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ओड़िशा परिचय

अरुण कु मार उपाध्याय

विषय सूची
१. २०११ जनगणना के संक्षिप्त तथ्य ३
२. भूगोल ५
३. वन सम्पत्ति १२
४. खनिज सम्पदा १५
५. ओड़िशा के कु छ मुख्य राष्ट्रगीत १६
६. ओड़िशा की वैदिक परम्परा २०
७. जगन्नाथ तत्त्व और इतिहास ४०
८. ओड़िशा के प्राचीन नगर और तीर्थ ७१

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९. पौराणिक इतिहास ८१
१०. मध्य और आधुनिक युग ८७
११. प्राचीन संस्कृ त साहित्य १०३
१२. पञ्चसखा कवि और पारम्परिक साहित्य १०८
१३. वनवासी ११४
१४. आधुनिक ओड़िशा के निर्माता ११६
१५. समुद्री व्यापार का इतिहास १२४
१६. नृत्य कला १२८
१७. जैन और बौद्ध परम्परा १३१

अध्याय १-२०११ जनगणना के संक्षिप्त तथ्य


२०११ जनगणना के अनुसार ओड़िशा की जनसंख्या ४,१९,४७,३५८ थी जिसमें
२,१२,०१,६७८ पुरुष तथा २,०७,४५,६८० महिलायें थीं। बाद के वर्षों का अनुमान-
२०१२-४.२७ करोड़
२०१३-४.३१ करोड़
२०१४-४.३७ करोड़
२०१५-४.४३ करोड़
२०१६-४.४९ करोड़
२०१७-४.५३४ करोड़
ओड़िशा का क्षेत्रफल ६०,११९ वर्गमील या १,५५,७०७ वर्ग किलोमीटर है। २००१ तथा
२०११ जनगणनाओं के अनुसार जनसंख्या वृद्धि, शिक्षा आदि की गणना है-
वर्ष २०११ २००१
जनसंख्या ४,१९,७४,२१८ ३,६८,०४,६६०
पुरुष २,१२,१२,१३६ १,८६,६०,५७०
महिला २,०७,६२,०८२ १,८१,४४,०९०
वृद्धि १४.०५% १५.९४%

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भारत का अंश ३.४७% ३.५८%
महिला अनुपात ९७९ ९७२
बच्चों में महिला ९४१ ९५३
घनत्व/किमी२ २७० २३६
सम्प्रदाय अनुसार २०११ में संख्या-
हिन्दू ३,९३,००,४१ ९३.६३%
इसाई ११,६१,७०८ २.७७%
मुस्लिम ९,११,६७० २.१७%
अन्य ४,७८,३१७ १.१४%
अज्ञात ७६,९१९ ०.१८%
सिख २१,९९१ ०.०५%
बौद्ध १३,८५२ ०.०३%
जैन ९,४२० ०.०२%
२०११ में नगर जनसंख्या-ग्रामीण नगर
जनसंख्या% ८३.३१% १६.६९%
कु ल संख्या ३,४९,७०,५६२ ७०,०३,६५६
पुरुष १,७५,८६,२०३ ३६,२५,९३३
महिला १,७३,८४,३५९ ३३,७७,७२३
वृद्धि ११.७७% २६.९४%
महिला अनुपात ९८९ ९३२
ओड़िशा के जिले-कोड के साथ-२१. ओड़िशा के ३० जिले-
३७०-बरगढ़, ३७१-झारसूगुड़ा, ३७२-सम्बलपुर, ३७३-देवगढ़, ३७४-सुन्दरगढ़, ३७५-
के न्दुझर, ३७६-मयूरभञ्ज, ३७७-बालेश्वर, ३७८-भद्रक, ३७९-के न्द्रापड़ा, ३८०-
जगतसिंहपुर, ३८१-कटक, ३८२-जाजपुर, ३८३-ढेंकानाल, ३८४-अनुगुल, ३८५-नयागढ़,
३८६-खोर्धा (इसी में भुवनेश्वर है), ३८७-पुरी, ३८८-गंजाम, ३८९-गजपति, ३९०-
कन्धमाल, ३९१-बौध, ३९२-सुवर्णपुर, ३९३-बलांगिर, ३९४-नूआपड़ा, ३९५-कालाहाण्डी,
३९६-रायगढ़ा, ३९७-नवरंगपुर, ३९८-कोरापुट, ३९९-मलकानगिरि।

अध्याय २. भूगोल

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ओड़िशा भारत के पूर्वी समुद्र तट पर १७०४९’ से २२०३४’ उत्तर अक्षांश तथा ८१०२७’ से
८७०२९’ पूर्व देशान्तर तक है। पूर्व-उत्तर में पश्चिम बंगाल, उत्तर में झारखण्ड, पश्चिम में
छत्तिशगर्ढ़, तथा दक्षिण में आन्ध्र प्रदेश है।
इसके ५ प्राकृ तिक भाग हैं-तटीय समतल भूमि, मध्य का पर्वतीय भाग, उत्तर तथा दक्षिण के
ऊं चे पर्वत, नदी घाटियां, पठार भाग।
तटीय भूमि सुवर्णरेखा नदी से दक्षिण में ऋषिकु ल्या नदी तक है। बीच में महानदी डेल्टा भाग में
यह सबसे चौड़ा है तथा चिल्का झील के निकट सबसे पतला है। इसमें ६ मुख्य नदियों से मिट्टी
जमा हुई है-सुवर्णरेखा, बूढ़ा बलंग, वैतरणी, ब्राह्मणी, महानदी, ऋषिकु ल्या। राज्य का ३/४ भाग
पहाड़ी है जिसमें वैतरणी, ब्राह्मणी, महानदी, ऋषिकु ल्या, वंशधारा तथा नागावली की घाटियां हैं।
नागावली तथा वंशधारा-दोनों नदियां कालाहाण्डी के थुआमुल रामपुर क्षेत्र से निकलती हैं तथा
विशाखापत्तनम के निकट समुद्र तक समानान्तर बहती हैं। २ नदी शाखाओं के निकट होने से
आन्ध्र के इस पत्तन का नाम विशाखा हुआ।
हृदय क्षेत्र भारत का हृदय ओड़िशा-
सबसे बड़ा जम्बू द्वीप (एसिआ) है, जिसमें भारत स्थित है। यह सभ्यता का के न्द्र था, अतः इसे
अजनाभ वर्ष कहते थे। बाद में ऋषभ देव के पुत्र भरत के नाम पर या विश्व का भरण-पोषण करने
से भारत नाम हुआ। यह हिमालय के दक्षिण होने से हिमवत् वर्ष भी कहा जाता है, वर्ष का
विभाजन करने के कारण हिमालय वर्ष पर्वत है। यह एक वर्षा-वायु (मौनसून) का क्षेत्र हुआ।
दक्षिण की तरफ से यह अधोमुख त्रिकोण है जिसे तन्त्र में शक्ति त्रिकोण कहा गया है। हिमालय के
दक्षिण अरब से वियतनाम तक भारत के ९ खण्ड थे, जिनमें के न्द्रीय खण्ड मुख्य है, अतः मूल
शक्ति-त्रिकोण के रूप में इसे कु मारिका खण्ड कहा गया है। भारत की उत्तरी सीमा हिमालय अर्द्ध
चन्द्राकार है (१) । इसके अतिरिक्त हुएनसांग के मत से २ और कारणों से भारत को इन्दु कहा
जाता था-(२) हिमालय चन्द्रमा की तरह ठण्ढा है, (३) भारत ने ज्ञान का प्रकाश पूरे विश्व को
दिया, जैसे चन्द्रमा विश्व को प्रकाश देता है। इन ३ कारणों से भारत को इन्दु कहा जाता था।
ग्रीक इसका ठीक से उच्चारण नहीं कर पाने के कारण इसे इण्डे कहते थे जो कालान्तर में
इण्डिआ हो गया।

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दक्षि
हिमालय भारत

भार

अधोमु ख अर्द्ध चन्द्र हृदय का


त्रिकोण आकार
दक्षिण का अधोमुख त्रिकोण तथा उत्तर का अर्द्ध-चन्द्र मिलाकर भारत का आकार ही हृदय का
आकार माना जाता है। इस हृदय के के न्द्र में पुरी है-पश्चिम में अरब से पूर्व के वियतनाम तक या
उत्तर में कश्मीर से दक्षिण में कन्या कु मारी-दोनों प्रकार से यह मध्य में है। अतः यहां जगन्नाथ का
वास है-
ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति (गीता १८/६१)
भारत का मनु (मानव लोक का शासक) या अग्नि (अग्रणी = नेता) विश्व का भरण पोषण करता
था, अतः उसे भरत तथा इस देश को भारत कहा जाता था। पूरण करने वाला पुरी है। भारत की
७ पुरिओं में के वल पुरी कहने से जगन्नाथ पुरी का ही बोध होता है-
(१) पृथिव्याः सधस्थादग्निं पुरीष्यमङ्गिरस्वदा भराग्निं पुरीष्यमङ्गिरस्वदच्छेदोऽग्निंपूरीष्यमंगिरस्वद्
भरिष्यामः। (वाजसनेयी यजुर्वेद ११/१६) = अग्नि पृथ्वी पर सबके ऊपर है, वह अंगिरा के रूप
में प्रकाश देता है, हमारा भरण तथा पूरण करता है। हमें शक्तिशाली अग्नि (अग्रणी) मिले जो हमारे
भरण तथा उन्नति में समर्थ हो। उसे हम हवि (कर आदि) से भर देंगे।
(२) स यदस्य सर्वस्याग्र सृजत तस्मादग्रिर्ह वै तमग्निरित्याचक्षते परोक्षम्। (शतपथ ब्राह्मण
६/१/१/११) = सबसे प्रथम उत्पन्न होने के कारण यह अग्रि (नेता) हुआ, इसे परोक्ष में अग्नि
कहा जाता है।
(३) भरणात्प्रजनाच्चैष मनुर्भरत उच्यते । एतन्निरुक्त वचनाद् वर्षं तद् भारतं स्मृतम् । (मत्स्य
पुराण ११४/५, वायु पुराण ४५/७६)
= लोकों के भरण तथा पालन के कारण इस देश का मनु (शासक) भरत कहा जाता है। निरुक्त
परिभाषा के अनुसार भी इस देश को भारत कहा गया है।
ओड़िशा जनपद-भारत के भीतर के क्षेत्र जनपद हैं जो कु लपर्वतों द्वारा विभाजित हैं। इनमें वर्तमान
ओडिशा के ३ खण्ड हैं, जिन्हें पाण्डव वंशी राजाओं के काल में त्रि-कलिंग कहा जाता था। इसके
३ क्षेत्र थे-(१) कोसल, राजधानी मुरा या मुरसीमपत्तन। इसके अधिकारी मौर्य कहे जाते थे,

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जिन्होंने बाद में मगध के न्द्र से भारत पर शासन किया। (२) उत्कल, राजधानी विजयकटक,
जिसे फाहियान ने मैत्रेय बुद्ध के जन्म स्थान के रूप में धान्य कटक कहा है। यह वर्तमान कटक
है। (३) कलिंग, राजधानी जनमेजय काल में कोंगड़ (कोण-गढ़?) थी। बाद में पीठापुर
(पिष्टपुरम्-उत्तरी आन्ध्र प्रदेश) हुई। कलिंग का ही दक्षिणी भाग त्रि-कलिंग (तेलंगना) था।
नामों का मूल-महानदी का स्रोत भाग कोसल या कोशल (कु श उखाड़ने की तरह नदी का
उद्गम), उससे सिञ्चित अन्तिम भाग तोशल (तुष्ट) था-जहां का मल्ल तोशल कं स के धनुष यज्ञ में
बलराम द्वारा मारा गया था। महानदी का उत्तरी भाग उड्र (जहां कम गहराई का समुद्र होने से
उडु प या लकडी की नाव चलती है) तथा दक्षिण में कलिंग था। गोलीय ज्यामिति में उत्तरी ध्रुव
विन्दु को कदम्ब कहते हैं। कदम्ब पृथ्वी का भी प्रतीक है, यह गोल है तथा वृक्ष आदि की तरह
इसमें रेशे हैं। निम्न विन्दु कलम्ब है, अतः जहाज के लंगर को भी कलम्ब कहते हैं। कलम्ब गिराने
का स्थान (पत्तन) को भी कलम्ब ( जैसे श्रीलंका का कोलम्बो) है। जहाज का व्यवहार करने
वाले कलञ्ज हैं तथा उनका देश कलिङ्ग है। कलम्ब वालों का शीर्ष या राजा भी कदम्ब है-यह
ओडिशा तथा उडु पी के राजाओं की उपाधि थी। कलिङ्ग के उत्तरी भाग को उत्कल भी कहते थे।
इसका दक्षिणी भाग त्रिलिङ्ग (तेलाङ्गना) है जहां ३ लिङ्ग हैं। कलिङ्ग में एक ही लिङ्गराज हैं।
उड्र से रोमन राज्य में चावल का निर्यात होता था, अतः इसे औड्रीय कहते थे। औड्रीय से ग्रीक
में ओराइजा हुआ जो चावल का वैज्ञानिक नाम है (Oryza indika)। ओराइजा से ओरिसा
(Orissa) हुआ। इसमें ओ लुप्त होने से चावल का नाम राइस (Rice) हुआ।
ओड़ीशा नाम का एक अन्य स्रोत भी है। भगवान् राम ने अपने प्रयाण के समय जगन्नाथ पूजा का
दायित्व विभीषण को दिया था। अतः यहां रावण का उड्डीश तन्त्र प्रचलित था। उड्डीश क्षेत्र से
उड़ीशा या ओड़िशा हुआ। वाल्मीकि रामायण, उत्तरकाण्ड, अध्याय १०८-
किञ्चान्य वक्तु मिच्छामि राक्षसेन्द्र महाबल।
आराधय जगन्नाथमिक्ष्वाकु कु लदैवतम्॥२८॥
भारत के ४ तान्त्रिक पीठों में उड्डियान (या ओड्याण) पीठ ओड़िशा में था। शरीर के भीतर नाभि
स्थान में मणिपूर चक्र होता है जिसके संकोच को उड्डीयान बन्ध कहते हैं। भारत का नाभि क्षेत्र
(नाभि-गया याजपुर या जाजपुर) होने से यह ओड्याण या ओड़िया क्षेत्र है। योगशिखोपनिषद्,
अध्याय १-कु म्भकान्ते रेचकादौ कर्तव्यस्तूड्डियानकः। बन्धो येन सुषुम्नायां प्राणस्तूड्डीयते यतः॥
१०६॥
नाभेरूर्ध्वमधश्चापि ताणं (त्राणं) कु र्यात् प्रयत्नतः॥१०८॥
सौभाग्यलक्ष्मी उपनिषद्-
कामरूप पीठ-आधारे ब्रह्मचक्रं त्रिरावृतं भङ्गिमण्डलाकारं तत्र मूलकन्दे शक्तिः पावकाकारं ध्यायेत्,
तत्रैव कामरूप पीठं सर्वकामप्रदं भवति इति आधारचक्रम्।
उड्यान पीठ-द्वितीयं स्वाधिष्ठान चक्रं तन्मध्ये पश्चिमाभिमुखं लिङ्गं प्रवालाङ्कु र सदृसं ध्यायेत्,
तत्रैव ओड्याण पीठं जगदाकर्षण सिद्धिदं भवति।

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बृहत् तन्त्रसार के अनुसार ललाट के ऊपर उड्डियान पीठ है। नाभि के निम्न भाग का संकोच
उड्डियान बन्ध में होता है, पर उसका प्रभाव ललाट भाग में होता है।
मूलाधारे कामरूपं हृदि जालन्धरं तथा।
ललाटे पूर्णगिर्याख्यं उड्डियानं तदूर्ध्वके ॥
ओडिशा पूरे भारत का हृदय होने के कारण इसके खण्डों की गणना पुराणों में मध्य (विन्ध्य
भाग), पूर्व भाग तथा दक्षिण भारत के जनपदों में की गई है। के वल उत्तर तथा पश्चिम भाग में
गणना नहीं है।
जैसे, मत्स्य पुराण, अध्याय ११४ में-
एते देशा उदीच्यास्तु प्राच्यान् देशान् निबोधत॥४४॥
अङ्गा वङ्गा मद्गुरका अन्तर्गिरि-बहिर्गिरी।
ततः प्लवङ्ग-मातङ्गा यमका मालवर्णकाः।
सुह्मोत्तराः प्रविजया मार्गवागेय-मालवाः॥४५॥
प्राग्ज्योतिषाश्च पुण्ड्राश्च विदेहास्ताम्रलिप्तकाः।
शाल्वमागधगोनर्दाः प्राच्या जनपदाः स्मृताः॥४६॥
अथापरे जनपदा दक्षिणापथवासिनः।
पाण्ड्याश्च के रलाश्चैव चोलाः कु ल्यास्तथैव च॥४७॥
सेतुका मूषिकाश्चैव कु पथा वाजिवासिकाः।
महाराष्ट्रा माहिषकाः कलिङ्गाश्चैव सर्वशः॥४८॥
आभीराश्च सहैषीका आटव्याः शाबरास्तथा।
पुलिन्दा विन्ध्यमुलिका वैदर्भा दण्डकैः सह॥४९॥
कु लीयाश्च सिरालाश्च अश्मका भोगवर्धनाः।
तथा तैत्तिरिकाश्चैव दक्षिणापथवासिनः॥५०॥
इत्येते अपरान्तास्तु शृणु ये विन्ध्यवासिनः॥५२॥
मालवाश्च करूषाश्च मेकलाश्चोत्कलैः सह।
औण्ड्रा माषा दशार्णाश्च भोजाः किष्किन्धकैः सह॥५३॥
अरूपाः शौण्डिके राश्च वीतिहोत्रा अवन्तयः।
एते जनपदाः ख्याता विन्ध्यपृष्ठ निवासिनः॥५४॥
पूर्व दिशा के -अंग (पश्चिम वंग), वंग (बंगलादेश), मद्गुरक (मुंगेर), अन्तर्गिरि (राजमहल से
हजारीबाग), बहिर्गिरि (हजारीबाग से दामोदर घाटी तक), प्लवंग (वायु पुराण में प्रवंग, वंग का
समुद्र तट, प्लव का व्यवहार), मातंग (हाथी), यमक (मालद, मानद), मालवर्णक, सुह्म
(बर्दवान, पुरुलिया), प्रविजय, मार्ग, वागेय, मालव, प्राग्ज्योतिष (पूर्व असम), पुण्ड्र (पूर्णिया),
विदेह (मिथिला), ताम्रलिप्तक (मिदनापुर, उत्तर ओड़िशा), शाल्व (मगध के दक्षिण-पश्चिम
साल वन क्षेत्र) , मगध (पटना-गया), गोनर्द (पूर्व उत्तर प्रदेश)।

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दक्षिण के जनपद-पाण्ड्य (मदुरा), के रल (या चेर), चोल (मदुरा के उत्तर पश्चिम), कु ल्य
(शूर्पारक?), सेतुक (रामेश्वरम), मूषिक (मूसी तट पर हैदराबाद), कु पथ (दक्षिण पूर्व
कर्णाटक), माहिषक (दक्षिण कर्णाटक), वाजिवासिक (वनवासी, कर्णाटक), महाराष्ट्र (समुद्र
तटीय भाग), कलिंग (महानदी से गोदावरी तक समुद्र तट), आभीर, सहैषीक, आटव्य, शबर
(कोरापुट, कारापथ), पुलिन्द, विन्ध्यमुलिक, दण्डक (बस्तर, कोरापुट), कु लीय, सिराल,
अश्मक (दक्षिण महाराष्ट्र ), भोगवर्धन (दक्षिण पश्चिम ओड़िशा), तैत्तिरिक (मंगलोर तट),
नासिक्य (नासिक के निकट), नर्मदा दक्षिण के भाग।
विन्ध्य क्षेत्र-मालव (उज्जैन), करूष, मेकल (उत्तर पश्चिम ओड़िशा), उत्कल (उत्तर ओड़िशा),
औण्ड्र (उत्तर पूर्व ओड़िशा), माष, दशार्ण (धसान नदी), भोज (विदर्भ), किष्न्किन्धक (कन्ध
क्षेत्र), तोशल (महानदी डेल्टा), कोसल (दक्षिण कोसल, रायपुर, सम्बलपुर), त्रैपुर, वैदिश,
तुमुर, तुम्बर, पद्गम, नैषध (नवरंगपुर, कालाहाण्डी), अरूप (या अनूप-नर्मदा उद्गम निकट),
शौण्डिके र, वीतिहोत्र (सुन्दरगढ़ के पश्चिम), अवन्ति।
११वीं सदी में रामानुजाचार्य जगन्नाथ मन्दिर में प्राण-प्रतिष्ठा के लिये आये थे। उन्होंने उल्लेख
किया है कि ओड़िशा में दोनो आम्नाय (शास्त्र शाखा) चलते हैं-संस्कृ त परम्परा वालों को पिङ्गल
(छन्द शास्त्र) कहते थे। एक स्थान का नाम है आलि-पिङ्गल। द्रविड़ आम्नाय वाले तमिल-तेलुगू
में पढ़ते थे, अतः उनको तिङ्गल कहते थे। इससे ओड़िया में टिंगा (अहंकारी) शब्द हुआ है।

अध्याय ३-वन सम्पत्ति


ओड़िशा के ११वें वन विभाग के रिपोर्ट २०११ के अनुसार, राज्य में कु ल ५८,१३६ वर्ग
कि.मी. जंगल है जिसमें २६,३२९ व.कि.मी. (४५.२%) संरक्षित वन, १५,५२५ व.कि.मी.
(२६.७०%) सुरक्षित वन तथा १६,२८२ व.कि.मी. अन्य वन हैं। कु ल क्षेत्र का ३७.३४%
वन है। वास्तव में २००९ में ओड़िशा में के वल ४८,९०३ व.कि.मी. वन थे जो कु ल भूमि का

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३१.४१% है। यह विभिन्न घनत्व के वनों का क्षेत्र है। २००७ में यह ४८,८५५ व.कि.मी. था।
वनों की सुरक्षा और विकास के लिये वन विभाग समाज के सहयोग से रक्षा और रोपण का कार्य
कर रहा है। यहां ४ मुख्य प्रकार के वन हैं-
(१) उत्तर के अर्ध सदाबहार वन-मयूरभंज, ढेंकानाल, आठगढ़, पुरी, नयागढ़, पारलाखेमुण्डी,
कोरापुट, कालाहाण्डी के निम्न पर्वतों तथा घाटियों में है। ऊपरी वृक्ष पतझड़ वाले हैं तथा नीचे
के सदाबहार हैं। मुख्य वृक्ष हैं-अर्जुन, आम, के न्दु, चम्पक, रई, मन्द, नागेश्वर।
(२) उष्ण नम पतझड़ या मानसून वन-यह मयूरभंज के न्दुझर के निम्न भागों में तथा छत्तीसगढ़,
आन्ध्र के सीमा क्षेत्रों में हैं। ऊपरी सतह (बड़े वृक्ष) हैं-साल, आसन, पियासाल, कु रुम, कांगड़ा,
धौरा, मोटा बांस।
(३) ऊष्ण पतझड़ वन-बालांगिर, कालाहाण्डी, सम्बलपुर, खरियार, देवगढ़ तथा गोविन्दपुर वन
मण्डलों में है। इसमें सागवान तथा पतले बांस मुख्य वृक्ष हैं।
(४) तटीय दलदल वन-भीतरकनिका (बालेश्वर) तथा महानदी डेल्टा भाग में हैं। इनके मुख्य
वृक्ष हैं-करिका, सुन्दरी, बानी, रई, गुआन। यहां हेन्ताल की झाड़ी अधिक होने से इनको हेन्ताल
वन भी कहते हैं।
भारत में हिमालय से लगे निम्न भाग में मुख्यतः साल के वन हैं। उसके दक्षिण के वल सागवान के
वन हैं। दोनों को शक (शक्तिशाली) कहते हैं-साल को शक या सखुआ, टीक को शकवन =
सागवान। पर अधिक वर्षा तथा भूमि रचना के कारण साल वृक्षों का क्षेत्र गोरखपुर, सारनाथ,
सासाराम, पलामू, सिंहभूमि, सुन्दरगढ़, सम्बलपुर, कालाहाण्डी, नवरंगपुर से मलकानगिरि तक
चला गया है। गोरखपुर के शक क्षेत्र में उत्पन्न होने के कारण सिद्धार्थ बुद्ध को शाक्यमुनि कहते थे।
मलकानगिरि में मातलि (मैथिली) थाना तक साल वन हैं। मैथिली के दक्षिण सागवान ही हैं।
गोरखपुर से पलामू तक के शक वृक्ष क्षेत्र को लघु शक द्वीप कहा गया है तथा वहां के ब्राह्मण
शाकद्वीपी हैं। साल वृक्ष की दक्षिणी सीमा के पास ही भगवान् राम ने सुग्रीव के दिखाये ७ साल
वृक्षों को एक ही बाण से बेध दिया था।
कु ल मिला कर ओड़िशा या बाकी भारत में वनों की अवस्था अच्छी नहीं है। ओड़िशा मुख्य
वनक्षेत्र था, पर अभी यहां घरेलू फर्नीचर के लिये मलयेसिया तथा अफ्रीका से लकड़ी का आयात
होता है। यहां वन की लकड़ी से अधिक आय के न्दु (बीड़ी) पत्ते से हो रही है जो वनों के नष्ट होने
पर होता है।
पशु-पक्षी-ओड़िशा प्राचीनकाल से हाथियों के लिये प्रसिद्ध था। महाभारत में कलिंग की गज सेना
प्रसिद्ध थी जिससे भीमसेन का युद्ध हुआ था। आज भी कलिंग (महानदी से गोदावरी तक समुद्र
तट) के राजाओं (पुरी, परलाखेमुण्डी, विजयनगर, श्रीकाकु लम) की उपाधि गजपति है।
जनमेजय के २७-११-३०१४ के दिग्विजय शासन पट्टा में उत्कल के राजा को अश्वपति तथा
कलिंगराज को गजपति कहा गया है। अश्वपति और उद्दालक की कथा छान्दोग्य उपनिषद् में है।
उद्दालक के नाम पर ओदला (मयूरभंज का सबडिवीजन) है। सिंह तथा अन्य मुख्य जन्तुओं की
रक्षा के लिये सिमलीपाल (सिमलीपहाड़-मयूरभंज) में ८५० व.कि.मी. का टाइगर-प्रोजेक्ट है।

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सम्बलपुर के निकट उषाकोठी तथा भुवनेश्वर के निकट चण्डका में अभयारण्य हैं। नन्दनकानन
(भुवनेश्वर का चिड़ियाखाना) में सफे द बाघ भी प्राकृ तिक परिवेश में रखे गये हैं। उषाकोठी में
चीता, जंगली भैंसा हैं। चण्डका में जंगली हाथी हैं। टिकरपाड़ा (ढेंकानाल) में ८०० व.कि.मी.
तथा भीतरकनिका में १६२ व.कि.मी. के मगर पार्क हैं। चिल्का झील तथा भीतरकनिका के
गहिरमथा में हजारों किलोमीटर दूर से समुद्री कछु ए अण्डा देने आते हैं जिनका भार १३५-१८०
किलो तक होता है।
अभयारण्यों की सूची-१. सिमलीपाल, २. भीतरकनिका, ३. सातकोसिया (टिकरपड़ा,
ढेंकानाल), ४. हदगढ़ (के न्दुझर-मयूरभंज), ५. नन्दनकानन (भुवनेश्वर), ६. बईसीपाली
(नयागढ़), ७. कोठगढ़ (कन्धमाल में बालिगुड़ा), ८. चण्डका-डम्पड़ा (भुवनेश्वर के निकट),
९. बालूखण्ड-कोणार्क , १०. कु लडीहा (बालेश्वर), ११. डेबरीगढ़ (हीराकु द जल भण्डार के
निकट), १२. लखारी घाटी (गजपति जिला), १३. चिलिका (नलबन-गंजाम, पुरी, खुर्दा जिलों
में), १४. बडरमा (उषाकोठी-सम्बलपुर), १५. सूनाबेड़ा (नुआपड़ा जिला-छत्तीसगढ़ सीमा
पर), १६. करलापाट (कालाहाण्डी), १७. गहिरमथा (महानदी डेल्टा)।

अध्याय ४-ओड़िशा की खनिज सम्पत्ति


२०१२-१३ का अनुमान
खनिज भण्डार (करोड़ टन में)
बौक्साईट १८१.१२२३
चीनी मिट्टी ३१.३९३१
क्रोमाइट १५.९४०८
कोयला ७३७१.००१
डोलोमाइट ३२.५९९४
अग्नि मिट्टी १७. ५४६२
ग्रेफाइट ०.४३२४

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लोहा ४९५.८२५८
लेड, जस्ता ०.४९८
चूना पत्थर ९९. ३७१८
मैंगनीज १२.०११४
भारी धातु २२.६००
निके ल १७.४००
पाइरोफाइलाइट ०.८३०८
खनिज बालू २२.१८४६
वैनेडियम ०.२५००
क्वार्ट्ज ७.००८४
टिन ०.००००४
(टिन धातु मलकानगिरि के गांवों मे पिघला कल बेची जाती है। यह कु छ तापक्रम पर सोने जैसी
दीखती है। सम्भवतः इसका सर्वे नहीं हुआ है)

अध्याय ५-ओड़िशा के कु छ मुख्य राष्ट्रगान


१. वन्दे उत्कल जननी-कान्तकवि लक्ष्मीकान्त महापात्र
वन्दे उत्कल जननी, चारु हासमयी, चारु भासमयी
जननी, जननी, जननी॥१॥
पूत पयोधि विधौत शरीरा, तालतमाल-सुशोभित तीरा,
शुभ्रतटिनीकू ल-सीकर-समीरा, जननी, जननी, जननी॥२॥
घन वनभूमि राजित अङ्गे, नील भूधरमाला साजे तरङ्गे,
कल कल मुखरित चारु विहङ्गे, जननी, जननी, जननी॥३॥
सुन्दरशालि-सुशोभित क्षेत्रा, ज्ञान-विज्ञान प्रदर्शित नेत्रा।
योगी-ऋषिगण उटज-पवित्रा, जननी, जननी, जननी॥४॥
सुन्दर मन्दिर मण्डित देशा, चारु कलावलि शोभित वेषा।
पुण्य तीर्थचय, पूर्ण प्रदेशा, जननी, जननी, जननी॥५॥
उत्कल सुरवर दर्पित गेहा, अरिकु ल-शोणित-चर्चित-देहा।
विश्व भूमण्डल कृ तवर स्नेहा, जननी, जननी, जननी॥६॥
कविकु लमौलि सुनन्दन वन्द्या, भुवन-विघोषित-कीर्ति अनिन्द्या।
धन्ये पुण्ये चिरशरण्ये, जननी, जननी, जननी॥७॥

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२. दशावतारस्तोत्रम् (जयदेवकृ तं, अष्टपदी अन्तर्गतम्)
प्रलयपयोधिजले धृतवानसि वेदम्, विहितवहित्रचरित्रमखेदम् ।
के शव धृतमीनशरीर, जय जगदीश हरे॥१॥
क्षितिरतिविपुलतरे तव तिष्ठति पृष्ठे, धरणिधरणकिणचक्रगरिष्ठे।
के शव धृतकच्छपरूप, जय जगदीश हरे॥२॥
वसति दशनशिखरे धरणी तव लग्ना, शशिनि कलङ्ककलेव निमग्ना।
के शव धृतसूकररूप, जय जगदीश हरे॥३॥
तव करकमलवरे नखमद्भुतशृङ्गम्, दलितहिरण्यकशिपुतनुभृङ्गम्।
के शव धृतनरहरिरूप, जय जगदीश हरे॥४॥
छलयसि विक्रमणे बलिमद्भुतवामन, पदनखनीरजनित जनपावन।
के शव धृतवामनरूप, जय जगदीश हरे॥५॥
क्षत्रियरुधिरमये जगदपगतपापम्, स्नपयसिपयसि शमितभवतापम्।
के शव धृतभृगुपतिरूप, जय जगदीश हरे॥६॥
वितरसि दिक्षु रणे दिक्पतिकमनीयम्, दशमुखमौलिबलिं रमणीयम्।
के शव धृतरघुपतिवेष, जय जगदीश हरे॥७॥
वहसि वपुषि विशदे वसनं जलदाभम्, हलहतिभीतिमिलितयमुनाभम्।
के शव धृतहलधररूप, जय जगदीश हरे॥८॥
निन्दसि यज्ञविधेरहह श्रुतिजातम्, सदयहृदय दर्शितपशुघातम्।
के शव धृतबुद्धशरीर, जय जगदीश हरे॥९॥
म्लेच्छनिवहनिधने कलयसि करवालम्, धूमके तुमिव किमपि करालम्।
के शव धृतकल्किशरीर, जय जगदीश हरे॥१०॥
श्रीजयदेवकवेरिदमुदितमुदारम्, शृणु सुखदं शुभदं भवसारम्।
के शव धृतदशविधरूप, जय जगदीश हरे॥११॥
वेदानुद्धरते जगन्निवहते भूगोलमुद्बिभ्रते,
दैत्यं दारयते बलिं छलयते क्षत्रक्षयं कु र्वते ।
पौलस्त्यं जयते हलं कु लयते, कारुण्यमातन्वते
म्लेच्छान् मूर्च्छयते दशाकृ तिकृ ते, कृ ष्णाय तुभ्यं नमः ॥ १२ ॥

३. भारत जननी-श्री राधानाथ राय


सर्वेषां नो जननी, भारतधरणी कल्पलतेयम्
जननी-वत्सल-तनय-गणैस्तत्, सम्यक् शर्म विधेयम्॥ ध्रुवम्॥
हिमगिरि-सीमन्तित-मस्तकमिदम्, अम्बुधि-परिगत-पार्वम्
अस्मज्जन्मदमन्नदमनिश, श्रौतपुरातनमार्षम्॥१॥

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विजनितहर्षं भारतवर्षं, विश्वोत्कर्षनिदानम्
भारतशर्मणि कृ तमस्माभि:, नवमिदमैक्यविधानम्॥२॥
भारतहित-सम्पादनमेव हि, कार्यं त्विष्टविपाकम्
भारतवर्जं न किमपि कार्यं, निश्चितमित्यस्माकम्॥३॥
भारतमेका गतिरस्माकं , नापरास्ति भुवि नाम।
सर्वादौ हृदयेन च मनसा, भारतमेव नमाम॥४॥

४. श्री जगन्नाथाष्टकम्
-आदि शङ्कराचार्य (शिखरिणी छन्द)
कदाचित् कालिन्दी तट विपिन सङ्गीतकवरो,
मुदाभीरी नारी वदन कमला स्वाद मधुपः।
रमाशम्भुब्रह्मामरपति गणेशार्च्चितपदो,
जगन्नाथ स्वामी नयन पथ गामी भवतु मे॥१॥
भुजे सव्ये वेणुं शिरसि शिखिपिच्छं कटितटे,
दुकू लं नेत्रान्ते सहचर-कटाक्षं विदधते।
सदा श्रीमद्‍-वृन्दावन-वसति-लीला-परिचयो,
जगन्नाथ स्वामी नयन-पथ-गामी भवतु मे॥२॥
महाम्भोधेस्तीरे कनक रुचिरे नील शिखरे,
वसन् प्रासादान्तः सहज बलभद्रेण बलिना।
सुभद्रा मध्यस्थः सकलसुर सेवावसरदो,
जगन्नाथः स्वामी नयन-पथ-गामी भवतु मे॥३॥
कृ पा पारावारः सजल जलद श्रेणिरुचिरो,
रमा वाणी रामः स्फु रदमल पङ्केरुहमुखः।
सुरेन्द्रैर् आराध्यः श्रुतिगण शिखा गीत चरितो,
जगन्नाथ स्वामी नयन पथ गामी भवतु मे॥४॥
रथारूढो गच्छन् पथि मिलित भूदेव पटलैः,
स्तुति प्रादुर्भावम् प्रतिपदमुपाकर्ण्य सदयः।
दया सिन्धुर्बन्धुः सकल जगतां सिन्धु सुतया,
जगन्नाथ स्वामी नयन पथ गामी भवतु मे॥५॥
परंब्रह्मापीड़ः कु वलय-दलोत्‍फु ल्ल-नयनो,
निवासी नीलाद्रौ निहित-चरणोऽनन्त-शिरसि।
रसानन्दी राधा-सरस-वपुरालिङ्गन-सुखो,
जगन्नाथ स्वामी नयन-पथगामी भवतु मे॥६॥
न वै याचे राज्यं न च कनक माणिक्य विभवं,

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न याचेऽहं रम्यां सकल जन काम्यां वरवधूम्।
सदा काले काले प्रमथपतिना गीतचरितो,
जगन्नाथ स्वामी नयन पथ गामी भवतु मे॥७॥
हर त्वं संसारं द्रुततरम् असारं सुरपते,
हर त्वं पापानां विततिम् अपरां यादवपते।
अहो दीनेऽनाथे निहित चरणो निश्चितमिदं,
जगन्नाथ स्वामी नयन पथ गामी भवतु मे॥८॥
जगन्नाथाष्टकं पुण्यं यः पठेत् प्रयतः शुचिः ।
सर्वपाप विशुद्धात्मा विष्णुलोकं स गच्छति॥९॥

अध्याय ६-ओड़िशा की वैदिक परम्परा


अंग्रेजी काल की पुस्तकों में पढ़ाया जाता है कि ओड़िया एक स्वतन्त्र जनजातीय भाषा थी
जिसका बाद में आर्यों ने संस्कृ तीकरण कर दिया। पर यह भारतीय संस्कृ ति के के न्द्र में था,
जिसके कारण यह जगन्नाथ क्षेत्र है। आज भी ओड़िया का उच्चारण शुद्ध संस्कृ त जैसा ही होता है।
ओड़िशा के पश्चिम में अन्तिम अक्षर का हलन्त जैसा उच्चारण होता है, यहां सभी अक्षरों का
समान उच्चारण होता है। ओड़िशा के पूर्व में प्रथम अ का ओ जैसा उच्चारण होता है जैसे असमी
और बंगला में। वर्तमान भारत के बाहर थाईलैण्ड, कम्बोडिया, इण्डोनेसिया में भी ऐसा ही है-जैसे
थाइलैण्ड के राजा भूमोबल अतुल्यतेज को भूमिबोल ओतुल्यतेज कहते थे। कम्बोडिया के
राजकु मार नरोत्तम को नोरोतोम कहते थे। इण्डोनेसिया में सुकर्ण को सुकर्णो कहते थे। ओड़िशा
के उत्तर में ऋ को रि तथा दक्षिण में रु जैसा पढ़ते हैं। ओड़िशा में ऋ को रि, रु, र-३ प्रकार से
पढ़ते थे जैसा अपभ्रंशों से स्पष्ट है। अमृत -अमिय, गृह-घर, पृच्छति-पूछता है (हिन्दी में भी)।)
विश्व की सभी भाषाओं में ४ पाद के छन्द होते हैं। पर गायत्री मन्त्र में अर्थ के लिये ३ पाद है।
गायत्री की व्याख्या के रूप में जगन्नाथ दास का भागवत होने के कारण उसमें प्रायः ३ पाद के
छन्दों का प्रयोग है।
तीन प्रकार के वैदिक शब्द के वल ओड़िया में प्रयुक्त होते हैं-(१) इन्द्र पूर्व दिशा के लोकपाल थे,
अतः इन्द्र के शब्द ओड़िशा से इण्डोनेसिया, वियतनाम तक प्रयुक्त होते हैं। (२) समुद्र सम्बन्धी
शब्द-ओड़िशा के अतिरिक्त दक्षिण भारत के अन्य तटीय भागों में भी, (३) जगन्नाथ सम्बन्धी
शब्द। बाकी शब्द पूरे भारत में वही हैं।
इन्द्र के शब्द-(१) पति अर्थ में बलमा, सजना, पराक्रमी अर्थ में चुतिया, बड़ा-
यस्मान्न ऋते विजयन्ते जनासो यं युध्यमाना अवसे हवन्ते।
यो विश्वस्य प्रतिमानं बभूव यो अच्युतच्युत स जनास इन्द्रः॥ (ऋग्वेद २/१२/९)

