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ईशावास्योपनिषद्

हिन्दी चन्द्रशेखर भाष्य

लेखक
अरुण कु मार उपाध्याय

भूमिका-बाल्यकाल (८ वर्ष की आयु) में मेरे पिता स्वर्गीय श्री चन्द्रशेखर उपाध्याय (१९०५-१९७६ ई) प्रतिदिन ईशावास्योपनिषद् पढ़ाते थे तथा मुझे
जितना समझ आ सके उतना अर्थ भी बताते थे। २-३ मास पढ़ने के बाद विद्यालय के कक्षा ६ में मेरा प्रवेश हुआ। पर उस शिक्षा का प्रभाव आज तक है। एक रूप
में यह यजुर्वेद का सारांश है तथा उसका अन्तिम अध्याय है। इसके अर्थ उसी प्रसंग में समझना चाहिये। अन्य प्रकार से कहते थे कि यह गीता के १८ अध्यायों का
सार है अतः इसके अर्थ भागवत गीता की परिभाषाओं से भी स्पष्ट होंगे। सम्पूर्ण वेद ही रहस्यमय हैं, जिनको समझने के लिये आचार्यों ने ३ प्रस्थान माने हैं-ब्रह्म सूत्र
या वेदान्त दर्शन जो विविध वर्णनों में एकता दिखाता है। दूसरा उपनिषद् जिनमें १० उपनिषदों ओ मुख्य मानकर वेदान्त आचार्यों ने व्याख्या की है। इसमें
ईशावास्योपनिषद् प्रथम है। तीसरा भागवत गीता है जिसका उपदेश स्वयं भगवान् ने दिया है। हर बार भागवत गीता को देख कर आश्चर्य होता है। इतनी छोटी पुस्तक
में वेद के सभी रहस्य हैं जो कहीं अन्यत्र नहीं मिलते। इसकी परिभाषा और वर्णनों में कहीं विरोधाभास नहीं है, यद्यपि समझने की कठिनाई से अर्जुन को भी लगा था
कि भगवान् कभी कर्म को तथा कभी ज्ञान को श्रेष्ठ बता रहे हैं। ऐसा उपदेश किसी मनुष्य द्वारा सम्भव नहीं है। अर्जुन ने युद्ध के बाद कहा कि वे गीता का उपदेश भूल
गये हैं और पुनः सुनना चाहते हैं। स्वयं भगवान् ने भी कहा कि वे दुबारा गीता जैसा ज्ञान नहीं दे सकते थे। के वल महाभारत के समय वे योग या समाधि की उच्चतम
अवस्था में थे। के वल उसी अवस्था में उनको भगवान् भी कहा है। महाभारत में ही अन्य स्थानों पर उनको कृ ष्ण वासुदेव आदि कहा है, भगवान् नहीं। श्री वल्लभाचार्य
जी ने भागवत पुराण को भी चतुर्थ प्रस्थान माना है।
कु छ लोग विवाद करते हैं कि पुराण झूठे हैं तथा बाद में लिखे गये हैं। कम से कम शंकराचार्य (५०९-४८६ ई.पू.) के समय तक तो यही रूप था। पुराणों में के वल
तात्कालिक इतिहास बाद में जोड़े गये हैं, बाकी सर्ग प्रतिसर्ग आदि पुराने हैं। इतिहास सम्बन्धी नया वर्णन विस्तार में हैं तथा पुराने वर्णन छोटे होते गये हैं (वायु
पुराण, ९९/४५०-४५८)। ऐसा हर पुस्तक में होता है। इससे उसकी प्रामाणिकता नष्ट नहीं होती। बल्कि काल तथा उसके परिवर्तन की माप की यह एकमात्र विधि है
कि समय समय पर उसका पुनः विचार किया जाय। तभी हम जान पाते हैं कि राम या व्यास के बाद अब तक कितना समय बीता है। एक और प्रचार ब्रिटिश काल में
आरम्भ हुआ कि उपनिषद् या ब्राह्मण भाग वेद नहीं हैं तथा बाद में लिखे गये। स्पष्टतः यजुर्वेद माध्यन्दिन संहिता का यह अन्तिम अध्याय उसी समय का है जब
माध्यन्दिन संहिता लिखी गयी। यह उपनिषद् स्पष्ट रूप से वेद ही है।
इसका मूल ज्ञान पिताजी के उपदेश हैं।उसके बाद सबसे अधिक पण्डित मधुसूदन ओझा तथा उनके शिष्यों पण्डित मोतीलाल शर्मा आदि ने प्रभावित किया है। पर
मेरी भाषा शैली विज्ञान के छात्र जैसी है तथा कु छ सन्दर्भ अलग से जोड़े गये हैं। मैंने स्वयं संस्कृ त का विधिवत् अध्ययन नहीं किया है। जो कु छ ज्ञान है वह सन्तों
और विद्वानों के प्रतिश्रद्धा के कारण है। मधुसूदन ओझा जी के शब्दों में ही-
असाधु यत् तत्र स नः प्रमादो यत्साधु सर्वः स ऋषिप्रसदः॥
-अरुण कु मार उपाध्याय
अध्याय १
ईशावास्योपनिषद्
माध्यन्दिन संहिता, अध्याय ४० मूल पाठ। यह स्वर सहित है, पर स्वर के कारण अर्थ में क्या अन्तर है, यह पता नहीं है।
ई॒शा वा॒स्य॒मि॒दँ सर्वं॒ यत्किं च॒ जग॑त्यां॒ जग॑त्। तेन॑ त्य॒क्ते न॑ भुञ्जीथा॒ मा गृधः कस्य॑ स्वि॒द्धन॑म्॥१॥
कु॒र्वन्ने॒वेह कर्मा॑णि जिजीवि॒षेच्छ॒तँ समाः॑। ए॒वं त्वयि॒ नान्यथे॒तो॒ऽस्ति॒ न कर्म॑ लिप्यते॒ नरे॑॥२॥
असु॒र्या॒ नाम॒ ते लो॒का अ॒न्धेन॒ तम॒सावृ॑ताः। ताँस्ते प्रेत्यापि गच्छन्ति॒ ये के चा॑त्म॒हनो॒ जनाः॑॥३॥
अने॑ज॒देकं॒ मन॑सो॒ जवी॑यो॒ नैन॑द्देवा आ॑प्नुव॒न् पूर्व॒मर्श॑त्। तद्धाव॑तो॒ऽन्यानत्ये॑ति॒ तिष्ठ॒त्तस्मि॑न्न॒पो मा॑त॒रिश्वा॑ दधाति॥४॥
तदे॑जति॒ तन्नैज॑ति॒ तद्दू॒रे तद्व॑न्ति॒के । तद॒न्तर॑स्य॒ सर्व॑स्य॒ तदु॒ सर्व॑स्यास्य बाह्य॒तः॥५॥
यस्तु सर्वा॑णि भूतान्या॒त्मन्ने॒वानु॒पश्य॑ति। स॒र्व॒भू॒तेषु॑ चा॒त्मानं॒ ततो॒ न विचिकित्सति॥६॥
यस्मि॒न्त्सर्वा॑णि भू॒तान्यात्मैवाभू॑द्विजान॒तः। तत्र॒ को मोहः॒ कः शोक॑ एक॒त्वम॑नु॒पश्य॑तः॥७॥
स पर्य॑गाच्छु॒क्रम॑का॒यमव्र॒णम॑स्नावि॒रँ शु॒द्धमपा॑पविद्धम्।
क॒विर्म॑नी॒षी प॑रि॒भूः स्व॑य॒म्भूर्या॑थातथ्य॒तो‍ऽर्था॒न् व्य॒दधाच्छाश्व॒तीभ्यः॒ समा॑भ्यः॥८॥
अ॒न्धं तमः॒ प्रवि॑शन्ति॒ ये‍ऽ‍ सं॑भूतिमु॒पास॑ते। ततो॒ भूय॑ इव॒ ते तमो॒ य उ॒ सम्भू॑त्याँ र॒ताः॑॥९॥
अ॒न्यदे॒वाहुः स॑म्भ॒वाद॒न्यदा॑हु॒रस॑म्भवात्। इति शुश्रुम॒॒ धीरा॑णां॒ ये न॒स्तद्वि॑चचक्षि॒रे॥१०॥
सम्भू॑तिं च विना॒शं च॒ यस्तद्वेदो॒भयँ॑ स॒ह। वि॒ना॒शेन॑ मृ॒त्युं॒ ती॒र्त्वा सम्भू॑त्या॒मृत॒मश्नुते॥११॥
अ॒न्धं तमः॒ प्र वि॑शन्ति॒ ये‍वि॑द्यामु॒पास॑ते। ततो॒ भूय॑ इव॒ ते तमो॒ य उ॑ वि॒द्यायाँ॑ र॒ताः॑॥१२॥
अ॒न्यदे॒वाहुर्वि॑द्याया अ॒न्यदा॑हु॒रवि॑द्यायाः। इति॑ शुश्रुम॒ धीरा॑णां॒ ये न॒स्तद्वि॑चचक्षि॒रे॥१३॥
वि॒द्यां चावि॑द्यां च॒ यस्तद्वेदो॒भयँ॑ स॒ह। अवि॑द्यया मृ॒त्युं ती॒र्त्वा वि॒द्यया॒ऽमृ॒त॑मश्नुते॥१४॥
वा॒यु॒रनि॑लम॒मृत॒मथे॒दं भस्मा॑न्तँ॒ शरी॑रम्। ॐ क्रतो॑ स्मर। क्लि॒बे स्म॑र। कृ॒तँ स्म॑र॥१५॥
अग्ने॒ नय॑ सु॒पथा॑ रा॒ये अ॒स्मान्विश्वा॑नि देव व॒युना॑नि वि॒द्वान्। यु॒यो॒ध्य॒स्मज्जु॑हुरा॒णमेनो॒ भूयि॑ष्ठां ते नम॑ उक्तिं विधेम॥१६॥
हि॒र॒ण्मये॑न॒ पात्रे॑ण स॒त्यस्यापि॑हितं॒ मुख॑म्। यो॒ऽसावा॑दि॒त्ये पुरु॑ षः॒ सो॒ऽसाव॒हम्। ॐ खं ब्रह्म॑॥१७॥
काण्व संहिता, अध्याय ४०
ई॒शा वा॒स्य॑मि॒दँ सर्वं॒ यत्किं च॒ जग॑त्यां॒ जग॑त्। तेन॑ त्य॒क्ते न॑ भुञ्जीथा॒ मा गृधः कस्य॑ स्वि॒द्धन॑म्॥१॥
कु॒र्वन्ने॒वेह कर्मा॑णि जिजीवि॒षेच्छ॒तँ समाः॑। ए॒वं त्वयि॒ नान्यथे॒तो॒ऽस्ति॒ न कर्म॑ लिप्यते॒ नरे॑॥२॥
असु॒र्या॒ नाम॒ ते लो॒का अ॒न्धेन॒ तम॒सावृ॑ताः। ताँस्ते प्रेत्याभिग॑च्छन्ति॒ ये के चा॑त्म॒हनो॒ जनाः॑॥३॥
अने॑ज॒देकं॒ मन॑सो॒ जवी॑यो॒ नैन॑द्देवा आ॑प्नुव॒न् पूर्व॒मर्श॑त्। तद्धाव॑तो॒ऽन्यानत्ये॑ति॒ तिष्ठ॒त्तस्मि॑न्न॒पो मा॑त॒रिश्वा॑ दधाति॥४॥
तदे॑जति॒ तन्नैज॑ति॒ तद्दू॒रे तद्व॑न्ति॒के । तद॒न्तर॑स्य॒ सर्व॑स्य॒ तदु॒ सर्व॑स्यास्य बाह्य॒तः॥५॥
यस्तु सर्वा॑णि भूतान्या॒त्मन्ने॒वानु॒पश्य॑ति। स॒र्व॒भू॒तेषु॑ चा॒त्मानं॒ ततो॒ न वि जु॑गुप्सते॥६॥
यस्मि॒न्त्सर्वा॑णि भू॒तान्यात्मैवाभू॑द्विजान॒तः। तत्र॒ को मोहः॒ कः शोक॑ एक॒त्वम॑नु॒पश्य॑तः॥७॥
स पर्य॑गाच्छु॒क्रम॑का॒यम॑व्र॒णम॑स्नावि॒रँ शु॒द्धमपा॑पविद्धम्।
क॒विर्म॑नी॒षी प॑रि॒भूः स्व॑य॒म्भूर्या॑थातथ्य॒तो‍ऽर्था॒न् व्य॒दधाच्छाश्व॒तीभ्यः॒ समा॑भ्यः॥८॥
अ॒न्धं तमः॒ प्र वि॑शन्ति॒ ये‍वि॑द्यामु॒पास॑ते। ततो॒ भूय॑ इव॒ ते तमो॒ य उ॑ वि॒द्यायाँ॑ र॒ताः॑॥९॥
अ॒न्यदे॒वाहुर्वि॑द्याया अ॒न्यदा॑हु॒रवि॑द्यायाः। इति॑ शुश्रुम॒ धीरा॑णां॒ ये न॒स्तद्वि॑चचक्षि॒रे॥१०॥
वि॒द्यां चावि॑द्यां च॒ यस्तद्वेदो॒भयँ॑ स॒ह। अवि॑द्यया मृ॒त्युं ती॒र्त्वा वि॒द्यया॒ऽमृ॒त॑मश्नुते॥११॥
अ॒न्धं तमः॒ प्र वि॑शन्ति॒ ये‍‍ऽसं॑भूतिमु॒पास॑ते। ततो॒ भूय॑ इव॒ ते तमो॒ य उ॒ सम्भू॑त्याँ र॒ताः॑॥१२॥
अ॒न्यदे॒वाहुः स॑म्भ॒वाद॒न्यदा॑हु॒रस॑म्भवात्। इति शुश्रुम॒॒ धीरा॑णां॒ ये न॒स्तद्वि॑चचक्षि॒रे॥१३॥
सम्भू॑तिं च विना॒शं च॒ यस्तद्वेदो॒भयँ॑ स॒ह। वि॒ना॒शेन॑ मृ॒त्युं॒ ती॒र्त्वा सम्भू॑त्या॒मृत॒मश्नुते॥१४॥
हि॒र॒ण्मये॑न॒ पात्रे॑ण स॒त्यस्यापि॑हितं॒ मुख॑म्। तत्त्वं पू॑ष॒न्नपावृ॑णु स॒त्यध॑र्माय दृ॒ष्टये॥१५॥
पूष॑न्नेक ऋषे यम सूर्य॒ प्राजा॑पत्य॒ व्यू॑ह र॒श्मीन्त्समू॑ह॒। तेजो यत्ते॑ रूपं कल्या॑णतमं॒ तत्ते॑ पश्यामि। यो॒ऽसाव॒सौ पुरु॑ षः॒ सो॒ऽहम॑स्मि॥१६॥
वा॒यु॒रनि॑लम॒मृत॒मथे॒दं भस्मा॑न्तँ॒ शरी॑रम्। ॐ क्रतो॑ स्मर। कृ॒तँ स्म॑र। क्रतो॑ स्मर। कृ॒तँ स्म॑र॥१७॥
अग्ने॒ नय॑ सु॒पथा॑ रा॒ये अ॒स्मान्विश्वा॑नि देव व॒युना॑नि वि॒द्वान्। यु॒यो॒ध्य॒स्मज्जु॑हुरा॒णमेनो॒ भूयि॑ष्ठां ते नम॑ उक्तिं विधेम॥१८॥
स्वामी रामभद्राचार्य कृ त ईशावास्योपनिषद् का श्लोक-बद्ध सार-
चराचरं पूरितमीश्वरेण मत्वा प्रसादं तदुपाहृतेन।
भुंक्ष्येह मा भूः परवित्तगृध्नुः, वेदार्थ एष प्रथमः श्रुतेर्वै॥१॥
=प्रथम श्रुति कहती है कि तुम्हारे कर्म के अनुसार तुम्हारे पिता परमात्मा ने तुम्हें जितना दिया है, उसी में सन्तोष मानो, उससे अतिरिक्त धन का लालच मत करो।
असक्तबुद्ध्या विहितं स्वकर्म, जिजीविषेद्वर्षशतं प्रकु र्वन्।
न कर्मबन्धो भविता नरेऽन्यो, मार्गोऽस्ति वेदार्थ इति द्वितीयः॥२॥
= असक्त बुद्धि से अपना कर्तव्य करते हुये ही १०० वर्ष जीने की इच्छा करे। इससे कर्म का बन्धन नहीं होता। द्वितीय मन्त्र के अनुसार मुक्ति का कोई अन्य मार्ग नहीं
है।
न ये भजन्त्यच्युतपादपल्लवम्, हिंसन्ति चात्मानमसत्कृ तैश्च ये।
असुर्यलोकान्प्रतियान्ति ते मृताः, मनुतृतीयार्थमिमं विनिश्चिनु॥३॥
=जो अच्युत के चरण-कमलों का ध्यान नहीं करते तथा आत्मा की हिंसा करते हैं, वे मरने के बाद असुर्य लोक (अन्धकार) में जाते हैं, ऐसा निश्चय पूर्वक तृतीय
श्रुति का कथन है।
अकम्पमेकं जववत्तरं ह्यदो, नेदं सुराः प्रापुरिदं गुणातिगम्।
अत्येति सर्वानपि धावतो बलात्, तस्मिन् हि वातो विदधाति जीवनम्॥४॥
=वह एक अकम्प है किन्तु सबसे तेज गति के हैं। ये गुणों से अतीत हैं अतः देव भी उनको नहीं पा सकते। जो पूरी शक्ति से दौड़ रहे हैं उनसे भी आगे निकल जाते हैं।
वे वायु द्वारा जीवन का धारण करते हैं।
चलत्यचल एवासौ दूरान्तिकतया स्थितः।
अन्तर्बहिस्थितश्चापि भाववैषम्यकारणात्॥५॥
= परब्रह्म परमात्मा चलते भी हैं, नहीं भी चलते। परमेश्वर सबसे दूर भी हैं और निकट भी, और वही सर्वसर्वेश्वर अन्तर्यामी रूप से सम्पूर्ण जीवों के अन्तर में, तथा
काल रूप में सभी जीवों के बाहर भी विराजते हैं।
यः सर्वभूतान्यनुपश्यतीशे भूतेषु सर्वेषु तथा परेशम्।
ततो न किञ्चित् विजुगुप्सतेऽसौ षष्ठश्रुतेरेष उदाहृतोऽर्थः॥६॥
= जो सभी भूतों को देखने के बाद उनमें में ईश का अनुभव करता है, तथा के वल परमेश्वर का ही अनुभव करता है, वह कभी निन्दनीय कार्य नहीं कर सकता-यह
छठी श्रुति में कहा है।
एकत्वदर्शी दशलक्षणाढ्यं, विशुद्धविज्ञानघनं मुकु न्दम्।
प्राप्नोति सम्यक् परिभूय पापं इत्यर्थमेतत् श्रुतिराह सूक्ष्मम्॥ (श्लोक ७-८)
= एकत्व दर्शन करने वाला १० लक्षणों वाले विषुद्ध विज्ञान घन मुकु न्द को पा कर सभी पापों से मुक्त हो जाता है-यह श्रुति का सूक्ष्म अर्थ है (श्लोक ७-८)।
अन्धं तमो यान्ति हरेः पदाब्जं, विहाय ये काम्यकृ तौ प्रसक्ताः।
ततोऽपि ते घोरतरं ब्रजन्ति, तत्तत्सुरोपासनबोधनिष्ठाः॥९॥
= जो भगवान् के चरनकमलों को छोड़ कर काम्य कर्मों में लिप्त हैं वे अन्धकार में जाते हैं। उससे भी घोर अन्धकार में वे जाते हैं, जो किसी उद्देश्य से देव-विशेष की
पूजा करते हैं।
विद्याश्चाप्यविद्याया वैलक्ष्ण्यं फले श्रुतम्।
वयमश्रुण्म धीरेभ्यो ये व्याचक्षुः पुरा हिनः॥१०॥
= विद्या तथा अविद्या दोनों का विलक्षण फल हमने ऋषि परम्परा से (धीरों से) सुना है जिन्होंने प्राचीन काल में इसकी व्याख्या की थी।
विद्याभिधं यो भजतीह बोधम्, तथैव कर्माचरतीह्यविद्याम्।
अविद्यया मृत्युमतीत्य विद्या-बलेन पीयूषजुषो लसन्ति॥११॥
=जिसे विद्या रूप बोध या ज्ञान है तथा अविद्या रूप कर्म भी कर रहा है, वह अविद्या द्वारा मृत्यु को पार कर जाता है तथा विद्या-बल से अमृत फल पाता है।
असम्भूतेश्चवसम्भतेः सम्विभाव्य समुच्चयम्।
प्राप्नोति परमात्मानं तीर्त्वा संसारसागरात्॥ (श्लोक १२-१४)
= जो असम्भूति तथा सम्भव दोनों को समझ कर समन्वय करता है, वह संसार सागर को पार कर परमात्मा को पाता है। (श्लोक १२-१४)
यत्सूर्यमण्डलगतं तव सत्यरूपम्, नीलाब्जसम्मितमहो पिहितं च भानोः।
ज्योतिर्मयैश्च किरणैस्तदपावृणु त्वम्, दृष्ट्वा यथाहमधियामि कृ तार्थभावम्॥१५॥
=हे परमात्मा! सूर्यमण्डल में स्थित जो तुम्हारा सत्यरूप है वह नील कमल जैसा है और सूर्य को समेटे हुए है। आप किरणों के आवरण को हटा कर अपना स्वरूप
दिखा कर कृ तार्थ करें।
विगमय निजमाया मोघरश्मीन् रसज्ञ, गमय पुरुषतेजो भृत्य पूषन् परात्मन्।
तव जलधरनीलं रूपमालोकयेयं, प्रतितनुकृ तवासः शुद्धबुद्धोऽहमात्मा॥१६॥
= आप अपनी माया की मोघ रश्मियों को हटा कर रस रूप का साक्षात् करावें (रसो वै सः), पुरुष रूप अपने तेज से भक्तों का पोषण करें। आपका मेघ समान नील
रूप हर शरीर में है, ऐसी मेरी शुद्ध बुद्धि हो।
वायुश्च मे यात्वथसूक्ष्मवातं, त्वत्तामृतं भस्मभवेत् तनुर्मे।
मां दासरूपेण हरे! स्मर त्वं, कृ पानिधे विस्मर मेह्यघानि॥१७॥
=मेरा सूक्ष्म शरीर वायु रूप है, स्थूल शरीर मरने के बाद भस्म हो जाता है। मेरे पापों को भूल कर मुझे दास रूप में स्मरण करें।
जानन्मदीयं दुरितं हुताशः, स्वामिन्सुमार्गेण नयार्तबन्धो।
अस्मच्च पापानि वियोजयेथाः, भूयो मुहुस्त्वां प्रणमाम राम॥१८॥
= हे दीनबन्धु! मुझे कु मार्ग तथा निराशा से बचा कर सुमार्ग से ले चलें। हमें पापों से मुक्त करें। हे राम! आपको बार बार नमस्कार है।
अध्याय २
ईशोपनिषद् शान्तिपाठ
१. वेद के ४ स्तर-१. संहिता (ऋषियों के मन्त्र का संग्रह), ब्राह्मण (व्याख्या), आरण्यक (प्रयोग), उपनिषद् (स्थिर सिद्धान्त-निषाद = बैठना )। इसमें अन्य भागों
में के वल आदि में शान्तिपाठ होता है। उपनिषद् में आदि और अन्त दोनों में शान्ति पाठ होता है। इसका कारण है कि सिद्धान्त स्थिर करने के पहले मन शान्त होना
चाहिये। सिद्धान्त का बाद में हर स्थिति में प्रयोग होता है अतः उसके भी विधिवत् लाभदायक प्रयोग के लिये मन शान्त होना चाहिये।
२. मांगलिक शब्द-हर मन्त्रके पहले ॐका उच्चारण किया जाता है-
मनुस्मृति (२/७४)-ब्रह्मणः प्रणवं कु र्यादादावन्ते च सर्वदा। स्रवत्यमोङ्कृ तं पूर्वं पुरस्ताच्च विशीर्यति॥
ॐ और अथ इन दो सब्दों का ब्रह्मा ने सबसे पहले उच्चारण किया था अतः इनको माग्गलिक कहा जाता है-
ॐकारश्चाथ शब्दश्च द्वावेतौ ब्रह्मणः पुरा। कण्ठं भित्त्वा विनिर्यातौ तस्मान् माङ्गलिकावुभौ॥ (नारद पुराण ५१/१०)
३. शान्तिपाठ के भेद-हर वेद के लिये अलग अलग शान्ति पाठ हैं। ४ वेदों में यजुर्वेद २ प्रकार का है-शुक्ल और कृ ष्ण। अतः कु ल ५ प्रकार के शान्ति पाठ हैं जो इन
वेदों के उपनिषदों के लिये प्रयुक्त होते हैं।
महा वाक्य रत्नावली में शान्तिपाठ का क्रम संक्षेप में है-
वाक्पूर्णसहनाप्यायन्भद्रं कर्णेभिरेव च। पञ्च शान्तीः पठित्वादौ पठेद्वाक्यान्यनन्तरम्॥
इसका मुक्तिकोपनिषद् के अनुसार स्पष्टीकरण है-
ऋग्यजुः सामाथर्वाख्यवेदेषु द्विविधो मतः। यजुर्वेदः शुक्लकृ ष्णविभेदेनात एव च॥१॥
शान्तयः पञ्चधा प्रोक्ता वेदानुक्रमणेन वै। वाङ्मे मनसि शान्त्यैव त्वैतरेयं प्रपठ्यते॥२॥
ईशं पूर्णमदेनैव बृहदारण्यकं तथा। सह नाविति शान्त्या च तैत्तिरीयं कठं च वै॥३॥
आप्यायन्त्विति शान्त्यैव के नच्छान्दोग्यसंज्ञके । भद्रं कर्णेति मन्त्रेण प्रश्नमाण्डू क्यमुण्डकम्॥४॥
इति क्रमेण प्रत्युपनिषद् आदावन्ते च शान्तिं पठेत्।
इनके अनुसार वेदानुसार उपनिषदों के शान्तिपाठ हैं-
ऋग्वेद शान्तिपाठ-
ॐ वाङ् मे मनसि प्रतिष्ठिता मनो मे वाचि प्रतिष्ठितमाविरावीर्म एधिवेदस्य मा आणीस्थः श्रुतं मे मा प्रहासीरनेनाधीतेनाहोरात्रात्संदधाम्यृतं वदिष्यामि। सत्यं वदिष्यामि।
तन्मामवतु। तद्वक्तारमवतु। अवतु माम्। अवतु वक्तारमवतु वक्तारम्। ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः॥
शुक्ल यजुर्वेदीय शान्ति पाठ-
ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात्पूर्णमुदच्यते।
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते॥
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः॥
कृ ष्ण यजुर्वेदीय शान्ति पाठ-
ॐ सह नाववतु॥ सह नौ भुनक्तु ॥ सह वीर्यं करवावहै॥ तेजस्विनावधीतमस्तु माविद्विषावहै॥ ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः॥
सामवेदीय शान्तिपाठ-
ॐ आप्यायन्तु ममाङ्गानि वाक् प्राणश्चक्षुः श्रोत्रमथो बलमिन्द्रियाणि च सर्वाणि सर्वं ब्रह्मोपनिषदं माहं ब्रह्मनिराकु र्यां मा मा ब्रह्म निराकरोदनिराकरणमस्त्वनिराकरणं मे
अस्तु। तदात्मनि निरते य उपनिषत्सु धर्मास्ते मयि सन्तु ते मयि सन्तु॥ ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः॥
अथर्ववेदीय शान्ति पाठ-
ॐ भद्रं कर्णेभिः शृणुयाम देवा भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्राः। स्थिरैरङ्गैः स्तुष्टु वांसस्तनूभिर्व्यशेम देवहितं यदायुः॥ स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाः। स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः।
स्वस्ति नस्तार्क्ष्यो अरिष्टनेमिः। स्वस्ति नो वृहस्पतिर्दधातु॥ ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः॥
४. वेद विभाजन-मूल एक ही वेद था जिसे ब्रह्मा ने अपने ज्येष्ठ पुत्र अथर्वा को पढ़ाया था। बाद में इसका परा (एकत्व) तथा अपरा (वर्गीकरण-विज्ञान) में विभाजन
हुआ। अपरा से ४ वेद और ६ अङ्ग हुए।
ब्रह्मा देवानां प्रथमं सम्बभूव विश्वस्य कर्ता भुवनस्य गोप्ता। स ब्रह्म विद्यां सर्व विद्या प्रतिष्ठा मथर्वाय ज्येष्ठ पुत्राय प्राह॥१॥ अथर्वणे यां प्रवदेत ब्रह्मा ऽथर्वा तां पुरो
वाचाङ्गिरे ब्रह्म-विद्याम्। स भरद्वाजाय सत्यवहाय प्राह भरद्वाजो ऽङ्गिरसे परावराम्॥२॥ (मुण्डकोपनिषद्,१/१/१,२ )। द्वे विद्ये वेदितव्ये- ... परा चैव, अपरा च। तत्र
अपरा ऋग्वेदो, यजुर्वेदः, सामवेदो ऽथर्ववेदः, शिक्षा, कल्पो, व्याकरणं, निरुक्तं , छन्दो, ज्योतिषमिति। अथ परा यया तदक्षरमधिगम्यते। (मुण्डकोपनिषद्, १/१/४,५)
विभाजन के बाद अविभाज्य अंश ब्रह्म रूप अथर्व वेद में रह गया-
अविभक्तं च भूतेषु विभक्तमिव च स्थितम्। (गीता, १३/१६)
अविभक्तं विभक्ते षि तज्ज्ञानं विद्धि सात्विकम्। (गीता, १८/२०)
अतः त्रयी का अर्थ १ मूल + ३ शाखा = ४ वेद होता है। इसका प्रतीक पलास दण्ड है जिससे ३ पत्ते निकलते है। यह वेद निर्माता ब्रह्मा के प्रतीक रूप में वेदारम्भ
संस्कार (यज्ञोपवीत) में प्रयुक्त होता है।
ब्रह्म वै पलाशः। (शतपथ ब्राह्मण, १/३/३/१९, ५/२/४/१८, ६/६/३/७)
ब्रह्म वै पलाशस्य पलाशम् (पर्णम्) (शतपथ ब्राह्मण, २/६/२/८)
तेजो वै ब्रह्मवर्चसं वनस्पतीनां पलाशः। (ऐतरेय ब्राह्मण २/१)
यस्मिन् वृक्षे सुपलाशे देवैः सम्पिबते यमः। अत्रा नो विश्यतिः पिता पुराणां अनु वेनति॥ (ऋक् १०/१३५/१)
ब्राह्मणो बैल्व पालाशौ क्षत्रियो वाटखादिरौ। पैलवौदुम्बरौ वैश्यो दण्डानर्हति धर्मतः॥ (मनुस्मृति, २/४५)
बिल्व (बेल) तथा पलाश दोनों में ३ पत्ते होते हैं।
त्रयी विभाजन का आधार है, ऋक् = मूर्ति, यजु = गति, साम = महिमा या प्रभाव, अथर्व = अविभक्त ब्रह्म। इसी को मनुस्मृति आदि में अग्नि (सघन ताप या
पदार्थ), वायु (गति) तथा रवि (तेज) भी कहा गया है।
ऋग्भ्यो जातां सर्वशो मूर्त्तिमाहुः, सर्वा गतिर्याजुषी हैव शश्वत्।
सर्वं तेजं सामरूप्यं ह शश्वत्, सर्वं हेदं ब्रह्मणा हैव सृष्टम्॥ (तैत्तिरीय ब्राह्मण,३/१२/८/१)
अग्नि वायु रविभ्यस्तु त्रयं ब्रह्म सनातनम् ।
दुदोह यज्ञसिद्ध्यर्थमृग्यजुः साम लक्षणम् ॥(मनुस्मृति, १/२३)
गति २ प्रकार की है-शुक्ल और कृ ष्ण। शुक्ल गति प्रकाश युक्त अर्थात् दीखती है। कृ ष्ण गति अन्धकार युक्त अर्थात् भीतर छिपी हुयी है। शुक्ल गति ३ प्रकार की है-निकट
आना, दूर जाना, सम दूरी पर रहना (वृत्ताकार कक्षा)। वस्तु का आन्तरिक प्रसारण या संकोच मिला कर ५ गति कही गयी है।
अग्निर्ज्योतिरहः शुक्लः षण्मासा उत्तरायणम्। --- धूमो रात्रिस्तथा कृ ष्णः षण्मासा दक्षिणायनम्। (गीता, ८/२४-२५)
उत्क्षेपणमवक्षेपणमाकु ञ्चनं प्रसारणं गमनमिति कर्माणि। (वैशेषिक सूत्र १/१/७)
शरीर या किसी पिण्ड के भीतर की गति दीखता नहीं है। वह कृ ष्ण गति १७ प्रकार की है, इस अर्थ में प्रजापति या पुरुष को १७ प्रकार का कहा गया है। समाज
(विट् = समाज, वैश्य) भी १७ प्रकार है। विट् सप्तदशः। (ताण्ड्य महाब्राह्मण १८/१०/९) विशः सप्तदशः (ऐतरेय ब्राह्मण, ८/४)
सप्तदशो वै पुरुषो दश प्राणाश्चत्वार्यङ्गान्यात्मा पञ्चदशो ग्रीवाः षोडश्च्यः शिरः सप्तदशम्। (शतपथ ब्राह्मण, ६/२/२/९)
राष्ट्रं सप्तदशः। (तैत्तिरीय ब्राह्मण, १/८/८/५)
सर्व्वः सप्तदशो भवति। (ताण्ड्य महाब्राह्मण, १७/९/४)
सप्तदश एव स्तोमो भवति प्रतिष्ठायै प्रजात्यै। (ताण्ड्य महाब्राह्मण, १२/६/१३)
तस्माऽएतस्मै सप्तदशाय प्रजापतये। एतत् सप्तदशमन्नं समस्कु र्वन्य एष सौम्योध्वरो ऽथ या अस्य ताः षोडश कला एते ते षोडशर्त्विजः (शतपथ ब्राह्मण,
१०/४/१/१९)
अर्थात्, व्यक्ति, समाज या राष्ट्र के अंगों का आन्तरिक समन्वय १७ प्रकार से है जो दीखता नहीं है। वह कृ ष्ण गति है। एक समतल को किसी चिह्न (टप्पा) द्वारा १७
प्रकार से भरा जा सकता है। इसे आधुनिक बीजगणित में समतल स्फटिक सिद्धान्त कहते हैं। (Modern algebra by Michael Artin, Prentice-
Hall, page 172-174) ५ महाभूतों की शुक्ल गति ५ x ३ =१५ प्रकार की होगी आन्तरिक गति १७ x ५ = ८५ प्रकार की है। अतः शुक्ल यजुर्वेद की १५
शाखा तथा कृ ष्ण यजुर्वेद की ८६ शाखा ( १ अगति या यथा स्थिति मिलाकर) हैं। समतल चादर की तरह मेघ भी पृथ्वी सतह को ढंक कर रखता है अतः ज्योतिष
में १७ के लिये मेघ, घन आदि शब्दों का प्रयोग होता है।
५. शान्ति पाठ विभाजन-(१) ऋग्वेद स्थूल शरीर या मूर्ति का वेद है। अतः स्थूल शरीर में मन, वाक आदि प्रतिष्ठित हों यह कामना करते हैं। ॐ वाङ् मे मनसि
प्रतिष्ठिता----
(२) यजुर्वेद-गति का वेद है। जिस गति से उपयोगी कर्म होता है, उसे यज्ञ कहते हैं। बाह्य यज्ञ ३ प्रकार के विश्व रूपों में देखते हैं-पूर्ण विश्व की स्थिति, पूर्ण विश्व
गति रूप, पूरण विश्व निर्माण या यज्ञ रूप। ये तीनों अनन्त हैं। अतः हम कहते हैं कि पूर्ण विश्व से पूर्ण गति रूप निकाल देने पर भी निर्माण या परिवर्तन रूप यज्ञ बचा
रहता है। ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं----
(३) कृ ष्ण यजुर्वेद-यह समाज या देश की आन्तरिक रचना है। इसके लिये हमारी कामना है कि सभी एक साथ रह कर एक दूसरे की सहायता करें। यज्ञों का उद्देश्य
भी यही कहा है कि एक यज्ञ द्वारा दूसरा यज्ञ सम्पन्न हो तभी उन्नति की जा सकती है। ॐ सह नाववतु॥ सह नौ भुनक्तु ---
ब्रह्माग्नवपरे यज्ञं यज्ञेनैवोपजुह्वति । (गीता ४/२५)
यज्ञेन यज्ञमयजन्त देवास्तानि धर्माणि प्रथमान्यासन् ।
ते ह नाकं महिमानः सचन्त यत्र पूर्वे साध्याः सन्ति देवाः ॥ (पुरुष-सूक्त, यजुर्वेद ३१/१६)
(४) साम वेद-यह बाहरी अदृश्य प्रभाव या महिमा है। उससे हमारे मन शरीर आप्यायित हों यह हमारी कामना है। ॐ आप्यायन्तु ममाङ्गानि-----। यही गायत्री मन्त्र
का तृतीय पद भी है-धियो यो नः प्रचोदयात्।
(५) अथर्ववेद-यह सनातन ब्रह्म का स्वरूप है जो कभी बदलता नहीं है। थर्व = थरथराना, अथर्व = स्थिर, स्थायी। अतः हमारी कामना है कि हमारा शरीर स्थिर
रहे, सब तरफ शान्ति हो, चारों दिशाओं में स्वस्ति हो। इन्द्र, पूषा, तार्क्ष्य, बृहस्पति-ये ४ दिशाओं के ४ नक्षत्रों के स्वामी हैं-ज्येष्ठा, रेवती, गोविन्द (विष्णु), पुष्य।
इसका प्रतीक स्वस्तिक चिह्न है। अन्य प्रकार से ये ४ पुरुषार्थों के कारक हैं-धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष। इन्द्र राजा है, बृहस्पति गुरु, पूषा पोषण देने वाला तथा विष्णु
पालन कर्त्ता। रक्षक राजा, ज्ञानदायक गुरु, पालन कर्त्ता विष्णु और पोषक पूषा कल्याण करें। अतः दोनों कहतेहैं-स्थिरैरङ्गैः---, या स्वस्ति न इन्द्रो---।
६. ईशोपनिषद् का शान्तिपाठ-यह उपनिषद् शुक्ल यजुर्वेद का अन्तिम अध्याय है। वाजसनेयि और काण्व शाखा के पाठ में थोड़ा अन्तर है, पर अर्थ एक ही हैं। अतः
इसमें शुक्ल यजुर्वेद का शान्तिपाठ पढ़ा जाता है।
ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात्पूर्णमुदच्यते। पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते॥
इसका सामान्य अर्थ कहते हैं कि विश्व अनन्त है, और अनन्त से अनन्त को घटाने पर अनन्त ही बचता है। शून्य से शून्य घाटाने पर भी वही बचता है। वेद में ४
प्रकार के अनन्तों की चर्चा है- (१) वेदों के ३ अनन्त-भरद्वाजो ह वै त्रिभिरायुर्भिर्ब्रह्मचर्य्यमुवास । तं ह जीर्णि स्थविरं शयानं इन्द्र उपब्रज्य उवाच । भरद्वाज ! यत्ते
चतुर्थमायुर्दद्यां, किमेनेन कु र्य्या इति ? ब्रह्मचर्य्यमेवैनेन चरेयमिति होवाच । तं ह त्रीन् गिरिरूपानविज्ञातानिव दर्शयाञ्चकार । तेषां हैकै कस्मान्मुष्टिमाददे । स होवाच,
भरद्वाजेत्यमन्त्र्य । वेदा वा एते । “अनन्ता वै वेदाः” । एतद्वा एतैस्त्रिभिरायुर्भिरन्ववोचथाः । अथ त इतरदनूक्तमेव । (तैत्तिरीय ब्राह्मण ३/१०/११)
यहां वेद और अनन्त दोनों बहुवचन हैं अतः २ से अधिक हैं। अनन्त की परिभाषा आधुनिक बीज गणित और कै लकु लस (कलन) में है कि यह किसी भी बड़ी संख्या
से बड़ा है। इसके विपरीत बीजगणित में किसी संख्या से उसी को घटाने से शून्य होता है। किन्तु कै लकु लस की परिभाषा है कि यह किसी भी छोटी संख्या से छोटा
है। कै लकु लस की दोनों परिभाषायें उपनिषद् में हैं-
अणोरणीयान् महतो महीयान्, आत्मास्य जन्तोर्निहितो गुहायाम्।
तमक्रतुः पश्यति वीतशोको, धातुप्रसादान् महिमानमात्मनः॥
(कठोपनिषद् १/२/२०, श्वेताश्वतर उपनिषद् ३/२०)
कै ण्टर की सेट थिओरी (१८८०) में अनन्तों की २ श्रेणियों की व्याख्या है-एक वह जो गिना जा सके । १,२,३,..... आदि संख्याओं का क्रम भी अनन्त है। इन
संख्यामों से सभी वस्तुओं को १-१ कर मिलाया जा सके तो यह प्रथम प्रकार का अनन्त है। भिन्न संख्यायें भी इससे एक विधि द्वारा गिनी जा सकती हैं। पर कु छ
संख्यायें ऐसी हैं जो इससे नहीं गिनी जा सकती हैं, जैसे ० और १ के बीच की सभी संख्या या किसी रेखा खण्ड के विन्दुओं की संख्या। यह बड़ा अनन्त है जिसको
२ के अनन्त घात से सूचित किया जाता है। एक अन्य अनन्त भी हो सकता है, जो २ के दूसरे अनन्त घात के बराबर होगा। ऋग्वेद मूर्त्ति रूप है, वह गिना जासकता
है-प्रथम प्रकार का अनन्त जो १,२,३, .... क्रम के बराबर है। यजुर्वेद का क्रिया या गति रूप अनन्त वही है जो विन्दु की गति से बने रेखा में होगा, यह दूसरा
अनन्त है। साम उसकी महिमा तीसरा अनन्त है।
ऋग्भ्यो जातां सर्वशो मूर्त्तिमाहुः, सर्वा गतिर्याजुषी हैव शश्वत्।
सर्वं तेजं सामरूप्यं ह शश्वत्, सर्वं हेदं ब्रह्मणा हैव सृष्टम्॥ (तैत्तिरीय ब्राह्मण ३/१२/८/१)
दूसरा अनन्त भी २ प्रकार का है, जो गणित सूत्रों द्वारा व्यक्त हो सके वह परिमेय या प्रमेय, जो उससे व्यक्त नहीं हो सके वह अप्रमेय है । विष्णु सहस्रनाम में अनन्त
के लिये ३ शब्द हैं-अनन्त, असंख्येय, अप्रमेय। इसके अनुसार प्रथम संख्येय अनन्त है। असंख्येय अनन्त २ प्रकार का है, प्रमेय और अप्रमेय। उसके बाद परात्पर
अनन्त ब्रह्मरूप अथर्व वेद है।
यज्ञ सम्बन्धी अर्थ है कि स्थिति रूप जगत् का एक अंश कर्म या क्रिया रूप जगत् है, क्रिया का एक भाग यज्ञ है जिससे चक्रीय क्रम में उपयोगी वस्तु का उत्पादन
होत है। ये तीनों ही पूर्ण तथा अनन्त हैं तथा एक दूसरे के अंश है।
अन्य अर्थ भी वैसा ही है। सबसे पहले अव्यक्त परात्पर पुरुष था जिसके ४ पाद में के वल एक पाद से दृश्य जगत् बना। मूल परात्पर बड़ा है या दृश्य विश्व के पिण्डों
का आधार भी बड़ा है, अतः इनको पूरुष (दीर्घ पू) कहा है। विराट् पुरुष में कई प्रकार के यज्ञ हैं जिनका आरम्भ पुरुष रूपी पशु से हुआ जिसे यज्ञ पुरुष कहते हैं।
अतः पूरुष, विराट् पुरुष तथा यज्ञ पुरुष क्रमशः पूर्व के अंश हैं तथा सभी पूर्ण हैं।
(पुरुष सूक्त, वाज. यजु, अध्याय ३१)-
एतावान् अस्य महिमा अतो ज्यायांश्च पूरुषः। पादोऽस्य विश्वा भूतानि त्रिपादस्यामृतं दिवि॥३॥
= इतनी इसकी (भूत, वर्तमान् भविष्य जगत् रूप पुरुष की) महिमा है। इससे भी बड़ा या अधिक (ज्यायान्) पूरुष है। पूरा विश्व और भूत इसका १ ही पाद है,
बाकी ३ पाद आकाश में अमृत (ज्यों का त्यों, अक्षय) है।
ततो विराट् अजायत, विराजो अधि पूरुषः। स जातो अत्यरिच्यत पश्चाद् भूमिमथो पुरः॥५॥
= उससे (एक पाद विश्व-रूप पुरुष, अज-एकपाद) विराट् (विशेष राजित, अव्यक्त तुलना में प्रत्यक्ष) विश्व उत्पन्न हुआ। विराट् से अधि-पूरुष (इसका आधार)
उत्पन्न हुआ।
सप्तास्यासन् परिधयः त्रिः सप्त समिधः कृ ताः। देवा यद्यज्ञं तन्वाना अबध्नन् पुरुषं पशुम्॥१५॥
= इसकी ७ परिधि (७ लोकों की सीमा) थी तथा ३ x ७ समिधा (निर्माण सामग्री, जिसके हवन से नयी वस्तु उत्पन्न होति है) थी। देवों ने पुरुष रूप पशु को ही
बान्ध कर विश्व निर्माण यज्ञ आरम्भ किया। (ब्रह्म ही हवि, निर्माण क्रिया, निर्मित पदार्थ अदि सब कु छ है-गीता, ४/२४)
इस अर्थ का निर्देश उपनिषद् के प्रथम श्लोक में भी है। वहां पूर्ण का क्रम है-विश्व (रचना), जगत् (गतिशील), जगत्यां जगत् (चक्रीय क्रम में उत्पादन)।
अदः का अर्थ दूर का निर्देश अर्थात् प्रथम पूर्ण, इदं निकटवर्ती या अन्तिम पूर्ण है।
अध्याय ३ - श्लोक १
ईशावास्योपनिषद्-यह वाजसनेयि यजुर्वेद का अन्तिम अध्याय ४० है। संहिता का अन्तिम निष्कर्ष भाग होने से यह उपनिषद् है। ईशावास्य शब्द से आरम्भ होने के
कारण इसे ईशावास्योपनिषद् कहते हैं। काण्व संहिता में थोड़ा अन्तर है और प्रायः वही ईशावास्योपनिषद् के रूप में पढ़ा जाता है।
श्लोक १-
ईशावास्यमिदं सर्वं यत् किञ्च जगत्यां जगत्। तेन त्यक्ते न भुञ्जीथा मा गृध कस्य स्विद्धनम्॥१॥
शब्दार्थ-यह (दृश्य जगत्) ईश (या ईशा) का वास है जो कु छ भी जगती के जगत् में है। इससे बचा जो कु छ है, उसी का भोग करना चाहिये। किसी अन्य के धन का
लोभ या हरण (गृध) नहीं करना चाहिये।
सन्देह-इसमें कई पारिभाषिक शब्द हैं तथा सन्देह हैं। मार्क्स ने थीसिस-ऐण्टी थीसिस-सिन्थेसिस क्रम दिया था, पर इस विधि से के वल शंकराचार्य ने व्याख्या की
है। बाद में अन्य ने भी वह पद्धति अपनायी। सिद्धान्त, आक्षेप, समाधान क्रम में व्याख्या होनी चाहिये। कु छ सन्देह ये हैं-
-ब्रह्म का कौन सा रूप ईश या ईश्वर है? ईशा या ईशान क्या है?
