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समर्पणमूर्त्ति श्रीचिम्मनलालजी गोस्वामी
समर्पणमूर्त्ति श्रीचिम्मनलालजी गोस्वामी
समर्पणमूर्त्तप श्रीर्त्िम्मनलालजी
गोस्वामी
[ रस-प्रवाहका र्त्ितीय र्त्वशेषाांक ]
सम्र्ादक :
सुभाष दीर्क ऋर्त्ववक र्त्मश्र
प्रकाशक : सुभाष दीर्क
नेहर्त्नकुां ज, जयर्ुर
प्रथम सांस्करण : वैशाख शुक्ल ितुदपशी, र्त्व. सां. २०७९ ( श्रीनृर्त्सांह ितुदपशी )
र्त्वषय-सूिी
र्त्वषय र्ृष्ठ-सांख्या
इष्ट-वन्दन —
१. महाभाव-रसराज-वन्दना १३
२. श्रीराधामाधव स्तवन ( परम पूज्य श्रीराधाबाबा ) १४
प्रसाद—
(४)
र्त्वषय र्ृष्ठ-सांख्या
८. श्रीगोपाङ्गनाओंकी मनहमा ४६
( परम पूज्य भाईजी श्रीहनुमानप्रसादजी पोद्दार )
९. परम पूज्य भाईजी श्रीहनुमानप्रसादजी पोद्दारके उद्गार ५०
१०. परम पूज्य श्रीराधाबाबाके उद्गार ५१
११. पूज्या श्रीमती सानवत्रीबाई फोगलाके उद्गार ५२
र्त्ितवन-िर्त्न्िका —
१२. बस, यही अनभलाषा है ५४
( पूज्य श्रीनच्मनलालजी गोस्वामी )
१३. श्रीभाईजीद्वारा आयोनजत नदव्य साधन-सत्रका नववरण श्रीगोस्वामीजीके शब्दोंमें
पूवा-भूनमका ५६
प्रसंग संख्या १ ५८
प्रसंग संख्या २ ६४
प्रसंग संख्या ३ ६७
प्रसंग संख्या ४ ६८
प्रसंग संख्या ५ ७१
पूज्य श्रीभाईजीद्वारा समानध अवस्थामें मन्त्रदान ७५
(५)
र्त्वषय र्ृष्ठ-सांख्या
मृगमद-सुरर्त्भ —
१४. सन्त-समपाण-तत्त्व एवं पूज्य सेठजी
श्रीजयदयालजी गोयन्दकाकी मनहमा ८७
१५. अनभनव-चैतन्य श्रीभाईजी ११३
१६. भाईजीकी कृ पाप्रानिका एकमात्र साधन — अनन्यता ११९
१७. श्रीभाईजीके मनहमाकी कु छ और ग्भीर बातें १२३
१८. सवासमथा श्रीभाईजी १२९
१९. मत्मसुखकी होली जला दें १३४
२०. देहाध्यासकी ननवृनि तथा
अ० सौ० बाई सानवत्री एवं श्रीकृ ष्णकी एकरूपता १४३
२१. शनक्त-साधना-स्बन्धी प्रश्न एवं उनके पू. श्रीराधाबाबा द्वारा उिर १४८
नीलतरुकी छााँह तले —
२२. पूज्य श्रीभाईजीद्वारा श्रीगोस्वामीजीको प्रेनषत नकये गये पत्रोंका संकलन —
पत्र-संख्या १ १७४
पत्र-संख्या २ १७५
पत्र-संख्या ३ १७९
पत्र-संख्या ४ १८१
(६)
र्त्वषय र्ृष्ठ-सांख्या
पत्र-संख्या ५ १८६
पत्र-संख्या ६ १८७
पत्र-संख्या ७ १९०
पत्र-संख्या ८ १९२
पत्र-संख्या ९ १९४
पत्र-संख्या १० १९५
र्त्वषय र्ृष्ठ-सांख्या
३०. आध्यानत्ममक सानहत्मय-स्पादनकी यशस्वी पर्पराओंके संवाहक
श्रीनच्मनलालजी गोस्वामी
( श्रीभानुस्वरूपजी गोस्वामी, स्पादक — तैलंग कु लम् ) ३५४
३१. श्रीरामचररतमानसके प्रकाशनमें गोस्वामी श्रीनच्मनलालजी आनदका योगदान
( श्रीहेमन्त शेष, प्रख्यात सानहत्मयकार, पूवा आईएएस अनधकारी ) ३५९
३२. करुणा के रससागर ( श्रीप्रदीप तैलंगजी ) ३६३
३३. श्रद्धा सुमन : एक भावानभव्यनक्त ( श्रीमती नचत्रा तैलंगजी ) ३६४
र्त्शवोदर्त्ध —
३४. ‘श्रीराधा-माधव-नचन्तन’ में प्रकानशत ननवेदन ३६७
३५. ‘पदरत्मनाकर’ में प्रकानशत ननवेदन ३७६
३६. ‘परमाथाका सरगम’ में प्रकानशत ननवेदन ३७७
३७. पूज्य श्रीबाबाद्वारा चुने हुए पदरत्मनाकरके पदोंका अंग्रेजी अनुवाद ३८३
38. The Nectarean Bliss of Śrī Rādhā Mādhav 395
र्त्वषय र्ृष्ठ-सांख्या
42. The Philosophy of Love 459
र्त्िखरे मोती —
४९. पूज्य श्रीगोस्वामीजीसे स्बनन्धत नवनभन्न लघु संस्मरण ४८९
* * *
तुम ही मेरे सकल सुख सदन, र्त्प्रय र्त्नज जन, प्राणोंके ममप ॥
•
॥ श्रीराधाकृ ष्णाभयां नमः ॥
महाभाव-रसराज-वन्दना
दोउ िकोर, दोउ िांिमा, दोउ अर्त्ल, र्ांकज दोउ ।
दोउ िातक, दोउ मेघ र्त्प्रय, दोउ मछरी, जल दोउ ॥
आस्रय-आलांिन दोउ, र्त्िषयालांिन दोउ ।
प्रेमी-प्रेमास्र्द दोउ, तवसुख-सुर्त्खया दोउ ॥
लीला-आस्वादन-र्त्नरत, महाभाव-रसराज ।
र्त्ितरत रस दोउ दहु नु कौं, रर्त्ि र्त्िर्त्ित्र सुर्त्ठ साज ॥
सर्त्हत र्त्िरोधी धमप-गुन जुगर्त र्त्नवय अनांत ।
ििनातीत अर्त्िन्वय अर्त्त, सुषमामय श्रीमांत ॥
श्रीराधा-माधव-िरन िांदौं िारांिार ।
एक तवव दो तनु धरें, र्त्नत-रस-र्ारािार ॥
•
॥ श्रीराधाकृ ष्णाभयां नमः ॥
श्रीराधामाधव स्तवन
( र्रम र्ूज्य श्रीराधािािा िारा उद्भतू श्लोक )
श्रीकृ ष्ण
व्रजेन्िनन्दनो देवो र्त्नकु ञ्जवनभूर्र्त्तिः ।
र्त्नवयो राधार्दाम्भोजमधुर्ो वेणुवादकिः ॥
नवनीरदवणापङ्गिः र्ीताम्िरर्त्वभूर्त्षतिः ।
किलसन्मुखर्द्मिः र्द्ममन्मथमोहनिः ॥
श्रीराधा
व्रजवनलीलार्ाली महाभावकलेवरा ।
रार्त्धका कीर्त्तपदार्ुत्री मञ्जुश्यामासहोदरा ॥
रासेश्वरेश्वरी राधा रासमण्डलमण्डना ।
गोकु लेन्िसुतप्राणा गोर्र्तनभूषणा ॥
॥ श्रीराधाकृ ष्णाभयां नमः ॥
( गीता १२ । १३—१९ )
( श्रीमद्भागवत ३ । २५ । २१—२४ )
सुनते, कहते और मुझमें ही नचि लगाये रहते हैं, उन भक्तोंको संसारके नवनवध प्रकारके
ताप कोई कष्ट नहीं पहुचुँ ाते । सानध्व ! ऐसे सवासङ्ग-पररत्मयागी महापुरुष ही संत होते
हैं, तु्हें उन्हींके सङ्गकी इच्छा करनी चानहये; क्योंनक वे आसनक्तसे उत्मपन्न सभी
दोषोंको हरनेवाले होते हैं ।’
۞ ۞ ۞
गृहीववार्ीर्त्न्ियैरथापन् यो न िेर्त्ष्ट न हृष्यर्त्त । र्त्वष्णोमापयार्त्मदां र्श्यन् स वै भागवतोतमिः ॥
देहेर्त्न्ियप्राणमनोर्त्धयाां यो जन्माप्ययक्षुद्भयतषपकृच्छ्ै िः ।
( श्रीमद्भागवत ११ । २ । ४८—५५ )
समर्पणमूर्त्तप श्रीर्त्िम्मनलालजी गोस्वामी १८
नजन शरणागत भक्तजनोंके हृदयका नवरहजननत संताप एक बार दरू हो चुका है, उनके
हृदयमें वह नफर कै से आ सकता है; जैसे चन्िमाके उदय होनेपर सूयाका ताप नहीं लग
सकता । नववशतासे नामोच्चारण करनेपर भी स्पूणा अघरानशको नष्ट कर देनेवाले
स्वयं भगवान् श्रीहरर नजसके हृदयको क्षणभरके नलये भी नहीं छोडते हैं; क्योंनक उसने
प्रेमकी रस्सीसे उनके चरण कमलोंको हृदयमें बाुँध रखा है, वास्तवमें ऐसा ही पुरुष
भगवानके् भक्तोंमें प्रधान होता है ।’
( श्रीमद्भागवत ११ । २६ । ३१—३४ )
आश्रय ले नलया, उसे क्या कभी शीत, भय अथवा अन्धकारका दःु ख हो सकता है ?
जो इस संसार-सागरमें डू ब-उतरा रहे हैं, उनके नलये ब्रह्मवेिा और शान्त-स्वभाव
संत एकमात्र आश्रय हैं—वैसे ही, जैसे जलमें डू बते हुए लोगोंके नलये दृढ़ नौका ।
जैसे अन्नसे प्रानणयोंके प्राणकी रक्षा होती है, जैसे मैं आता प्रानणयोंका एकमात्र आश्रय
हू,ुँ जैसे मनुष्यके नलये परलोकमें धमा ही एकमात्र पूुँजी है—वैसे ही संसारसे भयभीत
लोगोंके नलये संत-जन ही परम आश्रय हैं । जैसे सूया आकाशमें उदय होकर लोगोंको
जगत् तथा अपनेको देखनेके नलये नेत्रदान करता है, वैसे ही संत पुरुष अपनेको तथा
भगवानको ् देखनेके नलये अन्तदृानष्ट देते हैं । संत अनुग्रहशील देवता हैं । संत अपने
नहतैषी सुहृद हैं, संत अपने नप्रयतम आत्ममा हैं, अनधक क्या, संतके रूपमें स्वयं मैं ही
प्रकि हू ुँ ।’
कृ र्ालुरकृ तिोहर्त्स्तर्त्तक्षुिः सवपदेर्त्हनाम् ।
( श्रीमद्भागवत ११ । ११ । २९—३१ )
‘उद्धव ! मेरा भक्त कृ पाकी मूनता होता है, वह नकसी भी प्राणीसे वैर नहीं करता,
वह सब प्रकारके सुख-दःु खोंको प्रसन्नतापूवाक सहन करता है, सत्मयको जीवनका सार
समझता है, उसके मनमें नकसी प्रकारकी पापवासना कभी नहीं आती । वह समदशी
समर्पणमूर्त्तप श्रीर्त्िम्मनलालजी गोस्वामी २१
और सबका भला करनेवाला होता है । उसकी बुनद्ध कामनाओंसे कलुनषत नहीं होती
। वह इनन्ियनवजयी, कोमलस्वभाव और पनवत्र होता है; उसके पास अपनी कोई भी
वस्तु नहीं होती । नकसी भी वस्तुके नलये वह कभी चेष्टा नहीं करता, पररनमत भोजन
करता है, सदा शान्त रहता है । उसकी बुनद्ध नस्थर होती है, वह के वल मेरे ही आश्रय
रहता है, ननरन्तर मननशील रहता है । वह कभी प्रमाद नहीं करता, ग्भीर-स्वभाव
और धैयावान् होता है । भूख-प्यास, शोक-मोह और जन्म-मृत्मय— ु इन छहोंपर
नवजय प्राि नकये रहता है । वह स्वयं कभी नकसीसे नकबी प्रकारका मान नहीं चाहता
और दसू रोंको स्मान देता रहता है । भगवत्मस्बन्धी बातें समझनेमें बडा ननपुण होता
है और सभीके साथ नमत्रताका बतााव करता है । उसके हृदयमें करुणा भरी रहती है
और भगवित्मवका उसे यथाथा ज्ञान होता है ।’
۞ ۞ ۞
र्त्वगर्त्लतमदमानशुिर्त्ितािः प्रसभर्त्वनश्यदहांकृर्त्तप्रशान्तािः ।
जो सर्त्ह दख
ु र्रर्त्छि दरु ावा । िांदनीय जेर्त्हां जग जसु र्ावा ॥
मुद मांगलमय सांत समाजु । जो जग जांगम तीरथराजु ॥
× × ×
मर्त्त कीरर्त्त गर्त्त भूर्त्त भलाई । जि जेर्त्हां जतन जहााँ जेर्त्हां र्ाई ॥
र्त्िर्त्ध हरर हर कर्त्ि कोर्त्िद िानी । कहत साधु मर्त्हमा सकु िानी ॥
× × ×
र्त्नज गुन श्रवण सुनत सकु िाहीं । र्र गुन सुनत अर्त्धक हरषाहीं ॥
समर्पणमूर्त्तप श्रीर्त्िम्मनलालजी गोस्वामी २४
जर् तर् ब्रत दम सांजम नेमा । गुरु गोर्त्िांद र्त्िप्र र्द प्रेमा ॥
× × ×
‘मेरा प्रेमी भक्त कभी रोता है, कभी हुँसता है, कभी लज्जा छोडकर गाता और
नृत्मय करने लगता है । उसकी वाणी गदगद ् और नचि िनवत हो जाता है । वह अपनी
इन नवनचत्र चेष्टाओंसे समस्त लोकोंको पनवत्र करता रहता है ।’
चाहे साधारणजन भक्त और उसकी चेष्टाओंके महत्मवको न जान पायें, परंतु
भक्तकी प्रत्मयेक चेष्टामें नवश्वनहत नननहत रहता है । भक्तजन समस्त भुवनको नकस प्रकार
पनवत्र करते रहते हैं, वह प्रकार भी भगवानने् स्वयं भी बतला नदया है—
समर्पणमूर्त्तप श्रीर्त्िम्मनलालजी गोस्वामी २७
अथाात् ‘सवास्वतन्त्र होकर भी मैं उन भक्तोंके तो अधीन ही हू,ुँ नजन साधु भक्तोंने
मेरे नचिको वशमें कर रखा है; इसीनलये वे मुझको नप्रय लगते हैं ।’ भगवानको ् भक्त
नकस प्रकार वशमें कर लेता है, इस रहस्यको भी भगवान् प्रकि कर देते हैं—
मर्त्य र्त्निपिहृदयािः साधविः समदर्त्शपनिः ।
वशीकु वपर्त्न्त माां भक्तवया सर्त्वस्त्रयिः सवर्र्त्तां यथा ॥
( श्रीमद्भा० ९ । ४ । ६६ )
‘समदशी भक्त पहले अपना नचि मुझमें लगा देते हैं, नफर उसीके द्वारा मेरे नचिको
उसी प्रकार आकनषात कर लेते हैं—जैसे पनतव्रता स्त्री अपना तन-मन-धन—सवास्व
पनतदेवके अपाण करके उसके नचिको अपने वशमें कर लेती है ।’ नफर तो—
साधवो हृदयां मह्यां साधूनाां हृदयां ववहम् ।
मदन्यते न जानर्त्न्त नाहां तेभयो मनागर्त्र् ॥
( श्रीमद्भा० ९ । ४ । ६८ )
समर्पणमूर्त्तप श्रीर्त्िम्मनलालजी गोस्वामी २९
‘जब साधुहृदय भक्त अपना हृदय मुझको दे देते हैं, तब मुझे भी अपना हृदय
उनको देना अननवाया हो जाता है; इस लेन-देनसे भक्त और मुझमें ऐसी घननष्ठता हो
जाती है नक नफर मुझसे अनतररक्त उनको कु छ नदखायी ही नहीं पडता और उनके
अनतररक्त नफर मुझको कु छ नहीं सुहाता ।’ बस, इसी कारणसे भगवानको ् भक्तोंके
इच्छानुसार आनवभााव-अन्तभााव करना पडता है और इसी प्रकार अनेकों अवतार
धारण करने पडते हैं । इसी आशयको आद्याचाया श्रीनन्बाका भगवानने् —
‘भक्तेच्छछयोर्ातसुर्त्िन्वयर्त्वर्ग्हाद ् ।’ ( वेदान्तकामधेनुिः )
—इस वाक्यमें प्रकि नकया है । अथाात—
्
भक्तवत्मसल भगवान् भक्तके इच्छानुसार नवग्रह धारण करके उनका उसी प्रकार
संरक्षण करते हैं, जैसे अबोध नशशुकी प्रसन्नताके नलये माताको उसके हठ आनदकी
रक्षा करनी पडती है ।
इसीनलये गोस्वामी श्रीतुलसीदासजी आनद भक्त कनवयोंकी—
‘राम ते अर्त्धक राम कर दासा ॥’
—इत्मयानद सूनक्तयाुँ भी संगत ही हैं ।
श्रीनारायणदास ( नाभा )–जीने तो भक्त-चररतके अनुशीलनका स्पष्ट ही फल
प्रकि नकया है—
भर्त्क्त भक्त भगवांत गुरु ितुर नाम िर्ु एक ।
इन के र्द िांदन र्त्कएाँ नासत र्त्िघ्न अनेक ॥
भनक्त ( साधन ), भक्त ( साधक ), भगवंत ( साध्य ), गुरुदेव ( साधनयता )—
इन चारोंमें नामानदका भेद अवश्य है; नकं तु ये इतने संननकि हैं नक इनके कलेवरमें
समर्पणमूर्त्तप श्रीर्त्िम्मनलालजी गोस्वामी ३०
नवभेद प्रतीत नहीं होता । फलप्रदातामें भी चारों समान हैं अथाात् मुनक्तरूप फल देनेमें
चारों ही वरदहस्त हैं ।
अतएव जो सुख-शानन्त भगवच्चररत्रके अनुशीलनसे नमलती है, वही सुख-
शानन्त भक्तोंके चररत्रोंका अनुशीलन करनेसे प्राि होती है ।
भगवद्भक्तोंकी मर्त्हमा
( र्रम श्रिेय सेठजी श्रीजयदयालजी गोयन्दका )
वाणीके द्वारा गा ही नहीं सकता । शास्त्रोंमें जो कु छ कहा गया है अथवा वाणीके द्वारा
जो कु छ कहा जाता है, उससे भी उनकी मनहमा अत्मयन्त बढ़कर है ।
गङ्गा-यमुना आनद तीथा तो स्नान-पान आनदसे पनवत्र करते हैं, नकं तु भगवान्के
भक्तोंका तो दशान और स्मरण करनेसे भी मनुष्य तुरंत पनवत्र हो जाता है ; नफर भाषण
और स्पशाकी तो बात ही क्या है । तीथोंमें तो लोगोंको जाना पडता है और वहाुँ जाकर
लोग स्नानानदसे पनवत्र होते हैं ; नकं तु महात्ममाजन तो श्रद्धा-भनक्त होनेसे स्वयं घरपर
आकर पनवत्र कर देते हैं । श्रद्धापूवाक नकया हुआ महापुरुषोंका सङ्ग भजन और ध्यानसे
भी बढ़कर है ।
जो मनुष्य महापुरुषोंके तत्मवको समझकर उनका सङ्ग करता है, वह स्वयं दसू रोंको
पनवत्र करनेवाला बन जाता है ।
सत्मपरुु षोंका सङ्ग बडे रहस्य और महत्मवका नवषय है । श्रद्धा और प्रेमपूवाक सत्मसङ्ग
करनेवाला ही इसका कु छ महत्मव जानते हैं । पूरा-पूरा रहस्य तो स्वयं भगवान् ही
जानते हैं, जो नक भक्तोंके प्रेमके अधीन हुए उनके पीछे -पीछे नफरा करते हैं ।
इसनलये कल्याण चाहनेवाले मुमुक्षु पुरुषोंको चानहये नक महापुरुषोंके सङ्ग और
उनकी सेवा करनेकी अथक चेष्टा करें । भगवत्मप्रानि और उनके चरणोंमें अनपानयनी
रनत-लाभ करनेका सरस और सरल साधन के वल एक यही है ।
प्रेमी भक्तका अलौर्त्कक माहावम्य
( र्रम र्ूज्य भाईजी श्रीहनुमानप्रसादजी र्ोद्दार )
‘जाह्नवी ! पापीलोग तु्हारे अन्दर स्नान करके जो पाप तु्हें देंगे, वे सारे पाप मेरे
मन्त्रकी उपासना करनेवाले भक्तोंके स्पशा, स्नान और दशानसे उसी क्षण भस्म हो जायुँगे
। पृथ्वीमें नजतने भी पनवत्र तीथा हैं, मेरे भक्तोंके पुनीत शरीरमें वे ननरन्तर ननवास करते
हैं । मेरे भक्तोंकी चरणधूनलका स्पशा होते ही पृथ्वी तत्मकाल पनवत्र हो जाती है और
सारे तीथा तथा जगत् पनवत्र हो जाते हैं । जो ननत्मय मेरा ही ध्यान करते हैं, वे मुझको
प्राणोंसे भी अनधक नप्रय हैं ; ( औरोंकी तो बात ही क्या ) वायु और अनि भी उनके
स्पशामात्रसे पनवत्र हो जाते हैं ।’ धमाराज युनधनष्ठर ने भक्तनशरोमनण श्रीनवदरु जीसे कहा
था—
भवर्त्िधा भागवतास्तीथपभूतािः स्वयां र्त्वभो ।
तीथीकु वपर्त्न्त तीथापर्त्न स्वान्तिःस्थेन गदाभृता ॥
( श्रीमद्भा० १ । १३ । १० )
भक्त नजस पृथ्वीपर बैठते हैं, नजस जलाशय या नदीमें स्नान करते हैं, वही पनवत्र
तीथा बन जाता है । भक्त जो कु छ करते हैं, वही आदशा ‘सत्मकमा’ माने जाते हैं, भक्त
जो कु छ अपने अनुभवकी बातें बतलाते हैं, वे ही ‘सत- ् शास्त्र’ होते हैं । तीथा, कमा
और शास्त्र अनेक हैं ; पर नजस तीथाके साथ भक्तका संयोग होता है, वह ‘सत- ् तीथा’;
नजस कमासे भक्तका संयोग होता है, वह ‘सत्मकमा’ और नजस शास्त्रमें भक्तकी वाणी
होती है, वही ‘सच्छास्त्र’ बन जाता है—
तीथीकु वपर्त्न्त तीथापर्त्न सुकमीकु वपर्त्न्त कमापर्त्ण सच्छछास्त्रीकु वपर्त्न्त शास्त्रार्त्ण ।
( नारदभनक्तसूत्र ६९ )
भक्तके मनसे नजस वस्तुका स्पशा हो जाता है, वह भी पनवत्र हो जाती है ; क्योंनक
उसके मनमें ननरन्तर भगवान्का ननवास रहता है । जड वस्तुएुँ भक्तका स्पशा पाकर
पनततोंको पावन करनेवाली बन जाती हैं । भक्तका संस्पशा पाकर वातावरण पनवत्र हो
जाता है । नारदजीने भक्त और भगवान्में भेदका अभाव बतलाया है—
तर्त्स्मांस्तज्जने भेदाभावात् भवर्त्त ( नारदभनक्तसूत्र ४१ )
भगवानके् भक्त भगवत्मस्वरूप ही हैं । जो भक्तोंका सेवन करते हैं वे भगवानका् ही
सेवन करते हैं । भक्त भगवानके् हृदयमें बसते हैं और भगवान् भक्तके हृदयमें । भगवानने्
कहा है—
साधवो हृदयां मह्यां साधूनाां हृदयां ववहम् ।
मदन्यते न जानर्त्न्त नाहां तेभयो मनागर्त्र् ॥
( श्रीमद्भा० ९ । ४ । ६८ )
समर्पणमूर्त्तप श्रीर्त्िम्मनलालजी गोस्वामी ३६
‘साधु मेरे हृदय हैं और मैं उनका हृदय हू ुँ । वे मेरे नसवा और नकसीको नहीं जानते
और मैं उन्हें छोडकर और नकसीको नहीं जानता ।’ भरत रामको भजते हैं और राम
भरतको—
भरत सररस को राम सनेही । जगु जर् राम रामु जर् जेही ॥
श्रीभगवानने् प्रेमस्वरूपा गोनपयोंके स्बन्धमें कहा है—
मन्माहावम्यां मवसर्याां मच्छ्िाां मन्मनोगतम् ।
जानर्त्न्त गोर्त्र्कािः र्ाथप नान्ये जानर्त्न्त तत्त्वतिः ॥
( आनदपुराण )
‘हे अजुान ! मेरा माहात्म्य, मेरी पूजा, मेरी श्रद्धा और मेरे मनकी बात तत्त्वसे
के वल गोनपयाुँ ही जानती हैं ; और कोई नहीं जानता ।’
ऐसे प्रेमी भक्तोंमें और भगवानमें् क्या अन्तर है । भगवान्के वचन हैं—
ये भजर्त्न्त तु माां भक्तवया मर्त्य ते तेषु िाप्यहम् ॥ ( गीता ९ । २९ )
‘जो प्रेमसे मुझको भजते हैं, वे मुझमें हैं और मैं उनमें हू ुँ ।’ ऐसे भक्त भगवत्मप्रेममें
इस प्रकार तल्लीन रहते हैं नक वे अपने बाह्यरूपको भूलकर साक्षात् भगवत्मस्वरूपका
अनुभव करने लगते हैं ।
ऐसे प्रेमी भक्तोंका आनवभााव देखकर नपतरगण प्रमुनदत होते हैं, देवता नाचने
लगते हैं और यह पृथ्वी सनाथ हो जाती है—
मोदन्ते र्त्र्तरो नृवयर्त्न्त देवतािः सनाथा िेयां भूभवप र्त्त ॥ ( नारदभनक्तसूत्र ७१ )
समर्पणमूर्त्तप श्रीर्त्िम्मनलालजी गोस्वामी ३७
भक्तोंका आनवभााव सभीके नलये शुभ होता है ; क्योंनक उनके सभी कमा
स्वाभानवक ही लोक-कल्याणकारी होते हैं । उनके प्रभावसे लोगोंमें धमाके प्रनत श्रद्धा
बढ़ती है, नपतृकाया और देवकायोंमें नवश्वास उत्मपन्न हो जाता है । इससे धमापथसे नडगे
हुए लोग पुनः धमामागापर आरूढ़ होकर यज्ञ, दान, श्राद्ध, तपाण आनद कमा करने लगते
हैं, नजससे देवता और नपतरोंको बडा सुख नमलता है । भक्तके आगे-पीछे के कई कु ल
तर जाते हैं, इसनलये अपने कु लमें भक्तको उत्मपन्न हुआ देखकर नपतरगण अपनी
मुनक्तकी दृढ़ आशासे हषोत्मफुल्ल हो जाते हैं । पद्मपुराणमें कहा है—‘आस्फोटयर्त्न्त
र्त्र्तरो नृवयर्त्न्त ि र्त्र्तामहािः । मिांशे वैष्णवो जातिः स नस्त्राता भर्त्वष्यर्त्त ॥’
“नपतृ-नपतामहगण अपने वंशमें भगवद्भक्तका जन्म हुआ जानकर ‘यह हमारा
उद्धार कर देगा’—इस आशासे प्रसन्न होकर नाचने और ताल ठोकने लगते हैं ।”
मचले हुए दशानाकाङ्क्षी भक्त नकसी भी बातसे संतष्टु नहीं होते ; अतः स्नेहमयी
जननीकी भाुँनत उन्हें अपनी गोदमें नखलाकर सुखी करनेके नलये सनच्चदानन्दघन
भगवान् नदव्यरूपमें साक्षात् प्रकि होते हैं । इस प्रकार भक्तके आनवभाावको ही
भगवानके् प्राकट्यमें कारण समझकर देवतागण भी नाचने लगते हैं और भगवानके्
प्राकट्यसे पृथ्वी भी सनाथा हो जाती है ।
पद्मपुराणमें भक्तके दशानका महत्मव बतलाते हुए कहा गया है—
सवे धन्यतमा ज्ञेया र्त्वष्णुभर्त्क्तर्रायणािः ।
तेषाां दशपनमात्रेण महार्ार्ात् प्रमुच्छयते ॥
उर्र्ातकार्त्न सवापर्त्ण महार्त्न्त र्ातकार्त्न ि ।
तार्त्न सवापर्त्ण नश्यर्त्न्त वैष्णवानाां ि दशपनात् ॥
समर्पणमूर्त्तप श्रीर्त्िम्मनलालजी गोस्वामी ३८
‘अजुान ! जो लोग मेरे भक्त हैं, मात्र वे ही मेरे भक्त नहीं हैं ; मैं तो उन्हें श्रेष्ठतम
भक्त मानता हू ,ुँ जो मेरे भक्तोंके भक्त हैं ।’
भगवान् तो अपने भक्तोंके इतने प्रेमी हैं, उनपर इतने मुग्ध हैं नक स्वयं उनकी
भनक्त, सेवन-नचन्तन-ध्यान करते हैं । भक्तोंका ऐसा कौन-सा काम है, नजसे करनेमें
भगवान् कभी नहचकते हों । भक्तका छोिे-से-छोिा काम भी वे अपने हाथों करते हैं
और उसमें उन्हें वैसा ही सुख नमलता है, जैसा राजराजेश्वरी जननीको अपने उदरजात
नशशुकी नगण्य-से-नगण्य सेवा अपने हाथों करनेमें । सच्ची बात तो यह है नक
भगवानकी ् सगुण-लीलामें प्रधान हेतु हैं ये भक्त ही । भक्तोंके नलये ही भगवान् प्रेमी
हैं ; अन्यथा तो वे के वल सवाातीत ब्रह्म, सवाव्यापी परमात्ममा या सवाशनक्तमान्
समर्पणमूर्त्तप श्रीर्त्िम्मनलालजी गोस्वामी ४०
( नारदपाञ्चरात्र )
‘परमात्ममा श्रीकृ ष्णको भक्तोंसे प्यारा कोई ही नहीं है । भक्त श्रीकृ ष्णके प्राण हैं
और वैष्णवोंके प्राण श्रीकृ ष्ण हैं । वैष्णवलोग श्रीकृ ष्णका ध्यान करते हैं और श्रीकृ ष्ण
वैष्णवोंका ध्यान करते हैं ।’
भगवत्मसङ्गीके सङ्ग तथा चरणधूनल आनदका अद्भतु माहात्म्य है—
तुलयाम लवेनार्त्र् न स्वगां नार्ुनभपवम् ।
भगववसरङ्गसङ्गस्य मवयापनाां र्त्कमुतार्त्शषिः ॥
( श्रीमद्भा० १ । १८ । १३ )
‘भगवत्मसङ्गीका सङ्ग यनद लवमात्रके समयके नलये नमलता हो, तो उसकी तुलना
यहाुँके भोगोंकी तो बात ही क्या, स्वगासे भी नहीं होती ; वरं अपुनभाव—मोक्ष—
सायुज्य मुनक्तसे भी नहीं होती ।’ ‘भगवत्मसङ्गीका’ अथा है—भगवानमें् अनुरक्त,
आसक्त, भगवानका ् सङ्गी, भगवानका
् प्रेमी, गोपीभावापन्न ।
रहगणैततर्सा न यार्त्त न िेज्यया र्त्नवपर्णाद गृहािा ।
नच्छछन्दसा नैव जलार्त्िसूयैर्त्वपना महवर्ादरजोर्त्भषेकम् ॥
( श्रीमद्भा० ५ । १२ । १२ )
धमाानष्ठु ान, वेदाध्ययन अथवा जल, अनि या सूयाकी उपासना आनद नकसी भी साधनसे
यह परमात्मम-ज्ञान प्राि नहीं हो सकता ।’
नैषाां मर्त्तस्तावदरुु क्रमार्त्रि स्र्ृश्यनथापर्गमो यदथपिः ।
महीयसाां र्ादरजोऽर्त्भषेकां र्त्नर्त्ष्कां िनानाां न वृणीत यावत् ॥
( श्रीमद्भा० ७ । ५ । ३२ )
( सावाभौम वासुदेवभट्टाचाया )
( आलवन्दारस्तोत्र )
( ध्मपद ७ । ९ )
‘चाहे ग्राम हो चाहे वन हो, चाहे जलमय या सूखा स्थल हो, वह स्थान आनन्दमय
है, नजसमें संत ननवास करते हैं ।’
सांत र्त्मलन
सो र्त्दन लेखे जा र्त्दन सांत र्त्मलार्त्हां ।
हरर में साध, साध में हरर हैं, साध से अांतर नार्त्हां ॥
[ र्रम र्ूज्य श्रीराधािािाने अनेकों िार यह रहस्य सभीके सम्मुख उद्घार्त्टत र्त्कया है र्त्क
र्ूज्य श्रीगोस्वामीजी ‘श्रीश्यामला मञ्जरी’ के स्वरूर् थे । श्रीगोस्वामीजी जि भी र्ूज्य
िािाके सम्मुख आते थे, िािाको उनके स्थानर्र श्रीश्यामला मञ्जरीके ही दशपन होते थे ।
श्रीगोस्वामीजीका शरीर शान्त होते ही वे तवक्षण अर्ने र्त्दव्य गोर्ीस्वरूर्में र्ूज्य िािाके
सम्मुख प्रकट हुए एवां िािाको प्रणाम करनेके अनन्तर ही गोलोकधामको प्रयाण र्त्कया ।
अतएव श्रीगोर्ाङ्गनाओांकी मर्त्हमामें जो कु छ भी कहा जाता है अथवा कहा जा सकता है,
वे सभी िातें र्ूज्य श्रीगोस्वामीजीर्र भी र्ूणपतया लागू हैं । — सम्पादक ]
नजनके हृदयमें भोगोंसे सच्चा वैराग्य है, नजनका नचि कामसुखसे हि गया है और
नजनकी इनन्ियाुँ अन्तमुाखी होकर नचन्मय भगवद-् रसका आस्वादन करनेके नलये
आतुर हैं—वे ही महाभाग पुरुष गोपी-भावका अनुसरण कर सकते हैं ।
श्रीभगवानकी ् तीन स्वरूपा शनक्तयाुँ हैं—संनवत्, संनधनी और ह्लानदनी ।
भगवानका ् मधुर अवतार ह्लानदनी नामक आनन्दमयी प्रेमशनक्तके नननमिसे ही हुआ
करता है । वे ह्लानदनी शनक्त साक्षात् श्रीरानधकाजी ही हैं । समस्त गोपीजन उन ह्लानदनी
शनक्तकी ही अनन्त नवनभन्न प्रनतमूनतायाुँ हैं । उनका जीवन स्वाभानवक ही भगवदनपात
है । उनकी प्रत्मयेक नक्रया स्वाभानवक ही भगवत्मसेवारूप होती है । उनकी कोई भी चेष्टा
ऐसी नहीं होती, नजसमें भगवत्मप्रीनतस्पादनके नसवा, श्रीकृ ष्ण-रानधकाके
नमलनसुखकी साधनाके नसवा अन्य कोई उद्देश्य हो । उनके बुनद्ध, मन, इनन्िय, शरीर,
आत्ममाके सनहत सदा श्रीकृ ष्णके ही अपाण हैं । उनके द्वारा ननरन्तर श्रीकृ ष्णकी ही सेवा
बनती है । कभी भूलकर भी उनका नचि दसू री ओर नहीं जाता, दसू रे नवषयको ग्रहण
नहीं करता; वे श्रीकृ ष्णमें ही सुखी रहती हैं, उनको सुखी देखकर ही परमसुखका
अनुभव करती हैं । उनका ननज सुख श्रीकृ ष्णसुखमें ही समाया रहता है । श्रीमद्भागवतमें
कहा गया है—
तन्मनस्कास्तदालार्ास्तर्त्ििेष्टास्तदार्त्वमकािः ।
तद्गण
ु ानेव गायन्वयो नावमागारार्त्ण सस्मरुिः ॥
( १० । ३० । ४३ )
उनके नचि भगवानके् नचि हो गये थे अथाात् उनके नचिोंमें भगवद्भावके नसवा
अन्य नकसी संकल्पका उदय ही नहीं होता था । वे उन्हींकी चचाा करती थीं, उन्हींके
नलये उनकी सारी चेष्टाएुँ होती थीं—इस प्रकार वे भगवन्मयी हो गयी थीं और
समर्पणमूर्त्तप श्रीर्त्िम्मनलालजी गोस्वामी ४८
भगवानका् गुणगान करते हुए उन्हें अपने शरीरोंकी तथा घरोंकी भी सुनध नहीं रही थी
। वे जब घरोंका काम करतीं, तब भी वे अपने मनमें, अपनी वाणीमें और अपनी
आुँखोंमें ननरन्तर श्रीभगवानका
् ही स्पशा पाती थीं, उन्हींके दशान करती थीं ।
इसीनलये भगवानके् अत्मयन्त नप्रय भक्त उद्धवजीने गोपी-प्रेमकी महान् मनहमासे
प्रभानवत होकर व्रजमें लता-गुल्म बननेकी अनभलाषा करते हुए गोनपयोंकी
चरणरजकी वन्दना की है—
आसामहो िरणरेणुजुषामहां स्याां
वृन्दावने र्त्कमर्त्र् गुल्मलतौषर्त्धनाम् ।
या दस्ु वयजां स्वजनमायपर्थां ि र्त्हववा
भेजुमुपकुन्दर्दवीं श्रुर्त्तर्त्भर्त्वपमृग्याम् ॥
वन्दे नन्दव्रजस्त्रीणाां र्ादरेणुमभीक्ष्णशिः ।
यासाां हररकथोद्गीतां र्ुनार्त्त भुवनत्रयम् ॥
( श्रीमद्भा० १० । ४७ । ६१, ६३ )
‘अहा ! कै सा सौभाग्य हो मेरा, यनद मैं वृन्दावनमें कोई बेल, अनाजके पौधे या
झानडयोंमेंसे कोई हो जाऊुँ , नजनपर इन व्रजबालाओंके चरणकी धूनल पडती रहती है
। धन्य हैं ये व्रज-गोनपयाुँ, नजन्होंने बडी कनठनतासे छोडे जानेवाले बन्धुओकं ो और
सनातन ( मयाादा-)-धमाको त्मयागकर उस मुकुन्दपदवीका अनुसरण नकया है, जो
श्रुनतयोंद्वारा खोजी जाती है ( परंतु प्राि नहीं होती ) । नजनका हररकथामय गान तीनों
लोकोंको पनवत्र करनेवाला है, नन्दव्रजकी उन गोपरमनणयोंकी चरण-धूनलको मैं बार-
बार प्रणाम करता हू ुँ ।’
समर्पणमूर्त्तप श्रीर्त्िम्मनलालजी गोस्वामी ४९
गोनपयोंका हृदय प्रनतक्षण यही पुकारा करता है—‘कै से हमारे नप्रयतम श्रीकृ ष्णकी
इच्छा पूणा हो ! ये धन-धाम, ये मन-प्राण, ये देह-गेह कै से प्यारे कन्हैयाको सुख
पहुचुँ ानेवाले हों । अरे , ये तो उन्हींके हैं—उन्हींकी सामग्री है; नफर रह चाहा भी कै से
जाय नक इनको लेकर, इन्हें अपनी सेवामें लगाकर तुम सुखी हो जाओ । दी तो जाती
है वह वस्तु, जो अपनी होती है; यहाुँ तो सब कु छ उन्हींका है, अहा ! मुझपर भी तो
उन्हींका एकानधकार है । नफर मैं कै से कहू— ुँ तुम मुझे ले लो, मुझे अपनी सेवामें लगा
लो । क्या मुझपर मेरा अनधकार है ? बहुत ठीक, अब कु छ नहीं कहना है । तुम यन्त्री
हो, मैं यन्त्र हू;ुँ तुम नचानेवाले हो, मैं कठपुतली हू ुँ । तु्हारी जो इच्छा हो, वही
करो—बस, वही करो ।’ कै सी ऊुँ ची नस्थनत है ! इन्हें नकसी भी वस्तु, नकसी भी
नस्थनतकी तननक भी परवा नहीं है ।
× × ×
गोर्ीजन की मर्त्हमा अतुर्त्लत ।
र्त्जनके भाव लहन कौं तरसत िेदररिा र्त्नत, ऋर्त्ष-मुर्त्न तर्-रत ॥
र्त्वमल ब्रह्मर्त्वद्या गोर्त्र्न सम तर् करर िहत प्रीर्त्त अर्त्त र्ावन ।
जा सौं र्त्मलत ब्रह्म र्र-सौं-र्र रसमय मधुर रूर् मनभावन ॥
सदा प्रेम-र्रिस र्त्जनके हरर, राखत मन र्त्जन कौं अर्त्त आदर ।
सदा रहत र्त्जनके र्त्ढग िरिस, िहत न रहन छााँर्त्ड़ र्त्तन र्त्छनभर ॥
िस्यौ रहत मन-प्रान-नयन महाँ िन र्त्तन के मन-प्रान-र्ुतरर दृग ।
रास-र्त्िलास करत र्त्नत रसमय भूर्त्ल सकल भगवता अग-जग ॥
५०
५१
र्ू० अ० सौ० श्रीमती सार्त्वत्रीदेवी फोगलाके उद्गार
पूज्य चाचाजी ( पूज्य श्री नच्मनलालजी गोस्वामी ) के स्बन्धमें क्या नलखूुँ ?
वे मेरे अपने थे । उनकी आत्ममीयता, उनके अमृत-सने मधुर स्नेहकी स्मृनतसे मन-
प्राण नसक्त हैं । पर अब तो हृदयपिलपर नननधके रूपमें मात्र स्मृनत ही शेष रह गयी है
।
मेरे बाबूजी और मेरे चाचाजी—दोनोंके लाडमें ननरन्तर क्रीडारत रहकर मैंने पद-
पदपर अनुभव नकया—चाचाजी मेरे बाबूजीका छायाकी भाुँनत अनुसरण करना ही
अपने जीवनका एकमात्र लक्ष्य स्वीकार कर, तदनुरूप पद-नवन्यास ही आजीवन करते
रहे । उनके अप्रनतम समपाणकी गररमा अनुपमेय है । इस भाव-भावनाको ननखार नदया
सोनेमें सुहागेकी भाुँनत बाबाने । बाबूजी-बाबामें पाथाक्य था ही नहीं । चाचाजीके
जीवनका मूलमंत्र था—
“र्त्प्रयतम श्रीकृ ष्ण ! तुम्हारी इच्छछा र्ूणप हो ।
प्राणेश्वरी राधे ! तुम्हारी रुर्त्िकी जय हो ।।”
बस, इसी व्याजसे अचाना करते रहे वे बाबूजी-बाबाका अनन्तम श्वासतक ।
यही मेरे चाचाजी श्रीनच्मनलालजी गोस्वामीके जीवनका साधन और साध्य था ।
इवयलम्
र्त्ितवन-िर्त्न्िका
िस, यही अर्त्भलाषा है !
( र्ूज्य श्रीर्त्िम्मनलालजी गोस्वामी )
पहली बार मुझे श्रीभाईजीका दशान सन् १९२८ के प्रार्भमें बीकानेरमें हुआ था
। वे नाम-प्रचारके उद्देश्यसे नवनभन्न स्थानोंमें भ्रमण करते हुए दो नदनके नलये वहाुँ
पधारे थे । उनका सवाप्रथम भाषण सुननेपर मेरे मनमें ऐसी छाप पडी नक वे जो कु छ
कहते हैं अनुभवके आधारपर कहते हैं, के वल पढ़ी-पढ़ायी अथवा सुनी-सुनायी बात
नहीं कहते । जबतक वे बीकानेरमें रहे, व्याख्यानके बाद भी मैं घण्िों उनके पास बैठता
और उनके साथ भगवनद्वषयक चचाा होती रहती । उनके इस प्रथम समागमका मनपर
ऐसा गहरा प्रभाव पडा नक स्वाभानवक ही उनके ननकि स्पका में कु छ नदन रहनेकी
प्रबल भावना जाग्रत् हुई । यह लालसा क्रमशः बढ़ती गयी और सन् १९२९ के ग्रीष्ममें
मुझे उनके साथ गोरखपुरमें लगभग डेढ़ महीने रहनेका दलु ाभ सुयोग प्राि हुआ । इस
छोिी-सी अवनधमें उनके भगवत- ् स्बन्धी प्रौढ़ नवचारों एवं अनुभवोंको जानने तथा
उनके भगवन्मय जीवनको अत्मयन्त ननकिसे देखनेका अवसर मुझे प्राि हुआ । उनके
लोकोिर व्यनक्तत्मवका मनपर ऐसा प्रभाव पडा नक १०-१५ नदनके बाद ही बुनद्धने यह
ननणाय ले नलया नक सब कु छ छोडकर इन्हींके चरणोंमें रहा जाय और शेष जीवन
इन्हींकी छत्रछायामें नबताया जाय । यह ननणाय लेना मेरे नलये नजतना सहज था, उसे
कायाानन्वत करना उतना ही कनठन नसद्ध हुआ । मुझे बीकानेर छोडनेमें चार वषा लग
गये और जनवरी सन् १९३३ में ही मैं अपने इस मनोरथको पूणा कर पाया ।
मेरा श्रीभाईजीके साथ यह चालीस वषासे ऊपरका स्पका मेरे जीवनकी एक
अमूल्य नननध है, जो मुझे अपने अनेक जन्मानजात सुकृतोंके फलरूपमें उन्हींकी
अहैतक ु ी कृ पासे अनायास प्राि हुई थी । इस अवनधमें उन्होंने जैसा अद्भतु स्नेह मुझे
नदया और नजस प्रकार मेरा लाड रखा, उसे शब्दों द्वारा व्यक्त नहीं नकया जा सकता ।
उनके इस ऋणसे मैं जन्म-जन्मान्तरमें भी उऋण नहीं हो सकता और न होना ही
चाहता हू ुँ । भव-सररताकी प्रबलधारामें बहते हुए मुझ पामरको उन्होंने अपनी सहज
कृ पासे उबार नलया और भगवत्मकृपाका अनधकारी बना नदया । मेरी त्रुनियोंकी ओर
समर्पणमूर्त्तप श्रीर्त्िम्मनलालजी गोस्वामी ५५
उन्होंने कभी ध्यान नहीं नदया और मेरे द्वारा उन्हींकी प्रेरणासे हुए तननक-से भी
अनुकूल आचरणकी भूरर-भूरर प्रशंसा की । वे मेरे बडे भाई, सखा एवं स्वामी ही नहीं
थे, मेरे पथ-प्रदशाक, जीवन-सवास्व थे और हैं ।
श्रीभाईजी इस युगकी एक महान् नवभूनत थे । भारतीय संत पर्परामें उनका बहुत ऊुँ चा
स्थान था । वे ज्ञानोिर भाव-राज्यमें प्रनतनष्ठत थे । नजस ‘पराभनक्त’ की प्रानि
श्रीमद्भगवद्गीतामें ब्रह्मभूत होनेके बाद बतायी गयी है, नजस भनक्तके द्वारा मनुष्य
भगवानको तत्त्वसे जानकर उनमें प्रनवष्ट हो जाता है, उनके साथ घुल-नमलकर एक
हो जाता है, उनका प्रनतरूप ही बन जाता है, वह उनके अन्दर मूता थी । यही नहीं,
श्रीकृ ष्णप्रेमकी उच्चतम भूनमकामें वे नस्थत थे । उनका मन, बुनद्ध, वाणी—सबकु छ
श्रीकृ ष्णमय हो गये थे । ‘तीथीकु वपर्त्न्त तीथापर्त्न, सुकमीकु वपर्त्न्त कमापर्त्ण,
सच्छछास्त्रीकु वपन्ती शास्त्रार्त्ण’—नारद-भनक्त-सूत्रका यह वाक्य उनमें पूणारूपेण
चररताथा था । नवशुद्धप्रेमाभनक्तका आदशा एवं भगवन्नामकी मनहमाको प्रनतनष्ठत करनेके
नलये ही जगत्में उनका आनवभााव हुआ था । हमलोगोंका अननवाचनीय सौभाग्य था
नक वे हमारे बीच हमारे ननजजन—हमारे नपता, बन्धु, संरक्षक, मागादशाक एवं नमत्रके
रूपमें इस धराधामपर रहे और हमारे -जैसे अगनणत जीवोंको उन्होंने अपनी
पीयूषवनषाणी वाणी, आदशा भक्तोनचत व्यवहार, अमोघ लेखनी तथा भगवन्मय
जीवनसे कल्याणकी ओर अग्रसर नकया । इस भारतभूनमको—नवश्वको उन्होंने
अध्यात्ममज्ञानकी जो अमूल्य नननध दी है, उसका मूल्यािन शब्दोंद्वारा स्भव नहीं है ।
उनके प्रनत श्रद्धाञ्जनलके रूपमें जो कु छ भी कहा जाय थोडा है । मैं उनके नवषयमें क्या
श्रद्धाञ्जनल अपाण करूुँ, उनकी स्मृनत-मात्रसे हृदय भर आता है । उनके नवयोगको
हृदय सहन कर गया—यही मेरी प्रेमशून्यताका प्रमाण है । बस, शेष जीवन
श्रीभाईजीकी और उनके अपने श्रीराधामाधवकी स्मृनतमें बीत जाय—यही अनभलाषा
है !
