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यान

अनुवादक
हरीश, श

मू य : एक सौ प चीस पये (Rs. 125.00)


सं करण : 2008
ISBN : 978-81-7028-723-0

Dhyaan
Hindi translation of ‘Meditations’ Author : J. Krishnamurti
Translated by Harish, Shakti
For the original English Text
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Bramdean, Hampshire SO24 0LQ, England
For the Hindi Transslaiton
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यान

जे. कृ णमू त

संकलन : ईव लन लाउ
ा कथन

जब ‘मे डटे श ज़’ 1979 म पहली बार का शत ई थी, तो यह सामने आया था क कृ णमू त के ब आयामी
लेखन से क तपय अनु छे द उ त करना तथा एक ही वषय व उससे संब उ रण तक कसी पु तक को सी मत-
क त कर दे ना कहां तक उपयु होगा? यह कहा गया क ऐसे उ रण न त प से उनक श ा क
संपूणता व गंभीरता को भा वत करगे। आ खरकार, कृ णमू त अपने जीवनकाल (1895-1986) म कभी भी
कसी एक वषय को क बनाकर नह बोले, अ पतु उ ह ने ब त सारी वषय-व तु के धाग से एक वशाल च -
गलीचा बुना। या अ ययन-अवलोकन के लए उसम से एक धागा नकाल लेना ठ क होगा, और वह भी उ रण
के अथात उस धागे के अंश के प म? बरस-दर-बरस कृ णमू त क श ा के अवगाहन से यह बात
अ धका धक प होती जाती है क उनम यान का सभी संदभ से जुड़ा है। इससे कोई अंतर नह पड़ता क
कस वषय पर चचा हो रही है, कतु उस वषय के बोध के लए एक ऐसे मन क अप रहायता क बात क गई है,
जो ात से, अतीत पर आधा रत अटकल -अनुमान से मु है। कृ णमू त कहते ह क केवल ऐसा मन ही, एक
यानपूण मन ही जीवन के व वध जैसे क भय, ं , संबंध, ेम, मृ यु और वयं यान म भी गहरे पैठ पाता
है। इस प रव त सं करण म जो संकलन है, वह वाता , लेखन तथा डायरी के प से उ त है, जनम से कुछ
का काशन पहले कभी नह आ है। ये वचन उस अद्भुत अ भ वाह का त न ध संकलन ह जससे यह
सु प होता है क जे. कृ णमू त के जीवन म यान का कतना गहन मह व था।
आमुख

मनु य ने अपने संघष से पलायन करने के लए अनेक कार के यान का आ व कार कर लया है। इन सब का
आधार है अभी सा, संक प एवं उपल ध क उ कंठा, और इनम न हत है ं तथा कह प ंचने के लए संघष।
जान-बूझकर और सोच-समझकर कया जाने वाला यह यास हमेशा सं कारब मन क सीमा म ही होता है,
और इसम कोई वातं य नह है। यान करने क सारी चे ा और सारा आयोजन यान का नषेध है।
यान का अथ है वचार का अंत हो जाना। और तभी एक भ आयाम कट होता है जो समय से परे है।

माच, 1979 —जे. कृ णमू त


यानपूण मन शांत होता है। यह मौन वचार क क पना और समझ से परे है। यह मौन कसी न त ध सं या
क नीरवता भी नह है। वचार जब अपने सारे अनुभव , श द और तमा स हत पूणतः वदा हो जाता है, तभी
इस मौन का ज म होता है। यह यानपूण मन ही धा मक मन है—धम, जसे कोई मं दर, गरजाघर या भजन-क तन
छू भी नह पाता।

धा मक मन ेम का व फोट है। यह ेम कसी भी अलगाव को नह जानता। इसके लए र नकट है। यह न एक


है न अनेक, अ पतु यह ेम क वह अव था है जसम सारा वभाजन समा त हो चुका होता है। स दय क तरह इसे
भी श द ारा नह मापा जा सकता। इस मौन से ही एक यानपूण मन का सारा याकलाप ज म लेता है।
यान जीवन क महानतम कला म से एक है—ब क शायद यही महानतम कला है। यह कला संभवतः सरे
से नह सीखी जा सकती—और यही इसका स दय है। यान क कोई तकनीक और तरक ब नह होती, इस लए
इसका कोई अ धकारी और दावेदार भी नह होता। जब आप वयं का नरी ण करते ए अपने बारे म सीखते ह,
अथात कस तरह आप खाते-पीते ह, कस ढं ग से आप चलते- फरते ह, या बातचीत और गपशप करते ह,
आपका ई या करना, नफरत करना—जब आप अपने भीतर और बाहर क इन सारी चीज़ के त सजग और
सचेत होते ह, बना कसी काट-छांट के, तो यह यान का ही अंग है।

और यह यान हर जगह और हर समय हो सकता है : जब आप कसी बस म बैठे ह या जब आप धूप और छाया


से प रपूण कसी वन थली म टहल रहे ह या जब आप प य के कलरव-गान को सुन रहे ह या जब आप अपनी
प नी या अपने ब चे के चेहरे को दे ख रहे ह ।
यान का सहसा सवा धक मह वपूण हो जाना कतना अद्भुत और व च है! यान— जसका न आ द है न
अंत। यह वषा क एक बूंद के समान है। इसी बूंद म छपी ह सारी क सारी न दयां और जलधाराएं, इसी म समाये ह
बड़े से बड़े समु और जल- पात। जल क यह बूंद पृ वी को भी पोषण दे ती है और मानव को भी। इसके बना तो
यह धरती रे ग तान बन जाती! यान के बना हमारा दय भी ऊसर-बंजर और म थल हो जाता है।
यान का अथ यह पता लगाना है क अपनी सारी ग त व धय और अपने सारे अनुभव समेत म त क या
पूणतः शांत हो सकता है। बा य होकर नह , य क जस ण आप इसे बा य करते ह, फर से ै त आ खड़ा होता
है, और वह स ा भी, जो कहती है, “अद्भुत अनुभू तय के जगत म वेश के लए मुझे अपने म त क को
नयं त कर शांत कर लेना चा हए”—ऐसा कभी संभव नह होगा। ले कन अगर आप वचार क सारी खोज और
ग त व धय को, इसके भय, सुख और सं कार को दे खने, सुनने और समझने लग जाय, अगर आप अपने
म त क का नरी ण करने लग जाय क यह कस तरह काय करता है, तो आप दे खगे क म त क असाधारण
प से शांत, मौन हो जाता है। यह शां त न ा नह है ब क यह चंड प से स य है और इसी लए शांत है।
व ुत उ प करने वाला एक बड़ा यं जब अ छ तरह काय करता है तो इससे शायद ही कोई व न नकलती हो।
व न और शोर-गुल तभी पैदा होता है जब कह घषण होता है।
मौन और व तार का आपसी मेल है। मौन क अनंतता उस मन क अनंतता है जसके भीतर का क मट चुका
है।
यान क ठन प र म है। इसके लए आव यक है सव च ढं ग का अनुशासन; नयमब ता नह , अनुकरण और
आ ापालन भी नह , ब क ऐसा अनुशासन जो सतत सजगता से उ प होता है, सजगता न केवल अपने बाहर क
ब क भीतर क अव था- व था के त भी। इस तरह यान एक अलगाव क या नह है ब क वह हमारे
त दन के जीवन म एक ऐसी याशीलता है जसके लए सहयोग, संवेदनशीलता और ा आव यक है। सही
जीवनचया क न व रखे बना यान महज एक पलायन बन जाता है और इस लए इसका कोई भी मू य नह है।
सही जीवनचया का अथ सामा जक नै तकता का अनुसरण नह है ब क इसका अथ है ई या, लोभ एवं स ा क
लालसा से मु — य क ये चीज़ मनी, वैमन य पालती ह। और इनसे मु संक प या इ छाश नह दला
सकती, ब क आ म प रचय क या म इन तमाम चीज़ के त सजग होने से ही यह मु संभव है। ‘ व’ क
या और ग त व धय को जाने बना यान य उ ेजना बन जाता है और इस लए इसका मह व न के बराबर
रह जाता है।
हमेशा अ धका धक वृहत्, गहरी और भावातीत अनुभू तय क तलाश म रहना ‘जो है’ उसक वा त वकता से,
उसके यथाथ से एक तरह का पलायन है; ‘जो है’ यानी जो हम ह—हमारा अपना सं कारब मन। वह मन जो
जा त, ावान और मु है, उसे कसी अनुभू त क भला या आव यकता हो सकती है! वह इसे लेकर करेगा
या! काश तो काश है, यह अ धक काश क मांग नह करता।
यान अ य धक असाधारण और अद्भुत चीज़ म से एक है। और अगर आपको पता नह है क यह या है, तो
आप जगमगाते रंग , झल मलाते काश और छाया के जगत म जीनेवाले एक अंधे के समान ह। यह कोई
बौ क संग नह है। जब दय मन के भीतर वेश करता है, तो मन क गुणव ा ब कुल भ हो जाती है। तब
मन व तुतः असीम होता है, न केवल अपने सोचने- वचारने और काय करने क मता म ब क एक अनंत व तार
म जीने के अथ म भी, जहां आप हर चीज़ का ह सा होते ह।

यान ेम का पंदन है। यह एक या अनेक का ेम नह है। यह जल के समान है जसे कोई भी पी सकता है। यह
जल सोने के पा म रखा हो या म के, ले कन यह कभी ख म होने वाला नह है। और एक व च घटना घटती है
जसे कसी मादक या आ मस मोहन ारा पैदा नह कया जा सकता। कुछ ऐसा घ टत होता है मानो मन वयं
अपने ही भीतर वेश करने लगा हो, सतह से चलकर तब तक अपने भीतर गहरे-से-गहरे उतरता चला जाए जब
तक गहराई और ऊंचाई अपना अथ न खो द और हर तरह क सीमा समा त न हो जाए। इस अव था म पूण शां त
वराजती है— संतोष नह जो इ छापू त से ा त होता है ब क एक ऐसी शां त जसम स दय, व था और
गहनता है। और यह कोमल औरनाजक इतना है क इसे आप एक फूल क तरह मसलकर न कर द, परंतु यह
अपनी असुर ा और सुकुमारता के कारण ही अन र और अ वनाशी है। यह यान सरे से नह सीखा जा
सकता। आप इसके बारे म कुछ नह जानते, यह से करनी होगी शु आत, और तब या ा करनी होगी नद षता से
नद षता क ओर।

इस यान का पौधा जस म म लगता है वह है हमारा त दन का जीवन और इसक पीड़ा, इसका संघष और


खुशी के गने-चुने ण। एक यानी मन को अपने यान क शु आत यह से करनी चा हए और इसम व था
लाकर फर एक अनंत या ा पर नकल पड़ना चा हए। ले कन अगर आप केवल व था लाने म लगे रहे, तो यह
व था ही अपने चार ओर एक चारद वारी खड़ी कर लेगी जसम आपका मन कैद होकर रह जायेगा। इस लए
या ा का आरंभ आपको कसी-न- कसी तरह सरे छोर से, सरे कनारे से करना होगा, न क सदा इसी कनारे पर
खड़े रहकर इस उधेड़बुन म रह क नद कैसे पार कर। तैरना न जानते ए भी आपको पानी म कूद पड़ना चा हए।
और यान का स दय ही यही है क आपको कभी पता ही नह चलता क आप कहां ह, कहां जा रहे ह, ल य या
है।
यान दै नक जीवन से कोईभ घटना नह है। यान का अथ यह नह है क आप एक कोने म जाकर बैठ जाय,
दस मनट यान कर और बाहर आकर एक कसाई बन जाय—ला णक प से भी और वा तव म भी।
अगर आप सोच-समझकर यान करना आरंभ करते ह, तो यह यान नह है। इसी तरह अगर आप अ छा बनना
आरंभ करते ह, तो आपम अ छाई का फुटन कभी नह हो पाएगा। अगर आप वन ता का वकास करते ह, तो
यह वदा हो जाती है। यान तो एक बयार है, जो आपक खड़क खुली रहने पर अनायास भीतर वेश कर जाती
है, ले कन अगर आप जान-बूझकर खड़क खुली रखते ह और आ हपूवक इसे आमं त करते ह, तो इसका कभी
आगमन नह होगा।
यान कसी सा य का साधन नह है। यह सा य और साधन दोन है।
कतनी असाधारण और अद्भुत चीज़ है यह यान! वचार को कसी सांचे म ढालने क कसी भी तरह क
को शश, ज़ोर-ज़बरद ती थका डालने वाली होती है। मौन जब चाह का वषय बन जाता है, तो उसम बोध उ प
करने क मता समा त हो जाती है। अगर आपका मौन द और अलौ कक अनुभू तय क एक खोज है, तो यह
आ म-स मोहन और म क ओर ही ले जायेगा। वचार का फुटन और उसका अंत—और इसी म क त है
यान का मह व। और वचार का फुटन वतं ता म ही संभव है, ान के अनंत व तार म नह । ान भले ही
बड़ी-से-बड़ी उ ेजना पैदा करने वाले नये अनुभव को ज म दे , ले कन वह मन जसे कसी भी कार के अनुभव
क तलाश है, अभी अप रप व ही है। प रप वता सम त अनुभव से मु है; होने और न होने म इसे अब कुछ भी
भा वत नह कर सकता।

यान म प रप वता का अथ है, मन को ात से मु करना, य क ात ही सम त अनुभव का नयंता और


नयं क है। वह मन जो अपनी यो त आप है, उसे कसी अनुभव क आव यकता नह है। अ धक-से-अ धक
ापक और वृहत् अनुभव क चाह अप रप वता का ही ल ण है। यान का अथ है ात के जगत से गुज़रकर
इससे मु हो जाना और अ ात म वेश कर जाना।
अपने लए कसी भी स य क खोज को वयं करनी है— कसी और के सहारे नह । अब तक हम पर
गु , मागदशक और मु दाता क स ा हावी रही है। ले कन अगर आप सचमुच यह जानना चाहते ह क
यान या है, तो आपको पूण प से सम त स ा- ामा य को एक ओर हटा दे ना पड़ेगा।
सुख- वलास और खु शयां आप कसी भी बाज़ार म मू य चुकाकर खरीद सकते ह, कतु आनंद कदा प नह —न
अपने लए, सरे के लए। खु शयां और सुख तो समय के गुलाम ह। आनंद का अ त व केवल सम मु म है।
सुख हो या खु शयां, अनेक रा ते ह उ ह खोजने और पाने के। ले कन वे आते ह और चले जाते ह। परम आनंद
आ ाद का एक अप र चत बोध है और उसके पीछे कोई उ े य नह होता। आप संभवतः इसे खोज नह सकते।
एक बार इसका आगमन हो जाए, जो व तुतः आपके मन क गुणव ा पर नभर है, तो यह बना रहता है—समय
और कारण से परे, य क समय इसक थाह नह ले पाता। यान सुख का अनुसरण या खु शय क खोज नह है।
इसके उलट, यान मन क ऐसी अव था है जसम कोई धारणा या सू नह होता, ब क सम मु होती है। और
केवल ऐसे मन म उस आनंद का आगमन होता है—अनायास और अक मात। एक बार उसका आगमन हो जाये,
फर आप भले ही संसार म रह—इसके सम त सुख, ू रता और कोलाहल के बीच—ले कन ये मन का पश तक
नह कर पाएंगे। एक बार इसका आगमन हो जाये, तो ं समा त हो जाता है। ले कन ं का अंत अ नवायतः
सम मु नह है। और, ऐसी मु म मन का जीना ही यान है। आनंद का यह व फोट आंख को नद ष और
न कपट बना दे ता है। और ेम तब साद और आशीष क वषा है।
पता नह आपने कभी याल कया है या नह क जब आप पूरी तरह से यान दे ते ह, तो पूण मौन होता है। उस
अवधान, उस होश म कोई सीमा नह होती, ‘म’ जैसा कोई क नह होता जो सजग या सावधान हो। वह होश, वह
मौन यान क ही अव था है।
हम शायद ही कसी रोते ए ब चे या भ कते ए कु े क आवाज़ को या नकट से गुज़रते ए कसी क
हंसी को यानपूवक सुनते ह । हम अपने को हर चीज़ से अलग कर लेते ह, और इसी अलगाव से हम हर चीज़ को
दे खते और सुनते ह। यह अलगाव अ यंत वनाशकारी है, इस लए क यही तो ं और अशां त क जड़ है। अगर
आप पूण मौन के साथ घंट के बजने क उस व न को सुन, तो आप उस पर सवार होकर या ा करने लगगे—
ब क व न वयं आपको अपने साथ बहाकर घाट के उस पार और पहाड़ी के ऊपर ले जायेगी। इसके स दय का
अनुभव तभी होता है जब व न और आप अलग नह ह—अथात जब आप उसी का एक ह सा ह। यान पृथकता
और अलगाव का अंत है— कसी संक प, इ छा या या ारा नह , कसी अनचखे सुख क तलाश के ज़ रये नह ।