-इदम् (यह) या अदस् (तत् =वह) क्या है?
-इस जगत् में ईश कै से है और क्या करता है?
-विश्व, जगत् और जगत्यां जगत् क्या है?
-यदि सब कु छ ईश युक्त है तो उससे बचा क्या है जिसका भोग करें?
-यजुर्वेद यज्ञ का वेद है। उसके प्रथम मन्त्र में इसका पूर्ण उद्देश्य है, उससे इसकी संगति क्या है?
(१) ईश या ईशा-इसकी व्याख्या शैव दर्शन में है। सांख्य में व्यक्ति या विश्व दोनों रूपों में एक ही चेतन तत्त्व है, जिसे पुरुष कहते हैं। उसी के पदार्थ रूप को प्रकृ ति
कहते हैं जिसके ३ गुणों के कारण २ x २ x २ = ८ भेद हैं। पुनः ३ गुणों के कारण इसमें विकार होता है जिसे विकृ ति कहते हैं। तम के कारण कोई अन्तर नहीं
होता, अतः सत्त्व और रज के कारण ८ +८ = १६ तत्त्व होते हैं। विकृ ति के बाद अन्य नया तत्त्व नहीं होता।
पुरुष = न प्रकृ ति, न विकृ ति
मूल प्रकृ ति = ३ गुणों का समन्वय-१ तत्त्व
प्रकृ ति + विकृ ति = ७ तत्त्व
विकृ ति = १६ तत्त्व
सांख्य दर्शन ५ आयाम का है और ५ x ५ = २५ तत्त्व हैं। शैव दर्शन में चेतना अतिरिक्त आयाम है, अतः इसमें ६ x ६ = ३६ तत्त्व हैं। ३६-२५ = ११ रुद्र हैं
जिनकी अलग अलग प्रकार से सूची है। इसमें चेतना के विभिन्न स्तर हैं जिसमें शिव और जीव भाव के ३-३ उन्मेष (आंख खोलना) है। स्वामी विष्णुतीर्थ जी ने
अपनी पुस्तक शिवसूत्र प्रबोधिनी, पृष्ठ २८ में इनका क्रम ऋग्वेद (१०/१२९) नासदीय सूक्त क्रम में समझाया है।
प्रथम उन्मेष-शान्त्यतीता कला। इसमें अध्यात्म भाव शिव है, अधिभूत (पदार्थ) भाव शक्ति है। सूक्त-
आनीदवातं स्वधया तदेकं तस्माद्धान्यन्न परः किञ्चनाऽऽस।
तम आसीत्तमसा गूळ्हमग्रे ऽप्रके तम् सलिलं सर्व मा इदम्।
यह अप्रके त = शिव-शक्ति का मिला रूप है (अर्धनारीश्वर) जो मस्तिष्क में आज्ञा चक्र के २ दल हैं। सलिल में सर्व इदम् ही दृश्य जगत् है।
द्वितीय उन्मेष-शान्ति कला। इसमें द्वितीय उन्मेष सदाशिव है जो अहम्-इदम् विमर्श है। यहां शिव-शक्ति में क्रिया होती है। सूक्त-
तुच्छ्येनाभ्यपिहितं यदासीत्, तपसस्तन्महिना जायत्देकम्॥३॥
शान्ति कला में ही तृतीय उन्मेष में ईश्वर अलग हो जाता है और वह निर्माण करता है। इसका अहम् विमर्ष ईश्वर है जो सृष्टि की कामना करता है। सूक्त-
कामस्तदग्रे समवर्तताधि।
इदम् विमर्ष शुद्ध विद्या है जिससे शून्य में सृष्टि का आरम्भ हुआ। सूक्त-मनसो रेतः प्रथमं यदासीत्।
इसके बाद माया के ७ आवरण या कञ्चुक हैं। एक मूल माया है, ५ प्रकार क्रिया है-काल, कला, नियति (ईशावास्य उपनिषद् में सम्भूति-असम्भूति), विद्या
(सीमित), राग हैं। इनसे व्यक्ति पुरुष होत है जो ७ वां तत्त्व है। इसके बाद अशुद्ध तत्त्व में परा प्रकृ ति के २४ तत्त्व सांख्य अनुसार हैं-अव्यक्त, महत् (संहति) अहंकार
(समष्टि का व्यक्तित्व), मन, ५ तन्मात्रा, १ मन, ५ कर्मेन्द्रिय, ५ ज्ञानेन्द्रिय हैं
(२) ईश-ईश या ईश्वर रूप हर व्यक्ति के हृदय में रह कर नियन्त्रण करता है। अतः ईश या ईश्वर का अर्थ नियामक भी है।
ईश्वरः सर्व भूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति। भ्रामयन् सर्व भूतानि यन्त्रारूढ़ानि मायया॥ (गीता, १८/६१)
(३) हृदय-यह नियन्त्रण के न्द्र है जिससे ईश सञ्चालन करता है। इसके ३ भाग हैं-
एषः प्रजापतिर्यद् हृदयमेतद् ब्रह्मैतत् सर्वम्। तदेतत् त्र्यक्षरं हृदयमिति हृ इत्येकमक्षरमभिहरन्त्यस्मै स्वाश्चान्ये च य एवं वेद। द इत्येकमक्षरं ददन्त्यस्मै स्वाश्चान्ये च य
एवं वेद। यमित्येकमक्षरमेति स्वर्गं लोकं य एवं वेद॥ (शतपथ ब्राह्मण १४/८४/१, बृहदारण्यक उपनिषद् ५/३/१) = यह हृदय ही प्रजापति है, तथा ब्रह्म और सर्व है ।
इसमें ३ अक्षर हैं। एक हृ है जिसमें अपना और अन्य का आहरण होता है। एक ’द’ है जो अपना और अन्य का देता है । एक ’यम्’ है जिसे जानने से स्वर्ग लोक को
जाता है।
हृदय = हृ + द + यम्; हृ = आहरण , ग्रहण; द = दान, देना।
यम् = यमन्, नियमन्-यम नियम अष्टाङ्ग योग के प्रथम २ पाद। यम = नियन्त्रण। यम-निषेध। नियम = पालन। यह क्रियात्मक विश्व है, जिसका नियन्त्रक प्रजापति
हर हृदय में रहता है।
अर्थात्, हृदय वह क्षेत्र (देश) है जिसमें ३ क्रिया हो रही हैं-हृ = लेना, द = देना, यम् = नियम के अनुसार काम करना। नियम का बार बार पालन होता है अतः यह
चक्र में होता है। उत्पादक कर्म यज्ञ भी चक्र में होता है।
उदाहरण-(१) रक्तसञ्चार का के न्द्र हृदय है, जो रक्त लेता है (हृ), रक्त देता है (द) तथा नियमित गति से धड़कता है (यम्)।
(२) मस्तिष्क भी हृदय है जो ज्ञान (सूचना) लेता है (७ प्रकार से जिनमें २ असत्) हैं), अंगों को देता है तथा नाड़ी गति से काम करता है।
(३) विश्व हृदय वह है, जिसमें एक हृदय का दूसरे से सम्बन्ध है। ईश्वर इसीमें रहकर विश्व को नियन्त्रित करता है।
लोक भाषा के उदाहरण-तुझे देख मेरादिल धड़का (हृदय), कभी कभी मेरे दिल में खयाल आता है (मस्तिष्क), दिल की बात दिल में उतर गयी (विश्व हृदय)।
(४) कार का हृदय उसका इञ्जन है जो गैस और हवा का मिश्रण लेता है, जली गैस तथा कार्य (ऊर्जा) बाहर निकालता है और तेज चक्र में काम करता है (६०००
चक्र प्रति मिनट)
(५) कम्प्यूटर का हृदय उसका माइक्रो-चिप है जो सूचना लेता है (इनपुट) देता है (आउटपुट) तथा तीव्र चक्र (क्लौक स्पीड) में काम करता है।
इसका स्थान चित् = शून्य आकाश है। यह क्षेत्र मात्र है। इसमें क्रिया होने पर यह हृदय है।
यच्चेतयमाना अपश्यंस्तस्माच्चितयः। (शतपथ ब्राह्मण ६/२/२/९)
तद्यत्पञ्च चितीश्चिनोत्त्येताभिरेवैनं तत्तनूभिश्चिनोति यच्चिनोति तस्माच्चितयः। (शतपथ ब्राह्मण ६१/२/१७)
पञ्चह्येतेऽग्नयो यदेताश्चितयः। (शतपथ ब्राह्मण ६/२/१/१६)
ऋतवो हैते यद्ताश्चितयः। (शतपथ ब्राह्मण ६/२/१/३६)
सप्तयोनीः (यजु. १७/३९) इति चितीरेतदाह। (शतपथ ब्राह्मण ९/२/३/४४)
प्रजापतिर्वै चित्पतिः। (शतपथ ब्राह्मण ३/१/३/२२)
(४) चिति और ईशा-चित् विन्दुओं का विस्तार चिति (प्रारूप, डिजाइन) है। जो चिति कर सके वह चेतना है। चिति के हर स्थान पर ईश का विस्तार ईशा है।
चितिरूपेण याकृ त्स्नं एतद् व्याप्य स्थिता जगत्। नमस्तस्यै,नमस्तस्यै,नमस्तस्यै, नमो नमः। (दुर्गा सप्तशती ५/७८-८०)।
ईशः सर्वस्य जगतः प्रभुः प्रीणाति (महानारायण उपनिषद्, १६/५)
ईशानो ज्योतिरव्ययः (श्वेताश्वतर उपनिषद्, ३/१२)
ईशानो भूतभव्यस्य न ततो विजुगुप्सते। (कठोपनिषद्, ४/१२)
ईशा वा सर्वमिदं प्रयुक्तम् (अथर्वशिर उपनिषद्, २)
ईशानमस्य जगतः स्वर्दृशमीशानमिन्द्र तस्थुष इति तस्मादुच्यत ईशानः॥ (अथर्वशिर उपनिषद्, ४)
(५) विश्व, जगत्, जगति (जगती)-किसी सीमा के भीतर पूर्ण व्यवस्था विश्व है। आकाश में पूर्ण दृश्य जगत्, ब्रह्माण्ड, सौर मण्डल, पृथ्वी विश्व हैं। मनुष्य शरीर भी
विश्व है। उससे छोटे विश्व हैं कलिल () जो कोषिका विज्ञान के लिये विश्व है। क्वाण्टम यान्त्रिकी के लिये परमाणु भी विश्व है। परमाणु की नाभि भी विश्व है-
न्यूक्लियर भौतिक विज्ञान के लिये। इससे छोटे स्तर भी हैं।
स भूमिं विश्वतो वृत्वा (पुरुष सूक्त, १)-विश्व या सब तरफ से घिरा हुआ।
यद्वै विश्वं सर्वं तत् (शतपथ ब्राह्मण, ३/१/२/११)-पूर्ण या सर्व रूप।
विश्वस्यस्रष्टारमनेक रूपं विश्वस्यैकं परिवेष्टितारं (श्वेताश्वतर उपनिषद्, ४/१४,१६)-कई प्रकार के परिवेष्टित रूप।
अनाद्यनन्तं कलिलस्य मध्ये विश्वस्य स्रष्टारमनेकरूपम् ।
विश्वस्यैकं परिवेष्टितारं ज्ञात्वा देवं मुच्यते सर्व पाशैः ॥ (श्वेताश्वतर उपनिषद्, ५/१३)-कलिल भी एक परिवेष्टित विश्व है।
जगत् क्रिया रूप अव्यक्त विश्व है। बाहरी क्रिया दीखती है, जो शुक्ल गति है। भीतरी क्रिया नहीं दीखती-वह कृ ष्ण गति है।
जगदव्यक्त मूर्तिना (गीता, ९/४)हेतुनानेन कौन्तेय जगद् विपरिवर्तते (परिवर्तन होता है)।
जगज्जीवनं जीवनाधार भूतं (नारायण पूर्वतापिनी उपनिषद्, ४/५०)
शुक्ल कृ ष्णे गति ह्येते जगतः शाश्वते मते (गीता, ८/२६)
त्रिभिर्गुणमयैर्भावैरेभिः सर्वमिदं जगत् (गीता, ७/१३)
जगत् प्रहृष्यत्यनुरज्यते च (गीता, ११/३६)-चेतन तत्त्व।
विश्वनाथ = शिव, जगन्नाथ = विष्णु।
जगत्यां जगत्-जगत्यां जगति या जगती (स्त्रीलिंग) का रूप है। जगति से जगत हुआ है जो कुं ए के ऊपर गोलाकार चबूतरा है जिस पर खड़े हो कर पानी भरते हैं। यह
हिन्दी शब्दसागर या मानक हिन्दी कोश में है पर इसका संस्कृ त रूप जगती किसी संस्कृ त कोष में नहीं है। वाज. सं में जगति का प्रयोग है जिससे पानी निकालते हैं-
सं रेवतीः जगतीभिः पृच्यन्ताम् (वाज. सं. १/२१)
(यजु. १/२१)-रेवत्य आपः (शतपथ ब्राह्मण, १/२/२/२)
अतः जगत्यां जगत् का अर्थ है-जगत् में चक्रीय क्रम में यज्ञ द्वारा उत्पादन।
इयं पृथिवी वै जगती, अस्या हीदं सर्वं जगत् (शतपथ ब्राह्मण, ६/२/१/२९, ६/२/२/३२)
तदिदं सर्वं जगत् अस्यां तेनेयं जगती (शतपथ ब्राह्मण, १/८/२/११)
सर्वं वा इदमात्मा जगत्। (शतपथ ब्राह्मण, ४/५/९/८)
यद्वा जगत् जगत्याहितं पदं य इत्तद्विदुस्ते अमृतत्वमानशुः (ऋक् , १/१६४/२३)
जागता वै ग्रावाणः। (कौषीतकि ब्राह्मण, २९/१)
(६) यज्ञ चक्र-यज्ञ वह क्रिया है जिससे चक्रीय क्रम में इच्छित वस्तु का उत्पादन हो।
सहयज्ञाः प्रजाः सृष्ट्वा पुरो वाच प्रजापतिः ।
अनेन प्रसविष्यध्वमेष वोऽस्त्विष्टकामधुक् ॥१०॥ (गीता, अध्याय ३), प्रसव = निर्माण, जन्म।
गीता में इस चक्रीय क्रम को ७ खण्डों में बांटा गया है। वेद में इस चक्र को चन्द्र की कला के चक्र का नाम दिया गया है-दर्शपूर्ण मास-दर्श से पूर्णिमा और वापस।
अन्नाद् भवन्ति भूतानि पर्जन्यादन्नसम्भवः। यज्ञाद् भवन्ति पर्जन्यो यज्ञः कर्म समुद्भवः॥१४॥
कर्मं ब्रह्मोद्भवं विद्धि ब्रह्माक्षर समुद्भवम्। तस्मात्सर्वगतं बह्म नित्यं यज्ञे प्रतिष्ठितम्॥१५॥
एवं प्रवर्तितं चक्रं नानुवर्तयतीह यः । अघायुरिन्द्रियारामो मोघं पार्थ स जीवति ॥१६॥
(गीता, अध्याय ३)
यहां मुख्य यज्ञ कृ षि है जिसके अन्न से हमारा जीवन चल रहा है। यज्ञ का चक्र चलता रहेगा तभी हमारा जीवन चलेगा तथा मानव सभ्यता रहेगी। अतः यज्ञ का उतना
ही भाग उपयोग करना चाहिये जिससे यज्ञ का चक्र चलता रहे। सनातन यज्ञ ही अमृत है
यज्ञशिष्टाशिनः सन्तो मुच्यन्ते सर्वकिल्बिषैः ॥१३॥
यज्ञशिष्टामृतभुजो यान्ति ब्रह्म सनातनम्। (गीता, ४/३१)
एक यज्ञ पर अन्य यज्ञ आधारित है अतः दूसरे का यज्ञ नष्ट नहीं करना चाहिये। स्वयं उत्पादन कर खाना ही धर्म है। इससे ही समाज चल सकता है। अतः मा गृधः
कस्यस्विद्धनम्।
(७) ब्रह्म-कर्म-यज्ञ-ब्रह्म सम्पूर्ण विश्व है। उसका गति रूप कर्म है। जिस गति से चक्रीय क्रम में उत्पादन हो वह यज्ञ है। तीनों अंश पूर्ण विश्व हैं, अतः ब्रह्म से कर्म
भाग या कर्म से यज्ञ भाग निकलने पर भी पूर्ण ही बचेगा, जो इसके शान्तिपाठ में कहा है।
किं तद् ब्रह्म किमध्यात्मं किं कर्म पुरुषोत्तम। अधिभूतं च किं प्रोक्तमधिदैवं किमुच्यते॥१॥
अधियज्ञः कथं कोऽत्र देहेऽस्मिन् मधुसूदन। (हीता, अध्याय ८)
सर्वं खल्विदं ब्रह्म (छान्दोग्य, ३/१४/१)
कर्मं ब्रह्मोद्भवं विद्धि (गीता, ३/१५) यज्ञः कर्म समुद्भवः (गीता, ३/१४)
= ब्रह्म से कर्म हुआ अर्थात् ब्रह्म का अंश कर्म है, उसका अंश यज्ञ।
(८) यजुर्वेद के प्रथम मन्त्र से समन्वय-यजुर्वेद का प्रथम मन्त्र उसके पूर्ण विषय और उद्देश्य के विषय में कहता है-
ॐ इ॒षे त्वो॑र्जे त्वा॑ वा॒यव॑ स्थ दे॒वो वः॑ सवि॒ता प्रार्प॑यतु आप्या॑यध्व मघ्न्या॒ इन्द्रा॑य भा॒गं प्र॒जाव॑तीरनमी॒वा अ॑य॒क्ष्मा मा व॑ स्तेन ई॑षत माघशँ॑सो ध्रुवा अ॒स्मिन् गोप॑तौ स्यात
ब॒ह्वीर्यजमा॑नस्य प॒शून्पा॑हि (वा. यजु १/१)
इसमें ईषा (या इषा) का अर्थ है रथ का धुरा या हल की लम्बी लकड़ी है। रथ का धुरा गति का के न्द्र है। हल कृ षि का के न्द्र है। इस तरह ईश सभी क्रिया के के न्द्र
हृदय में है। व्यापक रूप ईशा के कार्य से समानता-
१. सन्तुष्टि-सवि॒ता प्रार्प॑यतु आप्या॑यध्व---
ईशः सर्वस्य जगतः प्रभुः प्रीणाति (महानारायण उपनिषद्, १६/५)
ईशानो भूतभव्यस्य न ततो विजुगुप्सते। (कठोपनिषद्, ४/१२)
२. इन्द्रा॑य भा॒गं-शासक के लिये भाग-
ईशायै मन्युं राजानं बर्हिषा दधुरिन्द्रियं (वाज. यजु, २१/५७) = ऐश्वर्य, शासन
३. प्र॒जाव॑ती-ईशा वशस्य या जाया सास्मिन् वर्णमाभरत्। (अथर्व ११/८/१७)
४. गो और पशु की वृद्धि-गोप॑तौ स्यात ब॒ह्वीर्यजमा॑नस्य प॒शून्पा॑हि----
ईशे यो अस्य द्विपदः चतुष्पदः (मैत्रायणी सं. २/१३/२३, १६८/८, ३/१२/१७, १६५/६, काण्व सं. ४०/१)
ईशे वाजस्य गोमतः (ऋक् ८/२५/२०)
या गौः सा सिनीवाली सो एव जगती। (ऐतरेय ब्राह्मण, ३/४८)
५. मूल यज्ञ कृ षि का साधन ईषा-
ईशे यो वृष्टेः इत उस्त्रियो वृषा (ऋक् , ९/७४/३)
ईशे रायः सुवीर्यस्य दातोः। (ऋक् ७/४/६)
ईशे कृ ष्टीनां नृतुः (ऋक् , ८/६८/७)
६. रोग और शत्रु का नाश-प्र॒जाव॑तीरनमी॒वा अ॑य॒क्ष्मा मा व॑ स्तेन ई॑षत माघशँ॑सो--
ईशे महः सौभगस्य (ऋक् , ३/१६/१)
ईशे रिपुरघशंसः। (ऋक् , १०/१८५/२, वाज. सं. ३/३२, काण्व सं. ७/२, मैत्रायणी सं. १/५/४, ७०/१०, शतपथ ब्राह्मण, २/३/४/३७)
ईशे विश्वायुर् उषसो व्युष्टौ (ऋक् , १०/६/३)
ईशे हि पित्वोऽविषस्य दावने (ऋक् , ८/२५/२०)
ईश्वरी सर्व भूतानां त्वामिहोपह्वये श्रियम् (श्री सूक्त, ९, ऋक् खिल, ५/८७/९)
अध्याय ४. ईशावास्य, मन्त्र २
कु र्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छतं समाः। एवं त्वयि नान्यथेतोऽस्ति न कर्म लिप्यते नरे॥२॥
कर्म को करते हुये ही इस संसार में १०० वर्ष जीने की इच्छा करे। एकमात्र यही उपाय है, अन्य नहीं है जिससे मनुष्य कर्म में लिप्त नहीं होता है।
वेदमें विधि-निषेध दोनों हैं-अर्थात् क्या करना चाहिये, क्या नहीं करना चाहिये।
राम भक्ति जहं सुरसरि धारा। सरसइ ब्रह्म विचार प्रचारा॥
बिधि निषेधमय कलिमल हरनी। करम कथा रबिनन्दनि बरनी॥ (रामचरितमानस, बालकाण्ड, १०/९)
यहां श्रेय है रामभक्ति रूपी गङ्गा, लिप्त होने वाले कर्म या उसके फल सूर्यपुत्री यमुना हैं तथा उनके बीच समन्वय सरस्वती नदी ब्रह्म विचार रूप है।
मीमांसा के अनुसार इनकी परिभाषा है-
विधि-प्रमाणान्तरों से पहले से अज्ञात तथा श्रेयस् (लौकिक एवं पारलौकिक अभ्युदय) के साधन का बोधक वेद वाक्य है विधिवाक्य। अन्तः प्रवृत्ति का उत्पादक
’अयम् अत्र प्रवर्तताम्’ इस प्रकार का अभिप्राय ही प्रवर्तना पद का वाच्य अर्थ विधिवाक्य से ज्ञात होत है। लिङ् , लेट् , लोट् , तव्य तथा अनीयर आदि प्रत्ययों से
इसका विधान दीखता है। इसके ४ प्रकार हैं-१. उत्पत्ति विधि, २. विनियोग विधि, ३. अधिकारिक विधि तथा ४. प्रयोगविधि।
निषेध-निषेध के २ भेद हैं-१. पर्युदास और २. प्रसज्य प्रतिषेध। क्रिया पद के साथ नञ् का अन्वय होने पर प्रसज्य प्रतिषेध होत है और उत्तर पद के साथ नञ् का
अन्वय होने से पर्युदास होता है। पर्युदस में पूर्ण निषेध नहीं है, यह अपवाद बतात है। प्रसह्य में पूर्ण निषेध है।
इस मन्त्र में कर्म बन्धन से मुक्ति का उपाय कह है जो विधि वाक्य है। अगले मन्त्र में निषेध है कि आत्महत्या या अन्धकार से कै से बचा जाय। उसके बाद दोनों का
समन्वय है कि ब्रह्म की प्राप्ति कै से होगी।
गीता में निष्काम कर्म का उपदेश अध्याय २ में है, पर उसे सांख्य योग कहा है। इसके बाद यज्ञ की परिभाषा अध्याय ३ में है जिसका नाम कर्मयोग है। अध्याय ४ में
यज्ञ के प्रकार हैं जिसका नाम ज्ञान कर्म संन्यास योग है। अध्याय ५ कर्मसंन्यास योग है जिसमें अर्जुन के प्रश्न का उत्तर है कि संन्यास और कर्मयोग में श्रेष्ठ क्याहै।
सन्देह-(१) कर्माणि बहुवचन है, अर्थात् कई प्रकार के कर्म हैं।
(२) मनुष्य की पूर्ण आयु १०० वर्ष मानी गयी है। १०० वर्ष जीने का एक ही तरीका है-सदा कर्म करते रहें। बिल्कु ल बैठ जाने से स्वास्थ्य खराब होगा और यदि
जीवित भी रहे तो वह अभिशाप हो जायेगा क्योंकि चल फिर नहीं पायेंगे। अतः कामना यही होनी चाहिये कि हम १०० वर्ष तक सक्रिय रहें।
(३) कर्म में लिप्त होना क्या है?
(४) एक विरोधाभास है कि कर्म भी करें और उसमें लिप्त भी नहों? यह कै से सम्भव है?
(५) मन कभी खाली नहीं रहता। यदि कर्म में नहीं तो किस चीज में लिप्त होगा या होना चाहिये?
व्याख्या-कर्म योग का पूर्ण उपदेश गीता में ही है, अतः गीता आधारित व्याख्या ही हो सकती है। उपनिषद् वेदों के सार हैं और सभी उपनिषदों के सार रूप में गीता
भी एक उपनिषद् है। अतः गीता के वाक्य वेदों के कई भागों के सारांश हैं।
१. कर्म के प्रकार-यह गीता के चतुर्थ अध्याय में है-
किं कर्म किमकर्मेति कवयोऽप्यत्र मोहिताः। तत्ते कर्म प्रवक्ष्यामि यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात्॥१६॥
कर्मणो ह्यपि बोद्धव्यं बोद्धव्यं च विकर्मणः। अकर्मणश्च बोद्धव्यं गहना कर्मणो गतिः॥१७॥
कर्मण्यकर्म यः पश्येदकर्मणि च कर्म यः। स बुद्धिमान्मनुष्येषु स युक्तः कृ त्स्नकर्मकृ त्॥१८॥ (गीता, अध्याय, ४)
= कर्म क्या है? और अकर्म क्या है? इस विषय में कवि अर्थात् बड़े विद्वान् भी मोहित हो जाते हैं। मैं (भगवान् कृ ष्ण) उस कर्म और अकर्म का तत्त्व तुम्हें खोलकर
बता देता हूँ, जिसे जान कर तुम अशुभ अर्थात् पाप से या पापयुक्त संसार से मुक्त हो जाओगे। (१६) कर्म का तत्त्व जानने योग्य है और विकर्म अर्थात् निषिद्ध कर्म
का भी तत्त्व जानने योग्य है। अकर्म अर्थात् कर्म के अभाव का भी तत्त्व जानने योग्य है। कर्म की गति अर्थात् ज्ञान बहुत गहन (गम्भीर) है। (१७) जो कर्म में अकर्म को
देखे और अकर्म में कर्म देखे, वही मनुष्यों में बुद्धिमान् है और सच्चा कर्मयोगी है। वही सब कर्मों का कर्त्ता है अथात् सब कर्मों का फल उसे प्राप्त होता है।(१८)
यहां प्रथम पद्य में ’कर्म’ ’अकर्म’ का उल्लेख हई किन्तु दूसरे में ’विकर्म’ का उल्लेख है। यह मीमांसा की परिभाषा जैसा है-अकर्म पूर्ण निषिद्ध है, दूसरे में विकल्प है।
इनके अतिरिक्त नित्य या नैमित्तिक कर्म ही कर्म हैं। के वल लिखा है कि इनको जानना चाहिये, पर परिभाषा नहीं दी गयी है। इनको बिलकु ल अलग नहीं किया जा
सकता। अतः तृतीय पद्य में दोनों को मिला जुला कहा है-कर्म के भीतर अकर्म तथ अकर्म के भीतर कर्म है।
सामान्यतः ३ प्रकार के कर्म कहे जाते हैं-
नित्य कर्म-दैनिक शरीर शुद्धि, घर की शुद्धि, भोजन, दैनिक पञ्च महायज्ञ आदि।
नैमित्तिक कर्म-विशिष्ट निमित्त या पर्व के लिये। जैसे-घर बनाना, अश्वमेध यज्ञ, व्रत-त्योहार, श्राद्ध आदि।
काम्य कर्म-किसी विशेष कामना से जो किया जाता है। इसमें कामना जुड़ी है अतः उसकी पूर्त्ति होने या नहीं होने से सुख या दुःख होता है। सुख दुःख या अतृप्ति का
भाव सदा मन में बना रहत है, अतः यह बन्धन कारक है।
जैसा भगवान् ने कहा है, इस विषय में कवि भी मोहित हैं। सबसे पुरानी उपलब्ध टीका शङ्कराचार्य की है, उन्होंने अपने से भी पुराने मत उद्धृत किये हैं।
शङ्कराचार्य-देह, इन्द्रिय आदि का कर्म जिस समय हो रहा हो, उस समय भी आत्मा में कोई कर्म नहीं है। यह द्वा सुपर्ण सूक्त के जैसा है, जिसमें एक पक्षी आत्मा
निर्लिप्त द्रष्टा है, दूसरा पक्षी जीव कर्म में लिप्त है। इस का वर्णन सौन्दर्य लहरी श्लोक ३८ में ज्ञान रूपी कमल के २ हंसों के रूप में किया है-मस्तिष्क के आज्ञा चक्र
के २ दल या अर्द्ध-नारीश्वर शिव।
समुन्मीलत् संवित् कमल मकरन्दैकरसिकम्, भजे हंस-द्वन्द्वं किमपि महतां मानस चरम्।
यदालापादष्टादश गुणित विद्या परिणतिः, यदादत्ते दोषाद् गुणमखिलमद्भ्यः पय इव॥
इसके अनुसार प्रवृत्ति तथा निवृत्ति-दोनों कर्म ही हैं। मन या शरीर की स्वाभाविक क्रिया को रोकने के लिये भी कर्म करना पड़त है।
शङ्कराचार्य द्वारा उद्धृत प्राचीन मत के अनुसार मित्य नैमित्तिक कर्मों में जो अकर्म देखता है अर्थात् नित्य नैमित्तिक कर्मों का कोई फल नहीं होता अतः वह अकर्म ही
है। किन्तु नहीं करने से हानि या पाप होता है-स्नान भोजन आदि नहीं करने से बीमार हो सकता है, अतः अकर्म में भी कर्म है।
श्री रामानुजाचार्य अकर्म का अर्थ ज्ञान करते हैं और इसका अर्थ ज्ञान-कर्म समन्वय मानते हैं। कर्म के समय जो अकर्म अर्थात् ज्ञान का अनुसन्धान करता है तथा
ज्ञान के समय भी जो कर्म करत है वही बुद्धिमान् है।
श्री वल्लभाचार्य व्याख्या में लिखा है कि कर्म या उसकी सामग्री विधि आदि में जो अकर्म अर्थात् ब्रह्म को देखता है वह बुद्धिमान् है-ब्रह्मार्पणं ब्रह्म हविर्ब्रह्माग्नौ ब्रह्मणा
हुतम्। ब्रह्मैव तेन गन्तव्यं ब्रह्म कर्म समाधिना॥ (गीता, ४/२४)
नीलकण्ठ जी ने शङ्कर भाष्य के अनुसार व्याख्या के बाद अन्य अर्थों का भी समन्वय किया है। कर्म का अर्थ तीनों है-कर्म, अकर्म, विकर्म। उसमें जो अकर्म अर्थात्
विरुद्ध दर्शन करता है वह अकर्म कहा जायेगा, जैसे बिना श्रद्धा के यज्ञ। दम्भ के साथ करने पर वही विकर्म अर्थात् पाप जनक होगा।
संकलन-कर्म-क्रिया के कारण गति। आधुनिक भौतिक विज्ञान में; कर्म = बल x विस्थापन।
अकर्म- (१) बल द्वारा कर्म नहीं कर सकें । जोर लगाया, पर दीवार नहीं हिला पाये। हवा वृक्ष उखाड़ सकती है पर पर्वत पर उसका वेग नहीं चलता। न पादपोन्मूलन
शक्तिरंहः शिलोच्चये मूर्च्छति मारुतस्य (रघुवंश, २/३४)
(२) हमारे बिना जाने क्रिया चल रही है-जैसे श्वास या रक्तसञ्चार।
(३) कर्म हो रहा है पर उस के कारण या फल में आसक्ति नहीं है।
(४) व्यवस्था को चलाने के कर्म जिससे वह यथवत् बना रहता है। शरीर का नित्य कर्म, आन्तरिक या बाह्य शुद्धि। दैनिक भोजन, पञ्च महायज्ञ। घर की दैनिक
सफाई। किसी संस्था के नियमित कार्य।
विकर्म-(१) आवश्यक कर्म या कर्त्तव्य के अतिरिक्त कर्म (विकल्प कर्म)।
(२) निर्दिष्ट विधि से अलग कर्म, जिससे कर्म का शून्य या विपरीत फल हो सकता है।
(३) अनुत्पादक या हानिकारक कर्म-बिना कारण पैर हिलाना, नख काटना, गाली देना, अपने या दूसरे की हानि के उद्देश्य से काम।
कर्म में अकर्म-(१) के वल कर्तव्य मान कर कर्म। उससे पाप-पुण्य की आशा, गर्व या निराशा नहीं।
(२) नित्य कर्म जिससे कोई दृश्य परिवर्तन नहीं। पर नहीं करने से व्यवस्था नष्ट हो जायेगी।
(३) समाज के लिये कर्म, अपना स्वार्थ नहीं।
अकर्म में कर्म-(१) शान्त चित्त से रहना जिससे काम यथावत चलते रहें।
(२) व्यवस्था के अध्यक्ष रूप में लोगों के काम पर के वल दृष्टि रखना, उसमें अनावश्यक बाधा नहीं।
(३) कर्म करें पर उससे अनावश्यक हर्ष, शोक, गर्व, निराशा आदि प्रभाव नहीं हों।
२. शतायु-मनुष्य शरीर १०० वर्ष जीने योग्य बनाया गया है। यदि स्वास्थ्य नियमों के अनुसार नित्य कर्म करें, शास्त्र में कहे अनुसार यम-नियम, तप-स्वाध्याय
करते रहें तो १०० वर्ष जी सकते हैं।
अपना कर्तव्य मानकर कर्म करें। यह नहीं सोचे कि लक्ष्य मिल गया अब आराम से बैठें। उससे शरीर और मन निष्क्रिय हो जायेगा तथा इसकी क्रिया में दोष आते
जायेंगे जिससे आयु कम हो जायेगी और शरीर अपने को भी नहीं सम्भाल पायेगा। जैसे भगवान् ने अपने बारे में भी कहा है कि उनको और कु छ पाना नहीं है, फिर
भी कर्म करते हैं। नहीं तो उनकी देखा-देखी अन्य लोग भी आराम से बैठ जायेंगें।
न मे पार्थास्ति कर्तव्यं त्रिषु लोके षु किञ्चन। नानवाप्तमवाप्तव्यं वर्त एव च कर्मणि॥ (गीता, ३/२२)
= हे पार्थ! मेरे लिये तीनों लोकों में कु छ भी कर्त्तव्य नहीं है और कु छ भी पाना बाकी नहीं है, फिर भी मैं सदा कर्म में लगा रहता हूँ।
नाहं तन्तुं न वि जानाम्योतुं न यं वयन्ति समरेऽतमानाः। (ऋग्वेद, ६/९/२)
= मैं (ब्रह्म) अपने लिये कर्म तन्तु आवश्यक नहीं समझता, तथा सकाम कर्म के यज्ञों द्वारा जीव जो कर्म रूपी वस्त्र बुनते हैं उसे भी आवश्यक नहीं मानता।
यदि ह्यहं न वर्तेयं जातु कर्मण्यतन्द्रितः। मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वसः॥ (गीता, ३/२३)
= हे पार्थ! यदि मैं बिना आलस्य वेद विहित नित्य नैमित्तिक कर्म में न लगा रहूं, तो संसार के अन्य लोग भी मेरा अनुकरण कर अपना कर्म छोड़ कर आलसी हो
जायेंगें।
यस्य प्रयाणमन्वन्य इद्ययुर्देवा देवस्य महिमानमोजसा।
यः पार्थिवानि विममे स एतशो रजांसि देवः सविता महित्वना॥ (ऋक् , ५/८१/३)
= इस सविता देव के महिमापूर्ण मार्ग का दूसरे देव अनुकरण करते हैं और तेज युक्त होते हैं।
उत्सीदेयुरिमे लोका न कु र्यां कर्म चेदहम्। सङ्करस्य च कर्ता स्यामुपहन्यामिमाः प्रजाः॥ (गीता, ३/२४)
= यदि मैं वेद विहित कर्तव्य कर्म न करूँ तो ये सब प्राणी अथवा भूर्भुवः आदि ७ लोक नष्ट हो जायेंगे और मैं वर्णसंकरों का कर्ता हो जाऊँ गा, तथा इन प्रजाओं का
हनन करूँ गा।
भद्रमिच्छन्त ऋषयः स्वर्विदस्तपो दीक्षामुपनिषेदुरग्रे।
ततो राष्ट्रं बलमोजश्च जातं तदस्मै देवा उपसंनमन्तु॥ (अथर्व वेद, १९/४१/१)
कल्याण कामना करते हुए स्वर्ग प्राप्ति के साधन तथा मुक्ति सुख की कामना करते हुए सृष्टि के आदि में उत्पन्न हुए ऋषियों ने तपस्यात्मक नित्य नैमित्तिक वैदिक कर्म
तथा दीक्षा दी। उसके बाद
वेदाहमेतं पुरुषं महान्तमादित्यवर्णं तमसः परस्तात्। तमेव विदित्वाऽतिमृत्युमेति नान्यः पन्था विद्यतेऽयनाय॥ (श्वेताश्वतर उपनिषद्, ३/८)
एको हँसो भुवनस्यास्य मध्ये स एवाग्निः सलिले संनिविष्टः। तमेव विदित्वाऽतिमृत्युमेति नान्यः पन्था विद्यतेऽयनाय॥ (श्वेताश्वतर उपनिषद्, ६/१५) न हि
कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृ त्।
कार्यते ह्यवशः कर्म सर्वः प्रकृ तिजैर्गुणैः॥ (गीता, ३/५)
(१) कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन। मा कर्म फलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोस्त्वकर्मणि॥ (गीता, २/४७)
कामान् यः कामयते मन्यमानः स कामभिर्जायते तत्र तत्र।
पर्याप्त कामस्य कृ तात्मनस्त्विहैव सर्वे प्रविलीयन्ति कामाः॥ (मुण्डक उपनिषद्, २/२/२)
= विषयों की कामना करने वाला जिन-जिन कामनाओं को चाहता है, उन्हीं-उन्हीं कामनाओं के अनुसार वहां -वहां जाकर जन्म लेता है। परन्तु जो सर्व प्रकार से
आप्तकाम है, अर्थात् जिसकी सारी कामनायें भगवत्स्वरूप में पूरी हो चुकी हैं, तथा जो सर्व प्रकार से कृ तकृ त्य है, उसकी सारी कामनायें यहीं नष्ट हो जाती हैं।
भूतानां प्राणिनः श्रेष्ठाः प्राणिनां बुद्धिजीविनः। बुद्धिमत्सु नराः श्रेष्ठा नरेषु ब्राह्मणाः स्मृताः॥
ब्राह्मणेषु च विद्वांसः विद्वत्सु कृ तबुद्धयः। कृ तबुद्धिषु कर्तारः, कर्तृषु ब्रह्मवादिनः॥ (मनुस्मृति, १/९६-९७)
ऐसा ही महाभारत (उद्योग पर्व, ६/१-२) में भी है।
= इस सृष्टि में जड़ पदार्थों में से चैतन्य अर्थात् प्राण वाले श्रेष्ठ हैं। उन प्राणियों में बुद्धिपूर्वक जीवन निबाहने वाले श्रेष्ठ हैं। बुद्धिवालों में भी मनुष्य श्रेष्ठ हैं। मनुष्यों में
ब्राह्मण श्रेष्ठ कहे गये हैं। ब्राह्मणों में भी विद्वान्, तथा विद्वानों में भी कृ तबुद्धि (निश्चयात्मिका बुद्धि वाले) श्रेष्ठ हैं। निश्चयात्मिका बुद्धि वालों में भी नित्य नैमित्तिक कर्म
करने वाले श्रेष्ठ हैं। उनमें भी कर्म फलों को भगवदर्पण कर के के वल भगवत् स्वरूप की प्राप्ति करने वाले श्रेष्ठ हैं।
न जातु कामः कामानामुपभोगेन शाम्यति। हविषा कृ ष्णवर्त्मेव भूय एवाभिवर्धते। (मनुस्मृति, २/९४)
= कर्मों के फल स्वर्ग तथा सुन्दर रमणी आदि नाना प्रकार के भोग हैं। उन कामनाओं के भोगने से कभी तृप्ति नहीं होती। जैसे अग्नि में घृत डालने से अग्नि की ज्वाला
उत्तरोत्तर बढ़ती रहती है।
(२) योगस्थः कु रु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा धनञ्जय। सिद्ध्यसिद्ध्योः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते॥ (गीता, २/४८)
सक्तु मिव तितउना पुनन्तो यत्र धीरा मनसा वाचमक्रत।
अत्रा सखायः सख्यानि जानते भद्रैषां लक्ष्मीर्निहिताधि वाचि॥ (ऋग्वेद, १०/७१/२)
वेद में १०० वर्ष की आयु तथा उसकी विधि अनेक स्थानों पर वर्णित है-
शतायुर्वै पुरुषः (कौषीतकि उपनिषद् ब्राह्मण, ११/७, तैत्तिरीय ब्राह्मण ३/८/५/१५/३, ताण्ड्य महाब्राह्मण, ५/६/१३, ऐतरेय ब्राह्मन, २/१७, ४/१९)
पश्येम शरदः शतं जीवेम शरदः शतं शृणुयाम शरदः शतम्।
प्रब्रवाम शरदः शतमदीनाः स्याम शरदः शतम्॥ (वाज्. यजु. ३६/२४)
शतायुषः पुत्रपौत्रान्वृणीह्व बहून्पशून्हस्तिहिरण्यमश्वान्।
भूमेर्महदायतनं वृणीश्व स्वयं च जीव सरदो यावदिच्छसि॥ (कठोपनिषद्, १/२४)
शतायुधाय शतवीर्याय (तैत्तिरीय संहिता, ५/७/२/३, काण्व संहिता, १३/१५)
शतायुषं कृ णुहि चीयमानः (वाज. यजु. १३/४१)
शतायुष हविशाहार्षम् एनं (ऋक् , १०/१६१/३, अथर्व, ३/११/३, २०/१६/९)
३. कर्म में लिप्त होना-वास्तविक विश्व में कई विरोधी बातें एक साथ ठीक होती हैं। किन्तु वेदान्त सबमें समन्वय करता है। काम करने के लिये उसे पूरी निष्ठा या मन
लगा कर करना है। उसके साथ ही कहते हैं कि उसमें लिप्त नहीं रहो। यह कै से सम्भव है? क्या बिना उद्देश्य कर्म किया जाय? इसमें दो विरोधी बातें माधवीय शंकर
दिग्विजय में मण्डन मिश्र के सन्दर्भ में कही हैं। वहां ऐसा शास्त्रार्थ होता रहता था अतः सुग्गे भी यही कहते थे-
फलप्रदं कर्म फलप्रदोऽजः, कीराङ्गना यत्र गिरो गिरन्ति। द्वारस्थ नीडान्तर सन्निरुद्धा जानीहि तन्मण्डन पण्डितौकः॥ (शङ्कर दिग्विजय, २/७)
कर्म उद्देश्य के लिये किया जाता है अतः उसे पूरी सावधानी और निष्ठा से करना चाहिये। फल उसी पर निर्भर है। पर कु छ बाह्य परिस्थिति भी प्रभावित करती है।
हमने समय पर खेती की। पर वर्षा समय पर नहीं हुयी या जमीन खराब निकली। तो उसी परिश्रम का फल कम मिलेगा। इस अर्थ में फल की प्राप्ति अज = अव्यय
पुरुष पर निर्भर है। एक पूर्ण व्यवस्थ अव्यय है, जिसमें योग समान बना रहता है-एक स्थान पर कमी होने पर अन्य स्थन में उतनी वृद्धि हो जाती है।
अजोऽपि सन्नव्ययात्मा (गीता, ४/६) अजो नित्यं शाश्वतोऽयं पुराणो (गीता, २/२०)
काम करने के पहले दो प्रकार के चिन्तन हैं। पहले तो सभी विकल्प और विधि देख कर उपयुक्त विधि चुनें। विकल्प देखना विपश्यति है। जो एक ही मार्ग देखता है,
वह अविपश्चित् = मूर्ख है।
यामिमां पुषितां वाचं प्रवदन्त्यविपश्चिताः। वेदवादरताः पार्थ नान्यदस्तीति वादिनः॥ (गीता, २/४२)
वेद में सभी का समन्वय है, अतः के वल एक ही वाद को मानना उसके अधिकांश अर्थों का विरोध है, अतः न अन्यत् अस्ति (मेरे मत के अतिरिक्त अन्य कु छ नहीं
है) कहने वाला नास्तिक है।
किन्तु काम आरम्भ करने के समय एक ही मार्ग चुनना है तथा उस पर लगे रहना है। बार बार सन्देह और मार्ग बदलने से कु छ नहीं हो पायेगा।
व्यवसायात्मिका बुद्धिरेके ह कु रुनन्दन। बहुशाखा ह्यनन्ताश्च बुद्धयोऽव्यवसायिनाम्॥ (गीता, २/४१)
मार्ग चुनने के बाद जब कर्म आरम्भ हो गया तो के वल वर्तमान कर्म पर ध्यान रहे। यदि काम करते समय भूत परिस्थिति या भावी फल के बारे में सोचने लगें तो काम
नहीं हो पायेगा।
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन। मा कर्म फल हेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि॥ (गीता, २/४७)