श्रीभाईजीिारा आयोर्त्जत र्त्दव्य साधन-सत्रका र्त्ववरण
( र्ूज्य श्रीर्त्िम्मनलालजी गोस्वामी )
र्ूवप-भूर्त्मका
मेरी मान्यतानुसार श्रीपोद्दार महाराजका जीवन दो ही भागोंमें नवभानजत था । उनके
जीवनका प्रथम सोपान भक्तराज भाईजी श्रीहनुमानप्रसादजी पोद्दारका था । श्रीभाईजी
अपने साधनाकालमें तथा धमा-प्रचार एवं जगत-कल्याणकाया
् के नननमि श्रीसेठजी
जयदयालजी गोयन्दकाको पूणातया समनपात थे । उस जीवन-सोपानमें वे उनके अनुगत
थे । नकन्तु अपने जीवनके दसू रे सोपानमें वे सवातंत्र-स्वतंत्र थे । महाभाव-रसराज
श्रीराधाकृ ष्णके लीला-रसमें ननमि उनका यह दसू रा सोपान वृन्दावनकी
महारासलीलाओंका प्रत्मयक्षदशी जीवन रहा है । इस कालमें वे अपने संकल्पमात्रसे
नकसीको भी ब्रजेन्ितनय रनसकशेखर श्रीकृ ष्णका दशान कराने, उनकी रसमयी ननतान्त
मधुर प्रेमाभनक्तका दान करनेमें भी समथा आचाया गुरु थे । यद्यनप उनके द्वारा कोई
स्प्रदाय-प्रविान नहीं हुआ परन्तु उनकी योग्यता इस कालमें नकसी कारक पुरुषसे
नकसी भी प्रकार कम नहीं थी । उन्होंने अपनी इस महाकल्याणकारी शनक्तको सदैव
ही संगिु रक्खा, नकन्तु इस कालमें उनमें वस्तुगणु के रूपमें सदैव सवोच्च मोदन-मादन
भाव ही संप्रवानहत रहा । मैं उनके १९३० ई. के पश्चात् अनवरत चालीस वषाके
जीवनको महाप्रभु पोद्दार महाराजका जीवन कहता हू ुँ । इसी कालमें उन्हें समनपात हुए
समपाणमूनिा श्रीगोस्वामी नच्मनलालजी, जो नवद्विामें नसद्ध-रनसक रूप-सनातन एवं
जीव गोस्वामीसे नकसी भी अंशमें न्यून नहीं कहे जा सकते । यह सत्मय है नक रूप-
सनातन एवं जीव गोस्वामीके समतुल्य इन्होंने अपना स्वतंत्र सानहत्मय नवश्वके स्मुख
नहीं रक्खा नकन्तु इनका श्रीमद्भागवत ग्रन्थका आंग्ल भाषामें अनद्वतीय अनुवाद इसका
प्रमाण है नक ये संस्कृ त एवं आंग्ल दोनों भाषाओंमें मूधान्य योग्यता रखते थे ।
समर्पणमूर्त्तप श्रीर्त्िम्मनलालजी गोस्वामी ५७
१.) हम सभीको अभी इसी समय अपने समग्र पाप-पुण्य भगवान् श्रीकृ ष्णको
समनपात कर देना चानहये ।
२.) प्रनतनदवस एक मासतक अष्टादशाक्षर गोपालमंत्रकी पचास मालाका अवश्य
जप करें ।
३.) इस बातका मनमें दृढ़ नवश्वास रखें नक हमें श्रीकृ ष्णानुरागकी प्रानि अवश्य
होगी ।
४.) सभीके मनमें इस बातका सुदृढ़ नवश्वास रहे नक हमें अपनी साधनासे नहीं,
अनपतु श्रीकृ ष्णानुग्रहसे उनकी प्रीनत अवश्यमेव प्राि होगी । सहज सुहृद कृ पामूनता
भगवानने् इसी क्षणसे हमें अपना नलया है । जड-चेतन सवात्र अपने परमाराध्य
मोरमुकुि-वंशी-पीता्बरधारी भगवान् श्यामसुन्दर श्रीकृ ष्णको ठसाठस-भरा
अनुभव करें ; उनके अनतररक्त जो कु छ भी नदख रहा है, वह हमारा अज्ञान एवं माया-
प्रवाह भर है । यह बारंबार अनुवृनि होती रहे ।”
इस संनक्षि उद्बोधनसे एकमासीय अनुष्ठानका प्रार्भ हुआ ।
सवाप्रथम मुझसे ( श्रीनच्मनलालजी गोस्वामीसे ) श्रीभाइजीने ‘भजे
व्रजैकमण्डनां’ श्रीकृ ष्णाष्टक सुना । इस प्रथम श्रीकृ ष्णस्तुनतके सुनते ही श्रीभाईजीका
ध्यान लग गया । कु छ काल ध्यानावस्थामें वे सवाथा मौन रहे । उनके नेत्रोंसे अश्रुधारा
बह रही थी । बहुत देरतक वे ध्यानस्थ रहे । नफर कहने लगे — “नजस-नजस दृश्यको
मैं देख रहा हू,ुँ उसीका वणान करता हू ुँ । इसे सत्मय माननये । मेरा शरीर ही यहाुँ गोरखपुरमें
है, मैं तो सनच्चन्मय वृन्दावनधाममें जाकर वहाुँकी नदव्य लीलाओंमें ननश्चय ही
सन्मनलत हू ुँ ।”
समर्पणमूर्त्तप श्रीर्त्िम्मनलालजी गोस्वामी ६०
“अब आप सभी मेरे साथ भगवान् श्रीकृ ष्णसे प्राथाना कररये ।” यह कहकर
श्रीभाईजी दो-तीन श्लोक बोलकर भगवान् ब्रजेन्िनन्दन गोपीजनवल्वभ श्रीकृ ष्णका
स्तवन करने लगे । जब श्रीभाईजी श्रीकृ ष्णसे प्राथाना कर रहे थे, तब भी उनकी आुँखें
अश्रु बहा रही थीं । श्रीभाईजीकी वाणी इतनी श्रद्धापररपूणा एवं कातर थी, नजससे स्पष्ट
अनुभव होता था नक वे नन्दनन्दन श्रीकृ ष्णको प्रत्मयक्ष का अपने स्मुख मुसकाता
खडा देख रहे हैं ।
श्रीभाईजीकी प्राथाना संक्षेपमें इसी भावनासे भरी थी — “हे प्रभो ! यद्यनप हम
सभी आपके दशानोंके सवाथा अननधकारी हैं, हमारे भीतर अनन्त जागनतक
अनभलाषायें भरी हैं, नफर भी आप कृ पा करके मात्र आपको ही प्राि करनेकी
अनभलाषाको छोडकर, बाकी सभी अनभलाषाएुँ समूल नवनष्ट कर दें । ऐसी कृ पा
तत्मक्षण ही करें नक आपके दशानोंकी अद्य एवं तीव्र आकांक्षा हमारे हृदयमें जग जाय
। आपके दशानोंके नबना हमें अपना जीवन भारस्वरूप लगने लगे । हमारा जीवन तो
अनन्त दोषोंका भण्डार है । आप हमारे अपराधों एवं न्यूनताओंकी ओर न देखें, अपने
सहज स्वभावसे हम सभीपर अपनी कृ पावषाा करें । हम लोगोंमेंसे नजन्हें भी आपके
दशानोंकी प्रबल चाह हो, आप उन्हें अपना दशान देकर कृ ताथा करें और नजनके हृदयमें
ऐसी चाहका अभाव है, उनके हृदयमें तत्मक्षण ही ऐसी प्रबल चाह जागृत कर दें ।”
प्राथाना करते-करते श्रीभाईजीकी वृनिने शारीररक धरातल छोड नदया और वे
पुनः समानधस्थ हो गये । कु छ काल पश्चात् वे पुनः संवररत होकर कहने लगे —
“महान् प्रकाशका पुञ्ज सामनेसे आ रहा है । वह प्रकाश सवा ओर फै लता जा रहता है
। दसों नदशाओंमें प्रकाश-ही-प्रकाश छा गया है । उस प्रकाशमेंसे प्रेमीजन-जीवन
श्रीकृ ष्ण आज अनोखा वेष धारण नकये पधार रहे हैं । मोरमुकुिके स्थानपर पीता्बरको
साफे की तरह लपेि रखा है । इस साफे के नीचेसे घुुँघराले के शोंकी काली तेजोमय
समर्पणमूर्त्तप श्रीर्त्िम्मनलालजी गोस्वामी ६१
चमक स्पष्ट नदख रही है । नवश्व-मन-मोहन श्रीकृ ष्ण बडे ही जादगू र हैं । उनके जादक
ू ा
प्रभाव शंकर, ब्रह्मा, नारद, व्यास, शुकदेव आनद सभीपर व्याि है । सभी उनपर मुग्ध,
वशीभूत हो रहे हैं । उनके मुखकमलमें जाद,ू उनके नेत्रयुगलमें जाद,ू उनकी के शरानशमें
जाद,ू उनके पीता्बरमें जाद,ू उनकी नूपरु -ध्वननमें जाद,ू उनकी प्रत्मयेक नक्रया एवं
वस्तुमें जाद-ू ही-जाद ू है । उनकी नचतवन-अवलोकननमें ऐसा नवलक्षण जाद ू है नक
दशानमात्रसे नवमोनहत कर लेता है ।”
ध्यान कराते-कराते श्रीभाईजीने सहसा ‘जय हरर गोनवन्द राधे-गोनवन्द’ की
नामध्वननका संकीिान कराना प्रारंभ कर नदया । आगे-आगे श्रीभाईजी बोलते एवं
पीछे हम सभी सत्मसंगी बन्धु । नाम-संकीिान बहुत कालतक होता रहा । जब
श्रीभाईजीने संकीिानको नवराम नदया तो स्वतः ही ध्यानमें अपनी नस्थनतपर प्रकाश
डालते हुए कहने लगे — “जब निनागर श्रीकृ ष्ण नृत्मय करने लगे तो उनके नृत्मयकी
तालपर मैंने भी नाम-संकीिान प्रारंभ कर नदया । थोडी देर पश्चात् वे खडे होकर मेरा
संकीिान सुनकर मुस्कु राने लगे, मैं तो संकीिान करता रहा । उनको सुननेमें सुख नमले
इससे बढ़कर अपने पास करनेको है ही क्या ?”
इसी समय मैंने ( श्रीनच्मनलालजी गोस्वामीने ) नजज्ञासा की — “आपने अभी
कहा नक भगवान् श्रीकृ ष्ण बडे जादगू र हैं, तो वे अपने जादक
ू ा प्रयोग हम सभीपर क्यों
नहीं करते ?”
श्रीभाईजीने प्रत्मयिु र नदया — “जबतक वे अपना जाद ू नहीं करते, तभीतक खैर
है । उन्होंने जाद ू कर नदया तो ‘रही न काहू कामकी’ वाली नस्थनत हो जायेगी । इसे
के वल सानहत्मय मत माननयेगा; श्रीनारायणस्वामी रनचत इस पदमें नलनखत एक-एक
बात अक्षरशः सत्मय घनित हो उठे गी ।”
समर्पणमूर्त्तप श्रीर्त्िम्मनलालजी गोस्वामी ६२
श्रीराधानायक जसुदानन्द दल
ु ारे ।
र्त्छनह मर्त्त मोरे होहु दृगर्त्न तैं न्यारे ॥ १ ॥
मम दख
ु -जीवनके तुम ही एक रखवारे ।
पकडे, कहते रहे । उनके बोलने एवं कहनेका ढंग आज सदासे नभन्न प्रकारका था । वे
बहुत ही मन्द स्वरमें शनैः-शनैः यह सब वणान कर रहे थे—
“श्रीगोवधान नगररके एक नशलाखण्डपर अपनी सवााकषाक शोभाको सवात्र प्रसाररत
करते श्रीकृ ष्ण आसीन हैं । सघन लता जाल पुष्पाच्छानदत हैं । रंग-नबरंगे पुष्प हैं ।
ओह ! कै सी ननमाल सुगन्ध चतुनदाक् फै ल रही है । मेरी नानसका श्रीकृ ष्णकी अंगगन्धसे
तो भरी है, बीच-बीचमें वायु इन पुष्पोंकी गन्ध भी लाकर श्रीकृ ष्णके अंगगन्धमें नमला
जाती है । इसी नमससे इन लता-वल्लररयोंका अपने प्राणपनतसे नमलन जो हो रहा है ।
वायु दतू ीका काया कर रही है । ओह, भ्रमर कै सा सुन्दर झंकार कर रहे हैं । इनकी
झंकार नवलक्षण संगीतमयी है । सारी राग-रानगननयोंकी मूल उत्मपनि मानो इन भ्रमरोंसे
ही हुई हो । ...... ......... .........”
बहुत शनैः-शनैः इतना बोलकर श्रीभाईजी रुक गये हैं । उनसे आगे बोला नहीं
जा रहा है । आज उनकी दशा कु छ ननराली है । उनके नेत्रोंसे अश्रु धारावत् िपकते हैं,
परन्तु इससे उनकी मुख-मुिामें कोई नवकृ नत नहीं आती । इसी प्रकार कभी-कभी
उनके मुखसे ‘ओह ! ओह !’ कर रुदन फू ि पडता है, परन्तु चेहरा उसी प्रकार शोभाभरा
लगता है ।
मेरा गोरखपुर आगमन धन्य हो गया । मेरी पत्मनी यनद मुझे स्थायीरूपसे गोरखपुर
आनेकी अनुमनत नहीं देती तो हमें यह नवलक्षण अनुभव प्राि करनेका सौभाग्य ही
नहीं नमलता । मुझे बनहन मंगलाके भाग्यपर गवा होता है नक उसे यह सत्मसंग नमला ।
बनहन सुलोचना एवं मेरे पू. नपताजी इस संत-सहवाससे वंनचत हैं ।
* * *
प्रसांग ३
॥ श्रीहरर ॥
स्थान : िांगालीिािूका िगीिा गोरखनाथ आर्त्श्वन कृ ष्ण तृतीया र्त्व.सां. १९९०
नजस प्रकार नपछले दो नदवस सत्मसंग हुआ, उसी प्रकार आज भी घडीके साढ़े-
आठ बजाते ही कायाक्रम प्रार्भ हो गया है । श्रीभाईजीके आदेशानुसार मेरे (
श्रीनच्मनलालजी गोस्वामी ) द्वारा प्रार्भमें ‘भजे व्रजैकमण्डनां’ श्रीकृ ष्णाष्टकका गायन
होनेके पश्चात् ‘हरर िोल, हरर िोल’ का संकीिान श्रीभाईजीने स्वयं कराना प्रार्भ कर
नदया । अहा ! अलौनकक आनन्दकी वषाा हो रही थी । श्रीभाईजी दोनों हाथोंमें करताल
लेकर खडे होकर झूम-झूमकर संकीतान करा रहे थे । मन करता था—उस समय
उनकी छनव मेरे नचिमें ऐसी बस जाय नक कभी भी नहीं हिे । श्रीभाईजीकी भावमयी
नस्थनतको देखकर मुझे ऐसा ही अनुभव हो रहा है मानों मैं आधुननक युगके अनभनव
महाप्रभु चैतन्यदेवके सानन्नध्यमें आ गया हू ुँ । श्रीचैतन्य-महाप्रभुकी भाव-तल्लीनताकी
बातें तो मात्र उनके अनुयायी लोगोंके ग्रन्थोंके पढ़नेसे ही ज्ञात होती हैं, नकन्तु
श्रीभाईजीकी भावदशा तो हम सभी प्रत्मयक्ष देख रहे हैं । श्रीभाईजीकी यह नवलक्षणता
ही है नक वे गृहस्थमें रहकर जनसंसगामें पूणातया नलि होकर, समाजसेवा, आत्ममीय
जनोंके नववाह, मरण, रोग-शोकमें सन्मनलत होकर भी पंक-कमलवत् सवाथा
नननलाि हैं, और नदवसभर रजोगुणी कायोंका संचालन करते हुए भी सन्ध्यामें इस प्रकार
भावानवष्ट हो जाते हैं । ये अपने भाव-प्रवाहको संगिु और प्रकि करनेमें नकतने
नसद्धहस्त हैं ! मैं तो ऐसा अग्रज धमाभ्राता पाकर अपनेको कृ तकृ त्मय अनुभव करता हू ुँ
।
ऐसा लगता है नक श्रीभाईजी जगतके् तिपर रहकर भी नहीं रहते । सदैव लोकातीत
रहते हुए श्रीराधाकृ ष्ण युगलके रूप-लीला-स्बन्ध, रसनवलास, आलाप-संलाप,
समपाण एवं प्रेममें ही इनका क्षण-क्षण व्यतीत होता है ।
समर्पणमूर्त्तप श्रीर्त्िम्मनलालजी गोस्वामी ६८
( प्रातिः काल )
और वस्त्र —दोनोंका काया स्पन्न कर लेते हैं । ये कोपीन भी िािकी ही पहनते हैं ।
कोपीन अवश्य इनके पास दो है । नहानेके पश्चात् इनमेंसे एकके सूख जानेपर ये उसे
अपनी कमरमें बाुँध लेते हैं । बहुत ही नतनतक्षु हैं । चार आलू उबालकर मात्र तननक-
सा नमक लगाकर इनकी नभक्षा हो जाती है । नभक्षाथा ये नकसीके घर नहीं जाते, अपनी
हुँनडयामें ही आलू उबाल लेते हैं । इसी हुँनडयासे ये पानी भी पी लेते हैं । शौचके समय
इसी हुँनडयाको जलपात्रके रूपमें प्रयोग कर लेते हैं । कण्डेकी धूनी अवश्य रखते हैं ।
ये एक रबरकी नली रखते हैं । इस नलीको अपने नकसी भी अंगसे सिाकर ये
इसके दसू रे कोनेको आगन्तुक व्यनक्तके कानमें लगा देते हैं । उस नलीमेंसे नवलक्षण
सुरीली ‘नारायण-नारायण’ नामध्वनन सुनाई देती है । यह प्रयोग ये इनके पास
आनेवाले प्रत्मयेक व्यनक्तके स्मुख करते हैं । यह ‘नारायण-नारायण’ नामध्वनन इनके
हृदयकी स्वाभानवक रक्तचापकी धक्-धक् आवाज नहीं है, नजसमें ‘नारायण’ नाम
आरोनपत कर नदया गया हो । यह तो स्पष्टतः शब्दोच्चारण है । ये महात्ममा नजस काल
नकसीको यह नामध्वनन अपने रोम-रोमसे ननस्सृतकर सुनाते हैं, उस समय इनके नेत्र
ऐसी शान्त मुिामें ननमीनलत हो उठते हैं, मानो अन्तरमें उच्चाररत अन्तध्वाननके रूपमें
होनेवाले अपने इष्टदेवके नाम-संकीिानको ये स्वयं भी पूणा रसमि हुए सुन रहे हों ।
यह मधुर नामस्वर न तो नकसी नारीका होता है, न ही पुरुषका । यह तो जैसे कोई
स्वयंमूिा ध्वनन होती है । यह इतनी आकषाक होती है नक श्रवणकिाा यनद जरा भी
साधन-स्पन्न अन्तःकरणका हो तो इसके श्रवण मात्रसे ही वह भीतर गनहराकाशमें
डू बता चला जाता है । ऐसा लगता है मानो यह कोई आन्तररक योगध्वनन है । इस
ध्वननका नवश्ले षण तो मैं नहीं कर सकता । इस श्रवणसे मुझे एक नवलक्षण आनन्द,
एक अभूतपूवा तन्मयता प्राि हुई, वह मेरे मन-मानसमें सारे नदवस छायी रही ।
महात्ममाजी नकसी भी श्रवणकिााको यह नामध्वनन सुनाते समय उस नलीका अपने
पासवाला छोर अपने एक अंगसे हिाकर दसू रे पर, नफर तीसरे पर, कभी पीठपर, कभी
समर्पणमूर्त्तप श्रीर्त्िम्मनलालजी गोस्वामी ७०
जंघापर, कभी हाथोंकी अुँगनु लयोंपर संस्पृष्ट कर देते हैं और पररणाम एक ही संघनित
होता है — वही नामध्वनन । एक-सी ही सुमधुर स्पष्ट योगध्वनन उनके रोम-रोमसे
उच्चररत होती रहती है ।
मैं चनकत हू ुँ — कै से-कै से महापुरुष श्रीभाईजीके पास आते हैं और उनके
सत्मसंगके नलये लालानयत रहते हैं ।
मैंने जब इन िािबाबा महात्ममाजीसे अपनी इस नसनद्धका साधन पूछा तो उन्होंने
कहा नक सब भगवान् नारायणकी कृ पाका ही फल है । उनका कथन था नक उनकी
सनन्ननधमें उनके संकल्पसे नकसी भी जड-चेतन पदाथासे यह पावन नामध्वनन ननस्सररत
हो सकती है ।
इसके पश्चात् इन्होंने अपना िािवस्त्र मेरे कानमें लगानेको कहा । मैं आश्चयाचनकत
हो उठा । उनके िािवस्त्रसे भी उसी नदव्य मधुरतासे भरी वह ध्वनन श्रवणगोचर हो रही
थी । मैं आश्चयाानभभूत था । महात्ममा नारायणस्वामी ( िािबाबा ) यही उनका नाम था
। ये वषों बनिकाश्रममें तपस्यारत रहे हैं । इन्हें भगवानके् साक्षात् दशान हो चुके हैं ।
इन्होंने भगवान् नारायणसे इसी नसनद्धकी याचना की थी नक वे जहाुँ चाहें वहींसे, साथ
ही जबतक उनका शरीर रहे उनके रोम-रोमसे भी उन्हें कल्याण शनक्तयोंसे समनन्वत
प्रभुका पावन, नचन्मय नाम नदव्य मधुर ध्वननके रूपमें सदैव नननानदत श्रवणगोचर होता
रहे । तबसे उनके शरीरका एक रोम भी नामध्वननसे वंनचत नहीं है । भगवानके् वरदानसे
वे इतने शनक्तस्पन्न हैं नक अन्य नकसीको भी यह नामध्वनन श्रवणगोचर करा सकते
हैं । साथ ही, उनका जो, जहाुँ, जैसा भी दृश्य होता है, उनके संकल्प करते ही उसमेंसे
भी वैसी ही पावनतम ‘नारायण’ नामध्वनन प्रकि हो जाती है । बस, इसी वरदानका
पररणाम उनकी यह नसनद्ध है । यनद उनका बुरे-से-बुरे स्थानपर भी प्रारब्धवश गमन
हो जाय, तो यह नाम-संकीिान प्रवाह उनके चतुनदाक् ऐसा नाम-वतुाल सृजन कर देता
समर्पणमूर्त्तप श्रीर्त्िम्मनलालजी गोस्वामी ७१
है नक ये सवात्र नाममें ही डू बे बने रहते हैं । इनकी नामनसनद्ध इनके नवचारोंको भी सदैव
एकाग्र भगविसमें समानहत रखती है, इससे इनकी वृनियाुँ इनन्िय-नवषयानुगामी नहीं
हो पातीं ।
बहुत ही बडा, नवलक्षण नारायण-नाम-कवच भगवानने् इन्हें प्रदान नकया हुआ
है ।
श्रीनारायणस्वामी ( िािबाबा ) भगवान् नारायणके आदेशसे ही श्रीभाईजीसे
नमलने आये हैं । इन्हें भगवान् नारायणने जगत-कल्याणके
् नलये जो भी ननयमावली
बतायी है, उसे ये गीताप्रेससे प्रकानशत करवानेके नलये श्रीभाईजीको समनपात करने ही
गोरखपुर आये हैं ।
मैंने अपने पररवारके सभी स्त्री-पुरुष-बच्चोंको इन महात्ममाजीकी यह नसनद्ध
नदखायी है । ये हम सभीपर अनतशय कृ पालु हैं । मेरी अ.सौ. माताको इन्होंने नामजप
करनेका नवशेष ननदेश नदया है ।
* * *
प्रसांग ५
॥ श्रीहरर ॥
स्थान : िांगालीिािूका िगीिा गोरखनाथ आर्त्श्वन कृ ष्ण ितुथी र्त्व.सां. १९९०
वृक्षके नीचे वेणु बजाता, भौहें मिकाता नदख जावे, उसके प्राण तो ननश्चय ही उसी
क्षण देह छोडकर अपने प्राणवल्लभसे नमलने उड चलते हैं । जब देहमें प्राण रहें ही नहीं
तो नफर ननन्दा-स्तुनतकी नकसे परवाह ? अब तो वह या तो सवाथा नवनक्षि नचि घूमती
रहेगी, या श्यामसुन्दर उसकी देहमें अपने प्राण समानहत कर उससे भले ही जो इच्छा
हो, सो करवावें । वह अब संसारके प्रयोजनकी वस्तु न रहकर मात्र भगवानके्
प्रयोजनकी ही हो जाती है ।”
इस प्रकार पूरे पदकी व्याख्या करते-करते ही भाईजी भगवानके् आनशख ध्यानमें
ननमि हो गये । आसनपर उनका हलचल रनहत शरीर सवाथा नस्थर था । श्वास-प्रश्वासके
अनतररक्त न कोई क्पन, न ही कोई स्पन्दन; वािाा करते-करते ही मनकी स्पूणा
चञ्चलताओंसे अतीत हो जाना — वस्तुतः परम नवस्मयकारी था । सारे नदवस
अत्मयनधक सनक्रयता, सबकी नचन्ता-व्यवस्था करना, कल्याण-गीताप्रेस — सबकी
सुचारु व्यवस्थामें ननरत रहना और एक क्षणमें ही पूणा शानन्त । इसके नलये न कोई
आयास, न ही इस चरमान्तमुाखताकी लोकोिर नस्थतपर आरूढ़ होनेमें कोई नवल्ब
। तुरन्त चरम ननवृनिकी नवलक्षण नस्थनत — वस्तुतः इससे बडा सहज योगी कौन हो
सकता है ?
मैं नवचार कर रहा था नक श्रीभाईजीके शरीरमें हलका-सा क्पन हुआ । वे धीरे -
धीरे बोल उठे — “देखो, देखो ! शोभासमुि गोपीवल्लभ श्रीकृ ष्ण गौओंके पीछे -
पीछे असीम रस बरसाते आ रहे हैं । उनकी चाल इतनी सुन्दर है नक लगता है मानो
वे नृत्मय करते चल रहे हैं । इनके संकल्पसे इनकी अञ्जनलमें स्वतः ही बृन्दावनके
सुरनभत पुष्प भर जाते हैं और ये इन्हें इनकी ओर सतृष्ण नेत्रोंसे ननहारती हुई,
अिाररयोंपर चढ़ी गोनपयोंपर ऐसे रसमय ढंगसे उछालते हैं नक पुष्प सीधे उनके
मस्तकपर नगरकर सारे शरीरपर बरस जाते हैं । ये गोनपयाुँ भी इनके प्रत्मयिु रमें इनपर
समर्पणमूर्त्तप श्रीर्त्िम्मनलालजी गोस्वामी ७४
सुन्दर-सुन्दर वनमालायें फें कती हैं और श्रीकृ ष्ण इन वनमालाओंसे आकण्ठ भर जाते
हैं । चारों ओरसे गोनपयों द्वारा इतने पुष्प बरसाये जा रहे हैं नक नन्दग्रामका सारा राजपथ
ही रंग-नबरंगा पुष्पमय हो रहा है ।”
वणान करते-करते श्रीभाईजी ‘राधारमण जय कुां ज र्त्िहारी, मुरलीधर गोवधपनधारी’
का संकीिान कराने लगे । वे ताली बजा-बजाकर संकीतान कर रहे थे । यह कीिान
बहुत कालतक होता रहा । समय हो जानेसे इसी कीिानके पश्चात् सत्मसंगका समापन
भी हो गया ।
र्ूज्य श्रीभाईजीिारा समार्त्ध अवस्थामें मन्त्रदान
उपरोक्त वनणात नदव्य साधन-सत्रके पश्चात् इसके अगले वषा अथाात् सं.
१९९१ नव. के आनश्वन मासमें पुनः इसी प्रकारके नदव्य सत्रका आयोजन पूज्य
श्रीभाईजीने नकया । पूरे आनश्वन मास पद-संकीिान, सत्मसंग आनद चलते रहे ।
यह घिना शरद-पूनणामाकी है । रानत्रके समय सबके मनमें बडा उत्मसाह था । पूज्य
श्रीभाईजीने श्रीगोस्वामीजीसे श्रीकृ ष्णाष्टक सुना तत्मपश्चात् श्रीभाईजीके संकेतसे
श्रीगोस्वामीजीने पदगायन नकया । पद-संकीिानके बाद श्रीभाईजीने रासपञ्चाध्यायीके
अनुसार मधुर वणान करना प्रार्भ नकया । श्रीभगवानके् वंशी-वादनको सुनकर
गोनपयोंके अपने-अपने घरोंसे प्रस्थानका वणान बडे ही सुमधुर ढंगसे करते-करते
श्रीभाईजी गदगद ् हो गये और बोलना बंद करके संकीिान प्रार्भ नकया । थोडी देर
पश्चात् पुनः प्रकृ नतस्थ होकर श्रीभाईजी बोलने लगे — श्रीभगवानने् नस्त्रयोंके धमा
बताये, लौिनेको कहा, गोनपयाुँ ननराश होने लगीं, परीक्षाके बाद रासनृत्मयका वणान
करते-करते श्रीभाईजी पुनः समानधस्थ हो गये । पुनः संकीतान प्रार्भ हुआ । थोडी
देर पश्चात् श्रीभाईजी गदगद
् कण्ठसे बडी कनठनतासे बोले — “श्रीभगवान् अन्तधाान
हो गये तब गोनपयाुँ बडी कातर प्राथाना करने लगीं, नफर भगवान् प्रकि हुए”— ऐसा
कहते-कहते श्रीभाईजी पुनः मौन हो गये । कु छ देर पश्चात् श्रीभाईजी और उपनस्थत
सभी व्यनक्त खडे होकर नृत्मय करते हुए संकीतान करने लगे । श्रीभाईजी बडा ही भाव-
पूणा नृत्मय कर रहे थे, पर नृत्मय करते-करते ही वे भावावेशमें मूनछा त होकर नगर पडे ।
बहुत देर पश्चात् श्रीभाईजीके स्मुख बैठे श्रीरामजीदासजी बाजोररयाने कहा नक हम
लोगोंको भी भगवानके् दशान होने चानहये । श्रीभाईजीने कोई उिर नहीं नदया, क्योंनक
वे अभी भी इस प्राकृ नतक राज्यमें नहीं थे । बाजोररयाजीने कई बार कहा, तब श्रीभाईजी
बोले — “सब लोग चले गये ।” बाजोररयाजीने नफर पूछा — ‘कौन चले गये ?’
श्रीभाईजी बोले — “सब लोग चले गये, के वल हमलोग ही रह गये हैं ।”
बाजोररयाजीने पुनः पूछा — ‘हमलोग कौन-कौन ?’ श्रीभाईजी बोले— “के वल
समर्पणमूर्त्तप श्रीर्त्िम्मनलालजी गोस्वामी ७६
सन् १९५६ में तीथपयात्राके क्रममें उज्जैनमें र्रम र्ूज्य श्रीभाईजी एवां र्ूज्य श्रीगोस्वामीजी
( श्रीभाईजीके र्ीछे )
८२
गीताभवन, ऋर्त्षके शमें र्रम र्ूज्य श्रीभाईजीका प्रविन श्रवण करते र्ूज्य
श्रीगोस्वामीजी एवां अन्य सवसांगीजन
मृगमद-सुरर्त्भ
[ र्रम र्ूज्य श्रीराधािािािारा भािर्द शुक्ल अष्टमी, र्त्वक्रम सां० २००६ को र्ूज्य
श्रीगोस्वामीजीको र्त्दया गया उर्देश ]
थे । वे नलखकर कहने लगे — “भैया ! आजकी इस परम पुनीत ननशामें मैं तु्हें
महानसद्ध सन्तोंकी कृ पाको अपने भीतर अवतररत करनेके ऐसे अनतशय सरल साधन
बतलाऊुँ गा नक यनद तू इन साधनोंको अपनाकर सवोच्च कोनिके सन्तोंको अपना
आत्मम-समपाण कर दे तो इसी क्षण तेरी पारमानथाक नस्थनत श्रीपोद्दार महाराजके
समकक्ष हो जाय ।”
पू० गुरुदेवकी कहनेकी शैलीने मुझे इतना समुत्मसक
ु कर नदया था नक मैं अनतशय
जागरूक हुआ, दिनचि होकर उनकी बातें सुनने लगा ।
वे कहने लगे — “देख भैया ! चाहे नकतना ही घना अन्धकार हो, घनघोर
तमसाच्छन्न ननशा हो, नकन्तु रनवकी प्रथम नकरणके संस्पशा होते ही क्षण भी लगता,
पलक झपकते ही समग्र अन्धकार नवनष्ट हो जाता है । अतः बस, तू अपना पूणा
आत्ममसमपाण नकसी भी सच्चे नसद्ध सन्तको कर दे, इसी क्षण तेरे जीवनमें ऐसा रस-
संप्लावन होगा नक उस महानसद्ध सन्तसे तेरा एकात्मम नमलन हो जायेगा और जो वे हैं,
जैसे वे हैं, इसी पल तू भी वही और वैसा ही हो जायेगा । तुझमें और उन महानसद्ध
सन्तमें कहीं, कोई, नकसी भी प्रकारका लेशमात्र भी अन्तर नहीं रह पावेगा ।”
पू० गुरुदेव कह रहे थे — “भैया ! देवमनण पारसका एक लघु-सा खण्ड मात्र
यनद लोहेके नवराि-से-नवराि आगारसे संस्पनशात करा नदया जाय, लोहेकी सवादेशमें
नवस्तृत रे ललाइनसे भी उसका संस्पशा हो जाये तो समग्र लोहा एक क्षणमें मूल्यवान्
स्वणामें पररवनतात हो सकता है; उस देवमनण पारसमें भी यह सामथ्या नहीं है नक
संस्पनशात होनेवाले लोहखण्डको वह अपने समान पारस बना सके । नकन्तु सन्त
अपनेसे जुडे पापी-से-पापी, दरु ाचारी-से-दरु ाचारीको भी नत्रजगन्मंगलकारी संत
बनानेमें पल भर भी नवल्ब नहीं करते और इस प्रकार वे सन्तत्मवकी पर्पराका
ननमााणकर, अनानद, अनन्तकाल तक भगवत्मप्रीनतकी गंगा प्रवानहत करते रहते हैं । इस
समर्पणमूर्त्तप श्रीर्त्िम्मनलालजी गोस्वामी ९०
प्रकार यह सन्तत्मवकी धारा इस नत्रलोकीमें अक्षुण्ण, ननबााध, सतत प्रवानहत रहती है,
कभी भी सूख नहीं पाती ।”
“भैया ! सच मान लेना, लोक-परलोकके कल्याणके नलये ऐसे सन्तोंके समान
परोपकारी कोई नहीं है । जीवके नलये सन्त-नमलन जन्म-जन्मान्तरोंका शुभ फलोदय
है । ऐसे महानसद्ध सन्तोंका सेवन, आज्ञापालन ही जीवका सबसे बडा सदाचार है ।
इन सन्तोंकी रुनचपर अपना सवास्व बनलदान करना ही जीवकी सबसे बडी महत् धमा-
साधना है । इन सन्तोंकी कृ पा ही ज्ञान, भनक्त एवं प्रेमानुराग प्राि करानेका एकमात्र
उपाय है ।”
पू० गुरुदेवका वक्तव्य चल ही रहा था नक इतनेमें मैंने देखा नक मेरे पूवााश्रमके
मामाजी श्रीनच्मनलालजी गोस्वामी भी मन्द-मन्थर गनतसे चलते हुए हमारी ही ओर
आ रहे हैं । उनके आगमनसे तो पू० गुरुदेवके रस एवं उत्मसाहमें जैसे उच्छलन आ गया
। श्रीगोस्वामीजी भी ननशा-जागरणाथा ही पू० गुरुदेवके पाश्वामें आये थे । अब तो पू०
गुरुदेवके स्बोधनका लक्ष्य मैं न होकर मेरे मामाजी श्रीगोस्वामीजी ही हो गये थे ।
पू० गुरुदेवका वक्तव्य अग्रसर हो उठा — “गोस्वामीजी ! अभी मैं महानसद्ध
सन्तोंकी मनहमा इस बालकको श्रवणगोचर करवा रहा था नक आपका आगमन हो
गया । आज इस परम पावन ननशा-जागरणके क्षणोंमें मैं आपको सेठजी
श्रीजयदयालजी गोयन्दका महाप्रभुके अमोघ कृ पावात्मसल्य-प्रवाहके कु छ प्रसंग
सुनाऊुँ गा । ऐसे अनेक अनुभव मुझे हुए हैं, जहाुँ इनमें अकिुाम-
् सामथ्याका प्रकाश
हुआ है । श्रीपोद्दार महाराज अब तो महाभाव-नसन्धुमें लहरा रहे हैं, परन्तु नजन नदनों
श्रीपोद्दार महाराज नवशुद्ध जीव-लीला कर रहे थे, उन नदनों उन्हें नकस प्रकार अपनी
अमोघ कृ पाशनक्तसे सेठजी गोयन्दकाजीने घेरकर परमाथा-तिपर खडा नकया और
हरहराते ज्ञानरस और भनक्तरसके संप्लावनसे आप्यानयत नकया, ये सत्मय तथ्य आज
समर्पणमूर्त्तप श्रीर्त्िम्मनलालजी गोस्वामी ९१
गया । इनको बाुँकुडासे २४ मील दरू नशमलापाल नामक ग्राममें आनेका आदेश नमला
।
“नशमलापालका जीवन एक कठोर साधनाका सोपान हो गया । थोडे ही नदवसोंमें
उनकी वृनि ध्येयाकार होने लगी । भगवानके् ध्यानमें श्रीपोद्दार महाराजको इतना रस
आने लगा नक प्रातः, दपु हरी एवं संध्या तीन-तीन घण्िे ध्यानमें व्यतीत होने लगे ।
मात्र जो भी अल्प समय शारीररक आवश्यक कायों —शौच, स्नान, भोजनानदमें
लगता, उसे छोडकर शेष सभी समय नामजप एवं स्वाध्यायमें लगने लगा । इसका
फल यह हुआ नक इन्हें आुँखें खुली रहते नवष्णु भगवान्की मूनिाका ध्यान होते लगा ।
नामजपमें इतना रस आने लगा नक नामजप छू िना असह्य हो जाता । जीभ सतत नबना
प्रयास नामजपमें लगी रहती । आध्यात्मम-साधनाको जहाुँ इतना दरूु ह कहा जाता है
नक —
जन्म जन्म मुर्त्न जतनु कराहीं ।
“इस नजरबन्दीकी अवनध मात्र इक्कीस मास चली । इस अवनधके पश्चात् इन्हें
बंगालसे ननष्कानसत कर नदया गया । बंगाल त्मयागकर ये अपने ग्राम रतनगढ़ आ गये
और कु छ नदन पश्चात् श्रीजमनालालजी बजाजने इन्हें कोई काम-काज करानेके
नननमिसे ब्बई बुला नलया ।”
“श्रीपोद्दार महाराजके देश-सेवा और समाज-सेवाके संस्कार अब भी पूरी तरहसे
ननमूाल नहीं हुए थे । श्रीजमनालालजी बजाजके ब्बईके संगने इन्हें पुनः उभार नदये ।
श्रीबजाज उस समय राष्रनेताओंके एक प्रकारसे आश्रयदाता ही थे । अतः श्रीपोद्दार
महाराजका इन नेताओंसे स्बन्ध घननष्ठतर, घननष्ठतम होता गया । श्रीगाुँधीजीसे तो
इनकी आत्ममीयता इतनी बढ़ गयी नक वे जब भी ब्बई आते, पोद्दार महाराजके घर
उनकी दादी रामकौरसे नमलने अवश्य आते । श्रीबालगंगाधर नतलक, लाला
लाजपतराय, श्रीनवनायक दामोदर सावरकर, श्रीवल्लभभाई पिेल, श्रीअब्दलु गफ्फार
खाुँ, श्रीमुह्मदअली नजन्ना आनद सभी नेता श्रीपोद्दार महाराजकी सेवासे प्रभानवत थे
। ये सन् १९१९ के कांग्रेस-अनधवेशनमें अमृतसर, सन् १९२० के अनधवेशनमें
कलकिा, सन् १९२१ ई० के अनधवेशनमें अहमदाबादमें सन्मनलत हुए ।”
“गोस्वामीजी ! यह परम सत्मय है नक सच्चे महानसद्ध सन्त एवं स्वयं भगवान् यनद
नकसी जीवको एकबार अपना बना लेते हैं तो नफर कभी त्मयागते नहीं । ऐसा ही संयोग
श्रीपोद्दार महाराजके जीवनमें भी घनित हुआ । श्रीपोद्दार महाराज नेताओंकी राजनीनतमें
उलझ गये थे, सन्तकृ पा तो उनकी प्रतीक्षा कर ही रही थी । इधर जुलाई-अगस्त सन्
१९२० में श्रीजमनालालजी बजाज नकसी कायावश सेठजीसे नमलने चक्रधरपुर गये तो
इन्हें भी उनके साथ जाना पडा । इस समय इन्हें उनकी एक सेवा भी करनेका सुअवसर
प्राि हो गया । जैसा नक पूवातः उल्ले ख हो चुका है श्रीसेठजीका नहन्दी भाषाज्ञान सवाथा
नगण्य था । वे मारवाडी-नमनश्रत साधारण नहन्दीमें ही बोलते थे और उनका वैसा ही
समर्पणमूर्त्तप श्रीर्त्िम्मनलालजी गोस्वामी १००
इस नवषयके प्रमाण हैं । श्रीपोद्दार महाराजने मुझसे एकान्त सत्मसंगमें अनेकों बार यह
भी कहा है नक श्रीसेठजीकी आज्ञानुकाररता और उनके संकल्पसे ही उनमें सफल
स्पादनकला एवं आध्यानत्ममक वक्तृत्मवका प्रकाश हुआ ।”
“श्रीनशवनारायणजीकी बाडीमें श्रीपोद्दार महाराज सत्मसंग कराने लगे । श्रीपोद्दार
महाराज सदैवसे ही आत्ममगोपन प्रवृनिके थे । उनकी वाणी भी बोलते समय हकलाती
थी । परन्तु अपने आध्यानत्ममक गुरुके संकेतका उल्लं घन वे कै से करते । इस सन्त-
आज्ञापालनरूप सेवाने श्रीपोद्दार महाराजको भनवष्यमें आध्यात्मम जगतका ् अनतशय
गंभीर, सारगनभात प्रवक्ता बना नदया । वे अनत सरल भाषामें कू ि-से-कू ि आध्यानत्ममक
गुनत्मथयोंको सुलझा देते थे । ब्बईमें मात्र मारवाडी ही नहीं, मराठी एवं गुजराती
भाषाभाषी लोग भी उन्हें सुनने आते । श्रीपोद्दार महाराज बादमें श्रीरामचररतमानस पर
भी प्रवचन करने लगे । उनके सत्मसंगमें प्रनतनदवस ही, यनद वे ब्बई होते,
श्रीजमनालालजी बजाज, श्रीकृ ष्णदास जाजू आनद भी अवश्य आते थे । उनका सत्मसंग
अनतशय भावपूणा होता और सभी श्रोता प्रवचन सुनते समय मंत्रमुग्ध हो जाया करते
थे । अनेक बार देशके सवाप्रनतनष्ठत उच्चकोनिके महात्ममाओंके स्मुख भी श्रीपोद्दार
महाराजने अपने नवचार रखे हैं, इनमें स्वामी अच्युतमुननजी, श्रीभोलेबाबाजी,
श्रीउनडयाबाबाजी, श्रीहररबाबाजी, माुँ आनन्दमयी, श्रीनशवानन्दजी, स्वामी
एकरसानन्दजी, रामानुजस्प्रदायके परमाचाया श्रीअनन्ताचायाजी, वल्लभस्प्रदायके
आचाया श्रीगोकु लनाथजी, श्रीदीनक्षतजी महाराज आनद प्रमुख हैं । श्रीपोद्दार महाराजके
आध्यानत्ममक नवचार सदैव उनके सच्चे आन्तररक नवश्वाससे ओतप्रोत होनेके कारण
सदा सभीके नलये श्रोतव्य और आत्ममप्रेरक होते थे ।”
“गोस्वामीजी ! श्रीपोद्दार महाराजकी श्रीसेठजीके प्रनत सदा नारायण-भावमयी ही
दृनष्ट रही । यद्यनप श्रीसेठजी प्राकृ त-शरीरधारी एक मारवाडी व्यनक्त ही थे, परन्तु
समर्पणमूर्त्तप श्रीर्त्िम्मनलालजी गोस्वामी १०३
श्रीपोद्दार महाराज इन्हें कृ नम, नवष्ठा, मल-मूत्रका आगार सवाथा नहीं देखते थे ।
श्रीपोद्दार महाराजकी इस नवशुद्ध भगवन्मयी दृनष्टका प्रमाण उनका यह पद है, जो
उन्होंने सन् १९२२ ई० में श्रीसेठजीकी वन्दनाके नलये नलखा था —
जयर्त्त देव, जयर्त्त देव, जयदयालु देवा ।
र्रम गुरु, र्रम र्ूज्य, र्रम देव, देवा ॥
सि र्त्िर्त्ध तव िरन-सरन आइ र्रयौ
् दासा ।
दीन-हीन-अर्त्त-मलीन, तदर्त्र् सरन-आसा ॥
र्ातक अर्ार र्त्कांतु दया को र्त्भखारी ।
दर्त्ु खत जार्त्न राखु सरन र्ार्-र्ुांजहारी ॥
अिलौंके सकल दोष छमा करहु स्वामी !
