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राजनितिक विज्ञान

भारतीय राजनितिक चिंतन - I


B.A Pol. Sci. Hons. Semester 5th
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1

भारतीय राजनीततक त िंतन


तिषय सू ी

इकाई-1 : पूर्व-औपनिर्ेनिक भारतीय राजिीनतक नर्चार की परं पराएँ

पाठ-1 : भारतीय राजिीनतक नर्चार की ज्ञािमीमां सीय आधार

पाठ-2 : ब्राह्मणर्ादी, चार्ाव क, इस्लानमक और समकानिक समधमी

इकाई-2 : मिु : सामानजक नर्नध संनिता

इकाई-3 : कौनिल्य

इकाई-4 : र्ेद व्यास (िां नत पर्व) : राज-धमव

इकाई-5 : अगािासुत (दीघ निकाय) : राजत्व का नसद्ां त

इकाई-6 : बरिी : आदिव राजिीनत

इकाई-7 : अबुि फजि : राजिािी

इकाई-8 : कबीर

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प्रश्न - भारतीय राजनीततक त िंतन की ब्रह्माणीय एिं ि श्रमाणीय परिं पराओिं की तितिष्ट तििेषताओिं की
तु लना कीतजए |

अथिा

श्रमाणीय परिं परा के उदय के सिंदभभ में ब्रह्माणीय परम्परा की आधारभूत अिधारणाओिं की व्याख्या
कीतजए |

उत्तर -

परर य - इस धरती पर दो िी परम्परा प्रचिि में रिी िैं- ब्राह्मण और श्रमण। इन्ीं से ईश्वरर्ादी और

अनिश्वरर्ादी धमों की उत्पनत्त हुई िै । चािे निं दू, पारसी, यहूदी, ईसाई, इस्लाम िो या नफर चर्ाव क, जैि,

निंतो, कन्फ्युनियस या बौद् िो, आज धरती पर नजतिे भी धमव िैं , उि सभी का आधार यिी प्राचीि परम्परा
रिी िै । इसी परम्परा िे र्ेद निखे और इसी से नजिर्ाद की िुरुआत हुई। यिी परम्परा आगे चिकर आज

निं दू, जैि और बौद् धमव कििाती िै। िजारों र्र्षों के इस सफर में इस परम्परा िे बहुत कुछ खोया और

इसमें बहुत कुछ बदिा गया। आज नजस रूप में यि परम्परा िै यि बहुत िी नचंतिीय नर्र्षय िोगा, उिके
निए जो इस परम्परा के जािकार िैं ।

ब्राह्मण िह है जो ब्रह्म को ही मोक्ष का आधार मानता हो और र्ेद र्ाक्य को िी ब्रह्म र्ाक्य मािता िो।

ब्राह्मणों अिुसार ब्रह्म, और ब्रह्मां ड को जाििा आर्श्यक िै तभी ब्रह्मिीि िोिे का मागव खुिता िै । श्रमण

र्ि जो श्रम द्वारा मोक्ष प्राप्ति के मागव को मािता िो और नजसके निए व्यप्ति के जीर्ि में ईश्वर की ििीं श्रम
की आर्श्यकता िै । श्रमण परम्परा तथा संप्रदायों का उल्लेख प्राचीि बौद् तथा जैि धमव ग्रंथों में नमिता िै
तथा ब्राह्मण परम्परा का उल्लेख र्ेद, उपनिर्षद और स्मृनतयों में नमिता िै ।

ब्रह्माणीय का अथभ -

'ब्राह्मण' िब्द की व्युत्पति 'ब्रह्म' से मानी जाती है । यि नर्चार निं दू धमव की धु री िै नजसके इदव -नगदव यि

धमव घूमता िै इस नर्चार का प्रनतपादि र्ेदों और उपनिर्षदों में नकया गया। इसे भारतीय संस्कृनत के

प्रोत्सािि का स्रोत समझा जा सकता िै। भार्षायी दृनि से ब्रह्म िब्द का अथव िै मिाि या सर्ोच्च। इसे नर्श्व
को एकीकृत करिे का अंनतम नसद्ां त मािा गया िै। ब्राह्मण की अिेकों नर्िेर्षताओं का उद्रण दे ते हुए

किा गया नक ब्राह्मण सत्ों में अंनतम सत् िै , अनद्वतीय िै , सुनर्धा भोगी िै , मौनिक सत् के रूप में व्याि

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िै उसके अप्तित्व के निए ि कोई कारण िै और ि कोई िब्द िै , नजसे प्राि करिे के निए नर्निि यौनगक

अिुभर् की आर्श्यकता िै । यि एक पक्षपातरनित नर्चार िै नजसके निए नकसी प्रकार के नर्िेर्षण को


जोड़िे की संभार्िा ििीं िै "

ब्राह्मणिाद की तििेषताएिं

1. दािभतनक आधार : ब्राह्मण और ब्राह्मणर्ाद को ब्रह्म से जोड़कर इस नर्चार को दािवनिक आधार नदया

गया तानक इसे ि केर्ि गंभीरता से स्वीकार जाए , इसे एक ऐसा दिवि समझा जाए नजससे समाज का नित
िो सकता िै ।

2. तकभिीलता : इस नसद्ां त का प्रनतपादि नकया गया नक कुछ िोग स्वभार् से िी ज्ञािी िोते िैं और
उिके ज्ञाि पर र्चव स्व को समाज द्वारा स्वीकार नकया जािा चानिए।

3. आध्यात्मिकता : इसे एक आध्याप्तिक नर्चार मािा गया नजसके अन्तगवत ऐसे िोगों का र्चव स्व स्वीकार
करिे के निए किा गया, नजन्ें भौनतक सुखों से कुछ िेिा-दे िा ििीं िै ।

4. स्पष्ट सामातजक तिभाजन : संभर्तः, समाज को सुचारु रूप से चिािे के निए प्राचीि बुप्तद्जीनर्यों िे
समाज को चार भागों में नर्भि नकया।

5. अपररितभ नीय तिभाजन : ऐसा करते समय उन्ोंिे पूजिीय पुिक ऋग्वे द, नजसे अंनतम भी मािा गया,

का सिारा निया। जानत पररर्तव ि को दं डस्वरूप िी स्वीकारा गया नजसके अिुसार यि किा गया नक कोई
भी व्यप्ति यनद कोई अिैनतक कायव करता िै तो उसे िीची जानत में जािा िोगा। अच्छे कायव करिे पर उच्च
जानत में जािे का कोई प्रार्धाि ििीं था।

6. ईश्वरीय आधार : एक कथा के माध्यम से इसके औनचत् को नसद् करिे का प्रयास नकया गया नजसमें
ईश्वर द्वारा निनमव त एक ऐसे मिामािर् की कल्पिा की गई िै नजसके नर्नभन्न अंगों से नभन्न-नभन्न : जानतयों
का जन्म हुआ ।

7. रक्त की िुद्धता का ति ारः यि समाज का एक ऐसा बदिता स्वरूप था नजसमें समाज मातृ प्रधाि से

नपतृ प्रधाि िोता हुआ नदखाई नदया और र्णव के इस बँिर्ारे को जानत का िाम नदया गया। अब व्यप्ति की

जानत का आधार ि केर्ि जन्म था र्रि् समाि जानत के िारी-पुरुर्ष से उत्पन्न व्यप्ति को जानत-नर्िेर्ष की
संज्ञा दी गईं |

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8. स्वधमभः प्रत्े क जानत का अपिा एक सुनिनित कायव था और र्िी कायव करिा उसका धमव था। यनद र्ि
कोई अन्य कायव करता पाया जाए तो र्ि दं ड का भागी िो सकता था।

9. िै िातहक सिंबिंधः ऐसे संबंधों के निए भी जानत की िकीरें थीं क्योंनक नभन्न जानतयों में नर्र्ाि करिे से
संकर संताि उत्पन्न िोगी नजसका कोई िर सुनिनित ििीं नकया जा सकता।

श्रमण िब्द का अथभ

श्रमण िब्द का प्रयोग जैि मु नियों एर्ं बौद् नभक्षु ओं दोिो के निए िी नकया जाता रिा िै । जो श्रम करता िै ,

कि सिता िै अथावत् तप करता िै र्ि तपस्वी श्रमण िै । नजसके मि में समता की सुरसररता प्रर्ानित िोती
िै , अनपतु अपिी मि प्तथथनत को सम रखता िै र्ि श्रमण कििाता िै । श्रमण र्ि िै जो पुरस्कार के पुष्ों

को पाकर प्रसन्न ििीं िोता िै अपमाि के ििािि को दे खकर प्तखन्न ििीं िोता, अनपतु सदै र् माि और

अपमाि में सम रिता िै । उत्तराध्ययि में किा िै "नसर मुं डा िे िे से कोई श्रमण ििीं िोता नकन्तु समता का
आचरण करिे से िी श्रमण िै ।

श्रमण सिंस्कृतत की तििेषतायें

श्रमण सिंस्कृतत तिश्व की सिंस्कृततयोिं में अपना अपूिभ, प्रा ीन और महत्वपूणभ स्थान रखती है । इस

संस्कृनत में अपिी निज की अिेक नर्िेर्षतायें िैं , नजिके कारण इसिे नर्श्व के सामिे मिाि् आदिव प्रिु त
नकया िै । इस संस्कृनत की प्रमु ख नर्िेर्षतायें निम्न िैं -

श्रम और तप - श्रम और तप श्रमण सिंस्कृतत की प्रमुख तििेषतायें हैं । जो श्रम करता िै , संयनमत जीर्ि

नबताता िै र्ि श्रमण िै । श्रमण मनियों का जीर्ि आदिव एर्ं त्ागपणव िोता िै । उिका प्रत्े क क्षण तपियाव

आि साधिा में व्यतीत िोता िै। नदगम्बर मु नि (श्रमण) चयाव सुगम ििीं यि मिाव्रती का जीर्ि िै । अनिं सा,
सत् अचौयव, ब्रह्मचयव तथा अपररग्रि उिके मिाव्रत िैं ।

ररत्र की महिा - श्रमण संस्कृनत में चाररत्र निमाव ण पर पूणव बि नदया गया िै । चाररत्र आि नर्कास का

स्रोत िैं चाररत्र के स्वरूप का अर्िोकि करिे और उसके सौरभ का पाि करिे के निए चक्रर्ती सम्राि्

और स्वगव के दे र्-इन्द्र भी तरसते िैं। एक मात्र मिुष्य जन्म िी ऐसा श्रेष्ठ िै , नजसमें चाररत्र को धारण कर
रत्नत्रय के आधार पर मोक्ष प्राि नकया जा सकता िै। संसार की समि परम्परायें रिें या जायें , कुछ बिता

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नबगड़ता ििीं, परन्तु यनद चाररत्र रत्न चिा गया तो आि नर्कास चिा गया। ऐसा समझािा चानिए चररत्र िी
धमव िै , किा भी गया िै नक चररत्र के समाि अन्य कोई परम तप ििीं िै । यि चररत्र दो प्रकार का िै

1. सकि चाररत्र (श्रम सम्बन्धी चाररत्र)

2. नर्कि चाररत्र (ग्रिथथ सम्बन्धी चाररत्र)

तिषय पराङ् मुखता - भोग भू नम काि में जब मिुष्य संस्कृनत नर्िीि अर्थथा में था तब र्ि नर्र्षयों की ओर

दौड़िे में सुख मािता था। उसे आि-परमाि का बोध ि था। कमव भू नम के आनद में तीथव कर ऋर्षभदे र् िे

श्रम संस्कृनत की आधार भूत अनस-मनस-कृनर्ष-र्ानणज्य नर्द्या और निल्प का उपदे ि दे कर मािर् को ‘जि
में नभन्न कमिर्त रििे' की निक्षा दी और मोक्ष का द्वार खोिा। उन्ोिे बतिाया नक िे प्राणी तू संसार में

जब तक रिे , आर्श्यकताओं की पूनतव करते हुए भी आर्श्यकता पूनतव के साधिों से ममत्व मत कर, उि

साधिों का अनधक संचय मत कर। तू नर्र्षय र्ासिाओं को िश्वर समझ। इसी मान्यता का प्रभार् संतोर्ष और
सुख की झिक के रूप में नमि रिा िै।

जीओ और जीने दो - इस नसद्ान्त का स्रोत श्रमण संस्कृनत अथर्ा जैि परम्परा िी िै । इस आि-संतोर्ष

के साथ पराये अनधकारों का परनित संरक्षण भी िै । यनद मिुष्य चािता िै नक उसे कोई कि ि दे , उसके
अनधकारों से र्ंनचत ि करे तो उसका मु ख्य कतव व्य िै नक र्ि स्वयं जीये और दू सरों को भी जीिे दे । इस

भार्िा से चोरी जैसे पर दु खदायी और आि-पति जैसे निन्फ्द्य कमव का त्ाग भी िोता िै । पररग्रि के
पररमाण और त्ाग की भार्िा में उि नसद्ान्त अमोध अस्त्र िै ।

सुख का मूल मन्त्र आिोपलत्मि - सां साररक िश्वर नर्र्षय र्ासिाओं से नर्रि िो अनर्िािी परमपद

मोक्ष प्राि करिा जैि संस्कृनत के श्रमणों का मू ि उद्दे श्य रिा िै इसी का प्रनतफि िै नक श्रमणों िे तार का

भी पररत्ाग कर नदया िै । जैि श्रार्क (ग्रिथथ) के आचार में इस आिोिप्ति द्वार की झिक उसके

अणुव्रत, गुणव्रत और निक्षा व्रतों में नमिती िै । आिोपिप्ति श्रमण परम्परा में अिर्रत रूप से पाई जाती
िै ।

तदगम्बरत्व - पदाथो के िुद् स्वरूप की दृनि से संसार का प्रत्े क पदाथव नदगम्बर रूप िै । जब तक इस

रूप की प्राप्ति ििीं िोती पदाथव के स्वरूप का दिवि ििीं िो सकता। उदािरणाथव जब तक अनि राख से
ढकी रिती िै , उसका ते ज अप्रकि िी रिता िै । र्स्त्र आनद व्यानध िैं , यिां तक नक यि िरीर जो अपिे

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साथ दृनिगोचर िो रिा िै आिा का आर्रण िै । जब तक ऐसे सां साररक पदाथो से मोि ििीं छोड़ा जायेगा,
इिका पररत्ाग ििीं नकया जायेगा तब तक आिोपिप्ति ििीं िो सकेगी।

नारी की प्रततष्ठा - नर और नारी ये दोनो रूप प्राकृततक और अनातद तनयम हैं । दोिो का अपिा

स्वतं त्र अप्तित्व िै। अतः श्रमण संस्कृनत में िारी की पूणव प्रनतष्ठा रिी िै । युग के अिानद तीथव कर ऋर्षभदे र्

की दो पुनत्रयों ब्राह्मी और सुन्दरी तथा कािान्तर में समय समय पर िोिे र्ािी अिेक िाररयों िे सामानजक
और धानमव क दोिों िी क्षे त्रों में आदिव उपप्तथथत कर यि अजवि नकया िै । र्े योग्य से योग्य माता, आदिव

िारी और सौभ्यता की मू नतव श्रमणी-साध्वी तक हुई िै । अतीत से र्तवमाि तक की धारा में िोिे र्ािी आदिव
िाररयों में धमव परायण, पनत परायण, आि परायण सभी र्गव की िाररयाँ सप्तिनित िै ।

माता मरूदे र्ी, मिारािी नत्रििा, रािी चे ििा, मिारािी सीता, द्रोपदी, चन्दिबािा, मै िा सुन्दरी आनद
सिस्रों सती िाररयां ऐसी हुई िैं , नजन्ें पूणव सिाि नमिा और नजिकी यिोगाथा आज भी आदिव रूप िै ।

सुख-दु ख में समता भाि - मिुष्य का मि िै । जब तक मि की नक्रया िोती िै उसमें अच्छे बुरे सभी प्रकार
के नर्कल्प उठते रिते िैं । इन्ी नर्कल्पों का िाम सुख-दु ख िै । ज्ञािी पुरूर्ष इिमें राग-द्वे र्ष ििीं करते ।

उिकी भार्िाओं में सुख में मि ि फूिें दु ख में कभी ि घबराये की ध्वनि िी गूंजती िै । जैसे नदि के पिात

रानत्र और रानत्र के पिात नदि िोता िै र्ैसे िी सुख के बाद दु ख और दु ख के बाद सुख का उदय िोता िै । ये

र्िु के अपिे रूप ििीं, मािर् की कल्पिाओं के रूप िैं और क्षनणक िैं । अतः श्रमण संस्कृनत में क्षनणकत्व
जैसे इि िश्वर नर्कल्पों पर िर्षव नर्र्षाद के निए कोई थथाि ििीं िै । जैि श्रमण मु नि और श्रार्क दोिो िी

सुख-दु ख में समत्व भार् रखिे के आनद बिे। इसनिये पदाथो के सत् स्वरूप और अनित् आर्रण आनद
भार्िाओं का नर्र्षद और निदोर्ष नर्र्ेचि श्रमण संस्कृनत में नकया गया िै ।

तनष्कषभ

इस प्रकार श्रमण संस्कृनत िे भारत की सािंस्कृततक एकता को बनाए रखने में महत्वपूणभ योगदान तदया
और इस दे ि के निर्ानसयों को उच्च आदिों का पाठ पढाया। इस संस्कृनत िे नर्श्व को सत्, अनिं सा,

अिे य, ब्रह्मचयव तथा अपररग्रि के मिाव्रतों की निक्षा दी और नर्श्व िाप्तन्त की थथापिा में अिुपम योग
नदया। इसी कारण नर्श्व की प्राचीितम संस्कृनतयों में श्रमण संस्कृनत का मित्वपूणव थथाि मािा जाता िै।

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प्रश्न - मनु द्वारा तजस सामातजक व्यिस्था को महत्व तदया गया, उसकी प्रकृतत की आलो नािक
तििे ना कीतजए |

अथिा

मनु द्वारा ितणभत सामातजक कानू नोिं का आलो नािक पररक्षण कीतजए |

अथिा

सामातजक कानू नोिं के तनधाभरण में मनु स्मृतत की भूतमका का तिश्लेषण कीतजए।

अथिा

मनु द्वारा दी गई सामातजक तितध का िणभन कीतजए।

उत्तर –

परर य - प्राचीि भारतीय नचन्ति में सर्ाव नधक मित्वपूणव नचन्ति मिु का मािा जाता िै । उन्ोंिे अपिी

रचिा "मनु स्मृतत' में राजनीततक त न्तन प्रस्तुत तकया है । नर्नभन्न नर्द्वाि इस बात को स्वीकार करते िैं

नक धमव नर्र्षयक समि ज्ञाि मिु के द्वारा प्रारम्भ नकया गया। ”मिु स्मृनत” को निं दू समाज की व्यर्थथा की
आधारनििा मािा जाता िै । प्राचीि धमव िास्त्रों में मिु स्मृनत का सर्ाव नधक मित्व िै । "मिु स्मृनत” के रचिा
काि के सन्दभव में नर्द्वाि एक मत ििीं िै । मिाभारत में भी कई थथािों पर मिु का उल्लेख आता िै।

डा.िी.सी. सरकार "मिुस्मृनत” को ईसा से 150 र्र्षव पूर्व की रचिा मािते िैं । मै क्स मू िर इसे चौथी
िताब्दी के बाद की रचिा मािते िैं ।

डा. हण्टर इसे ईसा से 600 र्र्षव पूर्व से अनधक प्राचीि ििीं मािते िैं । कुछ नर्द्वाि इसे रामायण एर्ं
मिाभारत काि की रचिा मािते िैं ।

फ्ािंसीसी तिद्वान रे ने तगनो मिु िब्द को ऐनतिानसकता से जोड़िे के पक्षधर ििीं िैं । उिका माििा िै नक

मिु की उत्पनत्त मू िधातु मि से हुई िै नजसका अथव िै नचन्ति, मिि और सार्वभौम बुप्तद् तथा नर्चार। मि
धातु से िी मिु तथा मािर् की उत्पनत्त हुई िै । रे िेनगिो का मत िै नक नजस प्रकार र्ेद की रचिा का काि
निधाव ररत ििीं िै उसी प्रकार स्मृनत की उत्पनत्त के संबंध में प्रयास भी निरथव क िै ।

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स्मृनतया एक िम्बे काि तथा परम्परा का प्रनतनिनधत्व िोता िै । इसके रचिा काि के संदभव में मतभे द

अर्श्य िै परन्तु एक नर्नध ग्रन्थ, नियामक ग्रन्थ के रूप में इसकी मान्यता पर सर्वसिनत िै । भारत में

गौतम एर्ं र्ृिस्पनत िे इसको सर्वश्रेष्ठ बताया। जमव ि नर्द्वाि िे तो एक थथाि पर पर निखा िै नक “मिु स्मृनत
बाइनबि की अपेक्षा किीं अनधक अिुपम उत्कृि और बौप्तद्क ग्रन्थ िै । ''

मैकेन्जी व्राउन के िब्दोिं में “ यि निन्फ्दू कािूि का सर्ाव नधक प्राचीि ग्रन्थ िै ।'

मनु के अनुसार सामातजक तितध सिंतहता

मिु के र्ेदों और स्मृनतयों में किे गये र्चिों को िी आचार का आधार मािा िै । इिके अिुसार दु राचारी

पुरुर्ष संसार में निप्तन्दत िोता हुआ सर्वदा किों का अिुभर् करता िै एर्ं र्ि रोगी और अल्पायु िोता िै । मिु

िे सदाचारी मिुष्य को िी श्रेष्ठ मािा िै । मिु िे आिा की प्रसन्नता को नर्िेर्ष मित्व नदया िै। मिु िे
धमव िास्त्रों को िी आचार का आधार मािा िै , मिुष्य को सर्वदा सत्, धमव , सदाचार और पनर्त्रता में अिुराग
रखिा चानिए।

िणभ व्यिस्था

भारतीय समाज में िणभ को अत्यिंत महत्त्वपूणभ माना है । नजस प्रकार नसर, िाथ, उरू और पैर के िोिे से

व्यप्ति का पूणव िरीर बिता िै उसी प्रकार चारों र्णव अपिे कतव व्यों से सुन्दर सामानजक व्यर्थथा का

निमाव ण करते िैं । ब्राह्मण निक्षण का कायव , क्षनत्रय िासि का कायव, र्ैश्य व्यर्साय का कायव तथा िूद्र श्रम
का कायव करता िै । मिु िे ब्रह्मा से चारों र्गों की उत्पनत्त मािी िै । सृनि के नर्कास के निए ब्रह्मा िे र्णों की
उत्पनत्त की तथा अपिे मु ख से ब्राह्मण, बाहु से क्षनत्रय, उरु से र्ैश्य तथा पाप से िूद्रों की उत्पनत्त की।

मनु ने आ ार को परमधमभ माना है । ऋतष-मुतनयोिं ने मानि के तलए धमभ , अथव , काम और मोक्ष को

परम पुरूर्षाथव किा िै । धमव मिुष्य को मिुजता का पाठ पढाता िैं । अथव उसमें सिायता करता िै । अथव से

मिुष्य अपिी सां साररक कामिाओं को पूरा करता िैं सां साररक नर्र्षय-भोगों को दू र कर स्वयं को परमािा

की गोद में समनपवत करता िै । िास्त्रकारों िे इसे मोक्ष किा िै । धमव -अथव -काम एर्ं मोक्ष का समन्वय िोिा
आर्श्यक िै ।"

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मनु के अनु सार सतयुग में समस्त धमभ एििं सत्य ार पैरोिं िाला अथाभत् तप, ज्ञान, यज्ञ और धन िाला

होता है । मिुष्यों में कोई भी िाभ प्राप्ति अधमव के द्वारा ििीं की जाती। अन्य तीि युगों-त्रेता, द्वापर और

कियुग में अधमव के द्वारा िाभ प्राप्ति के कारण एक-एक चरण घिता जाता िै और चोरी, झूठ, धोखा
करिा आनद के कारण धमव का प्रभार् कम िोता जाता िै । सतयुग में तप को सर्वश्रेष्ठ धमव मािा गया िै । त्रेता

युग में ज्ञाि को श्रेष्ठ धमव किा िै । द्वापर युग में यज्ञ को िी श्रेष्ठ धमव किते िैं । कनियुग में दाि िी एकमात्र
श्रेष्ठ धमव िै ।

मनु के अनु सार ब्राह्मण, क्षतत्रय और िै श्य इन तीनोिं को िे दोक्त (िे द) सिंस्कार तकए जािे के कारण

नद्वज िाम नदया गया, क्योंनक व्यप्ति जन्म से िूद्र िोता िै । र्ि चािे नकसी भी र्णव का िो तथा संस्कार

नकए जािे के बाद मािो र्ि दू सरा जन्म िे ता िै इसनिए नद्वज कििाता िै । नकन्तु उन्ोंिे चतु थव र्णव िूद्र के
संस्कार का निर्षेध नकया िै । इसी कारण उसे एक जानत किा िै । मिु िे र्णवव्यर्थथा को जन्म से स्वीकार
नकया िै । परं तु आरम्भ में यि व्यर्थथा कमव के आधार पर थी, नकन्तु बाद में यि जन्म पर आधाररत िो गई |

समाज में ब्राह्मण की सिोिम त्मस्थतत स्वीकार की गई। र्ि समाज का श्रेष्ठ मागवदिवक, आदरणीय मािा
गया। नियमों को धारण करिे, संस्कारों की नर्नििता तथा जानत की उत्कृिता के कारण ब्राह्मण सम्पू णव

समाज में पूजिीय िै । समाज की निक्षा एर्ं धमव की सम्पणव व्यर्थथा का दानयत्व इसी श्रेष्ठ र्गव को सौंपा
गया। साथ िी यज्ञ करािा, अध्ययि, अध्यापि उसका मु ख्य कायव था।

क्षतत्रय की उत्पति तिराट् पुरुष की भुजाओिं से मानी गई है । यि र्णव िप्तििािी िोिे के कारण समाज

का रक्षक मािा गया। समाज के सभी र्गों को नियमों के अन्तगवत रखिा, सामानजक व्यर्थथा बिाए रखिा
िी इस र्णव का मु ख्य कायव मािा गया। र्ैश्य एर्ं िूद्र इसके अधीि कायव करते थे ।

समाज का तृ तीय िै श्य िणभ नजसकी उत्पनत्त नर्राि् पुरुर्ष के उरूओं से मािी गई, नजसका मु ख्य कायव

कृनर्ष एर्ं र्ानणज्य कमव करिा िै । एक प्रकार से समाज की सम्पू णव आनथव क व्यर्थथा को ठीक रखिे का

दानयत्व र्ैश्य र्णव का मािा गया। इसका कायव ब्राह्मणों का आदर करिे के साथ-साथ क्षनत्रय की
आज्ञापािि करिा भी रिा।

तु थभ िणभ की उत्पति तिराट् पुरुष के पैरोिं से मानी गईिं समाज में इसकी प्तथथनत चतु थव थथाि पर रिी।

इसके संस्कार का निर्षेध नकया गया। साथ िी इसका प्रमु ख कायव ब्राह्मण, क्षनत्रय और र्ैश्य - 'नद्वजन्मा' की
सेर्ा करिा मािा गया। सामान्य प्तथथनत में नर्नभन्न र्गों के कायों का नर्भाजि नकया गया था, नकन्तु

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आपनत्तकाि में इिके कायों की नर्नभन्नता का भी नर्धाि नकया गया िै । जैसे यनद िूद्र सेर्ानिर्ृनत्त से अपिे

पररर्ार का पोर्षण ि कर सके, तो र्ि र्ैश्यर्ृनत्त को भी स्वीकार कर सकता िै । नकन्तु इस प्तथथनत में भी

नद्वजानतयों (ब्राह्मण, क्षनत्रय) का नितनचन्ति करिा उसका सर्ोत्तम दानयत्व िै। इसी प्रकार ब्राह्मण भी
आपातकाि में िीि आजीनर्का को स्वीकार कर सकता था। मिु के समय में र्णवव्यर्थथा का कट्टरता के
साथ पािि नकया जाता था।

सामातजक व्यिस्था जन्म पर आधाररत होने के कारण इसमें दोषोिं का आगमन होना प्रारम्भ हो

गया। क्षनत्रय को धमव से भयभीत करते हुए उसका सियोग िे कर ब्राह्मण र्णव िे सम्पू णव समाज पर अपिा

प्रभु त्व थथानपत कर निया। इसके अन्तगवत समाज के चतु थव र्णव की प्तथथनत अत्न्त दयिीय िो गईं यद्यनप

नसद्ान्त की दृनि से आचायव मिु िे िूद्रों को पररर्ार के सदस्ों की संख्या के आधार पर र्ेति दे िे, स्वामी
द्वारा सेर्क को भोजि कराकर स्वयं करिे तथा भोजि के समय आए िूद्र को भी अनतनथ मािकर पूज्य
भार् रखिे का नर्धाि नकया, नकन्तु व्यर्िार में इिका पािि ििीं नकया जाता था।

िूद्ोिं को िे दोिं का अध्ययन करने का अतधकार नही िं था। मिु िे किा िै नक नजसके संस्कारों का नर्धाि
िै उसी को इस िास्त्र को पढिे का अनधकार िै अन्य नकसी को ििीं। मिु का कथि िै नक ििसुि, प्याज

आनद अभक्ष्य पदाथव खािे पर भी िूद्र को पाप ििीं िगता क्योंनक उसका संस्कार ििीं िोता, उसे धमव कायव

करिे का अनधकार भी ििीं िै । मिु िे िूद्रों को धि संचय का भी निर्षेध नकया िै । मिु िे ऐसा इसनिए किा

नक धि को प्राि कर िूद्र िास्त्र के नर्रूद् आचरण करे गा और ब्राह्मणों की सेर्ा ि करता हुआ र्ि
ब्राह्मणों को िी पीनड़त करिे िगेगा। मिु का माििा िै नक ब्राह्मण जो कुछ खाता िै , पििता िै , दे ता िै र्ि
सब उसका िी िै - यि सब ब्राह्मण का िी िै । अन्य जो िोग खाते िैं , र्े सब ब्राह्मणों की कृपा से खाते िैं ।

