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मानसरोवर
भाग 4
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Manasarovar – Part 4
By Premchand
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Sanjayacharya
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Contents
प्रेरणा ........................................................................................................... 4
सदगतत ...................................................................................................... 18
तगादा........................................................................................................ 29
दो कब्रे ....................................................................................................... 40
ढपोरसिंख .................................................................................................... 60
डडमािंस्रे शन................................................................................................. 86
दारोगाजी.................................................................................................... 98
अभभलाषा ................................................................................................. 109
खुचड़ ....................................................................................................... 117
आगा-पीछा ............................................................................................... 132
प्रेम का उदय ............................................................................................ 158
सती ........................................................................................................ 173
मत
ृ क-भोज ............................................................................................... 184
भूत ......................................................................................................... 208
सवा सेर गें ू ूँ ............................................................................................ 224
सभ्यता का र स्य .................................................................................... 233
समस्या .................................................................................................... 242
दो सखखयाूँ ............................................................................................... 249
माूँगे की घड़ी............................................................................................ 322
नाग-पूजा ................................................................................................. 344
ववनोद ...................................................................................................... 356
प्रेरणा
खद
ु ाई फौजदारों की एक फौज बना ली थी और उसके आतिंक से पाठशाला पर
शासन करता था। मख्
ु य अधिष्ठाता (वप्रिंभसपल) का आञा ा टल जाए, मगर क्या
मजाल कक कोई उसके ु क्म की अवञा ा कर सके। स्कूल के चपरासी और अदय ली
उससे थर-थर काूँपते थी। इिंस्पेक्टर का मुआइना ोने वाला था, मुख्य अधिष्ठाता
ने ु क्म हदया कक लड़के तनहदय ष्ट समय से आि घिंटा प ले आ जाए, मगर
मतलब य था कक लड़को को मुआइने के बारे में कुछ जरूरी बातें बता दी जाए।
दस बज गए, इिंस्पेक्टर सा ब आकर बैठ गए, और मदरसे में एक लड़का भी
न ीिं। ग्यार बजे सब छात्र तनकल पड़े, जैसे कोई वपिंजरा खोल हदया गया ो।
सूयप्र
य काश ने अववचभलत भाव से क ा - 'आप मेरे पास ोने की धचन्ता न करें ,
मैं मेश पास ु आ ू ूँ और अबकी भी ू ूँगा।'
'असम्भव!'
उसी साल मेरी तबादला ो गया। यद्यवप य ाूँ की जलवायु मेरे अनुकूल थी,
वप्रिंभसपल और अन्य अध्यापकों से मैत्री ो गई थी। मैं अपने तबादले से खुश
ु आ क्योंकक सूयप्र
य काश मेरे मागय का काूँटा न र े गा। लड़कों ने मुझे ववदाई की
दावत दी और सब-के-सब स्टे शन तक प ु ूँ चाने आए। उस वक्त सभी लड़के
आूँखों में आूँसू भरे ु ए थे। मैं भी अपने आूँसओ
ु िं को न रोक सका। स सा मेरी
तनगा सूयप्र
य काश पर पड़ी, जो सबसे पीछे लल्ज्जत खड़ा था। मुझे ऐसा मालूम
गाड़ी मन्द गतत से चली, लड़के कई कदम तक उसके साथ दौड़े, मैं खखड़की से
बा र भसर तनकालें खड़ा था। कुछ दे र मझ
ु े उनके ह लते रूमाल नजर आए। कफर
वे रे खाएूँ आकाश में ववलीन ो गई, मगर एक अकपकाय मतू तय अब भी प्लेटफामय
पर खड़ी थी। मैंने अनम
ु ान ककया व सय
ू प्र
य काश ैं। उस समय मेरा हृदय ककसी
ववकल कैदी की भाूँतत घण
ृ ा, माभलन्य और उदासीनता के बन्िनों को तोड़-तोड़कर
उसके गले भमलने के भलए तड़प उठा।
व ाूँ से लौटा तो एक कॉलेज का वप्रिंभसपल बना हदया गया। य भसव्ध मेरे भलए
बबककुल आशातीत थी। मेरी भावना स्वप्न में भी इतनी दरू न उड़ी थी, ककन्तु
पदभलप्सा अब ककसी और भी ऊूँची डाली पर आश्रय लेना चा ती थी। भशक्षामिंत्री
से रब्त-जब्त पैदा ककया। मिंत्री म ोदय मझ
ु पर कृपा रखते थे, मगर वास्तव में
भशक्षा के मौभलक भस्ध ान्तों का उन् ें ञा ान न था। मझ
ु े पाकर उन् ोंने सारा भार
मुझ पर डाल हदया। घोडे पर सवार थे, लगाम मेरे ाथ में थी। फल य ु आ कक
उनके राजनैततक ववपक्षक्षयों से मेरा ववरोि ो गया। मुझ पर जा-बेजा आक्रमण
ोने लगे। मैं भस्ध ान्त रूप से अतनवायय भशक्षा का ववरोिी ू ूँ , मेरा ववचार ैं कक
र मनुष्य को उन ववष्यों में ज्यादा स्वािीनता ोनी चाह ए, ल्जनका उनसे तनज
सम्बन्ि ैं। मेरा ववचार ैं कक यरू ोप में अतनवायय भशक्षा की जरूरत ैं , भारत में
न ीिं। भौततकता पल्श्चमी सभ्यता का मूल तततव ैं। व ाूँ ककसी काम की प्रेरणा,
आधथयक लाभ के आिार पर ोती ैं। ल्जन्दगी की जरूरत ज्यादा ैं , इसभलए
जीवन-सिंग्राम भी अधिक भीषण ैं। माता-वपता भोग के दास ोकर बच्चों को
जकद-से-जकद कुछ कमाने पर मजबूर करते ैं। इसकी जग कक य मद का
तयाग करके एक भशभलिंग रोज बचत कर लें , वे अपने कमभसन बच्चों के एक
भशभलिंग की मजदरू ी करने के भलए दबाएूँगें। भारतीय जीवन में साल्तवक सरलता
ैं। म उस वक्त तक बच्चों से मजदरू ी न ीिं कराते, जब तक पररल्स्थतत में
वववश न कर दे । दररद्र-से-दररद्र ह न्दस्
ु तानी मजदरू भी भशक्षा के उपकारों का
कायल ैं। उसके मन में य अभभलाषा ोती ैं कक मेरा बच्चा चार अक्षर पढ
जाए। इसभलए न ीिं कक उसे कोई अधिकार भमलेगा, बल्कक इसभलए की ववद्या
मानवी शील का एक शिंग
ृ ार ैं। अगर य जानकर भी व अपने बच्चें को
मदरसे न ीिं भेजता, तो समझ लेना चाह ए कक व मजबूर ैं। ऐसी दशा में उस
पर कानून का प्र ार करना मेरी दृल्ष्ट में न्याय-सिंगत न ीिं ैं। इसके भसवाय मेरे
ववचार में अभी मारे दे श में योग्य भशक्षकों का अभाव ैं। अ्ध य -भशक्षक्षत और
अकपवेतन पाने वाले अध्यापकों से आप य आशा न ीिं रख सकते ैं कक व
कोई ऊूँचा आदशय आपके सामने रख सकें। अधिक-से-अधिक इतना ोगा कक
चार-पाूँच वषय में बालक को अक्षर-ञा ान ो जाएगा। मैं इसे पवयत-खोदकर चुह या
तनकालने के तुकय समझता ू ूँ । व्यस्कता प्राप्त ो जाने पर य मसला एक
म ीने में आसानी से तय ककया जा सकता ैं । मैं अनुभव से क सकता ू ूँ कक
यव
ु ावस्था में म ल्जनता ञा ान एक म ाने में प्राप्त कर सकते ैं , उतना
बाकयवस्था में तीन साल में भी न ीिं कर सकते, कफर खामख्वा बच्चों को
मदरसे में कैद करने से क्या लाभ? मदरसे के बा र र कर उसे स्वच्छ वायु तो
भमलती ैं, प्राकृततक अनुभव तो ोते। पाठशाला में बन्द करके आप उसके
मानभसक औऱ शारीररक दोनों वविानों की जड़ काट दे ते ैं। इसीभलए जब प्रािंतीय
व्यवस्थापक-सभा में अतनवायय भशक्षा का प्रस्ताव पेश ु आ, तो मेरी प्रेरणा से
भमतनस्टर सा ब ने उसका ववरोि ककया।
सन्ध्या-समय नदी-तट पर सैर करने गया था। व कुछ अस्वस््य थी। लौटा, तो
उसकी लाश भमली। कदाधचत हृदय की गतत बन्द ो गई थी। इस आघात ने
कमर तोड़ दी। माता के प्रसाद और आशीवायद से बड़े-बड़े म ान पुरुष कृताथय ो
गए ैं। मैं जो कुछ ु आ, पतनी के प्रसाद और आशीवायद से ु आ, व मेरे भाग्य
की वविात्री थी। ककतना अलौककक तयाग था, ककतना ववशाल िैय।य उनके मािुयय
में तीक्ष्णता का नाम भी न था। मुझे याद न ीिं आता कक मैंने कभी उनकी
भक
ृ ु टी सिंकुधचत दे खी ो, व तनराश ोना तो जानती ी न थी। मैं कई बार
सख्त बीमार पड़ा ू ूँ। वैद्य तनराश ो गए, पर व अपने िैयय और शाल्न्त से
अणु-मात्र भी ववचभलत न ीिं ु ई। उन् ें ववश्वास था कक मैं अपने पतत के जीवन-
काल में मरूूँगी और व ी ु आ भी। मैं जीवन में अब तक उन् ीिं के स ारे खड़ा
था! अब व अवलम्ब ी न र ा, तो जीवन क ाूँ र ता। खाने और सोने का नाम
जीवन न ीिं ैं। जीवन का नाम ैं , सदै व आगे बढते र ने की लगन का। य
लगन गायब ो गई। मैं सिंसार से ववरक्त ो गया और एकान्तवास में जीवन के
हदन व्यतीत करने का तनश्चय करके एक छोटे से गाूँव में जा बसा। चारों तरफ
ऊूँचे-ऊूँचे टीले थे, एक ओर गिंगा ब ती थी। मैंने गिंगा के ककनारे एक छोटा-सा
घर बना भलया औऱ उसी में र ने लगा, मगर काम करना तो मानवी स्वभाव ैं।
बेकारी में जीवन कैसे कटता। मैंने एक छोटी-सी पाठशाला खोल ली, एक वक्ष
ृ की
छाूँ में गाूँव के लड़कों का जमा करके कुछ पढाया करता था। उसकी य ाूँ इतनी
ख्यातत ु ई कक आस-पास के गाूँव के छात्र भी आने लगे।
मैं अभी इसी ववस्मय में पड़ा था कक डडप्टी कभमश्नर ने भसर उठाया और मेरी
तरफ दे खकर क ा - 'आपने शायद मुझे प चाना न ीिं।'
इतना सुनते ी मेरे स्मतृ त-नेत्र खुल गए, बोला - 'आपका नाम सूयप्र
य काश तो
न ीिं ैं?'
सूयप्र
ुय काश ने ववनीत स्वर में क ा - 'उन् ीिं अपरािों को क्षमा कराने के भलए
आपकी सेवा में आया ू ूँ। मैं सदै व आपकी खबर लेता र ता था। जब आप
इिंग्लैंड गए, तो मैंने आपके भलए बिाई का पत्र भलखा, पर उसे भेज न सका। जब
आप वप्रिंभसपल ु ए, मैं इिंग्लैंड जाने को तैयार था, व ाूँ मैं पबत्रकाओिं में आपके लेख
पढता र ता था। जब लौटा तो मालम
ू ु आ कक आपने इस्तीफा दे हदया और
ककसी दे ात में चले गए ैं। इस ल्जले में आए ु ए मुझे एक वषय से अधिक
ु आ। अगर व मेरा पुत्र ोता तो भी इससे अधिक आनन्द न ोता। मैं उसे
अपने झोपड़े में लाया और अपनी रामक ानी क सुनाई।
सूयप्र
य काश ने क ा - 'तो य कह ए कक आप अपने ी भाई के ववश्वासघात के
भशकार ु ए। मेरा अनुभव तो अभी ब ु त कम ैं , मगर इतने हदनों में मुझे मालूम
ो गया ैं, कक म लोग अभी अपनी ल्जम्मेदाररयों को पूरा करना न ीिं जानते।
भमतनस्टर से भें ट ु ई तो पछ
ू ू ूँ गा, कक य ी आपकी िमय था।'
मैने जबाव हदया - 'भाई, उनका दोष न ीिं ैं, सम्भव ैं, इस दशा में मैं भी व ी
करता, जो उन् ोंने ककया। मुझे अपनी स्वाथयभलप्सा की सजा भमल गई और उसके
भलए मैं उनकी ऋणी ू ूँ। बनावट न ीिं, सतय क ता ू ूँ कक य ाूँ मझ
ु े जो शाल्न्त ैं,
व और क ीिं न थी। इस एकान्त-जीवन में कुछ जीवन के तततवों का व ञा ान
य क कर मैंने सय
ू प्र
य काश के च े रे की ओर गौर से दे खा, कपट मस्
ु कान की
जग ग्लातन का रिं ग था। शायद य हदखाने आया था कक आप ल्जसकी तरफ
से इतने तनराश ो गए थे, व अब इस पद को सश
ु ोभभत कर र ा ैं। व मुझसे
अपने सदद्
ु योग का बखान कराना चा ता था, मुझे अब अपनी भूल मालूम ु ई,
एक सम्पन्न आदमी के सामने समवृ ्ध की तनन्दा उधचत न ीिं। मैंने तुरन्त बात
पलट कर क ा - 'मगर तम
ु अपना ाल तो क ो। तम्
ु ारी य काया पलट कैसे
ु ई? तुम् ारी शरारतों को याद करता ू ूँ तो अब भी रोएूँ खड़े ो जाते ैं, ककसी
दे वता के वरदान के भसवा और तो क ीिं य ववभूतत न प्राप्त ो सकती थी।'
सय
ू प्र
य काश ने मस्
ु कराकर क ा - 'आपका आशीवायद था।'
'मैं क ता - ाूँ परमातमा तुम् ारे , मारे सबके पास र ते ैं और मारी रक्षा
करते ैं। य आश्वासन पाकर उसका चे रा आनन्द से खखल उठता था,
कदाधचत व परमातमा की सतता का अनभ
ु व करने लगता था, साल भर में
मो न कुछ से कुछ ो गया।
मामा सा ब दोबारा आए, तो उसे दे कर चककत ो गए। आूँखों में आूँसू भरकर
बोले - बेटा! तम
ु ने इसको ल्जला भलया, न ीिं तो मैं तनराश ो चक
ु ा था, इसका
पुनीत फल तुम् ें ईश्वर दें गे। इसकी माूँ स्वगय में बैठी ु ई तुम् ें आशीवायद दे र ी
ैं।
'सय
ू प्र
य काश की आूँखें भी उस वक्त सजल ो गई थी।
'सूयप्र
य काश ने सजल नेत्रों में सरत भरा आनन्द कफर चमक उठा, कफर बोला -
व मुझे एक भमनट के भलए भी न छोड़ता था, मेरे साथ बैठता, मेरे साथ खाता,
मेरे साथ सोता, मैं ी उसका सब कुछ था। आ ! व सिंसार में न ीिं ैं, मगर
मेरे भलए व अब भी उसी तर जीता- जागता ैं। मैं जो कुछ ू ूँ , उसी का
बनाया ु आ ू ूँ , अगर व दै वी वविान की भाूँतत मेरा पथ-प्रदशयक न बन जाता, तो
शायद आज मैं ककसी जेल में पड़ा ोता। एक हदन मैंने क हदया था, अगर तुम
रोज न ा न भलया करोगे तो मैं तुमसे न बोलूँ ग
ू ा। न ाने से व न जाने क्यों जी
चुराता था, मेरी िमकी का फल य ु आ कक व तनतय प्रातःकाल न ाने लगा,
ककतनी ी सदी क्यों न ो, ककतनी ी ठिं डी वा चले , लेककन स्नान अवश्य करता
था। दे खता र ता था, मैं ककस बात से खश
ु ोता ू ूँ। एक हदन भमत्रों के साथ
धथयेटर दे खने चला गया, ताकीद कर गया था कक तुम खाना खाकर सो र ना।
तीन बजे रात को लौटा, तो दे खा कक व बैठा ु आ ैं!
मैंने पूछा - तुम सोए न ीिं?
'उस हदन से मैंने धथयेटर जाने का नाम न भलया। बच्चों में प्यार की जो भूख
ोती ै - दि
ू , भमठाई और खखलौनों से भी ज्यादा मादक, जो माूँ की गोद के
सामने सिंसार की तनधि की भी परवा न ीिं करती, मो न की व भख
ू कभी
सन्तुष्ट न ोती थी। प ाड़ों से टकराने वाली सारस की आवाज की तर व
सदै व उसकी नसों में गूँज
ू ा करता थी। जैसे भूभम पर फैली ु ई लता कोई स ारा
पाते ी उससे धचपट जाती ैं , व ी ाल मो न का था। व मुझसे ऐसा धचपट
गया था कक पथ
ृ क ककया जाता, तो उसकी कोमल बेल के टुकड़े-टुकड़े ो जाते।
व मेरे साथ तीन साल र ा औऱ तब मेरे जीवन में प्रकाश की एक रे खा डालकर
अन्िकार नें ववलीन ो गया। उस जीणय काया में कैसे -कैसे अरमान भरे ु ए थे।
कदाधचत ईश्वर ने मेरे जीवन में एक अवलम्ब की सल्ृ ष्ट के भलए उसे भेजा था।
उद्देश्य पूरा ो गया तो व क्यों र ता।
'मैने आवेश से काूँपते ु ए स्वर में पूछा - य तुम् ारी क्या दशा ैं मो न? दो
म ीने में य नौबत प ु ूँच गई?
'मगर य दःु ख की क ानी क कर मैं रोना और रूलाना न ीिं चा ता। मेरे चले
जाने के बाद मो न इतने पररश्रम से पढने लगा मानो तपस्या कर र ा ो, उसे
य िुन सवार ो गई थी कक साल भर की पढाई दो म ीने में समाप्त कर ले
और स्कूल खल
ु ने के बाद मझ
ु से इस श्रम का प्रशिंसारूपी उप ार प्राप्त करे । मैं
ककस तर उसकी पीठ ठोकूँू गा, शाबाशी दूँ ग
ू ा, अपने भमत्रों से बखान करूूँगा, इन
भावनाओिं ने अपने सारे बालोधचत उतसा और तकलीनता से उसे वशीभूत कर
भलया। मामाजी को दफ्तर के कामों से इतना अवकाश क ाूँ कक उसके मनोरिं जन
का ध्यान रखें। शायद उसे प्रततहदन कुछ-न-कुछ पढते दे खकर व हदल में खुश
ोते थे। उसे खेलते दे ख कर व जरूर डाूँटते। पढते दे खकर भला क्या क ते।
फल य ु आ कक मो न को कका- कका ज्वर आने लगा, ककन्तु उस दशा में भी
उसने पढना न ीिं छोड़ा। कुछ और व्यततक्रम भी ु ए, ज्वर का प्रकोप और बढा।
पर उस दशा में भी ज्वर कुछ कका ो जाता, तो ककताबें दे खने लगता था।
उसके प्राण मुझमें ी बने र ते थे। ज्वर की दशा में भी नौकरों से पूछता -
भैया का पत्र आया? व कब आएूँगे?
दख
ु ी चमार द्वार पर झाडू लगा र ा था और उसकी पतनी झरु रया घर को गोबर
से लीप र ी थी। दोनों अपने-अपने काम से फुसयत पा चक
ु े तो चमाररन ने क ा-
'तो जाके पिंडडत बाबा से क आओ न, क ीिं ऐसा न ो क ीिं चले जाएूँ।'
दख
ु ी ने क ा - ' ाूँ जाता ू ूँ, लेककन य तो सोच, बैठेगें ककस चीज पर?'
दख
ु ी ने क ा - 'तू तो कभी-कभी ऐसी बात क दे ती ैं कक दे जल जाती ैं।
ठुकराने वाले मुझे खहटया दें गे! आग तक तो घर से तनकलती न ीिं खहटया
दें गे!कैथाने (आूँगन) में जाकर एक लोटा पानी माूँगू तो न भमले, भला खहटया
कौन दे गा! मारे उपले, सेंठें, भूसा, लकड़ी थोड़े ी ैं कक जो चा े उठा ले जाएूँ। ले
अपनी खटोली िोकर रख दे , गरमी के तो हदन ैं, उनके आते-आते सूख जाएगी।'
झुररया ने क ा - 'व मारी खटोली पर बैठेंगे न ीिं, दे खते न ीिं ककतने नेम-िरम
से र ते ैं।'
दख
ु ी ने जरा धचिंततत ोकर क ा - ' ाूँ, य बात तो ैं, म ु ए के पतते तोड़कर एक
पततल बना लूँ ू तो ठीक ो जाए। पततल में बड़े-बड़े आदमी खाते ैं , व पववततर
ैं, ला तो डिंडा, पतते तोड़ लूँ ।ू '
दख
ु ी ने क ा- 'क ीिं ऐसा गजब न करना, न ीिं तो सीिा भी जाए और थाली भी
फूटें ! बाबा थाली उठाकर पटक दें गे। उनको बड़ी जकदी क्रोि चढ जाता ैं। क्रोि
में पिंडडताइन तक को न ीिं छोड़ते, लडके को ऐसा पीटा कक आज तक टूटा ाथ
भलए कफरता ैं। पततल में सीिा भी दे ना। ाूँ, मद
ु ा तू छुना मत, झरू ी गोंड़ की
लड़की को लेकर सा ू की दक
ु ान से सब चीजें ले आना। सीिा भरपरू ो। सेर
भर आटा, आि सेर चावल, पाव भर दाल, आि पाव घी, नोन, कदी और पततल में
एक ककनारे चार आने पैसे रख दे ना। गोंड़ की लड़की न भमले तो भुल्जयन के
ाथ-पैर जोड़कर ले जाना। तू कुछ मत छूना, न ीिं तो गजब ो जाएगा।'
पिंडडत घासीराम ईश्वर के परम भक्त थे, नीिंद खुलते ी ईशोपासना में लग जाते।
मूँु - ाथ िोते आठ बजते, तब असली पूजा शुरू ोती, ल्जसका प ला भाग भिंग
की तैयारी थी। उसके बाद आि घिंटे तक चन्दन रगड़ते, कफर आइने के सामने
एक ततनके से माथे पर ततलक लगाते। चन्दन की दो रे खाओिं के बीच में लाल
रोली की बबन्दी ोती थी। कफर छाती पर, बा ों पर चन्दन लगाते, फूल चढाते,
आरती करते, घिंटी बजाते। दस बजते-बजते व पूजन से उठते और भिंग छानकर
बा र आते। तब तक दो-चार जजमान द्वार पर आ जाते! ईशोपासना का
ततकाल फल भमल जाता, व ी उनकी खेती थी।
आज पूजन-ग ृ से तनकले, तो दे खा दख
ु ी चमार घास का गट्ठा भलए बैठा ैं। दख
ु ी
उन् ें दे खते ी उठ खड़ा ु आ और साष्टािंग दिं डवत करके ाथ बाूँिकर खड़ा ो
गया। य तेजस्वी मूततय दे खकर उसका हृदय श्र्ध ा से पररपण
ू य ो गया! ककतनी
हदव्य मूततय थी, छोटा-सा गोल-मटोल आदमी, धचकना भसर, फूले गाल, ब्रह्मतेज से
प्रदीप्त आूँखें। रोरी और चन्दन दे वताओिं की प्रततभा प्रदान कर र ी थी। दख
ु ी को
दे खकर श्रीमुख से बोले - 'आज कैसे चला रे दखु खया?'
दख
ु ी ने भसर झक
ु ाकर क ा- 'बबहटया की सगाई कर र ा ू ूँ म ाराज। कुछ
साइत-सगन
ु ववचारना ैं, कब मजी ोगी?'
दख
ु ी ने क ा - 'न ीिं म ाराज, जकदी मजी ो जाए। सब सामान ठीक कर आया
घासी ने क ा - 'इसे गाय के सामने डाल दे और जरा झाडू लेकर द्वार तो साफ
कर दे । य बैठक भी कई हदनों से लीपी न ीिं गई, गोबर से लीप दे । तब तक मैं
भोजन कर लूँ ।ू कफर जरा आराम करके चलूँ ग
ू ा। ाूँ, य लकड़ी भी चीर दे ना।
खभल ान में चार खाूँची भूसा पड़ा ैं, उसे भी उठा लाना और भुसौली में रख
दे ना।'
दख
ु ी फौरन ु क्म की तामील करने लगा। द्वार पर झाडू लगाई, बैठक को गोबर
से लीपा। तब बार बज गए। पिंडडतजी भोजन करने चले गए। दख
ु ी ने सुब से
कुछ न ीिं खाया था। उसे भी जोर की भख
ू लगी, पर व ाूँ खाने को क्या िरा था।
घर य ाूँ से मील भर था। व ाूँ खाने जाए तो पिंडडतजी बबगड़ जाएूँ। बेचारे ने
भूख दबाई और लकड़ी फाड़ने लगा। लकड़ी की मोटी-सी गाूँठ थी, ल्जस पर प ले
ककतने भक्तों ने अपना जोर आजमा भलया था। व उसी दम-खम के साथ लो े
से लो ा लेने के भलए तैयार थी। दख
ु ी घास छीलकर बाजार ले जाता था। लकड़ी
चीरने का उसे अभ्यास न था। घास उसके खुरपै के सामने भसर झुका दे ती थी।
य ाूँ कस-कसकर कुक ाड़ी का भरपरू ाथ लगाता, पर गाूँठ पर तनशान तक न
पड़ता था। कुक ाड़ी उचट जाती। पसीने में तर था, ाूँफता था, थककर बैठ जाता,
कफर उठता था। ाथ उठाए न उठते थे, पाूँव काूँप र े थे, कमर सीिी न ोती थी,
आूँखों तले अूँिेरा ो र ा था। भसर में चक्कर आ र े थे , तततभलयाूँ उड़ र ी थीिं।
कफर भी अपना काम ककए जाता था। अगर एक धचलम तम्बाकू पीने को भमल
जाती, तो शायद कुछ ताकत आती।
उसने सोचा - 'य ाूँ धचलम और तम्बाकू क ाूँ भमलेगी। ब्राह्मणों का परू ा पडोस
ैं। ब्राह्मण लोग म नीच जातों की तर तम्बाकू थोड़े ी पीते ैं। स सा उसे
याद आया कक गाूँव में एक गोंड़ भी र ता ैं , उसके य ाूँ जरूर धचलम-तम्बाकू
ोगा, तुरन्त उसके घर दौड़ा, खैर मे नत सुफल ु ई, उसने तम्बाकू भी दी और
धचलम भी, पर आग व ाूँ न थी।'
दख
ु ी ने क ा - 'आग की धचन्ता न करो भाई, मैं जाता ू ूँ, पिंडडतजी के घर से
आग माूँग लूँ ग
ू ा, व ाूँ तो अभी रसोई बन र ी थी।'
पिंडडत ने क ा - 'अरे व ी ससरु ा दखु खया चमार ैं, क ा ैं थोड़ी-सी लकड़ी चीर
दे , आग तो ैं, दे दो।'
दख
ु ी के कानों में इन बातों की भनक पड़ र ी था। पछता र ा था, ना क आया।
सच तो क ती ैं। पिंडडत के घर में चमार कैसे चला आए। बड़े पववततर ोते ैं
य लोग, तभी तो सिंसार पूजता ैं, तभी तो इतना मान ैं , भर-चमार थोड़े ी ैं ,
इसी गाूँव में बढ
ू ा ो गया, मगर मझ
ु े इतनी अकल भी न आई।
बा र आकर उसने धचलम पी और कफर कुक ारी लेकर जुट गया। खट-खट की
आवाजें आनें लगी। उस पर आग पड़ गई, तो पिंडडताइन को उस पर कुछ दया
आ गई। पिंडडतजी भोजन करके उठे , तो बोली - 'इस चमरवा को भी कुछ खाने
को दे दो, बेचारा कब से काम कर र ा ै , भूखा ोगा।'
पिंडडताइन कानों पर ाथ रखकर बोली - 'अरें बाप रे बाप! सेर भर! तो कफर
र ने दो।'
दख
ु ी ने धचलम पीकर कफर कुक ारी सम्भाली। दम लेने से जरा ाथों में ताकत
आ गई थी। कोई आि घन्टें तक कफर कुक ाड़ी चलाता र ा, कफर बेदम ोकर
व ीिं भसर पकड़ के बैठ गया।
इतने में गौंड़ आ गया और बोला - 'क्यों जान दे ते ो बूढे दादा, तुम् ारे फाड़े य
गाूँठ न फटे गा, ना क लाकन ोते ो।'
दख
ु ी ने माथे का पसीना पोंछकर क ा- 'अभी गाड़ी-भर भस
ू ा ढोना ैं भाई!'
दख
ु ी ने क ा- 'कैसी बात करते ो धचखुरी, बाह्मन की रोटी मको पचेगी!'
दख
ु ी ने क ा- 'िीरे -िीरे बोलो भाई, क ीिं सुन लें तो आफत आ जाए।'
य क कर दख
ु ी कफर सम्भल पड़ा और कुक ाड़ी की चोट मारने लगा। धचखुरी
को उस पर दया आई। आकर कुक ारी उसके ाथ से छान ली और आि घन्टे
खूब कस-कसकर कुक ाड़ी चलाई, गाूँठ में दरार भी न पड़ी। तब उसने कुक ारी
फैंक दी और य क कर चला गया -'तम्
ु ारे फाड़े य न फटे गी, जान भले
तनकल जाए।'
दख
ु ी सोचने लगा, बाबा ने य गाूँठ क ाूँ रख छोड़ी थी कक फाड़े न ीिं फटती।
क ीिं दरार तक तो न ीिं पड़ती। मैं कब तक इसे चीरता र ू ूँगा। अभी घर पर सौ
काम पड़े ैं। कार-परोजन का घर ैं, एक-न-एक चीज घटी ी र ती ैं , पर इन् ें
क्या धचन्ता। चलूँ ू जब तक भूसा ी उठा लाऊूँ। क दूँ ग
ू ा, बाबा, आज तो लकड़ी
न ीिं फटी, कल आकर फाड़ दूँ ग
ू ा।
पिंडडतजी जोर से बोला - 'अरे , दखु खया तू सो र ा ैं? लकड़ी तो अभी ज्यों-की-तयों
पड़ी ु ई ैं, इतनी दे र तू करता क्या र ा? मुट्ठी भर भूसा ढोने में साूँझ कर दी!
उस पर सो र ा ैं। उठा ले कुक ाड़ी और लकड़ी फाड़ डाल, तझ
ु से जरा-सी लकड़ी
न ीिं फटती, कफर साइत भी वैसी ी तनकलेगी, मुझे दोष मत दे ना! इसी से क ी
ैं नीच के घर में खाने को ु आ और उसकी आूँखें बदली।'
दख
ु ी ने कफर कुक ाड़ी उठाई, जो बातें प ले से सोच रखी थी, व सब भूल गया।
पेट पीठ में िूँसा जाता था, आज सवेरे से जलपान तक न ककया था। अवकाश
ी न भमला। उठना ी प ाड़ मालूम ोता था। जी डूबा जाता था, पर हदल को
समझाकर उठा। पिंडडत ैं, क ीिं साइत ठीक न ववचारें तो कफर सतयानाश ी ो
जाए। जभी तो सिंसार में इतना मान ैं। क ी साइत ी का तो सब खेल ैं।
ल्जसे चा े बबगाड़ दे । पिंडडतजी गाूँठ के पास आकर खड़े ो गए और बढावा दे ने
लगे - ' ाूँ, मार कसके, और मार, कसके मार, अबे जोर से मार, तेरे ाथ में तो
जैसे दम ी न ीिं ैं, लगा कसके, खड़ा सोचने क्या लगता ैं , ाूँ, बस फटा ी
चा ती ैं! दे उसी दरार में !'
दख
ु ी अपने ोश में न था। न-जाने कौन-सी गुप्तशल्क्त उसके ाथों को चला र ी
थी। व थकान, भूख, कमजोरी सब मानो भाग गई। उसे अपने बा ु बल पर स्वयिं
ववश्वास न ी ो र ा था। एक-एक चोट वज्र की तर पड़ती थी। आि घन्टे तक
व इसी उन्माद की दशा में ाथ चलाता र ा, य ाूँ तक की लकड़ी बीच से फट
गई और दख
ु ी के ाथ से कुक ाड़ी छूट कर धगर पड़ी। इसके साथ व भी चक्कर
खाकर धगर पड़ा। भूखा, प्यासा, थका ु आ शरीर जवाब दे गया।
पिंडडतजी ने पक
ु ारा - 'उठ के दो-चार ाथ और लगा दे , पतली-पतली चैभलयाूँ ो
जाए।'
दख
ु ी न उठा। पिंडडतजी ने अब उसे हदक करना उधचत न समझा। भीतर जाकर
बट
ू ी छानी, शौच गए, स्नान ककया और पिंडडताइन बाना प नकर बा र तनकले!
दख
ु ी अभी तक व ी पड़ा ु आ था।
दख
ु ी कफर भी न उठा।
अब पिंडडतजी को कुछ शिंका ु ई। पास जाकर दे खा, तो दख
ु ी अकड़ा पड़ा ु आ था।
बद वास ोकर भागे और पिंडडताइन से बोले - 'दखु खया तो जैसे मर गया।'
एक क्षण में गाूँव भर में खबर ो गई। पूरे में ब्राह्मणों की बस्ती थी। केवल
एक घर गोड़ का था। लोगों ने इिर का रास्ता छोड़ हदया। कुूँए का रास्ता उिर
ी से था, पानी कैसे भरा जाए! चमार की लाश के पास से ोकर पानी भरने
कौन जाए।
एक बुहढया ने पिंडडतजी से क ा - 'अब मुदाय फेंकवाते क्यों न ीिं? कोई गाूँव में
पानी पीएगा या न ीिं।'
इिर गोंड ने चमरौने में जाकर सबसे क हदया - 'खबरदार, मुदाय उठाने मत
जाना, अभी पुभलस की त कीकात ोगी, हदकलगी ैं कक एक गरीब की जान ले
ली। पिंडडतजी ोंगे, तो अपने घर के ोंगे, लाश उठाओगे तो तुम भी पकड़े
जाओगे।'
इसके बाद ी पिंडडतजी प ु ूँ च,े पर चमरौने का कोई आदमी लाश उठाने को तैयार
न ु आ। ाूँ, दख
ु ी की स्त्री और कन्या दोंनो ाय- ाय करती व ाूँ के भलए चल
पड़ी और पिंडडतजी के द्वार पर आकर भसर पीट-पीटकर रोने लगीिं। उनके साथ
दस-पाूँच और चमाररनें थी। कोई रोती थी, कोई समझाती थी, पर चमार एक भी
न था। पिंडडतजी ने चमारों को ब ु त िमकाया, समझाया, भमन्नत की, पर चमारों
के हदल पर पभु लस का रोब छाया ु आ था, एक भी न माना, आखखर पिंडड़त
तनराश ोकर लौट गए।
पिंडडताइन ने क ा - 'अभी से दग
ु न्
य ि उठने लगी।'
रात तो ककसी तर कटी, मगर सबेरे भी कोई चमार न आया। चमाररनें भी रो-
पीटकर चला गई। दग
ु न्
य ि कुछ-कुछ फैलने लगी।
पिंडडतजी ने एक रस्सी तनकाली। उसका फन्दा बनाकर मद
ु े के पैर में डाला और
फन्दे को खीिंचकर कस हदया। अभी कुछ-कुछ ििंि
ु लका था। पिंडडतजी ने रस्सी
पकड़कर लाश को घसीटना शुरू ककया और गाूँव के बा र घसीट ले गए। व ाूँ से
आकर तुरन्त स्नान ककया, दग
ु ायपाठ पढा और घर में गिंगाजल तछड़का।
उिर दख
ु ी की लाश को खेत में गीदड़, धग्ध , कुतते और कौए नौच र े थे। य ी
जीवन-पययन्त की भल्क्त, सेवा और तनष्ठा का पुरस्कार था।
***
िगादा
सेठजी की उम्र कोई पचास साल की थी। भसर के बाल झड़ गए थे और खोपड़ी
ऐसी साफ-सथ
ु री तनकल आई थी, जैसे ऊसर खेत। आपकी आूँखें थी तो छोटी,
लेककन बबककुल गोल। चे रे के नीचे पेट था और पेट के नीचे टाूँगे, मानो ककसी
पीपे में दो मेखें गाड़ दी गई ो, लेककन य खाली-पीपा न था। इसमें सजीवता
और कमयशीलता कूट-कूटकर भरी ु ई थी। ककसी बाकीदार असामी के सामने इस
पीपे का उछलना-कूदना और पैंतरे बदलना दे खकर ककसी नट का धचधगया भी
लल्ज्जत ो जाता। ऐसी आूँखें लाल-पीला करते, ऐसे गरजते कक दशयकों की भीड़
लग जाती थी। उन् ें किंजस
ू तो न ीिं क ा जा सकता क्योंकक जब व दक
ु ान पर
ोते, तो रे क भभखमिंगे के सामने एक कौड़ी फेंक दे त।े ाूँ, उस समय उनके माथे
पर कुछ ऐसा बल पड़ जाता, आूँखें कुछ ऐसे प्रचिंड ो जाती, नाक कुछ ऐसी
भसकुड़ जाती कक भभखारी कफर दक
ु ान पर न आता। ल ने का बाप का तगादा ैं,
इस भस्ध ान्त के व अनन्य भक्त थे। जलपान करने के बाद सन्ध्या तक व
बराबर तगादा करते र ते थे। इसमें एक तो घर का भोजन बचता था, दस
ू रे
असाभमयों के माथे दि
ू , परू ी, भमठाई आहद प्रदाथय खाने को भमल जाते थे। एक
वक्त का भोजन बच जाना कोई सािारण बात न ीिं ैं! एक भोजन का एक
आना भी रख लें , तो केवल इसी मद में उन् ोंने अपने तीस वषो के म ाजनी
जीवन में कोई आठ सौ रुपये बचा भलए थे। कफर लौटते समय दस
ू री बेला के
भलए भी दि
ू , द ी, तेल, तरकारी, उपले ईिन भमल जाते थे। ब ु िा सन्ध्या का
भोजन भी न करना पड़ता था इसभलए तगादे से न चूकते थे। आसमान फटा
पड़ता ो, आग बरस र ी ो, आूँिी आती ो, पर सेठजी प्रकृतत के अटल तनयम
की भाूँतत तगादे पर जरूर तनकल जाते।
सेठानी ने पछ
ू ा- '?'
'साूँझ का?'
'आने पर दे खी जाएगी।'
इक्केवाले ने क ा- ' अरे सेठ, उस दौलत का कोई ह साब न था, न जाने ककतने
त खाने भरे ु ए थे! बोरों में सोने-चाूँदी के डले रखे ु ए थे, जवा रात टोकररयों में
भरे पड़े थे, एक-एक पतथर पचास-पचास लाख का। चमक-दमक ऐसी थी, कक
धचराग मात, मगर तकदीर भी तो कोई चीज ैं , इिर दादा का चालीसवाूँ ु आ,
उिर नवाबी बुदय ु ई, सारा खजाना लुट गया, छकड़ो पर लाद-लाद कर लोग
जवा रात ले गए कफर भी घर में इतना बचा र ा कक अब्बाजान ने ल्जन्दगी भर
ऐश ककया, कक क्या कोई भकुवा करे गा, सोल क ारों के सुखपाल पर तनकलते थे,
आगे-पीछे चोबदार दौड़ते चलते थे, कफर भी मेरे गुजर भर को उन् ोंने ब ु त छोड़ा,
अगर ह साब-ककताब से र ता तो आज भला आदमी ोता, लेककन रईस का बेटा
रईस ी तो ोगा, एक बोतल चढाकर बबस्तर से उठता था, रात-रात भर मुजरे
ोते र ते थे। क्या जानता था, एक हदन य ठोकरें खानी पड़ेगी?'
सेठ ने क ा -'अकला भमयाूँ का सक
ु ु र करो भाई कक ईमानदारी से अपने बाल-
बच्चों की परवररश तो करते ो, न ीिं तो मारे -तम्
ु ारे ककतने ी भाई रात-हदन
कुकमय करते र ते ैं, कफर भी दाने-दाने को मु ताज र ते ैं। ईमान की सलामती
चाह ए, हदन तो सब के कट जाते ैं, दि
ू -रोटी खाकर कटें तो क्या, सूखे चने
चबाकर कटे तो क्या। बड़ी बात तो ईमान ैं , मुझे तो तुम् ारी सूरत दे खकर ी
मालूम ो गया था, कक नीयत के साफ सच्चे आदमी ो, बेईमानों की तो सूरत ी
से फटकार बरसती ैं।'
इनकी दया से तो कुछ ले मरना मुल्श्कल ैं, शायद इनसे भय से कुछ ले मरूूँ,
कफर बोला - 'मगर लाला, य न समखझए कक मैं ल्जतना सीिा और नेक नजर
आता ू ूँ , उतना सीिा और नेक ू ूँ भी। नेकों के साथ नेक ू ूँ लेककन बरु ों के साथ
पक्का बदमाश ू ूँ, यों कह ए आपकी जतू तयाूँ सीिी कर दूँ ,ू लेककन ककराए के
मामले में ककसी के साथ ररआयत न ीिं करता, ररआयत करूूँ तो खाऊूँ क्या?'
सेठजी को मानो जूड़ी चढ आई। समझ गए, य शैतान बबना पैसा भलए न
मानेगा। अगर य जानते कक य ववपल्तत गले पड़ेगी, तो भूलकर भी इक्के पर
पाूँव न रखते। इतनी दरू पैदल चलने में कौन से पैर टूट जाते थे। अगर रोज
इसी तर पैसे दे ने पड़े, तो कफर लेन-दे न ो चुका।
ू ूँ। ज ाूँ कोई भशकार भमला, झट सस्ते भाड़े पर बैठाता ू ूँ और थाने पर प ु ूँचा
दे ता ू ूँ। ककराया भी भमल जाता ैं और इनाम भी, क्या मजाल कक कोई बोल
सके। लाइसन न ीिं भलया आज तक लाइसन! मजे से सदर में इक्का दौड़ाता
कफरता ू ूँ। कोई साला चूँू न ी कर सकता। मेले-ठे लों में अपनी खूब बन आती ैं,
अच्छे -अच्छे माल चुनकर कोतवाल प ु ूँचता ू ूँ , व ाूँ कौन ककसी की दाल गलती
ैं। ल्जसे चा े रोक लें , एक हदन, दो हदन, तीन हदन। बीस ब ाने ैं , क हदया, शक
था कक य औरत भगाए भलए जाता था, कफर कौन बोल सकता ैं , सा ब भी
छोड़ना चा ें , तो न ीिं छोड़ सकते, मझ
ु े सीिा न समखझएगा, एक ी रामी ू ूँ,
सवाररयों से प ले ककराया तय न ीिं करता, हठकाने पर प ु ूँ चा कर एक के दो
लेता ू ूँ। जरा भी चीिं-चपड़ ककया, तो आस्तीन चढा, पैतरे बदलकर खड़ा ो जाता
सेठजी भीगी बबकली बनकर बोले - 'अच्छा, अब रोक लो, खाूँ सा ब, मेरा गाूँव आ
गया। बोलो, तुम् ें क्या दूँ ?ू ' इक्केवाले ने घोड़ी को एक चाबुक और लगाया और
तनदय यता से बोला - 'मजूरी सोच लो भाई, तुमको न बबठाया ोता तो तीन
सवाररयाूँ बैठा लेता, तीनों चार-चार आने भी दे त,े तो बार आने ो जाते, तम
ु
आठ ी आने दे दो।'
सेठजी की बतघया बैठ गई। इतनी बड़ी रकम उन् ोंने उम्र भर इस मद में न ीिं
खचय की थी। इतनी-सी दरू ी के भलए इतना ककराया, व ककसी तर न दे सकते
थे। मनष्ु य के जीवन में एक ऐसा अवसर भी आता ैं, जब पररणाम की उसे
धचन्ता न ीिं र ती। सेठजी के जीवन में य ऐसा ी अवसर था, अगर आने दो-
आने की बात ोती, तो खून का घट
ूूँ पीकर दे दे त,े लेककन आठ आने के भलए कक
ल्जसका द्ववगुण एक कलदार ोता ैं , अगर तू-तू मैं-मैं ी न ीिं ाथापाई की भी
नौबत आए, तो व करने को तैयार थे। य तनश्चय करके व दृढता के साथ
बैठे र े ।
स सा सड़क के ककनारे एक झोपड़ा नजर आया। इक्का रुक गया, सेठजी उतर
पड़े और कमर से एक दअ
ु न्नी तनकालकर इक्केवान की ओर बढाई।
इक्केवान ने सेठजी के तेवर दे खें तो समझ गया, ताव बबगड़ गया। चाश्नी कड़ी
ोकर कठोर ो गई। अब य दाूँतों से लड़ेगी। इसे चुबल कर ी भमठास का
आनन्द भलया जा सकता ैं।
इतने में झोपड़ी में से एक स्त्री गुलाबी साड़ी प ने, पान चबाती ू ई तनकल आई
और बोली - 'आज बड़ी दे र लगाई (एकाएक सेठजी को दे खकर) अच्छा आज
लालाजी तम्
ु ारे इक्के पर थे, कफर आज तम्
ु ारा भमजाज का े को भमलेगा, एक
चे रे शा ी (भसक्का) तो भमली ी ोगी, इिर बढा दो सीिे से।'
य क कर व सेठजी के समीप आकर बोली - 'आराम से चरपैया पर बैठो
लाला! बड़े भाग थे कक आज सवेरे-सवेरे आपके दशयन ु ए।'
सेठजी ने जीवन में ऐसा उकलारा कभी अनुभव न ककया था। उन् ें प्रायः सभी
घण
ृ ा की दृल्ष्ट से दे खते थे, चोला मस्त ो गया। उसके ाथ से पिंखखया छीन
लेनी चा ी।
इक्केवाले ने कफर पूछा - 'आपके भलए कुछ भमठाई लेता आऊूँ? य ाूँ आपके
लायक भमठाई क्या भमलेगी, ाूँ मूँु मीठा ो जाएगा।'
सेठजी बोले - 'मेरे भलए कोई जरूरत न ीिं, ाूँ बच्चों के भलए चार आने की
भमठाई भलवाते आना।'
चवन्नी तनकालकर सेठजी ने उसके सामने ऐसे गवय से फेंकी मानो इसकी उसके
सामने कोई कीकत न ीिं ैं। सुन्दरी के मूँु का भाव तो दे खना चा ते थे, पर
डरते थे कक क ीिं व य न समझे, लाला चवन्नी क्या दे र े ैं , मानो ककसी को
मोल ले र े ैं।
उसने रुपया तनकाल कर फेंका! सेठजी मारे लाज के गड़ गए। एक इक्केवान की
भहठयाररन ल्जसकी टके की भी औकात न ीिं, इतनी खाततरदारी करे कक उनके
भलए पूरा रुपया तनकालकर दे दे , भला य कैसे स सकते थे।
सेठजी बोले - 'न ीिं, न ीिं, य न ीिं सो सकता, तुम अपना रुपया रख लो, (रभसक
आूँखों को तप्ृ त करके) मैं रुपया हदए दे ता ैं , य लो, आठ आने की ले लेना।'
इक्केवान तो उिर भमठाई और दाना-चारे की किक में चला गया, इिर सुन्दरी ने
सेठ से क ा - 'व तो अभी दे र में आएगा लाला, तब तक पान तो खाओ।'
सेठजी ने इिर-उिर ताककर क ा - 'य ाूँ तो कोई तम्बोली न ीिं ैं। '
सन्
ु दरी उनकी ओर कटाक्षपण
ू य नेत्रो से दे खकर बोली - 'क्या मेरे लगाए पान
तम्बोली के पानों से भी खराब ोंगे ?'
सेठजी ने लल्ज्जत ोकर क ा - 'न ीिं, न ीिं, य बात न ीिं, तुम मुसलमान ो
न?'
सन्
ु दरी ने कफर दौड़ाया। सेठजी कफर भागे। इिर पचास वषो से उन् ें इस तर
भागने का अवसर न पड़ा था। िोती खखसककर धगरने लगी मगर इतना समय
न था कक िोती बाूँि लें । बेचारे िमय को कन्िे पर रखें दौड़े चले जाते थे। न
मालूम कब कमर से रुपयों का बटुआ खखसक पड़ा। जब पचास कदम पर कफर
रूके और िोती ऊपर उठाई तो बटुआ नदारद। पीछे कफर कर दे खा सुन्दरी भलए
उन् ें हदखा र ी थी और इशारे से बल
ु ा र ी थी, मगर सेठजी को िमय रुपए से
क ीिं ज्यादा प्यारा था, दो-चार कदम चले कफर रूक गए।
एकाएक िमय-बुव्ध ने डाूँट बताई। थोड़े रुपए के भलए िमय छोड़े दे ते ो। रुपए
ब ु त भमलें गे। िमय क ाूँ भमलेगा।
***
दो कब्रे
सल
ु ोचना की इच्छा ोती थी, य ाूँ से भाग जाऊूँ लेककन कूँु वर सा ब को जु रा के
यशोगान में आल्तमक आनन्द भमलता था। रामेन्द्र का ववस्मय दे खकर बोलें -
'इसमें व दे वी सो र ी ैं, ल्जसने जीवन को स्वगय बना हदया था। य सुलोचना
उसी का प्रसाद ैं।'
सल
ु ोचना बोल उठी -'वे सन
ु ाने की चीज न ीिं ैं, दादा!'
जो वरदान माूँगने के भलए उन् ें साल भर से सा स न ोता था, दवु विा में
पड़कर र जाते थे, व आज उन् ोंने माूँग भलया।
लेककन वववा के बाद रामेन्द्र को नया अनभ
ु व ु आ। मह लाओिं का आना-जाना
प्रायः बन्द ो गया। इसके साथ ी मदय दोस्तों की आमदरफ्त बढ गई। हदन-भर
उनका ताूँता लगा र ता था। सुलोचना उनके आदर-सतकार में लगी र ती। प ले
एक-दो म ीने तक तो रामेन्द्र ने इिर ध्यान न ीिं हदया, लेककन जब कई मह ने
गुजर गए और ल्स्त्रयों ने बह ष्कार का तयाग न ककया तो उन् ोंने एक हदन
सुलोचना से क ा - 'य लोग आजकल अकेले ी आते ैं! '
रामेन्द्र कफर बोला - 'मगर वे लोग तो ववचारों के बड़े स्वािीन ैं , इनकी औरतें
भी भशक्षक्षत ैं, कफर क्या बात ैं ?'
क्लब में मह लाओिं की सिंख्या अधिक न थी। मुल्श्कल से पाूँच-छः औरते थी,
मगर वे भी सल
ु ोचना से दरू -दरू र ती थी, बल्कक अपनी भाव-भिंधगमाओिं और
कटाक्षों से वे उसे जता दे ना चा ती थी कक तुम पुरुषों का हदल खुश करो, म
कुल-विुओ के पास तुम न ीिं आ सकती।
सल
ु ोचना हदल में सोचती - 'इनकी य दशा मेरे ी कारण तो ैं, मैं ी इनके
जीवन का काूँटा ो गई!'