यान व तुतः जीवन से कुछ अलग नह है। यह जीवन का ही सार है, त दन के जीने का ही नचोड़ है। र कह
बजती उन घं टय को यानपूवक सुनना, अपनी प नी के साथ राह चलते उस कसान क उ मु हंसी को सुनना,
साइ कल पर भागी जा रही उस छोट -सी लड़क के घंट बजाने को यानपूवक सुनना— यान जीवन का यह
सम त प है, इसका एक खंड मा नह । ऐसा यान आपको जीवन क सम ता के त उ मुख कर दे ता है।
‘जो है’ उसे दे खना और उसके पार चले जाना ही यान है।
श द के बना दे खना अथात न वचार अवलोकन अ यंत वल ण घटना म से एक है। य क तब अवलोकन
अ य धक ती और सघन होता है—अवलोकन क इस या म न केवल म त क ब क सारी इं यां भाग लेती
ह। यह अवलोकन बु ारा कया गया आं शक और खं डत अवलोकन नह है, न ही यह कोई भावना का
मामला है। इसे सम अवलोकन कहा जा सकता है, और यह यान का अंग है। यान म बोधकता से र हत बोध
असीम क ऊंचाई और गहराई के साथ होने वाला संवाद है। यह बोध कसी व तु को ‘ ा के बना दे खने’ क
या से सवथा भ है, य क यान के बोध म न कोई वषय होता है और इस लए न कोई अनुभव। ले कन यान
तब भी घ टत हो सकता है जब आंख खुली ह और आप तमाम तरह के य से घरे ह । हालां क तब ये य और
व तुएं कोई मह व नह रखत । आप उ ह दे खते ह, ले कन यह दे खना पहचानने क या नह है। इसका अथ है
क वहां कुछ अनुभव नह कया जाता।

ऐसे यान का या अथ है? कोई अथ नह है; कोई उपयो गता नह है। कतु उस यान म परम हष और आ ाद का
पंदन है, जसक तुलना सुख से, मनो वलास से नह क जा सकती। यह आ ाद म त क को, दय को एवं
आंख को नद षता क गुणव ा दान करता है। जीवन को जब तक सम तः एक नयी घटना क तरह नह दे ख
लया जाता, तब तक यह बंधी-बंधायी दनचया, ऊब और एकरसता का एक नरथक सल सला बना रहता है।
अतः यान का मह व महानतम है। यह असीम और अनंत क ओर ार खोल दे ता है।
यान समय के आयाम के भीतर कतई नह है। समय उ ां त को ज म नह दे सकता। समय केवल ऐसा
बदलाव ला सकता है जसम पुनः फेर-बदल क आव यकता पड़ती है—सभी सुधार का यही हाल होता है।
समयज य यान केवल बंधन न मत कर सकता है, मु नह । और मु के बना चयन और ं सदै व बना रहता
है।
हम समाज क संरचना को बदलना होगा। इसम ा त अ याय, वकृत नै तकता, यु , मनु य और मनु य के बीच
पैदा कये गये वभाजन, नेह और ेम का सवथा अभाव— यही सब व के वनाश का कारण है। अगर यान
केवल आपका गत मामला है, एक ऐसी चीज़ है जो आपके गत सुख और मौज का साधन है तो यह
यान नह है। यान का अथ है, दय और मन का आमूल प रवतन। यह तभी संभव है जब आंत रक मौन का वह
असाधारण एहसास हो—और यही एहसास धा मक मन को ज म दे ता है। ऐसा मन उसे जानता है जो परम पुनीत
है।
हम साथ-साथ यह अ वेषण कर रहे ह क या आप और म इसी ण पूरी तरह बदल सकते ह तथा एक सवथा
व भ आयाम म वेश कर सकते ह—और इसम यान क भू मका है। यान एक ऐसी थ त है जो अ य धक
ा, संवेदनशीलता, ेम और स दय के साम य क मांग करती है—यह कसी गु ारा आ व कृत कसी णाली
का अनुसरण मा नह है।
यान करने का अथ है, समय के त अबोध हो जाना।
यान संसार से पलायन नह है। यह वयं को सम त से अलग करने या अपने आपको चार ओर से बंद करने क
या नह है, ब क यह संसार और इसके तौर-तरीक क समझ है। संसार हम भोजन, व , आवास तथा सुख
एवं इससे जुड़े अनंत ख के सवाय और दे ही या सकता है!

यान का अथ है इस संसार से बाहर चले आना। आपको बलकुल एक परदे सी और अजनबी हो जाना होगा। तभी
आपके लए इस जगत का कुछ अथ है; और पृ वी एवं आकाश का स दय तब शा त है। तब ेम का अथ सुख-
वलास नह होता। फर ेम से ही आपक सम त या ज म लेती है, जो कसी तनाव, अंत वरोध, आ म-तु क
खोज या श और स ा के अहंकार का प रणाम नह होती।
यान करने के उ े य से अगर आप जानबूझकर एक वशेष भावदशा या शारी रक मु ा धारण कर लेते ह, तो
यह मन का ही एक खेल और खलौना बन जाता है। अगर आप वयं को जीवन के ख और अशां त से मु करने
का संक प लेते ह, तो आप जो कुछ अनुभव करगे वह आपक क पना का ही फैलाव होगा—और यह यान
नह है। चेतन या अचेतन मन क इसम कोई भू मका नह होती, उ ह तो यान क गहराई और स दय का पता भी
नह चलना चा हए और अगर उ ह भी यान का पता चलने लगे, तब तो इससे अ छा है क आप एक रोमां टक
उप यास लेकर पढ़ने बैठ जाय।

यान के सम होश म जानने और पहचानने क या नह होती, न ही वहां कसी बीती ई घटना क याद होती है।
वहां समय और वचार का पूणतः अंत हो जाता है, य क यही वह क है जो अपनी को खुद ही सी मत करता
है।

काश के उस ण म वचार अपना अ त व खो दे ता है—यहां तक क कसी अनुभू त के लए कया गया सचेतन


यास और इसका मरण भी अतीत का एक श द बनकर रह जाता है। और श द कभी यथाथ नह होता। काश
के उस ण म—जो समय का ह सा नह है—वह जो परम है, य होता है। कतु उस परम का कोई तीक नह
होता, उसका संबंध न कसी से है न कसी ई र से।
यान का अथ यह पता लगाना है क या कोई ऐसा े है जो ात ारा षत नह आ है, अभी उससे अछू ता
है।
यान समझ का फुटन है। समझ समय क सीमा म समट ई व तु नह है। समय ारा समझ का ज म
कभी नह होता। समझ कोई मक या नह है जसका सं ह सावधानी और धैय के साथ थोड़ा-थोड़ा करके
कया जा सकता हो।

समझ या तो अभी है या कभी नह । यह कोई नरीह मामला नह है ब क यह एक व वंसकारी क ध है। इसक


व वंस- मता के कारण ही इससे भयभीत है और वह जाने-अनजाने इससे बचकर रहता है। समझ
के वचार और या के ढं ग को तथा उसके जीवन क पूरी दशा को बदल दे सकती है। यह आपके लए सुखद हो
या न हो, ले कन समझ सारे पर पर संबंध के लए एक खतरा है। और समझ के बना ख सदा कायम रहेगा। ख
का अंत केवल वयं क समझ ारा होता है। अपने येक वचार और भाव के त तथा चेतन और अचेतन क
येक ग त व ध के त सजगता ारा ही ख का अंत संभव है। यान कट और अ कट चेतना क समझ है एवं
यान उस ग त व ध क भी समझ है जो सम त वचार और भाव से परे है।
आज क सुबह उन सुंदर और सुहावनी सुबह म से थी जो अभूतपूव होती ह। सूरज अभी नकल ही रहा था और
आप उसे चीड़ और यूके ल टस के पेड़ के बीच दे ख सकते थे। वह र तक फैले ए उस जल के ऊपर था, सुनहरे
रंग क चमक पैदा करता आ ऐसा काश जो केवल पहाड़ और समु के बीच होता है। यह एक अ यंत शांत,
त ध और व छ सुबह थी, उस अद्भुत काश से भरी ई जसे आप अपनी आंख से ही नह ब क अपने दय
से भी दे खते ह। और जब आप इसे दे खते ह, तो आकाश पृ वी के ब त नकट होता है, और आप उसके स दय म
खो जाते ह। शायद आप जानते ह क यान कभी भी लोग के सामने या कसी के साथ या एक समूह म नह
करना चा हए। यान आपको केवल एकांत म करना चा हए, रा क न त धता म या उषाकाल क नीरवता म।
जब आप एकांत म यान कर, तो सचमुच एकांत हो। आप पूणतः एकाक ह — बना कसी व ध और प त का
अनुसरण कए, बना चतन-मनन या मं -जप के, बना कसी वचार को अपनी इ छानुसार आकार दे ते ए। इस
एकांत का आगमन तभी होता है जब मन वचार से मु हो जाता है। जब इ छाएं अथवा कोई चीज़ आप पर हावी
होती है जसके पीछे भागते ए आपका मन अतीत और भ व य म भटकने लगता है, तो वहां एकांत नह होता।
केवल वतमान क वराटता म ही इस एकाक पन का आ वभाव होता है। और तब, उस शांत एकाक पन और
गोपनीयता म, जब सम त आवागमन का अंत हो गया है अथात वह अव था जब ‘ ा’ अपनी चता एवं अपनी
मूखतापूण इ छा और सम या के साथ वदा हो गया हो—तभी उस शांत एकाक पन म यान का वह प
कट होता है जसे श द म नह रखा जा सकता। यान तब एक शा त वाह और ग त है।

मुझे नह मालूम क आपने कभी यान कया है या नह , आप कभी एकाक ए ह या नह अथात वह अव था


जसम आप केवल अपने संग होते ह, हर व तु से, हर से, हर वचार और वासना से बलकुल र, जब आप
पूण प से एकाक होते ह, पृथक और अलग नह , कसी का प नक य या व जगत क शरण म जाकर नह ,
ब क इस सबसे एकदम र, ता क आपके भीतर कुछ भी ऐसा न हो जसे पहचाना जा सके, जसे आप वचार
और भाव ारा छू सक—इन सब से इतनी र क इस पूण एकांत म मौन ही फूल बन जाता है, मौन ही यो त बन
जाता है, अथात एक समयातीत गुणव ा जसक थाह वचार नह ले पाता। केवल ऐसे यान म ेम का अ त व
होता है। इसे कट करने क चता मत क जए। यह वयं अपने को कट करेगा। इसका उपयोग न कर। इसे या
का प दे ने क को शश न कर। यह वयं या करेगा। और जब यह या करता है तो उस या म कोई
प ा ाप, कोई अंत वरोध नह होता अथात मनु य ारा अनुभव क जाने वाली कोई भी वेदना और पीड़ा नह
होती।

इस लए एकाक होकर यान कर। खो जाय, डू ब जाय और इतना याद रखने क भी को शश न कर क आप कहां
थे। अगर आप इसे याद रखने क को शश करते ह, तो यह याद उस चीज़ क होगी जो मर चुक है। और अगर आप
इसक मृ त को पकड़े रहते ह, तो आप पुनः कभी एकाक नह हो पाएंग।े अतः आप अनंत एकांत म, ेम के
स दय म, नद षता एवं नूतनता म डू बकर यान कर—तब एक ऐसे आनंद का आ वभाव होता है जो अ य और
अ वनाशी है।

आकाश अ यंत नीला है, वह नी लमा जो वषा के बाद कट होती है। और यह वषा कई महीन के सूखे के बाद
आयी है। वषा के बाद आकाश धुलकर साफ हो गया है और पहा ड़यां आनंद वभोर हो रही ह, तथा धरती चुप है।
पेड़ के प -े प े पर सूय क करण चमक रही ह और धरती का एहसास आप अ यंत नकटता से कर रहे ह। तो
आप अपने दय और मन के उन गु त थान और कोन म जाकर यान कर जहां इसके पूव आप कभी नह गये
ह।
यान कसी सा य का साधन नह है। वहां न कोई मं ज़ल है, न कह प ंचना है। वह एक ऐसी ग त व ध है जो
समय के आयाम म शु होकर समय के पार चली जाती है। यान क हर व ध और प त वचार को समय के
साथ बांध दे ती है, परंतु हर वचार, हर भाव के त न प सजगता के साथ उसक या और उसके पीछे
कायरत ेरणा को समझना और साथ ही हर वचार और भाव को वतं तापूवक फलने-फूलने और वक सत
होने दे ना यान का आरंभ है। जब वचार और भाव पूण प से वक सत होकर तरो हत, मृत हो जाते ह, तब यान
समय के पार क एक ग त व ध है। इस ग त व ध म एक परम आ ाद है; इस पूण शू यता म ेम है, और वहां ेम
है वहां व वंस और सृजन है।
यान मन के भीतर क वह यो त है जो या के माग को आलो कत करती है। और इस यो त के बना ेम का
कोई अ त व नह है।
यान का अथ ाथना कतई नह है। ाथना-याचना आ म-दयनीयता क उपज है। जब आप कसी क और
मुसीबत म होते ह, जब आप पर कोई संकट आता है, तभी आप ाथना करते ह, ले कन जब आपके चार ओर
स ता और सुख-चैन होता है, तो वहां कोई याचना नह होती। यह आ म-दयनीयता जो मनु य के भीतर इतनी
गहराई म बैठ ई है, यही हर तरह के अलगाव का कारण है। और वह जो अलग है या अपने को अलग समझता है,
वह हमेशा कसी ऐसी चीज़ के साथ अपने तादा य क तलाश म रहता है जो उससे अलग न हो, और इस यास म
वह अ धका धक वभाजन और ख ही पैदा करता है। इस दशा और उप व से घबराकर वह कसी परमे र क
पुकार और गुहार करने लगता है या अपने प त क या मन के बनाये कसी दे वी-दे वता क । इस पुकार का कोई
उ र मल भी सकता है, ले कन वह उ र अलगाव करने वाली आ म-दयनीयता क ही त व न होगी।

कसी ाथना को या क ह श द को दोहराना न केवल आ म-स मोहन पैदा करता है ब क यह वयं को चार
ओर से बंद करने का एक उपाय है, जो अ यंत वनाशकारी है। वचार ारा पैदा कया गया अलगाव सदा ात के
े के भीतर ही घ टत होता है, और कसी ाथना का उ र इसी ात क त या है।

