You are on page 1of 378

प्रेमचिंद

मानसरोवर
भाग 4

www.hindikosh.in
Manasarovar – Part 4

By Premchand

य पुस्तक प्रकाशनाधिकार मुक्त ै क्योंकक इसकी प्रकाशनाधिकार अवधि


समाप्त ो चुकी ैं।

This work is in the public domain in India because its term of copyright
has expired.

यूनीकोड सिंस्करण: सिंजय खत्री. 2012

Unicode Edition: Sanjay Khatri, 2012

आवरण धचत्र: ववककपीडडया (प्रेमचिंद, मानसरोवर झील)

Cover image: Wikipedia.org (Premchand, Manasarovar Lake).

Sanjayacharya

ebookspdf.in
Contents
प्रेरणा ........................................................................................................... 4
सदगतत ...................................................................................................... 18
तगादा........................................................................................................ 29
दो कब्रे ....................................................................................................... 40
ढपोरसिंख .................................................................................................... 60
डडमािंस्रे शन................................................................................................. 86
दारोगाजी.................................................................................................... 98
अभभलाषा ................................................................................................. 109
खुचड़ ....................................................................................................... 117
आगा-पीछा ............................................................................................... 132
प्रेम का उदय ............................................................................................ 158
सती ........................................................................................................ 173
मत
ृ क-भोज ............................................................................................... 184
भूत ......................................................................................................... 208
सवा सेर गें ू ूँ ............................................................................................ 224
सभ्यता का र स्य .................................................................................... 233
समस्या .................................................................................................... 242
दो सखखयाूँ ............................................................................................... 249
माूँगे की घड़ी............................................................................................ 322
नाग-पूजा ................................................................................................. 344
ववनोद ...................................................................................................... 356
प्रेरणा

मेरी कक्षा में सूयप्र


य काश से ज्यादा ऊिमी कोई लड़का न था, बल्कक यों क ो कक
अध्यापन-काल के दस वषों में मेरा ऐसी ववषम प्रकृतत के भशष्य से सामना न
पड़ा था। कपट-क्रीड़ा में उसकी जान बसती थी। अध्यापकों को बनाने और
धचढाने, पररश्रमी बालकों को छे ड़ने और रुलाने में ी उसे आनन्द आता था। ऐसे -
ऐसे षड़यन्त्र रचता, ऐसे ऐसे फन्दे डालता, ऐसे-ऐसे बन्िन बाूँिता कक दे खकर
आश्चयय ोता था। धगरो बन्दी में अभ्यस्त था।

खद
ु ाई फौजदारों की एक फौज बना ली थी और उसके आतिंक से पाठशाला पर
शासन करता था। मख्
ु य अधिष्ठाता (वप्रिंभसपल) का आञा ा टल जाए, मगर क्या
मजाल कक कोई उसके ु क्म की अवञा ा कर सके। स्कूल के चपरासी और अदय ली
उससे थर-थर काूँपते थी। इिंस्पेक्टर का मुआइना ोने वाला था, मुख्य अधिष्ठाता
ने ु क्म हदया कक लड़के तनहदय ष्ट समय से आि घिंटा प ले आ जाए, मगर
मतलब य था कक लड़को को मुआइने के बारे में कुछ जरूरी बातें बता दी जाए।
दस बज गए, इिंस्पेक्टर सा ब आकर बैठ गए, और मदरसे में एक लड़का भी
न ीिं। ग्यार बजे सब छात्र तनकल पड़े, जैसे कोई वपिंजरा खोल हदया गया ो।

इिंस्पेक्टर सा स ने कैकफयत में भलखा - डडसील्प्लन ब ु त खराब ैं।

वप्रिंभसपल सा ब की ककरककरी ु ई, अध्यापक बदनाम ु ए और य सारी शरारत


सूयप्र
य काश की थी, मगर ब ु त पुछ-ताछ करने पर भी ककसी ने सूयप्र
य काश का
नाम तक न भलया, मुझे अपनी सिंचालन-ववधि पर गवय था, रे तनिंग कॉलेज में इस
ववषय में मैंने ख्यातत प्राप्त की थी, मगर य ाूँ मेरा सारा सिंचालन-कौशल जैसे
मोचाय खा गया था। कुछ अक्ल ी काम न करती कक शैतान को कैसे सिंमागय पर
लाए। कई बार अध्यापकों की बैठक ु ई, पर य धगर न खुली। नई भशक्षा-ववधि
के अनुसार में दिं डनीतत का पक्षपाती न था, मगर य ाूँ म इस नीतत से केवल
इसभलए ववरक्त थे कक क ीिं उपचार से रोग असाध्य न ो जाए। सूयप्र
य काश को
स्कूल से तनकाल दे ने का प्रस्ताव भी ककया गया, पर इसे अपनी अयोग्यता का
प्रमाण समझकर म इस नीतत का व्यव ार करने का सा स न कर सके। बीस-
बाईस अनुभवी और भशक्षा-शासत्र से आचायय एक बार -तेर साल के उद्दिंड बालक
का सुिार न कर सकें, य ववचार तनराशाजनक था। यों तो सारा स्कूल उससे
त्राह -त्राह करता था, मगर सबसे ज्यादा सिंकट में मैं था, क्योंकक व मेरी कक्षा
का छात्र था और उसकी शरारतों का कुफल मुझे भोगना पड़ता था।

मैं स्कूल आता, तो रदम य ी खटका लगा र ता था कक दे खें आज क्या ववपल्तत


आती ैं। एक हदन मैंने अपनी मेज की दराज खोली, तो उसमें से एक बड़ा-सा
मेढक तनकल पड़ा। मैं चौंककर पीछे टा तो क्लास में शोर मच गया। उसकी
ओर सरोष नेत्रों से दे खकर र गया। सारा घिंटा उपदे श में बीत गया और व
पट्ठा भसर झक
ु ाए नीचे मस्
ु करा र ा था। मझ
ु े आश्चयय ोता था कक य नीचे की
कक्षाओिं में कैसे पास ु आ था।

एक हदन मैंने गस्


ु से से क ा- 'तम
ु इस कक्षा से उम्र भर न ीिं पास ो सकते।'

सूयप्र
य काश ने अववचभलत भाव से क ा - 'आप मेरे पास ोने की धचन्ता न करें ,
मैं मेश पास ु आ ू ूँ और अबकी भी ू ूँगा।'

'असम्भव!'

'असम्भव सम्भव ो जाएगा!'

मैं आश्चयय से उसका मूँु दे खना लगा। ज ीन-से-ज ीन लड़का भी अपनी


सफलता का दावा इतने तनववयवाद रूप से न कर सकता था। मैंने सोचा - 'व
प्रश्न-पत्र उड़ा लेता ोगा। मैंने प्रततञा ा की, अबकी इसकी एक चाल भी न चलने
दूँ ग
ू ा। दे ख,ूूँ ककतने हदन इस कक्षा में पड़ा र ता ैं। आप घबराकर तनकल
जाएगा।'
वावषयक परीक्षा के अवसर पर मैंने असािारण दे खभाल से काम भलया, मगर जब
सय
ू प्र
य काश का उततर-पत्र दे खा, तो मेरे ववस्मय की सीमा न र ी। मेरे दो पचे थे,
दोनों ी में उसके नम्बर कक्षा में सबसे अधिक थे। मुझे खूब मालूम था कक व
मेरे ककसी पचे का कोई प्रश्न भी ल न ीिं कर सकता। मैं इसे भस्ध कर सकता
था मगर उसके उततर-पत्र का क्या करता! भलवप में इतना भेद न था जो कोई
सन्दे उतपन्न कर सकता। मैंने वप्रिंभसपल से क ा, तो व भी चकरा गए, मगर
उन् ें भी जान-बझ
ू कर मक्खी तनगलनी पड़ी। मैं कदाधचत स्वभाव ी से
तनराशावादी ू ूँ। अन्य अध्यापकों को मैं सय
ू प्र
य काश के ववषय में जरा भी धचल्न्तत
न पाता था। मानो ऐसे लड़को का स्कूल में आना कोई नई बात न ीिं, मगर मेरे
भलए व एक ववकट र स्य था। अगर य ी ढिं ग र े , तो एक हदन या तो जेल में
ोगा, या पागलखाने में ।

उसी साल मेरी तबादला ो गया। यद्यवप य ाूँ की जलवायु मेरे अनुकूल थी,
वप्रिंभसपल और अन्य अध्यापकों से मैत्री ो गई थी। मैं अपने तबादले से खुश

ु आ क्योंकक सूयप्र
य काश मेरे मागय का काूँटा न र े गा। लड़कों ने मुझे ववदाई की
दावत दी और सब-के-सब स्टे शन तक प ु ूँ चाने आए। उस वक्त सभी लड़के
आूँखों में आूँसू भरे ु ए थे। मैं भी अपने आूँसओ
ु िं को न रोक सका। स सा मेरी
तनगा सूयप्र
य काश पर पड़ी, जो सबसे पीछे लल्ज्जत खड़ा था। मुझे ऐसा मालूम

ू आ कक उसकी आूँखें भी भीगी थी। मेरा जी बार-बार चा ता था कक चलते-चलते


उससे दो-चार बातें कर लूँ ।ू शायद व भी मुझसे कुछ क ना चा ता था, मगर न
मैंने प ले बात की, न उसने, ालािंकक मुझे ब ु त हदनों तक इसका खेद र ा।
उसकी खझझक तो क्षमा के योग्य थी, पर मेरा अवरोि अक्षम्य था, सम्भव था,
उस करुणा और ग्लातन की दशा में मेरी दो-चार तनष्कपट बातें उसके हदल पर
असर कर जाती, मगर इन् ीिं खोए ु ए अवसरों का नाम तो जीवन ैं।

गाड़ी मन्द गतत से चली, लड़के कई कदम तक उसके साथ दौड़े, मैं खखड़की से
बा र भसर तनकालें खड़ा था। कुछ दे र मझ
ु े उनके ह लते रूमाल नजर आए। कफर
वे रे खाएूँ आकाश में ववलीन ो गई, मगर एक अकपकाय मतू तय अब भी प्लेटफामय
पर खड़ी थी। मैंने अनम
ु ान ककया व सय
ू प्र
य काश ैं। उस समय मेरा हृदय ककसी
ववकल कैदी की भाूँतत घण
ृ ा, माभलन्य और उदासीनता के बन्िनों को तोड़-तोड़कर
उसके गले भमलने के भलए तड़प उठा।

नए स्थान की नई धचन्ताओिं ने ब ु त जकद मझ


ु े अपनी ओर आकवषयत कर
भलया। वपछले हदनों की याद एक सरत बनकर र गई। न ककसी का खत
आया, न मैंने ी कोई खत भलखा। शायद दतु नया का य ी दस्तूर ैं। वषाय के बाद
वषाय का ररयाली ककतने हदनों र ती ैं। सिंयोग से मुझे इिंग्लैंड में ववद्याभ्यास
करने का अवसर भमल गया। व ाूँ तीन साल लग गए।

व ाूँ से लौटा तो एक कॉलेज का वप्रिंभसपल बना हदया गया। य भसव्ध मेरे भलए
बबककुल आशातीत थी। मेरी भावना स्वप्न में भी इतनी दरू न उड़ी थी, ककन्तु
पदभलप्सा अब ककसी और भी ऊूँची डाली पर आश्रय लेना चा ती थी। भशक्षामिंत्री
से रब्त-जब्त पैदा ककया। मिंत्री म ोदय मझ
ु पर कृपा रखते थे, मगर वास्तव में
भशक्षा के मौभलक भस्ध ान्तों का उन् ें ञा ान न था। मझ
ु े पाकर उन् ोंने सारा भार
मुझ पर डाल हदया। घोडे पर सवार थे, लगाम मेरे ाथ में थी। फल य ु आ कक
उनके राजनैततक ववपक्षक्षयों से मेरा ववरोि ो गया। मुझ पर जा-बेजा आक्रमण
ोने लगे। मैं भस्ध ान्त रूप से अतनवायय भशक्षा का ववरोिी ू ूँ , मेरा ववचार ैं कक
र मनुष्य को उन ववष्यों में ज्यादा स्वािीनता ोनी चाह ए, ल्जनका उनसे तनज
सम्बन्ि ैं। मेरा ववचार ैं कक यरू ोप में अतनवायय भशक्षा की जरूरत ैं , भारत में
न ीिं। भौततकता पल्श्चमी सभ्यता का मूल तततव ैं। व ाूँ ककसी काम की प्रेरणा,
आधथयक लाभ के आिार पर ोती ैं। ल्जन्दगी की जरूरत ज्यादा ैं , इसभलए
जीवन-सिंग्राम भी अधिक भीषण ैं। माता-वपता भोग के दास ोकर बच्चों को
जकद-से-जकद कुछ कमाने पर मजबूर करते ैं। इसकी जग कक य मद का
तयाग करके एक भशभलिंग रोज बचत कर लें , वे अपने कमभसन बच्चों के एक
भशभलिंग की मजदरू ी करने के भलए दबाएूँगें। भारतीय जीवन में साल्तवक सरलता
ैं। म उस वक्त तक बच्चों से मजदरू ी न ीिं कराते, जब तक पररल्स्थतत में
वववश न कर दे । दररद्र-से-दररद्र ह न्दस्
ु तानी मजदरू भी भशक्षा के उपकारों का
कायल ैं। उसके मन में य अभभलाषा ोती ैं कक मेरा बच्चा चार अक्षर पढ
जाए। इसभलए न ीिं कक उसे कोई अधिकार भमलेगा, बल्कक इसभलए की ववद्या
मानवी शील का एक शिंग
ृ ार ैं। अगर य जानकर भी व अपने बच्चें को
मदरसे न ीिं भेजता, तो समझ लेना चाह ए कक व मजबूर ैं। ऐसी दशा में उस
पर कानून का प्र ार करना मेरी दृल्ष्ट में न्याय-सिंगत न ीिं ैं। इसके भसवाय मेरे
ववचार में अभी मारे दे श में योग्य भशक्षकों का अभाव ैं। अ्ध य -भशक्षक्षत और
अकपवेतन पाने वाले अध्यापकों से आप य आशा न ीिं रख सकते ैं कक व
कोई ऊूँचा आदशय आपके सामने रख सकें। अधिक-से-अधिक इतना ोगा कक
चार-पाूँच वषय में बालक को अक्षर-ञा ान ो जाएगा। मैं इसे पवयत-खोदकर चुह या
तनकालने के तुकय समझता ू ूँ । व्यस्कता प्राप्त ो जाने पर य मसला एक
म ीने में आसानी से तय ककया जा सकता ैं । मैं अनुभव से क सकता ू ूँ कक
यव
ु ावस्था में म ल्जनता ञा ान एक म ाने में प्राप्त कर सकते ैं , उतना
बाकयवस्था में तीन साल में भी न ीिं कर सकते, कफर खामख्वा बच्चों को
मदरसे में कैद करने से क्या लाभ? मदरसे के बा र र कर उसे स्वच्छ वायु तो
भमलती ैं, प्राकृततक अनुभव तो ोते। पाठशाला में बन्द करके आप उसके
मानभसक औऱ शारीररक दोनों वविानों की जड़ काट दे ते ैं। इसीभलए जब प्रािंतीय
व्यवस्थापक-सभा में अतनवायय भशक्षा का प्रस्ताव पेश ु आ, तो मेरी प्रेरणा से
भमतनस्टर सा ब ने उसका ववरोि ककया।

नतीजा य ु आ कक प्रस्ताव अस्वीकृत ो गया, कफर क्या था, भमतनस्टर सा ब


की और मेरी व ले-दे शुरू ु ई कक कुछ न पूतछए। व्यक्तगत आक्षेप ककए जाने
लगे। मैं गरीब की बीवी था, मझ
ु े सबकी भाभी बनना पड़ा। मझ
ु े दे शद्रो ी, उन्नतत
का शत्रु और नौकरशा ी का गल
ु ाम क ा गया। मेरे कॉलेज में जरा-सी भी कोई
बात ोती तो कौंभसल में मुझ पर दोषारोपण की वषाय ोने लगती। मैंने एक
चपरासी को पथ
ृ क ककया। सारी कौंभसल पिंजे झाड़कर मेरे पीछे पड़ गई। आखखर
भमतनस्टर सा ब को मजबूर ोकर उस चपरासी को ब ाल करना पड़ा। य
अपमान मेरे भलए असह्य था। शायद कोई भी इसे स न न कर सकता।
भमतनस्टर सा ब से मझ
ु े भशकायत न ीिं। व मजबरू थे। ाूँ, इस वातावरण में
काम करना मेरे भलए दस्
ु साध्य ो गया। मझ
ु े अपने कॉलेज के आिंतररक सिंगठन
का भी अधिकार न ीिं। अमुक क्यों न ीिं परीक्षा में भेजा गया, अमुक के बदले
अमुक को क्यों न ीिं छात्रावतृ त दी गई, अमुक अध्यापक को अमुक कक्षा क्यों
न ीिं दी जाती, इस तर के सार ीन आक्षेपों ने मेरी नाक में दम कर हदया था।
इस नई चोट ने कमर तोड़ दी। मैंने इस्तीफा दे हदया।

मुझे भमतनस्टर सा ब से इतनी आशा अवश्य थी कक व कम-से-कम इस ववषय


में न्याय-परायणता से काम लेंगे, मगर उन् ोंने न्याय की जग नीतत को मान्य
समझा और मुझे कई साल की भल्क्त का य फल भमला कक मैं पदच्युत कर
हदया गया। सिंसार का ऐसा कटु अनभ
ु व मझ
ु े अब तक न ु आ था। ग्र भी कुछ
बरु े आ गए थे। उन् ीिं हदनों पतनी का दे ान्त ो गया। अल्न्तम दशयन भी न कर
सका।

सन्ध्या-समय नदी-तट पर सैर करने गया था। व कुछ अस्वस््य थी। लौटा, तो
उसकी लाश भमली। कदाधचत हृदय की गतत बन्द ो गई थी। इस आघात ने
कमर तोड़ दी। माता के प्रसाद और आशीवायद से बड़े-बड़े म ान पुरुष कृताथय ो
गए ैं। मैं जो कुछ ु आ, पतनी के प्रसाद और आशीवायद से ु आ, व मेरे भाग्य
की वविात्री थी। ककतना अलौककक तयाग था, ककतना ववशाल िैय।य उनके मािुयय
में तीक्ष्णता का नाम भी न था। मुझे याद न ीिं आता कक मैंने कभी उनकी
भक
ृ ु टी सिंकुधचत दे खी ो, व तनराश ोना तो जानती ी न थी। मैं कई बार
सख्त बीमार पड़ा ू ूँ। वैद्य तनराश ो गए, पर व अपने िैयय और शाल्न्त से
अणु-मात्र भी ववचभलत न ीिं ु ई। उन् ें ववश्वास था कक मैं अपने पतत के जीवन-
काल में मरूूँगी और व ी ु आ भी। मैं जीवन में अब तक उन् ीिं के स ारे खड़ा
था! अब व अवलम्ब ी न र ा, तो जीवन क ाूँ र ता। खाने और सोने का नाम
जीवन न ीिं ैं। जीवन का नाम ैं , सदै व आगे बढते र ने की लगन का। य
लगन गायब ो गई। मैं सिंसार से ववरक्त ो गया और एकान्तवास में जीवन के
हदन व्यतीत करने का तनश्चय करके एक छोटे से गाूँव में जा बसा। चारों तरफ
ऊूँचे-ऊूँचे टीले थे, एक ओर गिंगा ब ती थी। मैंने गिंगा के ककनारे एक छोटा-सा
घर बना भलया औऱ उसी में र ने लगा, मगर काम करना तो मानवी स्वभाव ैं।
बेकारी में जीवन कैसे कटता। मैंने एक छोटी-सी पाठशाला खोल ली, एक वक्ष
ृ की
छाूँ में गाूँव के लड़कों का जमा करके कुछ पढाया करता था। उसकी य ाूँ इतनी
ख्यातत ु ई कक आस-पास के गाूँव के छात्र भी आने लगे।

एक हदन जब मैं अपनी कक्षा को पढा र ा था कक पाठशाला के पास एक मोटर


आकर रूकी और उसमें से उस ल्जले के डडप्टी कभमश्नर उतर पड़े। मैं उस समय
केवल एक कुताय और िोती प ने ु ए था। इस वेश में एक ाककम से भमलते
मुझे शमय आ र ी थी। डडप्टी कभमश्नर मेरे पास आए तो मैंने झेंपते ु ए ाथ
बढाया, मगर व मझ
ु से ाथ भमलाने के बदले मेरे पैरों की ओर झक
ु े और उनपर
भसर रख हदया। मैं कुछ ऐसा भसटवपटा गया कक मेरे मूँु से एक शब्द भी न
तनकला। मैं अिंग्रेजी अच्छी भलखता ू ूँ , दशयनशास्त्र का भी आचायय ू ूँ , व्याख्यान भी
अच्छे दे लेता ू ूँ , मगर इन गुणों में एक भी श्र्ध ा के योग्य न ीिं। श्र्ध ा तो
ञा ातनयों और सािुओिं ी के अधिकार ी वस्तु ैं। अगर मैं ब्राह्मण ोता तो
एक बात थी। ाूँलाकक एक भसववभलयन का ककसी ब्राह्मण के पैरों पर भसर
रखना अधचिंतनीय ैं।

मैं अभी इसी ववस्मय में पड़ा था कक डडप्टी कभमश्नर ने भसर उठाया और मेरी
तरफ दे खकर क ा - 'आपने शायद मुझे प चाना न ीिं।'

इतना सुनते ी मेरे स्मतृ त-नेत्र खुल गए, बोला - 'आपका नाम सूयप्र
य काश तो
न ीिं ैं?'

'जी ाूँ, मैं आपका व ी अभागा भशष्य ू ूँ।'

'बार -तेर वषय ो गए।'


सय
ू प्र
य काश ने मस्
ु कराकर क ा - 'अध्यापक लड़कों को भूल जाते ैं, पर लड़के
उन् ें मेशा याद रखते ैं। '

मैने उसी ववनोद के भाव से क ा - 'तुम जैसे लड़कों को भल


ू ना असम्भव ैं।'

सूयप्र
ुय काश ने ववनीत स्वर में क ा - 'उन् ीिं अपरािों को क्षमा कराने के भलए
आपकी सेवा में आया ू ूँ। मैं सदै व आपकी खबर लेता र ता था। जब आप
इिंग्लैंड गए, तो मैंने आपके भलए बिाई का पत्र भलखा, पर उसे भेज न सका। जब
आप वप्रिंभसपल ु ए, मैं इिंग्लैंड जाने को तैयार था, व ाूँ मैं पबत्रकाओिं में आपके लेख
पढता र ता था। जब लौटा तो मालम
ू ु आ कक आपने इस्तीफा दे हदया और
ककसी दे ात में चले गए ैं। इस ल्जले में आए ु ए मुझे एक वषय से अधिक

ु आ, पर इसका जरा भी अनुमान न था कक आप य ाूँ एकान्त सेवन कर र े ैं।


इस उजाड़ गाूँव में आपका जी कैसे लगता ैं ? इतनी ी अवस्था में आपने
वानप्रस्थ ले भलया?'

मैं न ीिं क सकता कक सूयप्र


य काश की उन्नतत दे खकर मुझे ककतना आश्चयय

ु आ। अगर व मेरा पुत्र ोता तो भी इससे अधिक आनन्द न ोता। मैं उसे
अपने झोपड़े में लाया और अपनी रामक ानी क सुनाई।

सूयप्र
य काश ने क ा - 'तो य कह ए कक आप अपने ी भाई के ववश्वासघात के
भशकार ु ए। मेरा अनुभव तो अभी ब ु त कम ैं , मगर इतने हदनों में मुझे मालूम
ो गया ैं, कक म लोग अभी अपनी ल्जम्मेदाररयों को पूरा करना न ीिं जानते।
भमतनस्टर से भें ट ु ई तो पछ
ू ू ूँ गा, कक य ी आपकी िमय था।'

मैने जबाव हदया - 'भाई, उनका दोष न ीिं ैं, सम्भव ैं, इस दशा में मैं भी व ी
करता, जो उन् ोंने ककया। मुझे अपनी स्वाथयभलप्सा की सजा भमल गई और उसके
भलए मैं उनकी ऋणी ू ूँ। बनावट न ीिं, सतय क ता ू ूँ कक य ाूँ मझ
ु े जो शाल्न्त ैं,
व और क ीिं न थी। इस एकान्त-जीवन में कुछ जीवन के तततवों का व ञा ान

ु आ, जो सम्पल्तत और अधिकार की दौड़ से ककसी तर सम्भव न था, इतत ास


और भग
ू ोल के पोथे चाटकर और यरू ोप के ववद्यालयों की शरण में जाकर भी मैं
अपनी ममता को न भमटा सका, बल्कक य रोग हदन-हदन और भी असाध्य ोता
जाता था। आप सीहढयों पर पाूँव रखे बगैर छत की ऊूँचाई तक न ीिं प ु ूँ च सकते,
सम्पल्तत की अट्टाभलका तक प ु ूँचने में दस
ू रो की ल्जन्दगी ी जीनों का काम
दे ती ैं। आप कुचलकर ी लक्ष्य तक प ु ूँ च सकते ैं. व ाूँ सौजन्य और
स ानुभूतत का स्थान ी न ीिं। मुझे ऐसा मालूम ोता ैं कक उस वक्त मैं ह स
िं क
जन्तओ
ु िं से तघरा ु आ था और मेरी शल्क्तयाूँ अपनी आतमरक्षा में ी लगी र ती
थीिं। य ाूँ मैं अपने चारों और सन्तोष और सरलता दे खता ू ूँ । मेरे पास जो लोग
आते ैं, कोई स्वाथय लेकर न ीिं आते और न मेरी सेवाओिं से प्रशिंसा या गौरव की
लालसा ैं।'

य क कर मैंने सय
ू प्र
य काश के च े रे की ओर गौर से दे खा, कपट मस्
ु कान की
जग ग्लातन का रिं ग था। शायद य हदखाने आया था कक आप ल्जसकी तरफ
से इतने तनराश ो गए थे, व अब इस पद को सश
ु ोभभत कर र ा ैं। व मुझसे
अपने सदद्
ु योग का बखान कराना चा ता था, मुझे अब अपनी भूल मालूम ु ई,
एक सम्पन्न आदमी के सामने समवृ ्ध की तनन्दा उधचत न ीिं। मैंने तुरन्त बात
पलट कर क ा - 'मगर तम
ु अपना ाल तो क ो। तम्
ु ारी य काया पलट कैसे

ु ई? तुम् ारी शरारतों को याद करता ू ूँ तो अब भी रोएूँ खड़े ो जाते ैं, ककसी
दे वता के वरदान के भसवा और तो क ीिं य ववभूतत न प्राप्त ो सकती थी।'

सय
ू प्र
य काश ने मस्
ु कराकर क ा - 'आपका आशीवायद था।'

मेरे ब ु त आग्र करने पर सूययप्रकाश ने अपना वत


ृ ान्त सुनाना शुरू ककया -
'आपके चले आने के कई हदनों बाद मेरा ममेरा भाई स्कूल में दाखखल ु आ,
उसकी उम्र आठ-नौ साल से ज्यादा न थी, वप्रिंभसपल सा ब उसे ोस्टल में न लेते
थे और न मामा सा ब उसके ठ रने का प्रबन्ि कर सकते थे। उन् ें इस सिंकट
में दे खकर मैंने वप्रिंभसपल सा ब से क ा - उसे मेरे कमरे में ठ रा दील्जए।
'वप्रिंभसपल सा ब ने इसे तनयम-ववरू्ध बतलाया, इस पर मैंने बबगड़ उसी हदन
ोस्टल छोड़ हदया और एक ककराए का मकान लेकर मो न के साथ र ने लगा।
उसकी माूँ कई साल प ले मर चुकी थी। इतना दब
ु ला-पतला, कमजोर और गरीब
लड़का था कक प ले ी हदन से मुझे उस पर दया आने लगी। कभी उसके भसर
में ददय ोता, कभी ज्वर ो आता। आए हदन कोई-न-कोई बीमारी खड़ी र ती थी।
इिर साूँझ ु आ और झपककयाूँ आने लगी। बड़ी मुल्श्कल से भोजन करने उठता।
हदन चढे सोया करता औऱ जब तक मैं गोद में उठाकर बबठा न दे ता, उठने का
नाम न लेता। रात को ब ु िा चौंक कर मेरी चारपाई पर आ जाता। मेरे गले से
भलपटकर सोता। मुझे उस पर कभी क्रोि न आता। क न ीिं सकता, क्यों उससे
प्रेम ो गया। मैं ज ाूँ प ले नौ बजे सोकर उठता था, अब तड़के उठ बैठता और
उसके भलए दि
ू गरम करता। कफर उसे उठा कर ाथ-मूँु िुलाता और नाश्ता
कराता। उसके स्वास््य के ववचार से तनतय वायु सेवन को ले जाता। मैं जो कभी
ककताब लेकर न बैठता था, उसे घन्टों पढाया करता। मझ
ु े अपने दातयतव का
इतना ञा ान कैसे ो गया, इसका मुझे आश्चयय ैं, उसे कोई भशकायत ो जाती
तो मेरे प्राण नखों मे समा जाते। डॉक्टर के पास दौड़ता, दवाएूँ लाता और मो न
की खुशामद करके दवा वपलाता। सदै व य धचन्ता लगी र ती थी कक कोई बात
उसकी इच्छा के ववरु्ध न जाए, इस बेचारे का य ाूँ मेरे भसवा दस
ू रा कौन ैं? मेरे
चिंचल भमत्रों में से कोई उसे धचढाता या छे ड़ता तो मेरी तयोररयाूँ बदल जाती थी!
कई लड़के तो मझ
ु े बढ
ू ी दाई क कर धचढाते थे, पर मैं ूँस कर टाल दे ता था, मैं
उसके सामने एक अनुधचत शब्द भी मूँु से न तनकालता। य शिंका ोती थी कक
क ीिं मेरी दे खा-दे खी य भी खराब न ो जाए, मैं उसके सामने इस तर र ना
चा ता था कक व मुझे अपना आदशय समझे और इसके भलए य मानी ु ई बात
थी कक मैं अपना चररत्र सुिारूूँ। व मेरा नौ बजे सोकर उठना, बार बडे तक
मटरगश्ती करना, नई-नई शरारतों के मिंसूबे बाूँिना और अध्यापकों की आूँख
बचाकर स्कूल से उड़ जाना, सब आप- ी-आप जाता र ा। स्वास््य और चररत्र
पालन के भस्ध ान्तों का मैं शत्रु था, पर अब मुझसे बढकर तनयमों को रक्षक
दस
ू रा न था। मैं ईश्वर का उप ास ककया करता, मगर अब पक्का आल्स्तक ो
गया था। व बड़े सरल भाव से पछ
ू ता, परमातमा सब जग र ते ैं , तो मेरे पास
भी र तें ोंगे , इस प्रश्न का मजाक उड़ाना मेरे भलए असम्भव था।'

'मैं क ता - ाूँ परमातमा तुम् ारे , मारे सबके पास र ते ैं और मारी रक्षा
करते ैं। य आश्वासन पाकर उसका चे रा आनन्द से खखल उठता था,
कदाधचत व परमातमा की सतता का अनभ
ु व करने लगता था, साल भर में
मो न कुछ से कुछ ो गया।

मामा सा ब दोबारा आए, तो उसे दे कर चककत ो गए। आूँखों में आूँसू भरकर
बोले - बेटा! तम
ु ने इसको ल्जला भलया, न ीिं तो मैं तनराश ो चक
ु ा था, इसका
पुनीत फल तुम् ें ईश्वर दें गे। इसकी माूँ स्वगय में बैठी ु ई तुम् ें आशीवायद दे र ी
ैं।

'सय
ू प्र
य काश की आूँखें भी उस वक्त सजल ो गई थी।

'मैने पूछा - मो न भी तुम् ें ब ु त प्यार करता ोगा?

'सूयप्र
य काश ने सजल नेत्रों में सरत भरा आनन्द कफर चमक उठा, कफर बोला -
व मुझे एक भमनट के भलए भी न छोड़ता था, मेरे साथ बैठता, मेरे साथ खाता,
मेरे साथ सोता, मैं ी उसका सब कुछ था। आ ! व सिंसार में न ीिं ैं, मगर
मेरे भलए व अब भी उसी तर जीता- जागता ैं। मैं जो कुछ ू ूँ , उसी का
बनाया ु आ ू ूँ , अगर व दै वी वविान की भाूँतत मेरा पथ-प्रदशयक न बन जाता, तो
शायद आज मैं ककसी जेल में पड़ा ोता। एक हदन मैंने क हदया था, अगर तुम
रोज न ा न भलया करोगे तो मैं तुमसे न बोलूँ ग
ू ा। न ाने से व न जाने क्यों जी
चुराता था, मेरी िमकी का फल य ु आ कक व तनतय प्रातःकाल न ाने लगा,
ककतनी ी सदी क्यों न ो, ककतनी ी ठिं डी वा चले , लेककन स्नान अवश्य करता
था। दे खता र ता था, मैं ककस बात से खश
ु ोता ू ूँ। एक हदन भमत्रों के साथ
धथयेटर दे खने चला गया, ताकीद कर गया था कक तुम खाना खाकर सो र ना।
तीन बजे रात को लौटा, तो दे खा कक व बैठा ु आ ैं!
मैंने पूछा - तुम सोए न ीिं?

'उसने क ा - नीिंद न ीिं आई।

'उस हदन से मैंने धथयेटर जाने का नाम न भलया। बच्चों में प्यार की जो भूख
ोती ै - दि
ू , भमठाई और खखलौनों से भी ज्यादा मादक, जो माूँ की गोद के
सामने सिंसार की तनधि की भी परवा न ीिं करती, मो न की व भख
ू कभी
सन्तुष्ट न ोती थी। प ाड़ों से टकराने वाली सारस की आवाज की तर व
सदै व उसकी नसों में गूँज
ू ा करता थी। जैसे भूभम पर फैली ु ई लता कोई स ारा
पाते ी उससे धचपट जाती ैं , व ी ाल मो न का था। व मुझसे ऐसा धचपट
गया था कक पथ
ृ क ककया जाता, तो उसकी कोमल बेल के टुकड़े-टुकड़े ो जाते।
व मेरे साथ तीन साल र ा औऱ तब मेरे जीवन में प्रकाश की एक रे खा डालकर
अन्िकार नें ववलीन ो गया। उस जीणय काया में कैसे -कैसे अरमान भरे ु ए थे।
कदाधचत ईश्वर ने मेरे जीवन में एक अवलम्ब की सल्ृ ष्ट के भलए उसे भेजा था।
उद्देश्य पूरा ो गया तो व क्यों र ता।

'गभमययों की तातील थी। दो तातीलों में मो न मेरे साथ ी र ा था। मामाजी के


आग्र करने पर भी घर न आया। अबकी कॉलेज के छात्रों ने कश्मीर-यात्रा करने
का तनश्च ककया और मझ
ु े उसका अध्यक्ष बनाया। कश्मीर यात्रा की अभभलाषा
मझ
ु े धचरकाल से थी। इसी अवसर को गनीमत समझा। मो न को मामाजी के
पास भेजकर मैं कश्मीर चला गया। दो म ीने बाद लौटा तो मालूम ु आ मो न
बीमार ैं। कश्मीर में मुझे बार-बार मो न की याद आती थी और जी चा ता था,
लौट जाऊूँ। मुझे उस पर इतना प्रेम ैं , इसका अन्दाज मुझे कश्मीर जाकर ु आ,
लेककन भमत्रों ने पीछा न छोड़ा। उसकी बीमारी की खबर पाते ी मैं अिीर ो
उठा और दस
ू रे ी हदन उसके पास जा प ु ूँचा। मझ
ु े दे खते ी उसके पीले और
सूखे चे रे पर आनन्द की स्फूततय झलक पड़ी। मैं दौड़कर उसके गले से भलपट
गया। उसकी आूँखों में व दरू दृल्ष्ट और चे रे पर व अलौककक आभा थी जो
मिंडराती ु ई मतृ यु की सच
ू ना दे ती ैं।

'मैने आवेश से काूँपते ु ए स्वर में पूछा - य तुम् ारी क्या दशा ैं मो न? दो
म ीने में य नौबत प ु ूँच गई?

'मो न ने सरल मुस्कान के साथ क ा - आप कश्मीर की सैर करने गए थे, मैं


आकाश की सैर करने जा र ा ू ूँ।

'मगर य दःु ख की क ानी क कर मैं रोना और रूलाना न ीिं चा ता। मेरे चले
जाने के बाद मो न इतने पररश्रम से पढने लगा मानो तपस्या कर र ा ो, उसे
य िुन सवार ो गई थी कक साल भर की पढाई दो म ीने में समाप्त कर ले
और स्कूल खल
ु ने के बाद मझ
ु से इस श्रम का प्रशिंसारूपी उप ार प्राप्त करे । मैं
ककस तर उसकी पीठ ठोकूँू गा, शाबाशी दूँ ग
ू ा, अपने भमत्रों से बखान करूूँगा, इन
भावनाओिं ने अपने सारे बालोधचत उतसा और तकलीनता से उसे वशीभूत कर
भलया। मामाजी को दफ्तर के कामों से इतना अवकाश क ाूँ कक उसके मनोरिं जन
का ध्यान रखें। शायद उसे प्रततहदन कुछ-न-कुछ पढते दे खकर व हदल में खुश
ोते थे। उसे खेलते दे ख कर व जरूर डाूँटते। पढते दे खकर भला क्या क ते।
फल य ु आ कक मो न को कका- कका ज्वर आने लगा, ककन्तु उस दशा में भी
उसने पढना न ीिं छोड़ा। कुछ और व्यततक्रम भी ु ए, ज्वर का प्रकोप और बढा।
पर उस दशा में भी ज्वर कुछ कका ो जाता, तो ककताबें दे खने लगता था।
उसके प्राण मुझमें ी बने र ते थे। ज्वर की दशा में भी नौकरों से पूछता -
भैया का पत्र आया? व कब आएूँगे?

'इसके भसवा औऱ कोई दस


ू री अभभलाषा न थी, अगर मुझे मालूम ोता कक मेरी
कश्मीर यात्रा इतना म ूँगी पड़ेगी, तो उिर जाने का नाम भी न लेता। उसे बचाने
के भलए मुझसे जो कुछ ो सकता था, व मैंने ककया, ककन्तु बुखार टाइफाइड था,
उसकी जान लेकर ी उतरा। उसके जीवन के स्वप्न मेरे भलए ककसी ऋवष के
आशीवायद बनकर मझ
ु े प्रोतसाह त करने लगे और य उसी का शुभ फल ैं कक
आज आप मझ
ु े इस दशा में दे ख र े ैं। मो न की बाल अभभलाषाओिं को प्रतयक्ष
रूप में लाकर मझ
ु े य सन्तोष ोता ैं कक शायद उसकी पववत्र आतमा मझ
ु े
दे खकर प्रसन्न ोती ो। य ी प्रेरणा थी कक ल्जसने कहठन-से-कहठन परीक्षाओिं में
भी मेरा बेड़ा पार लगाया, न ीिं तो मैं आज भी व ीिं मन्दबुव्ध सूयप्र
य काश ू ूँ
ल्जसकी सूरत से आप धचढते थे।'

उस हदन से मैं कई बार सूयप्र


य काश से भमल चुका ू ूँ। व जब इस तरफ आ
जाता ैं, तो बबना मुझसे भमले न ीिं जाता। मो न को व अपना इष्टदे व समझता
ैं। मानव-प्रकृतत का य एक ऐसा र स्य ैं, ल्जसे मैं आज तक न ीिं समझ
सका।
सदगति

दख
ु ी चमार द्वार पर झाडू लगा र ा था और उसकी पतनी झरु रया घर को गोबर
से लीप र ी थी। दोनों अपने-अपने काम से फुसयत पा चक
ु े तो चमाररन ने क ा-
'तो जाके पिंडडत बाबा से क आओ न, क ीिं ऐसा न ो क ीिं चले जाएूँ।'

दख
ु ी ने क ा - ' ाूँ जाता ू ूँ, लेककन य तो सोच, बैठेगें ककस चीज पर?'

झुररया - 'क ीिं से खहटया न भमल जाएगी? ठुकराने से माूँग लाना।'

दख
ु ी ने क ा - 'तू तो कभी-कभी ऐसी बात क दे ती ैं कक दे जल जाती ैं।
ठुकराने वाले मुझे खहटया दें गे! आग तक तो घर से तनकलती न ीिं खहटया
दें गे!कैथाने (आूँगन) में जाकर एक लोटा पानी माूँगू तो न भमले, भला खहटया
कौन दे गा! मारे उपले, सेंठें, भूसा, लकड़ी थोड़े ी ैं कक जो चा े उठा ले जाएूँ। ले
अपनी खटोली िोकर रख दे , गरमी के तो हदन ैं, उनके आते-आते सूख जाएगी।'

झुररया ने क ा - 'व मारी खटोली पर बैठेंगे न ीिं, दे खते न ीिं ककतने नेम-िरम
से र ते ैं।'

दख
ु ी ने जरा धचिंततत ोकर क ा - ' ाूँ, य बात तो ैं, म ु ए के पतते तोड़कर एक
पततल बना लूँ ू तो ठीक ो जाए। पततल में बड़े-बड़े आदमी खाते ैं , व पववततर
ैं, ला तो डिंडा, पतते तोड़ लूँ ।ू '

झुररया ने क ा - 'पततल मैं बना लूँ ग


ू ी, तुम जाओ। लेककन ाूँ, उन् ें सीिा भी तो
दे ना ोगा, अपनी थाली में रख दूँ ?ू '

दख
ु ी ने क ा- 'क ीिं ऐसा गजब न करना, न ीिं तो सीिा भी जाए और थाली भी
फूटें ! बाबा थाली उठाकर पटक दें गे। उनको बड़ी जकदी क्रोि चढ जाता ैं। क्रोि
में पिंडडताइन तक को न ीिं छोड़ते, लडके को ऐसा पीटा कक आज तक टूटा ाथ
भलए कफरता ैं। पततल में सीिा भी दे ना। ाूँ, मद
ु ा तू छुना मत, झरू ी गोंड़ की
लड़की को लेकर सा ू की दक
ु ान से सब चीजें ले आना। सीिा भरपरू ो। सेर
भर आटा, आि सेर चावल, पाव भर दाल, आि पाव घी, नोन, कदी और पततल में
एक ककनारे चार आने पैसे रख दे ना। गोंड़ की लड़की न भमले तो भुल्जयन के
ाथ-पैर जोड़कर ले जाना। तू कुछ मत छूना, न ीिं तो गजब ो जाएगा।'

इन बातों की ताकीद करके दख


ु ी ने लकड़ी उठाई और घास का एक बड़ा-सा गट्ठा
लेकर पिंडड़तजी से अजय करने चला। खाली ाथ बाबाजी की सेवा में कैसे जाता,
नजराने के भलए उसके पास घास के भसवाय और क्या था, उसे खाली ाथ
दे खकर तो बाबा दरू ी से दतु कारते।

पिंडडत घासीराम ईश्वर के परम भक्त थे, नीिंद खुलते ी ईशोपासना में लग जाते।
मूँु - ाथ िोते आठ बजते, तब असली पूजा शुरू ोती, ल्जसका प ला भाग भिंग
की तैयारी थी। उसके बाद आि घिंटे तक चन्दन रगड़ते, कफर आइने के सामने
एक ततनके से माथे पर ततलक लगाते। चन्दन की दो रे खाओिं के बीच में लाल
रोली की बबन्दी ोती थी। कफर छाती पर, बा ों पर चन्दन लगाते, फूल चढाते,
आरती करते, घिंटी बजाते। दस बजते-बजते व पूजन से उठते और भिंग छानकर
बा र आते। तब तक दो-चार जजमान द्वार पर आ जाते! ईशोपासना का
ततकाल फल भमल जाता, व ी उनकी खेती थी।

आज पूजन-ग ृ से तनकले, तो दे खा दख
ु ी चमार घास का गट्ठा भलए बैठा ैं। दख
ु ी
उन् ें दे खते ी उठ खड़ा ु आ और साष्टािंग दिं डवत करके ाथ बाूँिकर खड़ा ो
गया। य तेजस्वी मूततय दे खकर उसका हृदय श्र्ध ा से पररपण
ू य ो गया! ककतनी
हदव्य मूततय थी, छोटा-सा गोल-मटोल आदमी, धचकना भसर, फूले गाल, ब्रह्मतेज से
प्रदीप्त आूँखें। रोरी और चन्दन दे वताओिं की प्रततभा प्रदान कर र ी थी। दख
ु ी को
दे खकर श्रीमुख से बोले - 'आज कैसे चला रे दखु खया?'
दख
ु ी ने भसर झक
ु ाकर क ा- 'बबहटया की सगाई कर र ा ू ूँ म ाराज। कुछ
साइत-सगन
ु ववचारना ैं, कब मजी ोगी?'

घासी ने क ा- 'आज मुझे छुट्टी न ीिं ैं। ाूँ, साूँझ तक आ जाऊगा।'

दख
ु ी ने क ा - 'न ीिं म ाराज, जकदी मजी ो जाए। सब सामान ठीक कर आया

ू ूँ। य घास क ाूँ रख दूँ ?ू '

घासी ने क ा - 'इसे गाय के सामने डाल दे और जरा झाडू लेकर द्वार तो साफ
कर दे । य बैठक भी कई हदनों से लीपी न ीिं गई, गोबर से लीप दे । तब तक मैं
भोजन कर लूँ ।ू कफर जरा आराम करके चलूँ ग
ू ा। ाूँ, य लकड़ी भी चीर दे ना।
खभल ान में चार खाूँची भूसा पड़ा ैं, उसे भी उठा लाना और भुसौली में रख
दे ना।'

दख
ु ी फौरन ु क्म की तामील करने लगा। द्वार पर झाडू लगाई, बैठक को गोबर
से लीपा। तब बार बज गए। पिंडडतजी भोजन करने चले गए। दख
ु ी ने सुब से
कुछ न ीिं खाया था। उसे भी जोर की भख
ू लगी, पर व ाूँ खाने को क्या िरा था।
घर य ाूँ से मील भर था। व ाूँ खाने जाए तो पिंडडतजी बबगड़ जाएूँ। बेचारे ने
भूख दबाई और लकड़ी फाड़ने लगा। लकड़ी की मोटी-सी गाूँठ थी, ल्जस पर प ले
ककतने भक्तों ने अपना जोर आजमा भलया था। व उसी दम-खम के साथ लो े
से लो ा लेने के भलए तैयार थी। दख
ु ी घास छीलकर बाजार ले जाता था। लकड़ी
चीरने का उसे अभ्यास न था। घास उसके खुरपै के सामने भसर झुका दे ती थी।
य ाूँ कस-कसकर कुक ाड़ी का भरपरू ाथ लगाता, पर गाूँठ पर तनशान तक न
पड़ता था। कुक ाड़ी उचट जाती। पसीने में तर था, ाूँफता था, थककर बैठ जाता,
कफर उठता था। ाथ उठाए न उठते थे, पाूँव काूँप र े थे, कमर सीिी न ोती थी,
आूँखों तले अूँिेरा ो र ा था। भसर में चक्कर आ र े थे , तततभलयाूँ उड़ र ी थीिं।
कफर भी अपना काम ककए जाता था। अगर एक धचलम तम्बाकू पीने को भमल
जाती, तो शायद कुछ ताकत आती।
उसने सोचा - 'य ाूँ धचलम और तम्बाकू क ाूँ भमलेगी। ब्राह्मणों का परू ा पडोस
ैं। ब्राह्मण लोग म नीच जातों की तर तम्बाकू थोड़े ी पीते ैं। स सा उसे
याद आया कक गाूँव में एक गोंड़ भी र ता ैं , उसके य ाूँ जरूर धचलम-तम्बाकू
ोगा, तुरन्त उसके घर दौड़ा, खैर मे नत सुफल ु ई, उसने तम्बाकू भी दी और
धचलम भी, पर आग व ाूँ न थी।'

दख
ु ी ने क ा - 'आग की धचन्ता न करो भाई, मैं जाता ू ूँ, पिंडडतजी के घर से
आग माूँग लूँ ग
ू ा, व ाूँ तो अभी रसोई बन र ी थी।'

य क ता ू आ व दोनों चीजें लेकर चला आया और पिंडडतजी के घर में बरौठे


के द्वार पर खड़ा ोकर बोला- 'माभलक, रधचके (थोड़ी-सी ) आग भमल जाए, तो
धचलम पी लें ।'

पिंडडतजी भोजन कर र े थे। पिंडडताइन ने पछ


ू ा - 'य कौन आदमी आग माूँग
र ा ैं?'

पिंडडत ने क ा - 'अरे व ी ससरु ा दखु खया चमार ैं, क ा ैं थोड़ी-सी लकड़ी चीर
दे , आग तो ैं, दे दो।'

पिंडडताइन ने भवें चढाकर क ा - 'तुम् ें तो जैसे पोथी-पत्रे के फेर में िरम-करम


ककसी बात की सधु ि ी न ीिं र ी। चमार ो, िोबी ो, पासी ो, मूँु उठाए घर में
चला आए। ह न्द ू का घर न ु आ, कोई सराय ु ई। क दो दाढीजार से चला
जाए, न ीिं तो इस लुआठे से मूँु झुलस दूँ ग
ू ी, आग माूँगने चले ैं।'

पिंडडतजी ने समझाकर क ा - 'भीतर आ गया, तो क्या ु आ, तम्


ु ारी कोई चीज
तो न ीिं छुई, िरती पववत्र ैं , जरा-सी आग दे क्यों न ीिं दे ती, काम तो मारा ी
कर र ा ैं, कोई लोतनया य ी लकड़ी फाड़ता, तो कम-से-कम चार आने लेता।'

पिंडडताइन ने गरज कर क ा - 'व घर में आया क्यों!'


पिंडडत ने ारकर क ा - 'ससरु े का अभाग था और क्या!'

पिंडडताइन ने क ा- 'अच्छा, इस बखत तो आग हदए दे ती ू ूँ, लेककन कफर जो इस


तर घर में आएगा, तो उसका मूँु ी जला दग
ू ी।'

दख
ु ी के कानों में इन बातों की भनक पड़ र ी था। पछता र ा था, ना क आया।
सच तो क ती ैं। पिंडडत के घर में चमार कैसे चला आए। बड़े पववततर ोते ैं
य लोग, तभी तो सिंसार पूजता ैं, तभी तो इतना मान ैं , भर-चमार थोड़े ी ैं ,
इसी गाूँव में बढ
ू ा ो गया, मगर मझ
ु े इतनी अकल भी न आई।

इसभलए जब पिंडडताइन आग लेकर तनकलीिं, तो व मानो स्वगय का वरदान पा


गया। दोनों ाथ जोड़कर जमीन पर माथा टे कता ु आ बोला - 'पिंडाइन माता,
मझ
ु से बड़ी भल
ू ु ई कक घर में चला आया, चमार की अकल ी तो ठ री, इतने
मरू ख न ोते, तो लात क्यों खाते।' पिंडडताइन धचमटे से पकड़कर आग लाई थी,
पाूँच ाथ की दरू ी से घूघ
ूँ ट की आड़ से दख
ु ी की तरफ आग फेंकी, आग की बड़ी-
सी धचनगारी दख
ु ी के भसर पर पड़ गई, जकदी से पीछे ट कर भसर के झोटे दे ने
लगा। उसने मन में क ा - 'य एक पववततर बाह्मन के घर को अपववततर
करने का फल ैं, भगवान ने ककतनी जकदी फल हदया, इसी से तो सिंसार पिंडडतों
से डरता ैं, और सबके रुपए मारे जाते ैं , बाह्मन के रुपए भला कोई मार तो ले!
घर भर का सतयानाश ो जाए, पाूँव गल-गलकर धगरने लगे।'

बा र आकर उसने धचलम पी और कफर कुक ारी लेकर जुट गया। खट-खट की
आवाजें आनें लगी। उस पर आग पड़ गई, तो पिंडडताइन को उस पर कुछ दया
आ गई। पिंडडतजी भोजन करके उठे , तो बोली - 'इस चमरवा को भी कुछ खाने
को दे दो, बेचारा कब से काम कर र ा ै , भूखा ोगा।'

पिंडडतजी ने इस प्रस्ताव को व्याव ाररक क्षेत्र से दरू समझकर पछ


ू ा - 'रोहटयाूँ ैं?'

पिंडडताइन ने क ा - 'दो-चार बच जाएूँगी।'


पिंडडत ने क ा - 'दो-चार रोहटयों में क्या ोगा? चमार ैं, कम-से-कम सेर भर
चढा जाएगा।'

पिंडडताइन कानों पर ाथ रखकर बोली - 'अरें बाप रे बाप! सेर भर! तो कफर
र ने दो।'

पिंडडत ने अब सेर बनकर क ा- 'कुछ भस


ू ी-चोकर ो तो आटे में भमलाकर दो ठो
भलट्टा ठोंक दो, साले का पेट भर जाएगा, पतली रोहटयों से इन नीचों का पेट न ीिं
भरता, इन् ें तो जुआर का भलट्टा चाह ए।'

पिंडडताइन ने क ा - 'अब जाने भी दो, िप


ू में कौन मरे ।'

दख
ु ी ने धचलम पीकर कफर कुक ारी सम्भाली। दम लेने से जरा ाथों में ताकत
आ गई थी। कोई आि घन्टें तक कफर कुक ाड़ी चलाता र ा, कफर बेदम ोकर
व ीिं भसर पकड़ के बैठ गया।

इतने में गौंड़ आ गया और बोला - 'क्यों जान दे ते ो बूढे दादा, तुम् ारे फाड़े य
गाूँठ न फटे गा, ना क लाकन ोते ो।'

दख
ु ी ने माथे का पसीना पोंछकर क ा- 'अभी गाड़ी-भर भस
ू ा ढोना ैं भाई!'

गौंड़ ने क ा - 'कुछ खाने को भमला कक काम ी कराना जानते ैं , जाके माूँगते


क्यों न ीिं?'

दख
ु ी ने क ा- 'कैसी बात करते ो धचखुरी, बाह्मन की रोटी मको पचेगी!'

गौंड़ ने क ा - 'पचने को पच जाएगी, प ले भमले तो, मूँछ


ू ों पर ताव दे कर भोजन
ककया और आराम से सोए, तुम् ें लकड़ी फाड़ने का ु क्म लगा हदया, जमीिंदार भी
कुछ खाने को दे ता ैं, ाककम भी बेगार लेता ैं, तो थोड़ी ब ु त मजरू ी दे ता ैं, य
उनसे भी बढ गए. उस पर िमायतमा बनते ैं।'

दख
ु ी ने क ा- 'िीरे -िीरे बोलो भाई, क ीिं सुन लें तो आफत आ जाए।'

य क कर दख
ु ी कफर सम्भल पड़ा और कुक ाड़ी की चोट मारने लगा। धचखुरी
को उस पर दया आई। आकर कुक ारी उसके ाथ से छान ली और आि घन्टे
खूब कस-कसकर कुक ाड़ी चलाई, गाूँठ में दरार भी न पड़ी। तब उसने कुक ारी
फैंक दी और य क कर चला गया -'तम्
ु ारे फाड़े य न फटे गी, जान भले
तनकल जाए।'

दख
ु ी सोचने लगा, बाबा ने य गाूँठ क ाूँ रख छोड़ी थी कक फाड़े न ीिं फटती।
क ीिं दरार तक तो न ीिं पड़ती। मैं कब तक इसे चीरता र ू ूँगा। अभी घर पर सौ
काम पड़े ैं। कार-परोजन का घर ैं, एक-न-एक चीज घटी ी र ती ैं , पर इन् ें
क्या धचन्ता। चलूँ ू जब तक भूसा ी उठा लाऊूँ। क दूँ ग
ू ा, बाबा, आज तो लकड़ी
न ीिं फटी, कल आकर फाड़ दूँ ग
ू ा।

उसने झौवा उठाया और भस


ू ा ढोने लगा। खभल ान य ाूँ से दो फरलािंग से कम
न था। अगर झौवा खूब भर-भर कर लाता तो काम जकद खतम ो जाता, कफर
झौवे को उठाता कौन। अकेले भरा ु आ झौवा उससे न उठ सकता था। इसभलए
थोड़ा-थोड़ा लाता था। चार बजे क ीिं भूसा खतम ु आ। पिंडडतजी की नीिंद खुली।
मूँु - ाथ िोया, पान खाया औऱ बा र तनकले, दे खा, तो दख
ु ी झौवा भसर पर रखे
सो र ा ैं।

पिंडडतजी जोर से बोला - 'अरे , दखु खया तू सो र ा ैं? लकड़ी तो अभी ज्यों-की-तयों
पड़ी ु ई ैं, इतनी दे र तू करता क्या र ा? मुट्ठी भर भूसा ढोने में साूँझ कर दी!
उस पर सो र ा ैं। उठा ले कुक ाड़ी और लकड़ी फाड़ डाल, तझ
ु से जरा-सी लकड़ी
न ीिं फटती, कफर साइत भी वैसी ी तनकलेगी, मुझे दोष मत दे ना! इसी से क ी
ैं नीच के घर में खाने को ु आ और उसकी आूँखें बदली।'
दख
ु ी ने कफर कुक ाड़ी उठाई, जो बातें प ले से सोच रखी थी, व सब भूल गया।
पेट पीठ में िूँसा जाता था, आज सवेरे से जलपान तक न ककया था। अवकाश
ी न भमला। उठना ी प ाड़ मालूम ोता था। जी डूबा जाता था, पर हदल को
समझाकर उठा। पिंडडत ैं, क ीिं साइत ठीक न ववचारें तो कफर सतयानाश ी ो
जाए। जभी तो सिंसार में इतना मान ैं। क ी साइत ी का तो सब खेल ैं।
ल्जसे चा े बबगाड़ दे । पिंडडतजी गाूँठ के पास आकर खड़े ो गए और बढावा दे ने
लगे - ' ाूँ, मार कसके, और मार, कसके मार, अबे जोर से मार, तेरे ाथ में तो
जैसे दम ी न ीिं ैं, लगा कसके, खड़ा सोचने क्या लगता ैं , ाूँ, बस फटा ी
चा ती ैं! दे उसी दरार में !'

दख
ु ी अपने ोश में न था। न-जाने कौन-सी गुप्तशल्क्त उसके ाथों को चला र ी
थी। व थकान, भूख, कमजोरी सब मानो भाग गई। उसे अपने बा ु बल पर स्वयिं
ववश्वास न ी ो र ा था। एक-एक चोट वज्र की तर पड़ती थी। आि घन्टे तक
व इसी उन्माद की दशा में ाथ चलाता र ा, य ाूँ तक की लकड़ी बीच से फट
गई और दख
ु ी के ाथ से कुक ाड़ी छूट कर धगर पड़ी। इसके साथ व भी चक्कर
खाकर धगर पड़ा। भूखा, प्यासा, थका ु आ शरीर जवाब दे गया।

पिंडडतजी ने पक
ु ारा - 'उठ के दो-चार ाथ और लगा दे , पतली-पतली चैभलयाूँ ो
जाए।'

दख
ु ी न उठा। पिंडडतजी ने अब उसे हदक करना उधचत न समझा। भीतर जाकर
बट
ू ी छानी, शौच गए, स्नान ककया और पिंडडताइन बाना प नकर बा र तनकले!
दख
ु ी अभी तक व ी पड़ा ु आ था।

पिंडडत ने जोर से पुकारा - 'अऱे क्या पड़े ी र ोगे दख


ु ी, चलो तुम् ारे ी घर चल
र ा ू ूँ , सब सामान ठीक-ठाक ैं न?'

दख
ु ी कफर भी न उठा।
अब पिंडडतजी को कुछ शिंका ु ई। पास जाकर दे खा, तो दख
ु ी अकड़ा पड़ा ु आ था।
बद वास ोकर भागे और पिंडडताइन से बोले - 'दखु खया तो जैसे मर गया।'

पिंडडताइन कबकाकर बोली - 'व तो अभी लकड़ी चीर र ा था न?'

पिंडडत न क ा - ' ाूँ, लकड़ी चीरते-चीरते मर गया, अब क्या ोगा?'

पिंडडताइन ने शान्त ोकर क ा - ' ोगा क्या चमरौने में क ला भेजो मद


ु ाय उठा
ले जाए।'

एक क्षण में गाूँव भर में खबर ो गई। पूरे में ब्राह्मणों की बस्ती थी। केवल
एक घर गोड़ का था। लोगों ने इिर का रास्ता छोड़ हदया। कुूँए का रास्ता उिर
ी से था, पानी कैसे भरा जाए! चमार की लाश के पास से ोकर पानी भरने
कौन जाए।

एक बुहढया ने पिंडडतजी से क ा - 'अब मुदाय फेंकवाते क्यों न ीिं? कोई गाूँव में
पानी पीएगा या न ीिं।'

इिर गोंड ने चमरौने में जाकर सबसे क हदया - 'खबरदार, मुदाय उठाने मत
जाना, अभी पुभलस की त कीकात ोगी, हदकलगी ैं कक एक गरीब की जान ले
ली। पिंडडतजी ोंगे, तो अपने घर के ोंगे, लाश उठाओगे तो तुम भी पकड़े
जाओगे।'

इसके बाद ी पिंडडतजी प ु ूँ च,े पर चमरौने का कोई आदमी लाश उठाने को तैयार
न ु आ। ाूँ, दख
ु ी की स्त्री और कन्या दोंनो ाय- ाय करती व ाूँ के भलए चल
पड़ी और पिंडडतजी के द्वार पर आकर भसर पीट-पीटकर रोने लगीिं। उनके साथ
दस-पाूँच और चमाररनें थी। कोई रोती थी, कोई समझाती थी, पर चमार एक भी
न था। पिंडडतजी ने चमारों को ब ु त िमकाया, समझाया, भमन्नत की, पर चमारों
के हदल पर पभु लस का रोब छाया ु आ था, एक भी न माना, आखखर पिंडड़त
तनराश ोकर लौट गए।

आिी रात तक रोना-पीटना जारी र ा। दे वताओिं का सोना मल्ु श्कल ो गया। पर


लाश उठाने कोई चमार न आया और ब्राह्मण चमार की लाश कैसे उठाते! भला
ऐसा ककसी शास्त्र-परु ाण में भलखा ैं? क ीिं कोई हदखा दे ।

पिंडडताइन ने झूँुझलाकर क ा - 'इन डाइनों ने तो खोपड़ी चाट डाली, ककसी का


गला भी न ीिं पकता।'

पिंडडत ने क ा - 'रोने दो चुड़ल


ै ों को, कब तक रोएूँगी। जीता था, तो कोई बात न
पूछता था, मर गया, तो कोला ल मचाने के भलए सब-की-सब आ प ु ूँची।'

पिंडडताइन ने क ा - 'चमार को रोना मन ु स ैं।'

पिंडडत ने क ा - ' ाूँ, ब ु त मन ू स।'

पिंडडताइन ने क ा - 'अभी से दग
ु न्
य ि उठने लगी।'

पिंडडत ने क ा - 'चमार था ससुरा कक न ीिं। साि-असाि ककसी का ववचार ैं इन


सबों को।'

पिंडडताइन ने क ा - 'इन सबों को तघन भी न ीिं लगती।'

पिंडडत ने क ा - 'भ्रष्ट ैं सब।'

रात तो ककसी तर कटी, मगर सबेरे भी कोई चमार न आया। चमाररनें भी रो-
पीटकर चला गई। दग
ु न्
य ि कुछ-कुछ फैलने लगी।
पिंडडतजी ने एक रस्सी तनकाली। उसका फन्दा बनाकर मद
ु े के पैर में डाला और
फन्दे को खीिंचकर कस हदया। अभी कुछ-कुछ ििंि
ु लका था। पिंडडतजी ने रस्सी
पकड़कर लाश को घसीटना शुरू ककया और गाूँव के बा र घसीट ले गए। व ाूँ से
आकर तुरन्त स्नान ककया, दग
ु ायपाठ पढा और घर में गिंगाजल तछड़का।

उिर दख
ु ी की लाश को खेत में गीदड़, धग्ध , कुतते और कौए नौच र े थे। य ी
जीवन-पययन्त की भल्क्त, सेवा और तनष्ठा का पुरस्कार था।

***
िगादा

सेठ चेतराम ने स्नान ककया, भशवजी को जल चढाया, दो दाने भमचय के चबाए, दो


लोटे पानी वपया और सोटा लेकर तगादे पर चले।

सेठजी की उम्र कोई पचास साल की थी। भसर के बाल झड़ गए थे और खोपड़ी
ऐसी साफ-सथ
ु री तनकल आई थी, जैसे ऊसर खेत। आपकी आूँखें थी तो छोटी,
लेककन बबककुल गोल। चे रे के नीचे पेट था और पेट के नीचे टाूँगे, मानो ककसी
पीपे में दो मेखें गाड़ दी गई ो, लेककन य खाली-पीपा न था। इसमें सजीवता
और कमयशीलता कूट-कूटकर भरी ु ई थी। ककसी बाकीदार असामी के सामने इस
पीपे का उछलना-कूदना और पैंतरे बदलना दे खकर ककसी नट का धचधगया भी
लल्ज्जत ो जाता। ऐसी आूँखें लाल-पीला करते, ऐसे गरजते कक दशयकों की भीड़
लग जाती थी। उन् ें किंजस
ू तो न ीिं क ा जा सकता क्योंकक जब व दक
ु ान पर
ोते, तो रे क भभखमिंगे के सामने एक कौड़ी फेंक दे त।े ाूँ, उस समय उनके माथे
पर कुछ ऐसा बल पड़ जाता, आूँखें कुछ ऐसे प्रचिंड ो जाती, नाक कुछ ऐसी
भसकुड़ जाती कक भभखारी कफर दक
ु ान पर न आता। ल ने का बाप का तगादा ैं,
इस भस्ध ान्त के व अनन्य भक्त थे। जलपान करने के बाद सन्ध्या तक व
बराबर तगादा करते र ते थे। इसमें एक तो घर का भोजन बचता था, दस
ू रे
असाभमयों के माथे दि
ू , परू ी, भमठाई आहद प्रदाथय खाने को भमल जाते थे। एक
वक्त का भोजन बच जाना कोई सािारण बात न ीिं ैं! एक भोजन का एक
आना भी रख लें , तो केवल इसी मद में उन् ोंने अपने तीस वषो के म ाजनी
जीवन में कोई आठ सौ रुपये बचा भलए थे। कफर लौटते समय दस
ू री बेला के
भलए भी दि
ू , द ी, तेल, तरकारी, उपले ईिन भमल जाते थे। ब ु िा सन्ध्या का
भोजन भी न करना पड़ता था इसभलए तगादे से न चूकते थे। आसमान फटा
पड़ता ो, आग बरस र ी ो, आूँिी आती ो, पर सेठजी प्रकृतत के अटल तनयम
की भाूँतत तगादे पर जरूर तनकल जाते।
सेठानी ने पछ
ू ा- '?'

सेठजी ने गरजकर क ा - 'न ीिं।'

'साूँझ का?'

'आने पर दे खी जाएगी।'

सेठजी के एक ककसान पर पाूँच रुपये आते थे। छः म ीने से दष्ु ट ने सद


ू -ब्याज
कुछ न हदया था और न कभी कोई सौगात लेकर ाल्जर ु आ था। उसका घर
तीस कोस से कम न था, इसभलए सेठजी टालते जाते थे। आज उन् ोंने उसी गाूँव
चलने का तनश्चय कर भलया। आज दष्ु ट से बबना रुपए भलए न मानूँूगा, चा े
ककतना ी रोए, तघतघयाए। मगर इतनी लम्बी यात्रा पैदल करना तनिंदास्पद था।
लोग क ें गे - 'नाम बड़े दशयन थोड़े, क लाने के सेठ। चलते ैं पैदल, इसभलए
मन्थर गतत से इिर-उिर ताकते, रा गीरों से बातें करते चले जाते थे कक लोग
समझें वायु-सेवन करने जा र े ैं।'

स सा एक खाली इक्का उनकी तरफ आता ु आ भमल गया। इक्केवान ने पछ


ू ा-
'क ो लाला, क ाूँ जाना ैं ?'

सेठजी ने क ा- 'जाना तो क ीिं न ीिं ैं , दो परग तो और ैं, लेककन लाओ बैठ


जाएूँ।'

इक्केवाले ने चुभती ु ई आूँखों से सेठजी को दे खा, सेठजी ने भी अपनी लाल


आूँखों से उसे घूरा। दोनो समझ गए, आज लो े के चने चबाने पड़ेंगे।

इक्का चला। सेठजी ने प ला वार ककया - 'क ाूँ घर ैं भमयाूँ सा ब?'


'घर क ाूँ ैं ु जरू , ज ाूँ पड़ र ू ूँ , व ी घर ैं। जब घर था तब था। अब तो बेघर,
बेदर ू ूँ और सबसे बड़ी बात य ैं कक बेपर ू ूँ। तकदीर ने पर काट भलए। लिंडूरा
बनाकर छोड़ हदया। मेरे दादा नवाबी में चकलेदार थे ु जूर, सात ल्जले के
माभलक, ल्जसे चा ें तोप-दम कर दें , फाूँसी पर लटका दें । तनकलने के प ले लाखों
की थैभलयाूँ नजर चढ जाती थी ु जूर। नवाब सा ब भाई की तर मानते थे।
एक हदन व थे, एक हदन य ैं कक म आप लोगों की गल
ु ामी कर र े ैं।
हदनों का फेर ैं।'

सेठजी को ाथ भमलाते ी मालूम ो गया, पक्का कफकैत ैं , अखाड़ेबाज, इससे


पेश पाना मुल्श्कल ैं, पर अब तो कुश्ती बद ी गई थी, अखाड़े में उतर पड़े थे
कफर बोले - 'तो क ो कक बादशा ी घराने के ो। य सरू त ी गवा ी दे र ी ैं,
हदनों का फेर ैं भाई, सब हदन बराबर न ीिं ोते। मारे य ाूँ लक्ष्मी को चिंचला
क ते ैं, बराबर चलती र ती ैं , आज मेरे घर, कल तुम् ारे घर। तुम् ारे दादा ने
रुपए तो खूब छोड़े ोंगे?'

इक्केवाले ने क ा- ' अरे सेठ, उस दौलत का कोई ह साब न था, न जाने ककतने
त खाने भरे ु ए थे! बोरों में सोने-चाूँदी के डले रखे ु ए थे, जवा रात टोकररयों में
भरे पड़े थे, एक-एक पतथर पचास-पचास लाख का। चमक-दमक ऐसी थी, कक
धचराग मात, मगर तकदीर भी तो कोई चीज ैं , इिर दादा का चालीसवाूँ ु आ,
उिर नवाबी बुदय ु ई, सारा खजाना लुट गया, छकड़ो पर लाद-लाद कर लोग
जवा रात ले गए कफर भी घर में इतना बचा र ा कक अब्बाजान ने ल्जन्दगी भर
ऐश ककया, कक क्या कोई भकुवा करे गा, सोल क ारों के सुखपाल पर तनकलते थे,
आगे-पीछे चोबदार दौड़ते चलते थे, कफर भी मेरे गुजर भर को उन् ोंने ब ु त छोड़ा,
अगर ह साब-ककताब से र ता तो आज भला आदमी ोता, लेककन रईस का बेटा
रईस ी तो ोगा, एक बोतल चढाकर बबस्तर से उठता था, रात-रात भर मुजरे
ोते र ते थे। क्या जानता था, एक हदन य ठोकरें खानी पड़ेगी?'
सेठ ने क ा -'अकला भमयाूँ का सक
ु ु र करो भाई कक ईमानदारी से अपने बाल-
बच्चों की परवररश तो करते ो, न ीिं तो मारे -तम्
ु ारे ककतने ी भाई रात-हदन
कुकमय करते र ते ैं, कफर भी दाने-दाने को मु ताज र ते ैं। ईमान की सलामती
चाह ए, हदन तो सब के कट जाते ैं, दि
ू -रोटी खाकर कटें तो क्या, सूखे चने
चबाकर कटे तो क्या। बड़ी बात तो ईमान ैं , मुझे तो तुम् ारी सूरत दे खकर ी
मालूम ो गया था, कक नीयत के साफ सच्चे आदमी ो, बेईमानों की तो सूरत ी
से फटकार बरसती ैं।'

इक्केवाले ने क ा- 'सेठजी, आपने ठीक क ा कक ईमान सलामत र े , तो सब कुछ


ैं। आप लोगों से चार पैसे भमल जाते ैं , व ी बाल-बच्चों को खखला-वपलाकर पड़ा
र ता ू ूँ। ु जूर, और इक्केवालों को दे खखए, तो कोई ककसी मजय मे मल्ु ब्तला ैं,
कोई ककसी मजय में , मैंने तौबा बोला! ऐसा काम ी क्यों करें , कक मस
ु ीबत में फिंसे,
बड़ा कुनबा ैं ु जूर, माूँ ैं, बच्चे ैं, कई बेवाएूँ ैं और कमाई य ी इक्का ैं , कफर
भी अकला भमयाूँ ककसी तर तनबा े जाते ैं। '

सेठ ने क ा - 'व बड़ा कारसाज ैं खाूँ सा ब, तम्


ु ारी कमाई में मेशा बरक्कत
ोगी।'

इक्केवाले ने क ा - 'आप लोगों की मे रबानी चाह ए, तम


ु से खब
ू भें ट ो गई ैं,
मैं इक्केवालों से ब ु त घबराता ू ूँ, लेककन अब मालूम ू आ, अच्छे -बुरे सभी जग
ोते ैं, तुम् ारे जैसा सच्चा, दीनदार आदमी मैंने दे खा। कैसी साफ तबबयत पाई ैं
तुमने कक वा !'

सेठजी की ये लच्छे दार बातें सन


ु कर इक्केवाला समझ गया कक य म ाशय
परले भसरे के बैठकबाज ैं। य भसफय मेरी तारीफ करके मझ
ु े चकमा हदया चा ते
ैं। अब और ककसी प लू से अपना मतलब तनकालना चाह ए।

इनकी दया से तो कुछ ले मरना मुल्श्कल ैं, शायद इनसे भय से कुछ ले मरूूँ,
कफर बोला - 'मगर लाला, य न समखझए कक मैं ल्जतना सीिा और नेक नजर
आता ू ूँ , उतना सीिा और नेक ू ूँ भी। नेकों के साथ नेक ू ूँ लेककन बरु ों के साथ
पक्का बदमाश ू ूँ, यों कह ए आपकी जतू तयाूँ सीिी कर दूँ ,ू लेककन ककराए के
मामले में ककसी के साथ ररआयत न ीिं करता, ररआयत करूूँ तो खाऊूँ क्या?'

सेठजी ने समझा था, इक्केवाले को तथे पर चढा भलया, अब यात्रा तनववयध्न और


तनःशुकक समाप्त ो जाएगी! लेककन य अलाप सन
ु ा, तो कान खड़े ु ए, कफर
बोले - 'भाई, रुपए-पैसे के मामले में मैं भी ककसी से ररआयत न ीिं करता, लेककन
कभी-कभी जब यार-दोस्तों का मामला आ पड़ता ैं तो झक मार कर दबना ी
पड़ता ैं। तुम् ें भी कभी-कभी बल खाना ी पड़ता ोगा, दोस्तों से बेमुरौवती तो
न ीिं की जाती।'

इक्केवाले ने रूखेपन से क ा- 'मैं ककसी के साथ मुरौबत न ीिं करता। मुरौबत का


सबक तो उस्ताद ने पढाया ी न ीिं , एक ी चिंडूल ू ूँ। मजाल क्या कक कोई एक
पैसा दबा ले, घरवाली तक को मैं एक पैसा दे ता न ीिं ू ूँ , दस
ू रों की बात ी क्या
ैं, और इक्केवाले अपने म ाजन की खश
ु ामद करते ैं, उसके दरवाजे पर खड़े
र ते ैं, य ाूँ म ाजनों को भी िता बताता ू ूँ , सब मेरे नाम को रोते ैं, रुपए भलए
और साफ डकार गया। दे खें, अब कैसे वसूल करते ो बच्चा, नाभलश करो, घर में
िरा ैं, जो ले लोगे।'

सेठजी को मानो जूड़ी चढ आई। समझ गए, य शैतान बबना पैसा भलए न
मानेगा। अगर य जानते कक य ववपल्तत गले पड़ेगी, तो भूलकर भी इक्के पर
पाूँव न रखते। इतनी दरू पैदल चलने में कौन से पैर टूट जाते थे। अगर रोज
इसी तर पैसे दे ने पड़े, तो कफर लेन-दे न ो चुका।

सेठजी भक्त जीव थे। भशवजी को जल चढाने में , जब से ोश सम्भाला ैं , एक


हदन भी नागा न ककया। क्या भक्तवतसल शिंकर भगवान इस अवसर पर मेरी
स ायता न करें गे।
सेठजी इष्टदे व का सभु मरन करके बोले - 'खाूँ सा ब और ककसी से चा ो न दबो,
पर पभु लस से तो दबना ह पड़ता ोगा, व तो ककसी के सगे न ीिं ोते। '

इक्केवाले ने ूँसकर क ा - 'कभी न ीिं, उनसे उकटे और कुछ-न-कुछ वसूल करता

ू ूँ। ज ाूँ कोई भशकार भमला, झट सस्ते भाड़े पर बैठाता ू ूँ और थाने पर प ु ूँचा
दे ता ू ूँ। ककराया भी भमल जाता ैं और इनाम भी, क्या मजाल कक कोई बोल
सके। लाइसन न ीिं भलया आज तक लाइसन! मजे से सदर में इक्का दौड़ाता
कफरता ू ूँ। कोई साला चूँू न ी कर सकता। मेले-ठे लों में अपनी खूब बन आती ैं,
अच्छे -अच्छे माल चुनकर कोतवाल प ु ूँचता ू ूँ , व ाूँ कौन ककसी की दाल गलती
ैं। ल्जसे चा े रोक लें , एक हदन, दो हदन, तीन हदन। बीस ब ाने ैं , क हदया, शक
था कक य औरत भगाए भलए जाता था, कफर कौन बोल सकता ैं , सा ब भी
छोड़ना चा ें , तो न ीिं छोड़ सकते, मझ
ु े सीिा न समखझएगा, एक ी रामी ू ूँ,
सवाररयों से प ले ककराया तय न ीिं करता, हठकाने पर प ु ूँ चा कर एक के दो
लेता ू ूँ। जरा भी चीिं-चपड़ ककया, तो आस्तीन चढा, पैतरे बदलकर खड़ा ो जाता

ू ूँ , कफर कौन ैं जो सामने ठ र सके।'

सेठजी को रोमािंच ो आया। ाथ में एक सोटा तो था, पर उसका व्यव ार करने


की शल्क्त का उनमें अभाव था। आज बुरे फूँसे, न-जाने ककस मन ू स का मूँु
दे खकर घर से चले थे। क ीिं य दष्ु ट उलझ पड़े, तो पाूँच-दस हदन कदी-सोंठ
पीना पड़े। अब से भी कुशल ैं, य ाूँ उतर जाऊूँ, तो बच जाए व ी स ी।

सेठजी भीगी बबकली बनकर बोले - 'अच्छा, अब रोक लो, खाूँ सा ब, मेरा गाूँव आ
गया। बोलो, तुम् ें क्या दूँ ?ू ' इक्केवाले ने घोड़ी को एक चाबुक और लगाया और
तनदय यता से बोला - 'मजूरी सोच लो भाई, तुमको न बबठाया ोता तो तीन
सवाररयाूँ बैठा लेता, तीनों चार-चार आने भी दे त,े तो बार आने ो जाते, तम

आठ ी आने दे दो।'

सेठजी की बतघया बैठ गई। इतनी बड़ी रकम उन् ोंने उम्र भर इस मद में न ीिं
खचय की थी। इतनी-सी दरू ी के भलए इतना ककराया, व ककसी तर न दे सकते
थे। मनष्ु य के जीवन में एक ऐसा अवसर भी आता ैं, जब पररणाम की उसे
धचन्ता न ीिं र ती। सेठजी के जीवन में य ऐसा ी अवसर था, अगर आने दो-
आने की बात ोती, तो खून का घट
ूूँ पीकर दे दे त,े लेककन आठ आने के भलए कक
ल्जसका द्ववगुण एक कलदार ोता ैं , अगर तू-तू मैं-मैं ी न ीिं ाथापाई की भी
नौबत आए, तो व करने को तैयार थे। य तनश्चय करके व दृढता के साथ
बैठे र े ।

स सा सड़क के ककनारे एक झोपड़ा नजर आया। इक्का रुक गया, सेठजी उतर
पड़े और कमर से एक दअ
ु न्नी तनकालकर इक्केवान की ओर बढाई।

इक्केवान ने सेठजी के तेवर दे खें तो समझ गया, ताव बबगड़ गया। चाश्नी कड़ी
ोकर कठोर ो गई। अब य दाूँतों से लड़ेगी। इसे चुबल कर ी भमठास का
आनन्द भलया जा सकता ैं।

इक्केवाले ने नम्रता से क ा - 'मेरी ओर से इसकी रे वडड़याूँ लेकर बाल-बच्चों को


खखला दील्जएगा, अकला आपको सलामत रखे।'

सेठजी ने एक आना और तनकालकर बोले - 'बस, अब जबान न ह लाना एक


कौड़ी भी बेसी न दूँ ग
ू ा।'

इक्केवाले ने क ा - 'न ीिं माभलक, आप ी ऐसा क ें गे तो म गरीबों के बाल-


बच्चें क ाूँ से पलें गे, म लोग भी आदमी प चानते ैं ु जरू ।'

इतने में झोपड़ी में से एक स्त्री गुलाबी साड़ी प ने, पान चबाती ू ई तनकल आई
और बोली - 'आज बड़ी दे र लगाई (एकाएक सेठजी को दे खकर) अच्छा आज
लालाजी तम्
ु ारे इक्के पर थे, कफर आज तम्
ु ारा भमजाज का े को भमलेगा, एक
चे रे शा ी (भसक्का) तो भमली ी ोगी, इिर बढा दो सीिे से।'
य क कर व सेठजी के समीप आकर बोली - 'आराम से चरपैया पर बैठो
लाला! बड़े भाग थे कक आज सवेरे-सवेरे आपके दशयन ु ए।'

उसके वस्त्र मन्द-मन्द म क र े थे। सेठजी की हदमाग ताजा ो गया। उसकी


ओर कनखखयों से दे खा। औरत चिंचल, बाूँकी-कटीली, तेज-तरारय थी। सेठानीजी की
मतू तय आूँखों के सामने आ गई - भद्दी, थल-थल, वपल-वपल, पैरों में बेवाय फटी ु ई,
कपड़ों से दग
ु न्
य ि उड़ती ू ई। सेठजी नाममात्र को भी रभसक न थे, पर इस समय
आूँखों से ार गए। आूँखों को उिर से टाने की चेष्ठा करने चारपाई पर बैठ
गए। अभी कोस-भर की मिंल्जल बाकी ैं, इसका ख्याल ी न र ा।

स्त्री एक छोटी-सी पिंखखया उठा लाई और सेठजी को झलने लगी। ाथ की


प्रतयेक गतत के साथ सुगन्ि का एक झोंका आकर सेठजी को उन्मतत करने
लगा।

सेठजी ने जीवन में ऐसा उकलारा कभी अनुभव न ककया था। उन् ें प्रायः सभी
घण
ृ ा की दृल्ष्ट से दे खते थे, चोला मस्त ो गया। उसके ाथ से पिंखखया छीन
लेनी चा ी।

'तुम् ें कष्ट ो र ा ोगा, लाओ मैं झल लूँ ।ू '

'य कैसी बात ैं लालाजी! आप मारे दरवाजे पर आए ैं , क्या इतनी खाततर


भी न करने दील्जएगा, और म ककस लायक ैं। इिर क ीिं दरू जाना ैं? अब तो
ब ु त दे र ो गई, क ाूँ जाइएगा।'

सेठजी ने पापी आूँखों को फेर कर और पापी मन को दबा कर क ा - 'य ाूँ से


थोड़ी दरू पर एक गाूँव ैं व ीिं जाना ैं, साूँझ को इिर ी से लौटूूँगा।'
सन्
ु दरी ने प्रसन्न ोकर क ा - 'तो कफर आज य ीिं रह एगाष साूँझ को कफर क ाूँ
जाइएगा, एक हदन घर के बा र की वा भी खाइए, कफर न जाने कब मल
ु ाकात
ोगी।'

इक्केवाले ने आकर सेठजी के कान में क ा - 'पैसे तनकाभलए तो दाने-चारे का


इन्तजाम करूूँ।'

सेठजी ने चुपके से अठन्नी तनकालकर दे दी।

इक्केवाले ने कफर पूछा - 'आपके भलए कुछ भमठाई लेता आऊूँ? य ाूँ आपके
लायक भमठाई क्या भमलेगी, ाूँ मूँु मीठा ो जाएगा।'

सेठजी बोले - 'मेरे भलए कोई जरूरत न ीिं, ाूँ बच्चों के भलए चार आने की
भमठाई भलवाते आना।'

चवन्नी तनकालकर सेठजी ने उसके सामने ऐसे गवय से फेंकी मानो इसकी उसके
सामने कोई कीकत न ीिं ैं। सुन्दरी के मूँु का भाव तो दे खना चा ते थे, पर
डरते थे कक क ीिं व य न समझे, लाला चवन्नी क्या दे र े ैं , मानो ककसी को
मोल ले र े ैं।

इक्केवाले चवन्नी उठाकर जा ी र ा था कक सुन्दरी ने क ा - 'सेठजी की


चवन्नी लौटा दो, लपकर उठा ली शमय न ीिं आती, य मुझसे रुपए ले लो, आठ
आने की ताजी भमठाई बनवाकर लाओ।'

उसने रुपया तनकाल कर फेंका! सेठजी मारे लाज के गड़ गए। एक इक्केवान की
भहठयाररन ल्जसकी टके की भी औकात न ीिं, इतनी खाततरदारी करे कक उनके
भलए पूरा रुपया तनकालकर दे दे , भला य कैसे स सकते थे।

सेठजी बोले - 'न ीिं, न ीिं, य न ीिं सो सकता, तुम अपना रुपया रख लो, (रभसक
आूँखों को तप्ृ त करके) मैं रुपया हदए दे ता ैं , य लो, आठ आने की ले लेना।'
इक्केवान तो उिर भमठाई और दाना-चारे की किक में चला गया, इिर सुन्दरी ने
सेठ से क ा - 'व तो अभी दे र में आएगा लाला, तब तक पान तो खाओ।'

सेठजी ने इिर-उिर ताककर क ा - 'य ाूँ तो कोई तम्बोली न ीिं ैं। '

सन्
ु दरी उनकी ओर कटाक्षपण
ू य नेत्रो से दे खकर बोली - 'क्या मेरे लगाए पान
तम्बोली के पानों से भी खराब ोंगे ?'

सेठजी ने लल्ज्जत ोकर क ा - 'न ीिं, न ीिं, य बात न ीिं, तुम मुसलमान ो
न?'

सुन्दरी ने ववनोदमय आग्र से क ा - 'खुदा की कसम, इसी बात पर मैं तुम् ें


पान खखलाकर छोडूूँगी!'

य क कर उसने पानदान से एक बीड़ा तनकाला औऱ सेठजी की तरफ चली।


सेठजी ने एक भमनट तक तो ाूँ! ाूँ! ककया, कफर दोनों ाथ बढाकर उसे टाने
की चेष्ठा की, कफर जोर से दोनों ोंट बन्द कर भलए पर जब सुन्दरी ककसी तर
न मानी, तो सेठजी अपना िमय लेकर बेत ाशा भागे। सोंटा व ीिं चारपाई पर र
गया। बीस कदम पर जाकर व रुक गए और ाूँफकर बोले - 'दे खो, इस तर
ककसी का िमय न ीिं भलया जाता। म लोग तुम् ारा छुआ पानी पी लें तो िमय
भ्रष्ट ो जाए'

सन्
ु दरी ने कफर दौड़ाया। सेठजी कफर भागे। इिर पचास वषो से उन् ें इस तर
भागने का अवसर न पड़ा था। िोती खखसककर धगरने लगी मगर इतना समय
न था कक िोती बाूँि लें । बेचारे िमय को कन्िे पर रखें दौड़े चले जाते थे। न
मालूम कब कमर से रुपयों का बटुआ खखसक पड़ा। जब पचास कदम पर कफर
रूके और िोती ऊपर उठाई तो बटुआ नदारद। पीछे कफर कर दे खा सुन्दरी भलए
उन् ें हदखा र ी थी और इशारे से बल
ु ा र ी थी, मगर सेठजी को िमय रुपए से
क ीिं ज्यादा प्यारा था, दो-चार कदम चले कफर रूक गए।

एकाएक िमय-बुव्ध ने डाूँट बताई। थोड़े रुपए के भलए िमय छोड़े दे ते ो। रुपए
ब ु त भमलें गे। िमय क ाूँ भमलेगा।

य सोचते ु ए व अपनी रा चले, जैसे कोई कुतता झगड़ालू कुततों के बीच से


आ त, दम
ु दबाए भागा जाता ो और बार-बार कफरकर दे ख लेता ो कक क ीिं वे
दष्ु ट आ तो न ीिं र े ।

***
दो कब्रे

अब न व यौवन ैं , न व नशा, न व उन्माद। व म कफल उठ गई, व दीपक


बुझ गया, ल्जससे म कफल की रौनक थी। व प्रेममूततय कब्र की गोद में सो र ी
ैं। ाूँ, उसके प्रेमी की छाप अब भी हृदय पर ैं और उसकी अमर समतृ त आूँखों
के सामने। वीरािंगनाओिं में ऐसी वफा, ऐसा प्रेम, ऐसा व्रत दल
ु भ
य ैं और रईसों में
ऐसा वववा , ऐसा समपयण, ऐसी भल्क्त और भी दल
ु भ
य । कूँु वर रनवीर भसिं रोज
बबना नागा सन्ध्या समय जु रा की कब्र के दशयन करने जाते, उसे फूलों से
सजाते, आूँसूओिं से सीिंचते। पन्द्र साल गुजर गए, एक हदन भी नागा न ीिं ु आ।
प्रेम की उपासना ी उसके जीवन का उद्देश्य था, उस प्रेम का ल्जसमें उन् ोंने जो
कुछ दे खा व ी पाया और जो अनुभव ककया, उसी की याद अब भी उन् ें मस्त
कर दे ती ैं। इस उपासना में सल
ु ोचना भी उनके साथ ोती, जो जु रा का प्रसाद
और कूँु वर सा ब की सारी अभभलाषाओिं का केन्द्र थी।

कुूँवर सा ब ने दो शाहदयाूँ की थी, पर दोनों ल्स्त्रयों में से एक भी सन्तान की


मूँु न दे ख सकी। कूँु वर सा ब ने कफर वववा न ककया। एक हदन एक म कफल
में जु रा के दशयन ु ए। उस तनराश पतत और अतप्ृ त यव
ु ती में ऐसा मेल, मानो
धचरकाल से बबछड़े ु ए दो साथी कफर भमल गए ों। जीवन का बिंसत ववकास,
सिंगीत और सौरभ से भरा ु आ आया मगर अफसोस! पाूँच वषों के अकपकाल में
उसका भी अन्त ो गया। व मिुर भमलन स्वप्न तनराशा से भरी ु ई जागतृ त
में लीन ो गया। व सेवा और व्रत की दे वी तीन साल की सुलोचना को उनकी
गोद में सौंपकर सदा के भलए भसिार गई।

कुूँवर सा ब ने इस प्रेमादे श का इतने अनुराग से पालन ककया कक दे खने वालों


को आश्चयय ोता था। ककतने ी तो उन् ें पागल समझते थे। सुलोचना ी की
नीिंद सोते, उसी की नीिंद जागते, खद
ु पढाते, उसके साथ सैर करते - इतनी
एकाग्रता के साथ, जैसे कोई वविवा अपने अनाथ बच्चे को पाले।
जब से व यतू नवभसयटी में दाखखल ु ई, उसे खद
ु मोटर में प ु ूँचा आते औऱ शाम
को खद
ु जा कर ले आते। व उसके माथे पर से व कलिंक िो डालना चा ते थे,
जो मानो वविाता ने क्रूर ाथों से लगा हदया था। िन तो उसे न िो सका, शायद
ववद्या िो डाले।

एक हदन शाम को कूँु वर सा ब जु रा के मजार को फूलों से सजा र े थे और


सुलोचना कुछ दरू पर खड़ी अपने कुतते को गें द खखला र ी थी कक स सा उसने
अपने कॉलेज के प्रोफेसर डॉक्टर रामेन्द्र को आते दे खा। सकुचाकर मूँु फेर
भलया, मानो उन् ें दे खा ी न ीिं। शिंका ु ई क ी रामेन्द्र इस मजार के ववषय में
कुछ पूछ न बैठें।

यूतनवभसयटी में दाखखल ु ए उसे एक साल ु आ। इस साल में उसने प्रणय के


ववववि रूपों को दे ख भलया था। क ीिं क्रीड़ा थी, क ी ववनोद था, क ीिं कुतसा थी,
क ीिं लालसा थी, क ीिं उच्छृिंखलता थी, ककन्तु क ीिं व सहृदयता न थी, जो प्रेम
का मल
ू ैं। केवल रामेन्द्र ी एक ऐसे सज्जन थे, ल्जन् ें अपनी ओर ताकते
दे खकर उसके हृदय में सनसनी ोने लगती थी, पर उसकी आूँखों में ककतनी
वववशता, ककतनी पराजय, ककतनी वेदना तछपी ोती थी।

रामेन्द्र ने कूँु वर सा ब की ओर दे खकर क ा - 'तम्


ु ारे बावा इस कब्र पर क्या
कर र ें ैं?'

सुलोचना का चे रा कानों तक लाल ो गया कफर बोली - 'य इनकी पुरानी


आदत ैं।'

रामेन्द्र ने क ा- 'ककसी म ातमा की समाधि ैं ?'

सुलोचना ने इस सवाल को उड़ा दे ना चा ा। रामेन्द्र य तो जानते थे कक


सुलोचना कुूँवर सा ब की दाश्ता औरत की लड़की ैं, पर उन् ें य न मालूम था
कक य उसी की क्रब ैं और कुूँवर सा ब अतीत-प्रेम के इतने उपासक ैं। मगर
य प्रश्न उन् ोंने ब ु त िीमे स्वर में न ककया था। कूँु वर सा ब जत
ू े प न र े
थे। य प्रश्न उनके कान में पड़ गया। जकदी से जत
ू ा प न भलया और समीप
जाकर बोले - 'सिंसार की आूँखों में तो व म ातमा न थी, पर मेरी आूँखों में थी
और ैं, य मेरे प्रेम की समाधि ैं। '

सल
ु ोचना की इच्छा ोती थी, य ाूँ से भाग जाऊूँ लेककन कूँु वर सा ब को जु रा के
यशोगान में आल्तमक आनन्द भमलता था। रामेन्द्र का ववस्मय दे खकर बोलें -
'इसमें व दे वी सो र ी ैं, ल्जसने जीवन को स्वगय बना हदया था। य सुलोचना
उसी का प्रसाद ैं।'

रामेन्द्र ने कब्र की ओर दे ख आश्चयय से क ा - 'अच्छा!'

कूँु वर सा ब ने मन में उस प्रेम का आनन्द उठाते ु ए क ा - 'य जीवन और


ी था, प्रोफेसर सा ब। ऐसी तपस्या मैं और क ीिं न ीिं दे खी, आपको फुरसत ो,
तो मेरे साथ चभलए, आपको उन यौवन-स्मतृ तयों ...।'

सल
ु ोचना बोल उठी -'वे सन
ु ाने की चीज न ीिं ैं, दादा!'

कुूँवर ने क ा - 'मैं रामेन्द्र बाबू को गैर न ीिं समझता।'

रामेन्द्र को प्रेम का य अलौककक रूप मनोववञा ान का एक रतन-सा मालूम ु आ।


व कुूँवर सा ब के साथ ी उनके घर आए और कई घिंटो तक उन सरत में
डूबी ू ूँ प्रेम-स्मतृ तयों को सुनते र े ।

जो वरदान माूँगने के भलए उन् ें साल भर से सा स न ोता था, दवु विा में
पड़कर र जाते थे, व आज उन् ोंने माूँग भलया।
लेककन वववा के बाद रामेन्द्र को नया अनभ
ु व ु आ। मह लाओिं का आना-जाना
प्रायः बन्द ो गया। इसके साथ ी मदय दोस्तों की आमदरफ्त बढ गई। हदन-भर
उनका ताूँता लगा र ता था। सुलोचना उनके आदर-सतकार में लगी र ती। प ले
एक-दो म ीने तक तो रामेन्द्र ने इिर ध्यान न ीिं हदया, लेककन जब कई मह ने
गुजर गए और ल्स्त्रयों ने बह ष्कार का तयाग न ककया तो उन् ोंने एक हदन
सुलोचना से क ा - 'य लोग आजकल अकेले ी आते ैं! '

सुलोचना ने िीरे से क ा - ' ाूँ दे खती तो ू ूँ।'

रामेन्द्र बोला - 'इनकी औरतें तो तम


ु से पर े ज न ीिं करती?'

सुलोचना ने क ा - 'शायद क ती ो।'

रामेन्द्र कफर बोला - 'मगर वे लोग तो ववचारों के बड़े स्वािीन ैं , इनकी औरतें
भी भशक्षक्षत ैं, कफर क्या बात ैं ?'

सुलोचना ने दबी जबान से क ा - 'मेरी समझ में तो कुछ न ीिं आता।'

रामेन्द्र ने कुछ दे र तक असमिंजस में पड़कर क ा - ' म लोग ककसी दस


ू री
जग चले जाए, को क्या जय? व ाूँ तो कोई में न जानता ोगा।'

सुलोचना ने अबकी तीव्र स्वर में क ा - 'दस


ू री जग क्यों जाए, मने ककसी का
कुछ बबगाड़ा न ीिं ैं, ककसी से कुछ माूँगते न ीिं। ल्जसे आना ो आए, न आना ो
न आए, मूँु क्यों तछपाएूँ'

िीरे -िीरे रामेन्द्र पर एक और र स्य खुलने लगा, जो मह लाओिं के व्यव ार से


अधिक घण
ृ ास्पद और अपमानजनक था। रामेन्द्र को अब मालम
ू ोने लगा कक
ये म ाशय जो आते ैं और घिंटों बैठे सामाल्जक और राजनीततक प्रश्नों पर ब स
ककया करते ैं, वास्तव में ववचार-ववतनमय के भलए न ीिं बल्कक रूप की उपासना
के भलए आते ैं। उनकी आूँखें सुलोचना को खोजती र ती ैं। उनके कान उसी
की बातों की ओर लगे र ते ैं। उसके रूप मािय
ु य का आनन्द उठाना ी उनका
अभीष्ठ ैं। य ाूँ उन् ें व सिंकोच न ीिं ोता, जो ककसी भले आदमी की ब ू -बेटी
की ओर आूँखें न ीिं उठाने दे ता। शायद सोचते ैं , य ाूँ कोई रोक-टोक न ीिं ैं।

कभी-कभी जब रामेन्द्र की अनप


ु ल्स्थतत में कोई म ाशय आ जाते, तो सल
ु ोचना
को बड़ी कहठन परीक्षा का सामना करना पड़ता। अपनी धचतवनों से , कुल्तसत
सिंकेतों से, अपनी र स्यमयी बातों से, अपनी लम्बी साूँसों से उसे हदखाना चा ते
थे, कक म भी तुम् ारी कृपा के भभखारी ैं। अगर रामेन्द्र का तुम पर सोल ो
आना अधिकार ैं , तो थोड़ी-सी दक्षक्षणा के अधिकारी म भी ैं। सुलोचना उस
वक्त ज र का घूट
ूँ पीकर र जाती।

अब तक रामेन्द्र ओर सुलोचना क्लब जाया करते थे। व ाूँ उदार सज्जनों का


अच्छा जमघट र ता था। जब तक रामेन्द्र को ककसी की ओर सन्दे न था, व
उसे आग्र करके अपने साथ ले जाते थे। सुलोचना के प ु ूँचते ी य ाूँ एक
स्फूततय-सी उतपन्न ो जाती थी। ल्जस मेज पर सल
ु ोचना बैठती, उसे लोग घेर
लेते थे। कभी-कभी सल
ु ोचना गाती थी। उस वक्त सब-के-सब उन्मतत ो जाते।

क्लब में मह लाओिं की सिंख्या अधिक न थी। मुल्श्कल से पाूँच-छः औरते थी,
मगर वे भी सल
ु ोचना से दरू -दरू र ती थी, बल्कक अपनी भाव-भिंधगमाओिं और
कटाक्षों से वे उसे जता दे ना चा ती थी कक तुम पुरुषों का हदल खुश करो, म
कुल-विुओ के पास तुम न ीिं आ सकती।

लेककन जब रामेन्द्र पर इस कटु सतय का प्रकाश ु आ, तो उन् ोंने क्लब जाना


छोड़ हदया, भमत्रों के य ाूँ आना-जाना भी कम कर हदया और अपने य ाूँ आने
वालों की भी उपेक्षा करने लगे। व चा ते थे कक मेरे एकान्तवास में कोई ववध्न
न डाले। आखखर उन् ोंने बा र आना-जाना छोड़ हदया। अपने चारों ओर छल-
कपट का जाल-सा बबछा ु आ मालूम ोता था, ककसी पर ववश्वास न कर सकते
थे, ककसी से सद्व्यव ार की आशा न ीिं।
रामेन्द्र सोचते - 'ऐसे ित
ू ,य कपटी दोस्ती की आड़ में गला काटने वाले आदभमयों
से भमलें ी क्यों?'

वे स्वभाव से भमलनसार आदमी थे। पक्के यारबाश। य एकान्तवास ज ाूँ न


कोई सैर थी, न ववनोद, न कोई च ल-प ल, उनके भलए कहठन कारावास से कम
न था। यद्यवप कमय औऱ वचन से सल
ु ोचना की हदलजोई करते र ते थे, लेककन
सुलोचना की सूक्ष्म और सशिंक आूँखों से अब य बात तछपी न थी कक य
अवस्था इनके भलए हदन-प्रततहदन असह्य ोती जाती थी।

सल
ु ोचना हदल में सोचती - 'इनकी य दशा मेरे ी कारण तो ैं, मैं ी इनके
जीवन का काूँटा ो गई!'

एक हदन रामेन्द्र से क ा - 'आजकल क्लब क्यों न ीिं चलते? कई सप्ता ु ए घर


से तनकलते तक न ीिं।'

रामेन्द्र ने बेहदली से क ा - 'मेरा जी क ीिं जाने को न ीिं चा ता, अपना घर सबसे


अच्छा ैं।'

सुलोचना ने क ा - 'जी तो ऊबता ी ोगा, मेरे कारण य तपस्या क्यों करते


ो? मैं तो न जाऊूँगी, उन ल्स्त्रयों से मुझे घण
ृ ा ोती ैं, उनमें एक भी ऐसी न ीिं,
ल्जसके दामन पर काले दाग न ो, लेककन सब सीता बनी कफरती ैं , मझ
ु े तो
उनकी सरू त से धचढ ो गई ैं, मगर तम
ु क्यों न ीिं जाते? कुछ हदल ी ब ल
जाएगा।'

रामेन्द्र ने क ा - 'हदल न ीिं पतथर ब लेगा, जब अन्दर आग लगी ु ई ो, तो


बा र शाल्न्त क ाूँ?'

सुलोचना चौंक पड़ी। आज प ली बार रामेन्द्र के मूँु से ऐसी बात सुनी। व


अपने ी को बह ष्कृत समझती थी। अपना अनादर जो कुछ था, उसका था।
रामेन्द्र के भलए तो अब भी सब दरवाजे खल
ु े ु ए थे। व ज ाूँ चा े जा सकते
थे, ल्जससे चा ें भमल सकते थे, उनके भलए कौन-सी रूकावट ैं। लेककन न ीिं, अगर
उन् ोंने ककसी कुलीन स्त्री से वववा ककया ोता, तो उनकी य दशा क्यों ोती?
प्रततल्ष्ठत घरानों की औरतें आती, आपस में मैत्री बढती, जीवन सुख से कटता,
रे श्म का पैबन्द लग जाता। अब तो उसमें टाट का पैबन्द लग गया। मैंने आकर
सारे तालाब को गन्दा कर हदया। उसके मुख पर उदासी छा गयी।

रामेन्द्र को भी तुरन्त मालूम ो गया कक उनकी जबान से एक ऐसी बात तनकल


गई ल्जसके दो अथय ो सकते ैं। उन् ोंने फौरन बात बनाई- 'क्या तुम समझती
ो कक म औऱ तुम अलग-अलग ैं, मारा और तुम् ारा जीवन एक ैं। ज ाूँ
तम्
ु ारा आदर न ीिं, व ाूँ मैं कैसे जा सकता ू ूँ? कफर मझ
ु े भी समाज के इन रिं गे
भसयारों से मझ
ु े घण
ृ ा ो र ी ैं, मैं इन सबों के कच्चे धचट्ठे जानता ू ूँ , पद या
उपाधि या िन से ककसी की आतमा शु्ध न ीिं ो जाती। जो ये लोग करते ैं, व
अगर कोई नीचे दरजे का आदमी करता, उसे क ीिं मूँु हदखाने की ह म्मत न
ोती। मगर य लोग अपनी सारी बुराईयाूँ उदारतावाद के पदे में तछपाते ैं, इन
लोगों से दरू र ना ी अच्छा।'

सुलोचना का धचतत शान्त ो गया।

दस
ू रे साल सुलोचना की गोद में एक चाूँद-सी बाभलका का उदय ु आ। उसका
नाम रखा गया शोभा। किंु वर सा ब का स्वास््य इन हदनों कुछ अच्छा न था।
मिंसूरी गए थे। य खबर पाते ी रामेन्द्र को तार हदया कक जच्चा और बच्चा
को लेकर य ाूँ आ जाओ।

लेककन रामेन्द्र इस अवसर पर न जाना चा ते थे। अपने भमत्रों की सज्जनता


और उदारता की अल्न्तम परीक्षा लेने का इससे अच्छा और कौन-सा अवसर ो
सकता था। सला ु ई, एक शानदार दावत दी जाए। प्रोग्राम में सिंगीत भी शाभमल
था। कई अच्छे -अच्छे गवैए बुलाए गए। अिंग्रेजी, ह न्दस्
ु तानी, मुसलमानी सभी
प्रकार के भोजन का प्रबन्ि ककया गया।
किंु वर सा ब धगरते-पड़ते मिंसूरी से आए। उसी हदन दावत थी। तनयत समय पर
तनमिंबत्रत लोग एक-एक करके आने लगे। किंु वर सा ब स्वयिं उनका स्वागत कर
र े थे। खाूँ सा ब आए, भमजाय सा ब आए, मीर सा ब आए, मगर पिंडडतजी और
बाबू जी और लाला सा ब और चौिरी सा ब और कक्कड़ मे रा और कौल और

ु क्कू, श्रीवास्तव और खरे ककसी का पता न था।

य ी सभी लोग ोटलों में सब कुछ खाते थे, अिंडे और शराब उड़ाते थे, इस ववषय
में ककसी तर का वववेक या ववचार न करते थे , कफर आज क्यों तशरीफ न ीिं
लाए? इसभलए न ीिं कक छूत-छात का ववचार था, बल्कक इसभलए कक व अपनी
उपल्स्थतत को इस वववा के समथयन की सनद समझते थे और व सनद दे ने
की उनकी इच्छा न थी।

दस बजे रात तक किंु वर सा ब फाटक पर खड़े र े । जब उस वक्त तक कोई न


आया, तो किंु वर सा ब ने आकर रामेन्द्र से क ा - 'अब लोगों का इिंतजार फजूल
ै , मुसलमानों को खखला दो और बाकी सामान गरीबों को हदला दो।'

रामेन्द्र एक कुसी पर तबवु ्ध से बैठे ु ए थे। किंु हठत स्वर में बोले, 'जी ाूँ, य ी
तो मैं सोच र ा ू ूँ।'

किंु वर ने क ा, 'मैंने तो प ले ी समझ भलया था, मारी तौ ीन न ीिं ु ई, खद


ु उन
लोगों की कलई खल
ु गई।'

रामेन्द्र न क ा, 'खैर, परीक्षा तो ो गई, कह ए तो अभी जाकर एक-एक की खबर


लूँ ।ू '

किंु वर सा ब ने ववल्स्मत ोकर क ा, 'क्या उनके घर जाकर?'