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= जिसके बिना लोगों की विजय नहीं होती, जिसको युद्ध के समय हवि दी जाती है, जो विश्व
के लिये प्रतिमान हुआ (भाषा, माप-तौल, व्यवहार के प्रमाण निर्धारित करने वाला), जो अभी
तक अच्युत या अपराजित थे, उनको भी च्युत या पराजित करनेवाला व्यक्ति (सजना) इन्द्र ही
है। बाद में राजा अत्याचारी हो गये, अतः चुतिया शब्द गाली हो गया। राजा, पति, गुरु आदि को
सम्मान के लिये बिना नाम लिये कहते हैं-स जनः (वह व्यक्ति) अतः पति के लिये सजना
प्रचलित हुआ। इन्द्र को बलम् कहते थे अतः, बलमा का अर्थ पति है। महान् अर्थ में बड़ा शब्द भी
इन्द्र के लिये ही था-
बड़्-महान्-बण् महाँ असि सूर्य बळादित्य महाँ असि।
महस्ते महिमा पनस्यतेऽद्धा देव महाँ असि। (ऋग्वेद ८/१०१/११)
(२) कार्त्तिके य के स्थान-कार्त्तिके य ने ६ शक्ति-पीठ बनाये थे जिनको उनकी ६ माता कहते थे।
इसी प्रकार बाद में शंकराचार्य तथा गोरखनाथ ने ४-४ पीठ बनाये। कार्त्तिके य के पीठों के नाम
और स्थान हैं-१. दुला-ओड़िशा तथा बंगाल, २. वर्षयन्ती-असम, ३. चुपुणीका-पंजाब, कश्मीर
(चोपड़ा उपाधि), ४. मेघयन्ती-गुजरात राजस्थान-यहां मेघ कम हैं पर मेघानी, मेघवाल उपाधि
बहुत हैं। ५. अभ्रयन्ती-महाराष्ट्र, आन्ध्र (अभ्यंकर), ६. नितत्नि-तमिलनाडु , कर्णाटक। अतः
ओड़िशा में कोणार्क के निकट बहुत से दुला देवी के मन्दिर हैं। दुलाल = दुला का लाल
कार्त्तिके य।
अत्र जुहोति अग्नये स्वाहा, कृ त्तिकाभ्यः स्वाहा, अम्बायै स्वाहा, दुलायै स्वाहा, नितत्न्यै स्वाहा,
अभ्रयन्त्यै स्वाहा, मेघयन्त्यै स्वाहा, चुपुणीकायै स्वाहेति। (तैत्तिरीय ब्राह्मण ३/१/४/१-९)
(३) शुनः इन्द्र-आकाश में शून्य में भी इन्द्र अर्थात् विकिरण है। उसी प्रकार पृथ्वी पर जिस
सम्पत्ति का कोई मालिक नही होता है, वह राजा की होती है। जमीन के नीचे की खनिज सम्पत्ति
भी राजा की है। वह देश के उपयोग के लिये है, विदेश भेजने के लिये नहीं। शून्य सम्पत्ति का
अधिकारी होने के कारण इन्द्र शुनः है। उसकी भूमि रूपी जो सम्पत्ति है वह भुआसुनी है, जिसके
भुवनेश्वर में कई मन्दिर हैं।
नेन्द्रात् ऋते पवते धाम किञ्चन । (ऋक् ९/६९/६) = ऐसी कोई जगह नहीं है, जहां इन्द्र नहीं
हो। वह मेघ की तरह पूरे आकाश या देश में छाया हुआ है अतः मघवा है-शुनं हुवेम
मघवानमिन्द्रम्। (ऋक् ३/३०/२२)। जैसे इन्द्र शून्य में भी है उसी प्रकार कु त्ता खाली घर देख
कर उसमें घुस जाता है, अतः उसे श्वान कहते हैं। अके ली स्त्री को देखकर युवक (युवन्) भी
उसके पीछे लग जाता है, अतः श्वन्, युवन्, मघवन्-इन ३ शब्दों के रूप एक जैसे चलते हैं-
श्वयुवमघोनामतद्धिते (अष्टाध्यायी ६/१/३३)
शंकराचार्य जब कश्मीर जा रहे थे तो एक लड़की एक ही माला में मणि, पत्थर और गुंजा गूंथ रही
थी, आचार्य ने पूछा कि ऐसी विचित्र माला क्यों बना रही हो? लड़की ने कहा कि पाणिनि जैसे
विद्वान् ने भी एक ही सूत्र में श्वन् (कु त्ता), युवन् (युवक् ) और मघवन् (इन्द्र) को लगा दिया था।
गुंजा मणिं काञ्चनमेकसूत्रे गर्न्थासि बाले किमिदं विचित्रम्।
विचारवान् पाणिनिरेक सूत्रे श्वानं युवानं मघवानमाहुः।

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(शंकर दिग्विजय)
(४) छिन्नमस्ता-इन्द्र का मुख्य अस्त्र वज्र था। वज्रशक्ति को वज्र वैरोचनीये = छिन्नमस्ता कहते
थे। इन्द्र की सैन्य छावनी (सम्बल) का क्षेत्र सम्बलपुर अतः छिन्नमस्ता का वह क्षेत्र है। सम्बलपुर
में होने से उनको समलेश्वरी कहते हैं। इसको वेद में वीर और श्रेष्ठ (पुरा) नारी कहा गया है जो
युद्ध में साथ जाती थी-
संहोत्र स्म पुरा नारी समनं वाव गच्छति। वेधा ऋतस्य वीरिणीन्द्रपत्नी महीयते विश्वस्मादिन्द्र
उत्तरः॥ (ऋक् १०/८६/१०)
(५) बुढ़ाराजा-शासन में बड़े-छोटे का क्रम (civil list) को श्रवा (रेखा, जिस दिशा में श्रवण
होता है) कहते हैं। राजा के रूप में सबसे उच्च स्थान पर इन्द्र था, अतः उसे वृद्धश्रवा कहते थे,
जो सम्बलपुर के स्थानीय देवता के रूप में बुढ़ाराजा हैं।
स्वस्ति न इन्द्रो वृद्ध श्रवा … (वाजसनेयी यजुर्वेद २५/१९)
(६) आखण्डल मणि-एक खण्ड का स्वामी खण्डायत है। सभी खण्डों को मिला कर उनका
मालिक आखण्डल = इन्द्र है, जिनका स्थान भद्रक में है। इन्द्र का क्षेत्र होने से यहां के क्षत्रिय
खण्डायत हैं, बाकी भारत में क्षत्रिय कहे जाते है।
(७) बीर-जो भूमि का उपभोग करता है, वह वीर है-वीरभोग्या वसुन्धरा। अतः इन्द्र ने जिनको
जमीन की जागीर दी थी, या जो उपभोग करते थे (अत्ता), वे वीर थे। वीर राजा का दाहिना हाथ
होने के कारण दक्षिण भाग में रहता था। अतः सम्बलपुर के बुढ़ाराजा के दक्षिण में अत्ताबिरा है।
के वल ओड़िशा में ही जागीर भूमि को वीर कहते हैं, जैसे वीरमहाराजपुर, बीरहरेकृ ष्णपुर,
बीररामचन्द्रपुर।
अत्ता ह्येतमनु । अत्ता हि वीरः । तस्मा दाह ... दक्षिणार्धे (दक्षिण भागे) सादयति । (शतपथ
ब्राह्मण ४/२/१/९)
राज परिवार में के वल बड़ा भाई अन्न (सम्पत्ति) का उत्तराधिकारी होता है, अतः उत्तर पश्चिमी
भारत में वीर का अर्थ बड़ा भाई है। अन्न को भोगने वाला अन्नाद है अतः दक्षिण भारत में अन्ना =
बड़ा भाई। जिसको कु छ नहीं मिला वह स्तम्ब (सूखा वृक्ष) है अतः तमिल में तम्बी = छोटा भाई।
(८) गोजा-सूर्य से जो तेज निकलता है, वह गोजा है। विन्दु से प्रकाश शंकु के आकार में
निकलता है, अतः गोजा = शंकु आकार। हर किरण सरल रेखा में जाती है, अतः गोजा या गोजी
= लाठी। सूर्य किरणों का जहां तक दबाव होता है, वह ईषा-दण्ड है। यह सूर्य से उसके ३०००
व्यास दूरी तक अर्थात् यूरेनस कक्षा तक है, जिसका पता पहली बार २००७ में यूरेनस तक
पहुंचने वाले कासिनी अन्तरिक्ष यान से हुआ।
ईषे त्वोर्ज्जे त्वा वायवस्थः। (वाजसनेयी यजुर्वेद १/१)=तुम ईषा या वायवस्थ (गतिशील उर्जा)
हो।
विष्णु पुराण (२/८/२)-योजनानां सहस्राणि भास्करस्य रथो नव। ईषादण्डस्तथैवास्य द्विगुणो
मुनिसत्तम॥ = भास्कर रथ का चक्र ९००० योजन ( १ योजन = सूर्य व्यास) है। इसका २ गुणा

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उसका ईषा-दण्ड है। ईषादण्ड की परिधि १८००० योजन होने से उसकी त्रिज्या या सूर्य से दूरी
प्रायः ३००० योजन होगी।
गोजिता बाहू अमितक्रतुः सिमः कर्मन्कर्म्मञ्छतमूतिः खजङ्करः ।
अकल्प इन्द्रः प्रतिमानम् ओजसाथा जना वि ह्वयन्ते सिषासवः । (ऋक़् संहिता १/१०२/६)=
गोजा हाथ वाले इन्द्र की अप्रतिम शक्ति है, उसके महान् कार्य तथा सैकड़ों साधन हैं। शक्ति के
लिये इन्द्र की आराधना करते हैं।
यह शक्ति गो = किरण से उत्पन्न होती है, अतः गोजा है। इस गोजा शक्ति द्वारा विश्व का वयन
होता है अतः विश्व निर्माण की शक्ति गोजा बयानी है। गोजा बयानी का क्षेत्र सूर्य क्षेत्र कोणार्क तथा
भद्रक (आखण्डलमणि) के बीच के न्द्रापड़ा में है। प्रायः इसी अक्षांश पर गुजरात है।
(९) टोका-इन्द्र रुद्र के रूप में तीव्र तेज वाला है अतः इन्द्र की शिव रूपों में बुढ़ाराजा और
आखण्डलमणि में पूजा होती है। रुद्र सूक्त में तोकः का प्रयोग पुत्र अर्थ में है अतः पश्चिम ओड़िशा
में टोका = पुत्र। अक्षत दान मन्त्र-मा नस्तोके मा न आयौ ... (ऋक्संहिता १/११४/८,
वाजसनेयी यजुर्वेद १६/१६, तैत्तिरीय संहिता ३/४/११/२, ४/५/१०/३)
(१०) घनघन-इन्द्र कई शत्रुओं को एक साथ पराजित करता था। इस के लिये वह घन-घन
(वर्षा की बून्दों की तरह बाण छोड़ता था। अतः ओड़िया में घन-घन का अर्थ है लगातार।
आशुः शिशानो वृषभो न भीमो घनाघनः क्षोभणश्चर्षणीनाम् । संक्रं दनोऽनिमिष एक वीरः शतं सेना
अजयत साकमिन्द्रः ॥ (ऋक् संहिता १०/१०३/१, सामवेद १८४९, अथर्व संहिता
१९/१३/२, वाजसनेयी यजुर्वेद १७/३३, तैत्तिरीय संहिता ४/६/४/१, निरुक्त १/१५)
(११) जगन्नाथ के २ रूप-गीता में जगन्नाथ का २ रूपों में वर्णन है। योगमार्ग के अनुसार भगवान
की सभी विभूतियों को क्रमशः योगसाधना द्वारा प्राप्त किया जा सकता है। योग मार्ग द्वारा क्रमशः
उन्नति कर जिस स्थिति की मनुष्य कल्पना करता है वह महापुरुष रूप है। इस रूप में जगन्नाथ
को गीता में महा बाहु कहा गया है। इस रूप में अच्युतानन्द ने उनका वर्णन किया, अतः उनका
नाम भी महापुरुष हुआ। जो जैसी आराधना करता है, भगवान् भी उसे वैसे ही पूजते हैं-
रूपं महत्ते बहुवक्त्रनेत्रं महाबाहो बहुबाहूरुपादम्। (गीता ११/२३)
ये यथा मां प्रपद्यन्तेतांस्तथैव भजाम्यहम् (गीता ४/११)
विश्व के स्रोत के रूप में भगवान् हमारी कल्पना से परे हैं। यह पुराण पुरुष हैं जिसका भागवत में
वर्णन है। यह अति-बड़ा (महा पुरुष से बड़ा) है, अतः इस रूप में वर्णन करने वाले जगन्नाथ दास
को अतिबड़ी कहा गया-
त्वमादिदेवः पुरुषः पुराणस्त्वमस्य विश्वस्य परं निधानम् । (गीता ११/३८)
(१२) प्रथम राम-धान आदि वजन करने के लिये एक के बदले हम राम कहते हैं, उसके बाद २,
३, आदि गिनते हैं। इसका कारण है कि जगन्नाथ अव्यय पुरुष रूप में क्षर तथा अक्षर दोनों से बड़े
हैं अतः उनको उत्तम-पुरुष या पुरुषोत्तम कहते हैं। जगन्नाथ का पुरुषोत्तम रूप राम है, जो प्रथित
है अतः एक का विशेषण प्रथम है। प्रथित से अंग्रेजी में फर्स्ट हुआ है। अतः प्रथम के लिए हम राम

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कहते हैं। कृ ष्ण पुरुष मर्यादा में नहीं थे, उन्होंने सदा ऐसे चमत्कार किये जो मनुष्य की कल्पना
से परे हैं।
यस्मात्क्षरमतीतोऽहमक्षरादपि चोत्तमः ।
अतोऽस्मि लोके वेदे च प्रथितः पुरुषोत्तमः। (गीता १५/१८)
(१३) इन्द्र काल- इन्द्र ने मरुत् की सहायता से देव-नागरी लिपि आरम्भ की। आज भी इसका
प्रयोग इन्द्र के स्थान पूर्व में असम से मरुत् स्थान पेशावर (उत्तर-पश्चिम को मरुत् या वायव्य
कोण कहते हैं) तक होता है। इसमें ३३ व्यञ्जन वर्ण ३३ देवों के चिह्न हैं। सभी ४९ वर्ण ४९
मरुतों के चिह्न हैं। चिह्न रूप में यह देवों का नगर होने के कारण देवनागरी कहा जाता है। इन्द्र ने
यह लिपि आरम्भ की थी, अतः उनको लेखर्षभ कहते हैं (तैत्तिरीय संहिता ६/४/७, मैत्रायणी
संहिता ४/५/८, काण्व संहिता २७/२, कपिष्ठल संहिता ४२/३) तथा मार्क ण्डेय पुराण का सूर्य-
तनु-लेखन अध्याय। इन्द्र का क्षेत्र होने से अलेख नाम ओड़िशा में ही प्रचलित है। १४६४ ईसा
पूर्व में अशोक के कलिंग युद्ध के समय यहां के राजा का नाम अलेख-सुन्दर लिखा गया है
(देहरादून के निकट कलसी का लेख) । पर इसे अलेक्जेण्ड्रि या का राजा माना गया था जो उस
काल में नहीं था न अशोक के राज्य की सीमा वहां तक थी। समुद्र व्यापार के कारण कई नाम
समुद्र तट के देशों में समान हैं-जैसे खूण्टिया (खुण्टे), नाग (नागवीथी आकाश में क्रान्तिमण्डल
के उत्तर का वृत्त है, पृथ्वी पर यह विषुव के उत्तर के समुद्री मार्ग हैं), नागजाति (जापान के
नागासाकी) से लेकर मेक्सिको (आस्तिक नाग = एज्टेक) तक हैं। समुद्री दस्यु को पणि कहा
गया है, जिनका इन्द्र ने दमन किया था (ऋग्वेद, ८/६४, १०/१०८ आदि) । ये वहीं होंगे जहां
समुद्री व्यापार है। अतः भारत में के वल ओड़िशा में ही पणि वनवासी हैं तथा पाणि या पाणिग्रही
ब्राह्मण हैं। पर भारतीय वेद पढ़ते समय के वल बाहर देखते हैं, उन्हें के वल फिनिशिअन दीखते हैं
अपने देश के पणि नहीं।
समुद्री क्षेत्र सम्बन्धी शब्द-(१) खूंटिया-समुद्री जहाजों को किनारे लगाने के लिये उनको खूंटे से
बान्धते हैं, तब उससे व्यक्ति या सामान उतारा जाता है या पुनः चढ़ाते हैं। तट पर भण्डार आदि
रखने का दायित्व जिस व्यक्ति पर रहता था उसे खूंटिया कहते थे। महाराष्ट्र में तथा नाइजिरिया,
घाना में यह खुण्टे हो गया है। (अलेक्स हेली का रूट्स)
(२) समुद्री जहाज दो प्रकार से चलते थे। जहां कोई अन्य साधन नहीं हो वहां मनुष्यों द्वारा चप्पू
या बांस से चलाते थे। जहां समुद्री हवा उपलब्ध थी वहां उससे शक्ति लेकर चलाते थे। इसमें वायु
शक्ति की याचना होती थी अतः इसे याचक कहते थे जो अंग्रेजी में याच हो गया है। याचक उपाधि
के वल ओड़िशा तथा महाराष्ट्र में है।
(३) मार्शाघाई-समुद्र निकट की नीची भूमि घाई है। यह पानी जमा होने से चिकना (मसृण) हो
जाता है अतः इसे मार्शाघाई कहते हैं (जगतसिंहपुर का एक थाना)। यह अंग्रेजी में मार्श हो गया
है।
(४) इरासमा-यह भी जगतसिंहपुर का एक थाना है। इरा का अर्थ है जल का प्रवाह। अतः पंजाब
तथा बर्मा की नदियों का नाम इरावती (रावी) है। जिस भूमि के दोनों तरफ समान रूप से जल

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हो, वह इरासमा है। यह अंग्रेजी में इरास्मस हो गया है जिसे पुनः ओड़िया, हिन्दी में जल-डमरू-
मध्य अनुवादित किया गया है।
(५) मुण्ड-निर्माण का क्रम वृक्ष है उसमें मूलस्रोत को ऊर्द्ध्व कहते हैं-ऊर्ध्वमूलमधः
शाखमश्वत्थं प्राहुरव्ययम् (गीता १५/१) । मनुष्य शरीर में ऊर्द्ध्व भाग मुण्ड है अतः नदी का
स्रोत भाग को मुण्ड कहते हैं। जहां तक महानदी की एक ही धारा या स्रोत है, उसे मुण्डली कहते
हैं। जहां यह दो (द्वि = बाइ) धाराओं महानदी और काठजोड़ी में विभाजित हुयी, उसे बाइमुण्डी
कहते हैं। यह अंग्रेजी में हेड हो गया है जिसका प्रयोग सिंचाई विभाग या द्रव-गतिकी विज्ञान में
होता है। यथा बाढ़ में कहते हैं कि नराज हेड से २ लाख क्यूसेक पानी बहा।
(६) पाक-पाक का अर्थ पकाना (भोजन को) कहते हैं। इसके लिये वस्तुओं को मिलाया जाता
है। ओड़िया में मिलाने को भी पकाना कहते है। समुद्र जल में सभी खनिजों का मिलन होता है
अतः समुद्र तट पर पकाना का अर्थ मिलाना भी है-
एकः सुपर्णः स समुद्रमाविवेश स इदं भुवनं वि चष्टे ।
तं पाके न मनसापश्यमन्तितस्तं, माता रेऴ्हि स उ रेऴ्हि मातरम् ॥ (ऋग् वेद १०/११४/४)
= एक सुपर्ण (पक्षी) ने समुद्र में प्रवेश किया, उसने मन से विचार कर पाक द्वारा भुवन का
निर्माण किया। उसने भूमि का माता के समान पालन (रेळ्हि) किया। भूमि ने भी उसका पुत्र
समान पालन किया।
अतः जलसेना के मुख्य को सुपर्ण नायक (ओड़िशा, आन्ध्र, विजयनगर में) काह्ते थे। समुद्र
तट पर सबसे अधिक खेती आन्ध्र में होती है अतः वहा भूमि का पालन करने वाले को रेड्डी
(रेळ्हि) कहते हैं। ओड़िया में प्रेम अर्थ में रेळ्ह शब्द गेल्ह हो गया है।
पाक का बहुवचन रूप है कई वस्तुओं को मिला कर नयी चीज बनाना या षड़यन्त्र करना-
यच्च स्वभावं पचति विश्वयोनिः पाच्यांश्च सर्वान् परिणामयेद्यः । (श्वेताश्वतर उपनिषद् ५/५)
= जिस प्रकार अपने भाव से मनुष्य पकाता है, उस के परिणाम में विश्वयोनि (भगवान्) सबको
उसी प्रकार पकाता है।
जगन्नाथ दास ने पाच्यांश्च को पांचे कर दिया है-जे पांचे पर र मन्द, ताहार मन्द पांचन्ति
गोविन्द।
(७) अधर्म धन-अधर्म से बड़ा धन अन्त में विनाशकारी होता है-
अधर्मेणैधते तावत् ततो भद्राणि पश्यति।
ततः सपत्नान् जयति समूलस्तु विनश्यति (मनु स्मृति ४/१७४)
= अधर्म से कु छ समय के लिए बढ़ता है (एधते = adds), उसके बाद कु शल मंगल होता है,
तब सभी शत्रुओं को जीत लेता है, किन्तु अन्त में जड़ से साफ हो जाता है।
जगन्नाथ दास ने बीच के दो क्रमों का एक शब्द में उल्लेख किया है-गला बेले-अधर्म धन बढ़े बहुत
गला बेले जाये मूल सहित।
(८) कण्व शाखा के शब्द-पारम्परिक रूप से ओड़िशा में शुक्ल यजुर्वेद की काण्व शाखा का
प्रचलन था। यजुर्वेद का १०० शाखा होने से उसके व्याख्या (= ब्राह्मण) ग्रन्थ को शतपथ

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ब्राह्मण कहते हैं। अतः यहां ब्राह्मणों की उपाधि शतपथी है। काण्व शाखा की पुस्तकों में कई
विख्यात सिद्धान्त थे उनको कण्व (खना) वचन कहते हैं। शतपथ ब्राह्मण का एक और शब्द
मुस्मुस् (मूढ़ी, कड़कड़ भोजन) भी के वल के न्द्रापड़ा, मयूरभंज आदि में प्रचलित है-
सर्वं च मस्मसा कु र्व्विति(शतपथ ब्राह्मण ६/६/३/१०-सायणभाष्यम्) मस्मसा अनुकरणशब्दोऽयं।
यथा भक्षणसमये-मस्मसा शब्दं कु र्वन्ति-तथा कु र्वित्यर्थः। मृ स्मृ सा (मैत्रायणी संहिता २/७/७)
मृ स्मृ षा (पैप्पलाद संहिता १/२९/३) ये च मुटमुटा कु म्भमुष्का अयाशव (अथर्व वेद ८/६/१५)
सायणभाष्यम्- मुट्मुटाः = मुट्मुट् इति शब्दं कु र्वन्तः । मुट्मुट् इत्यव्यक्त शब्दानुकरणार्थे इति।
(९) राग-भारत के अन्य भागों में राग के वल संगीत के स्वरों के बारे में कहा जाता है। ओड़िया में
इसका एक अलग अर्थ भी है-क्रोध। पंजाब में भजन गाने वाले को सम्मान के लिये रागी कहते हैं।
ओड़िया में यह गाली है-रागी = क्रोधी। गीता में कहा है कि काम से क्रोध होता है-कामात्
क्रोधोऽभिजायते (गीता २/६२)। क्रोध = राग बाद में होता है, अतः काम को अनु-राग (जिसके
बाद राग हो) कहते हैं।
(१०) भाव-पूरे भारत में भाव (विचार) शब्द का संज्ञा रूप में प्रयोग है, पर ओड़िया में क्रिया
रूप में भी प्रयोग होता है-मूं भावुचि = मैं विचार करता हूं। गीता आदि में इसके कई प्रयोग हैं
जिनका सीधा अनुवाद के वल ओड़िया में ही हो सकता है-
देवान्भावयतानेन ते देवा भावयन्तु वः ।
परस्परम् भावयन्तः श्रेयः परमवाप्स्यथ । ११। (गीता, अध्याय ३)
आपत्सु मग्नः स्मरणं त्वदीयम् करोमि दुर्गे करुणार्णवेशि ।
नैतच्छठत्वं मम भावयेथा क्षुधातृषार्त्ता जननीं स्मरन्ति ।
(देवी अपराध क्षमापन स्तोत्र )
(११) भावग्रही-भावग्रही नाम के वल ओड़िशा में ही प्रचलित है। जगन्नाथ दास ने अपने भागवत में
भगवान को प्रायः भावग्रही कहा है। वह भक्तों के दुःख से दुखी हो जाते हैं अतः दुखिश्याम नाम
भी ओडिशा में ही है। इसका कारण है कि जगन्नाथ सभी के हृदय में रहने के कारण उनका भाव
ग्रहण करते हैं तथा उनके लिये दुखी होते हैं।
(१२) असना, पड़िशा-ओड़िया में असना का अर्थ बुरा या गन्दा है। यह अश्नाति = खाता है, से
हुआ है। भोजन अर्थ में ३ मुख्य धातु हैं-भुज् पालनाव्यवहारयोः (पाणिनीय धातुपाठ ७/१७)-
पालन, रक्षण या भोजन करना (के वल शरीर रक्षण के लिये भोजन आदि लेना), अद भक्षणे
(२/१) भोजन के साथ आनन्द (स्वाद), अश भोजने (९/५४)-इसमे भोजन या अन्य भोग के
साथ भविष्य की भी चिन्ता होती है। गीता में कहा है कि के वल वर्तमान कर्म में ध्यान होना
चाहिये, भविष्य के फल की चिन्ता नहीं-कर्मण्येवाधिकारस्ते, मा फलेषु कदाचन। (गीता २/४७)।
निर्माण के बाद क्रिया रूप में सुपर्ण के २ रूप हो जाते हैं, एक काम करता है, दूसरा उस पर
नजर रखता है जिससे भूल सुधार हो सके । सभी स्वचालित यन्त्र इसी सिद्धान्त पर काम करते
हैं। दोनों सुपर्ण (पक्षी) निकट में रहते हैं जिनके लिये परिषस्वजाते कहा है। ओड़िया में प्रायः मूल
रूप पड़िशा है। हिन्दी में थोड़ा और बदल कर पड़ोसी बन गया। दो पक्षियों में जो कर्म में लिप्त

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होकर फल की चिन्ता करता है वह जीव (ईव) है। उसका आसक्ति सहित भोजन (असना)
निन्दित है, अतः अन्य सुपर्ण आत्मा (आदम) अनश्नन् है।
द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्षं परिषस्वजाते ।
तयोरन्यः पिप्पलं स्वाद्वत्त्यनश्नन्नन्यो अभिचाकषीति ।
(ऋक्संहिता १/१६४/२०, अथर्व ९/१४/२०, मुण्डक उपनिषद् ३/१, श्वेताश्वतर उपनिषद्
४/६)
वनवासिओं का मूल-इनका मूल स्रोत ४ प्रकार का है--(१) भारत के खनिज कर्मी, (२) कू र्म
अवतार के समय आये अफ्रीकी असुर, (३) पूर्व समुद्र के आक्रमणकारी, तथा (४) पुराने
शासक।
(१) खनिज कर्म-खनिज कर्म करने वाले को शबर या सौर कहते हैं। मीमांसा दर्शन की सबसे
पुरानी व्याख्या शबर मुनि की है। शिव द्वारा शबर-मन्त्र दिये गये थे जो बिना किसी अर्थ के भी
फल देते हैं। राजा इन्द्रद्युम्न के समय जगन्नाथ की लुप्त मूर्त्ति को भी विद्यापति शबर ने खोजा था
जिनके वंशज आज भी उनके उपासक हैं तथा उनको स्वाईं महापात्र कहा जाता है। शूकर का
अपभ्रंश सौर (हिन्दी में सुअर) जो अपने मुंह या दांतों से मिट्टी खोदता है। अतः मिट्टी
खोदनेवाले को शुकर या शबर बोलते हैं। यह नाम पूरे विश्व में प्रचलित था क्योंकि हिब्रू में भी
इसका यही अर्थ था जिसका कई स्थान पर बाईबिल में प्रयोग हुआ है-हिब्रू की औनलाइन
डिक्शनरी के अनुसार-
7665. shabar (shaw-bar') A primitive root; to burst (literally or
figuratively) -- break (down, off, in pieces, up), broken((-
hearted)), bring to the birth, crush, destroy, hurt, quench, X
quite, tear, view (by mistake for sabar).
शबर के लिये वैखानस शब्द का भी प्रयोग है। विष्णु-सहस्रनाम का ९८७ वां नाम वैखानस है
जिसका अर्थ शंकर भाष्य के अनुसार शुद्ध सत्त्व के लिये ग्रन्थों के भीतर प्रवेश है। यह पाञ्चरात्र
दर्शन का मुख्य आगम है तथा एक वैखानस श्रौत सूत्र भी है।
(२) समुद्र मन्थन के सहयोगी-वामन ने बलि से इन्द्र के लिये तीनों लोक ले लिये तो कई असुर
असन्तुष्ट थे कि देवता युद्ध कर के यह राज्य नहीं ले सकते थे तथा छिटपुट युद्ध जारी रहे। तब
विष्णु अवतार कू र्म ने समझाया कि यदि उत्पादन हो तभी उस पर अधिकार के लिये युद्ध का
लाभ है। अतः उसके लिये पृथ्वी का दोहन जरूरी है। पृथ्वी की सतह का विस्तार ही समुद्र है।
महाद्वीपों की सीमा के रूप में ७ समुद्र हैं, पर गौ रूपी पृथ्वी से उत्पादन के लिये ४ समुद्र
(मण्डल) हैं-जुगोप गोरूपधरामिवोर्वीम् (कालिदास का रघुवंश, २/४)। इनको आजकल स्फियर
(sphere) कहते हैं-Lithosphere (पृथ्वी की ठोस सतह), Hydrosphere
(समुद्र), Biosphere (पृथ्वी की उपरी सतह जिस पर वृक्ष उगते हैं), Atmosphere
(वायुमण्डल). पृथ्वी की ठोस सतह को खोदकर उनसे धातु निकालने को ही समुद्र-मन्थन कहा
गया है। बिल्कु ल ऊपरी सतह पर खेती करना दूसरे प्रकार के समुद्र का मन्थन है। भारत में

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खनिज का मुख्य स्थान बिलासपुर (छत्तीसगढ़) से सिंहभूमि (झारखण्ड) तक है, जो कछु ए के
आकार का है। इसके ऊपर या उत्तर मथानी के आकार पर्वत है जो गंगा तट तक चला गया है-
यह मन्दार पर्वत कहलाता है जो समुद्र मन्थन के लिये मथानी था। उत्तरी छोर पर वासुकिनाथ
तीर्थ है, नागराज वासुकि को मन्दराचल घुमाने की रस्सी कहा गया है। वह देव-असुरों के सहयोग
के मुख्य संचालक थे। असुर वासुकि नाग के मुख की तरफ थे जो अधिक गर्म है। यह खान के
भीतर का गर्म भाग है। लगता है कि उस युग में असुर खनन में अधिक दक्ष थे अतः उन्होंने यही
काम लिया। देव विरल खनिजों (सोना, चान्दी) से धातु निकालने में दक्ष थे, अतः उन्होंने
जिम्बाबवे में सोना निकालने का काम तथा मेक्सिको में चान्दी का लिया। पुराणों में जिम्बाबवे के
सोने को जाम्बूनद-स्वर्ण कहा गया है। इसका स्थान के तुमाल (सूर्य-सिद्धान्त, अध्याय १२ के
अनुसार इसका रोमक पत्तन उज्जैन से ९०० पश्चिम था) वर्ष के दक्षिण कहा गया है। यह्ं
हरकु लस का स्तम्भ था, अतः इसे के तुमाल (स्तम्भों की माला) कहते थे। बाइबिल में राजा
सोलोमन की खानें भी यहीं थीं। मेक्सिको से चान्दी आती थी अतः आज भी इसको संस्कृ त में
माक्षिकः कहा जाता है। चान्दी निकालने की विधि में ऐसी कोई क्रिया नहीं है जो मक्खियों के
काम जैसी हो, यह मेक्सिको का ही पुराना नाम है। सोना चट्टान में सूक्ष्म कणों के रूप में मिलता
है, उसे निकालना ऐसा ही है जैसे मिट्टी की ढेर से अन्न के दाने चींटियां चुनती हैं। अतः इनको
कण्डू लना (= चींटी, एक वनवासी उपाधि) कहते हैं। चींटी के कारण खुजली (कण्डू यन) होता है
या वह स्वयं खुजलाने जैसी ही क्रिया करती है, अतः सोने की खुदाई करने वाले को कण्डू लना
कहते थे। सभी ग्रीक लेखकों ने भारत में सोने की खुदाई करने वाली चींटियों के बारे में लिखा है।
मेगस्थनीज ने इस पर २ अध्याय लिखे हैं। समुद्र-मन्थन में सहयोग के लिये उत्तरी अफ्रीका से
असुर आये थे, जहां प्रह्लाद का राज्य था, उनको ग्रीक में लिबिया (मिस्र के पश्चिम का देश)
कहा गया है। उसी राज्य के यवन, जो भारत की पश्चिमी सीमा पर थे, सगर द्वारा खदेड़ दिये
जाने पर ग्रीस में बस गये जिसको इओनिआ कहा गया (हेरोडोटस)।
विष्णु पुराण(३/३)-सगर इति नाम चकार॥३६॥ पितृराज्यापहरणादमर्षितो हैहयतालजङ्घादि
वधाय प्रतिज्ञामकरोत्॥४०॥प्रायशश्च हैहयास्तालजङ्घाञ्जघान॥४१॥ शकयवनकाम्बोजपारदपह्लवाः
हन्यमानास्तत्कु लगुरुं वसिष्ठं शरणं जग्मुः॥४२॥यवनान्मुण्डितशिरसोऽर्द्धमुण्डिताञ्छकान्
प्रलम्बके शान् पारदान् पह्लवान् श्मश्रुधरान् निस्स्वाध्यायवषट्कारानेतानन्यांश्च क्षत्रियांश्चकार॥
४७॥
अतः वहां के खनिकों की उपाधि धातु नामों के थे, वही नाम ग्रीस में ग्रीक भाषा में गये तथा
आज भी इस कू र्म क्षेत्र के निवासिओं के हैं। इनके उदाहरण दिये जाते हैं-
(१) मुण्डा-लौह खनिज को मुर (रोड के ऊपर बिछाने के लिये लाल रंग का मुर्रम) कहते हैं।
नरकासुर को भी मुर कहा गया है क्योंकि उसके नगर का घेरा लोहे का था (भागवत पुराण,
स्कन्ध ३)-वह देश आज मोरक्को है तथा वहां के निवासी मूर हैं। भारत में भी लौह क्षेत्र के के न्द्रीय
भाग के नगर को मुरा कहते थे जो पाण्डु वंशी राजाओं का शासन के न्द्र था (वहां के पट्टे बाद में
दिये गये हैं)। बाद में यहां के शासकों ने पूरे भारत पर नन्द वंश के बाद शासन किया जिसे मौर्य

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वंश कहा गया। मुरा नगर अभी हीराकु द जल भण्डार में डू ब गया है तथा १९५६ में वहां का थाना
बुरला में आ गया। मौर्य के २ अर्थ हैं-लोहे की सतह का क्षरण (मोर्चा) या युद्ध क्षेत्र (यह भी
मोर्चा) है। फारसी में भी जंग के यही दोनों अर्थ हैं। लौह अयस्क के खनन में लगे लोगों की
उपाधि मुण्डा है। यहां के अथर्व वेद की शाखा को भी मुण्डक है, जिसका मुण्डक उपनिषद्
उपलब्ध है। उसे पढ़ने वाले ब्राह्मणों की उपाधि भी मुण्ड है (बलांगिर, कलाहाण्डी)
(२) हंसदा-हंस-पद का अर्थ पारद का चूर्ण या सिन्दूर है। पारद के शोधन में लगे व्यक्ति या
खनिज से मिट्टी आदि साफ करने वाले हंसदा हैं।
(३) खालको-ग्रीक में खालको का अर्थ ताम्बा है। आज भी ताम्बा का मुख्य अयस्क खालको
(चालको) पाइराइट कहलाता है।
(४) ओराम-ग्रीक में औरम का अर्थ सोना है।
(५) कर्क टा-ज्यामिति में चित्र बनाने के कम्पास को कर्क ट कहते थे। इसका नक्शा (नक्षत्र देख
कर बनता है) बनाने में प्रयोग है, अतः नकशा बना कर कहां खनिज मिल सकता है उसका
निर्धारण करने वाले को करकटा कहते थे। पूरे झारखण्ड प्रदेश को ही कर्क -खण्ड कहते थे
(महाभारत, ३/२५५/७)। कर्क रेखा इसकी उत्तरी सीमा पर है, पाकिस्तान के करांची का नाम
भी इसी कारण है।
(६) किस्कू -कौटिल्य के अर्थशास्त्र में यह वजन की एक माप है। भरद्वाज के वैमानिक रहस्य में
यह ताप की इकाई है। यह् उसी प्रकार है जैसे आधुनिक विज्ञान में ताप की इकाई मात्रा की
इकाई से सम्बन्धित है (१ ग्राम जल ताप १० सेल्सिअस बढ़ाने के लिये आवश्यक ताप कै लोरी
है)। लोहा बनाने के लिये धमन भट्टी को भी किस्कू कहते थे, तथा इसमें काम करने वाले भी
किस्कू हुए।
(७) टोप्पो-टोपाज रत्न निकालनेवाले।
(८) सिंकू -टिन को ग्रीक में स्टैनम तथा उसके भस्म को स्टैनिक कहते हैं।
(९) मिंज-मीन सदा जल में रहती है। अयस्क धोकर साफ करनेवाले को मीन (मिंज) कहते थे-
दोनों का अर्थ मछली है।
(१०) कण्डू लना-ऊपर दिखाया गया है कि पत्थर से सोना खोदकर निकालने वाले कण्डू लना
हैं। उस से धातु निकालने वाले ओराम हैं।
(११) हेम्ब्रम-संस्कृ त में हेम का अर्थ है सोना, विशेषकर उससे बने गहने। हिम के विशेषण रूप
में हेम या हैम का अर्थ बर्फ़ भी है। हेमसार तूतिया है। किसी भी सुनहरे रंग की चीज को हेम या
हैम कहते हैं। सिन्दूर भी हैम है, इसकी मूल धातु को ग्रीक में हाईग्रेरिअम कहते हैं जो सम्भवतः
हेम्ब्रम का मूल है।
(१२) एक्का या कच्छप-दोनों का अर्थ कछु आ है। वैसे तो पूरे खनिज क्षेत्र का ही आकार कछु ए
जैसा है, जिसके कारण समुद्र मन्थन का आधार कू र्म कहा गया। पर खान के भीतर गुफा को
बचाने के लिये ऊपर आधार दिया जाता है, नहीं तो मिट्टी गिरने से वह बन्द हो जायेगा। खान
गुफा की दीवाल तथा छत बनाने वाले एक्का या कच्छप हैं।

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(३) आक्रमणकारी-दुर्गा सप्तशती, अध्याय १ में लिखा है कि स्वारोचिष मनु ( द्वितीय मनु) के
समय भारत के चैत्य वंशी राजा सुरथ के राज्य को कोला विध्वंसिओं ने नष्ट कर दिया था, यह
प्रायः १७,५०० ईसा पूर्व की घटना है, उसके बाद १० युग (३६०० वर्ष) तक असुर प्रभुत्व था
तथा वैवस्वत मनु का काल १३९०० ईसा पूर्व में आरम्भ हुआ। प्रायः १७००० ईसा पूर्व में राजा
पृथु के समय पूरी पृथ्वी का दोहन (खनिज निष्कासन) हुआ था, जिसके कारण इसको पृथ्वी
(पृथु का विशेषण) कहा गया। पृथु का जन्म उनके पिता वेन के हाथ के मन्थन से हुआ था।
दाहिने हाथ से निषाद तथा बायें हाथ से कोल तथा भील उत्पन्न हुए (भागवत पुराण, ४/१४)।
अतः यह भारत के पूर्वी भाग के हो सकते हैं। भारत के नक्शे पर हिमालय की तरफ सिर रखकर
सोने पर बायां हाथ पूर्व तथा दाहिना हाथ पश्चिम होगा। दाहिना हाथ (दक्ष) का यज्ञ हरिद्वार में
था जहां पश्चिमी भाग आरम्भ होता है। पूर्वी भाग में कोल लोगों का क्षेत्र ऋष्यमूक या ऋक्ष पर्वत
कहा जाता है जिसका अर्थ भालू है। कोला का अर्थ पूरे विश्व में भालू है। पूर्वी साइबेरिआ कोला
प्रायद्वीप है, जो भालू क्षेत्र कहा जाता है, आस्ट्रेलिआ में यह भालू की एक जाति है, अमेरिका में
भी इसका अर्थ भालू होता था, इनका प्रिय फल आज भी कोका-कोला कहा जाता है। भालू की
विशेषता है कि वह बहुत जोर से अगले दोनों पैरों से आदमी के हाथ की तरह किसी को पकड़ता
है। अतः कोलप (कोला द्वारा रक्षित) का अर्थ ओड़िया में ताला है। बहुमूल्य वस्तु ताले में रखी
जाती है अतः लक्ष्मी (सम्पत्ति) को कोलापुर निवासिनी कहा गया है। महाराष्ट्र में महालक्ष्मी
मन्दिर कोल्हापुर में है। अतः सम्पत्ति, धातु भण्डार आदि की रक्षा करने वाले कोला हैं। इसी काम
को करनेवाले अन्य देशों के लोग भी कोला थे, वे अलग-अलग जाति के हो सकते हैं, पर काम
समान था। इसी प्रकार समुद्र पत्तन की व्यवस्था करने वाले वानर थे क्योंकि तट पर जहाज को
लगाने के लिये वहां बन्ध बनाना पड़ता है, जिसे बन्दर कहते हैं। आज भी जहाज के पत्तन को
बन्दर या बन्दरगाह कहते हैं। वानर को भी बन्दर कहते हैं। राम को भी समुद्र पारकर आक्रमण
करने के लिये वानर (पत्तन के मालिक) तथा भालू (धातुओं के रक्षक) की जरूरत पड़ी थी।
कोला जाति के नाम पर ओड़िशा के कई स्थान हैं-कोलाबिरा थाना (ओड़िशा के झारसूगुडा,
झारकण्ड के सिमडेगा-दोनों जिलों में), कोलाब (कोरापुट)। मुम्बई में भी एक समुद्र तट कोलाबा
है।
(४) पुराने शासक-पठार को कन्ध या पुट (प्रस्थ) कहते थे जैसे कन्ध-माल या कोरापुट। वहां
के निवासी को भी कन्ध कहते थे। इनका राज्य किष्किन्धा था। उत्तरी भाग में बालि का प्रभुत्व
था-जो ओड़िशा के बालिगुडा, बालिमेला आदि हैं। दक्षिणी भाग में सुग्रीव का प्रभुत्व था।
भारत का गण्ड भाग विन्ध्याचल में गोण्डवाना है, वहां के निवासी गोण्ड। इसकी पश्चिमी
सीमा गुजरात का गोण्डल (राजकोट जिला) है। उत्तर प्रदेश के पूर्वी भाग में भी एक जिला गोण्डा
है पर वह गोनर्द (गाय के खुर से दबा कीचड़ या काली मिट्टी) का अपभ्रंश है जहां पतञ्जलि का
जन्म हुआ था। गोण्ड लोग गोण्डवाना के शसक थे। मुगल शासक अकबर को अन्तिम चुनौती यहां
की गोण्ड रानी दुर्गावती ने दी थी, उनके पति ओड़िशा के कलाहाण्डी में लाञ्जिगढ़ के वीरसिंह थे
(वृन्दावनलाल वर्मा का उपन्यास-रानी दुर्गावती)। गोण्ड जाति में राज परिवार के व्यक्ति राज-