ऐसो करु, जातें र्ुर्त्न हौं न कु र्थगामी ॥
र्ात्र हौं, कु र्ात्र हौं, भले अनर्त्धकारी ।
तदर्त्र् हौं तुम्हारो अि लेहु मोर्त्ह उिारी ॥
लोग कहत तुम्हरो सि, मनहु कहत सोई ।
कररय सवय सोइ, नाथ ! भव-भ्रम सि खोई ॥
मोरर ओर जर्त्न र्त्नहारर, देर्त्खय र्त्नज तनही ।
हठ करर मोर्त्ह रार्त्खय हरर ! सांतत तल र्नही ॥
कहौं कहा िार-िार जानहु सि भेवा ।
समर्पणमूर्त्तप श्रीर्त्िम्मनलालजी गोस्वामी १०४
बाह्यज्ञान बार-बार जाता रहा । मैं बडे आनन्दके साथ चलता तो मुझे प्रत्मयक्ष दीखता
भगवान् मेरे साथ चल रहे हैं । नफर मुझे भवनमें लाकर नबठा नदया गया । वहाुँ भी मुझे
भगवानके् दशान होते रहे । तब मैंने दण्डवत् की । उसके पश्चात् मुझे बाहरी ज्ञान हुआ
।”
“इस वणानको श्रीपोद्दार महाराजके मुखसे सुननेके पश्चात् मेरे नचिमें यह बात
पूणातया सुदृढ़ हो गयी नक भगवान् चाहे ननगुाण हों अथवा सगुण, वे महापुरुषोंके
स्वयंके ही मात्र ननज स्वरूप हैं और महापुरुष एवं भगवानमें् स्वरूपतः नकं नचत् भी भेद
हो ही नहीं सकता । महापुरुषका देह ही प्राकृ त भले दीखे, शेष उसके अन्तःकरणका
पूणा नवलय भगवानमें् हो जाता है । और ऐसा भी संभव है नक कु छ महात्ममा मात्र हमारी
चमाचक्षुओसं े प्राकृ त दीख रहे हों, वस्तुतः उनका शरीर भी नचन्मय हो । मेरी तो यह
नननवावाद मान्यता है नक तत्मव चाहे ननगुाण, ननराकार, नननवाशेष हो, चाहे सगुण, साकार,
सनवशेष, यनद नकसीको भी नवतररत होता है, तो महापुरुषोंके द्वारा ही । उसको पानेका
अन्य कोई उपाय ही नहीं है । इसमें प्राथनमक आवश्यकता इतनी ही है नक बस, एक
बार साधक आत्ममसमनपात हो जाये । उसका अहं नवगनलत होकर महापुरुषके चरणोंमें
नवलीन होनेको उत्मसक ु हो उठे , इतना होते ही महानसद्ध सन्तोंका ननज स्वरूप — वह
नचन्मय परम सरस रसप्रवाह — साधकके कठोर प्राकृ त अहंको प्रथमतः चतुनदाक् घेर
लेता है, नफर शनैः-शनैः उसे मसृण करता है, उसमें प्रवेशके नलये नछि संघनित करता
है और तब उसे ध्वंसकर अपनेमें लीन कर लेता है । महापुरुषोंके ननज स्वरूपसे एक
होना ही भगवत्मसाक्षात्मकार है, क्योंनक भगवान् और महापुरुष दो होने स्भव ही नहीं
हैं ।”
“गोस्वामीजी ! सेठजी श्रीजयदयालजी गोयन्दका ऐसे ही सन्त हैं, नजनमें त्मयाग
एवं समपाणकी पूणाता है । कोई लौनकक भाव उनकी आन्तररक प्रीनतधाराको अवरुद्ध
समर्पणमूर्त्तप श्रीर्त्िम्मनलालजी गोस्वामी १०७
प्रीनतरस-समुिसे अभी इसी एक क्षणमें ही एकमेक हो सकते हैं, यनद हम अपना पूणा
आत्ममसमपाण नकसी भी नसद्ध सन्तको कर दें ।”
ज्ञानके सूयप र्रम श्रिेय सेठजी श्रीजयदयालजी गोयन्दका एवां भक्तमुकुटमर्त्ण र्रम र्ूज्य
भाईजी श्रीहनुमानप्रसादजी र्ोद्दार
अर्त्भनव िैतन्य श्रीभाईजी
( र्रम र्ूज्य श्रीराधािािाने र्ौष कृ ष्ण ३ सां० १९९८ रार्त्त्रके १०.१५ िजेसे १२.३०
िजेतक श्रीर्त्िम्मनलालजी गोस्वामीको र्त्लखकर र्त्दया — )
सच माननये, नजन बातोंको कहने जा रहा हू,ुँ यनद उसपर मेरा सचमुच पूरा-पूरा
नवश्वास हो गया होता तो मेरा जीवन इतना नवलक्षण होता—भाईजीके प्रनत मेरा
आकषाण, मेरा व्यवहार ऐसा होता नक वह जगतके् नलये, श्रद्धाके नलये आदशा हो
जाता, पर वह है नहीं । और भगवानकी ् लीला ऐसी है नक मनमें यह इच्छा भी नहीं
उठती नक यह हो । इच्छा हो तो सच माननये, श्रीकृ ष्ण एवं श्रीभाईजी
भक्तवाञ्छाकल्पतरु हैं, ये अवश्य पूरी कर दें । मेरे मनमें इच्छा ही नहीं होती नक
प्राथाना करूुँ । यही आता है नक जैसे-जैसे पदाा उठ रहा है, उसी क्रमसे उठने दुँ ू । नहीं
तो ननःसन्देह उसी क्षण भाईजी मेरी प्राथाना पूरी कर दें । पर नजस नदनसे यह बात मैंने
सुनी है, उस नदनसे मुझे अत्मयनधक पारमानथाक लाभ हुए हैं, नजन्हें मैं पूरा-पूरा बता
भी नहीं सकता ।
बात यह है नक डेढ़-दो वषा पहले एक महात्ममाने मुझे एक गुि नचट्ठी नलखी थी,
नजसका नजक्र मैं कर चुका हू ुँ । उन्हें श्रीकृ ष्ण-लीला प्रनवष्ट एक बहुत ऊुँ चे संत (
मीराबाई )-का साक्षात्मकार हुआ और उन्होंने उनसे कई बातें पूछी थी । मैं पत्र ही
आपको नदखला देता, पर उसमें यह स्पष्ट नलखा हुआ है—यह पत्र आप नकसीको
भी नहीं नदखाइयेगा । यह भी न नदखानेका कारण है तथा उसमें क ई और व्यनक्तयोंके
नजक्र हैं तथा एक-दो और कारणोंसे भी नहीं नदखला रहा हू ुँ । मेरे पास पडा है,
प्राणोंके समान उसे मैंने अपने ननत्मयकमाकी पुस्तकोंके साथ रखा है । यनद वे खो न
गये, मेरे मरनेतक इसी प्रकार संयोग लगा रहा, आप नजन्दा रहे आपकी इच्छा रही तो
नमल भी सकता है, अथवा आगे चलकर मेरा मन बदल जाय तो आप लोगोंको
नदखला दगुँ ू ा । अस्तु, मेरे ऐनतहानसक ज्ञानके आधारपर मैं यह समझता हू ुँ नक उन
महात्ममाका प्रादभु ााव उस समय हुआ होगा जब शाह अकबर नदल्लीके तख्तपर थे ।
उनसे जब उन्होंने पूछा नक आप श्रीजयदयालजी एवं श्रीहनुमानप्रसादजीके नवषयमें
समर्पणमूर्त्तप श्रीर्त्िम्मनलालजी गोस्वामी ११४
लीलादशान होते हैं । पर भावदेहके द्वारा भी नजस रूपका अनभमान होता है, वह या
तो मंजरी देहका होता है या श्रीराधाजीकी सखीका । श्रीराधाकी सनखयोंके अनुगत
होकर सेवामें, लीलामें यथायोग्य पािा करना मंजररयोंका स्वरूप है । सनखयाुँ ननत्मय हैं
और मंजरी-देहमें प्रवेशकी गुंजाइश है । साधननसद्धा नजतनी भी गोनपयाुँ हैं, वे या तो
मंजरीके रूपमें या सखीके कु छ अंश नीचेके स्तरमें अथाात् साधननसद्धा सखीके रूपमें
सेवाका अनधकार प्राि करती हैं पर सूक्ष्मदेह राधाजीके रूपमें पररणत हो जाना इससे
कु छ नभन्न है । ऐसी नस्थत होनेपर एक क्षणके नलये भी बाह्य जगतकी् स्फु नता नहीं होती
। के वल महाप्रभुके अनन्तम जीवनका उल्ले ख ऐसा प्राि होता है नक ठीक-ठीक
राधाजीसे उनका तादात्म्य हो गया था । पर उनके नवषयमें भक्तोंकी तो यह मान्यता है
नक वे स्वयं श्रीकृ ष्ण थे, अतः उनके नलये यह नस्थनत कु छ नवशेष महत्त्व नहीं रखती
। पर भाईजीके जीवनको देखनेपर यह मालूम होता है नक जीवभावको प्राि ये एक
नदन अवश्य थे । इसीनलये इस प्रकारकी नस्थनत नकतनी दलु ाभ है एवं नकतने
अननवाचनीय सौभाग्यका पररणाम है, यह सहज ही अनुमान हो सकता है । दसू रे
शब्दोंमें भाईजी एक क्षणके नलये भी बाह्य जगत्में नहीं आते । नफर प्रश्न उठता है नक
व्यवहार कै से चलता है, इसका तानका कोंके नलये तो उिर दसू रे ढंगका है, पर
श्रद्धालुओकं ो इस प्रकार समझना चानहये नक जब स्वयं राधारानी इस पाञ्चभौनतक
ढाुँचेके पदेके भीतर नृत्मय कर रही हैं तो उनकी सवासमथाताशनक्त भी नवकनसत रहेगी
ही । इसीनलये ‘ये यथा माां प्रर्द्यन्ते ताां.....’ की बात भाईजीके नलये सवाथा लागू
पड रही है ।
भाईजीके इस पाञ्चभौनतक ढाुँचेके अन्दर राधारानी हैं, एक क्षणके नलये भी अपने
स्वरूपभूत ज्ञानसे अथाात् मैं राधा हू,ुँ इस ज्ञानसे वे नवचनलत नहीं होते, पर लोगोंकी
जैसी मान्यता उनके स्बन्धमें होगी, उसके अनुसार उनकी सवासमथाताशनक्तके कारण
व्यवहार यंत्रकी तरह हो जायगा । इस स्बन्धमें इतनी बातें हैं नक नलखते-नलखते
समर्पणमूर्त्तप श्रीर्त्िम्मनलालजी गोस्वामी ११६
प्रकार एककालीन सवाज्ञता एवं मुग्धता श्रीराधाजीमें रहती है, उसी प्रकार भाईजी एक
कालमें ही ननरन्तर राधाभावानवष्ट रहकर भी जगतको ् हनुमानप्रसादका अनभमानी
बनकर मोनहत कर सकते हैं । इनका दवा लेना, साधनकी चेष्टा करना, साधना न
होनेपर उदास होना, उन्ननतकी चेष्टा करते हुए देखे जाना सवाथा जगतकी ् नशक्षाके नलये
लीलामात्र है । वस्तुतः उसी समय ये इस ज्ञानसे स्पन्न हैं नक मैं राधा हू ुँ और नजस
समय आप उन्हें कन्यादान करते हुए देखते हैं ठीक उसी समय, उसी क्षण उस ढाुँचेके
भीतर नदव्य देशमें एक ऐसी नचन्मयी लीला चलती रहती है नक नजसकी कल्पना भी
हम लोगोंकी मनलन बुनद्ध नहीं कर सकती ।
बहुत ही संक्षेपमें, सूक्ष्म शरीरका श्रीनप्रयाजीके स्वरूपमें पररणत होना क्या है, यह
अपनी मानवी बुनद्धके आधारपर आपसे इतनी बातें नलखी है । आप इससे अनधक
अच्छा सोच सकते हों तो हमें पता नहीं, पर चचाा मंगलकारी है, इसनलये ऐसा नलख
नदया । और यनद नहीं सोच सकते होंगे तो इससे थोडी अवश्य सहायता नमल ही
सकती है । इस बातको नवचार करें नक मरनेके बाद जो इनन्ियाुँ गोलकोंके सनहत
मुदाारूपमें उपलब्ध होता है, उतने ही का नाम स्थूल शरीर है, बाकी १७ तत्त्वोंके
शरीरको सूक्ष्म शरीर कहा जाता है और उन महात्ममाने यह कहा नक नबल्कु ल
नप्रयाजीका स्वरूप और सूक्ष्म शरीर । मैंने ज्यों-का-त्मयों उनका शब्द ही कल पत्र
पढ़कर याद कर नलया है ।
इतनी बात तो अवश्य है नक भाईजीका आुँखें खोलना, आुँखें मीचना, नकसीकी
ओर देखना—सब चेष्टा श्रीराधारानीकी चेष्टा है । सच माननये, ऐसा दलु ाभ मौका
नमलना बडा ही कनठन है । यनद के वल कोई उन्मुख हो जाये, तो उसे इसकी सत्मयताका
प्रमाण खोजना नहीं पडेगा । और जो उन्मुख होकर इन्हें आत्ममसमपाण कर दे, उसके
नलये तो कहना ही क्या है । नकसीपर भी कृ पाप्रकाश करते समय भी यह समझना
समर्पणमूर्त्तप श्रीर्त्िम्मनलालजी गोस्वामी ११८
चानहये नक यह ठीक उसी प्रकार होता है नक नजस प्रकार नकसीने राधाजीकी उपासना
की और राधाजी उससे प्रसन्न होकर उसे फल देनेके नलये आयें तो राधाजीका उस
समय जो यह ज्ञान नक मैं राधा हू,ुँ अक्षुण्ण बना रहता है । वैसे ही भाईजी दजु ारीजीको
इनकी भावनाके अनुसार, मेरी भावनाके अनुसार मुझे, आपको ( गोस्वामीजीको )
आपकी भावनाके अनुसार फल देते हुए भी ननरन्तर राधाभावानवष्ट रहते हैं । इनके
अन्तःकरणमें उसी साधककी नवशेष स्फू नता होगी, जो इन्हें आत्ममसमपाण कर देगा,
उसीको अपनी नवशेष कृ पा करके साधन मागापर बढ़ा ले जायेंगे, नहीं तो जो साधारण
वस्तुगणु का ननयम है, वही सबके नलये लागू होगा । इसीनलये यद्यनप नकसी भी भावसे
इनके साथ स्बन्ध हो, पररणाममें तो अनन्त मंगलकारी है, ननश्चय है । नजस प्रकार
श्रीकृ ष्णके दशानोंसे कृ ताथा उनके अवतार-कालमें सभी हुए, पर दयु ोधनको अन्ततक
जादगू र ही दीखते रहे और भीष्मको पुरुषोिम पुरुष, वैसे ही भाईजीसे स्बद्ध समस्त
प्राणी कृ ताथा हो जायेंगे, ननश्चय हो जायेंगे, परन्तु इनके वास्तनवक स्वरूपका ज्ञान
होकर इनके संगका वास्तनवक आनन्द तो समपाण करनेवालेके नलये ही स्भव है ।
जब मैंने पहले-पहल सुना तो मुझे हठात् नवश्वास नहीं हुआ—सोचा, ऐसा कै से
हो सकता है ? कई प्रकारकी सानत्त्वक शंकाएुँ उपनस्थत हुई ं । पर ये शब्द बरबस मुझे
िानते थे । बहुत नदनोंके बाद स्वयं भाईजी एक नदन व्रजप्रेम, गोपी-प्रेमपर प्रवचन
करते हुए कु छ ऐसे-ऐसे मानमाक कई वाक्य बोल गये, तब इसकी कुं जी नमली । उस
नदन समझा नक ऐसी नस्थनत तो स्भव है और खूब स्भव है, पर यह अवश्य ही
नकसी नबरले महात्ममाके जीवनमें होती है, हुई होगी और होगी ।
श्रीभाईजीकी कृ र्ा-प्रार्त्प्तका एकमात्र साधन —
अनन्यता
[ सां० १९९८ र्त्व० र्ौष कृ ० ९ को र्रम र्ूज्य श्रीराधािािा िारा र्ूज्य श्रीर्त्िम्मनलालजी
गोस्वामी आर्त्दको र्त्लखकर प्रदान र्त्कया गया प्रिोधन ]
लीला संवरण करते समय अहैतक ु दानसे कु छ आपको भी दे जायुँ । इसका रूप है
— अंततक अपने मनमें इनसे आशा रखनी न छोडें । ‘भाईजी ! मैं आपकी कृ पाके
बलपर ही, अपनी ओरसे आपको नहीं छोडुँगा, यह मेरा दृढ़ नवचार है’ — इस
प्रकारका भाव रखकर चाहे प्रारब्धवश कहीं भी रहना पडे, पर माननसक स्बन्ध बनाये
रखनेपर, शारीररक संग भी बीच-बीचमें इनकी कृ पासे अवश्य नमलेगा । भगवान् और
भाईजीके पास नसफाररशकी जरूरत नहीं है, नबल्कु ल नहीं है । पर लडकपनवश कु छ
खूब अच्छी तरह बातें सजाकर नजस नकसीकी भी चचाा हमने चलायी है, मैं देखता हू ुँ
वे तो कृ पा उडेलनेके नलये तैयार हैं, पर हम ग्रहण करनेको तैयार नहीं, इसका क्या
उपाय है ! इनकी कृ पाके एक कणका करोडवाुँ अंश आप नकसी प्रकार ग्रहण कर लें
तो नफर नाम छू िे ही नहीं । मैं जो इनके पास हू,ुँ सवाथा इनकी कृ पा ही हमें रखे हुए है
। यहाुँ नजतने व्यनक्त मेरी दृनष्टमें हैं, उनमें सबसे अनधक मेरी दृनष्ट गोस्वामीजीकी ओर
आकनषात होती है और मैं सोचता हू ुँ नक यनद चाहें तो ये ऐसे बननेकी चेष्टा कर सकते
हैं । कृ पामें नवषमता नहीं है, पर चाहकी कमीके कारण लोगोंको कई पररनस्थनतयोंका
प्रनतबंधक लगा हुआ है । पर आपपर ( श्रीगोस्वामीजीपर ) चाहे आपकी चाहके
कारण अथवा अननवाचनीय सौभाग्यवश हो, आप इस पररनस्थनतमें हैं नक इसकी
साधना कर सकते हैं । भाईजीका स्नेह कहीं भी कम-वेशी नहीं है, पर आपपर (
श्रीगोस्वामीजीपर ) वह नकसी अंशमें मुझे प्रकि-सा दीखता है ।
इनके ( श्रीभाईजीके ) साथ रहकर भी हमारी नस्थनत बदलती नहीं, इसका क्या
कारण है ? पहली बात यह है नक जैसी सच्ची लगन होनी चानहये, वैसी लगनवाली
मंडलीका अभाव-सा है और दसू री बात है इनकी कही हुई बातपर बहुत कम ध्यान
देना । तीसरी बात है सांसाररक प्रपञ्चका बाहुल्य । यनद दसू री और तीसरी बात न
होकर भी सच्ची लगन रखनेवाली मण्डली बन जाय, नजसकी इनमें सचमुच श्रद्धा हो
और सुननेकी लगन हो, तो नफर बाध्य होकर भाईजीके मनमें भगवानकी ् प्रेरणा हो
समर्पणमूर्त्तप श्रीर्त्िम्मनलालजी गोस्वामी १२१
जाय नजससे वे हुँसाते-नखलाते भी नस्थनत सवाथा बदल दें । बात मेरी समझमें ऐसी
आती है नक भाईजी अब इस जगतसे् बहुत ऊुँ चे उठ गये हैं और ननरन्तर उठते ही जा
रहे हैं, अतः अब इनकी ओरसे चलाकर लोगोंकी श्रद्धा-प्रेम बढ़ानेकी चेष्टा
अस्भव-सी है । पर मंडली ऐसी जुि जाये जो भाईजीको तंग करनेका उद्देश्य तो रखे
नहीं, पर मन-ही-मन इनकी बात सुननी चाहे तो नफर अपने-आप इनके द्वारा ऐसी
चेष्टा हो सकती है नक सब कोई आकनषात हो जायुँ । ये जो बातें कहते हैं नक ‘ऐसा
करो’, तो उसके करनेकी सच्ची ननयत लेकर बढ़नेकी चेष्टा यनद मनुष्य करे तो ऐसी
कोई बात नहीं नक वह चेष्टा सफल हो—पूरी हो, यह शता नहीं है । शता यह है नक
चलनेकी चेष्टा करनी है । यह भी हमलोगोंसे नहीं होता, इसनलये व्यनक्तगत रूपसे ही
लाभ उठानेकी चेष्टा होनी चानहये । और उसकी प्रारन्भक प्रनक्रया है सचमुच अपनी
नीयतसे ( आवश्यक काम करनेके बाद ) भजनकी तत्मपरतापूणा चेष्टा करनी । भजन
करके देनखये इनकी कृ पाकी धारा बहती हुई नदखायी देगी । और आज जो इनका
स्वरूप दीखता है, उससे अत्मयन्त नवलक्षण रूप दीखेगा । ननरन्तर नवलक्षणता बढ़ती
ही जायगी । पाररवाररक आसनक्त इतनी अनधक है नक इस समय यहाुँ हैं इसनलये यह
भाव है, यहाुँसे जाते ही यह भी भूल जाइयेगा ।
तुलसीकी उपासना श्रीराधारानीने की थी श्रीकृ ष्णके साथ नमलन होनेके नलये ।
कल्पभेदसे तुलसीकी मनहमा मैं देख रहा था, आपलोग सुनेंगे तो बहुतोंको नवश्वास ही
नहीं होगा नक इतनी मनहमा सच नहीं है । यहाुँतक भगवान् शंकरने कहा है नक जलती
हुई नचतामें यनद तुलसी काष्ठका एक नतनका भी प्राणीके भाग्यसे पड जाये तो नफर
उसी क्षण नवष्णु-पाषाद उसे वैकुण्ठ ले जाते हैं । नत्रकालज्ञ ऋनषयोंपर अनवश्वास मनकी
मनलनताके कारण ही होता है । सचमुच भजन यनद हो तो प्रत्मयक्षकी तरह सब बातें
अनुभवमें आने लगती हैं । भजन नबना भगवान् या महापुरुषकी कृ पा हो ही नहीं सकती
। नफर भजन क्यों नहीं होता ? मैंने अपने जीवनमें यह प्रत्मयक्ष अनुभव नकया है नक
समर्पणमूर्त्तप श्रीर्त्िम्मनलालजी गोस्वामी १२२
सबकु छ उनकी कृ पासे होता है, अहंकार कु छ भी काम नहीं देता । यह इच्छा हो नक
मैं करूुँ, तब भजन होता है । यह होता है उनकी दयासे ही । ‘हम करते नहीं जैसा आप
कहते हैं’, इसका उिर हमें नहीं मालूम पर सोचता हू ुँ नक हम क्यों नहीं करते, इसका
क्या उिर है ! हमें ऐसा मालूम पडता है नक जबतक ‘हम कर लेंगे’ — ऐसा अनभमान
रहता है, तबतक नहीं होता ।
श्रीभाईजीके मर्त्हमाकी कुछ और गम्भीर िातें
[ माघ शु० ८, सां. १९९८ र्त्व. तदनुसार २४ जनवरी, सन् १९४२ ई. को र्रम र्ूज्य
श्रीराधािािािारा श्रीर्त्िम्मनलालजी गोस्वामी एवां श्रीगम्भीरिन्दजी दज
ु ारीको र्त्लखकर
र्त्दया गया प्रिोधन ]
हैं, लोगोंकी दृनष्टमें यह बात रहेगी नक वे रे नडयो बडे चावसे सुन रहे हैं, पर ठीक उसी
क्षण एक सवाथा सनच्चदानन्दमयी लीला वहाुँ प्रकि रूपसे चल रही है । उस लीलामें
और आपमें इतना ही व्यवधान है नक पाञ्चभौनतकताका पदाा पडा हुआ है । नजस
प्रकार समस्त वृन्दावनकी लीलाका एक नचत्र खींचकर उसे एक नमट्टीके बतानसे ढुँक
दें, तो नमट्टीके बतानके भीतरका रहस्य नजसे मालूम नहीं है, उसको यही दीखेगा नक
नमट्टीका पात्र है, भीतर क्या है वह जान ही नहीं सकता । वैसे ही नजसे भाईजीके
रहस्यका पता नहीं, वह जान ही नहीं सकता नक इस पाञ्चभौनतक ढाुँचेसे जो आवाज
आती है—‘भाया दल ू ीचन्द ! दवाई ला तो ।’ यह आवाज सवाथा श्रीराधाकृ ष्णकी
अनचन्त्मय नदव्य सवासमथाताशनक्तके कारण प्रारब्ध व्यवहारके नलये उनके द्वारा कही
गयी है, और ठीक उस समय कही गयी है नक नजस समय एक नवलक्षण लीला वहाुँ
चल रही है । शब्दमें ताकत नहीं नक मैं समझा सकूुँ , मेरी बुनद्ध नजस बातको ठीक
समझ रही है, वह वाणीमें आ ही नहीं सकती । वह तो सवाथा उनकी कृ पासे ही संभव
है । आप नीचे हैं, ऊुँ चे हैं यह प्रश्न नहीं है, प्रश्न है नक मैं सोचकर भी उसे ठीक-ठीक
भाषाबद्ध नहीं कर पाता तो क्या करूुँ । अस्तु, ऐसा समझें नक समस्त भूत, भनवष्य,
वतामानकी लीलाके आधारस्वरूप जो श्रीराधाकृ ष्ण हैं, वे स्वयं इस ढाुँचेमें पाुँच-सात
वषा पहलेसे अनभव्यक्त हो गये हैं और तबतक रहेंगे जबतक यह पाञ्चभौनतक ढाुँचा
चलेगा । उसमें होगा क्या नक नजसकी भावना जैसी है उसीके अनुरूप प्रतीनत होगी ।
वेनीमाधव चाहें तो इन्हें वहाुँ श्रीसीतारामके रूपमें दशान होगा; क्योंनक भगवान् श्रीकृ ष्ण
ही राम हैं और राधारानी ही सीता हैं । ठीक-ठीक साधना पूरी होते ही इस ढाुँचेकी
जगह वह नदव्य लीला ही दीखेगी । स्वयं भगवान् श्रीकृ ष्णके अवतारमें और यहाुँकी
नस्थनतमें यह अन्तर है नक अवतार-कालमें जो अवतरण होता है, वह पाञ्चभौनतक
ढाुँचेका आधार लेकर नहीं होता, वह होता है सवाथा आत्मममायाकृ त, जहाुँ
पाञ्चभौनतकताका स्बन्ध नहीं है । जो योगमायाका पदाा है, वह भी पाञ्चभौनतक पदाा
समर्पणमूर्त्तप श्रीर्त्िम्मनलालजी गोस्वामी १२५
नहीं है । अतः यहाुँ जो अवतार है उसे आप प्रकारान्तरसे स्वयं भगवान् श्रीकृ ष्णका
अपनी आह्लानदनी शनक्त श्रीराधाके साथ आवेशावतारके रूपमें हुए हैं — ऐसा समझें
। आजसे पाुँच-सात वषा पूवा अवतररत हुए हैं और पाञ्चभौनतक ढाुँचेके प्रारब्धशेषतक
यह अवतार रहेगा ।
मेरी यह धारणा है, तुच्छ समझ है नक श्रीराधारानीके साथ अभेद नकसी-नकसी
नबरले महापुरुषका ही होता है, नजसका उदाहरण अबतक के वल महाप्रभु हैं, और
कोई मेरी दृनष्टमें, शास्त्रमें या आधुननक सन्तोंमें नहीं है । सारांश यह है नक नजस क्रममें
साधना बढ़ी उसी क्रममें ऊपर उठते-उठते भाईजी इतने ऊपर उठ गये नक स्वयं
श्रीराधारानीका साक्षात,् नजसके नलये पद्मपुराणमें नारदजीसे स्वयं श्रीगोपीजनोंने कहा
है नक इनके इस रूपका दशान ब्रह्मा एवं शंकरके नलये भी दलु ाभ है, उस रूपका दशान,
नारद तु्हें हुआ है, वह दशान भाईजीको हुआ और नफर भाईजी उसीमें लीन हो गये ।
जो जीव हनुमानप्रसादके कलेवरका आश्रय करके ४०-५० वषा पहले पैदा हुआ था,
वह ‘मैं हू’ुँ , इस अहंकारको सवाथा ‘मैं राधा हू’ुँ — इस रूपमें नवलीन करके
श्रीराधारानीके आनश्रत है, वह सवाथा उस सनच्चदानन्दमय राज्यके द्वारा प्रकानशत होता
है । उस वागेनन्ियमें जो बोली आती है, उस नचन्मय राज्यकी बोली आती है । प्रत्मयेक
इनन्ियोंकी प्रत्मयेक चेष्टा, नजस चेतनके आधारपर हमलोगोंकी चलती है, अथाात्
आत्ममाके रहनेपर ही नलंगशरीरकी जो चेष्टा होती है, उनमें उस राज्यका प्रकाश आता
है, जो सवाथा पूणा सनच्चदानन्दमय है, जीवकी तरह अणु नहीं है । इसीनलये इनके
स्पका में आनेवाले पुरुषका भी ऊुँ चे-से-ऊुँ चा उज्ज्वलतम भनवष्य है ।
भगवानकी ् सवासमथाताशनक्तके कारण यह नकसीको पता भी नहीं चलेगा । सुनकर
भी नवश्वास उसी मात्रामें होगा, नजस मात्रामें भजनके द्वारा, इनकी कृ पा प्रकानशत होकर
इस बातको ग्रहण करनेमें अन्तःकरण समथा हो सका है । यह मैं स्वयं अनुभव करता
समर्पणमूर्त्तप श्रीर्त्िम्मनलालजी गोस्वामी १२६
दशान होगा, उस समय यह देशका प्रश्न ही नहीं रह जायेगा । वहाुँका देश नबल्कु ल
नचन्मय हो जायेगा, जो सवाथा अननवाचनीय है । भाईजीने एकबार मुझसे कहा था —
‘दशान होते समय यह देश नबल्कु ल नहीं रहता, वह सवाथा सनच्चदानन्दमय हो जाता
है ।’ आपका प्रश्न जो मैंने समझा, इसके उिरमें यही बात समझें नक पाञ्चभौनतकताकी
सीमामें तभीतक बाुँध रहा हू,ुँ जबतक नक उस लीलाका दशान नहीं हो रहा है । क्योंनक
वह लीला ही सवाव्यापकतत्त्व है, वह आपके अन्तःकरणमें भी है, अणु-अणुमें है,
पर वहाुँ ( श्रीभाईजीके स्थानपर ) वह अनभव्यक्त है । भगवान् श्रीकृ ष्ण जैसे एक सौ
पच्चीस वषाके नलये, समस्त रूपोंमें सब लीलाओंमें व्यापक भी थे, वैसे ही प्रानिके
नदनसे लेकर प्रारब्ध-शेषतक श्रीयुगल सरकारकी सनच्चदानन्दमयी लीला उस ढाुँचेका
पदाा लेकर सबके सामने अनभव्यक्त है । अनभव्यक्त होते हुए भी वह सवाव्यापक है ।
पता नहीं समाधान हुआ नक नहीं । ( नकसी वस्तुकी ओर संकेत करते हुए — ) इसमें
भी गोलोक है, पर अनभव्यक्त नहीं है ।
बडी सुन्दर बात बतलाता हू ुँ । यही तो कराना चाहता हू ुँ । साध्य-साधन यही है,
बार-बार कह चुका हू ुँ । आज सुबह बतानेकी स्फु रणा हुई थी । सोचा तो कई बार था
। यद्यनप मेरे पास कोई प्रमाण नहीं है । महात्ममाजीके पत्रके अनुसार तो के वल सूक्ष्म
शरीरके नचन्मय हो जानेका प्रमाण नमलता है । पर एक बात ध्यानमें आयी —
श्रीवृन्दावनतत्त्वपर नवचार करते हुए । शास्त्रोंके प्रमाणसे एवं युनक्तयोंसे पहचान नमलती
है नक स्वयं नजतने नदन अवतार रहता है, उतने नदनतक ही नहीं, वह स्थान सदाके
नलये नचन्मय हो जाता है, इसीनलये व्रजवासी महात्ममाओंकी हजारों वानणयाुँ, हजारों
पद्य ही नहीं, ऋनषप्रणीत ग्रन्थमें भी अवतारका नतरोभाव होनेपर भी यह प्रमाण नमलता
है — सनच्चदानन्दमयी भू-रेख ! अतः वह जमीन जो नमट्टीकी है, वह नचन्मय हो
गयी, तो नफर यह पाञ्चभौनतक ढाुँचा भी तो नचन्मय ही होना चानहये । क्योंनक
पृथ्वीतत्त्वमें तो कोई अन्तर ही नहीं है । इतना तो शास्त्रीय प्रमाण मैं देख चुका हू ुँ नक
समर्पणमूर्त्तप श्रीर्त्िम्मनलालजी गोस्वामी १२८
देनखये रिीभर भी हताश अथवा ननराश होनेकी जरूरत नहीं है । जैसा संग अभी
बन रहा है, यनद वह छू िे नहीं तो नफर कोई दसू रा प्रश्न ही नहीं उठता । और शायद
कोई भयानक कु संग लग जाय तभी यह संग शायद छू िे, नहीं तो भाईजीकी कृ पाकी
रस्सीमें हमलोग एकबार बुँध चुके हैं, अब शनक्त नहीं नक चाहनेपर भी चले जायुँ ।
जायेंगे भी तो कु छ नदन घूम-नफरकर वापस आना पडेगा, उनसे दरू रह ही नहीं सकते,
क्योंनक यहाुँ रह रहे हैं उनकी कृ पासे, इसमें आपका रिीभर भी पुरुषाथा नहीं है । वे
देखेंगे, दसू रे शब्दोंमें नकसीसे खेल करना चाहेंगे, तब कु छ नदनके नलये वह भले ही
चले जायुँ, नहीं तो असंभव है, कोई जा ही नहीं सकता । अस्तु, नजतना संग हो रहा
है, उतना ही होता जाय तो नफर नननश्चत समनझये, नबना नकसी संशयके इस बातको
मान लीनजये नक कम-से-कम ५-७ आदमी जो मेरी दृनष्टमें हैं, उनपर अपने-आप
भाईजीकी कृ पा प्रकानशत होकर एक क्षणमें सारी कलुषता नमिाकर वे लोग भाईजीके
सच्चे संगके अनधकारी बन जायुँगे, तथा यनद भाईजी अपनी लीला पहले भी संवरण
कर लें, तो उसके प्रारब्ध शेष रहनेतक उसकी सुँभाल करें गे । यनद थोडा भी उन्मुख
हुआ तो नफर प्रत्मयक्ष दशान देकर स्हालेंगे, नहीं तो अलनक्षत रूपमें स्हालेंगे । सारांश
यह है नक कु छ व्यनक्त जो इस प्रकार भाईजीके प्रनत भाव रखनेवाले हैं, वे चाहे नकतने
भी मनलन क्यों न हों, एक क्षणमें भाईजी अपनी अहैतुकी कृ पासे उन्हें अपने साथ ले
जानेके अनधकारी बना लेंगे । इनके नलये कु छ भी अस्भव नहीं है, कोई पररनस्थनत
इनकी इच्छामें बाधा नहीं डाल सकती । नजस प्रकार श्रीराधाकृ ष्णपर कोई ननयम लागू
नहीं, वे सवातंत्र-स्वतंत्र हैं, वैसे ही इनपर भी कोई ननयम लागू नहीं, रिीभर भी नकसी
समर्पणमूर्त्तप श्रीर्त्िम्मनलालजी गोस्वामी १३०
प्रकारका बन्धन नहीं है । ये जो चाहें सो कर सकते हैं । अतः इनके नलये एक क्षणमें
नकसीको बहुत ऊुँ चा अनधकारी बना देना हुँसी-खेल है । आपसे ( श्रीगोस्वामीजीसे
) उस नदन कह चुका हू,ुँ पद्मपुराण वाली बात । एक भक्तके नलये श्रीकृ ष्णने एक
गोपीसे कहा — ‘नप्रयतमे ! इसे अपने समान बना लो ।’ उसी क्षण उस गोपीने उसके
साथ अभेद नचंतन करके एक क्षणमें उसे गोपी बनाकर उसे श्रीकृ ष्णके चरणोंमें बैठा
नदया और वीणा देकर कहा — ‘मेरे प्राणनाथको भजन सुनाया कर ।’ इसी प्रकार
अथवा इससे भी नवलक्षण ढंगसे, भाईजी उन ५-७ व्यनक्तयोंको एक क्षणमें, अपने
समान बनाकर श्रीकृ ष्णकी सेवामें अपने साथ रख लेंगे, ऐसा मेरा दृढ़ नवश्वास है ।
नवश्वास इसनलये कहता हू ुँ नक मैंने भाईजीसे ये बातें कभी पूछी नहीं, पर हमें सन्देह
नहीं है, नबल्कु ल रिीभर भी शंका नहीं है । हाुँ, यह भय कभी-कभी अवश्य होता है
— नकसी ऐसे कारणसे, नजनके नवषयमें कहा नहीं जा सकता नक उसमें क्या हेतु है
— भाईजीको खेल करनेकी इच्छा हो जाये, नकसीको कु छ नदन घुमाना-नफराना
चाहने लग जायुँ तो बेचारा कु छ देर बाद पहुचुँ े । यह लीला क्यों होगी, कु छ कहा नहीं
जा सकता — इनमें नवषमता है नहीं नक एकको करें और दसू रे को छोड दें । पर
शास्त्रोंमें जय-नवजय पाषादोंकी बात आप सुनते हैं वैसे ही इनके द्वारा भी ऐसी लीला
कोई हो जाय तो कोई आश्चया नहीं है । यनद नहीं हुई तो नफर वे ५-७ व्यनक्त सब-
के -सब सवोिम एक प्रकारकी ही गनत अथाात् जहाुँतक वाणीकी सामथ्या है, मनकी
पहुचुँ है, उसके अनुसार सवोिम पारमानथाक नस्थनत—भाईजीके अनुगत रहकर
अनन्तकालके नलये, कभी भी समाि न होनेवाले समयके नलये, श्रीकृ ष्णकी सेवामयी
लीलामें अनधकार कर लेंगे ।
मैं जो बार-बार आप लोगोंसे अनुगत होनेके नलये कहता हू,ुँ उसका कारण अपनी
समझमें मैंने यही सोचा है नक कहीं भाईजीकी कृ पाशनक्तका दरुु पयोग नहीं होने लग
जाये । कृ पाशनक्तका दरुु पयोग होनेपर नफर साथ रखनेमें देरीके दंडके नलये शायद उसे
समर्पणमूर्त्तप श्रीर्त्िम्मनलालजी गोस्वामी १३१
अवश्य तैयार रहना चानहये । अनुगतके सभी अपराध माफ हैं, उसके सभी अपराध
भाईजी अपना अपराध मानेंगे, अतः उसके नलये सवाथा संशयहीन, ननष्कण्िक,
भयहीन भनवष्य, अत्मयन्त मङ्गलमय भनवष्य नननश्चत है, पर उन ५-७ में जो अनुगत
होनेकी चेष्टा प्रकानशत नहीं करेंगे, उनके नलये शायद देरी हो सकती है । अनुगत हो
जाना तो सवाथा उनकी कृ पासे ही होगा, पर चेष्टा, लालसा, हानदाक उत्मकण्ठाका प्रकाश
अंतःकरणमें होना ही चानहये । नहीं तो आप नवचारें , नववेकसे नवचारें — जो सवाथा
उनका अनुगत हो गया है, यनद उसे कु छ नवशेष पुरस्कार नहीं नमले तो अनुगत होना
एक व्यथा चीज हो गयी । नफर तो सब धान बाइस पसेरी — सवाथा सवास्व न्यौछावर
कर देनेवालेके नलये भाईजीने वही नकया जो एक साधारणके नलये नकया । यह भागवती
ननयम नहीं है, यद्यनप वे ( पू. श्रीभाईजी ) हैं सवातंत्रस्वतंत्र, कोई बन्धन नहीं है, पर
अपनी ही लीलाकी सांगोपांगता ठीक पूरी करनेके नलये, अनुगत एवं जो अनुगत नहीं
है उसमें जल्दी एवं देरीका भेद प्रायः हो जाता है । यह ठीक है नक ( जीवनके ) अंनतम
क्षणतक अनुगत हो जाये तो नफर कोई बात नहीं क्योंनक वह अनुगतकी श्रेणीमें आ
गया, नफर यह नवचार नहीं नक वह इतने नदनसे अनुगत है, यह तो अभी हुआ है; वहाुँ
कालका प्रश्न ही नहीं है, वहाुँ सब वतामानकाल है । अतः अनुगत होनेकी लालसा
अवश्य जागृत करनी चानहये । इसमें रिीभर भी कोई पररश्रम नहीं है । गोस्वामीजी एवं
दजु ारीजी मेरी इस बातको कई कारणोंसे कु छ ज्यादा समझ सकें गे । इस पाञ्चभौनतक
ढाुँचेके भीतर इतनी नवलक्षण वस्तु है नक नजतनी श्रद्धा है, उससे अनधक श्रद्धाकी
आवश्यकता नहीं है, के वल उन्मुख होनेकी जरूरत है । उन्मुख होते ही वह नवलक्षण
वस्तुगणु जो अत्मयन्त स्पष्टरूपसे वहाुँ उस ढाुँचेमें अनभव्यक्त है, स्वयं उसे अपने ओर
चुंबककी तरह खींच लेगी । ‘नहीं खींच रही है’ — इसमें मेरी तुच्छ बुनद्धके अनुसार
यही कह सकता हू ुँ नक श्रद्धा काफी है, पर उन्मुखता नहीं है । नवषयासनक्त, पाररवाररक
आसनक्त, लौनकक स्वाथा बीचमें पडा है, वह कृ पाके प्रवाहको रोक देता है । यद्यनप
समर्पणमूर्त्तप श्रीर्त्िम्मनलालजी गोस्वामी १३२
[ र्रम र्ूज्य श्रीराधािािा िारा फाल्गुन शु० १५, सां. २०१३ र्त्व. को कन्याकु मारीमें
र्ूज्य श्रीर्त्िम्मनलालजी गोस्वामीको र्त्दया गया उर्देश ]
उस नदवस फाल्गुन पूनणामा थी, नजस नदन पू. गुरुदेव श्रीराधाबाबा एवं श्रीपोद्दार
महाराज भारतवषाकी दनक्षणी सीमा कन्याकु मारी पहुचुँ े थे । पू. गुरुदेव कह रहे थे नक
नवश्वकी एक-से-एक नवस्मयजनक वस्तुएुँ प्रपञ्च-ननमााताके हाथों सृष्ट हुई हैं । इनमें
एक यह दनक्षण भारतका भूनमनवन्द ु भी है, जहाुँसे दनक्षणकी ओर मुख करनेपर पृथ्वीके
दनक्षणी ध्रुवतक मात्र जल-ही-जल नमलेगा, कहीं भी भूनमका एक लघु खण्ड भी
दृनष्टगोचर नहीं हो पायेगा । इसी प्रकार यनद वह व्यनक्त उिरानभमुख हो जायेगा तो उसे
उिरी ध्रुवतक कहीं भी जलके दशान नहीं होंगे, मात्र पृथ्वी-ही-पृथ्वी दृनष्टगोचर होगी
। पू. गुरुदेव इसीकी समतुलना आध्यानत्ममक दृनष्टसे करते हुए कह रहे थे नक स्रष्टाकी
इस नननमानतसे मानव यनद नशक्षा ले ले और मात्र भगवन्नामका आश्रय ले ले, तो उसके
भी जीवनमें एक ऐसा नवन्द ु आ जाता है, नजसके आगे नफर प्राकृ त माया एवं
लौनककता शेष रह ही नहीं जाती । शेष रह जाता है मात्र भावोल्लास अथवा ज्ञानोल्लास
। वह या तो मुनक्तसमुिमें डू ब जाता है, और यनद इस मुनक्तनसन्धुके व्यामोहसे वह पार
हो जाय तो उस ध्रुवतक उसकी पहुचुँ हो जाती है, जहाुँ मात्र तत्मसख
ु ी भाव-ही-भाव,
अगाध प्रीनत-ही-प्रीनतका साम्राज्य है ।
पू. गुरुदेव गोस्वामी श्रीनच्मनलालजीसे कह रहे थे — “गोस्वामीपाद ! आज
फाल्गुनी पूनणामा होनेके कारण लोग होनलका-दहन करें गे, आप मेरे प्यारकी लाज
रख लीनजए, आप एक व्यनक्त तो ऐसे हों जो संसारमें मत्मसुखकी होली जला दें । यह
मत्मसुखकी अमावस्या नमि जाय और श्रीकृ ष्णसुखकी जय हो जाय, नफर तो आपकी
हृदयभूनमपर तीनों नदशाओंसे प्रीनतभावका महानसन्धु उमड उठे गा । आपके स्मुख तो
होंगे रसराज ब्रजेन्िनन्दन पलक-पाुँवडा नबछाये और पूवा एवं पनश्चम दोनों ओर होगा
समर्पणमूर्त्तप श्रीर्त्िम्मनलालजी गोस्वामी १३५
सररता गंगा हो, यमुना हो, कृ ष्णा हो, गोदावरी हो, एवं चाहे कावेरी ही क्यों न हो,
अब नकसकी सामथ्या है नक इस सन्मनश्रत जलको पृथक्-पृथक् कर सके ।”
“नजस प्रेमीका मानस-नवन्द ु अपने प्रेमास्पद रसनसद्ध सन्त रूप नसन्धुमें नवलीन
हो चुका है, उस प्रेमी मनका अपने प्रेमास्पदसे पृथकत्मव कर सकना, पृथक् हो सकना
सवाथा असंभव है ।”
पू. गुरुदेव श्रीराधाबाबाके कहनेसे गोस्वामीजीने उन्हें उस रात नन्न पद
सुनाया—
िलौ री आज ब्रजराज मुख र्त्नरर्त्खये
लोक की लाज सौं काज कहा सरैगो ।
िहुरर कोउ कहैगो स्याम के र्त्ढांग गयी
याहु ते अर्त्धक कोउ और कहा कहैगो ॥
नार्त्ििे लगी तो फे र घूाँघट कहा
सूर रन िढे र्ै कौन ते डरैगो ।
र्त्नरर्त्खये रूर् नारायण हरर स्याम कौ
िहुरर ऐसो सखी दाव कि र्रैगो ॥
यह पद श्रीगोस्वामीजीकी सुमधुरतम स्वरलहरीमें सुनते-सुनते पू. गुरुदेवके मनने
जागनतक धरातल ही छोड नदया । गोस्वामीजीके गायनसे वे कहीं ‘अन्यत्र’ ही चले
गये थे । क्या नदवस, क्या रानत्र, क्या भोर, क्या सायं — पू. गुरुदेव जब अपने
लीलाराज्यमें उद्दीनपत हुए डू ब जाते थे, तो नफर काल वहाुँ रहता ही कहाुँ था ?
समर्पणमूर्त्तप श्रीर्त्िम्मनलालजी गोस्वामी १३९
“गोस्वामीजी ! हम भले न समझें, नजसे जगत् प्रनतकू लताकी नस्थनत कहता है,
वह वस्तुतः हमारी नवश्वासहीनताका, हमारी अनास्थाका ही द्योतक है । ननश्चय ही उस
प्रनतकू लताके गभामें अनुकूलता-ही-अनुकूलता है । मेरा तो भगवत्मकृपापर नवनचत्र
नवश्वास रहा है । मैं तो सदैव यही मानता रहा हू ुँ नक भले अमुक काया आजतक
नकसीका कभी नहीं हुआ हो, परन्तु भगवान् मेरा यह काया कर ही देंगे । मैंने तो
भगवानकी ् इस दबु ालताको पकड रखा है नक यनद नकसी कायाके नलये कोई उनपर
ननभार हो जाय तो वे उसकी आशा कभी तोडते नहीं । भगवान् उसकी ननभारताकी
परीक्षा तो लेते हैं, परन्तु सच्चे ननभारकी आशा वे अवश्य पूरी कर देते हैं ।”
“कमाकानण्डयोंको अपनी साधनाका घोर अनभमान होता है, और ज्ञानी भगवानकी ्
सिाको ही मायोपानधक मानता है, इसीनलए दोनों – कमाकाण्डी एवं ज्ञानी इस
ब्रजरसका स्पशा नहीं कर पाते । यह ब्रजरस श्रीराधामुख रूपी पूणा चन्िमाको देखकर
श्रीकृ ष्णचन्ि एवं गोपीजनोंका उमडता आनन्दनसन्धु है । यह ब्रजरस बृन्दावनका
ननजस्व
है और वहीं सदैव उमडता है । इसे स्थूल बृन्दावन नगर नकं वा ब्रजमण्डलतक ही
पररनच्छन्न अथवा सीनमत नहीं समझना चानहये । यद्यनप यह भूनम-पररनच्छन्न ब्रज-
बृन्दावन भी उस नदव्य वृन्दावनी लीलाका रंगमंच रहा है । अतः इसका भी महत्मव
अवश्य है । नकन्तु सच्चा नचन्मय वृन्दावन तो नसद्ध रनसक सन्तोंके हृदय-पिलपर
अवतररत होता है ।”
“जो वृन्दावन सन्तकी अननवाचनीय अनुभूनतरूप परम नचन्मय है, उसका महत्मव
कु छ और ही है । यह नदव्य वृन्दावन तो ‘प्रकाशते क्वार्त्र् र्ात्रे’—नकसी महान्
भाग्यशालीके जीवनमें, उसके हृदयपिलपर प्रकानशत होता है । वह नसद्ध सन्त
समर्पणमूर्त्तप श्रीर्त्िम्मनलालजी गोस्वामी १४२
“जो भी हुआ हो, इन रूपोंमें मेरे नप्रयतम श्रीकृ ष्णने मुझसे जो खेल नकया है, ये
सभी रूप मुझे प्राणोंसे भी अनधक प्यारे हैं । अतः इनका कहीं मुझसे नवयोग होकर
प्रीनतका रंग फीका नहीं पड जाय, इस आशंकासे इन सभीको अपने साथ लेकर ही
जाऊुँ गी ।”
मैया तन्मय होगी दोनों दृगकी इन र्ुतलीमें, र्त्प्रयतम ।
र्त्जनमें अनार्त्द कालसे ही रहती यह दासी है, र्त्प्रयतम ॥
मेरी यह िर्त्हन र्त्मलेगी आ तुममें र्त्फर िेसरमें, र्त्प्रयतम ।
हम दोनोंकी, एवां र्त्र्ांजड़ा नीली द्युर्त्तमें वर्ुकी, र्त्प्रयतम ॥
“गोस्वामीजी ! इसे ननश्चय ही एक अमोघ एवं अकाट्य नवधान मान लीनजयेगा
नक मेरी अ.सौ. मैया रामदेई ( श्रीपोद्दार महाराजकी धमापत्मनी ) ननश्चय ही
सनच्चदानन्दकन्द मेरे नप्रयतम श्रीकृ ष्णके नेत्रोंकी दृगपुतलीमें तन्मय हो जायगी, नजसके
दृश्यरूपमें अनानदकालसे मैं—उनकी दासी रहती हू,ुँ एवं मेरी बनहन ( श्रीपोद्दार
महाराजकी सुपत्रु ी अ.सौ. सानवत्रीबाई ) प्रथमतया नप्रयतममें स्वयंमें एवं नफर हम
दोनोंकी बेसरमें आ नमलेगी । श्रीपोद्दार महाराज स्वयं जो नपंजडा बने मुझ पनक्षणीको
अपनेमें आश्रय नदये हैं, श्रीकृ ष्णके वपुकी नीली द्युनतमें तल्लीन हो उठें गे ।”
शर्त्क्त-साधना-सम्िन्धी र्त्वर्त्वध प्रश्न एवां उनके र्ू.