दस
ू रे साल सुलोचना की गोद में एक चाूँद-सी बाभलका का उदय ु आ। उसका
नाम रखा गया शोभा। किंु वर सा ब का स्वास््य इन हदनों कुछ अच्छा न था।
मिंसूरी गए थे। य खबर पाते ी रामेन्द्र को तार हदया कक जच्चा और बच्चा
को लेकर य ाूँ आ जाओ।
य ी सभी लोग ोटलों में सब कुछ खाते थे, अिंडे और शराब उड़ाते थे, इस ववषय
में ककसी तर का वववेक या ववचार न करते थे , कफर आज क्यों तशरीफ न ीिं
लाए? इसभलए न ीिं कक छूत-छात का ववचार था, बल्कक इसभलए कक व अपनी
उपल्स्थतत को इस वववा के समथयन की सनद समझते थे और व सनद दे ने
की उनकी इच्छा न थी।
रामेन्द्र एक कुसी पर तबवु ्ध से बैठे ु ए थे। किंु हठत स्वर में बोले, 'जी ाूँ, य ी
तो मैं सोच र ा ू ूँ।'
सुलोचना अपने कमरे में धचक की आड़ में खड़ी रामेन्द्र का असमिंजस और क्षोभ
दे ख र ी थी। ल्जस समाज को उसने अपना उपास्य बनाना चा ा था, ल्जसके
द्वार पर भसजदे करते उसे बरसों ो गए थे, उसकी तरफ से तनराश ोकर, उसका
हृदय इस समय उससे ववद्रो करने पर तल
ु ा ु आ था। उसके जी में आता था -
गुलनार को बुलाकर गले लगा लूँ ू? जो लोग मेरी बात भी न ीिं पूछते, उनकी
खुशामद क्यों करूूँ? य बेचाररयाूँ इतनी दरू से आई ै मुझे अपना ी समझकर
तो। उनके हदल में प्रेम तो ै, य मेरे दःु ख-सुख में शरीक ोने को तैयार तो ै।
रामेन्द्र ने पुजाय, भलखा था - 'ब न गुलनार, तुम य ाूँ ना क आई, म लोग यों ी
बदनाम ो र े ै , अब और बदनामी मत करो, बिावा वापस ले जाओ, कभी
भमलने का जी चा े , रात को आना और अकेली, मेरा जी तम
ु से गले भलपटकर
रोने के भलए तड़प र ा ै मगर मजबरू ू ूँ।'
रामेन्द्र ने पुजाय फाड़कर फेंक हदया और उद्दण्ड ोकर बोले - 'इन् ें भलखने दो, मैं
ककसी से न ीिं डरता, अन्दर आओ।'
गुलनार ने एक कदम पीछे कफरकर क ा, 'न ीिं बाबूजी, अब में आञा ा दील्जए।'
गल
ु नार ने क ा, 'जी न ीिं, एक सेककिं ड भी न ीिं।'
गुलनार के चले जाने के बाद रामेन्द्र अपने कमरे मे जा बैठे। जैसी पराजय उन् ें
आज ु ई, वैसी प ले कभी न ीिं ु ई। व आतमाभभमान, व सच्चा क्रोि, जो
अन्याय के ञा ान से पैदा ोता ै , लप्ु त ो गया था। उसकी जग लज्जा थी और
ग्लातन। इसे बिावे की क्यों सझ
ू गई। यों तो कभी आती-जाती न थी, आज न
जाने क ाूँ से फट पड़ी। किंु वर सा ब ोंगे उदार। उन् ोंने जु रा के नातेदारों से
भाईचारे का तनबा ककया ोगा, मैं इतना उदार न ीिं ू ूँ, क ीिं सुलोचना तछपकर
इसके पास आती-जाती तो न ीिं! भलखा भी तो ै कक भमलने का जी चा े , तो रात
को आना और अकेली। क्यों न ो, खून तो व ी ै , मनोवल्ृ तत व ी, ववचार व ी,
आदशय व ी। माना, किंु वर सा ब के घर में पालन-पोषण ु आ, मगर रक्त का
प्रभाव इतनी जकदी न ीिं भमट सकता। अच्छा, दोनों ब नें भमलती ोगी तो उनमें
क्या बातें ोती ोगी? इतत ास या नीतत की चचाय तो ो न ीिं सकती। व ी
तनलयज्जता की बातें ोती ोगी। गुलनार अपना वतृ तान्त क ती ोगी, उस बाजार
के खरीदारों और दक
ु ानदारों के गुण-दोषों पर ब स ोती ोगी। य तो ो ी
न ीिं सकता कक गुलनार इसके पास आते ी अपने को भूल जाए और कोई भद्दी,
अनगयल और कलवु षत बातें न करे । एक क्षण में उनके ववचारों ने पलटा खाया,
मगर आदमी बबना ककसी से भमले -जल
ु े र भी तो न ीिं सकता, य भी तो एक
तर की भख
ू ै , भूख में अगर शु्ध भोजन न भमले तो आदमी जठ
ू ा खाने से भी
पर े ज न ीिं करता। अगर इन लोगों ने सुलोचना को अपनाया ोता, उसका यों
बह ष्कार न करते, तो उसे क्यों ऐसे प्राखणयों से भमलने की इच्छा ोती। उसका
दोष न ीिं, सारा दोष पररल्स्थततयों का ै , जो मारे अतीत की याद हदलाती र ती
ै।
रामेन्द्र इन् ी ववचारों में पड़े ु ए थे किंु वर सा ब आ प ु ूँचे और कटु स्वर में बोले,
'मैने सन
ु ा गल
ु नार अभी बिावा लाई थी, तम
ु ने उसे लौटा हदया।'
रामेन्द्र का ववरोि सजीव ो उठा, कफर बोले, 'मैंने तो न ीिं लौटाया, सुलोचना ने
लौटाया, पर मेरे ख्याल में अच्छा ककया।'
रामेन्द्र ने कोई जवाब न हदया। किंु वर सा व जरा उततेल्जत ोकर बोले, 'आप
लोग य क्यों भल
ू जाते ै कक रके बरु ाई मजबरू ी से ोती ै । चोर इसभलए
चोरी न ीिं करता कक चोरी में उसे ववशेष आनन्द आता ै , बल्कक केवल इसभलए
कक जरूरत उसे मजबूर कर दे ती ै। ाूँ, व जरूरत वास्तववक ै या काकपतनक
इसमें मतभेद ो सकता ै , स्त्री मैके जाते समय कोई ग ना बनवाना एक
आदमी के भलए जरूरी ो सकता ै , दस
ू रे के भलए बबककुल गैर जरूरी। क्षुिा से
व्यधथत ोकर एक आदमी अपना ईमान खो सकता ै , दस
ू रा मर जाएगा पर
ककसी के सामने ाथ न फैलाएगा, पर प्रकृतत का य तनयम आप जैसे ववद्वानों
को न भूलना चाह ए कक जीवन-लालसा प्राणीमात्र में व्यापक ै , ल्जन्दा र ने के
भलए आदमी सब कुछ कर सकता ै । ल्जन्दा र ना ल्जतना ी कहठन ोगा,
बरु ाइयाूँ भी उसी मात्रा में बढे गी। ल्जतना ी आसान ोगा उतनी ी बरु ाइयाूँ कम
ोगी। मारा य प ला भस्ध ान्त ोना चाह ए कक ल्जन्दा र ना, रे क के भलए
सुलभ ो। रामेन्द्र बाब,ू आपने इस वक्त इन लोगों के साथ व ी व्यव ार ककया
जो दस
ू रे आपके साथ कर र े ै और ल्जससे आप ब ु त दःु खी ै ।'
ू ूँ , उसके आगे ककसी तर न ीिं जा सकता, कफर बोले, 'मैं य कभी पसन्द न
करूूँगा कक कोई बाजारी औरत ककसी भेष में मेरे घर में आए, रात को अकेले या
सूरत बदलकर आने से इस बुराई का असर न ीिं भमट सकता, मैं समाज के दिं ड
से न ीिं डरता, इस नैततक ववष से डरता ू ूँ।'
सुलोचना अपने ववचार में मयायदा-रक्षा के भलए काफी आतमसमपयण कर चुकी थी।
उसका आतमा ने अभी तक उसे क्षमा न ककया था। तीव्र स्वर में बोली, 'क्या तुम
चा ते ो कक मैं इस कैद में अकेले जान दे दूँ !ू कोई तो ो ल्जससे आदमी ूँसे,
बोले!'
रामेन्द्र ने गमय ोकर क ा, ' ूँ सने-बोलने का इतना शौक था, तो मेरे साथ वववा
न ीिं करना चाह ए था, वववा का बन्िन बड़ी द तक तयाग का बन्िन ै , जब
तक सिंसार में इस वविान का राज्य ै और स्त्री कुलमयायदा की रक्षक समझी
जाती ै , उस वक्त तक कोई मदय य स्वीकार न करे गा कक उसकी पतनी बरु े
आचरण के प्राखणयों से ककसी प्रकार का सिंसगय रक्खे।'
रामेन्द्र ने क ा, 'इस ववषय में भशक्षा पर मेरा ववश्वास न ीिं, भशक्षा ऐसी ककतनी
बातों को मानती ै , जो रीतत-नीतत और परम्परा की दृल्ष्ट से तयाज्य ै , अगर
पाूँव कफसल जाए तो म उसे काटकर फेंक न ीिं दे ते , पर मैं इस अनोलोजी के
सामने झक
ु ने को तैयार न ीिं ू ूँ , मैं स्पष्ट कर दे ना चा ता ू ूँ कक मेरे साथ र कर
परु ाने सम्बन्िों का तयाग करना पडेगा! इतना न ीिं, मन को ऐसा बना लेना
पड़ेगा कक ऐसे लोगों से उसे खुद घण
ृ ा ो, में इस तर अपना सिंस्कार करना
पड़ेगा कक समाज अपने अन्याय पर लल्ज्जत ो, न य कक मारे आचरण ऐसे
भ्रष्ट ो जाए कक दस
ू रों की तनगा में य ततरस्कार औधचतय का स्थान पा
जाए।'
किंु वर सा ब भयभीत ोकर बोले, 'भसकलो, तुम भूली जाती ो कक बातचीत में
मेशा मुलायम शब्दों का व्यव ार करना चाह ए, म झगड़ा न ीिं कर र े ै,
केवल एक प्रश्न पर अपने-अपने ववचार प्रकट कर र े ै।'
सल
ु ोचना ने तनभीकता से क ा, 'जी न ीिं, मेरे भलए बेडड़याूँ तैयार की जा र ी ै , मैं
इन बेडड़यों को न ीिं प न सकती। मैं अपनी आतमा को उतना ी स्वािीन
समझती ू ूँ , ल्जतना कोई मदय समझता ै ।'
सल
ु ोचना ने क ा, 'उसी तर जैसे मैं तम्
ु ें समझा सकती ू ूँ, तम
ु मझ
ु े मजबरू
न ीिं कर सकते।'
रामेन्द्र ने क ा, 'तम
ु मझ
ु े इसके भलए मजबरू न ीिं कर सकती।'
'बेशक।'
'क्यों?'
'इसभलए कक मैं परु
ु ष ू ूँ, इस छोटे -से पररवार का मख्
ु य अिंग ू ूँ, इसभलए कक
तम्
ु ारे ी कारण मझ
ु .े ..।' रामेन्द्र क ते-क ते रुक गए। पर सल
ु ोचना उनके मूँु
से तनकलने वाले शब्दों को ताड़ गई। उसका च े रा तमतमा उठा, मानो छाती में
बरछी-सी लग गई। मन में ऐसा उद्वेग उठा कक इसी क्षण घर छोड़कर, सारी
दतु नया से नाता तोड़कर चली जाऊूँ और कफर इन् ें कभी मूँु न हदखाऊूँ। अगर
इसी का नाम वववा ै कक ककसी की मजी की गुलाम ोकर र ू ूँ , अपमान स न
करूूँ, तो ऐसे वववा को दरू ी से सलाम ै।
मैं अभी-अभी गुलनार से भमलने जाऊूँगी, ल्जद्दन जाऊूँगी, दे खूूँ मेरा क्या करते ै?
उसने खखड़की से भसर तनकालकर कोचवान को पुकारा, 'गाड़ी लाओ, मुझे चौक
जाना ै , अभी लाओ।'
किंु वर सा ब ने चम
ु कारकर क ा, 'बेटी भसकलो, क्या कर र ी ो, मेरे ऊपर दया
करो, इस वक्त क ीिं मत जाओ, न ीिं तो मेशा के भलए पछताना पड़ेगा। रामेन्द्र
बाबू भी बड़े गुस्सेवर आदमी ै , कफर तुमसे बड़े ै , ज्यादा ववचारवान ै , उन् ीिं
का क ना मान जाओ। मैं तुमसे सच क ता ू ूँ , तुम् ारी माूँ जब थीिं, तो कई बार
ऐसी नौबत आई कक मैंने उनसे क ा - 'घर से तनकल जाओ, पर उस प्रेम की
दे वी ने कभी ड्योढी के बा र पाूँव न ीिं तनकाला।' इस वक्त िैयय से काम लो!
मझ
ु े ववश्वास ै , जरा दे र में रामेन्द्र बाबू खद
ु लल्ज्जत ोकर तम्
ु ारे पास अपराि
क्षमा कराने आएूँगे।'
स सा रामेन्द्र ने आकर पछ
ू ा, 'गाड़ी क्यों मूँगवाई? क ाूँ जा र ी ो?'
सल
ु ोचना कब तक व ाूँ बैठी र ी, उसे कुछ खबर न थी। जब उसे ोश आया तो
घर में सन्नाटा छाया ु आ था। घड़ी की तरफ आूँख उठी, एक बज र ा था।
सामने आरामकुसी पर किंु वर सा ब नवजात भशशु को गोद में भलए सो गए थे।
सुलोचना ने उठकर बरामदे में झाूँका, रामेन्द्र पलिंग पर लेटे ु ए थे। उसके जी में
आया, इसी वक्त इन् ीिं के सामने जाकर कलेजे में छुरी मार लूँ ू, और इन् ीिं के
आगे तड़प-तड़प कर मर जाऊूँ। व घातक शब्द याद आ गए, इनके मूँु से ऐसे
शब्द तनकले क्यों इतने चतरु , इतने उदार और इतने ववचारशील ोकर भी य
जुबान पर ऐसे शब्द क्योंकर ला सके।
उसका सारा सतीतव, भारतीय आदशों की गोद में पली ु ई भभू म पर आसक्त पड़ी
बरामदे में बबजली की रोशनी थी। रामेन्द्र के मुख पर क्षोभ या ग्लातन का नाम
भी न था। क्रोि की कठोरता अब तक उसके मुख को ववकृत ककए ु ए थी।
शायद इन आूँखों में आूँसू दे खकर अब भी सुलोचना के आ त हृदय को तसकीन
ोती, लेककन व ाूँ तो अभी तक तलवार खखिंची ु ई थी। उसकी आूँखों में सारा
सिंसार सन
ू ा ो गया।
सुलोचना कफर अपने कमरे में आई। किंु वर सा ब की आूँखें बन्द थी। इन चन्द
घिंटों ी में उनका तेजस्वी मख
ु कािंतत ीन ो गया था। गालों पर आूँसूओिं की
रे खाएूँ सख
ू गई थी। सल
ु ोचना ने उनके पैरो के पास बैठकर सच्ची भक्ती के
आूँस।ू ाय! मझ
ु अभाधगनी के भलए इन् ोंने कौन-कौन से कष्ट न ीिं झेले, कौन-
कौन से अपमान न ीिं स े , अपना सारा जीवन ी मुझ पर अपयण कर हदया और
उसका य हृदय-ववदारक अन्त।
सल
ु ोचना ने कफर बच्ची को दे खा, मगर उसका गल
ु ाब का-सा ववकभसत मूँु
दे खकर भी उसके हृदय में ममता की तरिं ग न उठी, उसने उसकी तरफ से मूँु
फेर भलया। य ी व अपमान की मूततयमान वेदना ै , जो इतने हदनों तक मुझे
भोगनी पड़ी। मैं इसके भलए क्यों अपने प्राण सिंकट में डालू। अगर उसके तनदय यी
वपता को उसका प्रेम ै , तो उसको पाले और एक हदन व भी उसी तर रोए,
ल्जस तर आज मेरे वपता को रोना पड़ र ा ै । ईश्वर अबकी अगर जन्म दे ना,
तो ककसी भले आदमी के घर जन्म दे ना...।
य सल
ु ोचना का मजार ै । उसकी आखखरी नसी त थी कक मेरी लाश जलाई न
जाए, मेरी माूँ की बगल में मझ
ु े सुला हदया जाए। किंु वर सा ब तो सुलोचना के
बाद छः म ीने से ज्यादा न चल सके। ाूँ, रामेन्द्र अपने अन्याय का पश्चाताप
कर र े थे।
मुरादाबाद में मेरे एक पुराने भमत्र ै , ल्जन् ें हदल में तो मैं एक रतन समझता ू ूँ
पर पुकारता ू ूँ ढपोरसिंख क कर और व बुरा न ीिं मानते। ईश्वर ने उन् ें
ल्जतना हृदय हदया ै , उसकी आिी बुव्ध दी ोती, तो आज व कुछ और ोते!
उन् ें मेशा तिंग स्त ी दे खा, मगर ककसी के सामने कभी ाथ फैलाते न ीिं
दे खा। म और व ब ु त हदनों तक साथ पढे ै , खासी बेतककलफ
ु ी ै , पर य
जानते ु ए भी कक मेरे भलए सौ-पचास रुपये ससे उनकी मदद करना कोई बड़ी
बात न ीिं और मैं बड़ी खुशी से करूूँगा, कभी मुझसे एक पाई के रवादार न ु ए।
अगर ीले से बच्चे को दो-चार रुपये दे दे ता ू ूँ, तो बबदा ोते समय उसकी
दग
ु नी रकम के मुरादाबादी बतयन लादने पड़ते ै । इसभलए मैंने य तनयम बना
भलया ै कक जब उसके पास जाता ू ूँ , तो एक-दो हदन में ल्जतनी बड़ी-से-बड़ी
चपत दे सकता ू ूँ , दे ता ू ूँ। मौसम में जो म िं गी-से-म िं गी चीज ोती ै, व ी
खाता ू ूँ और माूँग-माूँगकर खाता ू ूँ। मगर हदल के ऐसे बे या ै , कक अगर एक
बार भी उिर से तनकल जाऊूँ और उससे न भमलूँ ू तो बुरी तर डाूँट बताते ै।
इिर दो-तीन साल से मुलाकात ु ई थी। जी दे खने को चा ता था। मई में
नैनीताल जाते ु ए उनसे भमलने के भलए उतर पड़ा। छोटा-सा घर ै , छोटा-सा
पररवार, छोटा-सा डील। द्वार पर आवाज दी- ढपोरसिंख! तरु न्त बा र तनकल आए
और गले भलपट गए। तािंगे पर से मेरे रिं क को उतारकर कन्िे पर रखा, बबस्तर
बगल में दबाया और घर में दाखखल ो गए। क ता ू ूँ , बबस्तर मुझे दे दो मगर
कौन सुनता ै । भीतर कदम रखा तो दे वीजी के दशयन ु ए। छोटे बच्चे ने आकर
प्रणाम ककया। बस य ी पररवार ै।
ढपोरसिंख ने मेरी तरफ दे खकर, मानो मुझसे ामी भराने के भलए क ा, 'औरतों
का हृदय ब ु त ी सिंकीणय ोता ै ।'
दे वीजी नारी-जातत पर य आक्षेप कैसे स सकती थीिं, आूँखें तरे रकर बोलीिं, 'य
क्यों न ीिं क ते कक उकलू बनाकर ले गया। ऊपर से े कड़ी जताते ो। दाल धगर
जाने पर तुम् ें भी सूखा अच्छा लगे, तो कोई आश्चयय न ीिं। मैं जानती ू ूँ, रुपया
ाथ का मैल ै। य भी समझती ू ूँ कक ल्जसके भाग्य का ल्जतना ोता ै,
उतना व खाता ै । मगर य कभी न मानूँग
ू ी कक व सज्जन था और
आदशयवादी था और य था, व था। साफ-साफ क्यों न ीिं क ते, लिंपट था
दगाबाज था! बस, मेरा तुमसे कोई झगड़ा न ीिं ै ।'
मैंने पछ
ू ा - 'मेरी समझ में कुछ न ीिं आ र ा ै , आप ककसका ल्जक्र कर र ी
ै? व कौन था?'
दे वीजी ने क ा - 'व तुम् ारी खाततर थी, मैं समझती थी, लेख भलखते ो,
व्याख्यान दे ते ो, साह तय के ममयञा बनते ो, कुछ तो आदमी को प चानते
ोंगा, पर अब मालम
ू ो गया कक कलम तघसना और बात ै , मनष्ु य की नाड़ी
प चानना और बात।'
दे वीजी घर में जाती ु ई बोली - 'तुम् ें कसम ै जो अभी जोशी के बारे में एक
शब्द भी इनसे क ो। मैं भोजन बनाकर जब तक खखला न लूँ ू, तब तक दोनों
आदभमयों पर दफा 144 ै ।'
ढपोरसिंख ने आूँख मारकर क ा - 'तम्
ु ारा नमक खाकर य तम्
ु ारी तरफदारी
करें गे ी।'
इस बार दे वीजी के कानों में य जुमला न पड़ा। िीमे स्वर में क ा भी गया था,
न ीिं तो दे वीजी ने कुछ-न-कुछ जवाब जरूर हदया ोता। दे वीजी चक
ू ा जला चक
ु ी
और ढपोरसिंख उनकी ओर से तनल्श्चिंत ो गए, तो मझ
ु से बोले - 'जब तक व
रसोई में ै , मैं सिंक्षेप में तुम् ें व वतृ तान्त सुना दूँ ?ू '
मैंने िमय की आड़ लेकर क ा - 'न ीिं भाई, मैं पिंच बनाया गया ू ूँ और इस ववषय
में कुछ न सन
ु ूँग
ू ा। उन् ें आ जाने दो।'
मैंने ढाढस हदया - 'य आप कैसे क सकते ै , मैं क्या फैसला करूूँगा?'
'मैं तुम् ें जानता ू ूँ , तुम् ारी अदालत में औरत के सामने मदय कभी जीत ी न ीिं
सकता।'
'दो साल से ज्यादा ु ए, एक हदन मेरे पास एक पत्र आया, ल्जसमें साह तय सेवा
के नाते एक ड्रामे की भूभमका भलखने की प्रेरणा की गई थी। करुणाकर का पत्र
था। इस साह तयक रीतत से मेरा उनसे प्रथम पररचय ु आ। साह तयकारों की इस
जमाने में जो दद
ु य शा ै , उसका अनभ
ु व कर चक
ु ा ू ूँ और करता र ता ू ूँ और यहद
भभू मका तक बात र े , तो उनकी सेवा करने में पसोपेश न ीिं ोता। मैंने तरु न्त
जवाब हदया - आप ड्रामा भेज दील्जए। एक सप्ता में ड्रामा आ गया, पर अबके
पत्र में भूभमका भलखने ी की न ीिं कोई प्रकाशक ठीक कर दे ने की भी प्राथयना
की गई थी। मैं प्रकाशकों के झिंझट में न ीिं पड़ता। दो-एक बार पड़कर कई भमत्रों
को जानी दश्ु मान बना चुका ू ूँ। मैंने ड्रामें को पढा, उस पर भूभमक भलखी और
स्तभलवप लौटा दी। ड्रामा मझ
ु े सन्
ु दर मालम
ू ु आ इसभलए भभू मका भी
प्रशिंसातमक थी। ककतनी ी पस्
ु तकों की भभू मका भलख भी चक
ु ा ू ूँ , इसमें कोई नई
बात न ीिं थी। पर अब की भूभमका भलखकर वपिंड ने छूटा। एक सप्ता बाद एक
लेख आया कक इसे अपनी पबत्रका में प्रकाभशत कर दील्जए। (ढपोरसिंख एक
पबत्रका के सम्पादक ै ) इसे गुण कह ए या दोष, मुझे दस
ू रों पर ववश्वास ब ु त
जकद आ जाता ै , और जब ककसी लेखक का मामला ो, तो मेरी ववश्वास-कक्रया
और भी तीव्र ो जाती ै । मैं अपने एक भमत्र को जानता ू ूँ जो साह तयकारों के
साए से भागते ै। व खुद तनपुण लेखक ै , बड़े ी सज्जन ै , बड़े ी ल्जन्दा-
हदल।'
अच्छा, अब कफर ड्रामे की तरफ आइए। कई हदनों बाद जोशी का पत्र प्रयाग से
आया। व व ाूँ एक माभसक-पबत्रका मे सम्पादकीय-ववभाग में नौकर ो गया
था। य पत्र पाकर मुझे ककतना सन्तोष और आनन्द ु आ, क न ीिं सकता।
ककतना उद्यमशील आदमी ै ! उसके प्रतत मेरा स्ने और भी प्रगाढ ो गये।
पबत्रका का सम्पादक सख्ती से पेश आता था, जरा-सी दे र ो जाने पर हदन-भर
की मजदरू ी काट लेता था, बात-बात पर घुड़ककयाूँ जमाता था। पर य सतयाग्र ी
वीर सब-कुछ स कर भी अपने काम में लगा र ता था। अपना भववष्य बनाने
का ऐसा अवसर पाकर व उसे कैसे छोड़ दे ता। य सारी बातें स्ने और
ववश्वास को बढाने वाली थीिं। एक आदमी को कहठनाइयों का सामना करते
दे खकर ककसे उससे प्रेम न ोगा, गवय न ोगा!
प्रयाग में व ज्यादा न ठ र सका। उसने मुझे भलखा, मैं सब कुछ झेलने को
तैयार ू ूँ , भूखों मरने को तैयार ू ूँ, पर आतमसम्मान में दाग न ीिं लगा सकता,
कुवचन न ीिं स सकता।
ऐसा चररत्र यहद आप पर प्रभाव न डाल सके, तो मैं क ू ूँगा, आप चालाक चा े
ल्जनते ों पर हृदय-शून्य ै।
एक सप्ता के बाद प्रयाग से कफर पत्र आया - 'य व्यव ार मेरे भलए असह्य
ो गया। आज मैंने इस्तीफा दे हदया। य न समखझए कक मैंने लके हदल से
लगी-लगाई रोजी छोड़ दी। मैंने व सब ककया, जो मझ
ु े करना चाह ए था, पर
आतमसम्मान का खून न ीिं कर सकता। अगर य कर सकता, तो मुझे घर
छोड़कर तनकलने की क्या आवश्यकता थी। मैंने बम्बई जाकर अपनी ककस्मत
आजमाने का तनश्चय ककया ै । मेरा दृढ सिंककप ै कक अपने घरवालों के सामने
ाथ न फैलाऊूँगा। उनसे दया की भभक्षा न माूँगूँग
ू ा। मुझे कुलीधगरी करनी मिंजूर
ै , टोकरी ढोना मिंजरू ै, पर अपनी आतमा को कलिंककत न ीिं कर सकता।'
मेरी श्र्ध ा और बढ गई। य व्यल्क्त अब मेरे भलए केवल ड्रामा का चररत्र न था,
ल्जसके सुख से सुखी और दख
ु से दख
ु ी ोने पर भी म दशयक ी र ते ै। व
अब मेरे इतने तनकट प ु ूँच गया था कक उस पर आघात ोते दे खकर मैं उसकी
रक्षा करने को तैयार था, उसे डूबते दे खकर पानी में कूदने से भी न ह चकता।
मैं बड़ी उतकिंठा से उसके बम्बई से आने वाले पत्र का इन्तजार करने लगा।
छठवें हदन पत्र आया। व बम्बई में काम खोज र ा था। घबराने की कोई बात
न ीिं ै , मैं सब कुछ झेलने को तैयार ू ूँ। कफर दो-दो, चार-चार हदन के अन्तर से
कई पत्र आए। व वीरों की भाूँतत कहठनाइयों के सामने कमर कसे खड़ा था,
ालाूँकक तीन हदन से उसे भोजन न भमला था।
साप्ताह क पत्र में जोशी के लेख तनकलने लगे। उन् ें पढकर मुझे गवय ोता था।
ककतने सजीव, ककतने ववचार से भरे लेख थे। उसने मुझसे भी लेख माूँगे, पर मुझे
अवकाश न था। क्षमा माूँगी, ालाूँकक इस अवसर पर उसको प्रोतसा न न दे ने पर
मझ
ु े बड़ा खेद ोता था।
लेककन शायद बािाएूँ ाथ िोकर उसके पीछे पड़ी थी। पत्र के ग्रा क कम थे।
चन्दे और डोनेशन से काम चलता था। रुपए ाथ आ जाते, तो कमयचाररयों को
थोड़ा-थोड़ा भमल जाता, न ीिं तो आसरा लगाए काम करते र ते। इस दशा में
गरीब ने तीन म ीने काटे ोंगे। आशा थी, तीन म ीने का ह साब ोगा, तो अच्छी
रकम ाथ लगेगी, मगर व ाूँ सूखा जवाब भमला। स्वामी ने टाट उलट हदया, पत्र
बन्द ो गया और कमयचाररयों को अपना-सा मूँु भलए बबदा ोना पड़ा। स्वामी
की सज्जनता में सन्दे न ीिं, लेककन रुपए क ाूँ से लाता! सज्जनता के नाते
लोग आिे वेतन पर काम कर सकते थे लेककन पेट बाूँिकर काम करना कब
तक मम
ु ककन था, और कफर बम्बई का खचय, बेचारे जोशी को कफर ठोकरें खानी
पड़ी! मैंने खत पढा, तो ब ु त दःु ख ु आ। ईश्वर ने मुझे इस योग्य न बनाया, न ीिं
तो बेचारा क्यों पेट के भलए यों मारा-मारा कफरता।
अबकी बार ब ु त ै रान न ोना पड़ा। ककसी भमल में गाूँठों पर नम्बर भलखने का
काम भमल गया। एक रुपया रोज मजूरी थी। बम्बई में एक रुपया, इिर के चार
आने के बराबर समझो! कैसे उसका काम चलता था, ईश्वर ी जाने।
कई हदनों के बाद एक लम्बा पत्र आया। एक जमयन एजेंसी उसे रखने पर तैयार
थी, अगर तुरन्त सौ रुपए की जमानत दे सके। एजेंसी य ाूँ की फौजों में जूत,े
भसगार, साबन
ु आहद सप्लाई करने का काम करती थी। अगर य जग भमल
जाती, तो उसके हदन आराम से कटने लगते। भलखा था, अब ल्जन्दगी से तिंग आ
गया ू ूँ। ह म्मत ने जवाब दे हदया, आतम तया करने के भसवा और कोई उपाय
न ीिं सूझता। केवल माताजी की धचन्ता ै । रो-रोकर प्राण दे दें गी! वपताजी के
साथ उन् ें शारीररक सुखों की कमी न ीिं, पर मेरे भलए उनकी आतमा तड़पती
र ती ै । मेरी य ी अभभलाषा ै कक क ीिं बैठने का हठकाना भमल जाता, तो एक
बार उन् ें अपने साथ रखकर उनकी ल्जतनी सेवा ो सकती, करता। इसके भसवा
मझ
ु े कोई इच्छा न ीिं ै , लेककन जमानत क ाूँ से लाऊूँ? बस, कल का हदन और
ै । परसों कोई दस
ू रा उम्मीदवार जमानत दे कर य ले लेगा और मैं ताकता र
जाऊूँगा। एजेंट मुझे रखना चा ता ै , लेककन अपने कायायलय के तनयमों का क्या
करें ।
दे वीजी ने चट
ु की ली - 'सौ रुपए में उससे ब ु त अच्छा पत्र भमल सकता ै !'
दे वीजी बोली - 'प्रसन्न क्यों न ोता, कम्पे में एक धचडड़या जो फूँस गई थी।'
मैंने समझा था, गाढे का कुतताय, चप्पल, ज्यादा-से-ज्यादा फाउिं टे न पेन वाला
आदमी ोगा, मगर य म ाशय तो परू े सा ब ब ादरु तनकले। मझ
ु े इस छोटे से
घर में उन् ें ठ राते ु ए सिंकोच ु आ।
ढपोरसिंख अबकी मुस्कराए - 'दे खो श्यामा, बीच-बीच में टोको मत, अदालत की
प्रततष्ठा य क ती ै कक अभी चुपचाप सुनती जाओ, जब तुम् ारी बारी आए, तो
जो चा े क ना।'
'न ीिं, अभी तो छुट्टी लेकर आया ू ूँ, अभी इस म ीने का वेतन भी न ीिं भमला ै।
मैंने भलख हदया ै , मेरे य ाूँ के पते से भेज दें । नौकरी तो अच्छी ै , मगर काम
ब ु त करना पड़ता ै और मुझे कुछ भलखने का अवसर न ीिं भमलता।'
य ाूँ मेरे एक माथुर भमत्र ै । उनसे मैंने जोशी का ल्जक्र ककया था। उसके आने
की खबर पाते ी ोटल दौड़े। दोनों में दोस्ती ो गई। जोशी दो-तीन बार हदन
में , एक बार रात को जरूर आते और खूब बातें करते। दे वीजी उनको ाथों पर
भलए र तीिं। कभी उनके भलए पकौडड़याूँ बना र ी ै , कभी लवा। जोशी
रफनमौला था। गानें में कुशल, ारमोतनयम में तनपण
ु , इिंद्रजाल के करतब
हदखलाने में कुशल। सालन अच्छा पकाता था।
दे वीजी को गाना सीखने का शौक पैदा ो गया। उसे म्यल्ू जक मास्टर बना
भलया।
दे वीजी लाल मूँु करके बोली - 'तो क्या मुफ्त में लवा, पकौडड़याूँ और पान
बना-बनाकर खखलाती थी?'
एक म ीना गुजर गया पर जोशी का वेतन न आया। मैंने पूछा भी न ीिं। सोचा,
अपने हदल में समझेगा, अपने ोटल वाले रुपयों का तकाजा कर र े ै । माथुर
के घर भी उसने आना-जाना शुरू कर हदया। दोनों साथ घम
ू ने जाते, साथ र ते।
जोशी जब आते, माथरु का बखान करते, माथरु जब आते जोशी की ताररफ करते।
जोशी के पास अपने अनभ
ु वों का ववशेष भिंडार था। व फौज में र चक
ु ा था।
जब उसकी मिंगेतर का वववा दस
ू रे आदमी से ो गया, तो शोक में उसने फौजी
नौकरी छोड़ दी थी। सामाल्जक जीवन की न जाने ककतनी घटनाएूँ उसे याद थी
और जब अपने माूँ-बाप और चाचा-चाची का ल्जक्र करने लगता, तो उसकी आूँखों
में आूँसू भर आते। दे वीजी भी उसके साथ रोती। दे वीजी ततरछी आूँखों से दे खकर
र गई, बात सच्ची थी।
एक हदन मुझसे अपने एक ड्रामें की बड़ी तारीफ की। व ड्रामा कलकतते में
खेला गया और मदन कम्पनी के मैनेजर ने उसे बिाइयाूँ दी थी। ड्रामें को दो-
चार टुकड़े जो उसके पास पड़े थे, मझ
ु े सन
ु ाए। मझ
ु े ड्रामा ब ु त पसन्द आया।
उसने काशी के एक प्रकाशक के ाथ व ड्रामा बेच हदया था, कुछ पचीस रुपए
पर। मैंने क ा - 'मूँगा लो पचास रुपए ी स ी। ड्रामा वी॰ पी॰ ले पास आ गया,
तो मैने पचास रुपए दे हदए।'
कफर क ानी शुरु ु ई। एक हदन आकर बोला - 'आज मैंने माथुर के उ्ध ार का
उपाय सोच तनकाला। मेरे एक माथरु भमत्र बैररस्टर ै , उनसे जग्गों (माथरु की
भािंजी) के वववा के ववषय में पत्र व्यव ार कर र ा ू ूँ। उसकी एक वविवा ब न
को दोनों बच्चों के साथ ससुराल भेज दूँ ग
ू ा, दस
ू री ब न अपने दे वर के पास जाने
पर राजी ै । बस तीन-चार आदमी र जाएूँगे, कुछ मैं दूँ ग
ू ा, कुछ माथुर पैदा
करे गा, गुजर ो जाएगी। मगर आज उसके घर का दो म ीने का ककराया दे ना
पड़ेगा। मकान माभलक ने सब
ु ी से िरना दे रखा ै । क ता ै , अपना ककराया
लेकर ी टूूँगा। आपके पास तीस रुपए भमल जाएूँगे, एक भमत्र सिंकट में पड़ा
ुआ ै , दस
ू रा भमत्र उसकी भसफाररश कर र ा ै । मुझे इनकार करने का सा स
न ु आ! दे वीजी ने उस वक्त नाक-भौ जरूर भसकोड़ा था, पर मैं ना माना, रुपए दे
हदए।'
दे वीजी ने डिंका मारा - 'य क्यों न ीिं क ते, कक व रुपए मेरी ब न ने बतयन
खरीदकर भेजने के भलए भेजे थे।'
ढपोरसिंख ने गस्
ु सा पीकर क ा - 'खैर, य ी स ी! मैंने रुपए दे हदए, मगर मझ
ु े
य उलझन ोने लगी, कक इस तर तो मेरा कचम
ू र तनकल जाएगा। माथरु पर
एक-न-एक सिंकट रोज ी सवार र े गा, मैं क ाूँ तक उन् ें उबारूूँगा। जोशी भी
जान खा र ा था कक क ीिं कोई जग हदला दील्जए। सिंयोग से उन् ीिं हदनों मेरे
एक आगरा के भमत्र आ तनकले। काउिं भसल में मेम्बर थे। अब जेल में ै । गाने -
बजाने का शौक ै , दो-एक ड्रामे भलख चुके ै । अच्छे -अच्छे रईसों से पररचय ै!
खद
ु भी बड़े रभसक ै । अबकी व आए, तो मैंने जोशी का उनसे ल्जक्र ककया।
उसका ड्रामा भी सन
ु ाया। कफर बोले - 'तो उसे मेरे साथ कर दील्जए, अपना
प्राइवेट सेक्रेटरी बना लूँ ग
ू ा, मेरे घर में र े , मेरे साथ घर के आदमी की तर र े।
जेब खचय के भलए तीस रुपए म ीना लेता जाए, मेरे साथ ड्रामे भलखें।'
'मझ
ु े तो अब घर अच्छा न लगेगा, घर के सब आदमी रोते र े , मालम
ू ी न
ोता था कक कोई गैर आदमी ै । अम्माूँ से लड़के की तर बातें करता था, ब नों
से भाई की तर ।'
इस तर ख्याली पल
ु ाव पकाते ु ए म लोग घर आए।
मैं हदल में खुश था कक चलो अच्छा ु आ, जोशी के भलए अच्छा भसलभसला
तनकल आया। मुझे य आशा भी बूँि चली कक अबकी उसे वेतन भमलेगा, तो मेरे
रुपए दे गा। चार-पाूँच म ीने में चुकता कर दे गा। ह साब लगाकर दे खा, तो अच्छी
खासी रकम ो गई थी। मैंने हदल में समझा, य भी अच्छा ी ु आ। यों जमा
करता, तो कभी जमा न ोते। इस ब ाने से ककसी तर जमा तो ो गए। मैंने
सोचा कक अपने भमत्र से जोशी के वेतन के रुपए पेशगी क्यों न ले लूँ ।ू क दूँ ,ू
उसके वेतन से म ीने-म ीने काटते रह एगा।
लेककन अभी मल्ु श्कल में एक सप्ता ुआ ोगा कक एक हदन दे खता ू ूँ तो जोशी
और माथरु दोनों चले आ र े ै । मझ
ु े भय ु आ, क ीिं जोशीजी कफर तो नौकरी
न ीिं छोड़ आए, लेककन शिंका को दबाता ु आ बोला - 'क ो भाई, कब आए? मजे
में तो ो?'
ढपोरसिंख ने जरा रुखाई के साथ क ा - 'रुपए तो इस वक्त मेरे पास न ीिं ै ।'
दे वीजी ने क ा - 'तो कफर कागज के रुपए क्यों दे हदए थे? बड़ी रुखाई करने
लगे!'
दे वीजी ने क्रोि भरे स्वर में क ा - 'मैं तो उस दष्ु ट को पा जाऊूँ, तो मूँु नोंच
लूँ ू, वपशाच ने इस गरीब को भी न छोड़ा।'
दे वीजी ने ववरोि ककया - 'मैंने उसे पुलता-पुलती कभी न ीिं समझा। ाूँ, तुम् ारी
तकलीफों के भल
ु ावे में पड़ जाती थी।'
ु आ, उनके बाबू नैनीताल चले गए। इन् ें भी भलए जाते थे, पर उन् ोंने म लोगों
के साथ य ािं र ना अच्छा समझा और चले आए।
दे वीजी ने फुलझड़ी छोड़ी -'ककतना तयागी था बेचारा, नैनीताल की ब ार छोड़कर
य ाूँ गमी में प्राण दे ने चला आया।'
जोशी ने ूँसकर क ा - 'भाग्य में नई-नई ववपल्ततयाूँ भलखी ै , उनसे कैसे जान
बच सकती ै । अबकी भी एक नई ववपल्तत भसर पर पड़ी, य कह ए, आपका
आशीवायद था, जान बच गई, न ीिं तो अब तक जमन
ु ाजी में ब ा चला जाता ोता।
एक हदन जमन
ु ा ककनारे सैर करने चला गया। व ाूँ तैराकी का मैच था, ब ु त से
आदमी तमाशा दे खने आए थे। मैं भी एक जग खड़ा ोकर दे खने लगा। मुझे
थोड़ी दरू पर एक और म ाशय एक युवती के साथ खड़े थे। मैंने बातचीत की तो
मालूम ु आ, मेरी ी बबरादरी के ै। य भी मालूम ु आ, मेरे वपता और चाचा,
दोनों से उनका पररचय ै । मुझसे स्ने की बातें करने लगे। तुम् ें इस तर
ठोकरे खाते तो ब ु त हदन ो गए, क्यों न ीिं चले जाते, अपने माूँ-बाप के पास।
माना कक उनका लोक-व्यव ार तम्
ु ें पसन्द न ीिं, लेककन माता-वपता का पत्र
ु पर
कुछ-न-कुछ अधिकार तो ोता ै , तुम् ारी माताजी को ककतना दःु ख ो र ा
ोगा।'
व्ध
ृ म ाशय का मूँु जरा-सा तनकल आया और युवती तुरन्त घघ
ूूँ ट तनकालकर
पीछे ट गई। मालूम ु आ कक उसका वववा इसी युवक से ठ रा ु आ ै । व्ध
ृ
उदार, सामाल्जक ववचारों के आदमी थे, परदे के कायल न थे। युवक, वयस में
युवक ोकर भी खुसट ववचारों का आदमी था, परदे का कट्ठर पक्षपाती। व्ध
ृ थोड़ी
दे र तक तो अपरािी भाव से बातें करते र े , पर युवक प्रततक्षण गमय ो जाता
था। आखखर बढ
ू े बाबा भी तेज ु ए।
युवक ने आूँखें तनकालकर क ा - 'मैं ऐसी तनलयज्जा से वववा करना अपने भलए
अपमान की बात समझता ू ूँ।'
व्ध
ृ ने क्रोि से काूँपते ु ए स्वर में क ा - 'और मैं तुम-जैसे लिंपट से अपनी
कन्या का वववा करना लज्जा की बात समझता ू ूँ।'
यव
ु क ने क्रोि के आवेश में व्ध
ृ का ाथ पकड़कर िक्का हदया। बातों से न
जीतकर अब व ाथों से काम लेना चा ता था। व्ध
ृ िक्का खाकर धगर पड़े।
मैंने लपककर उन् ें उठाया और युवक को डाूँटा।
व व्ध
ृ को छोड़कर मझ
ु से भलपट गया। मैं कोई कुश्तीबाज तो ू ूँ न ीिं, व लड़ना
जानता था, मुझे उसने बात- ी-बात में धगरा धगया और मेरा गला दबाने लगा।
कई आदमी जमा ो गए थे। जब तक कुश्ती ोती र ी, लोग कुश्ती का आनन्द
उठाते र े लेककन जब दे खा मामला सिंगीन ु आ जाता ै , तो तुरन्त बीच-बचाव
कर हदया। युवक बूढे बाबा से जाते-जाते क गया -'तुम अपनी लड़की को
वेश्या बनाकर बाजार में घम
ु ाना चा ते ो, तो अच्छी तर घुमाओ। मझ
ु े अब
उससे वववा न ीिं करना ै ।' व्ध
ृ चपु चाप खड़े थे और यव
ु ती रो र ी थी। भाई
सा ब, तब मुझसे न र ा गया।
बूढे बाबा ने गदगद ोकर मुझे किंठ से लगा भलया। उसी क्षण मुझे अपने घर ले
गए। भोजन कराया और वववा का सगुन कर हदया। मैं एक बार युवती से
भमलकर उसकी स मतत लेना चा ता था। बढ
ू े बाबा ने मझ
ु े इसकी स षय अनम
ु तत
दे दी। यव
ु ती से भमलकर मझ
ु े ञा ात ु आ कक व रमखणयों में रतन ै।
मैं उसकी बुव्ध मतता दे कर चककत ो गया। मैंने अपने मन में ल्जस सुन्दरी की
ककपना की थी, व उससे ू -ब- ू भमलती ै । मझ
ु े उतनी ी दे र में ववश्वास ो
गया कक मेरा जीवन उसके साथ सख
ु ी ोगी। मझ
ु े अब आशीवायद दील्जए। यव
ु ती
आप की पबत्रका बराबर पढती ै और आपसे उसे बड़ी श्र्ध ा ै । जून में वववा
ोना तनल्श्चत ु आ ै।
व्ध
ृ ने क ा - 'मैं तो स्वयिं य ी क ने वाला था, मैं कोई तैयारी न ीिं चा ता, न
िम
ू िाम की मझ
ु े इच्छा ै ।'
ढपोरसिंख ने क ा - 'लेककन मेरे पास तो अभी कुछ भी न ीिं ै भाई, मैं तीन सौ
रुपए क ाूँ से लाऊूँगा।'
जोशी ने क ा - 'तीन सौ रुपए नकद थोड़े ी लगें गे। कोई सौ रुपए के कपड़े
लगें गे, सौ रुपए की दो-एक सु ाग की चीजें बनवा लूँ ग
ू ा और सौ रुपए रा खचय
समझ लील्जए। उनका मकान काशीपुर में ै, व ीिं से वववा करें गे। व बिंगाली
सुनार जो सामने ै , आपके क ने से एक सप्ता के वादे पर जो-जो चीजें
मागूँग
ू ा, दे दे गा। बजाज भी आपके क ने से दे दे गा, नकद मझ
ु े कुछ सौ रुपए की
जरूरत पड़ेगी औऱ ज्यों ी उिर से लौटा तयों ी दे दूँ ग
ू ा। बारात में आप औऱ
माथुर के भसवा और कोई तीसरा आदमी न ोगा। मैं आपको कष्ट न ीिं दे ना
चा ता, लेककन ल्जस तर अब तक आपने मुझे भाई समझकर स ायता दी ै,
उसी तर एक बार और दील्जए। मुझे ववश्वास था कक आप इस शुभ कायय में
आपल्तत न करें गे, इसीभलए मैंने वचन दे हदया अब तो आपको य डोंगी पार
लगानी ी पड़ेगी।'
दे वीजी बोलीिं - 'मैं क ती थी, उसे एक पैसा मत दो, क दो म तुम् ारी शादी-
वववा के झिंझट में न ीिं पड़ते।'
ढपोरसिंख ने क ा - ' ाूँ, तुमने अबकी बार जरूर समझाया, लेककन मैं क्या करता।
शादी का मामला, उसपर उसने मुझे भी घसीट भलया था। अपनी इज्जत का कुछ
ख्याल तो करना ी पड़ता ै । दे वीजी में मेरा भल ाज ककया और चुप ो गई।'
अब मैं उस वतृ तान्त को न बढाऊगा, सारािंश य ै कक जोशी ने ढपोरसिंश के
मतथे सौ रुपए के कपड़े और सौ रुपए के कुछ ऊपर के ग नों का बोझ लादा।
बेचारे ने एक भमत्र से सौ रुपए उिार लेकर उसके सफर खचय को हदया। खुद
ब्या में शरीक ु ए, ब्या में खासी िूमिाम र ी। कन्या के वपता ने मे मानों का
आदर-सतकार खूब ककया। उन् ें जकदी थी, इसभलए व खुद तो दस
ू रे ी हदन चले
आए। पर माथुर, जोशी के साथ वववा के अन्त तक र ा। ढपोरसिंख को आशा
थी कक जोशी ससरु ाल से रुपए पाते ी माथरु के ाथों भेज दे गा या खद
ु लेता
आएगा। मगर माथरु भी दस
ू रे हदन आ गए। खाली ाथ और य खबर लाए कक
जोशी को ससुराल में कुछ भी ाथ न ीिं लगा। माथुर से उन् ें मालूम ु आ कक
लड़की से जमुना-तट पर भमलने की बात सवयथा तनमल
ूय थी। इस लड़की से जोशी
ब ु त हदनों से पत्र-व्यव ार करता र ा था। कफर तो ढपोरसिंख के कान खड़े ो
गए और माथुर से पूछा - 'अच्छा! य बबककुल ककपना थी उसकी?'
माथुर ने क ा - 'मेरी स ायता व क्या करता। ाूँ, दोनो जून भोजन भले ी
कर लेता था।'
ढपोरसिंख ने क ा - 'तम्
ु ारे नाम पर उसने मझ
ु से जो रुपए भलए थे, व तो तम्
ु ें
हदए ोंगे?'
'मैं कोई चीज उसकी मारफत न ीिं मूँगवाई, मुझे जरूरत ोती तो आपको सीिा
न भलखता!'
आगरा-तनवासी भमत्र बोले - 'मुझसे भी तो तुम् ारी मतृ यु के ब ाने सौ रुपए लाया
था। व तो एक जाभलया तनकला। उफ! ककतना बड़ा चकमा हदया ै इसने!
ल्जन्दगी में य प ला मौका ै कक मैं यों बेवकूफ बना। बच्चा को पा जाऊूँ तो
तीन साल के को भेजवाऊूँ। क ाूँ ै आजकल?'
ढपोरसिंख ने ददय नाक आूँखों से मेरी तरफ दे खा, जो मानो भभक्षा माूँग र ी थी।
उसी के साथ दे वीजी का आग्र , आवेश और गवय से भरी आूँखें ताक र ी थीिं। एक
को अपनी ार का ववश्वास था, दस
ू री को अपनी जीत का। एक ररआयत चा ती
थी, दस
ू री सच्ची न्याय।
ढपोरसिंख उछल पड़े और मेरे गले भलपट गए। दे वीजी ने सगवय नेत्रों से दे खकर
क ा - 'य तो मैं जानती थी, 'चोर-चोर मौसेरा भाई' ोंगे, तम
ु दोनों एक ी थाली
के चट्टे -बट्टे ो, अब तक रुपए में एक पाई मदों का ववश्वास था, आज तम
ु ने व
भी उठा हदया। आज तनश्चय ु आ, कक पुरुष छली, कपटी, ववश्वासघाती और
स्वाथी ोते ै । मैं इस तनणयय को न ीिं मानती। मुफ्त में ईमान बबगाड़ना इसी
को क ते ै , भला मेरा पक्ष लेते तो अच्छा भोजन भमलता। उनका पक्ष लेकर
आपको सड़े भसगरटों के भसवा और क्या ाथ लगेगा। खैर , ाूँडी गई, कुतते की
जात तो प चानी गई।'
बैंक से छमा ी सद
ू चला आए, खाएूँ और मजे से पड़े र े , ककसी ने सला दी -
नाटक-कम्पनी खोलो। उनके हदल में बात जम गई। भमत्रों को भलखा - मैं
ड्रामेहटक कम्पनी खोलने जा र ा ू ूँ , आप लोग ड्रामें भलखना शुरू कील्जए।
ु ई। ाूँ, इसी िुन में गुरूप्रसाद में एक नाटक की रचना कर डाली और य किक
बात सच्ची ैं। भेष से भीख भमलती ैं। ववचार ोने लगा कक ककस रईस से
याचना की जाए।
'अजी, व म ा खस
ू ट ैं। सबेरे उसका नाम ले लो तो हदन भर पानी ने भमले।
अच्छा सेठजी के पास चलें तो कैसा? मूँु िो रखखए, उसकी मोटरें अफसरों के
भलए ररजवय ैं, अपने लड़के तक को कभी बैठने न ीिं दे ता, आपको हदए दे ता ैं।'
'तो कफर कपरू सा ब के पास चलें । अभी उन् ोंने नई मोटर ली ैं। अजी, उसका
नाम न लो, कोई-न-कोई ब ाना करे गा, ड्राइवर न ीिं ैं, मरम्मत में ैं।'
गरू
ु प्रसाद ने अिीर ोकर क ा - तम
ु लोगों ने तो व्यथय का बखेड़ा कर हदया,
ताूँगों पर चलने पर क्या रज था?