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गोण्ड कहलाते हैं। इन् लोगों ने सत्ता से समझौता नहीं किया अतः ये दरिद्र या दलित हो गये। पर
इनके जो नौकर अकबर से मिलकर उसके लिये जासूसी करते थे, वे पुरस्कार में राज्य पाकर
बड़े हो गये। रानी दुर्गावती के पुरोहित को काशी का तथा उनके रसोइआ महेश ठाकु र को
मिथिला का राज्य मिला जो नमक-हरामी-जागीर कहा गया (विश्वासघात के लिये)।
ओड़िशा की वेद शाखायें-(१) ऋग्वेद की सभी शाखायें यहां प्रचलित थीं। उनके अध्ययन करने
वालों की होता उपाधि है।
(२) यजुर्वेद में शुक्ल यजुर्वेद की कण्व शाखा यहां अधिक प्रचलित थी-मुख्यतः बौध में। कण्व वंश
के ब्राह्मणों ने मगध पर ९१६-८३३ ई.पू. तक शासन किया था (पौराणिक कालक्रम)।
कृ ष्ण यजुर्वेद की औदल कठ शाखा का के न्द्र उदला (मयूरभंज) था। पिंग शाखा का स्थान
आलि-पिंगल था।
(३) सामवेद-इसके २ शाखाओं का अध्ययन करने वालों की उपाधि ओड़िशा में प्रचलित है-
कौथुमी शाखा-उद्गाता, जैमिनीय शाखा-ओता
कौथुमी-कु थ प्रक्षेपणे (धातुपाठ १०/१६५)-बाहर निकालना। उद्गान या उद्गार (ओगाल-ओड़िया
गीत)-बाहर निकलना।
जिमु अदने (१/३१८)-भीतर लेना। ओत-प्रोत में ओत भीतर की व्याप्ति है, प्र+उतः = बाहर
की गति।
(४) अथर्ववेद-इसकी मुण्डक शाखा के वल पश्चिम ओड़िशा में प्रचलित थी। वहां सम्बल पुर
तथा बालांगिर में मुण्ड ब्राह्मणों की उपाधि है। मुण्ड का अर्थ लौह खनिज है, लोहे की खान में
काम करने वाले भी मुण्डा जनजाति है। आज उपलब्ध शौनक और पैप्पलाद शाखाओं में
पैप्पलाद शाखा की प्रतिया के वल ओड़िशा में ही मिलीं थी। सम्भवतः इसका के न्द्र पिप्पली
(भुवनेश्वर-पुरी मार्ग पर) था।

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अध्याय ७. जगन्नाथ तत्त्व और इतिहास
वेद में जगन्नाथ को पुरुष कहा गया है और सभी पूजा में पुरुष सूक्त के १६ मन्त्र ही १६ उपचार
होते हैं। भगवान् ने स्वयं कहा है कि पूरा वेद उन्हीं का वर्णन है-
वेदैश्च सर्वैरहमेववेद्यं वेदान्तविद् वेदविदेव चाहम् (गीता, १५/१५)
भागवत पुराण में कृ ष्ण अवतार के वर्णन के आरम्भ में ही लिखा है कि जगन्नाथ हई वासुदेव,
वृषाकपि, तथा पुरुष है, अतः उनकी स्तुति पुरुष सूक्त द्वारा होती है-
तत्र गत्वा जगन्नाथं वासुदेवं वृषाकपि। पुरुषं पुरुषसूक्ते न उपतस्थे समाहिताः॥ (भागवत पुराण
१०/१/२०)
वृषाकपि जगन्नाथ का हनुमान् रूप है, वृषा = कणों की वर्षा, पूरा ब्रह्माण्ड (आकाशगंगा) या
उसमें सभी तारा कण हैं। कपि = पहले जैसा निर्माण, क = जल जैसा फै ला हुआ पदार्थ, पि =
पिब्, उसके पान से निर्माण।
तद् यत् कम्पाय-मानो रेतो वर्षति तस्माद् वृषाकपिः, तद् वृषाकपेः वृषा कपित्वम्। ... आदित्यो वै
वृषाकपिः। (गोपथ बाह्मण, उत्तर ६/१२)
लोकभाषा में पुरुष का अर्थ है, मनुष्य पुरुष, स्त्री नहीं। किन्तु वेद में इसका व्यापक अर्थ है, यहां
पुरुष का अर्थ विश्व निर्माण के सभी स्तर तथा सभी सजीव-निर्जीव पिण्ड जो सीमा या पुर में हैं।
भागवत गीता में ४ स्तर के पुरुष हैं-
(१) परात्पर पुरुष-यह मूल कारण है, जिसमें भेद नहीं होने के कारण इसका वर्णन नहीं हो
सकता है। इसका उल्लेख उपवर्णन कहते हैं-
एवं गजेन्द्रमुपवर्णित निर्विशेषं (गजेन्द्र मोक्ष स्तोत्र के बाद शुकदेव जी का मन्तव्य-श्रीमद् भागवत,
८/३/३०)
अन्य ३ स्तर बोध गम्य हैं-
(२) क्षर पुरुष-जो स्थूल रूप दीखता है वह काल के साथ धीरे धीरे पुराना होकर (क्षय) समाप्त
हो जाता है।
(३) अक्षर पुरुष-बाह्य रुप और रचना धीरे धीरे बदलने पर भी उसका कू टस्थ परिचय (नाम,
गुण, कर्म) वही रहता है। अतः इसे अक्षर कहते हैं।
(४) अव्यय पुरुष-पूरे समाज या व्यवस्था को देखने पर कहीं कु छ घटता-बढ़ता नहीं है, एक
जगह जो कम होता है, वह दूसरे स्थान पर बढ़ जाता है। अतः इसे अव्यय पुरुष कहते है। यह
परिवर्तन के क्रम रूप में वृक्ष कहा है, मनुष्य के जन्मों का भी क्रम है।
क्षर और अक्षर से उत्तम होने के कारण अव्यय को पुरुषोत्तम भी कहते हैं। वर्णनीय रूप में
जगन्नाथ अव्यय पुरुष या पुरुषोत्तम हैं। कृ ष्ण योगेश्वर अवस्था में भगवान् थे, गीता में उनको
भगवान् कहा है, अन्य स्थानों में नहीं। उन्होंने जन्म से ही चमत्कार आरम्भ कर दिया था। किन्तु
श्री राम सदा पुरुष मर्यादा में रहे, ऐसा कु छ नहीं किया जो पुरुष के लिये असम्भव हो। अतः
जगन्नाथ का भगवान् रूप कृ ष्ण तथा पुरुषोत्तम रूप राम हैं। पुरुषोत्तम रूप में लोक और वेद

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(दोनों सदा साथ-साथ हैं) में प्रथित होने के कारण एक (१) का विशेषण प्रथम होता है तथा
वजन करते समय १ के बदले में राम कहते हैं।
गीता, अध्याय १५-द्वाविमौ पुरुषौ लोके क्षरश्चाक्षर एव च। क्षरः सर्वाणि भूतानि कू टस्थोऽक्षर
उच्यते॥१६॥
उत्तमः पुरुषस्त्वन्यः परमात्मेत्युदाहृतः। यो लोकत्रयमाविश्य बिभर्त्यव्यय ईश्वरः॥१७॥
यस्मात् क्षरमतीतोऽहमक्षरादपि चोत्तमः। अतोऽस्मि लोके वेदे च प्रथितः पुरुषोत्तमः॥१८॥
४ पुरुषों के ४ प्रकार के काल हैं। काल की कई परिभाषा विभिन्न दर्शनों में है। इसे परिवर्तन का
आभास कह सकते हैं। क्षर पुरुष में सदा परिवर्तन होता है अतः इसका काल नित्य काल है। जो
परिवर्तन हो गया, वह वापस नहीं आयेगा, बूढा होने पर पुनः युवक या बालक नहीं हो सकता है।
अतः नित्य काल का अर्थ मृत्यु भी है। कई परिवर्तन चक्रीय क्रम में होते हैं। प्राकृ तिक चक्र हैं,
दिन-रात्रि, मास, वर्ष। इसी चक्र में मनुष के भी यज्ञ होते हैं, जो अक्षर पुरुष का कार्य है। इसी
चक्र के काल से काल की माप होती है। इस चक्र में जनन या यज्ञ द्वारा उत्पादन होता है, अतः
इसे जन्य काल कहते हैं। पूरी संस्था देखने पर कोई परिवर्तन नहीं होता, अतः अव्यय पुरुष का
अक्षय काल है। अक्षय काल के पुरुष को ग्रन्थ साहब में अकाल पुरुष कहा गया है। परात्पर काल
का अनुभव नहीं होता। इनका विस्तृत वर्णन भागवत पुराण(३/११) अध्याय में है।
दारु ब्रह्म-जगन्नाथ को प्रायः दारु-ब्रह्म कहा गया है तथा पुराणों में इसका अर्थ भी दिया है-
स्कन्द पुराण-वैष्णव उत्कल खण्ड,अध्याय ४-
देवासुर मनुष्याणां गन्धर्वोरगरक्षसाम्।
तिरश्चामपि भो विप्रास्तस्मिन्दारुमये हरौ॥७१।
सर्वात्मभूते वसति चित्तं सर्वसुखावहे।
उपजीवन्त्यस्य सुखं यस्याऽनन्य स्वरूपिणः॥७२॥
ब्रह्मणः श्रुतिवागाहेत्येदत्राऽनुभूयते।
द्यति संसार दुःखानि ददाति सुखमव्ययम्॥७३॥
तस्माद्दारुमयं ब्रह्म वेदान्तेषु प्रगीयते।
नहि काष्ठमयी मोक्षं ददाति प्रतिमा क्वचित्॥७४॥
अध्याय २८-आद्यामूर्तिर्भगवतो नारसिंहाकृ तिर्नृप।
नारायणेन प्रथिता मदनुग्रहतस्त्वयि।३८॥
दारवी मूर्तिरेषेति प्रतिमाबुद्धिरत्र वै।
मा भूत्ते नृपशार्दूल परब्रह्माकृ तिस्त्वियम्॥३९॥
खण्डनात् सर्व दुःखानां अखण्डानन्द दानतः।
स्वभावाद्दारुरेषो हि परं ब्रह्माभिधीयते॥४०॥
इत्थं दारुमयो देवश्चतुर्वेदानुस्रतः।
स्रष्टा स जागतां तस्मादात्मानञ्चापिसृष्टवान्॥४१॥
इसका मूल ऋग्वेद में है-अदो यद्दारुः प्लवते सिन्धोः पारे अपूरुषम्।

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तदारभस्व दुर्हणो येन गच्छ परस्तरम्॥ (ऋक् , शाकल्य शाखा १०/१५५/३)
यत्र देवो जगन्नाथ: परपारं महोदधे:।
बलभद्र: सुभद्रा च तत्र माममृतं कृ धि।। (ऋग्वेदपरिशिष्ट )
यद्दार्वमानुष सिन्धोस्तीरे तीर्णं प्रदृश्यते।
तदालभाय परं पदं प्राप्नोति दुर्लभम्। (ऋक् , वाष्कल शाखा ८/८/१३/३)
= यह जो अपौरुषेय दारु-मूर्ति समुद्र तट पर दीखती है उसकी भक्ति से दुर्लभ परम पद मिलता
है।
यहां आकाश के ३ धामों में विरल अदृश्य पदार्थ का विस्तार ३ प्रकार का समुद्र है-स्वयम्भू
मण्डल या उत्तम धाम में आदि रूप (आदित्य) अर्यमा तथा समुद्र नियति या प्रकृ ति है। ब्रह्माण्ड
मध्यम धाम है जिसका आदित्य वरुण है तथा अदृश्य पदार्थ का विस्तार सरस्वान् समुद्र है। सौर
मण्डल अवम धाम है जिसका आदित्य मित्र है तथा इसमें मर समुद्र है। इन समुद्रों में तैरते हुए
पिण्डों ब्रह्माण्ड-तारा-ग्रह का एकत्व या अपौरुषेयत्व समझने पर परम पद मिलता है।
पृथ्वी पर जल समुद्र ७ हैं जो ७ द्वीपों की सीमा हैं। गो रूप (यज्ञ उत्पादक) पृथ्वी के ४ उत्पादक
मण्डल ४ समुद्र हैं-जल समुद्र, स्थल समुद्र (खनिज, कृ षि का उत्पादन), जीव-मण्डल (पशु,
वृक्षों के उत्पाद), वायुमण्डल-वर्षा, वनस्पति से उत्पादन। इनका अपौरुषेयत्व या क्रम (पुरुष
सूक्त की ७ परिधि, ३ x ७ समिधा) समझने पर परम पद मिलता है।
पुराणों में कथा है कि भगवान् कृ ष्ण लेटे हुए थे तो जरा व्याध ने उनके तलवे में बाण मारा जिससे
उनका देहान्त हुआ। उनका शरीर पूरी तरह नष्ट नहीं हुआ। वह समुद्र में तैरते हुए पुरी तक पहुंचा
जिससे जगन्नाथ की प्रतिमा बनी (ओड़िया में सारला दास का महाभारत, मौसल पर्व)। यह
लाक्षणिक कथा हो सकती है।
आध्यात्मिक अर्थ है कि मनुष्य शरीर में मेरुदण्ड स्थित षट् -चक्रों में क्रमशः उत्थान होने से
मनुष्य जब हृदय के श्री क्षेत्र अनाहत चक्र में सूक्ष्म जगन्नाथ का दर्शन करता है तो उसकी मुक्ति
हो जाती है। कठोपनिषद्, अध्याय २, वल्ली २-
हंसः शुचिषद् वसुरन्तरिक्षसद्, होता वेदिषद् अतिथिर्दुरोणसत्।
नृषद् वरसदृतसद् व्योमसदब्जा, गोजा ऋतजा अद्रिजा ऋतं बृहत्॥२॥
ऊर्ध्वं प्राणमुन्नयत्यपानं प्रत्यगस्यति।
मध्ये वामनमासीनं विश्वे देवा उपासते॥।३॥
(श्लोक २-महानारायण उपनिषद् ८/६, १२/३, नृसिंह पूर्वतापिनी उप. ३/६, ऋक् ४/४०/५)
ऊपर स्कन्द पुराण में दारु शब्द की व्याख्या के अनुसार दारु ब्रह्म के कई अर्थ हैं-
(१) विश्व निर्माण का क्रम-आकाश में विश्व निर्माण के ५ पर्व हैं-उसके पहले २ अव्यक्त हैं-
परात्पर तथा शिव-शक्ति भेद-अभेद। उसके बाद १०० अरब ब्रह्माण्डों के समूह रूप में स्वायम्भुव
मण्डल, हमारे ब्रह्माण्ड के १०० अरब तारा, सूर्य का क्षेत्र सौर मण्डल, ग्रहओं में जीवन क्षेत्र
चान्द्र मण्डल तथा भू-मण्डल। इनमें किसी एक पिण्ड का निर्माण विनाश होता रहता है, पर यह
निर्माण का क्रम चलता रहता है। इस रूप में यह अविनाशी अश्वत्थ है। निर्दिष्ट पिण्ड इसके पत्तों

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जैसे क्षण-भङ्गुर है। इसमें निर्माण का स्रोत मूल या ऊपर है, निर्मित पदार्थ शाखा तथा नीचे हैं।
इनके अनुरूप या प्रतिमा रूप में मनुष्य शरीर में ५ चक्र हैं तथ उनके ऊपर मस्तिष्क में २ चक्र
हैं।
ऊर्ध्वमूलमधः शाखमश्वत्थं प्राहुरव्ययम्।
छन्दांसि यस्य पर्णानि यस्तं वेद स वेदवित्। (गीता १५/१)
दो अव्यक्त स्तर हैं १ ॐ तथा चतुर्धा विभक्त ॐ। उसके बाद के ५ स्तर हैं जो माहेश्वर सूत्र के
प्रथम ५ वर्णों ( ५ मूल स्वरों) द्वारा निर्दिष्ट हैं। इनकी प्रतिमा शरीर के चक्रों के बीज मन्त्र इनके
सवर्ण अन्तःस्थ वर्ण हैं।
स्वयम्भू- अ - ह-विशुद्धि चक्र
परमेष्ठी(ब्रह्माण्ड)-इ -- य- अनाहत
सौर ---उ --- व -- स्वाधिष्ठान
चान्द्र- ऋ-- र -- मणिपूर
भू- लृ --- ल- मूलाधार
यह सृष्टि क्रम है जिसमें स्वाधिष्ठान तथा मणिपूर चक्रों का क्रम बदल गया है। यह शंकराचार्य की
सौन्दर्य लहरी में है-
महीं मूलाधारे कमपि मणिपूरे हुतवहं, स्थितं स्वाधिष्ठाने हृदि मरुतमाकाशमुपरि।
मनोऽपि भ्रूमध्ये सकलमपि भित्त्वा कु लपथं, सहस्रारे पद्मे सह रहसि पत्या विहरसि॥९॥
माहेश्वर सूत्र हैं-अइउण्। ऋलृक् ।-- हयवरट् । लण्।--
(२) निर्माण की सामग्री-ब्रह्माण्ड के निर्माण की सामग्री भी ब्रह्म ही है। वही निर्माता, निर्माण
सामग्री, निर्माता, निर्मित, उसका फल आदि सबकु छ है। इसे सुकृ त् (कर्ता-क्रिया आदि मिला
जुला) कहते हैं जिसका लोकभाषा में अर्थ है अच्छा काम।
किं स्विद् वनं क उ स वृक्ष आस यतो द्यावा पृथिवी निष्टतक्षुः।
मनीषिणो मनसा पृचतेदु तत् यदध्यतिष्ठद् भुवनानि धारयन्॥
(ऋक् १०/८१/४, तैत्तिरीय ब्राह्मण २/८/९/१५, तैत्तिरीय संहिता ४/६/२/१२)
= वह कौन सा महान् वन या वृक्ष था जिसे काट कर पृथ्वी और आकाश बने? मनीषियों ने मन
में प्रश्न किया कि किसने निर्माण तथा धारण किया?
ब्रह्म वनं ब्रह्म स वृक्ष आसीत् यतो द्यावा पृथिवी निष्टतक्षुः।
मनीषिणो मनसा विब्रवीमि वो ब्रह्माध्यतिष्ठद् भुवनानि धारयन्॥ (तैत्तिरीय ब्राह्मण २/८/९/१६)
= इसका उत्तर मनीषियों ने मन में ही दिया कि ब्रह्म ही वह वन और वृक्ष था जिसे काट कर ब्रह्म
ने ही पृथ्वी-आकाश का निर्माण किया तथा उसे धारण किया।
किं स्विदासीदधिष्ठानमारम्भणं कतमत्स्वित् कथासीत्।
यतो भूमि जनयन् विश्वकर्मा वि द्यामौर्णोन् मह्ना विश्वचक्षाः॥
(ऋक् १०/८१/२, तैत्तिरीय संहिता ४/६/२/११)

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= निर्माण का आधार तथा आरम्भ की सामग्री क्या थी, इसकी विधि तथा क्रम क्या था जिससे
विश्वकर्मा ने भूमि-आकाश बना कर उनको आकाश में यथा-स्थान स्थापित किया?
ब्रह्मार्पणं ब्रह्म हविर्ब्रह्माग्नौ ब्रह्मणा हुतम् ।
ब्रह्मैव तेन गन्तव्यं ब्रह्मकर्मसमाधिना॥ (गीता, ४/२४)
= ब्रह्म ही अर्पण, हवि, अग्नि तथा उसमें हुत पदार्थ है। हवन करने वाला ब्रह्म है, निर्मित पदार्थ
अन्त में ब्रह्म रूपी कर्म से ब्रह्म में मिल जाता है।
(३) निरपेक्ष द्रष्टा-
यस्मात् परं नापरमस्ति किञ्चिद् यस्मान्नाणीयो न ज्यायोऽस्ति कश्चित् ।
वृक्ष इव स्तब्धो दिवि तिष्ठत्येकस्तेनेदं पूर्णं पुरुषेण सर्वम् ॥ (श्वेताश्वतरउपनिषद्, ३/९)
ब्रह्म सभी क्रिया-परिणामों के ऊपर है। जैसे मार्ग में पड़ा हुआ वृक्ष सभी गुजरते हुए लोगों को
देखता है पर कोई बाधा या सहायता नहीं करता, वैसे ही ब्रह्म के वल द्रष्टा है। इसके प्रतीक रूप में
जगन्नाथ मूर्ति के खाली हाथ सामने फै ले हुए हैं।
(४) कारण-क्रिया-फल का चक्र-वृक्ष का मूल कारण है, उसकी शाखायें क्रिया हैं, फल उनके
परिणाम हैं। फल के बीज से पुनः वही चक्र आरम्भ होता है। मनुष्य भी कर्म-फल के अनन्त चक्र
में सदा जन्म लेता रहता है।
अहं वृक्षस्य रेरिवा। कीर्तिः पृष्ठं गिरेरिव। ऊर्ध्व पवित्रो वाजिनीव स्मृतमसि। द्रविणं सवर्चसम्।
सुमेधा अमृतोक्षितः। इति त्रिशङ्कोर्वेदानुवचनम्। (तैत्तिरीय उपनिषद् १/१०)
वासना वशतः प्राणस्पन्दस्तेन च वासना।
क्रियते चित्तबीजस्य तेन बीजाङ्कु रक्रमः॥२६॥
द्वे बीजे चित्तवृक्षस्य प्राणस्पन्दनवासने।
एकस्मिँश्च तयोः क्षीणे क्षिप्रं द्वे अपि नश्यतः॥२७॥
द्वे बीजे चित्तवृक्षस्य वृत्तिव्रततिधारिणः।
एक प्राण परिस्पन्दो द्वितीयं दृढ़भावना॥४८॥
(मुक्तिकोपनिषद्, अध्याय २)
अधश्चोर्ध्वं प्रसृतास्तस्य शाखा गुणप्रवृद्धा विषयप्रवालाः।
अधश्च मूलान्यनुसन्ततानि कर्मानुबन्धीनि मनुष्यलोके ॥२॥
न रूपमस्येह तथोपलभ्यते, नान्तो न चादिर्न च सम्प्रतिष्ठा। अश्वत्थमेनं सुविरूढ़मूलमसङ्गशस्त्रेण
दृढ़ेन छित्वा॥३॥ (गीता, अध्याय १५)
(५) कर्त्ता-द्रष्टा समन्वय-सभी जीवित रचनाओं में मस्तिष्क के २ भाग हैं, एक कार्य करता है,
दूसरा उसमें सुधार करता है। अतः बिना बाहरी नियन्त्रण के लिये जीवन चलता रहता है। विराट्
स्तर पर भी ब्रह्म इन दो रूपों से सृष्टि चला रहा है।
द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्षं परिषस्वजाते।
तयोरन्यः पिप्पलं स्वादु अत्ति अनश्नन् अन्यो अभिचाकषीति॥

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(ऋक् १/१६४/२०, अथर्व ९/१४/२०, श्वेताश्वतर उपनिषद् ४/६, मुण्डक उपनिषद्
३/१/१)
= एक वृक्ष पर एक साथ दो पक्षी हैं। उनमें एक पिप्पल (पिब् + फल्, जिस फल में आसक्ति हो)
को स्वाद से खा रहा है। अन्य बिना खाये के वल देख-भाल कर रहा है।
शरीर में ये २ पक्षी आत्मा तथा जीव हैं जिनको बाइबिल में आदम-ईव कहा गया है।
(६) वन-अनन्त कर्म-चक्र तथा क्रियाओं का समन्वय ही ब्रह्म रूपी वन है।
वृक्ष प्रतीक-विष्णु या जगन्नाथ सबके हृदय में रह कर उनको संचालित करते हैं। हर व्यक्ति अपने
स्थान पर स्वतन्त्र है। इसका प्रतीक पिप्पल है जिसका हर पत्ता स्वतन्त्र रूप से हिलता रहता है।
पत्तों का हिलना चञ्चल मन का प्रतीक है।
अश्वत्थरूपो भगवान् विष्णुरेव न संशयः। रुद्ररूपो वटस्तद्वत् पलाशो ब्रह्मरूपधृक् ॥ (पद्मपुराण,
उत्तर खण्ड ११५/२२)
यस्मिन् वृक्षे मध्वदः सुपर्णा निविशन्ते चाधिविश्वे। तस्येदाहुः पिप्पलं स्वाद्वग्रे तन्नोन्नशद्यः पितरं न
वेद॥ (ऋक् १/१६४/२२)
अश्वत्थे वो निषदनं पर्णे वो वसतिष्कृ ता।
गो भाज इत् किलासथ यत् सनवथ पूरुषम्॥ (ऋक् १०/९७/५)
यस्मिन् वृक्षे सुपलाशे देवैः सम्पिबते यमः।
अत्रा नो विश्यतिः पिता पुराणां अनु वेनति॥ (ऋक् १०/१३५/१)
शिव-गुरु-शिष्य परम्परा का प्रतीक वट वृक्ष है। मूल वृक्ष से हवाई शाखायें लटकती हैं जो जमीन
से लग कर वैसा ही नया वृक्ष बनाती हैं। गुरु भी शिष्य को ज्ञान दे कर अपने जैसा मनुष्य बना
देता है। मूल वृक्ष से बने अन्य वृक्षों का प्रचलित नाम दुमदुमा (द्रुम से द्रुम) है। हर शिव पीठ पर
दुमदुम है-भुवनेश्वर, कामाख्या, कोलकाता में दमदम, वैद्यनाथ धाम में दुमका, अमृतसर के
हरमन्दिर का दमदमी टकसाल, सोमनाथ का दुमियाणी आदि।
ब्रह्मा का प्रतीक पलास है। मुण्डकोपनिषद् के आरम्भ में लिखा है कि मूल अथर्व वेद से ३
शाखायें ऋक् -यजु-साम हुईं तथा मूल भी बचा रहा। अतः त्रयी का अर्थ १ मूल + ३ शाखा = ४
वेद होता है। इसका प्रतीक पलास शाखा है जिससे ३ पत्ते निकलते हैं। ब्रह्मा द्वारा वेद निर्माण
हुआ था या ३ गुणों से सृष्टि रूपी वेद बना था, अतः यज्ञोपवीत के वेदारम्भ संस्कार में पलास
शाखा का प्रयोग होता है।
सर्वेषां वा एष वनस्पतीनां यानिर्यत् पलासः। (स्वायम्भुव ब्रह्मरूपत्त्वात्) -ऐतरेय ब्राह्मण २/१)
ब्रह्म वै पलाशस्य पलाशम्। (शतपथ ब्राह्मण २/६/२/८)
ब्रह्म वै पलाशः। (शतपथ ब्राह्मण १/३/३/१९)
जगन्नाथ के नित्य अवतार-लोकभाषा में जगत् और विश्व का एक ही अर्थ है। पर वेद-पुराण की
वैज्ञानिक भाषा में विश्वनाथ शिव को कहते हैं तथा जगन्नाथ विष्णु को। शिव ज्ञान रूप है, बाह्य
स्वरूप या लिङ्ग से जो वस्तु का ज्ञान होता है वह शिव है। उसके भीतर की अदृश्य चेतना
जगन्नाथ है। चेतना वह है जो चिति कर सके । विश्व सीमाबद्ध व्यवस्था है जो अपने भीतर प्रायः

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पूर्ण है। ब्रह्माण्ड, सौर मण्डल, पृथ्वी, मनुष्य शरीर, शरीर की कोषिका, परमाणु, परमाणु की
नाभि आदि सभी विश्व हैं। विष्णु का प्रत्यक्ष रूप सूर्य है। सौर मण्डल के ३ क्षेत्र-१०० सूर्य-व्यास
तक ताप, १००० व्यास तक तेज तथा लक्ष व्यास तक प्रकाश-ये विष्णु के ३ पद हैं। परमपद
वह क्षेत्र है जहां तक सूर्य विन्दुमात्र दीखता है। यह ब्रह्माण्ड सूर्यों का समूह है तथा इसे महाविष्णु
भी कहते हैं। सूर्य से जो प्रकाश निकलता है वह इन्द्र है जो शून्य स्थान में भी व्याप्त है। सूर्य के
आकर्षण में पृथ्वी आदि ग्रहों की कक्षा बन्धी हुई हैं, यह विष्णु रूप है। सूर्य की कक्षा में रहने तथा
उसके प्रकाश के कारण जो जीवन चल रहा है उस क्रिया रूप में यह जगन्नाथ है। के वल पृथ्वी को
धारण कर ना सुप्ति कहा गया है, जीवन चलाना जाग्रत अवस्था है। चण्डी-पाठ, प्रथम महाकाली
चरित्र में जव योगनिद्रा में सोये हुए थे तब विष्णु कहा है। जब जाग्रत हुए तो जगन्नाथ कहा है। इन
क्रियाओं से काल का आभास होता है जो काली रूप है। अतः जगन्नाथ का उल्लेख महाकाली
चरित्र में है और उनको दक्षिणा काली भी कहते हैं।
शत योजने ह वा एष (आदित्यः) इतस्तपति । (कौषीतकि ब्राह्मण ८/३)
सहस्रं हैत आदित्यस्य रश्मयः। (जैमिनीय ब्राह्मण उपनिषद् १/४४/५)
भूमेर्योजन लक्षे तु सौरं मैत्रेय मण्डलम् । (विष्णु पुराण २/७/५)
इदं विष्णुर्विचक्रमे त्रेधा निदधे पदम् । (ऋक् १/२२/१७)
तद्विष्णोः परमं पदं सदा पश्यन्ति सूरयः। (ऋक् १/२२/२०)
नित्य अवतार ५ हैं-मत्स्य, यज्ञ, कू र्म, वराह, वामन।
(१) मत्स्य-स्वयम्भू मण्डल के दृश्य भाग तपः लोक में १०० अरब ब्रह्माण्ड मत्स्य की तरह तैर
रहे हैं। समुद्राय शिशुमारान् आलभते पर्जन्याय मण्डू कान् अद्भ्यो मत्स्यान् मित्राय कु लीपयान्
वरुणाय नाक्रान् ॥ (वाज. यजु २४/२१)। पुरोळा इत् तुर्वशो यक्षुरासीद् राये मत्स्यासो निशिता
अपीव॥ (ऋक् ७१/८/६) इनको द्रप्सः (drops) भी कहा है, क्योंकि विश्व में पूरा ब्रह्माण्ड
विन्दुमात्र है, ब्रह्माण्ड में तारा विन्दु है और सूर्य जैसे तारा के क्षेत्र में पृथ्वी भी विन्दु है। द्रप्सश्च
स्कन्द पृथिवीमनुद्याम्।(ऋक् १०/१७/११, अथर्व १८/४/२८, वाज. यजु. १३/५, तैत्तिरीय
सं. ३/१/८/३, ४/२/८/२, मैत्रायणी संहिता २/५/१०, ४/८/९, काण्व सं. १३/९,
१६/१५,३५/८, शतपथ ब्रा. ७/४/१/२०) (२) यज्ञ-गीतानुसार यज्ञ वह कर्म है जिस में
चक्रीय क्रम में उत्पादन होता है। विश्व में गति का आरम्भ ब्रह्माण्डों के निर्माण से हुआ, इनका
निर्माण और विनाश भी एक चक्र है जो ब्रह्मा का दिन-रात कहा जाता है। अतः यह यज्ञ अवतार
है।
(३) वराह-वराह का अर्थ मेघ और सूकर दोनों है। विश्व का मूल तत्त्व जो समुद्र जैसा फै ला हुआ
है, जल की तरह है। स्वयम्भू का शान्त जल रस है, उसमें ब्रह्माण्ड रूप तरंग उत्पन्न होने पर
सरिर या सलिल, ब्रह्माण्ड का पदार्थ अप्, उसमें तारा का शब्द या तरंग से अम्भ, सौर मण्डल
का मर है। ठोस या सीमाबद्ध पिण्ड पृथ्वी हैं, जो ३ स्तर की हैं-ब्रह्माण्ड = काश्यपी, सौर पृथ्वी
= मैत्रेय, और हमारा पृथ्वी ग्रह। इनके बीच की स्थिति वराह है। मेघ जल और वायु के बीच की
वस्तु है, सूअर जल-स्थल दोनों का प्राणी है, अतः ये दोनों वराह हैं। अभी ये ३ प्रकार की पृथ्वी

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और उनके बीच अन्तरिक्ष में दीखते हैं-स्वयम्भू में ब्रह्माण्डों के बीच का भाग तपः लोक का पदार्थ
अर्यमा है, ब्रह्माण्ड में तारों के बीच फै ला पदार्थ वरुण है जो मुख्यतः मद्य (इथाइल अलकोहल)
है। सौर मण्डल में ग्रहों के बीच का फै ला पदार्थ मित्र है। मित्र, वरुण, अर्यमा-ये ३ आदित्य (आदि
रूप) हुये।
यद्वै तत्सुकृ तं रसो वै सः । रसं ह्येवायं लब्ध्वाऽऽनन्दी भवति। (तैत्तिरीय उपनिषद् २/७) समुद्राय
त्वा वाताय स्वाहा, सरिराय त्वा वाताय स्वाहा । (वा॰ यजुर्वेद ३८/७)
अयं वै सरिरो योऽयं वायुः पवत एतस्माद्वै सरिरात् सर्वे देवाः सर्वाणि भूतानि सहेरते (शतपथ
ब्राह्मण १४/२/२/३)
वातस्य जूतिं वरुणस्य नाभिमश्वं जज्ञानं सरिरस्य मध्ये। (वा॰ यजुर्वेद १३/४२)
आपो ह वाऽ इदमग्रे सलिलमेवास। (शतपथ ब्राह्मण ११/१/६/१)
द्यौर्वाऽअपां सदनं दिवि ह्यापः सन्नाः । (शतपथ ब्राह्मण ७/५/२/५६)
आपो ह वाऽ इदमग्रे सलिलमेवास। ता अकामयन्त कथं तु प्रजायेमहीति। (शतपथ ब्राह्मण
११/१/६/१)
तद्यदब्रवीत् (ब्रह्म) आभिर्वा अहमिदं सर्वमाप्स्यामि यदिदं किं चेति
तस्मादापोऽभवंस्तदपामप्त्वमाप्नोति वै स सर्वान् कामान् यान् कामयते । (गोपथ ब्राह्मण पूर्व
१/२)
आापो वा अम्बयः । (कौषीतकि ब्राह्मण उपनिषद् १२/२)
अयं वै लोकोऽम्भांसि (तैत्तिरीय ब्राह्मण ३/८/१८/१)
एता वाऽ आपः स्वराजो यन्मरीचयः । (शतपथ ब्राह्मण ५/३/४/२१)
यः कपाले रसो लिप्त आसीत्ता मरीचयो ऽभवन् ।
(शतपथ ब्राह्मण ६/१/२/२)
स इमाँल्लोकनसृजत । अम्भो मरीचीर्मरमापोऽदोऽम्भः परेण दिवं द्यौः प्रतिष्ठान्तरिक्षं मरीचयः पृथिवी
मरो या अधस्तात्ता आपः ।
(ऐतरेय उपनिषद् १/१/२)
तिस्रो भूमीर्धारयन् त्रीरुत द्यून्त्रीणि व्रता विदथे अन्तरेषाम् ।
ऋतेनादित्या महि वो महित्वं तदर्यमन् वरुण मित्र चारु ॥ (ऋग्वेद २/२७/८)
वराह के ५ स्तर हैं-(१) आदि वराह-विश्व का मूल रूप अर्यमा। (२) यज्ञ वराह-ब्रह्माण्ड का
निर्माण-अवस्था। निर्माण विनाश का क्रम यज्ञ अवतार है। (३) श्वेत वराह-सौर मण्डल में सूर्य
निर्माण के बाद प्रकाश की उत्पत्ति हुयी अतः यह श्वेत वराह हुआ। (४) जिस क्षेत्र के पदार्थ के
घनीभूत होने से पृथ्वी बनी वह भू वराह है, इसका आकार पृथ्वी से प्रायः १००० गुणा है (वायु
पुराण ६/१२ के अनुसार यह सूर्य से १०० योजन ऊं चा और १० योजन मोटा है। पृथ्वी सूर्य
व्यास की इकाई में १०८-१०९ योजन दूर है अतः यहां योजन का अर्थ सूर्य व्यास है। पृथ्वी का
आकार १/१०८ योजन होगा अतः यह वराह का १/११०० भाग होगा। (५) पृथ्वी का आवरण
रूप वायुमण्डल ही एमूष वराह है। ब्रह्मा देवानां पदवीः कवीनामृषिर्विप्राणां महिषो मृगाणाम् ।

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श्येनो गृधानां स्वधितिर्वनानां सोमः पवित्रमत्येति रेभन्। (ऋग्वेद ९/९६/६)
ब्रह्मा वै स्वयम्भूः-तपोऽतप्यत। तदैक्षत-न वै तपस्यानन्त्यमस्ति। हन्त? भूतेष्वात्मानं जुहुवानि,
भूतानि चात्मनि-इति । तत्सर्वेषु भूतेषु आत्मानं हुत्वा भूतानि चात्मनि (हुत्वा)- सर्वेषां भूतानां
श्रैष्ठ्यं स्वाराज्यं आधिपत्यं पर्य्येत् । (शतपथ ब्राह्मण १३/७/१/१)
स यः कू र्मः असौ स आदित्यः । (शतपथ ब्राह्मण ६/५/१/६)
तां पृथिवीं (परमेष्ठी) संक्लिश्याप्सु प्राविध्यत् तस्यै यः पराङ् रसोऽत्यक्षरत्-स कू र्मोऽभवत् ।
(शतपथ ब्राह्मण ६/१/१/१२)
प्र काव्यमुशनेव ब्रुवाणो देवो देवानां जनिमा विवक्ति ।
महिव्रतः शुचिबन्धुः पावकः पदा वराहो अभ्येति रेभन् (ऋक् ९/९७/७)
स प्रजापति-वै वराहो रूपं कृ त्वा उपन्यमज्जत् । (तैत्तिरीय ब्राह्मण १/१/३/६)
अग्नो ह वै देवा घृतकु म्भं प्रवेशयांचक्रु स्ततो वराहः सम्बभूव । तस्माद् वराहो मेदुरो घृताद्धि सम्भूतः
। तस्माद् वराहे गावः संजानते । (शतपथ ब्राह्मण ५/४/३/१९)
तां प्रादेशमात्रीं (१० अंगुल) पृथिवीं-एमूष इति वराह उज्जघान । सोऽस्याः पृथिव्याः पतिः
प्रजापतिः । (शतपथ ब्राह्मण १४/१/२/११)
(४) कू र्म-ब्रह्माण्ड का आधार कू र्म कहा जाता है, क्योंकि यह काम करता है। यह ब्रह्माण्ड का
१० गुणा है। इसमें के वल किरणें हैं अतः ब्रह्मवैवर्त्त प्राण प्रकृ ति खण्ड अध्याय ३ में इसे गोलोक
और ब्रह्माण्ड को महाविष्णु रूप विराट् बालक कहा गया है।
स यत् कू र्मो नाम-एतद्वै रूपं कृ त्वा प्रजापतिः प्रजा असृजत । यदसृजत-अकरोत्-तत् । यदकरोत्-
तस्मात् कू र्मः। कश्यपो वै कू र्मः । तस्मादाहुः-सर्वाः प्रजाः काश्यप्यः-इति । (शतपथ ब्राह्मण
७/५/१/५)
मानेन तस्य कू र्मस्य कथयामि प्रयत्नतः ।
शङ्कोः शत सहस्राणि (१ पर १८ शून्य) योजनानि वपुः स्थितम् ॥ (नरपति जयचर्या, स्वरोदय,
कू र्मचक्र)
ब्रह्माण्ड का आकार परार्द्ध (१ पर १७ शून्य) योजन कहा है-ऋतं पिबन्तौ सुकृ तस्य लोके गुहां
प्रविष्टौ परमे परार्धे ।
छायातपौ ब्रह्मविदो वदन्ति पञ्चाग्नयो ये च त्रिणाचिके ताः ॥ (कठोपनिषद् १/३/१)
(५) वामन-सौर मण्डल में सूर्य का पिण्ड ही वामन है। सूर्य को मापदण्ड या योजन मानने पर
इसके रथ (शरीर = सौर मण्डल) का विस्तार १ कोटि ५७ लाख योजन कहा गया है। ठोस ग्रहों
का क्षेत्र मंगल कक्षा तक दधि-वामन कहा है, यह भागवत पुराण में दधि समुद्र का आकार है।
पृथ्वी पर भौतिक अवतार
भौतिक अवतारों की संख्या २४ या १० गिनी जाती है। भास्कराचार्य ने गणित ग्रन्थ लीलावती में
२४ अवतारों की गणना की है। भगवान के ४ हाथों में ४ आयुध शंख, चक्र, गदा, पद्म कितने
प्रकार से रखे जा सकते हैं। शंख किसी भी हाथ में ४ प्रकार से रखा जा सकता है। उसके बाद
बचे ३ हाथों में ३ प्रकार से चक्र रख सकते हैं। बचे २ हाथों में २ प्रकार से गदा रखते हैं। अन्तिम

