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आनंदघन
https://anandghan.blogspot.com/2021/07/blog-post_15.html
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गणपति अथर्व शीर्ष (संस्कृत)
ॐ भद्रम ् कर्णेभि: शण
ृ य
ु ाम दे वा:|
मा विद्विषावहै |
***************
१) नमन प्रार्थना :
त्वम ् भमि
ू : आपोऽनलोऽनिलोनभ: |
त्वम ् मल
ू ाधार: स्थितोऽसि नित्यम ् |
त्वम ् शक्तित्रयात्मक :|
त्वम ् ब्रह्माः, त्वम ् विष्णु:, त्वम ् रुद्र:, त्वम ् इन्द्र:, त्वम ् अग्नि:, त्वम ् वायु:,
त्वम्सर्य
ू :, त्वम ् चन्द्रमा, त्वम्भ:ु भव
ु : स्व: ॐ
गणादिम ् पर्व
ू म ् उच्चार्य वर्णादिम ् तद नंतरं | अनुस्वार: परतर: | अर्धेन्द ु
लसितम ् तारे ण ऋद्धम ् | एतत ् तव मनु स्वरूपम ् |
'ग'कार: पूर्व रूपम् | अकारो मध्यम रूपम् | अनु स्वार: च अन्त्य रूपम् | बिन्दु :
उत्तर रूपम् |
ॐ गं गणपतये नम: |
भक्त अनक
ु म्पिनम ् दे वम ् जगत ् कारणम ् अच्यत
ु म् |
११) सदप
ु योग प्रयोजनम ्
१२) फलश्रत
ु ी तथा प्रार्थना :
यो दर्वा
ु ङ्कुरै : यजति | स वैश्रवणोपमो भवति |
"शिव भक्तांना म्हणती 'शै व' | अथवा 'स्मार्त' वा वीरशै व | हरि भक्तांना
म्हणती 'वै ष्णव' | शक्ती उपासक 'शाक्त' जाणावे (७)
ॐ भद्रम ् कर्णेभि: शण
ृ ुयाम दे वा:|
हे इन्द्र वद्ध
ृ श्रवादिक दे वता | पूषा तार्क्ष्य कश्यपादिका | विश्व ज्ञात्या
ऋषि मुनि जनादिका | विनंती तुम्हा सकलिकासी (६)
हे अरिष्टनेमि, बहृ स्पति | तुमच्या सर्वान्च्या आशिर्वादांनी | तीनही
जगतात शान्ती नांदावी | सौख्य, स्वास्थ्यसंवर्धावे (७)
पूषा, वद्ध
ृ श्रवा तसेच | अरिष्टनेमि प्रार्थिला येथ | लोकप्रियपौराणिक कथांत
| नांवे त्यांची अन्य असती (११)
कर्षणे आकर्षितो तो 'कृष्ण' | 'विष्ण'ु जो अणु रे णत
ू प्रविष्ट | 'शं' वा
'शभ
ु 'करीतो शिव शंकर | नामे ऐसी कार्यानरू
ु प (१२ )
'पूषा' दे वता 'पु ष्टि' कर्ता | विष्णुचाच अंश सूर्य जैसा | सर्व जगताचा पोषक जो
का | "खाल्लेले अंगी लावितो" तोही (१४)
'अरिष्ट' नामे नाना औषधी | आयु र्वे दी ग्रथित असती | रोग्यास प्यावयास
'अरि' समच भासती | परि इष्टत्वे करिती रोग निवारण (१६)
म्हणनि
ु पन
ु : इन्द्रालाच | 'वद्ध
ृ श्रवा' ही मारिली हांक | अथवा इन्द्राचाच
अंश | अवतार 'वद्ध
ृ श्रवा' जाणावा (२१)
कर्णेद्रिय ज्याचे सव
ु र्धित | ऐकू शके अति सक्ष्
ू म आवाज | अथवा
वार्धक्यामुळे बधिर | किम्वडा विठ्ठल कर्नाटकी (२२)
