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कोल्हान विश्िविद्यालय, चाईबासा हहन्दी विषय से पीएच.

डी
(शोध) हे तु शोध-प्रबंध की रूपरे खा

हहन्दी विभाग

शोध विषय

'आहदिासी' पत्रिका का सामाजिक-साांस्कृतिक महत्त्व

शोध ननदे शक: डॉ. रविरं जन कुमार

शोध छाि : डेमो परु ती


कोल्हान विश्िविद्यालय, चाईबासा ‘हहन्दी विषय’ में शोध-कायय
(पीएच.डी.) हे तु शोध-प्रबन्ध की रूपरे खा
(ससनॉप्ससस)

शोध का विषय :
'आहदिासी' पत्रिका का सामाजिक-साांस्कृतिक महत्त्व

शोध विषय की ितयमान प्थिनत :


राधाकृष्ण 1947 में बिहार सरकार की पबिका 'आदिवासी' के संपािक िनाए गए और
अवकाश प्राप्ति िक वे इसी पि पर िने रहे । इसका प्रकाशन केंद्र रााँची ही था। पहले यह
नागपरु ी में ननकली, लेककन जल्ि ही इसकी भाषा दहंिी हो गई। इस पबिका से राधाकृष्ण की
एक अलग पहचान िनी। आदिवाससयों को स्वर समला। यहााँ के रचनाकारों को भी एक मंच
समला, प्जस पर खड़े होकर वे अपना िख
ु -सख
ु कह सकिे थे। अपने अनभ
ु व साझा कर सकिे
थे।
इसी िीच राधाकृष्ण जी पटना आकाशवाणी में ड्रामा प्रोड्यस
ू र िनाए गए। उन्हें यहााँ
स्थापपि करने का श्रेय जगिीशचंद्र माथरु को है। वे आकाशवाणी के महाननिे शक थे। वे
आकाशवाणी में सादहत्यकारों को पिस्थापपि कर रहे थे, िाकक उसका स्िर ऊाँचा उठ सके और
गुणवत्ता में सुधार हो सके। इसी क्रम में इनकी ननयुप्ति वहााँ हुई थी। िाि में जि रााँची में
आकाशवाणी केंद्र की स्थापना 27 जुलाई 1957 को हुई िो यहीं आ गए।
िचपन में अभावों ने जो साथ पकड़ा, वह अंि िक रहा। पााँच पुिों एवं एक पि
ु ी के
पपिा राधाकृष्ण भी 3 फरवरी 1979 को िनु नया छोड़ गए। भरे -पूरे पररवार और पत्नी को पीछे
छोड़ गए। 1996 में पत्नी का भी िे हांि हो गया। इस िरह इस कथाकार का अंि हुआ। िस
कंडतटरी से आकाशवाणी िक के सफर में गरीिी और अभावों ने कभी साथ नहीं छोड़ा। लेककन
उन्होंने कभी हार नहीं मानी। लेखनी लगािार सकक्रय रही। उपन्यास, कहानी, नाटक, संस्मरण
आदि का क्रम चलिा रहा। यह अलग िाि है कक उनके ननधन पर सादहत्य जगि में कोई
पवशेष हलचल नहीं हुई। जानने वालों ने जरूर अखिारों के माध्यम से कुछ श्रदधांजसल अपपिि
की। पर हकीकि यही है कक उनके जाने पर जैसे पेड़ का एक पत्ता टूट कर जमीन में कहीं खो
गया।
अमि
ृ राय ने उनके ननधन पर जो सलखा, वह हमारे आज का भी सच है। उन्होंने
सलखा, 'कुछ ऐसी ननयनि रही उनकी कक जैसी गुमनामी में उनकी प्जंिगी िीिी, कुछ वैसी
गुमनामी में वह इस िनु नया से चले भी गए। स्थानीय पिों में यह शोक समाचार ननकला ही
होगा। अनुमान करिा हूाँ कक बिहार के प्रािे सशक पिों में भी जरूर ननकला होगा, पर अखखल
भारिीय िो जाने िीप्जए, अखखल दहंिी स्िर पर भी उपेक्षिि ही रहा। आकाशवाणी से िो
राधाकृष्ण का िरसों संिंध भी रहा, लेककन आकाशवाणी को भारि भाग्य पवधािा मंबियों और
उपमंबियों के िे शोदधारक प्रवचनों और आपसी उठा-पटक के अनुदिन-अनुिण पववरणों से --
प्जन्हें समाचार की एक ननराली पररभाषा के अनस
ु ार ही समाचार की संज्ञा िी जा सकिी है! -
अवकाश समले िि िो सादहत्यकार जैसे एक ननरे कीट के जीने -मरने की खिर िे । बिहार के
िो-एक समिों की चचट्दठयों से मालम
ू हुआ कक वहााँ के प्रािे सशक समाचार में एक पंप्ति, िस
एक पंप्ति की यह सचू ना िी गई थी। दिल्ली रे डडयो से उिनी भी नहीं। जैसे अनपढ़ लोग वहााँ
कुससियों पर िैठे हैं, उन्हें शायि पिा भी न होगा कक यह राधाकृष्ण कमिख्ि था कौन? जीवन
भर एकांि सादहत्य-साधना और वह भी कैसे िारुण अभावों के िीच -- उसका यही परु स्कार है।
लेककन इन िेचारों को शायि मालूम नहीं कक समय िेविा कुछ और ही ढं ग से सिका मूल्यांकन
करिा है। ये गदिीधारी ककिने दिन के हैं - आज मरे कल िस
ू रा दिन, िप्ल्क आज हटे कल
िस
ू रा दिन। जि इनका कोई नामलेवा भी न होगा, िि राधाकृष्ण प्जंिा होगा। लोग उसे पढ़
रहे होंगे और िड़ी मुहब्िि से याि कर रहे होंगे।' अमि
ृ राय की यह श्रदधांजसल 'धमियुग' के
4 माचि 1979 के अंक में छपी थी।