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हाथ में पद्म रहेगा। अतः कु ल प्रकार ४ x ३ x २ x १ = २४ हैं। अन्य विधि है कि हाथों में
सजाना नहीं के वल चुनना है। सभी ४ हाथ १ प्रकार से ले सकते हैं। ३ हाथ ३ प्रकार से (कखग,
कगघ, खगघ), २ हाथ ६ प्रकार से (कख, कग, कघ, खग, खघ, गघ)-कु ल १० प्रकार से
मिश्रण हो सकता है। एक अन्य विचार है कि ३ गुणों से सृष्टि होती है, या भगवान् को हम ३
प्रकार से अनुभव करते हैं-ज्ञान (जगन्नाथ), बल (बलराम), क्रिया (सुभद्रा)-
न तस्य कार्यं करणं न विद्यते, न तत्समक्षाभ्यधिकं च दृश्यते।
पराऽस्य शक्तिर्विविधैव श्रूयते, स्वाभाविकी ज्ञान बल क्रिया च॥
(श्वेताश्वतर उपनिषद्, ६/८)
तीन चीजों (क, ख, ग) का संकलन १० प्रकार से होगा-एक एक कर-३ प्रकार से, तीनों एक
साथ १ प्रकार। ६ प्रकार से २-२ का समन्वय, जो अधिक प्रभावी हो उसे पहले लिखते हैं-कख,
खक, कग, गक, खग, गख।१० मुख्य अवतारों का वर्णन जयदेव ने भी किया है, पर उन्होंने
कृ ष्ण को अवतार नहीं, अवतारी माना है। उनके बदले बलराम को अवतार कहा है (जयदेव का
दशावतार स्तोत्र)।
अवतारों का कालक्रम पुराणों में सूक्ष्मता से दिया गया है। पुराण और वेदों में ७ प्रकार के योजन
और ७ प्रकार के युग हैं-सप्त युञ्जन्ति रथमेक चक्रो एको अश्वो वहति सप्तनामा (ऋग्वेद
१/१६४/२)। इतिहास के लिये मुख्य युग २४,००० वर्षों का है, जो वास्तविक रूप में जल-
प्रलय और शीत युग का भी चक्र है। आधुनिक मिलांकोविच सिद्धान्त (१९२३) के अनुसार यह
पृथ्वी की मन्दोच्च (कक्षा का दूर विन्दु) की १ लाख वर्ष में गति तथा विपरीत दिशा में पृथ्वी अक्ष
का शंकु आकार में २६००० वर्ष चक्र का संयुक्त प्रभाव है। इसके अनुसार यह २१६०० वर्ष का
होना चाहिये-१/२६००० + १/१००००० = १/२१६००। पर वास्तव में यह २४००० वर्षों
का होता है जैसा भूगर्भीय अनुमानों से प्रमाणित है। अतः भारत में मन्दोच्च का दीर्घकालिक चक्र
३१२,००० वर्षों का लिया गया था-१/२६००० + १/३१२००० = १/२४०००।
ब्रह्माण्ड पुराण में २६००० वर्षों का ऐतिहासिक मन्वन्तर कहा गया है जो पृथ्वी के अक्ष का शंकु
आकार में परिभ्रमण काल है। यह स्वायम्भुव मनु से वेदव्यास (३१०२ ई.पू. में कलि आरम्भ)
तक का काल है, जिसमें ७१ युग थे। सभी युग प्रायः ३६० वर्ष के होंगे जिनको दिव्य वर्ष भी
कहा गया है। मत्स्य पुराण के अनुसार स्वायम्भुव मनु से वैवस्वत मनु तक ४३ युग तथा उसके
बाद २८ युग हुए थे। २८वें युग में वेदव्यास के बाद और कोई व्यास नहीं हुआ, अतः अभी भी
हम २८वां युग ही मानते हैं। एक अन्य गणना २४,००० वर्षों के युग की है जिसे ब्रह्माब्द भी कहा
गया है, जिसका अभी तीसरा दिन चल रहा है। इसमें पहले १२००० वर्षों का अवरोही क्रम
(अवसर्पिणी युग) होता है जिसमें सत्य, त्रेता, द्वापर, कलि क्रमशः ४८००, ३६००, २४००,
१२०० वर्षों के होते हैं। इसी चक्र में ब्रह्मगुप्त तथा भास्कराचार्य ने बीज संस्कार का चक्र कहा है
तथा उसे आगम प्राप्त कहा है। इसके बाद १२००० वर्षों का उत्सर्पिणी काल है जिसमें विपरीत
क्रम से उतने ही मान के कलि, द्वापर, त्रेता, सत्य युग आते हैं। यह क्रम वैवस्वत मनु से आरम्भ
हुआ, अतः स्वायम्भुव मनु आद्य त्रेता में हुए, उनसे सत्ययुग का आरम्भ नहीं हुआ।

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षड् विंशति सहस्राणि वर्षाणि मानुषाणि तु ।
वर्षाणां युगं ज्ञेयं दिव्यो ह्येष विधिः स्मृतः॥
(ब्रह्माण्ड पुराण,१/२/२९/१९)
स वै स्वायम्भुवः पूर्वं पुरुषो मनुरुच्यते। तस्यैकसप्तति युगं मन्वन्तरमिहोच्यते॥ (ब्रह्माण्ड पुराण,१/
२/९/३६,३७)
ब्रह्माण्ड पुराण (१/२/२९)-चत्वार्याहुः सहस्राणि वर्षाणां च कृ त युगम्। तस्य तावच्छती सन्ध्या
सन्ध्यांशः सन्ध्यया समः॥२५॥
इतरेषु ससन्ध्येषु ससन्ध्यांशेषु च त्रिषु।
एकन्यायेन वर्तन्ते सहस्राणि शतानि च॥२६॥
त्रीणि द्वे च सहस्राणि त्रेता द्वापरयोः क्रमात्।
त्रिशती द्विशती सन्ध्ये सन्ध्यांशौ चापि तत् समौ॥२७॥
कलिं वर्ष सहस्रं तु युगमाहुर्द्विजोत्तमाः।
तस्यैकशतिका सन्ध्या सन्ध्यांशः सन्ध्यया समः॥२८॥
मत्स्य पुराण, अध्याय २७३-अष्टाविंश समाख्याता गता वैवस्वतेऽन्तरे। एते देवगणैः सार्धं शिष्टा ये
तान्निबोधत॥७७॥
चत्वारिंशत् त्रयश्चैव भवितास्ते महात्मनः (स्वायम्भुवः)।
अवशिष्टा युगाख्यास्ते ततो वैवस्वतो ह्ययम् ॥७८॥
भविष्य पुराण प्रतिसर्ग पर्व १/१-
प्रथमेऽब्देह्नि तृतीये प्राप्ते वैवस्वतेऽन्तरे ॥१॥
कल्पाख्ये श्वेतवाराहे ब्रह्माब्दस्य दिनत्रये॥३॥
भविष्य पुराण, प्रतिसर्ग पर्व (१/४/१६,२६)-आदमो नाम पुरुषो पत्नी हव्यवती तथा। ...
षोडशाब्द सहस्रे च तदा द्वापरे युगे।
या ओ॑षधीः॒ पूर्वा जा॒ता देवेभ्यस्त्रियुगं पुरा ।
(ऋक् १०/९७/३, वा. यजु १२/७५, तैत्तिरीय संहिता ४/२/६/१, निरुक्त ९/२८)
आर्यभटीय, कालक्रिया पाद-
उत्सर्पिणी युगार्धं पश्चादपसर्पिणी युगार्धं च।
मध्ये युगस्य सुषमाऽऽदावन्ते दुष्षमेन्दूच्चात्॥९॥
वैवस्वत मनु से कलि आरम्भ तक सत्य ४८०० + त्रेता ३६०० + द्वापर २४०० = १०,८००
वर्ष बीत चुके थे। इसमें ३६० वर्षों के ३० युग होंगे। जल प्रलय ५००-१००० वर्ष प्रभावी रहा।
इसमें २ युग = ७२० वर्ष लेने पर बाकी २८ युग बचे। स्वायम्भुव से वैवस्वत तक (२६०००-
१०८०० = १५२०० वर्ष थे। इसमें ४३ युग प्रायः ३५३.५ वर्ष के होंगे। देवों और असुरों में
१० युग = ३६० x १० = ३६०० वर्षों तक मैत्री थी। तब असुरों का प्रभुत्व था। यह कश्यप से
वैवस्वत काल तक था जिसके बाद मनुष्यों का प्रभुत्व आरम्भ हुआ। कलियुग आरम्भ ३१०२
ई.पू. से १०८०० वर्ष पूर्व १३९०२ ई.पू. वैवस्वत मनु का काल हुआ। उससे ३६०० वर्ष पूर्व

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प्रायः १७,५०० ई.पू. कश्यप काल हुआ। महाभारत, उद्योग पर्व (२३०/८-१०) में कार्त्तिके य
काल दिया है। उस समय अभिजित् नक्षत्र का पतन हुआ तथा उसके बदले धनिष्ठा नक्षत्र से वर्ष
आरम्भ हुआ। अभिजित् का पतन अर्थात् उससे पृथ्वी अक्ष की उत्तरी दिशा १६००० ई.पू. में
हटने लगी। उसके निकट धनिष्ठा नक्षत्र में वर्षा होती थी, उससे सम्वत्सर शुरु होने के कारण
सम्वत् को वर्ष कहा गया। १५८०० ई.पू. में धनिष्ठा नक्षत्र में वर्षा होती थी, यह कार्त्तिके य काल
है।
ब्रह्माण्ड पुराण (२/३/७२)-सख्यमासीत्परं तेषां देवनामसुरैः सह।
युगाख्या दश सम्पूर्णा ह्यासीदव्याहतं जगत्॥६९॥
दैत्य संस्थमिदं सर्वमासीद्दशयुगं किल॥९२॥
अशपत्तु ततः शुक्रो राष्ट्रं दश युगं पुनः॥९३॥
युगाख्या दश सम्पूर्णा देवापाक्रम्यमूर्धनि।
तावन्तमेव कालं वै ब्रह्मा राज्यमभाषत ॥
वायु पुराण ( ९८/५१)-दैत्यासुरं ततस्तस्मिन् वर्तमाने शतं समाः॥६२॥
प्रह्लादस्य निदेशे तु येऽसुरानव्यवस्थिताः॥७०॥
धर्मान्नारायणस्तस्मात्सम्भूतश्चाक्षुषेऽन्तरे॥७१॥
यज्ञं प्रवर्तयामास चैत्ये वैवस्वतेऽन्तरे।
चतुर्थ्यां तु युगाख्यायान्नापन्नेष्वसुरेष्वभू॥७२॥
सम्भूतः ससमुद्रान्तहिरण्यकशिपोर्वधे।
द्वितीयो नारसिंहोऽभूद्रुदः सुर पुरःसरः॥७३॥
बलिसंस्थेषु लोके षु त्रेतायां सप्तमे युगे।
दैत्यैस्त्रैलोक्य आक्रान्ते तृतीयो वामनोऽभवत्॥७४॥
नमुचिः शम्बरश्चैव प्रह्लादश्चैव विष्णुना॥८१॥
दृष्ट्वा संमुमुहुः सर्वे विष्णु तेज विमोहिताः॥८४॥
एतस्तिस्रः स्मृतास्तस्य दिव्याः सम्भूतयः शुभाः।
मानुष्याः सप्त यातस्य शापजांस्तान्निबोधत ॥८७॥
संक्षिप्त युग चक्र
प्रथम ब्रह्माब्द-(६१९०२-३७९०२ ई.पू.)-स्वायम्भुव मनु या ब्रह्मा पूर्व सभ्यता। याम देवता। ४
मुख्य वर्ण-साध्य, महाराजिक, तुषित, आभास्वर। मणिजा सभ्यता-खनिजों का दोहन। देवों द्वारा
विमान प्रयोग।
द्वितीय ब्रह्माब्द-(३७९०२-१३९०२ ई.पू.)-३१००० ई.पू. में जल प्रलय के बाद स्वायम्भुव
मनु द्वारा २९१०२ ई.पू. में सभ्यता का विकास। साध्यों के दशवाद (नासदीय सूक्त) का ६
दर्शनों में समावेश, लिखित वेद संहितायें।
इसमें अवसर्पिणी (३७९०२-२५९०२ ई.पू.)-सत्ययुग ३७९०२-३३१०२ ई.पू.
त्रेता (३३१०२-२९५०२ ई.पू.)-जल प्रलय के बाद पुनः स्वायम्भुव मनु द्वारा सृष्टि का विकास।

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द्वापर (२९५०२-२७१०२ ई.पू.)-वैदिक सभ्यता का विकास
कलि (२७१०२-२५९०२ ई.पू.)
उत्सर्पिणी में कलि (२५९०२-२४७०२ ई.पू.), द्वापर (२४७०२-२२३०२ ई.पू.)
त्रेता (२२३०२-१८७०२ ई.पू.)-स्वारोचिष से चाक्षुष तक ५ अन्य मनु, ७ सावर्णि मनु के
काल। हिमयुग के साथ अन्त।
सत्ययुग (१८७०२-१३९०२ ई.पू.)- हिमयुग के बाद १७५०० ई.पू. में कश्यप (द्वितीय ब्रह्मा)
द्वारा सभ्यता का पुनः विकास। १७१०० ई.पू. में पृथु द्वारा पूरी पृथ्वी में खनिजों की खोज और
दोहन। १५८०० ई.पू. में कार्तिके य द्वारा अभिजित् पतन के बाद धनिष्ठा (वर्षा से) सम्वत्सर
आरम्भ।
तृतीय ब्रह्माब्द-(१३९०२ ई.पू. से १००९९ ईस्वी तक)-
अवसर्पिणी (१३९०२-१९०२ ई.पू.) में-
सत्ययुग (१३९०२-९१०२ ई.पू.)-विवस्वान् तथा वैवस्वत मनु का युग आरम्भ। वैवस्वत यम
के बाद जल प्रलय और उसके बाद ऋषभदेव से पुनः सभ्यता का आरम्भ।
त्रेता (९१०२-५५०२ ई.पू.), द्वापर (५५०२-३१०२ ई.पू.)-महाभारत के साथ युग का अन्त।
कलि (३१०२-१९०२ ई.पू.) -भगवान् महावीर के जन्म के साथ युग का अन्त।
उत्सर्पिणी (१९०२ ई.पू. से १००९९ ईस्वी तक) में-
कलियुग (१९०२-७०२ ई.पू.)-शूद्रक शक (७५६ ई.पू.) से युग का अन्त। द्वापर (७०२
ई.पू.-१६९९ ईस्वी तक), त्रेता (१६९९-५२९९ ईस्वी तक), सत्ययुग (५२९९-१००९९
ईस्वी)
त्रेता सन्धि (१६९९-१९९९ ईस्वी) में विज्ञान और उद्योग का विकास।
असुर राजा-ये कश्यप (१७५०२ ई.पू.) के बाद ३६० वर्षों के १० युगों में थे।
(१) वराह अवतार-चतुर्थ युग (१६४२२-१६०६२ ई.पू.)-वराह ने समुद्र पार कर हिरण्याक्ष को
मारा। जेन्द अवेस्ता के अनुसार हिरण्याक्ष का राज्य आमेजन नदी के क्षेत्र (दक्षिण अमेरिका) में
था। यह पुष्कर द्वीप तथा उत्तर-दक्षिण गोलार्ध के ४-४ खण्ड के विभाजन में रसातल था।
ब्रह्माण्ड पुराण (१/२/२०/९-४६) में सभी तलों तथा उनके मुख्य राजाओं का वर्णन है। यह
ब्रह्मा के पुष्कर (उज्जैन से १२ अंश पश्चिम बुखारा) के विपरीत होने के कारण पुष्कर द्वीप कहते
थे। हिरण्याक्ष के राज्य में भगवान् की वराह रूप में पूजा होती थी। गरुड़ पुराण (१/८७/३०) के
अनुसार तेजस्वी नामक इन्द्र के शत्रु हिरण्याक्ष का वराह रूपधारी (मनुष्य) विष्णु ने वध किया
था। हिरण्याक्ष को प्रसन्न करने के लिये विष्णु अपने १८ साथियों सहित वराह का मुखौटा पहन
कर आमेजन तट पर पहुंचे। वहां इनका स्वागत हुआ। एक दिन अचानक हिरण्याक्ष के महल पर
आक्रमण कर उसे मार डाला तथा वहां से निकल भागे। उसके बाद असुर लोग वराह से घृणा
करने लगे। यह इस्लाम में प्रचलित है। पुराणों में भी कहीं कहीं चर्चा है कि हिरण्याक्ष को धोखे से
मारा गया था।

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(२) नरसिंह अवतार-(५, ६ युग, १६०६२-१५३४२ ई.पू.)-तलातल लोक में लिबिया-मिस्र
का राजा हिरण्यकशिपु था। पश्चिम ओड़िशा (नरसिंहनाथ से विशाखापत्तनम् के निकट सिंहाचल
तक) में नरसिंह अवतार हुआ जिसने हिरण्यकशिपु पर आक्रमण किया (नरसिंह पुराण)। नरसिंह
की सेना प्रह्लाद की सहायता से वहां गुप्त रूप से घुस गयी तथा हिरण्यकशिपु को मार कर प्रह्लाद
को राजा बनाया। हिरण्याक्ष उससे बहुत पहले दक्षिण अमेरिका में था, पर विश्व शक्ति सन्तुलन में
एक ही पक्ष का होने से बड़ा भाई कहा गया है।
(३) बलि (सप्तम युग, १५३४२-१४९८२ ई.पू.)-विष्णु का वामन अवतार पुरी के निकट।
उनका व्यक्तिगत नाम विष्णु ही था। भरद्वाज ने उनको वेद और शस्त्र की शिक्षा दी। भाद्र शुक्ल
द्वादशी के दिन बलि द्वारा अधिकृ त देवों के ३ लोक वामन ने ले लिया। उस दिन से इन्द्र का
राजत्व आरम्भ हुआ, अतः राजाओं का काल इसी दिन से गिना जाता है। शून्य से गिनती शुरु
होने के कारण इसे ओड़िशा में शून्या पर्व या सुनिया कहते हैं। महायुद्ध और संहार से बचने के
लिये बलि देवों का राज्य देने के लिये राजी हो गये थे, पर कई असुर मानते थे कि देवता बल
पूर्वक राज्य नहीं ले सकते थे और युद्ध करते रहे। विष्णु के कू र्म अवतार ने उनको सम्झाया कि
विवाद के वल धन के लिये। यदि उसका उत्पादन नहीं होगा, तो उस पर अधिकार कै से करेंगे।
देवों और असुरों ने संयुक्त रूप से धातुओं का खनन किया। झारखण्ड तथा निकट के भागों में
असुरों ने खनन में सहायता की तथा आज भी वहां खनिजों के नाम पर उनकी उपाधि हैं। देव
खनिजों के शोधन में कु शल थे अतः जिम्बाब्वे की खान से निकले स्वर्ण का शोधन किया जिसे
पुराणों में जाम्बूनद स्वर्ण कहा गया है। चान्दी का शोधन देवों ने मेक्सिको में किया अतः संस्कृ त
में चान्दी को माक्षिकः कहते हैं। खनिजों के बंटवारे के लिये पुनः संघर्ष आरम्भ हुआ जिसमें राहु
मारा गया। बहुत दिनों तक युद्ध चला जिसके बाद कार्तिके य ने क्रौञ्च द्वीप (उड़ते पक्षी आकार का
उत्तर अमेरिका) पर आक्रमण किया, जिसका उल्लेख मेगास्थनीज ने अन्तिम भारत आक्रमण के
रूप में किया था।
(४) मत्स्य अवतार- वैवस्वत मनु (१३९०२ ई.पू.) के बाद देवों का प्रभुत्व था और किसी
विष्णु अवतार की जरूरत नहीं हुई। उसके बाद आधुनिक अनुमानों के अनुसार ११००० से
१०००० ई.पू. तक जल प्रलय का प्रभाव था। जेन्द अवेस्ता के अनुसार यह जमशेद का समय
था जिनको पुराणों में वैवस्वत यम (कठोपनिषद् के उपदेशक) कहा गया है। कई पुराणों में भी यम
काल में जल-प्रलय लिखा है। यम की राजधानी संयमनी इन्द्र की अमरावती से ९० अंश पश्चिम
थी। यह अम्मान, मृत सागर के निकट था। वहां से वामन का पूर्व दिशा में पहला पद इन्द्र की
अमरावती में था जो संयमनी से ९० अंश पूर्व था। यह इण्डोनेसिया (यवद्वीप के बाद ७ मुख्य
द्वीप) के पूर्व भाग में था (वाल्मीकि रामायण, किष्किन्धा काण्ड, ४०/५३)। जल प्रलय के बाद
मत्स्य अवतार तथा राम जन्म के समय दोनों पद्धतियों से प्रभव वर्ष था (विष्णु धर्मोत्तर पुराण,
८२/७-८, ८१/२३-२४)। सौर पद्धति में ८५ सौर वर्ष में ८६ बार्हस्पत्य वर्ष होते हैं। पितामह
पद्धति में सौर वर्ष को ही बार्हस्पत्य वर्ष कहते हैं। अतः दोनों का सम्मिलित चक्र ८५ x ६० =
५१०० वर्ष में होगा। इस गणना से मत्स्य अवतार ९५३३ ई.पू. तथा राम जन्म ४४३३ ई.पू. में

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था। मत्स्य अवतार के बाद ऋषभ देव ने पुनः सभ्यता का आरम्भ किया अतः उनको स्वायम्भुव
मनु का वंशज कहा है जिन्होंने ३१००० ई.पू. के जल प्रलय के बाद सृष्टि आरम्भ की थी।
वैवस्वत मनु की परम्परा पुनः इक्ष्वाकु से १-११-८५७६ ई.पू. में शुरु हुई जिनको वैवस्वत मनु
का पुत्र कहा गया है।
(५) इक्ष्वाकु के बाद के अवतारों को मनुष्य अवतार कहा गया है। वैवस्वत मनु से कलि आरम्भ
तक ३६० वर्ष के ३० युग होते हैं, पर २८ कहे गये हैं, अतः २ युग = ७२० वर्ष जल प्रलय में
ले सकते हैं। या २८ युग की समाप्ति ३१०२ ई.पू. मान कर १०वें युग से गणना कर सकते हैं।
१०वें युग में दत्तात्रेय, १५वें में मान्धाता, १९वें में परशुराम तथा २४वें में राम हुए थे। अतः
इनका समय है-दत्तात्रेय (९५८२-९२२२ ई.पू.), मान्धाता (७७८२-७४२२ ई.पू.), परशुराम
(६३४२-५९८२ ई.पू.), राम (४५४२-४१८२ ई.पू.) होंगे। परशुराम के निर्वाण के बाद
६१७७ ई.पू. में कलम्ब सम्वत् आरम्भ हुआ जो के रल में कोल्लम नाम से प्रचलित है। उनकी १५
पीढ़ी पूर्व डायोनिसस या बाक्कस का आक्रमण ६७७७ ई.पू. में हुआ था जो ६०० वर्ष का अन्तर
है। वायु पुराण (९८)-
एतास्तिस्रः स्मृतास्तस्य दिव्याः सम्भूतयः शुभाः।
मानुष्याः सप्त यास्तस्य शापजांस्तान्निबोधत॥८७॥
त्रेतायुगे तु दशमे दत्तात्रेयो बभूव ह।
नष्टे धर्मे चतुर्थश्च मार्क ण्डेय पुरःसरः॥८८॥
पञ्चमः पञ्चदश्यां तु त्रेतायां सम्बभूव ह।
मान्धातुश्चक्रवर्तित्वे तस्थौ तथ्य पुरः सरः॥८९॥
एकोनविंशे त्रेतायां सर्वक्षत्रान्तकोऽभवत्।
जामदग्न्यास्तथा षष्ठो विश्वामित्रपुरः सरः॥९०॥
चतुर्विंशे युगे रामो वसिष्ठेन पुरोधसा।
सप्तमो रावणस्यार्थे जज्ञे दशरथात्मजः॥९१॥
(६) कृ ष्ण अवतार-१२५ वर्ष की आयु में उनका देहान्त ३१०२ ई.पू. में हुआ जब कलियुग
आरम्भ हुआ था। अतः उनकी जन्मतिथि १९-७-३२२८ ई.पू (भाद्र कृ ष्ण अष्टमी) है।
(७) बुद्ध अवतार-सिद्धार्थ बुद्ध (१८८७-१८०७ ई.पू.) तथा गौतम बुद्ध (४८३ ई.पू. में
निर्वाण) ने भारत की रक्षा के लिये असुरों को मोहित नहीं किया था, बल्कि भारतीय लोगों को
मोहित कर वेद मार्ग में बाधा दी थी। विष्णु अवतार बुद्ध मगध में अजिन ब्राह्मण के पुत्र रूप में हुए
थे जिन्होंने असुर (असीरिया) आक्रमण से रक्षा के लिये आबू पर्वत पर यज्ञ किया जिसमें ४
प्रमुख राजाओं ने भारत की रक्षा के लिये मालव संघ बनाया। संघ के अध्यक्ष शूद्रक के नाम पर
इस दिन ७५६ ई.पू. से शूद्रक शक आरम्भ हुआ। असीरिया इतिहास के अनुसार भी वहां की
रानी सेमिरामी ने अफ्रीका तथा मध्य एशिया के राजाओं की सहायता से ३५ लाख सेना इकट्ठा
कर भारत पर आक्रमण किया था। संघ के ४ राजवंशों की वंशावली भी उसी काल से चलती है-

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प्रमर या परमार (पंवार), चपहानि या चाहमान (चौहान), प्रतिहार (परिहार), शुक्ल (चालुक्य,
सोलंकी, सालुंखे)।भविष्य पुराण, प्रतिसर्ग पर्व ३, अध्याय २१-
सप्तविंशच्छते भूमौ कलौ सम्वत्सरे गते॥२१॥
शाक्यसिंह गुरुर्गेयो बहु माया प्रवर्तकः॥३॥
स नाम्ना गौतमाचार्यो दैत्य पक्षविवर्धकः।
सर्वतीर्थेषु तेनैव यन्त्राणि स्थापितानि वै॥ ३१॥
भविष्य पुराण, प्रतिसर्ग पर्व, ३/३-
व्यतीते द्विसहस्राब्दे किञ्चिज्जाते भृगूत्तम॥१९॥
अग्निद्वारेण प्रययौ स शुक्लोऽर्बुद पर्वते।
जित्वा बौद्धान् द्विजैः सार्धं त्रिभिरन्यैश्च बन्धुभिः॥२०॥
भविष्य पुराण, प्रतिसर्ग पर्व, ४/१२-
बौद्धरूपः स्वयं जातः कलौ प्राप्ते भयानके ।
अजिनस्य द्विजस्यैव सुतो भूत्वा जनार्दनः॥२७॥
वेद धर्म परान् विप्रान् मोहयामास वीर्यवान्।॥२८॥
षोडषे च कलौ प्राप्ते बभूवुर्यज्ञवर्जिताः॥२९॥
भागवत पुराण १/३/२४-ततः कलौ सम्प्रवृत्ते सम्मोहाय सुरद्विषाम्।
बुद्धो नाम्नाजिनसुतः कीकटेषु भविष्यति॥
(८) कल्कि अवतार-अभी कल्कि अवतार होना बाकी है पर उनकी जन्म तिथि चैत्र शुक्ल १२ को
मनाई जाती है। वह धूमके तु के समान तलवार से असुरों का वध करेंगें।
भागवत पुराण, स्कन्ध १२, अध्याय २-
शम्भलग्राममुख्यस्य ब्राह्मणस्य महात्मनः।
भवने विष्णुयशसः कल्किः प्रादुर्भविष्यति॥।१८॥
अश्वमाशुगमारुह्य देवदत्तं जगत्पतिः।
असिनासाधुदमनमष्टैश्वर्यगुणान्वितः॥१९॥
यदावतीर्णो भगवान् कल्किर्धर्मपतिर्हरिः।
कृ तं भविष्यति तदा प्रजासूतिश्च सात्विकी॥२३॥
यदा चन्द्रश्च सूर्यश्च तथा तिष्ये बृहस्पती।
एकराशौ समेष्यन्ति भविष्यति तदा कृ तम्॥२४॥
१ अगस्त, २०३८ को भारतीय समय ९ बजे सूर्य, चन्द्र. बृहस्पति तीनों ग्रह पुष्य नक्षत्र तथा
एक राशि में होंगे।
जगन्नाथ पूजा की परम्परा-
(१) वराह अवतार के समय इन्द्रनीलमणि की मूर्ति-स्कन्द पुराण, वैष्णव, उत्कल खण्ड,
अध्याय २-
दंष्ट्रोद्धृतक्षितिभृते त्रयीमूर्तिमते नमः।

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नमो यज्ञवराहाय चन्द्र-सूर्या-ग्नि-चक्षुषे ॥२३॥
नरसिंहाय दंष्ट्रोग्रमूर्तिद्रावितशत्रवे।
यदपाङ्गविलासैकसृष्टिस्थित्युपसंहृतिः॥२४॥
तममुं नीलमेघाभं नीलाश्ममणि विग्रहम्॥२५॥
वराह के अनुयायिओं को शबर कहा जाता है। शबर का अर्थ है भूमि खोदना। इससे ओड़िया में
साबल हुआ है। इस परम्परा के ग्रन्थों को वैखानस (खनन) कहा गया है।
इस प्रकार की पूजा नरसिंह अवतार तक चलती रही। उसके बाद नरसिंह आकृ ति में भी पूजा हुई।
स्कन्द पुराण-वैष्णव उत्कल खण्ड, अध्याय २८-
आद्यामूर्तिर्भगवतो नारसिंहाकृ तिर्नृप।
नारायणेन प्रथिता मदनुग्रहतस्त्वयि।३८॥
नीलाद्रि महोदय ६/६७-प्रत्यक्षं पश्य भो पुत्र नारसिंह तनुं पराम्। आवाहनमतः कु र्य्या दारुब्रह्मणि
तत्त्ववित्॥
भारत की नरसिंह मूर्ति में शरीर मनुष्य का तथा सिर सिंह का होता है। पुरुष की वीर रूप में
प्रशंसा के लिये उसे सिंह कहा जाता है। सबसे पहले भगवान् राम को सम्मान के लिये सिंह कहा
गया, उसके बाद यह राजाओं की उपाधि हो गयी। मिस्र के स्फिं क्स में उलटा है। वहां शरीर सिंह
का तथा सिर मनुष्य का होता है।
वराह-नरसिंह काल के ४ पर्वों का ओड़िशा में आज भी पालन होता है-
(क) कार्तिके य परम्परा का १९ वर्षीय युग-कार्तिके य के काल में धनिष्ठा से आरम्भ युग का
प्रचलन के वल वेदाङ्ग ज्योतिष में है जो माघ मास से आरम्भ होता है।
ऋग् ज्योतिष (३२, ५,६) याजुष ज्योतिष (५-७)
माघशुक्ल प्रपन्नस्य पौषकृ ष्ण समापिनः।
युगस्य पञ्चवर्षस्य कालज्ञानं प्रचक्षते॥५॥
स्वराक्रमेते सोमार्कौ यदा साकं सवासवौ।
स्यात्तदादि युगं माघः तपः शुक्लोऽयनं ह्युदक् ॥६॥
ऋक ज्योतिष में १९ वर्ष का युग होता है जिसमें ५ वर्ष सम्वत्सर होते हैं, बाकी इदा-, इदु-,
परि-, अनु-वत्सर हैं। याजुष ज्योतिष में ५-५ वर्षों के ५ युगों में ६ क्षय वर्ष होने से १९ वर्ष का
युग होता है। आज भी जगन्नाथ का नव कलेवर (नयी मूर्ति रूप में जन्म) १९ वर्षीय युग पूरा होने
पर ही होता है। वैवस्वत मनु काल के सूर्य सिद्धान्त में यह युग नहीं है।
(ख) कार्त्तिके य काल (१५८०० ई.पू.) में धनिष्ठा या माघ मास से वर्षा होती थी तथा वर्ष या
वर्षा आरम्भ में रथयात्रा होती थी। आज भी कोणार्क में माघ शुक्ल सप्तमी को रथ यात्रा होती है।
(ग) शिव पार्वती का विवाह जेष्ठ शुक्ल षष्ठी को हुआ था जिससे उस समय शीत ऋतु का आरम्भ
होता था। आज भी इसको शीतल षष्ठी ही कहते हैं, यद्यपि उससमय सबसे अधिक गर्मी होती है।
(घ) देवयुग (अदिति के समय) में पुनर्वसु नक्षत्र से विषुव संक्रान्ति होती थी (१७५०० ई.पू.)।
अतः अदिति को पुनर्वसु नक्षत्र का देवता कहते हैं। अदिति नक्षत्र से ही वर्ष का अन्त तथा नये

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वर्ष का आरम्भ होता था-अदितिर्जातमदितिर्जनित्वम् (ऋग्वेद १/८९/१०, अथर्व ७/६/१,
वाजसनेयि सं. २५/२३, मैत्रायणी सं. ४/२४/४)। अतः आज भी रथयात्रा या विपरीत यात्रा में
कम से कम एक पुनर्वसु नक्षत्र (सूर्य का) में ही होता है।
(२) यम काल के जल प्रलय में नील मूर्ति बालू में दब गई-
ब्रह्म पुराण, अध्याय ४३-इन्द्रनीलमयी श्रेष्ठा प्रतिमा सार्वकामिकी॥७१॥
यम तां गोपयिष्यामि सिकताभिः समन्ततः॥७४॥
लुप्तायां प्रतिमायां तु इन्द्रनीलस्य भो द्विजाः॥७७॥
(३) इन्द्रद्युम्न द्वारा उद्धार-जल प्रलय के बाद सत्ययुग (९१०२ ई.पू.) के पूर्व सूर्य वंशी राजा
इन्द्रद्युम्न द्वारा विद्यापति शबर की सहायता से नरसिंह की मूर्ति खोजी गई। उसके बाद दारु
(काठ) मूर्ति का पूजन आरम्भ हुआ। इनका पूर्व समुद्र के द्वीपों पर भी अधिकार था जिनको
ऐन्द्रद्युम्न = अण्डमान कहते हैं। इनको ब्रह्मा से पञ्चम पुरुष कहा है। स्वायम्भुव मनु, कश्यप,
विवस्वान्, वैवस्वत मनु के बाद। सम्भवतः यह ऋषभदेव के बाद तथा इक्ष्वाकु के पूर्व थे। स्कन्द
पुराण, वैष्णव, उत्कल खण्ड, अध्याय ७-
आसीत् कृ तयुगे विप्रा इन्द्रद्युम्नो महानृपः।
सूर्यवंशे स धर्मात्मा स्रष्टुः पञ्चमपुरुषः॥६॥
(४) इक्ष्वाकु वंश-इक्ष्वाकु (१-११-८५७६ ई.पू) से भगवान् राम तक जगन्नाथ उनके कु लदेवता
रहे। यह सूर्यवंशी इन्द्रद्युम्न परम्परा में था। राम ने निर्वाण के पूर्व विभीषण को जगन्नाथ पूजा का
भार दिया। अतः विभीषण के बड़े भाई रावण का उड्डीश तन्त्र यहां प्रचलित था। यह भी ओड़िशा
नाम का मूल हो सकता है। वाल्मीकि रामायण, उत्तरकाण्ड, अध्याय १०८-
आराधय जगन्नाथमिक्ष्वाकु -कु ल-दैवतम्॥२८॥
तथेति प्रतिजग्राह रामवाक्यं विभीषणः।
राजा राक्षसमुख्यानां राघवाज्ञामनुस्मरन्॥२९॥
भगवान् राम के अश्वमेध यज्ञ के सन्दर्भ में पद्मपुराण में गंगासागर के दक्षिण में जगन्नाथ क्षेत्र का
वर्णन है।
(५) खारावेल काल- उदयगिरि शिलालेख के अनुसार नन्द अभिषेक के ८०३ (त्रि-वसु-शत का
अर्थ लोगों ने त्रि-वर्ष-शत कर १०३ या ३०० वर्ष करदिया है) वर्ष बाद अपने राज्य के पञ्चम
वर्ष में पनास (नहर) की मरम्मत कराई। अर्थात् खारावेल अभिषेक ८३५ ई.पू. में हुआ। वह ४
वर्णों का राजा था पर जैन अर्हतों का भी सम्मान करता था। आन्ध्र राजा सातकर्णि के समय
मथुरा पर विदेशी आक्रमण हुआ था जिसे राज्य के ८ वर्ष में खारावेल की हाथी सेना ने कु चल
दिया। ८२८ ई.पू. में वस्तुतः असीरिया का आक्रमण हुआ था। नवम वर्ष में उसने ब्राह्मणों को
अग्रहार दिया। ११वें वर्ष में राजसूय यज्ञ किया और मित्र राजाओं के लिये जनसद-भवन बनाया।
(संसद-इसे जैन भवन मान लिया है)। १३वें वर्ष में मगध से कलिंग जिन की मूर्ति लाई। राज्य के
तृतीय वर्ष में गन्धर्व वेद के विद्वानों को बुलाया तथा चतुर्थ वर्ष में प्राचीन विद्याधर निवास की
मरम्मत करायी। ये दोनों जगन्नाथ पूजा से सम्बन्धित हैं।

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(६) शङ्कराचार्य (५०९-४७७ ई.पू.)-४८३ ई.पू. में राजा सुधन्वा के आश्रय से ४ पीठों की
स्थापना की, पुरी का गोवर्धन पीठ, तथा द्वारका, शृङ्गेरी, बद्रीनाथ के पीठ। शङ्कराचार्य नेपाल गये
थे तो उनके आशीर्वाद से राजा वृषदेववर्मन को पुत्र हुआ और वे जगन्नाथ पुरी तक साथ आये।
उस समय जगन्नाथ मन्दिर के पुनरुद्धार के कारण नेपाल राजा को पुरी राजा की तरह पूजा करने
का अधिकार है।
(७) हर्षवर्धन (६०५-६४६ ई.) थानेश्वर (स्थाण्वीश्वर) का राजा हर्षवर्धन ओड़िशा का भी
शासक था। अतः उसने कई बार रथयात्रा कराई थी। हुएन्सांग ने ६४२ ई. की रथयात्रा का वर्णन
किया है, जो ५ वर्ष बाद हुआ था। एकमात्र नवकलेवर ही कई वर्षों के बाद होता है। बाकी पर्व
सभी वर्ष होते हैं।
(८) राजा अनङ्ग भीमदेव ने प्रायः ११०० ई. में वर्तमान जगन्नाथ मन्दिर का निर्माण किया।
मन्दिर में प्राण प्रतिष्ठा के लिये रामानुजाचार्य (१०१७-११३७ ई.) आये थे। जगन्नाथ-स्थल-
वृत्तान्तम् (जगन्नाथ संस्कृ त विश्वविद्यालय, पुरी, २००५) के अनुसार यह ३ वर्ष में १२.४७
करोड़ स्वर्ण मुद्रा खर्च से बना था। इसके लिये मिट्टी भर कर भूमि उठाई गयी जिसमें पुराने मन्दिर
का एक शिखर प्रायः डू बा हुआ है। उस समय ओड़िशा राज्य की वार्षिक आय ५० करोड़ स्वर्ण
मुद्रा थी। पूरे भारत से आये तीर्थयात्रियों के लिये निःशुल्क भोजन और चिकित्सा की व्यवस्था
थी।
(९) मुस्लिम काल तथा अंग्रेजी शासन में दमन-१३६५ में फिरोजशाह तुगलक ने जाजनगर
(जाजपुर) पर आक्रमण किया था तथा वहां से समुद्र तक ५ लाख लोगों की हत्या की तथा
१.५० लाख बच्चों और स्त्रियों को गुलाम बना कर बेच दिया (तारीख-ए-फिरोजशाही)। पर राजा
मुकु न्ददेव की पराजय के बाद ही १५६८ ई. से ओड़िशा में मुस्लिम शासन हुआ तथा भारत के
अन्य क्षेत्रों की तरह यहां भी जगन्नाथ यात्रा और दर्शन के लिये भारी कर देना पड़ता था। १७५१
से १८०३ ई. तक मराठा शासन में जगन्नाथ यात्रा सभी हिन्दुओं के लिये सुलभ तथा कर-मुक्त
हो गई। १८०३ ई. में अंग्रेजों ने ओड़िशा पर अधिकार करते ही १८०६ से लोथियन कमिटी की
रिपोर्ट के अनुसार तीर्थयात्रियों पर भारी कर लगा दिया। यात्रियों को ४ श्रेणियों में बांटा-उत्तर के
धनी (लाल) यात्रियों पर १० रुपये प्रति व्यक्ति, (२) दक्षिण के धनी यात्रियों पर ६ रुपये, (३)
मध्यम वर्ग से २ रुपये, (४) निम्न वर्ग का प्रवेश मना तथा कोई फीस नहीं। निम्न वर्ग के वर्जित
लोगों की सूची थी-१. लोली या कसबी, २. कु लाल या सोनारी, ३. मछु आ, ४. नामसुन्दर या
चाण्डाल, ५. घोस्की, ६. गूजर, ७. बागड़ी, ८ जोगी, ९. कहार, १०. राजवंशी, ११. पिरेली,
१२. चमार, १३. डोम, १४. पौन, १५. टोर, १६. बनमाली, १७. हाड़ी। १९३२ में
अम्बेडकर ने इसी रिपोर्ट के आधार पर लिखा था कि भारत में हिन्दुओं को मन्दिर में नहीं घुसने
दिया जाता है।
(१०) १९४७ के बाद पुनः जगन्नाथ मन्दिर में सभी हिन्दुओं के लिये निःशुल्क प्रवेश है।
जगन्नाथ क्षेत्र-(१) सम्पूर्ण जगत् में जगन्नाथ के स्वरूप का वर्णन दारु ब्रह्म से होता है-
अदो यद्दारुः प्लवते सिन्धोः पारे अपूरुषम्।

