You are on page 1of 128

अनु म

अपनी बात
कग-मेकर चाण य

पहला अ याय

सरा अ याय
तीसरा अ याय

चौथा अ याय
पाँचवाँ अ याय

छठा अ याय

सातवाँ अ याय
आठवाँ अ याय

नौवाँ अ याय

दसवाँ अ याय

यारहवाँ अ याय

बारहवाँ अ याय
तेरहवाँ अ याय

चौदहवाँ अ याय

पं हवाँ अ याय

सोलहवाँ अ याय
स हवाँ अ याय
अपनी बात

व णुगु त चाण य अ य बालक से भ एक असाधारण बालक थे। उनके पता चणक


एक श क थे। वे भी अपने पता का अनुसरण करके श क बनना चाहते थे। उ ह ने
त शला व व ालय म राजनी त और अथशा क श ा हण क । इसके पूव वेद,
पुराण इ या द वै दक सा ह य का उ ह ने कशोर वय म ही अ ययन कर लया था। उनका
'चाण य नी त' ंथ वै दक सा ह य का ही नचोड़ है।

अ ययन के दौरान उनक कुशा बु और ता ककता से उनके साथी तथा श क भी


भा वत थे इसी कारण उ ह 'कौ ट य' भी कहा जाने लगा। अ ययन पूरा करने के बाद
त शला व व ालय म ही चाण य अ यापन करने लगे। राजनी त के व ाथ होने के
कारण वे आरंभ से ही दे शी- वदे शी राजनी त पर पैनी नजर रखते थे। इसी दौर म उ र
भारत पर अनेक वदे शी आ मणका रय क ग पड़ी, जनम से यूकस, सकंदर
आ द मुख ह। इधर चाण य के गृह रा य एवं अड़ोस-पड़ोस के हालात भी ठ क नह थे।
शासक ने जा पर अनाव यक कर थोप रखे थे। जनता उनके बोझ तले पसी पड़ी थी।
इन सब प र तय ने चाण य को वच लत कर दया। वे भारतवष को एक कृत दे खना
चाहते थे। इस लए उ ह ने त शला म अ यापन-काय छोड़ दया और रा -सेवा का त
लेकर पाट लपु आ गए।
पाट लपु म जब उनका सामना राजा घनानंद से आ तो उ ह ने श द म जनता के
क और राजा क बुराइय को सामने रखा। चाटु का रता-पसंद राजा घनानंद को यह सब
नागवार गुजरा। चाण य दमाग से जतने तेज थे, श ल से उतने ही कु प; उनक श ल
भी घनानंद को पसंद नह आई और उसने उ ह राजमहल से बाहर नकलवा दया। तब
चाण य ने नंद वंश को समूल उखाड़ फकने क शपथ ली, जसे उ ह ने चं गु त क
सहायता से पूरा कया।
चाण य का जीवन कठोर धरातल पर अनेक वसंग तय से जूझता आ आगे बढ़ता है।
कुछ लोग सोच सकते ह क उनका जीवन-दशन तशोध लेने क ेरणा दे ता है। ले कन
चाण य का तशोध नजी तशोध न होकर सावज नक तशोध था। उ ह ने जनता के
ःख-दद को दे खा और वयं सहा था। उसी क फ रयाद लेकर वे राजा से मले थे। घनानंद
चूँ क जा का हतैषी नह था, इस लए चाण य ने उसे ख म करने का ण कया।
चाण य ने चं गु त और बाद म उसके पु ब सार के मं ी एवं वशेष सलाहकार के प
म काम कया। ले कन ःखद बात यह रही क वे ब सार के एक मं ी सुबंधु के हाथ धोखे
से मारे गए।

उ ह ने 'चाण य नी त' जैसा नी तय का एक अनमोल खजाना नया को दया। यह


खजाना पाठक क सेवा म अ पत है। आशा है, इसे पढ़कर आप भी अव य आनं दत ह गे।

इसी आशा और व ास के साथ,

-महेश शमा
कग-मेकर चाण य

चाण य को भारत के एक महान् राजनी त और अथशा ी के प म जाना जाता है।


उनके पता चणक मु न एक महान् श क थे। कहा जाता है क चाण य का ज म
त शला या द ण भारत म 350 ई-पू- के आसपास आ था। उनक मृ यु का अनुमा नत
वष 283 ई-पूबताय श गया है।

चाण य को व णुगु त, वा यायन, म लनाग, प ल वामी। अंगल, मल और कौ ट य


भी कहा जाता है। कहा जाता है क पूत के पाँव पालने म ही दख जाते ह-यह बात
चाण य पर शत तशत सही सा बत होती है। जरा इन बात पर गौर क जए—

ज म के समय से ही चाण य के मुँह म पूरे दाँत थे। यह राजा या स ाट् बनने क


नशानी थी। ले कन चूं क उनका ज म ा ण प रवार म आ था, इस लए यह बात
सच नह हो सकती थी। इस लए उनके दाँत उखाड़ दए गए और यह भ व यवाणी
क गई क वे कसी और को राजा बनवाएँगे और उसके मा यम से शासन
करगे।
चाण य म ज मजात नेतृ वकता के गुण मौजूद थे। वे अपने हमउ सा थय से कह
अ धक बु मान और ता कक थे।
चाण य कटु स य को कहने से भी नह चूकते थे। इसी कारण पाट लपु के राजा
घनानंद ने उ ह अपने दरबार से बाहर नकाल दया था। तभी चाण य ने त ा थी
क वे नंद वंश को जड़ से उखाड़ फकगे।
अपने ल य को पूरा करने के लए चाण य ने बालक चं गु त को चुना, य क उसम
ज म से ही राजा बनने के सभी गुण मौजूद थे।
चं गु त के कई मन थे। राजा नंद भी उनम शा मल था। उसने उ ह कई बार वष
दे कर मारने क को शश क । अतः चं गु त क वष- तरोधक मता को बढ़ाने के
लए चाण य ने उसे भोजन म थोड़ा-थोड़ा वष मलाकर दे ना आरंभ कर दया।
चं गु त को भोजन म वष दए जाने क बात ात नह थी, इस लए एक दन उसने
अपने भोजन म से थोड़ा अपनी प नी को भी दे दया, जो नौ माह क गभवती थी।
वष क ती ता वह नह झेल पाई और काल-कव लत हो गई। ले कन चाण य ने
उसका पेट चीरकर नवजात शशु को बचा लया।
वह शशु बड़ा होकर एक यो य स ाट् ब सार बना। उसका सुबंधु नाम का एक मं ी
था। सुबंधु चाण य को फूट आँख पसंद नह करता था। उसने ब सार के कान
भरने शु कर दए क चाण य उसक माता का ह यारा है।
त य को जाँचे-परखे बगैर ब सार चाण य के व खड़ा हो गया। ले कन जब
उसे स ाई ात ई तो वह ब त ल त आ और अपने वहार के लए
चाण य से मा माँगी। उसने सुबंधु से भी कहा क जाकर चाण य से मा माँगे।
सुबंधु बड़ा कु टल था। चाण य से मा माँगने का बहाना करते ए उसने
धोखे से उनक ह या कर द । इस कार, राजनी तक ष ं के चलते एक महान्
के जीवन का अंत हो गया।

श ा
चाण य के पता चणक मु न एक श क थे, इस लए श ा का मह व वे अ तरह से
समझते थे। अपने पु को उ ह ने अ श ा दान क । कम उ म जब ब े बोलना भी
ठ क से शु नह कर पाते ह, चाण य ने वेद का अ ययन आरंभ कर दया था। अ पकाल
म ही वेद म पारंगत होकर चाण य का झुकाव राजनी त क ओर आ। ज द ही वे
राजनी त क बारी कय को समझने लगे। वे समझ गए क वरो धय के खेमे म अपने
आदमी कैसे शा मल कए जाते ह और मन क जासूसी कैसे क जाती है। इसके
अलावा उ ह ने अथशा एवं ह शा का भी गहन अ ययन कया और बाद म उ ह ने
'चाण य नी त', 'नी तशा ' एवं 'अथशा ' जैसे महान् कालजयी ंथ क रचना क ।

त शला (अब पा क तान म) उन दन भारत के उ श ा-सं ान म से एक था, जहाँ


चाण य ने ावहा रक और ायो गक ान हा सल कया। वहाँ के श क उ को ट के
व ान् होते थे, जो ायो गक और ावहा रक प से छा को श त करते थे। वहाँ
व ान, आयुवद, दशन, ाकरण, ग णत, अथशा , यो तष- व ा, भूगोल, खगोल-
शा , कृ ष- व ान, औषध- व ान आ द क श ा दान क जाती थी।

व ाथ जीवन म चाण य क लोक यता का अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है


क लोग उ ह 'कौ ट य' और ' व णुगु त' आ द अनेक नाम से भी पुकारते थे।

त शला म श ा समा त करके चाण य वह श क के प म काय करने लगे। वे


व ा थय के आदश थे। उनके एक आदे श पर व ाथ सबकुछ करने को तैयार हो जाते
थे। उनके दो श य -भ भ और पु षद का उ लेख अनेक ान पर आया है। चाण य
के ल य को ा त करने म उनका अहम योगदान बताया गया है। यह भी कहा जाता है क
वे दोन चाण य के जासूस थे और उनके श ु के बारे म जानका रयाँ जुटाकर उन तक
प ँचाया करते थे।
इसी दौरान अपने सू से चाण य को ात आ क यूनान का महान् स ाट् से यूकस
भारत के कमजोर शासक पर आ मण करने वाला है। इस कार भारत क एकता पर
खतरा मँडरा रहा था। इस अराजक त का लाभ उठाते ए पाट लपु के कु टल शासक
घनानंद ने अपनी जा का शोषण करना आरंभ कर दया। वदे शी आ मण से लोहा लेने
क आड़ म उसने जनता पर तरह-तरह के कर थोप दए। एक ओर वदे शी हमलावर
कमजोर रा य पर टकटक लगाए थे तो सरी ओर पड़ोसी दे श अपने कमजोर पड़ो सय
को ह थयाने क फराक म थे। चाण य वदे शी और भीतरी-दोन खतर पर नजर रखे थे।
इस उथल-पुथल ने उनक रात क न द छ न ली और उ ह ने त शला को यागकर
पाट लपु लौटने का इरादा कर लया।

पाट लपु म

पाट लपु (वतमान नाम पटना) का इ तहास राजनी तक प से ब त मह वपूण रहा है।
द ली क तरह यह भी कई बार बसा और उजड़ा है। चीन के सु स या ी फा ान ने
399 ई-पू- पाट लपु क या क थी और इसे एक संप एवं ाकृ तक संसाधन से भरपूर
नगर कहा था। उसी समय एक अ य चीनी या ी े नसांग ने इसका वणन रोड़े , प र और
वंसावशेष के नगर के प म कया था। शशु नवंशी ने गंगा के द णी कनारे पर इस
शहर क ापना क । समय-समय पर इसके नाम बदलते रहे। इसे पु पपुर, पु पनगर,
कुसुमपुर, पाट लपु और अब पटना कहा जाता है।

जब चाण य यहाँ प ँचे, यह ा नय और व ान का आदर करने वाले शहर के प म


जाना जाता था। नए वचार क उ प और रा य के वकास के लए दे श भर के व ान्
लोग को यहाँ आदरपूवक आमं त कया जाता था। इस लए दे श क एकता बनाए रखने
का अ भयान चाण य ने यह से आरंभ करने का वचार बनाया।

चाण य क शपथ

पाट लपु का राजा घनानंद एक अनै तक और ू र वभाव का था। उसका बस एक


ही उ े य था— कसी भी तरह धन-संचय करना। वह धन के मामले म पूरी तरह असंतु
था। जा को वह काँटे क तरह खटकता था; ले कन कोई उसके खलाफ बोलने का
ःसाहस नह कर पाता था। जा तरह-तरह के कर से दबी ई थी। कर-वसूली का उ े य
केवल राजा क वाथ-पू त करना था। चमड़े , लकड़ी और प र पर भी कर-वसूली होती
थी। घनानंद का खजाना पूरी तरह भरा था, फर भी उसके लालच का अंत नह था।
जब चाण य पाट लपु प ँचे तो राजा घनानंद के वहार म थोड़ी नरमी आई। वह गरीब
क मदद करने लगा। उसने गरीब क मदद के लए एक स म त का गठन कया। इस
स म त म व ान् और समाज के भावशाली लोग शा मल थे।

चाण य भी चूँ क त शला के महान् व ान् थे, इस लए उ ह भी इस स म त म शा मल


कर लया गया। बाद म चाण य इस स म त 'सुनघा' के मुख भी बनाए गए। स म त के
मुख अकसर राजा से मलते रहते थे। इसी म म चाण य जब पहली बार घनानंद से
मले तो उनक कु पता के कारण उ ह अपमान झेलना पड़ा। समय के साथ चाण य के
त घनानंद क घृणा बढ़ती ही गई। चाण य के कटु कतु स य श द भी घनानंद को चुभते
थे। इस कार घनानंद और चाण य के बीच श ुता बढ़ती गई। चाण य राजा क
चाटु का रता के ान पर पेशेवर क तरह काम करते थे। वे सं ेप म साफ-साफ अपनी बात
रखते थे। राजा को चाण य का यह वहार बड़ा अ चपूण लगता था। इस लए एक दन
उसने चाण य को उनके पद से हटा दया और राजमहल से नकाल दया। इस अपमान से
चाण य तल मला उठे और उ ह ने शपथ ली क वे तब तक अपनी शखा (चोट ) नह
बाँधगे जब तक क घनानंद को सहासन से न उखाड़ फकगे।

चं गु त से भट

राजा से अपमा नत होकर चाण य पाट लपु क ग लय को र दते दनदनाते ए आगे बढ़


रहे थे। एकाएक एक काँटे ने उनका पैर बेध दया। वे लड़खड़ाकर तेजी से सँभले। व ान्
चाण य का प र तय से नबटने का अपना अलग ही तरीका था। उ ह ने काँटे के उस
पौधे को दे खा, जसका काँटा उ ह लगा था। उस समय चूँ क वे ोध म थे, इस लए उसे
अ नयं त नह होने दे ना चाहते थे। इस लए शां तपूवक चल चलाती धूप म बैठ गए और
काँटेदार पौधे क जड़ उखाड़ने लगे। थोड़ी दे र बाद जब जड़ स हत पूरा पौधा उखड़कर
बाहर आ गया तो उसे एक ओर फककर उ ह ने फर से अपनी राह पकड़ ली।

जब चाण य काँटेदार पौधे को उखाड़ रहे थे तो उनक त मयता को एक युवक गौर से दे ख


रहा था। वह चं गु त था-मौय सा ा य का भावी शासक। उसका चेहरा तेजपूण था।
चाण य क ढ़ता दे खकर वह भा वत था और उस ानी पु ष से बात करना चाहता था।

वह चाण य के नकट प ँचा और उनसे आदरपूवक बात करने लगा। चाण य ने उसक
पा रवा रक पृ भू म के बारे म बात करते ए पूछा, ''तुम कौन हो? कुछ च तत दखाई
पड़ते हो?''
युवक चं गु त ने आदरपूवक आगे झुकते ए कहा, '' ीमान, आपका अनुमान ठ क है। म
ब त मुसीबत म ँ। ले कन अपनी परेशानी बताकर म आपको परेशान नह करना
चाहता।''
चाण य ने उसे दलासा दे ते ए कहा, ''तुम न संकोच अपनी परेशानी मुझे बता सकते हो।
य द मेरे वश म आ तो म तु हारी सहायता अव य क ँ गा।''

''म राजा सवाथ स का पौ ँ। उनक दो प नयाँ थ —सुनंदा दे वी एवं मुरा दे वी। सुनंदा
के नौ पु ए, जो नवनंद कहलाए। मुरा के एक पु था, जो मेरे पता थे। नवनंद ने बार-
बार मेरे पता को जान से मारने क को शश क । हम सौ से अ धक भाई थे। ई यावश
नवनंद हम सभी क जान लेने पर तुले ए थे। कसी तरह से म बचा रहा; पर मेरा पूरा
जीवन बरबाद हो गया है। म नंद से तशोध लेना चाहता ँ, जो इस समय दे श पर शासन
कर रहे ह।''

मन का मन दो त। घाव खाए चाण य को नंद के व एक साथी मल गया था।


चं गु त क कहानी सुनकर चाण य को गहरा ध का लगा। भावना से भरकर उ ह ने
त ा क क वे नंद वंश का नाश करके चं गु त को उसक सही जगह पाट लपु के
राज सहासन पर आ ढ़ करने तक चैन से नह बैठगे।

चाण य ने कहा, ''म तु ह राजपद तक प ँचाऊँगा, चं गु त।''

उस दन से चं गु त और चाण य ू र व अ याचारी नंद के कुशासन का अंत करने म जुट


गए।

चं गु त के बारे म ठ क-ठ क कह कुछ नह लखा गया है। ज म- ान, पा रवा रक


पृ भू म और उसके जीवन से जुड़ी अ य जानका रयाँ उपल नह ह। उसके माता- पता
के बारे म अलग-अलग ंथ म अलग-अलग बात लखी ई ह। वा तव म वह मो रया
समुदाय से संब था। इसी के बाद संभवतः उसे 'चं गु त मौय' नाम दया गया और उसका
राजवंश 'मौय वंश' के नाम से जाना गया। कहा जाता है क उसक माता एक गाँव के
मु खया क बेट थी। उसके पता पपतवन नामक जंगली इलाके के राजा थे, जो एक यु
के दौरान मारे गए थे। चं गु त अपनी माता के साथ पाट लपु आया था।

चं गु त म नेतृ वकता के ज मजात गुण थे। बालक म भी सब उसे अपना नेता मानते थे।
बालक के राजा के प म वह अपना दरबार लगाता था और याय करता था। साहस और
सूझ-बूझ के गुण बचपन से ही उसम दखाई दे ने लगे थे। जब चाण य पाट लपु क
ग लय से गुजर रहे थे तो उ ह ने एक सहासननुमा ऊँची च ान पर चं गु त को राजसी
अंदाज म बैठे दे खा था। उसके सामने बालक का समूह फ रयाद बनकर फ रयाद कर रहा
था। चं गु त का भावान् मुखमंडल और बु म ापूण संभाषण सुनकर चाण य ब त
भा वत ए थे।

सात-आठ वष तक चं गु त ने श ा हण क । उसके श क का चयन वयं चाण य ने


कया था। इसके बाद यु -कला और शासन-दोन म चं गु त पारंगत हो गया।

सकंदर का आ मण

इतने वष के दौरान चं गु त एवं चाण य क मै ी खूब फली-फूली थी और श ु का


सामना करने के लए उ ह ने एक बड़ी सेना संग ठत कर ली थी। इस बीच चाण य और
चं गु त ने कई ऐ तहा सक घटनाएँ दे ख । दशक तक भारतीय उपमहा प पर सकंदर एवं
अ य कई हमलावर ने आ मण कए। कहा जाता है क चं गु त और सकंदर का आमना-
सामना भी आ। चं गु त के ःसाहस और स त रवैए ने सकंदर को कर दया था।
प रणाम व प सकंदर ने चं गु त को बंद बना लया। चाण य का श ण चूँ क पूरा हो
चुका था, इस लए चं गु त के यु -कौशल को परखने के लए उ ह ने उसे खुला छोड़ दया
था। सकंदर क यु -नी त का चाण य ने गहन अ ययन कया था। साथ ही वे भारतीय
शासक क कमजो रय के त भी सचेत थे।

सीधा-सादा ामीण बालक चं गु त अब एक मजबूत सेनानायक बन गया था। चं गु त और


उसक सेना को चाण य के दमाग और महान् व से ताकत मलती थी। उ री भारत
क वतं ता के उस यु म, जहाँ चं गु त शरीर था तो उसका म त क थे चाण य।

अपने सेनानायक क कमजोरी के चलते सकंदर क ताकत भी घटने लगी थी। सकंदर के
रहते ही नकोसर नामक उसका एक वीर सेनानायक मारा गया। बाद म फ लप नामक एक
अ य सेनानायक, जसे जय समझा जाता था, उसक मौत ने सकंदर को बुरी तरह
तोड़कर रख दया। बेबीलोन म सकंदर क मृ यु के बाद उसके सभी सेनानायक या तो मारे
गए या खदे ड़ दए गए। 321 ई-पू- म सकंदर के सै य अ धका रय ने उसके सा ा य को
आपस म बाँट लया। यह तय आ क सधु के पूव म उनका शासना धकार समा त आ।
इस कार उ ह ने वयं वीकार कर लया क भारत के उस ह से पर अब उनका अ धकार
नह रहा।

नंद क पराजय
नंद पर आ मण से पहले चाण य ने एक सु ढ़ रणनी त तैयार क । चाण य ने शु म
आ मण क नी त को शहर के म य भाग पर आजमाकर दे खा। ले कन उ ह बार-बार
पराजय का सामना करना पड़ा। अपनी रणनी त को बदलते ए चं गु त और चाण य ने
इस बार मगध सा ा य क सीमा पर आ मण कया। ले कन इस बार भी उ ह नराशा
हाथ लगी।

चं गु त और चाण य ने पछली गल तय से सबक लेकर रणनी त म प रवतन कया और


नकटवत राजा पवतक (या पौ स तीय) से मै ी कर ली। अब पवतक, उसका भाई
वैरोचक और पु मलयकेतु अपनी सेना के साथ उनक सहायता के लए आ गए। नंद
राजा को एक बड़ी सेना का समथन ा त था। उसके यो य मं ी, अमा य रा स का
सहयोग भी उसके लए कसी वरदान से कम नह था। अमा य रा स एक यो य और राजा
का वामीभ मं ी था। चाण य ने एक योजना तैयार करके नंद के खेमे म अपने जासूस
छोड़ दए। थोड़े ही समय के भीतर नंद क कमजो रयाँ उन पर जा हर हो ग । सरी ओर
नंद और अमा य रा स चाण य के हमले से बचने क योजना बनाने म जुटे थे।

नंद और चं गु त एवं चाण य के बीच ए यु का योरा उपल नह है, ले कन वह


न य ही एक भीषण और भयावह यु था। उसम नंद मारा गया। उसके पु और संबंधी
भी मारे गए। अमा य रा स भी असहाय हो गया। इस कार चाण य ने नंद वंश को
उखाड़ फका।

चाण य क मूल भावना


चाण य का तशोधपूण जीवन य को तशोध लेने क भावना को े रत करता है।
ले कन गत तशोध चाण य का उ े य नह था। वे चाहते थे क रा य सुर त रहे,
शासन सुचा ढं ग से चले और जा सुख-शां तपूवक रहे। उ ह ने लोग क संप ता
सु न त करने के लए दो तरीके अपनाए। पहला, अमा य रा स को चं गु त का मं ी बना
दया गया; सरा, एक पु तक लखी गई, जसम राजा के आचार- वहार का वणन कया
गया क वह श ु से अपनी और रा य क र ा कैसे करे कानून- व ा को कैसे
सु न त करे आ द।

चाण य का सपना था क राजनी तक, आ थक और सामा जक प से भारत व म


अ त बने। उनक पु तक 'अथशा ' म उनके सपन के भारत के दशन कए जा सकते
ह। 'नी तशा ' एवं 'चाण य नी त' म उनक वचारो ेजकता से ेरणा हण क जा
सकती है। उनके कुछ वचार से उनके सामा जक कोण को समझा जा सकता है-
जनसामा य क सुख-संप ता ही राजा क सुख-संप ता है। उनका क याण ही
उसका क याण है। राजा को अपने नजी हत या क याण के बारे म कभी नह
सोचना चा हए, ब क अपना सुख अपनी जा के सुख म खोजना चा हए।
राजा का गु त काय है नरंतर जा के क याण के लए संघषरत रहना। रा य का
शासन सुचा रखना उसका धम है। उसका सबसे बड़ा उपहार है-सबसे समान
वहार करना।
आ म नभर अथ व ा े अथ व ा है, जो वदे श ापार पर नभर नह होनी
चा हए।
समतावाद समाज हो, जहाँ सबके लए समान अवसर ह ।
चाण य के अनुसार, संसाधन के वकास के लए भावी भू- व ा होनी
आव यक है। शासन के लए यह आव यक है
क वह जम दार पर नजर रखे क वे अ धक भू म पर क जा न कर और भू म का
अन धकृत इ तेमाल न कर।
रा य को कृ ष- वकास पर सतत नजर रखनी चा हए। सरकारी मशीनरी को बीज
बोने से लेकर फसल काटने तक क या के उ यन क दशा म कायरत रहना
चा हए।
रा य का कानून सबके लए समान होना चा हए।
नाग रक क सुर ा सरकार के लए मह वपूण होनी चा हए, य क वही उनक
एकमा र क है जो केवल उसक उदासीनता के कारण ही असुर त हो सकती है।

चाण य एक ऐसे समाज का नमाण करना चाहते थे, जो भौ तक आनंद से आ मक आनंद


को अ धक मह व दे ता हो। उनका कहना था क आंत रक श और चा र क वकास के
लए आ मक वकास आव यक है। दे श और समाज के आ मक वकास क तुलना म
भौ तक आनंद और उपल याँ हमेशा तीयक ह।

2,300 वष पहले लखे गए चाण य के ये श द आज भी हमारा मागदशन करते ह। अगर


उनक राजनी त के स ांत का थोड़ा भी पालन कया जाए तो कोई भी रा महान्,
अ त और अनुकरणीय बन सकता है।
पहला अ याय

भारतीय सं कृ त म ई र क तु त से ही शुभ काय का आरंभ कया जाता है। चाण य ने


भी पृ वी, आकाश एवं पाताल अथात् तीन लोक के रच यता, सवश मान और
सव ापक पर को णाम करके अपने महान् ंथ का आरंभ कया। उ ह ने ई र क
तु त करते ए कहा—हे ई र! जन-क याण हेतु म व भ शा से एक त यह
राजनी तक नयम सृ जत कर रहा ँ। अतः हे ई र! मुझे श और आशीवाद दान कर।

इस ंथ के अ ययन, चतन और मनन से साधारण मनु य भी यो य-अयो य, उ चत-


अनु चत का ान ा त करने म स म हो जाएगा। इस ंथ के मा यम से ा णय को पाप-
पु य, धम-अधम और कत -अकत के त सजग करना ही मेरा एकमा येय है।
इसक नी तगत बात का अनुपालन करके मनु य अपने जीवन को का शत बनाएँ, इसी म
इस ंथ क साथकता न हत है।

जन-क याण हेतु म राजनी त के उन गु त रह य का वणन कर रहा ँ, जसका ान ा त


कर लेने के बाद मनु य सव हो जाएगा। य द मनु य इस शा के नी तगत वचार का
अनुसरण करे तो न संदेह सफलता उसके कदम चूमेगी।
मूख श य को उपदे श दे ने, ी का भरण-पोषण करने अथवा ःखी य क
संगत से व ान् मनु य भी क भोगते ह। इस लए बु हीन य को कभी भी स काय
के लए े रत नह करना चा हए। च र हीन ी से र रह, अ यथा वह बदनामी का कारण
बन जाएगी। इसी कार ःखी से कभी सुख ा त नह हो सकता। अतः उसक
संगत से बच।

कटु वचन बोलनेवाली ी, पापयु आचरण करनेवाले म तथा व ासघाती एवं


वे ाचारी सेवक क संगत करनेवाले मनु य के नकट न त ही मृ यु का वास होता है।
ऐसा मनु य कभी भी मृ यु का ास बन सकता है।