यान इस सबसे अ यंत र क बात है। इस े म वचार का वेश नह हो पाता। यहां कोई अलगाव नह है और
इसी लए तादा य भी नह है। यान म सब कुछ कट होता है, वहां राव- छपाव का कोई थान नह है। वहां हर
चीज़ सा ात है, साफ और प है—और तभी ेम का स दय कट होता है।
आज ातः शू यता ही यान क गुणव ा थी—शू यता यानी समय और अंतराल का सम खालीपन। यह एक
त य है, धारणा या पर पर वरोधी अनुमान का वरोधाभास नह । इस अद्भुत शू यता से सा ा कार तभी होता है
जब सारी सम या क जड़ समा त हो जाती है। और यह जड़ है वचार— वचार जो वभा जत करता है, चीज़
को पकड़े रहता है। यान म मन व तुतः अतीतशू य हो जाता है, य प यह वचार के प म अतीत का उपयोग कर
सकता है। यह दन-भर चलता है और रात क न ा बीते ए कल क शू यता है, और इस लए मन उसका पश कर
लेता है जो समयातीत है।
यान केवल शरीर और वचार का नयं ण नह है, न ही यह ाणायाम क कोई प त है। शरीर को तो व थ,
तनावर हत और शांत- थर होना ही चा हए। अनुभू त क संवेदनशीलता को ती ण बनाना एवं उसे कायम रखना
आव यक है और फर यह भी आव यक है क मन अपने सारे शोर-गुल, उप व तथा खोजने-ढूं ढ़ने के अपने सभी
यास स हत मट जाये। परंतु शु आत शरीर से नह करनी होती, ब क आव यक यह है क मन को उसके सारे
मत , पूवा ह और वाथ समेत दे खा और समझा जाये। जब मन व थ, जीवंत एवं ऊजा और ाण से भरा होता
है, तो अनुभू त ती और अ य धक संवेदनशील हो जाती है—तब शरीर अपनी सहज ा से ठ क उसी तरह काय
करेगा जैसे इसे करना चा हए—बशत क शरीर ने कसी आदत और च वशेष का शकार होकर अपनी सहज
ा को न न कर लया हो।

तो आरंभ शरीर से नह ब क मन से करना होगा—मन अथात वचार तथा वचार क व वध अ भ यां। मन


से आरंभ करने का अथ मन को एका करना नह है। एका ता का अ यास वचार को संक ण, सी मत और भंगुर
बना दे ता है। ले कन एका ता तब सहज प से घ टत होती है जब वचार के तौर-तरीक के त सजगता होती है।
यह सजगता उस ‘ वचारक’ क दे न नह है जो हर समय चीज़ को पकड़ने और छोड़ने म, पसंद या नापसंद करने
म लगा रहता है। इस सजगता म कसी तरह का चयन नह होता। सजगता आंत रक और बा दोन प से घ टत
होती है, ब क यह उन दोन के बीच बहती ई एक अंतधारा है—इस लए वहां भीतर और बाहर का वभाजन
समा त हो जाता है।

वचार भाव को ख म कर डालता है—भाव यानी ेम। वचार केवल सुख दान कर सकता है, और सुख क खोज
म ेम क उपे ा हो जाती है। खाने और पीने का जो सुख है उसका सात य वचार बनाए रखता है, इस लए वचार
ारा संपो षत इस सुख का मा दमन और नयं ण नरथक है—यह केवल तमाम तरह के ं और दबाव पैदा
करेगा।

वचार पदाथ है और इस लए यह उस व तु क खोज नह कर सकता जो समय से परे है, य क वचार मृ त है,


और उस मृ त म सं चत कोई अनुभव उतना ही नज व और न ाण है जतना क पतझड़ का एक प ा।

इस सबके त सजगता म ही अवधान का, होश का ज म होता है, जो अनवधान क , बेहोशी क उपज नह है। इस
बेहोशी के कारण ही शरीर क सुख ा त वाली आदत न मत हो जाती ह तथा भावानुभू त क ती ता कुछ घट
जाती है। अनवधान को, बेहोशी को होश म प रणत नह कया जा सकता। होश के अभाव के त सजगता ही होश
है।

इस पूरी-क -पूरी ज टल या को दे खना ही यान है और यह दे खना अ व था म एक व था को ज म दे ता है।


यह व था उतनी ही पूण है जतनी ग णत म पायी जाने वाली व था। और इसी व था म ज म लेती है
याशीलता, यानी त ण कम। व था का अथ योजना, व यास, समानुपात नह है—ये तो ब त बाद क चीज़
ह। व था उस मन से उ प होती है जो वचार क वषयव तु से आ छा दत नह है। वचार के चुप, मौन होने पर
शू यता होती है, यही व था है।
वह सचमुच एक अद्भुत नद थी, चौड़ी, गहरी—अपने कनार पर ब त-से नगर को बसाये ए— व छं द एवं
उ मु , और फर भी वयं को बना कभी खोये ए। उसके कनार पर सम त जीवन का बसेरा था—हरे-भरे खेत,
मैदान, जंगल, इ के- के घर, मृ यु, ेम, व वंस। उस पर बने लंबे-चौड़े पुल शान के साथ खड़े थे, और उनका
समु चत उपयोग होता था। अ य धाराएं और न दयां आकर उसम मलती थ , ले कन वह सभी न दय क मां थी।
वह हमेशा भरी रहती थी, सदा अपने को शु और नमल करती ई, और सांझ के समय जब बादल म रंग भर
आने के कारण उसका जल सुनहरा हो जाता था, तब नद का नरी ण करना कसी आशीष, कसी नयामत से
कम न था। ले कन सु र उन वराट च ान के बीच उनके घनीभूत यास से उ प जल क वह पतली-सी धारा
जीवन का आरंभ थी और उसका अंत उसके कनार एवं सागर के पार था।

यान उस नद के समान था, अंतर केवल इतना क इसका न कोई आरंभ था और न अंत; यह आरंभ आ और
फर इसका अंत ही इसका आरंभ था। इसके पीछे कोई कारण नह था और इसका वाह ही इसका नवीनीकरण
था। अपने सतत वाह के कारण यह कभी ठहरता नह था, जमा नह होता था—इस लए यह कभी पुराना नह हो
पाता था। यह न य नूतन था। यह कभी भी मंद और म लन नह आ, य क इसक जड़ समय के आयाम म
थत नह थ । यान करना अ छा है, इसको आरो पत करते ए नह , यास करते ए नह , ब क एक पतली-सी
धारा से आरंभ कर अंतराल और समय के पार चले जाना, जहां वचार और भाव नह प ंच सकते, जहां अनुभव है
ही नह ।
यान का अथ है ऊजा का सम प से नबध और नमु हो जाना।
वचार अपने चार ओर जो आकाश, जो अंतराल न मत करता है उसम ेम का अ त व नह होता। यह
अंतराल मनु य को मनु य से अलग करता है और इसी म न हत है कुछ ‘होने और बनने’ क सम त आकां ा,
जीवन का संघष, ख और भय। यान इस अंतराल का अंत है—‘म’ का अंत। तब संबंध का अथ ब कुल भ हो
जाता है, य क तब जो अवकाश और व तार ज म लेता है उसम ‘ सरे’ का अ त व नह होता, य क उसम
‘आपका’ भी अ त व नह होता।

तो यान कसी अलौ कक और द दशन क खोज नह है, चाहे यह परंपरानुसार कतना ही प व और पू य


य न हो। यान तो वह अनंत अवकाश और व तार है जहां वचार का वेश नह हो सकता। वचार ारा अपने
चार ओर न मत वह लघु अंतराल यानी ‘म’ हमारे लए अ य धक मह वपूण हो जाता है, य क मन इसके
अ त र कुछ नह जानता और इस लए यह अपना तादा य उस अंतराल क हर चीज़ के साथ करता रहता है। ‘न
होने’ का भय भी उसी अंतराल म ज म लेता है। ले कन इस सबको समझ लेने के बाद मन अंतराल के, अवकाश के
एक ऐसे आयाम म वेश कर सकता है जहां स यता ही न यता है—और यही यान है।

हम पता नह है क ेम या है, य क ‘म’ के प म वचार अपने चार ओर जो एक अंतराल न मत कर लेता है


उसम ेम ‘म’ और ‘म नह ’ का ं है। यह ं और यह यातना ेम नह है।

वचार ेम का सीधे-सीधे नकार है, और वचार उस अवकाश म वेश नह कर सकता जहां ‘म’ नह होता। उस
अवकाश म आशीष और साद है जसे मनु य खोजता रहता है और ा त नह कर पाता। वह इसे वचार क
सीमा के भीतर ही खोजता है, और वचार इस आशीष के आ ाद को न कर दे ता है।
आ था ब कुल अनाव यक है, और आदश भी। ये दोन उस ऊजा का य कर डालते ह जो त य का यानी
‘जो है’ उसका अनावरण और उद्घाटन करते रहने के लए आव यक है। आदश के समान आ था भी त य से
पलायन है और पलायन म ख का अंत नह है। त य का ण- त ण बोध ही ख का अंत है। इस बोध क
संभावना के लए न कोई व ध है और न प त—त य के त न प सजगता से ही इस बोध या समझ का ज म
होगा। कसी व ध और प त के अनुसार यान करना, आप ‘जो ह’ उस त य क उपे ा है। कसी ई र को पाने
के लए या कसी अलौ कक दशन, उ ेजना और मनोरंजन क ा त के लए यान करने से कह अ धक
मह वपूण है वयं को समझना, वयं से संबं धत त य को तथा उनके सतत बदलाव को समझना।
उस घड़ी यान ही मु था, और यह शां त और स दय के एक अ ात जगत म वेश करने के समान था। यह
तमा, तीक, श द या मृ त क तरंग से शू य जगत था। ेम हर पल क मृ यु था और हर मृ यु ेम का
पुनज वन थी। यह ेम आस नह था। इसक जड़ कह नह थ । यह ेम अकारण व लत आ और इसक
वाला म सावधानीपूवक तैयार क गयी चेतना क चारद वारी और सीमाएं जलकर भ म हो गय । यह वचार और
भाव से परे का स दय था—वह स दय नह जो श द म, संगमरमर म या कसी कैनवस पर अ भ होता है।
यान हष था, आ ाद था और इसी के साथ थी आशीष क एक वषा।
ेम का फुटन ही यान है।
यान म होने का अथ यह पता लगाना है क ान का अंत हो सकता है या नह और इस लए ात से मु हो
सकती है या नह ।
रात और दन-भर वषा होती रही, और गंदला पानी ना लय और नाल से होता आ समु म बह चला, इसे
मटमैले-भूरे रंग म रंगता आ। समु क रेत पर टहलते ए आप वशाल लहर को दे ख सकते थे। ये लहर तेज़ी से
कनारे के पास आकर भ पूण ढं ग से बल खाते ए टू ट रही थ । आप हवा के वपरीत टहल रहे थे और तभी
अचानक आपको लगा क आकाश और आपके बीच कुछ भी नह है, और यह खुलापन ही अनंत व तार था।
इतनी पूणता से खुला और अर त होना—पहा ड़य के त, समु के त, मनु य के त—यही यान का सार
है।

कोई भी तरोध न रखना, कसी भी चीज़ के त आंत रक प से अवरोध न पालना, अपनी सम त छोट -बड़ी
उ कंठा , बा यता और मांग से—इनके सारे ु संघष और पाखंड समेत—व तुतः और पूणतः मु हो
जाने का अथ है, जीवन म बांह फैलाकर चलना, और उस सांझ के समय वहां समु प य के बीच गीली रेत पर
चलते ए आपको नबध मु के एक अद्भुत बोध का एहसास आ और साथ ही ेम के उस महान स दय का भी
जो सफ आपके भीतर या बाहर नह —ब क सव था। हम यह भी एहसास नह होता क हमारे सर पर सवार
सुखाकां ा और उनक पीड़ा से मु होना मह वपूण है, ता क मन एकाक रहे। केवल वह मन जो पूणतः
एकाक है, खुला होता है। यह सब आपने अक मात महसूस कया, एक तेज़ हवा के झ के के समान जो आपके
आरपार होता आ ज़मीन के ऊपर से गुज़र गया। वहां आप खड़े थे—अनढके, खाली, शू य, और इस लए नतांत
खुले ए। इसका स दय श द या अनुभू त म नह ब क हर जगह तीत हो रहा था—अपने आसपास, अपने
भीतर, समु के ऊपर तथा पहा ड़य म। यही यान है।
यान एका ता नह है। एका ता का अथ है ब ह कार, अलगाव, तरोध, और इस लए एक संघष। एक
यानपूण मन एका हो सकता है—तब यह ब ह कार और तरोध नह है—ले कन एक एका मन यानपूण नह
हो सकता।
यान क समझ म ही ेम का अ त व है, और ेम न प तय एवं आदत क उपज है और न कसी व ध के
अनुसरण का प रणाम। वचार ारा ेम वक सत नह कया जा सकता। ेम का आ वभाव संभवतः तभी हो
सकता है जब पूण मौन हो, वह मौन जसम मौनी या यानी पूणतः अनुप थत है। और मन तभी मौन हो सकता है
जब वह वचार और भाव के प म अपनी ग त व ध को समझ लेता है। वचार और भाव क इस ग त व ध को
समझना तभी संभव है जब उसके अवलोकन म कोई नदा न छपी हो। इस ढं ग से अवलोकन एक अनुशासन है,
और इस कार का अनुशासन तरलवत् और उ मु होता है। यह नयमब ता का अनुशासन नह है।
उस भोर के समय समु एक झील या एक वशाल नद क तरह था— न तरंग और इतना शांत क मुंह-अंधेरे
उसम आप तार क परछाइय को दे ख सकते थे। उषा के आगमन म अभी कुछ दे री थी, इस लए आसमान के तारे,
खड़ी च ान और र शहर क टम टमाती रोश नयां, ये सब के सब जल क सतह पर मौजूद थे। और जैसे ही सूरज
नर आकाश के तज पर कट आ क जल म एक सुनहरा पथ न मत हो गया और कै लफो नया का वह
अद्भुत और अनोखा काश चार ओर धरती पर एवं हर एक प े और घास के तृण-तृण पर बखर गया।

उस य को यान से दे खते ए आपम एक परम न लता छा गयी। वयं म त क ब कुल शांत हो गया, उसम
अब कोई त या और ग त व ध नह थी, और यह असीम न लता क एक अनोखी अनुभू त थी। ‘अनुभू त’
इसके लए उपयु श द नह है। उस मौन और न लता क गुणव ा का अनुभव म त क ारा नह होता; यह
म त क से परे क बात है। म त क क पना कर सकता है, भ व य के लए योजना बना सकता है, इसक
परेखा तय कर सकता है, ले कन यह न लता इसके े के बाहर है, सम त क पना और इ छा से परे है। इस
अव था म आप इतने शांत और थर होते ह क आपका शरीर पूणतः धरती का एक ह सा हो जाता है, उस हर
चीज़ का ह सा हो जाता है जो शांत और थर है।

और जब पहा ड़य से धीमी-धीमी हवा चली, तो पेड़ के प े डोलने लगे, ले कन उस त धता म, मौन क उस


