You are on page 1of 178

म हार

(सं ाम- सधु गाथा तीय खंड)


म हार
(सं ाम- सधु गाथा तीय खंड)

ववेक कुमार
ISBN : 978-93-87464-60-5

काशक :
ह द-यु म
201 बी, पॉकेट ए, मयूर वहार फ़ेस-2, द ली-110091
मो.- 9873734046, 9968755908
पहला सं करण : 2019
© ववेक कुमार

Malhaar: Sangram Sindhu Gatha Bhaag 2


(A novel by Vivek Kumar)
Published By
Hind Yugm
201 B, Pocket A, Mayur Vihar Phase 2, Delhi-110091
Mob : 9873734046, 9968755908
Email : sampadak@hindyugm.com
Website : www.hindyugm.com

First Edition: 2019


अ याय

मृ युदंड
अथला वापसी
स ू और र वदास
द ान क योजना
रक और यौधेय
े ी ल वी
अ य षड् यं
लाल रह य
ापार ान
ापार-संघ क बैठक
मारंग और जाबाल
कालयवन
अनाथालय
कारागार
मुं ा का ठग
का - श पी बदा
मुं ा का राजकुमार
असुर-अ धकृत े
दो लड़ाके
जल-द यु सं ध
ऊसर
हा य नाटक
अ ात अट् टहास
पतामह ेता
मृ युदंड

उड़ता आ वधान राजधानी के उ री ार से र बहने वाली नद के तट पर कूदा। यह


वही नद थी, जसके जलमाग से होकर वह राजधानी प ँचा था। प म क ओर जा रही
नद कुछ र बढ़कर उ र-पूव क ओर मुड़ गई थी। फर दनु बाँस क सीमा रेखा पारकर
अ गन े को चीरते ए अथला म वेश कर एक अ य नद क शाखा बन जाती थी।
संथार और अथला के बीच यही एकमा ापा रक माग था।
नद तट का यह भाग ावसा यक काय के लए आर त था। अतः भीड़-भाड़
कम थी। जन लोग ने उसे आकाश से कूदते दे खा; भौच के होकर सहम गए।
वधान ने भू म कटोरा बनाने क या दोहराई और पुनः उछल गया। हवा म
उसका शरीर थरथरा रहा था और धनंजय पर पकड़ ढ ली होने क आशंका भी हो रही
थी। इस बार नद को पारकर उड़ता आ सूखी घास के समतल मैदान म कूदा। इतनी र
से नद -तट पर खड़ नौकाएँ कसी ब क भाँ त दख रही थ ।
साँस ख चकर पुनः उछाल ली। ऊँचाई पर प ँचकर कौतूहलवश नीचे गई, तो
अ धकांश भू म ाणी वहीन एवं तृण र हत बंजर दखी। सीधी क , तो सूय च ध
मार रहा था।
धनंजय ारा बताए गए पूव नयो जत माग के अनुसार दनु बाँस क उ र-पूव सीमा
राजधानी से कुछ कोस क ही थी। पाँच अ य उछाल के प ात् वह म यम ऊँचाई के
वृ वाले वन म कूदा। वन सघन नह था। वृ र- र फैले ए थे। यहाँ से दनु बाँस क
पं ब सीमा-रेखा क झलक मलने लगी। वधान ने अनुमान लगाया क आठ से दस
उछाल म वहाँ प ँचा जा सकता है, परंतु ऊजा-गाँठ म बची ऊजा के लए यह काय
क ठन होगा। इसके अ त र शरीर का कंपन इतना बढ़ गया था क र वदास और
धनंजय को पकड़े रखना कर हो रहा था। उसने दोन को नीचे रखा तथा गू को भी पीठ
से उतारा। गला और ह ठ दोन सूख रहे थे, जल क कोई व था नह थी। वह वह
समीप के एक छायादार वृ के नीचे बैठ गया और यान क त कर यौ गक अ यास
करने लगा।
चौथाई घड़ी के अ यास से शरीर के कंपन कुछ थर ए। समय कम था। वह उठा
और गू को पुनः पीठ पर बाँधने लगा, तभी उसे आभास आ क कोई पीछे है। चोर
से पीछे दे खने पर शु क पवन के झ क से हलती-डु लती नुक ली वन प तय के सवाय
कुछ नह मला। भागते का वाभा वक म जानकर उसने अ धक यान नह
दया। शी ता से धनंजय और र वदास को उठाया और पुनः उछाल ली।
आगे क सम त उछाल पथरीली बंजर भू म पर लेता आ वह आगे बढ़ता रहा।
सभी उछाल सामा य थ , नौव उछाल अ धक ऊँची नह हो पाई तथा ऊँचाई से उतरते
समय शरीर इतना तेज काँपा क धनंजय छू टते-छू टते बचे। धरती पर कूदते ही उस पर
भी मू छा छाने लगी।
सर को झटककर तथा मन म ंकार भर उसने वयं को उ सा हत करने का पूण
य न कया। अ वलंब पुनः उछाल ली। टू टती इ छाश से ली गई इस क ठन उछाल के
बाद वह दनु बाँस के ठ क सामने प ँचा। आँख मच मचाकर काले बाँस क ऊँचाई का
अनुमान लगाया और फर धीरे से ने बंद कर लए। शरीर म रह-रहकर आंत रक झटके
लग रहे थे तथा ऊजा-गाँठ क ऊजा भी यूनतम तर पर चली गई थी। उसने लंबी-लंबी
दस बारह साँस ख चकर वयं को शांत कया।
वह कसी कार यह अं तम उछाल पूरी कर दानव-सीमा लाँघ जाय, फर य द
अ गन े म वह मू छत भी हो गया, तो गू क उप थ त कुछ तो सुर ा दान करेगी—
ऐसा वचार कर वधान ने अपने ने खोले। दोन हाथ क सवा रय को कसकर जकड़ा
और संपूण श एक कर भू म कटोरे के ारा अं तम उछाल ली।
सर से आपस म रगड़ खाते दनु बाँस के ऊपर से होता आ वह अ गन े के
आकाश म प ँचा। इसी के साथ म त क पर मू छा का आ मण पूरे जोर पर आ गया।
बंद होते ने ने नीचे क धरती दे खने का यास असफल कर दया। अगले कुछ ण म
अ धकतम ऊँचाई ा त करने के प ात् वह नीचे उतरने लगा। मू छा को परा जत करने
के लए उसने अपने ह ठ पर दाँत गड़ा रखे थे। फर भी नचुड़ी श वाली दे ह अब और
अ धक तरोध नह कर पा रही थी। उसे लगा वह एक अंतहीन गहराई वाले अँधेरे कुएँ
म गर रहा है। नरंतर गरता ही जा रहा है। और तभी कुएँ के तल से एक तेज अट् टहास
सुनाई पड़ा। फर सब कुछ काला हो गया। नीचे प ँचते ही चेतना पूरी तरह लु त हो गई।
ध म्…
लंबी-लंबी घास वाली नम भू म पर धनंजय और र वदास हाथ से छू ट कर छतरा
गए। वधान वयं गू को लए मुँह के बल गरा।
न जाने कतने समय प ात् धनंजय क चेतना को कुछ बल मला। लगा कोई
उनका शरीर हला रहा है। वतः खुलने का यास कर रहे ने से धुँधलका य दखा।
कतु चेतना म इतना सं ान नह था क कुछ समझ सक। बार-बार धुँधला रही से
दे खा क एक उनके व क जाँच-पड़ताल कर रहा है। उस ने उनक
कमर-प ट् टका टटोलकर उसम भरी साम ी बाहर नकाला, दे खा और पुनः रख दया।
फर उ ह छोड़कर अ य तीन क ओर गया तथा बारी-बारी से तीन क सतही जाँच क ।
कुछ ण के लए धनंजय क पूरी तरह धुँधलाई। जब पुनः प ई, तो वह
वधान और गू को दाएँ कंधे पर तथा र वदास को बाएँ कंधे पर लादकर उनक ओर बढ़
रहा था।
गौरवण मजबूत दे ह वाले उस ने धनंजय को भी र वदास के साथ बाएँ कंधे
पर उठाया। फर दो ण क थरता के प ात् भू म पर दायाँ पाँव पटका। एक ह के
ऊजा व फोट के साथ वह पूव क ओर आकाश म उछल गया। उछाल से उ प ए
झटके से धनंजय पुनः सं ा शू य हो गए।
चार सवा रय को लेकर वह पूव क ओर उछलता जा रहा था। ऊँची उछाल
लेने के लए उसे वधान क भाँ त भू म कटोरा बनाने क आव यकता नह पड़ रही थी।
छोटे -बड़े वृ , दलदल , गड् ढ तथा कंट ली वन प तय यु मैदान के ऊपर से उछलता
आ वह अ गन े को पारकर अथला के समीपवत वन म कूदा। कुछ अ य उछाल के
प ात् वह वन के बाहरी छोर पर प ँचा। उसने कंधे क सवा रय को धीरे से नीचे
उतारकर रखा। फर चार ओर एक सतक डाली और जैसे ही आगे बढ़ने के लए
पग बढ़ाया; धनंजय ने उसके दाएँ पाँव म अपना हाथ अटका दया। उनका हाथ उस
के पैर म पहने वण कड़े पर पड़ा। पेट के बल पड़े धनंजय बड़ी क ठनाई से सर
उठाकर बोल पाए— “क…कौन?”
चुप रहा, कुछ न बोला। एक ह के झटके से अपना पाँव छु ड़ाया और आगे
बढ़ गया। आठ पग ही बढ़ा होगा क धनंजय का वर पुनः फूटा— “क…कौन…?”
इस बार ठठका, दो ण के मौन के प ात् शांत वर म सं त उ र दया
— “मातरम।”

दानव राजमहल के मु य ार के सामने चौराहे के बीच बनी वी थका पर कमर से मटक


टकाए ी क मू त था पत थी। वी थका पया त चौड़ी थी। उसी पर काठ के एक
साधारण आसन पर द ान भावहीन-सा बैठा था। सामने ही तीस हाथ क री पर लकड़ी
का एक अ थायी मंच बनाया गया था, जस पर उरी को मृ युदंड दे ने के लए मुख पर
सफेद रंग पोते एक व धक खड़ा था। वी थका और मंच को घेरते ए बाँस क एक
वृ ाकार बाड़ लगाई गई थी। उस बाड़ म आने-जाने के लए एकमा माग राजभवन के
मु य ार क ओर से खोला गया था।
बाड़ के चार ओर भारी जन-सैलाब शोर मचाता आ उप थत था। कुछ दनुमाता
क जय-जयकार कर रहे थे और कुछ महाम हम क । शाप- लय-महामारी-क जैसे
अ प श द भी बीच-बीच म सुनाई पड़ जाते थे। इसके अलावा ‘एक असुर क दनुमाता
म या ा…’ यह वा य भी कह -कह से बोले जा रहे रहे थे। वधमंच के ठ क पीछे
खड़ी याँ राजम हषी के नाम पर वलाप कर रही थ । भीड़ बड़ी थी, कतु नयं ण म
थी। अतः बाड़ पर खड़े ह रय को लोग पर कोई वशेष अनुशासन नह लादना पड़
रहा था।
वी थका पर बैठा द ान सपाट भाव से भीड़ पर पात कर रहा था। धानमं ी
दा ओर खड़े थे और धीरा बा ओर। दारा वहाँ उप थत नह था। दोपहर क
चल चलाती धूप थी, अ यथा दोगुनी भीड़ जमा होती।
कुछ ण उपरांत सै नक के घेरे म नय नका स हत चार अ य प रचा रका के
साथ राजभवन के ार पर उरी कट ई। उ ह दे खते ही शोर ती हो गया। प रचा रकाएँ
रो रही थ और नय नका जड़-सी बनी ई थी। साज-शृंगार वहीन, खुले केश वाली उरी
पूरी तरह व त थी। तीत हो रहा था मानो वयं चल नह रही, अ पतु अ मू छत
अव था म दो प रचा रका ारा घसीटा जा रहा हो। भीड़ का वर ती होता जा रहा
था। द ान ने आसन पर बैठे-बैठे ही पीछे मुड़कर उरी को राजभवन क सी ढ़याँ उतरते
दे खा। दाँत भ चे, जबड़ा कसा, और सीधे होकर पुनः भावहीन हो गया।
भीड़ म कुछ उ माद लोग ने फकने के लए कंकड़-प थर उठा रखे थे। पर साहस
न आ, मुट्ठ म ही दबाकर रह गए। वलाप करती प रचा रकाएँ उरी को लेकर धीरे-धीरे
मंच तक प ँच । सं ा-शू य सी उरी क गरदन कभी इधर झूलती तो कभी उधर।
नय नका भी प थर-सी तं भत थी, उसका शरीर यं वत् चल रहा था। उरी को लेकर वही
मंच पर चढ़ । मंच पर चढ़ते ही जन-समुदाय म तेज कोलाहल आ। दनुमाता क जय-
जयकार जोर से होने लगी। अपनी राजम हषी क ऐसी दयनीय अव था दे खकर कइय
को ला न ई। दबे वर म मादान के भी श द उठे ।
द ान उरी पर अपलक जमाए ए था। धीरा शांत था, पर धानमं ी थोड़े
वच लत लग रहे थे। उ ह ने चोर से द ान के भाव पढ़ने का यास कया, परंतु
असफल रहे।
मंच पर खड़े व धक को फरसा संभालते दे ख य का समूह भयंकर दन पर आ
गया। व धक द ान के संकेत क ती ा कर रहा था। भीड़ भी द ान का मुँह दे ख रही
थी।
तभी राजमहल के ार को पार करता आ एक युवक आया और वी थका तथा मंच
के बीच खड़ा हो गया। आते ही दोन हाथ ऊपर उठाकर द ान से वनती क —
“महाम हम! अनथ न कर…राजम हषी अव य ह।”
जन समुदाय णभर म शांत हो गया। अ धकांश लोग उस युवक को पहचानते थे।
वह राजवै का पट श य पारद था। द ान ने उसे वाचक से दे खा पर कुछ बोला
नह । द ान को शांत दे खकर धानमं ी ही वी थका से उतरकर पारद के समीप प ँच।े
पारद ने अ यंत मंद वर म धानमं ी को कुछ बताया। बात सुनकर धानमं ी कुछ ण
तक उसे एकटक घूरते रहे। फर शंकालु वर म पूछे, “अभी तक कहाँ थे?”
“राजवै के साथ तीन दन से बाहर था। अभी आध घड़ी पहले ही राजधानी
प ँचा ँ। हम आशा थी क महाम हम को ात होगा।” पारद ने धीमे वर म सहज उ र
दया।
धानमं ी क शंका का समाधान नह आ, कतु कुछ न बोले। फर वयं को
सामा य करते ए ऊँचे वर म द ान से संबो धत ए—
“महाम हम! राजम हषी अभी गभ से ह। दनु-सं हता के अनुसार कसी भी गभवती
को संतान ज म के समय तक दं ड नह दया जा सकता। अतः सू तकाल तक दं ड
वलं बत कर दया जाए।”
द ान ने व च से पारद और धानमं ी को बारी-बारी से घूरा, फर भौह
सकोड़कर पुनः उरी पर क त हो गया।
भीड़ म खुसर-फुसर ारंभ हो गई। कंकड़ उठा रखे उ पाती लोग म से कुछ ने
तवाद कया— “हम नह ात क ऐसा कुछ सं हता म है।”
बोलने वाले भीड़ म धँसकर खड़े थे। इतने र थे क उनके मुख पहचाने नह जा
सकते थे। बस वर ही प ँच पा रहे थे।
द ान ने कहने वाल क दशा म एक उड़ती डाली और कुछ न बोला।
धानमं ी को लगा क उ ह ही थ त संभालनी होगी। उ ह ने धीरा को ने संकेत कए।
धीरा ने अपनी चौड़ी फलक वाली तलवार यान से ख च ली। धानमं ी कड़े श द म
भीड़ से बोले— “अपनी अ ानता के लए तुम वयं दोषी हो। जसक भी दनु-सं हता म
ा घट हो, वह तुत हो…दानव स ा उसका ान बढ़ाकर उ चत स कार करेगी।”
धानमं ी ने योरी चढ़ाकर एक गहरी पूरी भीड़ पर डाली। भुनभुनाने के कुछ
वर ए। फर सब शांत हो गया।
द ान अभी भी भौह सकोड़े उरी को अपलक दे ख रहा था। नथुने फुलाकर लंबी
साँस छोड़ी और उठकर खड़ा हो गया।
मृ युदंड टाल दया गया था।

आधी घड़ी प ात् राजभवन के एक गत क म द ान, धीरा और पारद


उप थत थे। पारद व ास दलाते ए बोल रहा था—
“आप न त रह, महाम हम! बात खुलने क न कोई संभावना है और न ही कोई
अवसर आएगा। आप राजम हषी को चांदा भेजने का आदे श द। वहाँ से सूचना क एक
रेखा भी बाहर नह जा पाएगी।”
चांदा दानव क एक अ य राजधानी थी, जो प मी े पर नयं ण रखने के
लए द ान के पतामह महाम हम ेता ने था पत क थी। चांदा मा कहने के लए
राजधानी थी। वहाँ क जनसं या नग य थी और शास नक काय से अ धक शोध काय
अ धक होते थे। शोध काय के कारण वहाँ क सुर ा उ चतम तर क थी।
द ान ने कुछ ण तक अपने आसन के ह थे सहलाए, फर भेदक से दे खते
ए पूछा— “घर म कतने सद य ह?”
पारद क दे ह म सहरन दौड़ गई। जानता था, यह नह , अ य चेतावनी है।
धीरे से उ र दया— “माँ, दो भाई और एक ब हन।”
“चांदा जाने क व था करो। तु हारे प रवार का क याण हम दे खगे,” आसन से
पीठ चपकाते ए द ान बोला।
“जैसी आ ा!” पारद ने सर झुकाकर णाम कया और क से बाहर नकल
गया। जाते समय वह प अनुभव कर रहा था क राजप रवार के भेद म कतना भार
होता है।
अथला वापसी

वधान क आँख खुली। पीठ को चम बछ काठ क श या का अनुभव आ। ने इधर-


उधर घूमे तो ात आ क प थर के एक क म है। ऊपरी रोशनदान से मंद-मंद काश
आ रहा था। घोड़ के टाप क व न सुनाई पड़ी, तो वयं ही ार क ओर मुड़ी।
कवाड़ र हत ार पैर क सीध म ही था। बाहर धूप म कुछ सै नक और अ ारोही
चलते- फरते दखे। वेश-भूषा जानी-पहचानी लगी। कुछ ही ण म मरण आया क
अथला के सै नक ह। इसी के साथ उसक चेतना पूरी तरह लौटने लगी। पछली सम त
घटना के च घूमना ारंभ हो गए। मब ता से सब कुछ मरणपट पर आया।
अं तम च अ गन े म भू म से टकराने का था। मन म त काल क धा, “वह यहाँ
कैसे प ँचा? सरे कहाँ ह?”
झटके के साथ उठने का यास कया, तो शरीर को ती पीड़ा ई। उठने का यास
छोड़कर दा करवट लेनी चाही, पर दा पस लय ने दद दया। अतः सीधा होकर बा
करवट ले ली। करवट लेते ही धनंजय दखे। पीढ़े पर बैठे मानो उसी के उठने क ती ा
कर रहे थे। वधान से टकराते ही उनक सहज मु कान बढ़ गई। पीढ़े को ख चकर
वधान के नकट आ गए।
वधान ने यान से दे खा। धनंजय क दोन बाँह , छा तय और माथे पर प ट् टयाँ
बँधी थ । दा बाँह का कोई घाव अभी तक पूरी तरह सूखा नह था, जसके र ाव ने
प ट् टय पर लाल रंग का एक बड़ा ध बा छोड़ दया था। उनक दाढ़ -मूँछ भी साफ थ ।
वधान के हाथ वतः ही अपनी दाढ़ को टटोलने के लए गए। उसक भी हटा द गई थ ।
धनंजय उसक बाँह और माथे को छू कर ताप क जाँच करते ए बोले, “दो दन
प ात् उठे हो।”
धनंजय क मु कान क छू त से वह भी थोड़ा मु कुराया और उ र जानते ए भी
कया, “छावनी म ह?”
“हाँ! सीमावत छावनी है। जहाँ प ँचना था, अंत म वह प ँच।े ”
वधान क सर को खोजने के लए इधर-उधर घूमी। धनंजय उसका
भाँप गए। बोले, “र वदास व थ है, ठोस है। सबसे पहले वही उठा। शरीर पर कुछ
खर च ह, कतु घाव एक भी नह । और गू….।” गू का नाम लेकर धनंजय कुछ पल क
गए।
वधान क धनंजय पर टक गई। धनंजय सहजता से ही बोले, “गू को तु हारा
सर चा हए।”
वधान के ने एकदम से सकुड़ गए। मुँह पर घोर आ य आ बैठा। धनंजय पर
और भी गड़ा द ।
धनंजय ने व तार से बताया— “गू हमारी भाषा टू ट -फूट ही जानता है। आधे
हमारे और आधे अपनी भाषा के श द मला-जुलाकर बात करता है। उसक बात का
जतना सार समझ सका, उसके अनुसार वह अ गन के एक गण के मु खया का पु है।
दो पू णमा प ात् उसके गण म नया नायक चुना जाने वाला है। कइय के साथ वह भी
बल दावेदार था। नायक के चुनाव म तयोगी और उसका रीछ सरे तयो गय एवं
उनके रीछ से लड़ते ह। कतु तुमने पहले ही उसका रीछ मार डाला। गण के मु खया के
प रवार म कसी के रीछ का श ु ारा मारा जाना श हीनता का प रचायक
माना जाता है। अ गन क परंपरा के अनुसार गू के पता ने उसे गण से ब ह कृत कर
दया। अब उसका गण उसे तभी वीकार करेगा, जब वह रीछ को मारने वाले श ु को
परा जत कर उसका सर तुत करे…।”
वधान को व च लगा। धनंजय से हटकर कह और भटकने लगी।
धनंजय कह रहे थे— “…अथवा…”
‘अथवा’ श द सुनते ही वधान क भटकती झट से धनंजय पर पुनः आ
चपक ।
“…अथवा वह दस वय क रीछ पकड़कर तुत करे।”
सरा वक प सुनकर वधान को अ छा लगा। मन म गू के रीछ के त थोड़ा
प ाताप भी उठा। एक द घ ास के प ात् पूछा, “वह दानव दे श म कैसे कट आ?”
धनंजय मधुर हा य के साथ बोले, “सब मुझसे ही पूछ लोगे, तो उससे बात करने के
लए तु हारे पास या शेष रहेगा!”
“ या म उसक भाषा समझ पाऊँगा?” वधान ने थोड़ा आ य दखाया।
“उसके श द पर यान लगाओगे, तो ब त सीमा तक समझ म आ जाएगा।”
“आप बता द जए,” वधान ने अनुरोध कया। “पता नह म उसक बात का
ठ क-ठाक कतना अथ समझ पाऊँ और या पता वह मेरा सर काटने का अवसर दे ख
रहा हो।”
धनंजय हँसे, “नह , नह ! जंगली जा त का होते ए भी वह सरल दय का है।”
“सरल दय!” वधान ने ने फैलाकर आ य दखाया।
“भटकर वयं दे ख लेना,” धनंजय बोले।
“हाँ! अब कौतूहल जाग गया है। कतु अभी आप मेरा उ र दे ने क कृपा कर।”
वधान ने पुनः अनुरोध कया।
धनंजय पीढ़े पर अपनी बैठक बदले और बताने लगे—
“रीछ पकड़ने के अ भयान पर नकलने से पहले परंपरा के अनुसार वह दनुमाता
क कृपा लेने समा ध थल पर आया था। संयोग से हम भी वहाँ उप थत थे। तु ह दे खते
ही उसे लगा क दनुमाता क अनुकंपा से तुम उसे मल गए। दस रीछ पकड़ने जैसे
ःसा य काय क तुलना म तु हारा सर काटना उसे अ धक सरल लगा। हम संकट म
दे खकर उसने सोचा क य द तुम वहाँ मारे गए अथवा पकड़े गए, तो तु ह परा जत करने
का अवसर नह मलेगा। अतः दनुमाता के संकेत को आदे श मानकर वह हमारी सहायता
के लए कूद पड़ा था।”
“ओह!” वधान के मुख से नकला, “सहायता क , वह भी ाण लेने के उद्दे य
से! वा तव म सरल दय है।”
धनंजय खुलकर हँसे। बोले, “उद्दे य तो उसका यही था। कल जब उसक मू छा
टू ट , तो खूब बड़बड़ाया और एक सै नक से भाला छ नकर इसी क म बैठकर तु हारे
उठने क ती ा कर रहा था। ब त समझाने पर माना। अब वह तु हारे ाण के पीछे
नह है। मने वचन दया है क रीछ पकड़ने म तुम उसक सहायता करोगे।”
“अव य क ँ गा,” वधान ने स तापूवक समथन दया, “ कतु दस रीछ पकड़ने
म न जाने कतने माह लग जाएँ।”
“यह चता बाद म करगे। अभी तु हारे लेप सूखकर कड़े हो रहे ह। म वै को
भेजता ँ,” कहकर धनंजय खड़े हो गए।
धनंजय के खड़े होते ही वधान को सबसे मह वपूण मरण आ। पूछा, “म
अ गन े तक ही अपनी चेतना संभाल सका था, हम यहाँ कैसे प ँच? े ”
धनंजय के मुख पर एकाएक गांभीय छा गया। कुछ पल सोचकर बोले, “म वयं
असमंजस म ँ। मा इतना समझ लो क एक हतैषी हम अ गन े से सटे अथला के
वन म छोड़ गया। वहाँ से यह छावनी कुछ ही र है। दै नक नगरानी करने गए एक सै य
दल को हम ा त ए। वे हम यहाँ सुर त ले आए।”
वधान के मुख पर वाचक भाव बना ही रहा। धनंजय थोड़ा समझाने के भाव म
बोले— “मुझे पूण प नह है क वह हतैषी कौन था। कतु तीत होता है क कुछ
ऐसा घ टत हो रहा है अथवा होने वाला है जसके वषय म हम भनक तक नह । सोचता
ँ, मह ष गौतम से अ तशी भट कर आऊँ।”
“ या पुरातन इ तहास से संबं धत वषय है?” वधान ने पूछा।
“संभव है,” धनंजय अ न तता से उ र दए।
वधान को लेटकर बात करना अ छा नह लग रहा था। धीरे से हाथ के बल उठकर
बैठ गया। उठते समय पीड़ा ई, कतु एकबार बैठ जाने के प ात् दद थर हो गया।
धनंजय अपनी कमर प ट् टका पर हाथ फेरते ए बोले— “म श -कुंडल को
अपने साथ ले जा रहा ँ। परंपराधीश से कुछ आव यक परी ण कराने के प ात् तु ह
सौपूँगा।”
“आप आज ही अकेले थान करगे?” वधान अनुमान लगाते ए पूछा।
“हाँ! तु हारे उठने क ती ा कर रहा था, अ यथा ातः ही नकल जाता।”
तभी क के ार पर काश कुछ कम आ। कसी के आकर खड़े हो जाने
से क म वेश करने वाला काश अव हो रहा था।
“माग म छोड़कर वलु त हो जाना इसका पुराना आचरण है,” कहते ए र वदास
उन दोन के समीप प ँचा, “तुम व ाम करो महाबली! यह तो बीहड़ म कूदता-फाँदता
और क चड़, नाल म नान करता आ जाएगा। कल ातः मेरे साथ या ा आरंभ करना,
पु प स जत माग से ले चलूँगा। अथला क वा त वक ह रयाली उधर ही दे खने को
मलती है। माग म मूसर नाम का अ तसुंदर ाम मलेगा। वहाँ ेत खरह का नम माँस
खलाऊँगा।”
“ मा कर! आप भूल रहे ह क म माँसाहार नह करता,” वधान बोला।
“तो या आ! तुम वहाँ के फल ही चबा लेना,” कहकर र वदास जोर से हँसा।
धनंजय शी ता म थे। वे जानते थे क अवसर मलने पर र वदास इधर-उधर क
बात खूब मन लगाकर करता है। उ ह ने दोन को कुछ समझाया। वशेषकर वधान को
क वह अपनी दाढ़ -मूँछ इतनी न बढ़ने दे क संथार म दे खा गया उसका प कसी भी
कार पुन कट हो, य क पूण आशंका थी क समा ध थल पर उप थत संथार के
गु तचर स धारक क खोज म जंबू प अव य आएँग।े आने वाले यु से पहले वे
यथासंभव वधान क पहचान गु त रखना चाहते थे। कुछ अ य बात बताकर उ ह ने दोन
से वदा ली।
धनंजय के जाने के प ात् र वदास वह पीढ़े पर बैठ गया और वधान को पुराने
या ा-वृ ांत सुनाने लगा। सारी या ा-कहा नयाँ र वदास के बचपन क थ , जब वह मुं ा
के एक राजपु ष का दास आ करता था। वधान को सुनने म ब त चाव आया। बैल ,
भैस , गध और मृग स हत न जाने कन- कन पशु क सवारी र वदास ने कर रखी
थी। मुं ा के सुंदर वन , झील और वहाँ के तबं धत े के वणन के प ात् अं तम
वृ ांत हमालय पर थत य तय के रा य ेत खंड क या ा का था। वह या ा पूरी नह
हो सक थी। र वदास ने उसके एक माग का वणन कया, जो लभ पु प वाले वृ के
घने वन से होकर जाता था और जहाँ उसने पारदश सप दे खा था। वधान को थूल का
यान आ गया।
मनोरंजक घटना को सुनाकर र वदास खुलकर हँसता और उसक पीठ पर एक
हाथ भी जमा दे ता। डेढ़ घड़ी प ात् जब लेप बदलने के लए एक वै आया, तब तक
वह वधान क पीठ चार बार ठ क चुका था।
नया लेप लगते ही वधान को ती न ा आने लगी। र वदास उसे व ाम करने को
कहकर चला गया।

वधान क न ा तीन घड़ी प ात् टू ट । शरीर को थोड़ा क था, कतु मन म फू त


थी। उठते ही श या के नकट मट् ट के कटोरे म ढककर रखा गुड़ खाया और मटक से
जल पया। छाछ पीने क ती इ छा ई, कतु वहाँ थी नह । एक बार सोचा क हरी
को आवाज दे कर मँगा ले। फर वचार आया क वह सै य छावनी म बैठा है, यहाँ ऐसी
गत माँग उ चत नह ।
वह खड़ा आ, धोती ठ क क और क के बाहर नकल गया। उठने और चलने से
शरीर पर लगे लेप के टु कड़े, जो पुनः सूख गए थे, झड़कर गरने लगे। क के ार पर
एक हरी भाला लए तनकर खड़ा था। वधान के बाहर आते ही उसने एक पूरी
ऊपर से नीचे तक उस पर डाली। लेप के झड़ने से यमान हो रहे उसके घाव- च को
यान से दे खा और पुनः सीधा तन गया।
वधान के सामने एक खुला मैदान था, जसम कुछ सै य दल भाल के साथ यु क
अ यास कर रहे थे। मैदान के बा व दा ओर आपस म सटे क क शृंखलाएँ थ । उन
शृंखला के पीछे से कुछ ऊँचे क झाँकते से दखे। मैदान म ठ क सामने अं तम छोर
पर उपसेना य कुंतल थे। वे प चीस-तीस सै नक क कतारब टु कड़ी को संबो धत
कर रहे थे। दानव दे श के अ भयान के वषय म जानने वाले वही एकमा बाहरी
थे।
बा ओर, एक न न ऊँचाई का हरी घास से ढका पठार दखा, जसक लगभग
समतल चोट के पीछे से घर लौटता सूय नारंगी करण फक रहा था। दय ने सूया त क
सुंदरता बटोरने के लए उसके पग को सहज ही पठार क ओर बढ़ा दया।
यह थान जहाँ इस समय वधान उप थत था, प म म अथला क अं तम छावनी
थी। दखने म यह भले ही सै य छावनी तीत होती हो, कतु राजक य अ भलेख म यह
ापा रक जाँच-चौक के नाम से अं कत थी। यहाँ उप थत सै य टु कड़ी ापा रय और
व तु क द यु से सुर ा के लए थी।
संपूण जंबू प म दानव के साथ ापार तबं धत था। कतु दानव के पास एक
ऐसी व तु थी, जो लभ म भी लभतम थी— व फोटक चूण।
व फोटक चूण क नमाण-कला दे व के अ त र मा दानव के पास थी। इस
एका धकार का उ ह ने भरपूर लाभ उठाया। दानव ने त करी के मा यम से जंबू प के
द णी रा य को व फोटक चूण बेचना ारंभ कर दया, वशेषकर अथला के श ु
रा य को। इन चूण से बने अ -श ने अथला के वरो धय का साहस बढ़ा दया
और यु म अचानक से भारी असंतुलन पैदा हो गया। कई यु म अथला घटना त
होते-होते बची। अंत म श -संतुलन साधने के लए अथला ने अमरखंड से आ ा लेकर
दानव के साथ व फोटक चूण का ापार ारंभ कर दया। बदले म संथार को अथला
से अ भंडार ा त होने लगे। कुछ वष के सामा य और व सनीय ापा रक
वातावरण ने चमड़े क व तु को भी ापार म जोड़ दया। संथार के रीछ चम क माँग
अथला और आस-पास के रा य म खूब थी।
संथार क राजधानी के बाहर बहने वाली नद , जो अ गन े को पार कर अथला
म वेश करती थी, पूरे जंबू प का दानव के साथ एकमा औपचा रक ापा रक माग
था। इसी नद के तट के समीप यह छावनी था पत थी।
शृंखलाब क को पारकर लगभग पचास हाथ आगे बढ़ने पर दा ओर मैदान के
कनारे वाले क क शृंखला ारंभ हो जाती थी। सीधे जा रहे वधान का यान उन
क -शृंखला के पीछे से आ रही घोड़ क हन हनाहट ने ख चा। बढ़कर दे खा तो वहाँ
चार काले घोड़े चर रहे थे और एक घोड़े को गू अपने हाथ से घास खला रहा था। गू के
केश काटकर छोटे कर दए गए थे और वेशभूषा भी बदली ई थी। थम ् या कसी
को भी पहचानने म क ठनाई होती। घोड़ को खलाते ए उसके हाव-भाव पर कौतूहल
म त स ता छाई ई थी। मानो कसी ब चे को खेलने के लए एक नया खलौना
मल गया हो।
घोड़े को सहलाने और धरती से घास न चकर खलाने म गू इतना मगन था क उसे
वधान क उप थ त का भान ही नह आ। वधान ने सोचा क चुपचाप आगे बढ़ जाए,
कतु दो पग बढ़ाते ही गू क म आ गया। वधान को दे खते ही वह एकदम शांत हो
गया। वधान ने मु कुराकर श ाचार दखाने का यास कया, पर गू ने कोई त या
नह द । मुख पर ठं डा भाव बना रहा। जस घोड़े को वह खला रहा था, वह हन हनाकर
सरी ओर चला गया। गू क व च से वधान थोड़ा असहज हो गया। कुछ
वातालाप आरंभ करने के लए बना कुछ सोचे बोला, “तु हारे रीछ के लए मुझे ःख है।
हम दोन मलकर बीस रीछ पकड़ लगे।”
गू अभी भी एकटक रहा।
वधान ने सोचा क अभी सही अवसर नह है। वह सीधे ट ले पर चला गया। ट ले
क सपाट चोट पर छोटे -बड़े ढे र प थर बखरे ए थे। शायद कभी कोई संरचना रही हो,
जो अब अपना अं तम आकार भी खो चुक थी। एक कम बेडौल प थर खोजकर वधान
उस पर बैठ गया।
स वतानारायण को पूरी तरह डू बने म अभी आध घड़ी बची थी। आकाश म काले
मेघ का समूह चढ़ता दखा। संभव है, कल वषा हो।
सामने ह क ढलान लेते ए व तृत मैदानी भाग था, जसके बीच म संथार क
ओर जाने वाली नद चाँद क एक पट् ट समान लग रही थी। इस ट ले से नद र थी,
फर भी उसके दोन कनार के चौड़े पाट पर बनी जाँच-चौ कयाँ प द ख रही थ ।
चौ कय पर पीले व लाल व पहने जाँच अ धका रय के साथ पूरा सै नक दल कायरत
था। व तु क नधा रत गुणव ा और मा ा क जाँच के साथ, उनको यह भी सु न त
करना था क आयात क व तु क आड़ म मादक पदाथ का वेश न हो।
म यम आकार क दो ापा रक नौकाएँ जाँच के लए चौक पर आगे-पीछे लगी
ई थ । एक अ य नौका संथार क ओर जा रही थी। उस पर लदा अ भंडार दो मं जला
भवन जतना ऊँचा था।
इस ापा रक नद का नाम धमेखला था। अथला के ऐ तहा सक अ भलेख के
अनुसार यह कोई ाकृ तक नद नह थी। इसे कई छोट -छोट न दय को जोड़-तोड़कर
तथा खुदाई करके कृ म प से धाता- थम के शासन काल म नकाला गया था।
नद के जल से नमी लेकर बह रही पवन क शीतलता का आनंद, वधान आँख
मूँदकर ले रहा था। स ू, माँ, काका, काक , बसंत, मयूरी, रागा, इं ाणी और अमरखंड
सभी को उसने याद कया। मन म खल रहे फूल के का प नक च पूरी तरह बनने ही
वाले थे क पदचाप क ह क आहट से ने खुल गए। मुड़कर पीछे दे खा, तो गू हरे रंग
का एक बड़ा फल कंधे पर लादकर उसक ओर आ रहा था। आते ही उसने वधान के
बगल वाले प थर पर फल को पटक दया। प थर से टकराते ही फल टु कड़े-टु कड़े हो
गया और अदं र का कुछ रस उछलकर वधान के मुख व शरीर पर पड़ा। यह फल वधान
ने पहली बार दे खा था। कुछ-कुछ खरबूजे जैसा था, पर गूदा जामुनी रंग का था।
गू ने बखरे टु कड़ म से एक बड़ा टु कड़ा उठाकर वधान को दया। फर एक अ य
बड़ा टु कड़ा वयं के लए छाँटा और वधान के ठ क सामने वाले प थर पर बैठ गया।
कतु जस तेजी से वह बैठा था, उससे गुनी तेजी से खड़ा हो गया। प थर पया त
नुक ला था। वधान को हँसी आ गई, पर झट से मुँह म फल ठूँ स लया। गू ने कोई वशेष
त या नह क और घास पर बैठ गया।
जब गू ने अपना टु कड़ा पूरा खा लया, तब वधान से कुछ कहा। उसक बात
सुनकर वधान स रह गया। मन ही मन सोचा। आ खर कस आधार पर धनंजय ने कहा
था क वह गू क भाषा समझ लेगा। वधान क चु पी और मुख के भाव दे खकर गू को
अपनी भूल का भान आ क उसे शु प से अपनी भाषा नह बोलनी चा हए थी।
वह पुनः कुछ बोला। इस बार वधान को कुछ श द समझ म आए। मतणा, छे मा
और खांगणा। ‘ मतणा’ का अथ म नकाला। ‘छे मा’ का अथ मा नकाला और
‘खांगणा’ का कोई अथ ही नह नकला।
वधान ने हाँमी म सर हलाया। मानो उसक बात समझ रहा हो और फल खाने म
लगा रहा। सोचा, जब तक मुँह म फल भरा रहेगा, उसके बोलने का अवसर आएगा ही
नह ।
इसके प ात् गू ही बोलता रहा। हाथ से तरह-तरह के संकेत कर अपनी बात प
समझाने का पूरा यास करता रहा। अब वह कई श द को साफ उ चा रत कर रहा था।
ाकरण आगे-पीछे हो जाता था, पर वधान भाव का अनुमान लगा लेता।
कसी बात को बताते ए गू उ े जत हो गया। नख को दखाकर ऐसी व च
व नयाँ नकाला क वधान को लगा क कह नकोट न ले।
जस घोड़े को गू घास खला रहा था, वह चरते ए ट ले पर चढ़ आया। घोड़े को
दे खते ही गू उठकर उसके पास गया और उसक नम बाल वाली गदन को सहलाता आ
पूरी स ता से कुछ बताने लगा। वधान, गू के मुख क स ता दे खने म इतना खोया
रहा क उसके ारा बोले श द पर यान नह दे सका। बात समझ म नह आई, कतु यह
समझ आया क गू अपने रीछ के साथ इसी कार आ मीय रहा होगा।
घोड़े को भलीभाँ त पुचकार कर गू अपने थान पर लौट आया। फल के छोटे -बड़े
सभी टु कड़े बीन-बीनकर खा लेने के बाद वधान भी बोलने लगा। वह गू को स ू के
वषय म बता रहा था। संदेह था क गू शायद ही सही अथ समझ सके, य क संभव है
क मानवीय संबंध क संरचना और संबंध के बीच का जुड़ाव गू के समाज म भ हो।
फर भी कुछ वातालाप चलता रहे, इस लए बताता रहा।
गू पूरे उ साह और यान से सुन रहा था। बीच-बीच म वधान ारा बोले गए कसी
श द को उ चा रत करने का पूरा य न करता।
अँधेरा होने तक, एक- सरे क बात को पूरी तरह समझे बना, दोन बड़बड़ाते रहे।
जब वे ट ले से उठे , तब मेघ ने गजना कर अपना उद्दे य कट कर दया।

अगले दन मेघ से घरे ातःकाल, वधान अपना कलेवा समा त कर गू और र वदास क


ती ा कर रहा था। राजधानी लौटने के लए रथ क व था थी। कतु गू उस घोड़े को
भी साथ ले चलने का अनुरोध कर रहा था, जसे पछले दन वह घास खला रहा था।
पहले जब गू ने वधान से कहा, तब वधान ने अथ लगाया क वह घोड़े को काटकर खाने
क बात कर रहा है। वधान उसे समझाने लगा क जब खाने क अ य साम ी उपल ध
है, तो ऐसी अनु चत माँग नह करते और एक सै य अ को श त करने म वष भर
लग जाते ह। गू खीझ के साथ नख दखाकर बड़बड़ाया। बगल बैठकर कलेवा कर रहे
र वदास ने प कया क गू घोड़े को साथ ले जाना चाहता है।
फर र वदास ने उप सेना य कुंतल से औपचा रक आ ा ा त कर ली। इस समय
गू और र वदास उस घोड़े पर काठ कस रहे थे और वधान मैदान के बाहरी छोर पर बैठा
उपसेना य ारा दया जा रहा श ण दे ख रहा था।
ठगने कद के कुंतल मजबूत साँड़ स श दख रहे थे। पाँच पं य म खड़े तीस
सै नक को वे अपने भारी वर म एक सेनानायक क वशेषताएँ समझा रहे थे। पूरी बात
तो नह पर कुछ बात— जो तेज वर म थ — वधान को सुना पड़ । वे कह रहे थे—
प रवार हो या सेना, आदे श के अ धकार के एक व क भली-भाँ त र ा होनी चा हए।
वधान को याद आया; एक बार स ू ने उपसेना य के वषय म बताया था क वे
येक बात म सेना के साथ प रवार को भी स म लत करते ह। उप सेना य के लए
प रवार भी सेना क भाँ त एक संघटन है।
वधान को यादा दे र सुनने का अवसर नह मला। गू और र वदास रथ क ओर
जाते दखे। वह भी उठकर चला। गू का रथ पर चढ़ने का पहला अनुभव था। कौतूहल
और स ता उसके मुख से टपक रही थी। चढ़ते ही सीधे जाकर सारथी के पीछे खड़ा हो
गया। वधान और र वदास भी चढ़े । तीन ने साधारण सै नक का भेष बना रखा था। दो
अ य घुड़सवार भी साथ थे। उनम से एक घुड़सवार गू के घोड़े पर था।
उनके चढ़ते ही सारथी ने रथ हाँक दया। आगे रथ और पीछे घुड़सवार। दे खने वाले
को तीत होता क कसी राजक य काय से जा रहे ह।
पछली रा बादल ने क- ककर जल बरसाया था। अभी भी बूँदा-बाँद चल रही
थी। भू म नम थी और कह -कह क चड़ भी था। अतः रथ तेज ग त से नह भगाया जा
सकता था।
बा रश ने वृ और वन प तय पर जमी धूल को धो-प छ दया था, जससे चार
ओर हरी तमा बढ़ ई लग रही थी। बादल के पीछे छपे सूय का कुछ अता-पता नह
था। वायु इतनी शीतल हो गई थी क शीत-ऋतु के आगमन क घोषणा करती तीत हो
रही थी। गीली धरती से उठ रही स ध ने या ा के उस दन को और भी सुखद बना दया
था।
उनका माग धमेखला नद के समानांतर था। यह ापा रक माग खूब चौड़ा
बनाया गया था, क चार रथ अगल-बगल होकर गुजर सक। माग म छकड़ और
बैलगा ड़य पर सामान लादे साथवाहक के कई दल मले। ऊँचे कद और अ यंत लंबी
स ग वाले ऐसे बैल वधान ने पहली बार दे खे थे। उनक स ग को व भ रंग से रंगकर
रंग- बरंगा बना दया गया था। गू उन बैल को दे खकर तरह-तरह क व नयाँ नकालता।
वधान को आ य आ, जब बैल ने भी रंभाकर गू को त या द ।
रथ दौड़ता रहा। बा ओर धमेखला थी और दा ओर ऊँचे-नीचे मैदान। यदा-
कदा वन भी पड़ जाते थे। धमेखला के बहते जल क कल-कल मधुर संगीत के समान
लगातार सुनाई दे रही थी। कभी-कभी कोई नौका जाती ई दख जाती। कोई सामान से
भरी ई, तो कोई एकदम खाली। एक नौका ऐसी दखी, जो पूरी तरह फूल से सजी ई
थी। उस पर दजन ी-पु ष व छ व पहनकर बैठे मंगल-गीत गा रहे थे। उनके बीच
म एक ी नवजात शशु को गोद लए बैठ थी। अ य याँ गाते ए नद म मछ लय
के लए दाने फक रही थ ।
र वदास ने बताया क ये मूसर ाम के लोग ह। ध-मेखला के कनारे बसे ाम म
मूसर सबसे बड़ा है। वहाँ दो सौ से भी अ धक घर ह। वहाँ क परंपरा के अनुसार जब भी
कोई शशु ज म लेता है, तो उसके भार के बराबर दाने मछ लय को खलाए जाते ह।
र वदास ने मूसर के वषय म और भी बात बताई— मूसर के लोग मु यतः पु प क
खेती करते ह, जसे ापारी सुगं धत इ , रंग और द प तैल बनाने हेतु य करते ह।
उ सव पर समीपवत नगर म सजावट के लए भी खूब माँग रहती है। मूसर मा कहने
के लए ाम है, वहाँ क व छता और व था कसी नगर से कम नह । ाम के अंदर
ही हाट-बाजार और प यशालाएँ ह। सुंदर और व थत होने के कारण अ धकाँश
ापारी अपनी या ा का ठहराव मूसर म ही करते ह और वहाँ मलने वाला खरहे का
माँस…आहा! इतना वा द क पूरे अथला म कह न मले। तुम तो खाते नह महाबली,
पर इस गूगू क ज ा अव य तृ त हो जाएगी…म और गूगू…।”
तभी मेघ कड़के और हो रही बूँदा-बाँद रम झम वषा म बदल गई।
“यहाँ से नकटवत ाम कतनी र है?” र वदास ने सारथी से पूछा।
“समीप है। आगे से दा ओर जो माग कट रहा है, उसी ओर थोड़ी र पर। वषा
ती होने से पहले ही प ँच जाएँगे।”
“ठ क है। शी ता से चलो। वषा तक वह कगे।”
सारथी ने ग त बढ़ाई। मु य माग छोड़कर दायाँ मोड़ लया और ऊँची सरपत के
बीच से एक क चे माग पर रथ दौड़ता आ कुछ ही दे र म ाम के बाहरी छोर तक प ँच
गया। सरपत के समा त होते ही खेत थे। खेत के पार झोपड़े।
आगे का माग खेत के बीच से था। अ य धक क चड़ दे खकर र वदास ने सारथी को
एक वृ के नीचे खड़ा करने को कहा और वधान तथा गू को लेकर पैदल ही आगे बढ़
गया।
वषा क बूँद मोट होने लगी थ । काले बादल ने अंधकार-सा छा दया था। माग
पारकर घर तक प ँचते-प ँचते उनके पैर क चड़ से सन गए। ाम बड़ा नह था। सारे
घर एक ही थान पर गोलाई म बसे थे। एक नीमवृ के नीचे कुआँ दखा। तीन वह
क चड़ धोने म लग गए। सव थम र वदास ने धोया और कसी घर म कने क व था
करने चला गया।
कोई ामवासी नह दखा। शायद वषा के कारण घर के अंदर ह गे। थोड़ा आगे
बढ़ने पर एक बूढ़ा मला। वह झोपड़े के बाहर नकले ए छ जे के नीचे सकुड़कर बैठा
चलम पी रहा था। र वदास पास प ँचा और वन ता से बोला—
“बाबा! चौक से आया ँ। राजधानी जा रहा ।ँ वषा तक यह कूँगा। या आपके
यहाँ ठहरकर व ाम कर लू।ँ ”
बूढ़ा आँख गड़ाकर र वदास को घूरने लगा। कुछ ण तक पहचानने के असफल
यास के बाद बोला—
“कुछ जाने-पहचाने लगते हो। या पहले भी यहाँ आए हो?”
“कह म राजा र वदास जैसा तो नह दख रहा?” र वदास ने चु ल कया।
“हाँ…!” बूढ़े को जैसे मरण आ, ‘वैसे ही दख रहे हो। पछले वष पशु-मेले म
राजधानी गया था, वह दे खा था उसे। तु हारी तो कद-काठ भी वैसी ही है। कोई भी मूख
बन जाए।”
“सभी कहते ह बाबा! यह तो राजा र वदास का सौभा य है, जो उ ह ने मेरा जैसा
प पाया,” र वदास फर वनोदपूवक बोला।
बूढ़ा च कत आ। घूरकर दे खा, फर हँसने लगा। अ धक नह हँस पाया, खाँसी आ
गई। पूरी तरह खाँसने के बाद बोला, “स य कहा। तुम से अ धक राजा का सौभा य था,
तभी तो उसे रा य ा त आ। आओ बैठो।” अपने बगल बैठने का संकेत करते ए,
“ चलम पओगे?”
“नह बाबा! चलम नह पीता। बस थोड़ा व ाम क ँ गा। रथ के हचकोले थकान
चढ़ा दे ते ह।”
“जा। अंदर से खाट उठा ला,” कहकर बूढ़ा पुनः चलम पीने म जुट गया।
र वदास झोपड़े म घुसा। अंदर तीन खाट दख । एक कोने म छोटे -बड़े कई क चे
घड़े और मट् ट के बतन रखे ए थे।
र वदास एक खाट उठाकर बाहर ले आया। बछाते ए पूछा— “बाबा! या घड़े
बनाने का काय करते हो?”
“पूरा गाँव यही काय करता है। तभी तो यह कु हार गाँव कहलाता है।” चलम का
धुआँ उगलते ए बूढ़े ने कहा।
“मेरे साथ वाले सै नक के पता भी कुंभकार थे।”
“उसके पता अव य ही इसी गाँव के रहे ह गे। या नाम है उसके पता का?”
“नाम तो मुझे ात नह । कतु वे कुंडार के थे।”
“कह का कुंभकार हो, सभी के पुरखे यह ज मे थे। मेरा दादा बताता था। कभी
इस गाँव म पूरे पाँच सौ घर थे, मूसर से भी अ धक। आजी वका के लए सब धीरे-धीरे
सरे रा य म चले गए। संसार का येक कुंभकार इसी गाँव क धरती का है,” बूढ़े ने
गव से बताया।
“संसार तो ब त बड़ा है, बाबा!” र वदास ने वनोदपूण तवाद कया।
“मेरा दादा झूठ नह बोलता था। उसने कहा है, तो यही स य होगा।”
वषा पूरे जोर पर आ गई। इधर-उधर दौड़ाते ए र वदास पूछा— “कोई द ख
नह रहा। सभी घर म घुसे ए ह या?”
“घर म कोई नह घुसा है…आधे से अ धक कल घड़े बेचने मूसर चले गए और जो
बचे थे, वे मेरे पोते को पकड़कर वापस लाने गए ह,” बूढ़ा चलम नीचे रखते ए थोड़े
ःखी वर म बोला।
“कहाँ भाग गया वह? या तुमने उसे जोरदार डपट लगा द थी?”
“न जाने या आ उसे? आज ातः नान कर लौटते ए च लाने लगा क उसने
एक मनु य को उड़ते ए दे खा। जब कसी ने व ास नह कया, तो अकेले ही उसक
खोज म वन चला गया। पूरा वन बाघ और लकड़ब घ से भरा आ है। सभी उसी क
खोज म गए ह। इस वषा म न जाने कौन कहाँ अटका पड़ा होगा।”
र वदास सावधान आ। पर मुख पर सामा य भाव रखते ए बोला, “कोई वशाल
प ी रहा होगा। कस ओर उड़ते दे खा था?”
“उ र क ओर कह रहा था,” बूढ़ा पुनः चलम पीने लगा।
र वदास कुछ दे र सोचता रहा।
वधान और गू अपने पाँव और जूते धो चुके थे। झोपड़ के छ ज के नीचे से होते
ए वे भी वहाँ प ँच।े
र वदास ने प रचय कराया, “बाबा! मेरे साथी ह। इ ह क ती ा कर रहा था। कुछ
भोजन मल जाता, तो बड़ी कृपा होती।”
“चू हे के पास दे ख लो। जो बचा हो खा लो। म अभी सोऊँगा,” बूढ़े ने चलम
बुझाई। पीछे से एक धोती नकाली, बछाया और उनक ओर पीठ कर लेट गया।
वधान भोजन के लए अंदर गया। बुझे चू हे पर चढ़ हाँड़ी म झाँका। सब समा त
था। एक घड़े म दे खा। ऊपर तक छाछ भरा था। मन स आ। इधर-उधर ढू ढ़ने पर
थोड़े क चे अनाज, म के के भुट्टे , गुड़, ईख और कुछ फल मले।
वधान ने चू हा जलाकर भुट्ट को आग म डाल दया और ईख, गुड़, छाछ तथा
फल उठाकर बाहर ले आया।
ईख गू के लए नई व तु थी। दाँत से छ लना और फर चूसना उसे उलझाऊ लगा।
थोड़े से यास के बाद ईख रख द । भुने भुट्टे उसे अ धक अ छे लगे। चार भुट्टे चबाकर
गुड़ खाया और फर वधान के साथ पेटभर छाछ पया।
बूढ़ा लेटते ही खराटे लेने लगा था। मूसलाधार वषा ब त शोर मचा रही थी। मेघ क
दशा दे खकर लगा क वषा दो घड़ी से पहले नह केगी।
भोजन कर गू और वधान भी व ाम के लए भू म पर लेट गए। वधान गू के वषय
म सोच रहा था। गू उसे स ू जैसा लगा। नये संसार को दे खने का कौतूहल, वतमान का
रोमांच लेना, नई चीज सीखने क इ छा, पारदश दय। और कतनी सरलता से उसने
अपना तशोध याग दया। उसने गू से उसका रीछ पी य छ न लया था। उसे अपने
गण से ब ह कृत कर दया गया। जस के कारण उसे क उठाना पड़ा, वह उसी
के साथ हँस-बोल रहा है, जब क वह वयं वष तक तशोध म झुलसता रहा था।
तशोध म झुलसकर उसने या पाया एक द ध दय…संक णता, घुटन…और अंधकार।
तशोध यागकर गू ने या पाया? सहजता, व तार, रोमांच, नये संबंध या अ य
प से और भी ब त कुछ। वषय, मा तशोध यागने का नह है, अ पतु एक
भावना यागने का है। जो दय को म लन कर आंत रक और बा दोन को धुँधला
कर दे ती है। फर मनु य को संक णता के कारागार म कैद कर घ टती रहती है।
ग र भोजन कर चतन-मनन सदै व न ा को आमं ण दे ता है। न ा ने आमं ण
वीकार कया और आकर वधान को धीरे से सुला दया।
र वदास को छोड़कर सभी सो गए। वषा तीन घड़ी तक चली। जब कुछ थमने लगी,
र वदास ने दोन को जगाया। दोन ने उठकर अपने व झाड़े और पुनः छाछ पया। बूढ़ा
अभी भी खराटे ले रहा था।
गू कुछ कहने लगा। हर बार क भाँ त वधान उ टा-पु टा अथ नकाल रहा था,
कतु र वदास अ धकांश बात समझकर उ र भी दे रहा था। वधान को आ य आ क
र वदास और धनंजय गू क भाषा को इतनी सरलता से कैसे समझ लेते ह। धनंजय ने तो
गू के वषय म इतने व तार से बताया था, मानो उ ह प प से गू क भाषा आती हो।
जब क वह वयं मा अनुमान के आधार पर कुछ अथ नकाल पाता है। जब वधान ने
इस वषय म र वदास से पूछा, तब उसने बताया, “वह इस लए महाबली! य क
बाला क भाषा गूगू क भाषा से ब त मेल खाती है।”
“ बाला? ग ड़ वाली?”
“हाँ! बाला को लोग दै यबाला भी कहते ह।”
“मुझे ात है। कतु या वह वा तव म दै य ह?”
“नागवंश म आज भी कई दै य बचे ह। बाला उ ह म से ह। दै य भाषा उसे
परंपरा म मली है। मने और धनंजय ने बाला से ही थोड़ी-ब त सीखी है। हमारे
अ त र सेना य सहनाद, वसुंधरा, कुलप त इं जीत स हत कुछ अ य लोग को भी
आती है। बोलना अ यंत क ठन है, कतु समझने म सरलता होती है। गूगू अपनी भाषा म
कुछ हमारे श द भी मलाकर बात कर रहा है। तभी समझ पा रहा ँ। शु प म अपनी
भाषा बोलेगा, तब मेरे लए भी कर हो जाएगा।”
ख …ख …ख …, बूढ़े के खाँसने क आवाज ई। बूढ़ा धीरे से उठा और दोन पाँव
सकोड़कर बैठ गया। एक बार इधर-उधर दौड़ाई, फर शांत होकर र कह दे खने
लगा।
“बाबा, वषा थमने ही वाली है। हम चलते ह। अगली चौक प ँचने म अँधेरा चढ़
जाएगा।” र वदास ने खाट से उठते ए कहा।
बूढ़े ने उदास भाव से र वदास को दे खा और त याहीन रहा। उसे अपने पोते क
घोर चता सता रही थी।
वधान और गू ने उठकर अपनी धो तयाँ कस । फर बचे ए फल, गुड़ और छाछ
का घड़ा उठाकर अंदर रखा। ईख र वदास को ब त य थी। अंत तक उसने एक भी
नह छोड़ी थी।
बूढ़े को ध यवाद ा पत कर तथा उसके पोते के लए ढाढस बँधाकर वे रथ पर लौट
आए। आते ए पैर पुनः क चड़ से लथपथ हो गए। वह समीप एक छोटे गड् ढे म भरे
बरसाती जल से उ ह ने पाँव धोया और रथ पर चढ़कर मु य माग पर आ गए।
रथ नरंतर दो घड़ी तक चलता रहा। माग एकदम खाली मला। वषा के कारण
ापारी दल ने ठहरने का न य कया था। एक घड़ी और चलने के प ात् ध-मेखला
के उस पार मूसर ाम दखा। र वदास क इ छा मूसर म कुछ दे र ठहरने क थी। कतु
पहले ही तीन घड़ी का समय न हो चुका था, अतः का नह । रथ अगली चौक के लए
दौड़ पड़ा।

सं या से थोड़ा पहले, जब सूय पर ला लमा चढ़ने क तैयारी कर रही थी, मूसर के उ र म


डेढ़ कोस र, एक घने वन म, एक मा लग ट म बैठा, अपनी दोन जँघा के
घाव पर औषधीय लेप लगा रहा था। य प घाव कई दन पुराना और लगभग सूख चुका
था, तथा प कसी कार के सं मण से बचने के लए उसने कुछ दन और लेप लगाने का
न य कया।
समीप ही उसके व , कुछ सामान और एक टू ट तलवार रखी ई थी।
उसने घाव पर लेप लगाकर प य से ढका और एक ेत व छ व से कसकर
बाँध दया। कुछ र चलकर दे खा क कह चलने- फरने म ढ ला न हो जाए। जब संतु
हो गया, तब अपने सामान के पास प ँचा और टू ट तलवार उठा ली।
तलवार म मा आठ अंगुल का फलक बचा था। इस खं डत तलवार क मूठ
सामा य से थोड़ी भ थी। लंबी और मोट मूठ के अ भाग पर एक बेलनाकार संरचना
थी, जो द खने म मूठ का ही एक भाग तीत होती थी। यह छोटा बेलन अपनी धुरी पर
वतं प से घूम सकता था।
ने मूठ का अं तम सरा अपनी ओर कया और नख से खुरचने लगा। कुछ
यास के प ात् एक चपटे ढ कन जैसा टु कड़ा नकालने म सफल आ। अब मूठ के
अंदर का खोखलापन प प से दे खा जा सकता था। उसने मूठ को हथेली पर ठ का,
जैसे मूठ के अंदर क कसी व तु को बाहर नकालना चाहता हो। कुछ आघात के बाद
दो चकने प थर नकले। ने आँख के एकदम नकट लाकर दोन प थर क
सू मता से जाँच क और सावधानी से एक सूखे प े पर सुर त रख दया। फर सामने
ही एक पाकड़ वृ के नीचे छोटा-सा गड् ढा खोदकर टू ट तलवार दबा द । हाथ झाड़ा।
अपने सामान के पास वापस प ँचा, व को गठरी-सा मोड़कर त कया बनाया और उस
पर सर रखकर लेट गया। कुछ दे र आकाश क ओर घूरता रहा, फर ने बंद कर लए।
यह वही था, जसने धनंजय को ‘मातरम’ कहकर अपना प रचय दया था।
उसे ने मूँदे चार ण ए ह गे क कसी आभास से एकदम से खुल गए। वह
झटके से उठकर खड़ा आ और चौक ा होकर चार ओर दे खने लगा। अंत म दा ओर
गड़ा द । सब कुछ सामा य था, फर भी आँख जमाए रखा। कुछ दे र बाद ऊँची
वन प तय तथा वृ के पीछे से कसी क झलक मलने लगी। आकृ त जब थोड़ा
समीप आई, तब प आ। उसी के जैसा कद-काठ और गौर वण का एक मंथर
ग त से आ रहा था। उसके नैन-न श तीखे तथा ऊँचे माथे वाला सर गंजा एवं पूण
चकना था। इतना चकना क काश पराव तत हो रहा था। शांत भाव लए वह गंजा
धीरे-धीरे उसक ओर बढ़ रहा था। उसक आ म व ास से भरी चाल म ढ़ता थी जो
कसी को भी भा वत कर सकती थी।
लंगोट वाला सतक होकर सुर ा मक मु ा म आ गया। वह इस आगंतुक को अ छे
से पहचानता था।
दस हाथ तक समीप प ँचने पर आगंतुक धीरे से मु कुराया और वह पर उखड़कर
गरे एक वृ के तने पर, जो लगभग आधा सड़ चुका था और हरी काई से ढका आ था,
बैठ गया। बोला— “ न त रहो यौधेय! म आक मक हार नह क ँ गा। तुम मेरे वचन
क स यता से प र चत हो। मेरा कथन झूठा नह होता।”
लंगोट म खड़े यौधेय ने मु ा ढ ली क , कतु सतकता बनाए रखी।
आगंतुक बोला— “मने तु हारा और अटारी का यु दे खा। क ठन यु था। दे खकर
अनुमान लग गया क दानव ने यवन को कैसे परा त कया होगा। कतु कतने अपमान
क बात है, क अटारी ने तु हारे श छ न लए और तु हारी अ स तोड़ द । तुमने तो
हंस का मान गरा दया यौधेय! खाली हाथ तुम मुझसे अपने ाण कैसे बचा पाओगे?”
न चाहते ए भी यौधेय के वर म थोड़ा उपालंभ आ गया। बोला, “यह जानते ए
क तुम एक असफल योग हो रक! तु ह अपनी श पर इतना अहं य है?”
“ओह! असफल योग!” रक ने मु कान दखाई, “जैसे काण तुम लोग का
असफल योग था, कतु काण क भाँ त मुझे यागा नह गया।”
यौधेय को आ य आ, कतु मुख पर वह भाव आने नह दया। रक भाँप गया।
“च कत मत हो। हम भली-भाँ त ात है क काण के पीछे कसका हाथ था।”
यौधेय ने पूण सहज होने का भाव दखाया और समीप ही एक प थर को पीढ़ा
बनाकर बैठ गया। कहा, “तु हारे जैसे ह यारे को, आज नह तो कल, यागना न त
है।”
“नह यौधेय! मुझे ह यारा मत कहो।” रक ने ऐसे तवाद कया मानो बात दय
को लग गई हो, “म तो मा अपनी भू मका नभा रहा ँ। तु हारी अपनी भू मका है, मेरी
अपनी। तुम अपनी भू मका नभाओ, तो यो ा और म अपनी नभाऊँ, तो ह यारा?”
“अपने काय के लए नद ष का नःसंकोच ाण हरने वाला पापी ह यारा ही होता
है, रक। भू मका क आड़ लेकर तुम अपने कृ य को सही नह ठहरा सकते। इस स य
को तुम वीकार य नह कर लेते क तु ह र बहाने म आनंद आता है और अपनी
भू मका क आड़ म तुम इस आनंद क पू त करते रहते हो! इतने नकृ कम करके या
तु ह वधाता का त नक भी भय नह लगता! अथवा अब तुम वयं को ही वधाता
समझने लगे हो?”
रक उठकर खड़ा आ। दोन हाथ पीछे बाँधकर वह तने के आगे पदचारी करने
लगा। बोला, “लोग मुझसे भय खाकर मुझे पापी कहते ह और वधाता से भय खाकर
उसक तु त करते ह। या तु ह नह लगता यह दोहरापन है?” फर कुछ दे र आकाश क
ओर दे खकर बोला— “ वधाता! वधाता मनु य क क पना क सबसे महान् कृ त है,
यौधेय! इसक रचना म मनु य ने भय, लोभ, भ , कामना, ा त, मा, शु ता,
प व ता और समपण जैसी, न जाने कतनी भावना मक वशेषता का योग कया है।
कसी ने भय से उसके अ त व को वीकारा है, तो कसी ने मो - ा त के लोभ से।
कसी ने अपने श ु का नाश करने क श कामना के लए, तो कसी ने रोग मु
क कामना के लए। यहाँ तक क बु जी वय ने भी समाज को बाँधने वाली कड़ी के
प म इस वधाता पी च का खूब योग कया है। अपने येक अनु रत के
लए मनु य वधाता नाम के तीक क ओर दे खता है, येक कामना के लए, येक
लोभ के लए, येक ा त के लए, येक मु के लए, असं य वशेषता को
समा हत कर बने वधाता नाम के इस महान् वराट तीक क ओर संपूण मनु य जा त ने
अपनी क त कर इसम असी मत ऊजा भर द है। इसी महान ऊजा क वैभवपूण
धमक ने उसे सवश मान, सव और सव ापी क पदवी दलाई है…और हम..”
“…मुझे यह सब बात य बताते रहते हो? रक!” यौधेय ने बीच म टोका, “तुम
वष से मेरे पीछे हो। य द तुम वयं को इतना ही श वान् मानते हो, तो आज तक मेरे
ाण य नह ले पाए?”
रक पदचारी छोड़कर ठहर गया, “तुम भले ही मुझे अपना श ु समझो, यौधेय! कतु
म तु ह अपना सहया ी मानता ।ँ मा इतना अंतर है क तुम आगे चलते हो और म
तु हारे पीछे । रही बात तु हारे ाण लेने क …वह तो मेरी इ छा पर है।”
“पुनः यास कर दे ख लो,” यौधेय ने चुनौती द ।
कसी कुशल अ भनेता क भाँ त रक के मुख का भाव ण भर म बदल गया। अभी
तक सहज दख रह आँख म शकारी चमक आ गई। दोन बाँह फैलाकर लंबी मु कान
के साथ बोला, “तु ह तो घाव खाने क लत लग गई है।”
यौधेय भी बाँह फैलाकर यु के लए तुत हो गया।
मूसर के उ री छोर के एक घर के बाहर कुछ कशोर युवक कुएँ के पास बैठकर
आपस म हँसी-ठट् ठा कर रहे थे। उनम से कइय को ह के धमाके क व न सुनाई पड़ी।
जब उ ह ने और को बताया, तो सभी ने यान लगाया। इस बार प व न थी। कुएँ का
जल भी थराया। कुछ दे र बाद आकाश म सैकड़ प य का झुंड उ री वन से पलायन
करता दखा।
स ू और र वदास