रामेन्द्र ने क ा, 'जी ाूँ, पूँछ


ू ू कक आप लोग जो समाज-सुिार का राग अलापते
कफरते ै , व ककस बल पर?'
किंु वर सा ब ने क ा, 'व्यथय ै , जाकर आराम से लेटो, नेक और बद की सबसे बड़ी
प चान अपना हदल ै । अगर मारा हदल गवा ी दे कक य काम बुरा न ीिं तो
कफर सारी दतु नया मूँु फेर ले, में ककसी की परवा न करनी चाह ए।'

रामेन्द्र ने क ा, 'लेककन मैं इन लोगों को यों न छोडूूँगा - एक-एक की बखखया


उिेड़ कर न रख दूँ ू तो नाम न ीिं।'

य क कर उन् ोंने पततल और सकोरे उठवा-उठवा कर गरीबों को दे ना शुरू


ककया।

रामेन्द्र सैर करके लौट ी थे कक वेश्याओिं का एक दल सुलोचना को बिाई दे ने


के भलए आ प ु ूँचा। जु रा की एक सगी भतीजी थी, गुलनार। सुलोचना के य ाूँ
प ले बराबर आती-जाती थी। इिर दो साल से न आई थी। य उसी का बिावा
था। दरवाजे पर अच्छी खासी भीड़ ो गई थी। रामेन्द्र न य शोरगल
ु सन
ु ा।

गुलनार ने आगे बढकर उन् ें सलाम ककया और बोली, 'बाबज


ू ी, बेटी मुबारक,
बिावा लाई ू ूँ।'

रामेन्द्र पर मानो लकवा-सा धगर गया। भसर झुक गया औऱ चे रे पर काभलमा-सी


पुत गई। न मूँु से बोले, न ककसी को बैठने का इशारा ककया, न व ाूँ से ह ले,
बस मतू तयवच खड़े र गए। एक बाजारी औरत से नाता पैदा करने का ख्याल
इतना लज्जास्पद था, इतना जघिंय कक उसके सामने सज्जनता भी मौन र गई।
इतना भशष्टाचार भी न कर सके कक सबों को कमरे में ले जाकर बबठा तो दे त।े
आज प ली बार उन् ें अपने अिःपतन का अनुभव ु आ। भमत्रों की कुहटलता और
मह लाओिं की उपेक्षा को व उनका अन्याय समझते था, अपना अपमान न ीिं,
लेककन य बिावा (उप ार) उनकी अबाि उदारता के भलए भी भारी था।
सुलोचना का ल्जस वातावरण में पालन-पोषण ु ए था, व एक प्रततल्ष्ठत ह न्द ू
कुल का वातावरण था। य सच ै कक अब भी सुलोचना तनतय जु रा के मजार
की पररक्रमा करने जाती थी, मगर जु रा अब एक पववत्र स्मतृ त थी, दतु नया की
मभलनताओ और कलष
ु ताओिं से रह त। गल
ु नार से नातेदारी औऱ परस्पर का
तनबा दस
ू री बात थी। जो लोग तस्वीरों के सामने भसर झुकाते ै , उनपर फूल
चढाते ै , वे भी मूततय पूजा की तनिंदा करते ै । एक स्पष्ट ै , दस
ू रा सािंकेततक। एक
प्रतयक्ष ै , दस
ू रा आूँखों से तछपा ु आ।

सुलोचना अपने कमरे में धचक की आड़ में खड़ी रामेन्द्र का असमिंजस और क्षोभ
दे ख र ी थी। ल्जस समाज को उसने अपना उपास्य बनाना चा ा था, ल्जसके
द्वार पर भसजदे करते उसे बरसों ो गए थे, उसकी तरफ से तनराश ोकर, उसका
हृदय इस समय उससे ववद्रो करने पर तल
ु ा ु आ था। उसके जी में आता था -
गुलनार को बुलाकर गले लगा लूँ ू? जो लोग मेरी बात भी न ीिं पूछते, उनकी
खुशामद क्यों करूूँ? य बेचाररयाूँ इतनी दरू से आई ै मुझे अपना ी समझकर
तो। उनके हदल में प्रेम तो ै, य मेरे दःु ख-सुख में शरीक ोने को तैयार तो ै।

आखखर रामेन्द्र ने भसर उठाया और शुष्क मुस्कान के साथ गुलनार से बोले,


'आइए आप लोग अन्दर चली आइए।'

य क कर व आगे -आगे रास्ता हदखाते ु ए दीवानखाने की ओर चले कक स सा


म री तनकली और गुलनार के ाथ में एक पुजाय दे कर चली गई, गुलनार ने य
पज
ु ाय लेकर दे खा और उसे रामेन्द्र के ाथ में दे कर व ी खड़ी ो गई।

रामेन्द्र ने पुजाय, भलखा था - 'ब न गुलनार, तुम य ाूँ ना क आई, म लोग यों ी
बदनाम ो र े ै , अब और बदनामी मत करो, बिावा वापस ले जाओ, कभी
भमलने का जी चा े , रात को आना और अकेली, मेरा जी तम
ु से गले भलपटकर
रोने के भलए तड़प र ा ै मगर मजबरू ू ूँ।'

रामेन्द्र ने पुजाय फाड़कर फेंक हदया और उद्दण्ड ोकर बोले - 'इन् ें भलखने दो, मैं
ककसी से न ीिं डरता, अन्दर आओ।'

गुलनार ने एक कदम पीछे कफरकर क ा, 'न ीिं बाबूजी, अब में आञा ा दील्जए।'

रामेन्द्र ने क ा, 'एक भमनट तो बैठो।'

गल
ु नार ने क ा, 'जी न ीिं, एक सेककिं ड भी न ीिं।'

गुलनार के चले जाने के बाद रामेन्द्र अपने कमरे मे जा बैठे। जैसी पराजय उन् ें
आज ु ई, वैसी प ले कभी न ीिं ु ई। व आतमाभभमान, व सच्चा क्रोि, जो
अन्याय के ञा ान से पैदा ोता ै , लप्ु त ो गया था। उसकी जग लज्जा थी और
ग्लातन। इसे बिावे की क्यों सझ
ू गई। यों तो कभी आती-जाती न थी, आज न
जाने क ाूँ से फट पड़ी। किंु वर सा ब ोंगे उदार। उन् ोंने जु रा के नातेदारों से
भाईचारे का तनबा ककया ोगा, मैं इतना उदार न ीिं ू ूँ, क ीिं सुलोचना तछपकर
इसके पास आती-जाती तो न ीिं! भलखा भी तो ै कक भमलने का जी चा े , तो रात
को आना और अकेली। क्यों न ो, खून तो व ी ै , मनोवल्ृ तत व ी, ववचार व ी,
आदशय व ी। माना, किंु वर सा ब के घर में पालन-पोषण ु आ, मगर रक्त का
प्रभाव इतनी जकदी न ीिं भमट सकता। अच्छा, दोनों ब नें भमलती ोगी तो उनमें
क्या बातें ोती ोगी? इतत ास या नीतत की चचाय तो ो न ीिं सकती। व ी
तनलयज्जता की बातें ोती ोगी। गुलनार अपना वतृ तान्त क ती ोगी, उस बाजार
के खरीदारों और दक
ु ानदारों के गुण-दोषों पर ब स ोती ोगी। य तो ो ी
न ीिं सकता कक गुलनार इसके पास आते ी अपने को भूल जाए और कोई भद्दी,
अनगयल और कलवु षत बातें न करे । एक क्षण में उनके ववचारों ने पलटा खाया,
मगर आदमी बबना ककसी से भमले -जल
ु े र भी तो न ीिं सकता, य भी तो एक
तर की भख
ू ै , भूख में अगर शु्ध भोजन न भमले तो आदमी जठ
ू ा खाने से भी
पर े ज न ीिं करता। अगर इन लोगों ने सुलोचना को अपनाया ोता, उसका यों
बह ष्कार न करते, तो उसे क्यों ऐसे प्राखणयों से भमलने की इच्छा ोती। उसका
दोष न ीिं, सारा दोष पररल्स्थततयों का ै , जो मारे अतीत की याद हदलाती र ती
ै।

रामेन्द्र इन् ी ववचारों में पड़े ु ए थे किंु वर सा ब आ प ु ूँचे और कटु स्वर में बोले,
'मैने सन
ु ा गल
ु नार अभी बिावा लाई थी, तम
ु ने उसे लौटा हदया।'

रामेन्द्र का ववरोि सजीव ो उठा, कफर बोले, 'मैंने तो न ीिं लौटाया, सुलोचना ने
लौटाया, पर मेरे ख्याल में अच्छा ककया।'

किंु वर सा ब ने क ा, 'तो य क ो तुम् ारा इशारा था, तुमने इन पतततों को अपनी


ओर खीिंचने का ककनता अच्छा अवसर ाथ से खो हदया! सल
ु ोचना को दे खकर
जो कुछ असर पड़ा, व तम
ु ने भमटा हदया, ब ु त सम्भव था कक एक प्रततल्ष्ठत
आदमी से नाता रखने का अभभमान उसके जीवन में एक नये यग
ु का आरम्भ
करता, मगर तुमने इन बातों पर जरा भी ध्यान न हदया।'

रामेन्द्र ने कोई जवाब न हदया। किंु वर सा व जरा उततेल्जत ोकर बोले, 'आप
लोग य क्यों भल
ू जाते ै कक रके बरु ाई मजबरू ी से ोती ै । चोर इसभलए
चोरी न ीिं करता कक चोरी में उसे ववशेष आनन्द आता ै , बल्कक केवल इसभलए
कक जरूरत उसे मजबूर कर दे ती ै। ाूँ, व जरूरत वास्तववक ै या काकपतनक
इसमें मतभेद ो सकता ै , स्त्री मैके जाते समय कोई ग ना बनवाना एक
आदमी के भलए जरूरी ो सकता ै , दस
ू रे के भलए बबककुल गैर जरूरी। क्षुिा से
व्यधथत ोकर एक आदमी अपना ईमान खो सकता ै , दस
ू रा मर जाएगा पर
ककसी के सामने ाथ न फैलाएगा, पर प्रकृतत का य तनयम आप जैसे ववद्वानों
को न भूलना चाह ए कक जीवन-लालसा प्राणीमात्र में व्यापक ै , ल्जन्दा र ने के
भलए आदमी सब कुछ कर सकता ै । ल्जन्दा र ना ल्जतना ी कहठन ोगा,
बरु ाइयाूँ भी उसी मात्रा में बढे गी। ल्जतना ी आसान ोगा उतनी ी बरु ाइयाूँ कम
ोगी। मारा य प ला भस्ध ान्त ोना चाह ए कक ल्जन्दा र ना, रे क के भलए
सुलभ ो। रामेन्द्र बाब,ू आपने इस वक्त इन लोगों के साथ व ी व्यव ार ककया
जो दस
ू रे आपके साथ कर र े ै और ल्जससे आप ब ु त दःु खी ै ।'

रामेन्द्र ने इस लम्बे व्याख्यान को इस तर सुना, जैसे कोई पागल बक र ा ो।


इस तर की दलीलों का व खुद ककतनी ी बार समथयन कर चुके थे। पर
दलीलों से व्यधथत की अिंग पीड़ा न ीिं शान्त ोती। पततत ल्स्त्रयों का नातेदार
की ै भसयत से द्वार पर आना इतना अपमानजनक था कक रामेन्द्र ककसी दलील
से पराभत
ू ोकर उसे भल
ू न सकते थे, कफर बोले, 'मैं ऐसे प्राखणयों से कोई
सम्बन्ि न ीिं रखता, य ववष अपने घर में न ीिं फैलाना चा ता!'

स सा सुलोचना भी कमरे में आ गई। प्रसवकाल का असर अभी बाकी था, पर


उततेजना ने चे रे को आरक्त कर रखा था। रामेन्द्र सुलोचना को दे खकर तेज ो
गए। व उसे जता दे ना चा ते थे कक इस ववषय में मैं एक रे खा तक जा सकता

ू ूँ , उसके आगे ककसी तर न ीिं जा सकता, कफर बोले, 'मैं य कभी पसन्द न
करूूँगा कक कोई बाजारी औरत ककसी भेष में मेरे घर में आए, रात को अकेले या
सूरत बदलकर आने से इस बुराई का असर न ीिं भमट सकता, मैं समाज के दिं ड
से न ीिं डरता, इस नैततक ववष से डरता ू ूँ।'

सुलोचना अपने ववचार में मयायदा-रक्षा के भलए काफी आतमसमपयण कर चुकी थी।
उसका आतमा ने अभी तक उसे क्षमा न ककया था। तीव्र स्वर में बोली, 'क्या तुम
चा ते ो कक मैं इस कैद में अकेले जान दे दूँ !ू कोई तो ो ल्जससे आदमी ूँसे,
बोले!'

रामेन्द्र ने गमय ोकर क ा, ' ूँ सने-बोलने का इतना शौक था, तो मेरे साथ वववा
न ीिं करना चाह ए था, वववा का बन्िन बड़ी द तक तयाग का बन्िन ै , जब
तक सिंसार में इस वविान का राज्य ै और स्त्री कुलमयायदा की रक्षक समझी
जाती ै , उस वक्त तक कोई मदय य स्वीकार न करे गा कक उसकी पतनी बरु े
आचरण के प्राखणयों से ककसी प्रकार का सिंसगय रक्खे।'

किंु वर सा ब समझ गए कक इस वाद-वववाद से रामेन्द्र और भी ल्जद पकड़ लें गे


और मुख्य ववषय लुप्त ो जाएगा, इसभलए नम्र स्वर में बोले, 'लेककन बेटा, य
क्यों ख्याल करते ो कक ऊूँचे दरजे की पढी-भलखी स्त्री दस
ू रों के प्रभाव में आ
जाएगी, अपना प्रभाव न डालेगी?'

रामेन्द्र ने क ा, 'इस ववषय में भशक्षा पर मेरा ववश्वास न ीिं, भशक्षा ऐसी ककतनी
बातों को मानती ै , जो रीतत-नीतत और परम्परा की दृल्ष्ट से तयाज्य ै , अगर
पाूँव कफसल जाए तो म उसे काटकर फेंक न ीिं दे ते , पर मैं इस अनोलोजी के
सामने झक
ु ने को तैयार न ीिं ू ूँ , मैं स्पष्ट कर दे ना चा ता ू ूँ कक मेरे साथ र कर
परु ाने सम्बन्िों का तयाग करना पडेगा! इतना न ीिं, मन को ऐसा बना लेना
पड़ेगा कक ऐसे लोगों से उसे खुद घण
ृ ा ो, में इस तर अपना सिंस्कार करना
पड़ेगा कक समाज अपने अन्याय पर लल्ज्जत ो, न य कक मारे आचरण ऐसे
भ्रष्ट ो जाए कक दस
ू रों की तनगा में य ततरस्कार औधचतय का स्थान पा
जाए।'

सुलोचना ने उ्ध ृत ोकर क ा, 'स्त्री इसके भलए मजबूर न ीिं ै कक व आपकी


आूँखों से दे खे और आपने कानों से सुने, उसे य तनश्चय करने का अधिकार ै
कक कौन-सी चीज उसके ह त की ै , कौन-सी न ीिं।'

किंु वर सा ब भयभीत ोकर बोले, 'भसकलो, तुम भूली जाती ो कक बातचीत में
मेशा मुलायम शब्दों का व्यव ार करना चाह ए, म झगड़ा न ीिं कर र े ै,
केवल एक प्रश्न पर अपने-अपने ववचार प्रकट कर र े ै।'
सल
ु ोचना ने तनभीकता से क ा, 'जी न ीिं, मेरे भलए बेडड़याूँ तैयार की जा र ी ै , मैं
इन बेडड़यों को न ीिं प न सकती। मैं अपनी आतमा को उतना ी स्वािीन
समझती ू ूँ , ल्जतना कोई मदय समझता ै ।'

रामेन्द्र ने अपनी कठोरता पर कुछ लल्ज्जत ोकर क ा, 'मैंने तम्


ु ारी आतमा की
स्वािीनता को छीनने की कभी इच्छा न ीिं की और न मैं इतना ववचार ीन ू ूँ।
शायद तुम भी इसका समथयन करोगी, लेककन क्या तुम् ें ववपरीत मागय पर चलते
दे खूूँ तो मैं तुम् ें समझा भी न ीिं सकता?'

सल
ु ोचना ने क ा, 'उसी तर जैसे मैं तम्
ु ें समझा सकती ू ूँ, तम
ु मझ
ु े मजबरू
न ीिं कर सकते।'

रामेन्द्र ने क ा, 'मैं इसे न ीिं मान सकता।'

सुलोचना ने क ा, 'अगर मैं अपने ककसी नातेदार से भमलने जाऊूँ , तो आपकी


इज्जत में बट्टा लगता ै , क्या इसी तर आप य स्वीकार करें गे कक आपका
व्यभभचाररयों से भमलना-जल
ु ना मेरी इज्जत में दाग लगाता ै ?'

रामेन्द्र ने क ा, ' ाूँ, मैं मानता ू ूँ।'

सुलोचना ने क ा, 'आपका कोई व्यभभचारी भाई आ जाए, तो आप उसे दरवाजे से


भगा दें गे?'

रामेन्द्र ने क ा, 'तम
ु मझ
ु े इसके भलए मजबरू न ीिं कर सकती।'

सुलोचना ने क ा, 'और आप मुझे मजबूर कर सकते ै ?'

'बेशक।'

'क्यों?'
'इसभलए कक मैं परु
ु ष ू ूँ, इस छोटे -से पररवार का मख्
ु य अिंग ू ूँ, इसभलए कक
तम्
ु ारे ी कारण मझ
ु .े ..।' रामेन्द्र क ते-क ते रुक गए। पर सल
ु ोचना उनके मूँु
से तनकलने वाले शब्दों को ताड़ गई। उसका च े रा तमतमा उठा, मानो छाती में
बरछी-सी लग गई। मन में ऐसा उद्वेग उठा कक इसी क्षण घर छोड़कर, सारी
दतु नया से नाता तोड़कर चली जाऊूँ और कफर इन् ें कभी मूँु न हदखाऊूँ। अगर
इसी का नाम वववा ै कक ककसी की मजी की गुलाम ोकर र ू ूँ , अपमान स न
करूूँ, तो ऐसे वववा को दरू ी से सलाम ै।

व तैश में आकर कमरे से तनकलना चा ती थी कक किंु वर सा ब ने लपककर


उसे पकड़ भलया और बोले, 'क्या करती ो बेटी, घर में जाओ और क्यों रोती ो?
अभी तो मैं ल्जन्दा ू ूँ, तुम् ें क्या गम ै ? रामेन्द्र बाबू ने कोई ऐसी बात न ीिं क ी
और न क ना चा ते थे, कफर आपस की बातों का क्या बुरा मानना, ककसी
अवसर पर तुम भी जो जी में आए व क लेना।'

यों समझाते ु ए किंु वर सा ब उसे अन्दर ले गए। वास्तव में सल


ु ोचना कभी
गल
ु नार से भमलने की इच्छुक न थी। व उससे स्वयिं भागती थी। एक क्षखणक
आवेश में उसने गुलनार को व पुजाय भलख हदया था। मन में स्वयिं समझती थी,
इन लोगों से मेल-जोल रखना मुनाभसब न ीिं, लेककन रामेन्द्र ने ववरोि ककया, य ी
उसके भलए असह्य था। य मुझे मना क्यों करें ? क्या मैं इतना भी न ीिं
समझती? क्या इन् ें मेरी ओर से इतनी शिंका ै ! इसीभलए तो मैं कुलीन न ीिं ू ूँ!

मैं अभी-अभी गुलनार से भमलने जाऊूँगी, ल्जद्दन जाऊूँगी, दे खूूँ मेरा क्या करते ै?

लाड़-प्यार में पली ु ई सल


ु ोचना को कभी ककसी ने इतनी तीखी आूँखों से न
दे खा था। किंु वर सा ब उसकी मजी के गुलाम थे। रामेन्द्र भी इतने हदनों उसका
मूँु जो ते र े । आज अकस्मात य ततरस्कार और फटकार पाकर उसकी
स्वेच्छा प्रेम और आतमीयता के सारे नातों को पैरो से कुचल डालने के भलए
ववकल ो उठी। व सब कुछ स लेगी पर य िौंस, य अन्याय. य अपमान
उससे न स ा जाएगा।

उसने खखड़की से भसर तनकालकर कोचवान को पुकारा, 'गाड़ी लाओ, मुझे चौक
जाना ै , अभी लाओ।'

किंु वर सा ब ने चम
ु कारकर क ा, 'बेटी भसकलो, क्या कर र ी ो, मेरे ऊपर दया
करो, इस वक्त क ीिं मत जाओ, न ीिं तो मेशा के भलए पछताना पड़ेगा। रामेन्द्र
बाबू भी बड़े गुस्सेवर आदमी ै , कफर तुमसे बड़े ै , ज्यादा ववचारवान ै , उन् ीिं
का क ना मान जाओ। मैं तुमसे सच क ता ू ूँ , तुम् ारी माूँ जब थीिं, तो कई बार
ऐसी नौबत आई कक मैंने उनसे क ा - 'घर से तनकल जाओ, पर उस प्रेम की
दे वी ने कभी ड्योढी के बा र पाूँव न ीिं तनकाला।' इस वक्त िैयय से काम लो!
मझ
ु े ववश्वास ै , जरा दे र में रामेन्द्र बाबू खद
ु लल्ज्जत ोकर तम्
ु ारे पास अपराि
क्षमा कराने आएूँगे।'

स सा रामेन्द्र ने आकर पछ
ू ा, 'गाड़ी क्यों मूँगवाई? क ाूँ जा र ी ो?'

रामेन्द्र का चे रा इतना क्रोिोमतत ो र ा था, कक सुलोचना स म उठी। दोनों


आूँखों से ज्वाला-सी तनकल र ी थी। नथने फड़क र े थे , वपिंडभलयाूँ काूँप र ी थी।
य क ने की ह म्मत न पड़ी कक गल
ु नार के घर जाती ू ूँ। गल
ु नार का नाम
सन
ु ते ी शायद य मेरी गदय न पर सवार ो जाएूँगे, इस भय से व काूँप उठी।
आतमरक्षा का भाव प्रबल ो गया कफर बोली, 'जरा अम्माूँ के मजार तक
जाऊूँगी।'

रामेन्द्र ने डाूँटकर क ा, 'कोई जरूरत न ीिं व ाूँ जाने की।'

सुलोचना ने कातर स्वर में क ा, 'क्यों अम्मा के मजार तक जाने की भी रोक


ै ?'
रामेन्द्र ने उसी ध्वतन में क ा, ' ाूँ।'

सुलोचना ने क ा, 'तो कफर अपना घर सिंभालो, मैं जाती ू ूँ।'

रामेन्द्र ने क ा, 'जाओ, तुम् ारे भलए क्या, य न स ी दस


ू रा घर स ी!'

अभी तक तस्मा बाकी था, व कट गया। यों शायद सल


ु ोचना व ाूँ से किंु वर
सा ब के बिंगले पर जाती, दो-चार हदन रूठी र ती, कफर रामेन्द्र उसे मना लाते
और मामला तय ो जाता, लेककन इस चोट ने समझौते और सिंधि की जड़ काट
दी। सुलोचना दरवाजे तक प ु ूँची थी, व ीिं धचत्रभलखखत-सी खड़ी र गई। मानो
ककसी ऋवष ने शाप ने उसके प्राण खीिंच भलए ो, व ीिं बैठ गई, न कुछ बोल
सकी, न कुछ सोच सकी। ल्जसके भसर पर बबजली धगर पड़ी ो, व क्या सोचे,
क्या रोए, क्या बोले। रामेन्द्र के वे शब्द बबजली से क ी अधिक घातक थे।

सल
ु ोचना कब तक व ाूँ बैठी र ी, उसे कुछ खबर न थी। जब उसे ोश आया तो
घर में सन्नाटा छाया ु आ था। घड़ी की तरफ आूँख उठी, एक बज र ा था।
सामने आरामकुसी पर किंु वर सा ब नवजात भशशु को गोद में भलए सो गए थे।
सुलोचना ने उठकर बरामदे में झाूँका, रामेन्द्र पलिंग पर लेटे ु ए थे। उसके जी में
आया, इसी वक्त इन् ीिं के सामने जाकर कलेजे में छुरी मार लूँ ू, और इन् ीिं के
आगे तड़प-तड़प कर मर जाऊूँ। व घातक शब्द याद आ गए, इनके मूँु से ऐसे
शब्द तनकले क्यों इतने चतरु , इतने उदार और इतने ववचारशील ोकर भी य
जुबान पर ऐसे शब्द क्योंकर ला सके।

उसका सारा सतीतव, भारतीय आदशों की गोद में पली ु ई भभू म पर आसक्त पड़ी

ु ई अपनी दीनता पर रो र ा था। व सोच र ी थी, अगर मेरे नाम पर य दाग


न ोता, मैं भी कुलीन ोती, तो क्या य शब्द इनके मूँु से तनकल सकते थे?
लेककन मैं बदनाम ू ूँ, दभलत ू ूँ, तयाज्य ू ूँ , मुझे सब कुछ क ा जा सकता ै । उफ!
इतना कठोर हृदय। क्या व ककसी दशा में भी रामेन्द्र पर इतना कठोर प्र ार
कर सकती थी?

बरामदे में बबजली की रोशनी थी। रामेन्द्र के मुख पर क्षोभ या ग्लातन का नाम
भी न था। क्रोि की कठोरता अब तक उसके मुख को ववकृत ककए ु ए थी।
शायद इन आूँखों में आूँसू दे खकर अब भी सुलोचना के आ त हृदय को तसकीन
ोती, लेककन व ाूँ तो अभी तक तलवार खखिंची ु ई थी। उसकी आूँखों में सारा
सिंसार सन
ू ा ो गया।

सुलोचना कफर अपने कमरे में आई। किंु वर सा ब की आूँखें बन्द थी। इन चन्द
घिंटों ी में उनका तेजस्वी मख
ु कािंतत ीन ो गया था। गालों पर आूँसूओिं की
रे खाएूँ सख
ू गई थी। सल
ु ोचना ने उनके पैरो के पास बैठकर सच्ची भक्ती के
आूँस।ू ाय! मझ
ु अभाधगनी के भलए इन् ोंने कौन-कौन से कष्ट न ीिं झेले, कौन-
कौन से अपमान न ीिं स े , अपना सारा जीवन ी मुझ पर अपयण कर हदया और
उसका य हृदय-ववदारक अन्त।

सल
ु ोचना ने कफर बच्ची को दे खा, मगर उसका गल
ु ाब का-सा ववकभसत मूँु
दे खकर भी उसके हृदय में ममता की तरिं ग न उठी, उसने उसकी तरफ से मूँु
फेर भलया। य ी व अपमान की मूततयमान वेदना ै , जो इतने हदनों तक मुझे
भोगनी पड़ी। मैं इसके भलए क्यों अपने प्राण सिंकट में डालू। अगर उसके तनदय यी
वपता को उसका प्रेम ै , तो उसको पाले और एक हदन व भी उसी तर रोए,
ल्जस तर आज मेरे वपता को रोना पड़ र ा ै । ईश्वर अबकी अगर जन्म दे ना,
तो ककसी भले आदमी के घर जन्म दे ना...।

ज ाूँ जु रा का मजार था उसी के बगल में एक दस


ू रा मजार बना ू आ ै , जु रा
का मजार पर घास जम आई ै , जग -जग से चन
ू ा धगर गया ै , लेककन दस
ू रा
मजार ब ु त साफ-सथ
ु रा और सजा ु आ ै । उसके चारों तरफ गमले रखे ु ए ै
और मजार तक जाने के भलए गल
ु ाब की बेलों की रववशें बनी ु ई ै।

शाम ो गई ै । सूयय की क्षीण, उदास, पीली ककरणें मानो उस मजार पर आूँसू


ब ा र ी ै । एक आदमी एक तीन-चार साल की बाभलका को गोद में भलए ु ए
आया और उस मजार को अपने रूमाल से साफ करने लगा। रववशों में जो
पल्ततयाूँ पड़ी थी, उन् ें चुनकर साफ ककया और मजार पर सग
ु न्ि तछड़कने लगा।
बाभलका दौड़-दौड़कर तततभलयों को पकड़ने लगी।

य सल
ु ोचना का मजार ै । उसकी आखखरी नसी त थी कक मेरी लाश जलाई न
जाए, मेरी माूँ की बगल में मझ
ु े सुला हदया जाए। किंु वर सा ब तो सुलोचना के
बाद छः म ीने से ज्यादा न चल सके। ाूँ, रामेन्द्र अपने अन्याय का पश्चाताप
कर र े थे।

शोभा अब तीन साल की ो गई ै और उसे ववश्वास ै कक एक हदन उसकी माूँ


इसी मजार से तनकलेगी!
***
ढपोरसंख

मुरादाबाद में मेरे एक पुराने भमत्र ै , ल्जन् ें हदल में तो मैं एक रतन समझता ू ूँ
पर पुकारता ू ूँ ढपोरसिंख क कर और व बुरा न ीिं मानते। ईश्वर ने उन् ें
ल्जतना हृदय हदया ै , उसकी आिी बुव्ध दी ोती, तो आज व कुछ और ोते!
उन् ें मेशा तिंग स्त ी दे खा, मगर ककसी के सामने कभी ाथ फैलाते न ीिं
दे खा। म और व ब ु त हदनों तक साथ पढे ै , खासी बेतककलफ
ु ी ै , पर य
जानते ु ए भी कक मेरे भलए सौ-पचास रुपये ससे उनकी मदद करना कोई बड़ी
बात न ीिं और मैं बड़ी खुशी से करूूँगा, कभी मुझसे एक पाई के रवादार न ु ए।
अगर ीले से बच्चे को दो-चार रुपये दे दे ता ू ूँ, तो बबदा ोते समय उसकी
दग
ु नी रकम के मुरादाबादी बतयन लादने पड़ते ै । इसभलए मैंने य तनयम बना
भलया ै कक जब उसके पास जाता ू ूँ , तो एक-दो हदन में ल्जतनी बड़ी-से-बड़ी
चपत दे सकता ू ूँ , दे ता ू ूँ। मौसम में जो म िं गी-से-म िं गी चीज ोती ै, व ी
खाता ू ूँ और माूँग-माूँगकर खाता ू ूँ। मगर हदल के ऐसे बे या ै , कक अगर एक
बार भी उिर से तनकल जाऊूँ और उससे न भमलूँ ू तो बुरी तर डाूँट बताते ै।
इिर दो-तीन साल से मुलाकात ु ई थी। जी दे खने को चा ता था। मई में
नैनीताल जाते ु ए उनसे भमलने के भलए उतर पड़ा। छोटा-सा घर ै , छोटा-सा
पररवार, छोटा-सा डील। द्वार पर आवाज दी- ढपोरसिंख! तरु न्त बा र तनकल आए
और गले भलपट गए। तािंगे पर से मेरे रिं क को उतारकर कन्िे पर रखा, बबस्तर
बगल में दबाया और घर में दाखखल ो गए। क ता ू ूँ , बबस्तर मुझे दे दो मगर
कौन सुनता ै । भीतर कदम रखा तो दे वीजी के दशयन ु ए। छोटे बच्चे ने आकर
प्रणाम ककया। बस य ी पररवार ै।

कमरे में गया तो दे खा खतों का एक दफ्तर फैला ु आ ै । खतों को सुरक्षक्षत


रखने की तो इनकी आदत न ीिं। इतने खत ककसके ै ? कुतू ल से पछ
ू ा, 'य क्या
कूड़ा फैला रखा ै जी, समेटो।'
दे वीजी मस्
ु कराकर बोली, 'कूड़ा न कह ए, एक-एक पत्र साह तय का रतन ै । आप
तो इिर आए न ीिं, इनके एक नये भमत्र पैदा ो गए ै, य उन् ीिं के कर-कमलों
का प्रसाद ैं।'

ढपोरसिंख ने अपनी नन् ी-नन् ी आूँखे भसकोड़कर क ा, 'तम


ु उसके नाम से क्यों
इतना जलती ो, मेरी समझ में न ीिं आता? अगर तम्
ु ारे दो-चार रुपए उस पर
आते ैं, तो उनका दे नदार मैं ू ूँ , व भी अभी जीता-जागता ै , ककसी को बेईमान
क्यो समझती ो? य क्यों न ीिं समझती कक उसे अभी सुवविा न ीिं ै और कफर
दो-चार रुपए एक भमत्र के ाथों डूब ी जाएूँ, तो क्यों रोओ? माना म गरीब ै,
दो-चार सौ रुपए मारे भलए दो-चार लाख से कम न ीिं, लेककन खाया तो एक
भमत्र ने!'

दे वीजी ल्जतनी रूपवती थी, उतनी ी जबान की तेज भी थी और बोली, 'अगर


ऐसों ी का नाम भमत्र ै , तो मैं न ीिं समझती, शत्रु ककसे क ते ै ।'

ढपोरसिंख ने मेरी तरफ दे खकर, मानो मुझसे ामी भराने के भलए क ा, 'औरतों
का हृदय ब ु त ी सिंकीणय ोता ै ।'

दे वीजी नारी-जातत पर य आक्षेप कैसे स सकती थीिं, आूँखें तरे रकर बोलीिं, 'य
क्यों न ीिं क ते कक उकलू बनाकर ले गया। ऊपर से े कड़ी जताते ो। दाल धगर
जाने पर तुम् ें भी सूखा अच्छा लगे, तो कोई आश्चयय न ीिं। मैं जानती ू ूँ, रुपया
ाथ का मैल ै। य भी समझती ू ूँ कक ल्जसके भाग्य का ल्जतना ोता ै,
उतना व खाता ै । मगर य कभी न मानूँग
ू ी कक व सज्जन था और
आदशयवादी था और य था, व था। साफ-साफ क्यों न ीिं क ते, लिंपट था
दगाबाज था! बस, मेरा तुमसे कोई झगड़ा न ीिं ै ।'

ढपोरसिंख ने गमय ोकर क ा - 'मैं य न ीिं मान सकता।'


दे वीजी भी गमय ोकर बोली - 'तम्
ु ें य मानना पड़ेगा, म ाशयजी आ गए ै । मैं
इन् ें पिंच बदती ू ूँ , अगर य क दे गें कक सज्जनता का पत
ु ला था, आदय शवादी
था, वीरातमा था, तो मैं मान लूँ ग
ू ी और कफर उसका नाम न लूँ ग
ू ी, और यहद इनका
फैसला मेरे अनुकूल ु आ तो लाला तुम् ें इनको अपना ब नोई क ना पड़ेगा!'

मैंने पछ
ू ा - 'मेरी समझ में कुछ न ीिं आ र ा ै , आप ककसका ल्जक्र कर र ी
ै? व कौन था?'

दे वीजी ने झेंपकर क ा - 'इन् ीिं से पछ


ू ो, कौन था? इनका ब नोई था!'

ढपोरसिंख ने झेंपकर क ा - 'अजी, एक साह तय-सेवी था, करुणाकर जोशी। बेचारा


ववपल्तत का मारा य ाूँ आ पड़ा था! उस वक्त तो य भी भैया-भैया करती थी,
लवा बना-बनाकर खखलाती थीिं, उसकी ववपल्तत-कथा सन
ु कर टे सवे ब ाती थीिं
और आज व दगाबाज ै , लिंपट ै , लबार ै ?'

दे वीजी ने क ा - 'व तुम् ारी खाततर थी, मैं समझती थी, लेख भलखते ो,
व्याख्यान दे ते ो, साह तय के ममयञा बनते ो, कुछ तो आदमी को प चानते
ोंगा, पर अब मालम
ू ो गया कक कलम तघसना और बात ै , मनष्ु य की नाड़ी
प चानना और बात।'

मैं इस जोशी का विंत


ृ ात सन
ु ने के भलए उतसक
ु ो उठा। ढपोरसिंख तो अपना
पचड़ा सन
ु ाने को तैयार थे, मगर दे वीजी ने क ा खाने-पीने से तनवत
ृ ोकर
पिंचायत बैठे, मैंने भी इसे स्वीकार कर भलया।

दे वीजी घर में जाती ु ई बोली - 'तुम् ें कसम ै जो अभी जोशी के बारे में एक
शब्द भी इनसे क ो। मैं भोजन बनाकर जब तक खखला न लूँ ू, तब तक दोनों
आदभमयों पर दफा 144 ै ।'
ढपोरसिंख ने आूँख मारकर क ा - 'तम्
ु ारा नमक खाकर य तम्
ु ारी तरफदारी
करें गे ी।'

इस बार दे वीजी के कानों में य जुमला न पड़ा। िीमे स्वर में क ा भी गया था,
न ीिं तो दे वीजी ने कुछ-न-कुछ जवाब जरूर हदया ोता। दे वीजी चक
ू ा जला चक
ु ी
और ढपोरसिंख उनकी ओर से तनल्श्चिंत ो गए, तो मझ
ु से बोले - 'जब तक व
रसोई में ै , मैं सिंक्षेप में तुम् ें व वतृ तान्त सुना दूँ ?ू '

मैंने िमय की आड़ लेकर क ा - 'न ीिं भाई, मैं पिंच बनाया गया ू ूँ और इस ववषय
में कुछ न सन
ु ूँग
ू ा। उन् ें आ जाने दो।'

'मुझे भय ै कक तुम उन् ी का-सा फैसला कर दोगे और कफर व मेरा घर में


र ना अपाढ कर दे गी।'

मैंने ढाढस हदया - 'य आप कैसे क सकते ै , मैं क्या फैसला करूूँगा?'

'मैं तुम् ें जानता ू ूँ , तुम् ारी अदालत में औरत के सामने मदय कभी जीत ी न ीिं
सकता।'

'तो क्या चा ते ो तम्


ु ारी डडग्री कर दूँ !ू '

'क्या दोस्ती का इतना क भी न ीिं अदा कर सकते?'

'अच्छा लो, तुम् ारी जीत ोगी, चा े गाभलयाूँ ी क्यों न भमले।'

खाते-पीते दोप र ो गई। रात का जागा था। सोने की इच्छा ो र ी थी पर


दे वीजी कब माननेवाली थी। भोजन करके आ प ु ूँ ची। ढपोरसिंख ने पत्रों का
पुभलिंदा समेटा और वतृ तािंत सुनाने लगे।

दे वीजी ने साविान ककया - 'एक शब्द भी झठ


ू बोले, तो जम
ु ायना ोगा।'
ढपोरसिंख ने गम्भीर ोकर क ा -'झठ
ू व बोलता ै , ल्जसका पक्ष तनबयल ोता ै,
मझ
ु े तो अपनी ववजय का ववश्वास ै ।'

इसके बाद कथा शुरू ो गई -

'दो साल से ज्यादा ु ए, एक हदन मेरे पास एक पत्र आया, ल्जसमें साह तय सेवा
के नाते एक ड्रामे की भूभमका भलखने की प्रेरणा की गई थी। करुणाकर का पत्र
था। इस साह तयक रीतत से मेरा उनसे प्रथम पररचय ु आ। साह तयकारों की इस
जमाने में जो दद
ु य शा ै , उसका अनभ
ु व कर चक
ु ा ू ूँ और करता र ता ू ूँ और यहद
भभू मका तक बात र े , तो उनकी सेवा करने में पसोपेश न ीिं ोता। मैंने तरु न्त
जवाब हदया - आप ड्रामा भेज दील्जए। एक सप्ता में ड्रामा आ गया, पर अबके
पत्र में भूभमका भलखने ी की न ीिं कोई प्रकाशक ठीक कर दे ने की भी प्राथयना
की गई थी। मैं प्रकाशकों के झिंझट में न ीिं पड़ता। दो-एक बार पड़कर कई भमत्रों
को जानी दश्ु मान बना चुका ू ूँ। मैंने ड्रामें को पढा, उस पर भूभमक भलखी और
स्तभलवप लौटा दी। ड्रामा मझ
ु े सन्
ु दर मालम
ू ु आ इसभलए भभू मका भी
प्रशिंसातमक थी। ककतनी ी पस्
ु तकों की भभू मका भलख भी चक
ु ा ू ूँ , इसमें कोई नई
बात न ीिं थी। पर अब की भूभमका भलखकर वपिंड ने छूटा। एक सप्ता बाद एक
लेख आया कक इसे अपनी पबत्रका में प्रकाभशत कर दील्जए। (ढपोरसिंख एक
पबत्रका के सम्पादक ै ) इसे गुण कह ए या दोष, मुझे दस
ू रों पर ववश्वास ब ु त
जकद आ जाता ै , और जब ककसी लेखक का मामला ो, तो मेरी ववश्वास-कक्रया
और भी तीव्र ो जाती ै । मैं अपने एक भमत्र को जानता ू ूँ जो साह तयकारों के
साए से भागते ै। व खुद तनपुण लेखक ै , बड़े ी सज्जन ै , बड़े ी ल्जन्दा-
हदल।'

अपनी शादी करके लौटने पर जब-जब रास्ते में मझ


ु से भें ट ु ई। क ा -'आपकी
भमठाई रखी ु ई ै , भभजवा दूँ ग
ू ा।' पर व भमठाई आज तक न आई। ालाूँकक
अब ईश्वर की दया से वववा -तरु में फल भी लग लाए, लेककन खैर, मैं
साह तयसेववयों से इतना चौकन्ना न ीिं र ता। इन पत्रों में इतनी ववनय, इतना
आग्र , इतनी भल्क्त ोती थी कक मझ
ु े जोशी से बबना साक्षातकर के ी स्ने ो
गया। मालम
ू ु आ, एक बड़े बाप का बेटा, घर से इसीभलए तनवायभसत ै कक उसके
चाचा द े ज की लम्बी रकम लेकर उसका वववा करना चा ते थे। य उसे मिंजूर
न आ। इस पर चाचा ने घर से तनकाल हदया। बाप के पास गया। बाप आदशय
भ्रात-ृ भक्त था। उसने चाचा के फैसले की अपील न सुनी। ऐसी दशा में भस्ध ान्त
का मारा युवक भसवाए घर से बा र तनकल भागने के और क्या करता? यों वन-
वन के पतते तोड़ता, द्वार-द्वार ठोकरें खाता व ग्वाभलयर आ गया था। उस पर
मिंदाल्ग्न का रोगी, जीणय ज्वर से ग्रस्त। आप ी बतलाइए, ऐसे आदमी से क्या
स ानुभूतत न ोती? कफर जब एक आदमी आपको 'वप्रय भाई सा ब' भलखता ै,
अपने मनोर स्य आपके सामने खोलकर रखता ै । ववपल्तत में भी िैयय और
पुरुषाथय को ाथ से न ीिं, कड़े से कड़ा पररश्रम करने को तैयार ै , तो यहद आप में
सौजन्य का अणुमात्र भी ै , तो आप उसकी मदद जरूर करें गे।

अच्छा, अब कफर ड्रामे की तरफ आइए। कई हदनों बाद जोशी का पत्र प्रयाग से
आया। व व ाूँ एक माभसक-पबत्रका मे सम्पादकीय-ववभाग में नौकर ो गया
था। य पत्र पाकर मुझे ककतना सन्तोष और आनन्द ु आ, क न ीिं सकता।
ककतना उद्यमशील आदमी ै ! उसके प्रतत मेरा स्ने और भी प्रगाढ ो गये।
पबत्रका का सम्पादक सख्ती से पेश आता था, जरा-सी दे र ो जाने पर हदन-भर
की मजदरू ी काट लेता था, बात-बात पर घुड़ककयाूँ जमाता था। पर य सतयाग्र ी
वीर सब-कुछ स कर भी अपने काम में लगा र ता था। अपना भववष्य बनाने
का ऐसा अवसर पाकर व उसे कैसे छोड़ दे ता। य सारी बातें स्ने और
ववश्वास को बढाने वाली थीिं। एक आदमी को कहठनाइयों का सामना करते
दे खकर ककसे उससे प्रेम न ोगा, गवय न ोगा!

प्रयाग में व ज्यादा न ठ र सका। उसने मुझे भलखा, मैं सब कुछ झेलने को
तैयार ू ूँ , भूखों मरने को तैयार ू ूँ, पर आतमसम्मान में दाग न ीिं लगा सकता,
कुवचन न ीिं स सकता।
ऐसा चररत्र यहद आप पर प्रभाव न डाल सके, तो मैं क ू ूँगा, आप चालाक चा े
ल्जनते ों पर हृदय-शून्य ै।

एक सप्ता के बाद प्रयाग से कफर पत्र आया - 'य व्यव ार मेरे भलए असह्य
ो गया। आज मैंने इस्तीफा दे हदया। य न समखझए कक मैंने लके हदल से
लगी-लगाई रोजी छोड़ दी। मैंने व सब ककया, जो मझ
ु े करना चाह ए था, पर
आतमसम्मान का खून न ीिं कर सकता। अगर य कर सकता, तो मुझे घर
छोड़कर तनकलने की क्या आवश्यकता थी। मैंने बम्बई जाकर अपनी ककस्मत
आजमाने का तनश्चय ककया ै । मेरा दृढ सिंककप ै कक अपने घरवालों के सामने
ाथ न फैलाऊूँगा। उनसे दया की भभक्षा न माूँगूँग
ू ा। मुझे कुलीधगरी करनी मिंजूर
ै , टोकरी ढोना मिंजरू ै, पर अपनी आतमा को कलिंककत न ीिं कर सकता।'

मेरी श्र्ध ा और बढ गई। य व्यल्क्त अब मेरे भलए केवल ड्रामा का चररत्र न था,
ल्जसके सुख से सुखी और दख
ु से दख
ु ी ोने पर भी म दशयक ी र ते ै। व
अब मेरे इतने तनकट प ु ूँच गया था कक उस पर आघात ोते दे खकर मैं उसकी
रक्षा करने को तैयार था, उसे डूबते दे खकर पानी में कूदने से भी न ह चकता।

मैं बड़ी उतकिंठा से उसके बम्बई से आने वाले पत्र का इन्तजार करने लगा।
छठवें हदन पत्र आया। व बम्बई में काम खोज र ा था। घबराने की कोई बात
न ीिं ै , मैं सब कुछ झेलने को तैयार ू ूँ। कफर दो-दो, चार-चार हदन के अन्तर से
कई पत्र आए। व वीरों की भाूँतत कहठनाइयों के सामने कमर कसे खड़ा था,
ालाूँकक तीन हदन से उसे भोजन न भमला था।

ओ ! ककतना ऊूँचा आदशय ै । ककतना उज्जवल चररत्र! मैं समझता ू ूँ , मैंने उस


समय बड़ी कृपणता की। मेरी आतमा ने मुझे धिक्कारा - व बेचारा इतने कष्ट
उठा र ा ै और तुम बैठे दे ख र े ो, क्यों उसके पास कुछ रुपए न ीिं भें जते?
मैंने आतमा के क ने पर अमल न ककया, पर अपनी बेददी पर खखन्न अवश्य था।
जब कई हदनों की बेचैनी भरे ु ए इन्तजार के बाद य समाचार आया कक व
एक साप्ताह क पत्र में सम्पादकीय ववभाग में जग पा गया ै , तो मैंने आराम
का साूँस ली और ईश्वर को सच्चे हदल से िन्यवाद हदया।

साप्ताह क पत्र में जोशी के लेख तनकलने लगे। उन् ें पढकर मुझे गवय ोता था।
ककतने सजीव, ककतने ववचार से भरे लेख थे। उसने मुझसे भी लेख माूँगे, पर मुझे
अवकाश न था। क्षमा माूँगी, ालाूँकक इस अवसर पर उसको प्रोतसा न न दे ने पर
मझ
ु े बड़ा खेद ोता था।

लेककन शायद बािाएूँ ाथ िोकर उसके पीछे पड़ी थी। पत्र के ग्रा क कम थे।
चन्दे और डोनेशन से काम चलता था। रुपए ाथ आ जाते, तो कमयचाररयों को
थोड़ा-थोड़ा भमल जाता, न ीिं तो आसरा लगाए काम करते र ते। इस दशा में
गरीब ने तीन म ीने काटे ोंगे। आशा थी, तीन म ीने का ह साब ोगा, तो अच्छी
रकम ाथ लगेगी, मगर व ाूँ सूखा जवाब भमला। स्वामी ने टाट उलट हदया, पत्र
बन्द ो गया और कमयचाररयों को अपना-सा मूँु भलए बबदा ोना पड़ा। स्वामी
की सज्जनता में सन्दे न ीिं, लेककन रुपए क ाूँ से लाता! सज्जनता के नाते
लोग आिे वेतन पर काम कर सकते थे लेककन पेट बाूँिकर काम करना कब
तक मम
ु ककन था, और कफर बम्बई का खचय, बेचारे जोशी को कफर ठोकरें खानी
पड़ी! मैंने खत पढा, तो ब ु त दःु ख ु आ। ईश्वर ने मुझे इस योग्य न बनाया, न ीिं
तो बेचारा क्यों पेट के भलए यों मारा-मारा कफरता।

अबकी बार ब ु त ै रान न ोना पड़ा। ककसी भमल में गाूँठों पर नम्बर भलखने का
काम भमल गया। एक रुपया रोज मजूरी थी। बम्बई में एक रुपया, इिर के चार
आने के बराबर समझो! कैसे उसका काम चलता था, ईश्वर ी जाने।

कई हदनों के बाद एक लम्बा पत्र आया। एक जमयन एजेंसी उसे रखने पर तैयार
थी, अगर तुरन्त सौ रुपए की जमानत दे सके। एजेंसी य ाूँ की फौजों में जूत,े
भसगार, साबन
ु आहद सप्लाई करने का काम करती थी। अगर य जग भमल
जाती, तो उसके हदन आराम से कटने लगते। भलखा था, अब ल्जन्दगी से तिंग आ
गया ू ूँ। ह म्मत ने जवाब दे हदया, आतम तया करने के भसवा और कोई उपाय
न ीिं सूझता। केवल माताजी की धचन्ता ै । रो-रोकर प्राण दे दें गी! वपताजी के
साथ उन् ें शारीररक सुखों की कमी न ीिं, पर मेरे भलए उनकी आतमा तड़पती
र ती ै । मेरी य ी अभभलाषा ै कक क ीिं बैठने का हठकाना भमल जाता, तो एक
बार उन् ें अपने साथ रखकर उनकी ल्जतनी सेवा ो सकती, करता। इसके भसवा
मझ
ु े कोई इच्छा न ीिं ै , लेककन जमानत क ाूँ से लाऊूँ? बस, कल का हदन और
ै । परसों कोई दस
ू रा उम्मीदवार जमानत दे कर य ले लेगा और मैं ताकता र
जाऊूँगा। एजेंट मुझे रखना चा ता ै , लेककन अपने कायायलय के तनयमों का क्या
करें ।

इस पत्र ने मेरी कृपण प्रकृतत को भी वशीभूत कर भलया। इच्छा ो जाने पर


कोई-न-कोई रा तनकल आती ै । मैंने रुपए भेजने का तनश्चय कर भलया। अगर
इतनी मदद से एक युवक का जीवन सुिर र ा ो, तो कौन ऐसा ै , जो मूँु
तछपा ले। इससे बड़ा रुपयों का औऱ क्या सदप
ु योग ो सकता ै । ह न्दी में
कलम तघसने वालों के पास इतनी बड़ी रकम जरा मल्ु श्कल ी से तनकलती ै,
पर सिंयोग से उस वक्त मेरे कोष में रुपए मौजूद थे। मैं इसके भलए अपनी
कृपणता का ऋणी ू ूँ। दे वीजी की सला ली। व बड़ी खूशी से राजी ो गई,
ालाूँकक अब सारा दोष मेरे ी भसर मढा जाता ै । कल रुपयों का प ु ूँचना
आवश्यक था, न ीिं तो अवसर ाथ से तनकल जाएगा। मनीआडयर तीन हदन में
प ु ूँचग
े ा। तुरन्त तार घर गया और तार से रुपए भेज हदए। ल्जसने बरसों की
कतर-ब्योंत के बाद इतने रुपए जोड़े ो और ल्जसे भववष्य भी अभावमय ी
दीखता ो, व ी उस आनन्द का अनुभव कर सकता ै , जो इस समय मुझे ु आ।
सेठ अमीरचन्द को दस लाख का दान करके भी इतना आनन्द न ु आ ोगा।
हदया तो मैंने ऋण समझकर ी, पर दोस्ती का ऋण था, ल्जसका अदा ोना
स्वप्न का यथाथय ोना ै।
उस पत्र को मैं कभी न भल
ू ूँ ग
ू ा, जो िन्यवाद के रूप में चौथे हदन मझ
ु े भमला।
कैसे सच्चे उद्गार थे! एक-एक शब्द अनग्र
ु में डूबा ु आ। मैं उसे साह तय का
एक चीज समझता ू ूँ।

दे वीजी ने चट
ु की ली - 'सौ रुपए में उससे ब ु त अच्छा पत्र भमल सकता ै !'

ढपोरसिंख ने कुछ जवाब न हदया। कथा क ने में तन्मय थे।

'बम्बई में व ककसी प्रभस्ध स्थान पर ठ रा था। केवल नाम और पोस्ट-बॉक्स


भलखने ी से उसे पत्र भमल जाता था। व ाूँ से कई पत्र आए। व प्रसन्न था।'

दे वीजी बोली - 'प्रसन्न क्यों न ोता, कम्पे में एक धचडड़या जो फूँस गई थी।'

ढपोरसिंख ने धचढकर क ा - 'या तो मुझे क ने दो, या तुम क ो, बीच में बोलो


मत।'

बम्बई में कई हदन के बाद एक पत्र आया कक एजेंसी ने उसके व्यव ार से


प्रसन्न ोकर उसे काशी में तनयुक्त कर हदया ै और व काशी आ र ा ै । उसे
वेतन के उपरान्त भतता भी भमलेगा। काशी में उसके एक मामा थे जो व ाूँ के
प्रभस्ध डॉक्टर थे, पर व उनके घर न उतरकर अलग ठ रा। इससे उसके
आतमसम्मान का पता चलता ै , मगर एक म ीने मेम काशी से उसका जी भर
गया। भशकायत से भरे पत्र आने लगे - सुब से शाम तक फौजी आदभमयों की
खुशामद करनी पड़ती ै , सुब से गया ु आ दस बजे रात को घर आता ू ूँ। उस
वक्त अकेला अिंिेरा घर दे खकर धचतत दख
ु से भर जाता ै , ककससे बोलूँ ,ू ककससे
ूँसूँ।ू बाजार की परू रयाूँ खाते-खाते तिंग आ गया ू ूँ। मैंने समझा था, अब कुछ
हदन चैन से कटें गे, लेककन मालम
ू ोता ै अभी ककस्मत में ठोकरें खाना भलखा
ै । मैं इस तर जीववत न ीिं र सकता। रात-रात भर पड़ा रोता र ता ू ूँ , आहद।
मझ
ु े इन पत्रों से व अपने आदशय से धगरता ु आ मालम
ू ु आ। मैंने उसे
समझाया, लगी रोजी न छोड़ो, काम ककए जाओ।

जवाब आया, मुझसे अब य ाूँ न ीिं र ा जाता! फौल्जयों का व्यव ार असह्य ै,


कफर मैनेजर सा ब मझ
ु े रिं गन
ू भेज र े ै और रिं गन
ू जाकर मैं बच न ीिं सकता।
मैं कोई साह तयककत काम करना चा ता ू ूँ। कुछ हदन आपकी सेवा में र ना
चा ता ू ूँ।

मैं इस पत्र का जवाब दे ने जा ी र ा था कक कफर पत्र आया। मैं कल दे रादन


ू -
एक्सप्रेस से आ र ा ू ूँ। दस
ू रे हदन व आ प ु ूँ चा, दब
ु ला-सा आदमी, साूँवला रिं ग,
लम्बा मूँु , बड़ी-बड़ी आूँखें, अिंग्रेजी वेश, साथ में कई चमड़े के रिं क, एक सूटकेश,
एक ोकडाल। मैं तो उसका ठाट दे खकर दिं ग र गया।

दे वीजी ने हटप्पणी की - 'कफर भी तो न चेत!े '

मैंने समझा था, गाढे का कुतताय, चप्पल, ज्यादा-से-ज्यादा फाउिं टे न पेन वाला
आदमी ोगा, मगर य म ाशय तो परू े सा ब ब ादरु तनकले। मझ
ु े इस छोटे से
घर में उन् ें ठ राते ु ए सिंकोच ु आ।

दे वीजी से बबना बोले न र ा गया - 'आते ी श्री-चरणों पर भसर तो रख हदया,


अब और क्या चा ते थे।'

ढपोरसिंख अबकी मुस्कराए - 'दे खो श्यामा, बीच-बीच में टोको मत, अदालत की
प्रततष्ठा य क ती ै कक अभी चुपचाप सुनती जाओ, जब तुम् ारी बारी आए, तो
जो चा े क ना।'

कफर भसलभसला शुरू ु आ - 'था तो दब


ु ला-पतला मगर बड़ी फुततयला, बातचीत में
बड़ा चतुर, एक जुमला अिंग्रेजी बोलता, एक जुमला ह न्दी और ह न्दी-अिंग्रेजी की
खखचड़ी, जैसे आप जैसे सभ्य लोग बोलते ै , बातचीत शुरू ु ई।
आपके दशयनों की बड़ी इच्छा थी। मैंने जैसा अनम
ु ान ककया था, वैसा ी आपको
दे खा, बस, अब मालम
ू ो र ा ै , कक मैं आदमी ू ूँ। इतने हदनों तक कैदी था।

ढपोरसिंख ने क ा -'तो क्या इस्तीफा दे हदया?'

'न ीिं, अभी तो छुट्टी लेकर आया ू ूँ, अभी इस म ीने का वेतन भी न ीिं भमला ै।
मैंने भलख हदया ै , मेरे य ाूँ के पते से भेज दें । नौकरी तो अच्छी ै , मगर काम
ब ु त करना पड़ता ै और मुझे कुछ भलखने का अवसर न ीिं भमलता।'

खैर, रात को मैंने इसी कमरें में उन् ें सुलाया। दस


ू रे हदन य ाूँ के एक ोटल में
प्रबन्ि कर हदया। ोटल वाले पेशगी रुपए ले लेते ै । जोशी के पास रुपए न थे,
मुझे तीस रुपए दे ने पड़े। मैंने समझा, इसका वेतन आता ी ोगा, ले लूँ ग
ू ा.

य ाूँ मेरे एक माथुर भमत्र ै । उनसे मैंने जोशी का ल्जक्र ककया था। उसके आने
की खबर पाते ी ोटल दौड़े। दोनों में दोस्ती ो गई। जोशी दो-तीन बार हदन
में , एक बार रात को जरूर आते और खूब बातें करते। दे वीजी उनको ाथों पर
भलए र तीिं। कभी उनके भलए पकौडड़याूँ बना र ी ै , कभी लवा। जोशी
रफनमौला था। गानें में कुशल, ारमोतनयम में तनपण
ु , इिंद्रजाल के करतब
हदखलाने में कुशल। सालन अच्छा पकाता था।

दे वीजी को गाना सीखने का शौक पैदा ो गया। उसे म्यल्ू जक मास्टर बना
भलया।

दे वीजी लाल मूँु करके बोली - 'तो क्या मुफ्त में लवा, पकौडड़याूँ और पान
बना-बनाकर खखलाती थी?'

एक म ीना गुजर गया पर जोशी का वेतन न आया। मैंने पूछा भी न ीिं। सोचा,
अपने हदल में समझेगा, अपने ोटल वाले रुपयों का तकाजा कर र े ै । माथुर
के घर भी उसने आना-जाना शुरू कर हदया। दोनों साथ घम
ू ने जाते, साथ र ते।
जोशी जब आते, माथरु का बखान करते, माथरु जब आते जोशी की ताररफ करते।
जोशी के पास अपने अनभ
ु वों का ववशेष भिंडार था। व फौज में र चक
ु ा था।
जब उसकी मिंगेतर का वववा दस
ू रे आदमी से ो गया, तो शोक में उसने फौजी
नौकरी छोड़ दी थी। सामाल्जक जीवन की न जाने ककतनी घटनाएूँ उसे याद थी
और जब अपने माूँ-बाप और चाचा-चाची का ल्जक्र करने लगता, तो उसकी आूँखों
में आूँसू भर आते। दे वीजी भी उसके साथ रोती। दे वीजी ततरछी आूँखों से दे खकर
र गई, बात सच्ची थी।

एक हदन मुझसे अपने एक ड्रामें की बड़ी तारीफ की। व ड्रामा कलकतते में
खेला गया और मदन कम्पनी के मैनेजर ने उसे बिाइयाूँ दी थी। ड्रामें को दो-
चार टुकड़े जो उसके पास पड़े थे, मझ
ु े सन
ु ाए। मझ
ु े ड्रामा ब ु त पसन्द आया।
उसने काशी के एक प्रकाशक के ाथ व ड्रामा बेच हदया था, कुछ पचीस रुपए
पर। मैंने क ा - 'मूँगा लो पचास रुपए ी स ी। ड्रामा वी॰ पी॰ ले पास आ गया,
तो मैने पचास रुपए दे हदए।'

म ीना खतम ो र ा था। ोटल वाले दस


ू रा म ीना शुरु ोते ी रुपए पेशगी
माूँगेंगे। मैं इस धचन्ता में था, कक जोशी ने आकर क ा - 'मैं अब माथुर के साथ
र ू ूँगा, बेचारा गरीब आदमी ै , अगर मैं बीस रुपए भी दे दूँ ग
ू ा, तो उसका काम
चल जाएगा।' मैं ब ु त खुश ु आ। दस
ू रे हदन व माथुर के घर डट गया।

जब आते, तो माथुर के घर का कोई-न-कोई र स्य लेकर आते। य तो जानता


था कक माथुर की आधथयक दशा अच्छी न ीिं ै , बेचारा रे लवे के दफ्तर में नौकर
था, व नौकरी भी छूट गई थी। मगर य न मालूम था कक उसके य ाूँ फाके ो
र े ै । कभी मकान माभलक आकर गाभलयाूँ सुना जाता ै , कभी दि
ू वाला, कभी
बतनया, कभी कपड़ेवाला। बेचारा उनसे मूँु तछपाता कफरता ै । जोशी आूँखों में
आूँसू भर-भरकर उसके सिंकटों की करुण क ानी क ता और रोता। मैं तो जानता
था, मैं ी एक आफत का मारा ू ूँ, माथुर की दशा दे खकर मैं अपनी ववपल्तत भूल
गया। मुझे अपनी ी धचन्ता ै , कोई दस
ू री किक न ीिं। ल्जसके द्वार पर जा पडूूँ
दो रोहटयाूँ भमल जाएूँगी, मगर माथरु के पीछे तो परू ा खटला ै । माूँ, दो वविवा
ब नें , एक भािंजी, दो भािंज,े एक छोटा भाई। इतने बड़े पररवार के भलए पचास रुपए
तो केवल रोटी-दाल के भलए चाह ए। माथुर सच्चा वीर ै , दे वता ै जो इतने बड़े
पररवार का पालन कर र ा ै। व अब अपने भलए न ीिं माथुर के भलए दख
ु ी था।

दे वीजी ने टीका की - 'जभी माथुर की भािंजी पर डोरे डाल र ा था। दःु ख का


भार कैसे लका करता।'

ढपोरसिंख ने बबगड़कर क ा - 'अच्छा तो अब तुम् ीिं क ो।'

मैंने समझाया - 'तम


ु तो यार, जरा-जरा सी बात पर ततनक उठते ो! क्या तम

समझते ो, य फुलझडड़याूँ मुझे न्याय-पथ से ववचभलत कर दें गी?'

कफर क ानी शुरु ु ई। एक हदन आकर बोला - 'आज मैंने माथुर के उ्ध ार का
उपाय सोच तनकाला। मेरे एक माथरु भमत्र बैररस्टर ै , उनसे जग्गों (माथरु की
भािंजी) के वववा के ववषय में पत्र व्यव ार कर र ा ू ूँ। उसकी एक वविवा ब न
को दोनों बच्चों के साथ ससुराल भेज दूँ ग
ू ा, दस
ू री ब न अपने दे वर के पास जाने
पर राजी ै । बस तीन-चार आदमी र जाएूँगे, कुछ मैं दूँ ग
ू ा, कुछ माथुर पैदा
करे गा, गुजर ो जाएगी। मगर आज उसके घर का दो म ीने का ककराया दे ना
पड़ेगा। मकान माभलक ने सब
ु ी से िरना दे रखा ै । क ता ै , अपना ककराया
लेकर ी टूूँगा। आपके पास तीस रुपए भमल जाएूँगे, एक भमत्र सिंकट में पड़ा

ुआ ै , दस
ू रा भमत्र उसकी भसफाररश कर र ा ै । मुझे इनकार करने का सा स
न ु आ! दे वीजी ने उस वक्त नाक-भौ जरूर भसकोड़ा था, पर मैं ना माना, रुपए दे
हदए।'

दे वीजी ने डिंका मारा - 'य क्यों न ीिं क ते, कक व रुपए मेरी ब न ने बतयन
खरीदकर भेजने के भलए भेजे थे।'
ढपोरसिंख ने गस्
ु सा पीकर क ा - 'खैर, य ी स ी! मैंने रुपए दे हदए, मगर मझ
ु े
य उलझन ोने लगी, कक इस तर तो मेरा कचम
ू र तनकल जाएगा। माथरु पर
एक-न-एक सिंकट रोज ी सवार र े गा, मैं क ाूँ तक उन् ें उबारूूँगा। जोशी भी
जान खा र ा था कक क ीिं कोई जग हदला दील्जए। सिंयोग से उन् ीिं हदनों मेरे
एक आगरा के भमत्र आ तनकले। काउिं भसल में मेम्बर थे। अब जेल में ै । गाने -
बजाने का शौक ै , दो-एक ड्रामे भलख चुके ै । अच्छे -अच्छे रईसों से पररचय ै!
खद
ु भी बड़े रभसक ै । अबकी व आए, तो मैंने जोशी का उनसे ल्जक्र ककया।
उसका ड्रामा भी सन
ु ाया। कफर बोले - 'तो उसे मेरे साथ कर दील्जए, अपना
प्राइवेट सेक्रेटरी बना लूँ ग
ू ा, मेरे घर में र े , मेरे साथ घर के आदमी की तर र े।
जेब खचय के भलए तीस रुपए म ीना लेता जाए, मेरे साथ ड्रामे भलखें।'

मैं फूला न समाया। जोशी से क ा। जोशी भी तैयार ो गया, लेककन जाने से


प ले उसे कुछ रुपयों की जरुरत ु ई। एक भले आदमी के साथ फटे ालों तो
जाते न ीिं बनता और न य ी उधचत था कक प ले हदन से रुपए का तकाजा ोने
लगे!

ब ु त काट-छाूँट करने पर भी चालीस रुपए का खचय तनकल आया। जूते टूट गए


थे, िोततयाूँ फट गई थीिं और भी कई खचय थे , जो इस वक्त याद न ीिं आते। मेरे
पास रुपए न थे। श्यामा से माूँगने का सा स न ु आ।

दे वीजी बोली - 'मेरे पास तो कारूूँ का खजाना रखा था न! कई जार रुपए


म ीने लाते ो, सौ-दो-सौ रुपए बचत में आ जाते ोंगे।'

ढपोरसिंख इस व्यिंग्य पर ध्यान न दे कर अपनी कथा क ते र े -'रुपए पाकर


जोशी ने ठाट बनाया औऱ काउभसलर सा ब के साथ चले। मैं स्टे शन तक
प ु ूँचाने गया, माथुर भी था। व ाूँ से लौटा, तो मेरे हदल पर से एक बोझ उतर
गया था।'

माथुर ने क ा - 'बड़ा मु ब्बती आदमी ै ।'


मैंने समथयन ककया - 'बड़ा, मझ
ु े तो भाई-सा मालम
ू ोता ै ।'

'मझ
ु े तो अब घर अच्छा न लगेगा, घर के सब आदमी रोते र े , मालम
ू ी न
ोता था कक कोई गैर आदमी ै । अम्माूँ से लड़के की तर बातें करता था, ब नों
से भाई की तर ।'

'बदनसीब आदमी ै , न ीिं, ल्जसका बाप दो जार रुपए मा वारी कमाता ो, व


यों मारा-मारा कफरे ।'

'दाल्जयभलिंग में इनके बाप की दो कोहठयाूँ ै ?'

'आई॰ एम॰ एस॰ ै !'

'जोशी मुझे भी मुझे व ीिं ले जाना चा ता ै , साल-दो-साल में तो व ाूँ जाएगा ी,


क ता ै , तुम् ें मोटर की एजेंसी खुलवा दूँ ग
ू ा।'

इस तर ख्याली पल
ु ाव पकाते ु ए म लोग घर आए।

मैं हदल में खुश था कक चलो अच्छा ु आ, जोशी के भलए अच्छा भसलभसला
तनकल आया। मुझे य आशा भी बूँि चली कक अबकी उसे वेतन भमलेगा, तो मेरे
रुपए दे गा। चार-पाूँच म ीने में चुकता कर दे गा। ह साब लगाकर दे खा, तो अच्छी
खासी रकम ो गई थी। मैंने हदल में समझा, य भी अच्छा ी ु आ। यों जमा
करता, तो कभी जमा न ोते। इस ब ाने से ककसी तर जमा तो ो गए। मैंने
सोचा कक अपने भमत्र से जोशी के वेतन के रुपए पेशगी क्यों न ले लूँ ।ू क दूँ ,ू
उसके वेतन से म ीने-म ीने काटते रह एगा।

लेककन अभी मल्ु श्कल में एक सप्ता ुआ ोगा कक एक हदन दे खता ू ूँ तो जोशी
और माथरु दोनों चले आ र े ै । मझ
ु े भय ु आ, क ीिं जोशीजी कफर तो नौकरी
न ीिं छोड़ आए, लेककन शिंका को दबाता ु आ बोला - 'क ो भाई, कब आए? मजे
में तो ो?'

जोशी ने बैठकर एक भसिंगार जलाते ु ए क ा - 'ब ु त अच्छी तर ू ूँ। मेरे बाबू


सा ब बड़े ी सज्जन आदमी ै । मेरे भलए अलग एक कमरा खाली करा हदया ै,
साथ ी खखलाते ै , बबककुल भाई का तर रखते ै । आजकल ककसी काम से
हदकली गए ै , मैंने सोचा, य ाूँ पड़े-पड़े क्या करूूँ, तब तक आप ी लोगों से
भमलता आऊूँ। चलते वक्त बाबू सा ब ने मुझसे क ा था, मुरादाबाद से थोड़े से
बतयन लेते आना, मगर शायद उन् ें रुपए दे ने की याद न ीिं र ी। मैंने उस वक्त
माूँगना भी उधचत न समझा। आप एक पचास रुपए दे दील्जएगा, मैं परसों तक
जाऊूँगा और व ाूँ से जाते ी भभजवा दूँ ग
ू ा। आप तो जानते ी ै , रुपए का
मामले में व ककतने खरे ै ।'

ढपोरसिंख ने जरा रुखाई के साथ क ा - 'रुपए तो इस वक्त मेरे पास न ीिं ै ।'

दे वीजी ने हटप्पणी की - 'क्यों झूठ बोलते ो? तुमने रुखाई से क ा था कक रुपए


न ी ै ?'

ढपोरसिंख ने पूछा - 'और क्या धचकनाई के साथ क ा था।'

दे वीजी ने क ा - 'तो कफर कागज के रुपए क्यों दे हदए थे? बड़ी रुखाई करने
लगे!'

ढपोरसिंख ने क ा - 'अच्छा सा ब, मैंने ूँसकर रुपए दे हदए। बस, अब खुश ु ई।


तो भई, मझ
ु े बरु ा तो लगा, लेककन अपने सज्जन भमत्र का वास्ता था। मेरे ऊपर
बेचारे बड़ी कृपा रखते ै । मेरे पास पबत्रका का कागज खरीदने के भलए पचास
रुपए रखे ु ए थे, व मैंने जोशी को दे हदये।'
शाम को माथरु ने आकर क ा - 'जोशी तो चले गए। क ते थे बाबू सा ब का
तार आया गया ै । बड़ा उदार आदमी ै , मालम
ू ी न ीिं ोता, कोई बा री आदमी
ै । स्वभाव भी बालकों का-सा ै । भािंजी की शादी तय करने को क ते थे , लेन-
दे न का तो कोई ल्जक्र ै ी न ीिं। पर कुछ नजर तो दे नी ी पड़ेगी। बैररस्टर
सा ब, ल्जनसे वववा ो र ा ै , हदकली के र ने वाले ै , उनके पास जाकर नजर
दे नी ोगी। जोशीजी चले जाएगे , आज मैंने रुपए भी दे हदए। चभलए, एक बड़ी
धचन्ता भसर से टली।'

मैंने पूछा -'रुपए तो तुम् ारे पास न ोंगे?'

माथुर ने क ा - 'रुपए क ाूँ थे सा ब! एक म ाजन से स्टाम्प भलखकर भलए, दो


रुपए सैकड़े सूद पर।'

दे वीजी ने क्रोि भरे स्वर में क ा - 'मैं तो उस दष्ु ट को पा जाऊूँ, तो मूँु नोंच
लूँ ू, वपशाच ने इस गरीब को भी न छोड़ा।'

ढपोरसिंख बोला - 'य क्रोि आपको अब आ र ा ै न, तब तो आप भी समझती


थी कक जोशी दया और िमय का पत
ु ला ै ।'

दे वीजी ने ववरोि ककया - 'मैंने उसे पुलता-पुलती कभी न ीिं समझा। ाूँ, तुम् ारी
तकलीफों के भल
ु ावे में पड़ जाती थी।'

ढपोरसिंख ने क ा - 'तो सा ब, इस तर कोई दो म ीने गुजरे । इस बीच में भी


जोशी दो-तीन बार आए, मगर कुछ माूँगा न ीिं। ाूँ, बाबू सा ब के सम्बन्ि में
तर -तर की बातें की, ल्जनसे मझ
ु े दो-चार गकप भलखने की सामग्री भमल गई।'

मई का म ीना था। एक हदन प्रातःकाल जोशी आ प ु ूँच।े मैंने पूछा, तो मालूम

ु आ, उनके बाबू नैनीताल चले गए। इन् ें भी भलए जाते थे, पर उन् ोंने म लोगों
के साथ य ािं र ना अच्छा समझा और चले आए।
दे वीजी ने फुलझड़ी छोड़ी -'ककतना तयागी था बेचारा, नैनीताल की ब ार छोड़कर
य ाूँ गमी में प्राण दे ने चला आया।'

ढपोरसिंख ने इसकी ओर कुछ ध्यान न दे कर क ा - 'मैंने पूछा, कोई नई बात तो


न ीिं ु ई व ाूँ?'

जोशी ने ूँसकर क ा - 'भाग्य में नई-नई ववपल्ततयाूँ भलखी ै , उनसे कैसे जान
बच सकती ै । अबकी भी एक नई ववपल्तत भसर पर पड़ी, य कह ए, आपका
आशीवायद था, जान बच गई, न ीिं तो अब तक जमन
ु ाजी में ब ा चला जाता ोता।
एक हदन जमन
ु ा ककनारे सैर करने चला गया। व ाूँ तैराकी का मैच था, ब ु त से
आदमी तमाशा दे खने आए थे। मैं भी एक जग खड़ा ोकर दे खने लगा। मुझे
थोड़ी दरू पर एक और म ाशय एक युवती के साथ खड़े थे। मैंने बातचीत की तो
मालूम ु आ, मेरी ी बबरादरी के ै। य भी मालूम ु आ, मेरे वपता और चाचा,
दोनों से उनका पररचय ै । मुझसे स्ने की बातें करने लगे। तुम् ें इस तर
ठोकरे खाते तो ब ु त हदन ो गए, क्यों न ीिं चले जाते, अपने माूँ-बाप के पास।
माना कक उनका लोक-व्यव ार तम्
ु ें पसन्द न ीिं, लेककन माता-वपता का पत्र
ु पर
कुछ-न-कुछ अधिकार तो ोता ै , तुम् ारी माताजी को ककतना दःु ख ो र ा
ोगा।'

स सा एक युवक ककसी तरफ से आ तनकला और व्ध


ृ म ाशय तथा युवती को
दे खकर बोला -'आपको शमय न ीिं आती कक आप अपनी युवती कन्या को इस
तर मेले में भलए खड़े ै । '

व्ध
ृ म ाशय का मूँु जरा-सा तनकल आया और युवती तुरन्त घघ
ूूँ ट तनकालकर
पीछे ट गई। मालूम ु आ कक उसका वववा इसी युवक से ठ रा ु आ ै । व्ध

उदार, सामाल्जक ववचारों के आदमी थे, परदे के कायल न थे। युवक, वयस में
युवक ोकर भी खुसट ववचारों का आदमी था, परदे का कट्ठर पक्षपाती। व्ध
ृ थोड़ी
दे र तक तो अपरािी भाव से बातें करते र े , पर युवक प्रततक्षण गमय ो जाता
था। आखखर बढ
ू े बाबा भी तेज ु ए।
युवक ने आूँखें तनकालकर क ा - 'मैं ऐसी तनलयज्जा से वववा करना अपने भलए
अपमान की बात समझता ू ूँ।'

व्ध
ृ ने क्रोि से काूँपते ु ए स्वर में क ा - 'और मैं तुम-जैसे लिंपट से अपनी
कन्या का वववा करना लज्जा की बात समझता ू ूँ।'

यव
ु क ने क्रोि के आवेश में व्ध
ृ का ाथ पकड़कर िक्का हदया। बातों से न
जीतकर अब व ाथों से काम लेना चा ता था। व्ध
ृ िक्का खाकर धगर पड़े।
मैंने लपककर उन् ें उठाया और युवक को डाूँटा।

व व्ध
ृ को छोड़कर मझ
ु से भलपट गया। मैं कोई कुश्तीबाज तो ू ूँ न ीिं, व लड़ना
जानता था, मुझे उसने बात- ी-बात में धगरा धगया और मेरा गला दबाने लगा।
कई आदमी जमा ो गए थे। जब तक कुश्ती ोती र ी, लोग कुश्ती का आनन्द
उठाते र े लेककन जब दे खा मामला सिंगीन ु आ जाता ै , तो तुरन्त बीच-बचाव
कर हदया। युवक बूढे बाबा से जाते-जाते क गया -'तुम अपनी लड़की को
वेश्या बनाकर बाजार में घम
ु ाना चा ते ो, तो अच्छी तर घुमाओ। मझ
ु े अब
उससे वववा न ीिं करना ै ।' व्ध
ृ चपु चाप खड़े थे और यव
ु ती रो र ी थी। भाई
सा ब, तब मुझसे न र ा गया।

मैंने क ा - 'म ाशय, आप मेरे वपता तक


ु य ै और मझ
ु े जानते ै । यहद आप मझ
ु े
इस योग्य समझें तो मैं इन दे वीजी को अपनी हृदयेश्वरी बनाकार अपने को
िन्य समझूँूगा। मैं ल्जस दशा में ू ूँ, आप दे ख र े ै । सम्भव ै , मेरा जीवन इसी
तर कट जाए, लेककन श्र्ध ा, सेवा और प्रेम यहद जीवन को सुखी बना सकता ै,
तो मुझे ववश्वास ै कक दे वीजी के प्रतत मुझमें इन भावों की कमी न र े गी।'

बूढे बाबा ने गदगद ोकर मुझे किंठ से लगा भलया। उसी क्षण मुझे अपने घर ले
गए। भोजन कराया और वववा का सगुन कर हदया। मैं एक बार युवती से
भमलकर उसकी स मतत लेना चा ता था। बढ
ू े बाबा ने मझ
ु े इसकी स षय अनम
ु तत
दे दी। यव
ु ती से भमलकर मझ
ु े ञा ात ु आ कक व रमखणयों में रतन ै।

मैं उसकी बुव्ध मतता दे कर चककत ो गया। मैंने अपने मन में ल्जस सुन्दरी की
ककपना की थी, व उससे ू -ब- ू भमलती ै । मझ
ु े उतनी ी दे र में ववश्वास ो
गया कक मेरा जीवन उसके साथ सख
ु ी ोगी। मझ
ु े अब आशीवायद दील्जए। यव
ु ती
आप की पबत्रका बराबर पढती ै और आपसे उसे बड़ी श्र्ध ा ै । जून में वववा
ोना तनल्श्चत ु आ ै।

मैंने स्पष्ट क हदया - 'मैं जेवर-कपड़े नाममात्र को लाऊूँगा, न कोई िम


ू िाम ी
करूूँगा।'

व्ध
ृ ने क ा - 'मैं तो स्वयिं य ी क ने वाला था, मैं कोई तैयारी न ीिं चा ता, न
िम
ू िाम की मझ
ु े इच्छा ै ।'

जब मैंने आपका नाम भलया कक व मेरे बड़े के तुकय ै तो व ब ु त प्रसन्न

ु ए। आपके लेखों को व बड़े आदर से दे खते ै ।

मैंने कुछ खखन्न ोकर क ा - 'य तो सब कुछ ै , लेककन इस समय तुममें


वववा करने की साम्यय भी न ीिं ै , और कुछ न ो, तो पचास रुपए की बिंिी

ु ई आमदनी तो ोनी चाह ए।'

जोशी ने क ा - 'भाई सा ब, मेरा उ्ध ार वववा से ी ोगा। मेरे घर से तनकलने


का कारण भी वववा ी था और घर वापस जाने का कारण भी वववा ी ोगा।
ल्जस हदन प्रभमला ाथ बाूँिे ु ए जाकर वपताजी के चरणों पर धगर पड़ेगी, उनका
पाषण हृदय भी वपघल जाएगा। समझेंगे वववा तो ो ी चक
ु ा, अब विू पर क्यों
जुकम ककया जाए। जब उसे आश्रय भमल जाएगा, तो मुझे झमक मारकर
बुलाएूँगे। मैं इसी ल्जद्द पर घऱ से तनकला था कक वववा अपनी इच्छानुसार
बबना कुछ भलए-हदए करूूँगा और व मेरी प्रततञा ा पूरी ु ई जा र ी ै । प्रमीला
इतनी चतरु ै कक व मेरे घरवालों को चट
ु ककयों में मना लेगी। मैंने तखमीना
लगा भलया ै , कुछ तीन सौ रुपए खचय ोंगे और य ी तीन-चार सौ रुपए मझ
ु े
ससुराल से भमलें गे। मैंने सोचा ै , प्रमीला को प ले य ीिं लाऊूँगा, य ीिं से व मेरे
घर पत्र भलखेंगी और दे खखएगा, तीसरे ी हदन चचा सा ब ग नों की वपटारी भलए
आ प ु ूँचेंगे। वववा ो जाने पर व कुछ न ीिं कर सकते, इसभलए मैंने वववा की
खबर न ीिं की ै ।'

ढपोरसिंख ने क ा - 'लेककन मेरे पास तो अभी कुछ भी न ीिं ै भाई, मैं तीन सौ
रुपए क ाूँ से लाऊूँगा।'

जोशी ने क ा - 'तीन सौ रुपए नकद थोड़े ी लगें गे। कोई सौ रुपए के कपड़े
लगें गे, सौ रुपए की दो-एक सु ाग की चीजें बनवा लूँ ग
ू ा और सौ रुपए रा खचय
समझ लील्जए। उनका मकान काशीपुर में ै, व ीिं से वववा करें गे। व बिंगाली
सुनार जो सामने ै , आपके क ने से एक सप्ता के वादे पर जो-जो चीजें
मागूँग
ू ा, दे दे गा। बजाज भी आपके क ने से दे दे गा, नकद मझ
ु े कुछ सौ रुपए की
जरूरत पड़ेगी औऱ ज्यों ी उिर से लौटा तयों ी दे दूँ ग
ू ा। बारात में आप औऱ
माथुर के भसवा और कोई तीसरा आदमी न ोगा। मैं आपको कष्ट न ीिं दे ना
चा ता, लेककन ल्जस तर अब तक आपने मुझे भाई समझकर स ायता दी ै,
उसी तर एक बार और दील्जए। मुझे ववश्वास था कक आप इस शुभ कायय में
आपल्तत न करें गे, इसीभलए मैंने वचन दे हदया अब तो आपको य डोंगी पार
लगानी ी पड़ेगी।'

दे वीजी बोलीिं - 'मैं क ती थी, उसे एक पैसा मत दो, क दो म तुम् ारी शादी-
वववा के झिंझट में न ीिं पड़ते।'

ढपोरसिंख ने क ा - ' ाूँ, तुमने अबकी बार जरूर समझाया, लेककन मैं क्या करता।
शादी का मामला, उसपर उसने मुझे भी घसीट भलया था। अपनी इज्जत का कुछ
ख्याल तो करना ी पड़ता ै । दे वीजी में मेरा भल ाज ककया और चुप ो गई।'
अब मैं उस वतृ तान्त को न बढाऊगा, सारािंश य ै कक जोशी ने ढपोरसिंश के
मतथे सौ रुपए के कपड़े और सौ रुपए के कुछ ऊपर के ग नों का बोझ लादा।
बेचारे ने एक भमत्र से सौ रुपए उिार लेकर उसके सफर खचय को हदया। खुद
ब्या में शरीक ु ए, ब्या में खासी िूमिाम र ी। कन्या के वपता ने मे मानों का
आदर-सतकार खूब ककया। उन् ें जकदी थी, इसभलए व खुद तो दस
ू रे ी हदन चले
आए। पर माथुर, जोशी के साथ वववा के अन्त तक र ा। ढपोरसिंख को आशा
थी कक जोशी ससरु ाल से रुपए पाते ी माथरु के ाथों भेज दे गा या खद
ु लेता
आएगा। मगर माथरु भी दस
ू रे हदन आ गए। खाली ाथ और य खबर लाए कक
जोशी को ससुराल में कुछ भी ाथ न ीिं लगा। माथुर से उन् ें मालूम ु आ कक
लड़की से जमुना-तट पर भमलने की बात सवयथा तनमल
ूय थी। इस लड़की से जोशी
ब ु त हदनों से पत्र-व्यव ार करता र ा था। कफर तो ढपोरसिंख के कान खड़े ो
गए और माथुर से पूछा - 'अच्छा! य बबककुल ककपना थी उसकी?'

माथुर ने क ा - 'जी ाूँ।'

ढपोरसिंख ने क ा - 'अच्छा, तुम् ारी भािंजी के वववा का क्या ु आ?'

माथुर ने क ा - 'अभी तो कुछ न ीिं ु आ।'

ढपोरसिंख ने क ा - 'मगर जोशी ने कई म ीने तक तुम् ारी स ायता तो खूब


की?'

माथुर ने क ा - 'मेरी स ायता व क्या करता। ाूँ, दोनो जून भोजन भले ी
कर लेता था।'

ढपोरसिंख ने क ा - 'तम्
ु ारे नाम पर उसने मझ
ु से जो रुपए भलए थे, व तो तम्
ु ें
हदए ोंगे?'

माथरु ने क ा - 'क्या मेरे नाम पर रुपए भलए थे?'


ढपोरसिंख ने क ा -' ाूँ भाई, तुम् ारे घर का ककराया दे ने के भलए तो ले गया था।'

माथुर ने क ा - 'सरासर बेईमानी, मुझे उसने एक पैसा भी न ीिं हदया, उलटे और


एक म ाजन से मेरे नाम पर सौ रुपयों का स्टाम्प भलखकर रुपए भलए, मैं क्या
जानता था हद िोखा दे र ा ै ।'

सिंयोग से उसी वक्त आगरा से व सज्जन आ गए ल्जनके पास जोशी कुछ


हदनों र ा था। उन् ोंने माथुर को दे खकर पूछा - 'अच्छा! आप ल्जन्दा ै , जोशी ने
तो क ा था, माथरु मर गया ै ।'

माथुर ने क ा - 'मेरे तो भसर में ददय भी न ीिं ु आ।'

ढपोरसिंख ने पूछा - 'अच्छा, आपके मुरादाबादी बतयन तो प ु ूँच गए।'

आगरा-तनवासी भमत्र ने क ा -कैसे मरु ादाबादी बतयन?'

'व ी जो आफने जोशी की मारफत मूँगवाए थे?'

'मैं कोई चीज उसकी मारफत न ीिं मूँगवाई, मुझे जरूरत ोती तो आपको सीिा
न भलखता!'

माथरु ने ूँसकर क ा -'तो य रुपए भी उसने जम कर भलए।'

आगरा-तनवासी भमत्र बोले - 'मुझसे भी तो तुम् ारी मतृ यु के ब ाने सौ रुपए लाया
था। व तो एक जाभलया तनकला। उफ! ककतना बड़ा चकमा हदया ै इसने!
ल्जन्दगी में य प ला मौका ै कक मैं यों बेवकूफ बना। बच्चा को पा जाऊूँ तो
तीन साल के को भेजवाऊूँ। क ाूँ ै आजकल?'

माथरु ने क ा - 'अभी तो ससरु ाल मे ै ।'


ढपोरसिंख का वत
ृ ान्त समाप्त ो गया। जोशी ने उन् ीिं को न ीिं, माथरु जैसे और
गरीब, आगरा-तनवासी सज्जन-जैसे घाघ को भी उलटे छूरे से मड़
ू ा और अगर भिंडा
न फूट गया ोता तो अभी न जाने ककतने हदनों तक मड़ता।
ू ू़ उसकी इन मौभलक
चालों पर मैं भी मुग्ि ो गया। बेशक! अपने फन का उस्ताद ै , छटा ु आ
गुगाय।

दे वीजी बोली - 'सुन ली, आपने सारी कथा?'

मैंने डरते-डरते क ा - ' ाूँ, सन


ु तो ली।'

'अच्छा, तो अब आपका क्या फैसला ै ? (पतत की ओर इशारा करके) इन् ोंने


घोंघापन ककया या न ीिं? ल्जस आदमी को एक-एक पैसे के भलए दस
ू रों का मूँु
ताकना पड़े, व घर के पाूँच-छ रुपए इस तर उड़ा दे , इसे आप सज्जनता
क ें गे या बेवकूफी? अगर इन् ोंने य समझकर रुपए हदए ोते कक पानी में फेंक
र ा ू ूँ , तो मुझे कोई आपल्तत न थी, मगर य बराबर िोखे में र े और मुझे भी
उसी िोखे में डालते र े कक व घर का मालदार ै और मेरे सब रुपए ी न
लौटा दे गा, बल्कक और भी ककतने सलूक करे गा। ल्जसका बाप दो जार रुपए
म ीना कमाता ो, ल्जसके चाचा की आमदनी एक जार माभसक ो और एक
लाख की जायदाद घर में ो, व और कुछ न ीिं तो यरू ोप की सैर तो एक बार
करा ी सकता था। मैं अगर कभी मना भी करती ू ूँ तो आप बबगड़ जाते और
उदारता का उपदे श दे ने लगते थे। य मैं स्वीकार करती ू ूँ कक शुरू में मैं भी
िोखे में आ गई थी, मगर पीछे से मुझे उस पर सन्दे ोने लगा था और वववा
के समय मैंने जोर दे कर क हदया था कक अब एक पाई भी न दूँ ग
ू ी। पूतछए, झूठ
क ती ू ूँ या सच? कफर अगर मुझे िोखा ु आ, तो मैं घर में र ने वाली स्त्री ू ूँ,
मेरा िोखे में आ जाना क्षम्य ै , मगर जो लेखक और ववचारक और उपदे शक
बनते ै , य क्यों िोखे में आए और जब मैं इन् ें समझाती थी, तो य क्यों
अपने को बुव्ध मतता का अवतार समझकर मेरी बातों की उपेक्षा करते थे? दे खखए,
रू-ररआयत न कील्जएगा, न ीिं तो मैं बरु ी तर खबर लूँ ग
ू ी। मैं तनष्पक्ष न्याय
चा ती ू ूँ।'

ढपोरसिंख ने ददय नाक आूँखों से मेरी तरफ दे खा, जो मानो भभक्षा माूँग र ी थी।
उसी के साथ दे वीजी का आग्र , आवेश और गवय से भरी आूँखें ताक र ी थीिं। एक
को अपनी ार का ववश्वास था, दस
ू री को अपनी जीत का। एक ररआयत चा ती
थी, दस
ू री सच्ची न्याय।

मैंने कृभमत्र गिंभीरता से अपना तनणयय सन


ु ाया - 'मेरे भमत्र ने कुछ भावक
ु ता से
अवश्य काम भलया ै , पर उनकी सज्जनता तनववयवाद ै ।'

ढपोरसिंख उछल पड़े और मेरे गले भलपट गए। दे वीजी ने सगवय नेत्रों से दे खकर
क ा - 'य तो मैं जानती थी, 'चोर-चोर मौसेरा भाई' ोंगे, तम
ु दोनों एक ी थाली
के चट्टे -बट्टे ो, अब तक रुपए में एक पाई मदों का ववश्वास था, आज तम
ु ने व
भी उठा हदया। आज तनश्चय ु आ, कक पुरुष छली, कपटी, ववश्वासघाती और
स्वाथी ोते ै । मैं इस तनणयय को न ीिं मानती। मुफ्त में ईमान बबगाड़ना इसी
को क ते ै , भला मेरा पक्ष लेते तो अच्छा भोजन भमलता। उनका पक्ष लेकर
आपको सड़े भसगरटों के भसवा और क्या ाथ लगेगा। खैर , ाूँडी गई, कुतते की
जात तो प चानी गई।'

उस हदन से दी-तीन बार दे वीजी से भें ट ो चुकी ै और व ी फटकार सुननी पड़ी


ै। व न क्षमा करना चा ती ै , न क्षमा कर सकती ै।
***
डिमांस्ट्रे शन

म ाशय गुरूप्रसादजी रभसक जीव ैं, गाने-बजाने का शौक ैं, खाने-खखलाने का


शौक ैं और सैर-तमाशे का शौक ैं, पर उसी मात्री में द्रव्योपाजयन का शौक न ीिं
ैं। यों व ककसी के मूँु ताज न ीिं ैं, भले आदभमयों की तर ैं , और ैं भी भले
आदमी, मगर ककसी काम में धचमट न ी सकते। गड़
ु ोकर भी उनमें लस न ीिं
ैं। व कोई ऐसा काम उठाना चा ते ैं , ल्जसमें चटपट कारूूँ का खजाना भमल
जाए और मेशा के भलए बेकफक्र ो जाएूँ।

बैंक से छमा ी सद
ू चला आए, खाएूँ और मजे से पड़े र े , ककसी ने सला दी -
नाटक-कम्पनी खोलो। उनके हदल में बात जम गई। भमत्रों को भलखा - मैं
ड्रामेहटक कम्पनी खोलने जा र ा ू ूँ , आप लोग ड्रामें भलखना शुरू कील्जए।

कम्पनी का प्रास्पेक्टस बना, कई म ीने उसकी खब


ू चचाय र ी, कई बड़े-बड़े
आदभमयों ने ह स्से खरीदने के वादे ककए, लेककन न ह स्से बबके, न कम्पनी खड़ी

ु ई। ाूँ, इसी िुन में गुरूप्रसाद में एक नाटक की रचना कर डाली और य किक

ु ई कक इसे ककस कम्पनी को हदया जाए, लेककन य तो मालूम ी था कक


कम्पनी वाले एक ी घाघ ोते ैं। कफर रे क कम्पनी में उसका एक नाटककार
ोता भी ैं। व कब चा े गा कक उसकी कम्पनी में ककसी बा री आदमी का
प्रवेश ो, व इस रचना में तर -तर के ऐब तनकालेगा औऱ कम्पनी के माभलक
को भड़का दे गा। इसभलए प्रबन्ि ककया गया कक माभलकों पर नाटक का कुछ
ऐसा प्रभाव जमा हदया जाए कक नाटककार म ोदय की कुछ दाल न गल सके।
पाूँच सज्जनों की एक कमेटी बनाई गई, उसमें सारा प्रोग्राम ववस्तार के साथ तय
ककया गया और दस
ू रे हदन पाूँच सज्जन गुरूप्रसादजी के साथ नाटक हदखाने
चले। ताूँगे आ गए, ारमोतनयम, तबला आहद सब उस पर रख हदए गए क्योंकक
नाटक का डडमािंस्रे शन करना तनल्श्चत ु आ था।
स सा ववनोदबब ारी ने क ा - यार, ताूँगे पर जाने में तो कुछ बदरोबी ोगी,
माभलक सोचेगा, य म ाशय यों ी ैं , इस समय दस-पाूँच रुपए का मूँु न
दे खना चाह ए। मैं तो अिंग्रेजी की ववञा ापनबाजी का कायल ू ूँ कक रुपए में पन्द्र
आने उसमें लगाकर शेष एक आने में रोजगार करते ैं , क ीिं से दो मोटरें मूँगानी
चाह ए।

रभसकलाल बोले - लेककन ककराए की मोटरों से व बात न पैदा ोगी, जो आप


चा ते ैं। ककसी रईस से दो मोटरें माूँगनी चाह ए, माररस ो या नए चाल की
ऑल्स्टन।

बात सच्ची ैं। भेष से भीख भमलती ैं। ववचार ोने लगा कक ककस रईस से
याचना की जाए।

'अजी, व म ा खस
ू ट ैं। सबेरे उसका नाम ले लो तो हदन भर पानी ने भमले।
अच्छा सेठजी के पास चलें तो कैसा? मूँु िो रखखए, उसकी मोटरें अफसरों के
भलए ररजवय ैं, अपने लड़के तक को कभी बैठने न ीिं दे ता, आपको हदए दे ता ैं।'

'तो कफर कपरू सा ब के पास चलें । अभी उन् ोंने नई मोटर ली ैं। अजी, उसका
नाम न लो, कोई-न-कोई ब ाना करे गा, ड्राइवर न ीिं ैं, मरम्मत में ैं।'

गरू
ु प्रसाद ने अिीर ोकर क ा - तम
ु लोगों ने तो व्यथय का बखेड़ा कर हदया,
ताूँगों पर चलने पर क्या रज था?

ववनोदबब ारी ने क ा - आप तो घास खा गए ैं, नाटक भलख लेना दस


ू री बात ैं
और मामले को पटाना दस
ू री बात ैं। रुपए पष्ृ ट सन
ु ा दे ना, अपना-सा मूँु लेकर
र जाओगे।
अमरनाथ ने क ा - मैं तो समझता ू ूँ , मोटर के भलए ककसी राजा-रईस की
खश
ु ामद करना बेकार ैं, तारीफ तो तब ैं कक पाूँव-पाूँव चले और व ाूँ ऐसा रिं ग
जमाएूँ कक मोटर से भी ज्यादा शान र े ।

ववनोदबब ारी उछल पड़े। सब लोग पाूँव-पाूँव चले। व ाूँ प ु ूँचकर ककस तर की
बातें शुरू ोगी, ककस तर तारीफों के पल
ु बाूँिे जाएूँगे, ककस तर ड्रामेहटस्ट
सा ब को खुश ककया जाएगा, इस पर ब स ोती जाती थी।

म लोग कम्पनी के कैम्प में कोई दो बजे प ु ूँच।े व ाूँ माभलक सा ब, उनके
ऐक्टर, नाटककार सब प ले से ी मारा इन्तजार कर र े थे। पान, इलायची,
भसगरे ट मूँगा भलए थे।

ऊपर जाते ी रभसकलाल ने माभलक से क ा - क्षमा कील्जएगा, में आने में दे र

ु ई, म मोटर से न ीिं, पाूँव-पाूँव आए ैं, आज य ीिं सला ु ई कक प्रकृतत की छटा


का आनन्द उठाते चलें , गुरूप्रसाद तो प्रकृतत के उपासक ैं। इनका बस ोता तो
आज धचमटा भलए या तो क ीिं भीख माूँगते ोते, या ककसी प ाड़ी
ू़ गाूँव में वटवक्ष

के नीचे बैठे पक्षक्षयों का च कना सुनते ोते।

ववनोद ने रद्दा जमाया - पूरे सतजुगी आदमी ैं। नौकर-चाकर तो मोटरों पर


सवार ोते ैं और आप गली-गली मारे -मारे कफरते ैं, जब और रईस नीिंद के
मजे लेते ोते ैं तो आप नदी के ककनारे उषा का शिंग
ृ ार दे खते ैं।

मस्तराम ने फरमाया - कवव ोना, मानो दीन-दतु नया से मुक्त ो जाना ैं, गुलाब
की एक पिंखड़ी लेकर उसमें न जाने क्या घिंटो दे खा करते ैं। प्रकृतत के उपासना
ने ी यूरोप के बड़े-बड़े कववयों को आसमान पर प ु ूँचा हदया ैं। यूरोप में ोते
तो आज इनके द्वार पर ाथी झूमता ोता। एक हदन एक बालक को रोते
दे खकर आप रोने लगे, पछ
ू ता ू ूँ भाई क्यों रोते ो, तो और रोते ैं, मूँु से
आवाज न ीिं तनकलती, बड़ी मुल्श्कल से आवाज तनकली।
ववनोद ने क ा - जनाब! कवव का हृदय कोमल भावों का स्रोत ैं , मिरु सिंगीत
का भिंडार ैं, अनन्त का आईना ैं।

रभसक ने क ा - क्या बात क ी ैं आपने, अनन्त का आईना! वा ! कवव की


सो बत में आप भी कवव ु ए जा र े ैं।

गुरूप्रसाद ने नम्रता से क ा - मैं कवव न ीिं ू ूँ और न मुझे कवव ोने का दावा


ैं। आप लोग मुझे जबरदस्ती कवव बनाए दे ते ैं, कवव सल्ृ ष्ट की व अद्भुत
रचना ैं जो पिंचभत
ू ो की जग नौ रसों से बनती ैं।

मस्तराम ने क ा - आपका य ी एक वाक्य ैं , ल्जस पर सैकड़ो कववताएूँ


न्योछावर ैं, सुनी आपने रभसकलालजी, कवव की मह मा, याद कर लील्जए, रट
डाभलए।

रभसकलाल ने क ा - क ाूँ तक याद करें , भैया, य तो सूल्क्तयों में बात करते ैं,
और नम्रता का य ाल ैं कक अपने को कुछ समझते ी न ीिं, म ानता का य ी
लक्षण ैं। ल्जसने अपने को कुछ समझा, व गया ( कम्पनी के स्वामी से) आप
तो अब खद
ु ी सन
ु ेंगे, इस ड्रामे में अपना हृदय तनकालकर रख हदया ैं , कववयों
में जो एक प्रकार का अक ड़पन ोता ैं , उसकी आप में क ीिं गन्ि भी न ीिं। इस
ड्रामे की सामग्री जमा करने के भलए आपने कुछ न ीिं तो एक जार बड़े-बड़े
पोथों का अध्ययन ककया ोगा, वाल्जदअली शा को स्वाथी इतत ास-लेखकों ने
ककतना कलिंककत ककया ै , आप लोग जानते ी ै , उस लेख-राशी को छाूँटकर
उसमें से सतय के तततव खोज तनकालना आप ी का काम था!'

ववनोद ने क ा - 'इसीभलए म और आप दोनों कलकतता गए और व ाूँ कोई छः


म ीने महटयाबुजय की खाक छानते र े । वाल्जदअली शा की स्तभलखखत एक
पस्
ु तक की तलाश की, उसमें उन् ोंने खद
ु अपनी जीवन-चचाय भलखी ै , एक बहु ढया
की पूजा की गई, तब क ीिं जाके छः म ीने में ककताब भमली।'
अमरनाथ ने क ा, 'पुस्तक न ीिं रतन ै ।'

मस्तराम ने क ा - 'उस वक्त तो उसकी दशा कोयले की थी, गरु


ु प्रसाद ने उसपर
मो र लगाकर अशफी बना हदया, ड्रामा ऐसा चाह ए की जो सुने, हदल ाथो से
थाम लें , एक-एक वाक्य हदल में चुभ जाए।'

अमरनाथ ने क ा, 'सिंसार-साह तय के सभी नाटकों को आपने चाट डाला और


नाट्य-रचना पर सैकड़ो ककताबें पढ डाली।'

ववनोद ने क ा - 'जभी तो चीज भी लासानी ु ई ै ।'

अमरनाथ ने क ा, 'ला ौर ड्रामेहटक क्लब का माभलक फ्त भर य ाूँ पड़ा र ा,


पैरों पड़ा कक मुझे य नाटक दे दील्जए लेककन आपने न हदया। जब ऐक्टर ी
अच्छे न ीिं तो उनसे अपना ड्रामा खेलवाना उसकी भमट्टी खराब कराना था, इस
कम्पनी के ऐक्टर माशाअकला अपना जवाब न ीिं रखते और इस नाटककार की
सारे जमाने में िूम ै , आप लोगों के ाथों में पड़कर य ड्रामा िूम मचा दे गा।'

ववनोद ने क ा - 'एक तो लेखक सा ब खद


ु शैतान से ज्यादा मश ू र ै , उसपर
य ाूँ के ऐक्टरों का नाट्य-कौशल! श र लट
ु जाएगा।'

मस्तराम ने क ा - 'रोज ी तो ककसी-न-ककसी कम्पनी का आदमी भसर पर


सवार र ता ै , मगर बाबू सा ब ककसी से सीिे मूँु बात न ीिं करते।'

ववनोद ने क ा - 'बस एक कम्पनी ै , ल्जसके तमाशे के भलए हदल बेकरार


र ता ै , न ीिं तो और ल्जतने ड्रामे खेले जाते ैं दो कौड़ी के , मैंने तमाशा दे खना
ी छोड़ हदया।'
गरु
ु प्रसाद ने क ा - 'नाटक भलखना बच्चों का खेल न ीिं ै , खन
ू े ल्जगर पीना
पड़ता ै , मेरे ख्याल में एक नाटक भलखने के भलए पाूँच साल का समय काफी
न ीिं, बल्कक अच्छा ड्रामा ल्जन्दगी में एक ी भलखा जा सकता ै , यों कलम
तघसना दस
ू री बात ै , बड़े-बड़े िुरिंिर आलोचकों का य ी तनणयय ै कक आदमी
ल्जन्दगी में एक ी नाटक भलख सकता ै । रूस, िािंस, जमयनी सभी दे शों के ड्रामे
पढे , पर कोई-न-कोई दोष सभी में मौजूद, ककसी में भाव ै तो भाषा न ीिं, भाषा ै
तो भाव न ीिं, ास्य ै तो गाना न ीिं, गाना ै तो ास्य न ीिं। जब तब भाव,
भाषा, ास्य और गाना चारों अिंग परू े न ो, उसे ड्रामा क ना ी न चाह ए, मैं तो
ब ुत ी तुच्छ आदमी ू ूँ , कुछ आप लोगों की सो ब्बत में शुदबुद आ गई। मेरी
रचना की स्ती ी क्या, लेककन ईश्वर ने चा ा, तो ऐसे दोष आपको न भमलें गे।'

ववनोद ने क ा - 'जब आप उस ववषय के ममयञा ै , तो दोष र ी कैसे सकते


ै ।'

रभसकलाल ने क ा - 'दस साल तक तो आपने केवल सिंगीत-कला का अभ्यास


ककया ै , घर के जारों रुपए उस्तादों को भें ट कर हदए, कफर भी दोष र जाए, तो
दभ
ु ायग्य ै ।'

ररहससल

रर सयल शुरू और वा ! वा ! वा ! वा ! का तार बूँिा। कोरस सुनते ी ऐक्टर


और प्रोपाइटर और नाटककार सभी मानो जाग पड़े। भूभमका ने उन् ें ववशेष
प्रभाववत ककया था, पर असली चीज सामने आते ी आूँखे खुलीिं। समाूँ बूँि गया।
प ला सीन आया। आूँखों के सामने वाल्जदअली शा के दरबार की तस्बीर खखिंच
गई। दरबाररयों की ाल्जर-जवाबी और फड़कते ु ए लतीफे! वा ! वा ! क्या
क ना ै ! क्या वाक्य रचना थी, क्या शब्द योजना थी, रसों का ककतना सुरुधच से
भरा ु आ समावेश था! तीसरा दृश्य ास्यमय था। ूँसते- ूँसते लोगों की
पसभलयाूँ दख
ु ने लगी, स्थल
ू काय स्वामी की सिंयत अववचलता भी आसन से डडग
गई। चौथा सीन करुणाजनक था, ास्य के बाद करुणा, आूँिी के बाद आने वाली
शाल्न्त थी। ववनोद आूँखों पर ाथ रखे , भसर झुकाए जैसे रो र े थे। इसी तर
सीन-पर-सीन और अिंक-पर-अिंक समाप्त ोते गए, य ाूँ तक कक जब रर सयल
समाप्त ु आ, तो दीपक बुझ चुके थे।

सेठजी अब तक सोंठ बने ु ए बैठे थे। ड्रामा समाप्त ो गया, पर उनके


मुखारवविंद पर उनके मनोववचार का लेशमात्र भी आभास न था। जड़ बैठे ु ए थे,
न मुस्करा ट, न कौतु ल, न षय, न कुछ। ववनोदबब ारी ने मुआमले की बात
पूछी, 'तो इस ड्रामे के बारे में श्रीमान की क्या राय ै ?'

सेठजी ने उसी ववरक्त भाव से उततर हदया, 'मैं इसके ववषय में कल तनवेदन
करूूँगा, कल य ीिं भोजन भी कील्जएगा, आप लोगों के लायक भोजन क्या ोगा,
उसे केवल ववदरु का साग समझकर स्वीकार कील्जएगा।'

पिंच पािंडव बा र तनकले , तो मारे खुशी के सबकी बाूँछे खखली जाती थीिं।

ववनोद ने क ा - 'पाूँच जार की थैली ै , नाक-नाक बद सकता ू ूँ।'

अमरनाथ ने क ा - 'पाूँच जार की ै कक दस, य तो न ीिं क सकता, पर रिं ग


खूब जम गया।'

रभसक ने क ा - 'मेरा अनम


ु ान को चार जार का ै ।'

मस्तराम ने क ा, 'औप मेरा ववश्वास ै कक दस जार से कम व क े गा ी


न ीिं, मैं तो सेठ के चे रे की तरफ ध्यान से दे ख र ा था, आज ी क दे ता, पर
डरता था, क ीिं ये लोग अस्वीकार न कर दें , उसके ोंठों पर तो ूँसी न थी, पर
मगन ो र ा था।'
गरु
ु प्रसाद ने क ा - 'मैंने पढा भी तो जी तोड़कर।'

ववनोद ने क ा - 'ऐसा जान पड़ता था कक तुम् ारी वाणी पर सरस्वती बैठ गई


ै , सभी की आूँखें खुल गई।'

रभसक ने क ा - 'मुझे उसकी चुप्पी से जरा सन्दे ोता ै ।'

अमर ने क ा - 'आपके सन्दे का क्या क ना, आपको ईश्वर पर भी सन्दे ै ।'

मस्तराम ने क ा - 'ड्रामेहटस्ट भी ब ु त खुश ो र ा था, दस-बार जार का


वारा-न्यारा ै । भई, आज इस खश
ु ी में एक दावत ोनी चाह ए।'

गुरुप्रसाद ने क ा - 'अरे , तो कुछ बो नी-बट्टा तो जाए।'

मस्तराम ने क ा - 'जी न ीिं, तब तो जलसा ोगा, आज दावत ोगी।'

ववनोद ने क ा -'भाग्य के बली ो तम


ु गरु
ु प्रसाद।'

रभसकलाल ने क ा - 'मेरी राय ै , जरा ड्रामेहटस्ट को गाूँठ भलया जाए, उसका


मौन मुझे भयभीत कर र ा ै ।'

मस्तराम ने क ा - 'आप तो वा ी ु ई ै, व नाक रगड़कर र जाए. तब भी य


सौदा ोकर र े गा। सेठजी बचकर तनकल न ीिं सकते। '

ववनोद ने क ा - ' म लोगों की भूभमका भी तो जोरदार थी।'

अमर ने क ा - 'उसी ने तो रिं ग जमा हदया, अब कोई छोटी रकम क ने का उसे


सा स न ोगा।'
अभिनय

रात को गरु
ु प्रसाद के घर भमत्रों की दावत ु ई। दस
ू रे हदन कोई 6 बजे पािंचों
आदमी सेठजी के पास जा प ु ूँच।े सन्ध्या का समय वाखोरी का ै । आज मोटर
पर न आने के भलए बना-बनाया ब ाना था। सेठजी आज बे द खुश नजर आते
थे। कल की व मु रय मी सूरत अन्तिायन ो गई थी। बात-बात पर च कते थे,
ूँसते थे, जैसे लखनऊ का कोई रईस ो। दावत का सामान तैयार था। मेजों पर
भोजन चन
ु ा जाने लगा। अिंगरू , सिंतरे , केले, सख
ू े मेव,े कई ककस्म की भमठाइयाूँ, कई
तर के मरु ब्बे, शराब आहद सजा हदए गए और यारों ने खब
ू मजे से दावत
खाई। सेठजी मे माननवाजी के पुतले बने ु ए रे क मे मान के पास आ-आकर
पूछते - 'कुछ और मूँगवाऊूँ? कुछ तो और लील्जए। आप लोगों के लायक भोजन
य ाूँ क ाूँ बन सकता ै।'

भोजन के उपरान्त लोग बैठे, तो मामले की बातचीत ोने लगी। गुरुप्रसाद का


हृदय आशा और भय से काूँपने लगा।

सेठजी ने क ा - ' ु जरू ने ब ु त ी सन्


ु दर नाटक भलखा ै , क्या बात ै ।'

ड्रामेहटस्ट ने क ा - 'य ाूँ जनता अच्छे ड्रामों की कद्र न ीिं करती, न ीिं तो य
ड्रामा लाजवाब ोता।'

सेठजी ने क ा - 'जनता कद्र न ीिं करती न करे , में जनता की बबककुल परवा
न ीिं ै , रतती बराबर परवा न ीिं ै । मैं इसकी तैयारी में 40 जार केवल बाबू
सा ब की खाततर खचय कर दूँ ग
ू ा। आपने इतनी मे नत से एक चीज भलखी ै , तो
मैं उसका प्रचार भी उतने ी ौसले से करूूँगा। मारे साह तय के भलए क्या य
कुछ कम सौभाग्य की बात ै कक आप जैसे म ान पुरुष इस क्षेत्र में आ गए।
य कीततय ु जूर को अमर बना दे गी।'
ड्रामेहटस्ट ने क ा - 'मैंने ऐसा ड्रामा आज तक न ीिं दे खा, भलखता मैं भी ू ूँ और
लोग भी भलखते ै , लेककन आपकी उड़ान को कोई क्या प ु ूँचेगा! क ीिं-क ीिं तो
आपने शेक्सवपयर को भी मात कर हदया ै।'

सेठजी ने क ा - 'तो जनाब, जो चीज हदल की उमिंग से भलखी जाती ै, व ऐसी


ी अद्ववतीय ोती ै । शेक्सवपयर ने जो कुछ भलखा, रुपए के लोभ से भलखा,
मारे दस
ू रे नाटककार भी िन ी के भलए भलखते ै । उनमें व बात क ाूँ पैदा
ो सकती ै । गोसाई जी का रामायण क्यों अमर ै , इसीभलए कक व भल्क्त और
प्रेम से प्रेररत ोकर भलखी गई ै । सादी की गभु लस्ताूँ और बोस्ताूँ, ोमर की
रचनाएूँ, इसीभलए स्थाई ै कक उन कववयों के हदल की उमिंग से भलखा। जो उमिंग
से भलखता ै व एक-एक शब्द, एक-एक वाक्य, एक-एक उल्क्त पर म ीनों खचय
कर दे ता ै । िनेच्छु को तो एक काम जकदी से समाप्त करके दस
ू रा काम शुरू
करने की किक ोती ै ।'

ड्रामेहटस्ट ने क ा - 'आप बबककुल सतय क र े ै , मारे साह तय की अवनतत


केवल इसभलए ो र ी ै कक म सब िन के भलए या नाम के भलए भलखते ै । '

सेठजी ने क ा - 'सोधचए, आपने दस साल केवल सिंगीत-कला में खचय कर हदए,


लाखों रुपए कलाविंतों और गायकों को दे डाले ोंगे। क ाूँ-क ाूँ से और ककतने
पररश्रम और खोज से इस नाटक की सामग्री एकत्र की। न जाने ककतने राजों-
म ाराजों को सुनाया, इस पररश्रम और लगन का पुरस्कार कौन दे सकता ै ।'

ड्रामेहटस्ट ने क ा - 'मुमककन ी न ी! ऐसी रचनाओिं के पुरस्कार की ककपना


करना ी उनका अनादार करना ै । इनका पुरस्कार यहद कुछ ै , तो व अपनी
आतमा का सन्तोष ै, व सन्तोष आपके एक-एक शब्द से प्रकट ोता ै ।'
सेठजी ने क ा - 'आपने बबककुल सतय क ा कक ऐसी रचनाओिं का परु स्कार
अपनी आतमा को सन्तोष ै । यश तो ब ु िा ऐसी रचनाओिं को भमल जाता ै , जो
साह तय के कलिंक ै । आप ड्रामा ले लील्जए और आज से ी पाटय भी तकसीम
कर दील्जए। तीन म ीने के अन्दर इसे खेल डालना ोगा।'

मेज पर ड्रामे की स्तभलवप पड़ी ु ई थी। ड्रामेहटस्ट ने उसे उठा भलया। गरु
ु प्रसाद
ने दीन नेत्रों से ववनोद की ओर दे खा, ववनोद ने अमर की ओर, अमर ने रभसक
की ओर, पर शब्द ककसी के मूँु से न तनकला। सेठजी ने मानो, सभी के मूँु सी
हदए ों। ड्रामेहटस्ट चल हदए।

सेठजी ने मुस्कराकर क ा - ' ु जूर को थोड़ी-सी तकलीफ और करनी ोगी। ड्रामे


का रर यसल शुरू ो जाएगा, तो आपको थोड़े हदनों तक कम्पनी के साथ र ने का
कष्ट उठाना पड़ेगा। मारे ऐक्टर अधिकािंश गुजराती ै, व ह न्दी भाषा के शब्दों
का शु्ध उच्चारण न ीिं कर सकते, क ीिं-क ीिं शब्दों पर अनावश्यक जोर दे ते ै ।
आपकी तनगरानी से य सारी बरु ाइयाूँ दरू ो जाएूँगी। ऐक्टरों ने यहद पाटय
अच्छा न ककया, तो आपके सारे पररश्रम पर पानी पड़ जाएगा।'

य क ते ु ए उन् ोंने लड़के को आवाज दी - 'बॉय! इन लोगों के भलए भसगार


लाओ।'

भसगार आ गयाय़ सेठजी उठ खड़े ु ए। य भमत्र-मिंडली के भलए ववदाई की


सूचना थी। पाूँचों सज्जन भी उठे । सेठजी आगे-आगे द्वार तक आए। कफर सबसे
ाथ भमलाते ु ए क ा - 'आज इस गरीब का तमाशा दे ख लील्जए, कफर य
सिंयोग न जाने कब प्राप्त ो।'

गुरुप्रसाद ने मानो ककसी कब्र के नीचे से क ा - ' ो सका तो आ जाऊूँगा।'


सड़क पर आकर पािंचों भमत्र खड़े ोकर एक-दस
ू रे का मूँु ताकने लगे। तब पाूँचों
ी जोर से ठ ाका मारकर ूँस पड़े।

ववनोद ने क ा - 'य म सबका गुरुघिंटाल तनकला।'

अमर ने क ा - 'साफ आूँखों में िूल झोंक दी।'

रभसक ने क ा - 'मैं उसी चप्ु पी दे खकर प ले ी डर र ा था कक य कोई पकले


भसरे का घाघ ै ।'

मस्तराम ने क ा - 'मान गया इसकी खोपड़ी को, य चपत उम्र भर न भल


ू ेगी।'

गुरुप्रसाद इस आलोचना में शरीक न ु ए। व इस तर भसर झुकाए चले जा र े


थे, मानो अभी तक व ल्स्थतत को समझ ी न पाए ों।

***
दारोगाजी

कल शाम को एक जरूरत से तािंगे पर बैठा ु आ जा र ा था कक रास्ते में एक


और म ाशय तािंगे पर आ बैठे। तािंगेवाला उन् ें बैठाना तो न चा ता था, पर
इनकार भी न कर सकता था। पुभलस के आदमी से झगड़ा कौन मौल ले। य
सा ब ककसी थाने के दरोगा थे। एक मक
ु दमें की पैरवी करने सदर आए थे! मेरी
आदत ैं कक पभु लसवालों से ब ु त कम बोलता ू ूँ। सच पतू छए तो मझ
ु े उनकी
सूरत से नफरत ैं, उनके ाथों प्रजा को ककतने कष्ट उठाने पड़ते ैं , इसका
अनुभव इस जीवन में कई बार कर चुका ू ूँ।

मैं जरा एक तरफ खखसक गया और मूँु फेरकर दस


ू री ओर दे खने लगा कक
दारोगाजी बोले - ' जनाब, य आम िारणा ैं कक पुभलस वाले ब ु त ररश्वत लेते
ैं, लेककन य कोई न ीिं दे खता कक पुभलस वाले ररश्वत लेने के भलए ककतने
मजबूर ैं, अगर पुभलस वाले ररश्वत लेना बन्द कर दें तो मैं लफ से क ता ू ूँ ,
ये जो बड़े-बड़े ऊूँची पगडड़यों वाले रईस नजर आते ैं , सब-के-सब जेलखाने के
अन्दर बैठे हदखाई दे , अगर र एक मामले का चालान करने लगें , तो दतु नया
पभु लस वालो को और भी बदनाम करें , आपको यकीन न आएगा जनाब, रुपए की
थैभलयाूँ गले लगाई जाती ैं , म जार इनकार करें , पर चारों तरफ से ऐसे दबाव
पड़ते ैं कक लाचार ोकर लेना ी पड़ता ैं। '

मैंने उप ास के भाव से क ा- 'जो काम रुपए लेकर ककया जाता ैं , व ी काम


बबना रुपए भलए भी तो ककया जा सकता ैं।'

दारोगाजी ूँसकर बोले - 'व तो गन


ु ा बेलज्जत ोगा, बन्दापरवर। पभु लस का
आदमी इतना कट्टर दे वता न ीिं ोता, और मेरा ख्याल ैं कक शायद इिंसान भी
इतना बेलौस न ीिं ो सकता, और सीिंगों के लोगों को भी दे खता ू ूँ , मुझे तो कोई
दे वता न भमलता...।'
मैं अभी इसका कुछ जवाब दे ी र ा था कक एक भमयाूँ लम्बी अचकन प ने,
तक
ु ी टोपी लगाए, तािंगे के सामने से तनकले। दारोगाजी ने उन् ें दे खते ी झक
ु कर
सलाम ककया और शायद भमजाज शरीफ पूछना चा ते थे कक उस भले आदमी ने
सलाम का जवाब गाभलयों से दे ना शुरू ककया। जब तािंगा कई कदम आगे तनकल
आया तो व एक पतथर लेकर तािंगे के पीछे दौड़ा। तािंगेवाले ने घोड़े को तेज
ककया। उस भलेमानुस ने भी कदम तेज ककए और पतथर फेंका। मेरा भसर बाल-
बाल बच गया। उसने दस
ू रा पतथर उठाया, व मारे सामने आकर धगरा। तीसरा
पतथर इतनी जोर से आया कक दारोगाजी के घट
ु ने में बड़ी चोट आइ, पर इतनी
दे र में तािंगा इतनी दरू तनकल आया कक म पतथरों की मार से दरू ो गए थे।
ाूँ, गाभलयों की मार अभी तक जारी थी। जब तक व आदमी आूँखों से ओझल
न ो गया, म उसे एक ाथ में पतथर उठाए, गाभलयाूँ बकते ु ए दे खते र े ।

जब जरा धचतत शान्त ु आ, मैंने दारोगाजी से पूछा - 'य कौन आदमी ैं सा ब,


कोई पागल को न ीिं ैं?'