अद्भुत गुणव ा म कोई व न और ाघात नह आया। यह घर पहा ड़य और समु के बीच थत था, ऊंचाई से
सागर को नहारता आ। और उस असीम शांत- थर सागर का अवलोकन करते-करते आप वयं हर व तु से
अभे हो गये, चार ओर मौजूद हर चीज़ का ह सा। आप सब कुछ थे। आप काश और ेम का स दय थे। पुनः,
यह कहना भी गलत होगा क “आप हर चीज़ का एक ह सा थे”—‘आप’ श द उपयु नह , य क आप तो
व तुतः वहां थे ही नह । आपका अ त व ही नह था। वहां केवल वह त धता थी, ेम क अद्भुत गुणव ा थी,
स दय था।
ये दो श द—‘तुम’ और ‘म’—चीज़ को वभा जत कर दे ते ह। ले कन इस अद्भुत मौन और थरता म इस
वभाजन का अ त व नह था। खड़क से बाहर दे खते ए आपको लगा क अंतराल और समय का अंत हो गया
है। वह अंतराल जो वभा जत करता है, अपनी वा त वकता खो बैठा था। युके ल टस का वह पेड़, वह प ा और
नीला चमकता आ जल—वे सब आपसे भ नह थे।

यान व तुतः अ यंत सरल है। ज टल इसे हम बना दे ते ह। हम इसके आसपास वचार और धारणा का जाल बुन
लेते ह—यह या है और यह या नह है। ले कन यान इनम से कुछ भी नह है। चूं क यह अ यंत सरल है, यह
हमारी समझ म नह आता य क हमारा मन अ य धक ज टल, समय के थपेड़ से जजर और समय के घेरे म बंद
है। और यही मन दय क ग त व ध नधा रत करता है, इस लए तब क ठनाई शु हो जाती है। ले कन यान का
आगमन तो सहज प से होता है, अ यंत सुगमता के साथ, जब आप बाहर रेत पर टहल रहे होते ह या खड़क से
बाहर दे ख रहे होते ह या पछली ग मय क धूप से झुलस गयी उन अद्भुत पहा ड़य का अवलोकन कर रहे होते
ह। हम ऐसे पी ड़त और थत मनु य य ह, आंख म आंसू और ह ठ पर झूठ मु कान लए ए? अगर आप
उन पहा ड़य म, जंगल म अकेले घूमने जाय या र तक फैले ए ेत बालू के कनारे- कनारे अकेले टहलते चले
जाय, तो उस एकांत म आपको मालूम होगा क यान या है।

एकांत के परम आनंद का आगमन तभी होता है जब आप अकेले होने से भयभीत नह होते—जब आप संसार म
रहते ए भी संसार के नह होते, जब कसी चीज़ के त आपक आस नह होती। तब, आज सुबह उषा का
आगमन जस तरह आ था उसी तरह एकांत का यह आनंद चुपचाप चला आता है और उसी न लता म एक
सुनहरा पथ न मत कर दे ता है जो आरंभ म भी था, अब भी है, और सदै व रहेगा।
यान अ ात म अ ात क ग तशीलता है। वहां आप नह ह, केवल वह ग तशीलता है। इस ग तशीलता के लए
आप अ यंत छोटे पड़ जाते ह या अ यंत बड़े। इस ग तशीलता के न पीछे कुछ है न आगे। यह वह ऊजा है जसे
वचार पी पदाथ छू नह सकता। वचार तो वकृ त है, य क यह बीते ए कल क उपज है; यह स दय -स दय
के जाल म फंसा आ है और इस लए यह मत है, अ प है। आप जो चाहे कर ल, ले कन ात कभी अ ात तक
नह प ंच सकता। ात के त मृत होना ही यान है।
एक नतांत मौन और न ल मन का यान वह आशीष और साद है जसे मनु य सदा खोजता रहता है। इस
न लता म मौन क हर गुणव ा मौजूद है।
जहाँ एक बार आपने सद्गुण क न व रख द , जसका अथ है पर पर संबंध म एक व था, तो ेम और मृ यु
क ऐसी गुणव ा कट होती है जो जीवन क सम ता है। और तब मन असाधारण प से शांत हो जाता है,
वाभा वक प से मौन हो जाता है, न क यह दमन, अनुशासन और नयं ण ारा मौन कया जाता है। और वह
मौन असीम प से समृ होता है।

उसके आगे कोई भी श द, कोई भी वणन कसी काम का नह है। तब मन परम और पूण क खोजबीन नह करता,
वह अब सभी आव यकता से मु है— य क उस मौन म वह ा त है ‘जो है’। और यह संपूण प से यान
का साद और आशीष है।
वषा के बाद पहा ड़यां भ और मनोरम हो गयी थ । ग मय क तेज धूप के कारण उनका भूरा रंग अभी भी शेष
था, ले कन अब शी ही उन पर ह रयाली छा जायेगी। इस भीषण वषा के बाद उन पहा ड़य का स दय अवणनीय
था। आकाश अब भी बादल से घरा आ था और हवा म सूमैक, सेज और युके ल टस के पेड़ से आती ई गंध
तैर रही थी। उनके बीच होना बड़ा भ -सा लग रहा था, और एक अद्भुत थरता ने आपको चार ओर से घेर
लया था।

सु र नीचे लहराते ए समु के वपरीत वे पहा ड़यां ब कुल थर थ । अपने चार ओर नज़र घुमाकर दे खते ए
आप महसूस करते क नीचे उस छोटे -से घर म आप अपना सब कुछ छोड़ आये ह—अपने कपड़े-ल ,े अपने
वचार और जीवन के नराले ढं ग। यहां आप बना कसी वचार के और बना कसी बोझ के बलकुल हलके होकर
चल रहे थे, पूण शू यता और स दय के बोध के साथ। छोट -छोट वे हरी-भरी झा ड़यां शी ही और भी हरी हो
जायगी और कुछ ही ह त के भीतर उनम ती तर गंध भर आयेगी। कुछ री पर बटे र बोल रहे थे और उनम से कुछ
उड़ गये। मन इस बात से अनजान था क यह यान क अव था म है जसम ेम फु टत हो रहा है। कुछ भी हो,
यान क ज़मीन पर ही यह फूल खल सकता है। यह सचमुच एकदम अद्भुत था, और आ यजनक प से यह
सारी रात आपका पीछा करता रहा और सूरज नकलने के ब त पहले जब आपक न द खुली, तो यह तब भी
आपके दय म अपने अद्भुत और अ व सनीय आनंद के साथ उप थत था, बना कसी कारण के। यह वहां
अकारण था और उसक उप थ त मादक थी। और यह पूरे दन वह रहेगा, बना आपके बुलाये ए, बना आपके
आमं त कये ए।
वहाँ उस सुवा सत और सुगं धत बरामदे म—जब क उषा का आगमन अभी ब त र है और पेड़ अभी खामोश,
मौन ह—जो सार-त व है, वह है स दय। ले कन यह सार-त व अनुभवग य नह है। अनुभव करने क या तो बंद
हो जानी चा हए य क अनुभव ात को ही सबल बनाता है। और ात कदा प सार-त व नह है।

यान का अथ और-और अनुभू तयां कदा प नह है। अथात् यान अनुभव का सात य नह है। अनुभव जो हर
छोट -बड़ी चुनौती के उ र से न मत होता है, यान केवल उसका अंत नह है, ब क यह सार-त व क ओर ार
का खुलना है, यह उस वालामुखी के मुंह का खुलना है जसक वाला जला डालती है, इतनी पूणता से क राख
और भ म भी नह बचती, कोई भी अवशेष नह बचता। अवशेष तो हम वयं ह। हम बीते ए हज़ार कल के ‘हां म
हां मलानेवाले’ ह। हम अनंत मृ तय तथा पसंद-नापसंद और नराशा क एक सतत शृंखला ह। सम व और
व, ये दोन हमारे अ त व का सांचा-ढांचा ह, और अ त व वचार है तथा वचार अ त व, और इसी म
न हत है कभी न मटने वाला ख।

यान क लौ और लपट म वचार का लोप और लय हो जाता है और साथ-ही-साथ भावना का भी, य क ेम न


वचार है, न भावना। और ेम के बना सार-त व का अ त व नह है। ेम के बना सफ राख ही राख है जस पर
हमारा अ त व आधा रत है। शू यता से ही इस ेम का ा भाव होता है।
मौन क या ही यान है।
यान का न आरंभ है और न अंत। इसम न कोई उपल ध है और न असफलता, न सं ह है और न याग। यह
ऐसी ग तशीलता है जसक कोई प रण त नह , जसका कोई अंजाम नह और इस लए यह समय और अंतराल के
बाहर तथा पार है। व तुतः यान क अनुभू त यान का नषेध है, य क अनुभवकता समय और अंतराल से तथा
मृ त और पहचान से बंधा होता है। स चे यान क बु नयाद वह न े सजगता है जो स ा और मह वाकां ा से
तथा ई या और भय से सम मु है। बना इस मु के तथा बना वयं को जाने-समझे यान का कोई मह व
नह , कोई मू य नह । और वयं को जानना और समझना तब तक संभव नह है जब तक चयन क , पसंद-नापसंद
क थ त है। चयन का अथ है ं , और इस ं के रहते ‘जो है’ उसक समझ संभव नह है। कसी रोमानी
आ था और व ास क शरण म चले जाना अथवा क पना और ां तय म भटक जाना यान नह है। यान के
लए यह आव यक है क म त क अपने ऊपर से मथक , ां तय और सुर ा के येक आवरण को हटा ले तथा
उनक अस यता क वा त वकता का सामना करे। यान-भंग जैसी कोई चीज़ नह होती, य क यान क
ग त व ध म हर चीज़ समा व है। फूल के अथ म प, रंग, गंध और स दय, सभी समा व ह। अथात फूल इन
सब का संयोग है। आप इसके टु कड़े-टु कड़े कर डा लए, वा त वक तौर पर या शा दक तौर पर, तब फूल नह
रहेगा, रह जायेगी ‘जो था’ उसक केवल एक याद, और वह याद फूल कदा प नह है। यान का अथ है वह सम
फूल जो अपने स दय म, अपने खलने और मुरझाने म समा हत है।
यान है वचार से मु तथा स य के आनंद म ग तशीलता।
भात क उस बेला म सब कुछ शांत और नीरव था; कोई प ी, या पेड़ का एक प ा तक नह हल-डु ल रहा
था। यान जो क ह अ ात गहराइय म शु आ, अपनी ती ता और वेग म चंड प से बढ़ते ए इसने वचार
और भाव को जड़ समेत उखाड़ फका, म त क को ात और ात क छाया से पूणतः खाली करके सम मौन म
थर कर दया। यह चीर-फाड़ और श य- या क एक घटना थी जसम कोई श य- च क सक नह था। यह
श य- या उसी तरह चलती रही जैसे कोई श य- च क सक कसर रोग क श य- या करता है, हर उस ऊतक
को काटकर अलग कर दे ता है जो ज़रा भी षत या भा वत है ता क रोग पुनः न फैलने पाये। यह श य- या
अथात यह यान कोई एक घंटे तक चलता रहा। इस यान म कोई यानी या यानकता नह था। यानकता अपने
लोभ, अहंकार, अपनी मह वाकां ा और मूखता के कारण केवल ह त ेप करता है। यानकता वचार ही है
जो इन संघष और संघात म पला-बढ़कर वक सत होता है। इस लए यान म वचार का सम प से अंत होना
ज़ री है। यही यान क बु नयाद है।
यान करना समय का अ त मण करना है। समय वह री है जसे वचार अपनी उपल धय के दौरान तय
करता है। यह री हमेशा पुराने माग से ही तय क जाती है। यह पुराना माग भले ही नये ढं ग से रंगा-पुता हो, इसके
नज़ारे भी नये ह , ले कन यह वही पुराना रा ता है जो कह प ंचता नह — सवाय ख और दद के।

जब मन समय का अ त मण कर जाता है तो स य वचार और क पना क व तु नह रह जाता। तब आनंद मा


सुख के अनुभव पर आधा रत कोई धारणा नह है—वह एक यथाथ है, न क श द का खेल।

मन का समयर हत हो जाना ही स य का मौन है, और इसे दे खना ही करना है। अतः दे खने और करने के बीच कोई
वभाजन नह होता। दे खने और करने के बीच के अंतराल म ही संघष, अशां त और ख ज म लेता है। वह जो
समयर हत है, वह अनंत है, शा त है।
उषा का आगमन मंथर ग त से हो रहा था। आसमान म तारे अब भी जगमगा रहे थे और वृ अभी तक अपने म
खोये ए थे। कह से कोई प ी नह बोल रहा था, यहां तक क छोटे -छोटे उ लू भी नह जो रात-भर इस पेड़ से
उस पेड़ पर हड़कंप मचाये फरते थे। समु क गजना के सवाय चार ओर अद्भुत नीरवता छायी ई थी। गीली
ज़मीन, गलते ए प तथा ब त सारे फूल क महक चार ओर फैल रही थी; हवा अ य धक शांत और थर थी
और गंध हर जगह मौजूद थी। धरती भात क ती ा कर रही थी और आने वाले दन क भी; याशा, धैय और
अद्भुत नीरवता चार ओर ा त थी। यान भी उसी नीरवता के साथ चलता रहा और वह नीरवता ेम थी। यह
कसी व तु या कसी का ेम नह था, न ही यह ेम कोई तमा और तीक या श द और च था। यह
नपट ेम था, बना भावुकता के, बना भाव वाह के। यह कुछ ऐसा था जो न न, ती और वयं म पूण था; इसका
न कोई मूल था और न कोई दशा थी। र कह से आता आ उस प ी का कलरव वह ेम था। वह कलरव- व न
ही दशा और री थी। वह वहां समय और श द से परे था। यह ेम कोई भाव नह था जो मुरझा जाता है और जो
ू र होता है। कसी तीक, कसी श द का तो वक प ढूं ढ़ा जा सकता है, ले कन इस ेम का नह । न न और
अनावृत होने के कारण यह सवथा अर त था और इस लए यह अ य और अ वनाशी था। इसके पास उस अ य व
और अ ेयता क लभ श थी और वह समु के पार से और पेड़ से होकर आ रहा था। यान उस समु क
गजना था जो तट पर व ाघात कर रहा था। परम शू यता म ही ेम का अ त व हो सकता है। सु र तज पर
उषा क ला लमा कट होने वाली थी और अंधेरे म खड़े वृ क का लमा और भी सघन हो गयी थी। यान म
पुनरावृ यानी आदत का सात य नह होता; वहां हर ात चीज़ क मृ यु है और अ ात का फुटन है। तारे अ त
हो चले थे और सूय के उ दत होते ही बादल भी जग पड़े।
यान है—चेतना को उसक अंतव तु से, ात से, ‘म’ से र करना।
यान सुर ा का व वंस है। और यान म वराट स दय छपा है, उन व तु का स दय नह जो मनु य या कृ त
ारा न मत ह ब क मौन का स दय। यह मौन वह शू यता है जससे सम त चीज़ नकलती ह, और पुनः उसम
समा जाती ह, और उसी म समा हत ह उनके ाण और अ त व। वह अ ेय है, बु और भावना क वहां तक
प ंच नह है। वहां तक प ंचने के लए कोई माग नह है, इस लए प ंचने क हर व ध और उपाय एक लोभी
म त क ारा कया गया आ व कार मा है। इस धूत और मतलबी ‘ व’ ारा खोजे गये साधन और उपाय को
पूणतः मटा दे ना आव यक है; आगे क ओर या पीछे क ओर जाने का, अथात समय क पूरी या का अंत
होना ज़ री है, बना कल क ती ा कए। यान व वंस है; यह उनके लए एक खतरा है जो एक सतही जीवन
बताना चाहते ह, जो क पना और पौरा णकता म जीना चाहते ह।
यान ारा लायी गयी मृ यु नूतन का अमर व है।
अगर आप इसका सा ा कार कर सक तो आप पायगे क यह कुछ ऐसा है, जो अ यंत अद्भुत है। म इसके
व तार म जा सकता ं, ले कन कसी व तु का वणन वयं वह व णत व तु तो नह है! यह सब आप ही को सीखना
है, वयं का अवलोकन करते ए—कोई पु तक, कोई गु आपको इस संबंध म कुछ नह सखा सकता। कसी पर
नभर न रह, आ या मक सं था क शरण म न जाय। को यह सब अपने भीतर सीखना है। और वहां मन
को ऐसी बात का पता लगेगा जो अद्भुत ह। कतु उसके लए आव यक है क कोई भी वखंडन और वभाजन न
हो, अतः वहां परम अ डगता, चपलता और ग तशीलता हो। ऐसे मन के लए समय का अ त व ही नह होता और
इस लए जीने का अथ ही कुछ और होता है।
यान के बारे म कोई भी स ा- ामा य तो यान का नषेध ही है। यान म सम त ान का, धारणा तथा
उदाहरण का कोई थान नह होता। यानकता, अनुभवकता, वचारक का संपूण समापन ही यान का सार है। यह
मु यान का दै नक कृ य है। अवलोकनकता अतीत ही है; उसका आधार समय है, उसके वचार, छ वयां और
साये समय से बंधे होते ह। ान समय है और ात से मु ही यान का फुटन है, स य तक प ंचने के लए,
अथवा यान के स दय को छू ने के लए कोई णाली नह होती और इसी लए कोई दशा- नदश भी नह होते।
कसी अ य का, उसके उदाहरण का, उसके श द का अनुसरण करना तो स य का ब ह कार है।

