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HINDI

आधुनिक भारतीय भाषा हिंदी गद्य : उद्भव और


विकास (हिंदी-क)
B.A. Prog. Semester 3rd
Important Questions
with Answer

NOTES
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1

आधुनिक भारतीय भाषा

न िं दी गद्य : उद्भव और नवकास (न िं दी-क)

अध्ययि-सामग्री: इकाई (1-4)

अिु क्रम

इकाई-1 1. ह िं दी गद्य : उद्भव और हवकास

2. ह िं दी गद्य के हवहिन्न रूप िं का पररचय

3. आत्मकथा, यात्रा साह त्य, रे खाहचत्र, व्यिं ग्य, सिंस्मरण

इकाई-2 1. जुलूस (प्रेमचिं द)

2. मलबे का माहलक (म न राकेश)

3. मैं ार गई (मन्नू ििंडारी)

इकाई-3 1. उत्सा (रामचिं द्र शुक्ल)

2. अश क के फूल ( जारी प्रसाद हिवेदी)

3. रह मन पानी राखखए (हवद्याहनवास हमश्र)

इकाई-4 1. यात्रा वृत्ािं त -चीड िं पर चााँ दनी (यात्रा वृत्ािं त)

2. व्यिं ग्य-ि लाराम का जीव ( ररशिंकर परसाई)

3. नाटक-अिंधेर नगरी (िारते न्दु )

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प्रश्न - निम्ननिखित अवतरण िं की सप्रसिंग व्याख्या कीनिए :

(क) मानसक वे ति त पूणणमासी का चााँद ै , ि एक नदि नदिाई दे ता ै और घटते -घटते िुप्त

िाता ै । ऊपरी आय ब ता हुआ स्र त ै, निससे सदै व प्यास बुझती ैं । वे ति मिु ष्य दे ता ै, इसी

से उसमें वृ खि ि ी िं ती। ऊपरी आमदिी ईश्वर दे ता ै , इसी से उसमें बरकत ती ै । तु म स्वयिं

नवद्वाि , तु म्हें क्या समझाऊाँ ? इस नवषय में नववे क की बडी आवश्यकता ै । मिु ष्य क दे ि ,
उसकी आवश्यकता क दे ि , और अवसर दे ि , उसके उपरािंत ि उनचत, समझ कर ।

अथवा

उसिे त अपिे नकए का फि पा निया, पर मैं समस्या का समाधाि ि ी िं पा सकी। इस बार की

असफिता िे त बस मुझे रुिा ी नदया। अब त इतिी न म्मत भी ि ी िं र ी नक एक बार नफर

मध्यम वगण में अपिा िेता उत्पन्न करके नफर से प्रयास करती। इि द त्याओिं के भार से ी मेरी

गदण ि टू टी िा र ी थी और त्या का पाप ढ िे की ि इच्छा थी ि शखि ी और अपिे सारे अ िं क


नतिािंिनि दे कर बहुत ी ईमािदारी से मैं क ती हाँ मैं ार गई, बुरी तर ार गई।

उतर – (क) व्याख्या :-

य क ानी में कमों के फल के म त्व के बारे में समझाती ै । य क ानी अधमम पर धमम औरअसत्य पर

सत्य की जीत क दशाम ती ै । िले ी इिं सान खुद हकतना िी बुरा काम क् िं न कर ले ले हकन उसे िी

अच्छाई पसिंद आती ै । खुद हकतना िी भ्रष्ट क् िं न ले हकन व पसिंद ईमानदार ल ग िं क ी करता ै ।
कुछ ल ग हकतने िी ऊिंचे पद पर क् िं न बैठे जाएिं और हकतना अच्छा वेतन क् िं न पाते िं ले हकन

उनके मन में ऊपरी आय का लालच मे शा बना र ता ै । इस क ानी के िारा ले खक ने प्रशासहनक स्तर

और न्याहयक व्यवस्था में भ्रष्टाचार और उसकी सामाहजक सुहवकृहत क बडे ी सा हसक तरीके से उजागर

हकया ै । ये क ानी आजादी के प ले की ै अिंग्रेज िं ने नमक पर अपना एकाहधकार जताने के हलए अलग
नमक हविाग बना हदया। नमक हविाग के बाद ल ग िं ने कर से बचने के हलए नमक का च री छु पे व्यापार
िी करने लगे हजसके कारण भ्रष्टाचार िी फैलने लगा।

क ई ररश्वत दे कर अपना काम हनकलवाता, क ई चालाकी और हशयारी से। नमक हविाग में काम करने
वाले अहधकारी वगम की कमाई त अचानक कई गुना बढ़ गई थी। अहधकतर ल ग इस हविाग में काम

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करने के इच्छु क र ते थे क् हिं क इसमें ऊपर की कमाई काफी ती थी। ले खक क ते ैं हक उस दौर में

ल ग म त्वपूणम हवषय िं के बजाय प्रेम क ाहनय िं व श्रृिंगार रस के काव्य िं क पढ़कर िी उच्च पद प्राप्त कर

ले ते थे। उसी समय मुिं शी विंशीधर नौकरी के तलाश कर र े थे । उनके हपता अनुिवी थे अपनी वृद्धावस्था
का वाला दे कर ऊपरी कमाई वाले पद क बे तर बताया। वे क ते ैं हक माहसक वेतन त पूणममासी का

चािं द ै ज एक हदन हदखाई दे ता ै और घटते -घटते लुप्त जाता ै । ऊपरी आय ब ता हुआ स्र त ै

हजससे सदै व प्यास बुझती ै । व अपने हपता से आशीवाम द ले कर नौकरी की तलाश कर र े ते ै और

िाग्यवश उन्हें नमक हविाग में नौकरी प्राप्त ती ै हजसमें ऊपरी कमाई का स्र त अच्छा ै ये बात जब
हपता जी क पता चली त बहुत खुश हुए।

छ: म ीने अपनी कायमकुशलता के कारण अफसर िं क प्रिाहवत कर हलया था। ठिं ड के मौसम में विंशीधर
दफ्तर में स र े थे । यमु ना नदी पर बने नाव िं के पुल से गाहडय िं की आवाज सुनकर वे उठ गए। यमु ना नदी

पर बने नाव िं के पुल से गाहडय िं की आवाज सुनकर वे उठ गए। पिंहडत अल पीदान इलाके के प्रहतहित

जमीिंदार थे । जब जािं च की त पता चला हक गाडी में नमक के थै ले पडे हुए ैं । पहडत ने विंशीधर क ररश्वत
ले कर गाडी छ डने क का ले हकन उन्ह न
िं े साफ़ मन कर हदया।

पिंहडत जी क हगरफ्तार कर हलया गया। अगले हदन ये खबर आग की तर से फेल गई। अल पीदीन क

अदालत लाया गया। लज्जा के कारण उनकी गदम न शमम से झुक गई। सारे वकील और गवा उनके पक्ष में

थे , ले हकन विंशीधर के पास के केवल सत्य था। पिंहडतजी क सबूत िं के आिाव की वज से रर ा कर हदया।
पिंहडत जी ने बा र आ कर पैसे बािं टे और विंशीधर क व्यिंगबाण का सामना करना पडा एक फ्ते के अिंदर
उन्हें दिं ड स्वरूप नौकरी से टा हदया। सिंध्या का समय था। हपता जी राम-राम की माला जप र े थे तिी

पिंहडत जी रथ पर झुक कर उन्हें प्रणाम हकया और उनकी चापलू सी करने लगे और अपने बेटे क िलाबुरा
क ा।

उन्ह ने क ा मैं ने हकतने अहधकाररय क पैस के बल पर खरीदा ै ले हकन ऐसा कतम व्यहनि न ीिं दे खा

पिंहडत जी विंशीधर की कतम व्यहनिा के कायल गए। विंशीधर ने पिंखित जी क दे खा त उनका

सम्मानपूवमक आदर सत्कार हकया। उन्हें लगा हक पिंहडतजी उन्हें लखज्जत करने आए ैं । ले हकन उनकी बात
सुनकर आश्चयमचहकत गए और उन्ह न
िं े क ा ज पिंहडतजी क ें गे व ी करू
िं गा। पिंहडतजी ने स्टाम्प लगा

हुआ एक पत्र हदया हजसमें हलखा था हक विंशीधर उनकी सारी स्थाई जमीन के मै नेजर हनयुक्त हकए गए ैं ।

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विंशीधर की आिं ख िं में आिं सू आ गए और उन्ह न


िं े का व इस पद के काहबल न ीिं ै । पिंहडत जी ने क ा मु झे न
काहबल व्यखक्त ी चाह ए ज धमम हनिा से काम करे ।

अथवा

मैं ार गई' क ानी स्वातन्य त्र िारत के राजनैहतक पररदृश्य क , राजनीहत और राजनेताओिं के चररत्र क

स्पष्ट करने वाली क ानी ै । इसमें राजनीहत की दलदल, राजनेताओिं के द गले चररत्र क हजस प्रकार

व्यिं हजत हकया गया ै , वे खस्थहतयााँ आज िी वैसी ी ै । मन्नू ििं डारी की य क ानी िारतीय राजनीहत के
वातावरण और मू ल्यब ध से सिंबिंहधत कथानक के आधार पर रची गई क ानी ै ।ले खखका एक कहव

सम्मले न में जाती ैं ,व ािं एक ास्य कहव अपनी कहवता 'बेटे का िहवष्य' सुनाता ै । हजसका िाव ै "एक

हपता अपने बेटे के िहवष्य का अनुमान लगाने के हलए उसके कमरे में एक अहिनेत्री की तस्वीर,एक शराब

की ब तल और एक प्रहत गीता की रख दे ता ै और स्वयिं हछपकर खडा जाता ै | बेटा आता ै अहिनेत्री

की तस्वीर क उठता ै | उसकी बािं छे खखल जाहत ैं | बडी सरत से उसे व सीने से लगाता ै ,चूमता ै
और रख दे ता ै | उसके बाद शराब की ब तल से डॉ-चार चूिं ट पीता ै | थ डी दे र बाद मुाँ पर अत्यिं त

गिंिीरता के िाव लाकर, बगल में गीता दबाए व ब ार हनकलता ै | बाप बेटे की इस करतू त क दे खकर
उसके िहवष्य की घ षणा करता ै , 'य साला त आजकल का नेता बनेगा'|"

ले खखका चु नौती के रूप में एक आदशम पात्र से सम्पन्न क ानी के हनमाम ण का सिंकल्प कर र ी ै , ले हकन

उसकी लाख क हशश िं के बाद िी सामाहजक, आहथम क, सािं स्कृहतक और पाररवाररक पररवेश और वातावरण

के दबाव में पात्र का हवकास आदशम खस्थहत की ओर न ीिं पाता ै । इस क्रम में अलग अलग पररखस्थहतय िं
में अपने आदशम नेता क पैदा करती ैं। य पररखस्थहतयािं नेता की ी न ीिं पुरे दे श का साक्षात्कार कराती

ैं । मारे आाँ ख िं के सामने एक नाटक की िािं हत सब कुछ क्रमवार उपखस्थत ता ै | आहमर,गरीब और


मध्यम वगम अपनी अपनी समस्याय िं में उलझे हुए

य क ानी और समाज के सिंबिंध क पूरे प्रिाव के साथ व्यिं हजत करता ै । ले खखका क लगता ै हक वे

पररवेश से काटकर चररत्र का हनमाम ण करे गी, त उसका क ई मतलब न ीिं गा। दे श । काल में पररवतम न

ने का असर कथाकार की रचना प्रहक्रया पर िी पडता ै । आदशों और मू ल्य िं के साथ वास्तहवक पात्र िं

का हनमाम ण सिंिव न ीिं ै । ऐसे पात्र अस्वािाहवक ी जान पडते । ैं ।ले हकन आज की सच्चाई सर रूबरू
करते ैं | जनता में नेता की छहब एक स्वाथम,धन ल ल्प तथा हन ायत ी हछछला चररत्र के रूप में बन गई ै |

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वे िं सी-हठठ ली, चु टकुल िं के पात्र मात्र बन गए ैं । चाररहत्रक गुरुत्व और गिंिीरता अब गायब गई ै | जब

एक गरीब हकसान की झ पडी में अपने आदशम चररत्र क जन्म दे ती ै त व इसके माध्यम से गैब हकसान

और मध्यम वगम की समस्याओिं और हजम्मेदार ल ग पर व्यिं ग्य करती ैं |श हषत और श षक के सिंबिंध क


रे खािं हकत करती ैं |हकसान और गरीब िं की ालत हकसी से हछपी न ीिं ै | सरकार और नेताओिं की उपेक्षा

ी इस ालत के हलए पूरी तर हजम्मेदार ै | गरीब िं के ालात क वैहश्वक क र ना सिंकट के समय जब दे श


में लॉकडाउन हकया गया त वे पलायन क मजबूर गए|

ले खखका इस गरीबी से उत्पन्न पररखस्थहतय िं के कारण अपने आदशम हनहमम त क मार कर अब उसे एक

धनाढ्य कर डपहत के य ााँ पैदा करती ै |अब आहथम क समस्या न ीिं र ी|ले हकन य अमीरी उसे

शराब,जुआ और औरतख री , वेश्यागामी जैसे अनैहतक कमो की ओर ले गई।व अपने पतन के चरम पर
पहुाँ च जाता ै |य ााँ तक हक व अपनी मााँ तु ल्य सृष्टा के साथ दु व्यमव ार करता ै |इसके माध्यम से ले खखका

सािं स्कृहतक पतन की ओर इिं हगत करना चा ती ैं। य िी जरुरी न ीिं ै हक द न िं पररखस्थहतय िं में ऐसा ी
?

मन्नू ििं डारी ने िाषा और रचनात्मकता के स्तर पर क ानी के माध्यम से पररखस्थहतय िं क बे तर ढिं ग से

व्यक्त हकया ै । पूरी क ानी, क ानी के िीतर ी सम्पन्न ती ै । इस अथम में व नया क्लेवर धारण करती

ै । ले खखका ने कथानक और वातावरण के अनुकूल िाषा-शैली का चयन हकया ै । मन्नू ििं डारी की िाषा

की सबसे बडी हवशेषता ै हक व सरल ै । उनका मानना ै हक,-"शुरू से ी पारदहशमता क कथा िाषा
की अहनवायमता मानती हाँ । िाषा ऐसी हक र पाठक क सीधे कथा के साथ ज ड दे ..... बीच में अवर ध
या व्यवधान बनकर न खडी ।" सरल िाषा के माध्यम से य क ानी िी पाठक के सिंवेदना के स्तर पर

जुड जाती ै कथानक की सिी शास्त्रीय हवशेषताएिं इस क ानी में हवद्यमान ै । अपने िारा हनहमम त पात्र िं क

बार-बार चे तावनी दे ने पर िी जब व असफल जाती ै त क ानी का अिंत एक साथ कई प्रश् िं क


उठाता ै ।

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(ि) उत्सा की नगिती अच्छे गुण िं में ती ै । नकसी भाव के अच्छे या बुरे िे का निश्चय

अनधकतर उसकी प्रवृ नि के शुभ या अशुभ पररणाम के नवचार से ता ै । व ी उत्सा ि किणव्य

कमों के प्रनत इतिा सुिंदर नदिाई पडता ै , अकतण व्य कमों की ओर िे पर वैसा श्लाघ्य ि ी िं प्रतीत
ता। आत्मरक्षा, पर-रक्षा, दे श-रक्षा आनद के निनमि सा स की ि उमिंग नदिाई दे ती ै उसके
सौन्दयण क परपीडि, डकैती आनद कमों का सा स कभी ि ी िं पहुाँ च सकता।

अथवा

वतण माि की कौि-सी अज्ञात प्रेरणा मारे अतीत की नकसी भूिी हुई कथा क सिंपूणण मानमणकता के

साथ द रा िाती ै , य िाि िेिा स ि ता, त मैं भी आि गााँव के उस मनिि स मे िन्हें से


नवद्याथी की स सा याद आ िािे का कारण बता सकती, ि एक छ टी ि र के समाि ी मेरे
िीवि-तट क अपिी सारी आर्द्णता से छूकर अिन्त ििरानश में नविीि गया ै ।

उतर - दु :ख के वगम में ज स्थान िय का ै, व ी स्थान आनिंद-वगम में उत्सा का ै । िय में म प्रस्तुत
कहठन खस्थहत के हनयम से हवशेष रूप में दु खी और किी-किी उस खस्थहत से अपने क दू र रखने के हलए

प्रयत्नवान िी ते ैं । उत्सा में म आने वाली कहठन खस्थहत के िीतर सा स के अवसर के हनश्चय िारा

प्रस्तु त कमम -सुख की उमिं ग से अवश्य प्रयत्नवान ते ैं । कष्ट या ाहन स ने के साथ-साथ कमम में प्रवृत् ने

के आनिंद का य ग र ता ै । सा स-पूणम आनिंद की उमिंग का नाम उत्सा ै । कमम -सौिंदयम के उपासक ी


सच्चे उत्सा ी क लाते ैं।

हजन कमों में हकसी प्रकार का कष्ट या ाहन स ने का सा स अपेहक्षत ता ै उन सबके प्रहत उत्कण्ठापूणम

आनिंद उत्सा के अिंतगमत हलया जाता ै । कष्ट या ाहन के िे द के अनुसार उत्सा के िी िे द जाते ैं ।
साह त्य-मीमािं सक िं ने इसी दृहष्ट से युद्ध-वीर, दान-वीर, दयावीर, इत्याहद िे द हकए ैं । इनमें सबसे प्राचीन

और प्रधान युद्ध वीरता ै , हजसमें आघात, पीडा क्ा मृत्यु की परवा न ीिं र ती। इस प्रकार की वीरता का

प्रय जन अत्यिं त प्राचीन काल से चला आ र ा ै , हजसमें सा स और प्रयत्न द न िं चरम उत्कषम पर पहुाँ चते ैं ।
पर केवल कष्ट या पीडा स न करने के सा स में ी उत्सा का स्वरूप स्फुररत न ीिं ता।

उसके साथ आनिंद-पूणम प्रयत्न या उसकी उत्कण्ठा का य ग चाह ए। हबना बे श हुए िारी फ डा हचराने क

तै यार ना सा स क ा जाएगा, पर उत्सा न ीिं। इसी प्रकार चु पचाप, हबना ाथ-पैर ह लाए, घ र प्र ार
स ने के हलए तै यार र ना सा स और कहठन से कहठन प्र ार स कर िी जग से न टना धीरता क ी

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जाएगी। ऐसे सा स और धीरता क उत्सा के अिंतगमत तिी ले सकते ैं जब हक सा सी या धीर उस काम


क आनिंद के साथ करता चला जाएगा हजसके कारण उसे इतने प्र ार स ने पडते ैं ।

सारािं श य हक आनिंदपूणम प्रयत्न या उसकी उत्कण्ठा में ी उत्सा का दशमन ता ै , केवल कष्ट स ने के

हनश्चेष्ट सा स में न ीिं। धृ हत और सा स द न िं का उत्सा के बीच सिंचरण ता ै। उत्सा की हगनती अच्छे

गुण िं में ती ै। हकसी िाव के अच्छे या बुरे ने का हनश्चय अहधकतर उसकी प्रवृहत् के शुि या अशुि
पररणाम के हवचार से ता ै । व ी उत्सा ज कतमव्य कमों के प्रहत इतना सिंदर हदखाई पडता ै ,

अकतम व्य कमों की ओर ने पर वैसा श्लाघ्य न ीिं प्रतीत ता। आत्मरक्षा, पर रक्षा, दे श-रक्षा आहद के

हनहमत् सा स की ज उमिं ग दे खी जाती ै उसके सौिंदयम क पर-पीडन, डकैती आहद कमों का सा स किी
न ीिं पहुाँ च सकता। य बात ते िी हवशुद्ध उत्सा या सा स की प्रशिंसा सिंसार में थ डी-बहुत ती ी ै ।
अत्याचाररय िं या डाकुओिं के शौयम और सा स की कथाएाँ िी ल ग तारीफ़ करते हुए सुनते ैं ।

अब तक उत्सा का प्रधान रूप ी मारे सामने र ा, हजसमें सा स का पूरा य ग र ता ै । पर कमममात्र के


सिंपादन में ज तत्परतापूणम आनिंद दे खा जाता ै व उत्सा ी क ा जाता ै । सब काम िं में सा स अपेहक्षत

न ीिं ता, पर थ डा-बहुत आराम हवश्राम, सुिीते आहद का त्याग सबमें करना पडता ै , और कुछ न ीिं त

उठकर बैठना, खडा ना या दस-पााँ च क़दम चलना ी पडता ै । जब तक आनिंद का लगाव हकसी हक्रया,
व्यापार या उसकी िावना के साथ न ीिं हदखाई पडता तब तक उसे उत्सा की सिंज्ञा प्राप्त न ीिं ती।

यहद हकसी हप्रय हमत्र के आने का समाचार प्राप्त कर म चु पचाप ज् िं के त्य िं आनिंहदत कर बैठे र जाएाँ

या थ डा ाँ स िी दें त य मारा उत्सा न ीिं क ा जाएगा। मारा उत्सा तिी क ा जाएगा जब म

अपने हमत्र का आगमन सुनते ी उठ खडे ग


िं े। उससे हमलने के हलए दौड पडें गे और उसके ठ रने आहद
के प्रबिंध में प्रसन्न-मु ख इधर-उधर आते जाते हदखाई दें गे। प्रयत्न और कमम सिंकल्प उत्सा नामक आनिंद के

हनत्य लक्षण ै । प्रत्ये क कमम में थ डा या बहुत बुखद्ध का य ग िी र ता ै । कुछ कमों में त बुखद्ध की तत्परता

और शरीर की तत्परता द न िं बराबर साथ-साथ चलती ैं । उत्सा की उमिं ग हजस प्रकार ाथ-पैर चलवाती
ै उसी प्रकार बुखद्ध से िी काम कराती ै।

थ डा य िी दे खना चाह ए हक उत्सा में ध्यान हकस पर र ता ै । कमम पर, उसके फल पर अथवा व्यखक्त

या वस्तु पर? मारे हवचार में उत्सा ी वीर का ध्यान आहद से अिंत तक पूरी कमम -श्रृिंखला पर से ता हुआ
उसकी सफलता रूपी समाखप्त तक फैला र ता ै। इसी ध्यान से ज आनिंद की तरिं गें उठती ैं वे ी सारे