दारोगाजी ने घट
ु ने स लाते ु ए क ा - 'पागल न ीिं ैं सा ब, मेरा परु ाना दश्ू मन
ैं, मैंने समझा था, वपछली बातें भूल गया ोगा, वरना मुझे क्या पड़ी थी कक
सलाम करने जाता।'

मैंने पूछा - 'आपने इसे ककसी मुकद्दमें में सजा हदलाई ोगी?'

दारोगाजी ने क ा- 'बड़ी लम्बी दास्तान ैं जनाब! बस इतना ी समझ लील्जए


कक इसका बस चले, तो मझ
ु े ल्जन्दा ी तनगल जाए।'

'आप तो आग को और भड़का र े ैं , अब तो व दास्तान सुने बगैर तस्कीन न


ोगी।'

दारोगाजी ने प लू बदलकर क ा - 'अच्छी बात ैं , सुतनए! कई साल ु ए, मैं सदर


में ी तैनात था। बेकिकी के हदन थे, ताजा खून, एक माशूक से आूँख लड़ गई,
आमदरफ्त शुरू ु ई, अब भी जब उस सीना की याद आती ैं , तो आूँखों से आूँसू
तनकल आते ैं , बाजारू औरतों में इतनी या, इतनी वफा, इतनी मरु व्वत मैंने न ीिं
दे खी। दो साल उसके साथ इतने लुफ्त से गुजरे कक आज भी उसकी याद करके
रोता ू ूँ, मगर ककस्से को बढाउूँ गा न ीिं, वरना अिूरा ी र जाएगा। मुख्तसर य
कक दो साल के बाद मेरे तबादले का ु क्म आ गया, उस वक्त हदल को ल्जतना
सदमा प ु ूँचा, उसका ल्जक्र करने के भलए दफ्तर चाह ए, बस जी चा ता था कक
इस्तीफा दे दूँ ,ू उस सीना ने खबर सन
ु ी, तो उसकी जान-सी तनकल गई। सफर
की तैयारी के भलए तीन हदन भमले थे, ये तीन हदन मने मिंसब
ू े बाूँिने में काटे ।
उस वक्त मुझे अनुभव ु आ कक औरतों को अक्ल से खाली समझने में मने
ककतनी बड़ी गलती की ैं , मेरे मिंसूबे शेखधचकली के-से ोते थे। कलकतते भाग
चलें , व ाूँ कोई दक
ु ान खोल लें , या इसी तर कोई दस
ू री तजवीज करता, लेककन
व य ी जवाब दे ती कक अभी व ाूँ जाकर अपना काम करो, जब मकान को
बन्दोबस्त ो जाए, तो मझ
ु े बल
ु ा लेना, मैं दौड़ी चली आऊूँगी।

जुदाई की घड़ी आई, मुझे मालम


ू ोता था कक अब जान न बचेगी। गाड़ी का
वक्त तनकला जाता था और मैं उसके पास से उठने का नाम न लेता था। मगर
मैं कफर ककस्से को तल
ू दे ने लगा। खल
ु ासा य कक मैं उसे दो-तीन हदन में
बुलाने का वादा करके रुखसत ु आ। पर अफसोस! वे दो-तीन हदन कभी न
आए। प ले दस-पाूँच हदन तो अफसरों से भमलने और इलाके की दे खभाल में
गुजरे । इसके बाद घर से खत आ गया कक तुम् ारी शादी तय ो गई, रुखसत
लेकर चले आओ। शादी की खश
ु ी में उस वफा की दे वी की मुझे कफक्र न र ी।
शादी करके म ीने-भर बाद लौटा, बीवी साथ थी, र ी-स ी याद भी जाती र ी।
उसने एक म ीने के बाद खत भेजा, पर मैंने जवाब न हदया। डरता र ता था कक
क ीिं एक हदन व आकर भसर पर सवार न ो जाए, कफर बीवी को मूँु हदखाने
लायक भी न र जाऊूँ!

साल भर के बाद मझ
ु े एक काम से सदर आना पड़ा। उस वक्त मझ
ु े उस औरत
की याद आई। सोचा, जरा चलकर दे खना चाह ए, ककस ालत में ै । फौरन अपने
खत न भेजने और इतने हदनों तक न आने का जवाब सोच भलया और उसके
द्वार पर जा प ु ूँचा। दरवाजा साफ-सथ
ु रा था, मकान की ालत भी प ले से
अच्छी थी, हदल को खुशी ु ई कक इसकी ालत उतनी खराब न ीिं ैं , ल्जतनी मैं
समझी थी। और, क्यों खराब ोने लगी। मुझ जैसे दतु नया में क्या आदमी ी
न ीिं ैं।

मैंने दरवाजा खटखटाया। अन्दर से व बन्द थी, आवाज आई - 'कौन ै ?'

दारोगाजी ने क ा - 'वा ! इतनी जकद भल


ू गई, मैं ू ूँ बशीर...'

कोई जवाब न भमला, आवाज उसी की थी, इसमें कोई शक न ीिं, कफर दरवाजा
क्यों न ीिं खोलती? जरूर मुझसे नाराज ैं।

मैंने कफर ककवाड़ खटखटाए और लगा अपनी मुशीबतों का ककस्सा सुनाने, कोई
पन्द्र भमनट के बाद दरवाजा खुला। सीना ने मुझे इशारे से अन्दर बुलाया और
चट ककवाड़ बन्द कर भलए।

मैंने क ा मुआफी माूँगने आया ू ूँ, य ाूँ से जाकर मैं बड़ी मुल्श्कल में फूँस गया,
इलाका इतना खराब कक दम मारने की मु कल न ीिं भमलती।

सीना ने मेरी तरफ न दे खकर जमीन की तरफ ताकते ु ए क ा - 'मुआफी


ककस बात की? तुमसे मेरा तनका तो ु आ न था, हदल क ीिं और लग गया, तो
मेरी याद क्यों आती, मुझे तुमसे कोई भशकायत न ीिं, जैसा और लोग करते ैं ,
वैसा तुमने ककया, य ी क्या कम ैं कक इतने हदनों के बाद इिर आ तो गए, र े
तो खैररयत से?'

'ककसी तर ल्जन्दा ू ूँ।'

'शायद जुदाई में घुलते-घुलते य तोंद तनकल आई ैं, खुदा झूठ बुलावाए, तब से
मोटे ो गए ो।'
मैंने झेंपते ु ए क ा - 'य सारा बलगम की कफसाद ैं, भला मोटा मैं क्या ोता,
उिर का पानी तन ायत बलगमी ैं , तुमने तो मेरी याद ी भूला दी।'

उसने अबकी मेरी ओर तनगा से दे खा और बोली - 'खत का जवाब तक न


हदया, उलटे मुझी को इलजाम दे ते ो। मैं तुम् ें शुरू से बेवफा समझती थी और
तुम वैसे ी तनकले, बीवी लाए और मुझे खत तक न भलखा?'

मैंने ताज्जुब से पूछा - 'तुम् ें कैसे मालूम ु आ कक मेरी शादी ो गई?'

उसने रुखाई से क ा - 'य पूछकर क्या करोगे? झठ


ू तो न ीिं क ती, बेवफा ब ु त
दे खे, लेककन तम
ु सबसे बढकर तनकले, तम्
ु ारी आवाज सन
ु कर जी में तो आया
कक दतु कार दूँ ,ू लेककन य सोचकर दरवाजा खोल हदया कक अपने दरवाजे पर
ककसी को क्या जलील करूूँ।'

मैंने कोट उतार कर खट


ूूँ ी पर लटका हदया, जत
ू े भी उतार डाले और चारपाई पर
लेटकर बोला -'लैली, दे खो, इतनी बेर मी से न पेश आओ, मैं अपनी खताओिं को
खुद तस्लीम करता ू ूँ, इसीभलए अब तुमसे मुआफी माूँगने आया ू ूँ , जरा अपने
नाजुक ाथों से एक पान तो खखला दो! सच क ना, तुम् ें मेरी याद का े को
आती ोगी, कोई और यार भमल गया ोगा।'

लैली पानदान खोलकर पान बनाने लगी कक एकाएक ककसी ने ककवाड़ खटखटाए।

मैंने घबराकर पछ
ू ा - 'य कौन शैतान आ प ु ूँ चा?'

सीना ने ोटों पर उूँ गली रखते ु ए क ा - 'य मेरे शौ र ैं, तुम् ारी तरफ से
जब तनराश ो गई, तो मैंने इनके साथ तनका कर भलया।'
मैंने तयोररयाूँ चढाकर क ा - 'तो तम
ु ने मझ
ु से प ले ी क्यों न बता हदया, मैं
उकटे पाूँव लौट न जाता, य नौबत क्यों आती, न जाने कब की य कसर
तनकाली।'

'मझ
ु े क्या मालम
ू कक य इतने जकदी आ प ु ूँचेंगे, रोज तो प र रात गए आते
थे, कफर तम
ु इतनी दरू से आए थे, तम्
ु ारी कुछ खाततर भी तो करनी थी।'

'य अच्छी खाततर की, बताओ, अब मैं जाऊूँ क ाूँ?'

'मेरी समझ में खुद कुछ न ीिं आ र ा ैं, या अकला ! ककस अजाब में फूँसी।'

इतने में उन सा ब ने खटखटाया। ऐसा मालम


ू ोता था कक ककवाड़ तोड़ डालेगा,
सीना के च े रे पर एक रिं ग आता था, एक रिं ग जाता था। बेचारी खड़ी काूँप र ी
थी। बस, जबान से य ी तनकलता था - 'या अकला , र म कर।'

बा र से आवाज आई - 'अरे , तम
ु सरे शाम से सो गई? अभी तो आठ भी न ीिं
बजे। क ीिं साूँप तो न ीिं सूँघ
ू गया, अकला जानता ैं , अब और दे र की, तो ककवाड़
धचड़वा डालूँ ग
ू ा।'

मैने धगड़धगड़ाकर क ा, 'खद


ु ा के भलए मेरे तछपने की कोई जग बताओ, वपछवाड़े
कोई दरवाजा न ीिं?'

'ना!'

'सिंडास तो ै ?'

'सबसे प ले व ीिं जाएिंगे।'

'अच्छा, व सामने कोठरी कैसी ै ।'

' ाूँ, ै तो, लेककन क ीिं कोठरी खोलकर दे खा तो?'


'क्या ब ु त डबल आदमी ै ?'

'तम
ु जैसे दो को बगल में दबा लें ।'

'तो खोल दो कोठरी, व ज्यों ी अन्दर आएगा, मैं दरवाजा खोलकर तनकल
भागूँग
ू ा।'

सीना ने कोठरी खोल दी। मैं अन्दर जा घुसा। दरवाजा कफर बन्द ो गया।

मुझे कोठरी में बन्द करके सीना ने जाकर सदर दरवाजा खोला और बोली, 'क्यों
ककवाड़ तोड़े डालते ो? आ तो र ी ू ूँ।'

मैंने कोठरी की ककवाड़ों के दराजों से दे खा। आदमी क्या परू ा दे व था। अन्दर
आते ी बोला, 'तुम सरे शाम से सो गई थी!'

' ाूँ, जरा आूँख लग गई थी!'

'मुझे तो ऐसा मालूम ो र ा था कक तुम ककसी से बातें कर र ी थी।'

'व म की दवा तो लुकमान के पास भी न ीिं।'

'मैंने साफ सन
ु ा, कोई-न-कोई था जरूर, तम
ु ने उसे क ीिं तछपा रखा ै ।'

'इन् ीिं बातों पर तुमसे मेरा जी जलता ै , सारा घर तो पड़ा ै , दे ख क्यों न ीिं
लेत।े '

'दे खग
ूूँ ा तो मैं जरूर ी, लेककन तुमसे सीिे-सीिे पूछता ू ूँ, बतला लो, कौन था?'

सीना ने किंु ल्जयों का गच्


ु छा फेकते ु ए क ा, 'और कोई था तो घर ी में न
ोगा। लो सब जग दे ख आओ, सई तो ै न ीिं कक मैंने क ीिं तछपा दी ो।'
व शैतान इन चकमों में न आया, शायद प ले भी ऐसा ी चरका खा चुका था।

किंु ल्जयों का गच्


ु छा उठाकर सबसे प ले मेरी कोठरी के द्वार पर आया और
उसके ताले को खोलने की कोभशश करने लगा! गुच्छे में उस ताले की किंु जी न
थी कफर उसने क ा, 'इस कोठरी की किंु जी क ाूँ ै ?'

सीना ने बनावटी ताज्जब


ु से क ा, 'अरे , तो क्या उसमें कोई तछपा बैठा ै? व
तो लकडड़यों से भरी पड़ी ै ।'

'तम
ु किंु जी दे दो न।'

'तुम भी कभी-कभी पागलों के-से काम करने लगते ो, अिंिरे े में कोई साूँप-बबच्छू
तनकल आए तो, ना भैया, मैं उसकी किंु जी न दूँ ग
ू ी।'

'बला से साूँप तनकल आएगा, अच्छा ी ो, तनकल आए, इस बे याई की ल्जन्दगी


से तो मौत ी अच्छी!'

सीना ने इिर-उिर तलाश करके क ा, 'न जाने उसकी किंु जी क ाूँ रख दी, ख्याल
न ीिं आता।'

'इस कोठरी में तो मैंने प ले कभी ताला न ीिं दे खा।'

'मैं तो रोज लगाती ू ूँ, शायद कभी लगाना भूल गई ू ूँ , तो न ीिं क सकती।'

'तो तुम किंु जी न दोगी?'

'क ती तो ू ूँ इस वक्त न ीिं भमल र ी ै ।'

'क दे ता ू ूँ , कच्चा ी खा जाऊूँगा।'


अब तक तो मैं ककसी तर जब्त ककए खड़ा र ा। बार-बार अपने ऊपर गस्
ु सा आ
र ा था कक य ाूँ क्यों आया। न-जाने य शैतान कैसे पेश आए। क ीिं तैश में
आकर मार ी न डाले। मेरे ाथों में तो कोई छुरी भी न ीिं। या खुदा! अब तू ी
माभलक ै । दम रोके ु ए खड़ा था कक एक पल का भी मौका भमले, तो तनकल
भागूँू, लेककन जब उस मरदद
ू ने ककवाड़ो को जोर से थमथमाना शुरू ककया, तब
रू ी फना ो गई। इिर-उिर तनगा डाली कक ककसी कोने में तछपने की जग
ै या न ीिं। ककवाड़ के दराजों से कुछ रोशनी आ र ी थी! ऊपर जो तनगा उठाई,
तो एक मचान-सा हदखाई हदया। डूबते को ततनके का स ारा भमल गया।
उचककर चा ता था कक ऊपर चढ जाऊूँ कक मचान पर एक आदमी को बैठे
दे खकर उस ालत में मेरे मूँु से चीख तनकल गई। य जरत अचकन प ने,
घड़ी लगाए, एक खूबसूरत साफा बाूँिे उकडूूँ बैठे ु ए थे। अब मुझे मालूम ु आ
कक मेरे भलए दरवाजा खोलने में सीना ने इतनी दे र क्यों की थी। अभी इनको
दे ख ी र ा था कक दरवाजे पर मस
ू ल की चोटें पड़ने लगी। मामल
ू ी ककवाड़ तो थे
ी, तीन-चार चोटों में दोनों ककवाड़ नीचे आ धगरे और व मरदद
ू लालटे न भलए
कमरे में घुसा। उस वक्त मेरी क्या ालत थी, इसका अन्दाजा आप खुद कर
सकते ै , उसने मुझे दे खते ी लालटे न रख दी और मेरी गदय न पकड़कर बोला,
'अच्छा, आप य ाूँ तशरीफ रखते ै । आइए, आपकी कुछ खाततर करूूँ, ऐसे मे मान
रोज क ाूँ भमलते ै ।'

य क ते ु ए उसने मेरा एक ाथ पकड़कर इतने जोर से बा र की तरफ ढकेला


कक मैं आूँगन में जा धगरा। उस शैतान की आूँखों से अिंगारे तनकल र े थे।
मालूम ोता था, उसके ोंठ मेरा खून चूसने के भलए बढे आ र े ै । मैं अभी
जमीन से उठने भी न पाया था कक व कसाई एक बड़ा-सा तेज छुरा भलए मेरी
गदय न पर आ प ु ूँचा, मगर जनाब, मैं ू ूँ पुभलस का आदमी। उस वक्त एक चाल
सूझ गई। उसने मेरी जान बचा ली, वरना आज आपके साथ तािंगे पर न बैठा
ोता।
मैंने ाथ जोड़कर क ा, ' ु जरू , मैं बबककुल बेकसरू ू ूँ, मैं तो मीर सा ब के साथ
आया था।'

उसने गरजकर पूछा, 'कौन मीर सा ब?'

मैंने जी कड़ा करके क ा, 'व ी, जो मचान पर बैठे ु ए ै , मैं तो ु जूर का गुलाम


ठ रा, ज ाूँ ु क्म पाऊूँगा, उनके साथ जाऊूँगा, मेरी इसमें क्या खता ै ?'

'अच्छा, तो कोई मीर सा ब मचान पर भी तशरीफ रखते ै ?'

उसने मेरा ाथ पकड़ भलया और कोठरी में जाकर मचान पर दे खा। व जरत
भसमटे -भसमटाए, भीगी बबकली बने बैठे थे, चे रा ऐसा पीला पड़ गया था, गोया
बदन में जान ी न ीिं।

उसने उनका ाथ पकड़कर एक झटका हदया, तो वे िम-से नीचे आ धगरे । उनका


ठाठ दे खकर अब इसमें कोई शुब ा न र ा कक व मेरे माभलक ै । उनकी सरू त
दे खकर उसकर उस वक्त तरस के साथ ूँसी आती थी।

'तू कौन ै बे?'

'जी, मैं... मेरा मकान, य आदमी झूठा ै, य मेरा नौकर न ी ै ।'

'तू य ाूँ क्या करने आया था?'

'मझ
ु े य ी बदमाश (मेरी तरफ दे खकर) िोखा दे कर लाया था।'

'य क्यों न ीिं क ता कक मजे उड़ाने आया था, दस


ू रों पर इकजाम रखकर अपनी
जान बचाना चा ता ै , सूअर? ले, तू भी क्या समझेगा कक ककसके पाले पड़ा था।'

य क कर उसने उसी तेज छुरे से उन सा ब की नाक काट ली, मैं मौका पाकर
बेत ाशा भागा, लेककन ाय- ाय की आवाज मेरे कानों में आ र ी थी। इसके बाद
उन दोनों में कैसी छनी, सीना के भसर पर क्या आफत आई, इसकी मझ
ु े कुछ
खबर न ीिं। मैं तब से बीसों बार सदर आ चक
ु ा ू ूँ , पर उिर भल
ू कर भी न ीिं
गया। य पतथर फेंकनेवाले जरत व ी ै , ल्जनकी नाक कटी थी। आज न-जाने
क ाूँ से हदखाई पड़ गए और मेरी शामत आई कक उन् ें सलाम कर बैठा। आपने
उनकी नाक की तरफ शायद ख्याल न ीिं ककया।

मुझे अब ख्याल आया कक उस आदमी की नाक कुछ धचपटी थी। बोला, ' ाूँ, नाक
कुछ धचपटी तो थी। मगर आपने उस गरीब को बरु ा चरका हदया।'

'और करता भी क्या?'

'जरूर दबा दे त,े मगर चोर का हदल आिा ोता ै । उस वक्त अपनी-अपनी पड़ी
थी कक मुकाबला करने की सझ
ू ती। क ीिं उस रमझकलें में िर भलया जाता, तो
आबरू अलग जाती और नौकरी से अलग ाथ िोता। मगर अब इस आदमी से
ोभशयार र ना पड़ेगा।'

इतने में चौक आ गया और म दोनों ने अपनी-अपनी रा ली।

***
अभिलाषा

कल पड़ोस में बड़ी लचल मची। एक पान वाला अपनी स्त्री को मार र ा था।
व बेचारी बैठी रो र ी थी, पर उस तनदय यी को उस पर लेशमात्र भी दया न आती
थी। आखखर स्त्री को भी क्रोि आ गया। उसने खड़े ोकर क ा - 'बस, अब
मारोगे, तो ठीक न ोगा। आज से मेरा तुझसे कोई सम्बन्ि न ीिं, मैं भीख
मागूँग
ू ी, पर तेरे घर न आऊूँगी।' य क कर उसने एक परु ानी साड़ी उठाई और
घर से तनकल पड़ी।

परु
ु ष काठ के उकलू की तर खड़ा दे खता र ा। स्त्री कुछ दरू चलकर कफर लौटी
और दक
ु ान की सिंदक
ू ती खोलकर कुछ पैसे तनकाले। शायद अभी तक कुछ उसे
ममता थी, पर उस तनदय यी ने तुरन्त उसका ाथ पकड़कर पैसे छीन भलए। ाय
री हृदय ीनता! अबला स्त्री के प्रतत पुरुष का य अतयाचार! एक हदन इसी स्त्री
पर उसने प्राण हदए ोंगे, उसका मूँु जो ता र ा ोगा, पर आज इतना तनष्ठुर ो
गया ै , मानो कभी की जान-प चान ी न ीिं। स्त्री ने पैसे रख हदए और बबना
क े -सन
ु े चली गई। कौन जाने क ाूँ! मैं अपने कमरे की खखड़की से घिंटों दे खती
र ी कक शायद व कफर लौटे या शायद पानवाला ी उसे मनाने जाए, पर दो में
से एक बात भी न ु ई। आज मुझे स्त्री की सच्ची दशा का प ली बार ञा ान

ु आ। य दक
ु ान दोनों की थी। पुरुष तो मटरगश्ती ककया करता था, स्त्री रात-
हदन बैठी सती ोती थी। दस-ग्यार बजे रात तक मैं उसे दक
ु ान पर बैठी दे खती
थी। प्रातःकाल नीिंद खुलती, तब भी उसे ी बैठा पाती थी। नोच-खसोट, काट-कपट
ल्जतना परु
ु ष करता था, उससे कुछ अधिक ी स्त्री करती थी। पर परु
ु ष सब कुछ
ै , स्त्री कुछ न ीिं! परु
ु ष जब चा े उसे तनकाल बा र कर सकता ै!

इस समस्या पर मेरा धचतत इतना अशान्त ो गया कक नीिंद आूँखों से भाग गई।
बार बज गए और मैं बैठी र ी। आकाश पर तनमयल चाूँदनी तछटकी ु ई थी।
तनशानाथ अपने रतन-जहटत भसिं ासन पर गवय से फूले बैठे थे। बादल के छोटे -
छोट टुकड़े िीरे -िीरे चिंद्रमा के समीप आते थे और कफर ववकृत रूप में पथ
ृ क ो
जाते थे, मानो श्वेतवसना सिंद
ु ररयाूँ उसके ाथों दभलत और अपमातनत ोकर
रुदन करती ु ई चली जा र ी ों।

इस ककपना ने मुझे इतना ववकल ककया कक मैंने खखड़की बन्द कर दी और


पलिंग पर आ बैठी। मेरे वप्रयतम तनिंद्रा में मग्न थे। उनका तेजमय मख
ु मिंडल इस
समय मझ
ु े कुछ चिंद्रमा से ी भमलता-जल
ु ता मालम
ू ु आ। व ी स ास छवव थी,
ल्जससे मेरे नेत्र तप्ृ त ो जाते थे, व ी ववशाल वक्ष था, ल्जस पर भसर रखकर मैं
अपने अन्तराल में एक कोमल, मिुर कम्पन का अनुभव करती थी। व ी सुदृढ
बािं े थी, जो मेरे गले में पड़ जाती थी, तो मेरे हृदय में आनन्द की ह लोरें -सी
उठने लगती थी, पर आज ककतने हदन ु ए, मैंने उस मुख पर ूँसी की उज्जवल
रे खा न ीिं दे खी, न दे खने को धचतत व्याकुल ी ु आ। ककतने हदन ु ए, मैं उस वक्ष
पर भसर न ीिं रखा और न व बािं े मेरे गले में पड़ी।

क्यों? क्या मैं कुछ और ो गई, या पततदे व ी कुछ और ो गए। अभी कुछ
ब ु त हदन भी तो न ीिं बीते, कुल पाूँच साल ु ए ै - कुल पाूँच साल, जब पततदे व
ने ववकभसत नेत्रों और लालातयत अिरों से मेरा स्वागत ककया था। मैं लज्जा से
गदय न झुकाए ु ए थी। हृदय में ककतनी प्रबल उतकिंठा ो र ी थी कक उनकी मुख-
छवव दे ख लूँ ू, पर लज्जावश भसर न उठा सकती थी। आखखर एक बार मैंने
ह म्मत करके आूँखें उठाऊ और यद्यवप दृल्ष्ट आिे रास्ते से ी लौट आई, तो
भी उस अ्ध य दशयन से मुझे जो आनन्द भमला, क्या उसे कभी भूल सकती ू ूँ। व
धचत्र अब भी मेरे हृदय-पट पर खखिंचा ु आ ै । जब कभी उसका स्मरण आ जाता
ै , हृदय पुलककत ो उठता ै । उस आनन्द-स्मतृ त में अब भी व ी गुदगुदी, व ी
सनसनी ै । लेककन अब रात-हदन उस छवव के दशयन करती ू ूँ , उषाकाल,
प्रातःकाल, मध्याह्नकाल, सिंध्याकाल, तनशाकाल आठों प र उसको दे खती ू ूँ , पर
हृदय में गुदगुदी न ीिं ोती, व मेरे सामने खड़े मुझसे बातें ककया करते ै । मैं
क्रोभशए की ओर दे खती र ती ू ूँ , जब व घर से तनकलते थे, तो मैं द्वार पर
आकर खड़ी ो जाती थी। मैं तीसरे प र कोठे पर चढ जाती थी और उनके आने
की बाट जो ने लगती थी। उनको दरू से आते दे खकर मैं उन्मतत-सी ो जाती
और द्वार पर जाकर उनका अभभवादन करती। पर अब मझ
ु े य भी न ीिं मालम

ोता कक व कब जाते और कब आते ै , जब बा र का द्वार बन्द ो जाता ै
तो समझ जाती ू ूँ कक व चले गए। जब द्वार खुलने की आवाज आती ै , तो
समझ जाती ू ूँ कक आ गए। समझ में न ीिं आता कक मैं ी कुछ और ो गई या
पततदे व ी कुछ और ो गए।

तब व घर में ब ु त न आते थे, जब उनकी आवाज कानों में आ जाती तो दे


में बबजली-सी दौड़ जाती थी। उनकी छोटी-छोटी बातें छोटे -छोटे काम को भी मैं
अनुरक्त, मुग्ि नेत्रों से दे खा करती थी। व जब छोटे लाला को गोद में उठाकर
प्यार करते थे, जब टामी का भसर थपथपाकर उसे भलटा दे ते थे , जब बूढी
भल्क्ततन को धचढाकर बा र भाग जाते थे, जब बाल्कटयों में पानी भर-भर पौिों
को सीिंचते थे, तब ये आूँखें उसी ओर लगी र ती थीिं, पर अब व सारे हदन घर
में र ते ै , मेरे सामने ूँसते ै , बोलते ै , मुझे खबर भी न ीिं ोती। न जाने क्यों?

तब ककसी हदन उन् ोंने फूलों का एक गल


ु दस्ता मेरे ाथ में रख हदया था और
मस्
ु कराए थे। व प्रणय का उप ार पाकर मैं फूली न समाई थी। केवल थोड़े-से
फूल और पल्ततयाूँ थी, पर उन् ें दे खने से मेरी आूँखें ककसी भाूँतत तप्ृ त ी न
ोती। कुछ दे र ाथ में भलए र ी, कफर अपनी मेज पर फूलदान रख हदया। कोई
काम करती ोती, तो बार-बार आकर उस गुलदस्ते को दे ख जाती। ककतनी बार
उसे आूँखों से लगाया। ककतनी बार उसे चूमा! कोई एक लाख रुपए भी दे ता, तो
उसे न दे ती। उसकी एक-एक पिंखड़ी मेरे भलए एक रतत थी। जब व मरु झा
गया, तो मैंने उसे उठाकर अपने बक्से में रख हदया था। तब से उन् ोंने मुझे
जारों चीजें उप ार में दी ै - एक-से-एक रतनजहटत आभूषण ैं, एक-से-एक
ब ु मूकय वस्त्र ै और गुलदस्ते तो प्रायः तनतय ी लाते ै । लेककन इन चीजों को
पाकर व उकलास न ीिं ोता। मैं उन चीजों को प नकर आईने में अपना रूप
दे खती ू ूँ और गवय से फूल उठती ू ूँ। अपनी मजोभलयों को हदखाकर गौरव और
उनकी ईष्याय बढाती ू ूँ। बस।
अभी थोड़े ी हदन ु ए, उन् ोंने मझ
ु े चन्द्र ार हदया ै । जो दे खता ै , मोह त ो
जाता ै । मैं भी उसकी बनावट और सजावट पर मग्ु ि ू ूँ । मैंने अपना सिंदक

खोलो और उस गुलदस्ते को तनकाल लाई। आ ! उसे ाथ में लेते ी मेरी एक-
एक नस में बबजली दौड़ गई। हृदय के सारे तार कल्म्पत ो गए। उसके सूख,
मुरझाए ु ए मुखों के अस्फुहटत कल्म्पत, अनुराग में डूबे शब्द सायिं-सायिं करके
तनकलते ु ए जान पड़ते थे। ककन्तु व रतनजहटत, कािंतत से दमकता ु आ स्वणय
और पतथरों का एक समू था, ल्जसमें प्राण न थे, सिंञा ा न थी, ममय न था। मैंने
कफर गल
ु दस्ते को चम
ू ा, किंठ से लगाया, आद्रय नेत्रों से सीिंचा और कफर सन्दक
ू में
रख आई। आभूषणों से भरा सन्दक
ू भी उस एक स्मतृ त-धचह्न के सामने तुच्छ
था। य क्या र स्य था?

कफर मझ
ु े उनके परु ाने पत्र की याद आ गई। उसे उन् ोंने कॉलेज से मेरे पास
भेजा था। उसे पढकर मेरे हृदय में जो आनन्द ु आ था, जो तूफान उठा था,
आूँखों से जो नदी ब ी थी, क्या उसे कभी भूल सकती ू ूँ। उस पत्र को मैंने
अपनी सो ाग की वपटारी में रख हदया था। इस समय उस पत्र को पढने की
प्रबल इच्छा ु ई। मैंने वपटारी से व पत्र तनकाला। उसे स्पशय करते ी मेरे ाथ
काूँपने लगे, हृदय में िड़कन ोने लगी। मैं ककतनी दे र से उसे ाथ में भलए खड़ी
र ी, क न ीिं सकती। मुझे मालूम ु आ कक मैं कफर व ी ो गई, जो पत्र पाते
समय थी। जब पत्र में क्या प्रेम के कववततमय उद्गार थे? क्या प्रेम की साह तय
वववेचना थी। क्या ववयोग-व्यथा का करूण क्रन्दन था? उसमें तो प्रेम का एक
शब्द भी न था। भलखा था - 'काभमनी, तुमने आठ हदनों से कोई पत्र क्यों न ीिं
भलखा, क्यों न ीिं भलखा? अगर तुम पत्र न भलखोगी, तो मैं ोली की छुहट्टयों में घर
न आऊूँगा, इतना समझ लो। आखखर सारे हदन क्या करती ो! मेरे उपन्यासों की
आलमारी खोल ली ै क्या? आपने मेरी आलमारी क्यों खोली? समझती ोगी, मैं
पत्र न भलखूग
ूँ ी तो खूब रोएूँगे और ै रान ोंगे। य ाूँ इसकी परवा न ीिं। नौ बजे
रात सोता ू ूँ, तो आठ बजे उठता ू ूँ। कोई धचन्ता ै , तो य ी कक फेल न ो
जाऊूँ। अगर फेल ु आ तो तुम जानोगी।'
ककतना सरल, भोले-भाले हृदय से तनकला ु आ, तनष्कपट मानपण
ू य आग्र और
आतिंक से पत्र भरा ु आ था, मानो उसका सारा उततरदातयतव मेरे ी ऊपर था।
ऐसी िमकी क्या अब भी मुझे दे सकते ै ? कभी न ीिं। ऐसी िमकी व ी दे
सकता ै , जो न भमल सकने की व्यथा को जानता ो, उसका अनुभव करता ो।
पततदे व अब जानते ै , इस िमकी का मुझ पर कोई असर न ोगा। मैं ूँसूँग
ू ी
और आराम से सोऊूँगी क्योंकक मैं जानती ू ूँ , व अवश्य आएूँगे और उनके भलए
हठकाना ी क ाूँ ै ? जा ी क ाूँ सकते ै ? तब से उन् ोंने मेरे पास ककतने पत्र
भलखे ै । दो-हदन को भी बा र जाते ै , तो जरूर एक पत्र भेजते ै , और जब दस-
पाूँच हदन को जाते ै , तो तनतय एक पत्र आता ै । पत्रों में प्रेम के चुने ु ए शब्द,
चुने ु ए वाक्य, चुने ु ए सम्बोिन भरे ोते ै।

मैं उन् ें पढती ू ूँ और ठिं ड़ी साूँस लेकर रख दे ती ू ूँ। ाय! व हृदय क ाूँ गया?
प्रेम के इन तनजीव भावशून्य कृभमत्र शब्दों में व अभभन्नता क ाूँ ै, व रस
क ाूँ ै, व उन्माद क ाूँ ै, व क्रोि क ाूँ ै? व झुिंझला ट क ाूँ ै ? उनमें मेरा
मन कोई वस्तु खोजता ै , कोई अञा ात, अव्यक्त, अलक्षक्षत वस्तु, पर व न ीिं
भमलती। उनमें सुगन्ि भरी ोती ै , पत्रों के कागज आटय -पेपर को मात करते ै ,
पर उनका य सारा बनाव-सिंवार ककसी गतयौवना नातयका के बनाव-भसिंगार के
सदृश ी लगता ै । कभी-कभी तो मैं पत्रों को खोलती भी न ीिं। मैं जानती ू ूँ ,
उनमें क्या भलखा ोगा।

उन् ीिं हदनों का बात ै , मैंने तीज का व्रत ककया था। मैंने दे वी के सम्मुख भसर
झुकाकर वन्दना की थी - 'दे वी, मैं तुमसे केवल एक वरदान माूँगती ू ूँ। म दोनों
प्राखणयों में कभी ववच्छे द न ो, और मुझे कोई अभभलाषा न ीिं। मैं सिंसार की
और कोई वस्तु न ीिं चा ती।' तब से चार साल ो गए ै औऱ ममें एक हदन
का भी ववच्छे द न ीिं ु आ। मैंने तो केवल एक वरदान माूँगा था। दे वी ने वरदानों
का भिंडार ी मुझे सौंप हदया। पर आज मुझे दे वी के दशयन ों, तो मैं उनसे क ू ूँ
तुम अपने सारे वरदान ले लो। मैं इनमें से एक भी न ीिं चा ती। कफर व ी हदन
दे खना चा ती ू ूँ , जब हृदय में प्रेम की अभभलाषा थी। तम
ु ने सब कुछ दे कर मझ
ु े
उस अतल
ु सख
ु से विंधचत कर हदया, जो अभभलाषा में था। मैं अबकी दे वी से व
हदन हदखाने की प्राथयना करूूँ, जब मैं ककसी तनजयन जलतट पर और सघन वन में
अपने वप्रयतम को ढूूँढती कफरूूँ। नदी की ल रों से क ू ूँ, मेरे वप्रयतम को तुमने
दे खा ै ? वक्ष
ृ ों से पूछूूँ, मेरे वप्रयतम क ाूँ गए?

क्या व सुख मुझे कभी प्राप्त ोगा? उसी समय मन्द, शीतल पवन चलने लगी।
मैं खखड़की के बा र भसर तनकाले खड़ी थी। पवन के झोंके से मेरे केश की लटें
बबखरने लगी। मुझे ऐसा आभास ु आ, मानो मेरे वप्रयतम वायु के इन उच्छवासो
में ै । कफर मैंने आकाश की ओर दे खा। चाूँद की ककरणें चािंदी के जगमगाते तारों
की भाूँतत आूँखों से आूँखभमचौली-सी खेल र ी थीिं। आूँखें बन्द करते समय सामने
आ जातीिं, पर आूँखें खोलते ी अदृश्य ो जाती थीिं। मझ
ु े उस समय ऐसा आभास

ु आ कक मेरे वप्रयतम उन् ीिं जगमगाते तारों पर बैठे आकाश से उतर र े ै । उसी
समय ककसी ने गाया -

अनोखे-से ने ी के तयाग,
तनराले पीड़ा के सिंसार!
क ाूँ ोते ो अन्त्ध ायन,
लुटा करके सोने-सा प्यार!

'लुटा करके सोने-सा प्यार,' य पद मेरे ममयस्थल को तीर की भाूँतत छे दता ु आ


क ाूँ चला गया, न ीिं जानती। मेरे रोएूँ खड़े ो गए। आूँखों से आूँसुओिं की झड़ी
लग गई। ऐसा मालम
ू ु आ, जैसे कोई मेरे वप्रयतम को मेरे हृदय से तनकाले भलए
जाता ै । मैं जोर से धचकला पड़ी, उस समय पततदे व की नीिंद टूट गई।

व मेरे पास आकर बोले - 'क्या अभी तुम धचकलाई? अरे ! तुम रो र ी ो? क्या
बात ै ? कोई स्वप्न तो न ीिं दे खा?'

मैंने भससकते ु ए क ा - 'रोऊूँ न, तो क्या ूँसूँू?'


स्वामी ने मेरा ाथ पकड़कर क ा - 'क्यों, रोने का कोई कारण ै , या यों ी रोना
चा ती ो?'

'क्या मेरे रोने का कारण तुम न ीिं जानते?'

'मैं तम्
ु ारे हदल की बात कैसे जान सकता ू ूँ ?'

'तुमने जानने की चेष्टा कभी की ै ?'

'मुझे इसका सान-गुमान भी न था कक तुम् ारे रोने का कोई कारण ो सकता


ै ।'

'तम
ु ने तो ब ु त पढा ै , क्या तम
ु भी ऐसी बात क सकते ो?'

स्वामी ने ववस्मय में पड़कर क ा - 'तुम तो प े भलयाूँ बुझवाती ो?'

'क्यों, क्या तुम कभी न ीिं रोते?'

'मैं क्यों रोने लगा।'

'तुम् ें अब कोई अभभलाषा न ीिं ै ?'

'मेरी सबसे बड़ी अभभलाषा पूरी ो गई, अब मैं और कुछ न ीिं चा ता।'

य क ते ु ए पततदे व मस्
ु कराए और मझ
ु े गले से भलपटा लेने को बढे । उनकी
य हृदय ीनता इस समय मुझे ब ु त बुरी लगी। मैंने उन् ें ाथों से पीछे टाकर
क ा - 'मैं इस स्वािंग को प्रेम न ीिं समझती। जो कभी रो न ीिं सकता, व प्रेम
न ीिं कर सकता। रुदन और प्रेम, दोनों एक ी स्रोत से तनकलते ै ।' उसी समय
कफर उसी गाने की ध्वतन सुनाई दी -
अनोखे-से ने ी के तयाग,
तनराले पीड़ा के सिंसार!
क ाूँ ोते ो अन्त्ध ायन,
लुटा करके सोने-सा प्यार!

पततदे व की व मस्
ु करा ट लप्ु त ो गई। मैंने उन् ें एक बार काूँपते दे खा। ऐसा
जान पड़ा, उन् ें रोमािंच ो र ा ै । स सा उनका दाह ना ाथ उठकर उनकी छाती
तक गया। उन् ोंने लम्बी साूँस ली और उनकी आूँखों से आूँखू की बूँद
ू ें तनकलकर
गालों पर आ गई। तुरन्त मैंने रोते ु ए उनकी छाती पर भसर रख हदया और उस
परम सुख का अनुभव ककया, ल्जसके भलए ककतने हदनों से मेरा हृदय तड़प र ा
था। आज कफर मुझे पततदे व का हृदय िड़कता ु आ सुनाई हदया। आज उनके
स्पशय में कफर स्फूततय का आभास ु आ। अभी तक उनके पद के शब्द मेरे हृदय
में गूँज
ू र े थे -

क ाूँ ोते ो अन्त्ध ायन,


लट
ु ा करके सोने-सा प्यार!

***
खुचड़

बाबू किंु दनलाल कच री से लौटे , तो दे खा कक उनकी पतनी एक किंु जडड़न से कुछ


साग-भाजी ले र ी ै । किंु जडड़न पालक टके सेर क ती ै, व डेढ पैसे दे र ी ै।
इस पर कई भमनट तक वववाद ोता र ा। आखखर कुजडड़न डेढ पैसे पर राजी ो
गई। अब तराजू और बाट का प्रश्न तछड़ा। दोनों पकले बराबर न थे। एक में
पसिंगा था। बाट भी परू े न उतरते थे। पड़ोभसन के घर से सेर आया। साग तल

जाने के बाद अब घाटे का प्रश्न उठा। पतनीजी और माूँगती थीिं, कुजडड़न क ती
थी, अब क्या सेर दो सर घाटे में ी ले लोगी ब ू जी। खैर, आिा घिंटे में व सौदा
पूरा ु आ, और कुजडड़न कफर कभी न आने की िमकी दे कर बबदा ो गई।
किंु दनलाल खड़े-खड़े य तमाशा दे खते र े ।

किंु जडड़न के जाने के बाद पतनीजी लोटे में पानी लाई तो उन् ोंने क ा - 'आज तो
तुमने जरा-सा साग लेने में परू ा आिा घिंटा लगा हदया। इतनी दे र में तो जार-
पाूँच सौ का सौदा ो जाता, जरा से साग के भलए इतनी ठाूँय-ठाूँय करने करने में
तम्
ु ारा भसर भी न ीिं दख
ु ता?'

रामेश्वरी ने कुछ लल्ज्जत ोकर क ा, 'पैसे मुफ्त में तो न ीिं आते!'

किंु दनलाल ने क ा, 'य ठीक ै लेककन समय का भी कुछ मक


ू य ै , इतनी दे र में
तुमने बड़ी मुल्श्कल से एक िेले की बचत की, किंु जडड़न ने भी हदल में क ा ोगा
क ाूँ की ग्वाररन ै , अब शायद भूलकर भी इिर न आए।'

'तो, कफर मुझसे तो य न ीिं ो सकता कक पैसे की जग िेले का सौदा लेकर


बैठ जाऊूँ'

किंु दनलाल ने क ा, 'इतनी दे र में तम


ु ने कम-से-कम 20 पन्ने पढे ोते, कल म री
से घिंटो भसर मारा, परसो दि
ू वाले के साथ घिंटो शास्त्राथय ककया, ल्जन्दगी क्या
इन् ीिं बातों में खचय करने को दी गई ै ?'
किंु दनलाल प्रातः तनतय ी पतनी को सदप
ु दे श दे ते र ते थे, य उनका दस
ू रा
वववा था। रामेश्वरी को आए अभी दो ी म ीने ु ए थे। अब तब तो बड़ी
ननदजी ऊपर के काम ककया करती थी। रामेश्वरी की उससे न पटी। उसको
मालम
ू ोता था, य मेरा सवयस्व ी लट
ु ाए दे ती ै । आखखर व ी चली गई। तब
से रामेश्वेरी घर की स्वाभमनी ै, व ब ु त चा ती ै कक पतत को प्रसन्न रखे।
उनके इशारों पर चलती थी, एक बार जो बात सुन लेती ै , गाूँठ बाूँि लेती ै , पर
रोज ी तो कोई नई बात ो जाती ै , और किंु दनलाल को उसे उपदे श दे ने का
अवसर भमल जाता ै।

एक हदन बबकली दि
ू पी गई। रामेश्वरी दि
ू गमय करके लाई और स्वामी के
भसर ाने रखकर पान बना र ी थी कक बबकली ने दि
ू पर अपना ईश्वरप्रदतत
अधिकार भस्ध कर हदया। रामेश्वरी य अप रण स्वीकार न सकी। डिंडा लेकर
बबकली को इतने जोर से मारा कक व दो-तीन लुढकतनयाूँ खा गई। किंु दनलाल
लेटे-लेटे अखबार पढते ु ए बोले - 'और जो मर जाती?'

रामेश्वरी ने हढठाई के साथ क ा, 'तो मेरा दि


ू क्यों पी गई?'

'उसे मारने से दि
ू भमल तो न ीिं गया?'

'जब कोई नुकसान कर दे ता ै , तो उस पर क्रोि आता ी ै ।'

'न आना चाह ए, पशु के साथ आदमी भी क्यो पशु ो जाए? आदमी और पशु में
इसके भसवा और क्या अन्तर ै ?'

किंु दनलाल कई भमनट तक दया, वववेक और शाल्न्त की भशक्षा दे ते र े , य ाूँ तक


कक बेचारी रामेश्वरी मारे ग्लातन के रो पड़ी।
इस भाूँतत एक हदन रामेश्वरी ने एक भभक्षुक को दतु कार हदया, तो बाबू सा ब ने
कफर उपदे श दे ना शुरू ककया और बोले - 'तम
ु से न उठा जाता ो, तो लाओ मैं दे
आऊूँ, गरीब को यों न दतु कारना चाह ए।'

रामेश्वरी ने तयौररयाूँ चढाते ु ए क ा -'हदन भर तो ताूँता लगा र ता ै , कोई


क ाूँ तक दौड़े, सारा दे श भभखमिंगों ी से भर गया ै शायद'

किंु दनलाल ने उपेक्षा के भाव से मुस्कराकर क ा - 'उसी दे श में तो तुम भी


बसती ो!'

'इतने भभखमिंगे आ क ाूँ से जाते ैं? ये सब काम क्यों न ीिं करते?'

'कोई आदमी इतना नीच न ीिं ोता, जो काम भमलने पर भीख माूँगे। ाूँ, अपिंग
ो, तो दस
ू री बात ै, अपिंगों का भीख के भसवा और क्या स ारा ो सकता ै ?'

'सरकार इनके भलए अनाथालाय क्यों न ीिं खल


ु वाती?'

'जब स्वराज्य ो जाएगा, तब शायद खुल जाएूँ, अभी तो कोई आशा न ीिं ै मगर
स्वराज भी िमय ी से आएगा।'

'लाखों सािु-सिंन्यासी, पिंड़-े पुजारी मुफ्त का माल उड़ाते ै , क्या इतना िमय काफी
न ीिं ै ? अगर इस िमय में से स्वराज्य भमलता, तो कब का भमल चुका ोता।'

'इसी िमय का प्रसाद ै कक ह न्द-ू जातत अभी तक जीववत ै , न ीिं तो कब की


रसातल प ु ूँच चुकी ोती। रोम, यूनान, ईरान, सीररया ककसी का अब तनशान भी
न ीिं ै। य ह न्द-ू जातत ै , जो अभी तक समय के क्रूर आघातों का सामना
करती चली जाती ै ।'
'आप समझते ोंगे, ह न्द-ू जातत जीववत ै , मै तो उसे उसी हदन से मरा ु आ
समझती ू ूँ , ल्जस हदन से व अिीन ो गई। जीवन स्वािीनता का नाम ै,
गुलामी तो मौत ै ।'

किंु दनलाल ने यव
ु ती को चककत नेत्रो से दे खा, ऐसे ववद्रो ी ववचार क ाूँ से आ गए?
दे खने में तो व बबलकुल भोली थी। समझ गया, क ीिं सन
ु -सन
ु ा भलया ोगा।

किंु दनलाल कठोर ोकर बोले - 'क्यों व्यथय वववाद करती ो, लजाती तो न ीिं, ऊपर
से और बक-बक करती ो।'

रामेश्वरी य फटकार पाकर चुप ो गई, एक क्षण व ाूँ खड़ी र ी, कफर िीरे -िीरे
कमरे से चली गई।

एक हदन किंु दनलाल ने कई भमत्रों की दावत की। रामेश्वरी सबेरे से रसोई में घस
ु ी
तो शाम तक भसर न उठा सकी। उसे य बेगार बरु ी मालम
ू ो र ी थी। अगर
दोस्तों की दावत करनी थी तो खाना बनवाने का कोई प्रबन्ि क्यों न ीिं ककया?
सारा बोझ उसी के भसर क्यों डाल हदया! उससे एक बार पूछ भलया ोता कक
दावत करूूँ या न करूूँ। ोता तब भी य ी, जो अब ो र ा था। व दावत के
प्रस्ताव का बड़ी खुशी से अनुमोदन करती, तब व समझती, दावत मैं कर र ी

ू ूँ। अब समझ र ी थी, मझ


ु से बेगार ली जा र ी ै । खैर, भोजन तैयार ु आ, लोगों
ने भोजन ककया और चले गए, मगर मिंश
ु ीजी मूँु फुलाए बैठे ु ए थे।

रामेश्वरी ने क ा - 'तुम क्यों न ीिं खा लेत,े क्या अभी सबेरा ै ?'

बाबू सा ब ने आूँखें फाड़कर क ा - 'क्या खा लूँ ,ू य खाना ै या बैलों की सानी!'


रामेश्वरी के भसर से पाूँव तक आग लग गई। सारा हदन चक
ू े के सामने जली,
उसका य परु स्कार! बोली - 'मझ
ु से जैसा ो सका बनाया, जो बात अपने बस
की न ीिं ै , उसके भलए क्या करती?'

'पडू ड़याूँ सब सेवर ै !'

' ोंगी।'

'कचौड़ी में इतना नमक था ककसी ने छुआ तक न ीिं।'

' ोगा।'

' लुआ अच्छी तर भुना न ीिं- कचाइयाूँ आ र ी थी।'

'आती ोंगी।'

'शोरबा इतना पतला था, जैसे चाय।'

' ोगा।'

'स्त्री का प ला िमय य ै कक व रसोई के काम में चतुर ो।'

कफर उपदे शों का तार बूँिा, य ाूँ तक कक रामेश्वरी ऊब कर चली गई!

पाूँच-छः म ीने गुजर गए, एक हदन किंु दनलाल के एक दरू के सम्बन्िी उनसे
भमलने आए। रामेश्वरी को ज्यों ी उनकी खबर भमली, जलपान के भलए भमठाई
भेजी, और म री से क ला भेजा - 'आज य ीिं भोजन कील्जएगा।'
व म ाशय फूले न समाए। बोररयाूँ-बूँिना लेकर प ु ूँच गए और डेरा डाल हदया,
एक फ्ता गज
ु र गया, व टलने का नाम भी न ीिं लेते, आवभगत में कोई कमी
ोती, तो शायद उन् ें कुछ धचिंता ोती, पर रामेश्वरी उनके सेवा-सतकार में जी-
जान से लगी ु ई थी। कफर व भला क्यों टने लगे।

एक हदन किंु दनलाल ने क ा, 'तम


ु ने य बरु ा रोग पाला।'

रामेश्वरी ने चौंककर पूछा - 'कैसा रोग?'

'इन् ें टलने क्यों न ीिं दे ती?'

'मेरा क्या बबगाड़ र े ै ?'

'कम-से-कम एक रुपया की रोज चपत दे र े ै , और अगर य ी खाततरदारी र ी,


तो शायद जीते-जी टलें गे भी न ीिं।'

'मुझसे तो य न ीिं ो सकता कक कोई दो-चार हदन के भलए आ जाए, तो उसके


भसर ो जाऊूँ, जब तक उनकी इच्छा ो र ें ।'

'ऐसे मुफ्तखोरों का सतकार करना पाप ै । अगर तुमसे इतना भसर न चढाया
ोता, तो अब तक लम्बा ु आ ोता। जब हदन में तीन बार भोजन और पचासों
बार पान भमलता ै , तो उसे कुतते ने काटा ै , जो अपने घर जाए।'

'रोटी का चोर बनना तो अच्छा न ीिं! '

'कुपात्र और सप
ु ात्र का ववचार तो कर लेना चाह ए। ऐसे आलभसयों को खखलाना-
वपलाना वास्तव में उन् ें ज र दे ना ै , ज र से तो केवल प्राण तनकल जाते ै ,
य खाततरदारी तो आतमा का सवयनाश कर दे ती ै । अगर य जरत म ीने भर
भी य ाूँ र गए, तो कफर ल्जन्दगी-भर के भलए बेकार ो जाएूँगे, कफर इनसे कुछ
न ोगा और इसका सारा दोष तुम् ारे भसर ोगा।'
तकय का ताूँता बूँि गया। प्रमाणों की झड़ी लग गई। रामेश्वरी खखभसयाकर चली
गई। किंु दनलाल उससे कभी सन्तुष्ट भी ो सकते ै , उनके उपदे शों की वषाय कभी
बन्द भी ो सकती ै, य प्रश्न उसके मन में बार-बार उठने लगा।

एक हदन दे ात से भैस का ताजा घी आया। इिर म ीनों से बाजार का घी


खाते-खाते नाक में दम ो र ा था। रामेश्वरी ने उसे खौलाया, उसमें लौंग डाली
और क ाड़ से तनकालकर एक मटकी में रख हदया। उसके सोंिी-सोंिी सुगन्ि से
सारा घर म क र ा था। म री चौका-बतयन करने आई तो उसने चा ा कक मटकी
चौके से उठाकर छीिंके या आले पर रख दे । पर सिंयोग का बात, उसने मटकी
उठाई, तो व ाथ से छूटकर धगर पड़ी। सारा घी ब गया।

िमाका सुनकर रामेश्वरी दौड़ी, तो म री खड़ी रो र ी थी और मटकी चूर-चूर ो


गई थी। रामेश्वरी तड़ककर बोली - 'मटकी कैसे टूट गई? मैं तेरी तलब से काट
लूँ ग
ू ी, राम-राम सारा घी भमट्टी में भमला हदया! तेरी आूँखें फूट गई थी क्या? ाथों
में दम न ीिं था? इतनी दरू से मूँगाया, इतनी मे नत से गमय ककया, मगर एक बिंद

भी गले के नीचे न गया, अब खड़ी बबसरू क्या र ी ै , जा अपना काम कर।'

म री ने आूँसू पोंछकर क ा - 'ब ू जी, अब तो चूक ो गई, चा े तलब काटो, चा े


जान से मारो, मैंने तो सोचा उठाकर आले पर रख दूँ ,ू तो चौका लगाऊूँ, क्या
जानती थी कक भाग्य में य भलखा ै , न जाने ककसका मूँु दे खकर उठी थी।'

रामेश्वरी बोली, 'मैं कुछ न ीिं जानती, सब रुपए तेरी तलब से वसूल कर लूँ ग
ू ी, एक
रुपया जरु माना न ककया तो क ना।'

म री बोली - 'मर जाऊूँगी सरकार, क ीिं एक पैसे का हठकाना न ीिं ै।'


रामेश्वरी बोली - 'मर जा या जी जा, मैं कुछ न ीिं जानती।'

म री ने एक भमनट तक कुछ सोचा और बोली - 'अच्छा, काट लील्जएगा सरकार,


आपसे सबर न ीिं ोता, मैं सबर कर लूँ ग
ू ी, य ी न ोगा, भूखों मर जाऊूँगी, जीकर
ी कौन-सा सख
ु भोग र ी ू ूँ कक मरने से डरूूँ। समझ लूँ ग
ू ी, एक म ीना काम
न ीिं ककया, आदमी से बड़ा-बड़ा नक
ु सान ो जाता ै, य तो घी ी था।'

रामेश्वरी को एक ी क्षण में म री पर दया आ गई! बोली - 'तू भूखों मर


जाएगीस तो मेरा काम कौन करे गा?'

म री बोली - 'काम कराना ोगा, खखलाइगा, न काम करना ोगा, भूखों माररएगा,
आज से आकर आप ी के द्वार पर सोया करूूँगी।'

रामेश्वरी बोली -'सच क ती ू ूँ , आज तूने बड़ा नुकसान कर डाला।'

म री बोली - 'मैं तो आप ी पछता र ी ू ूँ , सरकार।'

रामेश्वरी बोली - 'जा गोबर से चौका लीप दे , मटकी के टुकड़े दरू फेंक दे , और
बाजार से घी लेती आ।'

म री ने खुश ोकर चौका लीपा और मटकी के टुकड़े बटोर र ी थी कक


किंु दनलाल आ गए, और ािंड़ी टूटी दे खकर बोले, 'य ािंड़ी कैसे टूट गई?'

रामेश्वरी ने क ा - 'म री उठाकर ऊपर रख र ी थी, उसके ाथ से छूट पड़ी।'

किंु दनलाल ने धचकलाकर क ा - 'तो सब घी ब गया?'

'और क्या कुछ बच भी र ा।'

'तुमने म री से कुछ क ा न ीिं?'


'क्या क ती? उसने जान-बझ
ू कर तो धगरा न ीिं हदया?'

'य नुकसान कौन उठाएगा?'

' म उठाएिंगे, और कौन उठाएगा। अगर मेरे ाथ से छूट पड़ती तो क्या ाथ काट
लेती।'

किंु दनलाल ने ोंट चबाकर क ा, 'तम्


ु ारी कोई बात मेरी समझ में न ीिं आती,
ल्जसने नुकसान ककया ै , उससे वसूल ोना चाह ए, य ी ईश्वरीय तनयम ै , आूँख
की जग आूँख, प्राण के बदले प्राण य ईसामसी -जैसे दयालु पुरुष का कथन
ै । अगर दिं ड का वविान सिंसार से उठ जाए, तो य ाूँ र े कौन? सारी प्
ृ वी रक्त
से लाल ो जाए, तयारे हदनद ाड़े लोगों का गला काटने लगे, दिं ड ी से समाज
की मयायदा कायम ै , ल्जस हदन दिं ड न र े गा, सिंसार न र े गा। मनु आहद
स्मतृ तकार बेवकूफ न ीिं थे कक दिं ड-न्याय को इतना म ततव दे गए और ककसी
ववचार से न ीिं, तो मयायदा की रक्षा के भलए दिं ड अवश्य दे ना चाह ए, ये रुपए
म री को दे ने पड़ेगे, उसकी मजदरू ी काटनी पड़ेगी, न ीिं तो आज उसने घी का
घड़ा लुढका हदया ै , कल कोई और नुकसान कर दे गी।'

रामेश्वरी ने डरते-डरते क ा - 'मैंने तो उसे क्षमा कर हदया ै ।'

म री द्वार पर खड़ी य वववाद सन


ु र ी थी। जब उसने दे खा कक किंु दनलाल का
क्रोि बढता जाता ै और मेरे कारण रामेश्वरी को घड़
ु ककयाूँ सन
ु नी पर र ी ै , तो
व सामने जाकर बोली - 'बाबज
ू ी, अब तो कसूर ो गया, अब सब रुपए मेरी
तलब से काट लील्जए, रुपए न ीिं ै , न ीिं तो अभी लाकर आपके ाथ पर रख
दे ती।'

रामेश्वरी ने उसे घुड़ककर क ा - 'जा भाग य ाूँ से, तू क्या करने आई, बड़ी
रुपएवाली बनी ै !'
किंु दनलाल ने पतनी को कठोर नेत्रों से दे खकर क ा - 'तम
ु क्यों उसकी वकालत
कर र ी ो, य मोटी-सी बात ै और इसे एक बच्चा भी समझता ै कक जो
नुकसान करता ै , उसे दिं ड भोगना पड़ता ै , मैं क्यों पाूँच रुपए का नुकसान
उठाऊूँ? बेवज ? क्यों न ीिं इसने मटके को सिंभालकर पकड़ा, क्यों इतनी जकदबाजी
की, क्यों तुम् ें बुलाकर मदद न ीिं ली? य साफ इसकी लापरवा ी ै ।'

य क ते ु ए किंु दनलाल बा र चले गए।

रामेश्वरी इस अपमान से आ त ो उठी। डाूँटना ी था, तो कमरे में बल


ु ाकर
एिंकान्त में डाूँटते। म री के सामने उसे रुई की तर िन
ु डाला। उसकी समझ
ी में न आता था, य ककस स्वभाव के आदमी ै । आज एक बात क ते ै , कल
उसी को काटते ै , जैसे कोई झक्की आदमी ो। क ाूँ तो दया और उदारता के
अवतार बनते थे, क ाूँ आज पाूँच रुपए के भलए प्राण दे ने लगे। बड़ा मजा आ
जाए, कल म री बैठी र े । कभी तो इनके मुख से प्रसन्नता का एक शब्द
तनकला ोता! अब मझ
ु े भी अपने स्वभाव को बदलना पड़ेगा! य सब मेरे सीिे
ोने का फल ै । ज्यों-ज्यों मैं तर दे ती ू ूँ , आप जामे से बा र ोते ै , इसका
इलाज य ी ै कक एक क ें , तो दो सुनाऊूँ। आखखर कब तक और क ाूँ तक स ू ूँ।
कोई द भी ै ! जब दे खो डाूँट र े ै , ल्जसके भमजाज को कुछ पता ी न ो, उसे
कौन खुश रख सकता ै । उस हदन जरा-सा बबकली को मार हदया, तो दया का
उपदे श करने लगे। आज व दया क ाूँ गई। उनको ठीक करने का उपाय य ी ै
कक समझ लूँ ू, कोई कुतता भौक र ा ै । न ीिं, ऐसा क्यों करूूँ। अपने मन से कोई
काम ी न करूूँ, जो य क ें , व ी करूूँ, न जौ-भर ज्यादा। जब इन् ें मेरा कोई
काम पसन्द न ीिं आता, मुझे क्या कुतते ने काटा ै , जो बरबस अपनी टाूँग
अड़ाऊूँ। बस, य ी ठीक ै।

व रात भर इसी उिेड़बुन में पड़ी र ी। सबेरे किंु दनलाल न ी स्नान करने गए।
लौटे , तो 9 बज गए थे। घर में जाकर दे खा, तो चौका-बतयन न ु आ था। प्राण
सख
ू गए।
किंु दनलाल ने क ा - 'क्या म री न ीिं आई?'

रामेश्वरी ने क ा - 'न ीिं।'

किंु दनलाल ने क ा - 'तो कफर?'

रामेश्वरी ने क ा - 'जो आपकी आञा ा।'

किंु दनलाल ने क ा - 'य तो बड़ी मल्ु श्कल ै ।'

रामेश्वरी ने क ा - ' ाूँ, ै तो।'

किंु दनलाल ने क ा - 'पड़ोस की म री को क्यों न बुला भलया?'

रामेश्वरी ने क ा - 'ककसके ु क्म से बल


ु ाती, अब ु क्म ु आ ै , बल
ु ाए लेती ू ूँ।'

किंु दनलाल ने क ा - 'अब बुलाओगी, तो खाना कब बनेगा? नौ बज गए और


इतना तो तुम् ें अपनी अक्ल से काम लेना चाह ए था कक म री न ीिं आई तो
पड़ोसवाली को बल
ु ा लूँ ।ू '

रामेश्वरी ने क ा - 'अगर उस वक्त सरकार पूछते, क्यों दस


ू री म री बुलाई, तो
क्या जबाब दे ती? अपनी अक्ल से काम लेना छोड़ हदया ै , अब तम्
ु ारी ी अक्ल
से काम लूँ ग
ू ी, मैं य न ीिं चा ती कक कोई मझ
ु े आूँखें हदखाए।'

किंु दनलाल ने क ा - 'अच्छा, तो इस वक्त क्या ोगा?'

रामेश्वरी ने क ा - 'जो ु जूर का ु क्म ो।'

किंु दनलाल ने क ा - 'तम


ु मझ
ु े बनाती ो।'
रामेश्वरी ने क ा - 'मेरी इतनी क ाूँ मजाल कक आप को बनाऊूँ, मैं तो ु जरू की
लौंड़ी ू ूँ, जो कह ए व करूूँ।'

किंु दनलाल ने क ा - 'मैं तो जाता ू ूँ, तुम् ारा जो जी चा े करो।'

रामेश्वरी ने क ा - 'जाइए, मेरी जी कुछ न चा े गा और न कुछ करूूँगी।'

किंु दनलाल ने क ा - 'आखखर तम


ु क्या खाओगी?'

रामेश्वरी ने क ा - 'जो आप दें गे, व ी खा लूँ ग


ू ी।'

किंु दनलाल ने क ा - 'लाओ, बाजार से पूडड़यािं ला दूँ ।ू '

रामेश्वरी रुपया तनकाल लाई। किंु दनलाल पडू ड़याूँ लाए। इस वक्त का काम चला।
दफतर गए। लौटे , तो दे र ो गई थी। आते ी पूछा - 'म री आई?'

रामेश्वरी ने क ा - 'न ीिं।'

किंु दनलाल ने क ा - 'मैंने तो क ा था, पड़ोसवाली को बुला लेना।'

रामेश्वरी ने क ा - 'बुलाया था, व पाूँच रुपए माूँगती ै ।'

किंु दनलाल ने क ा - 'तो एक ी रुपए का फकय था, क्यों न ीिं रख भलया?'

रामेश्वरी ने क ा - 'मुझे य ु क्म न भमला था. मुझसे जवाब-तलब ोता कक


एक रुपया ज्यादा क्यों दे हदया, खचय की ककफायत पर उपदे श हदया जाने लगता,
तो क्या करती।'

किंु दनलाल ने क ा - 'तुम बबलकुल मूखय ो।'

रामेश्वरी ने क ा - 'बबलकुल।'
किंु दनलाल ने क ा - 'तो इस वक्त भी भोजन न बनेगा?'

रामेश्वरी ने क ा - 'मजबरू ी ै ।'

किंु दनलाल भसर थामकर चारपाई पर बैठ गए। य तो नई ववपल्तत गले पड़ी।
पूडड़याूँ उन् ें रुचती न थीिं। जी में ब ु त झूँझ
ु लाए। रामेश्वरी को दो-चार उकटी-
सीिी सुनाई, लेककन उसने मानो सुना ी न ीिं। कुछ बस न चला, तो म री की
तलाश में तनकले। ल्जसके य ाूँ गए, मालूम ु आ, म री काम करके चली गई।
आखखर एक क ार भमला। उसे बल
ु ा लाए। क ार ने दो आने भलए और बतयन
िोकर चलता बना।

रामेश्वरी ने क ा - 'भोजन क्या बनेगा।'

किंु दनलाल ने क ा - 'रोटी-तरकारी बना लो, या इसमें कुछ आपल्तत ै ?'

रामेश्वरी ने क ा - 'तरकरी घर में न ीिं ै ।'

किंु दनलाल ने क ा - 'हदन भर बैठी र ी, तरकारी भी न लेती बनी? अब इतनी


रात गए तरकारी क ाूँ भमलेगी?'

रामेश्वरी ने क ा - 'मुझे तरकारी ले रखने का ु क्म न भमला था, मैं पैसा-िेला


ज्यादा दे दे ती तो?'

किंु दनलाल ने वववशता से दाूँत पीसकर क ा - 'आखखर तुम क्या चा ती ो?'

रामेश्वरी ने शान्त भाव से जवाब हदया - 'कुछ न ीिं, केवल अपमान न ीिं चा ती।'

किंु दनलाल ने क ा - 'तुम् ारा अपमान कौन करता ै ?'


रामेश्वरी ने क ा - 'आप करते ै ।'

किंु दनलाल ने क ा - 'तो मैं घर के मामले में कुछ न बोलूँ ?ू '

रामेश्वरी ने क ा - 'आप न बोलें गे, तो कौन बोलेगा? मैं तो केवल ु क्म की


ताबेदार ू ूँ।'

रात दाल-रोटी पर कटी। दोनों आदमी लेटे। रामेश्वरी को तरु न्त नीिंद आ गई।
किंु दनलाल बड़ी दे र तक करवटें बदलते र े । अगर रामेश्वरी इस तर स योग न
करे गी, तो एक हदन भी काम न चलेगा। आज ी बड़ी मुल्श्कल से भोजन भमला।
इसकी समझ तो उकटी ै । मैं तो समझता ू ूँ , य समझती ै , डाूँट र ा ू ूँ। मुझसे
बबना बोले र ा भी तो न ीिं जाता। लेककन अगर बोलने का य नतीजा ै , तो
कफर बोलना कफजल
ू ै । नक
ु सान ोगा, बला से, य तो न ोगा कक दफ्तर से
आकर बाजार भागूँ।ू म री से रुपए वसल
ू करने की बात इसे बरु ी लगी और थी
भी बेजा। रुपए तो न भमले, उलटे म री ने काम छोड़ हदया।

किंु दनलाल ने रामेश्वरी को जगाकर बोले - 'ककतना सोती ो तम


ु ?'

रामेश्वरी ने क ा - 'मजूरों को अच्छी नीिंद आती ै ।'

किंु दनलाल ने क ा - 'धचढाओ मत, म री से रुपए वसूल मत करना।'

रामेश्वरी ने क ा - 'व तो भलए खड़ी ै शायद।'

किंु दनलाल ने क ा - 'उसे मालम


ू ो जाएगा, तो काम करने आएगी।'

रामेश्वरी ने क ा - 'अच्छी बात ै क ला भेजूँग


ू ी।'

किंु दनलाल ने क ा - 'आज से कान पकड़ता ू ूँ , तम्


ु ारे बीच में न बोलूँ ग
ू ा।'

रामेश्वरी ने क ा - 'और जो मैं घर लुटा दूँ ू तो?'


किंु दनलाल ने क ा - 'लुटा दो, चा े भमटा दो, मगर रूठो मत, अगर तुम ककसी
बात में मेरी सला पूछोगी, तो दे दूँ ग
ू ा, वरना मूँु न खोलूँ ग
ू ा।'

रामेश्वरी ने क ा - 'मैं अपमान न ीिं स सकती।'

किंु दनलाल ने क ा - 'इस भल


ू को क्षमा करो।'

रामेश्वरी ने क ा - 'सच्चे हदल से क ते ो न?'

किंु दनलाल ने क ा - 'सच्चे हदल से।'

***
आगा-पीछा

रूप और यौवन के चिंचल ववलास के बाद कोककला अब उस कुलवषत जीवन के


धचह्न को आूँसओ
ु िं से िो र ी थी। ववगत जीवन की याद आते ी उसका हदल
बैचन ो जाता और व ववषाद और तनराशा से ववकल ोकर पुकार उठती -
' ाय मैंने सिंसार में जन्म ी क्यों भलया?' उसने दान और व्रत से उन काभलमाओ
को िोने का प्रयतन ककया और जीवन के बिंसत की सारी ववभूतत इस तनष्फल
प्रयास में लुटा दी, पर य जागतृ त क्या ककसी म ातमा का वरदान या ककसी
अनष्ु ठान का फल था। न ीिं, य उस नवजात भशशु के प्रथम दशयन का प्रसाद था,
ल्जसके जन्म ने आज पन्द्र साल से उसकी सन
ू ी गोद को प्रदीप्त कर हदया
था। भशशु का मुख दे खते ी उसके नीले ोटों पर एक क्षीण, करुण, उदास
मुस्कान झलक गई, पर केवल एक क्षण के भलए। एक क्षण के बाद व
मुस्करा ट एक लम्बी साूँस में ववलीन ो गई। उस अशक्त, क्षीण, कोमल रुदन
ने कोककला के जीवन का रुख फेर हदया। वातसकय की व ज्योतत उसके जीवन-
सन्दे श और मक
ू उपदे श थी।

कोककला ने उस नवजात बाभलका का नाम रखा - श्र्ध ा।

उसी के जन्म ने तो उसमें श्र्ध ा उतपन्न की थी। व श्र्ध ा को अपनी लड़की


न ीिं, ककसी दे वी का अवतार समझती थी। उसकी स े भलयाूँ उसे बिाई दे ने आती,
पर कोककला बाभलका को उनकी नजरों से तछपाती। उसे य भी मिंजूर न था कक
उनकी पापमयी दृल्ष्ट भी उस पर पड़े। श्र्ध ा ी अब उसकी ववभूतत, उसकी
आतमा, उसका जीवन-दीपक थी। व कभी-कभी उसे गोद में लेकर साथ से
छलकती ु ई आूँखों से दे खती और सोचती - क्या य पावन ज्योतत भी वासना
के प्रचिंड आघातों के भशकार ोगी? मेरे प्रयतन तनष्फल ो जाएूँगे? आ ! क्या कोई
ऐसी औषधि न ीिं, जो जन्म के सिंस्कारों को भमटा दें ?
भगवान से व सदै व प्राथयना करती कक मेरी श्र्ध ा ककन् ीिं काूँटों में न उलझे। व
वचन और कमय से , ववचार और व्यव ार से उसके सम्मख
ु नारी-जीवन का ऊूँचा
आदशय रखेगी। श्र्ध ा इतनी सरल, इतनी प्रगकभ, इतनी चतुर थी कक कभी-कभी
कोककला वातसकय से गद्गद ोकर उसके तलबों को अपने मस्तक से रगड़ती
और पश्चातताप तथा षय के आूँसू ब ाती।

सोल वषय बीत गए। प ले की भोली-भाली श्र्ध ा अब एक सगवय, शान्त,


लज्जाशील नवयौवना थी, ल्जसे दे खकर आूँखें तप्ृ त ो जाती थी। ववद्या की
उपाभसका थी, पर सारे सिंसार से ववमख
ु । ल्जनके साथ व पढती थी वे उससे
बात भी न करना चा ती थी। मात-ृ स्ने के वायुमिंडल में पड़कर व घोर
अभभमाननी ो गई थी। वातसकय के वायुमिंडल, सखी-स े भलयों के पररतयाग, रात-
हदन की घोर पढाई और पुस्तकों के एकान्तवास से अगर श्र्ध ा को अ िं भाव ो
आया, तो आश्चयय की कौन-सी बात ैं। उसे ककसी से भी बोलने का अधिकार न
था। ववद्यालय में भले घर की लड़ककयाूँ उसके स वास में अपनी अपमान
समझती थी।

रास्ते में लोग उूँ गुली उठाकर क ते - कोककला रिं डी लड़की ैं। उसका भसर झुक
जाता, कपोल क्षण भर के भलए लाल ोकर दस
ू रे ी क्षण कफर चन
ू े की तर
सफेद ो जाते।

श्र्ध ा को एकान्त से प्रेम था। वववा को ईश्वरीय कोप समझती थी। यहद
कोककला ने कभी उसकी बात चला दी, तो उसके माथे पर बल पड़ जाते, चमकते

ु ए लाल च े रे पर काभलमा छा जाती, आूँखों से झर-झर आूँसू ब ने लगते,


कोककला चुप ो जाती। दोनों के जीवन-आदशय में ववरोि था। कोककला समाज के
दे वता की पुजाररन, श्र्ध ा को समाज से, ईश्वर से और मनुष्य से घण
ृ ा। यहद
सिंसार में उसे कोई वस्तु प्यारी थी, तो व थी उसकी पुस्तकें। श्र्ध ा उन् ीिं
ववद्वानों के सिंसगय में अपना जीवन व्यतीत करती, ज ाूँ ऊूँच-नीच का भेद न ीिं,
जातत-पातत का स्थान न ीिं, सबके अधिकार समान ै । श्र्ध ा की पण
ू य प्रकृतत का
पररचय म ाकवव र ीम के एक दो े के पद से भमल जाता ै -

'प्रेम सह त मररबो भलो, जो ववष दे य बुलाय।'

अगर कोई सप्रेम बुलाकर उसे ववष दे दे ता, तो व नतजानु ो उसे अपने मस्तक
से लगा लेती। ककन्तु अनादर हदए ु ए अमत
ृ की भी उसकी नजर में कोई
कीकच न थी।

एक हदन कोककला ने आूँखों में आूँसू भरकर श्र्ध ा से क ा - 'क्यों मुन्नी, सच


बताना तुझे लज्जा तो लगती ोगी कक मैं क्यों इसकी बेटी ु ई। यहद तू ककसी
ऊूँचे कुल में पैदा ु ई ोती, तो क्या तब भी तेरे हदल में ऐसे ववचार आते? तू
मन- ी-मन मझ
ु े जरूर कोसती ोगी।'

श्र्ध ा माूँ का मूँु दे खने लगी- 'अम्माजी, आप मुझसे ऐसा प्रश्न क्यों करती ै?
क्याूँ मैंने कभी आपका अपमान ककया ै ?'

कोककला ने गद्गद ोकर क ा - 'न ीिं बेटी, उस परम दयालु भगवान से य ीिं
प्राथयना ै कक तुम् ारी जैसी सुशील लड़की सबको दे , पर कभी-कभी य ववचार
आता ै कक तू अवश्य ी मेरी बेटी ोकर पछताती ोगी।'

श्र्ध ा ने िीर किंठ से क ा- 'अम्माूँ, आपकी य भावना तनमूयल ै , मैं आपसे सच


क ती ू ूँ , मुझे ल्जतनी श्र्ध ा और भल्क्त आपके प्रतत ै , उतनी ककसी के प्रतत
न ीिं। आपकी बेटी क लाना मेरे भलए लज्जा की न ीिं, गौरव की बात ै । मनुष्य
पररल्स्थततयों का दास ोता ै , आप ल्जस वायु-मिंडल में पलीिं, उसका असर तो
पड़ना ी थी, ककन्तु पाप के दलदल में फूँसकर कफर तनकल जाना अवश्य गौरव
की बात ै । ब ाव की ओर नाव खे ले जाना तो ब ु त सरल ै , ककन्तु जो नाववक
ब ाव के प्रततकूल खे ले जाता ै , व ी सच्चा नाववक ै।'
कोककला ने मस्
ु कारते ु ए क ा - 'तो कफर वववा के नाम से क्यों धचढती ै ?'

श्र्ध ा ने आूँखें नीचीिं करके उततर हदया - 'बबना वववा के जीवन व्यतीत न ीिं ो
सकता? मैं कुमारी ी र कर जीवन बबताना चा ती ू ूँ। ववद्यालय से तनकलकर
कॉलेज में प्रवेश करूूँगी औऱ दो-तीन वषय बाद म स्वतिंत्र रूप में र सकती ै।
डॉक्टर बन सकती ू ूँ , वकालत कर सकती ू ूँ, औरतों के भलए सब मागय खल
ु गए
ै ।'

कोककला ने डरते-डरते क ा - 'क्यों, क्या तम्


ु ारे हृदय में कोई दस
ू री इच्छा न ीिं
ोती? ककसी से प्रेम करने की अभभलाषा तेरे मन में न ीिं पैदा ोती?'

श्र्ध ा ने एक लम्बी साूँस लेकर क ा - 'अम्माजी, प्रेम-वव ीन सिंसार में कौन ै?


प्रेम मानव-जीवन का श्रेष्ठ अिंग ै , यहद ईश्वर की ईश्वरता क ीिं दे खने में आती
ै , तो व केवल प्रेम में । जब कोई ऐसा व्यल्क्त भमलेगा, जो मझ
ु े वरने में अपनी
मान ातन न समझेगा, तो मैं तन-मन-िन से उसकी पूजा करूूँगी, पर ककसके
सामने ाथ पसारकर प्रेम की भभक्षा माूँगूँ?ू यहद ककसी से सि
ु ार के क्षखणक
आवेश में वववा कर भी भलया, तो मैं प्रसन्न न ो सकूूँगी। इससे तो अच्छा ै
कक मैं वववा का ववचार ी छोड़ दूँ ।ू '

इन् ीिं हदनों मह ला-मिंडल का एक उतसव ु आ। कॉलेज के रभसक ववद्याथी काफी


सिंख्या में सल्म्मभलत ु ए। ाूँल में ततल-भर जग खाली न थी। श्र्ध ा भी आकर
ल्स्त्रयों की सबसे अन्त की पल्क्त में खड़ी ो गई। उसे य सब स्वािंग मालूम

ु आ था। आज प्रथम बार ी व ऐसी सभा में सल्म्मभलत ु ई थी।

सभा की काययवाई शुरू ु ई। प्रिान म ोदय की वक्तत


ृ ा के पश्चात प्रस्ताव पेश
ोने लगे और उनके समथयन में वक्तत
ृ ाएूँ ोने लगी, ककन्तु मह लाएूँ उनकी
वक्तत
ृ ाएूँ भल
ू गईं, या उन पर सभा का रोब ऐसा छा गया कक उनकी वक्तत
ृ ा-
शल्क्त लोप ो गई। वे कुछ टूटे -फूटे जम
ु ले बोलकर बैठने लगीिं। सभा का रिं ग
बबगड़ने लगा। कई ल्स्त्रयाूँ बड़ी शान से प्लेटफामय पर आई, ककन्तु दो-तीन शब्दों
से अधिक न बोल सकीिं। नवयुवकों को मजाक उड़ाने का अवसर भमला। क क े
पड़ने लगे, ताभलयाूँ बजने लगीिं। श्र्ध ा उनकी य दज
ु न
य ता दे खकर ततलभमला उठी।
उसका अिंग-प्रतयिंग फड़कने लगा। प्लेटफामय पर जाकर व कुछ इस शान से
बोली कक सभा पर आतिंक छा गया। कोला ल शान्त ो गया। लोग टकटकी
बाूँिकर उसे दे खने लगे। श्र्ध ा स्वगीय बाला की भाूँतत िारावाह क रूप में बोल
र ी थी। उसके प्रतयेक शब्द से नवीनता, सजीवता और ढृढता प्रतीत ोती थी।
उसके नवयौवन की सुरभभ भी चारों ओर फैलकर सभा मिंडप को अवाक कर र ी
थी।

सभा समाप्त ु ई। लोग टीका-हटप्पणी करने लगे।

एक ने पछ
ू ा - 'य स्त्री कौन थी भई!'

दस
ू रे ने उततर हदया -'उसी कोककला रिं डी की लड़की।'

तीसरे व्यल्क्त ने क ा - 'तभी य आवाज और सफाई ै , तभी तो जाद ू ै । जाद ू


ै जनाब-मुजल्स्सम जाद!ू क्यों न ो, माूँ भी तो भसतम ढाती थी, जब से उसने
अपना पेशा छोड़ा, श र बे-जान ो गया। अब मालूम ोता ै कक य अपनी माूँ
की जग लेगी।'

इस पर एक खद्दरिारी काला नवयुवक बोला - 'क्या खूब कदरदानी फरमाई ै


जनाब ने, वा !'

उसी व्यल्क्त ने उततर हदया - 'आपको बुरा क्यों लगा? क्या कुछ सािंठ-गािंठ तो
न ीिं ै ।'
काले नवयव
ु क ने कुछ तेज ोकर क ा -'आपको ऐसी बातें मूँु से तनकालते
लज्जा भी न ीिं आती।'

दस
ू रे व्यल्क्त ने क ी - 'लज्जा की कौन बात ै ? वेश्या की लड़की अगर वेश्या
ो, तो आश्चयय की क्या बात ै ?'

नवयव
ु क ने घण
ृ ापूणय स्वर में क ा - 'ठीक ोगा, आप जैसे बवु ्ध मान व्यल्क्तयों
की समझ में ! ल्जस रमणी के मुख से ऐसे ववचार तनकल सकते ैं , व दे वी ै,
रूप बेचनेवाली न ी।'

श्र्ध ा उसी समय सभा से जा र ी थी। य अल्न्तम शब्द उसके कानों में पड़
गए।

व ववल्स्मत और पल
ु ककत ोकर व ीिं हठठक गई, काले नवयव
ु क की ओर
कृतञा ता-पण
ू य दृल्ष्ट से तन ारा और कफर बड़ी तेजी से आगे बढ गई लेककन
रास्ते-भर उसके कानों में उन् ीिं शब्दों की प्रततध्वतन गूँज
ू ती र ी।

अब तक श्र्ध ा की प्रशिंसा करने वाली, उसे उतसाह त करने वाली केवल उसी की
माूँ कोककला थी। और चारों ओर व ी उपेक्षा थी, व ी ततरस्कार! आज एक
अपररधचत, काले ककन्तु गौर हृदय वाले खद्दरिारी नवयुवक व्यल्क्त के मुख का
धचतत बराबर उसकी आूँखों के सामने नाचा करता। मन में प्रश्न उठता - 'व
कौन ै ? क्या कफर कभी उसके दशयन ोंगे?'

कॉलेज जाते समय श्र्ध ा उस नवयुवक को खोई ु ई आूँखों से खोजती। घर पर


रोज धचक की आड़ से, रास्ते के आते-जाते लोगों को दे खती, लेककन व नवयुवक
नजर न आता।

कुछ हदनों बाद मह ला-मिंडल की दस


ू री सभा का ववञा ापन तनकला। अभी सभा
ोनें में चार हदन बाकी थे। व चारों हदन श्र्ध ा ने अपना भाषण तैयार करनें में
बबताए। एक-एक शब्द की खोज में घिंटों भसर मारती। एक-एक वाक्य को बार-
बार पढती। बड़े-बड़े नेताओिं की स्पीचें पढती और उसी तर भलखने की कोभशश
करती। जब सारी स्पीच पूरी ो गई, तो श्र्ध ा अपने कमरे में जाकर कुभसययों और
मेजों को सम्बोधित करके जोर-जोर से पढने लगी। भाषण-कला के सभी लक्षण
जमा ो गए थे। उपसिं ार तो इतना सुन्दर था कक उसे अपने मुख से सुनकर
व मुग्ि ो गई। इसमें ककतना सिंगीत था, ककतना आकषयण, ककतनी क्रािंतत!

सभा का हदन आ प ु ूँचा। श्र्ध ा मन- ी-मन भयभीत ोती ु ई सभा-मिंडप में
घुसी। ॉल भरा ु आ था और प ले हदन से भी अधिक भीड़ थी। श्र्ध ा को दे खते
ी जनता ने ताभलयाूँ पीटकर उसका स्वागत ककया। कोला ल ोने लगा और
सभी एक स्वर में धचकला उठे - 'आप अपनी वक्तत
ृ ा शुरू करें ।'

श्र्ध ा ने मिंच पर आकर एक उड़ती ु ई तनगा से जनता की ओर दे खा। व


काला नवयुवक जग न भमलने के कारण अल्न्तम पिंल्क्त में खड़ा ु आ था। श्र्ध ा
के हदल में गद
ु गद
ु ी-सी ोने लगी। उसने काूँपते स्वर में अपनी वक्तत
ृ ा शुरू की।
उसकी नजरों में सारा ॉलू़ पत
ु भलयों से भरा ु आ था, अगर कोई जीववत मनष्ु य
था, तो व ी सबसे पीछे खड़ा ु आ काला नवयुवक। उसका मख
ु उसी की ओर
था। व उसी से भाषण की दाद माूँग र ी थी। ीरा परखने की आशा जौ री से
ी की जाती ै।

आिे घिंटे तक श्र्ध ा के मुख से फूलों की वषाय ोती र ी। लोगों को ब ु त कम


ऐसी वक्तत
ृ ा सुनने को भमली थी।

श्र्ध ा जब सभा समाप्त ोने पर घर चली तो दे खा, व ी काला नवयुवक उसके


पीछे तेजी से चला आ र ा ै । श्र्ध ा को य मालूम था कक लोगों ने उसका
भाषण ब ु त पसन्द ककया ै लेककन इस नवयव
ु क की राय सन
ु ने का अवसर उसे
न ीिं भमला था। उसने अपनी चाल िीमी कर दी। दस
ू रे ी क्षण व नवयव
ु क
उसके पास प ु ूँच गया! दोनो कई कदम चप
ु चाप चलते र े ।

अन्त में नवयुवक ने खझझकते ु ए क ा - 'आज तो आपने कमाल कर हदया!'

श्र्ध ा ने प्रफुकलता के स्रोत को दबाते ु ए क ा - 'िन्यवाद! य आपकी कृपा ै ।'

नवयव
ु क ने क ा - 'मैं ककस लायक ू ूँ , मैं ी न ीिं, सारी सभा भसर िन
ु र ी थी।'

श्र्ध ा ने क ा - 'क्या आपका शुभ-स्थान य ी ै ?'

नवयुवक ने क ा- 'जी ाूँ, य ाूँ मैं एम॰ ए॰ में पढ र ा ू ूँ। य ऊूँच-नीच का भूत
न जाने कब तक मारे भसर पर सवार र े गा। अभाग्य से मैं भी उन लोगों में ू ूँ ,
ल्जन् ें सिंसार नीच समझता ै । मैं जातत का चमार ू ूँ , मेरे वपता स्कूल के
इिंस्पेक्टर के य ाूँ अदय ली थे। उनकी भसफाररश से स्कूल में भती ो गया। तब से
भाग्य से लड़ता-भभड़ता चला आ र ा ू ूँ। प ले तो स्कूल के मास्टर मझ
ु े छूते ी
न थे। व ालत तो अब न ीिं र ीिं ककन्तु लड़के अब भी मुझसे खखिंचे र ते ै।'

श्र्ध ा ने क ा - 'मैं तो कुलीनता को जन्म से न ीिं, िमय से मानती ू ूँ।'

नवयुवक ने क ा - 'य तो आपकी वक्तत


ृ ा ी से भस्ध ो गया ै और इसी से
आपसे बातें करने का सा स भी ु आ, न ीिं तो क ाूँ आप और क ाूँ मैं!'

श्र्ध ा ने आूँखें नीची करके क ा -'शायद आपको मेरा ाल मालूम न ीिं।'

नवयव
ु क ने क ा - 'ब ु त अच्छी तर से मालम
ू ै , यहद आप अपनी माताजी के
दशयन करवा सकें, तो आपका बड़ा आभारी ोऊूँगा।'

'व आपसे भमलकर बड़ी प्रसन्न ोंगी! शुभ नाम!'

'मुझे भगतराम क ते ै ।'


य पररचय िीरे -िीरे ल्स्थर और दृढ ोता गया। मैत्री प्रगाढ ोती गई। श्र्ध ा की
नजरों में भगतराम एक दे वता थे और भगतराम के समक्ष श्र्ध ा मानवी रूप में
दे वी थी।

एक साल बीत गया। भगतराम रोज दे वी के दशयन को जाता। दोनों घिंटों बैठे
बातें ककया करते। श्र्ध ा कुछ भाषण करती, तो भगतराम सब काम छोड़कर सुनने
जाता। उनके मनसूबे एक थे, जीवन के आदशय एक, रूधच एक, ववचार एक।
भगतराम अब प्रेम और उसके र स्यों की माभमयक वववेचना करता। उसकी बातों
में 'रस' और 'अलिंकार' का कभी इतना सिंयोग न ु आ था। भावों को इिंधगत करने
में उसे कमाल ो गया था लेककन ठीक उन अवसरों पर, जब श्र्ध ा के हृदय में
गुदगुदी ोने लगती, उसके कपोल उकलास से रिं ल्जत ो जाते, भगतराम ववषय
पलट दे ता और जकदी से कोई ब ाना बनाकर व ाूँ से खखसक जाता। उसके चले
जाने पर श्र्ध ा सरत के आूँसू ब ाती और सोचती - 'क्या इन् ें हदल में मुझे प्रेम
न ीिं?'

एक हदन कोककला ने भगतराम को एकान्त में बुलाकर क ा - 'बेटा! अब तो


मुन्नी से तुम् ारा वववा ो जाए तो अच्छा ै । जीवन का क्या भरोसा, क ीिं मर
जाऊूँ, तो य साि मन ी में र जाए।'

भगतराम ने भसर ह लाकर क ा - 'अम्माूँ, जरा परीक्षा में पास ो जाने दो,
जीववका का प्रश्न ल ो जाने के बाद ी वववा शोभा दे ता ै।'

'य सब तम्
ु ारा ी ै , क्या मैं साथ बाूँिकर ले जाऊूँगी?'
'य आपकी कृपा ै , अम्माजी, पर इतना तनलयज्ज न बनाइए। मैं तो आपका ो
चक
ु ा, अब तो आप दत
ु कारें भी तो इस द्वार से न ीिं टल सकता। मझ
ु जैसा
भाग्यवान सिंसार में और कौन ै , लेककन दे वी के मिंहदर में जाने से प ले कुछ
पान-फूल तो ोना ी चाह ए।'

साल-भर और गज
ु र गया। भगतराम ने एम॰ ए॰ की उपाधि ली और अपने ी
ववद्यालय में अथयशास्त्र का अध्यापक ो गया। उस हदन कोककला ने खूब दान-
पुण्य ककया। जब भगतराम ने आकर उसके पैरों पर भसर झुकाया तो उसने उसे
छाती से लगा भलया। उसे ववश्वास था कक आज भगतराम वववा के प्रश्न को
जरूर छे ड़ेगा। श्र्ध ा प्रतीक्षा की मूततय बनी ु ई थी। उसका एक-एक अिंग मानो सौ-
सौ तार ोकर प्रततध्वतनत ो र ा था। हदल पर नशा छाया ु आ था। पाूँव
जमीन पर न पड़ते थे। भगतराम को दे खते ी माूँ से बोली - 'अम्माूँ, अब मको
एक ककी-सी मोटर ले दील्जएगा।'

कोककला ने मस्
ु कराकर क ा -' ककी-सी क्यों? भारी-सी ले लेना, प ले कोई
अच्छा-सा मकान तो ठीक कर लो।'

श्र्ध ा भगतराम को अपने कमरे में बुला ले गई। दोनों बैठकर नए मकान की
सजावट के मनसूबे बाूँिने लगे। परदे , फशय, तस्वीरें सबकी व्यवस्था की गई।

श्र्ध ा ने क ा - 'रुपए भी अम्माूँजी से ले लें गे।'

भगतराम बोला -'उनसे रुपए लेते मुझे शमय आएगी।'

श्र्ध ा ने मुस्कराकर क ा - 'आखखर मेरे द े ज के रुपए तो दें गी।'

दोनों घन्टें भर बातें करते र े । मगर व माभमयक शब्द, ल्जसे सन


ु ने के भलए श्र्ध ा
का मन आतुर ो र ा था, आज भी भगतराम के मूँु से न तनकला और व
ववदा ो गया।
उसके जाने के बाद कोककला ने डरते-डरते पूछा -'आज क्या बातें ु ई?'

श्र्ध ा ने उसका आशय समझकर क ा - 'अगर मैं ऐसी भारी ो र ी ू ूँ तो कूँु ए


में क्यों न ीिं डाल दें ती?'

य क ते-क ते उसके िैयय की दीवार टूट गई। व आवेश और व वेदना, जो


भीतर- ी-भीतर अब तक टीस र ी थी, तनल पड़ी। व फूट-फूटकर रोने लगी!

कोककला ने झुिंझलाकर क ा - 'जब कुछ बातचीत ी न ीिं करनी ै , तो रोज आते


ी क्यों ै ? कोई ऐसा घराना भी तो न ीिं ै , और न ऐसे िन्नासेठ ै ।'

श्र्ध ा ने आूँखे पोंछकर क ा- 'अम्माूँजी, मेरे सामने उन् ें कुछ न कह ए। उनके


हदल में जो कुछ ै, व मैं जानती ू ूँ। व मूँु से चा े कुछ न क ें , मगर हदल
से क चक
ु े चक
ु े और मैं चा े कानों से कुछ न सन
ु ु, पर हदल से सब कुछ सन

चक
ु ी ू ूँ।'

कोककला ने श्र्ध ा से कुछ भी न क ा लेककन हदन भगतराम से बोली -'अब ककस


ववचार में ो, बेटा?'

भगतराम ने भसर खज
ु लाते ु ए क ा - 'अम्माूँजी, मैं तो ाल्जर ू ूँ लेककन घर
वाले ककसी तर राजी न ीिं ोते। जरा फुरसत भमले, तो घर जाकर राजी कर लूँ ।ू
माूँ-बाप को नाराज करना भी तो अच्छा न ीिं! '

कोककला कुछ जवाब न दे सकी।

भगतराम के माूँ-बात श र से दरू र ते थे। य ीिं एक उनका लड़का था। उनकी


सारी उमिंगें उसी के वववा पर अवलल्म्बत थीिं। उन् ोंने कई बार उसकी शादी तय
की। पर भगतराम बार-बार य ी क कर तनकल जाता कक जब तक नौकर न ो
जाऊूँगा, वववा न करूूँगा। अब व नौकर ो गया था, इसभलए दोनों माघ के
ठण्डें प्रातःकाल में लदे फिंदे भगतराम के मकान पर आ प ु ूँच।े भगतराम ने
दौड़कर उनकी पद-िूभल ली और कुशल आहद पूछने के बाद क ा -
'आप लोगों ने इस जाड़े-पालें में क्यों तकलीफ की? मुझे बुला भलया ोता।'

चौिरी ने अपनी पतनी की ओर दे खकर क ा - 'सुनती ो बच्चा की अम्माूँ! जब


बुलाते ै , तो क ते ै कक इल्म्त ान ै, य ै, व ै , जब आ गए, तो क ता ै,
बुलाया क्यों न ीिं! तुम् ारा वववा ठीक ो गया ै , अब एक म ीने की छुट्टी लेकर
मारे साथ चलना ोगा, इसीभलए दोनों आए ै ।'

चौिराइन ने क ा - ' मने क ा कक बबना गए काम न ीिं चलेगा, तो आज ी


दरखास दे दो। लड़की बड़ी सुन्दर ै , पढी-भलखी ै , अच्छे कुल की ै ।'

भगतराम ने लजाते ु ए क ा -' मेरा वववा तो य ीिं एक जग लगा ु आ ै,


अगर आप राजी ों, तो कर लूँ ।ू '

चौिरी ने क ा - 'इस श र में मारी बबरादरी का कौन ै , क्यों बच्चा की


अम्मा?'

भगतराम ने क ा - 'माूँ-बेटी ै , घर में रुपया भी ै , लड़की ऐसी ै कक तुम लोग


दे खकर खुश ो जाओगे, मुफ्त में शादी ो जाएगी।'

चौिरी ने क ा -'क्या लड़की का बाप मर गया ै ? उसका क्या नाम था? क ाूँ का
र ने वाला ै , कुल-मरजाद कैसा ै , जब तक य सारी बातें मालूम न ो जाए,
तब तक बया कैसे ो सकता ै ! क्यों बच्चा की अम्माूँ?

चौिराइन ने क ा - ' ाूँ इन बातों का पता लगाए कैसे ो सकता ै ?'


भगतराम ने कोई जवाब न ीिं हदया।

चौिरी ने क ा - 'य ाूँ ककस मु कले में र ती ै माूँ-बेटी? सारा श र मारा छाना
पड़ा ै , म य ाूँ कोई बीस साल र े ोंगे , क्यों बच्चा की अम्माूँ?'

चौिराइन ने क ा -'बीस साल से ज्यादा र े ैं।'

भगतराम ने क ा - 'उसका घर नखास पर ै ।'

चौिरी ने क ा -'नखास पर ककस तरफ?'

भगतराम ने क ा - 'नखास की सामने वाली गली में प ला मकान उन् ीिं का ै,


सड़क से हदखाई दे ता ै ।'

चौिरी ने क ा - 'प ला मकान तो कोककला रिं डी का ै , गुलाबी रिं ग से पुता ु ई ै


न?'

भगतराम ने झेंपते ु ए क ा -'जी ाूँ, व ी मकान ै !'

चौिरी ने क ा -'तो उसमें कोककला रिं डी न ीिं र ती क्या?'

भगतराम ने क ा -'र ती क्यों न ीिं, माूँ-बेटी, दोनों ी तो र ती ै ।'

चौिरी ने क ा -'तो क्या कोककला रिं डी की लड़की से ब्या करना चा ते ो? नाक


कटवाने पर लगे ो क्या? बबरादरी में तो कोई पानी वपएगा न ीिं। '

चौिराइन ने क ा -'लक
ू ा लगा दूँ ग
ू ी मूँु में रािंड़ के! रुप-रिं ग दे खकर के लभ
ु ा गए
क्या?'
भगतराम ने क ा - 'मैं तो इसे अपना भाग्य समझता ू ूँ कक व अपनी लड़की
की शादी मेरे साथ करने को राजी ै । अगर व आज चा े , तो ककसी बड़े-से-बड़े
रईस के घर में शादी कर सकती ै ।'

चौिरी ने क ा - 'रईसस उससे ब्या ने करे गा - रख लेगा। तम्


ु ें भगवान समझ
दे तो एक न ीिं चार रखो। मरदों के भलए कौन रोक ै ! लेककन जो ब्या के भलए
क ो तो ब्या व ी ै , जो बबरादरी में ो।'

चौिराइन ने क ा -'ब ु त पढने से आदमी बौरा ो जाता ै ।'

चौिरी ने क ा -' म तो गूँवार आदमी ै , पर समझ में न ीिं आता कक तुम् ारी
य तनयत कैसे ु ई? रिं ड़ी की बेटी चा े इन्दर की परी ो, तो भी रिं ड़ी की बेटी ै।
म तम्
ु ारा वववा व ाूँ न ोगे दें गे। अगर तम
ु ने वववा ककया, तो म दोनों
तम्
ु ारे ऊपर अपनी जान दे दें गे, इतना अच्छी तर से समझ लेना - क्यों बच्चा
की अम्माूँ?'

चौिराइन ने क ा -'ब्या कर लें गे! झाडू मार के भगा दूँ ग


ू ी रािंड़ को! अपनी बेटी
अपने घर में रखें।'

भगतराम ने क ा -'अगर आप लोगों की आञा ा न ीिं ै , तो मैं वववा न ीिं करूूँगा,


मगर मैं ककसी दस
ू री औरत से भी वववा न करूूँगा।'

चौिराइन ने क ा - ' ाूँ, तुम कुूँवारे र ो, य में मिंजूर ै , पुतररया के घर में


ब्या न करें गे।'

भगतराम ने अबकी झुिंझलाकर क ा -'आप उसे बार-बार पुतररया क्यों क ती ैं।


ककसी जमाने में य उसका पेशा र ा ोगा। आजकल व ल्जतने आचार-ववचार
से र ती ै , शायद ी कोई और र ती ो, ऐसा पववत्र आचरण तो मैंने आज तक
दे खा ी न ीिं।'
भगतराम का सारा यतन ववफल ो गया। चौिराइन ने ऐसी ल्जद पकड़ी कक जौ-
भर अपनी जग से न टली।

रात को जब भगतराम अपने प्रेम-मल्न्दर में प ु ूँचा, तो उसका च े रा उतरा ु आ


था। एक-एक अिंग से तनराशा टपक र ी थी। श्र्ध ा रास्ता दे खती ु ई घबरा र ी
थी कक आज इतनी रात तक आए क्यों न ीिं , उन् ें क्या मालम
ू कक मेरे हदल की
क्या ालत ो र ी ै । यार-दोस्तों से छुट्टी भमलेगी, तो भूलकर इिर भी आ
जाएूँगे।

कोककला ने क ा -'मैं तो तझ
ु से क चक
ु ी कक उनका भममाज न ीिं र ा। कफर भी
तो तू न ीिं मानती, आखखर इस टालमटोल की कोई द भी ै।'

श्र्ध ा ने दखु खत ोकर क ा -'अम्माूँजी, मैं आपसे जार बार ववनय कर चक


ु ी ू ूँ
कक चा े लौककक रूप में कुमारी ी क्यों न र ू ूँ , लेककन हृदय से उनकी ब्या ता
ो चुकी। अगर ऐसा आदमी ववश्वास के काबबल न ीिं ै , तो कफर न ीिं जानती कक
ककस पर ववश्वास ककया जा सकता ै ।'

इस समय भगतराम तनराशा की मतू तय बने ु ए कमरे के भीतर आए। दोनों


ल्स्त्रयों ने उनकी ओर दे खा। कोककला की आूँखों में भशकायत थी और श्र्ध ा की
आूँखों में वेदना। कोककला की आूँखें क र ी थी, य क्या तुम् ारे रिं ग-ढिं ग ै?
श्र्ध ा की आूँखें क र ी थी - इतनी तनदय यता!

भगतराम ने वेदनापूणय स्वर में क ा -'आप लोगों को आज ब ु त दे र तक मेरी


रा दे खनी पड़ी, मगर मैं मजबूर था। घर में अम्माूँ और दादा आए ु ए ै , उन् ीिं
से बातें कर र ा था।'

कोककला बोली -'घर पर तो सब कुशल ै न?'


भगतराम ने भसर झक
ु ाए ु ए क ा - 'जी ाूँ, सब कुशल ै, मेरे वववा का मसला
पेश था, परु ाने ख्याल के आदमी ै , ककसी तर भी राजी न ीिं ोते।'

कोककला का मुख तमतमा उठा कफर बोली -' ाूँ, क्यों राजी ोंगे? म लोग उनसे
भी नीच ै न, लेककन जब तम
ु उनकी इच्छा के दास थे, तो तम्
ु ें उनसे पछ
ू कर
य ाूँ आना-जाना चाह ए था। इस तर मारा अपमान करके तम्
ु ें क्या भमला?
यहद मुझे मालूम ोता कक तुम अपने माूँ-बाप के इतने गुलाम ो, तो य नौबत
ी का े को आती?'