सफ संबंध के आईने म ही आप ‘जो है’ का चेहरा दे ख पाते ह। ा ही य है, दे खने वाला ही दे खने का वषय है।
व था के बना—सदाचार से आयी व था के बना— यान का तथा उस बारे म और के अंतहीन दाव का
कतई कोई मतलब नह है; वे सब पूणतया अ ासं गक ह। स य क कोई परंपरा नह होती, इसे आगे कसी को
स पा नह जा सकता।
यान को एक ज टल मसला न बनाएं; यह तो सचमुच ब त सरल है, और चूं क यह सरल है, इस लए ब त सू म
है। य द मन हर तरह क रंग- बरंगी तथा रोमानी धारणा के साथ इसका अ वेषण करेगा, तो उसे इसक सू मता
हाथ आने से रही। यान तो व तुतः अ ात म वेश है, और इस लए मन ारा दन-भर म या हज़ार दन म हा सल
कये गये ात का, मृ त का, अनुभव का, ान का अंत होना ज़ री है। य क एक मु मन ही अप रमेय के
अंतरतम म पैठ सकता है। तो यान यह वेश भी है और अतीत का अंत भी।

द कत तब शु होती है जब हम पूछते ह क अतीत का अंत कैसे कर। ‘कैसे’ वा तव म है ही नह । ‘कैसे’ म कोई


व ध, कोई णाली न हत है और इसी व ध और णाली ने ही तो मन को सं कारब कया है। बस इसके स य
को दे ख ल। मु आव यक है, न क ‘कैसे’ मु ह । ‘कैसे मु ह ’ तो आपको महज़ कसी खूंटे से बांध दे ता है।
य द आपको यान के अथ का, इसके स दय का पता नह है, तो आपको जीवन के बारे म कुछ भी मालूम नह
है। हो सकता है आपके पास नयी से नयी कार हो, हो सकता है आप पूरी नया म मन-मुता बक घूमने- फरने म
समथ ह , कतु य द आप यह नह जानते क यान का वा त वक स दय, वातं य और आनंद या है, तो आप
जीवन के एक ब त बड़े ह से से वं चत ह। इसका अ भ ाय आपसे यह कहलवा लेना नह है, “मुझे यान करना
सीखना ही होगा।” यान तो एक वाभा वक थ त है जो घ टत होती है। वह मन जो खोज-बीन कर रहा है,
अप रहाय प से इस तक आता ही है; ऐसा मन जो क सजग है, जो अपने आप म ‘जो है’ का अवलोकन कर रहा
है, वह व को समझ रहा है, व को जान रहा है।
आप अगले दस हज़ार साल तक पीठ सीधी करके ठ क आसन म बैठ कर सही ढं ग से सांस लेते ए ाणायाम
और उस तरह क तमाम चीज़ कर सकते ह, तो भी—स य या है—इसके बोध के आस-पास तक भी आप नह
प ंच पाएंग,े य क आपने अपने-आप को, अपनी सोच के तरीके को, अपने जीने के ढं ग को लेश-मा भी नह
समझा है। आपने अपने ख का अंत नह कया है और तब भी आप चाहते ह क आपको संबो ध उपल ध हो
जाए। आप अपने शरीर को हर तरह से मोड़-घुमा कर करतब कर सकते ह, यह सब शायद लोग को ब त
आक षत करता है य क इससे श हा सल होती है, त ा मलती है। अब ये सारी श यां ऐसे ही ह जैसे
सूरज के सामने टम टमाते द ये; ये द ये क रोशनी क तरह ह, जब क सूरज पूरी आभा के साथ आलो कत है।
यह समझने के लए क यान या है, स यक वहार क न व रखी जानी ज़ री है। उस न व के बना, यान
वा तव म आ म-स मोहन का ही प है। ोध, ई या, डाह, लोभ, वा म व, घृणा, प ा, सफलता क चाह से—
और ऐसे ही सही ठहरा दये गये तमाम नै तक व स मा नत ल ण से—मु ए बना, सही न व रखे बना,
गत भय, चता, लालच और इस तरह क तमाम वकृ तय से व तुतः मु दै नक जीवन जये बना, यान का
कुछ खास मतलब नह है।
यान म न हत है मन का ऐसा गुण-धम जो पूरी तरह अवधान दे सके, अतएव ऐसा मन जो पूरी तरह थर,
न ल हो सके। मन हमेशा बड़-बड़ करता रहता है, हमेशा बात करता रहता है, या तो अपने-आप से, अपने ही
भीतर, या कसी और से; यह हमेशा हलचल मचाये रखता है। जो मन नरंतर बड़बड़ाता रहता है, वह कसी भी
चीज़ का य बोध कैसे कर सकता है। जो मन पूरी तरह से अवधानयु है, सावधान है, केवल उसी मन म
अवलोकन के लए संपूण ऊजा होती है, य क अवलोकन करने के लए आपम बल ऊजा होनी चा हए। धा मक
साधु-संत व अ य लोग कहते ह क आप ऊजा बरबाद नह कर सकते; इस लए य द आप संत बनना चाहते ह तो
से स व जत है। और जब आप यौनवजना का जीवन जीते ह और चय क कसम खा लेते ह तो आपम भयंकर
उथल-पुथल होती है य क आप पूरी जै वक णाली को नकार रहे होते ह, और इसम ऊजा क बरबाद है। आप
बस इससे लड़ते-जूझते रहते ह। या फर आप सरी अ त पर चले जाते ह, आप इस सब म बह जाते ह, रत हो
जाते ह जो क ऊजा क बरबाद का एक अ य कार है। जब क य द आप अवधानयु ह, यानपूवक ह, तो यह
ऊजा के सम संयु करण का सव कृ प है। इसका अथ है ती ता, उ कटता, और य द आप बरबाद म लगे
ह तो आप उ कट नह हो सकते। मन बना कसी यास के नतांत मौन हो सकता है, और इस लए ऐसा मन ऊजा
से भरा होगा, जसम कोई वकृ त नह होगी।
यान एक अद्भुत घटना है य द आपको एक ऐसे मन का अ भ ाय प हो पाए जो ‘ यान म’ है, बजाय इस
आकलन के क ‘ यान कैसे कर’। जब हम यह जान लगे क यान या नह है, तो हम जान पाएंगे क यान या
है। नषेध के ारा आप व धपरक तक आते ह, जब क य द आप व धपरक का अनुसरण करते ह तो यह आपको
कसी बंद गली तक ही ले जाता है। हमारा कहना है क यान कसी णाली का अ यास नह है। वैसा तो मशीन
भी कर सकती ह। अतः णा लयां यान नामक अद्भुत थ त को, उसके स दय को, उसक गहनता को कट नह
कर सकत ।
यान कसी श द क पुनरावृ , कसी य बब का अनुभव नह है, न ही यह मौन का संवधन है। माला और
श द, बड़बड़ाते मन को शांत तो कर दे ते ह पर ऐसी शां त एक कार से वयं को स मो हत करना ही है। वह तो
आप कोई शामक ओष ध लेकर भी कर लेते।

वचार के कसी ा प म, सुख के कसी स मोहन म वयं को आवृत कर लेना यान नह है। यान का कोई आरंभ
नह है, तथा इस लए इसका कोई अंत भी नह है।

य द आप कहते ह, “म आज से वचार पर नयं ण करना, यान थ आसन म शां तपूवक बैठना, नय मत ास-
या का अ यास करना आरंभ क ं गा”, तो आप उन चालबा ज़य म फंसे ह जनसे वयं को धोखा दया
करता है। यान कसी आडंबरपूण धारणा या तमा म त लीन हो जाने क अव था नह है : यह तो को बस
ण-भर के लए शांत कर दे ता है, जैसे क कोई ब चा कसी खलौने म त लीन होकर उतने समय के लए शांत हो
जाता है, परंतु जैसे ही वह खलौना चकर नह रहता, उसक बेचैनी और शरारत फर शु हो जाती है। यान
कसी का प नक आनंद क ओर ले जाने वाले कसी अ य पथ का अनुसरण नह है। यान थ मन तो दे ख रहा है,
अवलोकन कर रहा है, सुन रहा है, बना श द के, बना ट पणी के, बना अ भमत के; ऐसा मन सारा दन अपने
सम त संबंध म जीवन क ग तमयता के त अवधानयु रहता है। और रात को, जब पूरा अवयव-सं थान, शरीर
व ाम म होता है, तो यान थ मन को व नह आते य क यह सारा दन जागा रहा है। व तो केवल उ ह आते
ह जो असजग ह, केवल अधजगे लोग को अपनी अव था क ओर इं गत कये जाने क दरकार होती है। कतु
मन जब जीवन क ग त को, बाहर भी और भीतर भी, दे खता है, सुनता है, तो मन म एक ऐसे मौन का आगमन
होता है जो वचार ारा न मत नह है।

यह वैसा मौन नह है जसका अवलोकनकता अनुभव करता है। य द वह इसे अनुभव करता है और पहचान लेता
है, तो यह मौन नह रह जाता। यान थ मन का मौन पहचान क सीमा म नह होता, य क इस मौन क कोई
सीमा है ही नह । यह केवल मौन है; इसम वभाजन का अंतराल समा त हो जाता है।
य दम यान करता ं और जो म पहले से ही सीख चुका ,ं जान चुका ं, उसे ही जारी रखता ं, तो म अतीत म
अपनी सं कारब ता के े म ही रह रहा होता ं। उसम कोई वतं ता नह है। म जस कैदखाने म रह रहा ं उसे
सजा-संवार सकता ं, उस कैदखाने म काफ कुछ कर सकता ं, ले कन तब भी सीमा बनी रहती है, अवरोध बना
रहता है। तो मन को यह पता लगाना होगा क या म त क क को शकाएं, जो लाख -लाख वष म वक सत ई
ह, पूणतः मौन हो सकती ह, और एक ऐसे आयाम को पश कर सकती ह, जसे वे नह जानत । जसका अथ है,
या मन पूरी तरह न ल हो सकता है?
यान का एक प है सम त ं को पूरी तरह से मटा दे ना, भीतर से, और इस लए बाहर से भी।
यान म न हत है एक ऐसा मन जो इतने आ यजनक प से प है क कसी भी तरह का आ म-छलावा
उसम टक नह पाता। वयं को अनंत प से धोखा दे सकता है, और आम तौर से यान, तथाक थत यान,
आ म-स मोहन का ही एक कार है : अपने- अपने सं कार के अनु प य बब को दे खना। यह इस कदर सीधी-
सी बात है—य द आप ईसाई ह तो आप अपने ईसामसीह को दे खगे, अगर आप ह ह तो आप अपने कृ ण को या
अपने असं य दे वी-दे वता म से जस कसी का भी दशन कर लगे। पर यान इन चीज़ म से कुछ भी नह है।
यान मन क संपूण न लता है, म त क का संपूण मौन।

यान क न व दै नक जीवन म रखी जानी ज़ री है, इस बात म क वहार कैसे करता है, सोचता कस
तरह है। ऐसा नह हो सकता क हसक हो, और यान भी करे; उसका कुछ मतलब नह है। य द मान सक
प से कसी कार का भी भय है, तो ज़ा हर है क यान तब पलायन ही है। मन क न लता के लए, इसके पूण
मौन के लए एक असाधारण अनुशासन क आव यकता होती है—दमन का, अनुपालन का या कसी स ा के
अनुसरण का अनुशासन नह , ब क वह अनुशासन अथवा सीखना जो वचार क येक ग त व ध पर यान दे ते
ए दन-भर चलता रहता है। तब उस मन म एक व का, अभेद का धा मक गुण होता है। उससे फर ऐसा कम
संभव होता है जसम अंत वरोध नह होता।
यान का एक वल ण प यह है क कोई घटना अनुभव म नह बदल पाती। वह तो बस घ टत होती है
आसमान म कसी नये सतारे क तरह, मृ त ारा उस पर अ धकार जमाये और पकड़ बनाये बना, पसंद और
नापसंद के तौर पर पहचान और त या क आदतन या के बना। हमारी तलाश हमेशा बाहर क ओर जाती
है; जो मन कसी अनुभव क तलाश म है, वह बाहर ही जा रहा है। भीतर क ओर जाना तलाश ब कुल नह है;
यह तो य बोध करना है। त या हमेशा दोहराव भरी होती है, य क यह हमेशा मृ त के उसी भंडार से
आती है।
मह वपूण है वचार को समझना, उसके ोत, उसके आरंभ को समझना, जो अपने ही भीतर है—न क
वचार को नयं त करना। अथात म त क मृ तय का संचय करता है—आप यह वयं दे ख सकते ह, आपको
इसके बारे म कताब पढ़ने क ज़ रत नह है। य द म त क ने मृ तयां सं चत न क होत , तो यह सोचने म
बलकुल भी स म न होता। वह मृ त अनुभव का, ान का प रणाम है—वह अनुभव, वह ान आपका हो या
समुदाय का, प रवार का या जा त इ या द का। वचार मृ त के उसी भंडार से उभरता है। तो वचार कभी भी मु
नह है, यह हमेशा पुराना है। वचार क वतं ता जैसा कुछ नह होता। वचार अपने-आप म कभी वतं नह हो
सकता; यह वतं ता के बारे म बात कर सकता है, पर अपने-आप म यह वगत मृ तय , अनुभव और ान का
प रणाम है, इस लए यह पुराना ही होता है। तो भी के पास जानकारी का यह संचय ज़ री है, नह तो वह
काय नह कर सकता, सरे से बात नह कर सकता, घर नह जा सकता इ या द। जानकारी अ नवाय है...

