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मातृत व और उसका काशन

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माँ का sवाaतnवक प रचय पाना अ य त
क ठन vहैv
वेaमाँs को उसी भाव से दे खते ह और दे खगे।
। जनम जैसी तभा और सं कार है
य क वह बा च रत है। य द सौभा यवश
कसी को वयं उसका आभास मल भी गया
तो वह सर के स मुख उसे कट कर
सके गा, यह आशा नता त राशा ही है,
वा तव म स तान होकर माँ का प रचय पाने
के लये य न करना ही नरा पागलपन तीत
आ द शङ् कर वै दक व ा सं ान
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होता है। 'माँ कौन है', 'माँ का व प या है',
इन सब गंभीर वषय क मीमांसा अ प
ब े से कदा प नह हो सकती। जस समय
ब े का ज म नह आ था, उस समय भी
माँ थी, जस समय ब ा नह रहेगा, उस
समय भी माँ रहगी। माँ सनातनी ह - ब े म

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ऐसा कौन बल है जससे क वह माँ का

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व प जानने म सफल मनोरथ हो सके ?

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जनक श से श शाली होकर ब ा ज म

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हण करता है, उनक स ा से ही उसक

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स ा है, जनका अवल बन लये बना वह

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अध ण भी नह टक सकता, उ ह समझ

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पाने क मता उसम कहाँ है? मनु य साधन

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के बल से अ य त बलवान् होकर कर कम

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कर सकता है सही, क तु साधन के मूल म

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भी उ ह क कणमा श व ामन रहती
है। महाश के अनु ह के लवलेश के बना
मनु य जड़ प ड के समान अकम य रहता है
मनु य तो र रहा, वयं शव भी श र हत
होने पर नः द होकर शववत् रहते ह। सब
दे वता और सब जीव क ाण व प उन
आ ा श को कौन पहचान सकता है, कौन
जान सकता है? ान, भ , कम आ द सब
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साधन क ाणश उ ह का अनु ह है,
इस लये अपना बल कसका ऐसा है जससे
कोई उ ह जान सके । य द वे वयं अपने को
का शत कर द तो उनका कु छ प रचय ा त
हो जाता है, क तु वह भी सबके लये सुलभ
नह जसके नकट वे जतना आ म-प रचय

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कट करती ह, वह उतना ही पाता है, और

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कु छ भी नह पाते। जैसे उ वल यो तमय

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सदा काशमय भगवान सूय के काशमान

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रहने पर भी अ े के लये उनक स ा नह

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के बराबर रहती है, वैसे ही आ ाश के

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जगत् म काशमान रहने पर भी साधारण के

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नकट वह अ काशमान-सी रह जाती ह। य द

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वे वयं अपना प रचय न द तो उ ह कोई

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कथाs है क एक
पहचान नह सकता।

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नारायण के दशन
बार दे व ष नारद भगवान्
क इ ा से ेत प म
गये। ेत प अ य त गम ान है,
साधारणतः दे वता और ऋ षय क प च ँ के
परे है। वहाँ जाकर द वभू तधारी नारायण
के दशन भी उ ह ा त ये ह। वे अपने
तपोबल से उस दे व लभ प का दशन
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करने म समथ ये थे, इस हेतु उनके मन म
एक कार के हष और अहंभाव का संचार
आ था। साथ ही साथ आकाशवाणी ई,
'नारद, तुम वृथा अहंकार कर रहे हो । मेरे
इस भूतगुणयु प के दशन कर तुम समझ
रहे हो क मने भगवान् के परम प का

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दशन पा लया। क तु तु हारी धारणा मपूण

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है। य क यह भी मेरा मा यक ही प है,

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मेरे व प का दशन अब भी तु ह नह आ।'

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उनक वशेष अनुक ा के बना उनका

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व प दशन कसी को भी नह हो सकता।

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योगी को योगबल से सकल ा ड के

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अतीत, अनागत और वतमान सम त पदाथ

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का ान एक ही समय म य प से

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वतमान क तरह, हथेली म रखे आँवले के