ववनोदबब ारी उछल पड़े। सब लोग पाूँव-पाूँव चले। व ाूँ प ु ूँचकर ककस तर की
बातें शुरू ोगी, ककस तर तारीफों के पल
ु बाूँिे जाएूँगे, ककस तर ड्रामेहटस्ट
सा ब को खुश ककया जाएगा, इस पर ब स ोती जाती थी।
म लोग कम्पनी के कैम्प में कोई दो बजे प ु ूँच।े व ाूँ माभलक सा ब, उनके
ऐक्टर, नाटककार सब प ले से ी मारा इन्तजार कर र े थे। पान, इलायची,
भसगरे ट मूँगा भलए थे।
मस्तराम ने फरमाया - कवव ोना, मानो दीन-दतु नया से मुक्त ो जाना ैं, गुलाब
की एक पिंखड़ी लेकर उसमें न जाने क्या घिंटो दे खा करते ैं। प्रकृतत के उपासना
ने ी यूरोप के बड़े-बड़े कववयों को आसमान पर प ु ूँचा हदया ैं। यूरोप में ोते
तो आज इनके द्वार पर ाथी झूमता ोता। एक हदन एक बालक को रोते
दे खकर आप रोने लगे, पछ
ू ता ू ूँ भाई क्यों रोते ो, तो और रोते ैं, मूँु से
आवाज न ीिं तनकलती, बड़ी मुल्श्कल से आवाज तनकली।
ववनोद ने क ा - जनाब! कवव का हृदय कोमल भावों का स्रोत ैं , मिरु सिंगीत
का भिंडार ैं, अनन्त का आईना ैं।
रभसकलाल ने क ा - क ाूँ तक याद करें , भैया, य तो सूल्क्तयों में बात करते ैं,
और नम्रता का य ाल ैं कक अपने को कुछ समझते ी न ीिं, म ानता का य ी
लक्षण ैं। ल्जसने अपने को कुछ समझा, व गया ( कम्पनी के स्वामी से) आप
तो अब खद
ु ी सन
ु ेंगे, इस ड्रामे में अपना हृदय तनकालकर रख हदया ैं , कववयों
में जो एक प्रकार का अक ड़पन ोता ैं , उसकी आप में क ीिं गन्ि भी न ीिं। इस
ड्रामे की सामग्री जमा करने के भलए आपने कुछ न ीिं तो एक जार बड़े-बड़े
पोथों का अध्ययन ककया ोगा, वाल्जदअली शा को स्वाथी इतत ास-लेखकों ने
ककतना कलिंककत ककया ै , आप लोग जानते ी ै , उस लेख-राशी को छाूँटकर
उसमें से सतय के तततव खोज तनकालना आप ी का काम था!'
ररहससल
सेठजी ने उसी ववरक्त भाव से उततर हदया, 'मैं इसके ववषय में कल तनवेदन
करूूँगा, कल य ीिं भोजन भी कील्जएगा, आप लोगों के लायक भोजन क्या ोगा,
उसे केवल ववदरु का साग समझकर स्वीकार कील्जएगा।'
पिंच पािंडव बा र तनकले , तो मारे खुशी के सबकी बाूँछे खखली जाती थीिं।
रात को गरु
ु प्रसाद के घर भमत्रों की दावत ु ई। दस
ू रे हदन कोई 6 बजे पािंचों
आदमी सेठजी के पास जा प ु ूँच।े सन्ध्या का समय वाखोरी का ै । आज मोटर
पर न आने के भलए बना-बनाया ब ाना था। सेठजी आज बे द खुश नजर आते
थे। कल की व मु रय मी सूरत अन्तिायन ो गई थी। बात-बात पर च कते थे,
ूँसते थे, जैसे लखनऊ का कोई रईस ो। दावत का सामान तैयार था। मेजों पर
भोजन चन
ु ा जाने लगा। अिंगरू , सिंतरे , केले, सख
ू े मेव,े कई ककस्म की भमठाइयाूँ, कई
तर के मरु ब्बे, शराब आहद सजा हदए गए और यारों ने खब
ू मजे से दावत
खाई। सेठजी मे माननवाजी के पुतले बने ु ए रे क मे मान के पास आ-आकर
पूछते - 'कुछ और मूँगवाऊूँ? कुछ तो और लील्जए। आप लोगों के लायक भोजन
य ाूँ क ाूँ बन सकता ै।'
ड्रामेहटस्ट ने क ा - 'य ाूँ जनता अच्छे ड्रामों की कद्र न ीिं करती, न ीिं तो य
ड्रामा लाजवाब ोता।'
सेठजी ने क ा - 'जनता कद्र न ीिं करती न करे , में जनता की बबककुल परवा
न ीिं ै , रतती बराबर परवा न ीिं ै । मैं इसकी तैयारी में 40 जार केवल बाबू
सा ब की खाततर खचय कर दूँ ग
ू ा। आपने इतनी मे नत से एक चीज भलखी ै , तो
मैं उसका प्रचार भी उतने ी ौसले से करूूँगा। मारे साह तय के भलए क्या य
कुछ कम सौभाग्य की बात ै कक आप जैसे म ान पुरुष इस क्षेत्र में आ गए।
य कीततय ु जूर को अमर बना दे गी।'
ड्रामेहटस्ट ने क ा - 'मैंने ऐसा ड्रामा आज तक न ीिं दे खा, भलखता मैं भी ू ूँ और
लोग भी भलखते ै , लेककन आपकी उड़ान को कोई क्या प ु ूँचेगा! क ीिं-क ीिं तो
आपने शेक्सवपयर को भी मात कर हदया ै।'
मेज पर ड्रामे की स्तभलवप पड़ी ु ई थी। ड्रामेहटस्ट ने उसे उठा भलया। गरु
ु प्रसाद
ने दीन नेत्रों से ववनोद की ओर दे खा, ववनोद ने अमर की ओर, अमर ने रभसक
की ओर, पर शब्द ककसी के मूँु से न तनकला। सेठजी ने मानो, सभी के मूँु सी
हदए ों। ड्रामेहटस्ट चल हदए।
***
दारोगाजी
दारोगाजी ने घट
ु ने स लाते ु ए क ा - 'पागल न ीिं ैं सा ब, मेरा परु ाना दश्ू मन
ैं, मैंने समझा था, वपछली बातें भूल गया ोगा, वरना मुझे क्या पड़ी थी कक
सलाम करने जाता।'
मैंने पूछा - 'आपने इसे ककसी मुकद्दमें में सजा हदलाई ोगी?'
साल भर के बाद मझ
ु े एक काम से सदर आना पड़ा। उस वक्त मझ
ु े उस औरत
की याद आई। सोचा, जरा चलकर दे खना चाह ए, ककस ालत में ै । फौरन अपने
खत न भेजने और इतने हदनों तक न आने का जवाब सोच भलया और उसके
द्वार पर जा प ु ूँचा। दरवाजा साफ-सथ
ु रा था, मकान की ालत भी प ले से
अच्छी थी, हदल को खुशी ु ई कक इसकी ालत उतनी खराब न ीिं ैं , ल्जतनी मैं
समझी थी। और, क्यों खराब ोने लगी। मुझ जैसे दतु नया में क्या आदमी ी
न ीिं ैं।
कोई जवाब न भमला, आवाज उसी की थी, इसमें कोई शक न ीिं, कफर दरवाजा
क्यों न ीिं खोलती? जरूर मुझसे नाराज ैं।
मैंने कफर ककवाड़ खटखटाए और लगा अपनी मुशीबतों का ककस्सा सुनाने, कोई
पन्द्र भमनट के बाद दरवाजा खुला। सीना ने मुझे इशारे से अन्दर बुलाया और
चट ककवाड़ बन्द कर भलए।
मैंने क ा मुआफी माूँगने आया ू ूँ, य ाूँ से जाकर मैं बड़ी मुल्श्कल में फूँस गया,
इलाका इतना खराब कक दम मारने की मु कल न ीिं भमलती।
'शायद जुदाई में घुलते-घुलते य तोंद तनकल आई ैं, खुदा झूठ बुलावाए, तब से
मोटे ो गए ो।'
मैंने झेंपते ु ए क ा - 'य सारा बलगम की कफसाद ैं, भला मोटा मैं क्या ोता,
उिर का पानी तन ायत बलगमी ैं , तुमने तो मेरी याद ी भूला दी।'
लैली पानदान खोलकर पान बनाने लगी कक एकाएक ककसी ने ककवाड़ खटखटाए।
मैंने घबराकर पछ
ू ा - 'य कौन शैतान आ प ु ूँ चा?'
सीना ने ोटों पर उूँ गली रखते ु ए क ा - 'य मेरे शौ र ैं, तुम् ारी तरफ से
जब तनराश ो गई, तो मैंने इनके साथ तनका कर भलया।'
मैंने तयोररयाूँ चढाकर क ा - 'तो तम
ु ने मझ
ु से प ले ी क्यों न बता हदया, मैं
उकटे पाूँव लौट न जाता, य नौबत क्यों आती, न जाने कब की य कसर
तनकाली।'
'मझ
ु े क्या मालम
ू कक य इतने जकदी आ प ु ूँचेंगे, रोज तो प र रात गए आते
थे, कफर तम
ु इतनी दरू से आए थे, तम्
ु ारी कुछ खाततर भी तो करनी थी।'
'मेरी समझ में खुद कुछ न ीिं आ र ा ैं, या अकला ! ककस अजाब में फूँसी।'
बा र से आवाज आई - 'अरे , तम
ु सरे शाम से सो गई? अभी तो आठ भी न ीिं
बजे। क ीिं साूँप तो न ीिं सूँघ
ू गया, अकला जानता ैं , अब और दे र की, तो ककवाड़
धचड़वा डालूँ ग
ू ा।'
'ना!'
'सिंडास तो ै ?'
'तम
ु जैसे दो को बगल में दबा लें ।'
'तो खोल दो कोठरी, व ज्यों ी अन्दर आएगा, मैं दरवाजा खोलकर तनकल
भागूँग
ू ा।'
सीना ने कोठरी खोल दी। मैं अन्दर जा घुसा। दरवाजा कफर बन्द ो गया।
मुझे कोठरी में बन्द करके सीना ने जाकर सदर दरवाजा खोला और बोली, 'क्यों
ककवाड़ तोड़े डालते ो? आ तो र ी ू ूँ।'
मैंने कोठरी की ककवाड़ों के दराजों से दे खा। आदमी क्या परू ा दे व था। अन्दर
आते ी बोला, 'तुम सरे शाम से सो गई थी!'
'मैंने साफ सन
ु ा, कोई-न-कोई था जरूर, तम
ु ने उसे क ीिं तछपा रखा ै ।'
'इन् ीिं बातों पर तुमसे मेरा जी जलता ै , सारा घर तो पड़ा ै , दे ख क्यों न ीिं
लेत।े '
'दे खग
ूूँ ा तो मैं जरूर ी, लेककन तुमसे सीिे-सीिे पूछता ू ूँ, बतला लो, कौन था?'
'तम
ु किंु जी दे दो न।'
'तुम भी कभी-कभी पागलों के-से काम करने लगते ो, अिंिरे े में कोई साूँप-बबच्छू
तनकल आए तो, ना भैया, मैं उसकी किंु जी न दूँ ग
ू ी।'
सीना ने इिर-उिर तलाश करके क ा, 'न जाने उसकी किंु जी क ाूँ रख दी, ख्याल
न ीिं आता।'
'मैं तो रोज लगाती ू ूँ, शायद कभी लगाना भूल गई ू ूँ , तो न ीिं क सकती।'
उसने मेरा ाथ पकड़ भलया और कोठरी में जाकर मचान पर दे खा। व जरत
भसमटे -भसमटाए, भीगी बबकली बने बैठे थे, चे रा ऐसा पीला पड़ गया था, गोया
बदन में जान ी न ीिं।
'मझ
ु े य ी बदमाश (मेरी तरफ दे खकर) िोखा दे कर लाया था।'
य क कर उसने उसी तेज छुरे से उन सा ब की नाक काट ली, मैं मौका पाकर
बेत ाशा भागा, लेककन ाय- ाय की आवाज मेरे कानों में आ र ी थी। इसके बाद
उन दोनों में कैसी छनी, सीना के भसर पर क्या आफत आई, इसकी मझ
ु े कुछ
खबर न ीिं। मैं तब से बीसों बार सदर आ चक
ु ा ू ूँ , पर उिर भल
ू कर भी न ीिं
गया। य पतथर फेंकनेवाले जरत व ी ै , ल्जनकी नाक कटी थी। आज न-जाने
क ाूँ से हदखाई पड़ गए और मेरी शामत आई कक उन् ें सलाम कर बैठा। आपने
उनकी नाक की तरफ शायद ख्याल न ीिं ककया।
मुझे अब ख्याल आया कक उस आदमी की नाक कुछ धचपटी थी। बोला, ' ाूँ, नाक
कुछ धचपटी तो थी। मगर आपने उस गरीब को बरु ा चरका हदया।'
'जरूर दबा दे त,े मगर चोर का हदल आिा ोता ै । उस वक्त अपनी-अपनी पड़ी
थी कक मुकाबला करने की सझ
ू ती। क ीिं उस रमझकलें में िर भलया जाता, तो
आबरू अलग जाती और नौकरी से अलग ाथ िोता। मगर अब इस आदमी से
ोभशयार र ना पड़ेगा।'
***
अभिलाषा
कल पड़ोस में बड़ी लचल मची। एक पान वाला अपनी स्त्री को मार र ा था।
व बेचारी बैठी रो र ी थी, पर उस तनदय यी को उस पर लेशमात्र भी दया न आती
थी। आखखर स्त्री को भी क्रोि आ गया। उसने खड़े ोकर क ा - 'बस, अब
मारोगे, तो ठीक न ोगा। आज से मेरा तुझसे कोई सम्बन्ि न ीिं, मैं भीख
मागूँग
ू ी, पर तेरे घर न आऊूँगी।' य क कर उसने एक परु ानी साड़ी उठाई और
घर से तनकल पड़ी।
परु
ु ष काठ के उकलू की तर खड़ा दे खता र ा। स्त्री कुछ दरू चलकर कफर लौटी
और दक
ु ान की सिंदक
ू ती खोलकर कुछ पैसे तनकाले। शायद अभी तक कुछ उसे
ममता थी, पर उस तनदय यी ने तुरन्त उसका ाथ पकड़कर पैसे छीन भलए। ाय
री हृदय ीनता! अबला स्त्री के प्रतत पुरुष का य अतयाचार! एक हदन इसी स्त्री
पर उसने प्राण हदए ोंगे, उसका मूँु जो ता र ा ोगा, पर आज इतना तनष्ठुर ो
गया ै , मानो कभी की जान-प चान ी न ीिं। स्त्री ने पैसे रख हदए और बबना
क े -सन
ु े चली गई। कौन जाने क ाूँ! मैं अपने कमरे की खखड़की से घिंटों दे खती
र ी कक शायद व कफर लौटे या शायद पानवाला ी उसे मनाने जाए, पर दो में
से एक बात भी न ु ई। आज मुझे स्त्री की सच्ची दशा का प ली बार ञा ान
ु आ। य दक
ु ान दोनों की थी। पुरुष तो मटरगश्ती ककया करता था, स्त्री रात-
हदन बैठी सती ोती थी। दस-ग्यार बजे रात तक मैं उसे दक
ु ान पर बैठी दे खती
थी। प्रातःकाल नीिंद खुलती, तब भी उसे ी बैठा पाती थी। नोच-खसोट, काट-कपट
ल्जतना परु
ु ष करता था, उससे कुछ अधिक ी स्त्री करती थी। पर परु
ु ष सब कुछ
ै , स्त्री कुछ न ीिं! परु
ु ष जब चा े उसे तनकाल बा र कर सकता ै!
इस समस्या पर मेरा धचतत इतना अशान्त ो गया कक नीिंद आूँखों से भाग गई।
बार बज गए और मैं बैठी र ी। आकाश पर तनमयल चाूँदनी तछटकी ु ई थी।
तनशानाथ अपने रतन-जहटत भसिं ासन पर गवय से फूले बैठे थे। बादल के छोटे -
छोट टुकड़े िीरे -िीरे चिंद्रमा के समीप आते थे और कफर ववकृत रूप में पथ
ृ क ो
जाते थे, मानो श्वेतवसना सिंद
ु ररयाूँ उसके ाथों दभलत और अपमातनत ोकर
रुदन करती ु ई चली जा र ी ों।
क्यों? क्या मैं कुछ और ो गई, या पततदे व ी कुछ और ो गए। अभी कुछ
ब ु त हदन भी तो न ीिं बीते, कुल पाूँच साल ु ए ै - कुल पाूँच साल, जब पततदे व
ने ववकभसत नेत्रों और लालातयत अिरों से मेरा स्वागत ककया था। मैं लज्जा से
गदय न झुकाए ु ए थी। हृदय में ककतनी प्रबल उतकिंठा ो र ी थी कक उनकी मुख-
छवव दे ख लूँ ू, पर लज्जावश भसर न उठा सकती थी। आखखर एक बार मैंने
ह म्मत करके आूँखें उठाऊ और यद्यवप दृल्ष्ट आिे रास्ते से ी लौट आई, तो
भी उस अ्ध य दशयन से मुझे जो आनन्द भमला, क्या उसे कभी भूल सकती ू ूँ। व
धचत्र अब भी मेरे हृदय-पट पर खखिंचा ु आ ै । जब कभी उसका स्मरण आ जाता
ै , हृदय पुलककत ो उठता ै । उस आनन्द-स्मतृ त में अब भी व ी गुदगुदी, व ी
सनसनी ै । लेककन अब रात-हदन उस छवव के दशयन करती ू ूँ , उषाकाल,
प्रातःकाल, मध्याह्नकाल, सिंध्याकाल, तनशाकाल आठों प र उसको दे खती ू ूँ , पर
हृदय में गुदगुदी न ीिं ोती, व मेरे सामने खड़े मुझसे बातें ककया करते ै । मैं
क्रोभशए की ओर दे खती र ती ू ूँ , जब व घर से तनकलते थे, तो मैं द्वार पर
आकर खड़ी ो जाती थी। मैं तीसरे प र कोठे पर चढ जाती थी और उनके आने
की बाट जो ने लगती थी। उनको दरू से आते दे खकर मैं उन्मतत-सी ो जाती
और द्वार पर जाकर उनका अभभवादन करती। पर अब मझ
ु े य भी न ीिं मालम
ू
ोता कक व कब जाते और कब आते ै , जब बा र का द्वार बन्द ो जाता ै
तो समझ जाती ू ूँ कक व चले गए। जब द्वार खुलने की आवाज आती ै , तो
समझ जाती ू ूँ कक आ गए। समझ में न ीिं आता कक मैं ी कुछ और ो गई या
पततदे व ी कुछ और ो गए।
कफर मझ
ु े उनके परु ाने पत्र की याद आ गई। उसे उन् ोंने कॉलेज से मेरे पास
भेजा था। उसे पढकर मेरे हृदय में जो आनन्द ु आ था, जो तूफान उठा था,
आूँखों से जो नदी ब ी थी, क्या उसे कभी भूल सकती ू ूँ। उस पत्र को मैंने
अपनी सो ाग की वपटारी में रख हदया था। इस समय उस पत्र को पढने की
प्रबल इच्छा ु ई। मैंने वपटारी से व पत्र तनकाला। उसे स्पशय करते ी मेरे ाथ
काूँपने लगे, हृदय में िड़कन ोने लगी। मैं ककतनी दे र से उसे ाथ में भलए खड़ी
र ी, क न ीिं सकती। मुझे मालूम ु आ कक मैं कफर व ी ो गई, जो पत्र पाते
समय थी। जब पत्र में क्या प्रेम के कववततमय उद्गार थे? क्या प्रेम की साह तय
वववेचना थी। क्या ववयोग-व्यथा का करूण क्रन्दन था? उसमें तो प्रेम का एक
शब्द भी न था। भलखा था - 'काभमनी, तुमने आठ हदनों से कोई पत्र क्यों न ीिं
भलखा, क्यों न ीिं भलखा? अगर तुम पत्र न भलखोगी, तो मैं ोली की छुहट्टयों में घर
न आऊूँगा, इतना समझ लो। आखखर सारे हदन क्या करती ो! मेरे उपन्यासों की
आलमारी खोल ली ै क्या? आपने मेरी आलमारी क्यों खोली? समझती ोगी, मैं
पत्र न भलखूग
ूँ ी तो खूब रोएूँगे और ै रान ोंगे। य ाूँ इसकी परवा न ीिं। नौ बजे
रात सोता ू ूँ, तो आठ बजे उठता ू ूँ। कोई धचन्ता ै , तो य ी कक फेल न ो
जाऊूँ। अगर फेल ु आ तो तुम जानोगी।'
ककतना सरल, भोले-भाले हृदय से तनकला ु आ, तनष्कपट मानपण
ू य आग्र और
आतिंक से पत्र भरा ु आ था, मानो उसका सारा उततरदातयतव मेरे ी ऊपर था।
ऐसी िमकी क्या अब भी मुझे दे सकते ै ? कभी न ीिं। ऐसी िमकी व ी दे
सकता ै , जो न भमल सकने की व्यथा को जानता ो, उसका अनुभव करता ो।
पततदे व अब जानते ै , इस िमकी का मुझ पर कोई असर न ोगा। मैं ूँसूँग
ू ी
और आराम से सोऊूँगी क्योंकक मैं जानती ू ूँ , व अवश्य आएूँगे और उनके भलए
हठकाना ी क ाूँ ै ? जा ी क ाूँ सकते ै ? तब से उन् ोंने मेरे पास ककतने पत्र
भलखे ै । दो-हदन को भी बा र जाते ै , तो जरूर एक पत्र भेजते ै , और जब दस-
पाूँच हदन को जाते ै , तो तनतय एक पत्र आता ै । पत्रों में प्रेम के चुने ु ए शब्द,
चुने ु ए वाक्य, चुने ु ए सम्बोिन भरे ोते ै।
मैं उन् ें पढती ू ूँ और ठिं ड़ी साूँस लेकर रख दे ती ू ूँ। ाय! व हृदय क ाूँ गया?
प्रेम के इन तनजीव भावशून्य कृभमत्र शब्दों में व अभभन्नता क ाूँ ै, व रस
क ाूँ ै, व उन्माद क ाूँ ै, व क्रोि क ाूँ ै? व झुिंझला ट क ाूँ ै ? उनमें मेरा
मन कोई वस्तु खोजता ै , कोई अञा ात, अव्यक्त, अलक्षक्षत वस्तु, पर व न ीिं
भमलती। उनमें सुगन्ि भरी ोती ै , पत्रों के कागज आटय -पेपर को मात करते ै ,
पर उनका य सारा बनाव-सिंवार ककसी गतयौवना नातयका के बनाव-भसिंगार के
सदृश ी लगता ै । कभी-कभी तो मैं पत्रों को खोलती भी न ीिं। मैं जानती ू ूँ ,
उनमें क्या भलखा ोगा।
उन् ीिं हदनों का बात ै , मैंने तीज का व्रत ककया था। मैंने दे वी के सम्मुख भसर
झुकाकर वन्दना की थी - 'दे वी, मैं तुमसे केवल एक वरदान माूँगती ू ूँ। म दोनों
प्राखणयों में कभी ववच्छे द न ो, और मुझे कोई अभभलाषा न ीिं। मैं सिंसार की
और कोई वस्तु न ीिं चा ती।' तब से चार साल ो गए ै औऱ ममें एक हदन
का भी ववच्छे द न ीिं ु आ। मैंने तो केवल एक वरदान माूँगा था। दे वी ने वरदानों
का भिंडार ी मुझे सौंप हदया। पर आज मुझे दे वी के दशयन ों, तो मैं उनसे क ू ूँ
तुम अपने सारे वरदान ले लो। मैं इनमें से एक भी न ीिं चा ती। कफर व ी हदन
दे खना चा ती ू ूँ , जब हृदय में प्रेम की अभभलाषा थी। तम
ु ने सब कुछ दे कर मझ
ु े
उस अतल
ु सख
ु से विंधचत कर हदया, जो अभभलाषा में था। मैं अबकी दे वी से व
हदन हदखाने की प्राथयना करूूँ, जब मैं ककसी तनजयन जलतट पर और सघन वन में
अपने वप्रयतम को ढूूँढती कफरूूँ। नदी की ल रों से क ू ूँ, मेरे वप्रयतम को तुमने
दे खा ै ? वक्ष
ृ ों से पूछूूँ, मेरे वप्रयतम क ाूँ गए?
क्या व सुख मुझे कभी प्राप्त ोगा? उसी समय मन्द, शीतल पवन चलने लगी।
मैं खखड़की के बा र भसर तनकाले खड़ी थी। पवन के झोंके से मेरे केश की लटें
बबखरने लगी। मुझे ऐसा आभास ु आ, मानो मेरे वप्रयतम वायु के इन उच्छवासो
में ै । कफर मैंने आकाश की ओर दे खा। चाूँद की ककरणें चािंदी के जगमगाते तारों
की भाूँतत आूँखों से आूँखभमचौली-सी खेल र ी थीिं। आूँखें बन्द करते समय सामने
आ जातीिं, पर आूँखें खोलते ी अदृश्य ो जाती थीिं। मझ
ु े उस समय ऐसा आभास
ु आ कक मेरे वप्रयतम उन् ीिं जगमगाते तारों पर बैठे आकाश से उतर र े ै । उसी
समय ककसी ने गाया -
अनोखे-से ने ी के तयाग,
तनराले पीड़ा के सिंसार!
क ाूँ ोते ो अन्त्ध ायन,
लुटा करके सोने-सा प्यार!
व मेरे पास आकर बोले - 'क्या अभी तुम धचकलाई? अरे ! तुम रो र ी ो? क्या
बात ै ? कोई स्वप्न तो न ीिं दे खा?'
'मैं तम्
ु ारे हदल की बात कैसे जान सकता ू ूँ ?'
'तम
ु ने तो ब ु त पढा ै , क्या तम
ु भी ऐसी बात क सकते ो?'
'मेरी सबसे बड़ी अभभलाषा पूरी ो गई, अब मैं और कुछ न ीिं चा ता।'
य क ते ु ए पततदे व मस्
ु कराए और मझ
ु े गले से भलपटा लेने को बढे । उनकी
य हृदय ीनता इस समय मुझे ब ु त बुरी लगी। मैंने उन् ें ाथों से पीछे टाकर
क ा - 'मैं इस स्वािंग को प्रेम न ीिं समझती। जो कभी रो न ीिं सकता, व प्रेम
न ीिं कर सकता। रुदन और प्रेम, दोनों एक ी स्रोत से तनकलते ै ।' उसी समय
कफर उसी गाने की ध्वतन सुनाई दी -
अनोखे-से ने ी के तयाग,
तनराले पीड़ा के सिंसार!
क ाूँ ोते ो अन्त्ध ायन,
लुटा करके सोने-सा प्यार!
पततदे व की व मस्
ु करा ट लप्ु त ो गई। मैंने उन् ें एक बार काूँपते दे खा। ऐसा
जान पड़ा, उन् ें रोमािंच ो र ा ै । स सा उनका दाह ना ाथ उठकर उनकी छाती
तक गया। उन् ोंने लम्बी साूँस ली और उनकी आूँखों से आूँखू की बूँद
ू ें तनकलकर
गालों पर आ गई। तुरन्त मैंने रोते ु ए उनकी छाती पर भसर रख हदया और उस
परम सुख का अनुभव ककया, ल्जसके भलए ककतने हदनों से मेरा हृदय तड़प र ा
था। आज कफर मुझे पततदे व का हृदय िड़कता ु आ सुनाई हदया। आज उनके
स्पशय में कफर स्फूततय का आभास ु आ। अभी तक उनके पद के शब्द मेरे हृदय
में गूँज
ू र े थे -
***
खुचड़
किंु जडड़न के जाने के बाद पतनीजी लोटे में पानी लाई तो उन् ोंने क ा - 'आज तो
तुमने जरा-सा साग लेने में परू ा आिा घिंटा लगा हदया। इतनी दे र में तो जार-
पाूँच सौ का सौदा ो जाता, जरा से साग के भलए इतनी ठाूँय-ठाूँय करने करने में
तम्
ु ारा भसर भी न ीिं दख
ु ता?'
एक हदन बबकली दि
ू पी गई। रामेश्वरी दि
ू गमय करके लाई और स्वामी के
भसर ाने रखकर पान बना र ी थी कक बबकली ने दि
ू पर अपना ईश्वरप्रदतत
अधिकार भस्ध कर हदया। रामेश्वरी य अप रण स्वीकार न सकी। डिंडा लेकर
बबकली को इतने जोर से मारा कक व दो-तीन लुढकतनयाूँ खा गई। किंु दनलाल
लेटे-लेटे अखबार पढते ु ए बोले - 'और जो मर जाती?'
'उसे मारने से दि
ू भमल तो न ीिं गया?'
'न आना चाह ए, पशु के साथ आदमी भी क्यो पशु ो जाए? आदमी और पशु में
इसके भसवा और क्या अन्तर ै ?'
'कोई आदमी इतना नीच न ीिं ोता, जो काम भमलने पर भीख माूँगे। ाूँ, अपिंग
ो, तो दस
ू री बात ै, अपिंगों का भीख के भसवा और क्या स ारा ो सकता ै ?'
'जब स्वराज्य ो जाएगा, तब शायद खुल जाएूँ, अभी तो कोई आशा न ीिं ै मगर
स्वराज भी िमय ी से आएगा।'
'लाखों सािु-सिंन्यासी, पिंड़-े पुजारी मुफ्त का माल उड़ाते ै , क्या इतना िमय काफी
न ीिं ै ? अगर इस िमय में से स्वराज्य भमलता, तो कब का भमल चुका ोता।'
किंु दनलाल ने यव
ु ती को चककत नेत्रो से दे खा, ऐसे ववद्रो ी ववचार क ाूँ से आ गए?
दे खने में तो व बबलकुल भोली थी। समझ गया, क ीिं सन
ु -सन
ु ा भलया ोगा।
किंु दनलाल कठोर ोकर बोले - 'क्यों व्यथय वववाद करती ो, लजाती तो न ीिं, ऊपर
से और बक-बक करती ो।'
रामेश्वरी य फटकार पाकर चुप ो गई, एक क्षण व ाूँ खड़ी र ी, कफर िीरे -िीरे
कमरे से चली गई।
एक हदन किंु दनलाल ने कई भमत्रों की दावत की। रामेश्वरी सबेरे से रसोई में घस
ु ी
तो शाम तक भसर न उठा सकी। उसे य बेगार बरु ी मालम
ू ो र ी थी। अगर
दोस्तों की दावत करनी थी तो खाना बनवाने का कोई प्रबन्ि क्यों न ीिं ककया?
सारा बोझ उसी के भसर क्यों डाल हदया! उससे एक बार पूछ भलया ोता कक
दावत करूूँ या न करूूँ। ोता तब भी य ी, जो अब ो र ा था। व दावत के
प्रस्ताव का बड़ी खुशी से अनुमोदन करती, तब व समझती, दावत मैं कर र ी
' ोंगी।'
' ोगा।'
'आती ोंगी।'
' ोगा।'
पाूँच-छः म ीने गुजर गए, एक हदन किंु दनलाल के एक दरू के सम्बन्िी उनसे
भमलने आए। रामेश्वरी को ज्यों ी उनकी खबर भमली, जलपान के भलए भमठाई
भेजी, और म री से क ला भेजा - 'आज य ीिं भोजन कील्जएगा।'
व म ाशय फूले न समाए। बोररयाूँ-बूँिना लेकर प ु ूँच गए और डेरा डाल हदया,
एक फ्ता गज
ु र गया, व टलने का नाम भी न ीिं लेते, आवभगत में कोई कमी
ोती, तो शायद उन् ें कुछ धचिंता ोती, पर रामेश्वरी उनके सेवा-सतकार में जी-
जान से लगी ु ई थी। कफर व भला क्यों टने लगे।
'ऐसे मुफ्तखोरों का सतकार करना पाप ै । अगर तुमसे इतना भसर न चढाया
ोता, तो अब तक लम्बा ु आ ोता। जब हदन में तीन बार भोजन और पचासों
बार पान भमलता ै , तो उसे कुतते ने काटा ै , जो अपने घर जाए।'
'कुपात्र और सप
ु ात्र का ववचार तो कर लेना चाह ए। ऐसे आलभसयों को खखलाना-
वपलाना वास्तव में उन् ें ज र दे ना ै , ज र से तो केवल प्राण तनकल जाते ै ,
य खाततरदारी तो आतमा का सवयनाश कर दे ती ै । अगर य जरत म ीने भर
भी य ाूँ र गए, तो कफर ल्जन्दगी-भर के भलए बेकार ो जाएूँगे, कफर इनसे कुछ
न ोगा और इसका सारा दोष तुम् ारे भसर ोगा।'
तकय का ताूँता बूँि गया। प्रमाणों की झड़ी लग गई। रामेश्वरी खखभसयाकर चली
गई। किंु दनलाल उससे कभी सन्तुष्ट भी ो सकते ै , उनके उपदे शों की वषाय कभी
बन्द भी ो सकती ै, य प्रश्न उसके मन में बार-बार उठने लगा।
रामेश्वरी बोली, 'मैं कुछ न ीिं जानती, सब रुपए तेरी तलब से वसूल कर लूँ ग
ू ी, एक
रुपया जरु माना न ककया तो क ना।'
म री बोली - 'काम कराना ोगा, खखलाइगा, न काम करना ोगा, भूखों माररएगा,
आज से आकर आप ी के द्वार पर सोया करूूँगी।'
रामेश्वरी बोली - 'जा गोबर से चौका लीप दे , मटकी के टुकड़े दरू फेंक दे , और
बाजार से घी लेती आ।'
' म उठाएिंगे, और कौन उठाएगा। अगर मेरे ाथ से छूट पड़ती तो क्या ाथ काट
लेती।'
रामेश्वरी ने उसे घुड़ककर क ा - 'जा भाग य ाूँ से, तू क्या करने आई, बड़ी
रुपएवाली बनी ै !'
किंु दनलाल ने पतनी को कठोर नेत्रों से दे खकर क ा - 'तम
ु क्यों उसकी वकालत
कर र ी ो, य मोटी-सी बात ै और इसे एक बच्चा भी समझता ै कक जो
नुकसान करता ै , उसे दिं ड भोगना पड़ता ै , मैं क्यों पाूँच रुपए का नुकसान
उठाऊूँ? बेवज ? क्यों न ीिं इसने मटके को सिंभालकर पकड़ा, क्यों इतनी जकदबाजी
की, क्यों तुम् ें बुलाकर मदद न ीिं ली? य साफ इसकी लापरवा ी ै ।'
व रात भर इसी उिेड़बुन में पड़ी र ी। सबेरे किंु दनलाल न ी स्नान करने गए।
लौटे , तो 9 बज गए थे। घर में जाकर दे खा, तो चौका-बतयन न ु आ था। प्राण
सख
ू गए।
किंु दनलाल ने क ा - 'क्या म री न ीिं आई?'
रामेश्वरी रुपया तनकाल लाई। किंु दनलाल पडू ड़याूँ लाए। इस वक्त का काम चला।
दफतर गए। लौटे , तो दे र ो गई थी। आते ी पूछा - 'म री आई?'
रामेश्वरी ने क ा - 'बबलकुल।'
किंु दनलाल ने क ा - 'तो इस वक्त भी भोजन न बनेगा?'
किंु दनलाल भसर थामकर चारपाई पर बैठ गए। य तो नई ववपल्तत गले पड़ी।
पूडड़याूँ उन् ें रुचती न थीिं। जी में ब ु त झूँझ
ु लाए। रामेश्वरी को दो-चार उकटी-
सीिी सुनाई, लेककन उसने मानो सुना ी न ीिं। कुछ बस न चला, तो म री की
तलाश में तनकले। ल्जसके य ाूँ गए, मालूम ु आ, म री काम करके चली गई।
आखखर एक क ार भमला। उसे बल
ु ा लाए। क ार ने दो आने भलए और बतयन
िोकर चलता बना।
रामेश्वरी ने शान्त भाव से जवाब हदया - 'कुछ न ीिं, केवल अपमान न ीिं चा ती।'
रात दाल-रोटी पर कटी। दोनों आदमी लेटे। रामेश्वरी को तरु न्त नीिंद आ गई।
किंु दनलाल बड़ी दे र तक करवटें बदलते र े । अगर रामेश्वरी इस तर स योग न
करे गी, तो एक हदन भी काम न चलेगा। आज ी बड़ी मुल्श्कल से भोजन भमला।
इसकी समझ तो उकटी ै । मैं तो समझता ू ूँ , य समझती ै , डाूँट र ा ू ूँ। मुझसे
बबना बोले र ा भी तो न ीिं जाता। लेककन अगर बोलने का य नतीजा ै , तो
कफर बोलना कफजल
ू ै । नक
ु सान ोगा, बला से, य तो न ोगा कक दफ्तर से
आकर बाजार भागूँ।ू म री से रुपए वसल
ू करने की बात इसे बरु ी लगी और थी
भी बेजा। रुपए तो न भमले, उलटे म री ने काम छोड़ हदया।
***
आगा-पीछा
रास्ते में लोग उूँ गुली उठाकर क ते - कोककला रिं डी लड़की ैं। उसका भसर झुक
जाता, कपोल क्षण भर के भलए लाल ोकर दस
ू रे ी क्षण कफर चन
ू े की तर
सफेद ो जाते।
श्र्ध ा को एकान्त से प्रेम था। वववा को ईश्वरीय कोप समझती थी। यहद
कोककला ने कभी उसकी बात चला दी, तो उसके माथे पर बल पड़ जाते, चमकते
अगर कोई सप्रेम बुलाकर उसे ववष दे दे ता, तो व नतजानु ो उसे अपने मस्तक
से लगा लेती। ककन्तु अनादर हदए ु ए अमत
ृ की भी उसकी नजर में कोई
कीकच न थी।
श्र्ध ा माूँ का मूँु दे खने लगी- 'अम्माजी, आप मुझसे ऐसा प्रश्न क्यों करती ै?
क्याूँ मैंने कभी आपका अपमान ककया ै ?'
कोककला ने गद्गद ोकर क ा - 'न ीिं बेटी, उस परम दयालु भगवान से य ीिं
प्राथयना ै कक तुम् ारी जैसी सुशील लड़की सबको दे , पर कभी-कभी य ववचार
आता ै कक तू अवश्य ी मेरी बेटी ोकर पछताती ोगी।'
श्र्ध ा ने आूँखें नीचीिं करके उततर हदया - 'बबना वववा के जीवन व्यतीत न ीिं ो
सकता? मैं कुमारी ी र कर जीवन बबताना चा ती ू ूँ। ववद्यालय से तनकलकर
कॉलेज में प्रवेश करूूँगी औऱ दो-तीन वषय बाद म स्वतिंत्र रूप में र सकती ै।
डॉक्टर बन सकती ू ूँ , वकालत कर सकती ू ूँ, औरतों के भलए सब मागय खल
ु गए
ै ।'
एक ने पछ
ू ा - 'य स्त्री कौन थी भई!'
दस
ू रे ने उततर हदया -'उसी कोककला रिं डी की लड़की।'
उसी व्यल्क्त ने उततर हदया - 'आपको बुरा क्यों लगा? क्या कुछ सािंठ-गािंठ तो
न ीिं ै ।'
काले नवयव
ु क ने कुछ तेज ोकर क ा -'आपको ऐसी बातें मूँु से तनकालते
लज्जा भी न ीिं आती।'
दस
ू रे व्यल्क्त ने क ी - 'लज्जा की कौन बात ै ? वेश्या की लड़की अगर वेश्या
ो, तो आश्चयय की क्या बात ै ?'
नवयव
ु क ने घण
ृ ापूणय स्वर में क ा - 'ठीक ोगा, आप जैसे बवु ्ध मान व्यल्क्तयों
की समझ में ! ल्जस रमणी के मुख से ऐसे ववचार तनकल सकते ैं , व दे वी ै,
रूप बेचनेवाली न ी।'
श्र्ध ा उसी समय सभा से जा र ी थी। य अल्न्तम शब्द उसके कानों में पड़
गए।
व ववल्स्मत और पल
ु ककत ोकर व ीिं हठठक गई, काले नवयव
ु क की ओर
कृतञा ता-पण
ू य दृल्ष्ट से तन ारा और कफर बड़ी तेजी से आगे बढ गई लेककन
रास्ते-भर उसके कानों में उन् ीिं शब्दों की प्रततध्वतन गूँज
ू ती र ी।
अब तक श्र्ध ा की प्रशिंसा करने वाली, उसे उतसाह त करने वाली केवल उसी की
माूँ कोककला थी। और चारों ओर व ी उपेक्षा थी, व ी ततरस्कार! आज एक
अपररधचत, काले ककन्तु गौर हृदय वाले खद्दरिारी नवयुवक व्यल्क्त के मुख का
धचतत बराबर उसकी आूँखों के सामने नाचा करता। मन में प्रश्न उठता - 'व
कौन ै ? क्या कफर कभी उसके दशयन ोंगे?'
सभा का हदन आ प ु ूँचा। श्र्ध ा मन- ी-मन भयभीत ोती ु ई सभा-मिंडप में
घुसी। ॉल भरा ु आ था और प ले हदन से भी अधिक भीड़ थी। श्र्ध ा को दे खते
ी जनता ने ताभलयाूँ पीटकर उसका स्वागत ककया। कोला ल ोने लगा और
सभी एक स्वर में धचकला उठे - 'आप अपनी वक्तत
ृ ा शुरू करें ।'
नवयव
ु क ने क ा - 'मैं ककस लायक ू ूँ , मैं ी न ीिं, सारी सभा भसर िन
ु र ी थी।'
नवयुवक ने क ा- 'जी ाूँ, य ाूँ मैं एम॰ ए॰ में पढ र ा ू ूँ। य ऊूँच-नीच का भूत
न जाने कब तक मारे भसर पर सवार र े गा। अभाग्य से मैं भी उन लोगों में ू ूँ ,
ल्जन् ें सिंसार नीच समझता ै । मैं जातत का चमार ू ूँ , मेरे वपता स्कूल के
इिंस्पेक्टर के य ाूँ अदय ली थे। उनकी भसफाररश से स्कूल में भती ो गया। तब से
भाग्य से लड़ता-भभड़ता चला आ र ा ू ूँ। प ले तो स्कूल के मास्टर मझ
ु े छूते ी
न थे। व ालत तो अब न ीिं र ीिं ककन्तु लड़के अब भी मुझसे खखिंचे र ते ै।'
नवयव
ु क ने क ा - 'ब ु त अच्छी तर से मालम
ू ै , यहद आप अपनी माताजी के
दशयन करवा सकें, तो आपका बड़ा आभारी ोऊूँगा।'
एक साल बीत गया। भगतराम रोज दे वी के दशयन को जाता। दोनों घिंटों बैठे
बातें ककया करते। श्र्ध ा कुछ भाषण करती, तो भगतराम सब काम छोड़कर सुनने
जाता। उनके मनसूबे एक थे, जीवन के आदशय एक, रूधच एक, ववचार एक।
भगतराम अब प्रेम और उसके र स्यों की माभमयक वववेचना करता। उसकी बातों
में 'रस' और 'अलिंकार' का कभी इतना सिंयोग न ु आ था। भावों को इिंधगत करने
में उसे कमाल ो गया था लेककन ठीक उन अवसरों पर, जब श्र्ध ा के हृदय में
गुदगुदी ोने लगती, उसके कपोल उकलास से रिं ल्जत ो जाते, भगतराम ववषय
पलट दे ता और जकदी से कोई ब ाना बनाकर व ाूँ से खखसक जाता। उसके चले
जाने पर श्र्ध ा सरत के आूँसू ब ाती और सोचती - 'क्या इन् ें हदल में मुझे प्रेम
न ीिं?'
भगतराम ने भसर ह लाकर क ा - 'अम्माूँ, जरा परीक्षा में पास ो जाने दो,
जीववका का प्रश्न ल ो जाने के बाद ी वववा शोभा दे ता ै।'
'य सब तम्
ु ारा ी ै , क्या मैं साथ बाूँिकर ले जाऊूँगी?'
'य आपकी कृपा ै , अम्माजी, पर इतना तनलयज्ज न बनाइए। मैं तो आपका ो
चक
ु ा, अब तो आप दत
ु कारें भी तो इस द्वार से न ीिं टल सकता। मझ
ु जैसा
भाग्यवान सिंसार में और कौन ै , लेककन दे वी के मिंहदर में जाने से प ले कुछ
पान-फूल तो ोना ी चाह ए।'
साल-भर और गज
ु र गया। भगतराम ने एम॰ ए॰ की उपाधि ली और अपने ी
ववद्यालय में अथयशास्त्र का अध्यापक ो गया। उस हदन कोककला ने खूब दान-
पुण्य ककया। जब भगतराम ने आकर उसके पैरों पर भसर झुकाया तो उसने उसे
छाती से लगा भलया। उसे ववश्वास था कक आज भगतराम वववा के प्रश्न को
जरूर छे ड़ेगा। श्र्ध ा प्रतीक्षा की मूततय बनी ु ई थी। उसका एक-एक अिंग मानो सौ-
सौ तार ोकर प्रततध्वतनत ो र ा था। हदल पर नशा छाया ु आ था। पाूँव
जमीन पर न पड़ते थे। भगतराम को दे खते ी माूँ से बोली - 'अम्माूँ, अब मको
एक ककी-सी मोटर ले दील्जएगा।'
कोककला ने मस्
ु कराकर क ा -' ककी-सी क्यों? भारी-सी ले लेना, प ले कोई
अच्छा-सा मकान तो ठीक कर लो।'
श्र्ध ा भगतराम को अपने कमरे में बुला ले गई। दोनों बैठकर नए मकान की
सजावट के मनसूबे बाूँिने लगे। परदे , फशय, तस्वीरें सबकी व्यवस्था की गई।
भगतराम ने भसर खज
ु लाते ु ए क ा - 'अम्माूँजी, मैं तो ाल्जर ू ूँ लेककन घर
वाले ककसी तर राजी न ीिं ोते। जरा फुरसत भमले, तो घर जाकर राजी कर लूँ ।ू
माूँ-बाप को नाराज करना भी तो अच्छा न ीिं! '
चौिरी ने क ा -'क्या लड़की का बाप मर गया ै ? उसका क्या नाम था? क ाूँ का
र ने वाला ै , कुल-मरजाद कैसा ै , जब तक य सारी बातें मालूम न ो जाए,
तब तक बया कैसे ो सकता ै ! क्यों बच्चा की अम्माूँ?
चौिरी ने क ा - 'य ाूँ ककस मु कले में र ती ै माूँ-बेटी? सारा श र मारा छाना
पड़ा ै , म य ाूँ कोई बीस साल र े ोंगे , क्यों बच्चा की अम्माूँ?'
चौिराइन ने क ा -'लक
ू ा लगा दूँ ग
ू ी मूँु में रािंड़ के! रुप-रिं ग दे खकर के लभ
ु ा गए
क्या?'
भगतराम ने क ा - 'मैं तो इसे अपना भाग्य समझता ू ूँ कक व अपनी लड़की
की शादी मेरे साथ करने को राजी ै । अगर व आज चा े , तो ककसी बड़े-से-बड़े
रईस के घर में शादी कर सकती ै ।'
चौिरी ने क ा -' म तो गूँवार आदमी ै , पर समझ में न ीिं आता कक तुम् ारी
य तनयत कैसे ु ई? रिं ड़ी की बेटी चा े इन्दर की परी ो, तो भी रिं ड़ी की बेटी ै।
म तम्
ु ारा वववा व ाूँ न ोगे दें गे। अगर तम
ु ने वववा ककया, तो म दोनों
तम्
ु ारे ऊपर अपनी जान दे दें गे, इतना अच्छी तर से समझ लेना - क्यों बच्चा
की अम्माूँ?'
कोककला ने क ा -'मैं तो तझ
ु से क चक
ु ी कक उनका भममाज न ीिं र ा। कफर भी
तो तू न ीिं मानती, आखखर इस टालमटोल की कोई द भी ै।'
कोककला का मुख तमतमा उठा कफर बोली -' ाूँ, क्यों राजी ोंगे? म लोग उनसे
भी नीच ै न, लेककन जब तम
ु उनकी इच्छा के दास थे, तो तम्
ु ें उनसे पछ
ू कर
य ाूँ आना-जाना चाह ए था। इस तर मारा अपमान करके तम्
ु ें क्या भमला?
यहद मुझे मालूम ोता कक तुम अपने माूँ-बाप के इतने गुलाम ो, तो य नौबत
ी का े को आती?'
ववनीत भाव से बोली -'अम्माूँजी, माूँ-बाप की मरजी का गुलाम ोना कोई पाप
न ीिं ै । अगर मैं आपकी उपेक्षा करूूँ, तो क्या आपको दःु ख न ोगा? य ी ाल
उन लोगों का भी तो ोगा।'
ू ूँ , तम्
ु ारे भलए मैं सब कुछ करूूँगी - सब कुछ।'
चौिराइन ने क ा - 'राम का नाम लेकर ब्या करो, ब ु त ोगा रोटी पड़ जाएगी,
पाूँच बीसी में तो रोटी ोती ै , कौन छप्पन टके लगते ै । प ले में शिंका ोती
थी कक पतुररया की लड़की जाने कैसी ो, कैसी न ो, पर अब सारी शिंका भमट
गई।'
चौिरी ने क ा -'जब बातें करती ै , तो मालूम ोता ै , मूँु से फूल झड़ते ै ।'
चौिराइन ने क ा -'मैं तो उसकी माूँ को बखारती ू ूँ, ल्जसकी कोख में ऐसी
लक्ष्मी जनमी।'
चौिरी ने क ा - 'तो कफर पाउडर मिंगाकर मूँु में पोत लो - गोरी ो जाओगी।
इिंस्पेक्टर सा ब की मेम भी तो रोज पाउड़ लगाती ै , रिं ग तो साूँवला था, पर जब
पाउडर लगा लेती ै तो मूँु चमकने लगता ै ।'
चौिरी ने क ा -'तो कल मूँु -अूँिेरे चल दें , अगर क ीिं श्र्ध ा आ गई तो कफर गला
न छोड़ेगी। बच्चा से क दें गे कक पिंडडत से सायत-भमतत सब ठीक कर लो।' कफर
ूँसकर क ा - 'उन् ें तो आप ी जकदी ोगी।'
चौिराइन भी परु ाने हदन याद करके मस्
ु कराने लगी।
ज्यों-ज्यों वववा की हदन समीप आता था, भगतराम की बनावटी उमिंग भी ठिं डी
पड़ती जाती थी। जब चार हदन र गए, तो उसे कका-सा ज्वर आ गया। व
श्र्ध ा के घर भी न जा सका। चौिरी और चौिराइन और अन्य बबरादरी के लोग
भी आ प ु ूँचे थे, ककन्तु सब-के-सब वववा की िुन में इतने मस्त थे कक ककसी
का भी ध्यान उसकी ओर न गया।
दस
ू रे हदन भी व घर से न तनकल सका। श्र्ध ा ने समझा कक वववा की रीततयों
से छुट्टी न भमली ोगी। तीसरे हदन चौिराइन भगतराम को बल
ु ाने गई, तो दे खा
कक व स मी ु ई ववस्फाररत आूँखों से कमरे में एक कोने की ओर दे खता ु आ
दोनों ाथ सामने ककए, पीछे ट र ा ै , मानो अपने को ककसी के वार से बचा
र ा ो।
भगतराम के मख
ु पर पागलों-जैसी अचेतना थी। आूँखों में भय छाया ु आ था।
भीत स्वर में बोला - 'न ीिं अम्माूँजी, दे खो, व श्र्ध ा चली आ र ी ै ! दे खो, उसके
दोनों ाथों में दो काली नाधगनें ै, व मुझे उन नाधगनों से डसवाना चा ती ै!