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प्रयन्न क आनिंदमय कर दे ती ैं । युद्ध-वीर में हवजेतव्य क आलिं बन क ा गया ै । उसका अहिप्राय य ी ै

हक हवजेतव्य कमम प्रेरक के रूप में वीर के ध्यान में खस्थत र ता ै , व कमम स्वरूप का िी हनधाम रण करता
ै । पर आनिंद और सा स के हमहश्रत िाव का सीधा लगाव उसके साथ न ीिं र ता।

सच पूहछए त वीर के उत्सा का हवषय हवजय-हवधायक कमम या युद्ध ी र ता ै। दान-वीर और धमम वीर

पर हवचार करने से य बात स्पष्ट जाती ै । दान दयावश, श्रद्धावश या कीहतम -ल िवश हदया जाता ै ।
यहद श्रद्धा-वश दान हदया जा र ा ै त दान-पात्र वास्तव में श्रद्धा का और यहद दया-वश हदया जा र ा ै त

पीहडत यथाथम में दया का हवषय या आलिं बन ठ रता ै। अत: उस श्रद्धा या दया की प्रेरणा से हजस कहठन

या दु स्साध्य कमम की प्रवृहत् ती ै उसी की ओर उत्सा ी का सा सपूणम आनिंद उन्मु ख क ा जा सकता ै ।

अतः और रस िं में आलिं बन का स्वरूप जैसा हनहदम ष्ट र ता ै वैसा वीररस में न ीिं। बात य ै हक उत्सा
एक यौहगक िाव ै हजसमें सा स और आनिंद का मेल र ता ै ।

हजस व्यखक्त या वस्तु पर प्रिाव डालने के हलए वीरता हदखाई जाती ै उसकी ओर उन्मु ख कमम ता ै

और कमम की ओर उन्मु ख उत्सा नामक िाव ता ै । सारािं श य ै हक हकसी व्यखक्त या वस्तु के साथ
उत्सा का सीधा लगाव न ीिं ता। समु द्र लााँ घने के हलए उत्सा के साथ नुमान उठे ैं उसका कारण

समु द्र न ीिं-समु द्र लााँ घने का हवकट कमम ै । कमम िावना ी उत्सा उत्पन्न करती ै , वस्तु या व्यखक्त की
िावना न ीिं।

हकसी कमम के सिंबिंध में ज ााँ आनिंदपूणम तत्परता हदखाई पडी हक म उसे उत्सा क दे ते ैं कमम के
अनुिान में ज आनिंद ता ै उसका हवधान तीन रूप िं में हदखाई पडता ै

1. कमण-भाविा से उत्पन्न

2. फि-भाविा से उत्पन्न और

३. आगिंतुक, अथाणत् नवषयािंतर से प्राप्त ।

फल की हवशेष आसखक्त से कमम के लाघव की वासना उत्पन्न ती ै ; हचत् में य ी आता ै हक कमम बहुत

सरल करना पडे और फल बहुत-सा हमल जाए। श्रीकृष्ण ने कमम -मागम से फलासखक्त की प्रबलता टाने का
बहुत ी स्पष्ट उपदे श हदया, पर उनके समझाने पर िी िारतवासी इस वासना से ग्रस्त कर कमम से त

उदास बैठे और फल के इतने पीछे पडे हक गरमी में ब्राह्मण क एक पेठा दे कर पुत्र की आशा करने

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लगे, चार आने र ज का अनुिान करा के व्यापार में लाि, शत्रु पर हवजय, र ग से मु खक्त, धन-धान्य की वृखद्ध

तथा और िी न जाने क्ा-क्ा चा ने लगे। आसखक्त प्रस्तु त या उपखस्थत वस्तु में ी ठीक क ी जा सकती

ै । कमम सामने उपखस्थत र ता ै । इससे आसखक्त उसी में चाह ए, फल दू र र ता ै , इससे उसकी ओर
कमम का लक्ष्य काफी ै । हजस आनिंद से कमम की उत्े जना ती ै और ज आनिंद कमम करते समय तक
बराबर चला चलता ै उसी का नाम उत्सा ै।

अथवा

गिंगा पार झुिंसी के खिंड र और उसके आस-पास के गााँ व िं के प्रहत मे रे हवशेष आकषमण क दे खकर ल ग
जन्म-जन्मािं तर के सिंबिंध का व्यिं ग्य करने लगे ैं । मु झे व ााँ पर समय हबताना बहुत अच्छा लगता ै।

दू र-पास बसे हुए, हमट्टी के जीणम-शीणम घर िं से खस्त्रय िं का झुिंड पीतल-तााँ बे के चमचमाते, हमट्टी के नए-पुराने

घडे ले कर गिंगा जल िरने आता ै । क ई अपने हगलट के कडे -युक्त ाथ घडे की ओट में हछपाने का
प्रयत्न-सा करती र ती ै और क ई चााँ दी के पघेली-ककना की झिंकार के साथ ी बात करती ै ।

वे सब प ले ाथ-मुाँ ध ती ैं , हफर पानी में घुसकर घडा िर ले ती ैं। तब घडा हकनारे रखकर किी

महलन, किी उजली मु स्कान से मु स्करा दे ती ैं । अपने-मे रे बीच का अिंतर उन्हें ज्ञात ै , तिी कदाहचत् वे
इस मु स्कान के सेतु से उसका वार-पार ज डना न ीिं िू लतीिं।

ग्वाल िं के बालक अपनी चरती हुई गाय-िै स िं में से हकसी क दू सरी ओर ब कते दे खकर ी लकुटी ले कर

दौड पडते । व्यथम हदन िर हगल्ली-डिं डा खेलने वाले वे हनठल्ले लडके िी बीच-बीच में नजर बचाकर मे री
ओर दे खना न ीिं िू लते ।।

क न ीिं सकती, कब और कैसे मु झे उन बालक िं क पढ़ाने का ध्यान आया; पर जब हबना िवन के, हबना

चिं दे की अपील के, मे रे हवद्याथी पीपल के पेड की घनी छाया में मे रे चार िं ओर एकत्र गए, तब मैं बडी
कहठनाई से गुरु के उपयुक्त गिंिीरता का िार व न कर सकी।

वे हजज्ञासु धु ले कुरते और ऊाँची ध ती में नगर और ग्राम का सखम्मश्रण जान पडते थे । वे सिी दु बमल शरीर

वाले थे । उनकी पीली आाँ ख िं में सिंसार की उपेक्षा समाह त थी। उन सबमें घीसा अकेला ी था और आज
िी मे री स्मृहत में अकेला ी आता ै ।

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घीसा की मााँ ने मु झे बताया हक उसका पहत न ीिं ै , व ी इधर-उधर काम करती ै । और उसका य

अकेला लडका ऐसे ी घूमता र ता ै। व िी यहद उन बच्च िं के साथ बैठ कर कुछ सीख ले त समय का
सदु पय ग जाएगा।

अगले रहववार क व सबसे पीछे दु बककर बैठ गया। लडके उससे कुछ खखचे -खखचे से र ते थे। इसहलए

न ीिं हक व क री था, वरन् इसहलए हक उनके पररवार के सदस्य िं ने घीसा से दू र र ने की ह दायत दी थी।
उन्ह न
िं े ी घीसा के इस कुरूप नाम का र स्य िी बताया। बाप त जन्म से प ले ी न ीिं र ा। घर में क ई

दे खने-िालने वाला न ने के कारण मााँ उसे बिंदररया के बच्चे के समान हचपकाए हफरती थी। उसे एक

ओर हलटाकर जब व मजदू री के काम में लग जाती थी, तब पेट के बल घहसट-घहसटकर बालक सिंसार
के प्रथम अनुिव के साथ-साथ इस नाम की य ग्यता िी प्राप्त करता जाता था।

गााँ व की अन्य खस्त्रयााँ िी मु झे आते -जाते र ककर अनेक प्रकार की िाव-ििं हगमा के साथ घीसा की जन्म-
जात अय ग्यता का पररचय दे ने लगीिं।

उसका बाप था त क री, पर बडा ी अहिमानी और िला बनने का इच्छु क। डहलया आहद बुनने का काम

छ डकर व थ डी बढ़ईहगरी सीख आया और एक हदन दू सरे गााँ व से युवती वधू लाकर उसने अपने गााँ व

की सब सजातीय सुिंदरी बाहलकाओिं क उपेहक्षत कर उनके माता-हपता क हनराश कर डाला। मनुष्य इतना

अन्याय स सकता ै ; परिं तु ऐसे अवसर पर िगवान की असह ष्णुता प्रहसद्ध ी ै । गााँ व के चौखट-दरवाजे
बनाकर और ठाकुर िं के घर में सफ़ेदी करके उसने कुछ ठाट-बाट से र ना आरिं ि हकया, तब अचानक
ै जे के ब ाने व व ााँ बुला हलया गया, ज ााँ न जाने का ब ाना न उसकी बुखद्ध स च सकी, न अहिमान।

उसकी स्त्री िी कम गवीली न हनकली। गााँ व के अनेक हवधु र एविं अहववाह त क ररय िं ने केवल उदारतावश
ी उसकी नैया पार लगाने का उत्रदाहयत्व ले ना चा ा; परिं तु उसने क रा उत्र दे हदया। व बडे घर की

हवधवा के समान र ने लगी त सारा क री समाज क्र हधत उठा। उस पर घीसा बाप के मरने के बाद
हुआ। उसकी कथा सुनकर मैं उसकी ओर आकहषमत उठी।।

पढ़ने, स्मरण रखने और पुस्तक िं की सार साँिाल में घीसा के समान क ई चतु र न था। किी-किी मन

चा ता था हक उसकी मााँ से उसे मााँ ग लाऊाँ और अपने पास रखकर उसके हवकास की उहचत व्यवस्था कर

दू ाँ -पर उस उपेहक्षता माहननी हवधवा का व ी एकमात्र स ारा था। व अपने पहत का स्थान न ीिं छ डना
चा ती थी।

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शहनवार क घीसा अपने दु बमल ाथ िं से पीपल की छाया क लीप दे ता था। इतवार क व हफर उस स्थान

क झाड-बु ारकर गिंगा के तट पर आ बैठता था। मे री नाव क दे खते ी व गुरु सा ब पुकारता हुआ पेड
के नीचे पहुाँ च जाता।

म ीने में चार हदन ी मैं व ााँ पहुाँ च सकती थी और किी-किी काम की अहधकता के कारण न ीिं िी जा
पाती थी।

मु झे आज िी व हदन न ीिं िू लता जब मैं ने हबना कपड िं का प्रबिंध हकए ी सफाई का म त्त्व बता डाला।

दू सरे इतवार क सब जैसे के तै से थे ; पर घीसा गायब था। पूछने पर ज्ञात हुआ हक घीसा मााँ से कपडे ध ने

का साबुन लाने के हलए तिी से क र ा था, क् हिं क गुरु सा ब ने न ा-ध कर साफ कपडे प न कर आने
के हलए क ा था। मााँ क मजदू री के पैसे कल रात क ी हमले थे। इसहलए व न ा-ध कर आएगा। जब

घीसा न ाकर गीला अिंग छा लपेटे और आधा गीला कुरता प ने अपराधी के समान मे रे सामने आकर खडा
हुआ, तब मैं द्रहवत उठी।

एक हदन मैं उन हवद्याहथम य िं के हलए पााँ च-छ: सेर जले हबयााँ ले गई। प्रत्ये क क पााँच-पााँ च जले हबयााँ हमलीिं।

सिी हवद्याहथम य िं ने आनन-फानन में अपनी-अपनी जले हबयााँ खा लीिं, हकिंतु -घीसा अपनी जले हबय िं में से द

जले हबयााँ अपनी मााँ के हलए घर रख आया। एक अपने हपल्ले क खखला दी और बची हुई द स्वयिं खा लीिं।

एक बार घीसा बीमार पड गया। उसके हलए दवा त मैं हिजवा दे ती थी, हकिंतु दे खिाल का क ई उहचत
प्रबिंध न पाया। इतवार की सिंध्या क मैं बच्च िं क हवदा दे घीसा क दे खने चली। थ डी दू र आगे जाते ी

घीसा क हगरते -पडते अपनी ओर आते दे खकर मन क्लािं त उठा। व पिंद्र हदन से उठ ी न ीिं पा र ा
था। बुखार से तपते उस शरीर क उसकी टू टी खहटया पर हलटा कर मैं लौटी।

इसके उपरािं त घीसा अच्छा गया। इसी प्रकार समय व्यतीत ता र ा।

मे री तबीयत कुछ हदन िं से खराब र ने लगी थी। मन िारी-िारी र ता था। डॉक्टर िं क मे रे पेट में फ डा
ने का सिंदे था। ऑपरे शन की सिंिावना थी। बच्च िं क पढ़ाने का कायमक्रम कुछ समय के हलए स्थहगत

करना पडा। लौट िी पाऊाँगी या न ीिं। बच्च िं से हवदा लेते समय घीसा मु झे क ीिं हदखाई न ीिं हदया। सिंध्या
हघरने लगी थी, तब मैं ने दू र से एक काला-सा धब्बा आगे बढ़ता दे खा।

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हनकट आने पर दे खा हक निंगे बदन घीसा द न िं ाथ िं में एक बडा तरबूज साँिाले था। घीसा के पास न पैसा
था, न खेत-तब व क्ा इसे चु रा लाया ै ।

घीसा गुरु सा ब के सामने झूठ ब लना िगवान जी से झूठ ब लना समझता ै। व तरबूज कई हदन प ले

ी दे ख आया था। माई के लौटने में जाने क् िं दे र गई, तब उसे अकेले ी खेत पर जाना पडा। व ााँ खेत

वाले का लडका था, हजसकी उसके नए कुरते पर कई हदन से नजर थी। तरबूज के हलए पैसा न ीिं ै , त
कुरता दे जाओ। घीसा आज तरबूज न ले ता त कल उसका क्ा करता। इसहलए कुरता दे आया; पर गुरु

सा ब क हचिं ता करने की आवश्यकता न ीिं, क् हिं क गहमम य िं में व कुरता प नता ी न ीिं। तरबूज मीठा ै
या न ीिं, य दे खने के हलए कटवाना पडा।

व ब ला हक गुरु सा ब यहद तरबूज न लें गी, त व रात िर र एगा। उसे बहुत कष्ट गा, ले जावें त व

र ज न ा-ध कर पेड के नीचे पढ़ा हुआ पाठ द राता र े गा। तब मैं िावाहतरे क से हवह्वल उठी। ऐसी
गुरु-दहक्षणा शायद ी हकसी हशष्य ने अपने गुरु क दी गी।

हफर घीसा के सुख का हवशेष प्रबिंध कर मैं वापस आ गई और लौटते -लौटते कई म ीने लग गए। जब मु झे

वाहपस व ााँ जाने का अवकाश हमला, तब घीसा क उसके िगवान जी ने सदा के हलए पढ़ने का अवकाश
दे हदया था। आज व क ानी द राने की शखक्त मु झ में न ीिं ै ।

प्रश्न – न िं दी िाटक की नवकास की यात्रा क स्पष्ट कीनिए ?

उतर- नवििंब से प्रारिं भ

ह न्दी क उत्राहधकार रूप में सिंस्कृत तथा प्राकृत की प्रचु र नाट्य-साह त्य की सिंपहत् प्राप्त थी, हकन्तु

इसका प्रय ग अनेक कारण िं से उन्नीसवीिं शताब्दी से पूवम न सका। इसहलए ह न्दी-नाट्य-परिं परा का

हवकास हवलिं ब से हुआ। मु सलमान िं के आक्रमण िं के कारण राजनैहतक अशािं हत और उथल-पुथल र ी ।


इस्लाम-धमम के प्रहतकूल ने के कारण नाटक िं क मु गलकाल में उस प्रकार का क ई प्र त्सा न न ीिं हमला
हजस तर का प्र त्सा न अन्य कलाओिं क मु गल-शासक िं से प्राप्त हुआ।

य ी वज ै हक मु गल-शासन के द ढाई सौ वषों में िारतीय-परिं परा की अहिनयशालाओिं अथवा प्रेक्षागार िं


का सवमथा ल प ी गया। अहिनयशालाओिं के अिाव में नाटक िं का हवकास हकस प्रकार सकता था?
य ी कारण ै :

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हक िारते न्दु जी से पूवम ह न्दी नाट्य-कला अहवकहसत ी र ी। इसके अहतररक्त नाटकीय कथ पकथन के

समु हचत हवकास के हलए हजस हवकहसत गद्य की जरूरत थी, उसका िी इस युग में अिाव था। ह न्दी-
नाट्य-परिं परा का हवकास हदखाने के हलए उसका काल-हविाजन हनम्न प्रकार कर सकते ैं :

1. पूवण भारते न्दु युग (सि् 1867 से पूवण),

2. भारते न्दु युग (1867 से 1905),

3. सिंक्रािंनत युग (1905 से 1915),

4. प्रसाद युग (सि् 1915 से 1934) और

5. प्रसाद िर युग (सि् 1934)

पूवण भारते न्दु युग- िारत में अिंग्रेजी का प्रिु त्व स्थाहपत ने पर उन्ह न
िं े अपनी सुहवधा के हलए य ााँ अनेक

वस्तु ओिं क आरिं ि हकया। उन्ह न


िं े अपने मन रिं जन के हलए अहिनयशालाओिं का सिंय जन हकया, ज हथयेटर

के नाम से हवख्यात हुई। इस ढिं ग का प ला हथयेटर प्लासी के युद्ध से पूवम कलकत्ा में बन गया था, दू सरा
हथयेटर सन् 1795 ई. में 'लेफेड फेअर' नाम से खुला था। इसके बाद सन् 1812 ई. में 'एथीनियम' और

दू सरे वषम 'चौरिं गी' हथयेटर खुला। इस प्रकार पाश्चात्य-नाट्यकला के सिंपकम में सबसे प ले बिंगाल आया और
उसने उनके हथयेटर के अनुकरण पर अपने नाटक िं के हलए रिं गमिं च क नया रूप हदया।

िारते न्दु -युग से पूवम के नाटक िं क नाटकीय दृहष्ट से सफल न ीिं क ा जा सकता। य कुछ कहवय िं का

नाटक हलखने का प्रयास-मात्र था, ले हकन वे पद्य-बद्ध कथ पकथन के अहतररक्त कुछ न ीिं क े जा सकते ।

इन नाटक िं में कुछ अनूहदत और कुछ मौहलक थे । अनूहदत नाटक िं में कुछ त नाटकीय काव्य ैं तथा कुछ

गद्य-पद्य हमहश्रत नाटक । बनारसीदास जैन िारा अनूहदत 'समयसार' नाटक और हृदयराम िारा अनूहदत
' िु मन्नाटक' आहद नाटकीय काव्य ैं । मौहलक नाटकीय काव्य िं में प्राणचिं द्र चौ ान कृत 'रामायण

म ानाटक' तथा 'कृष्णजीवन', लक्ष्मीराम-कृत करुणािरण' आहद की गणना की जाती ै । प्रायः दे खा गया
ै हक र साह त्य में नाटक िं की उत्पहत् इसी प्रकार नाटकीय काव्य िं से हुई।

किात्मक दृनष्ट से तत्कािीि अनूहदत नाटक िं में 'प्रब ध चिं द्र दय' का सवमप्रथम स्थान ै । इसका अनुवाद

सन् 1643 ई. में हुआ था। दू सरा नाटक ‘आनिंद रघुनिंदन' ै । इसका रचनाकाल सन् 1700 ई. में माना

जाता ै । कला की दृहष्ट से य उच्चक हट की रचना न ीिं ै । इन सिी मौहलक और अनूहदत नाटक िं की

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िाषा ब्रजिाषा ै । इन सिी नाटक िं क नाटक न क कर नाटकीय-काव्य क ा जा सकता ै । इसी

परिं परा में आगे चलकर सन् 1841 ई. में िारते न्दु के हपता ग पालचिं द्र का 'नहुष' और सन् 1861 ई. में राजा

लक्ष्मणहसिं -कृत 'शकुिंतला' उल्लेखनीय ैं । ‘नहुष' में नाटकीय तत्व अवश्य हमलते ैं । अतः ह न्दी नाटक िं
का आरिं ि य ीिं से मानना चाह ए । उपयुमक्त हववेचन से स्पष्ट ै हक ह न्दी-नाटक िं का सूत्रपात सिंस्कृत की

परिं परा से हुआ। आगे चलकर ह न्दी-नाट्य-साह त्य के इहत ास में िारते न्दु -युग आरिं ि ने पर जब ह न्दी-

नाटक िं का सिंपकम अिंग्रेजी नाटक िं से स्थाहपत हुआ, तब सिंस्कृत की नाट्य परिं परा के स्थान पर अिंग्रेजी नाट्य
परिं परा ने अपना स्थान बना हलया।

भारते न्दु युग- ह न्दी-नाटक िं की अहवखच्छन्न परिं परा िारते न्दु जी से शुरू ती ै । आपके नाटक अहिनेय

ते थे । इस समय नाटक की प्राचीन परिं पराओिं का त्याग ने लगा था। िारतेन्दु ने अपने हपता के
अनुकरण पर नाटक िं के अनुवाद हकये और मौहलक नाटक िी हलखे । उन्ह न
िं े अपने नाटक िं क प्राचीन

लक्षण िं के अनुकूल ी हलखने का प्रयत्न हकया था, पर उनके नाटक िं पर स्पष्टतः बिंगला तथा फारसी नाटक-

शैली की छाप ै। उन्ह न


िं े इन शैहलय िं क जान-बूझकर ग्र ण हकया ऐसी बात न ीिं ै , पर इतना त

अवश्य ै हक वे हकसी न हकसी रूप में उनसे प्रिाहवत अवश्य र े और उसी दृहष्ट से उन्ह न
िं े अपने नाटक िं
क रिं गमिं च के उपयुक्त बनाने का प्रयत्न हकया । पररणामस्वरूप नाटक िं की िारतीय परिं परा िारते न्दु के

नाटक िं में पाश्चात्य परिं परा से अछूती न र सकी । इस प्रकार उनके नाटक िं ने सामहयक बनकर परवती