वह मनु य बु मान होता है, जो बुरे समय अथवा वप काल के लए धन क बचत


करता है। ऐसी बचत क य नपूवक र ा करनी चा हए। इसी कार ी भी धन के समान
है, इस लए उसक भी र ा कर। ले कन इससे पूव मनु य को अपनी सुर ा के त सतक
रहना चा हए। य द वह वयं सुर त है, तभी धन और ी क र ा करने म समथ होगा।

वप काल के लए मनु य को धन का संचय अव य करना चा हए। ले कन कभी यह न


सोच क धन के ारा वे वप को र करने म समथ हो जाएँगे। चंचलता ल मी का
वभाव है, इस लए वह कह भी नह ठहरती। य प धन का संचय मनु य क बु म ा
का प रचायक है, ले कन इसका अथ यह नह है क इससे वप काल न हो जाएगा।
जस ान पर मनु य का आदर-स मान न हो, आजी वका के साधन न ह , अनुकूल म
एवं संबंधी न ह , व ाजन के उपयु साधन न ह —ऐसा ान सवथा अनुपयु है।
इस लए बना वलंब कए उसे छोड़ दे ना चा हए।

जो ान पाँच कार क मूलभूत सु वधा -अथात् कमकांडी ा ण , याय य राजा,


धनी-संप ापारी, जलयु न दय तथा सुयो य च क सक से र हत हो, वह बु मान
के लए सवथा अनुपयु है। उसका उसी ण याग कर दे ना चा हए।

जस ान पर नवास करनेवाले मनु य लोक-परलोक के त आ ा न रखते ह , जो


ई र क मह ा को अ वीकार कर, लोक-परलोक का ज ह कोई भय न हो, जो परोपकार
और दानशीलता से र हत ह , बु मान मनु य को कभी भी ऐसे ान पर नवास करने के
बारे म नह सोचना चा हए।

काम के उ रदा य व से सेवक क , क अथवा संकट के समय म क , ःख या असा य


बीमारी म सगे-संबं धय क तथा धनहीन होने पर ी क परी ा होती है।

चाण य के अनुसार, मनु य का स ा हतैषी वही है जो बीमारी, अकाल या श ु ारा क


दए जाने पर; कसी संकट या वषम प र त म फँस जाने पर तथा मृ यु के उपरांत
मशान तक साथ दे ता हो। अथात् सुख या ःख-दोन प र तय म साथ दे नेवाला मनु य
ही स ा म कहलाता है।
न त एवं सा य कम को छोड़कर अ न त एवं असा य कम क ओर दौड़नेवाला मनु य
कभी सफल नह होता। ऐसी त म वह दोन से ही र हो जाता है। इस लए जस
काय म सफलता न त हो, मनु य को केवल वही काय करना चा हए।

कुलीन युवती कु प ही य न हो, व ान् और बु मान के लए वह े होती है।


इस लए उ ह अपने तर क कुलीन युवती से ही ववाह करना चा हए। इसके वपरीत प-
स दय से प रपूण न न कुल म जनमी युवती से ववाह करने पर मनु य क बु और
ववेक न हो जाते ह। ऐसे संबंध ण-भंगुर होते ह, इस लए व ान को इनसे बचना
चा हए।

तीखे नाखून वाले हसक पशु, बड़े स गवाले पशु, ती वेगवाली न दयाँ, श धारी ,
याँ तथा राजकुल से संबं धत व ास के यो य नह होते—अथात् ये कभी भी
व ासघात कर सकते ह। इस लए मनु य को इन पर व ास करने से बचना चा हए।

चाण य के अनुसार, य द वष से भी अमृत क ा त संभव हो तो न संकोच उसका सेवन


कर लेना चा हए। इसी तरह अशु व तु म से वण, न न मनु य से श ा तथा न न
कुल से सुसं कृत ी-र न को वलंब कए बना वीकार कर लेना चा हए।
य के बारे म चाण य कहते ह क पु ष क अपे ा य का आहार गुना, ल ा
चौगुनी, साहस छह गुना तथा काम-भाव आठ गुना अ धक होता है।
सरा अ याय

चाण य के अनुसार, वाभा वक गुण-दोष येक ाणी क गत उपल होती है।


वाभा वक गुण-दोष वे होते ह, जो ाणी के अंदर ज म के साथ कट होते ह इ ह कह भी
बाहर से हण नह करना पड़ता। इसी संदभ म उ ह ने अस य संभाषण, नडरता, छल-
कपटता, मूखता, लालच, अप व ता और नदयता को य के वाभा वक दोष म
स म लत कया है। ले कन साथ ही वे यह भी कहते ह क येक ी म उपयु दोष का
होना आव यक नह है।

चाण य कहते ह क भोजन-यो य वा द ंजन एवं उ ह हण करने का साम य


पवान् ी एवं भोग- वलास क श तथा वपुल धन एवं दानशीलता जैसे गुण केवल
घोर तप अथवा पूवज म के सुकम के प रणाम व प ही ा त होते ह।

जस का पु आ ाकारी, प नी प त ता एवं अनुकूल आचरण करनेवाली हो तथा


जो प र म ारा अ जत धन से पूणतः संतु हो, वह जी वत अव ा म ही वग का सुख
अनुभव कर लेता है— अथात् वह सदै व परम संतु एवं सुखी रहता है।
चाण य के अनुसार, केवल वही आदमी पु कहलाने यो य है, जो अपने माता- पता क
आ ा का सदै व पालन करता है। वा त वक अथ म पता के ान पर केवल वही मनु य
यो य है, जो अपनी संतान का भली-भाँ त पालन-पोषण करता हो, उनके ःख-सुख का
यान रखता हो। व सनीय ही स ा म और प त को सुख दे नेवाली ी ही
वा तव म प नी कहलाती है।

जस कार बाहर से सुंदर दखाई दे नेवाले फल अ धकतर मीठे नह होते, उसी कार मीठे
वचन बोलनेवाले लोग भी घातक और अ व सनीय होते ह। मुख पर शंसा तथा पीठ पीछे
नदा करनेवाले मनु य म ता के यो य नह होते। ऐसे मनु य वष मले ध के समान होते
ह। इस लए ऐसे लोग से सदै व सतक रह और अ तशी उनका याग कर द।

य प चाण य के अनुसार नकृ म पर कभी व ास नह करना चा हए, तथा प उ ह ने


अ े और हतैषी म से भी सावधान रहने का परामश दया है। इस कथन के संदभ म वे
कहते ह क य द कसी कारणवश हतैषी म श ु बन जाए तो वह सभी गोपनीय बात को
जानने के कारण मनु य का अ हत कर सकता है।

कसी अभी काय पर चतन-मनन करते समय या उसे काया वत करने से पूव वाणी ारा
उसे कट कर दे ने से काय के पूण होने म संदेह उ प हो जाता है। इस लए यान रख, जब
तक काय-योजना पूरी तरह से सफल न हो जाए तब तक उसका उ लेख कसी से न कर।
य प अ ान क दायक होता है तथा इसके कारण मनु य उपहास का पा बन जाता है,
यौवन भी असी मत क दान करनेवाला है। ले कन चाण य क म कसी सरे पर
आ त होकर जीना सबसे अ धक क दायक होता है। ऐसा पशु-तु य हो जाता है।
उसे सरे के अनुसार सम त कम करने पड़ते ह। अतः उ चत यही है क मनु य
सबल होकर जीवन तीत कर।

यह आव यक नह है क येक पवत हीरे-जवाहरात से यु हो, सम त हा थय के


म तक पर मु ाम ण सुशो भत हो, येक ान पर स न मनु य का वास हो तथा
येक वन म चंदन वृ ह । अथात् संसार म भ - भ वृ य के अनेक मनु य वास
करते ह। ऐसी त म हम केवल स न और े मनु य से ही संपक बढ़ाने चा हए।
इससे अभी काय अव य संप होगा।

चूँ क ानी मनु य ान के मा यम से संसार के अ ान पी अंधकार का नाश कर दे ते ह,


इस लए ानी को अपनी संतान को भी च र - नमाण के काय म लगाना चा हए।
उनके गुण म अ भवृ करने के लए उनक उ चत श ा-द ा क व ा करनी
चा हए। इससे उनके अंदर के ानयु गुण संसार म पूजनीय और आदरणीय हो जाते ह।

इस ोक के मा यम से चाण य गुणी क शंसा करते ए कहते ह क जस कार


कसी धा मक ल को दे खकर हमारे म तक वतः ही ा से झुक जाते ह, उसी कार
गुणी ान और आ ा के तीक बनकर मनु य के दय म ान ा त करते ह।

चूँ क मूख और अ ानी मनु य उपहास का पा बनकर रह जाता है। ानवान् मनु य म
उनक त हंस के बीच कौए जैसी होती है। वह न तो अपने वचार कट करने म स म
होता है और न ही सर के ानयु वचार को वीकार करने यो य। यही कारण है क
चाण य ने उन माता- पता को अपनी संतान का घोर श ु कहा है, जो उ ह अ श ा
नह दलवाते।

चाण य के अनुसार, अ धक लाड़- यार करने तथा ब क उ चत-अनु चत अथात् सभी


इ ाएँ पूण कर दे ने से उनम अनेक अवगुण उ प हो जाते ह। भ व य म ये अवगुण ही
ब क ग त और वकास म बाधा बन जाते ह। अतः लाड़- यार के साथ ताड़ना भी
परम आव यक है। एक कु हार चाक पर घूमते म के ल दे को कभी यार से थपथपाकर,
कभी सहलाकर तो कभी पीटकर उसे एक सुंदर बरतन का आकार दे दे ता है। बाद म वही
बरतन अपनी सुंदरता से लोग को आक षत करता है। माता- पता को कु हार क भाँ त
म पी संतान का पालन-पोषण करना चा हए।

जीवन का एक-एक ण, हर, दवस अ यंत मह वपूण है। इस लए मनु य को इसका


साथकता से योग करना चा हए। इसके लए आव यक है क मनु य त दन एक वेद
मं , आधा ोक, ोकांश अथवा एक अ र का वा याय करे। य द ऐसा करने म कोई
बाधा हो तो दान करे। य द मनु य के लए दान करना भी संभव न हो तो उसे परोपकार
अथवा अ य शुभ कम करके दन तीत करना चा हए। जो मनु य इसका अनुसरण नह
करते, उनके जीवन का येक ण थ जाता है।

मनु य के जीवन म कुछ ऐसे ःख होते ह, ज ह भुलाना असंभव होता है। प नी- वयोग,
वजन ारा कया गया अपमान, ऋण, वामी क चाकरी तथा मूख से यु ान म
द र तायु जीवन-यापन करना—ये क मनु य के शरीर को अ व कर उसे मृ यु क
ओर धकेलते ह।
चाण य कहते ह क जस कार ती वेग से बहनेवाली नद के कनारे त वृ शी ही
न हो जाते ह, उसी कार सरे के साथ रहने वाली ी तथा सुयो य मं ी से हीन राजा
का अ तशी नाश हो जाता है।

चाण य के अनुसार, जस कार ा ण व ा-श से, राजा सै य-श से, वै य धन-


श से तथा शू सेवा-काय से अपने अ त व को कट करता है, उसी कार संसार म
येक मनु य का कसी-न- कसी श के कारण ही अ त व होता है। इस श के
अभाव म वह पूणतः मह वहीन हो जाता है।

अ त थ के वषय म चाण य अपने वचार करते ए कहते ह क अ त थ का मह व


एक णक वराम म ही न हत है। न संकोच या नल होकर एक ही ान पर नवास
करते रहना अ त थ के लए अशोभनीय है। इस लए जस कार वे या नधन पु ष को,
जा परा जत ए राजा को तथा प ी सूखे वृ को छोड़ दे ते ह, उसी कार भोजन के
उपरांत अ त थ को भी साधुवाद करके वहाँ से अ तशी चले जाना चा हए।

चाण य कहते ह क जस कार द णा ा त करके ा ण आगे बढ़ जाता है, व ाजन


के बाद गु से वदाई लेकर श य अपना माग पकड़ लेता है तथा वन के जल जाने के बाद
पशु-प ी, जीव-जंतु आ द उसे याग दे ते ह, उसी कार मनु य को उ े य क ा त हेतु
लया गया आ य उ े य के पूण हो जाने के बाद अ तशी छोड़कर चले जाना चा हए।
उसका यह काय बु म ा का प रचायक होगा।

राचारी, पापी, जन तथा वभाववाले क संगत से बु मान एवं ववेकयु


मनु य भी कुछ समय उपरांत न हो जाते ह। इस लए ऐसे मनु य क म ता से बचना
चा हए। चाण य क म ऐसे मनु य के साथ म ता करने से केवल बु मान एवं यो य
मनु य को ही हा न उठानी पड़ती है। ऐसे मनु य कोयले क खान के समान होते ह, जहाँ
हर कोई काला हो जाता है।

अपने तर के के साथ ा पत ेम और सौहादयु संबंध ही मनु य के लए उ चत


होते ह। इसी कार शासक य सेवा उ चत होती है। ापार म लोक- वहार और घर के
लए उ म गुण से यु ी उपयु है। अथात् मनु य को सामा जक तर पर बराबर के
के साथ संबंध बनाने चा हए। इसी कार केवल सरकारी नौकरी ही मनु य को
रता दान करती है। इस लए अ य नौक रय क अपे ा इसे मह व द। ापार म
लोक- वहार और वा पटु ता पर ही क सफलता नभर करती है। इसी तरह घर म
केवल गुणवती और सु श ता ी ही शोभायमान होती है। इस लए मनु य उपयु बात
का सदै व अनुपालन कर।
तीसरा अ याय

संसार म कोई भी ऐसा मनु य नह है, जसके कुल या वंश म कोई दोष अथवा अवगुण न
हो। य द गहनता से परी ण कया जाए तो येक के कुल म कोई-न-कोई दोष
अव य नकल आएगा। इसी कार संसार म ऐसा कोई नह है, जो नीरोगी या सुख-
संपदा से प रपूण हो। अथात् ःख, क , पीड़ा एवं बीमारी कभी-न-कभी अव य मनु य को
जकड़ती है। इसके भाव से कोई भी बच नह सकता। सुख- ःख एवं उतार-चढ़ाव येक
मनु य के जीवन म आते-जाते ह। ले कन मनु य को असहाय होने के ान पर
साहसपूवक इनका सामना करना चा हए।

मनु य का आचार- वचार ही उसके कुल का प रचायक होता है। वा ालाप से उसके दे श
वशेष का, वहार से उसके नेहभाव एवं मान-स मान का तथा उसके शरीर से भोजन
का ान होता है। अ य श द म, मनु य का व उसके संपूण कृ त व का दपण होता
है। केवल मनु य के व को दे खकर ही बु मान उसके गुण-दोष का अनुमान
लगा सकता है।

बु मान के संबंध म चाण य अपने वचार करते ए कहते ह क ऐसे मनु य


को अपनी पु ी का ववाह कसी े एवं सुयो य कुल म करना चा हए। इसके अ त र
पु को े श ा दलवानी चा हए तथा म को धम-कम से संबं धत शुभ काय म
लगाना चा हए। बु मान के लए आव यक है क वह अपने श ु प को सदा
कसी-न- कसी क म उलझाए रखे। इससे वे कभी भी उसके लए मुसीबत या संकट
उ प नह कर पाएँगे। न संदेह इस ोक म चाण य ने अपनी कूटनी त क झलक
दखाई है।

सप और जन के बीच म तुलना करते ए चाण य कहते ह क सप केवल काल के


बलवान् होने पर ही काटता है। इसके वपरीत जन कदम-कदम पर व ासघात
करता है, थ पीड़ा प ँचाता है। इस लए य द दोन म से कसी एक को चुनने का अवसर
आ जाए तो बना संकोच कए सप को चुन लेना चा हए।

चूँ क बु मान एवं कुलीन वपरीत एवं वषम प र तय म भी साथ नह छोड़ते,


इस लए राजा एवं व ान् मनु य भी इ ह आ य दे ने के लए सदा त पर रहते ह। ऐसे
सुसं कृत एवं ववेकयु मनु य वपरीत प र तय से लड़ने म स म होने के कारण
साहसपूवक उनका सामना करते ह।

बु मान य क शंसा करते ए चाण य कहते ह क अनेक न दय का जल वयं


म समा हत करने के बाद भी समु शांत बना रहता है। ले कन जब लयकाल आता है, तब
वह भी अंततः अपनी सीमाएँ तोड़कर संपूण पृ वी को जलम न करने के लए ाकुल हो
उठता है। परंतु धीर, गंभीर, स न एवं बु मान अनेक वप य के आने क
त म भी शांत बना रहता है। अथात् कसी भी त म वह धैय का साथ नह छोड़ता
तथा तट होकर उनके नवारण का उपाय ढू ँ ढ़ता है।
मूख दो पैर वाले पशु के समान होता है। उसे न तो उ चत-अनु चत का ान होता है
और न ही उसे कुछ समझाया जा सकता है। अतः ऐसे मनु य का अ तशी याग कर दे ना
चा हए। जस कार पैर म घुसा काँटा दखाई न दे ने पर भी भयंकर पीड़ा प ँचाता है, उसी
कार मूख ारा कहे गए मूखतापूण वचन नरंतर स न मनु य को बेधते रहते ह।

इस ोक के मा यम से चाण य ने व ा क मह ा पर काश डाला है। वे कहते ह क


जस कार सुगं धत होने के बाद भी ढाक का सुंदर पु प न तो दे वी-दे वता पर चढ़ाया
जाता है और न ही वह कसी को अपनी ओर आक षत कर पाता है, उसी कार प-
स दय से प रपूण होने तथा उ कुल म ज म लेकर भी व ा- वहीन मनु य मान-स मान
ा त नह कर सकता। प, स दय, धन, संप , बल, उ कुल एवं यौवन—इनक शोभा
बु और व ा ारा बढ़ती है। इसके अभाव म मनु य ढाक के पु प के समान है।

गुण के मह व से अवगत करवाते ए चाण य कहते ह क जस कार मीठ वाणी होने के


कारण कोयल का काला रंग गौण हो जाता है अथात् रसयु वर ही उसका प बन जाता
है, उसी कार प त ता धम ही य का प-स दय होता है। प-स दय से यु ले कन
च र हीन ी क अपे ा कु प कतु ानवान् एवं ववेक ी अ धक सुंदर है। ये गुण ही
उसे आदर और स मान के यो य बनाते ह। इसी कार माशीलता म ही तप वय क
शोभा न हत है। कसी तरह ववेक और धैय न खोना ही उनके तप क स ी कसौट है।
इसी के मा यम से उनके तप क गहराई को मापा जा सकता है।

चाण य के अनुसार, य द एक का याग अथवा ब लदान करने से प रवार क र ा


संभव है तो इससे कभी पीछे न हट। इसी कार पूरे ाम या समुदाय क र ा हेतु अपने
प रवार का याग या ब लदान करना सवथा उ चत है। रा य को बचाने के लए एक ाम या
समुदाय का ब लदान करना पड़े तो अव य कर द। ले कन साथ ही चाण य यह भी कहते
ह क मनु य के लए वयं से बढ़कर कुछ नह होता। इस लए वयं क उ त एवं र ा के
लए य द संपूण पृ वी क ब ल दे नी पड़े तो बना कसी संकोच के दे द। य द मनु य वयं
जी वत नह होगा तो ाम, समुदाय एवं रा य उसके कस काम के रहगे।

जो पु षाथ अथवा कमशील होते ह, उ ह कभी द र ता नह घेरती; ई र-भ म


डू बे रहनेवाले पापर हत होते ह मौन रहने से वाद- ववाद नह होता, अ पतु शां त बनी
रहती है। इसी कार जो सावधान, सजग और जाग क होगा, उसे न तो कोई भय
सता सकता है और न ही कोई उसका अ हत कर सकता है।

चाण य ने कसी भी व तु या कम क अ त को अ यंत हा नकारक बताया है। उनके


अनुसार, अ त सुंदर होने के कारण ही रावण ारा सीता का हरण आ। अहंकार और गव
क अ त ही महा व ान् रावण क मृ यु का कारण बनी। दै यराज ब ल क अ त दानशीलता
ने ही उसे सबकुछ गँवाकर पाताल जाने के लए ववश कर दया। य द श द म कहा
जाए तो 'अ त' ारा मनु य का 'अंत' न त है। अतः अ त से बच।

जो मनु य समथ, यो य एवं साहसी होते ह, उनके लए कोई भी काय असंभव या क ठन


नह होता। वे जो ठान लेते ह, उसे करके ही दम लेते ह। ापार करनेवाले लोग के लए
संसार का कोई भी ान र नह होता। वे कह भी आने-जाने म वलंब नह करते। व ान्
के लए कोई भी ान वदे श नह है। वे अपनी बु , ववेक एवं व ा के बल पर कह भी
अपने अनुयायी और म उ प कर लगे। इसी कार मधुर वाणी बोलनेवाला मनु य
श ु को भी अपना म बना लेता है। इस लए उसका कोई श ु नह होता।
गुणयु क शंसा करते ए चाण य कहते ह क जस कार सुगं धत फूल से
यु मा एक वृ ही संपूण वन को सुगं धत कर दे ता है, उसी कार कुल म उ प एक
गुणवान् पु ही संपूण कुल का उ ार कर दे ता है।

अवगुणी के संदभ म चाण य कहते ह क जस कार अ न से त त एक वृ ही


संपूण वन को जलाकर भ म कर दे ता है, उसी कार े कुल म उ प अवगुणी पु अपने
कम ारा संपूण कुल को कलं कत कर दे ता है। इसी तरह व ान् का एक छोटा सा
अवगुण उसके लए अ भशाप बन जाता है। इस लए मनु य को संतान म अ े सं कार
एवं गुण का बीजारोपण करना चा हए।

जस कार चं मा रात के सम त अंधकार को हर लेता है—यह काय सह तारे भी एक


साथ मलकर नह कर सकते—उसी कार गुण से यु , व ान्, च र वान् और सौ य
वभाव का पु सम त कुल को गौरवा वत कर दे ता है। जस कार काली रात को कोई
पसंद नह करता, उसी कार अवगुणी पु भी कुल के लए अ य होता है। इस लए
चाण य कहते ह क अनेक अवगुणी पु उ प करने क अपे ा एक गुणी को उ प
करना सवथा उपयु है।

गुणी पु के संदभ म चाण य अपने वचार करते ए कहते ह क उ ं डी एवं अवगुणी


पु कुल को शोक एवं अपमान क ओर धकेलकर उसके वनाश का कारण बनते ह। इसके
वपरीत एक गुणी पु अपने ान, ववेक और व ा ारा कुल को समाज म गौरव दान
करता है। य प रावण के सह पु एवं नाती थे, ले कन अवगुणी होने के कारण वे सभी
यु म मारे गए। इस लए कई अवगुणी पु क अपे ा एक गुणी पु अ धक उपयु होता
है। इससे कुल के उ ान और वकास का माग श त होता है।

पता के या कत ह—इस संदभ म चाण य कहते ह क पता को अपनी संतान का


पाँच वष तक लाड़- यार के साथ पालन-पोषण करना चा हए तथा इसके बाद अगले दस
वष तक उस पर स ती रख, य क यही समय उसके व- नमाण का होता है। यह
समय उस न व क तरह होता है, जस पर उसका शेष जीवन नभर करता है। संतान जब
सोलह वष क हो जाए तो उसके साथ म वत् वहार कर म के समान उसका
मागदशन कर म क तरह उसक सम या का नदान कर।

जो दे श-रा य म होनेवाले भयंकर उप व , दं गे-फसाद, श ु ारा कए गए आ मण,


भयंकर अकाल तथा क संग त से सुर त बच नकलता है, वही अपने जीवन क र ा
करने म समथ होता है। इस ोक के मा यम से चाण य करना चाहते ह क जीवन-
र ा हेतु मनु य को प र त के अनुसार वयं को प रव तत कर लेना चा हए।

धम, अथ, काम और मो -ये चार जीवन के मह वपूण अंग कहे गए ह। चाण य के
अनुसार, जो मनु य इनम से कसी एक भी गुण को नह अपनाता, उसका जीवन नरथक
है। इन गुण से र हत मनु य का जीवन मृ यु-तु य है—अथात् वह मृ यु के लए ज म लेता
है तथा पुनज म के लए ही मृ यु को ा त होता है। इस लए मनु य को अपना अमू य
जीवन थ के भोग- वलास म न नह करना चा हए। इसक अपे ा अ े गुण को
हण कर पु य ा त करना चा हए।
चाण य के अनुसार, जस रा य म मूख को आदर-स मान न मलता हो, जो चुर धन-
धा य से प रपूण हो, जस घर म प त-प नी म पर र ववाद न होता हो, वहाँ सा ात्
ल मी का वास होता है। उस ान पर कभी कसी व तु का अभाव नह होता। घर के सभी
ाणी सुख और आनंद के साथ जीवनयापन करते ह।
चौथा अ याय

कम करने पर बल दे ते ए चाण य कहते ह क जीव क आयु, कम, धन, व ा और मृ यु-


इन पाँच बात का नधारण उसी समय हो जाता है, जब वह माता के गभ म होता है। ये
पाँच बात ई र के अधीन ह इसम कोई भी प रवतन नह कर सकता। ले कन फर भी,
मनु य को पु षाथ करते रहना चा हए।

चाण य कहते ह क जब कोई मनु य सामा जक बाना उतारकर अथात् मोह-माया से


वर होकर साधु बन जाता है, तब उसके बंधु-बांधव उसे र तक छोड़कर घर लौट आते ह
और पुनः मोह-माया म डू ब जाते ह। ले कन जो लोग उस वैरागी साधु के आचरण को
जीवन म उतारकर प रवार स हत सदाचार का अनुसरण करते ह, वे अपने कुल का उ ार
कर दे ते ह।

स न एवं साधु पु ष के वषय म चाण य कहते ह क जस कार एक मछली दशन


ारा, कछवी यान ारा तथा प ी श ारा अपने ब का पालन-पोषण करते ह, उसी
कार स न एवं े पु ष क संग त ा णय का पालन-पोषण करती है। उनक संग त
से ई र- ा त का माग श त हो जाता है। इस लए मनु य को साधु पु ष क संग त का
यास करना चा हए।
धा मक पु य कम का वणन करते ए चाण य ने कहा है क धम-कम, दान-तीथ, पूजा-
अचना एवं त-स संग आ द पु य कम मो का माग श त करते ह। इस लए आ म-
क याण हेतु मनु य को जी वत अव ा म ही व एवं नीरोग रहते ए इन सभी कम का
यथा व ध पालन करना चा हए, अ यथा मृ यु के उपरांत कुछ शेष नह रहेगा।

मह ष व स के पास कामधेनु नामक एक गाय थी, जो उनक सभी इ ा को त काल


पूण कर दे ती थी। उसी कार चाण य ने व ा क तुलना कामधेनु गाय के साथ क है। वे
कहते ह क जस कार कामधेनु से यु भूखा नह मर सकता, उसी कार
व ाजन के उपरांत मनु य कसी भी संकट को झेलने के यो य हो जाता है। परदे श म
व ा ही माँ के समान है, जो कदम-कदम पर मनु य क र ा करती है। व ा ही गु त धन
है, जसे कोई चुरा नह सकता; अ पतु इसे जतना अ धक खच कया जाएगा उतनी ही यह
बढ़ती जाएगी।