अरे अम्माूँ! व नजदीक आ गई, श्र्ध ा? श्र्ध ा! तुम मेरी जान की क्यों बैररन ो
गई? क्या मेरे असीम प्रेम का य ी पररणाम ै ? मैं तो तुम् ारे चरणों पर बभल
ोने के भलए सदै व ततपर था। इस जीवन का मक
ू य ी क्या ै ! तम
ु इन नाधगनों
को दरू फेंक दो। मैं य ाूँ तम्
ु ारे चरणों पर लेटकर य जान तम
ु पर न्योछावर
कर दूँ ग
ू ा। ै , ैं, तुम न मानोगी!'
य क कर व धचतत धगर पड़ा। चौिराइन ने लपककर चौिरी को बुलाया। दोनों
ने भगतराम को उठाकर चारपाई पर भलटा हदया। चौिरी की ध्यान ककसी आसेब
की ओर गया। व तुरन्त ी लौंग और राख लेकर आसेब उतारने का आयोजन
करने लगे! स्वयिं मिंत्र-तिंत्र में तनपण
ु थे। भगतराम का सारा शरीर ठिं डा था,
ककन्तु भसर तवे की तर तप र ा था।
रात को भगतराम कई बार चौंककर उठा। चौिरी ने र बार मिंत्र फूूँककर अपने
ख्याल से आसेब को भगाया।
चौिराइन ने क ा - 'कोई डॉक्टर क्यों न ीिं बुलाते? शायद दवा से कुछ फायदा
ो। कल ब्या और आज य ाल।'
चौिरी ने तनःशिंक भाव से क ा -'डॉक्टर आकर क्या करे गा, व ी पीपलवाले बाबा
तो ै , दवा-दारू करना और उनसे और रार बढाना ै । रात बीत जाने दो। सबेरा
ोते ी एक बकरा और एक बोतल दारू उनकी भें ट की जाएगी, बस और कुछ
करने की जरूरत न ीिं। डॉक्टर बीमारी की दवा करता ै कक वा-बयार की?
बीमारी उन् ें कोई न ीिं ै , कुल के बा र ब्या करने ी से दे वता लोग रूठ गए
ै ।'
श्र्ध ा के मख
ु पर गाढी लाभलमा दौड़ गई। उसके आूँसू सख
ू गए। झक
ु ी ुई
गरदन तन गई। माथे पर बल पड़ गए। आूँखों में आतम-स्वाभभमान की झलक
आ गई। व क्षण भर व ाूँ खड़ी र ी और दस
ू रे ी क्षण नीचे आकर अपनी गाड़ी
में बैठ गई।
श्र्ध ा ने कुछ उततर न हदया। 'घर चलो,' य क कर कोककला भी गाड़ी में बैठ
गई।
असह्य शीत पड़ र ा था। आकाश में काले बादल छाए ु ए थे। शीतल वायु चल
र ी थी। माघ के अल्न्तम हदवस थे। वक्ष
ृ , पेड़-पौिे भी शीत से अकड़े ु ए थे।
हदन के आठ बज गए थे, अभी तक लोग रजाई के भीतर मूँु लपेटे ु ए थे।
लेककन श्र्ध ा का शरीर पसीने से भीगा ु आ था। ऐसा मालूम ोता था कक सूयय
की सारी उष्णता उसके शरीर के अिंगों में घुस गई ै । उसके ोंठ सूख गए थे,
प्यास से न ीिं, आिंतररक ििकती ु ई अल्ग्न की लपटों से। उसका एक-एक अिंग
उस अल्ग्न की भीषण आूँच से जला जा र ा था। उसके मख
ु से बार-बार जलती
रास्तें में कोई सवारी न भमली। श्र्ध ा थकी जा र ी थी। भसर से पाूँव तक पसीने
से न ाई ई थी! न मालम
ू ककतनी बार व ठोकर खाकर धगरी और कफर उठकर
दौड़ने लगी! उसके घुटनों से रक्त तनकल र ा था। साड़ी कई जग से फट गई
थी, मगर उस वक्त अपने तन-बदन की सुि तक न थी। उसका एक-एक रोआूँ
किंठ ो- ोकर ईश्वर से प्राथयना कर र ा था कक उस प्रातःकाल के दीपक की लौ
थोड़ी दे र और बची र े । उसके मूँु से एक बार 'श्र्ध ा' का शब्द सुनने के भलए
उसकी अन्तरातमा ककतनी व्याकुल ो र ी थी। केवल य ी एक शब्द सन
ु कर
कफर उसकी कोई भी इच्छा अपण
ू य न र जाएगी, उसकी सारी आशाएूँ सफल ो
जाएगी, सारी साि पूणय ो जाएगी।
***
प्रेम का उदय
भोंद ू पसीने में तर, लकड़ी का एक गट्ठा भसर पर भलए आया और उसे जमीन पर
पटककर बिंटी के सामने खड़ा ो गया, मानो कुछ पछ
ू र ा ो - क्या अभी तेरा
भमजाज ठीक न ीिं ू आ?
भोंद ू प्रातःकाल घर से तनकला था। दोप री उसने एक पेड़ की छाूँ में काटी थी।
समझा था - इस तपस्या से दे वीजी का मूँु सीिा ो जाएगा, लेककन आकर दे खा
तो व अब भी कोप भवन में थी।
भोंद ू ने बातचीत छे ड़ने के इरादे से क ा - लो, एक लोटा पानी दे दो, बड़ी प्यास
लगी ैं, मर गया सारे हदन, बाजार जाऊूँगा तो तीन आने से बेसी न भमलें गे, दो-
चार सािंडे भमल जाते, तो मे नत सफ
ु ल ो जाती।
भोंद ू ने भूँवे भसकोडकर क ा - क्या िरम-िरम बकती ैं! िरम करना ूँसी-खेल
न ीिं ैं, िरम व करता ैं , ल्जसे भगवान ने माना ो, म क्या खाकर िरम करें ,
भर-पेट चबेना तो भमलता न ीिं, िरम करें गे।
बिंटी ने अपना वार ओछा पड़ता दे खकर चोट पर चोट की - सिंसार में कुछ ऐसे
म ातमा ैं , जो अपना पेट चा े न भर सकें, पर पड़ोभसयों को नेवता दे ते कफरते ैं ,
न ीिं तो सारे हदन बन-बन लकड़ी न तोड़ते-कफरते, ऐसे िरमातमा लोगों को
मे ररया रखने की क्यों सझ
ू ती ैं, य मेरी समझ में न ीिं आता, िरम की गाड़ी
क्या अकेले न ीिं खीिंचती बनती?
भोंद ू इस चोट से ततलभमला गया। उसकी ल्ज रदार नसें तन गई, माथे पर बल
पड़ गए। इस अबला का मूँु व एक डपट में बन्द कर सकता था, पर डाूँट-डपट
उसने न सीखी थी। ल्जसके पराक्रम की सारे किंजड़ों में िूम थी, जो अकेला सौ-
पचास जवानों का नशा उतार सकता था, व इस अबला के सामने चूँू तक न
कर सका।
भोंद ू दबी जबान में बोला - मे ररया िरम बेचने के भलए न ीिं लाई जाती, िरम
पालने के भलए लाई जाती ैं।
सारी बस्ती एक साथ चलती थी। आपस में ी शादी-ब्या , लेने-दे ने, झगड़े-टिं टे
ोते र ते थे, इस दतु नया के बा र वाला अखखल सिंसार उनके भलए केवल भशकार
का मैदान था। उनके ककसी इलाके में प ु ूँचते ी व ाूँ की पुभलस तुरन्त आकर
अपनी तनगरानी में ले लेती थी। पड़ाव के चारों तरफ चौकीदार का प रा ो
जाता था। स्त्री या पुरुष ककसी गाूँव में जाते तो दो-चार चौकीदार उनके साथ ो
लेते थे। रात को भी उनकी ाल्जरी ली जाती थी। कफर भी आस-पास के गाूँव में
आतिंक छाया ु आ था। किंजड़ लोग ब ु िा घरों में घुसकर जो चीज चा ते, उठा
लेत,े उनके ाथ में जाकर कोई चीज लौट न सकती थी, रात में ये लोग अकसर
चोरी करने तनकल जाते थे। चौकीदारों को उनसे भमले र ने में ी अपनी कुशल
दीखती थी, कुछ ाथ में लगता था और जान भी बची र ती थी, सख्ती करनें में
प्राणों का भय था, कुछ भमलने का तो ल्जक्र ी क्या क्योंकक किंजड़ लोग एक
सीमा के बा र ककसी का दबाव न मानते थे। बस्ती में अकेला भोंद ू अपनी
मे नत की कमाई खाता था, उसकी स्वतिंत्र आतमा अपने बा ु बल से प्राप्त ककसी
वस्तु का ह स्सा दे ना स्वीकार न करती थी इसभलए व य नौबत आने न दे ता
था।
बिंटी ववचभलत न ोकर बोली - जब और लोग न ीिं पकड़े जाते, तो तुम् ीिं पकड़े
जाओगे?
'और लोग पभु लस को भमला लेते ैं, थानेदार के पाूँव स लाते ैं, चौकीदार की
खश
ु ामद करते ैं, तू चा ती ैं, मैं भी औरों की तर सबकी धचरौरी करता कफरूूँ?'
बिंटी ने अपनी ठ न छोड़ा - मैं तुम् ारे साथ सती ोने न ीिं आई, कफर तुम् ारे
छुरे -गिंडासे से कोई क ाूँ तक डरे , जानवर को भी जब घास-भस
ू ा न ीिं भमलता, तो
पग ा तड़
ु ाकर ककसी के खेत में पैठ जाता ैं, मैं तो आदमी ू ूँ।
सय
ू ायस्त ो गया, उसने दे खा, उसका गिा चरकर चप
ु चाप भसर झक
ु ाए चला आ
र ा ैं, भोंद ू ने कभी उसके खाने-पीने की धचन्ता न की थी क्योंकक गिा ककसी
और को अपना स्वामी बनाने की िमकी न दे सकता था। भोंद ू ने बा र आकर
आज गिे को पुचकारा, उसकी पीठ स लाई और तुरन्त उसे पानी वपलाने के
भलए डोल और रस्सी लेकर चल हदया।
इसके दस
ू रे ी हदन कस्बे में एक िनी ठाकुर के घर चोरी ो गई, उस रात को
भोंद ू अपने डेरे पर न था। बिंटी ने चौकीदार से क ा - व जिंगल से न ीिं लौटा।
प्रातःकाल भोंद ू आ प ु ूँचा, उसकी कमर में रुपयों की एक थैली थी, कुछ सोने के
ग ने भी थे। बिंटी ने तुरन्त ग नों को ले जाकर एक वक्ष
ृ की जड़ में गाड़ हदया,
रूपयों की क्या प चान ो सकती थी।
भोंद ू ने पूछा - अगर कोई पूछे, इतने रुपये क ाूँ भमले, तो क्या क ोगी?
'आज भोंदआ
ु की खाततर ो र ी ैं, न ीिं तो कभी एक लुहटया पानी दे ने भी न
उठती थी।'
बिंटी ने पछ
ू ा - 'अब भोजन करने के जन
ू क ाूँ चले?'
बिंटी भोजन पकाकर अपना बनाव-भसिंगार करने लगी, आज उसे अपना जीवन
सफल जान पड़ता था। आनन्द से खखली जाती थी। आज जीवन में प ली बार
उसके भसर में सग
ु िंधित तेल पड़ा था। आईना उसके पास एक अिंिा-सा पड़ा ु आ
था। आज व नया आईना लाई थी। उसके सामने बैठकर उसने अपने के श
सिंवारे , मूँु पर उबटन मला, साबुन लाना भूल गई थी, सा ब लोग साबुन लगाने
से ी तो इतने गोरे ो जाते ै । साबुन ोता, तो उसका रिं ग कुछ तो तनखर
जाता। कल व अवश्य साबुन की कई बहटयाूँ लाएगी और रोज लगाएगी, केश
गूँथ
ू कर उसने माथे पर अलसी का लुआब लगाया, ल्जसमें बाल और न बबखरने
पाए। कफर पान लगाया, चूना ज्यादा ो गया था, गलफड़ों में छाले पड़ गए
लेककन उसने समझा शायद पान खाने का य ी मजा ै । आखखर कड़वी भमचय भी
तो लोग मजे से खाते ै । गुलाबी साड़ी प न और फूलों का गजरा गले में
डालकर उसने आईने में अपनी सूरत दे खी, तो उसके आबनूसी रिं ग पर लाली दौड़
गई, आप ी आप लज्जा से उसकी आूँखें झुक गई। दररद्रता की आग से नारीतव
भी भस्म ो जाता ै , नारीतव की लज्जा का क्या ल्जक्र, मैले-कुचैले कपड़े
प नकर लज्जाना ऐसा ी ै , जैसे कोई चबैने में सग
ु न्ि लगाकर खाए।
बिंटी सारी रात भोंद ू के इिंतजार में उद्ववग्न र ी, ज्यों-ज्यों रात बीतती थी, उसकी
शिंका तीव्र ोती जाती थी, आज ी उसके वास्तववक जीवन का आरम्भ ु आ था,
और आज ी य ाल।
बिंटी थाने प ु ूँची तो पसीने में तर थी और दम फूल र ा था। उसे भोंद ू पर दया
न थी, क्रोि आ र ा था। सारा जमाना य ी काम करता ै और चैन की बिंसी
बजाता ै । उन् ोंने क ते-क ते ाथ भी लगाया, तो चूक गए। न ीिं स ू र था तो
साफ क दे त,े मझ
ु से य काम न ोगा, मैं य थोड़े ी क ती थी कक आग में
फािंद पड़ो।
बिंटी ने े कड़ी जताई - ' ाूँ- ाूँ, पकड़ लो, य ाूँ ककसी से न ीिं डरते, जब कोई काम
ी न ीिं करते, तो डरें क्यों।' अफसर और मात त सभी की अनुरक्त आूँखें बिंटी
की ओर उठने लगी, भोंद ू की तरफ से हदल कुछ नमय ो गए, उसे िप
ू से छाूँ में
बैठा हदया गया, उसके दोनों ाथ पीछे बूँिे ु ए थे और िल
ू -िस
ू ररत काली दे
पर भी जूतों और कोड़ो की रक्तमय मार साफ नजर आ र ी थी। उसने एक
बार बिंटी की ओर दे खा, मानो क र ा था - 'दे खना, क ीिं इन लोगों के िोखे में
न आ जाना।'
थानेदार ने कठोर स्वर में क ा - ' ाूँ- ाूँ, जो कुछ कोर-कसर र गई ो, व पूरी
कर दे , ककरककरी न ोने पाए मगर इन बैठकबाल्जयों से बच न ीिं सकते। अगर
एकबाल न ककया, तो तीन साल को जाओगे, मेरा क्या बबगड़ता ै । अरे छोटे भसिं ,
जरा लाल भमचय की िन
ू ी तो दो इसे। कोठरी बन्द करके पसेरी-भर भमचे सल
ु गा
दो, अभी माल बरामद ु आ जाता ै ।'
भोंद ू की नाक, आूँख और मूँु से पानी जारी था, भसर चक्कर खा र ा था, गले की
आवाज बन्द-सी ो गई थी, पर व वाक्य सुनते ी व सचेत ो गया, उसकी
दोनों महु ट्ठयाूँ बिंि गई कफर बोला -'क्या क ा?'
'क्या क ा, चोरी खल
ु गई दारोगाजी माल बरामद करने गए ु ए ै । प ले की
एकबाल कर भलया ोता, तो क्यों इतनी सािंसत ोती?'
थाने से तनकलकर बिंटी ने सोचा, अब क ाूँ जाऊूँ। भोंद ू उसके साथ ोता तो व
पड़ोभसयों के ततरस्कार को स लेती, इस दशा में उसके भलए अपने घर जाना
असम्भव था। वे दोनों अिंगारों-सी आूँखें उसके हृदय में चुभी जाती थीिं लेककन
कल की सौभाग्य-ववभूततयों का मो उसे डेरे की ओर खीिंचने लगा। शराब की
बोतल अभी भी भरी िरी थी, फुलौडड़याूँ छीिंके पर ाड़ी में िरी थी। व तीव्र
लालसा, जो मतृ यु को सम्मख
ु दे खकर भी सिंसार के भोग्य पदाथों की ओर मन
को चलायमान कर दे ती ै , उसे खीिंचकर डेरे की ओर ले चली।
उसने कफर सोचा - 'क्या ककसी तर न छोड़ेगा? व रोती ु ई उसके पैरों पर धगर
पड़ेगी, क्या तब भी न छोड़ेगा? इन आूँखों की व ककतनी सरा ना ककया करता
था, इनमें आूँसू ब ते दे खकर भी उसे दया न आएगी?'
बिंटी ने चक्
ु कड में शराब उिं डेलकर पी ली और छीिंके से फुलौडड़याूँ उतारकर खाई,
जब उसे मरना ी ै , तो साि क्यों र जाए। व अिंगारें -सी आूँखें उसके सामने
चमक र ी थीिं। दस
ु रा चुक्कड़ भरा और पी गई। ज रीला ठराय, ल्जसे दोप र की
गमी ने और भी घातक बना हदया था, दे खते-दे खते उसके मल्स्तक को खौलाने
लगा। बोतल आिी ो गई थी।
उसने सोचा - भोंद ू क े गा, तूने इतनी दारू क्यों पी, तो व क्या क े गी। क दे गी
- ाूँ पी, क्यों न पीए। इसी के भलए तो व सब कुछ ु आ। व एक बूिंद भी न
छोड़ेगी। जो ोना ो, ो। भोंद ू उसे मार न ीिं सकता, इतना तनदय यी न ीिं ै , इतना
कायर न ीिं ै । उसने कफर चक्
ु कड़ भरा और पी गई। पाूँच वषय के वैवाह क जीवन
की अतीत स्मतृ तयािं उसकी आूँखों के सामने खखिंच गई। सैकड़ों ी बार दोनों में
ग ृ -यु्ध ु ए थे। आज बिंटी को र बार अपनी ज्यादती मालम
ू ो र ी थी।
बेचारा जो कुछ कमाता ै . उसी के ाथ पर रख दे ता ै । अपने भलए कभी एक
पैसे की तम्बाकू भी लेता, तो पैसा उसी से माूँगता ै । भोर से साूँझ तक वन-वन
कफरा करता ै ! जो काम उससे न ीिं ोता, व कैसे करे ।
अचानक एक कािंस्टे बल ने आकर क ा - 'अरी बिंटी क ाूँ ै ? चल दे ख, भोंदआ
ू का
ाल-बे- ाल ो र ा ै । अभी तक तो चप
ु चाप बैठा था, कफर न जाने क्या जी में
आया कक एक पतथर पर अपना भसर पटक हदया। ल ू ब र ा ै । अगर म
लोग दौड़कर पकड़ न लेते, तो जान ी दे दी थी।'
एक म ीना बीत गया था। सिंध्या का समय था। काली-काली घटाएूँ छाई थीिं और
मूसलािार वषाय ो र ी थी। भोंद ू की भसरकी अब भी तनजयन स्थान पर खड़ी थी।
भोंद ू खटोली पर पड़ी ु आ था। उसका च े रा पीला पड़ गया था और दे जैसे
सूख गई थी। व सशिंक आूँखों से वषाय की ओर दे खता ै । चा ता ै उठकर
बा र दे खू,ूँ पर उठा न ीिं जाता।
बिंटी भसर पर घास का एक बोझ भलए पानी में लथ-पथ आती हदखलाई दी। व ी
गुलाबी साड़ी ै पर तार-तार, ककन्तु च े रा प्रसन्न ै । ववषाद और ग्लातन के बदले
आूँखों से अनुराग टपक र ा ै , गतत में व चपलता, अिंगों में सजीवता ै , जो
धचतत की शाल्न्त का धचह्न ै । भोंद ू ने क्षीण स्वर से क ा - 'तू इतना भीग र ी
ै , क ीिं बीमार पड़ गई, तो कोई एक घिंट
ू पानी दे नेवाला भी न र े गा। मैं क ता
ू ूँ , तू क्यों इतना मरती ै , दो गट्ठे तो बेच चुकी थी, तीसरा गट्ठा लाने का काम
क्या था, य ािंड़ी में क्या लाई ै ?'
भोंद ू ने जोर लगाकर खटोली से उठा, आूँचल के नीचे तछपी ुई ािंड़ी खोल दी
और उसके भीतर नजर डालकर बोला - 'अभी लौटा, न ीिं तो मैं ािंड़ी फोड़
दूँ ग
ू ा।'
बिंटी ने खटोली पर लेटते ु ए क ा - 'जरा आईने में सरू त दे खो, घी-दि
ू कुछ न
भमलेगा, तो कैसे उठोगे? कक सदा खाट पर सोने का ववचार ै ?'
***
सिी
मुभलया को दे खते ु ए उसका पतत ककलू कुछ भी न ीिं ैं, कफर क्या कारण ैं कक
मुभलया सन्तुष्ट और प्रसन्न ैं और ककलू धचल्न्तत और सशिंककत?
राजा बोला - मैंने दे खी ैं, तभी तो लाया ू ूँ, तुम् ारे लायक न ीिं ैं, भैया को
ककफायत भी सूझती ैं, तो ऐसी बातों में ।
राजा ने क ा - इसमें पछ
ू ने की कौन-सी बात ैं, जब व काम पर चला जाए,
प न लेना, मैं भी दे ख लूँ ग
ू ा।
मभु लया ठट्ठा मारकर ूँसती ु आ बोली - य न ोगा दे वरजी। क ीिं दे ख लें , तो
मेरी सामत ी आ जाए, इसे तम
ु भलए जाओ।
ु ए।
ु आ, इसमें ववश्वासघात की क्या बात ैं, कौन व राजा से कुछ बोली? जरा-सा
ूँस दे ने से अगर ककसी का हदल खश
ु ो जाता ैं, तो इसमें बरु ाई क्या ैं?
ककलू ने भूँवें भसकोड़कर क ा - उसे अन्दर मत आने हदया करो, अच्छा आदमी
न ीिं ैं।
भसर झक
ु ाकर बोली - मैं ककसी के मन का ाल क्या जानूँू?
व्ध
ृ ा क ती ैं - ाूँ, तूने छूरी-कटार से न ीिं मारा, उस हदन तेरा तप छीन ो गया
और इसी से व मर गया।
मुभलया ने चौकन्नी आूँखें खोल दी, सामने आूँगन में ककलू सोया ु आ था, व
दौड़ी ु ई उसके पास गई और उसकी छाती पर भसर रखकर फूट-फूटकर रोने
लगी।
ककलू ने घबराकर पूछा - कौन ैं? मुभलया! क्यों रोती ैं? क्या डर लग र ा ैं , मैं
तो जाग ी र ा ू ूँ।
मुभलया ने क ा - राजा तमाखू माूँगने न ीिं आया था, मैंने तुमसे झूठ क ा था।
ककलू ने मुभलया को खौलते तेल में डाल हदया ोता, तो भी उसे इतनी पीड़ा न
ोती।
मभु लया उसकी दशा दे ख-दे खकर अन्दर- ी-अन्दर कुढती थी, व उस बात को
हदल से तनकाल दे ना चा ती थी, इसभलए उसकी सेवा और मन लगा कर करती।
उसे प्रसन्न करने के भलए बार-बार प्रयतन करती। पर व ल्जतना ी उसको
खीिंचने की चेष्ठा करती थी, उतनी ी व उससे ववचलता था, जैसे कोई किंहटए में
फूँसी ु ई मछली ो। कुशल य था कक राजा ल्जस अिंग्रेज के य ाूँ खानसामा था,
उसका तबादला ो गया और राजा उसके साथ चला गया, न ीिं तो दो भाईयों में
से ककसी-न-ककसी का खून जरूर ो जाता। इस तर साल-भर बीत गया।
रोग इतनी भयिंकरता से बढने लगा कक आवलों में मवाद पड़ गया और उनमें से
ऐसी दग
ु न्
य ि उड़ने लगी कक पास बैठते नाक फटती थी। दे ातों में ल्जस प्रकार
का उपचार ो सकता था, व मुभलया करती थी पर कोई लाभ न ोता था और
ककलू की दशा हदन-हदन बबगड़ती जाती थी। उपचार की कसर व अबला अपनी
स्ने मयी सेवा से परू ी करती थी, उस पर ग ृ स्थी चलाने के भलए अब मे नत-
मजूरी भी करनी पड़ती थी। ककलू तो अपने ककए का फल भोग र ा था, मुभलया
अपने कततयव्य का पालन करने में मरी जा र ी थी। अगर कुछ सन्तोष ोता, तो
य ककलू का भ्रम उसकी तपस्या से भिंग ोता जाता था, उसे ववश्वास ोने लगा
कक मुभलया अब भी उसी की ैं, व अगर ककसी तर अच्छा ो जाता, तो कफर
उसे हदल में तछपाकर रखता और उसकी पज
ू ा करता।
प्रातःकाल था। मुभलया ने ककलू का ाथ-मूँु िुलाकर दवा वपलाई और खड़ी पिंखा
डुला र ी थी कक ककलू ने आूँसू-भरी आूँखों से दे खकर क ा - मुभलया, मैंने उस
जन्म में कोई भारी तप ककया था कक तू मझ
ु े भमल गई, तम्
ु ारी जग मझ
ु े
दतु नया का राज भमले तो भी न लूँ ।ू
ककलू ने ठिं ड़ी साूँस खीिंचकर क ा - मैंने कुछ और ी समझ रखा था , न-जाने
मेरी मतत क ाूँ र गई थी, तुम् ें पाप लगाकर मैं आप पाप में फूँस गया और
उसका फल भोग र ा ू ूँ।
उसने रो-रोकर अपने दष्ु कमों का परदा खोलना शुरू ककया और मुभलया की आूँसू
की लडड़याूँ ब ाकर सुनने लगी, अगर पतत की धचन्ता न ोती, तो उसने ववष खा
भलया ोता।
ककलू ने पुकारा - मूला, थोडा ू़ पानी दे । मुभलया पानी लेकर दौड़ी, चलते-चलते
करनफूल को ऐसा ठुकराया कक आूँगन में जा धगरा।
मुभलया सीने पर भसर रखकर रोने लगी और उन्माद की दशा में उसके आ त
हृदय से रक्त की बूँद
ू ों के समान शब्द तनकलने लगे - तम
ु से इतना भी न दे खा
गया, भगवन! उस पर न्यायी और दयालु क लाते ो! इसीभलए तम
ु ने जन्म
हदया! य ीिं खेल खेलने के भलए! ाय नाथ! तुम तो इतने तनष्ठुर न थे! मुझे
अकेली छोड़कर चले जा र े ो! ाय! अब कौन मूला क कर पुकारे गा! अब
ककसके भलए कुूँए से पानी खीिंचूँग
ू ी! ककसे बैठाकर खखलाऊूँगी, पिंखा डुलाऊूँगी! सब
सुख र भलया, तो मुझे भी क्यों न ीिं उठा लेत!े
सारा गाूँव जमा ो गया। सभी समझा र े थे, मभु लया को िैयय न ोता था, य
सब मेरे ी कारण ु आ, य बात उसे न ीिं भल
ू ती। ाय! ाय! उसे भगवान ने
साम्यय हदया ोता, तो आज उसका भसरताज यों उठ जाता?
ककलू को मरे छः म ीने ो गए। मभु लया अपना कमाती ैं, खाती ैं और अपने
घर में पड़ी र ती ैं। हदन-भर काम-िन्िें से छुट्टी न ीिं भमलती, ाूँ, रात एकान्त
में रो भलया करती ैं।
उिर राजा की स्त्री मर गई, मगर दो-चार हदन के बाद व कफर छै ला बना घम
ू ने
लगा। और भी छूटा सािंड ो गया। प ले स्त्री से झगड़ा ो जाने का डर था, अब
व भी न र ा। अबकी नौकरी पर से लौटा, तो सीिे मुभलया के घर प ु ूँचा और
इिर-उिर की बातें करने के बाद बोला - भाभी, अब तो मेरी अभभलाषा पूरी
करोगी या अभी और कुछ बाकी ैं? अब तो भैया भी न ीिं र े , इिर मेरी घरवाली
भी भसिारी! मैंने तो उसका गम भल
ु ा हदया, तम
ु कब तक भैया के नाम को रोती
र ोगी?
मुभलया ने घण
ृ ा से उसकी ओर दे खकर क ा - भैया न ीिं र े तो क्या ु आ भैया
की याद तो ैं, उनका प्रेम तो ैं , उनकी सरू त तो हदल में ैं, उनकी बातें तो कानों
में ैं, तम्
ु ारे भलए औऱ दतु नया के भलए व न ीिं ैं, मेरे भलए व अब भी वैसे ी
जीते-जागते ैं, मैं अब भी उन् ें वैसे ी बैठे दे खती ू ूँ, प ले तो दे का अन्तर
था, अब तो व भी मुझसे और भी नगीच ो गए ैं, और ज्यों-ज्यों हदन बीतें गे
और भी नगीच ोते जाएूँगे। भरे -पूरे घर में दाने की कौन कदर करता ैं, जब घर
खाली ो जाता ैं, तब मालूम ोता ै कक दाना क्या ैं , पैसेवाले पैसे की कदर
क्या जाने, पैसे की कदर तब ोती ैं, जब ाथ खाली ो जाता ैं। तब आदमी
एक-एक कौड़ी दाूँत से पकड़ता ैं, तुम् ें भगवान ने हदल ी न ीिं हदया, तुम क्या
जानों, सो बत क्या ैं , घरवाली को मरे भी छः म ीने भी न ीिं ु ए और तुम सािंड
बन बैठे, तम
ु मर गए ोते, तो इसी तर व भी अब तक ककसी और के पास
चली गई ोती? मैं जानती ू ूँ कक मैं मर जाती, तो मेरा भसरताज जन्म-भर मेरे
नाम को रोया करता, ऐसे ी पुरुषों की ल्स्त्रयाूँ उन पर प्राण दे ती ैं। तुम-जैसे
सो दों के भाग पततल चाटना भलखा ैं , चाटो, मगर खबरदार, आज से मेरे घर में
पाूँव न रखना, न ीिं तो जान से ाथ िोओगे! बस तनकल जाओ।
उसके मुख पर ऐसा तेज, स्वर में इतनी कटुता थी कक राजा को जबान खोलने
का भी सा स न ु आ, चुपके से तनकल भागा।
***
मि
ृ क-िोज
सश
ु ीला ने आूँसू पोंछकर क ा - ल्जद्दी ो गया ैं और क्या, आज सबेरे से रट
लगाए ु ए ैं कक मैं मोटर लूँ ग
ू ा, 5 रुपए से कम में आएगी मोटर?
सेठजी को इिर कुछ हदनों से दोनों बालकों पर ब ु त स्ने ो गया था, उसने
क ा - तो मूँगा दो न एक, बेचारा कब से रो र ा ैं, क्या-क्या अरमान हदल में
थे। सब िल
ू में भमल गए। रानी के भलए ववलायती गडु ड़या भी मूँगा दो। दस
ू रों
के खखलौने दे खकर तरसती र ती ैं, ल्जस िन को प्राणों से भी वप्रय समझा, व
अन्त में डॉक्टरों ने खाया, बच्चे मुझे क्या याद करें गे कक बाप था, अभागे बाप ने
तो िन को लड़के-लड़की से वप्रय समझा, कभी एक पैसे की चीज भी लाकर न ीिं
दी।
सेठजी ने पछ
ू ा - मोटर लोगे बेटा, अपनी अम्माूँ से रुपए लेकर भैया के साथ
चले जाओ, खब
ू अच्छी मोटर आना।
िनी के जीने से दःु ख ब ु तों को ोता ैं, सुख थोडों को। उनके मरने से दःु ख
थोड़ों को ोता ैं , सुख ब ु तों को, म ाब्राह्मणों की मिंडली अलग सुखी ैं, पिंडडतजी
अलग खुश ैं और शायद बबरादरी के लोग भी प्रसन्न ैं, इसभलए कक एक बारबर
का आदमी कम ु आ, हदल से एक काूँटा दरू ु आ और पट्टीदारों का तो पूछना ी
क्या, अब व परु ानी कसर तनकालें गें। हृदय को शीतल करने का ऐसा अवसर
ब ु त हदनों के बाद भमला ैं।
आज पाूँचवाूँ हदन ैं , व ववशाल भवन सूना पड़ा ैं, लड़के न तो रोते ैं, न ूँसते
ैं, मन मारे माूँ के पास बैठे ैं और वविवा भववष्य की अपार धचन्ताओिं के भार
से दबी ु ई तनजीव-सी पड़ी ैं, घर में जो रुपए बच र े थे, वे दा -कक्रया की भें ट
ो गए और अभी तो सारे सिंस्कार बाकी पड़े ैं , भगवान! कैसे बेड़ा पार लगेगा।
य सोचती ु ई सुशीला घघ
ूूँ ट तनकाले बरोठे में आकर खड़ी ो गई, दे खा तो
िनीरामजी के अततररक्त और भी कई सज्जन खड़े ैं।
िनीराम ने क ा - तो य नई समस्या खड़ी ु ई ैं, ऐसी दशा में में क्या करना
चाह ए, कुबेरदासजी?
कुबेरदास ने क ा - जैसे ो, भोज तो करना ी पड़ेगा। ाूँ, अपनी साम्यय दे खकर
काम करना चाह ए। मैं कजय लेने को न क ू ूँगा, ाूँ, घर में ल्जतने रुपयों का
प्रबन्ि ो सके, उसमें में कोई कसर न छोड़नी चाह ए, मत
ृ -जीव के साथ भी
तो मारा कुछ कततयव्य ैं, अब तो व कफर कभी न आएगा, उससे सदै व के भलए
नाता टूट र ा ैं, इसभलए सब कुछ ै भसयत के मुताबबक ोना चाह ए, ब्राह्मणों
को तो दे ना ी पड़ेगा, ल्जससे कक मयायदा का तनवाय ो!'
िनीराम ने क ा - 'तो क्या तुम् ारे पास कुछ भी न ीिं ै , ब ू जी? दो-चार जार
भी न ीिं!'
सुशीला ने क ा - 'मैं आपसे सतय क ती ू ूँ , मेरे पास कुछ न ीिं ै , ऐसे समय
झूठ बोलूँ ग
ू ी।'
सश
ु ीला ने भयभीत ोकर क ा -'भैया की बातों का ववचार न कील्जए, इनकी तो
य आदत ै , मैंने तो आपकी बात न ीिं टाली, आप मेरे बड़े ै , घर का ाल
आपको मालूम ै । मैं अपने स्वामी की आतमा को दख
ु ी करना न ीिं चा ती,
लेककन बच्चे ठोकरें खाएूँगे, तो क्या उनकी आतमा दख
ु ी न ोगी? बेटी का ब्या
करना ी ै , लड़के को पढाना-भलखाना ै ी, ब्राह्मणों को खखला दील्जए लेककन
बबरादरी करने की मझ
ु में सामथय न ीिं ै ।' दोनों म ानभ
ु ावों को जैसे थप्पड़ लगा -
इतना बड़ा अिमय, भला ऐसी बात भी जबान से तनकाली जाती ै । पिंच लोग
अपने मूँु में काभलख न लगने दें गे। दतु नया वविवा को न ूँसेगी, ूँसी ोगी पिंचों
की, य जग- ूँसाई कैसे स सकते ैं, ऐसे द्वार पर झाूँकना भी पाप ै।
सुशीला रोकर बोली -'मैं अनाथ ू ूँ, नादान ू ूँ , मुझ पर क्रोि न कील्जए, आप लोग
ी मुझे छोड़ दें गे, तो मेरा कैसे तनवाय ोगा।'
इतने में दो म ाशय और आ बबराजे। एक ब ु त मोटे और दस
ू रे ब ु त दब
ु ले, नाम
भी गुणों के अनुसार ी - भीमचन्द और दब
ु ल
य दास। िनीराम ने सिंक्षेप में य
पररल्स्थतत उन् ें समझा दी। दब
ु ल
य दास ने सहृदयता से क ा - 'तो ऐसा क्यों न ीिं
करते कक म लोग भमलकर रुपए दे , जब इसका लड़का भसयाना ो जाएगा, तो
रुपए भमल ी जाएूँगे। अगर न भी भमलें तो एक भमत्र के भलए कुछ बल खा
जाना कोई बड़ी बात न ी।'
कुबेरदास अकड़ गए। व सुशीला के मकान पर दाूँत लगाए ु ए थे, ऐसी बातों से
उनके स्वाथय में बािा पड़ती थी। व अपने रुपए वसूल करके छोड़ेंगे।
सश
ु ीला ने दब
ु ल
य दास में सहृदयता का आभास दे खा। उनकी ओर दीन नेत्रों से
दे खकर बोली - 'मैं आप लोगों से बा र थोड़े ी ू ूँ , आप लोग माभलक ै , जैसा
उधचत समझें वैसा करें ।'
दब
ु ल
य दास ने क ा - 'तेरे पास कुछ थोड़े ब ु त ग ने तो ोंगे, बाई?'
' ाूँ ग ने तो ै , आिे तो बीमारी में बबक गए, आिे बचे ै ।' सुशीला ने सारे ग ने
लाकर पिंचों के सामने रख हदए। पर य तो मुल्श्कल से तीन जार में उठें गे।
दब
ु ल
य दास ने पोटली को ाथ में तौलकर क ा - 'तीन जार को कैसे आएूँगे, मैं
साढें तीन जार हदला दूँ ग
ू ा।'
सुशीला ने दोनों बालकों को सामने करके करब्ध ोकर क ा - 'पिंचों, मेरे बच्चों
का मूँु दे खखए, मेरे घर में जो कुछ ै, व आप सब ले लील्जए लेककन मकान
छोड़ दील्जए। मुझे क ीिं हठकाना न भमलेगा। मैं आपके पैरों पड़ती ू ूँ मकान इस
समय न बेच।े '
इस मूखत
य ा का क्या जवाब हदया जाए। पिंच लोग तो खुद चा ते थे कक मकान
न बेचना पड़े, उन् ें अनाथों से कोई दश्ु मनी न ीिं थी, ककन्तु बबरादरी का भोज और
ककस तर ककया जाए। अगर वविवा कम-से-कम पाूँच जार रुपए का जुगाड़
और कर दे , तो मकान बच सकता ै । पर व ऐसा न ीिं कर सकती, तो मकान
बेचने के भसवा और कोई उपाय न ीिं।
कुबेर ने अन्त में क ा - 'दे ख बाई, बाजार की दशा इस समय खराब ै । रुपए
ककसी से उिार न ीिं भमल सकते। बाल-बच्चों के भाग में भलखा ोगा, तो भगवान
और ककसी ीले से दे गा। ीले रोजी, ब ाने मौत, बाल-बच्चों की धचन्ता मत कर।
भगवान ल्जसको जन्म दे ते ै , उसकी जीववका की जुगत प ले ी से कर दे ते ै।
म तुझे समझाकर ार गए। अगर तू अब भी अपनी ठ न छोड़ेगी, तो म
बात भी न पूछेंगे कफर य ाूँ तेरा र ना मुल्श्कल ो जाएगा। श रवाले तेरे पीछे
पड़ जाएूँगे।'
िनीराम ने ' ाूँ- ाूँ' क कर ामी भरी। भीमचन्द मन में ऐिंठकर र गए। य
सौदा भी पक्का ो गया। आज ी वकील से बैनामा भलखा, तुरन्त रल्जस्री भी
ो गई। सुशीला के सामने बैनामा लाया गया, तो उसने ठिं ड़ी साूँस ली और सजल
नेत्रों से उस पर स्ताक्षर कर हदए। अब उसके भसवा और क ीिं शरण न ीिं ै,
बेवफा भमत्र की भाूँतत य घर भी सुख के हदनों में साथ दे कर दःु ख के हदनों में
उसका साथ छोड़ र ा ै।
पिंच लोग सुशीला के आूँगन में बैठे बबरादरी के रुक्के भलख र े ै और अनाथ
वविवा ऊपर झरोखे पर बैठी भाग्य को रो र ी ै । इिर रुक्का तैयार ु आ, उिर
वविवा की आूँखों से आूँसू की बूँद
ू ें तनकलकर रुक्के पर धगर पड़ीिं।
बबरादरी में रुक्का कफरा। इिर तीन-चार हदन पिंचों ने भोज की तैयाररयों में
बबताए। घी िनीराम की आढत से आया, मैदा, चीनी की आढत भी उन् ीिं की थी।
पाूँचवे हदन प्रातःकाल ब्रह्म-भोज ु आ। सन्ध्या-समय बबरादरी का ज्योनार।
सुशीला के द्वार पर बल्ग्ियों और मोटरों की कतारें खड़ी थी। भीतर मे मानों
की पिंगते थीिं। आूँगन, बैठक, दालान, बरोठा, ऊपर की छत नीचे-ऊपर मे मानों से
भरा ु आ था। लोग भोजन करते थे और पिंचों को सरा ते थे।
ु आ था। लड़के अवस्था को समझते थे, माूँ को छे ड़ते न थे। मकान के सामने से
कोई खोंचे वाला तनकल जाता और वे दस
ू रे लड़को को फल या भमठाई खाते
दे खते, तो उनके मूँु में पानी भरकर आूँखों में भर जाता था। ऐसी ललचाई ु ई
आूँखों से ताकते थे कक दया आती। व ी बच्चें , जो थोड़े हदन प ले मेवे-भमठाई
की ओर ताकते भी न थे। अब एक-एक पैसे की चीज को तरसते थे। व ी
सज्जन, ल्जन् ोंने बबरादरी का भोज करवाया था, अब घर के सामने से तनकल
जाते, पर कोई झाूँकता न था।
मो न अिीर ोकर बोला - 'अम्माूँ, मुझे रूखी रोहटयाूँ ी दे दो, बड़ी भूख लगी
ै ।'
सुशीला ने क ा -'अभी दाल कच्ची ै भैया।'
सश
ु ीला ने क ा- 'लेककन जकदी आइयो।'
रे वती बोली - 'न ीिं अम्माूँ, ककतना भमला ी ै , तुम खाओ मो न, तुम् ें जकदी
नीिंद जाती ै । मैं तो दाल पक जाएगी तो खाऊूँगी।'
बरोठे में आकर क ा - 'अभी मेरे पतत का पीछे ु ए म ीना भी न ीिं ु आ, मकान
खाली कराने की िुन सवार ो गई। मेरा 50 जार का मकान 30 जार में ले
भलया। पाूँच जार सूद के उड़ाए, कफर भी तस्कीन न ीिं ोती। क ो, मैं अभी
खाली न ीिं करूूँगी।'
मुनीम ने नम्रता से क ा - 'बाईजी, मेरा क्या अल्ख्तयार ै , मैं तो केवल
सन्दे भसया ू ूँ। जब चीज दस
ू रे की ो गई तो आपको छोड़नी ी पड़ेगी। झिंझट
करने से क्या मतलब।'
सुशीला समझ गई, ठीक ी क ता ै , गाय, तया के बल के हदन खेत चरे गी।
सश
ु ीला नमय ोकर बोली - 'सेठजी से क ों, मझ
ु े दस-पाूँच हदन की मु लत दें ।
लेककन न ीिं, कुछ मत क ो। क्यों दस-पाूँच हदन के भलए ककसी का अ सान लूँ ।ू
मेरे भाग्य में इस घर में र ना भलखा ोता, तो तनकलती ी क्यों।'
मन
ु ीम ने क ा -'तो कल सबेरे तक खाली ो जाएगा।'
सुशीला ने क ा -' ाूँ, ाूँ, क ती तो ू ूँ लेककन सबेरे तक क्यों, मैं अभी खाली ककए
दे ती ू ूँ। मेरे पास कौन-सा बड़ा सामान ी ै । तम्
ु ारे सेठजी का रातभर का
ककराया मारा जाएगा, जाकर ताला-वाला लाओ या लाए ो?'
ल्जस वक्त य घर बनवाया था, मन में ककतनी उमिंगें थी। इसके प्रवेश में कई
जार ब्राह्मणों का भोज ु आ। सुशीला को इतनी दौड-िूप करनी पड़ी थीिं कक व
म ीने-भर बीमार र ी थी। इसी घर में उसके दो लड़के मरे थे। य ीिं उसकी पतत
मरा था। मरने वालों की स्मतृ तयों ने उसकी एक-एक ईट को पववत्र कर हदया
था। एक-एक पतथर मानो उसके षय से खश
ु ी और उसके शोक से दख
ु ी ोता था,
व घर छूटा जा र ा ै।
इसी समय रे वती भी आकर खड़ी ो गई। सेठजी ने उसे भसर से पाूँव तक दे खा
और तब ककसी कारण से बोले - 'अच्छा, य लड़की तो भसयानी ो गई, क ीिं
इसकी सगाई की बातचीत न ीिं की?'
सश
ु ीला - 'तो आपकी तनगा में कोई अच्छा वर ै। य तो आप जानते ी ै,
मेरे पास लेन-े दे ने को कुछ न ीिं ै ।'
झाबरमल (इन सेठजी का य ी नाम था) - 'लेने-दे ने का कोई झगड़ा न ीिं ोगा,
बाईजी, ऐसा घर ै कक लड़की आजीवन सख
ु ी र े गी। लड़का भी उसके साथ र
सकता ै , कुल का सच्चा ै , र तर से सम्पन्न पररवार ै , ाूँ, व दो ाजू
(दज
ु वर) ै ।'
सश
ु ीला - 'उम्र अच्छी ोनी चाह ए, दो ाजू ोने से क्या ोता ै ।'
झाबरमल - 'हदखाने को क ीिं न ीिं जाना ै , बाई, व तो तेरे सामने ी खड़ा ै।'
सश
ु ीला ने घण
ृ ापण
ू य नेत्रों से उसकी ओर दे खा, इस पचास साल के बड्
ु डे की य
बस! छाती का माूँस लटककर नाभी तक आ प ु ूँचा, कफर भी वववा की िुन
सवार ै। य दष्ु ट समझता ै कक प्रलोभनों में पडकर अपनी लड़की उसके गले
बाूँि दूँ ग
ू ी। व अपनी बेटी को आजीवन कुूँवारी रखेगी, पर ऐसे मत
ृ क से वववा
करके उसका जीवन नष्ट न करे गी। पर उसने क्रोि को शान्त ककया। समय का
फेर ै , न ीिं तो ऐसों को उससे ऐसा प्रस्ताव करने का सा स ी क्यों ोता।
सश
ु ीला ने क ा - 'आपकी इस कृपा के भलए आपको िन्यवाद दे ती ू ूँ। सेठजी,
पर मैं कन्या का वववा आपसे न ीिं कर सकती।'
झाबरमल ने भीतर घस
ु कर ग ृ स्थ की एक-एक वस्तु तनकालकर गली में फेंक
दी। घड़ा फूट गया, मटके टूट गए, सन्दक
ू के कपड़े बबखर गए। सुशीला तटस्थ
खड़ी अपने अहदन की य क्रूर क्रीड़ा दे खती र ी।
सश
ु ीला ने डरते-डरते क ा - 'माता, मेरे पास सेर-भर आटे के भसवा और कुछ
न ीिं ै , मैं तुम् े ककराया क ाूँ से दूँ ग
ू ी।'
बहु ढया ने क ा - 'मैं झाबरमल न ीिं ू ूँ ब ू , न कुबेरदास ू ूँ। मैं समझती ू ूँ,
ल्जन्दगी में सख
ु भी ै , दख
ु भी ै । सख
ु में इतराओ मत, दख
ु में घबराओ मत।
तुम् ीिं से चार पैसे कमाकर अपना पेट पालती ू ूँ। तुम् ें उस हदन भी दे खा था,
जब तुम म ल में र ती थी और आज भी दे ख र ी ू ूँ , जब तुम अनाथ ो। जो
भमजाज तब था, व ी अब ै , मेरे िन्य भाग कक तुम मेरे घर में आओ। मेरी
आूँखें फूटी ै , जो तुमसे ककराया माूँगने जाऊूँगी।'
रे वती माूँ के पास लौटी, पर जो सुना था, व उससे न क सकी। घाव पर नमक
क्यों तछड़के, ब ाना कर हदया, बड़े पिंचजी क ीिं गए ै।
सुशीला - 'तो मुनीम से क्यों न ीिं क ाूँ? य ाूँ क्या कोई भमठाई खाए जाता था,
जो दौड़ी चली आई?'
मो न ने प्रसन्न ोकर क ा - 'तो तुम मेरे पास से कभी न ीिं जाओगी, माूँ?'
सेठ ने बबगड़कर क ा - 'व कौन ोता ै , टके पर मुनीमी करता ै । उससे मैं
क्या पूछूूँ। मैं बबरादरी का पिंच ू ूँ, मुझे अधिकार ै ल्जस काम से बबरादरी का
ककयाण दे खूूँ, व करूूँ। मैंने और पिंचों की राय ले ली ै । सब मुझसे स मत ै।
अगर तू यों न ीिं मानेगी, तो म अदालती काययवाई करें गे। तझ
ु े खरच-बरच का
काम ोगा, य लेती जा।'
कुबेरदास - 'तुम घबराओ न ीिं, मैं इसे अदालत से ठीक करूूँगा, जाती क ाूँ ै ।'
बबरादरी के बड़े पिंच की बात क ीिं भम्या ो सकती ै ? रे वती नाबाभलग थी,
माता-वपता न ीिं थे, ऐसी दशा में पिंचों का उस पर पूरा अधिकार था। व बबरादरी
के दबाव में न ीिं र ना चा ती ै , न चा े । कानून बबरादरी के अधिकार की उपेक्षा
न ीिं कर सकता।
रे वती -'क्या बबरादरी मुझे जबरदस्ती अपने अधिकार में ले सकती ै ?'
सन्तलाल - ' ाूँ बेटी, ितनकों के ाथ में तो कानन
ू भी ै ।'
सन्तलाल - 'तेरे क ने से क्या ोगा, तेरे भाग्य में य ी भलखा था, तो ककसका
बस ै । मैं जाता ू ूँ बड़े पिंच के पास।'
झाबरमल ने दख
ु ी मन से क ा- 'मेरे भलए अब कोई और उपाय कील्जए।'
***
िि
ू
मरु ादाबाद के पिंडडत सीतानाथ चौबे गत 30 वषो से व ाूँ के वकील के नेता थे।
उनके वपता उन् ें बाकयवस्था में ी छोड़कर परलोक भसिार थे , घर में कोई
सम्पल्तत न थी। माता ने बड़े-बड़े कष्ट झेलकर उन् ें पाला और पढाया। सबसे
प ले व कच री में 15 रुपए माभसक पर नौकर ु ए। कफर वकालत की परीक्षा
दी, पास ो गए। प्रततभा थी, दो- ी-चार वषो में वकालत चमक उठी। जब माता
का स्वगयवास ु आ तब पुत्र का शुमार ल्जले के गणमान्य व्यल्क्तयों में ो गया
था। उनके आमदनी एक जार रुपए म ीने से कम न थी। एक ववशाल भवन
बनवा भलया था, कुछ जमीिंदारी ले ली थी, कुछ रुपए बैंक में रख हदए थे और
कुछ लेन-दे न में लगा हदए। इस समवृ ्ध पर चार पुत्रों को ोना उनके भाग्य को
आदशय बनाए ु ए था। चारो लड़के भभन्न-भभन्न दजो में पढते थे। मगर य
करना कक सारी ववभूतत चौबेजी की अनवरत पररश्रम का फल था, उनकी पतनी
मिंगला दे वी के साथ अन्याय करना ैं। मिंगला बड़ी ी सरल, ग ृ -कायय में कुशल
और पैसे का काम िेले में चलाने वाली स्त्री थी। जब तक अपना घर न बन
गया, उसने 3 रुपए से अधिक का मकान ककराए पर न ीिं भलया और रसोई के
भलए भमसराइन तो उसने अब तक न रखी थी। उसे अगर कोई व्यसन था तो
ग नों का और चौबेजी को भी अगर कोई व्यसन था तो स्त्री को ग ने प नाने
का। व सच्चे पतनी-परायण मनुष्य थे। सािारणतः म कफलों में वेश्याओिं से
ूँसी-मजाक कर लेना उतना बरु ा न ीिं समझा जाता, पर पिंडडत अपने जीवन में
कभी नाच-गाने की म कफल में गए ी न ीिं। पाूँच बजे तड़के से लेकर बार बजे
रात तक उनका व्यसन मनोरिं जन, पढना-भलखना अनश
ु ीलन जो कुछ था, कानन
ू
था, न उन् ें राजनीतत से प्रेम था, न जातत-सेवा से, ये सभी काम उन् ें व्यथय से
जान पड़ते थे। उनके ववचार से अगर कोई काम करने लायक था, तो बस, कच री
जाना, ब स करना, रुपए जमा करना औऱ भोजन करके सो र ना। जैसी वेदान्ती
को ब्रह्म के अततररक्त जगत भम्या जान पड़ता ैं , वैसे ी चौबेजी को कानून
के भसवा सारा सिंसार भम्या प्रतीत ोता था, सब माया था, एक कानन
ू ी सतय
था।
चौबेजी के मुख-चन्द्र में केवल एक कला की कमी थी। उनके कोई कन्या न थी,
प लौठी कन्या के बाद कफर कन्या ु ई ी न ीिं और न अब ोने की आशा ी
थी। स्त्री और पुरुष, दोनो उस कन्या को याद करके रोया करते थे। लड़ककयाूँ
बचपन में लड़कों से ज्यादा चोंचले करती ैं , उन चोंचलों के भलए दोनो प्राणी
ववकल र ते। माूँ सोचती, लड़की ोती, तो उसके भलए ग ने बनवाती, उसके बाल
गूँथ
ू ती, लड़की पैजतनयाूँ प ने ठुमक-ठुमक आूँगन में चलती तो ककतना आनन्द
आता। चौबे सोचते, कन्यादान के बबना मोक्ष कैसे ोगा? कन्यादान म ादान ैं ,
ल्जसने य दान न हदया, उसका जन्म ी वथ
ृ ा गया।
चौबेजी का घर उसके आने से खखल उठा। दो-चार ी हदनों में लड़की अपने माूँ-
बाप को भूल गई। उसकी उम्र तो केवल चार वषय की थी, पर उसे खेलने की
अपेक्षा कुछ काम करना अच्छा लगता था। मिंगला रसोई बनाने जाती तो बबन्नी
भी पीछे -पीछे जाती, उससे आटा गूँि
ू ने के भलए झगड़ा करती, तरकारी काटने में
उसे बड़ा मजा आता था। जब तक वकील घर पर र ते, तब तक व उनके साथ
दीवानखाने में बैठी र ती। कभी ककताब उलटती, क ी दवात-कलम से खेलती,
चौबेजी मुस्कराकर क ते - बेटी, मार खाओगी?