ब्राह्मण नपता के तु ल्य िै । जब तक ब्राह्मण र्गव के व्यप्ति नर्द्यमाि िै , तब तक ब्राह्मण के िर् को िूद्रों से
ििीं उठर्ािा चानिए। क्योंनक िूद्र के स्पिव से दू नर्षत िरीर की आहुनत स्वगव में ििीं पहुं चती। जो िूद्र

ब्राह्मण के समाि आसि पर बैठिा चािते तो उसकी कमर पर दगर्ाकर उसे दे ि निकािा दे दे अथर्ा
नितम्बों को किर्ा दें ।

मनु ने कई प्रततलोम जाततयोिं का उल्लेख तकया है नजन्ें मिु िे 'अन्त्यज' मािा िै । निर्षाद, आयोगर्,

भे द, आन्ध्र, चच्चु , क्षत, पुक्कुस, र्ेण इत्ानद जानतयों की र्ृप्तद् का र्णवि करिे के पिात् मिु इिके नर्र्षय में

किता िै नक इन्ें िगर के बािर चै त्, र्ृक्ष अथर्ा श्मिाि के समीप अथर्ा पर्वतों और उपर्िों में रििा

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चानिए। मिुस्मृनत में चं डाि को नकसी ब्राह्मण को श्राद् भोज खाते हुए दे खिे से भी मिा नकया गया िै ।

चं डाि के साथ नकसी भी प्रकार के निकि सम्बन्ध की अिुमनत ििीं िै | चंडाि स्त्री के साथ काम सम्बन्ध

का सपूणव निर्षेध िै और यनद कोई ब्राह्मण अिजािे में िी उससे सम्पकव करता िै तो र्ि जानतच्यु त िो जाता
िै और अगर जािबूझ कर ऐसा करता िै तो र्ि स्वयं चंडाि बि जाता िै ।

मनु ने िे दोिं का अध्ययन करने तथा िेदोिं की तिक्षा दे ने का कायभ ब्राह्मणोिं को स प


िं ा है । क्षनत्रयों को
सृिा िे आदे ि नदया िै नक र्े र्ेदों का अध्ययि करें । र्ैश्यों को भी आज्ञा िै नक र्े र्ेदों का अध्ययि करें । जो

गुरू की आज्ञा के नबिा र्ेदों का ज्ञाि प्राि करे गा, ऐसा मािा जाएगा नक उसिे धमव िास्त्रों की चोरी करिे

का अपराध नकया िै और र्ि यातिाओं में डूब जाएगा। नद्वज, िूद्रों की उपप्तथथनत में र्ेदों का अध्ययि ि

करें । प्तस्त्रयों का र्ेदों के श्लोकों से कोई सरोकार ििीं िै । यनद नकसी नद्वज िे अिुनचत रूप से र्ेदों का
रिस्ोद् घािि नकया िै तो र्ि पाप करता िै , एक र्र्षव जौ का आिार करके अपिे पाप का प्रायनित करता

मनु द्वारा सामातजक कानू नोिं की आलो ना -

डॉ. अम्बेडकर के अिुसार, मिु जानत के निमाव ण के निए नजिेदार ि िो, परं तु मिु िे र्णव की पनर्त्रता का

उपदे ि नदया िै । र्णव व्यर्थथा जानत की जििी िै और इस अथव में मिु जानत-व्यर्थथा का जिक ि भी िो
परं तु उसके पूर्वज िोिे का उस पर निनित िी आरोप िगाया जा सकता िै |

मनु की इस योजना में ब्राह्मण का स्थान प्रथम श्रेणी पर है । उसके िीचे िै - क्षनत्रय, र्ैश्य, िूद्र क्रनमक

श्रेणी की यि व्यर्थथा असमािता के नसद्ां त को िागू करिे का एक दू सरा सीधा तरीका िै , तानक सिी

रूप में यि किा जा सके नक निं दू धमव समािता के नसद्ां त को मान्यता ििीं दे ता। सामानजक प्रनतष्ठा की

यि असमािता राज दरबार के समारोि में चििे र्ािे दरबार के अनधकाररयों की श्रेणी में नदखाई दे िे र्ािी
असमािता के समाि ििीं िै । समाज के नर्नभन्न र्गों द्वारा िर समय, िर थथाि पर तथा सभी कायों में
पािि की जािे र्ािी सामानजक संबंधों की यि थथायी व्यर्थथा िै , नजसका सभी अमि करते िैं ।

मनु ने दासता को मान्यता प्रदान की है । परं तु उसिे उसे िूद्र तक िी सीनमत रखा। केर्ि िूद्रों को िी

िेर्ष तीि ऊंचे र्णों का गुिाम बिाया जा सकता था। परं तु यि ऊंचे र्णव िूद्रों के गु िाम ििीं िो सकते थे ।

दासता (गुिामी) को मान्यता प्रदाि करिा बहुत बुरी बात थी। मिु और उसके उत्तरानधकाररयों िे गुिामी

को मान्यता प्रदाि करते हुए इस बात का भी आदे ि नदया नक उसे र्णव -व्यर्थथा के उल्टे क्रम से िागू ििीं
नकया जाए।

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डॉ. अम्बेडकर के अनु सार मिु अंतजाव तीय नर्र्ाि का नर्रोधी िै । उसका कििा िै नक प्रत्े क र्णव अपिे

र्णव में िी नर्र्ाि करे । परं तु उसकी निनित र्णव के बािर के नर्र्ाि को मान्यता थी, नफर यिां भी र्ि इस

बात के निए नर्िेर्ष रूप से सचेत था नक अंतजाव तीय नर्र्ाि से उसके र्णों की असमािता के नसद्ां त को
िानि ि पहुं च सके। दासता के समाि मिु अंतजाव तीय नर्र्ाि को अिुमनत दे ता िै , परं तु उल्टे क्रम से ििीं।

इसी प्रकार अपराध के तलए दण्ड दे ते हुए मनु ने तकतनी तििाल असमानता तलखी है । पहला,
अनर्र्ेकी दं ड दे िे की पद्नत। मिुष्य के िरीर के अर्यर्ों जैसे पेि , जबाि, िाक, आं खें, काि, जििेप्तन्द्रय

आनद को एक स्वतं त्र व्यप्तित्व मािकर तथा यि किकर नक र्े आज्ञा पािि ििीं करते , अपराध के निए

इि अर्यर्ों को काििे की सजा दी जाती िै , मािो र्े अपराध में िानमि िों। मिु के अपराध-कािूि की

दू सरी नर्िेर्षता िै सजा दे िे का अमािर्ीय स्वरूप, नजसका अपराध की गंभीरता से कोई संबंध ििीं िै ।
परं तु इि सबसे अनधक मिु के कािूि की नर्िक्षण नर्िेर्षता, जो पूणव रूप से िि िोकर उभरती िै , र्ि िै
एक अपराध के निए सजा दे िे में असमािता।

दू सरे िब्दोिं में, सामातजक असमानता, तजस पर इसकी सम्पू णभ योजना त्मस्थत है , उसे बिाए रखिे के
निए कािूिों का निमाव ण नकया गया िै । िमें अिेक ऐसे उदािरण नमिते िैं जो यि दिाव ते िैं नक मिु िे नकस

प्रकार सामानजक असमािता बिािे और उसे जारी रखिे में मदद की। मिु िे धानमव क असमािता का भी

निमाव ण नकया। यि ऐसे मामिे िैं नजिका संबंध उि बातों से िै , नजसे आश्रम तथा धमव नर्नध (संस्कार) किा
जाता िै ।

तनष्कषभ

मिु भारतीय राजिीनतक नचं ति के प्रमु ख नर्चारकों में से एक िैं । तत्कािीि समाज पर 'मिुस्मृनत' का
अत्ं त िी गिरा प्रभार् दे खिे को नमिता िै । ऐसी मान्यता िै नक नब्रनिि िासिकाि में मिुस्मृनत में कुछ

िे रफेर द्वारा इसे जबरदिी मान्यता दी गई थी एर्ं इसी के अिुसार निं दुओं के कािूिों का निमाव ण हुआ।

मिु िे अपिे नर्चारों के द्वारा मािर् जीर्ि के िर पििू को छूिे का प्रयास नकया। मिु के नर्चारों िे मु ख्यतः

तत्कािीि िासकों के निए एक प्रकार से मागवदिवक का कायव नकया, िे नकि आधु निक समय में मिु के कई
नर्चारों को िे कर प्रायः नर्र्ाद भी दे खिे को नमिते िैं ।

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अतः भारतीय राजिीनतक नचं ति में मिु की अिम् भू नमका को िकारा भी ििीं जा सकता िै , बेिक यि

कई कारणों से र्तव माि प्तथथनत में एक नर्र्ानदत नर्र्षय रिी िै । इसके बार्जूद भी मिु के इस योगदाि को
झुठिाया जािा िामु मनकि िै ।

प्रश्न - बरनी के आदिभ राज्य/सल्तनत की आिधारणा का परीक्षण कीतजए |

अथिा

सुल्तान के साथ बरनी के सिंबिंधोिं में उसके राजनीततक ति ारोिं को तकस प्रकार आकार तदया

उत्तर –

परर य – नजयाऊद्दीि बरिी मध्यकािीि भारत के बहुत िी मित्त्वपूणव इनतिासकार और राजिीनतक


नचन्तक मािे जाते िैं । उिके िे ख नदल्ली सल्तित का नपछिा सौ र्र्षों का इनतिास प्राि करिे का अमू ल्य

स्रोत िैं । उिका मित्त्व केर्ि इसनिए ििीं िै नक उन्ोंिे उस काि का इनतिास एकनत्रत नकया बप्ति

इसनिए भी िै क्योंनक उन्ोंिे अपिे िे खों में सल्तित की प्रकृनत, धमव , कायव र् कत्तवव्यों का भी नजक्र नकया
िै ।

बरनी के समय इस्लामी राज्य अपने िैिि काल में था और र्ि अपिी जड़ें जमािे की कोनिि कर

रिा था तथा इस्लामी आचरण जिसंख्या के एक छोिे भाग तक िी सीनमत था। अत: बरिी िे यि

आर्श्यक समझा नक राजतन्त्र के प्रनत राजिीनतक दानयत्व के निर्ाव ि के निए इस्लाम के आधार को
व्यापक बिाया जाए। बरिी िे अपिी पुिक फतिा-ए-जहााँदारी में राज्य व्यर्थथा से संबंनधत नियमों

अथर्ा नसद्ान्तों का र्णवि नकया िै , नकन्तु इसमें उन्ीं नसद्ां तों का र्णवि नकया गया िै , नजन्ें बरिी स्वयं

पसंद करता था। अपिी पुिक के संबंध में बरिी निखता िै नक “पूर्व के अिेक िे खकों िे प्रिासनिक

व्यर्थथा और राज्य के आदे िों में सम्बप्तन्धत पुिकों का संकिि नकया िै । उन्ोंिे र्िव्य और ज्ञाि की
परम्परा के साथ न्याय नकया िै , उन्ोंिे अपिी सानिप्तत्क किा का प्रदिवि नकया िै और उसमें गद्य एर्
पद्य में उद्रण भर नदए िै , नकन्तु र्े राजकीय आदे ि के संबंध में भ्रनमत िै ।

बरनी अरबी सातहत्य के बहुत बडे तिद्वान थे । उन्ें पैगम्बर मौििद तथा पनर्त्र खिीफाओं के समय
की घििाओं की अभू तपूर्व जािकारी थी। बरिी िे पििे चार खिीफाओं की िासि व्यर्थथा के नर्र्षय में

निखा िै नक र्ािर् में पििे खिीफा की िासि व्यर्थथा िी िरीयत पर आधाररत थी। दू सरे खिीफा िे

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तिर्ार के जोर पर िासि नकया। तीसरे खिीफा िे भाई-भतीजार्ाद को बढार्ा नदया तथा चौथे खिीफा िे

गृियुद् भड़काकर िासि नकया, बरिी की मान्यता थी नक इसके बाद खिीफाओं के िासि का सूयाव ि िो
गया। इसके बाद मनिकों तथा िािों का िासि हुआ।

बगदाद की हार जाने के बाद न तो इस्लातमक साम्राज्योिं का बोलबाला रहा और ि िी मािर् कािूि

पर आधाररत िासि व्यर्थथाओं का। अतः बरिी भारत के निए ऐसी िासि व्यर्थथा नबिुि ििीं चािते
थे , बप्ति उिकी मान्यता थी नक सल्तित का आधार धमव या मजिब िोिा चानिए। इसनिए बरिी िे अपिी

पुिक फतर्ा-ए-जिाँ दारी िे िासि व्यर्थथा को मजबूत करिे के निए िरीयत और जर्ानबत दोिों प्रकार

के कािूिों की सराििा की। नदल्ली सल्तित की थथापिा से भारतीय राज्य तथा उसकी राजिीनतक प्रकृनत

में िए तत्वों का नमश्रण प्रारम्भ हुआ। ये तत्व राज्य के इस्लामी नसद्ां त अथर्ा इस्लामी राजिीनतक नसद्ां त
का पररणाम थे |

बरनी के आदिभ राज्य/सल्तनत की आिधारणा –

बरिी अपिे आदिव िासक के नर्र्षय में मित्वपूणव उपदे ि । र्ािर् में बरिी के नर्चारों का आदिव िासक

मिमू द ग़जिर्ी था, र्ि उसे िी सच्चा बादिाि मािता था। उसिे उसके बाद के समि मु सिमाि

बादिािों को मिमू द की सन्ताि बताया िै । उसकी प्रत्ेक निक्षा का आरम्भ बादिाि-ए-इस्लाम अथावत्

मिमू द के पुत्र के िाम से आरम्भ िोती िै । उसिे यि भी नसद् करिे का प्रयन्त नकया िै नक प्रत्े क गुण
नजसका र्णवि फतर्ा-ए-जिां दारी में हुआ िै , मिमू द में नर्द्यमाि था, अत: मिमू द की संताि अथाव त्
इस्लामी बादिािों को उिका िी अिुसरण करिा चानिए।

बरनी ने प्रत्येक उपदे ि (आदे ि) के पश्चात् उसकी स्पष्टता के तलए इततहास की घििाओं के उदािरण
प्रिु त नकए िै । चूं नक बरिी एक कट्टर मु सिमाि था, इसनिए उसकी दृनि में जो सुल्ताि कानफरों का

नर्िाि करता था, र्िी आदिव था। अतः इस प्रकार फतर्ा-ए-जिां दारी के उपदे िों को िम दो भागों में
नर्भानजत कर सकते िैं -

(क) नसद्ान्तों (उपदे ि) का उल्लेख तथा

(ख) इनतिास से उदािरण

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िासक/बादिाह क न और कैसा हो?

बरिी िे मािा िै नक र्ािनर्क िासक तो स्वयं ईश्वर िै और सां साररक बादिाि उसके प्तखिौिे िै , नजन्ें

राज व्यर्थथा के संचािि के निए ईश्वर के गुणों का अिुसरण करिा चानिए। र्ािर् में बादिािी तो खुदा

की नियामत (उपिार) िै । बादिािी अपिे -आप में सम्पूणव प्रभु त्व िोिे का िाम िै , चािे यि अनधकार नकसी

निनित नसद्ान्त से नमि जाए या नफर नकसी पर नर्जय प्राि करके नमि जाए। बादिािी के नर्र्षय में बरिी
निखता िै नक बादिािी उसी समय तक थथानपत रि सकती िै जब तक नक बादिाि पर िोगों को नर्श्वास
िो।

बरनी आगे कहता है तक बादिाह को सत्य का ज्ञान अिश्य होना ातहए। उसे उि सब आदे िों का
पािि करिा चानिए, नजसे ईश्वर िे उसके निए आर्श्यक बिाया िै तथा उि सब बातों से घृणा करिी

चानिए नजिका ईश्वर िे निर्षेध नकया िै । सुल्ताि को आतं क, ऐश्वयव तथा र्ैभर् का प्रदिवि करते हुए

सहृदयता, दया और कृपा का व्यर्िार करिा चानिए। र्ि नर्परीत गुणों र्ािा व्यप्तित्व िोिा चानिए। बरिी

आगे निखता िै नक मिुष्य स्वाभानर्क रूप से उि कायों को करिा चािता िै जो सुगमता और सरिता से
िो जाते िैं नकन्तु बादिाि को इस पर नबिुि भी ध्याि ििीं दे िा चानिए क्योंनक सािसिीि बादिाि,
बादिािी (िासि) के योग्य ििीं िोता िै ।

बादिाह को उपदे ि - बरिी ि केर्ि बादिाि कौि अथर्ा कैसा िै इसका र्णवि करता िै बप्ति िासक
को नकस प्रकार िासि व्यर्थथा चिािी चानिए इस नर्र्षय पर भी अपिे मत प्रकि करता िै , जो इस प्रकार
िै –

1. राज्य के तनयम - बरिी िे किा िै नक बादिाि का परम उद्दे श्य र्तव माि का उपचार और भनर्ष्य के
निए भिाई करिा िै । अत: राज्य के नियम ऐसे िों नजिसे नक न्याय की र्ृप्तद् िोती िो। नियमों के प्रयोग

और उिकी दृढता के नबिा राज्य व्यर्थथा के कायों में बाधाएँ उपप्तथथत िोती िै । बादिाि को राज्य

संबंधी सभी कायों में काफी सोच-नर्चार और र्ाद-नर्र्ाद के बाद िाथ डाििा चानिए। नियम बिाते

समय उसे चार बातों पर नर्िेर्ष ध्याि दे िा चानिए। ये नियम िरीयत के आदे िों के नर्रुद् ि िो,
अनधनियमों और नर्िेर्ष व्यप्तियों का आकर्षवण िो और सर्व-साधारण में आिा का संचार िो तथा िोगों

में िम्रता का प्रसार िो तानक नकसी को उिके प्रनत घृणा ि िो। बादिाि यि दे खे नक अनधनियमों में

कोई बात सुन्नत के नर्रुद् ि िो और इि पर आचरण करिे से अनर्श्वासी िोगों का भिा ि िोता िो।

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जब तक अनधनियम निमाव ता पूणव बुप्तद्माि, योग्य तथा अिुभर्ी ििीं िोंगे, नपछिे सुितािों के

अनधनियमों से पररनचत ििीं िोंगे और उिकी बुप्तद् भोग-नर्िास तथा क्रोध से प्रभानर्त ििीं िोगी

अथर्ा सां साररक सुख की अनभिार्षा करते िोंगे, उिके अनधनियम बिािे के कारण राज्य में बड़ी
कनठिाइयाँ उत्पन्न िो जािे का भय िै ।

2. धातमभक पदोिं पर सािधानीपूिभक तनयुत्मक्त - बादिाि को धानमव क पदों पर सार्धािी से नियुप्तियाँ

करिी चानिए। उसको ध्याि रखिा चानिए नक कोई यहूदी, ईसाई, िीच तथा नर्धमी उसके राज्य में

अपिे नमथ्या धमव का प्रचार ि कर सके। न्याय के निए ऐसे अनधकाररयों की नियुप्ति िोिी चानिए जो
धमव निष्ठ िों, क्योंनक तभी बादिाि का िाम रौिि िोता िै ।

3. बाजार व्यिस्था - बादिाि को सदै र् बाजार भार् सिे रखिे चानिए क्योंनक चीजों के सिे िोिे से ि

केर्ि सेिा सुव्यर्प्तथथत रिती िै , बप्ति सर्व साधारण के कायव में सुगमता भी िोती िै । उसे अकाि के

समय ख़राज और जनजया ििीं िे िा चानिए। दाम को सिा रखिे का प्रयास सदै र् करते रििा चानिए।
इसके निए उसे अपिे नर्नभन्न कमव चाररयों की नियुप्ति करिी चानिए तथा िगर कोतर्ािों को इस बात

पर नर्िेर्ष ध्याि दे िा चानिए। चीजों के सिा िोिे से किाकारों, बुप्तद्मािों तथा अन्य व्यर्साय करिे

र्ािों को बड़ा प्रोत्सािि नमिता िै ।

4. कुलीन में तिश्वास - बरिी का माििा िै नक असमािता समाज में सदै र् नर्द्यमाि रिती िै । नजस प्रकार
ईश्वर अिुपम गुण र्ािों को ऐश्वयव तथा र्ैभर् प्रदाि करता िै , ठीक उसी प्रकार दु गुवनणयों में उसी प्रकार

के दोर्ष पैदा कर दे ता िै । बादिाि को भी िोगों के साथ उिकी कुिीिता के अिुसार व्यर्िार करिा

चानिए। उच्चकुि में जन्मे िोगों में िी दयािु ता, उदारता, र्ीरता, सत्ता तथा र्ादा निभािे के गुण िोते

िैं । दू सरी ओर, निम्न कुि में जन्मे िोग बाजारू, ओछे , बेिमव तथा अयोग्य िोते िैं । अतः इस प्रकार
बादिाि को दु गुवनणयों और धू तों को सिाि प्रदाि ििीं करिा चानिए, क्योंनक इस प्रकार के िोग राज्य

व्यर्थथा तथा िासि संबंधी कायव के योग्य ििीं िोते । बरिी की मान्यता थी नक बादिाि के कायव िी

उसके कुिीि या दु गुवणी िोिे का प्रमाण िोते िै। ईश्वर केर्ि अच्छे कायव करिे र्ािों तथा चररत्रर्ाि

व्यप्तियों को अपिा नर्श्वास-पात्र बिाता िै ।


5. बादिाह को क्या नही िं करना ातहए - बरिी बादिाि को परामिव दे ता िै नक उसे कभी भी झूठ

ििीं बोििा चानिए और ि िी कभी नकसी को धोखा दे िा चानिए। र्ि आगे निखता िै नक - उसे कभा

भी अत्ाचाररयों, धूतों और दु गुवनणयों को सिानित ििीं करिा चानिए। बादिाि को दू सरे राज्य पर

अनधकार करिे के पिात् उस राज्य को सिानित व्यप्तिया का नर्िाि ििीं करिा चानिए।

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6. इस्लाम का सम्मान स्थातपत करना - अगिी निदायत में बरिी किता िै नक इस्लाि का सिाि

थथानपत करिे के निए बादिाि को िरीयत का पािि करिा चानिए। उसे िर िाित में इस प्रकार का

प्रबंध करिा चानिए नक उसके राज्य में कोई भी कायव ऐसा िा िो जो िरीयत द्वारा र्नजवत नकया िो।
बादिाि को इसके निए कानफरों का नर्िाि कर दे िा चानिए, िा नक केर्ि उिसे जनजया िे कर छोड़

दे िा चानिए। नजप्तियों (ईसाई एर्ं यहुदी) का आदर कभी भी ििीं करिा चानिए। बादिाि को रात-

नदि काऩिरों को अपमानित करिे का प्रयास करते रििा चानिए। उसे इस्लाम के सभी नर्रोनधयों का

नर्िाि कर इस्लाम को सिाि दे िा चानिए। र्ि आगे निखता िै नक बादिािी, ईरानियों के रीनत-
ररर्ाज के पािि के नबिा सम्भर् ििीं िै ।

आलो नािक मूल्ािं कन - उपरोि नर्र्ेचि से ज्ञात िोता िै नक मध्यकाि में अगर िमें इनतिास,
राजिीनत तथा अन्य नर्र्षय एर्ं परम्पराओं को जाििा िै तो िम बरिी को अिदे खा ििीं कर सकते । र्ािर्

में बरिी र्ि कड़ी िै जो िमें प्राचीि तथा आधु निक नर्चारों में तारतम्यता बिाए रखिे में भी सिायता दे ती

िै , इनतिासकारों एर्ं राजिीनतक र्ैज्ञानिकों का मागवदिव ि करती िै । िे नकि इतिे योगदाि के बाद भी िम

यि ििीं कि सकते नक बरिी आिोचिाओं से बचा हुआ िै या नफर उसके नर्चारों पर नकसी प्रकार का
प्रश्ननचह्न ििीं िग सकता। र्ािर् में कोई नर्चारक नकतिा मिाि् िै या उसके नर्चार नकतिे मित्वपूणव िै

उसका पता इस बात से भी चिता िै नक उसके तथा उसके नर्चारों के आिोचक नकस प्रकार के तथा
नकतिे िै । आलो नाओिं का िणभन -

बरिी के नर्र्षय में यि किा जाता िै नक र्ि एक कट्टर सुन्नी मु सिमाि था और उसके इस नर्चार की छाप
िम उसकी रचिाओं में भी दे ख सकते िैं । निन्फ्दुओं के प्रनत बरिी िरमनदि इन्साि या एक निष्क्ष

इनतिासकार की भू नमका का निर्ाव ि ििीं करते िै । र्ि निन्फ्दुओं के प्रनत एक कठोर रर्ैया अपिाता िै तथा

बादिाि को उन्ें समाि करिे का आदे ि तक दे ता िै अथर्ा उिसे जीर्ि के बदिे कर िे िे की निमायत
करता िै । इस संबंध में अफर बेगम ने तलखा है नक "जब र्ि निन्फ्दुओं से संबंनधत बात करे , तो बरिी
नर्श्वास के योग्य ििीं िै ।"

उि पर दू सरा आरोप यि िगाया जा सकता िै नक उन्ोंिे इनतिास को नसफव अपिी नर्निि जािकारी तक
समे ि निया था। उसिे नतनथयों तक पर बहुत कम ध्याि नदया िै , और जिाँ नतनथयों का र्णवि भी नकया िै

र्ि भी नर्श्वास के योग्य ििीं िै , अथाव त् र्े नतनथयाँ भी सिी ििीं िै । इस संबंध में बरिी की निष्क्षता और

ईमािदारी पर संदेि प्रकि करते हुए इतलयट एििं डाउसन ने तलखा है तक "नजयाउदीि बरिी अिेक

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इनतिासकारों की भाँ नत अपिे समकािीि िासकों के आदे ि से उिके सामिे निखा करता था, इसनिए र्ि

ईमािदार इनतिासकार ििीं किा जा सकता। उसके बहुत सी घििाएँ नबिुि छोड़ दी िै , या उिको
साधारण मािकर थोड़ा-सा स्पिव नकया िै ।

नजयाउदीि बरिी के इनतिस में सुिताि की िु नत सी की गई िै , नजससे नसद् िोता िै नक बरिी िे

जािबूझकर इि आक्रमणों का र्ृतान्त ििीं निखा िै । डी० गुईगिीज, डी० िरनबिोि और प्राइि िे नजि
िे खों को उद्त नकया िै , र्े भी इि आक्रमणों का उल्लेख ििीं करते ।" अत: इनियि िे उि पर "Unfair

Narrator" का आरोप िगाया िै तथा पीटर हाडी ने तलखा िै नक बरिी िे इनतिास को एक धमव िाखा के
रूप में नदखािे का प्रयास नकया िै ।

तनष्कषभ - उपरोि सब आिोचिाओं और आरोपों के पिात् भी िम उिके ऐनतिानसक योगदाि को ििीं

भू िा सकते । बरिी स्वयं को एक मिाि इनतिासकार समझता था। र्ि अपिी रचिाओं के माध्यम से

अपिा िाम कमािा चािता था और मृ त्ुपरान्त अपिी स्मृनत छोड़ जािा चािता था। तारीख-ए-फीरोजिािी

में उसिे इस बात की कई थथािों पर चचाव भी की िै । एक जगि बड़े गर्व के साथ बरिी िे निखा िै नक
"यनद मैं कहूँ नक संसार में मे रे इनतिास के समाि कोई अन्य इनतिास ििीं; तो मे री बात पर कौि नर्श्वास
करे गा, क्योंनक इस नर्र्षय का कोई अन्य नर्द्वाि् ििीं।"

एक नर्निि इनतिासकार के रूप में बरिी की प्रनसप्तद् तारीख-ए-़िीरोजिािी के कारण िै नजसमें िगभग
95 र्र्षव का इनतिास िै । र्ि नमििाज नसराज द्वारा छोड़े गये सूत्र को िे कर आगे बढता िै और बिर्ाि के

िासिकाि के इनतिास से िुरू कर ़िीरोज तु गिक के िासिकाि के पििे छः र्र्षों का िाि निखता िै ।
यिी ििीं इिकी यि कृनत बाद के इनतिासकारों को भी प्रेरणा दे ती िै ।

17िी िं िताब्दी के महत्वपूणभ इततहासकारोिं, जैसे – निजामु द्दीि अिमद, बदायूँर्ी, पररश्ता, िाजी उद्दबीर

आनद िे बरिी के इनतिास का अर्िोकि करिे के बाद अपिी रचिाएँ निखी िैं । अतः उपरोि के आधार
पर स्पि िै नक बरिी ि केर्ि मिाि इनतिासकार थे , बप्ति एक मिाि् राजिीनतज्ञ भी थे।

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प्रश्न - अबुल फजल के राजसिा के तसद्धािंत पर एक तनबिंध तलत्मखए |

अथिा

अबुल फजल की आइन-इ-अकबरी में सिंप्रभुता की अिधारणा का परीक्षण कीतजए । तकस सीमा
तक यह 'बादिाहत' के दै िीय तसद्धािंत का समथभ न करता है ? अपना मत स्पष्ट कीतजए।

उत्तर – परर य - अबुि फज्ि की 'अकबरनामा' तथा 'आइिे-अकबरी' अकबर के समय की

राजिीनतक प्रिासनिक व्यर्थथा की जािकारी प्रदाि करती िै , अपिी पुिक ‘अकबरिामा’ में अबुि

़िजि िे राज्य की र्ैधता को समझाया िै और अकबर का र्फादार र्जीर िोिे के िाते यिी प्रयास नकया
िै नजससे अकबर के कारिामों को र्ैद्यता प्राि िो सके। क्योंनक अकबर की सल्तित से िी उसका गिरा

निजी संबंध था। 'अकबरिामा' और 'आइिे-अकबरी' में उन्ोंिे अकबर की मिािता को एक ठोस रूप