उ म गुण से यु एक ही पु सैकड़ नगुणी पु से े होता है। जस कार एक चं मा


सारे अंधकार को न कर दे ता है और लाख तारे मलकर भी ऐसा नह कर पाते ह।

मूख के संदभ म चाण य वचार करते ए कहते ह क मूख एवं व ार हत


मनु य जीवन भर माता- पता के लए क और पीड़ा का कारण बनता है। इस लए उ चत
यही है क ऐसा पु द घायु होने के ान पर ज म लेते ही मर जाए। य प इससे उसके
माता- पता को अ पकालीन क होगा, ले कन वे भ व य के द घकालीन क से मु हो
जाएँगे। इ तहास म भी ऐसी अनेक मूख संतान का उ लेख है, जनके कारण वशालतम
सा ा य भी छ - भ हो गए।

बुरे एवं बदनाम गाँव म नवास करना, कुलहीन क सेवा करना, ोधी प नी, मूख पु तथा
वधवा क या—इन छह कारण को चाण य ने शरीर को ःख पी अ न से त त
करनेवाला माना है। इस लए वे कहते ह क स न पु ष को इनका यथासंभव उपाय कर
लेना चा हए।

जो बाँझ गाय ध नह दे ती, उसे घर म रखने का कोई लाभ नह है। इसी कार जो पु
व ार हत और माता- पता का आ ाकारी न हो, ऐसे पु को याग दे ना ही उ चत है,
अ यथा प रवार को अनेक क भोगने पड़ते ह।

संसार म सभी ाणी कसी-न- कसी ःख से पी ड़त ह। ऐसे मनु य को केवल गुणी


संतान, प त ता प नी तथा स न पु ष क संग त से ही सुख और शां त का अनुभव
होता है। इस लए चाण य ने मनु य को व ान् और स न पु ष क संग त करने का
परामश दया है। उनके अनुसार, इसी म मानव-सुख न हत है।

चाण य ने राजा क आ ा को आदे श के समान कहा है, जसे बार-बार दोहराया नह


जाता। इसी कार उ ह ने व ान और पं डत के संदभ म कहा है क वे एक बार जो कह
दे ते ह, उस पर र रहते ह। क यादान भी केवल एक बार कया जाता है। इस लए जो
मनु य अ ा काम करना चाहता है, उसे एक बार म ही कर लेना चा हए।

व भ काय हेतु य क सं या न त करते ए चाण य ने कहा है क तप या,


पूजा-अचना एवं पाठ का अ ययन अकेले ही करना चा हए। एक से अ धक सं या होने पर
इसम बाधाएँ उ प हो जाएँगी। इसके वपरीत दो य के बीच म पढ़ाई अ तरह से
होगी। इससे अ धक सं या होने क त म पढ़ाई क अपे ा बात क अ धकता रहेगी।
गायन हेतु तीन ही पया त ह, जब क या के लए चार उपयु ह। इसी कार
खेतीबाड़ी के लए पाँच तथा यु हेतु अ धक-से-अ धक लोग क आव यकता होती
है।

आदश प नी के संदभ म चाण य कहते ह क जो ी प व , चतुर, समझदार हो जो


प त त-धम का व धवत् पालन करे जो केवल प त से ही ेम करे जसक वाणी सदै व
स य वचन बोले तथा अस य का प र याग करे, केवल वही नारी मान-स मान के यो य तथा
घर-प रवार के लए उपयु कही गई है।

जस कार संतान के बना घर सूना-सूना लगता है, उसी कार म एवं सगे-संबं धय के
बना मनु य को एकाक पन का अनुभव होता है। ले कन मूख, नधन एवं द र मनु य सदै व
वाथ- स म लगे रहते ह, इस लए उनके दय म कसी के लए भी ेम, ममता या
क णा का भाव नह होता। यही कारण है क उनके लए सारा संसार ही र होता है,
य क कोई भी उनके नकट आने से बचता है।
चाण य के अनुसार, अ यास के बना व ान् भी शा का यथो चत वणन नह कर पाता
और लोग के बीच उपहास का पा बन जाता है। ऐसी त म अपमान मृ यु से अ धक
क द होता है। इस लए जो व ान् नरंतर अ यास नह करता, उसके लए शा भी
वष के समान हो जाते ह। इसी कार जस क पाचन-श ीण है—अथात् जो
भोजन को ठ क से नह पचा सकते, उनके लए ब ढ़या-से-ब ढ़या भो य पदाथ भी वष-
तु य ह। चूँ क सभा एवं गो य म द र का सदै व अपमान होता है, इस लए ऐसे ान
उसके लए वष के समान ह। वृ के लए युवा प नी वष क भाँ त होती है। ऐसी त
म युवती का आचरण वृ के लए अ यंत क दायक और अपमान त होता है।

इस ोक के मा यम से चाण य मनु यमा को सावधान करते ए कहते ह क जस धम


म दया का भाव नह होता, उसे कभी वीकार नह करना चा हए; जो व ान् न हो,
उसे गु के प म न मान; जो ी अ यंत ोधी हो, उसे प नी- प म कभी हण न कर।
इसी कार जन ब म ेम का अभाव होता है तथा जन म को स ी म ता का ान
नह होता, उ ह कभी भी अपना य एवं व ासपा न मान।

वृ ाव ा के बारे म चाण य ने कहा है क यानम न होकर नरंतर चलने, घोड़ को खूँटे से


बाँधने, य को यौन-सुख से वं चत रखने तथा व को अ धक दे र तक धूप म डाले रखने
से बुढ़ापे का आगमन होता है। इस लए ऐसा करने से बच।
चाण य के अनुसार, मनु य को कुछ मह वपूण बात का अव य यान रखना चा हए।
हमारा समय कैसा चल रहा है, कौन हमारे म और कौन श ु ह, हमारा नवास- ान
कैसा है, हमारी आय और य कतना है, हमारी श कतनी है—ये सब बात ही मनु य
के चतन और मनन का क ब होनी चा हए। इ ह यान म रखकर आचरण करनेवाला
मनु य जीवन म कभी असफलता का मुख नह दे खता।

ज म दे नेवाली माँ, य ोपवीत सं कार करवानेवाला ा ण, व ा दान करनेवाला गु ,


अ दान करनेवाला मनु य तथा भय का नाश करनेवाला— चाण य ने इ ह पतृ-तु य
माना है। वे कहते ह क मनु य इनका ऋणी होता है, इस लए उसे सदै व इनका आदर-
स मान करना चा हए। इ ह के कारण वह उपयु पाँच तय म पुनः ज म ा त करता
है।

माता के संदभ म चाण य ने राजा क प नी, गु क प नी, म क प नी, प नी क माता


तथा वयं क माता को मनु य क पाँच माताएँ कहा है। वे कहते ह क येक को
इनका यथो चत आदर-स मान करना चा हए। इनके त कु का भाव रखकर वह घोर
नरक का भागी बनता है। अतः इनका न तो कभी नरादर करना चा हए और न ही इन पर
बुरी डालनी चा हए।

ा ण, य और वै य का ज म दो बार होता है-एक बार माता के गभ से और सरी बार


गु ारा ान दए जाने पर। इस लए इ ह जा त कहा जाता है। इनका आरा य दे व
अ न है। इसके वपरीत, मु नय के दे वता उनके दय म नवास करते ह। अ प-बु वाले
मनु य के लए तमा म दे वता वास करते ह। ले कन जो मनु य संपूण जगत् को एक
समान भाव से दे खते ह, उनके दे वता जगत् के कण-कण म व मान होते ह।
पाँचवाँ अ याय

गु के वषय म चाण य कहते ह क ा ण, य और वै य के लए अ न ही गु के


समान है। चूँ क ा ण चार वण ारा पूजनीय है, इस लए वह सबका गु है। इसी कार
य के लए उनके प त ही परम पूजनीय दे वता और गु ह। ले कन चाण य ने अ त थ
को सभी के लए स माननीय और पूजनीय कहा है। इस संदभ म वे तक दे ते ए कहते ह
क अ त थ केवल आ तथेय का क याण ही चाहता है। उसम उसका कोई वाथ न हत
नह होता। इस लए वह े है।

चाण य कहते ह क वण क शु ता को जाँचने-परखने के लए उसे तेज अ न म तपाया


जाता है ठोका, पीटा एवं काटा जाता है। इससे वह और भी नखर उठता है। इसी कार
दान-पु य, गुण-शील, याग-कम तथा आचरण ारा सा वक मनु य को शु ता क
कसौट पर परखा जाता है। जो मनु य इन सभी गुण से यु होता है, वह वण क भाँ त
दमक उठता है।

संकट के समय बु मान को या करना चा हए—इस संदभ म अपना मत


करते ए चाण य कहते ह क जब तक मुसीबत, परेशा नयाँ और संकट र रहते ह तब
तक बु मान य को उनसे डरना चा हए। ले कन एक बार जब वे उनसे घर जाएँ तो
उ ह पूरी नडरता, साहस और धैय के साथ उनका सामना करना चा हए। केवल इसी तरह
वे उ ह परा त करके उनसे छु टकारा पा सकते ह।
मनु य- वभाव म भ ता का उदाहरण दे ते ए चाण य कहते ह क एक ही वृ और एक
ही टहनी पर उगनेवाले बेर एवं काँटे वभाव के अनुसार भ - भ होते ह। बेर के सेवन से
जहाँ ाणी को मठास एवं तृ त का अनुभव होता है, वह काँट क छु अन पीड़ा और चुभन
दे ती है। इसी कार एक ही न अथवा एक ही समय म एक ही गभ से उ प होनेवाले
ब का वभाव भ - भ होता है। इस लए मनु य को यह त य भली-भाँ त समझ लेना
चा हए, तभी उसे सुख क ा त होगी।

क पहचान के वषय म चाण य ने कहा है क जो मनु य अ धकार के पीछे


भागनेवाला होता है, वह लोभी एवं लालची होता है। प-स दय एवं शं◌ृगार को मह व
दे नेवाले मनु य का वभाव कामुक होता है। मूख वभाववश कभी मृ भाषी नह
होते। इसी कार जो व ा एवं स यभाषी होते ह, उनम म कारी, धूतता और
धोखेबाजी का लेशमा भी नह होता।

मानव- वभाव क ववेचना करते ए चाण य कहते ह क कोई भी मनु य वयं से े


को दे खकर स नह होता, अ पतु उससे ई या और घृणा करने लगता है। मूख
ई यावश ही व ान से घृणा करने लगते ह, उनके साथ वहार करते ह। ई या के
कारण ही आलसी और द र सदै व धनवान् के त श ुता का भाव रखते ह। इसी
कार प त ता को दे खकर वे याएँ तथा सुहा गन को दे खकर वधवाएँ ई या से भर
उठती ह। य प व ान को मूख क , धनवान् को द र क , प त ता को वे या क तथा
सुहा गन को वधवा के ई यायु वहार क उपे ा कर दे नी चा हए। ले कन मूखता और
ई या के वशीभूत होकर वे वयं को े स करने का यास करते ए पर र
दोषारोपण करते ह।
चाण य के अनुसार, आल य और अना यास व ान क बु को भी करके उनके
ान का नाश कर दे ता है। सर के अ धकार म गई याँ अ तशी न हो जाती ह। बीज
के अभाव या कमी के कारण फसल भरपूर नह होती। इसी कार सेनाप त के अभाव म
सेना यु म वजय ी कदा प ा त नह कर सकती। इस लए े प रणाम ा त करने हेतु
सा य के मह व पर अव य यान दे ना चा हए।

चाण य कहते ह क केवल नरंतर अ यास ारा ा त व ा क र ा क जा सकती है।


इसी कार मनु य केवल अपने कम, आचरण और वभाव ारा ही कुल को मान, स मान
और गौरव के यो य बनाता है। इसके लए उ जा त, कुल या धन क अ धकता कोई
मह व नह रखती। अ े मनु य को उनके गुण ारा पहचाना जाता है, जब क ने से
ोध का ान होता है।

धन, योग, मृ वाणी और प त ता ी के मह व का वणन करते ए चाण य ने कहा है क


धन ारा धम क र ा, योग ारा व ा क र ा, मृ और कोमल वाणी ारा राजा क र ा
तथा प त ता ी ारा घर-गृह ी क र ा होती है। इनके अभाव म धम, व ा, राजा और
घर-प रवार कभी सुर त नह रह सकते।

वै दक ान, शा क े ता और सा वक मनु य क नदा करनेवाले मनु य लोक व


परलोक म भयंकर ःख भोगते ह। ऐसे मनु य न तो समाज म अपने लए मान-स मान
ा त कर पाते ह और न ही मृ यु के बाद उ ह ई र- तु त का लाभ होता है। ऐसे लोग क
संग त करनेवाल को भी समान प से दोषी होकर उपयु ःख भोगना पड़ता है।

इस ोक म दान, शील, ान और स ावना के संदभ म चाण य ने कहा है क दान ही


द र ता को न करने का सश साधन है। शील ारा ग त और क का अंत होता है।
ान मनु य क मूखता और अ ानता को समा त कर दे ता है, जब क स ावना ारा मनु य
के सम त भय न हो जाते ह। इस लए सुखी जीवन हेतु मनु य को उपयु चार गुण को
वयं म उ प करना चा हए।

मनु य-जीवन म काम, मोह और ोध जैसे वकार का उ लेख करते ए चाण य कहते ह
क काम मनु य का सबसे बल श ु है। यह एक ऐसा असा य रोग है, जसके वशीभूत
होकर मनु य बु - ववेक गँवा दे ता है, साथ ही उसका शरीर शी ता से नबलता क ओर
अ सर हो जाता है। मोह श ु के समान मनु य का नाश कर दे ता है। पु -मोह के वशीभूत
होकर ही महाभारत जैसा वनाशकारी यु आ। इसी कार ोध भयंकर अ न के समान
है, जो अपनी लपट से मनु य को बार-बार ता ड़त करता है। इसके भाव से मनु य का
मन-म त क ण- त ण जलता रहता है। इन वकार के नाश हेतु चाण य ने ान को
सव म साधन कहा है। उनके अनुसार, केवल ान ारा ही इन वकार को शांत करके
सुख क ा त संभव है।

अनेक सगे-संबंधी, म , प नी, पु आ द होने के बाद भी मनु य इस संसार म पूणतः


अकेला है। अकेले ही उसने ज म लया था और उसे अकेले ही इस संसार से जाना है।
उसके ारा कए गए अ े एवं बुरे कम का फल उसे वयं ही भोगना है। इसम कोई भी
उसका भागीदार नह है। उसके सुख- ःख केवल उसी के ह उनका भाव केवल उसी पर
पड़े गा। इस संसार पी पथ पर चलते ए उसे अकेले ही मो क ओर अ सर होना है।

ऐसे ा ण के लए वग का सुख भी नरथक है, जो कम करने को मह व दे ता है जब क


य तलवार क धार पर चलकर वयं को स मा नत और गौरवा वत अनुभव करता है,
इस लए उसे जीवन का मोह नह होता। सम त इं य को जीत लेनेवाला मनु य प-
स दय से प रपूण युवती को दे खकर भी भावहीन रहता है। उस पर काम, ोध, लोभ, मद,
मोह आ द वकार का कभी भाव नह पड़ता। इसी तरह संसार से न ल त और नल भी
के लए धन एवं म ण-मा ण य तृण अथात् तनके क भाँ त ह।

स े म का प रचय दे ते ए चाण य करते ह क परदे श जानेवाले य के लए


व ा और घर-प रवार के सद य के लए केवल प त ता नारी ही स ी म है। ा ध से
त के लए औष ध उसका वा त वक तथा स ा म है। चूँ क मृ यु के बाद
के साथ केवल उसके कम और धम ही साथ जाते ह, इस लए मृतक का परम हतैषी
उसका धम होता है। अतः मनु य को जी वत रहते ए अनेक स कम करने चा हए, जससे
परलोक म उसे क न भोगने पड़।

दान क उपयो गता और उसके लए उपयु का वणन करते ए चाण य कहते ह


क जस कार जल से प रपूण समु म वषा करना थ है, दन के काश म द पक
जलाने क कोई उपयो गता नह है, उसी कार ऐसे मनु य को भोजन करवाना थ है,
जसका पेट भरा आ है—अथात् जो पहले से तृ त है कसी धनवान् को दान दे ना
नरथक है। चाण य कहते ह क जस तरह खेत-ख लहान म वषा क तथा अंधकार म
द पक क आव यकता होती है, उसी कार भोजन केवल ऐसे को करवाना चा हए,
जो भूखा हो दान ऐसे मनु य को द, जो द र हो। इसके अनुसार काय करने पर ही मनु य
ारा दए गए दान एवं पु य काय फ लत होते ह।

चाण य ने वा य एवं उपयो गता क से वषा के जल को सबसे शु और प व


माना है। चूँ क आ मबल ारा इं य और शरीर को नयं त कया जा सकता है, इस लए
उ ह ने आ मबल को बल म सबसे े कहा है। ने ारा ाणी ई र ारा र चत संसार
को दे खने के यो य बनता है, अतः ने - यो त से बढ़कर संसार म कोई सरा काश नह
है। अ जैसा वा द और चकर भो य पदाथ कोई सरा नह है। यह मनु य क ुधा
शांत कर उसे बल दान करता है उसे खाने से मनु य कभी थकता नह ।

वभ य क व भ इ ा के संदभ म चाण य कहते ह क नधन एवं द र


क इ ा धन- ा त क होती है पशु बोलने क इ ा रखते ह साधारण मनु य वग
क आकां ा से प रपूण होते ह दे वगण एवं साधुजन क एकमा इ ा मु क होती है।
इस तरह मनु य कसी-न- कसी इ ा से संत त रहकर नरंतर उसी का चतन-मनन करते
ह और ा त व तु को भी तु समझने लगते ह।

इस ोक ारा स य-बल का वणन करते ए चाण य कहते ह क ा ण के व का


मूल आधार स य है। स य पर ही यह संपूण पृ वी टक ई है। स य का तेज ही आकाश
म सूय के प म का शत होता है। स य के बल से ही वायु चलती है तथा दन, रात व
मौसम म प रवतन होता है। स य क म हमा को और अ धक व तार दे ते ए चाण य
कहते ह क स य क श ने ही इस संपूण सृ को र कया आ है। स य के न होने
पर लयकाल उ प होता है और संपूण ांड जल म डू ब जाता है। अतः चाण य कहते
ह क मनु य को स य का पालन करते ए उसी के अनुसार आचरण करना चा हए।
धम क मह ा बताते ए चाण य कहते ह क य प यह संसार नाशवान् है, ले कन धम
का कभी नाश नह होता। ाण, यौवन, ल मी, जीवन-सभी एक-एक कर न हो जाते ह।
परंतु धम अजर, अमर और शा त है कोई भी उसे न नह कर सकता। य प मनु य
जीवन भर अनेक ब मू य व तु , धन-संपदा एवं सगे-संबं धय से घरा रहता है, तथा प
मृ यु के बाद धम-कम के अ त र सभी उसका साथ छोड़ दे ते ह। इस लए मनु य को
सदै व धम के माग का ही अनुसरण करना चा हए। सांसा रक न र व तु का मोह उसे
वच लत कर धम के माग से वमुख करने का य न करता है, इस लए उनका याग करना
ही उ चत है। जस कार सूय क करण से रात का अंधकार छ - भ हो जाता है, उसी
कार धम-कम के लोक और परलोक के सम त ःख का नाश कर दे ता है।

इस ोक ारा चाण य ने धूत क पहचान को कया है। वे कहते ह क मनु य म


नाई सबसे धूत होता है। इसी कार प य म कौआ, पशु म गीदड़ और य म
मा लन सबसे धूत व म कार होती है। ये बना कसी कारण के लोग का काय बगाड़ने के
लए य नशील रहते ह। इस लए ऐसे लोग क संग त एवं म ता से स न मनु य को
बचना चा हए।
छठा अ याय

इस ोक म चाण य ने वै दक शा के अ ययन और वण क मह ा को कया


है। वे कहते ह क धम के मम को समझने के लए वै दक शा का ान आव यक है।
इसके मा यम से मनु य धम के त व को जीवन म उतार सकता है। वै दक ान पाप कम
म ल त मनु य क बु को भी स माग क ओर अ सर कर दे ता है। इसके भाव से
साधारण मनु य भी े ता ा त कर लेता है। वै दक ान क श ारा ही साधुजन संपूण
जगत् का क याण करते ए मृ यु के बाद मो ा त करते ह।

जस कार वै दक ान का अ ययन परम क याणकारी होता है, उसी कार उनका वण


भी मानव-मन और बु को नमल कर दे ता है। इस लए य द मनु य के लए शा का
अ ययन संभव न हो तो उसे उनका वण अव य करना चा हए। इससे वे वै दक ान को
और अ धक गहराई से समझ सकते ह।

नदक के वषय म चाण य कहते ह क य प प य म कौआ, पशु म कु ा तथा


साधु म पाप म न ल त सबसे अ धक और अधम होता है ले कन नदक
इनसे भी अ धक पापी और चांडाल वृ का होता है। य प नदा करने से कुछ ा त
नह होता, कतु नदक सदै व नदा-रस का पान करता है। नदा करने के कारण उसके पाप
म नरंतर वृ होती है और एक दन उसके पाप उसका सवनाश कर दे ते ह। इस लए
चाण य ने मनु य को सावधान करते ए उ ह नदा से बचने क सलाह द है।
य क दशा पर चतन करते ए चाण य ने उपयु ोक क रचना क । वे कहते ह
क जस कार भ म क रगड़ से काँसे का पा चमक उठता है, खटाई से ताँबे का बरतन
शु हो जाता है, तेज बहाव से नद नमल हो जाती है, उसी कार रज वला होने के बाद
ी भी शु एवं प व होकर गभ-धारण करने यो य हो जाती है। परंतु जन य का
रजोधम नह होता अथवा जो याँ गभ-धारण करने से वं चत या अयो य होती ह, समाज
म उ ह उ चत आदर-स मान ा त नह होता।

इस ोक ारा चाण य ने कया है क मण करनेवाले राजा, ा ण एवं योगी


सबके लए आदर के पा होते ह। इसके वपरीत मण करनेवाली नारी समाज म
और ा मानी जाती है। इस संदभ म वे व तृत वणन करते ए कहते ह क चूँ क राजा का
कत है क वह अपनी जा के ःख-दद एवं परेशा नय को जाने। उसके अधीन
अ धकारी जा के त कस कार का वहार करते ह, उनक भलाई के लए कौन-कौन
से उ चत यास कर रहे ह—ये सब जानना राजा के लए अ यंत आव यक होता है।
इस लए जा के साथ सीधे संवाद हेतु उसे गु त प से मण करते रहना चा हए। य द
ा ण मण करता रहे तो उसे यजमान क कमी नह रहती। इसके साथ-साथ समाज म
उसका आदर-स मान भी नरंतर बढ़ता जाता है। साधु-संत एवं यो गय का मण उनके
ान और ववेक को जन-जन तक प ँचाने का मा यम बनता है। इससे समाज के पछड़े
और अ ानी मनु य भी उनक ानयु वाणी का वण कर स माग क ओर अ सर होते
ह। ले कन नारी के लए अनाव यक मण उसे नरक क ओर ले जानेवाला होता है। द न-
हीन एवं साधनर हत नारी गलत संग त म पड़कर अपना च र और स मान-दोन गँवा
बैठती है। इस लए य को अनाव यक मण क वृ से र रहना चा हए।

'भा य का लखा कोई मटा नह सकता', यह उ ाचीनकाल से ही समाज के व भ


ह स म सुनने म आती है। इस उ ारा भा य क सव ता और उसके भाव को
दरशाया गया है। चाण य ने शायद इसी उ का गहन अ ययन कर इस ोक क रचना
क है। भा य के वषय म वे अपने वचार करते ए कहते ह क मनु य जैसे भा य के
साथ ज म लेता है, उसक बु भी उसी के अनुसार हो जाती है। उसका जीवन,
याकलाप, त-सबकुछ भा य के अनु प ही होता है। इतना ही नह , उसे
भा यानुसार ही सगे-संबंधी एवं म आ द मलते ह। मनु य को वही सब मलता है, जो
उसके भा य म लखा होता है। परंतु इसके साथ ही चाण य का यह भी मानना है क वयं
को कभी भी भा य के भरोसे नह छोड़ना चा हए। मनु य का धम है—पु षाथ करना।
इस लए उसे सदै व पु षाथ करते रहना चा हए।

काल के बारे म चाण य कहते ह क संसार म केवल समय अथात् मृ यु ही सबसे


श शाली है। यह इतना बल होता है क ांड क कसी भी व तु को पल भर म न
कर सकता है। लय के समय जब संपूण ांड जलम न होकर अ य हो जाता है, उस
समय भी काल जा त् होता है। काल का च नरंतर ग तशील रहता है। इसके सम बड़े -
से-बड़ा ानी, व ान् और पु या मा भी असहाय हो जाता है, वीर और नभय य भी
परा त हो जाता है। मनु य-जीवन क चार अव ाएँ काल के अनु प ही काय करती ह।
काल को जीतना सबके लए असंभव है। इस लए मनु य के लए आव यक है क वह
स माग का अनुसरण करते ए न य पु य कम अ जत करता रहे। इन पु य कम के भाव
से ही मनु य अपने परलोक को सुधार सकता है।

ज म से ने हीन को कुछ दखाई नह दे ता। परंतु जो कामांध अथात् काम के


वशीभूत होकर ने हीन हो जाता है, वह भी दे खने क श गँवा बैठता है। ने - होते
ए भी वह भरी सभा म नीच और नदनीय आचरण करने लगता है। इसी कार मद
अथात् नशे म डू बे ए भी ने हीन क ेणी म स म लत कए जाते ह। नशे के
भाव के कारण अपने दमाग का संतुलन खो बैठता है उसक सोचने-समझने क
श न हो जाती है और वह अनगल बात ारा नदा एवं प रहास का पा बन जाता है।
इसी कार चाण य ने वाथ एवं पापी को भी ने हीन कहा है। उनके अनुसार, ऐसा
अपने वाथ के लए कसी का भी अ हत करने से पीछे नह हटता। उसके लए पाप
और पु य—दोन एक समान हो जाते ह। अपने वाथ के सम उसे सबकुछ तु नजर
आने लगता है।

जस कार 'गीता' म भगवान् ीकृ ण ने अजुन को कम का उपदे श दया है, उसी कार
इस ोक ारा चाण य पी कृ ण ने भी मानव पी अजुन को कम का ान दान
कया। वे कहते ह क येक मनु य को अपने कम का फल वयं ही भोगना पड़ता है।
अ ा या बुरा-वह जो भी कम करता है, उसी के अनुसार उसे फल ा त होता है। कम ही
उसे माया के बंधन म जकड़े रहते ह। इसके फल व प वह बार-बार व भ यो नय के
मा यम से संसार म ज म लेता है। य प मनु य कम करने के लए वतं है, तथा प वह
उसका इ त फल नह ा त कर सकता है। मनु य का काय केवल कम करना है ले कन
कम के अनुसार उसका फल ई र ही दान करता है। इस लए मनु य को मो क ा त
हेतु वयं ही यास करने चा हए।