श्र्ध ा ने दे खा कक भगतराम की आूँखों से आूँसू धगर र े ै।

ववनीत भाव से बोली -'अम्माूँजी, माूँ-बाप की मरजी का गुलाम ोना कोई पाप
न ीिं ै । अगर मैं आपकी उपेक्षा करूूँ, तो क्या आपको दःु ख न ोगा? य ी ाल
उन लोगों का भी तो ोगा।'

श्र्ध ा य क ती ु ई अपने कमरे की ओर चली और इशारे से भगतराम को भी


बल
ु ाया। कमरे में बैठकर दोंनों कई भमनट तक प्
ृ वी की ओर ताकते र े । ककसी
में सा स न था कक उस सन्नाटे को तोड़े।

अन्त में भगतराम ने पुरुषोधचत वीरता के काम भलया और क ा -'श्र्ध ा, इस


समय मेरे हृदय के भीतर तम
ु ल
ु य्ध
ु ो र ा ै । मैं शब्दों में अपनी दशा बयान
न ीिं कर सकता। जी चा ता ै ववष खाकर जान दे दूँ ।ू तम
ु से अलग र कर
जीववत न ीिं र सकता। केवल तड़प सकता ू ूँ। मैंने न-जाने उनकी ककतनी
खुशामद की, ककतना रोया, ककतना धगड़धगड़ाया, लेककन दोनों अपनी बातों पर अड़े
र े । बार-बार क ते र े कक अगर य ब्या ोगा, तो म दोनों तुम पर अपनी
जान दे दें गें। उन् ें मेरी मौत मिंजूर ै लेककन तुम मेरे हृदय की रानी बनो, य
मिंजरू न ीिं।'
श्र्ध ा ने सािंतवना दे ते ु ए क ा - 'प्यारे , मझ
ु से उनका घण
ृ ा करना उधचत ै । पढे -
भलखे आदभमयों में ी ऐसे ककतने तनकलें गे , इसमें उनका कोई दोष न ीिं। मैं सबेरे
उनके दशयन करूूँगी, उनकी िोततयाूँ िोऊूँगी, उनके पैर दाबा करूूँगी, मैं व सब
करूूँगी, जो उनकी मनचा ी ब ू करती। इसमें लज्जा की कौन-सी बात ै, उनके
तलवे स लाऊूँगी, भजन गाकर सुनाऊूँगी। मुझे ब ु त-से दे ाती गीत आते ै ।
अम्माूँजी के भसर के सफेद बाल चुनूँग
ू ी। मैं दया न ीिं चा ती, मैं तो प्रेम की चेरी

ू ूँ , तम्
ु ारे भलए मैं सब कुछ करूूँगी - सब कुछ।'

भगतराम को ऐसा मालूम ु आ, मानो उसकी आूँखों की ज्योतत बढ गई ै , अथवा


शरीर में कोई दस
ू री ज्योततमयय आतमा आ गई ै । उसके हृदय का सारा अनुराग,
सारा ववश्वास, सारी भल्क्त आूँखों से उमड़कर श्र्ध ा के पैरों की ओर जाती ु ई
मालम
ू ु ई, मानो ककसी घर से नन् ें -नन् ें लाल कपोलवाले, रे शमी कपड़ोवाले,
घुिंघराले बालों वाले बच्चे ूँसते ु ए तनकलकर खेलने जा र े ों।

चौिरी और चौिराइन को श र आए ु ए दो सप्ता बीत गए। वे रोज जाने के


भलए कमर कसते लेककन कफर र जाते। श्र्ध ा उन् ें जाने न दे ती। सबेरे जब
उनकी आूँखें खुलती, तो श्र्ध ा उनके स्नान के भलए पानी तपाती ु ई ोती, चौिरी
को अपन ु क्का भरा ु आ भमलता। वे लोग ज्योंह न ाकर उठते, श्र्ध ा उनकी
िोती छाूँटने लगती। दोनों उसकी सेवा और अववरत पररश्रम दे खकर दिं ग र
जाते। ऐसी सुन्दर, ऐसी मिुभावषणी, ऐसी ूँसमुख और चतुर रमणी चौिरी ने
इिंस्पेक्टर सा ब के घर में भी न दे खी थी। चौिरी को व दे वी मालूम ोती और
चौिराइन को लक्ष्मी। दोनों श्र्ध ा की सेवा और ट ल प्रेम पर आश्चयय करते थे।
ककन्तु तो भी कलिंक और बबरादरी का प्रश्न उनके मूँु पर मु र लगाए ु ए था।
पन्द्र वें हदन जब श्र्ध ा दस बजे रात अपने घर चली गई, तो चौिरी ने चौिराइन
से क ा -'लड़की तो साक्षात लक्ष्मी ै ।'

चौिराइन ने क ा - 'जब मेरी िोती छाूँटने लगती ै , तो मैं मारे लाज के कट


जाती ू ूँ, मारी तर तो इसकी लौंड़ी ोगी।'
चौिरी ने क ा - 'कफर क्या सला दे ती ो, बबरादरी में तो ऐसी मिुर लड़की
भमलने की न ीिं।'

चौिराइन ने क ा - 'राम का नाम लेकर ब्या करो, ब ु त ोगा रोटी पड़ जाएगी,
पाूँच बीसी में तो रोटी ोती ै , कौन छप्पन टके लगते ै । प ले में शिंका ोती
थी कक पतुररया की लड़की जाने कैसी ो, कैसी न ो, पर अब सारी शिंका भमट
गई।'

चौिरी ने क ा -'जब बातें करती ै , तो मालूम ोता ै , मूँु से फूल झड़ते ै ।'

चौिराइन ने क ा -'मैं तो उसकी माूँ को बखारती ू ूँ, ल्जसकी कोख में ऐसी
लक्ष्मी जनमी।'

चौिरी ने क ा - 'कल चलो, कोककला से भमलकर सब ठीक-ठाक कर आएूँ।

चौिराइन ने क ा -''मुझे तो उसके घर जाते सरम लगती ै, व रानी बना बैठी


ोगी, मैं तो उसकी लौड़ी मालम
ू ोऊूँगी।'

चौिरी ने क ा - 'तो कफर पाउडर मिंगाकर मूँु में पोत लो - गोरी ो जाओगी।
इिंस्पेक्टर सा ब की मेम भी तो रोज पाउड़ लगाती ै , रिं ग तो साूँवला था, पर जब
पाउडर लगा लेती ै तो मूँु चमकने लगता ै ।'

चौिराइन ने क ा -' ूँसी करोगे तो गाली दूँ ग


ू ी। ाूँ, काली चमड़ी पर कोई रिं ग
चढता ै , जो पाउडर चढ जाएगा? तुम तो सचमुच उसके चौकीदार से लगोगे।'

चौिरी ने क ा -'तो कल मूँु -अूँिेरे चल दें , अगर क ीिं श्र्ध ा आ गई तो कफर गला
न छोड़ेगी। बच्चा से क दें गे कक पिंडडत से सायत-भमतत सब ठीक कर लो।' कफर
ूँसकर क ा - 'उन् ें तो आप ी जकदी ोगी।'
चौिराइन भी परु ाने हदन याद करके मस्
ु कराने लगी।

चौिरी और चौिराइन का मत पाकर कोककला वववा का आयोजन करने लगी।


कपड़े बनवाए जाने लगे। बतयनों की दक
ु ान छानी जाने लगी और ग नों के भलए
सुनार के पास 'आडयर' जाने लगे। लेककन न मालूम क्यों भगतराम के मुख पर
प्रसन्नता का कोई धचह्न तक न था। श्र्ध ा के य ाूँ तनतय की भाूँतत जाता, ककन्तु
उदास, कुछ भूला ु आ-सा बैठा र ता था। घिंटों आतम-ववस्मतृ त की अवस्था में
शून्य दृल्ष्ट से आकाश अथवा प्
ृ वी की ओर दे खा करता। श्र्ध ा उसे अपने
कीमती कपड़े और जड़ाऊूँ ग ने हदखाती। उसके अिंग-प्रतयिंग से आशाओिं की
स्फूततय छलक पड़ती थी। इस नशे में व भगतराम की आूँखों में तछपे ुए
आूँसूओिं को न दे ख पाती थी।

इिर चौिरी भी तैयाररयाूँ कर र े थे। बार-बार श र आते और वववा के सामान


मोल ले जाते। भगतराम के स्वतिंत्र ववचारवाले भमत्र उसके भाग्य पर ईष्याय करते
थे। अप्सरा-जैसी सन्दरु स्त्री, कारूूँ के खजाने-जैसी दौलत, दोनों साथ ी ककसे
मयस्सर ोते ैं ? ककन्तु व , जो भमत्रों की ईष्याय, कोककला की प्रसन्नता, श्र्ध ा की
मनोकामना और चौिरी और चौिराइन के आनन्द का कारण था, तछप-तछपकर
रोता था। अपने जीवन से दख
ु ी था। धचराग तले अिंिेरा छाया ु आ था। इस तछपे
तफ
ू ान की ककसी को भी खबर न थी, जो उसके हृदय में ा ाकार मचा ु आ था।

ज्यों-ज्यों वववा की हदन समीप आता था, भगतराम की बनावटी उमिंग भी ठिं डी
पड़ती जाती थी। जब चार हदन र गए, तो उसे कका-सा ज्वर आ गया। व
श्र्ध ा के घर भी न जा सका। चौिरी और चौिराइन और अन्य बबरादरी के लोग
भी आ प ु ूँचे थे, ककन्तु सब-के-सब वववा की िुन में इतने मस्त थे कक ककसी
का भी ध्यान उसकी ओर न गया।
दस
ू रे हदन भी व घर से न तनकल सका। श्र्ध ा ने समझा कक वववा की रीततयों
से छुट्टी न भमली ोगी। तीसरे हदन चौिराइन भगतराम को बल
ु ाने गई, तो दे खा
कक व स मी ु ई ववस्फाररत आूँखों से कमरे में एक कोने की ओर दे खता ु आ
दोनों ाथ सामने ककए, पीछे ट र ा ै , मानो अपने को ककसी के वार से बचा
र ा ो।

चौिराइन ने घबराकर पूछा - 'बच्चा, कैसा जी ै ? पीछे इस तर क्यों चले जा


र े ो? य ाूँ तो कोई न ीिं ै।'

भगतराम के मख
ु पर पागलों-जैसी अचेतना थी। आूँखों में भय छाया ु आ था।
भीत स्वर में बोला - 'न ीिं अम्माूँजी, दे खो, व श्र्ध ा चली आ र ी ै ! दे खो, उसके
दोनों ाथों में दो काली नाधगनें ै, व मुझे उन नाधगनों से डसवाना चा ती ै!
अरे अम्माूँ! व नजदीक आ गई, श्र्ध ा? श्र्ध ा! तुम मेरी जान की क्यों बैररन ो
गई? क्या मेरे असीम प्रेम का य ी पररणाम ै ? मैं तो तुम् ारे चरणों पर बभल
ोने के भलए सदै व ततपर था। इस जीवन का मक
ू य ी क्या ै ! तम
ु इन नाधगनों
को दरू फेंक दो। मैं य ाूँ तम्
ु ारे चरणों पर लेटकर य जान तम
ु पर न्योछावर
कर दूँ ग
ू ा। ै , ैं, तुम न मानोगी!'
य क कर व धचतत धगर पड़ा। चौिराइन ने लपककर चौिरी को बुलाया। दोनों
ने भगतराम को उठाकर चारपाई पर भलटा हदया। चौिरी की ध्यान ककसी आसेब
की ओर गया। व तुरन्त ी लौंग और राख लेकर आसेब उतारने का आयोजन
करने लगे! स्वयिं मिंत्र-तिंत्र में तनपण
ु थे। भगतराम का सारा शरीर ठिं डा था,
ककन्तु भसर तवे की तर तप र ा था।

रात को भगतराम कई बार चौंककर उठा। चौिरी ने र बार मिंत्र फूूँककर अपने
ख्याल से आसेब को भगाया।

चौिराइन ने क ा - 'कोई डॉक्टर क्यों न ीिं बुलाते? शायद दवा से कुछ फायदा
ो। कल ब्या और आज य ाल।'
चौिरी ने तनःशिंक भाव से क ा -'डॉक्टर आकर क्या करे गा, व ी पीपलवाले बाबा
तो ै , दवा-दारू करना और उनसे और रार बढाना ै । रात बीत जाने दो। सबेरा
ोते ी एक बकरा और एक बोतल दारू उनकी भें ट की जाएगी, बस और कुछ
करने की जरूरत न ीिं। डॉक्टर बीमारी की दवा करता ै कक वा-बयार की?
बीमारी उन् ें कोई न ीिं ै , कुल के बा र ब्या करने ी से दे वता लोग रूठ गए
ै ।'

सबेरे चौिरी ने एक बकरा मूँगाया। ल्स्त्रयाूँ गाती-बजाती ु ई दे वी के चौतरे की


ओर चली। जब लोग लौटकर आए, तो दे खा कक भगतराम की ालत खराब ै।
उसकी नाड़ी िीरे -िीरे बन्द ो र ी थी। मुख पर मतृ यु-ववभीवषका का छाप थी।
उसके दोनों नेत्रों से आूँखू ब कर गालों पर ढुलक र े थे, मानो अपण
ू य इच्छा का
अल्न्तम सन्दे श तनदय य सिंसार को सन
ु ा र े ों। जीवन का ककतना वेदना-पण
ू य
दृश्य था - आूँसू की दो बूँद
ू ें !

अब चौिरी घबराए। तरु न्त ी कोककला को खबर दी। एक आदमी डॉक्टर के


पास भेजा। डॉक्टर के आने में दे र थी - व भगतराम के भमत्रों में से थे। ककन्तु
कोककला और श्र्ध ा आदमी के साथ ी आ प ु ूँचीिं। श्र्ध ा भगतराम के सामने
आकर खड़ी ो गई। आूँखों में आूँसू ब ने लगे।

थोड़ी दे र में भगतराम ने आूँखें खोली और श्र्ध ा की ओर दे खकर बोले - 'तुम आ


गई श्र्ध ा, मैं तुम् ारी रा दे ख र ा था, य अल्न्तम प्यार लो। आज ी सब
'आगा-पीछा' का अन्त ो जाएगा, जो आज से तीन वषय पूवय आरम्भ ु आ था।
इन तीनों वषों में मुझे जो आल्तमक-यन्त्रणा भमली ै , हृदय ी जानता ै । तुम
वफा की दे वी ो, लेककन मुझे र -र कर भ्रम ोता था, क्या तुम खून के असर
का नाश कर सकती ो? क्या तम
ु एक ी बार अपनी परम्परा की नीतत छोड़
सकोगी? क्या तुम जन्म के प्राकृततक तनयमों को तोड़ सकोगी? इन भ्रमपूणय
ववचारों के भलए शोक न करना। मैं तुम् ारे योग्य न था - ककसी प्रकार भी और
कभी भी तुम् ारे -जैसा म ान हृदय न बना सका। ाूँ, इस भ्रम के वश में पड़कर
सिंसार से मैं अपनी इच्छाएूँ बबना पण
ू य ककए ी जा र ा ू ूँ। तम्
ु ारे अगाि,
तनष्कपट, तनमयल, प्रेम की स्मतृ त सदै व ी मेरे साथ र े गी। ककन्तु ाय
अफसोस...।' क ते-क ते भगतराम की आूँखें बन्द ो गई।

श्र्ध ा के मख
ु पर गाढी लाभलमा दौड़ गई। उसके आूँसू सख
ू गए। झक
ु ी ुई
गरदन तन गई। माथे पर बल पड़ गए। आूँखों में आतम-स्वाभभमान की झलक
आ गई। व क्षण भर व ाूँ खड़ी र ी और दस
ू रे ी क्षण नीचे आकर अपनी गाड़ी
में बैठ गई।

कोककला उसके पीछे -पीछे दौड़ी ु ई आई और बोली - 'बेटी, य क्रोि करने का


अवसर न ीिं ै ! तुम् ारे र ने से बुड्ढों को ढाढस बूँिा र े गा।'

श्र्ध ा ने कुछ उततर न हदया। 'घर चलो,' य क कर कोककला भी गाड़ी में बैठ
गई।

असह्य शीत पड़ र ा था। आकाश में काले बादल छाए ु ए थे। शीतल वायु चल
र ी थी। माघ के अल्न्तम हदवस थे। वक्ष
ृ , पेड़-पौिे भी शीत से अकड़े ु ए थे।
हदन के आठ बज गए थे, अभी तक लोग रजाई के भीतर मूँु लपेटे ु ए थे।
लेककन श्र्ध ा का शरीर पसीने से भीगा ु आ था। ऐसा मालूम ोता था कक सूयय
की सारी उष्णता उसके शरीर के अिंगों में घुस गई ै । उसके ोंठ सूख गए थे,
प्यास से न ीिं, आिंतररक ििकती ु ई अल्ग्न की लपटों से। उसका एक-एक अिंग
उस अल्ग्न की भीषण आूँच से जला जा र ा था। उसके मख
ु से बार-बार जलती

ु ई गमय साूँस तनकल र ी थी, मानो ककसी चक


ू े की लपट ो। घर प ु ूँचते-प ु ूँचते
उसका फूल-सा मख
ु मभलन ो गया, ोठ पीले पड़ गए, जैसे ककसी काले साूँप ने
डस भलया ो। कोककला बार-बार अश्रुपूणय नेत्रों से उसकी ओर ताकती थी, पर
क्या क े और क्या क कर समझाए।
घर प ु ूँ चकर श्र्ध ा अपने ऊपर के कमरे की ओर चली। ककन्तु उसमें इतनी
शल्क्त न थी कक सीहढयाूँ चढ सके। रस्सी को मजबत
ू ी से पकड़ती ु ई ककसी
तर अपने कमरे में प ु ूँ ची। ाय, आिे ी घिंटे पूवय य ाूँ की एक-एक वस्तु पर
प्रसन्नता, आह्लाद, आशाओिं की छाप लगी ु ई थी, पर अब सब-की-सब भसर
िुनती ु ई मालूम ोती थी। बड़े-बड़े सिंदक
ू ों में जोडे सजाए ु ए रखे थे, उन् ें
दे खकर श्र्ध ा के हृदय में एक ू क उठी और व धगर पड़ी, जैसे वव ार करता ु आ
और कुलाचें भरता ु आ ह रन तीर लग जाने पर धगर पड़ता ै।

अचानक उसकी दृल्ष्ट उस धचत्र पर जा पड़ी, जो आज तीन वषय से उसके जीवन


का आिार ो र ा था। उस धचत्र को उसने ककतनी बार चूमा था, ककतनी बार
गले लगाया था, ककतनी बार हृदय से धचपका भलया था। वे सारी बातें एक-एक
करके याद आ र ी थीिं लेककन उन् ें याद करने का भी अधिकार उसे न था।

हृदय के भीतर एक ददय उठा, जो प ले से क ीिं अधिक प्राणािंतकारी था - जो


प ले से अधिक तफ
ू ान के समान भयिंकर था। ाय! उस मरने वाले के हदल को
उसने ककतनी यिंत्रणा प ु ूँ चाई! भगतराम के अववश्वास का य जवाब, य
प्रतयुततर ककतना रोमािंचकारी और हृदय-ववदारक था। ाय! व कैसे इतनी तनठुर
ो ई! उसका प्यार उसकी तनगा ों के सामने दम तोड़ र ा था! उसके भलए
उसकी सािंतवना के भलए एक शब्द भी मूँु से न तनकला! य ी तो खून का असर
ै । इसके अततररक्त और ो ी क्या सकता था। आज प ली बार श्र्ध ा को
कोककला की बेटी ोने का पछतावा ु आ। व इतनी स्वाथयरत, इतनी हृदय ीन ै
- आज ी उसे मालम
ू ु आ। व तयाग, व सेवा, व उच्चादशय, ल्जस पर उसे
घमिंड था, ढ कर श्र्ध ा के सामने धगर पड़ा। व अपनी ी दृल्ष्ट में अपने को ेय
समझने लगी। उसी स्वगीय प्रेम का ऐसा नैराश्यपूणय उततर वेश्या की पुत्री के
अततररक्त और कौन दे सकता ै।

श्र्ध ा उसी समय कमरे से बा र तनकलकर, वायु-वेग से सीहढयाूँ उतरती ु ई नीचे


प ु ूँची और भगतराम के मकान की ओर दौड़ी। व आखखरी बार उससे गले
भमलना चा ती थी, अल्न्तम बार उसके दशयन करना चा ती थी, व अनन्त प्रेम
के कहठन बन्िनों को तनभाएगी और अल्न्तम श्वास तक उसी की ी बनकर
र े गी!

रास्तें में कोई सवारी न भमली। श्र्ध ा थकी जा र ी थी। भसर से पाूँव तक पसीने
से न ाई ई थी! न मालम
ू ककतनी बार व ठोकर खाकर धगरी और कफर उठकर
दौड़ने लगी! उसके घुटनों से रक्त तनकल र ा था। साड़ी कई जग से फट गई
थी, मगर उस वक्त अपने तन-बदन की सुि तक न थी। उसका एक-एक रोआूँ
किंठ ो- ोकर ईश्वर से प्राथयना कर र ा था कक उस प्रातःकाल के दीपक की लौ
थोड़ी दे र और बची र े । उसके मूँु से एक बार 'श्र्ध ा' का शब्द सुनने के भलए
उसकी अन्तरातमा ककतनी व्याकुल ो र ी थी। केवल य ी एक शब्द सन
ु कर
कफर उसकी कोई भी इच्छा अपण
ू य न र जाएगी, उसकी सारी आशाएूँ सफल ो
जाएगी, सारी साि पूणय ो जाएगी।

श्र्ध ा को दे खते ी चौिराइन ने उसका ाथ पकड़ भलया और रोती ु आ बोली -


'बेटी, तम
ु क ाूँ चली गई थी? दो बार तम्
ु ारा नाम लेकर पक
ु ार चक
ु े ै ।'

श्र्ध ा को ऐसा मालूम ु आ, मानो उसका कलेजा फटा जा र ा ै । उसकी आूँखें


पतथर बन गई। उसे ऐसा मालम
ू ोने लगा कक व अगाि, अथा समद्र
ु की
भूँवर में पड़ गई ै । उसने कमरे में जाते ी भगतराम के पैरों पर भसर रख
हदया और उसे आूँखों के गरम पानी से िोकर गरम करने का उपाय करने लगी।
य ी उसकी सारी आशाओिं और कुछ अरमानों की समाधि थी।

भगतराम ने आूँख खोलकर क ा - 'क्या तुम ो श्र्ध ा? मैं जानता था कक तुम


आओगी, इसीभलए अभी तक प्राण अवशेष थे। जरा मेरे हृदय पर अपना भसर रख
दो। ाूँ, मुझे अब ववश्वास ो गया कक तुमने मुझे क्षमा कर हदया, जी डूब र ा ै।
तुमसे कुछ माूँगना चा ता ू ूँ , पर ककस मूँु से मागूँ.ू जब जीते-जी न माूँग सका
तो अब क्या ै ?'
मारी अल्न्तम घडड़याूँ ककसी अपण
ू य साि को अपने ह य के भीतर तछपाए ु ए
ोती ै , मतृ यु प ले मारी सारी ईष्याय, सारा भेदभाव, सारा द्वेष नष्ट करती ै।
ल्जनकी सूरत से में घण
ृ ा ोती ै , उनसे कफर व ी पुराना सौ ादय , पुरानी मैत्री के
भलए, उनको गले लगाने के भलए म उतसुक ो जाते ै । जो कुछ कर सकते थे
और न कर सके - उसी की एक साि र जाती ै । भगतराम ने उखड़े ु ए
ववषादपूणय स्वर में अपने प्रेम की पुनरावल्तत श्र्ध ा के सामने की। उसी स्वगीय
तनधि को पाकर व प्रसन्न ो सकता था, उसका उपयोग कर सकता था, ककन्तु
ाय, आज व जा र ा ै , अपण
ू य सािों की स्मतृ त भलए ु ए! ाय रे , अभाधगन
साि!

श्र्ध ा भगतराम के वक्ष स्थल पर झुकी ु ई रो र ी थी। भगतराम ने भसर उठाकर


उसके मुरझाए ु ए, आूँसुओिं से िोए ु ए स्वच्छ कपोलों को चूम भलया, मरती ु ई
साि की व अल्न्तम ूँसी थी।

भगतराम ने अवरू्ध किंठ से क ा - 'य मारा और तुम् ारा वववा ै श्र्ध ा -


य मेरी अल्न्तम भेट ै।'

य क ते ु ए उसकी आूँखें मेशा के भलए बन्द ो गई! साि भी मरकर धगर


पड़ी।

श्र्ध ा की आूँखें रोते-रोते लाल ो र ी थी। उसे ऐसा मालम


ू ु आ मानो भगतराम
उसके सामने प्रेमाभलिंगन का सिंकेत करते ु ए मुस्करा र े ै। व अपने दशा,
काल , स्थान, सब भूल गई। जख्मी भसपा ी अपनी जीत का समाचार पाकर
अपना ददय , अपनी पीड़ा भूल जाता ै । क्षण भर के भलए मौत भी ेय ो जाती
ै । श्र्ध ा का भी य ी ाल ु आ। व भी अपना जीवन प्रेम की तनठुर वेदी पर
उतसगय करने के भलए तैयार ो गई, ल्जस पर लैला और मजनिंू, शीरी और फर ाद
न ीिं, जारों ने अपनी बभल चढा दी।
उसके चम्
ु बन का उततर दे ते ु ए क ा - 'प्यारे , मैं तम्
ु ारी ू ूँ और सदा तम्
ु ारी
ी र ू ूँगी।'

***
प्रेम का उदय

भोंद ू पसीने में तर, लकड़ी का एक गट्ठा भसर पर भलए आया और उसे जमीन पर
पटककर बिंटी के सामने खड़ा ो गया, मानो कुछ पछ
ू र ा ो - क्या अभी तेरा
भमजाज ठीक न ीिं ू आ?

सन्ध्या ो गई थी, कफर भी लू चलती थी और आकाश पर गदय छाई ु ई थी।


प्रकृतत, रक्त शून्य दे की भाूँतत भशधथल ो र ी थी।

भोंद ू प्रातःकाल घर से तनकला था। दोप री उसने एक पेड़ की छाूँ में काटी थी।
समझा था - इस तपस्या से दे वीजी का मूँु सीिा ो जाएगा, लेककन आकर दे खा
तो व अब भी कोप भवन में थी।

भोंद ू ने बातचीत छे ड़ने के इरादे से क ा - लो, एक लोटा पानी दे दो, बड़ी प्यास
लगी ैं, मर गया सारे हदन, बाजार जाऊूँगा तो तीन आने से बेसी न भमलें गे, दो-
चार सािंडे भमल जाते, तो मे नत सफ
ु ल ो जाती।

बिंटी ने भसरकी के अन्दर बैठे-बैठे क ा - िरम भी लूटोगे और पैसे भी, मूँु िो


रखो।

भोंद ू ने भूँवे भसकोडकर क ा - क्या िरम-िरम बकती ैं! िरम करना ूँसी-खेल
न ीिं ैं, िरम व करता ैं , ल्जसे भगवान ने माना ो, म क्या खाकर िरम करें ,
भर-पेट चबेना तो भमलता न ीिं, िरम करें गे।

बिंटी ने अपना वार ओछा पड़ता दे खकर चोट पर चोट की - सिंसार में कुछ ऐसे
म ातमा ैं , जो अपना पेट चा े न भर सकें, पर पड़ोभसयों को नेवता दे ते कफरते ैं ,
न ीिं तो सारे हदन बन-बन लकड़ी न तोड़ते-कफरते, ऐसे िरमातमा लोगों को
मे ररया रखने की क्यों सझ
ू ती ैं, य मेरी समझ में न ीिं आता, िरम की गाड़ी
क्या अकेले न ीिं खीिंचती बनती?
भोंद ू इस चोट से ततलभमला गया। उसकी ल्ज रदार नसें तन गई, माथे पर बल
पड़ गए। इस अबला का मूँु व एक डपट में बन्द कर सकता था, पर डाूँट-डपट
उसने न सीखी थी। ल्जसके पराक्रम की सारे किंजड़ों में िूम थी, जो अकेला सौ-
पचास जवानों का नशा उतार सकता था, व इस अबला के सामने चूँू तक न
कर सका।

भोंद ू दबी जबान में बोला - मे ररया िरम बेचने के भलए न ीिं लाई जाती, िरम
पालने के भलए लाई जाती ैं।

य किंजड़-दिं पती आज तीन हदन से और कई किंजड़ पररवारों के साथ इस बाग


में उतरा ु आ था। सारे बाग में भसरककयाूँ- ी-भसरककयाूँ हदखाई दे ती थी। उसी
तीन ाथ चौड़ी और चार ाथ लम्बी भसरकी के अन्दर एक-एक परू ा पररवार
जीवन के समस्त व्यापारों के साथ ककपवास-सा कर र ा था। एक ककनारे चक्की
थी, एक ककनारे रसोई का स्थान, एक ककनारे दो-एक अनाज के मटके। द्वार पर
एक छोटी-सी खटोली बालकों के भलए पड़ी थी। रे क पररवार के साथ दो-दो भैसे
या गिे थे। जब डेरा कूच ोता था तो सारी ग ृ स्थी इन जानवरों पर लाद दी
जाती थी। य इन कजड़ों का जीवन था।

सारी बस्ती एक साथ चलती थी। आपस में ी शादी-ब्या , लेने-दे ने, झगड़े-टिं टे
ोते र ते थे, इस दतु नया के बा र वाला अखखल सिंसार उनके भलए केवल भशकार
का मैदान था। उनके ककसी इलाके में प ु ूँचते ी व ाूँ की पुभलस तुरन्त आकर
अपनी तनगरानी में ले लेती थी। पड़ाव के चारों तरफ चौकीदार का प रा ो
जाता था। स्त्री या पुरुष ककसी गाूँव में जाते तो दो-चार चौकीदार उनके साथ ो
लेते थे। रात को भी उनकी ाल्जरी ली जाती थी। कफर भी आस-पास के गाूँव में
आतिंक छाया ु आ था। किंजड़ लोग ब ु िा घरों में घुसकर जो चीज चा ते, उठा
लेत,े उनके ाथ में जाकर कोई चीज लौट न सकती थी, रात में ये लोग अकसर
चोरी करने तनकल जाते थे। चौकीदारों को उनसे भमले र ने में ी अपनी कुशल
दीखती थी, कुछ ाथ में लगता था और जान भी बची र ती थी, सख्ती करनें में
प्राणों का भय था, कुछ भमलने का तो ल्जक्र ी क्या क्योंकक किंजड़ लोग एक
सीमा के बा र ककसी का दबाव न मानते थे। बस्ती में अकेला भोंद ू अपनी
मे नत की कमाई खाता था, उसकी स्वतिंत्र आतमा अपने बा ु बल से प्राप्त ककसी
वस्तु का ह स्सा दे ना स्वीकार न करती थी इसभलए व य नौबत आने न दे ता
था।

बिंटी को पतत की य आचार-तनष्ठा एक आूँख न भाती थी, उसकी और ब नें


नई-नई साडड़याूँ और नए-नए आभूषण प नती तो बिंटी उन् ें दे ख-दे खकर पतत
की अकमयण्यता पर कुढू़ ती थी। इस ववषय पर दोनों में ककतने ी सिंग्राम ो चुके
थे लेककन भोंद ू अपना परलोक बबगाड़ने पर राजी न ोता था। आज भी
प्रातःकाल य ी समस्या आ खड़ी ु ई थी और भोंद ू लकड़ी काटने जिंगलों में
तनकल गया था, सािंड़े भमल जाते, तो आूँसू पूँछ
ु ते पर आज सािंड़े भी न भमले।

बिंटी ने क ा - ल्जनसे कुछ न ी ो सकता, व ी िरमातमा बन जाते ैं , रािंड़ अपने


मािंड़ ी में खश
ु ैं।

भोंद ू ने पूछा - तो मैं तनखट्टू ू ूँ ?

बिंटी ने इस प्रश्न का सीिा-सादा उततर न दे कर क ा - मैं क्या जानूँ,ू तुम क्या


ो? मैं तो य ी जानती ू ूँ कक य ाूँ िेले-िेले की चीज के भलए तरसना पड़ता ैं ,
य ीिं सबको प नते-ओढते, ूँसते-खेलते दे खती ू ूँ , क्या मुझे प नने-ओढने, ूँसने-
खेलने की साि न ीिं ैं ? तुम् ारे पकले पड़कर ल्जन्दगानी नष्ट ो गई ैं।

भोंद ू नें एक क्षण ववचार-मग्न र कर क ा - जानती ैं, पकड़ा जाऊूँगा तो तीन


साल से कम की सजा न ोगी।

बिंटी ववचभलत न ोकर बोली - जब और लोग न ीिं पकड़े जाते, तो तुम् ीिं पकड़े
जाओगे?
'और लोग पभु लस को भमला लेते ैं, थानेदार के पाूँव स लाते ैं, चौकीदार की
खश
ु ामद करते ैं, तू चा ती ैं, मैं भी औरों की तर सबकी धचरौरी करता कफरूूँ?'

बिंटी ने अपनी ठ न छोड़ा - मैं तुम् ारे साथ सती ोने न ीिं आई, कफर तुम् ारे
छुरे -गिंडासे से कोई क ाूँ तक डरे , जानवर को भी जब घास-भस
ू ा न ीिं भमलता, तो
पग ा तड़
ु ाकर ककसी के खेत में पैठ जाता ैं, मैं तो आदमी ू ूँ।

भोंद ू ने इसका कुछ जवाब न हदया, उसकी स्त्री कोई दस


ू रा घर कर ले, य
ककपना उसके भलए अपमान से भरी थी, आज बिंटी ने प ली बार य िमकी दी,
अब तक भोंद ू इस तरफ से तनल्श्चिंत था, अब य नई सम्भावना उसके सम्मख

उपल्स्थत ु ई, उस दहु दय न को व अपना काबू चलते अपने पास न आने दे गा।
आज भोंद ू की दृल्ष्ट में व इज्जत न ीिं र ी, व भरोसा न ीिं र ा, मजबूत दीवार
को हटकौने की जरूरत न ीिं, जब दीवार ह लने लगती ैं, तब में उसको
सम्भालने की धचन्ता ोती ैं , आज भोंद ू को अपनी दीवार ह लती मालूम ोती
थी।

आज तक बिंटी अपनी थी, व ल्जतना अपनी ओर से तनल्श्चिंत था, उतना ी


उसकी ओर से भी था। व ल्जस तर खुद र ता था, उसी तर उसको भी रखता
था, जो खद
ु खाता था, व ीिं उसको भी खखलाता था, उसके भलए कोई ववशेष किक
न थी पर आज उसे मालूम ु आ कक व अपनी न ीिं ैं , अब उसका ववशेष रूप
से सतकार करना ोगा, ववशेष रूप से हदलजोई करनी ोगी।

सय
ू ायस्त ो गया, उसने दे खा, उसका गिा चरकर चप
ु चाप भसर झक
ु ाए चला आ
र ा ैं, भोंद ू ने कभी उसके खाने-पीने की धचन्ता न की थी क्योंकक गिा ककसी
और को अपना स्वामी बनाने की िमकी न दे सकता था। भोंद ू ने बा र आकर
आज गिे को पुचकारा, उसकी पीठ स लाई और तुरन्त उसे पानी वपलाने के
भलए डोल और रस्सी लेकर चल हदया।
इसके दस
ू रे ी हदन कस्बे में एक िनी ठाकुर के घर चोरी ो गई, उस रात को
भोंद ू अपने डेरे पर न था। बिंटी ने चौकीदार से क ा - व जिंगल से न ीिं लौटा।
प्रातःकाल भोंद ू आ प ु ूँचा, उसकी कमर में रुपयों की एक थैली थी, कुछ सोने के
ग ने भी थे। बिंटी ने तुरन्त ग नों को ले जाकर एक वक्ष
ृ की जड़ में गाड़ हदया,
रूपयों की क्या प चान ो सकती थी।

भोंद ू ने पूछा - अगर कोई पूछे, इतने रुपये क ाूँ भमले, तो क्या क ोगी?

बिंटी ने आूँखें नचाकर क ा - क दूँ ग


ू ी, क्यों बताऊूँ? दतु नया कमाती ैं, तो ककसी
के ह साब दे ने जाती ैं? मीिं क्यों अपना ह साब दे ।

भोंद ू ने सिंहदग्ि भाव से गदय न ह लाकर क ा - य क ने से गला न छूटे गा, बिंटी,


तू क दे ना, मैं तीन-चार मास से दो-दो, चार-चार रुपए म ीना जमा करती आई

ू ूँ , मारा खरच ी कौन बड़ा लम्बा ैं।

दोनों ने भमलकर ब ु त से जवाब सोच तनकाले - जड़ी-बूहटयाूँ बेचते ैं, एक-एक


जड़ी के भलए मट्ठ
ु ी-भर रुपए भमल जाते ो, खस, सािंड़े, जानवरों की खाले, नख और
चबी, सभी बेचते ैं।

इस ओर से तनल्श्चत ोकर दोनो बाजार चले। बिंटी ने अपने भलए तर -तर के


कपड़े, चडू ड़याूँ, हटकुभलयाूँ, बन्
ु दे , सेंदरु , पान-तमाखू, तेल और भमठाई ली। कफर दोनो
जने शराब की दक
ु ान पर गए। खब
ू शराब पी, कफर दो बोतल शराब रात के भलए
लेकर दोनों घूमते-घामते, गाते-बजाते घड़ी रात गए डेरे पर लौटे । बिंटी के पाूँव
आज जमीन पर न पड़ते थे। आते ी बन-ठनकर पड़ोभसयों को अपनी छवव
हदखाने लगी। जब व लौटकर अपने घर आई और भोजन पकाने लगी, तब
पड़ोभसयों ने हटप्पखणयाूँ करनी शुरू कीिं - क ीिं ग रा ाथ मारा ैं।

'बड़ा िरमातमा बना कफरता था।'


'बगला भगत ैं'

'बिंटी तो आज जैसे वा में उड़ र ी ैं।'

'आज भोंदआ
ु की खाततर ो र ी ैं, न ीिं तो कभी एक लुहटया पानी दे ने भी न
उठती थी।'

रात को भोंद ू को दे वी की याद आई, न ीिं तो कभी एक लहु टया पानी दे ने पर


बकरे का बभलदान न ककया था, पुभलस को भमलाने में ज्यादा खचय था, कुछ
आतम-सम्मान भी खोना पड़ता, दे वीजी केवल एक बकरे में राजी ो जाती ै। ाूँ,
उससे एक गलती जरूर ु ई थी, उसकी बबरादरी के और लोग सािारणतया
काययभसव्ध के प ले ी बभलदान हदया करते थे। भोंद ू ने य खतरा न भलया, जब
तक माल ाथ न आ जाए, उसके भरोसे पर दे वी-दे वताओिं को खखलाना उसकी
व्यावसाभसक बवु ्ध को न जूँचा। औरों से अपने कृतय को गप्ु त रखना भी चा ता
था। इसभलए ककसी को सूचना भी न दी, य ाूँ तक कक बिंटी से भी न क ा। बिंटी
तो भोजन बना र ी थी, व बकरे की तलाश में घर से तनकल पड़ा।

बिंटी ने पछ
ू ा - 'अब भोजन करने के जन
ू क ाूँ चले?'

'अभी आता ू ूँ।'

'मत जाओ, मुझे डर लगता ै ।'

भोंद ू स्ने के नवीन प्रकाश से खखलकर बोला - 'मझ


ु े दे र न लगेगी, तू य
गिंड़ासा अपने पास रख ले।'

उसने गिंड़ासा तनकालकर बिंटी के पास रख हदया और तनकला, बकरे की समस्या


बेढब थी, रात को बकरा क ाूँ से लाता? इस समस्या को भी उसने एक नए ढिं ग
से ल ककया। पास की बस्ती में एक गड़ररए के पास कई बकरे पले थे। उसने
सोचा, व ीिं से एक बकरा उठा लाऊूँ, दे वीजी को अपने बभलदान से मतलब ै , या
इससे कक बकरा कैसे आया और क ाूँ से आया।

मगर बस्ती के समीप प ु ूँचा ी था कक पुभलस के चार चौकीदारों ने उसे


धगरफ्तार कर भलया और मश्ु कें बाूँिकर थाने लें चले।

बिंटी भोजन पकाकर अपना बनाव-भसिंगार करने लगी, आज उसे अपना जीवन
सफल जान पड़ता था। आनन्द से खखली जाती थी। आज जीवन में प ली बार
उसके भसर में सग
ु िंधित तेल पड़ा था। आईना उसके पास एक अिंिा-सा पड़ा ु आ
था। आज व नया आईना लाई थी। उसके सामने बैठकर उसने अपने के श
सिंवारे , मूँु पर उबटन मला, साबुन लाना भूल गई थी, सा ब लोग साबुन लगाने
से ी तो इतने गोरे ो जाते ै । साबुन ोता, तो उसका रिं ग कुछ तो तनखर
जाता। कल व अवश्य साबुन की कई बहटयाूँ लाएगी और रोज लगाएगी, केश
गूँथ
ू कर उसने माथे पर अलसी का लुआब लगाया, ल्जसमें बाल और न बबखरने
पाए। कफर पान लगाया, चूना ज्यादा ो गया था, गलफड़ों में छाले पड़ गए
लेककन उसने समझा शायद पान खाने का य ी मजा ै । आखखर कड़वी भमचय भी
तो लोग मजे से खाते ै । गुलाबी साड़ी प न और फूलों का गजरा गले में
डालकर उसने आईने में अपनी सूरत दे खी, तो उसके आबनूसी रिं ग पर लाली दौड़
गई, आप ी आप लज्जा से उसकी आूँखें झुक गई। दररद्रता की आग से नारीतव
भी भस्म ो जाता ै , नारीतव की लज्जा का क्या ल्जक्र, मैले-कुचैले कपड़े
प नकर लज्जाना ऐसा ी ै , जैसे कोई चबैने में सग
ु न्ि लगाकर खाए।

इस तर सजकर बिंटी भोंद ू की रा दे खने लगी। जब अब भी व न आया, तो


उसका जी झुिंझलाने लगा, रोज तो साूँझ ी से द्वार पर पड़ र ते थे , आज न-
जाने क ाूँ जाकर बैठे र े , भशकारी अपनी बन्दक
ू भर लेने बाद इसके भसवा और
क्या चा ता ै कक भशकार सामने आए। बिंटी के सूखे हृदय में आज पानी पड़ते
ी उसका नारीतव अिंकुररत ो गया, झिंझ
ु ला ट के साथ उसे धचिंता भी ोने लगी,
उसने बा र तनकालकर कई बार पक
ु ारा। उसके किंठस्वर में इतना अनरु ाग कभी
न था, उसे कई बार भान ु आ कक भोंद ू आ र ा ै। व र बार भसरकी के
अन्दर दौड़ आई और आईने में सूरत दे खी कक कुछ बबगड़ न गया ो, ऐसी
िड़कन, ऐसी उलझन, उसकी अनुभूतत से बा र थी।

बिंटी सारी रात भोंद ू के इिंतजार में उद्ववग्न र ी, ज्यों-ज्यों रात बीतती थी, उसकी
शिंका तीव्र ोती जाती थी, आज ी उसके वास्तववक जीवन का आरम्भ ु आ था,
और आज ी य ाल।

प्रातःकाल व उठी, तो अभी अूँिेरा ी था, इस रतजगे से उसका धचतत खखन्न


और सारी दे अलसाई ु ई थी, र -र कर भीतर से ल र भी उठती थी, आूँखें भर-
भर आती थी।

स सा ककसी ने क ा - 'अरे बिंटी, भोंद ू रात पकड़ा गया।'

बिंटी थाने प ु ूँची तो पसीने में तर थी और दम फूल र ा था। उसे भोंद ू पर दया
न थी, क्रोि आ र ा था। सारा जमाना य ी काम करता ै और चैन की बिंसी
बजाता ै । उन् ोंने क ते-क ते ाथ भी लगाया, तो चूक गए। न ीिं स ू र था तो
साफ क दे त,े मझ
ु से य काम न ोगा, मैं य थोड़े ी क ती थी कक आग में
फािंद पड़ो।

उसे दे खते ी थानेदार ने िौंस जमाई - 'य ी तो ै भोंदआ


ु की औरत, इसे भी
पकड़ लो।'

बिंटी ने े कड़ी जताई - ' ाूँ- ाूँ, पकड़ लो, य ाूँ ककसी से न ीिं डरते, जब कोई काम
ी न ीिं करते, तो डरें क्यों।' अफसर और मात त सभी की अनुरक्त आूँखें बिंटी
की ओर उठने लगी, भोंद ू की तरफ से हदल कुछ नमय ो गए, उसे िप
ू से छाूँ में
बैठा हदया गया, उसके दोनों ाथ पीछे बूँिे ु ए थे और िल
ू -िस
ू ररत काली दे
पर भी जूतों और कोड़ो की रक्तमय मार साफ नजर आ र ी थी। उसने एक
बार बिंटी की ओर दे खा, मानो क र ा था - 'दे खना, क ीिं इन लोगों के िोखे में
न आ जाना।'

थानेदार ने डाूँट बताई - 'जरा इसकी दीदा-हदलेरी दे खो, जैसे दे वी ी तो ै मगर


इस फेर में न र ना, य ाूँ तुम लोगों की नस-नस प चानाता ू ूँ , इतने कोड़े
लगाऊूँगा कक चमड़ी उड़ जाएगी, न ीिं तो सीिे से कबूल दो, सारा माल लौटा दो,
इसी में खैररयत ै।'

भोंद ू ने क ा - 'क्या कबूल ै , जो दे श को लूटते ै , उनसे तो कोई न ीिं बोलता,


जो बेचारे अपनी गाढी कमाई की रोटी खाते ै , उनका गला काटने को पुभलस भी
तैयार र ती ै। मारे पास ककसी को नजर-भें ट दे ने के भलए पैसे न ीिं ै ।'

थानेदार ने कठोर स्वर में क ा - ' ाूँ- ाूँ, जो कुछ कोर-कसर र गई ो, व पूरी
कर दे , ककरककरी न ोने पाए मगर इन बैठकबाल्जयों से बच न ीिं सकते। अगर
एकबाल न ककया, तो तीन साल को जाओगे, मेरा क्या बबगड़ता ै । अरे छोटे भसिं ,
जरा लाल भमचय की िन
ू ी तो दो इसे। कोठरी बन्द करके पसेरी-भर भमचे सल
ु गा
दो, अभी माल बरामद ु आ जाता ै ।'

भोंद ू ने हढठाई से क ा - 'दारोगाजी, बोटी काट डालो, लेककन कुछ ाथ न लगेगा,


तम
ु ने मझ
ु े रात-भर वपटवाया ै , मेरी एक-एक ड़्डी चरू -चरू ो गई ै , कोई दस
ू रा
ोता तो अब तक भसिार गया ोता। तुम क्या समझते ो, आदमी को रुपए-पैसे
जान से प्यारे ोते ै ? जान ी के भलए तो आदमी सब तर के कुकमय करता ै,
िूनी सुलगाकर भी दे ख लो।'

दारोगाजी को अब ववश्वास आया कक इस फौलाद को झुकाना मुल्श्कल ै , भोंद ू


की मुखाकृतत से श ीदों का-सा आतम-समपयण झलक र ा था। यद्यवप उनके
ु क्म की तामील ोने लगी, कािंस्टे बल ने भोंद ू को एक कोठरी में बन्द कर हदया।
दो आदमी भमचे लाने दौड़े लेककन दारोगा की य्ध
ु -नीतत बदल गई थी। बिंटी का
हृदय क्षोभ से फटा जाता था। व जानती थी, चोरी करके एकबाल कर लेना
किंजड़ जातत की नीतत में म ान लज्जा की बात ै लेककन क्या य सचमुच
भमचय की िूना सुलगा दें गे? इतना कठोर ै इनका हृदय? सालन बिारने में कभी
भमचय जल जाती ै , तो छीिंकों और खािंभसयों के मारे दम तनकलने लगता ै , जब
नाक के पास िन
ू ी सल
ु गाई जाएग तब तो प्राण ी तनकल जाएूँगे।

उसने जान पर खेलकर क ा - 'दारोगाजी, तुम समझते ोंगे कक इन गरीबों की


पीठ पर कोई न ीिं ै लेककन मैं क े दे ती ू ूँ , ाककम से रतती-रतती ाल क दूँ ग
ू ी,
भला चा ते ो तो उसे छोड़ दो, न ीिं तो इसका ाल बरु ा ोगा।'

थानेदार ने मुस्कराकर क ा - 'तुझे क्या, व मर जाएगा, ककसी और के नीचे बैठ


जाना। जो कुछ जमा-जथा लाया ोगा, व तो तेरे ी ाथ में ोगी। क्यों न ीिं
एकबाल करके उसे छुड़ा लेती। मैं वादा करता ू ूँ , मक
ु दमा न चलाऊूँगा। सब माल
लौटा दे । तन
ू े ी उसे मिंत्र हदया ोगा, गल
ु ाबी साड़ी, पान और खश
ु बद
ू ार तेल के
भलए तू ललचा र ी ोगी, उसकी इतनी सािंसत ो र ी ै और तू खड़ी दे ख र ी
ै ।'

शायद बिंटी की अन्तरातमा को य ववश्वास न था कक ये लोग इतने अमानुषीय


अतयाचार कर सकते ै लेककन जब सचमुच िूनी सुलगा दी गई, भमचय क तीखी
ज रीली झार फैली और भोंद ू के खाूँसने की आवाजें कानों में आई, तो उसकी
आतमा कातर ो उठी। उसका व दस्
ु सा स झूठे रिं ग की भाूँतत उड़ गया। उसने
दारोगाजी के पाूँव पकड़ भलए और दीन भाव से बोली - 'माभलक, मुझ पर दया
करो, मैं सब कुछ दे दूँ ग
ू ी।' िन
ू ी उसी वक्त टा ली गई।

भोंद ू ने सशिंक ोकर पूछा - 'िूनी क्यों टाते ो?'


एक चौकीदार ने क ा - 'तेरी औरत ने एकबाल कर भलया।'

भोंद ू की नाक, आूँख और मूँु से पानी जारी था, भसर चक्कर खा र ा था, गले की
आवाज बन्द-सी ो गई थी, पर व वाक्य सुनते ी व सचेत ो गया, उसकी
दोनों महु ट्ठयाूँ बिंि गई कफर बोला -'क्या क ा?'

'क्या क ा, चोरी खल
ु गई दारोगाजी माल बरामद करने गए ु ए ै । प ले की
एकबाल कर भलया ोता, तो क्यों इतनी सािंसत ोती?'

भोंद ू ने गजरकर क ा -'व झूठ बोलती ै ।'

'व ाूँ माल बरामद ो गया, तुम अभी अपनी ी गा र े ो।'

परम्परा की मयायदा को अपने ाथों भिंग ोने की लज्जा से भोंद ू का मस्तक


झुक गया। इस घोर अपमान के बाद उसे अपनी जीवन दया, घण
ृ ा और ततरस्कार
इन सभी दशाओिं से तनखखद जान पड़ता था। व अपने समाज में पततत ो गया
था।

स सा बिंटी आकर खड़ी ो गई और कुछ क ना ी चा ती थी कक भोंद ू की


रौद्रमुद्रा दे खकर उसकी जबान बन्द ो गई, उसे दे खते ी भोंद ू की आ त
मयायदा ककसी आ त सपय की भाूँतत तड़प उठी, उसने बिंटी को अिंगारों-सी तपती

ु ई लाल आूँखों से दे खा, उन आूँखों में ह स


िं ा की आग जल र ी थी। बिंटी भसर
से पाूँव तक काूँप उठी। व उलटे पाूँव व ाूँ से भागी। ककसी दे वता के अल्ग्नबाण
के समान वे दोनों अिंगारों-सी आूँखें उसके हृदय में चुभने लगी।

थाने से तनकलकर बिंटी ने सोचा, अब क ाूँ जाऊूँ। भोंद ू उसके साथ ोता तो व
पड़ोभसयों के ततरस्कार को स लेती, इस दशा में उसके भलए अपने घर जाना
असम्भव था। वे दोनों अिंगारों-सी आूँखें उसके हृदय में चुभी जाती थीिं लेककन
कल की सौभाग्य-ववभूततयों का मो उसे डेरे की ओर खीिंचने लगा। शराब की
बोतल अभी भी भरी िरी थी, फुलौडड़याूँ छीिंके पर ाड़ी में िरी थी। व तीव्र
लालसा, जो मतृ यु को सम्मख
ु दे खकर भी सिंसार के भोग्य पदाथों की ओर मन
को चलायमान कर दे ती ै , उसे खीिंचकर डेरे की ओर ले चली।

दोप र ो गई थी, व प ाड़ पर प ु ूँची, तो सन्नाटा छाया ु आ था। अभी कुछ


दे र प ले ी जो स्थान जीवन का क्रीड़ा-क्षेत्र बना ु आ था, बबककुल तनजयन ो
गया था। बबरादरीवालों के ततरस्कार का सबसे भयिंकर रूप था। सभी ने उसे
तयाज्य समझ भलया, केवल उसकी भसरकी उस तनजयनता में रोती ु ई खड़ी थी।
बिंटी ने उसके अन्दर पाूँव रखे, तो उसके मन की कुछ व ी दशा ु ई, जो अकेला
घर दे खकर ककसी चोर की ोती ै । कौन-कौन सी चीज समेटे, उस कुटी में उसने
रो-रोकर पाूँच वषय काटे थे पर आज उसे उससे ममता ो र ी थी, जो ककसी माता
को अपने दग
ु ण
ुय ी पत्र
ु को दे खकर ोती ै , जो बरसों के बाद परदे श से लौटा ो।
वा से कुछ चीजें इिर-उिर ो गई थी। उसने तुरन्त उन् ें सम्भाल कर रखा।
फुलौडड़यों की ािंड़ी छीिंके पर कुछ ठिं ड़ी ो गई थी। शायद उसपर बबकली झपटी
थी, उसने जकदी से ािंड़ी उतारकर दे खी। फुलौडड़याूँ अछूती थी। पानी पर जो
गीला कपड़ा लपेटा था, व सूख गया था। उसने तुरन्त कपड़ा तर कर हदया।

ककसी के पाूँव की आ ट पाकर उसका कलेजा िक-से र गया। भोंद ू आ र ा ै।


उसकी व दोनों अिंगारों-सी आूँखें! उसके रोएूँ खड़े ो गए। भोंद ू के क्रोि का उसे
एक-दो बार अनुभव ो चुका था। लेककन उसने हदल को मजबूत ककया। क्यों
मारे गा? कुछ क े गा, कुछ पूछेगा, कुछ सवाल-जवाब करे गा कक यों ी गिंडासा चला
दे गा। उसने उसके साथ कोई बुराई न ीिं की, आफत से उसकी जान बचाई ै।
मरजाद जान से प्यारी न ीिं ोती। भोंद ू को ोगी, उसे न ीिं ै। क्या इतनी सी
बात के भलए व उसकी जान ले लेगा।
उसने भसरकी के द्वार से झाूँका, भोंद ू न था। केवल उसका गिा चला आ र ा
था।

बिंटी आज उस अभागे-से गिे को दे खकर ऐसा प्रसन्न ु ई, मानो अपना भाई नै र


से बतासों की पोटली भलए थका-माूँदा चला आता ो। उसने जाकर उसकी गदय न
स लाई और उसके थूथन को मूँु से लगा भलया। व उसे फूटी आूँखों न भाता
था पर आज उसने उसे ककतनी आतमीयता ो गई थी। व दोनों अिंगारे -सी आूँखें
उसे घूर र ी थी, व भस र उठी।

उसने कफर सोचा - 'क्या ककसी तर न छोड़ेगा? व रोती ु ई उसके पैरों पर धगर
पड़ेगी, क्या तब भी न छोड़ेगा? इन आूँखों की व ककतनी सरा ना ककया करता
था, इनमें आूँसू ब ते दे खकर भी उसे दया न आएगी?'

बिंटी ने चक्
ु कड में शराब उिं डेलकर पी ली और छीिंके से फुलौडड़याूँ उतारकर खाई,
जब उसे मरना ी ै , तो साि क्यों र जाए। व अिंगारें -सी आूँखें उसके सामने
चमक र ी थीिं। दस
ु रा चुक्कड़ भरा और पी गई। ज रीला ठराय, ल्जसे दोप र की
गमी ने और भी घातक बना हदया था, दे खते-दे खते उसके मल्स्तक को खौलाने
लगा। बोतल आिी ो गई थी।

उसने सोचा - भोंद ू क े गा, तूने इतनी दारू क्यों पी, तो व क्या क े गी। क दे गी
- ाूँ पी, क्यों न पीए। इसी के भलए तो व सब कुछ ु आ। व एक बूिंद भी न
छोड़ेगी। जो ोना ो, ो। भोंद ू उसे मार न ीिं सकता, इतना तनदय यी न ीिं ै , इतना
कायर न ीिं ै । उसने कफर चक्
ु कड़ भरा और पी गई। पाूँच वषय के वैवाह क जीवन
की अतीत स्मतृ तयािं उसकी आूँखों के सामने खखिंच गई। सैकड़ों ी बार दोनों में
ग ृ -यु्ध ु ए थे। आज बिंटी को र बार अपनी ज्यादती मालम
ू ो र ी थी।
बेचारा जो कुछ कमाता ै . उसी के ाथ पर रख दे ता ै । अपने भलए कभी एक
पैसे की तम्बाकू भी लेता, तो पैसा उसी से माूँगता ै । भोर से साूँझ तक वन-वन
कफरा करता ै ! जो काम उससे न ीिं ोता, व कैसे करे ।
अचानक एक कािंस्टे बल ने आकर क ा - 'अरी बिंटी क ाूँ ै ? चल दे ख, भोंदआ
ू का
ाल-बे- ाल ो र ा ै । अभी तक तो चप
ु चाप बैठा था, कफर न जाने क्या जी में
आया कक एक पतथर पर अपना भसर पटक हदया। ल ू ब र ा ै । अगर म
लोग दौड़कर पकड़ न लेते, तो जान ी दे दी थी।'

एक म ीना बीत गया था। सिंध्या का समय था। काली-काली घटाएूँ छाई थीिं और
मूसलािार वषाय ो र ी थी। भोंद ू की भसरकी अब भी तनजयन स्थान पर खड़ी थी।
भोंद ू खटोली पर पड़ी ु आ था। उसका च े रा पीला पड़ गया था और दे जैसे
सूख गई थी। व सशिंक आूँखों से वषाय की ओर दे खता ै । चा ता ै उठकर
बा र दे खू,ूँ पर उठा न ीिं जाता।

बिंटी भसर पर घास का एक बोझ भलए पानी में लथ-पथ आती हदखलाई दी। व ी
गुलाबी साड़ी ै पर तार-तार, ककन्तु च े रा प्रसन्न ै । ववषाद और ग्लातन के बदले
आूँखों से अनुराग टपक र ा ै , गतत में व चपलता, अिंगों में सजीवता ै , जो
धचतत की शाल्न्त का धचह्न ै । भोंद ू ने क्षीण स्वर से क ा - 'तू इतना भीग र ी
ै , क ीिं बीमार पड़ गई, तो कोई एक घिंट
ू पानी दे नेवाला भी न र े गा। मैं क ता

ू ूँ , तू क्यों इतना मरती ै , दो गट्ठे तो बेच चुकी थी, तीसरा गट्ठा लाने का काम
क्या था, य ािंड़ी में क्या लाई ै ?'

बिंटी ने ािंड़ी को तछपाते ु ए क ा -'कुछ भी तो न ीिं, कैसी ािंड़ी?'

भोंद ू ने जोर लगाकर खटोली से उठा, आूँचल के नीचे तछपी ुई ािंड़ी खोल दी
और उसके भीतर नजर डालकर बोला - 'अभी लौटा, न ीिं तो मैं ािंड़ी फोड़
दूँ ग
ू ा।'
बिंटी ने खटोली पर लेटते ु ए क ा - 'जरा आईने में सरू त दे खो, घी-दि
ू कुछ न
भमलेगा, तो कैसे उठोगे? कक सदा खाट पर सोने का ववचार ै ?'

भोंद ू ने खटोली पर लेटते ु ए क ा - 'अपने भलए तो एक साड़ी न ीिं लाई, ककतना


क के ार गया, मेरे भलए घी और दि
ू सब चाह ए! मैं घी न खाऊूँगा।'

बिंटी ने मुस्कराकर क ा - 'इसभलए तो घी खखलती ू ूँ कक तुम जकदी से काम-


ििंिा करने लगो और मेरे भलए साड़ी लाओ।'

भोंद ू ने मुस्कराकर क ा - 'तो आज जाकर क ीिं सेंि मारूूँ?'

बिंटी ने गाल पर एक ठोकर दे कर क ा - 'प ले मेरा गला काट दे ना, तब जाना।'

***
सिी

मुभलया को दे खते ु ए उसका पतत ककलू कुछ भी न ीिं ैं, कफर क्या कारण ैं कक
मुभलया सन्तुष्ट और प्रसन्न ैं और ककलू धचल्न्तत और सशिंककत?

मुभलया को कौड़ी भमली ैं, उसे दस


ू रा कौन पूछेगा? ककलू को रतन भमला ैं, उसके
सैकड़ो ग्रा क ो सकते ैं , खासकर उसे अपने चचरे भाई राजा से ब ु त खटका
र ता ैं, राजा रूपवान ैं, रभसक ैं, बातचीत में कुशल, ल्स्त्रयों को ररझाना जानता
ैं, इससे ककलू मुभलया को बा र न ीिं तनकलने दे ता। उस पर ककसी की तनगा
भी पड़ जाए, य उसे असह्य ैं , व अब रात-हदन मे नत करता ैं , ल्जससे
मभु लया को ककसी बात का कष्ट न ो। उसे न जाने ककस पव
ू -य जन्म के सिंस्कार
से ऐसी स्त्री भमल गई ैं, उस पर प्राणों को न्योछावर कर दे ना चा ता ैं।
मुभलया का कभी भसर भी दख
ु ता ैं, तो उसकी जान तनकल जाती ैं। मुभलया का
भी य ाल ैं कक जब तक व घर न ीिं आता, मछली की भाूँतत तड़पती र ती
ैं। गाूँव में ककतने ी युवक ैं, जो मुभलया से छे ड़छाड़ करते र ते ैं, पर उस
यव
ु ती की दृल्ष्ट में कुरूप कलआ
ु सिंसार-भर के आदभमयों से अच्छा ैं।

एक हदन राजा ने क ा - भाभी, भैया तुम् ारे जोग न थे।

मुभलया बोली - भाग में तो व भलखे थे, तुम कैसे भमलते?

राजा ने मन में समझा, बस मार भलया ैं कफर बोला - ववधि ने य ी तो भल



की।

मुभलया मुस्कराकर बोली - अपनी भूल तो व ी सुिारे गा। राजा तन ाल ो गया।

तीज के तीन ककलू मुभलया के भलए लट्ठे की साड़ी लाया, चा ता तो था कोई


अच्छी साड़ी ले पर रुपए न थे और बजाज ने उिार न माना।
राजा भी उसी हदन अपने भाग्य की परीक्षा करना चा ता था, एक सन्
ु दर चन्
ु दरी
लाकर मभु लया को भें ट की।

मुभलया ने क ा - मेरे भलए साड़ी आ गई ैं।

राजा बोला - मैंने दे खी ैं, तभी तो लाया ू ूँ, तुम् ारे लायक न ीिं ैं, भैया को
ककफायत भी सूझती ैं, तो ऐसी बातों में ।

मुभलया कटाक्ष करके बोली - तुम समझा क्यों न ीिं दे त?े

राजा पर एक कुक ड़ का नशा चढ गया उसने क ा - बढ


ू ा तोता न ीिं पढती ैं।

मुभलया ने क ा - मुझे तो लट्ठे की साड़ी पसन्द ैं।

राजा ने क ा - जरा य चुन्दरी प नकर दे खों, कैसी खखलती ैं।

मभु लया ने क ा - जो लट्ठा प नकर खश


ु ोता ैं, व चन्
ु दरी प न लेने से खश

न ोगा, उन् ें चुन्दरी पसन्द ोती, तो चन्
ु दरी ी लाते।

राजा ने क ा - उन् ें हदखाने का काम न ीिं ैं?

मुभलया ववस्मय से बोली - मैं क्या उनसे बबना पूछे ले लूँ ग


ू ी?

राजा ने क ा - इसमें पछ
ू ने की कौन-सी बात ैं, जब व काम पर चला जाए,
प न लेना, मैं भी दे ख लूँ ग
ू ा।

मभु लया ठट्ठा मारकर ूँसती ु आ बोली - य न ोगा दे वरजी। क ीिं दे ख लें , तो
मेरी सामत ी आ जाए, इसे तम
ु भलए जाओ।

राजा ने आग्र करके क ा - इसे न लोगी, भाभी, तो मैं ज र खाके सो र ू ूँगा।


मभु लया ने साड़ी उठाकर आले पर रख दी और बोली - अच्छा लो, अब तो खश

ु ए।

राजा ने उूँ गली पकड़ी - अभी तो भैया न ीिं ैं , जरा प न लो।

मुभलया ने अन्दर जाकर चुन्दरी प न ली औऱ फूल की तर म कती-दमकती


बा र आई।

राजा ने प ु ूँचकर पकड़ने को ाथ फैलाया, बोला - ऐसा जी चा ता ैं कक तुम् ें


लेकर भाग जाऊूँ।

मभु लया उसी ववनोद-भाव से बोली - जानते ो, तम्


ु ारे भैया का क्या ाल ोगा?

य क ते ु ए उसने ककवाड़ बन्द कर भलए, राजा को ऐसा मालूम ु आ कक थाली


परोसकर उसके सामने से उठा ली गई।

मभु लया का मन बार-बार करता था कक चन्


ु दरी ककलू को हदखा दे , पर नतीजा
सोचकर र जाती थी, उसने चुन्दरी रख क्यों ली? उसे अपने पर क्रोि आ र ा
था लेककन राजा को ककतना दःु ख ोता, क्या ु आ उसकी चुन्दरी छन-भर प न
लेने से, उसका मन तो र गया।

लेककन उसके प्रशान्त मानस-सागर में य एक कीट आकर उसे मथ र ा था,


उसने क्यों चुन्दरी रख ली? क्या य ककलू के साथ ववश्वासघात न ीिं ैं? उसका
धचतत इस ववचार से ववकल ो गया। उसने मन को समझाया, ववश्वासघात क्यों

ु आ, इसमें ववश्वासघात की क्या बात ैं, कौन व राजा से कुछ बोली? जरा-सा
ूँस दे ने से अगर ककसी का हदल खश
ु ो जाता ैं, तो इसमें बरु ाई क्या ैं?

ककलू ने पूछा - आज रज्जू क्या करने आया था?


मभु लया की दे थर-थर काूँपने लगी, ब ाना कर गई - तमाखू माूँगने आए थे।

ककलू ने भूँवें भसकोड़कर क ा - उसे अन्दर मत आने हदया करो, अच्छा आदमी
न ीिं ैं।

मुभलया ने क ा - मैंने क हदया तमाखू न ीिं ैं, तो चले गए।

ककलू ने अबकी तेजल्स्वता के साथ क ा - क्यों झठ


ू बोलती ैं? व तमाखू
माूँगने न ीिं आया था।

मभु लया ने क ा - तो और य ाूँ क्या करने आते?

ककलू ने क ा - चा े ल्जस काम से आया ो, तमाखू माूँगने न ीिं आया। व


जानता था, मेरे घर में तमाखू न ीिं ैं। मैं तमाखू के भलए उसके घर गया था।

मुभलया की दे काटो तो ल ू न ीिं, च े रे का रिं ग उठ गया।

भसर झक
ु ाकर बोली - मैं ककसी के मन का ाल क्या जानूँू?

आज तीज का रतजगा था। मुभलया पूजा का सामान तैयार कर र ी थी पर इस


तर जैसे मन में जरा भी उतसा , जरा भी श्र्ध ा न ीिं ैं। उसे ऐसा मालम
ू ो र ा
ैं, उसके मख
ु में काभलमा पत
ु गई ैं औऱ अब व ककलू की आूँखों से धगर गई
ैं, उसे अपना जीवन तनरािार-सा जान पड़ता था। सोचने लगी - भगवाने मुझे
य रूप क्यों हदया? य रूप न ोता तो राजा क्यों मेरे पीछे पड़ता और क्यों
आज मेरी य गत ोती? मैं काली-कुरूप र कर इससे क ी सुखी र ती। तब तो
मन इतना चिंचल न ोता, ल्जन् ें रूप की कमाई खानी ो, व रूप पर फूलें, य ाूँ
तो इसने महटयामेट कर हदया।

न जाने कब उसे झपकी आ गई, तो दे खती ैं , ककलू मर गया ैं और राजा घर


में घुसकर उसे पकड़ना चा ता ैं। उसी दम एक व्ध
ृ ा स्त्री न जाने ककिर से
आकर उसे अपनी गोद में ले लेती ैं और क ती ैं - तन
ू े ककलू को क्यों मार
डाला?

मुभलया रोकर क ती ैं - माता, मैंने उन् ें न ीिं मारा।

व्ध
ृ ा क ती ैं - ाूँ, तूने छूरी-कटार से न ीिं मारा, उस हदन तेरा तप छीन ो गया
और इसी से व मर गया।

मुभलया ने चौकन्नी आूँखें खोल दी, सामने आूँगन में ककलू सोया ु आ था, व
दौड़ी ु ई उसके पास गई और उसकी छाती पर भसर रखकर फूट-फूटकर रोने
लगी।

ककलू ने घबराकर पूछा - कौन ैं? मुभलया! क्यों रोती ैं? क्या डर लग र ा ैं , मैं
तो जाग ी र ा ू ूँ।

मभु लया ने भससकते ु ए क ा - मझ


ु से आज एक अपराि ु आ ैं, मझ
ु े क्षमा कर
दो।

ककलू उठ बैठा - क्या बात ैं ? क ो तो रोती क्यों ो?

मुभलया ने क ा - राजा तमाखू माूँगने न ीिं आया था, मैंने तुमसे झूठ क ा था।

ककलू ूँसकर बोला - व तो प ले ी समझ गया था।

मभु लया ने क ा - व मेरे भलए चन्


ु दरी लाया था।

ककलू ने क ा - तुमने लौटा दी?

मुभलया काूँपती ु ई बोली - मैंने ले ली, क ते थे, मैं ज र-मा ु र खा लूँ ग


ू ा।
ककलू तनजीव की भाूँतत खाट पर धगर पड़ा और बोला - तो रूप मेरे बस का न ीिं
ैं। दे व ने कुरूप बना हदया, तो सन्
ु दर कैसे बन जाऊूँ?

ककलू ने मुभलया को खौलते तेल में डाल हदया ोता, तो भी उसे इतनी पीड़ा न
ोती।

ककलू उस हदन से कुछ खोया-खोया सा र ने लगा, जीवन में न व उतसा र ा,


न व आनन्द, ूँसना-बोलना भूल-सा गया, मुभलया ने उसके साथ ल्जतना
ववश्वासघात ककया था, उससे क ीिं ज्यादा उसने समझ भलया और य भ्रम उसके
हृदय में केवटे के समान धचपट गया, व घर अब उसके भलए लेटने-बैठने का
स्थान था और मुभलया केवल भोजन बना दे नेवाली मशीन, आनन्द के भलए व
कभी-कभी ताड़ीखाने चला जाता या चरस के दम भरता।

मभु लया उसकी दशा दे ख-दे खकर अन्दर- ी-अन्दर कुढती थी, व उस बात को
हदल से तनकाल दे ना चा ती थी, इसभलए उसकी सेवा और मन लगा कर करती।
उसे प्रसन्न करने के भलए बार-बार प्रयतन करती। पर व ल्जतना ी उसको
खीिंचने की चेष्ठा करती थी, उतनी ी व उससे ववचलता था, जैसे कोई किंहटए में
फूँसी ु ई मछली ो। कुशल य था कक राजा ल्जस अिंग्रेज के य ाूँ खानसामा था,
उसका तबादला ो गया और राजा उसके साथ चला गया, न ीिं तो दो भाईयों में
से ककसी-न-ककसी का खून जरूर ो जाता। इस तर साल-भर बीत गया।

एक हदन ककलू रात को घर लौटा तो उसे ज्वर था। दस


ू रे हदन उसकी दे में
दाने तनकल आए, मभु लया ने समझा, माता ैं, मान-मनौती करने लगी। मगर चार-
पाूँच हदन में ी दाने बढकर आवले पड़ गए और मालूम ु आ कक य माता न ीिं
ैं, उपदिं श ैं। ककलू के कलुवषत भोग-ववलास का य फल था।

रोग इतनी भयिंकरता से बढने लगा कक आवलों में मवाद पड़ गया और उनमें से
ऐसी दग
ु न्
य ि उड़ने लगी कक पास बैठते नाक फटती थी। दे ातों में ल्जस प्रकार
का उपचार ो सकता था, व मुभलया करती थी पर कोई लाभ न ोता था और
ककलू की दशा हदन-हदन बबगड़ती जाती थी। उपचार की कसर व अबला अपनी
स्ने मयी सेवा से परू ी करती थी, उस पर ग ृ स्थी चलाने के भलए अब मे नत-
मजूरी भी करनी पड़ती थी। ककलू तो अपने ककए का फल भोग र ा था, मुभलया
अपने कततयव्य का पालन करने में मरी जा र ी थी। अगर कुछ सन्तोष ोता, तो
य ककलू का भ्रम उसकी तपस्या से भिंग ोता जाता था, उसे ववश्वास ोने लगा
कक मुभलया अब भी उसी की ैं, व अगर ककसी तर अच्छा ो जाता, तो कफर
उसे हदल में तछपाकर रखता और उसकी पज
ू ा करता।

प्रातःकाल था। मुभलया ने ककलू का ाथ-मूँु िुलाकर दवा वपलाई और खड़ी पिंखा
डुला र ी थी कक ककलू ने आूँसू-भरी आूँखों से दे खकर क ा - मुभलया, मैंने उस
जन्म में कोई भारी तप ककया था कक तू मझ
ु े भमल गई, तम्
ु ारी जग मझ
ु े
दतु नया का राज भमले तो भी न लूँ ।ू

मुभलया ने दोनों ाथों से उसका मूँु बन्द कर हदया और बोली - इस तर की


बातें करोगे, तो मैं रोने लगूँग
ू ी, मेरे िन्य भाग कक तम
ु -जैसा स्वामी भमला।

य क ते ु ए उसने दोनों ाथ पतत के गले में डाल हदए और भलपट गई कफर


बोली - भगवान ने मुझे मेरे पापों का दिं ड हदया ैं।

ककलू ने उतसुकता से पूछा - सच क दो मूला, राजा और तुमने क्या मामला


था?

मुभलया ने ववल्स्मत ोकर क ा - मेरे और उनके बीच में कोई और मामला ु आ


ो, तो भगवान मेरी दग
ु तय त करें , उसने मुझे चुन्दरी दी थी, व मैंने ले ली थी!
कफर मैंने उसे आग में जला हदया। तबसे मैं उससे न ीिं बोली।

ककलू ने ठिं ड़ी साूँस खीिंचकर क ा - मैंने कुछ और ी समझ रखा था , न-जाने
मेरी मतत क ाूँ र गई थी, तुम् ें पाप लगाकर मैं आप पाप में फूँस गया और
उसका फल भोग र ा ू ूँ।
उसने रो-रोकर अपने दष्ु कमों का परदा खोलना शुरू ककया और मुभलया की आूँसू
की लडड़याूँ ब ाकर सुनने लगी, अगर पतत की धचन्ता न ोती, तो उसने ववष खा
भलया ोता।

कई म ीने बाद राजा छुट्टी लेकर घर आया और ककलू की घातक बीमारी का


ाल सुना, तो हदन में खुश ु आ, तीमारदारी के ब ाने से ककलू के घर आने-जाने
लगा। ककलू उसे दे खकर मूँु फेर लेता लेककन व हदन में दो-चार बार प ु ूँच ी
जाता।

एक हदन मुभलया खाना पका र ी थी कक राजा ने रसोई के द्वार पर आकर क ा


- भाभी, क्यों अब भी मुझपर दया न करोगी? ककतनी बेर म ो तुम! कै हदन से
तम्
ु ें खोज र ा ू ूँ , पर तम
ु मझ
ु से भागती कफरती ो, भैया अब अच्छे न ोंगे ,
इन् ें गमी ो गई ैं। इनके साथ क्यों अपनी ल्जन्दगी खराब कर र ी ो?
तुम् ारी फूल-सी दे सूख गई ैं, मेरे साथ चलो, कुछ ल्जन्दगी की ब ार उड़ाए,
य जवानी ब ु त हदन न र े गी, य दे खो, तुम् ारे भलए एक करनफूल लाया ू ूँ ,
जरा प नकर मुझे हदखा दो।

उसने करनफूल मुभलया की ओर बढा हदया। मुभलया ने उसकी तरफ दे खा भी


न ीिं, चूक े की ओर ताकती ु ई बोली - लाला, तुम् ारे पैरों पड़ती ू ूँ, मुझे मत
छे ड़ो. य सारी ववपल्तत तुम् ारी लाई ु ई ैं , तुम् ीिं मेरे शत्रु ो कफर भी तुम् ें
लाज न ीिं आती, क ते ो, भैया अब ककस काम के ैं? मुझे तो अब व प ले से
भी क ीिं ज्यादा अच्छे लगते ैं। जब मैं न ोती, तो व दस
ू री सगाई कर लाते,
अपने ाथों ठोकर खाते, आज मैं ी इनका आिार ू ूँ , व मेरे स ारे जीते ैं, अगर
मैं इस सिंकट में उनके साथ दगा करूूँ, तो मुझसे बढकर अिम कौन ोगा, जबकक
मैं जानती ू ूँ कक इस सिंकट का कारण भी मैं ी ू ूँ।

राजा ने ूँसकर क ा - य तो व ी ु आ, जैसे ककसी की दाल धगर गई, तो उसने


क ा मुझे तो सूखी ी अच्छी लगती ैं।
मुभलया ने भसर उठाकर उसकी ओर सजोत नेत्रों से ताकते ु ए क ा - तुम उनके
पैरों की िूल के बराबर न ीिं ो लाला। क्या क ते ो तुम? उजले कपड़े और
धचकने मुखड़े से कोई आदमी सुन्दर न ीिं ोता, मेरी आूँखों मे तो उनके बराबर
कोई हदखाई न ीिं दे ता।

ककलू ने पुकारा - मूला, थोडा ू़ पानी दे । मुभलया पानी लेकर दौड़ी, चलते-चलते
करनफूल को ऐसा ठुकराया कक आूँगन में जा धगरा।

राजा ने जकदी से करनफूल उठा भलया और क्रोि में भरा ु आ चल हदया।

रोग हदन-पर-हदन बढता गया, हठकाने से दवा-दारू ोती, तो शायद अच्छा ो


जाता , मगर अकेली मुभलया क्या-क्या करती? दररद्रता में बीमारी कोढ का खाज
ैं।

आखखर एक हदन परवाना आ प ु ूँचा, मभु लया घर का काम-िन्िा करके आई, तो


दे खा ककलू की साूँस चल र ी ैं, घबराकर बोला - कैसा जी ैं तुम् ारा?

ककलू ने सजल और दीनता-भरी आूँखों से दे खा और ाथ जोड़कर भसर नीचा कर


भलया, य ीिं अल्न्तम बबदाई थी।

मुभलया सीने पर भसर रखकर रोने लगी और उन्माद की दशा में उसके आ त
हृदय से रक्त की बूँद
ू ों के समान शब्द तनकलने लगे - तम
ु से इतना भी न दे खा
गया, भगवन! उस पर न्यायी और दयालु क लाते ो! इसीभलए तम
ु ने जन्म
हदया! य ीिं खेल खेलने के भलए! ाय नाथ! तुम तो इतने तनष्ठुर न थे! मुझे
अकेली छोड़कर चले जा र े ो! ाय! अब कौन मूला क कर पुकारे गा! अब
ककसके भलए कुूँए से पानी खीिंचूँग
ू ी! ककसे बैठाकर खखलाऊूँगी, पिंखा डुलाऊूँगी! सब
सुख र भलया, तो मुझे भी क्यों न ीिं उठा लेत!े
सारा गाूँव जमा ो गया। सभी समझा र े थे, मभु लया को िैयय न ोता था, य
सब मेरे ी कारण ु आ, य बात उसे न ीिं भल
ू ती। ाय! ाय! उसे भगवान ने
साम्यय हदया ोता, तो आज उसका भसरताज यों उठ जाता?

शव की दा -कक्रया की तैयाररयाूँ ोने लगी।

ककलू को मरे छः म ीने ो गए। मभु लया अपना कमाती ैं, खाती ैं और अपने
घर में पड़ी र ती ैं। हदन-भर काम-िन्िें से छुट्टी न ीिं भमलती, ाूँ, रात एकान्त
में रो भलया करती ैं।

उिर राजा की स्त्री मर गई, मगर दो-चार हदन के बाद व कफर छै ला बना घम
ू ने
लगा। और भी छूटा सािंड ो गया। प ले स्त्री से झगड़ा ो जाने का डर था, अब
व भी न र ा। अबकी नौकरी पर से लौटा, तो सीिे मुभलया के घर प ु ूँचा और
इिर-उिर की बातें करने के बाद बोला - भाभी, अब तो मेरी अभभलाषा पूरी
करोगी या अभी और कुछ बाकी ैं? अब तो भैया भी न ीिं र े , इिर मेरी घरवाली
भी भसिारी! मैंने तो उसका गम भल
ु ा हदया, तम
ु कब तक भैया के नाम को रोती
र ोगी?

मुभलया ने घण
ृ ा से उसकी ओर दे खकर क ा - भैया न ीिं र े तो क्या ु आ भैया
की याद तो ैं, उनका प्रेम तो ैं , उनकी सरू त तो हदल में ैं, उनकी बातें तो कानों
में ैं, तम्
ु ारे भलए औऱ दतु नया के भलए व न ीिं ैं, मेरे भलए व अब भी वैसे ी
जीते-जागते ैं, मैं अब भी उन् ें वैसे ी बैठे दे खती ू ूँ, प ले तो दे का अन्तर
था, अब तो व भी मुझसे और भी नगीच ो गए ैं, और ज्यों-ज्यों हदन बीतें गे
और भी नगीच ोते जाएूँगे। भरे -पूरे घर में दाने की कौन कदर करता ैं, जब घर
खाली ो जाता ैं, तब मालूम ोता ै कक दाना क्या ैं , पैसेवाले पैसे की कदर
क्या जाने, पैसे की कदर तब ोती ैं, जब ाथ खाली ो जाता ैं। तब आदमी
एक-एक कौड़ी दाूँत से पकड़ता ैं, तुम् ें भगवान ने हदल ी न ीिं हदया, तुम क्या
जानों, सो बत क्या ैं , घरवाली को मरे भी छः म ीने भी न ीिं ु ए और तुम सािंड
बन बैठे, तम
ु मर गए ोते, तो इसी तर व भी अब तक ककसी और के पास
चली गई ोती? मैं जानती ू ूँ कक मैं मर जाती, तो मेरा भसरताज जन्म-भर मेरे
नाम को रोया करता, ऐसे ी पुरुषों की ल्स्त्रयाूँ उन पर प्राण दे ती ैं। तुम-जैसे
सो दों के भाग पततल चाटना भलखा ैं , चाटो, मगर खबरदार, आज से मेरे घर में
पाूँव न रखना, न ीिं तो जान से ाथ िोओगे! बस तनकल जाओ।

उसके मुख पर ऐसा तेज, स्वर में इतनी कटुता थी कक राजा को जबान खोलने
का भी सा स न ु आ, चुपके से तनकल भागा।

***
मि
ृ क-िोज

सेठ रामनाथ ने रोग-शय्या पर पड़े-पड़े तनराशापण


ू य दृल्ष्ट से अपनी स्त्री सश
ु ीला
की ओर दे खकर क ा - मैं बड़ा अभागा ू ूँ, शीला, मेरे साथ तम्
ु ें सदै व ी दख

भोगना पड़ा। जब घर में कुछ न था, तो रात-हदन ग ृ स्थी के िन्िों और बच्चों
के भलए मरती थी, जब जरा कुछ सम्भला और तुम् ारे आराम करने के हदन
आए, तो यों छोड़े चला जा र ा ू ूँ। आज तक मुझे आशा थी, पर आज व आशा
टूट गई, दे खो शीला, रोओ मत, सिंसार में सभी मरते ैं, कोई दो साल आगे, कोई
दो साल पीछे । अब ग ृ स्थी का भार तम्
ु ारे ऊपर ैं, मैंने रुपए न ीिं छोड़े लेककन
जो कुछ ै , उससे तम्
ु ारा जीवन ककसी तर कट जाएगा, य राजा क्यों रो र ा
ैं?

सश
ु ीला ने आूँसू पोंछकर क ा - ल्जद्दी ो गया ैं और क्या, आज सबेरे से रट
लगाए ु ए ैं कक मैं मोटर लूँ ग
ू ा, 5 रुपए से कम में आएगी मोटर?

सेठजी को इिर कुछ हदनों से दोनों बालकों पर ब ु त स्ने ो गया था, उसने
क ा - तो मूँगा दो न एक, बेचारा कब से रो र ा ैं, क्या-क्या अरमान हदल में
थे। सब िल
ू में भमल गए। रानी के भलए ववलायती गडु ड़या भी मूँगा दो। दस
ू रों
के खखलौने दे खकर तरसती र ती ैं, ल्जस िन को प्राणों से भी वप्रय समझा, व
अन्त में डॉक्टरों ने खाया, बच्चे मुझे क्या याद करें गे कक बाप था, अभागे बाप ने
तो िन को लड़के-लड़की से वप्रय समझा, कभी एक पैसे की चीज भी लाकर न ीिं
दी।

अल्न्तम समय जब सिंसार की असारता कठोर सतय बनकर आूँखों के सामने


खड़ी ो जाती ैं , तो जो कुछ न ककया, उसका खेद और जो कुछ ककया, उस पर
पश्चाताप, मन को उदार और तनष्कपट बना दे ता ैं।
सश
ु ीला ने राजा को बल
ु ाया और उसे छाती से लगाकर रोने लगी। व मातस्
ृ ने ,
जो पतत की कृपणता से भीतर- ी-भीतर तड़पकर र जाता था, इस समय जैसे
खौल उठा लेककन मोटर के भलए रुपए क ाूँ थे?

सेठजी ने पछ
ू ा - मोटर लोगे बेटा, अपनी अम्माूँ से रुपए लेकर भैया के साथ
चले जाओ, खब
ू अच्छी मोटर आना।

राजा ने माता के आूँसू और वपता का य स्ने दे खा, तो उसका बाल ठ जैसे


वपघल गया, उसने कफर क ा - अभी न ीिं लूँ ग
ू ा।

सेठजी ने पूछा - क्यों?

राजा ने क ा - जब आप अच्छे ो जाएूँगे तब लूँ ग


ू ा।

सेठजी फूट-फूटकर रोने लगे।

तीसरे हदन सेठ रामनाथ का दे ान्त ो गया

िनी के जीने से दःु ख ब ु तों को ोता ैं, सुख थोडों को। उनके मरने से दःु ख
थोड़ों को ोता ैं , सुख ब ु तों को, म ाब्राह्मणों की मिंडली अलग सुखी ैं, पिंडडतजी
अलग खुश ैं और शायद बबरादरी के लोग भी प्रसन्न ैं, इसभलए कक एक बारबर
का आदमी कम ु आ, हदल से एक काूँटा दरू ु आ और पट्टीदारों का तो पूछना ी
क्या, अब व परु ानी कसर तनकालें गें। हृदय को शीतल करने का ऐसा अवसर
ब ु त हदनों के बाद भमला ैं।

आज पाूँचवाूँ हदन ैं , व ववशाल भवन सूना पड़ा ैं, लड़के न तो रोते ैं, न ूँसते
ैं, मन मारे माूँ के पास बैठे ैं और वविवा भववष्य की अपार धचन्ताओिं के भार
से दबी ु ई तनजीव-सी पड़ी ैं, घर में जो रुपए बच र े थे, वे दा -कक्रया की भें ट
ो गए और अभी तो सारे सिंस्कार बाकी पड़े ैं , भगवान! कैसे बेड़ा पार लगेगा।

ककसी ने द्वार पर आवाज दी, म रा ने आकर सेठ िनीराम के आने की सूचना


दी, दोनों बालक बा र दौड़े, सश
ु ीला का मन भी एक क्षण के भलए रा ो गया।
सेठ िनीराम बबरादरी के सरपिंच थे , अबला का हृदय सेठजी की इस कृपा से
पुलककत ो उठा। आखखर बबरादरी के मुखखया ैं। ये लोग अनाथों की खोज-खबर
न लें तो कौन ले, िन्य ैं ये पुण्यातमा लोग जो मुसीबतों में दीनों की रक्षा करते
ैं।

य सोचती ु ई सुशीला घघ
ूूँ ट तनकाले बरोठे में आकर खड़ी ो गई, दे खा तो
िनीरामजी के अततररक्त और भी कई सज्जन खड़े ैं।

िनीराम बोले - ब ू जी, भाई रामनाथ की अकाल मतृ यु से म लोगों को ल्जतना


दःु ख ु आ ैं, व मारा हदल ी जानता ैं , अभी उनकी उम्र ी क्या थी लेककन
भगवान की इच्छा, अब तो मारा य ी िमय ैं कक ईश्वर पर भरोसा रखें और
आगे के भलए कोई रा तनकालें , काम ऐसा करना चाह ए कक घर की आबरू भी
बनी र े और भाईजी की आतमा सन्तुष्ट भी ो।

कुबेरदास ने सुशीला को कनखखयों से दे खते ु ए क ा - मयायदा बड़ी चीज ैं,


उसकी रक्षा करना मारा िमय ैं लेककन कमरे के बा र पाूँव तनकालना भी तो
उधचत न ीिं ैं , ककतने रुपए ैं तेरे पास, ब ू ? क्या क ा, कुछ न ीिं?

सुशीला ने क ा - घर में रुपए क ाूँ ैं सेठजी, जो थोड़े-ब ु त थे, व बीमारी में


उठ गए।

िनीराम ने क ा - तो य नई समस्या खड़ी ु ई ैं, ऐसी दशा में में क्या करना
चाह ए, कुबेरदासजी?
कुबेरदास ने क ा - जैसे ो, भोज तो करना ी पड़ेगा। ाूँ, अपनी साम्यय दे खकर
काम करना चाह ए। मैं कजय लेने को न क ू ूँगा, ाूँ, घर में ल्जतने रुपयों का
प्रबन्ि ो सके, उसमें में कोई कसर न छोड़नी चाह ए, मत
ृ -जीव के साथ भी
तो मारा कुछ कततयव्य ैं, अब तो व कफर कभी न आएगा, उससे सदै व के भलए
नाता टूट र ा ैं, इसभलए सब कुछ ै भसयत के मुताबबक ोना चाह ए, ब्राह्मणों
को तो दे ना ी पड़ेगा, ल्जससे कक मयायदा का तनवाय ो!'

िनीराम ने क ा - 'तो क्या तुम् ारे पास कुछ भी न ीिं ै , ब ू जी? दो-चार जार
भी न ीिं!'

सुशीला ने क ा - 'मैं आपसे सतय क ती ू ूँ , मेरे पास कुछ न ीिं ै , ऐसे समय
झूठ बोलूँ ग
ू ी।'

िनीराम ने कुबेरदास की ओर अिय-अववश्वास के दे खकर क ा -'तब तो य


मकान बेचना पड़ेगा।'

कुबेरदास ने क ा - 'इसके भसवा और क्या ो सकता ै , नाक काटना तो अच्छा


न ीिं, रामनाथ का ककतना नाम था, बबरादरी के स्तम्भ थे, य ी इस समय एक
उपाय ै , 20 जार रुपए मेरे आते ै , सूद-बट्टा लगाकर कोई 25 जार रुपए मेरे
ो जाएगे, बाकी भोज में खचय ो जाएगा, अगर कुछ बचा र ा तो बाल-बच्चों के
काम आ जाएगा।'

िनीराम ने क ा - 'आपके य ाूँ ककतने पर बिंिक रखता था?'

कुबेरदास ने क ा - '20 जार रुपए पर, रुपए सैकड़े सद


ू ।'

िनीराम ने क ा - 'मैंने तो कुछ कम सुना ै ।'

कुबेरदास ने क ा - 'उसका तो रे ननामा रखा ै , जबानी बातचीत थोड़े ी ै , मैं


दो-चार जार के भलए झूठ न ीिं बोलूँ ग
ू ा।'
िनीराम ने क ा - 'न ीिं-न ीिं, य मैं कब क ता ू ूँ , तो तूने सुन भलया, बाई! पिंचों
की सला ै कक मकान बेच हदया जाए।'

सुशीला का छोटा भाई सन्तलाल भी इसी समय आ प ु ूँचा, य अल्न्तम वाक्य


उसके कान में पड़ गए, उसने क ा -'ककसभलए मकान बेच हदया जाए? बबरादरी
भोज के भलए? बबरादरी तो खा-पीकर रा लेगी, इन अनाथों की रक्षा कैसे ोगी?
इनके भववष्य के भलए भी तो कुछ सोचना चाह ए।'

िनीराम ने कोप-भरी आूँखों से दे खकर क ा - 'आपको इन मामलों में टाूँग


अड़ाने का कोई अधिकार न ीिं। केवल भववष्य की धचन्ता करने से काम न ीिं
चलता। मत
ृ क का पीछा भी ककसी तर सुिारना ी पड़ता ै । आपका क्या
बबगड़ेगा, ूँसी तो मारी ोगी, सिंसार में मयायदा से वप्रय कोई वस्तु न ीिं! मयायदा
के भलए प्राण तक दे दे ते ै , जब मयायदा ी न र ी तो क्या र ा। अगर मारी
सला पूछोगे, तो म य ी क ें गे, आगे बाई का अखततयार ै , जैसे चा े करे , पर
मसे कोई सरोकार न र े गा, चभलए कुबेरदासजी, चले।'

सश
ु ीला ने भयभीत ोकर क ा -'भैया की बातों का ववचार न कील्जए, इनकी तो
य आदत ै , मैंने तो आपकी बात न ीिं टाली, आप मेरे बड़े ै , घर का ाल
आपको मालूम ै । मैं अपने स्वामी की आतमा को दख
ु ी करना न ीिं चा ती,
लेककन बच्चे ठोकरें खाएूँगे, तो क्या उनकी आतमा दख
ु ी न ोगी? बेटी का ब्या
करना ी ै , लड़के को पढाना-भलखाना ै ी, ब्राह्मणों को खखला दील्जए लेककन
बबरादरी करने की मझ
ु में सामथय न ीिं ै ।' दोनों म ानभ
ु ावों को जैसे थप्पड़ लगा -
इतना बड़ा अिमय, भला ऐसी बात भी जबान से तनकाली जाती ै । पिंच लोग
अपने मूँु में काभलख न लगने दें गे। दतु नया वविवा को न ूँसेगी, ूँसी ोगी पिंचों
की, य जग- ूँसाई कैसे स सकते ैं, ऐसे द्वार पर झाूँकना भी पाप ै।

सुशीला रोकर बोली -'मैं अनाथ ू ूँ, नादान ू ूँ , मुझ पर क्रोि न कील्जए, आप लोग
ी मुझे छोड़ दें गे, तो मेरा कैसे तनवाय ोगा।'
इतने में दो म ाशय और आ बबराजे। एक ब ु त मोटे और दस
ू रे ब ु त दब
ु ले, नाम
भी गुणों के अनुसार ी - भीमचन्द और दब
ु ल
य दास। िनीराम ने सिंक्षेप में य
पररल्स्थतत उन् ें समझा दी। दब
ु ल
य दास ने सहृदयता से क ा - 'तो ऐसा क्यों न ीिं
करते कक म लोग भमलकर रुपए दे , जब इसका लड़का भसयाना ो जाएगा, तो
रुपए भमल ी जाएूँगे। अगर न भी भमलें तो एक भमत्र के भलए कुछ बल खा
जाना कोई बड़ी बात न ी।'

सन्तलाल ने प्रसन्न ोकर क ा -'इतनी दया आप करें गे, तो क्या पछ


ू ना।'

कुबेरदास ने तयोरी चढाकर बोले - 'तुम तो बेभसर-पैर की बातें करने लगे,


दब
ु ल
य दास जी, इस बखत के बाजार में ककसके पास फालतू रुपए रखे ु ए ै ।'

भीमचन्द ने क ा -'सो तो ठीक ै , बाजार की ऐसी मन्दी तो कभी दे खी न ीिं, पर


तनबा तो करना चाह ए।'

कुबेरदास अकड़ गए। व सुशीला के मकान पर दाूँत लगाए ु ए थे, ऐसी बातों से
उनके स्वाथय में बािा पड़ती थी। व अपने रुपए वसूल करके छोड़ेंगे।

भीमचन्द ने उन् ें ककसी तक सचेत ककया लेककन भोज तो दे ना ी पड़ेगा, उस


कतयव्य का पालन न करना समाज की नाक काटना ै।

सश
ु ीला ने दब
ु ल
य दास में सहृदयता का आभास दे खा। उनकी ओर दीन नेत्रों से
दे खकर बोली - 'मैं आप लोगों से बा र थोड़े ी ू ूँ , आप लोग माभलक ै , जैसा
उधचत समझें वैसा करें ।'

दब
ु ल
य दास ने क ा - 'तेरे पास कुछ थोड़े ब ु त ग ने तो ोंगे, बाई?'

' ाूँ ग ने तो ै , आिे तो बीमारी में बबक गए, आिे बचे ै ।' सुशीला ने सारे ग ने
लाकर पिंचों के सामने रख हदए। पर य तो मुल्श्कल से तीन जार में उठें गे।
दब
ु ल
य दास ने पोटली को ाथ में तौलकर क ा - 'तीन जार को कैसे आएूँगे, मैं
साढें तीन जार हदला दूँ ग
ू ा।'

भीमचन्द ने कफर पोटली को तौलकर क ा - 'मेरी बोली चार जार की ै ।'

कुबेरदास को मकान की बबक्री का प्रश्न छे ड़ने का अवसर कफर भमला - 'चार


जार ी में क्या ु आ जाता ै , बबरादरी का भोज ै या दोष भमटाना ै । बबरादरी
मिं कम-से-कम दस जार का खरचा ै । मकान तो तनकालना ी पड़ेगा।'

सन्तलाल ने ोट चबाकर क ा - 'मैं क ता ू ूँ , आप लोग क्या इतने तनदय यी ै!


आप लोगों को अनाथ बालकों पर भी दया न ीिं आती! क्या उन् ें रास्ते का
भभखारी बनाकर छोड़ेंगे?'

लेककन सन्तलाल की फररयाद पर ककसी ने ध्यान न हदया। मकान की बातचीत


अब न ीिं टाली जा सकती थी। बाजार मन्दा ै , 30 जार से बेसी न ीिं भमल
सकते, 25 जार तो कुबेरदास के ै , पाूँच जार बचें गे, चार जार ग नों से आ
जाएूँगे, इस तर 9 जार में बड़ी ककफायत से ब्रह्मभोज और बबरादरी-भोज दोनों
तनपटा हदए जाएूँगे।

सुशीला ने दोनों बालकों को सामने करके करब्ध ोकर क ा - 'पिंचों, मेरे बच्चों
का मूँु दे खखए, मेरे घर में जो कुछ ै, व आप सब ले लील्जए लेककन मकान
छोड़ दील्जए। मुझे क ीिं हठकाना न भमलेगा। मैं आपके पैरों पड़ती ू ूँ मकान इस
समय न बेच।े '

इस मूखत
य ा का क्या जवाब हदया जाए। पिंच लोग तो खुद चा ते थे कक मकान
न बेचना पड़े, उन् ें अनाथों से कोई दश्ु मनी न ीिं थी, ककन्तु बबरादरी का भोज और
ककस तर ककया जाए। अगर वविवा कम-से-कम पाूँच जार रुपए का जुगाड़
और कर दे , तो मकान बच सकता ै । पर व ऐसा न ीिं कर सकती, तो मकान
बेचने के भसवा और कोई उपाय न ीिं।

कुबेर ने अन्त में क ा - 'दे ख बाई, बाजार की दशा इस समय खराब ै । रुपए
ककसी से उिार न ीिं भमल सकते। बाल-बच्चों के भाग में भलखा ोगा, तो भगवान
और ककसी ीले से दे गा। ीले रोजी, ब ाने मौत, बाल-बच्चों की धचन्ता मत कर।
भगवान ल्जसको जन्म दे ते ै , उसकी जीववका की जुगत प ले ी से कर दे ते ै।
म तुझे समझाकर ार गए। अगर तू अब भी अपनी ठ न छोड़ेगी, तो म
बात भी न पूछेंगे कफर य ाूँ तेरा र ना मुल्श्कल ो जाएगा। श रवाले तेरे पीछे
पड़ जाएूँगे।'

वविवा सुशीला अब और क्या करती, पिंचों से लड़कर व कैसे र सकती थी।


पानी में र कर मगर से कौन बैर कर सकता ै । घर में जाने के भलए उठी पर
व ीिं मूतछय त ोकर धगर पड़ी। अभी तक आशा सम्भाले ु ई थी, बच्चों के पालन-
पोषण में व अपना वैिव्य भूल सकती थी पर अब तो अन्िकार था, चारों ओर।

सेठ रामनाथ के भमत्रों का उनके घर पर पूरा अधिकार था। भमत्रों का अधिकार न


ो तो ककसका ो, स्त्री कौन ोती ै , जब व इतनी मोटी-सी बात न ीिं समझती
कक बबरादरी करना और िम
ू -िाम से हदल खोलकर करना लाल्जमी बात ै , तो
उससे और कुछ क ना व्यथय ै । ग ने कौन खरीदे ? भीमचन्द चार जार दाम
लगा चुके थे, लेककन अब उन् ें मालूम ु आ, इस बात पर दब
ु ल
य दास और भीमचन्द
में तकरार भी ो गई थी लेककन भीमचन्द को मूँु की खानी पड़ी, न्याय दब
ु ल

के पक्ष में था।

िनीराम ने कटाक्ष ककया - 'दे खो दब


ु ल
य दास, माल तो ले जाते ो, पर तीन जार
से बेसी का ै , मैं नीतत की तया न ोने दूँ ग
ू ा।'
कुबेरदास बोले - 'अजी, तो घर में ी तो ै , क ीिं बाजार तो न ीिं गया। एक हदन
भमत्रों की दावत ो जाएगी!'

इस पर चारों म ानुभाव ूँसे। इस काम से फुरसत पाकर अब मकान का प्रश्न


उठा। कुबेरदास 30 जार दे ने पर तैयार थे, पर कानूनी काययवाई ककए बबना
सन् े द की गुिंजाइश थीिं। य गुिंजाइश क्योंकर रखी जाए, एक दलाल बुलाया गया।
नाटा-सा आदमी था, पोपला मूँु , कोई 70 की अवस्था, नाम था चोखेलाल।

कुबेरदास ने क ा - 'चोखेलालजी से मारी तीस साल की दोस्ती ै । आदमी क्या


रतन ै ।'

भीमचन्द ने क ा - 'बाजार का ाल अच्छा न ीिं ै , लेककन कफर भी में य तो


दे खना पड़ेगा कक रामनाथ के बाल-बच्चों का टोटा न ो। (चोखेलाल के कान में )
तीस से आगे न जाना।'

भीमचन्द ने क ा -'दे खखए कुबेरदास, य अच्छी बात न ीिं ै ।'

कुबेरदास ने क ा -'तो मैं क्या कर र ा ू ूँ, मैं तो य ी क र ा था कक अच्छे


दाम लगवाना।'

चोखेलाल ने क ा - 'आप लोगों को मुझसे य क ने की जरूरत न ीिं, मैं अपना


िमय समझता ू ूँ। रामनाथजी मेरे भी भमत्र थे, मुझे मालूम ै कक इस मकान के
बनवाने में एक लाख से कम एक पाई भी न ीिं लगी लेककन बाजार का ाल
क्या आप लोगों से तछपा ै । इस समय इसके 25 जार से बेसी न ीिं भमल
सकते। सभ
ु ीते से तो कोई ग्रा क से दस-पाूँच जाए और भमल जाएूँगे, लेककन
इस समय तो कोई ग्रा क भी मल्ु श्कल से भमलें गे। लो द ी और लावद ी की बात
ै ।'
िनीराम ने क ा - '25 जार रुपया तो ब ु त कम ै भाई, और न स ी 30
जार रुपया को करा दो।'

चोखेलाल ने क ा - '30 तो क्या 40 करा दूँ ,ू पर कोई ग्रा क तो भमले। आप लोग


क ते ै तो मैं 30 जार रुपया की बातीचीत करूूँगा।'

िनीराम ने क ा - 'जब तीस जार में ी दे ना ै तो कुबेरदासजी ी क्यों न ले


लें , इतना सस्ता माल दस
ू रों को क्यों हदया जाए।'

कुबेरदास ने क ा -'आप सब लोगों की राय ो, तो ऐसा ी कर भलया जाए।'

िनीराम ने ' ाूँ- ाूँ' क कर ामी भरी। भीमचन्द मन में ऐिंठकर र गए। य
सौदा भी पक्का ो गया। आज ी वकील से बैनामा भलखा, तुरन्त रल्जस्री भी
ो गई। सुशीला के सामने बैनामा लाया गया, तो उसने ठिं ड़ी साूँस ली और सजल
नेत्रों से उस पर स्ताक्षर कर हदए। अब उसके भसवा और क ीिं शरण न ीिं ै,
बेवफा भमत्र की भाूँतत य घर भी सुख के हदनों में साथ दे कर दःु ख के हदनों में
उसका साथ छोड़ र ा ै।

पिंच लोग सुशीला के आूँगन में बैठे बबरादरी के रुक्के भलख र े ै और अनाथ
वविवा ऊपर झरोखे पर बैठी भाग्य को रो र ी ै । इिर रुक्का तैयार ु आ, उिर
वविवा की आूँखों से आूँसू की बूँद
ू ें तनकलकर रुक्के पर धगर पड़ीिं।

िनीराम ने ऊपर दे खकर क ा - 'पानी का छीिंटा क ाूँ से आया?'

सन्तलाल ने क ा - 'बाई बैठी रो र ी ै , उसने रुक्के पर अपने रक्त के आूँसूओिं


की मु र लगा दी ै ।'

िनीराम ने ऊूँचे स्वर में क ा - 'अरे , तो तू रो क्यों र ी ै , बाई? य रोने का


समय न ीिं ै । तुझे तो प्रसन्न ोना चाह ए कक पिंच लोग तेरे घर में आज शुभ-
कायय करने के भलए जमा ै , ल्जस के साथ तन
ू े इतने हदनों भोग-ववलास ककया,
उसी का पीछा सि
ु ारने में तू दःु ख मानती ै ?'

बबरादरी में रुक्का कफरा। इिर तीन-चार हदन पिंचों ने भोज की तैयाररयों में
बबताए। घी िनीराम की आढत से आया, मैदा, चीनी की आढत भी उन् ीिं की थी।
पाूँचवे हदन प्रातःकाल ब्रह्म-भोज ु आ। सन्ध्या-समय बबरादरी का ज्योनार।
सुशीला के द्वार पर बल्ग्ियों और मोटरों की कतारें खड़ी थी। भीतर मे मानों
की पिंगते थीिं। आूँगन, बैठक, दालान, बरोठा, ऊपर की छत नीचे-ऊपर मे मानों से
भरा ु आ था। लोग भोजन करते थे और पिंचों को सरा ते थे।

'खचय तो सभी करते ै , पर इन्तजाम का सलीका चाह ए। ऐसे स्वाहदष्ट पदाथय


ब ु त कम खाने में आते ै ।'

'सेठ चम्पालाल के भोज के बाद ऐसा भोज रामनाथजी का ी ुआ ै ।'

'इमरततयाूँ कैसी कुरकुरी ै !'

'रसगुकले मेवों से भरे ै ।'

'सारा श्रेय पिंचों को ै ।'

िनीराम ने नम्रता से क ा - 'आप भाइयों की दया ै , जो ऐसा क ते ो।


रामनाथ से भाई-चारे का व्यव ार था। म न करते तो कौन करता, चार हदन से
सोना नसीब न ीिं ु आ।'

'आप िन्य ै ! भमत्र ों तो ऐसे ो।'

'क्या बात ै ! आपने रामनाथजी का नाम रख भलया। बबरादरी य ी खाना-


खखलाना दे खती ै , रोकड़ दे खने न ीिं जाती।'
मे मान लोग बखान-बखान कर माल उड़ा र े थे और उिर कोठरी में बैठी ु ई
सश
ु ीला सोच र ी थी - 'सिंसार में ऐसे स्वाथी लोग ै ! सारा सिंसार स्वाथयमय ो
गया ो गया ै ! सब पेटों पर ाथ फेर-फेरकर भोजन कर र े ै , कोई इतना भी
न ीिं पूछता कक अनाथों के भलए कुछ बचा या न ीिं।'

एक म ीना गुजर गया। सुशीला को एक-एक पैसे की तिंगी ो र ी थी। नकद था


ी न ीिं। ग ने तनकल ी गए थे। अब थोड़े से बतयन बच र े थे। उिर छोटे -छोटे
ब ु त से बबल चक
ु ाने थे। कुछ रुपए डॉक्टर के , कुछ दरजी के, कुछ बतनयों के।
सश
ु ीला को य रकमें घर का बचा-खच
ु ा सामान बेचकर चुकानी पड़ी और म ीना
पूरा ोते- ोते उसके पास कुछ न बचा। बेचारा सन्तलाल एक दक
ु ान में मुनीम
था। कभी-कभी व आकर एक-आि रुपया दे दे ता। इिर खचय का ाथ फैला

ु आ था। लड़के अवस्था को समझते थे, माूँ को छे ड़ते न थे। मकान के सामने से
कोई खोंचे वाला तनकल जाता और वे दस
ू रे लड़को को फल या भमठाई खाते
दे खते, तो उनके मूँु में पानी भरकर आूँखों में भर जाता था। ऐसी ललचाई ु ई
आूँखों से ताकते थे कक दया आती। व ी बच्चें , जो थोड़े हदन प ले मेवे-भमठाई
की ओर ताकते भी न थे। अब एक-एक पैसे की चीज को तरसते थे। व ी
सज्जन, ल्जन् ोंने बबरादरी का भोज करवाया था, अब घर के सामने से तनकल
जाते, पर कोई झाूँकता न था।

शाम ो गई थी। सुशीला चूक ा जलाए, रोहटयाूँ सेंक र ी थी और दोनों बालक


चूक े के पास रोहटयों को क्षुधित नेत्रों से दे ख र े थे। चूक े की दस
ू रे ऐले पर
दाल थी। दाल के पकने का इन्तजार था। लड़की ग्यार साल की थी, लड़का
आठ साल का।

मो न अिीर ोकर बोला - 'अम्माूँ, मुझे रूखी रोहटयाूँ ी दे दो, बड़ी भूख लगी
ै ।'
सुशीला ने क ा -'अभी दाल कच्ची ै भैया।'

रे वती ने क ा -'मेरे पास एक पैसा ै , मैं उसकी द ी भलए आती ू ूँ।'

सुशीला ने क ा - 'तूने पैसा क ाूँ पाया?'

रे वती ने क ा -'मुझे कल अपनी गुडड़यों की पेटारी में भमल गया था।'

सश
ु ीला ने क ा- 'लेककन जकदी आइयो।'

रे वती दौड़कर बा र गई और थोड़ी दे र में एक पतते पर द ी ले आई। माूँ ने


रोटी-सेंककर दें दी। मो न द ी से खाने लगा। आम लड़कों की भाूँतत व भी
स्वाथी था, ब न से पछ
ू ा भी न ीिं।

सुशीला ने कड़ी आूँखों से दे खकर क ा -'ब न को भी दे दे , अकेला ी खा


जाएगा।'

मो न लल्ज्जत ो गया, उसकी आूँखें डबडबा आई।

रे वती बोली - 'न ीिं अम्माूँ, ककतना भमला ी ै , तुम खाओ मो न, तुम् ें जकदी
नीिंद जाती ै । मैं तो दाल पक जाएगी तो खाऊूँगी।'

उसी वक्त दो आदभमयों ने आवाज दी। रे वती ने बा र जाकर पछ


ू ा। य सेठ
कुबेरदाल के आदमी थे। मकान खाली कराने आए थे। क्रोि से सुशीला की आूँखें
लाल ो गई।

बरोठे में आकर क ा - 'अभी मेरे पतत का पीछे ु ए म ीना भी न ीिं ु आ, मकान
खाली कराने की िुन सवार ो गई। मेरा 50 जार का मकान 30 जार में ले
भलया। पाूँच जार सूद के उड़ाए, कफर भी तस्कीन न ीिं ोती। क ो, मैं अभी
खाली न ीिं करूूँगी।'
मुनीम ने नम्रता से क ा - 'बाईजी, मेरा क्या अल्ख्तयार ै , मैं तो केवल
सन्दे भसया ू ूँ। जब चीज दस
ू रे की ो गई तो आपको छोड़नी ी पड़ेगी। झिंझट
करने से क्या मतलब।'

सुशीला समझ गई, ठीक ी क ता ै , गाय, तया के बल के हदन खेत चरे गी।

सश
ु ीला नमय ोकर बोली - 'सेठजी से क ों, मझ
ु े दस-पाूँच हदन की मु लत दें ।
लेककन न ीिं, कुछ मत क ो। क्यों दस-पाूँच हदन के भलए ककसी का अ सान लूँ ।ू
मेरे भाग्य में इस घर में र ना भलखा ोता, तो तनकलती ी क्यों।'

मन
ु ीम ने क ा -'तो कल सबेरे तक खाली ो जाएगा।'

सुशीला ने क ा -' ाूँ, ाूँ, क ती तो ू ूँ लेककन सबेरे तक क्यों, मैं अभी खाली ककए
दे ती ू ूँ। मेरे पास कौन-सा बड़ा सामान ी ै । तम्
ु ारे सेठजी का रातभर का
ककराया मारा जाएगा, जाकर ताला-वाला लाओ या लाए ो?'

मुनीम ने क ा -'ऐसी क्या जकदी ै , बाई। कल साविानी से खाली कर


दील्जएगा।'

सुशीला ने क ा - 'कल का झगड़ा क्या रखू।ूँ मुनीमजी, आप जाइए। ताला लाकर


डाल दील्जए।' य क ती ु ई सुशीला अन्दर गई। बच्चों को भोजन कराया। एक
रोटी आप ककसी तर तनगली। बतयन िोए, कफर एक इक्का मूँगवाकर उस पर
अपना मख्
ु तसर सामान लादा और भारी हृदय से उस घर से मेशा के भलए
ववदा ो गई।

ल्जस वक्त य घर बनवाया था, मन में ककतनी उमिंगें थी। इसके प्रवेश में कई
जार ब्राह्मणों का भोज ु आ। सुशीला को इतनी दौड-िूप करनी पड़ी थीिं कक व
म ीने-भर बीमार र ी थी। इसी घर में उसके दो लड़के मरे थे। य ीिं उसकी पतत
मरा था। मरने वालों की स्मतृ तयों ने उसकी एक-एक ईट को पववत्र कर हदया
था। एक-एक पतथर मानो उसके षय से खश
ु ी और उसके शोक से दख
ु ी ोता था,
व घर छूटा जा र ा ै।

उसने रात एक पड़ोसी के घर में काटी और दस


ू रे 10 रुपए म ीने पर एक गली
में दस
ू रा मकान ले भलया।

इस नए कमरें में इन अनाथों ने तीन म ीने ल्जस कष्ट से काटे , व समझनेवाले


ी समझ सकते ै । भला ो बेचारे सन्तलाल का, व दस-पाूँच रुपए से मदद
कर हदया करता था। अगर सश
ु ीला दररद्र घर की ोती, तो वपसाई करती, कपड़े
सीती, ककसी के घर में ट ल करती, ल्जन कामों को बबरादरी नीचा समझती ै,
उनका स ारा कैसे लेती। न ीिं तो लोग क ते, य सेठ रामनाथ की स्त्री ै ! उसके
नाम की भी तो लाज रखनी थी, समाज के चक्रव्यू से ककसी तर तो छुटकारा
न ीिं ोता। लड़की के दो-एक ग ने बच र े थे, व भी बबक गए। जब रोहटयों ी
के लाले थे, तो घर का ककराया क ाूँ से आता। तीन म ीने बाद घर का माभलक,
जो उसी बबरादरी का एक प्रततल्ष्ठत व्यल्क्त था और ल्जसने मत
ृ क-भोज में खब

बढ-चढकर ाथ मारे थे, अिीर ो उठा। बेचारा ककतना िैयय रखता, 30 रुपए का
मामला ै , रुपए आठ आने की बात न ीिं ै , इतनी बड़ी रकम न ीिं छोड़ी जाती।

आखखर एक हदन सेठजी ने आकर लाल-लाल आूँखें करके क ा - 'अगर तू


ककराया न ीिं दे सकती, तो घर खाली कर दे , मैंने बबरादरी के नाते इतनी मुरौवत
की, अब ककसी तर काम न ीिं चल सकता।'

सुशीला बोली - 'सेठजी, मेरे पास रुपए ोते तो प ले आपका ककराया दे कर तब


पानी पीती, आपने इतनी मुरौबत की, इसके भलए मेरा भसर आपके चरणों पर ै
लेककन अभी मैं बबककुल खाली- ाथ ू ूँ। य समझ लील्जए कक एक भाई के बाल-
बच्चों की परवररश कर र े ै और क्या क ू ूँ।'

सेठ ने क ा - 'चल-चल, इस तर की बातें ब ु त सुन चुका। बबरादरी का आदमी


ै , तो उसे चस
ू लो। कोई मस
ु लमान ोता, तो उसे चप
ु के से म ीने-म ीने दे दे ती।
न ीिं तो उसने तनकाल बा र ककया ोता। मैं बबरादरी का ू ूँ , इसभलए मझ
ु े ककराया
दे ने की दरकार न ीिं। मुझे माूँगना ी न ीिं चाह ए, य तो बबरादरी के साथ
करना चाह ए।'

इसी समय रे वती भी आकर खड़ी ो गई। सेठजी ने उसे भसर से पाूँव तक दे खा
और तब ककसी कारण से बोले - 'अच्छा, य लड़की तो भसयानी ो गई, क ीिं
इसकी सगाई की बातचीत न ीिं की?'

