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अब लौं नसानी, अब न नसैहों।

रामकृपा भव-निसा सिरानी जागे फिर न डसैहौं॥


पायो नाम चारु चिंतामनि उर करतें न खसैहौं।
स्याम रूप सचि
ु रुचिर कसौटी चित कंचनहिं
कसैहौं॥
परबस जानि हँस्यो इन इंद्रिन निज बस ह्वै न
हँसैहौं।
मन मधप
ु हिं प्रन करि, तल
ु सी रघप
ु ति पदकमल
बसैहौं॥

भावार्थ : अब तक तो (यह आयु व्यर्थ ही ) नष्ट हो गयी,


परन्तु अब इसे नष्ट नहीं होने दं ग
ू ा। श्री राम की कृपा से
संसाररूपी रात्रि बीत गयी है (मैं संसार की माया-रात्रि से
जग गया हूँ ) अब जागने पर फिर माया का बिछौना नहीं
बिछाऊंगा, अब फिर माया के फंदे में नहीं फसूंगा।
मझ
ु े रामनाम रूपी सन्
ु दर चिंतामणि मिल गयी है । उसे
हृदय रुपी हाथ से कभी नहीं गिरने दं ग
ू ा अथवा हृदय से
रामनाम का स्मरण करता रहूँगा और हाथ से राम नाम
की माला जपा करूँगा।श्री रघन
ु ाथ जी का जो पवित्र
श्यामसंद
ु र रूप है , उसकी कसौटी बनाकर अपने चित्तरूपी
सोने को कसूंगा, अर्थात ् यह दे खूंगा कि श्री राम के ध्यान
में मेरा मन सदा- सर्वदा लगता है कि नहीं। जब तक मैं
इन्द्रियों के वश में था, तब तक इन्द्रियों ने (मन माना
नाच नचाकर) मेरी बड़ी हं सी उडाई, परन्तु अब स्वतंत्र होने
पर यानी मन- इन्द्रियों को जीत लेने पर उनसे अपनी हं सी
नहीं कराऊंगा। अब तो अपने मनरूपी भ्रमर को प्रण करके
श्री राम जी के चरण कमलों में लगा दं ग
ू ा, अर्थात ् श्री राम
जी के चरणों को छोड़कर दस
ू री जगह अपने मन को नहीं
जाने दं ग
ू ा।
- गोस्वामी तुलसीदास जी (' विनय-पत्रिका')

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