छावनी छोड़े तीन दन से अ धक हो गया था। राजधानी क हाथ फैलाए मू तयाँ


द खना ारंभ हो गई थ । वहाँ प ँचने म एक घड़ी और लगेगी। सं या का लाल सूय ताप
खोकर भी सुंदर लग रहा था।
रथ सामा य ग त पर था। गू कसी पयटक क भाँ त इधर-उधर दे खने म त था
और र वदास ईख चूसने म। पछले दन एक गाँव से र वदास ने ईख तोड़कर रथ म भर
ली थ ।
वधान को दानव दे श से लौटने के बाद वयं म कुछ व च अनुभव हो रहा था।
या प रवतन आ है, यह उसे प नह था। कतु पछले चार दन से एक बार भी वह
ः व नह आया, जसम स ू और माँ के व म भाला धँस जाता था। अ यथा पछले
कई वष से यह व येक सरे दन कसी-न- कसी प म अव य आता था। इसके
अतर दय ग त कभी-कभी असामा य-सी लगती थी तथा शरीर का ताप भी
अ नय मत प से एकाएक घट-बढ़ जाता।
वधान को अपना माथा और बाँह छू कर ताप जाँचते दे ख र वदास ने ने से ही
कया।
“कुछ नह …थोड़ी थकान लग रही।” वधान ने उ र दया।
“बस प ँच ही गए… फर व ाम ही व ाम,” र वदास ने आकर उसक पीठ
ठक।
“एक छोटा अनुरोध है।” वधान धीरे वर म बोला।
“अनुरोध कैसा महाबली! आ ा कर…क हए तो आपके चरण पश कर लू,ँ ”
र वदास गंभीरता दखाते ए बोला।
वधान हँसा, “नह ! नह ! चरण तक मत प ँ चए। मने पहले भी बताया था क मेरा
भाई स ू आपका ब त बड़ा शंसक है। अभी आप उप थत ह और समय भी है। घर
चलकर उसे दशन दे द— मा इतना अनुरोध है।”
“आ ा का पालन होगा, महाबली!” र वदास ने सर झुकाकर वीकार कया।
वधान मु कराया। गू आँख फाड़कर वशाल मू तय को दे ख रहा था। दनुबाँस जैसी
ाकृ तक वशालता के बीच रहने वाला मनु य, मानव न मत वशालता को दे खकर
आ यच कत था।
घर प ँचते-प ँचते सूय पूरी तरह डू ब गया। अँधेरा भी छाने लगा था। वधान ने रथ
को घर से थोड़ा पहले ही कवा लया। वह स ू के सामने एकाएक र वदास को तुत
कर च काना चाहता था।
रथ से उतरकर गू और र वदास के साथ वह दो पग ही चला था क घर के अंदर से
स ू का तेज वर सुनाई पड़ा।
“…और स ाट के आदे श पर खचाखच भरी भीड़ के स मुख चतु पथ पर दासपु
के हाथ-पैर को लौह शृंखला से बाँध दया गया…सै नक ने…”
र वदास के पग ठठक गए। हाथ बढ़ाकर वधान और गू को भी आगे बढ़ने से रोक
दया। वह ककर अपने वषय म फैली कहा नयाँ सुनना चाहता था।
अंदर क म शतायु, एकांश, नकुंज और काक को स ू खड़े होकर पूण अ भनय
के साथ वृ ांत सुना रहा था। वधान, स ू का यह नाट् य सैकड़ बार दे ख चुका था।
शतायु और नकुंज भी स ू के मुख से कई बार यह कथा सुन चुके थे। एकांश ने नह
सुना था, अतः अवसर पाकर आज स ू पुनः सुना रहा था। स ू उ ह वही कथा सुना रहा
था, जो उसने एक मेले म, कठपुतली के खेल म वष पूव सुना था।
र वदास ार के समीप द वार से चपककर सुन रहा था।
“…सै नक नरंतर डंडे बरसा रहे थे, कतु वह वीर टू टा नह …उसने पीठ सीधी क
और तपते सूय क ओर उँगली दखाकर गजनापूण घोषणा क …म कसी स ाट का दास
नह ँ…म मा र व का दास ँ। म र वदास ँ। यह कहकर उस बलवान ने अपने दोन
हाथ को जोर से झटका और लौह शृंखलाएँ टू टकर छ - भ हो ग । दोन हाथ मु
होने के प ात् पैर क भी शृंखलाएँ ख चकर तोड़ डाली। यह य दे खकर सै नक
भयभीत…”
“पर स ू! या हाथ से ख चकर लौह शृंखलाएँ तोड़ना संभव है? मुझे यह थोड़ा
अटपटा लग रहा है।” एकांश ने बीच म ही टोका।
“म भी यही करना चाहता था।” शतायु ने भी एकांश के का समथन कया।
“अं..म..म्…कह तो तुम ठ क रहे हो,” स ू सोचते ए बोला, “ कतु ंथ म कई
यो ा का वणन है, जो अमानवीय प से बलशाली थे। वतमान म ही दानव का एक
सेना य था, जो वृ उखाड़ लेता था। कुछ गारा या पारा जैसा नाम था।…अं…म…हाँ!
मरण आया…दारा नाम था…।”
“कहानी को मनोरंजक बनाने के लए लौह शृंखला वाली घटना जोड़ द गई
होगी।” शतायु ने अपना अनुमान बताया।
“नह । यह घटना स य है।” स ू ढ़ता से बोला, “लौह शृंखलाएँ टू टते कई लोग ने
दे खा था। व मं ी व रथ… जनके घर म इ तहास का अ ययन करने जाता ँ, उ ह ने
वयं अपनी आँख से दे खा था। इसके अ त र मने ंथालय के ंथ म भी इस घटना
को अ छे से पढ़ा है। वहाँ भी यही कथा है। कतु मुझे लगता है क इसके पीछे का स य
कुछ और भी हो सकता है।”
शतायु, नकुंज, और एकांश ने स ू क ओर गड़ाई। काक कंसा को भी च
जाग गई। वे मटके म मथनी से दही मथ रही थ । उनके हाथ क गए।
स ू अपनी ठु ड्डी खुजलाते ए बोला, “… जतना मने ंथ म व णत इ तहास पढ़ा
है, उसके अनुसार अयो या के सभी दास लोहार थे। श बनाने और लौह संबंधी
अ धकांश काय दास ही कया करते थे। जब वीर र वदास ने ां त छे ड़ी, ब त कम दास
ने उनका साथ दया था, कतु साथ न दे ने वाले दास भी गुप-चुप मा यम से सहयोग
कया करते थे। मुझे यह समझ आता है क लोहार ने उस समय क अ धकाँश लौह
शृंखला के लौह म अशु याँ मलाकर शृंखला को पहले से ही बल न मत कया
होगा।… य क लौह शृंखला का उपयोग बं दय को बाँधने के अ त र ब त कम
काय म होता था। ां त नेता या ां तका रय के पकड़े जाने पर यह बल लौह
शृंखलाएँ उ ह भाग नकलने म भारी सु वधा दे त …और अंत म वीर र वदास ने इस
सु वधा का लाभ उठाते ए अपनी बु म ा का योग कर खड़ी भीड़ के स मुख एक
बलशाली का दशन कर ां त म ऊजा भर द थी…।”
वहाँ बैठे सभी लोग मुख पर - च बनाकर एकटक स ू का मुँह ताक रहे थे।
“यह मेरा अनुमान मा है।” स ू उ ह समझाते ए बोला, “वीर र वदास के थान
पर य द म होता, तो आपातकाल के लए कुछ इसी कार क योजना बनाता…।”
घर के बाहर कान लगाकर खड़े र वदास के शरीर म सहरन दौड़ गई। घोर व मय
आ। मा कुछ सूचना के आधार पर मूल घटना के इतना समीप प ँचना कैसे संभव
है। इतनी र क गणना करना साधारण बु का काय नह है। यह मा संयोग है, अथवा
यह युवक वा तव म ती मेधा वाला है।
वधान पीछे खड़ा था, अ यथा र वदास क आँख का आ य प दे खता। र वदास
को इस मेधावी को दे खने क ती लालसा जागी। वह बढ़कर ार पर खड़ा हो गया।
आहट मलने से स ू मुड़ा। सोचा मयूरी भाभी लौट ह गी। कतु ार पर कोई ऊजावान्
पु ष खड़ा था। वह पु ष मुख पर मंद मु कान लए उसे ही दे ख रहा था। स ू पहचानने
का यास करने लगा।
“राजा र वदास!” काक कंसा च ककर बोल । स ू क आँख त काल फैल ग ।
कुछ समझा नह । कपोत क भाँ त बारी-बारी से काक और र वदास को दे खने लगा।
तभी पीछे से हँसते ए वधान कट आ, “ जनक वीर-गाथाएँ तू हर समय सुनाता
रहता है, उनके दशन के प ात् भी अभी तक उनके चरण को पश नह कया!”
वधान को दे खकर और उसक बात सुनकर स ू आनं दत हो गया। मुख दमक
उठा। त काल भू म पर लेटकर दं डवत् णाम कया। भ भाव से बोला, “आपके दशन
मा से म भी आपके समान वीर हो गया।”
“हा! हा! हा!” र वदास ने हँसते ए उसे उठाया, “चरण म पड़े रहोगे, तो समानता
कैसे करोगे?”
उठते ही स ू ने र वदास को कसकर पकड़ लया और उसक छाती पर अपना सर
रगड़ने लगा। र वदास ण भर के लए च क गया। वधान ठहाका मारकर हँसा,
“घबराइए मत…इसका ेम- दशन ऐसा ही होता है।
मन भर सर रगड़ने के प ात् ही स ू ने र वदास को छोड़ा। फर मयूरी के क से
एक सुंदर पीढ़ा उठा लाया और र वदास को बठाया। काक कंसा भी पूरे उ साह म आ
ग । नकुंज को बुलाकर व भ कार के फल, खाँड़ और छाछ र वदास के सामने
रखवाए। खाने-पीने के वषय म र वदास कभी कसी को मना नह करता था। शतायु
और एकांश को भी अ छा लग रहा था।
“तो अंततः तुमने लौह शृंखला का स य ढूँ ढ़ नकाला!” र वदास फल खाता आ
मु कराकर बोला।
स ू थोड़ा ख सया गया। सर खुजलाते ए धीरे से बोला, “वह तो यूँ ही एक नई
कथा गढ़ रहा था,” फर जैसे कुछ याद आया। भागकर पीछे वाले क म गया और कुछ
च उठा लाया।
एक च खोलकर दखाया। च म र वदास के लौह शृंखलाएँ तोड़ने का
का प नक य था। मुख तो प नह था, कतु च क सू मता और रंग-संयोजन
दे खकर र वदास के मन म शंसा का भाव उठा। हाथ-पैर स हत शरीर के सारे अंग सही
अनुपात म बनाए गए थे।
“इसे च कारी, इ तहास और सूचनाएँ जुटाने म वशेष च है,” वधान ने
ेमपूवक स ू का सर सहलाकर शंसा क । फर स ू ने एक अ य च उठाकर
दखाया। यह च एक वृ के तने का था। तने म छ था और छ से एक गौरैया झाँक
रही थी। रंग के अद्भुत् योग से पूरा च सजीव तीत होता था।
इसके प ात् स ू म से सारे च खोलकर दखाने लगा। इसी बीच वधान को गू
का यान आया। वह बाहर ही रह गया या? ऐसा सोचकर घर के बाहर नकला, तो उसे
अनुप थत पाया। वधान हकबका कर इधर-उधर दे खा। फर यान आया क आते समय
माग म पड़ने वाली कान को दे खकर गू उ सा हत होकर कुछ बड़बड़ा रहा था। उ ह
लाने वाला रथ वह खड़ा था। सारथी से पूछा, तो उसने हाट क ओर संकेत कया।
वधान लगभग दौड़ते ए हाट क ओर गया।
संयोग से गू अ धक र नह गया था। माग म खड़ा होकर बाहर से ही कान क
साज-स जा दे ख रहा था। उ का के काश म सब कुछ जगमग था। दानव-दे श के
हाट-बाजार उसने दे खे थे, कतु यहाँ क कान भ थ । लोग म भी प-रंग क ब त
भ ता थी।
पीछे से वधान प ँचा। वह गू को पकड़कर ले जाना चाहता था। कतु गू कान क
ओर उँग लयाँ दखाकर जोर-जोर से बोलने लगा। वधान को वयं ही उसे पूरा हाट
घुमाना अ धक उ चत जान पड़ा, अ यथा या पता रा म उठकर अकेले ही नगर- मण
करने नकल पड़े।
इधर स ू र वदास को कुछ बोलने का अवसर ही नह दे रहा था। नरंतर कुछ न
कुछ बताता जा रहा था। वह बता रहा था क एक बार उसने ंथालय म बैठकर सुबह से
रा घरने तक दे व के इ तहास का अ ययन कया। और ऐसा मा एक दन नह ,
अ वराम बारह दन तक कया। दे व के अ त र असुर, दानव और यवन के इ तहास
स हत ाचीन यु -शा को भी अ छे से पढ़ा। का और पुराने नाटक भी पढ़े । धाता-
थम के ऊपर लखा गया नाटक उसे ब त पसंद आया। े रत होकर उसने भी एक
छोटा नाटक लखा है।
उसने आगे बताया, दन-रात नरंतर और कम काश म पढ़ने के कारण आठव दन
उसक आँख के चार ओर काले घेरे बन गए थे। फर मयूरी भाभी क सलाह पर उसने
घृतकुमारी का गूदा लगाया। दो दन म ही आँख टनाटन हो ग । यह सुनकर र वदास खूब
हँसा।
हाट म वधान, गू को शी ता से सारी कान दखाता आ बढ़ रहा था। लोग क
रंग- बरंगी पग ड़याँ गू को ब त अ धक आक षत कर रही थ । जस कान पर पग ड़याँ
टँ गी दखत , ककर बड़ी दे र तक नहारता। अंत म वधान ने चार रंग के कपड़े एक-
साथ उमेठकर बनाई गई एक पगड़ी य करके गू को पहना द । थैली साथ लेकर नह
आया था, सुमे का प रचय दे कर उधार लेनी पड़ी। वधान को गू, स ू से भी अ धक
कौतूहल वाला लगा। कुछ र और दखाकर घर के लए लौट पड़ा।
घर म स ू, र वदास को रागा के वषय म बता रहा था। र वदास ने भी बताया क
उसने रागा को अथ महल म एक बार दे खा था, जब मयूरी उसे श त कर रही थी।
पूरे वातालाप के समय काक कंसा ने र वदास के सामने खाने के लए जो कुछ
रखवाया, र वदास ने सब समा त कर दया।
स ू के हो-ह ले के बीच वधान, गू के साथ घर म घुसा। स ू ने दे खते ही समझ
लया क कोई जंगली है। गू सपाट भाव से सभी को दे ख रहा था। वधान ने आगे बढ़कर
एक सामा य प रचय कराया। मा नाम और दे श बताया।
तभी र वदास चलने के लए उठा। वह गू को भी साथ ले जाना चाहता था, कतु
वधान ने गू को अपने साथ रखने का अनुरोध कया। इस पर र वदास ने उसे समझाया
क गू अ गन के एक मुख गण के मु खया प रवार से संबं धत है। अ गन से राजनै तक
संपक बनाने का यह अ छा अवसर मला है। धनंजय, गू को राजक य अ त थ क भाँ त
रखना चाहते ह। अथ महल म बाला, गू क भाषा को अ छे से समझ लगी। और
संभव है वे गू को यहाँ क भाषा भी सखा सक। इसके अ त र यु क पशु के
श ण म गू, बाला क सहायता कर सकता है। अतः अथ महल उसके लए अ धक
उ चत थान रहेगा।
वधान को राजनै तक वषय म कोई वशेष च नह थी। र वदास क बात
समझते ए भी उसने कुछ दन के लए गू को अपने साथ रखने के लए मना लया।
र वदास, वधान क पीठ ठ ककर चला गया। जाते समय उसने मुड़कर एक बार
पुनः स ू को ऊपर से नीचे तक भली-भाँ त दे खा।
द ान क योजना

धनंजय को ती ा करते ए आठ दन बीत गए थे। अथमहल म अपने क म वचरण


करते ए थोड़ा ाकुल लग रहे थे। उ ह ने र वदास को भी अयो या जाने नह दया था।
जब से लौटे थे, सारा यान- चतन दानव दे श क ओर क त था। जो कुछ उ ह ने दानव
दे श म कया, दानव क ओर से कुछ-न-कुछ त या अव य आनी चा हए थी। कतु
आठ दन बीतने के बाद भी त नक भी हलचल न होने से, धनंजय को ब त खटक रहा
था। दानव क ओर से आरोप-प आना तो र, ध-मेखला का ापा रक माग तक
नह बंद कया गया।
संदेश वाहक ग ड़ ारा धनंजय को दानव दे श क सूचनाएँ नरंतर मल रही थ ।
इतने दन म मा यही उ लेखनीय घटना घट थी क जा क माँग पर राजम हषी को
मृ युदंड दया जाना था, कतु गभाव था ात होने पर मृ युदंड को सू तकाल तक
टालकर कसी अ ात थान पर भेज दया गया। इसके प ात् दानव राजसभा म अथला
के संबंध म चचा तक नह ई।
घड़ी भर चहलकदमी करते-करते जब पाँव थकने लगे, तो गवा पर जाकर खड़े हो
गए। बाहर उ ान का य दे खने लगे। कुछ ही दे र दे ख पाए, मन पुनः समीकरण म
उलझ गया।
इस बार धनंजय को अपनी एक ु ट समझ आई। वे अभी तक दानव-दे श अथात्
दानव राजसभा के अनुसार सोच रहे थे। वा तव म उ ह मु य नयं णकता द ान को
यान म रखकर सोचना चा हए य क संथार अब वह दानव दे श नह रहा, जसे वहाँ क
राजसभा चलाया करती थी। अब सारा नयं ण द ान के हाथ म था। महाम हम का पद
धारण करने के बाद से अब तक सारा शासन द ान ने अपनी इ छानुसार ही चलाया
था।
धनंजय का सारा मनन द ान के व पर क त हो गया। जतनी सूचनाएँ
उनके पास उपल ध थ , उन सम त बात पर यान से सोचा। कुछ मु य ब पर
अ धक यान गया— द ान बु से खर है। उवरा भू म के लए वह पहले से ही अथला
पर गड़ाए बैठा आ था। दानव दे श म यह ां त खूब फैली है क उसक ाचीन
मा यता म कोई वशेष ा नह । और वह यु कौशल म कसी सेना य क भाँ त
पूण अनुभवी एवं पूण कुशल है। अवसर पड़ने पर असंभव तीत होने वाले मा यम और
माग को भी चुनने म नह झझकता।
धनंजय, द ान के व का व तृत व ेषण करते रहे। फर गु तचर ारा द
गई पछले कई माह क सूचना को म से मरण करने लगे। सु वधा के लए एक पीढ़े
पर बैठकर कुछ-कुछ लखते भी रहे।
दो घड़ी के बु ायाम के प ात् एक-दो सूचना पर यान बार-बार जा रहा था
— पहला, द ान के महाम हम बनने के दो माह बाद सूचना आई थी क वह जल-
द यु के संपक म है। जल-द यु के साथ दानव राजस ा का अ य संबंध ब त
पुराना था। एक ओर जहाँ दानव और यवन के बीच सीमा पर छु टपुट संघष होता ही
रहता था, वह दानव- ापारी गु त प से जल-द यु के मा यम से यवन- ापा रय
के साथ म दरा तथा मादक मसाल का य- व य कया करते थे।
इन जल-द यु का मु य काय सामान से लदे ापारी जलपोत को लूटना और
धमकाकर मोटा धन वसूलना था। असुर तथा प मी दे श के ापारी-जलपोत इनके
मु य शकार थे।
सागर को अलं य मानने क ाचीन परंपरा के कारण दानव-स ा सागर म जलयान
नह चला सकती थी। अतः एक ापार-कड़ी के प म जल-द यु को राजस ा क
ओर से अ य सहयोग मला रहता था। कतु यह थम बार आ था, क जल-द यु
का कोई नेता राजभवन म दे खा गया हो। धनंजय का म त क इसी ब पर बार-बार घूम
रहा था— या द ान सागर म आ धका रक प से ापा रक-जलयान चलाने जा रहा
है अथवा नौ-सेना बनाना चाहता है, य क वह महाम हम बनने से पहले भी राजसभा म
नौसेना बनाने का ताव कई बार रख चुका था। कतु जो जा अपने अंध व ास के
कारण अपनी ही राजम हषी के लए मृ युदंड क माँग करती है, उसके स मुख ाचीन
परंपरा को तोड़ना असंभव के समान है। असंभव? असंभव?…यह श द धनंजय के
म त क म कई बार गूँजा। यही असंभव तो द ान के व का सबसे खर प है।
इसी असंभव के बीच से माग बनाने म दानव का यह नया महाम हम अ यंत नपुण है।
धनंजय को कुछ सूझा। ता म पीढ़े से उठकर पुनः गवा पर खड़े हो गए। यान
सरी सूचना पर क त कया— द ान ने पचास सह ढाल के लए असुर से ापार
समझौता कया था। असुर से ढाल का य करना सामा य बात है। अपनी सेना के
जीण ार के लए येक दे श नये अ -श य करता ही रहता है। अब तक आधी
ढाल संथार म प ँच भी चुक थ । कतु वशेष बात यह थी क जन जलयान पर यह
ढाल लद कर आई थ , वे लौट नह । वे संथार के प मी बंदरगाह पर अभी भी खड़ी ह
और राजक य सेना क सुर ा म ह।
धनंजय को ब त से सू हाथ लगने लगे। क म चहलकदमी करते ए आगे-पीछे
क कई घटना और सूचना को आपस म जोड़ा। अंत म जब सारे समीकरण जुड़
गए, तो माथे पर एक बल पड़ गया। द ान क संभा वत योजना का एक का प नक च
आँख के आगे तैरने लगा।
धनंजय ने सारे समीकरण को पुनः जाँचा, वही न कष नकला। उ ह ने लंबी-लंबी
साँस ख चकर वयं को थर कया और घड़े से ठं डा जल पया।
अब द ान क योजना से हटकर अपनी योजना पर सोचने का समय था। य द
दानव दे श उनके पूवानुमान के अनुसार वहार करता, तो उसके लए योजना पहले ही
बना रखी थी। कतु इन नए समीकरण से पुन वचार करना पड़ेगा।
ब त गूढ़ चतन-मनन के प ात् धनंजय को यह समझ आया क पूव योजना को
प रव तत करने क आव यकता नह है, कुछ छोटे -मोटे प रवतन और कुछ नए चरण
जोड़ने से एक नई योजना बन जाएगी।
जोड़-घटाकर और कई बार जाँचकर पूरी योजना बनाने के प ात् धनंजय ने कुछ
सामान उठाया और वसुंधरा से मलने चल दए।
दोपहर बीते तीन घड़ी हो चुक थी। वसुंधरा के क म घुसते ही धनंजय ने
घुमाकर बाला को खोजा और दो कुंडल तथा एक प उनके हाथ म थमा दया।
“इन कुंडल क जाँच हो गई है… वधान को स प दे ना और कहना, इन कुंडल के
साथ अ वलंब अ यास ारंभ कर दे …और इन प को ऊषाखंड भजवा दे ना।”
“ब त शी ता म ह…कोई वशेष बात?” पयक पर लेट वसुंधरा ने पूछा। पछले दो
दन से वा य ठ क नह होने के कारण आज बाला ने बलपूवक वसुंधरा को पूण
व ाम कराया था।
धनंजय जाकर पयक पर बैठे। पूण गंभीरता से बोले, “दानव अथला पर नह ,
सौरा पर आ मण करगे।”
“नागवंश पर!” वसुंधरा व मय से उठकर बैठ गई।
“हाँ! उनक योजना सागर माग से सौरा पर आ मण कर जंबू प म वेश करने
क है।”
“ या सागर लाँघना उनके लए संभव है?” वसुंधरा अभी भी आ य म थी।
धनंजय ने अपने सारे समीकरण तथा गणनाएँ समझा और एक संभा वत भ व य
क झलक वसुंधरा और बाला दोन को दखाई।
सारी बात सुनकर वसुंधरा चुप रही। धनंजय उसे बना सू चत कए दानव-दे श के
अ भयान पर चले गए थे। य द उसे पहले ात होता, तो इस संकट के अवसर पर एक
नया दानव-संकट पालने के लए कभी नह जाने दे ती। इसके अ त र मा तीन लोग
इतने बड़े अ भयान पर जाएँ, वह सोच भी नह सकती थी। यह तो अनाव यक संकट
मोल लेने जैसा था।
धनंजय, वसुंधरा को अ छ कार समझते थे। संभवतः इसी लए उ ह ने बना
सू चत कए यह अ भयान कया था। र -गंगा सं ाम म सह बा काण के वहार से
वसुंधरा आज तक कु पत थी। स धारक को एक बड़ी श मानते ए भी वह मन से
स धारक को उतना मह व नह दे ती थी।
कतु धनंजय स धारक क अलौ कक श को अ छे से समझ रहे थे। वे मा
मुं ा-संकट को ही नह , अ पतु भेड़ा स हत कई अ य आगामी संकट को भी दे ख रहे
थे। थ त कोई भी होती, वे कुंडल लेने अव य जाते। जंबू प के लए स धारक क
श अव यंभावी थी। इसके अ त र वे दानव दे श का अ भयान करते या न करते,
द ान तो पहले से ही सौरा के रा ते जंबू प म वेश करने क योजना बना रहा था,
उ ह ने तो बस उसे एक उपयु कारण दे दया।
रक और यौधेय

अगल-बगल खड़े वृ के बीच से एक क चा माग गया था। माग क दशा दे खकर लगता
था, क कई दन से कोई वाहन नह गुजरा। माग पर वृ के प े गरकर सड़ने भी लगे
थे। कह -कह झा ड़याँ भी उग आई थ ।
यह थान कभी ापा रक माग क पहचान रखता था, कतु वष से योग न होने
के कारण अब वन का ही एक अंग बन गया था। मु य माग से आस-पास के गाँव तक
प ँचने के लए यह एक छोटा ापा रक माग था। शी ता के फेर म यदा-कदा कोई
ापारी इस माग का योग कर लया करता था। कतु द यु ने इस बीहड़ थान पर
ऐसा आतंक मचाया क अब कसी का इस ओर आने का साहस नह होता था।
डू बते सूय क ला लमा म एक -पु लंबा अपने माथे को ोध से सकोड़े
आ रहा था। वह अगल-बगल के वातावरण पर सू मता से डाल रहा था। इस
का गंजा सर इतना चकना था क मानो एक रोयाँ भी कभी न उगा हो।
गंजे का ोध बढ़ गया। जोर से च लाया, “यौधेय! भयभीत मूषक! हर बार
छलावा दे कर भाग नकलता है…कापु ष! थोड़ा भी पु ष व बचा हो, तो सामने आ…।”
रक जोर से च लाया था। आवाज र तक गई। वृ के कुछ प ी उड़ गए और
कुछ ऊपर से ही झाँके। रक क चकनी खोपड़ी उ ह भी आक षत कर रही थी।
इसी कार बड़बड़ाते ए वह आगे नकल गया। कुछ र चलने के प ात् एक
पोखरा दखा। माग छोड़कर पोखरे पर गया और झुककर जल पीने लगा। पीते समय उसे
कुछ लोग के आने का आभास आ। मुख के भाव नह बदले। चुपचाप पीता रहा।
पीकर उठा, तो पीछे दस-बारह लोग खड़े दखे। उनके शरीर पर कई परत वाले
मोटे व थे, जो मैल-े कुचैले और कह -कह से फटे भी थे। हाथ म वृ काटने वाले
कु हाड़े और बरछे थे। एक के कंधे पर मरा आ खरहा लटक रहा था। सभी क ललचाई
बार-बार रक के हाथ और पैर के कुंडल पर जा रही थी।
“आस-पास मेरे जैसे कसी को दे खा है?” रक ने जल पीने के बाद धोती से
हाथ प छते ए सहज भाव से पूछा।
सभी ने एक- सरे का मुँह दे खा। फर एक, जसके दोन हाथ म कु हाड़े थे, ने आगे
बढ़कर कु टल मु कान के साथ कहा, “हमारा भा य, जो तु हारे जैसा नह दे खा। कह
बाहर से आए हो?”
“सीमावत गाँव कतनी र है?” रक ने पुनः सहज भाव से कया।
“अपने हाथ-पैर के कुंडल हम स प दो…हम वयं तु ह छोड़ आएँग,े ” कु हाड़े पर
पकड़ मजबूत बनाते ए वही पुनः बोला।
रक उनके बीच से होता आ आगे बढ़ने लगा। शां त से बोला, “म वयं चला
जाऊँगा।”
सभी ने उसे घेर लया और बरछे क न क आगे कर द । बीच म खड़े रक ने एक
आह भरी। एक तर कारपूण सभी पर डाली। फर धीरे से बोला, “आज वा तव म
तु हारा भा य है।”
अभी तक शांत खड़े वृ के प े खड़खड़ाने लगे। लगा, एकाएक बयार चल पड़ी।
कुछ ही ण म बयार के झ क क बाढ़-सी आ गई। जैस,े आँधी आने वाली है। दोपहर
म ई रम झम वषा से भू म अभी तक नम थी। अतः अ धक धूल नह उड़ी। कतु भू म
पर गरे प े और तनके उड़ने लगे।
घेराबंद कए लोग ने एक- सरे का मुँह ताका। रक के ने म भया ांत कर दे ने
वाली ू रता जाग गई थी।
वृ पर बैठ एक गलहरी, जो यह सब दे ख रही थी, तेज बयार के झ क से
भयभीत होकर वह तने म बने अपने छ पी घर म घुसकर बक गई।
प य क खड़खड़ाहट ती होती चली गई। गलहरी अपने छ म बक रही।
कई धमाके ए, जो प य के शोर म अ प थे। कुछ टू टने और गरने क व न गलहरी
ने कई बार सुनी। फर धीरे-धीरे हवा शांत पड़ने लगी। कुछ दे र म जब पूरी तरह थर हो
गई, तब गलहरी ने साहस कर छ से बाहर झाँका। नीचे कई मनु य के त- व त मृत
शरीर पड़े थे। टू टे कु हाड़े और बरछे , शव से बह रहे र म सन गए थे। वीभ सता
दे खकर या कसी अ य कारण से गलहरी पुनः बक गई।
रक अब वहाँ उप थत नह था।

वशाल मू तय के पैर तले फैली अथला क व तृत राजधानी के माग पर सामा य दन


से कुछ अ धक भीड़ थी। अ -श से लद बैलगा ड़य तथा घोड़ागा ड़य का
आवागमन ब त बढ़ गया था। चढ़ आए यु क आशंका से उपजा भय लोग के
वातालाप म प द ख रहा था। कौन रा य सहयोगी है, कौन व ासघात करेगा और
स ाट जयभ क श म कतनी वृ ई है— यह वषय अ धक उठ रहे थे।
दै नक उपयोग क अ यंत मह वपूण साम य को छोड़कर अ य सभी व तु का
ापार मंदा हो गया था। कलाकृ तय और म ा जैसी कान पर कोई झाँक भी नह
रहा था।
प मी छोर क एक पांथशाला से यौधेय नकला। वह कई दन से यह ठहरा आ
था। थोड़ा धीरे-धीरे चल रहा था। जँघा का घाव, रक से लड़ते समय पुनः खुल गया
था। औष ध क खोज म हाट प ँचा। कुछ दे र ढू ढ़ने पर जड़ी-बू टय का एक व े ता
मल गया।
जड़ी-बू टयाँ लेकर यौधेय पांथशाला लौट गया। अपने क म वेश कर अंदर
प ँचा ही था क कसी आभास से शरीर म एक सद लहर दौड़ गई। त काल पीछे मुड़ा।
ार पर मु कुराते ए रक खड़ा था। यौधेय के पैर वयं ही दो पग पीछे हो गए।
“उस मातरम के लए कतना घाव खाओगे यौधेय!” रक हँसकर बोला और दोन
हाथ छाती के सामने बाँधकर ार से टे क लेकर खड़ा हो गया। पुनः बोला, “ या तुम
व थ नह हो?…राजधानी म वेश करते ही तु हारे ऊजा- च बड़ी सरलता से ा त हो
गए।”
यौधेय ने त काल सुर ा मक मु ा बनाई। ण भर म क के अंदर क हवा ती
ग त से घूमने लगी। द वार पर खूँट से टँ गे व और दोन क धो तयाँ फड़फड़ा उठ ।
रक अ भा वत रहा। तर कारपूण कहा, “तुम भी अद्भुत् ढ गी हो यौधेय! जब
दे खो, लड़ने के लए मु ट् ठयाँ तान लेते हो। फर अवसर पाकर भाग खड़े होते हो। या
तु हारे ही जैसे कापु ष के बल पर मातरम इतना उछलता है।”
यौधेय ने कोई उ र नह दया। क म घूम रही हवा क ग त बढ़ गई। खूँट पर
फड़फड़ाते व अपनी अटक छु ड़ाने को ाकुल से हो गए।
रक ार का टे क छोड़कर सीधा खड़ा आ। उपालंभ दे ते ए बोला, “दे ह घाव से
भरी ई है। ऊजा का रसाव भी हो रहा… फर भी लड़ने के लए उ कं ठत हो! श हीन
श ु से लड़ने म मुझे कोई आनंद नह आता। आज तो जा रहा ,ँ कतु अगली भट अं तम
होगी।” कहकर रक ने पीठ फेर ली। एक पग चलकर ठहर गया। फर गदन पीछे मोड़कर
तरछ मु कान के साथ बोला, “ या तु ह यहाँ कसी अ य के ऊजा- च का भान नह
आ? हा!..हा!..हा!.. तुम वा तव म श हीन हो गए, यौधेय!”
रक चला गया। दौड़ रही साँस को यौधेय ने नयं त कया। क क हवा धीरे से
शांत हो गई। खूँट के व पुनः नज व से लटक गए।
े ी ल वी

दोपहर होने वाली थी, कतु मेघ ने आकाश पर ऐसा अ धकार जमा रखा था क सूय
करण को अपना अ त व बचाने के लए संघष करना पड़ रहा था। काजी दे श के इस
पहाड़ी े म लगभग पूरे वष वषा होती रहती थी।
यह थान असुर राजधानी म हार से चार दन क री पर था। यहाँ के हरे-भरे ऊँचे-
नीचे पहाड़ पर असुर का सं ांत वग रहा करता था। सं ांत वग के वृ अपने जीवन के
अं तम ण को यहाँ के सुहाने मौसम म बताना अ धक पसंद करते थे।
इ ह पहाड़ म एक म यम ऊँचाई वाले पहाड़ क तलहट पर एक पथरीली सड़क
थी। इस सड़क पर चार रथ एक कतार म तेजी से भागे जा रहे थे। सभी रथ पर चार-चार
कवचधारी सै नक पूरे अ -श और चौक ी के साथ उप थत थे। रथ पर सं क
तथा भांड के प म ढे र सामान लदा आ था।
आगे से तीसरा रथ अपे ाकृत कुछ बड़ा था। इस पर चार सै नक के अ त र एक
अय भी उप थत था। अड़तीस वष क वय वाला यह अपनी वेशभूषा से
व श तीत होता था। हलते-डु लते रथ पर दोन हाथ पीछे बाँधकर जस सरलता से
यह संतु लत खड़ा था, वह कसी कलाकारी से कम नह थी।
य प अ य असुर सै नक क भाँ त इसके भी शरीर क संपूण वचा काले रंग से
पुती थी, तथा प उसके मुख पर एक सौ यता छायी ई थी। वह अ य सै नक क भाँ त
चौक ा नह था। सामने कह र टकाए वह कुछ सोच रहा था। काले मेघ क बार-
बार होने वाली गजना भी उसका यान नह तोड़ पा रही थी। कह र हो रही वषा से
नमी लेकर बह रही ठं डी पवन जब उसके मुख से टकराती, तो वह उसके चतन संसार
को और भी गहरा बना दे ती। आस-पास क व छ ह रयाली और भूरे रंग के पथरीले माग
के दोन ओर यूँ ही उग आए छोटे -छोटे सफेद पहाड़ी फूल को वह नह दे ख पा रहा था।
दौड़ते रथ शी ही पहाड़ी क चढ़ान सीमा तक प ँच गए। रथ क ग त एकाएक
कम होने पर का यान टू टा। आकाश क ओर उठ । मेघ का तांडव कभी भी
ारंभ हो सकता था। जस कार बज लयाँ मेघ के बीच उप व मचा रही थ ,
मूसलाधार वषा होने क बल संभावना थी। फर भी यहाँ के मेघ व सनीय नह थे।
कभी-कभी डरा-धमकाकर बना वषा कए ही चले जाते थे।
चार रथ चढ़ान पर आ गए। ग त पहले से धीमी हो गई। चाहकर भी वे घुमावदार
पहाड़ी माग पर तेज नह चल सकते थे। गंत र नह था। आशा थी, समय रहते प ँच
जाएँग।े
आधा माग पार करते ही बूँद गरनी ारंभ हो ग । व श का भाव सामा य
बना रहा, कतु सै नक को थोड़ी चता होने लगी। यह चता तब और बढ़ गई, जब आगे
का मोड़ मुड़ते ही रथ को क जाना पड़ा।
सामने माग पर छोटे -बड़े प थर का ऊँचा मलबा पड़ा आ था। सबसे बड़ा प थर
एक घोड़े जतना बड़ा था। संभवतः कसी ताजा भू खलन के कारण यह मलबा गरा
होगा— ऐसा सभी ने अनुमान लगाया। पहाड़ी माग पर यह होता ही रहता था।
एक तरफ पवत क ऊँची खड़ी चट् टान और सरी ओर खाई। मलबा हटाए बना
आगे जाना संभव नह था।
सै नक को कसी नदश क आव यकता नह थी। सारथी स हत सभी सै नक
अपने-अपने रथ से त काल उतरे और मलबा हटाने म जुट गए।
तीसरे रथ पर अकेला खड़ा व श अभी भी शांत था, कतु आँख म कुछ
सतकता आ गई थी।
यह पहाड़ी माग मा एक रथ जतना ही चौड़ा था। य द रथ पर खड़े-खड़े बा ओर
झाँका जाए, तो नीचे क खाई प दे खी जा सकती थी।
रथ क छत रय पर मेघ क बूँद ट प्-ट प् बजा रही थ । चार ओर अपनी सतक
दौड़ाते ए यह सोच रहा था क य द समय से अवरोध नह हटा और
मूसलाधार वषा ारंभ हो गई, तो कहाँ आड़ ली जाए।
‘पट् ट् ’
वश के रथ के दो सफेद घोड़ म से बाएँ घोड़े क पीठ पर, आकाश से
एक गे ँआ सप गरा। क भौह सकुड़ ग ।
‘पट् ट् ’…! ‘पट् ट् ’! ‘पट् ट् ’! ‘पट् ट् ’! ‘पट् ट् ’…!
इस बार तीन सप दाएँ घोड़े पर तथा दो सप छतरी पर गरे। फर तो मानो सप-वषा
ही ारंभ हो गई। आगे-पीछे सभी रथ पर सप गरने लगे।
सप रथ क छत रय से टपककर रथ के अंदर गरने लगे और भू म के सप ने
घोड़ के पैर से लपटना ारंभ कर दया।
शरीर पर रगते सप से भयभीत घोड़े हन हनाकर बदकने लगे। सै नक रथ से
साठ पग र मलबा हटा रहे थे। जब उ ह ने यह य दे खा, तो भय और आ य से मुँह
खुला रह गया।
ऊपर हवा म ह क धुँध टँ गी ई थी। अतः सप कहाँ से आ रहे, यह नह दखा। बस
ऐसा लगा क सप धुँध से गर रहे ह।
सप ने कई घोड़ पर अपने दाँत गड़ा दए। व श के बाएँ घोड़े पर भी तीन
सप ने अपने दाँत धँसा रखे थे। कनारे पर खड़ा वह घोड़ा इतनी जोर से बदक रहा था
क कसी भी ण रथ स हत खाई म चला जाता।
सै नक क उस हचकोले खाते रथ क ओर गई। सभी एक वर म चीखे—
“ े ी!”
जस व श को उन सभी ने ‘ े ी’ कहकर पुकारा था, वह कई बार रथ से
कूदने क सोच चुका था, कतु आगे-पीछे हर थान पर सप को रगता दे खकर रथ पर ही
का रहा। वह अपनी तलवार से रथ के अंदर गर आए सप को शी ता से उठाकर बाहर
फक रहा था।
एक सै नक ने वतमान थ त दे खकर व रत नणय लया। अपने बगल खड़े साथी
का भाला लया और बढ़कर सबसे आगे आया। फर पूरी श से भाला ख च मारा।
हवा को चीरता भाला आगे के दो रथ के बगल से होता आ े ी के बाएँ घोड़े के
सीने म उतर गया। भाले म चंड आवेग था। घोड़े के कई मह वपूण अंग बध गए। घोड़े
का बदकना णभर म क गया। दो ण न तेज-सा ठहरा रहा, फर ाणहीन हो गर
पड़ा।
घोड़े के गरते ही रथ असंतु लत हो कर बा ओर थोड़ा टे ढ़ा हो गया। े ी ने सरे
घोड़े क थ त दे खी। दस से अ धक सप ने पीठ और गरदन पर अपने दं श गड़ा रखे थे।
े ी ने रथ म रखा एक भाला उठाया और पूरी श से घोड़े क पीठ म धँसा
दया। सप वष से पहले ही अधमरा घोड़ा अब पूरी तरह मर गया। दो-तीन हन हनाहट के
प ात् वह भी पीड़ा मु हो गया। रथ अब पूरी तरह शांत और संतु लत था।
सप-वषा अं तम अव था म थी। इ का- का ही सप गर रहे थे। कुछ ण प ात्
पूरी तरह क गई। रथ के आगे-पीछे और नीचे सभी थान पर सप-सेना रग रही थी।
काले, भूर,े पीले, चतकबरे और प ट् टय वाले न जाने कतनी जा तय के सप वहाँ
उप थत थे। े ी पूरी फुत से अपने रथ पर चढ़ आए सप को तलवार से हटा रहा था।
सभी सप प प से ो धत लग रहे थे। कुछ बड़े सप ने छोटे सप को नगलना भी
ारंभ कर दया।
सै नक भी अपने भाल और तलवार क न क से सप को हटाते और मारते ए
आगे वाले रथ क ओर बढ़ रहे थे। वे रथ पर रख उ काएँ ा त करना चाहते थे। एक
बार उ काएँ जल जाएँ, तो सप को भगाना सरल हो जाएगा। े ी भी उ काएँ जलाना
चाहता था, कतु अवसर ही नह मल पा रहा था।
तभी भयंकर गजना के साथ बजली कड़क । एक बार नह , पाँच-छः बार कड़क ।
ऐसे ाकृ तक कोप से जीव-जंतु ब त घबराते ह। सप-सेना भी वच लत ई। शरण
पाने के लए अ धकांश सप खाई क ओर उगी झा ड़य क ओर जाने लगे।
बूँदा-बाँद तेज हो गई। े ी ने राहत क साँस ली। अ धकतर सप माग से हट चुके
थे। अ धक ण नह बीते ह गे क भा य ने एक नया दाँव खेल दया। े ी के पीछे खड़े
रथ के एक घोड़े के खुर से एक बड़े सप क पूँछ कुचल गई। त या व प ो धत
सप घोड़े के पैर से लपट कर दं श पर दं श मारने लगा।
घोड़ा बुरी तरह छटपटाया। आव न ताव दे ख पूरी श से दौड़ पड़ा। खचाव
मलने से रथ का सरा घोड़ा भी दौड़ पड़ा।
े ी उस समय रथ से उतरने ही जा रहा था। तभी पछले रथ को अपनी ओर आते
दे खा। घोड़े सर झटकते ए आए और कसी तूफान क भाँ त े ी के रथ से टकराए।
रथ भयंकर प से डगमगाया। े ी भी संतुलन खोकर पीछे गरा। आगे बढ़ने क
हड़बड़ाहट म दोन घोड़े े ी के रथ पर ही चढ़ने का यास करने लगे। रथ को डोलता
दे ख े ी ने नणय लेने म दे र नह क । रथ पर रखे एक सं क पर चढ़कर आगे क ओर
कूद गया। वह अपने रथ के मरे घोड़े के बा ओर मुँह के बल गरा। एक ओर मृत घोड़ा
और सरी ओर खाई। करवट तक क कोई जगह नह ।
रथ के डोलने से घोड़ क घबराहट चरम पर प ँच गई। बायाँ घोड़ा जब े ी के रथ
पर चढ़ने म असफल रहा, तो बा ओर कनारे से आगे बढ़ने का य न करने लगा। बूँदा-
बाँद से गीली हो चुक मट् ट पर खुर फसला और आगे के दोन पैर खाई म लटक गए।
घोड़ा णभर ही लटका होगा क पूरा शरीर पेट के बल खाई म सरकने लगा। इसी के
साथ पछला रथ भी खाई क ओर टे ढ़ा हो गया। सरे घोड़े क व गा े ी के रथ म कह
अटक गई थी। े ी का रथ भी खाई क ओर खचने लगा। यह य दे खकर सै नक पूरी
श से चीखे— “ े ी!”
े ी लगभग उठकर खड़ा हो चुका था। सै नक क चेतावनी सुनते ही पूरी श से
दौड़ पड़ा।
े ी के वह थान छोड़ते ही उसके बगल वाला मृत घोड़ा खचा और दो रथ खाई म
पलटते दखे। कुछ ण बाद खाई से दो ह के धमाके सुनाई पड़े।
वषा ती हो गई। अ धकाँश सप माग छोड़कर खाई के कनारे वाली वन प तय म
लु त हो चुके थे। बचे-खुचे सप से बचता आ े ी सै नक के पास प ँचा। इससे पहले
क सै नक कुछ बोलते, े ी ही बोला— “म ठ क ँ। शी ता से उ काएँ जलाओ और
सभी अ को रथ से अलग करो।”
सै नक थोड़े भयभीत थे, कतु े ी का शांत भाव दे खकर कुछ सामा य ए।
सै नक का यह दल पछले आठ वष से े ी के साथ था। इस कार क न जाने कतनी
ाणघातक घटना म उ ह ने े ी को वच लत होते कभी नह दे खा। संकट कैसा भी
हो, भय, उ ेजना, ोध, और घबराहट े ी को पश भी नह कर पाते थे।
वषा और भी ती हो गई। मेघ लगातार गरज रहे थे। एक सै नक रथ क छतरी
उतार लाया। छतरी के नीचे े ी अपने हाथ पीछे बाँधकर खड़ा आ। फर उ काएँ
जलाई ग । सै नक ने घोड़ को रथ से अलग कर दया। दो घोड़ पर वषदं त के च थे
और शेष दो सुर त थे।
“संकेत बाण छोड़ दो,” े ी ने संकेत दया।
सै नक ने तूरीण से सीट वाले बाण नकालकर धनुष पर चढ़ा लए। आकाश क
ओर छोड़ने ही वाले ही थे क े ी ने रोक दया, “ठहरो! मेघ क गजना समा त हो
जाए, तब छोड़ना।”
सै नक ने बाण उतार लया और मलबा हटाने म जुट गए।
वषा पूरे एक घड़ी तक चली, फर ह क फुहार के प म बची। अब तक इतना
अवरोध हट चुका था क घोड़े नकल सक।
सै नक ने आठ संकेत बाण एक साथ छोड़े। सी टय क तेज गूँज से पहाड़
त व नत हो उठे ।
एक घोड़े पर े ी बैठा और सरे पर एक अ य सै नक। मलबे के बीच से घोड़े
नकालते ए दोन आगे बढ़ गए। बाक बचे सै नक को सहायता क ती ा करनी थी।
माग पथरीला था। वषा के कारण माग के दलदली होने क सम या नह थी। अतः
घोड़े पूरी कुशलता से दौड़ रहे थे।
आध घड़ी चले ह गे क सामने से चालीस घुड़सवार का सहायता दल आता दखा।
जब सहायता दल समीप प ँचा, तब े ी के साथ वाला सै नक आगे आया और दल के
नायक को घटना से अवगत कराया।
बीस घुड़सवार े ी के बचे ए सै नक क सहायता के लए गए और दस सै नक
उस संभा वत थान क ओर भेजे गए, जहाँ से सप फके जा सकते थे। शेष दस सै नक
के साथ े ी अपने गंत क ओर चल दया। माग म े ी ने सहायता दल के नायक
को नदश दया क वह इस घटना के वषय म कसी को भी सू चत न करे और य द कोई
आरोपी पकड़ा जाय, तो सीधे म हार लाकर उसे ही स पा जाय। दलनायक ने सर
हलाकर हामी भरी।
चौथाई घड़ी क या ा के बाद वे पहाड़ क चोट पर प ँच।े यहाँ लकड़ी और बाँस
से बने पचास-साठ घर थे। सभी घर छतवाले ग लयार के मा यम से आपस म जुड़े थे।
इन सभी घर को एक साथ घेरते ए लकड़ी के लट् ठ से बनी छह हाथ ऊँची बाड़ थी
और अंदर वेश के लए इतना ही ऊँचा लकड़ी का एक मु य ार।
य प इस थान पर कसी श ु के आ मण का कोई भय नह था, तथा प व य
पशु से अपने पशुधन क र ा के लए बाड़ लगाना आव यक था।
े ी पूरे दल के साथ मु य ार से वेश कया। वह घोड़े से उतरा और सीधे
नानागार चला गया।

वहाँ के एक क म एक वृ ा श या पर त कया से टे क लेकर अधलेट थी। क म वृ ा


के अ त र दो अ य प रचा रकाएँ भी थ । एक पाँव दबा रही थी और सरी बेर जैसे
कसी जंगली फल के छलके उतारकर वृ ा को पकड़ा रही थी।
वृ ा आँख मूँदकर पूरे आनंद से फल खा रही थी। मुख के भाव से संतु प दे खी
जा सकती थी। तभी एक अ य प रचा रका पूरे उ लास से भागते ए क म आई, “ े ी
ल वी आए ह।”
वृ ा के मुख से आनंद और संतु के भाव उड़ गए। यौरी चढ़ाकर प रचा रका को
घूरा। प रचा रका सकुचाई। उसका भी उ लास उड़ गया। धीरे से बोली— “ ल वी आए
ह।”
वृ ा क यौरी और चढ़ । प रचा रका का चेहरा पूरी तरह उतर गया। अ यंत मंद
वर म बोली— “ ल वी आया है।”
वृ ा का ोधपूण मुख सामा य आ और एक व च -सी संतु का भाव छा गया।
प रचा रका सर झुकाकर चली गई।
नान कर, व छ व पहन ल वी सीधे वृ ा के क म आया। अ भवादन कया
और एक पीढ़े पर बैठ गया। दोन प रचा रकाएँ उठकर बाहर चली ग ।
“बड़ी माँ! वा य कैसा है?” ल वी ने आ मीयता से पूछा।
“जैसा था, वैसा है। कसी के पूछने से सुधर या बगड़ नह जाएगा,” वृ ा खाई
से बोली। “…मेरी साम ी लाया है? या फर से कोई नया बहाना तुत करेगा?”
ल वी थोड़ा अचकचाया, “बहाना तो नह है… कतु…माग म…एक…एक छोट
घटना घट गई। आधा सामान न हो गया…।”
“न हो गया?” वृ ा का मुख ोध से वकृत होने लगा, “न हो गया? या तेरी
चुड़ैल माँ ने लाने ही नह दया?”
ल वी आहत आ, “बड़ी माँ! ऐसा य कहती हो?”
“मा मेरा ही सामान न आ…शेष सुर त है…वाह!” वृ ा के वर म घृणा
म त थी।
“नह , बड़ी माँ! पताजी और चाचा का भी आधा सामान न हो गया। म हार
लौटते ही भजवा ँ गा,” ल वी ने संयत वर म बताने का यास कया।
वृ ा ल वी को तर कार क से घूरती रही, कुछ दे र बाद रोआंसी जैसी हो
गई। ँ धे कंठ से बोली— “तू और तेरी माँ…” ल वी ने जैसे ही यह वा य सुना, समझ
गया, फर वही पुरानी बात। वषय कोई भी चल रहा हो, बड़ी माँ इस वषय को ख च ही
लाती ह।
वृ ा कातर वर म बोली, “तुम दोन ने मलकर मेरी संतान को मार डाला…
कसी… कसी कार मने छोटे को बचाकर राजधानी के बाहर भेजा, तो तुमने पीछा
करके उसका भी गला रेत दया।” वृ ा के ने से आँसु क धार बह नकली। पछले
दस वष म ल वी यह बात अन गनत बार सुन चुका था।
वृ ा म मानो कोई तोता समाया हो, जो हर बार ल वी को दे खते ही रटना ारंभ
कर दे ता था। वृ ा के मुख पर ोध, छटपटाहट, ई या, और तशोध सारे भाव एक
साथ आ गए। ल वी पीढ़ा सरकाकर श या के समीप आया और वृ ा के दोन पैर
पकड़कर ःख पूण वाणी म बोला, “बड़ी माँ! इस म के साथ कब तक जओगी?”
“ म…?” वृ ा क आँख भभक उठ । चीखकर बोली, “ म है, तो र कर….चल
र कर! चल जी वत कर मेरी संतान को!”
ल वी बोलना चाहा, “बड़ी माँ! ऐसा…”
वृ ा ने झड़क दया, “ र हट!”
ल वी ने पैर नह छोड़ा। वृ ा का ोध चरम पर आ गया। ख चकर एक लात
ल वी क छाती पर मारा। ल वी पीढ़े पर डगमगाया। श हीन पैर से चोट शरीर पर
नह सीधे दय पर लगी। दय डू ब गया। आज तक वृ ा ने ल वी पर ज ा का ही
हार कया था, कतु इस कार का अपमानजनक हार पहली बार आ था।
भराये कंठ से बड़ी माँ का पैर पकड़कर पुनः यास कया।
“बड़ी…बड़ी माँ! शांत हो जाओ…।”
वृ ा ने पुनः लात मारी। ल वी क नाक पर पड़ा। पर ल वी ने पुनः पकड़ा। पुनः
हार।
वृ ा जोर से चीखती ई ल वी पर नरंतर पाद हार करती रही। ल वी क छाती,
कंध , नाक, मुँह, गला, सभी अंग पर हार पड़ा। वृ ा क घृणा मुख पर य थी।
वृ ा क ची कार सुनकर कई प रचा रकाएँ क के बाहर एक हो ग , कतु अंदर
जाने का साहस कसी म नह आया।
पाद हार करते-करते जब वृ ा हाँफ गई, तब क । शरीर काँप रहा था और साँस
भयंकर ग त पर थ । कुछ ण शांत रहने के प ात् जब कुछ साँस बंधी, तब त कया
ख चकर ल वी के मुँह पर मारा। चीखकर बोली, “ र हो जा मेरी से…तुझे मृ यु कब
आएगी!”
भारी मन से ल वी खड़ा आ। त कया उठाई और वृ ा के सर के नीचे लगाकर
क से बाहर चला गया। क के बाहर ल वी को दे खते ही प रचा रका ने सर झुका
लया। ं धे कंठ के साथ ल वी चुपचाप अपनी राह चला गया।