विषय का औचचत्य और महत्त्ि


राधाकृष्ण को, प्जसे प्रेमचंि अपने पुि की िरह मानिे थे, उनका खचि चलािे थे और
जि प्रेमचंि का ननधन हो गया िो राधाकृष्ण 'हंस' को संभालने रांची से िनारस चले गए। यह
राधाकृष्ण ही थे, प्जनकी कथा-प्रनिभा को िे खकर कथा सम्राट प्रेमचंि ने कहा था, यदि दहंिी
के उत्कृष्ट कथा-सशप्ल्पयों की संख्या काट-छााँटकर पााँच भी कर िी जाए, िो उनमें एक नाम
राधाकृष्ण का होगा। इस राधाकृष्ण को हम भूल गए प्जसने अपने समय में अपनी मंप्जल खि

िय की। अपनी कहाननयों का सशल्प खुि गढ़ा। वह ककसी लीक पर नहीं चला। कोई उन पर
िोषारोपण नहीं कर सकिा कक उनकी कहाननयों पर अमुक का प्रभाव है।
राधाकृष्ण केवल कथाकार ही नहीं थे। हालांकक उन्होंने लेखन की शुरुआि कहानी
से की, आगे चलकर उपन्यास भी सलखे, संस्मरण भी सलखा, हास्य-व्यंग्य, नाटक, एकांकी पर
भी अपनी कलम चलाई और िच्चों के सलए भी खूि मन से सलखा। यानी सादहत्य की ऐसी
कोई पवधा नहीं, प्जसमें राधाकृष्ण की कलम न चली हो।
‘आदिवासी’ पबिका का संपािन राधाकृष्ण के सादहत्य सेवा का उच्च सशखर है।
उन्होंने यह कायि प्रेमचंि के आिशों को साधिे हुए ककया। झारखंड के सामाप्जक-सांस्कृनिक
गनिपवचधयों को ऐनिहाससक पररप्रेक्ष्य में िे खने की मााँग होने पर ‘आदिवासी’ पबिका का महत्व
सिसे ऊपर उठकर दिखिा है।