बबन्नी क ती - तम
ु मार खाओगे, मैं तम्
ु ारे कान काट लूँ ग
ू ी, जज
ू ू को बल
ु ाकर
पकड़ा दूँ ग
ू ी.
इस पर दीवानखाने पर खब
ू क क े उड़ते। वकील सा ब कभी इतने बाकयवतसल
न थे। जब बा र से आते तो कुछ-न-कुछ सौगात बबन्नी के वास्ते जरूर लाते,
और घर में कदम रखते ी पुकारते, बबन्नी बेटी, दौड़ती ु ई आकर उनकी गोद में
बैठ जाती।
मिंगला एक हदन बबन्नी को भलए बैठी थी। इतने में पिंडडतजी आ गए, बबन्नी
दौड़कर उसकी गोद में जा बैठी। पिंडडतजी ने पूछा - तू ककसी बेटी ैं?
बबन्नी - न बताऊूँगी।
बबन्नी - न बताऊूँगी।
पिंडडत - अच्छा, म लोग आूँख बन्द ककए ैं, बबन्नी ल्जसकी बेटी ोगी, उसकी
गोद में बैठ जाएगी।
पिंडडत - मेरी बेटी ैं, मेरी बेटी ैं, ( स्त्री से) अब न क ना कक मेरी बेटी ैं।
एक बार बबन्नी का बाप आकर उसे अपने साथ ले गया। बबन्नी ने रो-रोकर
दतु नया भसर पर उठा ली। इिर चौबेजी को भी हदन काटना कहठन ो गया। एक
म ीना भी न गज
ु रने पाया था कक कफर ससरु ाल गए और बबन्नी को ले आए।
बबन्नी अपनी माता और वपता को भूल गई। व चौबेजी को अपना बाप और
मिंगला को अपनी माूँ समझने लगी। ल्जन् ोंने उसे जन्म हदया, वे अब गैर ो
गए।
चौबेजी ने बबन्नी के भलए सुयोग्य वर खोजना शुरू ककया। लड़कों को शाहदयों में
हदल का अरमान तनकाल चुके थे, अब कन्या के वववा में ौंसले पूरे करना
चा ते थे। िन लुटाकर कीततय पा चुके थे, अब दान-द े ज में नाम कमाने की
लालसा थी। बेटे का वववा कर लेना आसान ैं , पर कन्या के वववा में आबरू
तनबा ले जाना कहठन ैं। नौका पर सभी यात्रा करते ैं , जो तैरकर नदी पार
कर ले, व ी प्रशिंसा का अधिकारी ैं।
िन की कमी न थीिं। अच्छा घर और सुयोग्य वर भमल गया। जन्मपत्र भमल
गए, बानक बन गया, फलदान और ततलक की रस्में भी अदा कर दी गई, पर ाय
रे दद
ु ै व! क ाूँ तो वववा की तैयारी ो र ी थी, द्वार पर दरजी, सुनार, लवाई
सब अपना-अपना काम कर र े थे, क ाूँ तनदय य वविाता ने और ी लीला रच दी।
वववा के एक सप्ता प ले मिंगला अनायास बीमार पड़ी, तीन हदन में अपने
सारे अरमान भलए ु ए परलोक भसिार गई।
पिंडडतजी अपने कमरे में बैठे रो र े थे। सन्दे श पाते ी आूँसू पोंछते ु ए घर में
आए औऱ बड़े िैयय के साथ मिंगला के सामने ो गए, डर र े थे कक मेरी आूँखों
से आूँसू की एक बूँद
ू भी तनकली, तो घर में ा ाकार मच जाएगा।
मिंगला ने क ा - एक बात पछ
ू ती ू ूँ , बरु ा न मानना, बबन्नी तम्
ु ारी कौन ैं?
मिंगला - ाूँ, मैं तुम् ारे मूँु से य ी सुनना चा ती थी। उसे सदा अपनी बेटी
समझने र ना। उसके वववा के भलए मैंने जो-जो तैयाररयाूँ की थीिं, उनमें कुछ
काट-छाूँट मत करना।
पिंडडत - इसकी कुछ धचन्ता न करो, ईश्वर ने चा ा, तो उससे कुछ ज्यादा िूम-
िाम के साथ वववा ोगा।
मिंगला - उसे मेशा बुलाते र ना, तीज-तयो ार में कभी मत भूलना।
पिंडडत - इन बातों की मझ
ु े याद हदलाने की जरूरत न ीिं।
मिंगला - य फागन
ु का म ीना ैं, जेठ तक लगन ैं।
पिंडडत - कर दूँ ग
ू ा।
बुढापे में पतनी की मरना बरसात में घर का धगरना ैं , कफर उसके बनने की
आशा न ीिं ोती।
पिंडडत - न ी बबन्नी, मेरे भलए तुम क्यों लकान ोगी, मैं अभागा ू ूँ, जब तक
ल्जन्दगी ैं, ल्जउूँ गा, चा े रोकर ल्जउूँ , चा े ूँस कर। ूँसी मेरे भाग्य से उठ गई,
तुमने इतने हदनों सम्भाल भलया, य ीिं क्या कम अ सान ककया, मैं जानता ू ूँ कक
तम्
ु ारे जाने के बाद कोई मेरी खबर लेने वाला न ीिं र े गा, य घर त स-न स
ो जाएगा औऱ मझ
ु े घर छोड़कर भागना पड़ेगा। पर क्या ककया जाए, लाचारी ैं,
तुम् ारे बबना अब मैं क्षणभर भी न ीिं र सकता, मिंगला की खाली जग तो
तुमने पूरी की, अब उसकी स्थान कौन पूरा करे गा?
बबन्नी - क्या इस साल रुक न ीिं सकता, मैं इस दशा में आपको छोड़कर न
जाऊूँगी।
मिंगला को मरे अभी तीन म ीने ी गुजरे थे कक चौबेजी ससुराल प ु ूँच।े सास ने
मूँु माूँगी मुराद पाई। उसके दो पुत्र थे, घर में कुछ पूिंजी न थी, उनके पालन और
भशक्षा के भलए कोई हठकाना नजर न आया, मिंगला मर ी चुकी थी, लड़की का
ज्यों ी वववा ो जाएगा, व अपने घर की ो र े गी, कफर चौबे से नाता ी टूट
जाएगा, व इसी धचन्ता में पड़ी ु ई थी कक चौबेजी प ु ूँ चे, मानो दे वता स्वयिं
वरदान दे ने आए ो।
सास - पूछने को जारों ैं, दरू क्यों जाओ, अपने घर में लड़की बैठी ैं, सुना ैं,
तम
ु ने मिंगला के सब ग ने बबन्नी को दे हदए ैं, क ीिं और वववा ु आ तो ये
कई जार की चीजें तम्
ु ारे घर से तनकल जाएूँगी, तम
ु से अच्छा घर मैं क ाूँ
पाऊूँगी, तुम उसे अिंगीकार कर लो, तो मैं तर जाऊूँ।
अन्िा क्या माूँगे, दो आूँखें। चौबेजी ने मानो वववश ोकर सास की प्राथयना
स्वीकार कर ली।
बबन्नी अपने गाूँव के कच्चे मकान में अपना माूँ के पास बैठी ु ई ैं। अबकी
चौबेजी ने उसकी सेवा के भलए एक लौडी भी साथ कर दी ैं , ववन्िेश्वरी के दोनो
छोटे भाई ववल्स्मत ो- ोकर उसके आभूषणों को दे ख र े थे। गाूँव की और कई
ल्स्त्रयाूँ उसे दे खने आई ु ई ैं, और उसके रूपलावण्य का ववकास दे खकर चककत
ो र ी ैं , य व ी बबन्नी ैं , जो य ाूँ मोटी फररया प ने खेला करती थी, रिं ग-रूप
कैसा तनखर आया ैं , सख
ु की दे ैं न।
ववन्िेश्वरी - उन् ें याद करके रोया करते ैं , चली आई ू ूँ , न-जाने कैसे ोंगे।
माता - ल्जतने ी हदन उनकी सेवा करोगी, उतना ी स्ने बढे गा, और तुम् ारे
जाने से उन् ें उतना ी दःु ख भी अधिक ोगा। बेटी, सच तो य ैं कक व तम्
ु ीिं
को दे खकर जीते ैं , इिर तम्
ु ारी डोली उठी और उिर उनका घर सतयानाश
माता - मझ
ु े तो इसमें कोई बेढिंगापन न ीिं हदखाई प़ड़ता।
माता - उनका ल्जम्मा मैं लेती ू ूँ, मैं उन् ें राजी कर लूँ ग
ू ी। तू राजी ो जा, याद
रख य कोई ूँसी-खुशी का ब्या न ीिं ैं उनकी प्राणरक्षा की बात ैं, ल्जसके
भसवा सिंसार में मारा और कोई न ीिं , कफर अभी उनकी कुछ ऐसी उम्र भी तो
न ीिं ैं, पचास से दो ी चार साल ऊपर ोंगे, उन् ोंने एक ज्योततषी से पछ
ू ा भी
था, उसने उनकी किंु डली दे खकर बताया ैं कक आपकी ल्जन्दगी कम-से-कम 70
वषय की ैं। दे खने-सुनने मे भी व सौ-दो सौ में एक आदमी ैं.
बातचीत में चतरु माता ने कुछ ऐसा शब्द-व्यू रचा कक सरल बाभलका उसमें से
तनकल न सकी। माता जानती थी कक प्रलोभन का जाद ू इस पर न चलेगा, िन
का, आभष
ू णों का, कुल-सम्मान का, सख
ु मय-जीवन का उसने ल्जक्र तक न ककया।
उसने केवल चौबेजी की दयनीय दशा पर जोर हदया।
रात बीत चुकी थी। ववन्िेश्वरी आभूषणों से लदी ु ई, भारी जोड़े प ने, फशय पर
भसर झुकाए बैठी ैं, उसे कोई उतकिंठ न थी, भय न था, केवल सिंकोच था कक मैं
उनके सामने कैसे मूँु खोलूँ ग
ू ी? उनकी गोद में खेली ू ूँ, उनके कन्िों पर बैठी ू ूँ,
उनकी पीठ पर सवार ु ई ू ूँ , कैसे उन् ें मूँु हदखाऊूँगी, अगर वे वपछली बातें सोचूँू,
ईश्वर उन् ें प्रसन्न रखे, ल्जसके भलए मैने पत्र
ु ी बनना स्वीकार ककया, व पण
ू य ो,
उनका जीवन आनन्द से व्यतीत ो।
पिंडडतजी ने पछ
ू ा - बबन्नी, बोलती क्यों न ीिं? क्या मझ
ु से नाराज ो?
ववन्िेश्वरी ने अपने कान बन्द कर भलये। य ीिं पररधचत आवाज व ककतने हदनों
से सुनती चली आती थी, आज व व्यिंग्य से भी तीव्र और उप ास से भी कटु
प्रतीत ोती थी। स सा पिंडडतजी चौंक पड़े, आूँखें फैल गई और दोनों ाथ मेढक
के पैरो की भाूँतत भसकुड़ गए। व दो कदम पीछे ट गए, खखड़की से मिंगला
झाूँक र ी थी! छाया न ीिं, मिंगला थी, सन्दे , साकर, सजीव।
बबन्नी ने घबराकर खखड़की की तरफ दे खा, कुछ न थी, कफर क ा - क्या ैं? मुझे
तो कुछ न ीिं हदखाई दे ता।
बबन्नी - ब न?
चौबेजी - ाूँ- ाूँ, व ी, खखड़की से झाूँक र ी थी, मेरे तो रोएूँ खड़े ो गए।
बात पूरी न ोने पाई थी कक न-जान क ाूँ से जैसे आकाशवाणी ो, आवाज आई,
बबन्नी तुम् ारी पुत्री ैं।
बबन्नी तम्
ु ारी पत्र
ु ी ैं - य ध्वतन स स्त्रों कानों से पिंडडतजी को सन
ु ाई पड़ने
लगी, मानो इस कमरे की एक-एक वस्तु से य ी आवाज आ र ी ैं।
ू ूँ।
***
सवा सेर गें हूूँ
ककसी गाूँव में शिंकर नाम का एक कुरमी ककसान र ता था। सीिा-सादा गरीब
आदमी था, अपने काम से काम न ककसी के लेने में न दे ने में । छक्का पिंजा न
जानता था, छल प्रपिंच की उसे छूत भी न लगी थी, ठगे जाने की धचन्ता न थी,
ठग ववद्या न जानता था। भोजन भमला खा भलया न भमला चबेने पर काट दी,
चबेना न भमला तो पानी पी भलया, और राम का नाम लेकर सो र ा । ककन्तु
जब कोई अततधथ द्वार पर आ जाता था तो उसे तनवतृ त मागय का तयाग न
करना पड़ता था। ववशेष कर जब कोई सािु म ातमा पदापयण करते थे तो उसे
अतनवाययतः सािंसाररकता की शरण लेनी पड़ता थी। खद
ु भख
ू ा सो सकता था पर
सािु को कैसे भूखा सुलाता? भगवान के भक्त ठ रे ?
सौभाग्य गाूँव के ववप्र म ाराज के य ाूँ से थोड़े से गें ू ूँ भमल गये। उसने सवा सेर
गें ू ूँ उिार भलया और स्त्री से क ा कक पीस दे । म ातमा जी ने भोजन ककया,
लम्बी तान कर सोये । प्रातःकाल आशीवायद दे कर अपनी रा ली।
ववप्र म ाराज साल में दो बार खभल ानी ककया करते थे । शिंकर ने हदल में क ा
- सेर गें ू ूँ इन् ें क्या लौटाउूँ , पसेरी के बदले कुछ ज्यादा खभल ान दे दूँ ग
ू ा, य भी
समझ जायेंगे, मैं भी समझ जाऊूँगा। चैत में जब ववप्रजी प ु ूँचे तो उन् ें डेढिं
पसेरी के लगभग गें ू ूँ दे हदया। और अपने को उऋण समझ कर उसकी कोई
चरचा न की। ववप्र जी नें कफर कभी न माूँगा । सरल शिंकर को क्या मालूम था
कक य सवा सेर गें ू ूँ चुकाने के भलए उसे दस
ू रा जन्म लेना पड़ेगा। सात साल
गज
ु र गये । ववप्र जी ववप्र से म ाजन ु ए, शिंकर ककसान से मजरू ु आ। उसका
छोटा भाई मिंगल उससे अलग ो गया था। एक सात र कर दोनों ककसान थे ,
अलग ो कर मजूर ो गये थे। शिंकर ने चा ा कक द्वेष की आग न भड़कने
पाये, ककन्तु पररल्स्थतत ने उसे वववश कर हदया।
सात वषय बीत गये, एक हदन शिंकर मजूरी करके लौटा तो रा में ववप्र जी ने
टोक कर क ा - शिंकर, कल आके अपने बीज बेंग का ह साब कर ले। तेरे य ाूँ
साठे पाूँच मन गें ू ूँ कब के बाकी पड़े ु ए ै और तू दे ने का नाम न ी लेता,
जम करने का मन ै क्या?
शिंकर ने चककत ो कर क ा - मैने तुमसे कब गें ू ूँ भलये थे जो साढे पाूँच मन
ो गये? तुम भूलते ो, मेरे य ाूँ ककसी का न छटाूँक भर अनाज ै न एक पैसा
उिार।
ववप्र - लेखा जौ-जौ, बखसी सौ-सौ! तुमने जो कुछ हदया ोगा, उसका कोई ह साब
न ी। चा े एक की जग चार पसेरी दे दो । तुम् ारे नाम ब ी में साढे पाूँच मन
भलखा ु आ ै , ल्जससे चा ो ह साब लगवा लो। दे दो तो तुम् ारा नाम छें क दूँ ,ू
न ी तो और भी बढता र े गा।
शिंकर - पािंड.े क्यो गरीब को सताते ो, मेरे खाने का हठकाना न ी इतना गें ू ूँ
ककसके घर से लाऊूँगा?
शिंकर काूँप उठा। म पढे भलखे आदमी ोते तो क दे ते अच्छी बात ै , ईश्वर के
घर ी दें गे। व ाूँ की तौल य ाूँ से कुछ बड़ी तो न ोगी। कम से कम इसका
कोई प्रमाण मारे पास न ी, कफर उसकी क्या धचिंता । ककन्तु शिंकर इतना
ताककयक , इतना व्यव ार चतुर न था। एक तो ऋण - व भी ब्राह्मण का - ब ी
में नाम र गया तो सीिे नरक में जाऊूँगा, इस ख्याल से उसे रोमािंच ो आया।
बोला - म ाराज, तुम् ारा ल्जतना ोगा दूँ ग
ू ा, ईश्वर के य ाूँ क्यों दें , इस जनम में
तो ठोकर ी खा र ा ू ूँ, उस जन्म के भलए क्या बोऊूँ। मगर य कोई तनयाव
न ी ै । तुमने राई का पवयत बना हदया, ब्राह्मण ोके तुम् े ऐसा न ीिं करना
चाह ए था। उसी घड़ी तगादा करके ले भलया ोता, तो आज मेरे भसर पर इतना
बड़ा बोझ क्यों पड़ता ? मैं तो दूँ ग
ू ा, लेककन तम्
ु ें भगवान के य ाूँ जवाब दे ना
पड़ेगा।
ववप्र - व ाूँ का डर तुम् ें ोगा, मुझे क्यो ोने लगा। व ाूँ तो सब अपने ी भाई
बिंिु ै । ऋवष-मतु न सब तो ब्राह्मण ी ै , दे वता भी ब्राह्मण ै , जो कुछ बबगडेगी,
सूँभाल लें गे। तो कब दे ते ो ?
शिंकर - ाूँ, म ाराज, इतने अभी लील्जए बाकी दो-तीन म ीने में दूँ ग
ू ा, मझ
ु े उररन
कर दील्जए।
ववप्र - उररन तो तभी ोगे जब मेरी कौड़ी-कौड़ी चुका दोगे। जाकर मेरे पन्द्र
रुपये और लाओ।
शिंकर - म ाराज, इतनी दया करो, अब साूँझ की रोहटयों का भी हठकाना न ी ै,
गाूँव में ू ूँ तो कभी न कभी दे ी दूँ ग
ू ा ।
ववप्र - मै य रोग न ी पालता, न ब ु त बाते करना जानता ू ूँ। अगर पूरे रुपये
न भमलेगे तो आज से साढे तीन रूपये सैकड़े का ब्याज लगेगा। अपने रूपये चा े
अपने घर में रखो, चा े मेरे य ाूँ छोड़ जाओ।
शिंकर ने सारा गाूँव छान मारा, मगर ककसी न रूपये न हदये, इसभलए कक उसका
ववश्वास न था या ककसी के पास रूपया न था, बल्कक इसभलए की पिंडड़त के
भशकार को छे ड़ने की ककसी में ह म्मत न थी।
ववप्र - गुलामी समझो, चा े मजूरी समझो। मै अपने रुपये भराये बबना तुमको
कभी न छोडूूँगा। तुम भागोगे तो तुम् ारा लड़का भरे गा। ाूँ, जब कोई न र े गा
तब की दस
ु री बात ै।
***
सभ्यिा का रहस्ट्य
यों तो मेरी समझ में दतु नया की एक जार एक बातें न ीिं आती—जैसे लोग
प्रात:काल उठते ी बालों पर छुरा क्यों चलाते ैं ? क्या अब परु
ु षों में भी इतनी
नजाकत आ गयी ै कक बालों का बोझ उनसे न ीिं सूँभलता ? एक साथ ी सभी
पढे -भलखे आदभमयों की आूँखें क्यों इतनी कमजोर ो गयी ै ? हदमाग की
कमजोरी ी इसका कारण ै या और कुछ? लोग खखताबों के पीछे क्यों इतने
ै रान ोते ैं ? इतयाहद—लेककन इस समय मुझे इन बातों से मतलब न ीिं। मेरे
मन में एक नया प्रश्न उठ र ा ै और उसका जवाब मझ
ु े कोई न ीिं दे ता। प्रश्न
य ै कक सभ्य कौन ै और असभ्य कौन ? सभ्यता के लक्षण क्या ैं ? सरसरी
नजर से दे खखए, तो इससे ज्यादा आसान और कोई सवाल ी न ोगा। बच्चा-
बच्चा इसका समािान कर सकता ै । लेककन जरा गौर से दे खखए, तो प्रश्न इतना
आसान न ीिं जान पड़ता। अगर कोट-पतलून प नना, टाई- ै ट कालर लगाना, मेज
पर बैठकर खाना खाना, हदन में तेर बार कोको या चाय पीना और भसगार पीते
एक हदन मैं उनसे भमलने गया। उस समय व अपने घभसयारे दमड़ी को डाूँट
र े थे। दमड़ी रात-हदन का नौकर था, लेककन घर रोटी खाने जाया करता था।
उसका घर थोड़ी ी दरू पर एक गाूँव में था। कल रात को ककसी कारण से य ाूँ
न आ सका। इसभलए डाूँट पड़ र ी थी।
दमड़ी— जूर......
दमड़ी के पास कुल छ: बबस्वे जमीन थी। पर इतने ी प्राखणयों का खचय भी था।
उसके दो लड़के, दो लड़ककयाूँ और स्त्री, सब खेती में लगे र ते थे, कफर भी पेट की
रोहटयाूँ न ीिं मयस्सर ोती थीिं। इतनी जमीन क्या सोना उगल दे ती ! अगर सब-
के-सब घर से तनकल मजदरू ी करने लगते, तो आराम से र सकते थे; लेककन
मौरूसी ककसान मजदरू क लाने का अपमान न स सकता था। इस बदनामी से
बचने के भलए दो बैल बाूँि रखे थे ! उसके वेतन का बड़ा भाग बैलों के दाने -चारे
ी में उड़ जाता था। ये सारी तकलीफें मिंजूर थीिं, पर खेती छोड़कर मजदरू बन
जाना मिंजूर न था। ककसान की जो प्रततष्ठा ै, व क ीिं मजदरू की ो सकती ै,
चा े व रुपया रोज ी क्यों न कमाये ? ककसानी के साथ मजदरू ी करना इतने
अपमान की बात न ीिं, द्वार पर बूँिे ु ए बैल ु ए बैल उसकी मान-रक्षा ककया
करते ैं, पर बैलों को बेचकर कफर क ाूँ मूँु हदखलाने की जग र सकती ै !
एक हदन राय सा ब उसे सरदी से काूँपते दे खकर बोले —कपड़े क्यों न ीिं बनवाता
? काूँप क्यों र ा ै ?
दमड़ी—सरकार, बबरादरी में क ीिं मूँु हदखाने लायक न र ू ूँगा। लड़की की सगाई
न ो पायेगी, टाट बा र कर हदया जाऊूँगा।
रात के दस बजे थे। दोनों मह लाओिं में बातें ोने लगीिं। 20 जार की बातचीत
थी! राय सा ब की पतनी तो इतनी खुश ु ईं कक उसी वक्त राय सा ब के पास
दौड़ी ु ई आयी और क नें लगी—ले लो, ले लो
स्त्री—अजी, मैं न-जाने ऐसी ककतनी ी बातें क चुकी, लेककन ककसी तर टाले
न ीिं टलती। रो-रोकर जान दे र ी ै।
स्त्री—तो भाई, सोच लो। अगर कुछ गड़बड़ ो, तो मैं जाकर रुपये लौटा दूँ ।ू
इिर तो स्त्री-पुरुष में य अभभनय ो र ा था, उिर दमड़ी उसी वक्त अपने गाूँव
के मखु खया के खेत से जआ
ु र काट र ा था। आज व रात-भर की छुट्टी लेकर घर
गया था। बैलों के भलए चारे का एक ततनका भी न ीिं ै । अभी वेतन भमलने में
कई हदन की दे र थी, मोल ले न सकता था। घर वालों ने हदन को कुछ घास
छीलकर खखलायी तो थी, लेककन ऊूँट के मूँु में जीरा। उतनी घास से क्या ो
सकता था। दोनों बैल भूखे खड़े थे। दमड़ी को दे खते ी दोनों पूँछ
ू ें खड़ी करके
ु ूँकारने लगे। जब व पास गया तो दोनों उसकी थेभलयाूँ चाटने लगे। बेचारा
दमड़ी मन मसोसकर र गया। सोचा, इस वक्त तो कुछ ो न ीिं सकता, सबेरे
ककसी से कुछ उिार लेकर चारा लाऊूँगा।
लेककन जब ग्यार बजे रात उसकी आूँखें खुलीिं, तो दे खा कक दोनों बैल अभी तक
नाूँद पर खड़े ैं। चाूँदनी रात थी, दमड़ी को जान पड़ा कक दोनों उसकी ओर
उपेक्षा और याचना की दृल्ष्ट से दे ख र े ैं । उनकी क्षुिा-वेदना दे खकर उसकी
आूँखें सजल ो आयीिं। ककसान को अपने बैल अपने लड़कों की तर प्यारे ोते
ैं। व उन् ें पशु न ीिं, अपना भमत्र और स ायक समझता। बैलों को भूखे खड़े
दे खकर नीिंद आूँखों से भाग गयी। कुछ सोचता ु आ उठा। ूँभसया तनकाली और
चारे की कफक्र में चला। गाूँव के बा र बाजरे और जुआर के खेत खड़े थे। दमड़ी
के ाथ काूँपने लगे। लेककन बैलों की याद ने उसे उततेल्जत कर हदया। चा ता, तो
कई बोझ काट सकता था; लेककन व चोरी करते ु ए भी चोर न था। उसने
केवल उतना ी चारा काटा, ल्जतना बैलों को रात-भर के भलए काफी ो। सोचा,
अगर ककसी ने दे ख भी भलया, तो उससे क दूँ ग
ू ा, बैल भूखे थे, इसभलए काट
भलया। उसे ववश्वास था कक थोड़े-से चारे के भलए कोई मुझे पकड़ न ीिं सकता। मैं
कुछ बेचने के भलए तो काट न ीिं र ा ू ूँ ; कफर ऐसा तनदय यी कौन ै , जो मुझे पकड़
ले। ब ु त करे गा, अपने दाम ले लेगा। उसने ब ु त सोचा। चारे का थोड़ा ोना ी
उसे चोरी के अपराि से बचाने को काफी था। चोर उतना काटता, ल्जतना उससे
उठ सकता। उसे ककसी के फायदे और नक
ु सान से क्या मतलब ? गाूँव के लोग
दमड़ी को चारा भलये जाते दे खकर बबगड़ते जरूर, पर कोई चोरी के इलजाम में न
फूँसाता, लेककन सिंयोग से कके के थाने का भसपा ी उिर जा तनकला। व पड़ोस
के एक बतनये के य ाूँ जुआ ोने की खबर पाकर कुछ ऐिंठने की टो में आया
था। दमड़ी को चारा भसर पर उठाते दे खा, तो सन्दे ु आ। इतनी रात गये कौन
चारा काटता ै ? ो न ो, कोई चोरी से काट र ा ै , डाूँटकर बोला—कौन चारा
भलए जाता ै ? खड़ा र !
दमड़ी ने चौककर पीछे दे खा, तो पुभलस का भसपा ी ! ाथ-पाूँव फूल गये, काूँपते
दमड़ी—बलदे व म तो का।
भसपा ी ने समझा था, भशकार फूँसा, इससे कुछ ऐिंठूँगा; लेककन व ाूँ क्या रखा था।
पकड़कर गाूँव में लाया और जब व ाूँ भी कुछ तथे चढता न हदखाई हदया तो
थाने ले गया। थानेदार ने चालान कर हदया। मुकदमा राय सा ब ी के इजलास
में पेश ककया।
उसी हदन उन् ोंने खून के मुकदमे में जमानत ले ली। मैंने दोनों वतृ तान्त सुने
और मेरे हदल में य ख्याल और भी पक्का ो गया कक सभ्यता केवल ु नर के
साथ ऐब करने का नाम ै । आप बरु े -से-बरु ा काम करें , लेककन अगर आप उस
पर परदा डाल सकते ैं , तो आप सभ्य ैं, सज्जन ैं, जेल्न्टलमैन ैं। अगर आप
में य भसफ़त न ीिं तो आप असभ्य ैं , गूँवार ैं, बदमाश ैं। य सभ्यता का
र स्य ै !
***
समस्ट्या
मेरे दफ्तर में चार चपरासी ैं। उनमें एक का नाम गरीब ै। व ब ुत ी सीिा,
बड़ा आञा ाकारी, अपने काम में चौकस र ने वाला, घड़
ु ककयाूँ खाकर चप
ु र
जानेवाला यथा नाम तथा गुण वाला मनुष्य ै ।मुझे इस दफ्तर में साल-भर ोते
ैं, मगर मैंने उसे एक हदन के भलए भी गैर ाल्जर न ीिं पाया। मैं उसे 9 बजे
दफ्तर में अपनी फटी दरी पर बैठे ु ए दे खने का ऐसा आदी ो गया ू ूँ कक मानो
व भी उसी इमारत का कोई अिंग ै । इतना सरल ै कक ककसी की बात टालना
न ीिं जाना। एक मुसलमान ै । उससे सारा दफ्तर डरता ै , मालूम न ीिं क्यों ?
मुझे तो इसका कारण भसवाय उसकी बड़ी-बड़ी बातों के और कुछ न ीिं मालम
ू
ोता। उसके कथनानुसार उसके चचेरे भाई रामपुर ररयासत में काजी ैं, फूफा
टोंक की ररयासत में कोतवाल ैं। उसे सवयसम्मतत ने ‘काजी-सा े ब’ की उपाधि दे
रखी ै । शेष दो म ाशय जातत के ब्राह्मण ैं। उनके आशीवायदों का मूकय उनके
काम से क ीिं अधिक ै । ये तीनों कामचोर, गुस्ताख और आलसी ैं। कोई छोटा-
सा काम करने को भी कह ए तो बबना नाक-भौं भसकोड़े न ीिं करते। क्लकों को
तो कुछ समझते ी न ीिं ! केवल बड़े बाबू से कुछ दबते ैं, यद्यवप कभी-कभी
उनसे झगड़ बैठते ैं। मगर इन सब दग
ु ण
ुय ों के ोते ु ए भी दफ्तर में ककसी की
भमट्टी इतनी खराब न ी ै , ल्जतनी बेचारे गरीब की। तरक्की का अवसर आया ै,
तो ये तीनों मार ले जाते ैं, गरीब को कोई पूछता भी न ीिं। और सब दस-दस
पाते ैं, व अभी छ: ी में पड़ा ु आ ै । सुब से शाम तक उसके पैर एक क्षण
के भलए भी न ीिं हटकते—य ाूँ तक कक तीनों चपरासी उस पर ु कूमत जताते ैं
और ऊपर की आमदनी में तो उस बेचारे का कोई भाग ी न ीिं। ततस पर भी
दफ्तर के सब कमयचारी—दफ्तरी से लेकर बाबू तक सब—उससे धचढते ैं। उसकी
ककतनी ी बार भशकायतें ो चुकी ैं, ककतनी ी बार जुमायना ो चुका ै और
डाूँट-डपट तो तनतय ी ु आ करती ै । इसका र स्य कुछ मेरी समझ में न आता
था। ाूँ, मझ
ु े उस पर दया अवश्य आती थी, और आपने व्यव ार से मैं य
हदखाना चा ता था कक मेरी दृल्ष्ट में उसका आदर चपराभसयों से कम न ीिं। य ाूँ
तक कक कई बार मैं उसके पीछे अन्य कमयचाररयों से लड़ भी चुका ू ूँ।
एक हदन बड़े बाबू ने गरीब से अपनी मेज साफ करने को क ा। व तरु न्त मेज
साफ करने लगा। दै वयोग से झाड़न का झटका लगा, तो दावात उलट गयी और
रोशनाई मेज पर फैल गयी। बड़े बाबू य दे खते ी जामे से बा र ो गये। उसके
कान पकड़कर खूब ऐिंठे और भारतवषय की सभी प्रचभलत भाषाओिं से दव
ु च
य न चुन-
चुनकर उसे सुनाने लगे। बेचारा गरीब आूँखों में आूँसू भरे चुपचाप मूततयवत खड़ा
सुनता था, मानो उसने कोई तया कर डाली ो। मुझे बाबू का जरा-सी बात पर
इतना भयिंकर रौद्र रूप िारण करना बरु ा मालम
ू ु आ। यहद ककसी दस
ू रे चपरासी
ने इससे भी बड़ा कोई अपराि ककया ोता, तो भी उस पर इतना वज्र-प्र ार न
ोता। मैंने अिंग्रेजी में क ा—बाबू सा ब, आप य अन्याय कर र े ैं। उसने
जान-बूझकर तो रोशनाई धगराया न ीिं। इसका इतना कड़ा दण्ड अनौधचतय की
पराकाष्ठा ै।
‘आप अभी उसे जानते न ीिं, एक ी पाजी ै । इसके घर दो लों की खेती ोती
ै , जारों का लेन-दे न करता ै ; कई भैंसे लगती ैं। इन् ीिं बातों का इसे घमण्ड
ै ।’
एक दस
ू रे म ाशय बोल उठे —भाई सा ब, इसके घर मनों दि
ू -द ी ोता ै , मनों
मटर, जुवार, चने ोते ैं , लेककन इसकी कभी इतनी ह म्मत न ु ई कक कभी
थोड़ा-सा दफ्तरवालों को भी दे दो। य ाूँ इन चीजों को तरसकर र जाते ैं। तो
कफर क्यों न जी जले ? और य सब कुछ इसी नौकरी के बदौलत ु आ ै । न ीिं
तो प ले इसके घर में भन
ू ी भाूँग न थी।
बड़े बाबू कुछ सकुचाकर बोले—य कोई बात न ीिं। उसकी चीज ै , ककसी को दे
या न दे ; लेककन य बबककुल पशु ै।
मैं कुछ-कुछ ममय समझ गया। बोला—यहद ऐसे तुच्छ हृदय का आदमी ै , तो
वास्तव में पशु ी ै । मैं य न जानता था।
र स्य खुल गया। बड़े बाबू ने सरल भाव से सारी अवस्था दरशा दी थी। समवृ ्ध
के शत्रु सब ोते ैं, छोटे ी न ीिं, बड़े भी। मारी ससुराल या नतन ाल दररद्र ो,
तो म उससे आशा न ीिं रखते ! कदाधचत व में ववस्मत
ृ ो जाती ै । ककन्तु
वे साम्ययवान ोकर में न पूछें, मारे य ाूँ तीज और चौथ न भेजें, तो मारे
कलेजे पर साूँप लोटने लगता ै। म अपने तनियन भमत्र के पास जायूँ, तो उसके
एक बीड़े पान से ी सिंतुष्ट ो जाते ैं; पर ऐसा कौन मनुष्य ै , जो अपने ककसी
िनी भमत्र के घर से बबना जलपान के लौटाकर उसे मन में कोसने न लगे और
सदा के भलए उसका ततरस्कार न करने लगे । सद
ु ामा कृष्ण के घर से यहद
तनराश लौटते तो, कदाधचत व उनके भशशुपाल और जरासिंि से भी बड़े शत्रु
ोते। य मानव-स्वभाव ै।
कई हदन पीछे मैंने गरीब से पूछा—क्यों जी, तुम् ारे घर पर कुछ खेती-बारी ोती
ै ?
गरीब ने दीन भाव से क ा— ाूँ, सरकार, ोती ै । आपके दो गुलाम ैं, व ी करते
ैं ?
‘ ाूँ, ु जूर; दो भैंसें लगती ैं, मुदा गायें अभी गाभभन न ीिं ै। ु जूर, लोगों के ी
दया-िरम से पेट की रोहटयाूँ चल जाती ैं।’
‘भला एक हदन कुछ लाके दो तो, दे खो, लोग क्या क ते ैं। श र में य चीजें
क ाूँ मयस्सर ोती ैं। इन लोगों का जी कभी-कभी मोटी-झोटी चीजों पर चला
करता ै ।’
‘जो सरकार, कोई कुछ क े तो? क ीिं कोई सा ब से भशकायत कर दे तो मैं क ीिं
का न र ू ूँ।’
‘इसका मेरा ल्जम्मा ै , तुम् ें कोई कुछ न क े गा। कोई कुछ क े गा, तो मैं समझा
दूँ ग
ू ा।’
दस
ू रे हदन गरीब आया तो उसके साथ तीन हृष्ट-पुष्ट युवक भी थे। दो के भसरों
पर टोकररयाूँ थीिं, उसमें मटर की फतनयाूँ भरी ु ई थीिं। एक के भसर पर मटका
था, उसमें ऊख का रस था। तीनों ऊख का एक-एक गट्ठर काूँख में दबाये ु ए थे।
गरीब आकर चप
ु के से बरामदे के सामने पेड़ के नीचे खड़ा ो गया। दफ्तर में
आने का उसे सा स न ीिं ोता था, मानो कोई अपरािी वक्ष
ृ के नीचे खड़ा था कक
इतने में दफ्तर के चपराभसयों और अन्य कमयचाररयों ने उसे घेर भलया। कोई
ऊख लेकर चूसने लगा, कई आदमी टाकरें पर टूट पड़े, लूट मच गयी। इतने में
बड़े बाबू दफ्तर में आ प ु ूँच।े य कौतुकब दे खा तो उच्च स्वर से बोले—य क्या
भीड़ लगा रखी ै , अपना-अपना काम दे खो।
मैंने जाकर उनके कान में क ा—गरीब, अपने घर से य सौगात लाया ै । कुछ
आप ले लील्जए, कुछ इन लोगों को बाूँट दील्जए।
बड़े बाबू ने कृबत्रम क्रोि िारण करके क ा—क्यों गरीब, तम
ु ये चीजें य ाूँ क्यों
लाये ? अभी ले जाओ, न ीिं तो मैं सा ब से रपट कर दूँ ग
ू ा। कोई म लोगों को
मलूका समझ भलया ै।
गरीब का रिं ग उड़ गया। थर-थर काूँपने लगा। मूँु से एक शब्द भी न तनकला।
मेरी ओर अपरािी नेत्रों से ताकने लगा।
अब दफ्तर में गरीब का नाम ोने लगा। उसे तनतय घुड़ककयाूँ न भमलतीिं; हदन-
भर दौड़ना न पड़ता। कमयचाररयों के व्यिंग्य और अपने स योधगयों के कटुवाक्य
न सुनने पड़ते। चपरासी लोग स्वयिं उसका काम कर दे त।े उसके नाम में भी
थोड़ा-सा पररवतयन ु आ। व गरीब से गरीबदास बना। स्वभाव में कुछ तबदीली
पैदा ु ई। दीनता की जग आतमगौरव का उद्भव ु आ। ततपरता की जग
आलस्य ने ली। व अब भी कभी दे र करके दफ्तर आता, कभी-कभी बीमारी का
ब ाना करके घर बैठ र ता। उसके सभी अपराि अब क्षम्य थे। उसे अपनी
प्रततष्ठा का गुर ाथ लग गया था। व अब दसवें-पाूँचवे हदन दि
ू , द ी लाकर
बड़े बाबू की भें ट ककया करता। दे वता को सिंतुष्ट करना सीख गया। सरलता के
बदले अब उसमें काूँइयाूँपन आ गया।
एक रोज बड़े बाबू ने उसे सरकारी फामों का पासयल छुड़ाने के भलए स्टे शन भेजा।
कई बड़े-बड़े पुभलिंदे थे। ठे ले पर आये। गरीब ने ठे लेवालों से बार आने मजदरू ी
तय की थी। जब कागज दफ्तर में गये तो उसने बड़े बाबू से बार आने पैसे
ठे लेवालों को दे ने के भलए वसल
ू ककये। लेककन दफ्तर से कुछ दरू जाकर उसकी
नीयत बदली। अपनी दस्तरू ी माूँगने लगा। ठे लेवाले राजी न ु ए। इस पर गरीब
ने बबगड़कर सब पैसे जेब में रख भलये और िमकाकर बोला—अब एक फूटी
कौड़ी भी न दूँ ग
ू ा। जाओ ज ाूँ फररयाद करो। दे खें, क्या बना लेते ो।
***
दो सखखयाूँ
लखनऊ
1-7-25
प्यारी ब न,
जब से य ाूँ आयी ू ूँ , तुम् ारी याद सताती र ती ै । काश! तुम कुछ हदनों के
भलए य ाूँ चली आतीिं, तो ककतनी ब ार र ती। मैं तुम् ें अपने ववनोद से भमलाती।
क्या य सम्भव न ीिं ै ? तुम् ारे माता-वपता क्या तुम् ें इतनी आजादी भी न
दें गे ? मुझे तो आश्चयय य ी ै कक बेडड़याूँ प नकर तुम कैसे र सकती ो! मैं
तो इस तर घण्टे -भर भी न ीिं र सकती। ईश्वर को िन्यवाद दे ती ू ूँ कक मेरे
वपताजी परु ानी लकीर पीटने वालों में न ीिं। व उन नवीन आदशों के भक्त ैं,
ल्जन् ोंने नारी-जीवन को स्वगय बना हदया ै । न ीिं तो मैं क ीिं की न र ती।
कदाधचत प्रेम के साथ ी मन में ईष्याय का भाव भी उदय ो जाता ै । उन् ें मेरे
बूँगले की ओर जाते ु ए दे ख जब मेरी पड़ोभसन कुसम
ु अपने बरामदे में आकर
खड़ी ो जाती ै , तो मेरा ऐसा जी चा ता ै कक उसकी आूँखें ज्योतत ीन ो
जायूँ। कल तो अनथय ी ो गया। ववनोद ने उसे दे खते ी ै ट उतार ली और
मुस्कराए। व कुलटा भी खीसें तनकालने लगी। ईश्वर सारी ववपल्ततयाूँ दे , पर
भम्याभभमान न दे । चुड़ल
ै ों की-सी तो आपकी सूरत ै, पर अपने को अप्सरा
समझती ैं। आप कववता करती ैं और कई पबत्रकाओिं में उनकी कववताएूँ छप
भी गई ैं। बस, आप जमीन पर पाूँव न ीिं रखतीिं। सच क ती ू ूँ , थोड़ी दे र के
भलए ववनोद पर से मेरी श्र्ध ा उठ गयी। ऐसा आवेश ोता था कक चलकर कुसुम
का मूँु नोच लूँ ।ू खैररयत ु ई कक दोनों में बातचलत न ु ई, पर ववनोद आकर
बैठे तो आि घण्टे तक मैं उनसे न बोल सकी, जैसे उनके शब्दों में व जाद ू ी
न था, वाणी में व रस ी न था। तब से अब तक मेरे धचतत की व्यग्रता शान्त
न ीिं ु ई। रात-भर मझ
ु े नीिंद न ीिं आयी, व ी दृश्य आूँखों के सामने बार-बार आता
था। कुसुम को लल्ज्जत करने के भलए ककतने मसूबे बाूँि चुकी ू ूँ। अगर य
भय न ोता कक ववनोद मुझे ओछी और लकी समझेंगे, तो मैं उनसे अपने
मनोभावों को स्पष्ट क दे ती। मैं सम्पूणत
य : उनकी ोकर उन् ें सम्पूणयत: अपना
बनाना चा ती ू ूँ। मुझे ववश्वास ै कक सिंसार का सबसे रूपवान युवक मेरे सामने
आ जाय, तो मैं उसे आूँख उठाकर न दे खग
ूूँ ी। ववनोद के मन में मेरे प्रतत य
भाव क्यों न ीिं ै।
तुम् ारी,
पद्मा
गोरखपुर
5-7-25
वप्रय पद्मा,
भला एक युग के बाद तुम् ें मेरी सुधि तो आई। मैंने तो समझा था, शायद तुमने
परलोक-यात्रा कर ली। य उस तनष्ठुरता का दिं ड ी ै , जो कुसुम तुम् ें दे र ी
ै । 15 एवप्रल को कालेज बन्द ु आ और एक जुलाई को आप खत भलखती ैं —
पूरे ढाई म ीने बाद, व भी कुसुम की कृपा से। ल्जस कुसुम को तुम कोस र ी
ो, उसे मैं आशीवायद दे र ी ू ूँ। व दारुण द:ु ख की भाूँतत तम्
ु ारे रास्ते में न आ
खड़ी ोती, तो तम्
ु ें क्यों मेरी याद आती ? खैर, ववनोद की तम
ु ने जो तसवीर
खीिंची, व ब ुत ी आकषयक ै और मैं ईश्वर से मना र ी ू ूँ , व हदन जकद आए
कक मैं उनसे ब नोई के नाते भमल सकूूँ। मगर दे खना, क ीिं भसववल मैरेज न कर
बैठना। वववा ह न्द-ू प्ध तत के अनुसार ी ो। ॉ, तुम् ें अल्ख्तयर ै जो सैकड़ों
बे ू दा और व्यथय के कपड़े ैं, उन् ें तनकाल डालो। एक सच्चे, ववद्वान पल्ण्डत को
अवश्य बल
ु ाना, इसभलए न ीिं कक व तम
ु से बात-बात पर टके तनकलवाये , बल्कक
इसभलए कक व दे खता र े कक व सब कुछ शास्त्र-ववधि से ो र ा ै , या न ीिं।
अच्छा, अब मुझसे पूछो कक इतने हदनों क्यों चुप्पी सािे बैठी र ी। मेरे ी
खानदान में इन ढाई म ीनों में , पाूँच शाहदयाूँ ु ई। बारातों का ताूँता लगा र ा।
ऐसा शायद ी कोई हदन गया ो कक एक सौ म मानों से कम र े ों और जब
बारात आ जाती थी, तब तो उनकी सिंख्या पाूँच-पाूँच सौ तक प ु ूँच जाती थी। ये
पाूँचों लड़ककयाूँ मुझसे छोटी ैं और मेरा बस चलता तो अभी तीन-चार साल तक
न बोलती, लेककन मेरी सुनता कौन ै और ववचार करने पर मुझे भी ऐसा मालूम
ोता ै कक माता-वपता का लड़ककयों के वववा के भलए जकदी करना कुछ
अनधु चत न ीिं ै । ल्जन्दगी का कोई हठकाना न ीिं। अगर माता-वपता अकाल मर
जायूँ, तो लड़की का वववा कौन करे । भाइयों का क्या भरोसा। अगर वपता ने
काफी दौलत छोड़ी ै तो कोई बात न ीिं ; लेककन जैसा सािारणत: ोता ै , वपता
ऋण का भार छोड़ गये, तो ब न भाइयों पर भार ो जाती ै। य भी अन्य
ककतने ी ह न्द-ू रस्मों की भाूँतत आधथयक समस्या ै , और जब तक मारी
आधथयक दशा न सुिरे गी, य रस्म भी न भमटे गी।
तुम् ारी,
चन्दा
मिंसूरी
5-8-25
प्यारी चन्दा,
सैंकड़ों बातें भलखनी ैं , ककस क्रम से शुरू करूूँ, समझ में न ीिं आता। सबसे प ले
तुम् ारे वववा के शुभ अवसर पर न प ु ूँच सकने के भलए क्षमा चा ती ू ूँ। मैं
आने का तनश्चय कर चक
ु ी थी, मैं और प्यारी चिंदा के स्वयिंवर में न जाऊूँ: मगर
उसके ठीक तीन हदन प ले ववनोद ने अपना आतमसमपयण करके मझ
ु े ऐसा मग्ु ि
कर हदया कक कफर मुझे ककसी की सुधि न र ी। आ ! वे प्रेम के अन्तस्तल से
तनकले ु ए उष्ण, आवेशमय और किंवपत शब्द अभी तक कानों में गूँज
ू र े ैं। मैं
खड़ी थी, और ववनोद मेरे सामने घुटने टे के ु ए प्रेरणा, ववनय और आग्र के
पुतले बने बैठे थे। ऐसा अवसर जीवन में एक ी बार आता ै , केवल एक बार,
मगर उसकी मिरु स्मतृ त ककसी स्वगय-सिंगीत की भाूँती जीवन के तार-तार में
व्याप्त र ता ै । तम
ु उस आनन्द का अनभ
ु व कर सकोगी—मैं रोने लगी, क
न ीिं सकती, मन में क्या-क्या भाव आये; पर मेरी आूँखों से आूँसुओिं की िारा
ब ने लगी। कदाधचत य ी आनन्द की चरम सीमा ै । मैं कुछ-कुछ तनराश ो
चली थी। तीन-चार हदन से ववनोद को आते-जाते कुसुम से बातें करते दे खती
थी, कुसुम तनत नए आभूषणों से सजी र ती थी और क्या क ू ूँ , एक हदन ववनोद
ने कुसम
ु की एक कववता मझ
ु े सन
ु ायी और एक-एक शब्द पर भसर िन
ु ते र े । मैं
मातननी तो ू ूँ ी; सोचा, जब य उस चुड़ल
ै पर लट्टू ो र े ें , तो मुझे क्या गरज
पड़ी ै कक इनके भलए अपना भसर खपाऊूँ। दस
ू रे हदन व सबेरे आये , तो मैंने
क ला हदया, तबीयत अच्छी न ीिं ै । जब उन् ोंने मुझसे भमलने के भलए आग्र
ककया, तब वववश ोकर मुझे कमरे में आना पड़ा। मन में तनश्चय करके आयी
थी—साफ क दिं ग
ू ी अब आप न आया कील्जए। मैं आपके योग्य न ीिं ू ूँ , मैं कवव
न ीिं, ववदष
ु ी न ीिं, सभ
ु ावषणी न ीिं....एक परू ी स्पीच मन में उमड़ र ी थी, पर कमरे
में आई और ववनोद के सतष्ृ ण नेत्र दे खे, प्रबल उतकिंठा में काूँपते ु ए ोंठ—ब न,
उस आवेश का धचत्रण न ीिं कर सकती। ववनोद ने मुझे बैठने भी न हदया। मेरे
सामने घुटनों के बल फशय पर बैठ गये और उनके आतुर उन्मतत शब्द मेरे हृदय
को तरिं धगत करने लगे।
ाूँ, एक बात तो भल
ू ी ी जा र ी थी। अपने वववा का समाचार भलखना।
पततदे व कैसे ैं ? रिं ग-रूप कैसा ै ? ससुराल गयी, या अभी मैके ी में ो ?