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तदारभस्व दुर्हणो येन गच्छ परस्तरम्॥
(ऋक् , शाकल्य शाखा १०/१५५/३)
इसके ५ अर्थ हैं-(१) जैसे दारु (काठ) से सभी उपकरण बनते हैं, उसी तरह जगन्नाथ से ही
विश्व का निर्माण होता है।
(२) वृक्ष की तरह निरपेक्ष द्रष्टा हैं।
(३) वृक्ष के मूल-तना-फल की तरह हर काम का मूल सङ्कल्प-क्रिया-फल है। मनुष्य इस चक्र में
फं सा रहता है।
(४) जैसे काष्ठ समुद्र में तैरते हुये दीखता है, उसी प्रकार आकाश के विशाल समुद्रों में ब्रह्माण्ड,
तारा, ग्रह आदि तैर रहे हैं।
(५) वृक्ष जीवन का आरम्भ और आधार है। जगन्नाथ भी सम्पूर्ण जगत् के जीवन हैं।
क्रिया, फल, कर्ता, आधार, हवि, निर्माण आदि सब कु छ जगन्नाथ रूपी ब्रह्म है, यह गीता में भी
निर्दिष्ट है-
ब्रह्मार्पणं ब्रह्म हविर्ब्रह्माग्नौ ब्रह्मणा हुतम्।
ब्रह्मैव तेन गन्तव्यं ब्रह्मकर्मसमाधिना॥ (गीता, ४/२४)
२. धाम-विश्व के हृदय के रूप में सम्पूर्ण भारत ही जगन्नाथ का निवास है। प्राचीन भारत का
के न्द्र पुरी दोनों दिशाओं में था-उत्तर-दक्षिण, पूर्व पश्चिम। अतः पुरी में उनका निवास है। धाम
की ३ सीमा हैं, जिसके कारण विष्णु सहस्रनाम में त्रिसामा कहा है-जगन्नाथ मन्दिर, जगन्नाथ पुरी
की सीमा (चन्दन = आवरण) चन्दनपुर, धाम की सीमा श्री-चन्दन या हरिचन्दन या एकाम्र क्षेत्र
(भुवनेश्वर में लिङ्गराज)। उषा सूक्त में धाम योजन का अर्थ विषुव परिधि का ७२० भाग =
५५.५ कि.मी. है। अतः जगन्नाथ मन्दिर से ५५.५ कि.मी. या ५ योजन दूर है। दोनों दिशा में
१० योजन होगा। स्कन्दपुराण, वैष्णव, ऊत्कल खण्ड, अध्याय ३-
पञ्चक्रोशमिदं क्षेत्रं समुद्रान्तर्व्यवस्थितम्।
द्विक्रोशं तीर्थराजस्य तट भूमौ सुनिर्मलम्॥५२॥
सुवर्ण बालुकाकीर्णं नीलपर्वत शोभितम्।
योऽसौ विश्वेश्वरो देवः साक्षान्नारायणात्मकः॥५३॥
अध्याय १-अहो तत् परमं क्षेत्रं विस्तृतं दश योजनम्॥११॥
नीलाचलेन महता मध्यस्थेन विराजितम्॥१२॥
सागरस्योत्तरे तीरे महानद्यास्तु दक्षिणे॥३१॥
एकाम्र काननाद् यावद् दक्षिणोदधि तीरभूः॥३३॥
ब्रह्म पुराण, अध्याय ४३-दक्षिणस्योदधेस्तीरे न्यग्रोधो यत्र तिष्ठति।
दश योजन विस्तीर्णं क्षेत्रं परम दुर्लभम्॥५३॥
३. शङ्ख क्षेत्र-जगन्नाथ मन्दिर से सब तरफ ५ योजन की सीमा तक शङ्ख आकार का क्षेत्र शङ्ख क्षेत्र
कहते हैं। बड़े रूप में कम्बोडिया (कम्बुज = शङ्ख) तथा जापान (भागवत ५/१९/३० का

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पञ्चजन, जहां का पाञ्चजन्य जगन्नाथ का शङ्ख है) शङ्ख क्षेत्र हैं। चक्र पर्वत मोरक्को में कहा गया है
(रामायण, किष्किन्धा काण्ड, ४२/२७) जहां सुदर्शन चक्र बना था।
रथ-यात्रा-सभी सीमाबद्ध रचना पुर है। क्रिया या गति युक्त पुर रथ है। जो रथ के भीतर उसके
सञ्चालक आत्मा को देखता है, उसका पुनर्जन्म नहीं होता-कठोपनिषद्, २/२- ऊर्ध्वं
प्राणमुन्नयत्यपानं प्रत्यगस्यति।
मध्ये वामनमासीनं विश्वे देवा उपासते॥।३॥
गीता, ८/१६-आब्रह्मभुवनाल्लोकाः पुनरावर्तिनोऽर्जुन।
मामुपेत्य तु कौन्तेय पुनर्जन्म न विद्यते॥
मनुष्य शरीर में आत्मा ही वामन है जिसे अङ्गुष्ठ रूप कहा गया है। इस आत्मा की अनुभूति होने से
पुनर्जन्म नहीं होता।
कठोपनिषद्, १/३-आत्मानं रथिनं विद्धि, शरीरं रथमेव तु।
बुद्धिं तु सारथिं विद्धि, मनः प्रग्रहमेव च॥३॥
इन्द्रियाणि हयानाहुर्विषयांस्तेषु गोचरान्।
आत्मेन्द्रियमनोयुक्तं भोक्ते त्याहुर्मनीषिणः॥४॥
कठोपनिषद् ६/१७-
अङ्गुष्ठमात्रः पुरुषोऽन्तरात्मा सदा जनानां हृदये सन्निविष्टः।
ब्रह्माण्ड में उसका के न्द्र कृ ष्ण (ब्लैक होल) है जिसके आकर्षण से यह लोक (रजस्) स्थित है।
सौर मण्डल में सूर्य ही वामन है। आकर्षण के न्द्र रूप में विष्णु है, ऊर्जा विकिरण करने के लिए
इन्द्र है, तथा दोनों रूपों द्वारा जीवन चलाने वाला जगन्नाथ है। इसे विष्णु का जाग्रत रूप कहा है
(चण्डी पाठ, अध्याय १)। सौर मण्डल में ठोस ग्रह मंगल तक का क्षेत्र दधि वामन है। शनि तक
का क्षेत्र सहस्राक्ष (सूर्य से १००० व्यास दूरी तक) चक्र है। पृथ्वी के भीतर ३ धाम और बाहर
क्रमशः २-२ गुणे बड़े धाम हैं। १७ वें धाम पर दधिवामन तथा २० वें धाम पर सूर्य रथ का चक्र
है। अतः पृथ्वी पर १७ अक्षांश पर दधिवामन तथा २० अक्षांश पर पुरी में रथयात्रा होती है।
आकाश की सृष्टि १० रात्रि (१० चक्र, सृष्टि के १० सर्ग, १ व्यक्त, ९ अव्यक्त) में हुई है। मनुष्य
का जन्म भी चन्द्र की १० परिक्रमा (२७३ दिन) में होता है। प्रेत शरीर चान्द्र मण्डल का है
जिसका जन्म पृथ्वी की १० परिक्रमा (१० दिन) में होता है। अतः रथयात्रा भी १० दिन होता है
(आषाढ़ शुक्ल १० तक)। प्रथम दिन उन्मेष के बाद द्वितीय दिन रथ यात्रा होती है।
ऋक १/३५/२-आकृ ष्णेन रजसा वर्तमानो निवेशयन्नमृतं मर्त्यं च।
हिरण्ययेन सविता रथेना देवो याति भुवनानि पश्यन्॥
ताण्ड्य महाब्राह्मण, ४/८/६-विराड् वा एषा समृद्धा यद्दशाहानि।
शतपथ ब्राह्मण, ५/४/५/३-अथ यद्दशममहरुपयन्ति। संवत्सरमेव देवतां यजन्ते। वर्षा से सम्वत्
का आरम्भ होता था, अतः इसे वर्ष कहते हैं। एक वर्षा का क्षेत्र भी वर्ष है, जैसे भारतवर्ष। वर्ष
आरम्भ विक्रम सम्वत् के आरम्भ में आषाढ़ मास में होता था, अतः आषाढ़ मास में रथ यात्रा
होती है।

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अध्याय ८-ओड़िशा के प्राचीन नगर और तीर्थ
१. कटक-कण्टक = कांटा। कटक का अर्थ दुर्ग है। महाभारत कालीन जनमेजय के वंशजों के
शासन में यह उत्कल की राज्धानी विजय कटक थी। Inscriptions of Orissa, Vol.
IVby Sri Stayanarayan Rajaguru-Orissa State Museum, 1966-
२५वां ताम्रशासन। जनमेजय के दिग्विजय शासन में इसे कटक ही लिखा है। किला द्वार से घिरा
रहता है, अतः इसे द्वारावती (बारबाटी) कहते हैं। शिवपुराण के अनुसार वाराणसी क्षेत्र ३
कण्टकों पर है तथा उसके मुख में गौरी है (गौरीमुखे त्रिकण्टक विराजिते)। राजा पुरुषोत्तम देव के
समय इसे अभिनव वाराणसी कहते थे जो अब बिड़ानासी हो गया है। यहां के २ कण्टक महानदी
की दो धारायें महानदी तथा काठजोड़ी हैं। तीसरा कण्टक द्वारावती दुर्ग है जिसके भीतर चण्डी
स्थान है। महानदी तट पर जल जमा होने के कारण वहां लम्बी गाण्डर घास होती थी, जिसे अभी
गण्डरपुर कहते हैं। जहां महानदी का २ धारा में विभाजन होता है, वह बाइमुण्डी (द्विमुण्डी-मुण्ड
= शीर्ष या स्रोत) है। जहां तक १ धारा है, वह मुण्डली है। बाइमुण्डी के निकट जल की धारा
बहुत कम है, अतः इसे चहटा कहते हैं। नदी तट के सभी पत्तन (नौका घाट) के नाम पटना हैं,
जैसे मधुपटना, रउसापटना, नुआपटना आदि।
२. धान्य के नाम पर स्थान-ओड़िशा धान्य का मुख्य उत्पादक था तथा निकट के क्षेत्रों का धान
भी यहीं से निर्यात होता था, अतः अंग्रेजी में उड्र (उत्कल) के उत्पाद के रूप में औड्रीय हो गया
जिससे Oryza तथा rice हुआ। ओड़िशा नाम भी इसी से है। कटक के निकट इस नाम के
कई स्थान हैं-चाउलियागंज, धानमण्डल, सालेपुर (शालि = धान), आलि, कनिका (धान का
एक प्रकार), राजकनिका आदि।
३. तीर्तौल-(तीर्थावली)-कटक पारादीप के बीच। पुरी से जाजपुर तक शक्ति पीठ अर्धचन्द्राकार
क्षेत्र में थे। बाहरी वृत्त का के न्द्र तीर्तौल है तथ अन्य स्थान हैं-काकटपुर (मङ्गलचण्डी), झांकर
सारला, पुरी (विमला) आदि। भीतरी वृत्त छतिया, कटक (चण्डी), बांकी से गुजरता है। इसका
के न्द्र कपिलास (कै लास) है।

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४. कन्दरपुर (कन्दर्पपुर)-कन्दर्प अर्थात् कामदेव ने शबर राजा शम्बर का वध किया था। अतः
शबर क्षेत्र की उत्तरी सीमा पर उनका नगर है। जहां अनंग होने के बाद उनको अंग मिला था, वह
अंग देश (पूर्वी बिहार, पश्चिम बंगाल) है।
५. भुवनेश्वर-जगन्नाथ धाम की सीमा के रूप में एकाम्र क्षेत्र है जहां लिंगराज का निवास है।
शिवपुराण के अनुसार लिंगराज अव्यक्त हैं, उनका व्यक्त रूप अग्नि-स्तम्भ के रूप में प्रकट हुआ
था। अग्नि रूप में ८ वसु हैं। इनके ८ स्थान हैं-सातशंख (पुरी मार्ग पर, सप्तार्चि या सप्तशिखा =
अग्नि), जगामरा (यज्ञाम्र = यज्ञ भाग वहन करने वाला), ऐगिनिया (आग्नेय), चण्डका, डमणा
(दमुना = अग्नि का वैदिक नाम), रेतांग, किशननगर (कृ शानुरेता = अग्नि), नियाली (अग्नि +
आलि)। पुरी हृदय क्षेत्र है, नाभि-गया जाजपुर है। हृदय के ठीक नीचे कल्पवृक्ष (एकाम्र) के नीचे
शिवरूपी मञ्च (मञ्चेश्वर) पर लिंगराज के साथ भुवनेश्वरी का निवास है। अतः लिंगराज मन्दिर के
साथ भुवनेश्वरी मन्दिर लगा हुआ है और इस नगर का नाम भुवनेश्वर है। इनका घर चिन्तामणि है
(चिन्तामणीश्वर), सुधासिन्धु (विन्दुसागर) के निकट स्थल भाग (मणिद्वीप) में मन्दिर है। चारों
तरफ गुरु शिष्य परम्परा का प्रतीक वट का उपवन है-वट का मूल बरगढ़, वट का तना यज्ञाम्र
(जगामरा), वट का मुण्ड बरमुण्डा तथा उसके द्रुम से अन्य द्रुम दुमदुमा हैं। भुवनेश्वरी १०
महाविद्या में एक हैं। देवीभागवत पुराण के वर्णन का सारांश शंकराचार्य की सौन्दर्य लहरी (८) में
है-
सुधासिन्धोर्मध्ये सुरविटपवाटी परिवृते,
मणिद्वीपे नीपोपवनवति चिन्तामणिगृहे।
शिवाकारे मञ्चे परमशिवपर्यङ्क निलयां,
भजन्ति त्वां धन्यां कतिचन चिदानन्दलहरीम्॥
६. बारंग-हर दुर्ग के निकट भोजन पानी की व्यवस्था के लिये एक बाहरी छोटा दुर्ग रहता है,
जिसे बहिरंग कहते हैं। ओड़िशा में कई बड़े गांव गढ़ नाम के हैं, उनके निकट बहिरंग या बारंग,
बहाराणा आदि हैं। जैसे बगालोगढ़ के निकट बगालो बहाराणा। कटक दुर्ग के निकट भी बारंग है।
राजस्थान के कोटा के निकट बारंग तथा दिल्ली दुर्ग के निकट भी ( बारन (१७०७ से अलीगढ़)
है।
७. पुरी-भारत की प्राचीन ७ पुरी थीं। इन सभी को नाम के साथ पुरी कहते थे जैसे अयोध्यापुरी।
किन्तु जगन्नाथपुरी को के वल पुरी कहते थे। जो भरण करे, वह भारत, जो पूरण (कमी की पूर्ति)
करे वह पुरी। या समुद्र तट पर शुद्ध जल का क्षेत्र पुरी है। पूरा आकाश नीलाचल है, पूर्वी तट
उदयाचल या उदयगिरि है-इस नाम के कई स्थान पुरी के निकट हैं। पश्चिमी तट पर रत्नागिरि
(अस्ताचल) या सूर्यास्त (सूरत) नगर हैं। पुरी की पश्चिम सीमा पर वारुणेई है क्योंकि वरुण
पश्चिम दिशा के स्वामी हैं। स्कन्दपुराण सेतुखण्ड (अध्याय ४-६) में चक्रतीर्थ को दक्षिण समुद्र
के तट पर फु ल्लग्राम से देवीपत्तन तक कहा गया है। यह पुरी का उत्तरी भाग है जहां देवी नदी
बहती है। स्कन्द पुराण पुरुषोत्तम खण्ड अध्याय १६, १७/१, २९/३८, ३४/३५) में इन्द्रद्युम्न
सरोवर के निकट दशपुर कहा गया है। सम्भवतः यह प्राचीन पुरी नगर का एक भाग था।

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८. ज्वालेश्वर-स्कन्द पुराण, रेवाखण्ड के अनुसार बाण असुर ने विष्णु, ब्रह्मा तथा शिव के नगरों
पर अधिकार कर लिया था। उस पर आक्रमण के लिये शिव ने श्री-पर्वत (श्रीशैलम्) से बाण छोड़े
जो इन नगरों को नष्ट करते हुए आगे निकले। वहां बाणों का जाल बन गया, जिसे जालेश्वर कहते
हैं। यह उत्तरी बालेश्वर में है। आज भी भारत का क्षेपणास्त्र परीक्षण के न्द्र वहीं है। ब्रह्म-विष्णु-शिव
के पुर हैं-ब्रह्मपुर, जगन्नाथपुरी, भुवनेश्वर। इनके के न्द्र में बाणपुर है।
९. दीपेश्वर-मत्स्य पुराण (१९१/४१, १९३/८०) तथा पद्म पुराण (स्वर्ग खण्ड, २०/७६) के
अनुसार यहां व्यास का आश्रम था जिसके डर से महानदी लौट कर दाहिने दिशा में बहने लगी।
यह राउरके ला के निकट शंख-कोयल नदियों के संगम पर वेदव्यास है। वेदव्यास के द्वीप पर
व्यास का जन्म होने के कारण उनको द्वैपायन कहा जाता है।
१०. अगस्त्य आश्रम-योगिनीतन्त्र (खण्ड २, १/२९, ४/४४, १३६, १३८, ५/१६०,
१६४), नीलमत पुराण (१२८-१३७), स्कन्द पुराण (काशी खण्ड, अध्याय ३) के अनुसार
सुवर्णमुखरी नदी के तट पर अगस्त्येश लिङ्ग था। रामायण (युद्ध काण्ड १२६/४१-४२, उत्तर
काण्ड ८२/३) के अनुसार यह गोदावरी तट पर था। स्कन्द पुराण इसे न्यङ्कु मती तट पर कहता
है। रामायण अरण्यकाण्ड (११/४२) इसे नासिक के पूर्व कहता है। इस नाम के ४ स्थान हैं-(१)
नासिक के ३८ कि.मी. दक्षिण-पूर्व, (२) अगस्त्यकू ट-तमिलनाडु के तिरुनेल्वेली जिले में जहां
से ताम्रपर्णी नदी निकलती है। (३) गढ़वाल में रुद्रप्रयाग से २० कि.मी. दूर मन्दाकिनी तट पर
अगस्त्य ग्राम। (४) ओड़िशामें जगतसिंहपुर के निकट एक छोटा मन्दिर है। यहां पुरानी नदी धारा
थी जो न्यङ्कु मती हो सकती है।
११. उत्कलावर्तक-मत्स्य पुराण (१३/४५) तथा उत्तर मत्स्य (२२/६४) में उत्कल का तीर्थ
कहा है। वायु पुराण (उत्तर १५/८२) में उमातुङ्ग भी कहा है।
१२. कारापथ-वायु पुराण (उत्तर, २६/१८७) रघुवंश (१५/९०) में इसका उल्लेख है। रामायण
उत्तरकाण्ड (१०२/५-८) में कारुपथ कहा गया है। इसका नाम रामरावण युद्ध के बाद बालि-पुत्र
अंगद के नाम पर अंगदीय पड़ा। यह बालि का क्षेत्र था, जहां मैथिली थाना में सालवन क्षेत्र का
अन्त हो जाता है। वहीं राम ने ७ साल वृक्षों को १ बाण से भेदा था। बालि के नाम पर बालिमेला,
बालिगुड़ा इसके निकट हैं। कन्ध क्षेत्र किष्किन्धा कहलाता है। लंगोट को लांज कहते हैं जिसक
अर्थ पूंछ भी है। एक लांजीगढ़ भी है। यहां दण्ड देने के लिये लोगों को निर्वासित करते थे जैसे
कु बेर ने यक्ष को निर्वासित किया था। दण्ड के लिये अरण्य था, अतः इसे दण्डकारण्य कहते थे।
इस कारा तक जाने का पथ कारापथ था जो कोरापुट हो गया है। बालि का पूर्वी द्वीपों पर भी
अधिकार था। निकोबार के कारा को कार-निकोबार कहते थे। पानी के कारा को कारा-पानी या
कालापानी कहते थे। इण्डोनेसिया से पूर्व किरिबाटी द्वीप भी कारापथ का अपभ्रंश हो सकता है।
पूर्व यूरोप का निर्वासन क्षेत्र भी रोमानिया के पर्वतों में कारपेथिया कहलाता है।
१३. करंज-स्कन्द पुराण रेवाखण्ड (अध्याय ४-६) तथा मत्स्य (१९०/११) में यहां के
करंजेश्चर शिव मन्दिर का उल्लेख है। यह के न्दुझर जिले का करंजिया हो सकता है।

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१४. सिद्धक्षेत्र-कई सिद्धक्षेत्र हैं-वायु पुराण (उत्तर, १५/१३-१४) के अनुसार यह कलिंग में है।
अन्य हैं-गंगा तट पर विश्वामित्र का सिद्धाश्रम (बिहार का बक्सर या व्याघ्रसर), हिमालय में
कं चनजंघा तथा धौलागिरि के बीच (रामायण, किष्किन्धा काण्ड ४३/३३) मन्दाकिनी तट पर है।
कलिंग में नराज के निकट जहां महानदी का दो धारा में विभाजन होता है वहां तलगढ़ गांव में
सिद्धनाथ मन्दिर है। इसके एक तरफ वराह क्षेत्र बराम्बा तथा दूसरी तरफ भुवनेश्वर का धौलागिरि
है। जाजपुर में भी वराहनाथ मन्दिर है।
१५. मणिपुर-महाभारत (अश्वमेध, अध्याय७९) में इसे कलिंग की राजधानी कहा गया है। यह
चिलिका झील के तट पर मानिकपत्तन हो सकता है।
१६. बालेश्वर-उदयकालीन सूर्य को बाल सूर्य कहते हैं। अतः पूर्व तट के नगर को बालेश्वर कहा
गया। यहां की देवी को रमणा कहा गया है जिसके नाम पर रेमुना है।
१७. मयूरभंज-यहां के प्राकृ तिक वातावरण में मयूर घूमते थे, अतः इसका नाम मयूरभंज हुआ।
इसके निकट बांस का वन खीचिंग कहलाता है। कु छ लोग इसे महाभारत कालीन विराट के
सेनापति कीचक का स्थान कहते हैं। जल प्रपात का स्थन बारिपदा है।
१८. ब्रह्मपुर-ब्रह्मा के नाम पर नगर। इसके निकट थोक बाजार गंजाम तथा खुदरा बाजार छत्र पुर
था। गंज = संग्रह करना। छोटे छोटे छत्र के नीचे दूकानें लगती हैं, यह दैनिक बाजार है। कटक में
भी सब्जी बाजार छत्राबाजार है।
१९. कोदला, अस्का-खनिज नगर। कोदला = कु दाल से खोदा हुआ। अयस्क = खनिज।
२०. गोलान्तरा-यह चाणक्य का जन्म स्थन गोल्ल जनपद था। यहां के निवासियों को अरगोला
कहते हैं। गोल या कु टी (कु मटी, गुमटी जैसा) धान रखने के भण्डार हैं। कु टी क्षेत्र होने के कारण
चाणक्य का कु लनाम कौटिल्य था। यहां के व्यापारियों को कु मटी कहते हैं।
२१. थेरुबालि-तमिल में तिरु = श्री। यह बालि के नाम पर है।
२२. पुट्टासिंघा, जलतर-पुट्ठा = कन्धा (प्रस्थ), सिंगा = सींग। पर्वत पर का स्थान। यहां का
बाजार नीचे की समतल भूमि पर है जिसे जलतर कहते हैं। झारखण्ड, बंगाल, असम में बहुत से
स्थानों का नाम जलदा है। पैसा जल या द्रव की तरह बहता है, अतः धन को द्रविड़ या बाजार
को जलदा कहते हैं। बाजार में ऊं चे दाम लेकर ठगते हैं, अतः यहां की भाषा में जलतर का अर्थ
ठग है।
२३. मलकानगिरि-इसका पुराना नाम माल्यवन्तगिरि था। यहां वनवास में राम रुके थे। एक झरने
के नीचे सीता बिना वस्त्र के नहा रही थीं तो स्थानीय महिलायें उनको देख कर हंसी। सीता ने
उनको शाप दिया कि वहां की महिलायें वस्त्र नहीं पहनेंगी। ५० वर्ष पूर्व तक वहां की बोण्डा
महिलायें वस्त्र नहीं पहनती थी। सीता के निवास का स्थान मैथिली है। वहां के झरने का पानी
रामगिरि से होकर जाता है जिसके बारे में कालिदस ने लिखा है कि वह स्थान सीता के स्नान
जल से पवित्र है।
२४. कालाहाण्डी-हाण्डी का अर्थ मिट्टी है। यहां की काली मिट्टी है।

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२५. थुआमुल-रामपुर-थुआ = स्रोत। कालाहाण्डी में यह २ नदियों का स्रोत मूल है-नागावली,
वंशधारा।
२६. डाबुगांव-डाबु = पैसा। बाजार का स्थान।
२७. नवरंगपुर-यह प्राचीन नल राजाओं की राजधानी थी। अतः विभिन्न प्रकार के रंग थे।
राजधानी के लोग अधिक होशियार होते हैं, अतः नवरंग का अर्थ धूर्तता है।
२८. बोरिगुम्मा-गुल्म देना की टुकड़ी है। सीमा क्षेत्र की छावनी।
२९. बौध, फू लबानी-परशुराम के गुरु सुमेधा बुद्ध का स्थान। बौद्ध विद्यालय पुष्पपुर का अपभ्रंश
फू लबानी।
३०. सम्बलपुर-सम्बल का अर्थ सैन्य छावनी है। अतः इन्द्र की शक्ति छिन्नमस्ता (समलेश्वरी)
तथा उनके प्रमुख वृद्धश्रवा (बुढ़ाराजा) का मन्दिर है।
३१. हीराकु द = हीरे की खान। बौध तक महानदी क्षेत्र में हीरा मिलता है।
३२. राजगंगपुर-गंगा नदी जिस समुद्र में मिलती है वह गंगासागर है। उस पर नियन्त्रण करने वाले
ओड़िशा के गंग राजाओं का स्थान।
३३. राउरके ला-राउर = रावल, या ओड़िया में राउल, सामन्त। कला = बड़ा, खुर्द = छोटा।
बड़े सामन्तों का निवास।
३४. बड़बिल-बिल = खेत, जहां मिट्टी खोदी जाती है। खान के लिये अधिक मिट्टी खोदते हैं,
अतः उसे बड़बिल कहते हैं।
३५. बलांगिर-नरसिंहनाथ का स्थान। वे बल अवतार थे, अतः उनका निवास शंकर दिग्विजय में
बलाचल लिखा गया है जिससे बलांगिर हुआ। पुरी पीठ के प्रथम शंकराचार्य पद्मपाद ने यहां
तपस्या की थी।
३६. पाइकमाल-पाइक = पदातिक। नरसिंह काल से सैनिक क्षेत्र।
३७. भटली-भट = सैनिकों, पुलिस का स्थान।
३८. बुर्ला-बरला = ताड़ पत्तों जैसा परत। कोयला तथा अन्य खनिज मिट्टी के नीचे परत में होते
हैं। इनकी खुदाई करने वाले बरला थे, जो वनवासियों की उपाधि है।
३९. अनुगुल-अणि = हाथी के लिये अंकु श। गोल = समूह। हाथी सेना का स्थान। इसके निकट
हाथीबारी आदि स्थान भी हैं। भारत में हाथी सेना के अन्य स्थान हैं-दक्षिण आन्ध्र में ओंगोल,
कर्णाटक के बेलगाम में अनुगुल।
४०. इरासमा-इरा = नदी धारा जैसे इरावती। जिस भूमि के दोनों तरफ समान रूप से जल जो
वह इरासमा है। इससे ग्रीक में इरास्मस हुआ है।
४१. मार्शाघाई-घाई = निम्न भूमि। मार्श = मसृण, चिकनी मिट्टी। नीचे की दलदल भूमि। अंग्रेजी
में भी मार्श।
अवतार सम्बन्धी शब्द-
वराह अवतार सम्बन्धी-शबर जाति, जो शबल = या साबल से भूमि खोदती है। शवर या सूअर
सम्बन्धी स्थान-सोरों (भद्रक में), शूकर पड़ा (के न्द्रापड़ा) में।

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कू र्म-खेती या खनिज के लिये भूमि खोदना। खेत जोतने वाले कु र्मी हैं। खेती का स्थान खमार है
तथा उसके मालिक खमारी। तेलुगु में कम्मा, कम्बोडिया में ख्मेर नाम है। इसकाल में खनन के
लिये असुर आये थे, उनकी उपाधियां खनिजों के नाम पर ही हैं। मुण्डा = लौह खनिज, हेम्ब्रम
= पारद, ओराम= ग्रीक में औरम या सोना। खालको = ताम्बा (खालकोपाइराइट), सिंकू
-चान्दी, किस्कू -लोहा की भट्टी। टोप्पो-टोपाज। मिन्ज - मीन की तरह खनिज को धोकर साफ
करने वाले। करकटा-नकशे पर खनिज स्थान खोजने वाले। हंसदा-खनिज से धातु निकालने
वाले।
वामन अवतार-शुक्र (काव्य) का मख (यज्ञ) अरब में राजा बलि द्वारा हो रहा था। वे स्थन काबा
और मक्का-मदीना (मख-मेदिनी) हैं। वैसे ही स्थान ओड़िशा में बने-याजपुर, मेदिनीपुर।
इण्डोनेसिया में भी यज्ञकर्ता राजधानी हुई जिससे जकार्ता हुआ। भाद्र शुक्ल १२ को बलि से इन्द्र
का राज्य लिया था अतः इसी दिन से राजाओं का काल गिना जाता है जिसको अंक कहते हैं।
पहला अंक शून्य है अतः शूनिया पर्व होता है। इन्द्र का राज्य छोड़ने पर बलि पाताल गये थे अतः
शूनिया के कु छ समय बाद बलि यात्रा होती है। इण्डोनेसिया के बालिद्वीप से भी सम्बन्ध है।
परशुराम अवतार-परशुराम की सहायता करने वाली कई जातियां यहां की थी-शबर, कलिंग,
औड्र । उनके पिता के शिष्य अघोरनाथ का स्थान घोघरनाथ राउरके ला के निकट है। परशुराम
परशु या टांगी रखते थे अतः उनके सैनिक स्थानों के नाम टांगी हैं। बांकी में उनके माता-पिता के
नामों के कई मन्दिर हैं।
राम अवतार-बालिमेला, मैथिली, मलकानगिरि, दण्डकारण्य, कोरापुट, किष्किन्धा के कन्ध
आदि। बालि रावण का मित्र था, अतः उसके स्थान पर रावण नाम प्रचलित है (गजपति जिला
में)। ऋक्ष स्थान ऋक्ष पर्वत था। वहां से निकलने वाली पयोष्णी नदी के निकट च्यवन आश्रम में
राम के अश्वमेध यज्ञ में शत्रुघ्न आये थे (पद्म पुराण, पाताल खण्ड)। उसके बाद उन्होंने
नीलाचल (जगन्नाथ स्थान) देखा। उसमार्ग पर रत्नतला नगर गये। चक्राङ्का नगरी में युद्ध हुआ
(पुरी चक्रतीर्थ के निकट)।
कृ ष्ण अवतार-जरा शबर कृ ष्ण का सौतेला भाई था जो निषादों का राजा हुआ। इसका स्थान
जरा (बरगढ़ की जीरा नदी) नदी था जो जरासन्ध का जन्म स्थान भी था। महाभारत में कलिंग
की गज सेना विख्यात थी अतः यहां के राजाओं को आज भी गजपति कहते हैं। शिशुपाल के
पिता दन्तवक्त्र के नाम पर बस्तर में दन्तेवाड़ा तथा दन्तेश्वरी मन्दिर है। भुवनेश्वर में
शिशुपालगढ़ है।
बौद्ध अवतार-२८ बुद्धों में ओड़िशा में ३ बुद्ध हुए थे-दीपंकर बुद्ध के शिष्य ओड़िशा के राजा
इन्द्रभूति थे जिनके बाद बाउल गीत तथा लामा परम्परा शुरु हुई। मैत्रेय बुद्ध धान्यकटक (कटक)
में हुए थे। सुमेधा बुद्ध परशुराम के गुरु थे और बौध में थे। उस काल के विद्यालय ललित गिरि
तथा पुष्पगिरि (फू लबानी) थे।
अध्याय ९-ओड़िशा का पौराणिक इतिहास

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१. कार्त्तिके य काल-इन्द्र के सेनापति कार्त्तिके य का काल महाभारत वनपर्व (२३०/८-१०) के
अनुसार १५,८०० ई.पू. है। उनके सैनिक के न्द्रों को ६ माता कहा गया है-दुला (बंगाल,
ओड़िशा क्षेत्र), अभ्रयन्ती (आन्ध्र, महाराष्ट्र), मेघयन्ती (गुजरात, राजस्थान), वर्षयन्ती
(असम), नितत्नि (तमिलनाडु ), चुपुणीका (पंजाब, चोपड़ा)-तैत्तिरीय संहिता (४/४/५/१०)
तैत्तिरीय ब्राह्मण (३/१/४/४)। इसमें दुला का के न्द्र कोणार्क के निकट था जहां क्रौञ्च द्वीप जीतने
के बाद कोणार्क में विजय स्तम्भ स्थापित किया था। कार्त्तिके य को वैशाख (विशाखा का पुत्र)
कहा गया है। विशाखापत्तनम् की उनकी माता हो सकती हैं जहां दो नदी एक साथ समुद्र में
मिलती हैं-वंशधारा, नागावली।
इन्द्र ने मरुत् की सहायता से लिपि आरम्भ की जिसमें ४९ मरुत् के अनुसार ४९ वर्ण थे। ३३
देवों के नाम पर अ से ह तक ३३ वर्ण थे अतः इसे देवनागरी कहा गया। आज भी यह इन्द्र के
स्थान पूर्व भारत से मरुत् के पश्चिमोत्तर भारत तक प्रचलित है। लिपि आरम्भ करने के कारण
इन्द्र लेखर्षभ थे (तैत्तिरीय संहिता ६/४/७, मैत्रायणी संहिता ४/५/८, काण्व संहिता २७/२,
कपिष्ठल संहिता ४२/३) तथा मार्क ण्डेय पुराण का सूर्यतनु लेखन अध्याय (गोल स्वर्ण थाल
पर)। अतः ओड़िशा में अलेख नाम प्रचलित है। १४६४ ई.पू. के कलिंग युद्ध के समय यहां के
राजा का नाम अलेख सुन्दर लिखा है (कलसी शिलालेख) जिसे पाश्चात्य लेखकों ने
अलेक्जेण्ड्रि या कर दिया है जो उस समय नहीं था। इन्द्र काल के समुद्री दस्यु पणि थे जिनके
वंशज पाण हैं। इस काल के निकट वराह, कू र्म, नरसिंह अवतार काल के स्थान लिखे जा चुके हैं।
२. महाभारत पूर्व-मत्स्य पुराण (४८/७७), वायु पुराण (९९/८५) के अनुसार विरोचन पुत्र
बलि की पत्नी सुदेष्णा के गर्भ से दीर्घतमा द्वारा ५ पुत्र हुए-अङ्ग, वङ्ग, कलिङ्ग, सुह्म तथा पुण्ड्र ।
इनके नाम पर १-१ राज्य हुए। अङ्ग (पूर्व बिहार, पश्चिम वङ्ग), वङ्ग-बंगलादेश, सुह्म-उत्कल,
मिदनापुर, पुण्ड्र (पूर्णिया)। चन्द्रवंशी या पुरुवंशी ययाति (प्रायः ८००० ई.पू.) का पुत्र तुर्वसु इस
क्षेत्र (दक्षिण पूर्व भारत) का राजा था। उसके वंशजों ने दुष्यन्त तक ओड़िशा का शासन किया
(विष्णुपुराण, ४/१०)।
महाभारत के बाद-युधिष्ठिर के पौत्र परीक्षित की हत्या के बाद उसके पुत्र जनमेजय ने २७ वर्ष
बाद नागों को पराजित कर उनके नगरों को श्मशान बना दिया, जिनके नाम हुए (हड़प्पा (हड्डियों
का ढेर) मोइन-जो-दरो = मृतकों का स्थान। उसके बाद हत्याओं के प्रायश्चित्त के लिये ५
स्थानों पर भूमिदान किया जब पुरी में सूर्यग्रहण हुआ था। इन दानपत्रों में सभी ५ प्रकार से तिथि
दी है तथा सूर्यग्रहण का वर्णन है। यह दान २७-११-३०१४ ई.पू. को दिये गये थे। ये सभी
इण्डियन ऐण्टिकु अरी के जून १९०१ अंक में प्रकाशित हुए थे तथा २००७ में इन तिथियों की
जांच की गई। डा. कोसला वेपा की अध्यक्षता में अमेरिका के डलास में अक्टुबर २००७ में
सम्मेलन में यह पुस्तक प्रकाशित हुई-Astronomical Dating of Events &
Select Vignettes from Indian History.। जनमेजय के दिग्विजय शासन में
उत्कल के राजा को अश्वपति तथा कलिंग के राजा को गजपति लिखा है। इन सभी पट्टों में
परीक्षित अभिषेक २५-८-३१०२ ई.पू से वर्ष गणना है जिस दिन जय सम्वत्सर आरम्भ हुआ

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तथा पाण्डव अभ्युदय के लिये हिमालय गये। इसे जयाभ्युदय शक कहा है। बाद में जनमेजय के
वंशजों ने ओड़िशा में शासन किया तो उन्होंने इसी भाषा और शैली में अपने दान पत्र लिखे।
अधिकांश दान सूर्यग्रहण के दिन के हैं जो दान के लिये पवित्र मानते हैं। लेकिन ओड़िशा के
पाण्डु वंशी राजाओं ने विजय राज्य सम्वत्सर का व्यवहार किया है जो जनमेजल के दिग्विजय
शासन के बाद ३०१३ ई.पू. से आरम्भ होता है। इनकी राजधानी सोनपुर थी तथा राज्य के ३
खण्ड थे-पश्चिम में कोसल की राजधानी मुरा या मुरसीमपत्तन थी जो १९५६ में हीराकु द बान्ध
से महानदी जल-भण्डार में डू ब गया। उत्कल की राजधानी विजय-कटक थी जिसे अभी कटक
कहते हैं। जनमेजय के दिग्विजय शासन में इसे कटक ही लिखा है। दक्षिण पूर्व कलिंग की
राजधानी कोङ्गण थी जो बाद में पीठापुर हो गई। जनमेजय तथा ओड़िशा के पाण्डु वंशी राजाओं
के सभी दानपत्रों में ये श्लोक हैं- आदित्यचन्द्रावनिलोऽनलश्च द्यौर्भूमिरापो हृदयं यमश्च ।
अहश्च रात्रिश्च उभे च सन्ध्ये धर्मश्च जानाति नरस्य वृत्तं ॥
दानपालनयोर्मध्ये दानाच्छ्रेयोऽनुपालनं।
दानात्स्वर्गमवाप्नोति पालनाद्विगुणंफलं ॥
स्वदत्ताद् द्विगुणं पुण्यं परदत्तानुपालने।
परदत्तापहारेण स्वदत्तं निष्फलं भवेत् ॥
मद्दत्ता पुत्रिका ज्ञेया पितृदत्ता सहोदरी।
अन्यदत्ता तु जननी दत्तभूमिं परित्यजेत् ॥
अन्यैस्तु छर्दितं छद्वेश्वभिश्च छर्दितं न तु।
ततः कष्टो ततो नीचः स्वदत्तापहारकः ॥
स्वदत्तां परदत्तां वा ब्रह्मवृत्तिं हरेत यः।
षष्टिवर्षसहस्राणि विष्टायां जायते कृ मिः ॥
प्रथम श्लोक के पहले दो साक्षी आज भी ओड़िशा के जमीन पट्टों में मिल जायेंगे-यावच्चन्द्र
दिवाकरौ। जनमेजय के के दारनाथ दानपत्र की तिथि है-
स्वस्तिश्री जयाभ्युदये युधिष्ठिर शके प्लवङ्गाख्ये एकोननवतितम (८९) वत्सरे सहसि मासि
अमावास्यायां सोमवासरे श्रीमन्महाराजाधिराज परमेश्वर वैयाघ्रपाद गोत्रज श्रीजनमेजय भूपो----
व्याघ्रपद गोत्र के क्षत्रिय ओड़िशा में आज भी हैं जिनको बघेल कहते हैं। सिद्धान्त दर्पण के लेखक
चन्द्रशेखर सिंह सामन्त (१८३१-१९०४) भी इसी परिवार के थे। पाण्डु वंशी राजाओं की
तिथियां हैं-Inscriptions of Orissa, Vol. IV by Sri Stayanarayan
Rajaguru-Orissa State Museum, 1966 के क्रम में-
(१६) सुवर्ण्णपुर समावासितः -- त्रिकलिङ्गाधिपति श्री महाभवगुप्तराजदेवः --श्री जनमेजयदेवस्य
विजयराज्ये सम्वत्सरे तृतीये श्रावण सुदि ५ लिखितमिदं
(१७) मूरसीमपत्तन --त्रिकलिङ्गाधिपति--श्री जनमेजयदेवस्य विजयराज्ये सम्वत्सरे षष्ठे फाल्गुन
मास द्वितीय पक्ष तिथौ प्रतिपदि---

