
ूि अितार ै, ग्जसमें आपने ककसी का
िध न ीिं ककया। इतना ी न ीिं दे िता तथा दानि दोनों के घर में दीप जिाकर अपने शत्रलु मत्रत्ि समभाि की रक्षा
की। इतने पर भी आपका आगधपत्य स्थावपत ककया। दोनों का अथाित ् दे िता और दानिों को आप समान भाि से
ििंदनीय ो गय। े िामन भगिान, आपको मैं बार-बार प्रणाम करता ूिं । इस दासगणू के लसर पर अपना िरद स्त
रणखये।
म ाराष्र के लिए जो कोह नरू रत्न के समान दै हदप्यमान, दीघिदृष््ी के मानो समद्र
ु , राजकारण धरु िं धर, बाि
गिंगाधर र्तिक सबके जाने, प चाने और विख्यात ैं। िे भीष्मवपताम के समान सत्यप्रर्तज्ञ ग्जनका बड़ा धैयि और
स्िातिंत्र्य प्राग्प्त के लिए ककए ु ए अथक प्रयत्नों का मझ
ु से िणिन न ीिं ककया जाता।
तयोंकक लशिाजी को स्िामी समथि का आशीिािद था। इसलिए िे स्िराज्य की स्थापना कर सके। सो विद्िाज्जनों
र्तिक लशिाजी सद्दश ी प्रयत्न में ैं। अतः गजानन म ाराज का आशीिािद कायि सििता के लिए आिश्यक ै । य
सच
ू ना कईयों को जिंची और कईयों को न ीिं जिंची। ग्जनको पसिंद न ीिं पडी िे इस प्रकार बोिे, ‘अरे ! ि शेगाूँि का
अिलिया (निंगा अिधत
ू ) य ािं ककस लिए िाते ो? ि कुछ विगचत्र पररग्स्थर्त पैदा कर सकते ै । िे ननन ‘गगणगगण
गणात बोते’ गाते ु ए सभा में घस
ु ेंगे और ो सकता ै कक िे र्तिकजी को भी मारे ।’ ककिंतु कुछ िोगों का क ना था
िस्तत
ु ः ये बराड प्रािंत का ज्ञान ीरा ै । अकोिा में जो ित्ृ तािंत ु आ ि इन् ोंने जानकर मारे बताने के पि ू ि ी
सबकुछ क हदया। इससे सिंतों का ज्ञान ककतना अगाध ोता ै य लसद्ध ोता ै । मारे र्नमिंत्रण के प िे ी स्ियिं
म आयेंगे ऐसा क हदया। इस उत्सि को बड़ा अ्छा मु ू ति लमिा ै । चलिये सिंत चरणों की ििंदना करके म िोग
अकोिा चिे। ऐसा क कर म ाराज की चरण ििंदना करके खापडे तथा कोल् ्कर अकोिा चिे गए। उत्सि आठ हदन
पर आ गया। सब िोग र्तिक के दशिन को उत्सक
ु थे। य सभा िैशाख म ीने में शके अठरा सो तीस को आयोग्जत
की गई थी। सभा के लिए अकोिा में सभा मिंडप बनाया गया था। िस्तुतः उस रोज अक्षयतत
ृ ीया थी। जो बराड में
बडा पिि माना जाता ै । किर भी ि अिंर्तम समापन हदन ोने के कारण प्रचिंड जन समद
ु ाय सभा में िोकमान्य
र्तिक को दे खने के लिए उपग्स्थत था। साथ उसी हदन गजानन म ाराज सभा में आनेिािे थे। मिंडप मनष्ु यों में
सभा का प्रारिं भ ु आ। प्रथम सभा का प्रयोजन बताया गया। बाद में व्याख्यान लसिं र्तिक जी बोिने के लिए खड़े
ु ए। श्रोतागण! आज का हदन बड़ा धन्य ै, तयोंकक ग्जन् ोंने स्िातिंत्र्य प्राग्प्त के लिए अपना सम्पण
ू ि जीिन समवपित
ककया ऐसे म ान ् योद्धा श्री लशिाजी का आज जन्महदन ै । लशिाजी को स्िामी रामदास ने आशीिािद हदया, ग्जससे
उनकी सम्पण
ू ि भरतखिंड में कीर्ति पता का िराई। िैसा ी प्रसिंग आज भी प्राप्त
ु आ ै, तयोंकक श्रेष्ठ साधु श्री
गजानन म ाराज इस सभा को आशीिािद दे ने उपग्स्थत ै । इसलिए लशिाजी के उद्यम के समान ी मारी सभा का
उद्यम र्नग्श्चत सिि ोगा। इस समय इस प्रकार की सभा की राष्र को आिश्यकता ै । भारत का स्िातिंत्र्य न ीिं,
ि ािं का समाज प्रेतित ोता ै । अतः इस सभा का प्रयोजन राष्रप्रेम बढ़ाने का ी ै । राष्र प्रेम की लशक्षा की
आिश्यकता ै । तया विदे शी शासन आनेिािी पीढ़ी को राष्रप्रेम की लशक्षा दे सकती ै? र्तिक जी के ऐसा क ने
पर म ाराज आसन पर उठ बैठ और गरजकर बोिे, ‘न ीिं-न ीिं कदावप न ीिं।’ अपने व्याख्यान अलभर्निेश में र्तिक
जी ने शासन को चभ
ु नेिािी बातें बोिी। उस भाषण का सिंकेत म ाराज समझ गये और िं सते िं सते बोिे, ‘अरे ! ऐसे
िततव्य से ी दिं डर्नग्र ोता ै ।’ ऐसा क कर ‘गण गणािंत’ भजन करने िगे। सभा र्नवििघ्न समाप्त ु ई। र्तिक
राजसत्ता के आगे ककसी का कुछ न ीिं चिता। बड़े बड़े िकीि र्तिक जी के लिए प्रयत्न करने िगे। कुछ िोग
दै विक उपायों का भी आश्रय िेने िगे, तयोंकक र्तिक जी सभी के वप्रय स्ने ी थे। दादासा ब खापडे जो उस समय
धरु िं धर विगधज्ञ माने जाते थे, िे र्तिक जी का अलभयान िड़ने के लिए अमरािती से बम्बई जा र े थे। उन् ोंने
अकोिा रे ििे स्थान पर भी कोल् ्कर जी से क ा, कक आप सीधे शेगाूँि जाकर म ाराज से र्तिक जी के लिए
प्राथिना कीग्जये, कक उनका सिंक् दरू करें । मैं स्ियिं म ाराज के पास जाता ककिंतु मेरा बम्बई जाना अर्निायि ै । अतः
मेरी ओर से आप चिे जाइये। य सन
ु कर कोल् ्कर तुरिंत गाडी में बैठकर म ाराज के पास आए, तयोंकक उनकी
र्तिक जी पर बड़ी श्रद्धा थी। शेगाूँि
आने पर िो म ाराज के पास सीधे मठ प ुिं च।े उस समय गजानन म ाराज
अपने आसन पर सो र े थे, तीन हदन तक थोड़ा भी उठे न ीिं। तब तक कोल् ्कर भी मठ से ह िे न ीिं, तयोंकक
र्तिक जी की वििेचना के प्रर्त उनका बड़ा र्नश्चय था। मराठी में एक क ाित ै कक ‘अग्नन के बबना आिंच न ीिं,
ममता बीना आिंस न ीिं’। चैथे हदनम ाराज उठे और कोल् ्कर जी से क ा, ‘आप िोग चा े ग्जतना यत्न कीग्जये
उसका िि न ीिं प्राप्त ोगा। छत्रपर्त लशिाजी के समय रामदास जी का छत्र ोते ु ए भी लशिाजी को औरिं गजेब ने
कैद ककया था। सज्जन त्रस्त ु ये बबना राजिािंर्त न ीिं ोती। किंस का इर्त ास स्मरण करो तो पता चिेगा। य रो्ी
मैं दे ता ूिं , ि र्तिक को खाने के लिए दीग्जये, इसे अिंतर न करना। इस रो्ी के बि से ि य कायि करे गा।
य ‘कमियोग’ गीता र स्य ी बािगिंगाधर र्तिक जी का यश सारे विश्ि में िैिायेगा। अगर स्िातिंत्र्य भी लमिता
तो भी इतनी कीर्ति न ीिं ोती। स्िातिंत्र्य य िौककक व्यि ार ै । गीताशास्त्र समाज की अिस्था ग्स्थर कर मोक्ष की
ओर िे जाती ै । इसलिए र्तिक जी याि्चिंद्रहदिाकरः कीर्तिरूप से र ें गे।
म ाराज की य िाणी सत्य ु ई, श्रीधर आगे बड़े सम्पन्न ो गए, उन्नत ो गए। िो बी.ए., एम.ए. ोकर
ु त ककए गए। य ािं लशदिं े का राज्य था। सिंत चिते किरते ईश्िर का
लशिपरु ी में पदपर म ाविद्यािय प्राचायि के र्नयत
स्िरूप ी ोते ैं। उनकी कृपा का आश्रय ग्जसको लमिता ै ि श्रेष्ठ ोता ै । श्रीधर को दशिन का योग आया।
ग्जससे उसकी ित्ृ ती में िरक पड गया और ि सत्यशोध कर सका। य सिंतों की उपज केिि इस भारत भलू म में
।।शभ
ु िं भितु!! श्री रर रापिणमस्तु।।
‘गण गण’ ऐसा बोिकर म ाराज स्तब्ध ो गये। तेरी और कुछ इ्छा ै तो ि भी मैं पण
ू ि करूिंगा।’ य
सन
ु कर पिंड
ु िीक बडा आनग्न्दत ु आ। स्िप्न में सक्ष्
ू म र्नरीक्षण करने िगा तो जाना कक िे साक्षात शेगाूँिके गजानन
स्िामी ैं। तब उसने क ा, ‘गुरुदे ि! ये आपकी पादक
ु ायें मझ
ु े र्नत्य पज
ू न के लिए दीग्जये, उसके अर्तररतत मेरी और
कोई मनोकामना न ीिं ै ।’ य सन
ु कर म ाराज ने क ा, ‘तथास्त,ु ि तुम् ें दीया। तुम उन् ें िेिो और कि दोप र
के समय उनका पज
ू न करना।’ सो पादक
ु ा िेने के लिए पिंड
ु िीक जैसे ी उठा तो श्रोतागण! उनकी नीिंद झ् खि
ु
गई। उठकर चारों ओर दे खा तो कोई न ीिं हदखाई पडा और पादक
ु ाओिं भी पता न ीिं। ि बडा असमिंजस में पडा।
अपनी शिंका का समाधान उससे न ीिं ो र ा था। मन में विचार ककया कक म ाराज की िाणी कभी व्यथि न ीिं ोती।
झ्यामलसिंग राजपज
ू स्िामी का दशिन करने शेगाूँि आया था। ि दो हदन प िे आया था। जब िो मिंड
ु गाूँिजाने
को उदत ु आ तब म ाराज ने बािाभाऊ से क ा, ‘ये पादक
ु ायें इसके पास पिंड
ु िीक को दे ने को दे दो।’ समथि की
आज्ञानस
ु ार बािाभाऊ ने िैसा ी ककया। बािाभाऊ ने झ्यामलसिंग से क ा, ‘तुम् ारे गाूँिमें जो पिंड
ु िीक भोंकरे ैं, उसे
ये पज
ू न करने के लिए दो।’ य सन
ु कर झ्यामलसिंग पादक
ु ा िेकर मिंड
ु गाूँिआया तो पिंड
ु िीक उसे गाूँिकी सर द पर
लमि गया और पिंड
ु िीक ने म ाराज को कुशि ित्ृ तािंत उससे पछ