नदया। अबुि फज्ि को छोड़कर उस दौर का कोई भी इनतिासकार अपिे िे खि के प्रनत एक बुप्तद्संगत

और धमव निरपेक्ष दृनि अपिािे और तथ्य-संग्रि के निए िई पद्नत का प्रयोग करिे और आिोचिािक
पड़ताि के आधार पर उन्ें प्रिुत करिे का दार्ा ििीं कर सकता।

अबुल फज्ल का राजसिा (बादिाहत) का तसद्धािंत

मुगल िासन व्यिस्था में बादिाह का स्थान केन्द्रीय ि सिोच्च था। इसी कारण मु गि साम्राज्य

केन्द्रीकृत अनधकारी-तं त्र कायम कर पाया।बाबर द्वारा थथानपत राज्य प्रभु सत्ता के तु कव-मं गोि नसद्ां त पर

आधाररत था नजसका नर्कास मध्यर्ती एनिया में हुआ था। बाबर से पििे के नदल्ली के मु प्तस्लम िासक
'सुिताि' कििाते थे , जो एक तु की पदर्ी थी, परं तु बाबर िे 'बादिाि' की पदर्ी धारण की, नजसे उसके
पिातर्ती मु गि बादिािों िे भी धारण नकया।

राज्य तिषयक मुगल तसद्धात की केन्द्रीय धु री बादिाहत (राजत्व) नजि नर्चारों पर आधाररत थी र्े
इस्लामी, मं गोि, तु की, ईरािी और भारतीय राजिीनतक परं पराओं का नमश्रण थे । अंत में जो स्वरूप उभरा

र्ि हुमायूं और अकबर के िासि में व्यर्िाररक हुआ और अबुि फज्ि के बादिाित के नसद्ांत में स्पि

हुआ। इिके अिुसार 'बादिाित' खुदा से निकििे र्ािी रोििी (फरव -ए-इज़्दी) िै नजसे खुद ख़ुदा िे िी
पृथ्वी पर भे जा िै ।

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एक आदिव बादिाि ख़ुदा की परछाई िोता िै जो चरम और अनर्भाज्य िप्ति का उपयोग करते हुए

अपिे अधीिथथ राज्य या इिाकों में 'एक नियम एक नियामक, एक मागवदिवक, एक िक्ष्य और एक नर्चार'

के अिुसार अपिी प्रभु सत्ता थथानपत करता िै । बादिाि को चानिए नक र्ि अपिे आप को अपिी प्रजा का
नपता समझे और उसकी सुख-सुनर्धा का ध्याि रखते हुए प्रजा-पािक बिे। साथ िी अबुि फज्ि िे स्पि

मत व्यि नकया िै नक नकसी बादिाि में सभी उत्कृि गुण नमििे के बार्जूद यनद र्ि सभी धमव और

संप्रदायों के माििे र्ािों के पक्ष में समाि दृनिकोण ि अपिाए तो र्ि बादिाित की 'उच्च गररमा' को

धारण करिे का अनधकारी ििीं मािा जा सकता। पादिाित (बादिािी) की व्याख्या करते हुए अबुि
फज्ि िे स्पि नकया िै नक 'पाद' िब्द का अथव िै थथानयत्व और स्वानमत्व तथा 'िाि' िब्द का अथव िै मू ि

और स्वामी। अतः बादिाि का अथव िै ऐसा िप्तििािी स्वामी या राजा नजसे कोई अपदथथ ििीं कर
सकता।

बादिाह की सिंप्रभु की अिधारणा िस्तुतः अत्नधक केन्द्रीकृत र् निरं कुि राजतं त्र की अर्धारणा थी।

प्रिासि का कोई नर्भाग उसकी दृनि से अंजाि ििीं था | िासि की समि गनतनर्नधयाँ बादिाि द्वारा

संचानित की जाती थी। राजघरािे के तमाम मामिों से िे कर नर्त्त और प्रां तीय प्रिासि, संचार व्यर्थथा,
कृनर्ष, व्यापार, उद्योग, र्ानणज्य, निक्षा र् नर्द्वािों को प्रोत्सािि तक सभी बातों पर बादिाि स्वयं निणवय िे ते

थे । सैद्ां नतक रूप से सम्राि की सत्ता के एकानधकार पर एकमात्र सीमा िरीअत की िी िो सकती थी परं तु
अकबर िे स्वयं को इस क्षे त्र में भी सर्ोच्च घोनर्षत कर नदया था।

कुरान का कानू न तकसी भी प्रकार से बादिाह पर बाध्यकारी ित्मक्त के रूप में लागू नही िं हुआ था।
अकबर को 'इमाम-ए-आनदि' की पदर्ी के साथ धमव -संबंधी नर्र्ादों के मामिे में अंनतम निणाव यक और

र्ैचाररक रूप से उच्चतम पद भी नमि गया था। इस प्रकार अबुि ़िज़्ि के समय में सर्ोच्च िासक के
रूप में बादिाि नर्िेर्षनधकारों के साथ-साथ एक एकां नतक अनधकारों का स्वामी भी बि गया था।

फजि राजा को ईश्वर की रोििी मािते िैं और इसनिये र्ि केर्ि ईश्वरीय कािूि की पररनध में िी आबद्

िैं , मािर्ीय कािूि से र्ि ऊपर िै । फजि का माििा िै नक जब ईश्वर नकसी पर अपिी कृपा की बौछार

करता िै , तो उसे संप्रभुता प्रदाि करता िै और इसके साथ उसे बुप्तद्, धै यव, दू रदनिवता और न्यायनप्रयता भी
दे ता िै तानक र्ि जिनित में कायव करे और पररनचत नमत्रों और अजिनबयों के बीच सन्तु िि थथानपत कर
सके। उिके साथ एक सा िी बताव र् करे तानक यि ि िगे नक उसमें प्रनतिोध की भार्िा और पूर्ाव ग्रि िै ।

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आइने अकबरी के अध्ययन से यह स्पष्ट हो जाता है नक यद्यनप अकबर के समय में भी सत्ता केन्द्रीकृत

िी थी, िे नकि राजा का सामानजक व्यर्थथा में कोई खास दखि ििीं था। अकबर के समय मिसबदारी

व्यर्थथा थी, जो नक फारस की िकि पर थी, िे नकि ग्रामीण व्यर्थथा में न्याय प्राय: पंचायतों द्वारा िी नकया
जाता था और केन्द्रीय सत्ता का इस पर कोई नर्िेर्ष प्रभार् प्रतीत ििीं िोता। भू -व्यर्थथा के बारे में भी यि

किा जा सकता िै नक चािे नसद्ान्त में खेती की जमीि राजा की थी, िे नकि व्यर्िार में जमीि का जोतिे

र्ािा िी उसका स्वामी था। िाँ , निधाव ररत राजस्व जरूरं उसे दे िा पड़ता था। नर्केप्तन्द्रत सत्ता िोिे के कारण

राजिीनत, ििरों, बड़े कस्ों एर्ं कुछ प्रमु ख घरािों तक िी सीनमत थी, राज्य का कायव प्राय: कािूि और
व्यर्थथा तक िी सीनमत था। आध्याि के क्षे त्र में उसकी दखि ििीं थी ! तु िसीदास की रामायण में इसकी
स्पि झिक दे खिे को नमिती िै ।

अबुल फजल तलखते हैं तक राजा को तमलने िाला कर एक प्रकार से उसका िे तन है , जो जिता पर

सुिासि करिे और न्याय करिे के एर्ज में नमिता िै । यिाँ अिुबन्ध नसद्ान्त की झिक अर्श्य नमिती िै ,

िे नकि यि फजि का मन्तव्य संभर्तः ििीं था। र्ि दै नर्क नसद्ान्त के प्रनतपादक भी ििीं िैं । जब र्ि

किते िैं नक राजा पृथ्वी पर ईश्वर की रोििी िै , इसका मतिब यि ििीं िै नक ईश्वर िे प्रजा पर िासि
करिे के निए उसका निमाव ण नकया िै । इसका मतिब केर्ि यिी िै नक ईश्वर की भां नत उसमें दया,

करुणा, सनिष्णुता एर्ं न्याय करिे की भार्िा िोिी चानिये। ईश्वर की कृपा से िी उसे यि पद प्राि िोता
िै ।

यि बात सिी िै नक फजि अकबर के व्यप्तित्व के आधार पर िी राजा के पद की आर्श्यकता और उसमें


निनित गुणों का र्णवि करते िैं । उिके अिुसार राजा का पद अत्न्त आर्श्यक िै , क्योंनक इसके नबिा

समाज के परस्पर नर्रोधी तत्त्व एक-दू सरे को िि करिे के निए संघर्षवरत रिें गे। अत: उसका कतव व्य िै नक

र्ि इि तत्त्वों को नियंत्रण में रखकर समाज में िां नत और व्यर्थथा की थथापिा करे । िे नकि इसका अथव
यि ििीं िै नक र्ि निरं कुि बिकर राजसत्ता के माध्यम से अपिी र्ासिा की तृ प्ति करे और सत्ता सुख में

मदान्ध िो जाये। उसका मु ख्य कायव जिता की भिाई करिा िै । राजा को न्यायनप्रय, बुप्तद्माि, बिादु र और

आकर्षवक व्यप्तित्व र्ािा िोिा चानिये। उसमें सनिष्णुता, खुिा नदमाग और न्याय करिे की क्षमता िोिी
चानिये। फजि को ये सारे गुण अकबर में नमिे।

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दै िीय तसद्धािंत का समथभ न -

अबुि ़िजि के अिुसार अल्लाि की िजर में राजिािी से बढकर कोई गररमा ििीं और जो इसका

अनधकारी िोता िै उस पर अल्लाि का िूर बरसता िै । इस धरती पर िोिे र्ािे खूि खराबे र् क्राप्तन्तयों का

उपचार केर्ि राजिािी िै । अनधकार र् थथानयत्व से इसका उद्भर् हुआ िै यनद राजिािी ि िो तो इस

जिाँ में िोिे र्ािे संघर्षव र् तू फािों को रोकिा मु प्तिि िै। इसके नबिा मािर्जानत अराजकता तथा
कामु कता में जीिे को नर्र्ि िो जाए और अंधकार र् निरािा की. खाई में नर्श्व समा जाए। राजिािी के

अभार् में यि र्ृिद् बाजार व्यर्थथा अपिा र्ैभर् और समृ प्तद् खो दे , तथा यि धरती बंजर िो जाए। क्योंनक

राजिािी का अप्तित्व िै इसनिए धरती खुि नमजाज िै , िोग आज्ञाकारी िै और दण्ड के भय से िोग बुरे
काम करिे से घबराते िैं ।

चुं नक राजिािी धरती पर अल्लाि द्वारा भे जी गई रोििी िै , इसनिए यिी संपूणवता की कुंजी िै और िर

तरि के ज्ञाि का पात्र 'बादिाि' िै । आधु निक भार्षा में राजिािी के इस िूर को '़िरव -ए-इज़्दी' (पनर्त्र िूर)

और पुराति भार्षा में इसे नक्रयाि खुि (िोकोत्तर मिाि प्रभा-मण्डि) किा गया िै। और अल्लाि िे यि
िूर नबिा नकसी मध्यथथ के इसे प्रत्क्ष रूप से बादिाि को बख्शा िै , इस िूर के साथ िी कुछ मिाि गुण
भी उतरे िैं जो इस प्रकार िै –

1. जनता के प्रतत तपतृ त्व प्रेमः साम्प्रदानयक मतभे दों के बार्जूद भी राज्य में संघर्षव ि िो इसके निए
जरूरी िै नक बादिाि जिता को नपता के समाि प्रेम करे । उसकी बुप्तद् उसके युग की जि इच्छाओं र्

िािसा को समझे और अपिी योजिाओं को उसी के अिुरूप ढाि दें ।

2. एक तििाल हृदयः नकसी प्रकार की असिनत उसे भ्रनमत या निराि िा करे । िौंसिे से र्ि अपिे

कायव करे , अच्छे काम करिे र्ािों को पुरस्कार र् प्रोत्सािि तथा बुरे काम करिे र्ािों को दण्ड दे ।
अमीर र् गरीब, की इच्छाओं की पूनतव िे तु र्ि प्रयासरत रिे । अपिे कायों में िीघ्रता से प्रयास करे आज

का काम कि पर ि िािे । और बादिाि के िाथों नकसी का अनित ि िो।

3. अल्लाह में अटू ट तिश्वास : जब र्ि कोई कायव करे तो अल्लाि को िी र्ािनर्क कताव मािे और स्वयं

को माध्यम। तब राज्य में िोिे र्ािे कायव अच्छे मकसद से िी िोंगे और मतभे द र् समस्ाएँ उत्पन्न ििीं
िोगी।

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4. दु आएाँ और समपभणः अपिी सफिताओं में अल्लाि को र्ो ि भू िे। मािर्ीय भार्िाओं में खोकर

अपिा समय बबाव द ि करे । बुप्तद् और नर्र्ेक को सिाि र् श्रद्ा की दृनि से दे खे। न्याय करते समय

स्वयं को अपराधी की जगि रखकर सोचे और तब न्याय करे । और न्याययाची को ि-उिीद ि िोिे दे ।
र्ि सृजिकताव की आज्ञाओं का पािि करते हुए िोगों के जीर्ि को खुनियों से भरता रिे । नकन्तु

उसका न्याय नर्र्ेक पर आधाररत िो। कुतकव करिे र्ािों की गिती क्षमा िा करे । र्ि िमे िा सत्र्ादी

िोगों को खोजे और चापिू सों से बचें। निं सा र् असंतोर्ष को राज्य में ि पिपिे दे और ध्याि रखे नक
उसके राज में नकसी के साथ अन्याय ि िो।

अबुल फज्ल की आलो ना

फजि की कट्टर मु प्तस्लम समु दाय िे कड़ी आिोचिा की। उन्ें िाप्तिक, अधानमव क एर्ं मु प्तस्लम नर्रोधी तक

किा गया। उसके कई समकािीि िोगों िे उसकी कड़े िब्दों में भत्सविा की। खान-ए-आजम िे तो यिाँ

तक कि नदया नक फजि िे पैगम्बर के नर्रुद् िी बगार्त कर दी। उिके बारे में जिाँ गीर िे भी इस बात

का समथव ि नकया िै और यिी एक बड़ा कारण रिा िो, नजसकी र्जि से उसके इिारे पर फजि की ित्ा
की गयी। उिके बारे में किा गया नक र्ि अनि पूजक निन्फ्दू िै । फजि िे स्वयं आइिे अकबरी में अपिे
नर्रोनधयों द्वारा उिकी की गयी भत्सविा का र्णवि नकया िै ।

लेतकन फजल बडे साहस और तनभीकता के साथ अपने ति ारोिं पर डटे रहे और पुराति पंनथयों और
परम्परार्ानदयों की आिोचिा करते रिे । फजि िे बताया नक जो चीज नर्दे क सित ििीं िै , उसको

स्वीकार कैसे नकया जा सकता िै । कािान्तर में पुिकों में निखी बात पुरािी पड़ जाती िै और इसनिए

उन्ें स्वीकार करिे के पूर्व उि पर नर्चार करिा आर्श्यक िै । यद्यनप र्ि स्वयं धानमव क पुरुर्ष थे , िे नकि

धमव को उन्ोंिे कभी कट्टरपिऔर संकीणवता से ििीं जोड़ा। जो मिुष्य को अन्धकार से प्रकाि की ओर
ििीं िे जाये। र्ि धमव िो िी ििीं सकता। नर्र्ेक और तकव का किीं धमव से नर्रोध ििीं िै ।

तनष्कषभ - इस प्रकार अबुि फज्ि के नर्चारों में धमव निरपेक्षता की झिक िोते हुए भी धमव (इस्लाम) पर

आधाररत राज्य की संकल्पिा काफी मजबूत िै। साथ िी उिके नर्चारों में एक व्यप्ति पर आधाररत एक
निरं कुि राजतं त्र की संकल्पिा से इन्कार ििीं नकया जा सकता नजसमें अकबर के पास राजिीनतक,

आनथव क, सामानजक और धानमव क िर क्षे त्र में अप्तन्तम अनधकार और सत्ता िै । इसीनिए िम कि सकते िैं नक

अबुि फज्ि का नर्चार इं ग्लैण्ड के राजतं त्र से नभन्न िै , जिां व्यप्ति ििीं ताज प्रधाि िै क्योंनक व्यप्ति मर

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जाता िै परन्तु ताज नफर भी जीनर्त रिता िै ; नकन्तु अबुि ़िज़्ि के नर्चारों में ताज से अनधक व्यप्ति

अथाव त् अकबर मित्वपूणव था। िािां नक धमव निरपेक्षता का उिका नर्चार और निं दुओं की प्राचीि दािवनिक-

धानमव क प्रणानियों, उिके रीनत ररर्ाजों और रिि-सिि में उिकी नदिचस्पी के नर्र्षय भी मित्वपूणव िै।
अिबरूिी के पिात निं दू धमव और समाज को एक समु नचत पररप्रेक्ष्य में समझिे का प्रयास करिे र्ािे र्े

पििे व्यप्ति थे। जब अबुि फज्ि रूनढर्ादी इस्लानमक या निं दू नर्चारों की आिोचिा करते िैं और िए

नर्र्ेकसंगत नर्चारों का समथव ि करते िैं , तब आधु निकीकरण र् पुिरूत्थािर्ाद की झिक उिमें िजर

आती िै , जो सुधारर्ादी िजररये की प्रतीक िै । इस प्रकार अबुि फज्ि के नर्चार िां िानक अकबर की
तरफ झुके हुए िैं , नकन्तु नफर भी बुप्तद्र्ाद, धमव निरपेक्षता, सनिष्णुता, आधु निकता तथा सुधारर्ाद भी उिके

नर्चारों में िानमि रिा िै , जो िमें उिका अध्ययि करिे तथा राजिीनत नर्ज्ञाि में एक नर्िेर्ष थथाि दे िे की
प्रेरणा दे ते िैं ।

प्रश्न - राज्य के तसद्धािंत पर क तटल् के ति ारोिं की तििे ना कीतजये | आज यह तकस प्रकार


प्रासिंतगक हैं ?

अथिा

क्या आप सहमत हैं तक सप्ािंग एििं योगक्षे म के रूप में क तटल् की राज्य की अिधारणा
'आश्चयभजनक रूप' से आधु तनक है । तिस्तार से ाभ कीतजए।

अथिा

क तटल् द्वारा अथभ िास्त्र में प्रस्तुत सप्ािंग तसद्धािंत पर आलो नािक तनबिंध तलत्मखए।

अथिा

आपके अनु सार तकस प्रकार क तटल् राज्य एििं राजा को समझने में व्यिहाररक दृतष्टकोण दिाभते हैं
?

उिर - प्राचीि भारतीय राजदिवि में राज्य को एक सजीर् प्राणी मािते थे । 'ऋग्वे द' में संसार की कल्पिा

नर्राि् पुरुर्ष के रूप में की गई िै | मिु, भीष्म, िुक्र आनद प्राचीि मिीनर्षयों िे राज्य की कल्पिा एक ऐसे

जीनर्त जाग्रत िरीर के रूप में की िै नजसके 7 अंग िोते िैं । कौनिल्य िे भी राज्य के आं नगक स्वरूप का
समथव ि नकया और राज्य को सि प्रकृनतयुि मािा ।

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क तटल् के अनु सार राज्य की ये सात प्रकृततयााँ अथिा अिं ग इस प्रकार हैं -

i. स्वामी (राजा)

ii. अमात् (मन्त्री)

iii. जिपद

iv. दु गव
v. कोर्ष

vi. दण्ड
vii. नमत्र

कौनिल्य के अिुसार राज्य रूपी िरीर के उपयुवि सात अंग िोते िैं और ये सब नमिकर राजिीनतक

सन्तु िि बिाए रखते िैं । राज्य केर्ि उसी दिा में अच्छी प्रकार कायव कर सकता िै जब ये सातों अंग
पारस्पररक सियोग तथा उनचत रूप से अपिा-अपिा कायव करें ।

क तटल् का सप्ािंग तसद्धान्त :-

क तटल् ने अपने सप्ािंग तसद्धान्त में राज्य के सात अिं गोिं का उल्लेख तकया है , जो तनम्न प्रकार है

(1) स्वामी (राजा):- कौनिल्य िे राज्य के अन्तगवत 'स्वामी' (राजा) को अत्न्त मित्त्वपूणव थथाि नदया िै ।

कौनिल्य के अिुसार राजा ऐसा व्यप्ति िोिा चानिए जो उच्च कुि में जन्मा िो, धमव में रुनच रखिे र्ािा िो,

दू रदिी िो,सत्र्ादी िो, मित्त्वाकां क्षी िो, पररश्रमी िो,गुणीजिों की पिचाि तथा उिका आदर करिे र्ािा
िो, निक्षा प्रेमी िो, योग्य मप्तन्त्रयों को रखिे र्ािा तथा सामन्तों पर नियन्त्रण रखिे र्ािा िो । कौनिल्य के

अिुसार राजा में नर्र्ेक र् पररप्तथथनत दे खकर कायव करिे की क्षमता, प्रजा की सुरक्षा र् पोर्षण की क्षमता,
नमत्र-ित्रु की पिचाि तथा चापिू सों को पिचाििे की योग्यता िोिी चानिए।

क तटल् के अनु सार राजा को सैन्य सिं ालन,सेना को युद्ध की तिक्षा,सत्मि, तिग्रह, ित्रु की कमजोरी

का पता िगािे की कुििता, दू रदिी आनद गुणों से युि िोिा चानिए। र्ि ते जस्वी, आिसंयमी, काम,

क्रोध, िोभ, मोि आनद से दू र रििे र्ािा,मृ दुभार्षी नकन्तु दू सरों की मीठी बातों में ि आिे र्ािा,दू सरों की

िँ सी ि उड़ािे र्ािा िोिा चानिए। कौनिल्य के अिुसार राजा को दण्डिीनत, राज्य संचािि, सैनिक निक्षा,
मािर्िास्त्र, इनतिास, धमव िास्त्र, अथव िास्त्र आनद नर्द्याओं का ज्ञाता िोिा चानिए।

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(2) अमात्य:- कौनिल्य के अिुसार राज्य का दू सरा मित्त्वपूणव अंग अमात् अथर्ा मन्त्री िै ,नजसके नबिा

राजा द्वारा िासि संचािि कनठि िी ििीं,असम्भर् िै । चूँ नक राजकायव बहुत अनधक िोते िैं और राजा सब

कायव स्वयं ििीं कर सकता, अतः उसे ये कायव अमात्ों से करािे चानिए । कौनिल्य िे अमात् का मित्त्व
स्पि करते हुए किा िै नक राज्य एक रथ िै। नजस प्रकार रथ एक पनिये से ििीं चि सकता, उसी प्रकार

मप्तन्त्रयों की सिायता के नबिा राजा अकेिे राज्य का संचािि ििीं कर सकता। अमात् की नियुप्ति के

सम्बन्ध में कौनिल्य िे किा िै नक राजा को योग्य तथा निष्ठार्ाि व्यप्तियों को िी अमात् के पद पर नियुि

करिा चानिए। अपिे सम्बप्तन्धयों, सिपानठयों और पररनचतों को भी अमात् के पद पर नियुि ििीं करिा
चानिए , यनद र्े पदािुरूप योग्यता ि रखते िों । प्रमादी,िराबी,व्यसिी,अिं कारी तथा र्ेश्यागामी व्यप्ति को

भी अमात् के रूप में नियुि ििीं करिा चानिए,क्योंनक ऐसा व्यप्ति नर्श्वास के योग्य ििीं िोता और

नर्नभन्न प्रिोभिों में फँसकर राज्य के गोपिीय तथ्यों को प्रकि कर दे ता िै , जो राज्य और राजा, दोिों के
निए अनितकर नसद् िोता िै ।

अमात्योिं की सिंख्या तकतनी हो, इसका तनधाभरण करने का कायभ क तटल् ने राजा पर छोड तदया है ।

र्ि राजकायव की आर्श्यकतािुसार उिकी नियुप्ति कर सकता िै । िे नकि कौनिल्य का सुझार् िै नक


राजकायव िे तु मन्त्रणा करिे र्ािों की संख्या सीनमत िोिी चानिए, क्योंनक अनधक िोगों से की गई मन्त्रणा

से गोपिीयता के भं ग िोिे का खतरा रिता िै । कौनिल्य का यि भी सुझार् िै नक राजा राजकायव के

संचािि िे तु अमात्ों से परामिव करे , नकन्तु यनद उसे उिके द्वारा नदया गया परामिव राज्य नित के अिुकूि
ि िगे,तो ऐसी प्तथथनत में र्ि अपिे नर्र्ेकािुसार निणवय िे िे िे तु स्वतन्त्र िै ।

(3) जनपद:- कौनिल्य िे राज्य का तीसरा अंग जिपद बतिाया िै । जिपद के अभार् में राज्य की कल्पिा

भी ििीं की जा सकती। इसके अन्तगवत कौनिल्य िे जिता र् भू नम को सप्तिनित नकया िै । उसका कििा िै

नक जिता को स्वानमभि, करों को चु कािे र्ािी र् सम्पन्न िोिा चानिए । भू नम के सम्बन्ध में कौनिल्य का
कििा िै नक उसमें र्ि, तािाब, खािे, िदी, उपजाऊ नमट्टी, सैनिक, नकिे , पर्वत, पिु और पक्षी िोिे
चानिए।

क तटल् ने जनपद की स्थापना का तिस्तारपूिभक िणभन तकया है । उसका मत िै नक राजा को या तो


दू सरे दे िों से मिुष्यों को बुिाकर अथर्ा अपिे राज्य की जिसंख्या बढाकर िये जिपदों की थथापिा

करिी चानिए। प्रिासनिक दृनि से जिपद थथािीय,द्रोणमु ख,खार्वनिक और संग्रिण में बँिा िोिा चानिए।

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एक गाँ र् की जिसंख्या के सम्बन्ध में कौनिल्य का मत िै नक एक गाँ र् में कम-से-कम 100 और अनधक-
से-अनधक 500 घर िोिे चानिए।

(4) दु गभ:- कौनिल्य िे किा िै नक राज्य के निए दु गव भी उतिे िी आर्श्यक िैं नजतिी जिता, भू नम अथर्ा

राजा ।कौनिल्य के अिुसार आक्रमण करिे की दृनि से और अपिे राज्य की सुरक्षा के निए दु गव आर्श्यक

िैं । दु गव मजबूत तथा सुरनक्षत िोिे चानिए, नजिमें भोजि-पािी और गोिा-बारूद का उनचत प्रबन्ध िोिा
चानिए।

सुरक्षा की दृतष्ट से आिश्यक दु गों को क तटल् ने अग्र ार भागोिं में बााँटा है ।

(i) औदक दु गव-चारों ओर से स्वाभानर्क जि (िदी,तािाब आनद) से नघरा/ िापू की भाँ नत प्रतीत िोिे

र्ािा दु गव।

(ii) पार्वत दु गव-पर्वत की कन्दराओं अथर्ा बड़े -बड़े पत्थरों की दीर्ारों से निनमव त दु गव।

(iii) धान्वि दु गव-जि और घास रनित भू नम (मरुथथि) में प्तथथत दु गव।


(iv) र्ि दु गव-चारों ओर दिदि अथर्ा काँ िेदार झानड़यों से नघरा दु गव।

(5) कोष:- कौनिल्य िे कोर्ष को भी राज्य का आर्श्यक अंग बतिाया िै , क्योंनक कोर्ष राज्य की समि
गनतनर्नधयों का आधार िै । कौनिल्य के अिुसार राजा को अपिे कोर्ष में निरन्तर र्ृप्तद् करते रििा चानिए।

इस िे तु उसे कृर्षकों से उपज का छठा भाग,व्यापाररक िाभ का दसर्ाँ भाग,पिु व्यापार से अनजवत िाभ

का पचासर्ाँ भाग तथा सोिा आनद कर के रूप में प्राि करिा चानिए । कोर्ष के सम्बन्ध में कौनिल्य का

निदे ि िै नक राजा को कोर्ष धमव पूर्वक एकनत्रत करिा चानिए । कर उतिे िी िगािे चानिए नजसे जिता
आसािी से दे सके।

(6) दण्ड (सेना):- कौनिल्य दण्ड को राजा की एक उल्लेखिीय प्रकृनत मािता िै । दण्ड से तात्पयव सेिा से

िै । उिके अिुसार दण्ड राज्य की सम्प्रभु ता को प्रदनिवत करता िै । कौनिल्य के अिुसार राजा की िप्ति
उसकी सेिा,गुिचर नर्भाग, पुनिस तथा न्याय व्यर्थथा में प्रकि िोती िै । कौनिल्य का मत िै नक राज्य की

सुरक्षा के निए सेिा का नर्िेर्ष मित्त्व िै। नजस राजा के पास अच्छा सैन्य बि िोता िै ,उसके नमत्र तो नमत्र

बिे िी रिते िैं ,साथ िी ित्रु भी नमत्र बि जाते िैं । सैनिक अस्त्र-िस्त्र प्रयोग में निपुण, र्ीर, स्वानभमािी और

रािरभि िोिे चानिए। कौनिल्य के अिुसार सैनिकों को अच्छा र्ेति र् अन्य सुनर्धाएँ प्रदाि करिी चानिए,
नजससे र्े निनिन्त िोकर दे ि-सेर्ा में तत्पर रिें ।

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(7) तमत्र :- सिां ग नसद्ान्त के अन्तगवत कौनिल्य िे किा िै नक राजा को अपिे पड़ोसी राज्यों से नमत्रता

करिी चानिए, नजससे आर्श्यकता पड़िे पर उिकी सिायता प्राि की जा सके। नमत्र र्ंि-परम्परागत,

नर्श्वसिीय तथा नितै र्षी िों और राजा र् उसके राज्य को अपिा समझते िों । परन्तु कौनिल्य िे यि भी किा
िै नक नमत्र बिािे से पििे राजा को उन्ें परखिा चानिए, नजससे र्े धोखा ि दे सकें।