मा विद्विषावहै |
जोडी जोडीने खावे, प्यावे | अभ्यासावे, खेळ खेळावे | नाचावे, गावे कपडे
ल्यावे | ध्येय गांठावे आनंदाने (२५)
दे ही, मनी, जनी, वनी | दे शी, परदे शी, जली, स्थली | सर्वत्र नांदावी सख
ु
शान्ती | एवढे मागणे पुरव दे वा (२९)
तच
ू गणांचा 'गण'नायक | नैसर्गिक गणितांचा तच
ू 'कारक' | 'सिद्धी'
'बुद्धी'न्चाप्रदायक | कार्यारं भी नमन तुजला (३१)
ऋक् , यजु:, साम, अथर्व | वेदाचे ऐसे चार विभाग | महर्षी व्यासांनी केले
थोर | द्वापर यग
ु ांती, अवतरोनी (३८)
त्यातील अथर्व वेदा मधील | एक सक्
ू त "गणपति अथर्व शीर्ष" | शिव,
दे वी, नारायण, सर्य
ू | ऐसीही "अथर्व शीर्ष" सक्
ू ते (३९)
'शीर्ष' म्हणजे डोके वा 'शिर'| हजारो शीर्षे परमे श्वरास | पु रुषसु क्ती हा उल्लेख
| 'अथर्वा'स वाङ्मयी शीर्षे नाना (४२)
नमन तज
ु लाहे गणपति | तच
ु परब्रह्म तत्त्व अससी | विश्वात्मक स्वरूपे
तू प्रत्यक्ष दिसशी | तूच कर्ता धर्ता हर्ता (१.१ )
बंह
ृ ते, रमते, हीयते | जन्मा येते, जगते, मरते | हे च 'ब्रह्म' समजले जाते |
याहून 'पर' तेच 'परब्रह्म' (१.४)
अणू, रे णू, जीव जन्तू | पथ्ृ वी, नवग्रह, तारे समस्तु | ब्रह्माण्डी वसती त्या
त्या वस्तू | सर्वही तव 'ब्रह्म' स्वरूप (१.५)
श्रोता एक पस
ु े वक्त्यास येथे | प्रेतातही मंगल परमात्मा वसे | हे मम
बुद्धीस रुचे पटे | ऐसा पुरावा द्यावा मज (१.११)
हा लेख वाचून वैद्य लिहिती | 'शव विच्छे दन' लेखी माहिती | न्यायाधीश
ते लेख वाचिती | 'निर्णय' करण्यास न्याय्य ऐसे (१.१४)
प्रेतांचे घडवन
ु ी विघटन | पंच महाभत
ू ी विलयी करण | या नैसर्गिक
प्रक्रियेस्तव मिळून | प्रकृती परु
ु षादिक कार्यी रत (१.१५)
जागत
ृ ीस भोक्ता आत्माराम | त्यास म्हणती 'ब्रह्मदे व' | स्वप्नांचा भोक्ता
वैकुण्ठराव | सष
ु प्ु ती 'हर' भोगीतसे (१.१७)
जागत
ृ ी, स्वप्न आणिक सष
ु ुप्ती | यांस म्हणती 'अवस्था' त्रयी | चतुर्थ
समाधिस्थ 'तर्या
ु ' जाणावी | तिचा भोक्ता 'आत्मा' सदाशिव (१.१८)
जागत
ृ ीत जी जाणीव पूर्वक | कार्य करविते उत्साह पूर्वक | सावित्री ती
नमावी नित्य | गायत्री सरस्वती तिची अन्य स्वरुपे (१.२०)
जागत
ृ ीत वा 'स्वप्न' स्थितीत | 'स्वप्ने' पाहणे वा रमण्याची ताकत | ती
'रमा'दे वी नमावी नित्य | 'लक्ष' वेधक 'लक्ष्मी' जाणोनि घ्यावी (१.२१)
'गाढ' निद्रा दात्री काली | स्नायू स्नायूतील 'शीण' असुरास गिळी | भोक्ता
'शं'कर 'शं' स्थिती करवी | सती पार्वती तिचीच रूपे (१.२२)
तच