मन और वर्तमान कर्म का मिलन ही कर्म योग है। इसके साथ अन्य विषयों या भावी सिद्धि-असिद्धि के विषय में चिन्ता नहीं करें।
योगस्थः कु रु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा धनञ्जय। सिद्ध्यसिद्ध्योः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते॥ (गीता, २/४८)
इस योग से कर्म में कु शलता होती है।
बुद्धियुक्तो जहातीह उभे सुकृ तदुष्कृ ते। तस्माद्योगाय युज्यस्व योगः कर्मसु कौशलम्॥ (गीता, २/५०)
४. विरोध का समाधान-कर्म में मन लगायें, पर उस समय काम की विधि के अतिरिक्त अन्य विषयों में लिप्त नहीं हों। ये कर्म में बाधा हैं-
-पिछली बार कर्म ठीक से नहीं हो पाया।
-जिस व्यक्ति ने काम बिगाड़ा था उससे बदला लेना है।
-कितनी सुन्दर हवा चल रही है, सुगन्ध आ रही है। अभी बढ़िया भोजन करना चाहिये आदि अन्य विषय।
-पता नहीं काम सफल होगा या नहीं।
-दूसरे तरीके से काम करना चाहिये था।
-सफल होने के बाद पैसा मिलेगा तो घर बनायेंगे, उसमें क्या क्या सामान इकट्ठा करेंगे।
इनसे सम्बन्धित गीता के श्लोक ऊपर दिये जा चुके हैं।
५. मन लिप्त होने से कै से बचायें-मन कभी खाली नहीं रह सकता। उसको लिप्त होने से बचाने की विधियां हैं-
(१) आसक्ति का त्याग-पूर्व कर्म, वर्तमान के अन्य विषय या फल तथा उसके बाद कर्म की कल्पनायें आदि छोड़ दें। ऊपर वर्णित।
(२) अहं भाव का त्याग-मैं यह नहीं कर रहा हूं। कोई भी रहता तो इस परिस्थिति में वही करता। या घटना क्रम में यही होना था, मैं तो के वल निमित्त मात्र हूँ। निमित्त
रूप में भी मेरा योग नगण्य है, प्रकृ ति के गुणों द्वारा ऐसा ही होता है।
यतो यतो निश्चरति मनश्चञ्चलमस्थिरम्। ततस्ततो नियम्यैतदात्मन्येव वशं नयेत्॥ (गीता, ६/२६)
चञ्चलं हि मनः कृ ष्ण प्रमाथी बलवद्दृढम्। तस्याहं निग्रहं मन्ये वायोरिव सुदुष्करम्॥ (गीता, २/३४)
असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलम्। अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते॥ (२/३५)
इन श्लोकों में मन को ही प्रभावी कहा है, अतः यह यह पुल्लिङ्ग है। कर्म-ज्ञान इन्द्रियों दोनों में गिनती होने के समय यह नपुंसक होता है।
मयैवैते निहताः पूर्वमेव निमित्तमात्रं भव सव्यसाचिन्। (गीता, ११/३३)-अभी शत्रुओं का मरना बाकी है, पर यह निश्चित हो चुका है, अतः इसे भूतकाल में कहा है।
प्रकृ तेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः। अहङ्कार विमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते॥ (गीता, ३/२७)
(३) भगवद् भक्ति-भगवान् ने इसी काम के लिये मुझे जन्म दिया है। यह भाव आने पर स्वतः शक्ति तथा विश्वास आ जाता है। जन्म के साथ हमारा कर्तव्य नियत है,
जन्म और कर्म ये सभी प्रकृ ति द्वारा हो रहे हैं-
कार्यकारणकर्तृत्वे हेतुः प्रकृ तिर्च्यते। पुरुषः सुखदुःखानां भोक्तृ त्वे हेतुरुच्यते॥२०॥
पुरुषः प्रकृ तिस्थो हि भुङ्क्ते प्रकृ तिजान्गुणान्। कारणं गुणसङ्गोऽस्य सदसद्योनिजन्मसु॥२१॥
उपद्रष्टानुमन्ता च भर्ता भोक्ता महेश्वरः। परमात्मेति चाप्युक्तो देहेऽस्मिन्पुरुषः परः॥२२॥ (गीता, अध्याय, १३)
इस भाव के प्रकट रूप भक्तराज हनुमान् हैं। जब तक अपने को सामान्य व्यक्ति समझ रहे थे तब तक उनमें डर तथा असक्ति थी। जैसे ही उनको लगा कि उनका
जन्म ही भगवान् के काम के लिये हुआ है, उनमें सभी शक्ति आ गयी और पर्वताकार हो गये।
कहइ रीछपति सुनु हनुमाना। का चुप साधि रहेउ बलवाना॥
पवन तनय बल पवन समाना। बुधि विवेक विज्ञान निधाना॥
कवन सो काज कठिन जग माहीं। जो नहिं होइ तात तुम्ह पाहीं॥
राम काज लगि तव अवतारा। सुनतहिं भयउ पर्वताकारा॥
कनक बरन तन तेज बिराजा। मानहु अपर गिरिन्ह कर राजा॥
सिंहनाद करि बारहिं बारा। लीलहीं नाषउँ जलनिधि खारा॥
सहित सहाय रावनहि मारी। आनउँ इहाँ त्रिकू ट उपारी॥
(रामचरितमानस. किष्किन्धा काण्ड, २९)
अध्यात्म रामायण, किष्किन्धा काण्ड, सर्ग ९ में भी यही कहा है-
इत्युक्त्वा जाम्बवान्प्राह हनूमन्तमवस्थितम्। हनूमन्किं रहस्तूष्णीं स्थीयते कार्यगौरवे॥१६॥
प्राप्तेऽज्ञेनेव सामर्थ्यं दर्शयाद्य महाबल। त्वं साक्षाद्वायुतनयो वायुतुल्य पराक्रमः॥१७॥
रामकार्यार्थमेव त्वं जनितोऽसि महात्मना।
अध्याय ५-ईशावास्य, मन्त्र ३
असुर्या नाम ते लोका अन्धेन तमसावृताः। ताँस्ते प्रेत्याभिगच्छन्ति ये के चात्महनो जनाः॥३॥
अन्वयार्थ-(असुर्याः) असुरों के निवास भूत अतिदारुण (नाम) शास्त्र प्रसिद्ध (अन्धेन) अतिगाढ़ (तमसा) अन्धकार से (आवृताः) ढंके हुए (ते) वे (लोकाः) नरक
लोक हैं (ये) जो (के ) कोई भी (आत्महनः) आत्मा की हत्य करने वाले (जनाः) मनुष्य हैं (ते) वे सब प्राण-पोषण में तत्पर (प्रेत्य) इस शरीर का त्याग कर (तान्)
उन भयङ्कर रौरवादि लोकों को (अभिगच्छन्ति)बार बार प्राप्त होते हैं।
संगति-पिछले मन्त्र में कहा गया है कि निर्लिप्त हो कर कर्म करने से मनुष्य १०० वर्ष तक जीता है। वहां कर्तव्य बताया है। यहां कर्तव्य नहीं करने से हानि बतायी गयी
है।
शङ्का-(१) असुर कौन हैं?
(२) असुर्य लोक क्या हैं?
(३) तमस और अन्ध-तमस क्या है?
(४) आत्मा अविनाशी है तो आत्महत्या क्या है?
(५) प्रेत्य गति क्या है?
समाधान-
१. असुर और देव- असु अर्थात् प्राणों में रमन करने वाले असुर हैं। असुरों का स्थान, उनकी जाति या उनकी प्रकृ ति असुर्य या अन्धकार है।
ब्रह्म को नहीं जानने वाला असद् अर्थात्, सत्ताशून्य हो जाता है-
असन्नेव स भवति। असद् ब्रह्मेति वेद चेत्। (तैत्तिरीय उपनिषद्, १/२/६)
ये रूपाणि प्रतिमुञ्चमाना असुराः सन्तः स्वधया चरन्ति।
परापुरो निपुरो ये भरन्त्यग्निष्टांल्लोकात्प्रणुदात्यस्मात्॥ (वाज. यजु. २/३०)
= पितरों का अन्न स्राद्ध में भक्षण करने की इच्छा से अपने रूपों को पितरों के समान करते हुए जो असुर पितृस्थान में विचरते हैं तथा जो असुर स्थूल और सूक्ष्म
देहों को अपना असुरत्व छिपाने के लिये धारण करते हैं, उल्मुक रूप अग्नि उन असुरों को इस पितृयज्ञ स्थान से हटा दे। (आध्यात्मिक अर्थ)-मनुष्य को अपनी
ज्ञानाग्नि द्वारा असुर भाव को दग्ध कर सुर भाव प्राप्ति का प्रयत्न करते रहना चाहिये। वह ज्ञानाग्नि परमेश्वर के अनुग्रह से ही प्रज्वलित होती ह। अतः परमेश्वर
आराधन में ही प्रयत्न करना चाहिये।
आकाश में फै ली उर्जा प्राण है। इसमें जिस भाग से निर्माण होता है वह देव प्राण है। जिससे निर्माण नहीं हो पाता वह असुर है।
ऋषिभ्यः पितरो जाताः पितॄभ्यो देव दानवाः। देवेभ्यश्च जगत्सर्वं चरं स्थाण्वनुपूर्वशः॥ (मनुस्मृति, ३/२०१)
=ऋषि (मूलतत्त्व) से पितर हुए, पितरों से देव-दानव (प्राण) हुए, देवों से पूर्ण जगत् हुआ (असुरों से कु छ नहीं), जिसके अवयव चर, स्थाणु और अनुपूर्वशः हुए।
ब्रह्माण्ड में सूर्य तेज के द्वारा सृष्टि हो रही है। सौरमण्डल के ३० धाम हैं तथा ३ धाम पृथ्वी के भीतर हैं। इन ३३ धामों के प्राण ३३ देव हैं। हर धाम में १ देव के साथ
३ असुर हैं-बल (वलन = मोड़ना, इसके लिये बल की जरूरत होती है)-निश्चित दिशा में प्राण की गति होने से निर्माण होता है, बल के कारण दिशा भटक जाती है,
और निर्माण नहीं हो पाता। प्राण की गति से ही निर्माण होता है। भौतिक विज्ञान के अनुसार ताप में अन्तर होने पर ताप उर्जा का प्रवाह होता है। अन्य उर्जा का भी
स्तर में अन्तर होने से ही प्रवाह होता है।
नमुचि (फे न)-यह वस्तुओं का रूप भेद अस्पष्ट कर देता है। निश्चित निर्माण नहीं हो पाता।
वृत्र-पदार्थों को घेर कर उनका बाहर से सम्बन्ध काट देता है। बिना भिन्न पदार्थों के संयोग के निर्माण नहीं हो सकता।
बलं वै शवः (वाज. १२/१०६, १८/५१)-शतपथ ब्राह्मण (७/३/१/२९, ९/४/४/३)
मनुष्य रूप में बल एक असुर था जिसका इन्द्र ने वध किया था (पद्म पुराण, १/६७/२९, भागवत पुराण, ८/११/२८) देवीभागवत पुराण (८/१९/१) के अनुसार
यह मय का पुत्र थ और अतल लोक (यूरोप) में रहता था। बल द्वारा कार्य होता है, पर जब यह गति को मोड़ देता है (वलन) तब यह असुर है।
अपां फे नेन नमुचेः शिर इन्द्रोदवर्तयः विश्वा यदजयः स्पृधः (ऋक् , ८/१४/१३)। इति पाप्मा वै नमुचिः (शतपथ ब्राह्मण, १२/७/३/४)। अन्यत्र-ऋक्
(१०/१३१/४), वाज. (१०/३३, १९/३४) आदि।
वृत्रो ह वा इदं सर्वं वृत्वा शिश्ये। यदिदमन्तरेण द्यावा-पृथिवी स यदिदं सर्वं वृत्वा शिश्ये तस्माद् वृत्रो नाम। (शतपथ ब्राह्मण, १/१/३/४)
पाप्मा वै वृत्रः (शतपथ ब्राह्मण, ११/१/५/७, १३/४/१/१३) (यजु ११/३३) वृत्रहणं पुरन्दरमिति पाप्मा वै वृत्रः पाप्महनं पुरन्दरमित्येतत्। (शतपथ ब्राह्मण,
६/४/२/३)
सौर मण्डल में ३३ धामों के ३३ देव हैं और हर धाम के ३ असुर अर्थात् ९९ को इन्द्र (किरण) द्वारा मारने से सृष्टि होती है।
त्रयस्त्रिंशो वै स्तोमानामधिपतिः (ताण्ड्य महाब्राह्मण, ६/२/७)
देवता एव त्रयस्त्रिंशस्यायतनम् (ताण्ड्य महाब्राह्मण, १०/१/१६)
त्रिं॒शद्धाम॒ वि रा॑जति॒ वाक् प॑त॒ङ्गाय॑ धीयते । प्रति॒ वस्तो॒रह॒ द्युभिः॑ ॥
(ऋक् १०/१८९/३, साम ६३२, १३७८, अथर्व ६/३१/३, २०/४८/६, वा. यजु ३/८, तैत्तिरीय सं १/५/३/१)
त्रयस्त्रिंशद्वै देवाः प्रजापतिश्चतुस्त्रिंशः । (शतपथ ब्राह्मण १२/६/१/३७, ४/५/७/२, ताण्ड्य महा ब्राह्मण १०/१/१६, १२/१३/२४)
इन्द्रो दधीचो अस्थभिर्वृत्राण्यप्रतिष्कु तः। जघान नवतिर्नव॥ (ऋक् , १/८४/१३)
देवों से असुर ३ गुणा होने के कारण मूल पुरुष के ४ भागों में से के वल १ भाग से ही विश्व की सृष्टि हुयी-
एतावानस्य महिमा अतो ज्यायांश्च पूरुषः। पादोऽस्य विश्वा भूतानि त्रिपादस्यामृतं दिवि। (पुरुष सूक्त, ३)
सौर मण्डल में देव प्रभावी हैं, यह देव स्वर्ग है। ब्रह्माण्ड में असुर प्राण मुख्य है, यह असुर या वरुण स्वर्ग है।
अयं वै (पृथिवी) लोको, मित्रोऽसौ (द्युलोकः) वरुणः (शतपथ ब्राह्मण, १२/९/१/१६)
स वा एषो (सूर्य्यः) ऽपः प्रविश्य वरुणो भवति। (कौषीतकि ब्राह्मण, १८/९)
पृथ्वी पर असुर मनुष्यों की जाति है। जो अपनी जरूरत की वस्तु का स्वयं उत्पादन करें वह देव है। जो दूसरों की सम्पत्ति बल (असु) द्वारा लूटें, वह असुर हैं। देवों
का यज्ञ परस्पर के समर्थन के लिये होता है। असुर भी यज्ञ करते हैं, पर दूसरों के नाश के लिये।
यज्ञेन यज्ञमयजन्त देवास्तानि धर्माणि प्रथमान्यासन्।
ते ह नाकं महिमानः सचन्तः यत्र पूर्वे साध्याः सन्ति देवाः॥ (पुरुष सूक्त, १६)
मेगास्थनीज ने भी लिखा है कि भारत सदा से अन्न और अन्य सभी चीजों में स्वावलम्बी रहा है अतः पिछले १५,००० वर्षों से भारत ने अन्य देशों पर आक्रमण नहीं
किया। (१९२७ संस्करण में मैकक्रिण्डल ने १५,००० वर्ष हटा दिया जिससे भारतीय सभ्यता प्राचीन नहीं लगे। इसमें १ शून्य हटा कर मैक्समूलर ने वैदिक सभ्यता
का आरम्भ घोषित कर दिया था)
FRAGMENT I OR AN EPITOME OF MEGASTHENES (36.) The inhabitants, in like manner,
having abundant means of subsistence, exceed in consequence the ordinary stature, and are distinguished
by their proud bearing. (38.) It is said that India, being of enormous size when taken as a whole, is
peopled by races both numerous and diverse, of which not even one was originally of foreign descent, but
all were evidently indigenous; and moreover that India neither received a colony from abroad, nor sent
out a colony to any other nation (For past 15,000 years)
२. असुर्य लोक- आकाश के ५ पर्वों में ७ लोक हैं। ५ पर्व हैं-
१. स्वायम्भुव मण्डल- १०० अरब ब्रह्माण्डों का समूह
२. परमेष्ठी मण्डल-सबसे बड़ी रचना। विश्व रूपी ब्रह्म का अण्ड होने से ब्रह्माण्ड।
३. सौरमण्डल-जहां तक सूर्य का प्रकाश ब्रह्माण्ड के तारा समूह से अधिक है, वहां तक इसका द्यु (आकाश) है। जहां तक के पिण्ड इसकी कक्षा में रह सकते हैं वह
सौर पृथिवी है।
४. चान्द्र मण्डल-चन्द्र कक्षा का गोल। जहां तक के पिण्ड पृथ्वी कक्षा में रह सकते हैं, वह आकाश का जम्बू द्वीप है (५०,००० योजन त्रिज्या, योजन = पृथ्वी
व्यास का १००० भाग)
५. भू-मण्डल-पृथ्वी ग्रह।
इसी को ७ लोकों में विभाजित किया है-
१. भूलोक-पृथ्वी ग्रह।
२. भुवः लोक-नेपचून तक ग्रह कक्षा। १०० कोटि योजन की चक्राकार पृथ्वी। इस के भीतरी ५० कोटि योजन भाग में अधिक प्रकाश है, अतः इसे लोक भाग कहते
हैं। इसमें पृथ्वी के चारों तरफ ग्रह गति से बनने वाला वृत्त या वलय आकार के क्षेत्र द्वीप कहे गये हैं जिनके नाम पृथ्वी के द्वीपों जैसे ही हैं। बाहरी भाग अलोक भाग है।
३. स्वः लोक-सौर मण्डल की पृथ्वी। यह सूर्य प्रकाश का क्षेत्र होने से इन्द्र स्वर्ग है। इस गोले का ऊपरी विन्दु नाक (स्वर्ग) है।
४. महः लोक-ब्रह्माण्ड के के न्द्र (कृ ष्ण) जो सर्पाकार भुजा निकली है, वह वेद के अनुसार अहिर्बुध्न्य (अहि = सर्प, बुध्न्य = समुद्र, बाढ़) तथा पुराणों के अनुसार
शेषनाग है। इसमें सूर्य जहां स्थित है उस के न्द्र से भुजा की मोटाई के व्यास का गोला महर्लोक है। इसमें १००० तारा हैं जिनको शेषनाग के १००० सिर कहते हैं।
५. जनः लोक-ब्रह्माण्ड। इसका के न्द्रीय चक्राकार भाग आकाश गङ्गा है। जनः को अरबी में जन्नत कहते हैं यह असुरों का वरुण स्वर्ग है।
६. तपः लोक-जहां तक का ताप हमारे तक पहुंच सकता है, वह तपः लोक है। भौतिक विज्ञान में इसे दृश्य जगत् कहते हैं।
७. सत्य लोक-पूर्ण अनन्त विश्व जो हर स्थान, हर दिशा तथा हर समय एक जैसा रहने के कारण सत्य लोक है।
विष्णु पुराण (२/७/३-४) के अनुसार सूर्य-चन्द्र से प्रकाशित भाग ३ प्रकार की पृथ्वी है-पृथ्वी ग्रह दोनों से प्रकाशित, सौर मण्डल सूर्य प्रकाश का क्षेत्र (इसमें विष्णु
के ३ पद ताप, तेज, प्रकाश क्षेत्र हैं), ब्रह्माण्ड जिसकी सीमा तक सूर्य विन्दुमात्र दीखता है। हर पृथ्वी में पृथ्वी ग्रह जैसे नदी, पर्वत, द्वीपों आदि के नाम हैं। हर पृथ्वी
के लिये उसका आकाश उतना ही बड़ा है जितना मनुष्य से पृथ्वी ग्रह। अर्थात् मनुष्य की लम्बाई-चौड़ाई से आरम्भ कर १-१ कोटि से गुणा किया जाय तो पृथ्वी,
सौर मण्डल, ब्रह्माण्ड, पूर्ण विश्व का व्यास आयेगा। लोकों के माप हैं-सौरमण्डल के ३ क्षेत्र-११, २२, ३३ अहर्गण (धाम संख्या), महर्लोक ४३ धाम (पृथ्वी व्यास
x २ घात ४०), जनः लोक ४९ धाम, तपः लोक पृथ्वी व्यास x २ घात ६४ (६३.५), सत्य लोक पृथ्वी व्यास x २ घात ७२।
रवि चन्द्रमसोर्यावन्मयूखैरवभास्यते । स समुद्र सरिच्छैला पृथिवी तावती स्मृता ॥
यावत्प्रमाणा पृथिवी विस्तार परिमण्डलात् ।
नभस्तावत्प्रमाणं वै व्यास मण्डलतो द्विज ॥ (विष्णु पुराण २/७/३-४)
वेद में आकाश की माप के लिये पृथ्वी को ही मापदण्ड माना गया है। पृथ्वी के भीतर ३ धाम (क्षेत्र) है। पृथ्वी से बाहर के धाम क्रमशः २ गुणे होते गये हैं।
(बृहदारण्यक उपनिषद् ३/३/२)
कठोपनिषद् के अनुसार छोटी गुहा (मस्तिष्क) का जीव अन्त में परम गुहा परमेष्ठी में पहुंचता है जिसकी परिधि परार्ध (१ पर १७ शून्य) योजन है। उषा वर्णन में
विषुव वृत्त के ७२० भाग = ५५.५ कि.मी. को १ योजन कहा गया है। गणना करने पर इसका व्यास ९७००० योजन आता है। नासा का अनुमान १९९० में १
लाख तथा २००८ में ९५००० योजन है। इसके मार्ग में छाया और आतप (धूप) के क्षेत्र हैं। छाया वाले क्षेत्रों को ही असुर्य या असुर का क्षेत्र कहा है।
ऋतं पिबन्तौ सुकृ तस्य लोके गुहां प्रविष्टौ परमे परार्धे ।
छायातपौ ब्रह्मविदो वदन्ति पञ्चाग्नयो ये च त्रिणाचिके ताः ॥ (कठोपनिषद् १/३/१)
शरीर का सम्बन्ध विश्व की आत्मा सूर्य से प्रकाश गति के अनुसार है। हृदय से ब्रह्म-रन्ध्र तक अणु पथ तथा वहां से सूर्य तक महापथ है (बृहदारण्यक उपनिषद्
४/४/८,९, छान्दोग्य उपनिषद् ८/६/१,२,५, ब्रह्मसूत्र, ४/२/१७-२०)। यह सम्बन्ध १ मुहूर्त में ३ बार जा कर लौट आता है।
रूपं रूपं मघवाबोभवीति मायाः कृ ण्वानस्तन्वं परि स्वाम्।
त्रिर्यद्दिवः परिमुहूर्त्तमागात् स्वैर्मन्त्रैरनृतुपा ऋतावा॥(ऋग्वेद ३/५३/८)
इसी प्रकाश सम्बन्ध पर चन्द्र तथा शनि तक के ग्रहों के प्रभाव से रंग, दिशा आदि में परिवर्तन होता है जिसके कारण जन्म समय तथा उसके बाद जीवन बर ग्रहों का
प्रभाव पड़ता है (वाज. यजु. १५/१५-१९, १७/५८, १८/४०, कू र्म पुराण, ४१/२-८, मत्स्य पुराण, १२८/२९-३३, ब्रह्माण्ड पुराण, २४/६५-७३ आदि॥ वेद
तथा पुराणों में एक ही वर्णन उन्हीं शब्दों में है।
पृथ्वी पर मनुष्य जन्म चन्द्र की १० परिक्रमा (२७३ दिन) में होता है। प्रेत शरीर चान्द्र मण्डल का है, उसका निर्माण पृथ्वी के १० अक्ष भ्रमण (१० दिन) में होता
है। इसी क्रम में विश्व की सृष्टि भी १० दिन में कही गयी है-जिनमें १ अव्यक्त सर्ग (मूल स्रोत) तथा ९ व्यक्त सर्ग है।
अथ यद्दशममहरुपयन्ति (शतपथ ब्राह्मण, १२/१/३/१७), विराड् वा एषा समृद्धा यद्दशाहानि। (ताण्ड्य महाब्राह्मण, ४/८/६) श्रीर्वै दशममहः (ऐतरेय ब्राह्मण,
५/२२)
पृथ्वी पर बना प्रेत शरीर धीरे धीरे १२ मास में चान्द्र मण्डल तक पहुंचता है, जिसके लिये मासिक श्राद्ध होता है। पहुंचने के बाद वह पृथ्वी-चन्द्र के साथ सूर्य की
वार्षिक परिक्रमा करता है, जिसके लिये वार्षिक श्राद्ध होता है। उसी चान्द्र आत्मा का एक भाग सूर्य किरणों (गौ) के दबाव से शनि ग्रह तक जाता है। मार्ग में मङ्गल के
२ उपग्रह मिलते हैं जिनको २ श्वान कहा गया है। अन्त में शनि कक्षा में पहुंचते हैं, जिसके वलयों को ३ भाग में बांटा गया है। शनि सतह से आरम्भ कर इनके नाम
हैं-पीलुमती, उदन्वती, प्रद्यौ (Paradise)। अथर्व वेद काण्ड १८ के सभी ४ सूक्तों के २८३ मन्त्रों में इसका विस्तार से वर्णन है। अध्याय २ के उदाहरण-
सूर्य चक्षुषा गच्छ वातमात्मना (सौर वायु से) सिवं च गच्छ पृथिवीं च धर्मभिः। अपो (चान्द्र मण्डल) वा गच्छ यदि तत्र ते हितमोषधीषु प्रतितिष्ठा शरीरेः॥ (अथर्व,
१८/२/७)
अति द्रव श्वानौ सारमेयौ चतुरक्षौ शबलौ साधुना पथा।
अधा पितॄन् सुविदत्राँ अपीहि यमेन ये सधमादं मदन्ति॥ (अथर्व, १८/२/११)
ये निखाता ये परोप्ता ये दग्धा ये चोद्धिता।
सर्वांस्तानग्न आ वह पितॄन् हविषे अत्तवे॥ (अथर्व, १८/२/३४)
= ४ प्रकार से मृतक संस्कार-भूमि में गाड़े गये, जल में फें के गये, अग्नि से जलाये हुए, ऊपर हवा में रखे हुए-इन सभी के भोजन के लिये अग्नि हवि का वहन करें।
उदन्वती द्यौरवमा पीलुमतीति मध्यमा। तृतीया ह प्रद्यौरिति यस्यां पितर आसते॥ (अथर्व, १८/२/४८)
= पितर गमन स्थान शनि में नीचे से आरम्भ कर उदन्वती, पीलुमती तथा प्रद्यौ हैं।
ऋग्वेद, मण्डल १० का १४ वां सूक्त यम सूक्त तथा अगला १५वां पितर सूक्त है। उनके ३० मन्त्रों में भी प्रायः यही वर्णन अन्य प्रकार से है।
विष्णु का वाहन छन्द रूपी गरुड़ है। गजेन्द्र मोक्ष में-छन्दोमयेन गरुड़ेन समुह्यमानः (भागवत पुराण, ८/३/३१)। वयः = बुनना, आयु, पक्षी। मूर्धावयः = पक्षियों में
मूर्धन्य गरुड़। मूर्धावयः छन्दों का वर्णन वाज. यजुर्वेद (१४/८-१०, १८-१९) तथा (१५/४-५) में है।
मनुष्य की आत्मा परमात्मा का ही रूप है, अतः वेद वर्णित आत्मगति की लौकिक व्याख्या गरुड़ पुराण में है। इसके उत्तर खण्ड (प्रेत कल्प) में ३५ अध्याय हैं।
सौर मण्डल में विष्णु के ३ पदों को अग्नि, वायु, रवि क्षेत्र की सीमा कहा गया है। वेद के अनुसार ये ११, २२, ३३ अहर्गण तक हैं, अर्थात् पृथ्वी त्रिज्या की २ घात
८, १९, ३० दूरी तक। वायु भाग को इषादण्ड कहा गया है और उसकी दूरी सूर्य से ३००० योजन कही गयी है (यहां योजन = सूर्य व्यास)। यह यूरेनस कक्षा तक
आता है जिसका पता २००८ में नासा के कासिनी यान से चला। इससे पहले पृथ्वी कक्षा तक ही सौर वायु मानते थे। (यजुर्वेद प्रथम श्लोक में इषा को वायवस्थ
ऊर्जा कहा है। सूर्य की वायवस्थ ऊर्जा उसका ईशादण्ड है जिसकी परिधि १८००० योजन कही गयी है (विष्णु पुराण, २/८/२)
मापों के लिये विस्तार से सांख्य सिद्धान्त, अध्याय ३ देखें।
शनि का प्रकाशित भाग धर्म तथा अन्धकार भाग यम कहा है। अन्य मत से शनि को धर्म तथा अलोक भाग में नेपचून को यम कहा है। पर ग्रह वलय के ३ स्पष्ट भाग
शनि में ही हैं।
परिव्राजक संन्यासी या सम्मुख युद्ध में मरने वाले सूर्य लोक की सीमा पार कर जनः लोक (जन्नत) में जाते हैं तथा वहां कल्प भर (कयामत तक) रहते हैं।
ध्रुवादूर्ध्वं महर्लोको यत्र ते कल्पवासिनः। एकयोजनकोटिस्तु यत्र ते कल्पवासिनः॥१२॥
द्वे कोटी तु जनो लोको यत्र ते ब्रह्मणः सुताः। सनन्दनाद्याः प्रथिता मैत्रेयामलचेतसः॥१३॥(विष्णु पुराण २/७)
द्वाविमौ पुरुषौ लोके सूर्यमण्डल भेदिनौ। परिव्राट् योगयुक्तो वा रणे चाभिमुखं हतम्॥ (शुक्र नीति, ४/४८)
(विदुर गीता, महाभारत, उद्योग पर्व ३३/६१-द्वाविमौ पुरुषव्याघ्र--)
ऊर्ध्वमेकस्थितस्तेषां यो भित्वा सूर्य्यमण्डलम्।
ब्रह्मलोकमतिक्रम्य तेन याति परां गतिम्॥ (मैत्रायणी उपनिषद्, ६/३०)
मनुष्य की कर्म के अनुसार २ प्रकार की गति कही गयी है-
द्वे स्रुती अशृणवं पितॄणामहं देवानामुतमर्त्यानाम्।
ताभ्यामिदं विश्वमेजत् समेति यदन्तरा पितरं मातरञ्च॥ (ऋक् , १०/८८/१५)
अग्निर्ज्योतिरहः शुक्लः षण्मासा उत्तरायणम्। तत्र प्रयाता गच्छन्ति ब्रह्म ब्रह्मविदो जनाः॥२४॥
धूमो रात्रिस्तथा कृ ष्ण षण्मासा दक्षिणायनम्। तत्र चान्द्रमसं ज्योतिर्योगी प्राप्य निवर्तते॥२५॥
शुक्ल कृ ष्णे गतिह्येते जगतः शाश्वते मते। एकया यात्यनावृत्तिमन्ययाऽऽवर्तते पुनः॥२६॥ (गीता, अध्याय ८)
छन्दांसि वै देवयानः पन्थाः-गायत्री, त्रिष्टु प्, जगती। ज्योतिर्वै गायत्री, गौस्त्रिष्टु प्, आयुर्जगती।
यदेते स्तोमा भवन्ति, देवयानेनैव तत् पथायन्ति॥ (तैत्तिरीय संहिता, ७/५/१)
नागवीथ्युत्तरं यच्च सप्तर्षिभ्यश्च दक्षिणम् । उत्तरः सवितुः पन्था देवयान इति स्मृतः॥२१७॥
उत्तरं यदगस्त्यस्य अजवीथ्याश्च दक्षिणम्। पितृयाणः स वै पन्था वैश्वानरपथाद् बहिः॥२०९॥ (वायु पुराण, अध्याय ५०)
या विष्णु पुराण (२/८/८७, ९२)
पृथ्वी से देखने पर सूर्य इसकी सतह पर दैनिक परिक्रमा करता है जिसे गणित भाषा में अहोरात्र वृत्त (Diurnal circle) कहते हैं। पृथ्वी का अक्ष इसकी कक्षा
अर झुका हुआ है जिसका कोण २२.५ अंश से २५.५ अंश तक होता है। अभी यह २३.५ अंश से थोड़ा कम है। मध्य मान २४ अंश लेते हैं। पृथ्वी सतह पर सूर्य
की सबसे उत्तरी स्थान विषुव से २४ अंश उत्तर होगा जिस समय सूर्य कर्क राशि में रहता है (पृथ्वी के न्द्र से कर्क राशि की दिशा में)। अतः सबसे उत्तरी वृत्त कर्क
रेखा तथा विषुव से २४ अंश दक्षिण मकर रेखा है। मकर से कर्क की उत्तर दिशा में सूर्य की गति उत्तरायण है जिसमें ६ मास लगते हैं जैसा गीता का श्लोक उद्धृत है।
प्रत्येक मार्ग में १-१ मास तक सूर्य के भ्रमण का क्षेत्र १-१ वीथी है। विषुवत से उत्तर ०-१२, १२-२०, २०-२४ अंश तक ३ वीथी हैं-ऐरावत, गज, नाग। दक्षिण में
क्रमशः वृषभ, जरद्गव, अज वीथी हैं। उत्तर मार्ग पर दिनमान बड़ा होता है, सबसे छोटा दिन २४ अंश दक्षिण में होगा। उस अक्षांश वृत्त को सबसे छोटा गायत्री छन्द
(६ x ४ =२४ अक्षर) कहा गया है। उसके उत्तर मार्गों के क्रमशः बड़े छन्द हैं-२० अंश दक्षिण-उष्णिक् ७ x ४= २८), १२ अंश दक्षिण-अनुष्टु प् (८ x ४ =
३२), ० अंश विषुव वृत्त-बृहती (९ x ४ = ३६), १२ अंश उत्तर-पङ्क्ति (१० x ४ = ४०), २० अंश उत्तर-त्रिष्टु प् (११ x ४ = ४४), २४ अंश उत्तर जगती
(१२ x ४ = ४८)। गायत्री से जगती में २ गुणे अधिक अक्षर हैं इसलिये लिखा है कि जब सूर्य जगती पर होते हैं तब दिन मान रात्रि से १.५ गुणा होता है, अर्थात्
३० मुहूर्त के दिन में १८ मुहूर्त का दिन तथा १२ मुहूर्त की रात्रि (यथा विष्णु पुराण, २/८/३९)
नाग वीथी से उत्तर और सप्तर्षि ( से दक्षिण देवयान मार्ग है जिससे सिद्ध लोग जाते हैं (मृत्यु के बाद)। अज वीथी से दक्षिण तथा अगस्त्य से उत्तर पितृयान मार्ग है
जिससे काम्य यज्ञ करने वाले जाते हैं तथा पुनर्जन्म में यज्ञ मार्ग की पुनः प्रतिष्ठा करते हैं (विष्णु पुराण, २/८७-८८, ९२-९४)

पृथ्वी पर असुर कोई एक जाति नहीं थी। उनके कई भेद थे-दैत्य, दानव, मुर, निर्ऋ ति, कम्बु, क्रोधवश, पुलोमा, निवातकवच, कालक, कालके य आदि। कु छ स्थानों
के नाम अभी भी प्रचलित हैं-दैत्यों का पश्चिम यूरोप में डच, ड्यूट्श (Dutch, Deutsch), दानवों का डैन्यूब नदी क्षेत्र। मुर लोगों का मोरक्को। दक्षिण अफ्रीका
के निर्ऋ ति ( भारत से नैर्ऋ त्य कोण की दिशा)। कालक, कालके य-कज्जाकिस्तान, तुर्कि स्तान। तारक असुर के क्षेत्र पश्चिम एशिया के राज्य को असीरिया कहते थे।
मय दानव मेक्सिको के थे। हिरण्याक्ष का स्थान आमेजन नदी तट या रसातल कहा है। हिरण्यकशिपु उत्तर अफ्रीका (मिस्र, लिबिया) का था जिसे तलातल लोक भी
कहा है।
पृथ्वी के २ प्रकार के नकशे थे-एक में वर्तमान द्वीपों और सागरों का मानचित्र था। ७ महाद्वीप थे-जम्बू-एशिया, प्लक्ष-यूरोप, शक-आस्ट्रेलिया, कु श-अफ्रीका (विषुव
के उत्तर), शाल्मलि-दक्षिण अफ्रीका, क्रौञ्च-उत्तर अमेरिका, पुष्कर-दक्षिण अमेरिका (ब्रह्मा के पुष्कर बुखारा के विपरीत दिशा में)। समतल नक्शा बनाने में ध्रुव के
निकट आकार बड़ा होने लगता है। उत्तरी ध्रुव जल भाग में है, अतः वहां कोई समस्य नहीं थी। पर दक्षिणी ध्रुव स्थल पर है (आर्यभटीय, ४/१२)। नक्शा पर अनन्त
आकार होने के कारन उसे ८वां अनन्त द्वीप कहते थे। यह सबसे दक्षिण दिशा में होने से यम द्वीप है। यमल या यम = जोड़ा, इसमें दो भूखण्ड हैं। ७ सागरों का
निर्णय करना कठिन है-क्षार समुद्र, जल समुद्र, दधि समुद्र, क्षीर सागर, घृत समुद्र, इक्षुरस समुद्र, मद्य समुद्र।
द्वितीय प्रकार से उत्तरी भाग में ९०-९० अंश के ४ भाग होते थे जो मेरु के ४ पार्श्व रूप में ४ रंगों में बनते थे। इनको भू-पद्म के ४ दल कहा है। उज्जैन से पूर्व-
पश्चिम दोनों तरफ ४५-४५ अंश तथा विषुव और उत्तर ध्रुव के बीच का क्षेत्र भारत भाग या दल था। पश्चिम में के तुमाल, पूर्व में भद्राश्व, तथा विपरीत दिशा में
कु रुवर्ष था। भारत पद्म के पूर्व छोर पर इन्द्र की अमरावती (इण्डोनेसिया का सेलेबीज), के न्द्र में लंका या उज्जैन, पश्चिम छोर पर यम की संयमनी (अम्मान) थी।
संयमनी से९०अंश पश्चिम सोम की विभावती (गुयाना, न्यूयार्क ), अमरावती से ९० अंश पूर्व वरुण की सुखा (फ्रे ञ्च पोलिनेसिया या हवाई द्वीप) थी। उज्जैन से ९०
अंश पूर्व यमकोटिपत्तन (यमकोटि द्वीप न्यूजीलैण्ड का दक्षिण पश्चिम तट), ९० अंश पश्चिम रोमकपत्तन (मोरक्को के पश्चिम का तट) तथा विपरीत दिशा में सिद्धपुर
(कै लिफोर्निय के पूर्व) थे।
उत्तर में के वल भारत दल में आकाश के ७ लोकों की तरह ७ लोक विषुव से ध्रुव तक थे। भारत, चीन, रूस (ऋषीक)-ये इन्द्र के ३ लोक थे। यही देव भाग था,
बाकी को असुर कह सकते हैं। इनके पुनः विभाजन से ७ लोक हैं-विन्ध्य से दक्षिण-भू, विन्ध्य हिमालय के बीच भुवः, हिमालय स्वः (त्रिविष्टप् = स्वर्ग), चीन महः,
मंगोलिया जनः, साइबेरिया तपः (तपस् = स्टेपीज), ध्रुव वृत्त सत्य लोक है।
उत्तर के अन्य ३ दल तथा इनके विपरीत दक्षिण के ४ दल-कु ल ७ तल कहे हैं जो असुरों के स्थान थे। भारत से पश्चिम अतल (इटली, उसके पश्चिम अतलान्तक
समुद्र), पूर्व में सुतल तथा विपरीत दिशा में पाताल था। दक्षिण भाग में भारत के दक्षिण तल या महातल (भारत कु मारिका खण्ड, दक्षिण समुद्र भी कु मारिका खण्ड
था), अतल के दक्षिण तलातल, पाताल के दक्षिण रसातल, सुतल के दक्षिण वितल था।
३. तमस और अन्ध तमस-तमस में बहुत कम दीखता है। अन्ध तमस में बिल्कु ल नहीं दीखता, मनुष्य अन्ध जैसा हो जाता है। तमस से स्वयं बाहर निकल सकता
है। अन्ध तमस से निकलने के लिये अन्य की सहायता चाहिये।
योग सूत्र (२/३) में क्ले श के ५ भेद कहे हैं-अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष, अभिनिवेश। इनको ही सांख्य योग में ५ प्रकार के तम कहा है-तम, मोह, महामोह, तामिस्र,
अन्ध।
तमो मोहो महामोहस्तामिस्रो ह्यन्धसंज्ञकः। अविद्या पञ्चपर्वैषा सांख्ययिगेषु कीर्तिता॥ (विष्णु पुराण, १/५/५)
यहां प्रथम स्तर को तम और अन्तिम स्तर को अन्ध-तम कहा है।
सांख्यकारिका, श्लोक ४८ में तम और मोह के ८-८ भेद, महामोह १० प्रकार का, तामिस्र और अन्ध-तामिस्र के १८-१८ भेद कहा है।
यदि अविद्या का अर्थ अपरा विद्या या विज्ञान करें तो ये ५ स्तर विज्ञान के ५ क्रम हैं-
१. अविद्या-विषयों या तथ्यों का विभाजन।
२. अस्मिता-प्रति तत्त्व की अलग-अलग परिभाषा तथा व्याख्या।
३. राग-अलग अलग तथ्यों में समानता खोज कर उनको एक वर्ग में करना (Generalization)। इसका अन्तिम रूप पराविद्या या विद्या होगी, जैसे स्वार्थ का
परम रूप परमार्थ।
४. द्वेष-अन्य वर्ग के तथ्यों से भेद दिखाना।
५. अभिनिवेश-सिद्धान्त स्थिर करना जिसके अनुसार नये तथ्यों को प्रमाणित या अप्रमाणित किया जा सकता है।
यही अविद्या या तम के भी स्तर हैं-अविद्या = ज्ञान का अभाव, अस्मिता= स्वार्थ के अनुसार सोचना, राग= किसी के प्रति आकर्षण, द्वेष-विकर्षण, अभिनिवेश=
एक ही मान्यता से बन्ध कर सोचने में असमर्थ जिसे अन्ध भक्ति कहते हैं।
मानसिक तम होने पर मरणोपरान्त भी तम मार्ग से ही गति होती है।
४. अविनाशी आत्मा की हत्या-आत्मा के कई स्तर हैं। एक मत है कि ईशावास्योपनिषद् के १८ श्लोकों के अनुरूप १८ स्तर हैं तथा उनका मूल अव्यक्त स्रोत १९वां
है। मनुष्य रूप में हमारा सामाजिक परिचय कई प्रकार का है और सबका दृश्य प्रभाव होत है-भारतीय, बिहारी, ब्राह्मण, विज्ञान छात्र, व्यवसाय, संगति आदि। इसी
प्रकार आकाश में सृष्टि के ५ पर्वों के अनुसार आत्मा के ५ मुख्य भेद हैं। उनके अवान्तर भेद मिला कर १८ होते हैं-
पर्व साक्षी ईश्वर भोक्ता जीव (प्रवर्ग्य भाग-मूल से निकला)
निष्कल गूढोत्मा (ईश्वर अव्यय) १. गूढोत्मा (जीव-अव्यय)
अव्यक्त अव्यक्त २. अव्यक्तात्मा
१. स्वयम्भू (४९ अहर्गण+) चिदात्मा ३. शान्तात्मा
२. परमेष्ठी (४८ स्तोम) हिरण्यगर्भ आत्मा ४ महानात्मा
३. सौर (३३ स्तोम) सर्वज्ञ आत्मा ५ विज्ञानात्मा
४. चान्द्र (१५ स्तोम) महानात्मा ६. प्रज्ञानात्मा
५. भू महिमा-२१ स्तोम-सर्वज्ञात्मा ७. प्राज्ञात्मा
१५ स्तोम-हिरण्यगर्भात्मा ८. तैजसात्मा
९ स्तोम-विराट् आत्मा ९. वैश्वानर आत्मा
भू वायु-वराह आत्मा १०. हंसात्मा
भू पिण्ड-चित्यात्मा ११. भूतात्मा
शान्तात्मा-१. अन्तर्यामी, २. सूत्रात्मा, ३. वेदात्मा, ४. चिदात्मा।
महानात्मा (परमेष्ठी)-१. आकृ ति, २. प्रकृ ति, ३. अहङ्कृ ति, ४. यज्ञ।
विज्ञानात्मा (सौर)-१. विज्ञानात्मा, २. दैवात्मा।
इनके उद्धरण मेरी पुस्तक पुरुष सूक्त, पृष्ठ ७३-७६ में हैं।
https://www.scribd.com/document/42466007/Purusha-Sukta
या अंग्रेजी सारांश के लिये Vedic View of Śrī Jagannātha देख सकते हैं।