ससुराल गयीिं, तो व ाूँ के अनुभव अवश्य भलखना। तुम् ारी खूब नुमाइश ु ई
ोगी। घर, कुटुम्ब और मु कले की मह लाओिं ने घूघ
ूँ ट उठा-उठाकर खूब मूँु दे खा
ोगा, खूब परीक्षा ु ई ोगी। ये सभी बातें ववस्तार से भलखना। दे खें कब कफर
मल
ु ाकात ोती ै।
तुम् ारी,
पद्मा
गोरखपुर
1-9-25
प्यारी पद्मा,
तुम् ारा पत्र पढकर धचतत को बड़ी शािंतत भमली। तुम् ारे न आने ी से मैं समझ
गई थी कक ववनोद बाबू तम्
ु ें र ले गए, मगर य न समझी थी कक तम
ु मिंसरू ी
प ु ूँच गयी। अब उस आमोद-प्रमोद में भला गरीब चन्दा क्यों याद आने लगी।
अब मेरी समझ में आ र ा ै कक वववा के भलए नए और पुराने आदशय में क्या
अन्तर ै । तुमने अपनी पसन्द से काम भलया, सुखी ो। मैं लोक-लाज की दासी
बनी र ी, नसीबों को रो र ी ू ूँ।
अच्छा, अब मेरी बीती सुनो। दान-द े ज के टिं टे से तो मुझे कुछ मतलब ै न ीिं।
वपताजी ने बड़ा ी उदार-हृदय पाया ै । खूब हदल खोलकर हदया ोगा। मगर
द्वार पर बारात आते ी मेरी अल्ग्न-परीक्षा शुरू ो गयी। ककतनी उतकण्ठा थी—
व -दशयन की, पर दे खूूँ कैसे। कुल की नाक न कट जाएगी। द्वार पर बारात
आयी। सारा जमाना वर को घेरे ु ए था। मैंने सोचा—छत पर से दे खू।ूँ छत पर
गयी, पर व ाूँ से भी कुछ न हदखाई हदया। ाूँ, इस अपराि के भलए अम्माूँजी की
घुड़ककयाूँ सुननी पड़ीिं। मेरी जो बात इन लोगों को अच्छी न ीिं लगती, उसका दोष
मेरी भशक्षा के माथे मढा जाता ै । वपताजी बेचारे मेरे साथ बड़ी स ानुभूतत रखते
ैं। मगर ककस-ककस का मूँु पकड़ें। द्वारचार तो यों गज
ु रा और भाूँवरों की
तैयाररयाूँ ोने लगी। जनवासे से ग नों और कपड़ों का थाल आया। ब न ! सारा
घर—स्त्री-पुरुष—सब उस पर कुछ इस तर टूटे , मानो इन लोगों ने कभी कुछ
दे खा ी न ीिं। कोई क ता ै , किंठा तो लाये ी न ीिं; कोई ार के नाम को रोता
ै ! अम्माूँजी तो सचमुच रोने लगी, मानो मैं डुबा दी गयी। वर-पक्षवालों की हदल
खोलकर तनिंदा ोने लगी। मगर मैंने ग नों की तरफ आूँख उठाकर भी न ीिं
दे खा। ाूँ, जब कोई वर के ववषय में कोई बात करता था, तो मैं तन्मय ोकर
सुनने लगती था। मालूम ु आ—दब
ु ले-पतले आदमी ैं। रिं ग साूँवला ै , आूँखें बड़ी-
बड़ी ैं, ूँसमुख ैं। इन सूचनाओिं से दशनोतकिंठा और भी प्रबल ोती थी। भाूँवरों
का मु ू तय ज्यों-ज्यों समीप आता था, मेरा धचतत व्यग्र ोता जाता था। अब तक
यद्यवप मैंने उनकी झलक भी न दे खी थी, पर मुझे उनके प्रतत एक अभूतपूवय
प्रेम का अनुभव ो र ा था। इस वक्त यहद मुझे मालूम ो जाता कक उनके
दश्ु मनों को कुछ ो गया ै , तो मैं बावली ो जाती। अभी तक मेरा उनसे
साक्षात न ीिं ु आ ैं, मैंने उनकी बोली तक न ीिं सुनी ै , लेककन सिंसार का सबसे
रूपवान पुरुष भी, मेरे धचतत को आकवषयत न ीिं कर सकता। अब व ी मेरे सवयस्व
ैं।
आिी रात के बाद भाूँवरें ु ईं। सामने वन-कुण्ड था, दोनों ओर ववप्रगण बैठे ु ए
थे, दीपक जल र ा था, कुल दे वता की मूततय रखी ु ई थीिं। वेद मिंत्र का पाठ ो
र ा था। उस समय मुझे ऐसा मालूम ु आ कक सचमुच दे वता ववराजमान ैं।
अल्ग्न, वायु, दीपक, नक्षत्र सभी मुझे उस समय दे वतव की ज्योतत से प्रदीप्त जान
पड़ते थे। मुझे प ली बार आध्याल्तमक ववकास का पररचय भमला। मैंने जब
अल्ग्न के सामने मस्तक झक
ु ाया, तो य कोरी रस्म की पाबिंदी न थी, मैं
अल्ग्नदे व को अपने सम्मख
ु मतू तयवान, स्वगीय आभा से तेजोमय दे ख र ी थी।
आखखर भाूँवरें भी समाप्त ो गई; पर पततदे व के दशयन न ु ए।
तम्
ु ारी,
चन्दा
5
मिंसरू ी
20-9-25
प्यारी चन्दा,
अच्छा, अब कुछ मेरी भी कथा सुन लो। मुझे ऐसा सिंदे ो र ा ै कक ववनोद ने
मेरे साथ दगा की ै । इनकी आधथयक दशा वैसी न ीिं , जैसी मैंने समझी थी। केवल
मझ
ु े ठगने के भलए इन् ोंने सारा स्वाूँग भरा था। मोटर माूँगे की थी, बूँगले का
ककराया अभी तक न ीिं हदया गया, फरतनचर ककराये के थे। य सच ै कक
इन् ोंने प्रतयक्ष रूप से मुझे िोखा न ीिं हदया। कभी अपनी दौलत की डीिंग न ीिं
मारी, लेककन ऐसा र न-स न बना लेना, ल्जससे दस
ू रों को अनुमान ो कक य
कोई बड़े िनी आदमी ैं, एक प्रकार का िोखा ी ै। य स्वाूँग इसीभलए भरा
गया था कक कोई भशकार फूँस जाय। अब दे खती ू ूँ कक ववनोद मझ
ु से अपनी
असली ालत को तछपाने का प्रयतन ककया करते ैं। अपने खत मझ
ु े न ीिं दे खने
दे त,े कोई भमलने आता ै , तो चौंक पड़ते ैं और घबरायी ु ई आवाज में बेरा से
पूछते ैं, कौन ै ? तुम जानती ो, मैं िन की लौंडी न ीिं। मैं केवल ववशु्ध हृदय
चा ती ू ूँ। ल्जसमें पुरुषाथय ै , प्रततभा ै, व आज न ीिं तो कल अवश्य ी
िनवान ोकर र े गा। मैं इस कपट-लीला से जलती ू ूँ। अगर ववनोद मुझसे
अपनी कहठनाइयाूँ क दें , तो मैं उनके साथ स ानभ
ु तू त करूूँगी, उन कहठनाइयों
को दरू करने में उनकी मदद करूूँगी। यों मुझसे परदा करके य मेरी स ानुभूती
और स योग ी से ाथ न ीिं िोते, मेरे मन में अववश्वास, द्वेष और क्षोभ का
बीज बोते ैं। य धचिंता मुझे मारे डालती ैं। अगर इन् ोंने अपनी दशा साफ-
साफ बता दी ोती, तो मैं य ाूँ मिंसूरी आती ी क्यों ? लखनऊ में ऐसी गरमी
न ीिं पड़ती कक आदमी पागल ो जाय। य जारों रुपये क्यों पानी पड़ता। सबसे
कहठन समस्या जीववका की ै । कई ववद्यालयों में आवेदन-पत्र भेज रखे
ैं।जवाब का इिंतजार कर र े ैं। शायद इस म ीने के अिंत तक क ीिं जग भमल
जाय। प ले तीन-बार सौ भमलेंगे। समझ में न ीिं आता, कैसे काम चलेगा। डेढ सौ
रुपये तो पापा मेरे कालेज का खचय दे ते थे। अगर दस-पाूँच म ीने जग न भमली
तो य क्या करें गे , य कफक्र और भी खाये डालती ै । मुल्श्कल य ी ै कक
ववनोद मुझसे परदा रखते ैं। अगर म दोनों बैठकर परामशय कर लेत,े तो सारी
गल्ु तथयाूँ सल
ु झ जातीिं। मगर शायद य मझ
ु े इस योग्य ी न ीिं समझते। शायद
इनका खयाल ै कक मैं केवल रे शमी गडु ड़या ू ूँ, ल्जसे भाूँतत-भाूँतत के आभष
ू णों,
सुगिंिों और रे शमी वस्त्रों से सजाना ी काफी ै । धथरे टर में कोई नया तमाशा
ोने वाला ोता ै , दौड़े ु ए आकर मुझे खबर दे ते ैं। क ीिं कोई जलसा ो, कोई
खेल ो, क ीिं सैर करना ो उसकी शुभ सूचना मुझे अववलम्ब दी जाती ै और
बड़ी प्रसन्नता के साथ, मानो मैं रात-हदन ववनोद और क्रीड़ा और ववलास में मग्न
र ना चा ती ू ूँ , मानो मेरे हृदय में गिंभीर अिंश ै ी न ीिं। य मेरा अपमान ै;
घोर अपमान, ल्जसे मैं अब न ीिं स सकती। मैं अपने सिंपण
ू य अधिकार लेकर ी
सिंतुष्ट ो सकती ू ूँ। बस, इस वक्त इतना ी। बाकी कफर। अपने य ाूँ का ाल-
वाल ववस्तार से भलखना। मझ
ु े अपने भलए ल्जतनी धचिंता ै , उससे कम तुम् ारे
भलए न ीिं ै । दे खो, म दोनों के डोंगे क ाूँ लगते ैं। तुम अपनी स्वदे शी, पाूँच
जार वषों की पुरानी जजयर नौका पर बैठी ो, मैं नये, द्रत
ु गामी मोटर-बोट पर।
अवसर, ववञा ान और उद्योग। मेरे साथ ैं। लेककन कोई दै वी ववपल्तत आ जाय,
तब भी इसी मोटर-बोट पर डूबूँग
ू ी। साल में लाखों आदमी रे ल के टक्करों से मर
जाते ैं, पर कोई बैलगाडडयों पर यात्रा न ीिं करता। रे लों का ववस्तार बढता ी
जाता ै । बस।
तुम् ारी,
पद्मा
गोरखपरु
25-9-25
प्यारी पद्मा,
कल तुम् ारा खत भमला, आज जवाब भलख र ी ू ूँ। एक तुम ो कक म ीनों रटाती
ो। इस ववषय में तम्
ु ें मझ
ु से उपदे श लेना चाह ए। ववनोद बाबू पर तम
ु व्यथय
ी आक्षेप लगा र ी ो। तुमने क्यों प ले ी उनकी आधथयक दशा की जाूँच-
पड़ताल न ीिं की ? बस, एक सुन्दर, रभसक, भशष्ट, वाणी-मिुर युवक दे खा और फूल
उठीिं ? अब भी तम्
ु ारा ी दोष ै । तम
ु अपने व्यव ार से, र न-स न से भस्ध कर
दो कक तम
ु में गिंभीर अिंश भी ैं, कफर दे खूूँ कक ववनोद बाबू कैसे तम
ु से परदा रखते
ैं। और ब न, य तो मानवी स्वभाव ै । सभी चा ते ैं कक लोग में सिंपन्न
समझें। इस स्वाूँग को अिंत तक तनभाने की चेष्टा की जाती ै और जो इस
काम में सफल ो जाता ै , उसी का जीवन सफल समझा जाता ै । ल्जस युग में
िन ी सवयप्रिान ो, मयायदा, कीततय, यश—य ाूँ तक कक ववद्या भी िन से खरीदी
जा सके, उस यग
ु में स्वाूँग भरना एक लाल्जमी बात ो जाती ै । अधिकार
योग्यता का मूँु ताकते ैं ! य ी समझ लो कक इन दोनों में फूल और फल का
सिंबिंि ै । योग्यता का फूल लगा और अधिकार का फल आया।
ब न, आूँखों में आूँसू भर आते ैं, अब न ीिं भलखा जाता, जवाब जकद दे ना।
तुम् ारी,
चन्दा
7
हदकली
15-12-25
प्यारी ब न,
तझ
ु से बार-बार क्षमा माूँगती ू ूँ, पैरों पड़ती ू ूँ। मेरे पत्र न भलखने का कारण
आलस्य न था, सैर-सपाटे की िन
ु न थी। रोज सोचती थी कक आज भलखग
ूूँ ी, पर
कोई-न-कोई ऐसा काम आ पड़ता था, कोई ऐसी बात ो जाती थी; कोई ऐसी
बािा आ खड़ी ोती थी कक धचतत अशािंत ो जाता था और मूँु लपेट कर पड़
र ती थी। तुम मुझे अब दे खो तोशायद पह चान न सको। मिंसूरी से हदकली आये
एक म ीना ो गया। य ाूँ ववनोद को तीन सौ रुपये की एक जग भमल गयी
ै। य सारा म ीना बाजार की खाक छानने में कटा। ववनोद ने मझ
ु े परू ी
स्वािीनता दे रखी ै । मैं जो चा ू ूँ , करूूँ, उनसे कोई मतलब न ीिं। व मेरे मे मान
ैं। ग ृ स्थी का सारा बोझ मुझ पर डालकर व तनल्श्चिंत ो गए ैं। ऐसा बेकफक्रा
मैंने आदमी ी न ीिं दे खा। ाल्जरी की परवा ै , न डडनर की, बुलाया तो आ गए,
न ीिं तो बैठे ैं। नौकरों से कुछ बोलने की तो मानो इन् ोंने कसम ी खा ली ै।
उन् ें डाटूूँ तो मैं, रखूूँ तो मैं, तनकालूँ ू तो मैं, उनसे कोई मतलब ी न ीिं। मैं चा ती
तुम् ारी,
पद्मा
8
काशी
25-12-25
प्यारी पद्मा,
तुम् ारा पत्र पढकर मुझे कुछ द:ु ख ु आ, कुछ ूँसी आयी, कुछ क्रोि आया। तुम
क्या चा ती ो, य तम्
ु ें खद
ु न ीिं मालम
ू । तम
ु ने आदशय पतत पाया ै , व्यथय की
शिंकाओिं से मन को अशािंत न करो। तुम स्वािीनता चा ती थीिं, व तुम् ें भमल
गयी। दो आदभमयों के भलए तीन सौ रुपये कम न ीिं ोते। उस पर अभी तुम् ारे
पापा भी सौ रुपये हदये जाते ैं। अब और क्या करना चाह ए? मझ
ु े भय ोता ै
कक तम्
ु ारा धचतत कुछ अव्यवल्स्थत ो गया ै । मेरे पास तम्
ु ारे भलए
स ानुभूतत का एक शब्द भी न ीिं।
ू ूँ। रोज ी बीमार र ती थी। अम्माूँजी रात-रात भर मुझे गोद में भलये बैठी र
जाती थी। वपताजी के कन्िों पर चढकर उचकने की याद मझ
ु े अभी तक आती
ै । उन् ोंने कभी मुझे कड़ी तनगा से न ीिं दे खा। मेरे भसर में ददय ु आ और
उनके ाथों के तोते उड़ जाते थे। दस वषय की उम्र तक तो यों गए। छ: साल
दे रादन
ू में गुजरे । अब, जब इस योग्य ु ई कक उनकी कुछ सेवा करूूँ, तो यों पर
झाड़कर अलग ो गई। कुल आठ म ीने तक उनके चरणों की सेवा कर सकी
और य ी आठ म ीने मेरे जीवन की तनधि ै । मेरी ईश्वर से य ी प्राथयना ै कक
मेरा जन्म कफर इसी गोद में ो और कफर इसी अतल
ु वपतस्
ृ ने का आनन्द
भोगूँ।ू
सन्ध्या समय गाड़ी स्टे शन से चली। मैं जनाना कमरे में थी और लोग दस
ू रे
कमरे में थे। उस वक्त स सा मझ
ु े स्वामीजी को दे खने की प्रबल इच्छा ु ई।
सान्तवना, स ानुभूतत और आश्रय के भलए हृदय व्याकुल ो र ा था। ऐसा जान
पड़ता था जैसे कोई कैदी कालापानी जा र ा ो। घिंटे भर के बाद गाड़ी एक
स्टे शन पर रुकी। मैं पीछे की ओर खखड़की से भसर तनकालकर दे खने लगी। उसी
वक्त द्वार खुला और ककसी ने कमरे में कदम रखा। उस कमरे में एक औरत
भी न थी। मैंने चौंककर पीछे दे खा तो एक पुरुष। मैंने तुरन्त मूँु तछपा भलया
और बोली, आप कौन ैं ? य जनाना कमरा ै । मरदाने कमरे में जाइए।
पुरुष ने खड़े-खड़े क ा—मैं तो इसी कमरे में बैठूूँगा। मरदाने कमरे में भीड़ ब ु त
ै । मैंने रोष से क ा—न ीिं, आप इसमें न ीिं बैठ सकते।
‘मैं तो बैठूूँगा।’
‘आपको तनकलना पड़ेगा। आप अभी चले जाइये , न ीिं तो मैं अभी जिंजीर खीिंच
लूँ ग
ू ी।’
‘अरे सा ब, मैं भी आदमी ू ूँ, कोई जानवर न ीिं ू ूँ। इतनी जग पड़ी ु ई ै।
आपका इसमें रज क्या ै ?’
गाड़ी ने सीटी दी। मैं और घबराकर बोली—आप तनकलते ैं , या मैं जिंजीर खीिंचूँू ?
परु
ु ष ने मस्
ु कराकर क ा—आप तो बड़ी गस्
ु सावर मालम
ू ोती ैं। एक गरीब
आदमी पर आपको जरा भी दया न ीिं आती ?
मैंने झटककर अपना ाथ छुटा भलया। सारी दे काूँपने लगी। आूँखों में आूँसू भर
आये। उस वक्त अगर मेरे पास कोई छुरी या कटार ोती, तो मैंने जरूर उसे
तनकाल भलया ोता और मरने-मारने को तैयार ो गई ोती। मगर इस दशा में
क्रोि से ओिंठ चबाने के भसवा और क्या करती ! आखखर झकलाना व्यथय
समझकर मैंने साविान ोने की चेष्टा करके क ा—आप कौन ैं ? उसने उसी
हढठाई से क ा—तुम् ारे प्रेम का इच्छुक।
‘अगर आप मेरे आभशक ैं, तो कम-से-कम इतनी बात मातनए कक अगले स्टे शन
पर उतर जाइए। मझ
ु े बदनाम करके आप कुछ न पायेंगे। मझ
ु पर इतनी दया
कील्जए।’
उसने ग्लातन से भरे ु ए स्वर में क ा—‘क्यों खीिंच भलया, मैं तो चला जा र ा
था।’
‘अगला स्टे शन आने दील्जए।’
‘अगर मझ
ु पर इतनी दया ै , तो एक बार जरा दशयन ी दे दो।’
मैंने तनस्सिंकोच ोकर क ा—तो कफर आपके साथ मेरे पतत क्या व्यव ार करें गे ,
य भी आप समझते ोंगे ?
मेरा हृदय उछल पड़ा। एक बार मूँु से तनकला—अरे ! आप!!’ और मैं दरू टकर
खड़ी ो गयी। एक ाथ लिंबा घघ
ूूँ ट खीिंच भलया। मूँु से एक शब्द न तनकला।
मैंने क ा—आप बड़े छभलये ैं ! इतनी दे र तक मुझे रुलाने में क्या मजा आया?
‘अवश्य?’
‘बड़ी खैररयत ु ई, मगर य हदकलगी ब ु त हदनों याद र े गी।’ मेरे स्वामी औसत
कद के, साूँवले, चेचकरू, दब
ु ले आदमी ैं। उनसके क ीिं रूपवान पुरुष मैंने दे खे ैं:
पर मेरा हृदय ककतना उकलभसत ो र ा था ! ककतनी आनन्दमय सन्तुल्ष्ट का
अनभ
ु व कर र ी थी, मैं बयान न ीिं कर सकती।
मैंने पूछा—गाड़ी कब तक प ु ूँ चग
े ी ?
उन् ोंने भसर झुकाकर शमायते ु ए क ा—मैं जानता कक तुम इतनी रूपवती ो, तो
मैं तम
ु से वववा न करता। अब तम्
ु ें दे खकर मझ
ु े मालम
ू ो र ा ै कक मैंने
तम्
ु ारे साथ अन्याय ककया ै। मैं ककसी तर तम्
ु ारे योग्य न था।
मैंने पान का बीड़ा उन् ें दे ते ु ए क ा—ऐसी बातें न कील्जए। आप जैसे ैं, मेरे
सवयस्व ैं। मैं आपकी दासी बनकर अपने भाग्य को िन्य मानती ू ूँ।
दस
ू रा स्टे शन आ गया। गाड़ी रुकी। स्वामी चले गये। जब-जब गाड़ी रुकती थी,
व आकर दो-चार बातें कर जाते थे। शाम को म लोग बनारस प ु ूँच गए।
मकान एक गली में ै और मेरे घर से ब ु त छोटा ै । इन कई हदनों में य भी
मालम
ू ो र ा ै कक सासजी स्वभाव की रूखी ैं। लेककन अभी ककसी के बारे में
कुछ न ीिं क सकती। सम्भव ै , मुझे भ्रम ो र ा ो। कफर भलखूग
ूँ ी। मुझे
इसकी धचन्ता न ीिं कक घर कैसा ै , आधथयक दशा कैसी ै , सास-ससुर कैसे ैं।
मेरी इच्छा ै कक य ाूँ सभी मझ
ु से खश
ु र ें । पततदे व को मझ
ु से प्रेम ै, य मेरे
भलए काफी ै । मझ
ु े और ककसी बात की परवा न ीिं। तम्
ु ारे ब नोईजी का मेरे
पास बार-बार आना सासजी को अच्छा न ीिं लगता। व समझती ैं , क ीिं य
भसर न चढ जाय। क्यों मुझ पर उनकी य अकृपा ै, क न ीिं सकती; पर
इतना जानती ू ूँ कक व अगर इस बात से नाराज ोती ैं, तो मारे ी भले के
भलए। व ऐसी कोई बात क्यों करें गी, ल्जसमें मारा ह त न ो। अपनी सन्तान
का अह त कोई माता न ीिं कर सकती। मझ
ु ी में कोई बरु ाई उन् ें नजर आई
ोगी। दो-चार हदन में आप ी मालम
ू ो जाएगा ! अपने य ाूँ के समाचार
भलखना। जवाब की आशा एक म ीने के प ले तो ै न ीिं , यों तुम् ारी खुशी।
तम्
ु ारी,
चन्दा
9
हदकली
1-2-26
प्यारी ब न,
तम्
ु ारे प्रथम भमलन की कुतू लमय कथा पढकर, धचतत प्रसन्न ो गया। मझ
ु े
तुम् ारे ऊपर सद ो र ा ै । में ने समझा था, तुम् ें मुझ पर सद ोगा, पर
कक्रया उलटी ो गयी, तुम् ें चारों ओर ररयाली ी नजर आती ै , मैं ल्जिर नजर
डालती ू ूँ , सूखे रे त और नग्न टीलों के भसवा और कुछ न ीिं। खैर ! अब कुछ
मेरा वतृ तान्त सुनो—
चिंदा, मुझे क्षमा करना। मैं न ीिं जानती कक ऐसे पुरुष के पाले पड़कर तुम् ारी
क्या दशा ोती, पर मेरे भलए इस दशा में र ना असह्य ै । मैं आगे जो वतृ तान्त
क ने वाली ू ूँ , उसे सन
ु कर तम
ु नाक-भौं भसकोड़ोगी, मझ
ु े कोसोगी, कलिंककनी
क ोगी; पर जो चा े क ो, मुझे परवा न ीिं। आज चार हदन ोते ैं, मैंने बत्रया-
चररत्र का एक नया अभभनय ककया। म दोनों भसनेमा दे खने गये थे। व ाूँ मेरी
बगल में एक बिंगाली बाबू बैठे ु ए थे। ववनोद भसनेमा में इस तर बैठते ैं , मानो
ध्यानावस्था में ों। न बोलना, न चालना! कफकम इतनी सुन्दर थी, ऐल्क्टिं ग इतनी
सजीव कक मेरे मूँु से बार-बार प्रशिंसा के शब्द तनकल जाते थे। बिंगाली बाबू को
भी बड़ा आनन्द आ र ा था। म दोनों उस कफकम पर आलोचनाएूँ करने लगे।
व कफकम के भावों की इतनी रोचक व्याख्या करता था कक मन मुग्ि ो जाता
था। कफकम से ज्यादा मजा मझ
ु े उसकी बातों में आ र ा था। ब न, सच क ती
ववनोद बोले— ाूँ- ाूँ चलो, इिर-उिर ट ल आयें। मैंने लापरवा ी से क ा—तुम् ारा
जी न चा े तो मत चलो, मैं मजबूर न ीिं करती।
य बातें करते-करते म रे स्राूँ में प ु ूँच गये। बाबू ने चाय और टोस्ट भलया।
मैंने भसफय चाय ली।
‘तो इसी वक्त आपका म ाराजा सा ब से पररचय करा दिं ।ू आपको आश्चयय ोगा
कक मक
ु ु टिाररयों में भी इतनी नम्रता और ववनय ो सकती ै । उनकी बातें
सुनकर आप मुग्ि ो जायूँगी।’
मैंने आईने में अपनी सरू त दे खकर क ा—जी न ीिं, कफर ककसी हदन पर रखखए।
आपसे तो अक्सर मल
ु ाकात ोती र े गी। क्या आपकी स्त्री आपके साथ न ीिं
आयीिं ?
यव
ु क ने मस्
ु कराकर क ा—मैं अभी क्वाूँरा ू ूँ और शायद क्वाूँरा ी र ू ूँ?
मैंने उतसुक ोकर पूछा—अच्छा! तो आप भी ल्स्त्रयों से भागने वाले जीवों में ैं।
इतनी बातें तो ो गयी और आपका नाम तक न पूछा।
बाबू ने अपना नाम भुवनमो न दास गुप्त बताया। मैंने अपना पररचय हदया।
‘जी न ीिं, मैं उन अभागों में ू ूँ, जो एक बार तनराश ोकर कफर उसकी परीक्षा न ीिं
करते। रूप की तो सिंसार में कमी न ीिं, मगर रूप और गुण का मेल ब ु त कम
दे खने में आता ै । ल्जस रमणी से मेरा प्रेम था, व आज एक बड़े वकील की
पतनी ै । मैं गरीब था। इसकी सजा मुझे ऐसी भमली कक जीवनपययन्त न भूलेगी।
साल-भर तक ल्जसकी उपासना की, जब उसने मुझे िन पर बभलदान कर हदया,
तो अब और क्या आशा रखू?ूँ
मैंने ूँसकर क ा— ाूँ, इस वक्त आप ऐसा क सकते ैं ; मगर ऐसी परीक्षा में
पड़कर आपकी क्या दशा ोती, इसे आप तनश्चयपूवक
य न ीिं बता सकते। भसपा ी
की ब ादरु ी का प्रमाण उसकी तलवार ै , उसकी जबान न ीिं। इसे अपना सौभाग्य
समखझए कक आपको उस परीक्षा में न ीिं पड़ना पड़ा। व प्रेम , प्रेम न ीिं ै , जो
प्रतयाघात की शरण ले। प्रेम का आहद भी सहृदयता ै और अन्त भी सहृदयता।
सम्भव ै , आपको अब भी कोई ऐसी बात मालूम ो जाय, जो ववमला की तरफ
से आपको नमय कर दे ।
भव
ु न ग रे ववचार में डूब गया। एक भमनट के बाद उन् ोंने भसर उठाया। और
बोले—‘भमसेज ववनोद, आपने आज एक ऐसी बात सुझा दी, जो आज तक मेरे
ध्यान में आयी ी न थी। य भाव कभी मेरे मन में उदय ी न ीिं ु आ। मैं
इतना अनुदार क्यों ो गया, समझ में न ीिं आता। मुझे आज मालूम ु आ कक
प्रेम के ऊूँचे आदशय का पालन रमखणयाूँ ी कर सकती ैं। पुरुष कभी प्रेम के
भलए आतम-समपयण न ीिं कर सकता — व प्रेम को स्वाथय और वासना से पथ
ृ क
न ीिं कर सकता। अब मेरा जीवन सख
ु मय ो जायगा। आपने मझ
ु े आज भशक्षा
दी ै , उसके भलए आपको िन्यवाद दे ता ू ूँ।’ य क ते-क ते भव
ु न स सा चौंक
पड़े और बोले—ओ ! मैं ककतना बड़ा मख
ू य ू ूँ—सारा र स्य समझ में आ गया,
अब कोई बात तछपी न ीिं ै । ओ , मैंने ववमला के साथ घोर अन्याय ककया!
म ान अन्याय! मैं बबककुल अिंिा ो गया था। ववमला, मुझे क्षमा करो।
भव
ु न इसी तर दे र तक ववलाप करते र े । बार-बार मझ
ु े िन्यवाद दे ते थे और
मूखत
य ा पर पछताते थे। में इसकी सुि ी न र ी कक कब घिंटी बजी, कब खेल
शुरू ु आ। यकायक ववनोद कमरे में आए। मैं चौंक पड़ी। मैंने उनके मुख की
ओर दे खा, ककसी भाव का पता न था। बोले—तुम अभी य ी ो, पद्मा! खेल शुरू
भुवन भी उठे । म कफर आकर तमाशा दे खने लगे। ववनोद ने मुझे अगर इस
वक्त दो-चार लगने वाली बातें क दी ोतीिं, उनकी आूँखों में क्रोि की झलक
हदखायी दे ती, तो मेरा अशान्त हृदय सूँभल जाता, मेरे मन को ढाढस ोती, पर
उनके अववचभलत ववश्वास ने मुझे और भी अशािंत कर हदया। ब न, मैं चा ती ू ूँ ,
व मझ
ु पर शासन करें । मैं उनकी कठोरता, उनकी उद्दण्डता, उनकी बभलष्ठता का
रूप दे खना चा ती ू ूँ। उनके प्रेम, प्रमोद, ववश्वास का रूप दे ख चुकी। इससे मेरी
आतमा को तल्ृ प्त न ीिं ोती ! तुम उस वपता को क्यों क ोगी, जो अपने पुत्र को
अच्छा खखलाये, अच्छा प नाये, पर उसकी भशक्षा-दीक्षा की कुछ धचनता न करे ; व
ल्जस रा जाय, उस रा जाने दे ; जो कुछ करे , व करने दे । कभी उसे कड़ी आूँख
से दे खे भी न ीिं। ऐसा लड़का अवश्य ी आवारा ो जायगा। मेरा भी व ी ाल
मने कोई आपल्तत न ीिं की। मारे मकान का पता पूछकर भुवन ने कार चला
दी। रास्ते में मैंने भव
ु न से क ा—‘कल मेरे य ाूँ दोप र का खाना खाइएगा।’
भुवन ने स्वीकार कर भलया। भुवन तो में प ु ूँचाकर चले गए, पर मेरा मन बड़ी
दे र तक उन् ीिं की तरफ लगा र ा। इन दो-तीन घिंटों में भुवन को ल्जतना
समझी, उतना ववनोद को आज तक न ीिं समझी। मैंने भी अपने हृदय की
ल्जतनी बातें उससे क दीिं, उतनी ववनोद से आज तक न ीिं क ीिं। भुवन उन
मनुष्यों में ै , जो ककसी पर परु
ु ष को मेरी कुदृल्ष्ट डालते दे खकर उसे मार
डालेगा। उसी तर मझ
ु े ककसी परु
ु ष से ूँसते दे खकर मेरा खन
ू पी लेगा और
जरूरत पड़ेगी, तो मेरे भलए आग में कूद पड़ेगा। ऐसा ी पुरुष-चररत्र मेरे हृदय
पर ववजय पर सकता ै ।मेरे ी हृदय पर न ीिं, नारी-जातत (मेरे ववचार में ) ऐसे
ी पुरुष पर जान दे ती ैं। व तनबयल ै , इसभलए बलवान का आश्रय ढूूँढती ै।
ब न, तम
ु ऊब गई ोगी, खत ब ु त लम्बा ो गया; मगर इस काण्ड को समाप्त
ककए बबना न ीिं र ा जाता। मैंने सबेरे ी से भव
ु न की दावत की तैयारी शुरू कर
दी। रसोइया तो काठ का उकलू ै , मैंने सारा काम अपने ाथ से ककया। भोजन
बनाने में ऐसा आनन्द मुझे और कभी न भमला था।
भव
ु न बाबू की कार ठीक समय पर आ प ु ूँची। भव
ु न उतरे और सीिे मेरे कमरे
में आए। दो-चार बातें ु ईं। डडनर-टे बल पर जा बैठे। ववनोद भी भोजन करने
आए। मैंने उन दोनों आदभमयों का पररचय करा हदया। मुझे ऐसा मालूम ु आ
कक ववनोद ने भुवन की ओर से कुछ उदासीनता हदखायी। इन् ें राजाओिं-रईसों से
धचढ ै , साम्यवादी ैं। जब राजाओिं से धचढ ै तो उनके वपट्ठुओिं से क्यों न ोती।
व समझते ैं , इन रईसों के दरबार में खश
ु ामदी, तनकम्मे, भस्ध ान्त ीन, चररत्र ीन
लोगों का जमघट र ता ै , ल्जनका इसके भसवाय और कोई काम न ीिं कक अपने
रईस की र एक उधचत-अनुधचत इच्छा पूरी करें और प्रजा का गला काटकर
अपना घर भरें । भोजन के समय बातचीत की िारा घूमते-घूमते वववा और प्रेम-
जैसे म ततव के ववषय पर आ प ु ूँची।
ववनोद ने क ा—‘न ीिं, मैं वतयमान वैवाह क प्रथा को पसन्द न ीिं करता। इस प्रथा
का आववष्कार उस समय ु आ था, जब मनुष्य सभ्यता की प्रारल्म्भक दशा में
था। तब से दतु नयािं ब ु त आगे बढी ै । मगर वववा प्रथा में जौ-भर भी अन्तर
न ीिं पड़ा। य प्रथा वतयमान काल के भलए इपयोगी न ीिं। ’
‘और दस
ू रा?’
‘दस
ू रा य कक य व्यल्क्तयों की स्वािीनता में बािक ैं। य स्त्रीव्रत और
पततव्रत का स्वाूँग रचकर मारी आतमा को सिंकुधचत कर दे ता ै। मारी बवु ्ध के
ववकास में ल्जतनी रुकावट इस प्रथा ने डाली ै , उतनी और ककसी भौततक या
दै ववक क्रािंतत से भी न ीिं ु ई। इसने भम्या आदशों को मारे सामने रख हदया
और आज तक म उन् ीिं पुरानी, सड़ी ु ई, लज्जाजनक पाशववक लकीरों को
पीटते जाते ैं। व्रत केवल एक तनरथयक बिंिन का नाम ै । इतना म ततवपूणय
नाम दे कर मने उस कैद को िाभमयक रूप दे हदया ै । परु
ु ष क्यों चा ता ै कक
स्त्री उसको अपना ईश्वर, अपना सवयस्व समझे ? केवल इसभलए कक व उसका
भरण-पोषण करता ै । क्या स्त्री का कततयव्य केवल पुरुष की सम्पल्तत के भलए
वाररस पैदा करना ै ? उस सम्पल्तत के भलए ल्जस पर, ह न्द ू नीततशास्त्र के
अनुसार, पतत के दे ान्त के बाद उसका कोई अधिकार न ीिं र ता। समाज की
य सारी व्यवस्था, सारा सिंगठन सम्पल्तत-रक्षा के आिार पर ु आ ै । इसने
सम्पल्तत को प्रिान और व्यल्क्त को गौण कर हदया ै। मारे ी वीयय से
उतपन्न सन्तान मारी कमाई ु ई जायदाद का भोग करे , इस मनोभाव में
ककतनी स्वाथायन्िता, ककतना दासतव तछपा ु आ ै , इसका कोई अनुमान न ीिं कर
सकता। इस कैद में जकड़ी ु ई समाज की सन्तान यहद आज घर में , दे श में,
सिंसार में , अपने क्रूर स्वाथय के भलए रक्त की नहदयाूँ ब ा र ी ै , तो क्या आश्चयय
ै । मैं इस वैवाह क प्रथा को सारी बुराइयों का मूल समझता ू ूँ।
भुवन चककत ो गया। मैं खुद चककत ो गई। ववनोद ने इस ववषय पर मुझसे
कभी इतनी स्पष्टता से बातचीत न की थी। मैं य तो जानती थी, व
साम्यवादी ैं, दो-एक बार इस ववषय पर उनसे ब स भी कर चुकी ू ूँ , पर
वैवाह क प्रथा के वे इतने ववरोिी ैं, य मझ
ु े मालम
ू न था। भव
ु न के चे रे से
ऐसा प्रकट ोता था कक उन् ोंने ऐसे दाशयतनक ववचारों की गिंि तक न ीिं पाई।
जरा दे र के बाद बोले—प्रोफेसर सा े ब, आपने तो मुझे एक बड़े चक्कर में डाल
हदया। आखखर आप इस प्रथा की जग कोई और प्रथा रखना चा ते ैं या वववा
की आवश्यकता ी न ीिं समझते ? ल्जस तर पशु-पक्षी आपस में भमलते ैं, व
में भी करना चाह ए?
ववनोद ने तुरिंत उततर हदया—ब ु त कुछ। पशु-पखखयों में सभी का मानभसक
ववकास एक-सा न ीिं ै । कुछ ऐसे ैं, जो जोड़े के चुनाव में कोई ववचार न ीिं
रखते। कुछ ऐसे ैं, जो एक बार बच्चे पैदा करने के बाद अलग ो जाते ैं , और
कुछ ऐसे ैं, जो जीवनपययन्त एक साथ र ते ैं। ककतनी ी भभन्न-भभन्न श्रेखणयाूँ
ैं। मैं मनष्ु य ोने के नाते उसी श्रेणी को श्रेष्ठ समझता ू ूँ , जो जीवनपययन्त एक
साथ र ते ैं। मगर स्वेच्छा से। उनके य ाूँ कोई कैद न ीिं , कोई सजा न ीिं। दोनों
अपने-अपने चारे -दाने की कफक्र करते ैं। दोनों भमलकर र ने का स्थान बनाते ैं ,
दोनों साथ बच्चों का पालन करते ैं। उनके बीच में कोई तीसरा नर या मादा
आ ी न ीिं सकता, य ाूँ तक कक उनमें से जब एक मर जाता ै तो दस
ू रा मरते
दम तक फुट्टै ल र ता ै। य अन्िेर मनष्ु य-जातत ी में ै कक स्त्री ने ककसी
दस
ू रे परु
ु ष से ूँसकर बात की और उसके परु
ु ष की छाती पर साूँप लोटने लगा,
खून-खराबे के मिंसूबे सोचे जाने लगे। पुरुष ने ककसी दस
ू री स्त्री की ओर रभसक
नेत्रों से दे खा और अिाांधगनी ने तयोररयाूँ बदलीिं, पतत के प्राण लेने को तैयार ो
गई। य सब क्या ै ? ऐसा मनुष्य-समाज सभ्यता का ककस मूँु से दावा कर
सकता ै ?
मैंने मारे शमय के भसर झुका भलया। क्या जवाब दे ती। ववनोद की अल्न्तम बात ने
मेरे हृदय पर कठोर आघात ककया था। मुझे ऐसा मालम
ू ो र ा था कक ववनोद
ने केवल मुझे सुनाने के भलए वववा का य नया खण्डन तैयार ककया ै। व
मुझसे वपिंड छुड़ा लेना चा ते ैं। व ककसी रमणी की ताक में ैं, मुझसे उनका
जी भर गया। व ख्याल करके मझ
ु े बड़ा द:ु ख ु आ। मेरी आूँखों से आूँसू ब ने
लगे। कदाधचत एकािंत में मैं न रोती, पर भव
ु न के सामने मैं सिंयत न र सकी।
भुवन ने मुझे ब ु त सािंतवना दी—‘आप व्यथय इतना शोक करती ैं। भमस्टर
ववनोद आपका मान न करें ; पर सिंसार में कम-से-कम एक ऐसा व्यल्क्त ै , जो
आपके सिंकेत पर अपने प्राण तक न्योछावर कर सकता। आप-जैसी रमणी-रतन
पाकर सिंसार में ऐसा कौन पुरुष ै , जो अपने भाग्य को िन्य न मानेगा। आप
इसकी बबलकुल धचन्ता न करें ।’
मुझे भुवन की य बात बुरी मालूम ु ई। क्रोि से मेरा मुख लाल ो गया। य
िूतय मेरी इस दब
ु ल
य ता से लाभ उठाकर मेरा सवयनाश करना चा ता ै । अपने
दभ
ु ायग्य पर बराबर रोना आता था। अभी वववा ु ए साल भी न ीिं पूरा ु आ, मेरी
य दशा ो गई कक दस
ू रों को मुझे ब काने और मुझ पर अपना जाद ू चलाने
का सा स ो र ा ै । ल्जस वक्त मैंने ववनोद को दे खा था, मेरा हृदय ककतना
फूल उठा था। मैंने अपने हृदय को ककतनी भल्क्त से उनके चरणों पर अपयण
ककया था। मगर क्या जानती थी कक इतनी जकद मैं उनकी आूँखों से धगर
जाऊूँगी और मुझे पररतयक्ता समझ, कफर शो दे मुझ पर डोरे डालें गे।
ब न, इसे दो हदन ो गये ैं। पर मैं कमरे से बा र न ीिं तनकली। भुवन दो-तीन
बार आ चुका ै , मगर मैंने उससे भमलने से साफ इनकार कर हदया। अब शायद
उसे कफर आने का सा स न ोगा। ईश्वर ने बड़े नाजुक मौके पर मुझे सुबुव्ध
प्रदान की, न ीिं तो मैं अब तक अपना सवयनाश कर बैठी ोती। ववनोद प्राय: मेरे
पास ी बैठे र ते ैं। लेककन उनसे बोलने को मेरा जी न ीिं चा ता। जो परु
ु ष
व्यभभचार का दाशतनयक भस्ध ािंतों से समथनय कर सकता ै , ल्जसकी आूँखों में
वववा -जैसे पववत्र बन्िन को कोई मूकय न ीिं, जो न मेरा ो सकता ै , न मुझे
अपना बना सकता ै , उसके साथ मुझ-जैसी मातननी गववयणी स्त्री का कै हदन
तनवाय ोगा!
बस, अब ववदा ोती ू ूँ। ब न, क्षमा करना। मैंने तुम् ारा ब ु त-सा अमूकय समय
ले भलया। मगर इतना समझ लो कक मैं तुम् ारी दया न ीिं, स ानुभूतत चा ती ू ूँ।
तम्
ु ारी,
पद्मा
10
काशी
5-1-26
ब न,
तुम् ारा पत्र पढकर मुझे ऐसा मालूम ु आ कक कोई उपन्यास पढकर उठी ूिं ।
अगर तुम उपन्यास भलखों, तो मुझें ववश्वास ै , उसकी िूम मच जाय। तुम आप
उसकी नातयका बन जाना। तुम ऐसी-ऐसी बातें क ाूँ सीख गयी, मुझें तो य ी
आश्चयय ै । उस बिंगाली के साथ तम
ु अकेली कैसी बैठी बातें करती र ीिं, मेरी तो
समझ न ीिं आता। मैं तो कभी न कर सकती। तम
ु ववनोद को जलाना चा ती
ो, उनके धचतत को अशािंत करना चा ती ो। उस गरीब के साथ तुम ककतना
भयिंकर अन्याय कर र ी ो ! तुम य क्यों समझती ो कक ववनोद तुम् ारी
उपेक्षा कर र े ैं, अपने ववचारों में इतने मग्न ै कक उनकी रुधच ी न ीिं र ी।
सिंभव ै, व कोई दाशयतनक ततव खोज र ें ो, कोई थीभसस भलख र ीिं ो, ककसी
पस्
ु तक की रचना कर र े ों। कौन क सकता ै ? तम
ु जैसी रुपवती स्त्री पाकर
यहद कोई मनष्ु य धचल्न्तत र े , तो समझ लो कक उसके हदल पर कोई बड़ा बोझ
ैं। उनको तुम् ारी स ानुभूतत की जरुरत ै , तुम उनका बोझ लका कर सकती
ों। लेककन तुम उलटे उन् ीिं को दोष दे ती ों। मेरी समझ में न ी आता कक तुम
एक हदन क्यों ववनोद से हदल खोलकर बातें न ीिं कर लेती, सिंदे को ल्जतनी
जकद ो सकें, हदल से तनकाल डालना चाह ए। सिंदे व चोट ै , ल्जसका उपच
जकद न ो, तो नासरू पड़ जाता ै और कफर अच्छा न ीिं ोता। क्यों दो-चार
हदनों के भलए य ाूँ न ीिं चली आतीिं ? तम
ु शायद क ो, तू ी क्यों न ीिं चली
आती। लेककन मै स्वतन्त्र न ी ू ूँ, बबना सास-ससुर से पूछे कोई काम न ीिं कर
सकती। तुम् ें तो कोई बिंिन न ीिं ै।
ब न, आजकल मेरा जीवन षय और शोक का ववधचत्र भमश्रण ो र ा ैं। अकेली
ोती ू ूँ , तो रोती ूिं , आनन्द आ जाते ै तो ॅंसती ू ूँ। जी चा ता ै, व रदम
मेरे सामने बैठे र ते। लेककन रात के बार बजे के प ले उनके दशयन न ीिं ोते।
िं कक कोई बच्चे को क्या
एक हदन दोप र को आ गयें, तो सासजी ने ऐसा डॉटा
डॉटेिं गा। मुझें ऐसा भय ो र ा ै कक सासजी को मुझसे धचढ ैं। ब न, मैं उन् ें
भरसक प्रसन्न रखने की चेष्टा करती ू ूँ। जो काम कभी न ककये थे, व उनके
भलए करती ू ूँ, उनके स्नान के भलए पानी गमय करती ू ूँ, उनकी पज
ू ा के भलए
चौकी बबछाती ू ूँ। व स्नान कर लेती ैं, तो उनकी िोती छाूँटती ू ूँ, व लेटती ैं
तो उनके पैर दबाती ू ूँ; जब व सो जाती ै तो उन् ें पिंखा झलती ू ूँ। व मेरी
माता ैं, उन् ी के गभय से व रतन उतपन्न ु आ ै जो मेरा प्राणिार ै । मै
उनकी कुछ सेवा कर सकूूँ, इससे बढकर मेरे भलए सौभाग्य की और क्या बात
ोगी। मैं केवल इतना ी चा ती ू ूँ कक व मुझसे ूँसकर बोले, मगर न जाने
क्यों व बात-बात पर मझ
ु े कोसने हदया करती ैं। मैं जानती ू ूँ , दोष मेरा ी ैं।
ाूँ, मुझे मालूम न ीिं, व क्या ैं। अगर मेरा य ी अपराि ै कक मैं अपनी दोनों
नन्दों से रुपवती क्यों ू ूँ, पढी-भलखी क्यों ू ूँ, आन्नद मुझें इतना क्यों चा ते ैं, तो
ब न, य मेरे बस की बात न ी। मेरे प्रतत सासजी को भ्रम ोता ोगा कक मैं ी
आन्नद को भरमा र ीिं ू ूँ। शायद व पछताती ै कक क्यों मुझें ब ू बनाया !