ू मज प्रेरून 'दातत्ृ व' करविशी | तें व्हा 'धाता' बनन
ू आशीर्वचशी | ऐशा
धात्यांची 'धातत्ृ व' शक्ती | संरक्षी दे वा गजानना (२.५)
'अनूचान' म्हणजे बोलताचि न ये | जे बोलण्याला शब्द अपुरे | तरीही मज
थोडक्यांमधे | बोबडे चार शब्द बोलू दे (२.६)
अथवा जे मक
ु े बोलू न शकती | शब्दा अभावी मौन पत्करिती | ऐशा
मुक्यांच्या नाना जाती | सर्वास संरक्षी उमापत्र
ु ा (२.७)
तच
ू 'गरु
ु ', तच
ू 'शिष्य' | या 'गरु
ु -शिष्य' परं परे स | संरक्षिता तच
ू एक |
रक्षण करी हे दयासिन्धो (२.८)
'शिष्य' म्हणजे शिल्लक राहणे | पुरे पुरे म्हणुनी न पळणे | आणखी आणखी
शिकवा म्हणणे | 'शिष्यत्व' ऐसे 'शिष्यांत' रक्षी (२.९)
'गु रु'चे अर्थ 'गु रु'गीते त | नाना व्यु त्पत्त्या सहित विशद | ज्ञानदाता, सु ज्ञानी
श्रेष्ठ | 'गु रुंचे ' 'गु रुत्व' संरक्षावे (२.१०)
माता, पिता, आजी, आजोबा | काका, मामा, मावशी, आत्या | जो जिथे भेटे
ज्ञानदाता | त्या सर्व गुरूंना संरक्षावे (२.११)
अवधत
ू गीतेत चोवीस प्रकार | गरू
ु ं चे वर्णिले नमन्
ू या खातर | पथि
ृ वी,
वायू, आकाश, आप | अग्नि, चन्द्र, सूर्य, सिन्धू (२.१२)
कपोत, अजगर, मधुमक्षिका | पतङ्ग, गज, हरिण, मधुहा | मीन, अर्भक,
वेश्या पिङ्गला | कुमारी, भन्
ु गा घोन्घावणारा (२.१३)
'कुरर' पक्षी, कोळी कीटक | सर्प, कार्यमग्न लोहार कार्मिक | ऐशियास पाहुनी
लक्षपूर्वक | शिक्षण सत्शिष्य घे त राहती (२.१४)
तूच जे जे माझ्या मागे | तूचजे जे माझ्या पुढे | उजवी कडे, डावी कडे |
वरती खालती चहूकडे तू (२.१६)
अंत:, बहि: आंत-बाहे र | आदि, अंती, मध्ये मधील | सर्वही काळी 'काल'
रूपात | भरून उरलास अवशिष्टत्वे (२.२०)
भु:, भुव:, स्व:, मह: | जन :, तप :, सत्यम ् अशा | सप्त स्वर्ग लोकात सा-
या |भरून उरलास अवशिष्टत्वे (२.२२)
इन्द्र लोक , चन्द्र लोक | सूर्य लोक, गंधर्व लोक | वैकुण्ठ, कैलास, ब्रह्म
लोकांत | भरून उरलास अवशिष्टत्वे (२.२४)
स्वर्ग, मत्ृ यू, पाताल त्रैलोक्यी | यम लोकी वा नरक लोकांतही | वरुण
लोकी सप्त सागरी | भरून उरलास अवशिष्टत्वे (२.२५)
मन, बुद्धि, अहं कार, चित्त | यास म्हणती अंत:करण चातुष्ट्य | चित्तांत
क्षिप्त, विक्षिप्त, मूढ | निरुद्ध, एकाग्र पंच प्रामुख्ये (३.४)
पंचही प्रकारे तूच निवससी | पंच भूमि भूमिका चालक तूचि | मूर्ख,
पढतमूर्ख, उत्तमादिलक्षणी | दासबोधी किन्चित ् वर्णिलेल्या (३.५)
चित्त रमते, हसते, गाते | चित्त क्षुब्ध, प्रक्षुब्ध होते | या चित्त वत्ति