नाटककार िं के सामने आधु हनक ह न्दी-नाटक िं की रूपरे खा प्रस्तु त की और उस हदशा में दू सर िं क बढ़ने

के हलए प्रेररत हकया। इस युग में अिंग्रेजी, बिंगला और सिंस्कृत के नाटक िं के सफल अनुवाद हुए। िारते न्दु

जी ने सन् 1925 ई. में प्रथम अनूहदत नाटक 'हवद्या सुिंदर' ह न्दी क हदया। इसके पश्चात् मौहलक नाटक
‘वैहदकी ह िं सा ह िं सा न िवहत', 'प्रेम य नगिी', 'सत्य ररश्चिंर्द्', 'चिंर्द्ाविी', 'िारत दु दमशा', 'नीलदे वी', 'अिंधेर
नगरी' आहद तथा अनूहदत नाटक 'हवद्या सुन्दर', 'मु द्राराक्षस' आहद नाटक िारते न्दु जी ने हलखे।;

िारते न्दु जी के समकालीन ले खक िं में बद्रीनारायण 'प्रेमधन' का ‘िारत सौिाग्य'; प्रतापनारायण हमश्र के

‘कनि प्रभाव', 'गौ-सिंकट', 'हत्रया ते ल मीर ठ चढ़े न दू जी बार' राधाकृष्णदासजी के 'म ारानी पद्मावती'

तथा 'म ाराणा प्रताप' केशव िट्ट के 'सज्जादसम्बुज' 'समवाद सौसन' आहद नाटक उल्लेखनीय ैं । इनके

अहतररक्त श्रीहनवासदास के 'प्रणयी प्रणय', 'मयिंक मिं जरी': साहलगराम का ‘माधवानल कामकिंदला' आहद
नाटक िी पयाम प्त ख्याहत प्राप्त कर चु के ैं। इनमें से अहधकािं श नाटक िं का कलात्मकता की दृहष्ट से क ई
मू ल्य न ीिं ै ।

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िारते न्दु -युग में सिंस्कृत के प्रायः सिी अच्छे नाटक िं के अनुवाद हुए । िविू हत कृत 'उत्र

रामचररत','मालती माधव' तथा 'म ावीर चररत' का ह न्दी में अनुवाद हुआ । सन् 1898 ई. में लाला

सीताराम ने काहलदास के ‘मालहवकाहि हमत्र' का ह न्दी-अनुवाद हकया। इसके अलावा 'वे णी सिं ार',
'मृच्छकनटक', 'रत्नाविी' तथा 'िागाििं द' के िी ह न्दी अनुवाद हुए। इन सिंस्कृत के नाटक िं के अहतररक्त

बिंगला से िी नाटक िं के अनुवाद हुए । माइकेल मधु सूदन कृत 'पद्मावती' तथा 'कृष्णा मु रारी' आहद के

सफल अनुवाद सामने आये। इसी समय अिंग्रेजी से िी अनुवाद् की परिं परा चल पडी । शेक्सनपयर के

मचेन्ट ऑफ वे निस' का 'दु िणभ बिंधु', 'वे निस िगर का सौदागर' तथा 'वे निस िगर का व्यापारी',
'कमेडी ऑफ एरसण' का भ्रमिािक', 'एि यू िाइक इट' का ‘मन िावना' तथा 'र हमय एिं ड जूहलयट'
का 'प्रेम-लीला', 'मै कबैथ' का 'सा सेंद्र सा स' के नाम से अनुवाद हुआ।

इस तर नाटक-हनमाम ण की दृहष्ट से िारते न्दु -युग में नाटक िं के प्राचीन हवषय िं की पुनरावृहत् ी न ीिं हुई,

अहपतु कहतपय ऐसे नवीन हवषय िं क िी जन्म हदया गया, ज िावी ह न्दी-नाटककार िं के हलए पथ-प्रदशमक

बन गये। इसमें सिंदे न ीिं हक कई कारण िं से य काल नाटक-रचना के हलए क्षहणक ी हसद्ध हुआ और

अगले दस वषों में हकसी म त्वपूणम नाटक की रचना न सकी, हफर िी इसी काल ने प्रसाद-युग क जन्म
हदया और यहद य क ा जाये हक िारते न्दु -काल में ी प्रसाद जी हवद्यमान थे त अत्यु खक्त न गी;

सिंक्रािंनत-युग- प्रसाद-यु ग के आरिं ि ने के प ले य दस वषम का काल बडे म त्व का ै । बिंग -ििं ग के

प्रश् िं क ले कर समस्त दे श में राष्टरीय-आिं द लन हुए। इसका नाट्य-साह त्य पर पयाम प्त प्रिाव पडा। इन दस-
ग्यार वषों का नाट्य-साह त्य िारते न्दु -युग के नाट्य-साह त्य से कई बात िं में हिन्न गया। इसका स्पष्ट
प्रिाव ऐहत ाहसक, प्रेम-प्रधान तथा समस्यामू लक नाटक िं पर पडा। कला की दृहष्ट से नाटक िं में हकसी तर
की हवशेषता न आ सकी ।

पौराहणक कथानक िं क ले कर ज नाटक हलखे गये , उनमें म ावीरहसिं कृत 'नलदमयिंती', जयशिंकर प्रसाद

कृत 'करुणालय' और बद्रीनाथ िट्ट कृत 'कुरुविद ि' अपना प्रमु ख स्थान रखते ैं । ऐहत ाहसक नाटक िं

में शाहलगराम कृत 'कुरु-नवक्रम', वृिंदावनलाल वमाम कृत 'सेनापहत उदाल' और बद्रीनाथ िट्ट कृत

'चिं द्रगुप्त' और 'तुलसीदास' अहधक प्रहसद्ध ैं । इन नाटक िं में ऐहत ाहसक घटनाओिं के साथ िारते न्दु -युग
की अपेक्षा ऐहत ाहसक वातावरण का हचत्रण अहधक सफलता से हकया गया । समस्या-प्रधान नाटक

सामाहजक और राष्टरीय हवचार िं का समन्वय ले कर उपखस्थत हुए। नाटक िं में हमश्र-बिंधुओिं की सन् 1915 ई.

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की 'नेत्र न्मीलन' रचना म त्वपूणम ै । प्र सन िं में बद्रीनाथ िट्ट कृत 'चुिं गी की उम्मीदवारी' अहधक प्रहसद्ध
ै।

इस सिंक्रािं हत युग में अनूहदत नाटक िं की परिं परा िी चलती र ी। अिंग्रेजी, बिंगला और सिंस्कृत से सफल

अनुवाद ते र े । बिंगला से हिजेन्द्रनाथ राय के नाटक िं के अनुवाद हुए । इस प्रकार जब ह न्दी-नाटक

सिंस्कृत तथा बिंगला से अनुप्राहणत र े थे , उसी समय रिं गमिं च के क्षे त्र से पारसी नाटक मारे सामने आए
पारसी नाटक किंपहनय िं ने आकषमक और मन रिं जक बनाकर मारे सामने अपने नाटक उपखस्थत हकये। ये

नाटक साह त्य और सिंस्कृहत की दृहष्ट से ऊिंचे न थे , तथाहप उनमें नाट्यकला का आकषमण त था ी। ह न्दी

नाट्य-कला िी इस ओर झुकी । ह न्दी में इस प्रकार के नाटक उपखस्थत करने का श्रेय नारायण प्रसाद
बेताब, पिं. राधे श्याम कथावाचक और रे कृष्ण जौ र क ै।

सिंक्रािं हत-युग में नाटक िं के क्षे त्र में क ई हवशेष उन्नहत त न ीिं हुई पर िाषा की दृहष्ट से खडी ब ली का

प्रचलन गया। हवषय-वस्तु में धाहमम कता का स्थान सामाहजकता और ऐहत ाहसकता ने ले हलया।

नाटककार िं का दृहष्टक ण यथाथम वाद से प्रिाहवत हुआ। इस प्रकार सिंहध-काल के नाट्य-साह त्य में ऐसा
पररवतम न हुआ ज आगे चलकर प्रसाद-युग क म त्वपूणम बनाने में स ायक सका।

प्रसाद-युग- प्रसादिी िे न न्दी-नाटक िं क एक नई हदशा तथा नई गहत प्रदान की। उनके मौहलक

नाटक िं ने न केवल ल ग िं के बिंगला के प्रहत आकषमण का ी शमन हकया वरन् उच्चक हट का नाट्य-साह त्य
िी ह न्दी क हदया। प्रसाद-युग नाट्य साह त्य की कई धाराओिं क ले कर सामने आया। इस प्रकार िारते न्दु

काल में हजन नाटकीय प्रवृहत्य िं का बीजार पण हुआ था, वे सिंहधकाल में अिंकुररत कर प्रसाद-युग में

कहतपय नवीन चे तनाओिं और नवीन हवचारधाराओिं क ले कर आगे बढ़ीिं । प्रसाद-युग में नाटक िं पर

शेक्सहपयर की नाट्य-कला का हवशेष प्रिाव पडा। ह न्दी के नाटककार िं क प्रारिं ि में सिंस्कृत नाट्य-
साह त्य से ज प्रेरणा हमली, व िारते न्दु काल में पाश्चात्य नाट्य-कला से आिं हशक रूप में प्रिाहवत कर
प्रसाद-युग में एकदम बदल गई।

प्रसाद-युग में कई पौराहणक नाटक हलखे गये। मै हथलीशरण गुप्त का 'हतल त्मा', कौहशक का 'िीष्म तथा
ग हवन्दबल्लि पिंत का वरमाला' हवशेष म त्वपूणम ैं । ऐहत ाहसक नाटक िं के अहतररक्त बेचन शमाम 'उग्र'

का ‘म ात्मा ईसा',प्रेमचिंद का कबणिा', नमनिन्द का 'प्रताप प्रनतज्ञा',उदयशिंकर भट्ट का नवक्रमानदत्य'

तथा सेठ ग हवन्ददास का ‘ षम' उल्लेखनीय ैं । राष्टरीय धारा में प्रेमचिं द का ‘सिंग्राम' उत्कृष्ट नाटक ै ।

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समस्या-प्रधान नाटक िं में लक्ष्मीनारायण हमश्र के 'सन्यासी', 'राक्षस का मिं हदर' और 'मु खक्त का र स्य' नवीन

चे तना क ले कर उपखस्थत हुए । वतम मान युग की उलझती हुई समस्याओिं के कारण य परिं परा हवकहसत ी

ती चली गई। में प्रसाद अनुवाद िी हुए । सत्यनारायण ने िविू हत कृत 'मालती माधव' और गुप्त जी ने
िास के 'स्वप्नवासवदत्ा' का अनुवाद हकया। अिंग्रेजी नाटक िं में शेक्सहपयर के 'ओथे ल ' का अनुवाद हुआ।

रूसी ले खक टॉलस्टाय के तीन नाटक िं के अनुवाद 'तिवार की करतू त', 'अिंधेरे में उिािा' और 'हजिंदा

लाश' के नाम से प्रकाहशत हुए। बेखियम के प्रहसद्ध कहव माररस मे टरहलिं क की द छ टी नाहटकाओिं का
ह न्दी-अनुवाद पदु मलाल पुन्नालाल बख्शी -युग ने हकया।

प्रसादजी स्वयिं एक युग-सृष्टा थे। उनके नाटक िं का हवषय बौद्धकालीन-स्वहणमम अतीत ै । उनके नाटक िं में

हिजेन्द्रलाल राय और रहव बाबू की सी दाशमहनकता और िावुकता हमलती नाटक ऐहत ाहसक और
सािं स्कृहतक दृहष्ट से हवशेष म त्व रखते ैं। नाटकीय हवधान में प्रसाद जी ने अपने नाटक िं क सवमथा

रूहढ़वादी पररपाटी से पृथक्रखा। उन्ह न


िं े प्राचीनता के स्वरूप क ी ग्र ण हकया। म उनके नाटक िं में

प्राच्य और पाश्चात्य नाट्य-कला का समन्वय पाते ैं। नाटक-रचना की दृहष्ट से िारते न्दु युग की अपेक्षा
प्रसाद युग ज्ादा सफल ै। प्रसाद र ा।

िारते न्दु जी ज ािं अपने युग के नेता थे , व ािं प्रसाद जी अपने युग के नेता न सके, उनकी नाट्य-कला

अपने समकालीन नाटककार िं क समान रूप से प्रिाहवत न कर सकी। वैज्ञाहनक सुधार िं और राजनीहतक

लचल िं के कारण प्रसाद-युग का कलाकार स्वतिं त्र चेता गय था । प्रसाद जी की रचनाएिं व्यखक्तगत
साधना का पररणाम थी, इसहलए प्रसाद अपने क्षे त्र में अकेले ी र े ।

प्रसाद िर युग (आधु निक काि) - सन् 1934 ई. से ह न्दी नाट्य-साह त्य के आधु हनक युग का प्रारिं ि

ता ै । इस युग में नाट्य-साह त्य के नवीन प्रय ग हुए । फ्रायड के हसद्धािं त िं की धूम मची हुई थी। इस
समय पाश्चात्य साह त्य में एक नवीन युग का प्रारिं ि हुआ। ऑस्कर वाइल्ड, वजीहनया वुल्फ, एच.जी. वेल्स,

गाल्सवदी आहद की रचनाओिं में प्रत्ये क समस्या बुखद्धवाद तथा उपय हगतावाद की कसौटी पर कसी गई ।

नाट्य-साह त्य में इव्सन के समस्या-प्रधान नाटक िं की धूम थी। ये सिी प्रिाव आधु हनक काल में ह न्दी

नाट्य-कला पर पडे । सबसे प ले लक्ष्मीनारायण हमश्र ने इन प्रिाव िं क अपने समस्या-प्रधान नाटक िं में
ग्र ण हकया। उनके नाटक िं में नारी समस्या क प्रमु ख स्थान हमला।

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आधु निक युग के प्रथम उत्थाि-काि (सि् 1934-1942 ई) में पौराहणक धारा के अिंतगमत िी हलखे गये

उदयशिंकर िट्ट की 'राधा' इस क्षे त्र में हवहशष्ट रचना ै । अन्य पौराहणक आख्यान िं पर आधाररत उदयशिंकर

िट्ट कृत 'अिंबा', 'सागर हवजय', 'मत्स्यगिंधा' और 'हवश्वाहमत्र' उल्लेखनीय ैं । कला की दृहष्ट से उग्र जी का
'गिंगा का बेटा' म त्वपूणम नाटक ै । ऐहत ाहसक क्षेत्र में ररकृष्ण प्रेमी ने अहधकारपूणम नाटक हलखे ।

अन्य ऐहत ाहसक नाटक िं में उदयशिंकर िट्ट का 'दा र' ग हविंदवल्लि पिंत के 'राजमु कुट' और 'अिं त:पुर का

नछर्द्' उपेन्द्रिाथ 'अश्क' का 'िय-परािय', ररकृष्ण प्रेमी के 'रक्षा-बिंधि', 'शखि-साधिा',

'प्रनतश ध', 'स्वप्न-भिंग', 'आहुनत' और सेठ ग हवन्ददास का 'शहशगुप्त' उल्लेखनीय ैं । पिंत जी का


ज् त्स्ना' नाटक प्रतीकवादी ै । इस युग में एकािं की नाटक िं की रचना िी हुई। िु वनेश्वर का 6 एकािं हकय िं

का सिंग्र 'कारवािं ' के नाम से प्रकाहशत हुआ । रामकुमार वमाम कृत 'पृथ्वीराज की आिं खें',रे शमी टाई तथा

'चारुहमत्रा', उदयशिंकर िट्ट कृत, अहिनव एकािं की' तथा 'स्त्री हृदय' और अश्क जी कृत 'दे वताओिं की
छाया में' हवशेष रूप से म त्वपूणम ैं ।

नद्वतीय उत्थाि काि (सि् 1942 से) में नाटक के क्षे त्र में ऐहत ाहसक और सामाहजक नाटक िं की रचना

हवशेष रूप से हुई। स्वतिंत्रता प्राप्त ने पर कहतपय राष्टरीय िावना प्रधान नाटक िी हलखे गये। इस हदशा में
सेठ ग हवन्ददास के 'पाहकस्तान' और 'हसद्धािं त स्वातिं य हवशेष म त्व के ैं । ऐहत ाहसक नाटक िं में प्रेमी जी

के 'नमत्र', 'नवष-पाि', 'उिार' तथा 'शपथ' लक्ष्मीनारायण हमश्र का ‘गरुडध्वि', 'वत्सराि' तथा

'दशाश्वमेघ', बेिीपुरी का ‘सिंघनमत्रा' और 'नसिं िनविय', वृिंदावनलाल वमाम का पूवम की ओर', 'बीरबि',

'झािं सी की रानी', 'कश्मीर का कािंटा', 'हशवाजी', चतु रसेन शास्त्री का ‘अजीतहसिं ' तथा ''राजहसिं ' आहद

प्रहसद्ध ैं । बाल-साह त्य में अच्छे एकािं की नाटक िं की रचना हुई । रे हडय में िी प्राय: एकािं की नाटक
प्रसाररत ते र ते ैं । हशक्षा-सिंस्थाओिं और सािं स्कृहतक आय जन िं के अवसर पर ह न्दी रिं ग-मिं च की बढ़ती
हुई मािं ग के कारण मारा एकािं की नाट्य-साह त्य पयामप्त हवकहसत ता जा र ा ै ।

प्रश्न - निबध की नवशेषताओिं पर प्रकाश डानिए?

उतर- एक अच्छे निबिंध की प्रमुि नवशेषताएिं निम्ननिखित ैं .

 हनबिंध की िाषा हवषय के अनुरूप नी चाह ए.

 हवचार िं में परस्पर तारतम्यता नी चाह ए.

 हवषय से सम्बिंहधत सिी प लु ओिं पर हनबिंध में चचाम की जानी चाह ए.

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 हनबिंध के अिंहतम अनुच्छेद में ऊपर क ीिं गई सिी बात िं का सारािं श ना चाह ए.

 वतम नी शुद्ध नी चाह ए तथा उसमें हवराम हचन्ह िं का उहचत प्रय ग हकया जाना चाह ए.

 हनबिंध हलखते समय शब्द िं की सीमा का अवश्य ध्यान रखना चाह ए.


 हनबिंध के ले खक का व्यखक्तत्व प्रहतफल ना आवश्यक ै .

 हनबिंध अहधक हवस्तृ त न कर सिंक्षेप में ना चाह ए.


 हनबिंध ले खन हवचार िं की एक अखिंड धारा ती ै उसका एक हनहश्चत पररणाम ना चाह ए.w

प्रश्न – मिबे के मानिक क ािी नवभािि की त्रासदी क दशनतण ै – नववचेि कीनिए?

उतर –

क ािं त तय था नचरागािं रे क घर के निए

क ािं नचराग़ मयस्सर ि ी िं श र के निए

य ािं दरख् िं के साये में धू प िगती ै

चि िं य ािं से चिें उम्र भर के निए

ि कमीज़ त पािंओ िं से पेट ढक िेंगे

ये ि ग नकतिे मुिानसब ैं इस सफर के निए।’’

दु ष्यिं त कुमार की ग़जल के ये चिं द अशरार म न राकेश की क ानी ‘मलबे का माहलक’ पर एक सटीक
हटप्पणी लगती ैं । म ात्मा गािं धी ने प्रत्ये क नागररक के सुख-समृ खद्ध का ज सपना दे खा था। इन्ह न
िं े आजाद

िारत में ह न्दू -मु खस्लम स अखस्तत्व का ज सपना दे खा था। व सपना मु म्मद अली हजन्ना के 16 अगस्त

1946 के प्रत्यक्ष कायमवा ी हदवस से ते जी से टू टना शुरू हुआ। य हनहश्चत न ीिं ै हक साम्प्रदाहयकता की

शुरुआत ह न्दु ओिं ने की या मु सलमान िं ने। मु झे लगता ै इसकी शुरुआत डल ौजी के ’हडवाइड एिं ड रूल’
पॉहलसी से हुई। खैर चा े ज ले हकन कािं ग्रेस की सत्ावादी राजनीहत और हजन्ना के लगातार पाहकस्तान
की मािं ग से दे श हविाजन की कगार तक पहुिं च गया और दे श साम्प्रदाहयकता की आग में जल पडा।

ह न्दू मु सलमान िं के बीच हुए इन ियिंकर दिं ग िं ने गनी हमयािं जैसे उदार मु सलमान िं क िी िारत छ डकर
पाहकस्तान जाने क हववश कर हदया। ल ग िं क उनके वतन की हमट्टी से अलग कर हदया और ज अलग

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न ीिं हुए उनका ाल ‘मलबे का माहलक’ क ानी के हचरागदीन, जुबैदा, हकश्वर और सुल्ताना की तर

हुआ। स्वतिंत्रता प्राखप्त के साथ दे श का हविाजन िी हुआ, और हविाजन के साथ साम्प्रदाहयकता का

ज्वालामु खी फूट पडा, हजसका लावा िारत और पाहकस्तान के क ने -क ने में फैल गया। ‘मलबे का
माहलक’ क ानी इसी ह िं सा की पृििू हम में ी हवकहसत ती ै ।

दे श हविाजन ने हसद्ध कर हदया हक धमम हनरपेक्ष शखक्तयािं ार गई और साम्प्रदाहयक शखक्तय िं की हवजय


हुई। इसहलए मु झे य क ने में कतई सिंक च न ीिं ै हक साम्प्रदाहयकता की नीिंव पर िारत का हविाजन

हुआ। दे श-हविाजन एक राजनीहतक घटना मात्र न ीिं थी, बखि एक व्यापक मानवीय त्रासदी थी।

राजनीहतशाखस्त्रय िं ने हविाजन के पक्ष में चा े हजतने तकम हदए िं और राजनेताओिं की कूटनीहत ने चा े

हविाजन क एक अहनवायमता मानकर स्वीकार कर हलया , पर ह न्दी ले खक िं ने इसे मानवीय त्रासदी के


रूप में ी दे खा।

मानवता क हकतने-हकतने दु ख झेलने पडे , मानव मू ल्य िं का नन ह न्दु स्तान और पाहकस्तान में हकतने