वृ ा के क से सौ पग र एक अ य व श क था। इस क के पीछे एक सुंदर उ ान


था। यह उ ान चोट क कगार पर थत था। व भ कार के रंग- बरंगे पु प और गंध
वाली घास से यहाँ क हवा सुवा सत थी। उ ान के बीच छ पर वाला एक मंडप था।
मंडप अगल-बगल से पूरी तरह खुला था।
मंडप के नीचे एक चौड़े पीढ़े पर एक वृ बैठा था। लंबे-चौड़े शरीर वाले
अठासी वष य इस के बूढ़े ने म अनुभव और गव एक साथ दे खा जा सकता था।
यह ल वी का पता और असुर दे श का सबसे बड़ा ापारी मारंग था। य द
ठ क-ठ क कहा जाए, तो मारंग से बड़ा ापारी पूरे जंबू प और दानव-दे श म भी नह
था। मारंग के ापार सा ा य क क त पूरे संसार म फैली ई थी। दानव तथा यवन दे श
स हत प म के हर छोटे -बड़े दे श के साथ मारंग के ापा रक संबंध थे।
मारंग क सात प नयाँ थ । ल वी सातव प नी का पु था। मारंग ने सातवाँ
ववाह प र थ तवश अ न छा से कया था। वह ल ी को त नक भी पसंद नह करता
था। मारंग को अपनी सरी प नी के थम पु से अगाध ेम था। वह उसे ब त
तभाशाली मानता था और अपने उ रा धकारी के प म दे खता था। कतु स र वष
क अव था होते-होते उसके सारे पु राजनै तक षड् यं और ापा रक संघष म मारे
गए। मा ल वी बचा।
न चाहते ए भी मारंग को अंत म ल वी को ही अपना उ रा धकारी घो षत करना
पड़ा। ल वी के उ रा धकारी बनने से अ य असुर ापारी अ स हो गए। ां त उड़ी
क उ रा धकारी बनने के लए ल वी ने ही अपने भाइय क ह या करवाई है। स य या
है, यह तो इ तहास ही जानता था। कतु कइय के मुँह से सुनने के बाद मारंग को भी
थोड़ी शंका होने लगी थी।
मारंग अ छ तरह जानता था क अ य ापारी, वशेषकर उसके बाद का सबसे
बड़ा ापारी जाबाल, उसके उ रा धकार वहीन ापार-सा ा य पर घात लगाए बैठा
है। जीते जी वह अपनी संप कसी और के अ धकार म कैसे दे ख सकता था। अतः
ल वी ही उसका अं तम वक प था।
ापार क बागडोर संभालते ही ल वी ने ऐसे करतब दखलाना ारंभ कया क
लोग के मुँह खुले रह गए। ापार संभालने के पाँच वष के भीतर ही ल वी ने एक
असंभव काय कर दखाया— उसने असुर ापार संघ क थापना क और े ी का पद
हण कया।
यह वह असंभव काय था जसे पूरा करने के लए मारंग वष तक संघषरत रहा।
असुर ापार संघ तीन सौ वष पूव पछले दे वासुर-सं ाम के समय भंग कर दया गया
था। ापार संघ क उद्दं डता के कारण उस सं ाम म असुर को भारी हा न ई थी और
सं ाम के प ात् राजस ा का त ता-पलट होते-होते बचा।
वतमान म मारंग के ापक भाव से असुर राजप रवार भयभीत रहता था। ऐसे म
राजस ा से ापार संघ बनाने क अनुम त ा त करना असंभव था। ल वी ने उसी
असंभव काय को पाँच वष के अंदर ही संभव कर दखाया था।
ापार संघ क थापना के एक वष पूव ही मारंग ने ापार जगत् से सं यास ले
लया था और जीवन के अं तम ण को शां त से बताने के लए इन सदाबहार पवत
पर आ गया। सात प नय म मा सरी प नी और ल वी क माँ ही जी वत बची थ ।
ल वी क माँ का वा य जजर हो चुका था। वह ल वी के साथ राजधानी म रहती थी
और सरी प नी— जससे ल वी अभी मला था, मारंग के साथ थी।
ल वी क अ या शत उ त दे खकर अब मारंग भी स रहने लगा था। कतु
अपने अ य पु क ह या के संदभ म कह -न-कह अभी भी कुछ रोष बचा आ था।
अपनी सरी प नी के पु के वषय म सोचकर आज भी उसके अंदर उबाल आ जाता
था।
काण युग का यह सबसे यात आजकल अपना अ धकांश समय इसी
उ ान म बता रहा था। पु प से संबं धत ंथ पढ़ना और फुलवारी म जुटे रहना, पछले
डेढ़ वष से मारंग क यही दनचया थी। इस उ ान म कसी अ य को हाथ लगाने क
त नक भी अनुम त नह थी। मारंग अकेले ही इस फुलवारी को संभालता था।
पीढ़े पर शांत बैठा मारंग कसी भूतपव सेना य जैसी आभा दे रहा था। मजबूत
और बड़ा शरीर होने के कारण द खने म यो ा ेणी का तीत होता था।
उ ान म मारंग के पीठ पीछे ल वी कट आ। बड़ी माँ से भट ए एक घड़ी बीत
चुक थी। अब वह व थ था। धीमी ग त से चलता आ आया और पता को णाम कर
बगल म बैठ गया।
“संकेत बाण य छोड़ना पड़ा?” मारंग ने ल वी के बैठते ही कया।
“कुछ वशेष नह …एक छोट घटना हो गई थी,” ल वी ने सामा य-सा उ र
दया।
“कैसी घटना?”
“…भू खलन के कारण माग टू टकर संकरा हो गया था। मेरा रथ चौड़ा था। पार नह
जा सकता था। अतः उतरकर आगे के माग का नरी ण करने चला गया। तभी मेघ
गरजे। न जाने य मेरे रथ के घोड़े बदक गए और दौड़ पड़े। संकरे माग पर रथ के
प हये को भू म नह मली और पूरा रथ खाई म पलट गया।” ल वी ने धारा वाह
मनगढं त कहानी सुना द । य प इस कहानी म कई गल तयाँ थ , फर भी अभी टालने
के लए इतना पया त था।
मारंग ने मुड़कर ल वी को पूरा नहारा। कोहनी पर जाकर क गई। मारंग ने
भौह सकोड़कर पूछा— “ घटना छोट थी, तो हाथ कैसे छल गए?”
“इधर-उधर म कह लग गया होगा…,” ल वी ने सहज उ र दया।
मारंग को अंदर-ही-अंदर ोध आ गया। कुछ दे र कुछ न बोला। इधर-उधर के
कयास लगाता रहा। मन म जाबाल का च सबसे पहले आया।
अपने वभाव के अनुसार मतभाषी ल वी भी चुप रहा।
छोट -छोट रंग- बरंगी च ड़य का झुंड कोलाहल करता आ आया और मंडप के
चार ओर फैलकर य -त पड़े दान को चुगने लगा। उसी समय कह से पवन का एक
झ का आया। घास से टकराते ही एक गंध पूरे उ ान म फैल गई।
जैसे ही इस मनभावन गंध ने मारंग क ना सका म वेश कया, वह अपने ोध
संसार से बाहर आ गया। कुछ दे र म मुख के भाव सामा य हो गए। पूछा, “पौधे लाया
है?”
ल वी ने धीरे से गरदन मोड़कर अपने पता को दे खा। मु कुराकर बोला, “लाया ँ।
इस बार एक नई जा त के भी मल गए।”
“नई जा त? कहाँ से ा त आ?” मारंग के मुख पर भी मु कान आ गई। वाणी
थोड़ी उ लासमय हो गई।
“लंबी लता वाले पु प ह। एक ही लता म तीन भ - भ रंग के पु प खलते ह।
और व श बात यह है क उनक गंध भी भ - भ है।” ल वी ने स ता से बताया।
“कौन लाया था? वही एक आँख वाला यवन?”
“नह ! वह नह लाया था। उस यवन ापारी के साथ एक नया ापारी आया था।
एंडर जैसा कुछ व च नाम था। अभी बाईस वष का नवयुवक ही है।”
“ओह! तीन वष प ात् कोई नया यवन ापारी आया है।” मारंग ने आ य
दखाया।
“हाँ! शीत ऋतु के प ात् कुछ अ य ापा रय के भी आने क बात कह रहा था।”
“अ छा है, आते रह।”
ल वी अपने पता को ापार और राजधानी म हार क मह वपूण घटनाएँ बताता
रहा। राजप रवार से संबं धत बात पर मारंग के कान चौक े हो जाते।
कुछ दे र प ात् एक प रचा रका दोन के लए दो याल म काढ़ा रखकर चली गई।
ल वी ने याला उठाया। काढ़े क वा प स पलाकार प म उठकर वलीन हो रही
थी। एक घूँट पीकर थोड़ा हच कचाते ए बोला, “ भा…आने क जद्द कर रही थी।”
“नह !” मारंग णभर म कु पत हो गया। प प से नकार दया। तेज वर म पूरे
रोष के साथ बोला, “अपना अनाथालय अपने पास रख। यहाँ लाने क आव यकता
नह ।”
ल वी के ह ठ काँप गए, “अ धक…अ धक समय नह बचा है, उसके पास।”
“तेरे कान म मैल जमा है, या एक बार म बात बु म घुस नह रही।” मारंग पुनः
च लाया। अदं र दबे रोष ने अतीत के ःखद य को णभर म आँख के सामने नचा
दया। ोध और चढ़ आया। वर तेज होता चला गया, “…तुझे कब से अपन क मृ यु
का ःख होने लगा। सग क मृ यु दे खने का तो तुझे पुराना अ यास है। जहाँ इतने
प रजन क शव-या ाएँ , वहाँ एक और सही…।”
इन चार वा य म ही मारंग क साँस फूल ग ।
ल वी अपने पता के साथ ऐसे कठोर वातालाप का अ य त था। इस बार भी ने
क नमी रोकने म सफल रहा। र पवत शृंखला पर कह टका ली।
कुछ दे र बाद जब मारंग क साँस थोड़ी संभली, तब उसे लगा क आवेग म कुछ
अ धक बोल गया।
चौथाई घड़ी तक दोन म कोई नह बोला। एक गाढ़ा स ाटा छाया रहा। न प य
का कलरव सुनाई पड़ा और न पवन का झ का आया। मानो कृ त को भी इस गंभीरता
का भान हो।
अंत म ल वी ने ही वषयांतर करते ए वातावरण के भारीपन को तोड़ा, “अवसर
मले तो कसी दन म हार का मण करने आ जाएँ। पछले आठ माह म तीन नये हाट
खुले ह।”
“…म यह स ँ। राजधानी म शरीर काला करना पड़ता है। यहाँ उस रंग-रोगन
से मु है।” मारंग ने अनमना कर कहा।
“शरीर रंगना अब उतना आव यक नह रहा। पछले कई वष से राजधानी म वण-
था धीरे-धीरे कम होती जा रही है। राजप रवार के ही कई सद य ने रंग लगाना छोड़
दया है।” ल वी समझाने के भाव म बोला।
“…ठ क है, दे खूँगा।” मारंग ने बात टालनी चाही। “आजकल तेरी बहन क या
दशा है?”
ल वी के आगे अपनी ममेरी बहन उरी का चेहरा आ गया। उरी के याह के बाद
मा दो बार ही भट हो पाई थी। ल वी जब भी उरी के बारे म सोचता, मन म दया और
गव दोन भाव एक साथ आते।
“दानव दे श म कुछ उथल-पुथल ई है, कतु अभी तक प सूचना नह मली है।”
ल वी ने सं त उ र दया।
मारंग पछले वष संथार का दौरा करने वाला था। कतु दारा के कारावास से बाहर
आने क सूचना मलते ही क गया।
तभी पीछे से एक खरखराती आवाज आई, “हा! हा! हा!..भतीजे!…मेरी औष ध
लाया या नह ?”
ल वी सोच ही रहा था क इस आवाज का वामी अभी तक कट य नह आ।
अ यथा हर बार यहाँ प ँचने पर सव थम इसी से भट होती थी।
अ सी वष य एक बला-पतला लंबा तेज पग से चलता आ आकर दोन
के स मुख बैठ गया।
यह वासुक का पता व जी था। ल वी इसे चाचा कहता था। व जी मारंग का
घ न म और प रवारजन के समान था। मुं ा म अपना कायकाल पूण कर व जी,
मारंग के साथ यहाँ जीवन बता रहा था। म दरापान और लंबी न ा यही दो इसके य
काय थे।
व जी ने ल वी को प बता रखा था क वह मरने से पहले संसार क हर कार
क म दरा का वाद चखना चाहता है। अतः वह जब भी यहाँ आए, कोई नई म दरा
अव य लाए।
ल वी के लए यह ब त भारी काय था। एक तो म दरा म उसक कोई च नह
थी, सरा हर माह एक नई म दरा कहाँ से ा त हो। फर भी वह यथासंभव यवन और
दानव ापा रय से मँगा लेता था।
व जी के अ य धक म दरापान पर मारंग उसे ब त भला-बुरा कहता था। जब मारंग
ने उसे कई बार सावज नक थल पर भी डाँट लगाई, तो व जी ने थोड़ा स मान बचाने के
लए म दरा को औष ध कहना ारंभ कर दया। इस कुतक पर मारंग ने उसे और भी
जमकर सुना दया था।
“हाँ चाचा! इस बार यवन दे श क है,” ल वी बोला।
व जी क मु कान कान तक खच गई। सामने रखा मारंग के काढ़े का याला
उठाया और पूरा पी गया।
मारंग गुराया, “अगली बार इस बुड्ढे क म दरा म वष मला दे ना।”
“जैसी आपक आ ा,” ल वी गंभीर भाव म पूण आ ाका रता से बोला।
व जी मुँह खोले दोन को दे खता रहा।
फर तीन जोर से हँस।े
कुछ दे र सामा य बातचीत कर ल वी वहाँ से चला गया और एक प रचा रका के
हाथ व जी क म दरा भजवाई।
मारंग और व जी दोन ने यवन म दरा का जमकर पान कया। पुरानी मृ तय को
खँगालकर एक पुराने श ु का नाम नकाला और म दरा पीते ए उस श ु को असं य
गा लय से वभू षत कर दया।
वे दोन जोर से अट् टहास करते और नई-नई गा लय का अ व कार करते।
दो घड़ी प ात् दोन के। मारंग कुछ भावुक था। भारीपन से बोला, “व जी! मने
संसार म सब कुछ ा त कर लया। फर शां त य नह ा त ई?”
“ ँ? दन-रात खुरपी चलाकर भी नह ा त ई? हा! हा! हा!..”
व जी हँसता रहा। कतु मारंग गंभीर था।
अ य षड् यं

अगले दन ातः सूय दय के ठ क पहले ल वी अकेला ही उ ान म खड़ा था। वह उ ान


क बाड़ वाली झा ड़य के पास था। उ ान कगार पर थत था। अतः बाड़ के पास खड़ा
होने पर नीचे र तक फैली घा टयाँ प दखाई पड़ती थ । सूय दय का जो य यहाँ के
पहाड़ से द खता था, वह पूरे असुर दे श म अ य संभव नह था।
अंधकार अभी भी घरा आ था। आकाश म तेज चमक रहे कुछ तार से आकाश
के व छ होने का संकेत मल रहा था। रा म तेज पवन ने मेघ को खदे ड़ दया होगा।
दे ह को आनं दत करने वाली ठं डी बयार चल रही थी। वातावरण शांत था, फर भी
कभी-कभी कह से कोई प ी बोल दे ता था।
दोन हाथ पीछे बाँधकर खड़ा ल वी सु र पवत शृंखला क चो टय पर
गड़ाए ए था। एक चोट के पीछे काश क आभा उ प ई। लगा चोट के पीछे कोई
काश-पुंज छपा बैठा है। आभा धीरे-धीरे खर होती गई। आभा जतनी खर होती,
चोट के आस-पास के काले आकाश पर उतनी ही नी लमा चढ़ती जाती।
नी लमा कुछ र तक ही चढ़ पाई होगी क चोट के पीछे से एक पीली चगारी
फु टत ई। कट होते ही मानो चगारी म व नहीन व फोट आ। पीली करण चार
दशा म दौड़ पड़ी। इन करण म इतनी साम य नह थी क आकाश क का लमा पर
कुछ भाव डाल पात , कतु इतनी तेजवान अव य थ क ल वी को अपनी आँख
सकोड़ने पर ववश कर सक।
यह य मा दो ण रहा होगा क चोट के पीछे से एक पीला वृ उदय होने
लगा। चगारी वृ म समा गई। पीले वृ क बाहरी आकृ त-रेखाएँ नंगी आँख से प
दे खी जा सकती थ । कतु यह ण-मा के लए ही संभव था। अगले पल पुनः करण
का व फोट आ। इसी के साथ उदयाचल सूय अपने महातेज पर आ गया।
इस च धयाते काश म ल वी को अपनी आँख और सकोड़नी पड़ ग । पेड़-पौधे,
भू म, ल वी, जीव-जंतु, क क बाहरी द वार, सभी पर पीला रंग चढ़ने लगा।
ल वी क सकुड़ी आँख के सामने ही वृ चोट के पीछे से उठता आ, थोड़ा
ऊपर हवा म टँ ग गया। सूय के उठने क यह या मा कुछ ही ण म ई थी। इन
आठ-दस ण म आस-पास क हर व तु ह द जैसे गाढ़े पीले रंग म रंग गई। ल वी क
सफेद धोती भी पीली हो गई। संपूण वातावरण मानो पीले सागर म प रव तत हो गया हो।
ल वी ने एक लंबी साँस ख ची। फेफड़े उ ान क सुगंध से भर गए। मुख पर पड़
रहा ह द काश उसक कां त और शां त दोन बढ़ा रहा था। पछले दन का ःख वह
बीती रा के अंधकार म ही वलीन कर चुका था। इस नये काश म वह व थ और
व छ था। मुख पर एक मंद मु कान आई।
इस अद्भुत गाढ़े पीले समु को दे ख पाना मा दस-पं ह ण के लए ही संभव
था। इसके प ात् करण का पीलापन कम होता चला गया।
सूय शनैः-शनैः जतना ऊपर चढ़ता, आकाश क का लमा सूय के भामंडल से
उतनी ही र भाग जाती।
ल वी आध घड़ी तक सूय करण का सेवन करता रहा, फर ओस वाली घास पर
नंगे पाँव चलता आ उ ान के बाहर चला गया।

एक घड़ी प ात् मु य ार से चार रथ नकले। इन चार नए रथ के साथ ल वी राजधानी


म हार लौट रहा था। वह तीसरे रथ पर कसी कुशल नट क भाँ त दोन हाथ पीछे बाँधे
खड़ा था।
भू खलन का अवरोध पछले दन ही हटा दया गया था। नबाध प से दौड़ रहे
काले घोड़ वाले रथ घुमावदार पहाड़ी माग से होते ए पवत क जड़ तक प ँच गए।
यहाँ पर धुँध इतनी घनीभूत थी क मुख पर धुँध क भारहीन महीन बूँद का गीलापन
प महसूस हो रहा था। दस हाथ आगे का माग दे खना संभव नह था।

ल वी के जाने के प ात् मारंग अपनी दनचया के अनुसार उ ान म बैठ काढ़ा पी


रहा था। पीछे एक सै नक खड़ा था। यह पछले दन ल वी के लए भेजी गई सहायता
सेना का दलनायक था।
“ व तार से बता।” मारंग ने गरजकर आदे श दया।
दलनायक कुछ दे र चुप रहा। वह ल वी के नदश के बारे म सोच रहा था।
“मेरे कान को ती ा मत करा,” मारंग च लाया।
दलनायक ने हड़बड़ाकर सारी घटना व तार से बता द । कतु यह बात छु पा ली क
आरोपी को सीधे ल वी को स पना है।
पूरी घटना सुनकर मारंग ने दलनायक को जाने का आदे श दया। धूप सकता मारंग
धीरे-धीरे पूरा काढ़ा पया, फर उ ेजना के साथ याला उ ान के बाहर फक दया। ने
के आगे जाबाल का च था।
अगले दन सरे हर, जब सूय एकदम सर पर था, ल वी घास के एक मैदान को पार
कर रहा था। काजी दे श के इन बाहरी े म असुर क ाचीन जनजा तयाँ ही रहा
करती थ । ये वह जनजा तयाँ थ , जो आज भी असुर के ाचीन री त- रवाज को पूण
ा से मानती थ । इनक वेशभूषा और भाषा काजी दे श के नगर से भ थी।
नगर के असुर का वण के त भयंकर लगाव था। कतु ये जनजा तयाँ आज भी
शृंगार के लए ह ड् डय , पशु-नख तथा प ी-पंख का ब तायत से योग करते थे।
मैदान पारकर ल वी के रथ वन म घुस।े घोड़े पूरे उ साह के साथ दौड़ रहे थे। पवत
से राजधानी म हार तक का माग मारंग ने वयं बनवाया था। पूरे माग म प थर बछाए
गए थे, ता क नरंतर होने वाली वषा से आवागमन म बाधा न पड़े।
वन म घुसते ही सबसे आगे वाले रथ पर एक ढोल नकाला गया, जसे एक सै नक
थोड़ी-थोड़ी दे र पर पीटता रहता।
ढोल पीटने क यह व था इस े म रहने वाले एक वशेष पशु के कारण करनी
पड़ती थी। यह वशेष पशु एक वय क भसे से डेढ़ गुना बड़ा था। इसक खाल इतनी
स त थी क साधारण भाले और तलवार पूरी तरह भावहीन थे। अ यंत भारी और मोट
खाल वाले इस पशु क नाक पर एक स ग उगी रहती थी। असुर दे श म इसे नक सघा
और जंबू प म एक सघा कहा जाता था। जंबू प म यह तभी दे खने को मलता था,
जब कसी बड़े मेले म लभ जीव-जंतु क दशनी लगती थी।
यह पशु पूरे संसार म कुछ ही थान पर पाया जाता था। इस े म ब तायत से
था। वैसे तो यह शाकाहारी पशु मानव जा त से वयं ही र रहने का य न करता था,
परंतु अपने े म अ त मण दे ख, ो धत होता और खदे ड़ने के लए दौड़ पड़ता था।
इसी पशु से र ा के लए ढोल बजाया जा रहा था। य द वह माग के आस-पास कह
होगा तो ढोल क आवाज से वयं ही र चला जाएगा।
वन म चलते ए एक घड़ी से अ धक हो गया था। आगे का माग दे खकर रथ क
ग त कम कर द गई। अभी वे जस थान पर थे, वहाँ माग के दा ओर एक गहरी खंदक
थी। गहराई बीस हाथ से अ धक रही होगी। यह खंदक एक वष पूव भू म धँसने के कारण
बनी थी। लगातार वषा के कारण यह हर समय दलदल से भरी रहती थी। माग के
समानांतर खंदक र तक धँसी ई थी। चार रथ धीमी ग त से बढ़ रहे थे।
तभी अचानक बा ओर र कह प य का तेज कोलाहल आ। वातावरण म एक
व च -सी गूँज उ प ई। कुछ-कुछ भ रे क गुंजन समान थी। लगा गूँज बढ़ती जा रही
है। ल वी और सै नक क चौक ी होकर बा ओर घूमी। र एक खड़ी चमक ली
रेखा तेजी से आती ई दखी। अगले ही ण एक साथ कई अ य चमक ली रेखाएँ कट
। गूँज इ ह रेखा से आ रही थी। रेखा के बढ़ने क ग त कसी छू टे तीर से कई
गुना अ धक थी।
सोचने-समझने का समय नह था। सभी अपने-अपने रथ से कूद पड़े। उनके भू म
पश करने से पहले ही रेखाएँ रथ तक प ँच चुक थ ।
साधारण मनु य क ऊँचाई जतना बड़ा एक धातुई च ल वी के रथ को बा ओर
से चीरता आ नकल गया। रथ दो भाग म बँट गया। एक अ य च पछले रथ के दोन
घोड़ को एक साथ बीच से काट गया। सबसे आगे वाले रथ के एक सै नक क कलाई
कटकर अलग हो गई। सरा रथ भा यशाली रहा, च घोड़ क नाक से छह अंगुल र से
गुजरा था। आठ च म से तीन च टकराए थे। जो च टकराए, वे ग त म ीण होकर
खंदक म गरे और जो नह टकराए, वे खंदक को पारकर आगे वन म कह कसी वृ के
तने म जा धँस।े
‘असुरा !’ ल वी उठते ए बुदबुदाया।
सै नक क आँख आ य और भय से फैली ई थ ।
कटे घोड़ का र भू म पर तेजी से फैलने लगा। पेट से कट अँत ड़याँ बाहर नकल
आ । ण भर म वातावरण वीभ स हो गया। घायल सै नक अपना कटा हाथ पकड़कर
दाँत पीसे पीड़ा को सहन कर रहा था। अ य अपने अ -श के साथ अगले आ मण
का सामना करने के लए तैयार थे।
आ मण नह आ। कुछ दे र प ात् तीस लोग का समूह आता दखा। वे अपने
बरछ और खड् ग से झाड़-झंखाड़ हटाते, व च भाषा म शोरगुल करते आ रहे थे।
ल वी पहचान गया। ये काकासुर गण के लोग थे। असुर जनजा तय म चौथा
सबसे बड़ा गण।
काले रंग म पुते ए और बाल तथा कमर म प य के रंग- बरंगे पंख ख से, वे
तीस असुर सौ पग र क गए। पैर के साथ उनका शोरगुल भी थम गया।
एक असुर कंधे पर खड् ग टकाए आगे बढ़ा। ल वी ने इस असुर को पछले माह
म हार म दे खा था। यह काकासुर गण का त न ध खौर था।
असुर जनजा तय के येक गण म कुछ-न-कुछ ऐसे सद य अव य थे, ज ह
वतमान भाषा का ान था। भाषाई ान हन सद य को अपने गण म व श थान
दलाता था। ये अपने गण के लए मू यवान माने जाते थे तथा गण- त न ध के प म
राजधानी के संपक म रहते थे। खौर भी उ ह म से एक था।
ल वी के मन म भाँ त-भाँ त के समीकरण घूमने लगे। आस-पास के
वातावरण का तेजी से नरी ण कर रही थी। फर मन म कुछ न य कर अपनी कमर
प ट् टका म हाथ डाला। टटोलकर सात रंगीन अँगू ठयाँ नकाल और अँगु लय म पहन
ल । अँगू ठयाँ साधारण रंगीन छ ले समान थ । सभी का रंग भ था।
ल वी चार पग आगे बढ़ा और दोन हाथ पीछे बाँधकर खड़ा हो गया। खौर
लापरवाह ढं ग से चलता आ ल वी के स मुख प ँचा।
“यह सब या था?” ल वी ने सामा य भाव से पूछा। मानो कुछ वशेष नह घ टत
आ।
खौर ने खड् ग कंधे से उतारकर नीचे कर ली। वह भी सामा य भाव म बोला, “ े ी!
हम यहाँ नक सघे का आखेट करने आए थे। तीत होता है क नक सघे पर चलाया च
यहाँ तक प ँच गया।”
बात समा त करते-करते खौर के मुख पर एक मंद मु कान आ गई। खौर के इस
भाव ने ल वी के समीकरण को मन-ही-मन स कर दया।
“असुरा कहाँ से ा त आ?” ल वी ने सबसे मह वपूण कया।
“नक सघे क खाल के लए इस वष का एका धकार काकासुर गण को ा त आ
है।” खौर ने सीधा उ र दया।
नक सघे क खाल मु यतः ढाल पर मढ़ने के काम आती थी। यह ढाल भार म
ह क और मजबूत होती थ । इतने कम भार म मजबूत ढाल नक सघे क खाल के
कारण ही संभव थी। चूँ क पूरे संसार म सबसे अ धक नक सघे असुर े म ही पाए
जाते थे, अतः ऐसी उ च गुणव ा वाली ढाल को मा असुर ही बना सकते थे। यवन
तथा अ य दे श ने नक सघ को अपने दे श म पालने का कई बार यास कया, कतु वहाँ
क जलवायु म उनक सं या अ धक नह बढ़ पाई।
मुं ा के अ त र यवन दे श से भी भारी माँग आने के कारण पछले एक वष से
असुर ने ढाल क उ पादन-ग त बढ़ा द थी। ल वी वयं इन ढाल को बनाकर नयात
करता था। कतु नक सघ क खाल पर राजस ा का ही अ धकार रहता था। जस
ापारी को ढाल बनानी हो, वह पहले राजस ा से नक सघ क खाल का य करे, फर
जब उससे बनी ढाल का व य कर, तो उस पर लगने वाला ब कर भी द। इस कार
राज-प रवार दोहरा लाभ कमाता था। राजभवन येक वष नक सघ के आखेट के लए
एका धकार-प जारी करता था। राज-प रवार यह एका धकार ापारी वग को न दे कर
जनजा तय के पाँच मुख गण को ही दे ता था जससे क खाल का पहला लाभ गण
को मले और इस मोटे लाभ के लए गण राज-प रवार पर आ त रह। असुर दे श म
अपनी चौतरफा पकड़ बनाए रखने और ापारी वग के भाव को नयं ण म रखने के
लए राज-प रवार क यह साधारण नी त अब तक बड़ी कारगर थी।
काजी दे श क शास नक व था सु ढ़ थी, कतु अपने भोग और सन के
कारण राज-प रवार पीढ़ -दर-पीढ़ श हीन होता जा रहा था। ापारी वग जतना
सश होता, राज-प रवार क स ा से पकड़ उतनी ढ ली होती जाती और मारंग के उदय
के साथ राज-प रवार क कमर ही टू ट गई थी।
असुर के श ापार और का उ ोग ने काजी- दे श म धन क न दयाँ बहा द
थ । कतु यह सारा धन पूरी तरह ापारी वग क ओर वा हत हो रहा था।
“राजभवन एका धकार-प के साथ असुरा कब से दान करने लगा!” ल वी ने
खौर के मुख पर गड़ाकर पूछा।
“हमने माँग नह क थी…राजभवन ने वयं दया है। उ ह तीन माह म चार गुना
आपू त चा हए। असुरा के बना संभव नह था।” खौर सपाट भाव से बोला।
असुरा बनाने का ान और अ धकार मा राजक य योगशाला के पास
आर त था। बड़े यु के अ त र असुरा का योग कभी नह कया जाता था।
योगशाला म असुरा का परी ण ल वी ने कई बार दे खा था, कतु सावज नक
थल पर इस कार दशन कसी ने नह दे खा था।
“असुरा चलाते समय मेरा रथ नह दखा? इसके अ त र ढोल भी बज रहा
था!” ल वी ने संशय दखाया।
“हम सब यहाँ से पाँच सौ पग र थे…और ढोल का यान नह ।” खौर लापरवाह
बनते ए बोला और खड् ग उठाकर पुनः कंधे पर टका लया।
“…यह तो बड़ी व च बात है।”
“इसम या व च ता!” खौर ने थोड़ी भ ह सकोड़ी।
ल वी ने कमर-प ट् टका से एक छोट गोली नकालकर बा हथेली पर रखा। फर
दाएँ हाथ के अँगूठे से मसल दया। भुरभरी गोली चूण म बदल गई। ल वी ने हथेली पर
फूँक मारी। चूण खौर क ओर उड़ा। एक तीखी गंध खौर क नाक म घुसी। खौर को
ल वी क यह या व च लगी और ोध भी आया।
हथेली पर नाममा का बचा चूण ल वी ने अपनी बाँह क खरोच पर मल लया।
खौर ने समझा, कोई औष ध होगी।
ल वी ने अपने सभी सै नक को शेष बचे दो रथ पर चढ़ने का नदश दया, फर
खौर से बोला।
“… व च बात यह है क पाँच सौ पग र से चला दो हाथ ास वाला च वन के
कसी वृ से टकराए बना एक सीध म यहाँ तक प ँच गया। मा एक च ही नह , पूरे
आठ च बना कसी अवरोध के चले आए। मानो कसी ने पहले ही सट क गणना कर
सही कोण पर असुरा था पत कया ह ।”
खौर एकदम से सकपका गया। बोलने के लए श द ढूँ ढ़ने लगा।
तभी ल वी दोन हाथ को अपने मुँह के आगे व च ढं ग से घुमाने लगा। द खने म
तीत आ, जैसे मुँह पर आ रहे कसी क ट-पतंगे को भगा रहा हो। नाचते हाथ के बीच
खौर क ल वी क रंगीन अँगू ठय क ओर खची। दे खते ही एक व च -सा
आकषण जगा। अनायास ही उन अँगु लय का पीछा करने लगी। दो ण प ात्
खौर क आँख के आगे रंगीन छ ले बनने लगे। फर छ ले एक- सरे म समाने लगे।
ल वी ने हाथ घुमाने क ग त बढ़ा द । कुछ ण प ात् एकाएक दा हथेली अपने मुख
के ठ क आगे रोक ली।
रंगीन छ ले पूरी तरह एक- सरे म समा गए।
ण भर रोकने के प ात् ल वी ने मुट्ठ बनाई और एक झटके से हाथ नीचे ख च
लया।
रंगीन छ ल से ेत काश फूटा और चार ओर फैल गया। खौर क पुत लयाँ
तं भत हो ग । शरीर जड़ हो गया। मानो कोई मू त खड़ी हो।
ल वी ने पीछे मुड़कर दे खा। सै नक रथ पर थे और ती ा कर रहे थे।
ल वी खौर क ओर मुड़ा और आदे शा मक वर म धीरे से बोला, “आगे बढ़ते
रहो।”
आदे श दे कर ल वी त काल रथ क ओर गया। चढ़ा और चलने का संकेत कया।
खौर कसी यं क भाँ त आगे बढ़ने लगा। बीस पग म ही खंदक के कनारे तक
प ँच गया।
र खड़े काकासुर गण के असुर खौर को व च ढं ग से खंदक क ओर जाते दे ख
थोड़ा सशं कत ए।
कनारे तक प ँचकर भी खौर के पैर नह के। वह सामा य ढं ग से आगे बढ़ा। पग
बढ़ाते ही दायाँ पैर खंदक के ऊपर हवा म आ गया। अगले ही ण मुँह के बल खंदक म
गरने लगा। शरीर क तर ा- णाली ने खौर के म त क को एक झटका दया।
तं भत पुत लय म मानो ाण लौट आए।
दलदली भू म ब त तेजी से उसक ओर आती दखी। कुछ समझ म आने से पहले
ही उसका मुँह दलदल से टकराया।
खौर को खंदक म पाँव बढ़ाता दे ख काकासुर गण के असुर चीखते ए दौड़ पड़े थे।
ल वी का रथ अब तक ग त पकड़ चुका था। ल वी ने पीछे मुड़कर दे खा भी नह ।
काकासुर गण क चीख-पुकार के बीच रथ के टाप क व न र होती चली गई।
लाल रह य

अंधकार घरने से एक घड़ी पूव ही ल वी अगली चौक तक प ँच चुका था। पवत से


म हार प ँचने म रथ ारा पूरे चार दन लगते थे। इस लंबी या ा म ठहराव के लए माग
म थान- थान पर मारंग क गत चौ कयाँ था पत थ । सौ सै नक वाली ये
चौ कयाँ रा व ाम तथा आपातकालीन सहायता के लए थ । चौक प ँचते ही ल वी
ने आज क घटना संदेश-प म लखकर प वाहक को स प दया।
डेढ़ दन क या ा के प ात् प वाहक मारंग के पास प ँचा। सं या का समय था।
मारंग पौधे स च रहा था। प वाहक संदेश-प स पकर चला गया।
मंडप म बैठकर मारंग ने संदेश पढ़ा। तब तक व जी भी म दरा पीते ए प ँचा।
मारंग ने व जी को संदेश थमाया। व जी ने भी अ छे से पढ़ा।
“ या राज-प रवार इतना भयभीत हो गया है?” मारंग बोला।
“म वयं काकासुर गण जाऊँगा।” व जी ने गंभीर भाव म अपना उ र दया।
मारंग ने गरदन मोड़कर व जी क ओर दे खा। व जी का गंभीर होना लभ घटना
थी। म दरा से लाल हो रहे उसके ने म एक व च -सी चमक थी। मुख पर इतने म त
भाव थे क पढ़ना क ठन था। उसके जबड़ क कसावट कसी न य को दखा रही थी।
मारंग वयं व जी को भेजने क सोच रहा था। राज-प रवार के साथ गण को भी
यह मरण कराना आव यक हो गया था क मारंग आज भी असुर दे श म एक समानांतर
स ा है।
“म भी यही सोच रहा था। तेरा जाना ही ठ क रहेगा,” कहकर मारंग ने संदेश-प
त- व त कर फक दया।
उसने सामने चौक पर रखी सुराही से दो याल म काढ़ा नकाला। एक व जी को
दया और सरा वयं पीने लगा।
व जी के भाव सामा य हो गए। उसने अपने याले का काढ़ा सुराही म वापस उड़ेल
दया और दाँत दखाते ए बोला, “मेरी ज ा का वाद षत हो जाएगा।”
मारंग ने आँख तरछ क , “इतनी म दरा मत पया कर, बुड्ढ़े ! अंत ड़याँ गल
जाएँगी।”
व जी पुनः एकदम से गंभीर हो गया। मारंग क ओर मुड़ा और सर झुकाकर कहा,
“ ान दे ने के लए ध यवाद, नवयुवक!”
दोन एक- सरे क पीठ पर धौल जमाते ए जोर से हँसे।
मारंग ने सुराही से बारा काढ़ा उड़ेलकर व जी को पकड़ाया। इस बार व जी को
पीना पड़ा।
व जी को आठ-दस याले बलपूवक पलाने के प ात् मारंग ने दलनायक को
बुलाकर राजधानी चलने क तैयारी का आदे श दया।

अगले दन क सुबह कोहरे से भरी थी। सूय दय ए काफ समय हो चुका था। पर सूय
का अता-पता नह था। मु य ार पर बीस रथ मारंग क ती ा म खड़े थे। कोहरा इतना
घना था क कतारब खड़े बीस रथ को एक साथ दे ख पाना संभव नह था।
कुछ दे र म मारंग कट आ। चलता आ दसव रथ क ओर गया। सभी रथ पर
आठ-आठ सै नक थे। दसव पर मा व जी खड़ा था।
व जी को दे खते ही मारंग ठठका। व जी ने बाल को रंगकर लाल जूड़ा बना रखा
था। दोन हाथ भी कोहनी तक लाल थे। बा कमर से दो तलवार लटक रही थ । ऐसी
पतली और लंबी तलवार असुर दे श तथा जंबू प म साधारणतः योग म नह आती थ ।
व जी का यह प दे खे दस वष से अ धक हो गया था। य द मारंग अपने युग का
सबसे स ापारी था, तो व जी भी अपने समय का सबसे रह यमय असुर था। वह
पूरे काजी दे श म लाल-रह य के नाम से व यात था।
मारंग क व जी से थम भट पतालीस वष पूव ई थी। व जी के अतीत के वषय
म कसी को कुछ ात नह था, मारंग को भी नह । मारंग ने एक बार जानना चाहा, तो
व जी ने चु पी साध ली थी। उसके प ात् मारंग ने दोबारा कभी नह पूछा।
मारंग बना कुछ बोले रथ पर चढ़ गया। बीस रथ का यह दल कोहरे को चीरता
आ राजधानी म हार के लए चल पड़ा।
पहाड़ से उतरते ही व जी ने रथ पर रखे सं क से म दरा क एक छोट सुराही
नकली और मुँह से लगा लया।
सरे दन दोपहर के दो घड़ी प ात् मारंग का दल एक बड़े सरोवर पर का। घोड़
को रथ से खोलकर जल पलाया गया। सरोवर के सरी ओर मह ष गा ध का आ म
था।
व जी को वनोद सूझा, मारंग क पीठ ठोककर बोला, “जाओ नवयुवक! जाओ!
जो शां त तुझे खुरपी चलाकर नह मली, वह उस आ म म अव य मलेगी। बुड्ढा गा ध
पूरे संसार म व -शां त के लए मण करता रहता है। उस व -शां त से कुछ शां त तुझे
भी मल जाएगी। जाओ! वलंब मत करो…कह शां त लकड़ी बीनने वन म न चली जाए,
फर तु ह वह नह ा त होगी।”
मारंग कुछ न बोला। बस थोड़ा-सा मु कुराया।
कुछ दे र म रथ चलने के लए पुनः तुत हो गए। कतु इस बार मारंग व जी के
साथ नह चढ़ा। वह सरे रथ पर अकेला ही वराजमान आ।
आगे माग दो भाग म वभ था। एक गण क ओर जाता था तथा सरा म हार
क ओर।
“दो रथ साथ लेकर जा,” मारंग बोला।
आव यकता नह ! मेरी ह ड् डयाँ बूढ़ ई ह, श नह ।” व जी पूण अहंकार से
बोला।
“ठ क है, जैसी तेरी इ छा, अगली चौक पर ती ा क ँ गा।” कहकर मारंग दल
स हत अपने माग पर चला गया। और व जी अकेला ही काकासुर गण क ओर।
काकासुर गण क ओर जाते ए व जी के मुख पर एक भयकारी गंभीरता छाने
लगी। यह वह भाव थे, ज ह मारंग भी दे खने से बचा करता था।

सूय पूरी तरह डू ब चुका था। फर भी तज से छटकते काश म आस-पास का य


दे खा जा सकता था। काकासुर गण के झोपड़ के बाहर उ काएँ जलना ारंभ हो गई थ ।
गण के दो सह झोपड़े एक वशाल वृ ाकार मैदान को चार ओर से घेरते ए एक
छ ले के प म बसे थे। मैदान के म य म एक छोटा सरोवर था। सरोवर के तट पर गण
मुख मांबा का अ त वशाल दो मं जला झोपड़ा था। आज इस झोपड़े के बाहर भीड़
एक थी। गण त न ध खौर क रह यमय मृ यु से पूरे गण म म और भय ा त था।
भीड़ के म य म गण- मुख मांबा और उसका अट् ठाईस वष य पु मूर आमने-
सामने थे। पता-पु दोन एक- सरे से च ला- च लाकर झगड़ रहे थे। भीड़ चुपचाप
खड़ी दोन का वाक्- ं द दे ख रही थी। मूर जतना चीखता, पता मांबा का ताप उतना ही
चढ़ जाता। चीखते-चीखते कुछ दे र म मांबा इतने ोध म आ गया क अपनी खड् ग
ख चकर अपने पु के सामने भू म पर दे मारा। मूर का भी म त क गरम हो गया। जोर
से चीखा और पता क ओर पीठ कर ली। फर भीड़ को ध कयाते ए माग बनाया और
बड़बड़ाते ए चला गया।
पूरे गण म केवल मूर ही एकमा ऐसा सद य था, जसने ल वी क ह या के
षड् यं का वरोध कया था। मूर, खौर का अ छा म था और उसके साथ पछले तीन
वष से म हार आता-जाता रहता था। मूर ने राजधानी और नगर म मारंग के भाव को
अपनी आँख से दे खा था। वह राज-प रवार के झाँसे को अ छ तरह समझ रहा था।
राज-प रवार ने खौर के मा यम से गण मुख मांबा को यह व ास दलाया था क मारंग
अब बीता आ समय है। य द काकासुर गण मारंग के अं तम उ रा धकारी ल वी क
ह या कर दे ता है, तो आगामी तीन वष तक नक सघ के आखेट का एका धकार-प
काकासुर गण को ही दया जाएगा। इसके अ त र नक सघ क खाल के लए
राजभवन उ ह दोगुना भुगतान करेगा।
गण मुख को यह बात समझाकर मनाने के लए खौर को अलग से लोभ दखाया
गया था— पचास सह वण मु ाएँ तथा राजधानी म पाँच उ ान एवं तीस दास से
यु एक गत भवन।
मूर ने खौर को राज-प रवार के मूखतापूण झाँसे के बारे म ब त समझाया। खौर
वयं मारंग के भाव स हत सारी बात समझ रहा था। कतु लोभ क च ध के सामने
उसने सभी बात से आँख मूँद ली। मन म वैभवपूण भ व य का व कुलाँचे मार रहा था।
फर षड् यं वाले दन अ या शत प से खौर क मृ यु हो गई। पूरे गण को
स ाटा मार गया। मूर को भान हो गया क मारंग नाम क वप शी ही आएगी। उसने
अपने पता को मारंग के पास जाकर मादान माँगने को कहा। पर मांबा माना नह ,
अ पतु ो धत हो गया। एक गण मुख कसी ापारी के स मुख कैसे झुकेगा! ापारी
या…वह कसी के स मुख नह झुकेगा। उसके पुरख ने सर कटा दया था कतु अपना
अ त व कम नह कया था। इसके अ त र खौर, मांबा के मन म यह बात अ छ
कार बैठा चुका था क मारंग अब बीता आ समय है। वह ापारी अब इतने शखर पर
नह रहा क उसक गरदन न पकड़ी जा सके।
खौर के साथ राजधानी तथा नगर म जाकर मूर ने बाहर के व तृत संसार क जो
झलक दे खी थी, वह उस पर मु ध था। मूर नगर के वैभव से उतना आक षत नह आ
था, जतना नगर क ापार णाली से।
जन का साम ी और कलाकृ तय को गण वाले नगर म बेचकर स हो जाते
थे, उ ह सामान को नगर के ापारी सरे दे श को बीस गुना अ धक मू य पर नयात
करते थे, और सरी बात जस पर मूर वशेष प से उ सा हत था, वह थी— ापा रय
क समु माग से सरे दे श क या ाएँ। मूर के लए यह रोमांच कसी क पनालोक क
सैर के समान था।
पता मांबा के गरते वा य के कारण संभवतः दो-तीन वष म ही मूर काकासुर
गण का अगला गण- मुख बनेगा। उसके मन म अपने गण के भ व य के लए कई
योजनाएँ थ , ज ह वह अ धकार मलते ही न पा दत करवाता। कतु वह यह सब तभी
कर पाएगा, जब गण सुर त बचा रहे। खौर और उसके पता ने जो कृ य कया था,
उसके बाद मूर को अपने गण पर वप के काले बादल मँडराते दख रहे थे।
वह अपने पता को बार-बार समझा रहा था। समझाने के इसी यास म आज बहस
बढ़ती चली गई थी। बड़बड़ाता मूर भीड़ को पीछे छोड़कर गण के प मी छोर क ओर
चला गया।
गण के बाहर प म म एक वशाल पाकड़ वृ था। इस वृ के नीचे प थर का
एक चबूतरा था। मूर इस चबूतरे पर अपने म के साथ ब धा म दरापान कया करता
था। वशेषकर कसी से झगड़ने के प ात् अपने कसी म के साथ म दरा पीने यहाँ
अव य आता था। यह थान गण से पया त र था अतः म दरा पीकर कसी के बारे म
दय खोलकर अनगल बका जा सकता था। मूर को यह सु वधा ब त भाती थी।
चलता आ मूर वृ ाकार मैदान को पारकर अ व थत ढं ग से बसे झोपड़ के बीच
घुस गया। एक झोपड़े के सामने का। अपने म को आवाज लगाई। ात आ; म
घर पर नह है। मूर ने उसके भाई से म दरा माँगी और घूँट मारते ए अकेला ही चबूतरे
क ओर चल दया।
प मी छोर के अं तम झोपड़े को पारकर वह गण के बाहर तक आ गया। चबूतरा
र था। उस पर बैठ ई एक आकृ त दखी। पहले से भनभनाया मूर और त त हो गया।
मूर वभावतः ऐसा नह था। कतु न जाने य इस समय कसी अ य को उस चबूतरे पर
बैठा दे ख, गुरा उठा। लंबे-लंबे पग से वह चबूतरे क ओर बढ़ा।
समीप प ँचते-प ँचते कदम क ग त वतः ही मंद पड़ने लगी। यह वेशभूषा
से उसके या कसी अ य गण का नह था। दा ओर थोड़ी र एक वृ के नीचे एक रथ
भी खड़ा दखा। थोड़ा और समीप जाने पर कदम पूरी तरह ठहर गए।
एक बुढ़ा चबूतरे पर बैठा न त भाव से एक छोट सुराही से म दरा का घूँट ले रहा
था। मूर ने इस को पहले कभी नह दे खा था, कतु उसक वेशभूषा और व श
रंग-स जा से म त क म एक शंका उठ ।
लाल जूड़ा, कोहनी तक लाल हाथ, लाल मूठ वाले यान र हत दो पतले खड् ग,
लाल मुख कतु मुख तो लाल नह है…मूर क शं कत झट से रथ क ओर घूमी।
सीधे रथ क छतरी के ऊपर लगे वज पर गई।
आयताकार काले वज के बीच म एक वण कटोरा। इस वज को सहज ही
पहचाना जा सकता था— मारंग ापार गृह।
मूर क दे ह म सनसनी दौड़ गई। हाथ से म दरा छू ट कर गर पड़ी। दय जोर से
धड़धड़ाया। जस वप क उसे आशंका थी, वह आन पड़ी। सामने उप थत बूढ़ा
न त ही असुर दे श का सबसे कु यात लाल रह य व जी था।
लाल रह य क आतंकपूण कहा नयाँ असुर दे श के हर कोने म लोककथा क
भाँ त सुनाई जाती थ ।
म दरा का घूँट लेने के बाद व जी ने एक सहज सामने भयभीत खड़े मूर पर
डाली। सामा य थी, कतु मूर को लगा, मानो उसके ऊपर व पात आ।
मूर मुड़ा और पूरी श से गण क ओर भागा। झोपड़ के नकट प ँचते ही
चीखना ारंभ कर दया।
व जी चबूतरे पर बैठा म दरा पीता रहा। जब समा त हो गई, तब उठा। रथ के
सं क से एक सरी सुराही नकाली और छोटे -छोटे घूँट मारता आ गण क ओर चला।
काकासुर गण म संकट क सूचना एक- सरे के मुँह से होते ए तेजी से फैलने
लगी। कोलाहल मचना ारंभ हो गया।
व जी सुराही से घूँट मारते ए मंद ग त से झोपड़ के बीच से जा रहा था। उसे
दे खते ही लोग म भगदड़ मच जाती।
व जी बारह वष पूव मारंग के साथ यहाँ पहले भी आ चुका था। उस समय एक
व श शैली क का कलाकृ तय के लए एक वष का ापा रक समझौता आ था।
तब व जी अपने सामा य प म आया था। फर भी गण वाले भय के मारे अपने झोपड़
म बंद हो गए थे। और आज तो वह लाल रह य के प म आया था। इस प म आने का
उद्दे य प था।
झोपड़ को पारकर व जी बीच के मैदान म प ँचा। मैदान के म य बने दो मं जला
झोपड़े क ओर गई। झोपड़े के बाहर मांबा और मूर एक साथ खड़े थे। उन दोन के
आगे गण के सैकड़ श -स जत यो ा कसी द वार क भाँ त व मान थे।
जैसे-जैसे संकट-संदेश गण म फैल रहा था, वैसे-वैसे मैदान म सश यो ा क
सं या बढ़ती जा रही थी।
व जी के कदम के बढ़ने के साथ-साथ रा का अंधकार भी चढ़ता जा रहा था।
जब तक व जी मैदान क आधी री तय करता, चार सौ गण यो ा उसके और मांबा के
बीच कई परत वाली द वार क भाँ त आकर खड़े हो गए।
परंपरा के अनुसार गण यो ा व जी का सामना करने अव य आ गए थे, कतु सभी
का दय अपनी उ च ग त पर था। वातावरण म भय पूरी तरह फैला आ था। कई
खड् ग-धा रय के हाथ काँप रहे थे, तथा प कुछ यो ा को आशा क एक करण दख
रही थी क इस वृ ाव था म व जी अब उतना श शाली नह होगा क सैकड़
यो ा क स म लत श का एकसाथ सामना कर सके।
चीख-पुकार अब पूरे गण से आने लगी थी। लोग जलती उ काएँ हाथ म लेकर
मैदान के चार ओर एक होने लगे। संकट-सूचक ढोल और नगाड़े लगातार बज रहे थे।
व जी द वार बने गण यो ा से तीस पग र का। उसके और मांबा के बीच क
री डेढ़ सौ पग से अ धक रही होगी।
व जी अब तक सुराही क आधी म दरा पी चुका था। उसने सुराही ऊँची उठाई और
शेष बची म दरा अपने सर पर उड़ेल ली। गीले बाल से लाल रंग सरककर मुँह पर आ
गया। व जी ने सुराही छोड़ी, आँख बंद क और दा हथेली से मुँह पोछा। पूरा मुख लाल
हो गया। लाल रह य अब पूरी तरह कट हो गया था। इस बार जब व जी क आँख
खुल , तो समा ध म लीन लग ।
व जी का यह प दे खकर आशा क करण रखने वाले यो ा के भी मन म भय
छाने लगा। व जी ने अपनी दोन तलवार दोन हाथो म ले ल । भू म को न क दखाती
दोन तलवार और पीठ सीधी कए वह कसी मू त क भाँ त थर खड़ा था।
आकाश म अंधकार घर चुका था। पू णमा से तीन दन पहले का चं मा ऊपर से
धया काश फक रहा था। इस चं मा म व जी क तलवार क चमक र खड़े गण
वाल को भी दख रही थी।
मू तवत् खड़े व जी ने एक लंबी साँस ख ची। छोड़ी नह , रोक ली। कुछ ण तक
यान म न-सा अटल खड़ा रहा। फर ने म ऐसी हसा जागी, मानो मृ यु ने से काली
अ न के प म नकलकर भभक रही हो।
व जी धीरे-धीरे बढ़ने लगा। उसके येक पग के साथ गण वाल क धड़कने बढ़
जात । य द कोई सू मता से दे खता, तो उसे ात होता क दो कदम चलने के प ात्
व जी के तलव ने भू म का पश छोड़ दया था। वे सतह से एक अंगुल ऊपर हवा म थे।
पाँच-छः पग चलकर व जी ने दौड़ना ारंभ कर दया। दौड़ते-दौड़ते दाएँ पाँव से भू म
को ढकेला और एक झटके से आगे क ओर तेजी से सरक गया। ऐसे सरका मानो कसी
तैलयु चकनी सतह अथवा हम- स ली पर कसी ने पीछे से जोर का ध का दे दया
हो।
सबसे आगे खड् ग लेकर खड़ा गण यो ा जब तक अपना आ य सँभालता, व जी
कसी झ के क भाँ त उसके बगल से गुजरा। यो ा को त या का अवसर ही नह
मला। जस मु ा म था, उसी म खड़ा रह गया। दाएँ कंधे, छाती, और उदर के बा ओर
एकाएक तेज दद आ। दाएँ कंधे से लेकर उदर के बा ओर तक एक तरछ महीन लाल
लक र कट ई। पल भर म लक र मोट ई और उसक दरार से र फ वारे के प म
फूट पड़ा। लक र के अंदर चार अंगुल गहरे तक सारे अंग कट चुके थे। वह गण यो ा
खड़े-खड़े मृत हो गया।
यह य दे ख रहा पूरा गण ण भर म आतं कत हो उठा। अ य गण यो ा को
भी समझने का अवसर नह मला। घषणहीन स श भू म पर टे ढ़े-मेढ़े ढं ग से अ त ती
ग त से फसल रहा व जी यो ा को काटता जा रहा था। कसी का मुंड कटता, कसी
का हाथ, कसी क छाती, तो कसी का उदर। एक यो ा कमर से कटकर दो भाग म
वभ हो गया। न श के टकराने क व न आती और न ही ह ड् डय के कटने क ।
मृ यु-रा म संघष कर रहे गण यो ा को एक काला साया कसी तीर क ग त
से आता दखता। फर तलवार क महीन चमक ली रेखा दखती। कतु जब तक वे
अपना श अड़ाने के लए हाथ उठाते, झ का बगल से गुजरता, चमक ली रेखा शरीर से
टकराती और कोई अंग कट कर गर जाता।
र खड़े गण वाल को यु थल पर मा आड़ी- तरछ चमक ली रेखाएँ दख रही
थ । इस ण इधर, तो सरे ण उधर। जहाँ भी चमक ली रेखा दखती, उस थान पर
र का फ वारा छू टता और एक गण यो ा गरता।
लगभग सौ यो ा को काटने के प ात् व जी का। अभी तक रोक ई साँस
छोड़ी। तलव को पुनः भू म का पश मला। अगल-बगल से फूट रहे र फौ वार से
व जी के पूरे शरीर का नान हो गया।
संकट-सूचक ढोल और नगाड़ क लय प रव तत हो गई। लोग गण छोड़कर भागने
लगे। गण- मुख मांबा तो जैसे प थर का हो गया था। मूर के झकझोरने पर कुछ
सजीवता आई। मन म प ाताप और ध कार उठा। बचे यो ा के पैर वतः ही पीछे
हटने लगे। मांबा भी मूर के साथ पीछे हटा। पीछे सरोवर था। कुछ सोचकर मांबा मूर के
साथ सरोवर क जल-सीमा तक पीछे हट गया।
गण के चार ओर से य तथा ब च का तेज दन आ रहा था।
व जी ने पुनः साँस ख ची। तलवे पुनः एक अंगुल हवा म उठे और मृ यु पुनः अपना
करतब दखलाने लगी। मांबा के तो कान मानो बंद से हो गए थे। कुछ सुनाई नह पड़ रहा
था, बस दखाई पड़ रहा था— नरंतर कट और वलीन हो रह चमक ली रेखाएँ, गरते
शरीर और र क तेज फुहार।
कटे यो ा का अप र मत र मांबा और मूर के पैर को गीला करता आ पीछे
सरोवर म गर रहा था। मृ यु मानवीय प धरकर जो नृ य दखला रही थी, उसके
स मोहन म मांबा अभी तक बँधा आ था। कतने ण बीते, उसे भान ही नह आ।
व जी अब तक तीन बार क चुका था। कुछ दे र प ात् जब चौथी बार का, तो
कटने के लए कोई यो ा नह बचा था।
दस ण ठहरकर व जी ने पुनः साँस ख ची। धीरे-धीरे मूर और मांबा क ओर बढ़ा।
तरछे पैर से भू म को एक ध का दया और फर छू टे तीर क ग त पर आ गया।
मांबा के लए नणय क घड़ी थी। उसने अपनी खड् ग छोड़ी और बगल खड़े मूर को
पूरी श से सरोवर क ओर ध का दे दया।
मांबा व जी क ओर वापस मुड़ा। एक ै तज चमक ली रेखा, और उसके पीछे
चं - काश से चमकती दो आँख दखाई पड़ी। अगले ही ण मांबा को अपनी गरदन क
नस पर खचाव लगा। फर लगा संसार उ टा हो गया। सामने एक सरकटा शरीर खड़ा
दखाई पड़ा। शरीर पहचाना-सा लगा। मांबा दो ण से अ धक यह य नह दे ख पाया।
का धुँधलका तेजी से बढ़ा और ने क यो त बुझ गई। मांबा का कटा मुंड भू म पर
गरा। फर दो ट पा खाकर लुढ़कते ए सरोवर म चला गया।
जस ण मांबा ने मूर को ध का दया। मूर थ त समझ गया था। उस समय
उसके मन म असी मत पतृमोह जागा। सरोवर के जल से टकराने से पहले ही उसने
अपने पता का मुंड कटकर गरते दे खा।
मूर सरोवर म गरकर जल के नीचे ही बना रहा। बु और भय दोन ऊपर जाने से
रोक रहे थे।
मांबा का सर काटकर व जी का। सरोवर क ओर एक उड़ती डाली और
मुड़ गया। सामने मृ यु-लीला के र -रं जत अवशेष का ढे र फैला आ था।
व जी ने दोन नंगी तलवार बा कमर पर लटका और अवशेष के बगल से होता
आ मंद ग त से गण के बाहर चला गया।
ापार ान

अपने अ नय मत मौसम वहार के लए स असुर दे श म चार दन नरंतर वषा


होने के प ात् आज आकाश कुछ साफ था।
ातःकाल राजधानी म हार म ल वी के भवन के एक क म, एक बीस वष य
असुर नवयुवक अकेला उप थत था। बैठने के लए क म कई आसन थे। कतु वह
पालथी मारकर भू म पर बैठा था। कौतूहल और उ साह से उसक आँख चमक रही थ ।
बा ओर सं क पर ंथ का ढे र रखा था। उसक ब त दे र से उ ह ंथ पर टक
ई थी। सोच रहा था, बना पूछे उठाऊँ या नह । कतु पूछे कससे? कोई सरा वहाँ
उप थत ही नह था।
वह गया और ंथ उठा लाया। भाषा समझ नह आई। च से ात आ क जड़ी-
बू टय से संबं धत कोई ंथ है। च बड़ी सू मता से बनाए गए थे। वह उ ह दे खने म लग
गया। इस उ साही युवक का नाम म ण था।
ल वी युवा ापा रय क एक नई पीढ़ तैयार करना चाहता था, जो ापार के
सही अथ और वा त वक कत भार को समझ सक। असुर दे श म उ च वग तथा न न
वग के बीच आकाश-पाताल का अंतर था। जहाँ एक ओर सं ांत-वग इतना धनी था क
उनके भवन क छत पर वण मढ़े रहते थे, वह सरी ओर एक वग ऐसा भी था जसे
भोजन जैसी मूलभूत आव यकता के लए त दन संघष करना पड़ता था।
असुर दे श क अथ व था वग-क त थी। एक वशेष वग ही वष से ापार-तं
चला रहा था। यह वग अपने ापार- ान तथा ापार-तं पर यथासंभव एका धकार
बनाए रखने का पूरा य न करता था। एक सी मत वग ारा शता दय से नयं त कए
जाने के कारण ापार म नए े , नए वचार और नई प तय क भारी कमी हो गई
थी।
असुर ापारी पूण कुशल और सं ांत होते ए भी आज तक परंपरागत यु क
साम ी के े म ही ापार कर रहे थे। यह परंपरागत ापार े पूण प से नयात
पर आधा रत था, जसके कारण असुर दे श म कभी भी आंत रक अथ व था का ढाँचा
न मत नह हो सका।
श ापार के लए उनक अ य दे श पर पूण नभरता थी। इस नभरता के लए
इ ह सरे दे श को यु के लए उकसाना पड़ता था और कभी-कभी आंत रक षड् यं
को भी ायो जत करके यु भड़काने का यास होता था। इस श ापार से आम
जनता को कोई वशेष लाभ नह मलता था।
यु उ ोग के अ त र असुर का सरा सबसे बड़ा ापार का -कलाकृ तय का
था। मा यही वह े था जसके कारण असुर का न न वग भी ापार-तं म एक
कड़ी के प म अपना अ त व बनाए ए था। कतु इस उ ोग म भी ापारी वग ही
मोटा लाभ लेता था।
ल वी खा पदाथ, च क सा, प रवहन तथा पयटन स हत कई अ य े म भी
व तार करना चाहता था। नये े म व तार करके ही आंत रक अथ व था का
प हया घुमाया जा सकता था। सरे दे श पर नभरता समा त करने के लए आंत रक
ापार का सु ढ़ होना अ त आव यक था। परंतु ल वी यह काय अकेले नह कर सकता
था। यह एक सामू हक और पीढ़ गत काय था। अ य ापा रय को भी इन े क ओर
े रत करना अ यंत आव यक था।
इसी काय के थम चरण के लए उसने छह युवक को चुना था, ज ह वह अपना
ापा रक ान और वचार दे कर नए युग के लए तैयार कर रहा था। इन छः युवक म
तीन ल वी के अनाथालय म काय करने वाले लड़के तथा शेष तीन मारंग ापार गृह के
साथ मलकर वष से ापार करने वाले अ त व सनीय ापा रय के पु थे। क म
बैठकर ंथ पलट रहा म ण उ ह ापारी पु म से एक था।
ल वी के छह श य म म ण सबसे बड़ा था। ल वी से ान ा त करने के
अ त र म ण ापा रक काय म भी सहायता करता था।
पदचाप क आहट पाकर म ण ने ंथ बगल म रखा और सावधान होकर बैठ गया।
हाथ म एक पोथी और कुछ साम ी लए ल वी ने क म वेश कया। म ण के सामने
एक मान च फैलाया और वयं भी पालथी मारकर बैठ गया। मान च काजी दे श का
था। इस कार का मान च म ण दे खता ही रहता था। बस एक हरी पट् ट यान ख च
रही थी। म ण ने पट् ट पर अँगुली रखा— “यह….?”
“यह नया ापा रक माग है, जसे म न मत करना चाहता ँ।” ल वी ने बताया।
“ कतु…नए ापा रक माग क या आव यकता? हमारे दे श म पहले ही कई
ापा रक माग ह।” मान च से हटाए बना म ण बोला।
“कई माग अव य ह। कतु कोई क य ापा रक माग नह है…इधर दे खो…”
मान च म एक ब क ओर संकेत करते ए ल वी बोला, “यह कसी ापारी क
योगशाला और भंडारण गृह है। इस ापारी का सामान भंडारण गृह से समु तट तक
जलयान पर लदने के लए जाता है। इसी कार अ य ापारी भी अपना सामान
भंडारण गृह से तट तक प ँचाने के लए समीपवत माग का योग करते ह और यही
माग ापार के लाभ को भा वत करने वाले एक बड़े कारक ह।”
म ण के मुख पर च बना आ था। ल वी ने समझाया—
“असमय और अ वराम होने वाली वाली वषा के कारण हमारे यहाँ अ य दे श क
भाँ त मट् ट के समतल माग नह बनाए जा सकते। हम प थर ज ड़त कठोर माग बनाने
पड़ते ह। यह माग टकाऊ तो अव य होते ह, कतु पूण प से समतल नह होते। इन
माग पर सामान ढोने वाले वाहन नरंतर हलते-डु लते रहते ह। अ य धक हलने-डु लने से
लगने वाले आघात के कारण सामान म कसी-न- कसी कार क त अव य प ँच
जाती है और अंत म जब नयात के लए जलयान पर लादने का उप म ारंभ होता है,
तब गुणव ा जाँच के समय आधी साम ी छँ ट जाती है। वशेषकर का कलाकृ तय म
यह अ धकांशतः होता है।
इसके अ त र सरी सम या, लगने वाला अ धक समय है। आघात को कम
करने के लए इन माग पर भारवाहक वाहन क ग त कम रखी जाती है।
तीसरी सम या— आघात के कारण वाहन म भी टू ट-फूट क सम या अ धक
आती है। अथात् अ त र य।
चौथी सम या— इस माग पर द यु तथा व य पशु से र ा के लए ापा रय
को अपनी एक गत सै य टु कड़ी साथ म भेजनी पड़ती है। पुनः अ त र य। इन
मु य सम या के अ त र भी कई अ य छोट -छोट सम याएँ ह, जैसे— कई
ापा रक माग पर रा ठहराव क कोई थायी व था नह है और य द माग म
सपदं श तथा व य जीव के कारण कसी कार क आक मक च क सा क
आव यकता पड़ गई, तो वह इन माग पर असंभव हो जाता है। कहने का ता पय यह है
क इन सम त कारण से सामान का मू य बढ़ जाता है और इस बढ़े मू य का लाभ
कसी प को नह मलता। इस कार क कई सम या का क य ापार माग ारा
ब त सीमा तक समाधान कया जा सकता है।
एक माग, एक व था, एक सुर ा, अथात् एक य…।”
“ कतु…? यह नया ापार माग भी पहले क भाँ त प थर से बना ऊबड़-खाबड़
ही होगा। इस कार सम या तब भी बनी रहेगी।” म ण ने संशय कट कया।
“हाँ! इसी बाधा के कारण म अभी तक ठहरा आ था। कतु तीन वष के शोध के
प ात् हमारी योगशाला ने एक नया पदाथ बनाने म सफलता ा त क है। उ च
गुणव ा वाले समतल माग बनाना अब कोई सम या नह रही।” ल वी ने स ता से
बताया।
म ण के मुख पर भी उ लास जागा। ल वी ने आगे बताया क कस कार वह इस
नये माग को मा सामान ढोने के लए ही नह योग करेगा, अ पतु वह माग के दोन
ओर का भाग पयटन े के प म भी वक सत करना चाहता है।
पयटन के लए असुर दे श के पास ाकृ तक स दय क भरपूर संपदा थी। इन
पयटन प ट् टय पर हाट-बाजार बनाकर गण वाल को कान द जा सकती ह। न न-वग
तथा गण वाल को राजधानी व नगर म सी मत थान तथा ापारी-वग के एका धकार
के कारण य ापार म स म लत होने का कभी अवसर नह मला था।
ल वी ने यह भी समझाया क कस कार दामासुर गण को, जो जड़ी-बू टय तथा
च क सा के े म पी ढ़य से पारंगत ह, इन हाट म थान दे कर च क सा-सु वधा के
े म ापार ारंभ करने का यास कया जा सकता है। इसी कार येक गण, जो
कसी-न- कसी े म वशेष कौशल रखता है, उनके मा यम से उस े - वशेष म
ापार का पहला कदम रखा जा सकता है। जैस;े वकासुर गण मधु और फल से
संबं धत व भ कार के खा -पदाथ बनाता है। चूँ क ये खा साम याँ लंबे समय तक
सुर त नह रहत , अतः इन साम य का नयात नह हो पाता और कोई मोटा लाभ न
दे खकर ापारी वग भी ऐसी व तु को ापार से बाहर रखते ह। कतु, य द इ ह
खा पदाथ को हाट म थान मल सके, तो थानीय खपत हो सकती है। दे श क
आंत रक अथ व था का प हया घुमाने के लए थानीय खपत थम और सबसे
मह वपूण ब है।
इसके प ात् ल वी आंत रक ापार से संबं धत कई नई बात बताता रहा। म ण
पूरा यान लगाकर सुन रहा था। जतना सुनता, अ छा लगता। वषय से संबं धत मन म
कई ता कक उठे । उ ह म से एक पूछा—
“ कतु…गण वाल को ापार व था का थम अ र भी नह आता होगा… या
वे सरे ापा रय से ठ क सौदा कर पाएँगे?”
“हाट म मू य नधारण तथा गुणव ा नयं ण का काय असुर ापार संघ करेगा।
ारंभ म उ ह कसी कार के उ च ापार ान क आव यकता नह ,” ल वी ने उ र
दया।
“गण क इन नग य भू मका से या वा तव म नए े म ापार ारंभ हो
पाएगा? य क वा त वक धरातल पर ापार म ढे र ावहा रक क ठनाइयाँ आती ह,”
म ण ने पुनः कया।
म ण क इस सू मता पर ल वी स आ। समझाया, “ वकास और प रवतन
एक मब लंबी या है। वषय यह नह है क गण को नग य भू मका मल रही है।
मु य बात यह है क इसी कारण से गण का हमारे ापार-तं म य वेश हो
जाएगा। जनजा तय के गण हमारे दे श क सबसे बड़ी जा ह और ये गण आज भी
अपनी आ दकालीन व था अपनाए वयं के सी मत संसार म जी रहे ह। अभी तक इन
गण को मा उ रजी वता के ही स ांत का ान है। ापार तं से जुड़ने पर उ ह
सहजी वता और सहभा गता के भी स ांत का ान होगा। अलग-थलग पड़े गण आपस
म जुड़ना सीखगे। जब ये जुड़गे, तभी आंत रक ापार के प हय को ग त मलेगी।”
“ कतु…? या वतमान ापारी वग इतनी सरलता से गण को अपने ापार-तं
म वेश करने दे गा?” म ण ने पुनः शंका कट क ।
इसका उ र ल वी ने एकदम सपाट भाव से दया, “ ारंभ म ापा रय को मा
उनके ही लाभ गनाऊँगा। गण को स म लत करना तीय चरण है। उस समय थ त
दे खकर कोई नया ताव तुत क ँ गा।”
इसके बाद ल वी मान च पर कुछ नए संकेत को दखाकर नमाण योजना के
अ य प के वषय म बताता रहा। सारी बात सुनकर म ण के सामने असुर दे श का एक
नया प घूमने लगा। जो परंपरागत ापार ान उसे अपने पता से मला था, यह उसके
ठ क वपरीत था।
म ण ल वी के पास पछले दो वष से आ रहा था। हर बार वह ल वी से कुछ नया
सीखता था, कतु आज उसे कुछ व श अनुभव हो रहा था। कुछ-कुछ नवचेतना के
जागरण जैसा।
शता दय से चले आ रहे वनाश आधा रत ापार को नमाण आधा रत ापार
क ओर मोड़ा जा सकता है, यह उसे आज ात आ। जस परंपरागत ान म उसे लाभ
के लए सर को द मत करना सखाया गया था, इस नये ान म लाभ के लए सहयोग
करना बताया गया है। जस ापार जगत् के वषय म सोचकर उसके सामने आ थक
संघष से उपजे र पात द खने लगते थे, आज वहाँ नव- नमाण का रोमांच दख रहा था।
म ण पूरी तरह फू तवान और रोमां चत हो गया। ापार के इस नए तेजवान् प
म उसे वकास और प रवतन क श द ख रही थी।
म ण कौतूहल से बोला, “ े ी! ापार के वषय म मेरे पता ने बताया है क
ापार एक ऐसी सं था है जो वशु लाभ को क मानकर संचा लत होती है। म वयं
आज तक ापार को लाभ का उपकरण मा समझता था। कतु, आपक म
ापार या है?”
“लाभ? ापार?” म ण का सीधा था, कतु ल वी के आगे उसका पूरा जीवन
खचने लगा। माँ, पता, म , बहन और न जाने कन- कन क मृ तय म गोता-सा लगा
दया। मृ तयाँ इतनी सजीव हो उठ क सामने का य धुँधला गया। ने म एक उदासी
घर आई।
म ण च का। उसे लगा, वा तव म े ी क आँख गीली हो ग या उसे म हो रहा
है।
ल वी के सामने अपने नाना का वष पुराना य चल रहा था। य म जो कुछ
उसे सुनाई पड़ा, उसके ह ठ अनजाने म उन श द को बुदबुदा उठे ।
“य द लाभ के लए सारे संसार को खड् ग पकड़ा दोगे, तो न य ही कसी दन उन
खड् ग से कटने वाले सर तु हारे ही यजन के ह गे।”
ल वी क बुदबुदाहट अ यंत मंद थी, कतु शांत क म म ण के कान तक प
प ँच गई। म ण ने कुछ समझा और कुछ नह । ल वी को इस प म दे खकर थोड़ा
असहज हो गया। दो-तीन बार खाँसा।
वधान उ प होने से ल वी वतमान म लौट आया। उसने अपने साथ लाई पोथी
म ण को थमाया और बोला, “इसम माग योजना से संबं धत सम त कर तथा लाभ-हा न
क व तारपूवक गणनाएँ ह। इ ह दो बार जाँचकर स या पत करो और स या पत करने
के प ात् इसक दो त ल पयाँ भी बनाओ। यह सारा काय चार दन म पूण कर लेना।”
म ण ने पूरे उ लास के साथ हामी भरी।
म ण को काय स पकर ल वी चुपचाप जाने लगा। म ण से रहा न गया। पीछे से
टोककर पुनः पूछा।
“ े ी! आपने बताया नह … क आपक म ापार या है?”
ल वी जहाँ था, वह क गया। दो ण शांत रहा, फर पीछे मुड़े बना धीमे से
बोला— “ ापार मेरा अ या म है।”
“अ या म?” म ण वयं म बड़बड़ाया।
ल वी चला गया।
ापार-संघ क बैठक