पाप के संदभ म चाण य कहते ह क जा ारा कए जानेवाले पाप का फल केवल राजा


को भोगना पड़ता है। राजा ारा कए गए पाप का बोझ पुरो हत ढोता है। प नी के पाप
प त पर तथा श य के पाप गु पर भावकारी होते ह। इस लए चाण य ने रा य म
होनेवाले पाप-कम को रोकने पर जोर दया है। उनके अनुसार, राजा का यह कत होता है
क वह अपने रा य म होनेवाले छोटे -बड़े सभी पाप को न कर दे , वे ाचा रता तथा
पापाचार को फैलने न दे । इससे जा भयमु होकर जीवन-यापन करेगी तथा राजा को
उसका शुभ फल ा त होगा। इस कार उ ह ने पाप-कम पर अंकुश लगाकर रा य म धम
क ापना पर जोर दया है।
मनु य का वा त वक श ु कौन है, इस वषय पर चाण य ने उपयु ोक क रचना क ।
इसके अनुसार, संतान पर ऋण का बोझ छोड़कर ाण यागनेवाला पता ही उसका
वा त वक श ु है। जो ी भचा रणी होकर पाप-कम म ल त रहती है, वह अपनी
संतान क श ु होती है। इसी कार अ य धक सुंदर ी प त के लए तथा मूख एवं हठ
पु पता के लए अ न कारी श ु होता है। इसके वपरीत पु षाथ करनेवाला पता, धम के
अनु प आचरण करनेवाली माता, प त ता प नी तथा व ान् पु मनु य के स े हतैषी
होते ह। व तुतः इ ह के सहयोग से मनु य का जीवन स माग क ओर अ सर होता है।

इस ोक ारा चाण य ने व भ य को वश म करने का उपाय बताया है। वे कहते


ह क जस का वभाव लोभी वृ का हो, उसे लालच ारा ही वश म करना
चा हए। हठ या अ भमानी वन ता ारा वश म कए जा सकते ह। मूख एवं
बु हीन क य द इ ा पूण कर द जाए तो उसे वश म करना अ यंत सरल हो
जाता है। इसी तरह व ान् को वश म करने के लए उसे वा त वक त क सही
जानकारी दे कर अपने अनुकूल बनाया जा सकता है। इस कार चाण य ने मनु य क
कमजो रय एवं आव यकता को पहचानकर उ ह वश म करने का गु मं दया है।

जस रा य म पाप एवं पा पय का वास हो, वहाँ नवास करने से अ ा यही है क मनु य


कसी एकांत ान म वास करे। जो म अ व ासी, कपट और हो, उसक म ता क
अपे ा म हीन रहना अ धक उ चत है, अ यथा एक दन म ता ही मनु य का सवनाश
कर दे गी। इसी कार बुरे एवं च र हीन श य तथा भचा रणी प नी के बना रहना
अ धक ेय कर है। ऐसे लोग उस कोयले के समान होते ह, जो स पु ष के आ य म
रहकर उनके व को ही कलं कत करते ह। जो मनु य इनसे र रहता है, वही जीवन
के वा त वक सुख को भोगता है।
इस ोक ारा चाण य ने राजा, म , श य और ी के वषय म अपने ब मू य वचार
कए ह। वे कहते ह क जस रा य का राजा अ यंत , अधम और पापी हो, वहाँ
क जा कभी सुखपूवक नह रह सकती। अतः मनु य को सदाचारी राजा के रा य म ही
नवास करना चा हए। जो म धोखेबाज और व ासघाती ह , उनसे सहयोग और नेह
क आशा करना थ है। म ता केवल उसी से कर, जो यो य और व ासी हो। जो ी
यथावत् प त त धम का पालन नह करती तथा जो कपट बु क होती है, उससे ेम और
सुख क कभी ा त नह होती। इस लए कसी अ े कुल क सुशील युवती से ववाह
करना चा हए। इससे दांप य सुख म नरंतर वृ होती है। इसी कार च र हीन और
अधम श य सदै व यश को कलं कत करते ह। ऐसे म उनका न होना ही े है।

पुराण म कहा गया है क मनु य को जससे भी कोई श ा या गुण मले, उसे ेमपूवक
वीकार करना चा हए। इस कथन को चाण य ने भी वीकारा है। उपयु ोक ारा
उ ह ने मनु य को संबो धत करते ए कहा है क ई र ने जगत् के सभी ा णय को एक-
न-एक गुण अव य दान कया है। इस लए मूख या पशु से ा त होनेवाले गुण को भी
हण करने म कसी कार का संकोच या ल ा अनुभव नह होनी चा हए। इसी संदभ म
वे आगे कहते ह क मनु य को सह और बगुले से एक-एक, गधे से तीन, मुग से चार, कौए
से पाँच तथा कु े से छह गुण हण करने चा हए।
चाण य क म सह एक ऐसे मह वपूण गुण से संप है, जसे मनु य को हण करना
चा हए। वे कहते ह क मनु य जस काय क ज मेदारी ले, उसे पूरी लगन और ह मत के
साथ संप करे। कसी भी काय क ज मेदारी लेने से पूव मनु य को उसके गुण-दोष को
भली-भाँ त समझ लेना चा हए। इसके बाद पूरी बु म ा और लगन के साथ उसे पूरा
करने का यास करना चा हए। इसी से उसे यश और मान-स मान ा त होता है। इसके
वपरीत, जो मनु य हाथ म लये गए काय को पूरा करने म आल य दखाते ह या सर को
मत करते ह, उन पर पुनः कोई भी व ास नह करता।

बगुले म एका ता और धैय का गुण होता है। उपयु ोक ारा चाण य ने इसी गुण को
हण करने क बात कही है। वे कहते ह क जस कार बगुला एका च होकर धैयपूवक
अपने शकार पर टकाए रखता है तथा उस समय अपने म त क से सम त वचार
को नकाल दे ता है, उसी कार ववेकशील और बु मान को चा हए क वह अपनी
इं य को नयं त कर एका च होकर अपने काय को संप करे। इससे उसक
सफलता शत- तशत न त हो जाएगी।

चाण य मुग से चार मह वपूण गुण को हण करने पर जोर दे ते ह। यथा समय जागना,
यु के लए सदै व त पर रहना, बंधु-बांधव को उनका उ चत ह सा दे ना तथा मैथुन ारा
प नी को संतु करना-मुग म इन चार बात का समावेश होता है। बु मान और
ववेकशील मनु य को चा हए क वह इ ह अपने जीवन म उतार। जस कार मुगा न य
ातःकाल उठकर अपने काय म लग जाता है, उसी कार मनु य को भी ातःकाल ज द
उठकर दै नक काय म जुट जाना चा हए। इससे एक ओर जहाँ उसका वा य उ म
रहेगा, वह सरी ओर उसके काय समयानुसार नबटते जाएँगे। मुग म सदै व श ु से
लड़ने क वृ होती है। इस लए मनु य को भी पूरे साहस के साथ श ु का सामना
करने के लए तैयार रहना चा हए। मल-बाँटकर खाना मुग का एक अ य गुण है। वह
येक व तु को बाँटकर खाता है। इस गुण के आधार पर मनु य को भी सबका ह सा
समय पर बाँट दे ना चा हए। मैथुन-सुख क कमी या असंतु ही ी को भचार क ओर
धकेलती है। इस लए मनु य को मुग क तरह अपनी प नी को मैथुन-सुख से संतु रखना
चा हए। इससे वह हमेशा सदाचा रणी बनी रहती है।

चाण य ने कौए को पाँच गुण से यु बताया है। छपकर मैथुन करना, ता एवं ढठाई,
सं ह क वृ , आल य न करना तथा कभी कसी पर व ास न करना-ये पाँच गुण कौए
म व मान होते ह, ज ह मनु य को हण करना चा हए। जस कार कौआ छपकर
मैथुन करता है, उसी कार मनु य को भी मैथुन या छपकर करनी चा हए। इसी म
उसक मयादा और स मान सुर त रहता है। श ु का तकार करने के लए मनु य को
कौए से ता और ढठाई का सबक लेना चा हए। इससे वह श ु का पूणतः दमन कर
दे गा। सं ह क वृ कौए का एक अ य गुण है, जसे अपनाकर मनु य वप काल का
ढ़ता और साहस के साथ सामना कर सकता है। जस कार कौआ आल य से कोस र
रहता है, उसी कार मनु य को भी आल य का याग करके अपनी काय- स म जुट
जाना चा हए। इससे उस काय म सफलता न त हो जाती है। कसी पर व ास न करना
कौए का सबसे मह वपूण गुण है। इसे अपनाने से मनु य पूरी तरह से सुर त हो जाता है।
फर कोई भी उसका अ हत नह कर सकता।

अ धक खाने क श रखना, अभाव क त म थोड़े से ही संतोष करना, गहरी न द म


सोना, सोते समय भी सजग रहना, वामीभ तथा वीरतापूवक श ु का सामना करना-
ये छह गुण कु े म व मान होते ह। चाण य ने इन गुण को मनु य के लए सव म कहा
है। वे कहते ह क इन गुण को हण करने से मनु य का वा य तो ठ क रहता ही है, साथ
ही मान सक शां त और सुख भी ा त होता है।
मूखता का तीक गधा भी चाण य क म मनु य को तीन मह वपूण गुण सखाता है।
बना थके प र म करते रहना, सद -गरमी क चता न करना तथा धैय एवं संतोष-इन तीन
गुण के भाव से मनु य का जीवन साथक हो जाता है। चाण य के अनुसार, गधे क तरह
मनु य को बना थके नरंतर प र म म लगे रहना चा हए। इसके फल व प शी ही वह
अपने काय म सफलता ा त कर लेगा। सद -गरमी क परवाह न करने से मनु य का शरीर
सम त ऋतु के अनु प ढल जाएगा तथा उसका वा य सदा उ म रहेगा। इसी कार
धैय एवं संतोष का गुण अपनाने से मनु य थोड़े म ही संतु होकर सुखपूवक प रवार का
पालन-पोषण कर सकता है।

उपयु ोक ारा इस अ याय क समा त करते ए चाण य कहते ह क जो मनु य


उपयु बीस गुण को हण कर लेगा, उसका जीवन सुख से प रपूण और सफल हो
जाएगा। इनके भाव से खु शयाँ उसक दासी बनकर रहगी तथा वह नरंतर सफलता का
शखर छू ता जाएगा।
सातवाँ अ याय

चाण य बु मान म सहनशीलता को आव यक गुण मानते ह। उनके अनुसार,


को चा हए क धन-हा न से उ प ःख के बारे म तथा प नी या कसी अ य
ारा अपमा नत कए जाने क बात वह कसी को न बताए। इसके लए मनु य को
सहनशील होना चा हए। सहनशीलता ही उसे सर के सम उपहास का पा बनने से
बचाती है। इस लए सहनशीलता का गुण हण कर मनु य को उपयु बात को चुपचाप
सहन कर लेना चा हए।

इस ोक ारा चाण य करते ह क जो मनु य अ के य- व य, व ा अथवा


ानाजन, खान-पान और लेन-दे न के वहार म संकोच करते ह, उ ह अनेक सम या
एवं क ठनाइय का सामना करना पड़ता है। इस लए उपयु यही है क मनु य उपयु
काय म कभी भी संकोच का दामन न थामे।

मनु य क इ ा और लालसा का कभी अंत नह होता। य द एक इ ा पूण हो जाए


तो अनेक सरी इ ाएँ उ प हो जाती ह। शनैः-शनैः ये इ ाएँ इतनी बल हो जाती ह
क मनु य पाप-कम क ओर अ सर हो जाता है। इस संदभ म चाण य धैय और संतोष
का उपदे श दे ते ए कहते ह क मनु य को इन दोन गुण को भली-भाँ त हण करना
चा हए। इससे उनका मन सदै व तृ त और शांत रहता है। जीवन म सुख- ा त का यही
सबसे सरल और सहज माग है। इसके वपरीत जो लोभ और वाथ म डू बे रहते ह,
वे जीवन भर वा त वक सुख से वं चत रहते ह। उनका म त क तनाव से घरकर सदा
अशांत रहता है। अतः मनु य को इन वृ य से बचना चा हए।

ी, भोजन और धन-ये तीन व तुए ँ मनु य को परम संतोष दान करती ह। इस त य को


चाण य भी वीकार करते ह। वे कहते ह क प नी चाहे कु प हो या पवान्, हो या
सुशील, मूख हो या बु मान— मनु य को उसका प र याग नह करना चा हए। य द वह
उसके साथ संतु हो जाए तो वह मान सक लेश से सदा के लए मु हो जाएगा। ज ा
के वाद म पड़कर मनु य को अपने पास उपल भोजन का कभी नरादर नह करना
चा हए। खा-सूखा या छ पन भोग, जो भी भोजन उसके पास हो, स तापूवक उसका
सेवन कर। इसी कार पु षाथ ारा अ जत कए गए थोड़े से धन म भी परम संतोष का
अनुभव कर। ले कन इसके साथ ही चाण य ने मनु य को दान, पूजा-पाठ और अ ययन म
नरंतर आगे बढ़ने का परामश दया है।

कहा जाता है क वा ालाप म म न दो य के बीच म से कभी नह नकलना चा हए।


चाण य ने भी इस कथन को वशेष प से मह वपूण कहा है। वे कहते ह क दो ा ण ,
अ न एवं ा ण, दं पती, वामी एवं सेवक तथा बैल एवं हल के बीच म से होकर नकलने
से कसी-न- कसी अ न का भय बना रहता है। इस लए इनके बीच म से नकलने क
अपे ा एक ओर का माग चुन।

अ न, गु , ा ण, गाय, क या, वृ तथा ब ा-चाण य ने इ ह आदर और स मान का


भागी कहा है। इस संदभ म वे कहते ह क उपयु सभी ाणी आदरणीय लोग क ेणी
म आते ह। इस लए मनु य को कभी भी इ ह पैर से श नह करना चा हए। ऐसा
करनेवाला बु हीन मनु य अपार ःख भोगता है।
क नकटता अ यंत हा नकारक और संकटदायक होती है। इस लए उसक
संग त से मनु य को सदै व र रहना चा हए। इस संदभ म चाण य अपना मत करते
ए कहते ह क बैलगाड़ी से पाँच हाथ, घोड़े से दस हाथ तथा हाथी से सौ हाथ र रहना ही
ेय कर है। ले कन चाण य ने राचारी को इनसे भी अ धक भयावह माना है।
इस लए उ ह ने स न मनु य को परामश दया है क ऐसे राचा रय से बचने के लए
दे श का याग भी न संकोच कर दे ना चा हए, अ यथा मनु य का पतन होते दे र नह लगेगी।

जन क वृ और उसे वश म करने का उपाय बताते ए चाण य कहते ह क


जस कार हाथी को अंकुश, घोड़े को चाबुक तथा स गवाले पशु को डं डे से वश म
कया जाता है, उसी कार जन को वश म करने के लए तलवार का सहारा लेना पड़ता
है। इसे और व तृत प म समझाते ए चाण य कहते ह क जन अ यंत नीच
वृ का होता है। उसका मन-म त क सदै व सर का अ हत करने के लए उ त रहता
है। ऐसे मनु य को ेम, नेह अथवा ान ारा बदलना असंभव है। कई बार ऐसे अवसर
भी सामने आ जाते ह, जब मनु य अपनी सभी सीमाएँ लाँघ जाता है। ऐसी तम
वयं क र ा हेतु स न मनु य को तलवार का योग करना चा हए।

ा ण को भोजन से अ यंत ेम होता है, इस लए पया त वा द भोजन ारा उसे संतु


मलती है। मोर बादल को दे खकर स हो उठता है उनके गजन से उसके पैर थरकने
लगते ह। इस नृ य म ही उसक संतु न हत होती है। इसी कार सर का वैभव, ऐ य,
समृ और सुख को दे खकर स न मनु य कभी ई या नह करते अ पतु वे अपने थोड़े से
साधन से ही संतु हो जाते ह। ले कन इसके वपरीत, और जन क संतु
सर के अ हत म छपी होती है। वे अ य य को संकट म दे खकर अ यंत स ता का
अनुभव करते ह।

उपयु ोक ारा चाण य कूटनी त से यु अ यंत मह वपूण कथन को कट करते ह।


इस कथन म मनु य के लए उनका गु त परामश भी छपा आ है। वे कहते ह क बलवान्
को बल ारा जीतना अ यंत क ठन है। इस लए उसे उसके अनुकूल वहार करके
वश म कर ल। श ु को उसके तकूल वहार से परा जत कर। इसके वपरीत जो
श ु समान बल से यु हो, उसे वनय और बल के संयोग से जीता जा सकता है।

मनु य क वा त वक श कौन सी है? कस आंत रक श ारा मनु य सर को अपने


सम झुकने के लए ववश कर सकता है? इस संदभ म चाण य ने बड़ी ही गूढ़ बात कही
है। वे कहते ह क राजा क श उसका बा बल होता है, जससे वह श ु का नाश
करता है। ा ण क श उसके - ान म न हत है। इसके ारा वे बड़े -से-बड़े ानी
को पल भर म परा जत कर सकता है। य क श उनका प-स दय, यौवन और मृ
भाषा है। सुकोमल होते ए भी इनके ारा वह कसी को भी अपने पैर म झुकाने क श
रखती है। इस लए मनु य को अपनी श को भली-भाँ त पहचान लेना चा हए।

वतमान समय सीधे एवं सरल लोग के लए अ यंत ःखदायक है। कोई भी चतुर
अपने वाथ हेतु उ ह सरलता से ठग लेता है। ऐसी त म चाण य का उपयु ोक
अ यंत सट क है। इस ोक ारा उ ह ने सरल एवं स न मनु य को परामश दे ते ए
कहा है क कभी-कभी मनु य के लए उसक अ य धक सरलता, सादगी और सीधा
वभाव अ भशाप बन जाता है। उनक स नता का लाभ वाथ और मनु य उठाते
ह। इसके लए वे उनका अ हत करने से भी नह चूकते। इसका उदाहरण दे ते ए वे कहते
ह क वन म टे ढ़े-मेढ़े वृ को कोई नह छू ता। इसके वपरीत सीधे खड़े वृ काट दए जाते
ह। अतः मनु य को इतना स न भी नह होना चा हए क कोई भी उसे ठग ले।

इस ोक ारा वाथ मनु य क तुलना हंस से करते ए चाण य कहते ह क जलाशय


म जल होने पर हंस वहाँ आकर वहार करते ह, उसके कनारे अपना घ सला बनाते ह।
ले कन जब जलाशय सूख जाता है तो वे नेह के सभी बंधन तोड़कर वहाँ से उड़ जाते ह।
वाथ मनु य भी इसी कार का वहार करता है। जब तक उसका वाथ स नह होता
तब तक वह आ यदाता के साथ जुड़ा रहता है, मीठे वचन बोल-बोलकर उससे नेह
जताता है। ले कन एक बार वाथ पूरा हो जाने के बाद वह आ यदाता को याग दे ता है।
इस लए मनु य को हंस के समान वाथ य नह होना चा हए। य द सुख म वह कसी का
साथ दे ता है तो ःख आने पर भी उसे उसका साथ पूरी ढ़ता के साथ नभाना चा हए।

धन का अ य धक सं ह मनु य के मन-म त क को तो करता ही है, साथ ही उसे


लोभी और वाथ बना दे ता है। इस कथन को करते ए चाण य कहते ह क जस
कार जलाशय म के ए जल को समयानुसार न बदला जाए तो उसम सड़ाँध उ प हो
जाती है और वह कसी उपयोग का नह रहता—उसे उपयोगी बनाने के लए आव यक है
क उस जल को चलायमान रखा जाए, उसी कार सं चत धन को दान ारा र करते
रहना चा हए। इससे एक ओर मनु य जहाँ लोक म यश एवं मान-स मान ा त करता है,
वह सरी ओर परलोक म सुख का माग श त कर लेता है।

धन के मह व, भाव और उपयो गता को स दय से वीकारा जाता रहा है। वयं चाण य


ने भी धन क म हमा को बु म ा और ान से ऊपर माना है। इसे करते ए वे कहते
ह कय प के पास ान- ववेक का अभाव हो, ले कन य द उसके पास अतु य धन
है तो समाज म उसे ही आदर-स मान के यो य माना जाएगा। इसके वपरीत ान, ववेक
एवं बु से यु कसी भी नधन को तु और उपे त से दे खा जाता है। धन
क श इतनी अपार है क उसके भाव से पराए भी अपने हो जाते ह, जब क नधनता
अपन को भी पराए क ेणी म खड़ा कर दे ती है। धन का अभाव ही वप म मनु य को
अकेला रहने के लए ववश कर दे ता है। धन ही को समाज म सव स मान दान
करता है।

महापु ष क पहचान के संदभ म चाण य कहते ह क दानशीलता, मृ वाणी, ईश-पूजा


और व ान् भ जस मनु य म इन चार गुण का समावेश होता है, व तुतः उसी का
मू यांकन महापु ष क ेणी म कया जाता है। ऐसा मनु य दाना द कम करने के लए
सदै व त पर रहता है उसक भाषा मृ ता से प रपूण होती है ई र के त उसके मन म
अगाध ा का भाव होता है तथा ानवान् व ान् उससे सदै व मान-स मान पाते ह।

क पहचान बताते ए चाण य कहते ह क जो मनु य अ यंत ोध करता है,


जसके मुख से सदा वष भरी बात का सार होता है, जो अपने बंधु-बांधव का अ हत
करने के लए सदै व त पर रहता है, जो य क संग त करता है तथा जो नीच
क चाकरी करता है, वह जन कहलाता है। ऐसा मनु य पृ वी पर ही नरक
क घोर यातनाएँ भोगता है। द र ता एवं च र हीनता उनके अ य अवगुण होते ह।

महापु ष क संग त के भाव का उ लेख करते ए चाण य कहते ह क शेर क गुफा म


भी हाथी के म तक पर सुशो भत होनेवाली गजमु ा म ण मल सकती है, ले कन गीदड़ के
आवास म केवल ह ी या मांस के अ त र कुछ नह मल सकता। इसी कार स न
पु ष क संग त से ब त कुछ अ ा सीखने को मल जाता है। इसके वपरीत
य क संग त केवल अवगुण और राचार ही दान करती है।
चाण य ने श ा के मह व पर अ य धक जोर दया है। श ा से र हत मनु य क तुलना
उ ह ने कु े क म से क है। वे कहते ह क जस कार कु ा अपनी म से न तो अपने
गु तांग छपा सकता है और न ही उससे म खी-म र उड़ा सकता है, उसी कार मूख
और अ ानी न तो प रवार का उ चत पालन-पोषण करने म समथ होता है और न ही
उनक र ा कर सकता है। इस लए मनु य को भोजन एवं धन क लालसा म डू बे रहने क
अपे ा ान अ जत करना चा हए।

केवल परोपकार और पर हत क भावना ही मनु य को प व करती है। इसके अभाव म


मन, वाणी और इं य क प व ता कोई मह व नह रखती। इसे और अ धक व तृत प
म करते ए चाण य कहते ह क सर के क याण को मह व दे नेवाला मनु य ही
स े अथ म प व होता है। बुरी संग त म रहकर भी ऐसे मनु य क आ मा कलं कत नह
होती।

य प पु प म गंध, तल म तेल, लकड़ी म अ न, ध म घृत तथा ईख म मठास व मान


होती है, तथा प वह दखाई नह दे ती। इसी कार चाण य ने मनु य के संबंध म आ मा का
उ लेख कया है। वे कहते ह क मनु य-शरीर म आ मा का वास होता है। उसे दे खा नह
जा सकता, ले कन ववेक ारा उसे अनुभव अव य कया जा सकता है। इस लए मनु य
को ववेक ारा आ मा को जा त् करना चा हए।
आठवाँ अ याय

चाण य के मतानुसार, और जन य को धन क मह वाकां ा होती है। उसे


ा त करने के लए वे नीच काय करने से भी पीछे नह हटते। धन- ा त ही उनका एकमा
येय होता है। य प म यम वग के भी धन को मह व दे ते ह, तथा प उनके लए
मान-स मान भी अ यंत मह वपूण होता है। इसी कारण धन क लालसा होते ए भी वे
नीच काय करने से डरते ह। इसके वपरीत, स न य के लए मान-स मान सबसे
बढ़कर होता है। इसके लए वे बड़ी-से-बड़ी ब मू य व तु भी अ वीकार कर दे ते ह।

ण और ुधा-पी ड़त के लए इस ोक म चाण य ने शा -स मत कथन का उ लेख


कया है। वे कहते ह क शा म जल, ग ा, ध, कंद, पान, फल और औष ध अ यंत
प व कहे गए ह। इस लए इनका सेवन करने के बाद भी धा मक काय संप कर
सकते ह। इनसे कसी कार क बाधा उ प नह होती।

चाण य ने पूरी ढ़ता से इस बात को वीकार कया है क माता- पता के गुण-अवगुण एवं
आचरण का भाव उनक संतान पर अव य पड़ता है। वे कहते ह क य प द पक अँधेरे
का नाश कर दे ता है, तथा प उसके काजल से का लमा उ प होती है। इसी कार मनु य
जस कार के अ का भ ण करता है, उसक संतान वैसी ही होती है। इसे और
करते ए चाण य कहते ह क य द मनु य बेईमान, च र हीन और वृ का है तो
उसक संतान भी उसके अवगुण से यु होगी। इसके वपरीत स न मनु य क संतान
उसी के समान बु मान, सरल, ईमानदार और सहनशील होगी। इस लए मनु य को सदै व
स ण को ही हण करना चा हए।

य प चाण य ने दान करने पर वशेष जोर दया है, तथा प उनके मतानुसार दान हर
कसी को नह दे ना चा हए। इस संदभ म वे कहते ह क जस कार समु का जल हण
कर मेघ उसे समृ दायक वषा के प म खेत पर बरसाते ह तथा वही जल कई गुना
होकर पुनः समु म जा मलता है, उसी कार दान का वा त वक अ धकारी वही है
जो सहनशीलता, व ा, ईमानदारी, स नता आ द गुण से संप हो। ऐसे यो य
को दया गया दान सह गुना होकर वापस मलता है। इसके वपरीत जो आल य
से प रपूण, , सर से ई या करनेवाला, भचारी तथा पाप-कम म ल त हो, उसे
कभी दान न द, अ यथा ऐसे कुपा को दया गया दान मह वहीन हो जाएगा।

चाण य सावधान करते ए कहते ह क मनु य के लए नीच या जन क संग त से


र रहना ही ेय कर है। य द संभव हो तो उसे दे खने से भी बचना चा हए। इसी म उसका
हत न हत है। शा म ऋ ष-मु नय ने भी ऐसे य को सह चांडाल के समान
कहा है। उनक म जन अ यंत घातक, नीच और व ासघाती होता है। उसक
संग त मा से अनेक संकट एवं ःख उ प हो जाते ह।

ह शा म नान को अ यंत मह वपूण तथा प व कम कहा गया है। इसी संदभ म


चाण य कहते ह क शरीर पर तेल क मा लश करवाने, मशान म जाने, संभोग तथा
हजामत के बाद मनु य का शरीर अप व हो जाता है। ऐसी त म नान ही ऐसी या
है, जससे मनु य पुनः प व होता है। इस लए उपयु कम के प ात् मनु य को नान
अव य करना चा हए। यह वा य क से भी अ यंत े है। कतु साथ ही उ ह ने
कहा है क संभोग के एकदम बाद नान नह करना चा हए। इससे शरीर पर बुरा भाव
पड़ता है।