व्यापक स्तर पर हुआ। इसकी सच्ची तस्वीर ‘मिबे का मानिक’ जैसी क ाहनय िं में हमलती ै । य हववरण
दे ने का एक कारण त य बताना ै हक दे श हविाजन की त्रासदी कई दशक िं तक ह न्दी ले खक िं के

मखस्तष्क पर छाई र ी और व लम्बे समय तक उनके रचना क्रम क प्रिाहवत करती र ी। िीष्म सा नी

की क ानी ‘अमृ तसर आ गया ै ’ िी हविाजन की त्रासदी क क ती ै । इसमें िी साम्प्रदाहयकता िरी हुई

ै । स्वयिं प्रकाश की क ानी ‘‘क्या तु मिे कभी क ई सरदार नभिारी दे िा ै ?’’ 1984 के हसख दिं ग िं की
साम्प्रदाहयकता क बताती ै ।

दे श हविाजन पर हलखे गए उपन्यास िं की सिंख्या िी कम न ीिं ै । इस हवषय पर प ला उपन्यास यशपाल

का ‘झूठा सच’ ै । इसके बाद िै रव प्रसाद गुप्त का ‘‘सती मैया का चैरा’’, िगवतीचरण वमाम का ‘व हफर
न ीिं आई’, सातवे दशक में अनेक उपन्यास छपे हजसमें ‘आधा गािंव’ और ‘ओिंस की बूिंद’ (रा ी मासूम

रजा’) ‘िौटे हुए मुसानफर’ (कमले श्वर), तमस (िीष्म सा नी) और इिं सान मर गया’ (रामानन्द सागर) आहद

ैं । इस प्रकार स्पष्ट ै हक दे श हविाजन और उससे उपजी यिंत्रणा ह न्दी क ानीकार िं और उपन्यासकार िं


का हप्रय हवषय र ा ै ।

म न राकेश की क ानी मलबे का माहलक साम्प्रदाहयकता की आड में अवसरवाहदता की क ानी ै ।

रक्खे प लवान हचरागदीन दजी की त्या इसहलए न ीिं करता हक व उसे पसन्द न ीिं करता था बखि व

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इसहलए करता ै क् हिं क हचरागदीन के मकान पर रक्खे प लवान की नजर लगी थी। व हचरागदीन के

मकान पर कब्जा करने के हलए न केवल हचरागदीन क मारता ै बखि उसकी पत्नी जुबैदा और द न िं

लडहकयािं हकश्वर और सुलताना क िी मार दे ता ै। इतने बडे कदम के हलए रक्खे प लवान क बल
अराजक साम्प्रदाहयकता ने ी प्रदान हकया था।

म क ानी में दे खते ैं हक रक्खे प लवान क क ई सजा न ीिं ती ै । व र ज गली के बा र की बायीिं


ओर की दु कान के तख्ते पर बैठता ै । पीपल के पेड के नीचे बैठा हचलम पीता र ता ै । रक्खे प लवान

क सजा साम्प्रदाहयकता के अत्यहधक बढ़ जाने के कारण न ीिं ती। जब अहधकािं श जग मार-काट ी

मची हुई थी त सरकार हकस-हकस क सजा दे ती। य ी कारण ै हक इतने ियिंकर अपराध कर दे ने के
बावजूद उसे सजा न ीिं ती।

अमृ तसर के एक छ टी बािं सी बाजार की य क ानी एक गरीब मु खस्लम िारा एक सबल ह न्दू पर अत्यहधक

हवश्वास की दास्तान ै । य रक्षक के िक्षक बन जाने की क ानी ै । रक्खे प लवान क ल ग उस बस्ती

का रखवाला समझते थे । उसी के िारा हचरागदीन जैसे सीधे दजी की त्या उस पर साम्प्रदाहयकता का
आर प लगाकर कर दी जाती ै । रक्खे प लवान क ता ै हक तु झे पाहकस्तान दे र ा हिं और चाकू मार

दे ता ै । कमले श्वर स ी क ते ैं - ‘‘म ि राकेश की क ािी ‘मिबे का मानिक’ हविाजन की त्रासदी

और दिं गे के क र क सबसे अलग रूप में पेश करती ै। जाह र ै हक आजादी के बाद के ह न्दु स्तानी

समाज का एक बहुत बडा तबका आज िी उस ददम से उबर न ीिं पाया ै और गा े -बगा े व टीस ब स
का उग्र रूप िी धारण कर ले ती ै । ‘मिबे का मानिक’ हनःशेषवाद की कालातीत अहिव्यिं जना ै ।’’

मलबे का माहलक क ानी की शुरुआत ी ला ौर से अमृ तसर एक यात्री दल की वाताम से ती ै । वे

आपस में बात करते ैं हक य ािं पर हमसरी की दु कानें िी, य ािं पर िहठयाररन की िट्ठी थी, य नमक मिं डी
दे ख ल याहन वे एक-एक चीज क प चानने का प्रयास करते ैं । साम्प्रदाहयकता ने व ािं चीज िं क काफी

बदल हदया था। ल ग मखिद क गुरूिारा बना हदए थे । ऐसी ालत में जब उन्हें अमृतसर के बािं सी बाजार

में एक महजस्द हदखाई दे ती ै त उन्हें बडा आश्चयम ता ै हक बलवाइय िं ने इसक त डकर गुरूिारा क् िं

न ीिं बना हदया। पाहकस्तानी ट ली क ल ग उत्सुकतापूवमक दे ख र े थे । कुछ त मु सलमान िं क दे खकर


आशिंहकत जाते थे , इससे समझा जा सकता ै हक ल ग िं के हदल िं में दे श हविाजन के बाद हुए

साम्प्रदाहयक दिं ग िं की टीस तब तक मौजूद ी थी। बािं सी बाजार में जगज-जग मलबे का ढे र िीषण दिं ग िं
में बलवाइय िं िारा लगाई गई आग का प्रमाण ै ।

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हचरागदीन की त्या हकसी घर के बुझते हचराग की क ानी ै । हचरागदीन की त्या से उस घर का हचराग

बुझ गया। हचरागदीन की त्या उसके मकान पर कब्जा करने के हलए की गई थी। रक्खे प लवान पर य
गजल बहुत हफट बैठेगी-

‘पेट के भूग ि में उिझा ै आदमी

इस अ द िे में नकसक फुरसत ै पढ़े नदि की नकताब

डाि पर मज़ ब की पै म खिि र े दिं ग िं के फूि

सभ्यता रििीश के म्माम में ैं बेिकाब।’’

गनी हमयािं अपना घर ख जने के क्रम में जब एक र ते बच्चे क हचज्जी दे ने के हलए बुलाता ै त एक लडकी

िारा बच्चे क उठा हलए जाना और य क ना हक चु प र न ीिं त तु म्हें व मु सलमान उठाकर ले जाएगा।

य हवचार ी एक साम्प्रदाहयक हवचार ै । ऐसा लगता ै हक मु सलमान िं के व्यखक्तत्व का प्रय ग बालक िं क


डराने में हकया जाता ै । य धारणा त आज तक न ीिं बदली ै ।

मलबे का माहलक’ सािं प्रदाहयक दिं ग िं एविं दे श हविाजन से हबछडे एक ऐसे पररवार की क ानी ै ; हजन्हें
हनयहत ने हफर किी हमलने का अवसर ी न ीिं हदया। य अपने जमीन से टू टे गनी हमयािं की क ानी ै । ज

उस मकान, उस गली की खुशबू से हफर सिंबिंध ज डने की क ानी ै । य क ानी एक बूढ़े के आिं ख िं में बसे

सपन िं के मर जाने की क ानी ै । य क ानी आजादी के बाद हुए साम्प्रदाहयक दिं ग िं से प्रिाहवत लाख िं

ल ग िं का सच ै । हचरागदीन के पूरे पररवार क त रक्खे प लवान समाप्त कर दे ता ै। य साम्प्रदाहयकता

न ीिं त और क्ा ै । साम्प्रदानयकता की चरम पररणनत त तब िाती ै जब उस घर क क ई आग


लगा दे ता ै । य अवसरवाहदता का चरम नमू ना ै हजसमें य ी लगता ै हक म हकसी पीहडत आदमी क
और पीहडत कैसे करें ।

मकान के स्थान पर मलबा क दे खकर गनी हमयािं क ज तकलीफ हुई। उसके हलए वे तै यार न ीिं थे । गनी

हमयािं इतने सिंवेदनशील और िावुक जाते ैं हक उन्हें उस मलबे की हमट्टी क िी छ डकर जाने का मन

न ीिं करता। रक्खे प लवान की तरफ गनी हमयािं बा ें फैलाकर जाते ैं । उन्हें मालूम ी न ीिं र ता हक य ी

प लवान हजसके र ते उन्हें हकसी का डर न ीिं र ता था। व ी उनके पररवार का त्यारा ै । रक्खे

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प लवान खस्त्रय िं और बच्च िं क िी न ीिं छ डता ै । इससे त य ी लगता ै हक चा े क ई दिं गा या अन्य

क ई समस्या। उसका असर सबसे ज्ादा खस्त्रय िं और अब ध बच्च िं पर ी पडता ै । जब गनी रक्खे

प लवान से बात करता ै और उस पर हवश्वास जताता ै त व शमम से परे शान जाता ै । जब गनी य
क ता ै हक- ‘‘मेरे निए नचराग ि ी िं, त तु म ि ग त । मु झे आकर इतनी ी तसल्ली हुई हक उस

जमाने की क ई त यादगार ै । मैं ने तुमक दे ख हलया, त हचराग क दे ख हलया। अल्ला तु म ल ग िं क


से तमिं द रखे।’’

गनी हमयािं के इतना क ने पर रक्खे पानी-पानी जाता ै । उस हदन िी व गली के बा र बाईिं ओर की

दु कान के तख्ते पर आ बैठा। ले हकन उस हदन उसने ल ग िं क नन्हें सट्टे के गुर और से त के नुस्खे न ीिं

बताए बखि व पन्द्र साल प ले की गई वैष्ण िं दे वी की यात्रा का हववरण सुनाता ै । रक्खे में य
पररवतम न प्रेमचिं द के इस हवश्वास के कारण ता ै हक ‘बुरा आदमी हबिुल बुरा न ीिं ता उसके हृदय के
हकसी न हकसी क ने में दे वता अवश्य हछपा र ता ै ।

’ गिी नमयािं िे रक्खे प िवाि के अिंदर के दे वता क िगा नदया था। ‘‘सामप्रदानयक समस्याओिं के
सिंदभण में क ानीकार ने एक और म त्वपूणम तथ्य की ओर सिंकेत हकया ै । गनी क गली में दे खकर ज

औरतें उससे डर र ी थी, उनका डर उस समय समाप्त जाता ै , जब वे रक्खे और गनी की तु लना

LEकरती ैं । अब व ी गनी सबकी स ानुिूहत का और रक्खे घृणा का पात्र ै । रक्खे ने ी हचराग और

उसके बीबी बच्च िं क मारा ै .... ये व ी औरतें ैं ज थ डी दे र प ले गनी क डर और शक की हनगा िं से


दे ख र ी थीिं, वास्तहवकता से हिज्ञ कर अब वे पररवहतमत चु की ैं। सािं प्रदाहयकता की हनःसारता इस
बदले हुए मन िाव में हनह त ै ।’’

मलबे की चै खट का िु रिु राकर हगरना सिंबिंध िं में आए ढीले पन का सिंकेत ै । हविाजन से जुडने के बावजूद
य क ानी साम्प्रदाहयकता, उसके दु ष्पररणाम, राजनैहतक हवडम्बना और उसके सामाहजक पररणाम िं के

सिंदिम में व्यापक उठती ै । प ले स्तर पर य क ानी केवल रक्खे प लवान और गनी हमयािं की न

कर हविाजन की हविीहषका से बचे उस मलबे की जाती ै , ज मारे सामने एक प्रश् की तर खडा

ै और हजसकी चै खट से सडी लकडी के रे शे झर र े ैं । इस स्तर पर हकस्सा मलबे का िी एक स्वतिंत्र


व्यखक्तत्व उिरता ै । जुबैदा, हकश्वर और सुल्ताना का हकस्सा मलबे के साथ दफन न ीिं गया। य मारे
समय में और मजबूत ता जा र ा ै ।

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अब त रक्खे जैसे प लवान िं की रीढ़ की ड्डी में ददम िी न ीिं ता। डॉ. बच्चन हसिं ‘ह न्दी साह त्य का

दू सरा इहत ास में क ते ैं हक ‘‘म ि राकेश की क ानियााँ त्रासद-तनाव की क ाहनयािं ैं , उनका सारा

साह त्य’ तनाव और अन्तद्र्वन्ि िं से िरा पडा ै । उनके पात्र नायक ऐसी पररखस्थहतय िं में ते ैं , ज उन्हें
टू टने के द तक छ ड जाते ैं । ‘मलबे का माहलक’ क ी लें । य क ानी िारत हविाजन से उत्पन्न

पररखस्थहतय िं पर आधाररत ै । मलबा उन्माद और व शीपन का प्रिावी प्रतीक ै । अनेक स्मृहत-हबिंब िं में
उसका तनाव त्रासद उठता ै ।’’

मिबे का मानिक’ क ानी का शीषमक बडा व्यिं जक ै । मलबा म उसे क ते ैं ज हकसी काम का ना

। कूडा-कचरा-मलबा एक दू सरे के पयाम यवाची लगते ैं । व घर ल हचरागदीन का स्वगम था। व ी दू सर िं

के हलए मलबा के रूप में ै । साम्प्रदाहयकता की आग में म दू सरे के सपन िं क जलाकर मलबा बना दे ते
ैं । आखखर हचरागदीन-गनी हमयािं के सपन िं क त डकर रक्खे प लवान क क्ा हमला। ले हकन हबडम्बना

य ै हक रक्खा इस मलबे क अपनी जागीर समझता ै । बाजार बािं सी का एक कुत्ा उस मलबे क अपनी

जागीर समझता ै । व मलबे पर बैठे रक्खे प लवान का हवर ध िौिंककर करता ै । ले हकन इस क ानी

की हबडम्बना य ै हक हचरागदीन का पूरा मकान जलाकर राख कर हदया जाता ै । उसके पूरे पररवार
की त्या कर दी जाती ै । ले हकन व हवर ध न ीिं कर पाता। उसकी ालत त उस कुत्े से िी गई गुजरी
गई ै ।

मिवा वास्तव में कुिे , नबखिय ,िं कीडे -मक ड िं का नवश्रामस्थि ी ता ै । रक्खा प लवान उस
मलबे क खुद की जागीर समझता ै । इसका मतलब मलबा रक्खे प लवान का हदमाग ी ै । खैर चा े ज
इस मलबे क अब टना चाह ए क् हिं क य एक साम्प्रदाहयकता की हनशानी ै । हवहपन चन्द्र क ते ैं -

‘‘सािं प्रदाहयकता आज िारत के हलए सबसे बडा खतरा ै । य िारतीय समाज के हबखराव का आरिं ि ै ,

कहठनाई से प्राप्त िारतीय जनता की एकता के हलए सिंकट ै और बबमरता के ताकत िं के हलए खुली छूट
ै । अब य क ई क्षे त्रीय सिंघटना न ीिं ै । य एक दे शव्यापी समस्या बन गई ै । किी य ािं , किी व ािं
ह िं सक रूप में फूट पडती ै और हकसी न हकसी रूप में य सारे दे श में फैलने लगी ै।’’

मलबे का माहलक’ के क ानीकार म न राकेश ने अपनी इस क ानी में हविाजन के बाद की पररखस्थहतय िं
पर ध्यान इसहलए हदया क् हिं क हविाजन से उपजी साम्प्रदाहयकता के दु ष्पररणाम आजादी के कई वषों बाद

तक म सूस हकए गए। साम्प्रदाहयक दिं गे आज ज्ादा ी बढ़ गए ैं । 1984 के हसख दिं ग िं से ले कर, ग धरा,

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किंधमाल, बाबरी महजस्द हवध्विं स और उत्र प्रदे श के मऊ में हुए साम्प्रदाहयक दिं गे इसी कडी में ैं ।
इसहलए मलबे का माहलक क ानी की साम्प्रदाहयकता आज िी प्रासिंहगक लगती ै ।

मलबे का माहलक क ानी साम्प्रदाहयकता की आड में उपजे अवसरवाहदता की क ानी ै । हचरागदीन की

त्या के मू ल में ह न्दू -मु खस्लम घृणा ै ी न ीिं। इसके मूल में रक्खा प लवान िारा हचरागदीन के घर पर

कब्जा करने की लालसा। हचरागदीन त रक्खा प लवान पर इतना हवश्वास करता ै हक उसी के िर से /के
बल पर व अमृ तसर हटका र ता ै। व ला ौर न ीिं जाता। रक्खा प लवान िारा बुलाए जाने पर उसका

खाना छ डकर रक्खा से हमलने आना द न िं के सिंबिंध िं में हवश्वास का ी द्य तक ै । इन सिंबिंध िं के हवश्वास का
खून त रक्खे प लवान ने ी हकया। खैर चा े ज । इस क ानी क पढ़ने से य ी लगता ै -

‘भिे ी र ि नदवािी मिा के िुश ि

अिं धेरा वास्तव में आदमी के भीतर ै ।’

प्रश्न – ‘ अिंधरे िगरी’ की मूि सिंवेदिा पर नवचार कीनिए ?

उतर -

अिं धरे िगरी’ की मूि सिंवेदिा

प्र सन ास्य रस का मु ख्य नाट्यरूप ै । अिंधेरनगरी में परर ास उसके हशल्प का अहिन्न अिंग ै । इस

प्रकार 'अिंधेर नगरी' प्र सन लगता ै । इसके स्थापत्य में नीहतपरक आग्र एविं ल कशैली का खुलापन िी

ै । शारदातनय के अनुसार प्र सन में केवल एक अिंक ता ै । िारते न्दु ने अपने 'नाटक' नामक लम्बे

हनबन्ध में प्र सन के सम्बन्ध में हलखा ै - "यद्यनप प्राचीि रीनत से इसमें एक ी अिं क िा चान ए,

नकन्तु अब अिे क अिं क नदये नबिा ि ी िं नििे िाते ।" िारते न्दु जी ने फामम क लचीला बनाने एविं
समकालीन पररखस्थहतय िं की मााँ ग के अनुरूप अिंधेर नगरी की रचना छः अिंक िं के प्रस न के रूप में की ।

प्र सन के केन्द्रीय तत्व ैं - ास्य और व्यिं ग्य। अिंधेर नगरी में ये द न िं तत्व घुले -हमले ैं । हसफम एकाध
स्थल पर परर ास का स्तर सत ी लगता ै जैसे 'पाि िाइए म ाराि' क शराब के नशे में धु त् राजा

'सुपनखा आइए म ाराज' सुनकर डर जाता ै , हकन्तु ऐसे सिंवाद क िी नाटकीयता के िारा मु क्त ास्य में

बदला जा सकता ै । गुरू-चे ला के सिंवाद से िी ास्य की सृहष्ट ती ै , ले हकन उसका कारण सधु क्कडी

िाषा ै । ास्य त वैसे र सिंवाद एविं हक्रया-व्यापार में ै, हकन्तु व ााँ व चरम ऊाँचाई प्राप्त कर ले ता ै

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ज ााँ राजा स्वयिं स्वगम जाने के लालच में फााँ सी पर चढ़ जाता ै । ग बरधनदास गाता ै - साच क ें त पन ी

खावैं। झूठे बहुहवहध पदवी पावै। क्ा य नैहतक-मू ल्य िं के धराशायी ने की सूचना न ीिं ै ? थ डे और बुरे

रूप में य खस्थहत आज िी मौजूद ै । तिी त घूहमल 'अिंधेर नगरी' की रचना के लगिग नब्बे वषम बाद
'पटकथा' में हलखते ैं -

अपिे य ााँ आदमी क अपिी ईमािदारी का मिाि क्य िं ै ,

निसिे सच क नदया ै , उसका बुरा ाि क्य िं ै

सामाहजक मू ल्य िं की य पकड ी 'अिं धेर िगरी' क आज की तारीख में िी प्रासिंहगक बनाती ै।

िारते न्दु जनता से सीधा सिंवाद स्थाहपत करनेवाले ले खक थे । 'अिंधेर नगरी' में उन्ह न
िं े सामान्य जनता की

समस्या (बकरी मरने की समस्या) क नाटक का केन्द्रीय हबन्दु बनाकर सािं स्कृहतक म चे पर साम्राज्वादी
सत्ा एविं तकम-शुन्य औपहनवेहशक मानहसकता के खखलाफ सिंघषम करते हुए दे खा जा सकता ै । वे बतलाते

ै ‘‘हक अन्याय वषाम करने वाली अघ हषत, मू खमतापूणम नीहत के फिंदे में केवल प्रजा ी न ीिं फाँसती, बखि

स्वयिं राजा िी फाँसता ै । 'अिंधेर नगरी' की "टके सेर भािा, टके सेर िािा" वाली समातावादी नीहत िी
एक आकषमक छलावा ै हजससे ग बरधन दास जैसी ल िी जनता छली जाती ै ।

'अिंधेर नगरी' छः अिंक िं में पूरा ता ै। इसकी कथावस्तु में ल कानुकृहत ै। िारते न्दु ने इससे अिंधेर

नगरी चौपट राजा की ल क कथा ले कर समकालीन राजनीहतक चे तना का अथम िर हदया ै । व्यिं ग्य के

तीखेपन से ले खक केवल राज् सत्ा पर ी न ीिं, ब्रा मण के हबकाऊ मन वृहत्, मु नाफाख री, नौकरीशा ी
एविं मु फ्तख र िं की ल िवृहत् पर िी प्र ार करता ै । य प्र सन यहद आज िी प्रासिंहगक बना हुआ ै त

अपने इन्हीिं सवाल िं की वज से । इसकी कथा हजस मासूहमयत के साथ ास्य-व्यिं ग्य का धू प छा ी मे ल
करती ै उसकी वज व ल करस ै ज प्र सन की सिंरचना में ी हनह त ै ।

'अिंधेर नगरी' के प्रथम अिंक मे एक गुरू एविं द चेल िं के प्रसिंग क रखा गया ै तथा उस उपदे श क िी,
हजसमें गुरू ने क ा ै -