असुर दे श का अ धकांश भाग व य- े था। असुर के नगर तथा जनजा तय के गण इन


वन म छटके ए बसे थे। राजधानी म हार के भी चार ओर वन का व तृत फैलाव था।
इ ह वन से गुजरती एक चौड़ी नद के तट पर लाल पु प से भरा एक उ ान था।
यह उ ान तट से सटा आ लंबाई म बसा था। यहाँ लाल के अ त र कसी अ य रंग
का कोई पु प नह था। तीत होता था, मानो नद कनारे एक लंबी लाल चादर बछ हो।
यह उ ान मारंग ने वष पूव अपनी सरी प नी के लए बनवाया था।
आज इस उ ान म असुर ापार-संघ का श वर लगा आ था। एक बड़े मंडप के
अंदर एक लंबी चौक बछ थी, जस पर व भ कार क खा -साम ी और पेय-
पदाथ रखे ए थे। ापार संघ के मु य सोलह सद य अपने आसन पर बैठे खा-पी रहे
थे।
वहाँ उप थत सद य म से कइय ने वहाँ रखे जल को भी नह छु आ था। जो खा-
पी रहे थे, वे भी अंदर से थोड़ा शं कत थे।
पाँच दन पूव लाल रह य व जी ारा काकासुर गण म मचाए नरसंहार क सूचना
मलते ही राजधानी म खलबली मच गई थी। ापार जगत् को तो मानो साँप सूँघ गया
था। सं यास लेने के प ात् मारंग पहली बार ग त म आया था।
पूरा घटना म कसी को ात नह था। फर भी कुछ बड़े ापा रय ने इधर-उधर
क क ड़याँ जोड़कर इस घटना म राजप रवार क सं ल तता का अनुमान लगा लया था।
म और भय के इस वातावरण म ल वी ारा ापार-संघ क बैठक बुलाए जाने
से ापा रय के मन म शंका जागी। आज तक सारी बैठक राजधानी म होती आई थ ।
इस बार घने वन म एक गत थान पर बुलाए जाने से मन क शंका और गाढ़ हो
गई।
श वर म उप थत सभी के मन म काले बादल घुमड़ रहे थे, कतु कोई भी खुले
मुख से इस पर चचा नह कर रहा था। सबसे अ धक वच लत जाबाल था। जाबाल,
मारंग के बाद सरा सबसे बड़ा ापारी अव य था, कतु दोन के बीच चार गुने का अंतर
था। मारंग क भाँ त जाबाल को भी अब तक सं यास ले लेना चा हए था। पर मारंग को
पार करने क इ छा ने उसे आज तक ापार से चपका कर रखा था। मारंग के सं यास
लेने से जाबाल क आस बढ़ गई थी। अथला और मुं ा के बीच होने वाले यु म उसे
अपने लए भरपूर अवसर दख रहा था।
अथला-मुं ा यु क ओर असुर का पूरा ापार-जगत् अपनी ग गड़ाए ए
था। ऐसे ही अवसर पर उ ह दस वष का लाभ एक बार म ही ा त हो जाता था। कइय
का यह भी अनुमान था क य और अ य मलाकर बीस से तीस गुने का भी लाभ
संभव है। यह सारा लाभ मुं ा क वजय पर नभर था। असुर ापारी पूरी मता से
यु क साम ी को आधु नक बनाने म लगे ए थे। उनक शोधशालाएँ पछले तीन वष से
पूरी ग त पर थ ।
ापार के इस अ त संवेदनशील समय म मारंग और राजस ा के बीच कसी भी
कार का संघष ापार जगत् को हा न ही प ँचाता। सभी इस घटना को यथासंभव बड़ा
बनने से रोकना चाहते थे। अतः इस वषय पर कोई चचा न करना, सबसे सीधा और
सरल उपाय था।
कोई सरा अवसर होता, तो जाबाल का गुट अब तक पूरी मुखरता के साथ
राजभवन प ँच चुका होता। कतु इस बार उसने भी चु पी साध ली थी।
वतमान म मुं ा को सबसे अ धक यु क-साम ी जाबाल ही बेच रहा था। उसे शंका
हो रही थी, कह राजभवन अपनी नी त प रव तत न कर दे । पहले भी आंत रक संघष के
समय राजभवन ने ापार-प को नर त कया था।
मंडप म खुसर-फुसर वाली सामा य वातालाप चल रही थी। इसी बीच तहारी ने
आकर सू चत कया क े ी ने उ ह उ ान के उ री छोर बुलाया है। ाप रय ने एक-
सरे क ओर दे खा। फर बना कोई वशेष वहार दखाए वे सभी रथ पर चढ़कर
उ री छोर क ओर चल दए।
उ ान का उ री छोर र था। चौथाई घड़ी लग गई। प ँचने पर एक ेत पट् ट
दखी। पाँच हाथ चौड़ी यह पट् ट उ ान के छोर से ारंभ होकर वन म कह र चली गई
थी।
सभी को व च लगा। जाबाल स हत सारे ापारी झुककर उस पट् ट को दे खने
लगे। तीत होता था; जैसे छोटे -छोटे कंकड पर जमा आ ध डाल दया गया हो। कतु
यह जमा आ ध कसी प थर क भाँ त स त था। सभी पट् ट पर अपना नख धँसाकर
दे ख रहे थे। तभी कसी रथ क घरघराहट सुनाई पड़ी। वन क ओर से एक रथ पट् ट पर
तेजी से दौड़ता आ आ रहा था। पीछे भार ढोने वाली एक घोड़ा-गाड़ी भी थी।
सभी शी ता से पट् ट से र हट गए। रथ और गाड़ी, दोन ती वेग से उनके सामने
से गुजरे। दोन का वेग नःसंदेह सामा य से गुना था। इतना वेग मा यु के समय
दे खने को मलता था।
दोन वाहन पट् ट के आ खरी छोर पर के। रथ पर ल वी था। उतरकर ापा रय
के पास आया। सभी ने े ी को औपचा रक अ भवादन कया। जाबाल ने नह कया।
वह कभी नह करता था। ापारी ल वी के मुख के भाव पढ़ने का यास कर रहे थे, पर
कुछ पढ़ नह पाए।
तीस कदम र एक अ य मंडप बना था। ल वी सभी के साथ मंडप म गया और
चौक पर एक मान च फैला दया। ापा रय ने चोरी- छपे एक- सरे से मलाई।
ल वी उनके मनोभाव समझ रहा था। वलंब कए बना वह क य ापार-माग योजना
बताने लगा।
ल वी ने योजना क उ ह बात को बताया जो उनके हत क थ । कर स हत अ य
गणनाएँ तुत करने पर लाभ का च एकदम प हो गया। क य माग बनने के प ात्
वा षक य चौथाई से भी कम होता द ख रहा था। सभी को योजना ठ क लगी, कतु
समयानुकूल नह । इस कारण से क जब अथला-यु के प म बड़ा लाभ सामने रखा
हो, तो इस कार के अ यंत खच ले नमाण म अपना धन य लगाया जाए! य लाभ
को कौन छोड़ना चाहेगा!
“इस नमाण पर य कौन करेगा? मेरा मत है क इस समय हम सारा संसाधन
अथला-यु क ओर क त करना चा हए,” एक सद य ने सभी के मन क बात कही।
“सारा य मारंग ापार गृह करेगा। ापार-संघ के सद य पर कोई आ थक
बोझ नह डाला जाएगा। मुझे मा ापार-संघ का वीकृ त-प चा हए।” ल वी ने
सहजता से बताया।
सद य ने पुनः एक- सरे क ओर दे खा। यह साधारण य नह था। इतना धन
गत प से खच करके कोई ता का लक लाभ नह मलेगा। द घकाल म अव य ही
लाभ क संभावना है, कतु भ व य कसने दे खा है।
“इस माग क नमाण साम ी या है? इस कार का पदाथ हमने पहले कभी नह
दे खा,” एक अ य सद य ने पूछा। यही जाबाल के भी मन म था।
“मु य साम ी वार वृ क ग द और दनु बाँस का रस है।”
‘दनु बाँस…?’ कइय के मुख पर वाचक च बन गया। दनु बाँस को दानव म
प व थान ा त था। थोड़ा-ब त रस ा त करना संभव था, कतु इतने बड़े नमाण के
लए भारी मा ा म रस कौन दानव ापारी दे पाएगा। दनु बाँस को मा दानव स ा
अपने योग म लाती थी। ापा रक उपयोग पर तबंध था।
सद य को पहले ही इस योजना म च नह जागी थी और अब दनु बाँस का नाम
सुनकर पूरी तरह वमुख हो गए।
ल वी के बगल बैठा ापारी बोला— “एक तो दनु बाँस का रस ा त करना
ःसा य काय है…और सरा इतने वृहत् नमाण के लए राजभवन से आ ा-प ा त
करना अ यंत क ठन होगा। राजभवन भी इस समय सारा यान अथला-यु पर लगाए
ए है…”
“दनु बाँस का रस और राजभवन से आ ा-प ा त करना मेरा भार है।” कहकर
ल वी ने ापर-संघ का वीकृ त-प न शे के ऊपर रख दया।
सद य को अपनी कोई हा न नह दखी। सारा धन और प र म ल वी का था।
उ ह ने वीकृ त-प पर अपनी-अपनी मुहर लगाना ारंभ कर दया।
जाबाल को भी कोई हा न नह थी। कतु ल वी क हाँ म हाँ वह इतनी सरलता से
कैसे मला सकता था! मारंग ापार गृह के काय म टाँग अड़ाए बना उसके मन को
संतु कैसे मलती! बोला, “म कर क गणनाएँ भली-भाँ त जाँच लेने के प ात् ही
अपनी वीकृ त ँ गा।”
सभी क क जाबाल क ओर गई। कहे गए श द के पीछे का भाव सभी को
ात था। सोलह सद य म से सात सद य जाबाल गुट के थे। उ ह संकेत मल गया।
जाबाल भले ही ल वी से ता से बात करता हो, कतु ल वी, जाबाल को सदै व
एक व र का स मान दे ता था। पूरी वन ता से बोला, “आप पूरी न तता से गणना
क जाँच कर…और ापार-संघ क आगामी बैठक म अपनी इ छानुसार वीकृ त द।”
फर अ य ापा रय क ओर मुड़कर, “ जन सद य को सोच- वचार का समय चा हए,
वे भी अगली बैठक म मुहर लगा सकते ह।”
सभी ने ल वी क बात यान से सुनी। कही गई बात म यह संकेत था क समय
भले ही ा त हो गया हो, कतु मुहर लगाने के वषय म एक ही वक प है। असुर दे श म
संकेत क कूटनी त ब त चलती थी।
कसी ने कोई आप नह दखाई। इधर-उधर क औपचा रक वातालाप के बाद
ापार-संघ क बैठक समा त हो गई।
मारंग और जाबाल

ापार-संघ क बैठक के अगले दन सब सामा य रहा। हाट- ापार साधारण दन क


भाँ त चला। म ण माग-योजना से संबं धत कर क गणनाएँ जाँच चुका था और अब
उनक त ल पयाँ बना रहा था। ल वी के पास तीन त ल पयाँ पहले से थ । सै नक
को बुलाकर एक त ल प जाबाल के पास भजवाई। फर पूरा दन अपने कायालय
बैठकर दै नक काय का नबटारा करता रहा।
सं या म सूय डू बने से ठ क पहले राजधानी के मु य ार पर एकाएक हलचल बढ़
गई। शोरगुल सुनकर हाट तथा आस-पास खड़े लोग का वाभा वक कौतूहल जागा।
उनक मु य ार क ओर मुड़ी और पड़ताल करने लगी।
चार सफेद घोड़ वाला एक ऊँचा रथ कट आ। रथ पर दो खड़े थे। एक
व यात, सरा कु यात। मारंग और व जी। उनके पीछे बीस रथ और थे। सारे रथ
धड़धड़ाकर धूल उड़ाते लोग के सामने से गुजर गए।
चचा का वातावरण गरम होने लगा। रा होते-होते मारंग के गत भवन म
छोटे -बड़े सभी, यहाँ तक क वदे शी ापा रय का भी जमघट लगना ारंभ हो गया।
भवन का बैठक क उपहार और चाटु कार से भर गया।
एक घड़ी तक सभी को ती ा कराने के प ात् मारंग ने एक सेवक के मा यम से
कहला भेजा क भट कल होगी, आज व ाम होगा।
उपहार को वह छोड़कर सब लौट गए। चचाएँ और बढ़ ग ।

जाबाल ने एक कायालय अपने नवास पर भी बनवा रखा था। अ धकाँश काय व


बैठक वह करता था। मारंग के आने क सूचना पाकर उसके कुछ ापार-सहयोगी
उससे मलने आए ए थे।
पूरा असुर दे श भले ही मारंग के भाव म रहे, पर जाबाल मारंग से त नक भी भय
नह खाता था। उसक ई या उसके भय पर सदै व हावी रहती थी। अपने सहयो गय के
भी मुख से मारंग क चचा सुनकर जाबाल का ताप बढ़ रहा था। इतनी दे र से हाँ- ँ करके
वह कसी कार चचा समा त करना चाहता था।
तभी बाहर से कसी का तेज वर सुनाई पड़ा। लगा, नवास के मु य ार पर कोई
च लाकर डाँट-डपट रहा है। मु य ार कायालय से र था। वर अ प थे। थोड़ी दे र म
घोड़ क टाप , रथ के च क और सै नक के दौड़ने क व न समीप आने लगी।
क म बैठे लोग म से एक उठकर बाहर क थ त दे खने गया। क से
बाहर नकलते ही ठ क सामने खड़े दो य को दे खकर काँप उठा। त काल माग
छोड़ दया। मारंग, व जी के साथ क म घुसा।
दोन को दे खते ही सारे उठकर ऐसे खड़े ए, जैसे सहसा उनके आसन गम
तव म बदल गए ह ।
मारंग से अ धक वे व जी से भय खाते थे। मारंग तो भी ापारी था, ापार-
सं कार का पालन करता था और वहार कुशल भी था। कतु व जी तो उ छृ ं खल
आतंक था। अपनी इ छानुसार वहार करता था।
सभी खड़े थे। बस जाबाल बैठा था। खड़े लोग को पता था, ऐसे अवसर पर या
करना है। मारंग और जाबाल को औपचा रक अ भवादन कर सभी ने क छोड़ दया।
मारंग और व जी, जाबाल के सामने क आसंद पर बैठे। बैठते ही व जी ने
जाबाल के सामने रखी छोट चौक से सुराही उठाकर मुँह से लगा ली। म दरा समा त थी।
नीचे रखता आ बोला, “वष बाद भट हो रही है…सेवा-स कार का आचरण भूल गया
या?”
“म नह भूला, कतु कसी के घर म बलपूवक घुसने का आचरण तुमने कहाँ से
सीखा?” जाबाल ने मारंग से आँख मलाकर रोषपूवक कहा।
“ जस कार तूने मेरे घर म घुसने का यास कया,” मारंग भी ककश वर म
बोला।
“…?”
जाबाल के मुख पर च बना दे ख, मारंग और भड़क उठा। पूरी श से सामने
रखी चौक पर मु का मारा। चौक से म दरा के खाली याले उछलकर नीचे गरे। टू टे
नह । वण के थे।
“ढ ग मत कर, जाबाल! तूने ल वी पर सप फकवाया। म भी तेरे पु का सर
काटकर फकवा दे ता ँ।”
जाबाल का च बना रहा। कुछ ण प ात् जैसे कुछ समझते ए जोर से
हँसा।
“हा!..हा!..हा! बुढ़ापे म नए श ु बनाने का कौशल बस तु हारे ही पास है मारंग!
..हा!…हा!…हा!”
मारंग एकटक जाबाल को घूरता रहा। मारंग के पास कोई माण नह था और वह
वयं भी आ त नह था क जाबाल इतना साहस करेगा। पर य द जाबाल नह , तो
और कौन…?
जाबाल के लए मारंग के भाव पढ़ना क ठन नह था। कटु मु कान के साथ बोला,
“यह आरोप राजभवन जाकर राजप रवार पर य नह लगाते!”
मारंग क भ ह एकदम से सकुड़ ग । गरज पड़ा, “तू राजदं ड क श अ धक
मान रहा है या मेरी श कम तौल रहा है? य द कसी दन थ त आ ही गई, तो
राजभवन म घुसकर सहासन भू म म धँसा ँ गा। और जस राजप रवार के नाम पर तेरे
मुख पर मु कान आ रही है, या तू भूल गया क अवसर पड़ने पर इन धूत ने शु के
साथ या कया था!”
ण भर म जाबाल क मु कान उतर गई। आँख आ य से बड़ी हो ग । मन म एक
डर आकर बैठ गया— या मारंग को सब ात है?
राजक य योगशाला ने चार वष पूव अ न ेत बनाने का गु त योग ारंभ
कया था। शु मु य योगकता म से एक था। योग के लए न न वग और गण के
लोग का अपहरण कर लाया जाता था। इस अमानवीय योग का पहला चरण पूरी तरह
असफल था। योग म सैकड़ मरे। योगशाला ारा अपहरण काय जारी रहा। कतु दो
वष प ात् कह से इस योग क भनक जा को लग गई। पूरी जा भड़क उठ । गण म
व ोह जैसी थ त बनने लगी। राजप रवार के लए गण का समथन ब त संवेदनशील
था। जा क ा बचाए रखने के लए राजभवन ने शु को बंद बनाकर मु य आरोपी
क भाँ त तुत कया और लोग को बताया गया क शु ने राजभवन को अँधेरे म
रखकर गु त प से योगशाला का पयोग कया है। लोग ने मृ युदंड क माँग क ।
राजभवन ने यह तक फका क जब तक अपहरण कए गए लोग मल नह जाते,
पूछताछ के लए शु को बंद गृह म रखा जाएगा।
वा तव म अ न ेत के लए मुं ा से भारी धन लया गया था। स ा कसी भी कार
इस योग को सफल बनाना चाहती थी। उसने राजक य योगशालाएँ तो बंद कर द ।
कतु गु त प से यह काय जाबाल को स प दया। ारंभ म जाबाल ने टाल-मटोल
कया, फर मोटे लाभ के लालच म वीकार कर लया। घटना से बचने के लए इस बार
योगशाला असुर दे श के बाहर मुं ा म बनाई गई। योग म शु का ान एक मह वपूण
कड़ी थी। अतः उसे जी वत रखना आव यक था। जाबाल यह काय कर तो अव य रहा
था, कतु अंदर से थोड़ा डरा भी रहता था।
मारंग क बात सुनकर जाबाल क धड़कन अचानक से तेज हो गई थ । वह तेज
साँस पर नयं ण पाने का यास कर रहा था, कतु पूरी तरह सफल नह आ।
मारंग भी वष से जाबाल को पढ़ रहा था। जाबाल क थ त पर आनंद लेने के
थान पर इस बार शांत वर म बोला, “म यहाँ तेरे ापार या काय म ह त ेप करने नह
आया ँ। म मा यह समझाना चाहता ँ क जो भी परा म दखाना है, सबके स मुख
ापार के खुले े म दखा। घात लगाकर हार करने क क पना भी मत करना,
अ यथा मेरे हाथ म ऐसे कई सू के धागे ह, ज ह कभी भी ख च सकता ।ँ ”
जाबाल, मारंग का संकेत समझ गया। साँस पर नयं ण पाकर बोला, “हम दोन
के बीच जो समझौता आ था, म आज भी उसका पालन कर रहा ँ। अपना म र
करना तु हारा भार है…मेरा नह ।”
मारंग, जाबाल क आँख म झाँकता रहा। अंत म आसंद से उठते ए बोला, “जो
कहना था, कह चुका…अपना म म र कर लूँगा… कतु तुम कोई म मत पालना…
वशेषकर राजप रवार के बल पर।”
मारंग के साथ व जी भी खड़ा आ। जाबाल कुछ नह बोला, शांत रहा। दोन
बाहर जाने लगे। क के ार पर प ँचकर व जी मुड़ा और एक व च से जाबाल
को दे खा। न चाहते ए भी जाबाल म एक सहरन दौड़ गई।
कालयवन

असुर राजमहल का वशाल नानागार। बीच म अगल-बगल बने दो आयताकार कुंड।


गहराई इतनी क खड़े होने पर मुँह न डू ब।े एक म व छ जल तथा सरे म काला रंग।
कुंड म उतरने के लए प थर क सी ढ़याँ बनी थ । पर वे भी जल म पूरी तरह डू बी ई
थ । दोन कुंड के जल म सुगं धत इ डाले गए थे।
व छ जल के कुंड म पचास-पचपन वष य एकदम गौर वण य एक गरदन
तक डू बा खड़ा था। इसक आँख नीली थ । कुछ दे र चुपचाप थर खड़े रहने के बाद वह
कुंड क जल-म न सी ढ़याँ चढ़ता आ बाहर नकला। फर अपनी अ त वशाल त द लए
बगल वाले कुंड म उतर गया। उतरते ही डु बक लगाई। आँख छोड़कर रोम-रोम काला हो
गया। तीन-चार डु ब कयाँ और लगाकर वह काले कुंड से भी बाहर आ गया। उसके बाहर
नकलते ही नानागार म खड़ी से वकाएँ व , आभूषण तथा साज-स जा क साम ी के
साथ आ और सव थम उसका शरीर सुखाने म लग ग । यह राजसी असुर दे श
का असुरा धप त कालयवन था।
ापार-श बनने के फेर म असुर दे श जाने-अनजाने ापा रय पर ही आ त
होता चला गया था। और असुर ापारी भी अपने लाभ के लए स ा को सदै व अपने
मकड़जाल म फँसाए रखते। पीढ़ -दर-पीढ़ यह मकड़जाल श शाली होता गया और
सहासन क टाँगे श हीन।
कालयवन का समय आते-आते सहासन के चार पैर म से मा एक पैर बचा। उस
एक पैर म भी मारंग के उ थान ने दरार ला द थी। असुर स ा को ढहने म अब बस एक
ध के क आव यकता थी।
अतीत म कभी मारंग भी राजप रवार का चहेता आ करता था। अपनी आ ामक
ापार नी त से उसने दजन नये दे श के साथ ापार संबंध बना लए थे। राजकोष
मारंग के ही कर से भर जाता था। स ा को ऐसा ापार खलाड़ी पहली बार मला था।
अतः शासन ने भी उसके ापार को बढ़ाने म आँख मूँदकर सहयोग कया। स ा का
समथन पाकर मारंग ने फैलती आग क भाँ त अपना भाव े बढ़ा लया। मारंग ने
अक पनीय ग त से ग त क थी।
राजकोष क धनवषा म खोई राजस ा को पता ही नह चला क मारंग कब उनके
पार चला गया। वा तव म स ा दो तरफ से चोट खा रही थी। एक ओर मारंग का भाव
ापक होता जा रहा था और सरी ओर ापा रय ने अपने जाल म फँसाए रखने के
लए राजप रवार को भ - भ भोग का सन लगा दया था। राजकोष का धन सरे
छ से नकल भी रहा था।
मारंग के भाव से भय खाए शासन ने अपनी भूल सुधारने के लए गहरी चाल
चलनी ारंभ कर द । इन चाल से असुर के ापार जगत् म र -रं जत युग का आरंभ
हो गया। स ा ने मारंग के सबसे बल वरोधी जाबाल को पो षत करना ारंभ कर
दया। स ा क चाल म उलझकर मारंग और जाबाल दोन के पु कटे ।
ापा रय को अपनी गत सेना रखने का अ धकार ा त था। इन सेना को
यु म सरे दे श को उधार दया जाता था। अपनी इन गत सेना के कारण
येक ापारी वयं म एक वतं स ा क भाँ त वहार करता था। इसी गत
सेना के अ त व से स ा को सबसे अ धक सम या हो रही थी। एक तो राजकोष का
अ धकांश धन सरक चुका था और सरे मारंग ने अपने सै नक का वेतन राजक य
सै नक से गुना कर दया था। मारंग के पास सहासन क बची एकमा टाँग पर ध का
मरने का पूरा अवसर था। इसके अ त र यह भी अफवाह उड़ी ई थी क मारंग गु त
प से असुरा का नमाण कर रहा है।
इन सब आगामी संकट को दे खते ए असुर स ा के लए राजकोष भरना नतांत
आव यक था। राजकोष को लबालब करने के लए शासन ने अंत म मुं ा क ओर
क त क । मह वाकां ी जयभ को भड़काने म उ ह अ धक यास नह करना पड़ा।

पूरे प रधान और वणाभूषण से लदा आ कालयवन राजसभा म अपने सहासन पर


पसर कर बैठा था। राजसभा म अभी मा चार लोग उप थत थे। कालयवन, बा ओर
अंगर क थांबा, सामने धानमं ी और एक बला-पतला असुर। वह असुर भू म पर
घुटने के बल सर झुकाकर बैठा आ था। उसके मैल-े कुचैले और चीथड़े हो चुके कपड़
से गध आ रही थी।
आज ातः ही यह असुर धानमं ी के पास जाकर कोई गु त सूचना बताने क बात
कह रहा था। कतु वह सीधे असुरा धप त के सामने ही बताने पर अड़ा था। धानमं ी
समझ गए क बड़े पुर कार क आस म यह जद्द पाल रहा है। धानमं ी ने लालच
दखाया, फर भी वह अड़ा रहा।
“ या सूचना लाए हो? य द समय थ आ, तो सौ कोड़ का दं ड मलेगा,”
कालयवन सहासन से बोला।
असुर ने झुककर माथे से भू म छु आ। फर सीधा होकर अपने चीथड़ म कुछ
टटोलने लगा। इधर-उधर टटोलने के बाद एक टु कड़ा फाड़कर नकाला। यह टु कड़ा
उसके फटे कपड़ म अंदर सला आ था। असुर ने अपने अ य धक पीले दाँत दखाते
ए पूरी स ता के साथ धानमं ी को वह टु कड़ा स प दया।
टु कड़े पर एक बेढंगा मान च बना आ था। कुछ ण मान च पर फसलाने
के बाद सूचना प हो गई। सूचना आँख फैलाने वाली थी। धानमं ी ने वयं पर
नयं ण रखा। जाकर कालयवन को टु कड़ा थमाया और आकर असुर के बगल खड़े हो
गए।
कालयवन को भी मान च समझने म कुछ समय लगा। मान च मुं ा म था पत
अ न ेत क योगशाला का था। दो योगशालाएँ च हत थ । दा ओर जाबाल
ापार गृह का च बनाया गया था।
“…यह तुमने ख चा है?” कालयवन ने आँख तरेर कर पूछा।
असुर ने सर हलाकर हामी भरी।
“ या यह वषय कसी अ य के सं ान म है?”
असुर ने सर झटककर मना कया।
कालयवन ने गले से एक म णमाला नकालकर उसके सामने फक द ।
असुर क मु कान कान तक फैल गई। आँख म चमक जागी। झपटकर माला उठा
ली। माला क म णय को छू कर दे ख ही रहा था क गदन के पीछे तेज चुभन ई। फर
गले म भी दद आ। झुकाई तो धातु का एक लंबा चमकदार टु कड़ा कंठ से नकला
आ दखा।
धानमं ी ने तलवार ख चकर नकाल ली। असुर के गले के आर-पार का छ ण
भर म र से भर गया। साँस ख चने का एक क ठन यास और शरीर ाणहीन हो गया।
वह मूख नह जानता था क स ा अपना भेद कसी से साझा नह करती।
अनाथालय

अगले दो दन तक मारंग के पास मलने वाल का ताँता लगा रहा। वह बस शरीर से बूढ़ा
था। गजना और ऊजा म आज भी उसम कोई कमी नह आई थी। उसक छाया का
व तार आज भी उतना ही था।
मारंग क ापार म अब कोई वशेष च नह बची थी। कतु अपने हाथ से खड़े
कए गए सा ा य के त एक वाभा वक मोह बना आ था। यदा-कदा जब भी उसके
सा ा य पर कसी कार क आँच आती, वह वचा लत ढं ग से ग त म आ जाता। य प
ल वी क ग त से वह स था, तथा प उसके ापार के तौर-तरीक से कभी-कभी
वच लत हो जाता था।
ल वी ने सारा ापार- ान अपने नाना से ा त कया था और यह ान मारंग के
ापार- ान के वपरीत था। मारंग लाभ के त पूरी तरह आ त होने के बाद ही
ापार का अगला पग धरता था, जब क ल वी नया ापार ारंभ कर बाद म लाभ
ा त करने का माग ढूँ ढ़ता था। मारंग ने ापार े म सदै व एका धकार क नी त
अपनाई थी जब क ल वी कई ापा रय को मलाकर संगठना मक ढाँचा बनाने का
यास करता था। ल वी क योजनाएँ द घकालीन तीत होती थ , जसका मारंग
अ य त नह था।
मारंग को कभी-कभी शंका होने लगती थी क ल वी क काय- णाली से उसके
धनकोष म छ बन गए ह, जहाँ से धन रसना ारंभ भी हो गया है। इस कारण से
सं यास लेने बाद भी यदा-कदा ापार जगत् के वतमान प र य पर अपनी डाल ही
लया करता था। वह जीते-जी अपने सा ा य क ऊँचाई कम होते नह दे ख सकता था।
मारंग के लए ल वी पहले उसके धन का संर क था, पु बाद म।
सरे दन साँझ ढलने पर ल वी अपनी एक शोधशाला का दौरा करके लौटा।
ह का जलपान कया, फर सीधा अपने पता के क क ओर चला गया।
मारंग का गत क उ ान पारकर सरे भाग म थत था। ल वी को आशा
थी क भट करने वाल का जमघट अभी भी लगा होगा, पर स ाटा दे खकर आ य आ।
उ ान म काय कर रहे एक सेवक से पूछा, तो ात आ क पछली दो घड़ी से कसी को
भी भट करने क मनाही है। ल वी को समझ नह आया। लंबे-लंबे डग भरता आ
उ ान पारकर क तक प ँचा। कुछ मारंग के साथ चचा करते दखे। ल वी जैसे
ही अंदर घुसा, कान को कुछ श द सुनाई पड़े…य तय के पा..स..।
ल वी को आता दे ख मारंग ने हाथ से चुप होने का संकेत कया। बोल रहा
बीच म ही क गया। क म पाँच वृ बैठे थे। पाँच राजधानी के े वै थे।
“… या? वा य ठ क नह ?” ल वी बैठता आ बोला।
“अं…हाँ!…कंठ म कुछ जलन हो रही थी,” मारंग ने टालने के लए बोल दया।
ल वी को अटपटा लगा। एक छोट सम या के लए पाँच वै ?
मारंग ने संकेत कया। पाँच वृ उठे और अ भवादन कर चले गए।
मारंग ने दो याल म काढ़ा नकाला। एक ल वी को पकड़ाया और सरा वयं
पीते ए पूछा, “अनाथालय कब जाएगा?”
ल वी को इस बार और अटपटा लगा। जस अनाथालय का नाम सुनकर उसका
पता भड़क उठता था, आज वह वयं पूछ रहा है।
“कल ातः नकलने क सोचा है,” ल वी अपना आ य दबाकर सहजता से
बोला।
“यह माग योजना या है? कल से कोई न कोई बताकर जा रहा है…और यह भी
बता रहे ह क इस नमाण से नकट भ व य म कोई लाभ नह मलने वाला।”
सुनकर ल वी ने काढ़ा पया। फर याला नीचे रखकर समझाने लगा। पूरा
नह बताया, ापा रय क भाँ त मा थम चरण बताया। मारंग चुपचाप सुनता रहा।
सुनकर कोई राय कट नह क ।
मारंग के पास बैठे-बैठे रा चढ़ गई। कुछ अ य वषय पर बातचीत कर ल वी
चला गया।

मारंग से मलकर जब ल वी अपने क म प ँचा, तो एक सै नक को ती ारत


पाया।
“एक आरोपी पकड़ म आया है,” सै नक बोला।
ल वी कुछ वशेष स नह आ। सामा य ही रहा। पूछा, “कुछ बताया उसने?”
“कहता है, कैसे सप? उसे कुछ नह ात, उसे झूठ म फँसाया गया है।”
“ ँ…कुछ दे र म पीछे वाले क म ले आना।”
सै नक ने सर झुकाया और बाहर चला गया।
कुछ दे र बाद वह सै नक एक अधमरे असुर को पकड़कर ल वी के नद शत क
म प ँचा। क छोटा था। बस एक द पक जल रहा था। द पक के मंद काश म पूरा क
खाली दखा। इ का- का व तुएँ इधर-उधर पड़ी थ । एक तेज मीठ गंध पूरे क म तैर
रही थी। क के बीच म दो पीढ़े थे। एक पर ल वी बैठा था और सरे पर सै नक ने
आरोपी को बठाया।
आरोपी को बठाकर सै नक क से चला गया और बाहर से ार बंद कर हरी क
तरह खड़ा हो गया।
बंद क म ल वी ने दो अ य दए जलाए। ना मछली क चब वाले इन द य से
ेत काश फूटा। लगा दन हो गया।
क म तैर रही मीठ गंध से आरोपी क नाक म खुजली होने लगी। तभी ल वी के
हाथ म दो डं डयाँ कट । उन डं डय पर रंगीन प ट् टयाँ बनी थ ।
ल वी उन डं डय को व च ढं ग से नचाने लगा। आरोपी मूख का भाव लए यह
सब दे ख रहा था। कुछ ण बाद वयं ही डं डय क रंगीन प ट् टय का पीछा करने
लग । आरोपी को रंगीन रेखाएँ दखना ारंभ हो ग । रेखाएँ घूमकर छ ल म बदल ग ।
रंगीन छ ले एक- सरे म समाने लगे। ल वी ने झटके से दोन डं डयाँ नीचे कर ल ।
छ ले पूरी तरह एक- सरे म समा गए और च धवाला तेज ेत काश फैल गया। इसी के
साथ पुत लयाँ जड़ हो ग ।
मू त बने आरोपी से ल वी ने पूछताछ ारंभ क । छोटे -छोटे कई पूछे। जतना
पूछता, उतना वच लत हो जाता। कुछ दे र म पूछताछ पूरी हो गई। गला भर आया।
ल वी ने ेत काश वाले द पक बुझा दए। क म मा पीले दए का हलता-
डु लता काश बचा।
आरोपी क चेतना लौट । सर घूमता आ लगा।
ल वी ने गला साफकर आवाज लगाई। सै नक ार खोलकर अंदर आया। ल वी
ने ने से कुछ संकेत दया। सै नक आरोपी को लेकर बाहर चला गया। जाते समय
सै नक के हाथ अपनी तलवार क मूठ पर कस गए।
क म ल वी अकेला बचा। बड़ी दे र तक वयं को संभालने का य न करता रहा,
पर कर नह पाया। भू म पर एक काला ध बा बना। ध बा फैलकर बड़ा हो गया। बगल म
सरी बूँद गरी। वह भी ध बा बनकर फैल गया। दोन आँख म कुछ आँसू ढलक आए
थे। ँ धे कंठ से बुदबुदाया…बड़ी माँ…।

ल वी रातभर सो नह पाया। फर भी अगले दन समय से उठकर अनाथालय के लए


चल पड़ा। अनाथालय राजधानी के द ण म नद तट पर बना था। यह वही नद थी,
जसके तट पर मारंग ने लाल पु प वाला उ ान बनवाया था। उ ान क भाँ त
अनाथालय भी तट पर लंबाई म बना था। एक ओर नद , सरी ओर वन। लोग के
नय मत आवागमन के कारण वन के इस भाग म व य-पशु नह द खते थे।
अनाथालय से थोड़ा हटकर लकड़ी का एक घर था, जो बाँस क बाड़ से घरा आ
था। इस घर म मा एक क था, जसका ार अभी खुला आ था।
क म एक पयक पड़ा था। पयक पर एक सात वष या छोट लड़क आँख बंद
कए करवट के बल लेट थी। वचा का रंग काला, आँख कोटर म धँसी ई, गाल
यथासंभव पचके और हाथ-पैर कसी डंडे क भाँ त पतले थे। द खने म लगता— हड् डी
के ढाँचे पर मा वचा ख चकर चढ़ा द गई हो। माँस ढूँ ढ़ने से भी नह मलता। ऐसे
कंकाल शरीर म ाण होना वयं म चम कार लगता था।
वह न ा म नह थी। यूँ ही लेट ई थी। एक ठं डी बयार क म घुसकर उसके सूखे
गाल , हाथ , और पैर से टकराई। लड़क आनं दत हो गई। उसके मन का मौसम हो रहा
था। इ छा ई बाहर जाकर बैठे।
ह का पीलापन लए उसक न तेज आँख खुली। पयक पर धीरे से उठकर बैठ ।
फर भू म पर पैर रखते ही ऐसे डगमगाई, जैसे— पाँव शरीर का भार संभाल नह पा रहे
ह । फर भी वह गरी नह । इ ह डगमगाते पैर से धीरे-धीरे चलकर क से बाहर
नकली।
धूप नह आ रही थी। सूय कसी बादल क आड़ म छु पा था। लड़क को अ छा
लगा। कुछ पग और चलकर बाड़ के बाहर तक आई। सहसा जी मचलाने लगा, उ ट हो
गई। संभलने के लए बाड़ को पकड़ लया और झुककर उ ट करती रही। कोई ठोस
पदाथ नह नकल रहा था, बस तरल ही गरा। तरल ह के हरे रंग का था।
उ ट के बाद वह समीप ही प थर के एक आसन पर बैठ गई। आँख म अब हरे रंग
के महीन डोरे दख रहे थे।
आस-पास खूब ह रयाली थी। भू म पर घास और चार ओर वृ ही वृ । लंबे-लंबे
वृ क प याँ हवा से खड़-खड़ कर रही थ । लड़क ने पुनः अपनी आँख मूँद ली।
प य क खड़खड़ाहट का संगीत उसे अ छा लगता था। दे र तक सुनती रही। जब न ा
सताने लगी, तो उसी प थर पर उकडू होकर लेट गई।
भा!…ब ची!… भा!
कोई उसे पुकारकर जगा रहा था। आवाज पहचानती थी। आँख खोलने म दे र नह
क।
“ पताजी…”
उठकर बैठ गई। सामने ल वी था।
ल वी ने भा का सर सहलाया, “यहाँ य लेट है?”
“अ छा लग रहा था।” भा चहककर बोली।
ल वी ने कमर के पीछे से हथेली बराबर लकड़ी का एक खलौना नकाला।
“घोड़ा…” भा फु लत हो गई। दोन हाथ बढ़ाकर खलौना ले लया। घुमा-
घुमाकर दे खने लगी। स ता से बोली, “अब म इस पर बैठकर घूमा क ँ गी।”
“हा! हा! हा!…नह ब ची!…टू ट जाएगा, “ ल वी पुचकारते ए बोला।
भा ने खलौने को संभालकर गोद म रख लया, फर ल वी के मुख पर
गड़ाकर थोड़ा हचकते ए पूछा, “ पताजी! पतामह ने या कहा? म भी चलूँ पवत
पर?”
ल वी बैठ गया, झुका ली। उदास वर म बोला, “नह ब ची! उ ह ने आ ा
नह द ।”
भा का उ लास चला गया। सूखे ह ठ ऐसे काँप,े जैसे रो दे गी। इधर-उधर दे खने
लगी। अ धक दे र शोकाकुल नह रही। शी ही मु कान ख च ली। अपनी दोन हथे लय
के बीच ल वी का मुख पकड़कर बोली, “ पताजी! ःखी मत हो…।”
ल वी सहज आ। भा के दोन हाथ को सहलाया, “नह ब ची! ःखी नह ँ।
तु हारे स मुख कोई ःखी हो सकता है भला!”
भा ने अपनी मु कान और ख ची।
ल वी ने भा को उठाकर अपने कंधे पर बठा लया। भा क दोन पतली टाँग
ल वी क छाती पर लटक ग । ल वी भा को लेकर उ र क ओर चला।
भा ल वी के सर पर घोड़ा चला रही थी।
“चल मेरे घोड़े…टु क..टु क…टु क।”
“टु क टु क नह ब ची!…टक…टक।”
“खी…खी…खी…मेरा घोड़ा टु क टु क चलेगा,” भा खल खलाई।
“हा!…हा!…हा! ठ क है,” ल वी भी हँसा।
कुछ र चलने पर वृ से टू टकर एक प ा भा के सर पर गरा। उसने प ा
उतारकर दे खा।
“ पताजी! गोल-गोल प ा…” ल वी के मुँह के सामने लाकर दखाती है।
“हाँ ब ची! यह तो पूरा गोल है।’
“ या अपने घोड़े को खला ँ ?”
“ खला दो…बेचारा भूखा होगा।’
भा ने प े को खलौने के मुँह से पश कराया और पीछे उड़ा दया।
“पूरा प ा खा गया, पताजी! यह दे खो…खाकर मोटू हो गया।”
“हा! हा! हा!…यह घोड़ा ब त खाता है।”
दोन बात करते जा रहे थे। चलते-चलते ल वी नद तट पर प ँचा। यहाँ से
अनाथालय दा ओर सौ पग र था। यहाँ पछले बीस दन से मू त नमाण का काय चल
रहा था। पाँच हाथ ऊँची लकड़ी क अ न मत दजन मू तयाँ खड़ी थ । अपने अनगढ़
व प म भी वे कसी ी क आभा दे रही थ ।
ल वी, भा को एक मू त के समीप ले गया। भा ने अपने कंकाल हाथ से मू त
को छु आ। कौतूहल से पूछा, “ पताजी! यह कौन ह?”
“तुम मेरे केश नोच रही हो…नह बताऊँगा।”
“खी!…खी!…खी!…छोड़ दया।”
ल वी मू त से र हटा और नद क ओर जाने लगा। बताया—
“यह महादे वी ह।”
“महादे वी! हमारी महादे वी? जनका ज म दवस आने वाला है?”
“हाँ! हम सब क महादे वी।”
“ या वो मुझसे मलने आएँगी पताजी!”
“महादे वी ब त र रहती ह…ब ची!”
“ या म उ ह पुका ँ ?…मेरी पुकार सुनकर आएँगी?”
“हा! हा! हा!…पुकारो…सुन लया, तो आ जाएँगी।”
भा जोर से पुकारती है। महादे वी…महादे वी…। सरी ओर गरदन घुमाकर।
महादे वी…महादे वी।
ल वी, भा को कंधे से उतारकर नद के जल से दो हाथ र बैठा दे ता है और वयं
भी बगल म बैठ जाता है। दोन नद म कंकड़ फकते ह। भा बीच-बीच म महादे वी…
महादे वी पुकारती है।
उन दोन के पीठ पीछे तट से र वृ क आड़ म एक रथ आकर खड़ा आ। उस
पर भा का पतामह मारंग था। वह बड़ी दे र तक दोन को दे खता रहा, फर रथ मोड़कर
चला गया।
कुछ समय नद पर बताने के बाद ल वी, भा को पुनः कंधे पर बठाकर
अनाथालय ले गया। उसे दे खते ही वहाँ उप थत ढे र ब चे दौड़ते ए आए और पताजी!
पताजी! करते ए उसे घेर लया। भा पूरे गव से सब को अपना घोड़ा दखाती है और
बताती है— यह मेरा घोड़ा है…यह पूरा प ा खा जाता है…ब त पेटू है।
कारागार

नद के व छ जल म एक मछली बहाव के साथ तैर रही थी। वह जल सतह से ब त


नीचे नह थी। सूय क झल मलाती करण से उसके ेत श क जल के अंदर भी चमक
रहे थे।
तैरते-तैरते मछली को सामने से एक जल-क ट आता दखा। अपने भोजन को
दे खकर वह ठहर गई। कसी भी ण झपट् टा मारने का अवसर दे खने लगी। एकदम
थर होकर श एक कर रही थी क जल-सतह को भेदता आ एक बाण आया और
उसके शरीर के आर-पार हो गया।
जल-क ट भाग नकला। मछली के घाव से र क कुछ बूँद नकलकर लाल याही
क भाँ त जल म घुलने लग ।
बाण क पूँछ से धागा बँधा था। धागा खचा और मछली बाण स हत जल से बाहर
आ गई।
धागा ख चने वाला ठोस शरीर का एक असुर था। पूरा शरीर काले रंग से पुता होने
के बाद भी उसके मुख से तेज झलकता था। वह अब तक तीन मछ लयाँ पकड़ चुका था।
यह चौथी थी। उसने चार मछ लयाँ एक बाण म फँसा और कंधे पर रखकर अपनी राह
चल दया।
नद से थोड़ी र वन के छोर पर एक पुराना खंडहर था। इतना टू ट चुका था क
दे खने से मूल ढाँचे का अनुमान लगाना क ठन था। यह थान कभी मारंग ापार गृह का
भंडारण गृह आ करता था। एक बार यागने के बाद दशक तक कसी ने इधर क सुध
नह ली। लोग का आवागमन नह होने से वन के इस भाग म व य पशु क सं या
बढ़ती चली गई। बंदर तथा मोर क चीख नय मत प से सुनाई पड़ जाती थ ।
पूरा खंडहर काई और वन प तय से ढका होने के कारण हरे रंग के आवरण म था।
कह -कह पशु के कंकाल भी दख जाते थे। उन पर भी काई ने अपना अ धकार
जमाने का पूरा यास कया था।
खंडहर म एक साफ थान पर कुछ सामान पड़ा था। लकड़ी क ढे र खप चयाँ,
वृ क ग द, छु रे, खड् ग और भाँ त-भाँ त के छोटे उपकरण।
असुर मछ लयाँ लेकर इसी थान पर प ँचा। उसने दो प थर के बीच मछ लय
वाला बाण टकाया और नीचे आग जला द ।
मछ लय को भुनता छोड़ वह लकड़ी क खप चय के साथ जुट गया। खप चयाँ
दो अंगुल से लेकर आधे हाथ तक भ - भ लंबाइय म थ । खप चय के अ त र
लक ड़य के कुछ छोटे टु कड़े भी थे, जो व च आकार- कार के थे। कसी खलौने के
पुज जैसे तीत होते थे।
असुर सामने रखे रेखा च से दे खकर उन पुज को आपस म जोड़ रहा था।
“क रया…!” कसी ने र से पुकारा।
“यहाँ ँ,” रेखा च से हटाए बना असुर ने जोर से यु र दया।
कुछ दे र प ात् पुनः “…क रया!…क रया!” इस बार पुकारने वाला कह समीप
था।
“यहाँ! धुआँ दे खकर आ जाओ।” क रया नाम के उस असुर ने पुनः उ र दया।
कुछ ण बाद एक ब ल असुर बा ओर से कट आ। इस ब ल क ऊँचाई
रेखा च दे ख रहे क रया से बारह अंगुल अ धक थी। कटार और खड् ग के अ त र
उसक कमर के दोन ओर दो छोट मट कयाँ भी बँधी थ ।
पैर क आहट पाकर क रया ने रेखा च से हटाई और मुड़कर ब ल असुर
क ओर दे खा। फर अपना काय छोड़कर उठा और मंद मु कान के साथ बोला।
“जावा! तु हारा काय कहाँ तक पूण आ?”
“जाल बाँध दया और रथ भी बनकर पूण हो चुका है।” ब ल जावा ने सपाट भाव
से उ र दया। अव था कोई भी हो, जावा के मुख का यही थायी भाव था।
क रया क जावा के हाथ पर गई। दा हथेली पर पट् ट बँधी थी। संकेत कर
पूछा, “यह कैसे…?”
“जाल बाँधते समय…”
“ वष तो नह चढ़ा?”
“इस बार वष का योग नह कया…धाग म पया त धार है।”
“अ छा कया। अब यहाँ का भी काय पूण कर लो।”
“सव थम अ न बुझानी पड़ेगी। भुने माँस क गंध पाकर व य-पशु खचे चले
आएँग।े ” जावा भुन रही मछ लय क ओर जाता आ बोला।
“माँस हटा लो…अ न मत बुझाना, मुझे आव यकता है।”
जावा ने मछ लयाँ अ न से हटा ली। मछ लयाँ अधभुनी थ । क रया ने एक समु
लवण मछ लय पर रगड़कर खाने यो य बनाया। उनका भोजन सु वाद नह था, फर भी
दोन बड़े चाव से खाए। खाते समय गुराहट सुनाई पड़ी। कसी पशु को गंध मल गई
होगी। एक मछली बची थी। जावा ने उठाकर व न क दशा म फक द । टू ट द वार के
ऊपर से होते ए मछली खंडहर के बाहरी ह से म गरी। फर दो पशु के झगड़ने क
आवाज आई।
दोपहर हो रही थी। खा-पीकर दोन अपने काय म जुट गए। क रया रेखा च
दे खकर लकड़ी के पुज जोड़ने लगा और जावा अपनी कमर से बँधी मट कय के साथ
उलझ गया। बा मटक का मुँह चमड़े से और दा का मुँह छ यु मोटे कपड़े से
ढककर बँधा था।
जावा ने बा मटक का मुँह खोला। मटक म गंधहीन तैल था। उसने बारी-बारी से
दोन हथे लयाँ तैल म डु बो द । फर दा मटक का मुँह खोलकर अंदर से एक मेढ़क
नकाला। मटक म छोटे -छोटे कई मेढ़क थे। पीले और लाल चक े वाले ये मेढ़क अँगूठे
से थोड़े छोटे थे।
“ कतना धागा?” जावा ने पूछा।
“दस हाथ लंबा,” रेखा च से हटाए बना क रया ने प उ र दया।
जावा ने इधर-उधर दौड़ाई। पेड़-पौधे, टू ट द वार, टू टे तंभ, भू म पर पड़ा
मलबा और उस पर चढ़ काई— सब दे खा। फर म यम ऊँचाई के दो वृ को चुना।
एक- सरे से बारह हाथ र खड़े दोन वृ अभी शैशवाव था म थे। उनके तन क मोटाई
जावा क कलाई से अ धक नह रही होगी।
जावा एक वृ के समीप प ँचा और हाथ म पकड़े मेढ़क का उदर दबाया। मेढ़क
क ज ा बाहर नकल आई। ज ा के अ भाग से पारदश लार टपकने लगी।
जावा ने मेढ़क क ज ा वृ के तने से पश कराई। लार तने से चपक गई। फर
मेढ़क को लेकर सरे वृ क ओर बढ़ा। तने और मेढ़क क ज ा के बीच क लार टू ट
नह । जावा के बढ़ने के साथ वह लार महीन धाग क भाँ त खचकर लंबी होती चली
गई। जावा ने सरे वृ के तने से भी ज ा का पश कराया। इस कार दो वृ तन के
बीच एक महीन धागा खच गया। इसी या को दोहराकर जावा ने तीन और धागे
ख चे।
क रया खप चय और लकड़ी के पुज जोड़कर एक बेलनाकार ढाँचा बना रहा था।
ढाँचा डेढ़ हथेली लंबा और एक हथेली ास वाला था। बेलन का बाहरी ढाँचा खप चय
से बना था और अंदर लकड़ी के कुछ पुज लगे थे।
क रया सामान के बीच एक पुजा खोज रहा था क पुनः गुराहट सुनाई पड़ी। एक
के बाद कई गुराहट ई, सभी दशा से। गुराहट समीप से आई थी। क रया और जावा
क घूमी। चार ओर से लकड़ब घे जैसे द खने वाले वनकु का घेरा बन रहा था।
“जावा! इ ह संभालने का कायभार तु हारा,” लापरवाही से कहकर क रया अपना
पुजा ढूँ ढ़ने लगा।
“दोन हाथ म तैल लगा है। मेरी प ट् टका से सीट नकालकर मुझे थमाओ…”
जावा बोला।
क रया ने एक ठं डी साँस छोड़ी। उठकर गया और जावा क कमर प ट् टका म हाथ
डालकर टटोलने लगा। कई सी टयाँ थ । सारी नकालकर हथेली पर रखा। बेलनाकार,
चौकोर और टे ढ़ -मेढ़ भ - भ कार क थ ।
जावा ने एक चपट सीट क ओर संकेत कया। क रया ने सीट जावा के मुँह के
अंदर ज ा पर रख द । जावा ने सीट मुँह के अंदर बंद कया और ह ठो को गोलकर
गजना क । वनकु का छोटा होता घेरा अपने थान पर ठहर गया। जावा ने फेफड़ म
श भरकर पुनः गजना क । गजना तेज थी और ह का कंपन भी उ प आ। मा दो
गजना म वनकु क गुराहट क ..क ..म प रव तत होने लगी। इस बार जावा ने टे ढ़ा-
मेढ़ा मुँह बनाकर व च -सी व न नकाली। वनकु े भाग खड़े ए।
“ऊसर लौटकर यह दै य व ा मुझे भी सखा दे ना। बना खड् ग उठाए काय संप
हो जाता है,” क रया मंद मु कान के साथ बोला।
जावा ने मुँह खोलकर सीट दखाई। क रया क इ छा नह थी, तथा प जावा के मुँह
के अंदर से सीट नकालकर चुपचाप उसक कमर प ट् टका म डाल दया।
“पया त है?” जावा धाग क ओर दे खकर पूछा।
“पया त है। तुम अपने हाथ व छ कर लो। म भी कर लेता ।ँ ” कहकर क रया ने
अपनी अँगु लयाँ जावा के व म प छ द । जावा ने कोई त या नह द । उसने मेढ़क
को मटक म रखा और हाथ धोने नद क ओर चल दया।
क रया पुनः अपना पुजा ढूँ ढ़ने लगा। कुछ दे र म मल गया। बेलनाकार ढाँचे म हाथ
डालकर लगा भी दया। फर बेलन को इधर-उधर पटककर जाँच कया, कह कुछ ढ ला
तो नह । जब संतु हो गया, तब वहाँ फैली साम ी म से एक बड़ी पोटली उठाई।
पोटली खोलने पर कई छोट पोट लयाँ नकल । सभी पोट लय का रंग एक- सरे
से भ था। एक काले रंग क पोटली उठाई। अंदर से एक काला चपटा प थर नकला।
प थर पूण प से चकना था। क रया प थर को बाएँ हाथ क वचा के समीप ले गया।
हाथ के रोएँ खड़े हो गए। उसने सावधानी से प थर को बेलन के अंदर एक खाँचे म रख
दया। कुछ अ य पुज जोड़ने के बाद प थर बेलन का ही एक भाग बन गया। क रया ने
पुनः बेलन को इधर-उधर पटककर दे खा। प थर बेलन के अंदर अपने थान पर ही बना
रहा।
क रया ने एक अ य पोटली खोली। ेत प थर नकला। यह भी चपटा और चकना
था। बना कोई वशेष नरी ण कए इस प थर को भी बेलन के एक खाँचे म फँसा
दया। पुनः कुछ पुज जोड़े और यह प थर भी बेलन का एक भाग बन गया। अंदर दोन
प थर दो अंगुल क री पर एक- सरे के ऊपर-नीचे थत थे। क रया कुछ अ य पुज भी
जोड़ने म लगा रहा।
जावा अपने हाथ व छ कर लौट आया। उसे आता दे ख क रया ने पोट लय से तीन
और चकने चपटे प थर नकाले। तीन गाढ़े भूरे रंग के थे। एक प थर आकार म अ य
दो से अपे ाकृत बड़ा था।
क रया ने तीन प थर जावा को थमाए। जावा को पहले ही ात था क इनका या
करना है। इधर-उधर दे खता आ खंडहर के सरे भाग प ँचा। वहाँ टू टे तंभ के बड़े-बड़े
खंड बखरे पड़े थे।
जावा ने एक बड़े प थर क काई साफ कर उस पर तीन भूरे प थर अगल-बगल
रखे। फर एक सरा भारी प थर उठाकर उन तीन पर पटक दया। इसी कार चार-पाँच
बार पटकने पर तीन प थर का रंग थोड़ा पीला होने लगा। यह प थर पटकने क या
जावा को तब तक करनी थी, जब तक तीन प थर का रंग प रव तत हो कर पूण पीला
न हो जाए।
इधर क रया अपने बेलन यं का काय पूण कर चुका था। अब उसने बड़ी
खप चयाँ उठाई। खप चयाँ पाँच अंगुल चौड़ी और आधा हाथ लंबी थ । वह जल रही
अ न के पास गया और कुछ सूखी लक ड़याँ डालकर अ न तेज कर द । फर एक
खप ची अ न लौ के ऊपर लेकर खड़ा हो गया। मु य उद्दे य खपची के म य भाग का
ताप बढ़ाना था। कुछ दे र म जब थोड़ा ताप बढ़ा, तब खप चय के दोन सर को एक-
सरे क ओर दबा दया। दबाना सरल नह था। क रया क बाह के नायु फूलकर उभर
आए। खप ची धनुष के आकार म टे ढ़ हो गई। कतु बल हटाते ही पुनः अपनी सीधी
अव था म लौट गई। कई बार ताप बढ़ाने और बल लगाने के प ात् खप ची म त नक-सा
थायी घुमाव आया। आध घड़ी के प र म के बाद खप ची म कसी खचे धनुष जैसा
थायी झुकाव ा त हो गया।
उधर जावा भी नरंतर प थर पटक रहा था। पटकते-पटकते जब प थर टू ट जाता,
तो सरा भारी प थर उठा लाता। चपटे प थर का रंग पूण प से पीला होने म अभी
समय था। ारंभ म शी ता से रंग प रव तत हो रहा था, कतु अब ब त मंद ग त थी।
जावा को अपना काय पूण करने म दो घड़ी लग गए। पूरा शरीर ेद से लथपथ हो
गया। पूण प से पीले हो चुके प थर को उठाया और क रया के पास प ँचा। क रया भी
अब तक चार खप चय म झुकाव ा त कर चुका था।
जावा ेद सूखने तक बैठकर सु ताता रहा। फर क रया ने खप चयाँ झुकाने का
काय उसे स प दया और वयं झुक चुक खप चय से नया उपकरण बनाने म लग गया।
क रया ने दो झुक खप चय को आमने-सामने कया और उनके दोन जोड़ पर
सफेद ग द लगा दया। संरचना कुछ इस कार क हो गई जैसे— दो धनुष को आमने-
सामने करके उनके सर को चपका दया गया हो। फर कुछ अ य खप चय को
संरचना के अंदर लगाकर उ ह भी ग द से जोड़ दया।
यानपूवक कुछ समायोजन करने के प ात् क रया ने इस संरचना को थोड़ी दे र
अ न म घुमाकर तपाया। ग द सूखकर ठोस हो गई। क रया ने संरचना पटककर दे खा।
सब ठ क था। फर उसने संरचना को भू म पर रखकर पाँव से बल लगाया। संरचना दबने
लगी और बल हटाने पर कसी लचीले बाँस क भाँ त झटका दया।
क रया ने ऊपर वाली खप ची पर लकड़ी के कुछ टु कड़े और कुछ पुज जोड़कर
पाँव फँसाने के लए एक खाँचा बनाया।
डेढ़ घड़ी म क रया ने इस कार क दो संरचनाएँ बनाकर तैयार कर ल । जावा
अभी भी खप चयाँ मोड़ रहा था।
क रया दोन संरचनाएँ लेकर खंडहर के बाहर एक खुले थान पर आया। आस-पास
वृ थे, कतु सघन नह थे। वह दोन संरचना के खाँच म पाँव फँसाकर खड़ा हो
गया। संतुलन बनाने म कोई वशेष क नह आ। ऐसी संरचना पर वह पहले भी दजन
बार अ यास कर चुका था।
दोन पैर म संरचना पहनकर वह कसी गौरैया क भाँ त चार पग फुदक-फुदककर
चला। फर पाँचवे पग म पैर से नीचे क ओर भरपूर बल लगाया। संरचना दबी और फर
एक सीमा के बाद बल समा त होते ही संरचना ने अपनी पूव अव था पाने का य न
कया। एक झटका मला और क रया संरचना स हत हवा म पाँच हाथ ऊपर उछल गया।
नीचे आया, तो पुनः संरचना दबी। इस बार अ धक दबी थी। अ धक झटका मला और
क रया वृ क ऊँचाई तक उछल गया। आस-पास के वृ पर बैठे प ी उड़ गए। क रया
को र वृ पर बैठे वानर और बगुले भी दखे।
कुछ दे र इधर-उधर उछलकर अपने उछाल-यं क जाँच करने के प ात् क रया
खंडहर लौट आया।
क रया ने उछाल-यं क एक जोड़ी और बनाई। इस बार जाँच करने जावा गया।
जाने से पहले उसने कमर पर बँधी दोन मट कयाँ उतार द । उसने भी कई वृ के प ी
उड़ाए और दो वानर क लड़ाई भी दे खी।
उछाल-यं क दोन जो ड़याँ एक- सरे क त प थ । कतु पहली जोड़ी म
क रया ने लाल त त छु रे से कुछ नधा रत थान पर चीरे लगा दए।
इसके प ात् दोन अ य छोटे -छोटे काय नबटाते रहे। सूय ढलान पर था। उ ह ने
अपनी साम ी बटोरकर बाँध ली। जावा ने वृ तन के बीच खचे धाग क जाँच क ।
धागे पूरी तरह सूख चुके थे। मकड़ी के जाले जतने महीन ये धागे क त करने पर
ही द खते थे। जावा ने धाग को लपेटकर रख लया।
सारी साम ी को गठरी म बाँधकर दोन खंडहर से बाहर नकले और राजधानी
म हार क ओर चल पड़े। इस समय मोर चीख रहा था और कोयल कूक रही थी।