ू ा और क ा कक ‘म ाराज ने तया मेरे लिए कुछ
प्रसाद भेजा ै ?’ य सन
ु कर झ्यामलसिंग को बडा आश्चयि ु आ और ि बार बार खोद खोदकर पिंड
ु िीक से पछ
ू ने
िगा। तब पिंड
ु िीक ने उसे स्िप्न का सारा ित्ृ तािंत बताया। य सन
ु कर झ्यामलसिंग की भ्रािंर्त दरू ो गई और उसने
तुरिंत पादक
ु ायें र्नकािकर पिंड
ु िीक के ाथ में दी। आज भी िे पादक
ु ाेाएिं मिंड
ु गाूँिमें पिंड
ु िीक के घर में ै । पिंड
ु िीक
अकोिा में िाजसनेयी शाखा का राजाराम किंिर नामक ब्राह्मण था। ि सोना-चािंदी तथा ककराना माि का
धिंधा करता था। मध्यम श्रेणी का सा ू कार था। य राजाराम, म ाराज का भतत था। इसलिए इसके पत्र
ु भी म ाराज
के भतत थे। इसके दो पत्र
ु थे। गोपाि और त्र्यिंबक, जो िि-कुश के समान थे। छो्ा पत्र
ु जो था उसे व्याि ाररक
भाऊ नाम से पक
ु ारते थे, ि डात्री पढने के लिए ै दराबाद गया।
बाल्यकाि से ी त्र्यिंबक को दे िध्यान था और कोई भी सिंक् पडने पर ि समथि का स्मरण करता था। ि
भागानगरी में मस
ु ा नदी के ककनारे बैठकर म ाराज का ध्यान करता। इस प्रकार भाऊ बचपन से ी समथि गजानन
का भतत था। एक बार विद्यािय के अिकाश में ि घर आया तो उसे म ाराज को भोजन कराने की इ्छा ु ई।
उनको वप्रय पदाथि बनाकर िे जाने का विचार आया ककिंतु य सब कैसे ोगा? मन में ि बोिा, ‘गरु
ु दे ि अब मैं
तया करूिं? मेरी माता मर गई ै । बचपन से ी मेरे घर पर और कोई न ीिं ै । नानी नामक मेरी भौजाई ै , ककिंतु
ि बडी िोधी ै । मेरी ऐसी मनोकामना ै कक आपके सब वप्रय पदाथि बनाकर आपको भोजन कराऊिं। जिार की
रो्ी, अिंबाडी की भाजी, प्याज तथा गरम बेसन, री लमचि इत्याहद। ककिंतु मेरे भौजाई का स्िभाि जानकर भिा ये
सब पदाथि बनाने मैं कैसे क ूिं ? तयोंकक बािक का ठस्थान केिि माता ी ोती ै अन्य न ीिं। ऐसा सोचते ुए
कुछ दे र बैठ कर किर खेत में चिा जाता। ि म ाराज की गचिम भरकर दे ता और चरणों का दशिन िेकर
चिा जाता। इस प्रकार का िम कईं हदनों तक चिता र ा। भानयचि बडा विगचत्र ोता ै, ि ककसी को न ीिं
छोड़ता। जो ििा् में लिखा ोता ै ि ोकर ी र ता ै । एक रोज एक आखे्क बिंदक
ु कािंधे पर रखकर मग
ृ या
के खोज में उसके खेत में आया। तुकाराम अपने खेत में काम से र्नमनन था। ि प्रातः की िेिा थी। सद्यः सय
ू ोदय
उसके पीछे धप
ू के झरु मु में एक ससा बैठा था। ि आखे्क ने दे खा और उसको मारने के लिए िक्ष
ू चिाई। ग्जससे ससा तो मर गया ककिंतु छरों में से एक छराि तुकाराम के कान के पीछे िगा। छराि
सिंधानकर बिंदक
बडी गती से िगने से अिंदर मग्स्तष्क में प्रविष्् ो गया। तुकाराम को दिाखाने िाया गया। डात्रों के अथक प्रयत्न
करने पर भी ि छराि र्नकि न ीिं पाया। तक
ु ाराम को भयानक लसरों िेदना ोने िगी। रात को यग्ततगचिंत र्निंद्रा न ीिं
िगती थी। सब प्रकार के दै िी-सिंकल्प इत्याहद करने पर भी उसको कोई िाभ न ीिं ु आ। इस अिस्था में भी ि मठ
में जाता और र्नत्य पररचयाि करता। ऐसे में एक भतत ने उसे क ा, ‘अरे तुकाराम! डात्र बैद्य छोड़ दे , इस सिंसार
में साधस
ु ेिा जैसा दख
ु नाश का और उपाय न ीिं ै । उनकी कृपा ोने पर तुम् ारी य पीडा अिश्य नष्् ो जाएगी।
तम
ु र्नत्य मठ के आसपास सिाई ककया करो, ग्जससे म ाराज की सेिा भी ोगी और तम्
ु ें पण्
ु यिाभ भी ोगा।
||शभ
ु िं भितु श्री रर रापिणमस्तु||
अरे पागि निंगे- तुम् ारी बवु द्ध क ाूँ गई,जो इस अिस्थामें ग्स्त्रयोंके डडब्बे मे आ कर बैठ गये ो । उसने ाथको
झ्का हदया । ककन्तु म ाराज ्ससे मस न ु ए और र्नभियतासे ि ी बैठे र े । बादमें ि अगधकारी स््े शन अधीक्षक
के पास गया और उसने क ा की," आप मेरे साथ ग्स्त्रयोंके डडब्बेके पास चलिये ।" तद्नस
ु ार दोनो ि ाूँ प ु चे तो
भास्करने कोई उत्तर न हदया । तब शेगाूँि के िोगोंने र्नश्चय ककया की, म ाराज को अग्ननरथ में कभी न बबठाया
जाय, तयोंकक उसमे ऐसी विपग्त्तयाूँ ोती ैं ।' तबसे भततगण म ाराज को अपनी बैिगाड़ी में ी बबठाकर िे
जाते,ऐसा िम कई हदन तक चिा ।
एक बार पण्
ु यराशी अकोिा के बापु राि के घर इस समय म े ताबशा नाम का एक मस
ु िमान साधु मर्ु तिजापरु के
पासिािे कुरुम नामक गाूँि में र ता था। उसने बपरु ािसे क रखा था की, "म ाराज अकोिा आये तो मको सच
ू ना
दे ना। " तदनस
ु ार म ाराजके अकोिा आनेपर बापन
ू े एक आदमी जल्दीसे कुरुम सिंदेशा िेकर भेजा। इधर म े ताबशा
म ारजसे लमिने कुरुमसे र्नकि पड़े थे। आधे रस्तेमे उन् ें ि व्यग्तत लमिा जो उन् ें िेने कुरुम जा र ा था।
मधरु भाषी म े ताबशा ने उससे क ाूँ,"अरे कुरुम जानेकी जरुरत न ीिं, मैं ी म े ताबश ा ूूँ । चिो, मारी बैिगाड़ीमे
बैठो और स््े शन चिो, श्रोतागण सिंत बत्रकािज्ञ ोते ै उनकी मह मा अपरिं पार ोती ै। सिंत के आनेकी िाताि सिंत
को ज्ञान ो गयी थी। म े ताबशा के साथ दो-चार मस
ु िमान थे। सब आकर बापरू ाि के घर उतरे । दस
ू रे हदन
प्रातःकाि म ाराज ज ाूँ म े ताबशा बैठा था ि ाूँ आये और उसके बाि पकड़कर उसे ताड़ने िगे। विद्िजनों
म ाराजके ताडन करनेका र स्य य था, की यिन जातीमे जन्म िेकर उनका कुछ भी कल्याण तुमने न ीिं ककया।
उि्े हदनपर हदन उनकी उद्दिंडता बढ़ती जा र ी ै। तुम उद्दाम ो गये ो। इससे धमितत्िोंका विनाश ोगा और
ऐसा सिंकेत लमिनेपर म े ताबशा को बड़ा सिंतोष ु आ, तयोंकक साधु ी साधु को प चान सकते ै । जब म े ताबशा को
ताडन ककया तब साथके यिन िोग ि दे खकर घबरा गये। तब उनको म े ताबशा ने क ाूँ ," तम ु िोग मारे साथ
न र कर कुरुम चिे जाओ, य ी ठीक ोगा।शेख कडू को छोड़कर बाकी सब यिन कुरुम िापस चिे गये। इस समय
ब्चि
ू ाि म ाराजको र्नमिंबत्रत करने ि ाूँ आया। उसने क ाूँ," दयार्नधान, कि मेरे य ाूँ भोजन करने पधाररये।
दसू रे हदन तािंगेमे बबठाकर म ाराजको बड़े जुिस ू के साथ घम ु ाते ु ए उसने उन् ें अपने घर िाया। ककिंतु समथि तािंगेसे
र्नचे न ीिं उतरे ग्जससे िोग बड़े गचग्न्तत ु ए। तािंगा िैसे ी पीछे िे गये। सब िोग बबचार करने िगे की म ाराजने
कि र्नमिंत्रण स्िीकार ककया और आज तािंगेसे न ीिं उतरे , तया कारण ै ? तब उनमेसे एक बवु द्धमान व्यग्तत था,
उसने उसका कारण इस प्रकार बताया की, म े ताबशा को म ाराजके साथ न ीिं बि
ु ाया य ी कारण ै। सबको य
जूँ च गया तब दोनोंको एक तािंगेमे बबठाकर घम ु ाते ु ए िाया गया और म े ताबशा को मिंहदरके पास एक ना्कग ृ में
उतारा और म ाराज श्रीरामके मिंहदर में उतरे । बादमे िो भी उठकर नाट्यग ृ में चिे गये। सबने भोजन ककया तब
म े ताबशा ने िोगोंसे क ाूँ कक," पिंजाब का ह्क् क्ा दो। " तब कडुने क ाूँ," आप भिा कुरुमकी मग्स्जदको छोड़कर
तयों जाते ो ? तब म े ताबशा शेख क़डूसे क ने िगे," मझ
ु े गजानन म ाराजकी आज्ञा पिंजाब जानेकी ो गई ै
सो मैं एक क्षण भी अब य ाूँ न ीिं र ूूँगा, व्यथि का आग्र न करो।
इधर बापरू ाि की पत्नीको भानामतीकी बाधा थी। घड़ीमे उसके लसरपर मि पड़ता कभी गिा तप्त ोता। घड़ीमे
कपडे जि उठते थे। कभी भल्िातक तैि की िकीर पीठ तक उठ आती। कभी अ्ारीपर रखा चीर जि जाता। ऐसी
अनेक भयानक यातनाएूँ ोती थी। इस भानामतीके तक़िीफ़से ि बापरू ाि की पग्त्न बड़ी त्रस्त थी, व्यगथत थी।
उसे अन्नपान, भोजनाहद में रूची न ीिं र गयी थी। बापरु ािने एक ओझा और जानकार िोगोंको बताया, ककन्तु कोई
िाभ न ीिं ु आ। अन्तमे उसने गजानन म ाराज की शरण िी। क ने िगा, "म ाराज मेरी पत्नी भानामतीके
तक़िीफ़से त्रस्त ै । उपाय करके मैं थक गया ूूँ । आपके चरण मेरे घर पर आनेके बाद भिा भानामती य ाूँ कैसे
र सकती ै ? ज ॉ कस्तरू रका पररमि पररिालसत ो, ि ाूँ दग
ु ध
ं कैसी ?"य प्राथिना सन
ु कर म ाराजने कृपा करके
बापरू िकी पत्नीको भानामतीसे मत
ु त कर हदया। भिा केसरीके सामने मकि् र सकता ै?