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(२५) सुवर्ण्णपुर समावासित श्रीमद् विजयकटकात्- -त्रिकलिङ्गाधिपति श्री जनमेजयदेवस्य
प्रवर्द्धमाने विजये राज्ये सम्वत्सरे चतुस्त्रिंशत्तमे आश्विन बदी अष्टम्याम् तिथौ सम्वत् ३४ आश्विन
बदी ८ लिखितमिदं---
आधुनिक इतिहासकार इनको हर्षवर्धन काल में रखते हैं जो कि स्पष्टतः भूल है। उस काल में
हर्षवर्धन ही ओड़िशा का भी राजा था तथा उसके रथ यात्राओं का वर्णन हुएनसांग ने किया है।
खारावेल-यह चेदि राज शिशुपाल का वंशज था जिसका युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ (३१५३
ई.पू.) में भगवान् कृ ष्ण द्वारा वध हुआ था। चेदि राज्य बस्तर तथा दक्षिन पूर्व ओड़िशा में था।
खारावेल का शिशुपालगढ़ तथा खण्डगिरि गुफा भुवनेश्वर के निकट हैं। के वल इसी के शिलालेख
उपलब्ध हैं। इसके मुख्य वाक्य हैं-(१) अभिषेक के बाद वेद विहित विधि से गोपुर (राजभवन,
कार्यालय) निर्माण किया। (२) द्वितीय वर्ष में अश्वसेना से सातकर्णी को पराजित कर मूशिक
नगर (मूसी नदी पर हैदराबाद) को जीता। (३) तृतीय वर्ष में गान्धर्व विद्या के विद्वानों को उत्सव
में बुलाया (संगीत समारोह)। (४) चतुर्थ वर्ष में विद्याधर भवन की मरम्मत कराई
(विश्वविद्यालय?)। (५) पञ्चम वर्ष में नन्द राजा द्वारा निर्मित प्राची नहर (पनस) की मरम्मत
८०३ वर्ष बाद कराई। पुराण के अनुसार नन्द अभिषेक १५०४ कलि = १६३४ ई.पू. में हुआ
था। उसके ८०३ वर्ष बाद खारावेल राज्य का ४ वर्ष पूरा हुआ। अतः खारावेल का अभिषेक
१६३४-७९९ = ८३५ ई.पू. में हुआ था। (६) ७वें वर्ष में राजसूय यज्ञ किया जिसमें कर लिया
और अनुग्रह किया। (७) वाजि-गृह-वाटी (अश्वसेना?) से शासन किया। (८) ८वें वर्ष में मथुरा
से यवन राजा दिमित को भगाया। असीरिया के इतिहास में भी है कि उनके राज्य का विस्तार
८५० ई.पू. में हुआ तथा उसके कु छ वर्षों के बाद उन्होंने भारत तक आक्रमण किया। खारावेल ने
उनको ८२८ ई.पू. में भगाया। यह मगध के दुर्बल आन्ध्र राजाओं की मदद के लिये था, मगध के
विरोध में नहीं। आन्ध्र राजाओं का शासन ८३३ ई.पू. में आरम्भ हुआ। प्रथम आन्ध्र राजा के पुत्र
सातकर्णी को हराया था। (९) नवम वर्ष में ब्राह्मणों के लिये अग्रहार, महाविजय (मन्त्रालय) तथा
सेना के लिये आवास बनवाये। इनकी तिथि कलि सम्वत् में दी है जो अपूर्ण है, अर्थात् ७५६
ई.पू. का शूद्रक शक आरम्भ नहीं हुआ था। (१०) दशम वर्ष तक साम दाम से पूरे भारत पर
शासन किया। (११) ११वें वर्ष में अवि राजा के स्थान को गधे से खींचे हुए हल से जुतवा दिया।
जनसद भवन (संसद) बनवाया। (१२) १२वें वर्ष में उत्तरापथ को जीता तथा कलिंग जिन की
मूर्ति लाया। मगध और अंग से कर वसूल किया। (१३) १३वें वर्ष में भिक्षुओं के लिये कु मारी
पर्वत पर आवास बनवाया।
मौर्य अशोक-पाण्डु वंशी राजाओं के अधीन मुरा के अधिकारी मौर्य कहे जाते थे। महापद्मनन्द
(१६३४-१५३४ ई.पू.) ने चन्द्रवंशी राजाओं पर कब्जा कर लिया था। उसके १२ वर्ष के भीतर
मुरा के मौर्यों ने मगध पर अधिकार कर लिया। सारनाथ लेख के अनुसार अशोक (१४७२-
१४३६ ई.पू.) के ८वें वर्ष १४६४ ई.पू. में कलिंग पर आक्रमण किया था। इसमें कितने मरे थे
इसका कहीं उल्लेख नहीं है पर बौद्ध ग्रन्थ दिव्यावदान के अशोकावदान में है कि युद्ध के बाद बौद्धों
ने जैन लोगों की शिकायत की कि इन्होंने बुद्ध का अपमान करने के लिये उनको महावीर का

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चरण स्पर्श करते हुए दिखाया है (खण्डगिरि गुफा में)। इस पर अशोक ने १२,००० जैन साधुओं
की हत्या कर दी। कलिंग पर आक्रमण का मुख्य कारण था कि मौर्य मूलतः पश्चिम ओड़िशा के
थे तथा अपने मूल स्थान पर भी अधिकार करना चाहते थे। तात्कालिक कारण था कि कलिंग
राजकु मारी कारुबकी का विवाह अशोक से करने से मना कर दिया। स्वयं इस क्षेत्र का होने के
कारण अपमान अनुभव हुआ। कारुबकी ने अपने नाम की पोखरी भागलपुर में बनवाई थी।
१८६९ में ओड़िशा का पूरा अन्न बाहर बेच देने कारण अकाल में १/३ आबादी मर गई। इसको
छिपाने के लिये विन्सेण्ट स्मिथ ने १८९३ में भारतीय राजाओं द्वारा भी नर संहार की कहानी
रची तथा के वल बौद्धों को अहिंसक बताया। बौद्ध ग्रन्थों के अनुसार उसने १२००० जैन साधुओं
की हत्या की अतः बौद्ध समर्थक था। किन्तु इसे हिंसा का त्याग नहीं कह सकते।
मौर्यों (१५३४-१२१८ ई.पू.) के बाद मगध पर शुंग (१२१८-९१८ ई.पू.) का शासन हुआ।
शुंग मिदनापुर (सुह्म) निकट के थे। उसके बाद कण्व वंश का शासन (९१८-८३३ ई.पू.) से
हुआ। कण्व शाखा के वल ओड़िशा में ही थी। अतः ये निश्चित रूप से ओड़िशा के ब्राह्मण थे।
८३३-३२७ ई.पू. तक आन्ध्रवंश के ३३ राजाओं ने शासन किया। इनकी सेना का वर्णन
सिकन्दर के समकालीन सभी लेखकों ने किया है। स्पष्टतः सभी अंग्रेज लेखकों को पता था कि
आन्ध्रवंश के अन्त में गुप्त काल के आरम्भ में सिकन्दर का आक्रमण हुआ। पर इतिहास को नष्ट
करने के लिये बीच का इतिहास समाप्त कर उस काल में मौर्य वंश को कर दिया। आन्ध्र वंश के
आरम्भ के समय ओड़िशा में शक्तिशाली खारावेल का शासन था जिसकी सहायता की चर्चा
आन्ध्र राजा पूर्णोत्संग ने की है। गुप्तकाल (३२७-८२ ई.पू.) में ओड़िशा उनके अधीन था। उस
काल में पश्चिम ओड़िशा के वकाटक राजा का विवाह समुद्रगुप्त (३२०-२६९ ई.पू.) की पुत्री
प्रभावती देवी से हुआ था। के वल प्रभावती देवी के शिलालेख से ही आरम्भिक गुप्त राजाओं का
पता चलता है। उज्जैन के विक्रमादित्य (८२ ई.पू.-१९ ई.) का पूरे भारत पर अधिकार था तथा
उनका विक्रम सम्वत् ५७ ई.पू. से आज भी चल रहा है। उन्होंने भारत में ४ स्थानों पर योगिनी
मन्दिर बनवाये थे जिनमें एक भुवनेश्वर के निकट है। बिना किसी आधार के इसका काल अष्टम
सदी कर दिया गया है। इस काल में भारत सबसे शक्तिशाली था तथा ईसा मसीह और उनके
शिष्यों ने यहां शरण ली थी (चेन्नई के टामस माउण्ट के अनुसार ८२ ई.) अतः इस अवधि में
विदेशी आक्रमण की कहानी निराधार है जिसका मुकाबला के लिये मगध की सहायता खारावेल
ने की थी। उसके बाद ओड़िशा का इतिहास अस्पष्ट है। खारावेल तथा गुप्त के बीच में ओड़िशा पर
व्याघ्रपद गोत्र के राजा सुधन्वा का शासन था जिस काल में ४८३ ई.पू. में पुरी का गोवर्धन पीठ
स्थापित हुआ।

अध्याय १०- मध्य और आधुनिक युग

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मध्य युग के राजा-पौराणिक कालक्रम-मुख्य संवत्-(१) युधिष्ठिर अभिषेक (युधिष्ठिर शक) १७-
१२-३१३९ ई.पू., कलियुग आरम्भ १७-२-३१०२ ई.पू., परीक्षित अभिषेक (जयाभ्युदय
शक)-२५-८-३१०२ ई.पू., युधिष्ठिर देहान्त से लौकिक शक कश्मीर में-३०७७ ई.पू.।
(२) जैन युधिष्ठिर शक (काशीराज का पार्श्वनाथ रूप में सन्यास)-२६३४ ई.पू.।
(३) शिशुनाग शक (बर्मा का कौजाद)-१९५४ ई.पू.।
(४) नन्द अभिषेक-१६३४ ई.पू.
(५) शूद्रक शक-७५६ ई.पू.
(६) चाहमान (चाप) शक-वराहमिहिर काल-६१२ ई.पू.।
(७) श्रीहर्ष शक-४५६ ई.पू.
(८) विक्रमादित्य सम्वत्-५७ ई.पू.
(९) शालिवाहन शक-७८ ई.
(१०) कलचुरि या चेदि शक-२४६ ई.-खारावेल वंशजों का अन्त?
(११) वलभी भंग-गुप्त काल के बाद उनकी शाखा का गुजरात में अन्त-३१९ ई.
(१२) ओड़िशा में भास्वती शक (शतानन्द)-१०९९ ई.
(१३) कपिलेन्द्र शक-१४३५ ई. (कपिल-भास्वती)
मगध में बार्हद्रथ वंश के २२ राजा-३१३८-२१३२ ई.पू.
प्रद्योत वंश के ५ राजा (२१३२-१९९४ ई.पू.)
शिशुनाग वंश के १० राजा-१९९४-१६३४ ई.पू. -महावीर (११-३-१९०५ ई.पू, चैत्र शुक्ल
१३ में जन्म), सिद्धार्थ बुद्ध (३१-३-१८८७ से २७-३-१८०७ ई.पू.). उदायि (१७५२-
१७१९ ई.पू.) के चतुर्थ वर्ष में पाटलिपुत्र।
नन्द वंश-१६३४ से १५३४ ई.पू.
मौर्य वंश के १२ राजा-१५३४-१२१८ ई.पू.-चन्द्रगुप्त (१५३४-१५०० ई.पू.), विन्दुसार
(१५००-१४७२), अशोक (१४७२-१४३६ ई.पू.)। इसका समकालीन कश्मीर राजा अशोक
(१४४८-१४०० ई.पू.) बौद्ध हो गया था जिसके कारण वहां के बौद्धों ने मध्य एशिया के बौद्धों
को बुला कर कश्मीर को नष्ट करदिया (राजतरंगिणी)।
शुंग वंश के १० राजा-१२१८-९१८ ई.पू.।
कण्व वंश के ४ राजा-९१८-८३३ ई.पू.।
आन्ध्रवंश के ३३ राजा-८३३-३२७ ई.पू.।
गुप्त काल-३२७-८२ ई.पू.-आरम्भ में सिकन्दर का आक्रमण। समुद्रगुप्त (३२०-२६९ ई.पू.)
काल में सेल्यूकस आक्रमण।
विक्रमादित्य काल (८२ ई.पू.से १९ ई.) में उसके अधीन ओड़िशा। उसके पौत्र शालिवाहन
(आढ्य) ने ७८ ई. में ओड़िशा पर पुनः शासन किया। उस काल में ओड़िया साहित्य का आरम्भ
(सरस्वती कण्ठाभरण, २/१५)।

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ओड़िशा के कु छ प्राचीन राजा-महाभारत में कलिंग राजा श्रुतायुध भीम द्वारा मारा गया था (भीष्म
पर्व अध्याय ५४)। उसके २ पुत्र भी युद्ध में थे-के तुमान्, शक्रदेव।
एक और कलिंग राजा चित्राङ्गद का नाम शान्ति पर्व (४/२-३) में है।
भद्रसेन-इसे मार कर इसका भाई वीरसेन राजा बना था। (अर्थशास्त्र, अध्याय २०-देवीगृहे हि
लीनो हि भ्राता भद्रसेनं जघान। टीका-कलिङ्गेश्वरस्य भद्रसेनस्य सोदर्यः वीरसेनः) हर्ष चरित,
भविष्य पुराण (८/५८)
अनङ्ग-बालकों पर अत्याचार करने के कारण इसे प्रजा ने मार दिया (सोमदेव, यशस्तिलक,
आश्वास ३)
दधिवाहन और उसके पुत्र करकण्डु भगवान् महावीर के समकालीन थे (विविधतीर्थ कल्प,
चम्पापुरी कल्प)
आधुनिक काल क्रम भी विवादित है। इसमें मौर्य काल ३२७ ई.पू. से आरम्भ होता है, उसके
तुरत बाद खारावेल का समय कहते हैं। शालिवाहन (आढ्य राज) के बाद कलिंग में माठर वंश ने
प्रायः ६०० ई. तक राज्य किया। इसी अवधि में पश्चिम ओड़िशा में शरभपुरिया वंश का शासन
था। इसके बाद शैलोद्भव वंश काल में कलिंग की नौसेना का प्रभुत्व था और उनकी एक शाखा ने
कम्बोडिया पर भी शासन किया था। प्रायः ११०० ई. में राजेन्द्र चोल जगन्नाथ पुरी अपनी
नौसेना सहित आये थे। उसके बाद वे नेपाल में पशुपतिनाथ गये तथा वहां से रुद्राक्ष के बीज
लाकर निकोबार द्वीप में उनके वृक्ष लगाये। उनके ५०० वृक्ष वहां आज भी हैं। पर यह तीर्थयात्रा
रूप में ही था। कलिंग पर अधिकार नहीं किया था। इसके बाद सिंहल के राजा निशंक मल्ल ने
११८७ ई. में अपने को कलिंग का लिखा है।
१२४३ ई. में तबकत-इ-नासिरी के अनुसार तुगरल खान ने बंगाल की तरफ से आक्रमण किया
था पर जाजपुर में बुरी तरह पराजित हो कर भाग गया।
१३६५ में तारीख-ए-फिरोजशाही के अनुसार फिरोजशाह तुगलक ने जाजनगर पर आक्रमण
किया तथा वहां से समुद्र तक १७ वर्ष से बड़े सभी ५ लाख लोगों की हत्या की तथा डेढ़ लाख
लोगों को गुलाम बना कर गजनी में बेच दिया।
गंग वंश का प्रथम राजा इन्द्रवर्मन्-१ था जिसकी राजधानी दन्तपुर थी। उनके राज्य के ३९वें वर्ष
में ५३७ ई. का दानपत्र उपलब्ध है (४९९ ई. में राज्य आरम्भ)। राजा देवेन्द्रवर्मन् (६५२-
६८२ ई.) में उनकी राजधानी कलिंगनगर हो गयी। राजा अनन्तवर्मन चोळगंग ने ११३५ ई. में
कटक में राजधानी बनाई तथा इसको कटक का जन्म दिन कहा जाता है। पर यह
महाभारतकालीन जनमेजय काल में भी था। इस काल में वर्तमान पुरी मन्दिर का निर्माण आरम्भ
हुआ जो अनङ्ग भीमदेव के काल में पूरा हुआ। उसके बाद नरसिंहदेव ने कोणार्क मन्दिर बनवाया।
किन्तु यह समय प्रायः २०० वर्ष पूर्व होना चाहिये, क्योंकि ११०० ई. में रामानुजाचार्य ने यहां
प्राण प्रतिष्ठा की थी। सम्भवतः इसी काल (१०९९ ई.) से भास्वती की गणना है।
मध्ययुग का कालक्रम (ओड़िशा शासन के २०१४ प्रकाशन से)-

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१११५ ई-जगन्नाथ मन्दिर का निर्माण आरम्भ। यह थोड़ा पहले हुआ होगा क्योंकि इसमें प्राण
प्रतिष्ठा रामानुजाचार्य (१०१७-११३७ ई.) द्वारा हुई थी।
११४७-११५६-कामार्णव-६ का शासन
११५६-११७०--राघव देव
११७०-११९८-अनङ्गभीमदेव-३ का शासन
१२३४-१२४५-लांगुला नरसिंहदेव। कोणार्क का सूर्य मन्दिर।
१२६४-१२७८-भानुदेव-२ काराज्य।
१२७८-अनङ्ग भीमदेव-३ की पुत्री चन्द्रिका देवी द्वारा भुवनेश्वर में अनन्त वासुदेव मन्दिर का
निर्माण।
१२७८-१३०५-नरसिंहदेव-२
१३०६-१३२८-भानुदेव-२
१३२८-१३५२-नरसिंहदेव-३
१३५२-१३७८-भानुदेव-३
१३७८-१४१४-नरसिंहदेव-४
१४१४-१४३४-भानुदेव-४
१४३५-१४६७-कपिलेन्द्रदेव द्वारा सूर्यवंशी शासन आरम्भ। कपिलेन्द्र शक १४३५ से।
१४६४-गंगा तट से तमिलनाडु के तिरुचिरापल्ली तक राज्य का विस्तार। गजपति गौड़ेश्वर
नवकोटि कर्णाट कालवर्गेश्वर की उपाधि।
सारला दास द्वारा ओड़िया महाभारत की रचना।
१४६७-१४९७-पुरुषोत्तम देव का शासन।
१४९७-१५४०-प्रतापरुद्रदेव शासन।
१५४२-१५४९-गोविन्द विद्याधर का शासन। भोई वंश राज्य।
१५६०-१५६८-मुकु न्द देव द्वारा चालुक्य वंश का शासन। काला पहाड़ द्वारा ६०६ मन्दिरों का
ध्वंस।
१५६८-सुलेमान कर्रानी द्वारा ओड़िशा विजय। ओड़िशा पराधीनता का आरम्भ।
१५९०-ओड़िशा पर मुगल आक्रमण।
१५९२-स्वर्णरेखा तट पर मुगल और अफगानों के साथ युद्ध। सारंगगढ़ दुर्ग पर मुगलों का
अधिकार।
१५९३-मानसिंह के सामने खुर्दा राजा का आत्मसमर्पण।
१६११-१६१७-राजा टोडरमल द्वारा ओड़िशा का गड़जात और मुगलबन्दी में विभाजन।
१६१७-सूबेदार मुकर्रम खान का खुर्दा पर आक्रमण।
१६२५-बालेश्वर जिला के पिपली में डच कोठी।
१६३३-ब्रिटिश ईस्ट इण्डिया कम्पनी की समुद्र तट के हरिपुर में पहली फै क्टरी।
१६६०-१६६७-खान-ए-दौरा ओड़िशा का सूबेदार।

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१६७१- औरंगजेब शासन में ईस्ट इण्डिया कम्पनी को बिना टैक्स व्यापार की सुविधा।
१७५१-मराठा शासन आरम्भ
१७६६-ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने गंजाम जीता।
१८०३-कटक के बारबाटी दुर्ग पर अंग्रेजों का कब्जा।
१८१७-पाईक विद्रोह।
१८३५-घुमसर विद्रोह।
१८६२-सम्बलपुर के विद्रोही वीर सुरेन्द्र साई का मेजर इम्पे के सामने समर्पण।
१८६६-कटक कमिशनर रेवेनशा द्वारा पूरा धान खरीद कर बाहर बेच देने के कारण दुर्भिक्ष।
ओड़िशा की १/३ आबादी ३५ लाख मृत। ९ अंक दुर्भिक्ष (ओड़िशा राजवंश के राजा दिव्यसिंह
देव के राजत्व का नवम वर्ष)
१८८२-गौरीशंकर राय द्वारा उत्कल सभा का गठन।
१८९५-ओडिया भाषी क्षेत्रों को ओड़िशा में शामिल करने के लिये कटक में मधुसूदन दास की
अध्यक्षता में सभा।
१८९८-बंगाल असेम्बली में मधुसूदन दास निर्वाचित।
१९०३-उत्कल संघ सम्मिलनी का आरम्भ।
१९०७-ओड़िया राज्य के लिये रायल कमीशन को आवेदन।
१९०९-१२ अगस्त को सत्यवादी वन विद्यालय स्थापित।
१९११-बंगाल से बिहार- ओड़िशा राज्य अलग।
१९१२-बालेश्वर में स्वतन्त्र ओड़िया राज्य के लिये जातीय सम्मेलन।
१९१३-ओड़िशा रैयत बिल पास।
१९१४-गोपबन्धु दास द्वारा साखीगोपाल के सत्यवादी में सत्यवादी मासिक पत्रिका आरम्भ।
आशा प्रेस ब्रह्मपुर में छपाई।
१९१५- बाघा जतीन शहीद हुए।
१९१६-बामड़ा सुरतरंगिणी सारस्वत समिति द्वारा फकीर मोहन सेनापति को सरस्वती उपाधि
प्रदान।
१९१७-मधुबाबू द्वारा ओड़िया अखबार का प्रकाशन।
१९१८-साखीगोपाल में सत्यवादी प्रेस आरम्भ।
१९१९-समाज साप्ताहिक का ४ अक्टू बर से प्रकाशन।
१९२०-बारिपदा-बांगरीपोसी के बीच ३७.२० कि.मी. रेलवे लाईन आरम्भ।
१९२१-महात्मा गान्धी २४ मार्च को ओड़िशा आये।
१९२२-कनिका विद्रोह कराने के लिये हरेकृ ष्ण महताब को १८ जुलाई को १ वर्ष का जेल
दण्ड।
१९२३-बिहार ओड़िशा सरकार के मन्त्री पद से मधु बाबू का ९ मार्च को इस्तीफा।
१९२४-ब्रह्मपुर में ओडिया महिला संघ की स्थापना तथा कटक में प्रथम बैठक।

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१९२५-गान्धी का ९ अगस्त को ओड़िशा आगमन।
१९२६-गोपबन्धु दास द्वारा पुरी में विधवाश्रम तथा उनकी शिक्षा। आचार्य हरिहर दास उसके
अध्यक्ष।
१९२७-गान्धी ओड़िशा आये। बालेश्वर में भीषण बाढ़। गजपति रामचन्द्रदेव-४ द्वारा कालीचरण
पटनायक को कविचन्द्र उपाधि।
१९२८-सम्बलपुर में गान्धी का आगमन। उत्कलमणि गोपबन्धु दास का देहान्त।
१९२९-कटक में उत्कल प्रदेश कांग्रेस समिति की बैठक।
१९३०-बालेश्वर के इंचुड़ी में नमक सत्याग्रह।२० जून को बालेश्वर में उत्कल प्रदेश कांग्रेस
समिति की बैठक।
१९३१-स्वतन्त्र ओड़िशा राज्य की स्थापना के लिये लन्दन के गोलमेज सम्मेलन में १६
जनवरी को कृ ष्ण चन्द्र नारायण गजपति द्वारा मांग।
१९३२-द्वितीय गोलमेज सम्मेलन में ७ सितम्बर को स्वतन्त्र ओड़िशा राज्य बनाने का निर्णय।
१९३३-ब्रह्मपुर के आशा प्रेस से लिंगराज पाणिग्रही की सहायता से शशिभूषण रथ द्वारा प्रथम
अंग्रेजी दैनिक न्यू ओड़िशा का प्रकाशन।
१९३४-गान्धी का ५ मई को ओड़िशा आगमन।
१९३५-रेवेनशा कालेज में रसायन शास्त्र के प्राध्यापक सरदार करतार सिंह द्वारा कटक के
कालियाबोदा में गुरुद्वारा निर्माण। पुरी जाते समय गुरु नानक यहां ठहरे थे।
१९३६-ओडिशा १ अप्रैल को स्वतन्त्र राज्य बना।
१९३७-प्रथम ओडिशा मन्त्रिमण्डल का गठन।
१९३८-पुरी जिला के डेलांग में गान्धी सेवासंघ की वार्षिक सभा में गान्धी २५ मार्च को आये।
पुलिस गोली से बाजी राउत का निधन।
१९३९-सुबास चन्द्र बोस ५ अगस्त को कटक आये। जयप्रकाश नारायण भी कटक आये।
कांग्रेस मन्त्रिमण्डल ने ४ नवम्बर को इस्तीफा दिया। मेजर जेनरल बेजेलगेट की पुरी के रणपुर
में हत्या (अभी नयागढ़ जिला में)। धार्मिक न्यास का गठन। पुरी में रवीन्द्रनाथ टैगोर का
आगमन।
१९४०-कालीचरण पटनायक द्वारा कटक में ओड़िशा थियेटर की स्थापना। प्रो. आर्तवल्लभ
मोहान्ती द्वारा मादला पांजी का सम्पादन।
१९४१-बेजेलगेट हत्या के लिए रघु दिवाकर को फांसी।
१९४२-लूनिया में पुलिस गोली से ९ व्यक्ति मरे। इरम में पुलिस गोली से २९ व्यक्ति मरे।
१९४३-कलकत्ता रेडियो स्टेशन से पहली बार ओड़िया गीत का प्रसारण।
१९४४-ओड़िशा के प्रधानमन्त्री कृ ष्ण चन्द्र नारायण गजपति का ३० जून को इस्तीफा।
१९४५-ब्रिटिश हवाई सेना के ५० विमानों ने रंगून के निकट आजाद हिन्द फौज के अड्डों पर
बम गिराये जिसमें कई ओड़िया सैनिक मारे गये जो मुख्यतः गंजाम जिले के थे। जुलाई से

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बालेश्वर, सम्बलपुर, पुरी में नये कालेजों की स्थापना। बालांगिर नरेश राजेन्द्र नारायण सिंहदेव
द्वारा बालांगिर में कालेज की स्थापना।
१९४६- गान्धी २९ जनवरी को ओड़िशा आये। ओड़िशा के राज्यपाल हाथार्न लेविस द्वारा
हीराकु द बान्ध निर्माण की आधारशिला। कटक में के न्द्रीय चावल अनुसन्धान के न्द्र की स्थापना।
१९४७-इण्डोनेसियाई नेताओं को लाने के लिये बीजू पटनायक द्वारा इण्डोनेसिया की साहसिक
उड़ान। ओड़िशा में राज शासित क्षेत्रों का विलय।
१९४८-भुवनेश्वर में नई राजधानी का शिलान्यास। कटक में उच्च न्यायालय तथा रेडियो स्टेशन
स्थापित।
१९४९-कटक से भुवनेश्वर में राजधानी। बालांगिर जिला निर्माण।
१९५०-ओड़िशा का १३ जिलों सहित नक्शा प्रकाशित।
१९५१-प्रधानमन्त्री जवाहरलाल नेहरू १३ दिसम्बर को झारसूगुड़ा आये।
१९५२-बीजू पटनायक ने यूनेस्को को कलिंग पुरस्कार के लिये १००० पाउण्ड दिया। ओड़िशा
में सरकारी काम के लिये ओड़िया तथा अंग्रेजी का प्रयोग।
१९५३-राउरके ला स्टील प्लाण्ट की स्थापना।
१९५४-भुवनेश्वर में कृ षि कालेज स्थापित। सरकारी काम में ओड़िया प्रयोग का कानून पास।
१९५५-भूमिहीनों में भूदान की जमीन दी गई।
१९५६-बुर्ला में इंजीनियरिंग कालेज की स्थापना। प्रजामण्डल के नेता सारंगधर दास का
निधन। राउरके ला स्टील प्लाण्ट का निर्माण आरम्भ।
१९५७-जवाहरलाल नेहरू द्वारा हीराकु द बान्ध का उद्घाटन। ओडिया साहित्य अकादमी
स्थापित। सिमलीपाल वन में राष्ट्रीय पार्क । भुवनेश्वर म्यूजिअम का राष्ट्रपति राजेन्द्र प्रसाद द्वारा
शिलान्यास।
१९५८-मिहिर सेन ने इंगलिश चैनल तैर कर पार किया। दण्डकारण्य प्रोजेक्ट आरम्भ।
१९५९-ललित कला अकादमी स्थापित। बुर्ला में वीर सुरेन्द्र साई मेडिकल कालेज स्थापित।
१९६०-भुवनेश्वर में राजकीय अभिलेखागार। नन्दनकानन चिड़ियाखाना। भुवनेश्वर में अन्ध
विद्यालय। श्री विनोद कानूनगो के सम्पादन में ज्ञानमण्डल से ओड़िया विश्वकोष का प्रथम खण्ड
प्रकाशित।
१९६१-ओड़िशा विधान सौध का उद्घाटन। राउरके ला इंजीनियरिंग कालेज आरम्भ।
१९६२-जवाहरलाल नेहरू द्वारा पारादीप बन्दरगाह की आधारशिला। भुवनेश्वर में सैनिक
स्कू ल। दैतारी से पारादीप तक एक्सप्रेस हाईवे निर्माण आरम्भ। ओड़िशा कृ षि विश्वविद्यालय
स्थापित।
१९६३-रूसी अन्तरिक्ष यात्री वालेण्टिना टेरेश्कोवा का ओड़िशा आगमन। उत्कल विश्वविद्यालय
आरम्भ।
१९६४-जवाहरलाल नेहरू द्वारा तालचेर ताप विद्युत् के न्द्र की आधारशिला।
१९६५-ग्रामीण चौकीदारी व्यवस्था बन्द।

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१९६६-प्रधानमन्त्री लाल बहादुर शास्त्री के निधन पर श्री विश्वनाथ दास भारत लोकसेवक
मण्डल के अध्यक्ष बने।
१९६७-ब्रह्मपुर तथा सम्बलपुर में विश्वविद्यालय की स्थापना। पण्डित नीलकण्ठ दास का
निधन।
१९६८-राष्ट्रपति द्वारा ५ जनवरी को सम्बलपुर विश्वविद्यालय का उद्घाटन। स्वाधीनता सेनानी
तथा साहित्यकार राधानाथ रथ को पद्मविभूषण उपाधि।
१९६९-वराहगिरि वेङ्कट गिरि २४ अगस्त को भारत के राष्ट्रपति बने।
१९७०-बीजू पटनायक द्वारा उत्कल कांग्रेस की स्थापना।
१९७१ श्री जगन्नाथ संस्कृ त विश्वविद्यालय की स्थापना। आचार्य हरिहर दास का निधन।
बंगलादेश युद्ध में वीरता के लिये लांसनायक अलबर्ट एक्का को परमवीर चक्र।
१९७२-ओड़िशा तट पर भीषण समुद्री तूफान।
१९७३-कटक-पारादीप रेललाईन पर यातायात आरम्भ। चिलिका में नौसैनिक ट्रेनिंग के न्द्र की
आधारशिला।
१९७४-महाराजा कृ ष्णचन्द्र गजपति नारायण देव का निधन।
१९७५-डॉ जे वी बोल्टन को ओड़िशा विधानसभा में व्यासकवि फकीरमोहन सेनापति पर शोध
के लिये सम्मानित किया गया। भीतरकनिका में खारे पानी के मगर अनुसन्धान के न्द्र का
आरम्भ।
१९७६-बन्धुआ मजदूर उन्मूलन कानून १९७६ पास।
१९७७-कौशल्यागंगा में मत्स्य अनुसन्धान के न्द्र स्थापित।
१९७८-के न्दुझर जिले के बन्धगोड़ा में भयंकर तूफान। ऊपरी इन्द्रावती प्रोजेक्ट का आरम्भ।
१९७९-इम्फा ट्रस्ट द्वारा सारला पुरस्कार आरम्भ।
१९८०-इंगलैंड के प्रिंस चार्ल्स का ओड़िशा आगमन। इण्डोनेसिया सरकार द्वारा बीजू पटनायक
को भूमिपुत्र सम्मान।
१९८१-अंगुल में नालको (अलमुनियम कारखाना) की स्थापना।
१९८२-भुवनेश्वर में २३ अक्टू बर को भारतीय रोड कांग्रेस की वार्षिक बैठक।
१९८३-डॉ हरेकृ ष्ण महताब को उनकी पुस्तक गांव-मजलिस के लिये के न्द्रीय साहित्य
अकादमी पुरस्कार।
१९८४-बालांगिर के सैंतला में प्रधानमन्त्री इन्दिरा गान्धी द्वारा आयुध कारखाना और तालचेर-
सम्बलपुर रेल लाईन का शिलान्यास। ओड़िशा विज्ञान अकादमी तथा ओरेडा की स्थापना।
ओड़िशा के २ पूर्व मुख्यमन्त्रियों श्री विश्वनाथ दास तथा श्री नवकृ ष्ण चौधरी का देहान्त।
१९८५-सर्वोदय तथा भूदान आन्दोलन की नेत्री रमा देवी का देहान्त। कटक में प्रथम राज्य
स्तरीय लोक अदालत।
१९८६-ज्ञानमण्डल के सम्पादक विनोद कानूनगो को पद्मश्री पुरस्कार। पठानी सामन्त
तारामण्डल का शिलान्यास।

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१९८७-पूर्व मुख्यमन्त्री डॉ हरेकृ ष्ण महताब का निधन। कटक में जवाहरलाल नेहरू इनडोर
स्टेडियम का उद्घाटन। भुवनेश्वर में हरेकृ ष्ण महताब राज्य पुस्तकालय का उद्घाटन। सच्चिदानन्द
राउतराय को भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार।
१९८८-धर्मगुरु दलाई लामा की ओड़िशा यात्रा। कटक दूरदर्शन के न्द्र का आरम्भ।
१९८९-भुवनेश्वर स्टाक एक्सचेंज आरम्भ। इब ताप विद्युत् के न्द्र का शिलान्यास। कटक नगर
की सहस्राब्दी। श्री रवि राय लोकसभा के अध्यक्ष बने। चान्दीपुर से अग्नि मिसाइल का परीक्षण।
१९९०-न्यायमूर्ति रंगनाथ मिश्र भारत के मुख्य न्यायाधीश बने।
१९९१-साहित्यकार कालिन्दी चरण पाणिग्रही का निधन। महिला विकास समवाय निगम का
गठन।
१९९२-स्वाधीनता संग्रामी राजकृ ष्ण बोस का निधन।
१९९३-गायक बालकृ ष्ण दास का निधन। ओड़िशा के १३ जिलों को विभाजित कर ३० जिले
बने।
१९९४-सिमलीपाल संरक्षित वन को भारत सरकार द्वारा जैव मण्डल घोषित किया गया।
न्यायमूर्ति जी टी नानावती ओड़िशा के मुख्य न्यायाधीश बने।
१९९५-इण्डोनेसिया सरकार द्वारा श्री बीजू पटनायक को सर्वोच्च नागरिक सम्मान बिनतांग
जसुत्तम (वैनतेय यशोत्तम) दिया गया।
१९९६-पुरी में श्री जगन्नाथ का नव-कलेवर पालन।
१९९७-पूर्व मुख्यमन्त्री श्री बीजू पटनायक, पुरातत्त्वविद् सत्यनारायण राजगुरु तथा ओड़िशी
नृत्याङ्गना संयुक्ता पाणिग्रही का निधन।
१९९८-समाज पत्र के सम्पादक राधानाथ रथ, समाज सेविका मालती चौधरी का निधन।
तालचेर-सम्बलपुर रेल लाईन पर यातायात शुरु। खुर्दा में तृतीय सार्क सम्मेलन।
१९९९-अग्नि-२ मिसाईल का चान्दीपुर से सफल परीक्षण। २८-२९ अक्टू बर को ओड़िशा तट
पर भीषण चक्रवात। १२,००० से अधिक की मृत्यु। कु जंग गान्धी नारायण वीरवर सामन्त का
निधन। श्री एम. एम. राजेन्द्रन ओड़िशा के राज्यपाल बने।
२०००-५ मार्च को श्री नवीन पटनायक ओदिशा के मुख्यमन्त्री बने। ओड़िशा संस्कृ ति
विश्वविद्यालय की स्थापना। स्वाधीनता संग्रामी चिन्तामणि पाणिग्रही का निधन। ओड़िशा सरकार
द्वारा व्यवसाय कर लागू। राउरके ला में द्वितीय विश्व ओड़िया सम्मिलनी। ओड़िशा में सूखा।
२००१-ओड़िशा में बाढ़।
२००२-ओड़िशा में सूखा।
२००३-ओड़िशा में बाढ़। न्यायमूर्ति सुजीत बर्मन राय ओड़िशा के मुख्य न्यायाधीश।
२००४-पद्मश्री पुरस्कार-हाकी खिलाड़ी दिलीप टिर्की, नृत्यगुरु मागुनी चरण दास, नाटककार
मनोरंजन दास को। डॉ प्रफु ल्ल मोहान्ती को के न्द्रीय साहित्य अकादमी पुरस्कार। रूपा मिश्र को
आईए एस परीक्षा में सर्वोच्च स्थान। श्री नवीन पटनायक ने ५ मार्च को दूसरी बार मुख्यमन्त्री पद
की शपथ ली। निधन-ओड़िसी नृत्यगुरु के लुचरण महापात्र, पद्मश्री सच्चिदानद राउतराय, कवि

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गुरु प्रसाद मोहान्ती, कवि पूर्णानन्द दानी, उपन्यासकार किशोरीचरण दास, पूर्व मुख्यमन्त्री
नीलमणि राउअतराय। श्री रामेश्वर ठाकु र ओड़िशा के राज्यपाल बने।
२००५-निधन-लेखक चिन्तामणि बेहेरा, जस्टिस नबकिशोर दास। विधानसभा में बीजू जनता
दल के मुख्य सचेतक संकर्षण नायक का दुर्घटना में निधन। वाट, आर्थिक दायित्व बिल, तथा
सूचना अधिकार कानून और सूचना कमीशन। शिक्षा उपग्रह योजना।
२००६-बालेश्वर में कीर्तनिया बन्दरगाह के लिये समझौता। खेल अकादमी स्थापित। पुरी में
वेदान्त संस्था द्वारा विश्वविद्यालय स्थापना के लिये समझौता। गोपबन्धु ग्रामीण योजना, तथा
के बीके योजना आरम्भ। पूर्व मुख्यमन्त्री नन्दिनी शतपथी का देहान्त। पंचायत चुनाव ३ स्तरों पर
सम्पन्न।
२००७-अशोक गांगुली मुख्य न्यायाधीश तथा मुरलीधर चन्द्रकान्त भण्डारे राज्यपाल बने।
पुराने विधानसभा भवन में १८५७ स्वाधीनता संग्राम की १५०वीं जयन्ती।
२००८-कटक-भुवनेश्वर में पुलिस कमिशनर व्यवस्था आरम्भ। कल्पना दास द्वारा एवरेस्ट
चोटी पर विजय। नयागढ़ शस्त्र लूट में शहीद श्री प्रमोद शतपथी को अशोक चक्र। नयी कृ षि
नीति-२००८ का आरम्भ।
२००९-तीसरी बार श्री नवीन पटनायक ओड़िशा के मुख्यमन्त्री बने। इतिहासकार मन्मथनाथ
दास का निधन। शतरंज खिलाड़ी पद्मिनी राउत को एकलव्य सम्मान। जानकी वल्लभ पटनायक
को अतिबड़ी जगन्नाथ पुरस्कार। हाकी खिलाड़ी इग्नेस टिर्की को अर्जुन पुरस्कार।
२०१०-कलिंग स्टेडियम भुवनेश्वर में १५वां राष्ट्रीय युवा समारोह। पद्मश्री सम्मान-संगीतज्ञ
रघुनाथ पाणिग्रही, हाकी खिलाड़ी इग्नेस टिर्की, गुरु मायाधर राउत। पद्मविभूषण-हृदय शल्य
चिकित्सक रमाकान्त पण्डा।
राष्ट्रमण्डल खेल के भारोत्तोलन में के रविकु मार को स्वर्ण पदक। एसियन खेल के नौका चालन में
प्रतिमा पुहान तथा प्रमिला प्रभा मिंज को कांस्य पदक। भजन सम्राट भीखारी बल का निधन।
वैज्ञानिकों कु लमणि पण्डा तथा रजनीकान्त चौधरी को बीजू पटनायक पुरस्कार।
२०११-ओड़िशा के अंग्रेजी नामों में परिवर्तन कर ओड़िशा तथा ओड़िया किया गया-१ नवम्बर
को भारत सरकार की गजट सूचना। शारीरिक अक्षम लोगों की सहायता में गंजाम को भारत में
सर्वश्रेष्ठ जिला घोषित किया गया। फिल्मकार अपूर्व किशोर बीर को जयदेव सम्मान। के
रविकु मार को अर्जुन पुरस्कार। ३ ओडिया एवरेस्ट पर चढ़े-गणेश चन्द्र जेना, योगव्यास भोई,
देवीदत्त पण्डा। सीताकान्त महापात्र को पद्मभूषण। बालुका शिल्पी सुदर्शन पटनायक की
अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति। ओड़िशा ग्राम पंचायत नियम १९६४ में संशोधन कर महिलाओं के लिये
५०% आरक्षण। साहित्यकार नारायण पुरसेठ का निधन। खनिज दुर्नीति में साहा कमीशन की
जांच शुरू।
२०१२-निधन-जस्टिस रंगनाथ मिश्र, स्वाधीनता संग्रामी एवं पूर्व मन्त्री नित्यानन्द महापात्र,
ओड़िशी गुरु हरेकृ ष्ण बेहरा, आलोचक जतीन्द्र मोहान्ती, चित्रकार अजित के सरी राय।