शोध विषय की समथयाएँ :


• आदिवासी पबिका का महत्व
• सम्पािक राधाकृष्ण : व्यप्तित्व और कृनित्व; खोज़ और अनक्र
ु म की समस्या।
• ‘आदिवासी’ पबिका: िलाश और समाधान की समस्या।
• राधाकृष्ण की पिकाररिा : जनपिधरिा और जनसंस्कृनि के उभय पिों के िीच।
• ‘आदिवासी’ पबिका और आज की पिकाररिा : समस्या और समाधान

शोध-विषय का उद्दे श्य और असभप्रेरणा :


वििमान संिभि में जि हम पिकाररिा की भूसमका को खोजने ननकलिे हैं, िो ककसी
िरह के नकारात्मक या सकारात्मक ननष्कषि िक पहुंचने में खासी मेहनि करनी पड़िी है, न
िो पिकाररिा की िारीफ करिे िनिा है और न ही िेवजह पिकाररिा की आलोचना ही की जा
सकिी है। यह िहुि ही िपु वधा वाली पररप्स्थनि है। पिकाररिा की भूसमका िहुि िेहिर चाहे
न हो, पर एकिम नकारा भी नहीं है।
आज की िारीख में पिकाररिा पर कुछ भी सलखने से पहले िहुि सोच-पवचार करना
पड़िा है। मामला िहुि नाजक
ु भी है और संवेिनशील भी। इस पवकट पररप्स्थनि के िाि भी
जि पिकाररिा पर कुछ सलखना ही पड़े िो ननप्चचि िौर पर अिीि और वििमान के मीडडया
का ननष्पि िुलनात्मक अध्ययन जरूरी हो जािा है, यही वह बिंि ु है जहां से मौजूिा मीडडया
को और उसके कायि व्यवहार को आलोचना के िायरे में रखा जा सकिा है। इस ननगाह से िे खें
िो आज की पिकाररिा चाहे वो पप्रंट हो, टे लीपवजन हो या रे डडयो, पिकाररिा के मानिं डों पर
उिने खरे नहीं दिखाई िे िे प्जिना उनको होना चादहये। इस मामले में सोशल मीडडया ने माहौल
को गमािने में िड़ी भूसमका ननभाई है।
पिकाररिा और उसके मौजूिा संिभि में चचाि करने से पहले यह जानना सिसे ज्यािा
जरूरी है, कक िे श की आजािी से लेकर िािरी मप्स्जि पवध्वंस और उसके िाि आज िक
राष्रीय पररवेश में पिकाररिा की कैसी पिकाररिा रही है? अि िक करीि 7 िशकों में
पिकाररिा के समजाज, स्वरूप, काम करने के िौर िरीकों और काम करने की शैली के साथ
ही पिकारों के रहन-सहन में ककस ककस्म का ििलाव आया है। ििलाव िो एक शाचवि प्रकक्रया
है और ििलाव जरूरी भी है लेककन ििलाव की इस यािा में नैनिक मल्
ू यों, सामाप्जक चेिना,
संिंधों की पपवििा, राष्र के प्रनि सम्मान और संवेिनशीलिा की समझ में जिरिस्ि चगरावट
िे खने को समलिी है। समय के साथ इन प्रनिमानों को केवल इससलये स्वीकार नहीं ककया जा
सकिा कक ये िो होना ही था इसमें हम कुछ नहीं कर सकिे।
िे श की आजािी के सलये हो रहे आंिोलन के िौरान पिकाररिा एक समशन के रूप में
काम कर रही थी। गणेश शंकर पवदयाथी, पराड़कर और खुि महात्मा गांधी िक असंख्य पिकार
केवल इससलये इस पेशे में थे या इस पेशे से उन्हें तयार था, तयोंकक उनको लगिा था, कक
स्वाधीनिा संग्राम की अलख जगाने और उसे जन-जन िक पहुंचाने का काम पिकाररिा के
माध्यम से ही हो सकिा है। यही वजह है कक प्रत्येक आंिोलनकारी कहीं न कहीं एक पिकार
भी था। शहीि भगि ससंह से लेकर पंडडि जवाहरलाल नेहरू िक िमाम क्रांनिकाररयों ने ककसी
न ककसी रूप में पिकाररिा को स्वाधीनिा आंिोलन का हचथयार जरूर िनाया था। ‘हररजन‘
समेि ऐसे हजारों पिों का उल्लेख समलिा है, जो दहंिी और अन्य भारिीय भाषाओं में बिदटश
हुकूमि के खखलाफ राष्रव्यापी माहौल िना रहे थे।
पिकाररिा का यह समशन आजािी के िाि के िीन िशकों िक भी इसी जझ
ु ारू प्रण
से चलिा रहा 1947 से लेकर 1977 िक के इस िौर में पिकारों की पैनी कल ने जवाहरलाल
नेहरू और इंदिरा गांधी जैसे िाकिवर प्रधानमंबियों को भी नहीं िख्शा। मामला चाहे रिा
मंिालय में जीप घोटाले का हो या कफर चीन के साथ यद
ु ध में भारि की पराजय का, िंगाल
का िसु भिि हो या कफर िे श में आपाि काल लगाने का या कफर पव
ू ोत्तर समेि अशांि दहमालयी
राज्यों में पविे शी घस
ु पैठ का, हर मोचे पर मीडडया ने सरकार को चैन से नहीं िैठने दिया था।
आपाि काल की घोषणा के पवरोध में िो िे श के कई अखिारों ने कई दिन िक संपािकीय ही
नहीं सलखे, सम्पािकीय का ननयि स्थान काले िॉडिर के साथ खाली छोड़ दिया गया था।
राधाकृष्ण की पिकाररिा इसी िौर की पिकाररिा थी। आज उस दृचय की केवल पररकल्पना ही
की जा सकिी है, आज की पीढ़ी िो इसे कपोल कल्पना ही समझिी है। इस शोध का यही
उदिेचय है प्जससे असभप्रेररि हो भपवष्य में इस पवषय पर शोध और अध्ययन की गुणवत्ता
क़ायम रहे ।