॥शभ
ु िं भितु। श्री रर रापिणमस्तु ॥
|| इर्तश्री गजानन विजय ग्रन्थस्य सप्तदशोध्याय समाप्त ||
श्री गणोशाय नमः! े गोवििंद, श्रीर्निास, परे श, आनिंदकिंद, गचद्वििास, दीनबिंध!ु आपकी जय ो। े केशि केशरी
असरु को मारनेिािे माधि (मा-नाम िक्ष्मी के धि-नाम पर्त) मधस
ु द
ू न (मधु दै त्य का नाश करनेिािे) पत
ू ना के
प्राण का शोषण करनेिािे, रुग्तमणीपती पािंडुरिं ग, मेरे मन में तया ै ि आप जानते ो। तया ि मझ
ु े बोिकर
बताना ोगा? े पद्मनाभ! (पद्भ-नाम कमि ग्जसकी नालभ से र्नकिा ै ।) भतत जो इ्छा करता ि आप पण
ू ि करते
ैं, ऐसा ब ु तायत िणिन परु ाणों में ै । इसलिए मन की कठोरता छोडकर इस दासगणू के मनोरथ पण ू ि कररये। ि
तम्ु ारा ी ै । आको् के पास में मिंड ु गाूँि एक दे ात ै । ि ािं पर बायजा नामक एक तरुणी म ाराज की भतताणी
थी। िदी मािी के ििंश में इसका जन्म ु आ था। इसके वपता का नाम लशिराम और माता का नाम भि ु ाबाई था।
बायजा का वििा तत्कािीन प्रथा के अनस ु ार बाल्यकाि में ी ो गया था। जब ि तरुण ु ई तब उसके वपताने
उसे जामात के घर िे जाकर प ुिं चा हदया। ककिंतु जामात नपिंस
ु क था, जो जानकर बायजा के माता वपता को म ान ्
शोक ु आ। बायजा कक ओर दे खकर भि ु ाबाई रुदन करती थी कक मेरी पत्र
ु ी की तरुणाई व्यथि ै , य बाझ ी र े गी।
ऐसा दे खकर भि
ु ाबाई ने लशिराम से क ा, ‘बायजा को ऐसे ी मत रखो, इसको दस ू रा पर्त दे खकर वििा कर दो।
लशराम ने क ा, धैयि मत छोड़ो, परु
ु षत्ि का मामिा जल्दी न ीिं समझ सकता। कुछ हदन रास्ता दे खेंगे, ऐसी अधीर
मत बनो। कुछ हदन बायजा को ससरु ाि में रखकर दे खेंगे। इसका नपिंस
ु कत्ि यहद व्यागधजन्य ै तो औषगधयों से
ठीक ो सकता ै।
पिंड
ु लिक को दे खकर दयार्नधान क ने िगे, ‘अरे , बायजा पि
ू ि जन्म की तम्
ु ारी ब न ै । यद्यवप िोक र्निंदा करते ैं
किर भी उसकी परिा न करके तुम दोनों सग््चदानिंद की भग्तत करो, उस बायजा का दरु ाि न करना, किर भि
ु ाबाई
से बोिा, ‘भि
ु े, इन पर व्यथि का दोषारोपण मत करो, ये पि
ू ज
ि न्म के भाई-ब न ै तथा इस बायजा को कोई पर्त
न ीिं ै , य इस सिंसार में प्रपिंच के लिए न ीिं आई ै । य इसी तर ब्रह्मचारी र े गी, जन्मभर, जैसे जनाबाई पिंढरपरू
में थी। इसको त्रस्त मत करो।’ जनाबाई ने नामदे ि को गुरु ककया था। य मारे शरण आई ै । मारी जनाबाई को
कोई भी कप् छि मत करो। इस प्रकार की म ाराज की बाणी सन
ु कर लशिराज का किंठ रुिं ध गया। उससे शब्द न ीिं
िू्ा। बाद में िो बायजाबाई को िेकर मिंड
ु गाूँि आया और कभी भी बारी के लिए प्रर्तरोध न ीिं ककया।
रात के एक बजने के समय अिंधकारमय रात्री के जब रात्रजिंतु ककरि रि र े थे। लसयार जिंगि में भूँक
ू र े थे। ऐसे समय
में एक आ्छाहदत दमनी-ग्जसको बड़े उत्तम बैि जड़
ु े थे। ग्जनके किंठ में घिंघ
ु रू और घिं्ी थे, ग्जनका ध्िर्न ो र ा
था। दमनी के आगे पीछे पडदे पडे थे। ग्जनके किंठ में घिंघ
ु रू और घिं्ी थे, ग्जनका ध्िर्न ो र ा था। दमनी के आगे
पीछे पडदे पडे थे। दिाखाने के दरिाजे पर जब ि
दमनी आकर खडी ु ई तो डात्र शय्या में पडे पडे दे ख र ा था।
उस दमनी से एक ब्राह्मण उतरा और डात्र के घर का दरिाजा ख्ख्ाने िगा। डात्र के भाई ने दरिाजा खोिा
और आगन्तक
ु से प्रश्न ककया, ‘आप क ािं से आ र े ो?’ तब ब्राह्मण ने उत्तर हदया, मेरा नाम गजा ै और मैं
शेगाूँि से भभत
ू ी और तीथि िेकर आया ूिं । भाऊ किर को जो व्रण ो गया ै , ि विभर्ू त िगाकर तीथि वपिाइये।
अब बडी दे र ो गई ै , मैं िापस जाता ूिं , ठ रने को मझ ु े समय न ीिं ै । इस प्रकार तीथि और भभत
ू ी दे कर ब्राह्मण
चिा गया। बाद में भाऊ ने उसे ढूिंढने के लिए आदमी भेजा, ककिंतु गाडी तथा ब्राह्मण का कोई पता न चिा। भाऊ
एक बार समथि स्िामी श्री गजानन चिंद्रभागा तीर के भगिान विठ्ठि को लमिने पिंढरपरू गए। साथ में कईं
भततगण थे। िारी का समय था, सो विशेष गाडडयािं छू् र ी थीिं। म ाराज के साथ जगु आबा, री पा्ीि, बापन
ु ा
काळे और कईं िोग थे। ये सब िोग शेगाूँि से र्नकिकर नागझरी प ुिं च।े य नागझरी शेगाूँि के पास ै । ि ािं एक
भू वििर में गोमाजी नामक साधु ने समागध ग्र ण की ै । य ािं पर सदै ि ब नेिािे स्त्रोत (झरने) ैं। इसलिए इस
गाूँि का नागझरी पडा। ये गोमाजी म ाराज म ाद जी पा्ीि के गुरु थे और इन् ोंने शेगाूँि के पा्ीि ििंश को
आशीिािद हदया। इसलिए शेगाूँि के पा्ीिगोमाजी की ििंदना करके पिंढरपरू जाते ैं। इस प्रकार पररपा्ी के अनस
ु ार
सब िोग नागझरी जाकर गोमाजी म ाराज को ििंदन करके रे न में बैठकर पिंढरपरू के लिए चिे। रर पा्ीि के साथ
स्िामी समथि थे और दस
ू रे पािंच पचास आदमी थे। आषाढ शद्ध
ु निमी का ि हदन था। ब ु त से िारकरी िोग पिंढरपरू
तुिसी और िूिों की ब ु तायत थी। ऐसे समय में म ाराज पढिं रपरू प ुिं चे और कुकाजी पा्ीि के बाडे में ठ रे । य
बाडा प्रदक्षक्षणा मागि चै रास्ते पर ै । मिंहदर में बडी भीड थी। एक एक ाथ पर पलु िस िोग बिंदोबस्त के लिये खड़े
थे। भततगण भगिानका भजन करते दशिनको जा र े थे। एकादशीके हदन बापन
ु ा को छोड अन्य सब िोग दशिन
करने चिे गए। बाद में बापन
ू ा भी जल्दी से दशिन के लिए दौडा। मिंहदर में इतनी भीड थी कक गचिं्ी का भी प्रिेश
कठीन था। बापन
ू ा कैसे दशिन को जाए किर गरीब भी था। मन में ि क ने िगा, ‘ े ऋवषकेश (हृवषका नाम-इिंहद्रयािं
उनका ईश अथाित ् स्िामी) विठ्ठि, आप तयों कठोर ो गए? मझ
ु े दशिन दो। तुम सािंिता मािी के लिए जिंगि में
दौडकर गए उसी प्रकार इस गरीब को मिंहदर से मझ
ु े दशिन दीग्जए। े पािंडुरिं ग ‘अरण’ तो आठ कोस था। य मिंहदर
तो अत्यिंत समीप ै और मैं रास्ते में खडा ूिं । िोग क ते ैं, तम
ु अनाथों के नाथ ो। किर मझ
ु अनाथ से तयों मिंु
मोड लिया। ऐसी बडी प्राथिनास की और अिंत में बापन ु ा ताश ोकर अस्त समय डेरे पर िौ् आया। मख ु कािंती
मलिन ो गई थी। मन मिंहदर के चतकर िगा र ा था। ध्यान विठ्ठि के दशिन में िगा था। शरीर य बाडे में था।
बापन
ु ा को दे खकर िोग िं सने िगे और क ने िगे, ‘य पिंढरपरू दशिन को आया और गाूँि से किरकर ी िौ् गया।
तब एक ने क ा! “‘किर य ािं ये ककसलिए आया ? तया शेगाूँि में उसका ईश्िर न ीिं लमिता। अरे , ये िेदािंती
िोग अन्य िोगों को ज्ञान का उपदे श दे ते ैं, ककिंतु इनको स्ियिं को कोई अनभ
ु र्ू त न ीिं ोती। सगुणोपासना पण
ू ि ोने
पर किर ज्ञान ोता ै , तयोंकक बाल्यािस्था के बबना तया तरुणािस्था आ सकती ै ?’ इस प्रकार से िोग उसका
उप ास करने िगे। सब िोगों के सामने बेचारा अकेिा तया करता? बापन
ु ा मिंु बिंद करके भख
ू ा ी बैठा था। म ाराज
िे्े ु ए सब दे ख र े थे। सन
ु कर म ाराज बोिे, ‘बापन
ु ा आओ, मैं तम्
ु ें रुग्तमणण रमण से लमिाता ूिं ।’ तयोंकक गरीब
जनों कक दया साधु को ी ोती ै । ग्जनको सत्यसिंगर्त प्राप्त ोती ै िो ी िास्ति में भानयिान ैं। ऐसा बोिकर