क तटल् के सप्ािंग तसद्धान्त की आलो ना :-

1. कौनिल्य के सिां ग नसद्ान्त से िमें राज्य के िरीर नसद्ान्त का आभास नमिता िै। आिोचकों के

अिुसार राज्य को एक िरीर माििा अिुनचत िै ।

2. कौनिल्य िे दु गव,कोर्ष,सेिा और नमत्र को राज्य का आर्श्यक अंग मािा िै । यि बात सत् िै नक ये सभी
अंग राज्य के निए आर्श्यक िैं परन्तु इन्ें राज्य का आधारभू त तत्त्व ििीं मािा जा सकता। आिोचकों

के अिुसार प्रत्े क राज्य में सेिा पाई जाती िै , उस पर बि नदया जाता िै , नकन्तु सेिा के अभार् में

नकसी राज्य का अप्तित्व समाि ििीं िो जाता।

3. आिोचकों के अिुसार सम्प्रभु ता, सरकार, जिसंख्या और भू भाग आधु निक राज्य के आर्श्यक अंग िैं
। परन्तु कौनिल्य िे किीं भी इिका स्पि र्णवि ििीं नकया िै ।

4. कौनिल्य द्वारा प्रनतपानदत सिां ग नसद्ान्त राजतन्त्रािक िासि के निए िी उपयुि िै। इसमें
प्रजातन्त्र की पूणव उपेक्षा की गई िै ।

तनष्कषभ - कौनिल्य को इस बात का श्रेय नदया जािा चानिए नक उसिे अपिे सिां ग नसद्ान्त द्वारा

राजिास्त्र और राज्य संथथा को अनधक िौनकक तथा धमव -निरपेक्ष रूप प्रदाि कर नदया िै । स्मृनतकारों और

र्ेदों िे तो राजा के पुरोनित को व्यार्िाररक राजिीनत में मित्वपूणव थथाि नदया था; नकन्तु कौनिल्य के

अथव िास्त्र में पुरोनित पद की चचाव बहुत कम िै और राज्य के सि अंगों में उसे थथाि ि दे कर उसका
मित्व कम कर नदया िै ।

प्रश्न - दीघतनकाय में बुद्ध द्वारा ितणभत राजसिा के तसद्धािंत का तििे न कीतजए |

उत्तर -

परर य – अगािा सूत बौद् सानित् का एक भाग िै जो दीघा संकाय िामक संकरण से निया गया िै ,
नजसका र्णवि दीघा संकाय के 27 र्ें संस्करण में नकया गया िै , नजसमे बुद् द्वारा दो ब्राह्मणों, भारद्वाज और

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र्निष्ठ द्वारा संकनित एक प्रर्चि का र्णवि नकया गया िै , जो अपिे पररर्ार और जानत को नभक्षु बििे के

निए छोड़ दे ते िैं । संघ के सदस् बििे के इरादे से इि दो ब्राह्मणों िे अपिी िी जानत का अपमाि नकया।

इसमें बुद् बताते िै की जानत और र्ंि की तु ििा िैनतकता और धि की उपिप्ति से ििीं की जा सकती
िै , क्योंनक नकसी भी जानत में से कोई भी साधु बि सकता िै और अरिं त की प्तथथनत तक पहुँ च सकता िै ।

बुद्ध को 'ग तम बुद्ध', 'महािा बुद्ध' आतद नामोिं से जाना जाता है । र्े संसार प्रनसद् बौद् धमव के
संथथापक मािे जाते िैं । बौद् धमव भारत की श्रमण परम्परा से निकिा धमव और दिवि िै । आज बुद् संसार

के चार बड़े धमों में से एक िै । इसके अिुयानययों की संख्या नदि-प्रनतनदि आज भी बढ रिी िै । बुद् के

अिुसार मिुष्य नजि दु खों से पीनड़त िै , उिमें बहुत बड़ा निस्सा ऐसे दु :खों का िै , नजन्ें मिुष्य िे अपिे

अज्ञाि, गित ज्ञाि या नमथ्या दृनियों से पैदा कर निया िै , उि दु ःखों का समाधाि अपिे सिी ज्ञाि द्वारा िी
सम्भर् िै , नकसी के आिीर्ाव द या र्रदाि से उन्ें दू र ििीं नकया जा सकता। सत् या यथाव थता का ज्ञाि िी

सम्यक् ज्ञाि िै । अतः सत् की खोज मोक्ष के निए परमार्श्यक िै । खोज अज्ञात सत् की िी सम्भर् िै । यनद
सत् नकसी िास्त्र, आगम या उपदे िक द्वारा ज्ञात िो गया िै तो उसकी खोज का िाभ ििीं िै ।

बुद्ध ने अपने पूिभिती लोगोिं द्वारा या परम्परा द्वारा बताए सत्य को नकार तदया और अपिे निए िए

नसरे से उसकी खोज की। बुद् स्वयं किीं प्रनतबद् ििीं हुए और ि िी अपिे निष्यों को उन्ोंिे किीं बां धा।

उन्ोंिे किा नक मे री बात को इसनिए चु पचाप ि माि िो नक इसे बुद् िे किा िै , बप्ति उस पर भी सन्दे ि

करो और नर्नर्ध परीक्षाओं द्वारा उसकी परीक्षा करो। जीर्ि की कसौिी पर उन्ें परखो, अपिे अिुभर्ों से
नमिाि करो, यनद तु म्हें सिी िगे तो स्वीकार करो, अन्यथा छोड़ दो।

दीघ तनकाय एक संर्ाद-संग्रि िै जो अनधकां ितः बुद् के खुद के संर्ाद िैं और र्े अिेक आरप्तम्भक

निष्यों को 186 नर्र्ादास्पद नर्मिव की श्रृंखिा के रूप से प्राि हुए, जो राइस डे तिड् स के अनु सार मािर्
नचतं ि के इनतिास में प्लेिो के संर्ाद नजतिा िी मित्व रखिे र्ािा िै । उसका प्रथम संर्ाद जो ब्रह्म जाि

कििाता िै अथावत् पूणव जाि िै नजसकी जािी इतिी अच्छी िै नक कोई भी मू खवता या अंधनर्श्वास चािे
नकतिा भी सूक्ष्म क्यों ि िो, बच ििीं सकता। इिमें 62 संकल्पिायें िै ।

सुत्त नपिक या नर्मिव की िोकरी में चार मिाि निकाय या संग्रि िैं नजिमें से प्रथम दो एक पुिक की

रचिा करते िैं । यि दो भाग में िै जो दीघ और मप्तिम अथाव त् िम्बे और मध्यम िम्बे या िम्बे और िघु

कििाते िैं । बुद् के संर्ाद नजसमें बुद् अपिे निष्यों के साथ र्ाताव िाप में मु ख्य संर्ादक" िोते थे , को

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नर्िार के साथ व्यर्प्तथथत नकया गया िै । इिमें से सबसे पििे बौद् नर्द्वािों द्वारा चचाव में िाया गया
आरप्तम्भक संर्ाद अग्गन्न सुत्त िै जो दीघ निकाय की 27 र्ीं संख्या िै ।

बुद्ध द्वारा ितणभत राजसिा का तसद्धािंत

बौद्र्ादी राज्य में कल्याणकारी राज्य िोिा चानिये नजसका कत्तव व्य कमजोर तथा बेसिारा (असिाय) की
रक्षा िोिी चानिये। चक्र कोई पैतृक नर्रासत ििीं िै बप्ति यि प्रत्े क राजा के द्वारा अपिे अच्छे कायव और

कत्तव व्य से जीता जा सकता िै जो र्ैनदक सामानजक व्यर्थथा को बिाये रखिे के निये दण्ड को न्यायोनचत

ठिराता िै जबनक ब द्धिाद दण्ड को एक न्यायोत त सामातजक व्यिस्था की स्थापना के तलए उत त

ठहराता है । मिासुदस्सि सुत्त राज्य पर राजा के भौनतक नियंत्रण के साधि के रूप में िाथी और अश्व
खजािे का उल्लेख करता िै । िप्तििािी अद् भु त तथा बहुमू ल्य सम्पदा जैसे नर्नभन्न नर्िेर्षण राजा के इि

दोिों खजािों का उल्लेख करते िैं । ये राजा के द्वारा प्रनिनक्षत र् नियंनत्रत िोते िैं और सदै र् राजा की सेर्ा

में उपप्तथथत रिते िैं । इि बहुमू ल्य खजािों के निये जादु ई मू ल्य बताये जाते िैं जो रोग, भू ख तथा राक्षस
आनद के नर्रुद् मु काबिा करिे की िप्ति के रूप में दे खे जाते िैं ।

इत्थी रत्न या स्त्री खजाना आदिभ रानी का द्योतक है और यि राज्य तथा उसके पररर्ार का प्रतीक िै

जो उसके उत्तरानधकारी को सुनिनित करता िै । एक दू सरी मान्यता िै नक इत्थी रत्न धरती तथा उसकी

ऊबवर उत्पादकता का पििू िै । एक और मत िै नक यि खजािा ब्राह्मणर्ादी परम्परा में राजसूय समारोि


के प्रभार् का प्रनतफि िै । गिपनत रत्न िोगों का प्रनतनिनधत्व करता िै जो उस क्षेत्र में रिते िैं और यि

प्रिासि, कर-व्यर्थथा तथा उत्पादि को अपिे में सप्तिनित करता िै । पररिायक का अथव पािी भार्षा में

मागवदिवक, िेता या परामिवदाता िोता िै । पररिायक से यि अपेक्षा रिती िै र्ि बुप्तद्माि और नर्द्वाि िोगा

जो राजा की तरफ से सैनिक और िागररक िप्तियों का प्रयोग करे गा। यि राजा की सैन्य िप्ति का
प्रतीक िै ।

बुद्ध केिल नई राजनीततक सिंस्थाओिं के तनमाभण करने और राजनीततक व्यिस्था की स्थापना के

तनदे ि नही िं दे ता। र्ािर् में, व्यप्तियों र् समाज में सुधार के निए र् समस्ाओं के समाधाि के निए कुछ
सामान्य नसद्ान्तों का दृनिकोण भी अपिाता िै , नजसके माध्यम से समाज को अनधक से अनधक

मािर्तार्ाद की ओर, प्रजा के कल्याण िे तु और संसाधिों के अनधक र् समाि बंिर्ारे के निए निदे नित
नकया जा सकें।

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बुद् िे एक उत्तम राजा के निए परामिव, तथा िोकताप्तन्त्रक भार्िा को प्रोत्सानित नकया। जो यि प्रदनिवत

करता िै नक समु दाय के सभी मामिों पर निणवय सभी सदस्ों के परामिव से निये जायेंगे। जब कोई

मित्वपूणव प्रश्न उपप्तथथत िो तो उस मु द्दे को नभक्षु ओं के समक्ष रखा जायें और उसका समाधाि िोकताप्तन्त्रक
संसदीय प्रणािी द्वारा नकया जाए।

बुद् के समकािीि काि में उत्तरी भारत के गंगा के मै दािी (समतिीय) क्षे त्र में दो प्रकार के िासि
अप्तित्व में थे - गणराज्यीय तथा राजतिं त्रीय, जो एक दू सरे की प्रनतयोनगता में थे । गणराज्यीय िासि का

मु ख्य आधार बातचीत या बिस से सरकार चिािा था। संघ के सदस् निर्ाव नचत ििीं िोते , थे नकंतु र्े

जिजानत के िामी-नगरामी िोग िोते थे और अनधकां ितः र्े क्षनत्रय की जगि कुिीितं त्रीय थे िािाँ नक सभी
मामिों में संघ को अंनतम िप्ति प्राि थी।

ब द्धिादी, गणराज्यीय जनजातीय सिंघ का पालन कर रहे थे जो व्यप्तिगत िासक को ििीं स्वीकारते

थे और र्े एक साथ बिस करते थे , एक-साथ काम करते थे और सम्पनत्त के मामिे में साम्यर्ाद आचरण में

िाते थे। जिजातीय पररर्षद् उिके िासि का मु ख्य अंग थे जो नर्धािसभा के निणवय को बदििे की िप्ति
रखते थे ।

ब द्धिादी सिंघ लोकतिं त्रीय बताये जाते थे क्योिंतक िहााँ कोई राजा नही िं था। कोई अनधिायकर्ादी

आदे ि की कड़ी और उत्तरदानयत्व ििीं था, और सबसे बढकर निणवय िे िे की निधाव ररत प्रनक्रया थी नजसमें
सभी को िानमि नकया जाता था। संघ आज के आधु निक िोकतं त्र से दो अथों में नभन्न थे - प्रथम, बुद् िे

जोर नदया नक संघ के कायव करिे के निये सर्वसिमनत अनिर्ायव िोिा चानिये। नद्वतीय, प्रत्े क थथािीय संघ

पूणव संघ का सूक्ष्म रूप िोिा चानिये और यनद संघ की आन्तररक कायवप्रणािी में असिमनत उभरे तो
असिमत समू ि को िये समाधाि की ओर बढिा चानिये और िये संघ का निमाव ण करिा चानिए |

ब द्ध िासकोिं द्वारा िात्मन्तपूणभ, स हादभ पूणभ समाज और गरीबी मुक्त समाज सुनिनित करिे के निए

तथा आदिव का पािि करिे के निए प्रारं नभक बुद् द्वारा एक बड़ी संख्या में रूपरे खा प्रिुत की गई।

िासक के कत्तव व्यों के नर्र्षयों में बौद् धमव में अनधक नर्िार से चचाव ििीं हुई, िे नकि उन्ोंिे सामान्यतः
अनिं सािक नसद्ान्त को मित्व नदया, और िासक के निए युद् और नर्द्रोि प्रोत्सािि की मिािी की िै ।

बुद् िे अपिे समय के कुछ आनदर्ासी गणराज्यों की प्रिंसा की। एक बार उन्ोंिे किा था नक यनद िोग
उसका साथ जारी रखें तो र्ानजयाि गणराज्य पिप सकता िै । इसके निए उन्ोंिे कुछ नियम प्रिु त नकयेः

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1. नियनमत रूप से िगातार नर्धािसभाओं का आयोजि।

2. सौिादव र् सद्भार् की थथापिा, अव्यर्थथा की सामं जस् से समाप्ति, सद्भार्िा पूणव व्यापार।

इस प्रकार बुद् िे सामु निक निणवय द्वारा परम्पराओं, बु जुवगों, प्तस्त्रयों, सन्तों, और धमव इत्ानद को मित्व नदये

जािे का नसद्ान्त प्रिु त नकया। इि सामानजक नसद्ान्तों के मित्व द्वारा मठर्ादी संघ के समृ द्
रूपान्तररत संस्करण को सुनिनित करिा था क्योंनक बुद् िे पाया नक िये नर्िृ त राज्य नर्िार से

आनदर्ासी गणराज्य का अन्त िो रिा था और र्ि कुछ संख्या में िी रि गये थे । उन्ोंिे पाया नक निरन्तर

बढते राज्यों में सैद्ाप्तन्तक दर कम िोती जा रिी थी। और र्ि राज्यों द्वारा नसद्ान्तों के पािि की इच्छा
रखते थे |

राजा अनै ततक और अधातमभक कायभ करता है तो इससे उसकी जिता के नर्नभन्न समू िों के मध्य अिुनचत

उदािरण प्रचाररत िोता िै । नजससे सूयव और चन्द्रमा, र् नसतारे अपिी नदिा के नर्परीत चििे िगते िै और

नदि र् रात, माि र् पखर्ाड़े , मौसम और र्र्षव अपिी संयुिता से अिग िो जाते िै तथा िर्ा का प्रर्ाि-
मौसम के नर्परीत िोिे िगता िै । जो इस बात का सूचक िै नक दे र्गण िाराज िै , जब र्ृक्ष दे र्ता अपिा

गृि या थथाि छोड़ दे ते िैं , इन्द्र दे र्ता आकाि से पयाव ि र्ृनि ििीं करते , जमीि से अन्न उत्पादि कम िोिे

िगता िै और उि पर निभव र मािर्जानत कमजोर और अल्पकानिक िो जाती िै | तब राजा का कत्तव व्य िै

नक र्ि अपिे कायों र् प्रभार् के माध्यम से समाज और प्रकृनत के प्रनत अपिे िैनतक आचरण की नजिेदारी
को समझें।

इततहास के इस काल में राजा और लोगोिं के बी के सम्बि में कमी आ रही थी और धि की

सिायता से िप्ति को सत्ता में बदिकर इस कमी को पूरा नकया। धिराजा के उभरिे के पीछे एक दू सरा
सन्दभव यि था नक जब राजा और िोगों के बीच सम्बन्धों में निनथिता आिे िगी, तो ब्राह्मण और क्षनत्रय के

बीच िये ररश्ते िुरु िोिे िगे। दोिों के बीच कमव कां ड की जनिि प्रनतकृनत उभरती िै जिाँ राजा ब्राह्मणों

पर अपिी सत्ता को र्ैध करिे के निये निभव र िो जाता िै। पनर्त्र ब्राह्मण पाठ के द्वारा ब्राह्मण सामानजक
श्रृंखिा में ज्ञाि के एकमात्र नियंत्रक का नर्िेर्षानधकार प्राि कर िे ता िै।

ब द्ध िासक के एक महान उदाहरण के रूप में भारतीय सम्राट अिोक को नर्िेर्ष सिाि र् प्रनतष्ठा

प्राि िै , क्योंनक उन्ोंिे चक्रर्ती नर्चार अिुसार अपिा िासि चिािे र् उस पर खरा उतरिे की कायव
प्रणािी अपिाई। जबनक उन्ोंिे कभी भी संघ की सिाि को ििीं स्वीकारा। संघ जिता द्वारा चयनित िोगों

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से बिता था। तथानप सम्राि अिोक द्वारा जिता को जो िासि उपिि करर्ाया गया, र्ि अिैनतक ििीं
था।

ब द्ध अिधारणा राज्य के प्रारिं तभक अनु बिािक तसद्धान्त या सधि नसद्ान्त का प्रनतनिनधत्व करती िै

नजसे काफी समय बाद पनिम में जॉि िॉक तथा जीि जैक्स रूसो द्वारा नर्कनसत नकया गया। िासि की

बौद् अर्धारणा उिके िैनतक और आध्याप्तिक नर्िे र्षताओं पर आधाररत िै नजसमें ब्राह्मणों र् पुरोनितों के
प्रनतष्ठापि के प्रश्न को त्ाग नदया गया िै ।

तनष्कषभ - बुद् िे जििप्ति का उपयोग करते समय एक िासक के िैनतक कत्तव व्यों पर अत्ानधक जोर

नदया तानक िोगों के कल्याण को बेितर नकया जा सकें, जो सम्राि अिोक से प्रेररत थे । उन्ोंिे िािदार
तरीके से अपिी प्रजा र् मािर्ता के कल्याण के निए धि प्रचार करिे का संकल्प निया था। उन्ोंिे अपिे

पड़ोनसयों के प्रनत अिाक्रमण की भार्िा व्यि की, िां नतथथापिा के निए सूदूर राज्यों में अपिे प्रनतनिनध

भे जे तानक िां नत र् अिाक्रमण का संदेि नर्श्वभर में प्रभार्ी सानबत िो। उन्ोंिे सामानजक- िैनतक गुणों की

प्रथा को िप्तशािी रूप से बढार्ा नदया, और सत्ता, दया, परोपकार, अनिं सा, सभी के प्रनत नर्चारर्ाि
व्यर्िार, नफजूिखची ि करिे, अजवििीि बििे पर जोर नदया तथा पिुओं को चोि ि पहुं चािे का आग्रि

नकया। उन्ोंिे धानमव क स्वतन्त्रता को प्रोत्सािि नदया और दू सरे सम्प्रदायों के प्रनत आपसी सिाि को
बढार्ा नदया। उन्ोंिे अपिे आर्नधक दौरों द्वारा ग्रामीण िोगों को धि का उपदे ि नदया।

प्रश्न - समन्वयकारी परिं परा के उदय के तििेष सिंदभभ में , इस्लामी परिं परा की आधारभूत
अिधारणाओिं की व्याख्या कीतजए।

अथर्ा

भारत की समन्वयकारी परम्पराओिं पर एक तनबिंध तलत्मखए।

उत्तर –

परर य - नभन्न-नभन्न एर्ं परस्पर नर्रोधी नर्चारों का सप्तिश्रण करिा समन्वयर्ाद का आधार िै । इसमें

सामान्यतः नर्नभन्न परम्पराओं, र्ैचाररक अर्धारणाओं, नर्श्वासों आनद को एक दू सरे से जोड़िे का प्रयास
नकया जाता िै । नर्नभन्न धमों में अन्तनिवनित बुनियादी एकता पर बि नदया जाता िै। किा, संस्कृनत एर्ं

राजिीनत का समन्वय भी इसके अंतगवत िानमि मािा जाता िै । ऑक्सफोडव िब्दकोर्ष में समन्वयर्ाद के

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अंग्रेजी रूपान्तर Syncretism को िै निि िब्द Syncretismus एर्ं ग्रीक िब्द Synkretismos से उद् धृ त
मािा गया िै नजसका अथव िै क्रेिि फेडरनिज्म (Cretan Federation) अथाव त् एक दू सरे से जुड़िा।

समन्वयिाद के अिं तगभत यह कोतिि की जाती है तक तितभन्न ति ारोिं, सिंस्कृततयोिं एििं धमों के सह

अत्मस्तत्व के साथ-साथ इनमें अिं ततनतहभ त एकता एििं समानता को उजागर तकया जाए, नजससे

पारस्पररक नर्रोध, किे र्ष, ईष्याव , निं सा आनद को कम नकया जा सके। इसके अंतगवत यि प्रयास भी िानमि
िै नक नभन्न-नभन्न संस्कृनतयों, धानमव क नर्श्वासों र्ािे िोगों को प्रेररत नकया जाए तानक र्े अपिे -अपिे नर्श्वास

मत एर्ं ग्रन्थ का पािि करते हुए दू सरों का नर्रोध ि करे , दू सरों की भार्िाओं को ठे स ि पहुं चाए नजससे

अल्पसंख्यक समू िों में अनर्श्वास एर्ं असुरक्षा ि पिपे , तथा तिार् घृणा, ित्रुता आनद को दू र कर परस्पर
मे िजोि, सिििीिता, सिचयव को बढाया जा सके।

कुछ नर्चारकों जैसे Shaw & Stewart (1994) का माििा िै नक समन्वयर्ाद को केर्ि उस धानमव क

पररप्रेक्ष्य में समझा जािा चानिए, जिां दो नर्नभन्न ऐनतिानसक परम्पराएं संर्ाद या सप्तिश्रण कर रिी िो।

जबनक कुछ अन्य नर्चारकों जैसे Nadel का कथि िै नक बहुधा धानमव क एर्ं अधानमव क के बीच भे द करिा
कनठि िोता िै । भारतीय संदभव में बहुिर्ादी सां स्कृनतक धानमव क परम्पराएं (pluralistic cultural

religious traditions) समन्वयर्ाद के निए अनधक सापेक्ष एर्ं उपयोगी धराति पेि करती िै । गौरी

नर्श्विाथि (SEHR, 1996) की मान्यता िै नक समन्वयर्ाद धमव निरपेक्ष धराति पर बहुिर्ादी पिचाि,
रािरीय व्यप्तिर्, कािूि की मध्यथथता का मागव प्रिथथ करता िै ।

भारत की समन्वयकारी परम्पराएाँ -

भारतीय परम्पराएं सदा से बहुिर्ादी रिी िै । बािर से जो भी भारत आए उिकी परम्पराओं एर्ं संस्कृनतयों
को आिसात कर निया गया। स्वयं निं दू धमव में भी अिेकािेक गुि और संस्कृनतयां नर्द्यमाि रिीं। निं दू धमव

में से िी अिेक िाखाएं प्रस्फुनित हुईं उिके पिपिे एर्ं नर्कनसत िोिे के प्रनत निन्फ्दू धमव काफी सियोगी

एर्ं सिििीि नसद् हुआ। जैन धमभ, ब द्ध धमभ, लोकायत परम्परा, तसक्ख धमभ आतद इसी सहनिील-

समन्यिादी प्रिृ ति के कारण उतदत एििं तिकतसत हुए। अिेकािेक अराध्यों एर्ं अचव िा-नर्नधयों के
प्रचिि एर्ं िास्त्रों तथा ग्रन्थों की रचिा इसका प्रमाण िै नक र्ैचाररक स्वतं त्रता, नर्श्वास एर्ं दिवि की
नर्नर्धता भारत में नर्द्यमाि रिी और 'निन्फ्दू' िब्द के अंतगवत समानित रिी।

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भारतीय सिंस्कृतत हमेिा से समृद्ध एििं तितिधतापू णभ रही है । प्रारं भ से िी नर्नभन्न सां स्कृनतक-धानमव क-

संजातीय धाराओं में संघर्षव के साथ सियोग एर्ं समन्वयपूणव संर्ाद की प्रर्ृनत्तयां भी नदखाई दे ती िैं । यिां

एक ओर ब्राह्मणर्ाद के द्वारा सोपािबद् जातीय व्यर्थथा समाज पर िाद दी गई, र्िां दू सरी ओर जैि धमव ,
बौद् धमव , कबीर, िािक आनद के साथ-साथ बहुनर्ध थथािीय गुिों (जैसे जोनतबा, खािदोबा, तु काराम,

चै तन्य, मिाप्रभु, तंत्र आनद िे थथािीय संस्कृनतयों को समप्तन्वत करिे का प्रयास नकया। जिां एक ओर राजा,

सुिताि, राणा, जमींदार, उच्च िासकीय अनधकारी, ऊंची जानत से संबद् िोगों के द्वारा िोर्षण-िासि के

िथकंडे अपिाएं जाते रिे , र्िां दू सरी ओर निम्नजातीय (lower castes) तथा अपेनक्षत र्गवर्ादी
(sublaterns) परस्पर संपकव में आए और उन्ोंिे भारत में समन्वयर्ादी परम्पराओं का नर्कास नकया।

इस्लातमक समन्वयिाद की सूफी परम्परा –

भारत में इस्लाम को सामान्यतः आक्रांता, नर्दे िी िासकों, सुल्तािों के धमव के रूप में जािा गया और

थथािीय गैर-मु प्तस्लम, नर्िेर्षतः निन्फ्दू धमाव र्िं नबयों के पररर्तव ि के रूप में इसके प्रचार-प्रसार को आं का

गया। िे नकि गैर-मु प्तस्लम धमों के साथ इस्लाम का सि-अप्तित्व और नर्नभन्न धमाव र्िप्तम्बयों के बीच एक
दू सरे के प्रनत सिििीिता एर्ं सियोग भी भारतीय इनतिास का एक ऐनतिानसक सत् रिा िै ।

मध्ययुग में सूफी ति ारकोिं के द्वारा तकए गए समन्वयिादी प्रयास तििेषरूप से उल्लेखनीय हैं । इि

सूफी संतों के द्वारा नदव्य आिीयता, िौनकक साम्यता, स्नेि एर्ं मािर्ता का संदेि नदया गया। सिीम
नचश्ती, सैयद िौिाि गंज, सुल्ताि बहू, िजरत दाता गंज बक्ख, िजरत मु िित, मु राद अिी खाि, िजरत

िाि, मु ििद यूसुफ गदै , मु नियुद्दीि अब्दु ि कानदर-नगिािी, ख्वाजा मु इिुदीि नचश्ती, बाबा फखरूद्दीि

सुिराबदी पुिुकोि, बिाउद्दीि जकररया, कुतु बुद्दीि बप्तियार काकी, िािबाज किन्दर, िजरत

निजामु ददीि औनिया, अमीर खुसरो, पीर. निजामी आनद ऐसे सूफी संत थे नजन्ोंिे नर्नभन्न गुिों, मतों एर्ं
नर्चारों को जोड़कर िां नत, एकता, सिििीिता एर्ं जीर् दया का संदेि नदया।

दीन-ए-इलाही-: समन्वयिादी खोज -

मुगल सम्राट अकबर के द्वारा 1582 में स्थातपत दीन-ए-इलाही एक समन्यिादी धमव , मत एर्ं

नर्चारधारा के रूप में जािा जाता िै । इसके माध्यम से यि कोनिि की गई नक र्े मतान्तर जो प्रजा को

नर्नभन्न गुिों में बां िते िैं , उिमें सियोग, मे िजोि एर्ं सिििीिता का संदेि नदया जाए। दीि-ए-इिािी में
प्रमु ख नर्चार इस्लाम से निए गए थे , नकंतु इसमें निन्फ्दू धमव , ईसाई, जैि धमव , पारसी धमव (Zoroastrianism)

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से भी अिेक नर्चार िानमि नकए गए थे । यद्यनप इस मत की अचव िा की नर्िेर्ष पद्नत ििीं थी और ि िी

कोई मानित ग्रन्थ थे , िे नकि यि सप्तिश्रण की नर्चारधारा दस प्रमु ख गुणों पर आधाररत थी। इसके द्वारा

सभी धानमव क मतों के बीच परस्पर सिििीिता, सियोग एर्ं स्नेि का संदेि नदया जाता था। िोभ, मोि,
घमं ड, क्रोध, ईष्याव , र्ैमिस् आनद का पूणव निर्षेध करते हुए, जीर् ित्ा एर्ं ब्राह्मणीय सोपाि क्रम का खंडि

नकया जाता था। आिीय िुप्तद्, ब्रह्मचयव, सियोग आनद को प्रोत्सानित नकया जाता था। ये सभी गुण ऐसे थे

नजन्ें सभी धमों के द्वारा समाि रूप से स्वीकार एर्ं प्रोत्सानित नकया जाता रिा िै । Encyclopedia

Britannica के अिुसार, इस पंथ में परमािा के प्रनत समनपवत िोते हुए आिा की िुप्तद् के निए प्रेररत
नकया जाता था (सूफी परम्परा के अिुरूप)। इसके द्वारा ब्रह्मचयव की प्रिंसा ईसाई कैथोनिक परम्परा से
प्रभानर्त प्रतीत िोती िै ।