जल हण करने के वषय म चाण य कहते ह क शरीर का मह वपूण भाग पेट है। इसी
ान से वा य या अ व ता का उदय होता है। इस लए मनु य को चा हए क अपनी
पाचन- णाली को पूरी तरह से ठ क रखे। य द अपच क शकायत हो जाए तो ऐसी त
म जल औष ध का काय करता है। अतः भरपूर जल का सेवन कर। परंतु यान रहे, जल
का सेवन भोजन से पूव कर अथवा अ पच जाने के बाद। य द भोजन के एकदम बाद जल
का सेवन कया जाए तो वह वष के समान भावशाली होकर शरीर को शनैः-शनैः न कर
दे ता है।

अगर ान को उपयोग म न लाया जाए तो वह व मृत हो जाता है; कसी क उपे ा


से वह न य हो जाता है सेनानायक के अभाव म सेना न हो जाती है और प त के
अभाव म प नी न हो जाती है।

वृ ाव ा मानव-जीवन क सबसे दयनीय और क कारी अव ा कही गई है। इस अव ा


म चाण य ने प नी क मृ यु, सगे-संबं धय ारा धन को हड़पना तथा भोजन हेतु सर का
मुँह दे खना-इन तीन बात को अ यंत क कारी कहा है। इनके वषय म वे कहते ह क प नी
वृ ाव ा म स ी साथी होती है। उसके अभाव म पूरी तरह से असहाय हो जाता
है। य द वृ ाव ा म मनु य के पास धन हो तो उसे भोजन के लए सर पर आ त नह
होना पड़ता। इस लए मनु य को दयनीय दशा से बचने के लए धन का संचय अव य
करना चा हए।
चाण य के अनुसार, य -हवन आ द के अभाव म वेद ारा अ जत ान थ होता है।
इस लए य द य के उपरांत दान-द णा नह द गई तो य का सम त पु य न हो जाता
है। इस कथन ारा चाण य कहना चाहते ह क मनु य को कसी भी काय म तब तक
सफलता नह मल सकती, जब तक उसम उसक पूरी ा न हो। अथात् काय वही
सफल होता है, जसम मन क शु ता और समपण क भावना न हत हो। इस लए मनु य
ारा कए जानेवाले सभी शुभ एवं पु यमय कम ा और समपण से प रपूण होने
चा हए।

ह धम म लकड़ी, प र या धातु क तमा को ई र मानकर उनक पूजा करने का


चलन है। इस संदभ म चाण य अपने वचार करते ए कहते ह क मनु य कसी
भी व तु को ई र मानकर उसक पूजा कर सकता है। ले कन इसके लए स ी ा और
भ का होना आव यक है। व तुतः इ ह के भाव के कारण ई र मनु य के दय म वास
करता है और मनु य इ ह भाव ारा नज व व तु म ई र क क पना कर स याँ
ा त करता है।

लकड़ी, प र, धातु आ द से न मत दे व- तमा को सा ात् दे व मानकर पूजने पर ही


ईश-कृपा ा त होती है। अथात् ई र इन बेजान व तु म नह , भावना म वास करते ह।
तभी तो कहा गया है क बना ा-भावना के स नह मलती।
अपने संपूण जीवन का अनुभव तुत करते ए चाण य ने उपयु ोक क रचना क ।
वे कहते ह क संसार म शां त से बढ़कर कोई तप नह है, संतोष के समान परम सुख और
तृ णा से बढ़कर कोई रोग नह है। इसी कार सर के ःख से ःखी होना और उनक
सहायता के लए त पर रहना ही मनु य का वा त वक धम है। अथात् मनु य को ोध से
बचते ए शां तपूवक सम त क को सहना चा हए। उसका यह काय तप वय ारा कए
जानेवाले कठोर तप के समान है। मनु य के पास जतने भी साधन उपल ह , उसे उसी
म संतोष करना चा हए। संतु ही उसे परम सुख दान करेगी। जब क तृ णा पी रोग
लगाकर वह वा त वक सुख को भी गँवा दे गा। ई र क पूजा करना अथवा धा मक ल
क या करना ही मनु य का धम नह है, परोपकार और मानवता ही स ा मानव-धम है।
इस लए मनु य को इस धम का पालन करना चा हए।

ोध का पूणतः सवनाश कर डालता है। ोध सा ात् यम का व प है, जो अपने


वकराल मुख से को सने के लए सदा त पर रहता है। इसके अधीन होकर
बु - ववेक खो बैठता है और नीच कम कर डालता है। कहा जाता है क यमलोक जाते
समय माग म वैतरणी नामक नद आती है, जसे पार करना जीवा मा के लए अ यंत
क दायक होता है। चाण य ने तृ णा क तुलना वैतरणी नद से क है। वे कहते ह क
मनु य को यथासंभव तृ णा से वयं को बचाना चा हए। व ा क तुलना उ ह ने सभी
मनोरथ पूण करनेवाली कामधेनु गाय से क है। उनके अनुसार, व ाजन करनेवाले मनु य
क सम त मनोकामनाएँ अव य पूण होती ह। इसी कार चाण य ने संतोष को इं के
वहार- ल नंदन वन के समान सुखदायक और मनमोहक कहा है। इस लए उ ह ने संतोष
का आ य लेने पर बल दया है।
चाण य क म प का मह व गुण से बढ़ता है, जब क कुल क शोभा सदाचार म
न हत होती है। इसी कार धनाजन ारा ही व ा क परख होती है तथा धन के उपयोग
से धन क मह ा बढ़ती है। इसे करते ए चाण य कहते ह क प-स दय एवं यौवन
से प रपूण होने पर भी य द मनु य गुण से र हत है तो उसे तर कार और उपे ा सहनी
पड़े गी। के आचरण पर ही कुल क े ता नभर करती है। य द मनु य सदाचार का
पालन करता है तो उसका कुल समाज म यथो चत आदर-स मान का भागी बनता है। जस
व ा ारा धन अ जत न कया जा सके, वह नरथक है। य द धन का उपयोग न करके
उसका सदै व संचय ही कया जाए तो वह सं चत धन मह वहीन हो जाता है।

गलत आचरण से स दय न हो जाता है पथ होने से कुल कलं कत हो जाता है इसी


कार पूणता ा त कए बना कसी काम म सफलता नह मलती है और धन का अनु चत
य करने से वह न हो जाता है।

पृ वी के गभ म सं चत जल, प त ता नारी, क याणकारी राजा तथा संतोषी ा ण—इन


चार को चाण य ने परम प व कहा है। उनके अनुसार, पृ वी म सं चत जल ख नज से
यु होने के कारण वा यव क होता है। प त ता नारी के समान तेज वी कोई अ य नह
होता। उसके सम दे वता भी नतम तक होते ह। क याणकारी राजा सदै व जा के
क याण और परोपकार म लीन रहता है। उसक गनती महापु ष म क जाती है। संतोषी
ा ण को दया गया दान पु य प म कई गुना बढ़कर वापस मलता है। इस लए मनु य
को इन सभी का स मान करना चा हए।

असंतु ा ण, मह वाकां ार हत संतोषी राजा, ल ा करनेवाली वे या तथा नल


कुलीन नारी—चाण य ने इन चार को मनु य के लए अ यंत हा नकारक कहा है। वे कहते
ह क असंतु ा ण समाज म कभी भी स मान का अ धकारी नह बन पाता। ऐसी त
म उसक व ा और बु न हो जाती है। मह वाकां ा से र हत राजा जा के क याण
और उनक उ त के लए कभी सजग नह होता। इसके फल व प शी ही श ु उसके
रा य का वनाश कर दे ते ह। जो वे या ल ा से यु हो, वह अपने ाहक को कभी संतु
नह कर सकती। इससे उसके ाहक वमुख हो जाते ह और अंत म वह अ के लए
तरसते ए मर जाती है। इसके वपरीत जो कुलीन नारी अ यंत नल होती है, वह बुरी
संग त म पड़कर अपना और अपने कुल का नाश कर डालती है।

इस ोक ारा चाण य ने व ा के मह व पर काश डाला है। वे सट क श द म कहते


ह क व ा एवं गुण के अभाव म उ कुल म जनमा भी तर कार का भागी बन
जाता है। इसके वपरीत नीच कुल म जनमा व ान् एवं गुण से यु भी समाज म
ऊँचा ान ा त करता है। अथात् महान् बनने के लए मनु य का उ कुल म ज म लेना
ही पया त नह है। इसके लए उसका सहनशील, संतोषी, व ान् एवं परोपकारी होना भी
आव यक है।

व ा क मह ा को करते ए चाण य कहते ह क संसार म केवल व ान क सव


शंसा होती है सभी ान पर उ ह मान-स मान मलता है। ये सभी सुख उ ह व ा ारा
ा त होते ह। व तुतः संसार म व ा क ही पूजा क जाती है उसके समान ब मू य कुछ
और नह है। इस लए उसका आ य लेनेवाला भी समाज म स मान का अ धकारी
बन जाता है। अतः मनु य को व ाजन अव य करना चा हए। इससे उसक ग त का माग
श त होगा।

चाण य ने ऐसे मनु य को पशु-तु य कहा है, जो मांस का भ ण करते ह , म दरापान


करते ह , मूख या अनपढ़ ह । वे कहते ह क ऐसे मनु य पशु के समान आचरण करते
ह। समाज और रा य को केवल अवगुण के अ त र ये कुछ दान नह करते। इनसे न तो
परोपकार क उ मीद क जा सकती है और न ही स नता क । इस लए ये पृ वी पर बोझ
के समान ह। ऐसे पशु-तु य मनु य का जीवन थ है।

ह शा म शुभ मांग लक काय के अवसर पर य -हवन को अ यंत मह वपूण कहा


गया है। वयं ाजी ने इसक तुलना क पवृ से क है, जससे मनु य क सम त
मनोकामनाएँ पूण होती ह। इस कथन को चाण य ने भी वीकार कया है। ले कन साथ ही
इस वषय पर वे अपना तक तुत करते ए कहते ह क य करते समय य द उसके
व ध- वधान म कसी कार क कमी रह जाए तो य फल दायक क अपे ा क दायक
बन जाता है। इस लए य करते समय अ का दान अव य करना चा हए, यथा व ध
मं े ारण होना चा हए तथा पुरो हत को उ चत दान-द णा द जानी चा हए। ऐसा न होने
क त म य वनाशकारी हो जाता है। इस लए य तभी कर, जब उसे यथा व ध करने
का साम य हो।
नौवाँ अ याय

इस ोक ारा चाण य ने मो - ा त के इ ु क य को मु -माग का उपदे श दया


है। वे कहते ह क य द मनु य जीवन-मृ यु के च से मु होकर मो पाना चाहता है तो
उसे काम, ोध, लोभ, मोह तथा अहंकार आ द वकार को पूरी तरह से याग दे ना चा हए।
ये वकार मनु य के लए वष-तु य ह। इनके भाव से मनु य जीवनपयत मोह-माया म
जकड़ा रहता है। इन वकार क अपे ा मनु य को मा, सरलता, धैय, वन ता,
ईमानदारी, उदारता, परोपकार, दया, स यता, ेम और प व ता जैसे गुण को हण करना
चा हए। इससे मनु य सम त पाप-कम से मु होकर मो ा त करता है।

जो एक- सरे के गु त रह य को उजागर कर दे ते ह, ऐसे य को चाण य ने प तत,


अधम और कहा है। वे कहते ह क ऐसे पहले तो एक- सरे को अपमा नत कर
आनंद का अनुभव करते ह, ले कन बाद म बाँबी म फँसे सप क भाँ त उनका नाश हो जाता
है। मनु य को ऐसे य से बचकर रहना चा हए।

जस कार वण म सुगंध, ग े म फल तथा चंदन म पु प नह होते, उसी कार न तो


व ान् धनी होते ह और न ही राजा द घायु। सृ के रच यता को इस वषय म जो उ चत
लगा, उ ह ने कया। य द वे उपयु काय भी संप कर दे ते तो संसार के लए अ त उ म
होता। परंतु सृ के इस नयम म कसी कार भी प रवतन संभव नह है।
इस ोक ारा चाण य करते ह क अमृत के समान प व और जीवन- दायक
औष ध कोई सरी नह है। यह सभी रोग का नाश करनेवाला होता है। इस लए औष धय
म अमृत सबसे े है। आँख मनु य क सबसे मह वपूण इं याँ ह। इनके मा यम से ही
मनु य ई र क इस सुंदर रचना को दे खने यो य बनता है। इनके अभाव म जीवन पूणतया
अंधकारमय हो जाता है। अतः चाण य ने आँख को सभी इं य म उ म कहा है। इसी
कार म त क मानव-शरीर को नयं त करता है। उसके बना शरीर थ होता है।

चाण य क म सूय एवं चं हण के वषय म पता लगाने वाले भी व ान् कहलाते ह।


इसके लए न तो उ ह ने कसी त को आसमान म भेजा और न ही इस संदभ म कसी के
साथ वा ालाप कया। उ ह ने पृ वी पर रहते ए ही अंत र के इन त य का अ ययन कर
उनका व ेषण कया और सम त जानकारी ा त क । इससे यही होता है क
व ान् बना कुछ कहे ही सामनेवाले के अंतभाव को भलीभाँ त जान-समझ लेते
ह। उनक बौ कता और व ा के सम कुछ भी रह यमय नह रहता।

व ाथ , सेवक, प थक, भूख से पी ड़त, भय त, भांडारी और ारपाल—इन सात का


काय जागने से ही संप होता है। इस लए चाण य कहते ह क य द ये सोते ए मल तो
इ ह जगा दे ना चा हए। जगाने पर व ाथ अपना अ ययन पूण कर सकते ह तथा सेवक
अपने काय को समयानुसार संप करेगा। इसी कार जगाने पर जहाँ प थक के धन क
र ा होगी, वह वह शी अपनी मं जल तक प ँच जाएगा। भूख से पी ड़त को जगाकर
भोजन करवा द तथा भय त को आ त कर। भांडारी का कत भंडार-घर क र ा
करना तथा ारपाल का काय जागकर घर क पहरेदारी करना है। इनके सो जाने पर चोर-
डाकु का बोलबाला हो जाएगा। इस लए इ ह भी जगा दे ना चा हए।

पूव ोक म चाण य ने कुछ लोग क बात कही है। ले कन इस ोक ारा वे कुछ


ा णय को जगाने से मना करते ह। वे कहते ह क सप, राजा, सह, शूकर, बालक, मूख,
मधुम खी तथा सरे के कु े को कभी नह जगाना चा हए, अ यथा को भयंकर क
उठाना पड़ सकता है। इन ा णय का सोए रहना ही उ म है।

चाण य ने व ा ारा धन अ जत करनेवाले ा ण को समाज के लए थ बताया है। वे


कहते ह क जो ा ण अपनी व ा का योग केवल धन- ा त के लए करता है, समाज
म उसका होना या न होना एक बराबर होता है। संसार म उसक व ा एवं ान का सार
कभी नह होता। ऐसे ा ण का एकमा उ े य धनाजन ही होता है।

जसके ोध से कोई भयभीत न हो तथा जसके स होने से भी कसी को कोई लाभ


नह होता, ऐसे मनु य का आचरण कसी को भा वत नह कर सकता। ऐसे मनु य से न
तो दया क आशा करनी चा हए और न ही कसी कार क कृपा क । यह मनु य केवल
अपने लए ही जीता है, सर से इसे कोई मतलब नह होता।

इस ोक ारा चाण य ने अपनी कूटनी त ता का भाव छोड़ा है। वे बल एवं भाव के


आडं बर को उ चत मानते ए कहते ह क जस कार वषैला न होने पर भी सप के उठे
ए फन को दे खकर लोग भयभीत हो जाते ह, उसी कार भावहीन को भी आडं बर
ारा समाज म अपना भाव बनाकर रखना चा हए। जैसे वषहीन सप क वा त वकता
लोग नह जानते, वैसे ही आडं बरयु भाव से लोग भयभीत रहते ह। ऐसी तम
कभी लोग क उपे ा का पा नह बनता।

मूख और बु मान क दनचया का उ लेख करते ए चाण य कहते ह क मूख


क दनचया जुए से आरंभ होती है। वे ातःकाल उठते ही जुए म डू ब जाते ह।
दोपहर को वे नारी के साथ संभोग करते ह तथा उनका रा का समय चोरी या अ य पाप-
कम म तीत होता है। ले कन इसके वपरीत स न एवं बु मान मनु य क दनचया
स कम ारा आरंभ होती है तथा उनका संपूण दन अ य य क भलाई और
परोपकार म तीत हो जाता है। इस लए मनु य को स न मनु य क भाँ त समय का
स पयोग करना चा हए।

धा मक काय के संदभ म चाण य का कथन है क मनु य ई र को स करके तभी


उनसे वरदान ा त कर सकता है, जब वह वयं अपने हाथ से उनक सेवा करे। वयं
माला गूँथकर भगवान् क तमा पर चढ़ाना, वयं चंदन घसकर लगाना तथा अपने हाथ
से लखे गए तो ारा उनका तु त-गान आ द वकम ारा मनु य ई र-कृपा का भागी
बन जाता है। इसके वपरीत यही काय य द वह अपने सेवक से करवाए तो इसका
शुभाशुभ फल उसके ान पर सेवक को ही ा त होगा। इस लए मनु य को सभी धा मक
कम वयं करने चा हए।

ईख, तल, ु , ी, वण, धरती, चंदन, दही और पान का जतना भी मदन कया जाए,
उतनी ही उनके गुण म वृ होती है। अथात् ईख (ग े) एवं तल को जतना पेरा जाएगा,
उसम उतनी ही अ धक मा म रस और तेल नकलेगा। ु एवं ी को श त करने के
लए जतनी कठोरता क जाए, उतनी ही तेजी से वे इस ओर अ सर होते ह। वण को
अ य धक तपाने से उसक चमक और शु ता म बढ़ोतरी होती है। धरती को अ तरह
जोतने से भरपूर फसल होती है। इसी कार चंदन, दही और पान को भली-भाँ त रगड़ने से
उनके गुण बढ़ते जाते ह।

उपल व तु म संतोष का भाव तुत करते ए चाण य कहते ह क य द नधन


है तो उसे धैयवान् होना चा हए। इससे वह थोड़े साधन ारा भी नधनता के क मय
जीवन पर वजय ा त कर लेगा। य द वह स ते व को भी साफ-सुथरा रखेगा तो वह भी
उ म लगेगा। न न को ट के अ का गरमागरम सेवन करने पर वह भी उसे वा द
लगेगा। इसी कार बु - ववेक और गुण से यु कु प हो तो भी उसके माग म
बाधा नह आती। इस लए मनु य को उपयु तय म भी सुख एवं संतोष का माग
ढू ँ ढ़ना चा हए।
दसवाँ अ याय

चाण य क म व ा से बढ़कर संसार म कोई सरा धन नह है। वे इसके मह व को


वीकारते ए कहते ह क धन-वैभव से र हत नधन नह होता; अ पतु जो मनु य
बु एवं व ा से र हत होता है, वही वा त वक नधन है। धन कमाने का काय एक मूख
भी कर सकता है, ले कन व ाजन का सौभा य वरले को ही ा त होता है। धन से
प रपूण होने पर भी मूख अपने लए मान-स मान अ जत नह कर सकता। परंतु एक
व ान् नधन होने पर भी समाज म े ान ा त करता है। इस लए धनाजन क अपे ा
ानाजन का अ धक मह व है और मनु य को इसके लए य नशील रहना चा हए।

इस ोक ारा चाण य सावधान करते ए कहते ह क मनु य को अपना येक कदम


भलीभाँ त सोच- वचारकर उठाना चा हए; जल को व ारा छानकर पीना चा हए।
अथात् उसे चा हए क वह सभी के साथ मृ वाणी का योग कर सदाचार से यु वहार
करे। इससे न तो कभी वह ठोकर खाएगा और न ही जीवन म कभी पराजय का सामना
करना पड़े गा। चाण य इसे करते ए कहते ह क मनु य का आचरण ही लोग को
अपने सम नतम तक करने के लए पया त है। इससे श ु पर भी वजय पाई जा
सकती है।

चाण य के अनुसार, व ा- ा त के माग म अनेक क ठनाइय एवं ःख का सामना करना


पड़ता है। इस लए सुख क आशा करनेवाले व ा थय को व ा- ा त का वचार याग
दे ना चा हए। भौ तक सुख और व ा- ा त दो अलग-अलग माग ह। इ ह एक साथ हण
करना असंभव है। जहाँ एक ओर भौ तक सुख मनोहर और सुखदायक ह, वह सरी ओर
व ाजन कठोर तप के समान है। इसे ा त करने के लए वयं को वण क भाँ त तपाना
होगा। इस लए मनु य को सोच- वचारकर इनम से कसी एक का चयन करना चा हए।

चाण य कहते ह क क व क क पना इतनी ऊँची होती है क साधारण मनु य का उस तक


प ँच पाना असंभव होता है। उसके क पना के महल को भेदना कसी के वश म नह है।
इसी तरह ी क श के वषय म मनु य अन भ होते ह। ी य द हठ पर आ जाए तो
वह या कर सकती है, इसक क पना भी नह क जा सकती। नशे म चूर क वाणी
संयमहीन होकर अ नयं त हो जाती है। इस लए वह कैसा वहार करेगा, यह जानना
संभव नह होता। कौआ भी यह नह जानता क उसे या खाना चा हए और या नह ।
अथात् कसी भी ाणी क सीमा को जानना असंभव है। संकट आने पर मनु य कसी भी
सीमा को लाँघ सकता है।

भा य क म हमा गाते ए चाण य कहते ह क भा य से पार पाना कसी के वश म नह है।


यह भा य का ही खेल है क एक राजा पल भर म रंक और एक रंक पल भर म राजा बन
सकता है। ई र ने मनु य का जैसा भा य लख दया, उसे उसी के अनुसार फल भोगना है।
भा य को कसी भी तरह से बदला नह जा सकता। इसी के फल व प मनु य-जीवन म
ऐसी अनेक घटनाएँ घ टत होती ह, जनके बारे म कोई कुछ नह जानता। इस लए जहाँ
तक हो सके, मनु य को स कम करने चा हए। इससे उसका अ न टल नह सकता,
ले कन उसके भाव को कम अव य कया जा सकता है।

याचक को धन दे ते समय लोभी को अ यंत क होता है, इस लए उसक म दान,


भ ा या चंदा माँगनेवाला येक उसका श ु है। इसी कार ानयु उपदे श
दे नेवाले मूख क बात को काटकर उ ह ानवान् बनाने के लए यासरत रहते ह। इस लए
मूख उ ह अपना श ु मानते ह। भचा रणी प नी के लए उसका प त श ु के समान होता
है, य क वह उसक वे ाचा रता पर अंकुश लगाने का यास करता है। चाँद के काश
म चोर चोरी करने म असमथ हो जाते ह, इस लए वे उसे अपना श ु मानते ह। अथात् इस
ोक ारा चाण य करना चाहते ह क स माग क ओर अ सर रहनेवाले येक
को जन अपना श ु मानते ह ले कन फर भी स न स माग को छोड़ते नह
ह।

जस कार मलयाचल पवत पर उगनेवाले बाँस चंदन वृ से घरे होने के बाद भी उनके
समान सुगं धत नह होते, उनम चंदन-वृ के गुण उ प नह होते, उसी कार व ान के
बीच घरे रहनेवाला मूख भी ानवान् नह हो सकता। इसे करते ए चाण य
कहते ह क जस म सोचने-समझने क श न हो, जो हण करने का इ ु क न
हो, उसे अनेक यास करने के बाद भी ानवान् नह बनाया जा सकता। ऐसे लोग को
दया गया उपदे श थ जाता है। इसके लए मनु य क ज ासा का होना आव यक है।

चाण य कहते ह क दपण क रचना ने से यु य के लए क गई है। इसम वे वयं


को दे ख सकते ह। ले कन ने हीन के लए दपण मह वहीन होता है। इसके लए दपण को
दोषी नह कहा जा सकता। इसी कार वेद-पुराण क रचना बु मान एवं ववेकशील
य के लए क गई है। ये केवल उ ह के लए क याणकारी ह, जो सोचने-समझने
क श रखते ह। इनसे मूख का क याण नह हो सकता।

जन के वभाव का वणन करते ए चाण य कहते ह क जस कार बार-बार धोने


पर भी मल यागनेवाली इं य शु नह होती, उसी कार ानयु अनेक उपदे श दे ने के
बाद भी जन के वभाव को बदला नह जा सकता। उसे सुधारने के लए कए गए
सभी यास वफल हो जाते ह।
इस ोक ारा चाण य ने े ष के प रणाम का उ लेख कया है। वे कहते ह क जो
मनु य संत पु ष से े ष करता है, वह शी ही मृ यु को ा त हो जाता है। श ु से े ष
होने पर ाण के साथ-साथ धन क भी हा न होती है। राजा से े ष करने पर ाण एवं धन
स हत मान-स मान का भी नाश हो जाता है। इसी कार ा ण से े ष करने के
प रणाम व प मनु य का धन- ाण-स मान जाता ही है, साथ म उसके संपूण कुल का भी
नाश हो जाता है। इस लए मनु य को चा हए क वह स न पु ष का सदै व आशीष ा त
करे। उनके आशीवाद से उसके धन और वंश म वृ होगी। साथ ही वह द घायु होकर
व भ सुख को भोगेगा।

इस ोक ारा चाण य ने ऐसे को बु मान कहा है, जो नधन होने पर सगे-


संबं धय के साथ रहने क अपे ा वन म सह, हाथी, बाघ आ द हसक पशु के बीच
वृ पर घर बनाकर, कंद-मूल खाकर तथा जल पीकर, घास-फूस क श या पर सोकर तथा
प से शरीर ढककर जीवन- नवाह करना अ धक उपयु समझता है। इसे करते ए
चाण य कहते ह क नधन होने के कारण को अनेक बार उपहास का पा बनना
पड़ता है। यह त अ यंत क दायक और मान सक तनाव पैदा करनेवाली होती है।
धनाभाव के कारण कोई भी उसका साथ नह दे ता। तब बु म ा इसी म न हत है क
मनु य उनका साथ छोड़कर वन म नवास कर ले।

अमर वृ क क पना को साकार प दान करते ए चाण य कहते ह क पृ वी पर


ा ण ही अमर वृ का प है। सं या उसक जड़ तथा वेद उसक शाखाएँ ह। धम-कम
उसक शाखा पर लगने वाले सुंदर प े ह। वृ क जड़ को अ यंत मह वपूण बताते ए
चाण य कहते ह क संपूण वृ जड़ पर टका होता है। य द जड़ न या कमजोर हो जाए
तो वृ को सूखते समय नह लगता। इस लए जड़ क यथासंभव र ा करनी चा हए।

उपयु ोक म चाण य कहते ह क जसक माता वयं ल मी ह , पता भगवान् व णु


ह तथा भ जन उसके सगे-संबं धय क ेणी म आते ह , ऐसा संसार म े होता
है। उसके लए तीन लोक ही अपने दे श के समान हो जाते ह—अथात् वह तीन लोक का
वामी हो जाता है। ले कन ऐसी त ा त करने के लए मनु य म स नता, परोपकार,
सहनशीलता तथा दानवीरता के गुण होने चा हए।