श्रीराधािािा िारा उतर
( र्ूज्य स्वामी श्रीकृ ष्णप्रेमजी )
अतः यही समझमें आता है नक समनष्ट चक्षु समग्र रूपका नवकासकिाा है और व्यनष्ट
चक्षु भोक्ता है । इसी प्रकार अन्यान्य इनन्ियोंके स्बन्धमें भी नवचार नकया जाय तो
यही तथ्य उजागर होता है नक समनष्ट भावापन्न पञ्चेनन्ियाुँ उसका भोग कर रही हैं ।
अब यनद हम अपनी इनन्ियोंका समाहार कर लें और उन्हें के न्िीभूत नकसी मूल
सिामें लीन कर लें तो उस समय यह स्थूल जगत् तो नदखना एवं अनुभव होना स्थनगत
हो ही जाता है, साथ ही इनन्ियोंका अभाव हो जानेसे उनकी स्थूल स्भोग स्भावना
भी समाि हो जाती है । परन्तु क्योंनक अभी भी नचत् क्षेत्रोंमें ज्ञानका संचार है, अतः
बनहःकरणोंका अभाव होकर अन्तःकरणका आनवभााव हो जाता है । इस
अन्तःकरणका भी क्योंनक समनष्ट जीव समुदाय अनुभव करता है, अतः यही अनुभव
होता है नक समनष्ट अन्तःकरणका अनभमानी तत्मव तो इसका िष्टा है और व्यनक्त इस
अन्तःकरणका ज्ञाता है । यह अन्तःकरण ही अन्तजागतको ् स्फु ररत करता है और जीव
स्वप्न-जगत् या आनतवानहक सूक्ष्म जगत्में प्रनवष्ट होता है ।
अब बाह्य इनन्ियोंकी भाुँनत अन्तःकरण भी ननरुद्धवृनिक अवस्थाको जब प्राि
होने लगता है तो अन्तजागत् या आनतवानहक सूक्ष्म जगत् भी लुि हो जाता है । इस
समय आनतवानहक जगतका ् भोक्ता भी घोर अज्ञानमें, चाहे ननिामें कहो, डू ब जाता है
। इस समय भोक्ताके न रहने पर जीव शुद्ध कारण भूनममें स्थान पाता है । इस समय
समनष्ट कारण नबन्दकु ा स्फु रणात्ममक कारण घोर अज्ञान ही दृश्य होता है और व्यनष्ट
कारण नबन्द ु तदात्ममक भावमें उसका दशान करता है । अब सौभाग्यवश यनद कोई
भाग्यवान् जीव इस मूल ग्रनन्थको भी भेद पाता है, तो वह मूल अनवद्याके नवलास
स्वरूप इस नमथ्या प्रपञ्चके पाश-जालसे सदा-सदाके नलये ननवृि हो जाता है,
छु िकारा पा जाता है ।
समर्पणमूर्त्तप श्रीर्त्िम्मनलालजी गोस्वामी १५०
उपयुाक्त नवचारसे यह प्रतीत होता है नक स्थूल, सूक्ष्म एवं कारण जगत् तदनुरूप
शनक्तके ही नवकास मात्र हैं । शनक्तके तीन नवभागों अथाात् कारण जगतका ् प्रकाशक–
आधार आत्ममा, सूक्ष्म जगतके् आधार — पृथ्वी, जल, अनि, वायु एवं आकाशके
अनधष्ठातृ देवता और स्थूल जगतके् आधार पञ्च स्थूल भूत — शनक्तकी तीन प्रकारकी
अवनस्थनतका अनुसरण करते हुए उसके पररणामस्वरूप कारण, सूक्ष्म और स्थूल —
इस नत्रनवध रूपोंमें प्रकि हो रहे हैं । इससे ठीक अनुभव होता है नक शनक्तके बनहमुाख
होकर घनीभूत अथवा स्थूलत्मवको प्राि करनेपर एक ओर जहाुँ भौनतक तत्मवोंका
आनवभााव होता है, दसू री ओर शनक्तके इसी प्रकार क्रमशः नवरल होते-होते
अन्तःसंकोच अवस्थाको प्राि होनेसे वही शनक्त आत्ममा अथवा नबन्द ु वाच्य हो जाती
है ।
अतएव यही स्पष्ट पररलनक्षत होता है नक तथाकनथत आत्ममा, देवता ( आकाश,
वायु, अनि, जल, पृथ्वीके अनधष्ठातृ देवता ) और स्थूल भूत—प्रानण-पदाथा, धन,
जन, महल, मकान, खेत, खनलहान, कीि, पशु-पक्षी, मानव एक ही आद्याशनक्तकी
नत्रनवध अवस्थाएुँ हैं । स्थूल, सूक्ष्म एवं कारण—यह नत्रनवध जगत् एक ही मूल सिाके
तीन प्रकारके पररणामके नसवा और कु छ नहीं हैं । यह स्थूल, सूक्ष्म एवं कारण जगत्
ही इस नत्रकोणके रूपमें आगम शास्त्रोमें वनणात हैं और मूल आद्यासिा ही यह नबन्द ु
है ।
अब इसे और दसू री तरह समझ लें । स्थूल जगत् नजसे हम ननरन्तर मृत्मयपु यान्त
अनुभव करते हैं, नबन्द ु ( बोध प्रकाश ) का बाह्य प्रसारण अथवा नवनकरण मात्र है ।
इनन्ियोंके प्रत्मयाहारसे इस रनश्म मालाको उपसंहृत कर सकने पर बाह्य जगत् स्वभावतः
बाह्य नबन्दमु ें नवलीन हो जाता है । इसी प्रकार नलंगात्ममक अथवा आभयन्तररक
आनतवानहक जगत् भी जो नवक्षुब्ध अन्तःकरणका बाह्य नवलास मात्र है, वह भी
समर्पणमूर्त्तप श्रीर्त्िम्मनलालजी गोस्वामी १५१
नवलीन होने पर तदनुरूप नबन्द ु स्वरूपमें अव्यक्त हो जाता है । इसी प्रकार कारण जगत्
भी उपसंहारको प्राि होकर कारण नबन्दमु ें पयावनसत हो जाता है । ये तीनों जगत् ही
जाग्रत,् स्वप्न, सुषनु ि अवस्थाके द्योतक हैं । अतएव स्थूल, सूक्ष्म एवं कारण—ये
तीनों नबन्द ु ही नत्रकोणके तीनों प्रान्तोंके नबन्द ु हैं । इन्हें “अ” कार कारणात्ममक, “उ”
कार सूक्ष्मात्ममक एवं “म” कार स्थूलात्ममकके नामसे भी सांकेनतक भाषामें अनभनहत
नकया जा सकता है । अन्तमुाखी होनेकी प्रेरणासे जब ये तीनों नबन्द ु रे खा रूपमें भीतरकी
ओर संकुनचत होते हुए जब महानबन्दमु ें पयावनसत होते हैं, वही तुरीय रूपमें तुरीयनबन्द ु
महाकारण रूपमें अनभनहत होता है । नत्रकोण रचना करके इसे और स्पष्ट समझ लें ।
वाणी एवं मनके अगोचर होनेके कारण उसे ननगुाण ननराकार नननवाशेष कहते हैं । परन्तु
अप्राकृ त गुणोंसे युक्त होनेके कारण वह सगुण सनवशेष भी है । अप्राकृ त आकार होनेके
कारण वे साकार भी हैं । वस्तुतः उनका वणान तो न कोई कर सका है, न आगे कोई
कर सके , ऐसी संभावना ही है । इसे नवशुद्ध प्रकाश—ननगुाण नननवाशेष ब्रह्म कहें तो
भी कहना नहीं बनता क्योंनक अन्तलीन नवमशाके कारण यह तत्मव अप्रकाशमान है ।
ननिा अप्रकाशमान इसीनलये है नक उसमें नवमशा अन्तलीन है । उसकी नवमशा शनक्त
ही स्वप्न एवं जागरणका खेल कर रही है । इसे नवशुद्ध नवमशा भी नहीं कहा जा सकता
क्योंनक इसमें स्वयं-प्रकाशतत्मव भाव भी है । प्रकाशहीन नवमशा तो सवाथा ही असत- ्
कल्प है । इस तत्मवातीत और अनुिर अवस्थाको आगम शास्त्र “अ” कार प्रयोग
करके वाच्य करता है । इसके उिर—परे कु छ भी नहीं इसनलये वह “अ” है । “अ”
कार रूप प्रकाशके साथ “ह” कार रूप नवमशाका सामरस्य ही नशव-शनक्तका सा्य
है । “अ” नशव है और “ह” शनक्त है । नबन्द ु रूपमें यही “अहं” ही, अथाात् पूणा
अहंता ही नशव-शनक्तका सामरस्य है । इस पूणा अहंता रूप नबन्दकु ो न तो ब्रह्म कहा
जा सकता है, न ही ईश्वर, एवं न ही देवी-देवता, ऋनष, मुनन, जीव । यहाुँ नवराि् एवं
अल्प, लघु एवं महान, ईश्वर एवं जीवका भेद ही नतरोनहत रहता है । एक सूक्ष्मतम
कीि-भृगं भी जहाुँ अपनेको “अहं” ही मानता है । इस अहंकी भूनममें जीव-ईश्वर,
ज्ञानी-अज्ञानी, नवराि्-अल्प सभी भेद नतरोनहत हैं । यहाुँ दृनष्ट एवं सृनष्ट भी एकाथा
बोधक व्यापार हो जाते हैं । अहंकी भूनम सब कु छ मात्र “अहं” ही “अहं” है ।
जो शनक्त एवं सिा पंचभूतोंकी स्थूल भूनमके रूपमें आत्मम प्रकाश नकये है, उसका
सा्य प्रथम सा्य है, उसी प्रकार सूक्ष्म एवं कारण जगतके् रूपमें स्पका करनेवाली
शनक्त और सिाका सा्य क्रमशः नद्वतीय एवं तृतीय है । यह नत्रनवध सा्य पारस्पररक
भेदका पररहार कर नजस महासा्यमें एकत्मव लाभ करता है, वही परमाद्वैत या ब्रह्मतत्मव
है । यह परम पद ही वह नबन्द ु है जहाुँ त्रनवध सा्यके पश्चात् परमाद्वैत अथवा
समर्पणमूर्त्तप श्रीर्त्िम्मनलालजी गोस्वामी १५३
स्पशासे उत्मपन्न शरीर अपेक्षाकृ त उिम है । नबना स्पशाके के वल दृनष्ट द्वारा उत्मपन्न शरीर
उससे भी उिम चतुथा श्रेणीके हैं । नबना ही देखे संकल्पमात्रसे उत्मपन्न शरीर उससे भी
श्रेष्ठ पञ्चम् श्रेणीके हैं । त्रेतानद लोकोंमें वायु प्रधान एवं देवलोकानदमें तेजःप्रधान तित-
्
लोकानुरूप देह भी प्राकृ त एवं भौनतक ही है । योनगयोंके नसनद्ध जननत “ननमााण शरीर”
बहुत शुद्ध हैं, परन्तु वे भी प्रकृ नतसे अतीत नहीं हैं ।
आध्यानत्ममक जगत्में प्रवेश करनेके नलये एक आध्यानत्ममक देहका ननमााण
आवश्यक होता है । इसको नदव्य देह, ज्ञान देह आनदका नाम नदया जाता है । खीष्टीय
कै थोनलक स्प्रदायमें इसे SPIRITUAL BODY कहा जाता है । भारतीय तन्त्र इसे
“बैन्दव देह” कहता है । इस देहकी उत्मपनि आध्यानत्ममक नसद्ध गुरु अथवा इष्ट देवता
या देवीसे होती है । दीक्षा-प्रानिके साथ ही देह-बीजकी प्रानि होती है और यह बीज
क्रमशः देहरूपेण पररणत होता है । उच्च कोनिके साधकोंमें यह नवकासप्राि देहरूपमें
ही उपलब्ध होता है, के वल बीज मात्र रूपमें नहीं ।
वैनदक युगमें उपनयनके अनन्तर गायत्रीमंत्र-दीक्षाके साथ ही इस देहकी प्रानि रूप
नद्वतीय जन्म होता है । इसीनलये जातकको नद्वज कहा जाता है । इस देहका क्रम-
नवकास भी होता है और पूणा नवकास आध्यानत्ममक नसनद्धके रूपमें ही प्रकि होता है ।
स्वरूपका यह आध्यानत्ममक पररवतान गुरु-शनक्तसे होता है । यह नद्वतीय जन्म
Regeneration के नामसे प्रनसद्ध है और इसमें प्रकृ नतका अंश नजतना-नजतना
शोनधत होता जाता है उतने अंशमें वह Regenerated — “ररजेनेरेिेड” माना जाता
है और जो शोधनमें शेष रह जाता है वह Un-regenerated — “अनररजेनेरेिेड”
कहा जाता है । नजस क्षणमें पहली बार पूणातामें नदव्य प्रकाश होता है, वही नसद्धावस्था
है ।
समर्पणमूर्त्तप श्रीर्त्िम्मनलालजी गोस्वामी १५६
इस महाज्ञानका संचार गुरु अलनक्षत रूपसे करते हैं । इससे हृदयके ममामें प्रनवष्ट सभी
ग्रनन्थयाुँ खुल जाती हैं ।
गुरोऽस्तु मौनां व्याख्यान र्त्शष्यस्तु र्त्छन्न सांशयिः ॥
र्ूज्य गुरुदेव कहते जा रहे थे — सद्गरुु की महाकरुणाके नबना प्रत्मयक्ष
आत्ममप्रकाश असंभव है । यह गुरु-करुणा ही शानन्त एवं चैतन्यकी ज्योनत साधकके
जीवनमें प्रस्फु नित करती है । तभी अपरोक्ष ज्ञान स्भव है । उस समय ज्ञानमें कहीं
संशय अथवा नवकल्पके नलये अवकाश नहीं रहता । यह शब्दातीत ब्रह्म पर प्रनतष्ठा
होती है । जो सवादा, सवात्र समभावसे नवद्यमान है, यह उसीका साक्षात्मकार है ।
“िक्षुरुन्मीर्त्लतां येन तस्मै श्रीगुरुवे नमिः” की उनक्तमें यही सत्मय उजागर है । यह अवस्था
भी पूणा आत्ममदशानकी नहीं है । इस अवस्थामें नस्थत होना भी आत्ममरूपमें नस्थत होना
नहीं है ।
इसके पश्चात् साधकके जीवनमें प्रेमकी प्रनक्रयाका प्रार्भ होता है । वास्तनवक
रस-साधनाका सूत्रपात ही ज्ञानोिर है । नकन्तु के वल प्रत्मयक्ष ज्ञानके उदय हो जानेसे
ही भावका उदय नहीं होता । भावोदयके नलये पूणा काम दहनकी आवश्यकता अननवाया
होती है । मदनका स्पूणा दहन भगवान् नशवके तृतीय नेत्र अथवा ज्ञान चक्षुसे ननःसृत
अनिसे होता है । इसका तात्मपया यही है नक अज्ञानका बीजतक भस्म हो जाय । बीजरूप
अज्ञान रहनेतक तो कामदेवका अनस्तत्मव रहता ही है । अज्ञान ही तो पशुभाव है ।
नदव्य ज्ञानसे पशुभाव पूणा ननवृि होकर पशुपनत या नशवभाव होता है । इसके
अनभव्यक्त होनेपर कामका समग्र नाश होता है । यह नशवरूप सिा भी ज्ञानातीत
पररपूणात्मव तभी लाभ करती है जब प्रेमभावकी पराकाष्ठा लाभ करके प्राकृ त कामके
आकषाणसे अतीत हुई, परम भावको प्राि करती है । यह परम भाव ही राधा महाभाव
है । ये भगवती राधा और भगवान् श्रीकृ ष्ण दो नहीं हैं । एक ही ‘कन्दपादपाहा’ तत्त्वके
समर्पणमूर्त्तप श्रीर्त्िम्मनलालजी गोस्वामी १५८
नद्वधा स्वरूप हैं । इसीनलये श्रीकृ ष्णका बीजमन्त्र कामबीज है । इनके स्मुख काम
नतरोनहतवत् हो जाता है, वह इनका प्रमुख उपासक हो जाता है । प्राकृ त कामका सब
वैभव इनके स्मुख तुच्छीकृ त हुआ नगण्य, ्लान हो जाता है और ्लान होते-होते
लुि हो जाता है । प्राकृ त काम महाज्ञानके नीचे है और ये नदव्य काम मन्मथ-मन्मथ
श्रीकृ ष्ण तथा मन्मथ-मन्मथ-मानस-मनन्थनी श्रीराधा महाज्ञानसे अतीत है । महाज्ञान
वह है नजसमें प्राकृ त-अप्राकृ त, अधः-ऊध्वा प्रभृनत भेद नमि जाते हैं और समग्र नवश्व
कालातीत अखण्ड अद्वय रूपमें भान होता है और महाभाव और महारसराजका तो
कोई वणान ही नहीं कर सकता, वहाुँ अप्राकृ त जगतका ् प्रार्भ होता है ।
श्रीराधाकृ ष्ण-तत्मव सवाथा अप्राकृ त है । इनका नवग्रह, नेत्र-मुखानद इनन्ियाुँ,
इनके अंग-अवयव, रूप-स्वभाव, इनके महल-ननवास, इनकी नवहार-स्थनलयाुँ,
वन-कुं ज, ननकुं ज, इनकी स्पूणा लीलाएुँ अप्राकृ त हैं—जो अप्राकृ त क्षेत्रमें, अप्राकृ त
मन-बुनद्ध शरीरसे अप्राकृ त पात्रोंमें होती हैं ।
ये राधाकृ ष्ण पररपूणातम परमात्ममा हैं । इनके धाम, लीला-पात्र, नन्द-यशोदा,
सखागण, गोनपयाुँ, इनके घरके पशु-पक्षी, यहाुँतक नक कीि-पतंग, तृण-गुल्म भी
सनच्चदानन्दघन नननखल ऐश्वया, माधुया और सौन्दयाके सागर हैं । इन श्रीराधाकृ ष्णका
ऐश्वया रूप ही भगवान् सुन्दरे श्वर एवं भगवती नत्रपुरसुन्दरी, कामेश्वर-कामेश्वरी हैं । इन
श्रीराधाजी, श्रीरुनक्मणीजी, श्रीसीताजी आनदमें भी कोई भेद नहीं है । भगवानके् नवनभन्न
सनच्चदानन्दमय नदव्य लीला-नवग्रहोंमें नवनभन्न नाम-रूपोंमें उनकी आह्लानदनी शनक्त
साथ रहती ही हैं । नाम, रूप एवं लीलामें पृथकता दीखनेपर भी वस्तुतः वे सब एक
ही हैं । ब्रह्मवैवता पुराणमें इसका स्पष्ट उल्ले ख नमलता है —
यथा ववां रार्त्धका देवी गोलोके गोकु ले तथा ।
वैकुण्ठे ववां महालक्ष्मीभपवती ि सरस्वती ॥
समर्पणमूर्त्तप श्रीर्त्िम्मनलालजी गोस्वामी १५९
नाम ग्रहण करते हैं । वस्तुतः गुण इन्हें लेशमात्र भी वशमें नहीं कर सकते । ये ननत्मय
स्वरूप-नस्थत ही रहते हैं और अपनी स्वरूपनस्थनतमें अच्युत नस्थत नत्रनवध गुणमयी
लीला करते हैं ।
लीलावतार
भगवान् जो अपनी मंगलमयी इच्छासे नवनवध नदव्य मंगलमयी अनेक नवनध-
नवनचत्रताओंसे युक्त ननत्मय नवीन पूणा रसमयी क्रीडा करते हैं, उस क्रीडाका नाम
‘लीला’ है । ऐसी लीलाके नलये भगवान् जो मंगल-नवग्रह प्रकि करते हैं, उन्हें
‘लीलावतार’ कहा जाता है । चतुस्सन ( सनकानद चारों मुनन ), नारद, वराह, मत्मस्य,
यज्ञ, नर-नारायण, कनपल, दिात्रेय, हयग्रीव, हंस, ध्रुव नप्रय नवष्णु, ऋषभदेव, पृथ,ु
नृनसंह, कू मा, धन्वन्तरर, मोनहनी, वामन, परशुराम, श्रीराम, व्यासदेव, श्रीबलराम, बुद्ध
एवं कनल्क ये भगवान्के लीलावतार हैं । इन्हें कल्पावतार भी कहते हैं ।
मन्वन्तरावतार
स्वायंभवु आनद चौदह मन्वन्तरोंमें होनेवाले मन्वन्तरावतार कहलाते हैं ।
शर्त्क्त-अर्त्भव्यर्त्क्तके भेदसे नाम भेद
भगवानके् सभी अवतार पररपूणातम हैं । तत्त्वतः तथा स्वरूपतः इनमें न्यूनानधकता
सवाथा नहीं है । शनक्तकी अनभव्यनक्त इनमें न्यूनानधक स्भव है । इस न्यूनानधकतासे
इनके चार भेद माने गये हैं — आवेश, प्राभव, वैभव और परावस्थ ।
इनमें सनकानद चारों ऋनष, नारद, पृथ,ु परशुराम एवं कनल्कको आवेशावतार कहा
जाता है ।
समर्पणमूर्त्तप श्रीर्त्िम्मनलालजी गोस्वामी १६२
प्राभव अवतारोंके दो भेद हैं । इनमें प्रथम तो बहुत ही थोडे कालतक रहते हैं,
जैसे मोनहनी और हंसावतारानद । पुराणानदकके प्रणेता वेदव्यास, सांख्यशास्त्रके प्रणेता
कनपल, दिात्रेय, धन्वन्तरर, ऋषभ आनद इनकी दसू री श्रेणीमें आते हैं ।
कू मा, मत्मस्य, नर-नारायण, वराह, हयग्रीव, प्रनश्नगभा, बलभि और चतुदाश
मन्वन्तरावतार — ये सभी वैभवावतार माने जाते हैं । इनमें कु छ की गणना अन्य
श्रेनणयोंमें भी है ।
श्रीनृनसंह, श्रीराम एवं श्रीकृ ष्ण — ये षडैश्वयापूणा परावस्थावतार हैं —
र्ूणपिः र्ूणापवतारश्च श्यामो रामो रघूिहिः ।
अांशा नृर्त्सांहकृ ष्णाद्या राघवो भगवान् स्वयम् ॥
( ब्रह्मसंनहता )
इनमें श्रीनृनसंहका काया भी प्रह्लाद-रक्षण और नहरण्यकनशपु-वधतक ही है । ये
भी अल्पकाल-स्थायी हैं । अतएव मुख्यतः श्रीराम एवं श्रीकृ ष्ण ही परावस्थावतार
कहे जा सकते हैं ।
करुणिः षड्गुणैिः र्ूणो रामस्तु भगवान् स्वयम् ॥
( महारामायण )
एते िाांशकलािः र्ुांसिः कृ ष्णस्तु भगवान् स्वयम् ॥
( श्रीमद्भागवत )
समर्पणमूर्त्तप श्रीर्त्िम्मनलालजी गोस्वामी १६३
आनन्दांशकी शनक्तका नाम है आह्लानदनी । भगवान् श्रीकृ ष्ण स्वयं परमाह्लादस्वरूप हैं
और नजसके द्वारा वे स्वयं आह्लानदत होते हैं और दसू रोंको आह्लानदत कर सकते हैं,
उसका नाम ह्लानदनी श्रीराधा है ।
यहाुँ प्राकृ त तत्मव, तत्मवातीत वस्तु और अप्राकृ त राज्यमें प्रवेश, अप्राकृ त देह,
स्वभाव, स्वरूप आनदकी सभी बातें संक्षेपमें कह दी गयी हैं । वैसे इसका नवस्तृत
नववरण देनेपर तो एक स्पूणा ग्रन्थ ही नननमात हो सकता है ।
( गोष्ठ, कु ञ्ज एवां र्त्नकु ञ्ज )
र्ााँिवा प्रश्न — बाबा ! यह गोष्ठ, कु ञ्ज एवं ननकु ञ्जमें क्या भेद है और ननभृत
ननकु ञ्ज नकसे कहते हैं ? इसे तननक समझाइये ।
र्ूज्य गुरुदेवका उतर — भगवल्लीला अथाात् भगवान् श्रीकृ ष्ण एवं उनकी
ह्लानदनी शनक्त राधाजीकी ब्रजराज्यमें तीन प्रकारकी लीलाएुँ होती हैं । प्रथम गोष्ठ
लीलाका अथा यह है नक भगवान् माता यशोदा एवं नन्दजीके साथ नन्दभवनमें रहकर
अथवा श्रीराधारानी वृषभानुपुरमें अपनी माता एवं अन्य गोनपयोंके संग जो लीला-
व्यवहार करती हैं, वे गोष्ठ-लीलाके अन्तगात हैं । गोष्ठ-लीलाके अन्तगात गो-दोहन,
दास-दानसयों और गोप-गोनपयों द्वारा भगवानकी ् सेवा, सख्यरसकी भगवानके् साथ
तुल्यतामयी रनत, ग्वालबालोंके साथ भगवानकी ् परम रसमयी क्रीडाएुँ, इसी प्रकार
राधारानीकी भी दास-दानसयों एवं सनखयों, मञ्जररयों आनद द्वारा सेवा सनन्ननहत है ।
माखनचोरी आनद सभी लीलाएुँ गोष्ठान्तगात ही हैं । इसी प्रकार वात्मसल्य-रस-घन-
मूनता नन्द-यशोदाको जो भगवत्मकृपा-प्रसाद-नवतरण है, वह सब गोष्ठान्तगात ही है ।
समर्पणमूर्त्तप श्रीर्त्िम्मनलालजी गोस्वामी १६५
अब मधुर भाव या माधुया रसकी नजतनी लीलायें सनखयों एवं श्रीराधारानीके साथ
भगवान् श्रीकृ ष्णकी होती हैं, उनका पयावसान कुं ज अथवा ननकुं जमें ही होता है ।
कुं ज-लीलामें सनखयोंके साथ स्बन्ध रहता है, नकन्तु ननकुं जलीलामें सनखयोंके नलये
स्थान नहीं होता । सखी मात्र श्रीराधारूपी महाभावकी कायव्यूहा है । ननकुं जमें प्रवेशके
पहले ही ये सभी कायव्यूहरूपा सनखयाुँ-मञ्जररयाुँ अपनी मूलकाया अथाात्
श्रीराधारानीके श्रीअंगोंमें, आभूषणोंमें लीन हो जाती हैं । श्रीराधा सवासनखयोंको
अपनेमें समनन्वत कर पुष्ट एवं अन्तमुाखी हुई श्रीकृ ष्णके श्रीचरणों आत्मम-समपाण करती
हैं । इस लीलाकी िष्टा मात्र एक साररका पक्षी रहती है । ननभृत-ननकु ञ्जमें तो यह
साररका भी श्रीराधारानीके के श-समूहमें लीन हो जाती है । यह अत्मयन्त ननगूढ़तम
लीला है । ननकुं ज-लीलामें श्रीराधाकृ ष्ण दोनोंका स्वरूप-नवलास चलता है, परन्तु
इसके अन्तमें भगवती श्रीराधा श्रीकृ ष्ण स्वरूपमें अन्तलीन हो जाती हैं । परन्तु आश्चया
यह होता है नक ज्यों ही महाभाव रसराजमें डू बता है, महाभावके रसराज होते ही
रसराज महाभाव होकर सुप्रकनित हो जाता है । जब तक कुं ज भंग नहीं होता तब तक
महाभाव रसराजमें पयावनसत होता रहता है और रसराज महाभाव होकर पुनः व्युनत्मथत
होता जाता है । यह नस्थनत कब तक होती है कु छ कहा नहीं जा सकता, क्योंनक तब
देश-काल नकसीकी सिा नहीं रहती ।
( कामेश्वरी, कामशर्त्क्त, कामसौभाग्यदार्त्यनी, कामरूर्ा एवां कामकलाका
अथप )
छठा प्रश्न — बाबा ! भगवती आद्याशनक्तको कामेश्वरी आनद उपरोक्त नामोंसे
क्यों अनभनहत नकया गया है ? इनको इन नामोंसे अनभनहत करनेके पीछे कौन-सा
तत्मव-रहस्य है, कृ पया इसे समझावें ।
समर्पणमूर्त्तप श्रीर्त्िम्मनलालजी गोस्वामी १६६
शनक्तका प्रादभु ााव ज्ञानसे ही स्भव है । भगवती नचत् शनक्त हैं । ‘नवमशा’ शब्दकी
व्याख्या करते समय यह स्पष्ट कर नदया गया है नक सिा, ज्ञान एवं आनन्दमें सत् शनक्त
सनन्धनी, नचत् शनक्त नचनत एवं ह्लानदनी शनक्त नननहत रहती है । इसीनलये भगवतीको
नचदनि-कु ण्ड-स्भूता’ नाम नदया गया है । ये ज्ञानस्वरूप नचज्ज्योनतके कु ण्डसे ही
प्रादभु ूात होती हैं । ‘अनल’ शब्द इस ज्ञानानि, नचदनिका ही पररचायक है ।
‘अनलोद्भवा’ का अथा ‘ज्ञानानिकु ण्डस्भूता’ अथवा ‘नचदनिकु ण्डस्भूता’ ही
मानना चानहये ।
इसी प्रकार आत्ममाका जो ननरपेक्ष भाव है, उसे स्वातंत्र्य कहा जाता है । भगवती
आद्याशनक्त पूणा परमात्ममा हैं । उनकी ही इच्छा मात्रसे सबकु छ होता है, उनकी इच्छामें
बाधा देनेवाली कोई शनक्त न तो हुई थी, न हुई है और न ही होनी स्भव है । जो
स्वतः स्फू नताशील एवं ननत्मय वतामान है, वही स्वातंत्र्य है ।
१६९
श्रीराधाष्टमीके अवसर र्र र्रम र्ूज्य श्रीभाईजीका प्रविन श्रवण करते र्रम र्ूज्य
श्रीराधािािा, र्ूज्य श्रीगोस्वामीजी, र्ूज्य माताजी ( श्रीभाईजीकी धमपर्वनी )
१७२
गीताप्रेसको तो इसमें बहुत लाभ है, इसमें कोई सन्देह नहीं है । यह समाचार नकसीसे
कहनेकी जरूरत नहीं है, आप मनमें ध्यान रखें ।
आपका
हनुमानप्रसाद र्ोद्दार
* * * *
र्त्र-सांख्या २
बाुँकुडा, २८.३.३९
स्मान्य श्रीगोस्वामीजी,
सादर सप्रेम यथायोग्य । आपका कृ पापत्र नमला । मैंने उसको दो-तीन बार पढ़ा ।
आपकी माननसक नस्थनतका मैं कु छ अनुमान लगा सकता हू ुँ । श्रीवाजपेयीजीके पत्रसे
आपके मनकी अव्यक्त भावना व्यक्त हो गयी । आपने अपने पत्रमें जो कु छ नलखा है,
आपकी अपनी मान्यता, नवनयशीलता तथा पत्र नलखते समय नचिकी जो नस्थनत थी,
उसके अनुसार सब ठीक ही है । परन्तु मेरी दृनष्टसे जब मैं देखता हू ुँ तो मुझे कई बातें
असंगत मालूम होती हैं, उन्हें अयथाथा कहू ुँ तो भी अत्मयनु क्त न होगी । कल्याण
स्पादनका भार स्वीकार करने तथा मेरी अनुपनस्थनतमें भी गोरखपुर रहना मंजूर करने
में आपका न अनववेक था और न थी हृदयहीनता, अकृ तज्ञता, पैसेकी गुलामी और
अनभमानकी भावना ही । उसमें था मेरे प्रनत आपका नवशुद्ध प्रेम, मुझे सुखी देखनेकी
आपकी लालसा, मेरी बात िालनेमें संकोच और मेरे आग्रहका स्मान । मैंने आपसे
यही आशा की थी और यही अब भी करता हू ुँ । आप दःु ख पाकर, कष्ट सहकर भी
मेरे मनकी करेंगे, इसी बडे भरोसेपर मैंने श्रीजयदयालजीसे आपसे बात करनेके पूवा ही
कह नदया था नक ‘गोस्वामीजी मेरी बात नहीं िालेंगे ।’ यद्यनप उस समय मेरे मनकी
समर्पणमूर्त्तप श्रीर्त्िम्मनलालजी गोस्वामी १७६
जो नस्थनत थी, उसको देखते ऐसा समझना सवाथा भ्रम है नक यनद आप यह भार
स्वीकार न करते तो मैं अपने मूल ननश्चयको छोड देता, कु छ कनठनता अवश्य होती
और शायद पूज्य श्रीजयदयालजीके मतके नवरुद्ध नजसका मुझे सबसे अनधक संकोच
है और उनके मतके अनुसार चलना मैं एक दृनष्ट से अपना कताव्य समझता हू— ुँ
स्पष्टरूपसे अपना दृढ़ नवचार रखना पडता; नजसे मैं दसू रे शब्दोमें स्पष्ट रख भी चुका
था । परन्तु मुझे तो ऐसा अनुमान भी नहीं था नक आप अस्वीकार कर सकते हैं ।
यद्यनप श्रीवाजपेयीजीका यह मानना नक प्रेसकी नीनत क्रमशः आरन्भक नसद्धान्तकी
ओरसे हिकर उिरोिर व्यावसानयक होती जा रही है, सवाथा ननराधार और भ्रमपूणा
है, तथानप यह तो सत्मय ही है नक ‘प्रेस नवभाग और संस्थाकी नीनत आनदके ननरुपणमें
आपका वह स्थान नहीं होगा, जो मेरा है तथा स्पादकीय व्यवस्थामें भी कु छ
असुनवधा होगी’ और इस बातको पहलेसे समझकर ही मैंने अपने स्वाथासे जान-
बूझकर आपको इस कायामें झोंका था और अब भी मेरा वही मत है, जो उस समय
था । अवश्य ही मेरी दृनष्टमें इसमें आपका नकसी प्रकार ‘अकल्याण’ भी नहीं दीखता
। मैं कृ तज्ञ रहूगुँ ा, यह भ्रम भी है ही ।
शरीरकी बात अवश्य नवचारणीय है, इसके नलये आपको उनचत रूपसे दवा तथा
पथ्यका प्रबन्ध करना चानहये । परन्तु सच कहू ुँ तो मैं यह कह सकता हू ुँ नक ‘अकाल’
में कु छ नहीं हो रहा है । कहीं भी रहते, तो भी यह होता ही, शायद इससे भी अनधक
होता और बुरा होता परन्तु वह होता ही क्यों, जबनक भगवानने् ही यही रच रक्खा था
।
आपके पत्रसे मेरे नवचारपर कोई प्रभाव नहीं पडा है, यनद यह सत्मय मैं प्रकि कर
दुँ ू तो बुरा नहीं होगा । कल एक बार कु छ नवचार आया था परन्तु रातको वह हि गया
। इसका यह अथा नहीं है नक मैं श्रीजयदयालजीकी रुनचकी अवहेलना करना चाहता
समर्पणमूर्त्तप श्रीर्त्िम्मनलालजी गोस्वामी १७७
हू ुँ या आपके एवं अनन्य नमत्रोंके नवनभन्न रूपोंमें प्रकि या अप्रकि सच्चे प्रेमका
नतरस्कार करता हू ुँ । सच कहता हू ुँ श्रीजयदयालजीके तो मुझपर इतने उपकार हैं नक
मुझे जन्म-जन्मान्तर तक उनकी गुलामी करनेको नमले तो अपना बडा सौभाग्य
समझना चानहये और नमत्रोंके प्रेमका खासकर आप जैसोंके प्रेमका, जो मेरे नलये
सवाथा नवपरीत बातको स्वीकार करके भी मुझे सवाथा सुखी बनाना चाहते हैं, मैं
नतरस्कार करूुँ तो इससे बडा पाप और क्या होगा ? श्रीजयदयालजीके महान् उपकारोंके
और आप सबके प्रेमके पनवत्र नचत्र यथावकाश, भनक्त तथा श्रद्धापूवाक पूजा करनेके
नलये हृदयमें रखकर ही मैं आप लोगोंसे अपने मनकी आज्ञा चाहता हू ुँ और घोर
स्वाथा-सा प्रतीत होनेपर भी मैं अपने स्वाथाके नलये आप लोगोंको कष्ट में डालना
चाहता हू ुँ । अवश्य ही मेरे स्वाथामें आप लोगोंके स्वाथाका भी न्यूनानधक अंश तो है
ही ।
ये सब मेरे नवचार हैं । अब मैं आपके कताव्य-ननणायका भार आप पर ही छोडता
हू ुँ । मैं जानता और मानता हू ुँ नक प्रेस और ‘कल्याण’ से जगतकी
् कु छ सेवा हो रही
है और मेरे व्यनक्तत्मवका प्रचार होनेपर भी शायद मैं यह स्वीकार कर लूुँ नक इसमें मेरा
भी नहत ही है, परन्तु इसपर भी मुझे प्रेस या ‘कल्याण’ का कोई मोह इस समय अपने
नवचारसे नहीं हिा सकता । इसका यह अथा नहीं है नक मुझमें इनका मोह नहीं है ।
इसनलये अब आप जो कु छ ठीक समझें, वही ननणाय करें , मुझे, आप नवश्वास कीनजये,
उसीमें बडा सन्तोष होगा, आपको सुखी देखकर मुझे सुख ही होगा, यह ननश्चय है
और इसमें यनद ‘कल्याण’ बन्द भी हो जायेगा तो मुझे श्रीजयदयालजीके संकोचको
छोडकर इस समयकी मनकी नवचार-धाराके अनुसार कु छ भी दःु ख नहीं होगा ।
नजसकी प्रेरणासे काया हुआ, उसीकी प्रेरणासे बन्द भी हो जायेगा तो अच्छा ही होगा
। नफर यनद उनकी प्रेरणा हुई तो कोई-न-कोई व्यवस्था हो ही जायेगी । स्भव है,
वह इससे अच्छी हो ।
समर्पणमूर्त्तप श्रीर्त्िम्मनलालजी गोस्वामी १७८
यह पत्र नलखते समय मेरे प्रनत आपका जो अकृ नत्रम प्रेम है, उसका नचत्र मेरी
कल्पनाकी नजरके सामने आ गया है और मैं गद्गद हो गया हू ुँ । भय लगता है, मैं कहीं
कोई अपराध तो नहीं कर रहा हू ुँ । भगवान् आपका और मेरा मंगल करें । मेरा अभी
महीने भर तो अंदाजन यहीं रहनेका नवचार है । इसके बादका अभी कु छ ननश्चय नहीं
है । भगवानने् जो रच रखा है, वही होगा । गोरखपुरमें अपने मुहल्ले में कु छ प्ले गकी-सी
नशकायत है, है तो बहुत मामूली-सी ही, इसनलये जबतक वहाुँसे नबल्कु ल ठीक
होनेका समाचार न आ जाय तब तक आपको गोरखपुर नहीं जाना चानहये । शायद
चैत्रमें ठीक हो जायेगा ।
पूज्य माुँजी तथा नपताजीसे मेरा सादर प्रणाम कहें । उन दोनोंको ही गोरखपुर साथ
ले जा सकें तो अच्छा है । श्रीवल्लभाचायाजीसे मेरा सादर हररस्मरण अवश्य कह दें ।
श्रीदजु ारीजी ( श्रीग्भीरचन्दजी दजु ारी )-का कोई पत्र नहीं आया, वे अच्छे होंगे,
कभी नमलें तो मेरा सप्रेम यथायोग्य कह दें । श्रीदेवधरजीसे मेरा सादर सप्रेम यथायोग्य
कहें ।
आपका
हनुमान
* * * *
र्त्र-सांख्या ३
डालनमया दादरी
आनश्वन कृ ष्ण ९, सं. १९९६ नव.
( ७ अक्िू बर १९३९ )
नप्रय श्रीगोस्वामीजी,
सादर सप्रेम हररस्मरण । यहाुँकी सब व्यवस्था दल ू ीचन्दके एक पत्रमें नलख चुका
हू ुँ । स्वास्थ्य कु छ अच्छा मालूम होता है । उस ददाके अनतररक्त और कोई नशकायत
यहाुँ नहीं मालूम होती । भोजनानदकी व्यवस्था बहुत ठीक है । वे लोग, जहाुँतक उनसे
बनता है, मेरी पूरी स्भाल रखते हैं । दधू गोरखपुरकी अपेक्षा यहाुँ कु छ बढ़ा नदया है
। प्रातःकाल भोजनके समय मट्ठा भी लेता हू ुँ । नदल्लीसे फल मुँगवाये जाते हैं, नजनमें मैं
अंगूर और मौसुमीका रस लेता हू ुँ । अभी भाई जयदेवके बगलवाले बुँगलेमें ही हू ुँ ।
……………………………………………………
मैं प्रायः एकान्तमें रहता हू ुँ । मेरे पास प्रायः कोई आते भी नहीं, परन्तु यहाुँका वातावरण
मील-कारखानाका है, और भी कई बातें हैं, अतः यहाुँ स्थायी रूपसे रहनेका नवचार
न पहले था न अब है । परन्तु यह भी ननश्चय नहीं हो पाया नक यहाुँसे कहाुँ जाना
चानहये । रतनगढ़ मेरे मनके अनुकूल नहीं और दसू री जगह स्थायी रूपसे रहनेमें पू.
माुँजी तथा सानवत्रीकी माुँको प्रनतकू लता मालूम होगी । यद्यनप वे जहाुँ रहू,ुँ वहीं रहनेको
कहती हैं और रहेंगी भी, परन्तु उन्हें अनुकूल नहीं है, ऐसा मेरा अनुमान है, ऐसी
नस्थतमें देखा जाये, कहाुँ रहना हो । मैं तो यही करता हू ुँ — जैसी मनमें आती है,
वैसी चेष्टा तो करता हू,ुँ नफर जो कु छ हो जाता है, उसीको भगवानका ् नवधान मानकर
सन्तोष करनेका प्रयत्मन करता हू ुँ । असलमें बात भी यही है । भगवानने् जो रच रखा
है, उसीमें हमारा कल्याण है । यहाुँ कु छ नदन सत्मसंग, कीतान हुआ था, पीछे मैंने मनाही
कर दी । एक-दो नदन शायद और भी हो । न मधुरजीकी मधुर मोरवीन ही बजती है
समर्पणमूर्त्तप श्रीर्त्िम्मनलालजी गोस्वामी १८०
और नवशाल शानन्त, नदव्य ज्योनत और शीतल प्रकाश ही नदखायी देता है, इनकी
हुँसी ऐसी ही होती है, ऐसी ही है ।
* * * *
आप कथा कह रहे हैं सो बडा अच्छा कर रहे हैं । इस शहरमें आप अवश्य लाभमें
ही रहेंगे । इसे छोनडयेगा नहीं ।
* * * *
श्रीगंगाबाबू नबना नकसी सूचनाके नचत्रकू ि चले गये । अच्छा ही हुआ, उनकी
बहुत नदनोंकी इच्छा थी । यह भी भगवानका् ही मंगल नवधान है ।
वकीलसाहब और उनके घरका हाल नचन्ताजनक है । इस अवस्थामें हमलोग
उनकी कै से-क्या सेवा कर सकते हैं ? आपको कु छ जुँचे तो सोचकर नलनखयेगा ।
मुझे कई बार उनकी नस्थनतका स्मरण हो आता है और उस स्मरणसे नचिमें कु छ
दःु ख-सा होता है ।
श्रीमाधवजीका पत्र नमल गया था, उसमें बडे चोखे भाव थे । मैंने अभी उिर नहीं
नलखा है । घरके पतेपर नलखूुँगा या उनके गोरखपुर लौिनेपर । पत्र नलखनेके बाद वे
आपके पास आकर फू ि-फू िकर रोये—यह उनके भावुक हृदयका पररचय है । क्या
करूुँ ? मैं तो आपलोगोंके प्रेमका ऋणी ही रहूगुँ ा । मुझमें कोई योग्यता ही नहीं नक मैं
नकसी तरह सन्तोष करवा सकूुँ । ( नहन्दी ) नवशेषांककी तैयारी प्रेसकी दृनष्टसे और
सचमुच आपकी दृनष्टसे भी अभीसे शुरू कर देनी ठीक मालूम होती है । मेरी तरह
आप प्रेसवालोंपर कु िेकी तरह भौंक नहीं सकें गे । पहलेसे तैयार रहेंगे तो सहूनलयतसे
काम होगा । इस काममें श्रीमाधवजी और देवधरजीसे पूरी सहायता लीनजये । श्रीगदेजी
बहुत काम दे सकते हैं, पर उनका आना कनठन है । अंग्रेजी नवशेषांकका काम कु छ-
समर्पणमूर्त्तप श्रीर्त्िम्मनलालजी गोस्वामी १८४
प्रेस गोरखपुरसे अन्यत्र चला जाय, उठ जाय, इसमें कु छ भी हजा नहीं है । भगवानका
्
यही नवधान होगा तो यही परम श्रेष्ठ है । शायद नकसी खास पररवतानके नलये या
हमलोगोंकी परीक्षाके नलये ही इस काममें प्रेसका स्बन्ध भगवानने् जोडा है । मुझे
सब बातोंसे जानकारी रखते रनहये । श्रीशुक्लजीसे मेरा सादर सप्रेम हररस्मरण कनहये
और कनहये नक भगवान् तथा इष्टदेवपर नवश्वास रखकर कताव्य-पालन करते रहें ।
भगवान् सब मंगल ही करते हैं । पता नहीं भगवत्मकृपा कब नकस रूपमें हमारे सामने
प्रकि होती है । ऐसी ही नस्थनतमें तो परीक्षा होती है, आपलोग जरा भी घबराइये नहीं
। एक अच्छा वकील जरूर कर लीनजए । मुझे नलनखये, यनद नकन्हींको पत्र नलखना
हो तो नलखूुँ । नकसी भी पररनस्थनतमें धैया, साहस, बुनद्ध और भगवनद्वश्वासको मत
खोइये ।
आपका
हनुमान
* * * *
र्त्र-सांख्या ६
रतनगढ़ ( बीकानेर )
नप्रय श्रीगोस्वामीजी,
सप्रेम सादर हररस्मरण । आपका तथा मदनलालजीका एक-एक पत्र नमला । तार
भी नमले थे । तीन-चार नदनोंसे हृदयके पास ददा कु छ ज्यादा है, पीठमें भी कु छ ददा है
। इस ददाका सानवत्रीकी माुँको पता लग गया था, इसीसे आज नहीं आ पाया, नहीं तो
मैंने तो आनेका नवचार कर नलया था । मुझे मुकदमें आनदका तो कु छ भी भय नहीं है
। यनद मनमें कोई संकोच है तो इसी बातका है नक आपलोगोंमेंसे नकन्हींके मनमें इस
समर्पणमूर्त्तप श्रीर्त्िम्मनलालजी गोस्वामी १८८
हमलोग मारे जायेंगे । पर इससे हमारा क्या नबगडेगा ? भगवानके् नवधान नबना होगा
नहीं । नवधानको बदलना नकसीके नलये साध्य नहीं है । और बदला भी क्यों जाय,
वह मंगलमय भगवानके् मंगलमय हाथकी रचना है । हमारे मंगलके नलये ही है । हाुँ,
यनद हम सच्चाई और भगवनद्वश्वासको छोडकर अपने उद्देश्यसे नगरते हैं तो जरूर गलती
करते हैं । मुझे तो इस बातकी जरा भी नचन्ता नहीं है । के स चले, सब बातें नबल्कु ल
सच-सच कह देनी चानहये । झूठे गवाह सजानेकी, बनानेकी जरा भी आवश्यकता
नहीं । पैरवी अच्छी तरह हो, अच्छे -अच्छे वकील भी रहें । पैसा खचा हो तो हजा
नहीं । नफर पररणाम जो कु छ होना होगा, वही होगा । मान लीनजये, प्रेसकी बदनामी
होगी, कलक्िरका मन नफर जायगा । इससे क्या नबगडेगा ? भगवानका ् मन तो नहीं
बदलेगा । आनखर सत्मयका पररणाम नवजयमें ही पयावनसत होगा । चाहे वह हमारे इस
जीवनमें सामने न आये । मैं आपसे, मदनलालजी, गंगाबाबू, पं.लादरू ामजी,
बजरंगलालजी, श्रीशुक्लजी महाराज, बगीचेके सभी लोग तथा और सभीसे यह अनुरोध
करता हू ुँ नक भगवान् और सत्मयपर तथा भगवानके् मंगलमय नवधानपर नननश्चत नवश्वास
करके पररणामकी ओरसे तो नननश्चन्त हो जाइये । जो उन्होंने रचा है वही होगा और
वही मंगलमय होगा, चाहे देखनेमें भयानक ही हो । जरा भी नचन्ता करके उनकी
कृ पापर अनवश्वास मत कीनजए ।
इच्छा यही रहे—गोरखपुरमें शानन्त रहे और प्रेम बढ़े । अपने मनसे नकसी भी
मुलसमानका बुरा न चाहा जाय । सबका भला हो, सब सुखी हों, यही भाव रहे ।
एक अच्छा वकील तय कर लें, उनकी रायसे काम करें । मैंने पं. हरदेवजी शमााको
डालनमया नगरसे बुलानेका तार नदया है, वे शायद पहुचुँ गये हों । बहुत ही होनशयार
तथा योग्य पुरुष हैं, उनसे काफी मदद लीनजये । परन्तु नवश्वासको रनखये भगवानपर्
ही, नकसी चाल या चालाकीपर नहीं ।
समर्पणमूर्त्तप श्रीर्त्िम्मनलालजी गोस्वामी १९०
नलखकर मुझे तुरन्त गोरखपुर जानेके नलये अनुरोध नकया था । यद्यनप ददा था, परन्तु
मैंने यह ननश्चय कर नलया, सानवत्रीकी माुँसे भी स्मनत ले ली नक यनद गोरखपुरको
तार देनेपर उिरमें बुलानेका समाचार आ जाय तो मैं गोरखपुर चला जाऊुँ , इसी
ननश्चयसे आपको तार नदया गया तथा दादरीमें श्रीजयदयाल ( श्रीजयदयालजी
डालनमया )-को तार दे नदया नक मेरे साथ जानेके नलये श्यामलालजी वकीलको
तैयार रखो तथा मदरु ाको भी तार दे नदया था नक मैं गोरखपुरके तारकी प्रतीक्षा कर
रहा हू—ुँ स्वास्थ्य बहुत अच्छा न होनेपर भी मैं गोरखपुर चला जाऊुँ गा । आपके
तारकी प्रतीक्षा कर रहा था । इसी समय आपका तार नमला । पढ़कर बडा आश्वासन
नमला । मैं आपको पहले ही नलख चुका हू ुँ नक ददा कु छ बढ़ा हुआ-सा है, परन्तु उस
ददाके कारण मैं आवश्यक होनेपर रुक नहीं सकता । आज तो ददा भी कु छ कम है ।
यद्यनप मुझे इस मामलेके कारण कोई नचन्ता नहीं है, न भगवानके् मंगलमय नवधानमें
जरा भी शंका ही है, तथानप प्रेसवाले, साहेबगंजवाले यह अनुभव न करें नक भाईजी
हमारी नवपनिके समय नहीं आये, इसीसे मैंने अपना नवचार नस्थर कर नलया था । अब
आपका तार नमलनेपर रुक गया हू ुँ । आपने मेरे आने-न-आनेके बाबत कु छ नहीं
नलखा । नस्थनत कु छ ठीक है और मेरे ददाका समाचार आप पा चुके हैं, इसनलये
बुलानेकी बात तो कै से नलखते । और मेरे गोरखपुर जानेसे कु छ सुनवधाकी स्भावना
है ही, इसनलये ‘ना’ भी कै से नलखते । परन्तु मैंने तो यही समझा नक जैसी घबराहि
पहले थी, वैसी अब नहीं है, इसीनलये मैंने गोरखपुरका नवचार अभी छोड नदया है ।
कलके और आजके नलखे हुए आपके पत्र नमलनेपर या बीचमें कोई दसू रा तार
नमलनेपर पुनः नवचार नकया जायगा ।
यह समझमें नहीं आता नक इन लोगोंको क्यों पकडा, ये तो बेचारे ननरीह आदमी
हैं, पकडते ही इन लोगोंकी तो एक बार बुरी दशा हो गयी होगी । हमला तो
मुसलमानोंने नकया था, उनमेंसे एक भी क्यों नहीं पकडा गया ? क्या पुनलसकी जाुँच
समर्पणमूर्त्तप श्रीर्त्िम्मनलालजी गोस्वामी १९२
श्रीगदेजी महाराज आ गये होंगे । उनसे मेरा सादर प्रणाम कनहये । उनको कोई
तकलीफ न हो, इस बातका ख्याल तो आप लोग रखते होंगे । ‘साधनांक’ का काम
अब जोरसे समाि हो जाना चानहये ।
आपका
हनुमान
* * * *
र्त्र-सांख्या १०
नप्रय श्रीगोस्वामीजी,
कल्याण नवशेषांककी सूची प्रकाशनाथा भेज दी गयी । क्पोज भी हो गयी होगी
। पर इधर मेरे मनस्तष्ककी जो नस्थनत हो रही है उसे देखते ‘कल्याण’ के स्बन्धमें भी
गंभीरतासे नवचार करना आवश्यक है । प्रायः प्रनतनदन ही चार घंिेसे दस-बारह घंिे
तक ( नकसी नदन कम नकसी नदन अनधक ) बाह्य चेतना नहीं रहती । उस समय तो
के वल प्राणनक्रयाके अनतररक्त अन्य सब काया बन्द रहते ही हैं । नकसी वस्तु या
नवचारका अनस्तत्मव ही नहीं रहता । चेतनाके समय भी बातचीतमें बार-बार ( कभी
जल्दी-जल्दी—कभी देरसे ) अकस्मात् वैसे ही सब कु छ अदृश्य हो जाता है—जैसे
नसनेमाका दृश्य चला जाता है । चेतना नकसी अंशमें रहती है पर कौन है, क्या है, क्या
हो रहा है, कहाुँ है—जगत् है या नहीं—कु छ भी नहीं रह जाता । इस अवस्थामें भी
काम होना बहुत कनठन हो गया है। जूनके ‘कल्याण’ के लेख भेजनेमें इसीसे देर हुई ।
कभी रातको, कभी सबेरे, कभी दपु हरको, कभी चार नदनोंके बाद जब काम करने
लायक नस्थनत हुई तब काम नकया । उसमें भी भूलें हुई ं । कु छ लेख देना चाहता था ।
वे नहीं नदये गये । भूल गया । गोरक्षा आन्दोलन बाबत नलखना आवश्यक था—याद
समर्पणमूर्त्तप श्रीर्त्िम्मनलालजी गोस्वामी १९६
आत्ममाने जन्म ग्रहण नकया है । अब हमारे सारे दःु ख-शोक समाि हो जायेंगे । यह
वैष्णव संतान श्रीकृ ष्णचरणानुगत होकर अवश्यमेव हमारा उद्धार कर देगी ।
जन्मस्थान एवां कु ल-र्ररिय :
र्त्वप्र आन्रदेशीय भट्टजन सकु ल िसे सारस्वत देश ।
( िीकानेर )
प्रकटे र्त्िम्मनलाल इसी कु ल र्ालन कर प्रभुका आदेश ॥
कृ ष्णाषाढ नवम र्त्तर्त्थ, सांवत् सतावन गत शत उन्नीस ।
तृर्त्षत मरुधरा मुर्त्दत हुई ज्यों उमगी जलद घटा लख शीश ॥४॥
िन्िकला-ब्रजलाल र्त्र्ता-मााँ सर्त्वर्त्ध र्ूजते शालर्ग्ाम ।
भर्त्गनी िार, कर्त्नष्ठा शुभमर्त्त िलतीं अर्ग्ज-विन-प्रमाण ॥
अधाांर्त्गर्त्न ‘सरयू’ सीता-सी अनुगार्त्मनी सती-र्त्शरमौर ।
सरल वांशजन आस-त्रासमें तकते एक इन्हींकी ओर ॥५॥
आन्ध्रप्रदेशके तेलंगाना जनपदके ननवासी होनेसे आचारननष्ठ नवद्याव्यसनी भट्ट
ब्राह्मणोंकी शाखा तैलंग कही जाती थी । इनमेंसे कु छ लोग मरुदेशीय बीकानेर नगरमें
राजानुरोधसे आ बसे थे । श्रीनच्मनलालजीने गौतम गोत्रके कु लमें ही बीकानेर (
राजस्थान ) में नव. सं. १९५७ तदनुसार ई. सन् १९०० में आषाढ कृ ष्ण नवमी के
पुण्यकालमें जन्मग्रहण नकया इनके जन्मसे जानत-कु ल-पररवारजनोंमें हषाकी ऐसी
लहर उमड उठी थी जैसी मरुधराके वानसयोंको कभी कदानचत् आकाशमें उमडती हुई
कृ ष्ण मेघरानशको चढ़ आते देखकर उठा करती है ।
समर्पणमूर्त्तप श्रीर्त्िम्मनलालजी गोस्वामी २०४
पावन पवामें नपताने अनन्तम साुँस पुत्रके सेवारत रहते ग्रहण की । नपताजीके
औध्वादनै हक कमा स्पन्न करके श्रीनच्मनलालजीने मन-ही-मन ननश्चय नकया नक
नपताकी सेवाका दानयत्मव स्पन्न हो जानेके बाद अब मुझे जन्मभूनम, अपने पैतृक घर
तथा देहके स्बन्धीजनोंका मोहजाल कािकर पूणातया अपने पावन उद्देश्यकी पूनिामें
ही प्रनतक्षण व्यतीत करना चानहये । उन्होंने शेष जीवनभर जन्मभूनमकी सीमामें प्रवेश
न करनेका कठोर व्रत ग्रहण कर नलया तथा इस ननयमका पालन अक्षुण्णरीनतसे नकया
।
र्ररवारजनोंर्र कष्टोंकी झड़ी :
र्ांगु हुई मााँ, र्त्फर दो िहनें सतत रुग्ण, था जीवन भार ।
रहे स्वयां सेवारत सांतत, मान अर्त्नवय, असुख सांसार ॥
ना कोई कु ल में सहयोगी, ना अर्नी कोई सन्तान ।
धमप-समर यह शूर-र्त्शरोमर्त्ण लड़ा अके ला ही अम्लान ॥१७॥
पररवारमें वंशगत रोग था नक आयुके बढ़नेके साथ-साथ ही नस्त्रयोंके पैरोंमें पंगतु ा
प्रकि होकर क्रमशः बढती जाती । पहले माता सवाथा पंगु हो गई, नफर क्रमशः दोनों
नवधवा आनश्रत बहनें भी पंगु होती गई ं । कोई-न-कोई पररवारजन रुग्ण ही रहता ।
जीवनमें सांसाररक सुख दशानको भी नहीं नमलता था । पत्मनी गृहकायामें उलझी रहती,
स्वयं नजतना भी अवकाश पाते रुग्ण माता-बहनोंके उपचार एवं सेवा-सान्त्मवनामें
व्यतीत करते । कु लमें कोई ऐसा न था जो अिक-भीडमें नकनञ्चन्मात्र सहयोग कर देता
। अपनी कोई सन्तान भी न थी नजसे छोिी-मोिी सेवाके नलए ही दौडा देते । शूर-
नशरोमनण श्रीनच्मनलालजीने स्वयं ही कण्िकाकीणा मागा अपने नलये वरण नकया था
समर्पणमूर्त्तप श्रीर्त्िम्मनलालजी गोस्वामी २१७
अतः नबना नकसी प्रकारकी ऊहापोहके वे नननवाकार भावसे सभी नवषम पररनस्थनतयोंमें
अनडग रहकर जूझते रहे ।
िलािलीका मेला :
र्वनी-प्रथम िाल्य जीवन में, गई जन्मते ही सन्तान ।
दो िहनोई युवा िल र्त्दये, गये र्त्र्ताजी भी हररधाम ॥
माता गई, िहन-िहनोई क्रमशिः सभी गये र्रलोक ।
सिको प्रभुसे र्त्मला, ििे खुद र्वनीसर्त्हत तटस्थ, र्त्वशोक ॥१८॥
श्रीगोस्वामीजीका प्रथम नववाह बाल्यकालमें हुआ था तथा प्रथम पररणीता पत्मनी
बाल्यकालमें ही नदवंगत हो गयी थी । दसू री पत्मनी सतीनशरोमनण सरयूदेवीसे हुई कन्या
संतान जन्मते ही गुजर गयी । युवा अवस्थामें ही दोनों कननष्ठा बहनें-सुलोचना एवं
मंगला नवधवा हो गयी । नपताजी भी छोडकर चल नदये । पूज्यनीया माता सत्मपत्रु की
सेवा ग्रहण करते हुए भगवद्धामको गयीं । छोिी बहन नबमला तथा छोिे दोनों बहनोई
भी अपनेसे पहले नबदा हुए । इस भाुँनत स्पूणा आनश्रत पररवारको भगवानके् धाममें
नभजवाकर अके ले बचे — श्रीगोस्वामीजी और उनकी अधाांनगनी श्रीमती सरयू देवी
। इतने आत्ममीय पररवारजनोंके नवदा-संवाद नमलनेपर भी गोस्वामीजी कभी भी
नवचनलत नहीं हुए एवं नननवाकार भावसे वे असार एवं अननत्मय संसारकी इस
अवश्यंभावी गनतके तिस्थ एवं मूक साक्षी बने रहे ।
अर्ूवप र्त्तर्त्तक्षा :
न तो दीनता, नहीं र्लायन, दृ़िप्रर्त्तज्ञ अजुपनकी भााँर्त्त ।
र्ाई भी न कभी ली, थैली र्त्लये खड़ी धर्त्नकोंकी र्ााँर्त्त ॥
समर्पणमूर्त्तप श्रीर्त्िम्मनलालजी गोस्वामी २१८
घरमें अनतनथ आ जानेसे व्ययभार बढ़ जाता । अब बढ़े हुए खचाकी व्यवस्था
नकस रीनतसे हो ? वे अपनी दैननक भोजन सामग्रीके दधू -फल आनदमें किौती करके
ही यह बचत कर पाते । कु ल-स्बन्धी, जानतके दरू स्थ संबंधी तथा अन्य आिा,
अभावग्रस्त पररनचतजन इनकी लोकप्रनसनद्ध एवं सदाशयताकी चचाा सुनकर आये नदन
इन्हें याचनाके पत्र नभजवाते रहते । पर-दःु ख-कातरताके आवेगमें ये अपना
स्वल्पमात्र वेतन ही दान कर डालते, उसी भाुँनत जैसे श्रीरनन्तदेवजीने अनतनथ-
सत्मकारके नलये ४९ नदनों बाद नमला हुआ आहार भी त्मयाग नदया था ।
र्रम र्ूज्य श्रीराधािािासे प्रीर्त्त :
एक नवयुवा सांन्यासीवर वयाग-र्त्तर्त्तक्षा-र्त्वरर्त्त-र्त्नके त ।
श्रिा-प्रेम-मूर्त्तप गोरखर्ुर आ र्हुाँिे थे प्रभु-अर्त्भप्रेत ॥
भाईजीके प्रेम-स्र्शप ने तवक्षण र्ारस-लौह-समान—
िना र्त्दया उन वेदान्ती को ‘राधािािा’ प्रेमर्त्नधान ॥२१॥
श्रीराधािािा-गोस्वामीजी में उमड़ा यों प्रीर्त्त-प्रवाह ।
िलने लगे कु टु म्िीजन सि िािा ही की रुर्त्िकी राह ॥
माता, िहनें, र्वनी, खुद भी िलते िािा की रुर्त्ि मान ।
िािा की अनुगत थी भर्त्गनी र्त्वमला की सारी सन्तान ॥२२॥
पू. श्रीराधाबाबा सन् १९३६ में जब गीतावानिकामें एकवषीय अखण्ड
भगवन्नाम-संकीतानका आयोजन हो रहा था तब सवाप्रथम आये थे । तब उनकी आयु
लगभग २२ वषा रही होगी । वे त्मयाग, नतनतक्षा एवं वैराग्यकी मूनिामान् प्रनतमा ही थे ।
समर्पणमूर्त्तप श्रीर्त्िम्मनलालजी गोस्वामी २२०
कृ र्त्त-कीर्त्तप :
सम्र्ादन कल्याण-कल्र्तरु मार्त्सक का जीवन र्यपन्त ।
उसमें कर भागवत-शास्त्र का अांर्ग्ेजी अनुवाद स्वांतत्र ॥
रामिररतमानस, गीताका आांग्लर्त्गरा में र्त्कया प्रकाश ।
युिकाण्ड तक रामायण-िाल्मीर्त्क छर्ा, ली अर्त्न्तम श्वास ॥२५॥
रिा अनेक धमपर्ग्न्थों के अांशों का अांर्ग्ेजी रूर् ।
कीर्त्तप-के तु र्त्हन्द-ू सांस्कृ र्त्त का फहराया सवपत्र अनूर् ॥
सम्र्ादन-कल्याण-कायप में भाईजी के दर्त्क्षण हस्त ।
रहे भरत-से वे रुर्त्िर्ालक, अर्त्र्पतकर अर्त्स्तवव समस्त ॥२६॥
श्रीगोस्वामीजीने अंग्रेजी धानमाक मानसक पत्र—कल्याण-कल्पतरुका स्पादन-
दानयत्मव जीवनकी अनन्तम श्वास लेनेतक वहन नकया । नवशेषांकोंके रूपमें अन्य सभी
धानमाक नवषयोंके अनतररक्त श्रीगीता-तत्मव-नववेचनी श्रीरामचररतमानस, श्रीमद्भागवत
महापुराण तथा वाल्मीनक रामायणका आंग्ल भाषामें उनके द्वारा नकया हुआ अनुवाद
प्रकानशत हुआ । वाल्मीनक रामायणका अनुवाद श्रीगोस्वामीजी पूरा नहीं कर पाये ।
अंनतम रुग्णताने उन्हें बीचमें ही घेर नलया । श्रीगोस्वामीजीके स्पादनकालमें
कल्याण-कल्पतरुने भारतीय संस्कृ नतकी नवजय-वैजयन्ती देश-नवदेशमें सवात्र फहरा
दी ।
अांर्ग्ेजी, र्त्हन्दी, सांस्कृ त के भाषा तथा व्याकरणर्त्वज्ञ ।
श्रीभागवत आर्त्द शास्त्रों के र्ूजक, अवयेता, ममपज्ञ ॥
समर्पणमूर्त्तप श्रीर्त्िम्मनलालजी गोस्वामी २२३
पररपालक रहे थे । प्रत्मयेक बार लघुशंका करनेके बाद नगनतीके कु ल्ले करना, चरणोंको
धोना आनद उनके ननत्मय ननयम उनका आदत बन गये थे । पर अब तो सारे आग्रह-
ननयम त्मयागनेकी बेला आ गई थी । चौहिर वषाके वयोवृद्ध गोस्वामीजी नशशुके समान
बन गये । नजस सेवककी ड्यूिी होती उसीके द्वारा लघुशंका आनद कमा करवाये जाते
। स्नानानदक कमा, पथ्य-ग्रहण भी शैया पर ही होने लगे । वे अपनी पूजा-आराधना
एवं संध्योपासनाके ननयम भी माननसक रूपसे शैयापर पडे-पडे ही करने लगे । सच
ही कहा है — लज्जाबोध भी द्वैत-बोधका ही पररणाम है । जहाुँ एक ही बचा है वहाुँ
कौन नकससे लज्जा करे ?