य द यान जानकारी क , ान क नरंतरता है, उस सब क नरंतरता है जसे मनु य ने सं चत कया है, तब तो


वतं ता है ही नह । वतं ता तभी होती है जब यह समझ हो क ान का काय या है, तब फ लत होती है ात से
मु ।
यान म को व था क न व रखनी होती है, जसका अथ है स यक आचरण— त ा व सामा जक
नै तकता नह —जो क नै तकता है ही नह , अ पतु वह व था जो अ व था को समझने से आती है, जो क एक
बलकुल अलग बात है। जब तक ं है तब तक अ व था रहती ही है, वह ं चाहे बा हो या आंत रक।
भारत म और उसके और आगे पूव के दे श म व भ सं दाय ह, जनम वे यान क व धयां सखाते ह—यह
वा तव म कतनी भयावह बात है। इसका अथ आ मन को यां क प से श त करना, जससे क वह वतं
नह रह पाता और सम या को समझने म अ म रहता है।

तो जब हम यान श द का इ तेमाल करते ह, तो हमारा मतलब कसी ऐसी चीज़ से नह है जसका अ यास कया
जाए। हमारे पास कोई व ध नह है। यान का अथ है जो भी कुछ आप कर रहे ह, उसके त सजगता, जो आप
सोच रहे ह, जो आप महसूस कर रहे ह उसके त सजग होना— बना कसी पसंद-नापसंद के अवलोकन करना,
सीखना। यान है अपनी सं कारब ता के त सजग होना क कैसे हम उस समाज ारा सं का रत ह जसम हम
रहते ह, जसम हम पले-बढ़े ह, कैसे हम धा मक चार ारा सं का रत ह—सजग होना बना कसी चयन के, बना
वकृ त के, बना इस चाहत के क काश, यह भ होता! इस सजगता से अवधान का आगमन होता है, पूरी तरह
अवधानयु होने क , सावधानता क मता आती है। तब चीज़ को जैसी वे ह बना कसी वकृ त के वैसी ही दे ख
पाने क वतं ता आती है। मन ममु , प , संवेदनशील बन जाता है। ऐसे यान क प रण त मन क ऐसी
गुणव ा म होती है जसम मन पूरी तरह से मौन है—अब इस गुणव ा क बात हम चाहे जतनी कर ल, ले कन
जब तक यह व मान नह है, यथाथ नह है, इसक चचा का भला या अथ?
शद क , वा य क , मं क , गु ारा द गयी श दावली क पुनरावृ करना, द त होना, कसी वा य
वशेष को, जसे आपको गु त प से दोहराना होगा, सीखने के लए धन दे ना—संभवतः आप म से कुछ ने यह
कया है और आप इसके बारे म ब त कुछ जानते ह। इसे मं योग कहते ह और इसे भारत से लाया गया है। मुझे
नह मालूम क आप एक पैसा भी य दे ते ह कसी के दये गये श द को दोहराने के लए जो यह कहता है, “य द
आप ऐसा करगे तो आपको संबो ध उपल ध हो जाएगी, आपका मन एक शांत मन होगा”। जब आप श द के
कसी म को लगातार दोहराते ह, चाहे वह ‘आवे मा रया’ हो या व वध सं कृत श द ह , तो ज़ा हर है क आपका
मन बो झल, मंद हो जाता है व आपको एक खास क म क एकता का, शां त का एहसास होता है, और आप
सोचते ह क इससे आपको प ता लाने म मदद मलेगी। आप इस सब का अटपटापन दे ख सकते ह, य क इन
मामल म कोई भी—मेरे समेत—चाहे जो कहे उसे आपको वीकार य कर लेना चा हए? जीवन क आंत रक
ग त के बारे म आपको कसी क भी कूमत य मान लेनी चा हए? हम बाहर के संदभ म तो स ा को नकार दे ते
ह; अगर आप बौ क प से ज़रा भी जाग क और राजनी तक प से सचेत ह, तो आप बा स ा को नकारते
ही ह। पर ज़ा हर है क हम उस का स ा- ामा य वीकार कर लेते ह जो कहता है, “म जानता ं, मने
उपल ध कर लया है, मने पा लया है।” जो कहता है क वह जानता है, वह जानता नह है।
जब आप समझ जाते ह तो सदाचार नेक के एक फूल क तरह खल उठता है। तब आप इस बात का अ वेषण
आरंभ कर सकते ह क वह या है जसक मनु य को स दय से तलाश रही है, जसे वह खोजता रहा है, पा लेने
क को शश करता रहा है। आप संभवतः इसे नह समझ सकते, इससे आपका मलना नह हो सकता, य द आपने
न व अपने दै नक जीवन म नह रखी है। और तब हम पूछ सकते ह क यान या है, यह नह क यान कैसे कर
या यान करने के लए कौन से कदम उठाए जाएं अथवा यान करने हेतु कन व धय या णा लय का अनुसरण
कया जाए। सभी णा लयां, सभी व धयां मन को यां क बनाती ह। य द म कसी वशेष णाली का अनुगमन
करता ं, चाहे उसे आपक क पना के महान से महान गु ने कतने ही याल से य न बनाया हो, वह णाली,
वह व ध मन को यां क ही बनायेगी, और एक यां क मन तो मरे ए के समान है।
यान क कोई णाली यान नह है। कसी णाली म न हत है कोई व ध, जसका अ यास आप इसके पूरा
होने पर कुछ उपल ध करने के लए कया करते ह। कसी भी चीज़ का अ यास अगर बार-बार कया जाए, तो वह
यां क हो जाता है, या ऐसा नह होता? एक यां क मन जसको उस ा प का अनुसरण करने के लए, जसे
वह ‘ यान’ कहता है, तोड़ा-मरोड़ा गया है, सताया गया है, और जसे इस सब के अंत म एक पुर कार ा त करने
क आस लगी है, ऐसा मन अवलोकन के लए, सीखने के लए वतं कैसे हो सकता है?
यान है येक वचार और येक भाव के त सजग होना, कभी ऐसा न कहना क यह सही है या गलत है,
अ पतु इसे दे खना-भर, और इसके साथ आगे बढ़ना। इस दे खने म ही आप वचार और भाव क सम त ग त को
समझना आरंभ करते ह। और इसी सजगता से मौन का आगमन होता है। वचार ारा न मत मौन तो ग तहीन है,
मृत है, कतु वह मौन जो तब आता है जब वचार ने अपने आरंभ को, अपनी कृ त को समझ लया है, यह समझ
लया है क कस तरह कोई भी वचार कभी भी वतं नह है, ब क हमेशा पुराना है—यही मौन वह यान है
जसम यानकता पूरी तरह अनुप थत है, इस लए क मन ने वयं को अतीत से र कर लया है।
यान कभी भी शरीर का नयं ण नह है। शरीर-संरचना और मन म कोई वा त वक वभाजन नह है। म त क,
नायुतं और जसे हम मन कहते ह, यह सब अ वभा य प से एक है। यह यान का वाभा वक कृ य ही है जो
सम क एकलयतापूण ग तशीलता लाता है। शरीर को मन से वभा जत मानना और बौ क नणय से शरीर को
नयं त करना अंत वरोध को ज म दे ता है, जससे व वध कार के संघष, ं और अवरोध उ प होते ह।
धम या है? यह अपने पूरे अवधान के साथ, अपनी संपूण ऊजा को संयु करके उसका पता लगाने हेतु
अ वेषण है, जो पावन है; यह उसके सम आना है, जो प व है। ऐसा तभी घ टत हो सकता है जब वचार के शोर
से मु हो, जब मान सक, आंत रक प से वचार और समय का अंत हो गया हो—संसार म जानकारी का अंत
नह , यहां तो आपको जानकारी के ारा काय करना होता है। वह जो प व है, जो पावन है, जो स य है, तभी
व मान होता है जब शां त हो, मौन हो, जब वयं म त क ने वचार को उसके सही थान पर रख दया हो। उस
वराट मौन से ही उसका ा भाव होता है, जो पावन है।
य द आप समझ सक क यान या है, तो यह सवा धक असाधारण थ तय म से एक है; पर इसे आप संभवतः
तब तक नह समझ सकते, जब तक क आप जसे स य माने बैठे ह, उसे खोजते रहना, टोहते रहना, चाहते रहना
आपके भीतर से वदा नह हो जाता—वह स य तो आपका ही ेपण है। इस तक आप नह प ंच सकते जब तक
क ऐसा न हो गया हो क आपम कसी भी तरह के ‘अनुभव’ क मांग बलकुल रह ही न गयी हो। और आप उस
व म को, उलझाव को, अपने जीवन क अ व था को समझ रहे ह , जसम आप रहते ह। उस अ व था के
अवलोकन से व था आती है— जसका कोई बना-बनाया न शा नह होता। जब आपने ऐसा कर लया हो—जो
क अपने-आप म यान ही है—तब हम न केवल यह पूछ सकते ह क यान या है, ब क यह भी क यान या
नह है, य क जो म या है, उसके नषेध म ही स य होता है।
शारी रक संरचना क अपनी ा होती है जसे सुख क चाहना, सुख क आदत कुंद कर दे ती है। ये आदत
उस संरचना क संवेदनशीलता को न करती ह और संवेदनशीलता का यह अभाव मन को मंद बनाता है। ऐसा मन
एक संक ण और सी मत दायरे म सचेत हो सकता है पर होता वह तब भी असंवेदनशील ही है। ऐसे मन क गहराई
मापन क सीमा म होती है तथा यह छ वय और ां तय म फंसा होता है। इसका सतहीपन ही इसक एकमा
चमक है। शरीर का हलकापन और उसक ाशीलता यान के लए आव यक है।
यान क समझ म ेम होता है और ेम णा लय का, आदत का या कसी व ध के अनुसरण का प रणाम नह
है। ेम का पोषण वचार ारा नह कया जा सकता। ेम संभवतः तब अ त व म आ पाता है जब पूण मौन होता
है, एक ऐसा मौन, ऐसी मनोशां त जसम यानकता पूणतया अनुप थत होता है; और मन तभी मौन हो सकता है
जब यह वचार और भाव के प म अपनी ग त व ध को समझ लेता है। वचार और भाव क इस ग त व ध को
समझने के लए जो अवलोकन होता है उसम नदा क कोई जगह नह है। इस कार का अवलोकन ही अनुशासन
है, और ऐसा अनुशासन वाहशील है, मु है, यह ढ़पालन का अनुशासन नह है।
यान या है? इससे पहले क हम इस व तुतः काफ पेचीदा और ज टल सम या को ल, हम इस बारे म एकदम
प होना चा हए क वह है या जसक हम तलाश है। हम हमेशा कुछ-न-कुछ खोज रहे होते ह, वशेष प से वे
जो धा मक झान के ह। वै ा नक तक के लए खोज करना एक ब त बड़ा मु ा है। इससे पहले क हम इस म
पैठ क यान या है और हम यान करना ही य चा हए, इसका उपयोग या है व यह आपको ले जाता कहां है,
तलाश के इस मसले को ब त प तथा सु न त तौर पर समझ लेना आव यक है।

इस श द—खोज या तलाश— कसी ल य ा त हेतु दौड़, ढूं ढ़ नकालना—म न हत है क हम कमोबेश पहले से


ही जानते ह क हम कस ा य के पीछे लगे ह। जब हम कहते ह क हम स य क खोज म ह, या अगर हम धा मक
झान वाले ह तो कहते ह क ई र को ढूं ढ़ रहे ह, या फर हम एक आदश जीवन क तलाश है अथवा ऐसा ही कुछ
और, तो हमारे दमाग म पहले से ही उसक कोई छ व, कोई धारणा तो होगी। खोजकर कुछ पाने का अथ है हम
पहले से पता है क उस ा य का प, रंग, त व इ या द या है। या ‘तलाश’ या ‘खोज’ श द म यह न हत नह
है क हमने कुछ खो दया है और हम उसे पा लेने वाले ह व जब हम उसे पा लगे तो उसे पहचानने म समथ ह गे;
जसका ता पय है क हम उसे पहले से ही जानते ह, हम जो करना है वह बस इतना ही है क हम उसक तलाश म
जाएं और उसे ढूं ढ़ नकाल?

यान म पहली बात जो समझ म आती है वह है क तलाश बेमानी है; इस लए क जसे खोजा-तलाशा जाता है वह
आपक चाह ारा पूव नधा रत होता है। अगर आप नाखुश ह, अकेले ह, हताश ह, तो आप आशा, संग-साथ, कुछ
ऐसा जो आपको संभाले रखे, तलाश करगे, और आप ला ज़मी तौर पर उसे ही पा भी लगे।
या ऐसा यान है जो नधा रत नह है, अ यास का वषय नह है? ऐसा यान है, पर उसके लए अ य धक
अवधान क आव यकता होती है। यह अवधान एक लौ है; यह अवधान ऐसा कुछ नह है जस तक आप काफ
बाद म, कुछ समय गुज़रने पर ही प ंच पाएंग;े यह अवधान तो अभी है हर चीज़ के त, हर श द, हर संकेत, हर
वचार के त; इसका अथ है पूरा अवधान दे ना, आं शक नह । य द आप इस समय आं शक प से सुन रहे ह तो
आप पूरा अवधान, पूरा यान नह दे रहे ह। जब आप पूणतः अवधानयु होते ह, तो कोई व नह होता, कोई
सीमा नह होती।
एक धा मक जीवन यानपूण जीवन है, जसम व क ग त व धयां अनुप थत ह।
या संपूण मन, जसम म त क भी शा मल है, पूणतः न ल हो सकता है? लोग ने, व तुतः ब त गंभीर लोग
ने यह पूछा है, और वे इसका समाधान नह कर पाए ह। उ ह ने तरक ब आज़मायी ह। उ ह ने कहा है क मन
को श द क आवृ ारा थर कया जा सकता है। या आपने कभी ‘आवे मा रया’ या उन सं कृत श द , मं
को दोहराने क को शश क है ज ह कुछ लोग भारत से ले आते ह और उन श द को दोहराने से मन के थर होने
क बात कही जाती है? इससे कोई अंतर नह पड़ता क वह श द या है, बस उसे आवृ क लय दे द, ‘कोका
कोला’ या कोई भी श द व उसे अ सर दोहराते रह और आप दे खगे क आपका मन शांत हो जाता है; ले कन यह
एक मंद, सु त मन होता है, यह संवेदनशील मन नह होता जो सचेत, सजीव, उ कट हो। और एक मंद मन चाहे यह
कहता रहे, “मुझे एक ज़बरद त भावातीत अनुभव आ है” वह वयं को धोखा ही दे रहा होता है।
यान के संदभ म सम मह व क बात है उस माग का अनुसरण न करना जो वचार ने उस ल य तक प ंचने के
लए न मत कया है, जसे वचार स य, संबो ध अथवा यथाथ मानता है। स य तक ले जाने वाला कोई माग नह
होता है। कसी भी माग का अनुसरण उस तक ले जाता है जसे वचार ने पहले से ही तपा दत कया आ है और
वह चाहे जतना सुख द या संतोषदायक हो, स य तो नह है। यह सोचना एक ां त है क यान क कोई णाली,
दै नक जीवन म कुछ तय ण के लए उस णाली का नरंतर अ यास अथवा दन के दौरान उसक आवृ —यह
सब प ता या समझ को ज म दे गा। यान इस सबसे परे है और जैसे वचार ारा ेम का संवधन नह कया जा
सकता, वैसे ही इसके ारा यान का संवधन संभव नह है। जब तक यान करने हेतु वचारक मौजूद है, यान
केवल उस आ म-अलगाव का ही ह सा है जो के दै नक जीवन क एक आम ग त व ध है।
यान म कोई यानकता नह होता। य द वह है, तो यह यान नह है।
यान मन क वह थ त है जो सब कुछ पूण अवधान के साथ दे खती है—सम ता म, अंश म नह । और
आपको कोई यह नह सखा सकता क अवधानयु कैसे ह । य द कोई णाली आपको यह सखाती है क
अवधानयु कैसे होते ह, तब आपका यान-अवधान बस उस णाली पर होता है, और वह तो अवधान नह है।
जब आप कसी वृ को, या अपने पड़ोसी के चेहरे को, या अपनी प नी या प त के चेहरे को दे खते ह और य द
आप उसे मन के उस गुण-धम के साथ दे खते ह जो पूरी तरह खामोश है, तब आप कुछ ऐसा दे ख पाते ह जो
बलकुल नया है। मन का ऐसा मौन कोई उपल ध नह है जसे कसी अ यास के मा यम से अ जत कया जा
सके। य द आप कसी व ध का अ यास करते ह तो आप अभी भी एक ब त छोटे घेरे म रह रहे होते ह जसे ‘म’
के प म वचार ने ही न मत कया है, वह ‘म’ जो अ यास कर रहा है, आगे बढ़ रहा है। वह घेरा ं से भरा है,
इसक अपनी उपल धय और असफलता से भरा है और ऐसा मन कभी मौन नह हो सकता, यह चाहे जो कर
ले।
यान है मन को ात से र करना। वह ात अतीत है। यह र करना संचय कर लेने के बाद नह होता,
अ पतु इसका अ भ ाय है सं चत ही न करना। जो हो चुका है, उसे केवल वतमान म र कया जा सकता है,
वचार ारा नह ब क कृ य ारा। अतीत है न कष से न कष तक क ग त व ध तथा ‘जो है’ का उस न कष
ारा मू यांकन। सम त मू यांकन न कष है, चाहे यह अतीत का हो या वतमान का, और यह न कष ही है जो
ात से मन को नरंतर र नह होने दे ता; इस लए क ात हमेशा ही न कष है, संक प है।