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टैगोर अकादमी रत्न पुरस्कार-गुरु मायाधर राउत, गोपाल चन्द्र पण्डा, नीलमाधव पाणिग्रही। डॉ
रमाकान्त पण्डा को मेडस्के प पुरस्कार।
२०१३-जस्टिस आदर्श कु मार गोयल मुख्य न्यायाधीश तथा श्री एस सी जमीर राज्यपाल बने।
कटक के जोबरा में नौपरिवहन संग्रहालय। प्रतिभा राय को ज्ञानपीठ पुरस्कार। सामुदायिक
पुलिस योजना आरम्भ। पृथक् कृ षि बजट। तम्बाकू निर्माण, बिक्री तथा प्रयोग पर प्रतिबन्ध। कृ षि
नीति तथा युवा नीति की घोषणा। मनोरमा महापात्र को सारला सम्मान। लोक सेवा कानून पास।
२०१४-विधानसभा के पूर्व अध्यक्ष युधिष्ठिर दास का निधन। ओड़िशा को प्राचीन भाषा का
दर्जा। चतुर्थ बार श्री नवीन पटनायक मुख्यमन्त्री बने। महिला नीति की घोषणा। सरकारी नौकरों
के अवकाश ग्रहण की आयु ५८ से ६० वर्ष हुई।

अध्याय ११-संस्कृ त साहित्य


१. माधव निदान-आयुर्वेद के इतिहास में अति प्राचीन ३ संहिताओं चरक, सुश्रुत, वाग्भट को
बृहत्त्रयी कहते हैं। इनके बाद ३ मुख्य ग्रन्थ लघुत्रयी हैं-माधवनिदान, भावप्रकाश,
शार्ङ्गधरसंहिता। माधव निदान का मूल नाम रोगविनिश्चय था, पर ओड़िशा के माधव कर द्वारा
रचित होने के कारण माधव निदान कहते हैं। इसकी प्रसिद्धि के कारण खलीफा हारून अल रशीद
के समय इसका फारसी में अनुवाद हुआ। माधव को रोग निर्णय के कारण कर कहते थे क्योंकि
हाथ की नाड़ी से रोग देखते हैं। अभी ओड़िशा में कर प्रचलित उपाधि है।
२. कालिदास-३ मुख्य कालिदास हुए थे-एकोऽपि जीयते हन्त कालिदासो न के नचित्। शृङ्गारे
ललितोद्गारे कालिदास त्रयी किमु॥ (साहित्य मीमांसा-राजशेखर)। प्रथम कालिदास नाटककार थे
तथा मालविकाग्निमित्र में अपने को शुंग राजा अग्निमित्र (११५८-११०८ ई.पू.) का समकालीन

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कहा है। द्वितीय कालिदास उज्जैन के विक्रमादित्य (८२ ई.पू.-१९ ई.) के नवरत्नों में से थे। ३
महाकाव्यों के बाद ज्योतिष ग्रन्थ ज्योतिर्विदाभरण में विक्रमादित्य तथा नवरत्नों का परिचय दिया
है। इनके मेघदूत काव्य में दक्षिण ओड़िशा के स्थानों का विस्तार से वर्णन है तथा कोरापुट के
रामगिरि को दण्ड के लिये स्थान कहा है, अतः इनका जन्म ओड़िशा हो सकता है। तृतीय
कालिदास मालवा के भोजवंशी राजा के समय थे तथा उनकी बल्ख विजय यात्रा में हजरत
मुहम्मद से भेंट हुई थी। इनका स्थान महाराष्ट्र के पूर्णा में लिखा है।
३. शतानन्द-इनका ज्योतिष का विख्यात ग्रन्थ है भास्वती। यह वराहमिहिर के पञ्चसिद्धान्तिका
की संक्षिप्त विधि होने के कारण इसे पञ्चसिद्धान्तिका-भास्वती भी कहते हैं। ये पुरी निवासी शंकर
और सरस्वती के पुत्र थे तथा कलि वर्ष ४२०० (१०९९ ई.) में यह ग्रन्थ लिखा था। यह
प्रख्यात था तथा इसके ५०० वर्ष बाद रसखान के पद्मावत महाकाव्य में इसका उल्लेख है।
४. विश्वनाथ कविराज-इनका साहित्य दर्पण अपने विषय का सबसे प्रसिद्ध ग्रन्थ है। यह भानुदेव
(१४१४-१४३४ ई.) के आश्रित थे। इनकी अन्य पुस्तकें हैं-राघव विलास, कु वलय चरित
काव्य, प्रभावती परिणय नाटिका, चन्द्रकला नाटिका, प्रशस्ति रत्नावली, काव्य प्रकाश दर्पण,
नरसिंह विजय, मालती मधुकर।
५. जयदेव-यह १२वीं सदी में हुए थे। इनका गीत गोविन्द महाकाव्य बहुत प्रसिद्ध है जिसके
दशावतार स्तोत्र पर ओड़िशी नृत्य होता है। भविष्य पुराण के अनुसार इनकी एक पुस्तक निरुक्त
पर भी थी। के रल के कु छ ज्योतिष ग्रन्थों ने इनकी बीजगणित पुस्तक की विधियों को उद्धृत
किया है। गीत गोविन्द पर सैकड़ों टीकायें हैं जिनमें मेवाड़ के राणा कु म्भा की टीका भी है।
६. रामचन्द्र महापात्र-इनकी उपाधि कौल भट्टारक थी। इनकी पुस्तक शिल्प प्रकाश अंग्रेजी
अनुवाद के साथ २००५ में प्रकाशित हुई। बेट्टिना बाउमर, राजेन्द्र प्रसाद दास तथा एलिस बोनर
ने अनुवाद किया है।
७. संगीत नारायण-पारलाखेमुण्डी के राजा गजपति नारायण देव के आश्रित पुरुषोत्तम मिश्र द्वारा
१७वीं सदी में रचित। अंग्रेजी अनुवाद सहित २००९ में प्रकाशित।
८. विष्णु शर्मा-पञ्चतन्त्र। इनको कौटिल्य चाणक्य भी कहा जाता है जो जैन ग्रन्थों के अनुसार
गोल्ल जनपद (गोलान्तरा) के थे। चणक इनके नगर का नाम था (कं स के मल्ल चाणूर का निवास)
तथा इनके इलाके में कु टी में धान रखते थे अतः पारिवारिक नाम कौटिल्य हुआ। तक्षशिला में
अध्यापक होने के बाद मौर्य राज्य के संस्थापक बने तथा अर्थशास्त्र लिखा।
९. भट्ट नारायण-शैलोद्भव वंश के राजा माधवराज के काल में। वेणीसंहार काव्य।
१०. मुरारि मिश्र-अनर्घ राघव।इसका राजशेखर द्वारा उल्लेख है।
११. गोवर्धन आचार्य-आर्या सप्तशती।
१२. उदयन आचार्य-गोवर्धन आचार्य के अनुज। श्रीहर्ष के नैषध चरित तथा जयदेव के गीत
गोविन्द पर टीका।
१३. बोपदेव का मुग्धबोध व्याकरण (१३वीं सदी)।
१४. विद्याधर-एकावली, अलंकार शास्त्र की पुस्तक। नरसिंहदेव के आश्रित।

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१५. श्रीधर स्वामी-गोवर्धन मठ पुरी के शंकराचार्य। भागवत पुराण की टीका।
१६. कु मारिल भट्ट-जिनविजय महाकाव्य के अनुसार इनका समय (५५७-४९३ ई.पू.) था।
इनका जन्म महानदी के दक्षिण तट पर जयमंगला ग्राम में हुआ था। उज्जैन के जैन गुरु
कालकाचार्य (५९९-५२७ ई.पू.) से शिक्षा ग्रहण कर वेद उद्धार कार्य आरम्भ किया तो कु छ
जैनों ने इसे गुरु द्रोह कहा। इसके प्रायश्चित के लिये इन्होंने प्रयाग संगम पर आत्मदाह किया।
वहां शंकराचार्य को अपने शिष्य मण्डन मिश्र (सोनभद्र तट पर निवास) की सहायता लेने को
कहा। ये मीमांसा दर्शन के सबसे बड़े विद्वान् थे। इनकी पुस्तक तन्त्र वार्त्तिक की कई टीका
प्रकाशित हैं।
१७. कविचन्द्र राय दिवाकर मिश्र-विजयनगर के राजा कृ ष्णदेवराय (१५०९-१५३०) के
आश्रित। अभिनव गीत गोविन्द, भारतमाता महाकाव्य।
१८. कविचन्द्र जीवदेवाचार्य (१४७८-१५५०)-भक्ति भागवत महाकाव्य।
१९. कृ ष्ण मिश्र-प्रबोध चन्द्रोदय।
२०. जयदेव आचार्य-पीयूष लहरी, वैष्णवमाला।
२१. लक्ष्मीधर भट्ट-सरस्वती विजय।
२२. रामकृ ष्ण भट्ट-प्रतीप अलन्तम्।
२३. राय रामानन्द-प्रतापरुद्रदेव के अधिकारी। जगन्नाथ वल्लभ, गोविन्द वल्लभ। उनकी भतीजी
माधवी दासी द्वारा पुरुषोत्तमदेव नाटक।
२४. जगन्नाथ मिश्र-रस कल्पद्रुम।
२५. गंगाधर मिश्र-कोसलानन्द महाकाव्य (सम्बलपुर बालांगिर के चौहान राजाओं की प्रशस्ति।
२६. वैजल देव-पटना के चौहान राजा के आश्रित। प्रबोध चन्द्रिका व्याकरण।
२७. कृ ष्णदास बड़जेना महापात्र- गजपति मुकु न्द देव द्वारा अकबर दरबार में दूत। गीत प्रकाश-
संगीत शास्त्र।
२८. मार्क ण्डेय मिश्र-दशग्रीव वध महाकाव्य, प्राकृ त सर्वस्वम्।
२९. हलधर मिश्र (गजपति नरसिंहदेव काल में)-वसन्तोत्सव महाकाव्य, संगीत कल्पलता,
हलधर कारिका (व्याकरण)।
३०. हरि नायक-हरि नायक रत्नमाला, विषम प्रकाश प्रबन्ध।
३१. गजपति नारायण देव (पारलाखेमुण्डी राजा)-संगीत नारायण, अलंकार चन्द्रिका।
३२. कविरत्न पुरुषोत्तम मिश्र-गजपति नारायणदेव के गुरु। यमक भागवत महाकाव्य, नीलाद्रि
शतक, अनर्घराघवम् नाटक, रामचन्द्रोदय प्रबन्ध।
३३. वासुदेव रथ-गङ्गवंशानुचरितम् (१७७० ई.)
३४. नित्यानन्द रघुनाथ तीर्थ (१७ वीं सदी)-श्रीकृ ष्ण लीलामृत, मुकु न्द विलास।
३५. कविचन्द्र कमललोचन खड्गराय-संगीत चिन्तामणि, गीत मुकु न्द।
३६. बलदेव विद्याभूषण (बालेश्वर के रेमुना में)-१७३० में ब्रह्मसूत्र का गोविन्द भाष्य,
रूपगोस्वामी की स्तवमाला पर टीका।

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३७. रघुनाथ दास-काल निर्णय, श्राद्ध निर्णय, धर्मशास्त्र, न्याय रत्नावली, अमरकोष टीका,
वर्धमान प्रकाश (वर्धमान व्याकरण की टीका), कारक निर्णय, उत्पल तरंगिणी, साहित्य भूषण,
वनदुर्गा पूजा, कातन्त्र विस्तार आक्षेप, वैद्य कल्पलता, निगूढ़ार्थ प्रकाश आदि।
३८. योगी प्रहराज महापात्र (१८वीं सदी, कोरापुट के नन्दपुर के )-विद्या हृदयानन्द, संक्षिप्त
स्मृति दर्पण।
३९. राजा पुरुषोत्तम देव-त्रिकाण्ड शेष, हारावली, एकाक्षर कोष, द्विरूप कोष।
४०. शम्भुकर वाजपेयी (गंगराजा नरसिंह देव-२-१२७९-१३०३ ई. के काल में)-श्राद्ध पद्धति,
विवाह पद्धति, शम्भुकर पद्धति, स्मार्त रत्नावली आदि।
४१- श्री चन्द्रशेखर सिंह सामन्त (खण्डपड़ा, १८३१-१९०४)-ज्योतिष ग्रन्थ सिद्धान्त दर्पण
(१८९९ में कलकत्ता विश्वविद्यालय से प्रकाशित, १९९९ में अरुण कु मार उपाध्याय द्वारा
गणितीय व्याख्या)।
४२. विश्वनाथ महापात्र-काञ्चीविजय महाकाव्य।
आधुनिक युग के संस्कृ त कवियों में चन्द्रशेखर मिश्र, प्रबोध कु मार मिश्र, सुदर्शन आचार्य,
चन्द्रशेखर षडंङ्गी, प्रफु ल्ल कु मार मिश्र, हरेकृ ष्ण शतपथी, गोपाल कृ ष्ण दाश आदि प्रसिद्ध हैं।

अध्याय १२-पञ्चसखा कवि और पारम्परिक साहित्य


१. ओड़िया लिपि-भारत में मुख्यतः २ प्रकार की लिपि प्रचलित थी-
(१) इन्द्र और मरुत् द्वारा देवनागरी-क से ह तक ३३ व्यञ्जन वर्ण, ३३ देवों के चिह्न थे। चिह्न
रूप में देवों का नगर होने से इसे देवनागरी कहते थे। १६ स्वर वर्ण मिलाने से ४९ मरुतों के
अनुरूप ४९ वर्ण हैं। इन्द्र क्षेत्र पूर्व से मरुत् कोण (उत्तर-पश्चिम) तक देवनागरी लिपि आज भी
प्रचलित है, यद्यपि अक्षरों का रूप बदलता रहा है। अ से ह तक सभी वर्णों से विश्व का वर्णन
होता है और उसकी प्रतिमा मनुष्य शरीर है अतः अहम् का अर्थ स्वयं है। शरीर क्षेत्र है तथा इसे

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जाननेवाला क्षेत्रज्ञ है, अतः क्ष, त्र, ज्ञ-ये ३ अक्षर मिलाने पर ५२ सिद्ध पीठों के अनुसार ५२
अक्षर हैं। इसे सिद्ध क्रम कहते हैं।
(२) ब्राह्मी लिपि-यह स्वायम्भुव मनु (मनुष्य ब्रह्मा) या जैन परम्परा के अनुसार ऋषभ देव द्वारा
आरम्भ हुई जिनको भागवत में स्वायम्भुव मनु का वंशज कहा गया है। इसमें देवनागरी लिपि के
अनुसार ही अक्षरों का क्रम है, पर स्वर में ह्रस्व, दीर्घ के साथ प्लुत (३ मात्रा) भी हैं। कु छ
अतिरिक्त अक्षर हैं जो देवनागरी के वर्गों में नहीं आते हैं, जिनको अयोगवाह कहते हैं। जैसे दो
प्रकार के ल थे-ल तथा ळ। ळ का उच्चारण ड़ जैसा होता है। इसमें ह जोड़ने पर ळ्ह या ढ़ होता
है। भारत की सभी लिपियों में ड, ढ के अतिरिक्त ड़, ढ़ का भी प्रयोग हो रहा है। ओड़िया तथा
सभी दक्षिण भाषाओं में दोनों ल का व्यवहार होता है। ओड़िया में उत्तर तथा दक्षिण दोनों प्रकार
की परम्परायें हैं।
इसके अतिरिक्त विशेष कामों के लिये अन्य लिपियां हैं-ज्योतिष में नक्षत्र नाम के लिये अवकहड़ा
चक्र जिसमें २० व्यञ्जन तथा ५ स्वर हैं-अ, इ, उ, ए, ओ। इन्हीं व्यञ्जन वर्णों के साथ २५ अक्षरों
की रोमन लिपि है जिसमें अतिरिक्त अक्षर एक्स है। नक्षत्र पादों के लिये अवकहड़ा में १२ अक्षर
जोड़ते हैं-जिससे कु ल ३७ अक्षर होते हैं। वेद के सभी चिह्नों को मिला कर कु ल १७ x १७ =
२८९ अक्षर हैं जिनमें १ ॐ, ३६ x ३ =१०८ स्वर तथा ३६ x ५ = १८० व्यञ्जन वर्ण हैं।
ओड़िया उच्चारण के अनुसार उत्तर-दक्षिण तथा पूर्व पश्चिम दोनों दिशा में के न्द्र है। ओड़िशा से
पश्चिम अन्तिम स्वर को हलन्त जैसा पढ़ते हैं, पूर्व में प्रथम अ को ओ जैसा पढ़ते हैं जैसे बंगाल
में। थाइलैण्ड के राजा भूमिबल अतुल्यतेज का उच्चारण भूमिबोल ओदुल्यदेज है। या कम्बोडिया के
नरोत्तम सिंहानक का उच्चारण नोरोदोम सिंहानुक है। इण्डोनेसिया में पूर्व राष्ट्रपति सुकर्ण को
सुकार्णो पढ़ते हैं।
उत्तर में ऋ को रि जैसा पढ़ते हैं, दक्षिण में रु जैसा। ओड़िया में दोनों प्रकार के अपभ्रंश हैं-वृद्ध-
बूढ़ा, दृश्यति -दिशुचि। ऋ का र जैसा उच्चारण भी पूरे भारत में है-गृह से घर।
लृ के ह्रस्व या दीर्घ वर्ण का प्रयोग संस्कृ त या भारतीय भाषाओं में प्रायः नहीं है। लृ + आकृ ति
= लाकृ ति (लाके ट)। इसका के वल एक ही जैसा प्रयोग है, बंगला में नवम स्वर लृ जैसे लिखते
हैं, उसी तरह ओडिया तथा हिन्दी-मराठी में ९ अंक लिखते हैं (୯)। इससे स्पष्ट है कि भारत
की लिपियों की रचना एक ही थी। सायण भाष्य को ६०० वर्ष पूर्व पूरे भारत में पढ़ा जाता था।
शंकराचार्य को कश्मीर, ओड़िशा या प्रयाग में लिपि के कारण कठिनाई नहीं हुई न चैतन्य को
बंगाल, वृन्दावन या ओड़िशा में। पर अंग्रेजी शासन में सभी क्षेत्रों के अलग अलग टाइप चिह्न
बनाये गये जिससे क्षेत्र एक दूसरे से कट गये। उसके बाद हर क्षेत्र की अलग भाषा और संस्कृ ति
के अनुसार भाषा विज्ञान के सिद्धान्त बने और कहा गया कि भारत में बाहर से आ कर आर्यों ने
संस्कृ त थोप दिया। ओड़िशा प्रायः ५० विशेष वैदिक शब्द प्रचलित हैं, जो पूर्व के लोकपाल
इन्द्र, जगन्नाथ, तथा समुद्र तट से सम्बन्धित हैं। इसके अतिरिक्त खनिज क्षेत्र में समुद्र मन्थन के

70
कारण खनिजों के शब्द भी प्रचलित हैं। यदि आर्य ये वैदिक शब्द पश्चिम से लाते, तो पश्चिम के
मध्य प्रदेश, राजस्थान, सिन्ध में भी ये शब्द मिलते।
बौद्ध काल में संस्कृ त के द्विवचन का प्रयोग बन्द हो गया तथा आज भारत की किसी भाषा में नहीं
है। इसी प्रकार स्टालिन के समय रूसी भाषा में द्विवचन का प्रयोग बन्द हो गया था।
ओड़िशा में पारम्परिक वैदिक छन्दों के अनुसार अक्षर संख्या के अनुसार छन्द हैं। कु छ
अनियमित छन्द हैं जिनको दण्ड कहते हैं, जैसे संस्कृ त में रावण रचित शिव-ताण्डव स्तोत्र।
सारलादास का महा भारत दण्ड छन्द में है। ओड़िया में छन्द को छान्द भी लिखते हैं। दण्ड
अनियमित होने के कारण नियम पालन न करने वाले को भी दण्डा (बालुंगा) कहते हैं।
सरस्वती कण्ठाभरण अलंकार (२/१५) के अनुसार शालिवाहन (७८-१२८ ई.) के काल में
प्राकृ त भाषा का साहित्य आरम्भ हुआ। उससे पहले भी लोकभाषा में इसका प्रयोग था पर
साहित्यिक भाषा में नहीं। पर अभी गोरखनाथ काल ८वीं सदी से ही लोकभाषा का साहित्य
उपलब्ध होता है जो नाथपन्थी साधुओं ने लिखा था। जैन तथा बौद्ध साहित्य भी उस समय की
लोक भाषा में लिखा गया था। प्राकृ त भाषाओं का रूप बदलता गया, संस्कृ त ही सनातन भाषा
रही। अभी पुराने जैन बौद्ध ग्रन्थों को पढ़ने के लिये अनुमान करना पड़ता है कि उनका मूल
संस्कृ त क्या रहा होगा।
नाथ साहित्य का मुख्य ग्रन्थ शिशु वेद तथा गोरख संहिता है। शैव तथा वैष्णव सम्प्रदायों के
अनुसार सम्प्रदाय तथा साहित्य का विभाजन किया जा रहा है जो उचित नहीं है। जगन्नाथ का
भक्त होने का कभी यह अर्थ नहीं था कि वह राम, शिव, दुर्गा या हनुमान् की पूजा नहीं करेगा।
पुरी जगन्नाथ मन्दिर में ही सबके मन्दिर हैं। नाथ काल का एक अन्य ग्रन्थ रुद्र-सुधानिधि है।
कोइली गीत भी प्राचीन काल से चले आ रहे हैं। कोयल को दूत मान कर उसे सन्देश कहा जाता
है। तमिल में कोइल का अर्थ मन्दिर है। यह अर्थ ओड़िया में भी प्रचलित है (वैकु ण्ठ कोइलि)।
दो और प्राचीन ग्रन्थ उपलब्ध हैं-बच्छ दास का कलसा चौतीसा-इसमें क से क्ष तक ३४ अक्षरों
से छन्दों का आरम्भ है। दूसरा है सिद्धेश्वर दास का विचित्र रामायण। कु छ का मत है कि सन्यास
पूर्व सारला दास का ही नाम सिद्धेश्वर था।
सारला दास प्राचीन कवियों में सबसे प्रसिद्ध हैं। इनका पूर्व नाम सिद्धेश्वर परिड़ा था। इनकी
रचनायें हैं-सारला महाभारत, विलंका रामायण, चण्डी पुराण, लक्ष्मीनारायण वचनिका। गोपीनाथ
मोहान्ती इनका समय १०म सदी मानते हैं।
पञ्चसखा कवि-कु छ लोगों का विचार है कि १५०९ ई. में चैतन्य महाप्रभु के आने के बाद
ओड़िशा में वैष्णव साहित्य का प्रचार हुआ। पर बहुत प्राचीन काल से जगन्नाथ धाम वैष्णव मत
का के न्द्र रहा है। चैतन्य काल में भी ओड़िशा में कई विख्यात विद्वान् थे जिनके कु छ ग्रन्थों का
विवरण ओड़िशा के संस्कृ त साहित्य में दिया गया है। इस काल के ५ मुख्य महाकवियों को
पञ्चसखा कहते हैं-(मत्त) बलराम दास, (अतिबड़ी) जगन्नाथ दास, (महापुरुष) अच्युतानन्द,
अनन्त दास, यशोवन्त दास। ये सन्त कवि एक काल के नहीं थे, न परस्पर मित्र थे। एक परम्परा
के होने के कारण इनको पञ्चसखा कहता हैं। पञ्चशिख सांख्य दर्शन के मुख्य आचार्य थे जिन्होंने

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कपिल सांख्य सूत्रों की व्याख्या की थी। इनकी कोई पुस्तक उपलब्ध नहीं है। सम्भवतः पञ्चशिख
ओड़िशा के थे या उनकी परम्परा यहां सुरक्षित रही। उनके सांख्य-योग दर्शन की व्याख्या करने
के कारण इन कवियों का पञ्चसखा नाम हो सकता है। इनकी रचनायें हैं-
बलराम दास-जगमोहन रामायण, लक्ष्मी पुराण, वेदान्तसार, गुप्तगीता, नाम-माहात्म्य, भाव-
समुद्र, कमललोचन चौतीसा, कान्त कोइली आदि।
जगन्नाथ दास-इनका भागवत सबसे प्रसिद्ध है तथा ओड़िशा के प्रत्येक गांव में इसकी कथा सुनने
के लिये स्थान थे जिनको भागवत-टुंगी कहते हैं। इनकी अन्य रचनायें हैं-अर्थ कोइली, दारुब्रह्म
गीता, शून्य भागवत, ध्रुव-स्तुति आदि।
अच्युतानन्द दास-इनकी मालिका बहुत विख्यात है जिसमें भविष्य की घटनाओं का वर्णन है।
उसके कु छ समय बाद फ्रांस में नोस्ट्रेडामस ने इसी प्रकार की पुस्तक लिखी। इनकी १६ पोथी
भी थी जो के वल खाली ताल-पत्र या ताम्बा आदि के प्लेट हैं। इनके सामने मौन प्रश्न करने पर
महापुरुष अच्युतानन्द का उत्तर इन पर लिखा जाता है। इनमें १ पोथी दुराचार के कारण नष्ट हो
गयी। १५ अभी भी प्रचलित हैं। इनकी अन्य पुस्तकें हैं-शून्य संहिता, चौरासी यन्त्र, गुरुभक्ति
गीता, खिल हरिवंश, गुप्त भागवत, कै वर्त गीता, काल-निर्घण्ट, तेरह जन्म शरण, ब्रह्म एकाक्षर
गीता, गोपाल ओगाल, भाव-समुद्र, गरुड़ गीता, ब्रह्म शंकु लि, अनन्त वट गीता, काली कल्प
गीता, अष्ट गूजरी, गूजरी रास, ब्रह्म कु ण्डली, महागुप्त पद्मकल्प, चौसठी पटल, छेयालिस पटल,
चौबीस पटल, दस पटल, नित्य रास, मन्मथ चन्द्रिका, शिव कल्प, अच्युतानन्द जन्म शरण,
चित्त बोध, रास माला, पञ्चसखा भजन। चौरासी यन्त्र शरीर के भीतर ८४ के न्द्र हैं जिनकी
साधना से ८४ सिद्धि होती हैं। इनकी भविष्य मालिका, आगत भविष्य लेखना, भविष्य परार्ध,
जाइफू ल मालिका प्रचलित हैं।
अनन्त दास को शिशु अनन्त भी कहते हैं जिनके नाम पर भुवनेश्वर में एक स्थान है। पुराने
शिशुनाग वंश का भी यही अर्थ था। इनकी मुख्य पुस्तकें हैं-चुम्बक मालिका, नीलगिरि चरित, हेतु
उदय भागवत, अर्थ तारिणी प्रश्नोत्तर, भक्तिमुक्तिप्रदायक गीता।
यशोवन्त दास की पुस्तकें हैं-शिव स्वरोदय, प्रेमभक्तिब्रह्म गीता, आत्मप्रत्यय गीता. गोविन्दचन्द्र।
पञ्चसखा कवियों ने प्राचीन गूढ़ वैदिक शब्दों का विशिष्ट अर्थों में प्रयोग किया है तथा कई बार
उनकी १ पंक्ति की व्याख्या १० पृष्ठों के संस्कृ त भाष्य से अधिक सटीक होती है। इसके लिये
स्वतन्त्र पुस्तक लिखनी पड़ेगी। के वल एक उदाहरण दिया जाता है-
जगन्नाथ दास-जे पांचे पर र मन्द, ताहार मन्द पांचन्ति गोविन्द (जो दूसरे की बुराई करता है,
उसकी बुराई की योजना भगवान् करते हैं)
श्वेताश्वतर उपनिषद् (५/५)-यच्च स्वभावः पचति विश्वयोनिः, पाच्यांश्च सर्वान् परिणामयेद् यः।
पाच्यांश्च = ओड़िया पांचे-योजना, षड़यन्त्र।
षड् -गोस्वामी-पञ्चसखा के साथ ओलासुनी के महात्मा अरक्षित दास को जोड़ कर इनको षड् -
गोस्वामी कहते हैं। अरक्षित दास की रचनायें हैं-महीमण्डल गीता, भक्तिटीका, सप्ताङ्ग अद्भुत्
संहिता, तत्त्वसार गीता।

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उपेन्द्र भञ्ज पञ्चसखा के बाद के सबसे प्रसिद्ध महाकवि हैं। ये ब्रह्मपुर के भंज राजपरिवार के थे
तथा इनको कविसम्राट् कहते हैं। इनकी सबसे प्रसिद्ध रचना वैदेहीश-विलास है जो रामायण की
कथा है पर हर पंक्ति व (या ब) से शुरू हुई है। इनकी अन्य रचना हैं-कोटि ब्रह्माण्ड सुन्दरी,
लावण्यवती।
बाद के अन्य मुख्य पारम्परिक कवि थे-
शिशु शंकर दास-उषाभिलाष।
देव दुर्लभ दास-रहस्य मंजरी।
कार्त्तिक दास-रुक्मिणी विवाह।
रामचन्द्र पटनायक-हारावली।
दीनकृ ष्ण दास-रस कल्लोल।
अभिमन्यु सामन्तसिंहार-विदग्ध चिन्तामणि।
कविसूर्य बलदेव रथ-चम्पू और चरित काव्य।
ब्रजनाथ बड़जेना-चतुर विनोद।
भीम भोई १९वीं सदी के एक प्रख्यात सन्त थे जिनकी शिक्षाओं को महिमा धर्म कहते हैं। इनके
गुरु थे महिमा गोसाईं। भीम भोई अन्ध थे। इनकी शिक्षाओं को इनके शिष्यों ने लिपिबद्ध किया
जिनमें अनेक लुप्त हैं। उपलब्ध ग्रन्थ हैं-स्तुति चिन्तामणि, ब्रह्मनिरूपण गीता, आदि-अन्त गीता,
चौतीसा ग्रन्थमाला, निर्वेद साधना, श्रुति निषेध गीता, मनुसभा मण्डल, महिमा विनोद (४
खण्ड, अप्रकाशित), बृहत् भजनमाला, बंगला आठ भजन। महिमा का अर्थ निराकार ब्रह्म
उपासना है। इस सम्प्रदाय के सन्त सदा पैदल चलते हैं।
अध्याय १३-वनवासी
२००१ की जनगणना के अनुसार ओड़िशा में ६२ जनजातियां हैं जिनमें खोण्ड १७.१% हैं-
कु ल संख्या १३,९५,६४३ है। उसके बाद गोण्ड ९.६%हैं। अन्य ६ मुख्य जातियों-सन्थाल,
कोल, मुण्डा, सउर, सवर, भोत्तड़ा (भतरा) मिलाकर जनजातियों का ६४.२% हैं। भूमिज,
भूइयां, ओरांव, परजा और किसान प्रायः ३ लाख हैं। अन्य ४४ जनजाति ८.८% हैं। ५ जाति
लुप्तप्राय हैं-चेम्चू, मांकिड़ी, देसुआ भूमिज, घर, थरुआ।
पुराण और इतिहास परम्परा के अनुसार ५ प्रकार की जनजाति हैं-
(१) शबर-ये वराह अवतार के समय प्रायः १७००० ई.पू. थे जिनका मुख्य काम खनन था।
शबर से ओड़िया में साबल हुआ है जिससे खनन किया जाता है। अभी ये मुख्यतः दक्षिण
ओड़िशा में हैं। मीमांसा दर्शन का मुख्य ग्रन्थ शाबर भाष्य है। शिव परम्परा के निरर्थक मन्त्रों को
शाबर मन्त्र कहते हैं।
(२) समुद्र व्यापार-व्यापार के लिये यात्रा करने वालों को नाग कहते थे जो पूरे विश्व में थे-
नागासाकी, मेक्सिको के आस्तीक (एजटेक) आदि। भारत में नागरकोइल, नागपुर, अहिच्छत्र
आदि।

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ओड़िशा के अधिकांश राजा नागवंशी या नागेश्वर गोत्र के हैं। उत्तरी गोलार्ध का समुद्र मार्ग नाग
वीथी कहते हैं। अर्जुन ने मणिपुर की नाग कन्या उलूपी से विवाह किया था। राम के पुत्र कु श ने
ओड़िशा की नाग कन्या कु मुद्वती से विवाह किया। जहाजों को बन्दरगाह पर रखने के लिये उनको
खूंटे से बान्धते हैं। सामान उतारने, चढ़ाने वालों को ओड़िशा में खूंटिया, महाराष्ट्र तथा
नाईजीरिया में खूंटे कहते हैं। व्यापार करने वाले तथा समुद्री लुटेरों को वेद में (ऋग्वेद ८/६४,
१०/१०८ आदि) पणि कहा गया है। इनको ओड़िशा में पाण कहते हैं जो अभी अधिकांश इसाई
हो चुके हैं। व्यापार से सम्बन्धित ब्राह्मण भी पाणि, पाणिग्रही आदि थे।
(३) खनिज सम्बन्धी-बलि से ३ लोकों का राज्य लेने के बाद पुनः देव असुरों में युद्ध शुरू हुआ।
कू र्म अवतार विष्णु ने संयुक्त खनन की सलाह दी। असुर खान के नीचे काम करने में कु शल थे
अतः उनको वासुकि के मुंह की तरफ काम करने वाला कहा गया है जो खान के भीतर का गर्म
भाग है। पश्चिम एशिया, उत्तर अफ्रीका से खनन के लिये आये थे। वहीं के कु छ लोग बाद में राजा
सगर ने ग्रीस में भगा दिये। अतः खनन कार्य करने वालों की कई उपाधि ग्रीक भाषा में खनिजों के
नाम पर हैं। कु छ संस्कृ त नाम पर भी हैं। जैसे सोना को ग्रीक में औरम कहते हैं (ओराम) हुआ है।
ताम्बा का मुख्य खनिज खालको-पाइराइट है (खालको)। टोपाज का खनन करने वाले टोप्पो,
खान में कछु आ के खोल जैसा रक्षा दीवाल बनाने वाले कच्छप (संस्कृ त) या एक्का (ग्रीक) हैं।
नक्शा पर स्थान चिह्नित करने वाले कर्क टा (कर्क ट = कम्पास) हैं। खनिज की सफाई तथा
शोधन करने वाले मिंज (मीन = मछली) तथा हंसदा (हंस का नीर क्षीर विवेक) हैं। टिन की
खुदाई करने वाले सिंकू (ग्रीक स्टैनिक), पारा खनन वाले हेम्ब्रम हैं (हैम = सिन्दूर जो पारा से
बनता है)। भार तथा ताप की माप को सिंकू कहा गया है। लोहा भट्ठी को भी सिंकू कहते थे। इनमें
काम करने वाले सिंकू हैं
(४) आक्रमणकारी-चण्डी पाठ के प्रथम अध्याय में कोला विध्वंसियों के आक्रमण के बारे में
लिखा है। ये भारत के या आस्ट्रेलिया के हो सकते हैं। रामायण काल में इनको ऋक्ष कहते थे।
ऋक्ष पर्वत पश्चिम ओड़िशा, छत्तीसगढ़ में है।
(५) प्राचीन राजवंश-रामायण काल में किष्किन्धा राज्य के लोग कन्ध हैं। ये लांजि (लंगोट)
पहनते थे, जो बन्दर की पूंछ जैसा है। इनका एक स्थान लांजिगढ़ कालाहाण्डी में है। अकबर
काल में रानी दुर्गावती का पति लांजीगढ़ का था। इनमें शासक वर्ग के लोगों को राज-गोण्ड कहते
हैं।

अध्याय १४-आधुनिक ओड़िशा के निर्माता


ब्रिटिश शासन में उनके २ प्रथम के न्द्रों-मद्रास तथा कलकत्ता के लोगों का प्रभुत्व रहा जहां के
स्थानीय लोग अंग्रेजों के अधीन सरकारी सेवा में पहले आ गये। उसी क्षेत्र के लोगों की पुस्तकों
का प्रकाशन भी हुआ। दक्षिण ओड़िशा मद्रास प्रेसिडेन्सी में आन्ध्र प्रदेश सहित था। आन्ध्र अलग
होने के बाद कोरापुट तथा गंजाम जिले ओड़िशा में मिले। वहां के पुलिस थानों में अभी भी पुराने
तेलुगू भाषा के पुलिस मैनुअल हैं। मुख्य प्रभाव बंगाल का रहा। अधिकांश छपी किताबें कलकत्ता

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की ही उपलब्ध थीं। अतः बंगाली साहित्य का प्रभाव पड़ा। सत्ता का के न्द्र कलकत्ता होने के
कारण वहां के लोगों ने ओड़िशा की सभी जमीन्दारियों पर अधिकार कर लिया। अंग्रेजी शासन में
ओड़िशा के सभी भागों के विलय तथा ओड़िया साहित्य और चेतना के प्रचार के लिये बहुत
प्रयास किया। कई लोग ओड़िशा के कमिशनर रेवेनशा को आधुनिक ओड़िशा का निर्माता कहते
हैं। इनके समय में ओड़िशा का सभी चावल खरीद कर बाहर बेच दिया गया जिसके कारण यहां
१८६८ के दुर्भिक्ष में १/३ भाग लोग (प्रायः ३५ लाख) मर गये। उसके बाद रेवेनशा ने कटक में
डेलटा नहर की योजना बनाई। उनके कहने पर मयूरभंज के राजा श्रीरामचन्द्र भंजदेव ने रेवेनशा
कालेज तथा मेडिकल कालेज बनवाया। कालेज रेवेनशा के नाम पर रहा जो अभी स्वतन्त्र
विश्वविद्यालय हो गया है। इसमें कनिका के राजा ने पुस्तकें दान की थी जिसे कनिका
पुस्तकालय कहते थे। बाद के शोधकर्ताओं ने अधिकांश पुस्तकें चुरा लीं या बाकी नष्ट हो गई।
१८९३ ने ३५ लाख लोगों की हत्या छिपाने के लिये कहानी बनाई कि भारत के राजा भी वैसे ही
हिंसक थे तथा अशोक के आक्रमण में ११ लाख मारे गये या घायल हुए। सभी हिन्दू राजा अंग्रेजों
की तरह हिंसक थे यह दिखाने के लिये लिखा कि हिंसा का त्याग करने के लिये वह बौद्ध बन
गया। कलिंग युद्ध में मरने वालों की संख्या कहीं नहीं लिखी है न अशोक के बौद्ध होने की कहीं
चर्चा है। बौद्ध ग्रन्थ दिव्यावदान में यही लिखा है कि बौद्ध लोगों की शिकायत पर अशोक ने
१२,००० जैन साधुओं की हत्या कर दी थी। यह हिंसा का त्याग नहीं, सबसे क्रू र हिंसा है।
आधुनिक ओड़िशा के निर्माताओं में मुख्य हैं-
(१) फकीरमोहन सेनापति-१४ जनवरी, १८४३ में बालेश्वर के मल्लिकाशपुर में जन्म हुआ।
आधुनिक ओड़िशा के समाज सुधार के लिये बहुत सी पुस्तकें लिखीं। मुख्य उपन्यास हैं-छ माण,
आठ गुण्ठ (माण तथा गुण्ठ जमीन की माप है), मामून, प्रायश्चित, लछमा। कई लघु कथा भी हैं-
रेवती, पेटेण्ट मेडिसिन, राण्डीपूअ अनन्त। अपनी आत्मकथा भी लिखी-आम जीवन चरित।
रामायण तथा महाभारत के अनुवाद के अतिरिक्त कई कवितायें भी लिखीं जिसके कारण उनको
व्यास कवि कहते हैं।
(२) उत्कल गौरव मधुसूदन दास-२८ अप्रैल १८४८ को कटक जिला के सत्यभामापुर में जन्म
हुआ। कलकत्ता विश्वविद्यालय से एम.ए. बी.एल. की उपाधि पाने वाले वे प्रथम ओड़िया थे। ३
राज्यों में ओड़िशा के हिस्से बंटे हुए थे तथा अधिकारी ओड़िया लोगों की उपेक्षा करते थे।
ओडिया भाषी लोगों का एक राज्य स्थापित करने तथा ओड़िया लोगों की सामाजिक और
आर्थिक उन्नति के लिये सरकार पर दबाव डाला तथा इसके लिए उत्कलसभा का गठन किया।
इसे भंग कर १९०३ में उत्कल सम्मिलनी बनाई। इनकी चेष्टा से सभी वर्गों के ओड़िया भाषी
ओड़िशा की एकता और उन्नति के लिये एक हो गए। भारत के स्वाधीनता संग्राम के साथ ओड़िया
आन्दोलन भी चलने लगा और उत्कलमणि गोपबन्धु दास ने भी योग दिया। वे विधायक बने तथा
बिहार-ओड़िशा सरकार में स्वायत्त शासन मन्त्री बने। सिद्धान्त में मतभेद होने के कारण १९२३
में मन्त्री पद से इस्तीफा दे दिया। ओड़िया नामक एक साप्ताहिक भी १९१७ में निकाला था
जिसमें ओड़िया लोगों की सरकारी उपेक्षा दिखाई जाती थी। के न्द्रीय असेम्बली में पहले ओड़िया