उन् े भय ोता ै कक क ीिं मैं उनके बैटे को उनसे छीन न लूँ ।ू दो-एक बार मुझे
जादग
ू रनी क ी चक
ु ी ैं। दोनों ननदें अकारण ी मझ
ु से जलती र ती ै । बड़ी
ननदजी तो अभी कलोर ैं, उनका जलना मेरी समझ में न ी आता। मैं उनकी
जग ोती,तो अपनी भावज से कुछ सीखने की, कुछ पढने की कोभशश करती,
उनके चरण िो-िोकर पीती, पर इस छोकरी को मेरा अपमान करने ी में
आन्नद आता ैं। मैं जानती ू ूँ , थोड़े हदनों में दोनों ननदें लल्ज्जत ोंगी। ाूँ, अभी
वे मुझसे बबचकती ैं। मैं अपनी तरफ से तो उन् ें अप्रसन्न ोने को कोई
अवसर न ीिं दे ती।
मगर रुप को क्या करुूँ । क्या जानती थी कक एक हदन इस रुप के कारण मैं
अपराधिनी ठ रायी जाऊूँगी। मैं सच क ती ू ूँ ब न, य ाूँ मैने भसगािंर करना एक
तर से छोड़ ी हदया ैं। मैली-कुचैली बनी बेठी र ती ू ूँ। इस भय से कक कोई
मेरे पढने-भलखने पर नाक न भसकोड़े, पस्
ु तकों को ाथ न ीिं लगाती। घर से
पुस्तकों का एक गटठर बाूँि लायी थी। उसमें कोई पुस्तकें बड़ी सुन्दर ैं। उन् ें
पढने के भलए बार-बार जी चा ता ैं, मगर छरती ू ूँ कक कोई ताना न दे बैठे।
दोनों ननदें मुझें दे खती र ती ैं कक य क्या करती ैं , कैसे बैठती ै , कैसे बोलती
ै , मानो दो-दो जासूस मेरे पीछे लगा हदए गए ों। इन दोनों मह लाओिं को मेरी
बदगोई में क्यों इतना मजा आता ैं , न ी क सकती। शायद आजकल उन् े
भसवा दस
ू रा काम ी न ीिं। गस्
ु सा तो ऐसा आता ैं कक एक बार खझढक दूँ ,ू
लेककन मन को समझाकर रोक लेती ू ूँ। य दशा ब ु त हदनों न ीिं र े गी। एक
नए आदमी से कुछ ह चक ोना स्वाभाववक ी ै , ववशेषकर जब व नया
आदमी भशक्षा और ववचार व्यव ार में मसे अलग ो। मुझी को अगर ककसी
िेंच लेडी के साथ र ना पड़े, तो शायद मे भी उसकी रएक बात को आलोचना
और कुतू ल की दृल्ष्ट से दे खने लगूँ।ू य काशीवासी लोग पज
ू ा-पाठ ब ु त करते
ै । सासजी तो रोज गिंगा-स्नान करने जाती ैं। बड़ी ननद भी उनके साथ जाती
ै । मैने कभी पूजा न ीिं की। याद ै , म और तुम पूजा करने वालों को ककतना
बनाया करती थी। अगर मै पूजा करने वालों का चररत्र कुछ उन्नत पाती, तो
शायद अब तक मै भी पूजा करती ोती। लेककन मुझे तो कभी ऐसा अनुभव
प्राप्त न ीिं ु आ, पूजा करने वाभलयाूँ भी उसी तर दस
ू रों की तनन्दा करती ैं , उसी
तर आपस में लड़ती-झगड़ती ैं, जैसे वे जो कभी पज
ू ा न ीिं करतीिं। खैर, अब
मुझे िीरे -िीरे पूजा से श्र्ध ा ोती जा र ी ैं। मेरे दहदया ससरु जी ने एक छोटा-
सा ठाकुरद्वारा बनवा हदया था। व मेरे घर के सामने ी ैं। मैं अक्सर सासजी
के साथ व ाूँ जाती ू ूँ और अब य क ने में मुझे कोई सिंकोच न ीिं कक उन
ववशाल मूततययों के दशयन से मझ
ु े अपने अतस्तल में एक ज्योतत का अनुभव
ोता ै । ल्जतनी अश्र्ध ा से मैं राम और कृष्ण के जीवन की आलोचना ककया
करती थी, व ब ु त कुछ भमट चक
ु ी ैं।
लेककन रुपवती ोने का दण्ड य ीिं तक बस न ीिं ै । ननदें अगर मेरे रुप कों
दे खकर जलती ैं , तो य स्वाभाववक ैं। द:ु खी तो इस बात का ै कक य दण्ड
मझ
ु े उस तरफ से भी भमल र ा ै , ल्जिर से इसकी कोई सिंभावना न ोनी
चाह ए—मेरे आनन्द बाबू भी मझ
ु े इसका दण्ड दे र े ै। ाूँ, उनकी दण्डनीतत
एक तनराले ी ढग की ैं। व मेरे पास तनतय ी कोई-न-कोई सौगात लाते र ते
ै। व ल्जतनी दे र मेरे पास र ते ै । उनके मन में य सिंदे ोता र ता ै कक
मुझे उनका र ना अच्छा न ीिं लगता। व समझते ै कक मैं उनसे जो प्रेम
करती ू ूँ , य केवल हदखावा ै , कोशल ै। व मेरे सामने कुछ ऐसे दबे-दबायें,
भसमटे -भसमटायें र ते ै कक मैं मारे लज्जा के मर जाती ू ूँ। उन् ें मझ
ु से कुछ
क ते ु ए ऐसा सिंकोच ोता ै , मानो व कोई अनाधिकार चेष्टा कर र े ों। जैसे
मैले-कुचैले कपड़े प ने ु ए कोई आदमी उज्जवल वस्त्र प नने वालों से दरू ी
र ना चा ता ै , व ी दशा इनकी ै। व शायद समझते ैं कक ककसी रुपवती स्त्री
को रूप ीन पुरुष से प्रेम ो ी न ीिं सकता। शायद व हदल में पछतातें ै कक
क्यों इससे वववा ककया। शायद उन् ें अपने ऊपर ग्लातन ोती ै। व मुझे कभी
रोते दे ख लेते ै , तो समझते ै । मैं अपने भाग्य को रों र ी ू ूँ , कोई पत्र भलखते
दे खते ैं, तो समझते ै , मैं उनकी रुप ीनता ी का रोना रो र ी ू ूँ। क्या क ू ूँ
ब न, य सौन्दयय मेरी जान का गा क ो गया। आनन्द के मन से शिंका को
तनकालने और उन् ें अपनी ओर से आश्वासन दे ने के भलए मुझे ऐसी-ऐसी बातें
करनी पड़ती ैं, ऐसे-ऐसे आचरण करने पड़ते ैं , ल्जन पर मुझे घण
ृ ा ोती ैं।
अगर प ले से य दशा जानती, तो ब्रह्मा से क ती कक मुझे कुरूपा ी बनाना।
बड़े असमिंजस में पड़ी ू ूँ! अगर सासजी की सेवा न ीिं करती, बड़ी ननदजी का
मन न ीिं रखती, तो उनकी ऑ िंखों से धगरती ू ूँ। अगर आनन्द बाबू को तनराश
करती ू ूँ , तो कदाधचत मुझसे ववरक्त ी ो जायूँ। मै तुमसे अपने हृदय की बात
क ती ू ूँ। ब न, तुमसे क्या पदाय रखना ै ; मुझे आनन्द बाबू से उतना प्रेम ै, जो
ककसी स्त्री को पुरूष से ो सकता ै , उनकी जग अब अगर इन्द्र भी सामने आ
जायूँ, तो मै उनकी ओर ऑख उठाकर न दे ख।ूूँ मगर उन् ें कैसे ववश्वास हदलाऊूँ।
मै दे खती ू ूँ, व ककसी न ककसी ब ाने से बार-बार घर मे आते ै और दबी ु ई,
ललचाई ु ई नजरों से मेरे कमरे के द्वार की ओर दे खते ै , तो जी चा ता ै,
जाकर उनका ाथ पकड़ लूँ ू और अपने कमरे में खीिंच ले आऊूँ। मगर एक तो
डर ोता ै कक ककसी की ऑ िंख पड़ गयी, तो छाती पीटने लगेगी, और इससे भी
बड़ा डर य कक क ीिं आनन्द इसे भी कौशल ी न समझ बैठे। अभी उनकी
आमदनी ब ु म कम ै , लेककन दो-चार रुपये सौगातों मे रोज उड़ाते ैं। अगर
प्रेमोप ार-स्वरूप व िेले की कोई चीज दें , तो मैं उसे ऑ िंखों से लगाऊूँ, लेककन
व कर-स्वरूप दे ते ैं , मानो उन् ें ईश्वर ने य दण्ड हदया ैं। क्या करूूँ, अब मुझे
भी प्रेम का स्वाूँग करना पड़ेगा। प्रेम-प्रदशयन से मुझे धचढ ैं। तुम् ें याद ोगा,
मैने एक बार क ा था कक प्रेम या तो भीतर ी र े गा या बा र ी र े गा। समान
रूप से व भीतर और बा र दोनों जग न ीिं र सकता। सवाूँग वेश्याओिं के
भलए ै , कुलविंती तो प्रेम को हृदय ी में सिंधचत रखती ैं!
ब न, क्षमा करना; कल पत्र भलखने का अवसर न ीिं भमला। रात एक ऐसी बात ो
गयी,
ल्जससे धचतत अशान्त उठा। बड़ी मल्ु श्कलों से य थोड़ा-सा समय तनकाल सकी
मुझे अपनी भूल साफ मालूम ो गयी। उनका क्रोि शान्त करने के इरादे से
बोली—गलती भी तो मेरी ी थी कक व्यथय आिी रात तक बतती जलायें बैठी
र ी। अम्माूँजी ने गुल करने को क ा, तो क्या बुरा क ा ? मुझे समझाना, अच्छी
सीख दे ना, उनका िमय ैं। मेरा िमय य ी ै कक यथाशल्क्त उनकी सेवा करूूँ और
उनकी भशक्षा को धगर बाूँि।ूूँ
आन्नद एक क्षण द्वार की ओर ताकते र े । कफर बोले —मझ
ु े मालम
ू ो र ा ै
कक इस घर में मेरा अब गज
ु र न ोगा। तम
ु न ीिं क तीिं, मगर मै सब कुछ
सुनता र ता ू ूँ। सब समझता ू ूँ। तुम् ें मेरे पापों का प्रायल्श्चत करना पड़ र ा
ैं। मै कल अम्माूँजी से साफ-साफ क दूँ ग
ू ा—‘अगर आपका य ी व्यव ार ै , तो
आप अपना घर लील्जए, मै अपने भलए कोई दस
ू री रा तनकाल लूँ ग
ू ा।’
मैंने ाथ जोड़कर धगड़धगड़ाते ु ए क ा—न ीिं-न ीिं। क ीिं ऐसा गजब भी न करना।
मेरे मूँु में आग लगे, क ाूँ से क ाूँ बतती का ल्जकर कर बैठी। मैं तुम् ारे चरण
छूकर क ती ू ूँ , मुझे न सासजी से कोई भशकायत ै , न ननदजी से, दोनों मुझसे
बड़ी ै , मेरी माता के तुकय ैं। अगर एक बात कड़ी भी क दें , तो मुझे सब्र
करना चाह ए! तम
ु उनसे कुछ न क ना न ीिं तो मझे बड़ा द:ु ख ोगा।
तुम् ारी,
चन्दा
11
हदकली
5-2-26
प्यारी चन्दा,
क्या भलख,ूूँ मझ
ु पर तो ववपल्तत का प ाड़ टूट पड़ा! ाय, व चले गए। मेरे
ववनोद का तीन हदन से पता न ीिं—तनमो ी चला गया, मझ
ु े छोड़कर बबना कुछ
क े -सुने चला गया—अभी तक रोयी न ीिं। जो लोग पूछने आते ैं, उनसे ब ाना
कर दे ती ू ूँ कक—दो-चार हदन में आयेंगे, एक काम से काशी गये ैं। मगर जब
रोऊूँगी तो य शरीर उन ऑ िंसओ
ु िं में डूब जायेगा। प्राण उसी मे ववसल्जयत ो
जायूँगे। छभलयें ने मुझसे कुछ भी न ीिं क ा, रोज की तर उठा, भोजन ककया,
ववद्यालय गया;तनयत समय पर लौटा, रोज की तर मस
ु कराकर मेरे पास आया।
म दोनों ने जलपान ककया, कफर व दै तनक पत्र पढने लगा, मैं टे तनस खेलने
चली गयी। इिर कुछ हदनो से उन् ें टे तनस से कुछ प्रेम न र ा था, मैं अकेली ी
जाती। लौटी, तो रोज ी की तर उन् ें बरामदे में ट लते और भसगार पीते दे खा।
मुझे दे खते ी व रोज की तर मेरा ओवरकोट लाये और मेरे ऊपर डाल हदया।
बरामदे से नीचे उतरकर खुले मैदान मे म ट लने लगे। मगर व ज्यादा बोले
न ीिं, ककसी ववचार में डूबे र ें । जब ओस अधिक पड़ने लगी, तो म दोनों कफर
अन्दर चले आयें। उसी वक्त व बिंगाली मह ला आ गयी, ल्जनसे मैने वीणा
सीखना शुरू ककया ै । ववनोद भी मेरे साथ ी बैठे र े । सिंगीत उन् ें ककतना वप्रय
ै, य तम्
ु ें भलख चुकी ू ूँ। कोई नयी बात न ीिं ु ई। मह ला के चले जाने के
बाद मने साथ- ी-साथ भोजन ककया कफर मै अपने कमरे में लेटने आयी। व
रोज की तर अपने कमरे मे भलखने-पढने चले गयें! मैं जकद ी सो गयी,
लेककन बेखबर पड़ी र ू ूँ , उनकी आ ट पाते ी आप- ी-आप ऑ िंखे खुल गयीिं। मैने
दे खा, व अपना रा शाल ओढे खड़े थें। मैने उनकी ओर ाथ बढाकर क ा—
आओिं, खड़े क्यों ो, और कफर सो गयी। बस, प्यारी ब न! व ी ववनोद के अिंततम
दशयन थे। क न ीिं सकती, व पिंलग पर लेटे या न ीिं। इन ऑखों में न-जाने
कौन-सी म ातनद्रा समायी ु ई थी। प्रात: उठी तो ववनोद को न पाया। मैं उनसे
प ले उठती ू ूँ , व पड़े सोते र ते ैं। पर आज व पलिंग पर न थें। शाल भी न
था। मैने समझा, शायद अपने कमरे में चले गये ों। स्नान-ग ृ में चली गयी।
आि घिंटें मे बा र आयी, कफर भी व न हदखायी हदये। उनके कमरे में गयी, व ाूँ
भी न थें। आश्चयय ु आ कक इतने सबरे क ाूँ चले गयें। स सा खट
ूूँ ी पर पड़ी—
कपड़े ने थे। ककसी से भमलने चले गये ? या स्नान के प ले सैर करने की ठानी।
कम-से-कम मुझसे क तो दे ते, सिंशय मे तो जी न पड़ता। क्रोि आया—मुझे
लौंडी समझते ैं …
ाल्जरी का समय आया। बैरा मेज पर चाय रख गया। ववनोद के इतिंजार में
चाय ठिं डी ो गयी। मै बार-बार झूँुझालती थी, कभी भीतर जाती, कभी बा र
आती, ठान ली थी कक आज ज्यो ी म ाशय आयेंगे , ऐसा लताड़ूूँगी कक व भी
याद करें गे। क दूँ ग
ू ी, आप अपना घर लील्जए, आपकों अपना घर मुबारक र ें , मै
अपने घर चली जाऊूँगी। इस तर तो रोहटयाूँ व ॉ िं भी भमल जायेंगी। जाड़े के नौ
बजने में दे र ी क्या लगती ै । ववनोद का अभी पता न ीिं। झकलायी ु ई कमरे
मे गयी कक एक पत्र भलखकर मेज पर रख दूँ —
ू साफ-साफ भलख दूँ ू कक इस तर
अगर र ना ै , तो आप रह ए मे न ीिं र सकती। मै ल्जतना ी तर दे ती जाती
‘वप्रयें ! नौ म ीने ु ए, जब मझ
ु े प ली बार तम्
ु ारे दशयनों का सौभाग्य ु आ था।
उस वक्त मैने अपने को िन्य माना था। आज तुमसे ववयोग का दभ
ु ायग्य ो र ा
ै कफर भी मैं अपने को िन्य मानता ू ूँ। मुझे जाने का लोशमात्र भी द:ु ख न ीिं
ै , क्योकक मै जानता ू ूँ तुम खुश ोगी। जब तुम मेरे साथ सुखी न ी र
सकती; तो मैं तबरदस्ती क्यों पड़ा र ू ूँ। इससे तो य क ीिं अच्छा ै कक म और
तम
ु अलग ो जायूँ। मै जैसा ू ूँ , वैसा ी र ू ूँगा। तम
ु भी जैसी ो, वैसी ी र ोगी।
कफर सुखी जीवन की सम्भावना क ाूँ? मै वववा को आतम-ववकास का पूरी का
सािन समझता ू ूँ। स्त्री पुरुष के सम्बन्ि का अगर कोई अथय ै , तो य ी ै , वनाय
मै वववा की कोई जरुरत न ीिं समझता। मानव सन्तान बबना वववा के भी
जीववत र े गी और शायद इससे अच्छे रूप में । वासना भी बबना वववा के पूरी
ो सकती ै , घर के प्रबन्ि के भलए वववा करने की काई जरुरत न ीिं। जीववका
एक ब ु त ी गौण प्रश्न ै । ल्जसे ईश्वर ने दो ाथ हदये ै व कभी भख
ू ा न ीिं
र सकता। वववा का उद्देश्य य ी और केवल य ी ैं कक स्त्री और पुरूष एक-
दस
ू रे की आतमोन्नतत में स ायक ों। ज ाूँ अनुराग ों, व ा वववा ै और
अनुराग ी आतमोन्नतत का मुख्य सािन ै । जब अनुराग न ो, तो वववा भी
न र ा। अनुराग के बबना वववा का अथय न ीिं।
ल्जस वक्त मैने तम्
ु ें प ली बार दे खा था, तम
ु मझ
ु े अनरु ाग की सजीव मतू तय-सी
नजर आयी थीिं। तम
ु मे सौंदयय था, भशक्षा थी, प्रेम था, स्फूततय थी, उमिंग थी। मैं
मुग्ि ो गया। उस वक्त मेरी अन्िी ऑ िंखों को य न सूझा कक ज ाूँ तुममें
इतने गुण थे, व ाूँ चिंचलता भी थी, जो इन सब गुणों पर पदाय डाल दे ती। तुम
चिंचल ो, गजब की चिंचल, जो उस वक्त मुझे न सूझा था। तुम ठीक वैसी ी ो,
जैसी तुम् ारी दस
ू री ब नें ोती ै , न कम, न ज्यादा। मैने तुमको स्वािीन बनाना
चा ा था, क्योंकक मेरी समझ मे अपनी परू ी ऊूँचाई तक प ु ूँ चने के भलए इसी की
सबसे अधिक जरूरत ै । सिंसार भर में परू
ु षों के ववरु्ध क्यों इतना शोर मचा
ू ूँ , कक तुम् ें मेरी ओर से पूरी तनल्श्चन्तता ो जाय। अगर मेरे बगैर तुम् ारा
जीवन अधिक सुन्दर ो सकता ै , तो तुम् ें जबरन न ीिं रखना चा ता। अगर मै
समझता कक तुम मेरे सुख के मागय बािक ो र ी ों, तो मैने तुमसे साफ-साफ
क हदया ोता। मै िैयय और नीतत का ढोंग न ीिं मानता, केवल आतमाका सिंतोष
चा ता ू ूँ —अपने भलए भी, तुम् ारे भलए भी। जीवन का ततव य ी ै ; मूकय य ी
ै । मैने डेस्क में अपने ववभाग के अध्यक्ष के नाम एक पत्र भलखकर रख हदया
ैं। व उनके पास भेज दे ना। रूपये की कोई धचन्ता मत करना। मेरे एकाउिं ट मे
अभी इतने रूपये ैं , जो तुम् ारे भलए कई म ीने को काफी ैं, और उस वक्त तक
भमलते र े गें, जब तक तुम लेना चा ोगी। मै समझता ू ूँ , मैने अपना भाव स्पष्ट
कर हदया ै । इससे अधिक स्पष्ट मै न ीिं करना चा ता। ल्जस वक्त तुम् ारी
इच्छा मुझसे भमलने की ो, बैंक से मेरा पता पूछ लेना। मगर दो-चार हदन के
बाद। घबराने की कोई बात न ीिं। मै स्त्री को अबला या अपिंग न ीिं समझता।
व अपनी रक्षा स्वयिं कर सकती ैं—अगर करना चा ें । अगर अब या अब से
दो-चार म ीना, दो-चार साल पीछें तम्
ु े मेरी याद आए और तम
ु समझों कक मेरे
साथ सख
ु ी र सकती ो, तो मझ
ु े केवल दो शब्द भलखकर डाल दे ना, मै तरु न्त
आ जाऊूँगा, क्योंकक मुझे तुमसे कोई भशकायत न ीिं ैं। तुम् ारे साथ मेरे जीवन
के ल्जतने के ल्जतने हदन कटे ैं, व मेरे भलए स्वगय-स्वप्न के हदन ैं। जब तक
जीउूँ गी, इस जीवन की आनन्द-स्मतृ तयों कों हृदय में सिंधचत रखूग
ूँ ा। आ ! इतनी
दे र तक मन को रोके र ने के बाद ऑ िंखों से एक बूँद
ू ऑ िंसू धगर ी पड़ा। क्षमा
करना, मैनें तम्
ु ें ‘चिंचल’ क ा ैं। अचिंचल कौन ै ? जानता ू ूँ कक तम
ु ने मझ
ु े
अपने हृदय से तनकालकर फेंक हदया ैं , कफर भी इस एक घिंटे में ककतनी बार
तुमको दे ख-दे खकर लौट आया ू ूँ! मगर इन बातों को भलखकर मैं तुम् ारी दया
को उकसाना न ीिं चा ता। तुमने व ी ककया, ल्जसका मेरी नीतत में तुमको
अधिकार था, ै और र े गािं। मैं वववा में आतमा को सवोपरी रखना चा ता ू ूँ।
स्त्री और पुरुष में मै व ी प्रेम चा ता ू ूँ , जो दो स्वािीन व्यल्क्तयों में ोता ैं।
व प्रेम न ीिं ल्जसका आिार परािीनता ैं।
ब न, अगर ववनोद न आये , तो क्या ोगा? मैं समझती थी, व मेरी तरफ से
उदासीन ैं, मेरी परवा न ीिं करते, मुझसे अपने हदल की बातें तछपाते ैं, उन् ें
शायद मैं भारी ो गयी ू ूँ। अब मालम
ू ु आ, मै कैसे भयिंकर-भ्रम में पड़ी ु ई थी।
उनका मन इतना कोमल ै, य मैं जानती, तो उस हदन क्यों भुवन को मूँु
लगाती? मैं उस अभागे का मूँु तक न दे खती। इस वक्त जो उसे दे ख पाऊूँ, तो
शायद गोली मार दूँ ।ू जरा तुम ववनोद के पत्र को कफर पढों, ब न—आप मुझे
स्वािीन बनाने चले थे। अगर स्वािीन बनाते थें , तो भुवन से जरा दे र मेरा
बातचीत कर लेना क्यों इतना अखरा? मुझें उनकी अववचभलत शािंतत से धचढ ोती
थी। वास्तव में उनके हृदय में इस रात-सी बात ने ल्जतनी अशािंतत पैदा कर दी,
शायद मुझमें न कर सकती। मैं ककसी रमणी से उनकी रूधच दे खकर शायद मूँु
फुला लेती, ताने दे ती, खुद रोती, उन् ें रुलाती; पर इतनी जकद भाग न जाती। मदों
का घर छोड़कर भागना तो आज तक न ीिं सुना, औरतें ी घर छोड़कर मैके
भागती ै , या क ीिं डूबने जाती ैं, या आतम तया करती ैं। पुरूष तनद्यवन्द्व बैठे
मूिंछों पर ताव दे ते ैं। मगर य ाूँ उकटी गिंगा ब र ी ैं —पुरूष ी भाग खड़ा
ु आ! इस अशािंतत की था कौन लगा सकता ैं? इस प्रेम की ग राई को कौन
समझ सकता ैं? मै तो अगर इस वक्त ववनोद के चरणों पर पड़े-पड़े मर जाऊूँ
तो समझूँू, मुझे स्वगय भमल गया। बस, इसके भसवा मुझे अब और कोई इच्छा
न ीिं ैं। इस अगाि-प्रेम ने मुझे तप्ृ त कर हदया। ववनोद मुझसे भागे तो, लेककन
भाग न सके। व मेरे हृदय से, मेरी िारणा से, इतने तनकट कभी न थे। मैं तो
अब भी उन् ें अपने सामने बैठा दे ख र ी ू ूँ। क्या मेरे सामने कफलासफर बनने
चले थे? क ाूँ गयी आपकी व दाशयतनक गिंभीरता? यों अपने को िोखा दे ते ो?
यों अपनी आतमा को कुचलते ों ? अबकी तो तम
ु भागे, लेककन कफर भागना तो
दे खग
ूूँ ी। मै न जानती थी कक तुम ऐसे चतुर ब ु रूवपये ो। अब मैने समझा, और
शायद तुम् ारी दाशयतनक गिंभीरता को भी समझ मे आया ोगा कक प्रेम ल्जतना
ी सच्चा ल्जतना ी ाहदय क ोता ै , उतना ी कोमल ोता ें व वपल्तत के
उन्मतत सागर में थपेड़ खा सकता ै , पर अव े लना की एक चोट भी न ीिं स
सकता। बह न, बात ववधचत्र ै , पर ै सच्ची, मै इस समय अपने अन्तस्तल में
ल्जतनी उमिंग, ल्जतने आनन्द का अनुभव कर र ी ू ूँ, याद न ीिं आता कक ववनोद
के हृदय से भलपटकर भी कभी पाया ो। तब पदाय बीच में था, अब कोई पदाय
बीच में न ीिं र ा। मै उनको प्रचभलत प्रेम व्यापार की कसौटी पर कसना चा ती
थी। य फैशन ो गया कक पुरुष घर मे आयें, तो स्त्री के वास्ते कोई तो फा
लाये, पुरुष रात-हदन स्त्री के भलए ग ने बनवाने, कपड़े भसलवाने, बेल, फीते, लेस
खरीदने में मस्त र े , कफर स्त्री को उससे कोई भशकायत न ीिं। व आदशय-पतत ै,
उसके प्रेम में ककसे सिंदे ो सकता ै ? लेककन उसकी प्रेयसी की मतृ यु के तीसरे
म ीने व कफर नया वववा रचाता ै । स्त्री के साथ अपने प्रेम को भी धचता मे
जला आता ै । कफर व ी स्वाूँग इस नयी प्रेयसी से ोने लगते ैं , कफर व ी लीला
शुरू ो जाती ै । मैंने य ी प्रेम दे खा था और इसी कसौटी पर ववनोद कस र ी
थी। ककतनी मन्दबुव्ध ू ूँ ! तछछोरे पन को प्रेम समझे बैठी थी। ककतनी ल्स्त्रयाूँ
जानती ैं कक अधिकािंश ऐसे ी ग ने , कपड़े और ूँसने-बोलने में मस्त र ने वाले
जीव लम्पट ोते ैं। अपनी लम्पटता को तछपाने के भलए वे य स्वाूँग भरते
र ते ैं। कुतते को चुप रखने के भलए उसके सामने ड्डी के टुकड़े फेंक दे ते ैं।
बेचारी भोली-भाली उसे अपना सवयस्व दे कर खखलौने पाती ै और उन् ीिं में मग्न
र ती ै । मैं ववनोद को उसी काूँटे पर तौल र ी थी— ीरे को साग के तराजू पर
रख दे ती थी। मैं जानती ू ूँ, मेरा दृढ ववश्वास और व अटल ै कक ववनोद की
दृल्ष्ट कभी ककसी पर स्त्री पर न ीिं पड़ सकती। उनके भलए मै ू ूँ , अकेली मै ू ूँ,
अच्छी ू ूँ या बुरी ू ूँ , जो कुछ ू ूँ , मै ू ूँ। ब न, मेरी तो मारे गवय और आनन्द से
छाती फूल उठी ै । इतना बड़ा साम्राज्य—इतना अचल, इतना स्वरक्षक्षत, ककसी
हृदयेश्वरी को नसीब ु आ ै ! मुझे तो सन्दे ै । और मैं इस पर भी असन्तुष्ट
थी, य न जानती थी कक ऊपर बबल
ू े तैरते ैं, मोती समद्र
ु की त मे भमलते ैं।
ाय! मेरी इस मख
ू त
य ा के कारण, मेरे प्यारे ववनोद को ककतनी मानभसक वेदना ो
र ी ै । मेरे जीवन-िन, मेरे जीवन-सवयस्व न जाने क ाूँ मारे -मारे कफरते ोंगें , न
जाने ककस दशा में ोगें , न-जाने मेरे प्रतत उनके मन में कैसी-कैसी शिंकाऍ िं उठ
र ी ोंगी—प्यारे ! तुमने मेरे साथ कुछ कम अन्याय न ीिं ककया। अगर मैने
तुम् ें तनष्ठुर समझा, तो तुमने तो मुझे उससे क ीिं बदतर समझा—क्या अब भी
पेट न ीिं भरा? तम
ु ने मझ
ु े इतनी गयी-गज
ु री समझ भलया कक इस अभागे भव
ु न…
मै ऐसे-ऐसे एक लाख भुवनों को तुम् ारे चरणों पर भें ट कर सकती ू ूँ। मुझे तो
सिंसार में ऐसा कोई प्राणी ी न ीिं नजर आता, ल्जस पर मेरी तनगा उठ सके।
न ीिं, तुम मुझे इतनी नीच, इतनी कलिंककनी न ीिं समझ सकते—शायद व नौबत
आती, तो तुम और मैं दो में से एक भी इस सिंसार में न ोता।
ब न, मैंने ववनोद को बुलाने की, खीिंच लाने की, पकड़ मूँगवाने की एक तरकीब
सोची ै । क्या क ू ूँ , प ले ी हदन य तरकीब क्यों न सूझी ? ववनोद को दै तनक
पत्र पढे बबना चैन न ीिं आता और व कौन-सा पत्र पढते ैं, मैं य भी जानती
अब कुछ तुम् ारे ववषय में । क्या तुम् ारी बुहढया सचमुच तुमसे इसभलए जलती
ै कक तुम सुन्दर ो, भशक्षक्षत ो ? खूब ! और तुम् ारे आनन्द भी ववधचत्र जीव
मालम
ू ोते ैं। मैने सन
ु ा ै कक परु
ु ष ककतना ी कुरूप ो, उसकी तनगा
अप्सराओिं ी पर जाकर पड़ती ै । कफर आन्नद बाबू तुमसे क्यों बबचकते ै ? जरा
गौरसे दे खना, क ीिं रािा और कृष्ण के बीच में कोई कुब्जा तो न ीिं? अगर
सासजी यों ी नाक में दम करती र ें , तो मैं तो य ी सला दूँ ग
ू ी कक अपनी
झोपड़ी अलग बना लो। मगर जानती ू ूँ , तुम मेरी य सला न मानोगी, ककसी
तर न मानेगी। इस सह ष्णुता के भलए मैं तुम् ें बिाई दे ती ू ूँ। पत्र जकद
भलखना। मगर शायद तुम् ारा पत्र आने के प ले ी मेरा दस
ू रा पत्र प ु ूँच।े
तुम् ारी,
पद्मा
12
काशी
10-2-26
वप्रय पद्मा,
अच्छा, अब मेरी रामक ानी सुनो। इस एक म ीने में य ाूँ बड़ी-बड़ी घटनाऍ िं ो
गयीिं। य तो मैं प ले ी भलख चुकी ू ूँ कक आनन्द बाबू और अम्माूँजी में कुछ
मनमुटाव र ने लगा। व आग भीतर- ी-भीतर सुलगती र ती थी। हदन में दो-
एक बार माूँ बेटे में चोंचें ो जाती थी। एक हदन मेरी छोटी ननदजी मेरे कमरे
से एक पुस्तक उठा ले गयीिं। उन् ें पढने का रोग ै । मैंने कमरे में ककताब न
दे खी, तो उनसे पछ
ू ा। इस जरा-सी बात पर व भले-मानस बबगड़ गयी और
क ने लगी—तम
ु तो मझ
ु े चोरी लगाती ो। अम्माूँ ने उन् ीिं का पक्ष भलया और
मुझे खूब सुनायी। सिंयोग की बात, अम्माूँजी मुझे कोसने ी दे र ी थीिं कक
आन्नद बाबू घर में आ गये। अम्माूँजी उन् ें दे खते ी और जोर से बकने लगीिं,
ब ू की इतनी मजाल! व तूने भसर पर चढा रखा ै और कोई बात न ीिं।
पुस्तक क्या उसके बाप की थी? लड़की लायी, तो उसने कौन गुना ककया? जरा
भी सब्र न ु आ, दौड़ी ु ई उसके भसर पर जा प ु ूँची और उसके ाथों से ककताब
छीनने लगी।
‘अगर तम्
ु ें इस तर औरत को भसर चढाकर रखना ै , तो क ीिं और ले जाकर
रखो। इस घर में उसका तनवाय अब न ोगा।’
‘मैं खुद इसी किक में ू ूँ, तुम् ारे क ने की जरूरत न ीिं।’
‘तम
ु खद
ु ी उलझ पड़े, व बेचारी तो कुछ बोली न ीिं।’
‘य तम्
ु ारा भ्रम ै । उन् ोंने मझ
ु े मारा न ीिं, अपना पैर छुड़ा र ी थीिं। मैं पट्टी पर
बैठी थी, जरा-सा िक्का खाकर धगर पड़ीिं। अम्माूँ मझ
ु े उठाने ी जा र ी थीिं कक
तुम प ु ूँच गये।’
मैं ल्जतना ी उनको समझती थी, उतना व और बफरते थे। आखखर मैंने
झूँुझलाकर क ा—तो तुम अकेले जाकर दस
ू रे घर में र ो। मैं न जाऊूँगी। मुझे
य ीिं पड़ी र ने दो।
आनन्द ने मेरी ओर कठोर नेत्रों से दे खकर क ा—य ी लातें खाना अच्छा लगता
ै?
‘ ाूँ, मझ
ु े य ी अच्छा लगता ै ।’
‘तो तम
ु खाओ, मैं न ीिं खाना चा ता। य ी फायदा क्या थोड़ा ै कक तम्
ु ारी
दद
ु य शा ऑ िंखों से न दे खग
ूूँ ा, न पीड़ा ोगी।’
‘इसकी भी परवा न ीिं, इस भय से अपना जीवन सिंकट में न ीिं डालना चा ता।’
मैंने रोकर क ा—तुम मुझे छोड़ दोगे, तुम् ें मेरी जरा भी मु ब्बत न ीिं ै । ब न,
और ककसी समय इस प्रेम-आग्र से भरे ु ए शब्दों ने न जाने क्या कर हदया
ोता। ऐसे ी आग्र ों पर ररयासतें भमटती ैं , नाते टूटते ैं, रमणी के पास इससे
बढकर दस
ू रा अस्त्र न ीिं। मैंने आनन्द के गले में बाूँ ें डाल दी थीिं और उनके
कन्िे पर भसर रखकर रो र ी थी। मगर इस समय आनन्द बाबू इतने कठोर ो
गये थे कक य आग्र भी उन पर कुछ असर न कर सका। ल्जस माता न जन्म
हदया, उसके प्रतत इतना रोष ! म अपनी माता की एक कड़ी बात न ीिं स
सकते, इस आतमाभभमान का कोई हठकाना ै । य ी वे आशाऍ िं ैं , ल्जन पर माता
ने अपने जीवन के सारे सुख-ववलास अपयण कर हदये थे, हदन का चैन और रात
की नीिंद अपने ऊपर राम कर ली थी ! पत्र
ु पर माता का इतना भी अधिकार
न ीिं !
‘उनसे पछ
ू ने की कोई जरूरत न ीिं। कताय-िताय जो कुछ ैं, व अम्माूँ ैं। दादाजी
भमट्टी के लोंदे ैं।’
‘घर के स्वामी तो ैं ?‘
मैं कुछ न ीिं बोली। आनन्द ने एक क्षण के बाद कफर क ा—तुम् ारे पास कुछ
रूपये ो, तो मुझे दो।
मेरे पास रूपये थे, मगर मैंने इनकार कर हदया। मैंने समझा, शायद इसी
असमिंजस में पड़कर व रूक जायूँ। मगर उन् ोंने बात मन में ठान ली थी।
खखन्न ोकर बोले—अच्छी बात ै , तुम् ारे रूपयों के बगैर भी मेरा काम चल
जायगा। तुम् ें य ववशाल भवन, य सुख-भोग, ये नौकर-चाकर, ये ठाट-बाट
मब
ु ारक ों। मेरे साथ क्यों भख
ू ों मरोगी। व ाूँ य सख
ु क ाूँ ! मेरे प्रेम का मक
ू य
ी क्या !
मैंने धगड़धगड़ाकर क ा—अम्माूँजी, उन् ें बुला भेल्जए, आपके पैरों पड़ती ू ूँ। न ीिं तो
क ीिं चले जायेंगे।
य क ती ु ई माताजी पूजा करने चली गयी। मैं अपने कमरे में आकर नसीबों
को रोने लगी। य ी शिंका ोती थी कक आनन्द ककसी तरफ की रा न लें । बार-
बार जी मसोसता था कक रूपये क्यों न दे हदये। बेचारे इिर-उिर मारे -मारे
कफरते ोंगे। अभी ाथ-मूँु भी न ीिं िोया, जलपान भी न ीिं ककया। वक्त पर
जलपान न करें गे तो, जुकाम ो जायेगा, और उन् ें जुकाम ोता ै , तो रारत भी
ो जाती ै । म री से क ा—जरा जाकर दे ख तो बाबूजी कमरे में ैं? उसने आकर
क ा—कमरे में तो कोई न ीिं, खट
ूूँ ी पर कपड़े भी न ीिं ै।
मैंने पछ
ू ा—क्या और भी कभी इस तर अम्माूँजी से रूठे ैं ? म री बोली—कभी
न ीिं ब ू ऐसा सीिा तो मैंने लड़का ी न ीिं दे खा। मालककन के सामने कभी भसर
न ीिं उठाते थे। आज न-जाने क्यों चले गए।
मझ
ु े आशा थी कक दोप र को भोजन के समय व आ जायेँगे। लेककन दोप र
कौन क े ; शाम भी ो गयी और उनका पतत न ीिं। सारी रात जागती र ी। द्वार
की ओर कान लगे ु ए थे। मगर रात भी उसी तर गुजर गयी। ब न, इस प्रकार
पूरे तीन बीत गये। उस वक्त तुम मुझे दे खतीिं, तो प चान न सकतीिं। रोते-रोते
आूँखें लाल ो गयी थीिं। इन तीन हदनों में एक पल भी न ीिं सोयी और भूख का
तो ल्जक्र ी क्या, पानी तक न वपया। प्यास ी न लगती थी। मालूम ोता था,
दे में प्राण ी न ीिं ैं। सारे घर में मातम-सा छाया ु आ था। अम्माूँजी भोजन
करने दोनों वक्त जाती थीिं, पर मूँु जठ
ू ा करके चली आती थी। दोनों ननदों की
ूँसी और चु र भी गायब ो गयी थी। छोटी ननदजी तो मझ
ु से अपना अपराि
क्षमा कराने आयी।
अम्माूँजी उसी समय आूँगन में आ गयी। म ाराज की बातों की भनक कानों में
पड़ गयी, बोली—क्या ै अलगू, क्या आनन्द भमला था ?
म ाराज— ाूँ, बड़ी ब ू , अभी दशाश्वमेि घाट पर भमले थे। मैंने क ा—घर क्यों
न ीिं चलते, तो बोले—उस घर में मेरा कौन बैठा ु आ ै?
अम्माूँ—क ा न ीिं और कोई अपना न ीिं ै , तो स्त्री तो अपनी ै , उसकी जान
क्यों लेते ो?
अम्माूँ—करता क्या ै?
ुआ ै , जो आकर बैठे ैं !
अम्माूँ—य ाूँ उनका कौन बैठा ु आ ै , जो आयेगा। मैं तो अन्दर कदम न रखने
दूँ ग
ू ी।
अम्माूँजी तो बबगड़ र ी थी, उिर छोटी ननदजी जाकर आनन्द बाबू को लायी।
सचमुच उनका चे रा उतरा ु आ था, जैसे म ीनों का मरीज ो। ननदजी उन् ें
इस तर खीचें लाती थी, जैसे कोई लड़की ससरु ाल जा र ी ो। अम्माूँजी ने
मस्
ु काराकर क ा—इसे य ाूँ क्यों लायीिं? य ाूँ इसका कौन बैठा ु आ ै?
आनन्द भसर झुकाये अपराधियों की भाूँतत खड़े थे। जबान न खुलती थी।
अम्माूँजी ने कफर पछ
ू ा—चार हदन से क ाूँ थे?
‘व तो सूरत ी से मालूम ो र ा ै ।’
‘जैसे सैर-सपाटे मैंने ककये ैं, मेरा हदल जानता ै । मगर बातें पीछे करूूँगा, अभी
मूँु - ाथ िोकर खा लो। चार हदन से पानी तक मूँु में न ीिं डाला। राम ! राम !’
‘य आपसे ककसने क ा कक मैंने चार हदन से पानी तक मूँु में न ीिं डाला। जब
आपको मेरी परवा न थी, तो मैं क्यों दाना-पानी छोड़ती?’
आनन्द ने जकदी से अपनी भूल सुिरी—न ीिं, न ीिं वप्रये, मैं इतना गिा न ीिं ू ूँ ,
पर य मैं कदावप न समझता था कक तम
ु बबलकुल दाना-पानी छोड़ दोगी। बड़ी
कुशल ु ई कक मझ
ु े म ाराज भमल गया, न ीिं तो तम
ु प्राण ी दे दे ती। अब ऐसी
भूल कभी न ोगी। कान पकड़ता ू ूँ। अम्माूँजी तुम् ारा बखान कर-करके रोती
र ी।
‘थोड़ा-सा दि
ू पी लो, तो बातें ों। जाने ककतनी बातें करनी ै।
‘पी लूँ ग
ू ी, ऐसी क्या जकदी ै ।’
‘जब तक तम
ु कुछ खा न लोगी, मैं य ी समझूँग
ू ा कक तम
ु ने मेरा अपराि क्षमा
न ीिं ककया।’
तुम् ारी
चन्दा
13
हदकली
20-2-26
प्यारी ब न,
तुम् ारा पत्र पढकर मुझे तुम् ारे ऊपर दया आयी। तुम मुझे ककतना ी बुरा क ो,
पर मैं अपनी य दग
ु तय त ककसी तर न स सकती, ककसी तर न ीिं। मैंने या तो
अपने प्राण ी दे हदये ोते, या कफर उस सास का मूँु न दे खती। तुम् ारा
सीिापन, तुम् ारी स नशीलता, तुम् ारी सास-भल्क्त तुम् ें मुबारक ो। मैं तो
तुरन्त आनन्द के साथ चली जाती और चा े भीख ी क्यों न माूँगनी पड़ती उस
घर में कदम न रखती। मुझे तुम् ारे ऊपर दया ी न ीिं आती, क्रोि भी आता ै,
इसभलए कक तुममें स्वाभभमान न ीिं ै । तम
ु -जैसी ल्स्त्रयों ने ी सासों और परू
ु षों
का भमजाज आसमान चढा हदया ै । ‘ज न्नम
ु में जाय ऐसा घर—ज ाूँ अपनी
इज्जत न ीिं।’ मैं पतत-प्रेम भी इन दामों न लूँ ।ू तुम् ें उन्नीसवी सदी में जन्म
लेना चाह ए था। उस वक्त तुम् ारे गुणों की प्रशिंसा ोती। इस स्वािीनता और
नारी-स्वतव के नवयुग में तुम केवल प्राचीन इतत ास ो। य सीता और
दमयन्ती का युग न ीिं। पुरूषों ने ब ु त हदनों तक राज्य ककया। अब स्त्री-जातत
का राज्य ोगा। मगर अब तम्
ु ें अधिक न कोसूँग
ू ी।
अब मेरा ाल सुनो। मैंने सोचा था, पत्रों में अपनी बीमारी का समाचार छपवा
दूँ ग
ू ी। लेककन कफर ख्याल आया; य समाचार छपते ी भमत्रों का ताूँता लग
जायेगा। कोई भमजाज पछ
ू ने आयेगा। कोई दे खने आयेगा। कफर मैं कोई रानी तो
मैंने पत्र रख हदया और उसी वक्त ववनोद के नाम तार भेज हदया कक ब ु त
बीमार ू ूँ, तरु न्त आओ। मझ
ु े आशा थी कक ववनोद तार द्वारा जवाब दें गे, लेककन
सारा हदन गज
ु र गया और कोई जवाब न आया। बूँगले के सामने से कोई
साइककल तनकलती, तो मैं तुरन्त उसकी ओर ताकने लगती थीिं कक शायद तार
का चपरासी ो। रात को भी मैं तार का इन्तजार करती र ी। तब मैंने अपने
मन को इस ववचार से शािंत ककया कक ववनोद आ र े ैं , इसभलए तार भेजने की
जरूरत न समझी।
अब मेरे मन में कफर शकाएूँ उठने लगी। ववनोद कुसुम के पास क्यों गये, क ीिं
कुसुम से उन् ें प्रेम तो न ीिं ैं? क ीिं उसी प्रेम के कारण तो व मुझसे ववरक्त
न ीिं ो गये ? कुसुम कोई कौशल तो न ीिं कर र ी ैं? उसे ववनोद को अपने घर
ठ राने का अधिकार ी क्या था? इस ववचार से मेरा मन ब ु त क्षुब्ि ो उठा।
कुसम
ु पर क्रोि आने लगा। अवश्य दोनों में ब ु त हदनों से पत्र-व्यव ार ोता र ा
ोगा। मैंने कफर कुसुम का पत्र पढा और अबकी उसके प्रतयेक शब्द में मेरे भलए
कुछ सोचने की सामग्री रखी ु ई थी। तनश्चय ककया कक कुसुम को एक पत्र
भलखकर खूब कोसूँ।ू आिा पत्र भलख भी डाला, पर उसे फाड़ डाला। उसी वक्त
ववनोद को एक पत्र भलखा। तुमसे कभी भें ट ोगी, तो व पत्र हदखलाऊूँगी; जो
कुछ मूँु में आया बक डाला। लेककन इस पत्र की भी व ी दशा ु ई जो कुसम
ु के
पत्र की ु ई थी। भलखने के बाद मालूम ु आ कक व ककसी ववक्षप्त हृदय की
बकवाद ै । मेरे मन में य ी बात बैठती जाती थी व कुसुम के पास ैं। व ी
छभलनी उन पर अपना जाद ू चला र ी ै। य हदन भी बीत गया। डाककया कई
बार आया, पर मैंने उसकी ओर ऑ िंख भी न ीिं उठायी। चन्दा, मैं न ीिं क सकती,
मेरा हृदय ककतना ततलतभमला र ा था। अगर कुसुम इस समय मुझे भमल जाती,
तो मैं न-जाने क्या कर डालती।
रात को लेटे-लेटे ख्याल आया, क ीिं व यरू ोप न चले गये ों। जी बैचन
े ो उठा।
भसर में ऐसा चक्कर आने लगा, मानों पानी में डूबी जाती ू ूँ। अगर व यरू ोप
चले गये, तो कफर कोई आशा न ीिं—मैं उसी वक्त उठी और घड़ी पर नजर डाली।
दो बजे थे। नौकर को जगाया और तार-घर जा प ु ूँची। बाबूजी कुरसी पर लेटे-
लेटे सो र े थे। बड़ी मुल्श्कल से उनकी नीिंद खुली। मैंने रसीदी तार हदया। जब
बाबूजी तार दे चुके, तो मैंने पूछा— इसका जवाब कब तक आयेगा?
घबरा ट में आदमी की बुव्ध पलायन कर जाती ै । ऐसा तनरथयक प्रश्न करके मैं
स्वयिं लल्ज्जत ो गयी। बाबूजी ने अपने मन में मुझे ककतना मूखय समझा ोगा;
खैर, मैं व ीिं एक बेंच पर बैठ गयी और तुम् ें ववश्वास न आयेगा, नौ बजे तक
व ीिं बैठी र ी। सोचो, ककतने घिंटे ु ए? परू े सात घिंटे। सैकड़ों आदमी आये और
गये, पर मैं व ीिं जमी बैठी र ी। जब तार का डमी खटकता, मेरे हृदय में िड़कन
ोने लगती। लेककन इस भय से कक बाबूजी झकला न उठें , कुछ पूछने का सा स
न करती थीिं। जब दफ्तर की घड़ी में नौ बजे, तो मैंने डरते-डरते बाबू से पूछा—
क्या अभी तक जवाब न ीिं आया।
बाबू ने क ा— आप तो य ीिं बैठी ैं, जवाब आता तो क्या मैं खा डालता? मैंने
बे याई करके कफर पूछा—तो क्या अब न आवेगा? बाबू ने मूँु फेरकर क ा—
और—दो-चार घिंटे बैठी रह ए।
ब न, य वाग्बाण शर के समान हृदय में लगा। आूँखे भर आयीिं। लेककन कफर मैं
व टली न ीिं। अब भी आशा बूँिी ु ई थी कक शायद जवाब आता ो। जब दो
घिंटे और गुजर गये, तब मैं तनराश ो गयी। ाय ! ववनोद ने मुझे क ीिं का न
रखा। मैं घर चली, तो ऑ िंखें से आूँसुओिं की झड़ी लगी ु ई थी। रास्ता न सूझता
था।
स सा पीछे से एक मोटर का ानय सुनायी हदया। मैं रास्ते से ट गयी। उस
वक्त मन में आया, इसी मोटर के नीचे लेट जाूँऊ और जीवन का अन्त कर दूँ ।ू
मैंने ऑ िंखे पोंछकर मोटर की ओर दे खा, भुवन बैठा ु आ था और उसकी बगल में
बैठी थी कुसम
ु ! ऐसा जान पड़ा, अल्ग्न की ज्वाला मेरे पैरों से समाकर भसर से
तनकल गयी। मैं उन दोनों की तनगा ों से बचना चा ती थी, लेककन मोटर रूक
गयी और कुसुम उतर कर मेरे गले से भलपट गयी। भुवन चुपचाप मोटर में बैठा
र ा, मानो मुझे जानता ी न ीिं। तनदय यी, िूतय !
कुसम
ु ने पछ
ू ा—मैं तो तम्
ु ारे पास जाती थी, ब न? व ाूँ से कोई खबर आयी? मैंने
बात टालने के भलए क ा—तुम कब आयीिं?
भव
ु न के सामने मैं अपनी ववपल्तत-कथा न क ना चा ती थी।
‘न ीिं, मैं चली जाउूँ गी। अवकाश भमले, तो एक बार चली आना।’
कुसम
ु ने मझ
ु से आग्र न ककया। कार में बैठकर चल दी। मैं खड़ी ताकती र
गयी ! य व ी कुसम
ु ै या कोई और? ककतना बड़ा अन्तर ो गया ै?
मैं घर चली, तो सोचने लगी—भुवन से इसकी जान-प चान, कैसे ु ई? क ीिं ऐसा
तो न ीिं ै कक ववनोद ने इसे मेरी टो लेने को भेजा ो ! भव
ु न से मेरे ववषय
में कुछ पछ
ू ने तो न ीिं आयी ैं?
कुसम
ु ने क ा— ाल पीछे पछ
ू ना, जरा इनकी चौपाई चटपट बबछा दो और थोडा-
सा दि
ू मूँगवा लो।
ववनोद को जब नीिंद आ गयी, मैंने ऑ िंखो में ऑ िंसू भरकर कुसुम से पूछा—ब न,
इन् ें क्या भशकायत ै ? मैंने तार भेजा। उसका जवाब न ीिं आया। रात दो बजे
एक जरुरी और जवाबी तार भेजा। दस बजे तक तार-घर बैठी जवाब की रा
दे खती र ी। व ीिं से लौट र ी थी, जब तम
ु रास्ते में भमली। य तम्
ु े क ाूँ भमल
गये?
मैंने आपल्तत करते ु ए क ा—कुसुम, तुम य प्रश्न पूछकर मेरे साथ अन्याय कर
र ी ो। तुम् ें खुद समझ लेना चाह ए था कक इस बात में कोई सार न ीिं ै !
ववनोद को केवल भ्रम ो गया।
‘मैं इसे न ीिं मानती। य क्यों न ीिं क तीिं कक ववनोद को जलाने , धचढाने और
जगाने के भलए तुमने य स्वाूँग रचा था।’
कुसम
ु की सझ
ू पर चककत ोकर मैंने क ा—व तो केवल हदकलगी थी।
‘तुम् ारे भलए हदकलगी थी, ववनोद के भलए वज्रपात था। तुमने इतने हदनों उनके
साथ र कर भी उन् ें न ीिं समझा ! तुम् ें अपने बनाव-सूँवार के आगे उन् ें
समझने की क ाूँ फुरसत ? कदाधचत तम
ु समझती ो कक तुम् ारी य मो नी
मतू तय ी सब कुछ ै । मैं क ती ू ूँ, इसका मक
ू य दो-चार म ीने के भलए ो सकता
ै । स्थायी वस्तु कुछ और ी ै ।’
मैंने अपनी भल
ू स्वीकार करते ु ए क ा—ववनोद को मझ
ु से कुछ पछ
ू ना तो
चाह ए था?