म ाराज कमर पर ाथ रखकर, पैर जोड कर खडे ु ए! तुिसी और िूि की मािायें गिे में सिंद
ु र कृष्णिणि मर्ू ति
बापन
ु ा को हदखाई पडी। उसने चरणों पर मस्तक रखा। किर ऊपर दृग्ष्् उठाकर दे खता ै तो समथि हदखाई पडे,
ग्जससे बापन
ु ा को बडा आनिंद ु आ। वपतािंबर जो बापन
ू ा को हदखा मिंहदर से जाने पर उसे ि ी िेष हदखाई पडा। बाकी
और िोग म ाराज से बोिे, ‘म ाराज! बापन
ु ा के समान म िोगों को भी दशिन करिाइये।’ सन
ु कर म ाराज ने क ा,
‘अरे , प िी बापन
ु ा के समान मन बनाओ तो दशिन करिाऊिंगा। तया दशिन बाजार में बबकता ै ? मन र्नष्पाप करो
अब तो मारा अिंतकाि समीप आ गया िगता ै ।’ तब म ाराज बोिे, ‘अरे पागि! डरते तयों ो? तम्
ु ारा
विघ्न ्ि गया।’ ऐसा क कर उसके लसर पर ाथ रखा। म ाराज का िरद स्त लसर पर िगते ी उसकी रे च और
उल््ी बिंद ो गई। ककिंगचत शग्तत मािम
ु पडी, सो ि उठकर खडा ु आ। तब म ाराज ने उसका ाथ पकडा, किर
भिा यमराज अपने मन से उसे कैसे िे जाता? घडी भर में ि स्िस्थ ो गया और सबके साथ चिंद्रभागा के पास
समथि आ गया। उसको अपार आनिंद ु आ। य म ाराज की चरण ििंदना करके क ने िगा, ‘दयाि!ु आपने मझ
ु े
यमराज की दाढ से र्नकाि लिया।’ ऐसा चमत्कार ोने पर सब भततगण म ाराज की जयजयकार करते ु ए र्नभियता
से कुडुब
ि ाडी प ुिं च गए। इस प्रकार श्री गजानन म ाराज के साथ सब िोग पिंढरपरू की िारी करके शेगाूँि प ुिं च।े एक
बार एक कमिठ ब्राह्मण गजानन म ाराज के दशिन को शेगाूँि आया। ि बडी दरू से म ाराज की कीर्ति सन
ु कर
दशिनाथि आया था। ि मध्िसिंप्रदायी था और उस सम्प्रदाय से छुआ छूत और सगु चता अशगु चता का बडा कडा र्नबंध
ै। ि म ाराज को दे खकर सोचने िगा, ‘मैं अकारण य ािं आया, इस पागि की ििंदना करने। ये तो भ्रष््ाचाररयों के
लशरोमणी मािम
ु पड़ते ैं। ककसी प्रकार की शगु चता, अशगु चता न ीिं। अनाचार का साम्राज्य ै ऐसे पागि को िोग
।। शभ
ु िं भितु भी रर रापिणमस्तु।।
श्री गणेशायनम: े आनिंद्किंद समभािदशी, मैं आपके चरणकमिोंमें अनन्य भािसे नमस्कार करता ूूँ । े
रघप
ु ती राघि! आणखर आप मेरी ककतनी परीक्षा दे खना चाह्ते ैं कुछ समझ न ीिं आता। जो म ान ोते ै उनको
कठोरता शोभा न ी दे ती। इसपर कुछ विचार कीग्जये। मैं दीनता से आपको पक
ु ार र ा ूूँ । े जगत्पर्त ! मझ
ु े धोखा
मत दीग्जये । एििं मझ
ु पर कृपा कीग्जये।
एक बार म ाराज शेगाूँि में थे। उस समय कालशनाथ गदे , जो खिंडरे ाि का पत्र
ु था म ाराज के दशिनको शेगाूँि
आया। मर्ू ति दे खकर उसको बडा आनिंद ु आ । उसने समथि चरणों को ििंदन ककया। उसने मन में विचार ककया कक
मेरे वपताजीने ग्जिन्मत
ु त के जो िक्षण अनभु ि से लिखे ैं उनकी साक्षात मर्ू ति म ाराज ैं । मेरा भानय धन्य ै ,
जो खामगाूँि से मैं म ाराज के दशिन को आया। ि साथिक ो गया । तब समथि ने िीिा की। उसपर कृपा करने
े तू कु नीसे उसकी पीठपर धतका हदया और बोिे, ’ जा तेरा मनोरथ पण
ू ि ोगा । तारिािा तेरी बािं् दे ख र ा ै ।’
इसका अथि तया ? य र स्य उसे सि
ु झा न ीिं और म ाराज को पछ्
ू ने का सा स उसे ू आ न ीिं सो चरणििंदना
करके खामगािंम चिा गया । उसे ि ाूँ प ुिं चते ी तारिािे ने तार उसके ाथ में दी। का े की तार ै ? ि खोिकर
दे खा तो पता चिा कक उसकी र्नयग्ु तत मोशी तािक ु े में मन
ु लसफ़ रूप में की गयी ै । य दे खकर उसे अत्यिंत आनिंद
ु आ और कु नी के धतकेका और म ाराज के कथन की मिंशा समज में आई, दे णखये, सिंतोंका ज्ञान ककतना अगाध
ोता ै !
शेगाूँि के िोग ि ाूँ दशिन को जाते तो उन् ें जाने न दे ता । तयोंकक धर्नकों के घर अनज्ञ
ु ा बबना कोई जा न ीिं
पाता । शेगाूँि के कई िोग म ाराज को िाने गये ककन्तु उनका कोई उपाये न चिा । इधर री पा्ीि कुछ िोगों
को साथ िेकर म ाराज को िाने शेगाूँि से र्नकिे । उसी समय नागपरू में म ाराज ब्
ु ीसे बोिे, " अरे गोपाि !
धार कल्याण के रिं ननाथ स्िामी जो मोगिाई के प्रलसद्ध सिंत थे, शेगाूँि मे म ाराज को लमिने आये । उन दोनोने
सािंकेर्तक रूपसे अध्यात्म चचाि की , जो जानना िौककक िोगोंको असम्भ्ि था। श्री िासद
ु े िानिंद सरस्िती, ग्जनकी
ककनारे पर बडी प्रलसद्धी ै । ग्जनका जन्म के माणगाूँि नामक स्थान मेंु आ था, उनके आनेके प िे म ाराज
बािाभाऊसे क ाूँ ! " अरे बािा ! कि प्रात: काि मेरे एक बिंधू मझ
ु से लमिने आ र े ै । उनका आदर करना ।
िो बडे ी कमिठ ै , सो मागि में गचिंधी न रख्नना सब पररसर स्ि्छ रखो । यहद क ी गचिंधी हदख गई तो िे िोगधत
ोंगे । िो साक्षात जमदग्ननकी की दस
ू री प्रर्तमा ै । ि बडा शगु चभत
ूि , ज्ञानसिंपन्न कन् ाडा ब्रा म्ण ै । कमिठता
ी उसका किच ै । " इस प्रकार का र्नदे श बािाभाऊ को प िे हदन ी म ाराज ने रखा था । साधारण एक प्र र
के समय िासद ु े िानिंद सरस्िती मठ में प ुिं चे । एक दसू रे को दे खकर दोनो िं से और दोनों को बडा आनिंद ु आ । एक
कमिकाण्ड का सागर तो दस ू रा योगयोगेश्िर । एक सिंदु र मोगरा तो दस ू रा गुिाब िक्ष
ृ । एक भागीरथी गिंगा तो दसू रा
गोदािरी । एक साक्षात पशप
ु र्त शिंकर तो दस
ू रा शेषशायी नारायण ।
जब स्िामी मठमें प ुिं चे तो गजानन म ाराज पििंगपर च् ु की बजाते ु ए बैठे थे । उनके आते ी च्
ु की रूक गई ।
दोनों की दृष््ादृष्् ु ई तो स्िामीने जाने की अनम
ु ती मािंगी । गजानन म ाराज ने सिंम ी सच
ू क गदि न ह िाई और
जो जो कृत्य प्रेमरह त ै ि केिि श्रम मात्र ैं अत: तीनों मागि मे प्रेम आिश्यक ै । कृष्ण-गौर-ऊिंचा-बौना-
सन्
ु दर, कुरूप आहद उपागधय़ािं शरीर कक े । आत्मा को इनकी बाधा न ीिं । इसी प्रकार इन तीनों की ग्स्थती ै ।
यद्यवप इनके बाह्य स्िरूप लभन्न ै परिं तु इनका मि
ू स्त्रोत एक ी
ै । जैसे गन्तव्य स्थानपर प ुिं चनेपर मागि का
विचार न ीिं र ता । मनष्ु य ग्जस मागि पर चिता ै उसे ि ी म त्िपण
ू ि िगता ै । पिंथ चिने िगा, ककन्तु िक्ष्यपर
न ी प ुिं चा ऐसे िोगोंका ी सिंप्रदायभीमान से-पिंथलभमानसे ोता ै । इन तीनों मागिपर चि कर िक्ष्य पर प ुूँ चने
िािे सिंत ोते ै । उनमें किर द्िैत न ीिं र जाता । जैसे पष्ु पदन्ताचायि अपने मह मन में क ते ै ।
"त्रर्यसािंख्ययोग: पशप
ु र्तमतिंिष्ै णिलमर्त ।
प्रलभन्ने प्रस्थाने पररलमद मद: पर्थयलमर्त च ॥
रूचीनािं िैगचत्र्याद्द्जक
ु ु ह्ि नाना पथजुषािं ।
नण
ृ ामेको गम्य त्िमलस पयसािंमणिि इि ॥"
िलसष्ठ, िामदे ि,जमदग्नन, अबत्र, पाराशर, शािंडडल्य ये म वष कमिमागि से गन्तव्य स्थानपर प ुिं चे । व्यास-नारद-
प्र िाद- नमु ान-शबरी, अिूर, उद्धि, सद ु ामा-अजुन
ि और विदरु ये भग्तत मागि से भगिान को प्राप्त ु ए । गरू ु ियि
शिंकराचायि-मर्छिं द्रनाथ - गोरखनाथ-जाििंदरनाथ- ये योगमागि से चढे । जो िाभ िलशष्ठ को ु आ ि ी विदरु को ु आ
। मर्छिं द्रने भी ि ी भोगा । अत: ििमें िरक न ीिं । इस प्रकार की प्रथा आगे चिी ि ी कमिमागि की प्रथा का रक्षण