शोध-विषय की पररकल्पना :

पररकल्पना शब्ि परर + कल्पना िो शब्िों से समलकर िना है। परर का अथि चारों
ओर िथा कल्पना का अथि चचन्िन है। इस प्रकार पररकल्पना से िात्पयि ककसी समस्या से
सम्िप्न्धि समस्ि सम्भापवि समाधान पर पवचार करना है। पररकल्पना ककसी भी अनुसन्धान
प्रकक्रया का िस
ू रा महत्वपण
ू ि स्िम्भ है। इसका िात्पयि यह है कक ककसी समस्या के पवचलेषण
और पररभाषीकरण के पचचाि उसमें कारणों िथा कायि कारण सम्िन्ध में पव
ू ि चचन्िन कर
सलया गया है, अथािि ् अमक
ु समस्या का यह कारण हो सकिा है, यह ननप्चचि करने के पचचाि
उसका परीिण प्रारम्भ हो जािा है। अनस
ु ंधान कायि पररकल्पना के ननमािण और उसके परीिण
के िीच की प्रकक्रया है। यह परीिण के योग्य होनी चादहये। िेशक़, मेरे अनस
ु ार उपयित
ु ि पवषय
शोध के पवसभन्न समस्याओं और उसके परीिण के अनरू
ु प है प्जसपर कायि करने की आवचयकिा
िढ़ गई है। राधाकृष्ण का पवस्िि
ृ सादहत्य बिखरा पड़ा है। वे झारखंड के अि िक के सिसे
प्रिद
ु ध सादहत्यकारों में एक हैं। उनकी पिकाररिा उच्च कोदट की रही है। ‘आदिवासी’ पबिका
के संपािक के रूप में उन्होंने आदिवासी अप्स्मिा और उनके जनसंघषों को एक मंच दिया।
फलिः इस पररकल्पना के मध्य उपयुिति समस्याओं का हल ढूाँढना िेहि ज़रूरी हो गया है इस
हे िु मैं इस पवषय पर शोध-कायि करने का ननणिय सलया हूाँ।
शोध-लेखन की प्रविचध:

यह शोध-लेखन मुख्यिः िथ्य और पाठ-आधाररि होगा प्जससे कक भपवष्य में कोई


पववाि की प्स्थनि उत्पन्न न हो। मेरी परू ी प्रयास पववािों एवं पूवि के पवदयमान भ्रमों से िाहर
ननकलकर एक साथिक अध्ययन प्रस्िुि करने की होगी। इसके सलए लेखन में शोध की प्रकृनि,
उसके ननयमों और उसकी वैज्ञाननकिा का ध्यान रखा जाएगा।

शोध-लेखन के स्रोत :

• प्रािसमक स्रोत – ‘आदिवासी’ पबिका का अध्ययन।


• व्यप्ततगत अनभ
ु ि - व्यप्तिगि अनभ
ु व भी शोध-लेखन की स्रोि सामग्री हो सकिी है
िशिे कक हमारी उस सादहत्य और सादहत्यकार से संपकि हुआ हो, पिाचार हुई हो आदि-
आदि। ककन्िु मेरे जैसे नए अध्येिा के सलये इसमें कदठनाइि है। शोध लेखन में एक पि
सहायक ससदध होगी कक मेरा ननवास-स्थान झारखंड है और शोध-पवषय के रचनाकार
राधाकृष्ण की ननवास-स्थली झारखंड ही है।
• अनुभिी व्यप्ततयों से पररचचाय – प्रस्िुि पवषय के अनुभवी एवं पवषय पवशेषज्ञों से
पररचचाि एवं मागििशिन प्राति कर उपयुति लेखन कायि करने की कोसशश करूाँगा।
• पि
ू य में हुए अनस
ु ध
ं ान - सम्िप्न्धि िेि के पव
ू ि अनस
ु ंधानों के अवलोकन से ज्ञाि
सूचनाओं को अपने लेखन में पवशेष स्थान िाँ ग
ू ा तयोंकक इसी आधार पर नए ससदधांि
का सजिन ककया जा सकिा है।
• गौण स्रोत – उपयुिति पवषय पर लेखन के क्रम में बिल्कुल गौण-स्रोिों की िलाश कर
उसे पवसशष्ट स्थान िे ने की कोसशश करूाँगा।

अध्यायों का िगीकरण
पहला अध्याय : ‘आहदिासी’ पत्रिका युगसन्दभय
क.) ‘आदिवासी’ पबिका का जन्म
ख.) ‘आदिवासी’ पबिका का इनिहास
ग.) सादहत्य और पिकाररिा : अंिःसंिंध

दस
ू रा अध्याय : ‘आदिवासी’ पबिका और संपािक राधाकृष्ण
क.) पिकार राधाकृष्ण
ख.) आदिवासी पबिका में प्रवेश
ग.) राधाकृष्ण का सम्पािकत्त्व
घ.) सम्पािन-कला
तीसरा अध्याय : आदिवासी प्रचन, ‘आदिवासी’ पबिका और राधाकृष्ण
क.) आदिवासी पबिका में सामाप्जक प्रचन
ख.) ‘आदिवासी’ पबिका का सांस्कृनिक प्रचन
ग.) ‘आदिवासी’ पबिका और दहन्िी सादहत्य

चौिा अध्याय : आदिवासी अप्स्मिा और ‘आदिवासी’ पबिका


क.) ‘आदिवासी’ पबिका और आदिवासी जीवन
ख.) आदिवासी संस्कृनि का पि
ग.) आदिवासी संगठनीयिा के पि में