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तु य, ा त हो सकता है। क तु उससे भी
महाश का ान ा त नह हो सकता।
स ात साल बन समा ध म जाग तक पदाथ-
वषयक ा का उदय होता है। क तु जगत्
क मूल कृ त या पु ष उसके वषय नह
होते। पु ष और कृ त से परे परम ऐ रक
श तो और भी र क बात है। ानी का
ानबल और भ का भ बल माँ का चरण
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श करने म समथ नह होता । वा तव म
योगबल, ानबल और भ बल सम त बल
उन महाबल व पणी के अणुमा के
त ब बाभास ह। इन ु आभास बल का
उस मूल क ओर योग होने पर ये स ाहीन
हो जाते ह और कसी भी काय के स ादन

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म समथ नह होते। द प क सूय को

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का शत कर दखाने क चे ा जैसे

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उपहासा द है वैसे ही मनु य क अपने

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आभास बल के ारा महाश माँ के व प

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साधारणत: माँ स तान hकोa अपना प रचय नह
को जानने क चे ा भी उपहासा द ही है।

दे ती, स तान के stलये वह प रचय कोई


आव यक a भीn नह
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है; माँ उसक

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आव यकता क पू त करती ह, वह जो
चाहता है उसे वह दे कर ही भुलाये रखती ह।
वे भोगाथ को भोग दे ती ह, मो ाथ को
मु दे ती ह, आत क आ त र करती ह,
भूखे को अ , यासे को जल और ज ासु
को ान दान करती ह। जो उह
जस भाव से भजता है वे उसके नकट उसी
भाव से उप त होती ह। अपने-अपने भाव
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के अनुसार माँ का यह प रचय साधकमा को
ही अ धकार के अनु प ा त रहता है, क तु
माँ के व प का प रचय नह है। माँ का
व प भावातीत है महाभाव व पणी माँ
अन त कार से अन त भाव क संगम और
उ म होकर भी वा तव म सम त भाव के परे

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ह। माँ के उस तुरीयातीत व प को कौन

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हण कर सकता है? वयं ख डभाव के

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अधीन रहकर महाभाव को धारण करना

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अस व है, भावातीत व प को धारण करना

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तो सु र व मा है। जस ु मनु य के

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दय म ख ड भाव का ही उदय नह आ है,

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वह उ ह या पहचान सके गा? माँ को

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पहचानना हो तो माँ म आ मसमपण कर

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उनके साथ एका मता ा त करनी चा हए -

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माँ से पृथक् रहकर माँ का प रचय ा त नह
हो सकता। अहंभाव क नवृ प वह
आ मसमपण योग माँ क पूण कृ पा से ा त
हो सकता है। उस अव ा के ा त होने पर
माँ के साथ स तान का कोई भेद नह रहता,
उस समय एकमा माँ ही चदान द व प म
वराजमान रहती ह। उस समय वे वयं ही
अपने को जानती ह। वह आ मप रचय तो
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सदा ही उ ह रहा है। क तु उससे जीव को
या लाभ? जीव के लये माँ को जानने क
चे ा तो सदा वड बना ही रह जाती है। जब
कम, योग और भ के भाव से भी माँ को
व पतः नह पहचाना जा सकता, तब च र
पढ़कर और उपदे श सुनकर उ ह यथाथ प

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से पहचाना जा सकता है, यह कहना थ है।

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च र भीतर व मान भाव का ोतक मा

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है। जो वयं कसी भाव के अधीन न होकर

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भी सब भाव का अवल बन कर डा कर

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सकती ह एवं लीला के बहाने करती भी ह,

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उ ह च र ारा या जानगे ? लोक श ा के

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लये वे शा और समाज-मयादा का पालन

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कर सकती ह एवं करती भी ह और लोक

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श ा के लये अथवा अ य कसी अ च य