ृ न्च्या
निरोधनाते | 'योग' म्हणती पतञ्जली (३.६)
चित्तास जोडी अहं काराची | "मी करीनच" या जिद्दीची | तशीच ओढ दिशा
'श्रद्धा'त्रयीन्ची | 'यो यत ् श्रद्ध:, स एव स:' (३.७)
चित्त भ्रमते, दिङ्मूढ होते | शोक करते, व्याकूळ होते | चित्त शांत
समाधिस्थ होते | अवस्था चातष्ु ट्य भोक्ता 'चित्त'(३.८)
म्हणोनी गणेश स्वरूप 'चिन्मय' | स्वानंद लोकी रमते तन्मय | राहू शके
खंबीर स्थीर | शांत, गंभीर, समाधानी (३.११)
त्वम ् भमि
ू : आपोऽनलोऽनिलोनभ: | (४)
'अंत' चे मु ख्यत: अर्थ दोन | एक 'आंत' दुसरा 'अंतिम' | 'आंत' राहन
ू करिती
काम | ती 'अंत:करण' करणे चार (४.१)
'स्थूल' म्हणजे फक्त 'मोठे ' नाही | लहान ते सर्व 'सूक्ष्म' नाही | सूक्ष्मांचे
स्वरूपही विश्वव्यापी | हे प्रथम जाणले पाहिजे (४.३)
ऐसे केलेले असे 'भाकित' | त्याचा आधार नसेल माहीत | तरीही त्यान्चे
असे जे गणित | समजून उमजून पुढे जाणे (४.११)
या आपल्
ु या 'ब्रह्माण्डा'ला | पन्नास 'ब्रह्मवर्ष' आयष्ु याला | झालीय पर्त
ू ता
ऐशिया तर्का | वेदोपनिषदी मांडले असे (४.१६)
'ज्ञान' जिज्ञासा स्वरूपी मूषक | 'वाहन' याचे कल्पिले खास | गणित मन्त्रान्चा
'पाश' हस्तांत | बन्धन कारक विश्वास साऱ्या (४.२६)
ऐसे हे तझ
ु े "स्थल
ू विश्व रूप दर्शन" | घेता होतसे किन्चित ् 'आकलन' |
जगदत्ु पत्तिस्थितिलय सर्व | ठरवितात गणिते तुझी दे वा (४.२८)
वायु स्वरूपांतही किती अणूंनी | किती वेगांत धांव धांवुनी | तिष्ठत राहणे
'स्थिती' साधन
ु ी | हे सर्व सांगे तव दिव्य गणित (४.३४ )
पथि
ृ वी, आप, तेज, वायु | आकाश या पंच महाभूतांतही | रूपी, अरूपी, सर्व
स्वरूपी | भरूनही उरशी अवशिष्टत्वे (4.३६)
जे जेपथ
ृ क् पथ
ृ क् भासे | तेच 'पथ्
ृ वी' स्वरूप तुझे | 'आप्नोति' करण्यास
गंड
ु ाळे , घस
ु े | त्या 'आप' तत्वी प्रगट तच
ू (४.३७ )
जांपानिहिपीनातां या | सप्त रं गी दृश्य किरणांतल्या | अथवा अदृश्य 'क्ष'
आदिकांतल्या | तेज स्वरूपा तज
ु नमन (४.३८)
प्राण, अपान, व्यान, उदान | समान नांवे पंच प्रकारे प्राण | सर्वही सजीव
दे हांमधन
ू | कार्ये नाना विधा करिती (४.४० )
नाग, कूर्म आणि कर्क श | दे वदत्त, धनंजय | ऐसे आणखी पाच प्रकार |
उपनिषदांत सापडती (४.४१)
'उदान' वायू उलटी वा उचकी | अति रक्त चापे आणवी 'घेरी' | गाठावी उच्च
पदे वा पदवी | मानसिक उदान वायू सांगे (४.४५)
'वायू' फक्त 'हवा' मुळीच नाही | हे जाणावे जिज्ञासून ं ी | चलन वलन दोषे होती