रा गहरा चुक थी। असुर राजधानी म हार क हाट म कान बंद होना ारंभ हो गई
थ । कलाकृ तय क कान और म दरालय अ रा के बाद भी खुले रहते थे, कतु
सामा य कान बंद होने का यही समय था। माग पर आम-जन क सं या धीरे-धीरे
घटती जा रही थी।
हाट के बाहरी छोर पर माँस क कान आवं टत थ । असुर दे श म भसा माँस क
सवा धक खपत थी। इसके बाद मछ लयाँ तथा अ य समु माँस।
इन माँस कान के पीछे बड़े-बड़े भंडारण गृह थे। इ ह म से एक भंडारण गृह के
ार पर एक ापारी खड़ा कसी क ती ा कर रहा था।
हाट के माग पर काश क समु चत व था थी, कतु भंडारण गृह के आस-पास
आव यकतानुसार ही उ काएँ जल रही थ । जहाँ ापारी खड़ा था, वहाँ ीण काश
था।
उसे अ धक ती ा नह करनी पड़ी। दो आकृ तयाँ आती दख । ापारी सतक
आ। अँधेरे म भी दोन आकृ तय क चाल म गव और नभ कता झलक रही थी।
क रया और जावा थे। दोन ापारी के समीप प ँच।े जावा, ापारी के पास
माहभर से था, क रया पहली बार आया था। ापारी ने क रया पर भरपूर डाली,
फर सर झुकाकर अ भवादन कया। क रया ने मु कान के साथ उसके कंधे पर हाथ
रखा।
ापारी दोन को अंदर ले गया। जावा ने कंधे पर लद गठरी उतारकर रख द ।
ापारी औपचा रक जलपान के लए सेवक को पुकारने वाला था क क रया ने संकेत से
रोक दया। वह पहले अपनी योजना के मह वपूण ब को दे खना चाहता था। ापारी
ने सर झुकाकर आ ा मानी और उ ह भंडारण गृह के पछले भाग म ले गया।
वहाँ दजन गड् ढ म भाँ त-भाँ त क छोट -बड़ी मछ लयाँ भरी ई थ । कुछ गड् ढ
म अ य समु जीव भी थे। सभी गड् ढ म जल भरा था। सारे जलीय जंतु जी वत थे।
वातावरण पूण प से गधयु था।
इस कार के पाँच हाथ चौड़े वगाकार गड् ढे येक समु -माँस ापारी के
भंडारण गृह म थे। राजधानी से समु क री अ धक थी। अतः मछ लय को ताजा रखने
के लए ब तक उनको जी वत रखना आव यक था।
ापारी, क रया को दाएँ कोने वाले गड् ढ क ओर ले गया। पाँच गड् ढ म काली
और सफेद धा रय वाले सह मेढ़क भरे थे। वे फुदक रहे थे, कतु टरा नह रहे थे।
उनके शरीर से लप लपा पारदश नकल रहा था।
“ कतने घड़े भर जाएँग? े ” क रया ने पूछा।
“दस से अ धक,” जावा ने उ र दया। वह इन मेढ़क को पछले एक माह से पाल
रहा था।
क रया को जो दे खना था, दे ख लया। वहाँ क गध सहन नह हो रही थी। शी ही
तीन क म लौट आए।
ापारी ने आवाज दे कर सेवक को जलपान लाने को कहा और एक मान च
फैलाकर क रया के सामने रख दया। मान च कसी कारागार का था, जहाँ अ न ेत का
आरोपी योगकता शु बंद था। मान च सरल था, कसी ब चे को भी मरण हो जाता।
“शु को संदेश दे दया है, कतु वह अपनी पु ी के लए च तत था,” ापारी ने
कहा।
“उसे समझाया नह , उसे छु ड़ाने के प ात् उसक पु ी को भी साथ लेकर जाएँग।े ”
क रया मान च दे खता आ बोला।
“समझाने का अवसर नह मला, मा एक बार कह दया था क उसक पु ी भी
सुर त साथ जाएगी।” ापारी बोला।
क रया बड़ी दे र तक मान च पर दौड़ाता रहा। फर कुछ लखी ई सं या
क ओर संकेत कर पूछा, “ रय क गणना म पूरी तरह आ त हो?”
“ न त रह। पछले बारह वष से कारागार म भोजन क आपू त कर रहा ँ। आँख
मूँदकर पूरा कारागार मण कर लौट सकता ँ,” ापारी ने जोर दे कर कहा।
तभी सेवक जलपान लेकर आ गया। जलपान या था, पूरा भोजन था।
क रया, जावा क ओर मुड़ा और पुछा, “गुलेल क या दशा है?”
“चार गुलेल बन गई ह। अपनी आव यकतानुसार समायो जत कर सकते हो,”
जावा ने उ र दया।
क रया कुछ दे र सोचता रहा, फर बोला, “अ य साम ी भी उठा लाओ। काय
नबटाने म रा बीत जाएगी।”
जावा सरे क से ढे र साम ी उठा लाया। व भ कार के तैल, चूण, घड़े,
खप चयाँ और लकड़ी के टु कड़े आ द।
पहले उ ह ने भोजन कया, फर काय म लग गए। ापारी ने पाँच अ त व सनीय
सेवक को भी सहायता के लए बुला लया था।
अगले दन अमाव या थी। इस दन असुर म परंपरागत प से भसा-माँस बाँटकर उ सव
मनाने क था थी। था म भसा-माँस था, कतु उ च वग भसा-माँस खा-खाकर ऊब
चुका था, अतः वे मँहगे समु जीव का उ सव मनाते थे।
योजना के अनुसार ापारी अगले दन दोपहर म आठ पैर वाली समु मछली दे ने
कारागार गया। कारागार के सै नक उ ला सत हो गए। सामा यतः हर बार उ ह भी भसा-
माँस ही मलता था, इस बार लभ समु जीव दे खकर स थे। उनक स ता के
ण म ापारी ने इधर-उधर के पूछकर कई नई सूचनाएँ ा त कर ल ।
वतमान थ त म मा यह प रवतन आ था क असुरा धप त कालयवन का
अंगर क थांबा बीस सै नक के साथ आज सं या कारावास आएगा। थांबा का कारावास
आना कोई नई बात नह थी। वह जब भी आता, पूछताछ के बहाने अगले दन भोर म
शु को लेकर राजक य योगशाला चला जाता। थांबा का आना पूण न त नह था,
य द वह आया, तो उसक उप थ त संकट उ प कर सकती थी। थांबा का पद
अंगर क का अव य था, कतु तर कसी सेनाप त जैसा था।

अमावस क काली रात। यूनतम आकाशीय काश क रात। तार म इतना साम य नह
था क चं मा क अनुप थ त म दो हाथ र खड़े का मुख पहचानने म सहायता
कर सक। पेड़-पौधे स हत येक व तु मा काली आकृ त के प म अपने अ त व का
बोध करा रही थी। बयार शांत थी, प ा भी नह हल रहा था।
कारागार से र एक वृ क मोट डाल पर सै नक वेशभूषा म क रया बैठा आ
था। उसने दोन पैर म उछाल-यं फँसा रखा था और पीठ पर बेलन-यं । कमर प ट् टका
मोट लग रही थी। उसम भी ब त कुछ भरा था।
वृ क डाल से कारागार क द वार भी काली आकृ त के प म दख रही थ ।
परकोटे क द वार अ धक ऊँची नह थ । आठ हाथ रही ह गी। परकोटे पर एक- सरे से
र तीन थान पर उ काएँ जल रही थ । उनके काश म पं ह सै नक दखे। ापारी क
पूव सूचना के अनुसार पाँच-पाँच के समूह म होने चा हए।
कारावास ऐसा कोई थान नह था, जहाँ कसी श ु-सेना के आ मण का भय हो।
अतः यहाँ सामा य तर क सुर ा मा कै दय को संभालने के लए रखी जाती थी।
चूँ क आज तक कारावास पर आ मण क घटना कसी ने नह सुनी थी, अतः यहाँ
उप थत सै नक क सतकता भी उसी अनुसार थी।
कारावास के अंदर से हो-ह ले क मंद व न आ रही थी। आज उ सव क रा थी।
माँस रसोई म नह , बाहर खुले म पकाया जाता था। काजी दे श क असाम यक वषा यह
अवसर कम ही दे ती थी। इस बार ा त आ था, तो सब पूरे उ लास म थे।
क रया को कारावास के ठ क ऊपर अ न क पीली करण क छटकन वाली धुँध
आध घड़ी से दख रही थी। पया त ती ा हो चुक थी। अब तक सब खाने-पीने म लग
चुके ह गे।
कारावास के बा ओर वृ के बीच खड़ा एक सेवक पूरे यान से क रया के वृ
क ओर गड़ाए ए था। उसके समीप लकड़ी के दो लट् ठ वाली एक गुलेल भू म म
गड़ी थी। गुलेल के पास कुछ घड़े भी रखे ए थे, जनका मुँह चमड़े से ढ़क कर बाँधा
गया था।
सेवक चौक ा था। मंद सरसराहट पर भी त काल उस दशा म घुमा दे ता। तभी
क रया के वृ के आस-पास कुछ जुगुनू उड़ते दखे। सेवक ने पु करने के लए आँख
गड़ाई। पु हो गई क संकेत है।
सेवक ने एक एक लंबी साँस ली और अपने काय म लग गया। उसने एक घड़ा
उठाया और गुलेल के पट् टे पर रखकर ख चा। गुलेल ख चने म उसे पूरी श लगानी
पड़ी। भू म पर कई रेखाएँ बनी थ । गुलेल को ख चकर पहली रेखा से पश कराना था।
सेवक क साँस छू टने लगी, तथा प रेखा को पश कराने म सफल रहा। रेखा से पश
कराते ही उसने गुलेल छोड़ दया। घड़ा उड़ता आ कारागार क ओर चला।
कारागार वष पूव यागे गए एक छोटे ग को प रव तत करके बनाया गया था।
अतः मूल संरचना ग क ही थी। बीच के खुले मैदान म पाँच थान पर अ न जलाकर
माँस भूना जा रहा था। अ धकांश सै नक अ न के चार ओर बैठकर म दरा पीते ए माँस
ख च रहे थे। कारागार म इस समय कसी भी कार का सै य अनुशासन नह द ख रहा
था। जब सारे कैद अपनी कोठ रय म बंद ह , तो उनके लए काय ही या है! वे पूण
न त थे।
कई सै नक म दरा पीकर भू म पर लेट गए। इ ह म से एक सै नक चुपचाप लेटा
आ आकाश क ओर ताक रहा था। वह म दरा के ब त भाव म नह था। दनभर खड़े
रहने क थकान थी, इस लए लेटा आ था।
उसे आकाश म एक काला ब दखा। ब ब त तेजी से बड़ा हो रहा था। कुछ
समझ म आने से पूव ही एक घड़ा उसके मुँह से टकराया। नाक क हड् डी टू ट , सर को
आघात लगा और दद के णक ती आवेग म त काल मू छत हो गया।
टकराते ही घड़ा कसी जल भरे मटके क भाँ त फूटा। अंदर का चप चपा
छपाके के साथ चार ओर फैल गया। छपाके क छ ट आस-पास के सै नक पर पड़ी।
कई सै नक को छ ट से ह क चोट भी लगी। घड़े म के साथ अ यंत छोटे -छोटे
गोल कंकड़ भी थे। कंकड़ आकार म अँगु लय के नख के आधे रहे ह गे। चप चपे
कंकड़ र खड़े सै नक को भी लगे और कई सै नक को कंकड़ चपक गए।
सभी सै नक भौच के थे। एक सै नक क बाँह म कंकड़ चपका था। उसने सरे
हाथ से कंकड़ हटाया। कंकड़ तो र हो गया, कतु चप चपे ने उसक बाँह और
कंकड़ के बीच एक महीन धागा बना दया। उस सै नक ने कंकड़ फक दया, उसके उस
हाथ और कंकड़ के बीच भी एक धागा खच गया। सै नक ने अपने हाथ को इधर-उधर
घुमाकर और झटक कर धागा छु ड़ाने का यास कया। उसे लगा, चप चपा धागा छू ट
गया। परंतु धागा छू टा नह था, बस ख च-तान से महीन होकर लंबा हो गया था।
जनके मुँह पर मा छ ट पड़ी थ , उनके साथ भी ऐसा ही आ। टू टे घड़े के फैले
ए और उनके शरीर के बीच एक धागा बन गया था। धागे इतने महीन थे क नंगी
आँख से दे ख पाना अ यंत कर था।
च कत सै नक यही सोच रहे थे क आकाश से यह या गरा है। उनक बु म यह
आया ही नह क यह आ मण भी हो सकता है।
तभी सरे थान पर एक और घड़ा गरा। उसने भी और कंकड़ भरे थे। फर
एक के बाद एक चार दशा से अलग-अलग थान पर घड़े छपाके के साथ फूटने
लगे।
सै नक को अभी भी नह सूझा क आ मण हो रहा है। कुछ म दरा के भाव म थे
और कुछ मत थे। मैदान म चार ओर झपाके ए।
परकोटे पर खड़े सै नक ऊपर से कारावास के अंदर झाँककर य समझने का
यास कर रहे थे। तभी एक छपाका उनके पीछे आ। कुछ कंकड़ सै नक से टकराए
और कुछ उछलकर धागा बनाते ए द वार से नीचे कारावास के अंदर गरे।
परकोटे पर कुल तीन छपाके ए। दो छपाके सै नक के पास ए, कतु एक
छपाका ल य चूक गया। वह घड़ा कारावास क बाहरी द वार से टकराकर बाहर ही रह
गया।
जब सारे घड़े फक लए गए, तब क रया वृ से कूदा। भू म पर कूदते ही उछाल-
यं क खप चयाँ दब । फर उछल गया। कारागार क दशा म वृ से भी ऊँचा उछला
था। लौटकर भू म पर आया, खप चयाँ और अ धक दब । इस बार और अ धक उछाल
मली।
कारागार के अंदर इधर-उधर क भाग-दौड़ म एक सै नक घड़े के पर
फसलकर गर गया। उठने का यास कर रहा था क उसके सामने दस पग र आकाश
से एक कूदा।
क रया के कारागार क भू म पर कूदते ही उछाल-यं क खप चयाँ अ धकतम
सीमा तक दब ग । यं क कई खप चय को इतना अ धक बल सहन करने म क ठनाई
होने लगी। इसी ण क रया ने कमर पर फँसी एक डोरी ख ची। डोरी उछाल-यं क एक
खप ची से जुड़ी थी। पहले ही अपनी अ धकतम सीमा तक तनाव त खप चय को
एक बा बल मला और वे झटके से टू ट ग । फर उसके भाव से कई और खप चयाँ
भी टू ट । बीच क कई खप चयाँ टू टने से, उछाल-यं म समाया बल कम हो गया। फर
भी क रया को पुनः छह हाथ ऊपर उछाल ही दया।
सै नक इतने च कत थे क उ ह अपने श उठाने क भी सुध नह थी। क रया पुनः
भू म पर आया और तीन-चार बार फुदककर एक टू टे घड़े के समीप क गया।
क रया ने एक उड़ती ई चार ओर डाली। फर आस-पास के वातावरण को
मह व न दे ते ए अपनी पीठ से बेलन-यं उतारा और फैले ए पर खड़ा करके रख
दया। बेलन म ऊपर से हाथ डाला और अँगुली से बल लगाकर एक पुजा खसका दया।
यं के अंदर उमेठ ई डोरी मु ई। डोरी क उमेठ म बसी या थ ऊजा से अंदर के
पुज चलने लगे।
“कट् ट…” बेलन-यं म व न ई।
दो ण प ात् पुनः “कट् ट…”, “कट् ट…।”
जैसे ही चौथा ‘कट् ट’…सुनाई पड़ा, क रया पैर से बल लगाकर उछल गया। आधे
टू ट चुके उछाल-यं ने मा तीन हाथ क उछाल द । जब वह हवा म अ धकतम ऊँचाई
पर था, पाँचवाँ ‘कट् ट’ सुनाई पड़ा। कोई मह वपूण पुजा घूमा, कोई अवरोध हटा और
बेलन-यं के अंदर दो प थर आपस म टकराए।
बेलन के नचले भाग, जहाँ प थर टकराए थे, से बजली कड़कने क तेज व न
आई और णांश म एक ती च ध के साथ व ुत-ऊजा नकली। ऊजा नचले प थर क
नचली सतह से नकलकर पर गरी। फर म फैलकर उससे जुड़े धाग क ओर
दौड़ी। धाग पर वह टे ढ़ -मेढ़ चमक ली रेखा के प म दौड़ती दखी। ण के सौव
ह से म धाग का चमक ला जाल यमान आ। एक जाल, अपने समीप गरे सरे
घड़े- के जाल से कसी-न- कसी कार उलझा आ था। ऊजा एक जाल से फैलकर,
सरे जाल, सरे से तीसरे। इस कार ण बीतने से पहले ही पूरे मैदान म असं य
चमक ले धाग का व तृत जाल कट आ। कुछ चमक ली रेखाएँ धाग पर चढ़ते ए
परकोटे क ओर भी बढ़ ।
धाग से जुड़े सै नक से व ुत टकराई। उनके रोएँ और केश आवे शत होकर खड़े
हो गए। व ुत शरीर म वेश कर दय से होकर गुजरी। ाणघातक झटके के साथ
सै नक के शरीर गरे।
क रया के उछाल-यं क नचली खप चय से भी कई धागे चपक गए थे। व ुत
उसक ओर भी दौड़ी। कतु शरीर से री अ धक होने के कारण कोई त नह ई। बस
धाग के संपक ब पर खप चयाँ काले ध बे के साथ थोड़ा जल ग ।
क रया भू म पर लौटा, तो कुछ खप चयाँ और टू ट । उसने उछाल-यं पैर से
नकालकर फक दया और बेलन-यं उठाकर पीठ पीछे फँसा लया।
व ुत-ऊजा के संपक म आकर सूखकर कड़ा हो गया था। इस व ुत- हार
से मैदान म न बे और परकोटे पर दस सै नक न य हो गए थे। शेष बचे तीस-पतीस
सै नक के लए यह य भयावह और अक पनीय था। सभी अपने थान पर जड़ जैसे
खड़े थे। घुसपै ठये क ओर कसी का यान ही नह था। वे अपने साथी सै नक क दशा
दे खकर काँप रहे थे।
क रया ने एक सामा य चार ओर डाली, फर बा ओर कोठ रय क ओर बढ़
गया। मैदान ब त बड़ा नह था। सौ पग म आर-पार कया जा सकता था। मान च के
अनुसार बा ओर सफेद रंग से पुती कोठ रय म पहली कोठरी होनी चा हए।
क रया दस पग चला होगा क एक बाण आकर सामने भू म म धँसा। बाण परकोटे
से चलाया गया था। परकोटे के चार अ य धनुधा रय ने भी बाण छोड़े। क रया के लए
इस तर क धनु व ा से बचना खेल समान था। उसके पग आगे बढ़ते रहे।
इधर धनुधारी तीसरी बार बाण छोड़ने वाले थे क एक बाण पीछे से आकर एक
धनुधारी क बाँह के पार हो गया। धनुधा रय ने क रया को छोड़कर कारावास के बाहर
झाँका। एक बाण और आया। कसी को लगा नह । उनके बगल से होकर नकल गया।
अँधेरे म बस इतना अनुमान लगा क वृ के बीच से कोई बाण चला रहा है। धनुधा रय
ने भी यु र म बाण चलाए, पर उ ह आ य आ क वे ऊँचाई पर थे, तब भी उनके
बाण नह प ँच रहे, जब क आ मणकारी नीचे से ही उन तक बाण मार दे रहा है।
वृ के बीच खड़ा जावा एक बड़े धनुष से नरंतर बाण चला रहा था। उसे क रया
के बाहर आने तक परकोटे क कसी भी ग त व ध को सँभालना था।
इधर कारागार के अंदर क रया अपने ल त कोठरी के सामने प ँचा। येक
कोठरी क भाँ त इस कोठरी का कैद भी भय से पीछे अँधेरे कोने म चला गया था।
क रया कोठरी क लौह सलाख के सामने खड़ा आ। अदं र अँधेरे से कैद क आवाज
आई, “शु काजी का नह , ऊसर का है।”
कैद क पहचान और इ छा दोन का स यापन हो गया।
“पीछे ही रह, ीमान् शु !” क रया मंद मु कान के साथ बोला। फर अपनी कमर
प ट् टका से कपड़े क गाँठ जैसा कुछ नकाला। जो कुछ नकाला, आकार- कार म
कपड़े क एक बड़ी अँगूठ जैसा था। उसने अँगूठ को दाएँ हाथ क चार अँगु लय म
एक साथ फँसाकर मुट्ठ बनाई। इस कार गाँठ म बँधे दोन प थर मुट्ठ के सामने आ
गए। सामने वाले भाग म कपड़े म कुछ छ थे, जनसे अंदर से पीला प थर झाँक रहा
था।
क रया ने मुट्ठ तानी, दाँत भ चे और पूरी श से सलाख के बगल वाली द वार
पर घूँसा मारा। अँगूठ क गाँठ सीधे द वार से टकराई। गाँठ के अंदर दो प थर भी आपस
म टकराए। और पीले प थर से अ त चंड आघात-ऊजा एक झ क म नकली। भयंकर
गजना के साथ सोलह अंगुल मोट प थर क द वार के परख चे उड़ गए। थोड़ी धूल उड़ी
और फर सलाख के बगल एक बड़ा छ सभी को दखा। गाँठ के अंदर पीले प थर का
रंग प रव तत होकर गाढ़ा भूरा हो गया। साहस बटोर रहे सै नक पुनः काँप गए।
क रया ने अँगूठ उतारकर कमर प ट् टका म वापस डाल लया और छ से र हो
गया। र हटा ही था क कान खड़े हो गए। ण गँवाए बना बगल हटा। एक भाला कमर
से दो अंगुल र से नकला।
क रया को थोड़ा अचंभा आ। भाला फकने वाला र था। इतनी र से, इस ती ता
से भाला फकना साधारण हाथ का काय नह था। अनुमान लगाया, कालयवन का
अंगर क थांबा होगा।
वह थांबा ही था। उसक जँघा के पास क धोती जली ई थी और गरदन पर भी
जले का काला ध बा था। दो थान पर व ुत का हार झेलने के प ात् भी थांबा अपनी
चेतना बनाए रखने म सफल आ था। उसने वयं को संभाला ही नह , श ु पर आ मण
भी कया। वह थोड़ा लँगड़ाते ए खड् ग लेकर क रया क ओर बढ़ रहा था। थांबा बीस
सै नक के साथ कारावास आया था। बारह मू छत थे, आठ बचे थे। वे आठ भी थांबा के
साथ खड् ग लेकर आगे बढ़ रहे थे।
क रया ने एक द घ ास छोड़ी और चार ओर भरपूर डाली। परकोटे के धनुधर
जावा के बाण से उलझे ए थे। कारागार म चार ओर मू छत सै नक बछे थे और बचे
ए सै नक भय से र ही बने ए थे। वे यु के लए श त सै नक नह थे, साधारण
हरी थे, ज ह ने वष से कसी बड़े संकट का सामना नह कया था। ऐसे लभ और
व च आ मण पर उनका ऐसा वहार सामा य था। पाँच थान पर जल रही अ न
पर माँस अभी भी भुन रहा था। सरी ओर थांबा के साथ आठ सै नक पूरी सतकता के
साथ उसक ओर बढ़ रहे थे।
क रया ने कोठरी के टू टे छ क ओर मुँह कर आदे श म त वर म कहा, “ ीमान्
शु ! आप अंदर ही बने रह।”
फर उसने अपनी कमर प ट् टका से एक अ य कपड़ क गाँठ वाली अँगूठ
नकाली। इस गाँठ म भी दो प थर बँधे थे। कतु आकार म थोड़े छोटे थे। उसने बाएँ हाथ
क चार अँगु लय म अँगूठ क भाँ त फँसाकर मुट्ठ बना ली और दाएँ हाथ म खड् ग
लेकर खड़ा हो गया।
थांबा रह-रहकर अपनी गरदन पर हाथ फेरता। व ुत ने वहाँ का थोड़ा माँस जला
दया था, जलन हो रही थी।
सै नक ने आते ही क रया के चार ओर घेरा बनाना ारंभ कर दया। कतु घेरा पूण
होने से पहले ही क रया एक सै नक क ओर लपका। सै नक को आशा नह थी। उसने
क रया क खड् ग को अपने सर के ऊपर रोका। क रया ने चपलता से बाएँ हाथ से
सै नक के पेट पर घूँसा मार दया। गाँठ के अंदर दो प थर आपस म टकराए। और सै नक
को लगा, उसके पेट पर भारी हथौड़ा चला दया गया हो। आघात से सै नक उड़ता आ
चार हाथ पीछे गरा। आंत रक अंग को चोट लगी थी। मुँह से र नकल आया। बना
उपचार पुनः उठने का ही नह था।
यह य दे खकर थांबा स हत अ य सै नक अपने थान पर ण भर के लए ठहर
से गए। क रया ने अवसर गँवाए बना अपनी खड् ग व च ढं ग से घुमाकर सरे सै नक
क ओर चलाई। सै नक ने कमर पर आ रहा हार रोका। कतु क रया का हार रोकते ही
उसक खड् ग हाथ से छू टकर गर गई। सै नक को संभलने का अवसर नह मला। क रया
का घूँसा पड़ा और वह भी उड़ते ए पीछे गरा।
इसके उपरांत क रया का नह । तीसरे सै नक पर भी त काल हार कया। उसक
भी खड् ग छू ट और घूँसा खाकर वह भी उड़ता आ गरा।
चौथे और पाँचव सै नक के साथ भी यही आ। थांबा क तेज और अनुभवी
को कुछ समझ आया। क रया एक व श कोण से खड् ग का हार कर रहा था। खड् ग
हाथ से य छू ट रही है, इसका सही कारण नह समझ पाया। कतु व श कोण और
खड् ग छू टने का संबंध नकाल लया।
थांबा ने त काल नणय लया। बचे-खुचे तीन सै नक को कुछ संकेत कया और
वयं बढ़कर क रया पर आ मण कर दया। अभी तक आ ामक रहे क रया को
सुर ा मक होना पड़ा। थांबा पूरी ग त से आ मण कर रहा था। क रया को व श कोण
बनाने का अवसर ही नह मल पाया।
भारी-भरकम शरीर वाले थांबा के हार म संवेग ब त अ धक था। क रया को
बीच-बीच म दोन हाथ लगाने पड़ रहे थे। जँघा पर घाव खाने के बाद भी थांबा क फुत
दे खने यो य थी।
नरंतर चल रहे आ मण और बचाव के बीच क रया को घूँसा मारने का एक
अवसर मल गया। पूरी श से चलाया घूँसा थांबा क छाती से टकराने ही वाला था क
क रया ने गुनी ती ता से हाथ वापस ख च लया। हाथ ख चने म ण भर भी वलंब
होता, तो बगल से चलाया भाला उसके हाथ को छे द डालता।
दो सै नक बा तथा एक सै नक दा ओर भाला लेकर इसी ती ा म थे।
क रया आठ पग पीछे होकर खड़ा आ। समझ गया क प र थ त अब उतनी
सरल नह रही। कारागार के संकट क सूचना संदेश वाहक प य के मा यम से भेज द
गई होगी। संभव है, समीपवत सै य छावनी से आध घड़ी म सहायता प ँच जाए। अ धक
समय नह था। शी ता करनी होगी।
क रया छ के समीप खड़ा था। द वार के टू टे प थर पैर के पास बखरे पड़े थे।
उसने दो हथेली ास का एक बड़ा प थर उठाया। सै नक भाले आगे कर तैयार हो गए।
सभी सोचे— प थर फककर मारेगा? या मूखता है।
क रया ने अपने मुँह के आगे प थर ऊपर उछाला। अ धकतम ऊँचाई ा त कर जब
प थर पुनः लौटकर मुँह के सामने आया, क रया ने कोण का अनुमान लगाते ए प थर
पर घूँसा चलाया।
भ म्…।
गाँठ के अंदर से आघात-ऊजा नकली और प थर छू टे तीर क भाँ त थांबा क
छाती क ओर बढ़ा। थांबा को आते ए प थर क झलक मा दखी। प थर उसक
छाती से टकराया। तेज आघात से पीछे उछलकर गरा। पस लय पर ऐसी भीषण चोट
लगी थी क साँस क गई। मुँह खोलकर साँस ख चने के लए छटपटा उठा।
एक सै नक दौड़कर थांबा को सँभालने लगा। अ य दो ने भाला फककर खड् ग
ख च ली। क रया उन पर लपका। चार-पाँच ण का संघष आ। दोन के खड् ग छू टे
और बारी-बारी से उनके शरीर उड़कर पीछे गरे। क रया से संघष करने वाला अब कोई
नह बचा।
क रया के पुकारने पर शु छ से बाहर नकला। अधेड़ आयु, आधे केश सफेद
और शरीर कृशकाय। शु थोड़ा भयभीत था। कारावास से नकलने क ती इ छा थी,
कतु पुनः पकड़े जाने का भय भी सता रहा था। य द पकड़ा गया, तो उसक और उसक
पु ी का जीवन, मृ यु समान बना दया जाएगा।
क रया और शु दोन एक- सरे को पहली बार दे ख रहे थे। अड़तीस वष य क रया
अपनी आयु से कम द खता था और शु अपनी उ से दस वष अ धक। क रया के मुख
पर न तता और आ म व ास दे खकर शु को कुछ बल मला।
क रया ने मुड़कर थांबा को दे खा। थांबा अभी भी क म था। य द उसने कवच
पहना होता, तो इतनी दयनीय अव था म नह होता।
क रया शु के साथ कारावास के मु य ार क ओर बढ़ा। मु य ार के कवाड़
ब त भारी थे। धातु के ढाँचे म मढ़े लकड़ी के इन मोटे और भारी कवाड़ को खोलने-बंद
करने के लए यां क व था थी।
मोटे र स , घर नय और उ ोलक के मेल से बनी यां क- णाली को ार के
ठ क बगल बने एक छोटे क से संचा लत कया जाता था। संचालन क के बाहर खड़े
हरी ने क रया को अपनी ओर आते दे खा, तो काँपते ए खड् ग नकालकर सामना करने
के लए तुत हो गया। मन-ही-मन जानता था, या प रणाम होगा। फर भी साहस
दखा रहा था।
क रया के समीप प ँचने पर हरी भागकर क म घुस गया और अंदर से ार बंद
कर लया।
भ म्…भ म्…भ म्…।
भ म्…भ म्…भ म्…। ार पर क रया का घूँसा नरंतर पड़ता रहा।
अँगूठ क गाँठ म बंधे प थर क आघात-ऊजा लकड़ी का ार कतनी दे र सहन
कर पाता, आठ-दस हार म टू ट गया।
क रया क म घुसा नह , ती ा करता रहा। कुछ दे र म भयभीत हरी बाहर
नकला कतु क रया ने उस पर आ मण करने का कोई भाव नह दखाया। तेज चल
रही साँस के साथ हरी कुछ ण क रया पर टकटक लगाए रखा और फर भाग खड़ा
आ।
क रया संचालन क म घुसा। अंदर दो उ का का काश था। क के म य म
रथ के प हये जैसा एक च था पत था। उसक धुरी से लपट मोट र सयाँ क म ही
कई लकड़ी क घर नय से होते ए एक छ म समाकर भू मगत हो गई थ ।
क रया ने श लगाकर च घुमाने का यास कया। च त नक-सा घूमा। अ धक
बल क आव यकता थी। जस च को चार मलकर घुमाते थे, उसे वह अकेले
घुमाने का यास कर रहा था।
क रया ने ंकार भर इस बार पूरी श लगाई। च और घूमा। शु ने भी सहायता
के लए च पर हाथ लगाया। दस-बारह बार के यास म च का एक च कर पूरा
आ। मु य ार के कपाट एक के आर-पार जाने यो य खुल गए थे।
क रया का, तब यान दया क थोड़े से शारी रक प र म से ही शु हाँफ गया
और मुँह से थोड़ा र भी नकल आया। क रया ने चता से शु क ओर दे खा।
“ च तत न हो, पुराना रोग है,” शु सामा य ढं ग से बोला।
दोन ने शी ता से संचालन क छोड़ा और मु य ार के थोड़े खुले कपाट से
बाहर नकल गए।
परकोटे पर जावा के बाण से बचने का यास कर रहे धनुधर ने दो काले साय को
कारावास से बाहर नकलते दे खा। वे उन पर बाण चलाना चाहते थे, कतु जावा के बाण
ने अवसर नह दया।
दोन साये कारावास से र अँधेरे म समाते चले गए। अब बाण भी क गए।

अगले दन ातः जब सूय क पीली करण वातावरण म काश भरना ारंभ कर रही थ ,
असुर दे श के एक वन म द ण क ओर मवार से वृ के प ी उड़ते जा रहे थे।
एक छोटा और पतला रथ त ू ग त से भागा जा रहा था। इतना छोटा और पतला
रथ साधारणतः दे खने म नह मलता। तीत होता था, सोच समझकर वशेष प से वन
म दौड़ाने के लए ही बनाया गया था। रथ के प हये भी चौड़े थे, ता क क चड़यु थान
पर सु वधा रहे।
पछले तीन घड़ी से नरंतर दौड़ रहे रथ के घोड़ के मुँह से झाग नकलने लगा था।
क रया रथ हाँक रहा था और शु रथ के दोन छोर को ढ़ता से पकड़कर संतु लत खड़े
होने का यास कर रहा था। पैर के पास बने खाँच म ढे र अ -श रखे ए थे।
थांबा के नेतृ व म बीस घुड़सवार उस रथ के पीछे लगे ए थे। इस कार भागना
क रया क योजना म नह था। वह कारागार से नकलने के प ात् एक नधा रत थान
पर रा बताने के बाद ातः दन के उजाले म आगे बढ़ता, य क अमाव या क रा
माग दे खना अ यंत कर था और य द काश के लए उ काएँ जलानी पड़ , तो खोजी-
दल को उ ह ढूँ ढ़ने म और अ धक सु वधा मल जाएगी।
क रया अपनी योजनानुसार, शु के साथ वन के एक नधा रत थान पर व ाम
कर रहा था। यहाँ तक का माग सीधा और सरल था। अँधेरे म भी कोई वशेष सम या
नह ई थी। इस थान तक प ँचने म रथ को तीन घड़ी लगा था। क रया सोच रहा था
क वह कारावास और सै य छाव नय से पया त सुर त री पर है। कतु व ाम करते
ए घड़ी भर भी नह आ था क खोजी-दल क उ काएँ द खना ारंभ हो ग । इतनी
व रत कायवाही क उसे आशा नह थी। उसके रथ- च को खोजते ए खोजी-दल
समीप आते जा रहे थे। क रया को अँधेरे म ही भागना पड़ा।
पछले तीन घड़ी से वह उ ह छकाता आ रहा था। अब जब ातः के काश म उसने
खोजी-दल के नायक का मुख दे खा, तो घोर आ य आ। उसका अनुमान था क घातक
हार खाने के बाद थांबा दस दन तक श या पर ही पड़ा रहेगा, कतु यहाँ वह अपने
घाव पर प ट् टयाँ बाँधकर और सै य कवच धारण कर रा से ही उसका पीछा कर रहा
है।
क रया क अगल-बगल के भू-भाग पर ब त सू मता से पड़ रही थी। उसे
शंका हो रही थी, छकाने के फेर म कह वह माग न भटक गया हो। सूय नकलने से दशा
बोध म कुछ सरलता ई। तभी दा ओर एक पोखरा दखा। रथ उसी दशा म मोड़ दया।
पूव नयो जत भू- च मल गया था। पोखरे के बगल से होता आ द ण क ओर बढ़ा।
वन अब सघन होता जा रहा था। वृ के ऊपरी सरे आपस म गुँथे ए-से थे। आगे
बा ओर चार वृ के तन के कुछ भाग से छाल उतार ली गई थ ।
क रया ने रथ क ग त थोड़ी धीमी कर ली। पीछा कर रहे सै नक का उ साह बढ़
गया। उ ह ने अपने घोड़े और तेज कर दए। थांबा कुछ शं कत आ। उसने ग त नह
बढ़ाई। उसके अगल-बगल से अ य घुड़सवार ग त बढ़ाते ए आगे नकल गए।
क रया ने कुछ वृ गने। आगे के एक वृ पर टक । फसलते ए तने के
ऊपरी भाग पर गई। फर नीचे से एक छोट कु हाड़ी उठाई और तैयार हो गया।
रथ जैसे ही उस वृ के समीप प ँचा, क रया ने ल य साधकर कु हाड़ी ऊपरी भाग
पर फक मारा। कु हाड़ी तने से लपट र सी को काटकर तने म ही धँस गई।
थांबा को कुछ सरसराहट सुनाई पड़ी। अगले ण बा ओर से एक कटे वृ का
तना, कसी लटके ए हथौड़े क भाँ त झूलता आ आया और आगे के चार सै नक के
बगल से टकराया। मोटे तने का ध का ब त तेज था। चार घुड़सवार घोड़े स हत
उछलकर दा ओर के वृ से टकराए।
“जाल…” थांबा जोर से च लाया और घोड़े क व गा ख चकर घोड़े को त काल
रोक लया। अ य सै नक ने भी घोड़े रोक लए।
हार खाए चार सै नक म से दो सै नक मृत हो गए। वृ से टकराकर उनक
खोप ड़याँ फट गई थ । अ य दो क भी फट थी, कतु जी वत थे।
भागते रथ और सै नक दल के बीच तना अभी भी झूल रहा था। चार-पाँच दोलन के
प ात् बीच म थर हो गया।
थांबा स हत शेष सोलह सै नक का र ोध से खौल उठा। इस खोजी-दल म
सभी राजक य सै नक थे। यु म पूण श त और ऊँचे दं भ वाले। एक सै नक ने आगे
बढ़कर तने को लटकाने वाली र सी काट द । तना गरकर भू म पर लुढ़क गया। खोजी-
दल पुनः पीछा करने लगा।
थांबा सतक था, कतु अ य सै नक ोध म अपश द बके जा रहे थे। क रया के रथ
और खोजी-दल के बीच क री बढ़ गई थी। सै नक ने घोड़ को ऐड़ लगा-लगाकर पूरी
ग त पर प ँचा दया। कुछ दे र बाद क रया के रथ क ग त पुनः कम होने लगी। इस बार
सै नक ने भी ग त कम कर द और सतकता से आस-पास के वृ पर दौड़ाने लगे।
क रया ने पुनः एक वृ पर कु हाड़ी फक कर मारी। र सी बँधे दो भारी प थर बा और
दा ओर के वृ से गरे। प थर और र सयाँ हरे रंग म पुती थ । सै नक ने त काल घोड़े
रोक लए। क रया ने भी रथ क ग त मंद कर द ।
दो प थर गरने के अ त र कह कोई प रवतन नह आ। क रया ने रथ पूरी तरह
रोक लया और पीछे मुड़कर इधर-उधर के वृ को दे खने लगा, जैस,े ढूँ ढ़ रहा हो क
जाल खुला य नह ।
उसक हड़बड़ाहट दे खकर एक सै नक ने च लाकर ंग कसा— “ या आ?
जाल बाँधने म कोई ु ट रह गई…हा!…हा!…हा!…”
क रया ने त काल रथ हाँक दया। रथ को ग त पकड़ने म समय लगता। सै नक के
लए यही अवसर था। अपने-अपने घोड़ को जोरदार ऐड़ लगाई और ंकार भरते ए रथ
क ओर दौड़ पड़े। कइय ने भाले भी तान लए। थांबा सबसे पीछे रह गया।
उसने भी जोरदार ऐड़ लगाई और घोड़े को दौड़ा दया, पर दस पग बढ़ते ही, जैसे
ही उसके घोड़े ने ग त पाई, आँख व मय से फट ग ।
आगे जा रहे सै नक न जाने कैसे खंड-खंड कटकर गरने लगे। उनके घोड़े तक कट
गए। पीछे वाले सै नक ने अपने घोड़ को रोकने का यास कया, कतु दे र हो चुक थी।
वे भी घोड़े स हत ै तज से खंड-खंड हो गए।
थांबा ने व गा ख चने म सारी श लगा द । घोड़े का मुँह खचकर पीछे मुड़ गया
और लड़खड़ाकर थांबा स हत गरा। फर चार पग तक घसटता चला गया।
कुछ भान होने से पूव ही सारे सै नक तीन ण म कटकर गर गए और भू म ऐसे
लाल ई, मानो र से भरा अ त वशाल गु बारा फटा हो।
र से सनी भू म पर असहाय से पड़े थांबा को हवा म अ यंत महीन लाल रेखाएँ
दखाई पड़ । छोट -बड़ी र रेखाएँ एक- सरे से बारह अंगुल क री पर थ । ब त
अ धक क त करने पर दो वृ के बीच पारदश महीन धागे खचे ए दखे।
उधर क रया का रथ र होता चला गया।
मुं ा का ठग

मुं ा क राजधानी से बीस कोस र एक बड़ा नगर था। व -प रधान तथा का -सामान
के ापार के लए स इस नगर म जंबू प के व भ रा य से आए ापा रय का
जमावड़ा लगा रहता था। कतु यु क आशंका को दे खते ए अथला क भाँ त यहाँ भी
य- व य मंदा हो गया था। बाहरी य क सं या भी कम दख रही थी।
यौधेय से मलने के पाँच दन प ात् रक यहाँ प ँचा था। दोपहर क दो घड़ी बीत
चुक थी। वह कान पर घूम-घूमकर का - श पय के वषय म पूछ रहा था। नगर के
जस उ री े म वह अभी उप थत था, वहाँ क अ धकांश कान अमाव या के
कारण बंद थ । कुछ ने उसे द णी भाग जाने क सलाह द ।
इधर-उधर दे खते ए वह द णी े जाने लगा, तभी एक ने पीछे से
पुकारा।
“ ीमान्!”
रक ठहरकर पीछे मुड़ा। पुकारने वाला अपने व -अलंकार से ापारी जान पड़ा।
अपनी पगड़ी ठ क करते ए वह रक के समीप प ँचा।
“ ीमान्! आप का श पी ढूँ ढ़ रहे ह?”
“हाँ! या तुम हो?”
“नह ीमान्! मेरे भाई-बंधु यह काय करते ह। लोग ने आपको द ण जाने का
सुझाव दया है, कतु वहाँ भी कान बंद ह। य द आपको अ त आव यक है, तो म अपने
बंधु का घर दखा सकता ँ। आप वहाँ चलकर य- व य कर सकते ह,” ापारी ने
पूण वन ता से बताया।
“ठ क है, ले चलो।” रक ने आभार करना नह सीखा था।
ापारी ने एक बार पुनः अपनी चोर रक के हाथ-पैर के वण-कुंडल पर
डाली। उसक आँख म एक चमक थी। रक को माग दखाते ए वह नगर के बाहर ले
जाने लगा। बीच-बीच म कुछ वातालाप भी कर रहा था।
“ ीमान् कह बाहर के जान पड़ते ह।”
“हाँ! र से आया ँ।”
“ कसी अ य काय से यहाँ आए ह? अथवा मा का साम ी के लए?”
“सुना था, मुं ा और काजी दे श म का - श पय क भरमार है। काजी दे श र
है, अतः मुं ा चला आया।”
“सुना तो ीमान् ने ठ क है, कतु यु के ास से अ धकांश असुर का - श पी
मुं ा छोड़कर अपने दे श लौट गए।”
“इसी नगर से पलायन आ है या पूरे मुं ा से?”
“ आ तो सभी नगर से है, कतु कुछ-न-कुछ बचे ही रहते ह। द ण म मका नाम
का एक गाँव है, जसके आस-पास का ब त बड़ा भाग, कुछ वष पूव स ाट ने पूण प
से असुर को स प दया था। वहाँ असुर क सं या खूब है और वहाँ का येक असुर
का - श पी है।”
“यह मका गाँव कतनी र है?”
“कभी गया नह । सुना है, घोड़ से पाँच-छह दन म प ँचा जा सकता है। कतु
ीमान् को उतनी र जाने क आव यकता नह पड़ेगी। आपका काय यह मेरे बंधु कर
दगे।”
ापारी बातूनी था। बात करते-करते नगर से र व य छोर तक ले गया। आगे वृ
के बीच कुछ झोपड़े दख रहे थे। वहाँ प ँचने पर झोपड़े के बाहर एक साथ बैठे ए दस-
बारह सै नक मले।
ापारी रक क ओर थोड़ा झुककर धीरे से बोला।
“ ीमान्! अपना ापार-प नका लए।”
“ ापार-प …?” रक ने आ य दखाया।
“आप यह ठह रए ीमान्!” कहकर ापारी सै नक के पास गया और अ यंत
मंद वर म कुछ बात क ।
घनी मूँछ वाला एक सै नक उठा और पूरे रौब म आदे श दया, “अपना ापार-प
तुत करो।”
रक खीझ गया। च लाकर पूछा, “कैसा ापार-प ?” फर ापारी को घूरा।
ापारी दौड़कर रक के पास प ँचा। समझाते ए बोला, “ ीमान्! रा य म आने
वाले येक वदे शी ापारी को सीमा- वेश के समय अ धकारी ारा ापार-प दान
कया जाता है। उसके बना वदे शी ापारी के लए रा य म ापार करना संभव नह ।”
“मेरे पास ऐसा कोई प नह ।” रक ने लापरवाह ढं ग से कहा।
“तुम अव य ही घुसपै ठए होगे।” मूँछ वाला सै नक च लाया और अपने सा थय
को संकेत कया।
अ य सै नक ने रक के चार ओर घेरा बना लया।
रक ने ापारी क ओर आँख तरेरी, “तुम मुझे अपने का - श पी बंधु के पास
ले जा रहे थे। यही तु हारे बंधु ह?”
“नह ीमान्! ापारी पुनः धीमे वर म बोला, “मेरे बंधु का गाँव तो आगे है। ये
नगर के राजक य सै नक ह। दै नक चौकसी के लए इधर आए ह गे। आप त नक
ठह रए। म कुछ थ त संभालता ँ।”
ापारी सै नक के पास पुनः गया और खुसर-फुसर करने लगा। उनक खुसर-कुसर
से रक को चढ़न होने लगी।
कुछ दे र म वह लौटा और रक के कान के पास धीरे से बताया, “ ीमान्! बड़ा ढ ठ
और लोभी सै नक है। कह रहा है, आपके हाथ-पैर के वण कुंडल चा हए, अ यथा
घुसपै ठए का आरोप लगाकर कारागार म डाल दे गा।”
रक क भौह पूरी तरह व । बोला, “पूरा जंबू प चोर और द यु से भरा
आ है।” इस बार रक ने जस से ापारी को दे खा था, वह अंदर तक सहम गया।
“कारागार म जाकर ही इस घुसपै ठए क हेकड़ी नकलेगी,” सै नक ने पुनः रौब
दखाने का यास कया। रक ने उसक ओर मोड़ी। उस पर भी ापारी जैसा भाव
पड़ा। ने म ू रता का यह भाव उस सै नक ने पहले कभी नह दे खा था।
वृ क प याँ खड़खड़ा उठ । घास-फूस, धूल, तनके सब उड़ने लगे। लगा छोटा-
सा बवंडर उ प हो गया।
रक का शरीर आगे क ओर थोड़ा तरछा आ। पैर के नीचे ह के व फोट क
व न ई और अगले ही पल दस पग र खड़े रौब वाले सै नक के ठ क सामने कट
आ। दोन के मुख के बीच मा आठ अंगुल क री थी। सै नक क आँख व मय और
भय से फट ग । शरीर म झुरझुरी दौड़ गई। दन के उजाले म अंधकार लगने लगा। ण
भर के लए लगा, समय ठहर गया। फर पेट म ती पीड़ा उठ । सर झुकाकर नीचे दे खा,
तो घुसपै ठए क हथेली कटार क भाँ त उसके पेट म घुसी ई थी।
रक ने पेट चीरते ए बा ओर से हथेली नकाल ली। सै नक पीठ के बल गरा।
ापारी स हत घेरा बनाए सै नक को जैसे प ाघात हो गया। भय से शरीर जहाँ
खड़ा था, वह जड़ हो गया।
धूल भरे वातावरण म रक के पैर के नीचे कई बार ह के धमाके ए। येक धमाके
के बाद एक शरीर गरता।
अं तम सै नक का पेट चीरकर रक धीरे-धीरे चलता आ ापारी के पास प ँचा।
ापारी का शरीर भयंकर प से काँप रहा था। रक के प ँचते ही लड़खड़ाकर गर
पड़ा। उठा नह । गरे ए ही घसट- घसटकर पीछे हटने का यास करने लगा।
“यह सारी योजना तु हारी थी?” रक ने पूछा। रक का वर शांत था, कतु ने म
वही हसकता बनी ई थी।
ठग ापारी के काँपते ह ठ से वर फूटना असंभव था। उसक फट नरंतर
रक क र -रं जत हथेली पर टक ई थी।
ठग ने दे खा, मृ यु बैठ रही है और वह लाल हथेली उसके दय का चुंबन करने आ
रही है। लाल हथेली चुंबन कर दय म ही समाती चली गई। पीड़ा का असहनीय वार
उठा। खुले ने के आगे अंधकार क स ा छा गई।
का - श पी बदा

पीठ पर सामान लादे रक मुं ा के एक बड़े नगर के बाहर प ँचा। अब तक पाँच नगर म
ठहरता आ यहाँ प ँचा था।
पीठ पर लदे सामान को दे खकर तीत होता था— लक ड़य के गट् ठर को कपड़े से
लपेटकर बाँधा गया हो।
वह एक क ची सड़क पर न तता के साथ चलता आ जा रहा था। यह क चा
माग जहाँ समा त आ वहाँ बीस-प चीस फूस क छत वाले घर थे। सभी घर आगे-पीछे ,
एक- सरे से अ नय मत री पर टे ढ़े-मेढ़े बसे ए थे। सबसे पहले पड़ने वाले घर के बाहर
एक ी बैठकर सरकंड से ड लया बना रही थी। रक ने उससे पूछा, “ बदा यह रहता
है?”
ी ने सर उठाकर दे खा। थोड़ा च क । कसी वदे शी को इस थान पर पहली बार
दे खा था। सोचा— ापारी होगा। कतु यहाँ या कर रहा है?…और इसका गंजा सर
कतना चमक रहा है!
ी कुछ बोली नह , बस ठु ड्डी से एक घर क ओर संकेत कया। जधर संकेत
कया था, उधर तीन घर थे। रक समझा नह । फर एक घर के ार पर लक ड़य का
कटा-छँ टा ढे र दखा। अब पूछने क आव यकता नह थी। उस घर क ओर चला गया।
ार पर खड़े होकर पुकारा— “ बदा!”
अंदर से ऊँ-आँ सुनाई पड़ा। लगा कोई पहरी क न द ले रहा है। इस बार रक ने
जोर से पुकारा। कुछ दे र म पतीस-चालीस वष य एक अधनंगा आँख मलता आ बाहर
नकला।
रक को दे खकर कुछ वशेष त या नह क । वह नगर म आता-जाता रहता था।
ऐसे कई वदे शी ापा रय को दे ख चुका था।
“काठ का कुछ काय करवाना है,” रक बोला।
“अं?…पहले ही ब त काय पड़ा है, पू णमा के बाद आना।” कहकर बदा घर म
वापस जाने को आ।
“ठहरो!” रक ने आदे शा मक वर म रोका। फर अपनी कमर-प ट् टका से वण के
कुछ टु कड़े नकालकर दखाए।
बदा के ने म चमक दौड़ गई। इतने वण से वष भर काय करने क आव यकता
नह पड़ेगी। नगर-नगर घूमो और म दरा पीकर पड़े रहो।
अपना उतावलापन दबाकर बोला, “काय तो ब त है मेरे पास… कतु सहायता के
लए कर रहा … ँ अंदर आओ।”
दोन घर के अंदर गए। अंदर क म, येक कोने पर लकड़ी क खुरचन का ढे र
लगा आ था।
“अ धकाँश काय अंदर ही करता ँ। थान कम पड़ता था, अतः खाट हटा द । भू म
पर ही बैठना पड़ेगा,” कहकर बदा सरे क म चला गया।
रक ने अपनी पीठ पर लदा सामान उतारा और भू म पर पालथी मारकर बैठ गया।
बदा अंदर से, मट् ट के एक लोटे म खाँड़ का मीठा रस ले आया। रक के सामने
रखा और वयं भी भू म पर बैठ गया। फर पूछा, “ या बनवाना है?”
रक ने कपड़ के कुछ टु कड़े नकाले। सभी टु कड़ को फैलाया। सभी म कल-पुज
के भ - भ च बने ए थे। दो च छाँटकर अलग कया और शेष लपेटकर अपने
पास रख लया। छाँटे ए दोन च बदा को पकड़ाया।
बदा ने यान से आँख गड़ाकर दे खा। छोट -बड़ी घर नयाँ एवं टे ढ़ -मेढ़ आकृ तयाँ
थ । आकार क माप भी लखी ई थी।
बदा ने च से हटाई और रक क ओर दे खते ए कया, “यं कार हो?”
रक ने बना सोचे-समझे हामी म सर हलाया।
“ कस यं के पुज ह?” बदा ने पुनः कया।
रक ने एक ण सोचा, फर जो मुँह म आया, बोल दया, “रथ का।”
“रथ का?” बदा को आ य आ। ऐसा कौन-सा रथ है, जसम इतने छोटे पुज
लगते ह। कतु पूछा नह । आँख म मलने वाले वण क चमक च ध रही थी।
“सू म और क ठन काय है,” बदा बुदबुदाया।
“नगर म मने पूछा था। सू म काय के लए सभी ने तु हारा ही नाम सुझाया,” रक ने
अपने भावहीन मुख से थोड़ी शंसा फक ।
बदा त काल फूल गया। गव से बोला, “मेरे अ त र यहाँ कर ही कौन सकता है!
दो वष पहले तक म भी नगर म ही रहता था, कतु मेरी ी इतना लेश करती थी, क
सब छोड़कर यहाँ आ गया। पर मेरे काय को लोग आज भी पूछते ह। मेरी सू मता क
बराबरी असुर का े श पी भी नह कर सकता। तीन दन म पूण करके दे ँ गा।”
“तुम बनाओ, म यह ठह ँ गा,” रक बोला।
बदा च का, “यहाँ कहाँ?…इसी घर म?”
“हाँ!”
बदा दो ण चुप रहा। फर सामा य ढं ग से बोला, “हाँ! हाँ! पूरा घर खाली पड़ा
रहता है। नःसंकोच ठहर सकते हो, कतु भोजन क व था वयं करनी पड़ेगी। म
म दरा और थोड़े-ब त फल से ही पेट भर लेता …
ँ और अभी तो म दरा भी समा त हो
रही है।”
“उसक चता मुझ पर छोड़ो, तुम काय पर यान लगाओ,” रक बोला।

अगले दो दन तक बदा मन लगाकर काय म जुटा रहा। रक दन-भर घर के बाहर


समीपवत वन म घुसा रहता और अँधेरा होने पर एक-दो खरहा मारकर ले आता।
बदा के लए तो उ सव-भोज हो जाता था। म दरा के साथ माँसाहार कए उसे छः
माह बीत गया था। वह स होकर काय म अ त र यान लगाने लगा।
आज तीसरा दन था। सं या को रक पुनः एक खरहे के साथ लौटा। क म जल रहे
बारह द पक सू म काय के लए पया त काश क पू त कर रहे थे।
बदा को आ य हो रहा था क इस कार के घुमावदार और एक- सरे म फँसने
वाले पुज कस यं म लगते ह गे। क पना क — जस भी यं म लगते ह गे, ब त उ त
ह गे। यह यं कार ब त उ च ान वाला होगा। जाने कस दे श से आया है! हमारी भाषा
प बोलता है। जंबू प के आस-पास का ही होगा। य द यह मुझे अपना श य बना ले,
तो रा य म ब त स ा त कर लूँगा।
इतना सोचा था क आल य सामने आ गया। पुनः सोचा— यह यं कार ब त खा
है। य द श य बन भी गया, तो इसका ठं डा वभाव झेलूँगा कैसे? फर श य बनकर
प र म भी ब त करना पड़ेगा। अपने दे श से घूमता-टहलता यहाँ तक आया है, तो संभव
है क आगे भी या ा ही करेगा। या ा का संकट और क मुझसे नह सहन होगा।…यह
ठ क ँ। जब यह वण दे गा, सीधे प रवार के पास जाऊँगा और अपनी ी के सामने
फक ँ गा। धन के लए कतना लेश करती थी! उसका भी मुँह बंद हो जाएगा। फर
वह ब च के साथ पूरा वष आनंद से तीत क ँ गा…
रक के अ भ ायपूण खाँसने से उसका व लोक टू टा। बदा च म पुनः झाँकने
लगा। इन तीन दन म सारे पुज क माप और सू म कटाव, सब-कुछ उसे रट गया था।
अभी थोड़ा काय बचा था, परंतु माँस दे खकर मुँह से लार टपकने लगी। काय
छोड़कर माँस पकाने म जुट गया। मन म न य कया— आज म दरा नह पएगा। आधी
रात तक काय करके ही सोएगा और कल जब यं कार जाएगा, तो उसे उपहार म एक
सुंदर लाठ दे गा। ातः शी उठकर दो घड़ी म लाठ पर ऐसी कलाकृ त उकेरेगा क
दे खने वाला भी इसके का - श पी के वषय म पूछेगा।… बना कहे यह यं कार वयं ही
उसके लए प र म से शकार करके लाता है। इतने दन प ात् उसक ज ा को कुछ
अ छा वाद मला। वह ऐसा भी कृत न नह क भलाई के बदले म थोड़ी-सी भलाई न
कर सके। वैसे भी एक अ न मत लाठ तो पड़ी ही है। ातः उसे ही पूरा करके दे दे गा।
बदा भोजन पकाने म लगा था और रक अब तक बन चुके पुज का च से मलान
करने म। बदा ने संतु दायक काय कया था।
भोजन पकने के प ात् दोन ने खाया। खाते समय बदा क रह-रहकर रक के
गंजे सर क ओर चली जाती। इतना चकना और चमकदार सर उसने पहले कभी नह
दे खा था।
खाकर बदा पुनः अपने काय पर लग गया। घसाई कर पुज के कटाव को चकना
बनाना था। रक बैठा चुपचाप दे खता रहा।
अ रा से थोड़ा पहले काय पूण हो गया। बदा ने गव से सारे पुज रक को स प
दए। रक ने घुमा- फराकर अ छे से सभी पुज को दे खा और च से मलान कया।
त प ात् अपना लक ड़य का गट् ठर खोला। ऐसे ही कई काठ के पुज और छोट -
बड़ी खप चयाँ गट् ठर म थ ।
“इ ह कसने बनाया?” बदा ने अचरज से पूछा।
“उ र के नगर म बनवाया था,” रक बोला।
बदा सोचने लगा। कुछ दे र बाद बोला, “ या और भी बनवाना है?”
“हाँ!”
“लाओ, म ही बना ँ ।”
रक ने उ र नह दया। नये बने पुज को गट् ठर म बाँधने लगा।
गट् ठर लंबाई म बँधा था। पूरे सामान को अ छ कार कपड़े से लपेटकर रक ने
पीठ पीछे लटका लया।
बदा च का, “अभी थान करोगे?”
“हाँ!” रक अपनी धोती कसते ए बोला।
“अ रा म?…कल ातः जाना। रा म व य पशु का घोर संकट रहता है। यहाँ
लकड़ब घे भी रा म सह क भाँ त घूमते ह।”
“शी ता म ँ। तुम उ का लेकर चलो और मुझे नहर तक छोड़ दो।”
“नहर के आगे कैसे जाओगे? अँधेरे म, अकेले ही?” बदा थोड़ा होते ए
बोला।
यु र म रक ने व च से बदा को दे खा। बदा सहम गया।
“शी ता करो,” आदे शा मक वर म कहकर रक घर के बाहर नकल गया।
बदा को खीज आई। यह पर वण दे दे ता, तो नहर तक कदा प नह जाता। रक से
अ धक उसे अपनी चता हो रही थी। जाते समय तो यं कार साथ रहेगा, कतु लौटते
समय अकेले ही लौटना पड़ेगा।
वयं म भुनभुनाते ए बदा एक उ का जलाकर घर से बाहर नकला। रक ती ा
म था।
दोन नहर क ओर चले। हवा तेज थी। उ का क लौ फड़फड़ाने लगी। अ चं का
आकाशीय काश माग दे खने म सहायता कर रहा था। बीच माग म सयार क ँआ-
ँआ सुनाई पड़ी। बदा अंदर से भयभीत हो गया। वयं से बड़बड़ाया— य द नहर के
पार अकेले ही जा सकता है, तो यहाँ तक भी आ सकता था। मुझे साथ लाने क या
आव यकता!”
बदा यह सब बोलना चाहता था, कतु रक के ठं डे और खे वभाव के कारण कुछ
बोला नह । सोचा— चुपचाप अपना वण लेकर लौट जाऊँगा।
आध घड़ी क पदया ा के प ात् नहर द खने लगी। सयार क ँआ- ँआ तेज
और समीप से आती तीत हो रही थी।
रक क गया। पूछा, “ मका कतने कोस है?”
“चालीस-पचास कोस होगा,” बदा बोला।
रक ने कमर-प ट् टका से वण-टु कड़े नकालकर बदा को थमाया और बना कुछ
बोले नहर क ओर बढ़ गया।
वण ा त होते ही बदा भी अ वलंब मुड़ा। हथे लय पर पड़े वण-टु कड़ पर
जम गई। उ का के काश म वण का पीलापन और भी बढ़ गया था। मन म उ लास
जागा और मुख पर मु कान।
उन वण-टु कड़ को बड़ी दे र तक दे खता रहा। इतना यानम न हो गया क सयार
क ँआ- ँआ भी सुनाई पड़ना बंद हो गई।
कुछ दे र तक ऐसा ही खड़ा रहा। फर एक ह के धमाके क व न से यान टू टा।
इधर-उधर दे खकर सुनने-समझने का यास कर रहा था क लगा कोई पीछे खड़ा है। भय
सनसनी क तरह शरीर म दौड़ी। र या-र या खड़ा हो गया। गरदन मोड़ने ही वाला था क
पीठ पर ती पीड़ा ई। भान आ— कुछ घ प दया गया है।
बाएँ हाथ से उ का छू टकर गर पड़ी। पर वण दा मुट्ठ म कस गया। तभी दाएँ
कान के पास एक परछा कट ई। फर रक का ठं डा वर सुनाई पड़ा, “यह गत
नह है। गोपनीयता के लए आव यक था।” कहकर परछा ने अपनी हथेली बदा क
पीठ से बाहर नकाल ली।
बदा जैसा था, वैसा ही जड़ हो गया। मन म घोर ःख उ प आ। प रवार और
अपनी ी को दे खने क ती अ भलाषा जागी। आँख से आँसू बह नकले।
कुछ पल जड़ समान खड़ा रहने के प ात् शरीर मुँह के बल गरा। वण मुट्ठ म
कसा रहा।
पीठ से भारी मा ा म र नकल रहा था। तेज हवा ने ताजे र क गंध र तक
प ँचा द । कुछ दे र म एक लकड़ब घा आया और बदा के शव को ख च ले गया।
मुं ा का राजकुमार