https://www.scribd.com/document/11959826/Vedic-View-of-Sri-Jagannath
सभी पुरुष रूपों के एक एक उदाहरण दिये जाते हैं-
०. अखण्ड परात्पर-कल्पना से परे, अविभक्त-
१. सदेव सोम्येदमग्र आसीदेकमेवाद्वितीयम्। (छान्दोग्य उपनिषद्, ६२/१)
यह सदा सोम के साथ था, एक ही था, कोई द्वितीय नहीं था।
२. यस्यामतं तस्य मतं मतं यस्य न वेद सः। अविज्ञातं विजानतां विज्ञातमविजानताम्॥ (के नोपनिषद्, २/३)
जो व्यक्ति कहता है कि वह ब्रह्म को नहीं जानता, वह सही कह रहा है। ब्रह्म ज्ञान का गर्व करने वाला कु छ नहीं जानता। अज्ञेय का ज्ञान उसी को है जो ज्ञान का दावा
नहीं करता।
३. संविदन्ति न यं वेदा विष्णुर्वेद न वा विधि।
यतो वाचो निवर्तन्ते अप्राप्य मनसा सह॥ (तैत्तिरीय उपनिषद्, २/४/९)
= उसे न वेद जानते हैं, न ब्रह्मा या विष्णु। वाक् भी वहां जा कर बिना उसे पाये लौट जाती है।
०. परात्पर-यह माया के साथ है-
यथा नद्यः स्यन्दमानाःसमुद्रेऽस्तं गच्छन्ति नामरूपे विहाय।
तथा विद्वान् नामरूपाद् विमुक्तः परात्परं पुरुषमुपैति दिव्यम्। (मुण्डकोपनिषद्, ३/२/८)
= जैसे नदियां समुद्र में मिलकर अपना नाम रूप खो देती हैं, उसी प्रकार विद्वान् ब्रह्म को पाने के बाद अपने (नाम रूप) को खो देता है।
१. गूढोत्मा-सबके भीतर छिपा हुआ-
०. एष सर्वेषु भूतेषु गूढोत्मा न प्रकाशते। दृश्यते त्वग्र्यया बुद्ध्या सूक्ष्मया सूक्ष्मदर्शिभिः। (कठोपनिषद्, १/३/१२)
= यह सभी भूतों में (माया के कारण) छिपा हुआ है। के वल सूक्ष्म दर्शी इसे सूक्ष्म बुद्धि से देख पाते हैं।
२. अव्यक्त आत्मा-यह निराकार है।
य एषोऽनन्तोऽव्यक्त आत्मा (जाबालोपनिषद्,२)
इन्द्रियेभ्यः पराह्यर्था अर्थेभ्यश्च परं मनः। मनसस्तु परा बुद्धिर्बुद्धेरात्मा महान् परः।
महतः परमव्यक्तमव्यक्तात् पुरुषः परः। (कठोपनिषद्, १/३/१०,११)
= इन्द्रियों से परे अर्थ (उनके विषय) हैं, अर्थ से परे मन है, मन से परे बुद्धि, बुद्धि के परे महान् आत्मा है। अव्यक्त महान् से भी परे है, तथा पुरुष उससे परे है।
पुरुष के परे कु छ भी नहीं है।
३. शान्तात्मा-नमः शान्तात्मने तुभ्यम्। (मैत्रायणी उपनिषद्, ५/१)
= तुझ शान्तात्मा को नमस्कार।
चतुर्थः शान्त आत्मा प्लुत प्रणव प्रयोगेण समस्तमोमिति। (अथर्वशिखोपनिषद्, १)
= सभी कु छ ॐ है, प्लुत् प्रणव (३ मात्रा का) की चतुर्थ मात्रा शान्तात्मा है।
यदा स देवो जागर्त्ति तदेदं चेष्टते जगत्। यदा स्वपिति शान्तात्मा तदा सर्वं निमीलति॥ (मनुस्मृति, १/५२)
= जब वह देव जागता है, संसार की सभी क्रियायें होती हैं। जब वह शान्तात्मा सोता है, सभी क्रियायें बन्द हो जाती हैं।
(क) अन्तर्यामी (जो सबके भीतर गति करे)-
यः पृथिव्या तिष्ठन्, पृथिव्या अन्तरो , यं पृथिवी न वेद, यस्य पृथिवी शरीरं, यः पृथिवीमन्तरो यमयति, एष स आत्माऽन्तर्याम्यमृतः। (बृहदारण्यक उपनिषद्,
३/७/३)
= जो पृथिवी पर स्थित है तथा उसके भीतर भी है। उसे पृथिवी नहीं जानती। जिसका शरीर पृथिवी है तथा जो पृथिवी के भीतर रहता या नियन्त्रित करता है , वही
अमृत आत्मा अन्तर्यामी कहलाता है।
(ख) सूत्रात्मा (एक विन्दु या पिण्ड का अन्य से सम्बन्ध)-इस सम्बन्ध का सूत्र वायु कहा जाता है। यह भौतिक विज्ञान में कई प्रकार के बल हैं।
वायुर्वै गौतम! तत् सूत्रम्। वायुना वै गौतम! सूत्रेणायं च लोकः, परश्च लोकः, सर्वाणि च भूतानि संदृब्धानि भवन्ति। (बृहदारण्यक उपनिषद्, ३/७/२)
= गौतम ही वायु है, यह योग करने वाला सूत्र है। इस वायु रूपी सूत्र से यह लोक तथा वह लोक जुड़े हैं तथा सभी परस्पर सम्बन्धित हैं।
(ग) वेदात्मा (अन्य वस्तुओं का ज्ञान)-
स एव नित्यकू टस्थः, स एव वेदपुरुष इति विदुषो मन्यन्ते। (परमहंसोपनिषद्, १)
=(सभी भूतों में) जो नित्य कू टस्थ (अदृश्य परिचय) है, वह वेद पुरुष है।
(घ) चिदात्मा (हर कोष में विद्यमान)-
अनुज्ञैकरसो ह्यमात्मा चिद्रूप एव। (नृसिंह उत्तरतापिनी उपनिषद्, २)
= जो आत्मा एक ही रूप में रहती है, वह सभी चित् में वर्तमान् है।
४. महान् आत्मा-४ प्रकार का-
स वा एष महानज आत्म, योऽयं विज्ञनमयः, प्राणेषु य एषोऽन्तर्हृदय आकाशस्तस्मिञ्छेते, सर्वस्य वशी, सर्वस्येशानः, सर्वस्याधिपतिः। स न साधुन कर्म्मणा भूयान्,
नो एवा साधुना कनीयान्। एष सर्वेश्वरः, एष भूताधिपतिः, एष भूतपालः, एष सेतुर्विधरण एषां लोकानामसम्भेदाय। (बृहदारण्यक उपनिषद्, ४/४/२२)
= यह जो महान् से उत्पन्न आत्म है, वह विज्ञनमय है। वह प्राणों (ऊर्जा) में है तथा अन्तर्हृदय के आकाश में सोता है। वह सबको वस में करने वाला, ईशान (उन्हें
चलाने वाला) है तथा सभी का अधिपति (आधार रूप) है। वह सत्कर्मों से बड़ा नहीं होता न असाधु कर्मों से छोटा होता है। वह सबका ईश्वर, भूतों का अधिपति,
भूतों का पालनकर्त्त है। वह संसार के सभी वस्तुओं के बीच का सेतु (सम्बन्ध) तथा आधार है तथा सभी लोकों (विश्व तथा व्यक्ति) को एक साथ रखता है।
(क) आकृ ति आत्मा (आकार)-
यत् त्वा देव प्रपिबन्ति तत आ प्यायसे पुनः।
वायुः सोमस्य रक्षिता समानां मास आकृ तिः॥ (ऋक् , १०/८५/५)
= तुझ देव को लोग बार बार पीते हैं तथा उसकी प्यास बुझाते हो। वायु सोम का रक्षण करती है तथा उससे आकृ ति की माप तथा आकार बनाती है।
(ख) प्रकृ ति आत्मा-पदार्थ तत्त्व तथा उनके गुण-
मायां तु प्रकृ तिं विद्यान् मायिनं तु महेश्वरम्।
तस्यवयव भूतैस्तु व्याप्तं सर्वमिदं जगत्॥ (श्वेताश्वतर उपनिषद्, ४/१०)
= माया को प्रकृ ति समझो तथा मायी (उसके नियन्ता) को महेश्वर। उसी के अवयवों से सभी भूत तथा जगत् व्याप्त है।
(ग) अहङ्कृ ति आत्मा- अलग व्यक्तित्व-
अङु ष्ठमात्रो रवितुल्य रूपः सङ्कल्पाहङ्कार समन्वितो यः।
बुद्धेर्गुणेनात्मगुणेन चैव आराग्र मात्रोऽप्यपरोऽपि दृष्टः॥ (श्वेताश्वतर उपनिषद्, ५/८)
= यह (आत्मा) अङ्गुष्ठ आकार की तथा सूर्य के समान प्रकाशमान है। उसमें सङ्कल्प (क्रियात्मक इच्छा) तथा अहङ्कार (अलग व्यक्ति का बोध) है। वह (जीव) सूई
की नोक के समान है तथा साधक उसका अनुभव बुद्धि तथा आत्मगुण द्वारा करते हैं।
(घ) यज्ञात्मा-उत्पादक रूप-
एष ह वै यजमानस्यामुष्मिँल्लोकऽऽआत्मा भवति, यद् यज्ञः। स ह सर्व तनूरेव यजमानोऽमुष्मिँल्लोके सम्भवति, स एव विद्वान् निष्क्रीत्या यजते।
= यह यज्ञ (उत्पादन) करने वाले की आत्मा है। यह सभी शरीरों में है। विद्वान् इसी के द्वारा यज्ञ करते हैं।
५. विज्ञान आत्मा-यह सौर मण्डल की प्रतिमा है तथा इसके २ रूप हैं।
विज्ञानत्मा सह देवैश्च सर्वे प्राणा भूतानि सम्प्रतिष्ठन्ति यत्र।
तदक्षरं वेदयते यस्तु सोम्य! स सर्वज्ञः सर्वमेवाविवेश॥ (प्रश्नोपनिषद्, ४/११)
= विज्ञानात्मा में सभी देव, प्राण, तथा भूत प्रतिष्ठित रहते हैं। उस अक्षर को जानने वाला सर्वज्ञ है तथा सर्व (ब्रह्म, अल्लाह या अलं = all) में प्रवेश करता है।
(क) विज्ञान आत्मा (बुद्धि)
एव हि द्रष्टा, स्प्रष्टा, श्रोता, घ्राता, रसयिता, मन्ता, योद्धा, कर्त्ता, विज्ञानात्मा पुरुषः। स परेऽक्षरे आत्मनि सम्प्रतिष्ठते। (प्रश्नोपनिषद्, ४/९)
= वह आत्मा द्रष्टा, श्रोता, घ्राता (सूंघने वाला), रसयिता (रस का स्वाद लेने वाला), मन्ता (विचारने वाला), योद्धा, कर्त्ता है-वही विज्ञानात्मा पुरुष है।
(ख) दैवत्मा (ऊर्जा, जिसका मूल स्रोत सूर्य है)-
दैवो वाऽअस्यैष आत्मा, मानुषोऽयम्। स अन्न न्यञ्ज्यात्, न हैतं दैवात्मानं प्रीणीयात्। अथ यन्न्यनक्ति, तथो हैतं दैवात्मनं प्रीणाति। (शतपथ ब्राह्मण, ६/६/४/५)
= मनुष्य की यह आत्मा दैव है। जो इसे अनुभव नहीं करते, वे दैवात्मा द्वारा प्रसन्न नहीं होते। जो इसके साथ चलते हैं, दैव उन्हें प्रसन्न रखता है।
६. प्रज्ञान आत्मा-(मन)-
यत् प्रज्ञानमुत चेतो धृतिश्च यज्ज्योतिरमृतं प्रजासु।
यस्मान्न ऋते किञ्चन कर्म क्रियते तन्मे मनः शिव सङ्कल्पमस्तु॥ (वाज. यजु. ३४/३)
= जो प्रज्ञान आत्मा है वह चेतना (चिति या व्यवस्था करने में सक्षम), धृति (सूचना धारण या स्मरण शक्ति) है, प्रजा (लोगों) की अमृत ज्योति (अक्षय शक्ति) है।
इसके बिना कोई भी काम नहीं हो सकता। ऐसा मेरा मन सदा शिव सङ्कल्प से युक्त हो।
यदेतत् हृदयं मनश्चैतत् संज्ञानमाज्ञानं विज्ञानं प्रज्ञानं मेधा दृ(इ)ष्टिर्धृति-मतिर्मनीषा जूतिः स्मृतिः सङ्कल्पः क्रतुरसुः कामो वश-इति सर्वाण्येवैतानि प्रज्ञानस्य
नामधेयानि भवन्ति। सर्वं तत् प्रज्ञा नेत्रं, प्रज्ञाने प्रतिष्ठितं प्रज्ञानं ब्रह्म। (ऐतरेय उपनिषद्, ३/१/२)
= यह हृदय मन भी है। इसमें संज्ञान (बाहर की सूचना ग्रहण), आज्ञान (सङ्कलन), विज्ञान (तार्कि क निष्कर्ष), प्रज्ञान (ज्ञान में वृद्धि), मेधा (सोचने की शक्ति),
दृष्टि (देखना) या इष्टि (उपयोगी वस्तु का ज्ञान), धृति (स्मरण शक्ति), मति (सत् असत् विवेक), मनीषा (चिन्तन), जूति (मन की गति), स्मृति (अनुभव),
सङ्कल्प (कार्य की योजना), क्रतु (कार्य का आरम्भ), मानसिक शक्ति, काम वासना-ये सभी प्रज्ञान के ही नाम से जाने जाते हैं। ये सभी प्रज्ञा रूपी नेत्र हैं, प्रज्ञान में
प्रतिष्ठित प्रज्ञान ब्रह्म है।
७ भूतात्मा-पृथ्वी से निर्मित। ५ प्रकार का-
अथान्यत्राप्युक्तं -संमोहो, भ्रमं, विषादो, निद्रा, तन्द्रा, व्रणो, जरा, शोकः, क्षुत्, पिपासा, कार्पण्यं, क्रोधो, नास्तिक्यं, अज्ञानं, मात्सर्यं, वैकारुण्यं, मूढत्वं, निव्रीडत्वं,
निकृ तत्त्वं, उद्धतत्वं, असमत्वं, इति तामसान्वितः-तृष्णा, स्नेहो, रागो, लोभो, हिंसा, रतिः,द्ष्टिव्यापृतत्वं, ईर्ष्या, कामं, अवस्थितत्त्वं, चञ्चलत्वं, जिहीर्षा,
अर्थोपार्जनं, मित्रानुग्रहणं, परिग्रहावलम्बो, ऽनिष्टेषु-इन्द्रियार्थेषु द्विष्टि, रिष्टेव-भिषङ्ग-इति राजसान्वितैः परिपूर्णः, एतैरभिभूतः, इत्ययं भूतात्मा। तस्मान्नाना
रूपाण्याप्नोति। (मैत्रायणी उपनिषद्, ३/५)
= इस भूतात्मा के विषय में अन्यत्र भी कहा गया है। इसके रूप हैं-संमोह, भय, विषाद, निद्रा, तन्द्रा (आलस्य), व्रण (घाव), जरा (बुढ़ापा), शोक, क्षुत् (भूख),
पिपासा (प्यास), कार्पण्य (कं जूसी), क्रोध, नास्तिक्य (विश्व के एकत्व में अविश्वास), अज्ञान, मात्सर्य (दूसरे की बुराई), वैकारुण्य (दीनता, गरीबी), निकृ तत्व
(अकर्मण्यता), उद्धतत्व (रोब दाब), असमत्व (भेद भाव)-ये सभी तामसिक तत्त्व हैं। तृष्णा (इच्छा), स्नेह (प्रेम), राग (क्रोध), लोभ, हिंसा, रति (लगाव),
दृष्टिव्यापृतत्व (जो दीखे उसे पाने की इच्छा), ईर्ष्या (दूसरे की उन्नति से दुःखी), जिहीर्षा (हत्या की इच्छा), अर्थोपार्जन (धन कमाना), मित्रानुग्रहण (मित्र की
सहायता), परिग्रहावलम्ब (भीख से गुजारा), इन्द्रियों के अनिष्ट से भय, भले फल की आशा-ये सभी राजस गुणों के परिणाम हैं। इनसे अभिभूत (युक्त) हो कर
भूतात्मा कई रूप लेत है।
(क) प्राज्ञ आत्मा (अनुभव)-वातावरण का ज्ञान-
सुषुप्तः स्थानः, एकीभूतः, प्रज्ञानघन एवानन्दमयो ह्यानन्दभुक् -चेतोमुखः, प्राज्ञस्तृतीयः पादः (माण्डू क्योपनिषद्, ४)
= यह सुप्त अवस्था जैसा है, एक रूप है, प्रज्ञान से भर है, आनन्दमय है तथा आनन्द का उपभोग करता है, चेतना का आरम्भ है-यह प्राज्ञ तृतीय पाद है।
(ख) तैजस आत्मा-पृथ्वी के वातावरण की प्रतिमा, उसका तेज-
स्वप्नस्थानोऽनन्तःप्रज्ञः सप्ताङ्ग एकोनविंशतिमुखः प्रविविक्तभुक् -तैजसो द्वितीय पादः। (माण्डू क्योपनिषद्, ४)
= यह स्वप्न अवस्था जैसा है, अन्तः चेतना है, ७ अङ्ग हैं, १९ मुख (स्रोत) हैं, वस्तुओं में प्रविष्ट हो कर भोग करता है-यह तैजस द्वितीय पाद है।
(ग) वैश्वानर-पृथ्वी की महिमा (प्रभाव क्षेत्र) की प्रतिमा, नर रूप में विश्व-
जागरितस्थानो बहिः प्रज्ञः सप्ताङ्गः एकोनविंशतिमुखः स्थूलभुक् -वैश्वानरः प्रथमः पादः। (माण्डू क्योपनिषद्, ३)
= यह जाग्रत अवस्था, बाहरी चेतना, ७ अङ्ग का, १९ मुख का, स्थूल का भोग करने वाला-वैश्वानर प्रथम पाद है।
(घ) हंसात्मा (शरीर के बाहर हंस जैसा विचरण)-पृथ्वी के वायुमण्डल की प्रतिमा-
नवद्वारे पुरे देही हंसो लेलायते बहिः। वशी सर्वस्य लोकस्य स्थावरस्य चरस्य च॥ (श्वेताश्वतर उपनिषद्, ३/१८)
= ९ द्वारों के देह का मालिक हंस है, जो बाहर घूमता है। यह स्थिर तथा चलने वाले सभी का नियन्त्रण करता है।
(ङ) भूतात्मा-(स्थूल शरीर)-पृथ्वी के पदार्थों का सङ्कलन-
आत्मा वै तनूः। (शतपथ ब्राह्मण, ६/७/२/६)
तस्मादितर आत्मा मे-द्यति च, कृ श्यति च। (ताण्ड्य महाब्राह्मण, ५/१७)
= यह शरीर ही मेरी आत्मा है; यह मोटा या दुबला होता है।
तत् सर्व आत्मा (शरीरं) वाचमप्येति, वाङ्मयो भवति। कौषीतकि ब्राह्मण, २/७)
= वह सभी आत्मा (शरीर) वाक् द्वारा पुष्ट होता है, तथा वाक् रूप है।
सामान्यतः आत्महनः का अर्थ यहां होगा निम्न विचार या चरित्र द्वारा मन बुद्धि का हनन।
श्रीमद्भागवत पुराण में २ बार आत्महत्या का उल्लेख है-पहले (१०/१/४) में फिर ११/२०/१६) में राजा परीक्षित कहते हैं-सांसारिक तृष्णा से रहित महानुभावों द्वारा
भगवान् के समीप रह कर गाये जाते हुए, संसार रोग की औषधि रूप श्रवण और मन को आनन्द देने वाले गुणानुवाद से वही विरत होगा जो आत्महत्यारा है।
निवृत्ततर्षैरुपगीयमानाद्, भवौषधाच्छ्रोत्रमनोऽभिरामात्।
क उत्तमश्लोकगुणानुवादात्, पुमान्विरज्येत विना पशुघ्नात्॥ (भागवत, १०/१/४)
यहां पशु = अपना जीव या शरीर।
नृदेहमाद्यं सुलभं सुदुर्लभं, प्लवं सुकल्पं गुरु कर्णधारम्।
मयानुकू लेन नभस्वतेरितं, पुमान् भवाब्धिं न तरेत् स आत्महा॥ (श्रीमद्भागवत, ११/२०/१७)
तुलसीदास जी ने प्रायः इसका अनुवाद कर दिया है-
ते जड़ जीव निजातम घाती। जिन्हहिं न रघुपति कथा सोहाती॥
(रामचरितमानस, ७/५३/६)
नर तनु भववारिधि कहँ बेरो। सन्मुख मरुत अनुग्रह मेरो॥
कर्णधार सद्गुरु दृढ़ नावा। दुर्लभ साज सुलभ करि पावा॥
जे न तरहिं भवसागर, नर समाज अस पाय।
ते कृ त निन्दक मन्दमति, आत्माहन गति जाय॥ (रामचरितमानस, ४/४४/७-८)
५. प्रेत्य गति-प्र + इतः = यहां से (इस शरीर से) जो चला गया वह प्रेत है। इसमें दो मत हैं-एक कहता है कि आत्मा यहीं रह जाती है। दूसरा कहता है कि वह
बाहर जाता है।
येयं प्रेते विचिकित्सा मनुष्यऽअस्तीत्येके , नायमस्तीति चैके (कठोपनिषद्, १/२०)
जाने के विषय के कु छ मत हैं-
भूतेषु भूतेषु विचित्यधीराः प्रेत्यास्माल्लोकादमृता भवन्ति। (के नोपनिषद्, २/५)
अथ खलु क्रतुमयः पुरुषः यथा क्रतुरस्मिंल्लोके पुरुषो भवति, तथेतः प्रेत्यः भवति। (छान्दोग्य उपनिषद्, ३/१४/१)
एष म आत्माऽनन्तर्हृदये एतद् ब्रह्म एतमितः प्रेत्यभि सम्भवितास्मि, इति-यस्यस्यादद्धा, न विचिकित्सास्ति इति ह स्माह शाण्डिल्यः। (छान्दोग्य उपनिषद्,
३/१४/४)
आत्मा नहीं जाने के मत-
यथा सैन्धवखिल्य उदके प्रास्त उदकमेवानुविलीयते, न हास्योद्ग्रहणयेवास्यात्। यतो यतस्त्वाददीत, लवणमेव। एवं वा अरे इदं महद्भूतमनन्तमपारं विज्ञानघन एव
एतेभ्यो भूतेभ्यः समुत्थाय तान्येवाऽनुविनश्यति न प्रेत्य संज्ञास्ति। (बृहदारण्यक उपनिषद्, २/४/१२)
वायुर्वै गौतम तत् सूत्रम्। वायुना वै गौतम सूत्रेणायं च लोकः, परश्च लोकः, सर्वाणि च भूतानि संदृब्धानि भवन्ति तस्माद्वै गौतम पुरुषं प्रेतमाहुः-व्यस्रंषितास्याङ्गानि,
इति। वायुना हि गौतम सूत्रेण संदृब्धानि भवन्ति। (बृहदारण्यक उपनिषद्, ३/७/२)
ये भिन्न विचार विरोध में नहीं हैं। कई प्रकार की आत्मा के कारण भ्रम होता है। हर आत्मा की अलग अलग गति होती है।
भौतिक शरीर मृत्यु के बाद अपने मूल स्रोत में मिल जाता है जिसे पञ्चत्व में मिलना कहते हैं। ५ महाभूतों-भूमि, जल, वायु, अग्नि और आकाश तत्त्वों से शरीर बना
था। क्रिया बन्द होने पर उसी में मिल जाता है। पार्थिव शरीर पृथ्वी में मिल जाता है। इसका पुनर्जन्म नहीं होता।
महान् तथा प्रज्ञान आत्मा एक साथ चन्द्रमा तक पहुंचते हैं। ये चन्द्रमा की १ परिक्रमा में १ पद जाते हैं। १३ परिक्रमा या १२ चान्द्रमास में चन्द्रमा तक पहुंचते हैं। यह
प्रेत शरीर है जो चान्द्र मण्डल के विरल पदार्थ से बना है। पार्थिव शरीर चन्द्र की १० परिक्रमा (२७३ दिन) में बनता है, चान्द्र प्रेत शरीर पृथ्वी के १० घूर्णन अर्थात्
१० दिन में बनता है। पुरुष विश्व की प्रतिमा है। विश्व भी १० चक्र या दिन में बनता है, जिसे सृष्टि का १० सर्ग ( १ अव्यक्त + ९ व्यक्त) कहा गया है।
हंसात्मा स्वप्न या ध्यान में शरीर से निकल कर बाहर घूमता है। चित्त के परकाया प्रवेश में यह अन्य शरीर में भी प्रवेश करता है। मरने के बाद किसी व्यक्ति या स्थान
के प्रति दृढ़ आसक्ति के कारण हंसात्मा वहां भी जाता है।
महान् आत्मा का पूर्व तथा बाद की पीढ़ियों से लेन देन का सम्बन्ध है। भौतिक पिण्ड का अंश ७वीं पीढ़ी तक जाता है। अतः ७ पीढ़ी तक सम्बन्ध होने पर विवाह
वर्जित है या ७ पीढ़ी तक श्राद्ध किया जाता है। आधुनिक जीव विज्ञान में मनुष्य के ४६ क्रोमोजोम माने गये हैं, जो माता-पिता से आधा-आधा मिलते हैं। प्रति पीढ़ी
का योगदान क्रमशः आधा होता है। भौतिक शरीर के अतिरिक्त वेद में २ अन्य स्रोत माने गये हैं-इन तीनों (क्रोमोजोम मिलाकर) को सह कहा गया है। गर्भ में
चन्द्रमा२८ नक्षत्रों के २८ सह देता है। यह जन्म काल की परिस्थिति का योगदान है। स्वयं के पूर्व जन्म के संस्कार के १० सह होते हैं। पूर्व जन्म की प्रवृत्ति के कारण
माता-पिता का चुनाव होता है, तथा उनके द्वारा परिस्थिति बनती है। अतः सभी आनुवंशिक हैं। इस प्रकार ४६ + २८ + १० = ८४ सह मनुष्य का निर्माण करते
हैं। प्रति पीढ़ी में इनका आधा विभाजन होने से ७वीं पीढ़ी तक पूर्ण सह जा सकते हैं-४२, २१, १०, ५, २, १। के वल क्रोमोजोम मानने पर भी ७वीं पीढ़ी तक
विभाजन होता है-२३, १२, ६, ३, २, १। स्थूल तत्त्वों के अतिरिक्त सूक्ष्म तत्त्वों का अधिक विभाजन सम्भव है। स्थूल तत्त्व पिण्ड ७ पीढ़ी तक जाते हैं, उदक्
(जल जैसा) १४ पीढ़ी तक जात है, ऋषि (अदृश्य रस्सी) २१ पीढ़ी तक जाता है।
महान् आत्मा भाग चन्द्र के बाहरी भाग से सूर्य किरणों (गौ) के दबाव से शनि ग्रह तक जाता है, जिसके वलय के ३ भागों को पीलुमती, उदन्वती, प्रद्यौ कहा गया है।
इसका प्रकाश भाग धर्म तथा अन्धकार भाग यम है।
महान् आत्मा के साथ यज्ञात्मा का जो भाग है, वह सौर मण्डल को पार कर आकाश-गङ्गा तक जाता है। इसके लिये गया श्राद्ध किया जाता है। सौर मण्डल से बाहर
प्राण की गति को गय कहा गया है अतः सूर्य गति की उत्तरी सीमा पर स्थित स्थान को भी गया कहते हैं। आकाश गङ्गा में आत्मा १ कल्प तक रहती है। उसके बाद
सब कु छ समान है, किसी अलग व्यक्ति का अस्तित्त्व नहीं है।
अध्याय ६- ईशावास्योपनिषद्, मन्त्र ४-
अनेजदेकं मनसो जवीयो नैनद्देवा आप्नुवन् पूर्वमर्षत्।
तद्धावतोऽन्यानत्येति तिष्ठत्तस्मिन्नपो मातरिश्वा दधाति॥४॥
अर्थ-(एकं ) वह ब्रह्म उपमा रहित है, (अनेजत्), वह कम्पित नहीं होता, (मनसः जवीयः) वह मन से भी अधिक गति का है, (पूर्वम् अर्षत्) पहले से जानते हैं या
उत्पन्न हैं (एनत् देवाः न आप्नुवन्) इस ब्रह्म को देवता भी नहीं पा सके , (तिष्ठत् धावतः अन्यान् अत्येति) वह स्थिर हो कर भी दौड़ने वाले अन्य लोगों से आगे
निकल जाता है। (तस्मिन्) साक्षी रूप उस ब्रह्म की सत्ता से ही, (मातरिश्वा) वायु देव, (अपः दधाति) जल को या जल द्वारा धारण करते हैं।
सन्देह-(१) अकम्पित ब्रह्म
(२) मनोजव
(३) देव से परे।
(४) देव तथा ब्रह्म गति।
(५) मातरिश्वा वायु द्वारा अप् में सृष्टि।
व्याख्या-
(१) अकम्पित ब्रह्म- ब्रह्म के कई रूप हैं। परात्पर ब्रह्म सदा एक ही जैसा रहता है। इस अर्थ में कहते हैं कि उसमें कम्पन नहीं होता।
अनेजत् में मूल धातु है-एज् कम्पने (पाणिनीय धातु पाठ, १/१४३)-कांपना, थरथराना। कम्पन से बदलता भी है जिससे अंग्रेजी में एज (आयु) हुआ है जो सदा
बढ़ता रहता है। परब्रह्म सदा एक ही जैसा रहता है, इस अर्थ में उसे बाल-गोपाल भी कहते हैं, जैसा आरम्भ में था वैसा सदा रहता है। उसे ब्रह्मा ने भगवान् कृ ष्ण् की
स्तुति में ३ सत्य या ७ सत्य कहा है-
सत्यव्रतं सत्यपरं त्रिसत्यं सत्यस्य योनिं निहितं च सत्ये।
सत्यस्य सत्यं ऋतसत्यनेत्रं सत्यात्मकं त्वां शरणं प्रपद्ये। (भागवत पुराण १०/२/२६)
त्रिसत्य का एक अर्थ है कि ब्रह्म हर स्थान, हर समय, हर दिशा में एक जैसा है। सभी २२ प्रकार के आधुनिक सृष्टि विज्ञान के सिद्धान्त इसी मान्यता पर आधारित हैं
जिसे पूर्ण सृष्टि सिद्धान्त कहते हैं (PCP = Perfect Cosmological Principle)। अन्य अर्थ हैं कि नाम-रूप-गुण में समानता, या त्रिविध प्रमाणों के
आधार आदि। अतः पूर्ण विश्व को सत्य लोक कहते हैं।
आकाश में ३ धाम (पूर्ण जगत्, ब्रह्माण्ड, सौर मण्डल) हैं। इनमें ३-३ विभाजन से ७ लोक हैं-बीच के २-२ समान हैं। या आकाश, पृथ्वी, मनुष्य शरीर- इन तीनों
स्थानों में ७-७ लोक हैं।
अन्य स्थानों पर भी ३ और ७ सत्य कहे हैं- सप्तास्यासन् परिधयस्त्रिः सप्त समिधः कृ ताः। (पुरुष सूक्त, यजुर्वेद ३१/१५)
ये त्रिषप्ताः परियन्ति विश्वा रूपाणि बिभ्रतः॥१॥ (अथर्व, शौनक संहिता)
ब्रह्म को कई स्थानों पर सत्य कहा है-सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म (तैत्तिरीय उपनिषद्, २/१/१)
तद् यत् सत्यम्। त्रयी सा विद्या। (शतपथ ब्राह्मण, ९/५/१/१८)
तदेतत् त्र्यक्षरं सत्यमिति... प्रथमोत्तमे अक्षरे सत्यं मध्यतो ऽनृतम्। (शतपथ ब्राह्मण, १४/८/६/२, बृहदारण्यक उपनिषद्, ५/५/१)
तद्वै तदेतदेव तदास सत्यमेव स यो हैतं मघद्यक्षं प्रथमजं वेद सत्यं ब्रह्मेति। (बृहदारण्यक उपनिषद्, ५/४/१)
एजति का एक और अर्थ है-प्रकाशित होना-एजृ दीप्तौ (धातु पाठ १/१०९)। अनेजत् = अप्रकाशित, सबके भीतर छिपा हुआ।
कम्पन अर्थ में एक और शब्द है, थर्व = थरथराना। इस का मूल है-थुर्वी हिंसार्थः (धातुपाठ, १/३८२)। अथर्व = स्थिर, गतिशून्य, ब्रह्म। अतः ब्रह्म वेद को अथर्व
वेद कहते हैं जिसका आरम्भ त्रि-सप्त से हुआ है। वेद में भी इस अर्थ में अथर्व का प्रयोग है। निरुक्त (११/१९) में अथर्वाणोऽथनवन्तः (गतिहीन)। थर्वतिः चरति
कर्मा। तत् प्रतिषेधः (चलने का अभाव)
अङ्गिरसो नः पितरो नवग्वा अथर्वाणो भृगवः सोम्यासः। (ऋक् , १०/१४/६, अथर्व, १८/१/५८)
स्थिर सोम (जल का विस्तार) में भृगु (आकर्षण करने वाले) अथर्वण हैं। नवग्ग्वा-नव गति वाले अङ्गिरस (गति का आरम्भ) पितर हैं (अन्य को जन्म देने वाले)।
आधुनिक विज्ञान में मस्तिष्क की क्रियाओं को मन कहा गया है। यह परिभाषा बृहदारण्यक उपनिषद् में है-त्रीण्यात्मनेऽकु रुतेति मनो वाचं प्राणं तान्यात्मनेऽकु रुतान्यत्र
मना अभूवं नादर्श मन्यत्रमना अभूवं नाश्रौषमिति मनसा ह्येव पश्यति मनसा शृणोति। कामः सङ्कल्पो विचिकित्सा श्रद्धाऽश्रद्धा धृतिऽधृति र्हीर्धीर्भीरिति एतत्सर्वं मन एव
तस्मादपि पृष्ठत उपस्पृष्टो मनसा विजानाति सः कश्च शब्दो वागेव सैषा ह्यन्तमात्तैषाहि न प्राणोऽपानो व्यान उदानः समानोऽन इत्येतत्सर्वं प्राण एवैतन्मयो वा
अयमात्मा वाङ्मयो मनोमयः प्राणमयः॥ (१/५/३)
(२) मनोजव-वेद में ४ प्रकार की आन्तरिक क्रियाओं में इसे एक माना गया है।
अन्तःकरण चतुष्टय हैं-मन बुद्धि, अहङ्कार, चित्त।
मन-यह मस्तिष्क के आकाश में अनियमित स्पन्दन है जो अनन्त है।
बुद्धि-विचारों का क्रमबद्ध रूप बुद्धि है जिसे शब्द या वाक्य में प्रकट किया जा सकता है।
अहङ्कार-सभी कणों का एक व्यक्ति के रूप में अनुभव।
चित्-मन बुद्धि, अहङ्कार का स्थान। शून्य से बृहत् आकाश तक चित्त है।
मनोबुद्धिरहङ्कारश्चित्तमित्यन्तःकरणचतुष्टयम्। (शारीरकोपनिषद् २)
मनोबुद्धिरहङ्कारश्चित्त चेति चतुष्टयम्। (वराहोपनिषद् १/४)
मनोबुद्ध्योश्चित्ताहङ्कारौ चान्तर्भूतौ।(त्रिशिखब्राह्मणोपनिषद् १/४)
मनः सम्पद्यते लोलं कलनाऽऽकलनोन्मुखम्।कलयन्ती मनःशक्तिरादौ भावयतिक्षणात्॥ (महोपनिषद्, ५/१४६)
बुद्धयो वै धियस्ता योऽस्माकं प्रचोदयादित्याहुर्मनीषिणः। (मैत्रायणी उपनिषद् ६/७)
व्यवसायात्मिका बुद्धिरेके ह कु रुनन्दन। बहुशाखा ह्यनन्ताश्च बुद्धयोऽव्यवसायिनाम्॥ (गीता, २/४१)
अपरिमिततरमिव हि मनः परिमिततरमेव हि वाक् । (शतपथ ब्राह्मण १/४/४/७)
अव्यक्त स्पन्दन या मन परा वाक् है। विचार रूप में इसका दर्शन या अनुभव पश्यन्ती है। भाषा के शब्दों में अनुभव पश्यन्ती वाक् है। लिख कर या कह कर वाक्य रूप
में प्रकट करना वैखरी बुद्धि रूप है।
चत्वारि वाक् परिमिता पदानि तानि विदुर्ब्राह्मणा ये मनीषिणः।
गुहा त्रीणि निहिता नेङ्गयन्ति तुरीयं वाचो मनुष्या वदन्ति॥ (ऋग्वेद १/१६४/४५)
परायामङ्कु रीभूय पश्यन्त्यां द्विदलीकृ ता॥१८॥
मध्यमायां मुकु लिता वैखर्या विकसीकृ ता॥ (योगकु ण्डली उपनिषद् ३/१८, १९)
शून्य आकाश चित् है। अनेक चित् का क्रम से संयोग चिति (रूप, आकृ ति) है। जो चिति कर सके वह चेतना है। चेतना का स्थान चित्त है।
यच्चेतयमाना अपश्यंस्तस्माच्चितयः। (शतपथ ब्राह्मण ६/२/२/९)
तद्यत् पञ्च चितीश्चिनोत्येताभिरेवैनं तत्तनूभिश्चिनोति यच्चिनोति तस्माच्चितयः। (शतपथ ब्राह्मण ६/१/२/१७)
चेतव्यो ह्यासीत्तस्माच्चित्यः। (शतपथ ब्राह्मण ६/१/२/१६)
बुद्ध्या बुध्यति, चित्तेन चेतयत्यहङ्कारेणाहङ्करोति (नारद परिव्राजक उपनिषद् ६/४)
प्रजापतिर्वै चित्पतिः। (शतपथ ब्राह्मण ३/१/३/२२) चेतव्यो ह्यासीत्तस्माच्चित्यः।(शतपथ ब्राह्मण ६/१/२/१६)
मन का आरम्भ कहां से हुआ। जब कोई सृष्टि नहीं थी, के वल शून्य था तब भी मन था जिसने सृष्टि का सङ्कल्प किया। यह श्वोवसीयस (शून्य में बसने वाला) मन है।
दृश्य जगत् में शून्य कें के वल इन्द्र (तेज, या विकिरण) है, अतः के वल इन्द्र प्रसंग में श्वः शब्द का प्रयोग है (ऋक् , १/१२३/८, ६७१/६ आदि)। इन्द्र को शुनः
(शून्य में रहने वाला) या राजा रूप में शून्य सम्पत्ति का स्वामी है। खाली घर में कु त्ता घुस जाता है अतः उसे भी श्वान कहते हैं
उसके बाद दृश्य जगत् में १०० अरब ब्रह्माण्ड और हमारे ब्रह्माण्ड में १०० अरब तारा हुए। इनकी प्रतिमा रूप में मनुष्य मस्तिष्क में १०० अरब कण (कोषिका,
न्यूरोन) हैं। शतपथ ब्राह्मण में इसे काल माप के सम्बन्ध में समझाया है। सम्वत्सर (३६० दिन) में १०,८०० मुहूर्त्त हैं (दिन का ३० भाग = ४८ मिनट)। मुहूर्त्त को
७ बार १५-१५ से भाग देने पर १ सेकण्ड का प्रायः ७५,००० भाग होगा। १ संवत्सर में इनकी संख्या जितनी है, उतनी ही मनुष्य शरीर में कलिल (Cell) हैं
जिनसे लोम निकलते हैं। अतः इस काल मान को लोमगर्त्त कहा गया है। जितने लोम गर्त्त हैं उतने ही आकाश में नक्षत्र हैं।
एभ्यो लोमगर्त्तेभ्य ऊर्ध्वानि ज्योतींष्यान्। तद्यानि ज्योतींषिः एतानि तानि नक्षत्राणि। यावन्त्येतानिनक्षत्राणि तावन्तो लोमगर्त्ताः। (शतपथ ब्राह्मण- १०/४/४/२)
पुरुषो वै सम्वत्सरः। ।१॥ ..दश वै सहस्राण्याष्टौ च शतानि सम्वत्सरस्य मुहूर्त्ताः। यावन्तो मुहूर्त्तास्तावन्ति पञ्चदशकृ त्वः क्षिप्राणि। यावन्ति क्षिप्राणि, तावन्ति
पञ्चदशकृ त्वः एतर्हीणि। याबन्त्येतर्हीणि, तावन्ति पञ्चदशकृ त्व इदानीनि। यावन्तीदानीनि तावन्तः पञ्चदशकृ त्वः प्राणाः। यावन्तः प्राणाः, तावन्तोऽनाः। यावन्तोऽनाः
तावन्तो निमेषाः। यावन्तो निमेषाः तावन्तो लोमगर्त्ताः। यावन्तो लोमगर्त्ताः तावन्ति स्वेदायनानि। यावन्ति स्वेदायनानि, तावन्त एते स्तोका वर्षन्ति। (शतपथ ब्राह्मण
१२/३/२/१-५)
व्यक्त मन का आरम्भ ब्रह्माण्ड से आरम्भ है। अतः उसके अक्ष घूर्णन के समय को मन्वन्तर कहते हैं (प्रायः ३०.६८ कोटि वर्ष)। आधुनिक विज्ञान में इस की सटीक
माप नहीं हो पाई है। ब्रह्माण्ड के न्द्र की सूर्य द्वारा परिक्रमा काल २०-२५ कोटि वर्ष अनुमानित है। हमारे मन पर चन्द्र आकर्षण का सबसे अधिक प्रभाव पड़ता है।
उसी आकर्षण से पृथ्वी अक्ष भी शङ्कु आकार में २६,००० वर्ष में चक्र लगा रहा है। अतः इसे भी ऐतिहासिक म्मन्वन्तर कहा है-स्वायम्भुव मनु से कलियुग आरम्भ
तक का काल (ब्रह्माण्ड पुराण,१/२/२९/१९)।
हमारे मन का सम्बन्ध सूर्य के साथ प्रकाश की गति से है। व्यक्ति के हृदय से ब्रह्मरन्ध्र तक अणु पथ तथा वहां से सूर्य तक महापथ है। प्रकाश की गति से सूर्य तक
जा कर यह १ मुहूर्त्त में ३ बार लौट आता है (ऋक् ३/५३/८)। यह सुषुम्ना पथ है जिस पर चन्द्र और अन्य ग्रहों के प्रभाव से हमारा मन प्रभावित होता है
(बृहदारण्यक उपनिषद्, ४/४/८-९, छान्दोग्य उपनिषद्, ८/६/१-५, वाज. यजु. १५/१५-१९, १७/५८, १८/४०, कू र्म पुराण, ४१/२-८, मत्स्य पुराण,
१२८/२९-३३, ब्रह्माण्ड पुराण, २/२४/६५-७३ आदि)।
सौर मण्डल के बाहर के विश्व से हमारा सम्बन्ध मन की गति से है जो परिभाषित नहीं है, किन्तु यह प्रकाश गति से बहुत अधिक है, नहीं तो हमारे ऊपर कोई प्रभाव
जीवन काल में नहीं पहुंच सकता।
यज्ञ आत्मा का सम्बन्ध परमेष्ठी (ब्रह्माण्ड) से ऋत-सूत्र द्वारा है। इससे शरीर रचना (समान कण) तथा क्रियायें होती हैं। स्वयम्भू मण्डल से सत्य सूत्र से सम्बन्ध है,
जो आत्मा-परमात्मा का सम्बन्ध है।
आंख कान से देखने सुनने पर भी मनोजव नहीं हो सकता। इसके लिये सभी चञ्चल इन्द्रियों को हृदय में समाहित कर उसे ऋत्-सत्य सूत्रों द्वारा ब्रह्माण्ड से जोड़ना
है-
अक्षण्वन्तःकर्णवन्तःसखायो मनोजवेष्व समा बभूवुः।
आदध्नास उपकक्षास उत्वेह्रदा इव स्नात्वा उत्वे ददृशे॥ (ऋग्वेद १०/७१/७)
हृदा तष्टेषु मनसो जवेषु यद्ब्राह्मणाः संयजन्ते सखायः।
अत्राह त्वं विजहुर्वेद्याभिरोह ब्रह्माणो विचरन्तु त्वे॥ (ऋग्वेद १०/७१/८)
इस विधि का सारांश भागवत पुराण के गजेन्द्र मोक्ष में है। व्यवसित (निश्चयात्मिका) बुद्धि से मन को हृदय में स्थिर कर वासुदेव से सम्बन्ध जोड़ें-ॐ नमः
वासुदेवाय-परम मन्त्र द्वारा-
श्री शुक उवाच-एवं व्यवसितो बुद्ध्या समाधाय मनो हृदि। जजाप परमं जाप्यं प्राग्जन्मन्यनुशिक्षितम्।१।
गजेन्द्र उवाच-ॐ नमो भगवते तस्मै यत एतच्चिदात्मकम्। पुरुषायादि बीजाय परेशायाभि धीमहि।२। (भागवत पुराण ८/३)
सूत्र रूप में पतञ्जलि ने कहा है-ग्रहण स्वरूपास्मितान्वयार्थवत्व संयमादिन्द्रिय जयः। (योगसूत्र ३/४७)
ततो मनोजवित्वं विकरणभावः प्रधानजयश्च। (योगसूत्र, ३/४८)
ब्रह्म के हनुमान् रूप को स्रष्टा रूप में वृषा-कपि, गति रूप में मारुति, तथा ज्ञान रूप में मनोजव कहा गया है, जो गायत्री मन्त्र के ३ पाद हैं।
३. देव से परे-देवों की उत्पत्ति सृष्टि के बाद ही हुई। किन्तु ब्रह्म सृष्टि के पहले भी था और उसी के सङ्कल्प से सृष्टि आरम्भ हुई। अतः देवों को भी अपनी उत्पत्ति के
पहले विश्व कै सा था और ब्रह्म क्या है, इसका पता नहीं है।
यही नासदीय सूक्त में कहा है-
को अद्धा वेद क इह प्र वोचत् कु त अजाता कु त इयं विसृष्टिः।
अर्वाग् देवा अस्य विसर्जनेनाऽथा को वेद यत आबभूव॥ (ऋक् , १०/१२९/६, तैत्तिरीय ब्राह्मण, २/८/९/८)
= कौन मनुष्य जानता है और यहां कौन कहेगा कि यह सृष्टि (विसृष्टि = पुराण कथित प्रतिसर्ग) कहां से और कै से उत्पन्न हुयी? क्यों कि देव भी इस सृष्टि के बाद
ही उत्पन्न हुए। अतः यह सृष्टि कहां से हुयी इसे कौन जान सकता है?