रे वती तरु न्त भाग गई। सश


ु ीला ने इन शब्दों में आतमीयता की झलक पाकर
पुलककत किंठ से क ा -'अभी तो क ीिं बातचीत न ीिं ु ई, सेठजी। घर का ककराया
तक तो अदा न ीिं कर सकती, सगाई क्या करूूँगी, कफर अभी छोटी भी तो ै ।'

सेठजी ने तरु न्त शास्त्रों का आिार हदया। कन्याओिं के वववा की य ी अवस्था


ै । िमय को कभी न ीिं छोड़ना चाह ए। ककराए की कोई बात न ीिं ै , में क्या
मालूम था कक सेठ रामनाथ के पररवार की य दशा ै।

सश
ु ीला - 'तो आपकी तनगा में कोई अच्छा वर ै। य तो आप जानते ी ै,
मेरे पास लेन-े दे ने को कुछ न ीिं ै ।'

झाबरमल (इन सेठजी का य ी नाम था) - 'लेने-दे ने का कोई झगड़ा न ीिं ोगा,
बाईजी, ऐसा घर ै कक लड़की आजीवन सख
ु ी र े गी। लड़का भी उसके साथ र
सकता ै , कुल का सच्चा ै , र तर से सम्पन्न पररवार ै , ाूँ, व दो ाजू
(दज
ु वर) ै ।'
सश
ु ीला - 'उम्र अच्छी ोनी चाह ए, दो ाजू ोने से क्या ोता ै ।'

झाबरमल - 'उम्र भी कुछ ज्यादा न ीिं, अभी चालीसवाूँ ी साल ै उसका, पर


दे खने में अच्छा हृष्ट-पुष्ट ै , मदय की उम्र उसका भोजन ै । बस य समझ लो
कक पररवार का उ्ध ार ो जाएगा।'

सुशीला ने अतनच्छा के भाव से क ा - 'अच्छा, मैं सोचकर जवाब दूँ ग


ू ी, एक बार
मुझे हदखा दे ना।'

झाबरमल - 'हदखाने को क ीिं न ीिं जाना ै , बाई, व तो तेरे सामने ी खड़ा ै।'

सश
ु ीला ने घण
ृ ापण
ू य नेत्रों से उसकी ओर दे खा, इस पचास साल के बड्
ु डे की य
बस! छाती का माूँस लटककर नाभी तक आ प ु ूँचा, कफर भी वववा की िुन
सवार ै। य दष्ु ट समझता ै कक प्रलोभनों में पडकर अपनी लड़की उसके गले
बाूँि दूँ ग
ू ी। व अपनी बेटी को आजीवन कुूँवारी रखेगी, पर ऐसे मत
ृ क से वववा
करके उसका जीवन नष्ट न करे गी। पर उसने क्रोि को शान्त ककया। समय का
फेर ै , न ीिं तो ऐसों को उससे ऐसा प्रस्ताव करने का सा स ी क्यों ोता।

सश
ु ीला ने क ा - 'आपकी इस कृपा के भलए आपको िन्यवाद दे ती ू ूँ। सेठजी,
पर मैं कन्या का वववा आपसे न ीिं कर सकती।'

झाबरमल - 'तो और क्या तू समझती ै कक तेरी कन्या के भलए बबरादरी में


कोई कुमार भमल जाएगा?'

सुशीला -'मेरी लड़की कुूँवारी र े गी।'

झाबरमल - 'और रामनाथजी के नाम को किंलककत करे गी?'


सश
ु ीला - 'तम्
ु ें मझ
ु से ऐसी बाते करते लाज न ीिं आती। नाम के भलए घर
खोया, सम्पल्तत खोई, पर कन्या को कूँु ए में न ीिं डूबा सकती।'

झाबरमल - 'तो मेरा ककराया दे दे ।'

सुशीला - 'अभी मेरे पास रुपए न ीिं ै।'

झाबरमल ने भीतर घस
ु कर ग ृ स्थ की एक-एक वस्तु तनकालकर गली में फेंक
दी। घड़ा फूट गया, मटके टूट गए, सन्दक
ू के कपड़े बबखर गए। सुशीला तटस्थ
खड़ी अपने अहदन की य क्रूर क्रीड़ा दे खती र ी।

घर का यो ववध्विंस करके झाबरमल ने घर में ताला डाल हदया और अदालत से


रुपए वसूल करने की िमकी दे कर चले गए।

बड़ो के पास िन ोता ै , छोटों के पास हृदय ोता ै । िन से बड़े-बड़े व्यापार


ोते ै , बड़े-बड़े म ल बनते ै , नौकर-चाकर ोते ै , सवारी-भशकरी ोती ै , हृदय से
समवेदना ोती ै , आूँसू तनकलते ै।

उसी मकान से भमली ु ई एक साग-भाजी बेचनेवाली खटककन की दक


ु ान थी।
व्ध
ृ ा, वविवा तनपूती स्त्री थी। बा र से आग, भीतर से पानी। झाबरमल को सैकड़ो
सुनाई और सुशीला की एक-एक चीज उठाकर अपने घर में ले गई। मेरे घर में
र ो। ब ू , मरु ौबत में आ गई, न ीिं तो उसकी मूँछ
ू ें उखाड़े लेती, मौत भसर पर नाच
र ी ै , आगे नाथ, ने पीछे पग ा, और िन के पीछे मरा जाता ै , जाने छाती पर
लादकर ले जाएगा। तुम चलो मेरे घर में र ो, मेरे य ाूँ ककसी बात का खटका
न ीिं बस मैं अकेली ू ूँ, एक टुकड़ा मुझे भी दे दे ना।

सश
ु ीला ने डरते-डरते क ा - 'माता, मेरे पास सेर-भर आटे के भसवा और कुछ
न ीिं ै , मैं तुम् े ककराया क ाूँ से दूँ ग
ू ी।'
बहु ढया ने क ा - 'मैं झाबरमल न ीिं ू ूँ ब ू , न कुबेरदास ू ूँ। मैं समझती ू ूँ,
ल्जन्दगी में सख
ु भी ै , दख
ु भी ै । सख
ु में इतराओ मत, दख
ु में घबराओ मत।
तुम् ीिं से चार पैसे कमाकर अपना पेट पालती ू ूँ। तुम् ें उस हदन भी दे खा था,
जब तुम म ल में र ती थी और आज भी दे ख र ी ू ूँ , जब तुम अनाथ ो। जो
भमजाज तब था, व ी अब ै , मेरे िन्य भाग कक तुम मेरे घर में आओ। मेरी
आूँखें फूटी ै , जो तुमसे ककराया माूँगने जाऊूँगी।'

इन सािंतवना से भरे ु ए सरल शब्दों ने सुशीला के हृदय का बोझ लका कर


हदया। उसने दे खा सच्ची सज्जनता दररद्रों और नीचों ी के पास र ती ै । बड़ो
की दया भी ोती ै , अ िं कार का दस
ू रा रूप।

इस खटककन के साथ र ते ु ए सुशीला को छः म ीने ो गए थे। सुशीला का


उससे हदन-हदन स्ने बढता जाता था। व जो कुछ पाती, लाकर सुशीला के ाथ
में रख दे ती। दोनों बालक उसकी दो आूँखें थी। मजाल न थीिं कक पड़ोस का कोई
आदमी उन् ें कड़ी आूँखों से दे ख ले। बहु ढया दतु नया भसर पर उठा लेती।
सन्तलाल र म ीने कुछ-न-कुछ दे हदया करता था। इससे रोटी-दाल चली जाती
थी।

काततक का म ीना था। ज्वर का प्रकोप ो र ा था। मो न एक हदन खेलता-


कूदता बीमार पड़ गया और तीन हदन तक अचेत पड़ा र ा। ज्वर इतने जोर का
था कक पास खड़े र ने से लपट-सी तनकलती थी। बुहढया ओझे-सयानों के पास
दौड़ती कफरती थी, पर ज्वर उतरने का नाम न लेता। सुशीला को भय ो र ा
था, य टाइफाइड ै , इससे उसके प्राण सूख र े थे।

चौथे हदन उसने रे वती से क ा - 'बेटी, तूने बड़े पिंचजी का घर तो दे खा ै , जाकर


उनसे क भैया बीमार ै , कोई डॉक्टर भेज दे ।'

रे वती को क ने भर की दे र थी, दौड़ती ु ई सेठ कुबेरदास के पास गई।


कुबेरदास बोले -'डॉक्टर की फीस 16 रुपए ै , तेरी माूँ दे दे गी?'

रे वती ने तनराश ोकर क ा - 'अम्मा के पास रुपए क ाूँ ै ?'

कुबेरदास - 'तो कफर ककस मूँु से मेरे डॉक्टर को बल


ु ाती ै , तेरा मामा क ाूँ ै?
उससे जाकर क , सेवा सभमतत के कोई डॉक्टर को बुला ले जाएूँ। न ीिं तो खैराती
अस्पताल में क्यों न ीिं लड़के को ले जाती? या अभी व ी पुरानी बू समाई ु ई ै।
कैसी मूखय स्त्री ै, घर में टका न ीिं और डॉक्टर का ु क्म लगा हदया। समझती
ोगी, फीस पिंचजी दे दें गे। पिंचजी क्यों फीस दे ? बबरादरी का िन िमय-कायय के
भलए ै यों उड़ाने के भलए न ीिं ै।'

रे वती माूँ के पास लौटी, पर जो सुना था, व उससे न क सकी। घाव पर नमक
क्यों तछड़के, ब ाना कर हदया, बड़े पिंचजी क ीिं गए ै।

सुशीला - 'तो मुनीम से क्यों न ीिं क ाूँ? य ाूँ क्या कोई भमठाई खाए जाता था,
जो दौड़ी चली आई?'

इसी वक्त सन्तराम एक वैद्यजी को लेकर आ प ु ूँचा।

वैद्य भी एक हदन आकर दस


ू रे हदन न लौटे । सेवा-सभमतत के डॉक्टर भी दो
हदन बड़ी भमन्नतों से आए। कफर उन् ें भी अवकाश न र ा और मो न की दशा
हदनोंहदन बबगड़ती जाती थी। म ीना बीत गया, पर ज्वर ऐसा चढा कक एक क्षण
के भलए भी न उतरा। उसका च े रा इतना सूख गया कक दे खकर दया आती थीिं।
न कुछ बोलता, न कुछ क ता, य ाूँ तक कक करवट भी न बदल सकता था।
पड़े-पड़े खाल फट गई, भसर के बाल धगर गए, ाथ-पाूँव लकड़ी ो गए। सन्तलाल
काम से छुट्टी पाता तो आ जाता, पर इससे क्या ोता, तीमरदारी दया तो न ीिं ै।

एक हदन सन्ध्या समय उसके ाथ ठिं डे ो गए। माता के प्राण प ले ी से सूखे

ु ए थे, य ाल दे खकर रोने-पीटने लगी। भमन्नतें तो ब ु तेरी ो चक


ु ी थीिं, रोती
ु ई मो न की खाट के सात फेरे करके ाथ बाूँिकर बोली - 'भगवान, य ीिं मेरे
जन्म की कमाई ै । अपना सवयस्व खोकर भी मैं बालक को छाती से लगाए ु ए
सन्तुष्ट थी लेककन य चोट न स ी जाएगी। तुम इसे अच्छा कर दो, इसके
बदले मुझे उठा लो। बस, मैं य ी दया चा ती ू ूँ , दयामय?'

सिंसार के र स्य को कौन समझ सकता ै , क्या ममे से ब ु तों को य अनभ


ु व
न ीिं कक ल्जस हदन मने बेईमानी करके कुछ रकम उड़ाई, उसी हदन उस रकम
को दग
ु ुना नुकसान ो गया। सुशीला को उसी रात को ज्वर आ गया और उसी
हदन मो न का ज्वर उतर गया। बच्चे की सेवा-शुश्रूषा में आिी तो यों ी र
गई थी, इस बीमारी ने ऐसा पकड़ा कक कफर न छोड़ा। मालूम न ीिं, दे वता बैठे सुन
र े थे या क्या, उसकी याचना अक्षरशः परू ी ु ई। पन्द्र वें हदन मो न चारपाई से
उठकर माूँ के पास आया और उसकी छाती पर भसर रखकर रोने लगा। माता ने
उसके गले में बाूँ ें डालकर उसे छाती से लगा भलया और बोली- 'क्यों रोत ो
बेटा, मैं अच्छी ो जाऊूँगी। अब मुझे क्या धचन्ता, भगवान पालने वाले ै ,व ी
तुम् ारे रक्षक ै , व ी तुम् ारे वपता ै । अब मैं सब तरफ से तनल्श्चिंत ू ूँ। जकद
अच्छी ो जाऊूँगी।'

मो न बोला - 'ल्जया तो क ती ै , अम्माूँ अब न अच्छी ोगी।'

सुशीला ने बालक का चुम्बन लेकर क ा - 'ल्जया पगली ै , उसे क ने दो। मैं


तुम् ें छोड़कर क ीिं न जाऊूँगी। मैं सदा तुम् ारे साथ र ू ूँगी। ाूँ, ल्जस हदन तुम
कोई अपराि करोगे , ककसी की कोई चीज उठा लोगे, उसी हदन मैं मर जाऊूँगी।'

मो न ने प्रसन्न ोकर क ा - 'तो तुम मेरे पास से कभी न ीिं जाओगी, माूँ?'

सुशीला ने क ा - 'कभी न ीिं बेटा, कभी न ीिं।'

उसी रात को दःु ख और ववपल्तत की मारी ु ई य अनाथ वविवा दोनों अनाथ


बालकों को भगवान पर छोड़कर परलोक भसिार गई।
इस घटना को तीन साल ो गए ै । मो न और रे वती दोनों उसी व्ध
ृ ा के पास
र ते ै । बुहढया माूँ तो न ीिं ै लेककन माूँ से बढकर ै । रोज मो न को रात की
रखी रोहटयाूँ खखलाकर गुरुजी की पाठशाला में प ु ूँचा आती ै , छुट्टी के समय
जाकर ले आती ै । रे वती का अब चौद वाूँ साल ै। व घर का सारा काम -
पीसना, कूटना,
ू़ चौका-बतयन, झाडू-ब ारू करती ै । बहु ढया सौदा बेचने चली जाती
ै , तो व दक
ु ान पर भी आ बैठती ै।

एक हदन बड़े सेठ कुबेरदास ने उसे बल


ु ा भेजा और बोले - 'तझ
ु े दक
ु ान पर बैठते
शमय न ीिं आती। सारी बबरादरी की नाक कटा र ी ै । खबरदार, जो कल से दक
ु ान
पर बैठी। मैंने तेरे पाखणग्र ण के भलए झाबरमल जी को पक्का कर हदया ै।

सेठानी ने समथयन ककया, 'तू अब सयानी ु ई बेटी, अब तेरा इस तर बैठना


अच्छा न ीिं। लोग तर -तर की बातें करने लगते ै । सेठ झाबरमल तो राजी ी
न ोते थे, मने ब ु त क -सुनकर राजी ककया ै । बस, समझ ले कक रानी ो
जाएगी। लाखों की सम्पल्तत ै , लाखों कीिं! तेरे िन्य भाग कक ऐसा वर भमला, तेरा
छोटा भाई ै , उसको भी कोई दक
ु ान करा दी जाएगी।'

सेठ -' बबरादरी की ककतनी बदनामी ै ।'

सेठानी - ' ै ी।'

रे वती ने लल्ज्जत ोकर क ा - 'मैं क्या जानूँू, आप मामा से क ें ।'

सेठ ने बबगड़कर क ा - 'व कौन ोता ै , टके पर मुनीमी करता ै । उससे मैं
क्या पूछूूँ। मैं बबरादरी का पिंच ू ूँ, मुझे अधिकार ै ल्जस काम से बबरादरी का
ककयाण दे खूूँ, व करूूँ। मैंने और पिंचों की राय ले ली ै । सब मुझसे स मत ै।
अगर तू यों न ीिं मानेगी, तो म अदालती काययवाई करें गे। तझ
ु े खरच-बरच का
काम ोगा, य लेती जा।'

य क ते ु ए उन् ोंने 20 रुपए के नोट रे वती की तरफ फेंक हदए।

रे वती ने उठाकर व ीिं पुरजे-पुरजे कर डाले और तमतमाए मुख से बोली -


'बबरादरी ने तब म लोगों की बात न पूछी, जब म रोहटयों को मु ताज थे, मेरी
माता मर गई, कोई झाूँकने तक न आया। मेरा भाई बीमार ु आ, ककसी ने खबर
तक न ली। ऐसी बबरादरी की मझ
ु े परवा न ीिं ै ।'

रे वती चली गई, तो झाबरमल कोठरी से तनकल आए, चे रा उदास था।

सेठानी ने क ा -'लड़की बड़ी घमिंडडन ै , आूँख का पानी मर गया ै ।'

झाबरमल - 'बीस रुपए खराब ो गए, ऐसा फाडा ू़ ै कक जड


ु भी न ीिं सकते।'

कुबेरदास - 'तुम घबराओ न ीिं, मैं इसे अदालत से ठीक करूूँगा, जाती क ाूँ ै ।'

झाबरमल - 'अब तो आपका ी भरोसा ै ।'

बबरादरी के बड़े पिंच की बात क ीिं भम्या ो सकती ै ? रे वती नाबाभलग थी,
माता-वपता न ीिं थे, ऐसी दशा में पिंचों का उस पर पूरा अधिकार था। व बबरादरी
के दबाव में न ीिं र ना चा ती ै , न चा े । कानून बबरादरी के अधिकार की उपेक्षा
न ीिं कर सकता।

सन्तलाल ने य माजरा सुना, तो दाूँत पीसकर बोले - 'न जाने इस बबरादरी का


भगवान कब अन्त करें गे।'

रे वती -'क्या बबरादरी मुझे जबरदस्ती अपने अधिकार में ले सकती ै ?'
सन्तलाल - ' ाूँ बेटी, ितनकों के ाथ में तो कानन
ू भी ै ।'

रे वती - 'मैं क दूँ ग


ू ी कक मैं उनके पास न ीिं र ना चा ती।'

सन्तलाल - 'तेरे क ने से क्या ोगा, तेरे भाग्य में य ी भलखा था, तो ककसका
बस ै । मैं जाता ू ूँ बड़े पिंच के पास।'

रे वती -'न ीिं मामाजी, तम


ु क ीिं न जाओ, जब भाग्य ी का भरोसा ै , तो जो कुछ
भाग्य में भलखा ोगा व ोगा।'

रात को रे वती ने घर में काटी। बार-बार तनद्रा-मग्न भाई को गले लगाती। य


अनाथ अकेला कैसे र े गा, य सोचकर उसका मन कातर ो जाता, पर झाबरमल
की सूरत याद करके उसका सिंककप दृढ ो जाता।

प्रातःकाल रे वती गिंगा-स्नान करने गई। य कई म ीनों से उसका तनतय का


तनयम था। आज जरा अिंिेरा था, पर य कोई सन्दे की बात न थी। सन्दे तब

ु आ जब आठ बज गए और व लौटकर न आई। तीसरे प र सारी बबरादरी में


खबर फैल गई, सेठ रामनाथ का कन्या गिंगा में डूब गई, उसकी लाश पाई गई।

कुबेरदास ने क ा- 'चलो, अच्छा ु आ, बबरादरी की बदनामी तो न ोगी।'

झाबरमल ने दख
ु ी मन से क ा- 'मेरे भलए अब कोई और उपाय कील्जए।'

उिर मो न भसर पीट-पीटकर रो र ा था और बुहढया उसे गोद में भलए समझा


र ी थी, बेटा, उस दे वी के भलए क्यों रोते ो, ल्जन्दगी में उसको दख
ु - ी-दख
ु था।
अब व अपनी माूँ की गोद में आराम कर र ी ै।

***
िि

मरु ादाबाद के पिंडडत सीतानाथ चौबे गत 30 वषो से व ाूँ के वकील के नेता थे।
उनके वपता उन् ें बाकयवस्था में ी छोड़कर परलोक भसिार थे , घर में कोई
सम्पल्तत न थी। माता ने बड़े-बड़े कष्ट झेलकर उन् ें पाला और पढाया। सबसे
प ले व कच री में 15 रुपए माभसक पर नौकर ु ए। कफर वकालत की परीक्षा
दी, पास ो गए। प्रततभा थी, दो- ी-चार वषो में वकालत चमक उठी। जब माता
का स्वगयवास ु आ तब पुत्र का शुमार ल्जले के गणमान्य व्यल्क्तयों में ो गया
था। उनके आमदनी एक जार रुपए म ीने से कम न थी। एक ववशाल भवन
बनवा भलया था, कुछ जमीिंदारी ले ली थी, कुछ रुपए बैंक में रख हदए थे और
कुछ लेन-दे न में लगा हदए। इस समवृ ्ध पर चार पुत्रों को ोना उनके भाग्य को
आदशय बनाए ु ए था। चारो लड़के भभन्न-भभन्न दजो में पढते थे। मगर य
करना कक सारी ववभूतत चौबेजी की अनवरत पररश्रम का फल था, उनकी पतनी
मिंगला दे वी के साथ अन्याय करना ैं। मिंगला बड़ी ी सरल, ग ृ -कायय में कुशल
और पैसे का काम िेले में चलाने वाली स्त्री थी। जब तक अपना घर न बन
गया, उसने 3 रुपए से अधिक का मकान ककराए पर न ीिं भलया और रसोई के
भलए भमसराइन तो उसने अब तक न रखी थी। उसे अगर कोई व्यसन था तो
ग नों का और चौबेजी को भी अगर कोई व्यसन था तो स्त्री को ग ने प नाने
का। व सच्चे पतनी-परायण मनुष्य थे। सािारणतः म कफलों में वेश्याओिं से
ूँसी-मजाक कर लेना उतना बरु ा न ीिं समझा जाता, पर पिंडडत अपने जीवन में
कभी नाच-गाने की म कफल में गए ी न ीिं। पाूँच बजे तड़के से लेकर बार बजे
रात तक उनका व्यसन मनोरिं जन, पढना-भलखना अनश
ु ीलन जो कुछ था, कानन

था, न उन् ें राजनीतत से प्रेम था, न जातत-सेवा से, ये सभी काम उन् ें व्यथय से
जान पड़ते थे। उनके ववचार से अगर कोई काम करने लायक था, तो बस, कच री
जाना, ब स करना, रुपए जमा करना औऱ भोजन करके सो र ना। जैसी वेदान्ती
को ब्रह्म के अततररक्त जगत भम्या जान पड़ता ैं , वैसे ी चौबेजी को कानून
के भसवा सारा सिंसार भम्या प्रतीत ोता था, सब माया था, एक कानन
ू ी सतय
था।

चौबेजी के मुख-चन्द्र में केवल एक कला की कमी थी। उनके कोई कन्या न थी,
प लौठी कन्या के बाद कफर कन्या ु ई ी न ीिं और न अब ोने की आशा ी
थी। स्त्री और पुरुष, दोनो उस कन्या को याद करके रोया करते थे। लड़ककयाूँ
बचपन में लड़कों से ज्यादा चोंचले करती ैं , उन चोंचलों के भलए दोनो प्राणी
ववकल र ते। माूँ सोचती, लड़की ोती, तो उसके भलए ग ने बनवाती, उसके बाल
गूँथ
ू ती, लड़की पैजतनयाूँ प ने ठुमक-ठुमक आूँगन में चलती तो ककतना आनन्द
आता। चौबे सोचते, कन्यादान के बबना मोक्ष कैसे ोगा? कन्यादान म ादान ैं ,
ल्जसने य दान न हदया, उसका जन्म ी वथ
ृ ा गया।

आखखर य लालसा इतनी प्रबल ो गई कक मिंगला ने अपनी छोटी ब न को


बुलाकर कन्या की भाूँतत पालने का तनश्चय ककया। उसके माूँ-बाप तनियन थे,
राजा ो गए। य बाभलका मिंगला की सौतेली माूँ की कन्या थी, बड़ी सुन्दर और
बड़ी चिंचल थी, नाम था बबन्नी।

चौबेजी का घर उसके आने से खखल उठा। दो-चार ी हदनों में लड़की अपने माूँ-
बाप को भूल गई। उसकी उम्र तो केवल चार वषय की थी, पर उसे खेलने की
अपेक्षा कुछ काम करना अच्छा लगता था। मिंगला रसोई बनाने जाती तो बबन्नी
भी पीछे -पीछे जाती, उससे आटा गूँि
ू ने के भलए झगड़ा करती, तरकारी काटने में
उसे बड़ा मजा आता था। जब तक वकील घर पर र ते, तब तक व उनके साथ
दीवानखाने में बैठी र ती। कभी ककताब उलटती, क ी दवात-कलम से खेलती,
चौबेजी मुस्कराकर क ते - बेटी, मार खाओगी?

बबन्नी क ती - तम
ु मार खाओगे, मैं तम्
ु ारे कान काट लूँ ग
ू ी, जज
ू ू को बल
ु ाकर
पकड़ा दूँ ग
ू ी.
इस पर दीवानखाने पर खब
ू क क े उड़ते। वकील सा ब कभी इतने बाकयवतसल
न थे। जब बा र से आते तो कुछ-न-कुछ सौगात बबन्नी के वास्ते जरूर लाते,
और घर में कदम रखते ी पुकारते, बबन्नी बेटी, दौड़ती ु ई आकर उनकी गोद में
बैठ जाती।

मिंगला एक हदन बबन्नी को भलए बैठी थी। इतने में पिंडडतजी आ गए, बबन्नी
दौड़कर उसकी गोद में जा बैठी। पिंडडतजी ने पूछा - तू ककसी बेटी ैं?

बबन्नी - न बताऊूँगी।

मिंगला - क दे बेटा, जीजी की बेटी ू ूँ।

पिंडडत - तू मेरी बेटी ैं बबन्नी, कक इनकी?

बबन्नी - न बताऊूँगी।

पिंडडत - अच्छा, म लोग आूँख बन्द ककए ैं, बबन्नी ल्जसकी बेटी ोगी, उसकी
गोद में बैठ जाएगी।

बबन्नी उठी और कफर चौबेजी की गोद में बैठ गई।

पिंडडत - मेरी बेटी ैं, मेरी बेटी ैं, ( स्त्री से) अब न क ना कक मेरी बेटी ैं।

मिंगला - अच्छा, जाओ बबन्नी, अब तुम् ें भमठाई न दूँ ग


ू ी, गुडड़या भी न मिंगा दूँ ग
ू ी।

बबन्नी - भैयाजी मूँगवा दें गे, तुम् ें न दूँ ग


ू ी।

वकील सा ब ने ूँसकर बबन्नी को छाती से लगा भलया और गोद में भलए ु ए


बा र चले। व अपने इष्ट-भमत्रों को भी इस बालक्रीड़ा का रसास्वादन कराना
चा ते थे।
आज से कोई बबन्नी से पछ
ू ता ैं कक तू ककसकी बेटी ैं, तो बबन्नी चट क दे ती
ैं - भैया की।

एक बार बबन्नी का बाप आकर उसे अपने साथ ले गया। बबन्नी ने रो-रोकर
दतु नया भसर पर उठा ली। इिर चौबेजी को भी हदन काटना कहठन ो गया। एक
म ीना भी न गज
ु रने पाया था कक कफर ससरु ाल गए और बबन्नी को ले आए।
बबन्नी अपनी माता और वपता को भूल गई। व चौबेजी को अपना बाप और
मिंगला को अपनी माूँ समझने लगी। ल्जन् ोंने उसे जन्म हदया, वे अब गैर ो
गए।

कई साल गुजर गए। वकील सा ब के बेटों के वववा ु ए। उनमें से दो अपने


बाल-बच्चों को लेकर अन्य ल्जलों में वकालत करने चले गए। दो कॉलेज में
पढते थे। बबन्नी भी कली से फूल ु ई। ऐसी रूप-गुण शीलवाली बाभलका बबरादरी
में और न थी, पढने-भलखने में चतुर, घर के काम-िन्िों में कुशल, बूटे-कसीदे और
सीने-वपरोने में दक्ष, पाक कला में तनपण
ु , मिरु -भावषणी, लज्जाशील औऱ अनप
ु म
रूप की राभश। अन्िेरे घर में उसके सौन्दयय की हदव्य ज्योतत से उजाला ोता
था। उषा की लाभलमा में , ज्योस्तना की मनो र छटा में , खखले ु ए गुलाब के ऊपर
सूयय की ककरणों से चमकते ु ए तुषार-बबन्द ु में भी व प्राणप्रद सुषमा और व
शोभा न थी। श्वेत े ममुकुटिारी पवयतों में भी शीतलता न थी, जो बबन्नी अथायत
वविंध्येश्वरी के ववशाल नेत्रों में थी।

चौबेजी ने बबन्नी के भलए सुयोग्य वर खोजना शुरू ककया। लड़कों को शाहदयों में
हदल का अरमान तनकाल चुके थे, अब कन्या के वववा में ौंसले पूरे करना
चा ते थे। िन लुटाकर कीततय पा चुके थे, अब दान-द े ज में नाम कमाने की
लालसा थी। बेटे का वववा कर लेना आसान ैं , पर कन्या के वववा में आबरू
तनबा ले जाना कहठन ैं। नौका पर सभी यात्रा करते ैं , जो तैरकर नदी पार
कर ले, व ी प्रशिंसा का अधिकारी ैं।
िन की कमी न थीिं। अच्छा घर और सुयोग्य वर भमल गया। जन्मपत्र भमल
गए, बानक बन गया, फलदान और ततलक की रस्में भी अदा कर दी गई, पर ाय
रे दद
ु ै व! क ाूँ तो वववा की तैयारी ो र ी थी, द्वार पर दरजी, सुनार, लवाई
सब अपना-अपना काम कर र े थे, क ाूँ तनदय य वविाता ने और ी लीला रच दी।
वववा के एक सप्ता प ले मिंगला अनायास बीमार पड़ी, तीन हदन में अपने
सारे अरमान भलए ु ए परलोक भसिार गई।

सन्ध्या ो गई थी। मिंगला चारपाई पर पड़ी ु ई थी। बेटे, ब ु एूँ, पोते-पोततयाूँ सब


चारपाई के चारों ओर खड़े थे। बबन्नी पैताने में बैठी मिंगला के पैर दबा र ी थी।
मतृ यु के समय की भयिंकर तनस्तब्िता छाई ु ई थी, कोई ककसी से न बोलता था।
हदल में सब समझ र े थे, क्या ोने वाला ैं, केवल चौबेजी व ाूँ न थे.

स सा मिंगला ने इिर-उिर इच्छापण


ू य दृल्ष्ट से दे खकर क ा - जरा उन् ें बल
ु ा
दो, क ाूँ ैं?

पिंडडतजी अपने कमरे में बैठे रो र े थे। सन्दे श पाते ी आूँसू पोंछते ु ए घर में
आए औऱ बड़े िैयय के साथ मिंगला के सामने ो गए, डर र े थे कक मेरी आूँखों
से आूँसू की एक बूँद
ू भी तनकली, तो घर में ा ाकार मच जाएगा।

मिंगला ने क ा - एक बात पछ
ू ती ू ूँ , बरु ा न मानना, बबन्नी तम्
ु ारी कौन ैं?

पिंडडत - बबन्नी कौन ैं ? मेरी बेटी ैं और कौन?

मिंगला - ाूँ, मैं तुम् ारे मूँु से य ी सुनना चा ती थी। उसे सदा अपनी बेटी
समझने र ना। उसके वववा के भलए मैंने जो-जो तैयाररयाूँ की थीिं, उनमें कुछ
काट-छाूँट मत करना।

पिंडडत - इसकी कुछ धचन्ता न करो, ईश्वर ने चा ा, तो उससे कुछ ज्यादा िूम-
िाम के साथ वववा ोगा।
मिंगला - उसे मेशा बुलाते र ना, तीज-तयो ार में कभी मत भूलना।

पिंडडत - इन बातों की मझ
ु े याद हदलाने की जरूरत न ीिं।

मिंगला ने कुछ सोचकर कफर क ा - इसी साल वववा कर दे ना।

पिंडडत - इस साल कैसे ोगा?

मिंगला - य फागन
ु का म ीना ैं, जेठ तक लगन ैं।

पिंडडत - ो सकेगा तो इसी साल कर दूँ ग


ू ा।

मिंगला - ो सकने की बात न ीिं, जरूर कर दे ना।

पिंडडत - कर दूँ ग
ू ा।

इसके बाद गोदान की तैयारी ोने लगी।

बुढापे में पतनी की मरना बरसात में घर का धगरना ैं , कफर उसके बनने की
आशा न ीिं ोती।

मिंगला की मतृ यु से पिंडडतजी का जीवन अतनयभमत और ववशिंख


ृ ल-सा ो गया।
लोगों से भमलना-जुलना छूट गया, कई-कई हदन कच री न जाते, जाते भी तो बड़े
आग्र से, भोजन से अरुधच ो गई, ववन्िेश्वरी उनकी दशा दे ख-दे खकर हदल में
कुढती और यथासाध्य उनका हदल ब लाने की चेष्ठा ककया करती थी, व उन् ें
आग्र अनुरोि के साथ खखलाती थी, जब तक व न खा लेत,े व कुछ न खाती
थी। गमी के हदन थे ी, रात को बड़ी दे र कर उनके पैताने बैठी पिंखा झला
करती और जब तक व न सो जाते, तब तक व भी सोने न जाती। व जरा
भी भसर-ददय की भशकायत करते, तो तुरन्त उनके भसर में तेल डालती। य ाूँ तक
कक रात को जब उन् ें प्यास लगी, तब खद
ु दौड़कर आती और उन् ें पानी
वपलाती। िीरे -िीरे चौबेजी के हृदय में मिंगला केवल एक सख
ु की स्मतृ त र गई।

एक हदन चौबेजी ने बबन्नी को मिंगला के सब ग ने दे हदए। मिंगला का य


अल्न्तम आदे श था। बबन्नी फूली न समाई, उसने उस हदन खब
ू बनाव-भसिंगार
ककया। जब सन्ध्या के समय पिंडडतजी कच री से आए, तो व ग नों से लदी

ु ई उनके सामने कुछ लजाती और मुस्कराती ु ई आकर खड़ी ो गई।

पिंडडतजी ने सतष्ृ ण नेत्रों से दे खा, ववन्िेश्वरी के प्रतत उनके मन में एक नया


भाव अिंकुररत ो र ा था। मिंगला जब तक जीववत थी, व उनसे वपता-पत्र
ु ी के
भाव को सजग और पुष्ट कराती र ती थी। अब मिंगल न थी। अतएव व भाव
हदन-हदन भशधथल ोता जाता था, मिंगला के सामने बबन्नी एक बाभलका थी,
मिंगला की अनुपल्स्थतत में व एक रूपवती युवती थी। लेककन सरल-हृदय बबन्नी
को इसकी रतती-भर भी न खबर थी कक भैया के भावों में क्या पररवतयन ो र ा
ैं। उसके भलए व व ी वपता के तक
ु य भैया थे। व परु
ु षों के स्वभाव से
अनभभञा थी। नारी-चररत्र में अवस्था के साथ माततृ व का भाव ढृढ ोता जाता
ैं। य ाूँ तक कक एक समय ऐसा आता ैं , जब नारी की दृल्ष्ट में युवक मात्र पुत्र
तुकय ो जाते ैं, उनके मन में ववषय-वासना का लेश भी न ीिं र ा जाता, ककन्तु
पुरुषों में य अवस्था कभी न ीिं आतीिं। उनकी कामेल्न्द्रयाूँ कक्रया ीन भले ी ो
जाए, पर ववषय-वासना सम्भवतः और भी बलवती ो जाती ैं। ग्रीष्म-ऋतु के
अल्न्तन काल की भाूँतत उसकी वासना की गरमी भी प्रचिंड ोती जाती ैं। व
तल्ृ प्त के भलए नीच सािनों का स ारा लेने को भी प्रस्तुत ो जाता ैं। जवानी
में मनुष्य इतना न ीिं धगरता। उसके चररत्र में गवय की मात्रा अधिक र ती ैं , जो
नीच सािनों से घण
ृ ा करते ैं, व ककसी के घर में घुसने के भलए जबरदस्ती कर
सकता ैं, ककन्तु परनाले के रास्ते न ीिं जा सकता।

पिंडडतजी ने बबन्नी को सतष्ृ ण नेत्रों से दे खा और अपनी इस उच्छृिंखलता पर


लल्ज्जत ोकर आूँखें नीची कर लीिं। बबन्नी इसका कुछ मतलब न समझ सकी।
पिंडडतजी बोले - तम्
ु ें दे खकर मझ
ु े मिंगला की उस समय की याद आ र ी ैं, जब
व वववा के समय य ाूँ आई थी। बबककुल ऐसी सरू त थी, य ी गोरा रिं ग, य ी
प्रसन्न-मुख, य ी कोमल गाल, ये ी लजीली आूँखें, व धचत्र अभी तक मेरे हृदय-
पट पर खखिंचा ु आ ैं। कभी भमट न ीिं सकता, ईश्वर ने तुम् ारे रूप में मेरी
मिंगला मुझे कफर दे दी।

बबन्नी - आपके भलए क्या जलपान लाऊूँ।

पिंडडत - ले आना, अभी बैठो, मैं ब ु त दख


ु ी ू ूँ , तम
ु ने मेरे शोक को भल
ु ा हदया ैं।
वास्तव में तम
ु ने मझ
ु े ल्जला भलया, न ीिं तो मझ
ु े आशा न थी कक मिंगला के पीछे
मैं जीववत र ू ूँगा, तुमने प्राणदान हदया। न ीिं जानता, तुम् ारे चले जाने पर मेरी
क्या दशा ोगी।

बबन्नी - क ाूँ चले जाने के बाद? मैं तो क ीिं न ीिं जा र ी ू ूँ ।

पिंडडत - क्यों तुम् ारे वववा की ततधथ आ र ी ैं, चली ी जाओगी।

बबन्नी सकुचाती ु ई बोली - ऐसी जकदी क्या ैं?

पिंडडत - जकदी क्यों न ीिं, जमाना ूँसेगा।

बबन्नी - ूँसने दील्जए, मैं य ी आपकी सेवा करती र ू ूँगी।

पिंडडत - न ी बबन्नी, मेरे भलए तुम क्यों लकान ोगी, मैं अभागा ू ूँ, जब तक
ल्जन्दगी ैं, ल्जउूँ गा, चा े रोकर ल्जउूँ , चा े ूँस कर। ूँसी मेरे भाग्य से उठ गई,
तुमने इतने हदनों सम्भाल भलया, य ीिं क्या कम अ सान ककया, मैं जानता ू ूँ कक
तम्
ु ारे जाने के बाद कोई मेरी खबर लेने वाला न ीिं र े गा, य घर त स-न स
ो जाएगा औऱ मझ
ु े घर छोड़कर भागना पड़ेगा। पर क्या ककया जाए, लाचारी ैं,
तुम् ारे बबना अब मैं क्षणभर भी न ीिं र सकता, मिंगला की खाली जग तो
तुमने पूरी की, अब उसकी स्थान कौन पूरा करे गा?
बबन्नी - क्या इस साल रुक न ीिं सकता, मैं इस दशा में आपको छोड़कर न
जाऊूँगी।

पिंडडत - अपने बस की बात न ीिं?

बबन्नी - ब ु त जकदी मचाएूँ तो आप क दील्जएगा, अब न ीिं करें गे। उन लोगों


के जी में जो आए, करे । य ाूँ कोई उनका दबैल बैठा ु आ ैं?

पिंडडत - वे लोग अभी से आग्र कर र े ैं।

बबन्नी - आफ फटकार क्यों न ीिं दे ते?

पिंडडत - करना तो ैं ी कफर ववलम्ब क्यों करूूँ? य दःु ख और ववयोग तो एक


हदन ोना ी ैं , अपनी ववपल्तत का भार तुम् ारे भसर पर क्यों रखू?ूँ

बबन्नी - दःु ख-सख


ु में काम न आऊूँगी, तो और ककस हदन काम आऊूँगी?

पिंडडतजी के मन में कई हदनों तक सिंग्राम ोता र ा। व बबन्नी को वपता की


दृल्ष्ट से न दे ख सकते थे, बबन्नी अब मिंगला की ब न और उनकी साली थी,
जमाना ूँसेगा, तो ूँसे, ल्जन्दगी तो आनन्द से गज
ु रे गी। उनकी भावनाएूँ कभी
इतनी उकलासमयी न थीिं, उन् ें अपने अिंगों में कफर जवानी की स्फूततय का अनभ
ु व
ो र ा था।

व सोचते, बबन्नी को मैं अपनी पत्र


ु ी समझता था, पर व मेरी पत्र
ु ी ैं तो न ीिं,
इस तर समझने से क्या ोता ैं ? कौन जाने, ईश्वर को य ीिं मिंजरू ो, न ीिं तो
बबन्नी य ाूँ आती ी क्यों? उसने इसी ब ाने से य सिंयोग तनल्श्चत कर हदया
ोगा, उसकी लीला तो अपरम्पार ैं।
पिंडडतजी ने वर के वपता को सच
ू ना दे दी कक कुछ ववशेष कारणों से इस साल
वववा न ीिं ो सकता।

ववन्िेश्वरी को अभी तक कुछ खबर न थी कक मेरे भलए क्या-क्या षड्यन्त्र रचे


जा र े ैं। व खश
ु थी कक मैं भैयाजी की सेवा कर र ी ू ूँ और भैयाजी मझ
ु से
प्रसन्न ैं। ब न का इन् ें बड़ा दःु ख ैं, मैं न र ू ूँगी तो य क ीिं चले जाएगे, कौन
जाने, सािु-सिंन्यासी न ो जाए, घर में कैसे मन लगेगा।

व पिंडडतजी का मन ब लाने का तनरन्तर प्रयतन करती र ती थी। उन् ें कभी


मनमारे न बैठने दे ती। पिंडडतजी का मन अब कच री में न लगता था। घन्टे -दो-
घन्टे बैठकर चले आते थे। युवकों के प्रेम में ववकलता ोती ैं और व्ध
ृ ों के प्रेम
में श्र्ध ा। वे अपनी यौवन की कमी को खुशामद से, मीठी बातों से और
ाल्जरजवाबी से पूणय करना चा ते ैं।

मिंगला को मरे अभी तीन म ीने ी गुजरे थे कक चौबेजी ससुराल प ु ूँच।े सास ने
मूँु माूँगी मुराद पाई। उसके दो पुत्र थे, घर में कुछ पूिंजी न थी, उनके पालन और
भशक्षा के भलए कोई हठकाना नजर न आया, मिंगला मर ी चुकी थी, लड़की का
ज्यों ी वववा ो जाएगा, व अपने घर की ो र े गी, कफर चौबे से नाता ी टूट
जाएगा, व इसी धचन्ता में पड़ी ु ई थी कक चौबेजी प ु ूँ चे, मानो दे वता स्वयिं
वरदान दे ने आए ो।

जब चौबेजी भोजन करके लेटे, तो सास ने क ा - भैया क ीिं बातचीत ु ई कक


न ीिं?

पिंडडत - अम्माूँ, अब मेरे वववा की बातचीत क्या ोगी?

सास - क्यों भैया, अभी तुम् ारी उम्र ी क्या ैं?


पिंडडत - करना भी चा ू ूँ तो बदनामी के डर से न ीिं कर सकता, कफर मझ
ु े पछ
ू ता
ी कौन ैं ?

सास - पूछने को जारों ैं, दरू क्यों जाओ, अपने घर में लड़की बैठी ैं, सुना ैं,
तम
ु ने मिंगला के सब ग ने बबन्नी को दे हदए ैं, क ीिं और वववा ु आ तो ये
कई जार की चीजें तम्
ु ारे घर से तनकल जाएूँगी, तम
ु से अच्छा घर मैं क ाूँ
पाऊूँगी, तुम उसे अिंगीकार कर लो, तो मैं तर जाऊूँ।

अन्िा क्या माूँगे, दो आूँखें। चौबेजी ने मानो वववश ोकर सास की प्राथयना
स्वीकार कर ली।

बबन्नी अपने गाूँव के कच्चे मकान में अपना माूँ के पास बैठी ु ई ैं। अबकी
चौबेजी ने उसकी सेवा के भलए एक लौडी भी साथ कर दी ैं , ववन्िेश्वरी के दोनो
छोटे भाई ववल्स्मत ो- ोकर उसके आभूषणों को दे ख र े थे। गाूँव की और कई
ल्स्त्रयाूँ उसे दे खने आई ु ई ैं, और उसके रूपलावण्य का ववकास दे खकर चककत
ो र ी ैं , य व ी बबन्नी ैं , जो य ाूँ मोटी फररया प ने खेला करती थी, रिं ग-रूप
कैसा तनखर आया ैं , सख
ु की दे ैं न।

जब भीड़ कम ु ई, एकान्त ु आ, तो माता ने पूछा - तेरे भैयाजी तो अच्छी तर


ैं न बेटी, य ाूँ आए थे, तो ब ु त दख
ु ी थे, मिंगला का शोक उन् ें खाए जाता ैं।
सिंसार में ऐसे मदय भी ोते ैं , जो स्त्री के भलए प्राण दे दे ते ैं , न ीिं तो स्त्री मरी
और चट दस
ू रा ब्या रचाया गया, मानो मनाते र ते ैं कक य मरे तो नई-
नवेली ब ू घर लाएूँ।

ववन्िेश्वरी - उन् ें याद करके रोया करते ैं , चली आई ू ूँ , न-जाने कैसे ोंगे।

माता - मुझे भी तो य ी डर लगता ैं कक तेरा ब्या ो जाने पर क ीिं घबराकर


सािू-फकीर न ो जाए।
ववन्िेश्वरी - मझ
ु े भी य ी डर लगता ैं, इसी से मैंने क हदया अभी जकदी क्या
ैं।

माता - ल्जतने ी हदन उनकी सेवा करोगी, उतना ी स्ने बढे गा, और तुम् ारे
जाने से उन् ें उतना ी दःु ख भी अधिक ोगा। बेटी, सच तो य ैं कक व तम्
ु ीिं
को दे खकर जीते ैं , इिर तम्
ु ारी डोली उठी और उिर उनका घर सतयानाश

ु आ। मैं तुम् ारी जग ोती, तो उन् ीिं से ब्या कर लेती।

ववन्िेश्वरी - ऐ टो अम्माूँ, गाली दे ती ो? उन् ोंने मझ


ु े बेटी करके पाला ैं, मैं भी
उन् ें अपना वपता...।

माता - चुप र पगली, क ने से क्या ोता ैं?

ववन्िेश्वरी - अरे सोच तो अम्माूँ, ककतनी बेढिंगी बात ैं।

माता - मझ
ु े तो इसमें कोई बेढिंगापन न ीिं हदखाई प़ड़ता।

ववन्िेश्वरी - क्या क ती ो अम्माूँ, उनसे मेरा - मैं तो लाज के मारे मर जाऊूँ,


उनके सामने ताक न सकूूँ, व भी कभी न मानेंगे, मानने का बात भी ो कोई।

माता - उनका ल्जम्मा मैं लेती ू ूँ, मैं उन् ें राजी कर लूँ ग
ू ी। तू राजी ो जा, याद
रख य कोई ूँसी-खुशी का ब्या न ीिं ैं उनकी प्राणरक्षा की बात ैं, ल्जसके
भसवा सिंसार में मारा और कोई न ीिं , कफर अभी उनकी कुछ ऐसी उम्र भी तो
न ीिं ैं, पचास से दो ी चार साल ऊपर ोंगे, उन् ोंने एक ज्योततषी से पछ
ू ा भी
था, उसने उनकी किंु डली दे खकर बताया ैं कक आपकी ल्जन्दगी कम-से-कम 70
वषय की ैं। दे खने-सुनने मे भी व सौ-दो सौ में एक आदमी ैं.

बातचीत में चतरु माता ने कुछ ऐसा शब्द-व्यू रचा कक सरल बाभलका उसमें से
तनकल न सकी। माता जानती थी कक प्रलोभन का जाद ू इस पर न चलेगा, िन
का, आभष
ू णों का, कुल-सम्मान का, सख
ु मय-जीवन का उसने ल्जक्र तक न ककया।
उसने केवल चौबेजी की दयनीय दशा पर जोर हदया।

अन्त को ववन्िेश्वरी ने क ा - अम्माूँ, मैं जानती ू ूँ कक मेरे न र ने से उनको


बड़ा दःु ख ोगा, य भी जानती ू ूँ कक मेरे जीवन में सख
ु न ीिं भलखा ैं, अच्छा
ैं, उनके ह त के भलए मैं अपना जीवन बभलदान कर दूँ ग
ू ी, ईश्वर की य ी इच्छा
ैं, तो य ी स ी।

चौबेजी के घर में मिंगल-गान ो र ा था, ववन्िेश्वरी आज विू बनकर इस घर में


आई ैं, कई वषय प ले व चौबेजी की पुत्री बनकर आई थी, उसने स्वप्न में भी
न सोचा था कक मैं एक हदन इस घर की स्वाभमनी बनूँूगी।

चौबेजी की सज-िज आज दे खने योग्य ैं , तनजेब का रिं गीन कुरता, कतरी ु ई


और सिंवारी ु ई मूँछ
ू े , खखजाब से चमकते ु ए बाल, ूँसता ु आ च े रा, चढी आूँखें,
यौवन का पूरा स्वाूँग था।

रात बीत चुकी थी। ववन्िेश्वरी आभूषणों से लदी ु ई, भारी जोड़े प ने, फशय पर
भसर झुकाए बैठी ैं, उसे कोई उतकिंठ न थी, भय न था, केवल सिंकोच था कक मैं
उनके सामने कैसे मूँु खोलूँ ग
ू ी? उनकी गोद में खेली ू ूँ, उनके कन्िों पर बैठी ू ूँ,
उनकी पीठ पर सवार ु ई ू ूँ , कैसे उन् ें मूँु हदखाऊूँगी, अगर वे वपछली बातें सोचूँू,
ईश्वर उन् ें प्रसन्न रखे, ल्जसके भलए मैने पत्र
ु ी बनना स्वीकार ककया, व पण
ू य ो,
उनका जीवन आनन्द से व्यतीत ो।

इतने में चौबेजी आए, ववन्िेश्वरी उठ खड़ी ु ई, उसे इतनी लज्जा आई कक जी


चा ा क ीिं भाग जाए, खखड़की से नीचे कूद पड़े।

चौबेजी ने उसका ाथ पकड़ भलया और बोले - बबन्नी, मुझसे डरती ो?


बबन्नी कुछ न बोली, मतू तय की तर खड़ी र ी, एक क्षण में चौबेजी ने उसे बबठा
भलया। व बैठ गई, उसका गला भर-भर आता था, भाग्य की तनदय य लीला, य
क्रूर क्रीड़ा उसके भलए असह्य ो र ी थी।

पिंडडतजी ने पछ
ू ा - बबन्नी, बोलती क्यों न ीिं? क्या मझ
ु से नाराज ो?

ववन्िेश्वरी ने अपने कान बन्द कर भलये। य ीिं पररधचत आवाज व ककतने हदनों
से सुनती चली आती थी, आज व व्यिंग्य से भी तीव्र और उप ास से भी कटु
प्रतीत ोती थी। स सा पिंडडतजी चौंक पड़े, आूँखें फैल गई और दोनों ाथ मेढक
के पैरो की भाूँतत भसकुड़ गए। व दो कदम पीछे ट गए, खखड़की से मिंगला
झाूँक र ी थी! छाया न ीिं, मिंगला थी, सन्दे , साकर, सजीव।

चौबेजी काूँपते ु ए टूटी-फूटी आवाज से बोले - बबन्नी दे खो, व क्या ैं?

बबन्नी ने घबराकर खखड़की की तरफ दे खा, कुछ न थी, कफर क ा - क्या ैं? मुझे
तो कुछ न ीिं हदखाई दे ता।

चौबेजी - अब गायब ो गई लेककन ईश्वर जानता ैं, मिंगला थी।

बबन्नी - ब न?

चौबेजी - ाूँ- ाूँ, व ी, खखड़की से झाूँक र ी थी, मेरे तो रोएूँ खड़े ो गए।

ववन्िेश्वरी काूँपते ु ए बोली - मैं य ाूँ न ीिं र ू ूँगी।

चौबे - न ीिं, न ीिं, बबन्नी, कोई डर न ीिं ैं , मझ


ु े िोखा ु आ ोगा, बात य ैं कक
व घर में र ती थी, य ीिं सोती थी, इसी से कदाधचत मेरी भावना ने उसकी मूततय
लाकर खड़ी कर दी, कोई बात न ीिं ैं , आज का हदन ककतना मिंगलमय ैं कक मेरी
बबन्नी यथाथय में मेरी ी ो गई...।
य क ते क ते चौबेजी कफर चौंके , कफर व ी मतू तय खखड़की से झाूँक र ी थी, मतू तय
न ीिं, सन्दे , सजीव, साकार मिंगला, अबकी उसकी आूँखों में क्रोि न था, ततरस्कार
न था, उसमें ास्य भरा ु आ था, मानो इस दृश्य पर ूँस र ी ैं, मानो उसके
सामने कोई अभभनय ो र ा ैं।

चौबेजी ने काूँपते ु ए क ा - बबन्नी, कफर व ी बात ु ई, व दे खो मिंगला खड़ी ैं।

ववन्िेश्वरी चीखकर उनके गले से धचमट गई।

चौबेजी ने म ावीर का नाम जपते ु ए क ा - मैं ककवाड़ बन्द ककए दे ता ू ूँ।

बबन्नी - मैं अब इस घर में न ीिं र ू ूँगी, (रोकर) भैयाजी, तम


ु ने ब न के अल्न्तम
आदे श को न ीिं माना, इसी से उनकी आतमा दख
ु ी ो र ी ैं, मुझे तो ककसी
अमिंगल की आशिंका ो र ी ैं।

चौबेजी ने उठकर खखड़की के द्वार बन्द कर हदए और क ा - मैं कल से


दग
ु ायपाठ कराऊूँगा, आज तक कभी ऐसा शिंका न ु ई थी, तुमसे क्या क ू ूँ , मालूम
ोता ै ... ोगा, उस बात को जाने दो, य ाूँ बड़ी गरमी पड़ र ी ैं , अपनी पानी
धगरने को दो म ीने से कम न ीिं ैं , म लोग मिंसूरी क्यों न चले।

ववन्िेश्वरी - मेरा तो क ीिं जाने का जी न ीिं चा ता, कल से दग


ु ायपाछ जरूर
कराना, मुझ अब इस कमरे में नीिंद न आएगी।

पिंडडत - ग्रिंथों में तो य ीिं दे खा ैं कक मरने के बाद केवल सक्ष्


ू म शरीर र जाता
ैं, कफर समझ में न ीिं आता, य स्वरूप क्योंकर हदखाई दे र ा ैं। मैं सच क ता

ू ूँ बबन्नी, अगर तुमने मुझ पर य दया न की ोती, तो मैं क ीिं का न र ता,


शायद इस वक्त मैं बद्रीनाथ के प ाड़ों पर भसर टकराता ोता, या कौन जाने
ववष खाकर प्राणान्त कर चुका ोता।

ववन्िेश्वरी - मिंसूरी में ककसी ोटल में ठ रना पड़ेगा।


पिंडडत - न ीिं मकान भी भमलते ैं , मैं अपने भमत्र को भलखे दे ता ू ूँ, व कोई
मकान ठीक कर रखेंगे व ाूँ...।

बात पूरी न ोने पाई थी कक न-जान क ाूँ से जैसे आकाशवाणी ो, आवाज आई,
बबन्नी तुम् ारी पुत्री ैं।

चौबेजी ने दोनो कान बन्द कर भलए, भय से थर-थर काूँपते ु ए बोले - बबन्नी,


य ाूँ से चलो, न जाने क ाूँ से आबाजें आ र ी ैं।

बबन्नी तम्
ु ारी पत्र
ु ी ैं - य ध्वतन स स्त्रों कानों से पिंडडतजी को सन
ु ाई पड़ने
लगी, मानो इस कमरे की एक-एक वस्तु से य ी आवाज आ र ी ैं।

बबन्नी ने रोकर पूछा - कैसी आवाज थी?

पिंडडत - क्या बताऊूँ, क ते लज्जा आती ैं।

बबन्नी - जरूर ब नजी की आतमा ैं , ब न, मझ


ु पर दया करो, मैं सवयथा तनदोष

ू ूँ।

पिंडडत - कफर व ी आवाज आ र ी ैं , ाय ईश्वर, क ाूँ जाऊूँ? मेरे तो रोम-रोम में


वे ी शब्द गूँज
ू र ैं ैं, बबन्नी, बरु ा ककया, मिंगला सती थी, उसके आदे श की उपेक्षा
करके मैंने अपने क में ज र बोया, क ाूँ जाऊूँ, क्या करूूँ?

य क कर पिंडडतजी ने कमरे के ककवाड खोल हदए और बेत ाशा भागे। अपने


मरदाने कमरे में प ु ूँचकर व धगर पड़े, मझ
ू ाय आ गई। ववन्िेश्वरी भी दौड़ी, पर
चौखट से बा र तनकलते ी धगर पड़ी।

***
सवा सेर गें हूूँ

ककसी गाूँव में शिंकर नाम का एक कुरमी ककसान र ता था। सीिा-सादा गरीब
आदमी था, अपने काम से काम न ककसी के लेने में न दे ने में । छक्का पिंजा न
जानता था, छल प्रपिंच की उसे छूत भी न लगी थी, ठगे जाने की धचन्ता न थी,
ठग ववद्या न जानता था। भोजन भमला खा भलया न भमला चबेने पर काट दी,
चबेना न भमला तो पानी पी भलया, और राम का नाम लेकर सो र ा । ककन्तु
जब कोई अततधथ द्वार पर आ जाता था तो उसे तनवतृ त मागय का तयाग न
करना पड़ता था। ववशेष कर जब कोई सािु म ातमा पदापयण करते थे तो उसे
अतनवाययतः सािंसाररकता की शरण लेनी पड़ता थी। खद
ु भख
ू ा सो सकता था पर
सािु को कैसे भूखा सुलाता? भगवान के भक्त ठ रे ?

एक हदन सिंध्या के समय एक म ातमा ने आकर उसके द्वार पर डेरा जमाया।


तेजस्वी मतू तय थी, पीताम्बर गले में , जटा भसर पर, पीतल का कमिंडल ाथ में ,
खड़ाऊूँ पैर में , एनेक आूँखों पर । सिंपूणय वेश उन म ातमाओ का-सा था जो रईसो
के प्रासादों में तपस्या, वागाडड़यो पर दे वस्थानों की पररक्रमा और योगभसव्ध
प्राप्त करने के भलए रूधचकर भोजन करते ै । घर में जौ का आटा था, व उन् ें
कैसे खखलाता, प्राचीन काल में जौ का चा े जो कुछ म तव र ा ो, पर वतयमान
यग
ु में जौ का भोजन भस्ध परू
ु षों के भलए दष्ु पाच्य ोता ै । बड़ी धचिंता ु ई,
म ातमा जी को क्या खखलाऊूँ । आखखर तनश्चय ककया कक क ीिं से गें ू ूँ का आटा
उिार लाऊूँ, पर गाूँवभर में गें ू ूँ का आटा न भमला। गाूँव में सब मनुष्य थे, दे वता
एक भी न था, अतः दे वताओिं का पदाथय कैसे भमलता?

सौभाग्य गाूँव के ववप्र म ाराज के य ाूँ से थोड़े से गें ू ूँ भमल गये। उसने सवा सेर
गें ू ूँ उिार भलया और स्त्री से क ा कक पीस दे । म ातमा जी ने भोजन ककया,
लम्बी तान कर सोये । प्रातःकाल आशीवायद दे कर अपनी रा ली।
ववप्र म ाराज साल में दो बार खभल ानी ककया करते थे । शिंकर ने हदल में क ा
- सेर गें ू ूँ इन् ें क्या लौटाउूँ , पसेरी के बदले कुछ ज्यादा खभल ान दे दूँ ग
ू ा, य भी
समझ जायेंगे, मैं भी समझ जाऊूँगा। चैत में जब ववप्रजी प ु ूँचे तो उन् ें डेढिं
पसेरी के लगभग गें ू ूँ दे हदया। और अपने को उऋण समझ कर उसकी कोई
चरचा न की। ववप्र जी नें कफर कभी न माूँगा । सरल शिंकर को क्या मालूम था
कक य सवा सेर गें ू ूँ चुकाने के भलए उसे दस
ू रा जन्म लेना पड़ेगा। सात साल
गज
ु र गये । ववप्र जी ववप्र से म ाजन ु ए, शिंकर ककसान से मजरू ु आ। उसका
छोटा भाई मिंगल उससे अलग ो गया था। एक सात र कर दोनों ककसान थे ,
अलग ो कर मजूर ो गये थे। शिंकर ने चा ा कक द्वेष की आग न भड़कने
पाये, ककन्तु पररल्स्थतत ने उसे वववश कर हदया।

ल्जस हदन अलग-अलग चक


ू ें जले, व फूट-फूटकर रोया। आज से भाई-भाई शत्रु
ो जायूँगे, एक रोयेगा तो दस
ू रा ूँसेगा, एक के घर में मातम ोगा तो दस
ू रे के
घर में गुलगुले पकेंगे। प्रेम का बिंिन, खून का बिंिन, दि
ू का बिंिन आज टूटा
जाता ैं। उसमे भगीरथ पररश्रम से कुलमयायदा का वक्ष
ृ लगाया था, उसे अपने
रक्त से सीिंचा था, उसको जड़ से उखड़ता दे खकर उसके हृदय के टुकड़े ु ए जाते
थे। सात हदनों तक उसने दाने की सरू त न दे खी। हदन भर जेठ की िप
ू में काम
करता और रात को मूँु लपेट कर सो र ता इस भीषण वेदना और दस्
ु स कष्ट
ने रक्त को जला हदया, माूँस और मज्जा को घुला हदया । बीमार पड़ा तो म ीनों
तक खाट से न उठा। अब गुजर बसर कैसे ो? पाूँच बीघे के आिे खेत र गये ,
एक बैल र गया, खेती क्या खाक ोती। अिंत में य ाूँ तक नौबत प ु ूँ ची कक
खेती केवल मयायदा रक्षा का सािन मात्र र गयी। जीववका का भार मजूरी पर
आ पड़ा।

सात वषय बीत गये, एक हदन शिंकर मजूरी करके लौटा तो रा में ववप्र जी ने
टोक कर क ा - शिंकर, कल आके अपने बीज बेंग का ह साब कर ले। तेरे य ाूँ
साठे पाूँच मन गें ू ूँ कब के बाकी पड़े ु ए ै और तू दे ने का नाम न ी लेता,
जम करने का मन ै क्या?
शिंकर ने चककत ो कर क ा - मैने तुमसे कब गें ू ूँ भलये थे जो साढे पाूँच मन
ो गये? तुम भूलते ो, मेरे य ाूँ ककसी का न छटाूँक भर अनाज ै न एक पैसा
उिार।

ववप्र - इसी नीयत का तो य फल भोग र े ो कक खाने को न ी जुड़ता। य


क कर ववप्र ने उस सवा सेर का ल्जक्र ककया , जो आज से सात वषय प ले शिंकर
को हदया था। शिंकर सुनकर अवाक र गया । ईश्वर! मैंने इन् ें ककतनी बार
खभल ानी दी, इन् ें मेरा कौन सा काम ककया? जब पोथी-पत्रा दे खने साइत-सगन

ववचारने द्वार पर आते थे, कुछ न कुछ दक्षक्षणा ले ी जाते थे। इतना स्वाथय!
सवा सेर अनाज को अिंडे की भाूँतत से कर आज य वपशाच खड़ा कर हदया, क्या
इसी नीयत से चुपचाप बैठे र े । बोला - म ाराज नाम लेकर तो मैने उतना
अनाज न ी हदया, पर कई बार खभल ानी में सेर-सेर दो-दो से हदया ै । अब आप
साढे पाूँच मन माूँगते ै , मै क ाूँ से दूँ ग
ू ा ?

ववप्र - लेखा जौ-जौ, बखसी सौ-सौ! तुमने जो कुछ हदया ोगा, उसका कोई ह साब
न ी। चा े एक की जग चार पसेरी दे दो । तुम् ारे नाम ब ी में साढे पाूँच मन
भलखा ु आ ै , ल्जससे चा ो ह साब लगवा लो। दे दो तो तुम् ारा नाम छें क दूँ ,ू
न ी तो और भी बढता र े गा।

शिंकर - पािंड.े क्यो गरीब को सताते ो, मेरे खाने का हठकाना न ी इतना गें ू ूँ
ककसके घर से लाऊूँगा?

ववप्र - ल्जसके घर से चा ो लाओ, मैं छटाूँक भर न छोडूूँगा, य ाूँ न दोगे, भगवान


के घर दोगे।

शिंकर काूँप उठा। म पढे भलखे आदमी ोते तो क दे ते अच्छी बात ै , ईश्वर के
घर ी दें गे। व ाूँ की तौल य ाूँ से कुछ बड़ी तो न ोगी। कम से कम इसका
कोई प्रमाण मारे पास न ी, कफर उसकी क्या धचिंता । ककन्तु शिंकर इतना
ताककयक , इतना व्यव ार चतुर न था। एक तो ऋण - व भी ब्राह्मण का - ब ी
में नाम र गया तो सीिे नरक में जाऊूँगा, इस ख्याल से उसे रोमािंच ो आया।
बोला - म ाराज, तुम् ारा ल्जतना ोगा दूँ ग
ू ा, ईश्वर के य ाूँ क्यों दें , इस जनम में
तो ठोकर ी खा र ा ू ूँ, उस जन्म के भलए क्या बोऊूँ। मगर य कोई तनयाव
न ी ै । तुमने राई का पवयत बना हदया, ब्राह्मण ोके तुम् े ऐसा न ीिं करना
चाह ए था। उसी घड़ी तगादा करके ले भलया ोता, तो आज मेरे भसर पर इतना
बड़ा बोझ क्यों पड़ता ? मैं तो दूँ ग
ू ा, लेककन तम्
ु ें भगवान के य ाूँ जवाब दे ना
पड़ेगा।

ववप्र - व ाूँ का डर तुम् ें ोगा, मुझे क्यो ोने लगा। व ाूँ तो सब अपने ी भाई
बिंिु ै । ऋवष-मतु न सब तो ब्राह्मण ी ै , दे वता भी ब्राह्मण ै , जो कुछ बबगडेगी,
सूँभाल लें गे। तो कब दे ते ो ?

शिंकर - मेरे पास रखा तो न ी, ककसी से माूँग-जाूँचकर लाऊूँगा तभी न दूँ ग


ू ा.

ववप्र - मै य न मानूँूगा। सात साल ो गये, अब एक हदन का भी मुलाह जा न


करूूँगा। गें ू न ी दे सकते, दस्तावेज भलख दो।

शिंकर - मुझे तो दे ना ै , चा े गें ू ूँ लो , चा े दस्तावेज भलखाओ। ककस ह साब से


दाम रखोंगे?

ववप्र - बाजार भाव पाूँच सेर का ै , तम्


ु ें सवा पाूँच सेर का काट दूँ ग
ू ा।

शिंकर - जब दे ी र ा ू ूँ तो बाजार-भाव काटूूँगा, पाव भर छुड़ाकर क्यो दोषी


बनूँ।ू ह साब लगाया तो गें ू ूँ का दाम साठ रूपये ु ए। साठ रूपये का दस्तावेज
भलखा गया, तीन रूपया सैकड़े सद
ू । साल भर में न दे ने पर सद
ू का दर साढे
तीन रूपये सैकड़े , बार आने का स्टाम्प, एक रूपया दस्तावेज की त रीर शिंकर
को ऊपर से दे नी पड़ी।
गाूँव भर ने ववप्र की तनन्दा की, लेककन मूँु पर न ी। म ाजन से सभी को काम
पड़ता ै , उसके मूँु कौन आये।

शिंकर ने साल भर कहठन तपस्या की। मीयाद के प ले रूपया अदा करने का


उसने व्रत-सा कर भलया। दोप र को प ले भी चक
ू ा न जलता था, चबेने पर
बसर ोती थी, अब व भी बिंद ु आ। केवल लड़के के भलए रात को रोहटयाूँ रख
दी जाती। पैसे रोज का तम्बाकू पी जाता था। य ी एक व्यसन था ल्जसका व
कभी तयाग न कर सका था। अब व्यसन भी इस कहठन व्रत के भें ट ो गया।
उसने चीलम पटक दी, ु क्का तोड़ हदया और तम्बाकू की ाूँड़ी चूर-चूर कर
डाली। कपड़े प ले ी तयाग की सीमा तक प ु ूँच चुके थे, अब प्रकृतत की
न्यन
ू तम रे खाओिं में आब्ध ो गये। भशभशर की अल्स्थ-वेिक शीत को उसने आग
ताप कर काट भलया। इस ध्रव
ु सिंककप का फल आशा से बढकर तनकला। साल
के अिंत में उसके पास साठ रूपये जमा ो गये। उसने समझा, पिंडड़त जी को
इतने रुपये दे दूँ ग
ू ा और क ू ूँगा , म ाराज, बाकी रुपये भी जकद ी आपके सामने
ाल्जर करूूँगा। पन्द्र रूपये की तो बात ै , क्या पिंडड़त जी इतना भी न मानेंगे?
उसने रुपये भलए और ले जाकर पिंडड़त जी के चरण-कमलों पर अपयण कर हदये।
पिंडडत जी ने ववल्स्मत ोकर पूछा - ककसी से उिार भलये क्या ?

शिंकर - न ी म ाराज, आपके आसीस से अबकी मजूरी अच्छी भमली।

ववप्र - लेककन य तो साठ रुपये ी ैं।

शिंकर - ाूँ, म ाराज, इतने अभी लील्जए बाकी दो-तीन म ीने में दूँ ग
ू ा, मझ
ु े उररन
कर दील्जए।

ववप्र - उररन तो तभी ोगे जब मेरी कौड़ी-कौड़ी चुका दोगे। जाकर मेरे पन्द्र
रुपये और लाओ।
शिंकर - म ाराज, इतनी दया करो, अब साूँझ की रोहटयों का भी हठकाना न ी ै,
गाूँव में ू ूँ तो कभी न कभी दे ी दूँ ग
ू ा ।

ववप्र - मै य रोग न ी पालता, न ब ु त बाते करना जानता ू ूँ। अगर पूरे रुपये
न भमलेगे तो आज से साढे तीन रूपये सैकड़े का ब्याज लगेगा। अपने रूपये चा े
अपने घर में रखो, चा े मेरे य ाूँ छोड़ जाओ।

शिंकर - अच्छा ल्जतनी लाया ू ूँ उतना रख लील्जए । जाता ू ूँ क ीिं से पन्द्र


रुपये और लाने की कफक्र करता ू ूँ ।

शिंकर ने सारा गाूँव छान मारा, मगर ककसी न रूपये न हदये, इसभलए कक उसका
ववश्वास न था या ककसी के पास रूपया न था, बल्कक इसभलए की पिंडड़त के
भशकार को छे ड़ने की ककसी में ह म्मत न थी।

कक्रया के पश्चात प्रततकक्रया नैसधगयक तनयम ै । शिंकर साल भर तक तपस्या कर


ने पर जब ऋण से मुक्त ोने में सफल न ो सका तो उसका सिंयम तनराशा के
रुप में पररखणत ो गया। उसने समझ भलया कक जब इतने कष्ट स ने पर भी
साल भर में साठ रुपये से अधिक जमा न कर सका तो अब और कौन सा
उपाय ै ल्जसके द्वारा उससे दन
ू े रुपये जमा ो । जब भसर पर ऋण का बोझ
ी लदना ै तो क्या मन का और क्या सवा मन का। उसका उतसा क्षीण ो
गया, मे नत से घण
ृ ा ो गयी। आशा उतसा की जननी ै , आशा में तेज ै , बल
ै , जीवन ै । आशा ी सिंसार की सिंचालक ै शल्क्त ै । शिंकर आशा ीन ोकर
उदासीन ो गया। व जरुरतें ल्जनको उसने साल भर तक टाल रखा था, अब
द्वार पर खड़ी ोने वाली भभखाररणी न थी, बल्कक छाती पर सवार ोने वाली
वपशाधचतनयाूँ थी जो अपने भें ट भलये बबना जान न ी छोड़ती । कपड़ो में
चकततयों के लगने की भी एक सीमा ोती ै । अब शिंकर को धचट्ठा भमलता तो
व रुपये जमा न करता। कभी कपड़े लाता, कभी खाने को कोई वस्तु। ज ाूँ
प ले तमाखू ी वपया करता थास व ाूँ अब गाूँजे और चरस का भी चस्का लगा
। उसे रुपये अदा करने की कोई धचन्ता न थी, मानो उसके ऊपर ककसी का पैसा
न ी आता। प ले जूडी चढी ोती थी, पर व कान करने अवश्य जाता था। अब
काम पर न जाने के भलए ब ाना खोजा करता ।

इस भाूँतत तीन वषय तनकल गये। ववप्र जी म ाराज ने एक बार भी तकाजा न


ककया। व चतरु भशकारी की भाूँतत अचक
ू तनशाना लगाना चा ते थे । प ले से
भशकार को चौकाना उसकी नीतत के ववरु्ध था।
एक हदन पिंडड़त जी ने शिंकर को बुलाकर ह साब हदखाया। साठ रुपये जो जमा
थे व भमन ा करने पर शिंकर के ल्जम्मे एक सौ बीस रुपये तनकले।

शिंकर - इतने रुपये तो उसी जन्म में दूँ ग


ू ा, इस जन्म में न ी ो सकते।

ववप्र - मैं इसी जन्म में लूँ ग


ू ा । मूल न स ी, सूद तो दे ना ी पड़ेगा।

शिंकर - एक बैल ै, व ले लील्जए, एक झोपड़ी ै, व ले लील्जए और मेरे पास


क्या रखा ै?

ववप्र - मुझे बैल-बधिया ले कर क्या करना ै । मुझे दे ने को तुम् ारे पास ब ु त


कुछ ै।

शिंकर - औऱ क्या ै म ाराज?

ववप्र - कुछ न ी ै तुम तो ो। आखखर तुम भी क ीिं मजूरी करने जाते ी ो।


मझ
ु े भी खेती के भलए मजरू रखना पड़ता ैं। सद
ू में मारे य ाूँ काम ककया
करो, जब सभ
ु ीता ो मल
ू दे दे ना। सच तो यौ ै कक अब तम
ु ककसी दस
ु री जग
कान करने न ी जा सकते, जब तक मेरे रूपये न ी चुका दो । तुम् ारे पास कोई
जायदाद न ी ै , इतनी बड़ी गठरी मै ककस एतबार पर छोड दूँ ।ू कौन इसका
ल्जम्मा लेगा कक तुम मुझे म ीने-म ीने सूद दे ते जाओगे? और क ी कमा कर
अब तुम मुझे सूद भी न ी दे सकते, तो मूल की कौन क ै ?

शिंकर - म ाराज, सूद में तो काम करुूँ गा और खाऊूँगा क्या?


ववप्र - तुम् ारी घरवाली ै , लड़के ै , क्या वे ाथ पाूँव कटा के बैठेगे। र ा मै
तुम् े आि सेर जौय रोज कलेवा के भलए दे हदया करूूँगा। ओढने को साल में
एक कम्बल पा जाओगे, एक भमरजई भी बनवा हदया करूूँगा , और क्या चाह ए?
य सच ै कक और लोग तम्
ु ें छः आने रोज दे ते ै लेककन मझ
ु े ऐसी गरज
न ी ै , मै तो तम्
ु े अपने रूपये भराने के भलए रखता ू ूँ।

शिंकर ने कुछ दे र तक ग री धचिंता मे पड़े र ने के बाद क ा - म ाराज, य तो


जन्म भर की गल
ु ामी ु ई।

ववप्र - गुलामी समझो, चा े मजूरी समझो। मै अपने रुपये भराये बबना तुमको
कभी न छोडूूँगा। तुम भागोगे तो तुम् ारा लड़का भरे गा। ाूँ, जब कोई न र े गा
तब की दस
ु री बात ै।

इस तनणयय की क ी अपील न थी। मजूर की जमानत कौन करता? शरण न थी,


भाग कर क ाूँ जाता ? दस
ू रे हदन उसने ववप्र के य ाूँ काम करना शुरु कर हदया।
सवा सेर गें ू ूँ की बदौलत उम्र भर के भलए गल
ु ामी की बेड़ी पैरो में डालनी पड़ी।
उस अभागे को अब अगर ककसी ववचार से सिंतोष ोता था तो य था कक य
मेरे पूवज
य न्म का सिंस्कार ै । स्त्री को वे काम करने पड़ते थे , जो उसने कभी न
ककये थे, बच्चे दानो को तरसते थे, लेककन शिंकर चुपचाप दे खने के भसवा और
कुछ न कर सकता था। गें ू ूँ के दाने ककसी दे वता के शाप की भाूँतत आजीवन
उसके भसर से न उतरे ।

शिंकर ने ववप्र जी के य ाूँ बीस वषय तक गुलामी करने के बाद इस दस्


ु सार सिंसार
से प्रस्थान ककया। एक सौ बीस रूपये अभी तक उसके भसर पर सवार थे। पिंडडत
जी ने उस गरीब को ईश्वर के दरबार में कष्ट दे ना उधचत न समझा । इतने
अन्यायी न ी, इतने तनदय य वे न थे। उसके जवान बेटे की गदय न पकड़ी। आज
तक व ववप्र जी के य ाूँ काम करता ै । उसका उ्ध ार कब ोगा, ोगा भी या
न ी, ईश्वर ी जाने।
पाठक, इस वत
ृ ािंत को कपोल कल्कपत न समखझए। य सतय घटना ै । ऐसे
शिंकरो और ऐसे ववप्रो से दतु नया खाली न ी ै।

***
सभ्यिा का रहस्ट्य

यों तो मेरी समझ में दतु नया की एक जार एक बातें न ीिं आती—जैसे लोग
प्रात:काल उठते ी बालों पर छुरा क्यों चलाते ैं ? क्या अब परु
ु षों में भी इतनी
नजाकत आ गयी ै कक बालों का बोझ उनसे न ीिं सूँभलता ? एक साथ ी सभी
पढे -भलखे आदभमयों की आूँखें क्यों इतनी कमजोर ो गयी ै ? हदमाग की
कमजोरी ी इसका कारण ै या और कुछ? लोग खखताबों के पीछे क्यों इतने
ै रान ोते ैं ? इतयाहद—लेककन इस समय मुझे इन बातों से मतलब न ीिं। मेरे
मन में एक नया प्रश्न उठ र ा ै और उसका जवाब मझ
ु े कोई न ीिं दे ता। प्रश्न
य ै कक सभ्य कौन ै और असभ्य कौन ? सभ्यता के लक्षण क्या ैं ? सरसरी
नजर से दे खखए, तो इससे ज्यादा आसान और कोई सवाल ी न ोगा। बच्चा-
बच्चा इसका समािान कर सकता ै । लेककन जरा गौर से दे खखए, तो प्रश्न इतना
आसान न ीिं जान पड़ता। अगर कोट-पतलून प नना, टाई- ै ट कालर लगाना, मेज
पर बैठकर खाना खाना, हदन में तेर बार कोको या चाय पीना और भसगार पीते

ु ए चलना सभ्यता ै , तो उन गोरों को भी सभ्य क ना पड़ेगा, जो सड़क पर


बैठकर शाम को कभी-कभी ट लते नजर आते ैं ; शराब के नशे से आूँखें सख
ु ,य पैर
लड़खड़ाते ु ए, रास्ता चलनेवालों को अनायास छे ड़ने की िुन ! क्या उन गोरों को
सभ्य क ा जा सकता ै ? कभी न ीिं। तो य भस्ध ु आ कक सभ्यता कोई और
ी चीज ै , उसका दे से इतना सम्बन्ि न ीिं ै ल्जतना मन से।

मेरे इने-धगने भमत्रों में एक राय रतनककशोर भी ैं। आप ब ु त ी सहृदय, ब ु त


ी उदार, ब ु त भशक्षक्षत और एक बड़े ओ दे दार ैं। ब ु त अच्छा वेतन पाने पर
भी उनकी आमदनी खचय के भलए काफी न ीिं ोती। एक चौथाई वेतन तो बूँगले
ी की भें ट ो जाती ै । इसभलए आप ब ु िा धचिंततत र ते ैं। ररश्वत तो न ीिं
लेत—
े कम-से-कम मैं न ीिं जानता, ालाूँकक क ने वाले क ते ैं —लेककन इतना
जानता ू ूँ कक व भतता बढाने के भलए दौरे पर ब ु त र ते ैं , य ाूँ तक कक
इसके भलए र साल बजट की ककसी दस
ू रे मद से रुपये तनकालने पड़ते ैं।
उनके अफसर क ते ैं , इतने दौरे क्यों करते ो, तो जवाब दे ते ैं , इस ल्जले का
काम ी ऐसा ै कक जब तक खूब दौरे न ककए जाएूँ ररआया शािंत न ीिं र
सकती। लेककन मजा तो य ै कक राय सा ब उतने दौरे वास्तव में न ीिं करते ,
ल्जतने कक अपने रोजनामचे में भलखते ैं। उनके पड़ाव श र से पचास मील पर
ोते ैं। खेमे व ॉ ॉँ गड़े र ते ैं, कैंप के अमले व ाूँ पड़े र ते ैं और राय सा ब
घर पर भमत्रों के साथ गप-शप करते र ते ैं , पर ककसी की मजाल ै कक राय
सा ब की नेकनीयती पर सन्दे कर सके। उनके सभ्य परु
ु ष ोने में ककसी को
शिंका न ीिं ो सकती।

एक हदन मैं उनसे भमलने गया। उस समय व अपने घभसयारे दमड़ी को डाूँट
र े थे। दमड़ी रात-हदन का नौकर था, लेककन घर रोटी खाने जाया करता था।
उसका घर थोड़ी ी दरू पर एक गाूँव में था। कल रात को ककसी कारण से य ाूँ
न आ सका। इसभलए डाूँट पड़ र ी थी।

राय सा ब—जब म तम्


ु ें रात-हदन के भलए रखे ु ए ैं, तो तम
ु घर पर क्यों र े
? कल के पैसे कट जायेंगे।

दमड़ी— जरू , एक मे मान आ गये थे, इसी से न आ सका।

राय सा ब—तो कल के पैसे उसी मे मान से लो।

दमड़ी—सरकार, अब कभी ऐसी खता न ोगी।

राय सा ब—बक-बक मत करो।

दमड़ी— जूर......

राय सा ब—दो रुपये जुरमाना।


दमड़ी रोता चला गया। रोजा बख्शाने आया था, नमाज़ गले पड़ गयी। दो रुपये
जरु माना ठुक गया। खता य ी थी कक बेचारा कसरू माफ कराना चा ता था।

य एक रात को गैर ाल्ज़र ोने की सजा थी ! बेचारा हदन-भर का काम कर


चक
ु ा था, रात को य ाूँ सोया न था, उसका दण्ड ! और घर बैठे भतते उड़ानेवाले
को कोई न ीिं पछ
ू ता ! कोई दिं ड न ीिं दे ता। दिं ड तो भमले और ऐसा भमले कक
ल्जिंदगी-भर याद र े ; पर पकड़ना तो मुल्श्कल ै । दमड़ी भी अगर ोभशयार ोता,
तो जरा रात र े आकर कोठरी में सो जाता। कफर ककसे खबर ोती कक व रात
को क ाूँ र ा। पर गरीब इतना चिंट न था।

दमड़ी के पास कुल छ: बबस्वे जमीन थी। पर इतने ी प्राखणयों का खचय भी था।
उसके दो लड़के, दो लड़ककयाूँ और स्त्री, सब खेती में लगे र ते थे, कफर भी पेट की
रोहटयाूँ न ीिं मयस्सर ोती थीिं। इतनी जमीन क्या सोना उगल दे ती ! अगर सब-
के-सब घर से तनकल मजदरू ी करने लगते, तो आराम से र सकते थे; लेककन
मौरूसी ककसान मजदरू क लाने का अपमान न स सकता था। इस बदनामी से
बचने के भलए दो बैल बाूँि रखे थे ! उसके वेतन का बड़ा भाग बैलों के दाने -चारे
ी में उड़ जाता था। ये सारी तकलीफें मिंजूर थीिं, पर खेती छोड़कर मजदरू बन
जाना मिंजूर न था। ककसान की जो प्रततष्ठा ै, व क ीिं मजदरू की ो सकती ै,
चा े व रुपया रोज ी क्यों न कमाये ? ककसानी के साथ मजदरू ी करना इतने
अपमान की बात न ीिं, द्वार पर बूँिे ु ए बैल ु ए बैल उसकी मान-रक्षा ककया
करते ैं, पर बैलों को बेचकर कफर क ाूँ मूँु हदखलाने की जग र सकती ै !

एक हदन राय सा ब उसे सरदी से काूँपते दे खकर बोले —कपड़े क्यों न ीिं बनवाता
? काूँप क्यों र ा ै ?

दमड़ी—सरकार, पेट की रोटी तो पूरा ी न ीिं पड़ती, कपड़े क ाूँ से बनवाऊूँ ?


राय सा ब—बैलों को बेच क्यों न ीिं डालता ? सैकड़ों बार समझा चक
ु ा, लेककन न-
जाने क्यों इतनी मोटी-सी बात तेरी समझ में न ीिं आती।

दमड़ी—सरकार, बबरादरी में क ीिं मूँु हदखाने लायक न र ू ूँगा। लड़की की सगाई
न ो पायेगी, टाट बा र कर हदया जाऊूँगा।

राय सा ब—इन् ीिं ह माकतों से तुम लोगों की य दग


ु तय त ो र ी ै । ऐसे
आदभमयों पर दया करना भी पाप ै । (मेरी तरफ कफर कर) क्यों मुिंशीजी, इस
पागलपन का भी कोई इलाज ै ? जाड़ों मर र े ैं , पर दरवाजे पर बैल जरूर
बाूँिेंगे।

मैंने क ा—जनाब, य तो अपनी-अपनी समझ ै।

राय सा ब—ऐसी समझ को दरू से सलाम कील्जए। मेरे य ॉ िं कई पुश्तों से


जन्माष्टमी का उतसव मनाया जाता था। कई जार रुपयों पर पानी कफर जाता
था। गाना ोता था; दावतें ोती थीिं, ररश्तेदारों को न्योते हदये जाते थे, गरीबों को
कपड़े बाूँटे जाते थे। वाभलद सा ब के बाद प ले ी साल मैंने उतसव बन्द कर
हदया। फायदा क्या ? मफ्
ु त में चार-पाूँच जार की चपत खानी पड़ती थी। सारे
कसबे में वावेला मचा, आवाजें कसी गयीिं, ककसी ने नाल्स्तक क ा, ककसी ने ईसाई
बनाया लेककन य ाूँ इन बातों की क्या परवा ! आखखर थोड़े ी हदनों में सारा
कोला ल शान्त ो गया। अजी, बड़ी हदकलगी थी। कसबे में ककसी के य ाूँ शादी
ो, लकड़ी मुझसे ले ! पुश्तों से य रस्म चली आती थी। वाभलद तो दस
ू रों से
दरख्त मोल लेकर इस रस्म को तनभाते थे। थी ह माकत या न ीिं ? मैंने फौरन
लकड़ी दे ना बन्द कर हदया। इस पर भी लोग ब ु त रोये-िोये, लेककन दस
ू रों का
रोना-िोना सुनूँू, या अपना फायदा दे ख।ूूँ लकड़ी से कम-से-कम 500) रुपये सलाना
की बचत ो गयी। अब कोई भूलकर भी इन चीजों के भलए हदक करने न ीिं
आता।
मेरे हदल में कफर सवाल पैदा ु आ, दोनों में कौन सभ्य ै , कुल-प्रततष्ठा पर प्राण
दे नेवाले मख
ू य दमड़ी; या िन पर कुल-मयायदा को बभल दे नेवाले राय रतन ककशोर !

राय सा ब के इजलास में एक बड़े माके का मुकदमा पेश था। श र का एक


रईस खन
ू के मामले में फूँस गया था। उसकी जमानत के भलए राय सा ब की
खश
ु ामदें ोने लगीिं। इज्जत की बात थी। रईस सा ब का ु क्म था कक चा े
ररयासत बबक जाय, पर इस मुकदमे से बेदाग तनकल जाऊूँ। डाभलयॉ ॉँ लगाई गयीिं,
भसफाररशें प ु ूँचाई गयीिं, पर राय सा ब पर कोई असर न ु आ। रईस के
आदभमयों को प्रतयक्ष रूप से ररश्वत की चचाय करने की ह म्मत न पड़ती थी।
आखखर जब कोई बस न चला, तो रईस की स्त्री से भमलकर सौदा पटाने की
ठानी।

रात के दस बजे थे। दोनों मह लाओिं में बातें ोने लगीिं। 20 जार की बातचीत
थी! राय सा ब की पतनी तो इतनी खुश ु ईं कक उसी वक्त राय सा ब के पास
दौड़ी ु ई आयी और क नें लगी—ले लो, ले लो

राय सा ब ने क ा—इतनी बेसब्र न ो। व तुम् ें अपने हदल में क्या समझेंगी ?


कुछ अपनी इज्जत का भी खयाल ै या न ीिं ? माना कक रकम बड़ी ै और
इससे मैं एकबारगी तम्
ु ारी आये हदन की फरमायशों से मक्
ु त ो जाऊूँगा, लेककन
एक भसववभलयन की इज्जत भी तो कोई मामल
ू ी चीज न ीिं ै । तम्
ु ें प ले
बबगड़कर क ना चाह ए था कक मुझसे ऐसी बेदद
ू ी बातचीत करनी ो, तो य ाूँ से
चली जाओ। मैं अपने कानों से न ीिं सुनना चा ती।

स्त्री—य तो मैंने प ले ी ककया, बबगड़कर खब


ू खरी-खोटी सन
ु ायीिं। क्या इतना
भी न ीिं जानती ? बेचारी मेरे पैरों पर सर रखकर रोने लगी।
राय सा ब—य क ा था कक राय सा ब से क ू ूँगी, तो मझ
ु े कच्चा ी चबा
जायेंगे ?

य क ते ु ए राय सा ब ने गदगद ोकर पतनी को गले लगा भलया।

स्त्री—अजी, मैं न-जाने ऐसी ककतनी ी बातें क चुकी, लेककन ककसी तर टाले
न ीिं टलती। रो-रोकर जान दे र ी ै।

राय सा ब—उससे वादा तो न ीिं कर भलया ?

स्त्री—वादा ? मैं रुपये लेकर सन्दक


ू में रख आयी। नोट थे।

राय सा ब—ककतनी जबरदस्त अ मक ो, न मालूम ईश्वर तुम् ें कभी समझ भी


दे गा या न ीिं।

स्त्री—अब क्या दे गा ? दे ना ोता, तो दे न दी ोती।

राय सा ब— ाूँ मालम


ू तो ऐसा ी ोता ै । मझ
ु से क ा तक न ीिं और रुपये
लेकर सन्दक
ू में दाखखल कर भलए ! अगर ककसी तर बात खुल जाय, तो क ीिं
का न र ू ूँ।

स्त्री—तो भाई, सोच लो। अगर कुछ गड़बड़ ो, तो मैं जाकर रुपये लौटा दूँ ।ू

राय सा ब—कफर व ी ह माकत ! अरे , अब तो जो कुछ ोना था, ो चुका। ईश्वर


पर भरोसा करके जमानत लेनी पड़ेगी। लेककन तम्
ु ारी ह माकत में शक न ीिं।
जानती ो, य साूँप के मूँु में उूँ गली डालना ै। य भी जानती ो कक मझ
ु े
ऐसी बातों से ककतनी नफरत ै , कफर भी बेसब्र ो जाती ो। अबकी बार तुम् ारी
ह माकत से मेरा व्रत टूट र ा ै । मैंने हदल में ठान भलया था कक अब इस
मामले में ाथ न डालूँ ग
ू ा, लेककन तुम् ारी ह माकत के मारे जब मेरी कुछ चलने
भी पाये ?
स्त्री—मैं जाकर लौटाये दे ती ू ूँ।

राय सा ब—और मैं जाकर ज र खाये लेता ू ूँ।

इिर तो स्त्री-पुरुष में य अभभनय ो र ा था, उिर दमड़ी उसी वक्त अपने गाूँव
के मखु खया के खेत से जआ
ु र काट र ा था। आज व रात-भर की छुट्टी लेकर घर
गया था। बैलों के भलए चारे का एक ततनका भी न ीिं ै । अभी वेतन भमलने में
कई हदन की दे र थी, मोल ले न सकता था। घर वालों ने हदन को कुछ घास
छीलकर खखलायी तो थी, लेककन ऊूँट के मूँु में जीरा। उतनी घास से क्या ो
सकता था। दोनों बैल भूखे खड़े थे। दमड़ी को दे खते ी दोनों पूँछ
ू ें खड़ी करके

ु ूँकारने लगे। जब व पास गया तो दोनों उसकी थेभलयाूँ चाटने लगे। बेचारा
दमड़ी मन मसोसकर र गया। सोचा, इस वक्त तो कुछ ो न ीिं सकता, सबेरे
ककसी से कुछ उिार लेकर चारा लाऊूँगा।

लेककन जब ग्यार बजे रात उसकी आूँखें खुलीिं, तो दे खा कक दोनों बैल अभी तक
नाूँद पर खड़े ैं। चाूँदनी रात थी, दमड़ी को जान पड़ा कक दोनों उसकी ओर
उपेक्षा और याचना की दृल्ष्ट से दे ख र े ैं । उनकी क्षुिा-वेदना दे खकर उसकी
आूँखें सजल ो आयीिं। ककसान को अपने बैल अपने लड़कों की तर प्यारे ोते
ैं। व उन् ें पशु न ीिं, अपना भमत्र और स ायक समझता। बैलों को भूखे खड़े
दे खकर नीिंद आूँखों से भाग गयी। कुछ सोचता ु आ उठा। ूँभसया तनकाली और
चारे की कफक्र में चला। गाूँव के बा र बाजरे और जुआर के खेत खड़े थे। दमड़ी
के ाथ काूँपने लगे। लेककन बैलों की याद ने उसे उततेल्जत कर हदया। चा ता, तो
कई बोझ काट सकता था; लेककन व चोरी करते ु ए भी चोर न था। उसने
केवल उतना ी चारा काटा, ल्जतना बैलों को रात-भर के भलए काफी ो। सोचा,
अगर ककसी ने दे ख भी भलया, तो उससे क दूँ ग
ू ा, बैल भूखे थे, इसभलए काट
भलया। उसे ववश्वास था कक थोड़े-से चारे के भलए कोई मुझे पकड़ न ीिं सकता। मैं
कुछ बेचने के भलए तो काट न ीिं र ा ू ूँ ; कफर ऐसा तनदय यी कौन ै , जो मुझे पकड़
ले। ब ु त करे गा, अपने दाम ले लेगा। उसने ब ु त सोचा। चारे का थोड़ा ोना ी
उसे चोरी के अपराि से बचाने को काफी था। चोर उतना काटता, ल्जतना उससे
उठ सकता। उसे ककसी के फायदे और नक
ु सान से क्या मतलब ? गाूँव के लोग
दमड़ी को चारा भलये जाते दे खकर बबगड़ते जरूर, पर कोई चोरी के इलजाम में न
फूँसाता, लेककन सिंयोग से कके के थाने का भसपा ी उिर जा तनकला। व पड़ोस
के एक बतनये के य ाूँ जुआ ोने की खबर पाकर कुछ ऐिंठने की टो में आया
था। दमड़ी को चारा भसर पर उठाते दे खा, तो सन्दे ु आ। इतनी रात गये कौन
चारा काटता ै ? ो न ो, कोई चोरी से काट र ा ै , डाूँटकर बोला—कौन चारा
भलए जाता ै ? खड़ा र !

दमड़ी ने चौककर पीछे दे खा, तो पुभलस का भसपा ी ! ाथ-पाूँव फूल गये, काूँपते

ु ए बोला— ु जरू , थोड़ा ी-सा काटा ै , दे ख लील्जए।

भसपा ी—थोड़ा काटा ो या ब ु त, ै तो चोरी। खेत ककसका ै ?

दमड़ी—बलदे व म तो का।

भसपा ी ने समझा था, भशकार फूँसा, इससे कुछ ऐिंठूँगा; लेककन व ाूँ क्या रखा था।
पकड़कर गाूँव में लाया और जब व ाूँ भी कुछ तथे चढता न हदखाई हदया तो
थाने ले गया। थानेदार ने चालान कर हदया। मुकदमा राय सा ब ी के इजलास
में पेश ककया।

राय सा ब ने दमड़ी को फूँसे ु ए दे खा, तो मददी के बदले कठोरता से काम


भलया। बोले—य मेरी बदनामी की बात ै । तेरा क्या बबगड़ा, साल-छ: म ीने की
सजा ो जायेगी, शभमयन्दा तो मुझे ोना पड़ र ा ै ! लोग य ी तो क ते ोंगे कक
राय सा ब के आदमी ऐसे बदमाश और चोर ैं। तू मेरा नौकर न ोता, तो मैं
लकी सजा दे ता; लेककन तू मेरा नौकर ै , इसभलए कड़ी-से-कड़ी सजा दूँ ग
ू ा। मैं
य न ीिं सन
ु सकता कक राय सा ब ने अपने नौकर के साथ ररआयत की।
य क कर राय सा ब ने दमड़ी को छ: म ीने की सख्त कैद का ु क्म सन
ु ा
हदया।

उसी हदन उन् ोंने खून के मुकदमे में जमानत ले ली। मैंने दोनों वतृ तान्त सुने
और मेरे हदल में य ख्याल और भी पक्का ो गया कक सभ्यता केवल ु नर के
साथ ऐब करने का नाम ै । आप बरु े -से-बरु ा काम करें , लेककन अगर आप उस
पर परदा डाल सकते ैं , तो आप सभ्य ैं, सज्जन ैं, जेल्न्टलमैन ैं। अगर आप
में य भसफ़त न ीिं तो आप असभ्य ैं , गूँवार ैं, बदमाश ैं। य सभ्यता का
र स्य ै !

***
समस्ट्या

मेरे दफ्तर में चार चपरासी ैं। उनमें एक का नाम गरीब ै। व ब ुत ी सीिा,
बड़ा आञा ाकारी, अपने काम में चौकस र ने वाला, घड़
ु ककयाूँ खाकर चप
ु र
जानेवाला यथा नाम तथा गुण वाला मनुष्य ै ।मुझे इस दफ्तर में साल-भर ोते
ैं, मगर मैंने उसे एक हदन के भलए भी गैर ाल्जर न ीिं पाया। मैं उसे 9 बजे
दफ्तर में अपनी फटी दरी पर बैठे ु ए दे खने का ऐसा आदी ो गया ू ूँ कक मानो
व भी उसी इमारत का कोई अिंग ै । इतना सरल ै कक ककसी की बात टालना
न ीिं जाना। एक मुसलमान ै । उससे सारा दफ्तर डरता ै , मालूम न ीिं क्यों ?
मुझे तो इसका कारण भसवाय उसकी बड़ी-बड़ी बातों के और कुछ न ीिं मालम

ोता। उसके कथनानुसार उसके चचेरे भाई रामपुर ररयासत में काजी ैं, फूफा
टोंक की ररयासत में कोतवाल ैं। उसे सवयसम्मतत ने ‘काजी-सा े ब’ की उपाधि दे
रखी ै । शेष दो म ाशय जातत के ब्राह्मण ैं। उनके आशीवायदों का मूकय उनके
काम से क ीिं अधिक ै । ये तीनों कामचोर, गुस्ताख और आलसी ैं। कोई छोटा-
सा काम करने को भी कह ए तो बबना नाक-भौं भसकोड़े न ीिं करते। क्लकों को
तो कुछ समझते ी न ीिं ! केवल बड़े बाबू से कुछ दबते ैं, यद्यवप कभी-कभी
उनसे झगड़ बैठते ैं। मगर इन सब दग
ु ण
ुय ों के ोते ु ए भी दफ्तर में ककसी की
भमट्टी इतनी खराब न ी ै , ल्जतनी बेचारे गरीब की। तरक्की का अवसर आया ै,
तो ये तीनों मार ले जाते ैं, गरीब को कोई पूछता भी न ीिं। और सब दस-दस
पाते ैं, व अभी छ: ी में पड़ा ु आ ै । सुब से शाम तक उसके पैर एक क्षण
के भलए भी न ीिं हटकते—य ाूँ तक कक तीनों चपरासी उस पर ु कूमत जताते ैं
और ऊपर की आमदनी में तो उस बेचारे का कोई भाग ी न ीिं। ततस पर भी
दफ्तर के सब कमयचारी—दफ्तरी से लेकर बाबू तक सब—उससे धचढते ैं। उसकी
ककतनी ी बार भशकायतें ो चुकी ैं, ककतनी ी बार जुमायना ो चुका ै और
डाूँट-डपट तो तनतय ी ु आ करती ै । इसका र स्य कुछ मेरी समझ में न आता
था। ाूँ, मझ
ु े उस पर दया अवश्य आती थी, और आपने व्यव ार से मैं य
हदखाना चा ता था कक मेरी दृल्ष्ट में उसका आदर चपराभसयों से कम न ीिं। य ाूँ
तक कक कई बार मैं उसके पीछे अन्य कमयचाररयों से लड़ भी चुका ू ूँ।

एक हदन बड़े बाबू ने गरीब से अपनी मेज साफ करने को क ा। व तरु न्त मेज
साफ करने लगा। दै वयोग से झाड़न का झटका लगा, तो दावात उलट गयी और
रोशनाई मेज पर फैल गयी। बड़े बाबू य दे खते ी जामे से बा र ो गये। उसके
कान पकड़कर खूब ऐिंठे और भारतवषय की सभी प्रचभलत भाषाओिं से दव
ु च
य न चुन-
चुनकर उसे सुनाने लगे। बेचारा गरीब आूँखों में आूँसू भरे चुपचाप मूततयवत खड़ा
सुनता था, मानो उसने कोई तया कर डाली ो। मुझे बाबू का जरा-सी बात पर
इतना भयिंकर रौद्र रूप िारण करना बरु ा मालम
ू ु आ। यहद ककसी दस
ू रे चपरासी
ने इससे भी बड़ा कोई अपराि ककया ोता, तो भी उस पर इतना वज्र-प्र ार न
ोता। मैंने अिंग्रेजी में क ा—बाबू सा ब, आप य अन्याय कर र े ैं। उसने
जान-बूझकर तो रोशनाई धगराया न ीिं। इसका इतना कड़ा दण्ड अनौधचतय की
पराकाष्ठा ै।

बाबूजी ने नम्रता से क ा—आप इसे जानते न ीिं, बड़ा दष्ु ट ै।

‘मैं तो उसकी कोई दष्ु टता न ीिं दे खता।’

‘आप अभी उसे जानते न ीिं, एक ी पाजी ै । इसके घर दो लों की खेती ोती
ै , जारों का लेन-दे न करता ै ; कई भैंसे लगती ैं। इन् ीिं बातों का इसे घमण्ड
ै ।’

‘घर की ऐसी दशा ोती, तो आपके य ाूँ चपरासधगरी क्यों करता?’

‘ववश्वास मातनए, बड़ा पोढा आदमी ै और बला का मक्खीचूस।’


‘यहद ऐसा ी ो, तो भी कोई अपराि न ीिं ै ।’

‘अजी, अभी आप इन बातों को न ीिं जानते। कुछ हदन और रह ए तो आपको


स्वयिं मालूम ो जाएगा कक य ककतना कमीना आदमी ै ?’

एक दस
ू रे म ाशय बोल उठे —भाई सा ब, इसके घर मनों दि
ू -द ी ोता ै , मनों
मटर, जुवार, चने ोते ैं , लेककन इसकी कभी इतनी ह म्मत न ु ई कक कभी
थोड़ा-सा दफ्तरवालों को भी दे दो। य ाूँ इन चीजों को तरसकर र जाते ैं। तो
कफर क्यों न जी जले ? और य सब कुछ इसी नौकरी के बदौलत ु आ ै । न ीिं
तो प ले इसके घर में भन
ू ी भाूँग न थी।

बड़े बाबू कुछ सकुचाकर बोले—य कोई बात न ीिं। उसकी चीज ै , ककसी को दे
या न दे ; लेककन य बबककुल पशु ै।

मैं कुछ-कुछ ममय समझ गया। बोला—यहद ऐसे तुच्छ हृदय का आदमी ै , तो
वास्तव में पशु ी ै । मैं य न जानता था।

अब बड़े बाबू भी खुले। सिंकोच दरू ु आ। बोले—इन सौगातों से ककसी का उबार


तो ोता न ीिं, केवल दे ने वाले की सहृदयता प्रकट ोती ै । और आशा भी उसी
से की जाती ै , जो इस योग्य ोता ै । ल्जसमें साम्यय ी न ीिं , उससे कोई आशा
न ीिं करता। निंगे से कोई क्या लेगा ?

र स्य खुल गया। बड़े बाबू ने सरल भाव से सारी अवस्था दरशा दी थी। समवृ ्ध
के शत्रु सब ोते ैं, छोटे ी न ीिं, बड़े भी। मारी ससुराल या नतन ाल दररद्र ो,
तो म उससे आशा न ीिं रखते ! कदाधचत व में ववस्मत
ृ ो जाती ै । ककन्तु
वे साम्ययवान ोकर में न पूछें, मारे य ाूँ तीज और चौथ न भेजें, तो मारे
कलेजे पर साूँप लोटने लगता ै। म अपने तनियन भमत्र के पास जायूँ, तो उसके
एक बीड़े पान से ी सिंतुष्ट ो जाते ैं; पर ऐसा कौन मनुष्य ै , जो अपने ककसी
िनी भमत्र के घर से बबना जलपान के लौटाकर उसे मन में कोसने न लगे और
सदा के भलए उसका ततरस्कार न करने लगे । सद
ु ामा कृष्ण के घर से यहद
तनराश लौटते तो, कदाधचत व उनके भशशुपाल और जरासिंि से भी बड़े शत्रु
ोते। य मानव-स्वभाव ै।

कई हदन पीछे मैंने गरीब से पूछा—क्यों जी, तुम् ारे घर पर कुछ खेती-बारी ोती
ै ?

गरीब ने दीन भाव से क ा— ाूँ, सरकार, ोती ै । आपके दो गुलाम ैं, व ी करते
ैं ?

‘गायें-भैंसें भी लगती ैं?’

‘ ाूँ, ु जूर; दो भैंसें लगती ैं, मुदा गायें अभी गाभभन न ीिं ै। ु जूर, लोगों के ी
दया-िरम से पेट की रोहटयाूँ चल जाती ैं।’

‘दफ्तर के बाबू लोगों की भी कभी कुछ खाततर करते ो?’

गरीब ने अतयन्त दीनता से क ा— ु जूर; मैं सरकार लोगों की क्या खाततर कर


सकता ू ूँ। खेती में जौ, चना, मक्का, जुवार के भसवाय और क्या ोता ै । आप
लोग राजा ैं, य मोटी-झोटी चीजें ककस मूँु से आपकी भें ट करूूँ। जी डरता ै,
क ीिं कोई डाूँट न बैठे कक इस टके के आदमी की इतनी मजाल। इसी के मारे
बाबज
ू ी, ह याव न ीिं पड़ता। न ीिं तो दि
ू -द ी की कौन बबसात थी। मूँु लायक
बीड़ा तो ोना चाह ए।

‘भला एक हदन कुछ लाके दो तो, दे खो, लोग क्या क ते ैं। श र में य चीजें
क ाूँ मयस्सर ोती ैं। इन लोगों का जी कभी-कभी मोटी-झोटी चीजों पर चला
करता ै ।’
‘जो सरकार, कोई कुछ क े तो? क ीिं कोई सा ब से भशकायत कर दे तो मैं क ीिं
का न र ू ूँ।’

‘इसका मेरा ल्जम्मा ै , तुम् ें कोई कुछ न क े गा। कोई कुछ क े गा, तो मैं समझा
दूँ ग
ू ा।’

‘तो ु जूर, आजकल तो मटर की फभसल ै । चने के साग भी ो गये ैं और


कोक ू भी खड़ा ो गया ै । इसके भसवाय तो और कुछ न ीिं ै ।’

‘बस, तो य ी चीजें लाओ।’

‘कुछ उकटी-सीिी पड़े, तो ु जरू ी सूँभालें गे!’