जैन धमभ की परम्परा के अनुरूप जानिरोिं की हत्या का तनषेध तकया जाता था। यद्यनप कोई निनित

पूजा-अचव िा का प्रार्धाि ििीं था नकंतु पारसी धमव (Zoroastrianism) की प्रेरणा से सूयव और अनि के

प्रकाि को दै र्ीय अराधिा और पूजा का माध्यम मािा जाता था। निन्फ्दू धमव की पूजा नर्नध के अिुरूप सूयव
के एक िजार संस्कृत िामों का उच्चारण नकया जाता था।

व्यर्िार में , दीि-ए-इिािी सम्राि अकबर के व्यप्तित्व एर्ं कतृव त्व से जुड़ा हुआ था। कुछ समीक्षकों के

द्वारा इस प्रयास को इस्लाम नर्रोधी किा गया तो कुछ िे इसे अकबर द्वारा स्वयं दे र्त्व प्राि करिे के

प्रयास के रूप में दे खा और अल्लाि िो अकबर' के िाद में इस प्रयास की छनर् दे खी। कछ की दनि में यि
इस्लाम की संकीणवताओं को दू र करिे का प्रयास था नकंतु अनधकां ि समीक्षकों िे इसे अकबर के
समन्वयर्ादी प्रयास के रूप में दे खा, नजसके द्वारा मु गि सम्राि के द्वारा मत-मतां तरों में बंिी प्रजा के बीच

धानमव क सनिष्णुता फैिािे का प्रयास नकया जा रिा था, नजससे रूनढयों को दू र कर, स्नेि-सियोग-

सिििीिता को प्रेररत नकया जाए और िैनतक गुणों पर आधाररत िए समाज का निमाव ण नकया जा सके।
यद्यनप दीि-ए-इिािी कभी भी जि-जि का धमव ििीं बि पाया, नकन्तु सोििर्ीं सदी के उत्तराद्व में एक
समन्वयर्ादी प्रयास के रूप में इसकी गणिा अर्श्य की जा सकती िै ।

तनष्कषभ - भारतीय राजिीनतक नचन्ति की समन्वयर्ादी परम्परा यि दिाव ती िै नक यद्यनप भारत में ब्राह्मण,
श्रमण एर्ं इस्लामी परम्पराएं रिीं; ब्राह्मणों द्वारा सोपािबद् र्रीयता क्रम पर आधाररत िास्त्रों को रचा गया;

प्रनतनक्रया स्वरूप जैि धमव एर्ं बौद् धमव का उदय हुआ और श्रमण परम्परा का नर्कास हुआ; नर्दे िी अरब

व्यापाररयों, मु प्तस्लम आक्रां ताओं एर्ं मु गि िासि के साथ इस्लामी परम्पराएं भी भारत में नर्कनसत हुई;

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तथानप बहुआयामी संस्कृनतयों, भार्षाओं, धमों एर्ं नर्चारधाराओं के बीच समन्वय कायम करिे और

"नर्नभन्नतों के बीच एकता" थथानपत करिे के प्रयास भी निनित रूप से भारतीय जीर्ि धारा का अंग बिे
रिे ।

तितभन्न धातमभक ति ारोिं, ररिाजोिं एििं सािंस्कृततक आ ार के द्वारा दिाभया गया , नक भारत की

सामानजक-धानमव क-सां स्कृनतक नर्नर्धता यिां उपिि र्ैचाररक स्वतं त्रता का पररणाम िै । अपिे नर्चार
रखिे और अनभव्यि करिे का अर्सर नदए जािे के कारण िी भारत में नर्नभन्न नर्चार श्रृंखिाओं का

अप्तित्व रिा िै । िे नकि नर्नर्धतापूणव संजातीय समु दाय, धानमव क समु दाय, मत, सम्प्रदाय, सांस्कृनतक समू ि,

भार्षीय गुि िोते हुए भी अनद्वतीय एकता, समरसता, समरूपता से इं कार ििीं नकया जा सकता। यिां जीर्ि

के बुनियादी मू ल्यों, आचार-व्यर्िार के नियमों, िैनतक नसद्ां तों के प्रनत बुनियादी सिमनत िमे िा से
नर्द्यमाि रिी िै ।

प्रश्न - राजा के दातयत्वोिं के तििेष पररप्रेक्ष्य में , िािंततपिभ में उत्मल्लत्मखत राजधमभ की धारणा का
तििरण कीतजए।

उत्तर –

परर य – मिाभारत का िां नतपर्व प्राचीि भारतीय राजिीनतक नचं ति के इनतिास में अत्ंत मित्त्वपूणव

थथाि रखता िै । यि मु ख्यत: कुरु र्ंि के र्योर्ृद् सदस् भीष्म नपतामि द्वारा मिाभारत युद् के पिात्

मृ त्ुिैय्या पर से नदये गये सम्राि युनधनष्ठर के प्रश्नों के उत्तरों का संग्रि िै । िां नतपर्व के नर्नभन्न अध्याय

प्राचीि भारतीय सानित् में र्नणवत राजिीनतक नर्चारों का नर्िाितम, व्यर्प्तथथत तथा गिि भं डार िै ।

मिाभारत युद् के पिात् युनधनष्ठर िे र्ेदव्यास से राजा तथा चारों र्गों के कतव व्यों के नर्र्षय में प्रश्न नकया।
व्यास िे युनधनष्ठर को मृत्ुिैय्या पर िे िे सर्वज्ञािी भीष्म के सामिे इि प्रश्नों को रखिे का परामिव नदया।

युनधनष्ठर के िेतृत्व में र्िाँ उपप्तथथत राजा तथा ऋनर्षयों के समक्ष भीष्म िे अपिा अंनतम राजिीनतक नर्मिव

प्रिु त नकया। कृष्ण िे भीष्म के राजिीनतक दिव ि को अपिी इस भनर्ष्यर्ाणी के साथ िुभकामिाएँ दी नक

ये पृथ्वी पर र्ेदों की भाँ नत सर्वदा नर्द्यमाि रिें गे। भीष्म के राजिीनतक प्रर्चिों में सबसे नर्िक्षण तथा
मौनिक उिके राजधमव तथा दं डिीनत संबंधी नसद्ांत िैं ।

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राज्य की उत्पति

युतधतष्ठर ने भीष्म से अपना पहला प्रश्न राजधमभ के तिषय में तकया। िां नतपर्व के 56र्ें अध्याय के

अिुसार राजधमव उसी प्रकार संसार पर नियंत्रण रखिे का साधि िै नजस प्रकार िगाम द्वारा घोड़े पर तथा

अंकुि द्वारा िाथी पर नियंत्रण रखा जाता िै । राजधमव संसार के सभी बुरे पररणामों को उसी प्रकार समाि

करता िै नजस प्रकार उगता सूयव अधमव के अंधकार को दू र करता िै । यि एक व्यापक अनभव्यप्ति िै
नजसमें राजिीनतक तथा प्रिासनिक प्रसंगों के कतव व्यों तथा अिुबंधों को समानित नकया गया िै । भीष्म के

अिुसार कृतकाि अथर्ा प्राकृनतक अर्थथा में राजा िामक संथथा का अप्तित्व ििीं था। समाज की सृनि के

पिात् एक िं बे काि तक मिुष्य सुख तथा सामन्फ्जस् के साथ िां नतपूणव ढं ग से जीर्ियापि नबिा नकसी भी

प्रकार के िासि-सत्ता के अपिे आं तररक सद् गुण के कारण करता था। परं तु कािांतर में मिुष्य सदाचार
से नर्मु ख िोकर स्वाथव , िोभ तथा र्ासिा के र्ि में िो गया।

कृतष कला के ज्ञान के फलस्वरूप मनु ष्य अपनी आिश्यकता से अतधक अन्न का उत्पादन करने

लगा। र्ि उत्पादों का संचय एक पृथक् घर में करिे िगा। परं तु मिुष्य िे एक-दू सरे के इस संनचत धि को
बिपूर्वक छीििा आरं भ कर नदया। मािर् में कतव व्य तथा अकतव व्य के ज्ञाि के समाि िोिे से र्ेद आनद

िि िोिे िगे तथा धमव -कमव सभी िुि िोिे िगे। संसार में फैिी इस अधमव और पापपूणव अर्थथा में मिुष्य

अपिी पत्नी, पिु, खेत तथा घर के सुख का भोग ििीं कर पा रिा था। राजा के अभार् में र्णव -संकर प्रारं भ

िो गया। िां नतपर्व में धमव का अनभप्राय पररर्ार, संपनत्त तथा र्णाव श्रम धमव पर आधाररत सामानजक व्यर्थथा
की रक्षा से िै । ऐसी प्तथथनत से राित पािे के उद्दे श्य से िोगों िे जगत नपतामि ब्रह्मा की िरण िी तथा एक
ऐसी सत्ता की माँ ग की जो उिकी संपनत्त, पररर्ार तथा र्णव धमव की रक्षा कर सके।

लोगोिं की इस मााँग पर ब्रह्मा ने मनु को पृथ्वी पर राजा बनने की आज्ञा दी। आरं भ में मिु िे राजा
बििा | अस्वीकार कर नदया क्योंनक नमथ्यायुि मिुष्यों के बीच राज करिा उन्ें अत्ं त कनठि कायव प्रतीत

हुआ। तब प्रजा-समू ि िे उन्ें आश्वासि नदया नक र्े उन्ें कोर्ष र्ृप्तद् के निए अपिे पिुधि तथा सोिे का

पचासर्ाँ भाग तथा अिाज का दसर्ाँ भाग प्रदाि करें गे। िां नतपर्व के 67र्ें अध्याय से यि पता चिता िै नक

मिुष्य तथा प्रथम राजा के बीच एक समझौता हुआ नजसके अिुसार र्े अपिी संपनत्त का कुछ भाग कर के
रूप में तथा अपिे बीच से सुंदर प्तस्त्रयाँ उन्ें पनत्नयों के रूप में दें गे। जो िोग पाप करें गे र्े िी उसका फि
भोगेंगे तथा अपरानधयों को दं ड दे िे से राजा को कोई पाप ििीं िगेगा।

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इस प्रकार प्राकृनतक अर्थथा में धमव , संपनत्त, पररर्ार तथा र्णव व्यर्थथा की रक्षा के उद्दे श्य से राजा की

आर्श्यकता अिुभर् हुई नजसके पररणामस्वरूप राज्य की उत्पनत्त हुई। उपयुवि नर्र्रण से स्पि िै नक

िां नतपर्व राज्य की उत्पनत्त दै र्ी उत्पनत्त तथा सामानजक समझौते के नसद्ां तों के आधार पर मािता िै। मिु
िे एक नर्िाि सेिा के साथ राजा का पद संभािा तथा राज्य नर्िार िे तु निकि पड़े । िोग राजा के भय से
धमव का पािि करिे िगे।

राज-धमभ तथा दण्डनीतत

मिाभारत के िां नतपर्व के अिुसार राजा का मु ख्य कतवव्य धमव की रक्षा तथा प्रजानित िै । प्रजा के जीर्ि का

मु ख्य उद्दे श्य धमव , अथव , काम तथा मोक्ष की प्राप्ति िै अतः राज्य का कायव िोगों के इि उद्दे श्यों की प्राप्ति में
सियोग दे िा िै । राजा के प्रभार्-िप्ति के मित्त्व की चचाव करते हुए भीष्म राजा को अपिी पसंद तथा

िापसंद को त्ाग दे िे को किते िैं । राजा के निये एक स्पि दण्डिीनत का अत्ंत मित्व िै । दण्ड के

माध्यम से िी राजा सभी मािर् संबंधी कायों का धमव के मागव पर चिकर सरिता से संपादि कर सकता
िै ।

िां नतपर्व के 93र्ें अध्याय में राजा र्सुमि तथा र्ामदे र् के बीच की बातचीत के प्रसंग में भीष्म किते िैं नक
राज्य पाँ च माध्यमों से समृ द् िोता िै

(क) दु गव की रक्षा अथाव त् रक्षानधकरण (Protection of forts)

(ख) युद् (Waging of battles)

(ग) न्याय के मािदं ड तथा कसौिी के आधार पर प्रजा की रक्षा अथाव त् धमाव िुिासि (The protection of

the subjects according to the norms and criteria of justice)


(घ) िीनतयों पर नर्चार-नर्मिव (Policy of deliberations)
(ङ) िोगों के कल्याण िे तु कायवरत रििा (Care for the welfare of the people)

राजा को दानी, तिनम्र तथा िुद्ध ति ार का होना चानिए तथा उसे प्रजा के प्रनत अपिे कतवव्यों का सदा

पािि करिा चानिये। जिता की बाह्य खतरों तथा सभी प्रकार के आं तररक ित्रु ओं से रक्षा एक राजिीनतक

व्यर्थथा में राजसत्ता पर आसीि व्यप्ति का परम कतव व्य िै । इसका आिय यि िै नक इस प्राथनमक कतव व्य

के पािि में खरा उतरिे के पिात् िी राजा कृनर्ष तथा सौंदयव संबंधी कायों का सफितापूर्वक संपादि कर
सकेगा। मिाभारत के अिुसार राज्य साध्य ििीं िै बप्ति जिकल्याण उसका मु ख्य उद्दे श्य िै । राजा अत्ं त

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मित्त्वपूणव िै तथा कई थथािों पर उसे 'युग निमावता' भी किते िैं । कायवपानिका का निमाव ण राजा मं नत्रगण

तथा अमात्ों से िोता िै । एक अच्छी िासि व्यर्थथा में िोग निभीक िोकर चै ि की िींद सोते िैं । िां नतपर्व

में अच्छे मं नत्रयों की आर्श्यकता पर अत्ं त बि नदया गया िै । कतव व्यपरायण तथा योग्य मं नत्रयों के अभार्
में राजा िासि का संचािि ठीक प्रकार से करिे में असमथव िो जाएगा। अतः भीष्म राजा को बुप्तद्माि
तथा निष्ठार्ाि मं नत्रगण रखिे का परामिव दे ते िैं ।

र्ृप्तष्ण दो राज्यों के नमििे से हुआ था। बड़े संघ पाँ च गणराज्यों-अंधक, र्ृप्तष्ण, यादर्, कुकुर तथा भोज के

नमििे से बिे थे । इस संघ के निमाव ण में कृष्ण की मु ख्य भू नमका थी तथा र्े िी इि सब के अभ्युदय के निए

उत्तरदायी थे । संयुि संघ के सदस् राज्य अपिे राजा के िेतृत्व में स्वायत्त थे । संघ से अनभप्राय कई
प्रजातं त्रीय इकाइयों के समु दाय से था तथा गण से अिग-अिग इकाइयों का बोध िोता था।

सिंघ की सभा प्रभुता-सिंपन्न सिंस्था थी तथा इसमें सिंघ के तितभन्न गणराज्योिं के प्रतततनतध सदस्य थे । र्े

राजिीनतक प्रश्नों पर र्ाद-नर्र्ाद के द्वारा नकसी निणवय पर पिँ चते थे । संघ सभा के अध्यक्ष को राजा तथा

उपाध्यक्ष को उप-राजा की संज्ञा दी गई थी। प्रत्े क दि अपिे िेता को अध्यक्ष पद पर बैठािे िे तु


प्रयत्निीि रिता था। अंधक र्ृप्तष्ण संघ में नर्नभन्न दिों के मध्य यि संघर्षव इतिी दू र तक पहुँ च गया नक
कृष्ण को भी इस नर्र्ाद िे तु दे र्नर्षव िारद से संपकव करिे की आर्श्यकता पड़ी।

भीष्म नर्नध के िासि पर आधाररत राजिीनतक व्यर्थथा को सर्वश्रेष्ठ मािते िैं । उिके अिुसार नर्नध के चार
स्रोत िैं -

(क) दे र्सित अथाव त् ब्रह्मा द्वारा निनमव त नर्नधयाँ नजिका उद्दे श्य मिुष्य की भिाई िै । ..

(ख) आयव स्रोत अथावत् ऋनर्ष-मु नियों द्वारा निनमव त र्ैसी नर्नधयाँ जो दे ि, समय तथा पररप्तथथनतयों के अिुरूप
मिुष्य को नियंनत्रत करिे के उद्दे श्य से बिायी गयी िैं । .

(ग) िोकसित अथाव त् जि-सिनत से निनमव त नर्नधयाँ -मिाभारत में प्राकृनतक अर्थथा में मत्स्य न्याय का

प्रचिि था। जिता ऐसी प्तथथनत में बड़ी कनठिाई से जीर्ि-यापि करती थी। अतः इि पररप्तथथनतयों से

निकििे िे तु मिुष्यों िे नमिकर नर्नधयों का निमाव ण नकया नजिका उद्दे श्य कठोर दं ड -परायणता तथा
मिुष्यों को नियंत्रण में रखिा था।

(घ) संथथासित अथाव त् आनद काि की संथथाओं द्वारा निनमव त रीनतयाँ तथा नर्नधयाँ ; जैसे-कुिधमव ,

जानतधमव , दे िधमव इत्ानद। भीष्म के अिुसार राजा द्वारा इि चार स्रोतों द्वारा प्राि नर्नधयों के पािि से

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राज्य को समृ प्तद् की प्राप्ति उसी प्रकार िोती िै नजस प्रकार चारों आश्रमों के धमों के पािि से एक
मिुष्य को पुण्य की प्राप्ति िोती िै ।

िािंततपिभ के अध्याय 60 के अनु सार राजा को मनु ष्य समझकर उसकी आज्ञा की अिहे लना करना

सर्वथा अिुनचत िै क्योंनक र्ि एक मिाि दे र्ता िै जो िर रूप धारण कर धरती पर मिुष्य जानत के नित में

निर्ास करता िै । राजा पृथ्वी पर मिुष्य के पापों का िाि करिे के कारण 'पार्क' (अनि), गुिचरों के
माध्यम से प्रजा के किों का पता िगाकर उिके कल्याण िे तु कायव करिे के कारण 'भास्कार', कठोर दं ड

द्वारा पानपयों के िाि तथा साधु ओं की रक्षा करिे के कारण 'यम' तथा धि द्वारा उपकाररयों को पुरस्कृत

तथा अपकाररयों का िाि करिे के कारण 'र्ैश्रर्ण' के िाम से प्रनसद् िोता िै। राजा िी प्रजा को मािनसक

नर्कास, सद्गनत, सिाि तथा परम सुख का िाभ पहुं चाता िै क्योंनक र्ि नर्नभन्न दे र्ताओं के समाि कायव
करके सदा जि-कल्याण में िगा रिता िै ।

िािंततपिभ न्यातयक दिं ड की प्रतिया के महत्त्व को राजनीततक व्यिस्था के एक अत्ं त मित्त्वपूणव तत्व के

रूप में स्वीकार करता िै। मंधत तथा र्सुिोम के बीच के संर्ाद से सभी प्रकार की नर्कृनतयों तथा दु राचारों
से रक्षा िे तु दं ड का मित्त्व सामिे आता िै । िां नतपर्व के अिुसार दं ड िी धमव का नियंत्रक तथा रक्षक िै ।

मिुस्मृनत के समाि िां नतपर्व में भी दं ड को एक निनित आकार दे िे की बात किी गई िै । दं ड को श्याम

र्णव का मािा गया िै । पििे रूप में िां नतपर्व भरती-प्रत्य दं ड की चचाव करता िै जो नर्र्ादों के समाधाि

िे तु तथ्यमूिंक साक्ष्यों का निरीक्षण करता िै । दू सरे प्रकार के नियंत्रण के रूप में धमव -प्रत्य अथर्ा
र्ेदप्रत्य की चचाव की गई िै । दं ड का दै र्ीकरण राजिीनतक तथा न्यानयक नर्श्लेर्षण में धमव िास्त्रों तथा
दे र्िास्त्रों के अंतःसंचरण का एक उदािरण प्रिु त करता िै ।

िािंततपिभ में भगिान तिि द्वारा दिं ड का रूप धारण कर राज्य में मनमुटाि तथा नर्च्छे द उत्पन्न करिे
र्ािे पथभ्रि तथा नर्चनित तत्वों के दमि की दं तकथा का भी र्णवि िै । इसके अनतररि दण्डिीनत को

सरस्वती. नजन्ें भारतीय परं परा में अधव दैर्ी िदी के रूप में , कभी ब्रह्मा की पुत्री के रूप में तथा नर्द्या की

दे र्ी के रूप में दे खा जाता िै तथा नजिकी तु ििा यूरोपीय पौरानणक कथाओं में र्नणवत सोनफया (Sophia)

से की जाती िै , के दै र्ी प्रभार् से उत्पन्न मािा जाता िै । दण्डिीनत को संकि के समय में प्राि िोिे र्ािी
सिायता के स्रोत के रूप में दे खा जाता िै तथा ऐसा मािा जाता िै नक इसके द्वारा सार्वभौनमक अच्छाई,
कल्याण, संपन्नता तथा निभीकता को प्राि नकया जा सकता िै ।

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भीष्म िे दण्डिीनत की तु ििा माता-नपता से की िै तथा उिके अिुसार इसके अभार् में मिुष्य के कायों को

नियंनत्रत करिे र्ािी कोई नर्नध-संनिता ििीं रि जाएगी। भगर्द् गीता में र्नणवत िोक-कल्याण का नसद्ां त

दण्डिीनत का आधार रिा िै । अतः िां नतपर्व में इसे िोक-कल्याण तथा पुरुर्षाथव की प्राप्ति का साधि मािा
गया |

िां नतपर्व के 71र्ें अध्याय में यि किा गया िै नक अगर राजा अपिी प्रजा की रक्षा में एक नदि भी
असार्धािीपूर्वक कायव करता िै , तब उसे अपिी इस गिती का पररणाम एक िजार र्र्षों तक भु गतिा

पड़ता िै । दू सरी तरफ अगर र्ि अपिी प्रजा की रक्षा एक नदि भी भप्तिभार् से करता िै तब उसे इसका
अच्छा फि आिे र्ािे दस िजार र्र्षों तक प्राि िोगा।

दण्डनीतत के महत्त्व के तिषय में भीष्म का कहना है नक अगर दण्डिीनत समाि िो जाती िै , तब तीिों |

र्ेद (अथर्वर्ेद को छोड़कर) नर्िु ि िो जायेंगे तथा चारों र्गों के कतव व्य एक-दू सरे से नमि जाएं गे।

दण्डिीनत | के िाि तथा राजधमव के अप्तथथर िोिे से सारे िोग बुराइयों को झेिेंगे। अत: राजा के निए यि

परम आर्श्यक िै नक उसे दण्डिीनत का पूरा ज्ञाि िो। दण्ड िोगों की रक्षा करता िै तथा उि िोगों को
जगाता िै जो सोए िोते िैं । इसी कारण से दण्ड को 'धमव' भी किते िैं । दण्ड के भय से पापी जि पापकमव

ििीं करते िैं । िोग एक-दू सरे की ित्ा ििीं करते िैं । अगर दण्ड का पािि ििीं नकया जाएगा तब सब
कुछ अंधकार में डूब जाऐगा।

धमभ, नै ततकता तथा तितध सिंतहता के बािजूद भीष्म िािंततपिभ में समानता पर आधाररत तितध के

िासन की बात नही िं, करते हैं । चारों र्गों को उिकी सामानजक प्तथथनत के आधार पर दं ड नदया जाता था।

संपूणव मिाभारत में अिेक उपदे िों, किानियों तथा दं तकथाओं के माध्यम से ब्राह्मणों के नर्िेर्षानधकारों की

चचाव एँ की गई िैं । अध्याय 234 में िमें उि राजाओं की एक सूची भी प्राि िोती िै नजन्ोंिे ब्राह्मणों को
अत्ं त बहुमू ल्य र्िुएँ उपिारस्वरूप प्रदाि की। अध्याय 56 के अिुसार िारीररक दं ड जैसे कोड़े मारिे

का दण्ड ब्राह्मणों को ििीं दे िा िै । एक अपराधी ब्राह्मण को दे िद्रोि जैसे गंभीर अपराध के निए नसफव
राज्य-निकािा िी दण्डस्वरूप नदया जा सकता िै ।

िां नतपर्व के 23र्ें अध्याय के अर्िोकि से स्पि िोता िै नक प्राचीिकाि में दण्ड दे िे की प्रथा अत्ं त क्रूर

तथा बबवर थी। एक बार 'निप्तखत' िामक एक साधु िे अपिे बड़े भाई साम्ख्ख्य (Samkhya) के आश्रम से

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फि चु रािे का एक छोिा-सा अपराध नकया तब अपिा अपराध स्वीकार करिे के पिात् भी राजा िे उसके
दोिों िाथों को काि दे िे की सजा दी। िां नतपर्व में भीष्म िे चार प्रकार के दं डों के नर्र्षय में किा िै -

(क) नदधदण्ड अथर्ा निदा

(ख) र्ाग्दण्ड अथर्ा मौप्तखक फिकार

(ग) अथव दण्ड अथर्ा जुमाव िा

(घ) र्धदण्ड अथर्ा मृ त्ुदण्ड

र्ैसे न्यायाधीि जो भ्रि थे तथा र्ैसे िोग जो सर्ोच्च सत्ता के नर्रोध में नर्द्रोि में भाग िे ते थे उन्ें मृ त्ुदण्ड
नदया जाता था।

िां नतपर्व में राजा का एक प्रमु ख कतव व्य प्रजा की सभी प्रकार की नर्चनित तथा नर्ध्वं सकारी िप्तियों

(रािरोपघातक) से रक्षा करिा िै । उससे यि अपेक्षा की जाती िै नक र्ि सामानजक रीनतयों की रक्षा करे तथा

चारों र्णों द्वारा अपिे निधाव ररत कतव व्यों के पािि की दे खरे ख िे तु संथथाओं की थथापिा करे । राज्य के
संसाधिों को नसफव आर्श्यक र्िु ओं और खचों के निये िी आर्ंनित करिे के प्रार्धाि का र्णवि
मिाभारत में नमिता िै । नर्िानसता की र्िु ओं को कभी भी नर्त्तीय योजिाओं में थथाि ििीं नदया गया िै ।

िािंततपिभ में तितभन्न िारीररक, ब त्मद्धक, नै ततक तथा धातमभक सद् गुणोिं (धमेण िृ िेण) जो ित्मक्त के

प्रयोग में सफलता प्रात्मप् के तलए आिश्यक है , को श्रेणीबद् नकया गया िै । िैनतकता संबंधी संनिता में

मिुष्य को परं परा-प्रेमी गृिथथ तथा घरे िू तथा जिकायों के संचािि में न्यायप्रेमी तथा बुप्तद्माि व्यप्ति

बिािे पर बि नदया गया िै । एक बुप्तद्माि राजा को जिता की प्रत्ानित तथा र्ािनर्क प्रनतनक्रयाओं की

अिदे खी ििीं करिी चानिए। िां नतपर्व के अिुसार राजा को धमव अथर्ा दै र्ी नसप्तद् की प्राप्ति िे तु सरगमी
से प्रयासरत रििा चानिये तथा साथ-साथ उसे धमव िास्त्रों के उस कथि पर भी ध्याि रखिा चानिये नजसके

अिुसार पचित्तर र्र्षों की उम्र प्राप्ति के पिात् उसे सांसाररक कायों से नर्रप्ति प्राि कर िे िी चानिये तथा
अपिी ऊजाव ओं तथा िप्तियों का प्रयोग मोक्ष प्राप्ति की नदिा में करिा चानिए।

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महाभारत के अनु सार पुरोतहत राजा के परामिभदाता का कायभ करते थे तथा धातमभक मामलोिं में

सिोपरर होते थे । र्े िप्ति संचािि के कायों में कोई गनतिीि भू नमका ििीं निभाते थे। परं तु मंत्री के रूप

में र्े िैनतकता से पररपूणव नर्कल्पों से राजा को अर्गत कराते थे तथा उि नर्कल्पों पर नर्चार करिे के
पिात् िी राजा नकसी अंनतम निणवय पर पहुँ चते थे । मं त्री चारों र्र्षों से नियुि िोते थे , परं तु पयाव र्रणािक,

सामानजक, आनथव क तथा सांस्कृनतक दृनि से दे खिे पर यि प्रतीत िोता िै नक ब्राह्मण तथा क्षनत्रय र्णों के

मं नत्रगण िी अिेक राजिीनतक कायों को सुिझािे िे तु सूचिा संचय तथा र्ैकप्तल्पक उपायों तथा तकिीक

पर नर्चार-नर्मिव करते थे । इससे यि स्पि िै नक मिाभारत नकसी प्रकार के धमव तंत्र (Theocracy) की
ििीं बप्ति सरकारी संरचिा में धमव के सियोग की िी नसफव बात करता िै।

भीष्म के अनु सार मानि जीिन के ार लक्ष्य हैं -धमभ, अथभ , काम तथा मोक्ष। धमभ सत्य तथा नै ततकता
है । अथव सां साररक संपन्नता प्राि करिे के नर्नभन्न साधिों को अपिे में समानित करिा िै । अथव से एक

तरफ अनभप्राय जीर्ि के िक्ष्य की प्राप्ति िै तथा दू सरी तरफ पुरुर्षाथव िै जो मािर् इच्छाओं की पूनतव करिे

का साधि िै । काम का अनभप्राय मािर् में नर्र्षय-र्ासिा की इच्छा से िै । मोक्ष चतु थव तथा जीर्ि का सबसे

ऊँचा िक्ष्य िै। यि आिा के नर्कास का मागव प्रिि करता िै । भीष्म न्याय तथा दं डिीनत के निये राजा के
मू िभू त मित्त्व की व्याख्या भी । करते िैं । उिके अिुसार िोग सुखपूर्वक तभी रिें गे जब र्े नर्नध के अंतगवत
जीर्ियापि करें गे।

िािंततपिभ के अनु सार आपद समय में राज्य के साधारण कानू नोिं को तनलत्मम्बत कर दे ना ातहए।
अगर िोग कि में िों तो राजा को अपिी संपनत्त से उिकी सिायता करिी चानिए, अगर राज्य युद् आनद
कारणों से संकि में िो तब राजा को नर्त्त नियंत्रण आनद उपायों का सिारा िे िा चानिए। राजा का कतव व्य िै