कभी र्त्नकट र्त्दखता अर्त्न्तम क्षण, कभी दीखता हुआ सुधार ।
अधाांर्त्गनी अधीर िीखती ‘डू ि रही हाँ मैं माँझधार’॥
सेवक सेवा-मवय झगड़ते, र्त्नर्त्वपषाद भरते मुस्कान ।
र्त्वगत हुए दो के अभाव में भय, लज्जा, र्त्वषाद, मद, मान ॥३३॥
यह रुग्णदशा कनठन परीक्षाकी घडी थी । कभी लगता नक अनन्तम क्षण आ गया
है, नफर सुधार होता नजर आता । अधाांनगनी सती सरयूदेवी चीत्मकार करके कहतीं —
‘हाय ! मुझे आप मुँझधारमें छोडकर कहाुँ जा रहे हैं ?’ गोस्वामीजी ऐसी उद्वेगजनक
पररनस्थनतयोंमें भी नननवाकार भावसे मुसकान भरते रहते । कभी ऐसे भी अवसर आते
नजसमें सेवकोंके बीच मतभेदके कारण नववाद होने लगता । यह नववाद भी होता
गोस्वामीजीको अनधकानधक सुख पहुचुँ ानेके नलये ही, पर नववाद तो नववाद ही है ।
ऐसी सभी नवषम पररनस्थनतयोंमें भी श्रीगोस्वामीजीको कभी उनद्वि होते हुए नहीं देखा
गया । वे नवषादशून्य हो गये थे । नवषाद भी द्वैतदशानका ही फल है । जहाुँ ‘एक’ ही
समर्पणमूर्त्तप श्रीर्त्िम्मनलालजी गोस्वामी २२८
सामने खडा हो, उसकी मुनन-मन-मोनहनी माधुरीमें मन फुँ सा हो, वहाुँ नवषाद प्रवेश
कर ही कै से सकता है ?
र्त्नज अखण्ड अर्ररर्ग्ह-व्रत कर िािाकी रुर्त्िर्र िर्त्लहार ।
शुर्त्ि, वैष्णवािार र्त्नयम सि र्त्कये समार्न र्त्नरहांकार ॥
भूले कु ल, र्त्वद्या, र्दगौरव र्त्नमपद, र्त्नर्ट नगण्य-समान ।
र्त्वगत हुए ‘दो’ के अभावमें भय, लज्जा, र्त्वषाद, मद, मान ॥३४॥
श्रेष्ठ-से-श्रेष्ठ वैष्णव जन भी ज्ञान-मद, आचार-ननष्ठाके मद, अपने अखण्ड
अपररग्रहव्रतके मदको त्मयागनेको तैयार नहीं होते । जीवनभर गोस्वामीजीने नकसीसे
कु छ भी अनुग्रह स्वीकार नहीं नकया था । पू. बाबाका आग्रह था नक गोस्वामीजीकी
नचनकत्मसा नकतनी ही व्ययसाध्य क्यों न हो, उसे उिमोिम रीनतसे ही करायी जाय
तानक पू. छोिी माताजी ( श्रीगोस्वामीजीकी धमापत्मनी ) को असन्तोष न रहे ।
श्रीगोस्वामीजी पू. बाबाकी रुनचके सामने नतमस्तक हो गये । वे अपने शुद्धाशुनद्ध
तथा वैष्णवोनचत आग्रह तो पहले ही समनपात कर चुके थे । अपने उच्चकु लका,
नवद्याका, पद-गौरवके सभी बोध भुलाकर वे ननपि साधारण जनके समान व्यवहार
करके अपनी ननमादता चररताथा करने लगे । यह भी सत्मय ही है नक द्वैतबोध न रहनेपर
मदका लेश भी कै से बचा रह सकता है ?
र्ग्ह-शान्वयथप कराता कोई अन्न-वसन-धन-धृतका दान ।
कोई करवाता र्त्वप्रों से अनुष्ठान, जर्-र्त्वर्त्ध सर्त्वधान ॥
कोई आ सवसांग कराता, वणपन करता गीता-ज्ञान ।
समर्पणमूर्त्तप श्रीर्त्िम्मनलालजी गोस्वामी २२९
ननधाारण एवं ननदानके नलए स्मनत बनाते । वे उत्मसानहत हुए श्रीगोस्वामीजीसे आकर
कहते — ‘मुझे आपके रोगका ननदान प्राि हो गया है । अब आप अवश्य ही रोगमुक्त
हो सकें गे ।’ श्रीगोस्वामीजीको रोगमुनक्तमें अन्तमानसे कोई भी आस्था न होनेके कारण
वे नचनकत्मसकोंकी बात अधूरी ही सुनते-सुनते ननिामि होकर खराािे भरने लगते ।
नचनकत्मसकगण भी आश्चयाचनकत रहकर देखते रह जाते नक आजतक उन्हें ऐसा रोगी
नहीं देखनेको नमला नजसे अपने रोग-नवमुनक्तमें तननक भी रुनच नहीं है ।
‘होते हैं प्रभु के दशपन ?’—िहुिार र्ूछते भावुक जन ।
वे हाँस उतर देते—“मुझको होते तुम-सिके दशपन ॥”
सि है, वे र्त्विान, र्त्वप्रमें तथा घोरकमाप िाण्डाल,
गौ, हाथी, कु तेमें भी प्रभु-दशपन करते थे सि काल ॥४१॥
कु छ भावुक भक्तजनको नवश्वास रहता नक श्रीगोस्वामीजी सरीखे भक्तको अनन्तम
कालमें अवश्य ही भगवानके् नदव्य दशान, लीला एवं चमत्मकारके अनुभव होते ही होंगे
। पूछनेपर अवश्य ही उनसे नकसी चमत्मकारपूणा अनुभवका वणान सुननेको नमलेगा । वे
इसी अनुमानसे इनसे प्रश्न कर बैठते नक क्या आपको कोई भगवानकी नदव्य झाुँकी
प्राि होती है ? श्रीगोस्वामीजी हुँसकर उिर देते — “मुझे तो तुम सभीके दशान हो रहे
हैं ।” श्रीगोस्वामीके इस कथनमें उनके हृदयके स्पूणा सत्मयका ननदशान है । वे सवात्र
भगवद्दशानके अभयासी थे । उन्हें नवद्वान् नवप्र तथा घोर-कमाा चाण्डालमें एक समान्
ही भगवानकी ् नवद्यमानता अनुभव होती थी । वे गौ, हाथी तथा कु िेमें भी अपने
प्राणनप्रय प्रभुके दशान प्राि करके ननहाल होते रहते थे ।
‘सम्र्ादन-कल्याण कायप है प्रभुका ही’—यों कहते लोग ।
आर् मााँग लें, र्त्नश्चय ही प्रभु देंगे आयु, शर्त्क्त, आरोग्य ॥
समर्पणमूर्त्तप श्रीर्त्िम्मनलालजी गोस्वामी २३४
दख
ु -सुखकी हर धूर्-छााँवमें जो सहगार्त्मर्त्न रही सदैव ।
अधाांर्त्गनी सती सरयू रह गयी अके ली हा ! ददु ैव ॥
र्त्कन्तु हृदयमर्त्न्दरमें था, प्राणोर्म र्र्त्त-िरणों का वास ।
स्मृर्त्तमें मि रही अनुर्त्दन, जा र्हुाँिी शीि उन्हीं के र्ास ॥४९॥
श्रीगोस्वामीजी तो चले गये, अब एकानकनी रह गयीं वे तपनस्वनी, उनकी
अधाांनगनी श्रीमती सरयूदेवी जो दख ु -सुखकी हर धूप-छाुँवमें उनकी सहगानमनी रही
थीं । नकतना ही कष्टपूणा जीवन रहा, उन्होंने कभी मन मैला नहीं नकया । एकानकनी
उन सतीपर ददु वै ने कै सा वज्राघात नकया था ! परन्तु उनके हृदयमनन्दरमें उनके प्राणोपम
पनतके चरणोंके दीपक अखण्ड रूपसे जल रहे थे । उन्हींके प्रकाशमें अनुनदन अपने
प्राणपनतके प्रेमका स्मरण करतीं वह दो वषोंकी लघु अवनधमें ही अपने पनतके
सानन्नध्यको प्राि कर गई ं ।
“जैसा भाव स्मरण करते तजता है प्राणी र्त्नज तन-गेह,
उसी भाव में भार्त्वत हो, र्ाता है वही भावमय देह ॥”
यह गीतोर्त्क्त साक्ष्य है अर्त्न्तम समय आर् हरर-स्मृर्त्त-सांलि ।
र्त्नवय र्त्नकु ञ्जधाम में र्हुाँिे, हो ब्रजके र्त्ल-रसाणपव-मि ॥५०॥
यां यां वाऽर्त्र् स्मरन् भावां वयजन्वयन्ते कलेवरम् ।
तां तमेवैर्त्त कौन्तेयस्तदा तद्भाव भार्त्वतिः ॥
( श्रीमद्भगवद्गीता )
समर्पणमूर्त्तप श्रीर्त्िम्मनलालजी गोस्वामी २४०
“प्राणी नजन भावोंके स्मरणमें मि हुआ अपना देह त्मयाग करता है उन्हींमें भानवत
हुआ वह तदनुरूप देह प्राि करता है” — श्रीमद्भगवद्गीताके इन वचनोंके अनुसार
श्रीगोस्वामीजी भगवान् श्रीराधाकृ ष्णके ननत्मय-ननकु ञ्जधाममें प्रवेश पाकर ब्रजलीला-
महानसन्धुमें मि हो गये क्योंनक जीवनके अनन्तम क्षणोंमें आप श्रीकृ ष्ण-स्मृनतमें तल्लीन
थे ।
वाणी हररगुण-कीतपनरत थी, श्रवण रहे हरर-कथा-र्त्नमि ।
हाथ रहे प्रभु सेवा-तवर्र, मन-प्रभु र्ाद-र्द्म-सांलि ॥
मान जगत् को प्रभु का मर्त्न्दर करते थे नत-शीश प्रणाम ।
दृर्त्ष्ट लगी थी सांतजनों र्र प्रभु के िल-र्त्वर्ग्ह सुखधाम ॥५१॥
वाणी गुणानुकथने श्रवणौ कथायाां हस्तौ ि कमपसु मनस्तव र्ादयोनपिः ।
स्मृवयाां र्त्शरस्तव र्त्नवास जगवप्रणामे दृर्त्ष्टिः सताां दशपनेऽस्तु भवतनूनाम ॥
( श्रीमद्भागवत् )
श्रीहररके नदव्य गुणोंका कीिान ही आपकी वाणीका श्रृंगार था आपकी कणेनन्ियाुँ
श्रीकृ ष्ण-कथाओंके श्रवणमें ननमि रहती थीं । आपके दोनों हाथ प्रभुके कायामें ही
संलि रहते तथा मनमें श्रीभगवानके चरणकमलोंका ही ध्यान बना रहता था । आप
इस जगत्मको परमात्ममाका ननवासस्थल मानकर नतनशर होकर श्रद्धापूवाक प्रणाम करते
थे । आपकी दृनष्ट भगवान्के चल नवग्रह, आनन्दके धाम सन्तजनोंपर ही निकी रहती
थी ।
रहे आर् श्रीकृ ष्ण-प्रीर्त्त-रत, श्रीहरर-स्मरण-मि सि काल ।
समर्पणमूर्त्तप श्रीर्त्िम्मनलालजी गोस्वामी २४१
रहते हुए आप भले ही साक्षात् श्रीकृ ष्णके भनक्तरूपमें ही रूपान्तररत हो गये, लेनकन
आपके द्वारा प्रवनतात कृ नत-कीनता ननस्सन्देह अजर-अमर बनी रहेगी ।
र्त्नधपन भक्त धन्य वे र्त्जनके उर में सदा भर्त्क्त का वास ।
प्रेमिि हरर धाम वयाग र्त्नज दौड़े आते र्त्जनके र्ास ॥
समदशी, र्त्नवैर, शान्त, मुर्त्न, वयानमि, र्त्नष्काम-िररत्र ।
र्त्जनके हरर रहते अनुगत र्दरज से होने स्वयां र्र्त्वत्र ॥५४॥
सकल भुवनमवये र्त्नधपनास्तेऽर्त्र् धन्या
र्त्नवसर्त्त हरर येषाां श्रीहरेभपर्त्क्तरेका
हरररर्त्र् र्त्नज लोकां सवपथातो र्त्वहाय
प्रर्त्वशर्त्त हृर्त्द येषाां भर्त्क्तसूत्रोर्नििः
( पद्मपुराण )
र्त्नरर्ेक्षां मुर्त्न शान्तां र्त्नवैरां समदर्त्शपनिः ।
अनुव्रजाम्यहां र्त्नवयां र्ूयेयेवयांर्त्िरेणुर्त्भिः ॥
( श्रीमद्भागवत् )
धन्य हैं वे भक्तगण जो लोककी दृनष्टमें भले ही ननधान हों नकन्तु नजनके हृदयमें
परम धनरूपा श्रीहररकी भनक्त संनचत रहती है । उनकी प्रीनतरज्जुसे बुँधे श्रीहरर अपना
गोलोकधाम त्मयागकर उनके पास दौडे चले आते हैं । श्रीभगवान् अपने श्रीमुखसे कहते
हैं — “मेरे कामनाशून्य, मननशील, शान्त, प्रानणमात्रसे अिोह रखने वाले तथा
समर्पणमूर्त्तप श्रीर्त्िम्मनलालजी गोस्वामी २४३
समदशी भक्तोंके पीछे -पीछे तो मैं स्वयं इस लोभसे डोलता रहता हू ुँ नक कहीं उनकी
चरणरज मुझपर पड जाय तो मैं पनवत्र हो जाऊुँ ।”
सांत कृ र्ा अनवरत िरसती सदा अमोघ, असीम, अिाध ।
सांताश्रय से हम जीवन का िरम लक्ष्य लेते हैं साध ॥
सांतों की करुणा से जन की रहती है जीवन की टेक ।
अतिः सांत ही हैं र्रमाश्रय, जगरक्षक, अवलम्िन एक ॥५५॥
न ि प्रसादिः सवर्ुरुषेषु मोघो
न िाप्यथो नश्यर्त्त नार्त्र् मानिः
यस्मादेतर्त्न्नयतां सवसु र्त्नवयां
तस्मात् सन्तो रर्त्क्षतारो भवर्त्न्त
( महाभारत, वनपवा )
भगवान् अनन्त करुणामय हैं । जगतके् जीवोंपर कृ पा करनेके नलए समय-समयपर
प्रत्मयेक स्थलमें संतजनोंका अवतरण होता रहता है । संतोंकी कृ पा अमोघ होती है,
कभी ननष्फल नहीं होती, वह सीमारनहत होती है तथा उसे कोई रोक नहीं सकता ।
हमें अपने चरम लक्ष्य — भगवत्मप्रानि अथवा भगवत्मप्रेमकी प्रानि संतोंके आश्रय द्वारा
ही हो सकती है । सन्तोंके आनश्रत जन नजस बातका आग्रह कर लेते है संतोंकी कृ पाके
बलपर ही वह पूरा हो पाता है । अतः जीवमात्रके नलये संत ही आश्रय लेने योग्य हैं,
संसारकी रक्षा करने वाले हैं तथा हमारे एक मात्र अवल्बन हैं ।
िहु जन्मार्त्जपत र्ुण्योदय से सांतसांग जि होता प्राप्त ।
समर्पणमूर्त्तप श्रीर्त्िम्मनलालजी गोस्वामी २४४
उन्हें तो प्यारे थे वे सभी प्रानण-पदाथा जो नप्रय थे उनके अग्रज ( परम पूज्य श्रीभाईजी
)-को । बस, इससे अनधक कु छ नहीं, इससे आगे कु छ नहीं ! भागवतमें नलखा है
— ‘नवना महत्मपादरजोनभषेकम’् — महात्ममाओंकी चरणधूनलको मस्तकपर नछडके
नबना कल्याण नहीं होता । गोस्वामीजीने इसे ज्यों-का-त्मयों हृदयंगम कर नलया था ।
आपने अपना उपनाम ही स्वीकार कर नलया था — ‘भक्तोंकी चरण-रज’ ।
सरस्वतीके इस वरदपुत्रकी लेखनीमें जो बल था, शास्त्र-ज्ञानकी जो गररमा थी,
भाषाओं, व्याकरणपर जैसा नवनशष्ट अनधकार था और हृदयमें जैसी मधुरता थी उसीके
समानान्तर था मधुर कण्ठ । नयन मूुँदकर, भुजा उठाकर जब वे संकीतान अथवा
पदगायनमें आलाप लेते, श्रोता मंत्रमुग्ध हो जाते । वातावरण माधुयासे ओत-प्रोत हो
उठता....... वस्तुतः कण्ठ तो सुनमष्ट था ही — परन्तु गायन करते थे वे हृदयकी
तन्मयतासे, सवाथा-सवाांशमें डू बकर रसमें और क्षरण होने लगता था मधुका ।
गोस्वामीजीके गोरखपुर आनेके ३ वषा बाद आगमन हुआ श्रीराधाबाबाका । पूज्य
नानाजीके स्पशाके नवस्मयकारी प्रभावने ‘सोऽहं’ के साधकका चोला बदलकर
प्रनतनष्ठत कर नदया उन्हें योगीन्ि-मुनीन्ि-दलु ाभ व्रजभावके पुरोधाके रूपमें । स्वयं
चतुमाख ु , उद्धवानद नजस व्रजमें ‘लतागुल्मौषनध’ बननेकी लालसा सुँजोये रहते हैं उस
व्रजभावके अक्षय अतुल कोषकी — ‘स्वानमनी’ बना नदया राधाभानवत-मनत उस
गैररकवसन युवक संयासीको स्वयं व्रजेन्िनन्दनस्वरूप पोद्दारजीने । उन्मुक्त भावसे
उसका नवतरण नकया उस वीतरागने — “अनधकारी-अननधकारीका चयन नहीं है
यहाुँ — नजसकी झोलीमें जो समाये ले जाय — यहाुँ दानमें कापाण्य नहीं, अपनी
ग्रहणकी क्षमता तौल लो ।” इन्हीं तराजू-बिखरोंपर तुला करता था इस प्रदेशमें
व्रजभाव; नजसकी अन्यत्र कल्पना करना भी स्भव नहीं ‘न भूतो न भनवष्यनत’ ।
समर्पणमूर्त्तप श्रीर्त्िम्मनलालजी गोस्वामी २५४
ही जाती हैं, कु छ पढ़नी भी पडती हैं ।” बाबा भी जोरसे हुँस पडे .......। बाल-
सुलभ-चपलताके उन क्षणोंको ऐसे ननरुपम स्नेहसे नसंचन करने वाले अब कहाुँ ?
नननधके रूपमें रह गई हैं अब तो वे स्मृनतयाुँ मात्र ।
नानाजीके सभी कायोंमें सदा सहयोगी रहते थे छोिे नानाजी । सन् १९५६ में तीन
महीनेके नलये तीथायात्रा स्पेशल रेन लेकर लगभग ६०० व्यनक्तयोंके साथ नानाजीने
३ महीनोंके नलये भारतके अनधकांश तीथोंमें भ्रमण नकया, दशान नकये । गोस्वामीजी
भी साथ थे ही । यथासमय रेनके स्िेशनपर रुकते ही प्लेिफामापर उतरकर गोस्वामीजी
अपने सुमधुर कण्ठसे नवश्वरूप प्रभुका वन्दन करते–प्रणाम करते उन्हें —
कर प्रणाम तेरे िरणोंमें लगता हाँ अि तेरे काज,
र्ालन करनेको आज्ञा तव मैं र्त्नयुक्त होता हाँ आज ।
अन्तरमें र्त्स्थत रहकर मेरी िागडोर र्कड़े रहना,
र्त्नर्ट र्त्नरांकुश िांिल मनको सावधान करते रहना...... ।
स्पूणा तीथायात्री स्िेशनसे बाहर ननकलते थे उस उद्बोधनके उपरान्त ही ।
करणीयकी स्पूणा सीमा, उसका क्षेत्र ननधााररत कर देते थे नानाजीके इस पद द्वारा
गोस्वामीजी—नजससे कोई भूल न जाय राह, हो न जाय कोई पथ-भ्रष्ट — नदशा
नदखला देते थे वे हाुँ, जीवगत वैयनक्तक स्वातन्त्र्यका स्वामी तो प्रत्मयेक प्राणी स्वयं ही
है । उन्होंने अपने कमामें कहीं नशनथलता नहीं आने दी । शेष जानें सुननेवाले — करने
वाले ।
समर्पणमूर्त्तप श्रीर्त्िम्मनलालजी गोस्वामी २५८
िहुरर िदन र्त्िधु अांिल ढााँकी । र्त्र्य तन र्त्ितई भौंह करर िााँकी ॥
खांजन मांजु र्त्तरीछे नयनर्त्न । र्त्नज र्र्त्त कहेउ र्त्तन्हर्त्ह र्त्सयाँ सयनर्त्न ॥
ल्बे घूुँघिमें अपना मुख नछपाये ननकि ही सकु चाई-सी खडी अनुज-वधू सरयू
देवी अपने आनन्दको अपनेमें ही समेिे मौन-पुलनकत होती रहतीं .... अनुपम थे वे
क्षण ...। इस नस्थनतको सहज बना देती बानलका सानवत्री ! दौडकर नलपि जाती
चाची-चाची कहते हुए अपनी चाचीसे और झुककर उसे कण्ठसे लगाकर ननहाल हो
जाती चाची ।
बाबूजी और चाचाजीकी परम नप्रय एकमात्र पुत्री सानवत्रीका शुभ नववाह ननधााररत
हुआ रतनगढ़में । नानाजीके बृहत् सानहत्मय, धमा-प्रवतान, समाज-सेवाके पररवारसे
भी नवनभन्न स्थानोंसे अनेक महानुभाव पधारे । नानाजी और उनके अनुयायी अनुजकी
व्यस्तता देखते ही बनती थी । इधर मनहलाओंमें आनन्दानतरे कमें डू बी उलझी रहती
थी नानी और छोिी नानी । नेग-रीनत, लेन-देन, रंधन, भोजनके सारे व्यवहारोंमें,
दाई-नाई, पररजन-पुरजनकी भीडमें, मंगलगीतोंकी लयमें, ज्योनारकी तैयारीमें ! सभी
कु छ तो सुँभालना था —
र्त्हमवांत र्त्जर्त्म र्त्गररजा महेसर्त्ह हररर्त्ह श्री सागर दई ।
र्त्तर्त्म जनक रामर्त्ह र्त्सय समरर्ी र्त्िस्व कल कीरर्त्त नई ॥
समर्पणमूर्त्तप श्रीर्त्िम्मनलालजी गोस्वामी २६६
—के दृश्यकी ही तो पुनरावृनि थी वहाुँ ..... पुत्रीकी नवदाईके समय नवदेहराज अपने
स्वरूपको नवस्मृत कर गये थे ।
लीर्त्न्ह राय उर लाइ जानकी । र्त्मटी महा मरजाद ग्यानकी ॥
यहाुँ नानाजीकी रोते-रोते नहचनकयाुँ बुँध गयी थीं । तननक प्रकृ नतस्थसे होकर
छोिे नानाजीने जामाताके कानमें मंत्र फू क नदया — ‘पररवार पुरजन मोनह राजनह ।
प्राननप्रय नसय जानबी ॥’
झरती बूुँदोंसे नसक्त कण्ठसे लगाकर फू ि-फू िकर रोती अपनी दनु हताका हाथ थमा
नदया जामाताके हाथमें । अवश्य ही आुँखे बरस रही थीं और होठोंपर थी मुस्कानकी
बाध्यता ........। नदनकी माुँ और रातकी माुँका मानो कलेजा ननकालकर कोई ले जा
रहा हो, दोनोंकी नस्थनत थी —
‘र्त्िकल मीन गन र्त्जर्त्म लघु र्ानी ।’
बारंबार पुत्रीको हृदयसे लगाती और अंचल-छोरसे आुँसू पोंछते हुए आशीषोंकी
बौछार करने लगी — ‘नचर अनहबात असीस हमारी’ ! जागनतक जीवनसे अननभज्ञ
सदा नपता-चाचा, माुँ-चाचीकी अनतशय लानडली बानलका भी भीत-सी हुई बार-
बार आकर कभी माुँ और कभी चाचीके कण्ठसे लगकर रो पडती ......। परन्तु
कन्याको नपताके घरका त्मयाग करना ही पडता है । उसपर उिरदानयत्मव है दो कु लोंके
पनवत्रीकरणका — ‘पुनत्र पनवत्र नकये कु ल दोऊ ।’ नववाह स्पन्न हुआ । बेिी
श्वसुरालय चली गयी । दोनों आवासोंमें सूनापन-सा छा गया । भरी-भरी-सी रहने
लगी दोनों द्पनतकी आुँखें । जो अंतरं ग व्यनक्त इस नववाहमें सन्मनलत हुए होंगे और
नजन्होंने इन दृश्योंको अपनी आुँखोंसे देखा होगा इसकी गररमाका ननरूपण वे ही कर
समर्पणमूर्त्तप श्रीर्त्िम्मनलालजी गोस्वामी २६७
सकते हैं । मैं तो लोगोंसे, अपनी नानी, छोिी नानीसे सुनी बातोंको अपनी जननीके
नववाहके प्रसंगोंको यथावत् नचनत्रत करनेका प्रयत्मन मात्र कर रही हू ुँ ।
मेरी माुँके हम सब बच्चे उनको बडे नप्रय थे । हम भी उनसे नवनोद करते, उन्हें
नखजाते, कभी हुँसाते, कभी रोषकी नस्थनत उत्मपन्न करते । वे कभी लडाते, कभी
खीजते, कभी पुचकारते हुए हमें अपने अंकसे लगाये रखते । हम लोग ही नहीं, मेरी
दोनों संतनत वनचन्ि-श्यामला और पुष्पाके पुत्र-द्वय नीलमनण-उज्जवलमनण तथा
सूयाकान्तकी बडी पुत्री-शैवनलनीने भी गोस्वामी-द्पनतकी उस वात्मसल्य-सुधा-
धारामें अवगाहन नकया है ।
पररवारके प्रत्मयेक पवा-त्मयौहारमें छायाकी भाुँनत अनुसरण करते दोनों नानाजी-
नानीका । हम लोगोंके नववाहके समय प्रत्मयेक रीनत-पर्परा, नेगचारमें नानाजीके साथ
छोिे नानाजी और नानीके पीछे छोिी नानीकी तत्मपरता देखते ही बनती थी । अपने
जामाता — मेरे नपताजी परमेश्वरप्रसादजी फोगलाके प्रनत उनका स्नेह-स्मान भी
अतुल था । ‘कुँ वरजी’ के अनतररक्त अन्य कोई स्बोधन कभी ननकला ही नहीं उनके
मुखसे .....। दौनहत्री-जामाता एवं दौनहत्र-वधू भी उनके अत्मयन्त स्नेहभाजन थे ।
उन्हें भी यथोनचत स्नेह एवं सत्मप्रेरणा वे सदा देते रहते थे । नानाजीकी सशरीर
अनुपनस्थनतके कारण चन्िकान्तके नववाहमें तो प्रमुख ही थे छोिे नानाजी ।
वात्मसल्य वशीभूत उन्होंने सूयाकान्तका यज्ञोपवीत संस्कार स्वयं करवाया । और
अनन्तम रुग्णताके समय उसके द्वारा की गयी सेवा ही मानो स्वीकार की गुरु-दनक्षणाके
रूपमें ।
कलकिेमें मुझे उनका स्नेह पत्रों द्वारा सदा प्राि होता रहता था । बस, इतना ही
था यह छोिा-सा पररवार नजसमें यत्र-तत्र स्नेह, ममता, वात्मसल्य, समपाण, आदरके
ननझार प्रसररत थे, नजनके प्रपातकी सुमंगली सुमधुर ध्वनन सहज आकनषात कर लेती
समर्पणमूर्त्तप श्रीर्त्िम्मनलालजी गोस्वामी २६८
अपने कायाम,ें नदनचयाामें ननरन्तर व्यस्त रहनेके समय भी छोिीनानी अपने नाम
— लीला-गायनके क्रममें कोई त्रुनि स्वीकार नहीं करती थीं ।
या दोहनेऽवहनने मथनोर्लेर् -
प्रेंखेंखनाभरुर्त्दतोक्षणमाजपनादौ ।
गायर्त्न्त िैनमनुरक्तर्त्धयोऽश्रुकण्यो
धन्या व्रजर्त्स्त्रय उरुक्रमर्त्ितयानािः ॥
श्रीमद्भागवत-कनथत व्रजपुररामाओंके सहज स्वभावकी छाया कहीं-न-कहीं
उनके मानसपर थी अवश्य । भोजन बनाते, बुहारी ननकालते, अनाज बीनते, कपडे
धोते गुनगुनाती रहती वे अपने कण्ठस्थ पदोंको । राधा-नाम-गायन भी उन्हें बडा
नप्रय था । गला बडा सरस था ही । राधा-राधाका संकीिान उनकी प्रत्मयेक नक्रयाके
साथ ननत्मय सन्नद्ध रहता । नवरात्रमें कई बार मेरी माुँके नेतृत्मवमें हम लोगोंने रामायणका
सस्वर नवाह्नपरायण नकया श्रीराधाष्टमी-पण्डालमें । छोिी नानीका नाम उत्मसाही
भक्तोंमें अग्रगण्य रहता । अपने दैननक कायोंसे ननवृि हो वे यथासमय आकर अपना
आसन ग्रहण कर लेतीं और पाठकी समानिके बाद ही पुनः जाकर अपने शेष कायोंको
स्पानदत करतीं । ऊपर अपने कक्षसे उस पाठको सुनकर मुनदत होते रहते थे नानाजी
।
कभी-कभी छोिी नानीके मीठे कण्ठको सुननेकी हम बालक हठ कर बैठते, तब
वे हम सबको बैठाकर साुँझी आनद कृ ष्णलीलाके नवनभन्न पद सुनातीं । कभी अपने
कन्हैयाकी कोई कथा सुना देतीं, कभी आदेश देतीं — “सुनो, तुम सब लोग कीतान
करो । मैं आगे बोलती हू,ुँ तुम पीछे बोलना ।” वे आुँख मूुँदकर तन्मय हो कीतान
करातीं और हम सब दो-चार बार तो साथ बोलते, नफर धीरे से नखसक जाते.......।
समर्पणमूर्त्तप श्रीर्त्िम्मनलालजी गोस्वामी २८१
उनमाला न सुन सकी इन शब्दोंको । उसके नलये तो नप्रयतमका सुख ही अपना सुख था
—
हा स्वामी ! कहना था क्तया-क्तया, कह न सकी, कमोंका दोष ।
र्र र्त्जसमें सन्तोष तुम्हें हो, मुझे उसीमें है सन्तोष ॥
इधर अयोध्यापुरीके राजभवनमें नननमात पणाकुिीरके मध्य स्वणामनन्दर में मनणमय
पादपीठपर नवरानजत चरण-पादकु ाओंके ननकि भूनमपर नवरानजत पनतप्राणा माण्डवीके
अपने प्राणनाथको सान्त्मवना देते शब्दोंकी मानमाकता हिन्त्रीके स्पूणा तारोंको झंकृत
कर देती है । उस महामनहमामयीके उत्मसगाके समक्ष बौना प्रतीत होने लगता है भरतको
अपना व्यनक्तत्मव, अपनी सिा, अपना सवात्मयाग ! मुखर होता है कनवका माण्डवी-
पद-तल-नत मानस इन शब्दोंमें —
नाथ न तुम होते तो यह ब्रत कौन र्त्नभाता, तुम्हीं कहो ।
उसे राज्य से भी महाहप धन देता आकर कौन, अहो !
मनुष्यववका सवय-तवव यों र्त्कसने समझा-िूझा है ।
सुखको लात मारकर, तुम-सा कौन दिःु खसे जूझा है ?
मेरे नाथ, जहााँ तुम होते, दासी वहीं सुखी होती,
र्त्कन्तु र्त्वश्वकी भ्रातृभावना यहााँ र्त्नरार्त्श्रत ही रोती ॥
रह जाता नरलोक अिुध ही ऐसे उन्नत भावोंसे,
घर-घर स्वगप उतर सकता है र्त्प्रय, र्त्जनके प्रस्तावों से ॥
जीवन में सुख-दिःु ख र्त्नरन्तर आते-जाते रहते हैं,
समर्पणमूर्त्तप श्रीर्त्िम्मनलालजी गोस्वामी २८३
अनभमानकी भावना ही । उसमें था मेरे प्रनत आपका नवशुद्ध प्रेम, मुझे सुखी देखनेकी
आपकी लालसा, मेरी बात िालनेमें संकोच और मेरे आग्रहका स्मान । मैंने आपसे
यही आशा की थी और यही अब भी करता हू ुँ । आप दःु ख पाकर, कष्ट सहकर भी
मेरे मनकी करेंगे, इसी बडे भरोसेपर मैंने श्रीजयदयालजीसे आपसे बात करनेके पूवा ही
कह नदया था नक ‘गोस्वामीजी मेरी बात नहीं िालेंगे ।’ × × × × मैंने अपने
स्वाथासे जान-बूझकर आपको इस कायामें झोंका था और अब भी मेरा वही मत है,
जो उस समय था .......... । × × × ×
आप जैसोंके प्रेमका, जो मेरे नलये सवाथा नवपरीत बातको स्वीकार करके भी मुझे
सवाथा सुखी बनाना चाहते हैं, मैं नतरस्कार करूुँ तो इससे बडा पाप और क्या होगा ?
श्रीजयदयालजीके महान् उपकारोंके और आप सबके प्रेमके पनवत्र नचत्र यथावकाश,
भनक्त तथा श्रद्धापूवाक पूजा करनेके नलये हृदयमें रखकर ही मैं आप लोगोंसे अपने
मनकी आज्ञा चाहता हू ुँ और घोर स्वाथा-सा प्रतीत होनेपर भी मैं अपने स्वाथाके नलये
आप लोगोंको कष्टमें डालना चाहता हू ुँ । अवश्य ही मेरे स्वाथामें आप लोगोंके स्वाथाका
भी न्यूनानधक अंश तो है ही । × × × ×
यह पत्र नलखते समय मेरे प्रनत आपका जो अकृ नत्रम प्रेम है, उसका नचत्र मेरी
कल्पनाकी नजरके सामने आ गया है और मैं गद्गद हो गया हू ुँ ।” × × × ×
पत्र पयााि ल्बा था मैंने मात्र कु छ अंश उद्धतृ नकये हैं — ये शब्द स्वयं उद्घोष
करते हैं नानाजीके यन्त्रीपद एवं गोस्वामीजीके यन्त्रपदके भावका —
भरतु अवर्त्ध सनेह ममता की ।
जद्यर्त्र् रामु सीम समता की ॥
प्रण्य है यह स्नेह-स्बन्ध, यह समपाण !
समर्पणमूर्त्तप श्रीर्त्िम्मनलालजी गोस्वामी २८६
‘अगम सनेह भरत रघुवरको । जहाँ न जाइ मनु र्त्वर्त्ध हरर हरको ॥’
— का जीवन्त उदाहरण थे गोस्वामीजी । उस मूलका नसंचन तो वस्तुतः करते
थे नानाजी नजनके नलये समय, स्थान, पररनस्थनतकी बाध्यता थी नहीं, है नहीं, हो
सकती नहीं । जो अपने हृदयदेशको जो नजतना-सा ररक्त करता है नन्द-लाडलेके
नलए उतना ही स्थान ग्रहण कर लेते है वे वहाुँ नवराजकर ! नानाजीके ननत्मयलीलालीन
होनेके बाद कल्याण-स्पादनका मोचाा भी सुँभाला गोस्वामीजीने और उनके
स्पादनकालमें तीन नवशेषांक प्रकानशत हुए — श्रीरामांक, श्रीनवष्णु-अंक और
श्रीगणेश-अंक — नजनमें नानाजीकी अनुपम गररमा स्पूणातया मूता थी । सुनननश्चत
भी थी यह नस्थनत क्योंनक स्वाभानवक ही उनके हृदय-मंनदरमें ननत्मय ननवास था उनके
अग्रज, उनके प्रेष्ठ, उनके आराध्य का ....। स्व को स्थान वहाुँ था नहीं । नफर यन्त्रकी
ननज सिा कहाुँ ?
करता और कराता सिकु छ, वही र्त्नजेच्छछाके अनुसार ।
व्यथप दसू रे हैं सिही, मेरे अर्ने आिार-र्त्विार ॥
नानाजीकी अपनी श्रद्धा-भाव-प्रसूनोंसे अचाना हेत,ु उनकी परम पावन स्मृनतमें
एक ग्रन्थ प्रकानशत हुआ — “पावन-स्मरण” नजसके प्रधान स्पादक थे
महामहोपाध्याय श्रीगोपीनाथजी कनवराज और सहयोगी थे नच्मनलालजी गोस्वामी
एवं डॉ० श्रीभगवतीप्रसादजी नसंह । उस ग्रन्थमें प्रकानशत गोस्वामीजीके श्रद्धासुमन
उनके अन्तरके भावोंका नचत्र है —
“मेरा भाईजीके साथ यह चालीस वषासे ऊपरका स्पका मेरे जीवनकी एक अमूल्य
नननध है, जो मुझे अनेक जन्मानजात सुकृतोंके फलरूपमें उन्हींकी अहैतक
ु ी कृ पासे
समर्पणमूर्त्तप श्रीर्त्िम्मनलालजी गोस्वामी २८८
अनायास प्राि हुई थी । इस अवनधमें उन्होंने जैसा अदभुत स्नेह मुझे नदया और नजस
प्रकार मेरा लाड रखा उसे शब्दों-द्वारा व्यक्त नहीं नकया जा सकता ।
उनके इस ऋणसे मैं जन्म-जन्मान्तरमें भी उऋण नहीं हो सकता और न होना ही
चाहता हू ुँ । भवसररताकी प्रबल धारामें बहते हुए मुझ पामरको उन्होंने अपनी सहज
कृ पासे उबार नलया और भगवत्मकृपाका अनधकारी बना नदया । मेरी त्रुनियोंकी ओर
उन्होंने कभी ध्यान नहीं नदया और मेरे द्वारा उन्हींकी प्रेरणासे हुए आचरणकी भूरर-
भूरर प्रशंसा की । वे मेरे बडे भाई, सखा एवं स्वामी ही नहीं थे, मेरे पथ-प्रदशाक,
जीवन-सवास्व थे, और हैं।
मैं उनके नवषयमें क्या श्रद्धासुमन अपाण करूुँ ? उनकी स्मृनत मात्रसे हृदय भरा
आता है । उनके नवयोगको हृदय सहन कर गया यही मेरी प्रेमशून्यताका प्रमाण है ।
बस, शेष जीवन श्रीभाईजीकी और उनके श्रीराधामाधवकी स्मृनतमें बीत जाय, यही
अनभलाषा है ।”
भरत प्रीर्त्त मर्त्त र्त्वनय िड़ाई । सुनत सुखद िरनत कर्त्ठनाई ॥
“गीता-तत्मवांकमें मेरा और गोस्वामीजीका दोनों नाम गये थे, परन्तु पता नहीं
दसू रे -तीसरे अंकमें भी नसफा मेरा ही नाम छापा गया । भूलसे ऐसा हुआ होगा । स्पष्ट
बात हो गई थी दोनों नाम छापने की, अब चौथे अंकमें तो यथााथामें के वल
गोस्वामीजीका ही नाम रहना चानहए । मेरा नाम रहेगा तो वह सरासर झूठ होगा,
क्योंनक मैं स्पादन-स्बन्धी कु छ भी काम किई नहीं देखता ।”
“कल्याण-कल्पतरुके ( कन्रोनलंग ऐनडिर ) में से भी मेरा नाम अवश्य ननकाल
देना चानहये । ऐसा करना असत्मय है ।”
नानाजीका अप्रनतम स्नेह, ‘सबनह मानप्रद आपु अमानी’ स्वभाव, वाणीका नवषय
नहीं......
‘सील सकोि र्त्सन्धु रघुराऊ’ है श्री राघवेन्िका सहज स्वभाव ... ।
‘साधन र्त्सर्त्ि राम र्द नेह’ है श्रीभरतलालकी अर्त्विल टेक ...।
नानाजीकी प्रकि उपनस्थनतके अभावमें हृद्देशमें उनको प्रनतनष्ठत कर ‘नसंहासन प्रभु
पादकु ा बैठारे ननरुपानध’ की माननसकताके साथ प्रनतनदन समानधस्थलपर माथा िेककर
—
र्त्नत र्ूजत प्रभु र्ााँवरी, प्रीर्त्त न हृदय समार्त्त ।
लगभग दो वषा बाद उसने भी महाप्रयाण नकया उसी नदशामें जहाुँ नवरानजत थे उसके
जीवनाधार पनतदेव ।
बाबाकी थमाई प्रीनतरसकी तानलकाको आजीवन सुँभालकर, सहेजकर रखा
गोस्वामीजीने ।
ठाकु र प्रीर्त्तकी रीर्त्त यहै, हम कै सेहुाँ टेक तजैं नर्त्हां भोरौ ।
नमन करती हू ुँ मैं अपने छोिे नानाजी, छोिी नानीके चरणोंमें नजनके ननमाल
अप्रनतम स्नेहकी रसभीनी स्मृनतयोंसे पूररत है मेरी स्मृनतनननध मञ्जूषा !
ऐसे आत्ममप्रकाशदीि अपौरुषेय ज्ञानीके नलये स्वयं भगवानके् श्रीमुखके उद्गार हैं
—
न ि तस्मान्मनुष्येषु कर्त्श्चन्मे र्त्प्रयकृ तमिः ।
भर्त्वता न ि मे तस्मादन्यिः र्त्प्रयतरो भुर्त्व ॥
नन्दनन्दनकी देहरीपर प्रनतनष्ठत समपाणके दीपकमें नवश्वास-स्नैग्ध्यसे नसक्त ननष्ठा-
वनताकाकी इस लौको जन्म-शताब्दीके अवसरपर शत-शत वन्दन !!