श्रीपादिल्ल्भने ककया । यर्तिर नरलसिं सरस्िती ऐसे ी आचारयत
ु त ो गये ग्जनका स्थान गाणगापरू में ै । बाडी-
औिंदब
ु र जगद्विख्यात ै । नामदे ि-सािता-ज्ञानेश्िर सेना कान् ू चोखा म ार- थानेदार दामाजीपिंत भग्ततमागि से गये
। श्रीगोंदा में शेख म िं मद,जािना में आनिंद स्िामी, सज ु ी अिंजनगाूँि में दे िनाथ योगमागी ै । ऐसे ी िासदु े िानिंद
सरस्िती कमि मागि में रत ैं । मैंने और कई अन्य िोगोंने भग्तत मागि का आश्रय लिया ै । पळुसके धोंडडबाबा
सोनगीर का नाना-जािनाके यशििंतराि इनको भग्तत मागि साध्य ु आ । दे खो, चािंदरु तािक
ु े का िरखेड गाूँि का
आडकुजी नामक सिंत इसी मागि से गया । मऱ्ु ा गाूँि के सिंत लशरोमणी णझिंगाजी, उसी प्रकार नागपरू के ताजुद्दीनबाबा
भग्ततमागिसे गये । इन सब सिंतोंको आचरण लभन्न प्रकारका ै । ककन्तु ये सब कैिल्य के अगधकारी ु ए । मागि
चा े कोई भी ो, उसको म त्ि न ीिं ै । जो िक्ष्यको प्राप्त कर िेता ै ि कौतुकास्पद ै । म सब बिंधु पर्थ
ृ िीपर
भाविकों को कैिल्यमागि दशिनके लिये ी आये ैं । ग्जसको जो अ्छा िगेगा ि उधर से जाएगा और मोक्ष्ररूप िि
प्राप्त करे गा, उस पिंथ का आचरण करके अब कुछ मत पछ
ू ना । य ककसीको मत बताना । में शािंती से य ाूँ बैठने
काण्िशाखा की सािब
ु ाई नामक एक ब्रा म्णी म ाराज की भततानी थी । एक हदन म ाराजने उसे क ािं, ’साि,ु आ्ा
और बेसन िेकर तिंू रातहदन रसोई करके आनेिािों को भोजन कराओ । इसीसे तुम् ें भगिान नारायण प्राप्त ोंगे ।’
य सािब
ु ाई मठ में अभी तक ै । इसका मायका बैजा परू का ै । ि ाूँ पर उसके िाडे-घोडे ै । प्रल् ाद जोशी को
कृपाका योग आया था ककन्तु उसके दभ
ु ािनय से ि उसे न ीिं ििा ।
खामगाूँि के पास जिम नाम का गाूँि ै । तुिसीराम नामक एक व्यग्तत ि ाूँ का र नेिािा था । आत्माराम
नाम का उसका पत्र
ु बडा कुशाग्र बवु द्धका था । उसे िेदाध्ययन में बडी श्रद्धा थी । ि िेद िेदाङ्गके अध्ययन के
लिये भागीरथी ककनारे ग्स्थत धमिपीठ काशी गया । प्रर्तहदन भागीरथी का स्नान करता, माधक
ु री लभक्षान्न का सेिन
कर गुरूग ृ श्रर्ु तयों के अध्ययन को जाता था । श्रोतागण ! विधाथी प्राय: दे खा जाता ै , कक विद्याजिन लिये विदे श
जाते ै ओर ि ाूँ विद्या के बजाय वििास करते ैं और विद्या के बारे मे क ाूँ ै
सख
ु भोगना ै तो विद्या छोड दो और विद्या िेना ै तो सख
ु छोड दो । तयोंकक वििास से भिा विद्या कैसे प्राप्त
ोती ै ? जैसे सडे आम से रस न ीिं ोता । ककन्तु आत्माराम उन विद्याथीयोंमें से न ी था । ि बडा वििेक सिंपन्न
था । उसने विद्याध्ययन पण
ू ि कर ि अपने दे श आया । य ाूँ आते ी ि शेगाूँि के म ाराज के पास अपनी
उपग्स्थती जताने आया । उसे बडा षि
ु आ, ि िेदविद था, तो म ाराज गजानन ज्ञान सविता थे । ि म ाराज
के सग्न्नध िेदसिंह ता का पारायण करता , ि क ीिं क ीिं त्र्
ु ी करता तो सदगरू
ु मर्ू ति तत्काि उसकी त्र्
ु ी सध
ु ारते
और आत्मारामके साथ िेद पारायण करते । म ाराज का िेदो्चारण सन
ु कर विद्िान तन्मय ो जाते तयोंकक जौ री
के बजाय ीरे की परख न ीिं ोती । विद्िान ी विद्िानकी मह्त्ता जानता ै । अन्तमें आत्माराम म ाराज के पास
ी आदरपि
ू क
ि र गया । भिा मधक
ु ोष छोडकर मधु मक्षक्षका क ीिं अन्यत्र जा सकती ै ? प्रर्तहदन सेिाके लिये ि
आता और एक हदन लभ त्र्
ु ी न ीिं कक ऐसा ि एकर्नष्ठ भतत था । समथि के समागधस्थ ोने के बाद समागधकी
पज
ू ा अचािका कायि मठमे बबना ककसी अपेक्षा से बबन िेतन करता र ा। अन्तमें उसने अपनी सिंपत्ती म ाराज को
समवपित की, अथाित सिंपग्त्त कुछ विशेष ने ीिं थी, थोडीसी जमीन और घर । य ाूँ मल्
ू य का सिाि न ीिं ै , मनकी
उदारता और वििेक का म त्ि ैं । जेसे शबरी लभिनीने भगिान रामको जिंठ
ु े बेर दे कर िश ककया, ि ी भाि य ाूँ
ै ।
ऐसा कह्कर मारोतीपिंत शेगाूँि आया और दशिनको मठ में गया । प्रात: दस नयार का समय था । म ाराज अपने
आसन पर बैठे थे, सामने जगू पा्ीि और उनके पासमें भगत बािाभाऊ ाथ जाडे बैठा था । मारूतीने जब दशिन
लिया तो म ाराज ने सकर क ाूँ ! ’अरे तुम् ारे लिये मझ
ु े रातको त्रस्त ोना पडा । तुम िोग मेरे भतत बनते ो
और मझ
ु े काम मे जोतते ो । सोनेिािा नोकर रखते ो और स्ियिं आराम से घर सोते ो । कि रात को र्तमाजी
रात को खलि ान मे सो गया । गधे रास खाने िगे तब मैने र्तमाजी को जगाया और रास रक्षा करने को कह्कर
शेगाूँि आया ।" य सन
ु कर मारोती ने म ाराज के चरणोंपर सीर रखकर क ाूँ," भगिन, म िोगों को तो आपका
ी आश्रय ै । बािपन में सब बोझ मातापर ोता ै । आपके बजाय दस
ू रे ककसीको सत्ता न ीिं ै । प्रभो ! जो कुछ
भी मारा ै ि सब आपका ी ै । खलि ान और ज्िार -तथा र्तमाजी रखिािा केिि व्यि ार दृग्ष्् से ै ।
आपतो सारे ब्र ाण्ड का सिंरक्षण करनेिािे
ो । माता बािकों का सिंरक्षण करती ै । मैं आपका बािक ूूँ इसी कारण
मोरगाूँि जाकर आपने खलि ान में रास का सिंरक्षण ककया । े स्िामी ऐसी ी कृपा मझु पर सदै ि रणखये । मैं उस
र्तमाजी को सेिा से र्नकाि दे ता ूूँ । मारोती के इस प्रकार क ने पर म ाराज जी बोिे, " अरे पागि ! र्तमाजी को
नौकरी से बबिकुि न ीिं र्नकािना । उसका र स्य य ै कक ि बडा र्नतीिान ै । ि खलि ान मै गधों को
दे खकर बडा द:ु खी ु आ, य मझु े तभी पता चिा था । प्रात: काि ि डरते डरते तुम् ें ित
ृ ािंत बताने आया तो तुमने
क ाूँ शेगाूँि से आनेपर खलि ान आऊिंगा" । य सन ु कर मारोतीको बडा सन्तोष ु आ । श्रोतागण दे णखये सिंत
अिंतरज्ञान से सब कुछ जान िेते ै ।
इसीलिये साधु की पह्चान ु ए बबना बडा सम् िकर व्यि ार करना चाह ये ।
अस्त समय समीप आ गया । पे् में र्ति भर भी अन्न न ीिं था, डेरा तो बडी दरू था । ऐसे समय कवपिाधारा
मे तिंब
ु ा दब
ु ोकर जिभरकर गुसाईजी चिे । य दे खकर र्नमोणकर बोिे, म ाराज, मेरा ककतना अन्त दे खोगे ? यहद
आपको कुछ योगकिया का ज्ञान ै तो मझ
ु े लसखईये । सो अस्त समय कैिल्यदानी ने एक गचत्रप् दे खकर क ाूँ,"
ये िे जाकर अपना काम करो । इसपर षोडशाक्षरी मिंत्र लिखा ै , िाणी से उसका जप करते र ना । जप से तुम् ें
थोडा योग का ज्ञान ोगा । योगमागि सब मागों में अत्यिंत कहठन ै । तया घोंघा ह मािय को िेष्ट्नकर सकता ै
? शग्ु तत तया मेरु चढ सकती ै ? बडे कहठनता से यहद यत्न करोगे तो दस पाूँच आसन आयेंगे । ब्रम् ाचयि का
सन
ु कर धमु ाि को बडा आनिंद ु आ और उसने क ाूँ की, म ाराज सिि सामर्थयि के सागर ै भिा इन योगीराज को
िस्तु कमी ै । इनकी सत्ता के आगे साििभौम सत्ता की भी कोई कीमत न ी । तुम् ें म ाराज ने जो िाि पत्थर
हदया ै उसको पीढे पर स्नान पज
ू न-अचिन सद॒ भािसे ककया करो उसके सामने ी योगाभ्यास ककया करो । उसकी
कृपा से थोडा ब ु त योगाभ्यास लसद्ध ोगा । आगे चिकर ि ी बात सत्य ु ई । गजानन म ाराजकी कृपा से
र्नमोणकरको योगाभ्यासमे थोडी ब ु त लसद्धी प्राप्त ु ई ।