जीवन और उसक मृ यु से संबं धत गूढ़ कथन को चाण य ने अ यंत सरलता से


कया है। वे कहते ह क कौआ, कबूतर, च ड़या, तोता-ये सभी व भ जा त और वण के
प ी होते ए भी रा -समय एक ही वृ पर व ाम करते ह। ले कन ातः होते ही अपने-
अपने माग क ओर उड़ जाते ह। जीवा माएँ भी इसी कार प रवार पी वृ पर कुछ
समय के लए बसेरा करती ह। तदनंतर नयत समय आने पर वृ को छोड़कर उड़ जाती
ह। इस लए उनके जाने पर ःखी या शोकातुर नह होना चा हए। सृ का यही नयम है
और इसी नयम से संपूण ांड संचा लत होता है। इसे बदलना सृ के रच यता ाजी
के लए भी असंभव है।

चाण य कहते ह क आव यकता के समय केवल बु मान ही अपने बल का


यथो चत उपयोग कर सकता है। इस लए कम होने पर भी उसका बल अ धक मह वपूण
है। इसके वपरीत कसी मूख का बल अतु य होने पर भी वह मह वहीन है, य क बु
के अभाव म वह कभी भी उसका उ चत उपयोग नह कर पाएगा। इस लए बल कम या
अ धक होने क अपे ा बु का अ धक होना मह वपूण होता है। यही कारण है क बु -
बल ारा एक खरगोश ने सह को कुएँ म गराकर मार डाला था।
इस ोक ारा भगवान् व णु क तु त करते ए चाण य कहते ह क ी व णु ही सम त
संसार के लए भोजन उपल करवाते ह। इस लए उ ह पालनहार कहा जाता है। य द वे
सृ के पालनहार न होते तो शशु के ज म के साथ माता के तन म ध नह आता। हे
ी व णु! हे भगवन्! म चाण य आपक इस महानता के सम नतम तक ँ और आपको
को ट-को ट णाम करता ँ। ले कन यहाँ चाण य यह भी करते ह क य प मनु य
को ई र पर पूणतया व ास रखना चा हए, ले कन वह पु षाथ से मुख न मोड़े । जब वह
पु षाथ करेगा, तभी ई र उसक मनोकामनाएँ पूण करगे।

उपयु ोक म चाण य ने सं कृत के साथ-साथ अ य भाषा को सीखने और समझने


क इ ा कट क है। वे कहते ह क जस कार अमृत पीने के बाद भी दे वगण सदै व
अ सरा के अधर के रस का पान करने के लए ाकुल रहते ह, उसी कार सं कृत
भाषा को भलीभाँ त जानने के बाद भी मेरे मन म संसार क अ य े भाषा को जानने
क ललक है, य क इन भाषा को जानने के बाद मनु य व म यथो चत मान-स मान
ा त करता है। चाण य का यह ोक वतमान प रवेश म एकदम सट क बैठता है।

भोजन म घी को चाण य ने सबसे अ धक श व क और पौ क बताया है। वे कहते ह


क अ क अपे ा आटा दस गुना अ धक श व क होता है। आटे से दस गुना अ धक
श ध म होती है। मांस ध से भी आठ गुना अ धक बल दान करता है। ले कन घी इन
सबसे बढ़कर होता है। इसका न य सेवन मनु य क श म अप र मत वृ कर दे ता है।
इस लए भोजन म घी क उ चत मा अव य लेनी चा हए।
खा पदाथ के वषय म चाण य कहते ह क साग-स जी का अ धक सेवन रोग को
नमं ण दे ता है, जब क ध का योग शरीर-वृ म सहायक होता है। घी बल एवं वीय म
बढ़ोतरी करता है तथा मांस का सेवन चरबी को बढ़ाता है। इस लए मनु य को साग-स जी
एवं मांस क अपे ा ध और घी का अ धक सेवन करना चा हए। ध जहाँ उसके शारी रक
वकास के लए उ म है, वह घी उसे श दान करेगा। इसके वपरीत साग-स जी एवं
मांस का सेवन मनु य के शरीर को वकृत कर दे गा।
यारहवाँ अ याय

चाण य ने दानशीलता, मृ वाणी, धैय और उ चत-अनु चत के ान को े गुण म


स म लत कया है। ले कन वे कहते ह क ये गुण मनु य म ज मजात होते ह। जब शशु
ज म लेता है तो ये वाभा वक प से उसम व मान होते ह। य द कोई अ यास
ारा इ ह ा त करना चाहे तो यह असंभव है।

मनु य के सगे-संबंधी ही उसके जीवन का वा त वक सहारा होते ह। य द वह उ ह छोड़कर


अ य लोग क ओर दौड़ता है तो उसका उसी कार शी नाश हो जाता है, जस कार
कोई राजा अधमयु आचरण करके न हो जाता है। यहाँ चाण य करना चाहते ह
क जस कार अपने धम से वमुख होकर राजा का पतन न त होता है, उसी कार
अपने धम को यागकर सरे धम क ओर आकृ होनेवाले श -संप होते ए भी
न हो जाते ह। इस लए मनु य को अपने धम से कभी वमुख नह होना चा हए।

इस ोक ारा चाण य ने वशालता पर बु , चतुराई, ओज और बल क े ता को


मा णत कया है। वे कहते ह क एक छोटे से अंकुश ारा श शाली हाथी को वश म
कया जाता है द पक क एक छोट सी लौ गहन अंधकार को चीर दे ती है एक हथौड़ा बड़े -
बड़े पवत को तोड़ डालता है। अथात् बु , चातुय, ओज और बल—इन गुण से यु
मनु य बड़ी-से-बड़ी सम या का भी नदान कर सकता है। े ता वशालकाय होने म नह
अ पतु इन चार गुण म न हत है।

पुराण म व णत है क क लयुग के अंत के साथ ही महा लय का समय आरंभ हो जाता है।


इस लय म संपूण पृ वी स हत संपूण ांड जलम न हो जाता है। इस ोक ारा
चाण य लय से पूव के ल ण का वणन करते ए कहते ह क जब क लयुग समा त होने
म दस हजार वष शेष रह जाएँगे, उस समय भगवान् व णु पृ वी का याग कर दगे। पाँच
हजार वष शेष रहने पर गंगा नद पृ वी से वलु त हो जाएगी। ाम-दे वता भी ढाई हजार
वष पूव पृ वी याग दगे। इस कार क लयुग म जब संपूण पृ वी पा पय , अध मय और
अ याचा रय से भर जाएगी, तब भगवान् पृ वी का याग कर दगे।

चाण य के अनुसार, जो व ाथ मोह-माया और सुख म लीन होकर व ा- ा त क बात


सोचते ह, उ ह अपने उ े य म कभी सफलता नह मलती। व तुतः सुख और मोह-माया
ही व ा- ा त के माग के सबसे बड़े बाधक ह। मांस-भ ण से मनु य तामसी वृ का
हो जाता है। ऐसी त म दया, परोपकार, धैय और संतोष आ द गुण न हो जाते ह।
इस लए उससे दया क अपे ा रखना मूखता है। धन के लोभी से स य का अनुसरण करने
क आशा नह करनी चा हए। धन- ा त हेतु वह बड़े -से-बड़ा झूठ बोलने से भी पीछे नह
हटता। इसी कार कामांध प व ता के अथ और मह व से अन भ होता है। ऐसा
मनु य केवल भचार को बढ़ाता है।

एवं जन का वभाव अ यंत रह यमय और प र त के अनुसार बदलता है।


इस लए उ ह समझना कसी के वश म नह है। इसे करते ए चाण य कहते ह क
जस कार ध, घी और श कर से स चने पर भी नीम अपना वभाव अथात् कड़वापन
नह छोड़ता, उसी कार अनेक उपदे श दे ने तथा अपन व दखाने के बाद भी जन को
स न बनाना असंभव है। मनु य का वभाव उसके उन ज मजात गुण पर आधा रत होता
है, जसे ाजी ने उसके भा य म लखा है। वह इ ह के अनुसार आचरण करता है।
इस लए स न मनु य को इसम अपना समय नह गँवाना चा हए।

चाण य ने शरीर क शु ता क अपे ा मन क शु ता को अ धक मह वपूण माना है। इस


संदभ म वे कहते ह क य द मनु य का मन पाप एवं अशु य से प रपूण है तो अनेक
तीथ- नान करने के बाद भी उसक आ मा शु नह हो सकती। जस कार जलाए जाने
पर भी म दरा का पा गंध नह यागता, उसी कार प व जल म नान करने के बाद भी
मनु य क अशु ता र नह होती। इस लए चाण य के अनुसार, मनु य को बाहरी शु ता
क अपे ा मन को शु करना चा हए। इसी म उसका क याण न हत है।

जन ारा गुणी एवं स न क नदा तथा तर कार कए जाने पर चाण य


कहते ह क य द एक मूख हीरे को प र समझ ले तो उसम हीरे का कोई दोष नह है, वह
तब भी हीरा ही रहेगा। अथात् जन कतना भी भला-बुरा कह ले, कतनी भी नदा
या अपमान कर ले; ले कन गुणी के गुण यथावत् बने रहते ह, उनका मह व कम नह
होता। ऐसी त म चाण य ने जन क तुलना उस भीलनी से क है, जो गजमु ा
म ण को थ जानकर फक दे ती है और र ाभ र य क माला धारण कर स होती है।
अथात् व ान् एवं गुणयु मनु य क नदा करनेवाला मूख कहलाता है।

चाण य कहते ह क भोजन के समय मनु य को मौन रहना चा हए। इसके मह व को


करते ए वे कहते ह क एक वष तक नय मत मौन धारण कर भोजन करनेवाला मनु य
करोड़ युग तक वग का सुख भोगता है। दे वगण भी उसक न य पूजा करते ह।
चाण य ने व ा- ा त को कठोर तप के समान कहा है। जस कार तप वी वयं को तप
क अ न म तपाकर पु य अ जत करते ह, उसी कार व ाथ क ठन माग पर चलते ए
व ा पी अमू य धन ा त करता है। ले कन काम, ोध, लोभ, मोह, अहंकार आ द
वकार तथा वाद, शं◌ृगार, कौतुक, अ त न ा एवं अ तसेवा उसके माग क बाधाएँ ह।
इस लए उसे इनसे बचना चा हए। तभी वह श ा- ा त म सफलता ा त करेगा।

चाण य क म केवल वे ा ण ही ऋ ष क ेणी म आते ह जो वन म उग आए कंद-


मूल-फल आ द वन त खाकर जीवनयापन करते ह तथा वनवास को े मानकर न य
ा -तपण करते ह। इस कथन को करते ए चाण य कहते ह क उपल साधन
म संतु रहनेवाला तथा न य ई र का मनन- चतन करनेवाला मनु य ही स न कहलाता
है। इसके वपरीत लोभी, असंतु एवं ना तक जन होते ह।

उपयु ोक म चाण य ने ा ण-धम के नयम का उ लेख कया है। उनके कम का


वणन करते ए वे कहते ह क ा ण को दन म केवल एक ही बार भोजन करना चा हए,
इसी म वह संतु हो जाए। उसका अ धकांश समय य , हवन एवं वेद के अ ययन म
तीत हो। साथ-ही-साथ वह यथाश दान दे ने और हण करने के गुण से यु हो।
इसके अ त र वकार को नयं त कर केवल संतान- ा त क इ ा से समयानुसार
सहवास करे। जो मनु य इनका व धवत् पालन करता है, वा तव म वही ा ण कहलाने
यो य है।
वेद म चार वण कहे गए ह। इनका नधारण के कुल अथवा जा त क अपे ा उसके
काय के अनु प कया गया है। वै य के संदभ म चाण य कहते ह क लौ कक कम म
संल न होकर पशुपालन, खेतीबाड़ी तथा ापार आ द करनेवाला मनु य वै य कहलाता है।
य द ा ण-कुल म उ प कोई यह काय करे तो उसे भी वै य समझना चा हए।

शू के वषय म चाण य कहते ह क लाख, तेल, नील, कपड़े रँगने के रंग, शहद, घी,
म दरा और मांस आ द का ापार करनेवाला शू कहलाता है। उनके अनुसार य द ा ण,
य या वै य कुल म जनमा भी यह काय करे तो उसे शू वण का मानना चा हए।

जो सर के स कम म व न डालनेवाला हो, ढ ग और पाखंड ारा लोग को मत


कर ठगता हो तथा जसके अ याचार से लोग पी ड़त ह , ऐसा ू र ा ण होते ए
भी पशु कहलाता है। य द श द म कहा जाए तो नीच एवं अप व काय करनेवाला
मनु य य द ा ण-कुल से संबं धत हो तो भी उसे पशु क ेणी म रखा जाता है।

चाण य ने ऐसे ा ण को ले क सं ा द है, जो कुएँ, तालाब, बाग या मं दर को


तोड़ने-फोड़ने म आनंद का अनुभव करता हो। उनके अनुसार, परोपकार एवं सामा जक
कत से वमुख ानवान् होकर भी नीच कहलाता है।

जो संत-गु जन के धन क चोरी करता हो, पर- य के साथ संभोग म ल त हो


तथा कसी से भी माँगकर खाने म जसे संकोच न हो, ऐसा ा ण होते ए भी
चांडाल क णे ी म आता है। ऐसे उ म कुल म उ प होकर भी नीच कहे जाते ह।
समाज म इ ह तर कृत से दे खा जाता है।

इस ोक ारा चाण य सीख दे ते ए कहते ह क राजा तथा स न मनु य को धन का


संचय भोग क अपे ा परोपकार एवं दान हेतु करना चा हए। इसका पालन करके ही
दानवीर कण, दै यराज ब ल तथा व मा द य संसार म स ए। आज भी उनक क त
अ ु ण है। इसके वपरीत मधुम खय का सं चत मधु भी दान के अभाव म न हो जाता
है। इस कथन को करते ए चाण य कहते ह क य प मनु य को सं ह करना
चा हए, ले कन इसके साथ ही उसे दाना द कम भी करते रहने चा हए। इससे जहाँ एक
ओर वह मान-स मान ा त करता है, वह सरी ओर उसे परलोक म अ ु ण सुख ा त
होते ह।
बारहवाँ अ याय

उपयु ोक म चाण य ने सुखी गृह का वणन कया है। इस संदभ म वे कहते ह क


मनु य का जीवन तभी सुखमय कहा जा सकता है जब उसका घर-प रवार सुख से प रपूण
हो। जहाँ सदै व खु शय और आनंद का वास हो, प नी मृ भा षणी एवं प त ता हो, संतान
बु मान और सु श त हो पया त धन क उपल ता हो, सेवक आ ाकारी और
वामीभ हो जहाँ अ त थय का यथो चत आदर-स कार कया जाता हो, ई र क भ
का वास हो तथा संत-महा मा का स कार हो—ऐसा घर ही सुख से यु होता है। इस
वग-तु य घर म वास करनेवाले मनु य अ यंत सौभा यशाली होते ह।

दान क म हमा बताते ए चाण य कहते ह क दया गया दान कभी थ नह जाता है।
अ पतु जतना दान दया जाता है, उससे दस गुना अ धक होकर वह को पुनः ा त
हो जाता है। इस लए मनु य को ःख और क से त ा ण को यथाश दान-
द णा दे कर संतु करना चा हए। ऐसा करने से उसका दान उसके लए धन- ा त के माग
श त करता है।
लोक- वहार के संदभ म चाण य कहते ह क मनु य को लोक- वहार म नपुण होना
चा हए। इससे वह सदै व सुखी रहता है। लोक- वहार के अंतगत सेवक से उदारता-यु
वहार, सगे-संबं धय से ेमयु वहार तथा के त कठोरता का वहार
स म लत होता है। इसके अ त र स न एवं व ान के त नेह तथा न ता का भाव,
श ु के सम साहसयु वहार, गु जन के त धीरता और सौ यता का भाव तथा
य के त वाक्-चातुय का भाव भी लोक- वहार का ह सा ही गना जाता है। इसका
अनुपालन करनेवाला ही समाज म सुखपूवक जीवन तीत करता है।

इस ोक ारा चाण य ने नीच एवं वाथ मनु य का वणन कया है। वे कहते ह क जो
दाना द से वमुख रहते ह, वेद के वण को मह वहीन मानते ह, जनक म संत-
महा मा के दशन नरथक ह, ज ह ने कभी भी तीथ-या का सुख नह भोगा, जनके
पेट पाप क कमाई से भरे ए ह, ज ह ने अ भमान और अहंकार के आवरण से खुद को
ढक रखा है, वे मनु य नीच, और वाथ कहे जाते ह। वे केवल अपने लए ही जीते ह,
सर से उ ह कुछ लेना-दे ना नह होता। इन मनु य को संबो धत करते ए चाण य कहते
ह क ऐसे मनु य का जीवन थ है। य द कहा जाए तो ये पृ वी पर बोझ के समान
ह। ऐसे जीवन से तो मृ यु भली है। इस लए जतना शी हो सके, इ ह शरीर याग दे ना
चा हए, अ यथा जी वत रहकर ये पृ वी पर पाप और अवगुण का सार करगे।

चाण य कहते ह क ई र ने मनु य के भा य म जो लख दया, उसे मटाना असंभव है।


मनु य जीवन म वही कम करता और भोगता है, जो वह लखवाकर लाया है। य द करील
का झाड़ वसंत ऋतु म भी प से र हत रहता है तो इसम वसंत का कोई दोष नह होता;
उ लू को दन म दखाई नह दे ता तो इसम सूय को दोष दे ना थ है य द चातक के मुख म
वषा क बूँद नह गरत तो इसम मेघ का दोष नह है। इसी कार मनु य जीवन भर जन
ःख एवं क को भोगता है, उसम उसका कोई दोष नह होता। यह उसके भा य म पहले
से ही लखे ए होते ह।

य प कहा गया है क मनु य पर बुरी या अ संग त का भाव अव य पड़ता है। कतु


चाण य का मानना है क स न मनु य कतना भी जन क संग त म रह ले, ले कन उस
पर उनक संग त का कभी असर नह पड़ता। जस कार चंदन वृ पर लपटे साँप के
जहरीले होने पर भी चंदन जहरीला नह होता और जस कार म म फ लत आ पु प
म क गंध से सराबोर नह होता, उसी कार जन मनु य क संग त म रहकर भी
स न मनु य अपनी स नता और स कम को नह भूलता।

साधु अथवा स न पु ष के दशन मा से पु य फल का आशीवाद ा त कया जा सकता


है जब क प व तीथ का आशीवाद पाने के लए हम लंबी या एँ करनी पड़ती ह।

एक आगंतुक ने एक ा ण से पूछा, ''इस शहर म महान् कौन है?'' ा ण ने उ र दया,


''ताड़ के वृ का समूह।'' आगंतुक ने फर पूछा, ''सबसे परोपकारी कौन है?''
ा ण ने उ र दया, ''धोबी—जो ातः कपड़े ले जाता है और सायं लौटा दे ता है। वह
सबसे परोपकारी है।'' उसने फर कया, ''सबसे यो य कौन है?'' ा ण
ने उ र दया, '' सर क प नयाँ और धन चुराने म हर कोई यो य है।'' आगंतुक ने फर
कया, ''ऐसे शहर म आप कैसे रह लेते ह?'' ा ण ने उ र दया, ''जैसे एक क ड़ा
गंदगी म भी जी लेता है, वैसे ही।'' इस ोक म चाण य ने समाज म ा त दोष क ओर
संकेत कया है।

चाण य ने ऐसे घर को मशान-तु य माना है, जसम ा ण का मान-स मान न होता हो,
जहाँ नवास करनेवाले मनु य दान-द णा से वमुख रहते ह , जहाँ वेद के पठन और
वण क री त न हो, य -हवना द कम से जो ान र हो। वे कहते ह क ऐसे घर म
सदै व अ ानता, द र ता, रोग, ःख एवं क का वास होता है। ऐसे घर म नवास
करनेवाले मनु य मुद के समान होते ह। इस लए गृह जीवन के सुख के लए मनु य
को पूजा-अचना, दान-द णा तथा ा ण-स कार से संबं धत कम करते रहने चा हए।

उपयु ोक म चाण य ने मोह-माया से र हत मनु य के वा त वक सहचर का वणन


कया है। वे कहते ह क स य ही एक वैरागी क माता के समान, ान पता के समान, धम
भाई के समान, दया बहन के समान, शां त प नी के समान तथा मा पु के समान होती
है। व तुतः इस नाशवान् संसार म केवल ये ही उसके स े बंधु-बांधव ह। इस कार संसार
से वर होने के बाद भी मनु य अकेला नह होता।

जीवन और मृ यु एक ही स के के दो पहलू ह। मनु य-शरीर का आरंभ जहाँ जीवन से


होता है, वह उसका अंत मृ यु है। इसी कारणवश शरीर को नाशवान् कहा गया है। प,
यौवन, बल, बु -सबकुछ मृ यु के सम शनैः-शनैः न हो जाता है। मृ यु कब मनु य को
अपने वकराल पंज म जकड़ ले, यह कोई भी नह जानता। इस लए चाण य ने मनु य
को सदै व धम का पालन करने का परामश दया है। वे कहते ह क जीवन का येक ण
स कम म तीत करना चा हए। इसी म मनु य का क याण न हत है।
उपयु ोक म ा णय के लए व भ कार क आनंददायक व तु का वणन करते
ए चाण य कहते ह क ा ण के लए भोज का आमं ण परम सुखदायक होता है।
गौ के लए न य हरी-हरी घास क उपल ता आनंद दान करनेवाली है। य के
लए प त का त दन उ साह म भरा रहना ही परम आनंददायक है। ले कन चाण य मार-
काट म वयं के आनंद को वीकार करते ह। वे कहते ह क यु म भयंकर मार-काट ही मेरे
लए उ सव के समान है। इसी म मुझे सुख ा त होता है।

चाण य ने ऐसे मनु य को संत-स न कहा है, जो पर- य को माता के समान समझते
ह, जनक म पराया धन म है तथा जो सभी य को अपने समान ही समझते
ह। अथात् च र वान्, सहनशील, संतोष, परोपकार तथा स दयता के गुण से यु
ही स न कहलाते ह।

स न मनु य अनेक गुण से यु होता है। उसम धम के त त परता, मृ वाणी,


दानशीलता, मै ीभाव, गु -भ , गंभीरता, सद्- वहार, परोपकार, शा ता, सुद
ं र-
सु चपूणता और स तायु वभाव आ द गुण व मान होते ह। इसके वपरीत इन गुण
से हीन मनु य जन कहलाता है।
उपयु ोक ारा चाण य ने ई र को सव प र कहा है। उनके मतानुसार संसार म ई र
ही एकमा श वान्, परम दयालु, तीन लोक के वामी तथा कण-कण म व मान
रहनेवाले ह। इसे करते ए वे कहते ह क क पवृ मनु य क सम त मनोकामनाएँ
पूण करता है, ले कन वह केवल लकड़ी ही है। सुमे पवत धन के भंडार से यु है, ले कन
वह भी केवल प र है। सूय क करण काशवान् होते ए भी चंड ह, जब क शीतलता
और काश दान करनेवाला चं मा भी य रोग से पी ड़त है। वशाल होते ए भी समु
खारे जल से यु तथा कामदे व शरीरर हत ह। ब ल दानवीर होते ए भी दै य-कुल से
संबं धत है। इसी कार सभी कामना को पूण करने वाली कामधेनु भी एक गाय है। हे
ई र! इनम से कोई भी ऐसा नह है जो आप जैसे अवगुणर हत, तेजयु , सहनशील,
परोपकारी और भ -व सल के सम टक सके। अतः हे ई र! संसार म केवल आप ही
सवश मान ह। कोई भी आपके समान नह हो सकता।

मनु य अपने आस-पास के ा णय से कुछ-न-कुछ अव य सीख सकता है। उपयु


ोक म चाण य ने इसी कथन को तपा दत कया है। वे कहते ह क जहाँ से भी श ा
ा त हो, उसे हण कर लेना चा हए। राजपु म न ता और वनयशीलता का भाव होता
है, अतः उनके इन गुण को हण करके मनु य स दय बनता है। व ान से नेह-यु
मधुर वचन बोलने क तथा जुआ रय से म या भाषण क कला सीखनी चा हए। इसी
कार य से छल-कपट का गुण भी हण करना चा हए।
आय से अ धक य करना, बना बात के सर से लड़ना-झगड़ना तथा सभी कार क
य से संभोग करना-ये तीन कम मनु य और उसके कुल को वनाश क ओर धकेलते
ह। इस लए मनु य को इनसे यथासंभव बचना चा हए, अ यथा शी ही उसका नाश हो
जाएगा।

वतमान समय म कुछ मनु य आहार-सं ह म लगे ए ह तो कुछ धन के संचय म डू बे ए


ह। ऐसे मनु य को संबो धत करते ए चाण य कहते ह क हे मूख मनु य! शशु के ज म
के साथ ही ई र उसके पेट भरने का बंध कर दे ता है। उसे जो कुछ मलना है, वह कोई
भी छ न नह सकता। इस लए आहार एवं धन का सं ह छोड़कर धम-सं ह पर यान
क त करो। पेट तो पशु भी भर लेते ह, ले कन धम-कम करके पु य ा त करने का
सौभा य केवल मनु य को ही ा त होता है। इस लए धमयु काय करके पु य का सं ह
करो। इसी से तु हारा लोक और परलोक सुधर जाएगा।

उपयु ोक म चाण य कहते ह क जस कार बूँद-बूँद से घड़ा भर जाता है, बूँद-बूँद के


मलने से नद बन जाती है, पाई-पाई जोड़ने पर धनवान् बन जाता है। उसी कार
य द नरंतर अ यास कया जाए तो मनु य के लए कोई भी व ा अ ा य नह रहती। ऐसे
ही अगर मनु य न य धमयु शुभ कम म लीन रहे तो एक दन उसके पास पु य का
अथाह भंडार संभव हो जाता है। इस लए मनु य को अपना अ धकतर समय स कम म ही
तीत करना चा हए।
तेरहवाँ अ याय

उ े यर हत द घका लक जीवन क अपे ा चाण य शुभ कम से यु अ पका लक जीवन


को अ धक े मानते ह। वे कहते ह क अनेक ःख तथा पाप से यु द घ जीवन अ यंत
क दायक होता है। ऐसे जीवन का मनु य के लए कोई मह व नह है। इसके वपरीत य द
मनु य का जीवन स कम से यु हो तो वह अ प होने पर भी परम सुखदायक होता है।
इस लए मनु य क आयु कतनी भी हो, उसे सदै व स कम करने चा हए। इसी म उसका
क याण न हत होता है।

उपयु ोक ारा पछली बात को याद करके बार-बार ःखी होने या नराशा कट
करनेवाले मनु य को परामश दे ते ए चाण य कहते ह क बीता आ समय लौटकर नह
आता, उसम घ टत घटना को बदला नह जा सकता। इस लए उसे बार-बार याद करने
से कोई लाभ नह होता। अतः मनु य को उसे भूल जाना चा हए। इसी कार भ व य म
या घ टत होनेवाला है, मनु य इससे भी पूणतः अन भ होता है। इस लए उसका चतन
भी थ है। मनु य को केवल अपने वतमान पर यान क त करना चा हए। य द वह
वतमान को सुधार लेगा तो उसका भ व य अपने आप ही उ वल हो जाएगा।

स वहार और उ म वभाव का मह व बताते ए चाण य कहते ह क मनु य बना


अ धक प र म कए केवल अ े आचरण और वभाव ारा ही व ान् ,स न
पु ष और पता को संतु कर सकता है। इसी कार मृ वाणी ारा म , बंधु-बांधव तथा
पं डत को स करके संतु कर। अथात् े वभाव तथा मृ वाणी से यु मनु य के
लए कुछ भी असंभव नह होता।