‘न ीिं, मगर इसका कारण तुम् ारा सिंयम न ीिं, परम्परा ै । मैं इस समय स्पष्ट
बातें कर र ीिं ूिं , इसके भलए क्षमा करना।’
‘बम्बई प ु ूँचते ी उन् ोंने मेरे पास एक खत भलखा था। उसमें य ाूँ की सारी
बातें भलखी थीिं और अन्त में भलखा था—मैं इस जीवन से तिंग आ गया ू ूँ , अब
मेरे भलए मौत के भसवा और कोई उपाय न ीिं ै। ’
‘मैं य पत्र पाकर घबरा गयी और उसी वक्त बम्बई रवाना ो गयी। जब व ाूँ
प ु ूँची, तो ववनोद को मरणासन्न पाया। जीवन की कोई आशा न ीिं थी। मेरे एक
सम्बन्िी व ाूँ डाक्टारी करते ैं। उन् ें लाकर हदखाया तो व बोले —इन् ोंने ज र
खा भलया ै । तुरन्त दवा दी गयी। तीन हदन तक डाक्टर सा ब न हदन-को-हदन
और रात-को-रात न समझा, और मैं तो एक क्षण के भलए ववनोद के पास से न
टी। बारे तीसरे हदन इनकी ऑ िंख खुली। तुम् ारा प ला तार मुझे भमला था, पर
उसका जवाब दे ने की ककसे फुरसत थी? तीन हदन और बम्बई र ना पड़ा। ववनोद
इतने कमजोर ो गये थे कक इतना लम्बा सफर करीनाउनके भलए असम्भव था।
चौथे हदन मैंने जब उनसे य ाूँ आने का प्रस्ताव ककया, तो बोले—मैं अब व ाूँ न
जाऊूँगा। जब मैंने ब ु त समझाया, तब इस शतय पर राजी ु ए ताकक मैं प ले
आकर य ाूँ की पररल्स्थतत दे ख जाऊिं।’
मेरे मूँु से तनकला—‘ ा ! ईश्वर, मैं ऐसी अभाधगनी ू ूँ।’
मैं कुसुम के पैरों पर धगर पड़ी और रोती ु ई बोली—ब न, तुमने मेरे साथ जो
उपकार ककया ै , उसके भलए मरते दम तक तम्
ु ारी ऋणी र ू ूँ गी। तम
ु ने न
स ायता की ोती, तो आज न-जाने क्या गतत ोती।
तुम् ारी,
पद्मा
माूँगे की घड़ी
खश
ु ामद के बल पर मैंने अपने जीवन में बड़े-बड़े काम कर हदखाए ैं, इसी
खश
ु ामद की बदौलत आज म ीने 30 रुपए फटकारता ू ूँ, एक जार ग्रेजए
ु टों से
कम उम्मीदवार न थे, लेककन सब मूँु ताकते र गए और बन्दा मूँछ
ू ों पर ताव
दे ता ु आ घर आया, जब इतना बड़ा पाला मार भलया, तो दो-चार हदन के भलए
घड़ी माूँग लाना कौन-सा बड़ा मुल्श्कल काम था। शाम को जाने की तैयारी थी,
प्रातःकाल दानू के पास प ु ूँचा और उनके छोटे बच्चे को, जो बैठक के सामने
स न में खेल र ा था, गोद में उठाकर भीिंच-भीिंचकर प्यार करने, दानू ने प ले तो
मझ
ु े आते दे खकर जरा तयोररयाूँ चढाई थी, लेककन मेरा य वातसतय दे खकर कुछ
नरम पड़े, उनके ोटों के ककनारे जरा फैल गए कफर बोले - 'खेलने दो दष्ु ट को,
तुम् ारा कुरता मैला ु आ जाता ैं, मैं तो इसे कभी छूता भी न ीिं।'
बालक मचल गया। मैंने उसे शान्त करने के भलए दानू को कके दो-तीन िप
जमाए और उनकी ररस्ट-वाच से सुसल्ज्जत कलाई पकड़कर बोला - 'ले लो बेटा,
इनकी घड़ी ले लो। य ब ु त मारा करते ै तम्
ु ें । आप तो घड़ी लगाकर बैठे ै
और मारे मन्
ु ने के पास न ीिं।'
मैंने चुपके से ररस्ट-वाच खोलकर बालक की बाूँ में बाूँि दी और तब उसे गोद
में उठाकर बोला - 'भैया, अपनी घड़ी में दे दो।'
मगर मैंने अन्त में उसे फुसलाकर घड़ी ले ली और अपनी कलाई पर बाूँि ली।
बालक पान लेने चला गया। दानू बाबू अपनी घड़ी के अलौककक गुणों की प्रशिंसा
करने लगे। ऐसी सच्ची समय बताने वाली घड़ी आज तक कम-से-कम मैंने न ीिं
दे खी।
दानू - 'अजी, ल्स्वस ोने से क्या ोता ै । लाखों ल्स्वस घडड़याूँ दे ख चुका ु ई,
ककसी को सदी, ककसी को जुकाम, ककसी को गहठया, ककसी को लकवा। जब दे खखए,
तब अस्पताल में पड़ी ै । घड़ी की प चान चाह ए और य कोई आसान काम
न ीिं। कुछ लोग समझते ै , ब ु त दाम खचय कर दे ने से अच्छी घड़ी भमल जाती
ै । मैं क ता ू ूँ तम
ु गिे ो। दाम खचय करने से ईश्वर न ीिं भमला करते। ईश्वर
भमलता ै , ञा ान से और घड़ी भमलती ै ञा ान से। फासेट सा ब को तो जानते
ोगे। बस, बन्दा ऐसों ी की खोज में र ता ै । एक हदन आकर बैठ गया। शराब
की चाट थी, जेब में रुपए नदारद। मैं 25 रुपए में य घड़ी ले ली। इसकी तीन
साल ोते ै और आज तक एक भमनट का फकय न ीिं पड़ा। कोई इसके सौ
आूँकता ै , कोई दो सौ, कोई साढे तीन सौ, कोई पौने पाूँच सौ। मगर मैं क ता ू ूँ,
तम
ु सब गिे ो। एक जार से नीचे ऐसी घड़ी न ीिं भमल सकती। पतथर पर
पटक दो, क्या मजाल की बाल भी आए।'
मैंने क ा - 'तब तो यार एक हदन के भलए मिंगनी दे दो। बा र जाना ै । औरों
को भी इसकी करामात सन
ु ाऊूँगा।'
दानू - 'मिंगनी तो तुम जानते ो। मैं कोई चीज न ीिं दे ता। क्यों न ीिं दे ता, इसकी
कथा सन
ु ाने बैठूूँ, तो अभलफलैला की दास्तान ो जाए। उसका सारािंश य ै कक
मिंगनी में चीज दे ना भमत्रता की जड़ खोदना, मरु ौवत का गला घोंटना और अपने
घर में आग लगना ै । आप ब ु त उतसुक मालूम ोते ै , इसभलए दो-एक घटनाएूँ
सुना ू दूँ ।ू आपको फुरसत ै न? ाूँ, आज तो दफ्तर बन्द ै ।'
उसी हदन शाम को मैं सुसराल जा प ु ूँचा। अब य गुतथी खुली कक लोग क्यों
ससुराल जाते वक्त इतना ठाट-बाट करते ै । सारे घर में लचल पड़ गई। मुझ
पर ककसी की तनगा न थी, सभी मेरा साज-सामान दे ख र े थे। क ार पानी
लेकर दौड़ा, एक साला भमठाई की तश्तरी लाया, दस
ू रा पान की। नाइन झाूँककर
दे ख गई औऱ ससुरजी की आूँखों में तो ऐसा गवय झलक र ा था, मानो सिंसार को
उनके तनवायचन-कौशल पर भसर झुकाना चाह ए। मैं 30 रुपए म ीने का नौकर
इस शान से बैठा ु आ था, जैसे बड़े बाबू दफ्तर मे बैठते ै । क ार पिंखा झल र ा
ै , नाइन पाूँव िो र ी थी, एक साला बबठावन बबछा र ा था, दस
ू रा िोती भलए
खड़ा था कक मैं पजामा उतारूूँ। य सब उसी ठाट की करामात थी।
मेरा सारा प्रेमोतसा भशधथल पड़ गया। न क्षेम , न कुशल, न प्रेम की कोई
बातचीत, बस ाय, रुपए, ाय रुपए। जी में आया कक इसी वक्त उठकर चल दूँ ,ू
लेककन जब्त कर गया। बोला - 'मेरी आमदनी जो कुछ ै, व तो तुम् ें मालूम
ी ै ।'
'मैं क्या जानूँू, तुम् ारी क्या आमदनी ै , कमाते ोंगे अपने भलए मेरे भलए क्या
करते ो? तुम् ें तो भगवान ने औरत बनाया ोता, तो अच्छा ोता। रात-हदन
किंघी-चोटी ककया करते, तुम ना क मदय बने। अपने शौक-भसिंगार से बचत ी न ीिं,
दस
ू रों की किक तम
ु क्या करोगे?'
मैंने झिंझलाकर क ा - 'क्या तुम् ारी य ी इच्छा ै कक इसी वक्त चला जाऊूँ?'
दे वीजी ने भी तयोररयाूँ चढाकर क ा - 'चले क्यों न ीिं जाते, मैं तो तुम् ें बुलाने न
गई थी, या मेरे भलए कोई रोकड़ लाए ो?'
मैंने धचल्न्तत स्वर में क ा - 'तुम् ारी तनगा में प्रेम का कोई मूकय न ीिं, जो
कुछ ै, व रोकड़ ी ै ?'
दे वीजी ने तयोररयाूँ चढाए ु ए स्वर में क ा - 'प्रेम अपने-आपसे करते ोंगे, मुझसे
तो न ीिं करते।'
'तम
ु ने प ले तो य भशकायत कभी न थी।'
सालों और नौकरों ने मेरा जो आदर-सम्मान ककया था, उसे दे खकर मैं अपने ठाट
पर फूला न समाया था। अब य ाूँ मेरी जो अव े लना ो र ी थी, उसे दे खकर मैं
पछता र ा था कक व्यथय ी य स्वािंग भरा। अगर सािारण कपड़े प ने , रोनी
सूरत बनाए आता, तो बा र वाले चा े अनादर करते लेककन दे वीजी तो प्रसन्न
र तीिं पर अब भल
ू ो गई थी। दे वीजी की बातों पर मैंने गौर ककया, तो मझ
ु े
उनसे स ानभ
ु तू त ो गई। यहद दे वीजी परु
ु ष ोतीिं और मैं उनकी स्त्री, तो क्या
मुझे य ककसी तर भी सह्य ोता कक व तो छै ला बने घूमें और मैं वपिंजरे में
बन्द दाने और पानी को तरसूँ।ू चाह ए य था कक दे वीजी से सारा र स्य क
सुनाता, पर आतमगौरव ने इसे ककसी तर स्वीकार न ककया। स्वाूँग भरना सवयथा
अनधु चत था, लेककन पदाय खोलना तो भीषण पाप था। आखखर मैंने कफर उसी
खश
ु ामद से काम लेने का तनश्चय ककया, ल्जसने इतने कहठन अवसरों पर मेरा
साथ हदया था। प्रेम पुलककत किंठ से बोला - 'वप्रय, सच क ता ू ूँ, मेरी दशा अब
भी व ी ै लेककन तुम् ारे दशयनों की इच्छा इतनी बलबती ो गई थी कक उिार
कपड़े भलए, य ाूँ तक कक अभी भसलाई भी न ीिं दी। फटे ाल आते सिंकोच ोता
था कक सबसे प ले तुमको दःु ख ोगा और तुम् ारे घरवालें भी दख
ु ी ोंगे। अपनी
दशा जो कुछ ै, व तो ै ी, उसकी हढिंढोरा पीटना तो और भी लज्जा की बात
ै ।'
'ककतने की ै ?'
बा र ककसी ने पछ
ू ा ोता, तो मैंने 500 रुपए से कौड़ी कम न बताया ोता,
लेककन य ाूँ मैंने 25 रुपए बताया।
ऐसा जान पड़ा मेरे शरीर में रक्त ी न ीिं र ा। सारे अवयव तनस्पन्द ो गए।
इिंकार करता ू ूँ , तो न ीिं बचता, स्वीकार करता ू ूँ, तो भी न ीिं बचता। आज
प्रातःकाल य घड़ी मिंगनी पाकर मैं फूला न समाया था। इस समय य ऐसी
मालम
ू ु ई, मानो कौडड़याला (ज रीला साूँप) किंु डली मारे बैठा ो। बोला -'तम्
ु ारे
भलए कोई अच्छी घड़ी ले लूँ ूगा।'
'जी, भाभी को भलवा लाता, अपना गुजर ोता न ीिं, भाभी को भलवा लाता?'
'जब तम्
ु ारी कुल आमदनी 30 रुपया ै , तो य सब अपने ऊपर खचय करने का
तुम् ें अधिकार न ीिं ै । बीवी कब तक मैके में पड़ी र े गी।'
'सारा वक्त न ाने-िोने, खाने-पीने में तनकल जाता ै । कफर दोस्तों से भमलना-
जुलना भी तो ै ।'
'गुजर तो लोग 5 रुपए में भी करते ै और 500 रुपए में भी, इसकी न चलाओ,
अपनी साम्यय दे ख लो।'
जरा सन
ु लील्जए कक 30 रुपए में मैं कैसे गज
ु र करता था। 20 रुपए तो ोटल
को दे ता था, 5 रुपए नाश्ते का खचय था, बाकी 5 रुपए में पान, भसगरे ट, कपड़े, जूते
सब कुछ, मैं कौन राजसी ठाट से र ता था। कौन-सी कफजूलखची करता था कक
अब खचय में कमी करता। मगर दानू बाबू का कजय तो चुकाना ी था। रोकर
चुकाता या ूँसकर। एक बार जी में आया कक सुसरास जाकर घड़ी उठा लाऊूँ,
लेककन दानू बाबू से क चक
ु ा था कक घड़ी खो गई। अब घड़ी लेकर जाऊूँगा तो
य मझ
ु े झठ
ू ा और लबाडड़या समझेंगे, मगर क्या मैं य न ीिं क सकता कक
मैंने समझा था कक घड़ी खो गई, ससुराल गया तो उसका पता चल गया। मेरी
बीवी ने उड़ा दी थी। ाूँ, य चाल अच्छी थी लेककन दे वीजी से क्या ब ाना
करूूँगा? उसे ककतना दःु ख ोगा, घड़ी पाकर ककतनी खुश ो गई थी, अब जाकर
घड़ी छीन लाऊूँ, तो शायद कफर मेरी सूरत भी न दे खे। ाूँ, य ो सकता था कक
दानू बाबू के पास जाकर रोता, मझ
ु े ववश्वास था कक आज क्रोि में उन् ोंने चा े
ककतनी ी तनष्ठुरता हदखाई ो लेककन दो-चार हदन के बाद जब उसका क्रोि
शान्त ो जाए और मैं जाकर उनके सामने रोने लगूँू, तो उन् ें अवश्य दया आ
जाएगी। बचपन की भमत्रता हृदय से तनकल न ीिं सकती, लेककन मैं इतना
आतमगौरव-शून्य न था और न ो सकता था।
मैं दस
ू रे हदन एक सस्ते ोटल में चला गया। य ाूँ 12 रुपए में ी प्रबन्ि ो
गया। सुब को दि
ू और चाय से नाश्ता करता था, अब छटािंक-भर चनों पर
बसर ोने लगी। 12 रुपए तो यों बचें । पान-भसगरे ट आहद मद में 3 रुपए और
कम ककए और म ीने में साफ 15 रुपए बचा भलए। य ववकट समस्या थी,
इल्न्द्रयों का तनदय य दमन ी न ीिं, परू ा सिंन्यास था। पर जब मैंने ये 15 रुपए ले
जाकर दानू बाबू के ाथ में रक्खे, तो ऐसा जान पड़ा, मानो मेरा मस्तक ऊूँचा ो
गया। ऐसे गौरव-पूणय आनन्द का अनुभव मुझे जीवन में कभी न ु आ।
दानू बाबू ने सहृदयता के स्वर में क ा -'बचाए या ककसी से माूँग लाए?'
'सब
ु को तो अब भी खाली र ते ो? आमदनी कुछ और बढाने की कफक्र क्यों
न ीिं करते?'
य ाूँ से लौटा, तो मुझे अपने हृदय में एक नवीन बल, एक ववधचत्र स्फूततय का
अनुभव ो र ा था। अब तक ल्जन इच्छाओिं को रोकना कष्टप्रद जान पड़ता था।
जब उनकी ओर ध्यान भी न जाता था, ल्जस पान की दक
ु ान को दे खकर धचतत
अिीर ो जाता था, उसके सामने से मैं भसर उठाए तनकल जाता था, मानो अब
मैं उस सत से कुछ ऊूँचा उठ गया ू ूँ। भसगरे ट, चाय और चाट अब इनमें से
ककसी पर भी धचतत आकवषयत न ोता था। प्रातःकाल भीगे ु ए चने, दोनों जून
रोटी और दाल, बस, इसके भसवा मेरे भलए और सभी चीजें तयाज्य थी। सबसे बड़ी
बात तो य थी कक मुझे जीवन से ववशेष रुधच ो गई थी। मैं ल्जन्दगी से
बेजार, मौत के मूँु का भशकार बनने का इच्छुक न था। मझ
ु े आभास ोता था
कक मैं जीवन में कुछ कर सकता ू ूँ।
एक भमत्र ने एक हदन मुझसे पान खाने के भलए बड़ा आग्र ककया, पर मैंने न
खाया। तब व बोले -'तम
ु ने तो यार, पान छोड़कर कमाल कर हदया, मैं अनम
ु ान
ी न कर सकता था कक तम
ु पान छोड़ दोगे। में भी कोई तरकीब बताओ।'
मैंने उनको उततेल्जत करने के भलए य शिंका की थी। इसका यथेष्ठ प्रभाव पड़ा,
व दृढता से बोले -'तुम यहद छोड़ सकते ो, तो मैं भी छोड़ सकता ू ूँ। मैं तुमसे
ककसी बात में कम न ीिं ू ूँ।'
'अच्छी बात ै , दे खग
ूूँ ा।'
'दे ख लेना।'
पाूँचवे म ीने में जब मैं रुपए लेकर दानू बाबू के पास गया, तो सच मानो, व
टूटकर मेरे गले से भलपट गए। कफर बोले-' ो यार, तुम िुन के पक्के, मगर सच
क ना मुझे मन में कोसते तो न ीिं।'
'अगर तुम् ारी आमदनी कुछ बढ जाए, तो कफर उसी तर र ने लगोगे ?'
'अच्छा, तो खश
ु ो जाओ, तम्
ु ारी तरक्की ो गई ै ।'
मैंने अववश्वास के भाव से क ा -'मेरी तरक्की अभी क्या ोगी, अभी मुझसे प ले
के लोग पड़े नाक रगड़ र े ै।'
मैं कमरे में गया, बाबूजी भी कोई आिा घिंटे के बाद ाथ में गुडगुड़ी भलए तनकले
और इिर-उिर की बातें करने लगे। आखखर मुझसे न र ा गया कफर बोला -
'मैंने सुना ै मेरी कुछ तरक्की ो गई ै ।'
बड़े बाबू ने प्रसन्नमुख ोकर क ा -' ाूँ भई, ु ई तो ै , तुमसे दानू बाबू ने क ा
ोगा?'
'जी ाूँ, अभी क ा ै , मगर मेरा नम्बर तो अभी न ीिं आया, तरक्की कैसे ु ई?'
'य न पछ
ू ो, अफसरों की तनगा चाह ए, नम्बर-नम्बर कौन दे खता ै।'
'ककसी दस
ू रे का क मारकर तो मुझे ये रुपए न ीिं हदए जा र े ै ?'
म ीना गुजरा। मुझे 45 रुपए भमले, मगर रल्जस्टर में मेरे नाम के सामने व ी
30 रुपए भलखे थे। बड़े बाबू ने अकेले में बल
ु ाकर मझ
ु े रुपए हदए और ताकीद
कर दी कक ककसी से क ना मत, न ीिं तो दफ्तर में बावेला मच जाएगा, सा ब का
मझ
ु े सन्तोष ो गया कक ककसी स कारी का गला घोंटकर मझ
ु े रुपए न ीिं हदए
गए। खश
ु -खश
ु रुपए भलए ु ए सीिा दानू बाबू के पास प ु ूँचा। व मेरी बाछें
खखला दे खकर बोले -'मार लाए तरक्की, क्यों?'
' ाूँ यार, रुपए तो 15 भमले, लेककन तरक्की न ीिं ु ई, ककसी और मद से हदए गए
ै ।'
मैंने दवु विा में पड़कर क ा -'यार, अभी न मजबूर करो, शायद ककश्त न अदा कर
सकूूँ तो?'
मेरी आूँखें भी भर आई, जी में तो आई, घड़ी का सारा र स्य क सुनाऊूँ। लेककन
जब्त कर गया, गदगद किंठ से बोला -'न ीिं, दानू बाबू, मुझे रुपए अदा कर लेने
दो, आखखर तम
ु उस घड़ी को चार-पाूँच सौ में बेच सकते थे या न ीिं ? मेरे कारण
इतना नक
ु सान क्यों ो?'
'तम
ु जाओ, मैं मकान का प्रबन्ि कर रखग
ूूँ ा।'
'मगर मैं 5 रुपए से ज्यादा ककराया न दे सकूँू गा। श र से जरा टकर मकान
सस्ता भमल जाएगा।'
'य अभी क्या मालूम? बबदाई का मामला ै , साइत बने या न बने या लोग एक-
आि हदन रोक ी ले, तुम इस झिंझट में क्यों पड़ोगे? मैं दो-चार हदन में मकान
ठीक करके चला जाऊूँगा।'
मुझे सुसराल में तीन हदन लग गए। चौथे हदन पतनी के साथ चला, जी में डर
र ा था कक क ीिं दानू ने कोई आदमी ने भेजा ो, तो क ाूँ उतरूूँगा, क ाूँ जाऊूँगा।
आज चौथा हदन ै , उन् ें इतनी क्या गरज पड़ी ै कक बार-बार स्टे शन पर अपना
आदमी भेजें। गाड़ी में सवार ोते समय इरादा ु आ कक दानू को तार से अपने
आने की सूचना दे दूँ ,ू लेककन 11 रुपए का खचय था, इससे ह चक गया।
मगर जब गाड़ी बनारस प ु ूँची, तो दे खता ू ूँ कक दानू बाबू स्वयिं ै ट-कैट लगाए,
दो कुभलयों के साथ खड़े ै । मुझे दे खते ी दौड़े और बोले - 'सुसराल की रोहटयाूँ
बड़ी प्यारी लग र ी थीिं क्या? तीन हदन से रोज दौड़ र ा ू ूँ, जुमायना दे ना पड़ेगा।'
दे वीजी भसर से पाूँव तक चादर ओढे गाड़ी से उतरकर प्लेटफामय पर खड़ी ो गई
थी। मैं चा ता था, जकदी से गाड़ी में बैठकर य ाूँ से चल दूँ ।ू घड़ी उनकी कलाई
पर बूँिी ु ई थी। मुझे डर लग र ा था कक क ीिं उन् ोंने ाथ बा र तनकाला और
दानू की तनगा घड़ी पर पड़ गई, तो बड़ी झेंप ोगी। मगर तकदीर का भलखा
कौन टाल सकता ै?
मैं दे वीजी से दानू बाबू की सज्जनता का खूब बखान कर चुका था। अब जो दानू
बाबू उसके समीप आकर सिंदक
ू उठवाने लगे, तो दे वीजी ने दोनों ाथों से उन् ें
नमस्कार ककया। दानू ने उनकी कलाई पर घड़ी दे ख ली। उस वक्त तो क्या
बोलते, लेककन ज्यों ी दे वीजी को एक तािंगे पर बबठाकर म दोनों दस
ू रे तािंगे पर
बैठकर चले, दानू ने मस्
ु कराकर क ा - 'क्या घड़ी दे वीजी ने तछपा दी थी?'
मैंने शमायते ु ए क ा -'न ीिं यार, मैं ी दे आया था। दे क्या आया था, उन् ोंने
मुझसे छीन ली थी।'
'अगर तुमने साफ कर हदया ोता, तो शायद मैं इतना कमीना न ीिं ू ूँ कक तुमसे
उसका तावान वसल
ू करता। लेककन खैर, ईश्वर का कोई काम मसल त से खाली
न ीिं ोता, तम्
ु ें कुछ हदनों ऐसी तपस्या की जरूरत थी।'
'क्या तम्
ु ारे घर के पास ी ै ? तब तो बड़ा मजा र े गा।'
'अब तुम अपनी मजी का कोई मकान ढूूँढ लेना, दस-पाूँच हदन तो य ाूँ र ो।'
लेककन मझ
ु े य जबरदस्ती की मे मानी अच्छी न लगी। मैंने तीसरे हदन एक
मकान तलाश कर भलया। बबदा ोते समय दानू ने 100 रुपए लाकर मेरे सामने
रख हदए और क ा - 'य तुम् ारी अमानत ै , लेते जाओ।'
मुझे दानू की य सज्जनता बोझ के समान लगी। बोला -'तो तुम घड़ी ले लेना
चा ते ो?'
'तम
ु मझ
ु े चारों ओर से दबाना चा ते ो।'
' ाूँ, दबाना चा ता ू ूँ , तुम् ें आदमी बना दे ना चा ता ू ूँ, न ीिं तो उम्रभर तुम य ाूँ
ोटल की रोहटयाूँ तोड़ते और दे वीजी व ाूँ बैठी तुम् ारे नाम को रोती, कैसी भशक्षा
दी ै , इसका अ सान तो न मानोगे?'
मझ
ु े वववश ोकर घड़ी का ल्जक्र करना पड़ा। डरते-डरते बोला -'तो भई, घड़ी...।'
'तम
ु खद
ु मझ
ु े मजबरू कर र े ो।'
मैं रुपए तो न लेता, पर दानू ने मेरी जेब में डाल हदए, लेने पड़े। इन् ें मैंने
सेवविंग बैक में जमा कर हदया। 10 रुपए म ीने पर मकान भलया था, 30 रुपए
खचय करता था, 5 रुपए बचने लगे। अब मुझे मालम
ू ु आ कक दानू बाबू ने मुझसे
6 म ीने तक य तपस्या न कराई ोती, तो सचमुच मैं न-जाने ककतने हदनों
तक दे वीजी को मैके में पड़ा र ने दे ता। उसी तपस्या की बरकत थी कक आराम
से ल्जन्दगी कट र ी थी। ऊपर से कुछ-न-कुछ जमा ोता जाता था, मगर घड़ी
का ककस्सा मैंने आज तक दे वीजी से न ीिं क ा। पाूँचवे म ीने में मेरी तरक्की
का नम्बर आया। तरक्की का परवाना भमला। मैं सोच र ा था कक दे खू,ूँ अबकी
दस
ू री मद वाले 15 रुपए भमलते ै या न ी। प ली तारीख को वेतन भमला, व ी
45 रुपए। मैं एक क्षण के भलए खड़ा र ा कक शायद बड़े बाबू दस
ू री मद वाले
रुपए भी दें । जब और लोग अपने-अपने वेतन लेकर चले गए, तो बड़े बाबू बोले
-'क्या अभी लालच घेरे ु ए ै ? अब और कुछ न भमलेगा।'
मैने लल्ज्जत ोकर क ा - 'जीिं न ीिं, इस ख्याल से न ीिं खड़ा ू ूँ। सा ब ने इतने
हदनों तक परवररश की, य क्या थोड़ा ै , मगर कम-से-कम इतना तो बता
दील्जए कक ककस मद से व रुपया हदया जाता था?'
मैंने कृभमत्र क्रोि हदखाकर क ा -'मेरे य ाूँ तो कुशल ै , लेककन तुम् ारी कुशल
न ीिं।'
मैं आज दानू से बेतककलुफ ो गया था कफर बोला - 'दे खो दानू, मुझसे उड़ोगे, तो
अच्छा न ोगा, क्यों ना क मेरे ाथों वपटोगे?'
'बात-वात कुछ न ीिं थी, मैं जानता था कक ककतनी भी ककफायत करोगे , 30 रुपए
में तम्
ु ारा गज
ु र ोगा, और न स ी, दोनों वक्त रोहटयाूँ तो ो, बस इतनी बात ै,
अब इसके भलए जो चा ो दिं ड दो।'
***
नाग-पज
ू ा
प्रात:काल था। आषढ का प ला दौंगड़ा तनकल गया था। कीट-पतिंग चारों तरफ
रें गते हदखायी दे ते थे। ततलोततमा ने वाहटका की ओर दे खा तो वक्ष
ृ और पौिे
ऐसे तनखर गये थे जैसे साबुन से मैने कपड़े तनखर जाते ैं। उन पर एक ववधचत्र
आध्याल्तमक शोभा छायी ु ई थी मानों योगीवर आनिंद में मग्न पड़े ों। धचडड़यों
में असािारण चिंचलता थी। डाल-डाल, पात-पात च कती कफरती थीिं। ततलोततमा
बाग में तनकल आयी। व ॉँ चिंचल
भी इन् ीिं पक्षक्षयों की भॉतत ो गयी थी। कभी
ककसी पौिे की दे खती, कभी ककसी फूल पर पड़ी ु ई जल की बूँद
ू ो को ह लाकर
अपने मूँु पर उनके शीतल छीिंटे डालती। लाज बीरब ू हटयॉ ॉँ रें ग र ी थी। व
उन् ें चुनकर थेली पर रखने लगी। स सा उसे एककाला व ृ तकाय सॉपॉँ रें गता
हदखायी-हदया। उसने वपकलाकर क ा—अम्मॉ,ॉँ नागजी जा र े ैं। लाओ थोड़ा-सा
दि
ू उनके भलए कटोरे में रख दिं ।ू
ॉँ
मॉ—क ॉँ में पड़े र ते
ीिं जाते न ीिं बेटी, अपनी बॉबी ैं।
ततलोततमा—अम्मॉ,ॉँ मुझे भी उनके दशयन ु ए ैं, पर मुझे तो उन् ोंले बड़ा ववकाल
रुप हदखाया। बड़ा भिंयिंकर स्वप्न था।
थोड़े ी हदनों में उसे ञा ात ो गया कक मैं पतत-वव ीन ोकर सिंसार के सब सुखों
से विंधचत ो गयी।
ॉँ
मॉ—क्यों, तम्
ु ें ऐसी शिंका क्यों ोती ै ?
जनवासे में यथासाध्य रक्षा के सभी सािनों से काम भलया गया था। बबजली की
रोशनी से सारा जनवास हदन-सा ो गया था। भूभम पर रें गती ु ई चीिंटी भी
हदखाई दे ती थी। केशों में न क ीिं भशकन थी, न भसलवट और न झोल। शाभमयाने
के चारों तरफ कनातें खड़ी कर दी गयी थी। ककसी तरफ से कीड़ो-मकोड़ों के
आने की सिंम्भावना न थी; पर भावी प्रबल ोती ै । प्रात:काल के चार बजे थे।
तारागणों की बारात ववदा ो र ी थी। ब ू की ववदाई की तैयारी ो र ी थी। एक
तरफ श नाइयॉ ॉँ बज र ी थी। दस
ू री तरफ ववलाप की आततयध्वतन उठ र ी थी।
पर ततलोततमा की ऑ िंखों में ऑ िंसू न थे, समय नाजुक था। व ककसी तर घर
से बा र तनकल जाना चा ती थी। उसके भसर पर तलवार लटक र ी थी। रोने
और स े भलयों से गले भमलने में कोई आनिंद न था। ल्जस प्राणी का फोड़ा धचलक
र ा ो उसे जराय का घर बाग में सैर करने से ज्यादा अच्छा लगे , तो क्या
आश्चयय ै ।
इस अद्भत
ु घटना का सामाचार दरू -दरू तक फैल गया। जड़वादोगण चककत थे,
य क्या माजरा ै । आतमवाद के भक्त ञा ातभाव से भसर ह लाते थे मानों वे
धचत्रकालदशी ैं। जगदीशचन्द्र ने नसीब ठोंक भलया। तनश्चय ो गया कक कन्या
के भाग्य में वविवा र ना ी भलखा ै । नाग की पूजा साल में दो बार ोने
लगी। ततलोततमा के चररत्र में भी एक ववशेष अिंतर दीखने लगा। भोग और
वव ार के हदन भल्क्त और दे वारािना में कटने लगे। तनराश प्राखणयों का य ी
अवलम्ब ै।
एक हदन प्रोफेसर दयाराम ककसी वैञा तनक सम्मेलन में गए ु ए थे। लौटे तो
बार बज गये थे। वषाय के हदन थे। नौकर-चाकर सो र े थे। वे ततलोततमा के
शयनग ृ में य पूछने गये कक मेरा भोजन क ॉ ॉँ रखा ै । अन्दर कदम रखा ी
था कक ततलोततमा के भसरिं ाने की ओर उन् ें एक अततभीमकाय काला सॉपॉँ बैठा
तब व दृश्य दे खने में आया ल्जसका उदा राण कदाधचत अभलफलैला चिंद्रकािंता में
भी न भमले। व ी फ्लूँ ग के पास, जमीन पर एक काला दीघयकाय सपय पड़ा तड़प
र ा था। उसकी छाती और मूँु से खून की िारा ब र ी थी।
***
ववनोद
सिंयोग से अवसर भी अच्छा भमल गया। कॉलेज खुलने के थोड़े ी हदनों बाद
एक ऐिंग्लो इिंडडयन रमणी दशयन की क्लास में सल्म्मभलत ु ई। व कववकल्कपत
सभी उपमाओिं की आगार थी, सेब का-सा खखला ु आ रिं ग, सुकोमल शरीर, स ास्य
छवव और उस पर मनो र वेष-भूषा! छात्रों को ववनोद का मसाला ाथ लगा।
लोग इतत ास और भाषा को छोड़कर दशयन की कक्षा में प्रववष्ट ोने लगे।
मगर दाई से पेट क ाूँ तछप सकता ै , ताडने वाले ताड गए। यारों ने पिंडडतजी
की मो ब्बत की तनगा प चान ी ली, मूँु माूँगी मुराद पाई, बाूँछे खखल गई। दो
म ाशयों ने उनसे घतनष्ठता बढानी शुरु कर दी। मैत्री को सिंघहटत करने लगे ,
जब समझ कक इन पर मारा ववश्वास जम गया, भशकार पर वार करने का
अवसर आ गया तो एक रोज दोनों ने बैठकर लेडड़यों की शैली में पिंडडतजी के
नाम एक पत्र भलखा -
य पत्र डाक में डाल हदया गया और लोग उतसुक नेत्रों से दे खने लगे कक इसका
क्या असर ोता ै । उन् ें ब ु त लम्बा इन्तजार न करना पड़ा। दस
ू रे हदन कॉलेज
में आकर पिंडडतजी को लस
ू ी के सल्न्नकट बैठने की किक ु ई। वे दोनो म ाशय
ल्जन् ोंने उनसे आतमीयता बढा रखी थी, लूसी के तनकट बैठा करते थे। एक का
नाम था नईम और दस
ू रे का धगररिरस ाय। चक्रिर ने आकर धगररिर से क ा
- 'यार, तुम मेरी जग जा बैठो, मुझे य ाूँ बैठने दो।'
चक्रिर - 'दरू ो जाएूँगे तो क्या, य ाूँ अच्छा र े गा, मुझे कभी-कभी झपककयाूँ आ
जाती ै , सामने डर लगा र ता ै कक क ीिं उनकी तनगा न पड़ जाए।'
नईम - 'तम
ु भी अजीब आदमी ो, जब दोस्त ोकर एक बात क ते ै तो उसके
मानने में तम्
ु ें क्या एतराज? चप
ु के से दस
ू री जग जा बैठो।'
धगररिर - 'अच्छी बात ै , छोड़े दे ता ू ूँ, ककन्तु समझ लील्जएगा कक य कोई
सािारण तयाग न ीिं ै । मैं अपने ऊपर ब ु त जब्र कर र ा ू ूँ , कोई दस
ू रा लाख
रुपए भी दे ता तो जग न छोड़ता।'
हदन तो गज
ु रा, सन्ध्या समय पिंडडतजी नईम के कमरे में आकर बोले - 'यार, एक
लेटर-राइटर (पत्र-व्यव ार-भशक्षक) की आवश्यकता ै , ककसका लेटर-राइटर सबसे
अच्छा ै ?'
तुम् ारी प्रेम-पत्री भमली, बार-बार पढा, आूँखों से लगाया, चुम्बन भलया, ककतनी
मनो र म क थी। ईश्वर से य ी प्राथयना ै कक मारा प्रेम भी ऐसा ी
सुरभभभसिंधचत र े । आपको भशकायत ै कक मैं आपसे बातें क्यों न ीिं करती। वप्रय,
प्रेम बातों से न ीिं, हृदय से ोता ै । जब मैं तुम् ारी ओर से मूँु फेर लेती ू ूँ तो
मेरे हदल पर क्या गज
ु रती ै, य मैं ी जानती ू ूँ। एक ज्वाला ै जो अन्दर ी
अन्दर मझ
ु े भस्म कर र ी ै । आपको मालम
ू न ीिं, ककतनी आूँखें मारी ओर
एकटक ताकती र ती ै । जरा भी सन्दे ु आ, और धचर-ववयोग की ववपल्तत
मारे भसर पड़ी। इसीभलए में ब ु त साविान र ना चाह ए। तुमसे एक याचना
करती ू ूँ , क्षमा करना, मैं तुम् ें अिंग्रेजी पोशाक में दे खने को ब ु त उतकिंहठत ो
र ी ू ूँ। यों तो तुम चा े जो वस्त्र िारण करो, मेरी आूँखों के तारे ो, ववशेषकर
तम्
ु ारी सादा कुरता मझ
ु े ब ुत ी सन्
ु दर मालम
ू ोता ै । कफर भी बाकयावस्था
से ल्जन वस्त्रों को दे खते चली आई ू ूँ , उन पर ववशेष अनरु ाग ोना स्वाभाववक
ै , मुझ आशा ै , म तनराश न करोगे। मैंने तुम् ारे भलए एक वास्कट बनाई ै!
उसे मेरे प्रेम का तुच्छ उप ार समझकर स्वीकार करो।'
तुम् ारी,
लूसी।
पत्र के साथ एक छोटा-सा पैकेट था। वास्कट उसी में बन्द था। यारों ने आपस
में चन्दा करके बड़ी उदारता से उसका मूलिन एकत्र ककया था। उस पर सेंट-
परसेंट से भी अधिक लाभ ोने की सम्भावना थी। पिंडडत चक्रिर उक्त उप ार
और पत्र को पाकर इतने प्रसन्न ु ए, ल्जसका हठकाना न ीिं। उसे लेकर सारे
छात्रावास में चक्कर लगा आए। भमत्रवन्ृ द दे खते थे, उसकी काट-छाूँट की सरा ना
करते थे। तारीफों के पुल बाूँिते थे, उसके मूकय का अततशयोल्क्तपूणय अनुमान
करते थे। कोई क ता था - य सीिे पेररस से भसलकर आया ै , इस मक
ु क में
ऐसे कारीगर क ाूँ और कौन। अगर कोई इस टक्कर का वास्कट भसलवा दे तो
100 रुपए की बाजी बदता ू ूँ? पर वास्तव में उसके कपड़े का रिं ग इतना ग रा था
कक कोई सुरुधच रखने वाला मनुष्य उसे प नना पसन्द न करता। चक्रिर को
लोगों ने पूवय मुख करके खड़ा ककया और कफर शुभ मु ू तय में व वास्कट उन् ें
प नाया। आप फूले न समाते थे, इिर से जाकर क ता - भाई, तुम तो बबककुल
प चाने न ीिं जाते, चोला ी बदल गया, अपने वक्त के यूसुफ ो, यार क्यों न ो,
तभी तो य ठाट ै , मख
ु ड़ा दमकने लगा, मानो तपाया ु आ किंु दन ै । अजी, एक
वास्कट पर य जीवन ै , क ीिं परू ा अग्रेजी सट
ू प न लो तो न जाने क्या गजब
ो जाए? सारी भमसें लोट-पोट ो जाएूँ, गला छुटाना मुल्श्कल ो जाएगा।
नईम - 'जरा आइने में सूरत दे खखए तो मालूम ो, खासे शा जादे मालूम पड़ते
ो, तुम् ारे ु स्न पर मुझे तो रस्क ै । खुदा ने तो आपको ऐसी सूरत दी और
उसे आप मीठे कपड़ों में तछपाए ु ए थे।'
नईम - 'इसका फैशन ी य ै , म क्या करें , ढीली टाई ऐब में दाखखल ै ।'
चक्रिर के प्राण सिंकट में थे। आूँखें सजल ो र ी थी, चे रा सुखय ो गया था,
मगर टाई को ढीला करने की ह म्मत न पड़ती थीिं। सजिज से आप कॉलेज
चले तो भमत्रों का एक गुट सम्मान का भाव हदखाता आपके पीछे -पीछे चला,
मानो बराततयों का समू ै । एक-दस
ू रे की तरफ ताकता और रूमाल मूँु में
दे कर ूँसता था मगर पिंडडतजी को क्या खबर? व तो अपनी िन
ु में मस्त थे।
अकड़-अकड़कर चलते ु ए आकर क्लास में बैठ गए। थोड़ी दे र बाद लस
ू ी भी
आई। पिंडडत का य वेष दे खा तो चककत ो गई। उसके अिरों पर मुस्कान की
एक अपूवय रे खा अिंककत ो गई। पिंडडतजी ने समझा, य उनके उकलास का धचह्न
ै । बार-बार मुस्कराकर उसकी ओर ताकने और र स्यपूणय भाव से दे खने लगे।
ककन्तु व लेशमात्र भी ध्यान न दे ती थी।
पिंडडतजी की जीवनचयाय, िमोतसा और जातीय प्रेम में बडे वेग से पररवतयन ोने
लगे। सबसे प ले भशखा पर छुरा कफरा, अग्रेजी फैशन के बाल कटवाए गए। लोगों
ने क ा - 'य क्या म ाशय? आप तो फरमाते थे कक भशखा ववद्युतप्रवा शरीर
में प्रवेश करता ै । अब व ककस मागय से जाएगा?'
चक्रिर ने भमत्रों से पछ
ू ा - 'अपनी पतनी के भलए कुछ सौगात भेजना चा ता ू ूँ ,
क्या भेजना उधचत ोगा?'
रातोंरात पैकेट बना और प्रातःकाल पिंडडतजी उसे ले जाकर लाईब्रेरी में रख आए।
लाइब्रेरी सबेरे ी खुल जाती थी, कोई अड़चन न ु ई। उन् ोंने इिर मूँु फेरा, उिर
यारों ने माल उड़ाया और चम्पत ु ए। नईम के कमरे में चन्दे के ह साब से
ह स्सा-बाूँट ु आ। ककसी ने घड़ी पाई, ककसी ने रूमाल, ककसी ने कुछ। एक रुपए
के बदले पाूँच-पाूँच ाथ लगे।
ककन्तु दष्ु टों को अब भी उनपर दया न आई। एक हदन चक्रिर के पास लूसी का
पत्र प ु ूँचा, ल्जसमें ब ु त अनुनय-ववनय के बाद य इच्छा प्रकट की गई थी कक
मैं भी आपको अग्रेजी खेल खेलते दे खना चा ती ू ूँ। मैंने आपको कभी फुटबॉल
या ॉकी खेलते न ीिं दे खा। अिंग्रेजी जेंहटलमैन के भलए ॉकी, कक्रकेट आहद में
भस्ध स्त ोना परमावश्वक ै ! मझ
ु े आशा ै , आप मेरी व तच्
ु छ याचना
स्वीकार करें गे। अिंग्रेजी वेष-भूषा में, बोलचाल में , आचार-ववचार में , कॉलेज में अब
आपका कोई प्रततयोगी न ीिं र ा। मैं चा ती ू ूँ कक खेल के मैदान में भी आपको
सवयश्रेष्ठता भस्ध ो जाए। कदाधचत कभी आपको मेरे साथ लेडडयों के सम्मुख
खेलना पड़े, तो उस समय आपकी और आपसे ज्यादा मेरी ेठी ोगी, इसभलए
टे तनस अवश्य खेभलए।
चक्रिर - 'आपको इससे क्या मतलब, आप गें द तनकाल दील्जए, मैं गें द में भी
आप लोगों को नीचा हदखाऊूँगा।'
नईम - 'जनाब, क ीिं चोट-चपेट आ जाएगी, मुफ्त में परे शान ोइएगा। मारे ी
भसर मर म-पट्टी को बोझ पड़ेगा, खुदा के भलए इस वक्त र ने दील्जए।'
नईम ने गें द तनकाल दी और पिंडडतजी उसी जलती ु ई दोप री में अभ्यास करने
लगे। बार-बार धगरते थे, बार-बार ताभलयाूँ पड़ती थी, मगर व अपनी िन
ु में ऐसे
मस्त थे कक उसकी कुछ परवा ी न थी। इसी बीच लूसी को आते दे ख भलया
और भी फूल गए। बार-बार पैर चलाते थे, मगर तनशाना खाली जाता था, पैर
पड़ते भी थे तो गें द पर कुछ असर न ोता था और लोग आकर गें द को एक
ठोकर में आसमान तक प ु ूँचा दे ते तो आप क ते ै , मैं जोर से मारूूँ तो इससे
भी ऊपर जाए, लेककन फायता क्या? लस
ू ी दो-तीन भमनट तक खड़ी उनकी
बौखला ट पर ूँसती र ी। आखखर नईम से बोली - 'वेल नईम, इस पिंडडत को
क्या ो गया ै ? रोज एक-न-एक स्वािंग भरा करता ै , इसका हदमाग में खलल
तो न ीिं पड़ गया?'
चक्रिर - 'मैं उसी कायदे से गें द में ठोकर मारता था, जैसे ककताब में भलखा ै ।'
नईम -'तभी तो बाजी मार ले गए भाई! और न ीिं क्या म आपसे ककसी बात में
कम ै! ाूँ, तम्
ु ारी-जैसी सरू त क ाूँ से लावें'
चक्रिर -'ब ु त बनाओ न ीिं, मैं ऐसा क ाूँ का बड़ा रूपवान ू ूँ।'
नईम -'अजी य नतीजे ी से जाह र ै , य ाूँ साबन
ु और तेल लगाते-लगाते भौंरा
ु आ जाता ू ूँ और कुछ असर न ीिं ोता। मगर आपका रिं ग बबना कदी-कफटकरी
के ी चोखा ै।'
पिंडडतजी अकड़े जाते थे, हृदय फूला जाता था, ल्जन् ोंने उनकी व अनुपम छवव
दे खी, वे ब ु त हदनों तक याद रखेंगे। मगर इस अतुल आनन्द का मूकय उन् ें
ब ु त दे ना पड़ा, क्योंकक अब कॉलेज का सेशन समाप्त ोने वाला था और भमत्रों
की पिंडडतजी के माथे एक बार दावत खाने की बड़ी अभभलाषा थी, प्रस्ताव ोने
की दे र थी। तीसरे हदन उनके नाम लस
ू ी का पत्र प ु ूँचा। ववयोग के दहु दय न आ र े
ै , न-जाने आप क ाूँ ोंगे और मैं क ाूँ ू ूँगी। मैं चा ती ू ूँ, इस अटल प्रेम की
यादगार में एक दावत ो। अगर उसका व्यय आपके भलए असह्य ो तो मैं
सम्पूणय भार लेने के भलए तैयार ू ूँ। इस दावत में मैं और मेरी सखखयाूँ-स े भलयाूँ
तनमिंबत्रत ोंगी। कॉलेज के छात्र और अध्यापकगण सल्म्मभलत ोंगे। भोजन के
उपरान्त म अपने ववयुक्त हृदय के भावों के प्रकट करें गे। काश, आपका िमय,
आपकी जीवन-प्रणाली और मेरे माता-वपता की तनदय यता बािक न ोती तो में
सिंसार की कोई शल्क्त जुदा न ीिं करती।
चक्रिर का गला भर आया, कल्म्पत स्वर से बोलो - 'अब आपसे सदै व के भलए
बबछुड़ ी जाऊूँगा, य कहठन ववर -पीड़ा कैसे स ी स ी जाएगी! मझ
ु े तो शिंका ै,
क ीिं पागल न ो जाऊूँ!'
लस
ू ी ने ववल्स्मत ोकर पछ
ू ा -'आपकी मिंशा क्या ै ? आप बीमार ै क्या?'
चक्रिर - 'आ डडयर डाभलांग, तुम पूछती ो, बीमार ू ूँ? मैं मर र ा ू ूँ , प्राण तनकल
चुके ै केवल प्रेमाभभलाषा का अवलम्बन ै !'
चक्रिर - 'डडयर डाभलांग, इतनी जकद न भूल जाओ। इतनी तनदय यता न हदखाओ,
तम्
ु ारे वे प्रेम-पत्र, जो तम
ु ने मझ
ु े भलखे ै , मेरे जीवन की सबसे बड़ी सम्पतत
र ें गे। तम्
ु ारे अनरु ोि से मैंने य वेष िारण ककया, अपना सिंध्या- वन छोड़ा, य
आचार-व्यव ार ग्र ण ककया। दे खो तो जरा, मेरे हृदय पर ाथ रखकर, कैसी
िड़कन ो र ी ै , मालूम ोता ै , बा र तनकल पड़ेगा। तुम् ारा य कुहटल ास्य
मेरे प्राण ी लेकर छोड़ेगा, मेरी अभभलाषाओिं...।'
पिंडडतजी चाूँटा खाकर चौंधिया गए। आूँखों के सामने अिंिेरा छा गया, मानभसक
आघात पर व शारीररक वज्रपात! य द ु री ववपल्तत! व तो चाूँटा मारकर वा
ो गई और य व ीिं जमीन पर बैठकर इस सम्पूणय वत
ृ ान्त की मन- ी-मन
आलोचना करने लगे। चाूँटे ने बा र की आूँखें आूँसुओिं से भर दी थीिं, पर अन्दर
की आूँखें खोल दी थीिं। क ीिं कॉलेज के लौंडो ने तो य शरारत न ीिं की? अवश्य
य ी बात ै , आ ! पाल्जयों ने बड़ा चकमा हदया! तभी सब-के-सब मुझे दे ख-
दे खकर ूँसा करते थे! मैं भी कुछ कमअक्ल ू ूँ न ीिं तो इनके ाथों टे सू क्यों
बनता! बड़ा झाूँसा हदया, उम्र-भर याद र े गा, व ाूँ से झकलाए ु ए आए और नईम
से बोले - 'तम
ु बड़े दगाबाज ो, परले भसरे के ित
ू य, पाजी उकलू, गिे, शैतान!'
चक्रिर - 'तम्
ु ारा भसर! माशक
ू ें चाूँटे लगाया करते ै , वे आूँखों से तीर चलाते ै ,
कटार मारते ै , या ाथों से मल्ु ष्ठ-प्र ार करते ै ?'
धगररिर -'गजब ी ो गया, आप ै तनरे चोंच! भले आदमी, इतनी मोटी बुव्ध ै
तुम् ारी! म क्या जानते थे कक आप ऐसे तछछोरे ै , न ीिं तो मजाक ी क्यों
करते। अब आपके साथ म लोगों पर भी आफत आई। क ीिं उसने वप्रिंभसपल से
भशकायत कर दी तो न इिर के ु ए न उिर के, और जो क ीिं अपने ककसी
अिंग्रेज आशना से क ा तो जान के लाले पड़ जाएूँगे। बड़े बेवकूफ ो यार, तनरे
चोंच, इतना भी न ीिं समझे कक व सब हदकलगी थी, ऐसे बड़े खब
ू सरू त भी तो
न ीिं ो।'
चक्रिर- 'हदकलगी तम्
ु ारे भलए थी, मेरी तो मौत ो गई। धचडड़या जान से गई,
लड़कों का खेल ु आ, अब चप
ु के से मेरे पाूँच सौ रुपए लौटा दील्जए, न ीिं तो
गरदन ी तोड़ दूँ ग
ू ा!'
ू ूँ।'
नईम -'तो प ले मुझे और धगररिर- दोनों को गोली मार दो, कफर जाना।'
लस
ू ी -'बे या लोगों पर गोली का असर न ीिं ोता, उसने मझ
ु े इिंसकट ककया ै ।'
नईम - ' म दोनों उसे हदल-ब लाव का एक स्वािंग बनाए ु ए थे, इसकी में जरा
भी खबर न थी, कक व तुम् ें छे ड़ने लगेगा। म तो समझते थे कक उससें इतनी
ह म्मत ी न ीिं ै । खुदा के भलए मुआफ करो, वरना म तीनों का खून तुम् ारी
गरदन पर ोगा।'
लस
ू ी - 'मेरी दोनों शते बातें मिंजरू करते ो न?'
नईम लूसी को साथ लाए। पिंडड़त के सामने दोनों शतें रखी गई तो बेचारा
बबलबबला उठा। लस
ू ी के पैरों पर धगर पड़ा और भससक-भससककर रोने लगा।
नईम और धगररिर भी अपने कुकृतय पर लल्ज्जत ु ए। अन्त में लूसी को दया
आई और बोली - 'अच्छा, इन दोनों में से कोई एक शतय मिंजूर कर लो मैं माफ
कर दूँ ग
ू ी।'
लोगों को ववश्वास था कक चक्रिर रुपए वाली शतय स्वीकार करें गे। लूसी के
सामने व कभी कान पकड़कर उठा-बैठी न करे गा, इसभलए जब चक्रिर ने क ा
- 'मैं रुपए तो न दूँ ग
ु ा, ाूँ, बीस की जग चालीस बार उठा-बैठी कर लूँ ग
ू ा।' तो
सब लोग चककत ो गए, नईम ने क ा - 'यार, क्यों म लोगों को जलील करते
ो? रुपए क्यों न ीिं दे त?े '
बीस बार उठते-बैठते ककतनी दे र लगती ै , पिंडडत ने खूब उच्च स्वर से धगन-
धगनकर बीस की सिंख्या परू ी की और गवय से भसर उठाए अपने कमरे में चले
गए, लूसी ने उन् ें अपमातनत करना चा ा था, उलटे उसी का अपमान ो गया।
इस दघ
ु ट
य ना के पश्चात एक सप्ता तक कॉलेज खुला र ा, ककन्तु पिंडडतजी को
ककसी ने ूँसते न ीिं दे खा। व ववमन औऱ ववरक्त भाव से अपने कमरे में बैठे
र ते थे, लूसी का नाम जबान पर आते झकला पड़ते थे।
इस साल की परीक्षा में पिंडडतजी फेल ो गए, पर इस कॉलेज में कफर न आए,
शायद अलीगढ चले गए।
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