ये नारायण अलभतक मठ में सेिाधारी ै । सौ म ाराज के पास ककया ु आ सिंकल्प अिश्य परू ा करना चाह ये । य
बतानेके लिये ी नारायण अलभतक जीवित ै । य सिंत चररत्र ै , कग्ल्पत कादिं बरी न ीिं ।
आगे आषाढ मास में गजानन म ाराज विठ्ठि को लमिने पिंढरपरू रर पातीिके साथ गये । ि ी सब सिंतों का
ध्येय (ध्यान का विषय़) ै । भततों कल्पिक्ष
ृ ै । पिंढरपरू आनेपर चिंन्द्रभागा में स्नान करके विठ्ठि दशिन को गये
। जो जगतागधष्ठान जगत्पर्त ै । िेद ग्जसका र्निंरतर गण
ु गान करते ै , जो रूग्तमणी दयाधन सिंतोंके हृदय में
र ता ै , उसके दशिन करके म ाराज प्राथिना करने िगे, " े पिंढरीनाथ ! े अगचन्त्य अद्िय ! े भततों के परमेश
! मेरी बबनती सर्ु नये , आपकी आज्ञा से मैं आजतक भम
ू ीपर किरता र ा । जो जो भाविक जन थे उनके मनोरथ
जोजो ब्रम् िेत्ता ु ए ैं उन् ोने ऐसा ी ककया ै । उसी तर मैने य शरीर बदिा ै , य मत भि
ू ो ।
चतथ
ु ी का सिंपण ू ि हदन बडे आनिंद से बबताया । बािाभाऊ का ाथ पकड्कर अपने आसन पर बैठकर म ाराज बोिे,
" मैं गया ऐसा न समझना, मैं य ीपर ूूँ । भततों को अन्तर मत दे ना, मेरा विस्मरण न करना।"
ऐसा क कर योगसे प्राण का र्नरोध करके म ाराज ने उसे मस्तके ग्स्थर ककया । जैसा गीता मे क ाूँ ै ।
प्रयाण कािे मनसा चिेन भतत्या यत
ु तो योगबिेनचैि ।
भ्रि
ु ोमिध्ये प्राणमािेश्य सम्यक॒ सिंत परिं परू
ु ष मप
ु र्ै त हदव्यम॒
( गीता-८-१८)
सिि द्िाराणण सिंयम्य मनो हृहदर्नरूध्य च ।
मध्
ू न्यां धायात्मन: प्राण माग्स्थतो योगधारणम ॥
( गीता-८-२०)
शके अठारसौ बतीस भाद्रपद शद्ध
ु पिंचमी गुरुिार के प्रथम प्र र मे प्राणरोधन करके " जय गजानन" ऐसा ध्िनी करके
ये म ापरू
ु ष सग््चदानिंद में िीन ो गये, शेगाूँि में । दे की िचि बिंद ो गई । स्िामी को समागधस्थ दे खकर
िोग बबव् ि ो गये, िाताि सारे गाूँि में फ़ैि गई, कक स्िामी स्मागधस्थ ो गये । य सन
ु कर स्त्री-परू
ु ष हृदय पीट्कर
रोने िगे । मारा चिता किरता श्री री, दीनजनों का रक्षणकताि, साक्षात्कारी चिा गया । म िोगों का विश्रािंर्तस्थान-
सख
ु का र्नधी, ज्ञान का दीपक , कािरूप िायु में बझ
ू गया । े गजानन स्िामीसमथि! अब मारी रक्षा कौन करे गा
सब तरफ़ िाताि भेज दी जाय । डोणगाूँि के एक विद्िान गोवििंद शास्त्री थे, उन् ोंने क ाूँ, म ाराज के वप्रय भततों
को दशिन अिश्य ोगे । तबतक म ाराज मस्तक मे प्राण रखेंगे । उसकी प्रगचती दे खने क ीिं दरू जानेकी आिश्यकता
न ीिं । म ाराज के मस्तकपर मख्खन रणखये । तद॒ नस
ु ार मस्तकपर िोनी रखा गया, तो वपघिने िगा । य दे खकर
सब िोग योगबि की प्रशिंसा करने िगे । तब गोबबिंदशास्त्री ने क ाूँ , एक हदन की तया बात ै ये एक िषिभर भी
इस अिस्था में र ें गे । स्िामीजी के सामने जार तािधारी भजन करने िगे ।दरू दरू के भततों को स्
ू ना ो गई ।
भजनिािों के कई जथ ु जमा ु ए । रास्तोंपर स्त्रीयोंने गोमयजिसे सिंमाजिन ककया । अनेक रिं ग की रिं गाििीयािं र्नकािी
गई । मर्ू तिरथ में बबठाई गई । बडे आनिंदपि ू क
ि जि ु स
ू र्नकािा गया । ि रातभर चिा, ग्जसका िणिन असम्भि ै
। जुथ के जुथ भजनिािे भजन करते और विठ्ठि
् क जयकार करते । तुिसी गुिाि-बत
ु का-उडाया गया । म ाराज
िूिोंसे आ्छाहदत ो गये । िोग बफ़ी-पेडे प्रसादरूपमें बािंट्ते, ग्जसकी कोई गणना न ीिं की जा सकती । कई िोगोंने
रूपये भी उछािे । इस प्रकार रातभर जुिस
ु किराकर सय
ू ोदय के समय मठ्में रथ प ुिं चा । समागध के जग पर मर्ू ति
रखी गई । उसपर रूद्रालभषेक ककया गया । पिंचोपकार से पजू ा की गई । आरती उतारी गई । भततोंने गजानन
म ाराज के नाम का ध्िनी ककया ।
श्रीगणेशाय नमः । े रुग्तमणीके पर्त! चन्द्रभागात् बब ारी भगिन। इस दासगणु के मस्तकपर अपना िरद स्त
रणखये। आप तो राजागधराज ो। सबकुछ आप के ाथमें ै। किर मेरी दद
ु ि शा तयों कर र े ो ?आपकी कृपारूप अग्नन
से मेरे पाप -तापों का द न कररये और य मेरा मन आपके भजन को सदा आनन्दयत
ु त र े ,ऐसा कररये। यदी
य न ी करोगे तो आपको ी दोष िगेिा। अपने नाम को िथ
ृ ादोष न िगने दो। े श्यामसिंद
ु र !रा ी रुग्तमणीपती
,परमउदार पािंडुरिं ग !मेरी इ्छा पण
ू ि करो। अस्तु।।श्री गजानन म ाराज समागधस्थ ो जानेपर ि ाूँ के स्त्रीपरु
ु ष क ने
िगे, अब शेगाूँि में तया रखा ै ?अब ि ाूँ तया लमट्टी समद्र
ु का जि सख
ु नेपर, पष्ु प िक्ष
ृ ों की ब ार नष्् ोनेपर
इस सिंसार में उसकी प्रशिंसा कौन करे गा ? मिंहदर में दे िता न र नेपर गभिग ृ को मािा चढ़ाना व्यथि ै । ककिंतु उनके
य सब तकि व्यथि लसद्ध ु ए। उनमें से कुछ क ते कक, तुम िोगो की य भ्राग्न्त ै । म ाराज की हदव्य ज्योर्त य ीिंपर
अदश्ॄ य रूपसे ग्स्थत ै ै । जैसे इिंद्रायणी के ककनारे ज्ञानेश्िर म ाराज समागधस्त ै और भततों को िे ि ी लमिते ै।
िैसे ी शेगाूँि मे श्रीस्िामी गजानन ग्जनका जैसा लसद्धान्त ै उन् े ि ी दशिन दे ते ै। इस सम्बन्ध में एक कथा
बताता ुूँ। शेगाूँि में गणपत कोठाडे नाम का एक ग ृ स्थ था। उसका र्नत्य दशिन का र्नयम था। ि उस समय
रायिी नामक एक किंपनी थी ,उसका प्रर्तर्नधी था। अस्त समय प्रर्तहदन ि दशिन के लिये जाता और समागध के
पास बैठकर एक र्नष्ठासे म ाराज की स्तर्ु त करता।
भाऊ राजाराम किंिर नामक एक डॉत्र खामगाूँि में था। उसकी बदिी तेल् ारा नामक शेगाूँि से उत्तर मे गाूँि ै
ि ाूँ ो गई। ि तेल् ारा जानेके लिये स कु्ुिंब खामगाूँिसे र्नकिा और मठ में श्रीगजानन म ाराज का दशिन
करनेके बाद गाडीसे तेल् ारा जानेके लिये ि तैयार
ु आ। सायिं समय ो गया था ,सो मठागधपर्त बािाभाऊ उसे
क ने िगा ,कक "आप प्रसाद िेकर किर तेल् ारा जाइये। आप तो आज तक कभी भी प्रसाद ग्र ण ककये बबना न ीिं
गए ैं। किर आज ऐसे तयों ?ग्जसमें आज व्यर्तपात ै ,य सोगचये। "इसपर इसपर किरने क ा ,"आज रातको
प्रसाद ग्र णकर अगिी रातमें र्नकि जाऊॅंगा,तयों कक मझ
ु े जल्दी ै । आप आग्र मत कररये। "इस प्रकार क कर
ि दमनी जोतकर बाि ब्चोंके साथ तेल् ारा जानेको उद्द्त
ु आ। अिंधेरी रात थी और थिंडी भयिंकर िग र ी थी।
मानो ,रात्री अपने पतीके वियोग में शोक कर र ी थी। इस समय ऐसा चमत्कार ु आ ककिं ,गाड़ीिािा तेल् ाराका रास्ता
भि
ू गया। गाड़ी बड़े ी सिंकीणि रास्तेपर चि र ी थी। दोनों तरि काूँ्े थे। रातका समय ोनेसे रास्ता पछू नेके लिये
कोई था न ीिं, तया करे ? अन्तमे एक बड़े सरोिरपे गाड़ी खड़ी ु ई, तब गाडीिािेने क ाूँ,"सा ब रास्ता भि
ू गया, य
सन
ु कर किंिरको बड़ा आश्चयि ु आ। र्नचे उतरकर दे खा तो कुछ भी न हदखता था, सो ि गाडीिािेको ब ु त बात
समथि के बाद बािाभाऊ गादीपर बैठे। म ाराजके प्रतापसे उनके भी कुछ थोड़े चमत्कार ु ए. ये िैशाख िद्य षग्ष्ठ
को शेगाूँि में ी बैकिंु ठ को प्राप्त ु ए। उनके बाद नारायण गादीपर बैठे। बािाभाऊ जब गये तो नारायण को नािंदरु ा