संविदन्ति न यं वेदा विष्णुर्वेद न वा विधिः। यतो वाचो निवर्तन्ते अप्राप्य मनसा सह॥ (तैत्तिरीय उपनिषद्, २/४/९)
= उसे न वेद जानते हैं, न ब्रह्मा या विष्णु। वाक् भी वहां जा कर बिना उसे पाये लौट आती है।
न तस्य कार्यं करणं न विद्यते, न तत् समश्चाभ्यधिकश्च दृश्यते।
परास्य शक्तिर्विविधैव श्रूयते, स्वाभाविकी ज्ञान बल क्रिया च॥ (श्वेताश्वतर उपनिषद्, ६/८)
= उस (परब्रह्म) का न कोई कार्य है न करण (उपकरण, या कारण)। उसके समान कोई नहीं है, अधिक कहां से दीखेगा? उसकी शक्ति हमारी कल्पना से परे है।
उसका स्वभाव ३ रूपों में सुना जाता है-ज्ञान, बल, क्रिया।
लौकिक रूप में इस स्वभाव को जगन्नाथ (ज्ञान घन), बलभद्र (बल) सुभद्रा (क्रिया) कहते हैं। कई प्रकार के ३-३ भेद हैं-सत्-चित्-आनन्द, सत्-श्री-अकाल,
शंकर (शं+कं +रं ब्रह्म) आदि।
४. देव तथा ब्रह्म गति-देव के व्यक्त अव्यक्त कई रूप शरीर के भीतर, पृथ्वी पर तथा आकाश में हैं। शक्ति का क्रियात्मक रूप देव है; जिससे कोई निर्माण नहीं होता
वह असुर है। सौर मण्डल के ३३ क्षेत्रों (धाम) के प्राण ३३ देव हैं जिनको अग्नि (८ वसु), वायु (११ रुद्र), रवि (१२ आदित्य) तथा इनकी सन्धि के २ अश्विन हैं।
सौर मण्डल के बाहर विश्वेदेवा, वैराज देव आदि हैं। सौर मण्डल के धाम पृथ्वी से आरम्भ होते हैं तथा क्रमशः २-२ गुणा बड़े हैं। सूर्य के न्द्रित १ कोटि धाम हैं, सभी
की मोटाई समान है। दोनों को मिला कर ३३ कोटि देव होंगे। आकाश के क्षेत्रों के काल मान के अनुसार दो प्रकार के विभाजन होने से ३३३९ देव भी कहे गये हैं।
३३३९ तिथियों के बाद ग्रहण चक्र पुनः आरम्भ होता है (राहु परिक्रमा का अर्ध चक्र)।
त्रीणि शतानि त्री सहस्राण्यग्निं त्रिंशच्च देबा नव चा सपर्यन्। (ऋक् , ३/९/९, १०/५२/६, वाज्. सं. ३३/७, ब्रह्माण्ड पुराण, १/२३/६६-६९ आदि)
त्रया देवा एकादश त्रयस्त्रिंशाः सुराधसः। (वाज. सं. २०/११)
अष्टौ वसवः। एकादश रुद्रा द्वादशादित्या इमेऽ एव द्यावापृथिवी त्र्यस्त्रिंश्यौ त्रयस्त्रिंशद्वै देवाः प्रजापतिश्चतुर्विंशः। (शतपथ ब्राह्मण, ४/५/७/२)
महाभारत, अनुशासन पर्व, अध्याय १५०-
८ वसु-धरो ध्रुवश्च सोमश्च सावित्रोऽथानिलोऽनलः। प्रत्यूषश्च प्रभासश्च वसवोऽष्टौ प्रकीर्तिताः॥१६॥
(ध्रुवो धरश्च सोमश्च सावित्रश्चानलोऽनिलः। प्रत्यूषश्च प्रभासश्च वसवोऽष्टौ प्रकीर्तिताः॥-भविष्य पुराण, ब्राह्म पर्व, १२५/१०)
११ रुद्र-अजैकपादहिर्बुध्न्यः पिनाकी चापराजितः। ॠतश्च पितृरूपश्च त्र्यम्बकश्च महेश्वरः॥१२॥
वृषाकपिश्च शम्भुश्च हवनोऽथेश्वरस्तथा। एकादशैते प्रथिता रुद्रास्त्रिभुवनेश्वराः॥१३॥
१२ आदित्य-अंशो भगश्च मित्रश्च वरुणश्च जलेश्वरः॥१४॥
तथा धातार्यमा चैव जयन्तो भास्करस्तथा। त्वष्टा पूषा तथैवेन्द्रो द्वादशो विष्णुरुच्यते॥१५॥
इत्येते द्वादशादित्याः काश्यपेया इति श्रुतिः।
अश्विनी द्वय-नासत्यश्चापि दस्रश्च स्मृतौ द्वावश्विनावपि॥१७॥
मत्स्य पुराण, अध्याय ५-आपो ध्रुवश्च सोमश्च धरश्चैवानिलोऽनलः। प्रत्यूषश्च प्रभासश्च वसवोऽष्टौ प्रकीर्तिताः॥२१॥
अजैकपादहिर्बुध्न्यो विरूपाक्षोऽथ रैवतः। हरश्च बहुरूपश्च त्र्यम्बकश्च सुरेश्वरः॥२९॥
सावित्रश्च जयन्तश्च पिनाकी चापराजितः। एते रुद्राः समाख्याता एकादश गणेश्वराः॥३०॥
अध्याय ६-वैवस्वतेऽन्तरे चैते ह्यादित्या द्वादश स्मृताः॥३॥
इन्द्रो धाता भगस्त्वष्टा मित्रोऽथ वरुणो यमः। विवस्वान् सविता पूषा अंशुमान् विष्णुरेव च॥४॥
पृथ्वी के न्द्र से आरम्भ कर ३ धाम पृथ्वी सतह तक हैं। उसके बाद ३० धाम क्रमशः २-२ गुणा बड़े हैं।
८ अग्नि-अनल, अनिल, धर (धरा पृष्ठ), आप, ध्रुव, प्रत्यूष, प्रभास, सोम। नवम धाम का प्रथम अश्विन नासत्य चन्द्र कक्षा को पार करता है। यहां तक पृथ्वी का
आकर्षण क्षेत्र है।
११ रुद्र-पिनाकी, जयन्त, सावित्र, सुरेश्वर, त्र्यम्बक, बहुरूप, हर, रैवत, विरूपाक्ष, अहिर्बुध्न्य, अजैकपाद। इसके बाद २१वां धाम दस्र अश्विन है जो शनि कक्षा
को पार करता है। यहां तक वायु क्षेत्र है-सौर वायु यूरेनस तक है।
१२ आदित्य-इन्द्र, धाता (यहां तक नेपचून है जिनको सूर्य ने धारण किया है), भग, त्वष्टा, मित्र, वरुण, यम (यहां तक के पिण्ड सूर्य कक्षा में रह सकते हैं),
विवस्वान्, सविता, पूषा, अंशुमान्, विष्णु। यहां ३३ धाम (पृथ्वी के बाहर ३०) पूरे हुए जहां तक सूर्य का प्रकाश ब्रह्माण्ड से अधिक है।
ब्रह्माण्ड की सीमा तक ४९ मरुत् हैं जो पृथ्वी के न्द्र से आरम्भ होते है। सौर मण्डल के बाह्र ब्रह्माण्ड सीमा तक विश्वेदेव हैं। उसके बाहर वैराज देव है।
ये सभी प्राण रूप देव हैं। सभी पिण्डों में भी देव स्थित है।
ब्रह्म की विशेष गति-पिण्ड या प्राण रूप जो भी देव हैं, वे किसी स्थान मे सीमित हैं, अतः वे दूसरे स्थान पर जाने के लिये बीच का पूरा रास्ता तय करते हैं। किन्तु
ब्रह्म हर स्थान पर है। जहां जाना होता है, वहां तुरत प्रकट हो जाता है। बीच के रास्ते पर नहीं जाना पड़ता। ब्रह्म की गति अभि गमन है-हिन्दी के अनुसार अभी पहुंच
जाता है। बाकी की संसर्प गति है, सर्प की तरह रास्ते के हर विन्दु पर सरकते हुए जाता है। जैसे गजेन्द्र मोक्ष में ब्रहा आदि लिङ्ग (शरीर अभिमानी, शरीरया स्थान में
सीमित देवता) अभिमानी देवों की संसर्प गति लिखी है। ब्रह्म स्वतः प्रकट हो जाता है। प्रकट होने के लिये ७ अवयव युक्त सुपर्ण द्वारा रूप धारण करते हैं।
एवं गजेन्द्रमुपवर्णित निर्विशेषं ब्रह्मादयो विविध लिङ्गभिधाभिमानाः।
नैते यदोप ससृपुः निखिलात्मकत्वात्, तत्राऽखिलामरमयो हरिराविरासीत्॥
तङ् तद्वदार्त्तमुपलभ्य जगन्निवासः, स्तोत्रं निशम्य दिविजैः सह संस्तुवद्भिः।
छन्दोमयेन गरुडेन समुह्यमानः, चक्रायुधोऽभ्यगमदाशु यतो गजेन्द्रः॥ (भागवत पुराण, ८/३/३०-३१)
५. मातरिश्वा द्वारा सृष्टि और धारण-सृष्टि के लिये कई भिन्न वस्तुओं को मिला कर हिलाना पड़ता है। जैसे सब्जी बनाने के लिये सब्जी के छोटे टुकडों को तेल
मसाला आदि के साथ मिलाते है। इसके लिये सभी भागों को लाना और एक साथ रखना पड़ता है।फिर गर्म करते हैं (आन्तरिक आणविक गति)। ओड़िया में मिलाना
और गर्म करना-दोनों को पकाना कहते है। अतः २ बाह्य और एक आन्तरिक गति (वायु तत्त्व) द्वारा नये पदार्थ का जन्म होता है। वायु के इस क्रमबद्ध काम को
मातरिश्वा (माता समान उत्पन्न करने वाल कहते हैं। यह मिश्रण आदि काम अप् में होता है। अतः पहले अप् में मिश्रण को धारण करता है, फिर निर्मित वस्तुओं को
भी धारण करता है-गति द्वारा वे एक दूसरे से अलग रहते हैं नहीं तो गुरुत्वाकर्षण के कारण मिल जाते। ब्रह्म के निर्माता रूप को सुपर्ण कहा गया है, जिसके द्वारा वे
प्रकट भी होते हैं। सुपर्ण में १ सिर है, जो चेतन तत्त्व है। ४ चतुर्भुज आकार का शरीर है जो सृष्टि के ४ मूल बल क्षेत्र हैं-इनके कारण बाह्य और आन्तरिक गति होती
है। ये हैं गुरुत्व आकर्षण, विद्युत् चुम्बकीय बल, परमाणु की नाभि में २ प्रकार के बल-प्रबल आकर्षण, धीमा विकर्षण। २ पक्ष समरूपता हैं (देश काल की विभिन्न
दिशाओं में समान प्रभाव)। १ पुच्छ विषमता या निर्मित पदार्थ है।
शतपथ ब्राह्मण (६/१/१)-स योऽयं मध्येप्राणः-एष देवेन्द्रः। तानेष प्राणान् मध्यत इन्द्रियेणैन्ध। यदएन्द्ध तस्मादिन्धः। इन्धो हवै तमिन्द्र इत्याचक्षते॥२॥
तेऽब्रुवन्-न वा इत्थं सन्तः शक्ष्यामः प्रजनयितुम्, इमान् सप्त पुरुषान्। एकं पुरुषं करवाम इति। त एतान् सप्त पुरुषान् एकं पुरुषं अकु र्वन्। यद् ऊर्ध्वं नाभेः तौ द्वौ
समौब्जन्। यद् अवाङ् नाभेः तौ द्वौ। पक्षः पुरुषः, पक्षः पुरुषः, प्रतिष्ठा एक आसीत्॥३॥
अथ यैतेषां सप्तानां पुरुषाणां श्रीः। यो रस आसीत् तमूर्ध्वं समुदौहन्-तद् अस्य शिरो अभवत्। यत् श्रियं समुदौहन् तस्मात् शिरः। तस्मिन् एतस्मिन् प्राणा अश्रयन्त।
तस्माद् एव एतत् शिरः। अथ यत् प्राणा अश्रयन्त तस्मादु प्राणाः श्रियः। अथ यत् सर्वस्मिन् अश्रयन्त तस्मादु शरीरम्॥४॥
स एव पुरुषः प्रजापतिः अभवत्। स यः पुरुषः पुरुषः प्रजापतिः अभवत्-अयमेव सः-यो अयं अग्निः चीयते (चयन, एकत्र करना)॥५॥
स वै सप्त पुरुषो भवति। सप्त पुरुषो हि यं पुरुषः-यत् चत्वार आत्मा, त्रयः पक्ष पुच्छानि। चत्वारो हि तस्य पुरुषस्य आत्मा, त्रयः पक्ष पुच्छानि॥६॥
अन्य स्थानों में भी वर्णन है कि एक सुपर्ण (पक्ष युत या पक्षी) ने समुद्र (अप् का विस्तार) में प्रवेश किया। उसने मन से विचार कर पाक द्वारा (मिला कर, हिला कर
और गर्म कर) भूमि (सीमाबद्ध पिण्ड) उत्पन्न किया। उसने भूमि का पालन (रेळ्हि) किया, भूमि ने भी माता समान उसका पालन किया।
एकः सुपर्णः स समुद्रमाविवेश स इदं भुवनं वि चष्टे ।
तं पाके न मनसापश्यमन्तितस्तं, माता रेऴ्हि स उ रेऴ्हि मातरम् ॥ (ऋग् वेद १०/११४/४)
भौतिक रूप में भारत के समुद्र तट पर सबसे अधिक कृ षि भूमि आन्ध्र प्रदेश में है, अतः वहां के भूमिपति (कृ षक) को रेड्डी (रेळ्हि) कहते हैं। नौसेना मुख्य को भी
सुपर्ण (सुवन्ना) नायक कहते थे।
विष्णु के वीर्य (मातरिश्वा) द्वारा लोकों का धारण हुआ है-
द्यौः सचन्द्रार्क नक्षत्रा खं दिशो भूर्महोदधिः। वासुदेवस्य वीर्येण विधृतानि महात्मनः॥
(विष्णु सहस्रनाम, महाभारत, अनुशासन पर्व, १४९/१३४)
अध्याय ७-ईशावास्योपनिषद्, मन्त्र ५-
तदेजति तन्नैजति, तद्दूरे तद्वन्तिके । तदन्तर्स्य सर्वस्य, तदु सर्वस्यास्य बाह्यतः॥५॥
अर्थ-(तत्) वह परमात्मा (एजति) चलते हैं, (तत्) वह (न एजति) नहीं चलते, (तत्) वह (दूरे) बहुत दूर है, (तत् तु अन्तिके )। वह निश्चित ही निकट भी है।
(तत्) वे (अस्य सर्वस्य) इन सभी जीवों क् ए (अन्तः) भीतर भी हैं। (तत्) वे (उ) निश्चय ही (अस्य सर्वस्य) इन सभी जीवों के (बाह्यतः) बाहर भी रहते हैं।
व्याख्या-१. तत्-यह परब्रह्म के लिये प्रयुक्त होता है-
ॐ तत् सत् इति निर्देशः ब्रह्मणः त्रिविधः स्मृतः (गीता, १७/२३)
किं यत् तत् पदमनुत्तमम् (विष्णु सहस्रनाम, श्लोक ९१)
२. विपरीत ६ गुण-ब्रह्म में परस्पर विपरीत ६ गुण हैं-चलना-स्थिर, दूर-निकट, अन्तः-बाह्य हैं। यह सर्वव्यापी होने के कारन परमात्मा में ही हैं, किसी भी अन्य में
नहीं। परमात्मा में ६ ऐश्वर्य हैं जिनको भग कहते हैं, अतः उनको भगवान् कहते हैं-ऐश्वर्य, धर्म, यश, श्री, ज्ञान, वैराग्य-
ऐश्वर्यस्य समग्रस्य धर्मस्य यशसः श्रियः। ज्ञान वैराग्ययोश्चैव ष्ण्णां भग इतीरणा॥ (विष्णु पुराण, ६/५/७४)
शौनक ने कहा है-
पराङ्मुखा ये गोविन्दे विषयासक्त चेतसः। तेषां तत्परमं ब्रह्म दूराद् दूरतरे स्थितम्॥१॥
तन्मयत्वेन गोविन्दे ये नरा न्यस्तचेतसः। विषयत्यागिनस्तेषां विज्ञेयं च तदन्तिके ॥२॥ (विष्णु धर्म पुराण, ९५/१३-१४)
= जो गोविन्द से पराङ्मुख (मन हटा कर) विषयों में आसक्त हैं, उनके लिये परब्रह्म दूर से भी दूर है। जिनकामन गोविन्द में ही लगा हुआ है तथा विषयों को छोड़ चुके
हैं, उनके हृदय में ही भगवान् हैं।
उपनिषदों में इसे सभी भूतों के हृदय में कहा है-
आत्मास्य जन्तोर्निहितं गुहायाम् (कठोपनिषद्, १/२/२०)
एको देवः सर्व भूतेषु गूढ़ः सर्वव्यापी सर्वभूतान्तरात्मा (श्वेताश्वतर उपनिषद्, ५/११)
यः आत्मा सर्वान्तरः (बृहदारण्यक, ३/४/१)
अन्तर्बहिश्च तत् सर्वं व्याप्य नारायणः स्थितः (महानारायण उपनिषद्, १३/२)
३. समाधान-ब्रह्म सर्वव्यापी है, अर्थात् हर जगह पहले से ही है, जाने का कोई अर्थ नहीं है। निर्माता के रूप में लगता है कि वह बाहरी कर्त्ता है। पर वह कर्त्ता, क्रिया,
उपकरण, सामग्री आदि सब कु छ है, अतः उसके कर्म को सुकृ त कहा है।
तैत्तिरीय उपनिषद्-असद्वा इदमग्र आसीत्। ततो वै सदजायत।तदात्मानँ स्वयमकु रुत। तस्मात् तत् सुकृ तमुच्यत इति। यद्वै तत् सुकृ तं रसो वै सः। (२/७)
असन्नेव स भवति। असद् ब्रह्मेति वेद चेत्। अस्ति ब्रह्मेति चेद्वेद।....... सोऽकामयत्। बहुस्यां प्रजायेयेति। स तपोऽतप्यत। स तपस्तप्त्वा इदं सर्वमसृजत यदिदं किं च।
तत् सृष्ट्वा तदेवानुप्राविशत्। तदनुप्रविश्य सच्च त्यच्चाभवत्। निरुक्तं चानिरुक्तं च। निलयनं चानिलयनं च। विज्ञानं चाविज्ञानं च। सत्यं चानृतं च सत्त्यमभवत्। (२/६)
ब्रह्मार्पणं ब्रह्म हविर्ब्रह्माग्नौ ब्रह्मणा हुतम् । ब्रह्मैव तेन गन्तव्यं ब्रह्मकर्मसमाधिना॥ (गीता, ४/२४)
स्रष्टा रूप में सृष्टि करने के बाद उसमें पुनः प्रविष्ट हो गया। कहीं पदार्थों में छिपा है, कही प्रकट है। अतः उसे सत्-असत्, निरुक्त-अनिरुक्त आदि सभी द्वैत कहा है।
छिपे रूप में शिपिविष्ट, प्रकट रूप में प्रकाशन कहा है-
नैकरूपो बृहद्रूपो शिपिविष्टः प्रकाशनः (विष्णु सहस्रनाम, ४२)
अध्याय ८-ईशावास्योपनिषद्, मन्त्र ८
स पर्यगाच्छु क्रमकाय-मव्रणमस्नाविरं शुद्धमपापविद्धम्।
कविर्मनीषी परिभूः स्वयम्भूर्याथातथ्यतो, ऽर्थान् व्यदधाच्छाश्वतीभ्यः समाभ्यः॥८॥
अर्थ-(स) वह परब्रह्म-यहां कर्त्ता रूप (पर्यगात्) घेर कर, (शुक्रं ) तेज रूप, (अकायं) बिना शरीर का, (अव्रणं) बिना किसी छिद्र के , (अस्नाविरं) बिना किसी
जोड़ने वाले तन्तु के , (शुद्धं) बिना किसी विकार के , (अपापविद्धम्) बिना पाप द्वारा अलग हुए मूल स्रोत को (कविः) स्रष्टा-कवल रूप में अलग अलग कर, (मनीषी)
मन से विचार करने वाला, (परिभूः) परिधि रूप बाहर भीतर स्थित, (स्वयम्भू) स्वयं उत्पन्न, (याथातथ्यतः) जैसा या जितना था वैसा ही, (व्यदधात्) धारण
किया; (शाश्वतीभ्यः) सनातन (समाभ्यः) वर्षों तक करता रहा।
व्याख्या-
१. परब्रह्म का स्वरूप-परब्रह्म अव्यक्त और कल्पना से परे है। अतः उसको निषेध रूप से समझते हैं, कि जितने रूप या गुण दीख रहे हैं, वह नहीं है।
सांख्य के तत्त्व समास का सूत्र १६ है-दश मौलिकार्थाः। इस के अनुसार १० मौलिक अर्थ हैं। मूल वस्तु २ हैं-पुरुष (ब्रह्म) और मूल प्रकृ ति जिसमें ३ गुण परस्पर
मिले हुए हैं। सांख्य सूत्र (१/६७) है-मूले मूलाभावादमूलम्= जिस पदार्थ की उत्पत्ति का मूल कारण नहीं है, उसे मूल (प्रकृ ति) कहते हैं। मूल प्रकृ ति के गुणों का
वर्णन होता है, पुरुष में उसका निषेध।
रामचरितमानस में है-निगम नेति शिव अन्त न पा वा\ ताहि धरहिं जननी हठि धावा॥ (बालकाण्ड, २०२/४)
श्रीमद् भागवत पुराण के स्कन्ध १०, अध्याय ९ में भी है-
न चान्तर्न बहिर्यस्य न पूर्वं नापि चापरम्। पूर्वापरं बहिश्चान्तर्जगतो यो जगच्च यः॥१३॥
तं मत्वात्मजमव्यक्तं मर्त्यलिङ्गमधोक्षजम्। गोपिकोलूखले दाम्ना बबन्ध प्राकृ तं यथा॥१४॥
तद्दाम बध्यमानस्य स्वार्भकस्य कृ तागसः। द्व्यङ्गुलोनमभूत्तेन सन्दधेऽन्यच्च गोपिका॥१५॥
यदासीत्तदपि न्यूनं तेनान्यदपि सन्दधे। तदपि द्व्यङ्गुलं न्यूनं यद्यदादत्त बन्धनम्॥१६।
अव्यक्त और अपरिमेय होने के कारण निषेध रूप में ही गजेन्द्र मोक्ष स्तुति में भी वर्णन है-
स वै न देवासुरमर्त्यतिर्यङ् , न स्त्री न षण्ढो न पुमान्न जन्तुः।
नायं गुणः कर्म न सन्न चासन्निषेधशेषो जयतादशेषः॥ (भागवत पुराण, ८/३/२४)
अव्यक्त को देख या अनुभव नहीं कर सक्ते किन्तु उसे प्रणव (ॐ) से व्यक्त करते हैं। इसके कई अर्थ हैं-जिसे देख कर सभी नव (झुक जाते हैं), सदा नव (सृष्टि)
करता है, किन्तु ९ सर्गों से परे दशम अव्यक्त रूप है।
२. ब्रह्म के दश विध निर्देश-संक्षेप में तो ३ प्रकार ही हैं-ॐ तत् सत् इति निर्देशः ब्रह्मणः त्रिविधः स्मृतः। (गीता, ८/१३)
३ के संयोग से १० हो जाते हैं। १०-१० के गुणन से १० (१०८) नाम, सहस्रनाम या लक्ष, कोटि श्लोकों में भी वर्णन हैं।
३ गुणों के १० प्रकार के संयोग होते हैं। यदि इनका निर्देश क, ख, ग से किया जाय, तो ये संयोग होंगे-
क, ख, ग, कख (क मुख्य), कग, खग, खक, गक, गख, ककग।
चतुर्भुज रूप में या ४ दिशाओं में विस्तार के क्रमबद्ध रूप २४ (४ x ३ x २ x १) या २ तक योग रूप १० होंगे-
क, ख, ग, घ, कख, कग, कघ, खग, खघ, गघ।
ब्रह्म के १०विध विस्तार के कारण १० प्रकार की शान्ति होती है-
ॐ द्यौ: शान्तिरन्तरिक्षँ शान्ति: पृथिवी शान्तिराप: शान्तिरोषधय: शान्ति: । वनस्पतये: शान्तिर्विश्वे देवा: शान्तिर्ब्रह्म शान्ति: सर्वँ शान्ति: शान्तिरेव शान्ति: सा मा
शान्तिरेधि ॥ ॐ शान्ति: शान्ति: शान्ति: ॥
(वाज. संहिता, ३६/१७, अथर्व, १९/९/१४)
धर्म के भी १० लक्षण कहे हैं-
धृति क्षमा दमो स्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रहः। धीर्विद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्मलक्षणम्॥ (मनुस्मृति, ६/९२)
या योग अभ्यास के आरम्भ के १० यम-नियम हैं-
अहिंसा सत्य अस्तेय ब्रह्मचर्य अपरिग्रहा यमाः। (योगसूत्र, २/३०)
शौच सन्तोषः तपः स्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि नियमाः। (२/३२)
शिव के ५ मुखों की सीमा रूप में १० महाविद्या हैं। या १० शैवागमों के समान विचार करने की १० विधियां हैं।
१० मौलिकार्थों की सूची कहीं नहीं है, पर सांख्य कारिका, ७२ की व्याख्या में राजवार्त्तिक के उद्धरण से इनका नाम दिया गय है-
प्रधानास्तित्त्वमेकत्वमर्थवत्वमथान्यता। पारार्थ्यं च तथानैक्य वियोगो योगएव च।
शेषवृत्तिरकर्तृत्वं मौलिकार्थाः स्मृता दश॥
यहां शेषवृत्ति को गजेन्द्र मोक्ष में निषेधशेष, अशेष आदि कहा है। कई प्रकार के विपरीत गुण हैं-एकत्व-नैक्य, अर्थत्व-पारार्थ्य, वियोग-योग।
इस मन्त्र में १० गुण हैं-कवि, मनीषी, परिभू, स्वयम्भू, शुक्र, अकाय, अव्रण, अस्नाविर, शुद्ध, अपापविद्ध।
३. अर्थ सृष्टि-(अर्थ -पदार्थ)-यह अव्यक्त से व्यक्त का रूपान्तर है। ब्रह्म का किसी ने निर्माण नहीं किया, वह स्वयम्भू है। निर्माण करने की इच्छा या सङ्कल्प किया,
इस रूप में मनीषी है। पदार्थों को सीमा के भीतर छोटे छोटे खण्डों (कवल=भोजन का कौर) में बांट दिया, अतः वह कवि या निर्माता है। सीमाबद्ध करना पर्यगात् है।
अलग अलग खण्डों में बंटने के बाद ये गुण आ गये-
तम (अन्धकार)-सीमा के भीतर वस्तु प्रायः छिप जाती है, उससे अन्य पिण्ड भी छिप जाते हैं।
काया-शरीर का रूप, आकार।
व्रण-छिद्र, दोष, असमानता।
स्नायु-एक पिण्ड का अन्य से सम्बन्ध, आकर्षण-विकर्षण आदि।
अशुद्ध-भिन्न प्रकार के अणु तथा पदार्थों का मिश्रण।
पापविद्ध-एक दूसरे से अलग। जब मन में पाप नहीं होता, तो सभी प्राणियों का एक ही हृदय होता है और एकवचन का प्रयोग होता है। पाप से विद्ध या कट जाने के
कारण एक व्यक्ति का हृदय अन्य से अलग हो जाता है और बहुवचन में प्रयोग होता है।
ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति। (गीता, १८/६१)
पापात्मनां कृ तधियां हृदयेषु बुद्धिः (दुर्गा सप्तशती, ४/५)
यहां कोई अलग से सृष्टि नहीं हुयी। पहले जो तत्त्व अव्यक्त रूप में था वही ज्यों का त्यों (याथातथ्य) व्यक्त रूप में आ गया। यह क्रम शाश्वत है।
४. वाक् (शब्द) सृष्टि-इसी अर्थ में कवि शब्द प्रचलित है। अव्यक्त भाव (परा वाक् ) का कोई रूप, रंग, आकार, सम्बन्ध आदि नहीं होता। वही विचार लिखित या
कथित शब्द में व्यक्त होता है तो ये क्रिया होती हैं-
पर्यगात्-अव्यक्त विचार के लिये कोई सटीक शब्द नहीं मिलता। उसे ४-५ शब्दों से घेर कर व्यक्त करते हैं।
तम-मन में जो विचार हैं, उनको सम्पूर्ण रूप में व्यक्त करना सम्भव नहीं है। भाषा की अपूर्णता या अपने ज्ञान में कमी के कारण कई बातें छिप जाती हैं। मन के ३
स्तर गौरी वाक् हैं, बाहर निकली वैखरी में कु छ छिप जाता है, उसे तम कहते हैं। गौ (गौरी) तथा तम के बीच सम्बन्ध को दिखाने वाला गौतम न्याय है। इसका
प्रयोग न्यायालय में होता है, जहां गौ को तम और तम को गौ करते हैं। प्रकृ ति रूप में जब देवों की सम्मिलित शक्ति थीं तो गौरी थी। शरीर रूप में अलग होने पर
काली हुयी। दुर्गा सप्तशती- (अध्याय, ४)-देवी देवशरीरेभ्यो जगत्त्रय हितैषिणी॥४०॥
पुनश्च गौरी देहात् सा समुद्भूता यथाभवत्।
(अध्याय, ५)-शरीरकोशाद्यत्तस्याः पार्वत्या निःसृताम्बिका। ---
तस्यां विनिर्गतायां तु कृ ष्णाभूत् सापि पार्वती। कालिके ति समाख्याता हिमाचल कृ ताश्रया॥८८॥
वाक् रूप में बाहर निकलने पर गौरी वाक् १,२, ४, ८, ९ तथा १००० भागों में खण्डित हो जाती है।
चत्वारि वाक् परिमिता पदानि तानि विदुर्ब्राह्मणा ये मनीषिणः।
गुहा त्रीणि निहिता नेङ्गयन्ति तुरीया वाचो मनुष्या वदन्ति॥ (ऋक् , १/१६४/४५)
गौरीर्मिमाय सलिलानि तक्षति एक पदी द्विपदी सा चतुष्पदी। अष्टापदी नवपदी बभूवुषी सहस्राक्षरा परमे व्योमन्। (ऋक् , १/१६४/४१)
इस विभाजन के कारण ६ प्रकार के दर्श वाक् (लिपि) हैं जिनमें (१+४) का वर्ग, (२+४) का वर्ग, (१+२+४) वर्ग, ८ वर्ग, (८+९) वर्ग तथा सहस्र अक्षर होते
हैं। इसके अनुरूप विश्व की पूर्णता ६ दर्शनों द्वारा देखी जाती है।
व्यक्त वाक् में ये गुण आते हैं जो पहले नहीं थे-तम-इसकी व्याख्या ऊपर है।
काया-वर्ण, अक्षर, शब्द, पद, वाक्य आदि विविध रूप।
व्रण-उपसर्ग प्रत्यय आदि से अर्थ में विकार या परिवर्तन।
स्नायु-कारक द्वारा शब्दों में सम्बन्ध।
अशुद्ध-कोई भी शब्द पूर्ण अर्थ नहीं प्रकट कर सकता।
पापविद्ध-शब्द, पद, वाक्य आदि का अलगाव।
इनके लिये कवि को मनीषी होना पड़ता है। कु छ बातें उसकी कल्पना से आती हैं, वह स्वयम्भू है।
५. वाक् -अर्थ सम्बन्ध-द्वे वाव ब्रह्मणो रूपे शब्द ब्रह्म परं च यत्। शाब्दे ब्रह्मणि निष्णातः परब्रह्माधिगच्छति॥ (मैत्रायणी आरण्यक, ६/११)
यावद् ब्रह्म विष्ठितं तावती वाक् (ऋक् , १०/११४/८)
अव्यक्त विश्व या वाक् व्यक्त विश्व व्यक्त वाक्
(१). शुक्र तम तम
(२). अकाय पिण्ड शब्द आदि
(३). अव्रण छिद्र, दोष अपूर्णता, लुप्त शब्द।
(४). अस्नाविरम् ऋषि (रस्सी) कारक आदि से सम्बन्ध
(५). शुद्ध मिश्रण अपूर्ण रूप
(६). अपापविद्ध माया के आवरण शब्द, पद, वाक्य का पार्थक्य
६. शाश्वत क्रिया-सृष्टि निर्माण का क्रम शाश्वत है। इसे अविनाशी अश्वत्थ या अव्यय पुरुष कहा गया है। निर्माण क्रम रूपी वृक्ष शाश्वत है, उसके पत्ते झड़ते रहते
हैं, वे छन्द (सीमा) बद्ध पिण्ड हैं जिनका निर्माण-विनाश होता रहता है। सृष्टि निर्माण का मूल ऊर्ध्व या ऊपर कहते हैं, उसके प्रकार शाखायें हैं। मन में भी काम का
मूल सङ्कल्प है, क्रिया उसकी शाखा है, परिणाम फल है। उसके बाद नये नये सङ्कल्प होते रहते हैं, कु छ पूरे होते हैं कु छ की वासना रह जाती है जो आगामी जन्मों में
पूरी होती है। इस वृक्ष को काटने से ही जन्म-मर्न चक्र से मुक्ति होती है।
ऊर्ध्वमूलमधः शाखमश्वत्थं प्राहुरव्ययम्। छन्दांसि यस्य पर्णानि यस्तं वेद स वेदवित्॥१॥
अधश्चोर्ध्वं प्रसृतास्तस्य शाखा गुणप्रवृद्धा विषयप्रवालाः। अधश्च मूलान्यनुसन्ततानि कर्मानुबन्धीनि मनुष्यलोके ॥२॥
न रूपमस्येह तथोपलभ्यते, नान्तो न चादिर्न च सम्प्रतिष्ठा। अश्वत्थमेनं सुविरूढ़मूलमसङ्गशस्त्रेण दृढ़ेन छित्वा॥३॥ (गीता, अध्याय १५)
७. शाश्वत काव्य-किसी तात्कालिक घटना का वर्णन वाक्य है। उसकी व्यापकता का वर्णन काव्य है। शाश्वत होना ही काव्य का लक्षण है। भगवान् राम द्वारा काम
मोहित रावण को मारने से उनकी ख्याति चिरस्थायी है।वाल्मीकि रामायण - बालकाण्ड-सर्ग-२-मा निषाद प्रतिष्ठां त्वमगमः शाश्वतीं समाः |
यत्क्रौञ्चमिथुनादेकमवधीः काममोहितम् || १४||
क्रौञ्च वध घटना का शाश्वत रूप में वर्णन स्कन्द पुराण में है-
शापोक्या हृदि सन्तप्तं प्राचेतसमकल्मषं। प्रोवाच वचनं ब्रह्मा तत्रागत्य सुसत्कृ तः॥
न निषादः स वै रामो मृगयां चतुर्मागतः। तस्य संवर्णनेन सुश्लोक्यस्त्वं भविष्यसि॥
इत्युक्त्वा तु जगामाशु ब्रह्मलोकं सनातनः। ततः संवर्णयामास राघवं ग्रन्थकोटिभिः॥
(स्कन्द पुराण, पाताल खण्ड, अयोध्यामाहात्म्य)
यहां- मा निषाद = मायां लक्ष्मीं निषीदति, इति रामः।
क्रौञ्च मिथुन = रावण+ मन्दोदरी। अगमः = आगम + निगम।
क्रौञ्च मिथुन के समान सभी काममोहित हो कर ईश्वर से दुःख-दैन्यं पाते हैं। ऐसा होने से रावण जैसा सर्वविजयी भी नष्ट हो जाता है। यह गाथा शाश्वत है।
अध्याय ९-ईशावास्योपनिषद्, मन्त्र ९-११
अन्धं तमः प्रविशन्ति येऽविद्यामुपासते। ततो भूय इव ते तमो य उ विद्यायां रताः॥९॥
अर्थ-(ये) जो लोग (अविद्यामुपासते) अविद्या की उपासना करते हैं,, वे (अन्धं तमः प्रविशन्ति) घोर अन्धकार में पड़ते हैं। किन्तु (ये) जो (विद्यायां रताः) के वल
विद्या में रत हैं, (उ) वे निश्चय (ततः) और (भूयः तमः) घने अन्धकार (इव प्रविशन्ति) में जाते हैं॥
अन्यदेवाहुर्विद्यया अन्यदाहुरविद्यया। इति शुश्रुम धीराणां ये नस्तद्विचचक्षिरे॥१०॥
अर्थ-(अन्यत् एव आहुः) अन्य स्थान पर निश्चय से कहा है कि (विद्यया) कि विद्या से, (अन्यत् आहुः) अन्यत्र कहा है कि (अविद्यया) अविद्या से मुक्ति मिलती है।
(इति शुश्रुम धीराणां) ऐसा ही हमने धीरों से सुना था, (ये नः तद् विचचक्षिरे) जिन्होंने इस की व्याख्या की थी।
विद्यां चाविद्यां च यस्तद्वेदोभयं सह। अविद्यया मृत्युं तीर्त्वा विद्ययाऽमृतमश्नुते॥११॥
अर्थ-(विद्यां चाविद्यां च) विद्या और अविद्या (यस्तद् वेदोभयः सह) दोनों को एक साथ मिला कर जानता है, (अविद्यया मृत्युं तीर्त्वा) अविद्या से मृत्यु को पार
करता है, विद्ययामृतमश्नुते) विद्या से अमृतत्व की प्राप्ति करता है।
व्याख्या-
१. विद्या-अविद्या
विद्या विद् धातु है जिसके ४ अर्थ हैं। उसके अनुरूप ४ वेद हैं-मूर्त्ति रूप ऋग्वेद, गति रूप यजुर्वेद, महिमा (प्रभाव) रूप सामवेद तथा स्थिर आधार या ब्रह्म रूप
अथर्व वेद।
किसी वस्तु के ज्ञान के लिये ये ४ क्रम हैं-पहले किसी वस्तु की मूर्त्ति होनी चाहिये (ऋक् ), वहां से कु छ सूचना हम तक पहुंचे (गति-यजु), हम उस वस्तु के प्रभाव
सीमा (साम) में हों, तथा ये गति-मूर्त्ति-महिमा स्थिर आधार या परिवेश (अथर्व) से भिन्न हो।
ऋग्भ्यो जातां सर्वशो मूर्त्तिमाहुः, सर्वा गतिर्याजुषी हैव शश्वत्।
सर्वं तेजं सामरूप्यं ह शश्वत्, सर्वं हेदं ब्रह्मणा हैव सृष्टम्॥ (तैत्तिरीय ब्राह्मण,३/१२/८/१)
तत्त्व वेद विद् धातु का अर्थ पाणिनीय धातुपाठ
मूर्त्ति ऋक् विद् सत्तायाम् (स्थिति, ४/६०)
गति यजु विद्लृ लाभे (लाभ या प्राप्ति, ६/१४१)
महिमा साम विद् ज्ञाने (ज्ञान, २/५७)
परिवेश अथर्व विद् विचारणे (७/१३) विद् चेतनाख्यान निवासेषु (१०/१७७)
चिकित्सक को सबसे अधिक ज्ञानी मानते थे क्यों कि वह सबसे जटिल मनुष्य शरीर को समझता है। विद्या होने के कारण उसे वैद्य कहते हैं। अंग्रेजी में भी डाक्टर का
अर्थ चिकित्सक तथा ज्ञानी (शोध कर्त्ता) दोनों होता है।
अविद्या के २ अर्थ हैं-अज्ञान या विद्या का अभाव, अपरा विद्या (विद्या का वर्गीकरण) या विज्ञान (विकल्प या विशिष्ट ज्ञान।