व्याधी | धनु र्वा त, संधिवात, अर्धान्ग वायू (४.४७)
५) सक्ष्
ू म विश्व रूप दर्शनम ् वर्णनम ् च :
तच
ू "चत्वारि वाक् " स्वरूपी | परा, पश्यन्ती, मध्यमा, वैखरी | 'परा' जी मळ
ू
उत्स्फूर्तशी प्रगटली | 'पश्यन्ती' बद्ध
ु ीस दिसलेले रूप (५.१)
'मी'हि, 'तू'हि, आम्ही, तु म्ही | 'तो'हि, 'हा'हि, 'ही'हि, 'ती'हि | 'हे 'हि, 'ते ' हि, ,
'हे ''ते ' सर्वहि | भरून उरलास तू 'प्रज्ञान' रूपे (५.६)
"संपर्ण
ू ज्ञान" तु झे स्वरूप | अनंत प्रकारच्या ब्रह्माण्डी सतत | जे घडते ते
कारणासहित | जाणसी फक्त तू 'प्रज्ञान' स्वरूपा (५.८)
जीवात्मा जागत
ृ असो वा सुषुप्त | मूर्छि त, बेसावध, बेशुद्धीत | स्थूल
इन्द्रियान्चा राजा हा सतत | 'सक्ष्
ू म' दे ही स्थित कार्ये करवी (५.१५)
बाल्यी दगड, वाळू, माती | शंख, शिम्पले जमवोनि खेळवी | तारुण्यी स्त्री
गह
ृ ादिकासाठी | यद्ध
ु ेही घडवी 'कारण' दे ह (५.१६ )
पंच महाभूते ऊर्जांन्ची स्वरूपे | ऊर्जा कधीही नष्ट न होते | फक्त तिचे
स्वरूप बदलत राहते | हाही नियम प्रकृतीचाच (५.२९)
दे ह तीनही 'प्रकृती' जनित | वयोमाना प्रमाणे वर्धत | 'परु
ु ष' त्यांतन
ू
सख
ु द:ु ख भोगत | मल
ू ाधार शाश्वत त्यास जो, तो तू (५.३०)
त्वम ् ब्रह्मा, त्वम ् विष्ण:ु , त्वम ् रुद्र:, त्वम ् इन्द्र:, त्वम ् अग्नि:, त्वम ् वायु:,
त्वम्सर्य
ू :, त्वम ् चन्द्रमा:, त्वम ् ब्रह्म, भ:ु भव
ु : स्व: ॐ |
गणादिम ् पर्व
ू म ् उच्चार्य वर्णादिम ् तद नंतरं | अनस्
ु वार: परतर: | अर्धेन्द ु
लसितम ् तारे ण ऋद्धम ् | एतत ् तव मनु स्वरूपम ् |
'ग्'कार: पूर्व रूपम् | 'अ'कारो मध्यम रूपम् | अनु स्वार: च अन्त्य रूपम् | बिन्दु :
उत्तर रूपम् |
सर्य
ू , चन्द्र वा गरु
ु नमस्कार | करिता नाना आसने सहजच | घडुनी
सर्वान्ग होई चपळ | सर्व सांधे निरोगी होती (६.११)
'धारणा' म्हणजे धरून ठे वणे | चंचल मनाला स्वे च्छा शक्तीने | दृश्य अथवा
श्रुत संधानाने | 'लक्षवे धक' उपाय काहीही (६.१४)
'ध्यानमु र्तीन्चे ' नाना प्रकार | गणेशाचे प्रसिद्ध अष्ट अवतार | वा हरि हरांचे
नाना अवतार | आवडीने ध्याती "ध्यानयोगी" (६.२१)
ज्या योग्यास ज्या रूपाची आवडी | त्याच रूपाने त्यास 'ध्यान' घडवी |
'प्रचीती' सर्वासही ही येई | आपापल्
ु या श्रद्धा-भक्तीनस
ु ारे (६.२२)
गणेशा तच
ू कुणास 'ब्रह्मा' | कुणास 'विष्ण'ू तर 'रुद्र' कुणा | कुणास
दे वेन्द्र 'इन्द्र' तर कुणा | 'अग्नी' रूपे दर्शन दे शी (६.२३)