‘ ाूँ जी, क तो हदया कक मैं दे ख लूँ ग


ू ा।’

दस
ू रे हदन गरीब आया तो उसके साथ तीन हृष्ट-पुष्ट युवक भी थे। दो के भसरों
पर टोकररयाूँ थीिं, उसमें मटर की फतनयाूँ भरी ु ई थीिं। एक के भसर पर मटका
था, उसमें ऊख का रस था। तीनों ऊख का एक-एक गट्ठर काूँख में दबाये ु ए थे।
गरीब आकर चप
ु के से बरामदे के सामने पेड़ के नीचे खड़ा ो गया। दफ्तर में
आने का उसे सा स न ीिं ोता था, मानो कोई अपरािी वक्ष
ृ के नीचे खड़ा था कक
इतने में दफ्तर के चपराभसयों और अन्य कमयचाररयों ने उसे घेर भलया। कोई
ऊख लेकर चूसने लगा, कई आदमी टाकरें पर टूट पड़े, लूट मच गयी। इतने में
बड़े बाबू दफ्तर में आ प ु ूँच।े य कौतुकब दे खा तो उच्च स्वर से बोले—य क्या
भीड़ लगा रखी ै , अपना-अपना काम दे खो।

मैंने जाकर उनके कान में क ा—गरीब, अपने घर से य सौगात लाया ै । कुछ
आप ले लील्जए, कुछ इन लोगों को बाूँट दील्जए।
बड़े बाबू ने कृबत्रम क्रोि िारण करके क ा—क्यों गरीब, तम
ु ये चीजें य ाूँ क्यों
लाये ? अभी ले जाओ, न ीिं तो मैं सा ब से रपट कर दूँ ग
ू ा। कोई म लोगों को
मलूका समझ भलया ै।

गरीब का रिं ग उड़ गया। थर-थर काूँपने लगा। मूँु से एक शब्द भी न तनकला।
मेरी ओर अपरािी नेत्रों से ताकने लगा।

मैंने उसकी ओर से क्षमा-प्राथयना की। ब ु त क ने-सुनने पर बाबू सा ब राजी ु ए।


सब चीजों में से आिी-आिी अपने घर भभजवायी। आिी में अन्य लोगों के
ह स्से लगाये गये। इस प्रकार य अभभनय समाप्त ु आ।

अब दफ्तर में गरीब का नाम ोने लगा। उसे तनतय घुड़ककयाूँ न भमलतीिं; हदन-
भर दौड़ना न पड़ता। कमयचाररयों के व्यिंग्य और अपने स योधगयों के कटुवाक्य
न सुनने पड़ते। चपरासी लोग स्वयिं उसका काम कर दे त।े उसके नाम में भी
थोड़ा-सा पररवतयन ु आ। व गरीब से गरीबदास बना। स्वभाव में कुछ तबदीली
पैदा ु ई। दीनता की जग आतमगौरव का उद्भव ु आ। ततपरता की जग
आलस्य ने ली। व अब भी कभी दे र करके दफ्तर आता, कभी-कभी बीमारी का
ब ाना करके घर बैठ र ता। उसके सभी अपराि अब क्षम्य थे। उसे अपनी
प्रततष्ठा का गुर ाथ लग गया था। व अब दसवें-पाूँचवे हदन दि
ू , द ी लाकर
बड़े बाबू की भें ट ककया करता। दे वता को सिंतुष्ट करना सीख गया। सरलता के
बदले अब उसमें काूँइयाूँपन आ गया।

एक रोज बड़े बाबू ने उसे सरकारी फामों का पासयल छुड़ाने के भलए स्टे शन भेजा।
कई बड़े-बड़े पुभलिंदे थे। ठे ले पर आये। गरीब ने ठे लेवालों से बार आने मजदरू ी
तय की थी। जब कागज दफ्तर में गये तो उसने बड़े बाबू से बार आने पैसे
ठे लेवालों को दे ने के भलए वसल
ू ककये। लेककन दफ्तर से कुछ दरू जाकर उसकी
नीयत बदली। अपनी दस्तरू ी माूँगने लगा। ठे लेवाले राजी न ु ए। इस पर गरीब
ने बबगड़कर सब पैसे जेब में रख भलये और िमकाकर बोला—अब एक फूटी
कौड़ी भी न दूँ ग
ू ा। जाओ ज ाूँ फररयाद करो। दे खें, क्या बना लेते ो।

ठे लेवाले ने जब दे खा कक भें ट न दे ने से जमा ी गायब ु ई जाती ै तो रो-िोकर


चार आने पैसे दे ने पर राजी ु ए। गरीब ने अठन्नी उसके वाले की, बार आने
की रसीद भलखाकर उसके अूँगूठे के तनशान लगवाये और रसीद दफ्तर में दाखखल
ो गयी।

य कुतू ल दे खकर में दिं ग र गया। य व ी गरीब ै , जो कई म ीने प ले


सरलता और दीनता की मूततय था, ल्जजसे कभी चपराभसयों से भी अपने ह स्से की
रकम माूँगने का सा स न ोता था, जो दस
ू रों को खखलाना भी न जानता था,
खाने का तो ल्जक्र ी क्या। य स्वभावािंतर दे खकर अतयन्त खेद ु आ। इसका
उततरदातयतव ककसके भसर था ? मेरे भसर, ल्जसने उसे चघ्घड़पन और िूतयता का
प ला पाठ पढाया था। मेरे धचतत में प्रश्न उठा—इस काूँइयाूँपन से, जो दस
ू रों का
गला दबाता ै, व भोलापन क्या बरु ा था, जो दस
ू रों का अन्याय स लेता था।
व अशुभ मु ू तय था, जब मैंने उसे प्रततष्ठा-प्राल्प्त का मागय हदखाया, क्योंकक
वास्तव में व उसके पतन का भयिंकर मागय था। मैंने बाह्य प्रततष्ठा पर उसकी
आतम-प्रततष्ठा का बभलदान कर हदया।

***
दो सखखयाूँ

लखनऊ
1-7-25

प्यारी ब न,

जब से य ाूँ आयी ू ूँ , तुम् ारी याद सताती र ती ै । काश! तुम कुछ हदनों के
भलए य ाूँ चली आतीिं, तो ककतनी ब ार र ती। मैं तुम् ें अपने ववनोद से भमलाती।
क्या य सम्भव न ीिं ै ? तुम् ारे माता-वपता क्या तुम् ें इतनी आजादी भी न
दें गे ? मुझे तो आश्चयय य ी ै कक बेडड़याूँ प नकर तुम कैसे र सकती ो! मैं
तो इस तर घण्टे -भर भी न ीिं र सकती। ईश्वर को िन्यवाद दे ती ू ूँ कक मेरे
वपताजी परु ानी लकीर पीटने वालों में न ीिं। व उन नवीन आदशों के भक्त ैं,
ल्जन् ोंने नारी-जीवन को स्वगय बना हदया ै । न ीिं तो मैं क ीिं की न र ती।

ववनोद ाल ी में इिंग्लैंड से डी. कफल. ोकर लौटे ैं और जीवन-यात्रा आरम्भ


करने के प ले एक बार सिंसार-यात्रा करना चा ते ैं। योरप का अधिकािंश भाग
तो व दे ख चुके ैं, पर अमेररका, आस्रे भलया और एभशया की सैर ककये बबना
उन् ें चैन न ीिं। मध्य एभशया और चीन का तो य ववशेष रूप से अध्ययन
करना चा ते ैं। योरोवपयन यात्री ल्जन बातों की मीमािंसा न कर सके , उन् ीिं पर
प्रकाश डालना इनका ध्येय ै । सच क ती ू ूँ , चन्दा, ऐसा सा सी, ऐसा तनभीक,
ऐसा आदशयवादी पुरुष मैंने कभी न ीिं दे खा था। मैं तो उनकी बातें सुनकर चककत
ो जाती ू ूँ। ऐसा कोई ववषय न ीिं ै , ल्जसका उन् ें परू ा ञा ान न ो, ल्जसकी व
आलोचना न कर सकते ो; और य केवल ककताबी आलोचना न ीिं ोती, उसमें
मौभलकता और नवीनता ोती ै । स्ववन्त्रता के तो व अनन्य उपासक ैं। ऐसे
पुरुष की पतनी बनकर ऐसी कौन-सी स्त्री ै , जो अपने सौभाग्य पर गवय न करे ।
ब न, तुमसे क्या क ू ूँ कक प्रात:काल उन् ें अपने बूँगले की ओर आते दे खकर मेरे
धचतत की क्या दशा ो जाती ै। य उन पर न्योछावर ोने के भलए ववकल ो
जाता ै। य मेरी आतमा में बस गये ैं। अपने परु
ु ष की मैंने मन में जो
ककपना की थी, उसमें और उनमें बाल बराबर भी अन्तर न ीिं। मुझे रात-हदन
य ी भय लगा र ता ै कक क ीिं मुझमें उन् ें कोई त्रुहट न भमल जाय। ल्जन
ववषयों से उन् ें रुधच ै , उनका अध्ययन आिी रात तक बैठी ककया करती ू ूँ।
ऐसा पररश्रम मैंने कभी न ककया था। आईने -किंघी से मुझे कभी उतना प्रेम न
था, सभ
ु ावषतों को मैंने कभी इतने चाव से कण्ठ न ककया था। अगर इतना सब
कुछ करने पर भी मैं उनका हृदय न पा सकी, तो ब न, मेरा जीवन नष्ट ो
जायेगा, मेरा हृदय फट जायेगा और सिंसार मेरे भलए सूना ो जायेगा।

कदाधचत प्रेम के साथ ी मन में ईष्याय का भाव भी उदय ो जाता ै । उन् ें मेरे
बूँगले की ओर जाते ु ए दे ख जब मेरी पड़ोभसन कुसम
ु अपने बरामदे में आकर
खड़ी ो जाती ै , तो मेरा ऐसा जी चा ता ै कक उसकी आूँखें ज्योतत ीन ो
जायूँ। कल तो अनथय ी ो गया। ववनोद ने उसे दे खते ी ै ट उतार ली और
मुस्कराए। व कुलटा भी खीसें तनकालने लगी। ईश्वर सारी ववपल्ततयाूँ दे , पर
भम्याभभमान न दे । चुड़ल
ै ों की-सी तो आपकी सूरत ै, पर अपने को अप्सरा
समझती ैं। आप कववता करती ैं और कई पबत्रकाओिं में उनकी कववताएूँ छप
भी गई ैं। बस, आप जमीन पर पाूँव न ीिं रखतीिं। सच क ती ू ूँ , थोड़ी दे र के
भलए ववनोद पर से मेरी श्र्ध ा उठ गयी। ऐसा आवेश ोता था कक चलकर कुसुम
का मूँु नोच लूँ ।ू खैररयत ु ई कक दोनों में बातचलत न ु ई, पर ववनोद आकर
बैठे तो आि घण्टे तक मैं उनसे न बोल सकी, जैसे उनके शब्दों में व जाद ू ी
न था, वाणी में व रस ी न था। तब से अब तक मेरे धचतत की व्यग्रता शान्त
न ीिं ु ई। रात-भर मझ
ु े नीिंद न ीिं आयी, व ी दृश्य आूँखों के सामने बार-बार आता
था। कुसुम को लल्ज्जत करने के भलए ककतने मसूबे बाूँि चुकी ू ूँ। अगर य
भय न ोता कक ववनोद मुझे ओछी और लकी समझेंगे, तो मैं उनसे अपने
मनोभावों को स्पष्ट क दे ती। मैं सम्पूणत
य : उनकी ोकर उन् ें सम्पूणयत: अपना
बनाना चा ती ू ूँ। मुझे ववश्वास ै कक सिंसार का सबसे रूपवान युवक मेरे सामने
आ जाय, तो मैं उसे आूँख उठाकर न दे खग
ूूँ ी। ववनोद के मन में मेरे प्रतत य
भाव क्यों न ीिं ै।

चन्दा, प्यारी ब न; एक सप्ता के भलए आ जा। तुझसे भमलने के भलए मन


अिीर ो र ा ै । मझ
ु े इस समय तेरी सला और स ानभ
ु तू त की बड़ी जरूरत ै।
य मेरे जीवन का सबसे नाजक
ु समय ै । इन् ीिं दस-पाूँच हदनों में या तो पारस
ो जाऊूँगी या भमट्टी। लो सात बज गए और अभी बाल तक न ीिं बनाये। ववनोद
के आने का समय ै । अब ववदा ोती ू ूँ। क ीिं आज कफर अभाधगनी कुसुम
अपने बरामदे में न आ खड़ी ो। अभी से हदल काूँप र ा ै । कल तो य
सोचकर मन को समझाया था कक यों ी सरल भाव से व ूँस पड़ी ोगी। आज
भी अगर व ी दृश्य सामने आया, तो उतनी आसानी से मन को न समझा
सकूँू गी।

तुम् ारी,
पद्मा

गोरखपुर
5-7-25

वप्रय पद्मा,

भला एक युग के बाद तुम् ें मेरी सुधि तो आई। मैंने तो समझा था, शायद तुमने
परलोक-यात्रा कर ली। य उस तनष्ठुरता का दिं ड ी ै , जो कुसुम तुम् ें दे र ी
ै । 15 एवप्रल को कालेज बन्द ु आ और एक जुलाई को आप खत भलखती ैं —
पूरे ढाई म ीने बाद, व भी कुसुम की कृपा से। ल्जस कुसुम को तुम कोस र ी
ो, उसे मैं आशीवायद दे र ी ू ूँ। व दारुण द:ु ख की भाूँतत तम्
ु ारे रास्ते में न आ
खड़ी ोती, तो तम्
ु ें क्यों मेरी याद आती ? खैर, ववनोद की तम
ु ने जो तसवीर
खीिंची, व ब ुत ी आकषयक ै और मैं ईश्वर से मना र ी ू ूँ , व हदन जकद आए
कक मैं उनसे ब नोई के नाते भमल सकूूँ। मगर दे खना, क ीिं भसववल मैरेज न कर
बैठना। वववा ह न्द-ू प्ध तत के अनुसार ी ो। ॉ, तुम् ें अल्ख्तयर ै जो सैकड़ों
बे ू दा और व्यथय के कपड़े ैं, उन् ें तनकाल डालो। एक सच्चे, ववद्वान पल्ण्डत को
अवश्य बल
ु ाना, इसभलए न ीिं कक व तम
ु से बात-बात पर टके तनकलवाये , बल्कक
इसभलए कक व दे खता र े कक व सब कुछ शास्त्र-ववधि से ो र ा ै , या न ीिं।

अच्छा, अब मुझसे पूछो कक इतने हदनों क्यों चुप्पी सािे बैठी र ी। मेरे ी
खानदान में इन ढाई म ीनों में , पाूँच शाहदयाूँ ु ई। बारातों का ताूँता लगा र ा।
ऐसा शायद ी कोई हदन गया ो कक एक सौ म मानों से कम र े ों और जब
बारात आ जाती थी, तब तो उनकी सिंख्या पाूँच-पाूँच सौ तक प ु ूँच जाती थी। ये
पाूँचों लड़ककयाूँ मुझसे छोटी ैं और मेरा बस चलता तो अभी तीन-चार साल तक
न बोलती, लेककन मेरी सुनता कौन ै और ववचार करने पर मुझे भी ऐसा मालूम
ोता ै कक माता-वपता का लड़ककयों के वववा के भलए जकदी करना कुछ
अनधु चत न ीिं ै । ल्जन्दगी का कोई हठकाना न ीिं। अगर माता-वपता अकाल मर
जायूँ, तो लड़की का वववा कौन करे । भाइयों का क्या भरोसा। अगर वपता ने
काफी दौलत छोड़ी ै तो कोई बात न ीिं ; लेककन जैसा सािारणत: ोता ै , वपता
ऋण का भार छोड़ गये, तो ब न भाइयों पर भार ो जाती ै। य भी अन्य
ककतने ी ह न्द-ू रस्मों की भाूँतत आधथयक समस्या ै , और जब तक मारी
आधथयक दशा न सुिरे गी, य रस्म भी न भमटे गी।

अब मेरे बभलदान की बारी ै । आज के पिंद्र वें हदन य घर मेरे भलए ववदे श ो


जायगा। दो-चार म ीने के भलए आऊूँगी, तो मे मान की तर । मेरे ववनोद
बनारसी ैं, अभी कानून पढ र े ैं। उनके वपता नामी वकील ैं। सुनती ू ूँ , कई
गाूँव ैं, कई मकान ैं , अच्छी मयायदा ै । मैंने अभी तक वर को न ीिं दे खा।
वपताजी ने मुझसे पुछवाया था कक इच्छा ो, तो वर को बल
ु ा दूँ ।ू पर मैंने क
हदया, कोई जरूरत न ीिं। कौन घर में ब ू बने। ै तकदीर ी का सौदा। न
वपताजी ी ककसी के मन में पैठ सकते ैं , न मैं ी। अगर दो-एक बार दे ख ी
लेती, न ीिं मुलाकात ी कर लेती तो क्या म दोनों एक-दस
ू रे को परख लेते ?
य ककसी तर सिंभव न ीिं। ज्यादा-से-ज्यादा म एक-दस
ू रे का रिं ग-रूप दे ख
सकते ैं। इस ववषय में मुझे ववश्वास ै कक वपताजी मुझसे कम सिंयत न ीिं ैं।
मेरे दोनों बड़े ब नोई सौंदयय के पुतले न ों पर कोई रमणी उनसे घण
ृ ा न ीिं कर
सकती। मेरी ब नें उनके साथ आनन्द से जीवन बबता र ी ैं। कफर वपताजी मेरे
ी साथ क्यों अन्याय करें गे। य मैं मानती ू ूँ कक मारे समाज में कुछ लोगों
का वैवाह क जीवन सुखकर न ीिं ै , लेककन सिंसार में ऐसा कौन समाज ै , ल्जसमें
दख
ु ी पररवार न ों। और कफर मेशा पुरुषों ी का दोष तो न ीिं ोता, ब ु िा
ल्स्त्रयाूँ ी ववष का गाूँठ ोती ैं। मैं तो वववा को सेवा और तयाग का व्रत
समझती ू ूँ और इसी भाव से उसका अभभवादन करती ू ूँ। ाूँ, मैं तुम् ें ववनोद से
छीनना तो न ीिं चा ती लेककन अगर 20 जल
ु ाई तक तम
ु दो हदन के भलए आ
सको, तो मुझे ल्जला लो। ज्यों-ज्यों इस व्रत का हदन तनकट आ र ा ै , मुझे एक
अञा ात शिंका ो र ी ै ; मगर तुम खुद बीमार ो, मेरी दवा क्या करोगी—जरूर
आना ब न !

तुम् ारी,
चन्दा

मिंसूरी
5-8-25

प्यारी चन्दा,

सैंकड़ों बातें भलखनी ैं , ककस क्रम से शुरू करूूँ, समझ में न ीिं आता। सबसे प ले
तुम् ारे वववा के शुभ अवसर पर न प ु ूँच सकने के भलए क्षमा चा ती ू ूँ। मैं
आने का तनश्चय कर चक
ु ी थी, मैं और प्यारी चिंदा के स्वयिंवर में न जाऊूँ: मगर
उसके ठीक तीन हदन प ले ववनोद ने अपना आतमसमपयण करके मझ
ु े ऐसा मग्ु ि
कर हदया कक कफर मुझे ककसी की सुधि न र ी। आ ! वे प्रेम के अन्तस्तल से
तनकले ु ए उष्ण, आवेशमय और किंवपत शब्द अभी तक कानों में गूँज
ू र े ैं। मैं
खड़ी थी, और ववनोद मेरे सामने घुटने टे के ु ए प्रेरणा, ववनय और आग्र के
पुतले बने बैठे थे। ऐसा अवसर जीवन में एक ी बार आता ै , केवल एक बार,
मगर उसकी मिरु स्मतृ त ककसी स्वगय-सिंगीत की भाूँती जीवन के तार-तार में
व्याप्त र ता ै । तम
ु उस आनन्द का अनभ
ु व कर सकोगी—मैं रोने लगी, क
न ीिं सकती, मन में क्या-क्या भाव आये; पर मेरी आूँखों से आूँसुओिं की िारा
ब ने लगी। कदाधचत य ी आनन्द की चरम सीमा ै । मैं कुछ-कुछ तनराश ो
चली थी। तीन-चार हदन से ववनोद को आते-जाते कुसुम से बातें करते दे खती
थी, कुसुम तनत नए आभूषणों से सजी र ती थी और क्या क ू ूँ , एक हदन ववनोद
ने कुसम
ु की एक कववता मझ
ु े सन
ु ायी और एक-एक शब्द पर भसर िन
ु ते र े । मैं
मातननी तो ू ूँ ी; सोचा, जब य उस चुड़ल
ै पर लट्टू ो र े ें , तो मुझे क्या गरज
पड़ी ै कक इनके भलए अपना भसर खपाऊूँ। दस
ू रे हदन व सबेरे आये , तो मैंने
क ला हदया, तबीयत अच्छी न ीिं ै । जब उन् ोंने मुझसे भमलने के भलए आग्र
ककया, तब वववश ोकर मुझे कमरे में आना पड़ा। मन में तनश्चय करके आयी
थी—साफ क दिं ग
ू ी अब आप न आया कील्जए। मैं आपके योग्य न ीिं ू ूँ , मैं कवव
न ीिं, ववदष
ु ी न ीिं, सभ
ु ावषणी न ीिं....एक परू ी स्पीच मन में उमड़ र ी थी, पर कमरे
में आई और ववनोद के सतष्ृ ण नेत्र दे खे, प्रबल उतकिंठा में काूँपते ु ए ोंठ—ब न,
उस आवेश का धचत्रण न ीिं कर सकती। ववनोद ने मुझे बैठने भी न हदया। मेरे
सामने घुटनों के बल फशय पर बैठ गये और उनके आतुर उन्मतत शब्द मेरे हृदय
को तरिं धगत करने लगे।

एक सप्ता तैयाररयों में कट गया। पापा ओर मामा फूले न समाते थे।

और सबसे प्रसन्न थी कुसम


ु ! य ी कुसम
ु ल्जसकी सरू त से मझ
ु े घण
ृ ा थी ! अब
मुझे ञा ात ु आ कक मैंने उस पर सन्दे करके उसके साथ घोर अन्याय ककया।
उसका हृदय तनष्कपट ै , उसमें न ईष्याय ै , न तष्ृ णा, सेवा ी उसके जीवन का
मल
ू ततव ै । मैं न ीिं समझती कक उसके बबना ये सात हदन कैसे कटते। मैं कुछ
खोई-खोई सी जान पड़ती थी। कुसुम पर मैंने अपना सारा भार छोड़ हदया था।
आभूषणों के चुनाव और सजाव, वस्त्रों के रिं ग और काट-छाूँट के ववषय में उसकी
सुरुधच ववलक्षण ै । आठवें हदन जब उसने मुझे दल
ु ह न बनाया, तो मैं अपना रूप
दे खकर चककत र गई। मैंने अपने को कभी ऐसी सुन्दरी न समझा था। गवय से
मेरी आूँखों में नशा-सा छा गया।

उसी हदन सिंध्या-समय ववनोद और में दो भभन्न जल-िाराओिं की भाूँतत सिंगम


पर भमलकर अभभन्न ो गये। वव ार-यात्रा की तैयारी प ले ी से ो चुकी थी,
प्रात:काल म मिंसरू ी के भलए रवाना ो गये। कुसम
ु में प ु ूँचाने के भलए स्टे शन
तक आई और ववदा ोते समय ब ु त रोयी। उसे साथ ले चलना चा ती थी, पर
न जाने क्यों व राजी न ु ई।

मिंसरू ी रमणीक ै , इसमें सन्दे न ीिं। श्यामवणय मेघ-मालाएूँ प ाडड़यों पर ववश्राम


कर र ी ैं, शीतल पवन आशा-तरिं गों की भाूँतत धचतत का रिं जन कर र ा ै , पर
मुझे ऐसा ववश्वास ै कक ववनोद के साथ मैं ककसी तनजयन वन में भी इतने ी
सुख से र ती। उन् ें पाकर अब मुझे ककसी वस्तु की लालसा न ीिं। ब न, तुम
इस आनन्दमय जीवन की शायद ककपना भी न कर सकोगी। सुब ु ई, नाश्ता
आया, म दोनों ने नाश्ता ककया; डाूँडी तैयार ै , नौ बजते-बजते सैर करने तनकल
गए। ककसी जल-प्रपात के ककनारे जा बैठे। व ाूँ जल-प्रवा का मिरु सिंगीत सन

र े ैं। या ककसी भशला-खिंड पर बैठे मेघों की व्योम-क्रीड़ा दे ख र े ैं। ग्यार
बजते-बजते लौटै । भोजन ककया। मैं प्यानो पर जा बैठी। ववनोद को सिंगीत से
प्रेम ै । खुद ब ु त अच्छा गाते ैं और मैं गाने लगती ू ूँ , तब तो व झूमने ी
लगते ैं। तीसरे प र म एक घिंटे के भलए ववश्राम करके खेलने या कोई खेल
दे खने चले जाते ैं। रात को भोजन करने के बाद धथयेटर दे खते ैं और व ाूँ से
लौट कर शयन करते ैं। न सास की घड़
ु ककयाूँ ैं न ननदों की कानाफूसी, न
जेठातनयों के ताने। पर इस सुख में भी मुझे कभी-कभी एक शिंका-सी ोती ै—
फूल में कोई काूँटा तो न ीिं तछपा ु आ ै , प्रकाश के पीछे क ीिं अन्िकार तो न ीिं
ै ! मेरी समझ में न ीिं आता, ऐसी शिंका क्यों ोती ै । अरे , य लो पाूँच बज
गए, ववनोद तैयार ैं, आज टे तनस का मैच दे खने जाना ै । मैं भी जकदी से तैयार
ो जाऊूँ। शेष बातें कफर भलखूग
ूँ ी।

ाूँ, एक बात तो भल
ू ी ी जा र ी थी। अपने वववा का समाचार भलखना।
पततदे व कैसे ैं ? रिं ग-रूप कैसा ै ? ससुराल गयी, या अभी मैके ी में ो ?
ससुराल गयीिं, तो व ाूँ के अनुभव अवश्य भलखना। तुम् ारी खूब नुमाइश ु ई
ोगी। घर, कुटुम्ब और मु कले की मह लाओिं ने घूघ
ूँ ट उठा-उठाकर खूब मूँु दे खा
ोगा, खूब परीक्षा ु ई ोगी। ये सभी बातें ववस्तार से भलखना। दे खें कब कफर
मल
ु ाकात ोती ै।

तुम् ारी,
पद्मा

गोरखपुर
1-9-25
प्यारी पद्मा,

तुम् ारा पत्र पढकर धचतत को बड़ी शािंतत भमली। तुम् ारे न आने ी से मैं समझ
गई थी कक ववनोद बाबू तम्
ु ें र ले गए, मगर य न समझी थी कक तम
ु मिंसरू ी
प ु ूँच गयी। अब उस आमोद-प्रमोद में भला गरीब चन्दा क्यों याद आने लगी।
अब मेरी समझ में आ र ा ै कक वववा के भलए नए और पुराने आदशय में क्या
अन्तर ै । तुमने अपनी पसन्द से काम भलया, सुखी ो। मैं लोक-लाज की दासी
बनी र ी, नसीबों को रो र ी ू ूँ।

अच्छा, अब मेरी बीती सुनो। दान-द े ज के टिं टे से तो मुझे कुछ मतलब ै न ीिं।
वपताजी ने बड़ा ी उदार-हृदय पाया ै । खूब हदल खोलकर हदया ोगा। मगर
द्वार पर बारात आते ी मेरी अल्ग्न-परीक्षा शुरू ो गयी। ककतनी उतकण्ठा थी—
व -दशयन की, पर दे खूूँ कैसे। कुल की नाक न कट जाएगी। द्वार पर बारात
आयी। सारा जमाना वर को घेरे ु ए था। मैंने सोचा—छत पर से दे खू।ूँ छत पर
गयी, पर व ाूँ से भी कुछ न हदखाई हदया। ाूँ, इस अपराि के भलए अम्माूँजी की
घुड़ककयाूँ सुननी पड़ीिं। मेरी जो बात इन लोगों को अच्छी न ीिं लगती, उसका दोष
मेरी भशक्षा के माथे मढा जाता ै । वपताजी बेचारे मेरे साथ बड़ी स ानुभूतत रखते
ैं। मगर ककस-ककस का मूँु पकड़ें। द्वारचार तो यों गज
ु रा और भाूँवरों की
तैयाररयाूँ ोने लगी। जनवासे से ग नों और कपड़ों का थाल आया। ब न ! सारा
घर—स्त्री-पुरुष—सब उस पर कुछ इस तर टूटे , मानो इन लोगों ने कभी कुछ
दे खा ी न ीिं। कोई क ता ै , किंठा तो लाये ी न ीिं; कोई ार के नाम को रोता
ै ! अम्माूँजी तो सचमुच रोने लगी, मानो मैं डुबा दी गयी। वर-पक्षवालों की हदल
खोलकर तनिंदा ोने लगी। मगर मैंने ग नों की तरफ आूँख उठाकर भी न ीिं
दे खा। ाूँ, जब कोई वर के ववषय में कोई बात करता था, तो मैं तन्मय ोकर
सुनने लगती था। मालूम ु आ—दब
ु ले-पतले आदमी ैं। रिं ग साूँवला ै , आूँखें बड़ी-
बड़ी ैं, ूँसमुख ैं। इन सूचनाओिं से दशनोतकिंठा और भी प्रबल ोती थी। भाूँवरों
का मु ू तय ज्यों-ज्यों समीप आता था, मेरा धचतत व्यग्र ोता जाता था। अब तक
यद्यवप मैंने उनकी झलक भी न दे खी थी, पर मुझे उनके प्रतत एक अभूतपूवय
प्रेम का अनुभव ो र ा था। इस वक्त यहद मुझे मालूम ो जाता कक उनके
दश्ु मनों को कुछ ो गया ै , तो मैं बावली ो जाती। अभी तक मेरा उनसे
साक्षात न ीिं ु आ ैं, मैंने उनकी बोली तक न ीिं सुनी ै , लेककन सिंसार का सबसे
रूपवान पुरुष भी, मेरे धचतत को आकवषयत न ीिं कर सकता। अब व ी मेरे सवयस्व
ैं।

आिी रात के बाद भाूँवरें ु ईं। सामने वन-कुण्ड था, दोनों ओर ववप्रगण बैठे ु ए
थे, दीपक जल र ा था, कुल दे वता की मूततय रखी ु ई थीिं। वेद मिंत्र का पाठ ो
र ा था। उस समय मुझे ऐसा मालूम ु आ कक सचमुच दे वता ववराजमान ैं।
अल्ग्न, वायु, दीपक, नक्षत्र सभी मुझे उस समय दे वतव की ज्योतत से प्रदीप्त जान
पड़ते थे। मुझे प ली बार आध्याल्तमक ववकास का पररचय भमला। मैंने जब
अल्ग्न के सामने मस्तक झक
ु ाया, तो य कोरी रस्म की पाबिंदी न थी, मैं
अल्ग्नदे व को अपने सम्मख
ु मतू तयवान, स्वगीय आभा से तेजोमय दे ख र ी थी।
आखखर भाूँवरें भी समाप्त ो गई; पर पततदे व के दशयन न ु ए।

अब अल्न्तम आशा य थी कक प्रात:काल जब पततदे व कलेवा के भलए बल


ु ाये
जायूँगे, उस समय दे खग
ूूँ ी। तब उनके भसर पर मौर न ोगा, सखखयों के साथ मैं
भी जा बैठूूँगी और खूब जी भरकर दे खग
ूूँ ी। पर क्या मालूम था कक ववधि कुछ
और ी कुचक्र रच र ा ै । प्रात:काल दे खती ू ूँ , तो जनवासे के खेमे उखड़ र े ैं।
बात कुछ न थी। बाराततयों के नाश्ते के भलए जो सामान भेजा गया था, व
काफी न था। शायद घी भी खराब था। मेरे वपताजी को तुम जानती ी ो। कभी
ककसी से दबे न ीिं, ज ाूँ र े शेर बनकर र े । बोले—जाते ैं , तो जाने दो, मनाने की
कोई जरूरत न ीिं; कन्यापक्ष का िमय ै बाराततयों का सतकार करना, लेककन
सतकार का य अथय न ीिं कक िमकी और रोब से काम भलया जाय, मानो ककसी
अफसर का पड़ाव ो। अगर व अपने लड़के की शादी कर सकते ैं , तो मैं भी
अपनी लड़की की शादी कर सकता ू ूँ।

बारात चली गई और मैं पतत के दशयन न कर सकी ! सारे श र में लचल मच


गई। ववरोधियों को ूँसने का अवसर भमला। वपताजी ने ब ु त सामान जमा ककया
था। व सब खराब ो गया। घर में ल्जसे दे खखए, मेरी ससुराल की तनिंदा कर र ा
ै —उजड्ड ैं, लोभी ैं, बदमाश ैं, मुझे जरा भी बुरा न ीिं लगता। लेककन पतत के
ववरु्ध मैं एक शब्द भी न ीिं सन
ु ना चा ती। एक हदन अम्माूँजी बोली—लड़का भी
बेसमझ ै । दि
ू पीता बच्चा न ीिं, कानून पढता ै , मूँछ
ू -दाढी आ गई ै , उसे अपने
बाप को समझाना चाह ए था कक आप लोग क्या कर र े ैं। मगर व भी भीगी
बबकली बना र ा। मैं सुनकर ततलभमला उठी। कुछ बोली तो न ीिं, पर अम्माूँजी
को मालूम जरूर ो गया कक इस ववषय में मैं उनसे स मत न ीिं। मैं तुम् ीिं से
पूछती ू ूँ ब न, जैसी समस्या उठ खड़ी ु ई थी, उसमें उनका क्या िमय था ?
अगर व अपने वपता और अन्य सम्बल्न्ियों का क ना न मानते , तो उनका
अपमान न ोता ? उस वक्त उन् ोंने व ी ककया, जो उधचत था। मगर मुझे
ववश्वास ै कक जरा मामला ठिं डा ोने पर व आयेंगे। मैं अभी से उनकी रा
दे खने लगी ू ूँ। डाककया धचहट्ठयाूँ लाता ै , तो हदल में िड़कन ोने लगती ैं —
शायद उनका पत्र भी ो ! जी में बार-बार आता ै , क्यों न मैं ी एक खत भलखू;ूँ
मगर सिंकोच में पड़कर र जाती ू ूँ। शायद मैं कभी न भलख सकूूँगी। मान न ीिं
ै केवल सिंकोच ै । पर ाूँ, अगर दस-पाूँच हदन और उनका पत्र न आया, या व
खुद न आए, तो सिंकोच मान का रूप िारण कर लेगा। क्या तुम उन् ें एक धचट्ठी
न ीिं भलख सकती ! सब खेल बन जाय। क्या मेरी इतनी खाततर भी न करोगी ?
मगर ईश्वर के भलए उस खत में क ीिं य न भलख दे ना कक चिंदा ने प्रेरणा की
ै । क्षमा करना ऐसी भद्दी गलती की, तुम् ारी ओर से शिंका करके मैं तुम् ारे साथ
अन्याय कर र ी ू ूँ , मगर मैं समझदार थी ी कब ?

तम्
ु ारी,
चन्दा

5
मिंसरू ी
20-9-25
प्यारी चन्दा,

मैंने तुम् ारा खत पाने के दस


ू रे ी हदन काशी खत भलख हदया था। उसका जवाब
भी भमल गया। शायद बाबूजी ने तुम् ें खत भलखा ो। कुछ पुराने खयाल के
आदमी ैं। मेरी तो उनसे एक हदन भी न तनभती। ाूँ , तुमसे तनभ जायगी। यहद
मेरे पतत ने मेरे साथ य बतायव ककया ोता—अकारण मुझसे रूठे ोते—तो मैं
ल्जन्दगी-भर उनकी सरू त न दे खती। अगर कभी आते भी, तो कुततों की तर
दतु कार दे ती। परु
ु ष पर सबसे बड़ा अधिकार उसकी स्त्री का ै । माता-वपता को
खुश रखने के भलए व स्त्री का ततरस्कार न ीिं कर सकता। तुम् ारे ससुरालवालों
ने बड़ा घखृ णत व्यव ार ककया। पुराने खयालवालों का गजब का कलेजा ै , जो
ऐसी बातें स ते ैं। दे खा उस प्रथा का फल, ल्जसकी तारीफ करते तुम् ारी जबान
न ीिं थकती। व दीवार सड़ गई। टीपटाप करने से काम न चलेगा। उसकी जग
नये भसरे से दीवार बनाने की जरूरत ै।

अच्छा, अब कुछ मेरी भी कथा सुन लो। मुझे ऐसा सिंदे ो र ा ै कक ववनोद ने
मेरे साथ दगा की ै । इनकी आधथयक दशा वैसी न ीिं , जैसी मैंने समझी थी। केवल
मझ
ु े ठगने के भलए इन् ोंने सारा स्वाूँग भरा था। मोटर माूँगे की थी, बूँगले का
ककराया अभी तक न ीिं हदया गया, फरतनचर ककराये के थे। य सच ै कक
इन् ोंने प्रतयक्ष रूप से मुझे िोखा न ीिं हदया। कभी अपनी दौलत की डीिंग न ीिं
मारी, लेककन ऐसा र न-स न बना लेना, ल्जससे दस
ू रों को अनुमान ो कक य
कोई बड़े िनी आदमी ैं, एक प्रकार का िोखा ी ै। य स्वाूँग इसीभलए भरा
गया था कक कोई भशकार फूँस जाय। अब दे खती ू ूँ कक ववनोद मझ
ु से अपनी
असली ालत को तछपाने का प्रयतन ककया करते ैं। अपने खत मझ
ु े न ीिं दे खने
दे त,े कोई भमलने आता ै , तो चौंक पड़ते ैं और घबरायी ु ई आवाज में बेरा से
पूछते ैं, कौन ै ? तुम जानती ो, मैं िन की लौंडी न ीिं। मैं केवल ववशु्ध हृदय
चा ती ू ूँ। ल्जसमें पुरुषाथय ै , प्रततभा ै, व आज न ीिं तो कल अवश्य ी
िनवान ोकर र े गा। मैं इस कपट-लीला से जलती ू ूँ। अगर ववनोद मुझसे
अपनी कहठनाइयाूँ क दें , तो मैं उनके साथ स ानभ
ु तू त करूूँगी, उन कहठनाइयों
को दरू करने में उनकी मदद करूूँगी। यों मुझसे परदा करके य मेरी स ानुभूती
और स योग ी से ाथ न ीिं िोते, मेरे मन में अववश्वास, द्वेष और क्षोभ का
बीज बोते ैं। य धचिंता मुझे मारे डालती ैं। अगर इन् ोंने अपनी दशा साफ-
साफ बता दी ोती, तो मैं य ाूँ मिंसूरी आती ी क्यों ? लखनऊ में ऐसी गरमी
न ीिं पड़ती कक आदमी पागल ो जाय। य जारों रुपये क्यों पानी पड़ता। सबसे
कहठन समस्या जीववका की ै । कई ववद्यालयों में आवेदन-पत्र भेज रखे
ैं।जवाब का इिंतजार कर र े ैं। शायद इस म ीने के अिंत तक क ीिं जग भमल
जाय। प ले तीन-बार सौ भमलेंगे। समझ में न ीिं आता, कैसे काम चलेगा। डेढ सौ
रुपये तो पापा मेरे कालेज का खचय दे ते थे। अगर दस-पाूँच म ीने जग न भमली
तो य क्या करें गे , य कफक्र और भी खाये डालती ै । मुल्श्कल य ी ै कक
ववनोद मुझसे परदा रखते ैं। अगर म दोनों बैठकर परामशय कर लेत,े तो सारी
गल्ु तथयाूँ सल
ु झ जातीिं। मगर शायद य मझ
ु े इस योग्य ी न ीिं समझते। शायद
इनका खयाल ै कक मैं केवल रे शमी गडु ड़या ू ूँ, ल्जसे भाूँतत-भाूँतत के आभष
ू णों,
सुगिंिों और रे शमी वस्त्रों से सजाना ी काफी ै । धथरे टर में कोई नया तमाशा
ोने वाला ोता ै , दौड़े ु ए आकर मुझे खबर दे ते ैं। क ीिं कोई जलसा ो, कोई
खेल ो, क ीिं सैर करना ो उसकी शुभ सूचना मुझे अववलम्ब दी जाती ै और
बड़ी प्रसन्नता के साथ, मानो मैं रात-हदन ववनोद और क्रीड़ा और ववलास में मग्न
र ना चा ती ू ूँ , मानो मेरे हृदय में गिंभीर अिंश ै ी न ीिं। य मेरा अपमान ै;
घोर अपमान, ल्जसे मैं अब न ीिं स सकती। मैं अपने सिंपण
ू य अधिकार लेकर ी
सिंतुष्ट ो सकती ू ूँ। बस, इस वक्त इतना ी। बाकी कफर। अपने य ाूँ का ाल-
वाल ववस्तार से भलखना। मझ
ु े अपने भलए ल्जतनी धचिंता ै , उससे कम तुम् ारे
भलए न ीिं ै । दे खो, म दोनों के डोंगे क ाूँ लगते ैं। तुम अपनी स्वदे शी, पाूँच
जार वषों की पुरानी जजयर नौका पर बैठी ो, मैं नये, द्रत
ु गामी मोटर-बोट पर।
अवसर, ववञा ान और उद्योग। मेरे साथ ैं। लेककन कोई दै वी ववपल्तत आ जाय,
तब भी इसी मोटर-बोट पर डूबूँग
ू ी। साल में लाखों आदमी रे ल के टक्करों से मर
जाते ैं, पर कोई बैलगाडडयों पर यात्रा न ीिं करता। रे लों का ववस्तार बढता ी
जाता ै । बस।

तुम् ारी,
पद्मा

गोरखपरु
25-9-25
प्यारी पद्मा,
कल तुम् ारा खत भमला, आज जवाब भलख र ी ू ूँ। एक तुम ो कक म ीनों रटाती
ो। इस ववषय में तम्
ु ें मझ
ु से उपदे श लेना चाह ए। ववनोद बाबू पर तम
ु व्यथय
ी आक्षेप लगा र ी ो। तुमने क्यों प ले ी उनकी आधथयक दशा की जाूँच-
पड़ताल न ीिं की ? बस, एक सुन्दर, रभसक, भशष्ट, वाणी-मिुर युवक दे खा और फूल
उठीिं ? अब भी तम्
ु ारा ी दोष ै । तम
ु अपने व्यव ार से, र न-स न से भस्ध कर
दो कक तम
ु में गिंभीर अिंश भी ैं, कफर दे खूूँ कक ववनोद बाबू कैसे तम
ु से परदा रखते
ैं। और ब न, य तो मानवी स्वभाव ै । सभी चा ते ैं कक लोग में सिंपन्न
समझें। इस स्वाूँग को अिंत तक तनभाने की चेष्टा की जाती ै और जो इस
काम में सफल ो जाता ै , उसी का जीवन सफल समझा जाता ै । ल्जस युग में
िन ी सवयप्रिान ो, मयायदा, कीततय, यश—य ाूँ तक कक ववद्या भी िन से खरीदी
जा सके, उस यग
ु में स्वाूँग भरना एक लाल्जमी बात ो जाती ै । अधिकार
योग्यता का मूँु ताकते ैं ! य ी समझ लो कक इन दोनों में फूल और फल का
सिंबिंि ै । योग्यता का फूल लगा और अधिकार का फल आया।

इन ञा ानोपदे श के बाद अब तम्


ु ें ाहदय क िन्यवाद दे ती ू ूँ। तम
ु ने पततदे व के
नाम जो पत्र भलखा था, उसका ब ु त अच्छा असर ु आ। उसके पाूँचवें ी हदन
स्वामी का कृपापात्र मुझे भमला। ब न, व खत पाकर मुझे ककतनी खुशी ु ई,
इसका तुम अनुमान कर सकती ो। मालूम ोता था, अिंिे को आूँखें भमल गयी
ैं। कभी कोठे पर जाती थी, कभी नीचे आती थी। सारे में खलबली पड़ गयी।
तुम् ें व पत्र अतयन्त तनराशाजनक जान पड़ता, मेरे भलए व सिंजीवन-मिंत्र था,
आशादीपक था। प्राणेश ने बाराततयों की उद्दिंडता पर खेद प्रकट ककया था, पर बड़ों
के सामने व जबान कैसे खोल सकते थे। कफर जनाततयों ने भी, बाराततयों का
जैसा आदर-सतकार करना चाह ए था, वैसा न ीिं ककया। अन्त में भलखा था—‘वप्रये,
तुम् ारे दशयनों की ककतनी उतकिंठा ै , भलख न ीिं सकता। तुम् ारी कल्कपत मूततय
तनत आूँखों के सामने र ती ै । पर कुल-मयायदा का पालन करना मेरा कततयव्य
ै । जब तक माता-वपता का रुख न पाऊूँ, आ न ीिं सकता। तुम् ारे ववयोग में चा े
प्राण ी तनकल जायूँ, पर वपता की इच्छा की उपेक्षा न ीिं कर सकता। ाूँ, एक
बात का दृढ-तनश्चय कर चुका ू ूँ—चा े इिर की दतु नयािं उिर ो जाय, कपूत
क लाऊूँ, वपता के कोप का भागी बनूँू, घर छोड़ना पड़े पर अपनी दस
ू री शादी न
करूूँगा। मगर ज ाूँ तक मैं समझता ू ूँ , मामला इतना तूल न खीिंचग
े ा। य लोग
थोड़े हदनों में नमय पड़ जायूँगे और तब मैं आऊूँगा और अपनी हृदयेश्वरी को
आूँखों पर बबठाकर लाऊूँगा।
बस, अब मै। सिंतुष्ट ू ूँ ब न, मुझे और कुछ न चाह ए। स्वामी मुझ पर इतनी
कृपा रखते ैं, इससे अधिक और व क्या कर सकते ैं ! वप्रयतम! तुम् ारी चन्दा
सदस तुम् ारी र े गी, तुम् ारी इच्छा ी उसका कततयव्य ै। व जब तक ल्जएगी,
तम्
ु ारे पववत्र चरणों से लगी र े गी। उसे बबसारना मत।

ब न, आूँखों में आूँसू भर आते ैं, अब न ीिं भलखा जाता, जवाब जकद दे ना।

तुम् ारी,
चन्दा

7
हदकली
15-12-25
प्यारी ब न,

तझ
ु से बार-बार क्षमा माूँगती ू ूँ, पैरों पड़ती ू ूँ। मेरे पत्र न भलखने का कारण
आलस्य न था, सैर-सपाटे की िन
ु न थी। रोज सोचती थी कक आज भलखग
ूूँ ी, पर
कोई-न-कोई ऐसा काम आ पड़ता था, कोई ऐसी बात ो जाती थी; कोई ऐसी
बािा आ खड़ी ोती थी कक धचतत अशािंत ो जाता था और मूँु लपेट कर पड़
र ती थी। तुम मुझे अब दे खो तोशायद पह चान न सको। मिंसूरी से हदकली आये
एक म ीना ो गया। य ाूँ ववनोद को तीन सौ रुपये की एक जग भमल गयी
ै। य सारा म ीना बाजार की खाक छानने में कटा। ववनोद ने मझ
ु े परू ी
स्वािीनता दे रखी ै । मैं जो चा ू ूँ , करूूँ, उनसे कोई मतलब न ीिं। व मेरे मे मान
ैं। ग ृ स्थी का सारा बोझ मुझ पर डालकर व तनल्श्चिंत ो गए ैं। ऐसा बेकफक्रा
मैंने आदमी ी न ीिं दे खा। ाल्जरी की परवा ै , न डडनर की, बुलाया तो आ गए,
न ीिं तो बैठे ैं। नौकरों से कुछ बोलने की तो मानो इन् ोंने कसम ी खा ली ै।
उन् ें डाटूूँ तो मैं, रखूूँ तो मैं, तनकालूँ ू तो मैं, उनसे कोई मतलब ी न ीिं। मैं चा ती

ू ूँ , व मेरे प्रबन्ि की आलोचना करें , ऐब तनकालें ; मैं चा ती ू ूँ जब मैं बाजार से


कोई चीज लाऊूँ, तो व बतावें मैं जट गई या जीत आई; मैं च ती ू ूँ म ीने के
खचय का बजट बनाते समय मेरे और उनके बीच में खब
ू ब स ो, पर इन
अरमानों में से एक भी पूरा न ीिं ोता। मैं न ीिं समझती, इस तर कोई स्त्री
क ाूँ तक ग ृ -प्रबन्ि में सफल ो सकती ै । ववनोद के इस सम्पूणय आतम-
समपयण ने मेरी तनज की जरूरतों के भलए कोई गुिंजाइश ी न ीिं रखी। अपने
शौक की चीजें खुद खरीदकर लाते बुरा मालूम ोता ै , कम-से-कम मुझसे न ीिं
ो सकमा। मैं जानती ू ूँ, मैं अपने भलए कोई चीज लाऊूँ, तो व नाराज न ोंगे।
न ीिं, मझ
ु े ववश्वास ै, खश
ु ोंगे; लेककन मेरा जी चा ता ै , मेरे शौक भसिंगार की
चीजें व खुद ला कर दें । उनसे लेने में जो आनन्द ै, व खुद जाकर लाने में
न ीिं। वपताजी अब भी मुझे सौ रुपया म ीना दे ते ैं और उन रुपयों को मैं
अपनी जरूरतों पर खचय कर सकती ू ूँ। पर न जाने क्यों मुझे भय ोता ै कक
क ीिं ववनोदद समझें, मैं उनके रुपये खचय ककये डालती ू ूँ। जो आदमी ककसी बात
पर नाराज न ीिं ो सकता, व ककसी बात पर खश
ु भी न ीिं ो सकता। मेरी
समझ में ी न ीिं आता, व ककस बात से खुश और ककस बात से नाराज ोते
ैं। बस, मेरी दशा उस आदमी की-सी ै , जो बबना रास्ता जाने इिर-उिर भटकता
कफरे । तुम् ें याद ोगा, म दोनों कोई गखणत का प्रश्न लगाने के बाद ककतनी
उतसुकता से उसका जवाब दे खती थी; जब मारा जवाब ककताब के जवाब से
भमल जाता था, तो में ककतना ाहदय क आनन्द भमलता था। मे नत सफल ु ईं,
इसका ववश्वास ो जाता था। ल्जन गखणत की पस्
ु तकों में प्रश्नों के उततर न
भलखे ोते थे, उसके प्रश्न ल करने की मारी इच्छा ी न ोती थी। सोचते थे ,
मे नत अकारथ जायगी। मैं रोज प्रश्न ल करती ू ूँ , पर न ीिं जानती कक जवाब
ठीक तनकला, या गलत। सोचो, मेरे धचतत की क्या दशा ोगी।

एक फ्ता ोता ै , लखनऊ की भमस ररग से भें ट ो गई। व लेडी डाक्टर ैं


और मेरे घर ब ु त आती-जाती ैं। ककसी का भसर भी िमका और भमस ररग
बुलायी गयीिं। पापा जब मेडडकल कालेज में प्रोफेसर थे, तो उन् ोंने इन भमस ररग
को पढाया था। उसका ए सान व अब भी मानती ैं। य ाूँ उन् ें दे खकर भोजन
का तनमिंत्रण न दे ना अभशष्टता की द ोती। भमस ररग ने दावत मिंजूर कर ली।
उस हदन मझ
ु े ल्जतनी कहठनाई ु ई, व बयान न ीिं कर सकती। मैंने कभी
अूँगरे जों के साथ टे बल
ु पर न ीिं खाया। उनमें भोजन के क्या भशष्टाचार ैं , इसका
मुझे बबलकुल ञा ान न ीिं। मैंने समझा था, ववनोद मुझे सारी बातें बता दें गे। व
बरसों अूँगरे जों के साथ इिंग्लैंड र चुके ैं। मैंने उन् ें भमस ररग के आने की
सूचना भी दे दी। पर उस भले आदमी ने मानो सुना ी न ीिं। मैंने भी तनश्चय
ककया, मैं तुमसे कुछ न पूछूूँगी, य ी न ोगा कक भमस ररग ूँसेंगी। बला से।
अपने ऊपर बार-बार झूँझ
ु लाती थी कक क ाूँ भमस ररग को बल
ु ा बैठी। पड़ोस के
बूँगलों में कई मी-जैसे पररवार र ते ैं। उनसे सला ले सकती थी। पर य ी
सिंकोच ोता था कक ये लोग मुझे गूँवाररन समझेंगे। अपनी इस वववशता पर
थोड़ी दे र तक आूँसू भी ब ाती र ी। आखखर तनराश ोकर अपनी बुव्ध से काम
भलया। दस
ू रे हदन भमस ररग आयीिं। म दोनों भी मेज पर बैठे। दावत शुरू ु ई।
मैं दे खती थी कक ववनोद बार-बार झेंपते थे और भमस ररग बार-बार नाक
भसकोड़ती थीिं, ल्जससे प्रकट ो र ा था कक भशष्टाचार की मयायदा भिंग ो र ी ै।
मैं शमय के मारे मरी जाती थी। ककसी भाूँतत ववपल्तत भसर सके टली। तब मैंने
कान पकड़े कक अब ककसी अूँगरे ज की दावत न करूूँगी। उस हदन से दे ख र ी ू ूँ ,
ववनोद मुझसे कुछ खखिंचे ु ए ैं। मैं भी न ीिं बोल र ी ू ूँ। व शायद समझते ैं
कक मैंने उनकी भद्द करा दी। मैं समझ र ी ू ूँ। कक उन् ोंने मुझे लल्ज्जत
लल्ज्जत ककया। सच क ती ू ूँ , चन्दा, ग ृ स्थी के इन झिंझटों में मुझे अब ककसी
से ूँसने बोलने का अवसर न ीिं भमलता। इिर म ीनों से कोई नयी पस्
ु तक न ीिं
पढ सकी। ववनोद की ववनोदशीलता भी न जाने क ाूँ चली गयी। अब व भसनेमा
या धथएटर का नाम भी न ीिं लेत।े ाूँ, मैं चलूँ ू तो व तैयार ो जायेंगे। मैं
चा ती ू ूँ , प्रस्ताव उनकी ओर से ो, मैं उसका अनुमोदन करूूँ। शायद व पह ले
की आदतें छोड़ र े ैं। मैं तपस्या का सिंककप उनके मुख पर अिंककत पाती ू ूँ।
ऐसा जान पड़ता ै , अपने में ग ृ -सिंचालन की शल्क्त न पाकर उन् ोंने सारा भार
मझ
ु पर डाल हदया ै । मिंसरू ी में व घर के सिंचालक थे। दो-ढाई म ीने में
पन्द्र सौ खचय ककये। क ाूँ से लाये , य में अब तक न ीिं जानती। पास तो
शायद ी कुछ र ा ो। सिंभव ै ककसी भमत्र से ले भलया ो। तीन सौ रुपये
म ीने की आमदनी में धथएटर और भसनेमा का ल्जक्र ी क्या ! पचास रुपये तो
मकान ी के तनकल जाते ैं। मैं इस जिंजाल से तिंग आ गयी ू ूँ। जी चा ता ै,
ववनोद से क दूँ ू कक मेरे चलाये य ठे ला न चलेगा। आप तो दो-ढाई घिंटा
यूतनवभसयटी में काम करके हदन-भर चैन करें , खूब टे तनस खेलें, खूब उपन्यास पढें ,
खूब सोयें और मैं सुब से आिी रात तक घर के झिंझटों में मरा करूूँ। कई बार
छे ड़ने का इरादा ककया, हदल में ठानकर उनके पास गयी भी, लेककन उनका
सामीप्य मेरे सारे सिंयम, सारी ग्लातन, सारी ववरल्क्त को र लेता ै । उनका
ववकभसत मख
ु मिंडल, उनके अनुरक्त नेत्र, उनके कोमल शब्द मझ
ु पर मोह नी मिंत्र-
सा डाल दे ते ैं। उनके एक आभलिंगन में मेरी सारी वेदना ववलीन ो जाती ै।
ब ु त अच्छा ोता, अगर य इतने रूपवान, इतने मिुरभाषी, इतने सौम्य न ोते।
तब कदाधचत मैं इनसे झगड़ बैठती, अपनी कहठनाइयाूँ क सकती। इस दशा में
तो इन् ोंने मुझे जैसे भेड़ बना भलया ै । मगर माया को तोड़ने का मौका तलाश
कर र ी ू ूँ। एक तर से मैं अपना आतम-सम्मान खो बैठी ू ूँ। मैं क्यों र एक
बात में ककसी की अप्रसन्नता से डरती र ती ू ूँ ? मझ
ु में क्यों य भाव न ीिं
आता कक जो कुछ मैं कर र ी ू ूँ, व ठीक ै । मैं इतनी मुखापेक्षा क्यों करती ू ूँ
? इस मनोवल्ृ तत पर मुझे ववजय पाना ै , चा े जो कुछ ो। अब इस वक्त ववदा
ोती ू ूँ। अपने य ाूँ के समाचार भलखना, जी लगा ै।

तुम् ारी,
पद्मा

8
काशी
25-12-25
प्यारी पद्मा,
तुम् ारा पत्र पढकर मुझे कुछ द:ु ख ु आ, कुछ ूँसी आयी, कुछ क्रोि आया। तुम
क्या चा ती ो, य तम्
ु ें खद
ु न ीिं मालम
ू । तम
ु ने आदशय पतत पाया ै , व्यथय की
शिंकाओिं से मन को अशािंत न करो। तुम स्वािीनता चा ती थीिं, व तुम् ें भमल
गयी। दो आदभमयों के भलए तीन सौ रुपये कम न ीिं ोते। उस पर अभी तुम् ारे
पापा भी सौ रुपये हदये जाते ैं। अब और क्या करना चाह ए? मझ
ु े भय ोता ै
कक तम्
ु ारा धचतत कुछ अव्यवल्स्थत ो गया ै । मेरे पास तम्
ु ारे भलए
स ानुभूतत का एक शब्द भी न ीिं।

मैं पन्द्र तारीख को काशी आ गयी। स्वामी स्वयिं मझ


ु े ववदा कराने गये थे। घर
से चलते समय ब ु त रोई। प ले मैं समझती थी कक लड़ककयाूँ झठ
ू -मठ
ू रोया
करती ैं। कफर मेरे भलए तो माता-वपता का ववयोग कोई नई बात न थी। गमी,
दश रा और बड़े हदन की छुहट्टयों के बाद छ: सालों से इस ववयोग का अनुभव
कर र ी ू ूँ। कभी आूँखों में आूँसू न आते थे। स े भलयों से भमलने की खुशी ोती
थी। पर अबकी तो ऐसा जान पड़ता था कक कोई हृदय को खीिंचे लेता ै।
अम्माूँजी के गले भलपटकर तो मैं इतना रोई कक मझ
ु े मछ
ू ाय आ गयी। वपताजी के
पैरों पर लोट कर रोने की अभभलाषा मन में ी र गयी। ाय, व रुदन का
आनन्द ! उस समय वपता के चरणों पर धगरकर रोने के भलए मैं अपने प्राण
तक दे दे ती। य ी रोना आता था कक मैंने इनके भलए कुछ न ककया। मेरा
पालन-पोषण करने में इन् ोंने क्या कुछ कष्ट न उठाया ! मैं जन्म की रोधगणी

ू ूँ। रोज ी बीमार र ती थी। अम्माूँजी रात-रात भर मुझे गोद में भलये बैठी र
जाती थी। वपताजी के कन्िों पर चढकर उचकने की याद मझ
ु े अभी तक आती
ै । उन् ोंने कभी मुझे कड़ी तनगा से न ीिं दे खा। मेरे भसर में ददय ु आ और
उनके ाथों के तोते उड़ जाते थे। दस वषय की उम्र तक तो यों गए। छ: साल
दे रादन
ू में गुजरे । अब, जब इस योग्य ु ई कक उनकी कुछ सेवा करूूँ, तो यों पर
झाड़कर अलग ो गई। कुल आठ म ीने तक उनके चरणों की सेवा कर सकी
और य ी आठ म ीने मेरे जीवन की तनधि ै । मेरी ईश्वर से य ी प्राथयना ै कक
मेरा जन्म कफर इसी गोद में ो और कफर इसी अतल
ु वपतस्
ृ ने का आनन्द
भोगूँ।ू

सन्ध्या समय गाड़ी स्टे शन से चली। मैं जनाना कमरे में थी और लोग दस
ू रे
कमरे में थे। उस वक्त स सा मझ
ु े स्वामीजी को दे खने की प्रबल इच्छा ु ई।
सान्तवना, स ानुभूतत और आश्रय के भलए हृदय व्याकुल ो र ा था। ऐसा जान
पड़ता था जैसे कोई कैदी कालापानी जा र ा ो। घिंटे भर के बाद गाड़ी एक
स्टे शन पर रुकी। मैं पीछे की ओर खखड़की से भसर तनकालकर दे खने लगी। उसी
वक्त द्वार खुला और ककसी ने कमरे में कदम रखा। उस कमरे में एक औरत
भी न थी। मैंने चौंककर पीछे दे खा तो एक पुरुष। मैंने तुरन्त मूँु तछपा भलया
और बोली, आप कौन ैं ? य जनाना कमरा ै । मरदाने कमरे में जाइए।

पुरुष ने खड़े-खड़े क ा—मैं तो इसी कमरे में बैठूूँगा। मरदाने कमरे में भीड़ ब ु त
ै । मैंने रोष से क ा—न ीिं, आप इसमें न ीिं बैठ सकते।

‘मैं तो बैठूूँगा।’

‘आपको तनकलना पड़ेगा। आप अभी चले जाइये , न ीिं तो मैं अभी जिंजीर खीिंच
लूँ ग
ू ी।’

‘अरे सा ब, मैं भी आदमी ू ूँ, कोई जानवर न ीिं ू ूँ। इतनी जग पड़ी ु ई ै।
आपका इसमें रज क्या ै ?’

गाड़ी ने सीटी दी। मैं और घबराकर बोली—आप तनकलते ैं , या मैं जिंजीर खीिंचूँू ?

परु
ु ष ने मस्
ु कराकर क ा—आप तो बड़ी गस्
ु सावर मालम
ू ोती ैं। एक गरीब
आदमी पर आपको जरा भी दया न ीिं आती ?

गाड़ी चल पड़ी। मारे क्रोि और लज्जा के मझ


ु े पसीना आ गया। मैंने फौरन
द्वार खोल हदया और बोली—अच्छी बात ै , आप बैहठए, मैं ी जाती ू ूँ।

ब न, मैं सच क ती ू ूँ , मुझे उस वक्त लेशमात्र भी भय न था। जानती थी, धगरते


ी मर जाऊूँगी, पर एक अजनबी के साथ अकेले बैठने से मर जाना अच्छा था।
मैंने एक पैर लटकाया ी था कक उस परु
ु ष ने मेरी बाूँ पकड़ ली और अन्दर
खीिंचता ु आ बोला—अब तक तो आपने मुझे कालेपानी भेजने का सामान कर
हदया था। य ाूँ और कोई तो ै न ीिं , कफर आप इतना क्यों घबराती ैं। बैहठए,
जरा ूँभसए-बोभलए। अगले स्टे शन पर मैं उतर जाऊूँगा, इतनी दे र तक कृपा-
कटाक्ष से विंधचत न कील्जए। आपको दे खकर हदल काबू से बा र ु आ जाता ै।
क्यों एक गरीब का खून भसर पर लील्जएगा।.......

मैंने झटककर अपना ाथ छुटा भलया। सारी दे काूँपने लगी। आूँखों में आूँसू भर
आये। उस वक्त अगर मेरे पास कोई छुरी या कटार ोती, तो मैंने जरूर उसे
तनकाल भलया ोता और मरने-मारने को तैयार ो गई ोती। मगर इस दशा में
क्रोि से ओिंठ चबाने के भसवा और क्या करती ! आखखर झकलाना व्यथय
समझकर मैंने साविान ोने की चेष्टा करके क ा—आप कौन ैं ? उसने उसी
हढठाई से क ा—तुम् ारे प्रेम का इच्छुक।

‘आप तो मजाक करते ैं। सच बतलाइए।’

‘सच बता र ा ू ूँ , तम्


ु ारा आभशक ू ूँ।’

‘अगर आप मेरे आभशक ैं, तो कम-से-कम इतनी बात मातनए कक अगले स्टे शन
पर उतर जाइए। मझ
ु े बदनाम करके आप कुछ न पायेंगे। मझ
ु पर इतनी दया
कील्जए।’

मैंने ाथ जोड़कर य बात क ी। मेरा गला भी भर आया था। उस आदमी ने


द्वार की ओर जाकर क ा—अगर आपका य ी ु क्म ै , तो लील्जए, जाता ू ूँ। याद
रखखएगा। उसने द्वार खोल भलया और एक पाूँव आगे बढाया। मझ
ु े मालम
ू ुआ
व नीचे कूदने जा र ा ै । ब न, न ीिं क सकती कक उस वक्त मेरे हदल की
क्या दशा ु ई। मैंने बबजली की तर लपककर उसका ाथ पकड़ भलया और
अपनी तरफ जोर से खीिंच भलया।

उसने ग्लातन से भरे ु ए स्वर में क ा—‘क्यों खीिंच भलया, मैं तो चला जा र ा
था।’
‘अगला स्टे शन आने दील्जए।’

‘जब आप भगा ी र ी ैं, तो ल्जतनी जकद भाग जाऊूँ उतना ी अच्छा।’

‘मैं य कब क ती ू ूँ कक आप चलती गाड़ी से कूद पडड़ए।’

‘अगर मझ
ु पर इतनी दया ै , तो एक बार जरा दशयन ी दे दो।’

‘अगर आपकी स्त्री से कोई दस


ू रा पुरुष बातें करता, तो आपको कैसा लगता?’

पुरुष ने तयोररयाूँ चढाकर क ा—‘मैं उसका खून पी जाता।’

मैंने तनस्सिंकोच ोकर क ा—तो कफर आपके साथ मेरे पतत क्या व्यव ार करें गे ,
य भी आप समझते ोंगे ?

‘तुम अपनी रक्षा आप ी कर सकती ो। वप्रये! तुम् ें पतत की मदद की जरूरत


ी न ीिं। अब आओ, मेरे गले से लग जाओ। मैं ी तम्
ु ारा भाग्यशाली स्वामी
और सेवक ू ूँ।’

मेरा हृदय उछल पड़ा। एक बार मूँु से तनकला—अरे ! आप!!’ और मैं दरू टकर
खड़ी ो गयी। एक ाथ लिंबा घघ
ूूँ ट खीिंच भलया। मूँु से एक शब्द न तनकला।

स्वामी ने क ा—अब य शमय और परदा कैसा?

मैंने क ा—आप बड़े छभलये ैं ! इतनी दे र तक मुझे रुलाने में क्या मजा आया?

स्वामी—इतनी दे र में मैंने तम्


ु ें ल्जतना प चान भलया, उतना घर के अन्दर
शायद बरसों में भी न प चान सकता। य अपराि क्षमा करो। क्या तम

सचमुच गाड़ी से कूद पड़तीिं ?

‘अवश्य?’
‘बड़ी खैररयत ु ई, मगर य हदकलगी ब ु त हदनों याद र े गी।’ मेरे स्वामी औसत
कद के, साूँवले, चेचकरू, दब
ु ले आदमी ैं। उनसके क ीिं रूपवान पुरुष मैंने दे खे ैं:
पर मेरा हृदय ककतना उकलभसत ो र ा था ! ककतनी आनन्दमय सन्तुल्ष्ट का
अनभ
ु व कर र ी थी, मैं बयान न ीिं कर सकती।

मैंने पूछा—गाड़ी कब तक प ु ूँ चग
े ी ?

‘शाम को प ु ूँच जायेंगे।’

मैंने दे खा, स्वामी का चे रा कुछ उदास ो गया ै। व दस भमनट तक चप


ु चाप
बैठे बा र की तरफ ताकते र े । मैंने उन् ें केवल बात में लगाने ी के भलए य
अनावश्यक प्रश्न पूछा था। पर अब भी जब व न बोले तो मैंने कफर न छे ड़ा।
पानदान खोलकर पान बनाने लगी। स सा, उन् ोंने क ा—चन्दा, एक बात क ू ूँ ?

मैंने क ा— ाूँ- ाूँ, शौक से कह ए।

उन् ोंने भसर झुकाकर शमायते ु ए क ा—मैं जानता कक तुम इतनी रूपवती ो, तो
मैं तम
ु से वववा न करता। अब तम्
ु ें दे खकर मझ
ु े मालम
ू ो र ा ै कक मैंने
तम्
ु ारे साथ अन्याय ककया ै। मैं ककसी तर तम्
ु ारे योग्य न था।

मैंने पान का बीड़ा उन् ें दे ते ु ए क ा—ऐसी बातें न कील्जए। आप जैसे ैं, मेरे
सवयस्व ैं। मैं आपकी दासी बनकर अपने भाग्य को िन्य मानती ू ूँ।

दस
ू रा स्टे शन आ गया। गाड़ी रुकी। स्वामी चले गये। जब-जब गाड़ी रुकती थी,
व आकर दो-चार बातें कर जाते थे। शाम को म लोग बनारस प ु ूँच गए।
मकान एक गली में ै और मेरे घर से ब ु त छोटा ै । इन कई हदनों में य भी
मालम
ू ो र ा ै कक सासजी स्वभाव की रूखी ैं। लेककन अभी ककसी के बारे में
कुछ न ीिं क सकती। सम्भव ै , मुझे भ्रम ो र ा ो। कफर भलखूग
ूँ ी। मुझे
इसकी धचन्ता न ीिं कक घर कैसा ै , आधथयक दशा कैसी ै , सास-ससुर कैसे ैं।
मेरी इच्छा ै कक य ाूँ सभी मझ
ु से खश
ु र ें । पततदे व को मझ
ु से प्रेम ै, य मेरे
भलए काफी ै । मझ
ु े और ककसी बात की परवा न ीिं। तम्
ु ारे ब नोईजी का मेरे
पास बार-बार आना सासजी को अच्छा न ीिं लगता। व समझती ैं , क ीिं य
भसर न चढ जाय। क्यों मुझ पर उनकी य अकृपा ै, क न ीिं सकती; पर
इतना जानती ू ूँ कक व अगर इस बात से नाराज ोती ैं, तो मारे ी भले के
भलए। व ऐसी कोई बात क्यों करें गी, ल्जसमें मारा ह त न ो। अपनी सन्तान
का अह त कोई माता न ीिं कर सकती। मझ
ु ी में कोई बरु ाई उन् ें नजर आई
ोगी। दो-चार हदन में आप ी मालम
ू ो जाएगा ! अपने य ाूँ के समाचार
भलखना। जवाब की आशा एक म ीने के प ले तो ै न ीिं , यों तुम् ारी खुशी।

तम्
ु ारी,
चन्दा

9
हदकली
1-2-26
प्यारी ब न,

तम्
ु ारे प्रथम भमलन की कुतू लमय कथा पढकर, धचतत प्रसन्न ो गया। मझ
ु े
तुम् ारे ऊपर सद ो र ा ै । में ने समझा था, तुम् ें मुझ पर सद ोगा, पर
कक्रया उलटी ो गयी, तुम् ें चारों ओर ररयाली ी नजर आती ै , मैं ल्जिर नजर
डालती ू ूँ , सूखे रे त और नग्न टीलों के भसवा और कुछ न ीिं। खैर ! अब कुछ
मेरा वतृ तान्त सुनो—

“अब ल्जगर थामकर बैठो, मेरी बारी आयी।”

ववनोद की अववचभलत दशयतनकता अब असह्य ो गयी ै । कुछ ववधचत्र जीव ैं,


घर में आग लगे, पतथर पड़े इनकी बला से। इन् ें मुझ पर जरा भी दया न ीिं
आती। मैं सुब से शाम तक घर के झिंझटों में कुढा करूूँ, इन् ें कुछ परवा न ीिं।
ऐसा स ानभ
ु तू त से खाली आदमी कभी न ीिं दे खा था। इन् ें तो ककसी जिंगल में
तपस्या करनी चाह ए थी। अभी तो खैर दो ी प्राणी ैं , लेककन क ीिं बाल-बच्चे
ो गये तब तो मैं बे-मौत मर जाऊूँगी। ईश्वर न करे , व दारुण ववपल्तत मेरे
भसर पड़े। चन्दा, मुझे अब हदल से लगी ु ई ै कक ककसी भाूँतत इनकी व
समाधि भिंग कर दूँ ।ू मगर कोई उपाय सफल न ीिं ोता, कोई चाल ठीक न ीिं
पड़ती। एक हदन मैंने उनके कमरे के लिंप का बकव तोड़ हदया। कमरा अूँिेरा पड़ा
र ा। आप सैर करके आये , तो कमरा अूँिेरा दे खा। मुझसे पछ
ू ा, मैंने क हदया
बकब टूट गया। बस, आपने भोजन ककया और मेरे कमरे में आकर लेट र े । पत्रों
और उपन्यासों की ओर दे खा तक न ीिं , न-जाने व उतसुकता क ाूँ ववलीन ो
गयी। हदन-भर गुजर गया, आपको बकव लगवाने की कोई कफक्र न ीिं। आखखर,
मुझी को बाजार से लाना पड़ा।

एक हदन मैंने झूँुझलाकर रसोइये को तनकाल हदया। सोचा जब लाला रात-भर


भूखे सोयेंगे, तब आूँखें खुलेंगी। मगर इस भले आदमी ने कुछ पूछा तक न ीिं।
चाय न भमली, कुछ परवा न ीिं। ठीक दस बजे आपने कपड़े प ने, एक बार
रसोई की ओर जाकर दे खा, सन्नाटा था। बस, कालेज चल हदये। एक आदमी
पूछता ै , म ाराज क ाूँ गया, क्यों गया; अब क्या इन्तजाम ोगा, कौन खाना
पकायेगा, कम-से-कम इतना तो मुझसे क सकते थे कक तुम अगर न ीिं पका
सकती, तो बाजार ी से कुछ खाना मूँगवा लो। जब व चले गए, तो मुझे बड़ा
पश्चातताप ु आ। रायल ोटल से खाना मूँगवाया और बैरे के ाथ कालेज भेज
हदया। पर खुद भूखी ी र ी। हदन-भर भूख के मारे बुरा ाल था। भसर में ददय
ोने लगा। आप कालेज से आए और मुझे पड़े दे खा तो ऐसे परे शान ु ए मानो
मझ
ु े बत्रदोष ै । उसी वक्त एक डाक्टर बल
ु ा भेजा। डाक्टर आये , आूँखें दे खी,
जबान दे खी, रारत दे खी, लगाने की दवा अलग दी, पीने की अलग, आदमी दवा
लेने गया। लौटा तो बार रुपये का बबल भी था। मुझे इन सारी बातों पर ऐसा
क्रोि आ र ा था कक क ाूँ भागकर चली जाऊूँ। उस पर आप आराम-कुसी
डालकर मेरी चारपाई के पास बैठ गए और एक-एक पल पर पूछने लगे कैसा जी
ै ? ददय कुछ कम ु आ ? य ाूँ मारे भूख के आूँतें कुलकुला र ी थी। दवा ाथ से
छुई तक न ीिं। आखखर झख मारकर मैंने कफर बैरे से खाना मिंगवाया। कफर चाल
उलटी पड़ी। मैं डरी कक क ीिं सबेरे कफर य म ाशय डाक्टर को न बल
ु ा बैठैं,
इसभलए सबेरा ोते ी ारकर कफर घर के काम-िन्िे में लगी। उसी वक्त एक
दस
ू रा म ाराज बुलवाया। अपने पुराने म ाराज को बेकसूर तनकालकर दण्डस्वरूप
एक काठ के उकलू को रखना पड़ा,जो मामूली चपाततयाूँ भी न ीिं पका सकता।
उस हदन से एक नयी बला गले पड़ी। दोनों वक्त दो घिंटे इस म ाराज को
भसखाने में लग जाते ैं। इसे अपनी पाक-कला का ऐसा घमण्ड ै कक मैं चा े
ल्जतना बकूँू , पर करता अपने ी मन की ै । उस पर बीच-बीच में मस्
ु कराने
लगता ै , मानो क ता ो कक ‘तुम इन बातों को क्या जानो, चुपचाप बैठी दे ख्ती
जाव।’ जलाने चली थी ववनोद को और खुद जल गयी। रुपये खचय ु ए, व तो ु ए
ी, एक और जिंजाल में फूँस गयी। मैं खुद जानती ू ूँ कक ववनोद का डाक्टर को
बुलाना या मेरे पास बैठे र ना केवल हदखावा था। उनके चे रे पर जरा भी
घबरा ट न थी, धचतत जरा भी अशािंत न था।

चिंदा, मुझे क्षमा करना। मैं न ीिं जानती कक ऐसे पुरुष के पाले पड़कर तुम् ारी
क्या दशा ोती, पर मेरे भलए इस दशा में र ना असह्य ै । मैं आगे जो वतृ तान्त
क ने वाली ू ूँ , उसे सन
ु कर तम
ु नाक-भौं भसकोड़ोगी, मझ
ु े कोसोगी, कलिंककनी
क ोगी; पर जो चा े क ो, मुझे परवा न ीिं। आज चार हदन ोते ैं, मैंने बत्रया-
चररत्र का एक नया अभभनय ककया। म दोनों भसनेमा दे खने गये थे। व ाूँ मेरी
बगल में एक बिंगाली बाबू बैठे ु ए थे। ववनोद भसनेमा में इस तर बैठते ैं , मानो
ध्यानावस्था में ों। न बोलना, न चालना! कफकम इतनी सुन्दर थी, ऐल्क्टिं ग इतनी
सजीव कक मेरे मूँु से बार-बार प्रशिंसा के शब्द तनकल जाते थे। बिंगाली बाबू को
भी बड़ा आनन्द आ र ा था। म दोनों उस कफकम पर आलोचनाएूँ करने लगे।
व कफकम के भावों की इतनी रोचक व्याख्या करता था कक मन मुग्ि ो जाता
था। कफकम से ज्यादा मजा मझ
ु े उसकी बातों में आ र ा था। ब न, सच क ती

ू ूँ , शक्ल-सूरत में व ववनोद के तलुओिं की बराबरी भी न ीिं कर सकता, पर केवल


ववनोद को जलाने के भलए मैं उससे मुस्करा-मुस्करा कर बातें करने लगी। उसने
समझा, कोई भशकार फूँस गया। अवकाश के समय व बा र जाने लगा, तो मैं भी
उठ खड़ी ु ई; पर ववनोद अपनी जग पर ी बैठे र े ।

मैंने क ा—बा र चलते ो, मेरी तो बैठे-बैठे कमर दख


ु गयी।

ववनोद बोले— ाूँ- ाूँ चलो, इिर-उिर ट ल आयें। मैंने लापरवा ी से क ा—तुम् ारा
जी न चा े तो मत चलो, मैं मजबूर न ीिं करती।

ववनोद कफर अपनी जग पर बैठते ु ए बोले—अच्छी बात ै।

मैं बा र आयी तो बिंगाली बाबू ने पछ


ू ा—क्या आप य ीिं की र ने वाली ैं ? ‘मेरे
पतत य ाूँ यतू नवभसयटी में प्रोफेसर ैं।’

‘अच्छा! व आपके पतत थे। अजीब आदमी ैं।’

‘आपको तो मैंने शायद य ाूँ प ले ी दे खा ै।’

‘ ाूँ, मेरा मकान तो बिंगाल में ै । किंचनपुर के म ाराज सा ब का प्राइवेट सेक्रेटरी

ू ूँ। म ाराजा सा ब वाइसराय से भमलने आये ैं। ’

‘तो अभी दो-चार हदन रह एगा?’

‘जी ाूँ, आशा तो करता ू ूँ। र ू ूँ तो साल-भर र जाऊूँ। जाऊूँ तो दस


ू री गाड़ी से
चला जाऊूँ। मारे म ाराजा सा ब का कुछ ठीक न ीिं। यों बड़े सज्जन और
भमलनसार ैं। आपसे भमलकर ब ु त खुश ोंगे।

य बातें करते-करते म रे स्राूँ में प ु ूँच गये। बाबू ने चाय और टोस्ट भलया।
मैंने भसफय चाय ली।
‘तो इसी वक्त आपका म ाराजा सा ब से पररचय करा दिं ।ू आपको आश्चयय ोगा
कक मक
ु ु टिाररयों में भी इतनी नम्रता और ववनय ो सकती ै । उनकी बातें
सुनकर आप मुग्ि ो जायूँगी।’

मैंने आईने में अपनी सरू त दे खकर क ा—जी न ीिं, कफर ककसी हदन पर रखखए।
आपसे तो अक्सर मल
ु ाकात ोती र े गी। क्या आपकी स्त्री आपके साथ न ीिं
आयीिं ?

यव
ु क ने मस्
ु कराकर क ा—मैं अभी क्वाूँरा ू ूँ और शायद क्वाूँरा ी र ू ूँ?

मैंने उतसुक ोकर पूछा—अच्छा! तो आप भी ल्स्त्रयों से भागने वाले जीवों में ैं।
इतनी बातें तो ो गयी और आपका नाम तक न पूछा।

बाबू ने अपना नाम भुवनमो न दास गुप्त बताया। मैंने अपना पररचय हदया।

‘जी न ीिं, मैं उन अभागों में ू ूँ, जो एक बार तनराश ोकर कफर उसकी परीक्षा न ीिं
करते। रूप की तो सिंसार में कमी न ीिं, मगर रूप और गुण का मेल ब ु त कम
दे खने में आता ै । ल्जस रमणी से मेरा प्रेम था, व आज एक बड़े वकील की
पतनी ै । मैं गरीब था। इसकी सजा मुझे ऐसी भमली कक जीवनपययन्त न भूलेगी।
साल-भर तक ल्जसकी उपासना की, जब उसने मुझे िन पर बभलदान कर हदया,
तो अब और क्या आशा रखू?ूँ

मैंने ूँसकर क ा—‘आपने ब ु त जकद ह म्मत ार दी।’

भुवन ने सामने द्वार की ओर ताकते ु ए क ा—मैंने आज तक ऐसा वीर ी


न ीिं दे खा, जो रमखणयों से परास्त न ु आ ो। ये हृदय पर चोट करती ैं और
हृदय एक ी ग री चोट स सकता ै । ल्जस रमणी ने मेरे प्रेम को तुच्छ
समझकर पैरों से कुचल हदया, उसको मैं हदखाना चा ता ू ूँ कक मेरी आूँखों में
िन ककतनी तच्
ु छ वस्तु ै , य ी मेरे जीवन का एकमात्र उद्देश्य ै । मेरा जीवन
उसी हदन सफल ोगा, जब ववमला के घर के सामने मेरा ववशाल भवन ोगा
और उसका पतत मझ
ु से भमलने में अपना सौभाग्य समझेगा।

मैंने गम्भीरता से क ा—य तो कोई ब ु त ऊूँचा उद्देश्य न ीिं ै । आप य क्यों


समझते ैं कक ववमला ने केवल िन के भलए आपका पररतयाग ककया। सम्भव ै,
इसके और भी कारण ों। माता-वपता ने उस पर दबाव डाला ो, या अपने ी में
उसे कोई ऐसी त्रुहट हदखलाई दी ो, ल्जससे आपका जीवन द:ु खमय ो जाता।
आप य क्यों समझते ैं कक ल्जस प्रेम से विंधचत ोकर आप इतने द:ु खी ु ए,
उसी प्रेम से विंधचत ोकर व सुखी ु ई ोगी। सम्भव था, कोई िनी स्त्री पाकर
आप भी कफसल जाते।

भुवन ने जोर दे कर क ा—य असम्भव ै , सवयथा असम्भव ै । मैं उसके भलए


बत्रलोक का राज्य भी तयाग दे ता।

मैंने ूँसकर क ा— ाूँ, इस वक्त आप ऐसा क सकते ैं ; मगर ऐसी परीक्षा में
पड़कर आपकी क्या दशा ोती, इसे आप तनश्चयपूवक
य न ीिं बता सकते। भसपा ी
की ब ादरु ी का प्रमाण उसकी तलवार ै , उसकी जबान न ीिं। इसे अपना सौभाग्य
समखझए कक आपको उस परीक्षा में न ीिं पड़ना पड़ा। व प्रेम , प्रेम न ीिं ै , जो
प्रतयाघात की शरण ले। प्रेम का आहद भी सहृदयता ै और अन्त भी सहृदयता।
सम्भव ै , आपको अब भी कोई ऐसी बात मालूम ो जाय, जो ववमला की तरफ
से आपको नमय कर दे ।

भव
ु न ग रे ववचार में डूब गया। एक भमनट के बाद उन् ोंने भसर उठाया। और
बोले—‘भमसेज ववनोद, आपने आज एक ऐसी बात सुझा दी, जो आज तक मेरे
ध्यान में आयी ी न थी। य भाव कभी मेरे मन में उदय ी न ीिं ु आ। मैं
इतना अनुदार क्यों ो गया, समझ में न ीिं आता। मुझे आज मालूम ु आ कक
प्रेम के ऊूँचे आदशय का पालन रमखणयाूँ ी कर सकती ैं। पुरुष कभी प्रेम के
भलए आतम-समपयण न ीिं कर सकता — व प्रेम को स्वाथय और वासना से पथ
ृ क
न ीिं कर सकता। अब मेरा जीवन सख
ु मय ो जायगा। आपने मझ
ु े आज भशक्षा
दी ै , उसके भलए आपको िन्यवाद दे ता ू ूँ।’ य क ते-क ते भव
ु न स सा चौंक
पड़े और बोले—ओ ! मैं ककतना बड़ा मख
ू य ू ूँ—सारा र स्य समझ में आ गया,
अब कोई बात तछपी न ीिं ै । ओ , मैंने ववमला के साथ घोर अन्याय ककया!
म ान अन्याय! मैं बबककुल अिंिा ो गया था। ववमला, मुझे क्षमा करो।

भव
ु न इसी तर दे र तक ववलाप करते र े । बार-बार मझ
ु े िन्यवाद दे ते थे और
मूखत
य ा पर पछताते थे। में इसकी सुि ी न र ी कक कब घिंटी बजी, कब खेल
शुरू ु आ। यकायक ववनोद कमरे में आए। मैं चौंक पड़ी। मैंने उनके मुख की
ओर दे खा, ककसी भाव का पता न था। बोले—तुम अभी य ी ो, पद्मा! खेल शुरू

ु ए तो दे र ु ई! मैं चारों तरफ तुम् ें खोज र ा था।

मैं कबकाकर उठ खड़ी ु ई और बोली—खेल शुरू ो गया? घिंटी की आवाज तो


सुनायी ी न ीिं दी।

भुवन भी उठे । म कफर आकर तमाशा दे खने लगे। ववनोद ने मुझे अगर इस
वक्त दो-चार लगने वाली बातें क दी ोतीिं, उनकी आूँखों में क्रोि की झलक
हदखायी दे ती, तो मेरा अशान्त हृदय सूँभल जाता, मेरे मन को ढाढस ोती, पर
उनके अववचभलत ववश्वास ने मुझे और भी अशािंत कर हदया। ब न, मैं चा ती ू ूँ ,
व मझ
ु पर शासन करें । मैं उनकी कठोरता, उनकी उद्दण्डता, उनकी बभलष्ठता का
रूप दे खना चा ती ू ूँ। उनके प्रेम, प्रमोद, ववश्वास का रूप दे ख चुकी। इससे मेरी
आतमा को तल्ृ प्त न ीिं ोती ! तुम उस वपता को क्यों क ोगी, जो अपने पुत्र को
अच्छा खखलाये, अच्छा प नाये, पर उसकी भशक्षा-दीक्षा की कुछ धचनता न करे ; व
ल्जस रा जाय, उस रा जाने दे ; जो कुछ करे , व करने दे । कभी उसे कड़ी आूँख
से दे खे भी न ीिं। ऐसा लड़का अवश्य ी आवारा ो जायगा। मेरा भी व ी ाल

ु आ जाता ै। य उदासीनता मेरे भलए असह्य ै । इस भले आदमी ने य ाूँ तक


न पूछा कक भुवन कौन ै ? भुवन ने य ी तो समझा ोगा कक इसका पतत
इसकी बबककुल परवा न ीिं करता। ववनोद खुद स्वािीन र ना चा ते ैं, मुझे भी
स्वािीन छोड़ दे ना चा ते ैं। व मेरे ककसी काम में स्तक्षेप न ीिं करना चा ते।
इसी तर चा ते ैं कक मैं भी उनके ककसी काम में स्तक्षेप न करूूँ मैं इस
स्वािीनता को दोनों ी के भलए ववष तक
ु य समझती ू ूँ। सिंसार में स्वािीनता का
चा े जो भी मूकय ो, घर में तो परािीनता ी फलती-फूलती ै । मैं ल्जस तर
अपने एक जेवर को अपना समझती ू ूँ , उसी तर ववनोद को अपना समझना
चाती ू ूँ। अगर मुझसे पूछे बबना ववनोद उसे ककसी को दे दें , तो मैं लड़ पड़ूूँगी।
मैं चा ती ू ूँ , क ाूँ ू ूँ , क्या पढती ू ूँ, ककस तर जीवन जीवन व्यतीत करती ू ूँ , इन
सारी बातों पर उनकी तीव्र दृल्ष्ट र नी चाह ए। जब व मेरी परवा न ीिं करते ,
तो मैं उनकी परवा क्यों करूूँ? इस खीिंचातानी में म एक-दस
ू रे से अलग ोते
चले जा र े ैं और क्या क ू ूँ , मुझे कुछ न ीिं मालूम कक व ककन भमत्रों को रोज
पत्रा भलखते ैं। उन् ोंने भी मुझसे कभी कुछ न ीिं पूछा। खैर, मैं क्या भलख र ी
थी, क्या क ने लगी। ववनोद ने मुझसे कुछ न ीिं पूदा। मैं कफर भुवन से कफकम
के सम्बन्ि में बातें करने लगी। जब खेल खतम ो गया और म लोग बा र
आए और ताूँगा ठीक करने लगे, तो भव
ु न ने क ा—‘मैं अपनी कार में आपको
प ु ूँचा दूँ ग
ू ा।’

मने कोई आपल्तत न ीिं की। मारे मकान का पता पूछकर भुवन ने कार चला
दी। रास्ते में मैंने भव
ु न से क ा—‘कल मेरे य ाूँ दोप र का खाना खाइएगा।’
भुवन ने स्वीकार कर भलया। भुवन तो में प ु ूँचाकर चले गए, पर मेरा मन बड़ी
दे र तक उन् ीिं की तरफ लगा र ा। इन दो-तीन घिंटों में भुवन को ल्जतना
समझी, उतना ववनोद को आज तक न ीिं समझी। मैंने भी अपने हृदय की
ल्जतनी बातें उससे क दीिं, उतनी ववनोद से आज तक न ीिं क ीिं। भुवन उन
मनुष्यों में ै , जो ककसी पर परु
ु ष को मेरी कुदृल्ष्ट डालते दे खकर उसे मार
डालेगा। उसी तर मझ
ु े ककसी परु
ु ष से ूँसते दे खकर मेरा खन
ू पी लेगा और
जरूरत पड़ेगी, तो मेरे भलए आग में कूद पड़ेगा। ऐसा ी पुरुष-चररत्र मेरे हृदय
पर ववजय पर सकता ै ।मेरे ी हृदय पर न ीिं, नारी-जातत (मेरे ववचार में ) ऐसे
ी पुरुष पर जान दे ती ैं। व तनबयल ै , इसभलए बलवान का आश्रय ढूूँढती ै।
ब न, तम
ु ऊब गई ोगी, खत ब ु त लम्बा ो गया; मगर इस काण्ड को समाप्त
ककए बबना न ीिं र ा जाता। मैंने सबेरे ी से भव
ु न की दावत की तैयारी शुरू कर
दी। रसोइया तो काठ का उकलू ै , मैंने सारा काम अपने ाथ से ककया। भोजन
बनाने में ऐसा आनन्द मुझे और कभी न भमला था।

भव
ु न बाबू की कार ठीक समय पर आ प ु ूँची। भव
ु न उतरे और सीिे मेरे कमरे
में आए। दो-चार बातें ु ईं। डडनर-टे बल पर जा बैठे। ववनोद भी भोजन करने
आए। मैंने उन दोनों आदभमयों का पररचय करा हदया। मुझे ऐसा मालूम ु आ
कक ववनोद ने भुवन की ओर से कुछ उदासीनता हदखायी। इन् ें राजाओिं-रईसों से
धचढ ै , साम्यवादी ैं। जब राजाओिं से धचढ ै तो उनके वपट्ठुओिं से क्यों न ोती।
व समझते ैं , इन रईसों के दरबार में खश
ु ामदी, तनकम्मे, भस्ध ान्त ीन, चररत्र ीन
लोगों का जमघट र ता ै , ल्जनका इसके भसवाय और कोई काम न ीिं कक अपने
रईस की र एक उधचत-अनुधचत इच्छा पूरी करें और प्रजा का गला काटकर
अपना घर भरें । भोजन के समय बातचीत की िारा घूमते-घूमते वववा और प्रेम-
जैसे म ततव के ववषय पर आ प ु ूँची।

ववनोद ने क ा—‘न ीिं, मैं वतयमान वैवाह क प्रथा को पसन्द न ीिं करता। इस प्रथा
का आववष्कार उस समय ु आ था, जब मनुष्य सभ्यता की प्रारल्म्भक दशा में
था। तब से दतु नयािं ब ु त आगे बढी ै । मगर वववा प्रथा में जौ-भर भी अन्तर
न ीिं पड़ा। य प्रथा वतयमान काल के भलए इपयोगी न ीिं। ’

भुवन ने क ा—‘आखखर आपको इसमें क्या दोष हदखाई दे ते ैं ?

ववनोद ने ववचारकर क ा—‘इसमें सबसे बड़ा ऐब य ै कक य एक सामाल्जक


प्रश्न को िाभमयक रूप दे दे ता ै ।’

‘और दस
ू रा?’
‘दस
ू रा य कक य व्यल्क्तयों की स्वािीनता में बािक ैं। य स्त्रीव्रत और
पततव्रत का स्वाूँग रचकर मारी आतमा को सिंकुधचत कर दे ता ै। मारी बवु ्ध के
ववकास में ल्जतनी रुकावट इस प्रथा ने डाली ै , उतनी और ककसी भौततक या
दै ववक क्रािंतत से भी न ीिं ु ई। इसने भम्या आदशों को मारे सामने रख हदया
और आज तक म उन् ीिं पुरानी, सड़ी ु ई, लज्जाजनक पाशववक लकीरों को
पीटते जाते ैं। व्रत केवल एक तनरथयक बिंिन का नाम ै । इतना म ततवपूणय
नाम दे कर मने उस कैद को िाभमयक रूप दे हदया ै । परु
ु ष क्यों चा ता ै कक
स्त्री उसको अपना ईश्वर, अपना सवयस्व समझे ? केवल इसभलए कक व उसका
भरण-पोषण करता ै । क्या स्त्री का कततयव्य केवल पुरुष की सम्पल्तत के भलए
वाररस पैदा करना ै ? उस सम्पल्तत के भलए ल्जस पर, ह न्द ू नीततशास्त्र के
अनुसार, पतत के दे ान्त के बाद उसका कोई अधिकार न ीिं र ता। समाज की
य सारी व्यवस्था, सारा सिंगठन सम्पल्तत-रक्षा के आिार पर ु आ ै । इसने
सम्पल्तत को प्रिान और व्यल्क्त को गौण कर हदया ै। मारे ी वीयय से
उतपन्न सन्तान मारी कमाई ु ई जायदाद का भोग करे , इस मनोभाव में
ककतनी स्वाथायन्िता, ककतना दासतव तछपा ु आ ै , इसका कोई अनुमान न ीिं कर
सकता। इस कैद में जकड़ी ु ई समाज की सन्तान यहद आज घर में , दे श में,
सिंसार में , अपने क्रूर स्वाथय के भलए रक्त की नहदयाूँ ब ा र ी ै , तो क्या आश्चयय
ै । मैं इस वैवाह क प्रथा को सारी बुराइयों का मूल समझता ू ूँ।

भुवन चककत ो गया। मैं खुद चककत ो गई। ववनोद ने इस ववषय पर मुझसे
कभी इतनी स्पष्टता से बातचीत न की थी। मैं य तो जानती थी, व
साम्यवादी ैं, दो-एक बार इस ववषय पर उनसे ब स भी कर चुकी ू ूँ , पर
वैवाह क प्रथा के वे इतने ववरोिी ैं, य मझ
ु े मालम
ू न था। भव
ु न के चे रे से
ऐसा प्रकट ोता था कक उन् ोंने ऐसे दाशयतनक ववचारों की गिंि तक न ीिं पाई।
जरा दे र के बाद बोले—प्रोफेसर सा े ब, आपने तो मुझे एक बड़े चक्कर में डाल
हदया। आखखर आप इस प्रथा की जग कोई और प्रथा रखना चा ते ैं या वववा
की आवश्यकता ी न ीिं समझते ? ल्जस तर पशु-पक्षी आपस में भमलते ैं, व
में भी करना चाह ए?
ववनोद ने तुरिंत उततर हदया—ब ु त कुछ। पशु-पखखयों में सभी का मानभसक
ववकास एक-सा न ीिं ै । कुछ ऐसे ैं, जो जोड़े के चुनाव में कोई ववचार न ीिं
रखते। कुछ ऐसे ैं, जो एक बार बच्चे पैदा करने के बाद अलग ो जाते ैं , और
कुछ ऐसे ैं, जो जीवनपययन्त एक साथ र ते ैं। ककतनी ी भभन्न-भभन्न श्रेखणयाूँ
ैं। मैं मनष्ु य ोने के नाते उसी श्रेणी को श्रेष्ठ समझता ू ूँ , जो जीवनपययन्त एक
साथ र ते ैं। मगर स्वेच्छा से। उनके य ाूँ कोई कैद न ीिं , कोई सजा न ीिं। दोनों
अपने-अपने चारे -दाने की कफक्र करते ैं। दोनों भमलकर र ने का स्थान बनाते ैं ,
दोनों साथ बच्चों का पालन करते ैं। उनके बीच में कोई तीसरा नर या मादा
आ ी न ीिं सकता, य ाूँ तक कक उनमें से जब एक मर जाता ै तो दस
ू रा मरते
दम तक फुट्टै ल र ता ै। य अन्िेर मनष्ु य-जातत ी में ै कक स्त्री ने ककसी
दस
ू रे परु
ु ष से ूँसकर बात की और उसके परु
ु ष की छाती पर साूँप लोटने लगा,
खून-खराबे के मिंसूबे सोचे जाने लगे। पुरुष ने ककसी दस
ू री स्त्री की ओर रभसक
नेत्रों से दे खा और अिाांधगनी ने तयोररयाूँ बदलीिं, पतत के प्राण लेने को तैयार ो
गई। य सब क्या ै ? ऐसा मनुष्य-समाज सभ्यता का ककस मूँु से दावा कर
सकता ै ?

भुवन ने भसर स सलाते ु ए क ा—मगर मनुष्यों में भी तो भभन्न-भभन्न श्रेखणयाूँ


ैं। कुछ लोग र म ीने एक नया जोड़ा खोज तनकालें गे।

ववनोद ने ूँसकर क ा—लेककन य इतना आसान काम न ोगा। या तो व


ऐसी स्त्री चा े गा, जो सन्तान का पालन स्वयिं कर सकती ो या उसे एक मुश्त
सारी रकम अदा करना पड़ेगी
!
भुवन भी ूँसे—आप अपने को ककस श्रेणी में रक्खेंगे ?

ववनोद इस प्रश्न के भलए तैयार न थ। था भी बेढिंगा-सा सवाल। झेंपते ु ए


बोले—पररल्स्थततयाूँ ल्जस श्रेणी में ले जायूँ। मैं स्त्री और पुरुष दोनों के भलए पूणय
स्वािीनता का ामी ू ूँ। कोई कारण न ीिं ै कक मेरा मन ककसी नवयौवना की
ओर आकवषयत ो और व भी मझ
ु े चा े तो भी मैं समाज और नीतत के भय से
उसकी ओर ताक न सकूँू । मैं इसे पाप न ीिं समझता। भव
ु न अभी कुछ उततर न
दे ने पाये थे कक ववनोद उठ खड़े ु ए। कालेज के भलए दे र ो र ी थी। तुरन्त
कपड़े प ने और चल हदये। म दोनों दीवानखाने में आकर बैठे और बातें करने
लगे। भुवन ने भसगार जलाते ु ए क ा—‘कुछ सुना’ क ाूँ जाकर तान टूटी?

मैंने मारे शमय के भसर झुका भलया। क्या जवाब दे ती। ववनोद की अल्न्तम बात ने
मेरे हृदय पर कठोर आघात ककया था। मुझे ऐसा मालम
ू ो र ा था कक ववनोद
ने केवल मुझे सुनाने के भलए वववा का य नया खण्डन तैयार ककया ै। व
मुझसे वपिंड छुड़ा लेना चा ते ैं। व ककसी रमणी की ताक में ैं, मुझसे उनका
जी भर गया। व ख्याल करके मझ
ु े बड़ा द:ु ख ु आ। मेरी आूँखों से आूँसू ब ने
लगे। कदाधचत एकािंत में मैं न रोती, पर भव
ु न के सामने मैं सिंयत न र सकी।
भुवन ने मुझे ब ु त सािंतवना दी—‘आप व्यथय इतना शोक करती ैं। भमस्टर
ववनोद आपका मान न करें ; पर सिंसार में कम-से-कम एक ऐसा व्यल्क्त ै , जो
आपके सिंकेत पर अपने प्राण तक न्योछावर कर सकता। आप-जैसी रमणी-रतन
पाकर सिंसार में ऐसा कौन पुरुष ै , जो अपने भाग्य को िन्य न मानेगा। आप
इसकी बबलकुल धचन्ता न करें ।’
मुझे भुवन की य बात बुरी मालूम ु ई। क्रोि से मेरा मुख लाल ो गया। य
िूतय मेरी इस दब
ु ल
य ता से लाभ उठाकर मेरा सवयनाश करना चा ता ै । अपने
दभ
ु ायग्य पर बराबर रोना आता था। अभी वववा ु ए साल भी न ीिं पूरा ु आ, मेरी
य दशा ो गई कक दस
ू रों को मुझे ब काने और मुझ पर अपना जाद ू चलाने
का सा स ो र ा ै । ल्जस वक्त मैंने ववनोद को दे खा था, मेरा हृदय ककतना
फूल उठा था। मैंने अपने हृदय को ककतनी भल्क्त से उनके चरणों पर अपयण
ककया था। मगर क्या जानती थी कक इतनी जकद मैं उनकी आूँखों से धगर
जाऊूँगी और मुझे पररतयक्ता समझ, कफर शो दे मुझ पर डोरे डालें गे।

मैंने आूँसू पोंछते ु ए क ा—मैं आपसे क्षमा माूँगती ू ूँ। मझ


ु े जरा ववश्राम लेने
दील्जए।
‘ ाूँ- ाूँ, आराम करें ; मैं बैठा दे खता र ू ूँगा।’

‘जी न ीिं, अब आप कृपा करके जाइए। यों मझ


ु े आराम न भमलेगा।’

‘अच्छी बात ै , आप आराम कील्जए। मैं सन्ध्या-समय आकर दे ख जाऊूँगा।’

‘जी न ीिं, आपको कष्ट करने की कोई जरूरत न ीिं ै।’

‘अच्छा तो मैं कल जाऊूँगा। शायद म ाराजा सा ब भी आवें ।’

‘न ीिं, आप लोग मेरे बुलाने का इन्तजार कील्जएगा। बबना बुलाये न आइएगा।’

‘य क ती ु ई मैं उठकर अपने सोने के कमरे की ओर चली। भुवन एक क्षण


मेरी ओर दे खता र ा, कफर चुपके से चला गया।

ब न, इसे दो हदन ो गये ैं। पर मैं कमरे से बा र न ीिं तनकली। भुवन दो-तीन
बार आ चुका ै , मगर मैंने उससे भमलने से साफ इनकार कर हदया। अब शायद
उसे कफर आने का सा स न ोगा। ईश्वर ने बड़े नाजुक मौके पर मुझे सुबुव्ध
प्रदान की, न ीिं तो मैं अब तक अपना सवयनाश कर बैठी ोती। ववनोद प्राय: मेरे
पास ी बैठे र ते ैं। लेककन उनसे बोलने को मेरा जी न ीिं चा ता। जो परु
ु ष
व्यभभचार का दाशतनयक भस्ध ािंतों से समथनय कर सकता ै , ल्जसकी आूँखों में
वववा -जैसे पववत्र बन्िन को कोई मूकय न ीिं, जो न मेरा ो सकता ै , न मुझे
अपना बना सकता ै , उसके साथ मुझ-जैसी मातननी गववयणी स्त्री का कै हदन
तनवाय ोगा!

बस, अब ववदा ोती ू ूँ। ब न, क्षमा करना। मैंने तुम् ारा ब ु त-सा अमूकय समय
ले भलया। मगर इतना समझ लो कक मैं तुम् ारी दया न ीिं, स ानुभूतत चा ती ू ूँ।

तम्
ु ारी,
पद्मा

10

काशी
5-1-26

ब न,

तुम् ारा पत्र पढकर मुझे ऐसा मालूम ु आ कक कोई उपन्यास पढकर उठी ूिं ।
अगर तुम उपन्यास भलखों, तो मुझें ववश्वास ै , उसकी िूम मच जाय। तुम आप
उसकी नातयका बन जाना। तुम ऐसी-ऐसी बातें क ाूँ सीख गयी, मुझें तो य ी
आश्चयय ै । उस बिंगाली के साथ तम
ु अकेली कैसी बैठी बातें करती र ीिं, मेरी तो
समझ न ीिं आता। मैं तो कभी न कर सकती। तम
ु ववनोद को जलाना चा ती
ो, उनके धचतत को अशािंत करना चा ती ो। उस गरीब के साथ तुम ककतना
भयिंकर अन्याय कर र ी ो ! तुम य क्यों समझती ो कक ववनोद तुम् ारी
उपेक्षा कर र े ैं, अपने ववचारों में इतने मग्न ै कक उनकी रुधच ी न ीिं र ी।
सिंभव ै, व कोई दाशयतनक ततव खोज र ें ो, कोई थीभसस भलख र ीिं ो, ककसी
पस्
ु तक की रचना कर र े ों। कौन क सकता ै ? तम
ु जैसी रुपवती स्त्री पाकर
यहद कोई मनष्ु य धचल्न्तत र े , तो समझ लो कक उसके हदल पर कोई बड़ा बोझ
ैं। उनको तुम् ारी स ानुभूतत की जरुरत ै , तुम उनका बोझ लका कर सकती
ों। लेककन तुम उलटे उन् ीिं को दोष दे ती ों। मेरी समझ में न ी आता कक तुम
एक हदन क्यों ववनोद से हदल खोलकर बातें न ीिं कर लेती, सिंदे को ल्जतनी
जकद ो सकें, हदल से तनकाल डालना चाह ए। सिंदे व चोट ै , ल्जसका उपच
जकद न ो, तो नासरू पड़ जाता ै और कफर अच्छा न ीिं ोता। क्यों दो-चार
हदनों के भलए य ाूँ न ीिं चली आतीिं ? तम
ु शायद क ो, तू ी क्यों न ीिं चली
आती। लेककन मै स्वतन्त्र न ी ू ूँ, बबना सास-ससुर से पूछे कोई काम न ीिं कर
सकती। तुम् ें तो कोई बिंिन न ीिं ै।
ब न, आजकल मेरा जीवन षय और शोक का ववधचत्र भमश्रण ो र ा ैं। अकेली
ोती ू ूँ , तो रोती ूिं , आनन्द आ जाते ै तो ॅंसती ू ूँ। जी चा ता ै, व रदम
मेरे सामने बैठे र ते। लेककन रात के बार बजे के प ले उनके दशयन न ीिं ोते।
िं कक कोई बच्चे को क्या
एक हदन दोप र को आ गयें, तो सासजी ने ऐसा डॉटा
डॉटेिं गा। मुझें ऐसा भय ो र ा ै कक सासजी को मुझसे धचढ ैं। ब न, मैं उन् ें
भरसक प्रसन्न रखने की चेष्टा करती ू ूँ। जो काम कभी न ककये थे, व उनके
भलए करती ू ूँ, उनके स्नान के भलए पानी गमय करती ू ूँ, उनकी पज
ू ा के भलए
चौकी बबछाती ू ूँ। व स्नान कर लेती ैं, तो उनकी िोती छाूँटती ू ूँ, व लेटती ैं
तो उनके पैर दबाती ू ूँ; जब व सो जाती ै तो उन् ें पिंखा झलती ू ूँ। व मेरी
माता ैं, उन् ी के गभय से व रतन उतपन्न ु आ ै जो मेरा प्राणिार ै । मै
उनकी कुछ सेवा कर सकूूँ, इससे बढकर मेरे भलए सौभाग्य की और क्या बात
ोगी। मैं केवल इतना ी चा ती ू ूँ कक व मुझसे ूँसकर बोले, मगर न जाने
क्यों व बात-बात पर मझ
ु े कोसने हदया करती ैं। मैं जानती ू ूँ , दोष मेरा ी ैं।
ाूँ, मुझे मालूम न ीिं, व क्या ैं। अगर मेरा य ी अपराि ै कक मैं अपनी दोनों
नन्दों से रुपवती क्यों ू ूँ, पढी-भलखी क्यों ू ूँ, आन्नद मुझें इतना क्यों चा ते ैं, तो
ब न, य मेरे बस की बात न ी। मेरे प्रतत सासजी को भ्रम ोता ोगा कक मैं ी
आन्नद को भरमा र ीिं ू ूँ। शायद व पछताती ै कक क्यों मुझें ब ू बनाया !
उन् े भय ोता ै कक क ीिं मैं उनके बैटे को उनसे छीन न लूँ ।ू दो-एक बार मुझे
जादग
ू रनी क ी चक
ु ी ैं। दोनों ननदें अकारण ी मझ
ु से जलती र ती ै । बड़ी
ननदजी तो अभी कलोर ैं, उनका जलना मेरी समझ में न ी आता। मैं उनकी
जग ोती,तो अपनी भावज से कुछ सीखने की, कुछ पढने की कोभशश करती,
उनके चरण िो-िोकर पीती, पर इस छोकरी को मेरा अपमान करने ी में
आन्नद आता ैं। मैं जानती ू ूँ , थोड़े हदनों में दोनों ननदें लल्ज्जत ोंगी। ाूँ, अभी
वे मुझसे बबचकती ैं। मैं अपनी तरफ से तो उन् ें अप्रसन्न ोने को कोई
अवसर न ीिं दे ती।

मगर रुप को क्या करुूँ । क्या जानती थी कक एक हदन इस रुप के कारण मैं
अपराधिनी ठ रायी जाऊूँगी। मैं सच क ती ू ूँ ब न, य ाूँ मैने भसगािंर करना एक
तर से छोड़ ी हदया ैं। मैली-कुचैली बनी बेठी र ती ू ूँ। इस भय से कक कोई
मेरे पढने-भलखने पर नाक न भसकोड़े, पस्
ु तकों को ाथ न ीिं लगाती। घर से
पुस्तकों का एक गटठर बाूँि लायी थी। उसमें कोई पुस्तकें बड़ी सुन्दर ैं। उन् ें
पढने के भलए बार-बार जी चा ता ैं, मगर छरती ू ूँ कक कोई ताना न दे बैठे।
दोनों ननदें मुझें दे खती र ती ैं कक य क्या करती ैं , कैसे बैठती ै , कैसे बोलती
ै , मानो दो-दो जासूस मेरे पीछे लगा हदए गए ों। इन दोनों मह लाओिं को मेरी
बदगोई में क्यों इतना मजा आता ैं , न ी क सकती। शायद आजकल उन् े
भसवा दस
ू रा काम ी न ीिं। गस्
ु सा तो ऐसा आता ैं कक एक बार खझढक दूँ ,ू
लेककन मन को समझाकर रोक लेती ू ूँ। य दशा ब ु त हदनों न ीिं र े गी। एक
नए आदमी से कुछ ह चक ोना स्वाभाववक ी ै , ववशेषकर जब व नया
आदमी भशक्षा और ववचार व्यव ार में मसे अलग ो। मुझी को अगर ककसी
िेंच लेडी के साथ र ना पड़े, तो शायद मे भी उसकी रएक बात को आलोचना
और कुतू ल की दृल्ष्ट से दे खने लगूँ।ू य काशीवासी लोग पज
ू ा-पाठ ब ु त करते
ै । सासजी तो रोज गिंगा-स्नान करने जाती ैं। बड़ी ननद भी उनके साथ जाती
ै । मैने कभी पूजा न ीिं की। याद ै , म और तुम पूजा करने वालों को ककतना
बनाया करती थी। अगर मै पूजा करने वालों का चररत्र कुछ उन्नत पाती, तो
शायद अब तक मै भी पूजा करती ोती। लेककन मुझे तो कभी ऐसा अनुभव
प्राप्त न ीिं ु आ, पूजा करने वाभलयाूँ भी उसी तर दस
ू रों की तनन्दा करती ैं , उसी
तर आपस में लड़ती-झगड़ती ैं, जैसे वे जो कभी पज
ू ा न ीिं करतीिं। खैर, अब
मुझे िीरे -िीरे पूजा से श्र्ध ा ोती जा र ी ैं। मेरे दहदया ससरु जी ने एक छोटा-
सा ठाकुरद्वारा बनवा हदया था। व मेरे घर के सामने ी ैं। मैं अक्सर सासजी
के साथ व ाूँ जाती ू ूँ और अब य क ने में मुझे कोई सिंकोच न ीिं कक उन
ववशाल मूततययों के दशयन से मझ
ु े अपने अतस्तल में एक ज्योतत का अनुभव
ोता ै । ल्जतनी अश्र्ध ा से मैं राम और कृष्ण के जीवन की आलोचना ककया
करती थी, व ब ु त कुछ भमट चक
ु ी ैं।

लेककन रुपवती ोने का दण्ड य ीिं तक बस न ीिं ै । ननदें अगर मेरे रुप कों
दे खकर जलती ैं , तो य स्वाभाववक ैं। द:ु खी तो इस बात का ै कक य दण्ड
मझ
ु े उस तरफ से भी भमल र ा ै , ल्जिर से इसकी कोई सिंभावना न ोनी
चाह ए—मेरे आनन्द बाबू भी मझ
ु े इसका दण्ड दे र े ै। ाूँ, उनकी दण्डनीतत
एक तनराले ी ढग की ैं। व मेरे पास तनतय ी कोई-न-कोई सौगात लाते र ते
ै। व ल्जतनी दे र मेरे पास र ते ै । उनके मन में य सिंदे ोता र ता ै कक
मुझे उनका र ना अच्छा न ीिं लगता। व समझते ै कक मैं उनसे जो प्रेम
करती ू ूँ , य केवल हदखावा ै , कोशल ै। व मेरे सामने कुछ ऐसे दबे-दबायें,
भसमटे -भसमटायें र ते ै कक मैं मारे लज्जा के मर जाती ू ूँ। उन् ें मझ
ु से कुछ
क ते ु ए ऐसा सिंकोच ोता ै , मानो व कोई अनाधिकार चेष्टा कर र े ों। जैसे
मैले-कुचैले कपड़े प ने ु ए कोई आदमी उज्जवल वस्त्र प नने वालों से दरू ी
र ना चा ता ै , व ी दशा इनकी ै। व शायद समझते ैं कक ककसी रुपवती स्त्री
को रूप ीन पुरुष से प्रेम ो ी न ीिं सकता। शायद व हदल में पछतातें ै कक
क्यों इससे वववा ककया। शायद उन् ें अपने ऊपर ग्लातन ोती ै। व मुझे कभी
रोते दे ख लेते ै , तो समझते ै । मैं अपने भाग्य को रों र ी ू ूँ , कोई पत्र भलखते
दे खते ैं, तो समझते ै , मैं उनकी रुप ीनता ी का रोना रो र ी ू ूँ। क्या क ू ूँ
ब न, य सौन्दयय मेरी जान का गा क ो गया। आनन्द के मन से शिंका को
तनकालने और उन् ें अपनी ओर से आश्वासन दे ने के भलए मुझे ऐसी-ऐसी बातें
करनी पड़ती ैं, ऐसे-ऐसे आचरण करने पड़ते ैं , ल्जन पर मुझे घण
ृ ा ोती ैं।
अगर प ले से य दशा जानती, तो ब्रह्मा से क ती कक मुझे कुरूपा ी बनाना।
बड़े असमिंजस में पड़ी ू ूँ! अगर सासजी की सेवा न ीिं करती, बड़ी ननदजी का
मन न ीिं रखती, तो उनकी ऑ िंखों से धगरती ू ूँ। अगर आनन्द बाबू को तनराश
करती ू ूँ , तो कदाधचत मुझसे ववरक्त ी ो जायूँ। मै तुमसे अपने हृदय की बात
क ती ू ूँ। ब न, तुमसे क्या पदाय रखना ै ; मुझे आनन्द बाबू से उतना प्रेम ै, जो
ककसी स्त्री को पुरूष से ो सकता ै , उनकी जग अब अगर इन्द्र भी सामने आ
जायूँ, तो मै उनकी ओर ऑख उठाकर न दे ख।ूूँ मगर उन् ें कैसे ववश्वास हदलाऊूँ।
मै दे खती ू ूँ, व ककसी न ककसी ब ाने से बार-बार घर मे आते ै और दबी ु ई,
ललचाई ु ई नजरों से मेरे कमरे के द्वार की ओर दे खते ै , तो जी चा ता ै,
जाकर उनका ाथ पकड़ लूँ ू और अपने कमरे में खीिंच ले आऊूँ। मगर एक तो
डर ोता ै कक ककसी की ऑ िंख पड़ गयी, तो छाती पीटने लगेगी, और इससे भी
बड़ा डर य कक क ीिं आनन्द इसे भी कौशल ी न समझ बैठे। अभी उनकी
आमदनी ब ु म कम ै , लेककन दो-चार रुपये सौगातों मे रोज उड़ाते ैं। अगर
प्रेमोप ार-स्वरूप व िेले की कोई चीज दें , तो मैं उसे ऑ िंखों से लगाऊूँ, लेककन
व कर-स्वरूप दे ते ैं , मानो उन् ें ईश्वर ने य दण्ड हदया ैं। क्या करूूँ, अब मुझे
भी प्रेम का स्वाूँग करना पड़ेगा। प्रेम-प्रदशयन से मुझे धचढ ैं। तुम् ें याद ोगा,
मैने एक बार क ा था कक प्रेम या तो भीतर ी र े गा या बा र ी र े गा। समान
रूप से व भीतर और बा र दोनों जग न ीिं र सकता। सवाूँग वेश्याओिं के
भलए ै , कुलविंती तो प्रेम को हृदय ी में सिंधचत रखती ैं!