ज्ञानं तेऽहं सविज्ञानमिदं वक्ष्याम्यशेषतः। यज्ज्ञात्वा नेह भूयोऽन्यज्ज्ञातव्यमवशिष्यते॥ (गीता, ७/२)
अज्ञान-वस्तु निकट में है, देखने समझने की शक्ति भी है, किन्तु माया के आवरण कारण दीख नहीं रहा है। इस अर्थ में माया या उसके कारण मोह को भी अज्ञान
कहा गया है। मोह के कारण बुद्धि काम नहीं करती है।
त्रिभिर्गुणमयैर्भावैरेभिः सर्वमिदं जगत्। मोहितं नाभिजानति मामेभ्यः परमव्ययम्॥ (गीता, ७/१३)
न मां दुष्कृ तिनो मूढाः प्रपद्यन्ते नराधमाः। माययापहृतज्ञाना आसुरं भावमाश्रिताः॥ (गीता, ७/१५)
यदा ते मोहकलिलं बुद्धिं व्यतितरिष्यति। तदा गन्तासि निर्वेदं श्रोतव्यस्य श्रुतस्य च॥ (गीता, २/५२)
विज्ञान-वर्गीकृ त ज्ञान को विज्ञान कहते हैं। यही अपरा विद्या है।
मोक्षे धीर्ज्ञानमन्यत्र विज्ञानं शिल्पशात्रयोः (अमरकोष, १/५/६)
अपरा विद्या वर्गी करण तथा परा विद्या ब्रह्म रूपी एकत्व है-द्वे विद्ये वेदितव्ये, इति ह स्म यद् ब्रह्मविदो वदन्ति, परा चैव अपरा च। तत्रापरा ऋग्वेदो यजुर्वेद:, सामवेदो,
अथर्ववेद:, शिक्षा, कल्पो, व्याकरणं, निरुक्तं , छन्दो ज्योतिषमिति। अथ परा यया तदक्षरमधिगम्यते। (मुण्डकोपनिषद्, १/१/४, ५)
अविद्या की परिभाषा के दोनों अर्थ सम्भव हैं। योग सूत्र (२/३) में क्ले श के ५ भेद कहे हैं-अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष, अभिनिवेश। इनको ही सांख्य योग में ५
प्रकार के तम कहा है-तम, मोह, महामोह, तामिस्र, अन्ध।
तमो मोहो महामोहस्तामिस्रो ह्यन्धसंज्ञकः। अविद्या पञ्चपर्वैषा सांख्ययिगेषु कीर्तिता॥ (विष्णु पुराण, १/५/५)
यदि अविद्या का अर्थ अपरा विद्या या विज्ञान करें तो ये ५ स्तर विज्ञान के ५ क्रम हैं-
१. अविद्या-विषयों या तथ्यों का विभाजन।
२. अस्मिता-प्रति तत्त्व की अलग-अलग परिभाषा तथा व्याख्या।
३. राग-अलग अलग तथ्यों में समानता खोज कर उनको एक वर्ग में करना (Generalization)। इसका अन्तिम रूप पराविद्या या विद्या होगी, जैसे स्वार्थ का
परम रूप परमार्थ।
४. द्वेष-अन्य वर्ग के तथ्यों से भेद दिखाना।
५. अभिनिवेश-सिद्धान्त स्थिर करना जिसके अनुसार नये तथ्यों को प्रमाणित या अप्रमाणित किया जा सकता है।
यही अविद्या या तम के भी स्तर हैं-अविद्या = ज्ञान का अभाव, अस्मिता = स्वार्थ के अनुसार सोचना, राग = किसी के प्रति आकर्षण, द्वेष-विकर्षण, अभिनिवेश =
एक ही मान्यता से बन्ध कर सोचने में असमर्थ जिसे अन्ध भक्ति कहते हैं।
२. वर्गीकरण-ऋग्वेद में (१/१८) सूक्त के देवता ब्रह्मणस्पति हैं, (१०/७१) भी ज्ञान सूक्त है। इसमें एक मन्त्र को महर्षि दैवरात् ने गायत्री कल्पलता में धी योग का
मूल कहा है, जो गायत्री का तृतीय पाद है-
यस्मादृते न सिध्यति यज्ञो विपश्चितध्वरम्। स धीनां योगमिन्वति॥ (ऋक् , १/१८/७)
= बिना परम पुरुष में ध्यान किये ज्ञानियों का भी यज्ञ सिद्ध नहीं होता। उसके एकमात्र लक्ष्य को ध्यान में रख कर मन का संयोग कर उसकी प्रेरणा से प्रकाशित
करने पर ही उसका स्वरूप प्रकट होता है। यह धी योग है।
अथर्व वेद शौनक शाखा का प्रथम मन्त्र के भी वाचस्पति देवता हैं। यह ३ तथा ७ लोकों के विभाजन के अनुसार विज्ञान में ३ और ७ के मुख्य विभाजन कहता है-
अथर्वा ऋषिः, वाचस्पतिर्देवता। अनुष्टु प् छन्दः।
ये त्रिषप्ताः परियन्ति विश्वा रूपाणि बिभ्रतः। वाचस्पतिर्बला तेषां तन्वो अद्य दधातु मे॥१॥ (अथर्व, शौनक संहिता)
आकाश में ३ धाम हैं-पूर्ण विश्व, परमेष्ठी, सौर मण्डल। तीनों में ३-३ लोक होने से ७ लोक हैं, बीच के २-२ लोक समान हैं।
अवम धाम-भू-पृथ्वी ग्रह
भुवः-ग्रह कक्षा
स्वः-सौर मण्डल
मध्यम धाम-भू-सौर मण्डल
भुवः-महर्लोक
स्वः-परमेष्ठी-जनः लोक
परम धाम-भू-परमेष्ठी
भुवः-तपः लोक
स्वः-स्वयम्भू-सत्य लोक
भागवत पुराण ने अन्य कई भेदों के अध्ययन द्वारा पूर्ण ज्ञान की प्राप्ति कहा है-
नवैकादश पञ्च त्रीन् भावान् भूतेषु येन वै। ईक्षेताथैकमप्येषु तज्ञानं मम निश्चितम्॥१४॥
एतदेव हि विज्ञानं न तथैके न येन यत्। स्थित्युत्पत्तिलयान् पश्येद् भावानां त्रिगुणात्मनाम्॥१५॥
(भागवत पुराण, ११/१९/१४-१५)
अर्थात् जगत् का विज्ञान समझने के लिये ९,११, ५, ३ का वर्गीकरण करना चाहिये और अन्त में एक ही मूल तत्त्व को अनुगत देखना ज्ञान है।
एकत्व-यह सभी ज्ञान का आधार है। इसके कई रूप हैं-विज्ञान के नियम हर स्थान, समय एक ही हैं।
सभी भाषाओं में शब्दों के अर्थ सबके लिये समान हैं, नहीं तो कोई किसी की बात नहीं समझेगा।
सभी प्राणी, या निर्जीव भी मूल तत्त्व के अनुसार एक ही हैं।
समन्वय् से ही ज्ञान होता है (ब्रह्म सूत्र के प्रथम ४ सूत्र)।
द्वित्व-कई युग्मों में अध्ययन होता है-
स्रष्टा-सृष्टि (उसमें भी स्रष्टा है), अग्नि-सोम, पुरुष-प्रकृ ति, वृषा-योषा, देव-देवी, विद्या-अविद्या, सञ्चर-प्रतिसञ्चर आदि।
त्रित्व-३ गुण, तर्क की ३ पद्धति, ज्ञान-ज्ञेय-परिज्ञाता, ज्ञान-कर्म-कर्ता।
चतुष्पाद-४ प्रकार के पुरुष-क्षर, अक्षर, अव्यय, परात्पर। इनके ४ प्रकार के काल-नित्य, जन्य, अक्षय, परात्पर। त्रयी विभाजन से ४ वेद= १ मूल + ३ शाखा।
पञ्च पर्व-विश्व के ५ पर्व, ५ यज्ञ, अविद्या के ५ पर्व।
६ दर्शन तथा ६ दर्श वाक् ।
७-७ लोक, राज्य के ७ तत्त्व (आधुनिक राजनीति में कोष, दुर्ग, पुरोहित = संविधान और न्याय) नहीं होने के कारन वे अपूर्ण हैं।
९ द्रव्य वैशेषिक दर्शन में।
१० महाविद्या, १० आयाम (रेखा, पृष्ट, आयतन, पदार्थ, काल, चेतना, ऋषि, नाग, रन्ध्र, आनन्द)
३. तम और अन्ध तम-मोह के ५ स्तरों के रूप इनका वर्णन किया गया है। जीवन काल में यह बुद्धि के आवरण हैं जिनको मोह कहा गया है। तम में थोड़ा दीखता है,
अन्ध तम में बिल्कु ल नहीं दीखता। उससे भी अधिक तम वह है जिसमें अन्ध तम से बाहर निकलने का मार्ग नहीं सूझता। मृत्यु के बाद आत्मा की गति भी वैसी ही
होती है। जो मोह या अविद्या से ग्रसित हैं, वे अन्धकार में जाते हैं। इनको छाया-आतप (धूप) भी कहा है।
ऋतं पिबन्तौ सुकृ तस्य लोके गुहां प्रविष्टौ परमे परार्धे ।
छायातपौ ब्रह्मविदो वदन्ति पञ्चाग्नयो ये च त्रिणाचिके ताः ॥ (कठोपनिषद् १/३/१)
तम या तामस गुण का अर्थ ही अन्धकार है। सत्त्व गुण वाले उत्तम लोकों में जाते हैं। रजोगुण वाले मध्य में जाते हैं तथा तमो गुन वाले निम्न लोकों में। उसके बाद
पुनर्जन्म भी मूढयोनि में ही होता है। गीता, अध्याय १४ में इसका विस्तृत वर्णन है।
अप्रकाशोऽप्रवृत्तिश्च प्रमादो मोह एव च। तमस्येतानि जायन्ते विवृद्धे कु रुनन्दन॥ (गीता, १४/१३)
ऊर्ध्वं गच्छन्ति सत्त्वस्था मध्ये तिष्ठन्ति राजसाः। जघन्य गुणवृत्तिस्था अधो गच्छन्ति तामसाः॥ (गीता, १४/१८)
४. मृत्यु और अमृत-संसार में जो भी उत्पन्न हुआ है, उसका नाश होना ही है।
जातस्य हि ध्रुवोर्मृत्युर्ध्रुवं जन्म मृतस्य च। (गीता, २/२७)
अपेक्षाकृ त कम आयु को मृत्यु तथा अधिक आयु की रचना को अमृत कहते हैं। पूर्ण अमृत तो परब्रह्म ही है।
मनुष्य की पूर्ण आयु १०० वर्ष है यद्यपि कु छ व्यक्ति इससे अधिक समय भी जीवित रहते हैं। अतः १०० वर्ष तक जीवन भी अमृत है।
य एव शत्ं वर्षाणि यो वा भूयांसि जीवति स हैवैतदमृतमाप्नोति। (शतपथ ब्राह्मण, १०/२/६/८)
एतद् वाव मनुष्यस्यामृतत्वं यत् सर्वमायुरेति। (ताण्ड्य महाब्राह्मण, २२/१२/२, २५/१२/३)
आकाश में सौर मण्डल से बड़ी रचना अमृत है, सौरमण्डल के अंश मर्त्य हैं-
आकृ ष्णेन रजसा वर्तमानः निवेशयन्नमृतं मर्त्यं च। हिरण्ययेन सविता रथेना देवो याति भुवनानि पश्यन्॥
(ऋक् , १/३५/२, वाज. सं. ३३/४३, ३४/३१, तैत्तिरीय सं. ३/४/१/२, मैत्रायणी सं. १९६/१६)
पुराण में सौरमण्डल के भू, भुवः स्वः को कृ तक (बनने-मिटने वाले) तथा जनः, तपः, सत्य को अकृ तक (स्थायी) कहा है। बीच में महर्लोक है।
पादगम्यन्तु यत्किञ्चिद्वस्त्वस्ति पृथिवीमयम्। स भूर्लोकः समाख्यातो विस्तरोऽस्य मयोदितः॥१६॥
भूमिसूर्यान्तरं यच्च सिद्धादि मुनिसेवितम्। भुवर्लोकस्तु सोऽप्युक्तो द्वितीयो मुनिसत्तम॥१७॥
ध्रुवसूर्यान्तरं यच्च नियुतानि चतुर्दश। स्वर्लोकः सोऽपु गदितो लोकसम्स्थान चिन्तकैः॥१८॥
त्रैलोक्यमेतत् कृ तकं मैत्रेय परिपठ्यते। जनस्तपस्तथा सत्यमिति चाकृ तकं त्रयम्॥१९॥
कृ तकाकृ तकयोर्मध्ये महर्लोक इति स्मृतः। शून्यो भवति कल्पान्ते योऽत्यन्तं न विनश्यति॥२०॥
(विष्णु पुराण, २/८)
मूल तत्त्व अप् का विस्तार य कई स्तर के समुद्र हैं, जिससे कई स्तर के लोक बनते और मिटते रहते हैं। अतः अप् को अमृत और उससे जो मुक्त हुआ वह मृत्यु है।
अलग होने को मुच्यु कहा है, मुच्यु से मृत्यु हुआ है-
स समुद्रादमुच्यत स मुच्युरभवत् तं वा एतं मुच्युं सन्तं मृत्युरित्याचक्षते परोक्षेण। (गोपथ ब्राह्मण,पूर्व, १/७)
जन्म-मरण के चक्र रूप में सभी प्रकार के संवत्सर भी मृत्यु हैं-
एष वै मृत्युर्यत् संवत्सरः। एष हि मर्त्यानां अहोरात्राभ्यां आयुः क्षिणोत्यथ म्रियन्ते। (शतपथ ब्राह्मण, १०/४/३/१)
५. मृत्यु पार करना-के वल एकत्व के ज्ञान से जीवन नहीं चलता है। उसके लिये कर्म भी करना पड़ता है जिसके लिये कई प्रकार की अविद्या जानना जरूरी है। अपनी
जरूरत की चीजें यज्ञ द्वारा उत्पादन के लिये प्रजापति ने कहा था। कर्म नहीं कर दूसरों के उत्पादन पर निर्भर करना एक प्रकार की चोरी है। अतः पूर्ण ज्ञान होने पर
भी दैनिक कर्तव्य करते रहना चाहिये जैसा भगवान् कृ ष्ण स्वयं करते थे।
सहयज्ञाः प्रजाः सृष्ट्वा पुरो वाच प्रजापतिः। अनेन प्रसविष्यध्वमेष वोऽस्त्विष्टकामधुक् ॥ (गीता, ३/१०)
नमे पार्थास्ति कर्तव्यं त्रिषु लोके षु किञ्चन। नानवाप्तमवाप्तव्यं वर्त एव च कर्मणि॥ (गीता, ३/२२)
उत्सीदेयुरिमे लोका न कु र्यां कर्म चेदहम् (गीता ३/२४)
हमको प्रकृ ति तथा देवों से कई चीजें प्राप्त हुयी हैं। उन स्थायी चीजों को लौटाना धर्म है। वैसा नहीं करना चोरी है।
इष्टान् भोगान् हिवो देवा दास्यन्ते यज्ञभाविताः। तैर्दत्तानप्रदायैभ्यो यो भुङ्क्ते तेन एव सः॥ (गीता, ३/१२)
अपने जीवन यापन के अतिरिक्त कु छ चीजें भविष्य के लिये छोड़ देनी चाहिये जैसे हमको मिली थी। यह सनातन ज्ञान विद्या है जिससे मनुष्य अमर होता है।
अध्याय १०-ईशावास्योपनिषद्, मन्त्र १२-१४
अन्धं तमः प्रविशन्ति येऽसम्भूतिमुपासते। ततो भूय इव ते तमो य उ सम्भूत्याँ रताः॥१२॥
अर्थ-जो लोग तात्कालिक सुख के लिये असम्भूति की उपासना करते हैं वो घोर अन्धकार में जाते हैं। उससे भी घने अन्धकार में वे जाते हैं जो के वल सम्भूति में रत
हैं।
अन्यदेवाहुः सम्भवादन्यदाहुरसम्भवात्। इति शुश्रुम धीराणां ये नस्तद्विचचक्षिरे॥१३॥
अर्थ-जिन धीर लोगों ने विशेष चिन्तन किया था उनसे हमने सुना है कि सम्भव (सम्भूति) का अन्य फल है तथा असम्भव (असम्भूति) का अन्य फल है।
सम्भूतिं च विनाशं च यस्तद्वेदोभयँ सह। विनाशेन मृत्युं तीर्त्वा सम्भूत्याऽमृतमश्नुते॥१४॥
अर्थ-जो सम्भूति और विनाश (असम्भूति) दोनों को एक साथ जानता है, वह विनाश द्वारा मृत्यु को पार करता है तथा सम्भूति से अमर हो जाता है।
व्याख्या-इसके पूर्व के ३ मन्त्रों में ज्ञान के २ रूपों विद्या-अविद्या के समन्वय के बारे में कहा है। यहां कर्म के दो रूपों के समन्वय के बारे में कहा है। विश्व में २
विपरीत क्रियाओं के समन्वय के बारे में पण्डित मधुसूदन ओझा ने संशय तदुच्छेद वाद के आरम्भ में लिखा है-
यदस्ति किञ्चित् तदिदं प्रतीमोऽविचालि शश्वत्स्थमनाद्यनन्तम्।
प्रतिक्षणान्याय-विकार-सृष्टि-प्रवाहवत् तद् द्विविरुद्धभावम्॥१॥
विरुद्धभावद्वयसंनिवेशत् सम्भाव्यते विश्वमिदं द्विमूलम्।
आभ्वभ्व संज्ञे स्त इमे च मूले द्रष्टाभु दृश्यं तु मतं तदभ्वम्॥२॥
= जो कु छ विश्व में है वह २ रूपों में प्रतीत होता है-एक स्थिर, अनादि, अनन्त है। दूसरा प्रतिक्षण विकार और सृष्टि प्रवाह में बदल रहा है। २ विरुद्ध भावों के एक
साथ रहने से विश्व के २ मूल हैं-एक आभु (नित्य) तथा दूसरा अभ्व (अनित्य सृष्टि है)।
कई प्रकार की विपरीत क्रियायें या उनके नाम हैं-
१. सृष्टि-प्रलय-सृष्टि के ९ सर्ग हैं। सबके निर्माण-विनाश के चक्र अलग अलग अवधि के हैं, जिनसे काल के ९ प्रकार के मान हैं।
अव्यक्ताद् व्यक्तयः सर्वे प्रभवन्त्यहरागमे । रात्र्यागमे प्रलीयन्ते तत्रैवाव्यक्त संज्ञके ॥ (गीता ८/११)
यहां अव्यक्त एक ही है, व्यक्त के ९ सर्ग हैं।
इत्येते वै समाख्याता नव सर्गाः प्रजापतेः (विष्णुपुराण, १/५/२५)
भागवत पुराण (३/१०) में मूल अव्यक्त को मिला कर १० सर्ग कहे गयेहैं-
यथेदानीं तथाग्रे च पश्चादप्येतदीदृशम्॥१२॥ सर्गो नवविधस्तस्य प्राकृ तो वैकृ तस्तु यः॥१३॥
दशैते विदुराख्याताः सर्गास्ते विश्वसृक्कृ ताः॥२८॥
ब्राह्मं पित्र्यं तथा दिव्यं प्राजापत्यं च गौरवम् । सौरं सावनं चान्द्रमार्क्षं मानानि वै नव ॥ (सूर्य सिद्धान्त १४/१)
२. सम्भूति-असम्भूति या निर्माण-विनाश-हर सर्ग में निर्माण-विनाश सदा चल रहा है। आकाश में कहीं ग्रह-नक्षत्र बन रहे हैं, कहीं नष्ट हो रहे हैं। पृथ्वी पर सदा कु छ
मनुष्य जन्म ले रहे हैं, कु छ मर रहे हैं।
३. सञ्चर-प्रतिसञ्चर-यह सांख्य दर्शन का शब्द है जो तत्त्व समास (६) में है। सञ्चर = गति, निर्माण दिशा। प्रतिसञ्चर = विपरीत गति, विनाश, प्रलय या मृत्यु।
सबसे बड़ा चक्र है, विश्व की सृष्टि प्रलय का चक्र जो ब्रह्मा का दिन या कल्प कहलाता है। यह १००० युग = ४३२ कोटि वर्ष का है।
सहस्र युग पर्यन्तं अहर्यद् ब्रह्मणो विदुः। रात्रिं युग सहस्रान्तां तेऽहोरात्रविदो जनाः॥ (गीता, ८/१७)
विश्व की सभी क्रियायें चक्र हैं या चक्रों का समन्वय हैं। शरीर का चक्र-नाड़ी स्पन्दन, श्वास-प्रश्वास, पाचन कर्म (अपचय), जीवन मरण आदि हैं। हर शक्ति स्थानीय
या गतिशील तरंग का कम्पन है। ताप द्वारा कण अपने ही स्थान पर कम्पन करते हैं। शब्द या विद्युत्-चुम्बकीय तरंग उद्गम से आगे बढ़ते जाते हैं, जिसके कारण मार्ग
के कण चक्रीय गति करते हैं। दिन-रात भी प्रकाश-अन्धकार (रूप-तन्मात्रा) या सृष्टि-प्रलय का चक्र है। उसके कारण मनुष्य में जागरण-सिषुप्ति (मन-इन्द्रिय) का
चक्र है। समय के सभी माप दिन, वर्ष (ऋतु चक्र), युग-सभी सृष्टि-प्रलय के चक्र हैं।
४. आध्यात्मिक अर्थ-विनाश या प्रलय अर्थ होने से यह नहीं समझना चाहिये कि प्रतिसञ्चर अवाञ्छनीय है। शरीर की पुष्टि के लिये भोजन लेते हैं। उसका निष्कासन
भी जरूरी है। व्यापक रूप में इसका शरीर के भीतर अर्थ है-
अपाने जुह्वति प्राणोऽपाने तथापरे। प्राणापानगती रुद्धा प्राणायाम परायणाः॥१९॥
अपरे नियताहाराः प्राणान्पाणेषु जुह्वति। सर्वेप्येते यज्ञविदो यज्ञक्षपित कल्मषाः॥२०॥ (गीता, ४/१९-२०)
= अन्य लोग प्राण को अपान में तथा अपान को प्राण में हवन करते हैं। कई प्राण या अपान की गति को नियन्त्रित कर प्राणायाम करते हैं। यह सभी यज्ञका ठीक रूप
कर रहे हैं, जिससे उनके विकार नष्ट हो रहे हैं।
प्राण ५ (+ २ असत्) प्रकार के हैं, शरीर (कोष) ७ प्रकार के हैं, तथा विकार १६ प्रकार के हैं। इस प्रकार इन यज्ञों के कई प्रकार के अर्थ हैं। अन्नमय कोष के
लिये प्राण का अर्थ है अन्न से प्राप्त होने वाली शक्ति। भोजन के रूप में जो प्राण आता है, उसका अवशिष्ट अंश मल के रूप में नष्ट होता है। इस प्रकार अन्न का विकार
नष्ट हो गया। अन्नमय प्राण ग्लूकोज, वसा अदि के रूप में शरीर में सञ्चित रहता है। वह प्राण का अपान में हवन है। जब शरीर की इन्द्रियां काम करती हैं, तो सञ्चित
शक्ति खर्च होती है, जो अपान का प्राण में हवन है। इससे शरीर स्वस्थ और क्रियाशील रहता है तथा कार्य का मल कार्बन डायक्साइड के रूप में बाहर निकलता है।
वसा का कम होना भी मल निकलना है।
५. आधिभौतिक अर्थ-कई प्रकार के यज्ञों से परिवार, समाज तथा देश का निर्माण होता है। इससे सबका जीवन चलता है या पालन होता है। अर्थात् सम्भूति से मृत्यु
को पार करते हैं। पर इसमें जो अवाञ्छित पदार्थ या मल उत्पन्न होता है उसे भी नष्ट करना जरूरी है। इसके अतिरिक्त आन्तरिक तथा बाह्य शत्रुओं से रक्षा के लिये
उनका विनाश भी जरूरी है। इसलिये भगवान् ने गीतामें धर्म पालन के लिये युद्ध का आदेश दिया था।
६. सम्भूति में असम्भूति और असम्भूति में सम्भूति-इसी प्रकार गीता में कहा है, कर्म में अकर्म और अकर्म में कर्म।
कर्मण्यकर्म यः पश्येदकर्मणि च कर्म यः। स बुद्धिमान्मनुष्येषु स युक्तः कृ त्स्नकर्मकृ त्॥ (गीता, ४/१८)
कर्म द्वारा वस्तु की स्थिति में परिवर्तन होता है। परिवर्तन उसी का होगा जिसमें स्थायित्व नहीं है, अर्थात् उसका पुनः परिवर्तन हो कर नाश निश्चित है। अतः कर्म में
अकर्म या निर्माण में विनाश का बीज छिपा हुआ है। इसी लिये कहा है-जातस्य हि ध्रुवोर्मृत्युर्ध्रुवं जन्म मृतस्य च। (गीता, २/२७)
ब्रह्म का अकर्म रूप सनातन है, कर्म रूप मृत्यु है।
शरीर नाशवान् है, पर उसके भीतर का द्रष्टा आत्मा अमर है।
इसी प्रकार मृत्यु में भी चेतन द्रष्टा रूप ब्रह्म विराजमान है। विश्व का मूल तत्त्व रस हर स्थान पर ज्यों कात्यों रहत है। रसो वै सः (तैत्तिरीयोपनिषद्, २/७/२)
शतपथ ब्राह्मण इसी यजुर्वेद की व्याख्या है जिसमें कहा है-
तदेष श्लोको भवति। अन्तरं मृत्योरमृतम्-इति। अवरं ह्येतन्मृत्योरमृतम्। मृत्यावमृतमाहितम्-इति। एतस्मिन् हि पुरुष एतन्मण्डलं प्रतिष्ठितं तपति। मृत्युर्विवस्वन्तं वस्ते-
इति। (शतपथ ब्राह्मण, १०/५/२/४)
= इसके विषय में श्लोक है-मृत्यु के भीतर अमृत है। मृत्यु से नीचे अमृत है (नाशवान् के बाद अमृत दीखता है)। मृत्यु द्वारा अमृत ढंका हुआ है। उसी के मण्डल में
पुरुष तपता है। विवस्वान् (सूर्य) में मृत्यु बसता है।
अध्याय ११-ईशावास्योपनिषद्, मन्त्र १५
हिरण्मयेन पात्रेण सत्यस्यापिहितं मुखम्। तत्त्वं पूषन्नपावृणु सत्यधर्माय दृष्टये॥१५॥
हे पूषन्। सत्य का मुख ज्योतिर्मय पात्र से ढंका हुआ है। मुझे सत्य धर्म दिखाने के लिये आप वह आवरण हटा लीजिये।
व्याख्या-१. आशय- इस का सामान्य अर्थ है कि मनुष्य हिरण्य (स्वर्ण, धन) के लोभ में पड़ कर सत्य नहीं देख पाता। धन रूपी माया का आवरण हटाने पर ही सत्य दीखता है।
कठोपनिषद् में धन तथा अन्य प्रिय वस्तुओं को वित्त-मयी सृङ्का (धन की शृङ्खला, बेड़ी) कहा है-
स त्वं प्रियान् प्रियरूपाँश्च कामा-नभिध्यायम्मचिके तोऽत्यस्राक्षीः।
नैताँ सृङ्कां वित्तमयीमवाप्तो, यस्यां मज्जन्ति बहवो मनुष्याः॥ (कठ उप. २/३)
प्रायः लोग इस अविद्या के आवरण में रह कर भी अपने को धीर और पण्डित मानते हैं और अपने ज्ञान का प्रचार करते हैं (ढोल पीटते हैं)। वे चक्र में घूमते रहते हैं (एक दूसरे को
उद्धृत करते हैं, मूल को नहीं-ऑक्सफोर्ड अनुसन्धान की तरह), जैसे एक अन्ध दूसरे को रास्ता दिखाता है।
अविद्यायामन्तरे वर्तमानाः, स्वयं धीराः पण्डितम्मन्यमानाः।
दन्द्रम्यमानाः परियन्ति मूढ़ा, अन्धेनैव नीयमाना यथान्धाः॥
(कठोपनिषद्, २/५, मुण्डकोपनिषद्, १/२/८)
हिरण्य, पूषा, सत्य-धर्म के कई अर्थ हैं।
२. हिरण्य-रमणीय, हिरम्य से हिरण्य-यह यम द्वारा कहा प्रिय वस्तुओं का बन्धन है।
तद्यस्य (प्रजापतेः) एतस्यां रम्यायां तन्वां देवा अरमन्त, तस्माद् हिरम्यँ हिरण्यँ ह वै तद् हिरण्यं इत्याचक्षते परोऽक्षम्। (शतपथ ब्राह्मण, ७/४/१/१६)
आकाश में सृष्टि का मूल हिरण्य या तेज पुञ्ज था। उससे जो लोक बने वे रजस् (गतिशील) या रजत (चान्दी)हैं और अन्तिम आधार तम या ताम्र (ताम्बा है)। अन्तिम स्तर पृथ्वी
पर पद रखते हैं, अतः इसे पद से उत्पन्न या पद्म कहा है।
हिरण्यगर्भः समवर्तताग्रे भूतस्य जातः पतिरेक आसीत्। स दाधार पृथिवीं द्यामुतेमां कस्मै देवाय हविषा विधेम॥
(ऋक् १०/१२१/१, वाजसनेयी यजुर्वेद १३/४, २३/१, अथर्व ४/२/७)
इमे वै लोका रजांसि। (यजुर्वेद ११/६, शतपथ ब्राह्मण ६/३/१/१८)
द्यौः वै तृतीयं रजः। (शतपथ ब्राह्मण ६/७/४/५)
मृत्युः वै तमः। (शतपथ ब्राह्मण १४/४/१/३२, गोपथ ब्राह्मण, उत्तर ५/१)
परिमण्डलः (गोलाकारः) उ वाऽअयं (पृथिवी) लोकः। (शतपथ ब्राह्मण ७/१/१/३७)
सौर मण्डल में सूर्य का तेज हिरण्य है, चन्द्र से परावर्तित रजस् तथा सूर्य तेज की सीमा शनि ताम्र है जो १००० सूर्य व्यास दूरी पर है। अतः सूर्य को सहस्रांशु कहते हैं। पृथ्वी को
लौह कहा है। सोना, चान्दी, ताम्बा को रसायन विज्ञान में उत्तम धातु (Noble metals) कहते हैं। सूर्य के स्वर् लोक जैसा-स्वर्ण, सोमो राजा जैसा रजत या चन्द्र जैसा चान्दी,
अयं लोक (पृथ्वी) से अयस् = लौह।
दिवस्त्वा पातु हरितं मध्यात्त्वा पात्वर्जुनम्। भूम्या अयस्मयं पातु प्रागाद्देवपुरा अयम्॥ (अथर्व, ५/२८/९)
= सुवर्ण (हरित) तेरी द्युलोक से रक्षा करे, रजत (अर्जुन = श्वेत) अन्तरिक्ष से रक्षा करे, लोहा (अयस्) भूमि स्थान से रक्षा करे।
चन्द्र या मध्य लोक रजत-एतत् (रजतं) रात्रि रूपम्। (ऐतरेय ब्राह्मण, ७/१२)
अन्तरिक्षस्य रजताः (तैत्तिरीय ब्राह्मण, ३/९/६/५)
सोमो राजा चन्द्रमाः (शतपथ ब्राह्मण, १०/४/२/१, कौषीतकि ब्राह्मण, ४/४/७/१०)
सूर्य की १००० रश्मि के बाद ताम्र-
युक्ता ह्यस्य (इन्द्रस्य) हरयः शतादशेति । सहस्रं हैत आदित्यस्य रश्मयः (इन्द्रः=आदित्यः)
(जैमिनीय उपनिषद् ब्राह्मण १/४४/५)
असौ यस्ताम्रो अरुण उत बभ्रुः सुमङ्गलः । ये चैनं रुद्रा अभितो दिक्षु श्रिताः सहस्रोऽवैषां हेड ईमहे ॥ (वा.यजु.१६/६)
लौह पुरी पृथ्वी-
(असुराः) अयस्मयीं (पुरं) अस्मिन् (पृथ्वी लोके ऽकु र्वत)। (कौषीतकि ब्राह्मण ८/८)
ते (असुराः) वा अयस्मयीमेवेमां (पृथिवीं) अकु र्वत। (ऐतरेय ब्राह्मण १/२३)
अयस्मयी पृथिवी। (गोपथ ब्राह्मण, उत्तर २/७)
अस्य वै (भू-) लोकस्य रूपमयस्मय्यः (सूच्यः)। (तैत्तिरीय ब्राह्मण ३/९६/५)
पृथ्वी पर भी आकाश के पुरों जैसे क्षेत्र हैं। असुरों ने स्वर्ण-रजत-लौह की ३ पुरी बनायी थी। इनका मिलन स्थान त्रिपुरी (लिबिया में त्रिपोली) था। भारत में भी इस नाम के कई
स्थान हैं-त्रिपुराराज्य, त्रिपुरी, जबलपुर के १५ कि.मी. पश्चिम तेवर आदि।
साधारणतः विषुव के निकट अन्ध या लौह भाग, मध्य में रजत तथा उत्तर में स्वर्ण भाग हैं।
उत्तर अफ्रीका में मुर-देश। मुर = लौह अयस्क, मुर्रम। मोरक्को के निवासियों को मुर कहते हैं। यहां के राजा को भगवान् कृ ष्ण ने मारा था, अतः उनको मुरारि कहते हैं। भारत का
दक्षिण भाग आन्ध्र (अन्ध) तमिल (तम) है। ब्राजील का अर्थ हिब्रू में लौह होता है।
मेक्सिको का संस्कृ त में माक्षिक = रजत होता है। दक्षिण में भी अर्जेण्टाइना को ग्रीक में रजत (अर्जेण्टम) कहते हैं।
भारत के उत्तर हेमकू ट (हिमालय) या जम्बूद्वीप का भी उत्तरी भाग हिरण्वान् है-श्वेतं तदुत्तरं वर्षं पित्रा दत्तं हिरण्वते॥ (विष्णु पुराण २/१/२०)
हिम का अर्थ बर्फ है पर हैम का अर्थ स्वर्ण भी है।
यूरोप में भी भूमध्य सागर के निकट मुर (लौह) क्षेत्र है। मध्य में श्वित्र (स्विट्जरलैण्ड) या भुवर् (बवेरिया) है। उत्तर भाग में स्वर्ग (स्वीडेन का स्थानीय नाम) है।
इन क्षेत्रों या स्तरों की सीमा में नहीं बन्ध कर अर्थात् बिना पक्षपात के मूल सत्य देखना चाहिये।
३. पूषा-पूषा का शाब्दिक अर्थ है जो पोषण करे या पुष्ट करे। इसके जितने साधन या स्रोत हैं उनको भी पूषा कहा गया है।
पुष्टिर्वै पूषा (तैत्तिरीय ब्राह्मण, २/७/२/१, शतपथ ब्राह्मण, ३/१/४/९)
इयं वै पृथिवी पूषा (शतपथ ब्राह्मण, २/५/४/७, ३/२/४/१९)
(वाज. यजु. ३८/३, १५)-अयं वै पूषा योऽयं (वातः) पवतऽ एष हीदँ सर्वं पुष्यति। (शतपथ ब्राह्मण, १४/२/१/९)
पूष्णो रेवती (नक्षत्रम्)। गावः परस्ताद् वत्सा अवस्तात्। (तैत्तिरीय ब्राह्मण, १/५/१/५)
तस्य (पूष्णः) दन्तान् परोवाप तस्माद् आहुः अदन्तकः पूषा करम्भ भाग इति। (कौषीतकि ब्राह्मण, ६/१३)
यहां सर्वज्ञ (विश्ववेदा) अर्थ में पूषा से प्रार्थना की गयी है कि वह हमें सत्य धर्म दिखायें। स्वस्ति वाचन में इसी पूषा को सम्बोधित किया गया है-स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदा (ऋक् ,
१/८९/६, वाज. यजु. २५/१९)
विश्ववेदा जैसे अर्थ में यह अन्तिम नक्षत्र रेवती का स्वामी है। इस नक्षत्र में ३२ तारा हैं, जितने मनुष्य के दांत होते हैं। दक्ष यज्ञ में वीरभद्र द्वारा दक्ष के दांत तोड़े गये थे जिसके बाद
शिव के आशीर्वाद से वे यजमानों के दांत से ही पिष्ट (पीसा हुआ) अन्न खाते हैं (भागवत पुराण, ४/५/२१, ४/७/४)
रेवती नक्षत्र में जब सूर्य रहता है तब सूर्य का नाम पूषा होता है (कू र्म पुराण, ४३/१९)। सूर्य नमस्कार में भी यह नाम पढ़ा जाता है।
वामन के विराट् रूपमें पूषा भ्रू (भौंह) पर है (मत्स्य पुराण, २४६/५८)। यह आवरण हटने पर आंख से दीखता है।
४. सत्य-धर्म-हिरण्यगर्भ ही मूल सत्य है जिससे अन्य सत्य उत्पन्न हुये। इसे सत्यस्य सत्य कहा गया है। एक त्रिसत्य है-नाम, रूप, गुन से सत्य या प्रत्यक्ष, अनुमान, प्रमाण से
सत्य। इसके अतिरिक्त ७ प्रकार के सत्य हैं, जो भगवान् कृ ष्ण के स्वरूप ब्रह्मा द्वारा कहे गये हैं-
सत्यव्रतं सत्यपरं त्रिसत्यं सत्यस्य योनिं निहितं च सत्ये।
सत्यस्य सत्यं ऋत-सत्यनेत्रं सत्यात्मकं त्वां शरणं प्रपद्ये॥ (भागवत पुराण, १०/२/२६)
हिरण्यगर्भ रूप आवरण को हटा कर उस परम सत्य रूपी ब्रह्म को देखना ही चरम लक्ष्य है।
सत्य के ३ भाग इसके अक्षरों में हैं-पहले सत्ता (स्थिति) दीखती है, वह ’स’ है। उसके बाद पता चलता है कि इसमें क्या नहीं है, यह अनृत (ऋत् का अभाव) ’त्’ (ती) है।
दोनों का विचार करने पर ’य’ पूर्ण सत्य का ज्ञान है।
ते देवाः सत्यमेवोपासते तदेतत् त्र्यक्षरँ सत्यमिति स इत्येकमक्षरं तीत्येकमक्षरं यमित्येकमक्षरं प्रथमोत्तमे अक्षरे सत्यं मध्यतोऽनृतं तदेतत् अनृतं उभयतः सत्येन परिगृहीतं सत्य
भूयमेव भवति नैवं विद्वाँसमनृतँ हिनस्ति॥ (बृहदारण्यक उपनिषद्, ५/५/१)
सत्य सत्ता है, धर्म धारण करता है (व्यक्ति, समाज, देश को)। दोनों के ज्ञान से पोषण होता है जिसका कर्त्ता पूषा है।
सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म (तैत्तिरीय उपनिषद्, २/१/१)
सत्यं प्रियहितं च यत् (गीता, १७/१५)
धारणाद्धर्ममित्याहुर्धर्मो धारयते प्रजाः। यत् स्याद् धारणसंयुक्तं स धर्म इति निश्चयः॥ (महाभारत, कर्ण पर्व, ६९/५८, शान्ति पर्व, १०९/११)
अध्याय १२-ईशावास्योपनिषद्, मन्त्र १६
पूषन्नेकर्षे यम-सूर्य, प्राजापत्य व्यूहरश्मीन् समूह।
तेजो यत्ते रूपं कल्याणतमं तत्ते पश्यामि, योऽसावसौ पुरुषः सोऽहमस्मि॥१६॥
अर्थ-(पूषन्) हे भक्तों का पोषण करने वाले (एकर्षे) एकर्षि! (यम) नियन्ता और सूर्य रूप में (प्राजापत्य) प्रजा का पालन करने वाली (व्यूह रश्मीन् समूह) रश्मि