मुं ा का यह वन व भ कार के पशु-प य से भरा आ था। हा थय क चघाड़


ब धा सुनाई पड़ जाती थ ।
इसी वन के द णी छोर पर एक चौड़ी नद बहती थी। नद के कनारे वाले वृ पर
बया प ी के लटकते ए सैकड़ घोसले थे। इन वृ पं य के पीछे आम, बबूल,
पाकड़, नीम, इमली और म ए स हत असं य जा त के वृ एवं वन प तय का फैलाव
था।
इ ह म से एक आम वृ क मोट डाल पर सर के पीछे दोन हाथ बाँधे एक
सुदशन नवयुवक लेटा आ था। गौर वण, लंबा चेहरा, पु ठोड़ी, गहरी आँख, घुँघराले
बाल और लंबा शरीर, ऐसा कुछ उस युवक क आकृ त थी।
मुख पर सौ यता धारण कए और आँख मूँदे वह प य क चहक तथा शीतल
पवन के पश का आनंद ले रहा था।
कसी वृ क डाल पर इस कार न त लेटना उस युवक के अ यास को बताता
था। सर के पीछे तने से टकाकर उसका धनुष और तीर से भरा तूरीण भी रखा आ
था। आँख मूँदे वह कोई गीत गुनगुना रहा था।
अभी-अभी लंबी पूँछ वाली एक काली च ड़या उसके ऊपर से चीखते ए उड़ी।
युवक आँख खोले बना धीरे से बोला— “हाँ! हाँ! च ड़या रानी तुम न त रहो। म
तु हारे अंडे नह छु ऊँगा।”
च ड़या उसक बात अनसुना कर उड़ते ए एक नीम वृ पर जाकर बैठ गई।
युवक ने कोई नया गीत गुनगुनाने क सोची। एक गीत त काल ही उसके मन म आया,
कतु पूरा नह आता था। फर भी गुनगुनाने लगा। यह युवक मुं ा का राजकुमार य था।
गीत क तीन-चार पं य तक ही प ँच पाया था क छपाके क व न ई। लगा,
कोई नद म कूदा। कोई पशु होगा, यह मानकर उसने नद क ओर दे खने क चे ा नह
क । वह गीत म मगन रहा। कुछ दे र बाद पुनः छपाका आ और खल खलाहट के साथ
कोबू…कोबू का मंद वर सुनाई पड़ा।
“कोबू?” य को कौतूहल आ। उठकर बैठा। दे खा, नद म एक भूरा कु ा है और
उसके पीछे कोई मनु य जल म डू ब और उतरा रहा है। थोड़ी और गड़ाने पर ात
आ क कोई ब चा है। डू बने-उतराने क या कुछ ही ण चली होगी क ब चे ने कु े
क पूँछ पकड़ ली। कु ा जीभ नकाले तैरता आ इस पार आ रहा था और ब चा भी
उसक पूँछ पकड़े खल खलाकर हँस रहा था। खल खलाते ए वह कोबू…कोबू…कह
रहा था।
य ने अपना तूरीण कंधे पर टाँगा और धनुष लेकर वृ से उतर गया। वह नद तट
के समीप प ँचकर, एक वृ क आड़ से उन दोन के या-कलाप दे खने लगा।
कु ा नद के बीच प ँचकर गोल-गोल च कर काट रहा था और ब चा खल खलाते
ए कोबू…कोबू क रट लगाए ए था। तीन-चार गोल च कर काटकर कु ा नद के इस
पार आने लगा।
पार आकर ब चे ने पूँछ छोड़ द और पीठ के बल लेटकर साँस बाँधने लगा। कु ा
भी कुछ ण बैठा रहा, फर पूँछ हलाता आ ब चे का मुँह चाटने लगा। कु ा आकार म
बड़ा और झ बेदार था। कु े के चाटने से ब चा और खल खला उठा। वह उसे पकड़कर
गराने का यास करने लगा। कु ा भी उसके साथ खेल रहा था। कु े ने पकड़ छु ड़ाई
और तट क ह क चढ़ाई चढ़ते ए वृ क ओर चला गया। ब चा भी उठकर वृ क
ओर दौड़ा। न हे-न हे पाँव तट क चढ़ाई पर हाँफ गए। हाथ-पैर दोन का योग कर
कसी कार ऊपर चढ़कर सबसे पहले पड़ने वाले एक पीपल वृ के तने से टककर बैठ
गया और सु ताने लगा।
कु ा ब चे के बा ओर आठ-दस वृ र अपनी वृ के अनुसार धरती सूँघ-
सूँघकर खाने क कोई व तु ढूँ ढ़ रहा था।
दा ओर पाँच वृ र छपे य को वनोद सूझा। वह ओट से बाहर नकला और
पदचाप कए बना धीरे-धीरे ब चे के समीप प ँचा। ब चे को त नक भी भान नह आ।
वह कु े क ओर दे ख रहा था।
य ने एक झटके से अपना मुँह ब चे के मुँह के ठ क सामने कर दया और आँख
बड़ी करके च काते ए बोला— “हो…”
ब चा एकदम से डर गया। एक ण तो स ाटे म रहा, फर धीरे-धीरे रोना ारंभ
कर दया। ब चा चार या पाँच वष का गोल-मटोल शरीर वाला था। व के नाम पर कमर
से कसकर बँधा एक छोटा मृग चम लटक रहा था।
य सीधा खड़ा आ और उसे नेह क से दे खकर मु कुराने लगा।
कु े ने रोने क आवाज सुनी, तो भ कते ए दौड़ पड़ा। वह य के समीप प ँचकर
एक न त री से ललकारने लगा। य ने कु े को हथेली दखाकर कहा, “शांत हो
जाओ म ! या म थोड़ा खेल भी नह सकता!”
कु ा अ भा वत रहा। दम लगाकर भ क रहा था और ब चा भी दम लगाकर रो रहा
था। मोटे -मोटे आंसू उसके फूले गाल पर लुढ़क रहे थे।
य ने एक ठं डी साँस छोड़ी। झुककर अँगु लय से उसके मोटे गाल को थोड़ा
दबाया। पुचकारकर बोला, “कोबू! कोबू!”
ब चा शांत हो गया। अ ुपात बंद। य को टु कुर-टु कुर दे खने लगा। य ने उसका
गाल छोड़ दया। ब चे को चुप दे खकर कु ा भी थोड़ा नरम पड़ा। कुछ ण तक शांत
रहने के बाद ब चा पुनः आँसा होने लगा। ऊँआ…ऊँआ करने ही वाला था क य ने
अपने दाएँ हाथ को झटककर सीधा कया। कुछ नह आ।
बारा झटका। पुनः कुछ नह आ।
“अ यास तो अ छे से कया था…” य वयं से बुदबुदाया।
उसने तीसरा झटका दया। इस बार हथेली पर कनेर का पीला पु प कट आ। यह
करामात दे खकर ब चे को अ छा लगा। य ने वह पु प ब चे के दाएँ कान के ऊपर लगा
दया। एक और झटका दे कर पुनः पु प कट कया और इसे ब चे के सरे कान के ऊपर
लगा दया। ब चा खल खला उठा। ताली बजाकर कोबू…कोबू कहने लगा।
“कौन है कोबू? छोटे वीर!” य ने थोड़ा पुचकार कर पूछा।
ब चे ने कु े क ओर उँगली दखाकर कहा— “कोबू!”
य हँसा। “तो ये ह ीमान् कोबू!”
य ने अपनी कमर प ट् टका म टटोलकर कुछ जंगली बेर नकाल । उनम से पूरी
तरह पक बेर को कुचलकर उनका बीज नकाला और बचा आ गूदा ब चे के सामने
हथेली पर रखा। ब चे ने उठाने म दे र नह क । झट से खा गया। फर आशावान् से
य को दे खने लगा।
“तो हमारा छोटा वीर भूखा है!” कहकर य ने ब चे को उठाकर दोन कंधो पर
बठा लया।
कु ा थोड़ा भ का, पर ब चे को स दे खकर चुप हो गया। बस ज ा नकालकर
पूँछ हलाता रहा।
“दे खते ह, इस वन म हमारे वीर के लए या- या है।”
य ब चे को लेकर वन म घुस गया। कोबू सूँघते ए पीछे -पीछे आ रहा था। य
इधर-उधर फल के वृ को ढूँ ढ़ता रहा। अ धकाँश फल अभी क चे थे। अंत म जंगली
बेर ही पक ई मल ।
ब चे को भू म पर बठाकर य ने कुछ पक बेर तोड़ी और उनका बीज हटाकर
ब चे को खलाया। तब तक कोबू ने भी एक मरा आ प ी ढूँ ढ़ नकाला। उसका भी
भोजन हो गया।
बेर खलाने के प ात् य ने ब चे को पुनः कंधे पर बठाया और नद क ओर चल
दया। ब चा ब त स था। य के घुँघराले केश को नोचकर खेल रहा था। य उसे
बचपन का एक गीत सुनाने लगा —
“ च ड़या रानी उड़ती जाओ,
खुले गगन म फरती जाओ।
च ड़या रानी बरखा बुलाओ,
घर आकर जलपान कराओ।
च ड़या रानी उड़ती जाओ,
फल क गठरी लेती जाओ,
मीठे -मीठे बेर खलाओ,…।”
ब चे को गीत अ छा लगा। अपनी तोतली आवाज म दोहराने का यास कया।
“ च लया लानी उलती दाओ…., खुले गुगू म फलती दाओ…”
य हँसा, “हा!हा!हा! तुम तो मुझसे भी अ छा गाते हो।”
ब चा खल खलाया और उ ल सत होकर जोर से उसके केश को ख चा।
“बस-बस छोटे वीर! तु हारे साम य का माण मल गया मुझ।े ”
ब चे से वनोद करता आ य नद तट पर वापस प ँचा। ब चे को भू म पर उतारा
और नद के पार दे खने लगा।
उस पार मका गाँव था। गाँव स हत द ण के बीस कोस तक का सारा े चार
वष पूव असुर को स प दया गया था। आधु नक श का कुछ मू य चुकाने के एवज म
इस े क माँग क गई थी। यहाँ क सुर ा, बंधन और संचालन पूरी तरह जाबाल
ापार गृह के हाथ म थी। अनुबंध-प म यह दशाया गया था क जाबाल यहाँ
योगशाला था पत कर कसी नई धातु पर शोध और खनन कर रहा है।
ारंभ म सब सामा य था, कतु वष भर बाद ही आस-पास के लोग के वलु त होने
क ढे र घटनाएँ होने लग । जब लोग ने स ा से गुहार लगाई, तब स ाट जयभ ने
खाना-पू त के लए कुछ जाँच करवाकर अपना प ला झाड़ लया।
लोग का लु त होना जारी रहा, कतु पछले आठ माह से यह घटनाएँ कुछ अ धक
बढ़ ग , तो स ाट के भाई और सलाहकार सेन जत ने यह वषय अपने हाथ म लेते ए
राजकुमार य को यहाँ का दौरा करने के लए कहा।
य का यह पाँचवाँ दौरा था। वह े के मा बाहरी भाग क ही पड़ताल कर पाता
था। जब भी आंत रक भाग म जाने का यास करता, असुर सै नक कोई-न-कोई बहाना
बताकर उसे रोक दे त।े अनाव यक संघष से बचने के लए य ने भी कभी बल का योग
नह कया।
य ने उँगली उठाकर नद पार संकेत करते ए कहा, “छोटे वीर! चलो तु हारे घर
चलते ह।”
ब चे क नद ष मुखाकृ त पर ह का ःख उभरा। य क धोती पकड़ कर धीरे से
बोला, “माई, कोबू को मालती है।”
य ने मुड़कर कोबू के शरीर को यान से नहारा। कह कसी चोट के च नह थे।
फर ब चे का गाल दबाकर पुचकारते ए कहा, “म वयं चलता ँ। फर माई कोबू को
कभी नह मारेगी।”
य ने ब चे को अपनी पीठ पर उठाया।
“कसकर पकड़ना। छोटे वीर!”
ब चा य क पीठ से चपक गया।
य नद म उतरा। पीछे -पीछे कोबू भी ज ा नकालकर जल म घुसा।
मंद बहाव वाली इस नद को तैरकर पार करने म नाममा क भी क ठनाई नह
ई। पार प ँचकर य ने ब चे को पीठ से हटाकर कंधे पर बठा लया और गीले व म
ही मका गाँव क ओर बढ़ गया।
हवा और धूप पया त थी। चौथाई घड़ी म व का अ धकांश भाग सूख गया। ब चे
को य के घुँघराले केश नोचने म कुछ अ धक आनंद आ रहा था। ब चे को स
दे खकर य ने भी पूरी छू ट दे द । कोबू भी उ ल सत होकर य के चार ओर च कर
काटने लगता।
माग पर उग आई घास और खरपतवार से अनुमान लगाना सरल था क लोग का
इस माग पर आना-जाना ब त पहले ही बंद हो चुका था। य , ब चे और कोबू के साथ
हास-प रहास अव य कर रहा था, कतु उसक सम त इं याँ आस-पास के वातावरण के
त पूरी तरह सतक थ । ह क आहट पर भी हाथ धनुष पर कस जाते।
आध घड़ी से अ धक क पैदल-या ा के प ात् गाँव के झोपड़ क झलक मलने
लगी। य ने जैसे ही ग त बढ़ाई, कोबू भ कने लगा। एक असुर सै नक झा ड़य क आड़
से नकलकर सामने खड़ा आ। कुछ अ य आहट भी । य ने इधर-उधर नह
घुमाई। आहट से ही अनुमान लगा लया क कुछ सै नक वृ पर भी उप थत ह।
धनुधारी ह गे।
य ने अपना भाव सामा य रखा। असुर सै नक य को पहचानता था। सहज
स मान दखाते ए कया— “राजकुमार! आज इधर कैसे आना आ?”
“यह ब चा भटककर नद तक प ँच गया था। संयोग से मुझे द ख गया। इसे इसके
घर तक सुर त प ँचाने आया ँ।”
“राजकुमार आप क न कर। हम इसे सुर त प ँचा दगे।” असुर बोला।
“इतनी र आया ँ, तो कुछ र और चलकर म वयं ही इसे प ँचा ँ गा, तुम माग
छोड़ो,” य थोड़ा स त आ।
सै नक के मुख पर तनाव क रेखाएँ उभर । इधर-उधर दे खा। अगल-बगल से पाँच
अ य सै नक भी आ गए। आपस म खुसर-फुसर करने लगे।
य बीच म बोला, “य द सुर ा से संबं धत कोई सम या है, तो तुम सब भी मेरे
साथ चल सकते हो, कतु इस ब चे को छोड़ने म वयं जाऊँगा।”
कोबू गुरा रहा था और ब चा कंधे पर शांत बैठा था। सै नक ने आपस म साझा
क । फर पूव सै नक बोला— “राजकुमार! हमारे वहार को अ यथा न ल। आप आगे
बढ़, म साथ चलता ँ।”
य क सामने थी, कतु कान वृ क आहट सुनने के लए खड़े थे। उसे शंका
थी क वृ पर बैठे धनुधारी कह तीर न चढ़ा रहे ह , कतु यंचा खचने क सू म
आहट उसे सुनाई नह पड़ी। वह सहज भाव से आगे बढ़ा।
सौ पग चलते ही वृ क सघनता छँ ट गई। गाँव के झोपड़े प द खने लगे। कोबू
कसी माग-दशक क भाँ त आगे-आगे चल रहा था। ब चा य के केश न चते-न चते
ऊब गया, तो कान ख चने लगा।
शी ही वे झोपड़ के समीप प ँच।े लोग घर के बाहर बैठकर काठ के सामान
बनाने म त लीन थे। कोई लकड़ी छ ल रहा था, तो कोई प थर क छे नी से काठ पर
आकृ त उकेर रहा था। य और सै नक को दे खकर उनके हाथ क गए। गाँव म य को
कोई नह पहचानता था।
पं ह-सोलह घर को पारकर कोबू एक झोपड़े के सामने ककर भ कने लगा। कु े
क आवाज सुनकर एक ी बाहर नकली।
अप र चत को सामने दे ख थोड़ा हकबकाई। ब चे पर पड़ी। दौड़कर य के
समीप गई। ब चे ने खल खलाकर बाँह फैलाई। ी ने ब चे को गोद म ले लया।
“यह भटककर नद तक प ँच गया था। ब त भूखा था। या तुम इसे भोजन नह
खलाती?” य अपना धनुष पीठ पर तरछा लटकाते ए बोला।
उ र दे ने के थान पर ी ने असुर सै नक क ओर दे खा। सै नक के हाव-भाव म
कोई प रवतन नह आ।
“ नभय रहो। म राजकुमार य ँ। अपनी सम या प बताओ,” य थ त को
भाँपता आ बोला।
“राजकुमार!” ी पीछे हट और आदर से सर झुका लया। आस-पास के घर के
लोग भी खड़े हो गए।
“भोजन खलाती ँ, राजकुमार! खेलते-खेलते थककर भूख लग गई होगी। यह र
नह जाता। न-जाने कैसे आज नद तक प ँच गया,” ी सर झुकाए ए बोली।
“माई कोबू को मालती है,” ब चा कु े क ओर संकेत कर जोर से च लाया।
“चुप,” ी ने ब चे क पीठ पर थपक मारी।
“ब चा मुझसे भी यही कह रहा था,” य ने पूछा।
“नह राजकुमार! घर म भोजन क थोड़ी कमी हो गई थी। कु े को मारा नह था,
बस भगा दया था। वन म रहेगा, तो खाने को कुछ ढूँ ढ़ ही लेगा,” ी अभी भी सर
झुकाए ए थी।
“मुं ा म वष से सूखा नह पड़ा। एकाएक भोजन क कमी कैसे हो गई?” य चार
ओर घुमाते ए बोला।
ी उ र दे ने म वच लत हो गई। कुछ बोली नह । बस सर झुकाए ब चे क पीठ
पर ह क थपक दे ती रही।
य ने पीछे खड़े असुर सै नक पर फेरी। सै नक के भाव सपाट थे। य के लए
कुछ पढ़ पाना संभव नह था।
य ने एक ठं डी साँस छोड़ी। ब चे के पास गया। उसका सर सहलाया। फर अपनी
कमर प ट् टका से दो वण मु ाएँ नकालकर ी को थमाता आ नदश दया, “कु े को
भगाना मत। कु े के पीछे -पीछे यह भी र नकल गया होगा। इस वण से पया त अ
मल जाएगा।”
ी ने कई बार सर झुकाकर हामी भरी। ब चा जद्द करके गोद से उतर गया और
कु े के साथ खेलने लगा। य ने ब चे को थोड़ा पुचकारा, फर असुर सै नक के साथ
वापस चला गया। कु ा पूँछ हलाकर पीछे से भ कता रहा।

लंबी और सुडौल अँगु लय वाले हाथ म थमी कूची, सामने च पर बड़ी सरलता
से फसल रही थी।
च एक युवती के मुख का था। बा ओर से बनाया गया था, जो आकाश क ओर
थोड़ा सर उठाकर सूय को दे ख रही थी। उसके खुले केश कसी झरने क भाँ त पीछे
लटक रहे थे। वे मा कहने के लए ही झरने समान नह थे, अ पतु कूची थामने वाले
हाथ ने वा तव म नीचे लटकते केश को जल- पात म प रव तत कर दया था। च के
केश काले नह , सफेद थे, जो नीचे गरकर धुँध म समा गए थे। उस धुँध से अ यंत छोटे
ेत कपोत का झुंड उड़ता आ बाहर आ रहा था।
“ठ क से बैठ, हल-डु ल मत। बस तेरे कान उतार लू।ँ ठु ड्डी म भी थोड़ा सुधार
करना है।” कूची से च कारी करने वाली मुं ा क राजकुमारी नमदा थी।
“गदन ःख रही, अब उठती ।ँ ”
“नह !” नमदा डाँटते ए जोर से बोली, “बैठ रह! अगली बार तुझे आसन से ही
बाँध ँ गी।”
“वाह! एक तो सहायता करो, ऊपर से धमक भी खाओ। अब तो उठ ही जाऊँगी।”
कहकर घड़ी भर से मू तवत् बैठ युवती उठने लगी।
“नह …!” नमदा दौड़कर आई। युवती को बठाते ए वनती क , “मेरी यारी
सखी, मीरा! ठहर जा। म तो प रहास कर रही थी। थोड़ा क और सहन कर ले। फर
तेरी सुंदरता इस च म अमर हो जाएगी।”
“ ँह!” मीरा ने मुँह बनाया, “चापलूसी का कोई भाव नह पड़ेगा मुझ पर। य द
मुझे स ही करना है, तो अपना कणफूल उपहार म दे दो।”
नमदा ने आँख फैलाकर मीरा को दे खा। उसक लंबी बरौ नयाँ भ ह को छू ग ।
आ य से बोली— “ ा! तेरी पहले से ही मेरे कणफूल पर थी।”
“दे रही हो? या उठकर जाऊँ?” मीरा ढठाई से बोली और सरी ओर मुँह फेर
लया।
नमदा ने मीरा के हाथ पर जोर से चकोट काट — “ठ क है, लो भनी! दे ँ गी। अब
चुपचाप बैठ जा,” कहकर नमदा च क ओर चली गई।
मीरा ने अपना हाथ रगड़ा— “ई.. कतनी नदयी हो तुम…लाल पड़ गया।”
मीरा पहले जैसी मु ा बनाकर बैठ गई। नमदा को मु ा पूरी तरह ठ क नह लगी।
थोड़ा सुधार करवाया, “मुँह त नक नीचे गराओ…और मु कराओ मत। लो भनी!
डा कनी!…अपनी ही सखी के आभूषण पर डाका डाल रही है।”
मीरा धीरे से खी! खी! करके हँसी।
इसके प ात् मीरा चुपचाप बैठ रही और नमदा बीच-बीच म कुछ-न-कुछ बोलते
ए उसका च उतारती रही।
कुछ दे र बाद ार पर कसी के कट होने क आहट ई। नमदा ने गरदन मोड़कर
दे खा और मीरा ने बस पुतली घुमाई। य था।
नमदा ने कोई त या नह द और पुनः च म लग गई। मीरा ने भी बस ह क
मु कान द ।
शांत च य धीरे-धीरे चलता आ मीरा के स मुख प ँचा। मीरा ने बना हले-डु ले
भ ह से संकेत कर पूछा।
य ने दायाँ हाथ उठाया और झटककर सीधा कया। मीरा को यह व च या
समझ नह आई। भ ह से पुनः कया।
य को वां छत सफलता नह मली थी। खाँसकर गला साफ कया, फर कंध को
थोड़ा हला-डु लाकर वही या पुनः करने के लए तुत हो गया।
हाथ उठाकर बारा झटका। हथेली पर पीला कनेर पु प कट आ। मीरा ने आँख
फैलाकर आ य कट कया। य ने पु प मीरा के बाएँ कान के ऊपर ख स दया। फर
बारा झटककर सरा पु प कट कया और उसे दाएँ कान के ऊपर लगा दया।
मीरा हली नह , कतु मु कान कान तक फैल गई।
नमदा भी यह सब दे ख रही थी। बोली, “पुनः कोई नई कलाकारी सीख कर आए
हो?”
य ने अपनी ब हन क ओर ेम से दे खा और हामी का सर हलाया।
नमदा क कूची पुनः चलने लगी। तरछ मु कान के साथ बोली, “चलो अ छा है।
यह डा कनी कणफूल माँग रही थी। अब जब तुमने ही उसे कणफूल दे दया, तो मेरा पड
छू टा।”
मीरा झट से खड़ी ई। ोध दखाते ए नमदा क ओर बढ़ , “झूठ ! अपने वचन
से पीछे हट रही है, इसने कब मुझे कणफूल दए?”
नमदा ने तापूण मु कान दखाई, “तेरे कान के ऊपर वण वण का फूल लगा है,
इसे कणफूल नह , तो और या कहगे?”
“ओहो! तो हमारी राजकुमारी जी अपनी ही सखी से श द का खेल खेलगी…।”
अब मीरा ने भी तापूण मु कान चढ़ाई, “कुछ दन ठहर, जैसे ही तेरी भाभी बनूँगी,
पछले कई वष का गन- गनकर तशोध लूँगी।”
“ओहो! महारानी जी को दे खो। अभी तक व लोक म जी रही ह। य ! कसी
दन इसे वन म ले जाकर छोड़ आ। इस वानरी को वह उ चत थान मलेगा।” नमदा
उठते ए बोली। च पूरा हो गया था।
इसके बाद दोन के बीच न क-झ क होती रही। दोन का झगड़ा य के लए नई
बात नह थी। वह यानपूवक च दे खने लगा।
तभी ार पर कसी के खाँसने क आवाज ई। मीरा क प रचा रका थी। अब तक
तीन बार बुलाने आ चुक थी।
“अभी जा रही ँ, कतु झगड़ा समा त नह आ है। लौटकर पूरा क ँ गी,” मीरा
जाते ए बोली।
“अरी वानरी! अपने कणफूल तो दे ती जा,” नमदा ने पीछे से ंग कया।
“चुप! इसे मेरे य ने दया है।” मीरा मुड़ी नह । कान से कनेर उतार कर हाथ म
रख लया और प रचा रका के साथ चली गई।
“ च सुंदर बना है।” य च पर आँख गड़ाकर शंसा मक वर म बोला।
“हाँ! मीरा का प अ तीय है। उसक पूरी सुंदरता उतार नह पाई।” कहकर
नमदा ने य का भाव जानने के लए उसक ओर दे खा।
“म मीरा क नह , च क बात कह रहा ँ।” च से हटाए बना य बोला।
“उसी का च है, तो सुंदर बनेगा ही।”
“मीरा तो सुंदरी है ही। कतु मुझे धुँध से नकलकर उड़ते ए कपोत का झुंड ब त
भा रहा है। ऐसी व छं दता, मु गगन..आ..हा! इसके अ त र च क पृ भू म पर
कुछ मेघ भी बना दो, जससे मीरा का मुख मेघ के बीच से उदय होता तीत हो। च
क भ ता बढ़ जाएगी।”
“अ छा सुझाव है। कल मीरा को पुनः बुलाकर बैठा ँ गी। फर तुम वयं ही उसके
च को भ ता दान करना। सुबह से कूची चलाते-चलाते हाथ ःख गए। अभी तो
त नक व ाम क ँ गी।”
“य द इतनी च कारी आती, तो म दन-रात वन म ही बैठकर, वहाँ का च
उतारता रहता।” य सहसा उ साही हो गया, “नमदा! या तूने नद म कल-कल बहते
जल क छोट लहर म पड़ने वाली सू म मरोड़ को दे खा है। वे ण भर म बनती ह और
अगले ही ण न हो जाती ह। कृ त नमाण और वनाश कतने सू म अंतराल पर
करती है! तीत होता है, दोन साथ-साथ चलते ह। प य के पंख का रंग-संयोजन
कतना उ कृ होता है! सब-कुछ दे खकर लगता है, जैसे यह संसार वधाता का बनाया
आ एक जी वत च हो।”
सुनकर नमदा को अ छा लगा।
“चाचा सेन जत ने अपना कला- ेमी दय तुझे भी स प दया।” कहते ए वह
पयक पर गई और कमर के पीछे त कये से टे क लेकर बैठ गई।
य भी पयक क ओर बढ़ा और नमदा क गोद म सर रखकर लेट गया।
नमदा ने नेह से य के गाल पर एक ह क चपत लगाई और हौले-हौले उसका
सर दबाने लगी।
“कल कहाँ था?” नमदा ने पूछा।
“चाचा ने द ण क ओर भेजा था, चार दन से वह था। कल रा लौटा ँ।”
“कल कुछ वशेष दन था?” नमदा ने मरण कराने का य न कया।
य सोचता रहा। नमदा सर दबाती रही। ब त दे र सोचने के बाद य को कुछ याद
आया। उठकर बैठ गया।
“सुभ ा बुआ क पु य त थ?”
“हाँ!” नमदा थोड़ी उदासी से बोली।
“तू उनका च बनाने वाली थी। बनाया?”
“हाँ! पीछे रखा है।” नमदा ने पीछे सं क क ओर संकेत कया।
य उठकर गया और सं क से च नकालकर दे खने लगा। बुआ सुभ ा कुछ-कुछ
नमदा जैसी द खती थ । य गवा के पास जाकर उजाले म अ छे से च दे खा।
“स ाट ने कोई आयोजन करवाया था?” य ने अनायास ही पूछ लया।
“नह ! उ ह तो अपनी ब हन क सुध भी नह रही होगी।” नमदा क भौह कुछ
सकुड़ ग ।
य ने एक ठं डी साँस छोड़ी। धीरे से च को समेट लया और गवा के बाहर
दे खने लगा। कुछ मरण करने का य न कया। कर नह पाया, तो पूछा, “बुआ के पु
का नाम म भूल रहा ँ, या नाम था?”
नमदा को य का इस कार नाम भूलना अ छा नह लगा। उदासी से उ र दया,
“धीरा।”
एक बड़ी चौक पर ढे र प पड़े ए थे। चौक के सामने रखे एकमा आसन पर जयभ
बैठा आ था। पछले एक घड़ी से वह इन प को यानपूवक बारा- तबारा पढ़ रहा
था। यह सभी प मुं ा ारा अ धकृत राजा के थे।
कुछ समय पूव जयभ ने सभी राजा को एक ज टल-सा प लखा था। थम
या, प पढ़ने म सामा य लगता, कतु थोड़ा यान दे ने पर श द का सही अथ
नकाला जा सकता था। प म अथला यु से संबं धत समयकाल और सहयोग क
सूचना थी। इस कार का प लखने क मंशा यह थी क प को सभी समझ लगे। कतु
जो प म ह गे, वे वा त वक अथ का सीधा उ र दगे और जो वमुख हो रहे ह गे, वे प
का अथ न समझने का ढ ग करके साधारण औपचा रक उ र दगे।
जयभ को अब तक तीन औपचा रक उ र मल चुके थे। उसने उन प को अलग
रख लया। प पढ़ते-पढ़ते जयभ क बीच-बीच म ार क ओर मुड़ जाती। उसने
वासुक को बुलावा भेजा था।
वासुक के पता व जी ने जयभ क कूटनी तक तर पर ब त सहायता क थी।
दोन के बीच घ न ता भी अ छ थी। कतु एक बात से जयभ सदै व रहता था। वह
थी व जी क त ा— जंबू प के कसी रा य के व श न उठाने क त ा।
व जी ने यह त ा य ली, यह कसी को नह ात। कतु जयभ को लगता था क
य द व जी यु म अपनी वा त वक श के साथ उतरता, तो वह वष पहले पृ वीप त
बन चुका होता। व जी के त यह रोष जयभ कभी-कभी वासुक पर उतार दे ता।
वासुक ने आने म दे र लगाई। जयभ को ोध आया, पर संयत रहा। वासुक भी
भाँप गया। जयभ के कुछ बोलने से पहले ही वयं बोला— “बाण और ढाल क नई
खेप आ गई है, स ाट! राजकुमार य ने अपनी टं कार वा हनी के लए, जन घूणन बाण
क वीकारो द थी, वे भी दस सह क सं या म आए ह। यु क रथ और सै नक
कवच का भी मू य कम कराने म, म सफल रहा..।”
वासुक ने एक ापार-प खोलकर जयभ के सामने रखा। प म नए प रव तत
मू य क व तारपूवक गणना लखी थी। सभी के मू य म पं ह से बीस ह से तक क
कटौती थी।
जयभ थोड़ा ठं डा आ। वासुक ने सरा प नकालकर तुत करना चाहा।
जयभ ने संकेत से मना कर दया। आसन पर अपनी बैठक बदलता आ बोला, “मने
तु ह व जी के वषय म बात करने के लए बुलाया है।”
वासुक को अचंभा आ। वष बाद सहसा उसके पता क बात कैसे उठ गई। पर
आ य का भाव मुख पर आने नह दया। सावधानी से बोला, “आ ा कर, स ाट!”
“एक क ठन काय स पना चाहता ँ। तु हारे अ त र कसी अ य के लए संभव
नह ।”
“आ ा कर, स ाट!” वासुक तोते क भाँ त दोहराया।
स ाट ने आँख गड़ाकर अपना मंत कट कया— “लाल-रह य को यु -भू म म
कट करो।”
सुनते ही वासुक को स ाटा मार गया। कई ण यूँ ही खड़ा रहा। फर पूण
कुशलता से भावहीन होने का अ भनय करते ए कहा, “पूण यास क ँ गा, स ाट!”
“मा यास ही करना होता, तो कसी अ य को भी भेज सकता था।”
वासुक जानता था, असंभव काय है। फर भी त काल श द-सुधार कया— “यह
काय मुझ पर छोड़ द।”
स ाट संतु नह आ। वह होता भी नह था। उसने वासुक से हटाई और
चौक पर रखे वण याले से म दरा का घूँट पया।
तभी ार पर य कट आ। स ाट ने वासुक को जाने का संकेत कया।
औपचा रक अ भवादन कर वासुक चला गया।
य के मुख पर सामा यतः एक महीन मु कान सदै व बनी रहती थी, जो दे खने वाले
के दय को शां त दान करती थी। कतु जयभ के सामने उसका मुख भावहीन होकर
सपाट हो जाता था।
आते ही बना कसी अ भवादन के एक प खोलकर जयभ के स मुख रख दया।
प दे खकर जयभ क भ ह चढ़ ग — असुर अ धकृत- े म वेश के लए
राजक य अनुम त-प था।
“स ाट के ह ता र और मुहर चा हए,” य बोला।
बोला गया वा य सामा य था। पर य के मुँह से स ाट श द सुनकर जयभ चढ़
गया। इस बार ही नह , हर बार चढ़ता था। चढ़ ई भ ह के साथ बोला, “राजसभा म
उप थत होना, तुम पाप समझते हो…इस कार के राजनै तक वषय म च कैसे जाग
गई?”
य ने एक द घ ास छोड़ी। बोला, “चाचा ने जाँच के लए भेजा था। वहाँ क जा
क म जान पड़ती है। एक बार असुर क शोधशाला तक जाकर दे खना चाहता ँ।”
“ जा का क म वयं र लूँगा। तु हारे ह त ेप क कोई आव यकता नह ,”
कहकर जयभ ने सामने रखा प हटा दया।
य क शां त अंदर से थोड़ी हल गई। अशांत वर म कहा, “ या स ाट वा तव
म वहाँ क थ त से अन भ ह…या कसी वशेष लाभ के लए आँख मूँद रहे ह?”
ऐसे धृ तापूण श द कसी और ने कहे होते, तो जयभ ने ण गँवाए बना उसक
गरदन काट द होती। कतु उसने आगे के श द को जैसे सुना ही नह । उसका म त क
‘स ाट’ श द सुनकर ही त त हो गया।
वह झटके से खड़ा आ। पीछे आसन डगमगाया। ऊँचे वर म पूरे रोष के साथ
बोला, “ पता बोलने म तु हारी ज ा चपक जाती है?”
य त नक भी उ े जत नह आ। लगा अंदर हली ई शां त अब कुछ थर हो
गई। वह कुछ बोला नह । चुपचाप खड़ा रहा।
जयभ वषय से पूरी तरह हट चुका था। ोध से छा तयाँ उठ-बैठ रही थ ।
उ माद म पुनः च लाया, “तुम दोन भाई-बहन अपना नाट् य बंद कर दो। मेरी
सहनशीलता अब और नह खचेगी।”
य अभी भी चुप रहा। पता क जलती आँख दे खने म असहज हो गया, तो
नीचे कर ली।
नीचे तो क , कतु कुछ दे खकर च क गया। जयभ क धोती थोड़ी उघड़ गई
थी। खुले ह से से पैर का कुछ भाग द ख रहा था। पैर काले चक े से भरा आ था।
तीत होता था मानो पैर पर सप क कचुली चढ़ हो।
य वच लत आ, मन म सोचा— या कोई रोग है? उठाकर पुनः पता का
मुख दे खा। जयभ का ोध उफान पर था। य ने क छोड़ दे ना ही उ चत समझा।
मुड़ा और चला गया।
स ाट ने चौक से याला उठाकर भू म पर पटक दया। क म याले क टन-
टनाहट गूँज उठ ।

पता का क छोड़कर य सीधे टं कार वा हनी क छावनी प ँचा। चक े को लेकर मन


म भाँ त-भाँ त के वचार उठ रहे थे। इस वषय म चाचा सेन जत से बात करने का
न य कया।
टं कार वा हनी के धनुधर धनुष-बाण के साथ दै नक अ यास म जुटे ए थे। य
अपने कायालय क क ओर मुड़ा, तभी एक चर सै नक घोड़ा दौड़ाते ए छावनी म
आया। उतरकर सीधे य के पास प ँचा और मका गाँव से संबं धत कुछ अशुभ सूचना
द।
य का म त क ठनका। दो दन पूव ही तो वहाँ से लौटा है। या असुर ने य
उद्दं डता दखानी ारंभ कर द ! ने के सामने ब चे और कोबू का च घूमा।
कुछ दे र मनन करता रहा। फर चर को कुछ नदश दए और वयं कायालय क
चला गया।
चौथाई घड़ी उपरांत य अकेले ही श -स जत होकर छावनी से बाहर नकला।
असुर-अ धकृत े

आकाश व छ था। सूय क करण धरती को कुछ अ धक सकने लगी थ । धरती के साथ
रक का गंजा सर भी सक रहा था। धूप से बचने के लए वह घने वन वाला माग चुनता
था। कतु अभी जहाँ उप थत था, वहाँ वृ -कुंज क सघनता कम थी।
जब चकने सर को सूय ताप वच लत करने लगा, तो कमर से लटक चमड़े क
छोट मशक उतारकर खोली और बचा आ थोड़ा जल सर पर उड़ेल लया। कुछ सुख
मला। पीठ पर सामान लटकाए वह आगे बढ़ा।
चलते ए आध घड़ी बीता था क आगे बा ओर मृग का एक झुंड दखा। जल-
ोत यह कह समीप होगा, मानकर वह मृग क ओर बढ़ा।
रक को दे खते ही मृग चौकड़ी मारकर भाग खड़े ए। वह अनुमान के आधार पर
आगे बढ़ता रहा। तभी कसी कु े के भ कने क व न सुनाई पड़ी। उसने व न- ोत क
ओर उचककर दे खा। समीप प ँचा, तो एक ब चा बेसुध-सा भू म पर पड़ा आ था। और
भूरा झ बेदार कु ा उसका मुँह चाट-चाटकर भ क रहा था।
रक को दे खकर कु ा और जोर से भ कने लगा। कु े को मह व न दे ते ए रक ब चे
के एकदम समीप प ँचा और झुककर दे खने लगा। रक को ब चे के इतना समीप दे खकर
कु ा आ ामक हो गया। गुराते ए रक पर झपटा। रक ने घूमकर आँख दखा । कु ा
अंदर से हल गया। थोड़ा पीछे हटा। गुराहट त नक कम ई, पर बनी रही।
रक ने ब चे के गाल पर थपक मारकर सुध म लाने का यास कया। तीन-चार
थपक के प ात् ब चे के मुख से अ यंत मंद वर फूटा-कोबू…माई…।
रक ने अपनी मशक टटोली, खाली थी। कु ा अभी भी भ क रहा था। रक ने उस
पर यान नह दया। अगल-बगल एक सहज दौड़ाई और उठकर आगे बढ़ गया।
अप र चत के र जाते ही कु ा पुनः ब चे के सूखे ह ठ चाटने लगा।
कुछ र चलते ही रक को कल-कल सुनाई पड़ी। आगे नद थी। नद पर गया। जल
पया और मशक पूरी भर ली। कुछ जल अपने चकने सर पर भी उछाला। फर ब चे क
ओर लौटा।
रक को वापस आता दे ख कु ा पुनः गुराया। रक ने आकर मशक से थोड़ा जल
ब चे के मुँह पर गराया और गाल पर तीन-चार थपक लगाई। ब चे ने धीरे से आँख
खोल और मशक पकड़ ली। रक ने उसके सर को सहारा दे कर, उठाकर बैठाया। ब चे
ने पाँच-छः घूँट जल पया।
पीकर ब चा रोने लगा। वलाप कया— “माई!..माई!”
रक ने यथासंभव अपने वर को मृ बनाने का यास कया और ब चे का सर
सहलाते ए पुचकारा— “माई कहाँ है? तु ह घर छोड़ ँ ?”
ब चे ने बढ़कर रक क धोती पकड़ ली। अपना सर धोती म धँसाते ए रोया—
“माई को पकल ले गये…‘माई को पकल ल गए…”
ब चे के धोती पकड़कर सर धँसाने से रक एकदम तं भत हो गया। न जाने कस
लोक म प ँच गया। आँख क सतकता श थल हो गई। भ ह भी तनावमु होने लग ।
कु े ने प रव तत होते भाव प दे खे। वह रक पर एकटक गड़ाए ए था। गुराना
बंद कर दया। कुछ दे र प ात् पुनः जोर से भ का।
रक वतमान म लौटा। नेह दखाने का पुनः यास करते ए पूछा, “माई कहाँ चली
गई?…कौन पकड़ ले गया…?”
“कालू ले गया…” ब चे ने रोते ए उ र दया।
“कालू?” रक को यान आया; ारंभ म ब चा कोबू जैसा कुछ बुदबुदाया था। ेम
से पूछा, “कोबू…?”
ब चे ने नाह म सर हलाया। आँसू बहाते ए पुनः बोला— “कालू…”
“कहाँ है कालू, मुझे ले चलो। कालू को खूब पीटूँ गा और माई को छु ड़ा लाऊँगा,”
रक बोला।
ब चे को जैसे रक क बात पर व ास हो गया। एक ओर उँगली दखाकर संकेत
कया।
रक ने ब चे को उठाकर कंध पर बैठा लया। संतुलन बनाए रखने के लए ब चे ने
सहज ही रक का सर पकड़ने का यास कया। चकना सर छोट हथेली क पकड़ म
नह आ रहा था। ब चे ने सर छोड़कर दोन कान पकड़ लए।
रक, ब चे ारा नद शत दशा म आगे बढ़ा। कु ा भी भ कना बंद कर सूँघता आ
आगे-आगे चलने लगा।
जस माग से रक बढ़ रहा था, उधर नद क कल-कल प सुनाई पड़ रही थी।
ब चा वयं से रोता और वयं ही चुप हो जाता। जब आध घड़ी से भी अ धक हो गया,
रक को लगा— ‘ब चा सही माग बता रहा है? अथवा भटक गया है?’ शंका ई, कतु
आगे बढ़ता रहा।
कुछ दे र बाद एक बात खटक , बड़ी दे र से कोई पशु नह दखा। अ यथा वानर,
लोमड़ी, सयार, मृग, बलार कुछ-न-कुछ इस वन म द ख ही जाता था। एकाएक ब चे ने
रक के दोन कान जोर से ख चे। जैसे-घोड़ा रोकने के लए व गा ख ची जाती है।
रक क गया। ब चा तेजी से गरदन मोड़कर अगल-बगल दे खने लगा। कु ा भी
भू म सूँघते ए शी ता से च कर काट रहा था। ब चा पुनः आँसा आ— माई…
माई…।
वहाँ कुचली ई घास पर कई पद- च दखे। पतली र सी के दो-तीन छोटे टु कड़े
और कुछ टू ट लक ड़याँ भी थ । रक ने भू म पर यान से दौड़ाई। मा मनु य के
पद- च थे, घोड़े तथा कसी कार क गाड़ी के प हय के कोई च नह थे। अनुमान
लगाया— यहाँ कई लोग थे, जो पैदल ही यहाँ से गए।
कु ा सूँघता आ आगे बढ़ने लगा। आस-पास के च दे खकर रक क भी अटकल
उसी दशा म थी। अतः कु े के पीछे चला।
कुछ र चलने के प ात् रक ने आस-पास के च ढूँ ढ़ना छोड़ दया। कु े पर पूण
व ास हो गया था। जैसे-जैसे आगे बढ़ता, झाड़-झंखाड़ तथा सरपत कुछ अ धक मलने
लग । वृ क सघनता भी पहले से अ धक होती जा रही थी।
सहसा रक को कुछ आभास आ। ब चा धीरे-धीरे वलाप कर रहा था। रक ने हाथ
उठाकर ब चे के मुख पर रखा। ब चा चुप हो गया। कु ा भी भू म सूँघना छोड़कर दोन
कान खड़े कए आगे दे ख रहा था। सरपत से सामने का माग अव था। आगे बढ़ने के
लए घूमकर जाना पड़ता। रक चुपचाप खड़ा व न सुनने का य न कर रहा था। कराहने
के कई अ यंत मंद वर सुनाई पड़े।
रक सरपत के दा ओर से घूमकर आगे बढ़ा। आगे भी झाड़-झा ड़याँ थ , कतु
कम उँचाई के कारण र उप थत लोग का समूह दख गया।
रक क भ ह टे ढ़ । कुछ आगे बढ़ा, तो य प ता से समझ आया। कई लोग
पी ड़त क भाँ त भू म पर घुटने के बल सर झुकाकर बैठे थे और उनके सामने सर के
ऊपर से नीचे तक काला लबादा ओढ़े एक लंबा खड़ा था। लबादे के बगल, काले
रंग म पुता एक असुर सै नक सर झुकाए लोग को डरा-धमका रहा था और इन सभी को
कुछ अ य सश असुर सै नक ने घेर रखा था।
ब चे के मुँह से काँपते ए नकला— ‘कालू!’ और रक के दोन कान को जोर से
भ चा।
“भयभीत मत हो। माई मलने वाली है।” रक बोला।
ब चे पर कोई भाव नह पड़ा। मुट्ठ भ चे रहा।
रक मुख पर न त भाव लए झाड़-झंखाड़ से बचता आ टे ढ़े-मेढ़े माग से उनक
ओर बढ़ा। ऊँची सरपत तथा व य वन प तय के कारण असुर उसे दे ख नह पा रहे थे।
झा ड़य क आड़ से पूरी तरह बाहर नकलने पर रक उनके स मुख कट आ।
घेराबंद कए सै नक ने मुड़कर भाल क न क रक क ओर कर ली। जो काला
असुर लोग को डरा-धमका रहा था, उसने सै नक को आदे श दया— “भोजन चलकर
वयं आ रहा है। इसे भी पकड़कर बठाओ। यह भी महा भु क शरण म आएगा।”
दो सै नक भाले दखाते ए रक क ओर बढ़े । बगल से कोबू गुराने लगा। रक
अ वच लत बोला— “एक भी पग आगे बढ़ाया, तो तु हारे मुंड ं ड से अलग पड़े
मलगे।”
ऐसा सद वर उन असुर ने पहली बार सुना था। कसी अ ात भय से उनके बढ़ रहे
पग थम गए। भय तो आदे श दे ने वाले असुर को भी लगा था, कतु गरजकर बोला—
“अ छा अवसर मला है। अब तुम सब भी महा भु का वा त वक कोप दे ख लो।”

राजकुमार य मका से सटे चनार गाँव क ओर बढ़ रहा था। राजस ा को, जसम उसे
कोई वशेष च नह थी, कसी कार क राजनै तक असहजता से बचाने के लए उसने
अपना भेष प रव तत कर रखा था। एक यायावर लड़ाके का प धरे, घोड़ा दौड़ाते ए
वह अपने ल य क ओर बढ़ रहा था क चनार से थोड़ा पहले ही क जाना पड़ा।
पाँच पु ष को असुर सै नक बंद के प हाँकते ए द ण क ओर से ले जा रहे
थे। लोग के हाथ पीछे से बँधे और सर झुके ए थे। पाँच असुर आगे और पाँच असुर
पीछे भाले लेकर चल रहे थे।
टाप क आवाज सुनकर वे सतक ए। य का घोड़ा उस बंद समूह के दा ओर
का। उसने धनुष कंधे से उतारकर हाथ म ले लया। वर ककश बनाकर पूछा, “यहाँ
या चल रहा है? इ ह बंद य बनाया है?”
पीछे खड़ा एक असुर भाले क न क दखाता आ आ, “तुम कौन हो,
पूछने वाले?”
“म घुम कड़ ँ…मुझे छोड़ो। इ ह बंद य बनाया है? ऐसा कौन-सा अपराध आ
है, जो इनके हाथ बाँधने पड़े?”
“ओ घुम कड़!” आगे से एक सै नक, जसका बायाँ कान कटा आ था, ऊँचे वर
म पूरे दं भ के साथ बोला, “य द अपने ाण से त नक भी मोह है, तो अ वलंब यहाँ से र
चला जा। अ यथा तेरे शरीर म भाले घुसाने म हम त नक भी संकोच नह होगा।”
य ने एक बार बोलने वाले पर तरछ डाली और धनुष पर हाथ कस लए।
जानता था; असुर े के आस-पास लोग के लु त होने क घटनाएँ इसी कार ई
ह गी।
हाथ बँधे लोग भयभीत तीत हो रहे थे, कइय के शरीर पर प चोट थ ।
य ने जोर से घोषणा क , “य द इन असुर ने तु ह ता ड़त कया है, तो कोई भी
अपना सर ऊपर करे। व ास दलाता ँ, तुम लोग को क मु कए बना यहाँ से नह
जाऊँगा।”
“ओ दयावान्!” आगे वाला सै नक पुनः बोला। इस बार थ त संभालने के लए
उसने थोड़ी समझदारी दखाई। धीरता के साथ बोला, “झगड़ने क आव यकता नह है।
ये हमारी खान म काय करने वाले कमकार ह। दस दन पूव ये सभी चोरी करके भाग
नकले। हम इ ह पकड़कर दं डनायक के पास ले जा रहे ह…मा इतनी-सी बात है…अब
तुम हमारे काय म अनाव यक ह त ेप मत करो।”
तभी एक बंद सर उठाकर जोर से चीखा, “यह झूठ बोल रहा है। हम वन म
लकड़ी काटने गए थे…ये हम…” पीछे से एक असुर ने अपने भाले क न क उसक पीठ
म धँसा दया और दाँत पीसकर बोला, “चोर, तुझे यह दं ड दे ना पड़ेगा।”
एक ण के अंदर य ने कमर से लटकती तूरीण से बाण ख चा, धनुष पर चढ़ाया
और छोड़ दया।
बाण उस असुर के कंठ के आर-पार हो गया। वह भाला छोड़, अपने दोन हाथ से
कंठ पकड़कर तड़पते आ गरा। अ य असुर को इस धृ ता पर व ास नह आ।
दो असुर, समूह के आगे से और दो पीछे से पूरे ोध और उ ेजना से चीखते ए
य क ओर दौड़े।
“वु…श!…ठ क!”
“वु…श!…ठ क!”
असुर के तीन पग पूरा करने से पहले ही य के धनुष से छू टे दो बाण, दो असुर के
दय म उतर गए। बढ़ रहे अ य दो असुर के पग वयं ही ठठक गए।
इतना ती और सट क धनुष-संचालन उ ह ने पहले कभी नह दे खा था। उन दो
असुर ने अपने थान से ही भाले फक कर मारे। य को अपने लचीले शरीर को झुकाकर
और बगलकर बचने म कोई वशेष क नह आ।
झुकने-बचने क या के बीच एक बाण और छू टा। बाण एक असुर क हथेली के
पार हो गया। सरा असुर भागकर बं दय के पीछे जाना चाहता था, कतु य का एक
अ य बाण पीछे से उसक जंघा म जा धँसा। दोन असुर थोड़ी दे र के लए न य हो
गए।
य का दशन दे खकर बंद बनाए गए लोग म आशा का संचार आ। सभी ने एक
साथ गुहार लगाई— “हमारी र ा करो।”
असुर को भी समझ आ गया; वकट श ु है। कतु ऐसी कसी क ठन प र थ त के
बारे म सोचा नह था। पछले कई वष से वे अपनी मनमानी से काय संप करते आए थे,
अतः ऐसी थ त के लए तैयार नह थे।
जब तक वे अपने भाले उस पर फकेगे, न य ही इस घुम कड़ के बाण उनके
शरीर के पार ह गे।
समूह के आगे खड़ा असुर सै नक, जसका कान कटा था, बड़ी चपलता से एक
बंद को अपनी ओर ख चा और कमर से छु रा नकालकर उसक कंठ न लका पर रख
दया। अ य असुर ने भी झपट कर सरे बं दय के साथ यही कया।
कान कटा असुर चेतावनी दे ता आ बोला, “य द इन पर इतनी ही दया आ रही है,
तो अपना धनुष याग दो। अ यथा छु ड़ाने के लए एक भी जी वत नह बचेगा।”
असुर ने सोचा; य द श ु ने बाण चलाया, तो बंद क आड़ रहेगी, और य द अपना
धनुष फक दया, तो समीप जाकर सरलता से भाले घुसाए जा सकते ह।
य ने एक ठं डी साँस छोड़ी। मानो असुर के इस कृ य से त नक भी वच लत नह
आ हो। शांत कतु चेतावनी वाले वर म बोला, “अभी भी अवसर है। इ ह छोड़कर चले
जाओ…म पीठ पर बाण नह चलाऊँगा।”
य ने जस आ म व ास के साथ बोला था, असुर पर उसका त काल भाव
पड़ा। मन म वच लत करने वाला भय जागा। पर अ व ास और दं भ आगे आ गया।
कान कटे असुर का हाथ छु रे क मूठ पर कस गया। और बंद के कंठ पर धार को
थोड़ा रगड़ दया। गरदन पर लाल लक र कट ई। लक र से र क कई बूंद ने
सरककर कुछ अ य लक र भी ख च द ।
बंद क धड़धड़ाती दय ग त और मुख से भय के भाव प दे खे जा सकते थे।
य ने पूण शांत भाव से तूरीण क ओर हाथ बढ़ाया। इधर-उधर टटोला और एक
बाण, जसक पूँछ पर लगा पर अ यंत कड़ा था— को नकाला।
य ने तीर क न क पर गड़ाई। तीर क न क ठोस शं वाकार थी। शंकु पर
कसी लपटे सप क भाँ त गहरी नाली बनी थी। शंकु के ठ क नीचे एक महीन धागा
नकला था। य ने धागे के छोर को दाँत से दबाया और एक झटके से तीर को मुँह से र
कर दया। धागा खुलकर लंबा हो गया और तीर क शं वाकार न क अपनी धुरी पर लट् टू
क भाँ त ती घूणन करने लगी।
य ने असुर क ओर मोड़ी। धनुष पर तीर चढ़ाया और यंचा ख ची।
ती ग त से घूम रही बाण क न क को असुर पहचानते थे। यह असुर ापा रय
ारा ही बनाया गया उ त बाण था। य प इन असुर ने इस बाण का कभी वयं योग
नह कया था, कतु इतना अव य जानते थे क इस बाण क भेदन मता सामा य बाण
से आठ गुना अ धक थी।
य ने बाण का ल य कान कटे असुर के बा ओर खड़े असुर क ओर कया।
असुर ने बंद को सामने कर रखा था, फर भी भय से काँप गया। वह धनुधारी श ु
क योजना समझ गया, श ु उ त बाण चलाएगा, बाण बंद के शरीर को भेदकर उसके
शरीर म घुसेगा, कतु या इस धनुधारी को बंद क त नक भी चता नह ! इ ह के लए
तो हमसे लड़ रहा है!
असुर के पास सोचने का अ धक अवसर नह था। झट से छु रा हटाया और दो पग
पीछे आ, फर भाले क न क बंद क पीठ से पश कर द ।
य का साहस असुर स हत बं दय को भी समझ नह आया। जस बंद क
ओर उसके बाण का ल य था, उसके ने म याचना का भाव उमड़ा।
घोड़े पर थर बैठा य धनुष पर बाण चढ़ाकर कुछ ण के लए जड़ हो गया।
ने से ही री क गणना कर बाण के पथ का समीकरण बनाया। संयोग से पवन म वेग
नह था। अतः समीकरण सरलता से बन गया। फर यंचा ख चे हाथ का बल कुछ कम
कया और एक उँगली से बाण क पूँछ पर लगा कड़ा पर एक दशा म टे ढ़ा कर दया।
अ भाग पर शं वाकार न क अभी भी ती घूणन पर थी। बाण छू टा, धनुष क टं कार
ई। बंद ने याचना पूण ने बंद कर लए।
हवा को चीरता बाण बंद क ओर सीधा बढ़ा, कतु छाती से एक हाथ पहले ही दा
ओर घूम गया।
कान कटे असुर क आँख फैल , पर पूरी तरह फैलने से पहले ही घूणन करता
शं वाकार न क उसक कनपट को भेदता आ म त क म जा धँसा।
असुर के हाथ से छु रा छू टा और शरीर नज व माँस के ल दे क भाँ त गरा।
असुर स हत बं दय का भी मुँह खुला रह गया। याचना पूण ने बंद कए बंद ने
भी आँख खोल । वह मन म भय का भाव लए अपने शरीर पर बाण क चुभन क
ती ा कर रहा था। चुभन ई नह और बा ओर कुछ गरने क व न ई, तो ने वतः
खुल गए। मृत असुर क कनपट म धँसा बाण दे खकर भौच का रह गया। उसक पीठ
पर भाला धँसाकर खड़े असुर का भय अ धकतम सीमा पर प ँच गया। अ त ती ग त के
कारण बाण का प पथ उसे नह दखा था। कतु दशा-प रवतन क झलक दख गई
थी, मन म भय उठा; यह धनु व ा है या कोई माया। मृ यु पीछा करके ाण हर रही है।
अ य असुर क भी कुछ ऐसी ही मनोदशा थी। य ने बारा चेतावनी द — “पुनः
अवसर दे ता ँ…अ वलंब चले जाओ…पीठ पर बाण नह चलाऊँगा।”
असुर के लए यह चेतावनी नह कृपा थी। बं दय के गले से छु रे हटाए और द ण
क ओर भाग गए। न य पड़े अ य दो असुर भी यथासंभव श जुटाकर उनके पीछे
दौड़े।
बं दय ने वयं को भा यशाली समझा। य घोड़े से उतरा और जाकर उनके बंधन
खोले। फर ककश वर म पूछा— “इन असुर ने तु ह बंद य बनाया?”
एक अधेड़ बोला— “हम यहाँ काठ के लए वृ काटने आए थे। ये असुर न
जाने कहाँ से कट हो गए… कहने लगे, उनक खान म काय करने के लए मक क
आव यकता है। उ ह दे खकर हम सभी भयभीत हो गए थे। हमने अ वीकार कर दया।
उ ह ने बड़े-बड़े लोभ दखाए। हम लोग ने पुनः अ वीकार कया। फर वे हम मारने-
पीटने लगे और भाल क न क पर बंद बना लया। तुमने हमारे ाण क र ा क है…
हम सभी जीवन भर तु हारे ऋणी रहगे।” सभी ने सर झुकाकर आभार कया।
य का यान द ण क ओर था। बंधन मु ए लोग उसे अपने गाँव ले जाकर
उ चत स कार करना चाहते थे। कतु य शी ता म था। वह घोड़े पर बैठा और वन म
वलीन हो गया। लोग इस घुम कड़ र क के वषय म बात करते ए गाँव लौट पड़े।
उनके भी पग शी ता म थे।

य को द ण क ओर चलते आधा घड़ी हो गई थी। यह थान गड् ढ , नाल ,


झाड़-झंखाड़ और सरपत से अटा पड़ा था।
चलते-चलते य ने घोड़े क व गा ख चकर वेग कम कया। र एक वृ क डाल
से चमक दखी थी। अनुमानतः कोई धातुई चमक थी। य ने घोड़े को पूरी तरह रोक
लया। उतरा और घोड़े क गरदन सहलाकर पैदल ही आगे बढ़ा। हाथ म धनुष और पीठ
पर तूणीर था।
सावधान होकर सरपत और झा ड़य क आड़ लेकर आगे बढ़ने लगा। समीप
प ँचा, तो कुछ व नयाँ सुनाई पड़ । समझ गया क सावधानी बनाए रखनी पड़ेगी।
झुककर वयं को छपाते ए सरपत के अगल-बगल से आगे बढ़ा।
चमक वाले वृ पर गड़ाई, तो वृ क डाल पर संतुलन बनाकर बैठा एक
असुर धनुधारी दखाई पड़ा। य ने समीपवत अ य वृ पर भी यानपूवक पात
कया। दो अ य वृ पर भी धनुधारी बैठे दखे।
सभी धनुधारी नीचे बीच के थान पर कुछ दे ख रहे थे। तभी कई लोग के कराहने
क सामू हक व नयाँ आ । ऊँची सरपत और झा ड़य के कारण कुछ दे ख पाना संभव
नह था। य अ त सावधानी से बढ़ा, और एक झाड़ी के पीछे से बीच के खुले थान का
प च दे खा।
लोग का समूह सर लटकाए घुटन के बल बैठा कराह रहा था। काला मुखौटा
लगाए और काला लबादा ओढ़े एक लंबा कसी डरावनी आकृ त क भाँ त उनके
सामने खड़ा था। उसके बगल एक अ य धक -पु असुर सै नक च लाकर कह रहा
था— “दे ख लया महा भु क श ! अभी भी अवसर है। महा भु क शरण म चले
आओ… ाण भी सुर त रहगे और तु हारे प रजन भी।”
समूह से एक ने सर उठाकर भयपूवक ा कट क — “…महा भु क
जय!”
समूह को चार ओर से घेरकर खड़े दस-बारह सै नक म से एक ने आगे बढ़कर उस
को उठाया और घेरे के बाहर खड़ी एक घोड़ागाड़ी पर चढ़ा दया। गाड़ी पजड़ेनुमा
थी। बास से बने पजड़े म पहले ही चार भयभीत बैठे थे। इस पजड़ा-गाड़ी को
ख चने के लए दो काले घोड़े आगे जुते ए थे।
लबादे के समीप खड़ा असुर पुनः च लाया— “ या तुम सभी क बु जड़ हो गई
है…मूख ! य द तु ह महा भु के कोप का भाजन बनने क इतनी इ छा है, तो यही
सही…।”
उस असुर के कहने साथ ही समूह म बैठे लोग भयंकर पीड़ा से कराह उठे । भू म पर
गरकर तड़पने लगे।
य के लए यह व च य था। हाथ धनुष संचालन के लए ाकुल हो उठे ।
कतु जानता था, यह य प से अकेले संभालने वाली थ त नह है। अगल-बगल
क वन प तय और भू- थ त को दे खकर मन-ही-मन कुछ योजना बनाने लगा।
तभी वहाँ एक अ य कट आ। उसके कंधे पर एक ब चा और साथ म एक
भूरा कु ा था।
य च का— कोबू?
लबादे के समीप वाले असुर ने उस को पकड़कर बठाने का आदे श दया।
दो सै नक भाले चमकाते ए आगे बढ़े , कतु उस अ ात क सद आवाज
कान म पड़ी— “एक भी पग आगे बढ़ाया, तो तु हारे मुंड ं ड से अलग पड़े मलगे।”
य को वर क नदयता का प अनुभव आ।
आ ा दे ने वाला असुर लोग को संबो धत कर पुनः च लाया— “अ छा अवसर
मला है। अब तुम सब भी महा भु का वा त वक कोप दे ख लो।”
आगे बढ़ रहे दोन सै नक अगल-बगल हो गए। रक ने ब चे को कंधे से उतारकर
भू म पर खड़ा कया। ब चा भय से रक क धोती पकड़े रहा।
तभी सहसा एक झटके से रक क गरदन झुक गई। य के लए यहाँ का य और
भी व च होता जा रहा था।
रक दाँत भ चे अपना सर उठाने का यास करने लगा। तीत होता था क कोई
अ य श उसके सर पर बल लगाकर नीचे झुका रही हो। सर उठाने का यास करते
ए रक वयं से बुदबुदाया— ‘मुझे सूचनाएँ कम द ग ह या वा तव म जंबू प
प रव तत हो गया है?’
त प ात् बल लगाकर एक झटके से सर उठाया और आँख दखाते ए रोष से
गजना क — “यह खलवाड़ मेरे ऊपर थ है।”
रक के आस-पास क झा ड़याँ और सरपत हवा के झोक से लहरा उठ । रक के
व भी फड़फड़ा उठे । दो हाथ र तक क धूल कसी च वात क भाँ त घूमी।
काले लबादे के मुँह से आ य से फूटा— ‘वायु स !’
उसक फुसफुसाहट अ यंत समीप खड़े आदे श दे ने वाले असुर ने भी सुनी। वह कुछ
समझा नह । पर जस भाव से ये श द कहे गए थे, भान हो गया क यह अ ात गंजा
साधारण नह है।
हवा के यह झ के य को भी असामा य लगे। समीप के वृ पर डाली। सारे
वृ शांत थे। तभी वृ पर बैठे धनुधर पर पड़ी।
धनुधर धनुष पर बाण ख च रहे थे। अभी तक व च ता का अनुभव कर रहा उसका
मन वच लत हो उठा— न य ही उन धनुधर का ल य वह गंजा होगा। कतु कोई न
कोई बाण ब चे को भी अव य हा न प ँचाएगा।
य ने अ वलंब न य कया। तीन साधारण बाण और एक घूणन करने वाला
भेदक बाण तूरीण से नकालकर भू म पर रखा।
घुटने के बल खड़ा होकर पहला बाण चढ़ाया और समीपवत वृ के धनुधर पर
ल य साधा। झा ड़य क मोट -पतली, आड़ी- तरछ शाखा के बीच से सीधे बाण
चलने के लए ब त कम थान था। पर य जैसे अ तीय धनुधर के लए इतना पया त
था। हलती-डु लती झा ड़य के बीच से बाण छू टा और असुर धनुधारी के पैर के पार हो
गया। धनुधारी के धनुष पर खचा बाण वतः ही छू ट गया। ल य भटका बाण रक के दो
हाथ आगे भू म पर धँसा। पीड़ा और अ या शत आ मण से धनुधारी का डाल पर
संतुलन डोला और वह पके आम क भाँ त नीचे गरा।
सभी क उस ओर घूमी। वृ पर छपकर बैठे अ य दो धनुधा रय के बाण
का ल य रक से हटकर अ ात श ु को खोजने लगा।
झा ड़य से एक और बाण छू टा। सरे धनुधर को आते बाण क झलक मल गई।
परंतु बच नह पाया। बाण उसके दय को ल य कर चलाया गया था।
तीसरे धनुधारी को श ु के थान का भान हो गया। झा ड़य क ओर ल य साध कर
बाण छोड़ा। जब तक उसका बाण धनुष से छू टकर कुछ री तय करता; एक अ य बाण
को अपनी ओर आते दे खा। बाण क ग त अ या शत प से ती थी। बाण उसक बा
आँख को भेद गया।
एक के बाद एक, दो शरीर भ - भ वृ से गरे।
इधर, झा ड़य के पीछे य ने त काल भेदक बाण उठाया। दाँत से धागा ख चा।
शं वाकार न क धुरी पर ती घूणन करने लगी। फर धनुष पर चढ़ाकर यंचा पूरी श
से ख ची और खड़ा हो गया। लोग को अब छु पा आ श ु दखा। बाण का ल य लबादे
क ओर था।
य को न जाने य , यह रह यमय काला लबादा संकटपूण तीत हो रहा था। अतः
उसने सव े बाण का योग करने का न य कया था। अ य कोई असुर धनुधर बचा
नह था। अतः कट होने म कोई हा न नह थी और खड़े होकर बाण ख चने म पूरी श
ा त हो जाती थी।
य ने जस ण बाण का ल य लबादे क ओर कया; एक ती झटके से उसक
गरदन नीचे झुक गई। लगा कसी ने सर पकड़कर झुका दया हो। मन म एकाएक
असीम भय उमड़ा। उदर म मरोड़ पड़ने लग । हाथ काँपा और बाण छू ट गया।
पूरी श से खचा बाण स ् से पी ड़त लोग के ऊपर से होता आ काले लबादे
क ओर बढ़ा और उसक बाँह से चार अंगुल र से गुजरता आ पीछे सरपत म समा
गया।
य को लगा साँस फूल रही है। हाथ से धनुष छू ट गया। सहसा सर पर पड़ रहा
दबाव कई गुना बढ़ गया। एक झटके से घुटने के बल गरा। भू म अ य धक नमी यु थी,
अ यथा घुटने फूट जाते।
तभी मंद व फोट जैसी व न ई। हवा के झ के तेज हो गए और र घोड़ क
ची कारपूण हन हनाहट भी सुनाई पड़ी।
दो लड़ाके