ि भ पाप का मूि ै , ि भ नमटावत माि।

ि भ कभी िन िं कीनिए, या मैं िरक निदाि।

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बाद में चे ला ग बरधनदास जब फााँ सी के फाँदे तक पहुाँ चता ै तब इस उपदे श की साथम कता समझ में आने

लगती ै । साथ बडी चतु राई से नाटककार य िी जतला दे ता ै हक आजकल उपदे श इसीहलए हदया जाता
ै हक उसे न माने जाय।

दू सरे अिंक में बाजार एविं उसमें ग बरधनदास िारा हकए गए भ्रमण का प्रसिंग ै । य ााँ कवाबबाला,

घासीराम, नारिं गीवाली, लवाई, कुिंजहडन, मछलीवाली, जातवाला, बहनया वगैर अपनी-अपनी ब ली में
अपने सामान की हब्रकी करते ैं । इनकी तु कबन्दी वाली ब ली ी इनके माल का हवज्ञापन ै । एक हवज्ञापन

चिा चुरमुर-चुरमुर ब िे। बाबू िािे क मुाँ ि िे।

चिा िावै तौकी मैिा। ब िैं अच्छा बिा चबैिा ।।

'अिंधेर नगरी' में बाजार का दृष्य काफी जीविंत ै । व्यावसाहयक सिंस्कृहत क हवज्ञापन की स ायता से
व्यापक एविं लु िावना बनाने के पूवम की य खस्थहत ै । इसमें कबाबवाला चने ज र गरमवाला, नारिं गीवाली,

लवाई, कुिंजहडन, मे वाफर श तत्कालीन बाजार के यथाथम चररत्र ैं । ये अपना सामान िी बेचते ैं और

समाज के चररत्र एविं ालात पर हटप्पणी िी करते ैं। घासीराम क ता ै : "चिा ानकम सब ि िाते ।

सब पर दू िा नटकस िगाते ।" कुिंजहडन की दृहष्ट में चररत्र िं में क ई िे द न ीिं ै "िैसे कािी वै से पािी।"
इस बाजार में एक जात बेचनेवाला ब्राह्मण िी ै ज पैसा ले कर मन नुकूल व्यवस्था दे ता ै - शूद्र क ब्रह्मण

एविं ब्राह्मण क शूद्र बनाता ै। व रूपये के हलए झूठी गवा ी दे ने, धमम और प्रहतिा बेचने , पाप क पुण्य

क ने के हलए तै यार ै । मु गल पठान के चररत्र में ज गवम एविं हदले री ै , उसका िौग हलक एविं ऐहत ाहसक

आधार ै । पठान िं ने अिंग्रेज िं के छक्के छु डाए थे। व क ता ै : "आमारा ऐसा मुल्क निसमें अिं गरे ि का

भी दााँत कट्टा ओ गया।" पाचकवाला समानान्तर व्यवस्था चलानेवाले मु नाफाख र ,िं ररश्वतख र ,िं म ाजन िं
आहद पर कटाक्ष करता ै । अिंग्रेज िं की उपहनवेषवादी, हवस्तारवादी नीहत की ओर िी व इशारा करता
हुआ क ता ै : "चूरि सा ब ि ग ि िाता। सारा न न्द िम कर िाता ।"

इस बाजार का उसूल समतावादी ै । साग से ले कर मे वा तक सब कुछ टके सेर। तीसरे अिंक में गुरू

म न्त जी अिंधेर नगरी चौपट्ट राजा की नीहत में िावी अहनष्ट दे खते ैं और नगर छ डकर चले जाते ैं ।
ग बरधनदास सस्ती हमठाई खाने के ल ि में गुरू की आज्ञा न ीिं मानता ै और उसी नगर में र जाता ै ।

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चौथा अिंक राजसिा का ै । कल्लू बहनये की दीवार हगर पडने से हकसी की बकरी दबकर मर जाती ै ।

फररयादी चौपट्ट राजा के दरबार में फररयाद करता ै । राजा उस दीवार क पकडकर लाने के हलए क ता

ै हजससे दब कर बकरी मरी। जब मिं त्री समझाता ै हक दीवार न ीिं आ सकती त व एक-एक कर कल्लू
बनिया, चूिेवािा, नभश्ती, गडे ररया और क तवाि क बुलवाता ै । बचाव में सबकी सफाई सुनता ै

और अन्त में क तवाल क द षी पाकर फााँ सी की सजा सुनाता ै । क तवाल के िाग्य से फााँ सी का फिंदा
बडा था और क तवाल दु बला।

पािं चवा अिंक में फिंदे की ग लाई के अनुरूप म टी गदम नवाले असामी की तलाश के क्रम में ग बरधन दास के

पकडे जाने का हचत्रण ै । ग बरधनदास खूब र ता-हचल्लाता ै और गुरू की आज्ञा न मानने के हलए खुद

क क सता िी ै। छठे अिंक में व सब ओर से हनराश कर गुरू क याद करता ै । गुरू आते ैं और
उनकी तरकीब से ग बरधनदास छूट जाता ै प्र सन का अन्त अजीब गरीव ै - स्वगम जाने के लालच में
अिंधेर नगरी का राजा स्वयिं ी फााँ सी लगा लेता ै ।

'अिंधेर नगरी' का रचनाहवधान काफी लचीला ै इसहलए इसमें रिं गमिं चीय प्रय ग की अनेकानेक
सिंिावनाएाँ ैं । इसके ज पद्यात्मक सिंवाद ैं , उनमें नृत्य एविं सिंगीत की गुिंजाइश ै । इन सिंवाद के िीतर से

ी ास्य एविं व्यिं ग्य उपजते ैं। जब ग बरधनदास सुनता ै हक य ााँ लवा, जले बी, गुलाबजामु न एविं खाजा-

सब कुछ टके सेर ै त व सानन्द पूछता ै , " क् िं बच्चा, मु झसे मसखरी त न ीिं करता" उल्लास की य
स जता स्वािाहवक ास्य की सृहष्ट करती ै ।

प्र सन आकार से बहुत ी छ टा ै , पर इसके सिी पात्र वगीय चररत्र ैं । इसकी िाषा पात्र िं के अनुरूप ै ,
गुरू िी चे ले क 'बच्चा नारायण दास' या 'बच्चा ग बरधनदास' ब लते ैं।

"दे िें, कुछ नभच्छा-उच्छा नमिे त ठाकुर िी का भ ग िगे।" य ााँ ठाकुरजी का ि ग प्रकारान्तर से

गुरूजी का ी ि ग ै । द न िं में य ााँ पयाम यता ै। सधुक्कडी िाषा का य यथाथम -रूप ै । पात्र िं के सिंवाद िं

में उच्चक हट की कथन ििं हगमाएाँ ैं । चूिंहक सिंवाद िं में पात्र का खास ख्याल रखा गया ै , इसहलए इनसे पात्र िं
का चाररहत्रक वैहशष्टय िी उजागर ता ै ।

'अिं धेर िगरी' की अिंधेरगदी अिं ग्रेिी शासि-व्यवस्था की खाहमय िं क ी सामने लाती ै । दे श की वा

और हमट्टी से िारते न्दु का ग रा लगाव था। उनके नाटक हसफम मनब लाने के हलए न ीिं ैं , बखि उनके

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जररए वे दे श की अनपढ़, अहशहक्षत, जनता क राजनीहतक दृहष्ट से जागरूक, जन-चे तन बनाने का िी


प्रयास कर र े थे ।

'अिंधेर नगरी' कुशासन का प्रतीक गया ै । जब व्यवस्था में अराजकता उत्पन्न ती ैं , कानून का शासन
ढीला पडता ै, रिं गकमी अिंधेर नगरी के मिं चन की ओर लपकते ैं ।

प्रश्न- 'मैं ार गई' क ािी की प्रासिंनगकता पर अपिे नवचार निखिए।

उिर- 'मैं ार गई' क ािी की प्रासिंनगकता

'मैं ार गई' क ानी स्वातन्य त्र िारत के राजनैहतक पररदृश्य क राजनीहत और राजनेताओिं के चररत्र

क स्पष्ट करने वाली क ानी ै । इसमें राजनीहत की हजस दलदल, राजनेताओिं के द गले चररत्र क हजस

प्रकार व्यिं हजत हकया गया ै , खस्थहतयााँ आज िी उससे हिन्न न ीिं ैं । हनत्य ी ऐसी घटनाएिं घहटत ती ैं ,
हजनसे इन नेताओिं की वास्तहवकता स्पष्ट ती ै । आहथमक लाि के हलए, सत्ा का सुख ि गने के हलए,

सरकार बनाने, बचाने और हगराने के हलए, व ट बैंक बनाने और बढ़ाने के हलए कैसे कैसे उपाय हकए जाते

ैं , हकस प्रकार ध खा-धडी और सौदे बाजी ती ै , जनता की िलाई के नाम पर अपना स्वाथम साधा जाता

ै , य सब हकसी से हछपा न ीिं ै । नैहतकता, मू ल्य, मयामदा अब केवल शब्द िर र गए ैं । हजनका आज


क ई अथम न ीिं, शायद क ई आवश्यकता िी न ीिं र गई ै । आम जनता बडी आशाओिं से हकसी व्यखक्त

हवशेष में अपने आदशम ख जती ै , उसे दे श का कणमधार बनाती ै , परन्तु शीघ्र ी आदशों का व मु खौटा

उतर जाता ै । उसके वास्तहवक हघनौने चररत्र से पररहचत ते ी व जनता स्वयिं क पराहजत सा अनुिव

करती ै । यद्यहप उसके पास व शखक्त ै हक उसे अपदस्थ कर सके, ज व्यखक्त नेता बनने के य ग्य ी

न ीिं ै उनसे उनकी शखक्त वाहपस ले ले (क् हिं क ज जनता नेता बना सकती ै , व ी हबगाड िी सकती ै ),
परन्तु प्रायः ऐसा न ीिं पाता। व इतनी हनराश चुकी ै हक उसमें अब हकसी अन्य में आदशम तलाश

करने का न उत्सा बचता ै न सा स। और हफर हकसी क िी नेता बनाया जाए, राजनीहत में आकर सिी
का चररत्र एक जैसा ी जाता ै । इस प्रकार य क ानी आज िी प्रासिंहगक ै ।

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प्रश्न- "मै ार गई' शीषणक की साथण कता स्पष्ट कीनिए।

उिर- "मै ार गई' शीषणक

'मैं ार गई' शीषमक से हलखखत इस क ानी में कथा-ले खखका ने अपनी ार क स्वीकार हकया ै । रचनाकार

हकसी कहव ग िी में 'बेटे का िहवष्य' नामक कहवता सुनती ै हजसमें नेताओिं क द गले चररत्र का उद् घाटन
कर उनका उप ास हकया गया ै । चूिं हक ले खखका के हपता िी राजनेता ैं और उनकी दृहष्ट में एक आदशम

नेता ैं इसहलए कथाकार इस व्यिं ग्य क स न न ीिं कर पाती। उसे लगता ै हक इस कहवता के िारा उसके

हपता जैसे आदशम नेता क जानबूझकर अपमाहनत करने की नीयत से य कहवता सुनाई गई। इस आक्षे प

का उहचत उत्र दे ने के हलए व अपनी क ानी के माध्यम से एक आदशम नेता क गढ़ने का प्रयत्न करती
ै । प ले गरीब नेता के मन में आदशम और सिंस्कार िरे जाते ैं और हफर बाद में अमीर घर में जन्मे व्यखक्त

के मन में । हकन्तु पररखस्थहतयााँ कुछ ऐसी बनती ैं हक ये द न िं ी अपने आदशों क त्याग कर पतन के मागम
पर अग्रसर ते ैं ।

ले खखका क इससे बहुत दु ःख ता ै और व अपनी द न िं 'मू हतम य 'िं क स्वयिं ी नष्ट कर दे ती ै । इस

अनुिव से व इस हनष्कषम पर पहुाँ चती ै हक जब तक सामाहजक व्यवस्था में पररवतम न न ीिं ता,

सामाहजक हवषमता समान न ीिं ती, व्यखक्त की स्वाथम परता पर हनयिंत्रण न ीिं ता तक तक आदशम नेता

की कल्पना व्यथम ै । इसी हनराशा के कारण व हकसी तीसरे आदशम नेता की कल्पना िी न ीिं करना
चा ती। इस शीषमक के माध्यम से ले खखका ने अपनी इस हनराशा की अहिव्यखक्त ी की ै ।

आत्मकलात्मक शैली में रहचत इस क ानी में ले खखका स्वयिं क आमजन का प्रतीक मानती ै । आम

आदमी बडी आशाओिं के साथ नेता चु नता ै , उस पर दे श और समाज का सारा दाहयत्व सौिंप इस आशा में
जीता ै हक नेता के प्रयत्न िं से उसके हदन हफरें गे, दे श की दशा में सुधार गा। परन्तु जब उसे अपने नेता

के वास्तहवक चररत्र का ब ध ता ै । त व स्वयिं क ठगा सा, पराहजत-सा अनुिव करता ै । 'मैं ार गई'
में ले खखका की पराजय इसी आम आदमी की पराजय ै ।

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प्रश्न - 'िुिूस' क ािी की मूि सिंवेदिा पर प्रकाश डानिए।

उतर – 'िुिूस' क ािी की मूि सिंवेदिा

िुिूस क ािी प्रेमचिंद की उन आरिं हिक क ाहनय िं में से ै हजनमें उन्ह न


िं े समाज की यथाथम समस्या क

आदशों से ल करके हदखाया ै । जुलूस क ानी की कथावस्तु स्वतिंत्रता आिं द लन के इदम -हगदम हलखी गई
ै । क ानी की कथावस्तु सरल स ज ै ज हक समय के प्रवा के साथ बढ़ती ै । क ानी की कथावस्तु का

कसाव शुरुआत से अिंत तक बना र ता ै पाठक क क ानी की सिंवेदना का आस्वादन करने में क ई
कहठनाई न ीिं ती ै ।

जुलूस क ानी प्रेमचिं द की उन क ाहनय िं में से ै ज राष्टरिखक्त िावना का प्रचार-प्रसार करती ैं । गााँ धीवादी

हवचार िं से प्रिाहवत य क ानी एक तरफ स्वाधीनता आिं द लन का हचत्रण करती ै व ीिं दू सरी तरफ

स्वतिं त्रता प्राप्त करने के हलए चलाए जा र े आिं द लन की जनता से क्ा-क्ा अपेक्षाएाँ ैं , य िी बताती ै।

क ानी शुरुआत से ले कर अिंत तक गााँ धीवादी दशमन के तत्त्व िं यथा अह िं सा, सत्याग्र का म त्त्व और हृदय
पररवतम न में आस्था पर केंहद्रत ै ।

जुलूस क ानी में स्वतिंत्रता आिं द लन के चररत्र का वणमन हकया गया ै । 'इब्रान म अिी' के नेतृत्व में
हनकला जुलूस गााँ धी जी के नेतृत्व में चल र े सत्याग्र क अहिव्यक्त करता ै । हजस तर गााँ धी जी ने
सिंयम और अह िं सा के साथ दमनकारी अिंग्रेजी हुकमत का हवर ध करने के हलए जनता का

आह्वान हकया था, ठीक उसी तर इब्राह म अली ने पूरी हवनम्रता और सिंयम के साथ जुलूस का नेतृत्व
हकया तथा अह िं सा की सिंिावना ने पर अपने जुलूस क वापस ले हलया।

जनता की मन वृहत क बदलना जुलूस क ानी की एक प्रमु ख सिंवेदना ने के साथ ी साथ क ानी का

एक हवशेष उद्दे श्य िी ै । मन वृहत् रूप में य पररवतम न दर गा बीरबल हसिं जैसे ल ग िं मे आता ै । ये व
ल ग ैं ज पद-प्रहतिा के ल ि के कारण अपने ी िाई-बिंधुओिं पर अत्याचार कर र ें ै । इनमें अपने कमों

से ने वाली ग्लाहन त ै ले हकन पद न्नहत की अहिलाषा में ये शािं हत से साथ हनकले जुलूस पर लहठयााँ

बरसाते ैं । इनमें मन वृहत् का पररवतम न तब आता ै जब समाज तथा पररवार में इनके दे श हवर धी कृत्य िं
की ित्समना ने लगती ै ।

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इसके साथ ी य पररवतम न मै कू, दीनदायल, और शिंिू जैसे पात्र िं में आया ै। ज प ले त जुलूस में

शाहमल त न ीिं थे ले हकन जुलूस की सफलता और असफलता का हवषय उनकी चचाम का जरूर था। परिं तु

जब ये जुलूस में शाहमल ल ग िं पर पुहलस के अत्याचार की जानकारी हमलती ै त ये ल ग िी तटस्थ न ीिं


र पाते और अपनी दु काने बिंद कर जुलूस में शाहमल जाते ैं ।

क ानी में प्रेमचिं द ने स्वतिं त्रता आिं द लन में उच्च वगम के ल ग िं की िू हमका के हवषय में िी चचाम की ै । वे
अपने पात्र िं के माध्यम से क ते ैं हक समाज के उच्च हशहक्षत और शखक्तशाली ल ग िं के आिं द लन में
शाहमल ने से आिं द लन के सफल ने की सिंिावना बढ़ जाएिं गी।

प्रश्न – ‘ भ िाराम का िीव का प्रनतपाघ निखिए ?

उतर – ‘ भ िाराम का िीव का प्रनतपाघ

ररशिंकर पर;साई की रचनाएाँ हदन-प्रहतहदन के जीवन में घटने वाली घटनाओिं और जीवन के हवहवध क्षे त्र िं

में व्याप्त अिंतहवमर ध िं की पडताल और प चान कराती ै। परसाई जी क 'वतम मानता का रचनाकार' क ा

जाता ै । वे प्रसिंग और घटनाएाँ , वे ल ग, वे खस्थहतयााँ ज अिी तक साह त्य की दु हनया से बा र रखी जाती

र ी थीिं, परसाईजी उन्हीिं की ओर मारा ध्यान खीिंचते ैं । 'भ िाराम का िीव' नामक इस रचना का मु ख्य
हवषय-भ्रष्टाचार िी मारे जीवन की एक ऐसी ी समस्या पर आधाररत ै हजससे ममें से अहधकािं श क
किी न किी हकसी न हकसी रूप में जूझना ी पडता ै।

य भ्रष्टाचार हकसी एक स्तर पर न ीिं, पूरी की पूरी व्यवस्था में व्याप्त ै । चपरासी से ले कर बडे -बडे
अफसर तक इसमें हलप्त ैं । और हकसी हवषय पर उनके हवचार हमले न हमले , परिं तु इस मामले में उनका

पारस्पररक स य ग दे खते ी बनता ै । समाज के हवहिन्न क्षे त्र िं में व्याप्त भ्रष्टाचार क उजागर करना प्रस्तु त

रचना का लक्ष्य ै । य एक प्रकार का सिंक्रामक र ग ै हजसके प्रक प क म सिी क हकसी न हकसी


रूप में झेलना पडता ै । य

र ग रे ल-डाक हविाग में ै , सावमजहनक क्षे त्र िं में ै , राजनीहत में ै , क ई िी त इससे अछूता न ीिं-

"म ाराि, आजकल पृथ्वी पर इस प्रकार का व्यापार बहुत चला ै। ल ग द स्त िं क कुछ चीज िे जते ैं

और उसे रास्ते में ी रे लवे वाले उडा ले ते ैं। जरी के पासमल िं के म जे रे लवे के अफसर प नते ैं ।

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मालगाडी के हडब्बे रास्ते में कट जाते ैं । एक बात और र ी ै । राजनीहतक दल िं के नेता हवर धी नेता
क उडा कर बिंद कर दे ते ैं ।"

"...िरक में नपछिे साि िं में बडे गुणी कारीगर आ गये ैं । कई इमारत िं के ठे केदार ैं , हजन्ह न
िं े पूरे पैसे

ले कर रद्दी इमारतें बनाई। बडे -बडे इिं जीहनयर िी आ गये ैं , हजन्ह न


िं े ठे केदार िं से हमलकर पिंचवषीय
य जनाओिं का पैसा खाया। ओवरसीयर ैं , हजन्ह न
िं े उन मजदू र िं की ाहजरी िर कर पैसा डपा,

ज किी काम पर गये ी न ीिं।" इस भ्रष्टाचार का सबसे ियिंकर रूप पेंशन-हविाग में दे खने क हमलता

ै । साधारण नौकरी पेशा व्यखक्त जीवन िर इस आशा में काम करता ै हक उसके अशक्त ने पर बुढ़ापे

में पेंशन का ी स ारा गा। परिं तु हबना ररश्वत हदये उसे पेंशन हमल न ीिं पाती और व िू ख िं मरने पर
हववश जाता ै ।

वस्तु तः परसाई जी की अन्य रचनाओिं की िााँ हत ी 'ि लाराम का जीव' स्वातन्य त्र िारत में उिरी

हवसिंगहतय िं का हचत्र ै । स्वतिं त्रता के पश्चात् मू ल्य हतर ह त ने लगे , धन-पद और प्रहतिा की ड बढ़ गयी,
राजनीहत और अपराध का गठबिंधन गया। दे श के हवकास के नाम पर अनेक य जनाएाँ बनीिं, राजनीहतज्ञ ,िं

नौकरशा िं और अफसर िं की हतज ररयााँ िरने लगीिं। परिं तु आम आदमी का जीवन कहठन से कहठनतर

ता गया। ले खक सिंकेत करता ै हक ऐसा प ले किी न ीिं हुआ था। स्वतिं त्रता से पूवम आम आदमी सपना

दे खता था खुश ाली का, प्रगनत का, नवकास का। स्वप्न ििं ग की खस्थहत त स्वतिं त्रता के बाद ी उत्पन्न हुई
ै । मू ल्य िं में बदलाव, अमानवीय और क्रूर दृहष्टक ण-ये सिी खस्थहतय िं

और व्यवस्था की दे न ैं हजनसे सब त्रस्त ैं । ि लाराम इस आम आदमी का ी प्रहतहनहध ै ज मृ त्युपयमन्त

पेंशन के हलए िटकता ै और मरने के बाद उसकी आत्मा िी व ीिं िटकती र जाती ै । यथाथम जीवन की
इन समस्याओिं ने उसे अपने पाश में इस प्रकार जकड हलया ै हक मरण परान्त िी उनसे छु टकारा सिंिव

न ीिं। यमदू त के पाश से व बच हनकलता ै परिं तु सरकारी तिं त्र की जकड से मु खक्त का क ई उपाय न ीिं।

साधु -सन्त िी इन पररखस्थहतय िं में हनरूपाय ैं । जब येन केन प्रकारे ण अथम की प्राखप्त ी जीवन का लक्ष्य

बन जाए त जीवन-मू ल्य अपनी अथम वत्ा ख दे ते ैं । हवकास और प्रगहत की बातें हसफम कागज िं पर ी र
जाती ैं और ि लाराम जैसे ल ग और उनके पररवार ताशा और िू ख से तडपते र जाते ैं।

ले खक की स ानुिूहत स्पष्टतया इस आम आदमी के प्रहत ी ै । चतु हदम क व्याप्त इस भ्रष्टाचार का क ई


समाधान ले खक ने प्रस्तु त न ीिं हकया और इसका क ई हनहश्चत समाधान ै िी न ीिं। मू ल्य दृहष्ट में पररवतम न

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से ी य समस्या उत्पन्न हुई ै और उसी पररवतम न में ी इसका उपाय िी हनह त ै । दृहष्ट में बदलाव के
िारा ी व्यवस्था में िी पररवतम न लाया जा सकता ै ।

प्रश्न - ‘िाख़ूि क्य िं बडते ै ’ नििं बध का प्रनतपाघ कीनिए ?