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कारणवश वे उसका उ लंघन भी कर सकती
ह, क तु उससे उनका गौरव ही या है और
हा न ही या है? वे तो काय कारण नयम के
अधीन नह ह- कम अथवा पाप-पु य उनका
श नह कर सकते। उनका आचरण सदा ही
साधारण लोग का अनुकरणीय होगा, इसका
कोई अथ नह है। शवजी हलाहल पान कर
मृ युंजय ये पर साधारण लोग के लये
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वषपान मृ यु का ही कारण होता है। वे दे श,
काल और पा के अनुसार वहार करती ह,
पर कभी-कभी उनका आचरण समझ म नह
आता। स हत गत फल क आकां ा,
वच ा न कम के सं कार के भाव
और वचार - बु क ेरणा से साधारण

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मनु य कमपथ का प थक होता है, य क

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उसके स ूण जीवन क भ अहंभाव पर

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ही नभर रहती है, क तु जो मानव दे ह धारण

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करके भी दे हा मभाव शू य ह, ज म से ही

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जनका ान वैभव अलु त रहा, अ ान और

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वाथ कलु षत इ ा जनके दय का श

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नह कर सकती, उनका आचरण गत

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सं कार और आदश से अनु ा णत नह होता

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एकमा वभाव क ेरणा से ही उनके

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स ूण वहार स होते रहते ह। इस लये
साधारण मनु य के वचार के मानद ड से
उनके च र के महा य आ द का न पण
नह कया जा सकता। नी तशा , धमशा
और आचारशा कोई भी शा उ ह बतला
नह सकते उनका च र वेद व ध के ब हभूत
है। मनु य के च र से उसके भाव का ही
अनुमान कया जाता है, क तु जो भाव क
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सीमा अ त मण कर वराजमान ह और वयं
न ल त, अ भमान शू य होकर भी नाना भाव
का अवल बन कर अ भनय करती ह, उनके
व प का प रचय च र से त नक भी पाने
क आशा नह क जा सकती, यह पहले ही
कहा जा चुका है।

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मौ लक उपदे श के अ त मधुर और

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लोक हतावह होने पर भी उससे उपादे ा के

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व प का ान नह होता। एक ु बु

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बालक उसे दये गये उपदे श से य द अपने

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अ यापक के पा ड य का नणय करने क

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चे ा करता है तो वह सफल नह होता।

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उसके सवा वैखरी वाणी का उपदे श वभावतः

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ही अपूण होता है, उससे वशु ान का

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वकास नह हो सकता, वशेष करके उपदे श-
हण ोता के अ धकार और यो यता के
ऊपर नभर रहता है। वैखरी के अ त र
सू मवाणी भी ोता क मान सक यो यता के
तारत य से थोड़ी ब त वकृ त प से गृहीत
होती है - अ य के स मुख काश करते समय
और भी अ धक वकार को ा त हो जाती है।
यह वाभा वक है। ऐसी प र त म उपदे श
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से भी माँ का यथाथ प रचय ा त नह होगा।

अ या य थ ं से, यहाँ तक क माँ के


ीमुख से व नगत उपदे श से भी, माँ को
पहचानने क चे ा करना थ है। इस लये
यथाथ प से माँ का प रचय ा त होना माँ

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को पहचानना कोई मखौल नह ह। योग, याग,

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तप या, त , म कतने ही उपाय ह, क तु

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कसी भी उपाय से वे सुलभ नह ह। पूण

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प रचय तो र क बात रही, उनका आं शक

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प रचय ही कतने लोग को मला है? वे

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सकाम साधक को लभ ह, न काम को भी

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लभ है। जो सकाम है उसे का य व तु क

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चाह है, वह भोग लोलुप है, वह तो माँ को

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चाहता नह , माँ क वभू त से मो हत होकर

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उस वभू त या ऐ य क ओर ही वह आकृ
हो जाता है, माँ भी उसे वही दे ती है, उसी
भाव से अपने को उसके नकट का शत
करती है। पर तु जो साधक न काम है, जो
वर है, वह मुमु ु है भोग क अ भलाषा
उसम न रहने पर भी मो क इ ा उसम
रहती है, क तु भोग के तु य मो भी माँ क
वभू त ही है। माँ इस कार के साधक को
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संसार पी ब न से छु टकारा दे दे ती ह। भोग
और मो जनके चरणकमल से व नःसृत हो
रहे ह, वह महाश पा चदान दमयी जननी
शव और जीव दोन क माता ह, वे पूण,
परा परा, सनातनी ह, वे रह य पा, रसमयी,
ेमघन व हा ह, उ ह कतने लोग चाहते ह?