क रया को रथ हाँकते ए चार दन बीत गया था। काजी दे श क असमय वषा ने उसके
रथ के च को बड़ी सरलता से धो दया था। खोजी दल को उसे ढूँ ढ़ पाना अब अ यंत
कर था। अपनी योजनानुसार क रया ने बीहड़ माग से काजी दे श क सीमा पार कर
मुं ा म वेश कया था। मका से सटे एक छोटे गाँव से शु क पु ी दे ानी को साथ
लेना था, त प ात् ऊषा खंड क सीमा से चपकते ए समु तट प ँचना था।
दे ानी को असुर स ा ने शु से र मका भेज दया था, जहाँ वह एक
योगकता के यहाँ गृहकैद म थी। पता-पु ी को एक- सरे से वलग करके तथा एक-
सरे क सुर ा का भय दखाकर असुर स ा दोन से अपना काय नकलवा रही थी।
योजनानुसार क रया के एक गु तचर ने मका म तैनात एक असुर सै नक को
उ कोच दया। उस असुर सै नक को दे ानी को गु त प से असुर-अ धकृत े के
बाहर एक गाँव म प ँचाना था।
अब जब क रया शु के साथ उस गाँव प ँचा, तो वहाँ दन और वलाप का
वातावरण मला।
क रया और शु ने अपने शरीर का काला रंग धोकर एक ापारी का भेष बना
रखा था। आँख म मोटे काजल क लक र थी और एक रंगीन प ट् टका से आधा मुँह
ढका आ था।
माग म यदा-कदा कोई पूछता, तो वयं को द ण का ापारी बताते, जो व य
जड़ी-बू टय क खोज कर रहे ह। वन म बसे गाँव वाल ने द ण के ापा रय को
कभी दे खा नह था। सभी सोचते— द ण के ापारी ऐसे ही होते ह गे।
वलाप कर रहे लोग से ात आ क कल साँझ ढले नद पर जल भरने ग तीन
याँ और साथ गए चार पु ष न जाने कहाँ लु त हो गए। पूरी रा उ काएँ जलाकर
चार ओर खोजने पर भी कोई नह मला।
घटना सुनकर क रया तो सहज रहा, कतु शु थोड़ा च तत हो गया।
पूव योजना के अनुसार क रया के गु तचर को दे ानी के साथ आज नद तट पर
उप थत रहना था। क रया पहले वह प ँचा था, कतु वहाँ नह मलने पर रथ को गाँव
के अंदर तक हाँक लाया।
क रया रथ से उतरकर एक वृ के पास प ँचा। वन ता से पूछा— “बाबा! या
पछले दन पड़ोसी गाँव से कोई आया था?”
बूढ़ा खाँसकर बोला, “यहाँ कौन आता है…ब चा!..ख ..ख …हाँ! कल दो पगड़ी
वाले आए थे। मुँह पर मट् ट और सर म धूल भरा आ था। द खने से रोगी लग रहे थे।
हमने गाँव म ठहरने नह दया। …ख ..ख …नद तट पर एक पुराना झोपड़ा है, वह भेज
दया था।…ख ..ख … या कर ब चा! अगल-बगल के गाव म महामारी सुनाई पड़ती
है… या पता? कौन-सा रोग लेकर आए थे…ख ..ख …।”
क रया को मरण आया; नद तट से यहाँ आते समय र एक टू टा झोपड़ा दखा
था। क रया रथ पर चढ़ा और तट क ओर चला गया। झोपड़ा र नह था। शी ही प ँच
गया।
झोपड़े का छ पर आधा टू टा आ था और कवाड़ का अ त व नह था। अंदर
घुसकर दे खा, तो एक भस कोने म बैठकर जुगाली कर रही थी।
क रया तट पर प ँचा और आस-पास च ढूँ ढ़ने लगा। शु अब अ धक च तत
होने लगा था। आध घड़ी के प र म के बाद तट से र प म क ओर कुछ च मले।
क रया रथ लेकर अनुमान के आधार पर बढ़ने लगा। आगे सरपत और झा ड़य क
अ धकता थी। रथ दौड़ाने म थोड़ी क ठनाई अव य थी, कतु अब घोड़ क लीद जैसे
प च मलने लगे थे। हटाई गई झा ड़याँ और खुले हाथ से काटे गए सरपत अनुमान
को पु कर रहे थे।
दो घड़ी प ात् एक बड़ा ाकृ तक गड् ढा मला। वहाँ क नम भू म पर कई लोग के
प पद- च थे। घोड़ के खुर और प हय के भी छाप दखे। अधजली लक ड़याँ भी
मल , ज ह समीप क झा ड़य म लापरवाही से फक दया गया था।
शु क आस और चता दोन बढ़ गई। एक घड़ी और चलने पर अ य धक ऊँची
सरपत मलने लग ।
रथ अभी एक पगडंडी पर मंद ग त से दौड़ रहा था। दा ओर सरपत क द वार थी
और बा ओर गड् ढे ।
चलते-चलते क रया को मानव वर सुनाई पड़ने का म आ। कान चौक े हो गए।
हवा म एक अबूझ-सी सरसराहट का भान आ। तभी दा ओर सरपत के बीच से एक
घूणन बाण आया और रथ के दोन घोड़ क गरदन छे दता आ पार नकल गया।
घोड़ ने ची कारपूण हन हनाहट क और लड़खड़ाकर एक साथ गर पड़े। पूरा रथ
जोर से डगमगाया और उलटते-पलटते बचा। क रया और शु ने समय रहते रथ के दोन
छोर हाथ से जकड़ लए थे।
क रया क सम त इं याँ सतक हो ग । ने ने ण गँवाए बना आस-पास के
वातावरण क जाँच कर ली। रथ के इस एकाएक झटके से शु के ण शरीर को च कर
आ गया। क रया ने सहायता दे कर उसे रथ से नीचे उतारा।
सरपत के उस पार से मंद धमाक और कराहने क व नयाँ आने लग ।
क रया ने शी ता से रथ से दो कु हाड़ी उठाई और पूण सतकता से सरपत के बीच
द ख रहे एक पतले थान म घुस गया।

इधर रक आगे झुककर थोड़ा तरछा आ फर तलव के नीचे ह का व फोट आ।


शरीर बाण क भाँ त छू टा और सरे ही ण पं ह पग र खड़े असुर के मुँह के ठ क
सामने कट आ।
असुर के शरीर म झुरझुरी दौड़ गई। उदर म कुछ घुसा और वापस बाहर नकल
गया। गंजे भयावह श ु का शरीर सरी दशा म झुका। पुनः मंद व फोट आ और
अगले ण श ु पुनः बाण क ग त से उसके सामने से वलीन हो गया।
यह सारी घटना मा दो ण म संप ई थी। रक के इस कार एक झटके से र
जाने से ब चे के हाथ से रक क धोती फसलकर छू ट गई थी। ब चे के लए यह य
भयभीत कर दे ने वाला था। भय से वह गरकर बैठ गया। मुँह पर रोने का पूण भाव था,
कतु ह ठ को मुँह के अंदर कसकर दबा लया। समीप खड़ा कोबू दौड़कर आया और
उसका मुँह चाटने लगा।
घुटने के बल बैठे पी ड़त लोग म भी आशा के साथ भय का संचार हो गया था। यह
अ ात र क असुर का भले ही संहार कर रहा हो, कतु उन पी ड़त लोग म कदा चत् ही
उसक च होगी। लोग ने भू म पर बैठे रहने म ही अ धक सुर ा समझी।
झा ड़य के पीछे भू म पर गरे य को वयं के ऊपर पड़ रहा दबाव वलीन होता
तीत आ। कुछ ही ण म लगा, सब सामा य हो गया। उदर म पड़ रही मरोड़ का क
र हो गया और मन म उ प भय का वार भी शांत हो गया।
त काल उठकर झा ड़य के पीछे से ही थ त का अवलोकन कया।
यह नया य व च ता क पराका ा थी। अ ात गंजा कसी मायावी क
भाँ त एक थान से सरे थान तीर क ग त से कट हो रहा था। जस थान को वह
छोड़ता, वहाँ एक असुर अपना उदर पकड़कर गर जाता।
य ने अपनी बु पर अ धक जोर नह डाला। सीधे भावना क ओर यान
लगाया। वह अभी मा ब चे के लए च तत था। मन म न य कया— वह ब चे को
लेकर यहाँ से यथाशी र चला जाएगा।
सामने तथा दाएँ-बाएँ कंट ली झा ड़य क अ धकता थी। बगल से घूमकर ब चे तक
प ँचने म समय लगता। तूरीण से दो मोटे बाण नकाले। बाण कई अ यंत पतली डं डय
को एक साथ बाँधकर बनाया गया था। घूणन बाण क भाँ त यह भी असुर ापा रय
ारा न मत उ त बाण था।
य ने दोन बाण एक साथ सामने क भू म पर मारा। फर बाण क पूँछ पर दायाँ
पैर रखकर पूरी श से नीचे दबाया। बाण लचककर झुक गया। य ने वयं को
उछाला। बाण क या थता ने उसे अ धक बल दान कया और वह उछलकर कँट ली
झा ड़य के ऊपर से होता आ उस पार कूदा।
ची कार और पुकार के वातावरण म उसके कूदने क धमक कसी को सुनाई नह
पड़ी। य दौड़कर ब चे के सामने प ँचा। उसके यायावर घुम कड़ भेष के कारण ब चा
उसे पहचान नह पाया। अ ात को ठ क स मुख दे खकर भय से रोने ही वाला था
क य ने धीरे से पुचकारा— कोबू!…कोबू!
ब चे के आँसे मुख पर कोई वशेष भाव नह पड़ा। कु ा भ का।
य ने हाथ को झटका दे कर हथेली पर कनेर का पु प कट कया और ब चे के
कान पर लगा दया। ब चे ने य क आँख म झाँका। फर हाथ बढ़ाकर य क धोती
पकड़ने का यास करने लगा। कु े ने भी भ कना बंद कर पूँछ हलाते ए य को सूँघा।
कु े के भ कने से रक क एक उड़ती ब चे क ओर गई। कसी अ ात को वहाँ
सहसा उप थत दे खकर उसक ह यारी सहज वृ ने एक नए श ु का संकेत दया।
ब चा य को पहचान गया था। य ने ब चे को उठाने के लए झुककर जैसे ही
दोन हाथ आगे बढ़ाए; शरीर के रोएँ एकदम से खड़े हो गए। सम त इं याँ स य होकर
उ चतम तर पर चली ग । रीढ़ म एक सनसनाहट नीचे से ऊपर क ओर म त क तक
गई। कसी अ त भयंकर संकट क सूचना मली। शरीर क तर ा णाली वतः आरंभ
हो गई। णांश म पैर म श समाई। और जस मु ा म झुका था, उसी म बा ओर
कूदकर लुढ़क गया।
वह थान छोड़ते-छोड़ते भी पीठ पीछे कट ए रक क हथेली उसक कमर से
रगड़ गई। ण भर का वलंब होता, तो रक क हथेली पीछे कमर म समा गई होती।
य के कूदकर लुढ़कने से तूरीण के बाण नकलकर भू म पर गरने लगे। य चार
बार लुढ़का होगा। कतु लुढ़कते समय ही भू म पर गर रहे बाण को हाथ से उठा लया
और थर होते ही चपला क ग त से धनुष पर चढ़ाकर रक क ओर छोड़ दया।
रक ने भी व ुत् क ग त से हथेली आगे कर हार रोका। हथेली से टकराकर बाण
क दशा प रव तत हो गई।
य ने मन-ही-मन एक आह नकाली और वयं को समझाया; यह चम कृत होने
का सही समय नह है। त प ात् वह कसी यं क भाँ त भू म से बाण उठाकर छोड़ने
लगा। रक जब तक अपनी हथेली से बाँह बचाता, एक नया बाण कमर पर आता द खता।
भू म पर भाँ त-भाँ त के बाण पड़े थे। य के हाथ म जो आता, वही छोड़ता। तीन
घूणन बाण भी बना धागा ख चे छोड़ चुका था।
रक अब कु पत होने लगा। यह थम बार आ था, जब कसी साधारण मनु य ने
उसे सुर ा मक होने के लए ववश कया था।
बाण चलाते ए य के हाथ म एक मोटा बाण आया। रक पर चलाने के थान पर
उसने अपनी बा ओर भू म पर मारा।
रक ने दे खा— बाण समा त होने वाले ह। कुछ ण म बाण वषा कने पर, आगे
बढ़कर इस अ व सनीय धनुधर को एक झटके से समा त करने का न य कया।
य भी अपनी थ त समझ रहा था। भू म पर मा पाँच बाण शेष थे। दो बाण
उठाया। एक मुँह म दबाया और सरा रक पर छोड़कर, बा ओर भू म पर गड़े मोटे बाण
क पूँछ को पैर से बलपूवक दबाया। फर त काल सरा बाण मुँह से लेकर छोड़ा। ल य
रक क गदन थी। रक पीछे क ओर झुककर बचा। उधर रक पीछे झुका, इधर य ने
वयं को उछाला। लचीले बाण ने बल दान कया। य झटके से उछलकर बा ओर
सरपत के झुंड के ऊपर प ँच गया। एक बाण म उतनी श नह थी, अतः पूरा झुंड
नह पार कर पाया। सरपत के बीच म ही गर गया।
रक को यौधेय का मरण आया। लड़ते-लड़ते सहसा वलीन हो जाना, यौधेय का
पुराना वहार था। रक ने दोन हथे लयाँ पूरी तरह खोल । आस-पास हवा के झ के ती
हो गए। लंबी सरपत भी झूमने लग ।
तभी ब चा जोर से रोया। कु ा भी रक पर गुराने लगा।
रक और य म संघष का लाभ उठाकर असुर भागने लगे। मृ यु से भागने का इससे
अ छा अवसर उ ह नह मलता। उनके हो-ह ले ने रक का यान उनक ओर ख चा। कई
असुर भाग गए थे, कई भागने क तैयारी म थे। काला लबादा भी नह था। रक क भ ह
चढ़ ग । काले लबादे को अनुप थत दे ख उसक चढ़न बढ़ गई। वह उसे पीटकर पूछ-
ताछ करना चाहता था। भागते असुर पर उसे ती ोध आया।
रक का मन धनुधर से हटा और तलव के नीचे व फोट कर एक भागते असुर के
स मुख प ँचा।

सरपत क द वार क रया के अनुमान से अ धक मोट थी। बीच म महीन काँट वाली
झा ड़याँ भी मल । दोन कु हा ड़य से सरपत को हटाते ए वह आगे बढ़ता गया। उस
पार से हो-ह ला सुनाई पड़ रहा था।
कुछ ही दे र म क रया सरपत को पारकर संघष- थल पर कट आ। जैसे ही उसने
सरपत के बाहर पग रखा, एक काला लबादा ती ग त से बीस हाथ र बा ओर सरपत
क द वार म समाता दखा। क रया ने गरदन मोड़कर सीधी क । बीच म सर झुकाकर
दयनीय अव था म लोग बैठे थे और इधर-उधर कई असुर सै नक चीख-पुकार कर रहे थे।
र एक धनुधर एक गंजे को बाण मार रहा था और दे खते ही दे खते भू म पर
धँसे एक बाण पर उछलकर सरपत के बीच कूद गया। त प ात् एकाएक ती पवन के
झ क ने सरपत को लहरा दया। क रया के ने सकुड़े। आस-पास के वृ और
वन प तय पर डाली। सभी शांत थे, मा गंजे के आस-पास ही पवन के
झ के दख रहे थे।
यह झ का कुछ ण म ही वलीन हो गया और गंजे ने असुर क ओर मुँह
फेरा। पैर के नीचे से व फोट क व न ई और गंजा कसी छू टे बाण क भाँ त एक
असुर के ठ क सामने प ँच गया।
क रया के मुख पर एक ीण मु कान और ने म शकारी चमक आई। मन म
बुदबुदाया— ‘ स धारक…!’
क रया ने दोन हाथ क कु हा ड़याँ भू म पर गरा द ।
कमर प ट् टका म हाथ डालकर एक छोट पोटली नकाली। पोटली क गाँठ से एक
पतली डोरी प ट् टका के अंदर कह बँधी थी। पोटली क रया क कमर पर लटक गई।
क रया ने पुनः प ट् टका म हाथ डालकर दो चपटे काले प थर नकाले। प थर को
दोन हाथ म लेकर सहजता से आगे बढ़ने लगा।
रक एक के प ात् एक असुर को गराता जा रहा था। आदे श दे ने वाला -पु
असुर अं तम बचा।
रक उसके स मुख प ँचा। असुर भय से जड़वत् था। रक ने उसके मुख पर अपना
पंजा रखा। असुर के फेफड़े क वायु ास-न लका से होते ए रक क हथेली क ओर
खचने लगी। असुर छटपटाया। वायु हथेली क ओर खचकर अँगु लय के बीच से बाहर
नकल रही थी। ने फाड़े असुर पंजे क पकड़ छु ड़ाने का पूरा यास कर रहा था। छु ड़ाने
के उप म म उसका हाथ अपनी कमर पर खूँसे छु रे पर गया। छु रा नकालकर रक पर
हार करने जा रहा था क रक ने झटके से अपना पंजा पीछे हटा लया। फेफड़े क
सम त वायु भी एक झटके के साथ बाहर नकल गई। नवात बनने से दोन फेफड़े शरीर
के अदं र पचक गए। दो ण छटपटाकर असुर ढह गया। उसके ने अभी भी ऐसे खुले
थे, मानो उबलकर बाहर आ जाएँगे।
रक क बीस पग पीछे खड़े नये आगंतुक पर गई। यह भी धनुधर क भाँ त
संघष- थल पर सहसा कट आ था। आगंतुक जो भी हो, उसक आँख क नभ कता
ने रक को अ स कर दया। नभ कता के अ त र काजल लगी उन आँख म े ष भी
झलक रहा था।
असुर के समा त होते ही, सर झुकाकर बैठे पी ड़त लोग म पूण साहस आ गया।
बा ओर झा ड़याँ नग य थ । सभी बना व न कए उस ओर दौड़ पड़े। कनारे खड़ी
पजड़ेनुमा घोड़ागाड़ी म बैठे पाँच अ य पी ड़त भी धीरे से उतरकर भाग गए।
दस-बारह ण प ात् रक और क रया के अ त र वहाँ कोई नह बचा। ब चा
और कु ा भी वलु त था। रक ारा असुर के संहार के समय य कब सरपत से
नकलकर ब चे को ख च ले गया, कसी ने नह दे खा।
क रया और रक आमने-सामने थे। क रया के ने से जो े ष झलक रहा था, वह
रक का क रया को श ु समझने के लए पया त था।
क रया ने रक को घूरते ए कमर से लटक पोटली पर हाथ मारा। पोटली से धूल
उड़ी, मानो पूरी पोटली ही धूल से भरी हो। चार-पाँच बार नरंतर हाथ मारा। धूल का मंद
गुबार उसके चार ओर फैल गया।
क रया के घूरने ने रक को उ े जत कर दया। आगे बढ़ने के लए रक ने जैसे ही
शरीर को आगे झुकाया, क रया ने अपनी बाँह फैलाई और दोन हाथ म पकड़े प थर पूरी
श से आपस म टकरा दए।
एक तीखी व न नकली। अ य व न-तरंग रक से टकराई। रक के व ने तेज
झटका खाया।
वष प ात् रक ने आ य से ने फाड़े थे। एक हाथ से व को भ चकर पीड़ा सहते
ए पूछा— “कौन हो तुम?”
उ र म क रया ने बारा प थर टकराए। रक ने पुनः झटका खाया। घोर पीड़ा ई।
ह ठ को दाँत से दबा लया।
क रया ने तीसरी बार प थर टकराने के लए बाँह फैलाई। रक अब और अवसर नह
दे ना चाहता था। बना ण गँवाए तलव के नीचे व फोट कया और क रया के ठ क
सामने प ँचा। फर पूरी श से अपनी हथेली क रया के पेट म घुसाने के लए चलाई।
कतु हथेली व के नीचे पहने चमड़े के कवच से टकराकर क गई।
य क भाँ त रक के लए भी आज व मय भरा दन था। उसके शरीर के आस-
पास से व ुत क अ यंत मंद कड़कड़ाहट सुनाई पड़ रही थी। अपनी हथेली क ओर
दे खा। वहाँ भी व ुत क छोट -छोट सप रेखाएँ रगती दख ।
रक ने झट से उठाकर आस-पास उड़ रहे धूल के मंद गुबार पर गड़ाई।
बड़ी क ठनाई से द ख पड़ने वाले अ यंत महीन, भारहीन, पीले और नीले कण वातावरण
म तैर रहे थे। मन म अचंभा और अ व ास दोन आ— वण भ म!
रक ने क रया क ओर मोड़ी। उसी ण क रया ने अपना सर रक के मुँह पर
पटक दया। नाक पर जोरदार आघात आ था। रक बल बलाकर पीछे लड़खड़ाया।
थर होने से पहले ही उसक छाती पर क रया ने पाद- हार कया। रक दो पग और
लड़खड़ाया। ोध से उसके माथे क नस फूल ग ।
क रया ने अ वलंब पुनः प थर टकराए। इस बार तरंग ोत समीप था। रक के व
पर बलशाली आघात पड़ा। उछलकर पाँच पग पीछे पीठ के बल गरा और घसट गया।
रक के गरने से पीठ पर बँधी कपड़े क गठरी पर ती दबाव पड़ा और अंदर बँधे
काठ के कुछ पुज टू ट गए।
रक पर इतना ोध चढ़ गया क मुँह से गुराहट नकलने लगी। हाथ के बल उठकर
बैठा। गाँठ खोलकर पीठ से गठरी को उतारा और बगल भू म पर रख दया।
क रया बढ़कर रक के स मुख प ँचा। रक के उठने से पहले ही प थर पुनः बजा
दए। तरंग हार से रक क पीठ भू म से टकराई। आघात ती था। मुँह से र नकल
गया।
क रया नदयतापूवक पुनः प थर टकराने जा रहा था क रक क दा हथेली के
चार ओर हवा घूमने लगी और णांश म ती घूणन वाले अ य वायु-च म प रव तत
हो गई। रक ने बाएँ हाथ क हथेली भू म से चपकाकर ऊजा व फोट कया। उसका
शरीर व ुत क ग त से उठा और दा हथेली कसी खड् ग क भाँ त क रया क गरदन
पर चला दया।
व फोट क आवाज सुनते ही क रया सचेत हो गया था। रक क कटार पी हथेली
अपनी ओर आती दखी। इसी के साथ उसके घुटने मुड़ते चले गए और शरीर पीछे झुक
गया। रक क हथेली उसके ऊपर से नकल गई।
रक, क रया के पीछे तीन पग र का। क रया को अपनी असावधानी का त काल
भान हो गया— वह वण-भ म के गुबार के बाहर खड़ा था। पोटली पर ती ता से चार-
पाँच बार हाथ मारा। धूल का गुबार आस-पास पुनः फैल गया। उसके प ात्— ठ क्!
ठ क्!
एक के बाद एक, दो बार क रया ने प थर टकराए। रक का शरीर ध का खाकर
चार पग आगे तक लड़खड़ाया। मुँह से र उछला और अंधकार-सा छाने लगा।

उधर सरपत क द वार के पार शु तेजी से चलते ए पार जाने का साफ-सुथरा


माग ढूँ ढ़ रहा था क आगे से कई लोग सरपत से बाहर नकलते दखे। द खने म ामीण
तीत होते थे। शु दौड़कर उनक ओर बढ़ा। कइय ने उसे दे खा, पर वे इतने भयभीत
थे क के नह । भागते चले गए। उ ह म से ण द खने वाला, मैले-कुचैले व पहने
एक पु ष तेजी से शु क ओर आया और पतले वर म धीरे से बोला— पताजी!
प-रंग से शु ने नह पहचाना, कतु वर पहचानता था। शं कत वर म पूछा,
“दे ानी?”
उ र मला— “हाँ पताजी!”
“यह भेष? यहाँ कैसे प ँची?”
“ पताजी! अभी यहाँ से अ तशी र च लए। बाद म सब बताऊँगी।”
“मेरे साथ इधर चल,” कहकर शु दे ानी का हाथ पकड़कर अपने पलटे ए रथ
क ओर ले जाने लगा।
इधर रक को लगा क उस पर मूछा छा रही है। क रया ने दोन प थर अपनी कमर
प ट् टका म डाले और कपड़े क गाँठ वाली एक बड़ी अँगूठ नकाली। फर दाएँ हाथ क
चार अँगु लय म एक-साथ फँसाकर मुट्ठ बनाई। अँगूठ क गाँठ से अंदर का पीला
प थर झाँक रहा था।
आ-जा रही मूछा को हटाने के लए रक ने सर झटका, तो क रया को अपने ठ क
सामने खड़ा पाया। रक अभी भी चेतना सँभालने का यास कर रहा था।
क रया ने मुट्ठ तानी और आँख म घृणा भरकर दं भ के साथ बोला, “ स धारक
का युग बीत चुका।”
इसी के साथ उसने दाँत भ चे और अपनी व -मु का रक के व पर दे मारी।
अँगूठ क गाँठ के अंदर दो प थर आपस म टकराए और पीले प थर से भयंकर
आघात ऊजा नकली।
भ म…!
चंड आघात था। रक के शरीर को ध का लगा और पाँव भू म से उखड़ गए। वह
हवा म उड़ता आ तीस पग र सरपत के कई झुंड को पारकर एक गड् ढे म गरा।
उसक चेतना को मा आघात क व न सुनाई पड़ी थी। त प ात् आँख के आगे
अंधकार छा गया था।
न जाने कतना समय बता। आकाश म व मान सूय क ऊ मा अब कम होने लगी
थी। कौ के झुंड आने-जाने लगे।
काँव…काँव…काँव…काँव..।
रक के कान म मा यही व न सुनाई पड़ रही थी। ने खुल,े तो वयं को गड् ढे म
पाया। कुछ ण के लए शू य रहा। फर जब, सबकुछ मरण आया तो ोध और रह य
दोन भाव से भर गया। जंबू प म इस कार के श ु क उसने क पना भी न क थी।
फर वयं पर ु ध आ, क वह मूख क तरह य लड़ रहा था? या अचंभे के कारण
वह साधारण दाँव भी भूल गया था?
वयं पर भुनभुनाते ए वह उठा और संघष थल पर प ँचा। असुर के शव को
न च रहे कौ के अ त र वहाँ कोई नह था। पजड़ेनुमा गाड़ी के दोन घोड़े भी
अनुप थत थे।
रक ने अपनी कल-पुज वाली गठरी ढूँ ढ़ , उठाया और पीठ पर बाँध ली। ोध से
माथे पर कई नस उभर आ थ । उसने जोर से ंकार भरी। हवा का बवंडर उ प आ।
आस-पास के वृ क प याँ खड़खड़ा उठ । शव को न च रहे कौवे भयभीत होकर
उड़ गए।
जल-द यु सं ध

सं या के इस समय कुलप त इं जीत ायः अपने कायालय म ही मल जाते थे। कतु


आज अभी तक आए नह थे। क म धनंजय आध घड़ी से उनक ती ा कर रहे थे।
सामने जलपान रखा था, पर यान म ऐसे खोए थे क कसी व तु को हाथ तक नह
लगाया।
अमरखंड प ँचते ही वे सीधे मह ष गौतम से मलने गए थे। उ ह ने मह ष को दानव
दे श के अ भयान के वषय म व तारपूवक बताया। सम त बात सुनकर मह ष ने गू के
वषय म वशेष ट पणी क क अ गन जा त से संबंध बढ़ाए जाएँ। वे इ तहास क
मह वपूण कड़ी थ और कदा चत् भ व य म भी ठोस योगदान द। इसके अ त र
मातरम के वषय म उनका उ र उलझाऊ और थोड़ा वच लत कर दे ने वाला था। अंत म
धनंजय ने वह पूछा, जो उनके मन म वष से था— “मह ष! आप सदै व इस कर
वन म गु त प से नवास करते ह… कभी बाहर नह जाते… फर आपको सूचनाएँ कैसे
ा त होती ह?”
उ र म मह ष लंबे ण तक शांत थे, त प ात् मा इतना कहा— “इस का
उ र ब त मह वपूण नह है, कतु उ चत अवसर आने पर उ ह ात हो जाएगा।”
सूचना क बाढ़ इस समय धनंजय के म त क म घूम रही थी। तभी कुलप त के
आने क आहट ई।
“नाग े ! जलपान तो हण कर,” कुलप त सामने आसन पर बैठते ए बोले।
धनंजय ने अ भवादन कर जल उठाया। पूछे, “ कसी गो ी म थे?”
“नह ! गो ी नह थी। द ण से वमा का धानमं ी आया है। उसी से वातालाप
चल रही थी।”
“राजा वमा को धानमं ी भेजने क या आव यकता पड़ गई!” धनंजय जल का
याला नीचे रखते ए बोले।
“कोई वशेष बात नह बताई उसने। अभी तक औपचा रक वातालाप ही ई…
आगे दे खते ह, उसका मु य योजन या है,” कुलप त ने कहा।
इसके प ात् धनंजय उ ह दानव दे श के अ भयान और मह ष गौतम से भट का
वणन करने लगे। सारी बात यानपूवक सुनकर कुलप त ने एक ठं डी साँस छोड़ी। धीरे से
बोले, “अंततः वनाश क घड़ी आ ही गई… कतु भभूत क ग त संतोषजनक नह
है।”
“इसका अनुमान मुझे भी है, कुलप त! इसी को संतु लत करने के लए ऊसर का
साथ माँगने जा रहा ँ।”
कुलप त थोड़ा च के, पर अगले ही ण सहज हो गए। अपने य श य क
बु म ा और नणय के वषय म उ ह पूण व ास था। फर भी मन क शंका को कट
कया— ‘क लय तो बूढ़ा होकर जजर हो चुका है। या वह असुर य प से सहयोग
करने का साहस दखा पाएगा।’
धनंजय ने थाल से गुड़ उठाकर खाया। फर बोले, “उसे य प से या असुर
स ा के व सहयोग करने क आव यकता नह पड़ेगी… वैसे भी ऊसर का संचालन
अब क लय के पु क रया ने अपने हाथ म ले लया है। क लय ने अमर खंड को सदै व
मान दया है। आशा करता ँ, क छोटे से सहयोग के लए मुझे उसे मनाना नह पड़ेगा।”
इसके उपरांत धनंजय एक मान च खोलकर कुलप त को दखाने और समझाने
लगे। एक घड़ी तक योजना सुनने के प ात् कुलप त को यह समझ आया क अथला के
साथ अब सौरा भी घोर संकट म है।
कुछ अ य बात बताकर धनंजय जाने लगे। कुलप त ने ब त रोका क रा व ाम
के प ात् कल ातः या ा पर नकल, कतु धनंजय इसी समय सौरा जाने का न य
कए ए थे।
वे कायालय से बाहर नकले। या ा क कुछ आव यक साम ी मँगाकर घोड़े पर
लाद और डू बते सूय क अं तम करण पकड़कर अपने घर सौरा क ओर चल दए।

सौरा का तट य े व य बा य था। ापा रक ग त व धय के अ त र तट पर


आम-जन का आना-जाना नग य था। कभी इन तट पर मछु आर के सैकड़ गाँव आ
करते थे। कतु दशक पूव आए एक समु लय के प ात् यहाँ बसने का साहस कसी
म नह आया। तथा प इतने वष बाद कुछ गाँव छटके ए बस गए थे, जो जलपोत के
ापा रय को भोजन उपल ध कराते थे।
भात करण को फूटे ए घड़ी भर से अ धक हो गया था। घास और प य क
ओस अभी वा पत नह ई थी। ऐसे ही नमीयु झुरमुट और वृ के बीच से र वदास
चार नागवंशी यो ा के साथ घोड़े दौड़ाते ए सागर तट क ओर जा रहा था।
वृ -कुंज क कसावट के कारण तट तो नह द ख रहा था, कतु लहर क गजना
प सुनाई पड़ रही थी।
अमरखंड जाते समय धनंजय ने र वदास को एक आदे श-प दे कर सौरा भेज
दया था। प म शास नक और सै य ग त व धय का व तृत नदश था। सै य टु क ड़य
को भ - भ थान पर भेजकर मोचा बाँधना और यु काल के लए रसद क व था
करना, उ च ाथ मकता के नदश थे।
र वदास का मु य काय कुंभ जा त को यु म स म लत होने के लए मनाना था।
कुंभ उन गनी-चुनी जंगली जा तय म से एक थी, जो नागवंश म अपनी इ छानुसार
स म लत नह ई थ । ये सभी अ न छा वाली जा तयाँ सौरा क बाहरी सीमा पर
बसती थ । र वदास क प नी सुदे णा कुंभ जा त क थी। अतः इस मान-मनौवल के लए
र वदास ही सबसे उ चत था।
कुंभ जा त पहले तो नह मानी, कतु अंत म रसद के प म सहायता दे ने के लए
सहमत हो गई।
लहर क गजना समीप आती गई। आगे वृ के बीच से रेतीला तट झाँकने लगा
था। तट पर र एक छोट नौका को कुछ लोग मलकर जल म उतार रहे थे। पूव सूचना
के अनुसार वहाँ धनंजय भी खड़े थे।
नमीयु रेत पर घोड़ के खुर से च बनाते ए र वदास उन लोग तक प ँचा।
घोड़े से उतरकर धनंजय के समीप प ँचा। र वदास के साथ आए चार नागवंशी यो ा
नौका उतारने म सहायता करने लगे।
“आज नौका- वहार क कैसे सूझी?” र वदास चुलबुलेपन से पूछा।
“जल-द यु ग से भट करने जा रहे ह,” धनंजय सहजता से बोले।
र वदास कुछ दे र एकटक धनंजय को दे खता रहा। फर संशया मक वर म पु
करने के लए पूछा, “तुमने कहा था, दानव जल-द यु क सहायता से सौरा पर
आ मण करगे?”
धनंजय मंद मु कराए, “हाँ! एकदम ठ क! यही कहा था। तु हारी मरण-श तो
दन - दन ती होती जा रही है।”
र वदास के भी मुख पर मु कान आ गई। धनंजय क पीठ पर धौला जमाते ए
बोला, “तो, अब तुम भी जल-द यु क सहायता से दानव पर आ मण करोगे।”
“नह ! म आ मण नह , मा बचाव करना चाहता ।ँ ” धनंजय सागर म र कह
जमाने का यास करते ए बोले, “जल-द यु का सा ा य दो भाग म वभ है।
एक ओर भील ह, तो सरी ओर ग। दोन गुट के बीच वच व को लेकर वष से संघष
चलता आ रहा है। भील क सहायता दानव ले रहे ह। म ग क लूँगा…।”
“और… कतनी संभावना है क यह जल-द यु हमारी सहायता के लए मानेगा?”
र वदास ने बीच म टोका।
धनंजय ने र ब पर टक अपनी हटाई और पुनः मु कराकर बोले, “लाभ-
हा न क सम त गणनाएँ कर ली ह। कहो तो व तार से बताऊँ।”
र वदास ने धनंजय के कंधे से हाथ हटा लया।
“ मा कर नाग े ! आपके दाँव-पच म घुसकर अपना सर नह धुनना…म यही
समझकर साथ चल रहा ँ क ब त दन बाद आनंददायक नौका- वहार का अवसर
मला है।”
धनंजय हँस,े ‘ठ क है, कतु माग म योजना क थोड़ी परेखा बता ँ गा।”
“ ँ…वहाँ एक नौका है।” र वदास ने समु म एक ब क ओर संकेत करते ए
कहा।
“ कधर दखी?” धनंजय ने संकेत क दशा म दौड़ाई। समु लहर के कारण
ब उगता और डू बता-सा तीत हो रहा था।
“भट का समय आ गया,” कहकर धनंजय नौका क ओर बढ़े । उनक छोट नौका
अब भली-भाँ त जल म उतर चुक थी।
र वदास और धनंजय दोन नौका पर चढ़े । शेष लोग तट पर ही खड़े रहे।
“इस नौका- वहार म वयं ही ायाम करना पड़ेगा या?” कसी अ य को नौका
पर न चढ़ता दे खकर र वदास ने पूछा।
“हाँ! राजा र वदास! मा हम ही जाना होगा…वह पतवार उठाओ और खेना ारंभ
करो…म भी उठाता ।ँ ”
धनंजय को नौका खेने का कोई वशेष अनुभव नह था, कतु र वदास को अ छा
अ यास था। राजा बनने से पहले नौका पर सामान लादकर आवागमन करना उसका
दै नक काय था।
धीरे-धीरे पतवार के छपाके क व न तट पर खड़े लोग से र होती चली गई।
ातः काल क करण आकाश को नीला कर, सागर के जल से पराव तत होकर असं य
चमक उ प कर रही थ । लहर पर सवार नौका र से कसी सूखे प े क भाँ त डोलती
तीत हो रही थी।
धनंजय पतवार चलाते ए र वदास को योजना क परेखा बताने लगे। र वदास के
कान धनंजय क बात पर थे, कतु आँख जल सतह के नीचे तैर रह मछ लय पर थी।
छोट -बड़ी, भ - भ रंग क मछ लयाँ कभी इधर छटकत , तो कभी उधर। रंग के
इस जी वत संसार ने र वदास का मन मोह लया। ऐसे लभ ाकृ तक स दय म उसे
असीम आनंद मलता था।
धीरे-धीरे उनक नौका गंत ब के समीप प ँची। धनंजय के हाथ क गए।
“ या आ नाग? थक गए?” र वदास ने लापरवाही से पूछा।
“उस नौका पर मगर- वज दखाई नह पड़ रहा।” धनंजय ने संशय कट कया।
र वदास ने भी पतवार रोक , पीछे मुड़कर दे खा। बड़ी नौका थी। कतु जल-द यु
के बेड़े म च लत नौका क तुलना म छोट थी।
र वदास और धनंजय को अब अपनी नौका खेने क आव यकता नह थी। वह बड़ी
नौका वयं उनक ओर आ रही थी। अ यंत समीप आने पर उस नौका का वा त वक
आकार- कार ात आ। दोन नौका के आकार म कसी गाय और खरहे जतना
अंतर था।
नौका के पाल खचे ए थे, जो बहते पवन क श से उस वशाल नौका को आगे
ढकेल रहे थे। समीप आने पर उस नौका से आठ-दस सर ऊपर से झाँकते दखे।
र वदास ने पतवार चलाकर अपनी छोट नौका को उस बड़ी नौका के बगल
चपकाया।
द यु-नौका के ऊपर से र सय वाली सीढ़ लटकाई गई। धनंजय ने खड् ग उठाकर
कमर से बाँधी और र वदास ने भी अपना बड़ा हँ सया उठाया।
सी ढ़य के सहारे वे ऊपर प ँचे। वहाँ बीस-प चीस द यु थे। तैलयु चप चपी
वचा, म दरा के नरंतर सेवन से थायी लाल हो चुक आँख, बेढंगे से कट दाढ़ -मूँछ
और खरोच यु मुख पर ू रता का वाभा वक भाव; यह सब धरातल पर रहने वाले
कसी भी सामा य मनु य को अंदर तक भयभीत कर सकता था।
उनके मैले-कुचैले कई परत वाले मोटे व से तेज गध आ रही थी। उनके हाथ
म व च आकार- कार के अ -श थे। जलयान के जस ऊपरी तल पर वे खड़े थे,
वहाँ भी आस-पास सड़ी मछ लयाँ और गंदगी फैली ई थी।
धनंजय पहले भी कई बार जल-द यु के साथ भट कर चुके थे। र वदास के लए
यह पहला अवसर था। य प जल-द यु से संबं धत सूचनाएँ धनंजय के मा यम से
यदा-कदा उसे भी मलती रहती थ , कतु भट कभी नह ई थी।
उ ह घेरकर खड़े द यु म से एक, जसक कूबड़ नकली ई थी, आगे आया और
धनंजय से अकड़कर बोला, “अपने श यह छोड़ो और यह सरा कौन है? मा
नागवंशी के आने क बात ई थी।”
उ र दे ने के थान पर धनंजय ने खरता से त- कया, “तु हारा नेता ग
कहाँ है?”
कुबड़ा थोड़ा नम आ। ढं ग से बोला, “म ग का त न ध ँ। समझौते क सारी
बात म ही न त क ँ गा। सं ध-प लाए हो?”
“लाया ँ, कतु म ग से ही बात करना चाहता ँ।” धनंजय ढ़ता से बोले।
“जैसी तु हारी इ छा।” कुबड़े ने तर कार से कहा, “ ग वयं नह आएगा। य द
वीकार है, तो मुझसे ही समझौते क बात करो, अ यथा लौट जाओ।’
धनंजय ने मुँह का भाव प रव तत कए बना चार ओर घेरकर खड़े द यु पर
सू म डाली। उनके खड़े होने का ढं ग, उनक आँख के भाव और श पर उनक
मु ट् ठय का कसाव; इन सबक गणना उ ह ने एक म कर ली।
कुछ सोचकर बोले, “मुझे वीकार है, अपना प रचय दो।”
“पहले इसका प रचय दो,” कुबड़े ने र वदास क ओर संकेत कर कहा, “नाव खेने
वाला हमारे स मुख इतनी ढ ठता से नह खड़ा रहता… कौन है यह?”
धनंजय ने बड़ी सरलता से उ र दया, “यह दासपु र वदास है।”
घेरकर खड़े द यु क मु ा थोड़ी हली। सब एक- सरे क ओर चोर से दे ख।े
फर उनक र वदास के मुख से फसलती ई उसके हाथ म पकड़ी बड़ी हँ सया पर
गई।
दास- था के व ां त करने के कारण र वदास का नाम जंबू प के बाहर यवन
दे श तक फैला आ था। नाम के साथ-साथ उनक वीरता और साम य क भी कई
ां तयाँ लोग के बीच सुनी जाती थ । एक ां त, जो सबसे अ धक सुनी जाती थी, वह
यह थी क एक बार वन म हा थय से मुठभेड़ होने पर र वदास ने अकेले ही अपनी
हँ सया से दो हाथी काट डाले थे।
प रचय जानकार कुबड़े ने व च से र वदास को दे खा। फर अपना सं त
प रचय दया, “मेरा नाम गरारा है। …अब अपने श छोड़ो।”
र वदास जोर से हँसा, “हा! हा! हा!… या करारा नाम है। सुनकर ही मन म गजना
होने लगी। हा! हा! हा!…”
कुबड़े को अपना उपहास अ छा नह लगा। दाँत पीसकर बारा आदे श दे ने का
यास कया, “श छोड़ो!”
र वदास ने बड़ी क ठनाई से हँसी रोक और अपनी हँ सया उठाकर कंधे पर टका
ली। जोर से बोला, “कैसी मूखतापूण बात कर रहे हो, करारा! तुम प चीस हो और हम
मा दो, इसके प ात् भी तुम हमसे ही श यागने क बात कह रहे हो। या तु ह भय
लग रहा है?”
कुबड़ा मन-ही-मन गुराया। कतु पुनः श यागने क बात नह कही। उसने प म
के खुले समु क ओर कन खय से दे खा। अब तक वह कई बार चोर से उधर दे ख
चुका था। उसने च लाकर चौक लगाने को कहा।
थोड़ी दे र म एक चौक लग गई और चार ओर बैठने के लए काठ के ऊँचे पीढ़े ।
एक ओर धनंजय तथा र वदास बैठे, सरी ओर कुबड़ा अकेले।
बीच क चौक पर कुछ भुनी ई मछ लयाँ और म दरा क सुराही थी। म दरा का
एक-एक याला भी तीन के सामने रखा था।
धनंजय ने पतला चम-प नकाला, जस पर सं ध क शत लखी थ । कुबड़ा प
लेकर पढ़ने लगा।
र वदास लापरवाही से इधर-उधर दे ख रहा था। समु लहर म श क कमी थी,
अतः पूरी नौका थर-सी थी।
कुबड़े ने शी ता से प पढ़कर वापस चौक पर रख दया। त प ात् म दरा का
याला उठाकर उ ह दखाया, “अ छा समझौता है, वीकार करता ँ,” कहकर याले क
म दरा गटक गया।
धनंजय, कुबड़े को यान से दे ख रहे थे। इतनी शी ता से वह भी नह पढ़ सकते थे।
कुबड़े ने उन दोन को अपना-अपना याला उठाने का संकेत कया।
जल-द यु क ाचीन परंपरा के अनुसार सं ध सदै व सौगंध- याला पीकर
वीकार क जाती थी। सौगंध याले क म दरा म आधा समु -जल मलाया जाता था।
यह इस बात का तीक था क सौगंध तोड़ने पर महान् सागर का ोध उसे डु बोकर
सागर तल तक ले जाएगा।
धनंजय चार ण तक याले को ताकते रहे। फर प रहास करते ए बोले,
“र वदास! न त ही यह म दरा तु हारे सुर क म दरा से अ धक अ छ होगी। तु हारी
समु म दरा पीने क इ छा आज पूरी हो गई।”
र वदास के कान खड़े हो गए। एक ण के लए उसने भी सामने रखे याले को
घूरा, फर हँसते ए याला उठा लया, “ठ क कहते हो नाग! यह उतनी कड़वी नह
होगी,” कहकर र वदास ने याले क म दरा मुँह म डाल ली। उसी समय धनंजय ने भी
याला उठाकर मुँह से लगा लया।
म दरा पीकर दोन ने एक- सरे क ओर दे खा और सहसा अपने-अपने सर झटकने
लगे। तीन-चार बार झटककर दोन चौक पर मुँह के बल गर गए।
कुबड़ा एक झटके से उठा और मुँह फाड़कर हँसने लगा। घेरकर खड़े द यु ने भी
अपनी मु ा ढ ली कर ली। सभी के मुख पर तापूण लंबी मु कान खच गई।
कुबड़ा अपने बा ओर खड़े एक साथी से पूछा, “ कतना वष मला दया था बेचारे
कुछ पल म ही ढह गए!”
वह द यु थोड़ा म म था। शी ता से र वदास के पास गया और गरदन पर अँगुली
रखकर जाँच क । बोला, “अभी मरा नह है, बस मू छत है।”
“उठाकर जल म फक दो, मर जाएगा,” कुबड़े ने आदे श दया।
चट् ट…
उस द यु के मुँह पर एक झ ाटे दार थ पड़ पड़ा। कुबड़ा स हत सारे द यु सकते म
आ गए।
थ पड़ वाला हाथ र वदास का था। द यु हड़बड़ाकर दो पग पीछे हटा। र वदास ने
सहजता से सर उठाया और मुँह म भरी म दरा क पचकारी उस द यु पर छोड़ी। धनंजय
भी मुँह से पचकारी मारते ए उठे ।
कसी के कुछ समझ आने से पहले, र वदास का हाथ बगल रखी हँ सया पर गया।
वह व ुत क ग त से झपटा। हँ सया चली और द यु का सर कट गया। इससे पहले क
कटे धड़ से र का फौ वारा पूरी तरह फूट पाता, र वदास के जोरदार पाद- हार से धड़
उड़ता आ नौका के बाहर चला गया।
छ प्!
छपाके क व न से सकते म आए द यु को वतमान का भान आ। कुबड़ा मुँह
खोले दे खता रहा। वह अभी भी जड़वत् था।
अ य द यु अपने श लेकर झपटे । धनंजय ने भी खड् ग उठा ली थी।
जल-द यु अ छे लड़ाके थे। लड़ना उनके लए दै नक काय समान था। कतु
र वदास के अ या शत आ मण से उनका आ म व ास थोड़ा डग गया।
र वदास तीन तथा धनंजय दो द यु से एक साथ लड़ रहे थे। नौका के सरे छोर
पर एक द यु ने एक भाड उठाकर पटका, फर अपनी गदा मारकर चकनाचूर कर दया।
भांड म हरा चूण भरा आ था। त प ात् उसने एक सरा भांड उठाकर चूण के ऊपर
रखा और गदा मारकर उसे भी तोड़ दया। भांड म भरा था। हरे चूण और के
मलते ही गाढ़ा ेत धुआँ उठा।
धुआँ ती ग त से चार ओर फैला और कुछ ही ण म पूरी नौका धुएँ से भर गई।
धुआँ दमघ टू नह था। कतु र वदास और धनंजय के लए धुएँ म लड़ना कर हो
रहा था। सामने एक हाथ र कुछ नह दख रहा था।
धुआँ फैलते ही द यु ने अपनी चाल प रव तत कर ल । वे सभी धुएँ यु
वातावरण म घुल-से गए। मा उनके श ही कभी इधर से, तो कभी उधर से कट होते।
इस छद्म यु -कला म जल-द यु ब त वीण थे पर र वदास और धनंजय के लए
नया अनुभव था।
इस थ त म दोन एक- सरे से पीठ चपकाकर खड़े हो गए। आगे-पीछे , दाएँ-बाएँ
चार ओर से हार हो रहा था। फर धीरे-धीरे श के कट होने क ग त कम होती
चली गई। कुछ समय प ात् एक भी श कट नह आ।
पवन के तेज झ क से धुआँ छटने लगा था।
दोन अभी भी पीठ चपकाए खड़े थे। कुछ दे र म जब और धुआँ छँ टा, तो नौका पर
उन दोन के अ त र अ य कोई उप थत नह था। सरे कोने पर धुएँ का ोत भी अब
श हीन हो गया था।
र वदास ने सतकता से नीचे झाँका। उनक नौका वहाँ नह थी। द यु-नौका के चार
ओर का धुआँ पूरी तरह छँ टा नह था। अतः र का य नह दखा। उ ह ती ा करनी
पड़ी। य साफ होने म चौथाई घड़ी लग गई। हलोर मारते समु म उ ह ने वयं को
अकेला पाया।
धनंजय द ण क ओर मुँह करके खड़े थे। र वदास ने चौक पर पड़ा सं ध-प
उठाकर धनंजय को दया और बोला, “यह ग तो ठग नकला। द यु अंततः द यु ही होते
ह।”
“इस कुबड़े को पहले भी दे खा है,” धनंजय मरण करते ए बोले।
“अब आगे क योजना या है? इस पाल वाली नौका का संचालन मुझे नह आता
और तैरकर तट तक जाना संभव नह ।”
“कदा चत् उसक आव यकता न पड़े,” धनंजय र कुछ दे खने का यास करते ए
बोले।
र वदास ने भी द ण क ओर आँख गड़ाई। कुछ दखा नह । पूछा, “इतनी दे र से
उधर या ढूँ ढ़ रहे हो? कोई आ रहा है?”
“मुझे व ास नह होता क ग ऐसा वहार करेगा। वह कुबड़ा बार-बार उस ओर
दे ख रहा था। य द मेरा अनुमान सही है, तो वा त वक प उसी ओर से आ रहा है,”
धनंजय पूरे आ म व ास के साथ बोले।
धनंजय का वा य पूरा होते-होते तज पर कई काले ब कट होने लगे।
“ ँ…ब त र क रखते हो,” र वदास बोला, “म यह थान अ तशी छोड़
दे ना चाहता ँ… गध से ना सका सड़ी जा रही है। तुमने मेरे नौका- वहार का स दय न
कर दया।”
धीरे-धीरे वे सभी काले ब जलपोत क आकृ त म प रव तत होते चले गए। उन
पर फड़फड़ाते मगर- वज र से ही दे खे जा सकते थे।
आगे-पीछे बीस-प चीस वशाल जलपोत थे। सबसे आगे चल रहा जलपोत अ य
क तुलना म तीन गुना वशाल था। उस पर ढोल, नगाड़े पीटे जा रहे थे। उसक वशालता
और चलने से पैदा ई गजना दे खने वाले के मन म रोमांच और भय दोन एक साथ
उ प करता था।
वह महा वशाल काला जलपोत कसी पवत क भाँ त समीप आकर का। लकड़ी
के ढे र पैबंद और लंबी-लंबी गहरी खरोच ने उस जलपोत क आयु और अनुभव दोन
दशा दए।
यह जलपोत कुबड़े क नौका से आठ गुना बड़ी थी। उसके चलने से उ प ई
लहर से नौका डगमगाने लगी।
र वदास और धनंजय को सर उठाकर जलपोत क ओर दे खना पड़ रहा था। ढोल-
नगाड़ क आवाज बंद हो गई। पीछे आ रहे अ य जलपोत भी एक- सरे से उ चत री
पर क गए।
जलपोत के ऊपर से कई द यु ने झाँका। फर कसी के आने से वे अगल-बगल
हटते चले गए।
कुछ-कुछ र वदास जैसा द खने वाला एक पु ष कट आ। धनंजय पहचानते थे।
वह मगर जल-द यु का नया नेता ग था।
जलपोत और नौका के बीच कुछ री थी। धनंजय अपनी नौका को जलपोत के
बगल चपकाने म असमथ थे। अतः जलपोत से एक छोट नौका नीचे उतारी गई।
धनंजय और र वदास कुबड़े क नौका से नीचे उतरे और उस छोट नौका के सहारे
जलपोत तक प ँच।े फर लटकती सी ढ़य पर चढ़े ।
अपनी वशालता के अनुसार ऊपरी तल पर तीन सौ से अ धक द यु थे। यहाँ गध
अपे ाकृत कम थी।
जो द यु जहाँ था, वह खड़े होकर उन दोन को दे खने लगा। ऊपर पाल पर भी
कई द यु चढ़े ए थे। म तूल पर भी सतक धनुधर उप थत थे।
“तु हारा त न ध तो भगोड़ा नकला या तुम द यु वागत ही इसी कार करते
हो!” जलपोत पर पग रखते ही र वदास ने ग क ओर मुँह करके कहा। वह ग को
पहली बार दे ख रहा था। अ य द यु क भाँ त उसके ने से लालसा का कण मा भी
नह झलक रहा था। मुख क शां त भी भावशाली थी।
ग ने कोई औपचा रक अ भवादन नह कया। बस अपने पीछे आने का संकेत
कया।
जलपोत के दोन छोर पर लकड़ी के क बने थे। ग उ ह पृ भाग के क क
ओर ले गया।
कम काश वाले क म तीन ने वेश कया। क पया त बड़ा था, कतु हवादार
नह था। सामने ही कुछ ऊँचाई बनाते ए एक आसन पर एक बूढ़ा बैठा था। बूढ़े के मुख
पर अन गनत झु रयाँ थ । क म जल रही एकमा उ का के काश म बूढ़े के मुख का
मरणास भाव प द ख पड़ रहा था।
लक ड़य के जस आसन पर वह बैठा था, उसक संरचना कसी सहासन समान
थी। ह थे पर काठ के मुँह फाड़े सह का सर गढ़ा आ था।
बूढ़े का संपूण शरीर व क असं य परत से ढका था। द खने म तीत होता,
मानो व के ढे र के ऊपर कसी का सर रख दया गया हो। शरीर के अ य अंग क
झलक भी नह मलती थी। बूढ़े क आँख बंद थ ।
ग ने धनंजय से धीरे से कहा, “बाबा ती ा म थे।”
धनंजय बूढ़े का प रचय वयं ही जान गए। वह मगर- वज का भूतपूव द यु-नेता
जटायु था।
जटायु ने पछले चालीस वष से सागर के सबसे बड़े जल-भाग पर शासन कया
था। दजन प उसके अ धकार म थे। द यु उसे जल-स ाट कहते थे।
जटायु एक असुर था। वह क रया का चाचा था। जटायु से पहले सागर पर यवन
जल-द यु का वच व था। वतमान म दो सबसे बड़े गरोह थे। पहला मगर- वज और
सरा कक- वज। मगर- वज का वतमान नेता ग था और कक- वज का भील। इन
दोन गुट म भु व को लेकर समय-समय पर र -रं जत यु होते ही रहते थे।
आहट सुनकर बूढ़े ने धीरे से आँख खोली। बा आँख खराब थी। काली पुतली पर
सफेद झ ली पड़ चुक थी। बूढ़े का मुँह खुला और गजना ई— ‘नागवंशी!’
वर म इतनी चंडता थी क लकड़ी का क भी त व नत होता आ महसूस
आ। धनंजय और र वदास दोन आ यच कत थे या इस मरणास शरीर के फेफड़े म
इतनी श बची है क ऐसी गजना उ प कर सके।
बूढ़ा धीरे से मु कुराया। इस बार सामा य, कतु भारी वर म बोला, “बड़ी स
सुन रखी है तु हारी!”
धनंजय पर शंसा का त नक भी भाव नह पड़ा। वह श ता से बोले, “म मा
अपनी भू मका नभाता ।ँ आशा करता ँ जल-स ाट से यह थम भट नए संबंध का
ार खोलेगी।”
‘हा! हा!’ जटायु का अट् टहास क म पुनः त व नत आ। “द यु के साथ
संबंध बढ़ाना कब से स मा नत हो गया, नागवंशी!”
धनंजय ने उ र दे ने के थान पर सं ध-प नकालकर ग को थमाया।
ग ने पढ़ा। इस वैधा नक सं ध-प म वही बात-शत थ , जो धनंजय का त पहले
लेकर आया था।
प पढ़कर ग ने जटायु क ओर हामी का संकेत दया।
“तेरी शत पहले ही जान चुका ,ँ नागवंशी!, कतु कुछ पर संदेह है” जटायु बोला।
“ कन शत पर?” धनंजय ने पूछा।
“सौरा के तट और ऊसर के वषय म।”
जटायु का संदेह सुनकर धनंजय चुप रहे। जटायु के कान लंबे ण तक धनंजय का
वर सुनने क ती ा करते रहे। धनंजय जटायु क ओर दे खते ए अभी भी मौन थे।
“इस मौन का या अथ है नागवंशी?” जटायु ने गरजकर कया।
“यही क व ास दलाने के लए मुझे माण दे ने क आव यकता नह ” धनंजय
पूरे आ म व ास के साथ बोले।
“हा! हा! हा! बड़ा कूटनी त है तू! व ास क बड़ी-बड़ी बात करता है।” जटायु
हँसा।
“ व ास दे कर ही व ास ा त होता है,” धनंजय पुनः खर ए।
जटायु का भाव एकदम शांत हो गया। फर रह यमय वाणी म बोला, “हणपु
धनंजय! मेरे समीप आ, म भी तुझे कुछ व ास ँ गा।”
श द-चयन के इस प रवतन से धनंजय त काल असहज ए। मन म सचेत होने का
संकेत मलने लगा।
र वदास को भी कुछ ऐसा ही अनुभव आ। हाथ हँ सया क मूठ पर कस गया और
चौक ी हो गई।
धनंजय पूरी सतकता से आठ पग आगे बढ़कर जटायु के पास प ँच।े
जटायु क कोटर से झाँकती बूढ़ आँख का भाव पढ़ पाने म धनंजय असमथ थे।
जटायु ब त दे र तक धनंजय के मुख को नहारता रहा। फर ठं डे वर म बोला, “तेरे
पता का सर मने ही काटा था।”
धनंजय पर जैसे आकाशीय बजली गरी। न मष भर म चार ओर अंधकार-सा छा
गया। वष से शांत र णभर म खौल उठा। मुख पर सदै व रहने वाला वाभा वक तेज
वलीन हो गया। ने म ोध का पदापण होने लगा।
पीछे र वदास क भी यही अव था थी। जटायु के श द कान म पड़ते ही णभर के
लए वह जड़ हो गया। श द ोध म प रव तत ए और पूरी उ ेजना के साथ हँ सया
सामने तल पर पटक मारा। हँ सया लकड़ी के तल म धँस गई। वह पूरी श से च लाया
— “नाग!”
इधर धनंजय उ र दे ने क अव था म नह थे। ने म उतरा ोध पूरे शरीर म फैलने
लगा था। मु ट् ठयाँ पूरे बल से भची थ । साँस इतनी लंबी होने लग क अटकने-सी लग ।
मन ऐसी भावना म गोते लगाने लगा, जो वष म कभी नह उपजी थ । चार ओर का
अंधकार गहराता जा रहा था।
जटायु, धनंजय से ने जोड़े ए था। सूखे ह ठ पर मंद मु कान लाकर बोला, “ या
अब भी सं ध चाहते हो, या द यु के वषय म धारणा प रव तत हो गई?”
र वदास से संभला नह जा रहा था। पुनः च लाया— ‘नाग!’
समीप खड़ा ग शांत था, पर चौक ी।
धनंजय ने दाएँ हाथ से अपनी छाती भ ची। साँसे नयं त करने म बल इ छाश
लग गई। उबल रही आँख से महा ोध धीरे-धीरे उतरने लगा। दे ह का कंपन भी थोड़ा
कम आ। उ ह ने आकाश क ओर सर ऊपर कर ने मूँद लए।
र वदास को भी वयं को थामने म प र म करना पड़ गया।
द घ ण प ात् धनंजय ने सर सीधा कया। ने खोले। मुख पर तेज पुनः कट
होने लगा। ढ़ता और नयं ण ने उस तेज को और बढ़ा दया। वे शांत और नमल वाणी
म बोले, “जल-स ाट तुम द यु हो, तुमने अपना वहार दखाया। म धनंजय ँ, म
अपना वहार दखाऊँगा…तुम सौगंध याला तुत करो।”
जटायु ने भयानक अट् टहास कया— “हा! हा! हा! युग वतक! तू तो अपनी
स के अनु प नकला।” फर ग को संबो धत कर, “ब चा! नागवंशी का स कार
कर।”
ग आदे श दे ने बाहर चला गया। धनंजय पीछे मुड़े और चलकर र वदास के समीप
प ँच।े र वदास क साँस अभी भी ध कनी क ग त पर थ ।
धनंजय ने र वदास के कंधे पर हाथ रखा। र वदास के अंदर, हँ सया लेकर जटायु
पर झपट पड़ने क बल उ कंठा हलोर मार रह थी। बड़ी क ठनाई से वयं पर नयं ण
पाया।
ग के साथ एक द यु अंदर आया और सौगंध याला रखकर चला गया। क म
बैठने के लए कोई आसन नह था। धनंजय, र वदास और ग तीन नीचे बैठे। सामने भरे
ए याले रखे थे।
“वह कुबड़ा कौन था? वयं को तु हारा त न ध बता रहा था।” धनंजय ने याला
उठाते ए कया।
ग ने भी याला उठाया और बताया, “वह गरारा था। दो वष पहले उ रा धकारी के
चयन के समय से ही भड़का आ था। वह वयं नेता बनना चाहता था। समय-समय पर
सद य को भड़काता रहता था। तीन दन पूव उसने मयादा लाँघ द । सबसे पुराना सद य
था, अतः ाणदान दे कर मगर- वज से न का सत कर दया गया।…कदा चत् कटु ता म
आकर उसने आपको हा न प ँचाने का यास कया होगा।”
“उसने सं ध-प पढ़ लया है,” धनंजय ने सूचना द ।
ग का उठा आ याला हवा म ही क गया। सोचकर बोला, “संभव है, यह
उपयोगी सूचना दे कर वह कक- वज म स म लत हो जाए…।”
तभी र वदास ने अपना याला पीकर सामने जोर से पटक दया। उसके अंदर क
उ ेजना अभी भी पूरी तरह शांत नह हो पाई थी। याला पटककर र वदास ने गरदन
घुमाकर जटायु क ओर दे खा। जटायु भी उसे दे ख रहा था। र वदास को नह ात क
जटायु उसका प रचय जानता है अथवा नह । कतु उसका रोम-रोम जल रहा था। वह
उठा और हँ सया कंधे पर रखकर क से बाहर चला गया। बाहर नकलकर जलपोत के
कनारे खड़ा आ और र समु म दे खने लगा।
धनंजय, ग के साथ योजना पर लंबी चचा करते रहे। र वदास यूँ ही मू तवत् खड़ा
रहा।
घड़ी उपरांत धनंजय नकले। र वदास ने कुछ नह बोला। दोन जलपोत से उतरकर
छोट नौका पर गए। ग पतवार चलाने के लए दो द यु साथ म भेज रहा था, पर धनंजय
ने मना कर दया।
दोन अकेले ही नाव खेते ए तट क ओर चले गए।
ऊसर