उतर – ‘िाख़ूि क्य िं बडते ै ’ नििं बध का प्रनतपाघ

वतम मान समय में नाखून का बढ़ना एविं मनुष्य िं िारा उनक काटना हनयहमत ढिं ग से गहतमान ैं । नाखून की

इस प्रकार उपेक्षा से में क ई अवर ध उत्पन्न न ीिं हुआ ै । प्राचीन युग में जब मानव में ज्ञान का अिाव था,

अस्त्र -िं शस्त्र िं से उसका पररचय न ीिं था, तब इन्हीिं नाखून िं क उसने अपनी रक्षा े तु सबल अस्त्र समझा,
हकिंतु समय के साथ उसकी मानहसक शखक्त में हवकास ता गया। उसने अपनी रक्षा े तु अनेक हवस्फ टक

एविं हवध्विं सकारी अस्त्र िं का आहवष्कार कर हलया और अब नाखून िं की उसे आवश्यकता न ीिं र ी, हकिंतु
प्रकृहत-पदत् य अस्त्र आज िी अपने कतम व्य क िूल न ीिं सका ै ।

मिु ष्य की िािूि के प्रनत उपेक्षा से ऐसा प्रतीत ता ै हक व अब पाशहवकता का त्याग एविं मानवता

का अनुसरण करने की ओर उन्मु ख ै , हकिंतु आधु हनक मानव के क्रूर कमों, यथा ह र हशमा का त्याकािं ड

से उपयुमक्त कथन सिंहदग्ध प्रतीत ता ै , क् हिं क य पाशहवकता की मानवता क चु नौती ै । वात्सायन के


कामसूत्र से ऐसा मालू म ता ै हक नाखून क हवहिन्न ढिं ग से काटने एविं साँवारने का िी एक युग था । प्राणी

हवज्ञाहनय िं के अनुसार नाखू न के बढ़ने में स ज वृहत्य िं का प्रिाव ै । नाखून का बढ़ना इस बात का प्रतीक
ै हक शरीर में अब िी पाशहवक गुण वतम मान ै ।

अस्त्र -शस्त्र में वृ खि भी उसी भाविा की पररचानयका ै । मानव आज सभ्यता के हशखर पर अहधहित

ने के हलए कृत-सिंकल्प ै । हवकास न्मु ख ै हकन्तु मानवता की ओर न ीिं, अहपतु पशुता की ओर। इसका

िहवष्य उज्ज्वल ै हकन्तु अतीत का म पाश सशक्त ै । ‘स्व‘ का बिंधन त ड दे ना आसान प्रतीत न ीिं ता

ै । काहलदास के हवचारानुसार मानव क अव्वाचीन अथवा प्राचीन से अच्छाइय िं क ग्र ण करना चाह ए
तथा बुराइय िं का बह ष्कार करना चाह ए। मू खम इस कायम में अपने क असमथम पाकर दू सर िं के हनदे शन पर
आहश्रत कर िटकते र ते ैं।

भारत का प्राचीि इनत ास इस बात का साक्षी ै हक हवहिन्न जाहतय िं के आगमन से सिंघषम ता र ा,


हकन्तु उनकी धाहमम क प्रवृहत में अत्याचार, बबमरता और क्रूरता क क ीिं आश्रय न ीिं हमला। उनमें तप, त्याग,

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सिंयम और सिंवेदना की िावना का ी बाहुल्य था। इसहलए की मनुष्य हववेकशील प्राणी ैं । अत: पशुता पर

हवजय प्राप्त करना ी मानव का हवहशष्ट धमम ै । वाह्य उपकरण िं की वृखद्ध पशुता की वखद्ध ै । म ात्मा गािं धी
की त्या इसका ज्वलन्त प्रमाण ै । इससे सुख की प्राखप्त कदाहप न ीिं सकती।

निस प्रकार िािूि का बढ़िा पशुता का तथा उिका काटिा मिु ष्यत्व का प्रतीक ै , उसी प्रकार

अस्त्रशस्त्र की वृखद्ध एविं उनकी र क में पारस्पररक सिंबिंध ै । इससे सफलता का वरण हकया जा सकता ै ,
हकिंतु चररताथम कता की छाया िी स्पशम न ीिं की जा सकती। अत: आज मानव का पुनीत कतमव्य ै हक व

हृदय-पररवतम न कर मानवीय गुण िं क प्रचार एविं प्रसार के साथ जीवन में धारण करे क् हिं क मानवता का
कल्याण इसी से सत्य एविं अह िं सा का मागम प्रशस्त सकेगा।

आचायम रामचिं द्र शुक्ल की हनबिंध शैली आचायम रामचिं द्र शुक्ल की हनबिंध शैली की हवशेषताएिं आचायम

रामचिं द्र शुक्ल जी ह िं दी के मू धमन्य समाि चक ,सान त्यइनत ासकार ,निबिंधकार एविं कहव हुए। आप ने

ह िं दी हनबिंध ले खन क ी एक नयी हदशा और गररमा प्रदान न ीिं की बखि ह िं दी साह त्य के इहत ास क

िी इतने सरल एविं वैज्ञाहनक ढिं ग से प्रस्तुत हकया हक आज तक ह िं दी साह त्य का इहत ास हलखने वाला
क ई हविान उनकी बनायीिं सीमाओिं क न ीिं त ड पाया ै ।

ह िं दी साह त्य की हवहिन्न हवधाओिं के हवकास में आचायम रामचिं द शुक्ल जी का य गदान अत्यहधक म त्वपूणम

र ा ै । कहवता,गद्य ,हनबिंध,आल चना तथा साह त्य इहत ास ले खन में उनका स्थान अहितीय ै । ह िं दी
हनबिंध ले खक िं में उनका स्थान सवोच्च ै और उनकी तुलना अिंग्रेजी के श्रे ि हनबिंध ले खक बेकन से की
जाती ै ।

शुक्ल जी के हनबिंध िं की हवशेषताओिं का अध्ययन म हनम्नहलखखत द शीषमक िं के अिंतगमत कर सकते ैं -

नवषयवस्तु सम्बन्धी नवशेषताएिं

भाषा शैिी नवषयक नवशेषताएिं नवषय वस्तु सम्बन्धी नवशेषताएाँ

नवषय वस्तु सम्बन्धी नवशेषताएाँ - आचायण शुक्ल िी के निबिंध मूितः नचिंतामनण के तीि भाग िं में
सिंकनित ै । ये निबिंध द प्रकार के ैं

1. मि नवकार सम्बन्धी

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2. सान त्य समीक्षा सम्बन्धी।

मन हवकार सम्बन्धी हनबिंध िं में क्र ध,घृणा। श्रद्धा और िखक्त तथा ल ि आहद क हलया जा सकता ै।

साह त्य समीक्षा सम्बन्धी हनबिंध िं में सधारणकरण और व्यखक्त वैहचत्र ल कमिं गल की साधनावस्था तथा

रसात्मक ब ध के हवहवध स्वरुप हनबिंध िं क हलया जा सकता ै । तु लसी ,जायसी और सूर के काव्य ग्रिंथ िं की
लम्बी िू हमकाएिं व्याव ाररक समीक्षा हनबिंध िं का रूप धारण कर ले ती ैं ।

आचायम रामचिं द्र शुक्ल आचायम रामचिं द्र शुक्ल जी के हनबिंध िं में दे श प्रेम अपने हवहवध रूप िं में व्यक्त हुआ

ै । िारत के कण - कण से प्रेम ,य ााँ के जन - जन से स्ने तथा य ााँ की सभ्यता और सिंस्कृहत का गुण -

गान इनके हनबिंध िं में हुआ ै । ल ि और प्रीहत जैसे हनबिंध में िी वे दे श प्रेम की अहिव्यखक्त के हलए स्थान
हनकाल ले ते ैं । आचायम शुक्ल की मयाम दावादी दृहष्ट उन्हें पहश्चम सभ्यता के कठ र आल चक तथा

िारतीयता के पक्षधर के रूप में सामने लाती ै । समीक्षा के क्षे त्र में िी वे िारतीय काव्यशास्त्र के हसधान्त िं

क पहश्चम के हसधान्त िं से क ीिं अहधक म त्व दे ते ैं । समीक्षात्मक हनबिंध िं में आपने क रे शास्त्रवाद का

समथम न न ीिं हकया बखि सहृदयता एविं िावुकता के साथ साथ हनष्पक्षता उनके हनबिंध िं का श्रृिंगार करती
ै।

मन हवकार सम्बन्धी हनबिंध िं क मन हवज्ञान की आधु हनक ख ज िं से ज डकर हलखने का सफल प्रयास

आचायम रामचन्द्र शुक्ल ने हकया। आपने मन हवकार सम्बन्धी हनबिंध क रे मन वैज्ञाहनक हसद्धािं त िं पर
आधाररत न कर साह खत्यक एविं सािं स्कृहतक ब ध से िी सिंपन्न ै ।

िाषा शैली हवषयक हवशेषताएिं आचायम रामचन्द्र शुक्ल जी के हनबिंध िं के म त्व क सिी हविान िं ने स्वीकार

हकया ै । ह िं दी के बेकन क े जाने वाले आचायम शुक्ल के हनबिंध िं की सवमप्रथम हवशेषता उनकी मौहलकता
और ताजगी ै । आचायम शुक्ल चमत्कार उत्पन्न करने के हलए मौहलकता का समथम न न ीिं करते थे। उनकी

मान्यताएिं ,उनका नवषय - नववे चि ,उिकी तकण श्रृिंििा ,उनकी व्यिं ग खक्त तथा उनके िारा जुटाए गए

सरस साह खत्यक उदा रण ी उनके हनबिंध िं क मौहलक बनाते ; ैं । वैखक्तयक्ता उनकी हनबिंध शैली की

दू सरी हवशेषता ै । उन्हें अपनी मान्यताओिं पर पूणम हवश्वास था और उनका य हवश्वास उनके ले खन में
झलकता ै । उनके हनबिंध ,हकन्तु ,परन्तु की दु हवधापूणम शैली न ीिं अपनाते बखि ऐसा ी ै ,ऐसा माना

जाना चाह ए जैसे वाक् िं की हवश्वास शैली में हलखे गए ैं। सुगहठत पररिाषाएिं ,सूत्र शैली तथा अणुवाक् िं

का प्रय ग उनके ग न हचिं तन एविं आत्म हवश्वास का सूचक ै । उनकी हनबिंध शैली क समास शैली क ा जा

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सकता ै । वे सिंहक्षप्तता के पक्षधर थे । उनके कुछ हनबिंध बहुत लम्बे ैं परन्तु व ािं य हवस्तार हवषय की

व्यापकता का पररणाम ै न हक शैली के हबखराव का। आपके हनबिंध िं में हृदय तथा बुखद्ध का समु हचत य ग
ै।

आचायम शुक्ल की हनबिंध शैली में व्यिं ग्त्त्मकता का गुण िी दृष्टव्य ै । दे श प्रेम हनबिंध में व्यिं ग की छटा दे खखये।
आप हलखते ैं

"म टे आदनमय !िं तु म ज़रा दु बिे िाते ,अपिे अिं देशे से ि ी िं- त न जाने हकतनी ठठररय िं में मािं स चढ़
जाता।"

प्रेम ह साब-हकताब न ीिं ै । ह साब-हकताब करने वाले िाडे पर हमल सकते ैं ,पर प्रेम करने वाले न ीिं।"

आचायम रामचिं द्र शुक्ल जी के हनबिंध िं की िाषा सामान्यतः तत्सम शब्दावली प्रधान सिंस्कृतहनि िाषा ै परन्तु
उनकी िाषा हवषयानुसार बदलती िी र ती ै । पाररिाहषक शब्द िं का सृजन ,आणुवाक्य िं की रचिा

,काव्य - िानित्य से युि भाषा ,तु लनाओिं िारा अपनी बात स्पष्ट करने की प्रवृहत् तथा साम्य वैमष्य का
सम्यक हववेचन उनकी हनबिंध शैली की हवशेषताएिं ैं ।

कुल हमलाकर क ा जा सकता ै हक आचायम शुक्ल के हनबिंध िं की हवषय वस्तु तथा िाषा शैली नवीनता हलए

हुए ै और ह िं दी हनबिंध ले खन क उन्ह न


िं े बहुत ऊाँचा उठाया ै । मन वैज्ञाहनक हनबिंध िं के क्षे त्र में आचायम
शुक्ल का य गदान अहितीय ै ।

प्रश्न – ‘ अश क के फुि ‘: एक िनित निबन्ध की व्याख्या कीनिए ?

उतर - 'अश क के फूि' : एक िनित निबन्ध

जारी प्रसाद हिवेदी की प्रहतिा बहुमु खी ै । उन्ह न


िं े इहत ासकार, आल चक, उपन्यासकार एविं हनबन्धकार

सिी रूप िं में ख्याहत अहजमत की ै । उनके आठ हनबन्ध-सिंकलन प्रकाहशत हुए ैं हजनके कुछ हनबन्ध

िाषण के रूप में और कुछ आकाशवाणी से प्रसाररत ने वाली वाताम के रूप में हलखे गये थे। कुछ पत्र-
पहत्रकाओिं के हलए या स्वान्तःसुखाय हलखे गये। सिंस्कृत, साह त्य, इहत ास, सिंस्कृहत, धमम , दशमन, िाषा-

हवज्ञान, ज् हतष एविं प्राच्य-कला सिी क्षे त्र िं में उनके ज्ञान का प्रसार था। उनके हनबन्ध िं में इसका आिास

हमलता ै। उनके हनबन्ध िं की प्रहतपादन शैली के द रूप ै -एक में हवषय-हववेचन के क्रम में उनका
व्यखक्तत्व झााँ कता ै , दू सरी में हवषय का प्रहतपादन ी प्रमु ख ै ।

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प ले वगम के हनबन्ध िं में लाहलत्य, िाव च्छवास, ले खक की आत्मीयता, कल्पना की उडान, कथा की

र चकता और कलात्मक अहिव्यखक्त के दशमन ते ैं त दू सरे वगम के हनबन्ध िं में गूढ गम्भीर हवचार, हवषय

का सूक्ष्म हववेचन हवश्लेषण और ले खक का अपार ज्ञान और पािं हडत्य हदखलाई पडता ै। प ले वगम के
हनबन्ध िं क व्यखक्त-व्यिं जक या लहलत हनबन्ध और दू सरे वगम के हनबन्ध िं क हवचारपरक हनबन्ध िं की सिंज्ञा दी
जा सकती ै ।

लहलत हनबन्ध में बुखद्धतत्त्व की अपेक्षा हृदय तत्त्व की, हवचार िं के स्थान पर िाव िं की प्रधानता र ती ै ।

ले खक का आत्मतत्त्व, उसका व्यखक्तत्व, हनजी प्रहतहक्रयाएाँ , हनजी रुहच, उसका िाव च्छवास दृहष्टगत ता

ै । ऐसे हनबन्ध पाठक के हृदय क स्पशम करते ैं और िावमि करते चलते ैं । हवषय-वैहवध्य और ले खक
की मन:खस्थहत के कारण उसमें क ीिं धारा शैली और क ीिं हवक्षे प शैली का प्रय ग ता ै।

जारी प्रसाद हिवेदी जी का 'अश क के फूल' एक लहलत हनबन्ध ै हजसमें िावना, कल्पना एविं अनुिूहत

की धारा प्रवाह त ै । हजसमें ले खक के अनुिव िं की दीघम परम्परा समाहवष्ट ै । व नगण्य पदाथो एविं

सामान्य घटनाओिं पर हलखते हुए अतीत में हवचरण करने लगते ैं , िारतीय सिंस्कृहत की हवहशष्टताओिं और
प्राचीन अतीत के गौरव का स्मरण करने लगते ैं । 'अश क के फूल' में िी ले खक इस फूल के माध्यम से

िारतीय धमम , साधना, इहत ास, काहलदास के साह त्य आहद सिी पर दृहष्टपात करता ै । व िारत के
प्राकृहतक सौन्दयम, वैिव-ऐश्वयम, कला सिी क्षेत्र िं में हवचरण करने लगता ै ।

हवषय का वस्तु हनि प्रहतपादन करते हुए िी हिवेदी जी का व्यखक्तत्व, उनका मानवतावादी दृहष्टक ण, उनकी

िावुकता, सहृदयता, िारतीय सभ्यता एविं सिंस्कृहत के प्रहत उनका लगाव आहद सिी अनेक हनबन्ध िं में

दृहष्टग चर ता ै । य ी कारण ै हक उनके हनबन्ध में लाहलत्य की सघनता हदखलाई पडती ै । क ीिं व

अपनी धारणा व्यक्त करते ैं , क ीिं हवचार प्रकट करते ैं , क ीिं अपनी सम्महत दे ते ै त क ीिं मान्यता
प्रकट करते ैं ।

क ीिं िावावेग में प्रशिंसा करते ैं त क ीिं हनराशा तथा आक्र श प्रकट करते ै । प्रकृहत का सौन्दयम त उन्हें

हनरन्तर अहििू त करता ै । इस प्रकार उनकी तीव्र एविं ग न अनुिूहत इस हनबन्ध क लहलत हनबन्ध बनाने
में म त्त्वपूणम िू हमका हनिाती ै ।

ले खक प्रकृहत के सौन्दयम क दे खकर मु ग्ध उठता ै परन्तु ल ग िं की उसके प्रहत उदासीनता ले खक क


उदास कर जाती ै । अश क वृक्ष आज एक तरिं गाहयत पत्े वाले पुष्प ीन वृक्ष क क ा जाता ै य दे खकर

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िी ले खक का मन क्ष ि से िर जाता ै। ले खक प्राचीन साह त्य एविं हशल्प में अश क वृक्ष के गौरव क
स्मरण करके उसमें रमना चा ता ै परन्तु यथाथम का दबाव उसे र कता ै ।

ले खक का प्रकृहत-प्रेम और प्राकृहतक दृश्य िं का कहवत्वपूणम सरस, मन रम हचत्रण िी इस हनबन्ध के

लाहलत्य क बढ़ाता ै । ले खक की दृहष्ट अश क के फूल के सौन्दयम क उकेरने के सन्दिम में इहत ास,

कानिदास युग, मुगि सल्तित, यक्ष-गन्धवो के ऐश्वयण-वै भव, धमण-साधिाओिं, पुराण, म ाभारत की
कथाओिं, आयम और आयेतर जाहतय िं के सिंघषम इत्याहद सिी पर गई ै । पुराने सिंस्मरण और कथाप्रसिंग

हनबन्ध क और र चक बना दे ते ैं । गम्भीर हवचार िं और शास्त्र ज्ञान के मरुस्थल में हवचरण करने वाला

पाठक रे हगस्तान में थके-प्यासे यात्री के समान उनका स्वागत करता ै । 'अश क के फूल' में हशव िारा

कामदे व के िस्म की कथा और उसके धनुष के टू टकर हगरने और क मल फूल िं में बदल जाने की कथा
हनबन्ध क र चक बनाती ै ।

मीठी चु टहकयााँ ले ने, व्यिं ग्य करने एविं ास्य के छीिंट िं िारा पाठक िं का मन हवन द करने में िी हिवेदी जी

पीछे न ीिं ैं । इस शैली के कारण गम्भीर, हवचारपूणम हवषय क िी वे स ज बना दे ते ैं । प्रस्तु त हनबन्ध में
एक जग ले खक उन हविान िं पर व्यिं ग्य करते ैं हजन्हें सुन्दर वस्तु ओिं क अिागा समझने में आनन्द

हमलता ै और ज हजस-हतस के बारे में िहवष्यवाणी करते र ते ैं -"वे बहुत दू रदशी ते ै । ि भी

सामिे पड गया उसके िीवि के अखन्तम मुहतण तक का न साब वे िगा िेते ै ।" हनबन्ध के अन्त में

पखित िं का मजाक िी उडाते ैं -"पखिताई िी एक ब झ ै -हजतनी ी िारी ती ै उतनी ी ते जी से


डु बाती ै ।"

ले खक मानव की जीवन-शखक्त क तीव्र-दु दमम एविं हनमम म धारा बताता ै ज अपने अन्तगमत सब कुछ

ब ाती हुई िी हवशुद्ध और हनमम ल र ती ै -'शुि' ै केवि मिु ष्य की दु दणम नििीनवषा। व गिंगा की
अबानधत-अिा त धारा के समाि सबक िम करिे के बाद भी पनवत्र ै ।"

ज ााँ -ज ााँ ले खक अपने जीवन-दशमन, साह त्य-आदशम सामने रखता ै पाठक ले खक क अपने समीप

पाता ै । श षण पर आधाररत सामन्त सभ्यता, सृहष्ट का पररवतम न चक्र, म ाकाल, दु दमम हजजीहवषा, हवषम
क्षण िं में उदास न ने का परामशम आहद सिी कुछ पाठक क प्रिाहवत हकये हबना न ीिं र ता। व उसकी