गाूँि में स्िप्न पड़ा था। ि कथा बताता ूूँ । स्िप्न में म ाराज बोिे,"अरे नारायण मािी ! तुम भाविक जनोंकी
रक्षा करने शेगाूँि जाओ। "ऐसा क कर गजानन म ाराज चिे गये। ि सन ु कर नारायण शेगाूँि आये। कुछ हदन
इन् ोनें भी अगधकार चिाया। ये चैत्र शद्ध
ु शग्ष्ठ को समागधस्थु ए। पि
ू ि स्िीकृर्तके बबना सिंतसेिा न ीिं लमिती।
सिंतसेिाके पण्
ु य का पार न ीिं। इस तर श्री गजानन की िीिा का कभी पार न ीिं िगेगा, जैसे गगन के तारकाओिंकी
गणना न ीिं ी सकती। मैं अज्ञानी
ूूँ, पामर ूूँ, बवु द्धतों मझ
ु मे र्तिमात्र न ीिं ै । किर भिा श्री गजानन िीिा के
समद्र
ु का मैं मख
ु से िणिन कैसे कर सकता ूूँ ? उन् ोंने जो कुछ क ििाया िा ी मैंने क ा, इसमे मेरा कुछ न ीिं।
॥शभ
ु िं भितु। श्री रर रापिणमस्तु ॥
|| इर्तश्री गजानन विजय ग्रन्थस्य वििंशर्ततमोsध्यायः समाप्त: ||
श्री गणेशाय नमः। े अनिंतिेष अविनाशी! परे श ब्रम् ाण्डागधपर्त, आप की जय ो। े भगिन! आपका नाम पर्ततपािन
ै । इसका विचार कररये। े प्रभो! पापी जनोंपर आपका अलमत प्रेम ोता ै और पापीजनोनेँ ी आपकी म त्ता बढ़ाई
ै । पर्तत और पापी न ोते तो आपका पर्तत पािन ि ररनाम कैसे पड़ता? इसीलिये े ऋवषकेश !मेरे पातकोंकी
ओर न दे णखये। ज़ि से मि स्ि्छ ोता ै इसीलिये मैिा कपड़ा जिके पास जाता ै। े घननीि !पर्ततों का
र्तरस्कार मत कररये !तया भम
ू ी सौंदड िक्ष
ृ को त्याग दे ती ै । (सौंदड िक्ष
ृ में काूँ्े ोते ै )आप ी पर्ततपािन ो।
आप ी पण्
ु यपािन ो किर भी ये दोनो दोषोंसे आप अिग ो। जैसे सय
ू ि अिंधकार का नाश करता ै तो तया उसको
कुछ कष्् पड़ता ै ?उसको तमनाश के लिये कुछ न ीिं करना पड़ता। अिंधकार जैसे जैसे सय
ू ि से लमिने आता िैसे
ि स्ियिं प्रकाशरूप ो जाता ै और उसका तमस्िरूप चिा जाता ै , े नारायण !पापी और पण्
ु यात्मा आप ी अपना
श्रेष्ठत्ि रखने के लिये र्नमािण करते ो। कुछ भी ो, अब इस दासगणु को गचिंता रह त करके अपनी शरण में िे
िो। आपके बबना इस सिंसार में मेरा कोई आश्रय न ीिं ै। े पािंडुरिं ग !सब कुछ आपके ाथ में ै। श्रोतागण अब
सािधान ोकर इस किशाध्याय का श्रिण कर कररये। आप िोग म ान भानयशािी ै ,जो सिंतकथा का श्रिण कर
र े ो। ग्जसकी एकर्नष्ठ श्रद्धा गजानन म ाराज के चरणों में ो गई, ऊसकी दःु ख तथा सिंक्ों की ोिीका ी ोती
ै , इस में शिंका का कोई स्थि न ीिं ै।
एक राजपत
ू नी जयपरू से शेगाूँि आई। उसको वपशा्च बाधा थी। उसको जयपरू में दत्तात्रयजीने सिा दी कक, इस
रामनिमीके हदन तम
ु शेगाूँि जाओ। ि ाूँपर सिंत गजानन म ाराज जागत
ृ दै ित ै, िे तेरे वपशा्च को मग्ु तत दें गे।
ऐसा दृष््ािंत ोनेपर अपने दो पत्र
ु ोंको िेकर ि राजपत
ू नी शेगाूँि आई। प्रर्तपदा से ी उत्सि का प्रारिं भ
ु आ और
निमी में अपार जन समद ु ाय इकठ्ठा ु आ। सभामिंडप का काम चि र ा था और बड़े घड़े ु ए स्तिंभ खड़े ककये थे। ये
सब सिंगमरिर के पत्थर के थे। जो रे क स्तिंभ पाूँच िू् ऊॅंचा और डेढ़ िू् चौड़ा था। उस्ति के कारण भततोंने
काम बिंद कर हदया था। स्तिंभ केिि खड़े ककये थे। श्रीरामचन्द्र का जन्म ु आ और और प्रसाद के लिये प्रचिंड जन
समद
ु ाय उमड़ पड़ा, ग्जसका िणिन मझ
ु से न ी ककया जाता।
ऐसे ी एक उस्ति के समय मिंडप खोिते समय नाईक निरे नामक व्यग्ततपर एक बड़ी बल्िी गगर पड़ी। ि बड़ी
बल्िी थी ककन्तु म ाराज की कृपासे नाईक निरे को बबल्कुि क ीिं भी चो् न ीिं आई, िे बाििंबाि बच गये।
जब सक्ष्
ू मता से र्नरक्षण करके दे खा तो ि इस र्नश्चयपर प ुूँ चा कक ो न ो, ये गजानन म ाराज ी ै । गोसाूँई
का ाथ पकड़कर घरमें िा कर वपढे पर बबठाया और यथाविगध पज ू न ककया। गोसाूँईने पा्ीि से क ा,'ब्चा !आज मैं
जानबझ
ू कर तुम् ें कुछ बतानेके लिये आया ूूँ , ध्यान दे कर सन
ु ो। गग्रश्म काि में गोदािरी का जि थोड़ा सख
ु जाता
ै । िैसे ी य ुआ ै। तुम ऋण की गचिंता मत करों। ि समाप्त ो जायगा, सिंपन्नता की बाढ़ आयेगी। श्री रर
की कृपारूपी मेघिषाि से सब ोगा। ज ाूँपर मेरा जूठन गगरता ै ि ाूँ ककसी गचज की न्यन
ू ता न ीिं ोती। थाि परोस
कर िाओ। सग्र
ु ास भोजन दो और इ्छा ो तो एकाद िस्त्र शरीरपर डािो। याचककी की ु ई पज ू ा और दक्षक्षणा उसे
हदया ु आ अन्न साक्षात नारायण को प्राप्त ोता ै। तयोंकी श्रर्ु त क ती ै "अर्तथी दे िो भि "ककन्तु ि अर्तगथ
शद्ध
ु ोना चाह ये। उसके बबना य कौतकु असम्भि ै । पा्ीिने थाि परोसकर िाया और गोसाूँईने बड़े प्रेमसे भोजन
ककया। उसपर उसके ाथपर पा्ीिने दक्षक्षणा के रूपमे पाूँच रूपये रखे। तब गोसाईने क ाूँ, पा्ीि म बैरागी ै , य
दक्षक्षणा मझ
ु े न ी चाह ये, दक्षक्षणाके रूपमे आप िचन हदजीये की गजाननके मठ का कयिि न तुम करोंगे, य ी मेरी
दक्षक्षणा ै , इसे बतानेको ी मै आया
ूूँ । समथि सेिारूप दक्षक्षणा दे नेिािा तुम् ारे बबना दस
ु रा ितिमानमे कोई न ी ै ।
तुम् ारी पत्नी जो बारबार बबमार पड़ती ै ि भी इस दक्षक्षणा से व्यागधमत ु त ो जायेगी। तुम अपने पत्रु को बिु ाओ।
उसके गिेमे एक ताबीज़ बािंधग
ू ा ग्जससे उसे कोई बाधा न ी ोगी। तयोंकी सत्ता सिंसारमे बैरका मि
ू ै । पानी ी
दस
ू रे अध्यायमे गोवििंदबि
ु ा के कीतिन मे म ाराजका आकर बैठना। पीतािंबरका चमत्कार और म ाराजका बिंक्िािके
घर जाना िणिन ककया।
चतुथि अध्याय में जानकीराम ने गचिीम के लिये अग्नन न ीिं हदया उनके गचिंचणीमे कीड़े पड़ना, अन्न का व्यथि ोना,
प्राथिना के बाद उसको क्षमा और पि
ू ि
ि त अन्न ोना तथा जानकीराम म ाराज का भतत ो गया उसी प्रकार घड़े में
रखे गोझीया की कथा का िणिन ककया। गचिंचोिी में माधि को यमिोक बताकर मत
ु त करना -लशष्योके द्िारा िसिंतपज
ू ा
इत्यहद का िणिन।
नििे अध्याय के उद्दाम घोड़ेको सरि करना। गािंजा की कथा, दासनिमी के, उत्सि में समथि के रूप में बािकृष्ण के
घर जाना, उसको समथिरूप में दशिन दे ना, आहद कथाए ै।
दसिे अध्याय में अमरािती की कथा ै । गणेश अप्पा चन्द्राबाई का म ाराजके चरणों में सिंसार का अपिण -बािाभाऊ
की उपरती, गणेश दादा खापडे को आशीिािद और बािाभाऊ को छाते से मारने की कथा। सख
ु िाि की उददिं ड गाय
को गरीब करना, घड़
ू े की दािंलभक भग्तत का िणिन।
नयार िे अध्याय में -भास्करको श्िान दिं श, त्र्यिंबकेश्िर दशिन को म ाराज का जाना। गोपािदासका लमिन, झ्यामलसिंग
की प्राथिना स्िीकारकर आड़गाूँि जाना। उसी प्रकार भास्कर का र्नजधाम गमन - द्िारकेश्िर के पास सतीबाई के
बार िे अध्यायमे म ाराज की र्नरर्छ्ता -पीतािंबर स्िामीके िस्त्र प नना - उसका स्िे्छा से कोंडािी में जाना -
ि ाूँ उसका ग्स्थर ोना और ि ाूँ समाधी ग्र ण करना- उसके मठ की स्थापना आहद का िणिन, श्री गजानन
म ाराजका रे तीकी गाड़ीमे बैठकर नये मठ में आना।
तेर िे अध्यायमे गोसाइके गिीत कुष्ठ का नाश ककया, गजानन म ाराज ने बिंडुतात्या को धन बताकर उसको
ऋणमत
ु त करना, झ्यामलसिंग द्िारा म ाराजको मिंड