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अथवा कतने लोग उ ह पहचानते ह ? भोग

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माग का ऐ य और मु माग का कै व य

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दोन ही माँ के चरण म लोटे ये ह। दोन

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क ही आकां ा माँ क ा त के माग के

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क टक ह। जसे ेम का पता नह लगा उसी

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को भोगै य (ऐ हक, पारलौ कक एव न य )

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तथा कै व य (पु ष कै व य और कै व य)

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पु षाथ प से तीत होते ह। महामाया

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व जननी उसके नकट गु त रहती ह, उसको

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उ ह दे कर तृ त रखती ह। इस कारण उनका
व प - प रचय भोगाथ और मो ाथ दोन
के नकट गु त रह जाता है, य क जसे
उसक चाह ही नह है, उसके त वे
आ म काश करगी ही य ? -

तब या माँ सवथा ही अपना प रचय नह


दे ती ह? अव य यह नह कहा जा सकता।
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अ त गम और अ त य होने पर भी वे
कभी-कभी आ म काश करती ह, य क वे
वा स य रस से सराबोर ह। स तान क
दय श माँ-माँ पुकार पर उ र दये बना
रह नह सकती ह। योग, ान, भ , कोई
उपाय, कोई तप या न रहने पर भी ब े के

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तु य सरल दय से मातृ वहीन बालक के

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समान ाकु ल अ तःकरण से माँ - माँ पुकार

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सकने पर माँ के तन म सुधारस का संचार

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ये बना नह रहता । मातृ नेह के भखारी

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शशु के दय को वे अमृत रस से आ ला वत

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कर दे ती ह। शशु माँ को पाकर माँ को माँ -

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माँ पुकार कर और माँ क नेह-भरी पुचकार

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ा त कर ध य हो जाता है। माँ के व प

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का प रचय न पाने पर भी उसक या त

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है? य क वह माँ का वशेष प रचय न पाने
पर भी माँ को अपनी नेहशा लनी आन दमयी
जननी के प म पहचान सकता है। यही
उसके लये यथे है, वह उसक अपे ा
अ धक जानने क चे ा नह करता य क
शशु भाव के साथ इस कार क चे ा का
कोई सामंज य नह है और जानने का य न
करने पर भी वह माँ को खो बैठता है एवं
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वयं कृ मता के गत म नम न होकर मातृ-
दशन से वं चत रह जाता है। इस लये य प
शशु क माँ को पहचानने क चे ा न फल है
तथा प शशुभाव ही माँ का मातृ प म
आ वादन कराने के लये एकमा सहायक है,
यह बात स य है, य क अपने म स तान

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भाव का आ य न कर सकने पर मातृभाव के

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महा य का अनुभव नह कया जा सकता।

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मातृभाव क अन त म हमा इस बाल भाव से

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ही थोड़ी ब त कट होती है। इस कारण

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य प माँ का प रचय पाने क आशा अ य त

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असंभव है तथा प स तान-वा स य के उ े क

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से माँ वयं जसके नकट जतना आ म व प

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कट करती ह वह उतने को ही स य

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समझता है। उनके च र और उपदे श से उनके

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वा त वक प रचय का आ व कार करने क
चे ा न कर उनम मातृ नेह क लीला के
वलास का दशन करना ही समु चत है। शु क
यु -तक क प र ध के अ दर ख चकर
रसमय व तु के माधुय को न करना उ चत
नह है। क तु इस कार का बालभाव तो
सव सुलभ नह है। बालक अ ान अथवा
ववेक का अभाव तो सुलभ हो सकता है,
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क तु उसक सरलता और प व ता अ त
लभ है। पर मातृदशन के लये वही नता त
आव यक है।
परा बायै नमः

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आ द शङ् कर वै दक व ा सं ान
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