ात संक प का कृ य है, और कायरत संक प ात क नरंतरता है, अतएव संक प के कृ य ारा मन को र


कर पाना भला कैसे संभव हो सकता है!
हमारा सारा जीवन वचार पर आधा रत है जो प रमेय है, जसे मापा जा सकता है। यह ई र को मापता है, यह
अ य के साथ अपने संबंध को छ व के मा यम से मापता है। जैसा क यह सोचता है क इसे होना चा हए, उसी के
अनुसार यह वयं को बेहतर बनाने क को शश करता है। अतः अनाव यक प से हम मापन क एक नया म
रहते ह, और उस नया के साथ ही हम एक ऐसे व म वेश करना चाहते ह जहां कोई भी मापन नह है। यान
है ‘जो है’ को दे खना और उसके पार जाना—मापन को दे खना और उस मापन के पार जाना।
यान है चेतना कअंतव तु को र करना। यही यान का अथ और गहराई है, सम त अंतव तु का खाली कया
जाना— वचार का अपने समापन तक आना।

यान ऐसा अवधान, ऐसा होश है जसम कोई अंकन नह होता। आम तौर से म त क लगभग सब कुछ अं कत
करता है, आवाज़ को, इ तेमाल कये जा रहे श द को यह कसी टे प क तरह अं कत करता रहता है। अब, या
म त क के लए संभव है क जो अं कत करना पूरी तरह ज़ री है, उसे छोड़ कर और कुछ भी अं कत न करे।
मुझे कोई अपमान य अं कत करना चा हए? यह अनाव यक है। मुझे कसी भी तरह का आहत होना य अं कत
करना चा हए? इस लए वही अं कत कर जो क दै नक जीवन म काय करने के लए आव यक है—एक
तकनी शयन, एक लेखक इ या द के तौर पर— कतु मनोवै ा नक तौर पर कुछ भी अं कत न कर। यान म
मनोवै ा नक प से कुछ भी अं कत नह होता, बस जीवन के ावहा रक त य —कायालय जाना, फै टरी म
काम करना इ या द—के अ त र कोई अंकन नह होता। अ य कुछ भी अं कत नह होता। इससे पूण मौन का
आगमन होता है य क वचार का अंत हो चुका है— सवाय इसके क यह केवल तभी काम करे जहां यह पूरी तरह
से आव यक हो। समय का अंत हो चुका है, और एक पूरी तरह से भ कार क ग तशीलता है, मौन क
ग तशीलता।
या आप सजगता का अ यास कर सकते ह? य द आप सजगता का ‘अ यास’ कर रहे ह, तो आप अनवधान म
ह, असावधान ह। तो इस असावधानता के त सजग हो जाएं, आपको कसी अ यास क दरकार नह पड़ेगी।
आपको बमा, चीन, भारत जैसी जगह पर नह जाना पड़ेगा, जो रोमानी तो ह, पर त या मक नह । मुझे याद आता
है क भारत म एक बार म कुछ लोग के साथ कार म सफर कर रहा था। म आगे क सीट पर ाइवर के साथ बैठा
था। पीछे तीन बैठे थे जो सजगता के बारे म बात कर रहे थे, मुझसे चचा करना चाह रहे थे क सजगता या
है। कार ब त तेज़ी से जा रही थी। सड़क पर कोई बकरी थी, ाइवर ने ब त यान नह दया और वह बेचारी कार
के नीचे आ गई। पीछे बैठे स जन अब भी सजगता पर चचा कर रहे थे, पर उनम से कसी को भी पता ही नह
चला क हो या गया था। आप हंस रहे ह, पर हम सब ऐसा ही तो कया करते ह।
यान के पूण अवधान म, पूरे होश म, जानना नहहोता, न पहचानने क या होती है, और न ही जो हो चुका है
उसक मृ त होती है। समय और वचार का पूरी तरह अवसान हो चुका होता है य क उनसे ही तो वह क बनता
है जो वयं अपनी को सी मत कर लेता है।

काश के ण म वचार वस जत हो जाता है, और उसे अनुभव और मरण करने का कोई भी सचेतन यास तो
वह श द है जो अतीत है, जो था। और श द कभी भी यथाथ नह होता। उस ण म—जो समय के अंतगत नह है
—आ यं तक, परम ही ता का लक होता है, कतु उस परम का कोई तीक नह है, वह परम कसी , कसी
ई र क प र ध म नह है।
सारा ए शया यान क चचा कया करता है; यह उनक आदत म से एक है, जैसे क ई र म या कसी अ य
चीज़ म व ास करना एक आदत है। वे एक शांत कमरे म दस मनट के लए बैठते ह और ‘ यान’ करते ह, एका
हो जाते ह, अपने मन को कसी छ व पर क त कर लेते ह, जो छ व या तो उनक अपनी बनायी होती है या कसी
और क गढ़ होती है जसने उस छ व, उस तमा को चार के मा यम से पेश कया होता है। उन दस मनट म वे
मन को नयं त करने का यास करते ह, मन पीछे या आगे जाना चाहता है और वे उसके साथ संघष करते रहते
ह। वे इस खेल को हमेशा खेला करते ह और इसी को वे ‘ यान’ कहते ह।

य द कसी को यान के बारे म कुछ भी मालूम नह है, तो उसे पता लगाना होगा क यह या है—यह व तुतः या
है, न क कसी के अनुसार, और तब हो सकता है क यह को न-कुछ म ले जाये, या हो सकता है क यह
उसे सब-कुछ म ले जाये। बना कसी अपे ा के हम यह अ वेषण करना होगा, यह पूछना होगा।
हम म से अ धकतर के लए, सुंदरता कसी व तु म होती है, कसी इमारत म, बादल म, पेड़ क आकृ त म,
कसी खूबसूरत चेहरे म। या सुंदरता ‘वहां बाहर’ है, या यह उस मन क गुणव ा है जसम कोई व-क त
ग त व ध नह हो रही? य क आनंद क तरह, स दय का बोध, उसक समझ भी यान म अ नवाय है।
यान है मन को सम त वचार से र करना, य क वचार तथा भाव ऊजा का रण करते ह। वे दोहराव भर
होते ह व यां क याकलाप को न मत करते ह जो क अ त व का एक ज़ री ह सा है पर है वह एक ह सा
ही, और वचार व भाव जीवन क वराटता म संभवतः वेश नह कर सकते। एक नतांत भ , एक बलकुल
अलग तरह क प ंच आव यक है, आदत, साहचय और ात का माग नह , इस सबसे तो मु होना होगा। यान
मन को ात से र करना है। ऐसा वचार ारा या वचार के छ संकेत ारा नह कया जा सकता, न ाथना
के प म इ छा के मा यम से ऐसा हो सकता है और न ही यह श द , छ वय , आशा व अह म यता के प म
वयं को भुला दे ने वाले स मोहन के ज़ रये संभव है। इन सब का तो सहजता से, बना कसी यास, बना कसी
चयन के, सजगता क लौ म अंत कर दे ना होता है।
केवल न ल मन ही यह समझ सकता है क मौन मन म एक ऐसी ग तशीलता होती है जो बलकुल भ होती
है। इसे कभी श द म नह कया जा सकता य क यह अवणनीय है। जसका वणन हो सकता है वह उतना
ही है जो आपको इस ब , इस जगह तक ले आये जहां आपने न व रख द है और एक न ल मन क
आव यकता, उसका सच और उसका स दय दे ख लया है।
यान वतमान क नद षता है अतएव यह सदै व एकाक होता है। जो मन वचार से अनछु आ, पूणतः एकाक
होता है, संगृहीत करना बंद कर दे ता है। इस लए मन को र करना हमेशा वतमान म होता है। जो मन एकाक है,
उसके लए भ व य—जो क अतीत का ही पहलू है— तरो हत हो जाता है। यान तो एक ग तशीलता है, न क
कोई न प या उपल ध करने हेतु कोई ल य।
या आपने दन के दौरान कभी बना कसी तम म के, बना कुछ सुधारे सावधान-सचेत होने क , बना कसी
चयन के सजग होने क , अपने वचार को, अपने योजन को, आप या कह रहे ह, कैसे आप बैठे ह, श द को,
संकेत को योग करने के अपने तरीक को दे खने क —बस दे खने-मा क को शश क है?
या मन चुप हो सकता है? मुझे नह मालूम क जब आप इस सम या को दे खते ह, जब आप इस उ कृ , सू म
मन के होने क , जो पूरी तरह मौन है, आव यकता को, इसके स य को दे खते ह, तो आप या करने वाले ह? ऐसा
कैसे संभव हो? यही यान क सम या है य क मा ऐसा मन ही धा मक मन है। केवल ऐसा मन ही पूरे जीवन को
एक इकाई के प म, एक संयु घटना के प म दे ख पाता है, खं डत प म नह । अतएव केवल ऐसा मन ही
संपूणता से कम करता है, वखं डत प से नह , य क ऐसे कम का उद्गम पूण न लता से होता है।
या यह आमूल आंत रक ां त त ण हो सकती है? यह त ण हो सकती है जब आप इस सब के खतरे को
दे ख ल। यह ऐसा ही है जैसे कसी उ ुंग च ान के खतरे को, कसी जंगली जानवर के, कसी सांप के खतरे को
दे ख लेना; तब त काल कम होता है। ले कन हम इस सारे वखंडन के खतरे को दे खते ही नह है जो तब खड़ा होता
है जब ‘ व’, ‘म’ मह वपूण बन जाता है—और ‘म’ तथा ‘म नह ’ का वखंडन सामने आता है। जस ण आपके
भीतर वखंडन होता है, ं होता ही है; और ं ही वकृ त का, ता का मूल है। अतः के लए यह
आव यक है क वह यान के स दय का वतः ही पता लगाये, य क तब मन वतं तथा सं कारमु होने के
कारण उसका बोध कर पाता है जो स य है।
यान व तुतः मन को पूरी तरह से र कर लेना है। तब केवल शरीर के काय होते रहते ह; केवल शरीर क ,
अवयव-सं थान क ग त व ध जारी रहती है, उसके अ त र और कुछ नह ; तब वचार ‘यह म’ और ‘यह म नह ’
से तादा य कये बना, पहचान जोड़े बना काय करता है। वचार यां क होता है, जैसे क शरीर-संरचना यां क
है। ं इस बात से उ प होता है क वचार अपना तादा य अपने अंश म से एक के साथ कर लेता है, अपनी
पहचान उससे जोड़ लेता है, जो ‘म’, व और उस व के व वध वभाजन बन जाते ह। व क कसी भी समय कोई
आव यकता नह है। शरीर के अलावा और कुछ नह है, और एक मु मन तभी संभव है जब वचार ‘म’ को ज म
नह दे रहा होता।
हम अतीत के इस को वा तव म समझ लेना होगा—बीते कल के प म अतीत आज के मा यम से, जो भी
कल आ है उससे आने वाले कल को आकार दे ता रहता है। या मन, जो समय का, म वकास का प रणाम है,
अतीत से मु हो सकता है? जसका अथ है मृत होना। केवल वही मन जो इस कार मृत होना जानता है, यान
का पश कर पाता है। इस सब को समझे बना, यान करने क को शश करना बचकानी क पना मा है।
यान गंभीरतम चीज़ म से एक है। आप इसे पूरे दन कर सकते ह—कायालय म, घर-प रवार म या जब आप
कसी से कहते ह, “मुझे तुमसे ेम है”, या जब आप अपने ब च के बारे म सोचते- वचारते ह। और तब आप
पढ़ाने- लखाने के बाद उनका रा ीयकरण कर दे ते ह, एक सै नक बना दे ते ह क जाओ, मारो-काटो, झंडे क पूजा
करो। आप उ ह पढ़ाते- लखाते ह ता क वे आधु नक जगत के कसी-न- कसी फंदे और मोहजाल म आराम से समा
जाय। इस सबका नरी ण करना, इसम अपनी भू मका को दे खना और एहसास करना—ये सब यान के ही अंग
ह। और जब इस तरह आप यान करते ह, तो इसम आपको एक अपूव स दय का दशन होता है। तब हर ण आप
स यक ढं ग से काय करगे एवं जयगे, और अगर कसी खास ण आप ऐसा करने से चूक भी जाय तो कुछ फक
नह पड़ता, आप पुनः यान के छोर को पकड़ लगे—आप प ा ाप म समय नह गंवायगे। यान जीवन का ही अंग
है—जीवन से भ नह ।
नया के सफर के दौरान जब हम गरीबी क भयावह दशा को तथा मनु य के मनु य से संबंध क कु पता को
दे खते ह, तो यह बात सु प हो जाती है क एक पूण ां त का घ टत होना आव यक है। एक भ कार क
सं कृ त का अ त व म आना ज़ री है। पुरानी सं कृ त करीब-करीब मर चुक है, तो भी हम इससे चपटे ए ह।
जो युवा ह, वे इसके खलाफ बगावत करते तो ह, परंतु भा य से उ ह मनु य के सारभूत वभाव अथात मन को
पांत रत करने का कोई ढं ग या कोई साधन नह मल पाया है। जब तक एक गहन मान सक ां त नह होती,
केवल प र ध म सुधार से कोई असर नह पड़ने वाला है। यह मान सक ां त—जो मेरी म एकमा ां त है—
यान के ारा ही संभव है।
पूणतया कुछ न होने का अथ है मापन के पार हो जाना।
स दय का अथ है संवेदनशीलता—शरीर जो क संवेदनशील है, जसका ता पय है सही आहार, जीने का सही
तरीका, और आप अगर इतनी र तक आ गए ह तो आपके जीवन म ऐसा होता ही है। मुझे उ मीद है क आप ऐसा
करगे या कर ही रहे ह गे; तब मन ला ज़मी तौर पर, सहज ही, अनजाने ही चुप हो जाता है। आप मन को खामोश
कर नह सकते य क आप ही तो उप व और शरारत क जड़ ह, आप वयं ही बेचैन, च तत, द मत ह—आप
कैसे मन को शांत कर सकते ह। परंतु जब आप समझ लेते ह क खामोशी या है, जब आप समझ लेते ह क
व म या है, ख या है और या ख का कभी अंत हो सकता है, और जब आप समझ लेते ह क सुख,
मनो वलास या है, तो इस सारी समझ के चलते एक असाधारण प से मौन मन का आगमन होता है, आपको इसे
खोजना नह पड़ता। शु आत आपको शु से ही करनी होती है एवम् पहला कदम ही आ खरी कदम होता है, और
यही यान है।
अनुभव क अथव ा या है? या इसक कोई साथकता है? या अनुभव उस मन को जगा सकता है जो सोया
आ है, जो कुछ खास न कष तक प ंच चुका है तथा व ास से सं कारब , उनक गर त म है? या अनुभव
उसे जगा सकता है, इस सारे ताने-बाने को व त कर सकता है? और या ऐसा मन—इतना सं कार त, अपनी ही
सम या , हताशा और ख से इतना बो झल— कसी चुनौती का यु र दे सकता है? या यह ऐसा कर पाता
है और य द ऐसा मन यु र दे ता भी है, तो या वह यु र नाकाफ नह होगा और इस लए अ धका धक ं
क ओर नह ले जाएगा?
ेम यान है। ेम कोई मृ त, वचार ारा सुख के प म कायम कोई छ व नह है, न ही यह कता ारा
न मत-पो षत कोई रोमानी छ व है; यह तो कुछ ऐसा है जो सम त इं य के पार है, जीवन के सारे आ थक तथा
सामा जक दबाव से परे है। इस ेम का त ण बोध, इसी पल एहसास ही यान है, इस ेम क जड़ बीते कल म
नह होत ; इस लए क ेम स य है, और यान इस स य के स दय का अ वेषण है।
जब मा शरीर-सं थान, मनोदै हक संरचना हो, बना कसी व के, तो बोध कभी वकृत नह हो सकता, चाहे वह
बोध ज य हो या से परे का। केवल ‘जो है’ को दे खना होता है और वही य बोध ‘जो है’ के पार चला
जाता है। मन को र करना वचार क ग त व ध अथवा बौ क या नह है। बना कसी तरह क वकृ त के
‘जो है’ उसे लगातार दे खना ही सहज प से मन को सम त वचार से र कर दे ता है, हालां क वही मन जब
ज़ री हो तब वचार का इ तेमाल कर सकता है। वचार यां क है तथा यान यां क नह है।
जब मन और म त क तथा शरीर म संपूण सुसंग त हो, सम वरता हो, तो वे मौन होते ही ह—ऐसा मौन जसे
कोई शामक औष ध ले लेने से या श द क आवृ से न मत न कया गया हो, वह चाहे सं कृत का कोई श द हो
या ‘आवेमा रया’ हो। दोहराने से तो आपका मन मंद, सु त बन सकता है, और जो मन तं ा म है, वह स य को भला
कैसे खोज पाएगा। स य तो कुछ ऐसा है जो सारा समय नया होता है—श द ‘नया’ भी उपयु नह है, यह तो
व तुतः कालातीत, समय के पार होता है।