ब न, पत्र ब ु त लम्बा ो गया, तुम पढते-पढते ऊब गयी ोगी। मैं भी भलखते-


भलखते थक गयी। अब शेष बातें कल भलखग
ूूँ ी। परसों य पत्र तम्
ु ारे पास
प ू ूँचग
े ा।
XXX

ब न, क्षमा करना; कल पत्र भलखने का अवसर न ीिं भमला। रात एक ऐसी बात ो
गयी,
ल्जससे धचतत अशान्त उठा। बड़ी मल्ु श्कलों से य थोड़ा-सा समय तनकाल सकी

ू ूँ। मैने अभी तक आनन्द से घर के ककसी प्राणी की भशकायत न ीिं की थी।


अगर सासजी ने कोई बात की दी या ननदजी ने कोई ताना दे हदया; तो इसे
उनके कानों तक क्यों प ु ूँ चाऊूँ। इसके भसवा कक ग ृ -कल उतपन्न ो, इससे और
क्या ाथ आयेगा। इन् ीिं जरा-जरा सी बातों को न पेट में डालने से घर बबगड़ते
ैं। आपस में वैमनस्य बढता ैं। मगर सिंयोग की बात, कल अनायास ी मेरे मिंु
से एक बात तनकल गयी ल्जसके भलये मै अब भी अपने को कोस र ीिं ू ूँ , और
ईश्वर से मनाती ू ूँ कक व आगे न बढे । बात य ु ई कक कल आन्नद बाबू
ब ु त दे र करके मेरे पास आये। मैं उनके इन्तार में बैठी एक पुस्तक पढ र ी
थी। स सा सासजी ने आकर पूछा—क्या अभी तक बबजली जल र ी ै ? क्या व
रात-भर न आयें, तो तुम रात-भर बबजली जलाती र ोगी?
मैनें उसी वक्त बतती ठण्डी कर दी। आनन्द बाबू थोड़ी ी दे र मे आयें, तो कमरा
अूँिेरा पड़ा था न-जाने उस वक्त मेरी मतत ककतनी मन्द ो गयी थी। अगर
मैने उनकी आ ट पाते ी बतती जला दी ोती, तो कुछ न ोता, मगर मैं अूँिेरे
में पड़ी र ीिं। उन् ोनें पूछा—क्या सो गयीिं? य अिेरा क्यों पड़ा ु आ ै?

ाय! इस वक्त भी यहद मैने क हदया ोता कक मैने अभी बती गल


ु कर दी तो
बात बन जाती। मगर मेरे मूँु से तनकला—‘सािंसजी का ु क्म ु आ कक बतती
गुल कर दो, गुल कर दी। तुम रात-भर न आओ, तो क्या रातभर बतती जलती
र ें ?’

‘तो अब तो जला दो। मै रोशनी के सामने से आ र ा ू ूँ। मुझे तो कुछ सूझता


ी न ीिं।’

‘मैने अब बटन को ाथ से छूने की कसम खा ली ै । जब जरूरत पड़गी; तो


मोम की बतती जला भलया करूूँगी। कौन मुफ्त में घुडककयाूँ स ें ।’

आन्नद ने बबजली का बटन दबाते ु ए क ा—‘और मैने कसम खा ली कक रात-


भर बतती जलेगी, चा े ककसी को बरु ा लगे या भला। सब कुछ दे खता ू ूँ , अन्िा
न ीिं ू ूँ। दस
ू री ब ू आकर इतनी सेवा करे गी तो दे खग
ूूँ ा; तुम नसीब की खोटी ो
कक ऐसे प्राखणयों के पाले पड़ी। ककसी दस
ू री सास की तुम इतनी खखदमत करतीिं,
तो व तुम् ें पान की तर फेरती, तुम् ें ाथों पर भलए र ती, मगर य ाूँ चा े
प्राण ी दे दे , ककसी के मूँु से सीिी बात न तनकलेगी।’

मुझे अपनी भूल साफ मालूम ो गयी। उनका क्रोि शान्त करने के इरादे से
बोली—गलती भी तो मेरी ी थी कक व्यथय आिी रात तक बतती जलायें बैठी
र ी। अम्माूँजी ने गुल करने को क ा, तो क्या बुरा क ा ? मुझे समझाना, अच्छी
सीख दे ना, उनका िमय ैं। मेरा िमय य ी ै कक यथाशल्क्त उनकी सेवा करूूँ और
उनकी भशक्षा को धगर बाूँि।ूूँ
आन्नद एक क्षण द्वार की ओर ताकते र े । कफर बोले —मझ
ु े मालम
ू ो र ा ै
कक इस घर में मेरा अब गज
ु र न ोगा। तम
ु न ीिं क तीिं, मगर मै सब कुछ
सुनता र ता ू ूँ। सब समझता ू ूँ। तुम् ें मेरे पापों का प्रायल्श्चत करना पड़ र ा
ैं। मै कल अम्माूँजी से साफ-साफ क दूँ ग
ू ा—‘अगर आपका य ी व्यव ार ै , तो
आप अपना घर लील्जए, मै अपने भलए कोई दस
ू री रा तनकाल लूँ ग
ू ा।’

मैंने ाथ जोड़कर धगड़धगड़ाते ु ए क ा—न ीिं-न ीिं। क ीिं ऐसा गजब भी न करना।
मेरे मूँु में आग लगे, क ाूँ से क ाूँ बतती का ल्जकर कर बैठी। मैं तुम् ारे चरण
छूकर क ती ू ूँ , मुझे न सासजी से कोई भशकायत ै , न ननदजी से, दोनों मुझसे
बड़ी ै , मेरी माता के तुकय ैं। अगर एक बात कड़ी भी क दें , तो मुझे सब्र
करना चाह ए! तम
ु उनसे कुछ न क ना न ीिं तो मझे बड़ा द:ु ख ोगा।

आनन्द ने रुूँ िे किंठ से क ा—तुम् ारी-जैसी ब ू पाकर भी अम्माूँजी का कलेजा


न ीिं पसीजता, अब क्या कोई स्वगय की दे वी घर में आती? तुम डरो मत, मैं
ख्वा मख्वा लड़ूूँगा न ीिं। मगर ाूँ, इतना अवश्य क दूँ ग
ू ा कक जरा अपने
भमजाज को काबू में रखें। आज अगर मै दो-चार सौ रुपयें घर में लाता ोता, तो
कोई चूँू न करता। कुछ कमाकर न ीिं लाता, य उसी का दण्ड ै । सच पूछों, तो
मुझे वववा करने का कोई अधिकार ी न था। मुझ-जैसे मन्द बुव्ध को, जो कौड़ी
कमा न ीिं सकता, उसे अपने साथ ककसी मह ला को डुबाने का क्या क था!
ब नजी को न-जाने क्या सूझी ै कक तुम् ारे पीछे पड़ी र ती ैं। ससुराल का
सफाया कर हदया, अब य ाूँ भी आग लगाने पर तल
ु ी ुई ै । बस, वपताजी का
भल ाज करता ू ूँ , न ीिं इन् ें तो एक हदन में ठीक कर दे ता।

ब न, उस वक्त तो मैने ककसी तर उन् ी शान्त ककया, पर न ीिं क सकती कक


कब व उबल पड़े। मेरे भलए व सारी दतु नयािं से लड़ाई मोल ले लेगें। मै ल्जन
पररल्स्थतयों में ू ूँ, उनका तुम अनुमान कर सकती ो। मुझ पर ककतनी ी मार
पड़े मुझे रोना न चाह ए, जबान तक न ह लाना चाह ए। मैं रोयी और घर तबा

ु आ। आनन्द कफर कुछ न सुनेगे, कुछ न दे खेगें। कदाधचत इस उपाय से व


अपने ववचार मे मेरे हृदय में अपने प्रेम का अिंकुर जमाना चा ते ो। आज मझ
ु े
मालम
ू ु आ कक य ककतने क्रोिी ैं। अगर मैने जरा-सा पच
ु ार दे हदया ोता, तो
रात ी को व सासजी की खोपड़ी पर जा प ु ूँचते। ककतनी युवततयाूँ इसी
अधिकार के गवय में अपने को भूल जाती ैं। मै तो ब न, ईश्वर ने चा ा तो कभी
न भूलूँ ग
ू ी। मुझे इस बात का डर न ीिं ै कक आनन्द अलग घर बना लेगें, तो
गुजर कैसे ोगा। मै उनके साथ सब-कुछ झेल सकती ू ूँ। लेककन घर तो तबा
ो जायेगा।

बस, प्यारी पद्मा, आज इतना ी। पत्र का जवाब जकद दे ना।

तुम् ारी,
चन्दा

11

हदकली
5-2-26

प्यारी चन्दा,

क्या भलख,ूूँ मझ
ु पर तो ववपल्तत का प ाड़ टूट पड़ा! ाय, व चले गए। मेरे
ववनोद का तीन हदन से पता न ीिं—तनमो ी चला गया, मझ
ु े छोड़कर बबना कुछ
क े -सुने चला गया—अभी तक रोयी न ीिं। जो लोग पूछने आते ैं, उनसे ब ाना
कर दे ती ू ूँ कक—दो-चार हदन में आयेंगे, एक काम से काशी गये ैं। मगर जब
रोऊूँगी तो य शरीर उन ऑ िंसओ
ु िं में डूब जायेगा। प्राण उसी मे ववसल्जयत ो
जायूँगे। छभलयें ने मुझसे कुछ भी न ीिं क ा, रोज की तर उठा, भोजन ककया,
ववद्यालय गया;तनयत समय पर लौटा, रोज की तर मस
ु कराकर मेरे पास आया।
म दोनों ने जलपान ककया, कफर व दै तनक पत्र पढने लगा, मैं टे तनस खेलने
चली गयी। इिर कुछ हदनो से उन् ें टे तनस से कुछ प्रेम न र ा था, मैं अकेली ी
जाती। लौटी, तो रोज ी की तर उन् ें बरामदे में ट लते और भसगार पीते दे खा।
मुझे दे खते ी व रोज की तर मेरा ओवरकोट लाये और मेरे ऊपर डाल हदया।
बरामदे से नीचे उतरकर खुले मैदान मे म ट लने लगे। मगर व ज्यादा बोले
न ीिं, ककसी ववचार में डूबे र ें । जब ओस अधिक पड़ने लगी, तो म दोनों कफर
अन्दर चले आयें। उसी वक्त व बिंगाली मह ला आ गयी, ल्जनसे मैने वीणा
सीखना शुरू ककया ै । ववनोद भी मेरे साथ ी बैठे र े । सिंगीत उन् ें ककतना वप्रय
ै, य तम्
ु ें भलख चुकी ू ूँ। कोई नयी बात न ीिं ु ई। मह ला के चले जाने के
बाद मने साथ- ी-साथ भोजन ककया कफर मै अपने कमरे में लेटने आयी। व
रोज की तर अपने कमरे मे भलखने-पढने चले गयें! मैं जकद ी सो गयी,
लेककन बेखबर पड़ी र ू ूँ , उनकी आ ट पाते ी आप- ी-आप ऑ िंखे खुल गयीिं। मैने
दे खा, व अपना रा शाल ओढे खड़े थें। मैने उनकी ओर ाथ बढाकर क ा—
आओिं, खड़े क्यों ो, और कफर सो गयी। बस, प्यारी ब न! व ी ववनोद के अिंततम
दशयन थे। क न ीिं सकती, व पिंलग पर लेटे या न ीिं। इन ऑखों में न-जाने
कौन-सी म ातनद्रा समायी ु ई थी। प्रात: उठी तो ववनोद को न पाया। मैं उनसे
प ले उठती ू ूँ , व पड़े सोते र ते ैं। पर आज व पलिंग पर न थें। शाल भी न
था। मैने समझा, शायद अपने कमरे में चले गये ों। स्नान-ग ृ में चली गयी।
आि घिंटें मे बा र आयी, कफर भी व न हदखायी हदये। उनके कमरे में गयी, व ाूँ
भी न थें। आश्चयय ु आ कक इतने सबरे क ाूँ चले गयें। स सा खट
ूूँ ी पर पड़ी—
कपड़े ने थे। ककसी से भमलने चले गये ? या स्नान के प ले सैर करने की ठानी।
कम-से-कम मुझसे क तो दे ते, सिंशय मे तो जी न पड़ता। क्रोि आया—मुझे
लौंडी समझते ैं …

ाल्जरी का समय आया। बैरा मेज पर चाय रख गया। ववनोद के इतिंजार में
चाय ठिं डी ो गयी। मै बार-बार झूँुझालती थी, कभी भीतर जाती, कभी बा र
आती, ठान ली थी कक आज ज्यो ी म ाशय आयेंगे , ऐसा लताड़ूूँगी कक व भी
याद करें गे। क दूँ ग
ू ी, आप अपना घर लील्जए, आपकों अपना घर मुबारक र ें , मै
अपने घर चली जाऊूँगी। इस तर तो रोहटयाूँ व ॉ िं भी भमल जायेंगी। जाड़े के नौ
बजने में दे र ी क्या लगती ै । ववनोद का अभी पता न ीिं। झकलायी ु ई कमरे
मे गयी कक एक पत्र भलखकर मेज पर रख दूँ —
ू साफ-साफ भलख दूँ ू कक इस तर
अगर र ना ै , तो आप रह ए मे न ीिं र सकती। मै ल्जतना ी तर दे ती जाती

ू ूँ , उतना ी तुम मुझे धचढाते ों। ब न, उस क्रोि मे सन्तप्त भावों की नदी-सी


मन में उमड़ र ी थी। अगर भलखने बैठती, तो पन्नों-के-पन्ने भलख डालती।
लेककन आ ! मै तो भाग जान की िमकी ी दे र ी थी, व प ले ी भाग चुके
थे। ज्यों ी मेज पर बैठी, मझ
ु े पैडी मे उनका एक पत्र भमला। मैने तरु न्त उस पत्र
को तनकाल भलया और सरसरी तनगा से पढा—मेरे ाथ काूँपने लगे, पाूँव
थरथराने लगे, जान पड़ा कमरा ह ल र ा ै । एक ठण्डी, लम्बी, हृदय को चीरने
वाली आ खीिंचकर मैं कोच पर धगर पड़ी। पत्र य था—

‘वप्रयें ! नौ म ीने ु ए, जब मझ
ु े प ली बार तम्
ु ारे दशयनों का सौभाग्य ु आ था।
उस वक्त मैने अपने को िन्य माना था। आज तुमसे ववयोग का दभ
ु ायग्य ो र ा
ै कफर भी मैं अपने को िन्य मानता ू ूँ। मुझे जाने का लोशमात्र भी द:ु ख न ीिं
ै , क्योकक मै जानता ू ूँ तुम खुश ोगी। जब तुम मेरे साथ सुखी न ी र
सकती; तो मैं तबरदस्ती क्यों पड़ा र ू ूँ। इससे तो य क ीिं अच्छा ै कक म और
तम
ु अलग ो जायूँ। मै जैसा ू ूँ , वैसा ी र ू ूँगा। तम
ु भी जैसी ो, वैसी ी र ोगी।
कफर सुखी जीवन की सम्भावना क ाूँ? मै वववा को आतम-ववकास का पूरी का
सािन समझता ू ूँ। स्त्री पुरुष के सम्बन्ि का अगर कोई अथय ै , तो य ी ै , वनाय
मै वववा की कोई जरुरत न ीिं समझता। मानव सन्तान बबना वववा के भी
जीववत र े गी और शायद इससे अच्छे रूप में । वासना भी बबना वववा के पूरी
ो सकती ै , घर के प्रबन्ि के भलए वववा करने की काई जरुरत न ीिं। जीववका
एक ब ु त ी गौण प्रश्न ै । ल्जसे ईश्वर ने दो ाथ हदये ै व कभी भख
ू ा न ीिं
र सकता। वववा का उद्देश्य य ी और केवल य ी ैं कक स्त्री और पुरूष एक-
दस
ू रे की आतमोन्नतत में स ायक ों। ज ाूँ अनुराग ों, व ा वववा ै और
अनुराग ी आतमोन्नतत का मुख्य सािन ै । जब अनुराग न ो, तो वववा भी
न र ा। अनुराग के बबना वववा का अथय न ीिं।
ल्जस वक्त मैने तम्
ु ें प ली बार दे खा था, तम
ु मझ
ु े अनरु ाग की सजीव मतू तय-सी
नजर आयी थीिं। तम
ु मे सौंदयय था, भशक्षा थी, प्रेम था, स्फूततय थी, उमिंग थी। मैं
मुग्ि ो गया। उस वक्त मेरी अन्िी ऑ िंखों को य न सूझा कक ज ाूँ तुममें
इतने गुण थे, व ाूँ चिंचलता भी थी, जो इन सब गुणों पर पदाय डाल दे ती। तुम
चिंचल ो, गजब की चिंचल, जो उस वक्त मुझे न सूझा था। तुम ठीक वैसी ी ो,
जैसी तुम् ारी दस
ू री ब नें ोती ै , न कम, न ज्यादा। मैने तुमको स्वािीन बनाना
चा ा था, क्योंकक मेरी समझ मे अपनी परू ी ऊूँचाई तक प ु ूँ चने के भलए इसी की
सबसे अधिक जरूरत ै । सिंसार भर में परू
ु षों के ववरु्ध क्यों इतना शोर मचा

ुआ ै ? इसीभलए कक मने औरतों की आजादी छीन ली ै और उन् ें अपनी


इच्छाओिं की लौंडी बना रखा ै । मैने तुम् ें स्वािीन कर हदया। मै तुम् ारे ऊपर
अपना कोई अधिकार न ीिं मानता। तुम अपनी स्वाभमनी ो, मुझे कोई धचन्ता न
थी। अब मुझे मालूम ो र ा ै , तुम स्वेच्छा से न ीिं, सिंकोच या भय या बन्िन
के कारण र ती ो। दो ी चार हदन प ले मझ
ु पर य बात खल
ु ी ै । इसीभलए
अब मै तुम् ारें सुख के मागय में बािा न ीिं डालना चा ता। मै क ीिं भागकर न ीिं
जा र ा ू ूँ। केवल तुम् ारे रास्ते से टा जा र ा ू ूँ, और इतनी दरू टा जा र ा

ू ूँ , कक तुम् ें मेरी ओर से पूरी तनल्श्चन्तता ो जाय। अगर मेरे बगैर तुम् ारा
जीवन अधिक सुन्दर ो सकता ै , तो तुम् ें जबरन न ीिं रखना चा ता। अगर मै
समझता कक तुम मेरे सुख के मागय बािक ो र ी ों, तो मैने तुमसे साफ-साफ
क हदया ोता। मै िैयय और नीतत का ढोंग न ीिं मानता, केवल आतमाका सिंतोष
चा ता ू ूँ —अपने भलए भी, तुम् ारे भलए भी। जीवन का ततव य ी ै ; मूकय य ी
ै । मैने डेस्क में अपने ववभाग के अध्यक्ष के नाम एक पत्र भलखकर रख हदया
ैं। व उनके पास भेज दे ना। रूपये की कोई धचन्ता मत करना। मेरे एकाउिं ट मे
अभी इतने रूपये ैं , जो तुम् ारे भलए कई म ीने को काफी ैं, और उस वक्त तक
भमलते र े गें, जब तक तुम लेना चा ोगी। मै समझता ू ूँ , मैने अपना भाव स्पष्ट
कर हदया ै । इससे अधिक स्पष्ट मै न ीिं करना चा ता। ल्जस वक्त तुम् ारी
इच्छा मुझसे भमलने की ो, बैंक से मेरा पता पूछ लेना। मगर दो-चार हदन के
बाद। घबराने की कोई बात न ीिं। मै स्त्री को अबला या अपिंग न ीिं समझता।
व अपनी रक्षा स्वयिं कर सकती ैं—अगर करना चा ें । अगर अब या अब से
दो-चार म ीना, दो-चार साल पीछें तम्
ु े मेरी याद आए और तम
ु समझों कक मेरे
साथ सख
ु ी र सकती ो, तो मझ
ु े केवल दो शब्द भलखकर डाल दे ना, मै तरु न्त
आ जाऊूँगा, क्योंकक मुझे तुमसे कोई भशकायत न ीिं ैं। तुम् ारे साथ मेरे जीवन
के ल्जतने के ल्जतने हदन कटे ैं, व मेरे भलए स्वगय-स्वप्न के हदन ैं। जब तक
जीउूँ गी, इस जीवन की आनन्द-स्मतृ तयों कों हृदय में सिंधचत रखूग
ूँ ा। आ ! इतनी
दे र तक मन को रोके र ने के बाद ऑ िंखों से एक बूँद
ू ऑ िंसू धगर ी पड़ा। क्षमा
करना, मैनें तम्
ु ें ‘चिंचल’ क ा ैं। अचिंचल कौन ै ? जानता ू ूँ कक तम
ु ने मझ
ु े
अपने हृदय से तनकालकर फेंक हदया ैं , कफर भी इस एक घिंटे में ककतनी बार
तुमको दे ख-दे खकर लौट आया ू ूँ! मगर इन बातों को भलखकर मैं तुम् ारी दया
को उकसाना न ीिं चा ता। तुमने व ी ककया, ल्जसका मेरी नीतत में तुमको
अधिकार था, ै और र े गािं। मैं वववा में आतमा को सवोपरी रखना चा ता ू ूँ।
स्त्री और पुरुष में मै व ी प्रेम चा ता ू ूँ , जो दो स्वािीन व्यल्क्तयों में ोता ैं।
व प्रेम न ीिं ल्जसका आिार परािीनता ैं।

बस, अब और कुछ न भलखग


ूूँ ा। तुमको एक चेतावनी दे ने की इच्छा ो र ी ै पर
दूँ ग
ू ा न ीिं; क्योंकक तुम अपना भला और बुरा खुद समझ सकती ो। तुमने सला
दे ने का क मझ
ु से छीन भलया ै । कफर भी इतना क े बगैर न ीिं र ा जाता कक
सिंसार में प्रेम का स्वाूँग भरने वाले शो दों की कमी न ीिं ै , उनसे बचकर र ना।
ईश्वर से य ी प्राथयना करता ू ूँ कक तुम ज ॉ िं र ो, आनन्द से र ों। अगर कभी
तुम् ें मेरी जरूरत पड़े, तो याद करना। तुम् ारी एक तस्वीर का अप रण ककये
जाता ू ूँ। क्षमा करना, क्या मेरा इतना अधिकार भी न ीिं ? ाय! जी चा ता ै , एक
बार कफर दे ख आऊूँ, मगर न ीिं आऊूँगा।’

—तुम् ारा ठुकराया ु आ,


ववनोद

ब न, य पत्र पढकर मेरे धचतत की जो दशा ु ई, उसका तुम अनुमान कर सकती


ो। रोयी तो न ीिं; पर हदल बैठा जाता था। बार-बार जी चा ता था कक ववष
खाकर सो र ू ूँ। दस बजने में अब थोड़ी ी दे र थी। मैं तरु न्त ववद्यालय गयी
और दशयन-ववभाग के अध्यक्ष को ववनोद का पत्र पढकर बोले—आपको मालम
ू ै,
व क ाूँ गये और कब तक आयेंगें? इसमें तो केवल एक मास की छुटटी माूँगी
गयी ै । मैनें ब ाना ककया—व एक आवश्यक कायय से काशी गये ै । और
तनराश ोकर लौट आयी। मेरी अन्तरातमा सिं स्रों ल्ज वा बनकर मुझे धिक्कार
र ी थी। कमरे में उनकी तस्वीर के सामने घुटने टे ककर मैने ल्जतने पश्चाताप–
पण
ू य शब्दों में क्षमा माूँगी ै, व अगर ककसी तर उनके कानों तक प ु ूँच सकती,
तो उन् ें मालूम ोता कक उन् ें मेरी ओर से ककतना भ्रम
ू ु आ! तब से अब तक
मैनें कुछ भोजन न ीिं ककया और न एक भमनट सोयी। ववनोद मेरी क्षुिा और
तनद्रा भी अपने साथ लेते गये और शायद इसी तर दस-पाूँच हदन उनकी खबर
न भमली, तो प्राण भी चले जायेंगें। आज मैं बैंक तकय गयी थी, य पूछने कक
ह म्मत न पड़ी कक ववनोद का कोई पत्र आयािं। व सब क्या सोचते कक य
उनकी पतनी ोकर मसे पछ
ू ने आयी ैं!

ब न, अगर ववनोद न आये , तो क्या ोगा? मैं समझती थी, व मेरी तरफ से
उदासीन ैं, मेरी परवा न ीिं करते, मुझसे अपने हदल की बातें तछपाते ैं, उन् ें
शायद मैं भारी ो गयी ू ूँ। अब मालम
ू ु आ, मै कैसे भयिंकर-भ्रम में पड़ी ु ई थी।
उनका मन इतना कोमल ै, य मैं जानती, तो उस हदन क्यों भुवन को मूँु
लगाती? मैं उस अभागे का मूँु तक न दे खती। इस वक्त जो उसे दे ख पाऊूँ, तो
शायद गोली मार दूँ ।ू जरा तुम ववनोद के पत्र को कफर पढों, ब न—आप मुझे
स्वािीन बनाने चले थे। अगर स्वािीन बनाते थें , तो भुवन से जरा दे र मेरा
बातचीत कर लेना क्यों इतना अखरा? मुझें उनकी अववचभलत शािंतत से धचढ ोती
थी। वास्तव में उनके हृदय में इस रात-सी बात ने ल्जतनी अशािंतत पैदा कर दी,
शायद मुझमें न कर सकती। मैं ककसी रमणी से उनकी रूधच दे खकर शायद मूँु
फुला लेती, ताने दे ती, खुद रोती, उन् ें रुलाती; पर इतनी जकद भाग न जाती। मदों
का घर छोड़कर भागना तो आज तक न ीिं सुना, औरतें ी घर छोड़कर मैके
भागती ै , या क ीिं डूबने जाती ैं, या आतम तया करती ैं। पुरूष तनद्यवन्द्व बैठे
मूिंछों पर ताव दे ते ैं। मगर य ाूँ उकटी गिंगा ब र ी ैं —पुरूष ी भाग खड़ा
ु आ! इस अशािंतत की था कौन लगा सकता ैं? इस प्रेम की ग राई को कौन
समझ सकता ैं? मै तो अगर इस वक्त ववनोद के चरणों पर पड़े-पड़े मर जाऊूँ
तो समझूँू, मुझे स्वगय भमल गया। बस, इसके भसवा मुझे अब और कोई इच्छा
न ीिं ैं। इस अगाि-प्रेम ने मुझे तप्ृ त कर हदया। ववनोद मुझसे भागे तो, लेककन
भाग न सके। व मेरे हृदय से, मेरी िारणा से, इतने तनकट कभी न थे। मैं तो
अब भी उन् ें अपने सामने बैठा दे ख र ी ू ूँ। क्या मेरे सामने कफलासफर बनने
चले थे? क ाूँ गयी आपकी व दाशयतनक गिंभीरता? यों अपने को िोखा दे ते ो?
यों अपनी आतमा को कुचलते ों ? अबकी तो तम
ु भागे, लेककन कफर भागना तो
दे खग
ूूँ ी। मै न जानती थी कक तुम ऐसे चतुर ब ु रूवपये ो। अब मैने समझा, और
शायद तुम् ारी दाशयतनक गिंभीरता को भी समझ मे आया ोगा कक प्रेम ल्जतना
ी सच्चा ल्जतना ी ाहदय क ोता ै , उतना ी कोमल ोता ें व वपल्तत के
उन्मतत सागर में थपेड़ खा सकता ै , पर अव े लना की एक चोट भी न ीिं स
सकता। बह न, बात ववधचत्र ै , पर ै सच्ची, मै इस समय अपने अन्तस्तल में
ल्जतनी उमिंग, ल्जतने आनन्द का अनुभव कर र ी ू ूँ, याद न ीिं आता कक ववनोद
के हृदय से भलपटकर भी कभी पाया ो। तब पदाय बीच में था, अब कोई पदाय
बीच में न ीिं र ा। मै उनको प्रचभलत प्रेम व्यापार की कसौटी पर कसना चा ती
थी। य फैशन ो गया कक पुरुष घर मे आयें, तो स्त्री के वास्ते कोई तो फा
लाये, पुरुष रात-हदन स्त्री के भलए ग ने बनवाने, कपड़े भसलवाने, बेल, फीते, लेस
खरीदने में मस्त र े , कफर स्त्री को उससे कोई भशकायत न ीिं। व आदशय-पतत ै,
उसके प्रेम में ककसे सिंदे ो सकता ै ? लेककन उसकी प्रेयसी की मतृ यु के तीसरे
म ीने व कफर नया वववा रचाता ै । स्त्री के साथ अपने प्रेम को भी धचता मे
जला आता ै । कफर व ी स्वाूँग इस नयी प्रेयसी से ोने लगते ैं , कफर व ी लीला
शुरू ो जाती ै । मैंने य ी प्रेम दे खा था और इसी कसौटी पर ववनोद कस र ी
थी। ककतनी मन्दबुव्ध ू ूँ ! तछछोरे पन को प्रेम समझे बैठी थी। ककतनी ल्स्त्रयाूँ
जानती ैं कक अधिकािंश ऐसे ी ग ने , कपड़े और ूँसने-बोलने में मस्त र ने वाले
जीव लम्पट ोते ैं। अपनी लम्पटता को तछपाने के भलए वे य स्वाूँग भरते
र ते ैं। कुतते को चुप रखने के भलए उसके सामने ड्डी के टुकड़े फेंक दे ते ैं।
बेचारी भोली-भाली उसे अपना सवयस्व दे कर खखलौने पाती ै और उन् ीिं में मग्न
र ती ै । मैं ववनोद को उसी काूँटे पर तौल र ी थी— ीरे को साग के तराजू पर
रख दे ती थी। मैं जानती ू ूँ, मेरा दृढ ववश्वास और व अटल ै कक ववनोद की
दृल्ष्ट कभी ककसी पर स्त्री पर न ीिं पड़ सकती। उनके भलए मै ू ूँ , अकेली मै ू ूँ,
अच्छी ू ूँ या बुरी ू ूँ , जो कुछ ू ूँ , मै ू ूँ। ब न, मेरी तो मारे गवय और आनन्द से
छाती फूल उठी ै । इतना बड़ा साम्राज्य—इतना अचल, इतना स्वरक्षक्षत, ककसी
हृदयेश्वरी को नसीब ु आ ै ! मुझे तो सन्दे ै । और मैं इस पर भी असन्तुष्ट
थी, य न जानती थी कक ऊपर बबल
ू े तैरते ैं, मोती समद्र
ु की त मे भमलते ैं।
ाय! मेरी इस मख
ू त
य ा के कारण, मेरे प्यारे ववनोद को ककतनी मानभसक वेदना ो
र ी ै । मेरे जीवन-िन, मेरे जीवन-सवयस्व न जाने क ाूँ मारे -मारे कफरते ोंगें , न
जाने ककस दशा में ोगें , न-जाने मेरे प्रतत उनके मन में कैसी-कैसी शिंकाऍ िं उठ
र ी ोंगी—प्यारे ! तुमने मेरे साथ कुछ कम अन्याय न ीिं ककया। अगर मैने
तुम् ें तनष्ठुर समझा, तो तुमने तो मुझे उससे क ीिं बदतर समझा—क्या अब भी
पेट न ीिं भरा? तम
ु ने मझ
ु े इतनी गयी-गज
ु री समझ भलया कक इस अभागे भव
ु न…
मै ऐसे-ऐसे एक लाख भुवनों को तुम् ारे चरणों पर भें ट कर सकती ू ूँ। मुझे तो
सिंसार में ऐसा कोई प्राणी ी न ीिं नजर आता, ल्जस पर मेरी तनगा उठ सके।
न ीिं, तुम मुझे इतनी नीच, इतनी कलिंककनी न ीिं समझ सकते—शायद व नौबत
आती, तो तुम और मैं दो में से एक भी इस सिंसार में न ोता।

ब न, मैंने ववनोद को बुलाने की, खीिंच लाने की, पकड़ मूँगवाने की एक तरकीब
सोची ै । क्या क ू ूँ , प ले ी हदन य तरकीब क्यों न सूझी ? ववनोद को दै तनक
पत्र पढे बबना चैन न ीिं आता और व कौन-सा पत्र पढते ैं, मैं य भी जानती

ू ूँ। कल के पत्र में य खबर छपेगी—‘पद्मा मर र ी ै ’, और परसों ववनोद य ाूँ


ोंगे—रुक ी न ीिं सकते। कफर खब
ू झगड़े ोंगे, खब
ू लड़ाइयाूँ ोंगी।

अब कुछ तुम् ारे ववषय में । क्या तुम् ारी बुहढया सचमुच तुमसे इसभलए जलती
ै कक तुम सुन्दर ो, भशक्षक्षत ो ? खूब ! और तुम् ारे आनन्द भी ववधचत्र जीव
मालम
ू ोते ैं। मैने सन
ु ा ै कक परु
ु ष ककतना ी कुरूप ो, उसकी तनगा
अप्सराओिं ी पर जाकर पड़ती ै । कफर आन्नद बाबू तुमसे क्यों बबचकते ै ? जरा
गौरसे दे खना, क ीिं रािा और कृष्ण के बीच में कोई कुब्जा तो न ीिं? अगर
सासजी यों ी नाक में दम करती र ें , तो मैं तो य ी सला दूँ ग
ू ी कक अपनी
झोपड़ी अलग बना लो। मगर जानती ू ूँ , तुम मेरी य सला न मानोगी, ककसी
तर न मानेगी। इस सह ष्णुता के भलए मैं तुम् ें बिाई दे ती ू ूँ। पत्र जकद
भलखना। मगर शायद तुम् ारा पत्र आने के प ले ी मेरा दस
ू रा पत्र प ु ूँच।े

तुम् ारी,
पद्मा

12

काशी
10-2-26

वप्रय पद्मा,

कई हदन तक तुम् ारे पत्र की प्रतीक्षा करने के बाद आज य खत भलख र ी ू ूँ।


मैं अब भी आशा कर र ी ू ूँ कक ववनोद बाबू घर आ गये ोगें , मगर अभी व न
आये ों और तुम रो-रोकर अपनी ऑ िंखे फोड़े डालती ो, तो मुझे जरा भी द:ु ख
न ोगा! तम
ु ने उनके साथ जो अन्याय ककया ै , उसका य ी दण्ड ै । मझ
ु े तम
ु से
जरा भी स ानभ
ु तू त न ीिं ै । तुम गहृ णी ोकर व कुहटल क्रीड़ा करने चली थीिं,
जो प्रेम का सौदा करने वाली ल्स्त्रयों को ी शोभा दे ती ै । मैं तो जब खुश ोती
कक ववनोद ने तुम् ारा गला घोंट हदया ोता और भुवन के कुसिंस्कारों को सदा के
भलए शािंत कर दे त।े तुम चा े मुझसे रूठ ी क्यों न जाओ पर मैं इतना जरूर
क ू ूँगी कक तुम ववनोद के योग्य न ीिं ो। शायद तुमने अूँग्रेजी ककताबों मे पढा
ोगा कक ल्स्त्रयाूँ छै ले रभसकों पर ी जान दे ती ैं और य पढकर तम्
ु ारा भसर
कफर गया ै । तम्
ु ें तनतय कोई सनसनी चाह ए, अन्यथा तम्
ु ारा जीवन शुष्क ो
जायेगा। तुम भारत की पततपरायणा रमणी न ीिं, यूरोप की आमोदवप्रय युवती ो।
मुझे तुम् ारे ऊपर दया आती ै । तुमने अब तक रूप को ी आकषयण का मूल
समझ रखा ै । रूप में आकयषण ै , मानती ू ूँ। लेककन उस आकषयण का नाम
मो ै, व स्थायी न ीिं, केवल िोखे की टट्टी ै । प्रेम का एक ी मल
ू मिंत्र ै , और
व ै सेवा। य मत समझो कक जो पुरूष तुम् ारे ऊपर भ्रमर की भाूँतत मूँडराया
करता ै, व तुमसे प्रेम करता ै । उसकी य रूपासल्क्त ब ु त हदनों तक न ीिं
र े गी। प्रेम का अिंकुर रूप में ै , पर उसको पकलववत और पल्ु ष्पत करना सेवा ी
का काम ै । मुझे ववश्वास न ीिं आता कक ववनोद को बा र से थके-माूँदे, पसीने मे
तर दे खकर तम
ु ने कभी पिंखा झला ोगा। शायद टे बल
ु -फैन लगाने की बात भी न
सझ
ू ी ोगी। सच क ना, मेरा अनम
ु ान ठीक या न ीिं? बतलाओ, तम
ु ने की उनके
पैरों में चिंपी की ै ? कभी उनके भसर में तेज डाला ै ? तुम क ोगी, य
खखदमतगारों का काम ै , लेडडयाूँ य मरज न ीिं पालतीिं। तुमने उस आनन्द का
अनुभव ी न ीिं ककया। तुम ववनोद को अपने अधिकार में रखना चा ती ो, मगर
उसका सािन न ीिं करतीिं। ववलासनी मनोरिं जन कर सकती ै , धचरसिंधगनी न ीिं
बन सकती। परू
ु ष के गले से भलपटी ु ई भी व उससे कोसों दरू र ती ै।
मानती ू ूँ , रूपमो मनुष्य का स्वभाव ै , लेककन रूप से हृदय की प्यास न ीिं
बुझती, आतमा की तल्ृ प्त न ीिं ोती। सेवाभाव रखने वाली रूप-वव ीन स्त्री का
पतत ककसी स्त्री के रूप-जाल मे फूँस जाय, तो ब ु त जकद तनकल भागता ै , सेवा
का चस्का पाया ु आ मन केवल नखरों और चोचलों पर लट्टू न ीिं ोता। मगर मैं
तो तुम् ें उपदे श करने बैठ गयी, ालाूँकक तुम मुझसे दो-चार म ीने बड़ी ोगी।
क्षमा करो ब न, य उपदे श न ीिं ै । ये बातें म-तम
ु सभी जानते ैं, केवल कभी-
कभी भूल जाते ैं। मैंने केवल तुम् ें याद हदला हदया ैं। उपदे श मे हृदय न ीिं
ोता, लेककन मेरा उपदे श मेरे मन की व व्यथा ै , जो तुम् ारी इस नयी ववपल्तत
से जागररत ु ई ै।

अच्छा, अब मेरी रामक ानी सुनो। इस एक म ीने में य ाूँ बड़ी-बड़ी घटनाऍ िं ो
गयीिं। य तो मैं प ले ी भलख चुकी ू ूँ कक आनन्द बाबू और अम्माूँजी में कुछ
मनमुटाव र ने लगा। व आग भीतर- ी-भीतर सुलगती र ती थी। हदन में दो-
एक बार माूँ बेटे में चोंचें ो जाती थी। एक हदन मेरी छोटी ननदजी मेरे कमरे
से एक पुस्तक उठा ले गयीिं। उन् ें पढने का रोग ै । मैंने कमरे में ककताब न
दे खी, तो उनसे पछ
ू ा। इस जरा-सी बात पर व भले-मानस बबगड़ गयी और
क ने लगी—तम
ु तो मझ
ु े चोरी लगाती ो। अम्माूँ ने उन् ीिं का पक्ष भलया और
मुझे खूब सुनायी। सिंयोग की बात, अम्माूँजी मुझे कोसने ी दे र ी थीिं कक
आन्नद बाबू घर में आ गये। अम्माूँजी उन् ें दे खते ी और जोर से बकने लगीिं,
ब ू की इतनी मजाल! व तूने भसर पर चढा रखा ै और कोई बात न ीिं।
पुस्तक क्या उसके बाप की थी? लड़की लायी, तो उसने कौन गुना ककया? जरा
भी सब्र न ु आ, दौड़ी ु ई उसके भसर पर जा प ु ूँची और उसके ाथों से ककताब
छीनने लगी।

ब न, मैं य स्वीकार करती ू ूँ कक मुझे पुस्तक के भलए इतनी उतावली न करनी


चाह ए थी। ननदजी पढ चक
ु ने पर आप ी दे जातीिं। न भी दे तीिं तो उस एक
पस्
ु तक के न पढने से मेरा क्या बबगड़ा जाता था। मगर मेरी शामत कक उनके
ाथों से ककताब छीनने लगी थी। अगर इस बात पर आनन्द बाबू मुझे डाूँट
बताते, तो मुझे जरा भी द:ु ख न ोता मगर उन् ोंने उकटे मेरा पक्ष भलया और
तयोररयाूँ चढाकर बोले—ककसी की चीज कोई बबना पूछे लाये ी क्यों? य तो
मामूली भशष्टाचार ै।

इतना सुनना था कक अम्माूँ के भसर पर भूत-सा सवार ो गया। आनन्द बाबू भी


बीच-बीच मे फुलझडड़याूँ छोड़ते र े और मैं अपने कमरे में बैठी रोती र ी कक
क ाूँ-से-क ाूँ मैंने ककताब माूँगी। न अम्माूँजी ी ने भोजन ककया, न आनन्द बाबू
ने ी। और मेरा तो बार-बार य ी जी चा ता था कक ज र खा लूँ ।ू रात को जब
अम्मॉजी लेटी तो मैं अपने तनयम के अनुसार उनके पाूँव पक्रड़ भलये। मैं पैंताने
की ओर तो थी ी। अम्माूँजी ने जो पैर से मुझे ढकेला तो मैं चारपाई के नीचे
धगर पड़ी। जमीन पर कई कटोररयाूँ पड़ी ु ई थीिं। मैं उन कटोररयों पर धगरी, तो
पीठ और कमर में बड़ी चोट आयी। मैं धचकलाना न चा ती थी, मगर न जाने
कैसे मेरे मूँु से चीख तनकल गयी। आनन्द बाबू अपने कमरे में आ गये थे,
मेरी चीख सन
ु कर दौड़े पड़े और अम्माूँजी के द्वार पर आकर बोले—क्या उसे
मारे डालती ो, अम्माूँ? अपरािी तो मैं ू ूँ; उसकी जान क्यों ले र ी ो? य क ते
ुए व कमरे में घस
ु गये और मेरा ाथ पकड़ कर जबरदस्ती खीिंच ले गये।
मैंने ब ु त चा ा कक अपना ाथ छुड़ा लूँ ू, पर आन्नद ने न छोड़ा! वास्वत में इस
समय उनका म लोगों के बीच में कूद पड़ना मुझे अच्छा न ीिं लगता था। व
न आ जाते, तो मैंने रो-िोकर अम्माूँजी को मना भलया ोता। मेरे धगर पड़ने से
उनका क्रोि कुछ शान्त ो चला था। आनन्द का आ जाना गजब ो गया।
अम्माूँजी कमरे के बा र तनकल आयीिं और मूँु धचढाकर बोली— ाूँ, दे खो, मर म-
पट्टी कर दो, क ीिं कुछ टूट-फूट न गया ो !

आनन्द ने ऑ िंगन में रूककर क ा—क्या तुम चा ती ो कक तुम ककसी को मार


डालो और मैं न बोलूँ ू ?

‘ ाूँ, मैं तो डायन ू ूँ , आदभमयों को मार डालना ी तो मेरा काम ै । ताज्जुब ै


कक मैंने तुम् ें क्यों न मार डाला।’

‘तो पछतावा क्यों ो र ा ै , िेले की सिंखखया में तो काम चलता ै ।‘

‘अगर तम्
ु ें इस तर औरत को भसर चढाकर रखना ै , तो क ीिं और ले जाकर
रखो। इस घर में उसका तनवाय अब न ोगा।’

‘मैं खुद इसी किक में ू ूँ, तुम् ारे क ने की जरूरत न ीिं।’

‘मैं भी समझ लूँ ग


ू ी कक मैंने लड़का ी न ीिं जना।’

‘मैं भी समझ लूँ ग


ू ा कक मेरी माता मर गयी।’

मैं आनन्द का ाथ पकड़कर जोर से खीिंच र ी थी कक उन् ें व ाूँ से टा ले


जाऊूँ, मगर व बार-बार मेरा ाथ झटक दे ते थे। आखखर जब अम्माूँजी अपने
कमरे में चली गयीिं, तो व अपने कमरे में आये और भसर थामकर बैठ गये।

मैंने क ा—य तुम् ें क्या सूझी ?


आनन्द ने भूभम की ओर ताकते ु ए क ा—अम्माूँ ने आज नोहटस दे हदया।

‘तम
ु खद
ु ी उलझ पड़े, व बेचारी तो कुछ बोली न ीिं।’

‘मैं ी उलझ पड़ा !’

‘और क्या। मैंने तो तुमसे फररयाद न की थी।’

‘पकड़ न लाता, तो अम्माूँ ने तम्


ु ें अिमरा कर हदया ोता। तम
ु उनका क्रोि
न ीिं जानती।’

‘य तम्
ु ारा भ्रम ै । उन् ोंने मझ
ु े मारा न ीिं, अपना पैर छुड़ा र ी थीिं। मैं पट्टी पर
बैठी थी, जरा-सा िक्का खाकर धगर पड़ीिं। अम्माूँ मझ
ु े उठाने ी जा र ी थीिं कक
तुम प ु ूँच गये।’

‘नानी के आगे नतन ाल का बखान न करो, मैं अम्माूँ को खब


ू जानता ू ूँ। मैं कल
ी दस
ू रा घर ले लूँ ग
ू ा, य मेरा तनश्चय ै । क ीिं-न-क ीिं नौकरी भमल ी जायेगी।
ये लोग समझते ैं कक मैं इनकी रोहटयों पर पड़ा ु आ ू ूँ। इसी से य भमजाज
ै !’

मैं ल्जतना ी उनको समझती थी, उतना व और बफरते थे। आखखर मैंने
झूँुझलाकर क ा—तो तुम अकेले जाकर दस
ू रे घर में र ो। मैं न जाऊूँगी। मुझे
य ीिं पड़ी र ने दो।

आनन्द ने मेरी ओर कठोर नेत्रों से दे खकर क ा—य ी लातें खाना अच्छा लगता
ै?

‘ ाूँ, मझ
ु े य ी अच्छा लगता ै ।’
‘तो तम
ु खाओ, मैं न ीिं खाना चा ता। य ी फायदा क्या थोड़ा ै कक तम्
ु ारी
दद
ु य शा ऑ िंखों से न दे खग
ूूँ ा, न पीड़ा ोगी।’

‘अलग र ने लगोगे, तो दतु नया क्या क े गी।’

‘इसकी परवा न ीिं। दतु नयािं अन्िी ै ।’

‘लोग य ी क ें गे कक स्त्री ने य माया फैलायी ै।‘

‘इसकी भी परवा न ीिं, इस भय से अपना जीवन सिंकट में न ीिं डालना चा ता।’

मैंने रोकर क ा—तुम मुझे छोड़ दोगे, तुम् ें मेरी जरा भी मु ब्बत न ीिं ै । ब न,
और ककसी समय इस प्रेम-आग्र से भरे ु ए शब्दों ने न जाने क्या कर हदया
ोता। ऐसे ी आग्र ों पर ररयासतें भमटती ैं , नाते टूटते ैं, रमणी के पास इससे
बढकर दस
ू रा अस्त्र न ीिं। मैंने आनन्द के गले में बाूँ ें डाल दी थीिं और उनके
कन्िे पर भसर रखकर रो र ी थी। मगर इस समय आनन्द बाबू इतने कठोर ो
गये थे कक य आग्र भी उन पर कुछ असर न कर सका। ल्जस माता न जन्म
हदया, उसके प्रतत इतना रोष ! म अपनी माता की एक कड़ी बात न ीिं स
सकते, इस आतमाभभमान का कोई हठकाना ै । य ी वे आशाऍ िं ैं , ल्जन पर माता
ने अपने जीवन के सारे सुख-ववलास अपयण कर हदये थे, हदन का चैन और रात
की नीिंद अपने ऊपर राम कर ली थी ! पत्र
ु पर माता का इतना भी अधिकार
न ीिं !

आनन्द ने उसी अववचभलत कठोरता से क ा—अगर मु ब्बत का य ी अथय ै कक


मैं इस घर में तम्
ु ारी दग
ु तय त कराऊूँ, तो मझ
ु े व मु ब्बत न ीिं ै।

प्रात:काल व उठकर बा र जाते ु ए मुझसे बोले—मैं जाकर घर ठीक ककये आता

ू ूँ। ताूँगा भी लेता आऊूँगा, तैयार र ना।

मैंने दरवाजा रोककर क ा—क्या अभी तक क्रोि शान्त न ीिं ु आ?


‘क्रोि की बात न ीिं, केवल दस
ू रों के भसर से अपना बोझ टा लेने की बात ै ।’
‘य अच्छा काम न ीिं कर र े ो। सोचो, माता जी को ककतना द:ु ख ोगा।
ससुरजी से भी तुमने कुछ पूछा ?’

‘उनसे पछ
ू ने की कोई जरूरत न ीिं। कताय-िताय जो कुछ ैं, व अम्माूँ ैं। दादाजी
भमट्टी के लोंदे ैं।’

‘घर के स्वामी तो ैं ?‘

‘तुम् ें चलना ै या न ीिं, साफ क ो।’

‘मैं तो अभी न जाऊूँगी।’

‘अच्छी बात ै , लात खाओ।’

मैं कुछ न ीिं बोली। आनन्द ने एक क्षण के बाद कफर क ा—तुम् ारे पास कुछ
रूपये ो, तो मुझे दो।

मेरे पास रूपये थे, मगर मैंने इनकार कर हदया। मैंने समझा, शायद इसी
असमिंजस में पड़कर व रूक जायूँ। मगर उन् ोंने बात मन में ठान ली थी।
खखन्न ोकर बोले—अच्छी बात ै , तुम् ारे रूपयों के बगैर भी मेरा काम चल
जायगा। तुम् ें य ववशाल भवन, य सुख-भोग, ये नौकर-चाकर, ये ठाट-बाट
मब
ु ारक ों। मेरे साथ क्यों भख
ू ों मरोगी। व ाूँ य सख
ु क ाूँ ! मेरे प्रेम का मक
ू य
ी क्या !

य क ते ु ए व चले गये। ब न, क्या क ू ूँ , उस समय अपनी बेबसी पर ककतना


द:ु ख ो र ा था। बस, य ी जी में आता था कक यमराज आकर मझ
ु े उठा ले
जायें। मझ
ु े कल-कलिंककनी के कारण माता और पत्र
ु में य वैमनस्य ो र ा था।
जाकर अम्माूँजी के पैरों पर धगर पड़ी और रो-रोकर आनन्द बाबू के चले जाने
का समाचार क ा। मगर माताजी का हृदय जरा भी न पसीजा। मुझे आज
मालम
ू ुआ कक माता भी इतनी वज्र-हृदया ो सकती ै । कफर आनन्द बाबू का
हृदय क्यों न कठोर ो। अपनी माता ी के पत्र
ु तो ैं।

माताजी ने तनदय यता से क ा—तुम उसके साथ क्यों न चली गयी ? जब व


क ता था तब चला जाना चाह ए था। कौन जाने , य ाूँ मैं ककसी हदन तम्
ु ें ववष
दे दूँ ।ू

मैंने धगड़धगड़ाकर क ा—अम्माूँजी, उन् ें बुला भेल्जए, आपके पैरों पड़ती ू ूँ। न ीिं तो
क ीिं चले जायेंगे।

अम्माूँ उसी तनदय यता से बोलीिं—जाय चा े र े , व मेरा कौन ै । अब तो जो कुछ


ो, तुम ो, मुझे कौन धगनता ै । आज जरा-सी बात पर य इतना झकला र ा
ै । और मेरी अम्माूँजी ने मझ
ु े सैकड़ों ी बार पीटा ोगा। मैं भी छोकरी न थी,
तम्
ु ारी ी उम्र की थी, पर मजाल न थी कक तम्
ु ारे दादाजी से ककसी के सामने
बोल सकूूँ। कच्चा ी खा जातीिं ! मार खाकर रात-भर रोती र ती थी, पर इस
तर घर छोड़कर कोई न भागता था। आजकल के लौंडे ी प्रेम करना न ीिं
जानते, म भी प्रेम करते थे, पर इस तर न ीिं कक माूँ-बाप, छोटे -बड़े ककसी को
कुछ न समझें।

य क ती ु ई माताजी पूजा करने चली गयी। मैं अपने कमरे में आकर नसीबों
को रोने लगी। य ी शिंका ोती थी कक आनन्द ककसी तरफ की रा न लें । बार-
बार जी मसोसता था कक रूपये क्यों न दे हदये। बेचारे इिर-उिर मारे -मारे
कफरते ोंगे। अभी ाथ-मूँु भी न ीिं िोया, जलपान भी न ीिं ककया। वक्त पर
जलपान न करें गे तो, जुकाम ो जायेगा, और उन् ें जुकाम ोता ै , तो रारत भी
ो जाती ै । म री से क ा—जरा जाकर दे ख तो बाबूजी कमरे में ैं? उसने आकर
क ा—कमरे में तो कोई न ीिं, खट
ूूँ ी पर कपड़े भी न ीिं ै।
मैंने पछ
ू ा—क्या और भी कभी इस तर अम्माूँजी से रूठे ैं ? म री बोली—कभी
न ीिं ब ू ऐसा सीिा तो मैंने लड़का ी न ीिं दे खा। मालककन के सामने कभी भसर
न ीिं उठाते थे। आज न-जाने क्यों चले गए।

मझ
ु े आशा थी कक दोप र को भोजन के समय व आ जायेँगे। लेककन दोप र
कौन क े ; शाम भी ो गयी और उनका पतत न ीिं। सारी रात जागती र ी। द्वार
की ओर कान लगे ु ए थे। मगर रात भी उसी तर गुजर गयी। ब न, इस प्रकार
पूरे तीन बीत गये। उस वक्त तुम मुझे दे खतीिं, तो प चान न सकतीिं। रोते-रोते
आूँखें लाल ो गयी थीिं। इन तीन हदनों में एक पल भी न ीिं सोयी और भूख का
तो ल्जक्र ी क्या, पानी तक न वपया। प्यास ी न लगती थी। मालूम ोता था,
दे में प्राण ी न ीिं ैं। सारे घर में मातम-सा छाया ु आ था। अम्माूँजी भोजन
करने दोनों वक्त जाती थीिं, पर मूँु जठ
ू ा करके चली आती थी। दोनों ननदों की
ूँसी और चु र भी गायब ो गयी थी। छोटी ननदजी तो मझ
ु से अपना अपराि
क्षमा कराने आयी।

चौथे हदन सबेरे रसोइये ने आकर मझ


ु से क ा—बाबज
ू ी तो अभी मझ
ु े दशाश्वमेि
घाट पर भमले थे। मैं उन् ें दे खते ी लपककर उनके पास आ प ु ूँचा और बोला—
भैया, घर क्यों न ीिं चलते? सब लोग घबड़ाये ुए ैं। ब ू जी ने तीन हदन से पानी
तक वपया। उनका ाल ब ु त बुरा ै। य सुनकर व कुछ सोच में पड़ गये, कफर
बोले—ब ू जी ने क्यों दाना-पानी छोड़ रखा ै ? जाकर क दे ना, ल्जस आराम के
भलए उस घर को न छोड़ सकी, उससे क्या इतनी जकद जी-भर गया !

अम्माूँजी उसी समय आूँगन में आ गयी। म ाराज की बातों की भनक कानों में
पड़ गयी, बोली—क्या ै अलगू, क्या आनन्द भमला था ?

म ाराज— ाूँ, बड़ी ब ू , अभी दशाश्वमेि घाट पर भमले थे। मैंने क ा—घर क्यों
न ीिं चलते, तो बोले—उस घर में मेरा कौन बैठा ु आ ै?
अम्माूँ—क ा न ीिं और कोई अपना न ीिं ै , तो स्त्री तो अपनी ै , उसकी जान
क्यों लेते ो?

म ाराज—मैंने ब ु त समझाया बड़ी ब ू , पर व टस-से-मस न ु ए।

अम्माूँ—करता क्या ै?

म ाराज—य तो मैंने न ीिं पछ


ू ा, पर चे रा ब ु त उतरा ु आ था।

अम्माूँ—ज्यों-ज्यों तुम बूढे ोते ो, शायद सहठयाते जाते ो। इतना तो पूछा


ोता, क ाूँ र ते ो, क ाूँ खाते-पीते ो। तम्
ु ें चाह ए था, उसका ाथ पकड़ लेते
और खीिंचकर ले आते। मगर तम
ु नकम रामों को अपने लवे-मािंडे से मतलब,
चा े कोई मरे या ल्जये। दोनों वक्त बढ-बढकर ाथ मारते ो और मूँछ
ू ों पर ताव
दे ते ो। तुम् ें इसकी क्या परवा ै कक घर में दस
ू रा कोई खाता ै या न ीिं। मैं
तो परवा न करती, व आये या न आये। मेरा िमय पालना-पोसना था, पाल पोस
हदया। अब ज ाूँ चा े र े । पर इस ब ू का क्या करूूँ, जो रो-रोकर प्राण हदये
डालती ै । तम्
ु ें ईश्वर ने आूँखे दी ैं, उसकी ालत दे ख र े ो। क्या मूँु से
इतना भी न फूटा कक ब ू अन्न जल तयाग ककये पड़ी ु ई।

म ाराज—ब ू जी, नारायण जानते ैं , मैंने ब ु त तर समझाया, मगर व तो जैसे


भागे जाते थे। कफर मैं क्या करता।

अम्माूँ—समझाया न ीिं, अपना भसर। तुम समझाते और व यों ी चला जाता।


क्या सारी लच्छे दार बातें मुझी से करने को ै ? इस ब ू को मैं क्या क ू ूँ। मेरे
पतत ने मझ
ु से इतनी बेरूखी की ोती, तो मैं उसकी सरू त न दे खती। पर, इस पर
उसने न-जाने कौन-सा जाद ू कर हदया ै । ऐसे उदाभसयों को तो कुलटा चाह ए,
जो उन् ें ततगनी का नाच नचाये।

कोई आि घिंटे बाद क ार ने आकर क ा—बाबज


ू ी आकर कमरे में बैठे ु ए ैं।
मेरा कलेजा िक-िक करने लगा। जी चा ता था कक जाकर पकड़ लाऊूँ , पर
अम्माूँजी का हृदय सचमच
ु वज्र ै । बोली—जाकर क दे , य ाूँ उनका कौन बैठा

ुआ ै , जो आकर बैठे ैं !

मैंने ाथ जोड़कर क ा—अम्माूँजी, उन् ें अन्दर बल


ु ा लील्जए, क ीिं कफर न चले
जाऍ।िं

अम्माूँ—य ाूँ उनका कौन बैठा ु आ ै , जो आयेगा। मैं तो अन्दर कदम न रखने
दूँ ग
ू ी।

अम्माूँजी तो बबगड़ र ी थी, उिर छोटी ननदजी जाकर आनन्द बाबू को लायी।
सचमुच उनका चे रा उतरा ु आ था, जैसे म ीनों का मरीज ो। ननदजी उन् ें
इस तर खीचें लाती थी, जैसे कोई लड़की ससरु ाल जा र ी ो। अम्माूँजी ने
मस्
ु काराकर क ा—इसे य ाूँ क्यों लायीिं? य ाूँ इसका कौन बैठा ु आ ै?

आनन्द भसर झुकाये अपराधियों की भाूँतत खड़े थे। जबान न खुलती थी।
अम्माूँजी ने कफर पछ
ू ा—चार हदन से क ाूँ थे?

‘क ीिं न ी, य ीिं तो था।’

‘खूब चैन से र े ोगे।’

‘जी ाूँ, कोई तकलीफ न थी।’

‘व तो सूरत ी से मालूम ो र ा ै ।’

ननदजी जलपान के भलए भमठाई लायीिं। आनन्द भमठाई खाते इस तर झेंप र े


थे मानों ससुराल आये ों, कफर माताजी उन् ें भलए अपने कमरे में चली गयीिं।
व ाूँ आि घिंटे तक माता और पुत्र में बातें ोती र ी। मैं कान लगाये ु ए थी, पर
साफ कुछ न सुनायी दे ता था। ाूँ, ऐसा मालूम ोता था कक कभी माताजी रोती
ैं और कभी आन्नद। माताजी जब पज
ू ा करने तनकलीिं, तो उनकी आूँखें लाल
थीिं। आनन्द व ाूँ से तनकले , तो सीिे मेरे कमरे में आये। मैं उन् ें आते दे ख
चटपट मूँु ढाूँपकर चारपाई पर र ी, मानो बेखबर सो र ी ू ूँ। व कमरे में आये,
मुझे चरपाई पर पड़े दे खा, मेरे समीप आकर एक बार िीरे पक
ु ारा और लौट पड़े।
मुझे जगाने की ह म्मत न पड़ी। मुझे जो कष्ट ो र ा था, इसका एकमात्र कारण
अपने को समझकर व मन- ी-मन द:ु खी ो र े थे। मैंने अनुमान ककया था, व
मझ
ु े उठायेंगे, मैं मान करूूँगी, व मनायेंगे, मगर सारे मिंसब
ू े खाक में भमल गए।
उन् ें लौटते दे खकर मझ
ु से न र ा गया। मैं कबकाकर उठ बैठी और चारपाई से
नीचे उतरने लगी, मगर न-जाने क्यों, मेरे पैर लड़खड़ाये और ऐसा जान पड़ा मैं
धगरी जाती ू ूँ। स सा आनन्द ने पीछे कफर कर मुझे सिंभाल भलया और बोले—
लेट जाओ, लेट जाओ, मैं कुरसी पर बैठा जाता ू ूँ। य तुमने अपनी क्या गतत
बना रखी ै?

मैंने अपने को सूँभालकर क ा—मैं तो ब ु त अच्छी तर ू ूँ। आपने कैसे कष्ट


ककया?

‘प ले तुम कुछ भोजन कर लो, तो पीछे मैं कुछ बात करूूँगा।’

‘मेरे भोजन की आपको क्या कफक्र पड़ी ै । आप तो सैर सपाटे कर र े ैं !’

‘जैसे सैर-सपाटे मैंने ककये ैं, मेरा हदल जानता ै । मगर बातें पीछे करूूँगा, अभी
मूँु - ाथ िोकर खा लो। चार हदन से पानी तक मूँु में न ीिं डाला। राम ! राम !’

‘य आपसे ककसने क ा कक मैंने चार हदन से पानी तक मूँु में न ीिं डाला। जब
आपको मेरी परवा न थी, तो मैं क्यों दाना-पानी छोड़ती?’

‘व तो सूरत ी क े दे ती ैं। फूल से… मुरझा गये।’

‘जरा अपनी सरू त जाकर आईने में दे खखए।’


‘मैं प ले ी कौन बड़ा सन्
ु दर था। ठूूँठ को पानी भमले तो क्या और न भमले तो
क्या। मैं न जानता था कक तम
ु य अनशन-व्रत ले लोगी, न ीिं तो ईश्वर जानता
ै , अम्माूँ मार-मारकर भगातीिं, तो भी न जाता।’

मैंने ततरस्कार की दृल्ष्ट से दे खकर क ा—तो क्या सचमच


ु तम
ु समझे थे कक मैं
य ाूँ केवल आराम के ववचार से र गयी?

आनन्द ने जकदी से अपनी भूल सुिरी—न ीिं, न ीिं वप्रये, मैं इतना गिा न ीिं ू ूँ ,
पर य मैं कदावप न समझता था कक तम
ु बबलकुल दाना-पानी छोड़ दोगी। बड़ी
कुशल ु ई कक मझ
ु े म ाराज भमल गया, न ीिं तो तम
ु प्राण ी दे दे ती। अब ऐसी
भूल कभी न ोगी। कान पकड़ता ू ूँ। अम्माूँजी तुम् ारा बखान कर-करके रोती
र ी।

मैंने प्रसन्न ोकर क ा—तब तो मेरी तपस्या सफल ो गयी।

‘थोड़ा-सा दि
ू पी लो, तो बातें ों। जाने ककतनी बातें करनी ै।

‘पी लूँ ग
ू ी, ऐसी क्या जकदी ै ।’

‘जब तक तम
ु कुछ खा न लोगी, मैं य ी समझूँग
ू ा कक तम
ु ने मेरा अपराि क्षमा
न ीिं ककया।’

‘मैं भोजन जभी करूूँगी, जब तम


ु य प्रततञा ा करो कक कफर कभी इस तर
रूठकर न जाओगे।’

‘मैं सच्चे हदल से य प्रततञा ा करता ू ूँ।’

ब न, तीन हदन कष्ट तो ु आ, पर मुझे उसके भलए जरा भी पछतावा न ीिं ै।


इन तीन हदनों के अनशन ने हदलों मे जो सफाई कर दी, व ककसी दस
ू री ववधि
से कदावप न ोती। अब मझ
ु े ववश्वास ै कक मारा जीवन शािंतत से व्यतीत
ोगा। अपने समाचार शीघ्र, अतत शीघ्र भलखना।

तुम् ारी
चन्दा

13

हदकली
20-2-26

प्यारी ब न,

तुम् ारा पत्र पढकर मुझे तुम् ारे ऊपर दया आयी। तुम मुझे ककतना ी बुरा क ो,
पर मैं अपनी य दग
ु तय त ककसी तर न स सकती, ककसी तर न ीिं। मैंने या तो
अपने प्राण ी दे हदये ोते, या कफर उस सास का मूँु न दे खती। तुम् ारा
सीिापन, तुम् ारी स नशीलता, तुम् ारी सास-भल्क्त तुम् ें मुबारक ो। मैं तो
तुरन्त आनन्द के साथ चली जाती और चा े भीख ी क्यों न माूँगनी पड़ती उस
घर में कदम न रखती। मुझे तुम् ारे ऊपर दया ी न ीिं आती, क्रोि भी आता ै,
इसभलए कक तुममें स्वाभभमान न ीिं ै । तम
ु -जैसी ल्स्त्रयों ने ी सासों और परू
ु षों
का भमजाज आसमान चढा हदया ै । ‘ज न्नम
ु में जाय ऐसा घर—ज ाूँ अपनी
इज्जत न ीिं।’ मैं पतत-प्रेम भी इन दामों न लूँ ।ू तुम् ें उन्नीसवी सदी में जन्म
लेना चाह ए था। उस वक्त तुम् ारे गुणों की प्रशिंसा ोती। इस स्वािीनता और
नारी-स्वतव के नवयुग में तुम केवल प्राचीन इतत ास ो। य सीता और
दमयन्ती का युग न ीिं। पुरूषों ने ब ु त हदनों तक राज्य ककया। अब स्त्री-जातत
का राज्य ोगा। मगर अब तम्
ु ें अधिक न कोसूँग
ू ी।

अब मेरा ाल सुनो। मैंने सोचा था, पत्रों में अपनी बीमारी का समाचार छपवा
दूँ ग
ू ी। लेककन कफर ख्याल आया; य समाचार छपते ी भमत्रों का ताूँता लग
जायेगा। कोई भमजाज पछ
ू ने आयेगा। कोई दे खने आयेगा। कफर मैं कोई रानी तो

ू ूँ न ीिं, ल्जसकी बबमारी का बल


ु ेहटन रोजाना छापा जाय। न जाने लोगों के हदल
में कैसे-कैसे ववचार उतपन्न ों। य सोचकर मैंने पत्र में छपवाने का ववचार छोड़
हदया। हदन-भर मेरे धचतत की क्या दशा र ी, भलख न ीिं सकती। कभी मन में
आता, ज र खा लूँ ू, कभी सोचती, क ीिं उड़ जाऊिं। ववनोद के सम्बन्ि में भाूँतत-
भाूँतत की शिंकाऍ िं ोने लगीिं। अब मुझे ऐसी ककतनी ी बातें याद आने लगीिं, जब
मैंने ववनोद के प्रतत उदासीनता का भाव हदखाया था। मैं उनसे सब कुछ लेना
चा ती थी; दे ना कुछ न चा ती थी। मैं चा ती थी कक व आठों प र भ्रमर की
भाूँतत मुझ पर मूँडराते र ें , पतिंग की भाूँतत मुझे घेरे र ें । उन् ें ककताबो और पत्रों
में मग्न बैठे दे खकर मुझे झूँुझला ट ोने लगती थी। मेरा अधिकािंश समय अपने
ी बनाव-भसिंगार में कटता था, उनके ववषय में मुझे कोई धचन्ता ी न ोती थी।
अब मुझे मालूम ु आ कक सेवा का म तव रूप से क ीिं अधिक ै । रूप मन को
मग्ु ि कर सकता ै , पर आतमा को आनन्द प ु ूँचाने वाली कोई दस
ू री ी वस्तु
ै।

इस तर एक फ्ता गुजर गया। मैं प्रात:काल मैके जाने की तैयाररयाूँ कर र ी


थी—य घर फाड़े खाता था—कक स सा डाककये ने मझ
ु े एक पत्र लाकर हदया।
मेरा हृदय िक-िक करने लगा। मैंने काूँपते ु ए ाथों से पत्र भलया, पर भसरनामे
पर ववनोद की पररधचत स्तभलवप न थी, भलवप ककसी स्त्री की थी, इसमें सन्दे
न था, पर मैं उससे सवयथा अपररधचत थी। मैंने तुरन्त पत्र खोला और नीचे की
तरफ दे खा तो चौंक पड़ी—व कुसुम का पत्र था। मैंने एक ी साूँस में सारा पत्र
पढ भलया। भलखा था—‘ब न, ववनोद बाबू तीन हदन य ाूँ र कर बम्बई चले गये।
शायद ववलायत जाना चा ते ैं। तीन-चार हदन बम्बई र ें गे। मैंने ब ु त चा ा
तकक उन् ें हदकली वापस कर दूँ ,ू पर व ककसी तर न राजी ु ए। तुम उन् ें नीचे
भलखे पते से तार दे दो। मैंने उनसे य पता पूछ भलया था। उन् ोंने मुझे ताकीद
कर दी थी कक इस पते को गप्ु त रखना, लेककन तुमसे क्या परदा। तुम तुरन्त
तार दे दो, शायद रूक जायॅ। व बात क्या ु ई ! मुझसे ववनोद ने तो ब ु त
पूछने पर भी न ीिं बताया, पर व द:ु खी ब ु त थे। ऐसे आदमी को भी तुम अपना
न बना सकी, इसका मझ
ु े आश्चयय ै ; पर मझ
ु े इसकी प ले ी शिंका थी। रूप और
गवय में दीपक और प्रकाश का सम्बन्ि ै । गवय रूप का प्रकाश ै ।’…

मैंने पत्र रख हदया और उसी वक्त ववनोद के नाम तार भेज हदया कक ब ु त
बीमार ू ूँ, तरु न्त आओ। मझ
ु े आशा थी कक ववनोद तार द्वारा जवाब दें गे, लेककन
सारा हदन गज
ु र गया और कोई जवाब न आया। बूँगले के सामने से कोई
साइककल तनकलती, तो मैं तुरन्त उसकी ओर ताकने लगती थीिं कक शायद तार
का चपरासी ो। रात को भी मैं तार का इन्तजार करती र ी। तब मैंने अपने
मन को इस ववचार से शािंत ककया कक ववनोद आ र े ैं , इसभलए तार भेजने की
जरूरत न समझी।

अब मेरे मन में कफर शकाएूँ उठने लगी। ववनोद कुसुम के पास क्यों गये, क ीिं
कुसुम से उन् ें प्रेम तो न ीिं ैं? क ीिं उसी प्रेम के कारण तो व मुझसे ववरक्त
न ीिं ो गये ? कुसुम कोई कौशल तो न ीिं कर र ी ैं? उसे ववनोद को अपने घर
ठ राने का अधिकार ी क्या था? इस ववचार से मेरा मन ब ु त क्षुब्ि ो उठा।
कुसम
ु पर क्रोि आने लगा। अवश्य दोनों में ब ु त हदनों से पत्र-व्यव ार ोता र ा
ोगा। मैंने कफर कुसुम का पत्र पढा और अबकी उसके प्रतयेक शब्द में मेरे भलए
कुछ सोचने की सामग्री रखी ु ई थी। तनश्चय ककया कक कुसुम को एक पत्र
भलखकर खूब कोसूँ।ू आिा पत्र भलख भी डाला, पर उसे फाड़ डाला। उसी वक्त
ववनोद को एक पत्र भलखा। तुमसे कभी भें ट ोगी, तो व पत्र हदखलाऊूँगी; जो
कुछ मूँु में आया बक डाला। लेककन इस पत्र की भी व ी दशा ु ई जो कुसम
ु के
पत्र की ु ई थी। भलखने के बाद मालूम ु आ कक व ककसी ववक्षप्त हृदय की
बकवाद ै । मेरे मन में य ी बात बैठती जाती थी व कुसुम के पास ैं। व ी
छभलनी उन पर अपना जाद ू चला र ी ै। य हदन भी बीत गया। डाककया कई
बार आया, पर मैंने उसकी ओर ऑ िंख भी न ीिं उठायी। चन्दा, मैं न ीिं क सकती,
मेरा हृदय ककतना ततलतभमला र ा था। अगर कुसुम इस समय मुझे भमल जाती,
तो मैं न-जाने क्या कर डालती।
रात को लेटे-लेटे ख्याल आया, क ीिं व यरू ोप न चले गये ों। जी बैचन
े ो उठा।
भसर में ऐसा चक्कर आने लगा, मानों पानी में डूबी जाती ू ूँ। अगर व यरू ोप
चले गये, तो कफर कोई आशा न ीिं—मैं उसी वक्त उठी और घड़ी पर नजर डाली।
दो बजे थे। नौकर को जगाया और तार-घर जा प ु ूँची। बाबूजी कुरसी पर लेटे-
लेटे सो र े थे। बड़ी मुल्श्कल से उनकी नीिंद खुली। मैंने रसीदी तार हदया। जब
बाबूजी तार दे चुके, तो मैंने पूछा— इसका जवाब कब तक आयेगा?

बाबू ने क ा—य प्रश्न ककसी ज्योततषी से कील्जए। कौन जानता ै, व कब


जवाब दें । तार का चपरासी जबरदस्ती तो उनसे जवाब न ीिं भलखा सकता। अगर
कोई और कारण न ो, तो आठ-नौ बजे तक जवाब आ जाना चाह ए।

घबरा ट में आदमी की बुव्ध पलायन कर जाती ै । ऐसा तनरथयक प्रश्न करके मैं
स्वयिं लल्ज्जत ो गयी। बाबूजी ने अपने मन में मुझे ककतना मूखय समझा ोगा;
खैर, मैं व ीिं एक बेंच पर बैठ गयी और तुम् ें ववश्वास न आयेगा, नौ बजे तक
व ीिं बैठी र ी। सोचो, ककतने घिंटे ु ए? परू े सात घिंटे। सैकड़ों आदमी आये और
गये, पर मैं व ीिं जमी बैठी र ी। जब तार का डमी खटकता, मेरे हृदय में िड़कन
ोने लगती। लेककन इस भय से कक बाबूजी झकला न उठें , कुछ पूछने का सा स
न करती थीिं। जब दफ्तर की घड़ी में नौ बजे, तो मैंने डरते-डरते बाबू से पूछा—
क्या अभी तक जवाब न ीिं आया।

बाबू ने क ा— आप तो य ीिं बैठी ैं, जवाब आता तो क्या मैं खा डालता? मैंने
बे याई करके कफर पूछा—तो क्या अब न आवेगा? बाबू ने मूँु फेरकर क ा—
और—दो-चार घिंटे बैठी रह ए।

ब न, य वाग्बाण शर के समान हृदय में लगा। आूँखे भर आयीिं। लेककन कफर मैं
व टली न ीिं। अब भी आशा बूँिी ु ई थी कक शायद जवाब आता ो। जब दो
घिंटे और गुजर गये, तब मैं तनराश ो गयी। ाय ! ववनोद ने मुझे क ीिं का न
रखा। मैं घर चली, तो ऑ िंखें से आूँसुओिं की झड़ी लगी ु ई थी। रास्ता न सूझता
था।
स सा पीछे से एक मोटर का ानय सुनायी हदया। मैं रास्ते से ट गयी। उस
वक्त मन में आया, इसी मोटर के नीचे लेट जाूँऊ और जीवन का अन्त कर दूँ ।ू
मैंने ऑ िंखे पोंछकर मोटर की ओर दे खा, भुवन बैठा ु आ था और उसकी बगल में
बैठी थी कुसम
ु ! ऐसा जान पड़ा, अल्ग्न की ज्वाला मेरे पैरों से समाकर भसर से
तनकल गयी। मैं उन दोनों की तनगा ों से बचना चा ती थी, लेककन मोटर रूक
गयी और कुसुम उतर कर मेरे गले से भलपट गयी। भुवन चुपचाप मोटर में बैठा
र ा, मानो मुझे जानता ी न ीिं। तनदय यी, िूतय !

कुसम
ु ने पछ
ू ा—मैं तो तम्
ु ारे पास जाती थी, ब न? व ाूँ से कोई खबर आयी? मैंने
बात टालने के भलए क ा—तुम कब आयीिं?

भव
ु न के सामने मैं अपनी ववपल्तत-कथा न क ना चा ती थी।

कुसुम—आओ, कार में बैठ जाओ।

‘न ीिं, मैं चली जाउूँ गी। अवकाश भमले, तो एक बार चली आना।’

कुसम
ु ने मझ
ु से आग्र न ककया। कार में बैठकर चल दी। मैं खड़ी ताकती र
गयी ! य व ी कुसम
ु ै या कोई और? ककतना बड़ा अन्तर ो गया ै?

मैं घर चली, तो सोचने लगी—भुवन से इसकी जान-प चान, कैसे ु ई? क ीिं ऐसा
तो न ीिं ै कक ववनोद ने इसे मेरी टो लेने को भेजा ो ! भव
ु न से मेरे ववषय
में कुछ पछ
ू ने तो न ीिं आयी ैं?

मैं घर प ु ूँचकर बैठी ी थी कक कुसुम आ प ु ूँची। अब की व मोटर में अकेली


न थी—ववनोद बैठे ु ए थे। मैं उन् े दे खकर हठठक गयी ! चाह ए तो य था कक
मैं दौड़कर उनका ाथ पकड़ लेती और मोटर से अतार लाती, लेककन मैं जग से
ह ली तक न ीिं। मूततय की भाूँतत अचल बैठी र ी। मेरी मातननी प्रकृतत आपना
उद्दण्ड-स्वरूप हदखाने के भलए ववकल ो उठी। एक क्षण में कुसुम ने ववनोद को
उतारा और उनका ाथ पकड़े ु ये ले आयी। उस वक्त मैंने दे खा कक ववनोद का
मख
ु बबलकुल पीला पड़ गया ै और व इतने अशक्त ो गये ैं कक अपने
स ारे खड़े भी न ीिं र सकते, मैंने घबराकर पूछा, क्यों तुम् ारा य क्या ाल ै?

कुसम
ु ने क ा— ाल पीछे पछ
ू ना, जरा इनकी चौपाई चटपट बबछा दो और थोडा-
सा दि
ू मूँगवा लो।

मैंने तुरन्त चारपाई बबछायी और ववनोद को उस पर लेटा हदया। और दि


ू तो
रखा ु आ था। कुसम
ु इस वक्त मेरी स्वाभमनी बनी ु ई थी। मैं उसके इशारे पर
नाच र ी थी। चन्दा, इस वक्त मझ
ु े ञा ात ु आ कक कुसम
ु पर ववनोद को ल्जतना
ववश्वास ै, व मुझ पर न ीिं। मैं इस योग्य ू ूँ ी न ीिं। मेरा हदल सैकड़ों प्रश्न
पूछने के भलए तड़फड़ा र ा था, लेककन कुसुम एक पल के भलए भी ववनोद के
पास से ने टलती थी। मैं इतनी मूखय ू ूँ कक अवसर पाने पर इस दशा में भी मैं
ववनोद से प्रश्नों का ताूँता बाूँि दे ती।

ववनोद को जब नीिंद आ गयी, मैंने ऑ िंखो में ऑ िंसू भरकर कुसुम से पूछा—ब न,
इन् ें क्या भशकायत ै ? मैंने तार भेजा। उसका जवाब न ीिं आया। रात दो बजे
एक जरुरी और जवाबी तार भेजा। दस बजे तक तार-घर बैठी जवाब की रा
दे खती र ी। व ीिं से लौट र ी थी, जब तम
ु रास्ते में भमली। य तम्
ु े क ाूँ भमल
गये?

कुसुम मेरा ाथ पकड़कर दस


ू रे कमरे में ले गयी और बोली—प ले तुम य
बताओिं कक भव
ु न का क्या मआ
ु मला था? दे खो, साफ, क ना।

मैंने आपल्तत करते ु ए क ा—कुसुम, तुम य प्रश्न पूछकर मेरे साथ अन्याय कर
र ी ो। तुम् ें खुद समझ लेना चाह ए था कक इस बात में कोई सार न ीिं ै !
ववनोद को केवल भ्रम ो गया।

‘बबना ककसी कारण के?’


‘ ाूँ, मेरी समझ में तो कोई कारण न था।’

‘मैं इसे न ीिं मानती। य क्यों न ीिं क तीिं कक ववनोद को जलाने , धचढाने और
जगाने के भलए तुमने य स्वाूँग रचा था।’

कुसम
ु की सझ
ू पर चककत ोकर मैंने क ा—व तो केवल हदकलगी थी।

‘तुम् ारे भलए हदकलगी थी, ववनोद के भलए वज्रपात था। तुमने इतने हदनों उनके
साथ र कर भी उन् ें न ीिं समझा ! तुम् ें अपने बनाव-सूँवार के आगे उन् ें
समझने की क ाूँ फुरसत ? कदाधचत तम
ु समझती ो कक तुम् ारी य मो नी
मतू तय ी सब कुछ ै । मैं क ती ू ूँ, इसका मक
ू य दो-चार म ीने के भलए ो सकता
ै । स्थायी वस्तु कुछ और ी ै ।’

मैंने अपनी भल
ू स्वीकार करते ु ए क ा—ववनोद को मझ
ु से कुछ पछ
ू ना तो
चाह ए था?

कुसुम ने ूँसकर क ा—य ी तो व न ी कर सकते। तुमसे ऐसी बात पूछना


उनके भलए असम्भव ै। व उन प्राखणयों में ै , जो स्त्री की ऑ िंखें से धगरकर
जीते न ीिं र सकते। स्त्री या परू
ु ष ककसी के भलए भी व ककसी प्रकार का
िाभमयक या नैततक बन्िन न ीिं रखना चा ते। व प्रतयेक प्राणी के भलए पूणय
स्वािीनता के समथयक ैं। मन और इच्छा के भसवा व कोई बिंिन स्वीकार न ीिं
करते। इस ववषय पर मेरी उनसे खूब बातें ुई ैं। खैर—मेरा पता उन् ें मालूम
था ी, य ाूँ से सीिे मेरे पास प ु ूँच।े मैं समझ गई कक आपस में पटी न ीिं। मुझे
तम्
ु ीिं पर सन्दे ु आ।

मैंने पूछा—क्यों? मुझ पर तुम् ें क्यों सन्दे ु आ?

‘इसभलए कक मैं तुम् े प ले दे ख चुकी थी।’


‘अब तो तम्
ु ें मझ
ु पर सन्दे न ीिं।’

‘न ीिं, मगर इसका कारण तुम् ारा सिंयम न ीिं, परम्परा ै । मैं इस समय स्पष्ट
बातें कर र ीिं ूिं , इसके भलए क्षमा करना।’

‘न ीिं, ववनोद से तुम् ें ल्जतना प्रेम ै , उससे अधिक अपने-आपसे ै । कम-से-कम


दस हदन प ले य ी बात थी। अन्यथा य नौबत ी क्यों आती? ववनोद य ाूँ से
सीिे मेरे पास गये और दो-तीन हदन र कर बम्बई चले गये। मैंने ब ु त पूछा,
पर कुछ बतलाया न ीिं। व ाूँ उन् ोंने एक हदन ववष खा भलया।’

मेरे चे रे का रिं ग उड़ गया।

‘बम्बई प ु ूँचते ी उन् ोंने मेरे पास एक खत भलखा था। उसमें य ाूँ की सारी
बातें भलखी थीिं और अन्त में भलखा था—मैं इस जीवन से तिंग आ गया ू ूँ , अब
मेरे भलए मौत के भसवा और कोई उपाय न ीिं ै। ’

मैंने एक ठिं डी साूँस ली।

‘मैं य पत्र पाकर घबरा गयी और उसी वक्त बम्बई रवाना ो गयी। जब व ाूँ
प ु ूँची, तो ववनोद को मरणासन्न पाया। जीवन की कोई आशा न ीिं थी। मेरे एक
सम्बन्िी व ाूँ डाक्टारी करते ैं। उन् ें लाकर हदखाया तो व बोले —इन् ोंने ज र
खा भलया ै । तुरन्त दवा दी गयी। तीन हदन तक डाक्टर सा ब न हदन-को-हदन
और रात-को-रात न समझा, और मैं तो एक क्षण के भलए ववनोद के पास से न
टी। बारे तीसरे हदन इनकी ऑ िंख खुली। तुम् ारा प ला तार मुझे भमला था, पर
उसका जवाब दे ने की ककसे फुरसत थी? तीन हदन और बम्बई र ना पड़ा। ववनोद
इतने कमजोर ो गये थे कक इतना लम्बा सफर करीनाउनके भलए असम्भव था।
चौथे हदन मैंने जब उनसे य ाूँ आने का प्रस्ताव ककया, तो बोले—मैं अब व ाूँ न
जाऊूँगा। जब मैंने ब ु त समझाया, तब इस शतय पर राजी ु ए ताकक मैं प ले
आकर य ाूँ की पररल्स्थतत दे ख जाऊिं।’
मेरे मूँु से तनकला—‘ ा ! ईश्वर, मैं ऐसी अभाधगनी ू ूँ।’

‘अभाधगनी न ीिं ो ब न, केवल तम


ु ने ववनोद को समझा न था। व चा ते थे
कक मैं अकेली जाऊूँ, पर मैंने उन् ें इस दशा में व ॉ छोड़ना उधचत न समझा।
परसों म दोनों व ाूँ चले। य ाूँ प ु ूँचकर ववनोद तो वेहटिंग-रूम में ठ र गये, मैं
पता पूछती ु ई भुवन के पास प ु ूँची। भुवन को मैंने इतना फटकारा कक व रो
पड़ा। उसने मुझसे य ाूँ तक क डाला कक तुमने उसे बुरी तर दतु कार हदया ै।
आूँखों का बरु ा आदमी ै , पर हदल का बरु ा न ीिं। उिर से जब मझ
ु े सन्तोष ो
गया और रास्ते में तम
ु से भें ट ो जाने पर र ा-स ा भ्रम भी दरू ो गया, तो मैं
ववनोद को तुम् ारे पास लायी। अब तुम् ारी वस्तु तुम् ें सौपतीिं ू ूँ। मुझे आशा ै,
इस दघ
ु ट
य ना ने तुम् ें इतना सचेत कर हदया ोगा कक कफर नौबत न आयेगी।
आतमसमपयण करना सीखो। भल
ू जाओ कक तुम सुन्दरी ो, आनन्दमय जीवन का
य ी मूल मिंत्र ै । मैं डीिंग न ीिं मारती, लेककन चा ू ूँ तो आज ववनोद को तुमसे
छीन सकती ू ूँ। लेककन रूप में मैं तम्
ु ारे तलओ
ु िं के बराबर भी न ीिं। रूप के
साथ अगर तम
ु सेवा-भाव िारण कर सको, तो तम
ु अजेय ो जाओगी।’

मैं कुसुम के पैरों पर धगर पड़ी और रोती ु ई बोली—ब न, तुमने मेरे साथ जो
उपकार ककया ै , उसके भलए मरते दम तक तम्
ु ारी ऋणी र ू ूँ गी। तम
ु ने न
स ायता की ोती, तो आज न-जाने क्या गतत ोती।

ब न, कुसुम कल चली जायगी। मुझे तो अब व दे वी-सी दीखती ै । जी चा ता


ै , उसके चरण िो-िोकर पीऊूँ। उसके ाथों मझ
ु े ववनोद ी न ीिं भमले ैं, सेवा का
सच्चा आदशय और स्त्री का सच्चा कततयव्य-ञा ान भी भमला ै । आज से मेरे
जीवन का नवयुग आरम्भ ोता ै , ल्जसमें भोग और ववलास की न ीिं, सहृदयता
और आतमीयता की प्रिानता ोगी।

तुम् ारी,
पद्मा
माूँगे की घड़ी

मेरी समझ में आज तक य बात न आई कक लोग ससुराल जाते ैं, तो इतना


ठाट-बाट क्यों बनाते ैं , आखखर इसका उद्देश्य क्या ोता ैं ? म अगर लखपतत ैं
तो क्या, और रोहटयों को मु ताज ैं तो क्या, वववा तो ो ी चुका, अब ठाट का
मारे ऊपर क्या असर पड़ सकता ैं। वववा के प ले उससे कुछ काम तनकल
सकता ैं, मारी सम्पन्नता बातचीत पक्की करने में ब ु त-कुछ स ायक ो
सकती ैं लेककन तब वववा ो गया, दे वीजी मारे घर का सारा र स्य जान गई
और तनःसन्दे अपने माता-वपता से रो-रोकर अपने दभ
ु ायग्य की कथा भी क
सन
ु ाई, तो मारा य ठाट ातन के भसवा लाभ न ीिं प ु ूँचा सकता। फटे ालों
दे खकर, सम्भव ैं, मारी सासजी को कुछ दया आ जाती और ववदाई के ब ाने
कोई माकूल रकम मारे ाथ लग जाती। य ठाट दे खकर तो व अवश्य ी
समझेंगी कक इसका भसतारा चमक उठा ै , जरूर क ीिं-न-क ीिं से माल मार लाया
ैं। उिर नाई और क ार इनाम के भलए बड़े-बड़े मूँु फैलाऐिंगे, व अलग।
दे वीजी को भी भ्रम ो सकता ैं , मगर य सब जानते और समझते ु ए मैंने
परसाल ोभलयों में ससरु ाल जाने के भलए बड़ी-बड़ी तैयाररयाूँ की।

रे श्मी अचकन ल्जन्दगी में कभी न प नी थी, फ्लैक्स के बूटों का भी स्वप्न दे खा


करता था। अगर नकद रुपए दे ने का प्रश्न ोता, तो शायद य स्वप्न ी र ता,
पर एक दोस्त की कृपा से दोनो चीजें उिर भमल गई, चमड़े का सूटकेस एक
भमत्र से माूँग लाया, दरी फट गई थी, और नई दरी उिार भमल भी सकती थी
लेककन बबछावन ले जाने की जरूरत न समझी, अब केवल ररस्ट-वाच की और
कमी थी, यों तो दोस्तों में ककतनों ी के पास ररस्ट-वाच थी, मेरे भसवा ऐसे
अभागे ब ु त कम ोंगे, ल्जनके पास ररस्ट-वाच न ो, लेककन मैं सोने की घड़ी
चा ता था और व केवल दानू के पास थी, मगर दानू से मेरी बेतककलुकी न थी,
दानू रूखा आदमी था, मगनी की चीजों का लेना और दे ना दोनों ी पाप समझता
था, ईश्वर ने माना ैं , व इस भस्ध ान्त का पालन कर सकता ैं , मैं कैसे कर
सकता ू ूँ , जानता था कक व साफ इिंकार करे गा, पर हदल न माना।

खश
ु ामद के बल पर मैंने अपने जीवन में बड़े-बड़े काम कर हदखाए ैं, इसी
खश
ु ामद की बदौलत आज म ीने 30 रुपए फटकारता ू ूँ, एक जार ग्रेजए
ु टों से
कम उम्मीदवार न थे, लेककन सब मूँु ताकते र गए और बन्दा मूँछ
ू ों पर ताव
दे ता ु आ घर आया, जब इतना बड़ा पाला मार भलया, तो दो-चार हदन के भलए
घड़ी माूँग लाना कौन-सा बड़ा मुल्श्कल काम था। शाम को जाने की तैयारी थी,
प्रातःकाल दानू के पास प ु ूँचा और उनके छोटे बच्चे को, जो बैठक के सामने
स न में खेल र ा था, गोद में उठाकर भीिंच-भीिंचकर प्यार करने, दानू ने प ले तो
मझ
ु े आते दे खकर जरा तयोररयाूँ चढाई थी, लेककन मेरा य वातसतय दे खकर कुछ
नरम पड़े, उनके ोटों के ककनारे जरा फैल गए कफर बोले - 'खेलने दो दष्ु ट को,
तुम् ारा कुरता मैला ु आ जाता ैं, मैं तो इसे कभी छूता भी न ीिं।'

मैने कृभमत्र ततरस्कार का भाव हदखाकर क ा- 'मेरा कुताय मैला ो र ा ैं न, आप


इसकी क्यों किक करते ैं। वा , ऐसा फूल-सा बालक और उसकी य कदर, तुम
जैसों को तो ईश्वर ना क ी सन्तान दे ता ैं , तुम् ें भारी मालूम ोता ैं, तो
लाओ मुझे दे दो।'

य क कर मैंने बालक को किंिे पर बैठा भलया और स न में कोई पन्द्र भमनट


तक उचकता कफरा, बालक खखलखखलाता था और मुझे दम न लेने दे ता था। य ाूँ
तक की दानू ने उसे मेरे किंिे से उतारकर जमीन पर बैठा हदया और बोले -
'कुछ पान-पतता तो लाया न ीिं, उकटे सवारी कर बैठा। जा, अम्मािं से पान बनवा
ला।'

बालक मचल गया। मैंने उसे शान्त करने के भलए दानू को कके दो-तीन िप
जमाए और उनकी ररस्ट-वाच से सुसल्ज्जत कलाई पकड़कर बोला - 'ले लो बेटा,
इनकी घड़ी ले लो। य ब ु त मारा करते ै तम्
ु ें । आप तो घड़ी लगाकर बैठे ै
और मारे मन्
ु ने के पास न ीिं।'

मैंने चुपके से ररस्ट-वाच खोलकर बालक की बाूँ में बाूँि दी और तब उसे गोद
में उठाकर बोला - 'भैया, अपनी घड़ी में दे दो।'

सयाने बाप के बेटे भी सयाने ोते ै । बालक ने घड़ी को दस


ू रे ाथ से तछपा कर
क ा - 'तुमको न ीिं दें गे।'

मगर मैंने अन्त में उसे फुसलाकर घड़ी ले ली और अपनी कलाई पर बाूँि ली।
बालक पान लेने चला गया। दानू बाबू अपनी घड़ी के अलौककक गुणों की प्रशिंसा
करने लगे। ऐसी सच्ची समय बताने वाली घड़ी आज तक कम-से-कम मैंने न ीिं
दे खी।

मैंने अनुमोदन ककया - ' ै भी तो ल्स्वस।'

दानू - 'अजी, ल्स्वस ोने से क्या ोता ै । लाखों ल्स्वस घडड़याूँ दे ख चुका ु ई,
ककसी को सदी, ककसी को जुकाम, ककसी को गहठया, ककसी को लकवा। जब दे खखए,
तब अस्पताल में पड़ी ै । घड़ी की प चान चाह ए और य कोई आसान काम
न ीिं। कुछ लोग समझते ै , ब ु त दाम खचय कर दे ने से अच्छी घड़ी भमल जाती
ै । मैं क ता ू ूँ तम
ु गिे ो। दाम खचय करने से ईश्वर न ीिं भमला करते। ईश्वर
भमलता ै , ञा ान से और घड़ी भमलती ै ञा ान से। फासेट सा ब को तो जानते
ोगे। बस, बन्दा ऐसों ी की खोज में र ता ै । एक हदन आकर बैठ गया। शराब
की चाट थी, जेब में रुपए नदारद। मैं 25 रुपए में य घड़ी ले ली। इसकी तीन
साल ोते ै और आज तक एक भमनट का फकय न ीिं पड़ा। कोई इसके सौ
आूँकता ै , कोई दो सौ, कोई साढे तीन सौ, कोई पौने पाूँच सौ। मगर मैं क ता ू ूँ,
तम
ु सब गिे ो। एक जार से नीचे ऐसी घड़ी न ीिं भमल सकती। पतथर पर
पटक दो, क्या मजाल की बाल भी आए।'
मैंने क ा - 'तब तो यार एक हदन के भलए मिंगनी दे दो। बा र जाना ै । औरों
को भी इसकी करामात सन
ु ाऊूँगा।'

दानू - 'मिंगनी तो तुम जानते ो। मैं कोई चीज न ीिं दे ता। क्यों न ीिं दे ता, इसकी
कथा सन
ु ाने बैठूूँ, तो अभलफलैला की दास्तान ो जाए। उसका सारािंश य ै कक
मिंगनी में चीज दे ना भमत्रता की जड़ खोदना, मरु ौवत का गला घोंटना और अपने
घर में आग लगना ै । आप ब ु त उतसुक मालूम ोते ै , इसभलए दो-एक घटनाएूँ
सुना ू दूँ ।ू आपको फुरसत ै न? ाूँ, आज तो दफ्तर बन्द ै ।'

तो सतु नए - 'एक सा ब लालटे नें मिंगनी ले गए। लौटाने आए, तो धचमतनयाूँ सब


टूटी ु ई। पूछा, य आपने क्या ककया?'

सो बोले - 'जैसी गई थी, वैसी आई। य तो आपने न क ा था कक उनके बदले


नई लालटे नें लूँ ग
ू ा।'

वा सा ब वा , य अच्छा रोजगार तनकाला। बताइए, क्या करता। एक दस


ू रे
म ाशय कालीन ले गए। बदले में एक फटी ु ई दरी ले आए। पछ
ू ा, तो बोले -
'सा ब, आपको तो य दरी भमल भी गई। मैं ककसके सामने जाकर रोऊूँ , मेरी पाूँच
कालीनों का पता न ीिं। कोई सा ब सब समेट ले गए।'

'बताइए, उनसे क्या क ता? तब से मैंने कान पकड़े कक अब ककसी के साथ य


व्यव ार ी न करूूँगा। सारा श र मझ
ु े बेमरु ौवत, मक्खीचस
ू और जाने क्या-क्या
क ता ै । पर मैं परवा न ीिं करता लेककन आप बा र जा र े ै और ब ु त-से
आदभमयों से आपकी मुलाकात ोगी। सम्भव ैं, कोई इस घड़ी का गा क जाए।
इसभलए आपके साथ इतनी सख्ती न करूूँगा। ाूँ, इतना अवश्य क ू ूँगा कक मैं
इसे तनकालना चा ता ू ूँ और आपसे मुझे स ायता भमलने की पूरी उम्मीद ै।
अगर कोई दाम लगाए, तो मझ
ु से आकर कह एगा।'
मैं य ाूँ से कलाई पर घड़ी बाूँिकर चला, तो जमीन पर पाूँव न पड़ते थे। घड़ी
भमलने की इतनी खश
ु ी न थी, ल्जतनी एक मड्
ु ढ पर ववजय पाने की। कैसा फाूँसा
ै बच्चा को व समझते थे कक मैं ी बड़ा सयाना ू ूँ। य न ीिं जानते थे य ाूँ
उनके भी गुरुघिंटाल ै।

उसी हदन शाम को मैं सुसराल जा प ु ूँचा। अब य गुतथी खुली कक लोग क्यों
ससुराल जाते वक्त इतना ठाट-बाट करते ै । सारे घर में लचल पड़ गई। मुझ
पर ककसी की तनगा न थी, सभी मेरा साज-सामान दे ख र े थे। क ार पानी
लेकर दौड़ा, एक साला भमठाई की तश्तरी लाया, दस
ू रा पान की। नाइन झाूँककर
दे ख गई औऱ ससुरजी की आूँखों में तो ऐसा गवय झलक र ा था, मानो सिंसार को
उनके तनवायचन-कौशल पर भसर झुकाना चाह ए। मैं 30 रुपए म ीने का नौकर
इस शान से बैठा ु आ था, जैसे बड़े बाबू दफ्तर मे बैठते ै । क ार पिंखा झल र ा
ै , नाइन पाूँव िो र ी थी, एक साला बबठावन बबछा र ा था, दस
ू रा िोती भलए
खड़ा था कक मैं पजामा उतारूूँ। य सब उसी ठाट की करामात थी।

रात को दे वीजी ने पूछा - 'सब रुपए उड़ा आए कक कुछ बचा भी ै ?'

मेरा सारा प्रेमोतसा भशधथल पड़ गया। न क्षेम , न कुशल, न प्रेम की कोई
बातचीत, बस ाय, रुपए, ाय रुपए। जी में आया कक इसी वक्त उठकर चल दूँ ,ू
लेककन जब्त कर गया। बोला - 'मेरी आमदनी जो कुछ ै, व तो तुम् ें मालूम
ी ै ।'

'मैं क्या जानूँू, तुम् ारी क्या आमदनी ै , कमाते ोंगे अपने भलए मेरे भलए क्या
करते ो? तुम् ें तो भगवान ने औरत बनाया ोता, तो अच्छा ोता। रात-हदन
किंघी-चोटी ककया करते, तुम ना क मदय बने। अपने शौक-भसिंगार से बचत ी न ीिं,
दस
ू रों की किक तम
ु क्या करोगे?'
मैंने झिंझलाकर क ा - 'क्या तुम् ारी य ी इच्छा ै कक इसी वक्त चला जाऊूँ?'

दे वीजी ने भी तयोररयाूँ चढाकर क ा - 'चले क्यों न ीिं जाते, मैं तो तुम् ें बुलाने न
गई थी, या मेरे भलए कोई रोकड़ लाए ो?'

मैंने धचल्न्तत स्वर में क ा - 'तुम् ारी तनगा में प्रेम का कोई मूकय न ीिं, जो
कुछ ै, व रोकड़ ी ै ?'

दे वीजी ने तयोररयाूँ चढाए ु ए स्वर में क ा - 'प्रेम अपने-आपसे करते ोंगे, मुझसे
तो न ीिं करते।'

'तम
ु ने प ले तो य भशकायत कभी न थी।'

'इससे य तो तुमको मालूम ो ी गया कक मैं रोकड़ की परवा न ीिं करती,


लेककन दे खती ू ूँ कक ज्यों-ज्यों तम्
ु ारी दशा सि
ु र र ी ै , तम्
ु ारा हृदय भी बदल
र ा ै । इससे तो य ी अच्छा था कक तम्
ु ारी व ी दशा बनी र ती। तम्
ु ारे साथ
उपवास कर सकती ू ूँ, फटे -चीथड़े प नकर हदन काट सकती ू ूँ, लेककन य न ीिं
ो सकता कक तुम चैन करो और मैं मैके में पड़ी भाग्य को रोया करूूँ। मेरा प्रेम
उतना स नशील न ी ैं। '

सालों और नौकरों ने मेरा जो आदर-सम्मान ककया था, उसे दे खकर मैं अपने ठाट
पर फूला न समाया था। अब य ाूँ मेरी जो अव े लना ो र ी थी, उसे दे खकर मैं
पछता र ा था कक व्यथय ी य स्वािंग भरा। अगर सािारण कपड़े प ने , रोनी
सूरत बनाए आता, तो बा र वाले चा े अनादर करते लेककन दे वीजी तो प्रसन्न
र तीिं पर अब भल
ू ो गई थी। दे वीजी की बातों पर मैंने गौर ककया, तो मझ
ु े
उनसे स ानभ
ु तू त ो गई। यहद दे वीजी परु
ु ष ोतीिं और मैं उनकी स्त्री, तो क्या
मुझे य ककसी तर भी सह्य ोता कक व तो छै ला बने घूमें और मैं वपिंजरे में
बन्द दाने और पानी को तरसूँ।ू चाह ए य था कक दे वीजी से सारा र स्य क
सुनाता, पर आतमगौरव ने इसे ककसी तर स्वीकार न ककया। स्वाूँग भरना सवयथा
अनधु चत था, लेककन पदाय खोलना तो भीषण पाप था। आखखर मैंने कफर उसी
खश
ु ामद से काम लेने का तनश्चय ककया, ल्जसने इतने कहठन अवसरों पर मेरा
साथ हदया था। प्रेम पुलककत किंठ से बोला - 'वप्रय, सच क ता ू ूँ, मेरी दशा अब
भी व ी ै लेककन तुम् ारे दशयनों की इच्छा इतनी बलबती ो गई थी कक उिार
कपड़े भलए, य ाूँ तक कक अभी भसलाई भी न ीिं दी। फटे ाल आते सिंकोच ोता
था कक सबसे प ले तुमको दःु ख ोगा और तुम् ारे घरवालें भी दख
ु ी ोंगे। अपनी
दशा जो कुछ ै, व तो ै ी, उसकी हढिंढोरा पीटना तो और भी लज्जा की बात
ै ।'

दे वीजी ने शान्त ोकर क ा - 'तो उिार भलया?'

'और नकद क ाूँ िरा था?'

'घड़ी भी उिार ली?'

' ाूँ, एक जान-प चान की दक


ु ान से ले ली।'

'ककतने की ै ?'

बा र ककसी ने पछ
ू ा ोता, तो मैंने 500 रुपए से कौड़ी कम न बताया ोता,
लेककन य ाूँ मैंने 25 रुपए बताया।

'तब तो सस्ती भमल गई।'

'और न ीिं तो मैं फूँसता ी क्यों?'

'इसे मुझे दे ते जाना।'

ऐसा जान पड़ा मेरे शरीर में रक्त ी न ीिं र ा। सारे अवयव तनस्पन्द ो गए।
इिंकार करता ू ूँ , तो न ीिं बचता, स्वीकार करता ू ूँ, तो भी न ीिं बचता। आज
प्रातःकाल य घड़ी मिंगनी पाकर मैं फूला न समाया था। इस समय य ऐसी
मालम
ू ु ई, मानो कौडड़याला (ज रीला साूँप) किंु डली मारे बैठा ो। बोला -'तम्
ु ारे
भलए कोई अच्छी घड़ी ले लूँ ूगा।'

'जी न ीिं, माफ कील्जए, आप ी दस


ू री घड़ी ले लील्जएगा। मझ
ु े तो य ी अच्छी
लगती ै । कलाई पर बाूँिे र ू ूँगी, जब-जब इस पर आूँखें पड़ेगी, तम्
ु ारी याद
आएगी। दे खो, तुमने आज तक मुझे फूटी कौड़ी भी कभी न ीिं दी। अब इिंकार
करोगे, तो कफर कोई चीज न माूँगूँग
ू ी।'

दे वीजी ने कोई चीज माूँगने से मझ


ु े ककसी ववशेष ातन का भय न ोना चाह ए
था, बल्कक उनके इस ववराग का स्वागत करना चाह ए था, पर न जाने क्यों मैं
डर गया। कोई ऐसी युल्क्त सोचने लगा कक य राजी ो जाए और घड़ी भी न
दे नी पड़े। कफर बोला - 'घड़ी क्या चीज ै तुम् ारे भलए जान ाल्जर ै । वप्रए
लाओ, तुम् ारी कलाई पर बाूँि दूँ ,ू लेककन बात य ै कक वक्त का ठीक-ठीक
अन्दाज न ोने से कभी-कभी दफ्तर प ु ूँचने में दे र ो जाती ै और व्यथय की
फटकार सन
ु नी पड़ती ै । घड़ी तम्
ु ारी ै , ककन्तु जब तक दस
ू री घड़ी न ले लूँ ू,
इसे मेरे पास र ने दो। मैं ब ु त जकद कोई सस्ते दामों की घड़ी अपने भलए ले
लूँ ग
ू ा। और तुम् ारी घड़ी तुम् ारे पास भेज दूँ ग
ू ा। इसमें तो तम्
ु ें कोई आपल्तत न
ोगी।'

दे वीजी ने अपनी कलाई पर घड़ी बाूँिते ु ए क ा - 'राम जाने, तुम बड़े


चकमेबाज ो। बातें बनाकर काम तनकालना चा ते ो। य ाूँ ऐसी कच्ची गोभलयाूँ
न ीिं खेली ै । य ाूँ से जाकर दो-चार हदन में दस
ू री घड़ी ले लेना। दो-चार हदन
जरा सबेरे दफ्तर चले जाना।'

अब मुझे और कुछ क ने का सा स न ीिं ु आ। कलाई से घड़ी जाते ी हृदय पर


धचन्ता का प ाड़-सा बैठ गया। सुसराल में दो हदन र ा, पर उदास और धचल्न्तत।
दानू-बाबू को क्या जवाब दूँ ग
ू ा, य प्रश्न ककसी गुप्त वेदना की भाूँतत धचतत को
मसोसता र ा।
घर प ु ूँ चकर जब मैंने सजल नेत्र ोकर दानू बाबू से क ा -घड़ी तो क ीिं खो गई,
तो खेद या स ानभ
ु तू त का एक शब्द भी मूँु से तनकालने के बदले उन् ोंने बड़ी
तनदय यता से क ा - 'इसीभलए मैं तुम् ें घड़ी न दे ता था। आखखर व ी ु आ,
ल्जसकी मुझे शिंका थी। मेरे पास व घड़ी तीन साल र ी, एक हदन ङी इिर-उिर
न ु ई। तुमने तीन हदन में वारा-न्यारा कर हदया, आखखर क ाूँ गए थे?'

मैं तो डर र ा था कक दानू बाबू न जाने ककतनी घुड़ककयाूँ सुनाएूँगे। उनकी य


क्षमाशीलता दे खकर मेरी जान-में -जान आई। बोला -'जरा ससुराल चला गया था।'

'तो भाभी को भलवा लाए?'

'जी, भाभी को भलवा लाता, अपना गुजर ोता न ीिं, भाभी को भलवा लाता?'

'आखखर तुम इतना कमाते ो, उसका क्या करते ो?'

'कमाता क्या ू ूँ , अपना भसर! 30 रुपए म ीने का नौकर ू ूँ।'

'तो तीसों खचय कर डालते ो?'

'क्या 30 रुपए मेरे भलए ब ु त ै ?'

'जब तम्
ु ारी कुल आमदनी 30 रुपया ै , तो य सब अपने ऊपर खचय करने का
तुम् ें अधिकार न ीिं ै । बीवी कब तक मैके में पड़ी र े गी।'

'जब तक और तरक्की न ीिं ोती, तब तक मजबरू ी ै , ककस बबरते पर बल


ु ाऊूँ?'

'और तरक्की दो-चार साल न ो तो?'

'य तो ईश्वर ी ने क ा ै , इिर तो ऐसी आशा न ीिं ै ।'


'शबाश, तब तो तुम् ारी पीठ ठोकनी चाह ए, और कुछ काम क्यों न ीिं करते? सुब
को क्या करते ो?'

'सारा वक्त न ाने-िोने, खाने-पीने में तनकल जाता ै । कफर दोस्तों से भमलना-
जुलना भी तो ै ।'

'तो भाई, तम्


ु ारा रोग असाध्य ै । ऐसे आदमी के साथ मझ
ु े लेशमात्र भी
स ानुभूतत न ीिं ो सकती। आपको मालूम ै , मेरी घड़ी 500 रुपए की थी। सारे
रुपए आपको दे ने ोंगे। आप अपने भलए 15 रुपए रखकर बाकी 15 रुपए म ीना
मेरे वाले रखते जाइए। तीस म ीने या ढाई साल में मेरे रुपए कट जाएगए, तो
खूब जी खोलकर दोस्तों से भमभलएगा, समझ गए न? मैंने 50 रुपए छोड़ हदए ै,
इससे अधिक ररयायत न ीिं कर सकता।'

'15 रुपए में मेरा गुजर कैसे ोगा?'