ऊसर जंबू प के द ण म थत था। यह कभी असुर राजस ा के अ धकार म आ


करता था। कालांतर म राजवंश के क लय ने व ोह करके अपनी वतं स ा था पत
कर ली। वतमान म उसका पु क रया यहाँ का शासन संभालता था।
राजमहल से एक कोस र झाड़-झंखाड़ वाले व य- े म कई मक मलकर
लकड़ी के एक तंभ को खड़ा कर रहे थे। तंभ वृ के तने को खोखला करके बनाया
गया था। य द तंभ के ऊपर ढे र-सारी टह नयाँ जोड़ द जाएँ, तो द खने म एक वय क
वृ तीत होगा।
जहाँ काय हो रहा था, वह पीछे एक रथ पर क रया खड़ा था। असुर दे श से
योगकता शु को छु ड़ाकर लाए ए बीस दन बीत गए थे। एक लाल जंगली फल खाते
ए वह मक को काय- नदश दे रहा था।
तभी एक अ य रथ दौड़ता आ आकर समीप का। उस पर जावा था। रथ कते
ही, उसने सूचना द — “सौरा से नाग े धनंजय का त आया है।”
नाम सुनते ही क रया के मुख पर स ता चढ़ गई। मन उ ल सत हो गया। मुख पर
एक लंबी मु कान ख चकर पूछा— “ या संदेश लाया है?”
जावा पर क रया क स ता का कोई भाव नह पड़ा। सपाट भाव से उ र दया
— “परस आगमन है।”
क रया च का, कतु स ता गुनी हो गई, “वे वयं आ रहे ह?”
“हाँ! दासपु र वदास के साथ परस म या तक आ जाएँग।े ” जावा ने उ र
दया।
क रया हँसा और वागत क तैयारी करने का आदे श दया।
दो दन प ात् ऊसर क सीमा के अंदर आठ रथ एक कतार म दौड़ रहे थे। चौथे पर
र वदास और धनंजय थे। वे अपने साथ तीन रथ लेकर आए थे। ऊसर क सीमा म वेश
करते ही, पहले से ती ारत, क रया ारा भेजे गए पाँच अ य रथ भी उनके साथ
स म लत हो गए।
जल-स ाट जटायु से मलकर आने के प ात् धनंजय और र वदास पूरे दन शांत
थे। न आपस म बात क , न अ य कसी से। रा - न ा के प ात् दोन सहज ए।
धनंजय थोड़े गंभीर रहे, पर र वदास पूण प से पहले जैसा व छं द हो गया। आज चौथा
दन था। अब धनंजय भी पूण प से व थ हो चुके थे।
पाँच घड़ी क या ा के प ात् वे राजधानी के ार पर प ँचे। ार पर उनके वागत
क जो भ तैयारी थी, उसक धनंजय ने कभी क पना न क थी।
राजधानी के मु य ार क ओर जाने वाले माग के दोन ओर सौ-सौ वण-स जत
हाथी खड़े कए गए थे। हा थय क पीठ पर बँधे हौदे म ढोल, नगाड़े, मृदंग और न जाने
कौन-कौन से वा -यं लए असुर खड़े थे। इनके साथ पु प फकने वाली असुर याँ भी
हौदे म बैठ ई थ । य प ऊसर क अ धकाँश जा असुर थी, तथा प वे शरीर पर
काला रंग नह लगाते थे।
धनंजय का रथ प ँचते ही वा -यं लयब बजने लगे। जन थान से उनका रथ
गुजरता, याँ हौदे से पु प बरसात । ढोल-नगाड़ क व न से आकाश गूँजने लगा।
हा थय के पीछे बास क बाड़ लगाई गई थी। बाड़ के पीछे दे खने वाल क भीड़ थी।
लोग उचक-उचककर धनंजय और र वदास को दे खते।
हा थय को स जत करने म लगे वण सूय- करण से चमक उ प कर रहे थे।
वा बजाने वाले पु ष और पु प फकने वाली याँ भी वणाभूषण से लद ई थ ।
हा थय के कान म कपास के ठोस गोले ठूँ से गए थे। अ यथा ढोल-नगाड़ क
सामू हक चंड व न से वच लत होकर वे भड़क भी सकते थे।
पु प-वषा के बीच धनंजय का रथ मु य ार पर प ँचा। ार के दोन ओर दो अ त
वशाल तबले जैसा वा रखा आ था, जस पर चार-चार असुर खड़े होकर लकड़ी क
गदा से उसे पीट-पीटकर बजा रहे थे।
ार पर प ँचकर उनका रथ क गया। दोन रथ से उतरे। सामने अपने मं ीगण के
साथ क रया उप थत था।
क रया ने हाथ जोड़कर और सर झुकाकर अ भवादन कया, “नाग े ! आपके
आगमन से, ऊसर क धरती आज ध य ई। ऊसर का सेवक क लयपु क रया आपका
अ भनंदन करता है।” फर र वदास क ओर दे खकर, “दासपु ! म आपका भी
अ भनंदन करता ँ।”
त प ात् क रया ने शंख नकालकर बजाया। मं ी गण के पीछे लँगोट पहनकर
खड़े बारह म ल-यो ा ने भी सामू हक शंखनाद कया।
धनंजय क क रया से एकमा भट चार वष पूव अमरखंड म ई थी। उ ह ात था
क क रया उनका शंसक है, कतु उनके आगमन पर इतना भ वागत होगा, उ ह ने
सोचा नह था।
यह सब दे खकर र वदास ब त स था। धनंजय पर उसे सदै व गव आ करता
था। आज पुनः व फुलाने का अवसर मल गया। ने म चमक लए धनंजय क ओर
दे खा। धनंजय भी मु कुराए।
वागत काय म के उपरांत क रया उ ह अपने महालय ले गया। महालय के भवन
म चार ओर जड़े वण को दे खकर धनंजय और र वदास दोन च कत थे। महल के
येक तंभ पर वण मढ़े थे। क के ार भी वण-मं डत थे। वहाँ के सेवक-
से वका का शरीर राजा-रा नय क भाँ त वण से लदा आ था। इतना वण-वैभव
धनंजय ने कुंडार म भी नह दे खा था।
क रया उ ह अपने महालय म टकाकर खूब स कार करना चाहता था। पर धनंजय
शी ता म थे। थोड़ी नह , ब त शी ता म। वे आज ही काय नबटाकर लौटना चाहते थे।
उनके आ ह पर क रया उ ह एक उ ान म ले गया। इस खुले थान पर उनक बात
पर कसी गु तचर ारा कान लगाना क ठन था।
क रया के आदे श पर वहाँ एकांत हो गया। मा चार लोग बचे। धनंजय, र वदास,
क रया और जावा। जावा का प रचय क रया ने अपने अ त व सनीय सहयोगी के प म
कराया।
त प ात् धनंजय ने एक प नकालकर क रया को पकड़ाया। क रया ने प पढ़ा।
प छोटा था, पढ़ने म अ धक समय नह लगा। प म थोड़े से सहयोग क माँग क गई
थी। प पढ़कर क रया के ह ठ के कोने थोड़ा ऊपर उठे । मानो उसे इस कार के
ताव, सं ध या आ ह के आने का पूवभान था। तथा प जस कार का छोटा सहयोग
इस प म माँगा गया था, उसे ऐसी आशा नह थी।
पछले पं ह वष से ऊसर जंबू प का सबसे रह यमय थान बना आ था। वहाँ
क राजनै तक थ त, उसक वा त वक रण-श और वतमान थ त के वषय म ब त
कम सूचनाएँ बाहर प ँच पाती थ ।
क रया ने कया, “नाग े ! आप भली-भाँ त जानते ह क ऊसर दानव
महाम हम द ान क ससुराल है। इसके प ात् भी आप दानव के व ऊसर से
सहयोग माँगने आए ह।”
धनंजय ने सहज मु कान के साथ सीधा और सं त उ र दया— “हाँ!”
क रया के मुख पर अनायास ही मु कान खच गई। आ ह से बोला, “नाग े ! य द
आप अवसर द, तो म आपको कुछ व श थान का मण कराना चाहता ँ।”
“ मण?” धनंजय को समझ नह आया।
“इसम अवसर क या बात है!” र वदास आगे आकर बोला, “म मण करने ही
तो आया ँ।”
क रया ने असुरी लोक-भाषा म जावा से कुछ कहा। जावा व था करने चला
गया।
धनंजय और र वदास ने एक घड़ी तक जलपान और व ाम कया। त परांत
क रया उ ह महालय के पछले भाग ले गया।
यहाँ एक व तृत मैदानी भाग था, जो ऊँचे परकोट से घरा आ था। मैदान का
अंत सीमा से परे था। मैदान म छोटे -बड़े भवननुमा कई संरचनाएँ य -त बनी ई
थ।
आगे बढ़ने के लए रथ क व था थी। दो रथ पर सवार होकर चार बढ़े ।
कुछ दे र चलने के प ात् वे अ -चं ाकार आकृ त म बने एक वशाल भवन पर
के। भवन के बीच म एक छोटा पोखरा भी था।
यह भवन सै नक क कड़ी सुर ा म था। वृ पर सतक धनुधर बैठे थे और समीप
ही एक सै य छावनी भी उप थत थी।
रथ से उतारकर क रया उ ह अंदर ले गया। वहाँ दजन क थे। सभी क बारह
हाथ ऊँचे और आपस म सटे ए थे। वातावरण म एक असामा य-सी गंध तैर रही थी।
भवन का एक सरा टू टकर खंडहर बना आ था। यान से दे खने पर पूरे भवन म
सैकड़ पैबंद द ख रहे थे। जैसे कसी टू टे भवन का यथासंभव जीण ार कया गया हो।
क रया उ ह लेकर एक क म घुसा। क इतना वशाल था क पूरी राजसभा बैठ
जाए। काश और वायु-गमन के लए ऊपर दजन वातायन खुले थे।
क के अंदर छोट -बड़ी ढे र सुरा हयाँ और मट कयाँ एक के ऊपर एक टकाकर
रखी ई थ । कई सुरा हय के मुख से ह का धुआँ नकल रहा था। कुछ मट कयाँ ऐसी
भी थ , जनके पदे आपस म, मट् ट क पतली न लय ारा जुड़े ए थे। क म चार
वृ मट कय के का परी ण कर रहे थे। वे मट कय म लकड़ी क डंडी
डालकर बाहर नकालते, फर डंडी का सू म रंग-प रवतन जाँचते।
क रया ने सं त प म बताया क यह रसायन-शाला है।
इसके उपरांत वह उ ह यं -शाला ले गया। वहाँ लकड़ी तथा धातु क घर नया, च
तथा भ - भ आकृ तय के टु कड़ का ढे र था। भाँ त-भाँ त के ढाँचे वाले छोटे -बड़े
अबूझ से कई अ न मत यं रखे ए थे। यहाँ भी चार वृ उन यं के साथ लगे
ए थे।
धनंजय का म त क तेजी से चलने लगा। कई नई शंकाएँ और नए समीकरण
द खने लगे।
यं -शाला के प ात् क रया उ ह भूगभ, औष ध, पदाथ और ऊजा स हत अ य
वषय क शोधशाला म ले गया।
धनंजय पूरी तरह च कत थे। इस तर क शोधशालाएँ अमरखंड म भी नह थ ।
इसके अ त र ऊजा से संबं धत शोधशालाएँ जंबू प म कदा चत् ही कभी बनी ह गी।
“यह शोधशाला तुमने था पत क है?” धनंजय ने संदेह म त वर म पूछा।
क रया मन-ही-मन मु कुराया। सरलता से बोला, “यह दे व क पुरातन शोधशाला
थी। मने तो मा इसका जीण ार कया है।”
धनंजय के कान खड़े हो गए। पछले दे वासुर-सं ाम म दे व ने जंबू प क सारी
शोधशालाएँ पूरी तरह न कर द थ । या यह शोधशाला कसी कारण से बची रह गई?
धनंजय मनन करते रहे। फर ब त सोच-समझकर कया— “ या पांडु ल पयाँ
सुर त थ ?”
क रया क मु कान रह यमय हो गई। धीरे से हामी भरी।
इस बार धनंजय ने अपना आ य दबा लया, पर र वदास अपने खलंदड़े वभाव म
बोला, “तो तुम यहाँ दे व का माया- ान चुराते हो!”
क रया हँसा। समझाते ए बोला, “नह दासपु ! इसम चुराने क या बात! ान
पर कसी का एका धकार कैसे हो सकता है! लोग के मन म यह म है क इसे माया-
ान कहते ह, जसक सहायता से दे व परालौ कक लगने वाले काय करते ह। वा तव म
यह आकाश, पाताल, धरती, , वायु, पदाथ-अपदाथ, ऊजा, भौ तक, गुण-धम,
गणना , माप-प रमाप, न स हत सम त व का ान है। संपूण व के इस व -
ान को दे व ‘ व ान’ कहते ह।”
‘ व ान?…यह श द कह सुना है,’ र वदास सोचने लगा।
तभी एक सै नक आया और क रया को धनुष-बाण थमा गया। क रया ने बाण
चढ़ाकर बीस हाथ र भू म पर मारा। टकराते ही व फोट आ।
क रया धनंजय क ओर मुड़ा और बोला, “यह दानव न मत नह है।”
धनंजय क भौह त काल व । जस व फोटक चूण को बनाने म अमरखंड भी
वष क शोध के प ात् पूण प से सफल नह आ, उसे इस असुर ने ा त कर लया।
धनंजय ने यथासंभव अपने भाव दबाने का यास करते ए पूछा— “अपने गु त-
रह य मेरे स मुख उद्घा टत करने का या औ च य है?”
क रया मधुरता से बोला, “नाग े ! मा यह दखाना चाहता था क म आपक
कतनी सहायता कर सकता ँ।”
“और इस सहायता के एवज म तु हारी या माँग है?” धनंजय ठं डे भाव से पूछे।
क रया का मुख गंभीर हो गया। ललाट का तेज बढ़ने लगा। उद्घोषणापूण वाणी म
उ र दया— “आगामी दे वासुर-सं ाम म नेतृ व।”
यह सुनकर धनंजय के भी मुख पर गांभीय छा गया। अपलक क रया को दे खते रहे।
मन म चतन-मनन, गणना, समीकरण, कूटनी त सब घूमा और अंत म कोई भी उ र न
दे ने का न य कया। सहज वाणी म बोले— “समय हमारी भू मकाएँ वयं तय कर
दे गा।”
क रया बस मु कुराया और कुछ न बोला।
हा य नाटक

पछले कई दन क भाँ त आज भी वधान दे र से उठा। मेघयु आकाश म सूय चढ़


आया था और कोयल कूक रही थी। घर म वह और काक कंसा ही बचे थे। स ,ू काका,
बसंत और मयूरी सब चले गए थे।
खाट पर लेटे-लेटे यान आया क आज स ू का नाटक मं चत होगा। दे खने जाना
है। वह झट से उठा और न य-कम नबटाकर आँगन म प ँचा।
पछले चार दन से वह मट् ट के द ये बनाने म जुटा आ था। द ये बनकर तैयार
थे। उनक बनावट सामा य द ये जैसी नह थी। वे हंस-युगल क आकृ त म थे। दो हंस
आपस म अपनी गरदन लपेटकर आकाश क ओर मुँह कए थे और उनक च च खुली
ई थी।
कुल बीस-प चीस द ये ह गे। सभी आग म पक चुके थे। आज उ ह रंगकर सजाना
था।
आव यक साम ी लेकर वह रँगने बैठ गया। काक कंसा उसके लए कलेवा ले
आ । वे भी रँगने म सहायता करना चाहती थ , पर वधान ने मना कर दया। वह अपने
हाथ से सारे द ये रंगना चाहता था। मा रंगना ही नह , अ पतु उसने वयं मट् ट खोद ,
उसे गूँथा और पूरा दन जुटकर इस आकृ त म सावधानी से बनाया। उसने स ू क भी
सहायता नह ली।
जब काक और मयूरी उससे पूछती, तो कह दे ता क बस बनाने क इ छा हो रही
थी। य द अ छे बन गए तो हाट म जाकर बेच आऊँगा।
दोपहर से पहले ही सारे द ये रंग-स जत हो गए। हंस का शरीर सफेद, च च लाल
और आँख काली, मा इ ह तीन रंग से उ ह सजाया गया था।
वधान ह के नीले रंग से धा रयाँ बनाकर पंख को उकेरना चाहता था, कतु उतनी
महीन कूची उसके पास नह थी। स ू के पास थी, कतु उसका च कारी-सामान एकांश
ले गया था।
काय पूण कर वधान ने हाथ-मुँह धोया और अपनी धोती कसी। तभी बाला का
भेजा एक सै नक आया और उसे एक छोट पोटली थमाकर चला गया।
पोटली म दो वण-कुंडल और एक प था। प म इन वण-कुंडल के साथ
अ तशी अ यास ारंभ करने को कहा गया था।
वधान ने कुंडल को घुमा- फराकर दे खा। अंदर के भाग पर वटवृ जैसा एक च
था। इसके अ त र ऐसा कुछ भी व श नह दखा, जो उसे सरे सामा य कुंडल से
भ करता।
वधान ने अपने दोन हाथ म पहनकर दे खा। कुछ वशेष अनुभव नह आ। उसने
नकालकर अपनी कमर प ट् टका म रख लया। सोचा— बाद म गु त थान दे खकर
अ यास क ँ गा, अभी तो स ू का नाट् य दे खने चलता ँ।

नाटक का मंचन, अथ-महल के बा ओर खड़ी वराट् मू त के पैर के समीप हो रहा था।


यु -काल आने पर जा के अंदर रा -भ जगाए रखने के लए, नाटक का मंचन
त दन कया जाता था। वीरता के कई नाटक दखाए जाते थे। इ ह नाटक के बीच
कुछ हा य के भी नाटक रखे जाते थे ता क थोड़ी व वधता हो जाए और दशक को ऊब
भी न लगे।
य प स ू को वयं वीर-रस के नाटक अ य धक य थे, पर कुछ भ करने क
चाह म उसने एक हा य नाटक को चुना।
वधान शी ता से वहाँ प ँचा। नाटक का मंच, वशाल मू त के अँगूठे के ठ क सामने
बनाया गया था। ी, पु ष, ब चे, बूढ़े सभी भू म पर बैठे बड़े चाव से दे ख रहे थे।
अभी-अभी एक नाटक समा त आ था। लोग ने उ साह से ता लयाँ बजाई। लोग
क भीड़ म वधान क मयूरी को खोज रही थी।
स ू ने ब त बल दे कर बसंत-मयूरी को बुलाया था। बसंत ने असमथता जताई, पर
मयूरी ने कहा था क वह राजकुमारी धरा से आ ा लेकर समय पर अव य आ जाएगी।
वधान क को अ धक खोजना नह पड़ा। मयूरी के प रधान को अ छे से
पहचानता था। आगे, म य म बैठ थी।
“भाभी! स ू का नाटक छू ट तो नह गया?” वधान मयूरी के बगल बैठता आ
बोला।
मयूरी ने मधुरता के साथ उसका वागत कया— “नह दे वर! सही समय पर आए
हो। अभी तक छोटे दे वर का मंचतोड़ दशन नह आ है।”
दोन हँसे। वधान ने मयूरी को खाने के लए गुड़ और चटनी द । घर से नकलते
समय काक कंसा ने मयूरी के लए यह खा -साम ी बाँधकर उसे दे दया था।
काक भी स ू का नाटक दे खना चाहती थ , पर आजकल पैर म दद रहता था और
यह थान भी उनके लए र पड़ता। सो, वह नह आ । वधान ने उ ह अपनी पीठ पर
लादकर ले चलने का ताव भी दया था। पर उ ह ने हँसकर मना कर दया।
दोन गुड़ खाने म त थे क मंच संचालक ने एक अ य नाटक क घोषणा क ।
कुछ दे र म नया नाटक ारंभ आ। नाटक दस वष के एक ब चे के वषय म था, जो
अपने पता के यु म वीरग त पाने के प ात् अपनी रोती- बलखती माँ को सां वना दे
रहा था।
नाटक का ारंभ मा मक था। वधान, मयूरी स हत सम त दशक क मंच पर
चपक गई थी। सारे दशक एकदम चुपचाप थे। यह नाटक अनुभवी और गुणी कलाकार
ारा खेला जा रहा था। भाव-भं गमा और संवाद ारा उ ह ने दे खने वाल को
स मो हत-सा कर रखा था।
जैसे-जैसे नाटक आगे बढ़ता गया, दशक क भावना का वार भी चढ़ता गया।
नाटक दे खते-दे खते एकाएक वधान को न ा-सी आने लगी। न ा भी ऐसी, जो
रोके न के। संघष करने से पहले ही आँख बंद हो ग । लगा, कसी गाढ़े अंधकार म
खड़ा है। तभी एक अट् टहास सुनाई पड़ा।
इसी अट् टहास के साथ उसक आँख खुल ग । दे खा, नाटक समा त हो गया और
कलाकार शीश झुकाकर लोग क ता लयाँ वीकार कर रहे ह।
उसका हाथ सहज ही अपनी छाती पर गया। दय पूरे वेग से धड़धड़ा रहा था, मानो
अभी-अभी कोई क ठन शारी रक म कया हो।
सभी का यान मंच क ओर खचा आ था। उसे कोई नह दे ख रहा था। मयूरी भी
कलाकार को ता लयाँ दे ने म त थी।
वधान को त नक भी समझ नह आया क अभी उसके साथ या आ था। कतु
फर यह सोचकर छोड़ दया क ऐसी अबूझ घटनाएँ उसके साथ होती ही रही ह। पर एक
बात अभी भी खटक रही थी क उसे नाटक के ारंभ म झपक आई थी, उसे अ छे से
मरण है क वह कुछ ही पल अंधकार म था, फर इतने कम ण म पूरा नाटक समा त
कैसे हो गया? या वह पूरे नाटक सोता रहा?
“इतना दय- पश नाटक पहले कभी नह दे खा,” मयूरी बचा आ गुड़ खाते ए
बोली।
“अं!..हाँ! ब त अ छा था,” वधान गला साफ करते ए कहा।
मंच संचालक ने अगले नाटक के वषय म सू चत कया। अब स ू क बारी थी।
आवरण उठता है। मयूरी ने ता लयाँ बजाकर वागत कया। मंच पर स ू दखा। वह
साधु के भेष म यानम न बैठा था।
(दो लड़ कयाँ एक लड़के के साथ वेश करती ह। एक लड़क क गोद म गु ड़या
है।)
लड़क — या आप ही स ू मु न ह?
स ू (धीरे से आँख खोलता है)— हाँ ब चा! तुमने ठ क पहचाना। या म इतना
स हो गया ँ, क लोग मुझे खोजते ए आ रहे ह।
सरी लड़क — नह मु नवर! हम आपके वषय म कुछ नह ात था, अ पतु
आपका नाम सुनकर हँसी आ रही थी। माग म थान- थान पर आपके नाम क त तयाँ
लगी ई थ । सो, हम पढ़ते ए चले आए।
स — ू तुम र से आई होगी, अ यथा मेरा नाम अव य सुना होता।
लड़क — नह मु नवर! हमारा गाँव तो एक कोस से भी कम र है। हमने जीवन म
एक बार भी आपका नाम नह सुना।
स ू (खाँसते ए)— ख ! ख ! जो भी हो। यह तो तु हारा अ ान है। पहले अपना
प रचय दो।
लड़क (उ साह दखाते ए)— मु नवर! म सीता, यह गीता और यह मेरा भाई
पपीता।
स ू (हँसते ए)— हा! हा! हा!…पपीता! यह कैसा नाम आ!
लड़क ( चढ़ते ए)— य मु नवर! जब आपका नाम स ू हो सकता है, तो मेरे
भाई का नाम पपीता य नह ?
स ू (हँसी दबाते ए)— अ छा! अ छा! ठ क है! यह बताओ, मेरे दशन करने य
आई हो?
लड़क — नह मु नवर! आपके दशन करने क हम त नक भी इ छा नह थी। मुझे
तो बस अपनी ब ची का नाम रखना था। आपके नाम क त ती दे खी, तो सोचा मु नवर
से अ छा नाम भला और कौन रखेगा! सो, म आपको ढूँ ढ़ते ए चली आई।
स —ू लाओ! लाओ! यह शुभ काय करने म मुझे बड़ी स ता होगी।
(लड़क गु ड़या को स ू क गोद म रखती है।)
लड़क — मु नवर! कोई सुंदर-सा नाम र खएगा। अपने जैसा नह ।
स ू ( नेह से गु ड़या को पुचकारता है)— इसके मुख पर कतनी सौ यता छाई है।
इसका नाम सौ या होना चा हए।
लड़क — सौ या! आहा! कतना सुंदर नाम है! सुनकर ही मन को ठं डक मल गई।
( फर हाथ जोड़कर) मु नवर, आप ब त गुणी लगते ह। हमारे घर च लए। मेरे पता के
पास ब त धन है। वह आपके रहने के लए गौशाला बनवा दगे।
स ू (आ य से)— गौशाला?…म गौशाला म र ँगा?
लड़क — हाँ मु नवर! आप गाय क भाँ त एकदम सीधे लगते ह। आपके रहने के
लए गौशाला ही उ चत थान है।
स ू (जोर से डाँटते ए)— चुप! अ श ता क भी कोई सीमा होती है। य द और
ज ा चलाई, तो मुँह से अ न नकालकर भ म कर ँ गा।
(दोन लड़ कयाँ और लड़का घुटने के बल गरकर गड़ गड़ाते ह।)
तीन एक साथ— मा कर मु नवर! हम पर कु पत न ह । हम त नक भी भान नह
था क आप मुँह म चू हा जलाकर बैठे ह।
नाटक मनोरंजक ढं ग से ारंभ आ था। लोग रस ले रहे थे। तभी वधान को
आभास आ क कोई उसे दे ख रहा है। उसने नाटक से यान हटाकर आगे-पीछे , अगल-
बगल दौड़ाई। भीड़ म कुछ समझ नह आया। कोई भी संदेहा पद नह मला। फर
भी थोड़ा-सा वच लत हो गया।
मशक से थोड़ा जल पया और नाटक दे खने लगा। उसका सर सीधा था, पर
अभी भी इधर-उधर दौड़ रही थी।
नाटक आगे बढ़ता गया। पर वधान यान नह लगा पाया। बीच-बीच म लोग क
हँसी फूटती, तो मुड़कर उस ओर दे खने लगता। ऐसा पूरे नाटक भर चलता रहा।
नाटक लंबा था। ता लय क गड़गड़ाहट और हँसी के साथ समा त आ। वधान
और मयूरी ने हाथ उठाकर ता लयाँ बजा ता क स ू उ ह दे ख सके।
मंच पर आवरण गरता है।
मयूरी ने नाटक का खूब आनंद लया। ता लयाँ पीटने म उसने कोई कमी नह क
थी। उठते ए बोली— “छोटे दे वर तो बड़े तभावान् ह। च कला के साथ अ भनय म
भी नपुण ह।”
“और लट् टू म भी महारथी है।” कहते ए वधान भी उठ गया।
“अरे हाँ! लट् टू के वषय म तो भूल ही गई। बसंत उसके लए भाँ त-भाँ त के लट् टू
बना रहा है। अ छा! अभी अथ-महल चलती ँ। अवकाश दे ने म राजकुमारी बड़ी कठोर
है। चाहती है, दन-रात उससे चपककर र ँ। काक से कह दे ना, रा दे र से लौटूँ गी।”
“ठ क है भाभी! सीधे घर ही जा रहा ।ँ काक से कह ँ गा।”
दोन ने वदा ली। वधान ने पुनः चोरी से चार ओर दौड़ाई। फर सहजता
दखाते ए घर क ओर चला गया।
भीड़ म सबसे पीछे यौधेय खड़ा था। उसक पूरे समय मयूरी पर टक थी।
आज वष क खोज पूरी हो गई।
अ ात अट् टहास

मन म तरह-तरह क शंका और वधा लए वधान घर लौटा। आँगन म जाकर द य का


रंग जाँचा। रंग लगभग सूख चूका था। फर भी सं या तक के लए वैसे ही छोड़ दया।
त प ात् काक के पास जाकर बैठा और दे खे ए नाटक का सं त वणन करने
लगा।
सं या को उसने द ये बटोरे और पुआल के बीच सावधानी से रखकर एक गठरी म
बाँध लया।
रा चढ़ने पर बसंत, मयूरी, रागा और काका लौट आए। पर स ू नह लौटा। पूछने
पर काक ने बताया क वह आज एकांश के घर कने क बात कह रहा था। वधान
समझ गया— स ू एकांश के लए नह गू के लए गया होगा। बाला ने गू को एकांश
और शतायु के साथ रखवाया था। जब से स ,ू गू से मला है, उसक भाषा सीखने के
लए उतावला है।
रा भोजन कर वधान सोने के लए लेट गया। मन म माँ के वषय म सोच रहा
था। पहले सोचा क माँ को यह अथला ले आऊँ, साथ रहेगी। कतु फर सोचा क
अथला म यु का संकट चढ़ आया है, वह गाँव म ही अ धक सुर त रहेगी। फर उसका
मन स ू क ओर घूमा। गाँव छोड़ने के बाद से स ू ने यहाँ आकर ढे र चीज सीख ।
येक दन वह पूरे उ साह के साथ जीता था। स ू के वषय म सोचकर वधान को वयं
ब त ऊजा मलती थी। उसके पास दो ही तो संपदा थी। पहली माँ और सरा स ू। कतु
अब इं ाणी के प म एक और संपदा मलने वाली थी। इं ाणी के साथ भावी जीवन के
वषय म सोचकर वह ब च क भाँ त खल खलाकर हँसने लगा। कुछ र काका-काक
भी लेटे थे। काक च ककर पूछ — “ या आ पु ?”
वधान आँख बंद कए चुपचाप लेटा रहा। कुछ बोला नह ता क उ ह लगे क वह
व म कुछ बड़बड़ा रहा है।

अगले दन स वता-नारायण के दशन होते ही वधान अपने नयत काय म के अनुसार


अमरखंड के लए नकल पड़ा। खाने-पीने तथा अ य व तु के साथ द य वाली गठरी
भी थी।
नकलने से पहले वह स ू से भट करना चाहता था, पर उसके आने का कोई
न त समय नह था। अ धक संभावना रा म आने क थी। सो, वह का नह ।
दजन गाव और नगर म कते तथा व य- े को पार करते ए तीसरे दन वह
सं या से दो-तीन घड़ी पहले अमरखंड प ँचा। प ँचकर कसी से मला नह , सीधे अपनी
कु टया गया।
इस थान पर वह कई माह प ात् लौटा था। कु टया के अंदर और बाहर कोई वशेष
गंदगी नह थी। लगता था, समय-समय पर दे खभाल कर द जाती थी। कुएँ म झाँककर
दे खा, वह भी साफ-सुथरा मला।
उसने घोड़े से सामान उतारकर कु टया म रखा और शी ता से कूची उठाकर अंदर-
बाहर क सूखी प याँ साफ करने लगा। तीन दन क लंबी या ा से शरीर थक गया था,
पर मन म इं ाणी से मलने का उ साह जोर मार रहा था। उसके हाथ फुत से चल रहे थे।
वह आस-पास क सफाई कर कुएँ पर गया और नान कर व छ व पहन लए।
जोर क भूख लगी थी, कतु सोचा, इं ाणी के साथ ही कुछ खाएगा।
मन म सोची एक योजना के अनुसार वह सीधे लड़ कय क रंगशाला गया।
अनुमान के अनुसार वहाँ लड़ कय को धनु व ा का अ यास कराती मेघना मल गई।
वधान को दे खते ही वह स हो गई।
“ शला! कब आए तुम? और यह कट-फट कैसे गए?”
“अभी-अभी प ँचा ।ँ बाद म बैठकर व तार से बात क ँ गा। अभी तो बस छोट -
सी सहायता माँगने आया ँ।”
“सहायता? आदे श करो शला! आदे श!” मेघना हँसकर बोली।
वधान ने समझाया, “इं ाणी को सू चत कर दे ना क म आया ँ, और कहना क
रा चढ़ने पर मुझसे मलने आए। यान रहे, पहले नह , रा चढ़ने पर ही।”
“तुम वयं य नह सू चत कर दे त? े ” मेघना आ य से पूछ ।
“य द वयं कर सकता, तो तु ह य कहता? सुंदरी!”
“सुंदरी! खी! खी! खी!” मेघना खुलकर हँसी, “अ छा! अ छा! कह ँ गी। …
चाटु कार बनने क आव यकता नह । रा चढ़ते ही उसको लेकर आ जाऊँगी।”
“नह !” वधान थोड़ा हड़बड़ाया, “बस, इं ाणी को भेज दे ना। तुम आने का क
य करोगी!”
मेघना ने भ ह को बनावट व कया। तरछे ने से दे खा और बोली, “यह क
तो म अव य क ँ गी। सोच रही ँ, इन लड़ कय को भी साथ से आऊँ।”
“अं?” वधान थोड़ा वच लत आ।
मेघना जोर से हँसी, “म तो तंग कर रही थी। अब मुँह मत लटकाओ, इं ाणी को
भेज ँ गी।”
वधान के मुख पर त ण कान-फाड़ मु कान आ गई। दाँत दखाते ए वह वहाँ से
चला गया।
रंगशाला से नकलकर वह सीधे मु य रसोई-घर प ँचा। वहाँ क याँ भी उसे
दे खकर स । कुछ आव यक साम ी लेकर वह शी ता से अपनी कु टया लौट
आया।
सूय प म म डू ब गया था। वधान उ साह से अपने काय म म जुट गया।
उसने गठरी खोलकर हंस-युगल वाले द ये नकाले। हंस क खुली च च म तैल
उड़ेला और कपास क लंबी ब ी डाली। फर कुछ द य को उठाकर कु टया के अंदर
चार कोन पर सजा दया।
इसके प ात् उसने रसोई-घर से लाई साम ी से धातु का एक बड़ा थाल नकाला।
उसे कु टया के ठ क म य म रखा। थाल चमचमा रहा था। उसने थाल के बीच कुछ फल
रखे और फर पूरे थाल को जल से भर दया।
यह सारे काय करते समय वह न जाने कौन-सी क पना करके अनायास ही
खल खलाकर हँसने लगता था।
पु प-पंखु ड़य को जल म तैराने के प ात् उसने हंस-द य को थाल के चार ओर
गोलाई म सजा दया।
बाहर अँधेरा गाढ़ा होने लगा था। वधान ने सारे द पक जला दए। कु टया म तेज
पीला काश भर गया। थाल के जल म, चार ओर जल रहे द य क लौ का सुंदर
त बब बन रहा था।
सारा काय नपट गया था। अब वधान को बस ती ा करनी थी।
थाल म रखे फल पर बार-बार जा रही थी। पर मन को संतोष दलाया। वह
थाल के पास बैठा बड़ी दे र तक ती ा करता रहा। रा चढ़ चुक थी। मु कराते ए मन
म सोच रहा था, इं ाणी कसी भी ण कु टया के ार पर कट होगी। जब वह उसे और
यहाँ का काश-स दय दे खेगी, तो कतना स होगी! पीले काश म उसका खला मुख
कसी वण क भाँ त दमकेगा। वह अंक म भरकर उसका वागत करेगा। फर दोन
मलकर फल खाएँगे और बीते दन क सारी बात रात-भर एक- सरे से साझा करगे।
सोचते-सोचते थके शरीर को थोड़ी झपक आ गई। न जाने कतनी दे र बाद आँख
खुली। आधे द ये तैल समा त होने से बुझ गए थे। वह उठा और सारे द य म पुनः तैल
भर दया।
वह कु टया से बाहर नकला और आकाश म चं मा क थ त दे खकर अनुमान
लगाया क रा ब त अ धक चढ़ चुक है। इं ाणी अभी तक आई य नह ?
वह कु टया म आकर पुनः बैठा। बैठे-बैठे दोन पाँव हलाने लगा। फर उठकर खड़ा
आ और वच लत मन से कु टया के अंदर ही थाल का च कर काटने लगा। कान बार-
बार ार पर कसी आहट को सुनने के लए उतावले हो जाते थे।
च कर काट कर पुनः बैठ गया। जैसे-जैसे समय बीतता गया, उसका मुँह उतरता
गया। अब तो अ रा होने वाली थी। मन का सारा उ साह जाता रहा। सोचा, इतने दन
प ात् आया है, इं ाणी को तो सुनते ही दौड़े चला आना चा हए था।
आधे द ये पुनः अपना तैल समा त कर चुके थे। पर इस बार वधान ने पुनः उसम
तैल नह भरा।
वह थाल से फल उठाकर खाने लगा और खाकर बचा टु कड़ा ार पर फक दया।
इसी कार तीन फल और खाकर उ ह भी ार पर फक दया। बारा उठा और थाल का
च कर काटने लगा। लगभग घड़ी भर च कर काटा होगा। अब तक और भी द ये बुझ
चुके थे। मन म उदासी लए वह बैठ गया। इतनी दे र बैठा रहा क थाल के कनारे मा दो
द ये ही जलते बचे।
उसने एक लंबी साँस छोड़ी। पता नह लंबी या ा से अथवा अभी सोच-सोचकर
उसका सर खने लगा था। उसने जल रहे अं तम दो द य को बुझाया। उनका तैल
हथेली पर गराया और सर पर लगा लया। हथेली से सर को थोड़ा ठ का और फर
थाल के बगल भू म पर लेट गया।
आँख मूदते ही घात लगाकर बैठ न ा ने उसे जकड़ लया। झ गुर और रा -क ट
का गुंजन येक रा क भाँ त इस रा भी जारी रहा।

ातः प य के तेज कलरव और घोड़े क हन हनाहट से वधान क आँख खुली। सूय


अभी उग ही रहा था। वह उठा और कु टया से बाहर नकला। ठं डी पवन ने दे ह को छु आ,
तो कुछ अ छा लगा। मन म न य कया क नहा-धोकर वह वयं इं ाणी से मलने
जाएगा।
उसने शी ता से न य-कम नबटाया, घोड़े को जल पलाया, ार पर फके फल के
शेष टु कड़ को साफ कया और नान कर नए व पहन लए।
जब वह अपने गीले व को सुखाने के लए समीप क झाड़ पर डाल रहा था,
इं ाणी आती दखी। वह मंद मु कान के साथ उस पर गड़ाए आ रही थी। वधान के
भी मुख पर सहज मु कान खचने ही वाली थी क उसने रोक ली और सरी ओर मुँह
फेर लया।
इं ाणी हँसी। पर वधान अनजान बनते ए अपनी कु टया म चला गया।
इं ाणी भी पीछे से प ँची। थाल और द ये अभी भी अपने पूव थान पर रखे ए थे।
पहले तो अबूझ-सी दे खती रही, फर समझ गई। स ता से मुख दमक गया। आगे
बढ़कर वधान के व से लग गई।
वधान को अ छा लग रहा था। कतु बनावट रोष दखाते ए बोला, “समय पर न
आने वाले लोग को म मह व नह दे ता। मुझसे र हटो।”
इं ाणी त काल र हट गई। घबराकर बोली, “ मा कर, स धारक! आगे से ऐसी
धृ ता नह होगी। आपसे पूछकर ही आपके समीप आऊँगी।”
वधान इस बार वा त वक ता से बोला, “तुम ब त हो।”
इं ाणी खुलकर हँसी। उसे कंध से पकड़कर बठाते ए बोली, “पहले शांत होकर
बैठो, सारी बात बताती ँ।”
दोन आमने-सामने बैठे। इं ाणी ने बताया, “ पछले छः दन से राजा वमा का
धानमं ी यह का आ है।”
“द ण वाला राजा वमा?” वधान ने बीच म टोका।
“हाँ! वही.. राजा वमा अमरखंड क सेना क दो टु क ड़य का खच वहन करता है
और व तथा फल भी भारी मा ा म दे ता है… पहले लगा इ ह वषय पर कोई
औपचा रक बात-चीत के लए आया होगा। कतु कल सं या उसने हचकते ए अपना
वा त वक मंत कट कया। वह मेरे लए राजकुमार सूयवमा के ववाह का ताव
लाया था।”
“सूयवमा? सूया? …वह राजा वमा का पु है?” वधान ने पुनः बीच म टोका, “मुझे
तो ात ही नह था। पछले वष रथ-दौड़ तयो गता म उसने मुझे परा त कर दया था
और म ल-यु म भी मा चार दाँव म ही मुझे दबा दया था। वभाव और तभा दोन
म ब त अ छा है।”
इं ाणी मुँह खोलकर उसे दे खती रही। अचंभे से पूछ — “म कस वषय पर बात
कर रही ँ, यान है न?”
“हाँ! यही क तु हारे लए ववाह- ताव आया है।” वधान न तता से बोला,
“ कतु, तुमने तो अ वीकार कर दया होगा।”
“नह कया,” इं ाणी ढठाई से बोली।
“ह!” अब वधान अचंभे म था, “ या कह रही हो!”
इं ाणी मु कराई। बोली, “आँख मत फैलाओ। बस तंग कर रही थी। अ छा, अब
यान से सुनो। जब पताजी ने मुझसे पूछा, तो मने अ वीकार कर दया और तु हारे
वषय म बताया। …सुनकर पताजी थोड़े च कत थे। ब त सोच- वचारकर उ ह ने कहा
क इस वषय म अथला यु के प ात् कुछ कहगे।”
“तब तुमने या कहा?”
“मने कहा ठ क है। मुझे या आप थी! कुछ ही समय क बात है। उनक भी
बात रह जाएगी।”
“वे.. वे बाद म अ वीकार तो नह कर दगे?” वधान थोड़ी शंका से पूछा।
इं ाणी हँसी। उसका गाल ख चकर बोली, “ स धारक को भला कौन अ वीकार
करेगा!”
वधान को अ छा लगा। उ साह से बोला— “अब तो कुंडल भी हाथ म ह। अपनी
श बढ़ाकर शी ही यु समा त कर ँ गा। फर तु हारे…”
“कुंडल?” इं ाणी ने टोका।
“बताता ँ! बताता !ँ ब त कुछ है, बताने-सुनाने के लए।”
इसके उपरांत वधान उसे दानव दे श के अ भयान के वषय म बताने लगा।
अ भयान के अ त र , स ू स हत अ य घटनाएँ भी बताई। फर इं ाणी ने भी बीते दन
क बात सुनाई। दोन बीच-बीच म एक- सरे का गाल ख चते ए ब तयाते रहे। लगभग
दो घड़ी प ात् दोन क बात क ।
सूय आकाश म चढ़ गया था। इं ाणी को व ा थय क क ा लेने जाना था। वधान
के व से लगकर वह चली गई।
कु टया म अकेला खड़ा वधान पूरे उमंग म था। पर एक बात का थोड़ा ःख हो रहा
था, इं ाणी ने उसके बनाए द य के वषय म न तो बात क और न ही शंसा क । फर
सोचा, अगली बार जब वह इन द य को जलता आ दे खेगी, तब इनके आकषण म
अव य बँधेगी।
वह फुत से द य और थाल को हटाकर कु टया साफ करने लगा। मन म एक ही
न य बार-बार ढ़ हो रहा था; वह कुंडल के साथ अ यास कर अपनी श इतना बढ़ा
लेगा क यु अ तशी समा त हो सके। जतनी शी ता से यु समा त होगा, उतनी ही
शी ता से वह इं ाणी से ववाह कर संसार घूमने नकल पड़ेगा।
कुछ ही दे र म कु टया अ छ कार साफ हो गई। वह भू म पर पालथी मारकर बैठा
और यान करने लगा। यान लगाए कुछ ही ण बीते ह गे क न ा उसे ख चती-सी
लगी। उसने तरोध नह कया।
न जाने वह न ा म था, या यान म। ऐसा भान आ, जैसे कसी अँधेरे कुएँ म गर
रहा है। नरंतर गरता ही जा रहा है। कुछ दे र प ात् कुएँ क अंतहीन तली पर एक ेत
ब दखा। ब धीरे-धीरे बड़ा होने लगा। तभी एक तेज अट् टहास सुनाई पड़ा।
वधान क आँख झटके से खुल । धड़कने ती वेग पर थ । नाटक दे खते ए भी
यह अट् टहास सुनाई पड़ा था, और अब उसे यह भी याद आ रहा था क अ गन े म
चेतना खोने से पहले भी कुछ इसी कार का अनुभव आ था। मन म एक अनहोनी
शंका उठ । उसने भू म पर हाथ मारकर भू म ऊजा छोड़नी चाही, कतु ऊजा नह
नकली। दो-तीन बार और यास कया। कोई अंतर नह ।
वधान का दय डू बता चला गया। पागल क भाँ त भू म पर हाथ मारता रहा।
सोचा, यहाँ क भू म म कोई सम या उ प हो गई होगी। कु टया से बाहर नकलकर
यास कया। पुनः वही प रणाम। हाथ से व भ चकर बैठ गया। अपने ही शरीर को
व च ढं ग से दे खने लगा। जस श के बल पर इस संसार म उसका मह व बना था,
वह श अब नह रही।
स धारक क स चली गई। मन का अँधेरा आँख के भी आगे छाने लगा।
अट् टहास पुनः सुनाई पड़ा।
पतामह ेता

सं या के बुलावे पर सूय- करण ने अपना तापमान कुछ कम कया, तो आँधी बीच म


अपनी खरता दखाने आ गई। हवा के ती झ क से दानव राजमहल के वृ झूम-झूम
जाते थे।
राजमहल के उ री कोने पर द ान का कायालय था। कायालय क के गवा पूरी
तरह खुले ए थे। क म अकेला बैठा द ान अपनी मूँछ के सर को मसल कर ताव दे
रहा था।
हर बार क तरह इस बार भी वह अपना माथा सकोड़कर इतना यान-म न था क
क म घुस रही उद्दं ड हवा के करतब पर कोई यान ही नह जा रहा था।
वह धनंजय क बु पर चम कृत था। य प उसने जल-द यु से संपक को
यथासंभव गु त रखने का पूरा यास कया था तथा प वह जानता था क गु तचर क
ग - इस वषय को अव य दे ख लेगी। कतु इसके बाद भी उसक योजना का
सट क अनुमान लगाना असंभव समान है। उस नाग ने मा अनुमान ही नह लगाया,
अ पतु उस पर पूण व ास दखाते ए र ा मक ग त भी दखाई।
य द मगर- वज के उस व ोही-द यु कुबड़ा गरारा ने आकर सौरा और मगर- वज
के बीच समझौते क सूचना न द होती, तो उसका यह अ भयान आक मक संकट म भी
पड़ सकता था।
धनंजय पर चम कृत होने के अ त र द ान के पास कुछ अ य सम याएँ भी थ ।
जैस—े इस अ भयान का नेतृ व कौन करेगा। दारा एक े सेना य था। कतु जल-
यु का अनुभव, दारा स हत दानव दे श म कसी भी सै य अ धकारी के पास नह था।
इसके अलावा सौरा क भू म, जहाँ, वह ती ण बु वाला नाग रहता है, पर न जाने
कैसी थ त बने। य द कूटनी त का दाँव खेलना पड़ा, तो दारा उसके लए उ चत
नह होगा। हर बात म वह अपना यो ा-धम आगे कर दे ता है।
ब त सोच- वचारकर द ान ने यह तय कया क येक थ त के लए सबसे सही
वह वयं रहेगा। पर उसके अ भयान पर चले जाने से राजधानी अकेली पड़
जाएगी। उसके साथ दारा भी जाएगा, तो राजधानी क सुर ा भी न न- तर पर चली
जाएगी। अभी जो व ोही दारा का नाम सुनकर ही भू मगत हो जाते ह, वे तो उ पात मचा
डालगे।
कुछ सम या के समाधान उसके पास थे, और कुछ के नह ।
द ान ने एक प लखा। प -लेखन के समय उद्दं ड हवा ने खूब तंग कया। पर
वह कृ त क इस श के त ऐसा उदासीन रहा, मानो वयं के अ त र कसी अ य
को कोई मह व न दे ता हो।
द ान ने ताली मारकर सेवक को बुलाया और प थमाकर दारा के पास प ँचाने के
लए कहा।
दारा अभी-अभी द ण का दौरा करके लौटा था। सेवक प लेकर कायालय
प ँचा। प मलते ही दारा रथ पर चढ़कर उ र क ओर नकल पड़ा। द ान क भाँ त
वह भी कृ त क सीमा को अ धक मह व नह दे ता था। आँधी के बीच म ही अपना
रथ हाँक दया। उसके साथ आठ अ य सै य-रथ भी थे।

दानव दे श क उ री-सीमा, जो यवन-दे श से मलती थी, पर एक चौड़ी नद बहती थी।


नद कनारे प थर क एक वशाल कु टया थी। इस कु टया के बाहर सह जैसा एक
तेज वी बैठा था। वह ब त दे र से चुपचाप नद क कल-कल सुन रहा था। वय म
साठ वष का और शरीर से महाबली लगता था। उसके सर के सफेद बाल य क
भाँ त एक मोट और लंबी चोट के प म गुँथे थे।
जस जमीन पर यह बूढ़ा सह अभी बैठा आ था, वह भू म कभी यवन क थी।
कतु पछले दानव-यवन सं ाम म दानव ने यह भू म छ न ली।
जस समय जंबू प म अथला और मुं ा के बीच र -गंगा सं ाम चल रहा था, उसी
समय दानव और यवन के बीच दानव-यवन सं ाम छड़ा आ था।
उस भीषण सं ाम का नेतृ व द ान के पतामह महाम हम ेता ने कया था। जन
यवन को परा जत करना दे व के लए भी कर था, उ ह ेता ने अपने यो ा के साथ
अ छे से पछाड़ा। दानव ने यवन को मा परा जत ही नह कया, अ पतु उनक
सीमावत भू म भी छ न ली।
उस दानव-यवन सं ाम म सात मु य वजेता घो षत ए थे। उन सात म दारा
सबसे बड़ा वजेता था। वतमान म सात म से मा तीन ही जी वत बचे थे। पहला दारा,
सरा अटारी और तीसरा गंधमान।
कु टया के बाहर बैठा यह बूढ़ा सह अटारी था। सं ाम क समा त पर व जत भू म
को सात वजेता म बाँट दया गया। सभी ने अपनी-अपनी भू म ले ली, पर दारा ने
नह लया। उसने अपने भाग क भू म गंधमान को दे द और राजधानी लौट गया। सारे
वजेता अपनी भू म पर ही जीवन तीत करते थे। राजधानी का कूटनी तक वातावरण
उ ह कुछ वशेष पसंद नह था। अटारी को राजधानी के दशन कए चार वष से अ धक
हो गए थे।
य प उसका पद और सु वधाएँ सेनाप त क थ , तथा प वह सै य-छावनी से र
इस एकांत कु टया म ही अपना अ धकाँश समय बताता था।
अटारी को कसी के आने का आभास आ। धीरे से गरदन पीछे मोड़ी। आने वाले
को दे खकर दय म उमंग और उ ेजना दोन जागी। उठकर खड़ा आ और मुँह
फाड़कर हष-गजना क — “दारा..!”
यु र म दारा ने भी गजना क — “अटारी..!”
दोन सह बाँह फैलाए एक- सरे क ओर बढ़े । कतु नकट प ँचकर कसी ने भी
सरे को अंक म नह भरा। बाँह यूँ ही फैली रह और छाती से छाती पूरे जोर से टकराई।
“तू तो बूढ़ा हो गया दारा,” अटारी च लाकर बोला।
“और तू तो अभी कशोराव था म वेश कर रहा है,” दारा भी चीखकर बोला।
दोन सह जोर से हँसे। वष प ात् दोन ने एक- सरे का मुख दे खा था।
अटारी, दारा को नद के बलुआ तट पर ले गया। बहते जल से एक हाथ र नद क
ओर मुँह करके दोन बैठ गए। अतीत म दोन कभी घोर त पध आ करते थे। पर
आज वैमन य क कोई झलक नह दख रही थी।
“गंध क या दशा है?” दारा ने गंधमान के वषय म पूछा।
“दो वष पूव मला था। अभी भी ण शरीर के साथ चल रहा है,” अटारी ने उ र
दया।
“अपना उ रा धकारी चुने बना वह हठ मरेगा नह ।” दारा र कह दे खते ए
बोला।
“राजकुमार हषमान क मृ यु से अवसाद म था। अब पुनः नया उ रा धकारी
खोजने म जुटा है…।” अटारी ने दारा क ओर ने तरछे कये, “दारा! तूने अभी तक
अपना उ रा धकारी य नह चुना?”
“ ती ा कर अटारी,” दारा गव से बोला, “काण ने अपनी श का उ रा धकारी
चुन लया है। म भी चुन लूँगा। यो ा-धम पूण कए बना महाकाल को अपना कंठ थामने
नह ँ गा।”
अटारी क अभी भी तरछ थी, “तू अपने पु धीरा को य नह चुनता?”
“मेरे पु म वह वाला नह है। य द वह यो य होता, तो पहले ही चुन लेता।”
कहकर दारा ने अटारी क ओर मोड़ी और पूछा, “तूने अभी तक य नह चुना?
तुझे या सम या है?”
अटारी सीधा मुँह करके जोर से हँसा। बोला— “मने तो पहले ही घोषणा कर रखी
है, दारा! जसे तू अपना उ रा धकारी चुनेगा, म भी उसी को चुनूँगा।”
दारा भी जोर से हँसा, “तू तो बड़ा आलसी है, अटारी!”
इसी बीच सै य-छावनी से एक सै नक आकर दोन के पास जलपान रखकर चला
गया। दारा ने म दरा का याग कर रखा था। सो फल, माँस, छाछ और खाँड़ आई थी।
“तुझे महाम हम ने बुलावा भेजा है।” दारा छाछ का पा उठाते ए बोला।
अटारी थोड़ा उ े जत हो गया, जोर से बोला, “ या वह लड़का भूल गया क
अटारी अपनी माँद कसी और से साझा नह करता!”
“तुझे साझा करने क आव यकता भी नह पड़ेगी।” दारा सामा य ढं ग से बोला,
“अगली पू णमा से जंबू प अ भयान ारंभ हो रहा है। म काण क भू म जा रहा ँ।
माँद खाली रहेगी।”
अटारी ने अपनी केश-चोट पकड़कर आगे कर ली और धीरे-धीरे सहलाने लगा।
लंबे ण उपरांत बोला, “ वचार क ँ गा।”
दारा के मुख पर एक व च -सी मु कान चढ़ गई। धीरे से पूछा, “ या अभी भी तेरे
मन म मेरे त वैर है?”
अटारी ने चोट को सहलाना रोक दया। एक द घ साँस छोड़ी और चुप रहा। सामने
रखा खरहे का माँस उठाया और दाँत से ख चने लगा। दारा ने पुनः नह कया। उसने
भी माँस का एक टु कड़ा उठाया और ख चने लगा।
नद का जल अभी भी कल-कल कर रहा था। पर दोन सह शांत थे।

जलपोत को दानव सै य अ धकारी गु त प से तैयार करते रहे। वा तव म तैया रयाँ वे


नह , कक- वज के जल-द यु कर रहे थे। अ धकारी तो मा सु वधाएँ दे रहे थे। अ भयान
ारंभ करने के लए पू णमा का दन न त था। पूरी राजसभा को अभी चार दन पूव
इस जल-अ भयान क सूचना द गई। सूचना मलते ही पूरी राजसभा म बल वरोध
उठा। जस सागर म वे पी ढ़य से अपनी ा रखते आए ह, येक वष उसके स मान
म श -अनु ान करते ह; उसी परम- पता सागर के व पर जलपोत कैसे चलाए जा
सकते ह! यह तो सागर और दनु माता दोन का अपमान है।
द ान इस वरोध के लए पहले से ही तैयार था। कुछ को तक दे कर और कुछ को
बलपूवक उसने शांत कया। धानमं ी सुबा को पहले ही अपने प म कर लया था।
य प वह जानता था क धानमं ी उसे पसंद नह करता और पूव महाम हम का सबसे
बड़ा चाटु कार था, तथा प उस बूढ़े ने दानव दे श का अ हत कभी नह सोचा। साथ ही
सुबा क पूरे राजसभा पर गहरी पकड़ थी। कदा चत् इ ह कारण से उसने महाम हम
बनने के प ात्, सुबा को पद युत नह कया।
पू णमा के आठ दन पहले रा म जब द ान अपने शयन-क म अकेला सो रहा
था, एक सेवक ने आकर उसे जगाया। इस कार अ रा म झकझोर कर जगाने से
द ान का ोध शखर तक प ँच गया, पर जगाने का कारण सुनकर स रह गया। नंगे
पाँव राजसभा क ओर भागा।
ग लयार म ती ग त से चलते ए उसे सेवक क सूचना पर व ास नह हो रहा
था। पतामह ेता लौट आए? …कैसे?.. कहाँ थे अभी तक? …दानव-यवन सं ाम के
प ात् महाम हम का पद यागकर वे एकांत म चले गए थे …ऐसा एकांत, जसे गु तचर
भी वष तक नह खोज पाए। … फर आज? दशक प ात् कैसे? और य द वे राजधानी
तक आए, तो माग म गु तचर को भनक कैसे नह लगी? …यह कैसे संभव है क वे
संथार म वचरण करते ए राजधानी तक चले आए और कसी ने दे खा भी नह ।
अ व ास से भरा द ान राजसभा म प ँचते ही और व मत हो गया। तीन-चार
जलती उ का के बाद भी अँधेरे म घरी राजसभा म महाम हम के आसन पर पतामह
ेता क वकराल आकृ त बैठ ई थी। सामने धानमं ी सुबा काँपते शरीर के साथ
घुटने के बल झुका गड़ गड़ा रहा था, “मने सब स य कहा, महाम हम! म कोई भेद नह
छु पा रहा।”
राजसभा के ार पर खड़े द ान के शरीर म एक झुरझुरी दौड़ गई। कौतूहल और
भय के म त भाव म पग वयं धीरे-धीरे आगे बढ़ने लगे। दो-तीन पग बढ़ते ही लगा,
वातावरण भारी हो रहा है। पहले सोचा, म होगा। कतु जब साँस लेने म क ठनाई-सी
होने लगी, तो छाती पर हाथ रख लया।
“ब चा!” खाली राजसभा म पतामह क गजना गूँजी।
द ान को आया दे ख धानमं ी भय से काँपता खड़ा आ और पतामह को
अ भवादन कर चला गया। जाते ए उसके पाँव लड़खड़ाकर गरते- गरते बचे।
द ान को साँस ख चने म बल लगाना पड़ रहा था। पर यह थ त दो ण प ात्
ही सामा य हो गई। मन म व च ता और शंका का तूफान उमड़ रहा था। अभी-अभी
जस माया का अनुभव आ, वह या था? और यह सामने बैठा या वा तव म
उसका पतामह है? उसके अनुमान से पतामह क वय न बे पार होगी। पर सामने बैठे
का शरीर दारा से भी अ धक माँसल था। य प पतामह वकराल शरीर के वामी
थे, कतु इस वय म ऐसा शरीर-सौ व? या कोई यौवन-बूट मल गई? …पूरा दानव दे श
आज तक यही मानता रहा क पतामह वष पूव कसी एकांत म दे ह छोड़ चुके ह गे।
“ब चा…! समीप आ।” द ान क वचार-शृंखला के बीच पतामह क गजना पुनः
गूँजी।
आदे श म बँधे द ान के पग आगे बढ़ने लगे। उसक आ य पूरी तरह ेता के
मुख पर चपक ई थी।…पीठ पीछे खुले ए ेत केश, वही मुख, वही ने , वही ललाट,
हाँ! पतामह ही तो ह।
द ान के भान होने से पहले ही उसके पैर ने उसे ेता के सामने लाकर खड़ा कर
दया।
ेता ने सहासन पर बैठे-बैठे ही दायाँ हाथ बढ़ाकर द ान को अपनी छाती से लगा
लया। छाती इतनी चौड़ी थी क द ान जैसे दो एक साथ भट कर ल।
कोई अ य अवसर होता, तो द ान स ता से फूला नह समाता। पतामह ेता ने
ही तो दानव-दे श म सुधार क बयार आरंभ क थी। उ ह से भा वत होकर भइया
हषमान भी उ ह के जैसा बनना चाहते थे। और अ य प से वह भी तो पतामह से
भा वत आ करता था।
कतु अभी छाती से लगकर द ान को त नक भी स ता नह मल रही थी। मन म
शंका ही शंका भरी ई थी।
छाती से लगाकर जब पतामह ने उसे वयं से अलग कया, तो द ान का शरीर
वचा लत ढं ग से दो पग पीछे हट गया।
“भयभीत मत हो, ब चा! म ही ँ।”
द ान को वयं लगा, वह थ ही भयभीत हो रहा है। वयं पर नयं ण कर
पतामह को णाम कया।
पतामह ने णाम का यु र नह दया। सीधा कया, “तू सहासन शू य
छोड़कर जा रहा है?”
दो ण के लए द ान अबूझ-सा खड़ा रहा। फर समझ म आया क पतामह ने
आते ही धानमं ी से यहाँ क सारी व तु- थ त जानी होगी। उसने वयं को संयत कया
और ढूँ ढ़कर एक सरल उ र दे ने का यास कया, “ पतामह! आप लौट आए ह, अब
शू य कैसा!”
“उरीमा क म य है?” उ र सुनकर ेता ने बना ण गँवाए सरा कया।
द ान च का। पतामह उरी के वषय म पूछ रहे ह। उसके ववाह के समय तो
पतामह उप थत भी नह थे।
द ान क बु चकरा रही थी। वाणी को यथासंभव ेमपूण बनाकर बोला,
“ पतामह! बताने-सुनाने को ब त कुछ है। पूरी रा बीत जाएगी। आप…”
“यह बैठ और पूरी रा बताता रह,” पतामह ने बीच म टोककर आदे श दया।
द ान कुछ ण त ध रहा। फर बना तवाद कए चुपचाप भू म पर बैठ गया।

अगले दन राजधानी म ाँ तय और शंका का वातावरण गम रहा। धानमं ी ने


यथाशी स दे शवाहक ग ड़ के मा यम से पूव महाम हम ेता के जी वत लौटने क
सूचना पूरे संथार म सा रत करवा द ।
पछली रा पतामह और पौ दोन क आँख खुली-खुली बीती। ेता ने द ान से
सब कुछ पूछा। द ान ने बना कोई भेद छु पाए सब बताया। अंत म जब द ान ने उनके
वषय म जानना चाहा, तो ेता ने मा इतना बताया, क वे श -संतुलन साधने गए ए
थे। कतु, कहाँ गए थे..? और कस कार संतुलन साधने का यास कया..? उ ह ने
कुछ नह बताया। द ान म जानने क ती उ कंठा थी, पर बारा पूछ नह पाया।
ेता के लौटने से द ान क कई वतमान सम याएँ र हो ग । दो दन प ात् ही
उसने पतामह को कायवाहक शासक नयु कर दया और वयं सागर तट क ओर
चला गया। राजधानी म संथार के भावशाली प रवार का दौरा लगा रहा।
फर पू णमा क वह रा आई, जो दानव-इ तहास म अ मट छाप छोड़ने वाली थी।
पूण चं के उ वल काश म सागर तट पर लगभग दो सह जलपोत खड़े थे। उन
जलपोत पर द ान अपने आठ सेनाप तय और पचास सह सै नक के साथ उप थत
था। उसका जलपोत कतार से बाहर नकलकर सबसे आगे खड़ा था। पोत के अ भाग
पर सेना य दारा, उसके पीछे द ान और उसके भी पीछे धीरा तथा अ य अंगर क थे।
अनुशासन के बाद भी सै नक क ंकार क नह रही थ । ती शोर के बीच न
जाने कस मोह म बँधकर द ान ने पीछे मुड़कर एक बार तट क ओर दे खा। उरी का
च सामने घूम गया। उसने झट से गरदन सीधी क और पूरी श से चीखा—
“धीरा..!”
धीरा एक बड़े धनुष पर जलता आ बाण चढ़ाकर, द ान और दारा को पार करता
आ सबसे आगे आया, कान तक यंचा ख ची और बाण छोड़ दया।
बाण अ न लक र बनाता आ आकाश क ओर बढ़ा। सरे ही पल येक
जलपोत से अ न बाण छू टे । आकाश सह अ न लक र क चमक से च धया गया।
नगाड़े, ढोल और पखावज पूरी श से बजने लगे। सै नक क चंड ंकार से
आकाश चर-सा गया। दारा का भी उ ेजनापूण अट् टहास गूँजा। द ान के मुख पर गव
क एक मंद मु कान आ गई और हाथ मूछ के कोने मसलने लगे।
दानव ने सागर के व पर अपने जलपोत बढ़ा दए।
महाकाल का अखंड महाभोज ारंभ होने जा रहा था।

… मशः

You might also like