मौन क व मानता आव यक है। मौन न तो शोर का वपरीत है, न ही यह मनोगत बड़-बड़ क समा त है; यह
नयं ण का, ऐसा कह दे ने का प रणाम नह है क “म मौन र ंगा”, वह तो फर एक अंत वरोध ही आ। जब आप
कहते ह क “म ऐसा क ं गा”, तो एक ऐसी ह ती का होना ज़ री हो जाता है जो मौन होना तय करे तथा उसका
अ यास करने लगे जसे वह मौन कहता है। ऐसा करना तो वभाजन, अंत वरोध व वकृ त ही लाता है।
यान रोज़मरा के वचार तथा भाव से परे क अनुभू त मा नह है, न ही यह य बब एवम् व वध आनंद क
ललक, उनक दौड़ है। एक अप रप व और म लन ु मन व तीण होती चेतना के य बब तथा इसक अपनी
सं कारब ता के अनु प पहचानी जा सकने वाली अनुभू तय से गुज़र सकता है, गुज़रता भी है। यह अप रप वता
वयं को इस संसार म सफल बनाने और स व कु या त उपल ध करने म खूब स म हो सकती है। जन
गु का इस अप रप वता ारा अनुसरण कया जाता है, वे भी उसी क मा नद ल ण और अव था वाले होते ह।
इन सब का यान से कोई सरोकार नह है। यान साधक के लए नह है, य क साधक को वही मलता है जो वह
चाहता है, और जो व ां त वह इससे पाता है, वह उसके अपने ही भय और आतंक क नै तकता है।
व ास और मतांधता म जकड़ा यान के आयाम म कभी वेश नह कर पाता, वह चाहे जो करता रहे।
यान के लए वतं ता अ नवाय है। ऐसा नह है क पहले यान, और उसके बाद वतं ता; ब क वतं ता—
सामा जक नै तकता और मू य का पूण नषेध— यान क ाथ मक ग तशीलता है। यह कोई सावज नक मामला
नह है क ब त सारे लोग शा मल हो कर ाथनाएं आयो जत कर। यान तो एकाक होता है और सामा जक
आचार-प त क सीमा से सदै व परे होता है। स य वचार ारा न मत व तु म नह होता। जसे वचार गढ़
लेता है और स य कहकर पुकारने लगता है, स य उसम भी नह होता। वचार क इस सम त संरचना का पूण
नषेध ही यान क वधायकता है।
यान सदै व नया होता है। इसम अतीत का पश नह होता य क इसक कोई नरंतरता नह होती। ‘नया’ श द
उस अ भनवता, उस ताज़गी के गुण-धम को सं े षत नह करता जो अपूव है, जो पहले कभी नह आ। यह
मोमब ी क उस लौ क तरह है, जसे बुझाया गया तथा पुनः जला लया गया। नयी लौ पुरानी लौ नह है, हालां क
मोमब ी वही है। यान म सात य तभी पाया जाता है जब वचार इसे रंग व आकार दे ता है और कोई योजन दान
कर दे ता है। वचार ारा यान को दया गया योजन और अथ समयाव ध का बंधन बन जाता है। परंतु जस यान
को वचार ने पश नह कया है, उसक अपनी ग तशीलता होती है जो समय क ग त नह है। समय म न हत है
पुराने और नये का वाह, जो बीते कल क जड़ से आकर आने वाले कल को ग त दे रहा है। परंतु यान म एक
पूणतः भ फुटन है, खल उठना है। यह बीते कल के अनुभव का प रणाम नह है, और इसी लए इसक जड़
समय म कह नह ह। इसक नरंतरता समय क नरंतरता नह है। यान के संदभ म नरंतरता श द का योग म
म डालने वाला है, य क जो कल आ था, आज वही घ टत नह हो रहा है।
आज का यान नूतन जागृ त है, अ छाई के स दय का नूतन फुटन है।
यान है श द का अंत। मौन कसी श द ारा वृ नह होता, श द तो वचार है। मौन से जस कम का उद्भव
होता है, वह श द से ज मे कम से पूरी तरह भ है। यान है मन का सभी तीक , छ वय और मृ तय से मु हो
जाना।
र मन मांग क वेद पर नह खरीदा जा सकता; यह तब अ त व म आता है जब वचार अपनी खुद क
ग त व धय के त सजग हो—हम वचारक ारा वचार के त सजग होने क बात नह कर रहे।
अनुवाद-संदभ

अनुवाद म पूरी सावधानी बरतने के बाद भी इसम कुछ ु टयां रह सकती ह; इसे बेहतर बनाने क गुंजाइश तो
हमेशा बनी रहती है। इस संबंध म कसी भी आलोचना या सुझाव का हम वागत करगे और आगामी सं करण म
अपे त प रवतन कये जा सकगे। आपक ब मू य ट प णय क हम ती ा रहेगी।
अनुवादक

प - वहार का पता :
अनुवाद एवम् काशन को
कृ णमू त टडी सटर, के.एफ.आई.
राजघाट फोट, वाराणसी-221 001
tpcrajghat@gmail.com
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जे. कृ णमू त क अ य पठनीय पु तक

आपको अपने जीवन म या करना है?


जीवन से जुड़े जीवंत का गहन अ वेषण जे. कृ णमू त का बीसव सद के मनोवै ा नक व शै क वचार म
मौ लक तथा ामा णक योगदान है। यह पु तक उनक व भ पु तक से संक लत अपने कार का पहला सं ह
है, जसम वशेषकर युवा वग को श ा तथा जीवन के वषय म कृ णमू त क वशद का व थत एवं
मब प रचय ा त होता है।

ई र या है?
जे. कृ णमू त क च चत और लोक य पु तक म एक पु तक है। यह पु तक उस पावन परमा मा के लए हमारी
खोज को के म रखती है।

क ठनाइय , वप य , ःख, क और असमंजस म घरा जब कसी परमस ा से मागदशन और सहायता


क आशा करता आ आ था क ओर लौटता है तो उस ‘रह यमय परमस ा’ क वा त वकता और खोज भी
करता है। यही से उठते ह ‘म या ँ’—‘ई र या है?’

जे. कृ णमू त ापक ववेचन करते ए प करते ह क जब हम अपनी वैचा रकता के मा यम से खोजना बंद कर
द तभी हम यथाथ, स य अथवा आनंद क अनुभू त कर पाएंग।े

श ा या है?
या आप वयं से यह नह पूछते क आप य पढ़- लख रहे ह? या आप जानते ह क आपको श ा य द जा
रही है और इस तरह क श ा का या अथ है? इस पु तक म जीवन से संबं धत युवा मन के ऐसे अनेक पूछे-
अनपूछे ह और जे. कृ णमू त क रदश इन को मानो भीतर से आलो कत कर दे ती है, पूरा समाधान
कर दे ती है। ये श ा के बारे म ह, कतु सब एक- सरे से जुड़े ह।
दशन : सं कृ त : धम

भारतीय दशन (दो ख ड) / डॉ. एस. राधाकृ णन्


व व यात दाश नक तथा भारत के पूव रा प त डॉ. एस. राधाकृ णन क भारतीय दशन के सभी प पर
अ धकृत जानकारी दे ने वाली यह बृहद कृ त बीसव शता द म थम काशन के समय से ही अपने वषय क
सबसे मह वपूण तथा ामा णक पु तक मानी जाती है। यह वै दक युग से आर भ करके उप नषद्, पुराण, गीता,
षड् दशन, बौ तथा जैन धम-दशन का सांगोपांग ववेचन वतमान युग क भाषा म तुत करती है।

उप नषद का संदेश / डॉ. एस. राधाकृ णन्


भारतीय दशन म उप नषद के च तन क गहरी छाप है। उप नषद मानव जीवन के सभी आधारभूत वषय को
अपने वचार का वषय बनाती ह। व व यात दाश नक डॉ. राधाकृ णन ने अपनी पु तक म भारतीय दशन के
व वध प का मानक ववेचन तुत कया है। इस पु तक म उ ह ने सभी मुख अठारह उप नषद (ईश, केन,
मठ, , मु डक, मा डू य, ेता तर, कौषीतक , छा दो य, बृहदार यक आ द) के वचार को बड़े सरल और
प ढं ग से तुत कया है। पढ़ने और मनन करने यो य अ य त उपयोगी थ।

भारतीय सं कृ त : कुछ वचार / डॉ. एस. राधाकृ णन्


महान वचारक और दाश नक डॉ. एस. राधाकृ णन भारतीय सं कृ त के मूध य ा याता और समथक थे।
भारतीय सं कृ त का व क अनेक सं कृ तय से तुलना मक अ ययन तुत करते ए उ ह ने तपा दत कया
है क भारतीय सं कृ त धम को जीवन से अलग करने क बात नह मानती, अ पतु वह मानती है क धम ही जीवन
क ओर ले जाने वाला माग है और भारतीय सं कृ त के आ या मक अ वेषण से मानव मा का जीवन उ त हो
सकता है।
जे. कृ णमू त क अ य पठनीय पु तक

यान
महान दाश नक जे. कृ णमू त क वाता तथा लेखन से संक लत सं त उ रण का यह ला सक सं ह ‘ यान’
के संदभ म उनक श ा का सार तुत करता है—अवधान क , होश क वह अव था जो वचार से परे है, जो
सम त ं , भय व ःख से पूणतः मु लाती है जनसे मनु य-चेतना क अंतव तु न मत है। इस प रव त
सं करण म मूल संकलन क अपे ा कृ णमू त के और अ धक वचन संगृहीत ह, जनम कुछ अब तक अ का शत
साम ी भी स म लत है।

ई र या है?
जे. कृ णमू त क च चत और लोक य पु तक म एक पु तक है। यह पु तक उस पावन परमा मा के लए हमारी
खोज को के म रखती है।

क ठनाइय , वप य , ःख, क और असमंजस म घरा जब कसी परमस ा से मागदशन और सहायता


क आशा करता आ आ था क ओर लौटता है तो उस ‘रह यमय परमस ा’ क वा त वकता और खोज भी
करता है। यही से उठते ह ‘म या ँ’—‘ई र या है?’

जे. कृ णमू त ापक ववेचन करते ए प करते ह क जब हम अपनी वैचा रकता के मा यम से खोजना बंद कर
द तभी हम यथाथ, स य अथवा आनंद क अनुभू त कर पाएंग।े

श ा या है?
या आप वयं से यह नह पूछते क आप य पढ़- लख रहे ह? या आप जानते ह क आपको श ा य द जा
रही है और इस तरह क श ा का या अथ है? इस पु तक म जीवन से संबं धत युवा मन के ऐसे अनेक पूछे-
अनपूछे ह और जे. कृ णमू त क रदश इन को मानो भीतर से आलो कत कर दे ती है, पूरा समाधान
कर दे ती है। ये श ा के बारे म ह, कतु सब एक- सरे से जुड़े ह।
जे. कृ णमू त क अ य पठनीय पु तक

आपको अपने जीवन म या करना है?


जीवन से जुड़े जीवंत का गहन अ वेषण जे. कृ णमू त का बीसव सद के मनोवै ा नक व शै क वचार म
मौ लक तथा ामा णक योगदान है। यह पु तक उनक व भ पु तक से संक लत अपने कार का पहला सं ह
है, जसम वशेषकर युवा वग को श ा तथा जीवन के वषय म कृ णमू त क वशद का व थत एवं
मब प रचय ा त होता है।

सोच या है?
सोचने- वचारने से अपनी सम याएं हल हो जाएंगी ऐसा मनु य का व ास रहा है, परंतु वा त वकता यह है क
वचार पहले तो वयं सम याएं पैदा करता है, और फर अपनी ही पैदा क गई सम या को हल करने म उलझ
जाता है। एक बात और, वचार करना एक भौ तक या है। कृ णमू त प करते ह क वतं ता का, मु का
ता पय है के म त क पर आरो पत इस ‘ नयोजन’ से, इस ‘ ो ाम’ से मु होना। इसके मायने ह अपनी
सोच का, वचार करने क या का वशु अवलोकन; इसके मायने ह न वचार अवलोकन—सोच क
दखलंदाज़ी के बना दे खना। ‘अवलोकन अपने आप म ही एक कम है’, यही वह ा है जो सम त ां त तथा भय
से मु कर दे ती है।

थम और अं तम मु
इस पु तक म जे. कृ णमू त क अंत य का ापक व सारग भत प रचय तथा उनम सहभा गता का चुनौती-भरा
नमं ण ा त होता है। कृ णमू त क श ा के व वध सरोकार का समावेश इस एक पु तक म उपल ध है जो
अं ेज़ी पु तक ‘द फ ट एंड ला ट डम’ का अनुवाद है। इस पु तक का काशन 1954 म आ था ले कन आज
भी यह पु तक कृ णमू त क सवा धक पढ़ जाने वाली पु तक म से एक है।

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