स वहार और उ म वभाव का मह व बताते ए चाण य कहते ह क मनु य बना


अ धक प र म कए केवल अ े आचरण और वभाव ारा ही व ान् ,स न
पु ष और पता को संतु कर सकता है। इसी कार मृ वाणी ारा म , बंधु-बांधव तथा
पं डत को स करके संतु कर। अथात् े वभाव तथा मृ वाणी से यु मनु य के
लए कुछ भी असंभव नह होता।

चाण य ने नेह को सम त ःख क जड़ माना है। इस वचार को वे उपयु ोक ारा


करते ए कहते ह क मनु य जसके साथ भी नेह से बँध जाता है, उसका जीवन
उसी के अनु प चलने लगता है। जब वह ःखी होता है तो उसे दे खकर नेह-बंधन
म बँधा मनु य भी ःखी हो जाता है। इसी कार वह उसके सुख म ही अपना सुख तथा
उसके भय म अपना भय दे खता है। यही नेह जीवा मा को बार-बार जीवन-मृ यु के च
क ओर धकेलता है। इसके वपरीत, नेह से र हत मनु य के लए सभी एक समान होते
ह। उसे न तो कसी के ःखी होने से ःख होता है और न ही कसी के सुखी होने से सुख।
वह दय म सभी के लए एक ही भाव रखता है। इस लए व ान् मनु य को अ य धक
नेह का प र याग करके सुखमय जीवन तीत करना चा हए।

केवल भा य के सहारे जीवनयापन करनेवाले मनु य अपने ब मू य जीवन को थ ही न


कर लेते ह। ले कन जो मनु य पु षाथ ारा संकट क त से पूव अपना बचाव कर लेते
ह तथा जो वपरीत प र तय म भी जूझते रहते ह, वे सदै व सुखमय जीवन तीत करते
ह। चाण य का मानना है क य प भा य को बदला नह जा सकता, मनु य जो
लखवाकर आया है, वह उसे भोगना ही होगा; ले कन पु षाथ एवं कम ारा तकूल
भा य को भी अनुकूल बनाया जा सकता है। इस लए मनु य को पु षाथ से पीछे नह
हटना चा हए।

जस रा य का राजा धा मक और गुणी होगा, वहाँ क जा भी धा मक और गुणी होगी।


और य द राजा पापी होगा तो जा भी वैसा ही आचरण करेगी; य क जा राजा का ही
अनुसरण करती है। तभी तो कहा गया है—'यथा राजा तथा जा'।

चूँ क अधम सदै व पाप, भचार और बुरे कम को बढ़ावा दे ता है, समाज को


उससे लाभ क अपे ा हा न ही होती है। इस लए चाण य क म अधम मनु य
जी वत होते ए भी मृतक के समान है। इसके वपरीत जीवन भर शुभ एवं स कम
करनेवाला मनु य मृ यु के उपरांत भी मरणीय होता है। उसका यश और क त मृ यु के
बाद भी उसे जी वत रखती है। इस लए मनु य को स कम ारा मान-स मान एवं यश ा त
करना चा हए, जससे मृ यु के बाद भी लोग उसे याद करके जी वत रख।

धा मक ंथ म धम, अथ, काम और मो —ये चार पु षाथ कहे गए ह। इनम से अथ एवं


काम लोक के तथा धम एवं मो परलोक के पु षाथ कहे गए ह। इन चार पु षाथ म
मनु य-जीवन क साथकता न हत है। बना पु षाथ के जीवन थ है। इस लए मनु य को
कम-से-कम कसी एक पु षाथ के लए अव य य नशील रहना चा हए।

एवं जन क सोच एवं वहार का वणन करते ए चाण य कहते ह क सर


क उ त को दे खकर ई या करना जन का ज मजात वभाव होता है। ऐसी त
म वह वयं भी उ त के लए य नशील होकर सर को नीचा दखाने का यास करते
ह। ले कन असफल होने पर वे पर नदा ारा वयं को बड़ा और सर को छोटा दखाने म
अपना बड़ पन समझते ह। इसी कार वे नरंतर यो य को भी अयो य स करने
का यास करते रहते ह। ऐसी भावना से यु ही जन होता है।

उपयु ोक ारा चाण य ने मन को सम त बंधन एवं ःख का कारण माना है। वे


कहते ह क मो - ा त के लए ही ई र जीवा मा को मनु य-जीवन दान करता है।
ले कन काम, ोध, लोभ, मद, मोह आ द वकार म ल त होकर मनु य अपने वा त वक
ल य क ओर से भटक जाता है। इसका एकमा कारण मन है। मन ही मनु य को वषय-
वासना क ओर धकेलकर उसे पाप-कम क ओर अ सर करता है। मन के वशीभूत
आ मनु य जीवन-मृ यु के च से कभी मु नह हो सकता। इस लए मनु य को चा हए
क वह मन को सम त वकार से र हत करके अपने वश म करे। तभी परलोक म उसका
क याण संभव है।

मनु य-दे ह नाशवान् है, इस लए दे ह का अ भमान नह करना चा हए। जो मनु य अहंकार-


र हत होकर मन म ई र-भ क लौ व लत कर लेता है, उसका मन जहाँ कह जाता
है, वह वह समा ध क त म आ जाता है। जस मनु य को शरीर और आ मा से
संबं धत वा त वक ान ा त हो जाता है, वह कसी भी त म समा ध क अव ा ा त
कर लेता है।

सभी कार क इ ा , सुख क कामना का प र याग कर द। सबकुछ ई र के हाथ


म है—वह नणय करता है, कसे या दे ना है, कससे या लेना है। इस लए सभी को जो
है, उसम संतोष करना सीखना चा हए।
मनु य अनेक कामनाएँ करता है उनम कुछ पूण होती ह और कुछ अपूण ही रह जाती ह।
इ ा का पूण होना या न होना मनु य के भा य और कम पर ही नभर करता है। मनु य
जो कम करता है, उसका भा य उसी के अनु प उसे फल दान करता है। य द बुरे कम के
फल व प मनु य सुख क कामना करता है तो उसक इ ा कभी पूण नह हो सकती।
इस लए अ े फल क ा त हेतु मनु य को स कम करने चा हए।

सृ का वधान है क मनु य जैसा कम करेगा, उसे वैसा ही फल भोगना पड़ता है। जस


कार बछड़ा सह गौ के बीच भी अपनी माता को पहचान लेता है, उसी कार कम
भी अपने कता को ढू ँ ढ़ लेते ह। व तुतः मनु य का कमफल उसके कम के साथ ही बँधा
होता है। इस लए सदै व स कम कर, जससे े फल ा त हो सके।

जो मनु य उ े यर हत होकर जीवन तीत कर रहे ह, उ ह न तो घर म शां त मल सकती


है और न ही वन म। ऐसे मनु य का जीवन बोझ के समान है, जनसे कसी को लाभ नह
होता। इस लए जीवन म उ े य का होना अ यंत आव यक है। जो मनु य जीवन का उ े य
नधा रत कर लेते ह, उनके जीवन म कभी भटकाव नह आता।

इस ोक म चाण य समपण क मह ा को कर रहे ह। वे कहते ह क पूण समपण


ारा कया गया कोई भी काय न फल नह जाता। जस कार खुदाई करनेवाला मनु य
फावड़े ारा अथक प र म करके पृ वी के गभ म सं चत जल ा त करता है, उसी कार
व ाथ को भी सेवा ारा गु के पास सं चत ान को अ जत करना चा हए।
वेद एवं पुराण म 'ओउम्' को एका र बीज मं कहा गया है। उसी के मह व को चाण य
ने उपयु ोक ारा कया है। वे कहते ह क बीज मं ओउम् के उ ारण ारा
मनु य को से संबं धत त व ान सहज ही ा त हो जाता है। त व ान का उपदे श दे ने
वाला समाज को सही दशा दान करता है। ऐसे गु क सदा वंदना करनी चा हए।
ले कन जो उनका तर कार करता है, वह मनु य कु े क यो न म अनेक क भोगने के
बाद चांडाल-यो न म उ प होता है।

चाण य यह वीकारते ह क युग के अंत म सुमे पवत अपना ान छोड़ दे गा, सात समु
अपनी मयादाएँ तोड़कर संपूण पृ वी को डु बो दगे। ले कन उनका यह व ास है क ऐसी
वकट त म भी महापु ष एवं संतजन अपनी त ा व संक प पर अ डग रहगे। ऐसे
स न पु ष व सनीय होते ह। इ ह य के कारण पृ वी अभी तक लय से बची
ई है।
चौदहवाँ अ याय

हीरा, मोती, प ा, वण आ द चाण य क म प र के टु कड़े मा ह। वे कहते ह क


पृ वी के सभी र न म जल, अ और मधुर वचन सबसे ब मू य र न ह। इनके मह व को
बताते ए चाण य कहते ह क जल एवं अ ारा मनु य क ाण-र ा होती है, उनके
शरीर का पोषण होता है, बल-बु क वृ होती है। मधुर वचन ारा श ु को भी
जीतकर अपना बनाया जा सकता है। इस लए ये र न अ यंत ब मू य होते ह। ले कन जो
मनु य इन र न को छोड़कर प र के पीछे दौड़ते ह, उनका संपूण जीवन ःखमय हो
जाता है। य प उन प र के बना रहा जा सकता है, ले कन इन ब मू य र न के बना
जीवन क क पना असंभव है।

मनु य जैसा कम करता है, उसी के अनु प उसे अ े या बुरे फल क ा त होती है।
व ध का यह वधान कोई बदल नह सकता। मनु य-जीवन म आनेवाले ःख, शोक,
चताएँ, बंधन तथा संकट पाप-कम के ही फल ह। इसके वपरीत ःख व लेशर हत
सुखमय जीवन स कम से ा त होता है। इस लए मनु य को े कम करने चा हए।

य प धन, संप , म , ी, रा य बार-बार मल सकते ह; ले कन मनु य-शरीर केवल


एक ही बार ा त होता है। एक बार न हो जाने के बाद इसे पुनः ा त करना असंभव है।
इस लए मनु य को शुभ काय करके इस दे ह का स पयोग करना चा हए। जो मनु य
येक दन स काय करते ह, वा तव म उनका ही जीवन सफल होता है।
'एकता म बड़ा बल है', ाचीनकाल से ही यह उ अ यंत स रही है। चाण य ने इसी
उ को अपने ोक म कया है। वे कहते ह क जस कार अनेक ान मलकर
एक सह का मुकाबला कर सकते ह, तनके छ पर के प म एकजुट होकर वषा का पानी
रोक लेते ह, उसी कार य द नबल एक हो जाएँ तो वे बड़े -से-बड़े श शाली का
भी सामना कर सकते ह।

उपयु ोक ारा चाण य कहते ह क य द जल म तेल क केवल एक बूँद डाली जाए


तो भी वह पूरे पा म फैल जाता है। गु त रह य छपाकर नह रख सकता,
उसके ारा रह य तेजी से फैलता है। य द बु मान थोड़ा सा ान भी अ जत कर ले
तो वह उसी से अपने ान को बढ़ा लेता है। इसी कार चाण य कहते ह क य द दान
कसी सुपा को दया जाए तो वह दस गुना होकर दाता को पुनः ा त हो जाता है।

इस ोक म चाण य ने मनु य क चंचल वृ को कया है। वे कहते ह क मनु य


क वृ म ा य व का अभाव होता है, इस लए वह पल- तपल बदलती रहती है।
कसी धा मक कथा के वण अथवा मशान म शव को दे खकर मनु य के मन म वैरा य-
भाव उ प हो जाता है, सांसा रक मोह-माया उसे थ तीत होती है। ले कन वहाँ से आने
के बाद वह पुनः सांसा रक बंधन म फँसकर सं ह म लग जाता है। मनु य क यही चंचल
वृ उसके मो के माग म सबसे बड़ी बाधा है। इस लए मनु य को इस वृ पर
यथासंभव अंकुश लगाना चा हए।
अ धकतर दे खा गया है क बुरे या नीच कम के बाद मनु य क आ मा जा त् हो उठती है
और उसे अपने कए पर प ा ाप होने लगता है। ले कन बुरे कम करने से पूव ही उसे
अ े -बुरे का ान हो जाए तो वह बुरे कम से सदा के लए नवृ हो जाएगा। बुरे कम म
ल त जन अपने साथ-साथ अपने वंश को भी कलं कत करता है। इस लए नीच
कम करने से बचना चा हए।

मनु य जब कसी वषय म े ता अथवा काय म सफलता ा त कर लेता है तो उसम


अहंकार का भाव उ प होने लगता है। ऐसी त से सावधान करते ए चाण य कहते ह
क संसार म एक से बढ़कर एक दानवीर, तप वी, वीर, उपासक और बु मान भरे ए ह।
इस लए मनु य को अपनी दानवीरता, तप, साहस, व ान, वन ता और नी त- नपुणता पर
कभी अहंकार नह करना चा हए। जो मनु य अहंकार म डू ब जाता है, वह अ तशी पाप
म ल त होकर न हो जाता है।

इस ोक ारा चाण य ने स े ेम का मह व बताया है। वे कहते ह क स े ेम का


बंधन मनु य को पर र गहराई से बाँध दे ता है। ऐसी तमयद र हो तो भी
मनु य उसे अपने आस-पास ही अनुभव करता है। इसके वपरीत य द कसी के
साथ नेह नह है तो उसके पास होने पर वह असंब रहता है। इस कथन को करते
ए चाण य कहते ह क मनु य का य द ई र के साथ नेह-बंधन जुड़ जाए तो वे सदै व
नकट ही अनुभव होते ह। इस लए मनु य को भ ारा ई र से नेह का बंधन जोड़ लेना
चा हए।

मधुर वाणी का मह व बताते ए चाण य कहते ह क जस कार सपेरा बीन ारा मीठ
तान छे ड़कर सप को वश म कर लेता है, शकारी मृग को वश म कर लेता है, उसी कार
मनु य मधुर वचन बोलकर कसी को भी अपने वश म कर सकता है। मीठ वाणी ारा वह
श ु को भी जीत लेता है और उसके सम त मनोरथ स हो जाते ह।

राजा, अ न, गु और ी-चाण य के अनुसार इन चार क न तो अ धक नकटता ठ क


होती है और न ही री, अ यथा मनु य का सव व न हो जाता है। राजा और गु क
नकटता से अहंकारी होकर दोषयु हो जाता है, जब क र रहने से वह सदै व
उपे त रहता है। नकट आने पर अ न जलाकर भ म कर दे ती है तथा र रहने पर ऊजा
एवं काश क कमी हो जाती है। ी क नकटता अनेक वकार उ प करती है तथा र
रहने पर उसके पथ होने का भय रहता है। इस त से बचने के लए चाण य कहते
ह क मनु य को म य-माग ारा इसका उपाय नकालना चा हए। वह यास करे क न तो
इनके अ धक नकट आए और न ही अ धक र हो।

चाण य ने इस ोक ारा कुछ ऐसे ा णय का उ लेख कया है, जनसे वहार करते
समय मनु य को सदा सावधान रहना चा हए। वे कहते ह क अ न, जल, ी, मूख ,
साँप और राजप रवार-ये मनु य के लए उपयोगी तो ह ही, ले कन असावधान रहने पर
उसके लए वनाशकारी भी बन जाते ह। इस लए इनके साथ सोच- वचार कर वहार
करना चा हए।

चाण य ऐसे मनु य के जीवन को साथक मानते ह जो दया, ेम, परोपकार, सहनशीलता
आ द गुण से प रपूण है। व तुतः उनक म ऐसे मनु य ही जीवन जीने के वा त वक
पा होते ह। इन गुण के अभाव म मनु य-जीवन नरथक है। इस लए उपयु गुण को
हण करना चा हए, जससे मनु य का जीवन सफल हो सके।
उपयु ोक ारा चाण य पर नदा के वषय म अपने वचार करते ए कहते ह क
पर नदा सम त कम म अ यंत नीच और बुरा कम है। य द मनु य इस कम को याग दे तो
वह संपूण संसार को अपने वश म कर सकता है। अथात् नदा को यागने से सम त सुख
मनु य के अनुकूल हो जाते ह।

चाण य के अनुसार केवल वही बु मान है, जो समय के अनु प वा ा करे, श


के अनु प परा म करे तथा साम य के अनु प ोध करे। परंतु य द मनु य संग से
हटकर बात करे, श के तकूल आचरण करे तथा अनाव यक ोध करे तो वह
बु मान होकर भी मूख कहलाता है।

उपयु ोक ारा चाण य कहते ह क एक व तु को व भ लोग अलग-अलग से


दे खते ह। योगी के लए ी जहाँ शव-तु य है, वह कामांध को वह प-स दय क
तमा दखाई दे ती है। ान के लए वह मांस के पड के अ त र कुछ नह है। यहाँ
चाण य करना चाहते ह क मनु य का कोण ही व तु के मह व को कम या
अ धक करता है। वह जैसा दे खना चाहता है, वह व तु वैसी ही दखाई दे ती है।

चाण य ने व ान को कुछ बात गु त रखने का परामश दया है। वे कहते ह क व ान्


को अचूक औष ध का ान, धमाचरण, घर क सम याएँ, ी-संभोग, कुभोजन
तथा न दत वचन का कभी भी कसी सरे के सम उ लेख नह करना चा हए।
ऐसी बात केवल अपने तक रहनी चा हए। ले कन य द वह इ ह चा रत करता है तो उसका
व ान् होना थ है। उसक तुलना मूख से क जाएगी।

जब तक वसंत ऋतु का आगमन नह होता, तब तक कोयल मौन रहती है कतु वसंत के


आगमन के साथ ही वह अपनी मधुर वाणी से दस दशा को गुंजायमान करने लगती है।
इस कथन ारा चाण य ने व ान को अ यंत गूढ़ परामश दया है। वे कहते ह क उ चत
समय पर ही बु मान को उसके अनुकूल काय करने चा हए। इससे काय म अव य
सफलता ा त होती है। इसके वपरीत समय को दे खे बना काय करनेवाले सदै व
असफलता का मुख दे खते ह।

य द धा मक काय म चूक हो जाए तो उसका फल नरथक हो जाता है। य द भली-भाँ त


उपयोग न कया जाए तो ाण दायक औष धयाँ ाण का हरण भी कर लेती ह। धन एवं
अ का अ य धक उपयोग द र ता और नधनता को आमं त करता है। गु के आदे श का
यथो चत पालन न करने से अनेक क भोगने पड़ते ह। इस लए चाण य ने धम,
औष धय , धन, धा य तथा गु के आदे श का सावधानीपूवक पालन करने का नदश दया
है।

जन मनु य म आ म-क याण क भावना अ यंत बलवती है, उनका मागदशन करते ए
चाण य कहते ह क मनु य को जन क संग त यागकर स न पु ष क संग त हण
करनी चा हए। इसके भाव से वषय-वासनाएँ तथा अप व वचार का नाश हो जाता है
और मनु य स माग क ओर अ सर होता है। अथात् मोह-माया एवं वषय-वासना का
याग करके मनु य को ई र-भ और परमाथ म डू ब जाना चा हए। इसी म उसका
क याण न हत है।
पं हवाँ अ याय

सम त स कम म दया को सव प र बताते ए चाण य कहते ह क सर पर दया करने से


जसका दय स ता का अनुभव करता है, उसे ान एवं मो - ा त हेतु लंबी-लंबी
जटाएँ धारण करने या भ म लगाने क आव यकता नह है। सह वष तक क ठन तप या
करके भी यो गय के लए जो लभ है, वह ान एवं मो ा णमा पर दया करने से
सहज ही ा त हो जाता है। दया सभी धम का मूलाधार है। इस गुण को हण करके ही
महापु ष क ेणी म ान ा त करते ह। इस लए दया का भाव दय म सदै व
धारण करना चा हए।

वै दक काल से गु जन को ान- ा त का ोत कहा गया है। चाण य ने भी गु क


महानता को उपयु ोक ारा कया है। वे कहते ह क मनु य को -श ,
आ मा-परमा मा के गूढ़ रह य और त व ान का बोध गु ारा ही होता है। गु क कृपा से
ही मनु य मोह-माया के च को भेदकर -दशन के यो य बनता है। व तुतः ई र और
भ के बीच म गु सेतु का काय करता है। ऐसे गु का ऋण संसार क ब मू य व तु
दे कर भी नह चुकाया जा सकता।

इस ोक ारा चाण य ने स न मनु य को जन से र रहने का परामश दया है।


इसका उपाय बताते ए वे कहते ह क जन काँट के समान होते ह। इस लए या तो
उ ह जूते से मसल द या उ ह दे खकर अपना माग बदल ल। अथात् या तो जन को
बा बल ारा कुचल डाल या फर उनसे र रह।
इस ोक ारा चाण य ने शारी रक व ता और नयम-धम का वणन कया है। उनके
अनुसार—जो गंदे व धारण करते ह, जनके दाँत गंदे होते ह जो भरपेट खानेवाले, कटु
वचन बोलनेवाले तथा सूय दय एवं सूया त के समय सोनेवाले होते ह, ऐसे मनु य को
शोभा, वा य, स दय और ई र भी याग दे ते ह। ऐसा कतना भी धनवान् या उ
कुल का य न हो, सभी उससे कनारा कर लेते ह।

धन क माया को करते ए चाण य कहते ह क य द मनु य के पास धन आ जाए तो


पराए भी अपने बन जाते ह प नी, पु , बंधु-बांधव भी नेह तथ अपन व दखाने लगते ह।
ले कन य द कोई धनवान् नधन हो जाए तो अपने भी उससे र हो जाते ह। प नी, पु ,
म , सगे-संबंधी—सभी एक-एक कर उसका साथ छोड़ दे ते ह। इससे यही ात होता है
क धन मनु य का स ा हतैषी है। जसके पास धन है, सम त सुख उसके अधीन ह।

धन- ा त हेतु मनु य अनेक नीच कम करता है। ले कन चाण य ने इस कार अ जत धन


को नाशवान् कहा है। वे कहते ह क पाप और अनाचार ारा अ जत कया गया धन
अ धक-से-अ धक दस वष तक टकता है। यारहव वष उसका संपूण धन सूद समेत चला
जाता है। इसके वपरीत पु षाथ ारा ईमानदारी से कमाया धन जीवनपयत मनु य के साथ
रहता है तथा उसम नरंतर वृ होती रहती है। इस लए मनु य को पाप ारा धन अ जत
करने से बचना चा हए।
समाज म मनु य के साम य का ब त मह व है। रा के लए अमृत भी मृ यु का कारण
बना, जब क भगवान् शव ारा हण कए जाने पर वष भी अमृत बन गया। वष पीकर
भी वे जी वत रहे और नीलकंठ के नाम से स ए। अथात् जो मनु य समथ है, उसके
ारा कया गया अनु चत काय भी लोग को उ चत तीत होता है। इसके वपरीत असमथ
ारा संप उ चत काय को भी लोग संदेह क से दे खते ह। उस पर संशय कट
कए जाते ह।

ा ण को भरपेट भोजन करवाने के बाद जो शेष रहे, चाण य ने उसे ही े भोजन कहा
है। इसी कार सर से कया जानेवाला ेम ही उनक म स ा ेम है। पाप से र
रहनेवाले मनु य को ही वे बु मान मानते ह तथा पाप, अस य एवं नीच कम से बचानेवाला
धम ही स ा धम है।

य द हीरे को पैर से लटकाकर काँच को सर पर सजा लया जाए तो भी हीरे का मू य कम


नह होता। अथात् व ान् को न न ान दे कर मूख को उ ान पर बैठाने के बाद भी
व ान् का मह व कम नह होता। व ान् क तुलना व ान से क जाएगी, जब क मूख को
मूख क ेणी म ही गना जाएगा। व ान् के सम ऊँच अथवा नीच कोई अथ नह
रखता।

ान के संदभ म चाण य कहते ह क संसार ान के अथाह भंडार से प रपूण है। जीवा मा


सह ज म लेकर भी इस ान को पूरी तरह अ जत नह कर सकती। परंतु जस कार
जल- म त ध म से हंस ध का पान करके जल शेष छोड़ दे ता है, उसी कार मनु य
पी हंस को अनेक शा एवं व ा म से त व पी ध का पान कर लेना चा हए।
अथात् मनु य को अपने अ पका लक जीवन म वेद का अथ भली-भाँ त समझ लेना
चा हए।

र ान से आए अ त थय , थके-हारे प थक तथा आ य हेतु आए ए ई र के


समान होते ह। इस लए उ ह भरपेट भोजन खलाने के बाद ही मनु य को भोजन हण
करना चा हए। परंतु जो मनु य उ ह खलाए बना ही अपना पेट भर लेते ह, चाण य ने
उनक तुलना चांडाल से क है।

वेद आ द धा मक शा का अ ययन करने के बाद भी जो उनके त व ान से अन भ होते


ह, ज ह आ मा-परमा मा का ान नह होता, ऐसे मनु य आ म ान से वं चत होते ह।
चाण य ने ऐसे य क तुलना उस करछ से क है, जो रसयु शाक म घूमने के बाद
भी उसके वाद और साथकता से अन भ होती है। ऐसे अ ययन को चाण य ने थ
कहा है।

इस ोक म ा ण के मह व को दरशाते ए चाण य कहते ह क ा ण पी नाव


संसार पी समु म सदै व वपरीत दशा क ओर चलती है। इस नाव के नीचे आ य
लेनेवाले भवसागर से पार हो जाते ह, जब क नाव के ऊपर बैठे लोग समु म डू ब जाते ह।
अथात् मोह-माया से त संसार वषय-वासना क ओर धकेलता है। इसम ा ण ही
ऐसी नौका है, जो इसके वपरीत चलते ए मो क ओर अ सर होती है। ा ण को
सव प र माननेवाले, उनक सेवा करनेवाले, उनके चरण क वंदना करनेवाले तथा उनके
अनु प वहार करनेवाले मो ा त करते ह। इसके वपरीत जो मनु य वयं को
ा ण से ऊपर मानते ह, उ ह तर कृत करते ह, वे जीवन-मृ यु के च से कभी मु नह
हो पाते। उ ह बार-बार अनेक यो नय म ज म लेकर असं य क झेलने पड़ते ह।
य प चं मा को अमृत का भंडार, औष धय का वामी, अमृतमय शरीरवाला तथा
कां तयु कहा जाता है ले कन सूय के मंडल म आते ही उसका सम त तेज न हो जाता
है, वह कां त वहीन होकर अ य हो जाता है। इसी कार य द याचक बनकर कसी
के घर जाता है तो उसका मान, स मान और अहं न हो जाता है। इस लए मनु य
को पु षाथ करना चा हए, जससे याचक बनने का अवसर कभी उ प न हो।

चाण य कहते ह क परदे श म को समय और आय के अनुसार वयं को ढाल लेना


चा हए। जस कार कम लनी के प के बीच रहनेवाला भ रा उसके पराग के रस म डू बा
रहता था, कतु परदे श जाकर उसे कटसरैया के गंधहीन और वादर हत रस म ही संतोष
करना पड़ा, उसी कार परदे श जाकर मनु य को उपल भोजन से ही संतोष करना
चा हए। इससे वयं को वहाँ के अनुकूल प रव तत करने म उसे सु वधा होगी।