'निचृ द'् आणखी 'गायत्री' नाम्ना | सुरांत गायना पुन: पुन: (७.३)
यमदत
ू ांचा 'गणपति' यमराज | यक्षान्चा 'गणपति' वैश्रवण
कुबेर | बह
ृ स्पती 'गणपति' परु ोहितास | 'चित्ररथ' 'गणपति' गन्धर्वान्चा
(७.१७)
ॐ गं गणपतये नम: |
ॐ एकदन्ताय विद्महे , वक्रतुण्डाय धीमहि, तन्नो दन्ती प्रचोदयात ् |
'ॐ श्री गणेशाय नम:' | 'ॐ लम्बोदराय नम:' | 'ॐ विघ्नराजाय नम:' | ऐशी
उदाहरणे या
मन्त्रान्ची (८.२)
'ॐ नमो भगवते वक् रतु ण्डाय' | 'ॐ नमो भगवते एकदन्ताय' | 'ॐ नमो भगवते
स्वच्छता | हा अनभ
ु व नित्य सर्वास होई (८.६)
"ॐ एकदन्ताय विद्महे | वक् रतु ण्डाय धीमहि | तन्नो दन्ती प्रचोदयात् " हा |
गायत्री
धव
ृ उभा राहिला एका पायावर | म्हणून न करा डोके फोड | कटीवर हात
ठे वून व्हा 'विठ्ठल'
थोडा वेळ बैठा, थोडा उभ्याने | थोडा वेळ पडून निश्चिन्तपणे | आपापल्या
स्वास्थ्य, प्रकृती
हे एकदन्ता चतर्ह
ु स्ता | हाती पाश, रद, अंकुश धर्ता | वरद हस्त मुद्रेने
अभय
मष
ू क ध्वजा , मष
ू क वाहना | ब्रह्माण्डोदरा, लम्बोदरा | शर्प
ू कर्णका, रक्त
वस्र
ऐसे तुझे विश्व व्यापी स्वरूप | मम बुद्धीला दिसावे नीट | त्यांतच रमावे
माझे चित्त | हाच
आशीर्वाद दे रे दे वा (९.१३)
हे 'व्रातपति' तज
ु ला नमन | हे 'गणपति' तज
ु ला नमन | हे 'प्रमथपति'
तुजला नमन | तुज
तझ
ु े सप्र
ु सिद्ध 'अष्ट' अवतार | त्यातील 'उमासत
ु ' सर्वात थोर | अति
लोकप्रिय हा अवतार |
दस
ु ऱ्या दिवशी 'पञ्चमी' तिथीला | लाडू नि मोदक नैवेद्याला | पारणे
उत्सव करिती
भाजन
ू मिसळले | लाडू वळले नैवेद्यार्पणाला (१०.२३)
"धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष" | यांना म्हणती चार 'पु रुषार्थ' | हे चारही 'साध्य'
करावयास |
लोकसंग्रह, जनजागत
ृ ीचा | उपाय जगभर लोकप्रिय हा | आध्यात्मिक ज्ञान
गणेश, मुद्गल, स्कन्द पुराणी | लिन्ग, शिव, पद्म, मार्क ण्डेयी ही | सात्विक
सांकेतिक ज्ञानमय
निवारी | जन्म, मत्ृ यू, वार्धक्य, व्याधी | ही चार मुख्य गणली त्यांत
(१०.३७)
ऐशी दोनही चतुर्थी तिथि व्रते | करिता चारही 'पुरुषार्थ' साधे | निवारण
होऊनि चारही
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११) 'फलश्रत
ु ी' व त्याचा सदप
ु योग :
'आइस्क् रीम' खाऊन पिता सन्तोषला | म्हणे "तुज काही हवेय का बाळा ?" |
तत्समच सारा हा फलश्रुतीन्चा | खेळ जाणावा भाविकान्नी (११.७)
प्रत्येक मानव वा पशू पक्षी | ज्यास पौत्र वा कन्या समची | त्यास करावी
'प्रार्थना', 'विनवणी' | 'व्यापारी वत्ृ ती' साण्डोनि सर्वथा (११.१०)