समूह का व्यूह या समन्वय हैं। (तेजो यत् ते रूपं कल्याणतमं) आपका कल्याण तम तेज रूप है, (तत् ते पश्यामि) मैं उसे देख रहा हूँ। व्यूह का अर्थ हटाना कई
लोगों ने हटाना किया है, आप अपनी तेज रश्मियों का व्यूह हटा कर के वल कल्याणकारी रूप रहने दें जिसे मैं देख सकूँ । (यो असौ असौ पुरुषः) उसमें जो वह पुरुष
है, (सो अहम् अस्मि) वही (वैसा ही) मैं हूँ।
व्याख्या-
१. व्यूह-(वि + ऊह् + घङ् ) समूह, निकर, उत्कर। युद्धभूमि में सेना की व्यवस्था, संरचना।
समग्रस्य तु सैन्यस्य विन्यास स्थानभेदतः। स व्यूह इति विख्यातो युद्धेषु पृथिवीभुजाम्॥ (शब्द रत्नावली, ६८७)
निर्माण, रचना, तर्क देह। सेना संगठन जैसा अन्य वस्तुओं को कार्य गुण आदि के अनुसार अलग अलग स्थानों पर स्थापित करना।
यः सात्वतैः समविभूतय आत्मवद्भिः व्यूहेऽर्चितः सवनशः स्वरति क्रमाय॥ (भागवत पुराण, ११/६/१०)
यावद् बुद्धि मनोऽक्षार्थ गुणव्यूहोह्यनादिमान् (भागवत पुराण, ४/२९/७०)
रश्मियों का जो व्यूह है उसी से सृष्टि हो रही है, जहां जितनी आवश्यकता है, वहां उतनी रश्मियों का उपयोग हो रहा है।
२. एकर्षि-ऋषि शब्द ७ संख्या के लिये प्रयुक्त होता है। अतः ७ प्रकार के ऋषि हैं, जिनमें ४ की व्याख्या पण्डित मधुसूदन ओझा ने महर्षि-कु ल-वैभव में की है-
(१) असत् प्राण-यह सबसे सूक्ष्म होने के कारण अदृश्य प्राण (ऊर्जा) है-
असद्वा ऽइदमग्र ऽआसीत् । तदाहः – किं तदासीदिति । ऋषयो वाव तेऽग्रेऽसदासीत् । तदाहुः-के ते ऋषय इति ।
ते यत्पुराऽऽस्मात् सर्वस्मादिदमिच्छन्तः श्रमेण तपसारिषन्-तस्मादृषयः (शतपथ ब्राह्मण, ६/१/१/१)
= आरम्भ में असत् ही था। यह असत् क्या था? सबसे पहले ऋषि ही असत् थे। ये ऋषि कौन हैं? जिन्होंने सबसे पहले इस संसार निर्माण की इच्छा (संकल्प) से
श्रम (कर्म) और तप (कर्म का प्रभाव) द्वारा सबको खींचा, अतः ऋषि (रस्सी) हैं।
ऋषि से विश्व की सृष्टि का आरम्भ मनुस्मृति में भी है-
ऋषिभ्यः पितरो जाताः पितॄभ्यो देव दानवाः। देवेभ्यश्च जगत्सर्वं चरं स्थाण्वनुपूर्वशः॥ (मनुस्मृति, ३/२०१)
= ऋषियों से पितर हुये, पितरों से देव-दानव, देवों से (दानवों से नहीं) सम्पूर्ण जगत्, जो चर, स्थिर और अनुपूर्व हैं। (चर, स्थिर आपेक्षिक शब्द हैं, जगत् का अर्थ
ही है कि विश्व में सभी गतिशील हैं। अनुपूर्व = आगे-पीछे, इसका विशेषण होने पर कोई विशेष अर्थ नहीं होता कि चर पहले हुआ या अचल स्थाणु। यह आगे पीछे के
सम्बन्ध का विशेष तत्त्व है)।
मनुष्य से आरम्भ कर छोटे विश्व क्रमशः १-१ लाख भाग छोटे हैं-
वालाग्र शत साहस्रं तस्य भागस्य भागिनः। तस्य भागस्य भागार्धं तत्क्षये तु निरञ्जनम् ॥ (ध्यानविन्दु उपनिषद् , ४)
= वालाग्र हमारे शरीर का १०० हजार भाग है, इसी क्रम से १-१ लाख भाग ७वें क्रम पर निरञ्जन (किसी भी अञ्जन या यन्त्र से नहीं दीखता) है। यहां पूर्व व्याख्या
के अनुसार मूल ऋषि तत्त्व ही निरञ्जन है।
मनुष्य से छोटे विश्वों का क्रम हुआ-मनुष्य, कलिल, जीव (परमाणु, atom), कु ण्डलिनी (परमाणु की नाभि, nucleus), जगत् (परमाणु के गतिशील कण, चर
= हलके लेप्टान, Lepton, स्थाणु = भारी बेरियान, Baryon, कणों को जोड़ने वाले मेसान, Meson), देव-दानव (जिस प्राण या ऊर्जा से निर्माण हो
सकता है, वह देव है। जिससे निर्माण नहीं होता वह असुर प्राण है), पितर (देव-दानव प्राणों का स्रोत, Proto-type), ऋषि (रस्सी = String)।
आजकल भी मूल स्ट्रिंग से विश्व का निर्माण मानते हैं। यह सबसे छोटा पदार्थ है जिसकी लम्बाई प्लांक दूरी कहते हैं जो १.३५ मीटर का १० घात ३५ भाग है।
मनुष्य की लम्बाई चौड़ाई का औसत १.३५ मीटर लेने पर इससे ७ स्तर छोटा विश्व भी इतने ही आकार का होगा।
(२) ऋषि आयाम- १० आयामी विश्व का १० महाविद्या आदि से निर्देश किया है। आशा, दशा, दिशा-सभी का अर्थ दिशा है, जो १० होती हैं। १० आयाम हैं-०-
विन्दु, १-रेखा, २-पृष्ठ या सतह, ३-आयतन, आयु। ४- पदार्थ (चतुर्मुख ब्रह्मा। आइन्स्टाईन के सापेक्षवाद में इसे प्रथम ३ आयामों के विश्व की वक्रता माना गया
है। ५-काल (पञ्चमुखी शिव)। ६-पुरुष, इससे चयन या चिति। ७ ऋषि। ८-नाग या वृत्र। ९ -नन्द या रन्ध्र। १०-रस या आनन्द।
(३) तारागण-जैसे ७ तारा समूह को सप्तर्षि कहते हैं।
एकं द्वे त्रीणि चत्वारीति वा अन्यानि नक्षत्राणि। अथैता एव भूयिष्ठा यत् कृ त्तिकाः। ---ऋक्षाणां ह वा एता अग्रे पत्न्य आसुः। सप्तर्षी नु ह स्म पुरर्क्षा इत्याचक्षते। ---अमी
ह्युत्तरा हि सप्तर्षय उद्यन्ति पुर एताः।.. (शतपथ ब्राह्मण २/१/२/१-२) = अन्यान्य नक्षत्रों में १, २, ३, या ४ तारे हैं, किन्तु कृ त्तिका में बहुत तारे हैं। पहले भालू के
समान आकार वाले ऋक्ष नाम के नक्षत्रों की ये पत्नियां थीं। यह जो सप्तर्षि मण्डल है, इन सप्तर्षियों को ही पुराने जमाने में ऋक्ष कहते थे। सप्तर्षि मण्डल ध्रुवतारा के
सन्निकट उत्तर दिशा में है और ये कृ त्तिका के तारे पूर्व में हैं।
जज्ञानः सप्त मातृभिर्मेधामाशासत श्रिये। अयं ध्रुवो रयीणां चिके त वा। (साम सं. २/५)
= सप्तर्षि नाम से प्रसिद्ध ७ तारा, जो जगत् के उत्पादक होने के कारण माता का स्थान लेते हैं, इन मातृ-रूप ७ नक्षत्रों के साथ ध्रुव सृष्टि के आदि में उत्पन्न हुआ है।
यह ध्रुव यजमान को श्री सम्पन्न करता है, धन का वितरण जानता है।
(४) सृष्टि तत्त्व-विश्व तत्त्व रूप में ऋषि-
साकञ्जानां सप्तथमाहुरेकजं षडिद्यमा ऋषयो देवजा इति।
तेषामिष्टानि विहितानि धामशः स्थात्रे रेजन्ते विकृ तानि रूपशः॥ (ऋक् १/१६४/१५)
७ ऋषि एक साथ रहते हैं, १ मूल ऋषि से ३ युग्म हुये। मूल एक ही प्रकार का था एकर्षि-इससे निर्माण आरम्भ हुआ अतः यह प्राजापत्य है। यह स्रोत (सूर्य) से
अन्त (यम) तक की गति है, जिसे पूषा कहा है-
पूषन् एकर्षे यम सूर्य प्राजापत्य व्यूहरश्मीन् समूह (ईशावास्योपनिषद्, १६)।
पूषा में ३ जोड़ों का विभाजन नहीं हुआ है, अतः अह अत्रि है। सौर मण्डल में आकर्षण भृगु है, तेज का विकिरण अङ्गिरा (अंगारा) है। दोनों का सन्तुलन चन्द्र कक्षा
के भीतर है जिसे अत्रि (अत्र = यहां) कहा गया है जिससे पृथ्वी पर जीवन की सृष्टि होती है। इसी प्रकार माता के गर्भ में रज-वीर्य के संयोग से मनुष्य जन्म होता है।
सूर्य के तेज से चन्द्र क्षेत्र में अत्रि होता है अतः उसे सूर्य (नयन) से उत्पन्न कहा है-
अथ नयन समुत्थं ज्योतिरत्रेरिवद्यौः, सुरसरिदिव तेजो वह्नि निष्ठ्यूतमैशम्।
नरपति कु लभूत्यै गर्भमाधत्त राज्ञी, गुरुभिरभिनिविष्टं लोकपालानुभावैः॥ (रघुवंश २/७५)
विश्व के तत्त्व-अर्चिर्षि भृगुः सम्बभूव, अङ्गारेष्वङ्गिराः सम्बभूव। अथ यदङ्गारा अवशान्ताः पुनरुद्दीप्यन्त, तद् बृहस्पतिरभवत्। (ऐतरेय ब्राह्मण ३/३४)
इमामेव गोतम-भरद्वाजौ। अयमेव गोतमः, अयं भारद्वाजः । इमामेव विश्वामित्र-जमदग्नी। अयमेव विश्वामित्रः, अयं जमदग्निः। इमामेव वसिष्ठ-कश्यपौ। अयमेव वसिष्ठः,
अयं कश्यपः। वागेवात्रिः। वाचा ह्यन्नमद्यते। अत्तिर्ह वै नामैतद्यत्रिरिति। सर्वस्यात्ता भवति, सर्वमस्यान्नं भवति, य एवं वेद। (शतपथ ब्राह्मण १४/५/२/६, बृहदारण्यक
उपनिषद् २/२/४)
३ युग्मों के अलग अलग रूप-
प्राणो वै वसिष्ठ ऋषिः, यद्वै नु श्रेष्ठस्तेन वसिष्ठः। अथो यद् वस्तृतमो वसति, तेनो एव वसिष्ठः। मनो वै भरद्वाज ऋषिः। अन्नं वाजः। यो वै मनो बिभर्ति, सोऽन्नं वाजं
भरति। तस्मान् मनो भरद्वाज ऋषिः। (शतपथ ब्राह्मण ८/१/१/६)
चक्षुर्वै जमदग्नि ऋषिः। यदनेन जगत् पश्यति, अथो मनुते तस्माच्चक्षुर्जमदग्नि ऋषिः। (शतपथ ब्राह्मण ८/१/२/३)
श्रोत्रं वै विश्वामित्र ऋषिः। यदेनेन सर्वतः शृणोति। अथो यदस्मै सर्वतो मित्रं भवति। तस्माच्छ्रोत्रं विश्वामित्र ऋषिः। (शतपथ ब्राह्मण ८/१/२/६)
वाग् वै विश्वकर्मा ऋषिः। वाचा हीदं सर्वं कृ तम्। तस्माद् वाग् विश्वकर्म ऋषिः। (शतपथ ब्राह्मण ८/१/२/९)
बृहदारण्यक उपनिषद् (३/९/९) में प्राण को देव कहा गया है (एको देव इति प्राण इति स ब्रह्म )। ऋषि को भी असत् प्राण कहा है। प्राण का मूल असत् रूप ऋषि है,
उसका व्यक्त रूप देव है, जिसका अनुभव हो सकता है।
आधुनिक भौतिक विज्ञान में भी मूल आकर्षण शक्ति से ३ अन्य बलों के विभाजन की कल्पना है-विद्युत्-चुम्बकीय बल, नाभिकीय सशक्त बल, नाभिकीय अशक्त
बल।
विश्व के ४ मूल बल पक्षी के शरीर कहे हये हैं। इसके २ पक्ष (पंख) साम्य हैं। विषमता पुच्छ है।
त इद्धाः सप्त नाना पुरुषानसृजन्त। स एतान् सप्त पुरुषानेकं पुरुषमकु र्वन्-यदूर्ध्वं नाभेस्तौ द्वौ समौब्जन्, यदवाङ् नाभेस्तौ द्वौ। पक्षः पुरुषः, पक्षः पुरुषः। प्रतिष्ठैक
आसीत्। अथ या एतेषां पुरुषाणां श्रीः, यो रस आसीत्-तमूर्ध्व समुदौहन्। तदस्य शिरोऽभवत्। स एवं पुरुषः प्रजापतिरभवत्। स यः सः पुरुषः-प्रजापतिरभवत्, अयमेव
सः, योऽयमग्निश्चीयते(कायरूपेण-शरीररूपेण-मूर्त्तिपिण्डरूपेण-भूतपिण्डरूपेण)। स वै सप्तपुरुषो भवति। सप्तपुरुषो ह्ययं, पुरुषः-यच्चत्वार आत्मा, त्रयः पशुपुच्छानि।
(शतपथ ब्राह्मण ६/१/१/२-६)
गीता का रहस्यात्मक श्लोक इसी ऋषि तत्त्व का वर्णन करता है-
महर्षयः सप्त पूर्वे चत्वारो मनवस्तथा। मद्भावा मानसा जाता येषां लोक इमां प्रजाः॥ (१०/६)
= महर्षि ७ हैं, इसके पूर्व ४ हैं (एकर्षि अत्रि तथा उससे उत्पन्न ३ युग्म)। ये परब्रह्म के संकल्प से हुए तथा इनसे लोक और प्रजा की सृष्टि हुयी।
(४) गोत्र प्रवर्त्तक ऋषि-मनुष्य तथा सृष्टि के गोत्र एक ही जैसे हैं-७ स्तरों तक हैं। मुण्डक उपनिषद् (१/२/४) में अग्नि की ७ जिह्वा का वर्णन है जिससे अग्नि (पदार्थ
या ऊर्जा का सघन रूप) प्रकार से बाह्य चीजों को ग्रहण करता है। मुण्डक (२/१/८) में इससे ७ प्राण, ७ लोक, ७ अर्चि, ७ समिधा, ७ होम, ७ गुहाशय आदि हैं।
काली कराली च मनोजवा च सुलोहिता या च सुधूम्रवर्णा।
स्फु लिङ्गिनी विश्वरुची च देवी लेलायमाना इति सप्तजिह्वाः॥(मुण्डक १/२/४)
सप्त प्राणाः प्रभवन्ति तस्मात्, सप्तार्चिषः समिधः सप्त होमाः।
सप्त इमे लोका येषु चरन्ति प्राणा गुहाशया निहिताः सप्त सप्त॥ (मुण्डक २/१/८)७ लोक हैं-सत्य, तपः (दृश्य जगत्), जनः (आकाशगंगा), महः (ब्रह्माण्ड की
सर्पाकार भुजा में सूर्य के न्द्रित गोल, मोटाई बराबर व्यास), स्वः (सौर मण्डल), भुवः (ग्रह कक्षा), भू (पृथ्वी)। इनके तत्त्वों के अनुसार अग्नि के ७ रूप या विवर्त्त हैं-
१. ब्रह्माग्नि (स्वयम्भू-अग्निर्वै ब्रह्मा-शतपथ ब्राह्मण ३/२/२/७, षड्विंश १/१)
२. देवाग्नि (सौर)-तद् वा एनं एतद अग्रे देवानां अजनयत, तस्माद् अग्निः (शतपथ ब्राह्मण् २/२/४/२)
३. अन्नाद अग्नि-इयं (पृथिवी) वा अन्नादी (कषीतकि ब्राह्मण २७/५)
४. सम्वत्सराग्नि-सम्वत्सरो वै यज्ञः प्रजापतिः (शतपथ ब्राह्मण १/२/५/१२) सम्वत्सरः (सौर मण्डल के क्षेत्र) वै देवानां जन्म (शतपथ ब्राह्मण ८/७/३/२)
५. कु माराग्नि-तानि इमानि भूतानि च, भूतानां च पतिः, सम्वत्सरे उषसि रेतो असञ्चत्। सम्वत्सरे कु मारो अजायत। सो अरोदीत्, तस्मात् रुद्रः। (शतपथ ब्राह्मण
६/१/३/८-१०)
६. चित्राग्निः (विविध रूप)-अग्निर्वै रुद्रः, आपो वै सर्वः, ओषधय वै पशुपतिः, वायुर्वा उग्रः, विद्युत् वा अशनिः तानि एतानि अष्टौ अग्नि रूपाणि। कु मारो नवमः। --- सो
अयं कु मारो रूपानि अनुप्राविशत्। तस्य चितस्य (चिति, रूप) नाम करोति। चित्र नामानं करोति...सर्वाणिहि चित्राणि अग्निः। (शतपथ ब्राह्मण ६/१/३) चित्राणि साकं
दिवि रोचनानि (अथर्व १९/७/१) चित्रं देवानां उद् अगाद् अनीकं (ऋक् १/११५/१, अथर्व १३/२/३५, वाजसनेयि ७/४२)
७. पाशुकाग्निः-जीव सृष्टि-स यो अयं कु मारो रूपाणि अनुप्रविष्ट आसीत्, तं अन्वैच्छत।... स एतान् पञ्च पशून् अपश्यत्-पुरुषं, अश्वं, गां, अविं अजम्। यद् अपश्यत्,
तस्मात् एते पशवः। .. इमे वा अग्निः (शतपथ ब्राह्मण ६/१/४/१-४)॥
इसी प्रकार मनुष्य का भी गुण ७ पीढ़ी तक चलता है। इनके विन्दुओं को सह कहा है, इनका सम्बन्ध सूत्र तन्तु तथा इनका रूपान्तर या विवर्त्त सूनु (सन्तान) है।
कु ल ८४ विन्दु कहे गये हैं जिनमें २८ गर्भ काल में १० बार चन्द्र की २८ नक्षत्रों में गति के अनुसार हैं, अर्थात् उस समय की खगोलीय स्थिति का प्रभाव। ५६
मनुष्य के हैं-जिनमें कु छ उसके अपने पूर्व जन्म के संचित कर्म या संस्कार हैं, बाकी माता पिता से मिले हैं। आधुनिक सिद्धान्तों के अनुसार माता-पिता से ४६
क्रोमोजोम मिलते हैं। बाकी १० पूर्व जन्म के संस्कारों के कहे जा सकते हैं। ४६ या ५६ सह-विन्दु ७ बार तक विभाजित हो सकते हैं, अतः पिण्ड (ठोस, पूर्ण वस्तु)
प्रभाव ७वीं पीढ़ी तक रहेगा।
५६ के विभाजन-२८, १४, ७, ४, २, १ (मूल को मिला कर ७ स्तर)
४६ के विभाजन-२३, १२, ६, ३, २, १।
पिण्ड से सूक्ष्म जल जैसा है जिसे उदक कहते हैं, यह अगली ७ पीढ़ियों तक प्रभावी रहता है। १४ पीढ़ी तक उदक् प्रभाव विश्व के १४ भूत सर्ग के अनुसार हैं।
पितर तर्पण में पिण्ड और उदक तक ही तर्पण करते हैं। कु ल परम्परा नष्ट होने से पिण्डोदक क्रिया बन्द हो जाती है-पतन्ति पितरो ह्येषां, लुप्त पिण्डोदक क्रियाः
(गीता १/४२)। पिण्ड में भी मूल से ३ पूर्व तक के वल पिण्ड तथा उससे पूर्व के ३ लेप (पिण्ड + जल) हैं।
इससे आगे ७ पीढ़ी तक ऋषि प्रभाव रहता है। गोत्र कारक ऋषि अङ्गिरा (अङ्गार = निकलना) के विवर्त्त हैं, जो २१ प्रकार के हैं-ये त्रिषप्ताः परियन्ति विश्वाः (अथर्व
१/१/१),
सप्तास्यासन् परिधयः, त्रिस्सप्त समिधः कृ ताः (पुरुष सूक्त, १५)
एकविंशौ ते अग्न ऊरू (काठक संहिता ३९/२, आपस्तम्ब श्रौत सूत्र १६/३३/५).,
एकविंशो ब्रह्मसम्मितः (गोपथ ब्राह्मण पूर्व ५/२५), एकविंशो वै पुरुषः। (तैत्तिरीय ब्राह्मण ३/३/७/१),
एकविंशोऽग्निष्टोमः (ताण्ड्य महाब्राह्मण १६/१३/४)
तान् (पशून्) विष्णुरेकविंशेन स्तोमेनाप्नोत्। (तैत्तिरीय ब्राह्मण २/७/१४/२)
यदेकविंशो यदेवास्य (यजमानस्य) पदोरष्ठीवतोरपूतं तत्तेनापयन्ति (?अपहन्ति)। (ताण्ड्य महाब्राह्मण १७/५/६)
विरूपास इदृषयस्त इद् गम्भीरवेपसः। ते आङ्गिरसः सूनवस्ते अग्नेः परिजज्ञिरे॥ (ऋक् १०/६२/५)
(५) स्रष्टा ऋषि - सृष्टि के तत्त्व रूप में १० या १२ ऋषि ब्रह्मा के शरीर से उत्पन्न कहे गये हैं। इनमें ७ विश्व में व्याप्त बल हैं जिनको पक्षी रूप में कहा गया है -४ मूल
बल, २ समता रूपी पक्ष, १ विषमता रूपी पुच्छ। इनके नाम वही हैं जो सप्तर्षि मण्डल के ऋषियों के हैं।
मनुस्मृति-मरीचिमत्र्यङ्गिरसौ पुलस्त्यं पुलहं क्रतुम्। प्रचेतसं वसिष्ठं च भृगुं नारदमेव च।३५॥
ब्रह्मवैवर्त्त पुराण-ब्रह्म खण्ड, अध्याय ८-
पुलस्त्यो दक्षकर्णाच्च पुलहो वामकर्णतः। दक्ष नेत्रात्तथाऽत्रिश्च वाम नेत्रात् क्रतुः स्वयम्॥२४॥
अरणिर्नासिकारन्ध्रादङ्गिराश्च मुखाद्रुचिः। भृगुश्च वाम पार्श्वाच्च दक्षो दक्षिण पार्श्वतः॥२५॥
छायायाः कर्दमो जातो नाभेः पञ्चशिखस्तथा। दक्षसश्चैव वोढु श्च कण्ठ देशाच्च नारदः॥२६॥
मरीचिः स्कन्धदेशाच्चैवापान्तरतमा गलात्। वसिष्ठो रसना देशात् प्रचेता अधरोष्ठतः॥२७॥
हंसश्च वामकु क्षेश्च दक्षकु क्षेर्यतिः स्वयम्। सृष्टिं विधातुं स विधिश्चकाराऽऽज्ञां सुतान् प्रति॥२८॥
(६) वेद प्रवर्त्तक ऋषि-अध्ययन के ७ मुख्य के न्द्र थे, जो ७ ऋषियों के नाम से थे। ये ७ ब्रह्मा के मानस पुत्र कहे गये हैं। भृगु (शिव द्वारा ग्रहण) तथा हंस मिला कर
९ के न्द्र थे।
वेद मन्त्रों के द्रष्टा कई ऋषि हैं। इनका वही नाम है जिस तत्त्व का इन्होंने दर्शन किया। कई स्थानों पर तत्त्वों को भी ऋषि कहा गया है, जैसे वाक् , नदी, आदि।
मन्त्रद्रष्टा ऋषियों के कई प्रकार विभिन्न पुराणों में वर्णित हैं-
महर्षि = जो विश्व तथा महः (बाह्य आवरण) का सम्बन्ध समझे।
ब्रह्मर्षि = जो अव्यक्त ब्रह्म का स्वरूप, उसके ध्यान आदि के विषय में बताये।
देवर्षि = जो विश्व के प्राण रूप देवों की व्याख्या करे।
श्रुतर्षि = वैदिक तत्त्वों को ग्रहण कर उनका व्यावहारिक प्रयोग आयुर्वेद आदि द्वारा।
राजर्षि = वैदिक सिद्धान्तों का समाज चलाने में प्रयोग करने वाले महान् राजा।
परमर्षि = मूल तत्त्व का वर्गीकरण और व्याख्या करने वाले।
काण्डर्षि = किसी एक शाखा या विद्या की व्याख्या करने वाले।
इनके विस्तृत उदाहरण वायु पुराण, अध्याय ५९, गरुड़ पुराण अध्याय (१/५), ब्रह्मवैवर्त्त पुराण अध्याय (१/८) आदि में हैं।
(७) मुख्य सप्तर्षि-इनमें मुख्य ७ सप्तर्षि माने जाते हैं-
गोत्र प्रवर्तक ऋषि-१. भरद्वाज, २. कश्यप, ३. गोतम, ४. अत्रि, ५ विश्वामित्र, ६. जमदग्नि, ७. वसिष्ठ।
ज्ञान या वेद प्रवर्तक-१. वसिष्ठ, २. अगस्त्य, ३. भृगु, ४. अङ्गिरा, ५. अत्रि, ६. पुलह, भरद्वाज।
स्रष्टा ऋषि-१. मरीचि, २. अङ्गिरा, ३. अत्रि, ४. वसिष्ठ, ५. पुलस्त्य, ६. पुलह, ७ क्रतु।
३. यम-सूर्य-ये दोनों विपरीत तत्त्व हैं। सूर्य का अर्थ जन्म देना, उत्पन्न करना। यम का अर्थ है मृत्यु। एक निर्माण के न्द्र है, दूसरा लय का के न्द्र। इनके बीच का सूत्र
एकर्षि, पूषा या अत्रि है जिससे सृष्टि तथा उसका पालन हो रहा है। सृष्टि पालन का काम प्रजापति का है। सूर्य स्रष्टा या कर्त्ता रूप है, यम नियमन रूप है। मनुष्य शरीर
में यह आत्मा और जीव हैं, जिनको २ सुपर्ण पक्षी कहा गया है। विराट् सृष्टि में भी एक कर्त्ता रूप है जिसे क कहते हैं। दूसरा साक्षी रूप है जिसे वृक्ष कहा है। निर्माण
के क्रम रूप में भी यह वृक्ष है।
द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्षं परिषस्वजाते। तयोरन्यः पिप्पलं स्वादु-अत्ति अनश्नन् अन्यो अभिचाकषीति॥
(ऋक् १/१६४/२०, अथर्व ९/९/२०, श्वेताश्वतर उपनिषद् ४/६, मुण्डक उपनिषद् ३/१/१)
यस्मात् परं नापरमस्ति किञ्चित्, यस्मान्नाणीयो न ज्यायोऽस्ति कश्चित्।
वृक्ष इव स्तब्धो दिवि तिष्ठत्येनेदं पूर्णं पुरुषेण सर्वम्॥ (श्वेताश्वतर उपनिषद् ३/९)
कस्मै देवाय हविषा विधेम (वाज. यजु. १२/१०२) प्रजापतिर्वै कः (ऐतरेय ब्राह्मण, २/३८)
क प्राण रूप है-
प्राणो वाव कः (जैमिनीय उपनिषद् ४/२३/४०)
उसकी गति र् (रवि, अग्नि तत्त्व) से म (लय, तत्त्व) तक, होती है, अतः इसे रं कहते हैं-
रकारं अग्निबीजं (ध्यानविन्दु उपनिषद्, ९५) मकारे तु लयं प्राप्ते (ध्यानविन्दु उप. १२)
मनुष्य में यही रं ब्रह्म रूप है, विराट् पुरुष में इसे सूर्य से यम तक गति वाला पूषा कहते हैं।
४. विश्व और व्यक्ति पुरुष-दोनों एक नहीं हैं, एक जैसे हैं। अतः दोनों को पुरुष ही कहते हैं। पुरुष सूक्त में पुरुष के सभी स्तरों का वर्णन है।
(१) पूरुष = ४ पाद का मूल स्वरूप, (२) सहस्रशीर्ष-उससे १००० प्रकार के सृष्टि विकल्प या धारा, (३) सहस्राक्ष =हर स्थान अक्ष या के न्द्र मान सकते हैं,
(३) सहस्रपाद-३ स्तरों की अनन्त पृथ्वी, (४) विराट् पुरुष-दृश्य जगत् जिसमें ४ पाद में १ पाद से ही सृष्टि हुई। १ अव्यक्त से ९ प्रकार के व्यक्त हुए जिनके ९
प्रकार के कालमान सूर्य सिद्धान्त (१५/१) में दिये हैं। अतः विराट् छन्द के हर पाद में ९ अक्षर हैं। (५) अधिपूरुष (६) देव, साध्य, ऋषि आदि, (६) ७ लोक का
षोडषी पुरुष, (७) सर्वहुत यज्ञ का पशु पुरुष, (८) आरण्य और ग्राम्य पशु, (९) यज्ञ पुरुष (१०) अन्तर्यामी आदि।
पुरुष की सभी परिभाषा मधुसूदन ओझा जी ने श्लोकों में दी हैं-
पुरु व्यवस्यन् पुरुधा स्यति स्वतस्ततः स उक्तः पुरुषश्च पूरुषः।
पुरा स रुष्यत्यथ पूर्षुरुच्यते स पूरुषो वा पुरुषस्तदुच्यते। धी प्राणभूतस्य पुरे स्थितस्य सर्वस्य सर्वानपि पाप्मनः खे।
यत्सर्वतोऽस्मादपि पूर्व औषत् स पूरुषस्तेन मतोऽयमात्मा॥ स व्यक्तभूते वसति प्रभूते शरीरभूते पुरुषस्ततोऽसौ।
पुरे निवासाद्दहरादिके वा वसत्यतं ब्रह्मपुरे ततोऽपि॥ (ब्रह्म सिद्धान्त ११/१७२-१७४)
त्रिदण्डी स्वामी की पुरुष सूक्त व्याख्या में पद्म पुराण की परिभाषा उद्धृत है जो अभी उपलब्ध पुराण में नहीं मिलती-
पुं संज्ञे तु शरीरेऽस्मिन् शयनात् पुरुषो हरिः। शकारस्य षकारोऽयं व्यत्ययेन प्रयुज्यते॥
यद्वा पुरे शरीरेऽस्मिन्नास्ते स पुरुषो हरिः। यदि वा पुरवासीति पुरुषः प्रोच्यते हरिः॥
यदि वा पूर्वमेवासमिहेति पुरुषं विदुः। यदि वा बहुदानाद्वै विष्णुः पुरुष उच्यते॥
पूर्णत्वात् पुरुषो विष्णुः पुराणत्वाच्च शार्ङ्गिणः। पुराणभजनाच्चापि विष्णुः पुरुष ईर्यते॥
यद्वा पुरुष शब्दोऽयं रूढ्या वक्ति जनार्दनम्।
पुरुष (विश्व या व्यक्ति या वस्तु) के ४ रूप कहे गये हैं-बाहरी स्थूल रूप क्षर है जो दीखता है पर सदा क्षरण होता रहता है। इसका कू टस्थ परिचय प्रायः स्थायी है
पर वह दीखता नहीं है-यह अक्षर पुरुष है। सामान्यतः क्षर-अक्षर दो ही विभाग किये जाते हैं। अक्षर का ही जो रूप कभी नष्ट नहीं होता वह अव्यय है। इसे निर्माण क्रम
या वृक्ष भी कहा गया है। यह क्षर तथा अक्षर दोनों से श्रेष्ठ होने के कारण पुरुषोत्तम कहा गया है। पुरुषोत्तम रूप में प्रथित होने के कारण १ का विशेषण प्रथम होता है।
जगन्नाथ का पुरुषोत्तम रूप राम है जो प्रथित है। अतः धान आदि तौलने के लिये प्रथम के बदले राम कहते हैं। कृ ष्ण मर्यादा पुरुषोत्तम नहीं थे , उन्होंने जन्म से ही
ऐसे चमत्कार आरम्भ दिखाये जो मनुष्य के लिये अकल्पनीय है।
द्वाविमौ पुरुषौ लोके क्षरश्चाक्षर एव च। क्षरः सर्वाणि भूतानि कू टस्थोऽक्षर उच्यते॥१६॥
उत्तमः पुरुषस्त्वन्यः परमात्मेत्युदाहृतः। यो लोकत्रयमाविश्य बिभर्त्यव्यय ईश्वरः॥१७॥
यस्मात्क्षरमतीतोऽहमक्षरादपि चोत्तमः। अतोऽस्मि लोके वेदे च प्रथितः पुरुषोत्तमः॥१८॥ (गीता, अध्याय १५)
अजोऽपि अन्नव्ययात्मा भूतानामीश्वरोऽपि सन्। (गीता ४/६)
अध्याय १३-ईशावास्योपनिषद्, मन्त्र १७
वायुरनिलममृतमथेदं भस्मान्तँ शरीरम्। ॐ क्रतो स्मर कृ तँ स्मर क्रतो स्मर कृ तँ स्मर॥१७॥
अर्थ-स्वामी रामभद्राचार्य जी के अनुसार इस मन्त्र के ३ अर्थ हैं-
(१) वायु ही अनिल सूक्ष्म वायु और अमृत सबका जीवनधारक है। हे ओङ्कार स्वरूप परमात्मा! अथवा हे जीवात्मा! तुम अपने किये हुए कर्मों का स्मरण करो, और
भगवान् के किये हुये उपकारों का स्मरण करो।
(२) (ओम्) हे सारे संसार के रक्षक परमात्मा! (अथ) यह शरीर छोड़ने के बाद मेरा यह पञ्चप्राणात्मक वायु (अनिलम्) अर्थात् आपके विभूति रूप पवन देवता में
प्रवेश कर जाय और वह पवन देवता (अमृतम्) अमृत रूप में विलीन हो जाय। (शरीरं भश्मान्तं) मेरा यह मरा हुआ शरीर परिजनों द्वारा अन्त्येष्टि की विधि से भस्म
कर दिया जाय। हे क्रतो! यज्ञेश्वर भगवान् श्रीराम (कृ तं स्मर) यदि मैंने जीवन में कोई सत् कर्म किया हो तो उसे स्मरन कीजिये, विकर्मों को भूल जाइये। हे यज्ञमय
परमात्मा! मेरे द्वारा किये हुये आपके नित्य सेवा रूप सङ्कल्प को स्मरण कीजिये और मेरी अयोग्यता को भूल जाइये, अब मैं आपका नित्य परिकर बनना चाहता हूँ।
(३) यहाँ पुत्रवत्सला भगवती श्रुति उपदेश दे रही हैं कि हे जीवात्मा! अब तो तुम्हारे पास कु छ भी नहीं रह रहा है, तुम्हारा प्राणवायु सूक्ष्म वायु में मिल जाय, और
वह वायु भी अमृत रूप भगवान् में लीन हो जाय और तुम्हारा हाड़मांस का शरीर लोगों द्वारा जला दिया जाय, तुम इसकी चिन्ता मत करो। हे सङ्कल्पमय! तुम तो
पहले अपने कु कृ त्यों का स्मरण करो और उनके बदले में अपने साथ किये हुये भगवान् के उपकारों का स्मरण करो। भगवान् ने कितनी कृ पा कर के तुम्हें मानव शरीर
दिया है।
(४) वाज. संहिता का करपात्र भाष्य-क्रतु अर्थात् यज्ञ द्वारा अन्त काल में स्मृति रह जाती है। उस समय ब्रह्म की प्रार्थना करता है- मृत्यु के पश्चात स्थूल शरीर
भस्म रूप में समाप्त हो। सूक्ष्म शरीर वायु रूप है, वह सूत्र और हिरण्यगर्भ रूप ब्रह्म की सायुज्य मुक्ति पाये। ॐ ब्रह्म का वाचक है। हे सङ्कल्प रूप (क्रतु) देव! हमने
ब्रह्मचर्य आदि आश्रमों में आपकी उपासना की है। हमारी उपासना का स्मरण कर सायुज्य प्रदान करें।
व्याख्या-
(१) मरणोपरान्त गति-यहां निश्चित रूप से मरने के बाद की गति का वर्णन है। अथ इदं भस्मान्तं शरीरम् = शरीर के भस्म होने से शुरु होता है।
(२) अन्त काल की स्मृति-जीवन भर मनुष्य कर्म करता है। अन्त में के वल उसकी स्मृति बच जाती है। जिन कर्मों में हमारी वासना होती है, उनकी ही स्मृति बची
रहती है कि हमने अच्छे या बुरे कर्म किये हैं। अतः गीता में शुभ और अशुभ दोनों कर्मों का त्याग कहा गया है।
यो न हृष्यति न द्वेष्टि न शोचति न कांक्षति। शुभाशुभ परित्यागी भक्तिमान् यः स मे प्रियः॥ (गीता, १२/१७)
कर्म फल के त्याग या उसे भगवान् को अर्पण करने से भगवान् की स्मृति होती है-
तपस्विनो दानपरा यशस्विनो, मनस्विनो मन्त्रविदः सुमङ्गलाः।
क्षेमं न विन्दन्ति विना यदर्पणं, तस्मै सुभद्रश्रवसे नमो नमः॥ (भागवत पुराण, २/४/१७)
शरीर की वासना नष्ट करने के लिये दाह संस्कार सहायक ह। नहीं तो उसके अवशेष रहने पर उसके निकट आत्मा घूमती रहती है। अतः भस्मान्तं शरीरम् कहा है।
पार्थिव शरीर जिन ५ तत्त्वों से बना है, वे पुनः उसी में मिल जाते हैं।४ प्रकार से पार्थिव शरीर का अपने स्रोतों में अन्त होता है, पर सभी का हवि अग्नि द्वारा ही जाता
है-
ये निखाता ये परोप्ता ये दग्धा ये चोद्धिताः। सर्वांस्तानग्न आ वह पितॄन् हविषे अत्तवे॥ (अथर्व, १८/२/३४)
गीता के अध्याय १५ में उत्क्रान्ति (शरीर से आत्मा निकलना) का वर्णन है।
कर्म बन्धन-अधश्चोर्ध्वं प्रसृतास्तस्य शाखा गुणप्रवृद्धा विषयप्रवालाः।
अधश्च मूलान्यनुसन्ततानि कर्मानुबन्धीनि मनुष्यलोके ॥ (गीता, १५/२)
बन्धन से मुक्ति -न रूपमस्येह तथोपलभ्यते नान्तो न चादिर्न च सम्प्रतिष्ठा।
अश्वत्थमेनं सुविरूढमूलमसङ्गशस्त्रेण दृढेन छित्त्वा॥ (गीता, १५/३)
आदि पुरुष की शरण-ततः पदं परिमार्गितव्यं यस्मिन्गता न निवर्तन्ति भूयः।
तमेव चाद्यं पुरुषं प्रपद्ये यतः प्रवृत्तिः प्रसृता पुराणी॥ (गीता, १५/४)
द्वन्द्व से मुक्ति से ही अव्यय पद-निर्मानमोहा जितसङ्गदोषा अध्यात्मनित्या विनिवृत्तकामाः।
द्वन्द्वैर्विमुक्ताः सुखदुःखसञ्ज्ञैर्गच्छन्तय्मूढाः पदमव्ययं तत्॥ (गीता, १५/५)
अन्य शरीर में गमन-शरीरं यदवाप्नोति यच्चाप्युत्क्रामतीश्वरः।
गृहीत्वैतानि संयाति वायुर्गन्धानिवाशयात्॥ (गीता, १५/८)
=जैसे वायु गन्ध को एक स्थान से अन्य स्थान को ले जाती है, उसी प्रकार ईश्वर (व्यति रूप में जीव) जिस शरीर को छोड़ता है, वहां से मन सहित इन्द्रियों को
लेकर जिस शरीर में जीव जाता है वहां तक ले जाता है।
उपनिषद् के इस मन्त्र में उसी वायु रूप आत्मा का उल्लेख है।
जीवात्मा अज्ञेय-उत्क्रामन्तं स्थितं वापि भुञ्जानं वा गुणान्वितम्।