श्रीर्त्िम्मनलालजी गोस्वामी
( डॉ० श्रीभगवतीप्रसादजी र्त्सांह )
इनके नपता गोस्वामी श्रीब्रजलालजी तथा माता श्रीमती चन्िकला देवी परम वैष्णव थे
। ऐसे संस्कार-स्पन्न कु लमें इनका आनवभााव आषाढ़ कृ ष्ण ९, सं० १९५७ को हुआ
था । इनके पूवाज मूलतः आन्ध्र प्रदेशके ननवासी थे, नकन्तु शतानब्दयों पूवा वे
राजस्थानमें आकर बस गये थे । अतः कृ ष्ण-भनक्त इन्हें कु ल-पर्परासे ही प्राि हुई
थी, जो महामहोपाध्याय पं० श्रीगोपीनाथजी कनवराज और श्रीहनुमानप्रसादजी पोद्दारके
सानन्नध्यसे उिरोिर पुष्ट होती गयी ।
गोस्वामीजीका स्वास्थ्य कनठन श्रमके बावजूद ७० वषाकी आयु तक सामान्यतया
ठीक रहा । नकन्तु पोद्दारजीके नदवंगत होनेके बाद उसमें उिरोिर नगरावि आती गयी
। स्पादनका काम ये तब भी उसी प्रकार करते रहे, पर शनै:शनै: एक भीषण व्यानधने
इन्हें शय्याग्रस्त कर नदया । लगभग सात माह तक शरीर अपार पीडासे दग्ध होता रहा
। स्वजनों तथा आगन्तुकोंको यह देखकर आश्चया होता था नक असह्य वेदनाकी
नस्थनतमें भी इनके होठोंपर नस्मतकी एक क्षीण रेखा रह रहकर कौंध जाती थी । शरीर
प्रारब्ध भोग कर रहा था, नकन्तु आत्ममा आराध्यके नदव्यलीला-रस-भोगमें लीन रहती
थी । अंततोगत्मवा इस व्यानध-नाट्यका पिाक्षेपण हुआ और ५ मई १९७४ को
आध्यानत्ममक पत्रकाररता जगतकी ् यह नवभूनत अपने यशः-शरीरको छोडकर
धराधामसे नतरोनहत हो गयी ।
कल्याण-कल्र्तरु, र्त्दसम्िर १९६२
समर्पणमूर्त्तप श्रीर्त्िम्मनलालजी गोस्वामी
( श्रीराधेश्यामजी िांका )
नवभागमें काया नकया और राज्यके प्रधान दीवान श्रीमन्नूभाई शाहके ननजी सनचव रहे
।
सन १९२८ ई. के प्रार्भमें गोस्वामीजीकी सवाप्रथम भेंि पूज्य बाबूजीसे हुई ।
बाबूजीके भनक्तपूणा संत जीवनका पररचय देकर उनसे गोस्वामीजीकी भेंि करानेका
श्रेय आदरणीय श्रीग्भीरचन्दजी दजु ारीको है । भगवन्नामके प्रचार तथा सत्मसंगके
उद्देश्यसे नवनभन्न स्थानोंमें भ्रमण करते हुए बाबूजी १३ जनवरी, १९२८ को बीकानेर
पधारे थे । वहाुँ बाबूजीके नेतृत्मवमें नगर-संकीतानका आयोजन हुआ और उनका
प्रवचन हुआ । गोस्वामीजीने यह प्रवचन सुना और उनका मन बडा प्रभानवत हुआ ।
गोस्वामीजीका अध्ययन और ज्ञान नवशद था । इस प्रवचनको सुनकर उन्हें लगा नक
बाबूजी द्वारा जो कु छ भी कहा गया है, उसका आधार अनुभव है । मात्र पढ़ी-पढ़ायी
अथवा सुनी-सुनायी बातोंके आधारपर ऐसा प्रवचन अथवा प्रनतपादन नकया ही नहीं
जा सकता ।
इस प्रवचनको सुननेके बाद गोस्वामीजीका मन बाबूजीके प्रनत आकृ ष्ट होने लगा
। बाबूजी बीकानेरमें दो नदन तक रहे । इन दो नदनोंमें गोस्वामीजी बाबूजीके पास घंिों
बैठे रहते तथा उनके साथ भगवनद्वषयक चचाा करते रहते । गोस्वामीजीके मनपर इस
प्रथम समागमकी गहरी छाप पडी । इस छापके फलस्वरूप गोस्वामीजी लालसानन्वत
हो उठे नक बाबूजीके ननकि स्पका में कु छ नदन रहना चानहये । यह इच्छा बढ़ती ही
चली गयी ।
ननकि स्पका की लालसा बहुत बढ़ जानेपर गोस्वामीजी सन् १९२९ ई. के ग्रीष्म
कालमें बीकानेरसे गोरखपुर आये और बाबूजीके पास लगभग डेढ़ मास रहे । इस डेढ़
मासकी अवनधमें बाबूजीकी नदनचयाा और उनके जीवनको अनत ननकिसे देखनेका
और उनके नवचारोंको सतत सुननेका अवसर नमला । एक कहावत है — ‘ज्यों-ज्यों
समर्पणमूर्त्तप श्रीर्त्िम्मनलालजी गोस्वामी ३०९
होते रहे । खेदके साथ नलखना पड रहा है नक वाल्मीनक रामायणका अनुवाद पूणा
करनेके पहले ही गोस्वामीजी हमारे बीचसे चले गये । वाल्मीनक रामायणके युद्ध
काण्डका अुँगेरजी अनुवाद कर चुकनेके बाद उन्होंने उन्होंने उिर काण्डका
अनुवादकाया अपने हाथमें नलया । उिर काण्डके लगभग एक-नतहाई अंशका अनुवाद
वे कर पाये थे नक रुग्णताने उनको घेर नलया । यह अस्वस्थता उनके जीवनके नलये
नवघातक नसद्ध हुई । नफर तो उिर काण्डके शेष भागका अनुवाद हो ही नहीं पाया ।
‘कल्याण-कल्पतरु’ का प्रकाशन सन् १९३४ ई. से प्रार्भ हुआ था ।
गोस्वामीजी ‘कल्याण-कल्पतरू’ के प्रधान स्पादक तो थे ही, ‘कल्याण’ नहन्दी
मानसक पनत्रकामें भी बाबूजीको सहयोग देने लगे और सन् १९३९ ई. से ‘कल्याण’
के सहायक स्पादकके रूपमें उनका नाम छपने लगा । बाबूजीके ननत्मयलीलामें लीन
हो जानेके उपरान्त ‘कल्याण’ के स्पादनका कायाभार गोस्वामीजीपर ही आ गया ।
अब ‘कल्याण’ और ‘कल्याण-कल्पतरू’, दोनों पनत्रकाओंका काया गोस्वामीजीको
सुँभालना पडता था । गोस्वामीजीके स्पादकत्मवमें ‘कल्याण’ के तीन नवशेषांक
प्रकानशत हुए — श्रीरामांक, श्रीनवष्णु-अंक और श्रीगणेशांक । सामग्री और
सुसज्जाकी दृनष्टसे ये तीनों नवशेषांक ठीक वैसे ही थे, जैसे बाबूजीके स्पादकत्मवमें
अनेक नवशेषांक प्रकानशत होते रहे हैं । गोस्वामीजीके स्पादकत्मवमें भी ‘कल्याण’
की गौरवमयी पर्परा और आध्यानत्ममक गररमा अक्षुण्ण रही । बाबूजीके महाप्रस्थानके
उपरान्त ‘कल्याण’ के स्पादनका भार सुँभालनेपर उन्होंने जो ननवेदन नलखा, उसमें
उनके हृदयका एक अत्मयन्त उज्ज्वल रूप देखनेको नमलता है । ननवेदनमें उन्होंने नलखा
था — “परमभागवत श्रीपोद्दारजीके पानथाव देह त्मयागकर ननत्मयलीलालीन हो जानेसे
‘कल्याण’ के स्पादनका भार मेरे दबु ाल कं धोंपर आ पडा है, नजसे वहन करनेमें मैं
अपनेको सवाथा अक्षम अनुभव करता हू ुँ । अबतक तो ‘कल्याण’ का सारा भार
श्रीपोद्दारजी अके ले ही वहन करते थे । मेरा नाम तो उन्होंने शीलवश मुझे प्रोत्मसाहन
समर्पणमूर्त्तप श्रीर्त्िम्मनलालजी गोस्वामी ३१२
देने और मेरी स्मानकी वासनाको पूणा करनेके नलये ही अपने गौरवशाली नामके साथ
जोड नदया था । मेरे अन्दर न तो साधनाका बल है, न आध्यानत्ममक अनुभव है, न
त्मयाग है, न तप है, न दैवी स्पदा है, न प्रौढ़ नवचार है, न वैसा शास्त्रोंका अध्ययन
एवं मनन है और न मेरी लेखनीमें ही शनक्त है । ऐसी दशामें ‘कल्याण’ जैसे पत्रके
स्पादकमें जैसी और नजतनी योग्यता होनी चानहये, उसका मैं अपने अन्दर सवाथा
अभाव देखता हू ुँ । ‘कल्याण’ की सेवाका मैं अपनेको सवाथा अननधकारी मानता हू ुँ ।
पर परम श्रद्धेय श्रीभाईजी जैसे परम स्वजनके प्रनत अपने कताव्य-ननवााहकी भावनासे
‘कल्याण’ के कायाको नकसी रूपमें सुँभाल रहा हू ुँ । वास्तवमें ‘कल्याण’ के कायाको
मैं श्रीभाईजी द्वारा ही नकया हुआ अनुभव करता हू ुँ । पद-पदपर वे अपने नचन्मय
रूपसे इसकी सुँभाल करते हैं, अन्यथा मुझ जैसे अयोग्य, अल्पज्ञ, साधनहीन तुच्छ
व्यनक्तद्वारा यह महान काया स्पन्न होना सवाथा अस्भव है । मैं स्वयं आश्चयाचनकत
हू ुँ नक कै से क्या काया हो जाता है । उनकी पद-पदपर सुँभालको देखते हुए मनको
नवश्वास नहीं होता नक श्रीभाईजी ‘कल्याण’ से पृथक् हो गये हैं । मैं तो यह मानता हू ुँ
नक ‘कल्याण’ उनका है और वे ‘कल्याण’ के हैं, या यों कहें नक वे ‘कल्याण’ स्वरूप
ही हो गये हैं । हमारा नवश्वास ही नहीं, अनुभव है नक श्रीभाईजी परोक्ष रूपमें आज भी
‘कल्याण’ को सुँभाल रहे हैं और इसी कारण इसका काया सुचारू रूपसे चल रहा है
।”
‘कल्याण’ पनत्रकाके स्पादन कायाको सुँभालते समय भी गोस्वामीजीकी यही
मान्यता थी नक पनत्रका-स्पादनका काया स्पन्न हो रहा है मेरे द्वारा नहीं, अनपतु
उनके ( अथाात् बाबूजीके ) द्वारा, भले ही यह स्पन्नता परोक्ष रूपसे ही रही हो ।
समपाणका जैसा आदशा गोस्वामीजी महाराजने उपनस्थत नकया, वह सवाथा अनुपम है
।
समर्पणमूर्त्तप श्रीर्त्िम्मनलालजी गोस्वामी ३१३
बाबूजीके पास जाना चानहये । न जाने नकतने लोग दरू -दरू के स्थानोंसे नमलनेके नलये
आते हैं और आप यहाुँ रह करके भी बाबूजीसे नहीं नमलते ?
गोस्वामीजीने मधुर स्वरमें उिर नदया — “यनद मैं नमलने जाता हू ुँ तो कम-से-
कम आधा घंिा समय लग ही जायेगा । इस आधे घंिेका उपयोग यनद मैं उनके बतलाये
हुए कायाको करनेमें लगाऊुँ तो नकतना सुन्दर हो ? उनके द्वारा नननदाष्ट काया पहले ही
पूरा नहीं हो पाता । यनद मैं प्रनतनदन उनके पास जाने लगूुँ, तो जानेसे उनके कायाकी
ही हानन होगी । मैं अपने मनकी बात कै से समझाऊुँ ? उनका दशान और उनका सामीप्य
कौन नहीं चाहता ? उनके दशान और संभाषणसे मुझे बडा सुख नमलेगा, परंतु इस
सुखसे अनधक सुखप्रद है उनकी आज्ञाका पालन । मेरी आन्तररक चाह है नक उनका
काया पूणा हो ।”
गोस्वामीजीके उिरको सुनकर भाई श्रीकृ ष्णचन्िजी मौन हो गये ।
क्रमशः गोस्वामीजीपर काया-भार अनधकानधक बढ़ता ही चला जा रहा था ।
उनके कायामें कु छ सहारा दे देनेकी भावनासे एक बार श्रीमद्भागवतमहापुराणके कु छ
अध्यायोंका अुँग्रेजीमें अनुवाद एक नवख्यात नवद्वानसे करवाया गया । उस अुँग्रेजी
अनुवादमें गोस्वामीजीको कई न्यूनताएुँ नदखलायी दीं । श्लोकके मध्यमें जहाुँ ‘च’,
‘तत’् , ‘ह’, ‘नह’, ‘एव’, ‘वा’, ‘बत’, ‘अनप’, ‘इव’, ‘अथ’, ‘इनत’ आनद शब्द
आते हैं, इन शब्दोंके प्रयोगके बारेमें अच्छे -अच्छे नवद्वानोंकी कु छ-कु छ ऐसी धारणा
है नक कई बार तो इन शब्दोंको काव्य-रचना पूणा करनेके नलये श्लोकोंमें भर नदया
गया है । गोस्वामीजीकी अनत सुदृढ़ मान्यता यह थी नक इन शब्दोंको पाद-पूरणाथा-
प्रयोगके रूपमें सोचना अपनी अल्पज्ञताका पररचय देना है । इतना ही नहीं, इससे यह
भी ध्वननत होता है नक ऐसे निप्पणीकताा नवद्वान,् जो इन शब्दोंका प्रयोग पाद-पूनताके
रूपमें देखते हैं, वे पुराणों-जैसे नवशाल वाङ्मयके रचनयता वेदव्यासजीको
समर्पणमूर्त्तप श्रीर्त्िम्मनलालजी गोस्वामी ३१५
बात समझानेमें ही आधा घंिा लग गया । सब समझ करके भी वे अपना ननणाय नहीं
दे पाये । नफर गीताप्रेसमें काया करनेवाले एक पनण्डतजीको बुलवाया गया, जो
व्याकरणके नवशेषज्ञ माने जाते थे । वे व्याकरण-नवशेषज्ञ दोनों पक्षोंकी बातको सुनकर
भी कोई समाधान नहीं दे पाये । नफर यह सोचा गया नक वाराणसीसे नकसी व्याकरण-
ममाज्ञको बुलवाकर ननणाय करवाया जाये । जब बात बढ़ते-बढ़ते यहाुँतक आ गयी
तो गोस्वामीजीने कहा — क्यों नकसीको बुलवाया जाये ? हमलोग परस्परमें नवचार
करके स्वयं ननणाय कर लें ।
बाबा और गोस्वामीजीके मध्य यह नवचार-नवननमय तीन नदनतक चलता रहा ।
यह एक प्रकारका मधुर शास्त्राथा था । दोनों पक्ष उस प्रयोगके औनचत्मय-अनौनचत्मयपर
अपने-अपने तका प्रस्तुत कर रहे थे । नफर यह तय हुआ नक श्रीभट्टोजी दीनक्षत द्वारा
प्रणीत व्याकरण-ग्रन्थको देखना चानहये । उस व्याकरण-ग्रन्थमें दोनों ही बातें दी गयी
थीं और दोनों प्रकारके प्रयोगोंको सही ठहराया गया था । अब तो कोई प्रश्न ही शेष
नहीं था । इस व्याकरणग्रन्थने दोनों पक्षोंको पूणा सन्तुष्ट कर नदया । दोनों पक्षोंका
समाधान होते ही बाबाने तत्मकाल गोस्वामीजीकी मान्यताको आदर नदया और उस
संस्कृ त अनुवादमें गोस्वामीजीके कथनानुसार प्रयोगको ठीक कर नदया ।
इस प्रसंगको सुना करके बाबा कई बार गोस्वामीजीके बारे में कहा करते थे नक
“व्याकरणकी गहराईमें उनकी पैठ और स्व-पक्षको प्रनतपानदत करनेकी उनकी योग्यता
अनोखी थी ।” इधर तो बाबा इस प्रकार कहा करते थे और उधर यनद कोई शब्द-
प्रयोग गोस्वामीजीके नलये कदानचत् नवचारणीय बन जाता था तो वे उस स्बन्धमें
नवचार एवं नववेचन करनेके नलये बाबाके पास आया करते थे ।
इतने महान नवद्वान होकर भी गोस्वामीजी स्वयं अमानी रहकर दसू रोंको स्मान
देनेमें सदैव तत्मपर रहा करते थे । एक बार इसका बडा सुन्दर प्रसंग देखनेको नमला ।
समर्पणमूर्त्तप श्रीर्त्िम्मनलालजी गोस्वामी ३१८
श्रीदगु ाा बाबूके द्वारा ननवारण नकये जानेके बाद भी गोस्वामीजी जूता ननकाल कर
ही उनके कमरे में गये ।
वंशानुवंश पर्परासे गोस्वामीजीके पररवार में श्रीवल्लभ-स्प्रदायका ही आनुगत्मय
रहा है । वल्लभ-कु लीय होनेके कारण गोस्वामीजीके जीवनमें शौचाचार एवं
स्पशाास्पशाका बडा स्थान था । गोस्वामीजी सदा अपने घरपर ही भोजन नकया करते
थे । कहीं अन्यत्र भोजन करनेका प्रश्न ही नहीं था । बस, एक अपवाद था । वह था
— बाबूजीके घरका प्रसाद । बाबूजीके घरकी प्रत्मयेक वस्तु गोस्वामीजीको ग्राह्य थी
। शौचाचारसे स्बनन्धत एक सरस प्रसंग उस समयका है, जब तीथा-यात्रा रेन मथुरा
स्िेशनपर ठहरी हुई थी । बाबाके ननदेशके अनुसार ठाकु र श्रीघनश्यामजी बरसानेके
एक प्रच्छन्न प्रेमी भक्तके घरसे नभक्षा-प्रसाद ले आये और बाबाको दे नदया । बाबाने
कण-मात्र स्वीकार करके वह नभक्षा-प्रसाद पा लेनेके नलये गोस्वामीजीको दे नदया ।
गोस्वामीजीका ननत्मय-ननयम अभी स्पन्न नहीं हुआ था और इतना ही नहीं,
स्पशाास्पशा-ननष्ठाकी प्रबलताके कारण हर वस्तु ग्राह्य भी नहीं थी । इन दोनों बातोंके
होते हुए भी गोस्वामीजीने नबना नवचार नकये हुए नभक्षा-प्रसादको पा नलया, के वल
इसीनलये नक बाबाने पा लेनेके नलये कह नदया है । ऐसा समपाण-भाव था
गोस्वामीजीका बाबा तथा बाबूजीके प्रनत । अपने समनपात जीवनके कारण गोस्वामीजी
बाबूजीके पररवारके एक ऐसे अनभन्न अंग बन गये थे नक परमादरणीया बाई (
श्रीसानवत्रीबाई फोगला ) उनको चाचाजी कहती थीं और बाईकी चारों सन्ताने उनको
नानाजी कहती थीं । बाईके प्रनत तथा बाईके बालकोंके प्रनत गोस्वामीजीके मनमें
अत्मयनधक दलु ार था । बाबूजीके चले जानेके बाद गोस्वामीजीका वात्मसल्य इन
बालकोंके प्रनत और भी अनधक उमड पडा था ।
समर्पणमूर्त्तप श्रीर्त्िम्मनलालजी गोस्वामी ३२२
सामने यह बात उठायी ही नहीं नक मुझे बीकानेर जाना है । पहले अपने मनके भीतर
बात उठे , तब न दसू रे लोगोंके बीच बात चलायी-उठायी जाये ! उनके मनमें नकसी
प्रकारके संकल्प-नवकल्पका उद्भव हुआ ही नहीं । इस समाचारको सुन करके भी वे
ऐसे नननलाि रहे, मानो यह समाचार बीकानेरसे आया ही नहीं । सच पूछा जाये तो
उनके पररवारवाले अब कहने मात्रके नलये पाररवाररक रह गये थे । अब उनकी समस्त
ममताके के न्ि थे बाबूजी और बाबूजी ही थे उनकी पाररवाररकताकी पररनध —
तन-धन-जन का िन्धन टू टा, छू टा भोग-मोक्ष का रोग ।
धन्य हुई मैं र्त्प्रयतम ! र्ाकर, एक तुम्हारा र्त्प्रय सांयोग ॥
— ये पंनक्तयाुँ गोस्वामीजीके जीवनमें मूनतामान थीं । वस्तुतः गोस्वामीजीकी
‘प्रीनत प्रतीनत जाइ ननहं तरकी’ । गोस्वामीजीके इस समपाण-भावपर बाबा मुग्ध हो
गये । गोस्वामीजी तो बीकानेर गये नहीं । नफर बाबूजीने ही अपने व्यनक्तयोंद्वारा उनकी
नचनकत्मसा तथा प्लास्िरकी व्यवस्था करवायी ।
गोस्वामीजीके भावमय जीवनके अनेक मधुर प्रसंग हैं । सन् १९४९ ई. में
वृन्दावनसे गोरखपुर शहरमें रासमण्डली आयी । तब उस रासमण्डलीमें श्रीघनश्यामजी
ठाकु रस्वरूप धारण नकया करते थे । बाबाके साथ गोस्वामीजी रासलीला देखनेके नलये
गये । लीला बडी सुन्दर हुई । लीलाका रंग गोस्वामीजीके मनपर चढ़ा हुआ था।
लीला-दशानके एक-दो नदन बादकी बात है । गोस्वामीजी अपने घरके कमरे में भूनमपर
लेिे हुए थे । कमरेके एकान्तमें उनका मन उस दृष्ट लीलाके भाव-प्रवाहमें बहा जा
रहा था । उस प्रवाहकी छलक कभी-कभी नेत्रोंके कगारोंको छू लेती थी । तब वे उन
भाव-नवन्दओ ु कं ो धीरे से पोंछ लेते थे । गोस्वामीजी चाहते तो यह थे नक कभी मेरे घर
श्रीठाकु रस्वरूपजी पधारें , परंतु अपने संकोची स्वभावके कारण श्रीठाकु रजीको कहें तो
कै से कहें ? इसी प्रकारके भावोंमें चुपचाप लेिे हुए गोस्वामीजीका मन ननमि था नक
समर्पणमूर्त्तप श्रीर्त्िम्मनलालजी गोस्वामी ३२८
तभी नकसीने चरणोंका स्पशा नकया । नेत्र खोलकर देखा तो ठाकु रस्वरूप श्रीघनश्यामजी
ही प्रणाम कर रहे हैं । अनेक सूत्रोंसे गोस्वामीजीकी गुण-गाथाको सुन करके उनके
प्रनत ठाकु रस्वरूप श्रीघनश्यामजीका नपतृ-भाव हो गया था । उन्हें प्रणाम करते देखकर
गोस्वामीजी नवस्मय-पूररत हो गये । मन अनेक प्रकारके भावोंसे भर गया । “यह
अस्भव आज कै से स्भव हो गया ? आज यह अकल्पनीय कृ पा कै से हो गयी ?
आज यह घर नकस पुण्यके फलस्वरूप पनवत्र हो गया ?” इन सब भावोंका वेग इतना
प्रबल था नक गोस्वामीजी बहुत देरतक जडवत् पडे रहे । अपनी जनडमा नस्थनतके
कारण गोस्वामीजी ठाकु र श्रीघनश्यामजीका पयााि समयतक प्राथनमक स्वागतोपचार
नहीं कर पाये । ठाकु र श्रीघनश्यामजीको नकसी प्रकारके स्वागत-सत्मकारकी अपेक्षा
नहीं थी, नफर भी उन्हें यह बडा अिपिा लगा नक गोस्वामीजी कु छ बोल क्यों नहीं रहे
हैं । भावके शनमत होनेमें कु छ समय तो लग ही गया । जब गोस्वामीजी कु छ प्रकृ नतस्थ
हुए, तब तो गोस्वामी द्पनतने उनका जो स्वागत नकया, जो लाड-चाव नकया, उसकी
कोई सीमा नहीं थी । गोस्वामीजीके उस स्वागतोल्लासको स्मरण करके ठाकु र
श्रीघनश्यामजी आज भी पुलनकत हो उठते हैं । तबसे यह एक पर्परा-सी ही बन
गयी नक जब भी ठाकु र श्रीघनश्यामजी गोरखपुर आयें, उनको गोस्वामीजीके यहाुँ एक
बार भोजन करना ही है । यह क्रम गोस्वामीजीके जीवन भर अखण्ड रूपसे चला ।
गोस्वामीजीके सामने प्रलोभन कम नहीं आये । सबसे बडा प्रलोभन था
शंकराचाया-पदका । श्रीजगन्नाथपुरी नस्थत श्रीगोवधानपीठके पीठानधपनत
अनन्तश्रीनवभूनषत शंकराचाया पूज्य स्वामी श्रीभारतीकृ ष्णतीथाजी महाराजने
गोस्वामीजीकी साधुता और नवद्विासे प्रभानवत होकर उन्हें अपना उिरानधकारी
मनोनीत करनेकी अनभलाषा व्यक्त की । परम पूज्य शंकराचाया श्रीभारतीकृ ष्णतीथाजी
महाराज अद्भतु प्रनतभा स्पन्न उद्भि नवद्वान थे । जब आप सोलह वषाके नकशोर थे,
उस समय आपकी धाराप्रवाह एवं श्रेष्ठ संस्कृ त बोलनेकी क्षमताको देखकर दनक्षण
समर्पणमूर्त्तप श्रीर्त्िम्मनलालजी गोस्वामी ३२९
उनका स्थान बहुत ऊुँ चा है । वे ‘ज्ञानोिर’ भाव-राज्यमें ननत्मय प्रनतनष्ठत हैं । नजस
‘पराभनक्त’ की प्रानि श्रीगीताजीमें ब्रह्मभूत होनेके बाद बतलायी गयी है और नजस
भनक्तके द्वारा मनुष्य भगवानको ् जानकर उसमें प्रनवष्ट हो जाता है, उनके साथ घुल-
नमलकर उनकी लीलाका एक अंग हो जाता है, उनका प्रनतरूप बन जाता है, वह तथ्य
बाबूजीके व्यनक्तत्मवके अन्दर अक्षरशः मूता है । यही नहीं, श्रीकृ ष्ण-प्रेमकी उच्चतम
भूनमकामें वे नस्थत हैं । उनकी मन-बुनद्ध-वाणी सब कु छ श्रीकृ ष्णमय हो गये हैं ।
नवशुद्ध प्रेमाभनक्तका आदशा एवं भगवन्नामकी मनहमाको प्रनतनष्ठत करनेके नलये ही
जगत्में बाबूजीका आनवभााव हुआ है । ‘मनहमा जासु जाइ ननहं बरनी’ — ऐसे
बाबूजीके आन्तररक और वास्तनवक रूपको मनकी आुँखोंसे देख-देख करके
गोस्वामीजीके हृदयमें ‘ननत नव चरन उपज अनुरागा’ । बाबूजीद्वारा जो महान काया
हो रहा है तथा बाबूजीका जैसा अनुपम व्यनक्तत्मव है, उसके स्बन्धमें गोस्वामीजीको
कोई भ्रानन्त नहीं थी । बाबूजीके प्रनत इस प्रकारकी ननभ्राान्त आस्था इतनी अनधक
सुदृढ़ थी और बाबूजीके पास रहनेकी भावना इतनी अनधक प्रबल थी नक शंकराचाया-
पदका सामानजक स्मान एवं आध्यानत्ममक गौरव गोस्वामीजीको अपनी ओर आकृ ष्ट
नहीं कर सका । बाबूजीकी सनन्ननधसे दरू जाना उनको अभीष्ट था ही नहीं । गोस्वामीजी
ननत्मय बाबूजीके सानन्नध्यमें रहे और जीवनके अनन्तम क्षण तक गीतावानिकामें उनका
ननवास रहा । गोस्वामीजीकी ननष्ठा सदा ही बाबाकी वाणी द्वारा चचाा एवं सराहनाका
नवषय बनी रही ।
बाबा गोस्वामीजीकी आस्थाओंकी बडी सराहना नकया करते थे, इस स्बन्धमें
एक बडा सरस प्रसंग षोडशगीतको लेकर है । षोडशगीतके दसवें पदकी छठवीं पंनक्तमें
ननत्मय-ननकु ञ्जेश्वरी श्रीराधाकी उनक्त है —
आठों र्हर िसे रहते तुम मम मन-मर्त्न्दरमें भगवान ।
समर्पणमूर्त्तप श्रीर्त्िम्मनलालजी गोस्वामी ३३३
बाबाके मनमें ऐसा भाव स्फु ररत हुआ नक इस पंनक्तमें ‘भगवान’ शब्दके स्थानपर
कोई अन्य शब्द अथाात् ऐश्वया-भावसे रनहत प्रेनमल शब्द होता तो पदकी भावमयता
और भी सरसीली हो जाती । बाबाकी तथा बाबूजी, दोनोंकी ही स्पष्ट मान्यता है नक
ननत्मय-ननकु ञ्जेश्वरी श्रीराधा एवं ननत्मय-ननकु ञ्जेश्वर श्रीकृ ष्ण साक्षात् भगवती-भगवान
हैं, परंतु परम प्रेमके मधुर राज्यमें उनकी यह भगविा प्रसुि रहती है । इन परस्पर ननत्मय
परम प्रेमी-प्रेमास्पद युगलका जो परम मधुर प्रेम-नसन्धु है, उस नसन्धुके अतल-
तलमें उनकी भगविा नछपी रहती है। उस भगविाकी अनभव्यनक्त क्वनचत् ही होती है
और होती है तभी, जब कभी नकसी लीलाको स्पन्न करा देनेमें उस भगविाकी
आवश्यकता हो । कभी-कभी लीलाको स्पन्न करा देनेके नलये ही उस ऐश्वया-शनक्त
भगविाको नकं नचत् सेवा करनेका अवसर नमल जाता है, अन्यथा वह भगविा
सवाथा-सवाथा प्रसुि-प्रच्छन्न रहती है । षोडशगीत सनच्चन्मय प्रेम-राज्यकी परम
सरस वस्तु है, अतः बाबाने अपनी भावनाको समझाते हुए बाबूजीसे कहा — इस
पंनक्तमें ‘भगवान’ शब्दके स्थानपर यनद कोई अन्य सरस शब्द प्रयुक्त हो तो इस पदकी
सरसता और भी अनधक समृद्ध हो जायेगी ।
बाबूजीने कहा — आप जैसा कहें, जो भी कहें, मैं वैसा ही कर दगुँ ू ा । बाबाके
मनमें उस समय जो पंनक्त स्फु ररत हुई, वही पंनक्त बाबाने बाबूजीको बता दी —
‘आठों र्हर सरसते रहते तुम मन सरवरमें रसवान’ ।
बाबूजीने बाबाके सुझावकी बडी सराहना की और यह पंनक्त ज्यों-की-त्मयों
स्वीकार कर ली । पदमें पुरानी पंनक्तके स्थानपर इस नवीन पंनक्तको रख नदया । बाबूजी
इस पररवतानसे प्रसन्न थे ।
नफर यह बात बाबाने गोस्वामीजीको बतलायी । गोस्वामीजीने नवनम्र शब्दोंमें
कहा — बाबा ! क्या यह पररवतान आवश्यक है ?
समर्पणमूर्त्तप श्रीर्त्िम्मनलालजी गोस्वामी ३३४
बाबाकी कु नियाका अनत एकान्त स्थल, उस स्थलके नकन्हीं परम पुण्यमय पावन
क्षणोंमें बाबासे उनकी चरण-पादकु ा गोस्वामीजीको प्राि हुई और गोस्वामीजीने उनको
अपने मस्तकपर धारण कर नलया । बाबाकी उस चरण-पादकु ाकी अचाना गोस्वामीजी
आजीवन करते रहे और अब उन्हीं चरण-पादकु ाकी अचाना नकसी अनचन्त्मय
सौभाग्यसे बनहन नवमलाको प्राि है । बाबाकी यह चरण-पादकु ा आज भी बनहन
नवमलाके पूजाघरमें नवराज रही है, जहाुँ उनकी ननत्मय अचाना होती है ।
अपने जीवनकी अनन्तम अवनधमें गोस्वामीजी सात-आठ मास बहुत अनधक
अस्वस्थ रहे । गीतावानिकाके अनत समीप एक मकानमें गोस्वामीजी रहा करते थे ।
उनकी व्यानध और पीडाको देखकर बाबा उन्हें गीतावानिका ले आये । गीतावानिकाके
नजस भवनमें बाबूजी रहा करते थे, उसी भवनके एक कमरे में गोस्वामीजीको रखा गया
। गोस्वामीजीकी नचनकत्मसा एवं सुँभाल पूणा तत्मपरताके साथ होने लग गयी । रोग-
शय्यापर पडे हुए गोस्वामीजीका शरीर अत्मयनधक कष्टसे पीनडत था । रुग्ण
गोस्वामीजीकी नचनकत्मसा और पररचयाामें नजतना समय और जैसा ध्यान बाबाने नदया,
उसको देखकर नवस्मय होता है । इस कष्टकी नस्थनतमें भी गोस्वामीजीके अधरोंपर एक
ही वाक्य था — नाथ ! तु्हारी ही इच्छा पूणा हो ।
गोस्वामीजीकी भीषण रुग्णताको देखकर बाबाने कहना आर्भ कर नदया था नक
अब चलाचलीका मेला है और गोस्वामीजी अनधक नहीं रह पायेंगे । एक बार
पररचयाा-रत व्यनक्तयोंको ऐसा लगा नक गोस्वामीजी स्भवतः करवि बदलना चाहते
हैं अथवा बोलकर कु छ कहना चाहते हैं। उन व्यनक्तयोंने पूछा — आप क्या चाहते हैं
?
उनसे गोस्वामीजीने कहा — ‘मैं कु छ नहीं चाहू’ुँ , बस, यही चाहता हू ुँ । असह्य
वेदनाके होते हुए भी गोस्वामीजीने यह नहीं कहा नक उन्हें औषनध अथवा उपचारकी
समर्पणमूर्त्तप श्रीर्त्िम्मनलालजी गोस्वामी ३३६
शवका अनन्तम स्नान उस पनवत्र नमट्टीको धोकर एकनत्रत नकये गये जलसे ही करवाया
जाये ।
पर्परा ऐसी है नक शवका अनन्तम स्नान गंगा-जलसे करवाया जाना चानहये,
परतु इन अनोखे समनपातात्ममाकी अनभलाषा थी नक गंगा-जलसे स्नान कराये जानेके
उपरान्त भी एक और स्नान अपने जीवनधनकी पावन समानधके प्रसादी जलसे
करवाया जाये । गोस्वामीजीने सारे जीवन वैष्णव सदाचार, धमा-मयाादा, सा्प्रदानयक
नैनष्ठकता, कु ल-पर्पराको महत्त्व प्रदान नकया था, परंतु आज वे सब एक नकनारे हो
गये और सवोपरर स्थान नमला प्रीनतकी ननराली रीनतको ।
नवदाईको समीप देखकर गोस्वामीजीने जाने-अनजाने हुई भूलोंके नलये और
इच्छा-अननच्छापूवाक नकये गये किु व्यवहारोंके नलये सभीसे क्षमा याचना की । नजन
स्वजनोंने अनन्तम रुग्णावस्थाके समय पररचयाा की थी, उनकी सेवा-भावनाको देखकर
गोस्वामीजीका हृदय भर-भर आ रहा था । उन्होंने सजल नेत्रोंसे और उन्मुक्त हृदयसे
सभीको आशीवााद नदया तथा कहा — मैं तो सवाथा अनकञ्चन हू ुँ । मेरे पास इस
सेवाके बदलेमें दे सकने योग्य कु छ भी नहीं है, परंतु मेरे आराध्य इस एक-एक सेवाका
अनन्त गुणा पुरस्कार तुम सबको अवश्य देंगे, यह मेरे अन्तरकी अनन्तम आशीष है ।
बाबा और बाबूजीमें सवाथा अभेद माननेके कारण गोस्वामीजीने बाबाके समक्ष
एक बार अपनी एक अन्तरंग अनभलाषा व्यक्त की — जीवनके अनन्तम श्वासके समय
यह शरीर आपसे संपृक्त रहे ।
इस अनभलाषाको सुनकर बाबाने एक मधुर मुस्कान नबखेर दी । बाबाने कु छ भी
उिर नहीं नदया, परंतु गोस्वामीजीके इस मनोरथको अपने हृदयके कोनेमें नछपाकर रख
नलया । हृदयकी गुहामें नछपाकर रखे गये इस तथ्यकी जानकारी भला नकसी अन्यको
कै से हो सकती थी ? अत्मयनधक रुग्ण गोस्वामीजीकी नस्थनत ज्यों ही ग्भीर होने लगी
समर्पणमूर्त्तप श्रीर्त्िम्मनलालजी गोस्वामी ३३९
हुआ, तो वे स्वयं इनके नपताजीके पास आये और उन्हें इनको आगे पढ़ानेके नलए
बारंबार आग्रह करके सहमत नकया । श्रीनतवारीजी गोस्वामीजीकी प्रनतभाके पारखी
थे और इनके प्रनत नवशेष प्रेम रखते थे ।श्रीनतवारीजीके प्रयाससे इन्होंने दसवीं परीक्षा
प्रथम श्रेणीमें उिीणाकी और उच्च अध्ययन हेतु वाराणसी गये ।
बीकानेरसे राजकीय छात्रवृनि प्राि करके इन्होंने वाराणसीके क्वींस कॉलेजमें
नहंदी,अंग्रेजी, संस्कृ त और दशानशास्त्र आनद नवषयोंका गहन अध्ययन नकया ।
तत्मपश्चात इन्होंने काशी नहंद ू नवश्वनवद्यालयसे सन् १९२२ ई० में संस्कृ त नवषयमें दशान-
ग्रुपसे मास्िर ऑफ आर्टसा ( Master of Arts ) की उपानध प्रथम श्रेणीमें प्राि की ।
ये अपनी प्रखर प्रनतभा और शालीन आचरणके कारण पंनडत श्रीमदनमोहनजी
मालवीय सनहत समस्त गुरुजनोंके अत्मयंत नप्रय नशष्य थे । पंनडत श्रीगोपीनाथजी
कनवराज, प्रोफे सर श्रीजीवनशंकरजी यानज्ञक प्रभृनि नवद्वान इनसे अत्मयतं प्रभानवत थे
और उनका आजीवन इनसे संपका रहा । वे कई बार इनसे नमलने गोरखपुर भी पधारे ।
गोस्वामीजीकी अनुपनस्थनतमें एक बार प्रोफे सर श्रीजीवनशंकरजी यानज्ञक बीकानेर
आये और गोस्वामी चौकमें इनका जन्मस्थान देखने गये । उस समय गोस्वामीजी
‘कल्याण-कल्पतरु’ के संपादक थे । उन्होंने ( श्रीयानज्ञकजीने ) गोस्वामीजीके
जन्मस्थानको प्रणाम नकया और मुक्त-कण्ठसे अपने नशष्यकी चचाा करते रहे । नकसी
गुरुकी अपने नशष्यके प्रनत ऐसी श्रद्धाका उदाहरण नबरला ही प्राि होता है । पंनडत
श्रीमदनमोहनजी मालवीय भी अपने कायोंमें इनका सहयोग लेते थे और इनकी
योग्यताके कारण उन्होंने इन्हें अपना ननजी सनचव ननयुक्त नकया था । ये कु छ काल इस
पदपर कायारत रहनेके पश्चात् नफरोजाबादमें अल्पावनधके नलए एक हाईस्कू लमें
हेडमास्िर रहे और तत्मपश्चात बीकानेर लौि आये ।
समर्पणमूर्त्तप श्रीर्त्िम्मनलालजी गोस्वामी ३४२
श्रुनत परंपरासे यह नवनदत होता है नक इनके काशीसे M.A. प्रथम श्रेणीमें उिीणा
करके बीकानेर प्रत्मयागमनपर बीकानेर-नरे श महाराजा श्रीगंगानसंहजीके द्वारा उनके
स्मानमें अलंकृत हाथी स्िेशन भेजा गया । संभवतः ये बीकानेरके सवाप्रथम व्यनक्त
थे, नजन्होंने एम .ए. प्रथम श्रेणीमें उिीणा नकया था । यहाुँ ये राजनैनतक नवभागमें
ननयुक्त हुए और अपनी काया दक्षताका पररचय देते रहे । ये बीकानेर राज्यके प्रधानमंत्री
और चीफ काउंसलर सर मनुभाई मेहताके ननजी सनचव भी रहे । इसके अनतररक्त
इन्होंने जैन पाठशाला और वाल्िर नोबल स्कू लके नप्रंनसपल पदपर भी काया नकया ।
‘स्वदेशे र्ूज्यते राजा र्त्विान् सवपत्र र्ूज्यते’ — यह उनक्त इनके जीवनमें
पूणातया चररताथा हुई । ये नजस पदपर भी रहे, अपनी नवद्वताके कारण सभीकी दृनष्टमें
स्माननीय रहे ।बीकानेर-नरे श महाराजा श्रीगंगानसंहजी भी इन्हें अत्मयतं आदर देते थे
। वे इन्हें महाराज संबोनधत करते और अपने समक्ष कु सी पर बैठाते थे । सर मन्नूभाई
मेहताके मनमें भी इनके प्रनत आदर भाव रहा । इनका नहंदी, संस्कृ त और अंग्रेजी तीनों
भाषाओंपर पूणा अनधकार था । साथ ही इनकी भाषा शैली अत्मयतं उच्च कोनि की थी
। ये सवाथा उपयुक्त शब्दका प्रयोग करते थे । एक बार महाराजा श्रीगंगानसंहजी और
सर मन्नूभाई मेहताका एक शब्दके प्रयोगके नवषयमें मतभेद हुआ । महाराजा
श्रीगंगानसंहजीकी स्मनत सर मेहताद्वारा प्रयुक्त शब्दके स्थानपर नकसी अन्य शब्दके
प्रनत थी, नकं तु उस प्रयोगसे सर मेहता संतष्टु नहीं थे । अतः इस नवषयमें
श्रीगोस्वामीजीकी सलाह ली गई और उन्होंने दोनों ही शब्दके स्थानपर एक अन्य
शब्दका प्रयोग नकया । इस शब्दके प्रयोगसे दोनों ही पक्ष सहमत थे ।
संयोगवश पूज्य भाईजी श्रीहनुमानप्रसादजी पोद्दारका सन् १९२८ ईस्वीमें बीकानेर
आगमन हुआ । उनके स्वागतमें नगरमें संकीतानका आयोजन हुआ । तत्मपश्चात्
श्रीपोद्दारजीका प्रवचन भी हुआ । गोस्वामीजी उनके प्रवचनसे अत्मयतं प्रभानवत हुए
समर्पणमूर्त्तप श्रीर्त्िम्मनलालजी गोस्वामी ३४३
पत्मनी सनहत सन् १९३३ ई. में गोरखपुरमें स्थायीरूपसे ननवास हेतु आ गये ।
गोस्वामीजीके शुभ-आगमनसे पोद्दारजीको प्रसन्नता हुआ । वस्तुतः पोद्दारजीकी
अनभलाषा कल्याण पनत्रकाको नवश्वव्यापी बनानेकी थी । उन्हें गोस्वामीजीके रूपमें
एक सरल संत और नवद्वान् व्यनक्तका सहयोग नमला, नजसके माध्यमसे वे कल्याणके
समकक्ष एक पनत्रका अंग्रेजी भाषामें प्रकानशत कर अपनी योजनाको नक्रयानन्वत कर
सके । कल्याण-कल्पतरु नामक अंग्रेजी पनत्रकाका प्रकाशन गीताप्रेसद्वारा सन् १९३४
से प्रारंभ हुआ । श्रीनच्मनलालजी गोस्वामी इस पनत्रकाके संपादक थे । इनके
संपादकत्मवमें कल्याण-कल्पतरुकी नवषय सामग्री, स्तर और सज्जा कल्याणके ही
समकक्ष थी । वे नहंदी पनत्रका कल्याणके संपादनमें भी सहयोग प्रदान करते थे । अतः
उनका नाम पूज्य श्रीहनुमानप्रसादजी पोद्दारके साथ संपादकके रूपमें सन् १९३९ ई.
से कल्याणमें भी प्रकानशत होने लगा । इनकी नवद्वताका ननखरा रूप गीताप्रेससे
संबंनधत होनेपर ही प्रस्तुत हुआ । यहाुँ इनकी लेखनीसे ऐसे वैदष्ु यपूणा एवं सारगनभात
सानहत्मयकी रचना हुई नक समस्त नवद्वत समाज नतमस्तक हो गया ।
इनके संपादकत्मवमें कल्याण-कल्पतरुके नन्ननलनखत नवशेषांक प्रकानशत हुए
— ईश्वर-अंक, गीतांक, वेदांत-अंक, श्रीकृ ष्ण-अंक, भगवन्नामांक, धमातत्मव-
अंक, योगांक, भक्तांक, श्रीकृ ष्णलीला-अंक और गो-अंक । इसके अनतररक्त इनके
श्रीमद्भगवद्गीताकी तत्मवनववेचनी िीका, श्रीरामचररतमानस, श्रीमद्भागवत महापुराण
तथा वाल्मीनक रामायणके अंग्रेजी अनुवाद भी प्रकानशत हुए । श्रीपोद्दारजीके
ननत्मयलीलालीन होनेके पश्चात् तो इन्होंने ही कल्याणका संपूणा उिरदानयत्मव वहन नकया
। इनके संपादनकालमें तीन नवशेषांक — श्रीराम-अंक, श्रीनवष्णु-अंक, श्रीगणेश-
अंक प्रकानशत हुए, नजनका स्तर पूवाके नवशेषांकोके समकक्ष ही था । इन्होंने
सूरदासजीके भ्रमरगीतके कई सौ पदोंका नहंदी अनुवाद, राधा-सुधा-नननधके 270
श्लोकोंका पदच्छे द, अन्वय और अथा सनहत िीकाके संपादनका काया नकया । इसके
समर्पणमूर्त्तप श्रीर्त्िम्मनलालजी गोस्वामी ३४५
भी मृदतु ा एवं प्रेम पूणा व्यवहार इनके स्वभावका अंग था । इनके व्यनक्तत्मवका स्पशा
महत्मवाकांक्षा या आत्ममप्रशंसा जैसी मानवीय कमजोररयाुँ नहीं कर पायी थीं । ये अपने
द्वारा स्पन्न प्रत्मयेक कायाका श्रेय ईश्वरको ही देते थे । स्वयंको तो सवाथा अयोग्य और
अल्पज्ञ ही कहते थे । पोद्दारजीके नदवंगत हो जानेपर कल्याणका उिर दानयत्मव
संभालनेपर उनका नलखा ननवेदन इसका प्रमाण प्रस्तुत करता है । वस्तुतः पूज्य
श्रीपोद्दारजी और उनके अनभन्न-स्वरूप पूज्य श्रीराधाबाबाकी इच्छाको आज्ञा रूपमें
मानना और ननरनभमानी होकर कायाके प्रनत पूणा ननष्ठा ही इनके जीवनका लक्ष्य था ।
इन्हें कायाके प्रनत ननष्ठाके कारण कभी भी कायाकी अनधकता या कायाभार जैसी
कनठनाइयोंका अनुभव नहीं हुआ । इन्होंने कायाके प्रनत समपाणका अनुपम आदशा
प्रस्तुत नकया । इसके पररणाम-स्वरूप कल्याण पत्र नजसका प्रवतान नवशुद्ध रूपसे
लोकनहत-साधनके उद्देश्यसे हुआ था और नजसका लक्ष्य समाजके नैनतक स्तरको
उन्नत करना था, इनके जीवनकालमें उत्मकृष्टताके उच्च नशखर पर पहुचुँ गया । इनकी
अद्भतु प्रनतभा एवं उद्दाि गुणोंसे मुग्ध होकर श्रीजगन्नाथपुरीके गोवधानपीठाधीश्वर
शंकराचाया स्वामी श्रीभारतीकृ ष्णतीथाजीने इन्हें अपना उिरानधकारी मनोनीत करनेकी
अनभलाषा रखी । वंदनीय भारतीय धमााचाया ‘सरस्वती-पुत्र’ की उपानधसे नवभूनषत
श्रीभारतीकृ ष्णतीथाजी वेदानदके महापंनडत एवं अनेक पुस्तकोंके लेखक थे । ऐसे
मनस्वी नवद्वान् धमााचायाका प्रभानवत होकर शंकराचायाका पद प्रदान करना वास्तवमें
अत्मयतं गौरवका नवषय था, नकं तु गोस्वामी जी तो इस लोकके प्राणी ही नहीं थे ।
उन्होंने अत्मयतं नवनम्रतासे यह प्रस्ताव अस्वीकृ त कर नदया । उनका मानना था नक
धमाप्रचारका जो काया श्रीआनदशंकराचायाजीके द्वारा नकया गया, वही काया पूज्य
श्रीपोद्दारजी गीताप्रेसके माध्यमसे कर रहे हैं ।
समर्पणमूर्त्तप श्रीर्त्िम्मनलालजी गोस्वामी ३४७
सुनकर श्रोता भावनवभोर होते थे और उनकी आुँखोंसे आुँसूकी धारा प्रवानहत हो जाती
थी । ये स्वयं भी गाते हुए भाव राज्यमें पहुचुँ जाते थे । नबना नकसी वाद्यके बुलंद
आवाजमें गायन इनकी नवशेषता थी । ये संस्कृ त श्लोकोंका भी सस्वर उच्चारण अत्मयंत
मधुरतासे करते थे । गुरुजनोंका कहना है नक इनके गायनमें स्वरोंकी ही नहीं श्रुनतयों
तकका माधुया दृनष्टगत होता था । इन्होंने ऑल इंनडया ्यूनजक कॉन्रें समें भी भाग
नलया था ।
श्रीगोस्वामीजीकी कोई संतान नहीं थी । नकं तु इन्होंने पोद्दारजीकी पुत्री और अपनी
छोिी बहन श्रीमती नवमला देवीके बच्चोंको अपनी संतान समझा । श्रीमती
नवमलादेवीके बच्चे गोरखपुरमें रहते थे और वे इन्हें नपता तुल्य समझते थे ।
गोस्वामीजीके नपताजी श्रीबृजलालजीके जीवनकालमें तो ये गोरखपुरसे बीकानेर
आते रहते थे, पर उनके नदवंगत हो जानेके पश्चात् इन्होंने मोहत्मयागके प्रथम सोपानके
रूपमें बीकानेर न आनेका व्रत नलया । यद्यनप इसे ननभानेमें कई कनठनाइयाुँ आयीं,
क्योंनक बीकानेर उनकी जन्मभूनम तो थी ही सभी ररश्तेदार भी यहीं थे ।
इसके बाद इन्होंने जीवनमें कई त्मयाग नकये । जीवनकी अंनतम अवस्थामें ये सात
माह अस्वस्थ रहे ।उस समय उन्होंने स्वयंको पूणातया भगवानमें् लीन कर नलया था ।
अत्मयनधक वेदना होने पर भी इनके मुखसे सदैव भगवन्नामकी ध्वनन ही ननकलती ।
यनद कोई व्यनक्त इनके कष्टको देखकर इनके प्रनत सहानुभूनत प्रकि करता, तो वे इसे
प्रभुका मंगल नवधान बताकर संतोष नदलाते थे । भगवानकी ् लीलासे स्बनन्धत पद
सुनना ही उन्हें उस समय अत्मयतं नप्रय था । इनके जीवनका पिाक्षेप वैशाख मासके
शुक्लपक्षकी चतुदाशी अथाात् श्रीनृनसंह चतुदाशी, संवत् २०२१ नव० ( ५ मई १९७४
ई.) को हुआ था ।
समर्पणमूर्त्तप श्रीर्त्िम्मनलालजी गोस्वामी ३४९
कलम चलती रहती । गोस्वामीजी जाने नकतने नदनोंतक इसी तरह लगे रहे । उनका
मानना था नक रामचररतमानस के वल एक ग्रंथ मात्र नहीं है बनल्क एक आंदोलन है ।
राम साक्षात् परब्रह्म हैं । यह ग्रंथ व्यनक्तके चररत्र ननमााणमें अत्मयतं सहायक है । इसका
एक-एक पद मंत्रसे कम नहीं है ।
वहाुँ नजतने भी नवद्वान उपनस्थत थे सबकी राय यह बनी नक तुलसीदासजीने करीब
चार सौ वषा पूवा इस महाकाव्यकी रचना की थी परं तु इसे सजाया-संवारा
श्रीनच्मनलालजीने है । श्रीशांतनुनबहारीजी ( स्वामी श्रीअखण्डानन्दजी सरस्वती ) ने
तो इसे ‘गोस्वामीसे गोस्वामीतककी अर्त्नवपिनीय यात्रा’ का नाम नदया ।
र्त्नष्ठाके प्रतीक
( आदरणीया श्रीमती अिलनर्त्न्दनीजी श्रीवास्तव )
नकसीने कहा नक जरा आजका मुहूता देख नलया जाये । गोस्वामीजी हुँसकर बोले
— “गुरु और माता-नपताके घर जानेके नलये मुहूता नहीं देखा जाता”, और वे उसी
नदन आ गये । अब तो बाबा एकसे अनधक बार भी आ जाते । कई बार सामने ही
नखलाते-नपलाते । गोस्वामीजी नखडकीसे पूरी पररक्रमाका दशान करते । नफर तो वे
अंततक वहीं रहे । अंत समयमें बाबा उपनस्थत रहे ही ।
एक और घिना स्मरण आ रही है — जब पूज्य बाबूजी ( पूज्य श्रीभाईजी )-
की समानध बनी, और बाबाने िीनशेडके नीचे रहना शुरू नकया, तो जब भी
गोस्वामीजी बाबाके पास आते, सीधी पगडंडीसे आकर बाएुँ मुडकर बाबाके पास
पहुचुँ जाते, पर लौिते समय कभी उस पगडंडीसे नहीं लौिते । पता चला नक वे पूज्य
बाबूजीकी समानधको अपने बाएुँ ओर नहीं होने देते थे । सदा दाई ं ओर रखते थे । ऐसे
ही हमारे बाबा पूवाकी ओर नसरहाना रखते, पर यनद करवि बदलनेकी इच्छा होती तो
नसरहाना पैताना उलि लेते । क्योंनक समानधकी ओर पीठ नहीं करते थे । नींदमें भी
चूक नहीं होती । ऐसे थे ये लोग, और इनकी तमाम गाथाएुँ ।
नवनम्र श्रद्धांजनल !!