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विधायक बने तथा ओड़िशा राज्य की मांग के लिये इंगलैण्ड भी गये थे। इनका देहान्त ४ फरवरी
१९३४ को हुआ। इनको मधु बैरिस्टर या उत्कल गौरव कहा जाता था।
३. गंगाधर मेहेर-९ अगस्त १८६२ श्रावण पूर्णिमा को इनका जन्म सम्बलपुर के बरपाली में
बुनकर परिवार में हुआ। के वल ५वीं कक्षा तक ही इनकी पढ़ाई हुई। किन्तु ओड़िया साहित्य में
इनका महान् योगदान है। इनके काव्य हैं-प्रणय-वल्लरी, कीचक-वध, इन्दुमती, उत्कल-लक्ष्मी,
अयोध्या दृश्य, कविता-कल्लोल, अर्घ्य थाली, अहल्या-स्तव, महिमा भारती भावना, कु मार
जन्मोत्सव, भक्ति उपहार, पद्मिनी, कविता-माला, कृ षक संगीत। उनकी गद्य रचनायें हैं-आत्म
जीवनी, श्री नृपराज सिंह, पुराना कवि फकीरमोहन, स्वर्गीय काशीनाथ पण्डा, एहा कि पृथ्वी र
शब्द?, शिक्षित, अशिक्षित ओ शिक्षाभिमानिनी। इनकी कविताओं में उपेन्द्र भंज का अलंकार
तथा राधानाथ राय का प्रकृ ति वर्णन है। ४ अप्रैल १९२४ को इनका देहान्त हुआ।
४. श्रीरामचन्द्र भंजदेव- मयूरभंज के राजपरिवार में इनका जन्म १७ दिसम्बर १८७१ को हुआ।
१५ अगस्त १८९२ को राजा बने तथा बहुत से विकास कार्य किया। पण्डित गोपबन्धु दास इनके
मित्र और सलाहकार थे। रुपसा-बांगिरिपोसि छोटी लाइन बनवाया तथा हलडीहा और हलदिया
में सिंचाई के लिये बान्ध बनवाये। प्राथमिक विद्यालयों की संख्या ४४ से बढ़ कर ३०० हो गई।
५. उत्कलमणि गोपबन्धु दास-९ अक्टू बर १८७७ में गोपबन्धु दास का जन्म हुआ। ओड़िशा की
उन्नति तथा आत्मसम्मान के लिये इन्होंने जो प्रेरणा दी तथा कार्य किये उसके लिये बंगाल के
विख्यात राष्ट्रवादी वैज्ञानिक प्रफु ल्ल चन्द्र राय ने इनको २८-६-१९२४ को उत्कलमणि की
उपाधि दी थी। १९०९ में उन्होंने पण्डित नीलकण्ठ दास के साथ सत्यवादी में विद्यालय की
स्थापना की। बाद में पण्डित गोदावरीश मिश्र तथा आचार्य हरिहर ने भी योग दिया। मधुसूदन दास
के साथ मिलकर ओड़िशा के एकीकरण के लिये उत्कल सभा का गठन किया। धलभूमि
(झारखण्ड में) के बेहरागुड़ा में भी ओडिया विद्यालय की स्थापना की। ४ अक्टू बर १९१९ को
ओड़िया चेतना और संस्कृ ति के विकास के लिये समाज साप्ताहिक की स्थापना की। बाद में यह
दैनिक हो गया और अगले ८० वर्षों तक समाचार पत्र का अर्थ लोग समाज ही समझते थे, यद्यपि
अन्य कई समाचार पत्र आरम्भ हो चुके थे। वह स्वाधीनता संग्रामी तथा राष्ट्र चेतना के
साहित्यकार थे। उनकी मुख्य रचनायें हैं-बन्दी र आत्मकथा, अवकाश चिन्ता।
६. पण्डित नीलकण्ठ दास-इनका जन्म ५ अगस्त १८८४ को पुरी के रामचन्द्रपुर गांव में हुआ।
गांव में प्राथमिक शिक्षा के बाद पुरी जिला स्कू ल में प्रवेश लिया तथा १९०९ में बी.ए. पास
किया। उसके बाद कलकत्ता में एम.ए. तथा बी.एल. करने के लिये गये। १९११ में वहां से लौटने
के बाद सत्यवादी विद्यालय के प्रधानाध्यापक बने। बाद में वे ओड़िया तथा दर्शन के प्राध्यापक
बने पर असहयोग आन्दोलन में इस्तीफा दे दिया। वे उत्कल प्रदेश कांग्रेस समिति तथा अखिल
भारतीय कांग्रेस समिति के भी कार्यकारिणी के सदस्य बने। सम्बलपुर से एक समाचार पत्र ’सेवा’
आरम्भ किया। ९ मास वहां रहने के बाद अपने गांव रामचन्द्रपुर लौट आये। १९३२ में ब्रिटिश
शासन के विरुद्ध आन्दोलन के कारण उनको गिरफ्तार कर हजारीबाग जेल में ६ मास के लिए
रखा गया। वहां से आने पर गोपबन्धु दास की सलाह से चुनाव लड़ा और १९२३ में के न्द्रीय

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असेम्बली के सदस्य बने। १९२६ में शिमला सम्मेलन में भाग लिया। १९२८ में गोपबन्धु दास के
निधन पर ओड़िशा कांग्रेस के मुख्य बने। लाहौर कांग्रेस के निर्णय के अनुसार असेम्बली से
इस्तीफा दे दिया तथा नमक आन्दोलन मे भाग लिया जिसमें उनको ६ मास की सजा हुई।
अस्पृश्यता के विरुद्ध अभियान चलाया तथा निम्न वर्ग के कल्याण के लिये काम किया। पुनः वे
के न्द्रीय असेम्बली में निर्वाचित हुए। १९३३ ई. में ओड़िया मासिक ’नव भारत’ का सम्पादन
किया। १९३४ में मधुसूदन दास के निधन पर स्वाधीनता आन्दोलन का पूरा भार उन पर आ
गया तथा ओड़िशा में महात्मा गान्धी को बुलाया। १९३६ में ओड़िशा राज्य गठन के बाद वे प्रदेश
कांग्रेस समिति के अध्यक्ष बने। उनके नेतृत्व में कांग्रेस को ६० में ३६ सीट मिली। उन्होंने
विश्वविद्यालय स्थापित करने के लिये समिति बनाई जिसके प्रस्ताव के अनुसार उत्कल
विश्वविद्यालय स्थापित हुआ। १९५१ में स्वाधीन जनसंघ दल की तरफ से विधान सभा के
सदस्य बने। १९५५ में नेहरू के अनुरोध पर पुनः कांग्रेस में शामिल हुए। उसी वर्ष वे उत्कल
विश्वविद्यालय के प्रति-कु लपति बने। १९५७ में विधानसभा में पुनः निर्वाचित हुए तथा १९६१
जुलाई तक वे विधानसभा के अध्यक्ष रहे। ६ नवम्बर १९६७ को उनका निधन हुआ।
७. महाराज श्री कृ ष्णचन्द्र गजपति नारायण देव-पारलाखेमुण्डी के राजा गौर चन्द्र गजपति
नारायण देव के पुत्र रूप में इनका जन्म २६ अप्रैल १८९२ को हुआ। मद्रास में शिक्षा के बाद वे
१९१३ में राजा बने। शिक्षा और संस्कृ ति के विकास के लिये उत्कल सभा का वार्षिक सत्र
१९१४ में पारलाखेमुण्डी में आयोजित किया। १९१६ में ब्रिटिश शासन ने उनको भूमि सेना का
अवैतनिक कमिशनर नियुक्त किया। नौपड़ा-पारलाखेमुण्डी के बीच छोटी लाइन बनवाई।
राजमहल में शोध के लिये एक पुस्तकालय बनवाया। मद्रास जस्टिस पार्टी के मुख्य सदस्य बने
तथा रायल कृ षि कमीशन के सदस्य मनोनीत हुए। १९२७ में मद्रास विधानसभा के सदस्य बने।
१९३०-३१ में लन्दन गोलमेज सम्मेलन में ओड़िशा राज्य बनाने की मांग रखी। १९३४ में
पारलाखेमुण्डी का ओड़िशा में विलय के लिए संसदीय समिति के सामने मांग रखी। १९३६ में
सरकार ने उनको महाराजा की उपाधि दी। १९३७ में वे गैर कांग्रेस सरकार के मुख्य बने। नवम्बर
१९४१ में उनको सरकार बनाने के लिये निमन्त्रित किया गया तथा मुख्यमन्त्री बने। १९४७-५०
वे संविधान सभा के सदस्य रहे। वे रायल आर्ट्स सोसाइटी, रायल एसियाटिक सोसाइटी,
लन्दन, तथा उत्कल विश्वविद्यालय के आजीवन सदस्य रहे। उत्कल विश्वविद्यालय ने उनको
एल.एल.डी की उपाधि दी। इनका निधन २५ मई १९७४ को हुआ।
८. डॉ हरेकृ ष्ण महताब-अविभक्त बालेश्वर के अगरपड़ा में कृ ष्ण चन्द्र दास तथा तोहफा देवी के
पुत्र रूप में उनका जन्म २१ नवम्बर १८९९ को हुआ। भद्रक उच्च विद्यालय से मैट्रिक पास करने
के बाद रेवेनशा कालेज में प्रवेस लिया। स्वाधीनता संग्राम में भाग लेने के लिए १९२१ में बीच में
ही पढ़ाई छोड़ दी। १९२३ में बालेश्वर से ’प्रजातन्त्र’ साप्ताहिक का प्रकाशन आरम्भ किया।
राजद्रोह के आरोप में १९२२ में जेल गए। १९२४ में बिहार-ओड़िशा विधानसभा के सदस्य बने।
नमक सत्याग्रह में भाग लेने के कारण १९३० में जेल गए। १९३४ में हरिजन अभियान आरम्भ
किया तथा अपने पैतृक मन्दिर को सबके लिए खोल दिया। १९३८ में लोक जांच समिति के

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अध्यक्ष रूप में राजाओं की सनद समाप्त कर उनके राज्यों को ओड़िशा में मिलाने की मांग की।
देशी राज्यों के विरुद्ध आन्दोलन में १९४१ में जेल गये तथा पुनः १९४२ के भारत छोड़ो
आन्दोलन में जेल गये। १९४६-५० में वे ओड़िशा के मुख्यमन्त्री रहे, १९५०-५२ में वाणिज्य-
उद्योग के के न्द्र मन्त्री हुए। संसद में कांग्रेस के साधारण सचिव तथा १९५५-५६ में बम्बई के
राज्यपाल रहे। राज्यपाल से त्यागपत्र दे कर १९५६-६० में पुनः ओड़िशा के मुख्यमन्त्री बने।
देशी राज्यों के विलय, भुवनेश्वर में राजधानी निर्माण तथा हीराकु द बान्ध बनवाने आदि कार्यों के
कारण उनको आधुनिक ओड़िशा का निर्माता कहते हैं। लोकसभा में १९६२ में निर्वाचित हुए।
१९६७, १९७१, १९७४ में विधान सभा के सदस्य चुने गए। कटक में प्रजातन्त्र प्रचार समिति
की स्थपना की जहां से प्रजातन्त्र दैनिक का आज भी प्रकाशन हो रहा है। यहां से कई अन्य
पुस्तकें भी प्रकाशित हुई तथा एक संस्कृ त महाविद्यालय भी चल रहा है। दो-दो बार वे ओड़िशा
साहित्य अकादमी तथा ओड़िशा संगीत नाटक अकादमी के अध्यक्ष रहे। उत्कल विश्वविद्यालय
सीनेट के स्थायी सदस्य थे। वे विख्यात इतिहासकार तथा लेखक थे। आन्ध्र विश्वविद्यालय ने
उनको साहित्य में तथा सागर विश्वविद्यालय ने कानून में डाक्टरेट की उपाधियां दीं। प्रजातन्त्र
पत्र में उनके धारावाहिक गां-मजलिस के लिये १९८३ में के न्द्रीय साहित्य अकादमी पुरस्कार
मिला। उन्होंने ओड़िशा का इतिहास, अन्त का आरम्भ (दोनों अंग्रेजी में) के अतिरिक्त अंग्रेजी,
ओडिया में अनेक पुस्तकें लिखीं। ओड़िशा के इस वरपुत्र का निधन २ जनवरी १९८७ को हुआ।
९. राजा बहादुर रामचन्द्र मर्दराज देव-खलीकोट के राजा हरिहर मर्दराज तथा रानी कनकमञ्जरी
देवी के पुत्र रूप में इनका जन्म १३ जनवरी १९०० को हुआ। गवर्नेस हार्वे डन ने इनका पालन
किया तथा इनको एरिक कह कर बुलाती थीं। २० जुलाई १९०९ को पिता की असामयिक मृत्यु
के बाद इनको स्कू ल शिक्षा के लिये मद्रास भेजा गया जहां न्यूलिंगटन स्कू ल में पढ़ाई की।
क्रिश्चियन कालेज में २१ वर्ष की आयु तक पढ़ाई करने के बाद १४ जनवरी १९२१ को
खलीकोट के राजा बने। १९२४ में फिलिप-डफ समिति के सामने ओड़िशा राज्य की स्थापना
की मांग रखी। १७-२१ दिसम्बर को समिति के दोनों सदस्य उनके घर ठहरे तथा एक विशाल
जन सभा का आयोजन किया। बाद में ओ-डोनेल कमीशन ने ओड़िशा राज्य एकीकरण के विरुद्ध
मत दिया। पर रामचन्द्र मर्ददेव निराश नहीं हुए तथा मद्रास विधान सभा में इसके विरुद्ध बहस
किया। २१ अगस्त १९३२ को उत्कल सभा की मीटिंग में फिलिप डफ कमिटी के प्रस्ताव के
अनुसार ओड़िशा एकीकरण की मांग रखी। १९३३ में राजा साहब लन्दन के तृतीय गोलमेज
सम्मेलन में गये। १२ जनवरी को ओड़िशा मिलन आयोजित कर भारत सचिव सर सैमुअल होर
को निमन्त्रित किया तथा उनसे ओड़िशा राज्य बनाने की स्वीकृ ति ली। इसके अनुसार एक
संसदीय समिति बनी तथा गवर्मेण्ट ऑफ इण्डिया ऐक्ट १९३५ की धारा २८९ के अनुसार
स्वतन्त्र ओड़िशा राज्य बना। राजा साहब सदा ओड़िशा विकास के लिए काम करते रहे। २३
जनवरी १९६३ को इनका निधन हुआ।
१०. विजयानन्द (बीजू) पटनायक-श्री लक्ष्मीनारायण पटनायक के पुत्र। जन्म ५ मार्च १९१६।
बी.एस.सी तक शिक्षा। पत्नी श्रीमती ज्ञान पटनायक। २ पुत्र तथा १ पुत्री। व्यवसायी तथा

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उद्योगपति, विमानों मे रुचि। ब्रिटेन, अमेरिका, रूस, फ्रांस तथा इण्डोनेसिया आदि कई देशों की
यात्रा की। छात्र जीवन में कटक से पेशावर तक साइकिल से गये थे। भारतीय विमान कम्पनी में
पायलट बने। भारत छोड़ो आन्दोलन में गुप्त रूप से नेताओं की सहायता करते रहे जिसके लिये
उनको ३० मास की सजा हुई। इण्डोनेसिया के स्वाधीनता संग्राम में वहां के राजा सुल्तान
सिहरिर को बचा कर दिल्ली तक विमान में लाये। कश्मीर पर १९४७ में पाकिस्तान आक्रमण के
समय वहां भारत का पहला विमान उतारा। वापस ओड़िशा आकर उद्योगों की स्थापना की। प्रदेश
कांग्रेस समिति के अध्यक्ष तथा भारतीय कांग्रेस समिति के भी सदस्य बने। १९६१ के मध्यावधि
चुनाव में उनके नेतृत्व में कांग्रेस को अभूतपूर्व सफलता मिली। १९६१-६३ तक ओड़िशा के
मुख्यमन्त्री रहे। कामराज योजना में पद छोड़ दिया। कलिंग एयरवेज की स्थापना की। यूनेस्को को
विज्ञान में कलिंग पुरस्कार के लिये १००० पाउण्ड की राशि दी। १९५२, १९५७, १९६१ में
जगन्नाथप्रसाद, सोरडा तथा चौद्वार से विधानसभा में चुने गए। १९७१ तथा १९७४ में कटक के
राजनगर से चुने गए। ओड़िशा योजना आयोग के अध्यक्ष १९७१-७२ में रहे। १९७७ में संसद
सदस्य तथा १९७९ तक के न्द्रीय मन्त्री रहे। १९८०, १९८४ में पुनः के न्द्रापड़ा से सांसद बने।
१९८५ में संसद से त्यागपत्र दे कर ओड़िशा में विरोधी दल के नेता बने। ५ मार्च १९९० को
पुनः ओड़िशा के मुख्यमन्त्री बने। १९९५ में दूसरी बार भुवनेश्वर से विधानसभा सदस्य तथा
विरोधी दल नेता बने। जून १९९६ में कटक तथा आस्का दोनों स्थान से लोकसभा के लिये चुने
गये। १७ अप्रैल १९९७ को दिल्ली के एस्कोर्ट अस्पताल में देहान्त हुआ।

अध्याय १५-समुद्री व्यापार का इतिहास


बहुत प्राचीन काल से भारत में समुद्री व्यापार होता था तथा इसके उदाहरण वेदों में कई स्थान
पर हैं। समुद्री यात्रा के वल समुद्र तट पर ही हो सकती है। यह तथा कथित हड़प्पा सभ्यता, पंजाब
या उत्तर प्रदेश में नहीं मिल सकती है।
दुर्भाग्यवश मध्ययुग में ओड़िशा में जहाज निर्माण या समुद्री यात्रा से सम्बन्धित कोई पुस्तक
उपलब्ध नहीं है। जहाज निर्माण सम्बन्धी अन्तिम पुस्तक राजा भोज की युक्ति कल्पतरु है। इसके
अनुसार मुख्यतः २ प्रकार के जहाज थे-सामान्य जहाज नदी या समुद्र तट के निकट चलते थे।
विशेष जहाज बड़े होते थे तथा समुद्र में कहीं भी जा सकते थे। सिकन्दर ने प्रायः २ लाख सेना

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के साथ आक्रमण किया था। कम से कम १२० हजार सेना बची हुई थी। उसके अतिरिक्त युद्ध
तथा भोजन सामग्री २ लाख लूटे हुए बैल और लूट के अन्य माल भी थे। पारस की सेना से
बचने के लिए उसने कराची तट की नौकाओं पर कबजा किया तथा अरब के दक्षिण से घूम कर
सीधा मिस्र पहुंचा। उतनी सेना एक ही बार में पहुंच गयी। अमेरिका को ईराक में १ लाख सैनिक
भेजने में जहाज की ५ यात्रा करनी पड़ी थी। सिकन्दर के प्रायः ३०० वर्ष बाद उज्जैन के
विक्रमादित्य के पास प्रायः ४ लाख नौका थी (ज्योतिर्विदाभरण, २२/१२)। उसमें ओड़िशा तट
के जहाज भी थे। विक्रमादित्य ने ४ योगिनी मन्दिर बनवाये थे जिनमें १ ओड़िशा में भुवनेश्वर के
निकट है। बिना किसी आधार के इसका समय ८वीं सदी अनुमान किया जाता है। विक्रमादित्य ने
कम्बोडिया तथा बंगाल पर भी अपनी जलसेना से आक्रमण किया था। ज्योतिर्विदाभरण, अध्याय
२२-
यस्याष्टादशयोजनानि कटके पादातिकोटित्रयं,
वाहानामयुतायुतं च नवतिस्त्रिघ्ना कृ तिर्हस्तिनाम्।
नौकालक्षचतुष्टयं विजयिनो यस्य प्रयाणे भवत्,
सोऽयं विक्रमभूपतिर्विजयते नान्यो धरित्रीधरः॥१२॥
उद्दामद्रविडद्रुमैकपरशुर्लाटाटवीपावको,
वेल्लद्वङ्गभुजङ्गराजगरुडो गौडाब्धिकु म्भोद्भवः।
गर्जद् गुर्जरराजसिंधुरहरिर्धारान्धकारार्यमाः,
काम्बोजाम्बुजचन्द्रमा विजयते श्रीविक्रमार्को नृपः॥१४॥
उसके कु छ समय बाद द्वितीय सदी में ओड़िशा से कौण्डिन्य ने कम्बोडिया की यात्रा की थी तथा
वहां राज्य किया। ओड़िशा के शैलोद्भव राजाओं ने वहां श्रीविजय राज्य स्थापित किया। श्रीविजय
राजा दक्षिण चीन समुद्र तथा भारत महासागर के एकच्छत्र अधिपति थे तथा अपने समुद्री व्यापार
की रक्षा के लिये वे अपनी नौसेना निकट के द्वीपों में भेजते रहते थे। सुमात्रा द्वीप के अधिकांश
निवासी कलिंग तट से गये थे। १००० ई. तक श्रीविजय राज्य का समुद्री प्रभुत्व बना रहा
जिनको के रल के राजेन्द्र चोल ने पराजित किया। कई लोगों की धारणा है कि राजेन्द्र चोल ने
ओड़िशा भी जीता था। पर वह सैन्य अभियान के समय पुरी तट पर के वल जगन्नाथ दर्शन के
लिये आया था। उसके बाद वह समुद्र से गंगा नदी से भागलपुर तथा नेपाल गया वहां पशुपतिनाथ
से लाये रुद्राक्ष बीजों से निकोबार द्वीप में पेड़ लगाये जिनमें आज भी ५०० वृक्ष उपलब्ध हैं
जिनकी आयु १००० वर्ष की है।
फाहियान पश्चिमी हिमालय से आया था। पर पर्वतीय मार्ग कठिन होने के कारण उसने उत्तर
ओड़िशा के ताम्रलिप्ति बन्दरगाह से जहाज से यात्रा की। वह पहले सिंहल गया, वहां से सीधा
निकोबार के दक्षिण से सिंगापुर होते हुए कै ण्टन पहुंचा। जापान और चीन के लेखकों ने लिखा है
कि कै ण्टन में सदा १००-१५० कलिंग के जहाज लगे रहते थे। फाहियान ने २ बातों पर आश्चर्य
किया है-ताम्रलिप्ति के जहाज में १५०० व्यक्ति यात्रा कर रहे थे। दूसरा कि जहाज समुद्र तट से
नहीं, सीधा गहरे समुद्र से हो कर अपने लक्ष्य तक पहुंचता था। चीन के जहाज तट के किनारे ही

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यात्रा करते थे। जहाज की स्थिति तथा दिशा जानने के लिये ज्योतिष की सूक्ष्म माप जरूरी है
जिसे भारतीय ज्योतिष में त्रिप्रश्नाधिकार कहते हैं। स्थिति जानने के लिये अक्षांश तथा देशान्तर
की गणना करनी पड़ती है। देशान्तर निकालने की विधि के वल भारत में मालूम थी। १४८० में
यह तुर्की के जहाजियों से चोरी कर स्पेन तक पहुंचा जिसके १२ वर्ष बाद कोलम्बस ने अमेरिका
यात्रा की योजना बनाई। के रल के लोगों ने गणना याद रखने के लिये कई वाक्य करण बना रखे
थे। ओड़िशा के जहाजी भी इनका उपयोग करते होंगे, पर वे उपलब्ध नहीं हैं।
रोमन इतिहासकार प्लिनी ने लिखा है कि भारत से आयात के कारण रोम का प्रति वर्ष १० करोड़
मुद्रा या ५०० स्टेरिया सोना बाहर चला जाता है। भारत से मुख्यतः धान, रेशम तथा सूती
कपड़ा, गेहूं, चीनी, हल्दी, मसाले, तिल का तेल, चन्दन, सागवान, आबनूस, हीरा, ताम्बा,
गार्नेट तथा अन्य रत्न जाते थे। बाहर से सोना, घोड़ा, चान्दी, टिन, रूबी, ग्लास, सीसा आदि
आते थे। ओड़िशा से धान जाता था, अतः इसे औड्रीय या ओराइजा (Oryza) कहते थे
जिससे राइस (Rice) शब्द बना है। अधिकांश खनिज क्षेत्र ओड़िशा तट के ही निकट हैं अतः
इनका निर्यात भी यहीं से सम्भव है। श्री नवीनकु मार साहू ने ओड़िशा के इतिहास में लिखा है कि
रोम में सम्बलपुर से रेशम जाता था जिसका उल्लेख रोमन लेखकों ने किया है। ओड़िशा में दक्षिण
अफ्रीका के जाम्बेजी तट से सोना आता था जिसे पुराणों में जाम्बूनद स्वर्ण कहा गया है। अफ्रीका
से सम्पर्क के कारण कोणार्क मन्दिर में जिराफ की आकृ ति भी बनी हुई है।
ओड़िशा के स्थान तथा उपाधि नाम समुद्री यात्रा पर ही आधारित हैं। उत्तरी ओड़िशा का
समुद्र छिछला है अतः यहां लकड़ी के छोटे जहाज ही चलते थे। छोटे जहाजों को उडु प कहते थे,
अतः उत्तर ओड़िशा या उत्कल (कलिंग का उत्तर भाग) को उड्र (Woods) कहते थे। दक्षिण
भाग में गहरा समुद्र था जहां गहरा लंगर डालते थे। लंगर को कलंब कहते हैं। अतः बन्दरगाह को
भी कलम्ब (लंका का कोलम्बो) कहते हैं। उसका उपयोग करने वाले कलंज तथा उनका देश
कलिंग है। जहाज का दिशा निर्देश देने वाले मंगराज, उसका संचालक माझी, सेनापति बेहरा
(जहाजी बेड़ा) आदि हैं। कलम्ब लोगों का राजा कदम्ब होगा। ओड़िशा में नदी तथा समुद्र तट पर
पटना नाम के प्रायः १०० स्थान हैं जो पत्तन = बन्दरगाह का अपभ्रंश है। बिहार की राजधानी
पटना का मूल भी प्रकाश पत्तन (लाइट हाउस) था जो नदी के जहाजों का बन्दरगाह था। कलिंग
के जहाज निर्माण का के न्द्र विशाखापत्तनम या मसुलिपत्तनम् हो सकता है जो प्राचीन कलिंग के
भाग थे। पारादीप के निकट भी इनका सम्भावित के न्द्र है जहां से हो कर कटक से जहाज जाते
थे। जहाज पर सामान ढो कर ले जाने के नाम पर एक स्थान बहंगा बाजार है (कटक से उत्तर
रेल स्टेशन)। समुद्र तट पर कई प्रकाश स्तम्भ भी थे-कोणार्क में।
References-India and World Civilization-D P Singhal
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Main Currents of Indian Culture-S. Natarajan
Hinduism: Its Contribution to Science and Civilization-
Prabhakar Balavant Machwe

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History of Post-war Southeast Asia-John F. Cady
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Foreign Trade and Commerce in Ancient India-Prakash
Chandra Prasad
Indian Shipping: A History of thr Sea-Borne Trade and
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Radha Kumud Mookerjee
The Ideals of the East with Special Reference to the Art of
Japan-Prof Kakasu Okakura
India and the World-Buddha Prakash
Ancient Hinduized states of the Far East-George Coedes
अध्याय १६- संगीत
संगीत के ३ भाग कहे जाते हैं-गायन, वाद्य, नृत्य।
गायन में काव्य तथा लय के साथ पाठ है। ओड़िया काव्य में मात्रा वृत्त तथा वर्ण वृत्त दोनों हैं।
यहां के छन्दों में उत्तर और दक्षिण भारत का समन्वय है। ओड़िया छन्दों का उच्चारण प्रायः वेद
मन्त्रों जैसा है। कु छ मुख्य राग हैं-हंसध्रुवी, पञ्चम बराड़ी, चोखी, कल्याण आहारी, के दार, के दार
गौड़, पहाड़िया के दार, कामोदी, चिन्ता भैरव, राजहंस। पारम्परिक ६ राग तथा ३६ रागिनियों में
२४ राग-रागिनी का ओड़िशा में व्यवहार है। खारावेल ने संगीत के लिये भवन बनवाया था तथा
समारोह भी किया था। कोणार्क मन्दिर तथा भुवनेश्वर के कई मन्दिरों में नृत्य मण्डप हैं।
ओड़िशी संगीत में मुख्य ४ प्रकार के गीत हैं-
१. चित्रकला-इसमें काव्य तथा शब्दों से राग और ताल अधिक महत्त्वपूर्ण है। कविसूर्य बलदेव रथ
की कई रचनायें इस प्रकार की हैं।
२. ध्रुवपद-गीत की प्रथम पंक्ति को ध्रुव या घोष कहते हैं जिसे बार-बार दुहराते हैं।
३. चित्रपद-शब्दों का अलंकारिक संयोजन जिसमें पद मुख्य है।
४. पञ्चली-इसे बहुपदयुक्त गीत कहते हैं। यह दो प्रकार का है-अध्रुव और सध्रुव पञ्चली। सध्रुव में
एक घोष होता है। अध्रुव पञ्चली का उदाहरण चौतीसा है। ओड़िसी के अपने स्वतन्त्र छन्द, राग
और ताल हैं। धीर और द्रुत दोनों प्रकार के ताल हैं। पदी में शब्दों को द्रुत गति से गाते हैं जिनमें
लय बदलता रहता है। चौतीसा में क से ह तक ३४ अक्षरों के क्रम में पद रहते हैं। ओड़िसी संगीत
पर कई प्राचीन ग्रन्थों का प्रभाव है-संगीतार्णव चन्द्रिका, गीत प्रकाश, संगीत कलालता, नाट्य
मनोरमा, संगीत सरणि, संगीत नारायण। वर्तमान ओड़िसी नृत्य पर सबसे अधिक प्रभाव जयदेव
के गीत गोविन्द का है।
यहां के मुख्य लोक गीत हैं-झूमर, योगी गीता, के न्दरा गीता, धुदुकी वाद्य, प्रह्लाद नाटक, पाला,
संकीर्तन, मोगल तमाशा, गीतिनाट्य, कण्ढेई नाच, के ला नाच, घोड़ा नाच, दन्ड नाच। प्रत्येक
जनजाति के अपने अलग गीत और शैली हैं।

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नृत्य-(१) गोतीपूअ नाच-गोती का अर्थ गोटिए = १ करते हैं। इसका अर्थ गोत्र भी हो सकता है।
१ लड़के द्वारा नाच होता है। राजा प्रतापरुद्रदेव (१४९७-१५४० ई.) के समय इसके प्रचलन
का उल्लेख मिलता है।
(२) महारी नाच-यह देवदासियों द्वारा मन्दिर में नाच था। चोड़गंगदेव के शासन में पुरी मन्दिर में
महारी अर्थात् देवदासियों की नियुक्ति हुई थी। उसके बाद अनङ्गभीमदेव ने जगन्नाथ मन्दिर में एक
नृत्य मण्डप बनवाया। कई प्रकार के महारी थे-नाचुनी, बाहर गांवनी, भीतर गांवनी, गौड़ासनी।
सम्प्रदा नियोग के वल मन्दिर में ही नाचती थीं। महारी स्त्रियों के लिये कई नियम थे-
-उनका विवाह ९ वर्ष की आयु में जगन्नाथ से होता था।
-जगन्नाथ की पूजा के बाद ही उनका नाच होगा और मन्दिर के किसी उत्सव के समय ही।
-नाच के समय वे दर्शकों को नहींदेखेंगी।
-यह शास्त्रीय पद्धति से ही होगा।
-सदा स्वच्छ कपड़े पहनना चाहिए।
(३) छऊ नाच-इसका आरम्भ मयूरभंज में हुआ। यह वहां का युद्ध सम्बन्धी नाच है। इसके ३
मुख्य प्रकार हैं-सरायके ला, पुरुलिया, मयूरभंज छऊ।
(४) घुमुरा (घुमरा)-कोणार्क सूर्य मन्दिर में इसके चित्र हैं तथा सारला महाभारत के मध्य पर्व में
इसका उल्लेख है। कालाहाण्डी राज्य में यह दरबारी नाच था। इसे जनजातीय नाच मानते हैं। इसमें
घुमुरा, ढोल, निशान, मादल आदि बाजे बजाते हैं। प्रायः नूआखाई तथा दशहरा में यह नाच
कालाहाण्डी में होता है।
(५) पाला, दासकाठिआ-पौराणिक कथाओं का संगीत नाटक पाला है। इसमें अलंकारिक शब्दों
का प्रयोग नृत्य के साथ है तथा अपनी कल्पना से कथा का संयोजन होता है। दासकाठिया में एक
काठ के टुकड़े को बजाते हैं। ३ प्रकार के पाला हैं-बैठकी में बैठ कर नाच करते हैं। ठिया में खड़े
हो कर बोलते और नाचते हैं। बाड़ी में दो दल एक दूसरे को चुनौती देते हैं।
(६) पश्चिम ओड़िशा के विविध नृत्य-बच्चों के गीत हैं-छिओलाइ, हुमोबाउली, दोलीगीत। कु मारों
के गीत हैं-सजनी, छात, दईक, भेकनी। युवकों के गीत हैं-रदरके लि, जाईफू ल, माईल जड़,
बेइमान, गुंछीकू ट, डालखाई। मजदूरों के गीत हैं-कर्मा, झुमर जिसमें विश्वकर्मा और कर्माशनी की
पूजा होती है। कई प्रकार के नाचने वाले हैं-दाण्ड, धंगड़ा, मुद्गड़ा, घुमरा, साधना, सबर-सबरी,
नचना-बजनिया, सम्पर्दा, संचर।
ओड़िसी नाच-भारत के प्राचीन ८ प्रकार के नृत्यों में एक है ओड़िसी जिसका उल्लेख भरत मुनि
के नाट्य शास्त्र में है। भारत के मन्दिरों में २ ही शास्त्रीय नृत्य होते हैं-ओड़िसी और भरत
नाट्यम्। उदयगिरि गुफा में खारावेल का चित्र है जिसमें वे २ रानियों के साथ नाच देख रहे हैं।
बाद में यह मन्दिरों के महारी नाच से सम्बन्धित हो गया। ओड़िसी नृत्य और संगीत दोनों शास्त्रीय
हैं। आधुनिक युग में गुरु के लुचरण महापात्र, संयुक्ता पाणिग्रही, अरुणा मोहान्ती आदि ने इसे पूरे
विश्व में लोकप्रिय बनाया।

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अध्याय १७-जैन और बौद्ध परम्परा
भारत में इन दोनों परम्पराओं के बारे में सबसे बड़ा भ्रम और दुष्प्रचार है कि इनका आरम्भ ‍६ठी
सदी में महावीर और बुद्ध द्वारा हुआ। वस्तुतः महावीर २४ तीर्थंकरों में अन्तिम थे। उसके पूर्व भी
जैन तीर्थंकर थे जिनको परमेष्ठी कहते थे (ब्रह्मा के ७ मनुष्य रूप, महाभारत शान्ति पर्व, अध्याय
३४८)।
ब्रह्मा से आरम्भ होने के कारण वैदिक और जैन परम्परा प्रायः एक साथ विकसित हुईं और एक
दूसरे की पूरक हैं। वेद सनातन शास्त्र हैं तथा इनमें ३ विश्वों का परस्पर सम्बन्ध है-आकाश,
पृथ्वी, मनुष्य शरीर। जैन मत तात्कालिक विज्ञान ग्रन्थ हैं जो योग्यता अनुसार कई स्तरों के थे।
वे लौकिक भाषा में होने के कारण भाषा का प्रचलन समाप्त होने पर लुप्त हो गये। २९००० ई.पू.
में स्वायम्भुव मनु से वैदिक परम्परा शुरु हुई। उसे ब्रह्म सम्प्रदाय कहते हैं। वैवस्वत मनु
(१३९०० ई.पू.) से आदित्य सम्प्रदाय शुरु हुआ। ये ७ मनु ही जैन मत के ७ परमेष्ठी हैं।
१०,००० ई.पू. के जल प्रलय के बाद प्रायः ९५०० ई.पू. में ऋषभ देव से जैन तीर्थंकर क्रम
शुरु हुआ। जैन शास्त्रों में के वल सन्यास नाम लिखे हुए हैं जिनसे उनके मूल नाम और इतिहास
का पता नहीं चलता है। युधिष्ठिर की ८ पीढ़ी बाद काशी के राजा ने संन्यास ग्रहण किया और
उनसे जैन युधिष्ठिर शक २६३४ ई.पू. में शुरु हुआ। इनका संन्यास नाम पार्श्वनाथ था। ओड़िसा
के राजा करकण्डु और दधिवामन इनके शिष्य थे। बाद में खारावेल के समय कु मारी पर्वत पर जैन
मुनियों के निवास बनाने का उल्लेख है। पर हर युग में जैन मुनि और गृहस्थ थे।
बौद्ध मत २८ बुद्धों को मानता है, जिनमें प्रथम कश्यप (१७५०० ई.पू.) थे। कु छ बुद्ध भारत के
बाहर के भी थे। जैसे चीन में फान (शायद कश्यप) और अमिताभ बुद्ध (काक भुशुण्डी) जिनका
रावण को उपदेश लंकावतार सूत्र कहा जाता है। भारत के मुख्य बुद्ध थे-सिद्धार्थ (१८८७-
१८०७ ई.पू.), गौतम बुद्ध (४८३-५५० ई.पू.)। इनके अतिरिक्त सारनाथ स्तूप में मौर्य अशोक
के लेख में ४ बुद्धों की चर्चा है। फाहियान ने ४ बुद्धों का जन्म स्थान और समय दिया है। उसके
अनुसार सिद्धार्थ निर्वाण के १५० वर्ष बाद (१६५७ ई.पू.) धान्यकटक (वर्तमान कटक) में
मैत्रेय बुद्ध का जन्म हुआ था। आचार्य नरेन्द्रदेव की पुस्तक बौद्धधर्म और दर्शन के अनुसार
ओड़िशा के राजा इन्द्रभूति दीपंकर बुद्ध के शिष्य थे। उनके वंशजों से लामा परम्परा शुरू हुई जो
तिब्बत में अधिक प्रचलित हुई। इन्द्रभूति की पुत्री लक्ष्मींकरा ने बाउल गीत लिखे जो अभी बंगाल
में अधिक प्रचलित हैं। एक अन्य प्राचीन बुद्ध थे सुमेधा ऋषि जिन्होंने मिथिला के धनुष यज्ञ के

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बाद परशुराम को दीक्षा दी थी। इनकी शिक्षा त्रिपुरा रहस्य में है तथा चण्डी पाठ के ऋषि भी यही
हैं। इनको बौद्ध लोग सुमेधा बुद्ध कहते थे तथा १० महाविद्या को १० प्रज्ञा पारमिता कहते थे।
इनका स्थान अभी भी बौध कहलाता है जो ओड़िशा का एक जिला है। पुष्पगिरि तथा ललित
गिरि में बौद्ध विद्यालयों के अवशेष हैं।
विष्णु अवतार बुद्ध का जन्म अजिन ब्राह्मण के घर मगध में हुआ था। खारावेल के समय मथुरा में
असुर आक्रमण हुआ था उसमें मगध के आन्ध्र राजाओं की मदद के लिये खारावेल की गज सेना
गई थी। इसके लिये मगध राजा पूर्णोत्संग ने उनकी प्रशंसा की है। मथुरा में पराजय के बाद असुरों
ने एशिया अफ्रीका के सभी राजाओं की सहायता से भारत पर ३५ लाख सेना के साथ सबसे
बड़ा आक्रमण किया जिसको रोकने के लिये विष्णु बुद्ध ने मालव गण बनाया। इसकी नेता
असीरिया की रानी सेमिरामी थी। उस समय ७५६ ई.पू. में शूद्रक शक शुरू हुआ। इसी बुद्ध का
अवतार असुरों को मोहित करने के लिए हुआ था।

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