नक र्ि अपिी प्रजा को संकिकाि में अनतररि कर िगािे के कारणों की पूरी जािकारी दे । जीर्ि-रक्षा

िे तु उसे अपिे ित्रु से संनध करिे का अनधकार िै । राज्यकोर्ष तथा सेिा सरकार की तथा राज्य की जड़ें िैं।
इि दोिों में कोर्ष का मित्त्व अनधक िै । अतः राजा को इसमें र्ृप्तद् के निये सर्वदा प्रयासरत रििा चानिए।

भीष्म के अनु सार राजा को राज्य ित्मक्तयोिं का प्रयोग िै से मिंतत्रयोिं तजनके पास ब त्मद्धक तथा नै ततक

सद् गुण होिं, के सियोग से करिा चानिए। िां नतपर्व के 85र्ें अध्याय में राज्य-कायव सुचारु रूप से चिािे
िे तु सैंतीस मं नत्रयों की संख्या निधाव ररत की गई िै । उिमें चार ब्राह्मण जानत के सभी नर्र्षयों के ज्ञाता तथा

िुद् प्रकृनत के मं त्री िोंगे। आठ क्षनत्रय जानत के मं त्री िोंगे जो िस्त्रों के प्रयोग में मिारथ प्राि नकये िोंगे।

इक्कीस र्ैश्य जानत के अपार धि के स्वामी तथा तीि िुद् हृदय के िूद्र जानत के मंत्री िोंगे। इि सभी के

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अनतररि एक िैनतक गुणों से भरपूर पौरानणक नर्र्षयों के ज्ञाता व्यप्ति की भी मंत्री के रूप में नियुि की

जािी चानिए। मं नत्रयों से िां नतपर्व में अपेक्षा की जाती िै नक र्े आिसंयम का व्यर्िार करें गे तथा कठोरता

के साथ कायव करें गे। िीनतयों का निधाव रण मं नत्रयों तथा गुिचरों द्वारा प्रदत्त सूचिाओं को ध्याि में रखकर
करिा चानिए तथा एक बार िीनतयों का निमाव ण िोिे के पिात् उन्ें पूणवरूप से गोपिीय रखिा चानिए।

जनमत स्वेच्छा ारी राजाओिं के व्यिहार पर एक परिं परागत अिं कुि का कायभ करता था। िां नतपर्व के
अिुसार राजा के राज्यानभर्षेक के समय िी गयी िपथ भी उसके मिमािे व्यर्िार पर नियंत्रण रखिे का

एक प्रकार के राजिीनतक अिुबंध का कायव करती थी। र्ािनर्कता यि थी नक एक निरं कुि िासक को

अपिे अिुत्तरदायी व्यर्िार के निये मं नत्रयों, पुरोनितों, संगनठत जिता, जानत तथा थथािीय परं पराओं के

संरक्षकों तथा िगर एर्ं ग्रामीण क्षे त्र के निर्ानसयों की संयुि िप्ति का सामिा करिा पड़ता था। निरं कुि
राजा को अपिे अनतिय व्यर्िार के निए कभी-कभी मृत्ुदंड भी नदया जाता था।

कोर्ष-राजिीनतक तथा नर्त्त व्यर्थथा के सुचारु संचािि िे तु कोर्ष को िां नतपर्व में अत्ं त मित्त्वपूणव मािा
गया िै । भीष्म के अिुसार राजा को राजस्व की प्राप्ति के तीि स्रोत िैं

(क) बिी-यि भू नम द्वारा उत्पानदत अिाज का 161 प्रनतित था।

(ख) िुि-आयात तथा नियाव त कर।

(ग) अपरानधयों से र्सूिा गया आनथव क दं ड।

ये सभी कर राजा द्वारा जनता से उन्हें दी जाने िाली सुरक्षा के बदले तलये जाते थे । िां नतपर्व, के

अिुसारं : अगर नकसी िोभ के कारण राजा जिता का िोर्षण अथर्ा बिपूर्वक अथव ग्रिण की िीनत

अपिाता िै तब र्ि अपिे अप्तित्व की िींर् को िी क्षनतग्रि करता िै । राजा को दरअसि उस बछड़े की

भाँ नत व्यर्िार करिा चानिए जो अपिी माता गाय के उतिे िी दू ध को पीता िै नजससे उसकी माता के
िारीररक संरचिा को कोई िानि ििीं पहुँ चे। सारे दू ध को पी जािे से गाय भनर्ष्य में उसे दू ध ििीं नपिा

पायेगी तथा बछड़े को भू खा रििा पड़ सकता िै । उसी प्रकार अगर जिता से अत्नधक राजस्व बिपूर्वक

प्राि करिे की चे िा की जाएगी तब आनथव क बि के अभार् में गरीब जिता कर के बोझ को सिि ििीं कर
पाएगी। अतः राजा को आनथव क िोर्षण की िीनत ििीं अपिािी चानिए।

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राजा को प्रजा के प्रतत तत्परता तथा सत्यभाि से अपना अनु ग्रह तदखाना ातहये क्योंनक ऐसा करके

र्ि अपिे प्रनत िोगों के नर्श्वास को बढाएगा। परं तु अगर र्ि धि संचय की िीनत का अिुसरण करे गा तब

र्ि िोगों की घृणा का पात्र बि जाएगा। राजा को उस भ्रमर की भाँ नत भी कायव करिे को किा गया िै जो
पुष् की नमठास को नबिा उसे कोई िानि पहुँ चाए अत्ंत सहूनियत से ग्रिण करता िै । राजा को कर र्सूिी

थोड़ी मात्रा में तथा ििै:-िैिः करिी चानिए। कर पद्नत न्यायपूणव तथा उत्पादि के अिुरूप िोिी चानिए।

राजा की आनथव क िीनत - कामगारों के प्रनत उत्पादि के कारकों तथा उिकी र्ािनर्क आनथव क प्तथथनत के

अिुरूप िोिी चानिए। दू सरे िब्दों में , कामगारों पर करों का बोझ इतिा ििीं डाििा चानिए नक उिका
व्यर्साय िी चौपि िो जाये।

िां नतपर्व में र्नणवत जि अथव -व्यर्थथा के नसद्ां तों को निम्ननिप्तखत रूप से संक्षेनपत नकया जा सकता िै -

(क) राजा को कृनर्ष उत्पादकों तथा कामगारों से करों तथा बकाये रानि की पूणव र्सूिी करिी चानिए। परं तु

यि कायव न्यायपूणव तरीके से िोिा चानिये नजससे उिके उद्योगों पर कोई ऐसा प्रनतकूि प्रभार् ििीं पड़े

नजसके फिस्वरूप राज्य की आनथव क व्यर्थथा िी चरमरा जाये।


(ख) कामगारों के संबंध में राजा को उत्पादि के कायव में प्रयोग में आिे र्ािी र्िु ओं के संबंध में कर िीनत

सोच-समझकर बिािी चानिए। ऐसा ििीं करिे से उद्योगों पर इसका प्रनतकूि प्रभार् पड़े गा नजसका

सीधा प्रभार् राज्य की अथव व्यर्थथा पर पड़े गा।

(ग) व्यापारी र्गव पर करों के निधाव रण में कर र्सूिी में िगे राज्य के कमव चाररयों को उत्पादि के कायव में
आये पूरे खचव को ध्याि में रखकर कायव करिा चानिए।
(घ) राजा को निं सक तरीकों से दू र रििा चानिए तथा मध्यम मागव का सिारा िे िा चानिए।

(ङ) आनथव क संकि से समय सामान्य समय की अपेक्षा अनधक कठोर िीनतयों का अिुसरण नकया जा
सकता िै । परं तु यि अत्ं त सीनमत समय के निये िी िोिा चानिए। परं तु इि पररप्तथथनतयों में भी ब्राह्मणों
तथा संन्यानसयों को कर की पररनध से बािर रखिा चानिए।

(च) जो िोग राज्य के कािूिों तथा पारं पररक पद्नतयों के अिुसार जीर्ि-यापि ििीं करते िैं उिकी
संपनत्त कुकव कर िे िे की सिाि भीष्म राजा को दे ते िैं ।

(छ) संकि काि में राज्य व्यर्थथा को बिाए रखिे िे तु ििी निं सा की आज्ञा भी भीष्म दे ते िैं । गणकों तथा
िे खकों का र्णवि भी मिाभारत में नमिता िै जो आय तथा व्यय का ब्यौरा रखते थे ।

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तनष्कषभ – इस संदभव में अिते कर का नर्श्लेर्षण िै नक मिाभारत में राज्य को एक दै र्ीय संथथा मािा गया,

जिाँ राजा को िासि करिे का अनधकार आनिंक रुप से उसकी दै र्ीय उत्पनत्त के कारण तथा आनिंक

सामानजक समझौते के कारण नमिा । मध्य युगीि यूरोप तथा इस्लाम में भी राज्य की उत्पनत्त का दै र्ीय
नसद्ां त बहुप्रचनित रिा, जिाँ राजा को ईश्वर का प्रनतनिनध या अल्लाि का िुमाईंदा मािा गया। परन्तु जिाँ

िॉब्स के सामानजक समझौते में सम्प्रभु की आज्ञा माििा आर्श्यक था चािे र्ि कैसा भी िासि करे ,
प्राचीि भारतीय नर्चारकों िे राजा को धमव से अिुबप्तन्धत नकया।

यनद राजा अपिे धमव से नर्चनित िो अधमव का मागव अपिा िे तो उसे मृ त्ु दण्ड भी नदया जा सकता था,

नजसका र्णवि भीष्म द्वारा नदये गये राज्य उत्पनत्त के दू सरे नसद्ां त में नमिता िै। इस अथव में सामानजक

समझौते की भारतीय अर्धारणा, पािात् अर्धारणा से नभन्न िै । सामानजक समझौते को उत्पनत्त के दै र्ीय
नसद्ां त से जोड़कर भारतीय नर्चारको िे राजा की असीनमत िप्तियों पर अंकुि िगाया |

प्रश्न - आपको तकन तरीकोिं से लगता है तक कबीर के दािभतनक तसद्धािंत ‘तसिंिीतटज्म’


(समन्वयिाद) के ति ार का प्रतततनतधत्व करते हैं ? तििे ना कीतजए |

उत्तर –

परर य – कबीर के समय में निन्फ्दू तथा मु सिमािों में परस्पर धानमव क संघर्षव चि रिा था। नर्जेता िोिे के

कारण मु सिमाि अपिे धमव को निन्फ्दुओं पर थोपिा चािते थे और र्े बिपूर्वक निन्फ्दुओं को मु सिमाि बिा

रिे थे । निन्फ्दू अपिे धमव को मु सनिम धमव से नकसी भी प्रकार निम्न ििीं समझते थे , उन्ें अपिे धमव पर

अनभमाि था। इधर निन्फ्दू अपिे धमव को सिाति समझते थे और उधर मु सिमाि अपिे धमव को श्रेष्ठतम ।
ऐसी प्तथथनत में धानमव क असनिष्णुता का बढता जािा स्वाभानर्क िी था।

इस काल में आकर तहन्दु ओिं में िणभ भािना यहााँ तक बढी तक उच्च िणभ िाले तभन्न िगभ िालोिं से

सम्बि रखना अपमान समझते थे । इससे ऊंच-िीच की भार्िा बढी और धीरे -धीरे अस्पृश्य जानतयाँ भी
बढीं। ब्राह्मण र्गव तो इि अस्पृश्य जानतयों की अपिे ऊपर छाया भी ििीं पड़िे दे िा चािता था। उधर

मु सिमािों में भी िेख, सैयद, मोनमि, पठाि आनद र्गव बि गये और र्े भी एक-दू सरे को अिग समझिे

िग गये। सबसे बड़ी नर्नचत्र बात यि िै नक संघर्षव की प्तथथनत को कोई कम ििीं कर रिा था, इि र्गों में

निरन्तर ऐसे िोगों का जन्म िो रिा था जो अपिे र्गव को श्रेष्ठतम तथा श्रेयस्कर समझकर उसके प्रचार में
िगे हुए थे। नसद्ान्तों का प्रनतपादि करिे र्ािे िये िये ग्रन्थों का निमाव ण करिे में िगे थे और इि ग्रन्थों पर

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िीकाएँ तक निखी जा रिी थीं। इस प्रकार समग्र दे ि में एक नर्तण्डार्ाद से उत्तरोत्तर अज्ञाि की र्ृप्तद् और
ज्ञाि का िास िोता जा रिा था, सत् का पता िगािा एक दु ष्कर कायव बि गया था।

कबीर का सामातजक समन्वय- कबीर िे दे खा नक समाज में जो िोग उच्च जानत में जन्म िे ते िैं , र्े अपिे

को ऊंचा समझते िैं और निम्न जानतयों को अर्िे ििा की दृनि से दे खते िैं । कबीर िे इस ऊंच-िीच के भे द-

भार् को बहुत िी बुरा बताया तथा इस प्रकार की भार्िा रखिे र्ािों को बड़ी खरी खोिी सुिायी। कबीर
की दृनि में ब्राह्मण के घर जन्म िे िे र्ािे तथा अन्त्यज के घर जन्म िे िे र्ािे में कोई मूिभू त अन्तर ििीं िै ,
दोिों की िरीर रचिा में भी कोई भे द ििीं िै ।

समन्वयिादी कबीर -

पंद्रिर्ीं िताब्दी के राजिीनतक संघर्षव , धानमव क किु ता, सामानजक असमािता एर्ं आनथव क नर्र्षमता र्ािे

समाज में कबीर िे जीर्ि के व्यार्िाररक िर पर अन्तनर्वरोधों को नमिािे र्ािा समन्वयर्ादी दृनिकोण

नदया। राजकीय सत्ता, आनथव क सम्पन्नता, सामानजक प्रनतष्ठा एर्ं धानमव क ररर्ाजों को तु च्छ समझते हुए
कबीर िे व्यप्ति को आिीय चे तिा एर्ं आन्तररक ब्रह्म को पिचाििे के निए प्रेररत नकया, सां साररक बंधिों,

सत्ता-पद-धि की चकाचौंध को क्षणभं गुर दिाव या और मािर् को स्नेि-सिािुभूनत-अपित्व-बंधुत्व का संदेि

नदया। यद्यनप कबीर संस्कृत रनचत र्ेद-उपनिर्षद् तथा अरबी में निखे कुराि को पढिे में असमथव थे , नकंतु

जीर्ि के अिुभर् की नकताब से पढकर र्ेदाप्तन्तक दिव ि, प्रचनित रीनत ररर्ाजों, पौरानणक अर्तारों, िाथ
नसद् सां केनतकताओं, बौद्-सूफी परम्पराओं तथा इस्लामी मान्यताओं को बखूबी समझते थे ।

धातमभक एकता : कबीर कािीि समाज में एक ओर अिेकािेक िाखाओं एर्ं उपिाखाओं के साथ निं दू

धमव था और दू सरी ओर आक्रां ताओं एर्ं िर्ीि िासकों र् सुितािों के धमव तथा प्रत्ार्नतव त धमव के रूप में
इस्लाम था। दोिों तरफ से कोनिि की जाती थी अपिे को श्रेष्ठ सानबत करिे और दू सरे को िीचा नदखािे

की। धमव ग्रथों के व्याख्याकारों, पंनडतों-मौिनर्यों का कथि अंनतम मािा जािे िगा था। धानमव क रीनत-
ररर्ाजों िे रूनढयों एर्ं अंधनर्श्वासों का रूप िे निया था।

कबीर दोनोिं धमाभिलत्मम्बयोिं के पाखण्डपूणभ कृत्य दे खकर असिंतुष्ट थे । र्े निं दुओं की मू नतव पूजा तथा

मु सिमािों की िमाज; निन्फ्दुओं के मं नदर तथा मु सिमािों के मप्तिद; निं दुओं के व्रत उपर्ास तथा

मु सिमािों के रोजा; निं दुओं की तीथव यात्रा तथा मु सिमािों के िज; निं दुओं की मािा तथा मु सिमािों की
तसबी; निं दुओं का उपियि तथा मु सिमािों की सुन्नत; निं दुओं की गायत्री मं त्र तथा मु सिमािों के किमा;

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निं दुओं के कैिाि तथा मु सिमािों के काबा निन्फ्दुओं के र्ेद पुराण तथा मु सिमािों के कुराि; निं दुओं की

आरती तथा मु सिमािों की अजाि; निं दुओं के स्वगव-िरक तथा मु सिमािों के बनिि-दोजख आनद सभी

के नर्रोधी थे । (प्रह्लाद मौयव , 120) कबीर का कििा था नक इन्ीं पाखंडों के कारण संकुनचत सीमाओं में
मिुष्य छोिा िो गया था। उसका एक दू सरे से व्यर्िार िू ि गया था और भे द की दीर्ारें खड़ी िो गई थी।

इस बाह्य-संकुनचत मािनसकता का नर्रोध करते हुए कबीर का आग्रि था नक र्ेद और कुराि झूठे ििीं िै ।

झूठा र्ि िै नजसमें उिके र्ािनर्क रिस् का साक्षात्कार ििीं नकया िै (क.ग्र., पद 62)। र्ािनर्क समस्ा
इि ग्रथों की व्याख्या की िै ।

कबीर का दृढ तिश्वास था तक परम तत्व एक है तजसने पृथ्वी बनाई है । धमव भी मू ित: एक िी िै और

सबका साध्य भी एक िी िै। भगर्ाि तो एक िी िै और हृदय में निर्ास करते िैं । उन्ें नदि या हृदय में
खोजें तो र्े र्िीं नमिें गे। उपासिा के बािरी स्वरूपों को माििे से िी मजिबी भे द पैदा िोते िैं । कबीर का

आग्रि था नक यनद पूजा या सेर्ा करिी िै तो मिुष्य की सेर्ा करो। मिुष्य की सेर्ा से िी ईश्वर की सेर्ा

संभर् िै । सभी मिुष्य जानत एक िै और सबमें एक प्रकार की समािता भी िै। कबीर इसी समािता के

धराति पर सबको िािा चािते थे और आं तररक िुद्ता एर्ं आि-नचं ति में र्ािनर्क ज्ञाि का मागव
प्रिि करते थे ।

सामातजक समानता (Social Equality) : कबीर का समकािीि समाज अिेक जानतयों एर्ं उपजानतयों

में बंिा हुआ था और इि जानतयों में ऊंच-िीच, छु आ-छूत जैसी रूनढयाँ घर कर गई थी। ब्राह्मण, पुरोनित
र्गव समाज के ठे केदार बि बैठे थे और िीची या निम्न समझी जािे र्ािी जानतयों में से अिेक को अछूत
समझा जाता था। यथा प्तथथनत बिाए रखिे के निए ब्राह्मणों िे जनिि अिुष्ठाि एर्ं ररर्ाजों का जाि बुि नदया
था।

इस जाततगत असमानता का तिरोध करते हुए कबीर ने बारम्बार यह आग्रह तकया नक ईश्वर िे सभी

जानतयों की सृनि एक िी रूप में की िै । गभव से नकसी की कुि या जानत ििीं िोती। सबके िरीर एक िी

तरि की रि, मज्जा, मां स और अप्तथथ से बिे िैं । सब का जन्म एक िी रूप में माता के द्वारा िोता िै । और

मृ त्ु के बाद सब की गनत भी एक िी समाि िोती िै (क.ग्र., रमै णी, पृ. 468)। िूद्र का िहू गंदा और ब्राह्मण
का िहु दू ध समाि ििीं िोता। जन्म के आधार पर जानत का नर्चार गित िै । यनद जानत का संबंध जन्म से

िोता तो ब्राह्मण गभव से िी र्ेद पढ कर आता, गुरू के पास जाकर पढिे-सीखिे की आर्श्यकता ििीं

रिती। कबीर िे जानत व्यर्थथा के िाम पर ऊंच िीच के भे द और छु आछूत का पूणव खंडि नकया। उिका

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कििा था नक भे दभार् भगर्ाि के बिाए ि िोकर ब्राह्मणों के नदमाग की ऊपज िै । र्े दे र्ी-दे र्ता की पूजा
के िाम पर जीर् ित्ा करते िैं और अपिे को ऊंचा सानबत करिे के निए रीनत-ररर्ाजों का ढोि पीिते िैं ।

कबीर सामातजक तिषमता को दू र करने के तलए समाज सुधार ाहते थे , नकंतु यि प्रनक्रया व्यप्ति से

प्रारं भ करिा चािते थे । कबीर का मत था नक व्यप्ति िी समाज बिाता िै , जबनक उस समय के िोग

समाज बिािे की बजाए नबगाड़ रिे थे । इसका कारण यि था नक िोग आचार-नर्चार एर्ं व्यर्िार में नगरे
हुए थे । उिमें िैनतकता का पति िो रिा था। सत्कमव की प्रेरणा दे ते हुए कबीर का व्यप्ति को संदेि था नक
नर्िम्रता और समाज में िोगों के साथ सद्व्यर्िार जीर्ि की सबसे बड़ी साधिा िै ।

कबीरः समन्वयिादी के रूप में

दू रदिी कबीर ने मानि जीिन की अन्ततनभ तहत एकता को त तत्रत तकया। कबीर की मान्यता थी नक

सृनि का सृजि कताव "घि-घि में " (अथावत िर व्यप्ति में ), "सिज" रूप से व्याि िै , नजसे एक "िब्द" में

जािा जा सकता िै । इस सर्ोच्च सत् को, कबीर िे 'निगुवण ईश्वर' के रूप में दिाव या और आम व्यप्ति की
समझ के निए उसकी राम और कृष्ण के रूप में व्याख्या की।

कबीर के सामानजक कनर्त्त, मिोर्ैज्ञानिक तकव, जन्म-मृ त्ु के आिे ख, आध्याप्तिक-दािवनिक-र्ैचाररक


कनर्ताएं अिग-अिग श्रेनणयों-र्गों को ििीं र्रि् उस ईमािदार सैद्ां नतक एकता दिाव ते िैं जो नक दे ि,
मप्तिष्क, व्यप्ति, मं नदर, बाजार-सब पर समाि रूप से िागू िोते िैं ।

कबीर कहते हैं तक भगिान बीज रूप हैं और प्रकृतत के सत् , रज, तम- ये तीनोिं गुण भी तभन्न-तभन्न
नही िं है । र्ेद और बौद् दोिों किते िैं नक एक िी र्ृक्ष िै। सबका मू ि र्िी एक चैतन्य िै , उसी को र्ृक्ष

किा गया िै । जीर् को अपिी र्ासिाओं और कमों के अिुसार इस र्ृक्ष के अमृ त और नर्र्ष रूप फि िगते
िैं |

कबीर समस्त सृतष्ट में एक परमािा को दे खते हैं , एक ही ित्मक्त को दे खते हैं । उिका कििा िै नक

पर्ि, पािी, ज्योनत, धरती और आकाि-इि पां च तत्वों में एक िी परम िप्ति समायी हुई िै । उिका

माििा िै नक धमव असीम िै , अप्तित्व अखंड िै , मिुष्य उसे खंड-खंड के रूप में अिुभर् करता िै क्योंनक

उसके पास खंनडत हृदय िै । अखंड का अिुभर् करिे के निए, अखंड या िून्य हृदय चानिए, नजससे अखंड
अथर्ा िुद् का दिवि िो सके। किा जा सकता िै नक चे तिा की तीि तरि की अिुभूनतयां िैं । एक, जब

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आदमी परतं त्र अिुभर् करता िै (Dependent); दो, जब आदमी स्वतं त्र अिुभर् करता िै (Independent)

और तीि, जब र्ि परस्पर निभव र अिुभर् करता िै (Inter Dependent)। यि तीसरी अर्थथा श्रेष्ठतम

अर्थथा िै और यिी कबीर के दिवि का िक्ष्य भी िै । इसको अध्याप्तिक मित्व के साथ-साथ इसका
व्यार्िाररक पक्ष भी िै जो कबीर को प्रासंनगक बिा दे ता िै |

मिुष्य में पूणवता एर्ं अिंत ऊजाव की अिुभूनत के निए कबीर पां च मिाव्रत -अनिं सा, अपररग्रि, अचौयव,
अकाम एर्ं अप्रमाद की बात करते िैं ।

(i) कबीर की दृनि में प्रेम से अनिं सा का जन्म िोता िै । परं तु सभी धमव , मत या संप्रदाय, निन्फ्दु

मु सिमाि आनद जब अपिे अिुयानयों की संख्या बढािे की प्रनतयोनगता िुरू करते िैं , तभी निं सा
का जन्म िोता िै ।

(ii) निं सा का पररणाम िै पररग्रि। दू सरों का मानिक िोिे का भार् पररग्रि कििाता िै और मानिक

बििे के निए इं साि 'माया' का गुिाम िो जाता िै। कबीर िे बारम्बार धि, दौित, मिि, अिारी,

बार्ड़ी की व्यथव ता नसद् करते हुए इिके प्रनत आदमी की मोिग्रसता को तोड़िे का प्रयास नकया िै ,
तानक अपररग्रि का जन्म िो।

(iii) पररग्रि की अर्थथा में दू सरों की चीजें अपिी नदखाई पड़िे िगती िै , इसे चोरी के समाि मािते हुए

कबीर अचौयव-चोरी ि करिे का संदेि दे ते िैं ।

(iv) काम व्यप्ति को क्षीण, निबवि, नििे ज करता िै और अपिा आपा खो दे ता िै । अतः कबीर व्यप्ति
से 'अकाम' के मिाव्रत की बात करते िैं , नजससे र्ासिा को छोड़कर ऊजाव का संचार िो सके और
नजससे सुख-दु ख का द्वं द्व िां त िो, मािर् परमािा की प्रतीनत का अिुभर् कर सके।

अप्रमाद भीतरी जागरण एर्ं चे तिा (Awareness) की प्तथथनत िै , जो नक कबीर के अध्याि की यात्रा िै ।
इसकी सात अर्थथाएं िैं :

1. चे ति मि (Conscious),

2. अचे ति (Unconscious),
3. समनि अचेति (Collective unconscious),

4. ब्रह्म अचे ति (Casmic unconscious),

5. अनतचे ति (Super Conscious),

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6. समनि चेतिता (Collective Conscious),


7. ब्रह्म चे ति (Cosmic Conscious)

ऐसा प्रतीत िोता िै नक कबीर व्यप्ति के नर्र्ेक को जागृत कर उसे चे तिािीि बिािा चािते थे , तानक र्ि

कमिः ब्रह्म की अिुभूनत कर ब्रह्म-चे तिा की ओर अग्रसर िो सके।कबीर का कििा िै नक यनद मि इधर-

उधर भिकता रिे , तो जागरण खो जाता िै । इस दु िभव मािर् जीर्ि को व्यथव ि जािे दें । आं ख खोििे और
प्रकाि को पिचाििे का अर्सर ि गंर्ाएं । कबीर किते िैं नक यनद व्यप्ति जागता िै तो पांचों इं नद्रयाँ (मोि

की प्रर्ृनत्त) सो जाती िै । सारे भिकार् समाि िो जाते िैं , ब्रह्म ज्ञाि की अिुभूनत िोती िै और रामरति धि
प्राि िो जाता िै ।

कबीर कहते हैं तक काया के भीतर 'िब्द' (िाक्) के रूप में म जूद 'ब्रह्म' ही परम है । नजस नकसी िे

माया से पार पा निया, र्ि इस िब्द को िानसि कर िेता िै । इस दृनि से कबीर भी सचे ति एर्ं जागृत

व्यप्ति (Enlightened Individual) की बात करते िैं । तीथव या िज के थथाि पर, आं तररक दीपक को जिा

कर, अन्तमव ि में नर्द्यमाि परम ब्रह्म को पिचाििे का संदेि दे ते िै । यिी कबीर के समन्वयर्ाद
(Syncretism) का सार िै जोनक व्यप्ति को सद् गुणों की ओर अग्रसर करता िै और उन्ें पािे के निए
सतगुरु और सत्संग के आश्रय को अनिर्ायव मािता िै ।

कबीर को समन्यिादी न मानते हुए तसिंह एििं है स का कहना है नक कबीर िे दे ि की दोिों प्रमु ख
धानमव क परम्पराओं से स्वयं को मु ि घोनर्षत नकया। दोिों की रूनढयों पर प्रिार नकया और अपिे

अिुयानययों को पूणव स्वायत्ता एर्ं दृढता के साथ उिका नर्रोध करिे के निए प्रेररत नकया। िे नकि

र्ािनर्कता यि िै नक कबीर िे दोिों प्रमु ख धमों की रूनढयों एर्ं अंधनर्श्वासों का नर्रोध नकया था। सभी
धमों का निचोड़ एक िी मािते हुए कबीर का संदेि था नक:

पूरब तदसा हरी का बासा, पतश्चम अलह मुकामा। तदल ही खोतज तदलै तदल भीतरर, इहािं राम

रतहमािंना॥ जे तत औरतत मरदािं कतहये , सब मैं रूप तु म्हारा। कबीर पिंगुडा अलह राम का, हरर गुिंर
परर हमारा॥

अथाव त् निं दुओं की दृनि में पूर्व नदिा में भगर्ाि का निर्ास िै और मु सिमािों के मत में अल्लाि का थथाि

पनिम नदिा में िै। िे मािर्, तु म अपिे हृदय को िी ढूँढों। र्िी पर तु म्हें राम और रिीम दोिों नमि जाएं गे।
नजतिे स्त्री पुरुर्ष िैं , उि सबमें भगर्ाि का िी रूप नर्द्यमाि िै । कबीर तो अल्लाि और राम दोिों का िी

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दास िैं , उन्ीं पर आनश्रत िै । िरर उसके गुरु और पीर दोिों िी िै । उसिे इि दोिों में अभे द के िी दिवि
नकये िै ।

कबीर को 'समन्वयिादी' (syncretist) न मानकर, एकाििादी (monistic) मािते हुए बिदे र् र्ंिी