आवयार्त्वमक सार्त्हवय-सम्र्ादनकी यशस्वी
र्रम्र्राओांके सांवाहक :
श्रीर्त्िम्मनलालजी गोस्वामी
( श्रीभानुस्वरूर्जी गोस्वामी, सम्र्ादक—तैलगां कु लम् )
श्रीगंभीरचंदजी दजु ारीके वयोवृद्ध पुत्र श्रीहररकृ ष्णजी दजु ारीके अनुसार — जब
गीताप्रेसने रामचररतमानसके प्रकाशनका ननणाय नलया तो भाईजीने रामचररतमानसकी
प्राचीन पाण्डु नलनपयोंकी खोज प्रार्भ की ।
इस क्रममें वे स्वयं श्रीतुलसीदासजीकी जन्मस्थली राजापुर ( नचत्रकू ि ) जाने
वाले थे, पर अत्मयनधक व्यस्तताके कारण उन्होंने अपने स्थानपर श्रीनच्मनलालजी
गोस्वामी एवं श्रीगंभीरचंदजी दजु ारीको राजापुर भेजा, जहाुँ खोज करनेपर उन्हें
अयोध्याकाण्डकी एक हस्तनलनखत पुरानी पाण्डु नलनप नमली । दोनोंने अपनी
हस्तनलनपमें इसकी प्रनतनलनप तैयार की, नफर वे श्रावणकुं ज ( अयोध्या ) गये और
वहाुँसे प्राि बालकाण्डकी हस्तनलनखत पाण्डु नलनपकी प्रनतनलनप तैयार की । सारी
सामग्रीको एकत्र कर दोनों गोरखपुर वापस आ गये । इस बीच, श्रीनच्मनलालजी
गोस्वामीके नपताजीका स्वास्थ्य बहुत खराब हो गया और उन्हें ( श्रीनच्मनलालजी
गोस्वामीको ) बीकानेर जाना पडा । उनके साथ नहंदी व संस्कृ तके नवद्वान पं.
श्रीनन्ददलु ारे जी वाजपेयी भी बीकानेर गये, जो गीताप्रेसमें ही संपादकीय नवभागमें
काम करते थे ।
दोनोंने बीकानेरमें पाण्डु नलनपयों पर नवचार-नवमशा, नचंतन और शोध नकया । इस
दौरान वे श्रीभाईजीके संपका में भी बने रहे, जो राजस्थानमें नस्थत अपने पैतृक ननवास
— रतनगढ़में थे और वहीं से ‘कल्याण’ का संपादकीय-काया देख रहे थे । उिर
प्रदेशमें लखीमपुर नजलेके धौरहरा नस्थत दलु हीग्रामसे सुन्दरकाण्डकी जो पाण्डु नलनप
नमली, उसे संभवतः श्रीतुलसीदासजीने हाथसे नलखा है ।
श्रद्धेय श्रीहनुमानप्रसादजी पोद्दार नलखते हैं — “बहुत खोजने और जाुँच-
पडताल करनेपर समयकी दृनष्टसे हमें तीन प्रनतयाुँ पुरानी नमलीं — एक
श्रीअयोध्याजीके श्रावणकुं जका बालकाण्ड जो संवत् १६६१ का नलखा है, दसू रा
समर्पणमूर्त्तप श्रीर्त्िम्मनलालजी गोस्वामी ३६१
बहुत वषोंतक । मैं बचपनमें एकादशीका व्रत करती थी । अतः उनके घर शाकाहार (
फलाहार ) के नलए जाती थी । नवशेष अवसरोंपर कभी-कभी वे स्वयं भोजन परोसते
थे हम बच्चोंको । अनेक पाररवाररक स्मृनतयाुँ है नजनमें उनकी अननवाचनीय
आत्ममीयताकी झलक है, जो भूलाये नही भूलती ।
अपनी श्रेष्ठताका अनभमान, अपनी नवद्विाका प्रदशान कभी नकं नचत भी करना
उन्हें पसंद नही था । वे एक श्रेष्ठ गायक भी थे । गीतावानिकाका कोई भी उत्मसव—
आयोजन उनके द्वारा गाये भजनोंके नबना अधूरे थे ।
श्रीगोस्वामीजीकी योग्यता, नवद्वता, ननष्ठा, भनक्त, श्रद्धा तथा कमाठतापर नलखनेमें
मेरी कलम तथा बुनद्ध सवाथा नववश है । मैं उनकी नवशेषताओंपर नलखनेमें अपनेको
अयोग्य पाती हू ुँ । मेरी ओरसे उन्हें शत् शत् नमन । इत्मयलम् !!
र्त्शवोदर्त्ध
नम्र र्त्नवेदन
भनक्त-रसमें व्रज-रसकी माधुरी अनुपमेय है । भगवान् श्रीव्रजेन्िनन्दनने व्रजमें
प्रकि रहकर रसकी जो मधुरानतमधुर धारा बहायी, उसकी जगत्में क्या, नवश्व-
ब्रह्माण्डमें कोई तुलना नहीं है । बडे-बडे योगीन्ि-मुनीन्ि तथा ज्ञानी-नवज्ञानी इस
रसके नलये तरसते हैं । भाईजी ( श्रीहनुमानप्रसादजी पोद्दार )-ने समय-समयपर इस
नवषयपर ‘कल्याण’ के नलये नलखे गये लेखोंमें, नवशेष अवसरोंपर पढ़े गये नलनखत
व्याख्यानोंमें तथा व्यनक्तगत पत्रोंके रूपमें जो कु छ नलखा है तथा दैननक सत्मसंगमें
अथवा अन्य समारोहोंमें मौनखकरूपसे जो कु छ कहा है, वह आध्यानत्ममक जगतकी ्
एक अमूल्य नननध है । सहृदय पाठक-पानठकाओंका बहुत नदनोंसे यह आग्रह रहा है
नक उनके व्रज-रस-स्बन्धी लेखों, पत्रों आनदका एक स्वतन्त्र संग्रह पुस्तकरूपमें
प्रकानशत नकया जाय । प्रस्तुत ग्रन्थ उसी आग्रहका सुमधुर फल है । अवश्य ही इस
संग्रहमें उनके उन्हीं लेखों, व्याख्यानों तथा पत्रों आनदका आंनशक समावेश हुआ है,
जो मधुर रस अथवा कान्ताभावसे स्बन्ध रखते हैं । उनके इतर रस-स्बन्धी लेख
आनद प्रायः इसमें नहीं आ पाये हैं । इनके अनतररक्त उन्होंने मौनखक प्रवचनों एवं
व्यनक्तगत पत्रोंमें इस नवषयपर इतना अनधक कहा और नलखा है नक वह सब तो
संगृहीत हो ही नहीं सकता ।
नवषयको भलीभाुँनत हृदयंगम करानेके नलये एकनत्रत सामग्रीको सात प्रकरणोंमें
बाुँिा गया है । पहले प्रकरणका शीषाक है—‘श्रीराधा’ । कहना न होगा नक व्रज-
रसके प्राण श्रीव्रजराजकु मारकी आत्ममा श्रीरानधका हैं—‘आत्ममा तु रानधका तस्य ।’
एक रूपमें जहाुँ श्रीराधा श्रीकृ ष्णकी आरानधका—उपानसका हैं, दसू रे रूपमें वे उनकी
आराध्या उपास्या भी हैं—‘आराध्यते असौ इनत राधा’ । शनक्त और शनक्तमानमें्
वस्तुतः कोई भेद न होनेपर भी भगवानके् सनवशेष रूपोंमें शनक्तकी प्रधानता है ।
समर्पणमूर्त्तप श्रीर्त्िम्मनलालजी गोस्वामी ३६८
भनक्तक्षेत्रकी तो अमूल्य नननध होगी ही, समाजके पतनोन्मुख नैनतक स्तरको भी उन्नत
करनेमें सक्षम होगा ।
चौथे प्रकरणका शीषाक है—‘भावराज्य और लीलारहस्य’ । इसमें
भावराज्यकी लोकोिर मनहमा, ज्ञानराज्यकी सीमाको पार करनेपर भावराज्यमें प्रवेशके
नलये अनधकारकी प्रानि, भावराज्यमें नप्रया-नप्रयतमका ननत्मय लीलानवहार,
भगवदवतारका रहस्य तथा श्रीकृ ष्णकी माखन-चोरी, चीरहरण एवं रासक्रीडा आनद
मधुरानतमधुर, नकं तु तका शील व्यनक्तयोंको भ्रनमत कर देनेवाली नवनवध नदव्य
लीलाओंका ममा बडी ही सुन्दर एवं सुबोध शैलीसे समझाया गया है, नजसे पढ़कर
उनके स्बन्धमें अज्ञानवश की जानेवाली अनेकानेक शंकाओंका स्यक्तया ननराकरण
हो जाता है । रासलीलाके स्बन्धमें प्राचीन आचायों एवं अन्य महानुभावोंके कई मत
हैं । कु छ लोग इसे आध्यानत्ममक रूपक मानते हैं, कोई-कोई इसे कामनवजयकी लीला
कहते हैं—इत्मयानद । इन सभी मतोंकी समीक्षा करते हुए श्रीभाईजीने यह बतलाया है
नक यह तो भगवानका ् आत्ममरमण—अपनी स्वरूपभूता श्रीगोपीजनोंके साथ रमण है,
नजसके द्वारा प्रभुने यह नदखलाया है नक लोक-वेद—सबका त्मयाग करके उनपर
अपने-आपको न्योछावर कर देनेवाले भक्तोंको नकस प्रकार वे अपना स्वरूपदान करते
हैं, सवाथा उनके अधीन हो जाते हैं । श्रीकृ ष्णका यह रमण वस्तुतः ‘स्वरूप-नवतरण’
ही है। इसी प्रसंगमें यह भी बताया गया है नक भगवान् श्रीकृ ष्णका स्पूणा चररत्र
परमोज्ज्वल एवं आदशा होनेपर भी उनकी सभी लीलाएुँ अनुकरणीय नहीं हैं तथा
सबका अनुकरण करने जाकर मनुष्य पतनके महान् गतामें नगर जायगा । भक्त-नशरोमनण
सम्राि् परीनक्षतके् द्वारा रासलीलाके प्रसंगमें शंका उठाये जानेपर श्रीमद्भागवतके वक्ता
स्वयं शुकदेव मुनन इस प्रकारकी चेतावनी बहुत पहले हमलोगोंको दे गये हैं ।
समर्पणमूर्त्तप श्रीर्त्िम्मनलालजी गोस्वामी ३७१
जो कु छ नलखा गया है, उन्हींकी प्रेरणासे नलखा गया है, अथवा यों कहें तो कोई
अत्मयनु क्त न होगी नक उन्होंने ग्रन्थकारके हृदयमें नस्थत होकर नलखा है ।
प्रस्तुत ग्रन्थमें व्रज-रसका नसद्धान्तपक्ष उपन्यस्त नकया गया है । लीलापक्षका
इसमें नवशेष रूपमें समावेश नहीं है ।
अन्ततोगत्मवा हमारी श्रीभाईजीसे नवनीत प्राथाना है नक वे हमारी प्रसन्नताके नलये
ही प्रस्तुत ग्रन्थपर नवहंगम दृनष्ट डालकर यनद उन्हें ऐसा लगे नक इस नवषयका कोई
आवश्यक अंग छू ि गया है तो उसे कृ पया पूरा कर दें, नजससे अगले संस्करणमें उसे
जोड नदया जाय ! श्रीराधाकृ ष्णापाणमस्तु ।
कभी ननराश न हो, संसारकी असारतापर नवचार करे , अपने आचरणको भगवान्के
अनुकूल बनानेका अथक प्रयत्मन करे तथा अपने अंदर दैवी-स्पदाका अजान करे
और अपने पनवत्र जीवनके शुद्ध कल्याणमय आचार-नवचारके द्वारा जनसमूहके सामने
ऐसा आदशा रखे, नजससे अनधक-से-अनधक नर-नारी भगवानकी ् ओर अग्रसर हो
सकें । इस संग्रहका बार-बार मनन करनेपर पाठकोंको इन सभी नदशाओंमें प्रचुर
प्रकाश प्राि होगा और अपने जीवनको भगवन्मुखी बनानेमें पयााि सहायता नमलेगी ।
प्रेमीजनोंकी चरणरज—र्त्िम्मनलाल गोस्वामी
नम्र र्त्नवेदन
संसारमें मानव-जन्मको अत्मयन्त दलु ाभ माना गया है, ऊुँ च-नीच कमोंके अनुसार
चौरासी लाख योननयोंमें भिकते-भिकते जब यह जीव श्रानन्त और क्लानन्तका अनुभव
करता है, तब इसके अकारण-नहतू करुणा-वरुणालय प्रभु उसे मनुष्य-योनन देते
हैं—
किहुाँक करर करुना नर देही । देत ईस र्त्िनु हेतु सनेही ॥
—कहा है । इसे पाकर भी जो अपने ध्येयको नहीं प्राि कर लेता, उससे बढ़कर
मूखा—आत्ममघाती कौन होगा ।
जीवन एक संगीत है । स्वर एवं ताल-लयमें परस्पर संवानदता होनेपर ही ‘संगीत’
नामकी चररताथाता होती है। इनकी नवसंवानदताको ही ‘बेसरु ापन’ या ‘बेतालापन’
कहते हैं । इसीनलये नकसी संगीतप्रेमी कनवने स्वर-ज्ञानसे शून्यको ‘असुर’ और ताल
चूकनेवालेको ‘बेताल’ की संज्ञा दी है—सुर ननहं जानै ‘असुर’ है, नबना ताल ‘बेताल’
। शारीररक, माननसक, बौनद्धक, सामानजक, पाररवाररक, नैनतक एवं आध्यानत्ममक—
सभी पक्षोंकी समस्वरताका नाम ही ‘जीवन’ है ।
इस नवषयको ठीक तरहसे हृदयङ्गम करनेके नलये स्वरोंका भी यनत्मकंनचत् नववेचन
आवश्यक है । कहते हैं—देवानधदेव महादेवने पहले प्रणवध्वनन की । इस
प्रणवध्वननसे स्वर सात भागों में नवभक्त हुआ, इन्हीं सात भागोंको ‘सि स्वर’ कहते
हैं । उनके नाम क्रमशः ये हैं—(१) षड्ज, (२) ऋषभ, (३) गान्धार, (४) मध्यम,
(५) पञ्चम, (६) धैवत और (७) ननषाद । इन्हींको सांकेनतक भाषामें सा, रर, ग, म,
प, ध, नन कहते हैं । इनके आलापमें क्रमशः चढ़ाव-उतार होता है । अथाात् षड्जसे
ननषादतक स्वर क्रमशः ऊुँ चा होता जाता है और ननषादसे षड्जतक नीचा । इन सात
स्वरोंके समूहका नाम है ‘सिक’ । ननषादसे आगे बढ़नेपर पुनः इन्हीं सि स्वरोंका उसी
क्रमसे आलाप होता है । इन सात स्वरोंको ‘तार-सिक’ कहते हैं और षड्जसे नीचे
उतरनेपर उसी क्रमसे इन स्वरोंका आलाप करनेपर इनका नाम हो जाता है—‘मन्ि-
समर्पणमूर्त्तप श्रीर्त्िम्मनलालजी गोस्वामी ३७९
राग र्ीलू
मतिः र्ीलूरागिः सकलमृदतु ीव्रस्वरयुतो मृदगु ापन्धारोंऽश: सहिरर्त्त तीव्रस्तु र्त्नररह ।
—रागकल्पिमु
इस रागकी उत्मपनि काफी ठािसे मानी जाती है । यद्यनप गुणी गायकोंने इसकी
गणना क्षुि रागोंमें की है, तथानप यह मानना ही होगा नक यह राग आबाल-वृद्ध
सभीको समानरूपसे रञ्जक है । यह राग नमश्र रागोंमें अनत मधुर है तथा कु शल गायकोंके
द्वारा रञ्जनके हेतु भैरवी, भीमपलासी, गौरी आनदका नमश्रण करके गाया जाता है ।
कलाकार अपने सिकके बारहों स्वरोंको बडी कु शलतासे इसके उपयोगमें लाते हैं ।
तीव्र स्वरोंका प्रयोग अनधकतर अवरोहणमें ही नकया जाता है ।
इस रागका वादी स्वर ‘गान्धार’ और संवादी स्वर ‘ननषाद’ है । इसके गानेका
समय यद्यनप नदनका तृतीय प्रहर माना गया है, तथानप रागकी मनोरञ्जकताके कारण
यह राग सभी समय गाया जाते सुना गया है ।
समर्पणमूर्त्तप श्रीर्त्िम्मनलालजी गोस्वामी ३८१
अपने जीवनको समस्वर बना लेता है, उसीका जीवन सफल माना जाता है । नवश्वमें
उसीका अनस्तत्मव साथाक होता है । यों तो साुँस सभी लेते हैं ।
श्रीमद्भगवद्गीताके नद्वतीय अध्यायके अन्तमें वनणात ‘ब्राह्मी नस्थनत’ अथवा
‘भगवत्मप्रेम’ के अनन्त, अपररसीम, नचन्मय महासमुिमें सदाके नलये ननमि हो जानेमें
ही मानव-जीवनकी सफलता शास्त्रों एवं संतोंने मानी है । इसी उद्देश्यकी प्रानि करानेके
नलये इस पुनस्तकामें प्रकानशत आठ कथा-कहाननयाुँ संकनलत की गयी हैं । ‘सरगम’
के आठ स्वरोंके साधनेसे जैसे गायनमें कु शलता आती है, उसी प्रकार इन आठों
कथा-कहाननयोंका पठन, श्रवण, मनन एवं तदनुरूप जीवन बनानेसे यह जीवन
संगीतमय हो सकता है । इसीनलये इस लघु संग्रहको ‘परमाथाका सरगम’ नाम नदया
गया है । यनद मनुष्य इस ‘सरगम’ को जीवनभर साधता रहे और इसके फलस्वरूप
जीवन-संगीतका एक राग भी ठीक बैठ जाय तो उसका जीवन सफल हो जाय ।
संग्रहके अन्तमें ३३ पद भी जोड नदये गये हैं, नजनका श्रवण, मनन एवं गायन भी
उपयुाक्त उद्देश्यकी नसनद्धमें सहायक होगा । इनमेंसे संख्या २६ से ३१ तकके पदोंका
नकसी नवशेष कारणसे अंग्रेजी अनुवाद भी नदया जा रहा है । समयाभावसे अन्य पदोंका
अंग्रेजी अनुवाद नहीं नकया जा सका । परंतु मेरा ननश्छल नवश्वास है नक जो अंग्रेजी
भाषा-भाषी लोग मूलको न समझ सकनेके कारण के वल इन छ: पदोंके अनुवादका
ननयनमत रूपसे पाठ करेंगे, उन्हें भी अवश्य पारमानथाक लाभ होगा । नकमनधकं सहृदयेषु
–
गोरखपुर, नवनीत
कानताक शु० १५, र्त्िम्मनलाल गोस्वामी
सं० २०२२ नव०
समर्पणमूर्त्तप श्रीर्त्िम्मनलालजी गोस्वामी ३८३
Your capitvating sleek tresses, black as the black bee, look most
graceful in the form of a peerless braid, strung with fragrant flowers;
a fascinating crown of gems adorns your head; all these endow you
with an unsurpassable charm. Overflowing with a ever-freshening
love, you are blessed with a rare good fortune and your limbs are
decked with various ornaments. Your projecting breasts are graced
समर्पणमूर्त्तप श्रीर्त्िम्मनलालजी गोस्वामी ३८६
Your thin belly graced with three folds and your deep navel are (
both ) enchanting and delightful. A beautiful ornament with tiny bells
adorns your slender waist and your hands and feet are artistically
coloured with the paste of Menhdi leaves. You are the repository of all
fine arts and a mine of virtues; ( even ) the Vedas Śāradā ( the goddess
presiding over speech ) and Śeṣa ( the thousand-headed serpent-god )
are incapable of recounting your excellences. You stir the mind even
of Śrī Kṛṣṇa ( myself, who churn the mind of Cupid ); you ever enjoy
the love of your Divine Spouse ( myself ) and are dressed in an
attractive garb. O Goddess eternally presiding over the inner arbours
of Bṛndāban, fond of sporting in ever-newbours, you remain ever
engaged in pastimes. Your blessed thought alone, the source of
supreme felicity, is the mainstay of my life.
* * *
(२)
( राग नि—तीन ताल)
नवर्त्कशोर नटवर मुरलीधर मधुर मयूर-मुकुटधर लाल ।
कर्त्ट र्ट र्ीत, करधनी कू र्त्जत, र्त्वकट भृकुर्त्ट, मधु नयन र्त्वशाल ॥
अतुलनीय सौन्दयप र्त्नके तन र्त्िभुज, कण्ठ मर्त्ण-मुक्ता-माल ।
समर्पणमूर्त्तप श्रीर्त्िम्मनलालजी गोस्वामी ३८७
* * *
समर्पणमूर्त्तप श्रीर्त्िम्मनलालजी गोस्वामी ३८८
(३)
( राग पूवी—एक ताल )
रुर्त्िर तर्न-तनया-तट, र्त्नभृत नव र्त्नकुां ज र्त्नकट,
र्त्नरतत नव नागर नट, लसत र्ीत र्ट ललाम ।
सोभा र्त्नरुर्ार्त्ध सजत, कोर्त्ट-कोर्त्ट काम लजत,
मुरर्त्ल अधर मधुर िजत, भजत सांत र्त्नत र्त्नकाम ।
मृग-मद रुर्त्ि र्त्तलक भाल, िांिल लोिन र्त्िसाल,
कुां र्त्ित कि कृ ष्न जाल, भृकुर्त्ट कु र्त्टल कलाधाम ।
करर-िर-मद-हरर्त्न िाल, कर्त्ट र्त्कांर्त्कर्त्न-रव रसाल,
सुरर्त्भत िन-कु सुममाल, रवनहार कां ठ-धाम ।
कुां डल-मर्त्न-रवन-िमक, सुर्त्ि कर्ोल गोल दमक,
अांग-अांग सुरर्त्भ गमक, रमा रमत वक्षधाम ।
र्त्नर्ट सुखद खटर्ट-रर्त्त, लर्ट-झर्ट नटखट गर्त्त,
आकरषत तन-मन-मर्त्त, इांर्त्िय झट र्त्िना दाम ।
मृद ु मधु मुसुकान र्त्िमल, मुर्त्न-जन-मन हरत स-िल,
र्त्मटत दिःु ख-दैन्य सकल, र्रम रम्य सुधाधाम ।
रसमय रसराज सतत, रस-िरषा िरसत र्त्नत,
नेह-र्त्सांधु उमर्त्ग अर्त्मत, िहे अन्य रस तमाम ।
िाढ्यौ अर्त्त प्रेम-भाव, सि कें मन भरयौ
् िाव,
समर्पणमूर्त्तप श्रीर्त्िम्मनलालजी गोस्वामी ३८९
* * *
(४)
( राग नबलास िोडी—तीन ताल )
कृ र्ा जो राधा जू की िर्त्हयै ।
तौ राधािर की सेवा में तन-मन सदा उमर्त्हयै ॥
माधव की सुख-मूल रार्त्धका, र्त्तन के अनुगत रर्त्हयै ।
र्त्तन के सुख-सांर्ादन कौ र्थ सूधौ अर्त्िरत गर्त्हयै ॥
राधा-र्द-सरोज-सेवा में र्त्ित र्त्नज र्त्नत अरुझइयै ।
या र्त्िर्त्ध स्याम-सुखद राधा-सेवा सौं स्याम ररझइयै ॥
रीझत स्याम रार्त्धका रानी की अनुकांर्ा र्इयै ।
र्त्नभृत र्त्नकुां ज जुगल सेवा कौ सरस सुअवसर लर्त्हयै ॥
If you seek the grace of Rādhā, the divine, let ever your body and
soul overflow with enthusiasm in the service of Rādhā's lord. ( Since )
Rādhikā is the fount of Madhava's joy, follow Rādhā’s will and tread
unceasingly the path of ministering to Her happiness without
deviation. Let your mind ever remain engrossed in the service of
Rādha's lotus feet. In this way captivate Syāma through service to
Rādhā, which is the ( only ) source of felicity to him. No sooner does
Syāma get captivated than you obtain the grace of Rādhikā Rānī and
समर्पणमूर्त्तप श्रीर्त्िम्मनलालजी गोस्वामी ३९१
* * *
(५)
( राग भीमपलासी—तीन ताल )
हुआ समर्पण प्रभु-िरणोंमें जो कु छ था सि मैं-मेरा ।
अग-जगसे उठ गया सदाको र्त्िर-सांर्त्ित सारा डेरा ।।
मेरी सारी ममताका अि रहा एक प्रभुसे सम्िन्ध ।
प्रीर्त्त, प्रतीर्त्त, सगाई सि ही र्त्मटी, खुल गये सारे िन्ध ।।
प्रेम उन्हींमें, भाव उन्हींका, उनमें ही सारा सांसार ।
उनके र्त्सवा शेष कोई भी ििा न, र्त्जससे हो ब्यवहार ।।
नहीं िाहती जाने कोई, मेरी इस र्त्स्थर्त्तकी कु छ िात ।
मेरे प्राण-र्त्प्रयतम प्रभुसे भी यह रहे सदा अज्ञात ।।
सुन्दर सु-मन सरस सुरर्त्भत मृदसु े मैं र्त्नत अिपन करती ।
अर्त्त गोर्न, वे जान न जायें कभी, इसी डरसे डरती ।।
मेरी यह शुर्त्ि अिाप िलती रहे सुरर्त्क्षत काल अनन्त ।
रहाँ कहीं भी, कै से भी; र्र इसका कभी न आये अन्त ।।
इस मेरी र्ुजासे र्ाती रहाँ र्त्नवय मैं ही आनन्द ।
ि़िे र्त्नरन्तर रुर्त्ि अिापमें, ि़िे र्त्नवय ही र्रमानन्द ।।
समर्पणमूर्त्तप श्रीर्त्िम्मनलालजी गोस्वामी ३९२
* * *
(६)
( राग बागेश्री—तीन ताल )
सौंर् र्त्दये मन-प्राण तुम्हींको, सौंर् र्त्दये ममता-अर्त्भमान ।
जि जैसे मन िाहे िरतो, अर्नी वस्तु सवपथा जान ।।
मत सकु िाओ मन की करते, सोिो नहीं दसू री िात ।
मेरा कु छ भी रहा न अि तो, तुमको सिकु छ र्ूरा ज्ञात ।।
मान-अमान, दिःु ख-सुखसे अि मेरा रहा न कु छ सम्िन्ध ।
तुम्हीं एक कै वल्य मोक्ष हो, तुम ही के वल मेरे िन्ध ।।
रहाँ कहीं, कै से भी, रहती िसी तुम्हारे अन्दर र्त्नवय ।
छू टे सभी अन्य आश्रय अि, र्त्मटे सभी सम्िन्ध अर्त्नवय ।।
एक तुम्हारे िरण-कमलमें हुआ र्त्वसर्त्जपत सि सांसार ।
रहे एक स्वामी िस, तुम ही करो सदा स्वच्छछन्द र्त्वहार ।।
To you alone have I dedicated my mind and life-breath, to you I
consigned the sense of possession and the ego-sense. Treating them
as absolutely yours, use them as and when you will. Do not shy of
समर्पणमूर्त्तप श्रीर्त्िम्मनलालजी गोस्वामी ३९४
श्रीराधा-माधव-रस-सुधा
[ षोडशगीत ]
( अांर्ग्ेजी भाषान्तर सर्त्हत )
नम्र र्त्नवेदन
सनच्चदानन्दस्वरूप भगवान् श्रीकृ ष्णका आनन्दस्वरूप या ह्लानदनी शनक्त ही
श्रीराधाके रूपमें प्रकि है । श्रीराधाजी स्वरूपतः भगवान् श्रीकृ ष्णके नवशुद्धतम प्रेमकी
ही अनद्वतीय घनीभूत ननत्मय नस्थनत हैं । ह्लानदनीका सार प्रेम है, प्रेमका सार मादनाख्य
महाभाव है और श्रीराधाजी मूनतामती मादनाख्य महाभावरूपा हैं । वे प्रत्मयक्ष साक्षात्
ह्लानदनी शनक्त हैं, पनवत्रतम ननत्मय वद्धानशील प्रेमकी आत्ममस्वरूपा अनधष्ठात्री देवी हैं
। कामगन्धहीन स्वसुख-वांछा-वासना-कल्पना-गन्धसे सवाथा रनहत
श्रीकृ ष्णसुखैकतात्मपयामयी श्रीकृ ष्णसुखजीवना श्रीराधाका एकमात्र काया है—
त्मयागमयी पनवत्रतम ननत्मय सेवाके द्वारा श्रीकृ ष्णका आनन्दनवधान । श्रीराधा पूणातमा
शनक्त हैं, श्रीकृ ष्ण पररपूणातम शनक्तमान् हैं । शनक्त और शनक्तमानमें् भेद तथा अभेद
दोनों ही ननत्मय वतामान हैं । अभेदरूप तत्त्वतः श्रीराधा और श्रीकृ ष्ण अनानद, अनन्त,
ननत्मय एक हैं और प्रेमानन्दमयी नदव्यलीलाके रसास्वादनाथा अनानदकालसे ही ननत्मय
दो स्वरूपोंमें नवरानजत हैं । श्रीराधाका मादनाख्य महाभावरूप प्रेम अत्मयन्त गौरवमय
होनेपर भी मदीयतामय मधुर स्नेहसे आनवभूात होनेके कारण सवाथा ऐश्वया-गन्ध-शून्य
है । वह न तो अपनेमें गौरवकी कल्पना करता है, न गौरवकी कामना ही । सवोपरर
होनेपर भी वह अहंकारानददोष-लेश-शून्य है । यह मादनाख्य महाभाव ही राधाप्रेमका
एक नवनशष्ट रूप है । राधाजी इसी भावसे आश्रयननष्ठ प्रेमके द्वारा नप्रयतम श्रीकृ ष्णकी
सेवा करती हैं । उन्हें उसमें जो महान् सुख नमलता है, वह सुख श्रीकृ ष्ण ‘नवषय’ रूपसे
राधाके द्वारा सेवा प्राि करके नजस प्रेमसुखका अनुभव करते हैं, उससे अनन्तगुना
अनधक है । अतएव श्रीकृ ष्ण चाहते हैं नक मैं प्रेमका ‘नवषय’ न होकर प्रेमका ‘आश्रय’
बनूुँ, अथाात् मैं सेवाके द्वारा प्रेम प्राि करनेवाला ‘नवषय’ ही न बनकर सेवा करके
प्रेमदान करनेवाला भी बनूुँ । मैं आराध्य ही न बनकर, आराधक भी बनूुँ । इसीसे
श्रीकृ ष्ण ननत्मय राधाके आराध्य होनेपर भी स्वयं उनके आराधक बन जाते हैं । जहाुँ
श्रीकृ ष्ण प्रेमी हैं, वहाुँ श्रीराधा उनकी प्रेमास्पदा हैं और जहाुँ श्रीराधा प्रेनमकाके भावसे
आनवष्ट हैं, वहाुँ श्रीकृ ष्ण प्रेमास्पद हैं । दोनों ही अपनेमें प्रेमका अभाव देखते हैं और
अपनेको अत्मयन्त दीन और दसू रे का ऋणी अनुभव करते हैं; क्योंनक नवशुद्ध प्रेमका
यही स्वभाव है ।
रस-सानहत्मयमें अनधकांश रचनाएुँ ऐसी ही उपलब्ध होती हैं, नजनमें श्रीकृ ष्ण
प्रेमास्पदके रूपमें और श्रीराधा प्रेनमकाके रूपमें नचनत्रत की गयी हैं । इन सोलह गीतोंमें
आठ पद ऐसे हैं, नजनमें श्रीकृ ष्ण राधाको अपनी प्रेमास्पदा मानकर उन्हें प्रेमकी
स्वानमनी और अपनेको प्रेमका कं गाल स्वीकार करते हैं और उनके उिररूपमें आठ
पद श्रीराधाके द्वारा कहे गये हैं, नजनमें श्रीराधा अपनेको अत्मयन्त दीना और श्रीकृ ष्णको
प्रेमके धनीरूपमें स्वीकार करती हैं । इस प्रकार इन सोलह पदोंमें प्रेनमगत दैन्य और
प्रेमास्पदकी महिाका उिरोिर नवकास दृनष्टगत होता है ।
पाठक नवशेष गहराईमें जाकर इन पदोंके भावोंको ग्रहण करनेका प्रयास करेंगे तो
उन्हें पता लगेगा नक श्रीराधाकृ ष्णके प्रेमका स्वरूप नकतना पनवत्रतम, समपाणपूणा तथा
नदव्य है । इसी प्रेमको आदशा मानकर प्रेममागाके साधक अपना मागा ननश्चय करें और
श्रीराधा-माधवके चरणोंमें प्रेम प्राि करें , इसी हेतु इन पदोंका प्रकाशन नकया गया है
।
Om
Preface
None else than the Bliss aspect or the Enrapturing Potency (
Hlādinī Śakti ) of Lord Śrī Kṛṣṇa—who is all Truth, all Consciousness and
all Bliss—is manifest in the form of Śrī Rādhā. Essentially speaking, Śrī
Rādhā is no other than the unique eternal concretized phase of the
purest Love for Lord Śrī Kṛṣṇa. Love is the essence of the said
Enrapturing Potency and the quintessence of Love is known as the
Mādana ( maddening ) Mahābhāva ( Supreme Love ), Śrī Rādhā being
the living embodiment of the said Mahābhāva. She is the Hlādinī Śakti
Herself in visible form; She is the very soul of, the Deity presiding over
the purest, ever-growing love. The sole function of Śrī Rādhā, whose
only purpose is to afford delight to Śrī Kṛṣṇa, nay, to whom the joy of
Śrī Kṛṣṇa is Her very life, who has no trace of concupiscence in Her and
who has absolutely no semblance even of a fancied trace of the
seeking for self-gratification, is to bring joy to Śrī Kṛṣṇa through
constant service of the purest type and full of self-abnegation. Śrī
Rādhā is the fullest manifestation of the Divine Energy, while Śrī Kṛṣṇa
is the most perfect Energizer. Energy and the Energizer are eternally
different as well as non-different. In their non-different character Śrī
Rādhā and Śrī Kṛṣṇa are essentially one without beginning or end, and,
though ever identical, They eternally shine in two forms from time
without beginning in order to enjoy Their transcendental Sport, which
is full of love and joy. Śrī Rādhā's Love, known by the name of Mādana
Mahābhāva, though exceedingly glorious, is altogether free from the
least tinge of consciousness of divinity, born as it is of sweet affection
consisting of the feeling of mineness. It has no consciousness of its
greatness nor does it seek any recognition of its greatness. Though
excelling all, it is altogether free from the least tinge of egotism and
other such drawbacks. This Mādana Mahābhāva alone is a singular
phase of Rādhā's Love. It is with this sentiment that Śrī Rādhā waits
upon Her most beloved Śrī Kṛṣṇa through love characteristic of a
selfless lover. The immense joy She experiences in such service is
infinitely greater than the joy of love experienced by Śrī Kṛṣṇa while
accepting service from Śrī Rādhā as the Object of Her Love. It is for this
reason that Śrī Kṛṣṇa longs to be a repository of Love rather than the
Object of Love. In other words He desires that instead of playing the
exclusive role of an Object of Love receiving Love through service He
should also play the role of a bestower of Love through service—that
He should not only be the object of worship but should also be the
worshipper. That is why though continuing to be the eternal object of
worship to Śrī Rādhā, He also assumes the role of Her votary. Where
Śrī Kṛṣṇa is the Lover, Śrī Rādhā is His Darling and where Śrī Rādhā is
possessed by the sentiment of a lover. Śrī Kṛṣṇa is the object of Her
Love. Both view themselves as destitute of Love and feel that they are
humble and indebted to the other; for such is the nature of
immaculate love.
The bulk of the literature bearing on the Love of Śri Rādhā and
Śrī Kṛṣṇa mostly consists of poems depicting Śrī Kṛṣṇa as the Beloved
and Śrī Rādhā as the Lover. In eight out of these sixteen songs Śrī Kṛṣṇa
looks upon Śrī Rādhā as His Darling and recognizes Her as the
Sovereign of the Kingdom of Love and Himself as destitute of Love;
while in the other eight songs embodying the reply of Śrī Rādhā, Śrī
Rādhā speaks of Herself as destitute of Love and acknowledges Śrī
Kṛṣṇa as Master of the wealth of Love. In this way these sixteen songs
portray the gradual stepping up of humility in the Lover and exalt the
Beloved more and more in the eyes of the former.
If the reader dives deep into the spirit of these songs, he will
come to realize how very pure, self-dedicating and transcendent is the
Love of Śrī Rādhā and Śrī Kṛṣṇa. These songs have been published in
order that, recognizing this Love to be the ideal the strivers on the Path
of Love may chalk out their path accordingly and develop Love for the
feet of Śrī Rādhā and Śrī Kṛṣṇa.
॥ श्रीराधाकृ ष्णौ नवजयेते ॥
श्रीराधा-माधव-रस-सुधा
महाभाव-रसराज-वन्दना
दोउ चकोर, दोउ चंिमा, दोउ अनल, पंकज दोउ ।
दोउ चातक, दोउ मेघ नप्रय, दोउ मछरी, जल दोउ ॥
आस्रय-आलंबन दोउ, नबषयालंबन दोउ ।
प्रेमी-प्रेमास्पद दोउ, तत्मसख
ु -सुनखया दोउ ॥
लीला-आस्वादन-ननरत, महाभाव-रसराज ।
नबतरत रस दोउ दहु ुन कौं, रनच नबनचत्र सुनठ साज ॥
सनहत नबरोधी धमा-गुन जुगपत ननत्मय अनंत ।
बचनातीत अनचन्त्मय अनत, सुषमामय श्रीमंत ॥
श्रीराधा-माधव-चरन बंदौं बारंबार ।
एक तत्मव दो तनु धरें , ननत-रस-पाराबार ॥
( 402 )
Both are Chakora birds ( noted for their love for the moon ) in
relation to each other and both are the moon ( the beloved of the said
bird ). Both are Bhramaras or black bees ( in relation to the other ) and
both are the lotus ( the beloved of the bee ). Both are Chātaka birds (
noted for their love for the rainy cloud ) and both represent the cloud,
the beloved of the Chātaka. Both are fish ( that cannot live without
water ) and both represent water ( the beloved of the fish ).
Both Śrī Rādhā ( the Embodiment of Love Supreme ) and Śrī Kṛṣṇa
( the Highest Bliss personified ) delight in enjoying their blissful
pastimes and, creating diverse lovely accessories and materials, afford
delight each to the other.
I bow again and again at the feet of Śrī Rādhā and Śrī Kṛṣṇa, the
one essence appearing in two forms, the Oceans of Eternal Bliss.
१. श्रीकृ ष्णके प्रेमोद्गार—श्रीराधाके प्रर्त्त
You are the very source of my existence, O Rādhā ! You are the
peerless immortal elixir of my life, none can equal you anywhere.
Even as every limb is charming in its own place in the body, but
without life they are all useless and devoid of charm,
so, my darling, you are the sole substratum of the joy of all. Life,
which is dear to all, becomes insipid without you.
Your life alone breathes life into me; it is your mind which has
endowed me with a mind. With a particle from the ocean of your love
I afford delight to everyone.
It is from your sacred store of Bliss that beggars get their pinch of
joy. You are your only compeer: pray, do not conceive an iota of
untruth in this.
Even though ( as I have told you just now ) I dole out joy from your
store of Bliss alone, I do so with great reserve, with the utmost
restraint, apprehension, chariness and diffidence. There is no such
liberal-minded possessor of Bliss as you existing anywhere at any time.
I only wish that through your mysterious and enchanting sweet love
I may ever continue to serve as an instrument for the enjoyment of
your pliant and sullen moods.
२. श्रीराधाके प्रेमोद्गार—श्रीकृ ष्णके प्रर्त्त
You may lavish on me your utmost love and accept me as your own
mentally as well as bodily. Or you may adopt a hostile attitude to me,
cause fright to me, persecute and spurn me.
It is for this purpose that I go out for bath and keep sitting on the
bank of the Yamuna. My mind remains restless for the blessed sight of
your sweet charms.
It is for this reason that I remain at the foot of the Kadamba tree
and meditate every moment on you. Like a Chātaka bird I ever thirst
to have a draught of rain water at the opportune moment ( when the
constellation Swati is in the ascendant ) in the form of your beauty.
Let me ever continue to hover as a black bee over the pollen of your
lotus feet, O darling of Nanda ! Let me remain ever entwined about
you as a gold creeper round a young Tamāla tree ( distinguished by its
dark bark ).
I have seen that none other than you in all the three worlds is mine.
Who accosts me calling me ‘Rādhā’ and at whom have I, Rādhā, ( ever
) cast a glance ?
Without seeing you I find no peace of mind even for an instant. You
are ever the lord of my life; before whom ( other than you ) shall I open
my heart ?
The question as to what I should give to you has ever been engaging
my thought, O wealth of my life ! ( In fact ) you alone are the treasure
which I seek to bestow on you.
You alone are the dearest object of my life and I am ever yours, O
most beloved one ! I stand offered at your feet every moment in
offering to you what really belongs to you.
The ties of body, ownership and kinship have given way; the malady
in the shape of lust for enjoyment and the seeking for Liberation has
left me for good. I have become blessed by securing your beloved
contact alone, O most beloved one !
९. श्रीकृ ष्णके प्रेमोद्गार—श्रीराधाके प्रर्त्त
Through every breath of mine flows the perennial and holy stream
of your thought. Thrilled to the core, every hair on my body continues
to embrace you.
My eyes behold you every moment and these ears drink your sweet
words. My nose inhales the fragrance of your person, while the tongue
enjoys the nectarean sweetness of your lips.
Every limb of mine ever gets hallowed by the beloved touch of your
body. The sweetness of your love acquires a fresh charm and grows
every moment and along with it the joy of my heart too grows fresh.
१०. श्रीराधाके प्रेमोद्गार—श्रीकृ ष्णके प्रर्त्त
Well, you are my only desideratum and you alone constitute its only
solution. You are the only holy and charming idol worth adoring every
moment in every way.
You alone constitute all my affairs and abode, you are my sole great
objective. You remain enshrined day and night as the deity in the
temple of my mind.*
You impart every moment to all my senses your most sacred and
exhilarating contact. Inside as well as outside of me you are ever busy
tuning your melody without break.
You are the enjoyer, the object of enjoyment and all, and you alone
have assumed the form of enjoyment. ( Nay ) assuming the form of my
mind, you alone experience ( the joy of ) union as well as ( the pangs
of ) separation.
*Ever full of bliss you radiate joy, day and night, in the charming lake
of my mind.
११. श्रीकृ ष्णके प्रेमोद्गार—श्रीराधाके प्रर्त्त
My body and mind, everything belongs to you; you alone are ever
my only queen. This body or mind of mine can neither be the enjoyer
nor the object of enjoyment of others: this is my unfailing vow.
It remains ever united with you and keeps clinging to the soles of
your feet. You alone are unmistakably the sole life of its life.
No one else has ever had or shall ever have the least claim on it. It
will never afford delight to anyone nor derive joy from anyone in any
way.
You can tell me whatever you like; I am ever at your disposal. But,
pray, never take it otherwise and never call yourself humble.
I have ever received and only received from you and have never felt
wearied in making repeated drafts on you. Love and blessedness
beyond measure has been my lot, while I could not make any return.
Yet you say, “I could not give anything to you, my darling ! You are
your own compeer in amiable disposition and virtues. I stand offered
at your feet.”
What shall I say to you, the dearest object of my life ? I feel small
when I look to myself. You read love alone in every act of mine, O
youthful darling of Nanda !
१३. श्रीकृ ष्णके प्रेमोद्गार—श्रीराधाके प्रर्त्त
O Rādhā, you alone are the delight of my soul, ( nay ) you are my
consciousness itself. You alone are my eternal self, while I comprise
your very soul.
I do not exist apart from you, nor do you have any existence apart
from me. This unique relationship of invariable concomitance subsists
between us. In short, this is the whole truth of our existence.
१४. श्रीराधाके प्रेमोद्गार—श्रीकृ ष्णके प्रर्त्त
In the form of an ocean of all sublime virtues, you are rolling on all
sides in an infinite expanse. You are an incomparable storehouse of all
transcendent bliss, a perfect lover of beauty, infinite bliss personified.
I have nothing at all with which I can afford delight to you, with
which I can fascinate you, with which I can adore and honour you.
Forgetting all your exalted nature and divinity as well as all claim to
lordship, you met me, insignificant as I am, on an equal footing,
becoming insignificant yourself and unburdening yourself of all
demur,
Rādhā, you are your only compeer; none else can compare with you
anywhere. In you rolls an infinite ocean of nectarean love, which has
no end or beginning.
But those waves too sing your pleasing glory alone. Their entire
charm and sweetness is only your monopoly.
You Seeing my good points with endless eyes remain ever engaged
only in eulogizing me. You ever enhance my peerless joy and flood my
bosom with boundless hilarity.
I shall ever dance as you will make me dance. That is my only sacred
duty, this constitutes my inborn nature, and this is my only natural
function.
१६. श्रीकृ ष्णके प्रेमोद्गार—श्रीराधाके प्रर्त्त
I ever act, speak and dance subject to your will without any ego-
sense. My mind ( too ) is silent—nay, I have no separate mind at all: I
am a plaything beyond conception and you are the player.
Life and death mean nothing to me: and what do I care for honour
and ignominy ? All these are eternal pastimes of yours, full of great
bliss, my most beloved one !
Even while I have uttered this much you know who is figuring
where. It is you who, making me your organ, spoke like a babbling
girl, I for my part being free from volition and mute.
र्ुर्त्ष्र्का
COLOPHON
Both ever figure as the lover as well most beloved of each other.
They are perennial, inexhaustible, inconceivable, holy and inexplicable
founts of love.
To each, joy and sorrow are both delightful inasmuch as they are a
source of happiness to the most Beloved One. All other false
embankments of one's own happiness have naturally given way.
The sweetness of the love subsisting between Śrī Rādhā and Śrī
Kṛṣṇa is beyond speech and mind. The foregoing sixteen songs only
give a faint idea of it even as the contiguity of the new moon to the
bough of a tree only serves to indicate its position to him who is unable
to locate it.
A Broken Vina : A Wailing Note ( Preface )
This pathetic and graphic tale of the woeful departure from this
transient world of a truly great and divine personage, a magnanimous
soul who had endeared himself to all by his rare qualities of head and
heart, who guided humanity on the Godward path and loved everyone
as his soul, nay, who was a Messiah to millions of men and women
groping in darkness and wallowing in sensuality and suffering and who
brought hope and solace to many a lacerated heart, whose invaluable
services to mankind in the various fields of life without distinction of
caste and creed are too numerous, to be recounted and whoes heart
overflowed with love and compassion, I mean the late lamented Śrī H.
P. Poddār of revered memory, the illustrious and world-renowned
editor of the 'Kalyāṇ', was originally written in eloquent Hindi by his
loving grand-daughter ( daughter's daughter ), Śrīmatī Rādhādevī
Bhālotia, in her inimitable style of lyrical prose-poetry.
Another question that he asks is, whether the Love of the milkmaids
of Bṛndābana was pure and free from carnality.
* Had the Body and the various organs of the Lord been material, i.
e., made up of the five great elements evolved from that Māyā which
veils the real nature of things ( आवरणरूपा ), ascetics and sages who have
crossed the ocean of Māyā, transcended the three Guṇas or modes of
nature, and who rejoice in the Self, could not have been enchanted by
the beauty of His person and the odour of His limbs and could not have
eagerly sought the dust of His feet.
समर्पणमूर्त्तप श्रीर्त्िम्मनलालजी गोस्वामी 443
One must be endowed with divine eyes, divine ears, divine speech, a
divine mind and a divine intellect in order to be able to behold, hear,
describe and understand the Divine Līlā. How, then, can an earthly
creature like myself know this divine truth and how can he expound it
through earthly speech ? Hence whatever I am going to write on the
subject should not lead anyone to believe that whatever I say is the
whole and sole truth and that there is nothing beyond it; nor should
anyone think that I am casting reflection on any particular viewpoint,
or that I am taking up my pen to silence any caviller or that, out of bias,
I want to inflict my views on others. It is never my intention that what
I write should be accepted by the readers in any case. I am simply
making an attempt here to record for my own spiritual benefit my
convictions in the matter formed on the basis of the scriptures and
discourses heard from the lips of various saints and devotees. I am
sincerely grateful to the gentleman through whose insistence I am
discussing this subject, inasmuch as it has enabled me, humble though
I am, to engage my mind with thoughts of the Lord even for a short
while. It is far from my mind to enter into a controversy on the subject.
Should anyone challenge my views, I am not prepared to take up the
gauntlet, and acknowledge my defeat at the very outset. It is a subject
on which I feel the least inclined to enter into a dialectic disputation.