'गुजर तो लोग 5 रुपए में भी करते ै और 500 रुपए में भी, इसकी न चलाओ,
अपनी साम्यय दे ख लो।'

दानू बाबू ने ल्जस तनष्ठुरता से ये बातें की, उससे मझ


ु े ववश्वास ो गया कक अब
इनके सामने रोना-िोना व्यथय ै। य अपनी पूरी रकम भलए बबना न मानेंगे।
घड़ी अधिक-से-अधिक 200 रुपए की थी, लेककन इससे क्या ोता ै , उन् ोंने तो
प ले ी उसका दाम बता हदया था। अब इस ववषय में मीन-मेष ववचारने का
मुझे सा स कैसे ो सकता था। ककस्मत ठोककर घर आया। य वववा करने
का मजा ै । उस वक्त कैसे प्रसन्न थे , मानो चारों पदाथय भमले जा र े थे। अब
नानी के नाम को रोओ। घड़ी का शौक चरायया था। उसका फल भोगो। न घड़ी
बाूँिकर जाते तो ऐसी कौन-सी ककरककरी ु ई जाती थी। मगर तब तुम ककसकी
सुनते थे। दे खें 15 रुपए में कैसे गुजर करते ों? 30 रुपए में तो तुम् ारा पूरा ी
न पड़ता था, अब 15 रुपए में तुम क्या भुना लोगे?
इन् ीिं धचन्ताओिं में पड़ा-पड़ा सो गया, भोजन करने की भी रुधच न र ी।

जरा सन
ु लील्जए कक 30 रुपए में मैं कैसे गज
ु र करता था। 20 रुपए तो ोटल
को दे ता था, 5 रुपए नाश्ते का खचय था, बाकी 5 रुपए में पान, भसगरे ट, कपड़े, जूते
सब कुछ, मैं कौन राजसी ठाट से र ता था। कौन-सी कफजूलखची करता था कक
अब खचय में कमी करता। मगर दानू बाबू का कजय तो चुकाना ी था। रोकर
चुकाता या ूँसकर। एक बार जी में आया कक सुसरास जाकर घड़ी उठा लाऊूँ,
लेककन दानू बाबू से क चक
ु ा था कक घड़ी खो गई। अब घड़ी लेकर जाऊूँगा तो
य मझ
ु े झठ
ू ा और लबाडड़या समझेंगे, मगर क्या मैं य न ीिं क सकता कक
मैंने समझा था कक घड़ी खो गई, ससुराल गया तो उसका पता चल गया। मेरी
बीवी ने उड़ा दी थी। ाूँ, य चाल अच्छी थी लेककन दे वीजी से क्या ब ाना
करूूँगा? उसे ककतना दःु ख ोगा, घड़ी पाकर ककतनी खुश ो गई थी, अब जाकर
घड़ी छीन लाऊूँ, तो शायद कफर मेरी सूरत भी न दे खे। ाूँ, य ो सकता था कक
दानू बाबू के पास जाकर रोता, मझ
ु े ववश्वास था कक आज क्रोि में उन् ोंने चा े
ककतनी ी तनष्ठुरता हदखाई ो लेककन दो-चार हदन के बाद जब उसका क्रोि
शान्त ो जाए और मैं जाकर उनके सामने रोने लगूँू, तो उन् ें अवश्य दया आ
जाएगी। बचपन की भमत्रता हृदय से तनकल न ीिं सकती, लेककन मैं इतना
आतमगौरव-शून्य न था और न ो सकता था।

मैं दस
ू रे हदन एक सस्ते ोटल में चला गया। य ाूँ 12 रुपए में ी प्रबन्ि ो
गया। सुब को दि
ू और चाय से नाश्ता करता था, अब छटािंक-भर चनों पर
बसर ोने लगी। 12 रुपए तो यों बचें । पान-भसगरे ट आहद मद में 3 रुपए और
कम ककए और म ीने में साफ 15 रुपए बचा भलए। य ववकट समस्या थी,
इल्न्द्रयों का तनदय य दमन ी न ीिं, परू ा सिंन्यास था। पर जब मैंने ये 15 रुपए ले
जाकर दानू बाबू के ाथ में रक्खे, तो ऐसा जान पड़ा, मानो मेरा मस्तक ऊूँचा ो
गया। ऐसे गौरव-पूणय आनन्द का अनुभव मुझे जीवन में कभी न ु आ।
दानू बाबू ने सहृदयता के स्वर में क ा -'बचाए या ककसी से माूँग लाए?'

'बचाया ै भई, माूँगता ककससे?'

'कोई तकलीफ तो न ीिं ु ई?'

'कुछ न ीिं, अगर कुछ तकलीफ ु ई भी, तो इस वक्त भूल गया।'

'सब
ु को तो अब भी खाली र ते ो? आमदनी कुछ और बढाने की कफक्र क्यों
न ीिं करते?'

'चा ता तो ू ूँ कोई काम भमल जाए, तो कर लूँ ू पर भमलता ी न ीिं।'

य ाूँ से लौटा, तो मुझे अपने हृदय में एक नवीन बल, एक ववधचत्र स्फूततय का
अनुभव ो र ा था। अब तक ल्जन इच्छाओिं को रोकना कष्टप्रद जान पड़ता था।
जब उनकी ओर ध्यान भी न जाता था, ल्जस पान की दक
ु ान को दे खकर धचतत
अिीर ो जाता था, उसके सामने से मैं भसर उठाए तनकल जाता था, मानो अब
मैं उस सत से कुछ ऊूँचा उठ गया ू ूँ। भसगरे ट, चाय और चाट अब इनमें से
ककसी पर भी धचतत आकवषयत न ोता था। प्रातःकाल भीगे ु ए चने, दोनों जून
रोटी और दाल, बस, इसके भसवा मेरे भलए और सभी चीजें तयाज्य थी। सबसे बड़ी
बात तो य थी कक मुझे जीवन से ववशेष रुधच ो गई थी। मैं ल्जन्दगी से
बेजार, मौत के मूँु का भशकार बनने का इच्छुक न था। मझ
ु े आभास ोता था
कक मैं जीवन में कुछ कर सकता ू ूँ।

एक भमत्र ने एक हदन मुझसे पान खाने के भलए बड़ा आग्र ककया, पर मैंने न
खाया। तब व बोले -'तम
ु ने तो यार, पान छोड़कर कमाल कर हदया, मैं अनम
ु ान
ी न कर सकता था कक तम
ु पान छोड़ दोगे। में भी कोई तरकीब बताओ।'

मैंने मुस्कराकर क ा - 'इसकी तरकीब य ी ै कक पान न खाओ।'


'जी तो न ीिं मानता।'

'आप ी मान जाएगा।'

'बबना भसगरे ट वपए तो मेरा पेट फूलने लगता ै ।'

'फूलने दो आप धचपक जाएगा।'

'अच्छा तो लो, आज से मैंने पान और भसगरे ट छोड़ा।'

'तुम क्या छोड़ोगे? तुम न ीिं छोड़ सकते।'

मैंने उनको उततेल्जत करने के भलए य शिंका की थी। इसका यथेष्ठ प्रभाव पड़ा,
व दृढता से बोले -'तुम यहद छोड़ सकते ो, तो मैं भी छोड़ सकता ू ूँ। मैं तुमसे
ककसी बात में कम न ीिं ू ूँ।'

'अच्छी बात ै , दे खग
ूूँ ा।'

'दे ख लेना।'

मैंने इन् ें आज तक पान या भसगरे ट का सेवन करते न ीिं दे खा।

पाूँचवे म ीने में जब मैं रुपए लेकर दानू बाबू के पास गया, तो सच मानो, व
टूटकर मेरे गले से भलपट गए। कफर बोले-' ो यार, तुम िुन के पक्के, मगर सच
क ना मुझे मन में कोसते तो न ीिं।'

मैंने ूँसकर क ा - 'अब तो न ीिं कोसता, मगर प ले जरूर कोसता था।'

'अब क्यों इतनी कृपा करने लगे?'


'इसभलए कक मुझ-जैसी ल्स्थतत के आदमी तो ल्जस तर र ना चाह ए, व तुमने
भसखा हदया। मेरी आमदनी में आिा मे री स्त्री का ै , पर अब तक मैं उसका
ह स्सा भी ड़प कर जाता था। अब मैं इस योग्य ो र ा ू ूँ कक उसका ह स्सा
उसे दे दूँ ,ू या स्त्री को अपने साथ रक्ख।ूूँ तम
ु ने मझ
ु े ब ु त अच्छा पाठ दे हदया।'

'अगर तुम् ारी आमदनी कुछ बढ जाए, तो कफर उसी तर र ने लगोगे ?'

'न ीिं, कदावप न ीिं, अपनी स्त्री को बुला लूँ ग


ू ा।'

'अच्छा, तो खश
ु ो जाओ, तम्
ु ारी तरक्की ो गई ै ।'

मैंने अववश्वास के भाव से क ा -'मेरी तरक्की अभी क्या ोगी, अभी मुझसे प ले
के लोग पड़े नाक रगड़ र े ै।'

'क ता ू ूँ मान जाओ, मुझसे तुम् ारे बड़े बाबू क ते थे।'

मुझे अब भी ववश्वास न आया, पर मारे कुतू ल के पेट में चू ें दौड़ र े थे।


उिर दानू बाबू अपने घर गए, इिर मैं बड़े बाबू के घर प ु ूँ चा। बड़े बाबू बैठे
अपनी बकरी द ु र े थे, मुझे दे खा, तो झेंपते ु ए बोले -'क्या करें भाई, आज
ग्वाला न ीिं आया इसभलए य बला गले पड़ी, चलो, बैठो।'

मैं कमरे में गया, बाबूजी भी कोई आिा घिंटे के बाद ाथ में गुडगुड़ी भलए तनकले
और इिर-उिर की बातें करने लगे। आखखर मुझसे न र ा गया कफर बोला -
'मैंने सुना ै मेरी कुछ तरक्की ो गई ै ।'

बड़े बाबू ने प्रसन्नमुख ोकर क ा -' ाूँ भई, ु ई तो ै , तुमसे दानू बाबू ने क ा
ोगा?'

'जी ाूँ, अभी क ा ै , मगर मेरा नम्बर तो अभी न ीिं आया, तरक्की कैसे ु ई?'
'य न पछ
ू ो, अफसरों की तनगा चाह ए, नम्बर-नम्बर कौन दे खता ै।'

'लेककन आखखर मुझे ककसकी जग भमली? अभी कोई तरक्की का मौका भी तो


न ीिं।'

'क हदया, भई, अफसर लोग सब कुछ कर सकते ै , सा ब एक दस


ू री मद से
तुम् ें 15 रुपया म ीना दे ना चा ते ै , दानू बाबू ने शायद सा ब से क ा-सुना
ोगा।'

'ककसी दस
ू रे का क मारकर तो मुझे ये रुपए न ीिं हदए जा र े ै ?'

'न ीिं, य बात न ीिं, मैं खद


ु इसे न मिंजरू करता।'

म ीना गुजरा। मुझे 45 रुपए भमले, मगर रल्जस्टर में मेरे नाम के सामने व ी
30 रुपए भलखे थे। बड़े बाबू ने अकेले में बल
ु ाकर मझ
ु े रुपए हदए और ताकीद
कर दी कक ककसी से क ना मत, न ीिं तो दफ्तर में बावेला मच जाएगा, सा ब का

ु क्म ै कक य बात गुप्त रखी जाए।

मझ
ु े सन्तोष ो गया कक ककसी स कारी का गला घोंटकर मझ
ु े रुपए न ीिं हदए
गए। खश
ु -खश
ु रुपए भलए ु ए सीिा दानू बाबू के पास प ु ूँचा। व मेरी बाछें
खखला दे खकर बोले -'मार लाए तरक्की, क्यों?'

' ाूँ यार, रुपए तो 15 भमले, लेककन तरक्की न ीिं ु ई, ककसी और मद से हदए गए
ै ।'

'तुम् ें रुपए से मतलब ै , चा े ककसी मद से भमलें , तो अब बीवी को लेने


जाओगे?'

'न ीिं अभी न ीिं।'


'तम
ु ने तो क ा था, आमदनी बढ जाएगी, तो बीवी को लाऊूँगा, अब क्या ो गया?'

'मैं सोचता ू ूँ , प ले आपके रुपए कटा दूँ ,ू अब से 30 रुपए म ीने दे ता जाऊूँगा,


साल-भर में पूरे रुपए कट जाएूँगे, तब मुक्त ो जाऊूँगा।'

दानू बाबू की आूँखें सजल ो गई, मुझे आज अनुभव ु आ कक उनकी इस कठोर


आकृतत के नीचे ककतना कोमल हृदय तछपा ु आ था। बोले - 'न ीिं, अबकी मुझे
कुछ मत दो, रे ल का खचय पड़ेगा, व क ाूँ से दोगे? जाकर अपनी स्त्री को ले
आओ।'

मैंने दवु विा में पड़कर क ा -'यार, अभी न मजबूर करो, शायद ककश्त न अदा कर
सकूूँ तो?'

दानू बाबू ने मेरा ाथ पकड़कर क ा - 'तो कोई रज न ीिं, सच्ची बात य ै कक


मैं अपनी घड़ी के दाम पा चुका, मैंने तो उसके 25 रुपए ी हदए थे, उस पर तीन
साल काम ले चुका था, मुझे तुमसे कुछ न लेना चाह ए था, अपनी स्वाथयपरता पर
लल्ज्जत ू ूँ।'

मेरी आूँखें भी भर आई, जी में तो आई, घड़ी का सारा र स्य क सुनाऊूँ। लेककन
जब्त कर गया, गदगद किंठ से बोला -'न ीिं, दानू बाबू, मुझे रुपए अदा कर लेने
दो, आखखर तम
ु उस घड़ी को चार-पाूँच सौ में बेच सकते थे या न ीिं ? मेरे कारण
इतना नक
ु सान क्यों ो?'

'भई, अब घड़ी की चचाय न करो, य बताओ कक कब जाओगे ?'

'अरे , तो प ले र ने का तो ठीक कर लूँ ।ू '

'तम
ु जाओ, मैं मकान का प्रबन्ि कर रखग
ूूँ ा।'
'मगर मैं 5 रुपए से ज्यादा ककराया न दे सकूँू गा। श र से जरा टकर मकान
सस्ता भमल जाएगा।'

'अच्छी बात ै , मैं सब ठीक कर रक्खूग


ूँ ा, ककस गाड़ी से लौटोगे?'

'य अभी क्या मालूम? बबदाई का मामला ै , साइत बने या न बने या लोग एक-
आि हदन रोक ी ले, तुम इस झिंझट में क्यों पड़ोगे? मैं दो-चार हदन में मकान
ठीक करके चला जाऊूँगा।'

'जी न ीिं, आप आज जाइए और कल आइए।'

'तो उतरूूँगा क ाूँ?'

'मैं मकान ठीक कर लूँ ग


ू ा, मेरा आदमी तुम् ें स्टे शन पर भमलेगा।' मैंने ब ु त
ील- वाले ककए, पर उस भले आदमी ने एक न सन
ु ी, उसी हदन मझ
ु े सस
ु राल
जाना पड़ा।

मुझे सुसराल में तीन हदन लग गए। चौथे हदन पतनी के साथ चला, जी में डर
र ा था कक क ीिं दानू ने कोई आदमी ने भेजा ो, तो क ाूँ उतरूूँगा, क ाूँ जाऊूँगा।
आज चौथा हदन ै , उन् ें इतनी क्या गरज पड़ी ै कक बार-बार स्टे शन पर अपना
आदमी भेजें। गाड़ी में सवार ोते समय इरादा ु आ कक दानू को तार से अपने
आने की सूचना दे दूँ ,ू लेककन 11 रुपए का खचय था, इससे ह चक गया।

मगर जब गाड़ी बनारस प ु ूँची, तो दे खता ू ूँ कक दानू बाबू स्वयिं ै ट-कैट लगाए,
दो कुभलयों के साथ खड़े ै । मुझे दे खते ी दौड़े और बोले - 'सुसराल की रोहटयाूँ
बड़ी प्यारी लग र ी थीिं क्या? तीन हदन से रोज दौड़ र ा ू ूँ, जुमायना दे ना पड़ेगा।'
दे वीजी भसर से पाूँव तक चादर ओढे गाड़ी से उतरकर प्लेटफामय पर खड़ी ो गई
थी। मैं चा ता था, जकदी से गाड़ी में बैठकर य ाूँ से चल दूँ ।ू घड़ी उनकी कलाई
पर बूँिी ु ई थी। मुझे डर लग र ा था कक क ीिं उन् ोंने ाथ बा र तनकाला और
दानू की तनगा घड़ी पर पड़ गई, तो बड़ी झेंप ोगी। मगर तकदीर का भलखा
कौन टाल सकता ै?

मैं दे वीजी से दानू बाबू की सज्जनता का खूब बखान कर चुका था। अब जो दानू
बाबू उसके समीप आकर सिंदक
ू उठवाने लगे, तो दे वीजी ने दोनों ाथों से उन् ें
नमस्कार ककया। दानू ने उनकी कलाई पर घड़ी दे ख ली। उस वक्त तो क्या
बोलते, लेककन ज्यों ी दे वीजी को एक तािंगे पर बबठाकर म दोनों दस
ू रे तािंगे पर
बैठकर चले, दानू ने मस्
ु कराकर क ा - 'क्या घड़ी दे वीजी ने तछपा दी थी?'

मैंने शमायते ु ए क ा -'न ीिं यार, मैं ी दे आया था। दे क्या आया था, उन् ोंने
मुझसे छीन ली थी।'

दानू ने ततरस्कार करके क ा - 'तो मुझसे झूठ क्यों बोले?'

'कफर क्या करता'

'अगर तुमने साफ कर हदया ोता, तो शायद मैं इतना कमीना न ीिं ू ूँ कक तुमसे
उसका तावान वसल
ू करता। लेककन खैर, ईश्वर का कोई काम मसल त से खाली
न ीिं ोता, तम्
ु ें कुछ हदनों ऐसी तपस्या की जरूरत थी।'

'मकान क ाूँ ठीक ककया ै ?'

'व ीिं तो चल र ा ू ूँ।'

'क्या तम्
ु ारे घर के पास ी ै ? तब तो बड़ा मजा र े गा।'

' ाूँ, मेरे घर से भमला ु आ ै मगर ब ु त सस्ता।'


दानू बाबू के द्वार पर दोनों तािंगे रुके। आदभमयों ने दौड़कर असबाब उतारना
शुरू ककया। एक क्षण में दानू बाबू की दे वीजी घर से तनकलकर तािंगे के पास
आई और पतनी जी को साथ ले गई, मालूम ोता था, य सारी बातें प ले ी से
सिी-बिी थीिं।

मैंने क ा -'तो य क ो कक म तुम् ारे बबन बुलाए मे मान ै ।'

'अब तुम अपनी मजी का कोई मकान ढूूँढ लेना, दस-पाूँच हदन तो य ाूँ र ो।'

लेककन मझ
ु े य जबरदस्ती की मे मानी अच्छी न लगी। मैंने तीसरे हदन एक
मकान तलाश कर भलया। बबदा ोते समय दानू ने 100 रुपए लाकर मेरे सामने
रख हदए और क ा - 'य तुम् ारी अमानत ै , लेते जाओ।'

मैंने ववस्मय से क ा -'मेरी अमानत कैसी?'

दानू ने क ा - '15 रुपए के ह साब से 6 म ीने के 90 रुपए ु ए और 10 रुपए


सूद।'

मुझे दानू की य सज्जनता बोझ के समान लगी। बोला -'तो तुम घड़ी ले लेना
चा ते ो?'

'कफर घड़ी का ल्जक्र ककया तुमने, उसका नाम मत लो।'

'तम
ु मझ
ु े चारों ओर से दबाना चा ते ो।'

' ाूँ, दबाना चा ता ू ूँ , तुम् ें आदमी बना दे ना चा ता ू ूँ, न ीिं तो उम्रभर तुम य ाूँ
ोटल की रोहटयाूँ तोड़ते और दे वीजी व ाूँ बैठी तुम् ारे नाम को रोती, कैसी भशक्षा
दी ै , इसका अ सान तो न मानोगे?'

'यों क ो, तो आप मेरे गुरू बने ु ए थे?'


'जी ाूँ, ऐसे गुरू की तुम् ें जरूरत थी।'

मझ
ु े वववश ोकर घड़ी का ल्जक्र करना पड़ा। डरते-डरते बोला -'तो भई, घड़ी...।'

'कफर घड़ी का नाम भलया।'

'कफर तुमने घड़ी का नाम भलया।'

'तम
ु खद
ु मझ
ु े मजबरू कर र े ो।'

'य मेरी ओर से भाभीजी को उप ार ै।'

'और ये 100 रुपए मुझे उप ार भमले ै ।'

'जी ाूँ, य इम्त ान में पास ोने का ईनाम ै।'

'तब तो डबल उप ार भमला।'

'तुम् ारी तकदीर ी अच्छी ै , क्या करूूँ?'

मैं रुपए तो न लेता, पर दानू ने मेरी जेब में डाल हदए, लेने पड़े। इन् ें मैंने
सेवविंग बैक में जमा कर हदया। 10 रुपए म ीने पर मकान भलया था, 30 रुपए
खचय करता था, 5 रुपए बचने लगे। अब मुझे मालम
ू ु आ कक दानू बाबू ने मुझसे
6 म ीने तक य तपस्या न कराई ोती, तो सचमुच मैं न-जाने ककतने हदनों
तक दे वीजी को मैके में पड़ा र ने दे ता। उसी तपस्या की बरकत थी कक आराम
से ल्जन्दगी कट र ी थी। ऊपर से कुछ-न-कुछ जमा ोता जाता था, मगर घड़ी
का ककस्सा मैंने आज तक दे वीजी से न ीिं क ा। पाूँचवे म ीने में मेरी तरक्की
का नम्बर आया। तरक्की का परवाना भमला। मैं सोच र ा था कक दे खू,ूँ अबकी
दस
ू री मद वाले 15 रुपए भमलते ै या न ी। प ली तारीख को वेतन भमला, व ी
45 रुपए। मैं एक क्षण के भलए खड़ा र ा कक शायद बड़े बाबू दस
ू री मद वाले
रुपए भी दें । जब और लोग अपने-अपने वेतन लेकर चले गए, तो बड़े बाबू बोले
-'क्या अभी लालच घेरे ु ए ै ? अब और कुछ न भमलेगा।'

मैने लल्ज्जत ोकर क ा - 'जीिं न ीिं, इस ख्याल से न ीिं खड़ा ू ूँ। सा ब ने इतने
हदनों तक परवररश की, य क्या थोड़ा ै , मगर कम-से-कम इतना तो बता
दील्जए कक ककस मद से व रुपया हदया जाता था?'

बड़े बाबू - 'पुछकर क्या करोंगे?'

'कुछ न ीिं, यों ी जानने को जी चा ता ै ?'

'जाकर दानू बाबू से पछ


ू ो।'

'दफ्तर का ाल दानू बाबू क्या जान सकते ै ?'

'न ीिं, व ाल व ी जानते ै ।'

मैंने बा र आकर एक तािंगा भलया और दानू बाबू के पास प ु ूँचा, और परू े दस


म ीने के बाद मैंने तािंगा ककराए पर ककया था। इस र स्य को जानने के भलए
मेरा दम घुट र ा था। हदल में तय कर भलया था कक अगर बच्चा ने य षड्यिंत्र
रचा ोगा, तो बुरी तर खबर लूँ ग
ू ा। व अपने बगीचे में ट ल र े थे। मुझे दे खा
तो घबराकर बोले - 'कुशल तो ै , क ाूँ से भागे आते ो?'

मैंने कृभमत्र क्रोि हदखाकर क ा -'मेरे य ाूँ तो कुशल ै , लेककन तुम् ारी कुशल
न ीिं।'

'क्यों भई, क्या अपराि ु आ ै ?'

'आप बतलाइए कक पाूँच म ीने तक मझ


ु े जो 15 रुपए वेतन के ऊपर से भमलते
थेस व क ाूँ से आते थे?'
'तम
ु ने बड़े बाबू से न ीिं पछ
ू ा? तम्
ु ारे दफ्तर का ाल मैं क्या जानूँू?'

मैं आज दानू से बेतककलुफ ो गया था कफर बोला - 'दे खो दानू, मुझसे उड़ोगे, तो
अच्छा न ोगा, क्यों ना क मेरे ाथों वपटोगे?'

'पीटना चा ो, तो पीट लो भई। सैकड़ो ी बार पीटा ै , एक बार और स ी। बारजे


पर से जो ढकेल हदया था, उसका तनशान बना ुआ ै, य दे खो।'

'तुम टाल र े ो और मेरा दम घुट र ा ै , सच बताओ, क्या बात थी?'

'बात-वात कुछ न ीिं थी, मैं जानता था कक ककतनी भी ककफायत करोगे , 30 रुपए
में तम्
ु ारा गज
ु र ोगा, और न स ी, दोनों वक्त रोहटयाूँ तो ो, बस इतनी बात ै,
अब इसके भलए जो चा ो दिं ड दो।'

***
नाग-पज
ू ा

प्रात:काल था। आषढ का प ला दौंगड़ा तनकल गया था। कीट-पतिंग चारों तरफ
रें गते हदखायी दे ते थे। ततलोततमा ने वाहटका की ओर दे खा तो वक्ष
ृ और पौिे
ऐसे तनखर गये थे जैसे साबुन से मैने कपड़े तनखर जाते ैं। उन पर एक ववधचत्र
आध्याल्तमक शोभा छायी ु ई थी मानों योगीवर आनिंद में मग्न पड़े ों। धचडड़यों
में असािारण चिंचलता थी। डाल-डाल, पात-पात च कती कफरती थीिं। ततलोततमा
बाग में तनकल आयी। व ॉँ चिंचल
भी इन् ीिं पक्षक्षयों की भॉतत ो गयी थी। कभी
ककसी पौिे की दे खती, कभी ककसी फूल पर पड़ी ु ई जल की बूँद
ू ो को ह लाकर
अपने मूँु पर उनके शीतल छीिंटे डालती। लाज बीरब ू हटयॉ ॉँ रें ग र ी थी। व
उन् ें चुनकर थेली पर रखने लगी। स सा उसे एककाला व ृ तकाय सॉपॉँ रें गता
हदखायी-हदया। उसने वपकलाकर क ा—अम्मॉ,ॉँ नागजी जा र े ैं। लाओ थोड़ा-सा
दि
ू उनके भलए कटोरे में रख दिं ।ू

अम्मॉ ॉँ ने क ा—जाने दो बेटी, वा खाने तनकले ोंगे।

ततलोततमा—गभमययों में क ॉ ॉँ चले जाते ैं ? हदखायी न ीिं दे त।े

ॉँ
मॉ—क ॉँ में पड़े र ते
ीिं जाते न ीिं बेटी, अपनी बॉबी ैं।

ततलोततमा—और क ीिं न ीिं जाते ?

ॉँ टी, मारे दे वता


मॉ—बे ै और क ीिं क्यों जायेगें ? तुम् ारे जन्म के साल से ये
बराबर य ी हदखायी दे तें ैं। ककसी से न ी बोलते। बच्चा पास से तनकल जाय,
पर जरा भी न ीिं ताकते। आज तक कोई चुह या भी न ीिं पकड़ी।

ततलोततमा—तो खाते क्या ोंगे ?


ॉँ टी, य
मॉ—बे लोग वा पर र ते ैं। इसी से इनकी आतमा हदव्य ो जाती ै।
अपने पव
ू ज
य न्म की बातें इन् ें याद र ती ैं। आनेवाली बातों को भी जानते ैं।
कोई बड़ा योगी जब अ िं कार करने लगता ै तो उसे दिं डस्वरुप इस योतन में
जन्म लेना पड़ता ै । जब तक प्रायल्श्चत पूरा न ीिं ोता तब तक व इस योतन
में र ता ै । कोई-कोई तो सौ-सौ, दो-दो सौं वषय तक जीते र ते ैं।

ततलोततमा—इसकी पूजा न करो तो क्या करें ।

ॉँ टी, कैसी बच्चों की-सी बातें करती


मॉ—बे ो। नाराज ो जायूँ तो भसर पर न जाने
क्या ववपल्तत आ पड़े। तेरे जन्म के साल प ले-प ल हदखायी हदये थे। तब से
ॉँ बार अवश्य दशयन दे जाते
साल में दस-पॉच ैं। इनका ऐसा प्रभाव ै कक आज
तक ककसी के भसर में ददय तक न ीिं ु आ।

कई वषय ो गये। ततलोततमा बाभलका से युवती ु ई। वववा का शुभ अवसर आ


प ु ूँचा। बारात आयी, वववा ु आ, ततलोततमा के पतत-ग ृ जाने का मु ू तय आ
प ु ूँचा।

नयी विू का श्रिंग


ृ ार ो र ा था। भीतर-बा र लचल मची ु ई थी, ऐसा जान
पड़ता था भगदड़ पड़ी ु ई ै । ततलोततमा के ह्रदय में ववयोग द:ु ख की तरिं गे उठ
र ी ैं। व एकािंत में बैठकर रोना चा ती ै । आज माता-वपता, भाईबिंद, सखखयॉ-ॉँ
स े भलयॉ ॉँ सब छूट जायेगी। कफर मालम
ू न ीिं कब भमलने का सिंयोग ो। न जाने
अब कैसे आदभमयों से पाला पड़ेगा। न जाने उनका स्वभाव कै सा ोगा। न जाने
कैसा बतायव करें गे। अममाूँ की ऑ िंखें एक क्षण भी न थमें गी। मैं एक हदन के
भलए क ी, चली जाती थी तो वे रो-रोकर व्यधथत ो जाती थी। अब य
जीवनपययन्त का ववयोग कैसे स ें गी ? उनके भसर में ददय ोता था जब तक मैं
िीरे -िीरे न मलूँ ू, उन् ें ककसी तर कल-चैन ी न पड़ती थी। बाबज
ू ी को पान
बनाकर कौन दे गा ? मैं जब तक उनका भोजन न बनाऊूँ, उन् ें कोई चीज रुचती
ी न थी? अब उनका भोजन कौन बानयेगा ? मझ
ु से इनको दे खे बबना कैसे र ा
जायगा? य ॉ ॉँ जरा भसर में ददय भी ोता था तो अम्मॉ िं और बाबूजी घबरा जाते
थे। तुरिंत बैद- कीम आ जाते थे। व ॉ ॉँ न जाने क्या ाल ोगा। भगवान बिंद घर
में कैसे र ा जायगा ? न जाने व ॉ ॉँ खुली छत ै या न ीिं। ोगी भी तो मुझे कौन
सोने दे गा ? भीतर घुट-घुट कर मरुूँ गी। जगने में जरा दे र ो जायगी तो ताने
भमलें गे। य ॉ ॉँ सब
ु को कोई जगाता था, तो अम्मॉ ॉँ क ती थीिं, सोने दो। कच्ची
नीिंद जाग जायगी तो भसर में पीड़ा ोने लगेगी। व ॉ ॉँ व्यिंग सन
ु ने पड़ेंगे, ब ू
आलसी ै , हदन भर खाट पर पड़ी र ती ै । वे (पतत) तो ब ु त सुशील मालम

ोते ैं। ॉ,ॉँ कुछ अभभमान अवश्य ैं। क ों उनका स्वाभाव तनठुर ु आ
तो............?

स सा उनकी माता ने आकर क ा-बेटी, तुमसे एक बात क ने की याद न र ी।


व ॉ िं नाग-पूजा अवश्य करती र ना। घर के और लोग चा े मना करें ; पर तुम
इसे अपना कतयव्य समझना। अभी मेरी ऑ िंखें जरा-जरा झपक गयी थीिं। नाग
बाबा ने स्वप्न में दशयन हदये।

ततलोततमा—अम्मॉ,ॉँ मुझे भी उनके दशयन ु ए ैं, पर मुझे तो उन् ोंले बड़ा ववकाल
रुप हदखाया। बड़ा भिंयिंकर स्वप्न था।

ॉँ खना, तुम् ारे िर में कोई सॉपॉँ न मारने पाये। य


मॉ—दे मिंत्र तनतय पास रखना।

ततलोततमा अभी कुछ जवाब न दे ने पायी थी कक अचानक बारात की ओर से


रोने के शब्द सुनायी हदये, एक क्षण में ा ाकर मच गया। भिंयकर शोक-घटना
ो गयी। वर को सौंप ने काट भलया। व ब ू को बबदा कराने आ र ा था।
पालकी में मसनद के नीचे एक काला साूँप तछपा ु आ था। वर ज्यों ी पालकी
में बैठा, साूँप ने काट भलया।
चारों ओर कु राम मच गया। ततलाततमा पर तो मनों वज्रपात ो गया। उसकी
मॉ ॉँ भसर पीट-पीट रोने लगी। उसके वपता बाबू जगदीशचिंद्र मल्ू च्छय त ोकर धगर
पड़े। ह्रदयरोग से प ले ी से ग्रस्त थे। झाड़-फूूँक करने वाले आये, डाक्टर बुलाये
गये, पर ववष घातक था। जरा दे र में वर के ोंठ नीले पड़ गये , नख काले ो
गये, मूछाय आने लगी। दे खते-दे खते शरीर ठिं डा पड़ गया। इिर उषा की लाभलमा
ने प्रकृतत को अलोककत ककया, उिर हटमहटमाता ु आ दीपक बुझ गया।

जैसे कोई मनुष्य बोरों से लदी ु ई नाव पर बैठा ु आ मन में झूँझ


ु लाता ै कक
य और तेज क्यों न ीिं चलती , क ीिं आराम से बैठने की जग न ीिं, रा इतनी
ह ल क्यों र ी ैं , मैं व्यथय ी इसमें बैठा; पर अकस्मात नाव को भूँवर में पड़ते
दे ख कर उसके मस्तल
ू से धचपट जाता ै , व ी दशा ततलोततमा की ु ई। अभी
तक व ववयोगी द:ु ख में ी मग्न थी, ससरु ाल के कष्टों और दव्ु ययवस्थाओिं की
धचिंताओिं में पड़ी ु ई थी। पर, अब उसे ोश आया की इस नाव के साथ मैं भी
डूब र ी ू ूँ। एक क्षण प ले व कदाधचत ल्जस पुरुष पर झूँुझला र ी थी, ल्जसे
लुटेरा और डाकू समझ र ी थी, व अब ककतना प्यारा था। उसके बबना अब
जीवन एक दीपक था; बुझा ु आ। एक वक्ष
ृ था; फल-फूल वव ीन। अभी एक क्षण
प ले व दस
ू रों की इष्याय का कारण थी, अब दया और करुणा की।

थोड़े ी हदनों में उसे ञा ात ो गया कक मैं पतत-वव ीन ोकर सिंसार के सब सुखों
से विंधचत ो गयी।

एक वषय बीत गया। जगदीशचिंद्र पक्के िमायवलम्बी आदमी थे , पर ततलोततमा का


वैिव्य उनसे न स ा गया। उन् ोंने ततलोततमा के पन
ु ववयवा का तनश्चय कर
भलया। ूँसनेवालों ने ताभलयॉ ॉँ बाजायीिं पर जगदीश बाबू ने हृदय से काम भलया।
ततलाततमा पर सारा घर जान दे ता था। उसकी इच्छा के ववरु्ध कोई बात न ोने
पाती य ॉ ॉँ तक कक व घर की मालककन बना दी गई थी। सभी ध्यान रखते कक
उसकी रिं ज ताजा न ोने पाये। लेककन उसके चे रे पर उदासी छायी र ती थी,
ल्जसे दे ख कर लोगों को द:ु ख ोता था। प ले तो मॉ ॉँ भी इस सामाल्जक
अतयाचार पर स मत न ु ई; लेककन बबरादरीवालों का ववरोि ज्यों-ज्यों बढता
गया उसका ववरोि ढीला पड़ता गया। भस्ध ािंत रुप से तो प्राय: ककसी को आपल्तत
न थी ककन्तु उसे व्यव ार में लाने का सा स ककसी में न था। कई म ीनों के
लगातार प्रयास के बाद एक कुलीन भस्ध ािंतवादी, सुभशक्षक्षत वर भमला। उसके
घरवाले भी राजी ो गये। ततलोततमा को समाज में अपना नाम बबकते दे ख कर
द:ु ख ोता था। व मन में कुढती थी कक वपताजी ना क मेरे भलए समाज में
नक्कू बन र े ैं। अगर मेरे भाग्य में सु ाग भलखा ोता तो य वज्र ी क्यों
धगरता। तो उसे कभी-कभी ऐसी शिंका ोती थी कक मैं कफर वविवा ो जाऊूँगी।
जब वववा तनल्श्चत ो गया और वर की तस्वीर उसके सामने आयी तो उसकी
ऑ िंखों में ऑ िंसू भर आये। चे रे से ककतनी सज्जनता, ककतनी दृढता, ककतनी
ववचारशीलता टपकती थी। व धचत्र को भलए ु ए माता के पास गयी और शमय
से भसर झुकाकर बोली-अम्मॉ,िं मूँु मुझे तो न खोलना चाह ए, पर अवस्था ऐसी
आ पड़ी ै कक बबना मूँु खोले र ा न ीिं जाता। आप बाबूजी को मना कर दें । मैं
ल्जस दशा में ू ूँ सिंतुष्ट ू ूँ। मझ
ु े ऐसा भय ो र ा ै कक अबकी कफर व ी शोक
घटना.............

मॉ ॉँ ने स मी ु ई ऑ िंखों से दे ख कर क ा—बेटी कैसी अशगन


ु की बात मूँु से
तनकाल र ी ो। तुम् ारे मन में भय समा गया ै , इसी से य भ्रम ोता ै । जो
ोनी थी, व ो चुकी। अब क्या ईश्वर क्या तुम् ारे पीछे पड़े ी र ें गे ?

ततलोततमा— ॉ,ॉँ मुझे तो ऐसा मालूम ोता ै ?

ॉँ
मॉ—क्यों, तम्
ु ें ऐसी शिंका क्यों ोती ै ?

ततलोततमा—न जाने क्यो ? कोई मेरे मन मे बैठा ु आ क र ा ै कक कफर


अतनष्ट ोगा। मैं प्रया: तनतय डरावने स्वप्न दे खा करती ू ूँ। रात को मुझे ऐसा
जान पड़ता ै कक कोई प्राणी ल्जसकी सरू त सॉपॉँ से ब ु त भमलती-जल
ु ती ै मेरी
चारपाई के चारों ओर घम
ू ता ै । मैं भय के मारे चप्ु पी साि लेती ू ूँ। ककसी से
कुछ क ती न ीिं।

मॉ ॉँ ने समझा य सब भ्रम ै । वववा की ततधथ तनयत ो गयी। य केवल


ततलोततमा का पन
ु सांस्कार न था, बल्कक समाज-सि
ु ार का एक कक्रयातमक
उदा रण था। समाज-सि
ु ारकों के दल दरू से वववा सल्म्मभलत ोने के भलए
आने लगे, वववा वैहदक रीतत से ु आ। मे मानों ने खूब वयाख्यान हदये। पत्रों ने
खूब आलोचनाऍ िं कीिं। बाबू जगदीशचिंद्र के नैततक सा स की सरा ना ोने लगी।
तीसरे हदन ब ू के ववदा ोने का मु ू तय था।

जनवासे में यथासाध्य रक्षा के सभी सािनों से काम भलया गया था। बबजली की
रोशनी से सारा जनवास हदन-सा ो गया था। भूभम पर रें गती ु ई चीिंटी भी
हदखाई दे ती थी। केशों में न क ीिं भशकन थी, न भसलवट और न झोल। शाभमयाने
के चारों तरफ कनातें खड़ी कर दी गयी थी। ककसी तरफ से कीड़ो-मकोड़ों के
आने की सिंम्भावना न थी; पर भावी प्रबल ोती ै । प्रात:काल के चार बजे थे।
तारागणों की बारात ववदा ो र ी थी। ब ू की ववदाई की तैयारी ो र ी थी। एक
तरफ श नाइयॉ ॉँ बज र ी थी। दस
ू री तरफ ववलाप की आततयध्वतन उठ र ी थी।
पर ततलोततमा की ऑ िंखों में ऑ िंसू न थे, समय नाजुक था। व ककसी तर घर
से बा र तनकल जाना चा ती थी। उसके भसर पर तलवार लटक र ी थी। रोने
और स े भलयों से गले भमलने में कोई आनिंद न था। ल्जस प्राणी का फोड़ा धचलक
र ा ो उसे जराय का घर बाग में सैर करने से ज्यादा अच्छा लगे , तो क्या
आश्चयय ै ।

वर को लोगों ने जगया। बाजा बजने लगा। व पालकी में बैठने को चला कक


विू को ववदा करा लाये। पर जत
ू े में पैर डाला ी था कक चीख मार कर पैर
खीिंच भलया। मालूम ु आ, पॉवॉँ धचनगाररयों पर पड़ गया। दे खा तो एक काला
साूँप जूते में से तनकलकर रें गता चला जाता था। दे खते-दे खते गायब ो गया।
वर ने एक सदय आ भरी और बैठ गया। ऑ िंखों में अिंिेरा छा गया।
एक क्षण में सारे जनवासे में खबर फैली गयी, लोग दौड़ पड़े। औषधियॉ ॉँ प ले ी
रख ली गयी थीिं। सॉपॉँ का मिंत्र जाननेवाले कई आदमी बल
ु ा भलये गये थे। सभी
ने दवाइयॉ ॉँ दीिं। झाड़-फूूँक शुरु ु ई। औषधियॉ ॉँ भी दी गयी, पर काल के समान
ककसी का वश न चला। शायद मौत सॉपॉँ का वेश िर कर आयी थी। ततलोततमा
ने सुना तो भसर पीट भलया। व ववकल ोकर जनवासे की तरफ दौड़ी। चादर
ओढने की भी सुधि न र ी। व अपने पतत के चरणों को माथे से लगाकर
अपना जन्म सफल करना चा ती थी। घर की ल्स्त्रयों ने रोका। माता भी रो-
रोकर समझाने लगी। लेककन बाबू जगदीशचन्द्र ने क ा-कोई रज न ीिं, जाने दो।
पतत का दशयन तो कर ले। य अभभलाषा क्यों र जाय। उसी शोकाल्न्वत दशा
में ततलोततमा जनवासे में प ु ूँची, पर व ॉ ॉँ उसकी तस्कीन के भलए मरनेवाले की
ॉँ थी। उन अिखुले नेत्रों में असह्य आतमवेदना और दारुण नैराश्य।
उकटी सॉसें

इस अद्भत
ु घटना का सामाचार दरू -दरू तक फैल गया। जड़वादोगण चककत थे,
य क्या माजरा ै । आतमवाद के भक्त ञा ातभाव से भसर ह लाते थे मानों वे
धचत्रकालदशी ैं। जगदीशचन्द्र ने नसीब ठोंक भलया। तनश्चय ो गया कक कन्या
के भाग्य में वविवा र ना ी भलखा ै । नाग की पूजा साल में दो बार ोने
लगी। ततलोततमा के चररत्र में भी एक ववशेष अिंतर दीखने लगा। भोग और
वव ार के हदन भल्क्त और दे वारािना में कटने लगे। तनराश प्राखणयों का य ी
अवलम्ब ै।

तीन साल बीत थे कक ढाका ववश्वववद्यालय के अध्यापक ने इस ककस्से को कफर


ताजा ककया। वे पशु-शास्त्र के ञा ाता थे। उन् ोंने साूँपों के आचार-व्यव ार का
ववशेष रीतत से अध्ययन ककया। वे इस र स्य को खोलना चा ते थे। जगदीशचिंद्र
को वववा का सिंदेश भेजा। उन् ोंने टाल-मटोल ककया। दयाराम ने और भी आग्र
ककया। भलखा, मैने वैञा ातनक अन्वेषण के भलए य तनश्चय ककया ै । मैं इस
ववषिर नाग से लड़ना चा ता ू ूँ। व ॉँ ले कर आये तो भी मुझे
अगर सौ दॉत
कोई ातन न ीिं प ु ूँ चा सकता, व मझ
ु े काट कर आप ी मर जायेगा। अगर व
ु े काट भी ले तो मेरे पास ऐसे मिंत्र और औषधियॉ ॉँ ै कक मैं एक क्षण में
मझ
उसके ववष को उतार सकता ू ूँ। आप इस ववषय में कुछ धचिंता न ककल्जए। मैं
ववष के भलए अजेय ू ूँ। जगदशीचिंद्र को अब कोई उज्र न सझ
ू ा। ॉ,ॉँ उन् ोंने एक
ववशेष प्रयतन य ककया कक ढाके में ी वववा ो। अतएब वे अपने कुटुल्म्बयों
को साथ ले कर वववा के एक सप्ता प ले गये। चलते समय अपने सिंदक
ू ,
बबस्तर आहद खूब दे खभाल कर रखे कक सॉपॉँ क ीिं उनमें उनमें तछप कर न बैठा
जाय। शुभ लगन में वववा -सिंस्कार ो गया। ततलोततमा ववकल ो र ी थी। मख

पर एक रिं ग आता था, एक रिं ग जाता था, पर सिंस्कार में कोई ववध्न-बािा न
पड़ी। ततलोततमा रो िो-कर ससुराल गयी। जगदीशचिंद्र घर लौट आये, पर ऐसे
धचिंततत थे जैसे कोई आदमी सराय मे खुला ु आ सिंदक
ू छोड़ कर बाजार चला
जाय।

ततलोततमा के स्वभाव में अब एक ववधचत्र रुपािंतर ु आ। व औरों से ूँसती-


बोलती आराम से खाती-पीती सैर करने जाती, धथयेटरों और अन्य सामाल्जक
सम्मेलनों में शरीक ोती। इन अवसरों पर प्रोफेसर दया राम से भी बड़े प्रेम का
व्यव ार करती, उनके आराम का ब ु त ध्यान रखती। कोई काम उनकी इच्छा के
ववरु्ध न करती। कोई अजनबी आदमी उसे दे खकर क सकता था, गहृ णी ो तो
ऐसी ो। दस
ू रों की दृल्ष्ट में इस दम्पल्तत का जीवन आदशय था, ककन्तु आिंतररक
दशा कुछ और ी थी। उनके साथ शयनागार में जाते ी उसका मुख ववकृत ो
ॉँ जलने
जाता, भौं ें तन जाती, माथे पर बल पड़ जाते, शरीर अल्ग्न की भॉतत
लगता, पलकें खुली र जाती, नेत्रों से ज्वाला-सी तनकलने लगती और उसमें से
झुलसती ु ई लपटें तनकलती, मुख पर काभलमा छा जाती और यद्यवप स्वरुप में
कोई ववशेष अन्तर न हदखायी दे खायी दे ता; पर न जाने क्यों भ्रम ोने लगता,
य कोई नाधगन ै । कभी –कभी व फुूँकारने भी लगतीिं। इस ल्स्थतत में दयाराम
को उनके समीप जाने या उससे कुछ बोलने की ह म्मत न पड़ती। वे उसके रुप-
लावण्य पर मुग्ि थे, ककन्तु इस अवस्था में उन् ें उससे घण
ृ ा ोती। उसे इसी
उन्माद के आवेग में छोड़ कर बा र तनकल आते। डाक्टरों से सला ली, स्वयिं
इस ववषय की ककतनी ी ककताबों का अध्ययन ककया; पर र स्य कुछ समझ में
न आया, उन् ें भौततक ववञा ान में अपनी अकपञा ता स्वीकार करनी पड़ी।

उन् ें अब अपना जीवन असह्य जान पड़ता। अपने दस्


ु सा स पर पछताते। ना क
इस ववपल्तत में अपनी जान फूँसायी। उन् ें शिंका ोने लगी कक अवश्य कोई प्रेत-
लीला ै ! भम्यावादी न थे, पर ज ॉ ॉँ बवु ्ध और तकय का कुछ वश न ीिं चलता,
व ॉ ॉँ मनुष्य वववश ोकर भम्यावादी ो जाता ै।

शनै:-शनै: उनकी य ालत ो गयी कक सदै व ततलोततमा से सशिंक र ते। उसका


उन्माद, ववकृत मख
ु ाकृतत उनके ध्यान से न उतरते। डर लगता कक क ीिं य मझ
ु े
मार न डाले। न जाने कब उन्माद का आवेग ो। य धचन्ता ह्रदय को व्यधथत
ककया करती। ह प्नाहटज्म, ववद्युतशल्क्त और कई नये आरोग्यवविानों की परीक्षा
की गयी । उन् ें ह प्नाहटज्म पर ब ु त भरोसा था; लेककन जब य योग भी
तनष्फल ो गया तो वे तनराश ो गये।

एक हदन प्रोफेसर दयाराम ककसी वैञा तनक सम्मेलन में गए ु ए थे। लौटे तो
बार बज गये थे। वषाय के हदन थे। नौकर-चाकर सो र े थे। वे ततलोततमा के
शयनग ृ में य पूछने गये कक मेरा भोजन क ॉ ॉँ रखा ै । अन्दर कदम रखा ी
था कक ततलोततमा के भसरिं ाने की ओर उन् ें एक अततभीमकाय काला सॉपॉँ बैठा

ु आ हदखायी हदया। प्रो. सा ब चुपके से लौट आये। अपने कमरे में जा कर


ककसी औषधि की एक खुराक पी और वपस्तौल तथा साूँगा ले कर कफर
ततलोततमा के कमरे में प ु ूँच।े ववश्वास ो गया कक य व ी मेरा परु ाना शत्रु ै।
इतने हदनों में टो लगाता ु आ य ॉ ॉँ आ प ु ूँ चा। पर इसे ततलोततामा से क्यों
इतना स्ने ै । उसके भसर ने यों बैठा ु आ ै मानो कोई रस्सी का टुकड़ा ै।
य क्या र स्य ै ! उन् ोंने साूँपों के ववषय में बड़ी अदभूत कथाऍ िं पढी और
ॉँ
सुनी थी, पर ऐसी कुतू लजनक घटना का उकलेख क ीिं न दे खा था। वे इस भॉतत
सशसत्र ो कर कफर कमरे में प ु ूँचे तो साूँप का पात न था। ॉ,ॉँ ततलोततमा के
भसर पर भत
ू सवार ो गया था। व बैठी ु ई आग्ये ु ई नेत्रों के द्वारा की ओर
ताक र ी थी। उसके नयनों से ज्वाला तनकल र ी थी, ल्जसकी ऑ िंच दो गज तक
लगती। इस समय उन्माद अततशय प्रचिंड था। दयाराम को दे खते ी बबजली की
तर उन पर टूट पड़ी और ॉँ से काटने
ाथों से आघात करने के बदले उन् ें दॉतों
की चेष्टा करने लगी। इसके साथ ी अपने दोनों ाथ उनकी गरदन डाल हदये।
दयाराम ने ब ु तेरा चा ा, ऐड़ी-चोटी तक का जोर लगा कक अपना गला छुड़ा लें ,
ॉँ कठोर एविं
लेककन ततलोततमा का बा ु पाश प्रततक्षण साूँप की केड़ली की भॉतत
सिंकुधचत ोता जाता था। उिर य सिंदे था कक इसने मुझे काटा तो कदाधचत
इसे जान से ाथ िोना पड़े। उन् ोंने अभी जो औषधि पी थी, व सपय ववष से
अधिक घातक थी। इस दशा में उन् ें य शोकमय ववचार उतपन्न ु आ। य भी
कोई जीवन ै कक दम्पतत का उततरदातयतव तो सब भसर पर सवार, उसका सुख
नाम का न ीिं, उलटे रात-हदन जान का खटका। य क्या माया ै। व सॉपॉँ कोई
प्रेत तो न ी ै जो इसके भसर आकर य दशा कर हदया करता ै । क ते ै कक
ऐसी अवस्था में रोगी पर चोट की जाती ै, व प्रेत पर ी पड़ती ैं नीचे
जाततयों में इसके उदा रण भी दे खे ैं। वे इसी ैंसिंबैस में पड़े ु ए थे कक उनका
दम घुटने लगा। ततलाततमा के ॉँ उनकी गरदन को
ाथ रस्सी के फिंदे की भॉतत
कस र े थें वे दीन अस ाय भाव से इिर-उिर ताकने लगे। क्योंकर जान बचे,
कोई उपाय न सझ
ू पड़ता था। साूँस लेना। दस्
ु तर ो गया, दे भशधथल पड़ गयी,
पैर थरथराने लगे। स सा ततलोततमा ने उनके बाूँ ों की ओर मूँु बढाया।
दयाराम कॉपॉँ उठे । मतृ यु ऑ िंखें के सामने नाचने लगी। मन में क ा—य इस
समय मेरी स्त्री न ीिं ववषैली भयिंकर नाधगन ै : इसके ववष से जान बचानी
मुल्श्कल ै । अपनी औषधि पर जो भरोसा था, व जाता र ा। चू ा उन्मतत दशा
में काट लेता ै तो जान के लाले पड़ जाते ै । भगवान ? ककतन ववकराल स्वरुप
ै ? प्रतयक्ष नाधगन मालम
ू ो र ी ै । अब उलटी पड़े या सीिी इस दशा का अिंत
करना ी पड़ेगा। उन् ें ऐसा जान पड़ा कक अब धगरा ी चा ता ू ूँ। ततलोततमा
बार-बार सॉपॉँ की भॉतत
ॉँ फुूँकार मार कर जीभ तनकालते ु ए उनकी ओर झपटती

थी। एकाएक व बड़े ककयश स्वर से बोली—‘मूखय ? तेरा इतना सा स कक तू इस


सद
ु िं री से प्रेमभलिंगन करे ।’ य क कर व बड़े वेग से काटने को दौड़ी। दयाराम
का िैयय जाता र ा। उन् ोंने दह ना ाथ सीिा ककया और ततलोततमा की छाती
पर वपस्तौल चला हदया। ततलोततमा पर कुछ असर न ु आ। बा ें और भी कड़ी
ो गयी; ऑ िंखों से धचनगाररयॉ ॉँ तनकलने लगी। दयाराम ने दस
ू री गोली दाग दी।
य चोट पूरी पड़ी। ततलोततमा का बा ु -बिंिन ढीला पड़ गया। एक क्षण में उसके
ाथ नीचे को लटक गये, भसर झ्रक
ु गया और व भूभम पर धगर पड़ी।

तब व दृश्य दे खने में आया ल्जसका उदा राण कदाधचत अभलफलैला चिंद्रकािंता में
भी न भमले। व ी फ्लूँ ग के पास, जमीन पर एक काला दीघयकाय सपय पड़ा तड़प
र ा था। उसकी छाती और मूँु से खून की िारा ब र ी थी।

दयाराम को अपनी ऑ िंखों पर ववश्वास न आता था। य कैसी अदभुत प्रेत-लीला


थी! समस्या क्या ै ककससे पूछूूँ ? इस ततलस्म को तोड़ने का प्रयतन करना मेरे
जीवन का एक कततयव्य ॉँ से सॉपॉँ की दे
ो गया। उन् ोंने सॉगे मे एक कोचा
मारा और कफर वे उसे लटकाये ु ए ऑ िंगन में लाये। बबलकुल बेदम ो गया था।
उन् ोंने उसे अपने कमरे में ले जाकर एक खाली सिंदक
ू में बिंदकर हदया। उसमें
भुस भरवा कर बरामदे में लटकाना चा ते थे। इतना बड़ा गे ु ूँवन साूँप ककसी ने
न दे खा ोगा।

तब वे ततलोततमा के पास गये। डर के मारे कमरे में कदम रखने की ह म्मत न


पड़ती थी। ॉ,ॉँ इस ववचार से कुछ तस्कीन ोती थी कक सपय प्रेत मर गया ै तो
उसकी जान बच गयी ोगी। इस आशा और भय की दशा में वे अन्दर गये तो
ततलोततमा आईने के सामने खड़ी केश सूँवार र ी थी।

दयाराम को मानो चारों पदाथय भमल गये। ततलोततमा का मुख-कमल खखला ु आ


था। उन् ोंने कभी उसे इतना प्रफुल्कलत न दे खा था। उन् ें दे खते ी व उनकी
ओर प्रेम से चली और बोली—आज इतनी रात तक क ॉ ॉँ र े ?
दयाराम प्रेमोन्नत ो कर बोले —एक जलसे में चला गया था। तम्
ु ारी तबीयत
कैसी े ? क ीिं ददय न ीिं ै ?

ततलोततमा ने उनको आश्चयय से दे ख कर पूछा—तुम् ें कैसे मालूम ु आ ? मेरी


छाती में ऐसा ददय ो र ा ै , जैस धचलक पड़ गयी ो।

***
ववनोद

ववद्यालयों में ववनोद की ल्जनती लीलाएूँ ोती र ती ैं , वे यहद एकत्र की जा


सकें तो मनोरिं जन की बड़ी उततम सामग्री ाथ आए, य ाूँ अधिकािंश छात्र जीवन
की धचन्ताओिं से मुक्त र ते ैं, ककतने ी तो परीक्षाओिं की धचन्ता से भी बरी
र ते ैं। व ाूँ मटरगश्ती करने, गप्पें उड़ाने और ूँसी-मजाक करने के भसवा उन् ें
कोई और काम न ीिं र ता! उनका कक्रयाशील उतसा कभी ववद्यालय के नाट्य-
मिंच पर प्रकट ोता ैं, कभी ववशेष उतसवों के अवसर पर, उनका शेष समय
अपने भमत्रों के मनोरिं जन में व्यतीत ोता ैं। व ाूँ, ज ाूँ ककसी म ाशय ने ककसी
ववभाग में ववशेष उतसव हदखाया ( कक्रकेट, ाकी, फुटबाल को छोड़कर) और व
ववनोद का लक्ष्य बना, अगर म ाशय बड़े िमयतनष्ठ ैं, सन्ध्या और वन में
ततपर र ते ैं तो, बबना नागा नमाजें अदा करते ैं तो उन् ें ास्य का लक्ष्य
बनने में दे र न ीिं लगती। अगर ककसी को पस्
ु तकों से प्रेम ैं, कोई परीक्षा के
भलए बड़े उतसा से तैयाररयाूँ करता ैं तो समझ लील्जए कक उसकी भमट्टी खराब
करने के भलए क ीिं-न-क ीिं अवश्य षड्यन्त्र रचा जा र ा ैं , सारािंश य ैं कक
तनद्यविंद्व, तनरी , खूले हदल आदभमयों के भलए कोई बािा न ीिं, उनसे ककसी को
भशकायत न ीिं ोती, लेककन मुकलाओिं और पिंडडतों की बड़ी दग
ु तय त ोती ैं।

म ाशय चक्रिर इला ाबाद के एक सुववख्यात ववद्यालय के छात्र ैं। एम. ए.


क्लास में दशयन का अध्ययन करते ैं , ककन्तु जैसा ववद्वजनों का स्वभाव ोता
ैं, ूँसी-हदकलगी से कोसों दरू भागते थे, जातीयता के गवय में चूर र ते थे। ह न्द ू
आचार-ववचार की सरलता और पववत्रता पर मग्ु ि थे, उन् ें नेकटाई, कॉलर, वास्कट
आहद वस्त्रो से घण
ृ ा थी, सीिा-सादा कुरता और चमरौिे जत
ू े प नते, प्रातःकाल
तनयभमत रूप से सन्ध्या- वन करके मस्तक पर चन्दन का ततलक भी लगाया
करते थे, ब्रह्मचयय के भस्ध ान्तों के अनुसार भसर घुटाते थे, ककन्तु लम्बी चोटी रख
छोड़ी थी, उनका कथन था कक चोटी रखने में प्राचीन आयय-ऋवषयों ने अपनी
सवयञा ता का प्रचिंड पररचय हदया ैं, चोटी के द्वारा शरीर की अनावश्यक उण्णता
बा र तनकल जाती ैं और ववद्यत
ु -प्रवा शरीर में प्रववष्ट ोता ैं इतना ी न ीिं,
भशखा को ऋवषयों ने ह न्द-ू जातीयता का मुख्य लक्ष्ण घोवषत ककया ैं, भोजन
सदै व अपने ाथ से बनाते थे और व भी ब ु त सुपाच्य और सूक्ष्म, उनकी
िारणा थी कक आ ार का मनुष्य के नैततक ववकास पर ववशेष प्रभाव पड़ता ैं,
ववजातीय वस्तुओिं को े य समझते थे, कभी कक्रकेट या ॉकी के पास न फटकते
थे, पाश्चातय सभ्यता के शत्रु ी थे, य ाूँ तक की अिंग्रेजी भलखने-बोलने में भी
सिंकोच ोता था, ल्जसका पररणाम य था कक उनकी अिंग्रेजी कमजोर थी और
उसमें सीिा-सा पत्र भी मुल्श्कलसे भलख सकते थे अगर उनको कोई व्यसन था
तो पान खाने का। इसके गण
ु ों का समथयन और वैद्यक ग्रिंथों से उसकी पररपल्ु ष्ट
करते थे।

ववद्यालय के खखलाडड़यों को इतना िैयय क ाूँ कक ऐसा भशकार दे खें और उस पर


तनशाना न मारें । आपस में कानाफूसी ोने लगी कक इस जिंगली को सीिे रास्ते
पर लाना चाह ए, कैसा पिंडडत बना कफरता ै ! ककसी को कुछ समझता ी न ीिं,
अपने भसवा सभी को जातीय-भाव से ीन समझता ै । इसकी ऐसी भमट्टी पलीद
करो कक सारा पाखिंड भूल जाए।

सिंयोग से अवसर भी अच्छा भमल गया। कॉलेज खुलने के थोड़े ी हदनों बाद
एक ऐिंग्लो इिंडडयन रमणी दशयन की क्लास में सल्म्मभलत ु ई। व कववकल्कपत
सभी उपमाओिं की आगार थी, सेब का-सा खखला ु आ रिं ग, सुकोमल शरीर, स ास्य
छवव और उस पर मनो र वेष-भूषा! छात्रों को ववनोद का मसाला ाथ लगा।
लोग इतत ास और भाषा को छोड़कर दशयन की कक्षा में प्रववष्ट ोने लगे।

सभी आूँखें उसी चन्द्रमुखी की ओर चकोर की नाईं लगी र ती थीिं। सब उसकी


कृपा-कटाक्ष के अभभलाषी थे। सभी उसकी मिुर वाणी सुनने के भलए लालतयत
थे, ककन्तु प्रकृतत को जैसा तनयम ै , आचारशील हृदयों पर प्रेम का जाद ू जब चल
जाता ै , तब वारा-न्यारा करके ी छोड़ता ैं , और लोग तो आूँखें ी सेंकने में
मग्न र ा करते, ककन्तु पिंडडत चक्रिर प्रेम-वेदना से ववकल और सतय अनुराग से
उन्मतत ो उठे , रमणी के मख
ु की ओर ताकते भी झेंपते थे कक क ीिं ककसी की
तनगा पड़ जाए तो इस ततलक और भशखा पर फल्ब्तयाूँ उड़ने लगें , जब अवसर
पाते तो अतयन्त ववनम्र, सचेष्ट, आतुर और अनुरक्त नेत्रों से दे ख लेत।े ककन्तु
आूँखें चुराए ु ए और भसर झुकाए ु ए कक क ीिं अपना परदा न खुल जाए।
दीवार से कानों को खबर न ो जाए।

मगर दाई से पेट क ाूँ तछप सकता ै , ताडने वाले ताड गए। यारों ने पिंडडतजी
की मो ब्बत की तनगा प चान ी ली, मूँु माूँगी मुराद पाई, बाूँछे खखल गई। दो
म ाशयों ने उनसे घतनष्ठता बढानी शुरु कर दी। मैत्री को सिंघहटत करने लगे ,
जब समझ कक इन पर मारा ववश्वास जम गया, भशकार पर वार करने का
अवसर आ गया तो एक रोज दोनों ने बैठकर लेडड़यों की शैली में पिंडडतजी के
नाम एक पत्र भलखा -

'माई डडयर चक्रिर, ब ु त हदनों से ववचार कर र ी ू ूँ कक आपको पत्र भलख,ूूँ मगर


इस भय से कक बबना पररचय से ऐसा सा स अनधु चत ोगा। अब तक जब्त
करती र ी, पर अब न ीिं र ा जाता। आपने मुझ पर न-जाने क्या जाद ू कर हदया
ै कक एक क्षण के भलए भी आपकी सूरत आूँखों से न ीिं उतरती। आपकी सौम्य
मूततय, प्रततभाशाली मस्तक और सािारण प नावा सदै व आूँखों के सामने कफरा
करता ै । मुझे स्वभावतः आडम्बर से घण
ृ ा ै , पर य ाूँ सभी को कृभमत्रता के रिं ग
में डूबा पाती ू ूँ। ल्जसे दे खखए, मेरे प्रेम में अनरु क्त ै , पर मैं उन प्रेभमयों के
मनोभावों से पररधचत ू ूँ। वे सब-के-सब लम्पट और शो दे ै । केवल आप एक
ऐसे सज्जन ै ल्जनके हृदय में मुझे सद्भाव और सदनुराग की झलक दीख
पड़ती ै । बार-बार उतकिंठा ोती ै कक आपसे कुछ बातें करती, मगर आप मुझसे
इतनी दरू बैठते ै कक वातायलाप का सुअवसर न ीिं प्राप्त ोता। ईश्वर के भलए
कल से आप मेरे समीप ी बैठा कील्जए, और कुछ न स ी तो आपके समीप्य ी
से मेरी तप्ृ ती ोती र े गी। इस पत्र को पढकर फाड़ डाभलएगा और इसका उततर
पुस्तकालय की तीसरी अलमारी के नीचे रख दील्जएगा।'
आपकी
लूसी।

य पत्र डाक में डाल हदया गया और लोग उतसुक नेत्रों से दे खने लगे कक इसका
क्या असर ोता ै । उन् ें ब ु त लम्बा इन्तजार न करना पड़ा। दस
ू रे हदन कॉलेज
में आकर पिंडडतजी को लस
ू ी के सल्न्नकट बैठने की किक ु ई। वे दोनो म ाशय
ल्जन् ोंने उनसे आतमीयता बढा रखी थी, लूसी के तनकट बैठा करते थे। एक का
नाम था नईम और दस
ू रे का धगररिरस ाय। चक्रिर ने आकर धगररिर से क ा
- 'यार, तुम मेरी जग जा बैठो, मुझे य ाूँ बैठने दो।'

नईम - 'क्यों? आपको सद ोता ै क्या?'

चक्रिर - ' सद-वसद की बात न ीिं, व ाूँ प्रोफेसर सा ब का लेक्चर सन


ु ाई न ीिं
दे ता, मैं कानों का जरा भारी ू ूँ?'

धगररिर - 'प ले तो आपको य बीमारी न थी, य रोग कब से उतपन्न ो


गया?'

नईम - 'और कफर प्रोफेसर सा ब तो य ाूँ और भी दरू ो जाएूँगे जी?'

चक्रिर - 'दरू ो जाएूँगे तो क्या, य ाूँ अच्छा र े गा, मुझे कभी-कभी झपककयाूँ आ
जाती ै , सामने डर लगा र ता ै कक क ीिं उनकी तनगा न पड़ जाए।'

धगररिर -'आपको तो झपककयाूँ ी आती ै न, य ाूँ तो व ी घिंटा सोने का ै परू ी


एक नीिंद लेता ू ूँ, कफर?'

नईम - 'तम
ु भी अजीब आदमी ो, जब दोस्त ोकर एक बात क ते ै तो उसके
मानने में तम्
ु ें क्या एतराज? चप
ु के से दस
ू री जग जा बैठो।'
धगररिर - 'अच्छी बात ै , छोड़े दे ता ू ूँ, ककन्तु समझ लील्जएगा कक य कोई
सािारण तयाग न ीिं ै । मैं अपने ऊपर ब ु त जब्र कर र ा ू ूँ , कोई दस
ू रा लाख
रुपए भी दे ता तो जग न छोड़ता।'

नईम - 'अरे भाई, य जन्नत ै जन्नत! लेककन दोस्त की खाततर भी तो कोई


चीज ै ?'

चक्रिर ने कृतञा तापूणय दृल्ष्ट से दे खा और व ाूँ जाकर बैठ गए। थोड़ीू़ दे र के


बाद लूसी भी अपनी जग पर बैठी। अब पिंडडतजी बार-बार उसकी ओर सापेक्ष
भाव से ताकते र े कक व कुछ बातचीत करे और व प्रोफ्सर का भाषण सुनने
में तन्मय ो र ी ै । आपने समझा शायद लज्जावश न ीिं बोलती, लज्जाशीलता
रमखणयों का सबसे चतरु भष
ू ण भी तो ै । उसके डेस्क की ओर मूँु फेर-फेरकर
ताकने लगे। उसे इनके पान चबाने से शायद घण
ृ ा ोती थी। बार-बार मूँु दस
ू री
ओर फेर लेती, ककन्तु पिंडडतजी इतने सूक्ष्मदशी, इतने कुशाग्रबुव्ध न थे। इतने
प्रसन्न थे, मानो सातवें आसमान पर ै , सबको उपेक्षा की दृल्ष्ट से दे खते थे, मानो
प्रतयक्ष रूप से क र े थे कक तुम् ें य सौभाग्य क ाूँ नसीब? मुझ-सा प्रतापी
और कौन ोगा?

हदन तो गज
ु रा, सन्ध्या समय पिंडडतजी नईम के कमरे में आकर बोले - 'यार, एक
लेटर-राइटर (पत्र-व्यव ार-भशक्षक) की आवश्यकता ै , ककसका लेटर-राइटर सबसे
अच्छा ै ?'

नईम ने धगररिर की ओर कनखखयों से दे खकर पछ


ू ा -'लेटर-राईटर लेकर क्या
कील्जएगा?'

धगररिर - 'फजूल ै , नईम खुद ककस लेटर-राइटर से कम ै ।'


चक्रिर ने कुछ सकुचाते ु ए क ा - 'अच्छा, कोई प्रेम-पत्र भलखना ो तो कैसे
आरम्भ ककया जाए?'

नईम - 'डाभलांग भलखते ै , और जो ब ु त ी घतनष्ठ सम्बन्ि ो तो डडयर


डाभलांग भलख सकते ै । '

चक्रिर - 'और समाप्त कैसे करना चाह ए?'

नईम - 'पूरा ाल बताइए तो खत ी न भलख दें ?'

चक्रिर - 'न ीिं, आप इतना बता दील्जए, मैं भलख लूँ ग


ू ा।'

नईम - 'अगर ब ु त प्यारा माशूक ो तो भलखखए - your dying lover, और अगर


सािारण प्रेम ो तो भलख सकते ै -yours for ever'

चक्रिर - 'कुछ शुभकामना के भाव भी तो र ने चाह ए न?'

नईम - 'बेशक, बबना आदाब के भी कोई खत ोता ै और व भी मु ब्बत का।


माशूक के भलए आदाब भलखने में फकीरों की तर दआ
ु एूँ दे नी चाह ए। आप
भलख सकते ै - God give you everlasting grace and beautu, या May you
remain happy in love and lovely.'

चक्रिर -'कागज पर भलख दो।'

धगररिर ने एक पत्र के टुक़ड़े पर कई वाक्य भलख हदए। जब भोजन करके लौटे


तो चक्रिर ने अपनी ककवाड़े बन्द कर ली और खूब बना-बनाकर पत्र भलखा।
अक्षर बबगड़-बबगड़ जाते थे, इसभलए कई बार भलखना पड़ा। क ीिं वपछले प र
जाकर पत्र समाप्त ु आ, तब आपने उसे इत्र में बसाया। दस
ू रे हदन पुस्तकालय
में तनहदय ष्ट स्थान पर रख हदया। यार लोग तो ताक में थे ी, पत्र उड़ा लाए और
खब
ू मजे ले-लेकर पढा।
तीन हदन के बाद चक्रिर को कफर एक पत्र भमला, भलखा था -

'माई डडयर चक्रिर,

तुम् ारी प्रेम-पत्री भमली, बार-बार पढा, आूँखों से लगाया, चुम्बन भलया, ककतनी
मनो र म क थी। ईश्वर से य ी प्राथयना ै कक मारा प्रेम भी ऐसा ी
सुरभभभसिंधचत र े । आपको भशकायत ै कक मैं आपसे बातें क्यों न ीिं करती। वप्रय,
प्रेम बातों से न ीिं, हृदय से ोता ै । जब मैं तुम् ारी ओर से मूँु फेर लेती ू ूँ तो
मेरे हदल पर क्या गज
ु रती ै, य मैं ी जानती ू ूँ। एक ज्वाला ै जो अन्दर ी
अन्दर मझ
ु े भस्म कर र ी ै । आपको मालम
ू न ीिं, ककतनी आूँखें मारी ओर
एकटक ताकती र ती ै । जरा भी सन्दे ु आ, और धचर-ववयोग की ववपल्तत
मारे भसर पड़ी। इसीभलए में ब ु त साविान र ना चाह ए। तुमसे एक याचना
करती ू ूँ , क्षमा करना, मैं तुम् ें अिंग्रेजी पोशाक में दे खने को ब ु त उतकिंहठत ो
र ी ू ूँ। यों तो तुम चा े जो वस्त्र िारण करो, मेरी आूँखों के तारे ो, ववशेषकर
तम्
ु ारी सादा कुरता मझ
ु े ब ुत ी सन्
ु दर मालम
ू ोता ै । कफर भी बाकयावस्था
से ल्जन वस्त्रों को दे खते चली आई ू ूँ , उन पर ववशेष अनरु ाग ोना स्वाभाववक
ै , मुझ आशा ै , म तनराश न करोगे। मैंने तुम् ारे भलए एक वास्कट बनाई ै!
उसे मेरे प्रेम का तुच्छ उप ार समझकर स्वीकार करो।'

तुम् ारी,
लूसी।

पत्र के साथ एक छोटा-सा पैकेट था। वास्कट उसी में बन्द था। यारों ने आपस
में चन्दा करके बड़ी उदारता से उसका मूलिन एकत्र ककया था। उस पर सेंट-
परसेंट से भी अधिक लाभ ोने की सम्भावना थी। पिंडडत चक्रिर उक्त उप ार
और पत्र को पाकर इतने प्रसन्न ु ए, ल्जसका हठकाना न ीिं। उसे लेकर सारे
छात्रावास में चक्कर लगा आए। भमत्रवन्ृ द दे खते थे, उसकी काट-छाूँट की सरा ना
करते थे। तारीफों के पुल बाूँिते थे, उसके मूकय का अततशयोल्क्तपूणय अनुमान
करते थे। कोई क ता था - य सीिे पेररस से भसलकर आया ै , इस मक
ु क में
ऐसे कारीगर क ाूँ और कौन। अगर कोई इस टक्कर का वास्कट भसलवा दे तो
100 रुपए की बाजी बदता ू ूँ? पर वास्तव में उसके कपड़े का रिं ग इतना ग रा था
कक कोई सुरुधच रखने वाला मनुष्य उसे प नना पसन्द न करता। चक्रिर को
लोगों ने पूवय मुख करके खड़ा ककया और कफर शुभ मु ू तय में व वास्कट उन् ें
प नाया। आप फूले न समाते थे, इिर से जाकर क ता - भाई, तुम तो बबककुल
प चाने न ीिं जाते, चोला ी बदल गया, अपने वक्त के यूसुफ ो, यार क्यों न ो,
तभी तो य ठाट ै , मख
ु ड़ा दमकने लगा, मानो तपाया ु आ किंु दन ै । अजी, एक
वास्कट पर य जीवन ै , क ीिं परू ा अग्रेजी सट
ू प न लो तो न जाने क्या गजब
ो जाए? सारी भमसें लोट-पोट ो जाएूँ, गला छुटाना मुल्श्कल ो जाएगा।

आखखर सला ु ई कक उनके भलए एक अिंग्रेजी सट


ू बनवाना चाह ए। इस कला के
ववशेषञा उनके साथ गट
ु बाूँिकर सट
ू बनवाने चले। पिंडडतजी घर के सम्पन्न थे।
एक अिंग्रेजी दक
ु ान से ब ु मूकय सूट भलया गया, रात को इसी उतसव में गाना-
बजाना भी ु आ। दस
ू रे हदन, दस बजे, लोगों ने पिंडडतजी को सूट प नाया। आप
अपनी उदासीनता हदखाने के भलए बोले - 'मुझे तो बबककुल अच्छा न ीिं लगता,
आप लोगों को न जाने क्यों ये कपड़े अच्छे लगते ै ।'

नईम - 'जरा आइने में सूरत दे खखए तो मालूम ो, खासे शा जादे मालूम पड़ते
ो, तुम् ारे ु स्न पर मुझे तो रस्क ै । खुदा ने तो आपको ऐसी सूरत दी और
उसे आप मीठे कपड़ों में तछपाए ु ए थे।'

चक्रिर को नेकटाई बाूँिने का ञा ान न था, बोले -'भाई, इसे तो ठीक कर दो।'

धगररिरस ाय ने नेकटाई इतनी कसकर बाूँिी कक पिंडडतजी को साूँस लेना भी


मुल्श्कल ो गया। बोले - 'यार ब ु त तिंग ै ।'

नईम - 'इसका फैशन ी य ै , म क्या करें , ढीली टाई ऐब में दाखखल ै ।'

चक्रिर - 'अजी, इसमें तो दम घुट र ा ै ।'


नईम -'और टाई का मिंशा ी क्या ै ? इसीभलए तो बाूँिी जाती ै कक आदमी
ब ु त जोर-जोर से साूँस न ले सके।'

चक्रिर के प्राण सिंकट में थे। आूँखें सजल ो र ी थी, चे रा सुखय ो गया था,
मगर टाई को ढीला करने की ह म्मत न पड़ती थीिं। सजिज से आप कॉलेज
चले तो भमत्रों का एक गुट सम्मान का भाव हदखाता आपके पीछे -पीछे चला,
मानो बराततयों का समू ै । एक-दस
ू रे की तरफ ताकता और रूमाल मूँु में
दे कर ूँसता था मगर पिंडडतजी को क्या खबर? व तो अपनी िन
ु में मस्त थे।
अकड़-अकड़कर चलते ु ए आकर क्लास में बैठ गए। थोड़ी दे र बाद लस
ू ी भी
आई। पिंडडत का य वेष दे खा तो चककत ो गई। उसके अिरों पर मुस्कान की
एक अपूवय रे खा अिंककत ो गई। पिंडडतजी ने समझा, य उनके उकलास का धचह्न
ै । बार-बार मुस्कराकर उसकी ओर ताकने और र स्यपूणय भाव से दे खने लगे।
ककन्तु व लेशमात्र भी ध्यान न दे ती थी।

पिंडडतजी की जीवनचयाय, िमोतसा और जातीय प्रेम में बडे वेग से पररवतयन ोने
लगे। सबसे प ले भशखा पर छुरा कफरा, अग्रेजी फैशन के बाल कटवाए गए। लोगों
ने क ा - 'य क्या म ाशय? आप तो फरमाते थे कक भशखा ववद्युतप्रवा शरीर
में प्रवेश करता ै । अब व ककस मागय से जाएगा?'

पिंडडतजी ने दाशयतनक भाव से मुस्कराकर क ा - 'मैं तुम लोगों को उकलू बनाता


था, क्या मैं इतना भी न ीिं जानता कक य सब पाखिंड ै ? मुझे अन्तःकरण से
इस पर ववश्वास ी कब था, आप लोगों को चकमा दे ना चा ता था।'

नईम - 'वकला , आप एक ी झाूँसेबाज तनकले, म लोग आपको बतछया के ताऊ


ी समझते थे मगर आप तो आठों गाूँठ कुम्मैत तनकले।'

भशखा के साथ-साथ सन्ध्या और वन की भी इततश्री ो गई, वन-किंु ड कमरे में


चारपाई के नीचे फेंक हदया गया, कुछ हदनों के बाद भसगरे ट के जले ु ए टुकड़े
रखने का काम दे ने लगा। ल्जस आसन पर बैठकर वन ककया करते थे , व
पायदान बना। अब प्रततहदन साबन
ु रगड़ते, बालों में किंघी करते और भसगार पीते।
यार उन् ें चिंग पर चढाए र ते थे। य प्रस्ताव ु आ कक इस चिंडूल से वास्कट के
रुपए वसूल करने चाह ए मय सूद के, कफर क्या था, लूसी का एक पत्र आ गया -
आपके रूपान्तर से मुझे ल्जतना आनन्द ु आ उसे शब्दों में न ीिं प्रकट कर
सकती! आपसे मुझे ऐसी ी आशा थी, अब आप इस योग्य ो गए ै कक कोई
यरू ोवपयन लेडी आपके स वास में अपना अपमान न ीिं समझ सकती। अतः
आपसे प्राथयना केवल य ी ै कक मझ
ु े अपने अनन्त और अववरल प्रेम का कोई
धचह्न प्रदान कील्जए, ल्जसे मैं सदै व अपने पास रखू,ूँ मैं कोई ब ु मूकय वस्तु न ीिं,
केवल प्रेमोप ार चा ती ू ूँ।

चक्रिर ने भमत्रों से पछ
ू ा - 'अपनी पतनी के भलए कुछ सौगात भेजना चा ता ू ूँ ,
क्या भेजना उधचत ोगा?'

नईम - 'जनाब, य तो उसकी तालीम और मजाक पर मनु सर ै । अगर व


नए फैशन की लेडी ै , तो कोई बेशकीमत, सब
ु क
ु वज दार चीज या ऐसी ी कई
चीजें भेल्जए, मसलन रूमाल, ररस्टवाच, लवें डर की शीशी, फैंसी किंिी, आईना, लॉकेट,
ब्रुस वगैर , और खुदा न खास्ता अगर गूँवाररन ै तो ककसी दस
ू रे आदमी से
पूतछए। मुझे गूँवाररनों के मजाक का इकम न ीिं।'

चक्रिर - 'जनाब, पढी ु ई ै , बड़े ऊूँचे खानदान ी ै ।'

नईम -'तो कफर मेरी सला पर अमल कील्जए।'

सिंध्या समय भमत्रगण चक्रिर के साथ बाजार गए और ढे र चीजें बटोर लाए।


सब-की-सब ऊूँचे दरजे की, कोई 75 रुपए ु ए, मगर पिंडडतजी ने उफ तक न की,
ूँसते ु ए रुपए तनकाले। लौटते वक्त नईम ने क ा - 'अफसोस, में ऐसी
खुशमजाक बीवी न भमली!'
धगररिर - 'ज र का लो, ज र!'

नईम - 'भाई दोस्ती के माने तो य ी ै कक एक बार में भी उनकी ल्जयारत


ो, क्यों पिंडडतजी, आप इसमें कोई रज समझते ै ?'

नईम - 'खैर, खुदा उन् ें जकद ी दतु नया से नजात दे ।'

रातोंरात पैकेट बना और प्रातःकाल पिंडडतजी उसे ले जाकर लाईब्रेरी में रख आए।
लाइब्रेरी सबेरे ी खुल जाती थी, कोई अड़चन न ु ई। उन् ोंने इिर मूँु फेरा, उिर
यारों ने माल उड़ाया और चम्पत ु ए। नईम के कमरे में चन्दे के ह साब से
ह स्सा-बाूँट ु आ। ककसी ने घड़ी पाई, ककसी ने रूमाल, ककसी ने कुछ। एक रुपए
के बदले पाूँच-पाूँच ाथ लगे।

प्रेमीजन का िैयय अपार ोता ै , तनराशा पर तनराशा ोती ै , पर िैयय ाथ से न ीिं


छूटता। पिंडडतजी बेचारे ववपल
ु िन व्यय करने के पश्चात भी प्रेभमका से
सम्भाषण का सौभाग्य न प्राप्त कर सके। प्रेभमका भी ववधचत्र थी, जो पत्रों में
भमसरी की डली घोल दे ती, मगर प्रतयक्ष दृल्ष्टपात भी न करती थी। बेचारे ब ु त
चा ते थे कक स्वयिं ी अग्रसर ो, पर ह म्मत न पड़ती थी। ववकट समस्या थी,
ककन्तु इससे भी व तनराश न थे। वन-सिंध्या तो छोड़ ी बैठे थे, नए फैशन के
बाल कट ी चक
ु े थे, अब ब ु िा अग्रेजी ी बोलते, यद्यवप व अशु्ध और भ्रष्ट
ोती थी। रात को अग्रेजी मु ावरों का ककताब लेकर पाठ की भाूँतत रटते। नीचे
के दरजों में बेचारे ने इतना श्रम से कभी पाठ न याद ककया थी, उन् ीिं रटे ुए
मु ावरों को मौके-बे-मौके काम में लाते, दो-चार बार लूसी के सामने भी अिंग्रेजी
बघारने लगे, ल्जससे उनकी योग्यता का परदा और भी खुल गया।

ककन्तु दष्ु टों को अब भी उनपर दया न आई। एक हदन चक्रिर के पास लूसी का
पत्र प ु ूँचा, ल्जसमें ब ु त अनुनय-ववनय के बाद य इच्छा प्रकट की गई थी कक
मैं भी आपको अग्रेजी खेल खेलते दे खना चा ती ू ूँ। मैंने आपको कभी फुटबॉल
या ॉकी खेलते न ीिं दे खा। अिंग्रेजी जेंहटलमैन के भलए ॉकी, कक्रकेट आहद में
भस्ध स्त ोना परमावश्वक ै ! मझ
ु े आशा ै , आप मेरी व तच्
ु छ याचना
स्वीकार करें गे। अिंग्रेजी वेष-भूषा में, बोलचाल में , आचार-ववचार में , कॉलेज में अब
आपका कोई प्रततयोगी न ीिं र ा। मैं चा ती ू ूँ कक खेल के मैदान में भी आपको
सवयश्रेष्ठता भस्ध ो जाए। कदाधचत कभी आपको मेरे साथ लेडडयों के सम्मुख
खेलना पड़े, तो उस समय आपकी और आपसे ज्यादा मेरी ेठी ोगी, इसभलए
टे तनस अवश्य खेभलए।

दस बजे पिंडडतजी को व पत्र भमला, दोप र को ज्यों ी ववश्राम की घिंटी बजी


कक आपने नईम से जाकर क ा -'यार, जरा फुटबॉल तनकाल दो।'

नईम फुटबॉल के कप्तान भी थे, मुस्कराकर बोले -'खैर तो ै , इस दोप र में


फुटबॉल लेकर क्या कील्जएगा? आप तो कभी मैदान की तरफ झाूँकते भी न ीिं,
आज इस जलती-बलती िूप में फुटबॉल खेलने की िुन क्यों सवार ै ?'

चक्रिर - 'आपको इससे क्या मतलब, आप गें द तनकाल दील्जए, मैं गें द में भी
आप लोगों को नीचा हदखाऊूँगा।'

नईम - 'जनाब, क ीिं चोट-चपेट आ जाएगी, मुफ्त में परे शान ोइएगा। मारे ी
भसर मर म-पट्टी को बोझ पड़ेगा, खुदा के भलए इस वक्त र ने दील्जए।'

चक्रिर - 'आखखर चोट तो मझ


ु े लगेगी आपका इससे क्या नक
ु सान ोता ै?
जरा-सा गें द तनकाल दे ने में इतनी आपल्तत क्यों ै ?'

नईम ने गें द तनकाल दी और पिंडडतजी उसी जलती ु ई दोप री में अभ्यास करने
लगे। बार-बार धगरते थे, बार-बार ताभलयाूँ पड़ती थी, मगर व अपनी िन
ु में ऐसे
मस्त थे कक उसकी कुछ परवा ी न थी। इसी बीच लूसी को आते दे ख भलया
और भी फूल गए। बार-बार पैर चलाते थे, मगर तनशाना खाली जाता था, पैर
पड़ते भी थे तो गें द पर कुछ असर न ोता था और लोग आकर गें द को एक
ठोकर में आसमान तक प ु ूँचा दे ते तो आप क ते ै , मैं जोर से मारूूँ तो इससे
भी ऊपर जाए, लेककन फायता क्या? लस
ू ी दो-तीन भमनट तक खड़ी उनकी
बौखला ट पर ूँसती र ी। आखखर नईम से बोली - 'वेल नईम, इस पिंडडत को
क्या ो गया ै ? रोज एक-न-एक स्वािंग भरा करता ै , इसका हदमाग में खलल
तो न ीिं पड़ गया?'

नईम - 'मालूम तो कुछ ऐसा ी ोता ै ।'

शाम को सब लोग छात्रावास में आए तो भमत्रों ने जाकर पिंडडतजी को बिाई दी


-'यार, ो बड़े खश
ु नसीब, म लोग फुटबाल को कॉलेज की चोटी तक प ु ूँचाते र े ,
मगर ककसी ने तारीफ न की। तुम् ारे खेल की सबने तारीफ की, खासकर लूसी
ने। व तो क ती थी, ल्जस ढिं ग से य खेलते ै , उस ढिं ग से मैंने ब ु त कम
ह न्दस्
ु तातनयों को खेलते दे खा ै । मालूम ोता ै , ऑक्सफोडय का अभ्यस्त
खखलाड़ी ै ।'

चक्रिर -'और भी कुछ बोली? क्या क ा, सच बताओ?'

नईम -'अजी, अब साफ-साफ ने क लवाइए, मालम


ू ोता ै , आपने टट्टी की आड़
से भशकार खेला ै । बड़े उस्ताद ो यार! म लोग मूँु ताकते र े और तुम
मैदान मार ले गए, जभी आप रोज य कलेवर बदला करते थे? अब भेद खुला,
वाकई खुशनसीब ो।'

चक्रिर - 'मैं उसी कायदे से गें द में ठोकर मारता था, जैसे ककताब में भलखा ै ।'

नईम -'तभी तो बाजी मार ले गए भाई! और न ीिं क्या म आपसे ककसी बात में
कम ै! ाूँ, तम्
ु ारी-जैसी सरू त क ाूँ से लावें'

चक्रिर -'ब ु त बनाओ न ीिं, मैं ऐसा क ाूँ का बड़ा रूपवान ू ूँ।'
नईम -'अजी य नतीजे ी से जाह र ै , य ाूँ साबन
ु और तेल लगाते-लगाते भौंरा

ु आ जाता ू ूँ और कुछ असर न ीिं ोता। मगर आपका रिं ग बबना कदी-कफटकरी
के ी चोखा ै।'

चक्रिर - 'कुछ मेरे कपड़े वगैर की तनस्बत तो न ीिं क ती थी?'

नईम - 'न ीिं और तो कुछ न ीिं क ा, ाूँ इतना दे खा कक जब तक खड़ी र ी,


आपकी ी तरफ उसकी टकटकी लगी ु ई थी।'

पिंडडतजी अकड़े जाते थे, हृदय फूला जाता था, ल्जन् ोंने उनकी व अनुपम छवव
दे खी, वे ब ु त हदनों तक याद रखेंगे। मगर इस अतुल आनन्द का मूकय उन् ें
ब ु त दे ना पड़ा, क्योंकक अब कॉलेज का सेशन समाप्त ोने वाला था और भमत्रों
की पिंडडतजी के माथे एक बार दावत खाने की बड़ी अभभलाषा थी, प्रस्ताव ोने
की दे र थी। तीसरे हदन उनके नाम लस
ू ी का पत्र प ु ूँचा। ववयोग के दहु दय न आ र े
ै , न-जाने आप क ाूँ ोंगे और मैं क ाूँ ू ूँगी। मैं चा ती ू ूँ, इस अटल प्रेम की
यादगार में एक दावत ो। अगर उसका व्यय आपके भलए असह्य ो तो मैं
सम्पूणय भार लेने के भलए तैयार ू ूँ। इस दावत में मैं और मेरी सखखयाूँ-स े भलयाूँ
तनमिंबत्रत ोंगी। कॉलेज के छात्र और अध्यापकगण सल्म्मभलत ोंगे। भोजन के
उपरान्त म अपने ववयुक्त हृदय के भावों के प्रकट करें गे। काश, आपका िमय,
आपकी जीवन-प्रणाली और मेरे माता-वपता की तनदय यता बािक न ोती तो में
सिंसार की कोई शल्क्त जुदा न ीिं करती।

चक्रिर य पत्र पाते ी बौखला उठे । भमत्रों से क ा -'भाई, चलते-चलते एक बार


स भोज तो ो जाए, कफर न जाने कौन क ाूँ ोगा, भमस लूसी को भी बुलाया
जाए।'

यद्यवप पिंडडतजी के पास इस समय रूपए न थे , घर वाले उसनकी कफजल


ू खची
की कई बार भशकायत कर चुके थे, मगर पिंडडतजी का आतमाभभमान य कब
मानता कक प्रीततभोज का भार लूसी पर रखा जाए। व तो अपने प्राण तक उस
पर वार चक
ु े थे। न-जाने क्या-क्या ब ाने बनाकर सस
ु राल से रुपए मूँगवाए और
बड़े समारो से दावत की तैयाररयाूँ ोने लगी। काडय छपवाए गए, भोजन परोसने
वाले के भलए नई वरहदयाूँ बनवाई गईं। अिंग्रजी और ह न्दस्
ु तानी दोनों ी प्रकार
के व्यिंजनों की व्यवस्था की गई। अिंग्रेजी खाने के भलए रायल ोटल से बातचीत
की गई, इसमें ब ु त सुवविा थी। यद्यवप चीजें ब ु त म ूँ गी थीिं, लेककन झिंझट से
नजात ो गई, अन्यथा सारा भार नईम और उसके दोस्त धगररिर पर पड़ता।
ह न्दस्
ु तानी भोजन के व्यवस्थापक धगररिर ु ए।

पूरे दो सप्ता तक तैयाररयाूँ ु ई थी। नईम और धगररिर तो कॉलेज में केवल


मनोरिं जन के भलए थे, पढना-पढाना तो उनको था न ीिं, आमोद-प्रमोद ी में समय
व्यतीत ककया करते थे। कवव-सम्मेलन की भी ठ री, कववजनों के नाम बल
ु ावे
भेजे गए। सारािंश य कक बड़े पैमाने पर प्रीततभोज का प्रबन्ि ककया गया और
भोज ु आ भी ववराट। ववद्यालय के नौकरों ने पूररयाूँ बेचीिं। ववद्यालय के
इतत ास में व भोज धचरस्मरणीय र े गा। भमत्रों ने खूब बढ-बढकर ाथ मारे ।
दो-तीन भमसें भी खीिंच बुलाई गईं। भमरजा नईम लूसी को घेर-घारकर ले ी
आए। इसने भोजन को और भी रसमय बना हदया।

ककन्तु शोक, म ाशोक। इस भोज का पररणाम अभागे चक्रिर के भलए


ककयाणकारी न ु आ। चलते-चलते लल्ज्जत और अपमातनत ोना पड़ा था। भमत्रों
की तो हदकलगी थी और उस बेचारे की जान पर बन र ी थी। सोचे, अब तो
ववदा ोते ी ै , कफर मल
ु ाकात ो या न ो, अब ककस हदन के भलए सब्र करें ?
मन के प्रेमोद्गार को तनकाल क्यों न लें , कलेजा चीरकर हदखा क्यों न दें , औऱ
लोग तो दावत खाने में जुटे ु ए थे, और व मदन-बाण-पीडड़त युवक बैठा सोच
र ा था कक य अभभलाषा क्योंकर पूरी ों? अब य आतमादमन क्यों? लज्जा
क्यों? ववरल्क्त क्यों? गुप्त-रोदन क्यों? मौन-मुखापेक्षा क्यों? अन्तवेदना क्यों? बैठे-
बैठे प्रेम को कक्रयाशील बनाने के भलए मन में बल का सिंचार करते र े , कभी
दे वताओिं का स्मरण करते, कभी ईश्वर को अपनी भल्क्त याद हदलाते, अवसर की
ताक में इस भाूँतत बैठे थे, जैसे बगल
ु ा मेढक की ताक में बैठता ै । भोज समाप्त
ो गया, पान-इलाइची बट चक
ु ी थी, ववयोगवाताय ो चक
ु ी। भमस लस
ू ी अपनी
श्रवणमिुर वाणी से हृदयों में ा ाकार मचा चुकी, और भोजशाला से तनकलकर
बाईभसककल पर बैठी। उिर कवव-सम्मेलन में इस तर भमसरा पढा गया -

कोई दीवाना बनाए, कोई दीवाना बने।

इिर चक्रिर चुपके से लूसी के पीछे ो भलए और साईककल को भयिंकर वेग से


दौड़ाते ु ए उसे आिे रास्ते में जा पकड़ा। व इन् ें इस व्यग्रता से दौड़े आते
दे खकर स म उठी कक कोई दघ
ु ट
य ना तो न ीिं ो गई, बोली - 'वेल पिंडडतजी! क्या
बात ै ? आप इतने बद वास क्यों ै ? कुशल तो ै ?'

चक्रिर का गला भर आया, कल्म्पत स्वर से बोलो - 'अब आपसे सदै व के भलए
बबछुड़ ी जाऊूँगा, य कहठन ववर -पीड़ा कैसे स ी स ी जाएगी! मझ
ु े तो शिंका ै,
क ीिं पागल न ो जाऊूँ!'

लस
ू ी ने ववल्स्मत ोकर पछ
ू ा -'आपकी मिंशा क्या ै ? आप बीमार ै क्या?'

चक्रिर - 'आ डडयर डाभलांग, तुम पूछती ो, बीमार ू ूँ? मैं मर र ा ू ूँ , प्राण तनकल
चुके ै केवल प्रेमाभभलाषा का अवलम्बन ै !'

य क कर आपने उसका ाथ पकड़ना चा ा। व उनका उन्माद दे खकर भयभीत


ो गई। क्रोि में आकर बोली -'आप मुझे य ाूँ रोककर मेरा अपमान कर र े ै,
इसके भलए आपको पछताना पड़ेगा।'

चक्रिर -'लूसी, दे खो चलते-चलते इतनी तनष्ठुरता न करो। मैंने ये ववर के हदन


ककस तर काटे ै , सो मेरा हदल ी जानता ै । मैं ी ऐसा बेगय ू ूँ कक अब तक
जीता ू ूँ, दस
ू रा ोता तो अब तक चल बसा ोता, बस, केवल तुम् ारी सुिामई
पबत्रकाएूँ ी मेरे जीवन का एकमात्र आिार थी।'
लस
ू ी -'मेरी पबत्रकाएूँ! कैसी? मैं आपको कब पत्र भलखे! आप कोई नशा तो न ीिं
खा आए ै ?'

चक्रिर - 'डडयर डाभलांग, इतनी जकद न भूल जाओ। इतनी तनदय यता न हदखाओ,
तम्
ु ारे वे प्रेम-पत्र, जो तम
ु ने मझ
ु े भलखे ै , मेरे जीवन की सबसे बड़ी सम्पतत
र ें गे। तम्
ु ारे अनरु ोि से मैंने य वेष िारण ककया, अपना सिंध्या- वन छोड़ा, य
आचार-व्यव ार ग्र ण ककया। दे खो तो जरा, मेरे हृदय पर ाथ रखकर, कैसी
िड़कन ो र ी ै , मालूम ोता ै , बा र तनकल पड़ेगा। तुम् ारा य कुहटल ास्य
मेरे प्राण ी लेकर छोड़ेगा, मेरी अभभलाषाओिं...।'

लूसी - 'तुम भिंग तो न ीिं खा गए ो या ककसी ने तुम् े चकमा तो न ीिं हदया


ै ? मैं तुमको प्रेम-पत्र भलखती, ः ः। जरा अपनी सूरत तो दे खो, खासे बनैले
सूअर मालूम ोते ो।'

ककन्तु पिंडडतजी अभी तक य ी समझ र े थे कक व मुझसे ववनोद कर र ी ै।


उसका ाथ पकड़ने की चेष्ठा करके बोले - 'वप्रये, ब ु त हदनों के बाद य
सुअवसर भमला ै , अब न भागने पाओगी।'

लूसी को अब क्रोि आ गया। उसने जोर से एक चाूँटा उनके लगाया, और भसिं नी


की भाूँतत गरजकर बोली - 'यू ब्लाड़ी! ट जा रास्ते से, न ीिं तो, अभी पुभलस को
बुलाती ू ूँ, रॉस्कल!'

पिंडडतजी चाूँटा खाकर चौंधिया गए। आूँखों के सामने अिंिेरा छा गया, मानभसक
आघात पर व शारीररक वज्रपात! य द ु री ववपल्तत! व तो चाूँटा मारकर वा
ो गई और य व ीिं जमीन पर बैठकर इस सम्पूणय वत
ृ ान्त की मन- ी-मन
आलोचना करने लगे। चाूँटे ने बा र की आूँखें आूँसुओिं से भर दी थीिं, पर अन्दर
की आूँखें खोल दी थीिं। क ीिं कॉलेज के लौंडो ने तो य शरारत न ीिं की? अवश्य
य ी बात ै , आ ! पाल्जयों ने बड़ा चकमा हदया! तभी सब-के-सब मुझे दे ख-
दे खकर ूँसा करते थे! मैं भी कुछ कमअक्ल ू ूँ न ीिं तो इनके ाथों टे सू क्यों
बनता! बड़ा झाूँसा हदया, उम्र-भर याद र े गा, व ाूँ से झकलाए ु ए आए और नईम
से बोले - 'तम
ु बड़े दगाबाज ो, परले भसरे के ित
ू य, पाजी उकलू, गिे, शैतान!'

नईम -'आखखर कोई बात भी कह ए, या गाभलयाूँ ो दे ते जाइएगा?'

धगररिर -'क्या बात ु ई, क ीिं लूसी से आपने कुछ क ा तो न ीिं?'

चक्रिर - 'उसी के पास से आ र ा ू ूँ, चाूँटा खाकर और मूँु में काभलख


लगवाकर! तुम दोनों ने भमलकर मुझे खूब उकलू बनाया, इसकी कसर न लूँ ू तो
मेरा नाम न ीिं। मैं न ीिं जानता था कक तुम लोग भमत्र बनकर मेरी गरदन पर
छुरा चला र े ो! अच्छा जो व गुस्से में आकर वपस्तौल चला दे ती तो।'

नईम -'अरे यार माशूकों की घातें तनराली ोती ै !'

चक्रिर - 'तम्
ु ारा भसर! माशक
ू ें चाूँटे लगाया करते ै , वे आूँखों से तीर चलाते ै ,
कटार मारते ै , या ाथों से मल्ु ष्ठ-प्र ार करते ै ?'

धगररिर - 'उससे आपने क्या क ा?'

चक्रिर - 'क ा क्या अपनी बबर व्यथा की गाथा सुनाता र ा, इस पर उसने


ऐसा चाूँटा रसीद ककया कक कान भन्ना उठे , ाथ ै उसके कक पतथर!'

धगररिर -'गजब ी ो गया, आप ै तनरे चोंच! भले आदमी, इतनी मोटी बुव्ध ै
तुम् ारी! म क्या जानते थे कक आप ऐसे तछछोरे ै , न ीिं तो मजाक ी क्यों
करते। अब आपके साथ म लोगों पर भी आफत आई। क ीिं उसने वप्रिंभसपल से
भशकायत कर दी तो न इिर के ु ए न उिर के, और जो क ीिं अपने ककसी
अिंग्रेज आशना से क ा तो जान के लाले पड़ जाएूँगे। बड़े बेवकूफ ो यार, तनरे
चोंच, इतना भी न ीिं समझे कक व सब हदकलगी थी, ऐसे बड़े खब
ू सरू त भी तो
न ीिं ो।'
चक्रिर- 'हदकलगी तम्
ु ारे भलए थी, मेरी तो मौत ो गई। धचडड़या जान से गई,
लड़कों का खेल ु आ, अब चप
ु के से मेरे पाूँच सौ रुपए लौटा दील्जए, न ीिं तो
गरदन ी तोड़ दूँ ग
ू ा!'

नईम -'रुपयों के बदले खखदमत चा े ले लो, क ो तम्


ु ारी जामत बना दें , जत
ू े
साफ कर दें , भसर स ला दें , बस, खाना दे ते जाना। कसम ले लो जो ल्जन्दगी-भर
क ीिं जाऊूँ, या तरक्की के भलए क ू ूँ , माूँ-बाप के भसर से तो बोझ टल जाएगा।'

चक्रिर - 'मत जले पर नमक तछड़को, जी! आप-के-आप गए, मझ


ु े ले डूबे।
तम्
ु ारी तो अिंग्रेजी अच्छी ै , लोट-पोटकर तनकल जाओगे, मैं तो पास भी न ू ूँगा।
बदनाम ु आ, व अलग। पाूँच सौ की चपत भी पड़ी। य हदकलगी ै कक गला
काटना? खैर समझूँूगा और चा े मैं न समझूँू, पर ईश्वर जरूर समझेंगे।'

नईम -'गलती ु ई भाई, मझ


ु े अब खद
ु इसका अफसोस ै ।'

धगररिर - 'खैर, रोने-िोने का अभी ब ु त मौका ै , अब य बतलाइए कक लूसी ने


वप्रिंभसपल से क हदया तो क्या नतीजा ोगी, तीनों आदमी तनकाल हदए जाएूँगे,
नौकरी से भी ाथ िोना पड़ेगा! कफर?'

चक्रिर -'मैं तो वप्रिंभसपल से तम


ु लोगों की सारी कलई खोल दूँ ग
ू ा।'

नईम - 'क्यों यार, दोस्त के य ी माने ै ?'

चक्रिर -'जी ाूँ, आप जैसे दोस्तों की य ी सजा ै ।'

उिर तो रात-भर मुशायरे का बाजार गरम र ा और इिर य बत्रमूततय बैठी प्राण-


रक्षा के उपाय सोच र ी थी। वप्रिंभसपल के कानों तक बात प ु ूँची और आफत
आई। अिंग्रेज वाली बात ै , न जाने क्या कर बैठे। आखखर ब ु त वाद-वववाद के
पश्चात य तनल्श्चत ु आ कक नईम और धगररिर प्रातःकाल भमस लूसी के बिंगले
पर जाएूँ, उससे क्षमा-याचना करें , और इस अपमान के भलए व जो प्रायल्श्चत
क े , उसे स्वीकार करें ।

चक्रिर - 'मैं एक कौड़ी न दूँ ग


ू ा।'

नईम - 'ने दे ना भाई! मारी जान तो ै न।'

धगररिर - 'जान लेकर व चाटे गी, प ले रुपए की कफक्र कर लो! व बबना


तावान भलए न मानेगी।'

नईम - 'भाई, चक्रिर, खद


ु ा के भलए इस वक्त हदल न छोटा करो, न ीिं तो म
तीनों की भमट्टी खराब ोगी, जो कुछ ु आ उसे मआ
ु फ करो, अब कफर ऐसी खता
न ोगी।'

चक्रिर -'ऊूँ , य ी न ोगा कक तनकाल हदया जाऊूँगा, दक


ु ान खोल लूँ ग
ू ा, तम्
ु ारी
भमट्टी भी खराब ोगी, इस शरारत का मजा चखोगे, ओ कैसा चकमा हदया।'

ब ु त खुशामद औऱ धचरौरी के बाद दे वता सीिे ु ए। प्रातःकाल नईम लूसी के


बिंगले पर प ु ूँचे, व ाूँ मालम
ू ु आ कक व वप्रिंभसपल के बिंगले पर गई ै । अब
काटो तो बदन में ल ू न ीिं। या अली, तम्
ु ीिं मल्ु श्कल को आसान करने वाले ो,
अब जान की खैर न ीिं। वप्रिंभसपल ने सुना तो कच्चा खा जाएगा, नमक तक न
माूँगेगा। इस कम्बख्त पिंडडत की बदौलत अजाब में जान फूँसी। इस बे ू दे को
सूझी क्या? चला नाजनीन से इश्क जताने! बनववलास की-सी तो आपकी सूरत ै
और खब्त य कक य मा रू मुझ पर रीझ गई। में भी अपने साथ डूबोए दे ता
ै , क ीिं लस
ू ी से रास्ते में मल
ु ाकात ो गई तो शायद आरजू-भमन्नत करने से
मान जाए, लेककन जो व ाूँ प ु ूँ च चक
ु ी ै तो कफर कोई उम्मीद न ीिं। व कफर
पैरगाड़ी पर बैठे और बेत ाशा वप्रिंभसपल के बिंगले की तरफ भागे। ऐसे तेज जा
र े थे, मानो पीछे मौत आ र ी ै , जरा-सी ठोकर लगती तो ड्डी-पसली चूर-चूर
ो जाती। पर शोक! क ीिं लूसी का पता न ीिं, आिा रास्ता तनकल गया और लूसी
की गदय तक न नजर आई। नैराश्य ने गतत को मन्द कर हदया, कफर ह म्मत
करके चले। बिंगले के द्वार पर भी भमल गई तो जान बच जाएगी। स सा लस
ू ी
हदखाई दी। नईम ने पैरों को और तेज चलाना शुरू ककया, व वप्रिंभसपल के बिंगले
पर प ु ूँच चुकी थी, एक सेकिंड में वारा-न्यारा ोता था, नाव डूबती थी या पार
जाती थी। हृदय उछल-उछलकर किंठ तक आ र ा था। जोर से पुकारा - 'भमस
टरनर, े लो भमस टरनर, जरा ठ र जाओ।'

लूसी ने पीछे कफरकर दे खा, नईम को प चान गई और बोली -'मुझसे पिंडडत की


भसफाररश करने तो न ीिं आए ो! मैं वप्रिंभसपल से उसकी भशकायत करने जा र ी

ू ूँ।'

नईम -'तो प ले मुझे और धगररिर- दोनों को गोली मार दो, कफर जाना।'

लस
ू ी -'बे या लोगों पर गोली का असर न ीिं ोता, उसने मझ
ु े इिंसकट ककया ै ।'

नईम - 'लूसी, तुम् ारे कसूरवार मी दोनों ै, व बेचारा पिंडडत तो मारे ाथ का


खखलौना था, सारी शरारत म लोगों की थी, कसम तम्
ु ारे भसर की!'

लूसी - 'You naughty boy!'

नईम - ' म दोनों उसे हदल-ब लाव का एक स्वािंग बनाए ु ए थे, इसकी में जरा
भी खबर न थी, कक व तुम् ें छे ड़ने लगेगा। म तो समझते थे कक उससें इतनी
ह म्मत ी न ीिं ै । खुदा के भलए मुआफ करो, वरना म तीनों का खून तुम् ारी
गरदन पर ोगा।'

लूसी -'खैर, तुम क ते ो तो वप्रिंभसपल से न क ू ूँगी, लेककन शतय य ै कक पिंडडत


मेरे सामने बीस मरतबा कान पकड़कर उठे -बैठे औऱ मुझे कम-से-कम 200 रुपए
तावान दे ।'
नईम - 'लस
ू ी, इतनी बेर मी न करो, य समझो, उस गरीब के हदल पर क्या
गज
ु र र ी ोगी, काश, अगर तुम इतनी सीन न ोती।'

लूसी मुस्कराकर बोली - 'खुशामद करना कोई तुमसे सीख ले।'

नईम - 'तो अब वापस चलो।'

लस
ू ी - 'मेरी दोनों शते बातें मिंजरू करते ो न?'

नईम - 'तुम् ारी दस


ू री शतय तो म भमलकर पूरी कर दें गे, लेककन प ली शतय
सख्त ै , बेचारा ज र खाकर मर जाएगा। ाूँ, उसके एवज में मैं पचास दफा कान
पकड़कर उठ-बैठ सकता ू ूँ।'

लूसी - 'तुम छिं टे ु ए शो दे ो, तुम् ें शमय क ाूँ! मैं उसी को सजा दे ना चा ती ू ूँ ,


बदमाश, मेरा ाथ पकड़ना चा ता था।'

नईम - 'जरा भी र म न करोगी!'

लूसी - 'न ीिं, सौ बार न ीिं।'

नईम लूसी को साथ लाए। पिंडड़त के सामने दोनों शतें रखी गई तो बेचारा
बबलबबला उठा। लस
ू ी के पैरों पर धगर पड़ा और भससक-भससककर रोने लगा।
नईम और धगररिर भी अपने कुकृतय पर लल्ज्जत ु ए। अन्त में लूसी को दया
आई और बोली - 'अच्छा, इन दोनों में से कोई एक शतय मिंजूर कर लो मैं माफ
कर दूँ ग
ू ी।'

लोगों को ववश्वास था कक चक्रिर रुपए वाली शतय स्वीकार करें गे। लूसी के
सामने व कभी कान पकड़कर उठा-बैठी न करे गा, इसभलए जब चक्रिर ने क ा
- 'मैं रुपए तो न दूँ ग
ु ा, ाूँ, बीस की जग चालीस बार उठा-बैठी कर लूँ ग
ू ा।' तो
सब लोग चककत ो गए, नईम ने क ा - 'यार, क्यों म लोगों को जलील करते
ो? रुपए क्यों न ीिं दे त?े '

चक्रिर - 'रुपए ब ु त खचय कर चुका, अब इस चुडल


ै के भलए कानी कौड़ी तो खचय
करूूँगा न ीिं, दो सौ ब ु त ोते ै । इसने समझा ोगा, चलकर मजे से दो सौ रुपए
मार लाऊूँगी। य न ोगा, अब तक रुपए खचय करके अपनी ूँसी कराई ै , अब
बबन खचय ककए ूँसी कराऊूँगा। मेरे पैरों मे ददय ो बला से, सब लोग ूँस बला से,
पर इसकी मुट्ठी तो न गरम ोगी।'

य क कर चक्रिर ने कुरता उतार फेंका, िोती ऊपर चढा ली और बरामदे से


नीचे मैदान में उतरकर उठा-बैठी करने लगे। मुखमिंडल क्रोि से तमतमाता ु आ
था, पर व बैठकें लगाए जाते थे, मालूम ोता था, कोई प लवान अपना करतब
हदखा र ा ै । पिंडडत ने अगर बुव्ध मता का कभी पररचय हदया तो इसी अवसर
पर। सब लोग खड़े थे, पर ककसी के ोठों पर ूँसी न थी? सब लोग हदन नें कटे
जाते थे। य ाूँ तक कक लस
ू ी को भी भसर उठाने का सा स न ोता था, भसर
गड़ाए बैठी थी, शायद उसे खेद ो र ा था कक मैंने ना क य दिं ड -योजना की।

बीस बार उठते-बैठते ककतनी दे र लगती ै , पिंडडत ने खूब उच्च स्वर से धगन-
धगनकर बीस की सिंख्या परू ी की और गवय से भसर उठाए अपने कमरे में चले
गए, लूसी ने उन् ें अपमातनत करना चा ा था, उलटे उसी का अपमान ो गया।

इस दघ
ु ट
य ना के पश्चात एक सप्ता तक कॉलेज खुला र ा, ककन्तु पिंडडतजी को
ककसी ने ूँसते न ीिं दे खा। व ववमन औऱ ववरक्त भाव से अपने कमरे में बैठे
र ते थे, लूसी का नाम जबान पर आते झकला पड़ते थे।

इस साल की परीक्षा में पिंडडतजी फेल ो गए, पर इस कॉलेज में कफर न आए,
शायद अलीगढ चले गए।

***

You might also like