का कििा िै नक कबीर का सारा आग्रि धमव , मजिब के बािरी प्रतीकों की अपेक्षा आि-िुप्तद् और

आचरण िुप्तद् पर िै । मोिे तौर पर, जैसे पििे हुए बािरी र्स्त्रों की नभन्नता-कपड़े की, रं गों की, या नडजाइि
की, आकार प्रकार की नभन्नता-कई प्रकार की िै , नकंतु उि पििे हुए कपड़ो की नभन्नता के िीचे चमड़ी का

नभन्नताएं अपेक्षतया कम िोती िै । चमड़ी के िीचे , दे ि के भीतर मािनसक र्ृनत्तयों में , चमड़ी की नभन्नता से

कम नभन्नता िोगी। रोिा, िं सिा, प्यार, घृणा के मू ि भार्ों में सब एक समाि िै , उन्ें प्रकि करिे के िार्-

भार्, थथाि-प्तथथनत की नभन्नता से पृथक् िो सकते िैं और अंततः आप्तिक िर पर सब एक अनभन्न धराति
पर आ खड़े िोते िैं । इसी आं तररक धराति पर चाररनत्रक िुप्तद् पर बि दे िे से जातीय, मजिबी नर्नभन्नताएं
समाि िो जाती िैं ।

कबीर भी जातीय मजहबी ऊिं -नी कट्टरता का पूणभ तिरोध करते हुए, बिदे र् र्ंिी की दृनि में ,
मतर्ादों में समन्वय िािे का प्रयत्न ििीं करते , र्रि् मािर् की आिर्ादी धराति पर एकता या एकािा

नसद् करते िैं । उिका नर्श्वास समझौतों में ििीं, एकता में िै । र्े मिुष्य को भी सिज एर्ं मिज मिुष्य के
रूप में दे खिा पसंद करते िैं और इं सािी ररश्तों का सूत्र 'निरं जि' या 'अिि' से बिािा चािते िैं।

कबीर समाज को एकाि रूप में दे खते हैं । कबीर के समाज में अिेक प्रकार के भे द थे और र्े इि भे दों

को नमिािा चािते थे । र्िु त : इि भे दों का कोई थथानयत्व ििीं था। सारे भे द क्षणभं गुर के समाि थे । ऊंच-

िीच, धिी-निधव ि, स्वामी-सेर्क, राजा-रं क सभी भे द तात्कानिक थे । इि भे दों को बिािे र्ािे और माििे

र्ािे अपिे समय की सीमा में जीकर मर गए। परं तु कबीर की दृनि में मािर्ता, समाज, आिा, जीर् की
प्तथथनत अमर िै ।

तनष्कषभ - यि निनित रूप से किा जा सकता िै नक नभन्न-नभन्न एर्ं परस्पर नर्रोधी नर्चारों का सप्तिश्रण

समन्वयर्ाद का आधार िै । इस दृनि से कबीर िे राजा-प्रजा, धिी-निधव ि, ऊंची-िीची जानतयों, निन्फ्दुओ-ं


मु सिमािों के बीच की खाई को पाििे का प्रयास नकया। आपस के द्वे र्ष, ईष्याव , अिं कार, र्ैमिस्, क्षोभ

आनद के थथाि पर कबीर िे समािता, स्नेि, सिािुभूनत, सियोग का संदेि नदया और मािर्-मात्र को एक
दू सरे के निए जीिे का रािा नदखाया, उस दृनि से कबीर एक समन्वयर्ादी नर्चारक के रूप में उभरते िैं ।

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प्रश्न - कबीर के समकालीन समाज में व्याप् असमानताओिं के सिंबिंध में उनके ति ारोिं का परीक्षण
कीतजए।

अथिा

लैंतगक समानता के तििेष सिंदभभ में का परीक्षण कीतजए।

उत्तर –

परर य - िास्त्रों का सार िै " यत्र िायविु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र दे र्ता: यत्रै तािु ि पूज्यन्ते सर्ाव ित्रफिा:"

जिाँ िारी का सिाि िोता िै र्िां दे र्ता रिते िैं और जिाँ पर िारी का अपमाि िोता िै र्िां तमाम तरीके

से पूजा पाठ के बाद भी दे र्ता निर्ास ििीं करते िैं । िे नकि निरािा का नर्र्षय िै की जो कबीर समाज में

व्याि धानमव क कमव कां ड, निन्फ्दू मु प्तस्लम र्ैमिष्य, पोंगा पंनडतर्ाद, भे दभार् और कुरीनतयों का नर्रोध करते
हुए एक समाज सुधारक की भू नमका में िजर आते िैं र्ो स्त्री के बारे में निष्क्ष दृनिकोण ििीं रख पाए।

िायद इसका कारि उस समय के समाज के िािात रिे िोंगे जो पुरुर्ष प्रधाि था। मध्यकािीि कनर्यों िे

िारी को दोयम दजे में रख कर उसका अप्तित्व पुरुर्ष की सिभागी, सिचाररणी सिगानमिी तक िी सीनमत
कर रखा था। िारी को कभी भी स्वतं त्र व्यप्तित्व के रूप में नचनत्रत ििीं नकया गया।

कबीर के असमानताओिं के सिंबिंध में ति ार/ लैंतगक समानता (कबीर एिं ि नारी)

निन्फ्दू समाज में मनििाएँ अब केर्ि सामानजक, व्यार्सानयक तथा धानमव क कािूिों तक िी सीनमत थी। अब
मनििाएँ िा केर्ि घरों तक सीनमत थी, अनपतु जन्म से िे कर मृ त्ु तक पुरुर्षों द्वारा नियंनत्रत की जाती थी।

उन्ें परदे में रखा गया। कुछ जानतयों में , कम उम्र की नर्धर्ाओं को भी दे खिे को नमिा और उिसे यि

अपेक्षा की जाती थी नक र्ो आजीर्ि नर्धर्ा के रूप में अपिा जीर्ि व्यतीत करे । नर्धर्ापि से समाज में

गरीबी, सामानजक अस्वीकृनत तथा अकेिापि को बढार्ा नमिा। उस समय कन्या भ्रू ण ित्ा भी प्रचिि में
था जो बेनियों का नतरस्कार करता था।

ससुराल िाले लडकी के जन्म का आरोप लगा कर मतहलाओिं का ततरस्कार करते थे , मनििाओं को

एक पुरुर्ष र्ाररस पैदा करिे के निए ससुराि पक्ष द्वारा दबार् डािा जाता था, नजसके कारण मनििाओं का
स्वास्थ्य भी खराब िो जाता था। मिु का कािूि आज भी भारतीय समाज पर प्रभार् डािता िै । मनििाओं

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को िािीि कपड़े पिििा चानिए तथा मे कअप से बचिा चानिए, सिाि के रूप में उन्ें अपिा सर भी
ढकिा चानिए इत्ानद जैसी प्रथाएँ आज भी नर्द्यमाि िै ।

कबीर की तिक्षाओिं ने नर एििं मादा दोनोिं मनु ष्योिं की गररमा को उत तपूणभ रूप से प्रस्तुत तकया।

सारी सृनि में सृनिकताव की व्याप्ति के बारे में कबीर की रिस्मय अंतरदृनि िे समािता के नर्चार को

प्रनतपानदत नकया। उन्ोंिे किा नक जन्म या निं ग के आधार पर भे द करिा सर्वथा गित िै । कुछ छं दों में
उन्ोंिे सती को पुिः पररभानर्षत नकया। कबीर किते िै सती नर्धर्ा ििीं िै जो अपिे पनत के नचता के पास

बैठती िै अनपतु र्ि सत् बोििे र्ािी िै । िे धानमव क नर्द्वाि इसे दे खें तथा अपिे हृदय में नर्चार करें ।

सां साररक सुख की िािसा िोिे पर कोई आध्याप्तिक प्रेम ििीं िो सकता। माया में नर्श्वास रखिे र्ािा

कभी सपिे में भी प्रभु से ििीं नमि सकता, परं तु सच्ची आिा, दु ल्हि अपिा िरीर, नर्चार, भाग्य, घर र्
स्वयं को त्ाग दे ती िै ।

पदाभ प्रथा मुसलमानोिं के साथ आया। युद्ध ि तिकृत अथभ व्यिस्था के समय मतहला एक बडी

तजम्मेदारी होती थी। मनििा की पनर्त्रता एर्ं उसके सिाि की रक्षा करिा अत्ं त िी कनठि था। परं तु
दै निक जीर्ि में पदाव आर्श्यक ििीं िै । कबीर िे अपिे रिस्मय निक्षाओं में पदाव का र्णवि नकया िै , 'िे

मे री आिा-र्धू ,पुरुर्ष के सामिे धूं घि मत पििो। इस घूघि िे कई आिा दु ल्हिों को अपिे पनत परमािा

को दे खिे से रोक रखा िै । पदाव पिििे पर िोग कुछ नदिों तक िी आपकी प्रिंसा करें गे , परं तु असिी
कफि िै तु म्हारे पनत परमािा का िाम सुनमरि। िाम सुनमरि की उिकी िनर्षवत प्रिंसा'।

कबीर पदाव की अर्धारणा बताते हुए यि यि समझाते िैं नक पदाव क्या िै तथा यि क्यों िै ? उिका माििा िै

नक एक दु ल्हि पररर्ार के सिाि या गौरर् को बिाए रखिे के निए पदाव का प्रयोग करती िै। र्ािर् में

र्ि िरक से पीनड़त िै क्योंनक िरीर को दफिािे के बाद पररर्ार का गौरर् खो जाएगा। कबीर किते िैं
अपिे सभी कमों एर्ं भ्रां नतयों को छोड़ दो जो मािर् मे मिमु िार् पैदा करते िैं , क्योंनक सभी के अंदर एक

िी ईश्वर िै जो निर्ास करता िै प्राप्ति का मागव संकीणव िै , पीछे मुड़िे से व्यप्ति धू ि में नमि जाता िै। चूँ घि

के पीछे नछपी खूबसूरत स्त्री सुरनक्षत िै । आध्याप्तिक मागव एक चोिी सी सीढी के समाि िै , इसका तात्पयव

िै अपिे आपको िािसा, जुिूि, अंिकार आनद के कारण से िोिे र्ािे सभी कमव बंधिों से अपिे आपको
मु ि करिा। आप अपिे अंिकार को इस रािे पर ििीं िा सकते। आध्याप्तिक मागव को अस्वीकार करिे
से भौनतक जीर्ि मृ त्ु में समाि िो जाता िै।

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तनष्कषभ - प्रारप्तम्भक निन्दी सानित् के इनतिास में कबीर निनर्वर्ाद रूप से सर्वश्रेष्ठ गीतकार एर्ं रिस्र्ादी

थे । उिकी कनर्ता तथा दिवि िे ि केर्ि निन्दी सानित् पर अनपतु उत्तर भारत के अनधकतर व्यप्तियों पर

भी एक थथायी प्रभार् डािा, जो उिकी मृ त्ु के पिात् भी दिकों तक मिसूस नकया जाता रिा। कबीर
द्वारा निन्फ्दू एर्ं मु प्तस्लम धमों में व्याि व्यथव संस्कारों र् परं पराओं की निंदा करते हुए यि किा गया नक इि

दोिों धमों का अंनतम उद्दे श्य एक िी िै। कबीर िे सद् गुरु , संत समागम (भिों एर्ं संतों का समु दाय) र्
िामनसमरि का पक्ष निया।

उन्ोंिे नचत्तिुप्तद् (हृदय की िुद्ता), सदाचार (िैनतक व्यर्िार) तथा निष्काम-कमव (कतव व्य के निए

दानयत्व) पर बि नदया। इसनिए उन्ोंिे समु दाय (समाज-जागृनत) तथा भार्-भप्ति को जगाया र् जानत एर्ं

र्गव नर्भाजि को अस्वीकृत नकया। उन्ोंिे सभी धमों का समथव ि नकया, परं तु उिके झूठे, नछछिे र् खोखिे
कमव कां डों पर प्रिार नकया। पररणामस्वरूप, भप्ति आं दोिि के समय संत कबीर िे एक सामानजक क्रां नत
की िुरुआत की तथा क्रां नतकारी नर्चारों र् दृनिकोणों को प्रिु त करते हुए इस क्षे त्र में अग्रणी बिे।

प्रश्न - तनम्नतलत्मखत में से तकन्ही िं दो पर सिंतक्षप् तटप्पणी तलत्मखए :

a) अगनसुि में राज्य की उत्पति

उत्तर -

परर य - ” दीघ-निकाय के अिुसार, 'अगािासुत' मािर् सभ्यता के इनतिास का पता िगाता िै। यि

पििी समस्ा का एक संनक्षि नर्र्रण प्रदाि करता िै , जो एक राजिािी या राज्य बिा रिा िै ।
सामानजक-राजिीनतक और आनथव क घििाओं की पररर्नतव त प्रकृनत को इनतिास के माध्यम से , भ्रू ण से
अनधक जनिि रूप में खोजा जाता िै '।

अगानासुि के अनु सार, 'राजत्व की उत्पनत्त नर्कनसत हुई और अपिी र्तव माि प्तथथनत तक पहुँ चिे से पििे
मािर् समाज के कई चरणों से गुजरी। ये संकेत करते िैं नक र्े ईथर जीर् एक नर्िाररत अर्नध के निए

िां नत, सुख, समृ प्तद् और िांत प्तथथनत में थे। िािाँ नक, यि पूणव िुद्ता अब संभर् ििीं थी, और अपूणवता

तस्वीर में घुसिे िगी'। निं ग, जानत, धमव और अन्य नर्िेर्षताओं में अंतर प्रकि िोता िै , जीर्ि को ईथर से

भौनतक ति िीचे िाता िै । सबसे पििे और सबसे मित्त्वपूणव, "र्े भोजि एकत्र करिे की प्रनक्रया में
सप्तिनित िो गए।

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दू सरा, खाद्य उत्पादि में र्ृप्तद् और कृनर्ष भू नम पर कृनर्ष के माध्यम से , पुरुर्षों िे अपिे पररर्ारों के अंतगवत

तीसरे थथाि पर स्वयं को संगनठत करिा िुरू कर नदया। चौथा, उन्ोंिे अपिे चार्ि के पौधों या अिाज

को आपस में बाँ ििा चु िा और अपिी संपनत्त (मररयादम थापेमसु) की रक्षा के निए सीमाएँ निधाव ररत की।
अंनतम चरण में पहुँ चिे के पिात् , एक व्यप्ति िे अपिे भाग को सुरनक्षत करिे के अनतररि, दू सरे को भी

अपिे अनधकृत कर निया जो उसे सौंपा ििीं गया था, और तब से, चोरी, दोर्षारोपण, झूठा भार्षण और बि

प्रयोग जिता के मध्य प्रसाररत िो गया िै । समाज में इस संकि के पिात् , “प्रानणयों (सनत्तयों) िे इकट्ठा
नकया और समस्ा के संभानर्त समाधािों पर पररचचाव की।

अगनसुि में राज्य की उत्पति

दीघ निकाय के अगािासुत के अिुसार, “बौद् धमव में राज्य की उत्पनत्त प्रकृनत के ब्रह्मांडीय नर्कास के

नसद्ां त पर आधाररत िै ।” इस प्रर्चि के अिुसार, राज्य की उत्पनत्त को दो नर्कासर्ादी नसद्ां तों का

उपयोग करके समझाया जा सकता िै - ब्रह्मां ड नर्ज्ञाि का नर्कास और मािर् नर्ज्ञाि का नर्कास, दोिों िी

मित्त्वपूणव िैं । अगािासुत्त की निक्षाओं के पिात् , “एक समय आया जब नर्श्व नसमि गया, जल्दी या बाद में ,
एक िं बी अर्नध बीत जािे के पिात् , और जीनर्त प्रानणयों का पुिजवन्म की दु निया में पुिजवन्म हुआ और

नदमाग से बिा और उत्साि पर प्तखिा हुआ, जारी रिा एक िं बी अर्नध के निए अप्तित्व में िै , अंतररक्ष को

पार करता िै और मनिमा में मौजूद रिता िै । ” उस नबंदु पर ग्रि नफर से नर्कनसत िोिा िुरू हुआ; पािी,

अस्पिता और अंधकार का केर्ि एक िी द्रव्यमाि था, और जीनर्त प्रानणयों को केर्ि प्राणी किा जाता
था। नफर भी, नर्श्व का नर्कास निरं तर िोता रिा, और जैसे िी “स्वानदि पृथ्वी ग्रि की सति पर नदखाई दे िे
िगी, जीनर्त प्रजानतयाँ इसकी आर्श्यकता के कारण इसकी ओर आकनर्षवत हुईं। सूयव, चं द्रमा, तारे और

िक्षत्र उिके कम आि-चमक की अर्नध के दौराि उन्ें नदखाई दे रिे थे । पररणामस्वरूप, उन्ोंिे ऋतु ओ,ं
मिीिों और उसके बाद के र्र्षों के बारे में सीखा।"

ऐसा किा जाता िै नक अगािासुत्त के अिुसार प्राणी चमक की दु निया में रिते थे और उस चमक की

दु निया को परमािंद द्वारा बिाए रखा गया था, जब दु निया घूमी, तो उन्ोंिे आसमाि में उड़ाि भरी और

उस नदिकि पृथ्वी को दे खा नजसिे ग्रि की सति को आर्रण कर नकया था। नफर उन्ोंिे पृथ्वी पर कब्जा
कर निया और उिकी स्वयं की प्रनतभा छीि िी गई। उिके द्वारा िी गई दर्ा के प्रभार् के कारण उिकी

त्वचा का रं ग पररर्नतव त िो गया िै । कुछ प्रानणयों िे आकर्षवण प्राि नकया, जबनक अन्य िे अपिा आकर्षवण

खो नदया। सुंदर नदखिे र्ािे प्राणी बुरे नदखिे र्ािे मिुष्यों के प्रनत अपिा असंतोर्ष व्यि करिे िगे। यि

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सुझार् दे िे के निए पयाव ि सबूत िैं नक नर्श्व की िुरुआत में भी, “जब जन्म के आधार पर कोई स्पि भे द

ििीं था, तब भी नकसी की त्वचा के रं ग के आधार पर सामानजक पूर्ाव ग्रि था, और यि रं ग नकसी की त्वचा

की उत्पनत्त की परर्ाि नकए नबिा सच था। जब जीर् स्वयं प्रकािमाि प्रकािों के साथ र्ाय में उड़े , तो
पृथ्वी की सति पर स्वानदि नमट्टी नदखाई दी। इसिे सबसे पििे मिुष्यों के उपभोग के निए जीनर्का के

रूप में कायव नकया।” स्वानदि पृथ्वी को पििे जीनर्त प्रानणयों िे अपिी उं गनियों से स्पर्षव नकया था, और

नफर “उिकी िारीररक बिार्ि पररर्नतव त िो गई। नजि िोगों की िारीररक बिार्ि अच्छी थी, र्े उि िोगों

की आिोचिा करिे िगे नजन्ोंिे ऐसा ििीं नकया। स्वानदि पृथ्वी अब ग्रि की सति पर उपप्तथथत ििीं थी
और अंतत: गायब िो गई। जब स्वानदि पृथ्वी मौजूद ििीं थी, कर्क जीनर्त प्रानणयों के सामिे प्रकि हुए

और उिके निए भोजि प्रदाि नकया, उन्ें िे जािे के बाद, उिके िरीर में पररर्तव ि हुआ, और बाद में

उन्ोंिे एक-दू सरे को एक भयािक िारीररक रूप के निए निंदा की, और इसके पररणामस्वरूप कर्क

नर्दा िो गया।” िता पृथ्वी की सति पर तब प्रकि हुई जब कर्क गायब िो गया, और र्े सभी जीनर्त
चीजों के निए जीनर्का का स्रोत बि गए। गायब िोिे से पििे रें गिे र्ािे कुछ समय के निए उिके निए

भोजि के रूप में रिे । अंत में , चार्ि आनदम जीनर्त प्रानणयों में नदखाई नदया और उस समय से उिका
मु ख्य आिार रिा िै ।

यद्यनप पृथ्वी पर मिुष्य थे “ब्रह्मां ड संबंधी नर्कास के दौराि, िम पाते िैं नक िर या मादा के रूप में उिका

स्पि निं ग बहुत बाद में प्रकि ििीं हुआ था। िं बे समय तक आिार के रूप में चार्ि का सेर्ि करिे के

बाद, अंग धीरे -धीरे िर और मादा बि गए, और र्े अंतत: यौि व्यर्िार करिे िगे। उन्ोंिे झोपनड़यों का

निमाव ण नकया नजसमें र्े अपिी गंदी गनतनर्नधयों को नछपािे के निए अिग से रि सकते थे। जब उिके बच्चे
िोिे िगे, तो उिकी संतािों का झुकार् उि िोगों के समू ि की ओर िोिे िगा, जो उिकी त्वचा के रं ग को

साझा करते थे । उन्ोंिे झोपड़ी का निमाव ण इसनिए नकया, तानक र्े अिग रि सकें और संभोग कर सकें।

नर्कास की इस अर्नध के दौराि, “मिुष्यों को एक समूि के रूप में बिे रििे की कोई अनिर्ायव

आर्श्यकता ििीं थी; र्े नजस समाज से संबंध रखते थे , अकेिे रििे की अपिी क्षमता में र्े पूरी तरि से
संतुि और आश्वि थे , उन्ें िायद िी कभी दू सरों से सिायता की आर्श्यकता िोती थी। पररणामस्वरूप,

सभ्यता का जन्म अस्पि प्रतीत िोता िै ; केर्ि यौि नमिि को पूणव अथों में भे द की कसौिी के रूप में

उपयोग ििीं नकया जा सकता िै । उिकी एकता समय के साथ धीरे -धीरे बढती गई, छोिी इकाई से बड़ी

इकाई तक, क्योंनक र्े समाि िक्ष्यों को साझा करते थे और समाि प्रनक्रयाओं का पािि करते थे , नजसका

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अथव था नक उन्ें एक सामानजक व्यर्थथा थथानपत करिे के निए नमिकर काम करिा था, नजसे नर्कनसत

िोिे में समय िगता था।” बाद में , र्े िोग उपयोग के निए अिाज इकट्ठा करिे और भं डारण के मू ल्य की

सराििा करिे िगे। संपनत्त के नर्तरण के मित्त्व पर बि दे िे के निए, यि उल्लेख करिा मित्त्वपूणव िै नक
यि सामानजक संबंधों की िुरुआत के साथ-साथ एक सामानजक व्यर्थथा की िुरुआत का प्रतीक िै । इस

अिसास के पररणामस्वरूप स्वयं को स्वतं त्र रूप से व्यि नकया गया और दू सरों के साथ जो कुछ भी िै ,

उसे साझा करिे की इच्छा। पररणामस्वरूप, समग्र रूप से समाज के नितों को आगे बढािे के निए व्यप्ति

की ओर से बनिदाि की आर्श्यकता थी। र्े सभी नजिके समाि नित और संपनत्त थी, एक साथ बंधे िए थे
और अंत:संबंधों का एक िेिर्कव बिाते थे । ” बौद् धमव िे बताया नक पूणव समाज के नर्घिि का प्राथनमक

कारण िैनतक आदिों का ह्रास था, अंतत: नजसके कारण िैनतकता का ह्रास हुआ। िैनतकता के िाम पर

नकए गए कदाचार िे अच्छे और खुिनमजाज िोगों को घुििों पर िा नदया। इस कारण से उिकी र्तव माि

प्तथथनत में खुनियों तक पहुँ चिे के साधि पािी में समानित िो गए िैं । िोगों के स्वाथव को उिके स्वयं के
स्वाथी अिं कार द्वारा प्रकाि में िाया गया था।” अगािासुत्त में बुद् की निक्षाओं के अिुसार, इसके
पररणामस्वरूप मािर्ता के इनतिास में िैनतक मािकों में सबसे बड़ी क्रां नत हुई।

यद्यनप ब्रह्माण्ड संबंधी नर्कास के दौराि मिुष्य पृथ्वी पर थे , िमें पता चिता िै नक िर या मादा के रूप में

उिका स्पि निं ग बहुत बाद में प्रकि ििीं हुआ था। िं बे समय तक आिार के रूप में चार्ि का सेर्ि

करिे के पिात् , “अंग धीरे -धीरे स्वयं को िर और मादा के रूप में प्रकि करिे िगे , और अंतत: र्े यौि

व्यर्िार में सप्तिनित िो गए। उन्ोंिे झोपनड़यों का निमाव ण नकया नजसमें र्े अपिी गंदी गनतनर्नधयों को

नछपािे के निए अिगअिग रि सकते थे । जब उिके बच्चे िोिे िगे, तो उिकी संतािों का झुकार् उि
िोगों के समू ि की ओर िोिे िगा, जो उिकी त्वचा के रं ग को साझा करते थे । उन्ोंिे झोपड़ी का निमाव ण

इसनिए नकया तानक र्े अिग-अिग रि सकें और संभोग कर सकें।” नर्कास की इस अर्नध के दौराि,

“मिुष्यों को एक समू ि के रूप में बिे रििे की कोई अनिर्ायव आर्श्यकता ििीं थी; र्े नजस समाज से

संबंध रखते थे , अकेिे रििे की अपिी क्षमता में र्े पूरी तरि से संतुि और आश्वि थे , उन्ें िायद िी कभी
दू सरों से सिायता की आर्श्यकता िोती थी। पररणामस्वरूप, सभ्यता का जन्म अस्पि प्रतीत िोता िै ;

केर्ि यौि नमिि को पूणव अथों में भे द की कसौिी के रूप में उपयोग ििीं नकया जा सकता िै । उिकी

एकता समय के साथ धीरे -धीरे बढती गई, छोिी इकाई से बड़ी इकाई तक, क्योंनक र्े समाि िक्ष्यों को

साझा करते थे और समाि प्रनक्रयाओं का पािि करते थे , नजसका अथव था नक उन्ें एक सामानजक व्यर्थथा

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थथानपत करिे के निए नमिकर काम करिा था, नजसे नर्कनसत िोिे में समय िगता था।” बाद में , र्े िोग
उपयोग के निए अिाज इकट्ठा करिे और भं डारण के मू ल्य की सराििा करिे िगे।

संपनत्त के नर्तरण के मित्त्व पर जोर दे िे के निए, यि उल्लेख करिा मित्त्वपूणव िै नक यि सामानजक

संबंधों की िुरुआत के साथ-साथ एक सामानजक व्यर्थथा की िुरुआत का प्रतीक िै । इस अिसास के

पररणामस्वरूप स्वयं को स्वतं त्र रूप से व्यि नकया गया और दू सरों के साथ जो कुछ भी िै उसे साझा
करिे की इच्छा। पररणामस्वरूप, समग्र रूप से समाज के नितों को आगे बढािे के निए व्यप्ति की ओर से

बनिदाि की आर्श्यकता थी। र्े सभी नजिके समाि नित और संपनत्त थी, एक साथ बंधे हुए थे और अंत:
संबंधों का एक िेिर्कव बिाते थे ।”

बौद् धमव िे बताया नक पूणव समाज के नर्घिि का प्राथनमक कारण िैनतक आदिों का ह्रास था, नजसके

कारण अंतत: िैनतकता का ह्रास हुआ। “िैनतकता के िाम पर नकए गए कदाचार िे अच्छे और िं समु ख

िोगों को अपिे घुििों पर िा नदया। इस र्जि से उिकी र्तव माि प्तथथनत में खुनियों तक पहुँ चिे के साधि

पािी में समानित िो गए िैं। िोगों के स्वाथव को उिके स्वयं के स्वाथी अिं कार द्वारा प्रकाि में िाया गया
था। अगािासुत्त में बुद् की निक्षाओं के अिुसार, इसके पररणामस्वरूप मािर्ता के इनतिास में िैनतक
मािकों में सबसे बड़ी क्रां नत हुई।

b) धातमभक सामिंजस्य के सिंबिंध में अबुल फज़ल

उत्तर –

अबुल फज्ल के धमभ पर ति ार

अबुि ़िज़्ि के धानमव क नर्चार अपिे से पििे के मु प्तस्लम नचं तकों से नभन्न थे नजसके निए उन्ें अपिे

समकािीिों में कड़ी आिोचिा का भी निकार िोिा पड़ा। खाि-ए-आजम िे एक तारीख़ बीजाक्षरी में उन्ें
पैगंबर से बागी बताया िै । जिां गीर की भी ़िज़्ि के बारे में यिी राय थी। उिको काऩिर समझिा एक

आम बात थी। उि पर निं दू, अनिपूजक, धमव निरपेक्ष तथा िाप्तिक िोिे के आरोप िगे। र्ािर् में र्ि सर्वत्र

िां नत (सुिि-कुि) में नर्श्वास रखते थे तथा र्ि सभी धमों की अच्छाई में नर्श्वास करिे र्ािे मु ि नचंतक

थे । आइने -अकबरी और अकबरनामा का अध्ययि करिे पर पता चिता िै नक र्े बुप्तद्र्ादी और मु ि


नचं तक थे । बुप्तद् उिका अंनतम सिारा िोती थी।

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अपिे िे खि में र्ि ररर्ायतों, ररर्ाजों और पुरािी धानमव क पुिकों में व्यि नर्चारों का सिारा िे िे र्ािों का

मजाक उड़ाते िैं । और इन्ें तकिीदी (िक्काि) किते िैं तथा पुरािी परं पराओं तथा पैगम्बर के पनर्त्र

नियमों और कमों का िर्ािा दे िे र्ािे रूनढर्ादी उल्माओं को भी र्ि तकिीदी किते िैं । उिके अिुसार
ऐसे िासमझ और मू खव अज्ञािी यि ििीं समझ पाते नक समय बीतिे के साथ धमव और कािूि की पुिकों

में व्यि सत् भी पुराति और समय नर्रोधी िो चु का िै। उिकी यि धारणा अकबर के नर्चारों में भी दे खी
जा सकती िै , जो नक परं परार्ाद के एक सािनसक अस्वीकार से जुड़ी थी। उिका कथि इस प्रकार िै -