ु गाूँि िे जाया जाना -पजिन्य से भिंडार का विक्षेप, झ्यामलसिंग द्िारा
अपनी इस््े ् म ाराज को अपिण करना, पड
िंु लिक की सग्न्नपातीक ज्िर की ग्रग्न्थ का बैठना, आहदका िणिन ै।
चौद िे अध्यायमे सोमिती अमािस्याको नमिदा स्नान के लिये जाना - स्ियिं नमिदा द्िारा िू्ी नौका ककनारे िगाने
का िणिन ै। माधिनाथ का बीरा भेजने की कथा ै।
पिंद रिे अध्याय में लशि जयिंती र्नलमत्त आकोिा की सभामे बाि गिंगाधर र्तिकको आशीिािद, कोल् ्कर द्िारा
उन् ें रो्ी प्रसाद रूप में भेजने की कथा ै। श्रीधर कािे को वििायत जानेसे रोकना आहद कथाएूँ ै।
अठरािे में आको् में गिंगाभारती की भे्, बायजा गौिन की कथा का समािेश ै। म ाराज का पिंढरपरू जाना,
बापन
ू ा कािे को विठ्ठि दशिन, किठे ब ादरू के िारकरी की विषगु चका से प्राण रक्षा आहद का िणिन ै।
य एकविसािा अध्याय सबका किशरूप ै, जो सब अध्यायोंका सार रूप ै। भततोने बड़ी में नत से चिंदा जमा
करके इतना सिंद
ु र समाधी का काम ककया, जो भम
ू ी पर क ी न ीिं ै, चारों ओर धमिशािाये ै। इस भव्य कायि में
कईयोने स ायता की, उनके नाम गगनने पर ग्रन्थका ब ु त विस्तार बढ़े गा, ककन्तु जो प्रमख
ु थे उन थोड़ोंके नाम
बताता ूूँ ।
कोठीया -कायाििय, रसोईघर इत्याहद समागध के चारो ओर बाूँधे ु ये ै । िोगोने जो चिंदा हदया था सो सब इन
कामोमे खचि ो गया और ब ु तसे काम अधरू े र े थे, सो इस प्रकार की यग्ु तत की, समथि के इस कायि के लिये
िगानपर एक आना धालमिक कर के रूप िगाया। िैसे ी बाजार में वििीके लिये आनेिािी गाडडयोंपर दो पैसे कर
ऐसा क कर य समागधके पास जाकर बैठ गया। पण ू ाि ु र्त का काम करो सब ठीक ो जायेगा। मेरे स्िामी गजानन
य ाूँ बैठे ै , िो भततोंका सिंरक्षण करते ै , कभी विघ्न न ीिं आने दें गे। आगे चिकर ि सत्य ु आ, व्यागध शािंत ो
गई, और इस शतचिंडीसे एक स्त्रीकी वपशा्च बाधा ठीक ो गई। बनाजी र्तडके करके सङ्गविके र नेिािे इन् ोने
य स्िा ाकार ककया। कसरू की गज
ु ाबाई नामक स्त्रीने भी स्िा ाकार कराया था। उसी प्रकार चापड़गाूँि के र नेिािे
िामन शामराि के पत्र
ु ने समागधके सामने यज्ञ करिाया था। ऐसे जारो धमिकृत्य समागधके सामने
ु ए- सत्य -
सत्य ै की गजानन म ाराज साक्षत्कारी ै। जबतक िोग र्नष्ठािान थे तब तक बराड़ सख
ु ी था। जैसे जैसे र्नष्ठािं
काम ोती गई िैसे िैसे बराड़को विपन्नािस्था आई और उस चािंडािी ने दाररद्र मािा बराड़ को प नाई। बराड़ की
उििराभलू मने पैदािार काम कर दी। नयी िा ब ाने िगी ग्जसमे श्रद्धा लशगथि ो गई और बराड़ दद
ु ि शा को प्राप्त
ु आ। म ाराजको य दःु ख असह्य ो गया इसलिये उन् ोंने अपनेको जिमे डुबो लिया, ग्जससे ऐसा िगता ै की
म ाराजने िोगधत ोकर य जि र्नमािण ककया। यहद बराड़ के िोगोंके मनमे पिू ि
ि त सख
ु सिंपन्नता ो ऐसी कामना
भग्तत य पवित्र स्त्री ै। अभग्तत िारािंगना ै , ग्जसके साथसे भिा कभी ककसीका कल्याण ु आ ै ? साग्न्नर्त
मत छोडड़ये, धमिश्रद्धा मत छोडड़ये, परस्पर प्रेमभाि रणखये तो ी शग्तत बढ़े गी, यहद आप िोग इस प्रकारका आचरण
करोगे तो ी बराड़को अ्छे हदन प्राप्त ोंगे। िषिमें कमसेकम एक बार श्री गजानन म ाराजका दशिन िीग्जये। और
िषिमें कमसेकम एक बार गजानन चररत्र का पाठ कीग्जये। इस एकवििंशर्त अध्यायिािे गजानन चररत्ररूपी मोदकोंका
नैिेद्य श्री गजानन म ाराजको समवपित कररये। ये सब अध्याय एकविस डुबके ग्
ु छ पारायण करके म ाराजको
चढ़ाइये। मानि का जो सद्भाि ै ि ी चतगु थिका हदन ै, और प्रेमरूपी चिंद्र का उदय ो तो ी म ाराजको नैिेद्य
चढ़े गा। विद्ितजनों बादमे इस ग्रिंथ के एक एक अक्षर को डुबके अिंकुर समझकर पारायण रूपी व्रतसे म ाराजको
चढ़ाइये और इस ग्रन्थका जो अथि ै, ि ी मोदक ै सो अविििंब म ाराजको चढ़ाकर पिि साधन कररये। य ग्रन्थ
-कादिं बरी न ीिं ै। य श्री गजानन म ाराजकी सत्य िीिा ै। जो इसपर अविश्िास करे गा ि अिश्य डूबेगा।
इसमे कोई सिंदे न ीिं। य गजानन चररत्र जो र्नयमपि
ू क
ि पठान करे गा उसके सब मनोरथ गजानन कृपासे पण
ू ि
ोंगे। श्री गजानन चररत्र य ी ग्रिंथ ै, और इसके अन्तगित जो कथाये ै ि शीति पवित्र भागीरथी जि ै और
मराठी ओवियाूँ ी मानो तरिं ग ै। य स्िामी चररत्र कल्पिक्ष
ृ ै और अध्याय जो ै िे इस कल्पिक्ष
ृ की शाखाएूँ ै।
ककन्तु मन में दढ़
ॄ तर विश्िास ोना चाह ये। दररद्र को धनप्राग्प्त ोगी, रोगगयोंका रोग नष्् ोगा, साध्िी स्त्री का
ििंध्यत्ि दरू ोकर पत्र
ु प्राप्ती ोगी। र्नपबु त्रक को पत्र
ु प्राग्प्त और र्नष्कप् पर लमत्रप्राप्ती ोगी। इस ग्रन्थ के पठन
से र्तिमात्र भी गचन्ता न ीिं र े गी। दशमी एकादशी द्िादशी को जो ग्रन्थ पठन करे गा उसको श्री गजानन कृपासे
अनप
ु म भानय प्राप्त ोगा। जो गुरुपष्ु प योगपर शगु चभत
ूि ोकर एकसान मे बैठकर पाठ करे गा उसकी सारी
मनोकामनायें पण
ू ि ोकर ककसी भी प्रकार की यातना ो, ि दरू ोगी। ग्जस घर में य ग्रन्थ रखा ोगा ि ा कभी
भी वपशा्च या ब्रह्मसमिंधका प्रिेश न ीिं ो सकता। ऐसा इस ग्रन्थ का मा ात्म्य ै । जो भाविक ै उनको अिश्य
प्रगचती प्राप्त ोगी, जो दष्ु ्ह्रदय या कुह्ि ै उनको इसकी अनभ
ु त
ू ी असम्भि ैं। जैसे मानससरोिर की उत्पग्त्त
रचना िं सोंके लिये ै , कौओिंको ि ाूँ प्रिेश न ीिं ोता। उसी प्रकार य स्िामी चररत्र मानस सरोिर ै , सिंतसज्जन
जो राज िं स ोते ै, उग्न् का इसमें प्रिेश ै । जैसे पि
ू क
ि ािमें ज्ञानेश्िर, मीराबाई, नरलसिं म े ता, कबीर, नामदे ि,
साूँिता मािी, चोखा म ार, गोरा कुम्भार, बोधिा और दामाजी, उिं बरखेड में एकनाथ, अमिनेर में सखाराम - नालसक
में दे ि मामिेदार, यशििंत और
ु मणाबादमे माणणक प्रभु ो गये, िैसे ी बराड़मे शेगाूँि में श्री गजानन म ाराज ो
गये। उनमे और इनमे कोई अिंतर न ीिं। अन्तमे आप सब भाविकोंसे य प्राथिना ै कक, श्री गजानन चरणोंमें अत्यिंत
प्रेम रणखये। ग्जससे आप सब का जन्म मरणका चतकर छू् जायेगा और आप िोग इस दस्
ु तर भिसागरसे पार
मझ
ु े सन्मागि बताइये और मेरे मनमे दि
ु स
ि नाओिंके प्रर्त र्तरस्कार र्नमािण कीग्जये। आमरण िारी ोती र े । सिंत
चरणोंमें अखिंड प्रेम ो। सदै ि गोदािरीपर मेरा र्निास ो। मेरा अलभमान आप रणखये और दासगणको अन्य की
याचना करने का प्रसिंग न िाइये। मैं सब सिंतोंकी चरण धि ु ी ूूँ । मेरा िाज रणखये। पदर पसारकर मैं य िरदान
आपसे माूँगता ूूँ । जैसी आपने प्रेरणा की िैसे ी मैने लिखा, य आपका चररत्र लिखते समय शेगाूँि के मठमें जो
कागदपत्र उपिब्ध थे ि रतनसा ने मझ
ु े िाकर बताये। उन् ीके आधार पर मैंने य ग्रिंथ लिखा ै। क ी पर भी
कल्पना का आश्रय न ीिं लिया। इसलिये कम-जादा के लिये मैं कारण न ीिं ूूँ। यहद इसमे कुछ कम-जादा ु आ ो
तो े गजानन ! मझ
ु े क्षमा करें , य ी प्राथिना।
॥ शभ
ु िं भितु श्री रर रापिणमस्तु ॥
|| इर्त श्री गजानन विजय ग्रन्थस्य एकवििंशर्तअध्याय समाप्त: ||
॥ समाप्त ॥