'मी, तू, तो, ते ' 'हा, ही' सारे | 'ब्रह्म' तत्त्वाचे च 'अंश' हे सारे | या ज्ञान
जाणिवे ने अने क 'विघ्ने ' | 'बाधा'ही गणेश कृपे ने टळती (११.१२)
असत्य, अनत
ृ , बोचरे बोलणे | घालून पाडून अनुचित वदणे | खोटे दिमाख
अहं कार मिरवणे | अनावश्य स्पर्धा, असय
ू ा, हिंसा (११.१५)
दरु ाचार, दष्ु टता, अति घाबरटपणा | अपथ्य, कुपथ्य आहार, निन्दा |
अत्याचारी, घातक , अभद्र वर्तना | टाळावे सदै व सज्जनांनी (११.१६)
सायम ् प्रात: दोऩ्ही वेळा | नित्य पठण प्रकारे ऐशिया | न घडेल 'संचय'च
पातकान्चा | अपाप वा निष्पाप स्थिती राहे ल (११.२६)
ऐशिया दर्ज
ु न पातक्यान्ची | दे वासही 'मुर्ख' समजणाऱ्यान्ची | अघ
पापान्ची न होईल कधी | क्षीणता या उपायाने (११.३०)
रस्त्यावरती चालता चालता | चिखलांत पाय चुकून पडला | तरी पाय, बूट्
अथवा
'ज्ञ' अक्षाच्या अति उच्च स्थळी | निवसतो 'गणेश' ऐसे समजुनी | त्या बिन्दूची
साधावी जवळकी | आत्मोद्धारास्तव साधकान्नी (१२.४५)
दर्ज
ु न अशिष्यास विद्या शिकविता | दरु
ु पयोग करतील स्वार्था करिता |
पापाचरणासच 'निर्भयत्व' वाढता | सरासरी सामाजिक सौख्याची घटे ल
(११.४८)
जे गरु
ु शिष्याची प्रवत्ृ ती न जाणता | भये वा मोहे पढवतील दर्ज
ु ना |
त्यान्ची वाढे ल पापान्ची गणना | सरासरी सामाजिक सौख्याची घटे ल
(११.४९)
१२) फलश्रत
ु ी व प्रार्थना :
दोऩ्ही चतर्थी
ु स 'व्रत' पाळोनी | जो "अथर्वशीर्ष" जपेल त्यासी | 'चतुर्द श
विद्यांची' होईल प्राप्ती | अनश्नन ् व्रत-जप पण्
ु याईने (१२.१२)
भाषा, गद्य, पद्य, काव्य | शाब्दिक, सखोल, गुह्य ज्ञान | अर्थ, अस्त्र, शस्त्र,
नैपण्
ु य | सर्व विद्यांचा स्वामी गणेशची (१२.१५)
ब्रह्म, परब्रह्म, परात्पर ब्रह्म | क्षर, अक्षर, उत्तम पुरुष | क्षेत्र, क्षेत्रज्ञ,
परमात्म तत्त्व | जाणत्यास 'निर्भयत्व' प्राप्ती घडेल (१२.१८)
यो दर्वा
ु ङ्कुरै : यजति | स वैश्रवणोपमो भवति |
'सहस्र' मोदकान्चा नै वेद्य | गाणेश भक्तांस प्रीतिने वाटु नं | खावा सह कुटु म्ब
परिवारा समे त | अन्नदान पु ण्य प्राप्ती घडे (१२.२५)
संवत्सराचे नाम 'शार्वरी' | वर्षा ऋतु , दक्षिणायनी | 'गणेश चतु र्थी' महोत्सव
मु हुर्ती | गणेश कृपेने पूर्त ता झाली (१२.५५)
ख्रिस्त शके द्विसहस्त्र वीस | दिनांक बावीस वार शनिवार | 'अभिगिरी'
क्षेत्री दे श भारत | या स्थळी गणेश कृपेने सिद्धी (१२.५६)
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