विमूढा नानुपश्यन्ति पश्यन्ति ज्ञानचक्षुषः॥ (गीता, १५/१०)
= जीवात्मा के वल ज्ञानचक्षु (तर्क ) द्वारा दीख सकता है, भौतिक प्रयोग द्वारा नहीं।
के वल योगी द्वारा अन्त काल में ब्रह्म का अनुभव-
यतन्तो योगिनश्चैनं पश्यन्त्यात्मन्यवस्थितम्।
यतन्तोऽप्यकृ तात्मानो नैनं पश्यन्त्यचेतसः॥ (गीता, १५/११)
=अकृ तात्मनः, अचेतस नहीं देख पाते। अतः क्रतु, स्मृति युक्त बनें।
(३) क्रतु-यहां संबोधन कारक में क्रतो हो गया है। क्रतु का अर्थ, सङ्कल्प तथा उसके अनुसार कर्म और निर्माण (यज्ञ) तथा उसे करने या धारण करने वाला आत्मा
भी है।
क्रत्तुं रिहन्ति मधुनाभ्यञ्जते। (ऋक् , ९/८/४३, अथर्व, १८/३/१८)
क्रतुं पुष्यसि गा इव (ऋक् , ३/४५/३, साम, २/१०/७०)
कर्मात्मा गा = इन्द्रियों का पोषण करता है। या क ब्रह्म गा = पृथ्वी का पोषण करता है। इस पूषन् ब्रह्म का वर्णन हो चुका है।
गाम् आविश्य च भूतानि धारयाम्यम् ओजसा।
पुष्णामि चौषधीः सर्वाः सोमो भूत्वा रसात्मकः॥ (गीता, १५/१३)
क्रतुं दधिक्रा अनुसन्तवीत्वत् (ऋक् , ४/४०/४, वाज. सं. ९/१४, काण्व सं. १०/३/७)
दधिक्रा-धारण और क्रमण या गति करने वाला जैसे अश्व, आकाश में सूर्य।
यज्ञ- आ नो भद्रा क्रतवो यन्तु विश्वतो अदब्धासो अपरीतास उद्भिदः (ऋक् , १/८९/१, वाज. सं. २५/१४)
= हमारे भद्र क्रतु बिना किसी बाधा विश्व को पार करावें।
देवो देवान् क्रतुना पर्यभूषत् (ऋक् २/१२/१, अथर्व २०/३४/१, तैत्तिरीय सं. १/७/१३/२)
यही भाव गीता में है-
देवान् भावयतानेन ते देवा भावयन्तु वः। परस्परं भावयन्तः श्रेयं परमवाप्स्यथ॥ (गीता, ३/११)
जो मन से सोचा (सङ्कल्प) था वही किया, यह क्रतु है-
स यदेव मनसा कामयत इदं मे स्यादिदं कु र्वीयेति स एव क्रतुः। (शतपथ ब्राह्मण, ४/१/४/१)
मन-कर्म में एकता होने से दक्षता होती है-
क्रतुं दक्षं वरुण संशिशाधि (ऋक् , ८/४२/३) इति वीर्यं प्रज्ञानं वरुण संशिशाधीति (क्रतुः = वीर्यं) (ऐतरेय ब्राह्मण, १/१३)
क्रतु मन से आरम्भ होता है तथा मन में उसका भाव बना रहता है, अतः यह मनोजव है-
(वाज. यजु. ४/३१) क्रतुर्मनोजवः (शतपथ ब्राह्मण, ३/३/४/७)
मित्र एव क्रतुः (शतपथ ब्राह्मण, ४/१/४/१)
= कर्म ही हमारा मित्र है।
आकाश में सूर्य का तेज क्षेत्र मित्र है, वहीं क्रतु हो रहा है। जहां तक सूर्य की वायु जाती है, वहां तक उसका यज्ञ हो रह है। उसकी सीमा पर ६०,००० बालखिल्य
(छोटे आकार के ग्रह) हैं।
सूर्य का रथ १५७ लाख योजन (सूर्य व्यास = योजन) तथा उसका ईषादण्ड १८,००० योजन या त्रिज्या ३००० योजन है।
योजनानां सहस्राणि भास्करस्य रथो नव। ईषादण्डस्तथैवास्य द्विगुणो मुनिसत्तम॥२॥
सार्धकोटिस्तथा सप्त नियुतान्यधिकानि वै। योजनानां तु तस्याक्षस्तत्र चक्र प्रतिष्ठितम्॥३॥ (विष्णु पुराण २/८/२-३)
सूर्य का मैत्रेय मण्डल १ लाख योजन का है, अर्थात् त्रिज्या ५०,००० योजन की है-
भूमेर्योजन लक्षे तु सौरं मैत्रेय मण्डलम्। (विष्णु पुराण २/७/५)
यजुर्वेद प्रथम श्लोक के अनुसार सौर मण्डल में ऊर्जा की वायु (किरण प्रवाह) ही ईषा है-
ईषे त्वा ऊर्जे त्वा वायवस्थः। (वाजसनेयि संहिता १/१)
क्रतु की सीमा के बाद जो है, वह क्रतु की सन्तति है। ६०,००० बालखिल्य क्रतु की सन्तति हैं जो अंगुष्ठ ( १ अंगुल) आकार के हैं। आकाश मे लिये पृथ्वी मापदण्ड
है। मनुष्य की माप ९६ अंगुल है। पृथ्वी व्यास १२,८०० कि.मी. को ९६ अंगुल लेने पर अंगुष्ठ = १३५ कि.मी.। अर्थात् सूर्य से ५०,००० योजन दूरी के बाद
१३५ कि.मी. या अधिक व्यास के ६०,००० बालखिल्य हैं। २००८ में नासा के अनुमान के अनुसार इस दूरी पर १०० किमी से अधिक आकार के ७०,०००
बालखिल्य (प्लूटोनिक बडी) हैं।
क्रतोश्च सन्तति-र्भार्या बालखिल्या-नसूयत। षष्टिपुत्र सहस्राणि मुनीना-मूर्ध्वरेतसाम्॥
अङ्गुष्ठ पर्व मात्राणां ज्वलद् भास्कर तेजसाम्। (विष्णु पुराण १/१०/१०)
तथा बालखिल्यां ऋषयोऽङ्गुष्ठ पर्वमात्राः षष्टि सहस्राणि पुरतः सूर्यं सूक्त वाकाय नियुक्ताः संस्तुवन्ति। (भागवत पुराण ५/२१/१७)
जहां तक क्रतु है, वहीं तक कर्मात्मा की गति होती है, जहां वह कर्म फल का भोग करता है।
(४) सूक्ष्म शरीर-इसमें १७ तत्त्वों की चिति होती है, अतः इसके विन्दुमात्र स्थान को चित्त कहते हैं। इसी चित्त का परकाया प्रवेश भी होता है-
बन्ध कारण शैथिल्यात् प्रचारसंवेदनाच्च चित्तस्य परशरीरावेशः (पतञ्जलि योगसूत्र, ३/३९)
=बन्धन का कारण शिथिल कर जाने का मार्ग प्रकाशित करने से चित्त का अन्य शरीर में आवेश होता है।
मरने के बाद भी कर्म, शरीर आदि का बन्धन हटने से जीवात्मा निकल कर अन्य शरीर में जाती है।
प्रजापति, अन्न, पशु, विश्व-इन सभी की १७ चिति होती है-
प्रजापतिर्वै सप्तदशः (गोपथ ब्राह्मण उत्तर, २/१३, ५/८, तैत्तिरीय ब्राह्मण, १/५/१०/६, ऐतरेय ब्राह्मण, ८/४)
अन्नं वै सप्तदशः (ताण्ड्य महाब्राह्मण, १/७/७, १७/९/२, शतपथ ब्राह्मण, ८/४/४/७)
विशः सप्तदशः (ताण्ड्य महाब्राह्मण, १/७/७, १७/९/२, शतपथ ब्राह्मण, ८/४/४/७)
पशवो सप्तदशः (ताण्ड्य महाब्राह्मण, १९/१०/७)
पण्डित मधुसूदन ओझा ने ब्रह्म सिद्धान्त (पृष्ठ १०७-११०) में १७ चिति की सूची दी है-
बीज चिति-अविद्या, काम, कर्म, वीर्य, शुक्र --५
देव चिति-अविद्या, वायु, आदित्य, चन्द्र, सोम - ५
भूत चिति-आकाश, वायु, तेज, अप्, भूमि --५
प्रजा, वित्त - --२
कु ल योग ---१७।
अविद्या, वायु-दोनों के २-२ रूप हैं।
शरीर के भीतर वायु का सञ्चार प्राण है, जिसमें ५ प्राण और ५ उपप्राण हैं। शरीर से बाहर जीवात्मा ले जाने के लिये भी गौतम रूप वायु सूत्र है, जिसे अनिल कहा
गया है। गौ = इन्द्रिय, इसका स्थूल या तम रूप शरीर है।
वायुर्वाव गौतम तत् सूत्रं, वायुना गौतम सूत्रेणेदँ सर्वँ संदृब्धम् (बृहदारण्यक उप. ३/५/६)
ईशावास्योपनिषद्, मन्त्र १८
अग्ने नय सुपथा राये अस्मान् विश्वानि देव वयुनानि विद्वान्।
युयोध्यस्मज्जुहुराणमेनो भूयिष्ट्ःआन्ते नम उक्तिं विधेम। ॐ खं ब्रह्म॥१८॥
(बृहदारण्यक उपनिषद्, ५/५/४) वाजसनेयि संहिता में यह १६ वां मन्त्र है और उसके अन्त में ॐ खं ब्रह्म है।
अन्वयार्थ-हे अग्नि,(अस्मान्) हमें (राये) धन दिलाने के लिये (परम धन स्वरूप ब्रह्म तक पहुंचाने के लिये), सुपथा (सुन्दर मार्ग से (नय) ले चलें। (देव) हे देव!
आप हमारे (विश्वानि) सम्पूर्ण (वयुनानि) कर्मों को (विद्वान्) जानने वाले हैं, (अस्मात्) अतः हमारे (जुहुराण) इस मार्ग के प्रतिबन्धक, (एनः) जो पाप हों उन
सबको (युयोधि) दूर करें। (ते) आपको (भूयिष्ठां) बार बार (नम उक्तिम्) नमस्कार के वचन (विधेम) कहते हैं-बार बार नमस्कार करते हैं।
स्वामी रामभद्राचार्य के अनुसार इसके २ अर्थ हैं-
(१) कर्मकाण्ड की दृष्टि से यह अग्नि की प्रार्थना है। ’रै’ शब्द संस्कृ त में ऐश्वर्य का वाचक है। ’ए’नः शब्द का अर्थ पाप और ’जुहुराण’ शब्द कु टिल अर्थ में प्रयुक्त
होता है। ’वयुनि’ शब्द यहाँ सञ्चय अथवा कर्म अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। अन्त्येष्टि के समय जीवात्मा अग्नि से प्रार्थना करता हुआ कहता है-हे अग्निदेव! आप हमारे सुकृ त
और दुष्कृ तों को जानते हैं, फिर भी हमें मोक्षरूप लाभ के लिये सुपथ अर्थात् देवमार्ग से ले जाइये। इस कु टिल पाप को हम से अलग कर दीजिये, हम आपके चरणों
में अनेक नमस्कार निवेदित कर रहे हैं।
(२) वेदों के महातात्पर्य परब्रह्म भगवान् श्रीराम की प्रार्थना के रूप में है। यहाँ अग्नि शब्द पूज्य और अग्रगामी के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। ’अग्रे नीयते इत्यग्निः’ हे सभी
देवताओं में पूज्य देवाधिदेव भगवान् राम्! ’विश्वानि वयुनानि विद्वान्’ हमारे सभी सुकर्म कु कर्मों को जानते हुये भी आप उन पर ध्यान न दें, और हमें ’राये’ अपने
नित्य सेवारूप धन के लिये ’सुपथा नय’ श्री वैष्णवों के चरण-कमलों से पवित्र मार्ग से ही साके त लोक ले चलिये। आपके भजन में बाधक ’जुहुराण’ अर्थात् इस
कु टिल पाप को ’अस्मद् युयोधि’ हमसे दूर कीजिये। हम आपके चरणों में अनेकानेक नमस्कार की उक्ति निवेदित करते हैं। ’नमसाम् उक्तिः नम उक्तिः’। आशय यह है
कि- अब तो हमारा शरीर ही नहीं रहा, जिससे हम आपको साष्टाङ्ग प्रणाम कर सकें । इस समय तो के वल अपने सङ्कल्प की सूक्ष्म वाणी से हम नमः नमः ही कह
सकते हैं।
व्याख्या-यहां सभी अर्थ अध्यात्म परक हैं और मरने के बाद सद्गति की प्रार्थना करते हैं। पर इसके पूर्व के श्लोक में ही भस्मान्त शरीर के बारे में कहा जा चुका है। २
शब्दों के अर्थ आधिभौतिक हैं।
जुहुराणः-भौतिक रूप से यज्ञ रूप में जुहुराणः शब्द है- जुहुराण- हु दानादनयो आदाने च (३/१, जुहोति)=देना, यज्ञ करना, २. खाना, भक्षण करना, ३. लेना,
ग्रहण करना। वेदे-तृप्त करना। जुहोति श्चास्त्येव प्रक्षेपणे वर्तते, अस्तिप्रीणात्यर्थे वर्तते----यथा यवाग्वाग्निहोत्रं जुहोति, अग्निं प्रीणाति। (पातञ्जल महाभाष्य, २/३/३)
जुहोति अनया, जुहूः। जैसे-अग्ने मन्द्रया जुह्वा यजस्व (ऋग्वेद, १/७६/५)
जुहू से जो हवन करता है, वह यज्ञकर्ता जुहुराण है। अथवा जिसमें हवन किया जाय वह अग्नि जुहूराण है।
सजू- (वाज. १४/७) अथैवैतद् यजमान एताभिर्देवताभिः (ऋत्वादिभिः) सयुग् भूत्वा एताः प्रजाः प्रानयति सर्वास्वेव सजूः सजूरित्यनुवर्तते। (शतपथ ब्राह्मण,
८/२/२/७)
पर युयोध्यस्मत् शब्द के साथ रहने के कारण इसकी बाधा रूप में व्याख्या है।
रै- रै या राय शब्द का अर्थ भौतिक धन है। अतः दोनों अर्थ सम्भव हैं-पिछले मन्त्र के क्रम में शरीर अन्त होने के बाद की गतियों में सद्गति कै से पायें इसका वर्णन है।
आधिभौतिक अर्थ है कि यज्ञ सम्बन्धी यजुर्वेद तथा उसके अन्तिम अध्याय के निष्कर्ष रूप में यज्ञ द्वारा धन तथा सुख की प्राप्ति कै से करें उसका सारांश है। अन्त में
खं ब्रह्म के उल्लेख का अर्थ है, ब्रह्म के अन्य रूपों के साथ समन्वय।
आधिदैविक अर्थ-१. राम तत्त्व-स्वामी रामभद्राचार्य जी ने भगवान् राम को ही परब्रह्म मान कर उनकी उपासना का अर्थ किया है। वेद में राम तत्त्व को रं ब्रह्म कहा है।
प्राणो वै रं, प्राणे हि इमानि सर्वाणि भूतानि रतानि (शतपथ ब्राह्मण, १४/८/१३/३, बृहदारण्यक उपनिषद्, ५/१२/१)
प्रश्नोपनिषद् में है कि प्रजापति ने तप द्वारा रयि-प्राण का जोड़ा उत्पन्न किया जिससे बहुत सी प्रजा हुई। मूर्त्त अमूर्त्त सभी को रयि कहा है, अतः मूर्त्ति ही रयि है।
उदाहरण के लिये आदित्य प्राण है (शक्ति का स्रोत), चन्द्रमा रयि है (निर्मित पदार्थ-यह अमूर्त्त भी हो सकता है)।
तस्मै स होवाच प्रजाकामो ह वै प्रजापतिः, स तपो अतप्यत, स तपस्तप्त्वा मिथुनम् उत्पादयते रयिं च प्राणं च इति। एतौ मे बहुधा प्रजाः करिष्यत इति॥४॥
आदित्यो ह वै प्राणो, रयिः एव चन्द्रमाः। रयिः वा एतत् सर्वं यत् मूर्तं च अमूर्तं च, तस्मात् मूर्त्तिः एव रयिः॥५॥
(प्रश्नोपनिषद्, १/४-५)
२. खं ब्रह्म-आकाश या पृथ्वी पर निर्माण के लिये स्थान या आकाश जरूरी है, जिसे खं ब्रह्म कहा है, उसके बाद रयि और प्राण के जोड़े से सृष्टि होती है।
३. अग्नि- अग्नि के कई अर्थ हैं। प्रचलित अर्थ आग है। ताप या ऊर्जा हर स्थान पर है, जहां सघन है, वहां आग जैसा लगता है। इसी प्रकार विरल पदार्थ जब सघन
पिण्ड के रूप में दीखता है, तो वह अग्नि है। आकाश में अग्नि के ५ स्तर हैं-(१) स्वायम्भुव मण्डल-मूल अव्यक्त रस से विरल पदार्थ बना जो १०० अरब ब्रह्माण्डों में
घनीभूत हुआ।, (२) परमेष्ठी मण्डल-हर ब्रह्माण्ड का विरल पदार्थ कई स्थानों पर घना हो कर तारा बने। हमारे ब्रह्माण्ड में इनकी संख्या १०० अरब है। (३) सौर
मण्डल-हमारे सूर्य के आकर्षण से निकटवर्त्ती पदार्थ एकत्र हुआ है। (३) चान्द्र मण्डल-सौरमण्डल के फै ले पदार्थ से गैस तथा ठोस ग्रह बने। (५) भूमण्डल-ग्रहों में
सबसे घना पृथ्वी है जिसपर सम ताप है तथा चन्द्र मण्डल से घिरे होने के कारण इस पर जीवन है।
ये ५ अग्नि हैं, जिनमें अन्तिम ३का मिला-जुला प्रभाव है अतः उनको नाचिके त (चिके त = अलग अलग स्पष्ट, नाचिके त = मिला हुआ) कहते हैं।
पञ्चाग्नयो ये च त्रिणाचिके ताः (कठोपनिषद्, ३/१/१)
सूर्य, चन्द्र पृथ्वी का अनुभव या ज्ञान होता है अतः इनको शिव के ३ नेत्र भी कहते हैं।-चन्द्रार्क वैश्वानर लोचनाय, तस्मै शिकाराय नमः शिवाय (शिव पञ्चाक्षर
स्तोत्र)।
ये मण्डल पहले (अग्र) उत्पन्न हुए, अतः अग्नि या अग्रि हैं। इन ५ अग्नियों से पहले भी अव्यक्त थाजिसे पुराण-पुरुष (सब से पहले का पुरुष) भी कहते हैं। यह मूल
अग्नि परब्रह्म है। अग्नि तत्त्व को ही रं (राम) कहा गया है-
र इति-रञ्जयति इमानि भूतानि (मैत्रायणी उपनिषद्, ६/७)
रकारं अग्नि बीजं च अपानादित्य सन्निभम् (ध्यानविन्दु उपनिषद्, ९५)
रकारो अण्डं विराट् भवति (तारसार उपनिषद्, १/४)
रंसु = रं में स्थित। अजुर्वा-जुहुराणं = जीर्ण होना। रं की भास् (तेज) से जीर्ण भी युवा हो जाता है, अतः राम की प्रार्थना होती है-
आ यन्मे अभ्वं वनदः पनन्तः शिग्भ्यो नामिमीत वर्णम्।
स चित्रेण चिकिते (विविध वस्तुओं में स्पष्टता) रंसु भासा (रं के तेज से) जजुर्वा यो मुहुरा (बार बार) युवा भूत्॥ (ऋक् , २/४/५)
४. दो प्रकार के मार्ग-मृत्यु के बाद मनुष्य की दो प्रकार गति कही जाती है-एक प्रकाश का है, दूसरा अन्धकार का है। सुकृ त से प्रकाश (आतम= धूप) में गति होती
है-
ऋतं पिबन्तौ सुकृ तस्य लोके गुहां प्रविष्टौ परमे परार्धे।
छायातपौ ब्रह्मविदो वदन्ति, पञ्चाग्नयो ये च त्रिणाचिके ताः॥ (कठोपनिषद्, ३/१/१)
संवत्सरो वै प्रजापतिः तस्य आयने दक्षिणं च उत्तरं च। तद् ये ह वै तद् इष्टापूर्ते कृ तम् इति उपासते ते चान्द्रमसम् एव लोकम् अभिजयन्ते त एव पुनरावर्तन्ते, तस्माद्
एक ऋषयः प्रजाकामा दक्षिणां प्रतिपद्यन्ते। एष वै रयिः यः पितृयाणः॥९॥
अथ उत्तरेण तपसा ब्रह्मचर्येण श्रद्धया विद्यया आत्मन् अनिष्यात् आदित्यं अभियजन्ते। एतद् वै प्राणानां आयतनं एतद् अमृतं अभयमेतय् परायणं एतस्मात् न
पुनरावर्तन्त इति-एष निरोधः तत् एष श्लोकः॥१०॥
मासो वै प्रजापतिः तस्य कृ ष्णपक्ष एव रयिः शुक्लपक्षः प्राणः।
तस्मात् एत ऋषयः शुक्ल इष्टं कु र्वन्ति इतर इतरस्मिन्॥१२॥
(प्रश्नोपनिषद्, १/९-१२)
गीता, अध्याय ८ में इसकी व्याख्या है-
अव्यक्तोऽक्षर इत्युक्तस्तमाहुः परमां गतिम्। यं प्राप्य न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम॥२१॥
पुरुषः स परः पार्थ भक्त्या लभ्यस्त्वनन्यया। यस्यान्तःस्थानि भूतानि येन सर्वमिदं ततम्॥२२॥
(अन्त में के वल भक्ति मार्ग से ही परम पद मिलता है)
यत्र काले (जिस स्थिति में) त्वनावृत्तिमावृत्तिं चैव योगिनः। प्रयाता यान्ति तं कालं वक्ष्यामि भरतर्षभ॥२३॥
अग्निर्ज्योतिरहः शुक्लः षण्मासा उत्तरायणम्। तत्र प्रयाता गच्छन्ति ब्रह्म ब्रह्मविदो जनाः॥२४॥
धूमो रात्रिस्तथा कृ ष्णः षण्मासा दक्षिणायनम्। तत्र चान्द्रमसं ज्योतिर्योगी प्राप्य निवर्तते॥२५॥
शुक्ल कृ ष्णे गती ह्येते जगतः शाश्वते मते। एकया यात्यनावृत्तिमन्ययावर्तते पुनः॥२६॥ आधिभौतिक अर्थ-जीवन में यज्ञ का उद्देश्य है-भौतिक सम्पत्ति और उसके
सदुपयोग द्वारा सुख शान्ति, आरोग्य प्राप्ति। इसका निर्देश वाजसनेयि संहिताके प्रथम मन्त्र में ही है-
ॐ इ॒षे त्वो॑र्जे त्वा॑ वा॒यव॑ स्थ दे॒वो वः॑ सवि॒ता प्रार्प॑यतु आप्या॑यध्व मघ्न्या॒ इन्द्रा॑य भा॒गं प्र॒जाव॑तीरनमी॒वा अ॑य॒क्ष्मा मा व॑ स्तेन ई॑षत माघशँ॑सो ध्रुवा अ॒स्मिन् गोप॑तौ स्यात
ब॒ह्वीर्यजमा॑नस्य प॒शून्पा॑हि (वा. यजु १/१)
यहां कई चीजें हैं-(१) प्राण ऊर्जा से कर्म और यज्ञ होते हैं जो वायु रूप और धुरी (इषा) है।
(२) यज्ञ द्वारा उत्पादन करने पर स्तेन या चोरी नहीं करनी पड़ेगी।
(३) पशु, गो आदि सम्पत्ति, प्रजा आदि इसी से मिलेंगे।
(३) जिसके संरक्षण में यज्ञ हो रहा है, उस इन्द्र को भाग देना है, जिससे हमारी रक्षा होती रहे।
(४) उत्पादन काया ऊर्जा का भी मूल स्रोत सविता है, उसी की कृ पा से यज्ञ में निर्माण होत है।
(५) पुरुषार्थ घ = ४ हैं-धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष। इसे नहीं करना अघ = पाप है, जिससे बचना है।
(६) ऐसा करने से ही अमीवा (रोगकारक) तथा यक्ष्मा (क्षय करने वाले रोग) से बच सकते हैं।
यज्ञ (जुहुराण) में कई प्रकार की बाधा-शत्रु, विपत्ति, चोर, प्राकृ तिक विपर्यय आदि। इनसे रक्षा के लिये लड़ना पड़त है जिसमें इन्द्र और सविता की कृ पा जरूरी है।
अग्नि का अर्थ यहां अग्रणी या नेता होगा। भारत का अग्नि (अग्रि या अग्रसेन) विश्व का भरण पोषण करता था, अतः उसे भरत कहा गया और इस देश को भारत।।
देवयुग के बाद ३ भरत और थे-ऋषभ पुत्र भरत (प्रायः ९५०० ई.पू.), दुष्यन्त पुत्र भरत (७५०० ई.पू.) तथा राम के भाई भरत जिन्होंने १४ वर्ष (४४०८-
४३९४ ई.पू.) शासन सम्भाला था। अग्नि (अग्रणी) अच्चॆ मार्ग पर ले जाता (नय) था, अतः समुद्र में मार्ग दिखाने वाले को नायर कहते हैं (के रल में)।
(१) पृथिव्याः सधस्थादग्निं पुरीष्यमङ्गिरस्वदा भराग्निं पुरीष्यमङ्गिरस्वदच्छेदोऽग्निंपूरीष्यमंगिरस्वद् भरिष्यामः। (वाजसनेयी यजुर्वेद ११/१६)
=अग्नि पृथ्वी पर सबके ऊपर है, वह अंगिरा के रूप में प्रकाश देता है, हमारा भरण तथा पूरण करता है। हमें शक्तिशाली अग्नि (अग्रणी) मिले जो हमारे भरण तथा
उन्नति में समर्थ हो। उसे हम हवि (कर आदि) से भर देंगे।
(२) स यदस्य सर्वस्याग्र सृजत तस्मादग्रिर्ह वै तमग्निरित्याचक्षते परोक्षम्। शतपथ ब्राह्मण ६/१/१/११)
= सबसे प्रथम उत्पन्न होने के कारण यह अग्रि (नेता) हुआ, इसे परोक्ष में अग्नि कहा जाता है।
(३) तद्वा एनमग्रे देवानां (प्रजापतिः ) अजनयत । तस्मादग्रिरग्रिर्ह वै नामे तद्यग्निरिति। शतपथ ब्राह्मण २/२/४/२)
= प्रजापति ने देवों में इसे ही पहले बनाया, अतः यह अग्रि हुआ, जिसे परोक्ष में अग्नि कहा गया।
(४) विश्व भरण पोषण कर जोई । ताकर नाम भरत आस होई। (तुलसीदास कृ त राम चरित मानस, बालकाण्ड)
= पूरे विश्व का भरण पोषन करनेवाले को भरत कहा जाता है।
(५) दिवा यान्ति मरुतो भूम्याऽग्निरयं वातो अंतरिक्षेण याति ।
अद्भिर्याति वरुणः समुद्रैर्युष्माँ इच्छन्तः शवसो नपातः । (ऋक् संहिता १/१६१/१४)
= देव आकाश की मरुत् अन्तरिक्ष की तथा अग्नि पृथ्वी की रक्षा करते हैं। वरुण जल के अधिपति हैं।
(६) तस्मा अग्निर्भारतः शर्म यं सज्ज्योक् पश्यात् सूर्यमुच्चरन्तम् ।
य इन्द्राय सुनवामेत्याह नरे नर्य्याय नृतमाय नॄणाम् । (ऋक् संहिता ४/२५/४)
= इन्द्र लोगों का कल्याण करता है, नेतृत्व करता है तथा सबसे अच्छा नेता है, दाता अग्नि उनको सुख दे जिससे हम सदा सूर्य का उदय देखें।
(७) अग्निर्वै भरतः । स वै देवेभ्यो हव्यं भरति। (कौषीतकि ब्राह्मण उपनिषद् ३/२)
= अग्नि भरत है क्योंकि यह देवों का भरण करता है (भोजन देता है)।
(८) एष (अग्निः) हि देवेभ्यो हव्यं भरति तस्मात् भरतोऽग्नि रित्याहुः । (शतपथ ब्राह्मण १/४/२/२, १/५/१/८, १/५/१९/८) = यह अग्नि देवों को भोजन देता है
अतः इसे भरत अग्नि कहते हैं।
(९) अग्नेर्महाँ ब्राह्मण भारतेति । एष हि देवेभ्य हव्यं भरति । (तैत्तिरीय संहिता २/५/९/१, तैत्तिरीय ब्राह्मण३/५/३/१, शतपथ ब्राह्मण १/४/१/१)
= ब्रह्मा ने अग्नि को महान् कहा था क्योंकि यह देवों को भोजन देता है।
(१०) अग्निर्देवो दैव्यो होता..देवान् यक्षद् विद्वाँश्चिकितवान्...मनुष्यवद् भरत वद् इति। (शतपथ ब्राह्मण,१/५/१/५-७)
= अग्नि देवों को भोग देता है, यह देव तथा विद्वानों का पालन करता है, यह मनुष्य तथा भरत के जैसा है।
(११) अग्निर्जातो अथर्वणा विद्वद्विश्वानि काव्या ।
भुवद्दूतो विवस्वतो वि वो मदे प्रियो यमस्य काम्यो विवक्षसे । (ऋक्संहिता १०/२१/५)
= यह अग्नि अथर्वण ऋषि से उत्पन्न हुआ, जो विश्व तथा काव्य (रचना) को जानता है। यह देवों का आवाहन करता है तथा सभी काम्यों को यज्ञ द्वारा उत्पन्न करता
है।
(१२) त्वमग्ने यज्ञानां होता विश्वेषां हितः। देवेभिर्मानुषे जने। (ऋक्संहिता ६/१६/१- भरद्वाजो बार्हस्पत्यः)
= हे अग्नि! तुम विश्व के हित के लिये यज्ञ करते हो अतः देवों ने मनुष्यों के लिये दिया।
(१३) यो अग्निः सप्त मानुषः श्रितो विश्वेषु सिन्धुषु । तमागन्म त्रिपस्त्यं मन्धातुर्दस्युहन्तममग्निं यज्ञेषु पूर्व्यम् नभन्तामन्यके समे । (ऋक्संहिता ८/३९/८-नाभाकः
काण्वः)
= जो अग्नि ७ मनुष्यों (होता), सभी समुद्रों ३ लोकों में रहकर उनका पालन करता है, उसे पाकर हम कष्ट तथा शत्रुओं को नष्ट करें।
(१४) त्वां दूतमग्ने अमृतं युगे युगे हव्यवाहं दधिरे पायुमीड्यम् ।
देवासश्च मर्तासश्च जागृविं विभुं विश्पतिं नमसा नि षेदिरे । (ऋक्संहिता ६/१५/८)
= हे अग्नि! देवों तथा मनुष्यों ने तुमको दूत बनाया है। तुम हव्य का वहन करते हो, सदा सावधान हो तथा लोकों का पालन करते हो, हम तुमको नमस्कार करते हैं।
(१५) विभूषन्नग्न उभयाँ अनु व्रता दूतो देवानां रजसी समीयसे ।
यत् ते धीतीं सुमतिमावृणीमहेऽध स्मा नस्त्रिवरूथः शिवो भव । (ऋक्संहिता ६/१५/९)
= हे अग्नि! तुम भूमि तथा आकाश में मनुष्यों तथा देवों का दूत होने से प्रशंसनीय हो\ हमारे मन, बुद्धि, तन की रक्षा करो तथा सुख दो।
(१६) अग्निर्होता गृहपतिः स राजा विश्वा वेद जनिमा जातवेदाः ।
देवानामुत यो मर्त्यानां यजिष्ठः स प्र यजतामृतावा ॥ (ऋक़् ६/१५/१३ )
=अग्नि देवों का होता, तेजस्वी तथा गृहपति है। वह सबको जानता है तथा देव-मनुष्यों का पूजनीय है। वह देवों को यज्ञ द्वारा सन्तुष्ट करे।
(१७) आग्निरगामि भारतो वृत्रहा पुरुचेतनः । दिवोदासस्य सत्पतिः । (ऋक्संहिता ६/१६/१९)
= अग्नि भरतों का रक्षक, वृत्र आदि असुरों का नाशक, दिवोदास (काशिराज) तथा सज्जनों का स्वामी है।
(१८) उदग्ने भारत द्युमदजस्रेण दवीद्युतत् । शोचा वि भाह्यजर । ॥ (ऋक़् ६/१६/४५)
= हे भारत अग्नि। तुम तेजस्वी तथा युवक हो, हमारी चिन्ता दूर करो।
(१९) त्वामीळे अध द्विता भरतो वाजिभिः शुनम् । ईजे यज्ञेषु यज्ञियम् ॥ (ऋक़् ६/१६/४)
= अग्नि! हम तुम्हारी पूजा करते हैं, क्योंकि तुम भरत हो, पोषण करनेवालों में इन्द्र तथा यज्ञों में यज्ञीय (फल) हो।
(२०) भरणात्प्रजनाच्चैष मनुर्भरत उच्यते । एतन्निरुक्त वचनाद् वर्षं तद् भारतं स्मृतम् ।
यस्त्वयं मानवो द्वीपस्तिर्यगग्यामः प्रकीर्तितः । य एनं जयते कृ त्स्नं स सम्राडिति कीर्तितः ।
(मत्स्य पुराण ११४/५,६,१५, वायु पुराण ४५/७६, ८६)
= लोकों के भरण तथा पालन के कारण इस देश का मनु (शासक) भरत कहा जाता है। निरुक्त परिभाषा के अनुसार भी इस देश को भारत कहा गया है। मनु का यह
विख्यात देश दक्षिण में त्रिकोण तथा उत्तर में चौड़ा है। जो इस देश को पूरी तरह जीत लेता है, उसे सम्राट् कहा जाता है।
(२१) हमारे देश के लोगों की इच्छा रहती है कि लोगों का भरण करें, अतः यह देश भारत है-
दातारो नोभिवर्धन्तां वेदाः सन्तति रेव च । श्रद्धा च नो मा व्यगमत् बहुदेयं च नो स्त्विति। अन्नं च नो बहु भवेदतिथींश्च लभेमहि । याचिताश्च न सन्तु मा च याचिष्म
कञ्चन ।
= दाताओं, वेद तथा सन्तति की वृद्धि हो, हमारी श्रद्धा कम नहीं होतथा दान के लिये हमारे पास पर्याप्त धन हो। हमारे पास बहुत अन्न हो तथा अतिथि आवें। दूसरे
हमसे मांगें, हमें मांगने की जरूरत नहीं पड़े।
समन्वय-ईशावास्योपनिषद् के १८८ श्लोक १८ प्रकार की विश्व आत्मा तथा१८ व्यक्ति आत्मा के कर्म की व्याख्या करता है। यह गीता के १८ अध्याय या १८
विद्या का सारांश है। यजुर्वेद का निष्कर्ष तो स्पष्ट रूप से है।
यज्ञ या उत्पादक क्रिया के लिये शान्ति चाहिये जिससे बिना विघ्न के काम होता रहे। यह शं ब्रह्म है (शम या शिव = कल्याणकारी) जिसके ३ अंग हैं-खं ब्रह्म जिसमें
सभी क्रिया हो रही है। रं ब्रह्म = प्राण या ऊर्जा जिससे कर्म हो रहा है। चेतन कर्त्ता, ब्रह्म या व्यक्ति रूप में यजमान-यह कं ब्रह्म है।
शं (शंकर) = खं + कं + रं।
अतः ब्रह्म का ३ प्रकार से निर्देश या ३ बार शान्ति की जाती है।
ॐ तत्सदिति निर्देशः ब्रह्मणः त्रिविधः स्मृतः (गीता १७/२३)
ॐ गतिशील होने पर रं है। व्यक्ति का निर्देश (तत्) नाम से होता है अतः व्यक्ति के प्राण निकलने पर उसे ॐ तत्सत् के स्थान पर राम (रं)-नाम सत् कहते हैं।
खं का अर्थ आकाश है-
खं मनोबुद्धिरेव च (गीता, ७/४)
शं का अर्थ शान्तिदायक-
शं नो मित्रं शं वरुणः शं नो भवत्वर्यमा। शं न इन्द्रो बृहस्पतिः शं नो विष्णुरुरुक्रमः॥ (ऋक् , १/९०/९, अथर्व १९/९/६, वाज, सं. ३६/११)
क = कर्ता ब्रह्म या प्रजापति-
हिरण्यगर्भः समवर्तताग्रे भूतस्य जातः पतिरेक आसीत्। स दाधार पृथिवीं द्यामुतेमां कस्मै देवाय हविषा विधेम॥
(ऋक् १०/१२१/१, वाजसनेयी यजुर्वेद १३/४, २३/१, अथर्व ४/२/७)
वयुनानि विद्वान्-ऋग्वेद के नासदीय सूक्त (१०/१२९/१-७) में सृष्टि निर्माण के १० वादों का उल्लेख है जिसके आधार पर पण्डित मधुसूदन ओझा ने दशवाद रहस्य
तथ अलग अलग १० पुस्तकें भी लिखीं। इस सूक्त की पंक्ति”किमावरीवः कु ह कस्य शर्मन्’ के अनुसार आवरण वाद लिखा। आवरण का अर्थ है, पदार्थ का बाह्य
रूप। आवरण को वयुन कहा गया है। विभिन्न तत्त्वों के परस्पर मिलन को वयन (वस्त्र बुनना) कहते हैं-वयांसि तद् व्याकरणं विचित्रं, मनुर्मनीषा मनुजो निवासः।
(भागवत पुराण, २/१/३६)। वयुन या आवरण छन्द है-यह देश-काल की माप है। आवरन से ढंका वयोनाध (नध् = बान्धना) है तथा उसे बान्धने वाला प्राण वय है
(शतपथ ब्राह्मण, ८/२/२/८)। अतः वय का अर्थ आयु भी है। आवरण या छन्द माया है-इससे भीतरी पदार्थ छिप जात है, अतः माया का अर्थ भ्रम है। माया से सृष्टि
होने से यह माता है। आवरण को चर्म या शर्म भी कहा गया है (शतपथ ब्राह्मण, ३/२/१/८, विष्णु पुराण, ३/१७/४-४८, ऋक् , ३/१३/४ आदि)। माया रूपी तम से
सृष्टि-तम आसीत्तमसा गूळ्हमग्रे (ऋक् , १०/१२९) अन्य ऋक् (१/१४३/६, १/५५/८, २/८७/४, ९/७४/२)। मनुस्मृति (१/५१) में भी है-आसीदिदं
तमोभूतमप्रज्ञातमलक्षणम्। अप्रतर्क्यमनिर्देश्यं प्रसुप्तमिव सर्वतः॥ सृष्टि में ऋषि (रस्सी) तत्त्व सबको जोड़ता है। सूत्रों का निर्माण प्रकृ ति का कात्यायनी (सूत कातना)
रूप है। इनको सजा कर व्यवस्था करना तार-तम्य (ताना-बाना) है। उसे स्रष्टा ही जान सकता है जिसे ’वयुनानि विद्वान” कहा गया है-को वक्ता तारतम्यस्य तमेकं
वेधसं विना। यही नासदीय सूक्त में है कि सृष्टि के समय तो देवता भी नहीं थे वे कै से इसके बारे में जान सकते हैं।

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