अनुिूहतय िं क व्यापक बनाता ै , सिंवेदनाओिं क तीक्ष्ण करता ै और हचन्तन-मनन के हलए बाध्य करता
ै।

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अत: 'अश क के फूि' लहलत हनबन्ध का आदशम प्रस्तुत करता ै हजसमें एक ओर हवचार िं का गुम्फन ै

त दू सरी ओर सहृदयता एविं सिंवेदनशीलता। ले खक का मानवतावादी दृहष्टक ण और सिंस्कृहत प्रेम य ााँ स्पष्ट
झलकता ै ।

प्रश्न - 'रन मि पािी राखिए' निबिंध का सारािंश बताते हुए उसका उद्दे श्य स्पष्ट करते हुए निखिए।

उतर - 'रन मि पािी राखिए' निबिंध का सारािंश

हनबिंध एक ऐसी हवधा ै ज हकसी हवषय क ग राई से समझने , उस पर ताहकमक दृहष्टक ण से बात करने ,

उससे जुडे सिी सिंिव प लु ओिं की पडताल करने , खस्थहतय िं का हवश्लेषण कर हवषय हवशे ष पर पुनः
हवहवध क ण िं से दृहष्टपात करने की समझ दे ती ै। एक हनबिंध ले खक व्यखक्तगत, स्वाधीन हचिंतन के िारा

समाज के म त्त्वपूणम मु द्द िं पर हवचार करता ै ताहक समसामहयक नजररए से उस पर हचिं तन मनन सके

और उस हवषय से सिंबिंहधत सिी प लु ओिं पर हवचार हकया जा सके। इस उद्दे श्य की पूहतम के हलए हनबिंध
ले खक स ज रूप में प्रामाहणक तथ्य ,िं तकों और स्वानुिूहत का हमश्रण कर अपनी बात रखता ै।

पहडत हवद्याहनवास हमत्र के इस हनबिंध में 'पानी' शब्द की हवहवध व्यिं जनाओिं के िारा हवहवध सामाहजक मु द्द िं

और प्रवृहत्य िं पर बात की गई ै । ले खक जीवन में 'पानी' की आवश्यकता पर बात करते ैं । स्पष्ट ै हक


'पानी' शब्द य ााँ अपने अहिधात्मक अथम तक सीहमत न ीिं ै । उसके हवहवध अथों के िारा िीवि में िि,
करुणा, मयाणदा, शमण, धार, चमक, दीखप्त की आवश्यकता पर बल दे ना इस हनबिंध का उद्दे श्य ै।

िारतीय सािं स्कृहतक परिं परा में पानी की म त्ा क प्रस्तुत करके, वतम मान में पानी (जल) से जुडी हवहवध
समस्याओिं पर उन्ह न
िं े हचिं ता प्रकट की ै। साथ ी 'पानी' की अन्य व्यिं जनाओिं के िारा जीवन में 'पािी'

(करुणा, मयाणदा, शमण, धार, चमक, दीखप्त) बनाए रखने की आवश्यकता पर िी बल हदया ै । जीवन में

'पानी' के सूखने से जुडे सिंकट िं की ओर सिंकेत करते हुए, बे तर िहवष्य के हलए मनुष्य की हनरिं तर बढ़ती

'प्यास' क हनयिंहत्रत करने का सिंदेश इस हनबिंध में हदया गया ै । हनबिंधकार श्री हवद्याहनवास हमश्र जीवन क
बे तर बनाने के हलए मनुष्य क ऐसा सिंकल्प ले ने के हलए प्रेररत करते ै हजससे , 'करुणा की अिंतः सहलला'

हनरिं तर ब ती र े अथाम त् जीवन में प्रेम, दया, पर पकाररता, त्याग, सिंवेदना बनी र े और मनुष्य स्वाथम रह त
कर ऐश्वयम और हवलास रूपी पिंक से मु क्त ।

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उद्दे श्य

िारतीय परिं परा में 'पानी' शखक्त का, अनिंत सिंिावनाओिं का स्र त ै । उसका प्रवा जीवन में प्रवा बनाए

रखने की प्रेरणा दे ता ै । इसहलए इस हनबिंध में वे र खस्थहत में जीवन में 'पानी' बनाए रखने पर ज र दे ते ैं

क् हिं क हवहवध अथों से पूणम य 'पानी' न ने पर हकसी िी समस्या का समाधान न ीिं सकता। अपनी

बात की पुहष्ट वे हवहवध उदा रण िं के िारा करते ैं और हवहवध क्षे त्र िं में व्याप्त उन समस्याओिं की चचाम
करते ैं हजनसे मारा जीवन प्रिाहवत ता ै । इसे म हनबिंध में प्रयुक्त पानी शब्द के हवहवध अथों िारा

समझ सकते ैं । वे हलखते ैं हक 'आाँ ि में पािी भर िाए त आदमी समाि में नििं दा का पात्र बि

िाता ै ।' इसका अथम स्पष्ट ै । इस समाज में यहद व्यखक्तगत जीवन की कहठनाइय िं से उपजी पीडा के
कारण क ई आदमी र ता ै त उसकी हनिंदा ती ै ।

यहद हकसी म ती की चमक कम ती ै त उसका मूल्य कम जाता ै । यहद क ई सीधा-सादा र े त

उसे मू खम समझ हलया जाता ै । तलवार क धार न दी जाए त उसका क ई म त्त्व न ीिं र ता और यहद

क ई खुद क िु ला दे त समय आने पर उसे क ई न ीिं पूछता। य सिी समस्याएाँ जीवन में आाँ सुओिं के
ने, चमक के न ने, धार के न ने, करुणा के न ने के कारण आती ै । स्पष्ट ै हक जल, करुणा,

मयाम दा, शमम , धार, चमक, दीखप्त आहद क 'पानी' शब्द के बहुमु खी अथों के रूप में ले खक दे खते ैं और

अपनी बात दृढ़तापूवमक रखते ैं । िारतीय जीवन पद्धहत में 'पानी' शब्द के इन सिी अथों का ग रा स्थान

ै हजनकी बात इस हनबिंध में की गयी ै । उन सिी अथों के प्रहत जागरूकता लाना और बे तर जीवन के
हलए उन्हें व्यव ार में उतारने की हशक्षा दे ना िी इस हनबिंध का उद्दे श्य ै ।

िारत के कृषक पानी के प्राकृहतक स्र त िं पर पूणमतः हनिम र ैं । वे बादल िं के रिं ग-रूप-आकार क दे खकर

वषाम का पता लगाने में सक्षम ैं । इस दे श में अनेक नहदयााँ ैं हजनमें अपार जल सम्पदा ै हकन्तु हफर िी
अनेक वषों तक िारत के ल ग किी सूखे के प्र ार से त किी बाढ़ के प्रक प से जूझते र े ै । इन

समस्याओिं के समाधान के रूप में स्वतिंत्रता के बाद कई प्रयास हकए गए। अनेक बााँ ध बनाए गए, पानी से

ऊजाम उत्पन्न की गई हकिंतु नहदय िं के जल का सदु पय ग न ीिं पाया। इतना ी न ीिं नहदय िं के प्रहत मने
अपने कतम व्य िं क िु ला कर उन्हें गिंदा हकया, उनका अनादर हकया।

गिंगा, यमुिा, श ण, िमणदा, व्यास, सतलज और लु प्त चु की सरस्वती जैसी बडी नहदय िं की खस्थहत पर

शमम सार ते हुए वे प्रश् करते ैं हक नहदय िं की जल सिंपदा और उसकी शखक्त क स ख ले ने के बाद िी

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'क्या तु म पािी रि पाए?' इस प्रश् िारा वे मारा ध्यान वतम मान में पानी की समस्या की ओर ले जाते ै ।

मनुष्य की नहदय िं के प्रहत इस अनदे खी क हचखन्हत करते हुए वे क ते ैं हक कानून बनाने िर से कत्म व्य

की पूहतम न ीिं ती। नहदय िं के हकनारे खस्थत दे वी या हशव या अन्य दे वताओिं के तीथम बनाने िर से कुछ न ीिं
ता। आवश्यकता इस बात की ै हक नहदय िं का श षण करना म बिं द करें ।

तीथम स्थान िं क कूडे से न िरे , ऊाँची आवाज में सिंगीत बजाकर व ााँ की शािं हत ििं ग न करें क् हिं क य
व्यव ार मनुष्यता का प्रमाण न ीिं ै । ऊपरी हदखावे , श र-शराबे और ऊाँची अट्टाहलकाओिं पर अपना

अहधकार स्थाहपत करने की य प्यास आत्मघाहतनी ै । मानव के इन कृत्य िं के प्रहत हनबिंध में हनह त

हधक्कार का िाव वास्तव में उद्दे श्यपूणम ै । ताहक म जागृत सकें और 'पानी' क शमम और जल द न िं ी
अथों में बचाए रखें, ताहक म अपने कतम व्य िं क समझ सके।

इसी क्रम में पिंहडत हवद्याहनवास हमश्र गिंिीर कर क ते ैं हक 'एक और पानी था, व मने ख हदया।'

य ााँ 'पानी' शब्द के खक्लष्ट अथम के रूप में वे आत्मसम्मान क बनाए रखने की बात करते ै । इसके हलए वे

िारत के गौरवशाली इहत ास से हवश्व हवजेता अले क्सेंडर के प्रस्ताव क ठु कराने और अपने आत्मसम्मान
क सवोपरर बनाए रखने वाले चाणक् की क ानी का उदा रण दे ते ैं । मु गल बादशा के दरबारी कहव
ने के प्रस्ताव क पूणमतः नकार दे ने वाले कुम्भनदास की बात करते ैं ।

इहत ास से वतम मान की यात्रा तय करते हुए आज के समय में िी स्वाहिमान क म त्त्व दे ने वाले उन
ले खक िं की बात करते ैं ज हकसी प्रकार के लालच में न आकर पूरी ईमानदारी के साथ ले खन कायम करते

र े और हजन्ह न
िं े ज्ञान साधना क चरम मू ल्य माना। आज के समय में बुखद्धजीवी वगम की बढ़ती अपेक्षाओिं

और द रे व्यखक्तत्व से आ त कर वे व्यिं ग्यात्मक रूप में प्र ार करते ै और प्रश् करते ै हक “आज

इतना साह त्य हलखा जा र ा ै और उसमें से हकतना ै ज आाँ ख िं में पानी िर सके , हकतना ै ज पूरी
तर िीतर से झकझ र कर रख दे , र हशक्षा क झनझना दे और एक ी उत्र हमलता ै , व ताप न ीिं ै
ज द्रव की रचना करता ै , व तप न ीिं ै , ज पानी बनता ै ।"

प्रश्न – निमणि वमाण की शेिीगत नवशेषताए निखिए ?

उतर - शैिीगत नवशेषता

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यात्रा वृत्ािं त के हलए यात्रा-वृत्, यात्रा-साह त्य या यात्रा सिंस्मरण शब्द का िी प्रय ग ता ै । ह िं दी में यात्रा

वृत्ािं त का प्रारिं ि िारतें दु युग से हुआ। ालााँ हक िारतें दु युग से पूवम िी कुछ यात्रा वृत्ािं त का उल्लेख हमलता

ै । य सिी स्त-हलखखत रूप में प्राप्त ै । िारतें दु काल में हलखे अहधकािं श यात्रा वृत्ािं त उस समय की
पत्र-पहत्रकाओिं में प्रकाहशत ै । िारतें दु के यात्रा वृत्ािंत ै -'सरयू पार की यात्रा', 'मे दावि की यात्रा',

' ररिार की यात्रा', 'लखनऊ की यात्रा' और 'वैद्यनाथ की यात्रा'। बालकृष्ण िट्ट ने 'ह िं दी प्रदीप' पहत्रका में

'कतकी न ान' तथा 'यात्रा' का वणमन हकया ै । परवती काल में यात्रा वृत्ािं त के ले खन में ते जी से हवकास

हुआ। अब यात्रा वृत्ािंत हववरण की सीमा क लािं घ कर रचनात्मक अनुिव के हवहशष्ट शैली और िाहषक
सौिंदयम से युक्त कर हलखा जाने लगा। इन ले खक िं में फणीश्वरनाथ रे णु , राहुल सािं कृत्यायन, म न राकेश,
अज्ञेय, हनमम ल वमाम , कृष्णा स बती, कृष्ण नाथ, मिं गले श डबराल आहद

'चीड िं पर चााँदिी' यात्रा वृत्ािंत की ग राई में उतरने पर ले खक की उद्दात दृहष्ट का पता चलता ै। ले खक

ने हशमला तथा आसपास के पवमतीय क्षेत्र िं के प्राकृहतक हक्रया-कलाप में काफी रुहच हदखाई ै । उन्ह न
िं े

नशमिा, िारकिंडे , डि ौिी, गुिमगण, िीमताल आहद स्थान िं का सूक्ष्मता से हचत्रण हकया ै। दरअसल,

हनमम ल वमाम बारीक अनुिूहतय िं के रचनाकार ैं । अनुिूहतय िं क शब्द दे ना उनकी हवशेषता ै । अनुिूहतय िं
का ब ध कराने के हलए वे अक्सर उपमाओिं और तु लनाओिं का स ारा ले ते ैं। उन्ह न
िं े हलखा ै - "ढिती

शाम की फीकी सुि री आभा पूरी प ानडय िं की ऊाँची िीची रे िाओिं पर उतर आई थी। उिके पीछे

नकिंतु उिसे सटी हुई एक अन्य पवणत श्रृिंििा अधिुिे पिंिे -सी ऊपर िाकर टे ढ़ी सी गई थी,

माि क ई भीम काय बिै िा ििंतु अपिी गदण ि उठा कर आकाश नि ार र ा ।" हनमम ल वमाम की

उपमाओिं में एक हवशेष प्रकार की क मलता, रचनात्मकता और साथम कता ती ै । उनके उपमा का
उद्दे श्य, मू ल अनुिूहतय िं के स्वरूप क स्पष्ट कर उसके ब ध क तीव्र बनाना ै । हनमम ल वमाम अक्सर ग री

उपमाएाँ तलाशते ैं । उन्ह न


िं े हलखा ै हक “इनके जरा ऊपर घास का छ टा सा ढलवा टु कडा ै - उठी हुई
थे िी-सा" ।

दरअसल, उनकी रचनाओिं क पढ़ना हजतनी चु नौती िरा ै उतना ी मन रिं जक और ज्ञानवधम क िी।

उन्ह न
िं े हवधाओिं की बिंधी-बिंधाई पररपाटी से अलग टकर नई शैली क अपनाया। उनकी रचनाओिं में एक

प्रकार की धुिं ध हदखाई पडती ै , पर व धुिं ध अस्पष्टता की न ीिं ै । उन्ह न


िं े एक अलग दु हनया बनाई, हजसमें
प्रवेश करने के बाद म य समझ पाते ैं हक तमाम बिंधन िं के बावजूद अपनी स्वायत्ता क हकस प्रकार
से बनाए रख सकते ैं ।

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'चीड िं पर चााँदिी' नामक यात्रा वृत्ािंत में सिंरचना की बात करें त य अपने आप में कई अन्य हवधाओिं के

तत्त्व िं क समेटे हुए ै । इसमें क ीिं सिंस्मरण के स्मृहत तत्त्व ै , त क ीिं हनबिंध जैसी ब हझलता िी दे खने क

हमलती ै। बचपन का प्रकरण इस यात्रा वृत्ािंत क सिंस्मरणात्मक रूप दे ता ै । ले खक ने बचपन की


घटनाओिं क हजस रूप में प्रस्तु त हकया ै ,उससे यात्रा वृत्ािं त कम और सिंस्मरण का अनुिव अहधक ता

ै । इसमें ररप ताम ज और सिंवाद के तत्त्व िी मौजूद ै । ालािं हक, उन्ह न


िं े यात्रा के हवहवध पक्ष िं क िी प्रस्तु त
हकया ै । य ी कारण ै हक इस यात्रा वृत्ािंत क यात्रा सिंस्मरण िी क ा गया ै ।

हनमम ल वमाम बात िं क सीधे -सीधे क ने के बजाय लाक्षहणक ढिं ग से प्रस्तु त करते ैं । 'चीड िं पर चााँ दनी' यात्रा

वृत्ािं त पाठक वगम पर ावी जाता ै । य उनकी ले खन शैली की हवशेषता ै । इस पाठ में काल्पहनक

तथा वास्तहवक अनुिूहतय िं के साथ-साथ प्रतीकात्मक प्रय ग पाठक क अपनी ओर खीिंचता ै । ले खक


अलग-अलग स्थान िं (पवमतीय क्षे त्र )िं की यात्रा के दौरान अपने जाने प चाने अनुिव िं क तु लनात्मक तथा

तथ्यात्मक रूप से प्रस्तु त करते ैं । जैसे- कालका और हशमला के बीच एक वीरान और उपेहक्षत ह ल

स्टे शन - ‘स िि' के बारे में बताया ै । इसी तर उन्ह न


िं े र व स्थान - नशमिा, िारकिंडा, गुिमगण,

डि ौिी, भीमताि आहद के वास्तहवक तथा काल्पहनक अनुिव िं क प्रतीकात्मक, लाक्षहणक, तु लनात्मक
तथा उपमाओिं के साथ प्रस्तुत हकया ै । कई जग उपमा और प्रतीक वस्तु गत ना र कर इतने आत्मगत ैं

हक उनसे कुछ िी अथम हनकालना पाठक के हलए मु खश्कल जाता ै । उनकी प्रस्तु हत की हदशा और
स्वरुप क पाठक ठीक से पकड न ीिं पाता ै और कुछ भ्रहमत-सा

जाता ै । मतलब, 'चौड िं पर चााँदिी' यात्रा वृतान्त क पाठक पकड न ीिं पाता ै और कुछ दू र ने लगता
ै । इसहलए इस यात्रा वृतान्त क द बारा-हतबारा पढ़ने की जरुरत पड जाती ै । हजतनी बार य रचना पढ़ी
जाती ै , रचना के खुलते जाने की सम्भावना बनी र ती ै ।

यात्रा वृत्ािं त में ले खक का व्यखक्तत्व सिंतुहलत ना आवश्यक ै । ले खक का व्यखक्तत्व यात्रा वृत्ािं त क

र चक और आत्मीय बनाता ै । गद्य साह त्य की प्रमु ख प्रवृहत् िावनात्मकता ती ै , ज आत्मीयता के

माध्यम से कलात्मक और हवश्वसनीय बनती ै । पाठक क यात्रा वृत्ािं त से ज डे रखने में ले खक की

कलात्मकता और र चकता की म त्त्वपूणम िू हमका ती ै । हनमम ल वमाम के यात्रा वृत्ािंत िं में वैयखक्तकता,
र चकता और कलात्मकता का सिंतुलन ता ै , ज पाठक क आकहषमत करता ै । उनका य ी गुण उनके
यात्रा वृत्ािं त की हवशेषता ै ।

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'चीड िं पर चााँ दनी' यात्रा वृत्ािंत की शैली सिंस्मरणात्मक ै । हनमम ल वमाम ने इस पूरी रचना में स्मृहत और यात्रा

का वणमन बहुत ी कलात्मक ढिं ग से हकया ै। उन्ह न


िं े इसे सरस और र चक शैली में अहिव्यक्त हकया ै ।
िाव और आचरण की तर प्रसिंग -िं खस्थहतय िं की प्रस्तु हत हनमम ल वमाम की रचनात्मक शैली ै ।

प्रश्न - ‘ मेरे राम का मुकुट भीग गया’ नििं बध का सार निखिए ?