'अक्ल को स्वीकारिा और परं परार्ाद (तक़िीद) को िकारिा इस कदर जरूरी िै नक इि पर बिस की

जरूरत िी ििीं िै । अगर तकिीद मु िानसब िोती तो पैगम्बर िे नसफव अपिे बुजुगों की तकिीद (िकि)
की िोती, अथावत् र्ि ि संदेि िे कर ििीं आते ।'

उिके धमव संबंधी नर्चार आईि-ए-अकबरी के एक उद्रण में नमिते िै , नजसका िीर्षवक िै 'निन्फ्दुिाि की
जिता की दिा' इस उद्रण की प्रमु ख बातों को इस प्रकार रखा जा सकता िै :

1. निं दुओं और मु सिमािों के बीच धानमव क नर्रोध और किु ता का मु ख्य स्रोत यि नर्चार िै नक निं दू निकव

(अथाव त् ईश्वरीय िक्षणों को मिुष्य और उिके नचत्रों से जोड़िे) के दोर्षी िै । अबुि ़िजि िे जोर दे कर

किा नक यि आरोप निराधार िै । गिरी छािबीि और पड़ताि से पता चिता िै नक निं दू एक ईश्वर की

धारणा में िी नर्श्वास रखते िै ।


2. नफर भी इस गित समझ की जड़ें बहुत गिरी िैं और इसके कारण किु तापूणव ित्रु ताएँ पैदा हुई िैं ,

बप्ति खूि-खराबा तक हुआ िै ।

3. इस गित समझ के कारण अिेक िै -

i. एक-दू सरे की भार्षाओं और नचं ति प्रणानियों के प्रनत पूणव अज्ञाि।


ii. पड़ताि के जररये सत् तक िा पहुँ चिा तथा परं पराओं को िी स्वीकारिा।

iii. इस्लाम एं र् भारत के बीच सम्पकव पर दृनिकोण

iv. नर्नभन्न धमों के नर्द्वािों और बुप्तद्मािों के निए नकसी नमिि थथि का अभार्।

v. सभी धमों के नर्द्वािों के नर्चारों के मु ि आदाि-प्रदाि के निए पिि करके ऐसी आर्श्यक
पररप्तथथनतयाँ बिािे में सम्रािों की असफिता।
vi. एक दू सरे के धमव र् नर्श्वासों को िीचा नदखािे की प्रर्ृनत्त।

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इस तरि िम अबुि ़िज़्ि के नर्चारों से अंदाजा िगा सकते िैं नक र्ि धानमव क सनिष्णुता में नर्श्वास रखते

थे | अबुि फज्ि के नर्चारों से अकबर बेिद प्रभानर्त थे। यि बात िमें उिकी धानमव क सनिष्णुता की

िीनतयों में िजर आती िै जिाँ अकबर ' से पििे के मु गि िासक धमावन्ध र् कट्टरपंथी िासक थे , र्िीं
अकबर िे धमव निरपेक्ष राज्य की थथापिा की िीनतयाँ अपिाई। अकबर को ऐसी कई उदारर्ादी िीनतयों

का श्रेय नदया जाता िै और इिको मु गि साम्राज्य में धमव र् राज्य के अंतसंबंधों को एक िर्ीि सैद्ां नतक
आधार प्रदाि करिे की नदिा में प्रथम उल्लेखिीय प्रयास मािा जा सकता िै ।

c) इस्लाम एिं ि भारत के बी सम्पकभ पर दृतष्टकोण

उत्तर –

परर य - ररचडव एम. इिि िे अपिी पुिक 'इप्तण्डयाज इस्लानमक िर े डीिन्स' में भारत में इस्लामी परम्परा

का र्णवि करते हुए निखा िै नक भारत में पूर्व-औपनिर्ेनिक काि में इस्लानमक परम्परा का नर्कास

नर्नभन्न नर्चारों, प्रथाओं, किाओं और कायवक्रमों के माध्यम से हुआ िै । इसके अन्तगवत सूनफयों के नर्चार
और संर्ाद, धानमव क व्याख्याकारों (उिे मा) के कायव , थथािीय भार्षायी गाथाएँ , मप्तिदों पर अंनकत िब्द,

दृश्यािक किाएँ , कव्वािी संगीत, पनर्त्र कुराि की निदायतें , ऐनतिानसक कािक्रम, िोक गीत, कािूिी

राय, धानमव क मं त्र, यात्रा संस्मरण, िािकीय कायवक्रम, पैगम्बर सािब की जीर्िी, तथा मिाि िेखों की

जीर्नियाँ िानमि िैं । र्े आगे निखते िैं नक इि परम्पराओं की प्रमु ख नर्नििताएँ नर्नभन्न समु दायों, भार्षायी
समू िों और सामानजक र्गों के अन्दर दे खी जा सकती िैं ।

इस्लाम एिं ि भारत के सम्पकभ

भारत में इस्लाम की परम्पराओं के सामानजक, आनथव क, सां स्कृनतक और राजिीनतक पििु ओं के नर्कास

की िुरूआत 8र्ीं सदी में हुई। इस्लाम का एक धमव के रूप में उदय अरब में सातर्ीं िताब्दी की

िुरूआत में हुआ। इस्लाम के आगमि से पूर्व अरब एक मू नतव पूजक दे ि था, र्िीं 570 ईसर्ीं में पैगम्बर
िजरत मु ििद िे जन्म निया। उन्ोंिे इस्लाम धमव से िोगों को अर्गत कराया और बताया नक सच्चा धमव

र्ि िै जो एक ईश्वर पर नर्श्वास करता िै । ईश्वर सर्ोच्च और सर्विप्तिमाि िै । उसकी कोई प्रनतमा ििीं िो

सकती। इस्लाम अरबी भार्षा का िब्द िै , नजसका अथव 'िां नत में प्रर्ेि करिा' िोता िै । अतः मु प्तस्लम र्ि

व्यप्ति िै , जो परमािा और मु िष्य के साथ पूणव िां नत का सम्बंध रखता िो। अतएर् इस्लाम धमव का
िाक्षनणक अथव िोगा-र्ि धमव नजसके द्वारा मिुष्य ईश्वर की िरण िे ता िै तथा मु िष्यों के प्रनत अनिं सा एर्ं

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प्रेम का बताव र् करता िै । इस्लाम धमव के मू ि पनर्त्र कुराि, सुन्नत और िदीस िैं । पनर्त्र कुराि र्ि ग्रन्थ िै

नजसमें पैगम्बर मु ििद के पास ईश्वर के द्वारा भे जे गए सन्दे ि संकनित िैं। सुन्नत र्ि िै नजसमें पैगम्बर

सािब के कृत्ों का उल्लेख िै और िदीस र्ि नकताब िै नजसमें उिके उपदे ि संकनित िैं । इस्लाम धमव के
माििे र्ािों के निये पाँ च बुनियादी मान्यताएँ िैं :

(i) किमा पढिा अथाव त् इस मं त्र का पारायण करिा नक ईश्वर एक िै और पैगम्बर मु ििद उसके
रसूि (दू त) िैं । इस्लाम का एकेश्वरर्ाद (तौिीद) इसी मंत्र पर आधाररत िै ।

(ii) िमाज पढिा अथाव त् प्रनतनदि पाँ च बार ईश्वर से प्राथव िा करिा।

(iii) रोजा रखिा यानि रमजाि के मिीिे में उपर्ास रखिा।

(iv) जकात यानि अपिी आय का ढाई प्रनतित दाि में दे दे िा |


(v) िज यानि तीथव यात्रा करिा ।

भारत में तदल्ली सल्तनत और इस्लामी परम्परा का तिकास

सुल्तािों का साम्राज्य 1206 ईसर्ीं से 1526 ईसर्ीं (िगभग तीि िताप्तब्दयों से अनधक समय तक) भारत में

रिा। इि र्र्षों में भारत में इस्लानमक संस्कृनत एर्ं किा का भी नर्कास हुआ और भारत का राजिीनतक

चररत्र भी बदिा। नदल्ली सल्तित के युग में इस्लाम को राजधमव का थथाि प्राि था, नजसके नसद्ां तों की

रक्षा एर्ं प्रचार-प्रसार करिा सुल्ताि और उसकी सरकार का प्रथम कत्तव व्य मािा जाता था। धानमव क
िास्त्रीय आधार पर कािूिों का निमाव ण िोता था और िासकों को पनर्त्र कुराि के नियमों के अिुसार

आचरण करिा िोता था। कुराि की निदायतों को ध्याि में रखते हुए सुल्ताि अपिी निन्फ्दु प्रजा को इस्लाम

धमव के अिुरूप आचरण करर्ािे का प्रयास करते थे । परं तु सभी सुल्ताि ऐसे ििीं थे । नजयाउद्दीि बरिी,

नजन्ोंिे 'तारीख-ए-नफरोजिािी' और 'फतर्ा-ए-जिाँ गीरी' में मध्यकािीि इनतिास से िमें पररनचत कराया
िै , निखते िैं नक अिाउद्दीि प्तखिजी और मोििद-नबि तु गिक दो आदिव िासक िैं नजन्ोंिे इस्लाम का

प्रचार करिे के निए राजकोर्ष के धि का इिे माि ििीं नकया। बरिी िे सुल्ताि को ि केर्ि पनर्त्र कुराि
के अिुसार बप्ति 'जर्ानबत' (राज्य-निनमव त कािूि) के आधार पर िासि करिे का परामिव नदया।

सुल्तािों का िासि सैद्ाप्तन्तक रूप से इस्लाम धमव के नसद्ां तों से संचानित िोते हुए भी व्यर्िार में उससे

नभन्न था। अिाउद्दीि प्तखिजी और मोििद-नबि तु गिक, धमव के उपदे िों से ि बंधकर स्वतं त्र रूप से

व्यर्िार करते थे । सुल्तािों का अनधकार निरं कुि था, नफर भी र्े दरबारी और मं नत्रयों से सिाि करके िी

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निणवय िे ते थे । सुल्तािों िे कुछ निन्फ्दुओं को भी ऊँचे पदों पर नियुि नकया था। उदािरण के निए,

अिाउद्दीि प्तखिजी िे यादर् र्ंि के रामदे र् को 'रामराजि' की उपानध दे कर उन्ें िर्सारर प्रां त का राजा
नियुि नकया था।

गयासुद्दीि तु गिक िे राजा कामे श्वर को नमनथिा राज्य के राजा का पद नदया था। मािर्ा के राजा मे िमू द िे

अपिे संरक्षक के रूप में मे नदिी राय िामक एक राजपूत को चु िा था। सुल्तािों का साम्राज्य िासि की
सुनर्धा के निये रािरों में नर्भानजत था। सुल्ताि के निकिर्ती और उसके आश्रय में रििे र्ािे िोग उि पर

िासि करते थे । गाँ र्ों में पंचायत का िासि िोता था। केन्द्रीय और रािरीय सरकारों में जिाँ मु सिमाि
अनधकारी िासि करते थे , र्िाँ गाँ र्ों में पंचायत के द्वारा सर्वसिनत से निणवय निये जाते थे ।

भारत में मुगल साम्राज्य और इस्लामी परम्परा

सि् 1526 में इब्रािीम िोदी को िराकर बाबर िे भारत में मु गि साम्राज्य की िींर् डािी। उस समय दे ि

अिेक भागों में नर्भानजत था। मु गि िासक मु सिमाि थे । उिका उद्दे श्य भारत में ि केर्ि िासि करिा
था बप्ति इस्लाम का प्रचार-प्रसार करिा भी था। अपिे इि उद्दे श्यों की प्राप्ति के निये मु गि बादिािों िे

भारत का राजिीनतक एकीकरण करके एक िप्तििािी केन्द्रीय सत्ता को थथानपत नकया। नदल्ली के

सुल्तािों की परम्परा थी नक र्े खिीफाओं के अनधकार को स्वीकार करते थे । बाबर िे इस परम्परा को

तोड़ा। बाबर और उसके र्ंिज अपिे आपको ‘पादिाि' या 'बादिाि' कििर्ाते थे। उन्ोंिे ऐसी पदनर्याँ
धारण की नजन्ें पििे केर्ि खिीफा िी धारण कर सकते थे ।

स्वयं बाबर िे अपिे पुत्र हुमाँ यू को निदायत दे ते हुए किा था, नक "तु म कभी धानमव क पूर्ाव ग्रि को अपिे मि

पर िार्ी मत िोिे दे िा और पूजा के सभी र्गों की धानमवक भार्िाओं एर्ं रीनत-ररर्ाजों को ध्याि में रखकर
निष्क्ष न्याय करिा। नर्िेर्ष रूप से तु म गोित्ा से दू र रििा तु म कभी नकसी भी समु दाय के पूजा थथि को

िि मत करिा। दमि की तिर्ार की अपेक्षा प्रेम और कत्तव व्य की आथथा द्वारा इस्लाम का प्रचार किीं
अच्छी तरि नकया जा सकता िै "।

भारत में तब्रतटि उपतनिे ििाद और इस्लामी त िंतन की परम्परा

सोििर्ीं िताब्दी में भारत में युरोनपयि िोगों का आगमि हुआ। 1600 ईसर्ीं में ईस्ट-इप्तण्डया कम्पिी
एक व्यापाररक कम्पिी के रूप में थथानपत हुई। परं तु धीरे -धीरे उसिे भारत में उपनिर्ेिर्ाद का जाि

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नबछािा िुरू कर नदया। सि् 1857 के नर्द्रोि के बाद अंग्रेजी राज भारत में पूरी तरि थथानपत िो गया।

नर्दे िी औपनिर्ेनिक िीनतयों की र्जि से भारत में इस्लानमक नचं ति का एक िया अध्याय िुरू हुआ।

नब्रनिि सरकार के प्रािासनिक और आनथव क फैसिों का सीधा प्रभार् भारत में मु सिमािों के नर्कास पर
पड़ा। उदािरण के निये , सि् 1793 का थथायी बंदोबि कािूि, सि् 1837 में फारसी का सरकारी भार्षा

का दजाव समाि करिा आनद घििाओं िे मु सिमािों के िैनक्षक और सामानजक नर्कास पर आघात नकया।

इि सब के बीच मु सिमािों में राजिीनतक और सामानजक जागृनत के निये कई आं दोिि िुरू हुए, नजिमें
र्िाबी, फराइजी तथा अिीगढ आं दोिि प्रमु ख िैं ।

आधु निक भारत में इस्लाम की परम्पराओं का स्वरूप भी बदिा और यिाँ के मु प्तस्लम िेताओं िे इस्लाम

की उदारर्ादी व्याख्या के साथ-साथ भारत के िोकतां नत्रक संसदीय िासि और धमव निरपेक्ष राज्य के
अन्तगवत मु सिमािों के धानमव क, िैनक्षक तथा सां स्कृनतक अनधकारों को सुरनक्षत रखिे की संर्ैधानिक

गारण्टी भी दी। िेिरू के अिुसार धमव निरपेक्षता केर्ि राजिीनतक नसद्ान्त ििीं, बप्ति एक क्रां नतकारी

सामानजक प्रर्ृनत्त िै , नजसमें भारत के सभी धमव तथा सम्प्रदाय आ जाते िैं । िेिरू का माििा था नक

धमव निरपेक्षता के आदिव की प्राप्ति की सफिता मु ख्य रूप से बहुमत के अल्पमत के प्रनत व्यर्िार पर
निभव र िै । अतः उन्ोंिे भारतीयों से अिुरोध नकया नक अल्पसंख्यकों के नित तथा कल्याण िी उिका पनर्त्र

धमव िै । संनर्धाि सभा ि अपिे भार्षण में िेिरू िे अल्पसंख्यकों के निये नदये जािे र्ािे अनधकारा "

जोरदार समथव ि नकया था। सि् 1947 में जब भारत का नर्भाजि िो गया पानकिाि एक स्वतं त्र इस्लामी

रािर बि गया, तब भी िेिरू िे भारत के धमव निरपेक्ष राज्य की र्काित की और अल्पसंख्यकों को रािर के
योग बराबरी दे िे के कायवक्रमों, िीनतयों का स्वागत नकया।

मूल्ािंकन

भारत में इस्लानमक परम्परा के उपरोि र्णवि से स्पि िै नक इस्लानमक िासि को सामानजक, आनथव क,

राजिीनतक तथा सां स्कृनतक नर्नििताएँ भारत की समन्वयािक संस्कृनत का िी एक आइिा प्रिु त करती

िैं । िािां नक इनतिासकारों में इस बात को िे कर मतभे द रिा नक इस्लामी िासि कट्टरर्ादी अनधक था

और उदारर्ादी कम। परं तु इस नर्चारधारा के नर्परीत नर्द्वािों को यि माििा िै नक इस्लाम के आगमि से


भारतीय दिवि और नर्चारधारा पर सकारािक प्रभार् पड़े । राजिीनतक क्षे त्र में िर्षवर्धव ि के बाद भारत में

इस्लामी राज्य िे राजिीनतक एकता में र्ृप्तद् करके केन्द्रीय सत्ता की थथापिा की। इस्लामी िासि के

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अन्तगवत सूफी साधु ओं के नमिि से दे ि में धमव की िई जागृनत उत्पन्न हुई और दे ि में साम्प्रदानयक एकता
का प्रसार हुआ।

मध्यकािीि युग में भारत में इस्लामी िासि का युग मािा जाता िै । इस युग में नदल्ली सल्तित के सुल्ताि

और मु गि साम्राज्य के बादिािों िे इस्लामी संस्कृनत के तत्वों को प्राचीि भारतीय संस्कृनत के साथ

नमिाकर समन्वयर्ादी राजिीनत का भी प्रयत्न नकया। अकबर के समय में यि िीनत अपिे चरमोत्कर्षव पर
थी। नब्रनिि उपनिर्ेिर्ाद से िे कर स्वतं त्रता प्राप्ति तक भारत में इस्लामी संस्कृनत के मू ल्यों और नसद्ांतों

में पररर्तव ि हुआ। परं तु भारत के सामानजक जीर्ि में कुछ संघर्षों को छोड़कर नर्नभन्नता में एकता का तत्व

िमे िा नर्द्यमाि रिा। इस प्रकार भारत के राजिीनतक नचं ति के अध्ययि के निये इस्लामी नचं ति और
उसके प्रभार्ों का अध्ययि करिा आर्श्यक िै ।

d) क तटल् का मण्डल तसद्धािंत

उत्तर – क तटल् का मण्डल तसद्धािंत

कौनिल्य िे अपिे मण्डि नसद्ान्त में अिेक राज्यों के समू ि या मण्डि में नर्द्यमाि राज्यों द्वारा एकदू सरे के

प्रनत व्यर्िार में िायी जािे र्ािी िीनत का र्णवि नकया िै । इस नसद्ान्त में मण्डि केन्द्र ऐसा राजा िोता िै
जो पड़ोसी राज्यों को जीतकर अपिे में नमिािे के निए प्रयत्निीि िै । कौनिल्य िे ऐसे राजा को नर्नजगीर्षु

राजा (निजय की इच्छा रखिे र्ािा राजा) किा िै । उसकी मान्यता िै नक एक राजा का पड़ोसी राज्य

स्वाभानर्क रूप से उसका ित्रु राज्य िोता िै। नर्नजगीर्षु राजा के राज्य की सीमा से िगा हुआ जो राज्य

िोगा, र्ि, अरर (ित्रु ) राज्य िोता िै । नर्नजगीर्षु के राज्य से अिग नकन्तु उसके पड़ोसी राज्य से नमिा हुआ

राज्य नर्नजगीर्षु का नमत्र िोता िै और नमत्र राज्य से नमिा हुआ राज्य अरर नमत्र िोता िै । कििे का आिय
यि िै नक अपिे निकितम पड़ोसी राज्य का राजा ित्रु उसके आगे का नमत्र और उससे आगे का अरर नमत्र,
इसी प्रकार से क्रम चिता िै । ये पाँच राज्य तो नर्नजगीर्षु के सामिे र्ािी या आगे की नदिा में िोते िैं ।

इसी प्रकार कुछ राज्य उसके पीछे की दिा में िोते िैं। नर्नजगीर्षु के पीछे पानणग्राि (पीछे का ित्रु )

आक्रान्दा (पीठ का नमत्र), पाणाव न ग्रािासार (पाणाव न ग्राि का नमत्र) और आक्रान्दासार (आक्रान्दासार का

नमत्र) चार राजा िोते िैं । पानणग्राि पड़ोसी िोिे के कारण िी नर्नजगीर्षु का ित्रु िोता िै । इि दस प्रकार से

राज्यों के अनतररि दो अन्य प्रकार के भी, ,राज्य िैं -मध्यम तथा उदासीि । मध्यम ऐसा राज्य िै नजसका
प्रदे ि नर्नजगीर्षु तथा अरर राज्य दोिों की सीमा से िगा हुआ िै । मध्यम राज्य दोिों की, चािे र्े परस्पर नमत्र

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िों या ित्रु िों, सिायता करिे में समथव िोता िै और आर्श्यक िोिे पर दोिों का अिग अिग मु काबिा

कर सकता िै । उदासीि राजा का प्रदे ि नर्नजगीर्षु , अरर तथा मध्यम इि तीिों की सीमाओं से परे िोता िै।

र्ि बहुत प्रबि िोता िै , उपयुवि तीिों के परस्पर नमिे िोिे की दिा में र्ि उिकी सिायता कर सकता िै ,
उिके परस्पर ि नमिे िोिे की दिा में र्ि प्रत्े क का मुकाबिा कर सकता िै । इस प्रकार 12 राज्यों का
यि समू ि राज्य मण्डि कििाता िै । इसे निम्ननिप्तखत नचत्र से भिी-भाँ नत समझा जा सकता िै।

मण्डि नसद्ान्त के आधार पर कौनिल्य िे इस बात का निदे ि नदया िै नक एक नर्िे र्ष राज्य के कौि नमत्र

िो सकते िैं और कौि ित्रु । राजा की अपिी िीनत और योजिा इस तथ्य को दृनि में रखते हुए िी निधाव ररत
करिी चानिए।

कौनिल्य द्वारा प्रनतपानदत मण्डि नसद्ान्त आं निक रूप में ठीक िै । उदािरणाथव , र्तव माि समय में भारत

की सीमाएँ पानकिाि और चीि से िगी हुई िैं और बहुत कुछ सीमा तक इसी कारण इि राज्यों के साथ

भारत के मतभे द बिे हुए िैं तथा भारत के प्रनत मतभे दों की इस समािता के कारण पानकिाि और चीि

परस्पर नमत्र िैं । इसी प्रकार भारत, पानकिाि और अफगानििाि तीिों दे िों के पारस्पररक सम्बन्धों को
भी मण्डि नसद्ान्त के आधार पर समझा जा सकता िै । िे नकि र्तव माि समय में जबनक व्यापार और

आनथव क नित तथा नर्चाराधारा सम्बन्धी भे द भी संघर्षव के कारण िोिे िगे िैं , उस समय मात्र सीमाओं के
आधार पर राज्यों के पारस्पररक सम्बन्धों की व्यर्थथा की जा सकती िै ।

मण्डि नसद्ान्त के सम्बन्ध में डॉ० अल्ते कर का नर्चार िै नक प्राचीि नर्चारक यि जािते थे नक युद्ों को

पूणव रूप से समाि ििीं नकया जा सकता िै , अतः उन्ोंिे इसके खतरों को कम करिे के निए एक ऐसे

नसद्ान्त का समथव ि नकया नजसके अिुसार दे ि में नर्द्यमाि अिेक छोिे -बड़े राज्यों में िप्ति का नर्र्ेकपूणव
सन्तु िि बिा रि सके और युद् ि िो।

क तटल् की षाड् गुण्य नीतत

पड़ोसी राज्य और नर्िेर्षतया अन्य नर्दे िी राज्यों के प्रनत व्यर्िार के सम्बन्ध में कौनिल्य िे र्षाड् गुण्य

अथाव त् 6 िक्षणों र्ािी िीनत का प्रनतपादि नकया। इसके 6 िक्षण िैं - सप्तन्ध, नर्ग्रि (युद्), याि (ित्रु का

र्ािनर्क आक्रमण करिा), आसि (तिथथता), संश्रय (बिर्ाि का आश्रय िे िा), और द्वै धीभार् (सप्तन्ध और
युद् का एक साथ प्रयोग।

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1. सत्मि-कौनिल्य के अिुसार नकसी भी राजा के निए सप्तन्ध करिे की िीनत का उद्दे श्य अपिे ित्रु राज्य की
िप्ति को िि करिा तथा स्वयं को बििािी बिािा िोता िै ।

उसके अिुसार ित्रु से भी उस समय सप्तन्ध कर िी जािी चानिए, जबनक ित्रु पर नर्जय प्राि ििीं की जा

सकती िो और स्वयं को सबि तथा ित्रु को निबवि करिे के निए कुछ समय प्राि करिा आर्श्यक िो ।
कौनिल्य के अिुसार सप्तन्ध कई प्रकार की िो सकती िै ।

2.तिग्रह - नर्ग्रि का अथव युद् िै। इस िीनत का अिुगमि राजा को तभी करिा चानिए जब राजा ित्रु को

निबवि दे खे, स्वयं उसकी युद् व्यर्थथाएँ िों तथा र्ि अपिी िप्ति के बारे में पूणवतया आश्वासत िो। नर्गृि

िीनत का अिुसरण करिे के पूर्व राजा के द्वारा राज्यमण्डि के नमत्र राज्यों की सिायता प्राि कर िे िे की
भी व्यर्थथा कर िी जािी चानिए। नर्ग्रि िीनत अपिाते हुए ित्रु के ऊपर आक्रमण करके राज्य की भू नम
के भागों को तु रन्त अपिे अधीि कर निया जािा चानिए।

3. यान - याि का अनभप्राय र्ािनर्क आक्रमण िै। इस िीनत को तभी अपिाया जािा चानिए जबनक राजा
अपिी प्तथथनत को सुदृढ रखे और ऐसा प्रतीत िो नक आक्रमण के मागव को अपिाये नबिा ित्रु को र्ि में
करिा सम्भर् ििीं िै । नर्ग्रि और याि में मात्र िर का िी भे द िै , याि नर्ग्रि से कुछ आगे

4. आसन - जब नर्नजगीर्षु और ित्रु समाि रूप से िप्तििािी िों तो राजा के द्वारा आसि अथाव त्

तिथथता की िीनत अपिायी जािी चानिए। आसि की िीनत अपिाते हुए राजा के द्वारा िप्ति अजवि की
निरन्तर चे िा की जािी चानिए।

5. सिंश्रय - संश्रय का अथव बिर्ाि का आश्रय निये जािे से िै । यनद राजा ित्रु को िानि पहुँ चािे की क्षमता

ििीं रखता, साथ िी यनद र्ि अपिी रक्षा करिे में भी असमथव िो, तो उसे बिर्ाि राजा का आश्रय िे िा

चानिए। पर यि ध्याि रखा जािा चानिए नक नजस राजा का आश्रय निया जा रिा िै , र्ि ित्रु से अनधक
बििािी िो। यनद इतिा बिर्ाि राजा ि नमिे , तो सबि ित्रु की िी िरण िी जािी उनचत िै ।

6. द्वै धीभाि - र्ैधीभार् की िीनत से कौनिल्य का आिय एक राज्य के प्रनत सप्तन्ध और दू सरे राज्य के प्रनत

नर्ग्रि की िीनत को अपिािे से िै । जब अपिे उद्दे श्य की पूनतव के निए एक राज्य से सिायता िे िे और दू सरे
राज्य से िड़िे की आर्श्यकता िो तो द्वै धीभार् िीनत अपिायी जािी चानिए।

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कौनिल्य की नर्चारधारा का मू ि यि िै नक नर्िेर्ष पररप्तथथनतयों के अिुसार जो िीनत उपयुि िो, र्िी

अपिायी जािी चानिए। कौनिल्य की राज्य नर्र्षयक अन्य नर्चारधाराओं की भाँ नत र्ैदेनिक सम्बन्धों के

नर्र्षय में ये नर्चार भी यथाथव तथा र्ािनर्क िैं , ि नक कोरे स्वप्निोकीय । र्िुत: कौनिल्य की र्षाड् गुण्य
िीनत इतिी तानकवक िै नक सभी राज्य कम-अनधक रूप में इस पर आचरण करते रिते िैं ।

र्ैदेनिक िीनत के सफि संचािि िेतु अन्य भारतीय आचायों की भैं नत िी कौनिल्य िे भी साम, दाम, दण्ड
और भे द इस प्रकार के चार उपायों का नर्धाि नकया िै । कौनिल्य का मत िै नक निबवि राजा को समझा

बुझाकर (साम द्वारा) अथर्ा कुछ सिायता दे कर (दाि द्वारा) र्ि में नकया जािा चानिए । भे द का अथव िै ,

फूि डाििा और कौनिल्य का नर्चार िै नक सबि ित्रु राजा, नजसके नर्रुद् युद् में नर्जय ििीं प्राि की

जा सकती िो, उसके प्रनत भे द िीनत को अपिाया जािा चानिए। इसका तात्पयव िै नक सबि राजा को
उसके अन्य नमत्र राज्यों में मतभे द की प्तथथनत उत्पन्न की जािी चानिए या सम्बप्तन्धत राजा और उसके राज्य

की अन्य प्रकृनतयों (अमात्, प्रजाजि, आनद) के बीच मतभे द की प्तथथनत उत्पन्न कर दी जािी चानिए, नजससे

सबि ित्रु राजा और उसका राज्य निबवि िो जाए। भे द उत्पन्न करिे का कायव दू त और गुिचरों के माध्यम

से नकया जा सकता िै । दण्ड का अथव िै युद् और कौनिल्य का नर्चार िै नक दण्ड के उपाय का अिुसरण
तभी नकया जािा चानिए, जबनक अन्य तीि उपाय (साम, दाम और भे द) साथव क नसद् ि िों। दण्ड के उपाय

को अन्त में िी अपिािे का सुझार् इसनिए नदया गया िै नक इस उपाय को अपिािे में स्वयं राजा को क्षनत
उठािी िोती िै ।

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