इस ोक म चाण य ने ी व णु और ल मी के संवाद को तुत कया है। इसके अंतगत


एक बार ी व णु ने ल मी से पूछा क आप ा ण से असंतु य रहती ह? तब
ील मी ने कहा क हे वामी! अग य मु न ने ोध म भरकर मेरे पता सागर को पी डाला
था। मह ष भृगु ने आपके व - ल पर लात मारी थी। े ा णगण मेरी अपे ा मेरी
बहन सर वती क पूजा करते ह। उमाप त शव क पूजा-अचना करने के लए वे न य मेरे
नवास- ल कमल-पु प को उजाड़ते रहते ह। यही कारण है क म ा ण से असंतु
रहती ँ।

य प यह संवाद साधारण-सा तीत होता है। ले कन इसके ारा चाण य ने कया है


क ा ण कभी धन को मह व नह दे ते। उनके लए ई र-भ से बढ़कर कुछ नह है।

चाण य ने संसार के सम त बंधन म ेम-बंधन को सबसे उ म कहा है। इस संदभ म वे


उदाहरण दे ते ए कहते ह क जो भ रा लकड़ी को भी भेदने क श रखता है, वह
सुकोमल कमल-पंखु ड़य म बंद होकर न य हो जाता है। ऐसा सफ इस लए है,
य क वह कमल-पु प से ेम करता है और उसके अ हत का भय ही उसे न य कर
दे ता है। वह कमल क सुंदरता से ेम करता है। सुंदरता समा त होते ही उसका ेम भी
समा त हो जाएगा। इस लए ेम के वशीभूत होकर वह ाण याग दे ता है।

मनु य म ज म के साथ ही वाभा वक गुण का आ वभाव होता है तथा वे मृ यु तक उसके


साथ रहते ह। इस संदभ म चाण य कहते ह क जस कार कट जाने के बाद भी चंदन
वृ क सुगंध समा त नह होती, वृ होने पर भी हाथी क काम- पपासा शांत नह होती,
को म पीसने के बाद भी ईख क मठास नह जाती, उसी कार य द उ कुल म
जनमा शील-गुण से संप मनु य धनहीन हो जाए तो भी उसक वन ता, वनयशीलता
और सदाचरण न नह होते। वह वकट प र त म भी स वहार करता है।
सोलहवाँ अ याय

वेद आ द धम-शा म कहा गया है क मनु य-जीवन अ यंत लभ है। अनेक ज म के


क भोगने के बाद ही जीवा मा को मानव यो न म उ प होने का सौभा य ा त होता है।
इस लए इस ज म को वषय-वासना म थ गँवाने क बजाय मो - ा त हेतु इसका
उपयोग करना चा हए और मनु य को मो तभी ा त हो सकता है, जब उसका लोक-
परलोक सुधर जाए। इसी उ के संदभ म चाण य ने उपयु ोक ारा लोक-परलोक
को सुधारने क बात कही है। वे कहते ह क जसने लोक को सुधारने के लए पया त धन
का सं ह नह कया, जो सांसा रक मायाजाल से मु होने के लए ई र-भ नह करता,
जसने कभी र त- या का वाद न चखा हो, ऐसे मनु य का न तो लोक म भला होता है
और न ही परलोक सुधरता है। ऐसे मनु य माता के यौवन पी वृ को कु हाड़े से काटने
का काय करते ह। अथात् उनके ज म से न तो माता को सुख ा त होता है और न ही कोई
साथक ेय मलता है। इस लए चाण य कहते ह क मनु य को इस लोक म सांसा रक
सुख का यथावत् भोग करना चा हए; ले कन साथ ही धा मक काय ारा परलोक को
सुधारने के लए भी यासरत रहना चा हए।

इस ोक ारा चाण य ने य क चंचल वृ का वणन कया है। वे कहते ह क


य का वभाव चलायमान होता है। वे बातचीत कसी से करती ह, ले कन वलासपूवक
कसी और का दशन करती ह। उनके म त क म कसी का चतन चलता है तो मन म वे
कसी और क कामना करती ह। य का ेम कसी एक के लए नह होता। इस लए
उनके ेमयु वहार को अनुराग नह समझना चा हए।
कसी सुंदर नवयुवती ारा नेहयु अथवा चंचल वहार करते दे ख जो यह समझने
लगता है क वह उससे ेम करने लगी है, वह मनु य शी ही अपना सव व खो बैठता है।
उसका वहार एक कठपुतली क तरह हो जाता है, जो उस युवती के संकेत पर नाचता
है।

य प चाण य धन के प रणाम से भली-भाँ त अवगत थे, तथा प उ ह ने धन क मह ा


और भाव को वीकार कया है। वे कहते ह क धन का नशा इतना ती होता है क उसे
पाकर बु - ववेक से यु ानवान् भी अहंकार से भर उठता है। इसके लोभ म
पड़कर मनु य को बार-बार संकट का सामना करना पड़ता है। इसके मद म चूर होकर ही
मनु य सुंदर य के संसग म पड़ जाता है। तदनंतर वे कहते ह क आज तक ऐसा कोई
ाणी नह आ, जसने मृ यु को जीत लया हो। न ही भ ुक बनकर कोई
स मा नत आ है। संसार म ऐसा कोई नह है, जसने जन य के कारण
संकट का सामना न कया हो। इस लए धनर हत होने क अपे ा धनयु होना अ धक
ेय कर है।

बुरे समय म मनु य क बु और ववेक उसका साथ छोड़ जाते ह। व ान् भी


संकट म उलझकर सोचने-समझने क श खो बैठता है। इसी संदभ म चाण य उदाहरण
दे ते ए कहते ह क संकट से घरा मनु य उसी कार ववेक-शू य हो जाता है, जस कार
वण-मृग का पीछा करते ए भगवान् राम हो गए थे। यह जानने के बाद भी क वण-मृग
नह होते, वे उसे मारने के लए उसके पीछे -पीछे दौड़ पड़े । अथात् बुरे समय म बु मान
लोग भी अनु चत काय कर बैठते ह।

इस ोक ारा चाण य ने े गुण और स र का मह व वीकार कया है। वे कहते


ह क इ ह के कारण साधारण मनु य े ता के शखर क ओर अ सर होता है। जस
कार भवन क छत पर बैठने से कौआ ग ड़ नह हो जाता, उसी कार ऊँचे आसन पर
वराजमान महान् नह होता। महानता के लए मनु य म स ण एवं स र का
होना आव यक है। इससे वह नीच कुल म ज म लेकर भी समाज म मान-स मान ा त
करता है।

धन और े गुण म से चाण य ने स ण को अ धक भावशाली और मह वपूण कहा है।


वे कहते ह क समाज म स ण ारा मनु य का स मान होता है। इसके लए चुर धन
होना या न होना कोई अथ नह रखता। जस कार पू णमा के चाँद के ान पर तीया
का छोटा चाँद पूजा जाता है, उसी कार स ण से यु मनु य नधन एवं नीच कुल से
संबं धत होते ए भी पूजनीय होता है।

चाण य क म ऐसा अवगुणी होते ए भी गुणवान् है, जसक शंसा उसक


पीठ पीछे भी क जाती है। वे कहते ह क मनु य के गुण के कारण ही वह लोग म
शंसनीय ान ा त करता है। इसके वपरीत आ म शंसा करनेवाला सा ात् इं
ही य न हो, वह उसके अनु प स मान नह ा त कर सकता। अथात् जस मनु य क
संसार शंसा करता है, वही वा तव म स मान यो य है।
जस कार र न वण म जड़कर अ यंत सुंदर हो जाता है, जब क लोहे म जड़कर
शोभाहीन तीत होता है, उसी कार ववेक मनु य का गुणवान् होना अ धक उपयु होता
है। ववेक ारा वह अपने गुण का स पयोग कर समाज के साथ-साथ अपने कुल का
क याण भी करता है। इस लए गुणवान् का ववेक होना आव यक है।

जब तक गुणी एवं ववेक को यथो चत ान ा त नह होता, तब तक वह मू यहीन


एवं तर कृत रहता है। यह त भू म म दबे हीरे क तरह है, जो उ चत आ य न मलने
के कारण तर-तु य होता है। जब उसे वण म जड़ दया जाता है, तभी दे खनेवाले उसक
शंसा करते ह। इसी कार उ चत ान ा त करने के बाद ही कसी गुणी के गुण
को समाज ारा वीकारा जाता है।

पाप-कम ारा अथवा कसी को क - लेश प ँचाकर अ जत कया धन अ भशा पत होकर


मनु य का नाश कर डालता है। इस धन के भाव से स न मनु य भी पाप क ओर
अ सर हो जाते ह। इस लए ऐसे धन से बचना चा हए, अ यथा शी ही मनु य का उसके
कुल स हत नाश हो जाएगा।

चाण य के कोण म धन उसी त म मह वपूण और उपयोगी होता है, जब वह कसी


एक के लए न होकर संपूण समाज के लए लाभकारी हो। इसी संदभ म वे कहते ह
क एक के उपयोग के लए सं चत धन एक कुलवधू क तरह केवल उसी को आनंद
दान करता है। इस लए उसका होना या न होना समाज के लए कोई अथ नह रखता।
इसके वपरीत जो धन वे या क भाँ त नगरवा सय स हत प थक को भी संतु एवं
आनं दत करता है, उसी म धन क उपयो गता है। इस लए धन को वाथ हेतु सं चत करने
के ान पर समाज-क याण हेतु योग म लाना चा हए।

उपयु ोक ारा चाण य ने कया है क मनु य धन, आयु, ी तथा भोजन-


साम ी से कभी संतु नह होता। ये जतनी भी मल जाएँ, मनु य के लए अपया त रहती
ह। मनु य अतृ त और असंतु के साथ ज म लेता है और इ ह के साथ संसार से
पलायन करता है। तृ णा का कभी अंत नह होता। यह सदै व मनु य को अशांत और
थत करती है। इस लए मनु य को इससे बचने का यास करना चा हए।

वेद आ द धा मक शा म अ , जल, व तथा भू मदान क मह ा के साथ-साथ


य , दे वय आ द अनेक परम पु यमय य का व तृत उ लेख कया गया है। ले कन
चाण य कहते ह क इनका संबंध केवल कम-फल तक सी मत होता है। जैसे ही मनु य
कम-फल ा त कर लेता है, इनका भाव न हो जाता है। इसके वपरीत कसी सुपा को
दया गया दान कभी नरथक नह जाता। उसका भाव कम-फल क ा त के बाद भी
शा त रहता है। इस लए दान केवल सुपा को दे ना चा हए।

याचक से सभी डरते ह सगे-संबंधी, म आ द भी उसका साथ छोड़ दे ते ह। अभाव त


क सहायता करने म लोग कतराते ह। इस कथन को चाण य ने उपयु ोक ारा
अ यंत सुंदर ढं ग से तुत कया है। वे कहते ह क संसार म सबसे हलका तनका होता है,
जब क तनके से भी हलक ई है। ले कन याचक इन दोन से हलका होता है। य प वायु
का एक हलका-सा झ का भी तनके और ई को उड़ाकर ले जाता है, परंतु तेज चंड वायु
भी याचक को नह उड़ा पाती। इसके पीछे का तक दे ते ए चाण य कहते ह क याचक
कह कुछ माँग न बैठे, यही सोचकर वायु भी अपना ख मोड़ लेती है-अथात् याचक सभी
ारा तर कृत होता है।

चाण य ने अपमान को मृ यु से भी अ धक पीड़ादायक और अ हतकारी बताया है। वे कहते


ह क जी वत रहने क अपे ा अपमा नत का मर जाना अ धक उपयु है।
अपमा नत ण- त ण अपमान का कड़वा घूँट पीता है समाज उसे घृणा क
से दे खता है सगे-संबंधी एवं म आ द उसके साथ नीच वहार करते ह। यहाँ तक क
उसक प नी एवं पु आ द भी उससे कतराने लगते ह। ऐसे जीवन से स मा नत मृ यु
अ धक सुखमय होती है।

मधुर वचन मन को ह षत करनेवाले तथा परम सुखदायक होते ह। मधुर वचन बोलकर
मनु य श ु को भी अपना बना सकता है। उपयु ोक ारा चाण य ने भी इसके
मह व को वीकार कया है। वे कहते ह क मनु य को सदै व मीठे वचन बोलने चा हए। मृ
वाणी सबको स और आनं दत कर दे ती है। मीठा बोलने के लए कुछ य नह करना
पड़ता। इस लए कड़वे वचन यागकर मीठ बोली अपनाएँ। संसार पर वजय ा त करने
का यह अचूक मं है।

संसार को कटु वृ के प म ा पत कर चाण य कहते ह क इस वृ पर सुसं कृत


भाषा और संतजन क संग त के प म दो मीठे और अमृतदायक फल लगते ह। सुसं कृत
भाषा ारा जहाँ एक ओर सबके दय को जीता जा सकता है, वह सरी ओर संत-
महा मा क संग त को भी स न मनु य म प रव तत कर दे ती है। इस लए मनु य
को इन दोन फल का सेवन अव य करना चा हए।
अ े सं कार पूवज म से जुड़े होते ह। दान, व ा, संयम, शील आ द जैसी अ आदत
अनेक पछले ज म से लगातार चलती भा यवश वतमान ज म म भी मलती ह। इन
स ण का लाभ उठाकर जीवन साथक करना चा हए।

इस ोक ारा चाण य ने व ा और धन क मह ा क है। वे कहते ह क पु तक


म व णत ान और सर के पास गया धन आव यकता पड़ने पर कभी काम नह आता।
संकट म केवल वही धन उपयोग म आता है, जो मनु य के पास सं चत होता है। इसी कार
व ा को वहार म उतारनेवाला व ाथ ही जीवन म उसका उ चत लाभ उठा सकता है।
इस लए मनु य को संकट के समय के लए धन का सं ह अव य करना चा हए।
व ा थय को चा हए क वे अ जत व ा को पु तक तक सी मत न रहने द। जहाँ तक
संभव हो सके, जीवन म उसका स पयोग कर।
स हवाँ अ याय

कसी भी व ा को भली-भाँ त सीखने तथा उसम अ य त होने के लए गु क


आव यकता होती है। य द श द म कहा जाए तो गु बना ान संभव नह है। इसी
अ त ाचीन उ का चाण य ने उपयु ोक ारा समथन कया है। उनके अनुसार, गु
को यागने वाला मनु य उस अनाचारी ी क तरह होता है, जसे समाज म तर कृत
कया जाता है। पु उ प करने पर भी वह मातृ व के गौरव से वं चत रहती है। जो मनु य
गु का आ य छोड़कर व ाजन हेतु इधर-उधर भटकता है, य द वह कह से ान अ जत
कर ले तो भी व ान क सभा म उपहास का पा बनता है। ऐसा मनु य ानवान् होकर
भी समाज म स माननीय नह होता।

'जैसे को तैसा'-चाण य इस उ के समथक थे। उनका मानना था क या क


त या अव य होनी चा हए। अथात् एक मनु य के साथ सरा मनु य जैसा वहार
करता है, त या व प उसे उस मनु य के साथ वैसा ही वहार करना चा हए। इसे
व तृत प म समझाते ए चाण य कहते ह क जो मनु य आपके साथ स वहार करे,
आप भी उसके साथ उसी कार का वहार कर। ले कन जो मनु य आपका बुरा करना
चाहता है, उसका यु र बुराई से ही दे ना चा हए।

उपयु ोक म चाण य ने म पी तप का वणन कया है। वे कहते ह क जो व तु


मनु य के लए असा य है, उसक सीमा से परे है, उसे तप अथात् अथक प र म करके
ा त कया जा सकता है। म क श असी मत होती है इसके बल पर असंभव भी
संभव हो जाता है। इस लए मनु य को प र म से कभी जी नह चुराना चा हए; अ पतु
जतना संभव हो सके, अथक प र म करके अपने जीवन को सुखमय बनाएँ।

इस ोक म चाण य संबो धत करते ए कहते ह क य द मनु य लोभी है तो उसे जन


क कोई आव यकता नह होती, य क लोभ ही उसका सबसे बड़ा श ु होता है, जो उसे
नाश क ओर धकेलता है। नदक एवं चुगलखोर को पातक से कुछ लेना-दे ना नह होता।
नदा-कम करके वे वयं पातक का काय संप करते ह। स य से बड़ा कोई तप नह होता।
स य का तेज दे ह के सभी वकार न कर डालता है। इस लए जीवन म स य धारण
करनेवाले को तप क कोई आव यकता नह होती। य द मनु य का मन मैला तथा अप व
है तो तीथ-या करके भी उसका कलु षत दय प व नह होता। इसके वपरीत जसका
दय प व और शु है, उसे तीथ-या क आव यकता ही नह होती। दय म नेह हो तो
सम त गुण उसके सम गौण ह, जब क यश के सम आभूषण क चमक भी ीण है।
व ा अ जत करने के बाद मनु य जीवन के स य को जान लेता है। आ मा-परमा मा का
भेद तथा -दशन उसके लए सहज हो जाते ह। ऐसा मनु य सांसा रक मायाजाल से
मु हो जाता है। इस लए उसे वषय-वासना म धकेलनेवाले धन क कोई आव यकता
नह होती। इसी कार अ व पल- तपल क एवं पीड़ा से मरता है। ऐसे
के लए मृ यु ही एकमा उपचार है। इस लए उसे मृ यु से भयभीत नह होना चा हए।

शंख (शंखचूड़) और ल मी-दोन ही र नाकर सागर क संतान माने जाते ह। ले कन इसम


से एक धन-वैभव से यु होकर संसार म पूजनीय है तो सरा साधु-संत के साथ-साथ
भ ाटन के लए भटकता रहता है। ऐ य-वैभव से यु ल मी का भाई होने के कारण भी
शंख नधन एवं संसार से वर साधु के साथ भ ा माँगता है। दान-द णा र हत
जीवनयापन के कारण ही मृ यु उपरांत शंख को याचक बनना पड़ा। इस लए चाण य
सचेत करते ए कहते ह क अपनी व ा को साथक बनाए रखने के लए मनु य को
यथासंभव दान करते रहना चा हए। इससे लोक और परलोक म उसका भला होता है।

मनु य का वभाव आकाश म उड़ते प ी के समान होता है। ले कन पंख न होने क


ववशता उसे जमीन पर चलने के लए बा य कर दे ती है। इसी ववशता को चाण य ने
मनु य के लए उपयोगी माना है। वे कहते ह क ववशता मनु य और उसके आचरण को
पथ होने से रोकती है। श का अभाव मनु य को चारी बनने के लए ववश कर
दे ता है धन का अभाव मनु य को साधु-संत तथा रोग त को ई र-भ बना दे ता है।
वृ ाव ा क ववशता से ही ी प त ता बन जाती है। इसी संदभ म चाण य आगे कहते
ह क य द मनु य बना ववश ए ऐसा आचरण अपनाए तो उसक मह ा और बढ़
जाएगी।

चाण य ने दान को सबसे उ म और परम क याणकारी कहा है। ले कन इसम भी वे अ


और जल के दान को अ धक उपयु और े फलदायक मानते ह। वे कहते ह क भूखे
को भोजन करवाना और यासे को जल पलाना परम पु यदायक है। इस लए धन क
अपे ा मनु य को अ -जल का अ धक दान करना चा हए। धा मक शा का अनुसरण
करते ए चाण य ने भी ादशी क त थ क म हमा वीकार क है। उनके अनुसार, इस
दन कया गया त-जप-तप-दान े फल दान करनेवाला होता है। इसी कार मं म वे
गाय ी मं को सव े और सम त कामना को पूण करनेवाला मानते ह। वे कहते ह क
मनु य को न य गाय ी मं का जाप अव य करना चा हए। इससे जीवन क सम त
बाधाएँ न हो जाती ह।

उपयु ोक म चाण य ने जन क तुलना वषैले जीव से क है। वे कहते ह क


जस कार सप, मधुम खी तथा ब ू वष से यु होते ह, उसी कार जन भी
भयंकर वष से प रपूण होता है। अंतर केवल इतना है क सप का वष उसके दाँत म,
मधुम खी का म तक म तथा ब ू का पूँछ म होता है जब क जन क संपूण दे ह
वषयु होती है। उसके संपक म आनेवाला कोई भी उसके भाव से बच नह
सकता। इस लए मनु य को जन से र रहना चा हए।

प त-आ ा और प त ता धम को चाण य ने य का आभूषण कहा है। वे कहते ह क


जो ी प त क छोट -से-छोट आ ा का भी पालन करती है, उसका लोक-परलोक सुधर
जाता है। इसके वपरीत य द वह प त क आ ा के बना त-उपवास आ द भी करती है तो
प त क अकाल मृ यु का कारण बनती है। ऐसी य को मृ यु के बाद नरक क घोर
यातनाएँ भोगनी पड़ती ह। इस लए प नी को प त क आ ा और प त ता धम—दोन का
यथावत् पालन करना चा हए; यही प नी-धम है।

प त-सेवा सम त शुभ कम से बढ़कर होती है। इसी बात को चाण य ने उपयु ोक म


कया है। वे कहते ह क जो ी प त ता-धम का पालन करते ए प त-सेवा म
नरंतर लीन रहती है, उसे दान, त, तीथ-या तथा प व न दय म नान करने क कोई
आव यकता नह होती। व तुतः प त-सेवा पी तप म वयं को सम पत कर वह परम
प व हो जाती है।

इस ोक ारा चाण य ने मनु य को बा आडं बर को यागकर आ म-संतु के लए


े रत कया है। वे कहते ह क जस कार हाथ क शोभा आभूषण, कंगन आ द धारण
करने से नह अ पतु दान करने से बढ़ती है चंदन के लेप क अपे ा नान ारा शरीर क
शु होती है; मान सक तृ त भोजन म नह अ पतु मान-स मान म न हत होती है तथा
मो क ा त तलक लगाने या भगवे व धारण करने क अपे ा ान से होती है, ठ क
उसी कार बाहरी दखावे या वषय-वासना म डू बने से मन शांत और प व नह होता,
इसके लए आंत रक संतु आव यक है। और यह केवल परोपकार, स दयता,
स र ता एवं दान म न हत होती है।

जो मनु य नाई के घर जाकर हजामत बनवाते ह, प र क दे व- तमा पर चंदन का लेप


लगाते ह या जल म अपनी परछा दे खते ह, चाण य ने उ ह ानवान् होते ए भी बु हीन
कहा है। उनके अनुसार, ऐसे अपने मान-स मान को वयं ही न कर डालते ह।

इस ोक ारा चाण य कहते ह क जस कार तुंडी (मादक फल) का सेवन बु का


नाश करता है तथा वचा (बच) बु का वकास करती है, उसी कार नारी मनु य क श
हरण करती है तथा ध का सेवन श म वृ करता है। इस लए मनु य को नारी के साथ
अनाव यक या अ य धक संसग से बचना चा हए।

चाण य के अनुसार मनु य को परोपकार क भावना से प रपूण होना चा हए। परोपकार म


ही मनु य का आ म-क याण न हत होता है। जनका दय परोपकार से भरा आ है, उ ह
कभी वप य का सामना नह करना पड़ता। उनके माग क सम त बाधाएँ अपने आप
न हो जाती ह और वे कदम-कदम पर सफलता ा त करते ह। परोपकार से यु मनु य
ःखर हत होकर सुखमय जीवन तीत करता है। इस लए मनु य को यथासंभव परोपकार
करते रहना चा हए।
सदाचा रणी एवं प त ता प नी, स ण से यु पु -पौ तथा आव यकताएँ पूण करने हेतु
पया त धन—मनु य-जीवन को सुखमय बनाने के लए चाण य ने उपयु तीन को
मह वपूण माना है। वे कहते ह क य द मनु य को ये तीन चीज मल जाएँ तो उसके लए
उसका घर ही वग के समान हो जाएगा। फर उसे कसी और वग क कोई इ ा नह
रहेगी।

संसार के सभी जीव क तरह मनु य भी उदर-पोषण, भय, न ा, संभोग तथा संतानो प
क याएँ करता है। य द इस से दे खा जाए तो पशु और मनु य म शारी रक
संरचना के अ त र कोई वशेष अंतर नह होता। ले कन केवल आचरण ही मनु य को
पशु से े स करता है। इसम भी धमाचारण अ यंत मह वपूण है। जो धम-कम और
नै तक गुण से यु है, वा तव म वही मनु य कहलाने का अ धकारी है। इसके वपरीत
इनसे र मनु य पशु-तु य होता है।

जस कार बु हीन हाथी ारा मद क कामना से आए भ र को अपने कान क चोट से


उड़ा दे ने पर भ र को कोई फक नह पड़ता, वे पुनः कमल-वन म चले जाते ह, जब क हाथी
के गंड ल (हाथी का ललाट) क शोभा न हो जाती है, उसी कार य द कोई जन
कसी याचक को भगा दे तो इससे याचक को कोई फक नह पड़ता। वह कसी और घर से
भ ा ा त कर लेता है। ले कन तर कृत याचक पुनः जन के पास नह जाता। इससे
उसका यश कलं कत होता है। इस लए मनु य को ऐसी वृ से बचना चा हए।
राजा, वे या, यम, अ न, त कर, बालक, याचक और ाम कंटक (गाँववा सय को परेशान
करनेवाले) इन आठ ा णय का वणन करते ए चाण य कहते ह क ये आठ सरे मनु य
के ःख एवं संताप को नह जानते। इनक वृ अपने मन के अनुसार काय करने क
होती है। इस लए मनु य को इनसे दया क अपे ा नह करनी चा हए।

मनु य को कभी कसी असहाय एवं पी ड़त का उपहास नह उड़ाना चा हए, य क


यह त उसके साथ भी घ टत हो सकती है। इस कथन को उपयु ोक ारा चाण य
ने कया है। एक उ ं ड युवक ने हँसते ए एक वृ ा से पूछा क 'हे बाले! तुम नीचे
या ढू ँ ढ़ रही हो?' उसके ं य भरे वर को सुनकर वृ ा ने कहा क 'इस बुढ़ापे के कारण
मेरा यौवन पी मोती नीचे गर गया है, म उसे ही ढू ँ ढ़ रही ँ।' इस संदभ म चाण य कहते
ह क मनु य को एक-न-एक दन अव य वृ ाव ा झेलनी पड़ती है। इस लए कसी सरे
का उपहास उड़ाने क वृ पर अंकुश लगाना चा हए।

कभी-कभी अनेक अवगुण पर एक गुण भी भारी पड़ जाता है। केवल एक गुण के कारण
ही अवगुणी होते ए भी मनु य समाज म मान-स मान ा त कर लेता है। इस संदभ म
चाण य केतक (केवड़े ) का उदाहरण दे ते ह। वे कहते ह क केतक के वृ पर सप नवास
करते ह, उसक संरचना टे ढ़ -मेढ़ होती है तथा क चड़ ही उसका नवास- ान है ले कन
फर भी वह अपनी सुगंध से सम त मनु य को वशीभूत कर लेती है। केवल एक यही गुण
उसके सम त अवगुण को छपा लेता है, इसी कार भले ही मनु य जन क संग त
करता हो भयानक एवं कु प हो या नीच कुल म जनमा हो ले कन य द उसम बु - ववेक
का गुण है तो वह अवगुण से यु होते ए भी व ान क सभा म स मा नत होता है।
Published by
Prabhat Prakashan
4/19 Asaf Ali Road,
New Delhi-110 002 (INDIA)
e-mail: prabhatbooks@gmail.com

ISBN 978-93-5048-904-8

Chanakya Neeti
by Granth Akademi

Edition
First, 2014

You might also like