पाँचिाँ अध्याय : झारखण्डी सादहत्य के पवकास में ‘आदिवासी’ पबिका का योगिान


क.) झारखण्ड के आदिवासी और ‘आदिवासी’ पबिका
ख.) आदिवासी रचनाशीलिा और ‘आदिवासी’ पबिका
ग.) आदिवासी राग-वैभव के साथ
घ.) झारखण्डी सादहत्य की स्थापना में ‘आदिवासी’ पबिका महत्व

छठा अध्याय : आज की पिकाररिा, ‘आदिवासी’ पबिका और सम्पािक राधाकृष्ण


क.) आज की पिकाररिा के सलए ‘आदिवासी’ पबिका की पाठशाला
ख.) सम्पािक राधाकृष्ण और आज के संपािक
ग.) राधाकृष्ण का समशन और आज का कमीशन
घ.) िाज़ारवाि के िौर में सम्पािक राधाकृष्ण की परीिा

उपसंहार : समस्ि अध्ययन का सार।

अध्ययन ि सन्दभय सामग्री


क.) प्रािसमक स्रोत
1) आदिवासी पबिका के सभी अंकों का संचयन और अध्ययन
2) भारिीय सादहत्य के ननमाििा : राधाकृष्ण, लेखक: श्रवण कुमार गोस्वामी; प्रकाशन: सादहत्य
अकािमी, नई दिल्ली, वषि: 2007
ख.) द्वितीयक स्रोत
1) दहन्िी का गदय सादहत्य; लेखक: रामचन्द्र निवारी; प्रकाशक: पवचवपवदयालय प्रकाशन,
वाराणसी; वषि: 2004
2) प्रेमचन्ि और उनका यग
ु ; लेखक: रामपवलास शमाि; प्रकाशक: राजकमल प्रकाशन, नई
दिल्ली; वषि: 2009
3) आधुननक सादहत्य की प्रवपृ त्तयााँ; लेखक: नामवर ससंह; प्रकाशक: लोकभारिी प्रकाशन,
इलाहािाि; वषि: 2004
4) दहन्िी पिकाररिा; लेखक: अजुिन निवारी; पवचवपवदयालय प्रकाशन, वाराणसी; वषि: 2011
5) दहन्िी पिकाररिा का िाज़ारभाव; लेखक: जवाहरलाल कॉल। प्रभाि प्रकाशन, नई
दिल्ली; वषि: 2006
6) झारखंड इनसाइक्लोपीडडया 4 खंड; संपादक- रणेंद्र, सुधीर पाल, वाणी प्रकाशन, नई ददल्ली; वर्ष:
2006
7) झारखंड : अस्तित्व और अस्तििा; लेखक: डॉ.रािदयाल िुड
ं ा, प्रकाशन डवभाग, नई ददल्ली; वर्ष:
2004
पि-पत्रिकाओं की सूची
1.) आलोचना, संपािक : नामवर ससंह (राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली)
2.) िदभव, संपािक : अखखलेश (लखनऊ)
3.) पहल, संपािक : ज्ञानरंजन (जिलपुर)
4.) वागथि, संपािक : शम्भन
ु ाथ (भारिीय भाषा पररषि, कोलकािा)
5.) नया ज्ञानोिय, संपािक : लीलाधर मंडलोई (भारिीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली)
6.) हंस, संपािक : संजय सहाय (अिर प्रकाशन, नई दिल्ली)
7.) पाखी, संपािक : प्रेम भारदवाज (नई दिल्ली)
8.) समकालीन भारिीय सादहत्य, संपािक : िजेन्द्र बिपाठी (सादहत्य अकािमी, नई
दिल्ली)
9.) िया, संपािक : गौरीनाथ, (अप्न्िका प्रकाशन, नई दिल्ली)
10.)प्रगनिशील वसध
ु ा, संपािक : राजेन्द्र शमाि (भोपाल)

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