If, however, the foundation of my faith is weak, it can be changed only
at the will of God.
and the very root of joy, and Bhagavān Śrī Rāmachandra, in the same
manner, in my opinion, there is no difference between Śrī Rādhā, Śrī
Rukmiṇī, Śrī Sītā, and similar other manifestations of the Divine
Energy. The Hlādinī Śakti ( Enrapturing Energy ) of the Lord invariably
accompanies Him in all His divine Forms manifested for the sake of
sport ( लीलानवग्रह ), though called by different names and having a
distinctive form in each case. These Śaktis, although known and
represented by different Names and Forms, are, truly speaking,
manifestations of the same Energy. The Lord Himself once said to Śrī
Rādhā:—
“My dear Rādhā, just as You are present in Goloka ( the Supreme
Divine Abode of Śrī Kṛṣṇa ) as well as at Gokula in the Form of Śrī
Rādhā, similarly in Vaikuṇṭha ( the Supreme Abode of Mahāviṣṇu ) You
are present in the Form of Mahālakṣmī and Saraswatī. As
Martyalakṣmī You are the beloved consort of Bhagavān Viṣņu, who
rests on the surface of the Sea of Milk ( क्षीरसागरशायी ). You are Śānti, an
image of Lakṣmī, wife of the son of Dharma. You are the blessed
Bhāratī, the devoted wife of Kapila, in Bhārata; and You are Rukmiṇī,
the Incarnation of Mahālakṣmī at Dwārakā. The virtuous Draupadī is
Your shadow. It is You who manifested Yourself as Sītā at Mithilā. It
was You in the Form of Sītā, the beloved Consort of Śrī Rāma, who
were forcibly carried away by Rāvaṇa.”
vividly His own Blissful aspect or to taste that delight under newer
circumstances that He manifests that spirit of rapture in the form of
Images of Love and derives pleasure and delight from those
manifestations. Śrī Rādhā, who is Divine Love personified, is a concrete
Image of that spirit of ecstatic rapture of the Lord; in that Form all the
different aspects of Love are unified and consolidated. Therefore, Śrī
Rādhā is All-Love, and Bhagavān Śrī Kṛṣṇa is All-Bliss. Where there is
Delight, there is Love; and where Love is, there is Delight. Śrī Kṛṣṇa is
the condensed Form of the essence of Bliss and Śrī Rādhā is the
crystallized Form of the essence of Love. Therefore, separation of Śrī
Rādhā and Śrī Kṛṣṇa is never possible. Neither can remain without the
other. The divine and blissful Form of Śrī Kṛṣṇa exists for the sake of
Śrī Rādhā, who is Divine Love personified. She is, as it were, the very
lifebreath of Śrī Kṛṣṇa, and vice versa Śrī Kṛṣṇa is the spring of life of Śrī
Rādhā. Being the crystallized Form of the essence of Love, Śrī Rādhā is
the embodiment of Supreme Ecstasy ( महाभाव ). In that wise She is an
eternal and perennial Source of Delight to the heart of Her dearest Śrī
Kṛṣṇa, who is the very essence of the nectar of Bliss, the Lord of Rasa
( Divine Joy ), the repository of infinite glory, infinite beauty,
sweetness, and elegance; endowed with a Form consisting of Sat, Chit
and Ānanda solidified; possessed of incomprehensible Power, and the
Enchanter of Souls freed from all worldly enchantments. A countless
number of subordinate Śaktis subservient to this Enrapturing Energy (
ह्लानदनीशनक्त ) also manifest themselves in concrete Forms and are
constantly engaged in rendering services to Śrī Rādhā and Śrī Kṛṣṇa in
the diverse capacities of friends ( companions ), associates, or
messengers. Their sole function is to give delight to Śrī Rādhā and Śrī
समर्पणमूर्त्तप श्रीर्त्िम्मनलालजी गोस्वामी 446
Now, the question is: How can the desire for happiness or pleasure
be conceived in the case of the Paramātmā ( Soul of souls ), the
Supreme Brahma, who is eternally blissful, eternally satisfied,
eternally existent in one state of Being, and who comprises in Himself
countless millions of worlds of creation ? Although the question
appears quite reasonable, it cannot be accepted as a final conclusion.
Rapture ( भाव ) and Love ( प्रेम ) are not different in substance from the
Paramātmā. Rapture is felt by the Lover in relation to the object of
Love, and the object of Love feels rapture in relation to the Lover. The
Gopīs are Lovers ( channels of Love ), and Śrī Kṛṣṇa is the recipient of
Love, the object towards which the Love flows. It is the transcendent
Divine Love of the Gopīs that gives rise to the transcendent desire for
happiness in the Supreme Brahma. It is the Supreme sublimity and
purity of that Divine Love which awakens this desire for happiness, this
dissatisfaction or sense of want, this manifestation of activity and the
craving for delight in the desireless, eternally satisfied, actionless and
blissful Brahma. Of course, this desire, dissatisfaction or activity, etc.
are not born of any craving of the senses, nor are they material like
the transient desires, etc. of this material world. For divine Joy and
divine Love are inseparable. It is for this reason that Śrī Kṛṣṇa and Śrī
Rādhā are eternally inseparable. Śrī Bhagavān says:—
“What You are, that I am. There is not the least difference between
You and Me. Just as whiteness is always present in milk, the burning
capacity in fire and odour in the earth, in the same manner, I always
remain in You.”
The same thing holds good in the case of Śrī Rāma and Śrī Sītā;
Bhagavān Śrī Mahāviṣṇu and Goddess Mahālakṣmī, the mother of the
Universe; Bhagavān Śrī Śankara and Śrī Gaurī Devī, also known as
Mahāmāyā, the Supreme Enchantress. The same thing is true of Śrī
Kṛṣṇa and Śrī Rukmiṇī, the mother of all devotees of the Lord. There
remains now the question of marriage of Śrī Rādhā; but how can there
be a marriage in the worldly sense in the transcendental plane
referred to above. The Līlā ( Sport ) of the Lord of Vṛndāvana itself had
no nexus with the material world. From the point of view of the world,
Śrī Kṛṣṇa left Vraja for Mathura at the age of eleven. It is hard to
conceive how the question of gross love with women can arise at such
an immature age. Whereas in the state of supernatural or
transcendent existence, they are eternally united. In spite of this, with
a view to fulfilling the pledge given to Brahmā, the Lord showed the
latter in a lonely forest the divine and super-spiritual Form of Śrī
Rādhā, consisting of the purest essence of Love, and there, it is
mentioned, the Lord of Rasa was formally wedded with Mahābhāva,
Brahmā acting as the officiating priest. Sri Śrī Rādhā, thus married, is
the eternal companion of Bhagavān Śrī Kṛṣṇa. Of course She remains
concealed from view. The supremely same enrapturing Forms of this
Divine Pair are revealed in exceptional cases to those devotees in the
path of Love on whom the particular grace of Bhagavān Śrī Kṛṣṇa
descends. It is true that Śrī Rādhā's name does not find explicit
समर्पणमूर्त्तप श्रीर्त्िम्मनलालजी गोस्वामी 448
Now remains the question whether the Love of the Gopīs was pure
and free from carnality. In this connection I may refer the reader to
the following half-verse in the Rāsa-Pañchādhyāyī ( the five chapters
on Rāsa in the Bhāgavata ):—
The Lord, who is the very embodiment of the Sport of Love and the
perennial source of delight, is by His very nature susceptible to the
influence of Love. It was this Spirit of Love which made Him sport with
the blessed Gopīs—who were the very images of Love, and were in
reality nothing but His own reflections—through His own Blissful
Energy. This sport and enjoyment of His was the enjoyment of Self
through Self. So far as the Gopīs are concerned, the sole object of the
sport was to minister to the happiness of Śrī Kṛṣṇa without any sense
of return. Therefore, there was not the least taint of lust or gross
sense-enjoyment in this sport of Love between the Gopīs, who were
the very images of love, and the Lord, who is Bliss personified. The
Love of the Gopīs represented the purest type of Love in its highest
state of expression. Therefore, it is called ‘रूढ़ महाभाव’ ( Supreme
Ecstasy in a developed form ). The existence of even a taint of sense-
gratification cannot be conceived in such a state of ecstasy. Therefore,
this divine sport was not the gross earthly sport of lust. It was a purely
divine, blissful, unique and mysterious sport, to taste the delight of
which the greatest of the gods and liberated souls were extremely
eager. It is said that it was for this very purpose that they came and
took birth in Vraja as animals, birds, trees and creepers. The capacity
to understand and explain either the character of this lustless Love of
the Gopīs, or the Supreme Ecstasy ( महाभाव ) of Śrī Rādhā, the highest
among the objects of love of Śrī Kṛṣṇa, and as to how the desire for
sport and happiness arises in the Paramātma, who is eternally full
समर्पणमूर्त्तप श्रीर्त्िम्मनलालजी गोस्वामी 450
through the joy of His own Being, or how He derived pleasure through
sport with His own Śaktis manifested in the form of Love,—can be
acquired only through the grace of Śrī Kṛṣṇa, by such devotees as have
dedicated their lives to Him and to His worship, and have tasted the
nectar of His Love. What light can a person like me, who is steeped in
the attractions of the world, throw on the subject ? I can only submit
my prayer to all with folded hands that none should attribute the
impurity of his own heart to the Lord and impugn His transcendent
character or call in question His unimpeachable Līlās. Discarding all
doubt and disbelief, let him accept for meditation any Name or Form
of the Lord that may appear attractive to him, and engage with
undivided devotion in the worship and service of the Lord of his heart.
He should also guard against the belief that the Names and Forms of
God, other than the ones chosen by him, are lower in spiritual value
or represent a lower spiritual level; on the contrary, he should regard
them only as so many Names and Forms of his own Beloved Lord.
Love of God
By Śrī Hanumānprasād Poddār
Fear of God makes people bow to Him, for protecting them from
misfortune or for beseeching Him to bestow upon them wealth,
children, etc., etc. The very prosperity they hanker after makes them
soon forget Him when once they get it; if they do not get it, they begin
to doubt the very existence of God.
But a true LOVER OF GOD wants nothing for himself. He pants day
and night only for the LORD. He finds immense joy in surrendering his
all at the lotus feet of the Lord. Day and night he is ever cheerfully busy
in serving the Lord, and therein he finds infinite bliss. He will not beg
the Lord of anything for how can he bear the very idea of giving Him
any trouble for his own sordid self ? For him the Lord alone is all-in-all
and having found Him what does there remain to be asked for ? A true
“LOVER OF GOD” does not even want the so-called SALVATION, for he
knows, that once he is in that state, he can no longer have the good
fortune of serving the Lord, who is the heart of his heart, the soul of
his soul, the very breath of his life.
समर्पणमूर्त्तप श्रीर्त्िम्मनलालजी गोस्वामी 452
It was a feeling like this that made the Gopīs dance to the tune of
the Kṛṣṇa’s flute. When Uddhava enjoined them to concentrate their
mind on Brahma, with a view to achieve Salvation, they retorted
thus:—
twenty hearts,
Lord Kṛṣṇa,
Brahma.
and home.
Kṛṣṇa.”
the victory. The victorious hero of the Mahābhārata was chatting with
Lord Kṛṣṇa, on the technique and tactics of the war. The Lord Himself
was humouring Arjuna with fulsome praise for his deftness in warfare.
In the very course of the talk, Arjuna was reminded of the VIRAT
SWARUP—the UNIVERSAL FORM that he had seen before in the
battle-field, previous to his deciding upon war. He began to ponder
within himself:
The Omniscient, All-benign Lord, feeling that His Bhakta was getting
conceited, at once, chalked out a plan for making him shed off his
vanity. He cannot let any drawback remain in His devotees.
Arjuna began to feel thirsty but looking all around he could not find
water anywhere. He addressed the Lord thus, “Lord, I am feeling
awfully thirsty. Pray drive me on to a place where water could be had.”
The Lord reined in the horses and pointing to a thatched hut told
that a poor woman-devotee of His was living there, and that Arjuna
should go there to slake his thirst, but on no account, should he reveal
his identity.
Arjuna ran towards the hut and was instantly there to find a
beautiful hermitage, fragrant with heavenly flowers. He proceeded
towards the door. Hearing the footfall, an old woman, seventy years
समर्पणमूर्त्तप श्रीर्त्िम्मनलालजी गोस्वामी 454
old stepped out. She wore a loving smile on her face and fixing her
imperious, bright sparkling eyes on the stately figure before her, she
in measured tones, enquired, “Are you ARJUNA ?”
“Good”, rejoined the women, “Come in, sanctify my hut with the
dust of your feet. Excuse me, verily you are a Bhakta of my Lord, come,
come. May the Lord protect you from all evil.”
Overpowered with love for the Bhakta of her Lord, she took him
inside, furnished him with a beautiful Kuśa seat, washed his feet and
then engaged herself in arranging hospitality for him.
With the look of one who was in fright, Arjuna, reverently enquired,
“Mother, how is it that there are those sharp, deadly weapons in the
hermitage of a pious, kind and saintly lady like you.”
“You take water,” curtly replied the woman, and then mellowing
down a bit she added, “Excuse me, these are there for a specific
purpose which I am loth to disclose.”
समर्पणमूर्त्तप श्रीर्त्िम्मनलालजी गोस्वामी 455
For a moment, Arjuna trembled with fear and rage, and then
collecting himself up, asked, “What wrong have these Bhaktas of the
Lord done you ? Why, you a sister Bhakta of theirs are so bent upon
taking their life ?”
The old woman sobbed and wept and then distressfully said,
“Sonny, you call those conceited, selfish people, Bhaktas of my Lord.
For life, do not disgrace my Lord thus. You call Draupadī, a Bhakta. She
who forced my Lord to run bare-footed from Dwārkā, just to save her
from being stripped naked by Duśāsana ? What, if she was rendered
naked ? Was she not naked when she came into the world ? And would
she not be naked when she leaves it ?. Is she a Bhakta who was the
source of so much trouble to the Lord.
“And as to Uttarā. What if the child in her womb had been burnt to
ashes by the fire of Brahmāstra ? But, no, that apostate of a Bhakta
cried piteously and the Lord of my heart, Lord Kṛṣṇa had, perforce, to
place Himself between Uttarā and the fire of the Brahmāstra.
Fastening your own sins on the Lord, is that what you call Bhakti.”
“And do you still want to know, what sham it is, that hoax of
Arjuna's Bhakti. Well, listen. This arch-apostate, Arjuna, placed the
darling of Yaśodā, the light of her eyes, the cynosure of the world, my
tender Śyāma, the sweet notes of whose flute put stones and beasts
into raptures, yes, that arch-apostate Arjuna placed the Lord, all-
unarmed, in the front of his chariot to be the victim of the sharp,
deadly arrows of warriors like Bhīṣma, Droṇa and Karṇa. And for what,
all this ? For regaining his lost sovereignty; lost by gambling, forsooth.
I, Oh, what tortures...!! My heart has become like a sieve. And the
sufferings of my Lord for this cursed brood of Bhaktas, oh, they are too
many and too, too varied. Is that the working of the heart of a true
Bhakta, a true Lover of the Lord ? Shall I not have a revenge from these
self-styled Bhaktas. Those arms over there are thirsting for their
blood.” The old lady began once more to shed tears in devotional rage
and holy remembrance of the Lord.
As soon as the old lady had finished, Arjuna fell prostrate at her feet
and after he had washed them with tears of love and repentance said,
“Hail Mother, you are blessed. You have shown me the real, the true
path. Bless me mother, so that I too may have real Love for the Lord
and may propitiate Him, even as you have done.”
समर्पणमूर्त्तप श्रीर्त्िम्मनलालजी गोस्वामी 457
By way of a blessing, the old lady asked Arjuna to take the water
that had been lying there, in spite of the awful thirst of Arjuna. He took
it, bowed and left.
Arjuna was cursing himself all the way back to where he had left
Lord Kṛṣṇa. He fell at His feet and in the anguish of the soul, said,
“Pardon me Lord, I am a great sinner. Moulder of my Fate ! I have
caused Thee endless annoyance for my selfish ends. I know not what
repentance I could offer. Save me Lord, out of Thy abounding Mercy,
save me, save this humblest of Thy humble slaves.”
The Lord, with a smile took him up into His embrace and said, “O
king, O son of Kunti, why so afflicted ? What had happened to you, my
darling brother ? Warrior-heroes like you do not humble themselves
thus.”
Now the Lord and Arjuna got into the chariot. Arjuna repeated all
that he had seen and heard and with folded hands said, “O Blessed
Lord, O Lord of all Illusion, true, abiding Love of Thee is so difficult of
achievement, unless Thy Mercy wills it. O Lord of the humble, let me
drink deep into the fountain of your devotion, remove the weeds of
sinful conceit and vanity and through Thy Infinite Mercy, sow the
seeds of True Love and let them blossom forth with the water of Thy
tender regard for the true Bhakta. Pray, do this, My Lord, the Supreme
Master of the universe. My Lord KRISHNA pray do this.”
The Lord cast a lovely glance with sweet smiles, once more.
The Philosophy of Love.
By Śrī Hanumānprasād Poddār
6. A true lover will find happiness even if he has to bear the tortures
of hell for the sake of the Beloved, if the Beloved finds joy in it; for he
has completely merged his identity in that of his Beloved.
8. If the Beloved flouts the lover in his very presence and shows
intimacy to or makes love with a new-comer, the lover does not feel
offended or insulted thereby. On the contrary, he will feel immensely
pleased to think that his beloved is happy.
समर्पणमूर्त्तप श्रीर्त्िम्मनलालजी गोस्वामी 460
9. He alone is eligible for the divine gift of love who can bear the
pangs of separation, put up with insult and oppression, threats and
reproach, and can afford to remain happy notwithstanding all this.
10. Love knows no expression. The portals of Love are opened only
when the lover is prepared to sacrifice his all, surrender his earth and
heaven at the feet of the Beloved.
11. It is really very difficult to be blessed with true love. The lover
has no right to grumble even if he has to spend his whole life in mere
expectation.
14. Love is its own reward; one who treads the path of love finds
new vigour and encouragement in proceeding further.
“Love does not grow in a garden, Love does not sell in the
market. Prince or pauper, whoever may desire, can have it in exchange
for his life. So long as there was 'I', Hari was not; now that there is Hari,
'I' is gone. The path of love is very narrow and the two cannot go
together.” †
† प्रेम न बाडी नीपजै, प्रेम न हाि नबकाय । राजा परजा जेनह रुचै, सीस देइ ले जाय ॥
जब मैं था तब हरर नहीं, अब हरर हैं मैं नानहं । प्रेम गली अनत साुँकरी, तामें दो न समानहं ॥
Thy Laughter !
By Śrī Hanumānprasād Poddār
Is there anyone who can count the infinite divine qualities of Thy
qualityless being ? No one is potent enough to fathom Thy
unfathomable wisdom, which is Thy very being and which is beyond
the pale of Prakṛti ( Nature). No one has got the power to get a full
vision of Thy eternal and world-enchanting beauty and correctly
describe it, formless as Thou art. What true lover is there who on
समर्पणमूर्त्तप श्रीर्त्िम्मनलालजी गोस्वामी 466
Wild elephants, mad with fury, were let loose against Prahlāda to
trample him under their feet, attempts were made to have him bitten
by huge venomous serpents; magic spells and deceitful tricks were
also used against him; nay, he was hurled from high mountain-peaks,
pent up in a dark cell filled with poisonous gases and crushed under
the dead weight of huge rocks; but Prahlāda was firm like a mountain.
His faith in the Lord was unshakeable and he would not budge an inch
from his determination. He did not give way to fear nor did he die. He
emerged safe from all these ordeals, leaving his father in great
समर्पणमूर्त्तप श्रीर्त्िम्मनलालजी गोस्वामी 470
Mīrā cheerfully drank the cup of poison sent to her by her brother-
in-law; the celebrated Bhakta Haridās willingly underwent the tortures
inflicted on his person by the Mohammedan officers, loudly chanting
the names of the Lord all the time, and begged forgiveness of the Lord
for the sins of his oppressors. This should not be taken to mean that
devotees are cowards and hence they put up with every wrong. A
coward can never be forbearing. He is afraid of death and would
समर्पणमूर्त्तप श्रीर्त्िम्मनलालजी गोस्वामी 471
7. One should serve those who may be suffering from some disease
or are incapacitated in body or helpless, in all possible ways, with
mind, body and money. He should make it a point not to take service
from others as far as possible.
9. One should respect all, love all and should be ever ready to serve
all.
10. One should not reason with others, should not enter into
discussion or controversy with others.
11. One should have a firm belief and supreme faith in God and His
name, His devotees, and works dealing with His Bhakti.
13. One should not detect others' faults; let him discover his own
faults and expose them.
14. One should serve his parents and other elders, as well as his
master.
15. One should meditate on or mentally worship the Lord and recite
prayers to Him both in the morning and evening every day.
समर्पणमूर्त्तप श्रीर्त्िम्मनलालजी गोस्वामी 477
16. One should repeat the Divine name of his choice at least 25,000
times daily. One can complete this number by completing 16 Mālās (
or rosaries of 108 beads each ) of the following Mantra:—
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे । हरे कृ ष्ण हरे कृ ष्ण कृ ष्ण कृ ष्ण हरे हरे ॥
This is, however, meant only for the Hindus. The followers of other
faiths can similarly repeat the names of their respective Prophets or
other names recommended in their scriptures.
17. One should induce all the members of his family ( including
ladies, gentlemen, and children ) to chant the Divine Name in a chorus
and with absorbed attention at least for 15 minutes regularly every
day.
22. One should never entertain doubts regarding God and His
Incarnations nor as regards saints and godly men.
23. One should read, hear discourses on and ponder over the
meaning of, books like the Upaniṣads, Śrīmad Bhagavadgītā, Śrīmad
Bhāgavata ( at least Book XI ), Māhābhārata ( at least Śāntiparva and
Anuśāsanaparva ), the Rāmāyaṇa of Vālmīki, the Rāmacharitamānasa
of Goswāmī Tulasīdās, Sundaravilāsa of Sundardās, the Dāsabodha of
Samartha Rāmdās, the Bhaktamāla and other lives of saints and
devotees, and other such books. People of other faiths can read their
own scriptures.
1. Some saints allege that it is not possible to see God face to face
in this age. Is it worth believing ? If we believe it for a moment, is it a
fiction that devotees like Goswami Tulasidas, Narasi Mehta and others
were blessed with the sight of the soul-captivating form of the Lord ?
4. A burning desire for the sight of Śrī Kṛṣṇa has been kindled in the
heart; I am at a loss why it does not blaze forth and manifest itself
vividly. This has made me all the more uneasy.
Along with these questions my friend has written many more things
which lead one to believe that a desire to see the Lord has been
kindled in his heart. Authoritative answers to these questions can be
given by those exalted and revered souls who have had the rare
fortune to witness that soul-enthralling divine form of the Lord. I shall
also attempt to answer these questions in the light of whatever I have
been able from time to time to gather from their inspired talks. Before
समर्पणमूर्त्तप श्रीर्त्िम्मनलालजी गोस्वामी 480
The sage Nārada has defined Devotion ( भनक्त ) as surrendering all one's
actions to God and feeling great uneasiness in forgetting Him —
‘तदनपातानखलाचारता तनद्वस्मरणे परम व्याकु लता’ ( Bhakti Sūtras, 9 ). So long as the
desire for worldly enjoyments persists, so long as the transitory things
of the world appeal to us as attractive, delightful and gratifying to the
senses, and so long as we relish them, it should be understood that we
have not vacated the heart fully for the occupation of the Lord.
Goswami Tulasidas has said in one of his songs:—
The response that we get from God is commensurate with the room
we allot to Him in our heart. So long as we do not keep our whole heart
open for His occupation, so long as the love of our heart does not flow
in a ceaseless stream towards the Lord, we cannot experience a pang
of separation from Him; so long as we do not pine for the Lord He, too,
would not pine for us. For, the following is His watchword:—
There is no doubt about the fact that the true worth of the eyes can
be realized only when they are enabled to have the ever-new world-
captivating form of the Lord constantly before them and feast on the
same with an insatiable passion. But, so long as these eyes do not get
divinised through His grace they are precluded from obtaining a vision
of that maddening beauty. The supreme mental agony that we have
referred to above is the surest way to divinise them and make them
attain their true value. The blessed gentleman who has the fire of
separation from Śrī Kṛṣṇa blazing in his heart deserves all praise. This
fire does not generally manifest itself, and, whenever the agony of
separation becomes altogether unbearable for the devotee and bursts
forth into expression, it instantaneously burns away the whole stock
of his sins and afflictions and makes him mad with love. At that
moment the devotee forgets everything in his madness, like the cow-
maids of Vraja, and, impatient to meet his beloved Lord, invokes Him
with his whole strength and zeal. It is at this moment that he is blessed
with the Divine vision of the Lord, and he sees Him in the same form
in which he wishes to see Him and His communion and talk, too, is of
the same nature as he may have desired before.
“There will be no end to your work,” said the tailoress. “The whole
winter will have passed before you are able to dispose of your
customer's clothes and in the meantime, God forbid, if you or the boy
catches cold and fever, what will happen to me ?” “What am I to do ?”
replied the tailor rather coldly, “I have no time to spare just at the
present moment.”
Similar is the case with the so-called teachers of mankind; they get
no respite from the work of teaching others. ( A tailor at least fits
others with clothes and thus protects them against heat and cold, but
these so-called teachers or preachers practically waste the whole of
their time ). But a day will come when they will get complete rest from
their work, a rest which will know no hindrance. To say nothing of
these poor people, even those who have boards bearing the words
“No time” hanging at their doors and who are always found
murmuring that they have no breathing time, will automatically get
full leisure to roll in the ashes of the cremation-ground.
“Let the world do whatever it takes into its head to do, no matter
whether it is good or bad; what you should do is to put your own house
in order.” *
“You have spent decades in trying to purge the world of its sins !
You should therefore clean your own mind first; or else it will continue
to remain dirty, ( however you may try to clean others ).Ӡ
कौंनसलका सेक्रेिरी ननयुक्त कर नदया । कनाल राव बहादरु राजा हररनसंहजी सी.आई.ई.
( महाराज ) ने दरबारकी ओरसे आप दोनोंकी प्रशनस्त करते हुए कहा नक दरबारको
इस बातसे बडी प्रसन्नता है नक राज्यमें ऐसे स्पष्टवादी मनतमान् प्रजाजन हैं । हमारी
प्रजा मात्र भेडोंकी िोल नहीं है नक आुँख मूुँदे चलती जावे, उसमें राज्यभनक्तके साथ-
ही-साथ आत्ममस्मान भी कू ि-कू िकर भरा है ।
उन नदनों बीकानेरमें शेख मुह्मद इब्राहीम चीफ जनस्िस ( जज ) थे । इनको
मुशायरे का बहुत शौक था । श्रीनच्मनलालजीके साथ श्रीअजुानदासजी वहाुँ भी जाया
करते थे । एक नदवस महनफलमें शायर लोग “रंगलाया है दपु ट्टा तेरा मैला होकर”
— इस तरह पर अपनी-अपनी शायरी सुनाने लगे । श्रीके नडयाजी आशुकनव थे,
अतः महनफलमें ही बैठे-बैठे दोनोंने नमलकर इसकी पूनिा कर डाली ।
श्रीनच्मनलालजीने इस नज्मको अपने सुमधुर कण्ठसे गाकर सुनायी । मजनलसमें
इसकी खूब वाह-वाही हुई एवं दाद दी गयी । समस्या-पूनिाकी कनवता नन्न है —
* * *
समर्पणमूर्त्तप श्रीर्त्िम्मनलालजी गोस्वामी ४९२
(२)
रासका ठाकु र बालक घनश्याम श्रीनच्मनलालजी गोस्वामीको दादाजी कहता है
। आज उसके दादाजीके यहाुँ सभी मण्डलीका भोजन-ननमन्त्रण है । सभी ब्रजवासी
मण्डलीमें उत्मसाह है । इधर श्रीगोस्वामीजीकी पत्मनीने रानत्रपयान्त जागकर पक्वान्न ननमााण
नकये हैं । गोस्वामीजीने भी उत्मसाहपूवाक अपने घरको कदलीख्भोंसे सनज्जत नकया है
। आुँगनमें बन्दनवारें बाुँधी हैं । प्रातः से ही गृहद्वारपर तोरण सजानेमें सभी इष्टनमत्र
संलि हैं । प्रातः होते ही स्वनणाम रनवरनश्मयोंने श्रीगोस्वामीजीके घरको ज्योंही
आलोनकत नकया, वे भी आनन्दोल्लासमें भर उठीं ।
कदली-स्तंभ, मंगलघि, बन्दनवारों एवं पल्लव-पुष्पोंसे ही सारे घरको मानो भर
नदया गया है । गोस्वामीजीकी पत्मनीका मन रोम-रोमसे उल्लनसत है । वह पाक-रचनामें
रानत्रभरसे लगी है ।
“आज मेरा जन्मधारण सफल हो गया । मेरे नेत्र भी सफल हैं । मेरा कु ल, मेरी
नवद्या, मेरी सभी पुण्यरानशका फल मुझे प्राि हो गया । मेरा सारा पररवार कृ ताथा हो
गया । अपने पुरुषाथासे नहीं, मेरे अग्रज धमाभ्राता भाईजी श्रीपोद्दार महाराजके संगने
मुझे सवाथा कृ ताथा बना डाला । मेरे घरपर आज वे बालक भोजन-प्रसाद ग्रहण करेंगे,
नजन्होंने रासलीलानुकरण करके प.पू. श्रीराधाबाबा एवं स्वयं श्रीपोद्दार महाराज जैसे
पुण्यपुरुष सन्तोंको भावनवभोर कर नदया और मुझे भी अलौनकक नचज्ज्योनतके दशानसे
कृ तकृ त्मय कर नदया ।”
“नजस बालकमें अनानद मोहान्धकारको सवाथा नष्ट कर देनेवाले नवशुद्ध ब्रह्मरूप
अंकुरका उन्मेष होता है; नजसपर मेरे गुरुतुल्य पू.राधाबाबाके इष्ट मूता हो जाते हैं; जो
उनके इष्ट साक्षात् भगवान् श्रीकृ ष्णके पूवा ननदेशानुसार हम सबको दशान देकर कृ ताथा
करने ब्रजप्रदेशसे यहाुँ गोरखपुर आया है; नजसका मानस इतना पनवत्र है नक
समर्पणमूर्त्तप श्रीर्त्िम्मनलालजी गोस्वामी ४९३
डोरीसे गूंथकर नननमात करायी है । इसी बग्घीपर कौमारवयके मण्डलीके सभी पररकर
बैठ जाते हैं, स्वामी और समाजी लोगोंके नलये बगीचेसे ‘नैश’ नवदेशी नोिरगाडी
भेजी गयी है । स्वामी श्रीरामजी सभी बालकोंको संयत रहने और शैशवजन्य उत्मपात
नहीं करनेका ननदेश देकर बग्घीको आगे बढाते हैं । सभी सोल्लास वायुकी लहरकी
तरह शीघ्र ही बगीचे पहुचुँ जाते हैं और तब श्रीगोस्वामीजीके गृहप्रांगणकी ओर चल
पडते हैं ।
गृहद्वारपर ही गोस्वामीजी ब्राह्मणोनचत मयाादाका पालन करते हुए आम्रपल्लवयुक्त
रजतघि लेकर सभी मण्डलीका वेदमन्त्रोंसे स्वस्त्मययन करते हैं और अपने पूजाके
कमरे में सभीको आसन देकर बैठाते हैं । क्रमशः सभीका पूजन होता है । वे अपने हाथों
सभीके चरण प्रक्षालन करते हैं, और चरणोदकको सभी कु िु्बीजनोंमें नवतरण करते
हैं ।
इस प्रकार भोजनोपरान्त वस्त्राभरण समनपात कर गोस्वामीजीके घरसे स्वरूपोंको
नबदा कर नदया जाता है । नवदाई बेला भी अभूतपूवा होती है । पू. राधाबाबाकी छोिी
मैया ( श्रीगोस्वामी नच्मनलालजीकी धमापत्मनी ) दोनों स्वरूप श्रीराधा एवं श्रीकृ ष्णको
अपनी गोदमें बैठाकर आरती करवाती हैं। सभी मोहल्ले की नस्त्रयाुँ मंगलगीत गाती हैं ।
तुमल
ु जयध्वनन होती है । उस अपूवा प्यारभरे स्मेलनका दृश्य देखकर उस समय हम
सभीके तो पलक पडने ही बन्द हो जाते हैं । हम सभी देख रहे थे —
“दोनों ही राधाकृ ष्ण बननेवाले बालक परस्पर नेत्र नमलाये अभूतपूवा सुन्दर लग
रहे थे । श्रीगोस्वामीजीकी धमापत्मनीका कलेवर भी प्रेमावेशसे ननस्पन्द था । उसके एवं
गोस्वामीजीके नेत्रकोण अश्रुपूररत थे । वास्तवमें तो दोनों वात्मसल्य-रसघनमूनता
द्पनिका प्रेम-नवगनलत नचि ही अश्रुनमषसे नेत्रोंके द्वारा प्रवानहत हो रहा था और
बाह्यवक्षको नभगो रहा था । यों, होना तो चानहये था श्रीकृ ष्ण स्वरूपको काला और
समर्पणमूर्त्तप श्रीर्त्िम्मनलालजी गोस्वामी ४९५
राधास्वरूपको गोरा, परन्तु वस्तुतः श्रीकृ ष्ण बननेवाला बालक घनश्याम गोरा था और
राधा बननेवाला बालक कु ञ्जनबहारी नकं नचत् कृ ष्णवणा ( साुँवला ) था । उस समय
इन दोनों स्वरूपोंमें सभीको ऐसी प्रेमासनक्त और प्रेमावेश अनुभव हो रहा था नक यही
लगता था मानों सबसे बडा ननबन्धन यनद नवश्वमें कु छ है तो वह प्रेमबन्धन ही है ।”
* * *
(३)
प्रोफे सर साहबने ज्यों ही उसे देखा उनके तो पसीने छू ि गये । बाबाने पूछा—
“दोनोंमें अंतर आपको नदखाई देता है ?”
प्रोफे सर साहबने नजर झुकाते हुए कहा—‘इस अनुवादमें भावका अथा है,
भाषाका सौष्ठव है, सरलता है, जबनक मेरे अनुवादमें शब्दोंके मात्र अथा हैं ।
नडक्शनरीवाले भारी-भरकम शब्द हैं, पर आत्ममा नहीं है ।’ बाबाने उन्हें तब बताया
नक ये अनुवाद गोस्वामीजीने नकया है । प्रोफे सर साहब शनमांदा होते हुए बोले—‘मुझे
क्षमा कर दीनजए, मैंने ऐसे ही निप्पणी कर दी थी ।’
भाईजी भी जानते थे नक नवषयके गभामें जाकर जो भाव गोस्वामीजी अनभव्यक्त
कर सकते हैं वह दसू रा कोई नहीं कर सकता । नवश्वनवद्यालयी भाषा और गोस्वामीजी
द्वारा प्रयोगमें लायी जानेवाली भाषामें रात-नदनका अंतर होता है । इसीनलए भाईजी
प्रोफे सर साहबके बातसे नवचनलत नहीं हुए थे और उन्होंने उसे सहजतासे वापस ले
नलया था ।
बाबा गौरवमयी वाणीमें अनेक बार कहा करते थे—“अपने आषा ग्रन्थोंका ऐसा
प्रामानणक और आनधकाररक अंग्रेजी अनुवाद अभी तक मेरे देखनेमें नहीं आया जैसा
गोस्वामीजीने नकया है ।”
श्रीसुभाष दीर्कजी िारा सांकर्त्लत सांस्मरण
(१)
बात पुरानी है । श्रीनच्मनलालजी उन नदनों ‘कल्याण’ मानसकपत्रका स्पादन
नकया करते थे और श्रीमदनमोहनजी गोस्वामी भी उनके सहयोगीके रूपमें वहाुँ काम
करते थे ।एक बारकी बात है गोस्वामीजी कु छ पत्रोंको पढ़ रहे थे और मदनजी उनके
पास बैठे उनके आदेशकी प्रतीक्षा कर रहे थे । थोडी देर बाद उन्होंने मदन जीको पास
बुलाया और उन्हें एक-एक करके पत्र देना शुरू कर नदया तानक वे पोस्ि करने लगें ।
श्रीगोस्वामीजी मदनजीको पत्र पकडाते और मदनजी अगर आवश्यकता होती तो उसमें
आलनपन लगाते और उसे मोड कर नलफाफे में डाल देते अन्यथा वैसे ही नलफाफे में
रख देते । कु छ देर तक यह क्रम चलता रहा । अचानक एक पत्रपर गोस्वामीजी अिक
गये, लेनकन नफर उसे मदनजीको पकडाते हुए बोले — “मदन यह मेरा ननजी पत्र है
।” मदनजीने नसर नहला कर जताया नक उन्होंने सुन नलया है । जैसा नक क्रम चल रहा
था मदनजीने पत्र नलया और एक आलनपन लगाकर पोस्ि करनेके नलये रख नदया ।
गोस्वामी जी अचानक भडक गये । “यह क्या कर रहा है ?” —उन्होंने पूछा ।
‘पत्रको पोस्िके नलए डाला है’, मदनजीका सहज उिर था । “मैंने क्या कहा था ?”
—उन्होंने नफर पूछा । ‘आपने कहा था यह मेरा ननजी पत्र है’ —मदनजीने जवाब
नदया । “और इसपर तुमने जो आलनपन लगायी वह नकसकी है ?” —गोस्वामीजीने
सवाल नकया । मदनजी पूरा माजरा समझ गये । ‘जी, आनफस की है’ —उनका उिर
था । बस नफर क्या था, मदनजीने तुरंत पत्रमेंसे आलनपन ननकाली और पत्रको नबना
आलनपनके ही मोड कर रख नदया । गोस्वामीजी नननश्चंत हुए और अपने काममें जुि
गए ।
समर्पणमूर्त्तप श्रीर्त्िम्मनलालजी गोस्वामी ४९९
(२)
बात पुरानी है और उन नदनोंकी है जब पूरे देशमें एक जन आंदोलनके तहत धरना
प्रदशान और हडतालका दौर जारी था ।उन्ही नदनों गोरखपुरमें एक बार यह तय नकया
गया नक कु छ कायाकताा शहरमें शांनतपूणा तरीके से माचा ननकालें । कायाक्रम ऐसा बनाया
गया नक एक सवेरे सारे कायाकताा गीतावानिकाके मुख्य द्वारपर एकनत्रत हों और भाईजी
अथाात् श्रीपोद्दारजी उन्हें अपना आशीवााद देकर माचाके नलए रवाना करें । नननश्चत
कायाक्रमके अनुसार गीतावानिकाके मुख्य द्वारपर तमाम कायाकतााओकं ा समूह इकट्ठा
हो गया । दभु ााग्यवश भाईजीकी तनबयत अचानक नबगड गयी और उनका द्वार पर
पहुचुँ ना असंभव हो गया । ऐसेमें अब यह नज्मेदारी श्रीराधाबाबा पर आ गयी । तय
यह हुआ नक बाबा अपना हाथ उठाकर प्रत्मयेक कायाकतााको आशीवााद देंगे और
गोस्वामीजी महाराज प्रत्मयेकके भालपर नतलक लगाते जायेंगे । बडे शांनतपूणा तरीके से
सबकु छ चल रहा था नक अचानक एक पुनलस अफसर घुडसवार अपनी घुडसवार
िुकडीको लेकर आ गया और बगैर नकसी चेतावनीके वहाुँ उसने खडे स्वयंसेवकोंपर
कोडे बरसाने शुरू कर नदये । बाबाको बहुत बुरा लगा । गुस्सेसे उनका चेहरा लाल हो
गया । वे तेज गनतसे चलते हुए अफसरके पास गये और उसके घोडेकी उन्होंने कस
कर रास पकडली ।अफसरको भी कु छ समझमें नहीं आया । वह हकबकाकर बाबाको
देखने लगा ।
“ननहत्मथे और ननदोष लोगोंपर क्या अपनी ताकत नदखा रहा है,नदखाना है तो मुझ
पर अपनी ताकत आजमा ।” —कहते हुए बाबाने कं धेपरसे अपना वस्त्र उतार फें का
और अफसरकी तरफ अपनी नंगी पीठ करके खडे हो गये । बाबाका इतना करना था
नक गोस्वामीजी बाबाके सामने, पहला वार झेलनेके नलए ढाल बन कर खडे हो गये ।
अफसरने जब जोशसे उबलते दबु ले पतले बाबा और क्रोधसे लाल, तेजस्वी, सीना
समर्पणमूर्त्तप श्रीर्त्िम्मनलालजी गोस्वामी ५००
ताने, गोस्वामीजीको देखा तो उसका सारा रौब हवा हो गया । एक क्षणको उसने
दोनोंको देखा और नफर वह घोडेसे उतरा और दोनों महानुभावोंको सेल्यूि कर अपनी
फौज लेकर लौि गया । जुलूस अपने कायाक्रमके अनुसार शांनतपूणा तरीके से स्पन्न
हुआ ।
आवश्यक सूिना
कई कारणोंसे समस्त सामग्रीके एकत्रीकरणमें नकनञ्चत् देरी हो जानेके कारण
स्पादन एवं मुिणके नलये समय कम नमला, अतः अनेक चेष्टाओंके बाद भी
समयाभावके कारण बहुत-सी सामग्री इस संस्करणमें सन्मनलत नहीं की जा सकी
है । अभी भी अनुमाननत ६०-७० पृष्ठोंकी सामग्री शेष है, नजन्हें अगले संस्करणमें
प्रकानशत करनेका नवचार है ।
— सम्र्ादक
सम्र्ादकका र्त्नवेदन
र्त्िर्त्ध हरर हर कर्त्ि कोर्त्िद िानी । कहत साधु मर्त्हमा सकु िानी ॥
स्वरूप था । उनके जीवनका कण-कण अनभनव चैतन्य परम पूज्य श्रीभाईजी एवं परम
पूज्य श्रीराधाबाबाके रुनचके साुँचेमें पूणारूपेण ढला हुआ था । उनका न अपना कोई
पृथक् अनस्तत्मव था और न अपनी कोई स्वतंत्र सिा थी । उनका जीवन — “तुम हो
यन्त्री, मैं यन्त्र, काठकी र्ुतली मैं, तुम सूत्रधार” — का प्रत्मयक्ष उदाहरण था । परम
पूज्य श्रीभाईजीकी आत्ममसंगोपनीय प्रवृनि अत्मयन्त नवलक्षण थी एवं उनके इस
स्वभावकी सहज छाप पूज्य श्रीगोस्वामीजीके जीवनमें भी पूणारूपेण नवद्यमान थी ।
यही कारण है नक उनका अपना कोई स्वतंत्र सानहत्मय अथवा उनके जीवनसे स्बनन्धत
प्रकानशत सामग्री उपलब्ध नहीं है ।
उनके अन्तरङ्ग सानन्नध्यमें रहनेवाले कु छ अनतशय सौभाग्यशाली व्यनक्तयोंके द्वारा
उनके चररतनसन्धुके कनतपय बहुमूल्य रत्मन भगवत्मकृपासे समय-समयपर जगतके्
स्मुख अवश्य प्रकानशत होते रहे हैं । नकन्तु उनसे स्बनन्धत वह समग्र प्रकानशत
सानहत्मय नवनभन्न पुस्तकोंमें अलग-अलग स्थानोंपर नबखरा हुआ था, नजसके
पररणामस्वरूप वह जन-सामान्यके नलये प्रायः सुलभ नहीं था । अतः बहुत समयसे
ऐसा नवचार बन रहा था नक समस्त श्रद्धास्पन्न पाठकोंके सौकयाके नलये उन सभी
नबखरी हुई सामनग्रयोंको एक पुस्तकके रूपमें संकनलत कर नदया जाय । भगवत्मकृपासे
वह नवचार कायारूपमें पररणत हुआ और ‘रस-प्रवाह’ के नद्वतीय नवशेषांकके रूपमें
यह संकलन “समपाणमूनिा श्रीनच्मनलालजी गोस्वामी” नामसे प्रकानशत नकया जा
रहा है ।
नवषयको व्यवनस्थत ढंगसे संयोनजत करनेकी दृनष्टसे ही एकनत्रत सामग्रीको ९
प्रकरणोंमें नवभानजत नकया गया है । प्रथम प्रकरणमें भगवान् श्रीराधा-माधवकी वन्दना
की गयी है । दसू रे प्रकरणमें महापुरुषोंके मनहमाका वणान है । तीसरे प्रकरणमें
श्रीगोपीजनोंकी मनहमा एवं पूज्य श्रीगोस्वामीजीके प्रनत परम पूज्य श्रीभाईजी, परम
समर्पणमूर्त्तप श्रीर्त्िम्मनलालजी गोस्वामी ५०३
पूज्य श्रीराधाबाबा एवं पूज्या श्रीमती सानवत्रीबाई फोगलाके उद्गार हैं । चतुथा प्रकरणमें
पूज्य श्रीगोस्वामीजी द्वारा परम पूज्य श्रीभाईजीकी मनहमामें नलखे गये उद्गार एवं पत्रोंका
संकलन है । पञ्चम् प्रकरणमें परम पूज्य श्रीराधाबाबा द्वारा समय-समयपर पूज्य
श्रीगोस्वामीजीको नदये गये उपदेशों एवं प्रबोधनोंका संकलन है । छठे प्रकरणमें परम
पूज्य भाईजी श्रीहनुमानप्रसादजी पोद्दार द्वारा समय-समयपर पूज्य श्रीगोस्वामीजीको
प्रेनषत नकये गये पत्रोंका संकलन है । सातवें प्रकरणमें पूज्य श्रीगोस्वामीजीके जीवनसे
स्बनन्धत अनेक घिनाओं एवं सुन्दर संस्मरणोंका संकलन नकया गया है । आठवें
प्रकरणमें पूज्य श्रीगोस्वामीजी द्वारा नलनखत कु छ पुस्तकोंके स्पादकीय ननवेदन एवं
उनके द्वारा नकये गये अनेक लेखों एवं पदोंका अंग्रेजी अनुवाद संकनलत है एवं नवें
प्रकरणमें कु छ छोिे-छोिे संस्मरण प्रकानशत नकये गये हैं ।
प्रस्तुत ग्रन्थके प्रकाशनमें प्रत्मयक्ष अथवा परोक्ष रूपसे सहयोग एवं मागादशान प्रदान
करनेवाले समस्त महानुभावोंके प्रनत हम सहृदय आभार व्यक्त करते हैं ।
इस पुस्तकके स्पादन आनदके अन्तरालसे पूज्य श्रीगोस्वामीजी एवं उनके
‘अपने’ परम पूज्य श्रीभाईजी एवं परम पूज्य श्रीबाबाके स्मरण-नचन्तनका जो परम
दलु ाभ सौभाग्य हमें प्राि हुआ, यह उनके हेतरु नहत स्नेह एवं वात्मसल्यका ही पररणाम
है । नकन्तु जब अपनी ओर दृनष्ट जाती है, तब ऐसा प्रतीत होता है नक हमारी नवषय-
कीचसे सनी अपावन बुनद्धके माध्यमसे हुआ यह संयोजन हमारे मनलनतम अहंकारके
नक्रयाशील रहनेके कारण उनके परम ननमाल, परम नवशुद्ध स्वरूपको ननश्चय ही
अनभव्यक्त नहीं कर पाया है, इस संकोचके कारण हम नवश्वरूप प्रभुके स्मुख क्षमा-
प्राथी होकर खडे हैं ।
प्रस्तुत ग्रन्थका प्रकाशन पूज्य श्रीनच्मनलालजी गोस्वामीके पुण्यनतनथ पर
करनेका नवचार नकया गया था । कई कारणोंसे समस्त सामग्रीके एकत्रीकरणमें नकनञ्चत्
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देरी हो जानेके कारण स्पादन एवं मुिणके नलये समय कम नमला, अतः अनेक
चेष्टाओंके बाद भी समयाभावके कारण बहुत-सी सामग्री इस संस्करणमें सन्मनलत
नहीं की जा सकी है । अभी भी अनुमाननत ६०-७० पृष्ठोंकी सामग्री शेष है, नजन्हें
अगले संस्करणमें प्रकानशत करनेका नवचार है ।
इसके अनतररक्त यथाशक्य सावधानी रखनेके बाद भी मानवीय दबु ालतावश मुिण
आनदमें कु छ अशुनद्धयोंका शेष रह जाना स्भव है; अतः इस प्रमादजननत भूलके
नलये भी हम समस्त प्रेमी पाठकोंसे क्षमा चाहते हैं ।
अन्तमें सबसे यही ननवेदन है नक इस पुस्तकमें जो कु छ है, वह परम पूज्य
श्रीभाईजी, परम पूज्य श्रीराधाबाबा एवं पूज्य श्रीगोस्वामीजीका है; अतः यह अत्मयन्त
लाभकी वस्तु है उनके नलये, जो भगवत्मप्रानिके मागाका अनुसन्धान प्राि करना चाहते
हैं । हमारा नवश्वास है नक इस पुस्तकमें वनणात महत्मवपूणा नसद्धान्तों एवं आदशोंको
जीवनमें धारण करनेवाले सौभाग्यशाली व्यनक्तयोंका ननश्चय ही कल्याण होगा ।
नवनीत
ऋर्त्ववक र्त्मश्र
सहायक र्ग्न्थों / र्ुस्तकोंकी सूिी :—
* * *
स्वतांत्र लेख :—
ननष्ठाके प्रतीक आदरणीया श्रीमती अचलननन्दनीजी श्रीवास्तव
पंनडत श्रीनच्मनलालजी गोस्वामी :
एक नवलक्षण नवभूनत श्रीमती उषा गोस्वामीजी
गोस्वामीसे गोस्वामीतक की यात्रा ( लेखक — अज्ञात,
प्रेषक — श्रीसुभाष दीपकजी )
आध्यानत्ममक सानहत्मय-स्पादनकी यशस्वी पर्पराओंके
संवाहक श्रीनच्मनलालजी गोस्वामी ( श्रीभानुस्वरूपजी गोस्वामी )
श्रीरामचररतमानसके प्रकाशनमें गोस्वामी श्रीनच्मनलालजी
आनदका योगदान ( श्रीहेमंत शेषजी )
श्रद्धा-सुमन : एक भावानभव्यनक्त ( श्रीमती नचत्रा तैलंगजी )
करुणाके रससागर ( श्रीप्रदीप तैलंगजी )
अर्त्भनव िैतन्य र्रम र्ूज्य भाईजी श्रीहनुमानप्रसादजी र्ोद्दार
समर्पण
सौंप नदये मन-प्राण तु्हींको, सौंप नदये ममता-अनभमान ।
जब जैसे मन चाहे बरतो, अपनी वस्तु सवाथा जान ।।
मत सकु चाओ मन की करते, सोचो नहीं दसू री बात ।
मेरा कु छ भी रहा न अब तो, तुमको सबकु छ पूरा ज्ञात ।।
मान-अमान, दःु ख-सुखसे अब मेरा रहा न कु छ स्बन्ध ।
तु्हीं एक कै वल्य मोक्ष हो, तुम ही के वल मेरे बन्ध ।।
रहू ुँ कहीं, कै से भी, रहती बसी तु्हारे अन्दर ननत्मय ।
छू िे सभी अन्य आश्रय अब, नमिे सभी स्बन्ध अननत्मय ।।
एक तु्हारे चरण-कमलमें हुआ नवसनजात सब संसार ।
रहे एक स्वामी बस, तुम ही करो सदा स्वच्छन्द नवहार ।।