उतर - हवद्याहनवास हमश्र का हनबिंध “मेरे राम का मुकुट भीग र ा ै ” मेरे राम का मुकुट भीग र ा ैं

हनबिंध में हमश्र जी का मन राम के मु कुट िीगने की हचिं ता से व्यहथत ै । साथ ी लक्ष्मण का दु पट्टा और

सीता की मािं ग के हसिंदूर के िीगने की हचिं ता िी उन्हें ै । उनका हचरिं जीव और उनकी मे मान एक लडकी

सिंगीत कायमक्रम में गए ैं । रात के बार बजे तक िी वे न ीिं लौटते त हमश्र जी का मन दादी-नानी के उन

गीत िं की ओर जाता ै जब व उनके लौटने पर गाती थी “मेरे िाि क कैसा विवास नमिा था” उस

समय त य आकुलता समझ न ीिं आती परिं तु आज जब म उसी खस्थहत में पहुिं च गए ैं त उस गीत का
एक-एम शब्द साथम क लगता ै ।

मन उन लाख िं कर ड िं कौसल्याओिं की ओर दौड जाता ै हजनके राम वन में हनवाम हसत ै और उनके मु कुट

िीगने की हचिं ता ै । मु कुट ल ग .िं के मन में बसा हुआ ै। काशी की रामलीला आरिं ि ने से प ले हनहश्चत

मु हतम मु कुट की पूजा की जाती ै। मु कुट त मस्तक पर हवराजमान ै । राम िीगे त िीगे पर मु कुट न
िीगने पाए। इसी बात की हचिं ता ै । राम के उत्कषम की कल्पना न िीगे, व र बाररश में , र दु हदम न में

सुरहक्षत र े । राम त वन से लौटकर राजा बन जाते ैं परिं तु सीता रानी ते ी राम िारा हनवाम हसत कर दी
जाती ै ।

पर इस हनवाम सन में िी सीता का सौिाग्य अखखित ै व राम के मु कुट क तब िी प्रमाहणत करता ै

और राम क पीडा िी दे ता ै । इस पीडा से राम का मुकुट इतना िारी जाता ै हक व इस ब झ से

करा उठते ैं और इस वेदना की चीत्कार में सीता के माथे का हसिंदूर और दमक उठता ै य स चते -

स चते चार बज गए और अचानक हचरिं जीव और लडकी के आने की आवाज आई । म े मान लडकी के
रात क दे र से घर लौटने पर सीता का ख्याल आ जाता ै । य ख्याल आज की अथम ीन उदासी क कुछ
ऐसा अथम जाता ै हजससे हजदिं गी ऊब से कुछ उबर सके।

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प्रश्न - नकसी एक पर नटप्पणी कीनिए

1. प्रेमचिंदयुगीि क ािी

2. न िं दी उपन्यास

उतर - 1. प्रेमचिंदयुगीि क ािी –

प्रेमचन्द युग की क ािी (सि् 1915 से 1936 तक)

 ह न्दी क ानी का प्रेमचन्द युग का आरम्भ सन् 1915 ई0 से माना जाता ै।

 मु शी प्रेमचन्द हजस अवहध में क ाहनयााँ हलख र े थे उसी अवहध में कई क ानीकार िं ने इस हवधा क

आगे बढ़ाने के हलए अपनी ले खहनयााँ उठायी। हजनमें जयशिंकर प्रसाद, चन्द्रधर शमाम गुलेरी, सुदशमन
आहद मु ख्य क ानीकार ैं ।

 इसी युग में हजन अन्य क ानीकार िं ने ह न्दी क ानी हवधा क नई हदशा प्रदान की उनमें श्री हवश्वम्भर

नाथ शमाम , 'कौहशक', आचायम चतु र सेन शास्त्री, राजा राहधका रमण प्रसाद हसिं , श्री हशव पूजन स ाय,

श्री वृन्दावन लाल वमाम , श्री ग पाल राम ग मरी, श्री रायकृष्ण दास, पदु म लाल पुन्नालाल वख्शी,
रमाप्रसाद हघखल्डयाल प ाडी पिंहडत ज्वाला प्रसाद शमाम , श्री गिंगाप्रसाद श्रीवास्तव आहद का नाम बडे
आदर से हलया जाता ै

अनके पत्र-पहत्रकाओिं में इन क ानीकार िं की क ाहनयााँ प्रकाहशत हुई, हजससे ह न्दी क ानी के ले खक ी
न ीिं पाठक िं की सिंख्या में िी वृखद्ध हुई, इस युग के हजन मु ख्य क ानीकार िं की साह त्य सेवा का आिं कलन
करने के हलए साह त्य के इहत ासकार िं ने इन्हें हवशेष रूप से सम्मान हदया वे इस प्रकार ैं

प्रेमचन्द युग के क ािीकार

पिंनडत चन्द्रधर शमाण गुिेरी

 ह न्दी के श्रेि क ानीकार िं में प्रेमचन्द युगीन क ानीकार पिंहडत चन्द्रधर शमाम गुलेरी क का नाम िी

बडे समादर से हलया जाता ै ।

 यहद आधु हनक क ानी कला की दृहष्ट से हकसी क ानी क ह न्दी की सवमश्रेि क ानी क ा जाय त व

ै - उसने क ा था: य क ानी यथाथम वादी क ानी ै ज एक आदशम क प्रस्तुत करती ैं।

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 गुलेरी जी ने इसके अहतररक्त सुखमय जीवन और बुद्ध का कािं टा द क ाहनयााँ और हलखी।

ियशिंकर प्रसाद

 प्रेमचन्द युम में ी जयशिंकर प्रसाद ने ह न्दी में कई क ाहनयााँ हलखी ले हकन इनकी क ाहनयााँ प्रेमचन्द

की क ानी शैली से हबिुल हिन्न क ाहनयााँ ैं । एक राष्टरवादी साह त्यकार ने के कारण इनकी
क ाहनय िं में राष्टरीय िावना और सािं स्कृहतक चे तना का प्रिाव पररलहक्षत ता ै।

 प्रसाद जी ने अहधकािं श ऐहत ाहसक क ाहनयााँ हलखी ैं , हजनकी िाषा सिंस्कृत हनि, िाव प्रधान,

अलिं काररक और काव्यात्मक ै ।

 य ी न ीिं इनकी क ाहनय िं में नाट्य शैली के िी दशमन ते ैं , • जयशिंकर प्रसाद की क ाहनय िं में
आकाश दीप, पुरस्कार, ममता, इन्द्रजाल, छाया, आाँ धी, दासी जैसी क ाहनयााँ आदशमवादी क ाहनयााँ ैं
त मधु वा, और गुिंडा जैसी क ाहनयााँ यथाथम वादी क ानी ।

मुिंशी प्रेमचन्द

 मुिं शी प्रेमचन्द ह न्दी क ानी सिंसार के हलए वरदान बनकर आये, इनकी ह न्दी की प ली क ानी पिंच

परमे श्वर सन् 1915 में प्रकाहशत हुई।

 पिंच परमे श्वर प्रेमचन्द जी की एक आदशमवादी क ानी ै हजसमें मनुष्य के अन्दर हछपे दै वत्व के गुण िं

क उजागार हकया गया ै । ले हकन इनकी बाद की क ानी यथाथम वादी क ाहनयााँ ैं हजनमें ग्रामीण और

श री पददहलत िं के जीवन में घटने वाली घटनाओिं क क ाहनय िं के माध्यम से सावमजहनक हकया गया
ै।

इस सम्बन्ध में आचायण िारी प्रसाद नद्ववे दी क ते ैं

 प्रेमचन्द, शताखब्दय िं से पददहलत, अपमाहनत और उपेहक्षत कृषक िं की आवाज थे , पदे में कैद, पदपद

लािं हछत और अस ाय नारी जाहत की मह मा के जवरदस्त वकील थे । गरीब िं और बेबस िं के म त्व के

प्रचारक थे ।

 प्रेमचन्द ने अपने युग की सामाहजक बुरी दशा क अपने उपन्यास तथा क ाहनय िं का हवषय बनाया।
अपने इस कथा साह त्य के माध्यम से प्रेमचन्द जी ने स्पष्ट हकया था हक मारे सामाहजक कष्ट िं के द ी

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कारण ैं - एक धाहमम क अिंधहवश्वास और सामाहजक रूढ़ीवाहदता और दू सरा आहथम क श षण और

राजनीहतक पराधीनता, इनका सारा कथा साह त्य इसी पर केन्द्रीत ै ।

 इनकी आरखम्भक क ाहनयााँ आदम शवादी क ाहनयााँ ैं ले हकन धीरे -धीरे इन्ह न
िं े यथाथम से नाता ज डा।
 प्रेमचन्द ने अपनी क ाहनय िं के पात्र गरीब, बेबस और दबे-कुचले ल ग िं क बनाया। इन सबके अन्दर

गुप्त मानवतावाद क एक नया प्रकाश हदया, प्रेमचन्द ने ज ााँ अपनी क ाहनय िं के माध्यम से समाज में

व्याप्त रूढ़ीवाद और कुरीहतयााँ के दमन के उपाय सुझाए व ााँ राजनैहतक पराधीनता और आहथम क

श षण के प्रहत हवद्र ी आवाज उठायी। प्रेमचन्द की प्रहसद्ध क ाहनयााँ इनके इसी िाव िं क प्रदहशमत
करती ै ।

 प्रेमचन्द की प्रमु ख क ाहनयााँ ैं - 'कफि', पूस की रात, शतरिं ि के खििाडी, दू ध का दाम, ठाकुर

का कुआाँ , िशा, बडे भाई सा ब, सवा सेर गेहाँ, अिाग्य झा, िमक का दर गा, पिंचपरमेश्वर,

ईदगा , बूढी काकी, ईदगा आहद। इनमें से कुछ यथाथम वादी क ाहनयााँ ैं त क ाहनयााँ । कुछ
आदशमवादी।

 िाषा की दृहष्ट से मुिं शी प्रेमचन्द की िाषा तत्कालीन समाज की ब ल चाल की िाषा ैं । हजसे म ल क

िाषा का अनुपम उदा रण क सकते ैं । ह न्दी उदू म शब्द िं की य हमहश्रत िाषा वतम मान में िी उतनी
ग्राह्य और िाव ब धक ै हजतनी इनके हलखने समय में थी।

नवश्वम्भर िाथ शमाण

 प्रेमचन्द के समान ी हवश्वम्भर नाथ शमाम कौहशक की क ाहनयााँ में आदशम और यथाथम का समन्वय
हदखाई दे ता ै । इनकी क ाहनयााँ िी घटना प्रधान और वणाम त्मक ै ।

 हवश्वम्भर नाथ शमाम की क ानी ताई, रक्षावधन', 'माता का हृदय', कृतज्ञता आहद क ाहनय िं में ज ााँ

मानवीय िाव िं की सक्ष्म व्यिं जना हुई ै । व ााँ आदशम के नये रूप के दशमन ते ैं ।
 श्री काहशक ने अपने जीवनकाल में तीन सौ क ाहनयााँ हलखी ैं , 'मनणमािा', 'नचत्रशािा, किौि,
किा-मखन्दर, इनके प्रहसद्ध क ानी सिंग्र ै।

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श्री सुदशणि –

 प्रेमचन्द युगीन क ाहनकार िं में श्री सुदशमन का नाम िी बडे आदर से हलया जाता ै। इन्ह न
िं े िी प्रेमचन्द

की िााँ हत अनेक घटना प्रधान क ाहनयााँ हलखी, इनकी इन क ाहनय िं के पात्र सामान्य क हट के मजदू र,

हकसान आहद पात्र ैं हजनका सम्बन्ध ग्राम िं और नगर िं के सामान्य मध्यमवती म ल्ल िं से ै। इनकी

अनेक क ाहनयााँ मानवीय सिंवदनाओिं की माहमम क आहिमव्यखक्त दे ती ै।


 श्री सुदशमन की कई ल क हप्रय क ाहनयााँ ैं हजनमें ' ार की जीत', सलबम, आशीवाम द, न्याय मिं त्री,

एथे न्स का सत्याथी, कहव का प्रायहश्चत, आहद ल कहप्रय क ाहनयााँ ैं ।

 इनके सिी क ाहनयााँ पनघट, सुदशमन सुधा, तीथम यात्रा आहद क ानी-सिंग्र िं में सिंग्रह त ै । । बाबू

गलाब राय के शब्द िं में प्रेमचन्द, कौनशक और सुदशणि, ह न्दी क ानी साह त्य के प्रेमचन्द स्कूल के
वृ त्रयी क लाते ैं

प्रेमचन्द के कथा नशल्प और कथ्य क िे कर क ािी निििे वािे

प्रेमचन्द के कथा हशल्प और कथ्य क ले कर क ानी हलखने वाल िं में वृन्दावनलाल शमाम - (शरणागत कटा-

फटा झिंडा, कलाकार का दि जैनावदी वेगम, शेरशा का न्याय, आहद) आचायम चतु रसेन की दु खखया में

कासे कह सजनी, सफेद कौआ, हसिं गढ़ हवजय, आहद। ग हवन्द बल्लि पिंत हसयाराम शरण गुप्त (बैल की

हबक्री) िगवती प्रसाद वाजपेयी, हमठाई वाला, हनिंहदयालागी, खाल, व तल, मै ना, टर े न पर, ार जीत आहद)
रामवृक्ष बेनीपुरी, उषादे वी हमत्रा आहद अनेक क ानीकार िं की रचनाएिं बहुत प्रहसद्ध हुई।

प्रेमचन्द युगीि क ानिय िं की मुख्य नवशेषताएाँ निम्ननिखित ैं

 ये पररमाहजमत िाखा वाली क ाहनयााँ ैं ।

 ये आदशम और यथाथम वादी क ाहनयााँ ैं ।

 ये मानवीय सम्बन्ध िं का उद् घाटन करने वाली क ाहनयााँ ैं ।


 ये ग्राम्यजीवन पर प्रकाश डालने वाली क ाहनयााँ ैं ।

 ये राष्टरवादी और दे श प्रेम से ओतप्र त क ाहनयााँ ैं ।

 ये राजनैहतक पराधीनता और आहथम क श षण में हवरुद्ध आवाज उठाने वाली क ाहनयााँ ैं ।ये समाज में
व्याप्त रूढ़ीवादी, कुरीहतय िं और अहशक्षा क दशाम ने वाली क ाहनयााँ ैं ।

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2. न िं दी उपन्यास - उपन्यास का स्वरूप

 उपन्यास का मु ख्य स्र त अहत प्राचीन काल से चली आई र ी कथा-क ाहनयााँ ैं । हजसका जन्म मनुष्य

की कौतु ल वृहत् एविं मन रिं जन वृहत् क शान्त करने के हलए हुआ ै। । वतम मान में यद्यहप बौखद्धकता ने

मनुष्य की कौतू ल वृहत् क कम हकया ै । अतः आज वे ी कथाक ाहनयािं समाज में प्रचहलत ै

हजनके पीछे बौखद्धक धरातल ै ।


 उपन्यास मनुष्य के हवकास के साथ-साथ हवकहसत ने वाली कथा परम्परा का एक सुगहठत रूप ै ।

मानव मन की अतल ग राई से ले कर उसकी समस्त सािंसाररक दृष्यमान ऊाँचाई, हवस्तार एविं अन्य

हक्रया क्लाप उपन्यास के क्षे त्र में समाह त ैं ।

 वास्तहवकता का प्रहतपादन नाटक और गीत िी करते ैं, परन्तु उपन्यास अहधक हवस्तृ त, ग न एविं पैना
ता ै । उपन्यास जीवन के लघुतम और साधारणतम् तथ्य िं क िी पूणम स्वच्छन्दता तथा स्पटता के

साथ प्रस्तु त करता ै ।

 उपन्यास मानव की सवमत न्मु खी स्वतन्त्रता की उद् घ षक हवधा ै । आज का जीवन गायन-नतम न और

सम्म न का न ीिं ै । अब अतीत की गौरव गाथा की अपना म त्त्व ख चु की ै । अतः उनसे अब हलपटे
र ना और जीवन की प्रत्ये क प्रेरणा उनमें दे खना स्वयिं क अन्धकार में रखने के अहतररक्त और कुछ

न ीिं ै ।

 आज के जीवन के सूत्र ै - यथाथम ता, स्पष्टता, ध्रु वता, मािं सलता, बौखद्धकता और स्तरीय हनबमन्धता। इन

तत्व िं के सार से ी उपन्यास का स्परूप् गहठत हुआ ै ।

 उपन्यास में प्रायः मारा व अहत समीपी और आन्तररक जीवन हचहत्रत ता ैं ज मारा ते हुए िी
प्रायः मारा न ीिं ै ।

 उपन्यास वतम मान युग की ल कहप्रय साह खत्यक हवधा ै। आज की युग चे तना इतनी गुहफत और

असाधारण गई ैं , हक इसे साह त्य के हकसी अन्य रूप में इतने आकषमक और स ज रूप में प्रस्तु

करना दु ष्कर ै । उसे उपन्यास पूरी सम्भावना और सजीवता के साथ उपखस्थत करता ै। इसहलये
अनेक हविान िं ने उपन्यास िं क आधु हनक युग का म ाकाव्य क ा ै

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उपन्यास का अथण और पररभाषा

उपन्यास का अथण व्याख्या


 उपन्यास शब्द उप-समीप तथा न्यास-थाती के य ग से बना ै , हजसका अथम ै (मनुष्य के) हनकट रखी

वस्तु । अथाम त् व वस्तु या कृहत हजसक पढ़कर ऐसा लगे हक मारी ी ैं , इसमें मारे ी जीवन का

प्रहतहबम्ब ैं , 'उपन्यास' ै ।

 'उपन्यास' शब्द का प्रय ग प्राचीन सिंस्कृत साह त्य में िी हमलता ै । सिंस्कृत लक्षण ग्रन् िं में इस शब का
प्रय ग नाटक की सिंहधय िं के उपिे द के हलए आ था।

 इसकी द प्रकार से व्याख्या की गई ै "उपन्यासः प्रसादि" - अथाम त प्रसन्न करने क 'उपन्यार क ते

ैं । दू सरी व्याख्या के अनुसार “ उपपनिक्रत ाथण उपन्यासः सिंकीनतण तः". अथाम त् हकसी ॐ क

युखक्तयुक्त रूप से उपखस्थत करना 'उपन्यास क लाता ैं । हकन्तु आज हजस अथम में ग्र ण हकया जाता
ै , व मू ल उपन्यास' शब्द से पूणमतः हिन्न ैं ।;

ह न्दी साह त्य में 'उपन्यास नवीनतम् हवधाओिं में से एक ै । अिंग्रेजी में हजसे 'िॉवे ि' क ते ैं। 'नॉवेल' शब्द
नवीन और लघु गद्य कथा द न िं अथो में प्रयुक्त ता र ा, हकन्तु अठार वी शताब्दी के पश्चात् साह खत्यक
हवधा के रूप में प्रहतहित गया।

 गुजराती में 'नवलकथा मराठी में 'कादम्बरी और बाँगला के सदृश ी ह न्दी में य हवधा 'उपन्यास' नाम
से प्रचहलत ै। इतालवी िाषा में 'नॉवेल' शब्द 'लघुकथा' के हलए प्रयुक्त ता ै। ज नवीनतम् का
द्य तन त कराता ी ै साथ ी इस तथ्य क िी घ हषत करता ै हक उसका सम्बन्ध प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष
रूप से वतम मान जीवन से ै ।

उपन्यास की पररभाषा

 क ानी की िााँ हत आधु हनक उपन्यास िी पाश्चात्य साह त्य का कले वर ले कर आया ै । त य ााँ िारतीय
एविं पहश्चमी हविान िं की कहतपय पररिाषाओिं क हलया जा सकता ै ।

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भारतीय नवचारक िं के अिु सार उपन्यास की पररभाषा

 आधु हनक युग में हजस साह त्य हवशेष के हलए इस शब्द का प्रय ग हकया जाता ै उसकी प्रकृहत क

स्पष्ट करने य शब्द सवमथा समथम ै ।

 उपन्यास सम्राट प्रेमचन्द के शब्द िं में -"मानव-चररत्र पर प्रकाश डालना और उसके र स्य िं क ख लना

ी उपन्यास का मू ल तत्व ै

िारी प्रसाद नद्ववे द्वी िी उपन्यास की पररभाषा दे ते हुए क ते ैं

 “उपन्यास आधु हनक युग की दे न ै । नये उपन्यास केवल कथामात्र न ीिं ै य आधु हनक वैयखक्ततावादी
दृहष्टक ण का पररणाम ै । इसमें ले खक अपना एक हनहश्चत मत प्रकट करता ै और कथा क इस

प्रकार सजाता ै हक पाठक अनायास ी उसके उद्दे श्य क ग्र ण कर सकें और उससे प्रिाहवत

सकें।"
 डॉश्याम सुन्दर दास के शब्द िं में - “उपन्यास मिुष्य के वास्तनवक िीवि की काल्पनिक कथा ै “

डा0 भागीरथ नमश्र के अिु सार उपन्यास की पररभाषा

 “युग की गहतशील पृििू हम पर स ज शैली में स्वािाहवक जीवन की पूणम व्यापक झााँ की प्रस्तु त करने
वाला गद्य मनुष्य के वास्तहवक जीवन की काल्पहनक कथा ैं ।"

७४१

पाश्चात्य नवचारक िं के अिु सार उपन्यास की पररभाषा

उपन्यास के सन्दिम में हकसी हनकष में प ाँ चने से पूणम कहतपय पाश्चात्य हविान िं की एतत सम्बन्धी धारण
प्रस्तु हत हनतान्त आवश्यक।

 राल्फ फॉक्स के अिु सार- "उपन्यास केवल काल्पहनक गद्य न ीिं ै , य मानव जीवन का गद्य ैं ।”

 फीखडिं ग के अिु सार- " उपन्यास एक मन रिं जन पूणम गद्य म ाकाव्य ै ।"
 बेकर िे क ा ै नक "उपन्यास व रचना ै हजसमें हकसी कखल्पत गद्य कथा के िारा मानव जीवन की

व्याख्या की गयी ।"

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नप्रस्टिे के अिु सार उपन्यास की पररभाषा

 "उपन्यास गद्य में हलखी कथा ै हजसमें प्रधानतः काल्पहनक पात्र और घटनाएाँ र ती ै । य जीवन का

अत्यन्त हवस्तृ त और हवशद दपणम ै और साह त्य की अन्य हवधाओिं की तु लना में इसका क्षे त्र व्यापक
ता ै । उपन्यास क म ऐसे कथानक के रूप में ले सकते ैं ज सरल और शुद्ध अथवा हकसी जीवन

दशमन का माध्यम ।”

 उपयुमक्त हववेचन के आधार पर का जा सकता ै हक उपन्यास आधु हनक युग का अहत समादृत साह त्य

रूप ै । उपन्यास की शैली की स्वािाहवकता उसकी र चकता बनाये रखने में स ायक ती ै ।
उपन्यास में उपन्यासकार का हनजी जीवन दशम न प्रहतहबखम्बत ता ै । ले खक की जीवन और जगत की

अनुिूहत हजतनी व्यापक और ग री गी उसका औपन्याहसक वणमन िी उतना ी व्यापक और गम्भीर


गा।

उपन्यास की नवषेशताएाँ

ऊपर आप उपन्यास के स्वरूप और अथम क समझ चुके ै । अब म सिंक्षेप में उपन्यास' की हवषेशताओिं
क जानेंगे। हविान िं ने उपन्यास में हनम्नहलखखत तथ्य िं क प्रस्तु त हकया ै -

 उपन्यास यथाम थ जीवन की कलात्मक अहिव्यखक्त ैं । यथाम थ से तात्पयम ै हक जीवन जैसा दीखता या

अनुिव ता ै । इस जाने प चाने जीवन के अनुिव क कखल्पत घटनाओिं तथा पात्र िं के माध्यम से
उपन्यासकार रूपाहयत करता ै । य रूपायन कखल्पत ते हुए िी मू लतः यथाम थ ै ।

 उपन्यास का मू ल तत्व मानव चररत्र ैं। इसमें मनुष्य के चररत्र का बाह्य पक्ष या आचरण पक्ष त प्रस्तु त

ता ी ैं , साथ ी उसके मन की हवहिन्न खस्थहतय िं का उद् घाटन िी ता ै ।

 उपन्यासकार जीवन की कथा क कर पाठक िं की उत्सु कता जगाता ै । बाद में उसी हजज्ञासा का शमन
मानव चररत्र के आन्तररक उद् घाटन तथा पररखस्थहतय िं क प्रकाश में लाकर करता ै । इस प्रकार सरस

कथा ते हुए िी व जीवन का ग न गिंिीर हवश्लेषण करता ैं ।

 उपन्यासकार अपने समकालीन जीवन क दृहष्ट में रखकर उसके आधार पर उपन्यास में प्रस्तु त जीवन
की व्याख्या और हवश्लेषण करता ै ।

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